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।।1.1।। धृतराष्ट्र बोले (टिप्पणी प0 1.2) - हे संजय! (टिप्पणी प0 1.3) धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरेे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया?
।।1.1।।धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक (युयुत्सव:) मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
।।1.1।। सम्पूर्ण गीता में यही एक मात्र श्लोक अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र ने कहा है। शेष सभी श्लोक संजय के कहे हुए हैं जो धृतराष्ट्र को युद्ध के पूर्व की घटनाओं का वृत्तान्त सुना रहा था। निश्चय ही अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र को अपने भतीजे पाण्डवों के साथ किये गये घोर अन्याय का पूर्ण भान था। वह दोनों सेनाओं की तुलनात्मक शक्तियों से परिचित था। उसे अपने पुत्र की विशाल सेना की सार्मथ्य पर पूर्ण विश्वास था। यह सब कुछ होते हुये भी मन ही मन उसे अपने दुष्कर्मों के अपराध बोध से हृदय पर भार अनुभव हो रहा था और युद्ध के अन्तिम परिणाम के सम्बन्ध में भी उसे संदेह था। कुरुक्षेत्र में क्या हुआ इसके विषय में वह संजय से प्रश्न पूछता है। महर्षि वेदव्यास जी ने संजय को ऐसी दिव्य दृष्टि प्रदान की थी जिसके द्वारा वह सम्पूर्ण युद्धभूमि में हो रही घटनाओं को देख और सुन सकता था।
1।।व्याख्या-- 'धर्मक्षेत्रे' 'कुरुक्षेत्रे'-- कुरुक्षेत्र में देवताओं ने यज्ञ किया था। राजा कुरु ने भी यहाँ तपस्या की थी। यज्ञादि धर्ममय कार्य होने से तथा राजा कुरु की तपस्याभूमि होने से इसको धर्मभूमि कुरुक्षेत्र कहा गया है।     यहाँ ॓'धर्मक्षेत्रे' और 'कुरुक्षेत्रे' पदों में 'क्षेत्र' शब्द देने में धृतराष्ट्र का अभिप्राय है कि यह अपनी कुरुवंशियों की भूमि है। यह केवल लड़ाई की भूमि ही नहीं है, प्रत्युत तीर्थभूमि भी है, जिसमें प्राणी जीते-जी पवित्र कर्म करके अपना कल्याण कर सकते हैं। इस तरह लौकिक और पारलौकिक सब तरह का लाभ हो जाय-- ऐसा विचार करके एवं श्रेष्ठ पुरुषों की सम्मति लेकर ही युद्ध के लिये यह भूमि चुनी गयी है।     संसार में प्रायः तीन बातों को लेकर लड़ाई होती है-- भूमि, धन और स्त्री। इस तीनों में भी राजाओं का आपस में लड़ना मुख्यतः जमीन को लेकर होता है। यहाँ 'कुरुक्षेत्रे' पद देने का तात्पर्य भी जमीन को लेकर ल़ड़ने में है। कुरुवंश में धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्र सब एक हो जाते हैं। कुरुवंशी होने से दोनों का कुरुक्षेत्र में अर्थात् राजा कुरु की जमीन पर समान हक लगता है। इसलिये (कौरवों द्वारा पाण्डवों को उनकी जमीन न देने के कारण) दोनों जमीन के लिये लड़ाई करने आये हुए हैं।     यद्यपि अपनी भूमि होने के कारण दोनों के लिये 'कुरुक्षेत्रे' पद देना युक्तिसंगत, न्यायसंगत है, तथापि हमारी सनातन वैदिक संस्कृति ऐसी विलक्षण है कि कोई भी कार्य करना होता है, तो वह धर्म को सामने रखकर ही होता है। युद्ध-जैसा कार्य भी धर्मभूमि-- तीर्थभूमि में ही करते हैं, जिससे युद्ध में मरने वालों का उद्धार हो जाय, कल्याण हो जाय। अतः यहाँ कुरुक्षेत्र के साथ 'धर्मक्षेत्रे' पद आया है।     यहाँ आरम्भ में 'धर्म' पद से एक और बात भी मालूम होती है। अगर आरम्भ के 'धर्म' पद में से 'धर्' लिया जाय और अठारहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक के 'मम' पदों से 'म' लिया जाय, तो 'धर्म' शब्द बन जाता है। अतः सम्पूर्ण गीता धर्म के अन्तर्गत है अर्थात् धर्म का पालन करने से गीता के सिद्धान्तों का पालन हो जाता है और गीता के सिद्धान्तों के अनुसार कर्तव्य कर्म करने से धर्म का अनुष्ठान हो जाता है।     इन 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' पदों से सभी मनुष्यों को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि कोई भी काम करना हो तो वह धर्म को सामने रखकर ही करना चाहिये। प्रत्येक कार्य सबके हित की दृष्टि से ही करना चाहिये, केवल अपने सुख-आराम-की दृष्टि से नहीं; और कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में शास्त्र को सामने रखना चाहिये (गीता 16। 24)।     'समवेता युयुत्सवः'-- राजाओं के द्वारा बारबार सन्धि का प्रस्ताव रखने पर भी दुर्योधन ने सन्धि करना स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण के कहने पर भी मेरे पुत्र दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के मैं तीखी सूई की नोक-जितनी जमीन भी पाण्डवों को नहीं दूँगा। (टिप्पणी प0 2.1) तब मजबूर होकर पाण्डवों ने भी युद्ध करना स्वीकार किया है। इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र-- दोनों ही सेनाओं के सहित युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए हैं।     दोनों सेनाओं में युद्ध की इच्छा रहने पर भी दुर्योधन में युद्ध की इच्छा विशेषरूप से थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्य-प्राप्ति का ही था। वह राज्य-प्राप्ति धर्म से हो चाहे अधर्म से, न्याय से हो चाहे अन्याय से, विहित रीति से हो चाहे निषिद्ध रीति से, किसी भी तरह से हमें राज्य मिलना चाहिये-- ऐसा उसका भाव था। इसलिये विशेषरूप से दुर्योधन का पक्ष ही युयुत्सु अर्थात् युद्ध की इच्छावाला था।     पाण्डवों में धर्म की मुख्यता थी। उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे जैसा जीवन-निर्वाह कर लेंगे, पर अपने धर्म में बाधा नहीं आने देंगे, धर्म के विरुद्ध नहीं चलेंगे। इस बात को लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्ध नहीं करना चाहते थे। परन्तु जिस माँ की आज्ञा से युधिष्ठिर ने चारों भाइयों सहित द्रौपदी से विवाह किया था, उस माँ की आज्ञा होने के कारण ही महाराज युधिष्ठिर की युद्ध में प्रवृत्ति हुई थी (टिप्पणी प0 2.2) अर्थात् केवल माँ के आज्ञा-पालनरूप धर्म से ही युधिष्ठिर युद्ध की इच्छावाले हुये हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन आदि तो राज्य को लेकर ही युयुत्सु थे, पर पाण्डव धर्म को लेकर ही युयुत्सु बने थे।     'मामकाः पाण्डवाश्चैव'-- पाण्डव धृतराष्ट्र को (अपने पिता के बड़े भाई होने से) पिता के समान समझते थे और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। धृतराष्ट्र के द्वारा अनुचित आज्ञा देने पर भी पाण्डव उचित-अनुचित का विचार न करके उनकी आज्ञा का पालन करते थे। अतः यहाँ 'मामकाः' पद के अन्तर्गत कौरव (टिप्पणी प0 3.1) और पाण्डव दोनों आ जाते हैं। फिर भी 'पाण्डवाः' पद अलग देने का तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों में तथा पाण्डुपुत्रों में समान भाव नहीं था। उनमें पक्षपात था,अपने पुत्रों के प्रति मोह था। वे दुर्योधन आदि को तो अपना मानते थे, पर पाण्डवों को अपना नहीं मानते थे। (टिप्पणी प0 3.2) इस कारण उन्होंने अपने पुत्रों के लिये 'मामकाः' और पाण्डुपुत्रों के लिये 'पाण्डवा' पद का प्रयोग किया है; क्योंकि जो भाव भीतर होते हैं, वे ही प्रायः वाणी से बाहर निकलते हैं। इस द्वैधीभाव के कारण ही धृतराष्ट्र को अपने कुल के संहार का दुःख भोगना पड़ा। इससे मनुष्यमात्र को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि वह अपने घरों में, मुहल्लों में, गाँवों में, प्रान्तों में, देशों में, सम्प्रदायों में द्वैधीभाव अर्थात् ये अपने हैं, ये दूसरे हैं-- ऐसा भाव न रखे। कारण कि द्वैधीभाव से आपस में प्रेम, स्नेह नहीं होता, प्रत्युत कलह होती है।     यहाँ 'पाण्डवाः' पद के साथ 'एव' पद देने का तात्पर्य है कि पाण्डव तो बड़े धर्मात्मा हैं; अतः उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिये था। परन्तु वे भी युद्ध के लिये रणभूमि में आ गये तो वहाँ आकर उन्होंने क्या किया?     'मामकाः' और 'पाण्डवाः' (टिप्पणी प0 3.3) इनमें से पहले 'मामकाः' पद का उत्तर सञ्जय आगे के (दूसरे) श्लोक से तेरहवें श्लोक तक देंगे कि आपके पुत्र दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को देखकर द्रोणाचार्य के मन में पाण्डवों के प्रति द्वेष पैदा करने के लिये उनके पास जाकर पाण्डवों के मुख्य-मुख्य सेनापतियों के नाम लिये। उसके बाद दुर्योधन ने अपनी सेना के मुख्य-मुख्य योद्धाओं के नाम लेकर उनके रण-कौशल आदि की प्रशंसा की। दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिये भीष्मजी ने जोर से शंख बजाया। उसको सुनकर कौरव-सेना में शंख आदि बाजे बज उठे। फिर चौदहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक 'पाण्डवाः' पद का उत्तर देंगे कि रथ में बैठे हुए पाण्डवपक्षीय श्रीकृष्ण ने शंख बजाया। उसके बाद अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव आदि ने अपने-अपने शंख बजाये, जिससे दुर्योधन की सेना का हृदय दहल गया। उसके बाद भी सञ्जय पाण्डवों की बात कहते-कहते बीसवें श्लोक से श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का प्रसङ्ग आरम्भ कर देंगे।     'किमकुर्वत'-- 'किम्' शब्द के तीन अर्थ होते हैं-- विकल्प, निन्दा (आक्षेप) और प्रश्न।     युद्ध हुआ कि नहीं? इस तरह का विकल्प तो यहाँ लिया नहीं जा सकता; क्योंकि दस दिन तक युद्ध हो चुका है और भीष्म जी को रथ से गिरा देने के बाद सञ्जय हस्तिनापुर आकर धृतराष्ट्र को वहाँ की घटना सुना रहे हैं।     'मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने यह क्या किया, जो कि युद्ध कर बैठे! उनको युद्ध नहीं करना चाहिये था'-- ऐसी निन्दा या आक्षेप भी यहाँ नहीं लिया जा सकता; क्योंकि युद्ध तो चल ही रहा था और धृतराष्ट्र के भीतर भी आक्षेपपूर्वक पूछने का भाव नहीं था।     यहाँ 'किम्' शब्द का अर्थ प्रश्न लेना ही ठीक बैठता है। धृतराष्ट्र सञ्जय से भिन्न-भिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी सब घटनाओं को अनुक्रम से विस्तारपूर्वक ठीक-ठीक जानने के लिये ही प्रश्न कर रहे हैं।     सम्बन्ध-- धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर सञ्जय आगे के श्लोक से देना आरम्भ करते हैं।
।।1.1।।धर्मक्षेत्र इति। अत्र केचित् व्याख्याविकल्पमाहुः कुरूणां करणानां यत् क्षेत्रमनुग्राहकं अतएव सांसारिकधर्माणां (S सांसारिकत्वधर्माणां) सर्वेषां क्षेत्रम् उत्पत्तिनिमित्तत्वात्। अयं स परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् (या. स्मृ. I 8) इत्यस्य च धर्मस्य क्षेत्रम् समस्तधर्माणां क्षयात् अपवर्गप्राप्त्या त्राणभूतं तदधिकारिशरीरम्। सर्वक्षत्राणां क्षदेः हिंसार्थत्वात् परस्परं वध्यघातकभावेन (S परस्परवध्य ) वर्तमानानां रागवैराग्यक्रोधक्षमाप्रभृतीनां समागमो यत्र तस्मिन् स्थिता ये मामका अविद्यापुरुषोचिता अविद्यामयाः संकल्पाः पाण्डवाः शुद्धविद्यापुरुषोचिता विद्यात्मानः ते किमकुर्वत कैः खलु के जिताः इति। मामकः अविद्यापुरुषः पाण्डुः शुद्धः।
।।1.1।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.1।।एवं गीताशास्त्रस्य साध्यसाधनभूतनिष्ठाद्वयविषयस्य परापराभिधेयप्रयोजनवतो व्याख्येयत्वं प्रतिपाद्य व्याख्यातुकामः शास्त्रं तदेकदेशस्य प्रथमाध्यायस्य द्वितीयाध्यायैकदेशसहितस्य तात्पर्यमाह अत्र चेति। गीताशास्त्रे प्रथमाध्याये प्रथमश्लोके कथासंबन्धप्रदर्शनपरे स्थिते सतीति यावत्। तत्रैवमक्षरयोजना धृतराष्ट्र उवाचेति। धृतराष्ट्रो हि प्रज्ञाचक्षुर्बाह्यचक्षुरभावाद्बाह्यमर्थं प्रत्यक्षयितुमनीशः सन्नभ्याशवर्तिनं संजयमात्मनो हितोपदेष्टारं पृच्छति धर्मक्षेत्र इति। धर्मस्य तद्वृद्धेश्च क्षेत्रमभिवृद्धिकारणं यदुच्यते कुरुक्षेत्रमिति तत्र समवेताः संगता युयुत्सवो योद्धुकामास्ते च केचिन्मदीया दुर्योधनप्रभृतयः पाण्डवाश्चापरे युधिष्ठिरादयस्ते च सर्वे युद्धभूमौ संगता भूत्वा किमकुर्वत कृतवन्तः।
।।1.1।।धर्मक्षेत्रे इत्यारभ्यस घोषो धार्तराष्ट्राणां 1।19 इत्यन्तं सम्बन्धः। अत्रैतदध्यायव्याख्या श्रीविठ्ठलेशप्रभुकृता बोध्या।
।।1.1।।तत्रअशोच्यान्वशोचस्त्वम् इत्यादिना शोकमोहादिसर्वासुरपाप्मनिवृत्त्युपायोपदेशेन स्वधर्मानुष्ठानात्पुरुषार्थः प्राप्यतामिति भगवदुपदेशः सर्वसाधारणः। भगवदर्जुनसंवादरूपा चाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्थाजनकयाज्ञवल्क्यसंवादादिवदुपनिषत्सु। कथं प्रसिद्धमहानुभावोऽप्यर्जुनो राज्यगुरुपुत्रमित्रादिष्वहमेषां ममैत इत्येवंप्रत्ययनिमित्तस्नेहनिमित्ताभ्यां शोकमोहाभ्यामभिभूतविवेकविज्ञानः स्वतएव क्षत्रधर्मे युद्धे प्रवृत्तोऽपि तस्माद्युद्धादुपरराम। परधर्मं च भिक्षाजीवनादि क्षत्रियंप्रति प्रतिषिद्धं कर्तुं प्रववृते। तथाच महत्यनर्थे मग्नोऽभूत् भगवदुपदेशाच्चेमां विद्यां लब्धवा शोकमोहावपनीय पुनः स्वधर्मे प्रवृत्तः कृतकृत्यो बभूवेति प्रशस्ततरेयं महाप्रयोजना विद्येति स्तूयते। अर्जुनापदेशेन चोपदेशाधिकारी दर्शितः। तथाच व्याख्यास्यते। स्वधर्मप्रवृत्तौ जातायामपि तत्प्रच्युतिहेतुभूतौ शोकमोहौकथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादिनार्जुनेन दर्शितौ। अर्जुनस्य युद्धाख्ये स्वधर्में विनापि विवेकं किंनिमित्ता प्रवृत्तिरितिदृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् इत्यादिना परसैन्यचेष्टितं तन्निमित्तमुक्तम्। तदुपोद्धातत्वेन धृतराष्ट्रप्रश्नः संजयं प्रति धर्मक्षेत्रे इत्यादिना श्लोकेन। तत्र धृतराष्ट्र उवाचेति वैशम्पायनवाक्यं जनमेजयं प्रति। पाण्डवानां जयकारणं बहुविधं पूर्वमाकर्ण्य स्वपुत्रराज्यभ्रंशाद्भीतो धृतराष्ट्रः पप्रच्छ स्वपुत्रजयकारणमाशंसन्। पूर्वं युयुत्सवो योद्धुमिच्छवोऽपि सन्तः कुरुक्षेत्रे समवेताः संगताः मामका मदीया दुर्योधनादयः पाण्डवाश्च युधिष्ठिरादयः किमकुर्वत किं कृतवन्तः। किं पुर्वोद्भूतयुयुत्सानुसारेण युद्धमेव कृतवन्त उत केनचिन्निमित्तेन युयुत्सानिवृत्त्यान्यदेव किंचित्कृतवन्तः भीष्मार्जुनादिवीरपुरुषनिमित्तं दृष्टभयं युयुत्सानिवृत्तिकारणं प्रसिद्धमेव अदृष्टभयमपि दर्शयितुमाह धर्मक्षेत्र इति। धर्मस्य पूर्वमविद्यमानस्योत्पत्तेर्विद्यमानस्य च वृद्धेर्निमित्तं सस्यस्येव क्षेत्रं यत्कुरुक्षेत्रं सर्वश्रुतिस्मृतिप्रसिद्धम्।बृहस्पतिरुवाच याज्ञवल्क्यं यदनु कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् इति जाबालश्रुतेःकुरुक्षेत्रं वै देवयजनम् इति शतपथश्रुतेश्च। तस्मिन् गताः पाण्डवाः पूर्वमेव धार्मिकाः यदि पक्षद्वयहिंसानिमित्तादधर्माद्गीता निवर्तेरंस्ततः प्राप्तराज्या एव मत्पुत्राः अथवा धर्मक्षेत्रमाहात्म्येन पापानामपि मत्पुत्राणां कदाचिच्चित्तप्रसादः स्यात्तदा च तेऽनुतप्ताः प्राक्कपटोपात्तं राज्यं पाण्डवेभ्यो यदि दद्युस्तर्हि विनापि युद्धं हता एवेति स्वपुत्रराज्यलाभे पाण्डवराज्यलाभे च दृढतरमुपायमपश्यतो महानुद्वेग एव प्रश्नबीजम्। संजयेति च संबोधनं रागद्वेषादिदोषान्सम्यग्जितवानसीति कृत्वा निर्व्याजमेव कथनीयं त्वयेति सूचनार्थम्। मामकाः किमकुर्वतेत्येतावतैव प्रश्ननिर्वाहे पाण्डवाश्चेति पृथङ्निर्दिशन्पाण्डवेषु ममकाराभावप्रदर्शनेन तद्द्रोहमभिव्यनक्ति।
।।1.1।। इह खलु सकललोकहितावतारः सकलवन्दितचरणः परमकारुणिको भगवान् देवकीनन्दनस्तत्त्वाज्ञानविजृम्भितशोकमोहविभ्रंशितविवेकतया निजधर्मत्यागपरधर्माभिसंधिपरमर्जुनं धर्मज्ञानरहस्योपदेशप्लवेन तस्माच्छोकमोहसागरादुद्दधार। तमेव भगवदुपदिष्टमर्थं कृष्णद्वैपायनः सप्तभिः श्लोकशतैरुपनिबबन्ध। तत्र च प्रायशः श्रीकृष्णमुखनिःसृतानेव श्लोकानलिखत् कांश्चित्तत्संगतये स्वयं व्यरचयत्। यथोक्तं गीतामाहात्म्ये गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।। इति। तत्र तावद्धर्मक्षेत्र इत्यादिना विषीदन्निदमब्रवीदित्यन्तेन ग्रन्थेन श्रीकृष्णार्जुनसंवादप्रस्तावाय कथा निरूप्यते धर्मक्षेत्र इति। भो संजय धर्मभूमौ कुरुक्षेत्रे मत्पुत्राः पाण्डुपुत्राश्च युयुत्सवो योद्धुमिच्छन्तः समवेता मिलिताः सन्तः किं कृतवन्तः।
।।1.1।।धर्मक्षेत्रे धर्मस्य स्थानभूते समराध्वरसमुचिते इति भावः।कुरुक्षेत्रे पाण्डवधार्तराष्ट्राणां स्वकूटस्थनामोपलक्षितत्वेन बहुमानविषय इति भावः।युयुत्सवः समवेताः मिथः प्रत्यनीकरूपेण व्यूढा इत्यर्थः।च एव इत्यव्ययद्व्यमनतिरिक्तार्थम् यद्वा समस्तभूमण्डलवर्तिनां राज्ञां तत्र समाहारेऽपि तादर्थ्याद्वर्गद्वयमेव तथाऽभूदित्येवकाराभिप्रायः।अकुर्वत इत्यात्मनेपदेन कर्त्रभिप्रायक्रियाफलविषयेण स्वार्थतोक्ता।
।।1.1।।वैशम्पायनस्तु जनमेजयाय कथासङ्गतिं वक्तुं प्रथमतो धृतराष्ट्रसंवादमाह। तत्र धृतराष्ट्रो बहुधा पाण्डवान् धर्मपरानेवावगत्य बन्धलक्षणमधर्मं कथं कृतवन्त इत्यभिप्रेत्य पृच्छति। अत्र ह्येवं कथाप्रकारः सञ्जय आगत्य पूर्वं सेनापतिमरणं वक्ति ततो धृतराष्ट्रेण तत्परिदेवने कृते पश्चात्तन्निवृत्तौ सर्वा कथां विस्तारेण वदतीति। तत्र पाण्डवानां स्वल्पं सैन्यं स्वस्य तु महत् स्वस्य शूराश्च भूयांसः तेषां सर्वेषामेव पश्यतां तैरुपेक्षितो भीष्मो रणे पतितः उत पाण्डवैः प्रसह्य मारितः पाण्डवाश्च तादृशे क्षेत्रे पितामहावज्ञालक्षणमधर्मं कथं कृतवन्तः इति ज्ञातुं हे सञ्जय धर्मक्षेत्रे धर्मोत्पत्तिभूमौ कुरुक्षेत्रे मामकाः मत्पुत्राः पाण्डवाः पाण्डुपुत्राश्च युयुत्सवो योद्धुकामाः समवेताः मिलिताः किमकुर्वत किं कृतवन्तः। स्वपुत्राणामधर्मपरायणत्वाद्धर्मक्षेत्रेऽप्यधर्ममेव कृतवन्तः किंवा धर्ममिति स्वीयानां प्रश्नः पाण्डवाश्च धर्मपरायणास्तत्र धर्मक्षेत्रे द्रोणादीन् गुरून् कथं मारितवन्तः इति तेषां प्रश्नः। इदमेव चकारेण द्योतितम्यत्तेषां धर्मपरायणत्वम्। तथा चैकमरणेनैवान्यस्य राज्यप्राप्तिरिति निश्चित्यापि किं कृतवन्त इत्यर्थः। सञ्जयस्य वरप्राप्तसर्वज्ञत्वमालक्ष्य सम्बोधनम्।
।।1.1।।तत्र युद्धोद्यमं श्रुत्वौत्सुक्यादग्रिमं वृत्तान्तं बुभुत्सुर्धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्र इति। तत्र वेदेतेषां कुरुक्षेत्रं देवयजनमास इति कर्मकाण्डप्रसिद्धं कुरुक्षेत्रमन्यत्अविमुक्तं वै कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् इत्यविमुक्ताख्यं ब्रह्मप्राप्तिस्थानभूतं कुरुक्षेत्रमन्यत्। ब्रह्मसदनत्वं चास्य अत्र हि जन्तोः प्राणेषूत्क्रममाणेषु रुद्रस्तारकं ब्रह्म व्याचष्टे येनासावमृतीभूत्वा मोक्षी भवतीति वाक्यशेषेण व्युत्पादितम्। एतद्व्यावृत्त्यर्थं धर्मक्षेत्रे इति विशेषणम्। कुरुदेशान्तर्गतं हि कुरुक्षेत्रं धर्मक्षेत्रमेव नतु तद्ब्रह्मसदनम्। प्रवर्ग्यकाण्डे तस्य धर्मक्षेत्रत्वमात्रश्रवणात्। तत्र समवेता मिलिताः युयुत्सवो योद्धुमिच्छवः। पाण्डवानां पृथग्ग्रहणं तेषु ममत्वाभावसूचनार्थम्।
।।1.1।। इह खलु परमकारुणिकः परिपूर्णानन्दस्वभावः सकलैश्वर्यसंपन्नस्त्रिगुणात्मिकया स्ववशीकृतया निजमाययोपात्तकायो भगवान् वासुदेवः शोकमोहाभिभूतं जीवनिकायमुद्दिधीर्षुर्यद्गीताशास्त्रं सर्ववेदसारभूतं काण्डत्रयात्मकं तत्त्वम्पदाखण्डार्थप्रतिपादकं निजविग्रहायार्जुनाय ग्राहयामास। तदेव क्रमप्राप्तं दयानिधिर्वेदव्यासो महाभारते निबध्नाति धृतराष्ट्र उवाचेत्यादि। तत्र धृतराष्ट्र उवाच केषां प्रहृष्टास्तत्राग्रे योधा युध्यन्ति संजय। उदग्रमनसः केऽत्र के वा दीना विचेतसः।।के पूर्वं प्राहरंस्तत्र युद्धे हृदयकम्पिनि। मामकाः पाण्डवानां वा तन्ममाचक्ष्व संजय।। इत्यादिना कृतं प्रश्नं वैशंपायनो जनमेजयंप्रति संक्षिप्योपोद्धातायानुवदति धृतराष्ट्र उवाचेति। मामकाः मदीयाः दुर्योधनादयः पाण्डवाः पाण्डुपुत्राः युधिष्ठिरादयः युयुत्सवः योद्धुमिच्छवः। धर्मस्योपचयस्थानत्वात् धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे श्रुतिस्मृतिलोकप्रसिद्धे समवेता मिलिताः सन्तः किमकुर्वत किं कृतवन्तः। स्वधर्मभूतं धर्मयुद्धं कृतवन्त उताधर्मयुद्धमिति धर्मक्षेत्रपदेन बोधितम्। युयुत्सया समवेता इति मया विस्तरेण श्रुतं तदनन्तरं यथा यत्कृतवन्तः तथा तद्विस्तरेण वदेत्याशयः। भीष्मपतनेन कलहस्यानर्थबोधकानां भवदादिवाक्यानां सम्यग्जयो जात इति ध्वनयन्संबोधयति संजयेति। रागद्वेषादिदोषान्सभ्यग्जितवानसीति कृत्वा निर्व्याजेन त्वया कथनीयमिति सूचनार्थं संजयेति संबोधनमिति केचित्। किमा आक्षेपोऽपि ध्वनितः। अयोग्यं कृतवन्त इत्यर्थः। धर्मक्षेत्रे हिंसाप्रधानस्य युद्धस्यानुचितत्वात्। मामकानामधार्मिकत्वेन तत्संभवेऽपि परमधार्मिकत्वेन प्रसिद्धाः पाण्डवाः युधिष्ठिरादयो भीष्मादिपातनं किं कृतवन्त इति द्योतयन्नाह पाण्डवाश्चेति। पाण्डवेषु ममकाराभावप्रदर्शनेन तेषु द्रोहमभिव्यनक्तीति केचित्। यत्तु पाण्डवानां जयकारणं बहुविधं पूर्वमाकर्ण्य स्वपुत्रराज्यभ्रंशाद्भीतो धृतराष्ट्रः पप्रच्छ स्वपुत्रजयकारणमाशंसन् धृतराष्ट्र इत्यादिना। किं कृतवन्तः किं पूर्वोक्तयुयुत्सानुसारेण युद्धमेव कृतवन्तः उत केनचिन्निमित्तेन युयुत्सानिवृत्त्याऽन्यदेव किंचित्कृतवन्तः। भीमार्जुनादिवीरपुरुषनिमित्तं दृष्टभयं युयुत्सानिवृत्तिकारणं प्रसिद्धमेव। अदृष्टभयमपि दर्शयितुमाह धर्मक्षेत्र इति। तस्मिन् गताः पाण्डवाः पूर्वमेव धार्मिकाः। यदि पक्षद्वयहिंसानिमित्तादधर्माद्भीता निवर्तेन् ततः प्राप्तराज्या एव मत्पुत्राः। अथवा धर्मक्षेत्रमाहात्म्येन पापिनामपि मत्पुत्राणां कदाचिच्चित्तप्रसादाः स्यात्तदा च तेऽनुतप्ताः कपटोपात्तं राज्यं पाण्डवेभ्यो यदि दद्युः तर्हि विनापि युद्धं हता एवेति स्वपुत्रराज्यलाभे पाण्डवराज्यालाभे च दृढतरमुपायमपश्यतो महानुद्वेग एव प्रश्नबीजमिति केचिद्वर्णयन्ति तदुपेक्ष्यम्।अथ गावल्गणिर्धीमान्समरादेत्य संजयः। प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य भूतभव्यभविष्यतः।।ध्यायतो धृतराष्ट्रस्य सहसोपेत्य दुःखितः। आचष्ट निहतं भीष्म भारतानां पितामहम्। संजयोऽहं महाराज नमस्ते भरतर्षभ।।हतो भीष्मः शान्तनवो भारतानां पितामहः। यो ररक्ष समेतानां दशरात्रमनीकहा।।जगामास्तमिवादित्यः कृत्वा कर्म सुदुष्करम्। यः स शक्र इवाक्षोभ्यो वर्षन्बाणन्सहस्त्रशः।।जघान युधि योधानामर्बुदं दशभिर्दिनैः। स शेते निहतो भूमौ वातरुग्ण इव द्रुमः।। इत्यादिसंक्षेपोक्तिपरपूर्वग्रन्थविरोधात्। ननु संक्षेपेण श्रुतमपि मोहाद्विस्मृत्य धृतराष्ट्रेण प्रश्नः कृत इतिचेन्न। प्रश्नस्य पूर्वग्रन्थानुरोधेनास्मदीयोक्तरीत्या सभ्यगुपपत्तेः। पूर्वोक्तविरुद्धप्रश्नव्याख्यानकर्तृ़णामेव मोहादिति दिक्। यत्त्वन्ये धर्मक्षेत्रपदं कुरुक्षेत्रपदादविमुक्तक्षेत्रप्रतिपत्तिर्माभूदित्येतदर्थमिति। तन्न। कुरुक्षेत्रादागतं संजयं किमविमुक्तक्षेत्रे समवेता इति संशयरहितंप्रति विशेषणानर्थक्यात्। अन्येषामपि लोकप्रसिद्य्धा पूर्वग्रन्थेन च निर्णयस्य सत्त्वात्।
1.1 धर्मक्षेत्रे on the holy plain? कुरुक्षेत्रे in Kurukshetra? समवेताः assembled together? युयुत्सवः desirous to fight? मामकाः my people? पाण्डवाः the sons of Pandu? च and? एव also? किम् what? अकुर्वत did do? सञ्जय O Sanjaya.Commentary Dharmakshetra -- that place which protects Dharma is Dharmakshetra. Because it was in the land of the Kurus? it was called Kurukshetra.Sanjaya is one who has conered likes and dislikes and who is impartial.
1.1 Dhritarashtra said What did my people and the sons of Pandu do when they had assembled together eager for battle on the holy plain of Kurukshetra, O Sanjaya.
1.1 The King Dhritarashtra asked: "O Sanjaya! What happened on the sacred battlefield of Kurukshetra, when my people gathered against the Pandavas?"
1.1. Dhṛtarāṣṭrra said: O Sañjaya, what did my sons (and others) and Pāṇḍu's sons (and others) actually do when, eager for battle, they assembled on the sacred field, the Kurukṣetra (Field of the Kurus)?
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1.1. Dhrtarastra said O Sanjaya ! What did my men and the sons of Pandu do in the Kuruksetra, the field of righteousness, where the entire warring class has assembled ? or O Sanjaya ! What did the selfish intentions and the intentions born of wisdom do in the human body which is the field-of-duties, the repository of the senseorgans and in which all the murderous ones (passions and asceticism etc.) are confronting [each other]. test by demo
1.1 Dharmaksetre etc. Here some [authors] offer a different explanation as1 :-Kuruksetra : the man's body is the ksetra i.e., the facilitator, of the kurus, i.e., the sense-organs. 2 The same is the field of all wordly duties, since it is the cuse of their birth; which is also the field of the righteous act that has been described as : 'This is the highest righteous act viz., to realise the Self by means of the Yogas'; and which is the protector4 [of the embodied Self] by achieving emancipation [by means of this], through the destruction of all duties. It is the location where there is the confrontation among all ksatras, the murderous ones-because the root ksad means 'to kill' - viz, passion and asceticism, wrath and forbearance, and others that stand in the mutual relationship of the slayer and the slain. Those that exist in it are the mamakas,-i.e., the intentions that are worthy of man of ignorance and are the products of ignorance-and those that are born of Pandu: i.e., the intentions, of which the soul is the very knowledge itself5 and which are worthy of persons of pure knowledge. What did they do? In other words, which were vanished by what? Mamaka : a man of ignorance as he utters [always] 'mine'6. Pandu : the pure one.7 test by demo
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.1 Dhṛtarāstra said On the holy field of Kuruksetra, gathered together eager for battle, what did my people and the Pandavas do, O Sanjaya?
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धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
ধৃতরাষ্ট্র উবাচ ধর্মক্ষেত্রে কুরুক্ষেত্রে সমবেতা যুযুত্সবঃ৷ মামকাঃ পাণ্ডবাশ্চৈব কিমকুর্বত সঞ্জয৷৷1.1৷৷
ধৃতরাষ্ট্র উবাচ ধর্মক্ষেত্রে কুরুক্ষেত্রে সমবেতা যুযুত্সবঃ৷ মামকাঃ পাণ্ডবাশ্চৈব কিমকুর্বত সঞ্জয৷৷1.1৷৷
ધૃતરાષ્ટ્ર ઉવાચ ધર્મક્ષેત્રે કુરુક્ષેત્રે સમવેતા યુયુત્સવઃ। મામકાઃ પાણ્ડવાશ્ચૈવ કિમકુર્વત સઞ્જય।।1.1।।
ਧਰਿਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰ ਉਵਾਚ ਧਰ੍ਮਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰੇ ਕੁਰੁਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰੇ ਸਮਵੇਤਾ ਯੁਯੁਤ੍ਸਵ। ਮਾਮਕਾ ਪਾਣ੍ਡਵਾਸ਼੍ਚੈਵ ਕਿਮਕੁਰ੍ਵਤ ਸਞ੍ਜਯ।।1.1।।
ಧೃತರಾಷ್ಟ್ರ ಉವಾಚ ಧರ್ಮಕ್ಷೇತ್ರೇ ಕುರುಕ್ಷೇತ್ರೇ ಸಮವೇತಾ ಯುಯುತ್ಸವಃ. ಮಾಮಕಾಃ ಪಾಣ್ಡವಾಶ್ಚೈವ ಕಿಮಕುರ್ವತ ಸಞ್ಜಯ৷৷1.1৷৷
ധൃതരാഷ്ട്ര ഉവാച ധര്മക്ഷേത്രേ കുരുക്ഷേത്രേ സമവേതാ യുയുത്സവഃ. മാമകാഃ പാണ്ഡവാശ്ചൈവ കിമകുര്വത സഞ്ജയ৷৷1.1৷৷
ଧୃତରାଷ୍ଟ୍ର ଉବାଚ ଧର୍ମକ୍ଷେତ୍ରେ କୁରୁକ୍ଷେତ୍ରେ ସମବେତା ଯୁଯୁତ୍ସବଃ| ମାମକାଃ ପାଣ୍ଡବାଶ୍ଚୈବ କିମକୁର୍ବତ ସଞ୍ଜଯ||1.1||
dhṛtarāṣṭra uvāca dharmakṣētrē kurukṣētrē samavētā yuyutsavaḥ. māmakāḥ pāṇḍavāścaiva kimakurvata sañjaya৷৷1.1৷৷
தரிதராஷ்ட்ர உவாச தர்மக்ஷேத்ரே குருக்ஷேத்ரே ஸமவேதா யுயுத்ஸவஃ. மாமகாஃ பாண்டவாஷ்சைவ கிமகுர்வத ஸஞ்ஜய৷৷1.1৷৷
ధృతరాష్ట్ర ఉవాచ ధర్మక్షేత్రే కురుక్షేత్రే సమవేతా యుయుత్సవః. మామకాః పాణ్డవాశ్చైవ కిమకుర్వత సఞ్జయ৷৷1.1৷৷
1.2
1
2
।।1.2।। संजय बोले - उस समय वज्रव्यूह-से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर राजा दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन बोला।
।।1.2।।संजय ने कहा -- पाण्डव-सैन्य की व्यूह रचना देखकर राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोण के पास जाकर ये वचन कहे।
।।1.2।। इस श्लोक से आगे संजय ने कुरुक्षेत्र में जो कुछ देखा और सुना उसका वर्णन है। अपनी सेना की अपेक्षा पाण्डवों की सेना संख्या में अत्यन्त न्यून होने पर भी जब दुर्योधन ने उसे देखा तब उस अत्याचारी का आत्मविश्वास कुछ टूटने लगा। जैसे कोई छोटा बालक भयभीत होकर अपने मातापिता के पास दौड़ता है ठीक उसी प्रकार विचलित दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुँचता है। कोई कर्म करते हुये यदि हमारा उद्देश्य पाप और अन्याय से पूर्ण होता है तो अनेक साधनों से सुसम्पन्न होते हुए भी हमारे मन में निश्चय ही चिन्ता अशान्ति और विक्षेप उत्पन्न होते हैं। सभी अत्याचारी और तानाशाही प्रवृत्ति के लोगों की यही मनस्थिति होती है।
।।1.2।। व्याख्या-- 'तदा'-- जिस समय दोनों सेनाएँ युद्धके लिये खड़ी हुई थीं, उस समयकी बात सञ्जय यहाँ 'तदा' पदसे कहते हैं। कारण कि धृतराष्ट्रका प्रश्न 'युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया'-- इस विषयको सुननेके लिये ही है।  'तु'--धृतराष्ट्रने अपने और पाण्डुके पुत्रोंके विषयमें पूछा है। अतः सञ्जय भी पहले धृतराष्ट्रके पुत्रों की बात बतानेके लिये यहाँ  'तु'  पदका प्रयोग करते हैं।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.2।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.2।।किमस्मदीयं प्रबलं बलं प्रतिलभ्य धीरपुरुषैर्भीष्मादिभिरधिष्ठितं परेषां भयमाविरभूत् यद्वा पक्षद्वयहिंसानिमित्ताधर्मभयमासीद्येनैते युद्धादुपरमेरन्नित्येवं पुत्रपरवशस्य पुत्रस्नेहाभिनिविष्टस्य धृतराष्ट्रस्य प्रश्ने संजयस्य प्रतिवचनं  दृष्ट्वेत्यादि।  पाण्डवानां भयप्रसङ्गो नास्तीत्येतत्तुशब्देन द्योत्यते प्रत्युत दुर्योधनस्यैव राज्ञो भयं प्रभूतं प्रादुर्बभूव। पाण्डवानां पाण्डुसुतानां युधिष्ठिरादीनामनीकं सैन्यं धृष्टद्युम्नादिभिरतिधृष्टैर्व्यूहाधिष्ठितं दृष्ट्वा प्रत्यक्षेण प्रतीत्य त्रस्तहृदयो दुर्योधनो राजा तदा तस्यां संग्रामोद्योगावस्थायामाचार्यं द्रोणनामानमात्मनः शिक्षितारं रक्षितारं च श्लाघयन्नुपसंगम्य तदीयं समीपं विनयेन प्राप्य भयोद्विग्नहृदयत्वेऽपि तेजस्वित्वादेव वचनमर्थसहितं वाक्यमुक्तवानित्यर्थः।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।।1.2।।एवं कृपालोकव्यवहारनेत्राभ्यामपि हीनतया महतोऽन्धस्य पुत्रस्नेहमात्राभिनिविष्टस्य धृतराष्ट्रस्य प्रश्ने विदिताभिप्रायस्य संजयस्यातिधार्मिकस्य प्रतिवचनमवतारयति वैशम्पायनः। तत्र पाण्डवानां दृष्टभयसंभावनापि नास्ति अदृष्टभयं तु भ्रान्त्यार्जुनस्योत्पन्नं भगवतोपशमितमिति पाण्डवानामुत्कर्षस्तुशब्देन द्योत्यते। स्वपुत्रकृतराज्यप्रत्यर्पणशङ्कया तु माग्लासीरिति राजानं तोषयितुं दुर्योधनदौष्ट्यमेव प्रथमतो वर्णयति दृष्ट्वेति। पाण्डुसुतानामनीकं सैन्यं व्यूढं व्यूहरचनया धृष्टद्युम्नादिभिः स्थापितं दृष्ट्वा चाक्षुषज्ञानेन विषयीकृत्य तदा संग्रामोद्यमकाले आचार्यं द्रोणनामानं धनुर्विद्यासंप्रदायप्रवर्तयितारमुपसंगम्य स्वयमेव तत्समीपं गत्वा नतु स्वसमीपमाहूय। एतेन पाण्डवसैन्यदर्शनजनितं भयं सूच्यते। भयेन स्वरक्षार्थं तत्समीपगमनेऽप्याचार्यगौरवव्याजेन भयसंगोपनं राजनीतिकुशलत्वा दित्याह राजेति। आचार्यं दुर्योधनोऽब्रवीदित्येतावतैव निर्वाहे वचनपदं संक्षिप्तबह्वर्थत्वादिबहुगुणविशिष्टे वाक्यविशेषे संक्रमितुं वचनमात्रमेवाब्रवीन्नतु कंचिदर्थमिति वा।
।।1.2।।   दृष्ट्वेति।  पाण्डवानामनीकं सैन्यं व्यूढं व्यूहरचनया व्यवस्थितं दृष्ट्वा द्रोणाचार्यसमीपं गत्वा राजा दुर्योधनो वक्ष्यमाणं वाक्यमुवाच।
।।1.2।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.2।।सञ्जयस्तु नायमधर्मो भगवता कर्त्तव्यत्वेन बोधनादिति वक्तुं तदर्थं सङ्गतिमाह दृष्ट्वेत्याद्यष्टादशश्लोकैः। तत्रैवं धृतराष्ट्रवाक्यं श्रुत्वा सञ्जयः पूर्वपृष्टत्वात्तत्पुत्रकथामेवाह पूर्व दृष्ट्वा त्विति। राजा दुर्योधनः व्यूढं व्यूहरचनया स्थितं पाण्डवसैन्यं दृष्ट्वा द्रोणाचार्यमुपसङ्गम्य निकटे गत्वाग्रे वक्ष्यमाणं वचनमब्रवीदुवाच। तदा धर्मयुद्धोपस्थितावित्यर्थः। एतेनापराधित्वेऽपि धार्तराष्ट्र एव युद्धे प्रथमं प्रवृत्त इति दशभिस्तत्कथाकथनेन बोधितम्।
।।1.2।।व्यूढं व्यूहरचनया स्थितम्। आचार्यं द्रोणम्। राजा दुर्योधनः। राजाब्रवीदित्येव सिद्धे वचनपदेन संक्षिप्तबह्वर्थत्वादिगुणवत्त्वं वाक्यस्य सूच्यते।
।।1.2।।एवं पृष्टः संजयःअर्जुनो वीरशिरोमणिरतिकारुणिको युद्धाद्धिंसाप्रधानान्निवृत्तः पुनर्भूभारसंजिहीर्षुणा श्रीकृष्णेनोपदिष्टो युद्धं कृतवान्। युद्धिष्ठिरादयस्तुआततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् इत्यादिक्षात्रधर्मविदस्तत्कृतवन्तः। त्वदीयास्तु क्रूरस्वभावादेवेत्याशयेनाक्षेपं प्रतिक्षिपन् प्रश्नस्योत्तरमाह  दृष्ट्वेत्यादि।  तुशब्द आक्षेपनिरासार्थः। पाण्डवानां सैन्यं व्यूहरचनया व्यवस्थितमवलोक्य दुर्योधनो द्रोणाचार्यसमीपं प्रणिपातादिपुरःसरं गत्वा राजनीतिगर्भं वाक्यमब्रवीत्। नन्वाचार्यं स्वसमीप आहूय कुतो नोक्तवानित्यत आह  राजेति। वीरपुरुषा अत्यादरेण युद्धे प्रवर्त्याः इति राजनीतिकुशल इत्यर्थः। आचार्यमुपसंगम्येत्यनेन दुर्योधनस्य भयोद्विग्नता सूचिता। भयोद्विग्रहृदयत्वेऽपि वचनमर्थसहितं वाक्यमुक्तवानिति सूचनार्थं राजेत्येके। यत्तु तत्र पाण्डवानां दृष्टभयसंभावना नास्ति अदृष्टभयं तु भ्रान्त्या अर्जुनस्योत्पन्नं भगवतोपशमितमिति पाण्डवानामुत्कर्षस्तुशब्देन द्योत्यते। स्वपुत्रकृतराज्यसमर्पणशङ्क्या तु माग्लासीरिति राजानं तोषयितुं दुर्योधनदौष्ट्यमेव प्रथमतो वर्णयति दृष्ट्वेतीति केचित्। तत्तु पूर्वोक्तग्रन्थविरोधादुपेक्ष्यम्।
1.2 दृष्ट्वा having seen? तु indeed? पाण्डवानीकम् the army of the Pandavas? व्यूढम् drawn up in battlearray? दुर्योधनः Duryodhana? तदा then? आचार्यम् the teacher? उपसङ्गम्य having approached? राजा the king? वचनम् speech? अब्रवीत् said.No Commentary.
1.2. Sanjaya said Having seen the army of the Pandavas drawn up in battle-array, King Duryodhana then approached his teacher (Drona) and spoke these words.
1.2 Sanjaya replied: "The Prince Duryodhana, when he saw the army of the Pandavas paraded, approached his preceptor Guru Drona and spoke as follows:
1.2 Sanjaya said But then, seeing the army of the Pandavas in battle array, King Duryodhana approached the teacher (Drona) and uttered a speech:
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1.2. Sanjaya said Seeing the army of the sons of Pandu, marshalled in the military array, the prince Duryodhana approached the teacher (Drona) and spoke at that time, these words:
1.2 – 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.2 Sanjaya said King Duryodhana, on seeing the Pandava army in battle array, approached his teacher Drona and said these words:
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सञ्जय उवाच दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।।1.2।।
সঞ্জয উবাচ দৃষ্ট্বা তু পাণ্ডবানীকং ব্যূঢং দুর্যোধনস্তদা৷ আচার্যমুপসঙ্গম্য রাজা বচনমব্রবীত্৷৷1.2৷৷
সঞ্জয উবাচ দৃষ্ট্বা তু পাণ্ডবানীকং ব্যূঢং দুর্যোধনস্তদা৷ আচার্যমুপসঙ্গম্য রাজা বচনমব্রবীত্৷৷1.2৷৷
સઞ્જય ઉવાચ દૃષ્ટ્વા તુ પાણ્ડવાનીકં વ્યૂઢં દુર્યોધનસ્તદા। આચાર્યમુપસઙ્ગમ્ય રાજા વચનમબ્રવીત્।।1.2।।
ਸਞ੍ਜਯ ਉਵਾਚ ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵਾ ਤੁ ਪਾਣ੍ਡਵਾਨੀਕਂ ਵ੍ਯੂਢਂ ਦੁਰ੍ਯੋਧਨਸ੍ਤਦਾ। ਆਚਾਰ੍ਯਮੁਪਸਙ੍ਗਮ੍ਯ ਰਾਜਾ ਵਚਨਮਬ੍ਰਵੀਤ੍।।1.2।।
ಸಞ್ಜಯ ಉವಾಚ ದೃಷ್ಟ್ವಾ ತು ಪಾಣ್ಡವಾನೀಕಂ ವ್ಯೂಢಂ ದುರ್ಯೋಧನಸ್ತದಾ. ಆಚಾರ್ಯಮುಪಸಙ್ಗಮ್ಯ ರಾಜಾ ವಚನಮಬ್ರವೀತ್৷৷1.2৷৷
സഞ്ജയ ഉവാച ദൃഷ്ട്വാ തു പാണ്ഡവാനീകം വ്യൂഢം ദുര്യോധനസ്തദാ. ആചാര്യമുപസങ്ഗമ്യ രാജാ വചനമബ്രവീത്৷৷1.2৷৷
ସଞ୍ଜଯ ଉବାଚ ଦୃଷ୍ଟ୍ବା ତୁ ପାଣ୍ଡବାନୀକଂ ବ୍ଯୂଢଂ ଦୁର୍ଯୋଧନସ୍ତଦା| ଆଚାର୍ଯମୁପସଙ୍ଗମ୍ଯ ରାଜା ବଚନମବ୍ରବୀତ୍||1.2||
sañjaya uvāca dṛṣṭvā tu pāṇḍavānīkaṅ vyūḍhaṅ duryōdhanastadā. ācāryamupasaṅgamya rājā vacanamabravīt৷৷1.2৷৷
ஸஞ்ஜய உவாச தரிஷ்ட்வா து பாண்டவாநீகஂ வ்யூடஂ துர்யோதநஸ்ததா. ஆசார்யமுபஸங்கம்ய ராஜா வசநமப்ரவீத்৷৷1.2৷৷
సఞ్జయ ఉవాచ దృష్ట్వా తు పాణ్డవానీకం వ్యూఢం దుర్యోధనస్తదా. ఆచార్యముపసఙ్గమ్య రాజా వచనమబ్రవీత్৷৷1.2৷৷
1.3
1
3
।।1.3।। हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूहरचना से खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये
।।1.3।।हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र (धृष्टद्द्युम्न) द्वारा व्यूहाकार खड़ी की गयी पाण्डु पुत्रों की इस महती सेना को देखिये।
।।1.3।। वास्तव में दुर्योधन की यह मूर्खता है कि वह द्रोणाचार्य को पाण्डवों की सैन्य रचना के विषय में विस्तार से बताये। आगे हम देखेंगे कि वह आवश्यकता से अधिक बातें करता है जो युद्ध के परिणाम के विषय में उसके संदेह का स्पष्ट लक्षण है।
1.3।। व्याख्या--'आचार्य' द्रोणके लिये 'आचार्य' सम्बोधन देनेमें दुर्योधनका यह भाव मालूम देता है कि आप हम सबके--कौरवों और पाण्डवों के आचार्य हैं। शस्त्रविद्या सिखानेवाले होनेसे आप सबके गुरु हैं। इसलिये आपके मनमें किसीका पक्ष या आग्रह नहीं होना चाहिये।  'तव शिष्येण धीमता'--इन पदोंका प्रयोग करनेमें दुर्योधनका भाव यह है कि आप इतने सरल हैं कि अपने मारनेके लिये पैदा होनेवाले धृष्टद्युम्नको भी आपने अस्त्र-शस्त्रकी विद्या सिखायी है; और वह आपका शिष्य धृष्टद्युम्न इतना बुद्धिमान है कि उसने आपको मारनेके लिये आपसे ही अस्त्र-शस्त्रकी विद्या सीखी है।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.3।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.3।।तदेव वचनमुदाहरति  पश्येति।  एतामस्मदभ्याशे महापुरुषानपि भवत्प्रमुखानपरिगणय्य भयलेशशून्यामवस्थितां चमूमिमां सेनां पाण्डुपुत्रैर्युधिष्ठिरादिभिरानीतां महतीमनेकाक्षौहिणीसहितामक्षोभ्यां पश्येत्याचार्यं दुर्योधनो नियुङ्क्ते नियोगद्वारा च तस्मिन्परेषामवज्ञां विज्ञापयन्क्रोधातिरेकमुत्पादयितुमुत्सहते। परकीयसेनाया वैशिष्ट्याभिधानद्वारा परापरपक्षेऽपि त्वदीयमेव बलमिति सूचयन्नाचार्यस्य तन्निरसनं सुकरमिति मन्वानः सन्नाह  व्यूढामिति।  राज्ञो द्रुपदस्य पुत्रस्तव शिष्यो धृष्टद्युम्नो लोके ख्यातिमुपगतः स्वयं च शस्त्रास्त्रविद्यासंपन्नो महामहिमा तेन व्यूहमापाद्याधिष्ठितामिमां चमूं किमिति न प्रतिपद्यसे किमिति वा मृष्यसीत्यर्थः।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।।1.3।।तदेव वाक्यविशेषरूपं वचनमुदाहरति पश्यैतामित्यादिना।तस्य संजनयन्हर्षम् इत्यतः प्राक्तनेन पाण्डवेषु प्रियशिष्येष्वतिस्निग्धहृदयत्वादाचार्यो युद्धं न करिष्यतीति संभाव्य तस्मिन्परेषामवज्ञां विज्ञापयन् तस्य क्रोधातिशयमुत्पादयितुमाह। एतामत्यासन्नत्वेन भवद्विधानपि महानुभावानवगणय्य भयशून्यत्वेन स्थितां पाण्डुपुत्राणां चमूं महतीमनेकाक्षौहिणीसहितत्वेन दुर्निवारां पश्यापरोक्षीकुरु। प्रार्थनायां लोट्। अहं शिष्यत्वात्त्वामाचार्यं प्रार्थय इत्याह आचार्येति। दृष्ट्वा च तत्कृतामवज्ञां स्वयमेव ज्ञास्यसीति भावः। ननु तदीयावज्ञा सोढव्यैवास्माभिः प्रतिकर्तुशक्यत्वादित्याशङ्क्य तन्निरसनं तव सुकरमेवेत्याह व्यूढां तव शिष्येणेति। शिष्यापेक्षया गुरोराधिक्यं सर्वसिद्धमेव। व्यूढां तु धृष्टद्युम्नेनेत्यनुक्त्वा द्रुपदपुत्रेणेति कथनं द्रुपदपूर्ववैरसूचनेन क्रोधोद्दीपनार्थम्। धीमतेति पदमनुपेक्षणीयत्वसूचनार्थम्। व्यासङ्गान्तरनिराकरणेन त्वरातिशयार्थं पश्येति प्रार्थनम्। अन्यच्च हे पाण्डुपुत्राणामाचार्य नतु मम। तेषु स्नेहातिशयात्। द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येणेति त्वद्वधार्थमुत्पन्नोऽपि त्वयाध्यापित इति तव मौढ्यमेव ममानर्थकारणमिति सूचयति। शत्रोस्तव सकाशात्त्वद्वधोपायभूता विद्या गृहीतेति तस्य धीमत्त्वम्। अतएव तच्चमूदर्शनेनानन्दस्तवैव भविष्यति भ्रान्तत्वान्नान्यस्य कस्यचिदपि। यंप्रतीयं प्रदर्शनीयेति त्वमेवैतां पश्येत्याचार्यंप्रति तत्सैन्यं प्रदर्शयन्निगूढं द्वेषं द्योतयति। एवंच यस्य धर्मक्षेत्रं प्राप्याचार्येऽपीदृशी दृष्टबुद्धिस्तस्य काऽनुतापशङ्का सर्वाभिशङ्कित्वेनातिदुष्टाशयत्वादिति भावः।
।।1.3।।  तदेव वाक्यमाह  पश्यैतामित्यादिनवभिः श्लोकैः।  भो आचार्य पाण्डवानां विततां चमूं सेनां पश्य। द्रुपदपुत्रेण धृष्टद्युम्नेन व्यूढां व्यूहरचनया अधिष्ठिताम्।
।। 1.3।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.3।।तद्वाक्यमेवाह पश्येत्यादिनवभिः। तत्र भीष्मस्याभिषिक्तत्वात्स्वत एवोत्साहः द्रोणस्यौदासीन्यमालक्ष्य प्रोत्साहयति परोत्कर्षवर्णनैः एतां निकटस्थाम्। युधिष्ठिरस्य राजत्वाभावादविशेषेण पाण्डुपुत्राणामित्युक्तम्। हे आचार्य यद्यपि त्वमुभयोः समस्तथापि तेषां सेनायाः प्रबलत्वादस्मत्पक्षपातं कुर्वित्यतः सम्बोधनम्। पाण्डुपुत्राणां महतीं स्वभयजनिकां चमूं धीमता व्यूहरचनाकृतिना द्रुपदपुत्रेण धृष्टद्युम्नेन व्यूढां व्यूहरचनया सम्मार्जितां पश्य। तव शिष्येणेति विशेषणेन स्वस्य भयजनकत्वसामर्थ्यं द्योतितम्। तस्य भयाभावः।
।।1.3।।द्रुपदपुत्रेणेति पूर्ववैरसूचनेन क्रोधोद्दीपनार्थं विशेषणम्।
।।1.3।।तदेवोदाहरति  पश्येत्यादिना।  एतां भवदादीनतिरथानपरिगणय्य संमुखे स्थितां पाण्डुपुत्राणां युधिष्ठिरादीनां चमूं सेनां महतीमनेकाक्षौहिणीयुक्तामक्षोभ्यां द्रुपदस्य पुत्रेण धृष्टद्युम्नेन तव शिष्येण बुद्धिमतां व्यूढां व्यूहरचनया स्थापितां पश्य। हे आचार्य उभयेषामाचार्यस्यापि तव पाण्डवेषु प्रीतिर्न युक्ता यतस्त्वामपरिगणय्य तव संमुखे महती सेना तैः स्थापितेत्याशयः। द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येणेति पदद्वयेन द्रुपदपुत्रस्य स्वमृत्योरपि त्वया शिक्षणं कृतमिति मृत्योरपि तव भयं नास्तीति सूचितम्। एतेन स्वमृत्युना सह मया कथं योद्धव्यमिति शङ्कापि परिहृता। शिक्षितमपि मूर्खेण विस्मर्यते इति शङ्कानिरासाय धीमतेत्युक्तम्। परपक्षेऽपि त्वदीयमेव बलमिति सूचयन्नाचार्यस्य तन्निरसनभतिसुकरमिति मन्वानः सन्नाह  व्यूढामित्यादिनेत्येके।  द्रुपदपुत्रेणेति कथनं द्रुपदपूर्ववैरसूचनेन क्रोधाद्दीपनार्थम्। धीमतेत्यनुपेक्षणीयत्वसूचनार्थम्। पश्येति व्यासङ्गान्तरनिराकरणेन त्वरातिशयार्थम्। अन्यच्च राजा अवचनमब्रवीत्। हे पाण्डुपुत्राणामाचार्य नतु मम। तेषु स्नेहाधिक्यात्। द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येणेति त्वद्वधार्थमुत्पन्नोऽपि त्वयाध्यापित इति तव मौढ्यमेव ममानर्थकारणमिति सूचयति। शत्रोरपि सकाशात्तद्वधोपायभूता विद्या गृहीतेति तस्य धीमत्त्वमतएव तच्चमूदर्शनेनानन्दस्तवैव भविष्यति भ्रान्तत्वान्नान्यस्य कस्यचिदपि। यं प्रतीयं प्रदर्शनीयेति त्वमेवैतां पश्येत्याचार्यं प्रति निगूढं द्वेषं द्योतयति। एवंच यस्य धर्मक्षेत्रेऽपीदृक् दुष्टबुद्धिस्तस्य काऽनुतापशङ्केति भाव इति केचित्। अन्येच्चेत्यारभ्य युद्धार्थं प्रार्थनां कुर्वतो दुर्योधनस्य प्रणिपातादिपुरःसरं आचार्यसमीपं गतस्यात्मनः शिक्षितारं रक्षितारं च प्रत्येवमभिप्रायवर्णनं प्रकृतासंगतं नवेति विद्वद्भिर्निर्मत्सरैः पक्षपातवर्जितौर्विचार्यम्। अनुतापशङ्का मूलविरुद्धेति तु पूर्वमुक्तमेव। नन्वनेन कृतं प्रतारणं बुद्ध्वैवाचार्येणोत्तरं न दत्तमिति चेत्। न। आचार्याभाषणस्य प्रकृतविरुद्धार्थकल्पनांविनैव वक्ष्यमाणरीत्योपपत्तौ तत्कल्पनाया अन्याय्यत्वात्।
1.3 पश्य behold? एताम् this? पाण्डुपुत्राणाम् of the sons of Pandu? आचार्य O Teacher? महतीम् great? चमूम् army? व्यूढाम् arrayed? द्रुपदपुत्रेण son of Drupada? तव शिष्येण by your disciple? धीमता wise.No Commentary.
1.3. "Behold, O Teacher! this mighty army of the sons of Pandu, arrayed by the son of Drupada, thy wise disciple.
1.3 Revered Father! Behold this mighty host of the Pandavas, paraded by the son of King Drupada, thy wise disciple.
1.3 O teacher, (please) see this vast army of the sons of Pandu, arrayed for battle by the son of Drupada, your intelligent disciple.
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1.3. O teacher ! Behold this mighty army of the sons of Pandu, marshalled in a military array by Drupada's son, your intelligent pupil.
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.3 Behold, O teacher, this mighty army of the Pandavas, arrayed by the son of Drupada, your intelligent disciple.
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पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।1.3।।
পশ্যৈতাং পাণ্ডুপুত্রাণামাচার্য মহতীং চমূম্৷ ব্যূঢাং দ্রুপদপুত্রেণ তব শিষ্যেণ ধীমতা৷৷1.3৷৷
পশ্যৈতাং পাণ্ডুপুত্রাণামাচার্য মহতীং চমূম্৷ ব্যূঢাং দ্রুপদপুত্রেণ তব শিষ্যেণ ধীমতা৷৷1.3৷৷
પશ્યૈતાં પાણ્ડુપુત્રાણામાચાર્ય મહતીં ચમૂમ્। વ્યૂઢાં દ્રુપદપુત્રેણ તવ શિષ્યેણ ધીમતા।।1.3।।
ਪਸ਼੍ਯੈਤਾਂ ਪਾਣ੍ਡੁਪੁਤ੍ਰਾਣਾਮਾਚਾਰ੍ਯ ਮਹਤੀਂ ਚਮੂਮ੍। ਵ੍ਯੂਢਾਂ ਦ੍ਰੁਪਦਪੁਤ੍ਰੇਣ ਤਵ ਸ਼ਿਸ਼੍ਯੇਣ ਧੀਮਤਾ।।1.3।।
ಪಶ್ಯೈತಾಂ ಪಾಣ್ಡುಪುತ್ರಾಣಾಮಾಚಾರ್ಯ ಮಹತೀಂ ಚಮೂಮ್. ವ್ಯೂಢಾಂ ದ್ರುಪದಪುತ್ರೇಣ ತವ ಶಿಷ್ಯೇಣ ಧೀಮತಾ৷৷1.3৷৷
പശ്യൈതാം പാണ്ഡുപുത്രാണാമാചാര്യ മഹതീം ചമൂമ്. വ്യൂഢാം ദ്രുപദപുത്രേണ തവ ശിഷ്യേണ ധീമതാ৷৷1.3৷৷
ପଶ୍ଯୈତାଂ ପାଣ୍ଡୁପୁତ୍ରାଣାମାଚାର୍ଯ ମହତୀଂ ଚମୂମ୍| ବ୍ଯୂଢାଂ ଦ୍ରୁପଦପୁତ୍ରେଣ ତବ ଶିଷ୍ଯେଣ ଧୀମତା||1.3||
paśyaitāṅ pāṇḍuputrāṇāmācārya mahatīṅ camūm. vyūḍhāṅ drupadaputrēṇa tava śiṣyēṇa dhīmatā৷৷1.3৷৷
பஷ்யைதாஂ பாண்டுபுத்ராணாமாசார்ய மஹதீஂ சமூம். வ்யூடாஂ த்ருபதபுத்ரேண தவ ஷிஷ்யேண தீமதா৷৷1.3৷৷
పశ్యైతాం పాణ్డుపుత్రాణామాచార్య మహతీం చమూమ్. వ్యూఢాం ద్రుపదపుత్రేణ తవ శిష్యేణ ధీమతా৷৷1.3৷৷
1.4
1
4
।।1.4 -- 1.6।। यहाँ (पाण्डवों की सेना में) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्ध में भीम और अर्जुनके समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और कुन्तिभोज--ये दोनों भाई तथा मनुष्योंमें श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं।
।।1.4।।इस सेना में महान् धनुर्धारी शूर योद्धा है ,  जो युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं , जैसे --  युयुधान, विराट तथा महारथी राजा द्रुपद।
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।।1.4 --1.6।। व्याख्या--'अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि'--जिनसे बाण चलाये जाते हैं, फेंके जाते हैं, उनका नाम 'इष्वास' अर्थात् धनुष है। ऐसे बड़े-बड़े इष्वास (धनुष) जिनसे पास हैं, वे सभी 'महेष्वास' हैं। तात्पर्य है कि बड़े धनुषोंपर बाण चढ़ाने एवं प्रत्यञ्चा खींचनेमें बहुत बल लगता है। जोरसे खींचकर छोड़ा गया बाण विशेष मार करता है। ऐसे बड़े-बड़े धनुष पासमें होनेके कारण ये सभी बहुत बलवान् और शूरवीर हैं। ये मामूली योद्धा नहीं हैं। युद्धमें ये भीम और अर्जुनके समान हैं अर्थात् बलमें ये भीमके समान और अस्त्र-शस्त्रकी कलामें ये अर्जुनके समान हैं।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.4।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.4।।अन्येऽपि प्रतिपक्षे पराक्रमभाजो बहवः सन्तीत्यनुपेक्षणीयत्वं परपक्षस्य विवक्षयन्नाह  अत्रेति।  अस्यां हि प्रतिपक्षभूतायां सेनायां शूराः स्वयमभीरवः शस्त्रास्त्रकुशलाः भीमार्जुनाभ्यां सर्वसंप्रतिपन्नवीर्याभ्यां तुल्या युद्धभूमावुपलभ्यन्ते। तेषां युद्धशौण्डीर्यं विशदीकर्तुं विशिनष्टि  महेष्वासा इति।  इषुरस्यतेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या धनुस्तदुच्यते तच्च महदन्यैरप्रधृष्यं तद्येषां ते राजानस्तथा विवक्ष्यन्ते। तानेव परसेनामध्यमध्यासीनान्परपक्षानुरागिणो राज्ञो विज्ञापयति  युयुधान  इत्यादिना  सौभद्रो द्रौपदेयाश्चे त्यन्तेन।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।।1.4।।नन्वेकेन द्रुपदपुत्रेणाप्रसिद्धेनाधिष्ठितां चमूमेतामस्मदीयो यः कश्चिदपि जेष्यति किमिति त्वमुत्ताम्यसीत्यत आह अत्र शूरा इत्यादिभिस्त्रिभिः। न केवलमत्र धृष्टद्युम्न एव शूरो येनोपेक्षणीयता स्यात्। किंत्वस्यां चम्वामन्येऽपि बहवः शूरा सन्तीत्यवश्यमेव तज्जये यतनीयमित्यभिप्रायः। शूरानेव विशिनष्टि महेष्वासा इति। महान्तोऽन्यैरप्रधृष्या इष्वासा धनूंषि येषा ते तथा। दूरतएव परसैन्यविद्रावणकुशला इति भावः। महाधनुरादिमत्त्वेऽपि युद्धकौशलाभावमाशङ्क्याह युधि युद्धे भीमार्जुनाभ्यां सर्वसंप्रतिन्नपराक्रमाभ्यां समास्तुल्याः। तानेवाह युयुधान इत्यादिनामहारथा इत्यन्तेन। युयुधानः सात्यकिः। द्रुपदश्च महारथ इत्येकः। अथवा युयुधानविराटद्रुपदानां विशेषणं महारथ इति। धृष्टकेतुचेकितानकाशिराजानां विशेषणं वीर्यवानिति। पुरुजित्कुन्तिभोजशैब्यानां विशेषणं नरपुंगव इति। विक्रान्तो युधामन्युः वीर्यवांश्चोत्तमौजा इति द्वौ। अथवा सर्वाणि विशेषणानि समुच्चित्य सर्वत्र योजनीयानि। सौभद्रोऽभिमन्युः। द्रौपदेयाश्च द्रौपदीपुत्राः प्रतिविन्ध्यादयः पञ्च। चकारादन्येऽपि पाण्ड्यराजघटोत्कचप्रभृतयः। पञ्च पाण्डवास्त्वतिप्रसिद्धा एवेति न गणिताः। ये गणिताः सप्तदशान्येऽपि तदीयाः सर्वएव महारथाः सर्वेऽपि महारथाएव नैकोऽपि रथोऽर्धरथो वा। महारथा इत्यतिरथत्वस्याप्युपलक्षणम्। तल्लक्षणं चएको दशसहस्त्राणि योधयेद्यस्तु धन्विनाम्। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च महारथ इति स्मृतः।।अमितान्योधयेद्यस्तु संप्रोक्तोऽतिरथस्थु सः। रथस्त्वेकेन यो योद्धा तन्नयूनोऽर्धरथः स्मृतः।। इति
।।1.4।।   अत्र शूरा इति।  अत्रास्यां चम्वां इषवो बाणा अस्यन्ते क्षिप्यन्ते एभिरितीष्वासाः धनूंषि। महान्त इष्वासा येषां ते तथा। भीमार्जुनौ तावदत्रातिप्रसिद्धौ योद्धारौ ताभ्यां समाः शूराः शौर्येण क्षात्रधर्मेणोपेताः सन्ति। तानेव नामाभिर्निर्दिशति। युयुधानः सात्यकिः।
।। 1.4।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.4।।एवं सेनां दर्शयित्वा तस्याः प्रबलत्वसूचनाय तत्स्थितान् शूरान् वर्णयति अत्रेति। अत्र अस्यां सेनायां इषवो अस्यन्ते एभिरितीष्वासाश्चापाः। महान्त इष्वासा येषां ते महेष्वासाः।शूरा महेष्वासा इति पदद्वयेन स्वतः शिक्षातश्च सामर्थ्यं दर्शितम्। युधि संग्रामे भीमार्जुनसमाः शूराः सन्ति। भीमार्जुनावतिबलाविति तत्समत्वेन वर्णिताः।युधीति पदेनान्यत्र न तत्समा दानादिष्वित्यर्थः। तानेव गणयतियुयुधान इत्यादिभिः। युयुधानः सात्यकिः। विराटद्रुपदौ राजानौ धृष्टकेतुप्रभृतयो राजानोऽसंबद्धा अस्मच्छत्रवश्च। वीर्यवानिति प्रत्येकं सर्वेषां विशेषणम्।
।।1.4।।महेष्वासा महान्त इष्वासाः धनूंषि येषां ते। युयुधानः सात्यकिः। द्रुपदश्च महारथ इत्येकः।
।।1.4 1.5।।शत्रुसैन्ये प्रसिद्धाञ्शूरान्दर्शयन्नुपेक्षणीयत्वं वारयति  अत्रेति।  महान्त इष्वासा धनूंषि येषां ते। तेषां युद्धाकुशलतां निरस्याति  युधीति।  युद्धे भीमार्जुनसमा इति। भीमार्जुनाभ्यां तुल्याः। युयुधानः सात्यकिः। महारथ इति संनिहितस्य द्रुपदस्यैव विशेषणम् एकवचनस्वारस्यात्। एवमग्रेऽपि बोध्यम्। एतेन युयुधानादीनां महारथ इति विशेषणं धृष्टकेत्वादीनां वीर्यवानिति पुरुजिदादीनां नरपुंगव इति पक्षान्तरं प्रत्युक्तम्। आवृत्तेश्च प्रयोजनशून्यगौरवग्रस्तत्वेनाङ्गीकारायोगात्। यदपि अथवा सर्वाणि विशेषणानि समुच्चित्य सर्वत्र योजनीयानीति। तदपि न। महारथ इत्यस्य वीर्यवानित्यस्य च पौनरुक्त्यापत्तेः।
1.4 अत्र here? शूराः heroes? महेष्वासाः mighty archers? भीमार्जुनसमाः eal to Bhima and Arjuna? युधि in battle? युयुधानः Yuyudhana? विराटः Virata? च and? द्रुपदः Drupada? च and? महारथः of the great car.Commentary Technically? maharatha means a warrior who is proficient in the science of war and who is able to fight alone with ten thousand archers.
1.4. Here are heroes, mighty archers, eal in battle to Bhima and Arjuna, Yoyudhana (Satyaki), Virata and Drupada, of the great car (mighty warriors).
1.4 In it are heroes and great bowmen; the equals in battle of Arjuna and Bheema, Yuyudhana, Virata and Drupada, great soldiers all;
1.4 Here are the heroes wielding great bows, who in battle are compeers of Bhima and Arjuna: Yuyudhana (Satyaki) and Virata, and the maharatha (great chariot-rider) Drupada;
null
1.4. The heroes and mighty archers, comparable in war to Bhima and Arjuna, here are: Yuyudhana, the king of the Virata country, and Drupada, the mighty warrior;
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.4 There (in that army) are heroes, great bowmen, like Bhima and Arjuna; Yuyudhana,Virata and Drupada a mighty warrior;
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अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि। युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।1.4।।
অত্র শূরা মহেষ্বাসা ভীমার্জুনসমা যুধি৷ যুযুধানো বিরাটশ্চ দ্রুপদশ্চ মহারথঃ৷৷1.4৷৷
অত্র শূরা মহেষ্বাসা ভীমার্জুনসমা যুধি৷ যুযুধানো বিরাটশ্চ দ্রুপদশ্চ মহারথঃ৷৷1.4৷৷
અત્ર શૂરા મહેષ્વાસા ભીમાર્જુનસમા યુધિ। યુયુધાનો વિરાટશ્ચ દ્રુપદશ્ચ મહારથઃ।।1.4।।
ਅਤ੍ਰ ਸ਼ੂਰਾ ਮਹੇਸ਼੍ਵਾਸਾ ਭੀਮਾਰ੍ਜੁਨਸਮਾ ਯੁਧਿ। ਯੁਯੁਧਾਨੋ ਵਿਰਾਟਸ਼੍ਚ ਦ੍ਰੁਪਦਸ਼੍ਚ ਮਹਾਰਥ।।1.4।।
ಅತ್ರ ಶೂರಾ ಮಹೇಷ್ವಾಸಾ ಭೀಮಾರ್ಜುನಸಮಾ ಯುಧಿ. ಯುಯುಧಾನೋ ವಿರಾಟಶ್ಚ ದ್ರುಪದಶ್ಚ ಮಹಾರಥಃ৷৷1.4৷৷
അത്ര ശൂരാ മഹേഷ്വാസാ ഭീമാര്ജുനസമാ യുധി. യുയുധാനോ വിരാടശ്ച ദ്രുപദശ്ച മഹാരഥഃ৷৷1.4৷৷
ଅତ୍ର ଶୂରା ମହେଷ୍ବାସା ଭୀମାର୍ଜୁନସମା ଯୁଧି| ଯୁଯୁଧାନୋ ବିରାଟଶ୍ଚ ଦ୍ରୁପଦଶ୍ଚ ମହାରଥଃ||1.4||
atra śūrā mahēṣvāsā bhīmārjunasamā yudhi. yuyudhānō virāṭaśca drupadaśca mahārathaḥ৷৷1.4৷৷
அத்ர ஷூரா மஹேஷ்வாஸா பீமார்ஜுநஸமா யுதி. யுயுதாநோ விராடஷ்ச த்ருபதஷ்ச மஹாரதஃ৷৷1.4৷৷
అత్ర శూరా మహేష్వాసా భీమార్జునసమా యుధి. యుయుధానో విరాటశ్చ ద్రుపదశ్చ మహారథః৷৷1.4৷৷
1.5
1
5
"।।1.4 -- 1.6।। यहाँ (पाण्डवों की सेना में) बड(...TRUNCATED)
"।।1.5।।धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान काशिर(...TRUNCATED)
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"।।1.4 --1.6।। व्याख्या--'अत्र शूरा महेष्वा(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बह(...TRUNCATED)
"।।1.5।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर(...TRUNCATED)
"।।1.5।।किञ्च  धृष्टकेतुरिति।  स्पष्टम(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक(...TRUNCATED)
"।। 1.5नन्वेकेन द्रुपदपुत्रेणाप्रसिद्(...TRUNCATED)
"।।1.5।।  किंच  धृष्टकेतुरिति।  चेकितान(...TRUNCATED)
"।। 1.5।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्(...TRUNCATED)
"।। 1.5एवं सेनां दर्शयित्वा तस्याः प्रब(...TRUNCATED)
।।1.5।।धृष्टकेत्वादयः षट्।
"।।1.4 1.5।।शत्रुसैन्ये प्रसिद्धाञ्शूरा(...TRUNCATED)
"1.5 धृष्टकेतुः Dhrishtaketu? चेकितानः Chekitana? काशि(...TRUNCATED)
"1.5. \"Dhrishtaketu, chekitana and the valiant king of Kasi, Purujit\nand Kuntibhoja and Saibya, th(...TRUNCATED)
"1.5 Dhrishtaketu, Chekitan, the valiant King of Benares, Purujit, Kuntibhoja, Shaibya - a master ov(...TRUNCATED)
"1.5 Dhrstaketu, Cekitana, and the valiant king of Kasi (Varanasi); Purujit and Kuntibhoja, and Saib(...TRUNCATED)
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"1.5. Dhrstaketu, Cekitana and the valourous king of Kasi, and Kuntibhoja, the coneror of many, (...TRUNCATED)
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
"1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protec(...TRUNCATED)
"1.5 Dhrstaketu, Cekitana, and the valiant king of Kasi; Purujit and Kuntibhoja, and Saibya the best(...TRUNCATED)
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"धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर(...TRUNCATED)
"ধৃষ্টকেতুশ্চেকিতানঃ কাশিরাজশ্চ বীর(...TRUNCATED)
"ধৃষ্টকেতুশ্চেকিতানঃ কাশিরাজশ্চ বীর(...TRUNCATED)
"ધૃષ્ટકેતુશ્ચેકિતાનઃ કાશિરાજશ્ચ વીર(...TRUNCATED)
"ਧਰਿਸ਼੍ਟਕੇਤੁਸ਼੍ਚੇਕਿਤਾਨ ਕਾਸ਼ਿਰਾਜਸ਼੍ਚ ਵੀਰ(...TRUNCATED)
"ಧೃಷ್ಟಕೇತುಶ್ಚೇಕಿತಾನಃ ಕಾಶಿರಾಜಶ್ಚ ವೀರ(...TRUNCATED)
"ധൃഷ്ടകേതുശ്ചേകിതാനഃ കാശിരാജശ്ച വീര(...TRUNCATED)
"ଧୃଷ୍ଟକେତୁଶ୍ଚେକିତାନଃ କାଶିରାଜଶ୍ଚ ବୀର(...TRUNCATED)
"dhṛṣṭakētuścēkitānaḥ kāśirājaśca vīryavān.\n\npurujitkuntibhōjaśca śaibyaśca (...TRUNCATED)
"தரிஷ்டகேதுஷ்சேகிதாநஃ காஷிராஜஷ்ச வீ(...TRUNCATED)
"ధృష్టకేతుశ్చేకితానః కాశిరాజశ్చ వీర(...TRUNCATED)
1.6
1
6
"।।1.4 -- 1.6।। यहाँ (पाण्डवों की सेना में) बड(...TRUNCATED)
"।।1.6।।पराक्रमी युधामन्यु,  बलवान् उत्(...TRUNCATED)
"।।1.6।। इन तीन श्लोकों में पाण्डवसैन्य (...TRUNCATED)
"।।1.4 -- 1.6।। व्याख्या-- 'अत्र शूरा महेष्व(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बह(...TRUNCATED)
"।।1.6।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर(...TRUNCATED)
"।।1.6।।तेषां सर्वेषामपि महाबलपराक्रम(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक(...TRUNCATED)
"।। 1.6नन्वेकेन द्रुपदपुत्रेणाप्रसिद्(...TRUNCATED)
"।।1.6।।   युधामन्युश्चेति।  विक्रान्त(...TRUNCATED)
"।। 1.6।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्(...TRUNCATED)
"।।1.6।।विक्रान्तः अतिपराक्रमी। वीर्य(...TRUNCATED)
"।।1.6।।युधामन्यूत्तमौजसौ सौभद्रोऽभि(...TRUNCATED)
"।।1.6।।सौभद्राः सुभद्रापुत्रोऽभिमन्(...TRUNCATED)
"1.6 युधामन्युः Yudhamanyu? च and? विक्रान्तः the strong? (...TRUNCATED)
"1.6. \"The strong Yodhamanyu and the brave Uttamaujas, the son\nof Subhadra (Abhimanyu, the son of (...TRUNCATED)
1.6 Yudhamanyu, Uttamouja, Soubhadra and the sons of Droupadi, famous men.
"1.6 And the chivalrous Yudhamanyu, and the valiant Uttamaujas; son of Subhadra (Abhimanyu) and the (...TRUNCATED)
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"1.6. And Yudhamanyu, the heroic, and Uttamaujas, the valourous, the son of Subhadra and the son(...TRUNCATED)
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
"1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protec(...TRUNCATED)
"1.6 Yudhamanyu the valiant, and Uttamaujas the strong; and also the son of Subhadra and the sons of(...TRUNCATED)
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"युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च (...TRUNCATED)
"যুধামন্যুশ্চ বিক্রান্ত উত্তমৌজাশ্চ (...TRUNCATED)
"যুধামন্যুশ্চ বিক্রান্ত উত্তমৌজাশ্চ (...TRUNCATED)
"યુધામન્યુશ્ચ વિક્રાન્ત ઉત્તમૌજાશ્ચ (...TRUNCATED)
"ਯੁਧਾਮਨ੍ਯੁਸ਼੍ਚ ਵਿਕ੍ਰਾਨ੍ਤ ਉਤ੍ਤਮੌਜਾਸ਼੍ਚ (...TRUNCATED)
"ಯುಧಾಮನ್ಯುಶ್ಚ ವಿಕ್ರಾನ್ತ ಉತ್ತಮೌಜಾಶ್ಚ (...TRUNCATED)
"യുധാമന്യുശ്ച വിക്രാന്ത ഉത്തമൌജാശ്ച (...TRUNCATED)
"ଯୁଧାମନ୍ଯୁଶ୍ଚ ବିକ୍ରାନ୍ତ ଉତ୍ତମୌଜାଶ୍ଚ (...TRUNCATED)
"yudhāmanyuśca vikrānta uttamaujāśca vīryavān.\n\nsaubhadrō draupadēyāśca sarva ēva mah(...TRUNCATED)
"யுதாமந்யுஷ்ச விக்ராந்த உத்தமௌஜாஷ்ச (...TRUNCATED)
"యుధామన్యుశ్చ విక్రాన్త ఉత్తమౌజాశ్చ (...TRUNCATED)
1.7
1
7
"।।1.7।। हे द्विजोत्तम! हमारे पक्ष में भ(...TRUNCATED)
"।।1.7।।हे द्विजोत्तम ! हमारे पक्ष में भ(...TRUNCATED)
"।।1.7।। द्रोणाचार्य को द्विजोत्तम कहक(...TRUNCATED)
"।।1.7।। व्याख्या-- 'अस्माकं तु विशिष्टा(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बह(...TRUNCATED)
"।।1.7।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर(...TRUNCATED)
"।।1.7।।यद्येवं परकीयं बलमतिप्रभूतं प्(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक(...TRUNCATED)
"।।1.7।।यद्येवं परबलमितप्रभूतं दृष्ट्(...TRUNCATED)
"।।1.7।।अस्माकमिति।  निबोध बुध्यस्व। न(...TRUNCATED)
"।। 1.7।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्(...TRUNCATED)
"।।1.7।।एवं तत्सैनिकानुक्त्वा स्वीयान(...TRUNCATED)
"।।1.7।।विशिष्टाः श्रेष्ठाः। निबोध बुध(...TRUNCATED)
"।।1.7।।ननु ते बहवो महारथा मयैकेनातिरथ(...TRUNCATED)
"1.7 अस्माकम् ours? तु also? विशिष्टाः the best? ये who (t(...TRUNCATED)
"1.7. \"Know also, O best among the twice-born! the names of those\nwho are the most distinguished a(...TRUNCATED)
"1.7 Further, take note of all those captains who have ranged themselves on our side, O best of Spir(...TRUNCATED)
"1.7 But, O best among the Brahmanas, please be appraised of those who are foremost among us, the ?n(...TRUNCATED)
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"1.7. O best among the twice-born ! However, please also take note of the most distinguished amongs(...TRUNCATED)
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
"1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protect(...TRUNCATED)
"1.7 Know, O best of Brahmanas, those who are important on our side - those who are the commanders o(...TRUNCATED)
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"अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्व(...TRUNCATED)
"অস্মাকং তু বিশিষ্টা যে তান্নিবোধ দ্ব(...TRUNCATED)
"অস্মাকং তু বিশিষ্টা যে তান্নিবোধ দ্ব(...TRUNCATED)
"અસ્માકં તુ વિશિષ્ટા યે તાન્નિબોધ દ્વ(...TRUNCATED)
"ਅਸ੍ਮਾਕਂ ਤੁ ਵਿਸ਼ਿਸ਼੍ਟਾ ਯੇ ਤਾਨ੍ਨਿਬੋਧ ਦ੍ਵ(...TRUNCATED)
"ಅಸ್ಮಾಕಂ ತು ವಿಶಿಷ್ಟಾ ಯೇ ತಾನ್ನಿಬೋಧ ದ್ವ(...TRUNCATED)
"അസ്മാകം തു വിശിഷ്ടാ യേ താന്നിബോധ ദ്വ(...TRUNCATED)
"ଅସ୍ମାକଂ ତୁ ବିଶିଷ୍ଟା ଯେ ତାନ୍ନିବୋଧ ଦ୍ବ(...TRUNCATED)
"asmākaṅ tu viśiṣṭā yē tānnibōdha dvijōttama.\n\nnāyakā mama sainyasya saṅjñārtha(...TRUNCATED)
"அஸ்மாகஂ து விஷிஷ்டா யே தாந்நிபோத த்வ(...TRUNCATED)
"అస్మాకం తు విశిష్టా యే తాన్నిబోధ ద్వ(...TRUNCATED)
1.8
1
8
"।।1.8।। आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्(...TRUNCATED)
"।।1.8।।एक तो स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, और यु(...TRUNCATED)
"।।1.8।। यद्यपि कुछ क्षणों के लिये अपराध(...TRUNCATED)
"।।1.8।। व्याख्या-- 'भवान् भीष्मश्च'-- आप (...TRUNCATED)
"।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बह(...TRUNCATED)
"।।1.8।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर(...TRUNCATED)
"।।1.8।।तानेव स्वसेनानिविष्टान्पुरुष(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक(...TRUNCATED)
"।। 1.8यद्येवं परबलमितप्रभूतं दृष्ट्वा(...TRUNCATED)
"।।1.8।।  तानेवाह  भवानिति द्वाभ्याम्। (...TRUNCATED)
"।। 1.8।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्(...TRUNCATED)
"।।1.8।।एवं विज्ञाप्य तन्नामान्याह भवा(...TRUNCATED)
"।।1.8।।विकर्णः स्वभ्राता। सौमदत्तिर्(...TRUNCATED)
"।।1.8।।तानेव विशिष्टान् स्वसेनानायका(...TRUNCATED)
"1.8 भवान् yourself? भीष्मः Bhishma? च and? कर्णः Karna? च and? (...TRUNCATED)
"1.8. \"Thyself and Bhishma, and Karna and also Kripa, the victorious\nin war, Asvatthama, Vikarna, (...TRUNCATED)
"1.8 You come first; then Bheeshma, Karna, Kripa, great soldiers; Ashwaththama, Vikarna and the son (...TRUNCATED)
"1.8 (They are:) Your venerable self, Bhisma and Karna, and Krpa who is ever victorious in battle; A(...TRUNCATED)
null
"1.8. Your goodself, and Bhisma, and Karna, krpa, Salya, Jayadratha, Asvatthaman, and Vikarna,(...TRUNCATED)
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
"1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protec(...TRUNCATED)
"1.8 Yourself, Bhisma and Karna, the victorious Krpa, Asvatthama, Vikarna and Jayadratha the son of (...TRUNCATED)
null
null
null
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"भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ(...TRUNCATED)
"ভবান্ভীষ্মশ্চ কর্ণশ্চ কৃপশ্চ সমিতিঞ(...TRUNCATED)
"ভবান্ভীষ্মশ্চ কর্ণশ্চ কৃপশ্চ সমিতিঞ(...TRUNCATED)
"ભવાન્ભીષ્મશ્ચ કર્ણશ્ચ કૃપશ્ચ સમિતિઞ(...TRUNCATED)
"ਭਵਾਨ੍ਭੀਸ਼੍ਮਸ਼੍ਚ ਕਰ੍ਣਸ਼੍ਚ ਕਰਿਪਸ਼੍ਚ ਸਮਿਤਿ(...TRUNCATED)
"ಭವಾನ್ಭೀಷ್ಮಶ್ಚ ಕರ್ಣಶ್ಚ ಕೃಪಶ್ಚ ಸಮಿತಿಞ(...TRUNCATED)
"ഭവാന്ഭീഷ്മശ്ച കര്ണശ്ച കൃപശ്ച സമിതിഞ(...TRUNCATED)
"ଭବାନ୍ଭୀଷ୍ମଶ୍ଚ କର୍ଣଶ୍ଚ କୃପଶ୍ଚ ସମିତିଞ(...TRUNCATED)
"bhavānbhīṣmaśca karṇaśca kṛpaśca samitiñjayaḥ.\n\naśvatthātmā vikarṇaśca saumad(...TRUNCATED)
"பவாந்பீஷ்மஷ்ச கர்ணஷ்ச கரிபஷ்ச ஸமிதி(...TRUNCATED)
"భవాన్భీష్మశ్చ కర్ణశ్చ కృపశ్చ సమితిఞ(...TRUNCATED)
1.9
1
9
"।।1.9।। इनके अतिरिक्त बहुत-से शूरवीर है(...TRUNCATED)
"।।1.9।।मेरे लिए प्राण त्याग करने के लिए(...TRUNCATED)
"।।1.9।। एक अत्याचारी तानाशाह का गर्व और(...TRUNCATED)
"1.9।। व्याख्या-- 'अन्ये च बहवः शूरा मदर्(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बह(...TRUNCATED)
"।।1.9।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर(...TRUNCATED)
"।।1.9।।द्रोणादिपरिगणनस्य परिशिष्टपर(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक(...TRUNCATED)
"।। 1.9यद्येवं परबलमितप्रभूतं दृष्ट्वा(...TRUNCATED)
"।।1.9।।   अन्ये चेति।  मदर्थे मत्प्रयो(...TRUNCATED)
"।। 1.9।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्(...TRUNCATED)
"।।1.9।।अन्ये चैतादृशा बहवः शूरा मदर्थ(...TRUNCATED)
"।।1.9।।अन्ये शल्यकृतवर्मप्रभृतयः। शस(...TRUNCATED)
"।।1.9।।गणयितुमसंख्यान्सर्वानपि संगृ(...TRUNCATED)
"1.9 अन्ये others? च and? बहवः many? शूराः heroes? मदर्थे (...TRUNCATED)
"1.9. \"And also many other heroes who are ready to give up their\nlives for my sake, armed with var(...TRUNCATED)
1.9 And many others, all ready to die for my sake; all armed, all skilled in war.
"1.9 There are many heroes who have dedicated their lives for my sake, who possess various kinds of (...TRUNCATED)
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"1.9. And many other heroes, giving up their lives for my sake; fighting with various weapons, al(...TRUNCATED)
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
"1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protec(...TRUNCATED)
"1.9 And there are many other heroes who are determined to give up their lives for my sake. They all(...TRUNCATED)
null
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null
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"अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीवित(...TRUNCATED)
"অন্যে চ বহবঃ শূরা মদর্থে ত্যক্তজীবিত(...TRUNCATED)
"অন্যে চ বহবঃ শূরা মদর্থে ত্যক্তজীবিত(...TRUNCATED)
"અન્યે ચ બહવઃ શૂરા મદર્થે ત્યક્તજીવિત(...TRUNCATED)
"ਅਨ੍ਯੇ ਚ ਬਹਵ ਸ਼ੂਰਾ ਮਦਰ੍ਥੇ ਤ੍ਯਕ੍ਤਜੀਵਿਤਾ(...TRUNCATED)
"ಅನ್ಯೇ ಚ ಬಹವಃ ಶೂರಾ ಮದರ್ಥೇ ತ್ಯಕ್ತಜೀವಿತ(...TRUNCATED)
"അന്യേ ച ബഹവഃ ശൂരാ മദര്ഥേ ത്യക്തജീവിത(...TRUNCATED)
"ଅନ୍ଯେ ଚ ବହବଃ ଶୂରା ମଦର୍ଥେ ତ୍ଯକ୍ତଜୀବିତ(...TRUNCATED)
"anyē ca bahavaḥ śūrā madarthē tyaktajīvitāḥ.\n\nnānāśastrapraharaṇāḥ sarvē yudd(...TRUNCATED)
"அந்யே ச பஹவஃ ஷூரா மதர்தே த்யக்தஜீவித(...TRUNCATED)
"అన్యే చ బహవః శూరా మదర్థే త్యక్తజీవిత(...TRUNCATED)
1.10
1
10
"।।1.10।। वह हमारी सेना पाण्डवों पर विजय (...TRUNCATED)
"।।1.10।।भीष्म के द्वारा हमारी रक्षित से(...TRUNCATED)
"।।1.10।। हिन्दुओं की प्राचीन युद्ध पद्ध(...TRUNCATED)
"।।1.10।। व्याख्या-- 'अपर्याप्तं तदस्माक(...TRUNCATED)
"।।1.10।।अपर्याप्तमिति। भीमसेनाभिरक्ष(...TRUNCATED)
"।।1.10।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दु(...TRUNCATED)
"।।1.10।।राजा पुनरपि स्वकीयभयाभावे हेत(...TRUNCATED)
"।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक(...TRUNCATED)
"।।1.10।।राजा पुनरपि सैन्यद्वयसाम्यमाश(...TRUNCATED)
"।।1.10।।  ततः किमित्यत आह  अपर्याप्तमि(...TRUNCATED)
"।। 1.10।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस(...TRUNCATED)
"।।1.10।।एवं सर्वाननूद्यैतद्रक्षितमप्(...TRUNCATED)
"।।1.10।।पर्याप्तं परित आप्तं परिवेष्ट(...TRUNCATED)
"।।1.10।।स्वोत्कर्षे हेत्वन्तरमाह  अपर(...TRUNCATED)
"1.10 अपर्याप्तम् insufficient? तत् that? अस्माकम् ours?(...TRUNCATED)
"1.10. \"This army of ours marshalled by Bhishma is insufficient,\nwhereas that army of theirs marsh(...TRUNCATED)
"1.10 Yet our army seems the weaker, though commanded by Bheeshma; their army seems the stronger, th(...TRUNCATED)
"1.10 Therefore, our army under the complete protection of Bhisma and others is unlimited. But this (...TRUNCATED)
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"1.10. Thus the army guarded by Bhima is unlimited (or insufficient) for us; on the other hand, th(...TRUNCATED)
"1.10 Aparyaptam etc. For us, for Pandava army grauded by Bhimasena is unlimited, i.e., it is not p(...TRUNCATED)
"1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protec(...TRUNCATED)
"1.10 Inadequate is this force of ours, which is guarded by Bhisma, while adequate is that force of (...TRUNCATED)
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null
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"अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्(...TRUNCATED)
"অপর্যাপ্তং তদস্মাকং বলং ভীষ্মাভিরক্(...TRUNCATED)
"অপর্যাপ্তং তদস্মাকং বলং ভীষ্মাভিরক্(...TRUNCATED)
"અપર્યાપ્તં તદસ્માકં બલં ભીષ્માભિરક્(...TRUNCATED)
"ਅਪਰ੍ਯਾਪ੍ਤਂ ਤਦਸ੍ਮਾਕਂ ਬਲਂ ਭੀਸ਼੍ਮਾਭਿਰਕ੍(...TRUNCATED)
"ಅಪರ್ಯಾಪ್ತಂ ತದಸ್ಮಾಕಂ ಬಲಂ ಭೀಷ್ಮಾಭಿರಕ್(...TRUNCATED)
"അപര്യാപ്തം തദസ്മാകം ബലം ഭീഷ്മാഭിരക്(...TRUNCATED)
"ଅପର୍ଯାପ୍ତଂ ତଦସ୍ମାକଂ ବଲଂ ଭୀଷ୍ମାଭିରକ୍(...TRUNCATED)
"aparyāptaṅ tadasmākaṅ balaṅ bhīṣmābhirakṣitam.\n\nparyāptaṅ tvidamētēṣāṅ ba(...TRUNCATED)
"அபர்யாப்தஂ ததஸ்மாகஂ பலஂ பீஷ்மாபிரக்(...TRUNCATED)
"అపర్యాప్తం తదస్మాకం బలం భీష్మాభిరక్(...TRUNCATED)

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  • htrskd - Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
  • httyn - Hindi Translation By Swami Tejomayananda
  • htshg - Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka
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  • hcrskd - Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas
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  • scmad - Sanskrit Commentary By Sri Madhvacharya
  • scval - Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya
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  • scsri - Sanskrit Commentary By Sri Sridhara Swami
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  • scpur - Sanskrit Commentary By Sri Purushottamji
  • scneel - Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth
  • scdhan - Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati
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  • etsiva - English Translation By Swami Sivananda
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  • setgb - English Translation Of Sri Shankaracharya By Swami Gambirananda
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  • etassa - English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan
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