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4.39
4
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।।4.39।। जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
।।4.39।। श्रद्धावान्,  तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है।।
।।4.39।। योग्यता के बिना किसी भी लक्ष्य की प्रप्ति नहीं होती। इस श्लोक में वर्णित आवश्यक गुणों को समझने से यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि अनेक वर्षों तक साधना करने पर भी कुछ साधक लक्ष्य तक क्यों नहीं पहुँच पाते हैं। श्रद्धा तत्परता (भक्ति) तथा इंद्रिय संयम ये वे तीन अत्यावश्यक गुण हैं जिनके द्वारा जीवत्व के बन्धनों से मुक्त होकर हम देवत्व को प्राप्त करने की आशा कर सकते हैं। परन्तु इन तीनों शब्दों के अर्थों के विषय में अनेक विपरीत धारणायें फैल गयी हैं।श्रद्धा अनेक पाखण्डी गुरु लोगों की धार्मिक भावनाओं का अनुचित लाभ उठाते हुये श्रद्धा शब्द की आड़ में विपुल धन अर्जित करते हैं। श्रद्धा शब्द का अर्थ अन्धविश्वास करके सामान्य भक्त जनों के बौद्धिक एवं मानसिक विकास की सर्वथा उपेक्षा कर दी जाती है। श्रद्धा का अर्थ यह नहीं है कि दैवी माने जाने वाली किसी घोषणा को बिना सोचे समझे वैसे ही स्वीकार कर लिया जाय।श्री शंकराचार्य के अनुसार श्रद्धा वह है जिसके द्वारा मनुष्य शास्त्र एवं आचार्य द्वारा दिये गये उपदेश से तत्त्व का यथावत् ज्ञान प्राप्त कर सकता है।तत्पर आत्मविकास के किसी भी मार्ग पर अग्रसर साधक के लिये आवश्यक है कि वह उस मार्ग की ओर पूर्ण ध्यान दे तथा मन में ईश्वर का स्मरण रखे। शास्त्रों का केवल बौद्धिक अध्ययन हमें अन्तकरण शुद्धि प्रदान नहीं कर सकता। मन और बुद्धि को संगठित करके उपनिषदों में उपदिष्ट जीवन जीना चाहिये।जितेन्द्रिय आत्मसंयम के बिना श्रद्धा और ज्ञान में दृढ़ता आनी कठिन है। इन्द्रियां ही हमें विषयों की ओर आकर्षित करके खींच ले जाती हैं। एक बार वैषयिक उपभोगों में आसक्त हो जाने पर जीवन के उच्च मूल्यों को बनाये रखना संभव नहीं होता। दिव्य मार्ग पर चलने का अर्थ है विषयोपभोग की नालियों से बाहर निकल जाना। ये दोनों प्रकार के जीवन परस्पर विरोधी हैं। एक की उपस्थिति में दूसरे का अभाव होता है। जहाँ हृदय में शान्ति के प्रकाश का उदय हुआ वहाँ वैषयिक और पाशविक प्रवृत्तियों से उत्पन्न क्षोभ का अन्धकार नष्ट हो जाता है अस्तु साधक के लिये आत्मसंयम का जीवन अनिवार्य हो जाता है।विषय सुख का त्याग कर स्वयं में तथा शास्त्रों में विश्वास रखते हुए दिव्य लक्ष्य को ही प्राप्त करने का प्रयत्न क्यों करना चाहिये साधना की प्रारम्भिक अवस्था में साधक बुद्धि के स्तर पर ही रहता है और बुद्धि का कार्य प्रत्येक वस्तु के कारण की खोज करना है। स्वाभाविक है कि विचारशील पुरुष के मन में प्रश्न उठेगा कि आखिर विषय सुख के त्य़ाग का फल क्या होगा दूसरी पंक्ति में इसका उत्तर दिया गया है।उपनिषदों के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों का यह निश्चयात्मक आश्वासन है कि श्रद्धावान तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष आत्मज्ञान को प्राप्त करता है। यहां भगवान् कहते हैं कि इस ज्ञान का फल है परम शान्ति। पूर्व श्लोक के समान यहां भी इस शान्ति को प्राप्त करने का निश्चित समय नहीं बताया गया क्योंकि वह साधक के प्रयत्न पर निर्भर करता है। परन्तु यह निश्चित है कि ज्ञान को प्राप्त कर शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है।परमशान्ति परम का अर्थ है अनन्त। अत परम शान्ति वह है जो कभी क्षीण नहीं होती। आज के युग में जहां शान्ति के नाम पर युद्ध होते रहते हैं वहां इस श्लोक में निर्दिष्ट शान्ति को भी कोई व्यक्ति शंका की दृष्टि से देखे तो कोई आश्चर्य नहीं। समयसमय पर शान्ति वार्ता करने वाले राजनीतिज्ञों की यह शान्ति नहीं है वरन् मनोविज्ञान की दृष्टि से इसका गंभीर अर्थ है।यह एक सुविदित तथ्य है कि प्रत्येक प्राणी जीवन पर्यन्त प्रति क्षण अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहता है। श्वसन तथा भोजन से लेकर युद्ध और नाश के द्वारा सम्पूर्ण विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने के सुनियोजित प्रयत्नों तक प्रत्येक मनुष्य का ध्येय सुख प्राप्ति ही है। केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु एवं वनस्पति भी इसी के लिये कार्यरत रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सुख प्राप्ति की आन्तरिक प्रेरणा के बिना कोई भी कर्म संभव नहीं हो सकता।इस प्रकार यदि जगत् में सभी प्राणी अधिकसेअधिक सुख पाने तथा उसके रक्षण के लिये प्रयत्नशील रहते हैं तब जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य शाश्वत सुख अनन्त आनन्द ही होना चाहिये ऐसा आनन्द कि जहां सब संघर्ष समाप्त हो जाते हैं सब इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं और मन के सभी विक्षेपों का सदा के लिये अन्त हो जाता है। सुख की कामना के कारण ही मन में विक्षेप उत्पन्न होते हैं तथा मनुष्य शरीर द्वारा बाह्य जगत् में कर्म करता है। पारमार्थिक शाश्वत आनन्द के प्राप्त होने पर मन के विक्षेप तथा शारीरिक शिथिलता दोनों का ही कष्ट समाप्त हो जाता है। इसलिये परम शान्ति का अर्थ है परम आनन्द। यही हमारे जीवन का वास्तविक लक्ष्य है।इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये क्योंकि संशय बड़ा पापिष्ठ है। कैसे सुनो
4.39।। व्याख्या--तत्परः संयतेन्द्रियः--इस श्लोकमें श्रद्धावान् पुरुषको ज्ञान प्राप्त होनेकी बात आयीहै। अपनेमें श्रद्धा कम होनेपर भी मनुष्य भूलसे अपनेको अधिक श्रद्धावाला मान सकता है, इसलिये भगवान्ने श्रद्धाकी पहचानके लिये दो विशेषण दिये हैं 'संयतेन्द्रियः' और तत्परः।जिसकी इन्द्रियाँ पूर्णतया वशमें हैं, वह 'संयतेन्द्रियः' है और जो अपने साधनमें तत्परतापूर्वक लगा हुआ है वह 'तत्परः' है। साधनमें तत्परताकी कसौटी है--इन्द्रियोंका संयत होना। अगर इन्द्रियाँ संयत नहीं हैं और विषय-भोगोंकी तरफ जाती हैं, तो साधन-परायणतामें कमी समझनी चाहिये।
।।4.39 4.40।।श्रद्धावानिति। अज्ञ इति। अत्र च श्रद्धागमः तत्परव्यापारत्वं च झगित्येव आस्तिकत्वात् असंशयत्वे सति उत्पद्यते। तस्मादसंशयवता गुर्वागमादृतेन भाव्यम् संशयस्य सर्वनाशकत्वात् ससंशयो हि न किञ्चिज्जानाति अश्रद्दधानत्त्वात्। तस्मात् निःसंशयेन भाव्यम् इति वाक्यार्थः।
।।4.39।।एवम् उपदेशाद् ज्ञानं लब्ध्वा च उपदिष्टज्ञानवृद्धौ श्रद्धावान् तत्परः तत्र एव नियमितमनाः तदितरविषयात् संयतेन्द्रियः अचिरेण कालेन उक्तलक्षणविपाकदशापन्नं ज्ञानं लभते। तथाविधं ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् अचिरेण अधिगच्छति परं निर्वाणं प्राप्नोति।
।।4.39।।कर्मयोगेन समाधियोगेन च संपन्नस्य ज्ञानोत्पत्तावन्तरङ्गं साधनमुपदिशति येनेति। ज्ञानलाभप्रयोजनमाह ज्ञानमिति। न केवलं श्रद्धालुत्वमेवासहायं ज्ञानलाभे हेतुरपि तु तात्पर्यमपीत्याह श्रद्धालुत्वेऽपीति। मन्दप्रस्थानत्वं तात्पर्यविधुरत्वं नच तस्योपदिष्टमपि ज्ञानमुत्पत्तुमीष्टे तेन तात्पर्यमपि तत्र कारणं भवतीत्याह अत आहेति। अभियुक्तो निष्ठावान् उपासनादावित्यादिशब्देन श्रवणादि गृह्यते। नच श्रद्धा तात्पर्यं चेत्युभयमेव ज्ञानकारणं किंतु संयतेन्द्रियत्वमपि तदभावे श्रद्धादेरकिंचित्करत्वादित्याशयेनाह श्रद्धावानिति। उक्तसाधनानां ज्ञानेन सहैकान्तिकत्वमाह य एवंभूत इति।तद्विद्धि प्रणिपातेन इत्यादौ प्रागेव प्रणिपातादेर्ज्ञानहेतोरुक्तत्वात्किमितीदानीं हेत्वन्तरमुच्यते तत्राह प्रणिपातादिस्त्विति। तद्धि बहिरङ्गमिदं पुनरन्तरङ्गं नच तत्र ज्ञाने प्रतिनियमो मनस्यन्यथा कृत्वा बहिरन्यथाप्रदर्शनात्मनो मायावित्वस्य संभवाद्विप्रलम्भकत्वादेरपि संभावनोपनीतत्वादित्यर्थः। मायावित्वादेः श्रद्धावत्त्वतात्पर्यादावपि संभवादनैकान्तिकत्वमविशिष्टमित्याशङ्क्याह नत्विति। नहि मायया विप्रलम्भेन वा श्रद्धातात्पर्यसंयमाभियोगतोऽनुष्ठातुमर्हन्तीत्यर्थः। उत्तरार्धं प्रश्नपूर्वकमवतार्य व्याकरोति किंपुनरित्यादिना। सम्यग्ज्ञानादभ्यासादिसाधनानपेक्षान्मोक्षो भवतीत्यत्र प्रमाणमाह सम्यग्दर्शनादिति। शास्त्रशब्देनतमेव विदित्वाज्ञानादेव तु कैवल्यम् इत्यादि विवक्षितम् न्यायस्तु ज्ञानादज्ञानविवृत्ते रज्ज्वादौप्रसिद्धत्वादात्मज्ञानादपि निरपेक्षादज्ञानतत्कार्यप्रक्षयलक्षणो मोक्षः स्यादित्येवंलक्षणः।
।।4.39।।तादृशज्ञानदाने गुरूणां परीक्ष्ये शिष्ये श्रद्धैवेति तामभिमुखीकरोति श्रद्धावानिति। शान्तिं चित्तोपशमम्।
।।4.39।।येनैकान्तेन ज्ञानप्राप्तिर्भवति स उपायः पूर्वोक्तप्रणिपाताद्यपेक्षयाप्यासन्नतर उच्यते। गुरुवेदान्तवाक्येष्विदमित्थमेवेति प्रमारूपास्तिक्यबुद्धिः श्रद्धा तद्वान्पुरुषो लभते ज्ञानम्। एतादृशोऽपि कश्चिदलसः स्यात्तत्राह तत्परः गुरूपासनादौ ज्ञानोपायेऽत्यन्ताभियुक्तः। श्रद्धावांस्तत्परोऽपि कश्चिदजितेन्द्रियः स्यादत आह संयतानि विषयेभ्यो निवर्तितानीन्द्रियाणि येन स संयतेन्द्रियः। य एवं विशेषणत्रययुक्तः सोऽवश्यं ज्ञानं लभते। प्रणिपातादिस्तु बाह्यो मायावित्वादिसंभवादनैकान्तिकोऽपि। श्रद्धावत्त्वादिस्त्वैकान्तिक उपाय इत्यर्थः। ईदृशेनोपायेन ज्ञानं लब्ध्वा परां चरमां शान्तिमविद्यातत्कार्यनिवृत्तिरूपां मुक्तिमचिरेण तदव्यवधानेनैवाधिगच्छति लभते। यथाहि दीपः स्वोत्पत्तिमात्रेणैवान्धकारनिवृत्तिं करोति नतु कंचित्सहकारिणमपेक्षते तथा ज्ञानमपि स्वोत्पत्तिमात्रेणैवाज्ञाननिवृत्तिं करोति नतु किंचित्प्रसंख्यानादिकमपेक्षत इति भावः।
।।4.39।।किंच श्रद्धावानिति। श्रद्धावान् गुरूपदिष्टेऽर्थे आस्तिक्यबुद्धिमान्। तत्परस्तदेकनिष्ठः। संयतेन्द्रियश्च तज्ज्ञानं लभते नान्यः। अतः श्रद्धादिसंपत्त्या ज्ञानलाभात्प्राक्कर्मयोग एव शुद्ध्यर्थमनुष्ठेयः। ज्ञानलाभानन्तरं तु न तस्य किंचित्कृत्यमस्तीत्याह। ज्ञानं लब्ध्वा त्वचिरेण परां शान्तिं मोक्षं प्राप्नोति।
।।4.39।।पूर्वश्लोकार्धयोरनन्तरश्लोकार्धे व्युत्क्रमेण विवरणरूपे इत्यभिप्रायेणाह तदेव स्पष्टमाहेति। श्रद्धावत्त्वादिकं स्वयं ज्ञानलाभे हेतुःअज्ञश्चाश्रद्दधानश्च 4।40 इति वक्ष्यमाणत्वादत्रापि ज्ञः श्रद्धावांश्चेति विवक्षितमिति ज्ञापनार्थं तत्र दशाभेदव्यञ्जनार्थं श्रद्धोत्पत्तिसिद्ध्यर्थं चोक्तम् उपदेशाज्ज्ञानं लब्ध्वेति। श्रद्धावान् त्वरमाणःअश्रद्दधानः इत्यत्रअत्वरमाणः इति हि व्याख्यास्यति। तदेव परमुपादेयतयाऽभिसन्ध्यास्पदं यस्य स तत्परः। तदाह तत्रैव नियतमना इति।अचिरेण इत्येतदुत्तरवाक्यस्थमपिकालेन इत्येतत्सूचितविलम्बशङ्कापरिहारार्थमपेक्षितत्वात् पूर्वार्धेऽप्यन्वेतव्यमित्यभिप्रायेणअचिरेण कालेनोक्तलक्षणेत्याद्युक्तम्। भक्तियोगव्यवहितः प्रारब्धकर्मावसानभावी च मोक्षः कथमचिरेणेत्युच्येतेति भावः। पूर्वंकालेन इतिपदं द्वित्रदिनादिव्यवच्छेदार्थम्।अचिरेण इति तु ज्ञानयोगदेहान्तरादिविलम्बनिषेधार्थमित्यविरोधः। शान्तिशब्दोऽत्रोपायस्य निश्शेषनिष्पन्नत्वान्न तदङ्गभूतशमविषय इति व्यञ्जनाय परंनिर्वाणमाप्नोतीत्युक्तम्।स शान्तिमाप्नोति न कामकामी 70स शान्तिमधिगच्छति 71ब्रह्म निर्वाणमृच्छति 72 इति द्वितीयाध्यायान्तिमश्लोकत्रयेऽपि फलदशाविषये शान्तिनिर्वाणशब्दौ समानविषयौ। तत्र मध्यमश्लोकस्थंशान्तिमधिगच्छति इत्येतदत्रापि प्रत्यभिज्ञातम्। तत्पूर्वोत्तरश्लोकस्मारणायात्रआप्नोतिपदं निर्वाणपदं चोक्तम्।
।।4.39।।तत्कालज्ञानं सूक्ष्मत्वान्न भवतीति निरन्तरं तत्परः सन् जितेन्द्रियस्तिष्ठेत् तेन तत्प्राप्तिः स्यादित्याह श्रद्धावानिति। श्रद्धावान् श्रद्धायुक्तः पूर्वोक्तप्रकारकगुरुसेवादौ तत्परस्तन्निष्ठः गुरुनिष्ठो ज्ञाननिष्ठो वा संयतेन्द्रियः वशीकृतेन्द्रियः निवृत्तविषयो यः स ज्ञानं लभते प्राप्नोति। ततो ज्ञानं लब्ध्वा अचिरेण शीघ्रमेव परांशान्तिं मद्भक्तिं अधिगच्छति प्राप्नोति।
।।4.39।।श्रद्धावान् ज्ञानं लभते। श्रद्धावानपि मन्दप्रयत्नो माभूदत आह तत्पर इति। तत्परोऽप्यजितेन्द्रियो माभूदत आह संयतेन्द्रिय इति। परां शान्तिं विदेहकैवल्यम्। अचिरेण प्रारब्धकर्मसमाप्तौ सत्याम्।
।।4.39।।योगेन योग्यतामापन्नस्य येनैकान्तेन तत्त्वज्ञानं भवति तमुपायमाह श्रद्धावानिति। गुरुवेदान्तवाक्येष्विदमित्थमित्यास्तिक्यं श्रद्धा तद्वान्। तत्रापि तत्परः गुरुपासनादावभियुक्तः। तत्रापि संयतानि विषयेभ्यो निवर्तितानि इन्द्रियाणि येन सः। एवं विशेषणत्रयविशिष्टश्चेदवश्यं ज्ञानं लभते। प्रणिपातादेर्माययापि संभवेन नैकान्तिकत्वमेतेषां न तथात्वमत एकान्तिकं ज्ञानं लब्धवा किं स्यादत आह। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिं मोक्षाभिधामचिरेण जन्मान्तरं लोकान्तरगमनं च विनैवाधिगच्छति प्राप्नोति।
4.39 श्रद्धावान् the man of faith? लभते obtains? ज्ञानम् knowledge? तत्परः devoted? संयतेन्द्रियः who has subdued the senses? ज्ञानम् knowledge? लब्ध्वा having obtained? पराम् supreme? शान्तिम् to peace? अचिरेण at once? अधिगच्छति attains.Commentary He who is full of faith? who constantly serves his Guru and hears his teachings? who has subdued the senses surely gets the knowledge and ickly attains the supreme peace or salvation (Moksha). All the above three alifications are indispensable for an aspirant if he wants to attain to the supreme peace of the Eternal ickly. One alifiaction alone will not suffice. (Cf.X.10?11)
4.39 The man who is full of faith, who is devoted to it, and who has subdued the senses obtains (this) knowledge; and having obtained the knowledge he attains at once to the supreme peace.
4.39 He who is full of faith attains wisdom, and he too who can control his senses, having attained that wisdom, he shall ere long attain Supreme Peace.
4.39 The man who has faith, is diligent and has control over the organs, attains Knowledge. Achieving Knowledge, one soon attains supreme Peace.
4.39 Sraddhavan, the man who has faith; labhate, attains; jnanam, Knowledge. Even when one has faith, he may be indolent. Therefore the Lord says, tatparah, who is diligent, steadfast in the service of the teacher, etc., which are the means of attaining Knowledge. Even when one has faith and is diligent, one may not have control over the organs. Hence the Lord says, samyata-indriyah, who has control over the organs-he whose organs (indriyani) have been withdrawn (samyata) from objects. He who is such, who is full of faith, diligent, and has control over the organs, does surely attain Knowledge. However, prostrations etc., which are external, are not invariably fruitful, for there is scope for dissimulation faith etc. But this is not so in the case of one possessing faith etc. Hence they are the unfailing means of acquiring Knowledge. What, again, will result from gaining Knowledge? This is being answered: Labdhva, achieving; jnanam, Knowledge; adhigacchati, one attains; acirena, soon indeed; param, supreme; santim, Peace, supreme detachment called Liberation. That Liberation soon follows from full Knowledge is a fact well ascertained from all the scriptures and reasoning. One should not entertain any doubt in this matter. For doubt is the most vicious thing. Why? The answer is being stated:
4.39. He, who has faith, gains knowledge, if he is solely intending upon it and has his sense-organs well-controlled; having gained the knowledge, he attains, before long, the Peace Supreme.
4.39 See Comment under 4.40
4.39 After attaining knowledge through instruction in the manner described, he must have firm faith in it and the possibility of its development into ripe knowledge. He must be intent on it, i.e., his mind must be focussed thereupon. He must control his senses and keep them away from all their objects. Soon will he then reach the aforesaid state of maturity and obtain knowledge. Soon after attaining such kind of knowledge, he will reach supreme peace, i.e., he attains the supreme Nirvana (realisation of the self).
4.39 He who has faith, who is intent on it, and who has mastered his senses, attains knowledge. Having attained knowledge, he goes soon to supreme peace.
।।4.39।।जिसके द्वारा निश्चय ही ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है वह उपाय बतलाया जाता है श्रद्धावान् श्रद्धालु मनुष्य ज्ञान प्राप्त किया करता है। श्रद्धालु होकर भी तो कोई मन्द प्रयत्नवाला हो सकता है इसलिये कहते हैं कि तत्पर अर्थात् ज्ञानप्राप्तिके गुरुशुश्रूषादि उपायोंमें जो अच्छी प्रकार लगा हुआ हो। श्रद्धावान् और तत्पर होकर भी कोई अजितेन्द्रिय हो सकता है इसलिये कहते हैं कि संयतेन्द्रिय भी होनाचाहिये। जिसकी इन्द्रियाँ वशमें की हुई हों यानी विषयोंसे निवृत्त कर ली गयी हों वह संयतेन्द्रिय कहलाता है। जो इस प्रकार श्रद्धावान् तत्पर और संयतेन्द्रिय भी होता है वह अवश्य ही ज्ञानको प्राप्त कर लेता है। जो दण्डवत्प्रणामादि उपाय हैं वे तो बाह्य हैं और कपटी मनुष्यद्वारा भी किये जा सकते हैं इसलिये वे ( ज्ञानरूप फल उत्पन्न करनेमें ) अनिश्चित भी हो सकते हैं। परंतु श्रद्धालुता आदि उपायोंमें कपट नहीं चल सकता इसलिये ये निश्चयरूपसे ज्ञानप्राप्तिके उपाय हैं। ज्ञानप्राप्तिसे क्या होगा सो ( उत्तरार्धमें ) कहते हैं ज्ञानको प्राप्त होकर मनुष्य मोक्षरूप परम शान्तिको यानी उपरामताको बहुत शीघ्रतत्काल ही प्राप्त हो जाता है। यथार्थ ज्ञानसे तुरंत ही मोक्ष हो जाता है यह सब शास्त्रों और युक्तियोंसे सिद्ध सुनिश्चित बात है।
।।4.39।। श्रद्धावान् श्रद्धालुः लभते ज्ञानम्। श्रद्धालुत्वेऽपि भवति कश्चित् मन्दप्रस्थानः अत आह तत्परः गुरूपासदनादौ अभियुक्तः ज्ञानलब्ध्युपाये श्रद्धावान्। तत्परः अपि अजितेन्द्रियः स्यात् इत्यतः आह संयतेन्द्रियः संयतानि विषयेभ्यो निवर्तितानि यस्य इन्द्रियाणि स संयतेन्द्रियः। य एवंभूतः श्रद्धावान् तत्परः संयतेन्द्रियश्च सः अवश्यं ज्ञानं लभते। प्रणिपातादिस्तु बाह्योऽनैकान्तिकोऽपि भवति मायावित्वादिसंभवात् न तु तत् श्रद्धावत्त्वादौ इत्येकान्ततः ज्ञानलब्ध्युपायः। किं पुनः ज्ञानलाभात् स्यात् इत्युच्यते ज्ञानं लब्ध्वा परं मोक्षाख्यां शान्तिम् उपरतिम् अचिरेण क्षिप्रमेव अधिगच्छति। सम्यग्दर्शनात् क्षिप्रमेव मोक्षो भवतीति सर्वशास्त्रन्यायप्रसिद्धः सुनिश्चितः अर्थः।।अत्र संशयः न कर्तव्यः पापिष्ठो हि संशयः कथम् इति उच्यते
।।4.38 4.39।।उत्तरस्य श्लोकत्रयस्य सङ्कीर्णार्थत्वादेकोक्त्यैव तात्पर्यमुक्त्वा तस्मादिति चतुर्थस्य प्रतिपाद्यमाह तदिति। तस्य ज्ञानस्य साधनमन्तरङ्गं श्रद्धादिकम्। विरोध्यज्ञानादिकं ज्ञानस्य फलं परमशान्त्यादिकम्। विरोधिनः फलं विनाशादिकमिति।
।।4.38 4.39।।तत्साधनं विरोधिफलं च तदुत्तरैरुक्त्वोपसंहरति।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।4.39।।
শ্রদ্ধাবাঁল্লভতে জ্ঞানং তত্পরঃ সংযতেন্দ্রিযঃ৷ জ্ঞানং লব্ধ্বা পরাং শান্তিমচিরেণাধিগচ্ছতি৷৷4.39৷৷
শ্রদ্ধাবাঁল্লভতে জ্ঞানং তত্পরঃ সংযতেন্দ্রিযঃ৷ জ্ঞানং লব্ধ্বা পরাং শান্তিমচিরেণাধিগচ্ছতি৷৷4.39৷৷
શ્રદ્ધાવાઁલ્લભતે જ્ઞાનં તત્પરઃ સંયતેન્દ્રિયઃ। જ્ઞાનં લબ્ધ્વા પરાં શાન્તિમચિરેણાધિગચ્છતિ।।4.39।।
ਸ਼੍ਰਦ੍ਧਾਵਾਲ੍ਲਭਤੇ ਜ੍ਞਾਨਂ ਤਤ੍ਪਰ ਸਂਯਤੇਨ੍ਦ੍ਰਿਯ। ਜ੍ਞਾਨਂ ਲਬ੍ਧ੍ਵਾ ਪਰਾਂ ਸ਼ਾਨ੍ਤਿਮਚਿਰੇਣਾਧਿਗਚ੍ਛਤਿ।।4.39।।
ಶ್ರದ್ಧಾವಾಲ್ಲಭತೇ ಜ್ಞಾನಂ ತತ್ಪರಃ ಸಂಯತೇನ್ದ್ರಿಯಃ. ಜ್ಞಾನಂ ಲಬ್ಧ್ವಾ ಪರಾಂ ಶಾನ್ತಿಮಚಿರೇಣಾಧಿಗಚ್ಛತಿ৷৷4.39৷৷
ശ്രദ്ധാവാല്ലഭതേ ജ്ഞാനം തത്പരഃ സംയതേന്ദ്രിയഃ. ജ്ഞാനം ലബ്ധ്വാ പരാം ശാന്തിമചിരേണാധിഗച്ഛതി৷৷4.39৷৷
ଶ୍ରଦ୍ଧାବାଁଲ୍ଲଭତେ ଜ୍ଞାନଂ ତତ୍ପରଃ ସଂଯତେନ୍ଦ୍ରିଯଃ| ଜ୍ଞାନଂ ଲବ୍ଧ୍ବା ପରାଂ ଶାନ୍ତିମଚିରେଣାଧିଗଚ୍ଛତି||4.39||
śraddhāvāōllabhatē jñānaṅ tatparaḥ saṅyatēndriyaḥ. jñānaṅ labdhvā parāṅ śāntimacirēṇādhigacchati৷৷4.39৷৷
ஷ்ரத்தாவா ఁல்லபதே ஜ்ஞாநஂ தத்பரஃ ஸஂயதேந்த்ரியஃ. ஜ்ஞாநஂ லப்த்வா பராஂ ஷாந்திமசிரேணாதிகச்சதி৷৷4.39৷৷
శ్రద్ధావా।।ల్లభతే జ్ఞానం తత్పరః సంయతేన్ద్రియః. జ్ఞానం లబ్ధ్వా పరాం శాన్తిమచిరేణాధిగచ్ఛతి৷৷4.39৷৷
4.40
4
40
।।4.40।। विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है। ऐसे संशयात्मा मनुष्यके लिये न यह लोक  है न परलोक है और न सुख ही है।
।।4.40।। अज्ञानी तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष नष्ट हो जाता है,  (उनमें भी) संशयी पुरुष के लिये न यह लोक है,  न परलोक और न सुख।।
।।4.40।। इसके पूर्व के श्लोक में कहा गया है कि श्रद्धा तथा ज्ञान से युक्त पुरुष परम शान्ति प्राप्त करता है। इसी तथ्य पर बल देने के लिये निषेधात्मक भाषा में कहते हैं कि उपर्युक्त गुणों से रहित पुरुष अपनी ही हानि करता हुआ अन्त में नष्ट हो जाता है।जो अज्ञानी है अर्थात् वह पुरुष जिसे बौद्धिक स्तर पर भी आत्मा का ज्ञान नहीं है। इस प्रकार के श्रद्धारहित और संशयी स्वभाव के पुरुष का नाश अवश्यंभावी है।दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण संशयात्मा पुरुष की निन्दा करते हुये उसके जीवन की त्रासदी बताते हैं। ऐसे पुरुष को न इस लोक में सुख मिलता है और न अन्यत्र। इसका अभिप्राय यह हुआ कि अज्ञानी तथा अश्रद्धालु पुरुष कुछ मात्रा में तो इस लोक का सुख प्राप्त कर सकते हैं परन्तु संशयी स्वभाव के व्य़क्ति के भाग्य में वह भी नहीं लिखा होता ऐसे पुरुष मानसिक रूप से किसी भी परिस्थिति का आनन्द लेने में सर्वथा असमर्थ हो जाते हैं क्योंकि संशय की प्रवृत्ति प्रत्येक अनुभव में विष घोल देती है। तथाकथित बुद्धिमान अश्रद्धालु और संशयी स्वभाव के पुरुषों पर इस पंक्ति मे तीक्ष्ण व्यंग्य प्रहार किया गया है।अत इस विषय में संशय नहीं करना चाहिये। भगवान् आगे कहते हैं
4.40।। व्याख्या--'अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति'--जिस पुरुषका विवेक अभी जाग्रत् नहीं हुआ है तथा जितना विवेक जाग्रत् हुआ है, उसको महत्त्व नहीं देता और साथ ही जो अश्रद्धालु है, ऐसे संशययुक्त पुरुषका पारमार्थिक मार्गसे पतन हो जाता है। कारण कि संशययुक्त पुरुषकी अपनी बुद्धि तो प्राकृत--शिक्षारहित है और दूसरेकी बातका आदर नहीं करता, फिर ऐसे पुरुषके संशय कैसे नष्ट हो सकते हैं? और संशय नष्ट हुए बिना उसकी उन्नति भी कैसे हो सकती है? अलग-अलग बातोंको सुननेसे 'यह ठीक है अथवा वह ठीक है?' ---इस प्रकार सन्देहयुक्त पुरुषका नाम संशयात्मा है। पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले साधकमें संशय पैदा होना स्वाभाविक है; क्योंकि वह किसी भी विषयको पढ़ेगा तो कुछ समझेगा और कुछ नहीं समझेगा। जिस विषयको कुछ नहीं समझते उस विषयमें संशय पैदा नहीं होता और जिस विषयको पूरा समझते हैं, उस विषयमें संशय नहीं रहता। अतः संशय सदा अधूरे ज्ञानमें ही पैदा होता है, इसीको अज्ञान कहते हैं (टिप्पणी प0 272.1)। इसलिये संशयका उत्पन्न होना हानिकारक नहीं है, प्रत्युत संशयको बनाये रखना और उसे दूर करनेकी चेष्टा न करना ही हानिकारक है। संशयको दूर करनेकी चेष्टा न करनेपर वह संशय ही 'सिद्धान्त' बन जाता है। कारण कि संशय दूर न होनेपर मनुष्य सोचता है कि पारमार्थिक मार्गमें सब कुछ ढकोसला है और ऐसा सोचकर उसे छोड़ देता है तथा नास्तिक बन जाता है। परिणामस्वरूप उसका पतन हो जाता है। इसलिये अपने भीतर संशयका रहना साधकको बुरा लगना चाहिये। संशय बुरा लगनेपर जिज्ञासा जाग्रत् होती है, जिसकी पूर्ति होनेपर संशय-विनाशक ज्ञानकी प्राप्ति होती है।साधकका लक्षण है--खोज करना। यदि वह मन और इन्द्रियोंसे देखी बातको ही सत्य मान लेता है, तो वहीं रुक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता। साधकको निरन्तर आगे ही बढ़ते रहना चाहिये। जैसे रास्तेपर चलते समय मनुष्य यह न देखे कि कितने मील आगे आ गये, प्रत्युत यह देखे कि कितने मील अभी बाकी पड़े हैं, तब वह ठीक अपने लक्ष्यतक पहुँच जायगा। ऐसे ही साधक यह न देखे कि कितना जान लिया अर्थात् अपने जाने हुएपर सन्तोष न करे, प्रत्युत जिस विषयको अच्छी तरह नहीं जानता, उसे जाननेकी चेष्टा करता रहे। इसलिये संशयके रहते हुए कभी सन्तोष नहीं होना चाहिये, प्रत्युत जिज्ञासा अग्निकी तरह दहकती रहनी चाहिये। ऐसा होनेपर साधकका संशय सन्त-महात्माओंसे अथवा ग्रन्थोंसे किसी-न-किसी प्रकारसे दूर हो ही जाता है। संशय दूर करनेवाला कोई न मिले तो भगवत्कृपासे उसका संशय दूर हो जाता है।
।।4.39 4.40।।श्रद्धावानिति। अज्ञ इति। अत्र च श्रद्धागमः तत्परव्यापारत्वं च झगित्येव आस्तिकत्वात् असंशयत्वे सति उत्पद्यते। तस्मादसंशयवता गुर्वागमादृतेन भाव्यम् संशयस्य सर्वनाशकत्वात् ससंशयो हि न किञ्चिज्जानाति अश्रद्दधानत्त्वात्। तस्मात् निःसंशयेन भाव्यम् इति वाक्यार्थः।
।।4.40।।अज्ञः एवम् उपदेशलब्धज्ञानरहितः उपदिष्टज्ञानवृद्ध्युपाये च अश्रद्दधानः अत्वरमाणः उपदिष्टे च ज्ञाने संशयात्मा संशयितमना विनश्यति नष्टो भवति। अस्मिन् उपदिष्टे आत्मयाथात्म्यविषये ज्ञाने संशयात्मनः अयम् अपि प्राकृतलोको न अस्ति न च परः धर्मार्थकामादिपुरुषार्थाः च न सिद्ध्यन्ति कुतो मोक्ष इत्यर्थः।शास्त्रीयकर्मसिद्धिरूपत्वात् सर्वेषां पुरुषार्थानां शास्त्रीयकर्मजन्यसिद्धेः च देहातिरिक्तात्मनिश्चयपूर्वकत्वात् अतः सुखलवभागित्वम् आत्मनि संशयात्मनो न संभवति।
।।4.40।।उत्तरश्लोकस्य पातनिकां करोति अत्रेति। यथोक्तसाधनवानुपदेशमपेक्ष्याचिरेण ब्रह्म साक्षात्करोति साक्षात्कृतब्रह्मत्वेऽचिरेणैव मोक्षं प्राप्नोतीत्येषोऽर्थः सप्तम्या परामृश्यते। संशयस्याकर्तव्यत्वे हेतुमाह पापिष्ठो हीति। उक्तं हेतुं प्रश्नपूर्वकमुत्तरश्लोकेन साधयति कथमिति। अज्ञादश्रद्दधानाच्च संशयचित्तस्य विशेषमादर्शयति नायमिति। द्वितीयविभागविभजनार्थं भूमिकां करोति अज्ञेति। अज्ञादीनां मध्ये संशयात्मनो यत्पापिष्ठत्वं तत्प्रश्नद्वारा प्रकटयति कथमिति। लोकद्वयस्य तत्प्रयुक्तसुखस्य चाभावे हेतुमाह तत्रापीति। संशयचित्तस्य सर्वत्र संशयप्रवृत्तेर्दुर्निवारत्वादित्यर्थः। संशयस्यानर्थमूलत्वे स्थिते फलितमाह तस्मादिति।
।।4.40।।अश्रद्दधानस्तु नाधिकारी इत्येतावति वक्तव्ये अन्यमप्यनधिकारिणमाह। अज्ञ उपदिष्टार्थानभिज्ञः अनधिकारी तत्र च सत्यपि ज्ञानेऽश्रद्धावान् तथा संशयानश्च विनश्यत्येवेत्यन्ते महाननधिकारी निर्दिष्टः अनिश्चयात्तस्य महत्त्वमनधिकारे। तथा हि नायं लोकोऽस्तीति न च सुखं परलोकश्च। अतो निश्चयात्मिकैव बुद्धिरुचितेति भावः।
।।4.40।।अत्र च संशयो न कर्तव्यः कस्मात् अज्ञोऽनधीतशास्त्रत्वेनात्मज्ञानशून्यः। गुरुवेदान्तवाक्यार्थे इदमेवं न भवत्येवेति विपर्ययरूपा नास्तिक्यबुद्धिरश्रद्धा तद्वानश्रद्धधानः। इदमेवं भवति नवेति सर्वत्र संशयाक्रान्तचित्तः संशयात्मा विनश्यति स्वार्थाद्भ्रष्टो भवति। अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च विनश्यतीति संशयात्मापेक्षया न्यूनत्वकथनार्थं चकाराभ्यां तयोः प्रयोगः। कुतः संशयात्मा हि सर्वतः पापीयान्। यतो नायं मनुष्यलोकोऽस्ति वित्तार्जनाद्यभावात् न परलोकः स्वर्गमोक्षादिः धर्मज्ञानाद्यभावात् न सुखं भोजनादिकृतं संशयात्मनः सर्वत्र संदेहाक्रान्तचित्तस्य। अज्ञस्याश्रद्दधानस्य च परो लोको नास्ति मनुष्यलोके भोजनादिसुखं च वर्तते। संशयात्मा तु त्रितयहीनत्वेन सर्वतः पापीयानित्यर्थः।
।।4.40।।ज्ञानाधिकारिणमुक्त्वा तद्विपरीतमनधिकारिणमाह अज्ञश्चेति। अज्ञो गुरूपदिष्टार्थानभिज्ञः कथंचिज्ज्ञाने जातेऽप्यश्रद्दधानश्च जातायामपि श्रद्धायां ममेदं सिध्येद्वा न वेति संशयाक्रान्तचित्तश्च नश्यति स्वार्थाद्भ्रश्यति। एतेषु त्रिष्वपि संशयात्मा सर्वथा नश्यति यतस्तस्यायं लोको नास्ति धनार्जनविवाहाद्यसिद्धेः। नच परलोकः धर्मस्यानिष्पत्तेः। नच सुखं संशयेनैव भोगस्याप्यसंभवात्।
।।4.40।।उक्त एवार्थो व्यतिरेकेण स्थाप्यतेअज्ञश्च इति श्लोकेन।उपदेशलब्धज्ञानरहित इति पूर्वकमनिर्देशौचित्यादश्रद्धाहेत्वाकाङ्क्षणात् संशयदशासमभिव्याहाराच्च अज्ञशब्दोऽत्र शास्त्रजन्यज्ञाननिवृत्तिपर इति भावः। संशयस्य पृथगभिहितत्वात्अश्रद्दधानः इत्येतन्न विश्वासनिषेधपरम् किन्त्वाकाङ्क्षानिषेधपरम्। प्रकृष्टाकाङ्क्षैव हि त्वरेत्यभिप्रायेणअत्वरमाण इत्युक्तम्।संशयमना इति। संशय्यतेऽनेनेति संशयः संशयकारणं संशयहेतुभूतमना इत्यर्थः यद्वा संशये मनो यस्येति विग्रहः। नित्यस्यात्मनः पुरुषार्थशून्यत्वलक्षणस्य विनाशस्य पूर्वापरभावेन सन्तन्यमानस्य प्राचीनस्यैवानुवृत्तिप्रदर्शनाय प्रकृतिप्रत्ययार्थभेदविवक्षयानष्टो भवतीत्युक्तम्।विनष्टा वा प्रणष्टा वा वा.रा.5।13।15 इत्यादिषु प्रध्वंसव्यतिरिक्तविषये प्रयोगोऽप्यनेन सूचितः।विनश्यति इत्यस्य विवरणमुत्तरार्धम्।अयमपि इत्यनेनायंशब्देन निर्दिष्टक्षुद्रतासूचनम्।नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम 4।31 इतिवदत्रापि लोकशब्दः पुरुषार्थविषयः। कैमुतिकन्यायप्रदर्शनार्थं चअयं लोकः इत्युक्तम्। मोक्षप्रकरणत्वाच्चात्रायंशब्दपरशब्दयोर्न भौमदिव्यविषयत्वमुचितमित्यभिप्रायेणाह धर्मार्थेति। मोक्षोपायभूतार्थे संशयात्मनः कथं पुरुषार्थान्तरासिद्धिः इत्यत्राह शास्त्रीयेति। अस्तु तत्तच्छास्त्रैरेव तत्तत्सिद्धिः किमनेन मोक्षोपयुक्तेन इत्यत्राहशास्त्रीयकर्मजन्यसिद्धेश्चेति। अयमभिप्रायः नह्यायुर्वेदादिवत् केवलमेतद्देहान्तर्भाविफलसाधनं कर्म तत्तच्छास्त्रैः प्रतिपाद्यते येन देहातिरिक्तात्मज्ञाननिरपेक्षता स्यात् देहान्तरभाव्येव हि यज्ञादिसाध्यं स्वर्गादिकं फलं प्राचुर्येण प्रतिपाद्यते अतो देहातिरिक्तात्मनिश्चयोऽत्यन्तापेक्षितः इति। उभयविधपुरुषार्थराहित्योपसंहारपरंन सुखम् इत्येतदिति व्यञ्जनायाह अत इति। यद्वाऽनन्तसुखदुःखभोगरूपनिश्श्रेयसनिरयपर्यन्तसंशयस्य मनस्तापहेतुत्वात्तदानीन्तनदुःखाभिप्रायेणन सुखम् इत्युक्तम्। अथवा पुरुषार्थयोग्यताभिमानमूलसुखाभावोऽभिप्रेतः।
।।4.40।।अत्र मदुक्तौ संशयो न कर्तव्य इत्याह संशयात्माभविष्यति न वा इति सन्देहवान् अज्ञः मूर्खः अनात्मज्ञः अश्रद्दधानः गुरौ ज्ञानसाधनेषु च श्रद्धारहितो भूत्वा विनश्यति नष्टो भवति। चकारद्वयेन धर्मरहितः सन्तोषरहितश्च भवेदिति ज्ञाप्यते। किञ्च संशयात्मनः साधारणरीत्यापीह लोके परलोके च सुखं न स्यादित्याह नायमिति। संशयात्मनः सन्देहवतः अयं लोकः पशुपुत्रादिरूपो न सिद्धो भवति न परः स्वर्गादिरूपसुखं ऐश्वर्यारोग्यादिरूपं न भवतीत्यर्थः।
।।4.40।।अज्ञ इति। अज्ञः सुखेन चिकित्सितुं शक्यः। अश्रद्दधानो यत्नेन। संशयात्मा त्वसाध्य एव। यतो मित्रादिष्वपि संशयं कुर्वतोऽस्यायं लोकोऽपि नास्ति नापि परः। वेदवाक्येऽपि संशयात्। अतएव सर्वदा संशयाकुलत्वात्सुखमपि तस्य नास्ति। तस्मात्संशयो न कर्तव्यः।
।।4.40।।अस्मिन्सर्वशास्त्रन्यायसिद्धे सुनिश्चितेऽर्थे संशयो न कर्तव्यः। तस्य पापिष्ठत्वादित्याशयेनाह यज्ञ इति। अज्ञो गुरुमुखादनधीतशास्त्रत्वेनात्मज्ञानशून्यश्च पूर्वोक्तश्रद्धारहितश्च इदमेवं भवति न वेति सर्वत्र संशयाकान्तचेता निनश्यति स्वार्थलाभाद्भश्यति। अज्ञाश्रद्दधानसंशयात्मापेक्षया चकारद्वयसूचितममुख्यत्वं स्फुटयति। संशयात्मा तु सर्वतः पापिष्ठः। यतस्तस्यायं मनुष्यलोको वित्तार्जनविवाहादिसाध्यो न। नच पर उपासनादिसाध्यो देवलोकः। नच तत्त्वज्ञानसाध्यजीवन्मुक्तिसुखं सर्वत्रापि संशयस्य सत्त्वात्। अज्ञानश्रद्दधानयोः परलोकस्य जीवन्मुक्तिसुखस्य चाभावेऽपि मनुष्यलोकोऽस्त्येव। यद्वा यज्ञः कदाचिदभ्यासवशात्परलोकादिसाधनं देहात्मविवेकादिज्ञानं लभते। अश्रद्दधानोऽपि युक्तियुक्तं श्रुत्वा श्रद्धां लभते। ततश्च परलोकादिभाजौ भवतः। सदा सर्वत्र संशयग्रस्तस्तु न तथा किंत्वतिपापिष्ठ इत्यर्थः। तस्मात्संशयो न कर्तव्य इत्याशयः।
4.40 अज्ञः the ignorant? च and? अश्रद्दधानः the faithless? च and? संशयात्मा the doubting self? विनश्यति goes to destruction? न not? अयम् this? लोकः world? अस्ति is? न not? परः the next? न not? सुखम् happiness? संशयात्मनः for the doubting self.Commentary The ignorant one who has no knowledge of the Self. The man without faith one who has no faith in his own self? in the scriptures and the teachings of his Guru.A man of doubting mind is the most sinful of all. His condition is very deplorable. He is full of doubts as regards the next world. He does not rejoice in this world also? as he is very suspicious. He has no happiness.
4.40 The ignorant the faithless, the doubting self goes to destruction; there is neither this world nor the other, nor happiness for the doubting.
4.40 But the ignorant man, and he who has no faith, and the sceptic are lost. Neither in this world nor elsewhere is there any happiness in store for him who always doubts.
4.40 One who is ignorant and faithless, and has a doubting mind perishes. Neither this world nor the next nor happiness exists for one who has a doubting mind.
4.40 Ajnah, one who is ignorant, who has not known the Self; and asradda-dhanah, who is faithless; [Ast. adds here: guruvakya-sastresu avisvasavan, who has no faith in the instructions of the teacher and the scriptures.-Tr.] and samsaya-atma, who has a doubting mind; vinasyati, perishes. Although the ignorant and the faithless get ruined, yet it is not to the extent that a man with a doubting mind does. As for one with a doubting mind, he is the most vicious of them all. How? Na ayam lokah, neither this world which is familiar; na, nor also; parah, the next world; na sukham, nor happiness; asti, exist; samsaya-atmanah, for one who has a doubting mind. For doubt is possible even with regard to them! Therefore one should not entertain doubt. Why?
4.40. But he, who is ignorant and has no faith, perishes, with his self (mind) full of doubts. Neither this world nor the other, nor happiness is for a person, who is by nature is full of doubts.
4.39-40 Sraddhavan etc. Ajnah etc. Here the idea of the passage is this : The incoming of faith and the performance of activities intending this [knowledge], both spring up soon no doubt, if one, being a believer, entertains no doubt. Therefore, one should remain being favoured by the preceptors and the scriptures, and not entertaining any doubt. For, the doubt is a destroyer of everything [good]. Indeed a person with doubt knows nothing, because he does not have faith. Hence one should remain without doubt. The subject matter that has been elaborated in this entire chapter is now summarised by a pair of the [following] verses :
4.40 'The ignorant,' i.e., one devoid of knowledge received through instruction, 'the faithless' or one who has no faith in developing this knowledge taught to him, i.e., who does not strive to progress ickly, and 'the doubting one,' i.e., one who is full of doubts in regard to the knowledge taught - such persons perish, are lost. When this knowledge taught to him about the real nature of the self is doubted, then he loses this material world as also the next world. The meaning is that the ends of man, such as Dharma, Artha and Karma which constitute the material ends or fulfilments, are not achieved by such a doubting one. How then can man's supreme end, release be achieved by such a doubting one? For all the ends of human life can be achieved through the actions which are prescribed by the Sastras, but their performance reires the firm conviction that the self is different from the body. Therefore, even a little happiness does not come to the person who has a doubting mind concerning the self.
4.40 The ignorant, the faithless and the doubting one peirsh; for the doubting one there is neither this world, nor that beyond, nor happiness.
।।4.40।।इस विषयमें संशय नहीं करना चाहिये क्योंकि संशय बड़ा पापी है। कैसे सो कहते हैं जो अज्ञ यानी आत्मज्ञानसे रहित है जो अश्रद्धालु है और जो संशयात्मा है ये तीनों नष्ट हो जाते हैं। यद्यपि अज्ञानी और अश्रद्धालु भी नष्ट होते हैं परंतु जैसा संशयात्मा नष्ट होता है वैसे नहीं क्योंकि इन सबमें संशयात्मा अधिक पापी है। अधिक पापी कैसे है ( सो कहते हैं ) संशयात्माको अर्थात् जिसके चित्तमें संशय है उस पुरुषको न तो यह साधारण मनुष्यलोक मिलता है न परलोक मिलता है और न सुख ही मिलता है क्योंकि वहाँ भी संशय होना सम्भव है इसलिये संशय नहीं करना चाहिये।
।।4.40।। अज्ञश्च अनात्मज्ञश्च अश्रद्दधानश्च गुरुवाक्यशास्त्रेषु अविश्वासवांश्च संशयात्मा च संशयचित्तश्च विनश्यति। अज्ञाश्रद्दधानौ यद्यपि विनश्यतः न तथा यथा संशयात्मा। संशयात्मा तु पापिष्ठः सर्वेषाम्। कथम् नायं साधारणोऽपि लोकोऽस्ति। तथा न परः लोकः। न सुखम् तत्रापि संशयोत्पत्तेः संशयात्मनः संशयचित्तस्य। तस्मात् संशयो न कर्तव्यः।।कस्मात्
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अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।4.40।।
অজ্ঞশ্চাশ্রদ্দধানশ্চ সংশযাত্মা বিনশ্যতি৷ নাযং লোকোস্তি ন পরো ন সুখং সংশযাত্মনঃ৷৷4.40৷৷
অজ্ঞশ্চাশ্রদ্দধানশ্চ সংশযাত্মা বিনশ্যতি৷ নাযং লোকোস্তি ন পরো ন সুখং সংশযাত্মনঃ৷৷4.40৷৷
અજ્ઞશ્ચાશ્રદ્દધાનશ્ચ સંશયાત્મા વિનશ્યતિ। નાયં લોકોસ્તિ ન પરો ન સુખં સંશયાત્મનઃ।।4.40।।
ਅਜ੍ਞਸ਼੍ਚਾਸ਼੍ਰਦ੍ਦਧਾਨਸ਼੍ਚ ਸਂਸ਼ਯਾਤ੍ਮਾ ਵਿਨਸ਼੍ਯਤਿ। ਨਾਯਂ ਲੋਕੋਸ੍ਤਿ ਨ ਪਰੋ ਨ ਸੁਖਂ ਸਂਸ਼ਯਾਤ੍ਮਨ।।4.40।।
ಅಜ್ಞಶ್ಚಾಶ್ರದ್ದಧಾನಶ್ಚ ಸಂಶಯಾತ್ಮಾ ವಿನಶ್ಯತಿ. ನಾಯಂ ಲೋಕೋಸ್ತಿ ನ ಪರೋ ನ ಸುಖಂ ಸಂಶಯಾತ್ಮನಃ৷৷4.40৷৷
അജ്ഞശ്ചാശ്രദ്ദധാനശ്ച സംശയാത്മാ വിനശ്യതി. നായം ലോകോസ്തി ന പരോ ന സുഖം സംശയാത്മനഃ৷৷4.40৷৷
ଅଜ୍ଞଶ୍ଚାଶ୍ରଦ୍ଦଧାନଶ୍ଚ ସଂଶଯାତ୍ମା ବିନଶ୍ଯତି| ନାଯଂ ଲୋକୋସ୍ତି ନ ପରୋ ନ ସୁଖଂ ସଂଶଯାତ୍ମନଃ||4.40||
ajñaścāśraddadhānaśca saṅśayātmā vinaśyati. nāyaṅ lōkō.sti na parō na sukhaṅ saṅśayātmanaḥ৷৷4.40৷৷
அஜ்ஞஷ்சாஷ்ரத்ததாநஷ்ச ஸஂஷயாத்மா விநஷ்யதி. நாயஂ லோகோஸ்தி ந பரோ ந ஸுகஂ ஸஂஷயாத்மநஃ৷৷4.40৷৷
అజ్ఞశ్చాశ్రద్దధానశ్చ సంశయాత్మా వినశ్యతి. నాయం లోకోస్తి న పరో న సుఖం సంశయాత్మనః৷৷4.40৷৷
4.41
4
41
।।4.41।। हे धनञ्जय ! योग- (समता-) के द्वारा जिसका सम्पूर्ण कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है और ज्ञानके द्वारा जिसके सम्पूर्ण संशयोंका नाश हो गया है, ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते।
।।4.41।। जिसने योगद्वारा कर्मों का संन्यास किया है,  ज्ञानद्वारा जिसके संशय नष्ट हो गये हैं,  ऐसे आत्मवान् पुरुष को,  हे धनंजय ! कर्म नहीं बांधते हैं।।
।।4.41।। इस अध्याय में विस्तारपूर्वक बतायी हुयी जीवन जीने की कला को इस श्लोक में अत्यन्त सुन्दर प्रकार से संक्षेप में बताया गया है। कर्मसंन्यास से तात्पर्य फलासक्ति के त्याग से है। जब हम कर्मयोग की भावना से कर्म करते हुये कर्मफलों की आसक्ति त्यागना सीख लेते हैं तथा आत्मानुभवरूप ज्ञान के द्वारा जीवन के लक्ष्य सम्बन्धी हमारे सब संशय छिन्नभिन्न हो जाते हैं तब अहंकार नष्ट होकर शुद्ध आत्मस्वरूप में हमारी स्थिति दृढ़ हो जाती है। ऐसा आत्मवान् पुरुष कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बन्धता।कर्तृत्व के अभिमान तथा स्वार्थ से प्रेरित होकर किये गये कर्म ही वासनाएं उत्पन्न करके हमें बन्धन में डालते हैं। कर्मयोग की भावना से निरहंकार होकर कर्म करने पर बन्धन नहीं हो सकता। स्वप्न में स्वप्न की पत्नी की हत्या करने पर स्वाप्निक दण्ड तो भोगना पड़ सकता है परन्तु स्वप्न द्रष्टा के जागने पर जाग्रत् अवस्था में उसे कोई दण्ड नहीं दे सकता क्योंकि स्वप्न के साथसाथ स्वप्न द्रष्टा भी नष्ट हो जाता है। जाग्रत्पुरुष को स्वप्न द्रष्टा का किया कर्म नहीं बांध सकता। इसी प्रकार अहंकार पूर्वक किये गये कर्म अहंकार के लिये बन्धनकारक हो सकते हैं परन्तु आत्मानुभूति में उसके ही नष्ट हो जाने पर आत्मा को वे कर्म कैसे बांध सकेंगे जिसका अहंकार नष्ट हो चुका है उसी पुरुष को यहाँ आत्मवान् कहा गया है।इस आत्मज्ञान का फल सर्वश्रेष्ठ है इसलिये श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि
4.41।। व्याख्या--'योगसंन्यस्तकर्मणाम्'--शरीर, इन्द्रियाँ, मन बुद्धि आदि जो वस्तुएँ हमें मिली हैं और हमारी दीखती हैं वे सब दूसरोंकी सेवाके लिये ही हैं, अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं। इस दृष्टिसे जब उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें (उनका ही मानकर) लगा दिया जाता है, तब कर्मों और वस्तुओंका प्रवाह संसारकी ओर ही हो जाता है और अपनेमें स्वतःसिद्ध समताका अनुभव हो जाता है। इस प्रकार योग-(समता-) के द्वारा जिसने कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है, वह पुरुष 'योगसंन्यस्तकर्मा'है।जब कर्मयोगी कर्ममें अकर्म तथा अकर्ममें कर्म देखता है अर्थात् कर्म करते हुए अथवा न करते हुए--दोनों अवस्थाओंमें नित्य-निरन्तर असङ्ग रहता है, तब वही वास्तवमें 'योगसंन्यस्तकर्मा' होता है। 'ज्ञानसंछिन्नसंशयम्'--मनुष्यके भीतर प्रायः ये संशय रहते हैं कि कर्म करते हुए ही कर्मोंसे अपना सम्बन्ध[-विच्छेद कैसे होगा? अपने लिये कुछ न करें तो अपना कल्याण कैसे होगा? आदि। परन्तु जब वह कर्मोंके तत्त्वको अच्छी तरह जान लेता है (टिप्पणी प0 273), तब उसके समस्त संशय मिट जाते हैं। उसे इस बातका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि कर्मों और उनके फलोंका आदि और अन्त होता है, पर स्वरूप सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। इसलिये कर्ममात्रका सम्बन्ध 'पर'-(संसार-) के साथ है, 'स्व'-(स्वरूप-) के साथ बिलकुल नहीं। इस दृष्टिसे अपने लिये कर्म करनेसे कर्मोंके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है और निष्कामभाव-पूर्वक केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि अपना कल्याण दूसरोंके लिये कर्म करनेसे ही होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं।
।।4.41।।सकलाध्यायविस्फारितोऽर्थः श्लोकद्वयेन संक्षिप्य उच्यते (K संक्षिप्यते) योगेति। योगेनैव कर्मणां संन्यास उपपद्यते नान्यथा इति विचारितं विचारयिष्यते च।
।।4.41।।यथोपदिष्टयोगेन संन्यस्तकर्माणं ज्ञानाकारतापन्नकर्माणं यथोपदिष्टेन च आत्मज्ञानेन आत्मनि संछिन्नसंशयम् आत्मवन्तं मनस्विनम् उपदिष्टार्थे दृढावस्थितमनसं बन्धहेतुभूतप्राचीनानन्तकर्माणि न निबध्नन्ति।
।।4.41।।यद्यपि संशयः सर्वानर्थहेतुत्वात्कर्तव्यो न भवति तथापि निवर्तकाभावे तदकरणमस्वाधीनमिति शङ्कते कस्मादिति। श्रुतियुक्तिप्रयुक्तमैक्यज्ञानं तन्निवर्तकमित्युत्तरमाह ज्ञानेति। संशयरहितस्यापि कर्माण्यनर्थहेतवो भवन्तीत्याशङ्क्याह योगेति। विषयपरवशस्य पुंसो योगायोगात्कुतो योगसंन्यस्तकर्मत्वमित्याशङ्क्याह आत्मवन्तमिति। परमार्थदर्शनतः संशयोच्छित्तौ तदुच्छेदकज्ञानमाहात्म्यादेव कर्मणां च निवृत्तावप्रमत्तस्य प्रातिभासिकानि कर्माणि बन्धहेतवो न भवन्तीत्याह न कर्माणीति। कर्मयोगादेव कर्मसंन्यासस्यानुपपत्तिमाशङ्क्याद्यं पादं विभजते परमार्थेति। तच्च वैधसंन्यासपक्षे परोक्षं फलसंन्यासपक्षे त्वपरोक्षमिति विवेकः। यथोक्तज्ञानेन संन्यस्तकर्मत्वमेव सति संशये न सिध्यति संशयवतस्तदयोगादिति शङ्कते कथमिति। द्वितीयं पादं व्याकुर्वन्परिहरति आहेत्यादिना। पाठक्रमादर्थक्रमस्य बलीयस्त्वादादौ द्वितीयं पादं व्याख्याय पश्चादाद्यं पादं व्याचक्षीतेत्याह य एवमिति। सर्वमिदं प्रमादवतो विषयपरवशस्य न सिध्यतीत्यभिसंधायात्मवन्तं व्याकरोति अप्रमत्तमिति। न कर्माणीत्यादिफलोक्तिं व्याचष्टे गुणचेष्टेति। अनिष्टादीत्यादिशब्देनेष्टं मिश्रं च गृह्यते।
।।4.41।।उभयोरेकार्थनिष्ठं स्तौति योगेनोक्तरूपेण सिद्ध्यसिद्धिसमानचित्तवृत्तिकेन बाह्यतः क्रियानिष्ठमपि तेनाऽन्तस्सन्न्यस्तकर्माणं धीरं अन्तःकरणसम्बन्धशून्यं साङ्ख्येन च सञ्छिन्नसंशयं आत्मानात्मनिश्चयात्मिकबुद्धिमन्तं अत एव केवलमात्मवन्तं न तु केवलमनात्माभिमानवन्तं पुरुषं क्रियमाणानि तानि कर्माणि न निबध्नन्ति।
।।4.41।।एतादृशस्य सर्वानर्थमूलस्य संशयस्य निराकरणायात्मनिश्चयमुपायं वदन्नध्यायद्वयोक्तां पूर्वापरभूमिकाभेदेन कर्मज्ञानमयीं द्विविधां ब्रह्मनिष्ठामुपसंहरति योगेन भगवदाराधनलक्षणसमत्वबुद्धिरुपेण संन्यस्तानि भगवति समर्पित्तानि कर्माणि येन। यद्वा परमार्थदर्शनलक्षणेन योगेन संन्यस्तानि त्यक्तानि कर्माणि येन तं योगसंन्यस्तकर्माणम्। संशये सति कथं योगसंन्यस्तकर्मत्वमत आह ज्ञानसंच्छिन्नसंशयं ज्ञानेनात्मनिश्चयलक्षणेन छिन्नः संशयो येन तम्। विषयपरवशत्वरूपप्रमादे सति कुतो ज्ञानोत्पत्तिरित्यत आह आत्मवन्तमप्रमादिनं सर्वदा सावधानं एतादृशमप्रमादित्वेन ज्ञानवन्तं ज्ञानसंच्छिन्नसंशयत्वेन योगसंन्यस्तकर्माणं कर्माणि लोकसंग्रहार्थानि वृथाचेष्टारूपाणि वा न निबध्नन्ति अनिष्टमिष्टं मिश्रं वा शरीरं नारभन्ते हे धनंजय।
।।4.41।।अध्यायद्वयोक्तां पूर्वापरभूमिकाभेदेन कर्मज्ञानमयीं द्विविधां ब्रह्मनिष्ठामुपसंहरति योगेति द्वाभ्याम्। योगेनपरमेश्वराराधनरूपेण तस्मिन्संन्यस्तानि समर्पितानि कर्माणि येन तं पुरुषं कर्माणि स्वफलैर्निबध्नन्ति। अतश्च ज्ञानेनाकर्त्रात्मबोधेन संच्छिन्नः संशयो देहाद्यभिमानलक्षणो यस्य तं चात्मवन्तमप्रमादिनं कर्माणि लोकसंग्रहार्थानि स्वाभाविकानि वा न निबध्नन्ति।
।।4.41।।अध्यायप्रधानार्थ उपसंह्रियते योगसन्न्यस्तेति श्लोकेन।यथोपदिष्टयोगेनेति कर्मण्यकर्म यः पश्येत् 4।18 इत्यादिनोपदिष्टबुद्धियोगेनेत्यर्थः। एतेनात्मावलोकनरूपयोगव्युदासः।सन्न्यस्तकर्माणं इत्यत्र कर्मस्वरूपत्यागभ्रमव्युदासायज्ञानाकारतापन्नकर्माणमित्युक्तम्। कर्तृत्वादित्यागगर्भज्ञानाकारतापत्त्या कर्माकारत्वतिरस्कारोऽत्र कर्मणः सन्न्यासशब्देनोपचर्यते। स्वरूपत्यागपरत्वे तु पूर्वापरादिविरोध इति भावः। ज्ञानयोगादिव्युदासाययथोपदिष्टेन चात्मज्ञानेनेत्युक्तम्। आत्मनो देहातिरिक्तत्वादिसंशयो ह्यत्र निषिध्यत इति व्यञ्जनायआत्मनीत्युक्तम्।आत्मवन्तम् इत्यत्रात्मशब्दः सम्बन्धविषयग्रत्ययसामर्थ्यात्प्रयोगप्रौढ्या च मनोविषय इत्यभिप्रायेण मनस्विनमित्युक्तम्। अतिशयेन सम्बन्धोऽत्र मतुबर्थः स चातिशयः केनाप्यविचाल्यत्वमिति द्योतनायोक्तम् उपदिष्टार्थे द़ृढावस्थितमनसमिति। परमप्रयोजनोपसंहाररूपत्वव्यञ्जनायबन्धहेतुभूतेत्यादिकमुक्तम्।
।।4.41।।सन्देहरहितस्य भोगलोकादिप्रतिबन्धो न भवेदित्याह योगसन्न्यस्तेति। हे धनञ्जय कर्माणि नियतफलभोगकारणरूपाणि योगसन्न्यस्तकर्माणं भगवदात्मकयोगेन त्यक्तकर्मफलं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयं ज्ञानेन वा सञ्छिन्नः संशयो जीवस्वरूपादिरूपोऽस्य तमात्मवन्तं स्वसेवार्थमात्मा भगवान् प्रकटीकृत इत्याह () आत्मस्वरूपज्ञं न निबध्नन्ति। न बन्धकानि भवन्तीत्यर्थः।
।।4.41।।किंच योगेति। योगेन कर्मण्यकर्मदर्शनात्मकेन संन्यस्तानि फलतः स्वरूपतो वा त्यक्तानि कर्माणि येन तं योगसंन्यस्तकर्माणम्। ज्ञानेन सम्यग्दर्शनेन सम्यक् छिन्नाः संशयाः आत्मा देहेऽन्यो वा अन्योऽपि विभुरविभुर्वा विभुरपि कर्ताऽकर्ता वा अकर्ताप्येकोऽनेको वा एकोऽपि सगुणो निर्गुणो वेत्येवमादयो यस्य स ज्ञानसंछिन्नसंशयस्तं आत्मवन्तं शमदमादिपरं कर्माणि कृतानि न निबध्नन्ति हे धनंजय।
।।4.41।।ननु संशयनिवर्तकाभावे तदकरणमस्वाधीनमित्याशङ्क्य तन्निवृत्युपायमात्मज्ञाननिश्चयं ज्ञापयन् तत्त्वसाक्षात्कारसंच्छिन्नसंशयं कर्माणि न निबन्धन्तीत्याह योगेनेति। योगेन परमार्थदर्शनलक्षणेन सम्यक् न्यस्तानि त्यक्तानि शक्तिप्रतिबन्धेन धर्माधर्माख्यानि संचितादीनि कर्माणि येन तम्।क्षीयन्ते चास्य कर्माणि इति श्रुतेः। योगेन भगवदाराधनलक्षणसमत्वबुद्धिरुपेण संन्यस्तानि भगवति समर्पितानि कर्माणि येनेति वा। अस्मिन्पक्षे कर्मपदसंकोचाद्यापत्तिरुपाऽरुचिर्बोध्या। यद्वा भाष्यस्योपलक्षणार्थतया तन्त्रेणायमपि पक्षोऽस्तु। यस्मात्कर्मयोगानुष्ठानात् अशुद्धिक्षयहेतुकज्ञानसंच्छिन्नसंशयो न निबध्यते कर्मभिरित्यग्रिमभाप्यात्। तत्र हेतुमाह ज्ञानेनात्मेश्वरैकत्वदर्शनलक्षणेन छिन्नः संशयः आत्मा देहाद्यभिन्नो भिन्नो वा भिन्नोऽप्यविभुर्विभुर्वा सोऽपि कर्ताऽकर्ता वा कर्तापि भोक्ताऽभोक्ता वा अभोक्ताप्यनेकएको वा सोऽपि सविशेषो निर्विशेषो वा निर्विशेषज्ञानात्केनचित्समुच्चितान्मोक्षः केवलाद्वा केवलज्ञाननिवर्त्यः प्रपञ्चः सत्यो मिथ्याभूतो वेत्येवमादिरुपो यस्य तम्। अत्र हेतुमाह आत्मवन्तमप्रमत्तं शमदमादिपरं कर्माणि गुणा गुणेषु वर्तन्त इति बुद्य्धा क्रियमाणानि न निबध्नन्ति अनिष्टादिरुपं फलं नारभन्ते राज्ञामतिप्रबलत्वत्तान्त्रिजित्य धनमाहर्तुं मम सामर्थ्यमस्ति न वेति संशयमपिप्रबलात्मस्वरुपनिश्चयेन मुक्त्वा धनं जितवांस्त्वमेवात्र दृष्टान्त इति ध्वनयन्नाह धनं जयेति।
4.41 योगसंन्यस्तकर्माणम् one who has renounced actions by Yoga? ज्ञानसंछिन्नसंशयम् one whose doubts are rent asunder by knowledge? आत्मवन्तम् possessing the self? न not? कर्माणि actions? निबध्नन्ति bind? धनञ्जय O Dhananjaya.Commentary Sri Madhusudana Sarasvati explains Atmavantam as always watchful.He who has attained to Selfrealisation renounces all actions by means of Yoga or the knowledge of Brahman. As he is established in the knowledge of the identity of the individual soul with the,Supreme Soul? all his doubts are cut asunder. Actions do not bind him as they are burnt in the fire of wisdom and as he is always watchful over himself. (Cf.II.48III.9IV.20)
4.41 He who has renounced actions by Yoga, whose doubts are rent asunder by knowledge, and who is self-possessed actions do not bind him, O Arjuna.
4.41 But the man who has renounced his action for meditation, who has cleft his doubt in twain by the sword of wisdom, who remains always enthroned in his Self, is not bound by his acts.
4.41 O Dhananjaya (Arjuna), actions do not bind one who has renounced actions through yoga, whose doubt has been fully dispelled by Knowledge, and who is not inadvertent.
4.41 Yoga-sannyasta-karmanam, one who has renounced actions through yoga: that person who is a knower of the supreme Goal, by whom actions called righteous or unrighteous have been renounced through the yoga characterized as the Knowledge of the supreme Goal. How does one become detached from actions through yoga? The Lord says: He is jnana-samchinna-samsayah, one whose doubts (samsaya) have been fully dispelled (samchinna) by Knowledge (jnana) characterized as the realization of the identity of the individual Self and God. O Dhananjaya, he who has thus renounced actions through yoga, atmavantam, who is not inadvertent, not careless; him, karmani, actions, seen as the activities of the gunas (see 3.28); na nibadhnanti, do not bind, (i.e.) they do not produce a result in the form of evil etc. Since one whose doubts have been destroyed by Knowledge-arising from the destruction of the impurities (of body, mind, etc.) as result of the practise of Karma-yoga-does not get bound by acitons owing to the mere fact of his actions having been burnt away by Knowledge; and since one who has doubts with regard to the practice of the yogas of Knowledge and actions gets ruined-
4.41. O Dhananjaya ! Actions do not bind him who has renounced [all] actions through Yoga; who has cut off his doubts by the sword of knowledge; and who is a master of his own self.
4.41 Yoga-etc. Renunciation of actions becomes possible only through Yoga and not otherwise. This has been discussed also [in the seel].
4.41 The countless ancient Karmas which constitute the cause of bondage, do not bind him who has renounced actions through Karma Yoga in the manner explained before, who has sundered all doubts concerning the self by the knowledge of the self in the manner explained before, and who is of steady mind, i.e., unshakable, with the mind focussed steadily on the meaning that has been forth.
4.41 Actions do not bind him, O Arjuna, who has renounced them through Karma Yoga and whose doubts are sundered by knowledge, and who therefore possesses a steady mind.
।।4.41।।कैसे जिस परमार्थदर्शी पुरुषने परमार्थज्ञानरूप योगके द्वारा पुण्यपापरूप सम्पूर्ण कर्मोंका त्याग कर दिया हो वह योगसंन्यस्तकर्मा है। ( उसको कर्म नहीं बाँधते। ) वह योगसंन्यस्तकर्मा कैसे है सो कहते हैं आत्मा और ईश्वरकी एकतादर्शनरूप ज्ञानद्वारा जिसका संशय अच्छी प्रकार नष्ट हो चुका है वह ज्ञानसंछिन्नसंशय कहलाता है। ( इसलिये वह योगसंन्यस्तकर्मा है। ) जो इस प्रकार योगसंन्यस्तकर्मा है उस आत्मवान् यानी आत्मबलसे युक्त प्रमादरहित पुरुषको हे धनंजय ( गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं इस प्रकार ) गुणोंकी चेष्टामात्रके रूपमें समझे हुए कर्म नहीं बाँधते अर्थात् इष्ट अनिष्ट और मिश्र इन तीन प्रकारके फलोंका भोग नहीं करा सकते।
।।4.41।। योगसंन्यस्तकर्माणं परमार्थदर्शनलक्षणेन योगेन संन्यस्तानि कर्माणि येन परमार्थदर्शिना धर्माधर्माख्यानि तं योगसंन्यस्तकर्माणम्। कथं योगसंन्यस्तकर्मेत्याह ज्ञानसंछिन्नसंशयं ज्ञानेन आत्मेश्वरैकत्वदर्शनलक्षणेन संछिन्नः संशयो यस्य सः ज्ञानसंछिन्नसंशयः। य एवं योगसंन्यस्तकर्मा तम् आत्मवन्तम् अप्रमत्तं गुणचेष्टारूपेण दृष्टानि कर्माणि न निबध्नन्ति अनिष्टादिरूपं फलं नारभन्ते हे धनञ्जय।।यस्मात् कर्मयोगानुष्ठानात् अशुद्धिक्षयहेतुकज्ञानसंछिन्नसंशयः न निबध्यते कर्मभिः ज्ञानाग्निदग्धकर्मत्वादेव यस्माच्च ज्ञानकर्मानुष्ठानविषये संशयवान् विनश्यति
null
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योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्। आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।4.41।।
যোগসংন্যস্তকর্মাণং জ্ঞানসংছিন্নসংশযম্৷ আত্মবন্তং ন কর্মাণি নিবধ্নন্তি ধনঞ্জয৷৷4.41৷৷
যোগসংন্যস্তকর্মাণং জ্ঞানসংছিন্নসংশযম্৷ আত্মবন্তং ন কর্মাণি নিবধ্নন্তি ধনঞ্জয৷৷4.41৷৷
યોગસંન્યસ્તકર્માણં જ્ઞાનસંછિન્નસંશયમ્। આત્મવન્તં ન કર્માણિ નિબધ્નન્તિ ધનઞ્જય।।4.41।।
ਯੋਗਸਂਨ੍ਯਸ੍ਤਕਰ੍ਮਾਣਂ ਜ੍ਞਾਨਸਂਛਿਨ੍ਨਸਂਸ਼ਯਮ੍। ਆਤ੍ਮਵਨ੍ਤਂ ਨ ਕਰ੍ਮਾਣਿ ਨਿਬਧ੍ਨਨ੍ਤਿ ਧਨਞ੍ਜਯ।।4.41।।
ಯೋಗಸಂನ್ಯಸ್ತಕರ್ಮಾಣಂ ಜ್ಞಾನಸಂಛಿನ್ನಸಂಶಯಮ್. ಆತ್ಮವನ್ತಂ ನ ಕರ್ಮಾಣಿ ನಿಬಧ್ನನ್ತಿ ಧನಞ್ಜಯ৷৷4.41৷৷
യോഗസംന്യസ്തകര്മാണം ജ്ഞാനസംഛിന്നസംശയമ്. ആത്മവന്തം ന കര്മാണി നിബധ്നന്തി ധനഞ്ജയ৷৷4.41৷৷
ଯୋଗସଂନ୍ଯସ୍ତକର୍ମାଣଂ ଜ୍ଞାନସଂଛିନ୍ନସଂଶଯମ୍| ଆତ୍ମବନ୍ତଂ ନ କର୍ମାଣି ନିବଧ୍ନନ୍ତି ଧନଞ୍ଜଯ||4.41||
yōgasaṅnyastakarmāṇaṅ jñānasaṅchinnasaṅśayam. ātmavantaṅ na karmāṇi nibadhnanti dhanañjaya৷৷4.41৷৷
யோகஸஂந்யஸ்தகர்மாணஂ ஜ்ஞாநஸஂசிந்நஸஂஷயம். ஆத்மவந்தஂ ந கர்மாணி நிபத்நந்தி தநஞ்ஜய৷৷4.41৷৷
యోగసంన్యస్తకర్మాణం జ్ఞానసంఛిన్నసంశయమ్. ఆత్మవన్తం న కర్మాణి నిబధ్నన్తి ధనఞ్జయ৷৷4.41৷৷
4.42
4
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।।4.42।। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन ! हृदयमें स्थित इस अज्ञानसे उत्पन्न अपने संशयका ज्ञानरूप तलवारसे छेदन करके योग -(समता-) में स्थित हो जा, (और युद्धके लिये) खड़ा हो जा।
।।4.42।। इसलिये अपने हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञान खड्ग से काटकर,  हे भारत ! योग का आश्रय लेकर खड़े हो जाओ।।
।।4.42।। इस अन्तिम श्लोक में श्रीकृष्ण द्वारा दी गया सम्मति संक्षिप्त होते हुये भी प्रेमाग्रहपूर्ण है। यह श्लोक अर्जुन के प्रति उनकी स्नेह भावना से झंकृत हो रहा है।हिमालय की गिरिकन्दराओं के शान्त और एकान्त वातावरण मे दिये गये ऋषियों के उपदेश को यहाँ श्रीकृष्ण अपने योद्धामित्र अर्जुन को युद्ध की भाषा में ही समझाते हैं। हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न आत्मविषयक संशय को ज्ञान की तलवार द्वारा छिन्नभिन्न करने के लिये वे अर्जुन को प्रोत्साहित करते हैं।यहाँ संशय को हृदय मे स्थित कहा गया है आज के शिक्षित पुरुष को यह कुछ विचित्र जान पड़ेगा क्योंकि संशय बुद्धि से उत्पन्न होता है हृदय से नहीं।वेदान्त की धारण के अनुसार बुद्धि का निवास स्थान हृदय है। परन्तु स्थूल शरीर का अंगरूप हृदय यहां अभिप्रेत नहीं है। दर्शनशास्त्र में हृदय शब्द का मनोवैज्ञानिक अर्थ मे साहित्यिक प्रयोग किया जाता है। प्रेम सहानुभूति तथा इसी प्रकार की मनुष्य की श्रेष्ठ एवं आदर्श भावनाओं का स्रोत हृदय ही है। इस प्रेम से परिपूर्ण हृदय से जो बुद्धि कार्य करती है वही वास्तव में दर्शनशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य की बुद्धि मानी जा सकती है। इसलिये जब यहाँ संशय को हृदय में स्थित कहा गया तब उसका तात्पर्य कुछ साधकों की विकृत बुद्धि से है जिसके कारण वे आत्मदर्शन नहीं कर पाते। अनेक प्रकार के संशयों की आत्यन्तिक निवृत्ति तभी संभव होगी जब साधक पुरुष आत्मा का साक्षात् अनुभव कर लेगा।यह योग के अभ्यास द्वारा ही संभव है। परन्तु योग का अर्थ कोई रहस्यमयी साधना नहीं जिसे कोई विरले गुरु गुप्त रूप से बतायेंगे और न ही वह ऐसी साधना है जिसका अभ्यास हिमालय की निर्जन गुफाओं में बैठकर करना पड़ेगा। योग सम्बन्धित जो भी भय उत्पन्न करने वाली मिथ्या धारणाएं है गीता में उन्हें सदा के लिये दूर करके उस शब्द को सुपरिचित और व्यावहारिक बना दिया गया है। जीवन के सभी कार्य क्षेत्रों में योग उपयोगी है। भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा इस अध्याय में जो बारह प्रकार के यज्ञ बताये गये हैं वे ही योग शब्द से लक्षित हैं।इस अध्याय की समाप्ति अर्जुन को उठने के आह्वान के साथ होती है उत्तिष्ठ भारत। यद्यपि गीतोपदेश के सन्दर्भ में भारत शब्द अर्जुन को ही सम्बोधित करता है तथापि अर्जुन के माध्यम से समस्त साधकों का यहाँ आह्वान किया गया है। यज्ञ साधना का आचरण करके हमको अधिकाधिक अन्तकरण शुद्धि प्राप्त करनी चाहिये जिससे कि निदिध्यासन के द्वारा हम विकास के चरम लक्ष्य परम शान्ति को प्राप्त कर सकें।Conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्याय।।
।।4.42।। व्याख्या--'तस्मादज्ञानसम्भूतं ৷৷. छित्त्वैनं संशयम्'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने यह सिद्धान्त बताया कि जिसने समताके द्वारा समस्त कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है और ज्ञानके द्वारा समस्त संशयोंको नष्ट कर दिया है, उस आत्मपरायण कर्मयोगीको कर्म नहीं बाँधते अर्थात् वह जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है। अब भगवान् 'तस्मात्' पदसे अर्जुनको भी वैसा ही जानकर कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा करते हैं।अर्जुनके हृदयमें संशय था--युद्धरूप घोर कर्मसे मेरा कल्याण कैसे होगा? और कल्याणके लिये मैं कर्मयोगका अनुष्ठान करूँ अथवा ज्ञानयोगका? इस श्लोकमें भगवान् इस संशयको दूर करनेकी प्रेरणा करते हैं ;क्योंकि संशयके रहते हुए कर्तव्यका पालन ठीक तरहसे नहीं हो सकता।'अज्ञानसम्भूतम्' पदका भाव है कि सब संशय अज्ञानसे अर्थात् कर्मोंके और योगके तत्त्वको ठीक-ठीक न समझनेसे ही उत्पन्न होते हैं। क्रियाओँ और पदार्थोंको अपना और अपने लिये मानना ही अज्ञान है। यह अज्ञान जबतक रहता है, तबतक अन्तःकरणमें संशय रहते हैं; क्योंकि क्रियाएँ और पदार्थ विनाशी हैं और स्वरूप अविनाशी है। तीसरे अध्यायमें कर्मयोगका आचरण करनेकी और इस चौथे अध्यायमें कर्मयोगको तत्त्वसे जाननेकी बात विशेषरूपसे आयी है। कारण कि कर्म करनेके साथ-साथ कर्मको जाननेकी भी बहुत आवश्यकता है। ठीक-ठीक जाने बिना कोई भी कर्म बढ़िया रीतिसे नहीं होता। इसके सिवाय अच्छी तरह जानकर कर्म करनेसे जो कर्म बाँधने-वाले होते हैं, वे ही कर्म मुक्त करनेवाले हो जाते हैं (गीता 4। 16 32)। इसलिये इसअध्यायमें भगवान्ने कर्मोंको तत्त्वसे जाननेपर विशेष जोर दिया है।पूर्वश्लोकमें भी 'ज्ञानसंछिन्नसंशयम्' पद इसी अर्थमें आया है। जो मनुष्य कर्म करनेकी विद्याको जान लेता है, उसके समस्त संशयोंका नाश हो जाता है। कर्म करनेकी विद्या है--अपने लिये कुछ करना ही नहीं है। 'योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत'--अर्जुन अपने धनुष-बाणका त्याग करके रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (1। 47)। उन्होंने भगवान्से साफ कह दिया था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा'--'न योत्स्ये' (गीता 2। 9)। यहाँ भगवान् अर्जुनको योगमें स्थित होकर युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा देते हैं। यही बात भगवान्ने दूसरे अध्यायके अड़तालीसवें श्लोकमें योगस्थः कुरु कर्माणि (योगमें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म कर) पदोंसे भी कही थी। योगका अर्थ 'समता' है--'समत्वं योग उच्यते' (गीता 2। 48)। अर्जुन युद्धको पाप समझते थे (गीता 1। 36 45)। इसलिये भगवान् अर्जुनको समतामें स्थित होकर युद्ध करनेकी आज्ञा देते हैं; क्योंकि समतामें स्थित होकर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगता (गीता 2। 38)। इसलिये समतामें स्थित होकर कर्तव्य-कर्म करना ही कर्म-बन्धनसे छूटनेका उपाय है।
।।4.42।।यत एवम् (S omits यत एवम्) तस्मादिति। संशयं छित्त्वा योगं कर्मसु कौशलम् उक्तक्रमेण आतिष्ठ। ततश्च उत्तिष्ठ त्वं स्वव्यापारं कर्तव्यतामात्रेण कुर्विति।
।।4.42।।तस्माद् अनाद्यज्ञानसंभूतं हृत्स्थम् आत्मविषयं संशयं मया उपदिष्टेन आत्मज्ञानासिना छित्त्वा मया उपदिष्टं कर्मयोगम् आतिष्ठ तदर्थम् उत्तिष्ठ भारत इति।
।।4.42।।तस्मादित्यादिसमनन्तरश्लोकगततत्पदापेक्षितमर्थमाह यस्मादिति। सतां कर्मणामस्मदादिषु फलारम्भकत्वोपलम्भाद्विदुष्यपि तेषां तद्भाव्यमनपबाधमित्याशङ्क्याह ज्ञानाग्नीति। ननु संदिहानस्य तत्प्रतिबन्धान्न कर्मयोगानुष्ठानं नापि तद्धेतुकज्ञानं तत्रापि संशयावतारादित्याशङ्क्याह यस्माच्चेति। श्लोकाक्षराणि व्याचष्टे तस्मादित्यादिना। पापिष्ठमिति संशयस्य सर्वानर्थमूलत्वेन त्याज्यत्वं सूच्यते। विवेकाग्रहप्रसूतत्वादपि तस्यावहेयत्वमविवेकस्यानर्थकरत्वप्रसिद्धेरित्याह अविवेकादिति। नच तस्य चैतन्यवदात्मनिष्ठत्वादत्याज्यत्वं शङ्कितव्यमित्याह हृदीति। शोकमोहाभ्यामभिभूतस्य पुंसो मनसि प्रादुर्भवतः संशयस्य प्रबलप्रतिबन्धकाभावेनैव प्रध्वंसः सिध्येदित्याशङ्क्याह ज्ञानासिनेति। स्वाश्रयस्य संशयस्य स्वाश्रयेणैव ज्ञानेन समुच्छेदसंभवात्किमिति स्वस्येति विशेषणमित्याशङ्क्याह आत्मविषयत्वादिति। स्थाण्वादिविषयः संशयस्तद्विषयेण ज्ञानेन देवदत्तनिष्ठेन तन्निष्ठो व्यावर्त्यते प्रकृते त्वात्मविषयस्तदाश्रयश्च संशयस्तथाविधेन ज्ञानेनापनीयते तेन विशेषणमर्थवदित्यर्थः। तदेव प्रपञ्चयति नहीति। आत्माश्रयत्वस्य प्रकृते संशये सिद्धत्वेनाविवक्षितत्वात्तद्विषयस्य तद्विषयेणैव तस्य तेन निवृत्तिर्विवक्षितेत्युपसंहरति अत इति। संशयसमुच्छित्त्यनन्तरं कर्तव्यमुपदिशति छित्त्वैनमिति। अग्निहोत्रादिकं कर्म भगवदाज्ञया क्रमेण करिष्यामि युद्धात्पुनरुपरिरंसैवेत्याशङ्क्याह उत्तिष्ठेति। भरतान्वये महति क्षत्रियवंशे प्रसूतस्य समुपस्थितसमरविमुखत्वमनुचितमिति मन्वानः सन्नाह भारतेति। तदनेन योगस्य कृत्रिमत्वं भगवतोऽनीश्वरत्वं च निराकृत्य कर्मादावकर्मादिदर्शनादात्मनः सम्यग्ज्ञानात्प्रणिपातादेर्बहिरङ्गादन्तरङ्गाच्च श्रद्धादेरुद्भूतादशेषानर्थनिवृत्त्या ब्रह्मभावमभिदधता सर्वस्मादुत्कृष्टे तस्मिन्नसंशयानस्याधिकारादशेषदोषवन्तम्। संशयं हित्वोत्तमस्य ज्ञाननिष्ठापरस्य कर्मनिष्ठेति स्थापितम्।इत्यानन्दगिरिकृतगीताभाष्यटीकायां चतुर्थोऽध्यायः।।4।।
।।4.42।।तस्मात्त्वमपि साङख्यबुद्ध्याऽनात्मभूतं संशयं छित्त्वोक्तं योगमातिष्ठ युद्धाय च स्वकर्मणे उद्युक्तो भव तदापि निर्बन्धनतेति भावः।
।।4.42।।यस्मादेवं अज्ञानादविवेकात्संभूतमुत्पन्नं हृत्स्थं हृदि बुद्धौ स्थितं करणस्याश्रयस्य च ज्ञाने शत्रुः सुखेन हन्तुं शक्यत इत्युभयोपन्यासः। एनं सर्वानर्थमूलभूतं संशयमात्मनो ज्ञानासिना आत्मविषयकनिश्चयखङ्गेन छित्त्वा योगंसम्यग्दर्शनोपायं निष्कामकर्मातिष्ठ कुरु। अत इदानीमुत्तिष्ठ युद्धाय हे भारत भरतवंशे जातस्य युद्धोद्यमो न निष्फल इति भावः। स्वस्यानीशत्वाबाधेन भक्तिश्रद्धे दृढीकृते। धीहेतुः कर्मनिष्ठा च हरिणेहोपसंहृता।
।।4.42।।तस्मादिति। यस्मादेवं तस्मादात्मनोऽज्ञानेन संभूतं हृदि स्थितमेनं संशयं शोकादिनिमित्तं देहात्मविवेकज्ञानखङ्गेन छित्त्वा परमात्मज्ञानोपायभूतं कर्मयोगमातिष्ठाश्रय। तत्र च प्रथमं प्रस्तुताय युद्धायोत्तिष्ठ। हे भारत इति क्षत्रियत्वेन युद्धस्य स्वधर्मत्वं दर्शितम्।
।।4.42।।एवं विस्तरेणोपपाद्योपसंहृतोऽर्थोऽर्जुनं प्रति कर्तव्यतया निगम्यते तस्मादितिश्लोकेन। संशयस्याज्ञानसम्भूतत्वं विशेषाग्रहस्य संशयहेतुत्वात्। हृत्स्थं हृदि शल्यमिवार्पितम् यद्वा हृत्स्थमित्यान्तरमिति भावः।आत्मनः इति षष्ठ्या विषयविषयित्वलक्षणसम्बन्धविशेषे पर्यवसानमत्र विवक्षितमिति द्योतनायआत्मविषयं संशयमित्युक्तम्। यद्वाएनं संशयम् इति निर्देशादात्मविषयत्वं सिद्धम्आत्मनः इत्यस्य तुज्ञानासिना इत्यनेनान्वयायआत्मज्ञानासिनेत्युक्तम्। काकाक्षिन्यायेन वोभयत्रान्वयः।मयेत्यनेनोपदेष्टुः सर्वज्ञत्वकारुणिकत्वादिपौष्कल्यादाप्ततमत्वं विवक्षितम्। कर्मयोगोपदेशोपसंहारतया योगशब्दोऽत्र नेतरविषय इति ज्ञापनायमयोपदिष्टं कर्मयोगमित्युक्तम्। भरतकुलसम्भूतार्जुनस्य स्वधर्मभूतयुद्धार्थमुत्थानमेव कर्मयोगार्थमुत्थानमिति भारतशब्दाभिप्रायव्यञ्जनायतदर्थमुत्तिष्ठ भारतेत्युक्तम्। तेनैव मोक्षोपाययोग्यत्वाय योगिवंशप्रसूतत्वमप्यर्जुनस्य सूच्यते।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां चतुर्थोऽध्यायः।।4।।
।।4.42।।यतः संशयात्मा न पश्यति आत्मज्ञानवन्तं च कर्माणि न निबध्नन्ति तस्मादात्मज्ञानेन संशयं त्यजेत्याह तस्मादिति। हे भारत सत्कुलोत्पन्न संशयकरणायोग्य यस्मात् संशयेन नश्यति तस्मादात्मनः अज्ञानसम्मूतं आत्मस्वरूपाज्ञानोत्पन्नं हृत्स्थं हृदिस्थं एनं प्रत्यक्षमनुभूयमानं मद्वचनेष्वविश्वासात्मकं संशयं ज्ञानासिना ज्ञानात्मकखङ्गेन छित्त्वा योगं मदात्मकं मत्प्राप्त्यर्थं आतिष्ठ कुरु उत्तिष्ठ सावधानो भव।
।।4.42।।तस्मादिति। हृत्स्थं बुद्धिस्थम्। ज्ञानासिना ज्ञानखङ्गेन। योगं सम्यग्दर्शनोपायम्। निष्कामकर्म आतिष्ठ कुरु। उत्तिष्ठ। युद्धायेति शेषः।
।।4.42।।यस्माच्चित्तशुद्धिलभ्यं ज्ञानमेवभूतं यस्माच्च संशयात्मा विनश्यति यस्माच्च ज्ञानसंच्छिन्नसंशयः कर्मभिर्न निबध्यते तस्मात्पापिष्ठमात्मनः संशयं अज्ञानादविवेकाज्जातं बुद्धौ स्थितं शोकमोहादिदोषहरं सभ्यग्दर्शनं ज्ञानं तदेवासिः खड्गः तेनात्मो ज्ञानासिना छित्त्वा योगमात्मज्ञानोपायं कर्मानुष्ठानमातिष्ठ कुर्वित्यर्थः। इदानीं तु स्वधर्मभूताय युद्धायोत्तिष्ठ। भारतेति तत्र योग्यतासूचकं संबोधनम्। तदनेन चतुर्थाध्यायेन योगस्य संप्रदायसिद्धत्वं भगवतो वासुदेवस्य सर्वज्ञत्वमीश्वरत्वं च प्रतिपाद्य योग्यतासंपत्तये कर्मनिष्ठां तत्साध्यां ज्ञाननिष्ठामत्युत्तमां तत्र प्रणिपातादीनि बहिरङ्गसाधनानि श्रद्धादीन्यन्तरङ्गाणि तस्याः फलं सर्वानर्थनिवृत्त्या ब्रह्मभावं अतिपापिष्ठं संशयं चाभिदधताऽशेषदोषवन्तं संशयं विहायोत्तमाधिकरिणो ज्ञाननिष्ठाऽपरस्य कर्मनिष्ठेति स्थापितम्।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां चतुर्थोऽध्यायः।।4।।
4.42 तस्मात् therefore? अज्ञानसंभूतम् born out of ignorance? हृत्स्थम् residing in the heart? ज्ञानासिना by the sword of knowledge? आत्मनः of the Self? छित्त्वा having cut? एनम् this? संशयम् doubt? योगम् Yoga? आत्तिष्ठ take refuge? उत्तिष्ठ arise? भारत O Bharata.Commentary Doubt causes a great deal of mental torment. It is most sinful. It is born of ignorance. Kill it ruthlessly with the knowledge of the Self. Now stand up and fight? O Arjuna.(This chapter is known by the names Jnana Yoga? Abhyasa Yoga and jnanakarmasannyasa Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the fourth discourse entitledThe Yoga of the Division of Wisdom. ,
4.42 Therefore with the sword of the knowledge (of the Self) cut asunder the doubt of the self born of ignorance, residing in thy heart, and take refuge in Yoga. Arise, O Arjuna.
4.42 Therefore, cleaving asunder with the sword of wisdom the doubts of the heart, which thine own ignorance has engendered, follow the Path of Wisdom and arise!"
4.42 Therefore, O scion of the Bharata dyasty, take recourse to yoga and rise up, cutting asunder with the sword of Knowledge this doubt of your own in the heart, arising from ignorance.
4.42 Tasmat, therefore, O scion of the Bharata dynasty; atistha, take recourse to, i.e. undertake; yogam, yoga -performance of actions, which is a means to full Illumination; and now, uttistha, rise up for battle; chittva, cutting asunder; jnanasina, with the sword of Knowledge-Knowledge is full Illumination, which is a destroyer of such defects as sorrows, delusion, etc.; that itself is the sword; with that sword of Knowledge-;enam, this; samsayam, doubt; atmanah, of your own, which is a source of one's own ruin and is most sinful; hrtstham, in the heart, residing in the intellect; ajnana-sambhutam, arising from ignorance, born of non-discrimination. The word atmanah is used because doubt concerns oneself. Indeed, another's doubt cannot be removed by someone else. Hence the word 'own' is used. So, although the doubt is with regard to the Self, it is really one's own.
4.42. Therefore, thus cutting off, by means of knowledge-sword, the doubt that has sprung from ignornace and exists in [your] heart, practise the Yoga ! Stand up ! O descendant of Bharata !
4.42 Tasmat etc. Cutting asunder the doubt, you must practise, by the said method, the Yoga, the dexterity in action; and then stand up i.e., perform your activities simply with the idea that they are to be performed.
4.42 Therefore, after sundering this doubt concerning the self, born of beginningless ignorance and present in the heart, by the sword of the knowledge of the self in the manner explained before, practise the Karma Yoga taught by Me. For that, rise up, O Arjuna.
4.42 Therefore, sunder, with the sword of knowledge, this doubt present in your heart resulting from ignorance concerning the self. Practise this Yoga, O Arjuna, and rise up.
।।4.42।।क्योंकि कर्मयोगका अनुष्ठान करनेसे अन्तःकरणकी अशुद्धिका क्षय हो जानेपर उत्पन्न होनेवाले आत्मज्ञानसे जिसका संशय नष्ट हो गया है ऐसा पुरुष तो ज्ञानाग्निद्वारा उसके कर्म दग्ध हो जानेके कारण कर्मोंसे नहीं बँधता तथा ज्ञानयोग और कर्मयोगके अनुष्ठानमें संशय रखनेवाला नष्ट हो जाता है इसलिये अज्ञान यानी अविवेकसे उत्पन्न और अन्तःकरणमें रहनेवाले ( अपने नाशकके हेतुभूत ) इस अत्यन्तपापी अपने संशयको ज्ञानखड्गद्वारा अर्थात् शोकमोह आदि दोनोंका नाश करनेवाला यथार्थ दर्शरूप जो ज्ञान है वही खड्ग है उस स्वरूपज्ञानरूप खड्गद्वारा ( छेदन करके कर्मयोगमें स्थित हो )। यहाँ संशय आत्मविषयक है इसलिये ( उसके साथ आत्मनः विशेषण दिया गया है। ) क्योंकि एकका संशय दूसरेके द्वारा छेदन करनेकी शङ्का यहाँ प्राप्त नहीं होती जिससे कि ( ऐसी शङ्काको दूर करनेके उद्देश्यसे ) आत्मनः विशेषण दिया जावे अतः ( यही समझना चाहिये कि ) आत्मविषयक होनेसे भी अपना कहा जा सकता है। ( सुतरां संशयको अपना बतलाना असंगत नहीं है। ) अतः अपने नाशके कारणरूप इस संशयको ( उपर्युक्त प्रकारसे ) काटकर पूर्ण ज्ञानकी प्राप्तिके उपायरूप कर्मयोगमें स्थित हो और हे भारत अब युद्धके लिये खड़ा हो जा।
।।4.42) तस्मात् पापिष्ठम् अज्ञानसंभूतम् अज्ञानात् अविवेकात् जातं हृत्स्थं हृदि बुद्धौ स्थितं ज्ञानासिना शोकमोहादिदोषहरं सम्यग्दर्शनं ज्ञानं तदेव असिः खङ्गः तेन ज्ञानासिना आत्मनः स्वस्य आत्मविषयत्वात् संशयस्य। न हि परस्य संशयः परेण च्छेत्तव्यतां प्राप्तः येन स्वस्येति विशेष्येत। अतः आत्मविषयोऽपि स्वस्यैव भवति। छित्त्वा एनं संशयं स्वविनाशहेतुभूतम् योगं सम्यग्दर्शनोपायं कर्मानुष्ठानम् आतिष्ठ कुर्वित्यर्थः। उत्तिष्ठ च इदानीं युद्धाय भारत इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रोगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येचतुर्थोऽध्यायः।।
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तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनाऽऽत्मनः। छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।4.42।।
তস্মাদজ্ঞানসংভূতং হৃত্স্থং জ্ঞানাসিনাত্মনঃ৷ ছিত্ত্বৈনং সংশযং যোগমাতিষ্ঠোত্তিষ্ঠ ভারত৷৷4.42৷৷
তস্মাদজ্ঞানসংভূতং হৃত্স্থং জ্ঞানাসিনাত্মনঃ৷ ছিত্ত্বৈনং সংশযং যোগমাতিষ্ঠোত্তিষ্ঠ ভারত৷৷4.42৷৷
તસ્માદજ્ઞાનસંભૂતં હૃત્સ્થં જ્ઞાનાસિનાત્મનઃ। છિત્ત્વૈનં સંશયં યોગમાતિષ્ઠોત્તિષ્ઠ ભારત।।4.42।।
ਤਸ੍ਮਾਦਜ੍ਞਾਨਸਂਭੂਤਂ ਹਰਿਤ੍ਸ੍ਥਂ ਜ੍ਞਾਨਾਸਿਨਾਤ੍ਮਨ। ਛਿਤ੍ਤ੍ਵੈਨਂ ਸਂਸ਼ਯਂ ਯੋਗਮਾਤਿਸ਼੍ਠੋਤ੍ਤਿਸ਼੍ਠ ਭਾਰਤ।।4.42।।
ತಸ್ಮಾದಜ್ಞಾನಸಂಭೂತಂ ಹೃತ್ಸ್ಥಂ ಜ್ಞಾನಾಸಿನಾತ್ಮನಃ. ಛಿತ್ತ್ವೈನಂ ಸಂಶಯಂ ಯೋಗಮಾತಿಷ್ಠೋತ್ತಿಷ್ಠ ಭಾರತ৷৷4.42৷৷
തസ്മാദജ്ഞാനസംഭൂതം ഹൃത്സ്ഥം ജ്ഞാനാസിനാത്മനഃ. ഛിത്ത്വൈനം സംശയം യോഗമാതിഷ്ഠോത്തിഷ്ഠ ഭാരത৷৷4.42৷৷
ତସ୍ମାଦଜ୍ଞାନସଂଭୂତଂ ହୃତ୍ସ୍ଥଂ ଜ୍ଞାନାସିନାତ୍ମନଃ| ଛିତ୍ତ୍ବୈନଂ ସଂଶଯଂ ଯୋଗମାତିଷ୍ଠୋତ୍ତିଷ୍ଠ ଭାରତ||4.42||
tasmādajñānasaṅbhūtaṅ hṛtsthaṅ jñānāsinā৷৷tmanaḥ. chittvainaṅ saṅśayaṅ yōgamātiṣṭhōttiṣṭha bhārata৷৷4.42৷৷
தஸ்மாதஜ்ஞாநஸஂபூதஂ ஹரித்ஸ்தஂ ஜ்ஞாநாஸிநாத்மநஃ. சித்த்வைநஂ ஸஂஷயஂ யோகமாதிஷ்டோத்திஷ்ட பாரத৷৷4.42৷৷
తస్మాదజ్ఞానసంభూతం హృత్స్థం జ్ఞానాసినాత్మనః. ఛిత్త్వైనం సంశయం యోగమాతిష్ఠోత్తిష్ఠ భారత৷৷4.42৷৷
5.1
5
1
।।5.1।। अर्जुन बोले -- हे कृष्ण ! आप कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी और फिर कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं। अतः इन दोनों साधनोंमें जो एक निश्चितरूपसे कल्याणकारक हो, उसको मेरे लिये कहिये।
।।5.1।। अर्जुन ने कहा हे --  कृष्ण ! आप कर्मों के संन्यास की और फिर योग (कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों में एक जो निश्चय पूर्वक श्रेयस्कर है, उसको मेरे लिए कहिये।।
।।5.1।। अर्जुन के इस प्रश्न से स्पष्ट होता है कि अनजाने में ही वह अपनी नैराश्य अवस्था से बहुत कुछ मुक्त हुआ भगवान् के उपदेश को ध्यानपूर्वक श्रवण करके विचार भी करने लगा था। स्वभाव से क्रियाशील होने के कारण अर्जुन को कर्मयोग रुचिकर तथा स्वीकार्य था। परन्तु अनेक स्थानों पर श्रीकृष्ण द्वारा अन्य यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान अथवा कर्मसंन्यास को अधिक श्रेष्ठ प्रतिपादित करने से अर्जुन के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ और यही कारण था कि वह स्वयं के लिए किसी मार्ग का निश्चय नहीं कर सका। अत इसका निश्चय कराना ही अर्जुन के प्रश्न का प्रयोजन है।और एक बात यह भी है कि मानसिक उन्माद का रोगी उस रोग के प्रभाव से कुछ मुक्त होने पर भी शीघ्र ही पूर्ण आत्मविश्वास नहीं जुटा पाता। यह सबका अनुभव है कि भयंकर स्वप्न से जागे हुए व्यक्ति को पुन संयमित होकर निद्रा अवस्था में आने के उपक्रम में कुछ समय लग जाता है। अर्जुन की ठीक ऐसी ही स्थिति थी। मानसिक तनाव एवं उन्माद की स्थिति से बाहर आने पर भी अपने सारथी श्रीकृष्ण के उपदेश को पूर्णरूप से समझने तथा विचार करने में वह स्वयं को असमर्थ पा रहा था। अर्जुन इस निष्कर्ष पर पहुँचा था कि भगवान् उसके सामने कर्मयोग तथा कर्मसंन्यास के रूप में दो विकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं। अत वह श्रीकृष्ण से यह जानना चाहता है कि उसके आत्मकल्याण के लिये इन दोनों में से कौन सा एक निश्चित मार्ग अनुकरणीय है। इस अध्याय का प्रयोजन यह बताने का है कि ये दो मार्ग विकल्प रूप नहीं है और न ही परस्पर पूरक होते हुये युगपत अनुष्ठेय हैं।कर्मयोग तथा कर्मसंन्यास इनका इसी क्रम में आचरण करना है और न कि एक साथ दोनों का। यही इस अध्याय का विषय है।
5.1।। व्याख्या--'संन्यासं कर्मणां कृष्ण'--कौटुम्बिक स्नेहके कारण अर्जुनके मनमें युद्ध न करनेका भाव पैदा हो गया था। इसके समर्थनमें अर्जुनने पहले अध्यायमें कई तर्क और युक्तियाँ भी सामने रखीं। उन्होंने युद्ध करनेको पाप बताया (गीता 1। 45)। वे युद्ध न करके भिक्षाके अन्नसे जीवन-निर्वाह करनेको श्रेष्ठ समझने लगे (2। 5) और उन्होंने निश्चय करके भगवान्से स्पष्ट कह भी दिया कि मैं किसी भी स्थितिमें युद्ध नहीं करूँगा (2। 9)।प्रायः वक्ताके शब्दोंका अर्थ श्रोता अपने विचारके अनुसार लगाया करते हैं। स्वजनोंको देखकर अर्जुनके हृदयमें जो मोह पैदा हुआ, उसके अनुसार उन्हें युद्धरूप कर्मके त्यागकी बात उचित प्रतीत होने लगी। अतः भगवान्के शब्दोंको वे अपने विचारके अनुसार समझ रहे हैं कि भगवान् कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके प्रचलित प्रणालीके अनुसार तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी ही प्रशंसा कर रहे हैं। 'पुनर्योगं च शंससि'--चौथे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें भगवान्ने कर्मयोगीको दूसरे किसी साधनके बिना अवश्यमेव तत्त्वज्ञान प्राप्त होनेकी बात कही है। उसीको लक्ष्य करके अर्जुन भगवान्से कह रहे हैं कि कभी तो आप ज्ञानयोगकी प्रशंसा (4। 33) करते हैं और कभी कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं (4। 41)।
।।5.1।।संन्यासमिति। संन्यासः प्रधानम् पुनः योगः इति ससंशयस्य प्रश्नः।
।।5.1।।अर्जुन उवाच कर्मणां सन्यासं ज्ञानयोगं पुनः कर्मयोगं च शंससि। एतद् उक्तं भवति द्वितीये अध्यायेमुमुक्षोः प्रथमं कर्मयोग एव कार्यः कर्मयोगेन मृदितान्तःकरणकषायस्य ज्ञानयोगेन आत्मदर्शनं कार्यम् इति प्रतिपाद्य पुनः तृतीयचतुर्थयोःज्ञानयोगाधिकारदशाम् आपन्नस्य अपि कर्मनिष्ठा एव ज्यायसी सा एव ज्ञाननिष्ठानिरपेक्षा आत्मप्राप्त्येकसाधनम् इति कर्मनिष्ठां प्रशंससि इति। तत्र एतयोः ज्ञानयोगकर्मयोगयोः आत्मप्राप्तिसाधनभावे यद् एकं सौकर्यात् शैघ्र्यात् च श्रेयः श्रेष्ठम् इति सुनिश्चितम् तत् मे ब्रूहि।
।।5.1।।पूर्वोत्तराध्याययोः संबन्धमभिदधानो वृत्तानुवादपूर्वकमर्जुनप्रश्नस्याभिप्रायं प्रदर्शयितुं प्रक्रमते कर्मणीत्यादिना। इत्यारभ्य कर्मण्यकर्मदर्शनमुक्त्वा तत्प्रशंसा प्रसारितेत्याह स युक्त इति। ज्ञानवन्तं सर्वाणि कर्माणि लोकसंग्रहार्थं कुर्वन्तं ज्ञानलंक्षणेनाग्निना दग्धसर्वकर्माणं कर्मप्रयुक्तबन्धविधुरं विवेकवन्तो वदन्तीति ज्ञानवतो ज्ञानफलभूतं संन्यासं विवक्षन्विविदिषोः साधनरूपमपि संन्यासं भगवान्विवक्षितवानित्याह ज्ञानाग्नीति। निराशीरित्यारभ्य शरीरस्थितिमात्रकारणं कर्म शरीरस्थितावपि सङ्गरहितः सन्नाचरन्धर्माधर्मफलभागी न भवतीत्यपि पूर्वोत्तराभ्यामध्यायाभ्यां द्विविधं संन्यासं सूचितवानित्याह शारीरमिति। यदृच्छेत्यादावपि संन्यासः सूचितस्तद्धर्मफलायोपदेशादित्याह यदृच्छेति। ज्ञानस्य यज्ञत्वसंपादनपूर्वकं प्रशंसावचनादपि कर्मसंन्यासो दर्शितो ज्ञाननिष्ठस्येत्याह ब्रह्मार्पणमिति। ज्ञानयज्ञस्तुत्यर्थं नानाविधान्यज्ञाननूद्य तेषां देहादिव्यापारजन्यत्ववचनेनात्मनो निर्व्यापारत्वविज्ञानफलाभिलाषादपि यथोक्तमात्मानं विविदिषोः सर्वकर्मसंन्यासेऽधिकारो ध्वनित इत्याह कर्मजानिति। समस्तस्यैवावशेषवर्जितस्य कर्मणो ज्ञाने पर्यवसानाभिधानाच्च जिज्ञासोः सर्वकर्मसंन्यासः सूचित इत्याह सर्वमिति। तद्विद्धीत्यादिना ज्ञानप्राप्त्युपायं प्रणिपातादि प्रदर्श्य प्राप्तेन ज्ञानेनातिशयमाहात्म्यवता सर्वकर्मणां निवृत्तिरेवेति वदता च ज्ञानार्थिनः संन्यासेऽधिकारो दर्शितो भगवतेत्याह ज्ञानाग्निरिति। ज्ञानेन समुच्छिन्नसंशयं तस्मादेव ज्ञानात्कर्माणि संन्यस्य व्यवस्थितमप्रमत्तं वशीकृतकार्यकरणसंघातवन्तं प्रातिभासिकानि कर्माणि न निबध्नन्तीत्यपि द्विविधः संन्यासो भगवतोक्त इत्याह योगेति। कर्मणीत्यारभ्य योगसंन्यस्तकर्माणमित्यन्तैरुदाहृतैर्वचनैरुक्तं संन्यासमुपसंहरति इत्यन्तैरिति। तर्हि कर्मसंन्यासस्यैव जिज्ञासुना ज्ञानवता चादरणीयत्वात्कर्मानुष्ठानमनादेयमापन्नमित्याशङ्क्योक्तमर्थान्तरमनुवदति छित्त्वैनमिति। कर्मतत्त्यागयोरुक्तयोरेकेनैव पुरुषेणानुष्ठेयत्वसंभवान्न विरोधोऽस्तीत्याशङ्क्य युगपद्वा क्रमेण वानुष्ठानमिति विकल्प्याद्यं दूषयति उभयोश्चेति। द्वितीयं प्रत्याह कालभेदेनेति। उक्तयोर्द्वयोरेकेन पुरुषेणानुष्ठेयत्वासंभवे कथं कर्तव्यत्वसिद्धिरित्याशङ्क्याह अर्थादिति। द्वयोरुक्तयोरेकेन युगपत्क्रमाभ्यामनुष्ठानानुपपत्तेरित्यर्थः। अन्यतरस्य कर्तव्यत्वे कतरस्येति कुतो निर्णयो द्वयोः संनिधानाविशेषादित्याशङ्क्याह यत्प्रशस्यतरमिति। भगवता कर्मणां संन्यासो योगश्चोक्तो नच तयोः समुच्चित्यानुष्ठानं तेनान्यतरस्य श्रेष्ठस्यानुष्ठेयत्वे तद्बुभुत्सया प्रश्नोपपत्तिरित्युपसंहरति इत्येवमिति। नायं प्रष्टुरभिप्रायः कर्मसंन्यासकर्मयोगयोर्भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्वस्योक्तत्वादेकस्मिन्पुरुषे प्राप्त्यभावादिति शङ्कते नन्विति। चोद्यमङ्गीकृत्य परिहरति सत्यमेवेति। कीदृशस्तर्हि प्रष्टुरभिप्रायो येन प्रश्नप्रवृत्तिरिति पृच्छति कथमिति। एकस्मिन्पुरुषे कर्मतत्त्यागयोरस्ति प्राप्तिरिति प्रष्टुरभिप्रायं प्रतिनिर्देष्टुं प्रारभते पूर्वोदाहृतैरिति। यथास्वर्गकामो यजेत इति स्वर्गकामोद्देशेन यागो विधीयते नतु तस्यैवाधिकारो नान्यस्येत्यपि प्रतिपाद्यते वाक्यभेदप्रसङ्गात्तथानात्मवित्कर्ता संन्यासपक्षे प्राप्तोऽनूद्यते नचात्मवित्कर्तृकत्वमेव संन्यासस्य नियम्यते वैराग्यमात्रेणाज्ञस्यापि संन्यासविधिदर्शनात्। तस्मात्कर्मतत्त्यागयोरविद्वत्कर्तृकत्वमस्तीति मन्वानस्यार्जुनस्य प्रश्नः संभवतीति भावः। भवतु संन्यासस्य कर्तव्यत्वविवक्षा तथापि कथं प्रशस्यतरबुभुत्सया प्रश्नप्रवृत्तिरित्याशङ्क्याह प्राधान्यमिति। तथापि कथमेकस्मिन्पुरुषे तयोरप्राप्तावुक्ताभिप्रायेण प्रश्नवचनं प्रकल्प्यते तत्राह अनात्मविदपीति। आत्मविदो विद्यासामर्थ्यात्कर्मत्यागध्रौव्यवदितरस्यापि सति वैराग्ये तत्त्यागस्यावश्यकत्वात्तत्र कर्तासौ प्राप्तोऽत्रानूद्यते। तथाच कर्मतत्त्यागयोरेकस्मिन्नविदुषि प्राप्तेर्व्यक्तत्वादुक्ताभिप्रायेण प्रश्नप्रवृत्तिरविरुद्धेत्यर्थः। संन्यासस्यात्मवित्कर्तृकत्वमेवात्र विवक्षितं किं न स्यादित्याशङ्क्य कर्त्रन्तरपर्युदासः संन्यासविधिश्चेत्यर्थभेदे वाक्यभेदप्रसङ्गान्मैवमित्याह इति न पुनरिति। इतिशब्दो वाक्यभेदप्रसङ्गहेतुद्योतनार्थः। ततः किमित्याशङ्क्य फलितमाह एवमिति। कर्मानुष्ठानकर्मसंन्यासयोरविद्वत्कर्तृकत्वमप्यस्तीत्येवं मन्वानस्यार्जुनस्य प्रशस्यतरविविदिषया प्रश्नो नानुपपन्न इति संबन्धः। तयोः समुच्चित्यानुष्ठानसंभवे कथं प्रशस्यतरविविदिषेत्याशङ्क्याह पूर्वोक्तेनेति।उभयोश्चेत्यादावुक्तप्रकारेण कर्मतत्त्यागयोर्मिथो विरोधान्न समुच्चित्यानुष्ठानं सावकाशमित्यर्थः। भवतु तर्हि यस्य कस्यचिदन्यतरस्यानुष्ठेयत्वमिति कुत उक्ताभिप्रायेण प्रश्नप्रवृत्तिरित्याशङ्क्याह अन्यतरस्येति। उभयप्राप्तौ समुच्चयानुपपत्तावन्यतरपरिग्रहे विशेषस्यान्वेष्यत्वादुक्ताभिप्रायेण प्रश्नोपपत्तिरित्यर्थः। इतश्चाविद्वत्कर्तृकयोः संन्यासकर्मयोगयोः कतरः श्रेयानिति प्रष्टुरभिप्रायो भातीत्याह प्रतिवचनेति। किं तत्प्रतिवचनं कथं वा तन्निरूपणमिति पृच्छति कथमिति। तत्र प्रतिवचनं दर्शयति संन्यासेति। तन्निरूपणं कथयति एतदिति। तदुभयमिति निःश्रेयसकरत्वं कर्मयोगस्य श्रेष्ठत्वं चेत्यर्थः। गुणदोषविभागविवेकार्थं पृच्छति किंचेति। अतोऽस्मिन्नाद्ये पक्षे किं दूषणमस्मिन्वा द्वितीये पक्षे किं फलमिति प्रश्नार्थः। तत्र सिद्धान्ती प्रथमपक्षे दोषमादर्शयति अत्रेत्यादिना। तदेवानुपपन्नत्वं व्यतिरेकद्वारा विवृणोति यदीत्यादिना। निःश्रेयसकरत्वोक्तिरित्यत्र पारम्पर्येणेति द्रष्टव्यम् विशिष्टत्वाभिधानमिति प्रतियोगिनोऽसहायत्वादस्य च शुद्धिद्वारा ज्ञानार्थत्वादित्यर्थः। आत्मज्ञस्य कर्मसंन्यासकर्मयोगयोरसंभवे दर्शिते चोदयति अत्राहेति। चोदयिता निर्धारणार्थं विमृशति किमित्यादिना। अन्यतरासंभवेऽपि संदेहात्प्रश्नोऽवतरतीत्याह यदा चेति। यस्य कस्यचिदन्यतरस्यासंभवो भविष्यतीत्याशङ्क्य कारणमन्तरेणासंभवो भवन्नतिप्रसङ्गः स्यादिति मन्वानः सन्नाह असंभव इति। आत्मविदः सकारणं कर्मयोगासंभवं सिद्धान्ती दर्शयति अत्रेति। संग्रहवाक्यं विवृण्वन्नात्मवित्त्वं विवृणोति जन्मादीति। तस्य यदुक्तं निवृत्तमिथ्याज्ञानत्वं तदिदानीं व्यनक्ति सम्यगिति। विपर्ययज्ञानमूलस्येत्यादिनोक्तं प्रपञ्चयति निष्क्रियेति। यथोक्तसंन्यासमुक्त्वा ततो विपरीतस्य कर्मयोगस्याभावः प्रतिपाद्यत इति संबन्धः। वैपरीत्यं स्फोरयन्कर्मयोगमेव विशिनष्टि मिथ्याज्ञानेति। मिथ्या च तदज्ञानं चेत्यनाद्यनिर्वाच्यमज्ञानं तन्मूलोऽहं कर्तेत्यात्मनि कर्तृत्वाभिमानस्तज्जन्यस्तस्येति यावत्। यथोक्तं संन्यासमुक्त्वा यथोक्तकर्मयोगस्यासंभवप्रतिपादने हेतुमाह सम्यग्ज्ञानेति। कुत्र तदभावप्रतिपादनं तदाह इहेति। उक्तं हेतुं कृत्वात्मज्ञस्य कर्मयोगसंभवे फलितमाह यस्मादिति। इह शास्त्रे तत्र तत्रेत्यादावुक्तमेव व्यक्तीकर्तुं पृच्छति केषु केष्विति। तानेव प्रदेशान्दर्शयति अत्रेति। आत्मस्वरूपनिरूपणप्रदेशेषु संन्यासप्रतिपादनादात्मविदः संन्यासो विवक्षितश्चेत्तर्हि कर्मयोगोऽपि तस्य कस्मान्न भवति प्रकरणाविशेषादिति शङ्कते ननु चेति। आत्मविद्याप्रकरणे कर्मयोगप्रतिपादनमुदाहरति तद्यथेति। प्रकरणादात्मविदोऽपि कर्मयोगस्य संभवे फलितमाह अतश्चेति। आत्मज्ञानोपायत्वेनापि प्रकरणपाठसिद्धौ ज्ञानादूर्ध्वं न्यायविरुद्धं कर्म कल्पयितुमशक्यमिति परिहरति अत्रोच्यत इति। सम्यग्ज्ञानमिथ्याज्ञानयोस्तत्कार्ययोश्च भ्रमनिवृत्तिभ्रमसद्भावयोर्मिथो विरोधात्कर्तृत्वादिभ्रममूलं कर्म सम्यग्ज्ञानादूर्ध्वं न संभवतीत्यर्थः। आत्मज्ञस्य कर्मयोगासंभवे हेत्वन्तरमाह ज्ञानयोगेनेति। इतश्चात्मविदो ज्ञानादूर्ध्वं कर्मयोगो न युक्तिमानित्याह कृतकृत्यत्वेनेति। ज्ञानवतो नास्ति कर्मेत्यत्र कारणान्तरमाह तस्येति। तर्हि ज्ञानवता कर्मयोगस्य हेयत्ववज्जिज्ञासुनापि तस्य त्याज्यत्वं ज्ञानप्राप्त्या तस्यापि पुरुषार्थसिद्धेरित्याशङ्क्य जिज्ञासोरस्ति कर्मयोगापेक्षेत्याह न कर्मणामिति। स्वरूपोपकार्यङ्गमन्तरेणाङ्गिस्वरूपानिष्पत्तेर्ज्ञानार्थिना कर्मयोगस्य शुद्ध्यादिद्वारा ज्ञानहेतोरादेयत्वमित्यर्थः। तर्हि ज्ञानवतामपि ज्ञानफलोपकारित्वेन कर्मयोगो मृग्यतामित्याशङ्क्याह योगारूढस्येति। उत्पन्नसम्यग्ज्ञानस्य कर्माभावे शरीरस्थितिहेतोरपि कर्मणोऽसंभवान्न तस्य शरीरस्थितिस्तदस्थितौ च कुतो जीवन्मुक्तिस्तदभावे च कस्योपदेष्ट्टत्वमुपदेशाभावे च कुतो ज्ञानोदयः स्यादित्याशङ्क्याह शारीरमिति। विदुषोऽपि शरीरस्थितिरास्थिता चेत्तन्मात्रप्रयुक्तेषु दर्शनश्रवणादिषु कर्तृत्वाभिमानोऽपि स्यादित्याशङ्क्याह नैवेति। तत्त्वविदित्यनेन च समाहितचेतस्तया करोमीति प्रत्ययस्य सदैवाकर्तव्यत्वोपदेशादिति संबन्धः। यत्तु विदुषः शरीरस्थितिनिमित्तकर्माभ्यनुज्ञाने तस्मिन्कर्तृत्वाभिमानोऽपि स्यादिति तत्राह शरीरेति। आत्मयाथात्म्यविदस्तेष्वपि नाहं करोमीति प्रत्ययस्य नैव किंचित्करोमीत्यादावकर्तृत्वोपदेशान्न कर्तृत्वाभिमानसंभावनेत्यर्थः। यथोक्तोपदेशानुसंधानाभावे विदुषोऽपि करोमीति स्वाभाविकप्रत्ययद्वारा कर्मयोगः स्यादित्याशङ्क्याह आत्मतत्त्वेति। यद्यपि विद्वान्यथोक्तमुपदेशं कदाचिन्नानुसंधत्ते तथापि तत्त्वविद्याविरोधान्मिथ्याज्ञानं तन्निमित्तं कर्म वा तस्य संभावयितुमशक्यमित्यर्थः। आत्मवित्कर्तृकयोः संन्यासकर्मयोगयोरयोगात्तयोर्निःश्रेयसकरत्वमन्यतरस्य विशिष्टत्वमित्येतदयुक्तमिति सिद्धत्वाद्द्वितीयं पक्षमङ्गीकरोति यस्मादित्यादिना। तदीयाच्च कर्मसंन्यासात्कर्मयोगस्य विशिष्टत्वाभिधानमिति संबन्धः। ननु कर्मयोगेन शुद्धबुद्धेः संन्यासो जायमानस्तस्मादुत्कृष्यते कथं तस्मात्कर्मयोगस्योत्कृष्टत्ववाचोयुक्तिर्युक्तेति तत्राह पूर्वोक्तेति। वैलक्षण्यमेव स्पष्टयति सत्येवेति। स्वाश्रमविहितश्रवणादौ कर्तृत्वविज्ञाने सत्येव पूर्वाश्रमोपात्तकर्मैकदेशविषयसंन्यासात्कर्मयोगस्य श्रेयस्त्ववचनंनैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तम् इत्यादिस्मृतिविरुद्धमित्याशङ्क्याह यमनियमादीति।आनृशंस्यं क्षमा सत्यमहिंसा दम आर्जवम्। प्रीतिः प्रसादो माधुर्यमक्रोधश्च यमा दश।।दानमिज्या तपो ध्यानं स्वाध्यायोपस्थनिग्रहौ। व्रतोपवासौ मौनं च स्नानं च नियमा दश।। इत्युक्तैर्यमनियमैरन्यैश्चाश्रमधर्मैर्विशिष्टत्वेनानुष्ठातुमशक्यत्वादुक्तसंन्यासात्कर्मयोगस्य विशिष्टत्वोक्तिर्युक्तेत्यर्थः। नहि कश्चिदिति न्यायेन कर्मयोगस्येतरापेक्षया सुकरत्वाच्च तस्य विशिष्टत्ववचनं श्लिष्टमित्याह सुकरत्वेन चेति। प्रतिवचनवाक्यार्थालोचनात्सिद्धमर्थमुपसंहरति इत्येवमिति। संन्यासकर्मयोगयोर्मिथोविरुद्धयोः समुच्चित्यानुष्ठातुमशक्ययोरन्यतरस्य कर्तव्यत्वे प्रशस्यतरस्य तद्भावात्तद्भावस्य चानिर्धारितत्वात्तन्निर्दिधारयिषया प्रश्नः स्यादिति प्रश्नवाक्यार्थपर्यालोचनया प्रष्टुरभिप्रायो यथा पूर्वमुपदिष्टस्तथा प्रतिवचनार्थनिरूपणेनापि तस्य निश्चितत्वात्प्रश्नोपपत्तिः सिद्धेत्यर्थः। ननु तृतीये यथोक्तप्रश्नस्य भगवता निर्णीतत्वान्नात्र प्रश्नप्रतिवचनयोः सावकाशत्वमित्याशङ्क्य विस्तरेणोक्तमेव संबन्धं पुनः संक्षेपतो दर्शयति ज्यायसी चेदिति। सांख्ययोगयोर्भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्वेन निर्णीतत्वान्न पुनः प्रश्नयोग्यत्वमित्यर्थः। इतोऽपि न तयोः प्रश्नविषयत्वमित्याह नचेति। एवकारविशेषणाज्ज्ञानसहितसंन्यासस्य सिद्धसाधनत्वं भगवतोऽभिमतंछित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठ इति च कर्मयोगस्य विधानात्तस्यापि सिद्धसाधनत्वमिष्टं ततश्च निर्णीतत्वान्न प्रश्नस्तद्विषयः सिध्यतीत्यर्थः। केनाभिप्रायेण तर्हि प्रश्नः स्यादित्याशङ्क्य ज्ञानरहितसंन्यासात्कर्मयोगस्य प्रशस्यतरत्वबुभुत्सयेत्याह ज्ञानरहित इति। प्रष्टुरभिप्रायमेवं प्रदर्श्य प्रश्नोपपत्तिमुक्त्वा प्रश्नमुत्थापयति संन्यासमिति। तर्हि द्वयं त्वयानुष्ठेयमित्याशङ्क्य तदशक्तेरुक्तत्वात्प्रशस्यतरस्यानुष्ठानार्थं तदिदमिति निश्चित्य वक्तव्यमित्याह यच्छ्रेय इति। काम्यानां प्रतिषिद्धानां च कर्मणां परित्यागो मयोच्यते न सर्वेषामित्याशङ्क्य कर्मण्यकर्मेत्यादौ विशेषदर्शनान्मैवमित्याह शास्त्रीयाणामिति। अस्तु तर्हि शास्त्रीयाशास्त्रीययोरशेषयोरपि कर्मणोस्त्यागो नेत्याह पुनरिति। तर्हि कर्मत्यागस्तद्योगश्चेत्युभयमाहर्तव्यमित्याशङ्क्य विरोधान्मैवमित्यभिप्रेत्याह अत इति। द्वयोरेकेनानुष्ठानायोगस्योक्तत्वात्कर्तव्यत्वोक्तेश्च संशयो जायते तमेव संशयं विशदयति किं कर्मेति। प्रशस्यतरबुभुत्सा किमर्थेत्याशङ्क्याह प्रशस्यतरं चेति। तस्यैवानुष्ठेयत्वे प्रश्नस्य सावकाशत्वमाह अतश्चेति। तदेव प्रशस्यतरं विशिनष्टि यदनुष्ठानादिति। तदेकमन्यतरन्मे ब्रूहीति संबन्धः। उभयोरुक्तत्वे सति किमित्येकं वक्तव्यमिति नियुज्यते तत्राह सहेति। कर्मतत्त्यागयोर्मिथो विरोधादित्यर्थः।
।।5.1।।साङ्ख्ययोगैकार्थमतं स्वकर्मकरणं बहिः। इत्यबुद्ध्वा निजश्रेयोनिश्चये पृच्छति क्षमम्।।1।।अर्जुन उवाच सन्न्यासमिति। साङ्ख्यानामेव कर्मणां सन्न्यासं त्यागं कथयसि योगं च। तत्र कर्मणां पुनर्योगे सम्बन्धं वा कथयसि। नहि कर्मसन्न्यासः कर्मयोगश्चैकस्यैकदैव सम्भवतः विरुद्धस्वरूपत्वात्। तस्मादेकं सुनिश्चितं मम श्रेयो वद।
।।5.1।।अध्यायाभ्यां कृतो द्वाभ्यां निर्णयः कर्मबोधयोः। कर्मतत्त्यागयोर्द्वाभ्यां निर्णयः क्रियतेऽधुना।।तृतीयेऽध्यायेज्यायसी चेत्कर्मणस्ते इत्यादिनाऽर्जुनेन पृष्टो भगवाञ्ज्ञानकर्मणोर्विकल्पसमुच्चयासंभवेनाधिकारिभेदव्यवस्थयालोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया इत्यादिना निर्णयं कृतवान्। तथाचाज्ञाधिकारिकं कर्म न ज्ञानेन सह समुच्चीयते तेजस्तिमिरयोरिव युगपदसंभवात् कर्माधिकारहेतुभेदबुद्ध्यपनोदकत्वेन ज्ञानस्य तद्विरोधित्वात्। नापि विकल्प्यते एकार्थत्वाभावात् ज्ञानकार्यस्याज्ञाननाशस्य कर्मणा कर्तुमशक्यत्वात्।तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इति श्रुतेः। ज्ञाने जाते तु कर्मकार्यं नापेक्ष्यत एवेत्युक्तंयावानर्थ उदपाने इत्यत्र। तथाच ज्ञानिनः कर्मानधिकारे निश्चिते प्रारब्धकर्मवशाद्वृथाचेष्टारूपेण तदनुष्ठानं वा सर्वकर्मसंन्यासो वेति निर्विवादं चतुर्थे निर्णीतम्। अज्ञेन त्वन्तःकरणशुद्धिद्वारा ज्ञानोत्पत्तये कर्माण्यनुष्ठेयानितमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुतेःसर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते इति भगवद्वचनाच्च। एवं सर्वाणि कर्माणि ज्ञानार्थानि तथा सर्वकर्मसंन्यासोऽपि ज्ञानार्थः श्रूयतेएतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्तिशान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत्त्यजतैव हि तज्ज्ञेयं त्यक्तुः प्रत्यक् परं पदम्सत्यानृते सुखदुःखे वेदानिमं लोकममुं च परित्यज्यात्मानमन्विच्छेत् इत्यादौ। तत्र कर्मतत्त्यागयोरारादुपकारकसन्निपत्योपकारकयोः प्रयाजावघातयोरिव न समुच्चयः संभवति विरुद्धत्वेन यौगपद्याभावात्। नापि कर्मतत्त्यागयोरात्मज्ञानमात्रफलत्वेनैकार्थत्वादतिरात्रार्थयोः षोडशिग्रहणाग्रहणयोरिव विकल्पः स्यात् द्वारभेदेनैकार्थत्वाभावात्। कर्मणो हि पाक्षयरूपमदृष्टमेव द्वारम् संन्यासस्य तु सर्वविक्षेपाभावेन विचारावसरदानरूपं दृष्टमेव द्वारम् नियमापूर्वं तु दृष्टसमवायित्वादवघातादाविव न प्रयोजकम्। तथा चादृष्टार्थयोरारादुपकारकसन्निपत्योपकारकयोरेकप्रधानार्थत्वेऽपि विकल्पो नास्त्येव। प्रयाजावघातादीनामपि तत्प्रसङ्गात्। तस्मात्क्रमेणोभयमप्यनुष्ठेयम्। तत्रापि संन्यासानन्तरं कर्मानुष्ठानं चेत्तदा परित्यक्तपूर्वाश्रमस्वीकारेणारूढपतित्वात्कर्मानधिकारित्वं प्राक्तनसंन्यासवैयर्थ्यं च तस्यादृष्टार्थत्वाभावात्। प्रथमकृतसंन्यासेनैव ज्ञानाधिकारलाभे तदुत्तरकाले कर्मानुष्ठानवैयर्थ्यं च। तस्मादादौ भगवदर्पणबुद्ध्या निष्कामकर्मानुष्ठानादन्तःकरणशुद्धौ तीव्रेण वैराग्येण विविदिषायां दृढायां सर्वकर्मसंन्यासः श्रवणमननादिरूपवेदान्तवाक्यविचाराय कर्तव्य इति भगवतो मतम्। तथाचोक्तंन कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते इति। वक्ष्यते चआरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।। इति। योगोऽत्र तीव्रवैराग्यपूर्विका विविदिषा। तदुक्तं वार्तिककारैःप्रत्यग्विविदिषासिद्ध्यै वेदानुवचनादयः। ब्रह्मावाप्त्यै तु तत्त्यागमीप्सन्तीति श्रुतेर्बलात्।। इति। स्मृतिश्चकषायपक्तिः कर्माणि ज्ञानं तु परमा गतिः। कषाये कर्मभिः पक्वे ततो ज्ञानं प्रवर्तते।। इति। मोक्षधर्मे चकषायं पाचयित्वा च श्रेणीस्थानेषु च त्रिषु। प्रव्रजेच्च परं स्थानं पारिव्राज्यमनुत्तमम्।।भावितैः करणैश्चायं बहुसंसारयोनिषु। आसादयति शुद्धात्मा मोक्षं वै प्रथमाश्रमे।।तमासाद्य तु मुक्तस्य दृष्टार्थस्य विपश्चितः। त्रिष्वाश्रमेषु कोन्वर्थो भवेत्परमभीप्सितः।। इति। मोक्षं वैराग्यम्। एतेन क्रमाक्रमसंन्यासौ द्वावपि दर्शितौ। तथाच श्रुतिःब्रह्मचर्यं समाप्य गृही भवेद्गृहाद्वनीभूत्वा प्रव्रजेद्यदिवेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वा वनाद्वा यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत् इति। तस्मादज्ञस्याविरक्ततादशायां कर्मानुष्ठानमेव। तस्यैव विरक्ततादशायां संन्यासः श्रवणाद्यवसरदानेन ज्ञानार्थ इति दशाभेदेनाज्ञमधिकृत्यैव कर्मतत्त्यागौ व्याख्यातुं पञ्चमषष्ठावध्यायावारभ्येते। विद्वत्संन्यासस्तु ज्ञानबलादर्थसिद्धि एवेति संदेहाभावान्नात्र विचार्यते। तत्रैकमेव जिज्ञासुमज्ञं प्रति ज्ञानार्थत्वेन कर्मतत्त्यागयोर्विधानात्तयोश्च विरुद्धयोर्युगपदनुष्ठानासंभवान्मया जिज्ञासुना किमिदानीमनुष्ठेयमिति संदिहानः अर्जुन उवाच हे कृष्ण सदानन्दरूप भक्तदुःखकर्षणेति वा। कर्मणां यावज्जीवादिश्रुतिविहितानां नित्यानां नैमित्तिकानां च संन्यासं त्यागं जिज्ञासुमज्ञं प्रति कथयसि वेदमुखेन पुनस्तद्विरुद्धं योगं च कर्मानुष्ठानरूपं शंससि।एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्तितमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन इत्यादिवाक्यद्वयेन।निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः। शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत इति गीतावाक्यद्वयेन वा। तत्रैकमज्ञं प्रति कर्मतत्त्यागयोर्विधानाद्युगपदुभयानुष्ठानासंभवादेतयोः कर्मतत्त्यागयोर्मध्ये यदेकं श्रेयः प्रशस्यतरं मन्यसे कर्म वा तत्त्यागं वा तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितं तव मतमनुष्ठानाय।
।।5.1।।निर्वाय संशयं जिष्णोः कर्मसंन्यासयोगयोः। जितेन्द्रियस्य च यतेः पञ्चमे मुक्तिमब्रवीत्।।1।।अज्ञानसंभूतं संशयं ज्ञानासिना छित्त्वा कर्मयोगमातिष्ठेत्युक्तं तत्र पूर्वापरविरोधं मन्वानोऽर्जुन उवाच संन्यासमिति।यस्त्वात्मरतिरेव स्यात् इत्यादिनासर्वं कर्माखिलं पार्थ इत्यादिना च ज्ञानिनः कर्मसंन्यासं कथयसि। ज्ञानासिना संशयं छित्त्वा योगमातिष्ठेति पुनर्योगं च कथयसि। न च कर्मसंन्यासः कर्मयोगश्चैकस्यैकदैव संभवतः विरुद्धस्वरूपत्वात्। तस्मादेतयोर्मध्ये एकस्मिन्ननुष्ठातव्ये सति मम यच्छ्रेयः श्रेष्ठं सुनिश्चितं तदेकं ब्रूहि।
।।5.1।।अथ पञ्चमस्यांशतस्तृतीयचतुर्थाभ्यां सङ्गतिप्रदर्शनायोक्तानुक्तांशविवेकेन पञ्चमस्यानुक्तांशे तात्पर्यप्रदर्शनाय चाह चतुर्थेऽध्याय इति।कर्मयोगस्य ज्ञानाकारतेत्यादिकं चतुर्थाध्यायप्रधानार्थोऽयमिति द्योतनार्थं सङ्गतिप्रदेशप्रदर्शनार्थं च।तृतीय एवेति कर्तव्यतोपदेशलक्षण एवेत्यर्थः। पञ्चमार्थमाह इदानीमिति। अत्रैवं सङ्ग्रहश्लोकः कर्मयोगस्य सौकर्यं शैघ्र्यं काश्चन तद्विधाः। ब्रह्मज्ञानप्रकारश्च पञ्चमाध्याय उच्यते गी.सं.9 इति। अत्रसौकर्यं शैघ्र्यं इति सङ्गृहीतत्वेऽपि भाष्ये शैघ्र्यमात्रवचनं सौकर्यस्य तृतीयाध्यायोक्तस्यैवानुवादः पञ्चमे शैघ्र्यौपयिकतया क्रियत इति ज्ञापनार्थम् शैघ्र्यं तु तत्रानुक्तत्वादत्र साक्षात्प्रतिपाद्यम्।काश्चन तद्विधाःब्रह्मज्ञानप्रकारश्च इत्युभयोर्व्याख्यानरूपेणकर्मयोगेत्यादिना तृतीयचतुर्थाभ्यामंशतः सङ्गतिरुक्ता भवति।ज्ञाननिष्ठाया इति पञ्चमी। तत्रप्रकारशब्देनविशोध्यत इति वचनाच्चानुक्तांशतात्पर्येणापौनरुक्त्यं दर्शितम्।तन्मूलं ज्ञानमिति विपाकदशापन्नज्ञानं विवक्षितम्।अथतद्विद्धि प्रणिपातेन 4।34 इत्येतदनुसन्दधानोऽनुक्तमपेक्षितमंशं सञ्चिज्ञासुरुक्तमेवार्थं परिपृच्छन्नर्जुन उवाचसन्न्यासं इति। सन्न्यासयोगशब्दावत्र प्रकृतवक्ष्यमाणसाङ्ख्ययोगविषयतया नाथान्तरपरावित्यभिप्रायेणाह कर्मणां सन्न्यासं ज्ञानयोगमिति। कर्मणामित्येतदुभयान्वितम्। ननु कर्मयोगस्य त्याज्यत्वं क्वचिदपि नोक्तम् प्रत्युत तदेवोपादेयतया प्रपञ्चितम् न च ज्ञानयोगस्य प्रशंसा क्वापि कृता येनसन्न्यासं৷৷.योगं च शंससि इत्युच्यते उभयोः प्रशंसने कृतेऽपि विकल्प इत्येव मन्तव्यं न पुनरन्यतराधिक्यप्रश्नावकाश इत्यत्राह एतदुक्तमिति।प्रतिपाद्येत्यन्तेनसन्न्यासं कर्मणाम् इत्यस्याभिप्रायो विवृतः। कषायनिवृत्त्यर्थः कर्मयोगः तन्निवृत्तौ कर्मयोगं परित्यज्य ज्ञानयोग उपादेयः अतो ज्ञानयोग एवात्मदर्शने साक्षात्साधनमिति द्वितीये प्रतिपादितमिति भावः। पूर्वं सन्न्यस्तस्य पुनर्योगं शंससीति भ्रमव्युदासायशंससि इत्यनेन पुनःशब्दान्वयमाह तृतीयचतुर्थयोरिति।द्वितीये इत्येतत्तृतीयचतुर्थयोः इत्येतच्च भाष्यकारैः स्वानुसन्धानेनोक्तम् न पुनरर्जुनवाक्यानुकारः। अत्र मृदितकषायस्य कर्मयोगस्त्याज्यश्चेत्कथमुपादेयः ज्ञानयोगस्य दर्शनसाधनत्वे कथमव्यवधानेन तत्सम्भव इति भावः।कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः 3।8 इति ज्यायस्त्वेन शंसनमित्यभिप्रायेणाहप्रशंससीति।तत्रेति द्वयोरप्यव्यवहितसाधनत्वे विवक्षिते इत्यर्थः।एतयोरित्यत्र निर्धारितान्यतरविषय एकशब्दः। तत्र सामान्याकारविवक्षया नपुंसकत्वं श्रेयश्शब्दविशेषणतया वा।सौकर्याच्छैघ्र्याच्चेति फलस्यैकत्वात्तन्निबन्धनं श्रैष्ठ्यमिहायुक्तमिति भावः। श्रेयः सुनिश्चितमित्यन्वयः। श्रेयस्त्वेन सुनिश्चितमित्यर्थः। क्रियाविशेषणत्वं तु निरर्थकमित्यभिप्रायेणाहश्रेष्ठमिति।सुनिश्चितमिति श्रेयश्शब्दस्य फलादिष्वपि प्रयोगप्राचुर्यात्तद्व्युदासाय तारतम्यप्रश्नानुगुण्येन प्रकृतिप्रत्ययार्थव्यञ्जनाय श्रेष्ठशब्देन व्याख्यातम्। अत्रैकफलसाधनत्वाद्विकल्पे प्राप्ते सौकर्यादिगुणयोगाच्छ्रेयस्त्वोक्तिः।
।।5.1।।सन्न्यासं कर्मयोगं च श्रीकृष्णोक्तं धनञ्जयः। श्रुत्वा संशयमापन्नः पुनः प्रश्नं चकार ह।।अर्जुन उवाच सन्न्यासमिति। हे कृष्ण सदानन्द आनन्दैकदानयोग्य कर्मणां सन्न्यासं त्यागंन मां कर्माणि 4।14 इत्यारभ्यकृत्वाऽपि न निबध्यते 4।22 इत्यन्तं शंससि पुनःयोगमातिष्ठ 4।42 इत्यनेन योगं च शंससि। एतयोरुभयोर्मध्ये एकं सुनिश्चितं निर्धारितं ब्रूहि। च पुनरेतयोरुभयोः सकाशादेकमन्यद्यच्छ्रेयः श्रेयोरूपं भक्तिरूपं भवेत् तन्मे मम त्वदीयस्य सुनिश्चितं संशयरूपं ब्रूहि।
।।5.1।।तृतीयेऽध्यायेलोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा इति विभिन्नाधिकारिकं निष्ठाद्वयं प्रस्तुत्यन कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते इत्यादिना कर्मनिष्ठाया ज्ञाननिष्ठाङ्गत्वेन भूयसा निर्बन्धेनानुष्ठेयत्वमुक्तम्कर्मण्येवाधिकारस्ते इत्यादिना। चतुर्थे तूत्पन्नसम्यग्दर्शनैः कृतमपि कर्माकृतमेव भवति ज्ञानेन कर्तृत्वादिबाधात्। अतस्तैर्वृथाचेष्टावत्कर्म वा कर्तव्यं संन्यासो वा कर्तव्य इत्यनास्थया प्रोक्तम्। अथेदानीं पञ्चमषष्ठयोरज्ञानिना ज्ञानार्थिना वैराग्योत्पत्तेः प्राक्कर्मैवानुष्ठेयम्। संपन्ने तु वैराग्ये दृष्टविक्षेपनिवृत्त्यर्थं कर्मसंन्यासं कृत्वा ज्ञानोत्पत्त्यर्थं योगोऽनुष्ठेय इत्युच्यते। तत्र चतुर्थेत्यक्तसर्वपरिग्रहः इति संन्यासोयोगमातिष्ठ इति कर्मयोगश्चैकं मां प्रति विहितः। न चैतयोः स्थितिगतिवद्युगपदेकेन मयानुष्ठानं कर्तुं शक्यते परस्परविरुद्धत्वादिति मन्वानोऽर्जुन उवाच संन्यासमिति। हे कृष्ण पापकर्षण मे मह्यं ज्ञानार्थिने संन्यासं कर्मयोगं चेति द्वयं परस्परविरुद्धं कथं शंससि कथयसि। पुनरित्यनेन प्रागपि त्वया वेदकर्त्रा इदं द्वयं विहितमस्तीति गम्यते। तथाच श्रुतिस्मृति भवतःएतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्तिसंसारमेवं निःसारं दृष्ट्वा सारदिदृक्षया। प्रव्रजन्त्यकृतोद्वाहाः परं वैराग्यमास्थिताः। इति च। तथातमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इतिमहायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः इति च। ब्राह्मी ब्रह्मदर्शनयोग्या। अत एतयोः श्रुतिविहितत्वेन प्रशस्यतयोर्मध्ये एकं श्रेयः प्रशस्तरं यत्तन्मे सुनिश्चितं ब्रूहीति प्रश्नः।
।।5.1।।निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः। शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्। यदृच्छालाभसंतुष्टः इत्यादिना सर्वकर्मसन्यासंछित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोतिष्ठ भारत इति कर्मयोगं च श्रुत्वोभयोश्च स्थितिगतिवत्परस्परविरोधादेकेन सह कर्तुमशक्यत्वात् कालभेदेन विधानाभावादर्थात्तयोरन्यतरस्य कर्तव्यताप्राप्तौ सत्यामज्ञस्याशुद्धचेतस एतयोः संन्यासकर्मयोग्योः किं श्रेयस्करमिति बुभुत्सयार्जुन उवाच संन्यासमिति। संन्यासं परित्यागं कर्मणां शास्त्रीयाणामनुष्ठानविशेषाणां पुनस्तेषामनुष्ठानं च।एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रवजन्तितमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इत्यादि वेदमूलकैः पूर्वोक्तैर्वचनैः शंससि कथयसि। कृष्णेति संबोधयन् मया त्यागः कर्तव्य उत कर्मानुष्ठेयमिति तत्रतत्र मच्चित्ताकर्षणं करोषीति सूचयति। अतो मे कतरच्छ्रेय इति संशयो भवति तस्माद्यदेतयोरेकं प्रशस्यतरं सुनिश्चितं तन्मे ब्रूहि निःसंशयाय।
5.1 संन्यासम् renunciation? कर्मणाम् of actions? कृष्ण O Krishna? पुनः again? योगम् Yoga? च and? शंससि (Thou) praisest? यत् which? श्रेयः better? एतयोः of these two? एकम् one? तत् that? मे to me? ब्रूहि tell? सुनिश्चितम् conclusively.Commentary Thou teachest renunciation of actions and also their performance. This has confused me. Tell decisively now which is better. It is not possible for a man to resort to both of them at the same time. Yoga here means Karma Yoga. (Cf.III.2)
5.1 Arjuna said Renunciation of actions, O Krishna, Thou praisest, and again Yoga. Tell me conclusively that which is the better of the two.
5.1 "Arjuna said: My Lord! At one moment Thou praisest renunciation of action; at another, right action. Tell me truly, I pray, which of these is the more conducive to my highest welfare?
5.1 Arjuna said O Krsna, You praise renunciation of actions, and again, (Karma-) yoga. Tell me for certain that one which is better between these two.
5.1 (O Krsna,) samsasi, You praise, i.e. speak of; sannyasam, renunciation; karmanam, of actions, of performance of various kinds of rites enjoined by the scriptures; punah ca, and again; You praise yogam, yoga, the obligatory performance of those very rites! Therefore I have a doubt as to which is better-Is the performance of actions better, or their rejection? And that which is better should be undertaken. And hence, bruhi, tell; mam, me; suniscitam, for certain, as the one intended by You; tat ekam, that one-one of the two, since performance of the two together by the same person is impossible; yat, which; is sreyah, better, more commendable; etayoh, between these two, between the renunciation of actions and the performance of actions [Ast. reads karma-yoga-anusthana (performance of Karma-yoga) in place of karma-anusthana (performance of actions).-Tr.], by undertaking which you think I shall acire what is beneficial. While stating His own opinion in order to arrive at a conclusion-
5.1. Arjuna said O krsna, you commend renunciation of action and again the Yoga of action; which one of these two is superior [to the other] ? Please tell me that for certain.
5.1 Samnyasam etc. Is renunciation superior or Yoga ? this is the estion of the doubting person (Arjuna).
5.1 Arjuna said 'You praise the renunciation of actions, i.e., Jnana Yoga at one time, and next Karma Yoga'. This is what is objected to: In the second chapter, you have said that Karma Yoga alone should be practised first by an aspirant for release; and that the vision of the self should be achieved by means of Jnana Yoga by one whose mind has its blemishes washed away by Karma Yoga. Again, in the third and fourth chapters, you have praised Karma Yoga or devotion to Karma as better than Jnana Yoga even for one who has attained the stage of Jnana Yoga, and that, as a means of attaining the self, it (Karma Yoga) is independent of Jnana Yoga. Therefore, of these two, Jnana Yoga and Karma Yoga - tell me precisely which by itself is superior, i.e., most excellent, being more easy to practise, and icker to confer the vision of the self.
5.1 Arjuna said You praise, O Krsna, the renunciation of actions and then praise Karma Yoga also. Tell me with certainly which of these is the superior one leading to the ultimate good.
।।5.1।।केवल संन्यास करनेमात्रसे ही सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है इस वचनसे ज्ञानसहित संन्यासको ही सिद्धिका साधन माना है साथ ही कर्मयोगका भी विधान किया है इसलिये ज्ञानरहित संन्यास कल्याणकर हैअथवा कर्मयोग इन दोनोंकी विशेषता जाननेकी इच्छासे अर्जुन बोला आप पहले तो शास्त्रोक्त बहुत प्रकारके अनुष्ठानरूप कर्मोंका त्याग करनेके लिये कहते हैं अर्थात् उपदेश करते हैं और फिर उनके अनुष्ठानकी अवश्यकर्तव्यतारूप योगको भी बतलाते हैं। इसलिये मुझे यह शङ्का होती है कि इनमेंसे कौनसा श्रेयस्कर है। कर्मोंका अनुष्ठान करना कल्याणकर है अथवा उनका त्याग करना जो श्रेष्ठतर हो उसीका अनुष्ठान करना चाहिये इसलिये इन कर्मसंन्यास और कर्मयोगमें जो श्रेष्ठ हो अर्थात् जिसका अनुष्ठान करनेसे आप यह मानते हैं कि मुझे कल्याणकी प्राप्ति होगी उस भलीभाँति निश्चय किये हुए एक ही अभिप्रायको अलग करके कहिये क्योंकि एक पुरुषद्वारा एक साथ दोनोंका अनुष्ठान होना असम्भव है।
।।5.1।। संन्यासं परित्यागं कर्मणां शास्त्रीयाणाम् अनुष्ठेयविशेषाणां शंससि प्रशंससि कथयसि इत्येतत्। पुनः योगं च तेषामेव अनुष्ठानम् अवश्यकर्तव्यंत्वं शंससि। अतः मे कतरत् श्रेयः इति संशयः किं कर्मानुष्ठानं श्रेयः किं वा तद्धानम् इति। प्रशस्यतरं च अनुष्ठेयम्। अतश्च यत् श्रेयः प्रशस्यतरम् एतयोः कर्मसंन्यासकर्मयोगयोः यदनुष्ठानात् श्रेयोऽवाप्तिः मम स्यादिति मन्यसे तत् एकम् अन्यतरत् सह एकपुरुषानुष्ठेयत्वासंभवात् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् अभिप्रेतं तवेति।।स्वाभिप्रायम् आचक्षाणो निर्णयाय श्रीभगवानुवाच
।।5.1।।पूर्वसङ्गतत्वेनैतदध्यायप्रतिपादनमर्थमाह तृतीयेति। कर्मयोगो नाम कर्माणि कृत्वा तेषां ब्रह्मात्मकत्वज्ञानमिति कश्चित् तद्व्यावर्तयितुमेवशब्दः। फलकामनादित्यागेनेश्वरार्पणबुद्ध्या वर्णाश्रमविहितकर्मानुष्ठानमेव कर्मयोगोऽत्र प्रपञ्च्यते तस्यैव पूर्वमुक्तत्वात् नान्यः तस्याप्रकृत्वात्। द्व्यंशश्चायं कर्मयोगः कामादिवर्जनमीश्वरार्पणबुद्ध्या कर्मानुष्ठानं चेति। तत्राद्यं सन्न्यासशब्दोक्तम् द्वितीयमुपचारेण कर्मयोगशब्दोक्तम् तदभिप्रायेण योगसन्न्यासयोर्लक्षणं स्पष्टयतीत्यन्यत्रोक्तमिति सन्न्यासमित्यादिना। कुत्रोक्तमर्जुनोऽनुवदति इत्यत आह यदृच्छेति।कर्मयोगं इति वदताकर्मणां इत्येतद्योगशब्देन सम्बध्यत इत्युक्तं भवति। तथा चकर्मणां सन्न्यासं त्यागं इति व्याख्यानमसदिति सूचितम्।शंससि इत्यनेनान्वयः। चतुर्थाध्यायोक्तस्यार्थस्यतदध्यायोत्थानबीजत्वात्तृतीयाध्यायार्थप्रपञ्चनात्मकस्याप्यस्य चतुर्थानन्तर्यं युक्तमित्यप्यनेन ज्ञापितम्। कृष्णशब्दो वर्णविशेषमात्रवचन इति प्रतीतिनिरासायाह नियमनादिनेति।नित्यनैमित्तिककाम्यनिषिद्धरूपसर्वकर्मत्यागः सन्न्यासशब्दार्थः इति व्याख्यानं दूषयति सन्न्यासेति।ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी 5।3 इति सन्न्यासशब्दस्य भगवतैवान्यथा व्याख्यातत्वात् तद्विरुद्धं परव्याख्यानमित्यर्थः। यदि सर्वकर्मपरित्यागो न सन्न्यासशब्दार्थः किन्तु द्वेषादिवर्जनमेव तर्हि तस्य योगेन विरोधाभावात्सन्न्यासयोगयोर्विरोधाभिप्रायेण श्रेयःप्रश्नोऽनुपपन्नः स्यादित्यत आह अयमिति। अत्र श्रेय इति यथास्थितं गीतापदमनूद्य सन्न्यासपदानुगुण्येनाधिक इति व्याख्यातम्। नन्वेतत्घोरः इति चोदितंश्रेयान् इति च परिहृतं च सत्यम् अतएवात्रेषदित्युक्तमिति अतस्तत्यक्त्वा सन्न्यास एव कर्तव्ये किं वैगुण्यमङ्गीकृत्यापि विधीयते युद्धमित्याशयशेषः।
।।5.1।।तृतीयाध्यायोक्तमेव कर्मयोगं प्रपञ्चयत्यनेनाध्यायेनयदृच्छालाभसन्तुष्टः 4।22 इत्यादिसन्न्यासंकुरु कर्मैव 4।15 इत्यादि कर्मयोगं च। नियमनादिना सकललोककर्षणात्कृष्णः। तच्चोक्तम् यतः कर्षसि देवेश नियम्य सकलं जगत्। अतो वदन्ति मुनयः कृष्णं त्वां ब्रह्मवादिनः इति महाकौर्मे। सन्न्यासशब्दार्थं भगवानेव वक्ष्यति। अयं प्रश्नाशयः यदि सन्न्यासः श्रेयोऽधिकः स्यात् तर्हि सन्न्यासस्येषद्विरोधि युद्धमिति।
अर्जुन उवाच संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि। यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्िचतम्।।5.1।।
অর্জুন উবাচ সংন্যাসং কর্মণাং কৃষ্ণ পুনর্যোগং চ শংসসি৷ যচ্ছ্রেয এতযোরেকং তন্মে ব্রূহি সুনিশ্িচতম্৷৷5.1৷৷
অর্জুন উবাচ সংন্যাসং কর্মণাং কৃষ্ণ পুনর্যোগং চ শংসসি৷ যচ্ছ্রেয এতযোরেকং তন্মে ব্রূহি সুনিশ্িচতম্৷৷5.1৷৷
અર્જુન ઉવાચ સંન્યાસં કર્મણાં કૃષ્ણ પુનર્યોગં ચ શંસસિ। યચ્છ્રેય એતયોરેકં તન્મે બ્રૂહિ સુનિશ્િચતમ્।।5.1।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਸਂਨ੍ਯਾਸਂ ਕਰ੍ਮਣਾਂ ਕਰਿਸ਼੍ਣ ਪੁਨਰ੍ਯੋਗਂ ਚ ਸ਼ਂਸਸਿ। ਯਚ੍ਛ੍ਰੇਯ ਏਤਯੋਰੇਕਂ ਤਨ੍ਮੇ ਬ੍ਰੂਹਿ ਸੁਨਿਸ਼੍ਿਚਤਮ੍।।5.1।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಸಂನ್ಯಾಸಂ ಕರ್ಮಣಾಂ ಕೃಷ್ಣ ಪುನರ್ಯೋಗಂ ಚ ಶಂಸಸಿ. ಯಚ್ಛ್ರೇಯ ಏತಯೋರೇಕಂ ತನ್ಮೇ ಬ್ರೂಹಿ ಸುನಿಶ್ಿಚತಮ್৷৷5.1৷৷
അര്ജുന ഉവാച സംന്യാസം കര്മണാം കൃഷ്ണ പുനര്യോഗം ച ശംസസി. യച്ഛ്രേയ ഏതയോരേകം തന്മേ ബ്രൂഹി സുനിശ്ിചതമ്৷৷5.1৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ସଂନ୍ଯାସଂ କର୍ମଣାଂ କୃଷ୍ଣ ପୁନର୍ଯୋଗଂ ଚ ଶଂସସି| ଯଚ୍ଛ୍ରେଯ ଏତଯୋରେକଂ ତନ୍ମେ ବ୍ରୂହି ସୁନିଶ୍ିଚତମ୍||5.1||
arjuna uvāca saṅnyāsaṅ karmaṇāṅ kṛṣṇa punaryōgaṅ ca śaṅsasi. yacchrēya ētayōrēkaṅ tanmē brūhi suniśicatam৷৷5.1৷৷
அர்ஜுந உவாச ஸஂந்யாஸஂ கர்மணாஂ கரிஷ்ண புநர்யோகஂ ச ஷஂஸஸி. யச்ச்ரேய ஏதயோரேகஂ தந்மே ப்ரூஹி ஸுநிஷ்ிசதம்৷৷5.1৷৷
అర్జున ఉవాచ సంన్యాసం కర్మణాం కృష్ణ పునర్యోగం చ శంససి. యచ్ఛ్రేయ ఏతయోరేకం తన్మే బ్రూహి సునిశ్ిచతమ్৷৷5.1৷৷
5.2
5
2
।।5.2।। श्रीभगवान् बोले -- संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग दोनों ही कल्याण करनेवाले हैं। परन्तु उन दोनोंमें भी कर्मसंन्यास- (सांख्ययोग-) से कर्मयोग श्रेष्ठ है।
।।5.2।। श्रीभगवान् ने कहा --  कर्मसंन्यास और कर्मयोग ये दोनों ही परम कल्याणकारक हैं;  परन्तु उन दोनों में कर्मसंन्यास से कर्मयोग श्रेष्ठ है।।
।।5.2।। अर्जुन के प्रश्न से श्रीकृष्ण समझ गये किस तुच्छ अज्ञान की स्थिति में अर्जुन पड़ा हुआ है। वह कर्मसंन्यास और कर्मयोग इन दो मार्गों को भिन्नभिन्न मानकर यह समझ रहा था कि वे साधक को दो भिन्न लक्ष्यों तक पहुँचाने के साधन थे।मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति निष्क्रियता की ओर होती है। यदि मनुष्यों को अपने स्वभाव पर छोड़ दिया जाय तो अधिकांश लोग केवल यही चाहेंगे कि जीवन में कमसेकम परिश्रम और अधिकसेअधिक आराम के साथ भोजन आदि प्राप्त हो जाय। इस अनुत्पादक अकर्मण्यता से उसे क्रियाशील बनाना उसके विकास की प्रथम अवस्था है। यह कार्य मनुष्य की सुप्त इच्छाओं को जगाने से सम्पादित किया जा सकता है। विकास की इस प्रथमावस्था में स्वार्थ से प्रेरित कर्म उसकी मानसिक एवं बौद्धिक शिथिलता को दूर करके उसे अत्यन्त क्रियाशील बना देते हैं।तदुपरान्त मनुष्य को क्रियाशील रहते हुये स्वार्थ का त्याग करने का उपदेश दिया जाता है। कुछ काल तक निष्काम भाव से ईश्वर की पूजा समझ कर जगत् की सेवा करने से उसे जो आनन्द प्राप्त होता है वही उसके लिए स्फूर्ति एवं प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। इसी भावना को कर्मयोग अथवा यज्ञ की भावना कहा गया है। कर्मयोग के पालन से वासनाओं का क्षय होकर साधक को मानो ध्यानरूप पंख प्राप्त हो जाते हैं जिनकी सहायता से वह शांति और आनन्द के आकाश मे ऊँचीऊँची उड़ाने भर सकता है। ध्यानाभ्यास का विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में किया गया है।उपर्युक्त विचार से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आत्मविकास के लिये तीन साधन हैं काम्य कर्म निष्काम कर्म तथा निदिध्यासन। पूर्व अध्यायों में कर्म योग का वर्णन हो चुका है और अगले अध्याय का विषय ध्यान योग है। अत इस अध्याय में अहंकार और स्वार्थ के परित्याग द्वारा कर्मों के संन्यास का निरूपण किया गया है।इस श्लोक में भगवान् ने कहा है कि कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों ही कल्याणकारक हैं तथापि इन दोनों में कर्मयोग श्रेष्ठतर है। श्रीकृष्ण के इस कथन का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे कर्मयोग की अपेक्षा संन्यास को हीनतर बताते हैं। ऐसा समझना अपने अज्ञान का प्रदर्शन करना है अथवा अब तक किये भगवान् के उपदेश को ही नहीं समझना है। यहाँ संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ कहने के अभिप्राय को हमें समझना चाहिये। विकास की जिस अवस्था में अर्जुन था उसको तथा युद्ध की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अर्जुन के लिए संन्यास की अपेक्षा कर्म करने का उपदेश ही उपयुक्त था। अर्थ यह हुआ कि दोनों ही श्रेयष्कर होने पर भी विशेष परिस्थितियों को देखते हुये संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ कहा गया है। अधिकांश लोग अर्जुन के रोग से पीड़ित होते हैं उन सबके लिए कर्मयोग ही वासना क्षय का एकमात्र उपाय है। अत यहाँ कर्मयोग को श्रेष्ठ कहने के तात्पर्य को हमको ठीक से समझना चाहिए।ऐसा क्यों इस पर कहते हैं
5.2।। व्याख्या--[भगवान्के सिद्धान्तके अनुसार सांख्ययोग और कर्मयोगका पालन प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके मनुष्य कर सकते हैं। कारण कि उनका सिद्धान्त किसी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिको लेकर नहीं है। इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनने कर्मोंका त्याग करके विधिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करनेकी प्रचलित प्रणालीको 'कर्मसंन्यास' नामसे कहा है। परन्तु भगवान्के सिद्धान्तके अनुसार ज्ञान-प्राप्तिके लिये सांख्ययोगका पालन प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्रतासे कर सकता है और उसका पालन करनेमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी आवश्यकता भी नहीं है। इसलिये भगवान् प्रचलित मतका भी आदर करते हुए अपने सिद्धान्तके अनुसार अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हैं।]'संन्यासः'--यहाँ 'संन्यासः' पदका अर्थ 'सांख्य-योग' है, कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं। अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान् कर्मोंके त्यागपूर्वक संन्यासका विवेचन न करके कर्म करते हुए ज्ञानको प्राप्त करनेका जो सांख्ययोगका मार्ग है, उसका विवेचन करते हैं। उस सांख्ययोगके द्वारा मनुष्य प्रत्येक वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिमें रहते हुए प्रत्येक परिस्थितिमें स्वतन्त्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्त कर सकता है अर्थात् अपना कल्याण कर सकता है। सांख्ययोगकी साधनामें विवेक-विचारकी मुख्यता रहती है। विवेकपूर्वक तीव्र वैराग्यके बिना यह साधना सफल नहीं होती। इस साधनामें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होकर एकमात्र परमात्मतत्त्वपर दृष्टि रहती है। राग मिटे बिना संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होना बहुत कठिन है। इसलिये भगवान्ने देहाभिमानियोंके लिये यह साधन क्लेशयुक्त बताया है (गीता 12। 5)। इसी अध्यायके छठे श्लोकमें भी भगवान्ने कहा है कि कर्मयोगका साधन किये बिना संन्यासका साधन होना कठिन है; क्योंकि संसारसे राग हटानेके लिये कर्मयोग ही सुगम उपाय है। 'कर्मयोगश्च'--मानवमात्रमें कर्म करनेका राग अनादिकालसे चला आ रहा है, जिसे मिटानेके लिये कर्म करना आवश्यक है (गीता 5। 3)। परन्तु वे कर्म किस भाव और उद्देश्यसे कैसे किये जायँ कि करनेका राग सर्वथा मिट जाय, उस कर्तव्य-कर्मको करनेकी कलाको 'कर्मयोग' कहते हैं। कर्मयोगमें कार्य छोटा है या बड़ा, इसपर दृष्टि नहीं रहती। जो भी कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय, उसीको निष्कामभावसे दूसरोंके हितके लिये करना है। कर्मोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये यह आवश्यक है कि कर्म अपने लिये न किये जायँ। अपने लिये कर्म न करनेका अर्थ है--कर्मोंके बदलेमें अपने लिये कुछ भी पानेकी इच्छा न होना। जबतक अपने लिये कुछ भी पानेकी इच्छा रहती है, तबतक कर्मोंके साथ सम्बन्ध बना रहता है।
।।5.2।।संन्यास इति। संन्यासः कर्म योगः च नात्र एकोऽभिहितः अपि तु उभौ। संमिलितौ तौ निश्श्रेयसं दत्तः। योगेन विना संन्यासो न संभवतीति योगस्य विशेषः।
।।5.2।।श्रीभगवानुवाच संन्यासः ज्ञानयोगः कर्मयोगः च ज्ञानयोगशक्तस्य अपि उभौ निरपेक्षौ निःश्रेयसकरौ। तयोः तु कर्मसंन्यासाद् ज्ञानयोगात् कर्मयोगः एव विशिष्यते।कुत इत्यत आह
।।5.2।।प्रश्नमेवमुत्थाप्य प्रतिवचनमुत्थापयति स्वाभिप्रायमिति। निर्णयाय तद्द्वारेण परस्य संशयनिवृत्त्यर्थमित्यर्थः। एवं प्रश्ने प्रवृत्ते कर्मयोगस्य सौकर्यमभिप्रेत्य प्रशस्यतरत्वमभिधित्सुर्भगवान्प्रतिवचनं किमुक्तवानित्याशङ्क्याह संन्यास इति। उभयोरपि तुल्यत्वशङ्कां वारयति तयोस्त्विति। कथं तर्हि ज्ञानस्यैव मोक्षोपायत्वं विवक्ष्यते तत्राह ज्ञानोत्पत्तीति। तर्हि द्वयोरपि प्रशस्यत्वमप्रशस्यत्वं वा तुल्यमित्याशङ्क्याह उभाविति। ज्ञानसहायस्य कर्मसंन्यासस्य कर्मयोगापेक्षया विशिष्टत्वविवक्षया विशिनष्टि केवलादिति।
।।5.2।।इति प्रश्ने भगवानर्जुनं पुष्टिनिष्ठभक्तं तदोभयकोटिसंशयापन्नं योगसाङ्ख्यसारं ग्राहयन् पूर्वशिष्टां कर्मयोगस्थितिमुत्तरमाह सन्न्यासः कर्मयोगश्चेति। हे अर्जुन यद्यपि साङ्ख्यीयः सन्न्यासः कर्मयोगश्चेत्युभौ मुख्यतः स्वतन्त्रतया पुरुषार्थसाधकौ नात्राङ्गप्रधानभावः एतयोरेकमप्यास्थितः परं श्रेयो मोक्षलक्षणं विन्दति। तथापि कर्मसन्न्यासात् कर्मणां त्यागात् सर्वस्यैव त्यागो बाह्यतः कर्मयोगो विशिष्यते तत्त्वज्ञानिनोऽपि लोकानुग्रहार्थं कर्मकरणश्रवणात्। मनसैव त्यागः न बाह्यतः। तवापि फलद इति भावः।
।।5.2।।एवमर्जुनस्य प्रश्ने तदुत्तरं श्रीभगवानुवाच निःश्रेयसकरौ ज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वेन मोक्षोपयोगिनौ। तयोस्तु कर्मसंन्यासादनधिकारिकृतात्कर्मयोगो विशिष्यते श्रेयानधिकारसंपादकत्वेन।
।।5.2।। अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच संन्यास इति। अयं भावःनहि वेदान्तवेद्यात्मतत्त्वविदं प्रति कर्मयोगमहं ब्रवीमि यतः पूर्वोक्तेन संन्यासेन विरोधः स्यात् अपितु देहात्माभिमानिनं त्वां बन्धुवधादिनिमित्तशोकमोहादिकृतमेनं संशयं देहात्मविवेकज्ञानासिना छित्त्वा परमात्मज्ञानोपायभूतं कर्मयोगमातिष्ठेति ब्रवीमि। कर्मयोगेन शुद्धचित्तस्य चात्मतत्त्वज्ञाने जाते सति तत्परिपाकार्थं ज्ञाननिष्ठाङ्गत्वेन संन्यासः पूर्वमुक्तः। एवं सत्यङ्गप्रधानयोर्विकल्पायोगात्संन्यासः कर्मयोगश्चेत्येतावुभावपि भूमिकाभेदेन समुच्चितावेव निःश्रेयसं साधयतः तथापि तु तयोर्मध्ये कर्मसंन्यासात्सकाशात्कर्मयोगो विशिष्टो भवति।
।।5.2।।अथ सद्वारकत्वाभिधानस्य अधिकारिविशेषनियततया द्वयोरप्यव्यवहितसाधनत्वमुपपादयंस्तत एव मृदितकषायस्यापि सौकर्यशैघ्र्यसङ्गिनस्तस्यैव कर्तव्यतां च द्रढयन् भगवानुवाच सन्न्यास इति। ज्ञानयोगाशक्तस्य कर्मयोगसापेक्षत्वात्तच्छक्तस्यैव निरपेक्षसाधनत्वोक्तिरुपपन्नेत्यभिप्रायेणाह ज्ञानयोगशक्तस्यापीति।उभौ निश्श्रेयसकरा इत्येतत्सामर्थ्यात्एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् 5।4 इति वक्ष्यमाणानुसन्धानाच्चनिरपेक्षावित्युक्तम्। चकारेणाप्येतदेव व्यज्यते। अन्वाचयेतरेतरयोगसमाहारा हि पृथक्फलसाधनत्वप्रकरणविरुद्धाः। अतः पृथक्स्वातन्त्र्यगर्भः समुच्चय एवात्र चार्थः। तर्हि द्वावप्यनियमेनयथेच्छमुपादेयौ कर्मयोगस्य तु किमर्थं प्रशंसा इति शङ्काव्युदासाय तुशब्दः। तदभिप्रायव्यञ्जनार्थमेवकारः।
।।5.2।।भगवानेतत्प्रश्नोत्तरमाह कृपया सन्न्यास इति। सन्न्यासः कर्मणां त्यागः कर्मयोगः कर्मानुष्ठानमेतावुभौ निश्श्रेयसकरौ मोक्षापादकौ तयोरपि कर्मसन्न्यासात् केवलं कर्मत्यागात् मदाज्ञया फलानभिलाषेण मदर्पणधिया कर्मयोगः कर्मानुष्ठानं विशिष्यते उत्तममित्यर्थः।
।।5.2।।अस्योत्तरं भगवानुवाच संन्यास इति। निःश्रेयसकरौ ज्ञानोत्पत्तिहेतुतया। तथापि कर्मसंन्यासादविरक्तकृतात्कर्मयोग एव विशिष्यते। चित्तशुद्धिद्वारा वैराग्यादिहेतुत्वात्।
।।5.2।।अर्जुनसंशयनिर्वतकमुत्तरं श्रीभगवानुवाच संन्यास इति। उभो यद्यपि निःश्रेयसकरौ ज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वेन मोक्षोपयोगिनौ तथापि तयोस्तु कर्मसंन्यासादशुद्धचित्तेनाविरक्तेन कृतात्कर्मयोगश्चित्तशुद्य्धा वैराग्यादिजनको विशिष्यत उत्कृष्टो भवतीति कर्मयोगं स्तौति।
5.2 संन्यासः renunciation? कर्मयोगः Yoga of action? च and? निःश्रेयसकरौ leading to the highest bliss? उभौ both? तयोः of these two? तु but? कर्मसंन्यासात् than renunciation of action? कर्मयोगः Yoga of action? विशिष्यते is superior.Commentary Sannyasa (renunciation of action) and Karma Yoga (performance of action) both lead to Moksha or liberation or the highest bliss. Though both lead to Moksha? yet of the two means of attaining to Moksha? Karma Yoga is better than mere Karma Sannyasa (renunciation of action) without the knowledge of the Self.But renunciation of actions with the knowledge of the Self is decidedly superior to Karma Yoga.Moreover? Karma Yoga is easy and is therefore suitable to all. (Cf.III.3V.5VI.46)
5.2 The Blessed Lord said Renunciation and the Yoga of action both lead to the highest bliss; but of the two, the Yoga of action is superior to the renunciation of action.
5.2 Lord Shri Krishna replied: Renunciation of action and the path of right action both lead to the highest; of the two, right action is the better.
5.2 The Blessed Lord said Both renunciation of actions and Karma-yoga lead to Liberation. Between the two, Karma-yoga, however, excels over renunciation of actions.
5.2 Ubhau, both, to be sure; sannyasah, renunciation of actions; ca, and; karma-yogah, Karma-yoga-their performance-; nihsreyasa-karau, lead to Liberation. Though both lead to Liberation by virtue of being the cause of the rise of Knowledge, even then, tayoh, between the two which are the causes of Liberation; Karma-yoga, tu, however; visisyate, excels; karma-sannyasat, over mere renunciation of actions. Thus He extols Karma-yoga. [Karma-yoga is better than renunciation of actions that is not based on Knowledge.] Why? In answer the Lord says:
5.2. The Bhagavat said Both renunciation and the Yoga of action effect salvation. But, of these two, the Yoga of action is better than renunciation of action.
5.2 Samnyasah etc. Renunciation and the Yoga of action-not only one, but two-are mentioned here. Happily joining together they yield salvation. (However), the superiority of the Yoga [over the renunciation] is due to the fact that but for the Yoga, renunciation does not exist.
5.2 The Lord said Even while granting that some persons are competent for the practice of Jnana Yoga exclusively, it has to be conceded that renunciation, i.e., Jnana Yoga, and Karma Yoga can be practised as independent of each other in the pursuit of the highest excellence. Still, of these two, Karma Yoga excels over the renunciation of actions, i.e., Jnana Yoga. Sri Krsna explains why this is so.
5.2 The Lord said Renunciation of actions and Karma Yoga, both lead to the highest excellence. But, of the two, Karma Yoga excels the renunciation of actions.
।।5.2।।अर्जुनके प्रश्नका निर्णय करनेके लिये भगवान् अपना अभिप्राय बतलाते हुए बोले संन्यास कर्मोंका परित्याग और कर्मयोग उनका अनुष्ठान करना ये दोनों ही कल्याणकारक अर्थात् मुक्तिके देनेवाले हैं। यद्यपि ज्ञानकी उत्पत्तिमें हेतु होनेसे ये दोनोंही कल्याणकारक हैं तथापि कल्याणके उन दोनों कारणोंमें ज्ञानरहित केवल संन्यासकी अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है। इस प्रकार भगवान् कर्मयोगकी स्तुति करते हैं।
।।5.2।। संन्यासः कर्मणां परित्यागः कर्मयोगश्च तेषामनुष्ठानं तौ उभौ अपि निःश्रेयसकरौ मोक्षं कुर्वाते ज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वेन। उभौ यद्यपि निःश्रेयसकरौ तथापि तयोस्तु निःश्रेयसहेत्वोः कर्मसंन्यासात् केवलात् कर्मयोगो विशिष्यते इति कर्मयोगं स्तौति।।कस्मात् इति आह
।।5.2।।सन्न्यासमिति प्रश्नवाक्ये सन्न्यास इति परिहारवाक्ये च सन्न्यासयोगशब्दौ यतिगृहस्थाश्रमविषयावेव तयोः सर्वकर्मत्यागात्तदनुष्ठानरूपत्वात्। ज्ञेय इति वचनं तु न सन्न्यासशब्दव्याख्यानपरम्। किन्तु यो द्वेषादिवर्जितो गृही सोऽपि सन्न्यासी ज्ञातव्य इति स्तुतिपरमेवेत्यत आह नायमिति। अयं परिहारवाक्यस्थः। प्रश्नवाक्यस्थस्य तात्पर्यनिर्णये तथाऽभ्युपगमात्। योगश्च न गृहस्थाश्रम इत्यपि द्रष्टव्यम्। कुतो न इति चेत् अत्र तयोस्त्विति सन्न्यासात्कर्मयोगस्य विशिष्टत्ववचनात् तस्य चास्मत्पक्ष एव सम्भवादन्यत्रासम्भवादिति भावः। कुतो भवत्पक्षे सम्भवः इत्यत आह द्वन्द्वेति। मत्पूजा मदर्पणबुद्ध्या कर्मानुष्ठानम्। आश्रमार्थत्वे कुतोऽसम्भवः इत्यत आह तानीति। तान्याधानादीनि। अत्यरेचयत् अत्यरिच्यत इतिवचनादिति वर्तते। न्यस्यतेऽस्मिन्सर्वमिति ब्रह्मैव न्यास इति कश्चित्। तदसत् तपोऽपेक्षयोत्तमत्वाभिधानस्यासङ्गतत्वात्। उपायोपेयभावेन सङ्गतिरिति चेत् तर्हि तत्सिद्धौ लोकत एवोत्तमत्वसिद्धेरभिधानवैयर्थ्यात्। गृहस्थाश्रमाद्यत्याश्रमस्योत्तमत्वमयुक्तम्। गृहस्थाश्रमो हि सर्वधर्मोपपन्नस्तत्समर्थे मध्यमे वयसि अनुष्ठेयो महाफलश्च यत्याश्रमस्तु निष्क्रियश्चरमे वयसि गृहस्थधर्मानधिकृतैरन्धपङ्गवादिभिरनुष्ठेयोऽल्पफलश्चेति केचित् तन्निरासार्थमाह सन्न्यासस्त्विति। काम्यकर्मरहितत्वात् निष्क्रियाख्योऽपि सधर्मकः। न केवलं सधर्मकः किन्तु न तस्माद्यत्याश्रमानुष्ठेयाद्यतिभक्त्यापि यत्फलं प्राप्नुयान्न तत्सर्वैर्गृहस्थधर्मैरित्यर्थः। ब्रह्मचर्यादेव ब्रह्मचर्यं विसृज्यैव विरजेत् विरक्तो भवेत् तदहरेव प्रव्रजेत् जा.उ.4या.उ.1 इति श्रुतिशेषः। कर्मेत्याश्रमान्तरम्। यदुक्तंनायं इत्यादि तदुपसंहरति अत इति। अत्र परिहारवाक्ये।
।।5.2।।नायं सन्न्यासो यत्याश्रमः।द्वन्द्वत्यागात्तु सन्न्यासान्मत्पूजैव गरीयसी इति वचनात्।तानि वा एतान्यवराणि तपांसि न्यास एवात्यरेचयत् इति च।सन्नायासस्तु तुरीयो यो निष्क्रियाख्यः सधर्मकः। न तस्मादुत्तमो धर्मो लोके कश्चन विद्यते। तद्भक्तोऽपि हि यद्गच्छेतद्गृहस्थो न धार्मिकः। मद्भक्तिश्च विरक्तिस्तदधिकारो निगद्यते। यदाधिकारो भवति ब्रह्मचार्यपि प्रव्रजेत् इति नारदीये। ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् ৷৷. यदहरेव विरजेत् जा.उ.4 या.उ.1 इति च। सन्न्यासे तु तुरीये वै प्रीतिर्मम महीयसी। येषामत्राधिकारो न तेषां कर्मेति निश्चयः इत्यादेश्च ब्राह्मे। अतो नात्राश्रमः सन्न्यास उक्तः।
श्री भगवानुवाच संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।5.2।।
শ্রী ভগবানুবাচ সংন্যাসঃ কর্মযোগশ্চ নিঃশ্রেযসকরাবুভৌ৷ তযোস্তু কর্মসংন্যাসাত্কর্মযোগো বিশিষ্যতে৷৷5.2৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ সংন্যাসঃ কর্মযোগশ্চ নিঃশ্রেযসকরাবুভৌ৷ তযোস্তু কর্মসংন্যাসাত্কর্মযোগো বিশিষ্যতে৷৷5.2৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ સંન્યાસઃ કર્મયોગશ્ચ નિઃશ્રેયસકરાવુભૌ। તયોસ્તુ કર્મસંન્યાસાત્કર્મયોગો વિશિષ્યતે।।5.2।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਸਂਨ੍ਯਾਸ ਕਰ੍ਮਯੋਗਸ਼੍ਚ ਨਿਸ਼੍ਰੇਯਸਕਰਾਵੁਭੌ। ਤਯੋਸ੍ਤੁ ਕਰ੍ਮਸਂਨ੍ਯਾਸਾਤ੍ਕਰ੍ਮਯੋਗੋ ਵਿਸ਼ਿਸ਼੍ਯਤੇ।।5.2।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಸಂನ್ಯಾಸಃ ಕರ್ಮಯೋಗಶ್ಚ ನಿಃಶ್ರೇಯಸಕರಾವುಭೌ. ತಯೋಸ್ತು ಕರ್ಮಸಂನ್ಯಾಸಾತ್ಕರ್ಮಯೋಗೋ ವಿಶಿಷ್ಯತೇ৷৷5.2৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച സംന്യാസഃ കര്മയോഗശ്ച നിഃശ്രേയസകരാവുഭൌ. തയോസ്തു കര്മസംന്യാസാത്കര്മയോഗോ വിശിഷ്യതേ৷৷5.2৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ସଂନ୍ଯାସଃ କର୍ମଯୋଗଶ୍ଚ ନିଃଶ୍ରେଯସକରାବୁଭୌ| ତଯୋସ୍ତୁ କର୍ମସଂନ୍ଯାସାତ୍କର୍ମଯୋଗୋ ବିଶିଷ୍ଯତେ||5.2||
śrī bhagavānuvāca saṅnyāsaḥ karmayōgaśca niḥśrēyasakarāvubhau. tayōstu karmasaṅnyāsātkarmayōgō viśiṣyatē৷৷5.2৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச ஸஂந்யாஸஃ கர்மயோகஷ்ச நிஃஷ்ரேயஸகராவுபௌ. தயோஸ்து கர்மஸஂந்யாஸாத்கர்மயோகோ விஷிஷ்யதே৷৷5.2৷৷
శ్రీ భగవానువాచ సంన్యాసః కర్మయోగశ్చ నిఃశ్రేయసకరావుభౌ. తయోస్తు కర్మసంన్యాసాత్కర్మయోగో విశిష్యతే৷৷5.2৷৷
5.3
5
3
।।5.3।। हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकाङ्क्षा करता है; वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझनेयोग्य है; क्योंकि द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
।।5.3।। जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा,  वह सदा संन्यासी ही समझने योग्य है;  क्योंकि,  हे महाबाहो ! द्वन्द्वों से रहित पुरुष सहज ही बन्धन मुक्त हो जाता है।।
।।5.3।। इस श्लोक में स्वयं भगवान् ही कर्मयोग के श्रेष्ठत्व का कारण बताते हैं। भगवान् द्वारा यहां दी हुई संन्यास की परिभाषा उसके विषय में प्रचलित निरर्थक धारणाओं को दूर कर देती है। वेषभूषा के बाह्य आडंबर की अपेक्षा आन्तरिक गुणों का अधिक महत्व है। श्रीकृष्ण के विचारानुसार राग और द्वेष से रहित पुरुष ही संन्यासी कहलाने योग्य है।रागद्वेष जयपराजय सुखदुख आदि इसी प्रकार के द्वन्द्वात्मक चक्र हैं जिन पर आरू ढ़ मन जीवन में अनेक प्रकार के अनुभव प्राप्त करता हुआ आगे बढ़ता है। हम तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा ही जीवन में आनेवाली परिस्थितियों को समझ पाते हैं। अन्धकार के सन्दर्भ में ही प्रकाश का ज्ञान होता है। किसी वस्तु के विपरीत धर्मवाली वस्तु के न होने पर हम उस वस्तु को यथार्थ रूप मे नहीं समझ पाते।यदि वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए बुद्धि के पास तुलनात्मक अध्ययन प्रणाली ही उपलब्ध हो तब उसका त्याग करने का अर्थ होगा विचार के साधन अन्तकरण का ही त्याग करना। एक वाहन द्वारा सड़क पर यात्रा करना संभव है परन्तु समुद्र यात्रा नहीं। उसके लिए उस वाहन का त्याग करके जलपोत की आवश्यकता होती है। असंख्य नामरूपों की सृष्टि में तो बुद्धि का उपयोग किया जा सकता है। यहाँ कहा गया है कि समस्त प्रकार के भेद दर्शनों से मुक्त हुआ अर्थात् मन और बुद्धि के अतीत हुआ पुरुष ही सच्चा संन्यासी है।यह कोई सहज कार्य नहीं है। द्वन्द्वों से रहित होने का अर्थ है र्मत्य जीव का सभी बन्धनों से मुक्त हो जाना। संन्यासी की इस परिभाषा से यह नहीं समझें कि साधकों के लिए दुखपूर्ण निराशा के जीवन को चित्रित करने का भगवान् का प्रयत्न है। अर्जुन के मन में दीर्घकाल से अर्जित वासनाओं का संचय था। अत उसके आत्मविकास को ध्यान मे रखकर भगवान् उसे संन्यास जीवन को स्वीकार करने की शीघ्रता से परावृत करना चाहते हैं।
5.3।। व्याख्या--'महाबाहो'--'महाबाहो' सम्बोधनके दो अर्थ होते हैं--एक तो जिसकी भुजाएँ बड़ी और बलवान् हों अर्थात् जो शूरवीर हो; और दूसरा, जिसके मित्र तथा भाई बड़े पुरुष हों। अर्जुनके मित्र थे प्राणिमात्रके सुहृद् भगवान् श्रीकृष्ण और भाई थे अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर। इसलिये यह सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि कर्मयोगके अनुसार सबकी सेवा करनेका बल तुम्हारेमें है। अतः तुम सुगमतासे कर्मयोगका पालन कर सकते हो।
।।5.3।।ज्ञेय इति। अतश्च स एव सार्वकालिकः संन्यासी येन मनसो अभिलाषप्रद्वेषौ संन्यस्तौ। यतोऽस्य द्वन्द्वेभ्यः क्रोधमोहादिभ्यो निष्क्रान्ता धीः स सुखं प्रमुच्यत ( K omit प्र ) एव।
।।5.3।।यः कर्मयोगी तदन्तर्गतात्मानुभवतृप्तः तद्व्यतिरिक्तं किमपि न काङ्क्षति तत एव किमपि न द्वेष्टि तत एव द्वन्द्वसहः च स नित्यसंन्यासी नित्यज्ञाननिष्ठ इति ज्ञेयः। स हि सुकरकर्मयोगनिष्ठतया सुखं बन्धात् प्रमुच्यते।ज्ञानयोगकर्मयोगयोः आत्मप्राप्तिसाधनभावे अन्योन्यनैरपेक्ष्यम् आह
।।5.3।।कर्म हि बन्धकारणं प्रसिद्धं तत्कथं निःश्रेयसकरं स्यादिति शङ्कते कस्मादिति। अकर्त्रात्मविज्ञानात्प्रागपि सर्वदासौ संन्यासी ज्ञेयो यो रागद्वेषौ क्वचिदपि न करोतीत्याह इत्याहेति। यथानुष्ठीयमानानि कर्माणि संन्यासिनं न निबध्नन्ति कृतानि च वैराग्येन्द्रियसंयमादिना निवर्तन्ते तथैवानभिसंहितफलानि नित्यनैमित्तिकानि योगिनमपि न निबध्नन्ति निवर्तयन्ति च संचितं दुरितमित्यभिप्रेत्याह निर्द्वन्द्वो हीति। कर्मयोगिनो नित्यसंन्यासित्वज्ञानमन्यथाज्ञानत्वान्मिथ्याज्ञानमित्याशङ्क्याह एवंविध इति। कर्मिणोऽपि रागद्वेषाभावेन संन्यासित्वं ज्ञातुमुचितमित्यर्थः। रागद्वेषरहितस्यानायासेन बन्धप्रध्वंससिद्धेश्च युक्तं तस्य संन्यासित्वमित्याह निर्द्वन्द्व इति।
।।5.3।।योगमार्गरीत्या कर्मकार्यपि विवक्ष्यमाणलक्षणश्चेन्नित्यसन्न्यास्येवेत्याह ज्ञेय इति। यो योगमार्गीयबुद्ध्या कर्मकर्त्ता निर्द्वन्द्वः लाभालाभादिजयाजयादिशून्यः। तदाह न द्वेष्टि काम्यं कर्म न च कर्ममात्रे फलं काङ्क्षति किन्तु करोत्येव तथा स द्वन्द्वसन्न्यसनान्नित्यसन्न्यासी भगवन्निष्ठतया करणाद्योग्यपि नित्यस्न्न्यास्येवेति तत्कर्मबन्धात्प्रमुक्त एव सुखं यथा भवति तथा इति। अतो महाबाहुभ्यां तथैव तवोचितमिति भावः।
।।5.3।।तमेव कर्मयोगं स्तौति त्रिभिः स कर्मणि प्रवृत्तोऽपि नित्यं संन्यासीति ज्ञेयः। कोऽसौ। यो न द्वेष्टि भगवदर्पणबुद्ध्या क्रियमाणं कर्म निष्फलत्वशङ्क्या न काङ्क्षति स्वर्गादिकम्। निर्द्वन्द्वो रागद्वेषरहितः हि यस्मात्सुखमनायासेन हे महाबाहो बन्धादन्तःकरणाशुद्धिरूपाज्ज्ञानप्रतिबन्धात्प्रमुच्यते नित्यानित्यवस्तुविवेकादिप्रकर्षेण मुक्तोभवति।
।।5.3।। कुत इत्यपेक्षायां संन्यासित्वेन कर्मयोगं स्तुवन् तस्य श्रेष्ठत्वं दर्शयति ज्ञेय इति। रागद्वेषादिराहित्येन परमेश्वरार्थं कर्माणि योऽनुतिष्ठति स नित्यं कर्मानुष्ठानकालेऽपि संन्यासीत्येव ज्ञेयः। तत्र हेतुः निर्द्वन्द्वो रागद्वेषादिशून्यो हि शुद्धचित्तो ज्ञानद्वारा सुखमनायासेन संसारात्प्रमुच्यते।
।।5.3।।द्वयोः श्रेयस्साधनत्वाविशेषे कर्मयोग एव विशिष्यत इति प्रतिज्ञामात्रम् तत्र हेत्वाकाङ्क्षायां सौकर्याख्यं हेतुमाहेत्याहकुत इत्यत्राहेतिज्ञेयः इति श्लोकोनित्यसन्न्यासी इत्येतावता ज्ञानयोगनिष्ठविषय इति न मन्तव्यम्कर्मयोगो विशिष्यते 5।2 इति प्रतिज्ञाय ज्ञानयोगनिष्ठस्य सुखेन मोक्षोक्तेरसङ्गतत्वात्सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः 5।6 इति वक्ष्यमाणविरोधाच्च। अतः कर्मयोगनिष्ठस्यैवप्रशंसेयमित्यभिप्रायेणाह यः कर्मयोगीति। काङ्क्षाया बाह्यमात्रविषयत्वव्यञ्जनार्थं तद्धेयत्वार्थं चतदन्तर्गतात्मानुभवतृप्त इत्युक्तम्। काङ्क्षा हि प्रतिहन्यमाना द्वेषहेतुरित्यभिप्रायेणतत एव किमपि न द्वेष्टीति व्युत्क्रमेण व्याख्यातम्। द्वन्द्वस्वरूपनिवृत्तिव्युदासाय द्वन्द्वसहशब्दः।तत एव द्वन्द्वसहश्चेति रागद्वेषवतो द्वन्द्वतितिक्षा नशक्येति भावः। नित्यसन्न्यासित्वे हिशब्दस्य हेतुपरत्वव्यञ्जनायस हीत्युक्तम्। सुखशब्दोऽत्र सौकर्यपर इत्याह सुकरकर्मयोगनिष्ठतयेति।
।।5.3।।अथ श्रेयोरूपप्रश्नोत्तरमाह सर्वत्यागरूपम् ज्ञेय इति। यः सन्न्यासी सर्वत्यागवान् सर्वं त्यक्त्वैतयोर्मध्ये नैकं कमपि द्वेष्टि न चैकं कमप्याकाङ्क्षति स नित्यं ज्ञेयो ज्ञातुं योग्यः। मदीयत्वेनेति शेषः। हे महाबाहो सर्वकरणसमर्थ हि निश्चयेन निर्द्वन्द्वः कर्म सन्न्यासयोगयोर्मदाज्ञातिरेकेण भिन्नज्ञानरहितो बन्धात् तत्फलजात्सुखं प्रमुच्यते। मोक्षे प्रकर्षः मदाज्ञाकरणेऽहं प्रसन्नो भवामीति भावः।
।।5.3।।ननु प्रत्यक्षः कर्मयोगिनां विक्षेपः संन्यासिनां तु स नास्तीति कथमुच्यते कर्मयोगो विशिष्यत इत्याशङ्क्याह ज्ञेय इति। यो रागद्वेषरहितः स कर्मसु स्वरूपतस्त्यक्तेष्वत्यक्तेषु वा नित्यं संन्यास्येव। एतेन साधनभूतयोः सांख्ययोगयोः रागद्वेषराहित्यकृतं साम्यमुक्तम्। फलभूतयोस्तु सर्वविकल्पराहित्यरूपसाम्यमनन्तरश्लोकाभ्यामुच्यते। तथापि चित्तस्वाभाव्यात्कदा चित्संन्यासिनो रागोदये पाताशङ्कास्ति नेतरस्येति स एव श्रेयानिति भावः। यद्यप्येवं तथापि हि प्रसिद्धं निर्द्वन्द्वो द्वन्द्वं सत्यानृतयोरात्मानात्मनोर्मिथुनं परस्पराध्यासस्तद्रहितः सांख्यो रागाद्युदयहेतोरज्ञानस्यात्यन्तोच्छेदात्। सुखं कर्मकरणायासंविनापि बन्धात्संसारात्केवलज्ञानेनैव मुच्यते न कर्माण्यपेक्षते। यद्वा निर्द्वन्द्वोद्वन्द्वं वै मिथुनं तस्माद्वन्द्वान्मिथुनं प्रजायते इति श्रुतेर्द्वन्द्वं स्त्रीपुंसयोर्मिथुनं तद्रहितः स्त्र्यादित्यागी संन्यासी अनायासेन मुच्यते। रागादिजयस्योभयत्र तुल्यत्वात्। अत्रच कुटुम्बभरणवैयग्र्याभावात्सुखं मुच्यत इत्यर्थः।
।।5.3।।तत्र हेतुमाह ज्ञेय इति। स निषकामकर्मयोगी नित्यं संन्यासी ज्ञातव्यः। यत्तु यदोयोगात्तदोऽध्याहारः। सनित्यसंन्यासीत्येकं पदम्। नित्यैः कर्मभिः सह वर्तत इति सनित्यः स चासौ संन्यासी चेति तन्न। स इत्येनेनैव नित्यादिकर्मानुष्ठातुर्लामेनाध्याहारस्य क्लिष्टकल्पनायाश्च वैयर्थ्यात्। नित्यसंन्यासीति विवक्षितार्थालाभाच्च। केऽसौ यो न द्वेष्टि दुःखं तत्साधनं च सुखं तत्साधनं च नाकाङ्क्षति रागद्वेषराहित्यरुपसंन्यासगुणयोगात् अयमपि संन्यासीति भावः। एतेन द्वेषमूलकानि श्येनादीनि नानुतिष्ठति स्वर्गादिफलाकाङ्क्षप्रयुक्तानि ज्योतिष्टोमादीन्यपि। तस्मात्संन्यासगुणयोगादयमपि संन्यासीति भाव इति प्रत्युक्तम्। क्रियायाः कर्ममात्रसाकाङ्क्षत्वेनास्यार्थस्यार्थिकत्वात्। श्येनाद्यननुष्ठानमात्रेण सर्वत्र रागद्वेषानिवृत्त्या संन्यासिगुणयोगासिद्धेः। अत्रादिपदाभ्यां आभिचारिककर्मणां अग्निष्टोमादीनां चैव लाभः श्येनादिसमभिव्याहारात् द्वेषेत्यादिना विशेषितत्वाच्च। यद्यादिपदाभ्यां भाष्योक्तमपि लभ्यत इत्याग्रहस्तर्हि तेनैव निर्वाहे कृतमनया कुसष्ट्या। यत्तु न द्वेष्टि भगवदर्पणबुद्य्धा क्रियमाणं कर्म निष्फलत्वशङ्क्येति तच्चिन्त्यम्। संकोचे मानाभावात् संन्यासिगुणयोगालाभाच्च। हि यस्मात्सुखदुःखराग्द्वेषशीतोष्णादिद्वन्द्ववर्जितः सुखमनायासेनैव बन्धात्संसाराज्ज्ञानप्राप्त्या प्रमुच्यते यथा त्वं महाबाहुत्वादस्माद्युद्धादनायासेनैव मोक्ष्यसे तथेति द्योतयन्नाह महाबाहो इति। यत्तु यद्यप्येवं तथापि हि प्रसिद्धं निर्द्वन्द्वः द्वन्द्वं सत्यानृतयोरात्मानात्मनोर्मिथुनं परस्पराध्यासः तद्रहितः सांख्यः रागाद्युदयहेतोरज्ञानस्यात्यन्तोच्छेदात् सुखं कर्मकरणायासं विनापि बन्धात् केवलेन ज्ञानेनैव मुच्यते न कर्माण्यपेक्षते। यद्वाद्वन्द्वं वै मिथुनं तस्माद्वन्द्वामिन्थुनं प्रजायते इति श्रुतेर्द्वन्द्वं स्त्रीपुंसयोर्मिथुनं तद्रहितः स्त्र्यादित्यागी संन्यासी अनायासेन मुच्यते। रागादिभयस्योभयत्र तुल्यत्वात् अत्र च कुटुम्बभरणवैयग्र्याभावात् सुखं मुच्यत इत्यर्थ इति व्याचख्युः तत्प्रकरणविरोधादुपेक्ष्यम्।
5.3 ज्ञेयः should be known? सः he? नित्यसंन्यासी perpetual ascetic? यः who? न not? द्वेष्टि hates? न not? काङ्क्षति desires? निर्द्वन्द्वः one free from the pairs of opposites? हि verily? महाबाहो O mightyarmed? सुखम् easily? बन्धात् from bondage? प्रमुच्यते is set free.Commentary A man does not become a Sannyasi by merely giving up actions because of laziness or ignorance or some family arrel or calamity or unemployment. A true Sannyasi is not a hypocritical coward.The Karma Yogi who neither hates pain and the objects which give him pain? nor desires pleasure and the objects that give him pleasure? who has neither attachment nor aversion to any senseobject and who has risen above the pairs of heat and cold? joy and sorrow? success and failure? victory and defeat? gain and loss? praise and censure? honour and dishonour? should be known as a perpetual Sannyasi though he is ever engaged in action.One need not have taken Sannyasa formally but if he has the above mental attitutde? he is a perpetual Sannyasi. Mere ochrecoloured robe cannot make one a Sannyasi. What is wanted is a pure heart with true renunciation of egoism and desires. Physical renunciation of objects is no renunciation at all. (Cf.VI.1)
5.3 He should be known as a perpertual Sannyasi who neither hates nor desires; for, free from the pairs of opposites, O mighty-armed Arjuna, he is easily set free from bondage.
5.3 He is a true ascetic who never desires or dislikes, who is uninfluenced by the opposites and is easily freed from bondage.
5.3 He who does not hate and does not crave should be known as a man of constant renunciation.
5.3 For, O mighty-armed one, he who is free from duality becomes easily freed from bondage. That performer of Karma-yoga, yah, who; na dvesti, does not hate anything; and na kanksati, does not crave; jneyah, should be known; as nitya-sannyasi, a man of constant [A man of constant renunciation: He is a man of renunciation ever before the realization of the actionless Self.] renunciation. The meaning is that he who continues to be like this in the midst of sorrow, happiness and their sources should be known as a man of constant renunciation, even though engaged in actions. Hi, for; mahabaho, O mighty-armed one; nirdvandvah, one who is free from duality; pramucyate, becomes freed; sukham, easily, without trouble; bandhat, from bondage. It is reasonable that in the case of renunciation and Karma-yoga, which are opposed to each other and can be undertaken by different persons, there should be opposition even between their results; but it canot be that both of them surely lead to Liberation. When such a estion arises, this is the answer stated:
5.3. That person may be considered a man of permanent renunciation, who neither hates nor desires. For, O mighty-armed ! he who is free from the pairs [of opposites] is easily released from bondage [of action].
5.3 Jneyah etc. Therefore he alone is all the time man-of-renunciation, by whom both desire and hatred have been renounced from his mind. Because his intellect has come out of the pairs of anger, delusion and others, he is released just easily.
5.3 That Karma Yogin, who, being satisfied with the experience of the self implied in Karma Yoga, does not desire anything different therefrom and conseently does not hate anything, and who, because of this, resignedly endures the pairs of opposites - he should be understood as ever given to renunciation, i.e., even devoted to Jnana Yoga. Such a one therefore is freed from bondage because of his being firmly devoted to Karma Yoga which is easy to practise. The independence of Jnana Yoga and Karma Yoga from each other as means for attainment of the self is now declared.
5.3 He who neither hates nor desires and is beyond the pairs of opposites is to be understood as an ever-renouncer. Hence, he is easily set free from bondage, O Arjuna.
।।5.3।।( कर्मयोग श्रेष्ठ ) कैसे है इसपर कहते हैं उस कर्मयोगीको सदा संन्यासी ही समझना चाहिये कि जो न तो द्वेष करता है और न किसी वस्तुकी आकाङ्क्षा ही करता है। अर्थात् जो सुख दुःख और उनके साधनोंमें उक्त प्रकारसे रागद्वेषरहित हो गया है वह कर्ममें बर्तता हुआ भी सदा संन्यासी ही है ऐसे समझना चाहिये। क्योंकि हे महाबाहो रागद्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित हुआ पुरुष सुखपूर्वक अनायास ही बन्धनसे मुक्त हो जाता है।
।।5.3।। ज्ञेयः ज्ञातव्यः स कर्मयोगी नित्यसंन्यासी इति यो न द्वेष्टि किञ्चित् न काङ्क्षति दुःखसुखे तत्साधने च। एवंविधो यः कर्मणि वर्तमानोऽपि स नित्यसंन्यासी इति ज्ञातव्यः इत्यर्थः। निर्द्वन्द्वः द्वन्द्ववर्जितः हि यस्मात् महाबाहो सुखं बन्धात् अनायासेन प्रमुच्यते।।संन्यासकर्मयोगयोः भिन्नपुरुषानुष्ठेययोः विरुद्धयोः फलेऽपि विरोधो युक्तः न तु उभयोः निःश्रेयसकरत्वमेव इति प्राप्ते इदम् उच्यते
।।5.3।।ज्ञेयः इत्यस्यापव्याख्यानं दूषयन् तात्पर्यमाह सन्न्यासेति। अर्थान्तरस्याप्रतीतेरिति भावः। ननुयदृच्छालाभसन्तुष्टः 4।22 इत्यादिनोक्तं कामादिपरित्यागंसन्न्यासं कर्मणां 5।1 इत्यनूद्यार्जुनस्य प्रश्न इत्युक्तम्। ततश्च जानात्येवासौ सन्न्यासशब्दार्थमिति न तं प्रति स वक्तव्यः। तथा च पूर्वपक्ष्युत्प्रेक्षित एवास्यार्थ इत्यत आह सन्न्यासस्येति।सन्न्यासः कर्मयोगश्च निश्श्रेयसकरावुभौ 5।2 इति यत्सन्न्यासस्य निश्श्रेयसकरत्वमुक्तं तदुपपादयितुं ज्ञातमपि सन्न्यासशब्दार्थं स्मारयत्यनेन। द्वेषादिवर्जनं हि सन्न्यासः। तस्य च निश्श्रेयसकरत्वं श्रुत्यादिप्रसिद्धमेवेति। अतः सन्न्यासशब्दार्थकथन एव तात्पर्याभावान्नानुपपत्तिरित्यर्थः। ज्ञापकं चास्यार्थस्यास्तीत्याह ज्ञेय इतीति। ज्ञेयः स्मर्तव्य इत्यनेनोक्तमित्यर्थः। योगस्य तु निश्श्रेयसकरत्वमुत्तरवाक्य एव सेत्स्यति।
।।5.3।।सन्न्यासशब्दार्थमाह ज्ञेय इति। सन्न्यासस्य निश्श्रेयसकरत्वं ज्ञापयितुं तच्छब्दार्थ स्मारयति ज्ञेय इति।
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति। निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।5.3।।
জ্ঞেযঃ স নিত্যসংন্যাসী যো ন দ্বেষ্টি ন কাঙ্ক্ষতি৷ নির্দ্বন্দ্বো হি মহাবাহো সুখং বন্ধাত্প্রমুচ্যতে৷৷5.3৷৷
জ্ঞেযঃ স নিত্যসংন্যাসী যো ন দ্বেষ্টি ন কাঙ্ক্ষতি৷ নির্দ্বন্দ্বো হি মহাবাহো সুখং বন্ধাত্প্রমুচ্যতে৷৷5.3৷৷
જ્ઞેયઃ સ નિત્યસંન્યાસી યો ન દ્વેષ્ટિ ન કાઙ્ક્ષતિ। નિર્દ્વન્દ્વો હિ મહાબાહો સુખં બન્ધાત્પ્રમુચ્યતે।।5.3।।
ਜ੍ਞੇਯ ਸ ਨਿਤ੍ਯਸਂਨ੍ਯਾਸੀ ਯੋ ਨ ਦ੍ਵੇਸ਼੍ਟਿ ਨ ਕਾਙ੍ਕ੍ਸ਼ਤਿ। ਨਿਰ੍ਦ੍ਵਨ੍ਦ੍ਵੋ ਹਿ ਮਹਾਬਾਹੋ ਸੁਖਂ ਬਨ੍ਧਾਤ੍ਪ੍ਰਮੁਚ੍ਯਤੇ।।5.3।।
ಜ್ಞೇಯಃ ಸ ನಿತ್ಯಸಂನ್ಯಾಸೀ ಯೋ ನ ದ್ವೇಷ್ಟಿ ನ ಕಾಙ್ಕ್ಷತಿ. ನಿರ್ದ್ವನ್ದ್ವೋ ಹಿ ಮಹಾಬಾಹೋ ಸುಖಂ ಬನ್ಧಾತ್ಪ್ರಮುಚ್ಯತೇ৷৷5.3৷৷
ജ്ഞേയഃ സ നിത്യസംന്യാസീ യോ ന ദ്വേഷ്ടി ന കാങ്ക്ഷതി. നിര്ദ്വന്ദ്വോ ഹി മഹാബാഹോ സുഖം ബന്ധാത്പ്രമുച്യതേ৷৷5.3৷৷
ଜ୍ଞେଯଃ ସ ନିତ୍ଯସଂନ୍ଯାସୀ ଯୋ ନ ଦ୍ବେଷ୍ଟି ନ କାଙ୍କ୍ଷତି| ନିର୍ଦ୍ବନ୍ଦ୍ବୋ ହି ମହାବାହୋ ସୁଖଂ ବନ୍ଧାତ୍ପ୍ରମୁଚ୍ଯତେ||5.3||
jñēyaḥ sa nityasaṅnyāsī yō na dvēṣṭi na kāṅkṣati. nirdvandvō hi mahābāhō sukhaṅ bandhātpramucyatē৷৷5.3৷৷
ஜ்ஞேயஃ ஸ நித்யஸஂந்யாஸீ யோ ந த்வேஷ்டி ந காங்க்ஷதி. நிர்த்வந்த்வோ ஹி மஹாபாஹோ ஸுகஂ பந்தாத்ப்ரமுச்யதே৷৷5.3৷৷
జ్ఞేయః స నిత్యసంన్యాసీ యో న ద్వేష్టి న కాఙ్క్షతి. నిర్ద్వన్ద్వో హి మహాబాహో సుఖం బన్ధాత్ప్రముచ్యతే৷৷5.3৷৷
5.4
5
4
।।5.4।। बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले कहते हैं, न कि पण्डितजन; क्योंकि इन दोनोंमेंसे एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त कर लेता है।
।।5.4।। बालक अर्थात् बालबुद्धि के लोग सांख्य (संन्यास) और योग को परस्पर भिन्न समझते हैं;  किसी एक में भी सम्यक् प्रकार से स्थित हुआ पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है।।
।।5.4।। किसी भी सामान्य कर्म को ईश्वर का पूजा में परिवर्तित करने के दो उपाय हैं। एक है सभी कर्मों में कर्तृत्व के अभिमान का त्याग और दूसरा है फलासक्ति के कारण उत्पन्न होने वाली चिंताओं का त्याग जिसे दूसरे शब्दों में कहेंगे भोक्तृत्व के अभिमान का त्याग। प्रथम उपाय को कहते हैं सांख्य तथा दूसरे को योग।सांख्य मार्ग का अनुसरण सबके लिए संभव नहीं होता है। अत्यन्त मेधावी पुरुष ही संपूर्ण विश्व में हो रहे कर्मों का अवलोकन कर इस कर्तृत्त्व के अभिमान को त्याग सकता है। जीवन में प्राप्त उपलब्धियों के लिए जगत् में कितने ही व्यक्तियों एवं नियमों की अपेक्षा होती है। इसे समझ कर ही हम अपने व्यक्तिगत योगदान की क्षुद्रता समझ सकते हैं और तभी हम अपने मिथ्या कर्तृत्त्व की धारणा को भी त्याग सकते हैं।केवल बालक अर्थात् अपरिपक्व विचार के लोग ही सांख्य और योग में विरोध देखते हैं जबकि बुद्धिमान पुरुष जो किसी एक मार्ग का अवलंबन दृढ़ता से करते हैं दोनों मार्गों के समान प्रभाव को जानते हैं। यदि साधक के रूप में हम कर्तृत्व अभिमान अथवा फलासक्ति को त्यागते हैं तो हमें एक ही लक्ष्य प्राप्त होता है।एक के ही सम्यक ् अनुष्ठान से दोनों के फल की प्राप्ति कैसे होगी उत्तर में कहते हैं
।।5.4।। व्याख्या--'सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः'--इसी अध्यायके पहले श्लोकमें अर्जुनने कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके तत्त्वदर्शी महापुरुषके पास जाकर ज्ञान प्राप्त करनेके साधनको 'कर्मसंन्यास' नामसे कहा है। भगवान्ने भी दूसरे श्लोकमें अपने सिद्धान्तकी मुख्यता रखते हुए उसे 'संन्यास' और 'कर्मसंन्यास' नामसे कहा है। अब उस साधनको भगवान् यहाँ 'सांख्य' नामसे कहते हैं। भगवान् शरीर-शरीरीके भेदविचार करके स्वरूपमें स्थित होनेको 'सांख्य' कहते हैं। भगवान्के मतमें 'संन्यास' और 'सांख्य' पर्यायवाची हैं, जिसमें कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी आवश्यकता नहीं है।अर्जुन जिसे 'कर्मसंन्यास' नामसे कह रहे हैं, वह भी निःसन्देह भगवान्के द्वारा कहे 'सांख्य' का ही एक अवान्तर भेद है। कारण कि गुरुसे सुनकर भी साधक शरीर-शरीरीके भेदका ही विचार करता है।'बालाः' पदसे भगवान् यह कहते हैं कि आयु और बुद्धिमें बड़े होकर भी जो सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले मानते हैं, वे बालक अर्थात् बेसमझ ही हैं।जिन महापुरुषोंने सांख्ययोग और कर्मयोगके तत्त्वको ठीक-ठीक समझा है, वे ही पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् हैं। वे लोग दोनोंको अलग-अलग फलवाले नहीं कहते; क्योंकि वे दोनों साधनोंकी प्रणालियोंको न देखकर उन दोनोंके वास्तविक परिणामको देखते हैं.साधन-प्रणालीको देखते हुए स्वयं भगवान्ने तीसरे अध्यायके तीसरे श्लोकमें सांख्ययोग और कर्मयोगको दो प्रकारका साधन स्वीकार किया है। दोनोंकी साधन-प्रणाली तो अलग-अलग है, पर साध्य अलग-अलग नहीं है।
।।5.4 5.5।।साँख्ययोगाविति। यत्सांख्यैरिति। इदं सांख्यं (S सांख्यज्ञानम्) अयं च योगः इति न भेदः। एतौ हि नित्यसंबद्धौ। ज्ञानं न योगेन विना योगोऽपि न तेन विनेति। अत एकत्वमनयोः।
।।5.4।।ज्ञानयोगकर्मयोगौ फलभेदात् पृथग्भूतौ ये प्रवदन्ति ते बालाः अनिष्पन्नज्ञानाः न पण्डिताः न तु कृत्स्नविदः। कर्मयोगो ज्ञानयोगम् एव साधयति ज्ञानयोगस्तु एक आत्मावलोकनं साधयति इति तयोः फलभेदेन पृथक्त्वं वदन्तो न पण्डिता इत्यर्थः।उभयोः आत्मावलोकनैकफलयोः एकफलत्वेन एकम् अपि आस्थितः तद् एव फलं लभते।एतद् एव विवृणोति
।।5.4।।यदुक्तं संन्यासकर्मयोगयोर्निःश्रेयसकरत्वं तदाक्षिपति संन्यासेति। तत्रोत्तरत्वेनोत्तरश्लोकमवतारयति इति प्राप्त इति। विवेकिनस्तर्हि कथं वदन्तीत्याकाङ्क्षायामाह एकमिति। संख्यामात्मसमीक्षामर्हतीतिसांख्यं संन्यासो योगस्तु कर्मयोगस्तावुभावपि पृथगित्यस्यार्थमाह विरुद्धेति। शास्त्रार्थविवेकशून्यत्वं बालत्वम्। उत्तरार्धमवतारयितुं भूमिकां करोति पण्डितास्त्विति। ज्ञानिनो योगिनश्चेति शेषः। द्वयोरविरुद्धफलत्वमेव प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति कथमित्यादिना। एकं साधनमनुष्ठितवतो द्वयोरपि फलं भवतीति विरुद्धमित्याशङ्क्याह उभयोरिति। सांख्ययोगयोः संन्यासकर्मानुष्ठानयोस्तत्त्वज्ञानद्वारा निःश्रेयसफलत्वान्न विरुद्धफलत्वशङ्केत्यर्थः। सांख्ययोगयोरेकफलत्ववचनं प्रकरणाननुगुणमिति शङ्कते नन्विति। अप्रकृतत्वमसिद्धमिति परिहरति नैष दोष इति। संन्यासं कर्मणामित्यादिना संन्यासं कर्मयोगं चाङ्गीकृत्य प्रश्ने संन्यासः कर्मयोगश्चेत्यादिना तथैव प्रतिवचने च कथं सांख्ययोगयोरेकफलत्वमप्रकृतं न भवतीत्युच्यते तत्राह यद्यपीति। प्रतिवचनमपि तदनुरूपमेव भगवता निरूपितमिति विशेषानुपपत्तिरित्याशङ्क्याह भगवांस्त्विति। तदपरित्यागेनेत्यत्र तत्पदेन प्रष्ट्रा प्रतिनिर्दिष्टौ कर्मसंन्यासकर्मयोगावुच्येते। सांख्ययोगाविति शब्दान्तरवाच्यतया तयोरेव संन्यासकर्मयोगयोरत्यागेन स्वाभिप्रेतं च विशेषं संयोज्य भगवान्प्रतिवचनं ददाविति योजना। यदुक्तं स्वाभिप्रेतं च विशेषं संयोज्येति तदेतद्व्यक्तीकरोति तावेवेति। समबुद्धित्वादीत्यादिशब्देन ज्ञानोपायभूतं शमादिरादीयते प्रकृतयोरेव संन्यासकर्मयोगयोरुपादाने फलितमाह अत इति। सांख्ययोगावित्यादिश्लोकव्याख्यानसमाप्तिरितिशब्दार्थः।
।।5.4।।ननु साङ्ख्ययोगयोरेक एवार्थः कथमुत्पाद्यते शास्त्रभेदात् इत्याशङ्क्य एकफलविषयत्वेनाभेदमुख्यैकार्थ्यमुपदिशति साङ्ख्येति। साङ्ख्ये हि कर्मणां सन्न्यासः योगे चोपादानमिति भेदेऽपि स्वकर्मणि द्वन्द्वसन्न्यासपूर्वकं करणमर्थमेकमप्यास्थित उभयोः फलं विन्दतीति। यद्वा उभयोर्मध्ये एकमप्यास्थितः सम्यक् फलं विन्दतीति स्वातन्त्र्येण मीमांसितयोः परमपुरुषार्थसाधकत्वमुक्तम्। ऐकार्थ्येनोपादाने तथेति भगवन्मतम्। तदग्रे स्पष्टीभविष्यति।
।।5.4।।ननु यः कर्मणि प्रवृत्तः स कथं संन्यासीति ज्ञातव्यः कर्मतत्त्यागयोः स्वरूपविरोधात्। फलैक्यात्तथेति चेत् न स्वरूपतो विरुद्धयोः फलेऽपि विरोधस्यौचित्यात्। तथाच निःश्रेयसकरावुभावित्यनुपपन्नमित्याशङ्क्याह संख्या सम्यगात्मबुद्धिस्तां वहतीति ज्ञानान्तरङ्गसाधनतया सांख्यः संन्यासः। योगः पूर्वोक्तः कर्मयोगः। तौ पृथग्विरुद्धफलौ बालाः शास्त्रार्थज्ञानविवेकशून्याः प्रवदन्ति न पण्डिताः। किं तर्हि पण्डितानां मतम्। उच्यते एकमपि संन्यासकर्मणोर्मध्ये सम्यगास्थितः स्वाधिकारानुरूपेण सम्यग्यथाशास्त्रं कृतवान्सन्नुभयोर्विन्दते फलं ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण निःश्रेयसमेकमेव।
।।5.4।।यस्मादेवमङ्गप्रधानत्वेनोभयोरवस्थाभेदेन क्रमसमुच्चयः। अतो विकल्पमङ्गीकृत्योभयोः कः श्रेष्ठ इति प्रश्नोऽज्ञानिनामेवोचितो न विवेकिनामित्याह सांख्ययोगाविति। सांख्यशब्देन ज्ञाननिष्ठावाचिना तदङ्गं संन्यासं लक्षयति। संन्यासकर्मयोगावेकफलौ सन्तौ पृथक्स्वतन्त्राविति बाला अज्ञा एव प्रवदन्ति नतु पण्डिताः। तत्र हेतुः अनयोरेकमपि सम्यगास्थित आश्रितः सन्नुभयोरपि फलं प्राप्नोति। तथाहि कर्मयोगं सम्यगनुतिष्ठन् शुद्धचित्तः सन् ज्ञानद्वारा यदुभयोः फलं कैवल्यं विन्दति। संन्यासं सम्यगास्थितोऽपि पूर्वमनुष्ठितस्य कर्मयोगस्यापि परम्परया ज्ञानद्वारा यदुभयोः फलं कैवल्यं तद्विन्दतीति न पृथक्फलत्वमनयोरित्यर्थः।
।।5.4।।निश्श्रेयसकरावुभौ 5।2 इत्यभिप्रेतं विवृणोतीत्यभिप्रायेणाह ज्ञानयोगकर्मयोगयोरिति। अत्र साङ्ख्योगशब्दौ न कापिलहैरण्यगर्भसिद्धान्तविषयौ तयोरप्रस्तुतत्वात् महाप्रकरणासङ्गतत्वात्तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते 5।2सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः 5।6 इत्यादिपूर्वोत्तरविरोधात्। शारीरकसूत्रेषु चरचनानुपपत्तेश्च नानुमानं प्रवृत्तेश्च ब्र.सू.2।2।12एतेन योगः प्रत्युक्तः ब्र.सू.2।1।3 इत्यादिभिः सूत्रैस्तयोरपि सिद्धान्तयोः महर्षिणैवापाकरणात्बहवः पुरुषा राजन् (लोके) साङ्ख्ययोगविचा(रणे)रिणः। नैत (दि) इच्छन्ति पुरुषमेकं कुरुकुलोद्वह।।समा(सतस्तु)सेन तु त(य)द्व्यासः पुरुषै(कत्व) कात्म्यमुक्तवान् इति मोक्षधर्मे म.भा.12।350।27तयोर्विरुद्धांशवचंनाच्च। अतः सङ्ख्यया बुद्ध्याऽवधारणीयमात्मतत्त्वं साङ्ख्यम् तदवधारणरूपं साङ्ख्यम् योगश्चात्र कर्मयोग इत्यभिप्रायेण ज्ञानयोगकर्मयोगशब्दोपादानम्।पृथग्बालाः प्रवदन्ति इति न स्वरूपपृथक्त्वं निषिध्यते तस्य प्रामाणिकत्वात्। न च तत्समुच्चयविधानपरमिदम्एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते 5।5सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः इत्यादिभिः पृथगनुष्ठानस्यैव सिद्धत्वात्। अतः फलैक्यस्यएकमप्यास्थितः इत्यादिना विधानात् अत्र फलभेदकृतभेदनिषेधे तात्पर्यमित्याहफलभेदात्पृथग्भूताविति। अस्य वाक्यस्य पृथक्फलवादिनां निन्दारूपत्वात्ये प्रवदन्ति ते बाला इति बालत्वस्योपादेयतया वचनव्यक्तिर्दर्शिता। उत्तरश्लोकेऽप्येकफलत्ववादिप्रशंसायांयः पश्यति इत्यनूद्यस पश्यति 5।5 इति हि विधीयते। बालशब्दस्यात्र मुख्यायोगादुपचरितमाह अनिष्पन्नज्ञाना इति। अपक्वयौक्तिकज्ञानेष्वपक्वपर्यायशब्दोपचारः बालसाम्याद्वा बालाः।न पण्डिताः इत्यत्र अशास्त्रीयानुष्ठानपर्यन्ताज्ञानव्युदासायोक्तंअकृत्स्नविद इति। तस्माद्ब्राह्मणः पाण्डित्यं निर्विद्य बृ.उ.3।5।1 इत्यादिप्रसिद्धं सदाचार्यप्रसादैकसमधिगम्यार्थविषयं ज्ञानमिह पाण्डित्यम् अतोबालाः इत्युक्तेऽपि तदभावोक्तिर्न पुनरुच्यत इति भावः। फलादिभेदभ्रमप्रकारंन पण्डिताः इत्यस्यापिबालाः इतिवद्विधिविषयत्वं च दर्शयति कर्मयोग इति।ज्ञानयोगमेवेति न तु कस्मिन्नप्यधिकारिणि साक्षादात्मावलोकनमित्यर्थः। ये तुये बालास्त एवं वदन्ति ये पण्डितास्ते तु न इति वचनव्यक्तिमाहुः तेषामप्ययमेवार्थः फलतोऽङ्गीकार्यः। उभयोः फलमेकेन कथं लभ्यं इत्यत्राह उभयोरिति। निर्धारणे षष्ठी एकशब्दश्चान्यतरपर्यायः द्वयोरपि तुल्यफलत्वादन्यतरास्थानेऽपि तत्फलं सिद्ध्यतीत्यर्थः।
।।5.4।।उभयोर्हेयोपादेयज्ञानिनो मत्स्वरूपाद्भिन्नज्ञानिनश्च मूर्खा इत्याह साङ्ख्ययोगाविति। साङ्ख्ययोगौ पृथक् भिन्नतयाऽनुष्ठेयाननुष्ठेयत्वेन मताविति बाला मूर्खाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ज्ञानिन इत्यर्थः। अयं भावः साङ्ख्ययोगौ मत्कुण्डलात्मकौ तत्र हेयोपादेयज्ञानं मत्कुण्डलयोर्मदात्मकत्वात् भिन्नज्ञानं च ज्ञानमेवेति भावः। यतस्तथा ज्ञानमज्ञानमतः सम्यगास्थितो मत्स्वरूपपरो मदाज्ञया कुर्वन्नुभयोरप्येकं फलं मत्प्रसादरूपं विन्दते प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।5.4।।नन्वेकत्र पाताशङ्का एकत्र कर्मश्रमस्तदनयोः पथोः कतरः श्रेयानित्याशङ्क्य द्वयोरपि फलतः साम्यमित्याह सांख्ययोगाविति। सांख्यंसमित्येकीभावे इति यास्कः। एकीभावेनात्मानन्यत्वेन ख्यायते प्रकाश्यते वस्तुस्वरूपमनयेति संख्या स्थूलसूक्ष्मकारणप्रपञ्चस्य निर्विकल्पे प्रत्यगात्मनि प्रविलापनेनोदिता चेतोवृत्तिस्तत्साधनभूतो यः सांख्यः संन्यासः सच दारादिबुद्ध्यन्तानां पदार्थानामात्मन्येकीभावेन न्यसनं त्यागः प्रविलापनं तथा योगोऽप्यग्निहोत्रसंध्योपासनादिनिर्विकल्पसमाध्यन्तमनुष्ठानं तत्र मुख्यस्य योगस्य लक्षणंयोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति। वृत्तयश्चप्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः इति पञ्च। तत्र प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि तेषु प्रत्यक्षमिन्द्रियं तज्जा वृत्तिः शुक्त्यादिविषयं याथार्थ्येन ज्ञानम्। विपर्ययस्तु तत्रैव रजतादिविषयं भ्रान्तिरूपं ज्ञानम्। संशयोऽपि इयं शुक्तिर्वा रजतं वेत्यनिर्धारितान्यतरकोटिकं ज्ञानम्। स च विपर्यय एवान्तर्भवति। विकल्पस्तु शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यः यथा पुरुषस्य चैतन्यं वन्ध्यापुत्र इति। नहि पुरुषचैतन्यतत्संबन्धानां पृथक्त्वमस्ति किंतु चैतन्यमेव हि शब्दत्रयेणोच्यते। नापि वन्ध्यासुतस्य स्वरूपमस्त्यथापि शब्देनाभिलप्यते। सोऽयं विकल्पः शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यः एकस्मिन्ननेकबुद्धिरसति स सद्बुद्धिरिति। निद्रास्मृति लोकप्रसिद्धे। एतासां निरोधेऽपि निर्विकल्पः प्रत्यगात्मैवावशिष्यते। तावेतौ फलभूतौ सांख्ययोगौ। साधनभूतौ तावेव संन्यासकर्मयोगाख्यौ। तत्रान्त्ययोः साम्यंज्ञेयः स नित्यसंन्यासी इत्यनेन सूचितम्। आद्ययोस्त्वैक्यमत्रोच्यते। आस्थितोऽनुतिष्ठन्। फलं निर्विकल्पात्मनावस्थितिरूपम्।
।।5.4।।ननूभयोर्निःश्रेयसकरत्वमेकफलकत्वं न युक्तं भिन्नपुरुषानुष्ठेययोः स्वरुपतोऽपि विरुद्धयोः फलतोऽपि विरोधस्योचितत्वात्। तस्मात्तयोर्यदेकं निःश्रेयसकरं तन्मे ब्रूहीत्यर्जुनाशङ्कामालक्ष्याह सांख्येति। यत्त्वेकत्र पाताशङ्का एकत्र कर्मश्रमस्तदनयोः पथोः कतरः श्रेयानित्याशङ्क्य द्वयोरपि फलतः साभ्यमित्याहेति तच्चिन्त्यम्। उभयोरप्यश्रेष्ठतां मन्यमानस्य कतरः श्रेयानिति प्रश्रस्यानुपपत्तेः। संख्या सभ्यगात्मबुद्धिस्तां वहतीति ज्ञानान्तरङ्गसाधनतया सांख्यः संन्यासः। एवं सांख्यशचब्दावाच्यः शमदमादिभिर्ज्ञानेन च संयुक्तः संन्यासोऽत्र विवक्षितः प्रस्तुतः। तथा प्रस्तुत एव कर्मयोगः ज्ञानोपायसमबुद्धित्वादिसंयुक्तः योगशब्दावाच्यः। तावेव संन्यासकर्मयोगौ ज्ञानतदुपायसमबुद्धित्वादियुक्तौ सांख्ययोगशब्दवाच्याविति भाष्यात्। एतेन सांख्यशब्देन ज्ञाननिष्ठावाचिना तदङ्ग संन्यासं लक्षयतीति लक्षणा परास्ता। बाला अविवेकिनः तौ पृथक् भिन्नफलौ प्रवदन्ति न तु पण्डिताः शास्त्रज्ञा विवेकिनः। तेतु एकमपि कर्मयोगं संन्यासं वा सभ्यक् चित्तशुद्धिसंपादकं शमदमादियुक्तं वाऽऽस्थितोऽनुष्ठितवानुभयोः फलं निःश्रेयसं मोक्षं परम्परया साक्षाद्वा विन्दते लभत इति प्रवदन्तीत्यर्थः। यत्तुसमित्येकीभाव इति यास्कः। एकीभावेनात्मानन्यत्वेन ख्यायते प्रकाश्यते वस्तुस्वरुपमनयेति संख्या स्थूलसूक्ष्मकारणप्रपञ्चस्य निर्विकल्पे प्रत्यगात्मनि प्रविलापनेनोदिता चेतोवृत्तिस्तत्साधनभूतो यः सांख्यः संन्यासः सच दारादिबुद्य्धन्तानां पदार्थानामात्मन्येकीभावेन न्यसनं त्यागः प्रविलापनम् तथा योगोऽप्यग्निहोत्रसंध्योपासनादिनिर्विकल्पसमाध्यन्तमनुष्ठानं तत्र मुख्ययोगस्य लक्षणयोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति। वृत्तयश्चप्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः। इति पञ्च। तावेतौ फलभूतौ सांख्ययोयौ उत साधनभूतौ संन्यासकर्मयोगाख्यौ। तत्रान्त्ययोः साम्यंज्ञेयः स नित्यसंन्यासी इत्यनेन सूचितमाद्ययोस्त्वैक्यमत्रोच्यते। आस्थितोऽनुतिष्ठन् फलं निर्विकल्पात्मनाऽवस्थितिरुपमित्यन्ये व्याचख्युस्तदर्जुनप्रश्नाननुगुणत्वेनोपेक्ष्यम्। संन्यासकर्मयोग्योः किं श्रेयस्करमिति तेनपृष्टत्वात्। अतएव भाष्यकृद्भिस्तत्रतत्र योगशब्दार्थः कर्मयोग इत्येव प्रदर्शितः। एतेन वृत्तेः पञ्चधात्ववर्णनमप्यप्रासङ्गिकत्वादपास्तम्।
5.4 सांख्ययोगौ Sankhya (knowledge) and Yoga (Yoga of action or performance of action)? पृथक् distinct? बालाः children? प्रवदन्ति speak? न not? पण्डिताः the wise? एकम् one? अपि even? आस्थितः established in? सम्यक् truly? उभयोः of both? विन्दते obtains? फलम् fruit.Commentary Children the ignorant people who have no knowledge of the Self? and who have only a theoretical knowledge of the scriptures.Children or ignorant people only say that knowledge and the performance of action are different and produce distinct and opposite results. But the wise who have the knowledge of the Self say that they produce the same result only? viz.? Moksha or liberation. He who is duly established in,one? he who truly lives in one? Sankhya or Yoga? obtains the fruits of both. Therefore there is no diversity in the result or the fruit. This is the gist of this verse. (Cf.VI.2)
5.4 Children, not the wise, speak of knowledge and the Yoga of action or the performance of action as though they are distinct and different; he who is truly established in one obtains the fruits of both.
5.4 Only the unenlightened speak of wisdom and right action as separate, not the wise. If any man knows one, he enjoys the fruit of both.
5.4 The fools, not the learned ones, speak of Sankhya (the path of Knowledge) and (Karma-) yoga as different. Any one who properly resorts to even one (of them) gets the result of both.
5.4 Balah, the fools; na panditah, not the learned ones; pravadanti, speak of; sankhya-yogau, Sankhya [Sankhya, i.e. monasticism, is that which is suited for sankhya, Self-iniry.] (the Path of Knowledge) and (Karma-)yoga; as prthak, different, having opposite and different results. The learned ones, the wise, however, admit one, unconflicting result. How? Any one who samyak, properly; asthitah, resorts to, i.e. follows; ekam api, even one, between the Path of Knowledge and (Karma-) yoga; vindate, gets; phalam, the result; ubhayoh, of both. For, the result of both is that Liberation itself. Therefore there is no conflict with regard to the result. Objection: After beginning the topic with the words, 'renunciation' and '(Karma-) yoga', how is it that the Lord speaks of the identity of the results of the path of Knowledge and (Karma-) yoga, which is beside the point? Reply: This defect does not arise. Although the estion was put by Arjuna merely with regard to renunciation and Karma-yoga, yet the Lord, without actually avoiding them, and by adding something special which was intended by Him, gave the answer by expressing them through other words, 'Sankhya' and '(Karma-) yoga'. Those very 'renunciation and 'Karma-yoga', when they are (respectively) associated with Knowledge and such of Its means as eanimity etc., are meant by the words 'Sankhya' and 'yoga'. This is the Lord's veiw. Therefore there is no discussion out of the context. How can the result of both be attained by the proper performance of only one? The answer is:
5.4. The childish, and not the wise, proclaim the paths of knowledge and the Yoga as different. He, who has properly resorted to even one [of these two], gets the fruit of both.
5.4 See Comment under 5.5
5.4 Those who say that Karma Yoga and Jnana Yoga are distinct because of the difference in results, are children, i.e., are persons with incomplete knowledge; they do not know the entire truth. The meaning is that they do not possess true knowledge, who say that Karma Yoga results in Jnana Yoga only and that Jnana Yoga alone results in the vision of the self and that the two are thus distinct because of the difference in their fruits. But on the contrary as both have only the vision of the self as the fruit, a person who is firmly set in one of them, wins that one fruit common to both. Sri Krsna further expounds the same:
5.4 Children, not the learned, speak of Sankhya (Jnana Yoga) and Yoga (Karma Yoga) as distinct; he who is firmly set in one, attans the fruit of both.
।।5.4।।भिन्न पुरुषोंद्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य परस्परविरुद्ध कर्मसंन्यास और कर्मयोगके फलमें भी विरोध होना चाहिये दोनोंका कल्याणरूप एक ही फल कहना ठीक नहीं इस शङ्काके प्राप्त होनेपर यह कहा जाता है बालबुद्धिवाले ही सांख्य और योगइन दोनोंको अलगअलग विरुद्ध फलदायक बतलाते हैं पण्डित नहीं। ज्ञानी पण्डितजन तो दोनोंका अविरुद्ध और एक ही फल मानते हैं। क्योंकि सांख्य और योगइन दोनोंमेंसे एकका भी भलीभाँति अनुष्ठान कर लेनेवाला पुरुष दोनोंका फल पा लेता है। कारण दोनोंका वही ( एक ) कल्याणरूप ( परमपद ) फल है इसलिये फलमें विरोध नहीं है। पू0 संन्यास और कर्मयोग इन शब्दोंसे प्रकरण उठाकर फिर यहाँ प्रकरणविरुद्ध सांख्य और योगके फलकी एकता कैसे कहते हैं उ0 यह दोष नहीं है। यद्यपि अर्जुनने केवल संन्यास और कर्मयोगको पूछनेके अभिप्रायसे ही प्रश्न कियाथा परंतु भगवान्ने उसके अभिप्रायको न छोड़कर ही अपना विशेष अभिप्राय जोड़ते हुए सांख्य और योग ऐसे इन दूसरे शब्दोंसे उनका वर्णन करके उत्तर दिया है। क्योंकि वे संन्यास और कर्मयोग ही ( क्रमानुसार ) ज्ञानसे और उसके उपायरूप समबुद्धि आदि भावोंसे युक्त हो जानेपर सांख्य और योगके नामसे कहे जाते हैं यह भगवान्का मत है अतः यह वर्णन प्रकरणविरुद्ध नहीं है।
।।5.4।। सांख्ययोगौ पृथक् विरुद्धभिन्नफलौ बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः। पण्डितास्तु ज्ञानिन एकं फलम् अविरुद्धम् इच्छन्ति। कथम् एकमपि सांख्ययोगयोः सम्यक् आस्थितः सम्यगनुष्ठितवान् इत्यर्थः उभयोः विन्दते फलम्। उभयोः तदेव हि निःश्रेयसं फलम् अतः न फले विरोधः अस्ति।।ननु संन्यासकर्मयोगशब्देन प्रस्तुत्य सांख्ययोगयोः फलैकत्वं कथम् इह अप्रकृतं ब्रवीति नैष दोषः यद्यपि अर्जुनेनसंन्यासं कर्मयोगं च केवलम् अभिप्रेत्य प्रश्नः कृतः भगवांस्तु तदपरित्यागेनैव स्वाभिप्रेतं च विशेषं संयोज्य शब्दान्तरवाच्यतया प्रतिवचनं ददौ सांख्ययोगौ इति। तौ एव संन्यासकर्मयोगौ ज्ञानतदुपायसमबुद्धित्वादिसंयुक्तौ सांख्ययोगशब्दवाच्यौ इति भगवतो मतम्। अतः न अप्रकृतप्रक्रियेति।।एकस्यापि सम्यगनुष्ठानात् कथम् उभयोः फलं विन्दते इति उच्यते
।।5.4।।सन्न्यासं गृहीत्वा योगं त्यक्ष्यामीत्याशयेन द्वयोः श्रेयसि पृष्टे द्वावपि निश्श्रेयसकरौ तत्रापि सन्न्यासाद्योगो विशिष्टोऽतो न युद्धं त्वया त्याज्यमिति परिहारो जातः किमर्थमिदानीं साङ्ख्ययोगावित्युच्यतेइत्यत आह सन्न्यासो हीति। हिशब्दो हेतौ। ज्ञानान्तरङ्गत्वेन ज्ञानोत्पत्तावत्यावश्यकत्वेन।न तस्य इत्यत्र विषयवैराग्याभावे ज्ञानानुत्पत्तिवचनेन तत एव तदुत्पत्तिरिति लभ्यते। एवं कर्मयोगस्तु ज्ञानविरोधित्वेनोक्तः।अग्निमुग्धः इत्यादावित्यपि ग्राह्यम्। अवमो योगात्। अनेन योगस्य निश्श्रेयसकरत्वमप्याक्षिप्तम्। ननु साङ्ख्यं ज्ञानं योगः कर्म तयोः कथमत्र पृथक्त्वाभाव उच्यते कथं चानेनोक्ताक्षेपपरिहारः इत्यत आह उभयोरपीति। न केवलं सन्न्यासस्य किन्तु योगस्यापीत्युभयोरपि ज्ञानान्तरङ्गत्वान्नोक्तो विरोध इत्यर्थः। अनेन साङ्ख्ययोगौ पृथक्साध्यसाधनभावहीनाविति न पण्डिता मन्यन्त इत्येवं व्याख्यातं भवति। ननु श्रुतिपुराणाभ्यां कर्मणो ज्ञानविरोधित्वमुच्यत इत्युक्तम् अतः कथमेवमभिधीयते इत्यत आह अग्नीति। अग्न्युपलक्षिते कर्मणि मुग्धः श्रेयस्करमिति भ्रान्तः। धूमतान्तो होमधूमेन तान्तो ग्लानः। धूमता धूमादित्वमेवान्तःपर्यवसानमस्येति वा। स्वं लोकं स्वीयमाश्रयं परमात्मानम्। यज्ञशालासनेन धूमोपलक्षितमार्गवतां वः पदव्योऽस्मदाश्रिता नेत्यर्थः। नन्वकाम्यमपि नित्यं नैमित्तिकं च कर्म प्रत्यवायपरिहारार्थमेव न ज्ञानान्तरङ्गमिति विद्वांस एव मन्यन्त इत्यत आह ये त्विति। बाला अविवेकिनः।
।।5.4।।सन्न्यासो हि ज्ञानान्तरङ्गत्वेनोक्तःन तस्य तत्त्वग्रहणाय भाग.5।11।3 इत्यादौ। अतः कथं सोऽवम् इत्यत आह साङ्खयोगाविति। उभयोरप्यन्तरङ्गत्वेनाविरोधः। अग्निमुग्धो ह वै धूमतान्तः स्वं लोकं न प्रत्यभिजानाति।मा वः पदव्यः पितरस्मदास्थिता या यज्ञशालासनधूमवर्त्मनाम् इत्यादि काम्यकर्मविषयमिति भावः। ये त्वन्यथा वदन्ति ते बालाः।
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः। एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।5.4।।
সাংখ্যযোগৌ পৃথগ্বালাঃ প্রবদন্তি ন পণ্ডিতাঃ৷ একমপ্যাস্থিতঃ সম্যগুভযোর্বিন্দতে ফলম্৷৷5.4৷৷
সাংখ্যযোগৌ পৃথগ্বালাঃ প্রবদন্তি ন পণ্ডিতাঃ৷ একমপ্যাস্থিতঃ সম্যগুভযোর্বিন্দতে ফলম্৷৷5.4৷৷
સાંખ્યયોગૌ પૃથગ્બાલાઃ પ્રવદન્તિ ન પણ્ડિતાઃ। એકમપ્યાસ્થિતઃ સમ્યગુભયોર્વિન્દતે ફલમ્।।5.4।।
ਸਾਂਖ੍ਯਯੋਗੌ ਪਰਿਥਗ੍ਬਾਲਾ ਪ੍ਰਵਦਨ੍ਤਿ ਨ ਪਣ੍ਡਿਤਾ। ਏਕਮਪ੍ਯਾਸ੍ਥਿਤ ਸਮ੍ਯਗੁਭਯੋਰ੍ਵਿਨ੍ਦਤੇ ਫਲਮ੍।।5.4।।
ಸಾಂಖ್ಯಯೋಗೌ ಪೃಥಗ್ಬಾಲಾಃ ಪ್ರವದನ್ತಿ ನ ಪಣ್ಡಿತಾಃ. ಏಕಮಪ್ಯಾಸ್ಥಿತಃ ಸಮ್ಯಗುಭಯೋರ್ವಿನ್ದತೇ ಫಲಮ್৷৷5.4৷৷
സാംഖ്യയോഗൌ പൃഥഗ്ബാലാഃ പ്രവദന്തി ന പണ്ഡിതാഃ. ഏകമപ്യാസ്ഥിതഃ സമ്യഗുഭയോര്വിന്ദതേ ഫലമ്৷৷5.4৷৷
ସାଂଖ୍ଯଯୋଗୌ ପୃଥଗ୍ବାଲାଃ ପ୍ରବଦନ୍ତି ନ ପଣ୍ଡିତାଃ| ଏକମପ୍ଯାସ୍ଥିତଃ ସମ୍ଯଗୁଭଯୋର୍ବିନ୍ଦତେ ଫଲମ୍||5.4||
sāṅkhyayōgau pṛthagbālāḥ pravadanti na paṇḍitāḥ. ēkamapyāsthitaḥ samyagubhayōrvindatē phalam৷৷5.4৷৷
ஸாஂக்யயோகௌ பரிதக்பாலாஃ ப்ரவதந்தி ந பண்டிதாஃ. ஏகமப்யாஸ்திதஃ ஸம்யகுபயோர்விந்ததே பலம்৷৷5.4৷৷
సాంఖ్యయోగౌ పృథగ్బాలాః ప్రవదన్తి న పణ్డితాః. ఏకమప్యాస్థితః సమ్యగుభయోర్విన్దతే ఫలమ్৷৷5.4৷৷
5.5
5
5
।।5.5।। सांख्ययोगियोंके द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियोंके द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोगको (फलरूपमें) एक देखता है, वही ठीक देखता है।
।।5.5।। जो स्थान ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है,  उसी स्थान पर कर्मयोगी भी पहुँचते हैं। इसलिए जो पुरुष सांख्य और योग को (फलरूप से) एक ही देखता है,  वही (वास्तव में) देखता है।।
।।5.5।। यहाँ भगवान् का स्पष्ट वचन है कि सांख्य और योग दोनों का लक्ष्य एक ही है इसलिए एक के अनुष्ठान से दोनों के फल को प्राप्त होने की बात कही गयी है। इस प्रकार इन दोनों को फलरूप से एक समझने वाले पुरुष ही यथार्थ में वेदों में प्रतिपादित सत्य के ज्ञाता है।पश्यन्ति अर्थात् देखते हैं इस शब्द का प्रयोग उसके शास्त्रीय अर्थ में किया गया है जिसके कारण नेत्र इन्द्रिय के द्वारा किसी बाह्य वस्तु का दर्शन यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं। अद्वैत तत्त्वज्ञान के सिद्धांतानुसार आत्मा के स्वयं द्रष्टा होने से उसका दृश्यरूप में दर्शन कभी नहीं हो सकता। द्रष्टा के द्वारा द्रष्टा का ही यह अनुभव है। देखते हैं शब्द का प्रयोग मात्र यह दर्शाने के लिए है कि इस आत्मतत्त्व का अनुभव उतना ही स्पष्ट और सन्देहरहित हो सकता है जितना कि बाह्य स्थूल पदार्थ का दर्शन।इस प्रकार इन दोनों के संश्लेषण करने का अर्थ यह नहीं है कि इनका मिश्रण किया गया हो। क्रम से योग तथा सांख्य का अनुष्ठान अपेक्षित है। इन दोनों को हम एक ही मान सकते हैं क्योंकि कर्मयोग से चित्तशुद्धि प्राप्त होकर सांख्य अर्थात् ध्यान के द्वारा हम परम तत्त्व का साक्षात् अनुभव कर सकते हैं। सभी साधकों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि योग और सांख्य का अनुष्ठान क्रम से करना है न कि युगपत्।कर्मयोग का लक्ष्य संन्यास किस प्रकार है सुनो
5.5।। व्याख्या--'यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते'--पूर्वश्लोकके उत्तरार्धमें भगवान्ने कहा था कि एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित होकर मनुष्य दोनों साधनोंके फलरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है। उसी बातकी पुष्टि भगवान् उपर्युक्त पदोंमें दूसरे ढंगसे कर रहे हैं कि जो तत्त्व सांख्ययोगी प्राप्तकरते हैं, वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं।संसारमें जो यह मान्यता है कि कर्मयोगसे कल्याण नहीं होता, कल्याण तो ज्ञानयोगसे ही होता है--इस मान्यताको दूर करनेके लिये यहाँ 'अपि' अव्ययका प्रयोग किया गया है। सांख्ययोगी और कर्मयोगी--दोनोंका ही अन्तमें कर्मोंसे अर्थात् क्रियाशील प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है। प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर दोनों ही योग एक हो जाते हैं। साधन-कालमें भी सांख्ययोगका विवेक (जड़-चेतनका सम्बन्ध-विच्छेद) कर्मयोगीको अपनाना पड़ता है और कर्मयोगकी प्रणाली (अपने लिये कर्म न करनेकी पद्धति) सांख्ययोगीको अपनानी पड़ती है। सांख्ययोगका विवेक प्रकृति-पुरुषका सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये होता है और कर्मयोगका कर्म संसारकी सेवाके लिये होता है। सिद्ध होनेपर सांख्ययोगी और कर्मयोगी--दोनोंकी एक स्थिति होती है क्योंकि दोनों ही साधकोंकी अपनी निष्ठाएँ हैं (गीता 3। 3)।संसार विषम है। घनिष्ठ-से-घनिष्ठ सांसारिक सम्बन्धमें भी विषमता रहती है। परन्तु परमात्मा सम हैं। अतः समरूप परमात्माकी प्राप्ति संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही होती है। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये दो योगमार्ग हैं--ज्ञानयोग और कर्मयोग। मेरे सत्-स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता, जबकि कामना-आसक्ति अभावमें ही पैदा होती है--ऐसा समझकर असङ्ग हो जाय--यह ज्ञानयोग है। जिन वस्तुओंमें साधकका राग है, उन वस्तुओंको दूसरोंकी सेवामें खर्च कर दे और जिन व्यक्तियोंमें राग है, उनकी निःस्वार्थभावसे सेवा कर दे--यह कर्मयोग है। इस प्रकार ज्ञानयोगमें विवेक-विचारके द्वारा और कर्मयोगमें सेवाके द्वारा संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।'एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति'--पूर्वश्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने व्यतिरेक रीतिसे कहा था कि सांख्ययोग और कर्मयोगको बेसमझ लोग ही अलग-अलग फल देनेवाले कहते हैं। उसी बातको अब अन्वय रीतिसे कहते हैं कि जो मनुष्य इन दोनों साधनोंको फल-दृष्टिसे एक देखता है, वही यथार्थरूपमें देखता है।इस प्रकार चौथे और पाँचवें श्लोकका सार यह है कि भगवान् सांख्ययोग और कर्मयोग--दोनोंको स्वतन्त्र साधन मानते हैं और दोनोंका फल एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति मानते हैं। इस वास्तविकताको न जाननेवाले मनुष्यको भगवान् बेसमझ कहते हैं और इस जाननेवालेको भगवान् यथार्थ जाननेवाला (बुद्धिमान्) कहते हैं।
।।5.4 5.5।।साँख्ययोगाविति। यत्सांख्यैरिति। इदं सांख्यं (S सांख्यज्ञानम्) अयं च योगः इति न भेदः। एतौ हि नित्यसंबद्धौ। ज्ञानं न योगेन विना योगोऽपि न तेन विनेति। अत एकत्वमनयोः।
।।5.5।।सांख्यैः ज्ञाननिष्ठैः यद् आत्मावलोकनरूपफलं प्राप्यते तद् एव कर्मयोगनिष्ठैः अपि प्राप्यते। एवम् एकफलत्वेन एकं वैकल्पिकं सांख्यं योगं च यः पश्यति स पश्यति स एव पण्डित इत्यर्थः।इयान् विशेष इत्याह
।।5.5।।प्रश्नपूर्वकं श्लोकान्तरमवतारयति एकस्यापीति। केचिदेव तयोरेकफलत्वं पश्यन्तीत्याशङ्क्य तेषामेव सम्यग्दर्शित्वं नेतरेषामित्याह एकमिति। तिष्ठत्यस्मिन्न च्यवते पुनरिति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह मोक्षाख्यमिति। योगशब्दार्थमाह ज्ञानप्राप्तीति। ये हि जिज्ञासवः सर्वाणि कर्माणि भगवत्प्रीत्यर्थत्वेन तेषां फलाभिलाषमकृत्वा ज्ञानप्राप्तौ बुद्धिशुद्धिद्वारेणोपायत्वेनानुतिष्ठन्ति तेऽत्र योगा विवक्ष्यन्ते। अच्प्रत्ययस्य मत्वर्थत्वं गृहीत्वोक्तं योगिन इति। सर्वोऽपि द्वैतप्रपञ्चो न वस्तुभूतो मायाविलासत्वादात्मा त्वविक्रियोऽद्वितीयो वस्तुसन्निति प्रयोजकज्ञानं परमार्थज्ञानं तत्पूर्वकसंन्यासद्वारेण कर्मिभिरपि तदेव स्थानं प्राप्यमित्येकफलत्वं संन्यासकर्मयोगयोरविरुद्धमित्याह तैरपीति। फलैकत्वे फलितमाह अत इति।
।।5.5।।एतदेव स्फुटयति यत्साङ्ख्यैरिति यन्मुक्तिस्थानं साङ्ख्यनिष्ठैः प्राप्यते तदेव योगैरित्यत्रार्श आदित्वेन मत्वर्थीयोऽच्। योगनिष्ठयाऽपि कर्म कुर्वद्भिरपि तत्प्राप्यते स्वातन्त्र्येण फलदत्वात्तयोरेकविषयत्वात्। अतः साङ्ख्ययोगं चैकफलत्वेनैकं यः पश्यति स सम्यग्दर्शनः।
।।5.5।।एकस्यानुष्ठानात्कथमुभयोः फलं विन्दते तत्राह सांख्यैर्ज्ञाननिष्ठैः संन्यासिभिरैहिककर्मानुष्ठाशून्यत्वेऽपि प्राग्भवीयकर्मभिरेव संस्कृतान्तःकरणैः श्रवणादिपूर्विकया ज्ञाननिष्ठया यत्प्रसिद्धं स्थानं तिष्ठत्येवास्मिन्नतु कदापि च्यवत इति व्युत्पत्त्या मोक्षाख्यं प्राप्यते आवरणाभावमात्रेण लभ्यत इव नित्यप्राप्तत्वात्। योगैरपि भगवदर्पणबुद्ध्या फलाभिसंधिराहित्येन कृतानि कर्माणि शास्त्रीयाणि योगास्ते येषां सन्ति तेऽपि योगाः। अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययः। तैर्योगिभिरपि सत्त्वशुद्ध्या संन्यासपूर्वकश्रवणादिपुरःसरया ज्ञाननिष्ठया वर्तमाने भविष्यति वा जन्मनि संपत्स्यमानया तत्स्थानं गम्यते। अत एकफलत्वादेकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स एव सभ्यक् पश्यति नान्यः। अयं भावः येषां संन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठा दृश्यते तेषां तयैव लिङ्गेन प्राग्जन्मसु भगवदर्पितकर्मनिष्ठानुमीयते। कारणमन्तरेण कार्योत्पत्त्ययोगात्। तदुक्तम्यान्यतोऽन्यानि जन्मानि तेषु नूनं कृतं भवेत्। यत्कृत्यं पुरुषेणेह नान्यथा ब्रह्मणि स्थितिः।। इति। एवं येषां भगवदर्पितकर्मनिष्ठा दृश्यते तेषां तयैव लिङ्गेन भाविनी संन्यासपूर्वकज्ञाननिष्ठाऽनुमीयते सामग्र्याः कार्याव्यभिचारित्वात्। तस्मादज्ञेन मुमुक्षुणान्तःकरणशुद्धये प्रथमं कर्मयोगोऽनुष्ठेयो नतु संन्यासः। सतु वैराग्यतीव्रतायां स्वयमेव भविष्यतीति।
।।5.5।।एतदेव स्फुटयति यत्सांख्यैरिति। सांख्यैर्ज्ञाननिष्ठैः संन्यासिभिर्यत्स्थानं मोक्षाख्यं प्रकर्षेण साक्षादवाप्यते। योगैरित्यत्र अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययो द्रष्टव्यः। तेन कर्मयोगिभिरपि तदेव ज्ञानद्वारेण गम्यते। अवाप्यत इत्यर्थः। अतः सांख्यं च योगं चैकफलत्वेनैकं यः पश्यति स एव सम्यक्पश्यति।
।।5.5।।भिन्नफलत्वेन पृथक्त्वाभिधायिनां निन्दा कृता अथैकफलत्वेन ऐक्याभिधायिनां प्रशंसनं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह एतदेव विवृणोतीति।साङ्ख्यैः इत्यत्र सिद्धान्तविशेषनिष्ठभ्रमव्युदासायाह ज्ञाननिष्ठैरिति। साङ्ख्यमात्मज्ञानशास्त्रं तद्वेदिन इह साङ्ख्याः यद्वा सङ्ख्या बुद्धिर्ज्ञानयोगः तन्निष्ठाः साङ्ख्याः अथवा साङ्ख्य आत्मा तद्वेदिनोऽपि साङ्ख्याः। स्थानशब्दोऽत्रविन्दते फलम् 5।4 इतिवत्फलविषयः न तु देशविशेषविषयः ज्ञानयोगादिमात्रप्राप्यदेशविशेषाभावात्। तच्च फलं पूर्वोत्तरानुवृत्तमात्मावलोकनमित्यभिप्रायेणयदात्मावलोकनरूपं फलमित्युक्तम्। अत्रयदेवं साङ्ख्याः पश्यन्ति इतियादवप्रकाशोक्तः पाठोऽप्रसिद्धत्वादनादृतः।योगैः इत्येतल्लक्षणया वा प्रत्ययविशेषाद्वा तन्निष्ठविषयमिति व्यञ्जनायकर्मयोगनिष्ठैरित्युक्तम्। अत्र साङ्ख्ययोगशब्दौ नोपायपरौ बहुवचनानौचित्यादिति भावः।एकम् इत्युक्ते एकशास्त्रार्थत्वादिभ्रमव्युदासायाहएवमेकफलत्वेनेति। अङ्गाङ्गिभावेतरेतरयोगरहितयोरुपाययोरेकफलत्वलक्षणं ह्यैक्यमनुष्ठाने विकल्पाय स्यात्। तथा च सूत्रंविकल्पोऽविशिष्टफलत्वात् ब्र.सू.3।3।59 इति। तदाह वैकल्पिकमिति।स पश्यति इत्येतत्न पण्डिताः 5।4 इत्येतत्प्रतिरूपं दर्शयति स एव पण्डित इति।
।।5.5।।एकफलत्वमेव विवेचयति यत्साङ्ख्यैरिति। यत्स्थानं मत्सामीप्यं साङ्ख्यैः साङ्ख्यनिष्ठैः प्राप्यते तत्स्थानं योगैरपि योगानुष्ठातृभिरपि गम्यते प्राप्यते। तथा चायं भावः उभयोः कुण्डलरूपत्वाद्यथास्थितस्वरूपज्ञानेनोभयनिष्ठानामपि भगवन्मुखसामीप्यमेव भविष्यति यतस्तयोरेकमेव स्थानम् अतो यः साङ्ख्यं योगं चैकं कुण्डलात्मकं पश्यति स मां पश्यतीत्यर्थः।
।।5.5।।योगैर्योगिभिः। अर्शआद्यच्प्रत्ययान्तोऽयं योगशब्दः। स्थानं मोक्षाख्यम्। एकमभिन्नम्। स्पष्टा योजना श्लोकद्वयस्य।
।।5.5।।एकस्यापि सभ्यगनुष्ठानात्कथमुभयोः फलं लभन्त इत्यत आह यदिति। सांख्यैः ज्ञाननिष्ठैः संन्यासिभिः विशुद्धान्तःकरणैर्यन्मोक्षाख्यं स्थानं च्युतिवर्जितं प्राप्यते तत्त्वसाक्षात्कारमात्रेण लभ्यत इति विस्मृतग्रैवेयकलाभवल्लब्धस्यैव लाभः। तद्यौगैर्ज्ञानप्राप्त्युपायभूतानि ईश्वराराधनार्थानि फलाभिसंधिरहितानि शास्त्रीयाणि कर्माणि योगशब्दवाच्यानि तद्वद्भिः। अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच्प्रत्ययः। तदेव स्थानं परमार्थज्ञानं संन्यासप्राप्तिद्वारेण गम्यते प्राप्यत इत्यर्थः। आयुर्घृतमितिवत्साध्यसाधनयोरभेदाभिप्रायेण परमार्थज्ञानस्य मोक्षाभिन्नत्वात् मोक्षस्य तदभिन्नत्वाच्चैवमुक्तमित्यविरोधः। एतेन ननूभयोरेकं मोक्षाख्यं फलमस्तु नाम तत्साधनयोस्तु परस्परसापेक्षत्वं न युक्तं प्राप्यग्रामस्यैकत्वेऽपि मार्गाणामिवेत्याशङ्क्याह यत्सांख्यैरिति। अत्रेदं विकल्पनीयम्। किं व्यक्तिभेदमात्रेण सन्यासकर्मयोगयोरन्योन्यनिरपेक्षतां ब्रूषे किंवा अपेक्षणीयान्तरा भावात्। नाद्य इत्याह। बहुवचनेन यत्सांख्यैरिति संन्यासैस्तत्तत्कर्मत्यागरुपैरपि यथाऽन्योन्यसापेक्षैरेव फलं साध्यते तथा भिन्नाभ्यामेव संन्यासकर्मयोगाभ्यामन्योन्यसापेक्षाभ्यां भविष्यतीति भावः। नान्त्य इत्याह। यत्स्थानं प्राप्यत इति स्थानशब्देनात्र सोचकज्ञानमुच्यत इति प्रत्युक्तम्। पूर्वश्लोके परस्परसापेक्षत्वाप्रतिपादनात् कर्मयोगादिसाध्यात् ज्ञानान्निरपेक्षात्केवलान्मोक्ष इतिवत् शमदमादिविशिष्टस्य सन्यासस्य कर्मसाध्यत्वेऽपि तेन ज्ञाने जननीये कर्मापेक्षाया अभावादन्योन्यसापेक्षत्वासिद्धेः एकमित्यादेः स्थाने सांख्यं योगं च परस्परसापेक्षमिति वक्तव्यत्वापत्तेश्च। अतः साक्षात्परम्परया वा एकफलजनकत्वात् एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स सभ्यक्पश्यतीत्यर्थ एव रम्यः।
5.5 यत् which? सांख्यैः by the Sankhyas? प्राप्यते is reached? स्थानम् place? तत् that? योगैः by the Yogis (Karma Yogis)? अपि also? गम्यते is reached? एकम् one? सांख्यम् the Sankhya (knowledge)? च and? योगम् Yoga (performance of action)? च and? यः who? पश्यति sees? सः he? पश्यति sees.Commentary Those who have renounced the world and are treading the path of Jnana Yoga or Vedanta are the Sankhyas. Through Sravana (hearing of the Srutis or Vedantic texts)? Manana (reflection on what is heard) and Nididhyasana (constant and profound meditation) they attain to Moksha or Kaivalya directly. Karma Yogis who do selfless service? who perform their duties without expectation of the fruits and who dedicate their actions as offerings unto the Lord also reach the same state as is attained by Sankhyas indirectly through the purification of their heart and renunciation and the conseent dawn of the knowledge of the Self. That man who sees that Sankhya and Yoga are one? as leading to the same result? sees rightly. (Cf.XIII.24?25V.2)
5.5 That place which is reached by the Sankhyas or the Jnanis is reached by the Yogis (Karma Yogis). He sees, who sees knowledge and the performance of action (Karma Yoga) as one.
5.5 The level which is reached by wisdom is attained through right action as well. He who perceives that the two are one, knows the truth.
5.5 The State [Sthana (State) is used in the derivative sense of 'the place in which one remains established, and from which one does not become relegated'.] that is reached by the Sankhyas, that is reached by the yogis as well. He sees who sees Sankhya and yoga as one.
5.5 Sthanam, the State called Liberation; yat prapyate, that is reached; sankhyaih, by the Sankhyas, by the monks steadfast in Knowledge; tat prapyate, that is reached; yogaih, by the yogis; api, as well. The yogis are those who, as a means to the attainment of Knowledge, undertake actions by dedicating them to God without seeking any result for themselves. The purport is that, by them also that Stated is reached through the process of aciring monasticism which is a result of the knowledge of the supreme Reality. Therefore, sah, he; pasyati, sees truly; yah, who; pasyati, sees; Sankhya and yoga as ekam, one, because of the identity of their results. This is the meaning. Objection: If this be so, then monasticism itself excels yoga! Why, then, is it said, 'Among the two, Karma-yoga, however, excels renunciation of actions'? Reply: Hear the reason for this: Having is veiw the mere giving up of actions and Karma-yoga, your estion was as to which one was better of the two. My answer was accordingly given that Karma-yoga excels renunciation of actions (resorted to) without Knowledge is Sankhya. This is what was meant by me. And that is indeed yoga in the highest sense. However, that which is the Vedic Karma-yoga is figuratively spoken of as yoga and renunciation since it leads to it (supreme Knowledge). How does it lead to that? The answer is:
5.5. What state is reached by men of knowledge-path the same is reached by men of Yoga subseently. [So] whosoever sees the knowledge-path and the Yoga to be one, he sees [correctly].
5.4-5 Samkhya-Yogau etc. Yat samkhyaih etc. There is nothing to differentiate as 'This is path of knowledge' [and] 'This is Yoga'. Indeed both these are ever inter-connected. Knowledge is not without Yoga; and Yoga also is not without knowledge. Hence the identity of these two.
5.5 The fruit in the form of the vision of the self which is attained by the Sankhyans (i.e.) Jnana Yogins, the same is attained alone by those who are Karma Yogins. He alone is wise who sees that Sankhya and the Yoga are one and the same because of their having the same result. Sri Krsna points out, if the aforesaid is the case, wherein the difference between them lies.
5.5 That state which is reached by the Sankhyans, the same is reached by the Yogins, i.e., the same state is attained also by those who are Karma Yogins. He alone is wise who sees that the Sankhya and the Yoga are one and the same because of their having the same result.
।।5.5।।एकका भी भली प्रकार अनुष्ठान कर लेनेसे दोनोंका फल कैसे पा लेता है इसपर कहा जाता है सांख्योगियोंद्वारा अर्थात् ज्ञाननिष्ठायुक्त संन्यासियोंद्वारा जो मोक्ष नामक स्थान प्राप्त किया जाता है वही कर्मयोगियोंद्वारा भी ( प्राप्त किया जाता है )। जो पुरुष अपने लिये ( कर्मोंका ) फल न चाहकर सब कर्म ईश्वरमें अर्पण करके और उसे ज्ञानप्राप्तिका उपाय मानकर उनका अनुष्ठान करते हैं वे योगी हैं उनको भी परमार्थज्ञानरूप संन्यासप्राप्तिके द्वारा ( वही मोक्षरूप फल ) मिलता है। यह अभिप्राय है। इसलिये फलमें एकता होनेके कारण जो सांख्य और योगको एक देखता है वही यथार्थ देखता है। पू0 यदि ऐसा है तब तो कर्मयोगसे कर्मसंन्यास ही श्रेष्ठ है फिर यह कैसे कहा कि उन दोनोंमें कर्मसंन्यासकी अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है उ0 उसमें जो कारण है सो सुनो तुमने केवल कर्मसंन्यास और केवल कर्मयोगके अभिप्रायसे पूछा था कि उन दोनोंमें कौनसा एक कल्याणकारक है उसीके अनुरूप मैंने यह उत्तर दिया कि ज्ञानरहित कर्मसंन्यासकी अपेक्षा तो कर्मयोग ही श्रेष्ठ है। क्योंकि ज्ञानसहित संन्यासको तो मैं सांख्य मानता हूँ और वही परमार्थयोग भी है।
।।5.5।। यत् सांख्यैः ज्ञाननिष्ठैः संन्यासिभिः प्राप्यते स्थानं मोक्षाख्यम् तत् योगैरपि ज्ञानप्राप्त्युपायत्वेन ईश्वरे समर्प्य कर्माणि आत्मनः फलम् अनभिसंधाय अनुतिष्ठन्ति ये ते योगाः योगिनः तैरपि परमार्थज्ञानसंन्यासप्राप्तिद्वारेण गम्यते इत्यभिप्रायः। अतः एकं साख्यं च योगं च यः पश्यति फलैकत्वात् स सम्यक् पश्यतीत्यर्थः।।एवं तर्हि योगात् संन्यास एव विशिष्यते कथं तर्हि इदमुक्तम् तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते (गीता 5.2) इति श्रृणु तत्र कारणम् त्वया पृष्टं केवलं कर्मसंन्यासं कर्मयोगं च अभिप्रेत्य तयोः अन्यतरः कः श्रेयान् इति। तदनुरूपं प्रतिवचनं मया उक्तं कर्मसंन्यासात् कर्मयोगः विशिष्यते इति ज्ञानम् अनपेक्ष्य। ज्ञानापेक्षस्तु संन्यासः सांख्यमिति मया अभिप्रेतः। परमार्थयोगश्च स एव। यस्तु कर्मयोगः वैदिकः स च तादर्थ्यात् योगः संन्यास इति च उपचर्यते। कथं तादर्थ्यम् इति उच्यते
।।5.5।।योगस्य ज्ञानसाधनत्वे प्रमिते भवेदेतत् तदेव कथं इत्यत उक्तमेकमपीति तदनुपपन्नम् उभयोर्मध्ये सम्यगेकमप्यास्थितः फलं विन्दत इति योजनायां द्वयोः साफल्यमात्रमुच्यते। एकमपि सम्यगास्थितः उभयोः फलं विन्दत इति पक्षे तु द्वयं किञ्चित्फलं प्रति स्वतन्त्रं साधनमुच्यते। पक्षद्वयेऽपि न प्रकृतोपयोग इत्यत आह एकमपीति। एवमनुपयोगेऽपि भगवानेव स्ववाक्याभिप्रायमाह स ग्राह्य इत्यर्थः। अनेनापि योगस्य ज्ञानसाधनत्वे किं प्रमाणमुक्तं इत्यतो व्याचष्टे योगिभिरपीति। तरति शोकमात्मवित् छां.उ.7।1।3 इत्यादिना यज्ज्ञानफलं मोक्षाख्यं प्रमितं तत्तावद्योगिभिरपि प्राप्यत इत्युच्यते अपाम सोमम् ऋक्.6।4।11 इत्यादिना। तत्र विचार्यम् किं द्वयमपि स्वतन्त्रमुक्तिसाधनम् उत समुच्चितम् अथवैकं साक्षान्मोक्षसाधनम् अपरं तत्साधनत्वेनेति न प्रथमद्वितीयौ। नान्यः पन्थाः श्वे.उ.6।15 इत्यादिविरोधात्। तृतीयेऽपि चिन्त्यं किं कस्य साधनमिति। तत्र न तावज्ज्ञानं कर्मसाधनत्वेन मोक्षहेतुःन किञ्चिदन्तराधाय इत्यादिविरोधात्। अतः परिशेषाद्योगिभिरपि ज्ञानद्वारा ज्ञानफलं प्राप्यत इति सिद्ध्यति। तथा च योगस्य ज्ञानसाधनत्वं सिद्धमित्यर्थः। अत्रयोगिभिः इति वदता योगशब्दो धर्मिणामुपलक्षकोऽयं आद्यजन्तो वेति सूचितम्।
।।5.5।।एकप्नपि 5।4 इत्यस्याभिप्रायमाह यत्साङ्ख्यैरिति। योगिभिरपि ज्ञानद्वारा ज्ञानफलं प्राप्यत इत्यर्थः।
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते। एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।5.5।।
যত্সাংখ্যৈঃ প্রাপ্যতে স্থানং তদ্যোগৈরপি গম্যতে৷ একং সাংখ্যং চ যোগং চ যঃ পশ্যতি স পশ্যতি৷৷5.5৷৷
যত্সাংখ্যৈঃ প্রাপ্যতে স্থানং তদ্যোগৈরপি গম্যতে৷ একং সাংখ্যং চ যোগং চ যঃ পশ্যতি স পশ্যতি৷৷5.5৷৷
યત્સાંખ્યૈઃ પ્રાપ્યતે સ્થાનં તદ્યોગૈરપિ ગમ્યતે। એકં સાંખ્યં ચ યોગં ચ યઃ પશ્યતિ સ પશ્યતિ।।5.5।।
ਯਤ੍ਸਾਂਖ੍ਯੈ ਪ੍ਰਾਪ੍ਯਤੇ ਸ੍ਥਾਨਂ ਤਦ੍ਯੋਗੈਰਪਿ ਗਮ੍ਯਤੇ। ਏਕਂ ਸਾਂਖ੍ਯਂ ਚ ਯੋਗਂ ਚ ਯ ਪਸ਼੍ਯਤਿ ਸ ਪਸ਼੍ਯਤਿ।।5.5।।
ಯತ್ಸಾಂಖ್ಯೈಃ ಪ್ರಾಪ್ಯತೇ ಸ್ಥಾನಂ ತದ್ಯೋಗೈರಪಿ ಗಮ್ಯತೇ. ಏಕಂ ಸಾಂಖ್ಯಂ ಚ ಯೋಗಂ ಚ ಯಃ ಪಶ್ಯತಿ ಸ ಪಶ್ಯತಿ৷৷5.5৷৷
യത്സാംഖ്യൈഃ പ്രാപ്യതേ സ്ഥാനം തദ്യോഗൈരപി ഗമ്യതേ. ഏകം സാംഖ്യം ച യോഗം ച യഃ പശ്യതി സ പശ്യതി৷৷5.5৷৷
ଯତ୍ସାଂଖ୍ଯୈଃ ପ୍ରାପ୍ଯତେ ସ୍ଥାନଂ ତଦ୍ଯୋଗୈରପି ଗମ୍ଯତେ| ଏକଂ ସାଂଖ୍ଯଂ ଚ ଯୋଗଂ ଚ ଯଃ ପଶ୍ଯତି ସ ପଶ୍ଯତି||5.5||
yatsāṅkhyaiḥ prāpyatē sthānaṅ tadyōgairapi gamyatē. ēkaṅ sāṅkhyaṅ ca yōgaṅ ca yaḥ paśyati sa paśyati৷৷5.5৷৷
யத்ஸாஂக்யைஃ ப்ராப்யதே ஸ்தாநஂ தத்யோகைரபி கம்யதே. ஏகஂ ஸாஂக்யஂ ச யோகஂ ச யஃ பஷ்யதி ஸ பஷ்யதி৷৷5.5৷৷
యత్సాంఖ్యైః ప్రాప్యతే స్థానం తద్యోగైరపి గమ్యతే. ఏకం సాంఖ్యం చ యోగం చ యః పశ్యతి స పశ్యతి৷৷5.5৷৷
5.6
5
6
।।5.6।।  परन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोगके बिना संन्यास सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।
।।5.6।। परन्तु,  हे महाबाहो ! योग के बिना संन्यास प्राप्त होना कठिन है;  योगयुक्त मननशील पुरुष परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त होता है।।
।।5.6।। आत्मज्ञान की साधना में कर्म के स्थान के विषय में प्राचीन ऋषिगण जिस निष्कर्ष पर पहुँचे थे भगवान् यहाँ उसका ही दृढ़ता से विशेष बल देकर प्रतिपादन कर रहे हैं। कर्मपालन के बिना वास्तविक कर्मसंन्यास असंभव है। किसी वस्तु को प्राप्त किये बिना उसका त्याग कैसे संभव होगा इच्छाओं के अतृप्त रहने से और महत्त्वाकांक्षाओं के धूलि में मिल जाने के कारण जो पुरुष सांसारिक जीवन का त्याग करता है उसका संन्यास वास्तविक नहीं कहा जा सकता।किसी धातु विशेष के बने पात्र पर मैल जम जाने पर उसे स्वच्छ एवं चमकीला बनाने के लिए एक विशेष रासायनिक घोल का प्रयोग किया जाता है। जंग (आक्साइड) की जो एक पर्त उस पात्र पर जमी होती है वह उस घोल में मिल जाती है। कुछ समय पश्चात् जब कपड़े से उसे स्वच्छ किया जाता है तब उस घोल के साथसाथ मैली पर्त भी दूर हो जाती है और फिर वहाँ स्वच्छ चमकीला और आकर्षक पात्र दिखाई देता है। मन के शुद्धिकरण की प्रक्रिया भी इसी प्रकार की है।कर्मयोग के पालन से जन्मजन्मान्तरों में अर्जित वासनाओं का कल्मष दूर हो जाता है और तब शुद्ध हुए मन द्वारा निदिध्यासन के अभ्यास से अकर्म आत्मा का अनुभव होता है और यही वास्तविक कर्मसंन्यास है। ध्यान के लिए आवश्यक इस पूर्व तैयारी के बिना यदि हम कर्मों का संन्यास करें तो शारीरिक दृष्टि से तो हम क्रियाहीन हो जायेंगे लेकिन मन की क्रियाशीलता बनी रहेगी। आंतरिक शुद्धि के लिए मन की बहिर्मुखता अनुकूल नहीं है। वास्तव में देखा जाय तो यह बहिर्मुखता ही वह कल्मष है जो हमारे दैवी सौंदर्य एवं सार्मथ्य को आच्छादित किये रहता है। प्राचीन काल के हिन्दू मनीषियों की आध्यात्मिक उन्नति के क्षेत्र में यह सबसे बड़ी खोज है।जहाँ भगवान् ने यह कहा कि कर्मयोग की भावना से कर्म किये बिना ध्यान की योग्यता अर्थात् चित्तशुद्धि नहीं प्राप्त होती वहीं वे यह आश्वासन भी देते हैं कि साधकगण उचित प्रयत्नों के द्वारा ध्यान के अनुकूल इस मनस्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।योगयुक्त जो पुरुष सदा निरहंकार और निस्वार्थ भाव से कर्म करने में रत होता हैं उसे मन की समता तथा एकाग्रता प्राप्त होती है। साधक को ध्यानाभ्यास की योग्यता प्राप्त होने पर कर्म का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। ऐसे योग्यता सम्पन्न मुनि को आत्मानुभूति शीघ्र ही होती है।परमात्मा का अनुभव कब होगा इस विषय में कोई कालमर्यादा निश्चित नहीं की जा सकती। अचिरेण शब्द के प्रयोग से यही बात दर्शायी गई है।उपर्युक्त विवेचन से कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्म के आचरण को श्रेष्ठ कहने का कारण स्पष्ट हो जाता है।जब साधक पुरुष सम्यक् दर्शन के साधनभूत योग का आश्रय लेता है तब
5.6।। व्याख्या--'संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः'--सांख्ययोगकी सफलताके लिये कर्मयोगका साधन करना आवश्यक है; क्योंकि उसके बिना सांख्य-योगकी सिद्धि कठिनतासे होती है। परन्तु कर्मयोगकी सिद्धिके लिये सांख्ययोगका साधन करनेकी आवश्यकता नहीं है। यही भाव यहाँ 'तु' पदसे प्रकट किया गया है।सांख्ययोगीका लक्ष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव करना होता है। परन्तु राग रहते हुए इस साधनके द्वारा परमात्मतत्त्वके अनुभवकी तो बात ही क्या है, इस साधनका समझमें आना भी कठिन हैराग मिटानेका सुगम उपाय है--कर्मयोगका अनुष्ठान करना। कर्मयोगमें प्रत्येक क्रिया दूसरोंके हितके लिये ही की जाती है। दूसरोंके हितका भाव होनेसे अपना राग स्वतः मिटता है। इसलिये कर्मयोगके आचरणद्वारा राग मिटाकर सांख्ययोगका साधन करना सुगम पड़ता है। कर्मयोगका साधन किये बिना सांख्ययोगका सिद्ध होना कठिन है।
।।5.6।।संन्यासस्त्विति। तु शब्दः अवधारणे भिन्नक्रमः। योगरहितस्य संन्यासमाप्तुं दुःखमेव प्राङ्नीत्या कर्मणां दुःखसंन्यासत्वात् (S N दुःसंन्यासत्वात्)। योगिभिस्तु सुलभमेवैतत् इत्युक्तं प्राक्।
।।5.6।।संन्यासः ज्ञानयोगः तु अयोगतः कर्मयोगाद् ऋते प्राप्तुम् अशक्यः। योगयुक्तः कर्मयोगयुक्तः स्वयम् एव मुनिः आत्ममननशीलः सुखेन कर्मयोगं साधयित्वा न चिरेण एव अल्पकालेन एव ब्रह्म अधिगच्छति आत्मानं प्राप्नोति। ज्ञानयोगयुक्तः तु महता दुःखेन ज्ञानयोगं साधयति दुःखसाध्यत्वाद् दुःखप्राप्यत्वाद् आत्मानं चिरेण प्राप्नोति इत्यर्थः।
।।5.6।।यदि यथोक्तज्ञानपूर्वकसंन्यासद्वारा कर्मिणामपि श्रेयोवाप्तिरिष्टा तर्हि संन्यासस्यैव श्रेयस्त्वं प्राप्तमिति चोदयति एवं तर्हीति। संन्यासस्य श्रेष्ठत्वे कर्मयोगस्य प्रशस्यत्ववचनमनुचितमित्याह कथं तर्हीति। पूर्वोक्तमेवाभिप्रायं स्मारयन्परिहरति शृण्विति। कर्मयोगस्य विशिष्टत्ववचनं तत्रेति परामृष्टम्। तदेव कारणं कथयति त्वयेत्यादिना। केवलं विज्ञानरहितमिति यावत्। तयोरन्यतरः कः श्रेयानितीतिशब्दोऽध्याहर्तव्यः। त्वदीयं प्रश्नमनुसृत्य तदनुगुणं प्रतिवचनं ज्ञानमनपेक्ष्य तद्रहितात्केवलादेव संन्यासाद्योगस्य विशिष्टत्वमिति यथोक्तमित्याह तदनुरूपमिति। ज्ञानापेक्षः संन्यासस्तर्हि कीदृगित्याशङ्क्याह ज्ञानेति। तर्हि कर्मयोगे कथं योगशब्दः संन्यासशब्दो वा प्रयुज्यते तत्राह यस्त्विति। तादर्थ्यात्परमार्थज्ञानशेषत्वादिति यावत्। तदेव तादर्थ्यं प्रश्नपूर्वकं प्रसाधयति कथमित्यादिना। कर्मानुष्ठानाभावे बुद्धिशुद्ध्यभावात्परमार्थसंन्यासस्य सम्यग्ज्ञानात्मनो न प्राप्तिरिति व्यतिरेकमुपन्यस्यान्वयमुपन्यस्यति योगेति। पारमार्थिकः सम्यग्ज्ञानात्मकः। सामग्र्यभावे कार्यप्राप्तिरयुक्तेति मत्वाह दुःखमिति। योगयुक्तत्वं व्याचष्टे वैदिकेनेति। ईश्वरस्वरूपस्य सविशेषस्येति शेषः। ब्रह्मेति व्याख्येयं पदमुपादाय व्याचष्टे प्रकृत इति। तत्र ब्रह्मशब्दप्रयोगे हेतुमाह परमात्मेति। लक्षणशब्दो गमकविषयः। संन्यासे ब्रह्मशब्दप्रयोगे तैत्तिरीयकश्रुतिं प्रमाणयति न्यास इति। कथं संन्यासे हिरण्यगर्भवाची ब्रह्मशब्दः प्रयुज्यते द्वयोरपि परत्वाविशेषादित्याह ब्रह्म हीति। ब्रह्मशब्दस्य संन्यासविषयत्वे फलितं वाक्यार्थमाह ब्रह्मेत्यादिना। नद्याः स्रोतांसीव निम्नप्रवणानि कर्मभिरतितरां परिपक्वकषायस्य करणानि सर्वतो व्यापृतानि निरस्ताशेषकूटस्थप्रत्यगात्मान्वेषणप्रवणानि भवन्तीति। कर्मयोगस्य परमार्थसंन्यासप्राप्त्युपायत्वे फलितमाह अत इति।
।।5.6।।किञ्च साङ्ख्यऽभिप्रेतं कर्म सन्न्यासं विनाऽपि योगेनेह हि सिद्धिर्भवति न तु योगं विना सन्न्यासिनो भवतीत्याशयेनाह सन्न्यासस्त्विति। हे महाबाहो कर्मसन्न्यासस्तु योगव्यतिरेकेणाप्तुं दुःखरूपः। समत्वं हि योगः तन्निष्ठया करणव्यतिरेकेण कस्य सन्न्यासः नह्यकृतस्य त्यागो युज्यते सिद्धत्वात्। साङ्खयीयो मुनिरपि योगयुक्तोऽचिरेण ब्रह्माधिगच्छति नान्यथेति मम मतम्।
।।5.6।।अशुद्धान्तःकरणेनापि संन्यास एव प्रथमं कुतो न क्रियते ज्ञाननिष्ठाहेतुत्वेन तस्यावश्यकत्वादिति चेत्तत्राह अयोगतो योगमन्तःकरणशोधकं शास्त्रीयं कर्मान्तरेण हठादेव यः कृतः संन्यासः स तु दुःखमाप्तुमेव भवति। अशुद्धान्तःकरणत्वेन तत्फलस्य ज्ञाननिष्ठाया असंभवात् शोधके च कर्मण्यनधिकारात्कर्मब्रह्मोभयभ्रष्टत्वेन परमसंकटापत्तेः। कर्मयोगयुक्तस्तु शुद्धान्तःकरणत्वान्मुनिर्मननशीलः संन्यासी भूत्वा ब्रह्म सत्यज्ञानादिलक्षणमात्मानं नचिरेण शीघ्रमेवाधिगच्छति साक्षात्करोति प्रतिबन्धकाभावात्। एतच्चोक्तं प्रागेवन कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। नच संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति इति। अत एकफलत्वेऽपिकर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते इति यत्प्रागुक्तं तदुपपन्नम्।
।।5.6।।यदि कर्मयोगिनोऽप्यन्ततः संन्यासेनैव ज्ञाननिष्ठास्तर्ह्यादित एव संन्यासः कर्तुं युक्त इति मन्वानं प्रत्याह संन्यास इति। अयोगतः कर्मयोगं विना संन्यासः प्राप्तुं दुःखहेतुः। अशक्य इत्यर्थः। चित्तशुद्ध्यभावेन ज्ञाननिष्ठाया असंभवात्। योगयुक्तस्तु शुद्धचित्ततया मुनिः संन्यासी भूत्वाऽचिरेणैव ब्रह्माधिगच्छत्यपरोक्षं जानाति। अतश्चित्तशुद्धेः प्राक्कर्मयोग एव संन्यासाद्विशिष्यत इति पूर्वोक्तं सिद्धम्। तदुक्तं वार्तिककृद्भिः प्रमादिनो बहिश्चित्ताः पिशुनाः कलहोत्सुकाः। संन्यासिनोऽपि दृश्यन्ते दैवसंदूषिताशयाः इति।
।।5.6।।ननुकर्मयोगो विशिष्यते 5।2 इति वचनं अत्र वैकल्पिकत्ववचनं च कथमुपपद्यते अत्यन्ततुल्यत्वे हि विकल्प इति शङ्कायां सौकर्यशैघ्र्याभ्यां वैशिष्ट्यम् फलस्यात्यन्ततुल्यतया च विकल्पः अधिकारिभेदप्रतिनियतत्वाच्च न दुष्करविलम्बितोपायनैरर्थक्यमित्यभिप्रायेण वैषम्यमुच्यत इत्याह इयान्विशेष इत्याहेति। तुशब्दोऽन्योन्यवैषम्यपरःअयोगतः इत्यनेन कर्मयोगमन्तरेण ज्ञानयोगस्वरूपमेव न सिद्ध्यतीत्यभिप्रेतम् तदाह कर्मयोगादृत इति।शक्यमञ्जलिभिः पातुं वाताः वा.रा.4।28।8 इत्यादिवद्दुःखशब्दस्यात्र नपुंसकत्वम्। मुनिशब्दे प्रकृतापेक्षितप्रकृतिप्रत्ययार्थविवरणंमननशील इति। तत्राकर्तृत्वानुसन्धानप्रकरणबलान्मननप्यात्मविषयत्वोक्तिःस्वयमेव ज्ञानयोगमन्तरेणेत्यर्थः।दुःखमाप्तुमयोगतः इत्येतद्व्यतिरेकानुसन्धानात्सुखेन कर्मयोगं साधयित्वेत्युक्तम्।नचिरेण इति नञः क्रियान्वये चिरेणाप्यधिगमो न स्यादिति भ्रमः स्यात् तद्व्युदासायनचिरेणेत्युक्तम्। नैकादिवत् नचिरेण इति समस्तप्रयोगः। ब्रह्मशब्दोऽत्र परिशुद्धात्मस्वरूपलक्षणकर्मयोगाव्यवहितफलविषय इति व्यञ्जनायआत्मानं प्राप्नोतीत्युक्तम्। प्राप्तिरिह साक्षात्कारः। एवमव्यवहितात्मप्राप्तिसाधनत्वं वदता प्रकृतः सन्न्यासो ब्रह्मशब्देनोच्यत इतिशङ्करोक्तं प्रत्युक्तम्। तद्व्यतिरेकेण पूर्वोक्तं पूरयति ज्ञानयोगयुक्त इति। दुःखसाध्यत्वाद्विलम्बितफलो ज्ञानयोगः कर्मयोगस्तु सुखसाध्यत्वादविलम्बितफल इति वैषम्यमनेन श्लोकेनोक्तं भवति।
।।5.6।।ननूभयोरेकफलत्वे उभयरूपता किं इत्याशङ्कायामाह सन्न्यासस्त्विति। हे महाबाहो सन्न्यासस्तु अयोगतः योगं विना आप्तुं प्राप्तुं दुःखं दुःखरूपमित्यर्थः।अत्रायं भावः सन्न्यासस्य साङ्ख्यात्मकस्य विग्रयोगरूपत्वात् योगस्य संयोगात्मकत्वात् विप्रयोगस्य संयोगपूर्वत्वाद्योगं विना न तत्सिद्धिः स्यादत उभयरूपत्वेन कथनमित्यर्थः। किञ्च भगवतो रसरूपत्वाद्रसस्य च द्विरूपत्वादेकरूपत्वेनाकथनेऽपूर्ण एव स स्यादित्यर्थः। यतः संयोगं विना न द्वितीयसिद्धिरतो योगयुक्तः संयोगयुक्तो भूत्वा मुनिः विप्रयोगे मौनैकशरणो भूत्वा अचिरेण शीघ्रमेव ब्रह्म सर्वलीलाव्यापकमधिगच्छति प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।5.6।।नन्वेवं निर्विकल्पस्थानप्राप्तये द्वौ भागावुक्तौ स्यातां तच्चनान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इति श्रुतिविरुद्धमित्याशङ्क्याह संन्यासस्त्विति। संन्यासो नैष्कर्म्यम्। अयोगतो योगिंविना अवाप्तुं दुःखं हे महाबाहो। अयमर्थः निर्विकल्पकसमाधिरपि तत्त्वमसीत्येतद्वाक्यार्थप्रतिपत्त्युपायभूत एव न स्वतः पुरुषार्थ इति द्वितीयमार्गस्याभावान्नोदाहृतश्रुतिविरोधः।शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्यति इति श्रुत्यैव शमादिवत्समाधेरप्यात्मदर्शनार्थत्वस्य दर्शितत्वात्। तथा च समाहितपदं वार्तिककारैर्व्याख्यातम्।स्वातन्त्र्यं येषु कर्तुः स्यात्करणाकरणंप्रति। तान्येव तु निषिद्धानि कर्माणीह शमादिभिः। शमादिश्रुत्याअस्वातन्त्र्यं तु येषु स्यात्करणाकरणंप्रति। समाहितोक्याथेदानीं तन्निरोधो विधीयते। अस्वातन्त्र्यं गुरूपदेशापेक्षत्वम्। येषु मानमेयव्यवहारनिरोधेषु।पिण्डीकृत्येन्द्रियग्रामं बुद्धावारोप्य निश्चलम्। विषयांस्तत्स्मृतीस्त्यक्त्वा तिष्ठेच्चिदनुरोधतः। एषोऽभ्युपायः सर्वत्र वेदान्तेषु प्रतिष्ठितः। तत्त्वमस्यादिवाक्यार्थज्ञानोत्पत्त्यर्थमादरात्। इति। एवं व्यतिरेकमुक्त्वान्वयमाह योगयुक्त इति। मुनिः संन्यासी नचिरेण शीघ्रमेव ब्रह्माधिगच्छति वाक्यश्रवणमात्रेण नतु केवलसंन्यासी। यथोक्तंन च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति। इति।
।।5.6।।एवं तर्हि कर्मयोगात्संन्यास एव विशिष्यते कथमुक्तं तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते इत्याशङ्क्य ज्ञाननिष्ठारहितादशुद्धचित्तेन कृतात्केवलात्संन्यासात्कर्मत्यागाच्छुद्धिकरस्य सन्यासद्वारा ज्ञानप्राप्त्या मोक्षसंपादकस्य कर्मयोगस्य श्रैष्ठ्यं मया प्रतिपादितं नतु ज्ञाननिष्ठासहितात्सांख्यशब्दोदिताद्विशुद्धान्तःकरणेन कृतात्। तस्मात्तं प्रति साधनत्वात्कर्मयोगस्येत्याशयेनाह संन्यास इति। संन्यासस्तु ज्ञाननिष्ठासहितस्तु परमार्थसंन्यासः। अयोगतः योगेन विनाप्तुं प्राप्तुं दुःखं दुर्घटमित्यर्थः। योगेन वैदिकेन कर्मयोगेनेश्वरसमर्पितरुपेण निष्कामेन युक्तः मुनिः सगुणेश्वरस्वरुपमननशीलः ब्रह्म परमार्थसंन्यास परमात्मज्ञाननिष्ठालक्षणं नचिरेण क्षिप्रमेवाधिगच्छति प्राप्नोति। परमार्थज्ञानलक्षणत्वात्प्रकृतः संन्यासो ब्रह्मोच्यतेन्यास इति ब्रह्म। ब्रह्म हि परः इति श्रुतेः। अशुद्धचित्तेनापि संन्यास एव प्रथमं कुतो न क्रियते ज्ञाननिष्ठाहेतुत्वेन तस्यावश्यकत्वादितिचेत्तत्राह संन्यासस्त्विति। योगमन्तरेण हठादेव यः कृतः संन्यासः स तु दुःखमाप्तुमेव भवति। अशुद्धान्तःकरणत्वेन तत्फलस्य ज्ञाननिष्ठाया असंभवात्। शोधके च कर्मण्यनधिकारात् कर्मब्रह्मोभयभ्रष्टत्वेन परमसंकटापत्तेः। यद्वाऽयोगत इति सप्तम्यर्थे तसिः। अयोगे तु संन्यासो दुःखमाप्तुमिति अयोगे योगाभावे प्रसिद्धसंन्यासाद्विलक्षणःप्रमादिनो बहिश्चित्ताः पिशुनाः कलहोत्सुकाः। संन्याससिनोऽपि दृश्यन्ते दैवसंदूषिताशयाः।। इतिवार्तिककारोक्तः संन्यासः। दुखं नरकात्मकमाप्तुं भवतीति शेषः। नरकफलको नत्वनर्थनिवृत्त्यविनाभूतनिरतिशयानन्दरुपतापादक इति भावः। ननु तर्ह्यवश्याप्रेक्षिताद्योगादेवास्तु फलं नेत्याह। योगयुक्तः सत्त्वशुद्य्धा मुनिर्मननशीलः संन्यासी भूत्वा ब्रह्म सत्यज्ञानादिलक्षणं नचिरेणं शीघ्रमेवाधिगच्छति प्रतिबन्धकाभावात्। साक्षात्करोतीति तु सुगमत्वाद्भाष्यकारैरुपेक्षितम्। माहबाहो इति संबोधयन् महाबाहुसाध्ये युद्धरुपे कर्मण्येव तवाधिकारो न संन्यासे इति सूचयति।
5.6 संन्यासः renunciation? तु but? महाबाहो O mightyarmed? दुःखम् hard? आप्तुम् to attain? अयोगतः without Yoga? योगयुक्तः Yogaharmonised? मुनिः Muni? ब्रह्म to Brahman? नचिरेण ickly? अधिगच्छति goes.Commentary Muni is one who does Manana (meditation or reflection). Yoga is performance of action without selfish motive as an offering unto the Lord.Brahman here signifies renunciation or Sannyasa because renunciation consists in the knowledge of the Self. A Muni? the sage of meditation? the Yogaharmonised? i.e.? purified by the performance of action? ickly attains Brahman? the true renunciation which is devotion to the knowledge of the Self. Therefore Karma Yoga is better. It is easy for a beginner. It prepares him for the higher Yoga by purifying his mind.
5.6 But renunciation, O mighty-armed Arjuna, is hard to attain without Yoga; the Yoga-harmonised sage ickly goes to Brahman.
5.6 Without concentration, O Mighty Man, renunciation is difficult. But the sage who is always meditating on the Divine, before long shall attain the Absolute.
5.6 But, O mighty-armed one, renunciation is hard to attain without (Karma-) yoga. The meditative man eipped with yoga attains Brahman without delay.
5.6 Tu, but, O mighty-armed one; sannyasah, renunciation, in the real sense; duhkham aptum, is hard to attain; ayogatah, without (Karma-) yoga. Munih, the meditative man-the word muni being derived in the sense of one who meditates on the real nature of God; yoga-yuktah, eipped with yoga, with Vedic Karma-yoga in the form of dedication to God without thought of results (for oneself); adhigacchati, attains; brahma, Brahman; na cirena, without delay, very ickly. Therefore it was said by Me, 'Karma-yoga excels'. [Karma-yoga leads to enlightenment through the stages of attenuation of attachment, withdrawal of the internal and external organs from their objects, and their inclination towards the indwelling Self. (Also see Commentary on 5.12).] The monasticism under discussion is called Brahman because it leads to knowledge of the supreme Self, as stated in the Upanisad, 'Nyasa (monasticism) is Brahman. Brahman is verily the supreme' (Ma. Na. 21.2) Brahman means monasticism in the real sense, consisting in steadfastness to the knowledge of the supreme Self.
5.6. O mighty-armed (Arjuna) ! Renunciation is certainly hard to attain excepting through Yoga; the sage who is the master of Yoga attains the Brahman, before long.
5.6 Samnyasastu etc. [Here] the word tu is used in the sense of 'affirmation' and it is to be construed in a different order. [Hence the meaning is] : For a person without Yoga, it is certainly hard to attain renunciation. Because, as it has been already shown logically, it is difficult to renounce actions. But, it is certainly easy for men of Yoga to attain this. That has been said earlier.
5.6 Renunciation, i.e., Jnana Yoga, cannot be attained without Yoga, i.e., Karma Yoga. A person following Yoga, i.e., following Karma Yoga, being himself a Muni, i.e., one engaged in the contemplation of self, after practising Karma Yoga reaches with ease the Brahman i.e., attains the self soon, i.e., in a short time. But one following Jnana Yoga by itself, completes Jnana Yoga with great difficulty only. On account of this great difficulty, he attains the self after a long period only.
5.6 But renunciation, O mighty-armed, is hard to attain without (following) Yoga. The contemplating sage who follows Yoga reaches the Brahman (the self or Atman) soon.
।।5.6।।जो वैदिक ( निष्काम ) कर्मयोग है वह तो उसी ज्ञानयोगका साधन होनेके कारण गौणरूपसे योग और संन्यास कहा जाने लगा है। वह उसीका साधन कैसे है सो कहते हैं बिना कर्मयोगके पारमार्थिक संन्यास प्राप्त होना कठिन है दुष्कर है। तथा फल न चाहकर ईश्वरसमर्पणके भावसे किये हुए वैदिक कर्मयोगसे युक्त हुआ ईश्वरके स्वरूपका मनन करनेवाला मुनि ब्रह्मको अर्थात् परमात्मज्ञाननिष्ठारूप पारमार्थिक संन्यासको शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है इसलिये मैंने कहा कि कर्मयोग श्रेष्ठ है। परमात्मज्ञानका सूचक होनेसे प्रकरणमें वर्णित संन्यास ही ब्रह्म नामसे कहा गया है तथा संन्यास ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही पर है इस श्रुतिसे भी यही बात सिद्ध होती है।
।।5.6।। संन्यासस्तु पारमार्थिकः हे महाबाहो दुःखम् आप्तुं प्राप्तुम् अयोगतः योगेन विना। योगयुक्तः वैदिकेन कर्मयोगेन ईश्वरसमर्पितरूपेण फलनिरपेक्षेण युक्तः मुनिः मननात् ईश्वरस्वरूपस्य मुनिः ब्रह्म परमात्मज्ञाननिष्ठालक्षणत्वात् प्रकृतः संन्यासः ब्रह्म उच्यते न्यास इति ब्रह्मा ब्रह्मा हि परः (ना0 उ0 2.78) इति श्रुतेः ब्रह्म परमार्थसंन्यासं परमार्थज्ञाननिष्ठालक्षणं न चिरेण क्षिप्रमेव अधिगच्छति प्राप्नोति। अतः मया उक्तम् कर्मयोगो विशिष्यते इति।।यदा पुनः अयं सम्यग्ज्ञानप्राप्त्युपायत्वेन
।।5.6।।सन्न्यासस्त्वित्यस्य सङ्गतिमाह इतश्चेति। ननु प्राक् सन्न्यासाद्योगस्य वरत्वे न कोऽपि हेतुरुक्तः तत्कथमेवमुच्यते मैवम् सन्न्यासस्य योगावरत्वे बाधकं परिहृतम्। साधकमिदानीमुच्यते। बाधकाभावसहितमेव साधकं वस्तुनो व्यवस्थापकम्। तस्मादितश्चेति युक्तम्। पूर्वं सन्न्यासस्य निश्श्रेयसकरत्वमुक्तम् इदानीं कथं दुःखहेतुत्वमुच्यते किं वाऽनेन साधकमुक्तं इत्यतो व्याचष्टे योगेति। विष्ण्वर्पणबुद्ध्या करणाभावसन्न्यासमात्रेणेति शेषः। आदिपदेन ज्ञानं गृह्यते। तस्य केवलसन्न्यासिनः। योगाभावे सन्न्यासो निष्फल एवेत्येतन्न युज्यते मोक्षाद्यभावेऽपि तात्कालिकापमानादिदुःखाभावादेर्भावादित्यत आह मोक्षादीति। अत्र पुराणसम्मतिमाह तच्चेति। ननु मोक्षफलाभावेऽपि धान्यादिनैव कृष्यादिकं सफलमित्युच्यते। तत्कथमेवमभिहितमित्यत उक्तं विवृणोति यत्त्विति। महाफलं साधयितुं योग्यमित्यर्थः। मोक्षादिग्रहणं प्रकृतापेक्षयैव कृतमिति भावः। ननु सन्न्यासात् योगस्य वरत्वमनेन साधितं तत्किमुत्तराधन इत्यत आह महाफलश्चेति। महत्फलं यस्मात्स तथोक्तः। योगाङ्गत्वेन ततोऽवरत्वं सन्न्यासस्य सिसाधयिषितम्। तच्चान्वयव्यतिरेकाभ्यां सिद्ध्यति। तत्र पूर्वार्धेन व्यतिरेकमुक्त्वाऽनेनान्वयमाचष्टे इत्यर्थः। ननु योगोऽप्येवमेवेति चेत् सत्यम् तथापि चरमभावित्वेन विशेषः। नन्वत्र सन्न्यासवाचकं न श्रूयते तत्कथमेवमुच्यते इत्यत आह मुनिरिति। मुनिशब्दस्य कामवर्जनलक्षणसन्न्यासवचनत्वं कुतः इत्यत आह तच्चेति।
।।5.6।।इतश्च सन्न्यासाद्योगो वर इत्याह सन्न्यासस्त्विति। योगाभावे मोक्षादिफलं न भवति अतः कामजयादिदुःखमेव तस्य मोक्षाद्येव हि फलम्। अन्यत्तत्फलमल्पत्वादफलमेवेत्याशयः। तच्चोक्तम् विना मोक्षफलं यत्तु न तत्फलमुदीर्यते इति पाद्मे। यत्तु महाफलयोग्यं तस्याल्पं फलमेव न भवति यथा पद्मरागस्य तण्डुलमुष्टिः। महाफलश्च योगयुक्तश्चेत्सन्न्यास इत्याहयोगयुक्त इति। मुनिः सन्न्यासी। तच्चोक्तम् स हि लोके मुनिर्नाम यः कामक्रोधवर्जितः इति।
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।5.6।।
সংন্যাসস্তু মহাবাহো দুঃখমাপ্তুমযোগতঃ৷ যোগযুক্তো মুনির্ব্রহ্ম নচিরেণাধিগচ্ছতি৷৷5.6৷৷
সংন্যাসস্তু মহাবাহো দুঃখমাপ্তুমযোগতঃ৷ যোগযুক্তো মুনির্ব্রহ্ম নচিরেণাধিগচ্ছতি৷৷5.6৷৷
સંન્યાસસ્તુ મહાબાહો દુઃખમાપ્તુમયોગતઃ। યોગયુક્તો મુનિર્બ્રહ્મ નચિરેણાધિગચ્છતિ।।5.6।।
ਸਂਨ੍ਯਾਸਸ੍ਤੁ ਮਹਾਬਾਹੋ ਦੁਖਮਾਪ੍ਤੁਮਯੋਗਤ। ਯੋਗਯੁਕ੍ਤੋ ਮੁਨਿਰ੍ਬ੍ਰਹ੍ਮ ਨਚਿਰੇਣਾਧਿਗਚ੍ਛਤਿ।।5.6।।
ಸಂನ್ಯಾಸಸ್ತು ಮಹಾಬಾಹೋ ದುಃಖಮಾಪ್ತುಮಯೋಗತಃ. ಯೋಗಯುಕ್ತೋ ಮುನಿರ್ಬ್ರಹ್ಮ ನಚಿರೇಣಾಧಿಗಚ್ಛತಿ৷৷5.6৷৷
സംന്യാസസ്തു മഹാബാഹോ ദുഃഖമാപ്തുമയോഗതഃ. യോഗയുക്തോ മുനിര്ബ്രഹ്മ നചിരേണാധിഗച്ഛതി৷৷5.6৷৷
ସଂନ୍ଯାସସ୍ତୁ ମହାବାହୋ ଦୁଃଖମାପ୍ତୁମଯୋଗତଃ| ଯୋଗଯୁକ୍ତୋ ମୁନିର୍ବ୍ରହ୍ମ ନଚିରେଣାଧିଗଚ୍ଛତି||5.6||
saṅnyāsastu mahābāhō duḥkhamāptumayōgataḥ. yōgayuktō munirbrahma nacirēṇādhigacchati৷৷5.6৷৷
ஸஂந்யாஸஸ்து மஹாபாஹோ துஃகமாப்துமயோகதஃ. யோகயுக்தோ முநிர்ப்ரஹ்ம நசிரேணாதிகச்சதி৷৷5.6৷৷
సంన్యాసస్తు మహాబాహో దుఃఖమాప్తుమయోగతః. యోగయుక్తో మునిర్బ్రహ్మ నచిరేణాధిగచ్ఛతి৷৷5.6৷৷
5.7
5
7
।।5.7।। जिसकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं, जिसका अन्तःकरण निर्मल है, जिसका शरीर अपने वशमें है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी आत्मा ही जिसकी आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
।।5.7।। जो पुरुष योगयुक्त, विशुद्ध अन्तकरण वाला, शरीर को वश में किये हुए, जितेन्द्रिय तथा भूतमात्र में स्थित आत्मा के साथ एकत्व अनुभव किये हुए है वह कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता।।
।।5.7।। पूर्व श्लोक में संक्षेप में वर्णन है कि कर्मयोग पालन करने पर चित्तशुद्धि प्राप्त होकर साधक ध्यानाभ्यास की सहायता से ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। वर्तमान की परिच्छिन्नता एवं बन्धनों को तोड़कर अनन्तस्वरूप की प्राप्ति के प्रयत्न में जो आन्तरिक परिवर्तन साधक में होता है उसका युक्तियुक्त विस्तृत विवेचन इस श्लोक में किया गया है।कर्मयोग से युक्त पुरुष अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त करता है जिसका अर्थ है अधिकसेअधिक मन की आन्तरिक शान्ति। मन का कमसेकम क्षुब्ध होना उसकी शुद्धि का द्योतक है। इसे ही दूसरे शब्दों में कहते हैं वासनाओं का क्षीण होना। विक्षेप की कारणरूप वासनाओं का क्षय होने पर स्वाभाविक रूप से वह पुरुष संतुलित बन जाता है।ऐसे शुद्धान्तकरण सम्पन्न कर्मयोगी के लिए इन्द्रियों पर संयम रखना बच्चों का खेल बन जाता है। वह स्वेच्छा से इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त कर सकता है और निवृत्त भी। जिस साधक को अपने शरीर मन एवं बुद्धि पर पूर्ण संयम है वह ध्यान की सर्वोच्च साधना के लिए योग्यतम है। निदिध्यासन में आने वाले मुख्य विघ्न ये ही हैं वैषयिक प्रवृत्ति मन के विक्षेप एवं अतृप्त इच्छाएं। एक बार इन शृंखलाओं को तोड़ देने पर ध्यान सहज और सुलभ बन जाता है फिर साधक को आत्मा का साक्षात् अनुभव तत्काल और उसकी सम्पूर्णता में होता है।आत्मानुभूति आंशिक रूप में नहीं हो सकती। यदि साधक केवल स्वयं को दिव्य और शुद्ध स्वरूप अनुभव करे और अन्यों को नहीं तो उसका अनुभव वास्तविक और प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। सम्यक् दर्शन को प्राप्त हुये पुरुष के लिए तो शुद्ध आत्मा सर्वत्र एवं समस्त कालों में व्याप्त है। इस आध्यात्मिक दृष्टि से जगत् को देखने पर उसे सर्वत्र सम्पूर्ण प्राणियों में नित्य आत्मा का ही दर्शन होता है। ऐसे ज्ञानी पुरुष को ही यहाँ सर्वभूतात्मभूतात्मा कहा गया है जिसका अर्थ है वह पुरुष जिसकी आत्मा ही सर्वभूतों की आत्मा है।जब एक तरंग अपने वास्तविक समुद्र स्वरूप को पहचान लेती है तब ज्ञान में स्थित उस तरंग के लिए कोई भी अन्य तरंग समुद्र से भिन्न नहीं हो सकती।आत्मानुभूति में स्थित हुआ पुरुष जब जगत् में कर्म करता है तब वे कर्म वासना के रूप में प्रतिफल उत्पन्न नहीं करते। कर्मफलों का बन्धन केवल अहंकार को ही हो सकता है और ज्ञानी पुरुष में उसी का अभाव होने के कारण कर्म उसे किस प्रकार लिप्त कर सकते हैं प्रवाहित जल पर लिखने के समान ही ज्ञानी पुरुष के कर्म उसके चित्त पर वासनाएँ नहीं उत्पन्न करते।भगवान् श्रीकृष्ण कर्मयोग के सिद्धान्त का पुनपुन प्रतिपादन करते हैं। इस श्लोक से भी स्पष्ट होता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर किये गये कर्मं ही वासना उत्पन्न करके बुद्धि की विवेकशक्ति को धूमिल कर देते हैं जिसके कारण मनुष्य को अपने स्वयंसिद्ध शुद्ध दिव्य स्वरूप का अनुभव नहीं हो पाता।सर्वव्यापी परमात्मा के अनुभव में स्थित सिद्ध पुरुष का जीवन की ओर देखने का क्या दृष्टिकोण होगा भगवान् कहते हैं
5.7।। व्याख्या--'जितेन्द्रियः' इन्द्रियाँ वशमें होनेका तात्पर्य है--इन्द्रियोंका राग-द्वेषसे रहित होना। राग-द्वेषसे रहित होनेपर इन्द्रियोंमें मनको विचलित करनेकी शक्ति नहीं रहती (टिप्पणी प0 287.1)। साधक उनको अपने मनके अनुकूल चाहे जहाँ लगा सकता है।कर्मयोगके साधकके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना आवश्यक है। इसीलिये भगवान् कर्मयोगके प्रकरणमें इन्द्रियोंको वशमें करनेकी बात विशेषरूपसे कहते हैं; जैसे--'यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्य' (3। 7) ;'तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य' (3। 41)। कर्मयोगीका कर्मोंके साथ अधिक सम्बन्ध रहता है; इसलिये इन्द्रियाँ वशमें न होनेसे उसके विचलित होनेकी सम्भावना रहती है। कर्मयोगके साधनमें दूसरोंके हितके लिये सेवारूपसे कर्तव्य-कर्म करना आवश्यक है, जिसके लिये इन्द्रियोंका वशमें होना बहुत जरूरी है। इन्द्रियाँ वशमें हुए बिना कर्मयोगका साधन होना कठिन है।
।।5.7 5.11।।योगयुक्त इत्यादि आत्मसिद्धये इत्यन्तम्। सर्वभूतानामात्मभूतः आत्मा यस्य स सर्वमपि कुर्वाणो न लिप्यते अकरणप्रतिषेधारूढत्वात्। अत एव दर्शनादीनि कुर्वन्नपि असौ एवं धारयति प्रतिपत्तिदार्ढ्येन निश्चिनुते चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां यदि स्वविषयेषु प्रवृत्तिः मम किमायातम् न हि अन्यस्य कृतेनापरस्य (S अन्यस्य कृतेनान्यस्य अन्यकृतेन परस्य) लेपः इति। तदेव ब्रह्मणि कर्मणां समर्पणम्। अत्र चिह्नम् अस्य गतसङ्गता। अतो न लिप्यते। योगिनश्च केवलैः सङ्गरहितैः परस्परानपेक्षिभिश्च कायादिभिः कुर्वन्ति कर्माणि सङ्गाभावात्।
।।5.7।।कर्मयोगयुक्तः तु शास्त्रीये परमपुरुषाराधनरूपे विशुद्धे कर्मणि वर्तमानः तेन विशुद्धमनाः विजितात्मा स्वाभ्यस्ते कर्मणि व्याप्तमनस्त्वेन सुखेन विजितमनाः तत एवं जितेन्द्रियः कर्तुः आत्मनोयाथात्म्यानुसन्धाननिष्ठतया सर्वभूतात्मभूतात्मा।सर्वेषां देवादिभूतानाम् आत्मभूत आत्मा यस्य असौ सर्वभूतात्मभूतात्मा आत्मयाथात्म्यम् अनुसन्दधानस्य हि देवादीनां स्वस्य च एकाकार आत्मा देवादिभेदानां प्रकृतिपरिणामविशेषरूपतया आत्माकारत्वासंभवात्।प्रकृतिवियुक्तः सर्वत्र देवादिदेहेषु ज्ञानैकाकारतया समानाकार इतिनिर्दोषं हि समं ब्रह्म (गीता 5।19) इति अनन्तरमेव वक्ष्यते। स एवंभूतः कर्म कुर्वन् अपि अनात्मनि आत्माभिमानेन न लिप्यते न संबध्यते अतः अचिरेण आत्मानम् आप्नोति इत्यर्थः।यतः सौकर्यात् शैघ्र्याच्च कर्मयोग एव श्रेयान् अतः तदपेक्षितं श्रृणु
।।5.7।।ननु पारिव्राज्यं परिगृह्य श्रवणादिसाधनमसकृदनुतिष्ठतो लब्धसम्यग्बोधस्यापि यथापूर्वं कर्माण्युपलभ्यन्ते तानि च बन्धहेतवो भविष्यन्तीत्याशङ्क्य श्लोकान्तरमवतारयति यदा पुनरिति। सम्यग्दर्शनप्राप्त्युपायत्वेन यदा पुनरयं पुरुषो योगयुक्तत्वादिविशेषणः सम्यग्दर्शी संपद्यते तदा प्रातिभासिकीं प्रवृत्तिमनुसृत्य कुर्वन्नपि न लिप्यत इति योजना। योगेन नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानेनेति यावत्। आदौनित्याद्यनुष्ठानवतो रजस्तमोमलाभ्यामकलुषितं सत्त्वं सिध्यतीत्याह विशुद्धेति। बुद्धिशुद्धौ कार्यकरणसंघातस्यापि स्वाधीनत्वं भवतीत्याह विजितेति। तस्य यथोक्तविशेषणवतो जायते सम्यग्दर्शित्वमित्याह सर्वभूतेति। सम्यग्दर्शिनस्तर्हि कर्मानुष्ठानं कुतस्त्यं तदनुष्ठाने वा कुतो बन्धविश्लेषसिद्धिरित्याशङ्क्याह स तत्रेति। सम्यग्दर्शनं सप्तम्यर्थः।
।।5.7।।स्वमतस्फोरणार्थं तद्योगिनं लक्षयति त्रिभिः। त्रिगुणातीतत्वात्तस्येतिभावेन योगयुक्त इति।
।।5.7।।ननु कर्मणो बन्धहेतुत्वाद्योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्माधिगच्छतीत्यनुपपन्नमित्यत आह भगवदर्पणफलाभिसंधिराहित्यादिगुणयुक्तं शास्त्रीयं कर्म योग इत्युच्यते। तेन योगेन युक्तः पुरुषः प्रथमं विशुद्धात्मा विशुद्धो रजस्तमोभ्यामकलुषित आत्मान्तःकरणरूपं सत्त्वं यस्य स तथा। निर्मलान्तःकरणः सन् विजितात्मा स्ववशीकृतदेहः। ततो जितेन्द्रियः स्ववशीकृतसर्वबाह्येन्द्रियः। एतेन मनूक्तस्त्रिदण्डी कथितःवाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कायदण्डस्तथैव च। यस्यैते नियता दण्डाः स त्रिदण्डीति कथ्यते।। इति। वागिति बाह्येन्द्रियोपलक्षणम्। एतादृशस्य तत्त्वज्ञानमवश्यं भवतीत्याह सर्वभूतात्मभूतात्मा सर्वभूत आत्मभूतश्चात्मा स्वरूपं यस्य स तथा। जडाजडात्मकं सर्वमात्ममात्रं पश्यन्नित्यर्थः। सर्वेषां भूतानामात्मभूत आत्मा यस्येति व्याख्याने तु सर्वभूतात्मेत्येतावतैवार्थलाभादात्मभूतेत्यधिकं स्यात्। सर्वात्मपदयोर्जडाजडपरत्वे तु समञ्जसम्। एतादृशः परमार्थदर्शी कुर्वन्नपि कर्माणि परदृष्ट्या न लिप्यते तैः कर्मभिः। स्वदृष्ट्या तदभावादित्यर्थः।
।।5.7।।कर्मयोगादिक्रमेण ब्रह्माधिगमे सत्यपि तदुपरितनेन कर्मणा बन्धः स्यादेवेत्याशङ्क्याह योगयुक्त इति। योगेन युक्तोऽतो विशुद्ध आत्मा चित्तं यस्यातएव विजित आत्मा शरीरं येन। अतएव विजितानीन्द्रियाणि येन। ततश्च सर्वेषां भूतानामात्मभूत आत्मा यस्य सः। लोकसंग्रहार्थं स्वाभाविकं वा कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते तैर्न बध्यते।
।।5.7।।कर्मयोगस्य सुखसाध्यत्वे शीघ्रफलाधिगमे च हेतुरुच्यते योगयुक्तः इति श्लोकेन। पूर्वावात्मशब्दौ मनोविषयौ जितेन्द्रियसमभिव्याहारात्।योगयुक्तः इत्यनेनैव सिद्धो विशुद्धमनस्त्वे हेतुःशास्त्रीय इत्यादिनोच्यते। विशुद्धिरत्र रजस्तमोनिवृत्तिस्तन्मूलरागद्वेषादिकषायनिवृत्तिश्च। प्राक्समर्थितं स्मारयतिस्वाभ्यस्ते कर्मणीति। प्रधानस्य मनोनिग्रहस्य वक्तुमुचितत्वात्विजितदेहः इति परव्याख्यानं मन्दमिति भावः। सर्वेन्द्रियकूटस्थे मनसि जिते बाह्यानीन्द्रियान्तराणि जितानि भवन्तीत्यभिप्रायेणतत एवेत्युक्तम्। सर्वभूतेत्याद्युपपादनायकर्तुरित्युक्तम्। प्रथमस्य भूतशब्दस्यात्र देवादिदेहमात्रविषयतां द्वितीयस्य क्रियात्मतां विग्रहं च दर्शयतिसर्वेषामिति। भिन्नानामैक्यं हि विरुद्धमित्यत्राहआत्मयाथात्म्यमिति।अयमभिप्रायः सत्यं न स्वरूपैक्यं विधीयते तस्य प्रत्यक्षानुमानागमपूर्वापरविरुद्धत्वात् किन्त्वेकाकारत्वं यथा सर्वस्मिन् गृहे वर्तमानो व्रीहिरयमेवेत्युक्ते तज्जातीत्यत्वमुक्तं भवति तद्वदत्रापि सर्वस्मिन् देहे वर्तमानोअयमेवात्मा इति प्रयोगेऽपि देहान्तरवर्तिनामस्य चात्मनः समानत्वमुक्तं भवति। ननु समानत्वमपि प्रत्यक्षादिविरुद्धम्देवतिर्यग्ब्राह्मणक्षत्ित्रयब्रह्मचारिगृहस्थपण्डितापण्डितशक्ताशक्तधनिकदरिद्रस्थविरतरुणादिनिरवधिकवैषम्यनिर्भरत्वादात्मनाम् अन्यथाबाह्मणो यजेत श.ब्रा.5।1।5।2 इत्याद्यात्मपर्यन्तशास्त्रीयप्रयोगोऽपि भज्येतेत्यत्राहदेवादिभेदानामिति। अयं भावः सत्यं देवादिवैषम्यं प्रामाणिकमेव तत्तु न स्वरूपप्रयुक्तम् तस्य कर्मोपाधिकप्रकृतिपरिणामभेदनिबन्धनत्वात् शुद्धाकारविवक्षया तु समानत्वमिहोच्यते इति। साम्यस्यात्र विवक्षितत्वे संवादकमनन्तरमेव साम्याभिधानं दर्शयतिप्रकृतिवियुक्त इति।कुर्वन्नपि न लिप्यते इत्यत्र न तावन्निषिद्धं कुर्वन्नपि न दुष्टो भवतीत्युच्यते तथा सति बहुव्याकोपप्रसङ्गात् न च कर्मयोगं कुर्वन्नपि तेनैव न लिप्यत इति तथा च सति निष्फलप्रयासत्वेन तस्याननुष्ठानप्रसङ्गात्। अतोऽत्र न केवलं ज्ञानयोगनिष्ठः अपितु कर्मयोगं कुर्वन्नप्यात्मसाक्षात्काराख्यफलविरोधिना केनचिन्न लिप्यत इत्येवार्थ इत्यभिप्रायेणअनात्मन्यात्माभिमानेनेत्याद्युक्तम्।नैव किञ्चित्करोमि
।।5.7।।ननु ब्रह्मप्राप्तिरेवोत्तमा तदा भक्त्यैव तत्सिद्धिरिति नियतस्वफलभोगकारककर्मकरणं किम्प्रयोजनकं इत्याशङ्क्याह योगयुक्त इति। योगयुक्तो मत्संयोगात्मवान्। विशुद्धात्मा विशेषेण शुद्ध आत्मा अन्तःकरणं कामादिभावरहितं यस्य। विजितात्मा विजितो वशीकृत आत्मा भगवत्स्वरूपं येन। जितेन्द्रियः जितानि इन्द्रियाणि स्वभोगादिरूपाणि येन। सर्वभूतात्मा सर्वभूतात्मरूपो भगवान् स एवात्मा स्वरूपं यस्य तादृशोमदाज्ञया लोकसङ्ग्रहार्थ कर्म कुर्वन्न लिप्यते तत्फलभोगेन न बध्यते।
।।5.7।।योगेति। योगेन निर्विकल्पसमाधिना युक्तो योगयुक्तः। अत एव विशुद्धात्मा वृत्तिसारूप्यदोषेण हीनः आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य। निर्विकल्पावस्थायां केवल एव चेतनोऽस्ति नान्यदेत्युक्तं तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानं वृत्तिसारूप्यमितरत्रेति तदा वृत्त्यभावे इतरत्र वृत्तिकाले इति सौत्रपदद्वयार्थः। अत्र हेतुः। यतोऽयं विजितात्मा विजितचित्तो जितेन्द्रियश्च। एवं शुद्धस्त्वंपदार्थ उक्तस्तस्य तत्पदार्थाभेदमाह सर्वभूतात्मेति। सर्वेषां भूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानां वियदादीनां च चेतनाचेतनानामात्मभूतः उपादानत्वेन स्वरूपभूतः कनकमिव कुण्डलादीनां स्वरूपभूतम्। कारणानन्यत्वात्कार्यस्य। सर्वभूतात्मभूत आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य स सर्वभूतात्मभूतात्मा। यत्तु सर्वेषां भूतानामात्मभूत आत्मा यस्येति भाष्यं सर्वभूतात्मेत्येतावतैवार्थलाभादात्मभूत इत्यधिकमिति दूषितम्। स्वयं च सर्वभूत आत्मभूतश्चात्मा यस्येति विग्रहो दर्शितः तत्र संकोचे कारणाभावात्सर्वपदेनैव चिज्जडयोर्ग्रहे परस्याप्यात्मभूतेत्यधिकमेव। सर्वभूतश्चेतनाचेतनप्रपञ्चभूत आत्मा यस्येति तत्रापीष्टार्थलाभात् सर्वं च आत्मानश्च तद्भूत आत्मा यस्येति विगृह्य सर्वात्मभूतात्मेत्येतावतैव सिद्धे प्रथमभूतपदस्य वैयर्थ्यं च भाष्यमते ब्रह्मादीनां प्रत्यग्भूत आत्मा यस्येति श्रुत्यैव जीवेशाभेद उच्यते। परस्य तूपादानत्वलिङ्गेन जडसाधारण्येन जीवस्य ब्रह्माभेदोऽवगम्यत इति विद्वद्भिरविनयः क्षन्तव्यः। यतोऽयं सर्वेषां प्रत्यगात्मा अतोऽहमिव सोऽपि कुर्वन्नपि न लिप्यते असङ्गात्मज्ञानात्कर्त्रादेर्बाधितत्वाच्च। व्युत्थाने तत्प्रतीतावप्युत्खातदंष्ट्रोरगवदबाधकत्वाच्चेत्यर्थः।
।।5.7।।कस्यचिच्चित्तशुद्य्धा श्रवणादिना कृतसाक्षात्कारस्य प्रारब्धवशात्कर्मणि स्थितस्य यथापूर्वमुपलभ्यमानानि कर्माणि बन्धकानि न भवन्तीत्यत आह योगयुक्त इति। योगेन पूर्वोक्तेन युक्तः अतएव विशुद्धान्तःकरणः एतए विजतदेहः अतएव विजितानि वागादीनि इन्द्रियाणि येन सः। एवंभूतोऽधिकारी लक्षणसंपन्नः सर्वेषां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानां भूतानामात्मभूत आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य सः। अखण्डात्मसाक्षात्कारवानित्यर्थः। यत्तु कैश्चिद्भाष्योक्तं विग्रहं सर्वभूतात्मेत्येतावतैवार्थलाभादात्मभूतेत्यधिकं स्यादित्यापत्त्या दूषयित्वा सर्वभूतो जडभूत आत्मभूतोऽजडभूतश्च आत्मा यस्येति च विग्रहः प्रदर्शितस्तत्प्रामादिकम्। कृत्स्त्रवाचिनः सर्वपदादेव जडाजडग्रहे सर्वभूतात्मेत्येतावतैवेष्टमाभे आधिक्यस्य तुल्यत्वात्। सर्वमचेतनमात्मानश्चेतनास्तद्भूत आत्मा यस्येति विगृह्य सर्वात्मभूतात्मेत्येतावतैवेष्टार्थे सिद्धे प्रथमभूतपदवैयर्थ्य प्रसङ्गाच्च। किंच भाष्यमते ब्रह्मादीनां प्रत्यगात्मभूत आत्मा यस्येति श्रुत्यैवात्मपरमात्मनोरैक्यमुच्यते। तव मते तु उपादानत्वलिङ्गेन जडसाधारण्येनात्मनः परमात्माभेदो गम्यत इत्यत आचार्योक्तमेव रमणीयम्। स लोकंसग्रहार्थं कुर्वन्नपि न लिप्यते। योगयुक्तो न कर्मभिर्बध्यत इत्यर्थः। युत्तु ननु योगयुक्तस्य सत्त्वशुद्धौ जातायामपि सर्वकर्मसंन्यासे कृते नित्याकरणजनितप्रत्यवायलक्षणो लेप आपद्येतेत्याशङ्क्याह योगयुक्त इति। अकुर्वन्नापि न लिप्यते। नित्याकरणोत्थेन दोषेणन स्पृश्यत इत्यर्थः। तत्र हेतुमाह। सर्वेषां ब्रह्मादिस्थावरान्तानां भूतानां योऽनुस्यूत आत्माऽसंङ्गोदासीनचिद्रूपस्तं भूतः प्राप्तस्तदैक्यज्ञानवानात्भान्तःकरणै यस्येति तदुपेक्ष्यम्।कतमसतः सज्जायत इति श्रुतिमनुरुध्याकरणादभावरुपाद्भावरुपस्य प्रत्यवायस्यानुत्पत्तेराचार्यैरसकृदुक्तत्वात्सर्वेत्यादेरार्जवेन भाष्योक्तमार्गेणोक्तार्थलाभे संभवति क्लिष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वात्। योगेन निर्विकल्पसमाधिना युक्त इत्याद्युपेक्ष्यं प्रकरणविरोधस्योक्तत्वात्।
5.7 योगयुक्तः devoted to the path of action? विशुद्धात्मा a man of purified mind? विजितात्मा one who has conered the self? जितेन्द्रियः one who has subdued his senses? सर्वभूतात्मभूतात्मा one who realises his Self as the Self in all beings? कुर्वन् acting? अपि even? न not? लिप्यते is tainted.Commentary He who is harmonised by Yoga? i.e.? he who has purified his mind by devotion to the performance of action? who has conered the body and who has subjugated the senses? whose Self is the Self of all beings? he will not be bound by actions although he performs actions for the wellbeing or protection of the masses in orer to set an example to them. (Cf.XVIII.17)
5.7 He who is devoted to the path of action, whose mind is ite pure, who has conered the self, who has subdued his senses and who realises his Self as the Self in all beings, though acting, is not tainted.
5.7 He who is spiritual, who is pure, who has overcome his senses and his personal self, who has realised his highest Self as the Self of all, such a one, even though he acts, is not bound by his acts.
5.7 Endowed with yoga, [i.e. devoted to the performance of the nitya and naimittika duties.] pure in mind, controlled in body, a coneror of the organs, the Self of the selves of all beings-he does not become tainted even while performing actions. [The construction of the sentence is this: When this person resorts to nitya and naimittika rites and duties as a means to the achievement of fully Illumination, and thus becomes fully enlightened, then, even when he acts through the apparent functions of the mind, organs, etc., he does not become afflected.]
5.7 When again, as a means to attain full enlightenment, this person becomes yoga-yuktah, endowed with yoga; visuddhatma, pure in mind; vijitatma, controlled in body; jitendriyah, a coneror of the organs; and sarva-bhutatma-bhutatma, the Self of the selves of all beings-one whose Self (atma), the inmost consciousness, has become the selves (atma) of all beings (sarva-bhuta) beginning from Brahma to a clump of grass-, i.e., fully illumined; (then,) thus continuing in that state, he na lipyate, does not become tainted; kurvan api, even while performing actions for preventing mankind from going astray. That is to say, he does not become bound by actions. And besides, this person does not act in the real sense. Hence,
5.7. A master of Yoga, whose self (mind and intellect) is very pure and is fully subdued, the sense-organs controlled, and Soul is [realised to be] the Soul of all beings-he is not stained, eventhough he is a performer [of actions].
5৷৷7 See Comment under 5.11
5.7 But a Karma Yogin remains engaged in the performance of pure actions prescribed by the Sastras, which are of the nature of propitiation of the Supreme Person. By this, he becomes purified in mind. He thus subdues his self, i.e., subdues his mind easily, because his mind is engaged in the virtuous actions he has been performing before. Therefore his senses are subdued. His self is said to have become the self of all beings. Because of his being devoted to contemplation on the true nature of the self, he finds that his self is similar to the self of all beings like gods etc. One who contemplates on the true nature of the self understands that all selves are of the same form or nature. The distinctions obtaining among gods, men etc., cannot pertain to the form of the self, because those distinctions are founded on particular modifications of Prakrti i.e., the bodies of beings. Sri Krsna will teach: 'For the Brahman (an individual self), when untainted, is the same everywhere' (5.19). The meaning of this is that when dissociated from the Prakriti, i.e., the body, the self is of the same nature everywhere, i.e., in the bodies of gods, men etc. It is of the same form of knowledge. The meaning is that one, who has become enlightened in this way, active though he be, is not tainted on account of erroneously conceiving what is other than the self (the body) as the self. He is not at all associated therewith. Therefore, he attains the self without any delay. As Karma Yoga is superior to Jnana Yoga because it is more easily pursued and is more rapidly efficacious in securing the fruits, listen to its reirement:
5.7 He who follows the Yoga and is pure in self (mind), who has subdued his self and has conered his senses and whose self has become the self of all beings, even while he is acting, he is untainted.
।।5.7।।जब यह पुरुष सम्यक् ज्ञानप्राप्तिके उपायरूप योगसे युक्त विशुद्ध अन्तःकरणवाला विजितात्मा शरीरविजयी जितेन्द्रिय और सब भूतोंमें अपने आत्माको देखनेवाला अर्थात् जिसका अन्तरात्मा ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त सम्पूर्ण भूतोंका आत्मरूप हो गया हो ऐसा यथार्थ ज्ञानी हो जाता है। तब इस प्रकार स्थित हुआ वह पुरुष लोकसंग्रह के लिये कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता अर्थात् कर्मोंसे नहीं बँधता। वास्तवमें वह कुछ करता भी नहीं है इसलिये आत्माके यथार्थ स्वरूपका नाम तत्त्व है उसको जाननेवाला तत्त्वज्ञानी परमार्थदर्शी समाहित होकर ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता।
।।5.7।। योगेन युक्तः योगयुक्तः विशुद्धात्मा विशुद्धसत्त्वः विजितात्मा विजितदेहः जितेन्द्रियश्च सर्वभूतात्मभूतात्मा सर्वेषां ब्रह्मादीनां स्तम्बपर्यन्तानां भूतानाम् आत्मभूतः आत्मा प्रत्यक्चेतनो यस्य सः सर्वभूतात्मभूतात्मा सम्यग्दर्शीत्यर्थः स तत्रैवं वर्तमानः लोकसंग्रहाय कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यते न कर्मभिः बध्यते इत्यर्थः।।न च असौ परमार्थतः करोतीत्यतः
।।5.7।।प्रकृतप्रमेयस्य समाप्तत्वादुत्तरस्य वैयर्थ्यमाशङ्क्याह एतदेवेति। योगयुक्तस्य सन्न्यासस्य महाफलत्वमेव। प्रपञ्चनं चयो न द्वेष्टि 5।3 इत्यत्रोक्तद्वेषादिवर्जनकारणोपन्यासेनब्रह्माधिगच्छति 5।6 इत्यत्रोक्तब्रह्मज्ञानावान्तरफलोपन्यासेन चेति ज्ञातव्यम्।सर्वभूतात्मभूतात्मा इत्यनेन जीवस्य परमात्मस्वरूपत्वमुच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह सर्वेति। सर्वभूतानामात्मभूतः कथं इत्यत उक्तं यच्चेति। एतन्निर्वचनमाश्रित्य न स्वरूपत्वमित्यर्थः। स आत्मभूत इति सर्वभूतात्मभूत इत्युक्तस्यानुवादः।स्वसमीपंइत्यादिद्वितीयात्मशब्दस्यार्थः। एवं जानन्नत्र विवक्षितः।
।।5.7।।एतदेव प्रपञ्चयति योगयुक्त इति। सर्वभूतात्मभूतः परमेश्वरः। यच्चाप्नोतीत्यादेः। स आत्मभूतः स्वसमीपं प्रत्यादानादिकर्ता यस्य स सर्वभूतात्मभूतात्मा।
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः। सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।5.7।।
যোগযুক্তো বিশুদ্ধাত্মা বিজিতাত্মা জিতেন্দ্রিযঃ৷ সর্বভূতাত্মভূতাত্মা কুর্বন্নপি ন লিপ্যতে৷৷5.7৷৷
যোগযুক্তো বিশুদ্ধাত্মা বিজিতাত্মা জিতেন্দ্রিযঃ৷ সর্বভূতাত্মভূতাত্মা কুর্বন্নপি ন লিপ্যতে৷৷5.7৷৷
યોગયુક્તો વિશુદ્ધાત્મા વિજિતાત્મા જિતેન્દ્રિયઃ। સર્વભૂતાત્મભૂતાત્મા કુર્વન્નપિ ન લિપ્યતે।।5.7।।
ਯੋਗਯੁਕ੍ਤੋ ਵਿਸ਼ੁਦ੍ਧਾਤ੍ਮਾ ਵਿਜਿਤਾਤ੍ਮਾ ਜਿਤੇਨ੍ਦ੍ਰਿਯ। ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਤ੍ਮਭੂਤਾਤ੍ਮਾ ਕੁਰ੍ਵਨ੍ਨਪਿ ਨ ਲਿਪ੍ਯਤੇ।।5.7।।
ಯೋಗಯುಕ್ತೋ ವಿಶುದ್ಧಾತ್ಮಾ ವಿಜಿತಾತ್ಮಾ ಜಿತೇನ್ದ್ರಿಯಃ. ಸರ್ವಭೂತಾತ್ಮಭೂತಾತ್ಮಾ ಕುರ್ವನ್ನಪಿ ನ ಲಿಪ್ಯತೇ৷৷5.7৷৷
യോഗയുക്തോ വിശുദ്ധാത്മാ വിജിതാത്മാ ജിതേന്ദ്രിയഃ. സര്വഭൂതാത്മഭൂതാത്മാ കുര്വന്നപി ന ലിപ്യതേ৷৷5.7৷৷
ଯୋଗଯୁକ୍ତୋ ବିଶୁଦ୍ଧାତ୍ମା ବିଜିତାତ୍ମା ଜିତେନ୍ଦ୍ରିଯଃ| ସର୍ବଭୂତାତ୍ମଭୂତାତ୍ମା କୁର୍ବନ୍ନପି ନ ଲିପ୍ଯତେ||5.7||
yōgayuktō viśuddhātmā vijitātmā jitēndriyaḥ. sarvabhūtātmabhūtātmā kurvannapi na lipyatē৷৷5.7৷৷
யோகயுக்தோ விஷுத்தாத்மா விஜிதாத்மா ஜிதேந்த்ரியஃ. ஸர்வபூதாத்மபூதாத்மா குர்வந்நபி ந லிப்யதே৷৷5.7৷৷
యోగయుక్తో విశుద్ధాత్మా విజితాత్మా జితేన్ద్రియః. సర్వభూతాత్మభూతాత్మా కుర్వన్నపి న లిప్యతే৷৷5.7৷৷
5.8
5
8
।।5.8 -- 5.9।। तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं' -- ऐसा समझकर 'मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ' -- ऐसा माने।
।।5.8।। तत्त्ववित् युक्त पुरुष यह सोचेगा (अर्थात् जानता है) कि  "मैं किंचित् मात्र कर्म नहीं करता हूँ"  देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ,।।
।।5.8।। See commentary under 5.9
5.8।। व्याख्या--'तत्त्ववित् युक्तः'--यहाँ ये पद सांख्ययोगके विवेकशील साधकके वाचक हैं, जो तत्त्ववित् महापुरुषकी तरह निर्भ्रान्त अनुभव करनेके लिये तत्पर रहता है। उसमें ऐसा विवेक जाग्रत् हो गया है कि सब क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं, उन क्रियाओंका मेरे साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं।जो अपनेमें अर्थात् स्वरूपमें कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी क्रियाके कर्तापनको नहीं देखता, वह 'तत्त्ववित्' है। उसमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक ही यह सावधानी रहती है कि स्वरूपमें कर्तापन है ही नहीं। प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन बुद्धि, प्राण आदिके साथ वह कभी भी अपनी एकता स्वीकार नहीं करता, इसलिये इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको वह अपनी क्रियाएँ मान ही कैसे सकता है?वास्तवमें उपर्युक्त स्थिति स्वरूपसे सभी मनुष्योंकी है; परन्तु वे भूलसे स्वरूपको क्रियाओंका कर्ता मान लेते हैं (गीता 3। 27)। परमात्माकी जिस शक्तिसे समष्टि संसारकी क्रियाएँ हो रही हैं, उसी शक्तिसे व्यष्टि शरीरकी क्रियाएँ भी हो रही हैं। परन्तु समष्टिके ही क्षुद्र अंश व्यष्टिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेनेके कारण मनुष्य व्यष्टिकी कुछ क्रियाओँको अपनी क्रियाएँ मानने लग जाता है। इस मान्यताको हटानेके ही लिये भगवान् कहते हैं कि साधक अपनेको कभी कर्ता न माने। जबतक किसी भी अंशमें कर्तापनकी मान्यता है, तबतक वह साधक कहा जाता है। जब अपनेमें कर्तापनकी मान्यताका सर्वथा अभाव होकर अपने स्वरूपका अनुभव हो जाता है, तब वह तत्त्ववित् महापुरुष कहा जाता है। जैसे स्वप्नसे जगनेपर मनुष्यका स्वप्नसे बिलकुल सम्बन्ध नहीं रहता, ऐसे ही तत्त्ववित् महापुरुषका शरीरादिसे होनेवाली क्रियाओंसे बिलकुल सम्बन्ध (कर्तापन) नहीं रहता।यहाँ 'तत्त्ववित्'वही है, जो प्रकृति और पुरुषके विभागको अर्थात् गुण और क्रिया सब प्रकृतिमें है, प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें गुण और क्रिया नहीं है--इसको ठीक-ठीक जानता है। प्रकृतिसे अतीत निर्विकार तत्त्व तो सबका प्रकाशक और आधार है। सबका प्रकाशक होता हुआ भी वह प्रकाश्यके अन्तर्गत ओतप्रोत है। प्रकाश्य (शरीर आदि) में घुला-मिला रहनेपर भी प्रकाशक प्रकाशक ही है और प्रकाश्य प्रकाश्य ही है। ऐसे ही वह सबका आधार होता हुआ भी सबके (आधेयके) कण-कणमें व्याप्त है; पर वह कभी आधेय नहीं होता। कारण कि जो प्रकाशक और आधार है, उसमें करना और होना नहीं है। करना और होनारूप परिवर्तन तो प्रकाश्य अथवा आधेयमें ही है। इस तरह प्रकाशक और प्रकाश्य आधार और आधेयके भेद-(विभाग-) को जो ठीक तरहसे जानता है, वही 'तत्त्ववित्' है। इसी प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष-(क्षेत्रज्ञ-) के विभागको जाननेकी बात भगवान्ने पहले दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें और आगे सातवें अध्यायके चौथे-पाँचवें तथा तेरहवें अध्यायके दूसरे, उन्नीसवें, तेईसवें और चौंतीसवें श्लोकमें कही है। 'पश्यञ्शृण्वन्स्पृशन् ৷৷. उन्मिषन्निमिषन्नपि'--यहाँ देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना और खाना--ये पाँचों क्रियाएँ (क्रमशः नेत्र, श्रोत्र, त्वचा, घ्राण और रसना --इन पाँच) ज्ञानेन्द्रियोंकी हैं। चलना, ग्रहण करना, बोलना और मल-मूत्रका त्याग करना--ये चारों क्रियाएँ (क्रमशः पाद, हस्त, वाक्, उपस्थ और गुदा--इन पाँच) कर्मेन्द्रियोंकी हैं (टिप्पणी प0 290)। सोना--यह एक क्रिया अन्तःकरणकी है। श्वास लेना--यह एक क्रिया प्राणकी और आँखें खोलना तथा मूँदना--ये दो क्रियाएँ 'कूर्म 'नामक उपप्राणकी हैं।उपर्युक्त तेरह क्रियाएँ देकर भगवान्ने ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, अन्तःकरण, प्राण और उपप्राणसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओँका उल्लेख कर दिया है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिके द्वारा ही होती हैं, स्वयंके द्वारा नहीं। दूसरा एक भाव यह भी प्रतीत होता है कि सांख्ययोगीके द्वारा वर्ण, आश्रम, स्वभाव, परिस्थिति आदिके अनुसार शास्त्रविहित शरीर-निर्वाहकी क्रियाएँ, खान-पान, व्यापार करना, उपदेश देना, लिखना ,पढ़ना, सुनना, सोचना आदि क्रियाएँ न होती हों--ऐसी बात नहीं है। उसके द्वारा ये सब क्रियाएँ हो सकती हैं।मनुष्य अपनेको उन्हीं क्रियाओँका कर्ता मानता है, जिनको वह जानकर अर्थात् मन-बुद्धिपूर्वक करता है; जैसे पढ़ना, लिखना, सोचना, देखना, भोजन करना आदि। परन्तु अनेक क्रियाएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें मनुष्य जानकर नहीं करता; जैसे--श्वासका आना-जाना, आँखोंका खुलना और बंद होना आदि। फिर इन क्रियाओंका कर्ता अपनेको न माननेकी बात इस श्लोकमें कैसे कही गयी? इसका उत्तर यह है कि सामान्यरूपसे श्वासोंका आना-जाना आदि क्रियाएँ स्वाभाविक होनेवाली हैं; किन्तु प्राणायाम आदिमें मनुष्य श्वास लेना आदि क्रियाएँ जानकर करता है। ऐसे ही आँखोको खोलना और बंद करना भी जानकर किया जा सकता है। इसलिये इन क्रियाओंका कर्ता भी अपनेको न माननेके लिये कहा गया है। दूसरी बात, जैसे मनुष्य 'श्वसन् उन्मिषन् निमिषन्' (श्वास लेना, आँखोंको खोलना और मूँदना)--इन क्रियाओंको स्वाभाविक मानकर इनमें अपना कर्तापन नहीं मानता, ऐसे ही अन्य क्रियाओंको भी स्वाभाविक मानकर उनमें अपना कर्तापन नहीं मानना चाहिये।यहाँ 'पश्यन्' आदि जो तेरह क्रियाएँ बतायी हैं, इनका बिना किसी आधारके होना सम्भव नहीं है। ये क्रियाएँ जिसके आश्रित होती हैं अर्थात् इन क्रियाओंका जो आधार है, उसमें कभी कोई क्रिया नहीं होती। ऐसे ही प्रकाशित होनेवाली ये सम्पूर्ण क्रियाएँ बिना किसी प्रकाशके सिद्ध नहीं हो सकतीं। जिस प्रकाशसे ये क्रियाएँ प्रकाशित होती है, जिस प्रकाशके अन्तर्गत होती हैं, उस प्रकाशमें कभी कोई क्रिया हुई नहीं, होती नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं और होनी सम्भव भी नहीं। ऐसा वह तत्त्व सबका आधार, प्रकाशक और स्वयं प्रकाशस्वरूप है। वह सबमें रहता हुआ भी कुछ नहीं करता। उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करानेमें ही उपर्युक्त इन तेरह क्रियाओँका तात्पर्य है।
।।5.7 5.11।।योगयुक्त इत्यादि आत्मसिद्धये इत्यन्तम्। सर्वभूतानामात्मभूतः आत्मा यस्य स सर्वमपि कुर्वाणो न लिप्यते अकरणप्रतिषेधारूढत्वात्। अत एव दर्शनादीनि कुर्वन्नपि असौ एवं धारयति प्रतिपत्तिदार्ढ्येन निश्चिनुते चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां यदि स्वविषयेषु प्रवृत्तिः मम किमायातम् न हि अन्यस्य कृतेनापरस्य (S अन्यस्य कृतेनान्यस्य अन्यकृतेन परस्य) लेपः इति। तदेव ब्रह्मणि कर्मणां समर्पणम्। अत्र चिह्नम् अस्य गतसङ्गता। अतो न लिप्यते। योगिनश्च केवलैः सङ्गरहितैः परस्परानपेक्षिभिश्च कायादिभिः कुर्वन्ति कर्माणि सङ्गाभावात्।
।।5.8।।एवम् आत्मतत्त्ववित् श्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि वागादीनि कर्मेन्द्रियाणि प्राणाः च स्वस्य विषयेषु वर्तन्ते इति धारयन् अनुसन्दधानो न अहं किञ्चित् करोमि इति मन्येत। ज्ञानैकस्वभावस्य मम कर्ममूलेन्द्रियप्राणसम्बन्धकृतम् ईदृशं कर्तृत्वम् न स्वरूपप्रयुक्तम् इति मन्येत इत्यर्थः।
।।5.8।।कर्माण्यङ्गीकृत्य तैरस्य विदुषो बन्धो नास्तीत्युक्तमिदानीं वस्तुतस्तस्य कर्माण्येव न सन्तीत्याह नचेति। लोकदृष्ट्या विदुषोऽपि कर्माणि सन्तीत्याशङ्क्य स्वदृष्ट्या तदभावमभिप्रेत्याह नैवेति।
।।5.8 5.9।।कुर्वन्नपि न लिप्यते इत्येतद्विरुद्धमित्याशङ्क्य सर्वेन्द्रियव्यापारसत्वेऽपि कर्तृत्त्वाद्यभिमानाभावेन निर्द्वन्द्वत्वान्न विरुद्धमित्याह नैव किञ्चिदिति। मनस इन्द्रियाणां च व्यापाराःउन्मिषन्निमिषन्नपि इत्यन्तं निर्दिष्टाः। स्वविषयेषु हीमानीन्द्रियाणि प्रवर्त्तन्ते नाहमिति। साङ्ख्यवद्धारवन् न लिप्यते। तथा चोक्तं सूत्रकृतातदविगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ ब्र.सू.4।1।13 इति। कर्मभिर्न स बध्यते इति।
।।5.8।।एतदेव विवृणोति द्वाभ्यां चक्षुरादिज्ञानेन्द्रियैर्वागादिकर्मेन्द्रियैः प्राणादिवायुभेदैरन्तःकरणचतुष्टयेन च तत्तच्चेष्टासु क्रियमाणासु इन्द्रियाणि इन्द्रियादीन्येवेन्द्रियार्थेषु स्वस्वविषयेषु वर्तन्ते प्रवर्तन्ते नत्वहमिति धारयन्नवधारयन् नैव किंचित्करोमीति मन्येत मन्यते। तत्त्ववित्परामार्थदर्शी युक्तः समाहितचित्तः। अथवा आदौ युक्तः कर्मयोगेन पश्चादन्तःकरणशुद्धिद्वारेण तत्त्वविद्भूत्वा नैव किंचित्करोमीति मन्यत इति संबन्धः।
।।5.8 5.9।। कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यत इत्येतद्विरुद्धमित्याशङ्क्य कर्तृत्वाभिमानाभावान्न विरुद्धमित्याह नैवेति द्वाभ्याम्। कर्मयोगेन युक्तः क्रमेण तत्त्वविद्भूत्वा दर्शनश्रवणादीनि कुर्वन्नपि इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्बुद्ध्या निश्चित्य किंचिदप्यहं न करोमीति मन्येत मन्यते। तत्र दर्शनश्रवणस्पर्शनावघ्राणाशनानि चक्षुरादिज्ञानेन्द्रियव्यापाराः गतिः पादयोः स्वापो बुद्धेः श्वासः प्राणस्य प्रलपनं वागिन्द्रियस्य विसर्गः पायूपस्थयोः ग्रहणं हस्तयोः उन्मेषणनिमेषणे कूर्माख्यप्राणस्येति विवेकः। एतानि कर्माणि कुर्वन्नप्यनभिमानाद्ब्रह्मविन्न लिप्यते। तथाच पारमर्षं सूत्रं तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात इति।
5.8 इत्यादिकं ह्यनन्तरमुच्यत इति भावः।न लिप्यते इत्यत्र सवासनं सम्बन्धनिषेधो विवक्षित इत्याह न सम्बध्यत इति। प्रस्तुतार्थतया निगमयति अत इति।।।5.
।।5.8।।ननु नियतफलस्य कर्मणः कृतस्य कथं न फलं इत्याशङ्क्याह नैव किञ्चिदित्यादित्रयेण। तत्त्ववित् भगवदिङ्गितज्ञः युक्तः मद्भावयुक्तः सन्नैव किञ्चित्करोमि अहं किञ्चिदपि न करोमि किन्तु भगवदिच्छया तदाज्ञया यथा स कारयति तथा वारिवशात्तृणादिचलनवत् कर्म किमपि मत्तो न भवति न त्वहं करोमि इति यो मन्येत स पापेन कर्मजफलेन न लिप्यते। एवंरूपस्य स्थितिमाह पश्यन्निति। भावात्मकेन मनसा स्थिरीकृतालौकिकेन्द्रियैश्चक्षुःप्रभृतिभिः पश्यन् भगवत्स्वरूपदर्शनं कुर्वन् शृण्वन् भगवत्कूजितवेण्वादिशब्दान् स्पृशन् भगवच्चरणारविन्दस्पर्श कुर्वन् जिघ्रन् भगवन्मुखामोदाद्याघ्राणं कुर्वन् अश्रन्৷৷. गच्छन् गोचारणादिलीलायां सङ्गे गच्छन् स्वपन् लीलादिसमये नेत्रमुद्रणं कुर्वन् श्वसन् विप्रयोगादिना श्वासविमोकं कुर्वन् प्रलपन् तद्भावेन मत्तावस्थायां भ्रमरवद्गानं कुर्वन् विसृजन् तदवस्थायामेव दूरे यच्छन् गृह्णन् तदवस्थयैवालिङ्गनादि चरणेषु कुर्वन् उन्मिषन् मत्तावस्थात्यागेन स्वरूपानुभवं कुर्वन् निमिषन् तत्सुखानुभवेन नेत्रनिमीलनं कुर्वन् इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेषु भगवदवयवेषु वर्तन्त इति धारयन्।
।।5.8 5.9।।न लिप्यत इत्येतदुपपादयति नैवेति द्वाभ्याम्। तत्त्ववित् अहं नैव किंचित्करोमीति मन्येत मन्यते। तत्र हेतुः। इन्द्रियाणि उपलक्षणमिदं प्राणादेरपि। इन्द्रियादय इन्द्रियार्थेषु स्वेषु विषयेषु वर्तन्ते इति धारयन्निश्चिन्वन्नत्वहं विषयेषु वर्ते इति मन्यते। धारयन्निति हेतौ शतृप्रत्ययः। अत्र दर्शनादयः पञ्चज्ञानेन्द्रियाणां व्यापाराः। गमनविसर्गप्रलपनग्रहणानि कर्मेन्द्रियाणाम्। तानिच आनन्दस्योपलक्षणानि। श्वसन्निति प्राणस्य स्वपन्निति बुद्धेः उन्मेषणनिमेषणे कूर्माख्यप्राणस्येति विभागः। क्रमस्त्वविवक्षितः। एतानि कुर्वन्नप्यभिमानाभावान्न लिप्यत इत्यर्थः।
।।5.8 5.9।। कुर्वन्नपि कुतो न लिप्यत इत्याशङ्क्य यतोऽसौ परमार्थतो न करोतीत्याह द्वाभ्याम् नैवेति। युक्तः समाहितः सन्नादौ कर्मयोगयुक्त इति वाऽयं पक्षोऽध्याहारसापेक्षत्वादाचार्यैरुपेक्षितिः। तत्त्ववित्परमार्थदर्शी नैव किंचित्करोमीति मन्येत मन्यते। कदेत्यपेक्षायामाह पश्यन्नित्यादि। अपेः सर्वत्र संबन्धः। पश्यन्नित्यादिज्ञानेन्द्रियाणां व्यापारान् गच्छन्निति पादयोर्व्यापारं स्वपन्निति बुद्धेः श्वसन्निति प्राणस्य प्रलपन्निति वाचः विसृजन्निति पायूपस्थयोः गृह्णन्निति हस्तयोः उन्मिषन्निमिषन्निति कूर्माख्यप्राणस्य कुर्वन्नपीन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते नाहमसङ्ग आत्मेति धारयन् बुद्य्धा निश्चयं कुर्वन् किंचित्सरोमीति तत्त्वविन्मन्यतेऽतो न लिप्यत इत्यर्थः। यद्वानन्वेवं कर्तृत्वाभिमानशून्य इन्द्रियैः प्रतिषिद्धमपि कुर्यादित्यत आह इन्द्रियाणीति। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेष्विष्टेषु विषयेषु वर्तन्त इति हेतोरन्याय्यमपि कुर्युरित्य इन्द्रियाणि धारयन्त्त्स्वायत्तानि यथेष्टसंचारपराङ्भुखानि कुर्वन्निति। अस्मिन्पक्षे प्रकरणविरोधोऽनुषक्लेशश्च परिहर्तव्यः।
5.8 न not? एव even? किञ्चित् anything? करोमि I do? इति thus? युक्तः centred (in the Self)? मन्येत should think? तत्त्ववित् the knower of Truth? पश्यन् seeing? श्रृण्वन् hearing? स्पृशन् touching? जिघ्रन् smelling? अश्नन् eating? गच्छन् going? स्वपन् sleeping? श्वसन् breathing.No Commentary.
5.8 "I do nothing at all," thus would the harmonised knower of Truth think seeing, hearing, touching, smelling, eating, going, sleeping, breathing.
5.8 Though the saint sees, hears, touches, smells, eats, moves, sleeps and breathes, yet he knows the Truth, and he knows that it is not he who acts.
5.8-5.9 Remaining absorbed in the Self, the knower of Reality should think, 'I certainly do not do anything', even while seeing, hearing, touching, smelling, eating, moving, sleeping, breathing, speaking, releasing, holding, opening and closing the eyes-remembering that the organs function in relation to the objects of the organs.
5.8 Yuktah, remaining absorbed in the Self; tattva-vit, the knower of Reality-knower of the real nature of Truth, of the Self, i.e., the seer of the supreme Reality; manyeta, should think; 'na karomi eva, I certainly do not do; kincit, anything.' Having realized the Truth, when or how should he think? This is being answered; Api, even; pasyan, while seeing; srnvan, hearing; sprsan, touching; jighran, smelling; asnan, eating; gacchan, moving; svapan, sleeping; svasan, breathing; pralapan, speaking; visrjan, releasing; grhnan, holding; unmisan, opening; nimisan, closing the eyes. All these are to be connected with the above manyeta (should think). For the man who has known the Truth thus, who finds nothing but inaction in action-in all the movements of the body and organs-, and who has full realization, there is competence only for giving up all actions because of his realization of the nonexistence of actions. Indeed, one who proceeds to drink water in a mirage thinking that water is there, surely does not go there itself for drinking water even after knowing that no water exists there!
5.8. A master of Yoga, knowing the reality would think 'I do not perform any action at all'. For, he who, while seeing, hearing, touching, smelling, eating, going, sleeping and breathing;
5.8 See Comment under 5.11
5.8 - 5.9 Thus he who knows the truth concerning the self should reflect in mind that the ear and the other organs of sensation (Jnanendriyas) as also organs of action (Karmendriyas) and the vital currents (the Pranas) are occupied with their own respective objects. Thus he should know, 'I do not do anything at all.' He should reflect, 'My intrinsic nature is one of knowledge. The sense of agency comes because of the association of the self with the senses and the Pranas which are rooted in Karma. It does not spring from my essential nature.'
5.8 The knower of the truth, who is devoted to Yoga should think, 'I do not at all do anything' even though he is seeing, hearing, touching, smelling, eating, moving, sleeping, breathing;
।।5.8।।तत्त्वको समझकर कब और किस प्रकार ऐसे माने सो कहते हैं ( देखता सुनता छूता सूँघता खाता चलता सोता श्वास लेता बोलता त्याग करता ग्रहण करता तथा आँखोंको खोलता और मूँदता हुआ भी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयमें बर्त रही हैं ऐसे समझकर ) ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता। इस प्रकार इसका पहलेके आधे श्लोकसे सम्बन्ध है। जो इस प्रकार तत्त्वज्ञानी है अर्थात् सब इन्द्रियाँ और अन्तःकरणोंकी चेष्टारूप कर्मोंमें अकर्म देखनेवाला है वह अपनेमें कर्मोंका अभाव देखता है इसलिये उस यथार्थ ज्ञानीका सर्वकर्मसंन्यासमें ही अधिकार है। क्योंकि मृगतृष्णिकामें जल समझकर उसको पीनेके लिये प्रवृत्त हुआ मनुष्य उसमें जलके अभावका ज्ञान हो जानेपर फिर भी वही जल पीनेके लिये प्रवृत्त नहीं होता।
।।5.8 5.9।। नैव किञ्चित् करोमीति युक्तः समाहितः सन् मन्येत चिन्तयेत् तत्त्ववित् आत्मनो याथात्म्यं तत्त्वं वेत्तीति तत्त्ववित् परमार्थदर्शीत्यर्थः।।कदा कथं वा तत्त्वमवधारयन् मन्येत इति उच्यते पश्यन्निति। मन्येत इति पूर्वेण संबन्धः। यस्य एवं तत्त्वविदः सर्वकार्यकरणचेष्टासु कर्मसु अकर्मैव पश्यतः सम्यग्दर्शिनः तस्य सर्वकर्मसंन्यासे एव अधिकारः कर्मणः अभावदर्शनात्। न हि मृगतृष्णिकायाम् उदकबुद्ध्या पानाय प्रवृत्तः उदकाभावज्ञानेऽपि तत्रैव पानप्रयोजनाय प्रवर्तते।।यस्तु पुनः अतत्त्ववित् प्रवृत्तश्च कर्मयोगे
।।5.8 5.9।।नैव किञ्चिदित्यादेः प्रतिपाद्यमाह सन्न्यासमिति।ज्ञेयः इत्यादिनाविशुद्धात्मा इत्यादिना च स्पष्टीकृतत्वात् पुनरिति। स्पष्टं च प्रागनुक्तसङ्कल्पत्यागस्याभिधानात्।
।।5.8 5.9।।सन्न्यासं स्पष्टयति पुनः श्लोकद्वयेन।
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्। पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन्।।5.8।।
নৈব কিংচিত্করোমীতি যুক্তো মন্যেত তত্ত্ববিত্৷ পশ্যন্ শ্রৃণবন্স্পৃশঞ্জিঘ্রন্নশ্নন্গচ্ছন্স্বপন্ শ্বসন্৷৷5.8৷৷
নৈব কিংচিত্করোমীতি যুক্তো মন্যেত তত্ত্ববিত্৷ পশ্যন্ শ্রৃণবন্স্পৃশঞ্জিঘ্রন্নশ্নন্গচ্ছন্স্বপন্ শ্বসন্৷৷5.8৷৷
નૈવ કિંચિત્કરોમીતિ યુક્તો મન્યેત તત્ત્વવિત્। પશ્યન્ શ્રૃણવન્સ્પૃશઞ્જિઘ્રન્નશ્નન્ગચ્છન્સ્વપન્ શ્વસન્।।5.8।।
ਨੈਵ ਕਿਂਚਿਤ੍ਕਰੋਮੀਤਿ ਯੁਕ੍ਤੋ ਮਨ੍ਯੇਤ ਤਤ੍ਤ੍ਵਵਿਤ੍। ਪਸ਼੍ਯਨ੍ ਸ਼੍ਰਰਿਣਵਨ੍ਸ੍ਪਰਿਸ਼ਞ੍ਜਿਘ੍ਰਨ੍ਨਸ਼੍ਨਨ੍ਗਚ੍ਛਨ੍ਸ੍ਵਪਨ੍ ਸ਼੍ਵਸਨ੍।।5.8।।
ನೈವ ಕಿಂಚಿತ್ಕರೋಮೀತಿ ಯುಕ್ತೋ ಮನ್ಯೇತ ತತ್ತ್ವವಿತ್. ಪಶ್ಯನ್ ಶ್ರೃಣವನ್ಸ್ಪೃಶಞ್ಜಿಘ್ರನ್ನಶ್ನನ್ಗಚ್ಛನ್ಸ್ವಪನ್ ಶ್ವಸನ್৷৷5.8৷৷
നൈവ കിംചിത്കരോമീതി യുക്തോ മന്യേത തത്ത്വവിത്. പശ്യന് ശ്രൃണവന്സ്പൃശഞ്ജിഘ്രന്നശ്നന്ഗച്ഛന്സ്വപന് ശ്വസന്৷৷5.8৷৷
ନୈବ କିଂଚିତ୍କରୋମୀତି ଯୁକ୍ତୋ ମନ୍ଯେତ ତତ୍ତ୍ବବିତ୍| ପଶ୍ଯନ୍ ଶ୍ରୃଣବନ୍ସ୍ପୃଶଞ୍ଜିଘ୍ରନ୍ନଶ୍ନନ୍ଗଚ୍ଛନ୍ସ୍ବପନ୍ ଶ୍ବସନ୍||5.8||
naiva kiṅcitkarōmīti yuktō manyēta tattvavit. paśyan śrṛṇavanspṛśañjighrannaśnangacchansvapan śvasan৷৷5.8৷৷
நைவ கிஂசித்கரோமீதி யுக்தோ மந்யேத தத்த்வவித். பஷ்யந் ஷ்ரரிணவந்ஸ்பரிஷஞ்ஜிக்ரந்நஷ்நந்கச்சந்ஸ்வபந் ஷ்வஸந்৷৷5.8৷৷
నైవ కించిత్కరోమీతి యుక్తో మన్యేత తత్త్వవిత్. పశ్యన్ శ్రృణవన్స్పృశఞ్జిఘ్రన్నశ్నన్గచ్ఛన్స్వపన్ శ్వసన్৷৷5.8৷৷
5.9
5
9
।।5.8 -- 5.9।। तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी देखता, सुनता, छूता, सूँघता, खाता, चलता, ग्रहण करता, बोलता, मल-मूत्र का त्याग करता, सोता हुआ, श्वास लेता तथा आँखें खोलता और मूँदता हुआ भी 'सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं' -- ऐसा समझकर 'मैं (स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ' -- ऐसा माने।
।।5.9।। बोलता हुआ,  त्यागता हुआ,  ग्रहण करता हुआ  तथा आँखों को खोलता और बन्द करता हुआ (वह) निश्चयात्मक रूप से जानता है कि सब इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में विचरण कर रही हैं।।
।।5.9।। एक ज्ञानी सिद्ध पुरुष भी जगत् में औरों के समान ही कुशलतापूर्वक कर्म करते हुए रहता है न कि पाषाण की प्रतिमा के समान निष्क्रिय होकर। सर्व सामान्य और स्वाभाविक क्रियायों की एक सूची ही इन दो श्लोकों में दी हुई है जैसे देखता हुआ सुनता हुआ৷৷.आदि। भगवान् कहते हैं कि जीवन की इन अपरिहार्य क्रियायों में ज्ञानी पुरुष किसी प्रकार का कर्तृत्व अभिमान नहीं रखता।निद्रा अवस्था में अहंकार के अभाव में हमें अपनी श्वसन क्रिया का कोई भान नहीं रहता। इसी प्रकार अहंकार के नष्ट होने पर उपर्युक्त सभी क्रियाएँ अपने स्वाभाविक रूप से होती रहती हैं। परन्तु ज्ञानी पुरुष को सदा यह भान रहता है कि मैं किंचिन्मात्र कर्म नहीं करता हूँ। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि सिद्ध पुरुष उपचाररहित नींद में चलने वाला रोगी बन जाता है दोनों में मुख्य भेद यह है कि नींद में चलने वाले को किसी प्रकार का भान नहीं रहता जबकि ज्ञानी पुरुष अपने चैतन्य स्वरूप के प्रति सदा जागरूक रहता है।युक्त अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थित इस शब्द के द्वारा यह सूचित करते हैं कि अहंकार का पूर्ण त्याग करना केवल आत्मज्ञानी के लिये ही संभव हो सकता है। इस युक्तता में साधक तथा सिद्ध पुरुषों के भेद से कुछ तारतम्य होता है। जहाँ साधकगण अध्ययन श्रवण मनन आदि की सहायता से बौद्धिक स्तर पर स्वस्वरूप के प्रति सजग रहने का प्रयत्न करते हैं वहाँ सिद्ध पुरुष के लिए तो स्वस्वरूपानुभूति सदा सहज रूप में बनी ही रहती है।अत अहंकार का त्याग करने के लिए हमको आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए। जाग्रत अवस्था के अपने व्यक्तित्व का विस्मरण होने पर ही हम अपने ही बनाये स्वप्न के शिकार बन जाते हैं। स्वप्नावस्था के दुखों का अन्त तभी होगा जब हम पुन अपने जाग्रत अवस्था के स्वरूप का साक्षात्कार कर लेंगे।इसी प्रकार मैं कर्ता हूँ इस अविद्या जनित कर्तृत्व भाव की निवृत्ति आत्मस्वरूप के सम्यक् ज्ञान से ही होगी कि आत्मा अर्थात् मैं अकर्ता हूँ। इसी तथ्य को इस श्लोक में दर्शाया गया है कि ज्ञानी पुरुष जानता है कि इन्द्रियाँं अपनेअपने विषयों में विचरण करती हैं जबकि आत्मा सदा अकर्त्ता ही है।यदि समुद्र चेतन होता तो वह स्वयं में ही उत्पन्न और नष्ट होती हुई लहरों को देख सकता। आत्मस्वरूप में स्थित ज्ञानी पुरुष शरीरादि उपाधियों द्वारा किये जा रहे कर्मों को साक्षी भाव से देखता रहता है। टंकण (टाइप) करते हुए हम अपनी उँगलियों को कार्यरत देख सकते हैं और तब टाइप राइटर पर चलती उँगलियों की क्रिया एक क्रीड़ा बन जाती है। यही स्थिति है ज्ञानी पुरुष की। चिन्ता और विक्षेप से रहित हुआ आत्मानुभूति में स्थित पुरुष का यह निश्चयात्मक ज्ञान होता है कि मैं किंचिन्मात्र कर्म नहीं करता हूँ।परन्तु कर्म में ही प्रवृत्त अतत्त्ववित् पुरुष को किस प्रकार कर्म करने चाहिये भगवान् कहते हैं
5.9।। व्याख्या--'तत्त्ववित् युक्तः'--यहाँ ये पद सांख्य-योगके विवेकशील साधकके वाचक हैं, जो तत्त्ववित् महापुरुषकी तरह निर्भ्रान्त अनुभव करनेके लिये तत्पर रहता है। उसमें ऐसा विवेक जाग्रत् हो गया है कि सब क्रियाएँ प्रकृतिमें ही हो रही हैं, उन क्रियाओंका मेरे साथ कोई सम्बन्ध है ही नहीं।जो अपनेमें अर्थात् स्वरूपमें कभी किञ्चिन्मात्र भी किसी क्रियाके कर्तापनको नहीं देखता, वह 'तत्त्ववित्' है। उसमें नित्य-निरन्तर स्वाभाविक ही यह सावधानी रहती है कि स्वरूपमें कर्तापन है ही नहीं। प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिके साथ वह कभी भी अपनी एकता स्वीकार नहीं करता, इसलिये इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको वह अपनी क्रियाएँ मान ही कैसे सकता है?
।।5.7 5.11।।योगयुक्त इत्यादि आत्मसिद्धये इत्यन्तम्। सर्वभूतानामात्मभूतः आत्मा यस्य स सर्वमपि कुर्वाणो न लिप्यते अकरणप्रतिषेधारूढत्वात्। अत एव दर्शनादीनि कुर्वन्नपि असौ एवं धारयति प्रतिपत्तिदार्ढ्येन निश्चिनुते चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां यदि स्वविषयेषु प्रवृत्तिः मम किमायातम् न हि अन्यस्य कृतेनापरस्य (S अन्यस्य कृतेनान्यस्य अन्यकृतेन परस्य) लेपः इति। तदेव ब्रह्मणि कर्मणां समर्पणम्। अत्र चिह्नम् अस्य गतसङ्गता। अतो न लिप्यते। योगिनश्च केवलैः सङ्गरहितैः परस्परानपेक्षिभिश्च कायादिभिः कुर्वन्ति कर्माणि सङ्गाभावात्।
।।5.9।।एवम् आत्मतत्त्ववित् श्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि वागादीनि कर्मेन्द्रियाणि प्राणाः च स्वस्य विषयेषु वर्तन्ते इति धारयन् अनुसन्दधानो न अहं किञ्चित् करोमि इति मन्येत। ज्ञानैकस्वभावस्य मम कर्ममूलेन्द्रियप्राणसम्बन्धकृतम् ईदृशं कर्तृत्वम् न स्वरूपप्रयुक्तम् इति मन्येत इत्यर्थः।
।।5.9।।सार्धं समनन्तरश्लोकमाकाङ्क्षापूर्वकमुत्थापयति कदेत्यादिना। चक्षुरादिज्ञानेन्द्रियैर्वागादिकर्मेन्द्रियैः प्राणादिवायुभेदैरन्तःकरणचतुष्टयेन च तत्तच्चेष्टानिर्वर्तनावस्थायां तत्तदर्थेषु सर्वा प्रवृत्तिरिन्द्रियाणामेवेत्यनुसंदधानो नैव किंचित्करोमीति विद्वान्प्रतिपद्यत इत्यर्थः। यथोक्तस्य विदुषो विध्यभावेऽपि विद्यासामर्थ्यात्प्रतिपत्तिकर्मभूतं कर्मसंन्यासं फलात्मकमभिलषति यस्येति। अज्ञस्येव विदुषोऽपि कर्मसु प्रवृत्तिसंभवात्कुतः संन्यासेऽधिकारः स्यादित्याशङ्क्याह नहीति।
।।5.8 5.9।।कुर्वन्नपि न लिप्यते इत्येतद्विरुद्धमित्याशङ्क्य सर्वेन्द्रियव्यापारसत्वेऽपि कर्तृत्त्वाद्यभिमानाभावेन निर्द्वन्द्वत्वान्न विरुद्धमित्याह नैव किञ्चिदिति। मनस इन्द्रियाणां च व्यापाराःउन्मिषन्निमिषन्नपि इत्यन्तं निर्दिष्टाः। स्वविषयेषु हीमानीन्द्रियाणि प्रवर्त्तन्ते नाहमिति। साङ्ख्यवद्धारवन् न लिप्यते। तथा चोक्तं सूत्रकृतातदविगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ ब्र.सू.4।1।13 इति। कर्मभिर्न स बध्यतेइति।
।।5.9।।तत्र दर्शनश्रवणस्पर्शनघ्राणाशनानि चक्षुःश्रोत्रत्वग्घ्राणरसनानां पञ्चज्ञानेन्द्रियाणां व्यापाराःपश्यन्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्नित्युक्ताः। गतिः पादयोः प्रलापो वाचः विसर्गः पायुपस्थयोः ग्रहणं हस्तयोरिति पञ्च कर्मेन्द्रियव्यापाराः गच्छन्प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नित्युक्ताः। श्वसन्निति प्राणादिपञ्चकस्य व्यापारोपलक्षणम्। उन्मिषन्निमिषन्निति नागकूर्मादिपञ्चकस्य। स्वपन्नित्यन्तःकरणचतुष्टस्य। अर्थक्रमवशात्पाठक्रमं भंक्त्वा व्याख्याताविमौ श्लोकौ। यस्मात्सर्वव्यापारेष्वप्यात्मनोऽकर्तृत्वमेव पश्यति अतः कुर्वन्नपि न लिप्यत इति युक्तमेवोक्तमिति भावः।
।।5.8 5.9।। कर्म कुर्वन्नपि न लिप्यत इत्येतद्विरुद्धमित्याशङ्क्य कर्तृत्वाभिमानाभावान्न विरुद्धमित्याह नैवेति द्वाभ्याम्।कर्मयोगेन युक्तः क्रमेण तत्त्वविद्भूत्वा दर्शनश्रवणादीनि कुर्वन्नपि इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्बुद्ध्या निश्चित्य किंचिदप्यहं न करोमीति मन्येत मन्यते। तत्र दर्शनश्रवणस्पर्शनावघ्राणाशनानि चक्षुरादिज्ञानेन्द्रियव्यापाराः गतिः पादयोः स्वापो बुद्धेः श्वासः प्राणस्य प्रलपनं वागिन्द्रियस्य विसर्गः पायूपस्थयोः ग्रहणं हस्तयोः उन्मेषणनिमेषणे कूर्माख्यप्राणस्येति विवेकः। एतानि कर्माणि कुर्वन्नप्यनभिमानाद्ब्रह्मविन्न लिप्यते। तथाच पारमर्षं सूत्रं तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात इति।
8 5.9।।एवमर्जुनस्य परिपृच्छतः साक्षात्प्रश्नस्योत्तरमुक्तम् अथ तदाशयविदो भगवत आभिप्रायिकं वाक्यमुत्तरसङ्गत्यर्थं दर्शयति यत इति। युक्तोऽत्र योगनिष्ठः तत्त्ववित् तदन्तर्गतात्मतत्त्वविज्ञानवान्। तदाह एवमात्मतत्त्वविदिति।पश्यन् श्रृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अश्नन् इति चक्षुश्श्रोत्रत्वरघ्राणजिह्वाख्यज्ञानेन्द्रियव्यापाराः।गच्छन् प्रलपन् विसृजन् गृह्णन् इति पादादिकर्मेन्द्रियव्यापाराः। तत्रविसृजन् इति पायूपस्थव्यापारसङ्ग्रहः। उक्तं चपायूपस्थे विसर्गार्थमिन्द्रिये तुल्यकर्मणी। विसर्गे च पुरीषस्य विसर्गे चाभिकामतः इति।स्वपन् श्वसन् उन्मिषन् निमिषन् इति तुप्राणव्यापाराः। स्वापस्य तमोवृत्तित्वेऽपि प्राणाधीनत्वं सिद्धम्।उन्मिषन् निमिषन् इति तु व्यानाख्यप्राणव्यापारः।श्वसन् इति तु प्राणसंज्ञकप्राणविशेषव्यापारः।गृह्णन् इति पाणिव्यापारपरोऽपि अपानव्यापारस्यापि तन्त्रेण ग्राहकः। तदपानेनाजिघृक्षत्तदावयत्स य एषोऽन्नस्य ग्रहो यद्वायुः ऐ.उ.3।10 इति। एवं विभागज्ञापनाय श्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि वागादीनि च कर्मेन्द्रियाणि प्राणाश्चेत्युक्तम्। इन्द्रियशब्दोऽत्र सर्वेन्द्रियप्रवृत्त्यादिहेतुतया प्राणसंवादादिषु प्रसिद्ध मुख्यप्राणमजहल्लक्षणया लक्षयतीति तात्पर्यम्।इन्द्रियार्थेषु इत्येतदपि तथैव लक्षकमिति व्यञ्जनायस्वविषयेष्वित्युक्तम्। नन्विन्द्रियप्राणेष्वर्कर्तृषु कर्तृत्वाध्यासः स्वस्याकर्तृत्वबुद्धिश्च भ्रान्तिरेव स्यात् आत्मन एव कर्तृत्वस्यकर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् ब्र.सू.2।3।33 इत्यादिभिःस्थापितत्वादित्यत्राहज्ञानैकस्वभावस्येति। कर्मणां मिथ्यात्वानुसन्धानमिह परोक्तमयुक्तम्इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इत्यस्याप्यननुसन्धेयत्वप्रसङ्गात्। मुक्तस्य स्वेच्छागृहीतेन्द्रियादिव्यवच्छेदायोपाधीनामप्यौपाधिकत्वव्यञ्जनाय चकर्ममूलशब्दः।ईदृशमिति पुण्यपापरूपमित्यर्थः। अत्रतत्त्ववित् इति निरुपाधिकस्वरूपपरत्वात्कार्यकारण 13।20 इत्यादाविव न चिदचिद्व्यापारविभागोक्तिः।
।। 5.9 ननु नियतफलस्य कर्मणः कृतस्य कथं न फलं इत्याशङ्क्याह नैव किञ्चिदित्यादित्रयेण। तत्त्ववित् भगवदिङ्गितज्ञः युक्तः मद्भावयुक्तः सन्नैव किञ्चित्करोमि अहं किञ्चिदपि न करोमि किन्तु भगवदिच्छया तदाज्ञया यथा स कारयति तथा वारिवशात्तृणादिचलनवत् कर्म किमपि मत्तो न भवति न त्वहं करोमि इति यो मन्येत स पापेन कर्मजफलेन न लिप्यते। एवंरूपस्य स्थितिमाह पश्यन्निति। भावात्मकेन मनसा स्थिरीकृतालौकिकेन्द्रियैश्चक्षुःप्रभृतिभिः पश्यन् भगवत्स्वरूपदर्शनं कुर्वन् शृण्वन् भगवत्कूजितवेण्वादिशब्दान् स्पृशन् भगवच्चरणारविन्दस्पर्श कुर्वन् जिघ्रन् भगवन्मुखामोदाद्याघ्राणं कुर्वन् अश्रन्৷৷. गच्छन् गोचारणादिलीलायां सङ्गे गच्छन् स्वपन् लीलादिसमये नेत्रमुद्रणं कुर्वन् श्वसन् विप्रयोगादिना श्वासविमोकं कुर्वन् प्रलपन् तद्भावेन मत्तावस्थायां भ्रमरवद्गानं कुर्वन् विसृजन् तदवस्थायामेव दूरे यच्छन् गृह्णन् तदवस्थयैवालिङ्गनादि चरणेषु कुर्वन् उन्मिषन् मत्तावस्थात्यागेन स्वरूपानुभवं कुर्वन् निमिषन् तत्सुखानुभवेन नेत्रनिमीलनं कुर्वन् इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेषु भगवदवयवेषु वर्तन्त इति धारयन्।
।।5.8 5.9।।न लिप्यत इत्येतदुपपादयति नैवेति द्वाभ्याम्। तत्त्ववित् अहं नैव किंचित्करोमीति मन्येत मन्यते। तत्र हेतुः। इन्द्रियाणि उपलक्षणमिदं प्राणादेरपि। इन्द्रियादय इन्द्रियार्थेषु स्वेषु विषयेषु वर्तन्ते इति धारयन्निश्चिन्वन्नत्वहं विषयेषु वर्ते इति मन्यते। धारयन्निति हेतौ शतृप्रत्ययः। अत्र दर्शनादयः पञ्चज्ञानेन्द्रियाणां व्यापाराः। गमनविसर्गप्रलपनग्रहणानि कर्मेन्द्रियाणाम्। तानिच आनन्दस्योपलक्षणानि। श्वसन्निति प्राणस्य स्वपन्निति बुद्धेः उन्मेषणनिमेषणे कूर्माख्यप्राणस्येति विभागः। क्रमस्त्वविवक्षितः। एतानि कुर्वन्नप्यभिमानाभावान्नलिप्यत इत्यर्थः।
।।5.8 5.9।। कुर्वन्नपि कुतो न लिप्यत इत्याशङ्क्य यतोऽसौ परमार्थतो न करोतीत्याह द्वाभ्याम् नैवेति। युक्तः समाहितः सन्नादौ कर्मयोगयुक्त इति वाऽयं पक्षोऽध्याहारसापेक्षत्वादाचार्यैरुपेक्षितिः। तत्त्ववित्परमार्थदर्शी नैव किंचित्करोमीति मन्येत मन्यते। कदेत्यपेक्षायामाह पश्यन्नित्यादि। अपेः सर्वत्र संबन्धः। पश्यन्नित्यादिज्ञानेन्द्रियाणां व्यापारान् गच्छन्निति पादयोर्व्यापारं स्वपन्निति बुद्धेः श्वसन्निति प्राणस्य प्रलपन्निति वाचः विसृजन्निति पायूपस्थयोः गृह्णन्निति हस्तयोः उन्मिषन्निमिषन्निति कूर्माख्यप्राणस्य कुर्वन्नपीन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते नाहमसङ्ग आत्मेति धारयन् बुद्य्धा निश्चयं कुर्वन् किंचित्सरोमीति तत्त्वविन्मन्यतेऽतो न लिप्यत इत्यर्थः। यद्वानन्वेवं कर्तृत्वाभिमानशून्य इन्द्रियैः प्रतिषिद्धमपि कुर्यादित्यत आह इन्द्रियाणीति। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेष्विष्टेषु विषयेषु वर्तन्त इति हेतोरन्याय्यमपि कुर्युरित्य इन्द्रियाणि धारयन्त्त्स्वायत्तानि यथेष्टसंचारपराङ्भुखानि कुर्वन्निति। अस्मिन्पक्षे प्रकरणविरोधोऽनुषक्लेशश्च परिहर्तव्यः।
5.9 प्रलपन् speaking? विसृजन् letting go? गृह्णन् seizing? उन्मिषन् opening (the eyes)? निमिषन् closing (the eyes)? अपि also? इन्द्रियाणि the senses? इन्द्रियार्थेषु amongst the senseobjects? वर्तन्ते move? इति thus? धारयन् being convinced.Commentary The liberated sage or a Jnani always remains as a witness of the activities of the senses as he identifies himself with the Self or Brahman. He thinks and says? I do not see the eyes perceive. I do not hear the ears hear. I do not smell? the nose smells? etc. He beholds,inaction in action as he has burnt his actions in the fire of wisdom. (Cf.XIV.1923)
5.9 Speaking, letting go, seizing, opening and closing the eyes convinced that the senses move among the sense-objects.
5.9 Though he talks, though he gives and receives, though he opens his eyes and shuts them, he still knows that his senses are merely disporting themselves among the objects of perception.
5.8-5.9 Remaining absorbed in the Self, the knower of Reality should think, 'I certainly do not do anything', even while seeing, hearing, touching, smelling, eating, moving, sleeping, breathing, speaking, releasing, holding, opening and closing the eyes-remembering that the organs function in relation to the objects of the organs.
5.9 Yuktah, remaining absorbed in the Self; tattva-vit, the knower of Reality-knower of the real nature of Truth, of the Self, i.e., the seer of the supreme Reality; manyeta, should think; 'na karomi eva, I certainly do not do; kincit, anything.' Having realized the Truth, when or how should he think? This is being answered; Api, even; pasyan, while seeing; srnvan, hearing; sprsan, touching; jighran, smelling; asnan, eating; gacchan, moving; svapan, sleeping; svasan, breathing; pralapan, speaking; visrjan, releasing; grhnan, holding; unmisan, opening; nimisan, closing the eyes. All these are to be connected with the above manyeta (should think). For the man who has known the Truth thus, who finds nothing but inaction in action-in all the movements of the body and organs-, and who has full realization, there is competence only for giving up all actions because of his realization of the nonexistence of actions. Indeed, one who proceeds to drink water in a mirage thinking that water is there, surely does not go there itself for drinking water even after knowing that no water exists there!
5.9. Taking, rejecting, receiving, opening and closing the eyes, bears in mind that the sense-organs are on their respective objects; and
5.9 See Comment under 5.11
5.8 - 5.9 Thus he who knows the truth concerning the self should reflect in mind that the ear and the other organs of sensation (Jnanendriyas) as also organs of action (Karmendriyas) and the vital currents (the Pranas) are occupied with their own respective objects. Thus he should know, 'I do not do anything at all.' He should reflect, 'My intrinsic nature is one of knowledge. The sense of agency comes because of the association of the self with the senses and the Pranas which are rooted in Karma. It does not spring from my essential nature.'
5.9 Speaking, discharging, grasping, opening, closing his eyes etc. He should always bear in mind that the senses operate among sense-objects.
।।5.9।।तत्त्वको समझकर कब और किस प्रकार ऐसे माने सो कहते हैं ( देखता सुनता छूता सूँघता खाता चलता सोता श्वास लेता बोलता त्याग करता ग्रहण करता तथा आँखोंको खोलता और मूँदता हुआ भी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयमें बर्त रही हैं ऐसे समझकर ) ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता। इस प्रकार इसका पहलेके आधे श्लोकसे सम्बन्ध है। जो इस प्रकार तत्त्वज्ञानी है अर्थात् सब इन्द्रियाँ और अन्तःकरणोंकी चेष्टारूप कर्मोंमें अकर्म देखनेवाला है वह अपनेमें कर्मोंका अभाव देखता है इसलिये उस यथार्थ ज्ञानीका सर्वकर्मसंन्यासमें ही अधिकार है। क्योंकि मृगतृष्णिकामें जल समझकर उसको पीनेके लिये प्रवृत्त हुआ मनुष्य उसमें जलके अभावका ज्ञान हो जानेपर फिर भी वही जल पीनेके लिये प्रवृत्त नहीं होता।
।।5.8 5.9।। नैव किञ्चित् करोमीति युक्तः समाहितः सन् मन्येत चिन्तयेत् तत्त्ववित् आत्मनो याथात्म्यं तत्त्वं वेत्तीति तत्त्ववित् परमार्थदर्शीत्यर्थः।।कदा कथं वा तत्त्वमवधारयन् मन्येत इति उच्यते पश्यन्निति। मन्येत इति पूर्वेण संबन्धः। यस्य एवं तत्त्वविदः सर्वकार्यकरणचेष्टासु कर्मसु अकर्मैव पश्यतः सम्यग्दर्शिनः तस्य सर्वकर्मसंन्यासे एव अधिकारः कर्मणः अभावदर्शनात्। न हि मृगतृष्णिकायाम् उदकबुद्ध्या पानाय प्रवृत्तः उदकाभावज्ञानेऽपि तत्रैव पानप्रयोजनाय प्रवर्तते।।यस्तु पुनः अतत्त्ववित् प्रवृत्तश्च कर्मयोगे
।।5.8 5.9।।नैव किञ्चिदित्यादेः प्रतिपाद्यमाह सन्न्यासमिति।ज्ञेयः इत्यादिनाविशुद्धात्मा इत्यादिना च स्पष्टीकृतत्वात् पुनरिति। स्पष्टं च प्रागनुक्तसङ्कल्पत्यागस्याभिधानात्।
।।5.8 5.9।।सन्न्यासं स्पष्टयति पुनः श्लोकद्वयेन।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।5.9।।
প্রলপন্বিসৃজন্গৃহ্ণন্নুন্মিষন্নিমিষন্নপি৷ ইন্দ্রিযাণীন্দ্রিযার্থেষু বর্তন্ত ইতি ধারযন্৷৷5.9৷৷
প্রলপন্বিসৃজন্গৃহ্ণন্নুন্মিষন্নিমিষন্নপি৷ ইন্দ্রিযাণীন্দ্রিযার্থেষু বর্তন্ত ইতি ধারযন্৷৷5.9৷৷
પ્રલપન્વિસૃજન્ગૃહ્ણન્નુન્મિષન્નિમિષન્નપિ। ઇન્દ્રિયાણીન્દ્રિયાર્થેષુ વર્તન્ત ઇતિ ધારયન્।।5.9।।
ਪ੍ਰਲਪਨ੍ਵਿਸਰਿਜਨ੍ਗਰਿਹ੍ਣਨ੍ਨੁਨ੍ਮਿਸ਼ਨ੍ਨਿਮਿਸ਼ਨ੍ਨਪਿ। ਇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਾਣੀਨ੍ਦ੍ਰਿਯਾਰ੍ਥੇਸ਼ੁ ਵਰ੍ਤਨ੍ਤ ਇਤਿ ਧਾਰਯਨ੍।।5.9।।
ಪ್ರಲಪನ್ವಿಸೃಜನ್ಗೃಹ್ಣನ್ನುನ್ಮಿಷನ್ನಿಮಿಷನ್ನಪಿ. ಇನ್ದ್ರಿಯಾಣೀನ್ದ್ರಿಯಾರ್ಥೇಷು ವರ್ತನ್ತ ಇತಿ ಧಾರಯನ್৷৷5.9৷৷
പ്രലപന്വിസൃജന്ഗൃഹ്ണന്നുന്മിഷന്നിമിഷന്നപി. ഇന്ദ്രിയാണീന്ദ്രിയാര്ഥേഷു വര്തന്ത ഇതി ധാരയന്৷৷5.9৷৷
ପ୍ରଲପନ୍ବିସୃଜନ୍ଗୃହ୍ଣନ୍ନୁନ୍ମିଷନ୍ନିମିଷନ୍ନପି| ଇନ୍ଦ୍ରିଯାଣୀନ୍ଦ୍ରିଯାର୍ଥେଷୁ ବର୍ତନ୍ତ ଇତି ଧାରଯନ୍||5.9||
pralapanvisṛjangṛhṇannunmiṣannimiṣannapi. indriyāṇīndriyārthēṣu vartanta iti dhārayan৷৷5.9৷৷
ப்ரலபந்விஸரிஜந்கரிஹ்ணந்நுந்மிஷந்நிமிஷந்நபி. இந்த்ரியாணீந்த்ரியார்தேஷு வர்தந்த இதி தாரயந்৷৷5.9৷৷
ప్రలపన్విసృజన్గృహ్ణన్నున్మిషన్నిమిషన్నపి. ఇన్ద్రియాణీన్ద్రియార్థేషు వర్తన్త ఇతి ధారయన్৷৷5.9৷৷
5.10
5
10
।।5.10।। जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान् में अर्पण करके और आसक्तिका त्याग करके कर्म करता है, वह जलसे कमलके पत्तेकी तरह पापसे लिप्त नहीं होता।
।।5.10।। जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है,  वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता।।
।।5.10।। दो पूर्ववर्ती श्लोकों में वर्णित ज्ञान ब्रह्म स्वरूप में रमे हुए तत्त्ववित् पुरुषों के लिये सत्य हो सकता है परन्तु निरहंकार और अनासक्ति का जीवन सर्व सामान्य जनों के लिये सुलभ नहीं होता। पूर्णत्व के साधकों को यही कठिनाई आती है। जो साधकगण गीता ज्ञान को जीना चाहते हैं और न कि तत्प्रतिपादित सिद्धान्तों की केवल चर्चा करना उनकी यही समस्या होती है कि किस प्रकार वे अहंकार का त्याग करें। इस समस्या का निराकरण विचाराधीन श्लोक में किया गया है जिसके द्वारा कोई भी अनासक्त जीवन व्यतीत कर सकता है। ब्रह्म में अर्पण करके मन का पूर्णतया अनासक्त होना असंभव है और यही तथ्य साधक लोग नहीं जानते। जब तक मन का अस्तित्त्व रहेगा तब तक वह किसीनकिसी वस्तु के साथ आसक्त रहेगा। इसलिये परमार्थ सत्य को पहचान कर उसके साथ तादात्म्य रखने का प्रयत्न करना ही मिथ्या वस्तुओं के साथ की आसक्ति को त्यागने का एकमात्र उपाय है। इस मनोवैज्ञानिक सत्य को दर्शाते हुए भगवान् उपदेश देते हैं कि सभी साधकों को ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने चाहिये। किसी आदर्श के निरन्तर स्मरण का अर्थ है मनुष्य का तत्स्वरूप ही बन जाना। जैसे अज्ञानदशा में हमें अहंकार का अखण्ड स्मरण बना रहता है वैसे ही ईश्वर का निरन्तर स्मरण रहने पर अहंकार का त्याग संभव हो सकता है। ईश्वर के अखण्ड चिन्तन से हम जीवभाव से ऊपर उठकर ईश्वर के साथ एकत्व का अनुभव कर सकते हैं।संक्षेप में आज हम जीवभाव में स्थित आत्मा हैं गीता का आह्वान है कि हम आत्मभाव में स्थित जीव बन जायें।एक बार अपने शुद्ध स्वरूप की पहचान हो जाने पर शरीर मन और बुद्धि के द्वारा किये गये कर्म किसी प्रकार की वासना उत्पन्न नहीं कर सकते। पाप और पुण्य कर्तृत्वाभिमानी जीव के लिये हैं आत्मा के लिये कदापि नहीं। दर्पण के कारण दिखाई दे रहे मेरे प्रतिबिम्ब की कुरूपता मेरी नहीं कही जा सकती। प्रतिबिम्ब का विकृत होना दर्पण की सतह के उत्तल या अवतल होने पर निर्भर करता है। इसी प्रकार पाप और पुण्य का बन्धन जीव को ही स्वकर्मानुसार होता है।आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ज्ञानी पुरुष देहादि उपाधियों के साथ विषयों के मध्य उसी प्रकार रहता है जैसे कमल का पत्ता जल में। यद्यपि कमल की उत्पत्ति पोषण स्थिति और नाश भी जल में ही होता है तथापि कमल पत्र जल से सदा अस्पर्शित रहता है। जल उसे गीला नहीं कर पाता। उसी प्रकार ही एक ज्ञानी सन्त पुरुष अन्य मनुष्यों के समान जगत् में निवास करता हुआ समस्त व्यवहार करता है और फिर भी पाप पुण्य रागद्वेष सुन्दरता कुरूपता आदि से कभी भी लिप्त नहीं होता।सामान्य कर्म को कर्मयोग में परिवर्तित करने के दो उपाय हैं (1) कर्तृत्व का त्याग और (2) फलासक्ति का त्याग। यहां प्रथम उपाय का वर्णन किया गया है। यह कोई अपरिचित नवीन या विचित्र सिद्धांत नहीं है। इसका हमें अपने जीवन में अनेक अवसरों पर अनुभव भी होता है। एक चिकित्सक आसक्ति के कारण अपनी पत्नी की शल्य क्रिया (आपरेशन) करने में स्वयं को असमर्थ पाता है परन्तु वही चिकित्सक उसी दिन उसी शल्य क्रिया को किसी अन्य रोगी पर कुशलतापूर्वक कर सकता है क्योंकि उस रोगी के साथ उसकी कोई आसक्ति नहीं होती।यदि मनुष्य स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि अथवा सेवक समझकर कार्य करे तो वह स्वयं में ही उस प्रचण्ड सार्मथ्य एवं कार्यकुशलता को पायेगा जिन्हें वह वर्तमान में कर्तृत्वाभिमान के कारण व्यर्थ में खोये दे रहा है।इसलिये
5.10।। व्याख्या--'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि'--शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब भगवान्के ही हैं, अपने हैं ही नहीं; अतः इनके द्वारा होनेवाली क्रियाओँको भक्तियोगी अपनी कैसे मान सकता है? इसलिये उसका यह भाव रहता है कि मात्र क्रियाएँ भगवान्के द्वारा ही हो रही हैं और भगवान्के लिये ही हो रही हैं; मैं तो निमित्तमात्र हूँ।भगवान् ही अपनी इन्द्रियोंके द्वारा आप ही सम्पूर्ण क्रियाएँ करते हैं--इस बातको ठीक-ठीक धारण करके सम्पूर्ण क्रियाओंके कर्तापनको भगवान्में ही मानना, यही उपर्युक्त पदोंका अर्थ है।शरीरादि वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं, प्रत्युत मिली हुई हैं और बिछुड़ रही हैं। ये केवल भगवान्के नाते, भगवत्प्रीत्यर्थ दूसरोंकी सेवा करनेके लिये मिली हैं। इन वस्तुओँपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है अर्थात् इनको अपने इच्छानुसार न तो रख सकते हैं, न बदल सकते हैं और न मरनेपर साथ ही ले जा सकते हैं। इसलिये इन शरीरादिको तथा इनसे होनेवाली क्रियाओँको अपनी मानना ईमानदारी नहीं है। अतः मनुष्यको ईमानदारीके साथ जिसकी ये वस्तुएँ हैं ,उसीकी अर्थात् भगवान्की मान लेनी चाहिये।सम्पूर्ण क्रियाओँ और पदार्थोंको कर्मयोगी 'संसार' के, ज्ञानयोगी 'प्रकृति' के और भक्तियोगी 'भगवान्' के अर्पण करता है। प्रकृति और संसार--दोनोंके ही स्वामी भगवान् हैं। अतः क्रियाओँ और पदार्थोंको भगवान्के अर्पण करना ही श्रेष्ठ है।
।।5.7 5.11।।योगयुक्त इत्यादि आत्मसिद्धये इत्यन्तम्। सर्वभूतानामात्मभूतः आत्मा यस्य स सर्वमपि कुर्वाणो न लिप्यते अकरणप्रतिषेधारूढत्वात्। अत एव दर्शनादीनि कुर्वन्नपि असौ एवं धारयति प्रतिपत्तिदार्ढ्येन निश्चिनुते चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां यदि स्वविषयेषु प्रवृत्तिः मम किमायातम् न हि अन्यस्यकृतेनापरस्य (S अन्यस्य कृतेनान्यस्य अन्यकृतेन परस्य) लेपः इति। तदेव ब्रह्मणि कर्मणां समर्पणम्। अत्र चिह्नम् अस्य गतसङ्गता। अतो न लिप्यते। योगिनश्च केवलैः सङ्गरहितैः परस्परानपेक्षिभिश्च कायादिभिः कुर्वन्ति कर्माणि सङ्गाभावात्।
।।5.10।।ब्रह्मशब्देन प्रकृतिः इह उच्यतेमम योनिर्महद्ब्रह्म (गीता 14।3) इति हि वक्ष्यते। इन्द्रियाणां प्रकृतिपरिणामविशेषरूपत्वेन इन्द्रियाकारेण अवस्थितायां प्रकृतौपश्यन् श्रृण्वन् इत्यादिना उक्तप्रकारेण कर्मणि आधाय फलसङ्गं त्यक्त्वानैव किञ्चित् करोमि इति यः कर्माणि करोति स प्रकृतिसंसृष्टतया वर्तमानः अपि प्रकृत्यात्माभिमानरूपेण सम्बन्धहेतुना पापेन न लिप्यते पद्मपत्रमिवाम्भसा यथा पद्मपत्रम् अम्भसा संसृष्टम् अपि न लिप्यते तथा न लिप्यते इत्यर्थः।
।।5.10।।तर्हि विद्वानिवाविद्वानपि कर्मणि न प्रवर्तेत पापोपहतिसंभवादित्याशङ्क्याह यस्त्विति। यथा भृत्यः स्वाम्यर्थं कर्माणि करोति न स्वफलमपेक्षते तथैव यो विद्वान्मोक्षेऽपि सङ्गं त्यक्त्वा भगवदर्थमेव सर्वाणि कर्माणि करोति न स स्वकर्मणा बध्यते। नहि पद्मपत्रमम्भसा संबध्यते तद्वदित्यर्थः।
।।5.10।।न चायं मुनिः केवलं साङ्ख्यमार्गीयः कर्मसन्न्यासाभावात् किन्तु योगमार्गीयस्तत्त्ववित् कर्मकरणादिति विवेचयति ब्रह्मणीति। अत्र ब्रह्मपदं ब्रह्मयज्ञविषयबोधकं तत्रैव च कर्माणि स्वेनैव क्रियमाणानि अनुसन्धायेति क्रियाद्वैतभाव उक्तः। कर्मसु च सङ्गं फलाभिसन्धिं ममतां च त्यक्त्वा यो योगी करोति स तदधिगतः ब्रह्मवित् जीवन्मुक्तः पापेनाकरणप्रत्यवायेन नाश्लिष्टो भवति पद्मपत्रमिवाम्भसा।
।।5.10।।तर्ह्यविद्वान्कर्तृत्वाभिमानाल्लिप्येतैव तथाच कथं तस्य संन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठा स्यादिति तत्राह ब्रह्मणि परमेश्वरे आधाय समर्प्य सङ्गं फलाभिलाषं त्यक्त्वेश्वरार्थं भृत्यइव स्वाम्यर्थं स्वफलनिरपेक्षतया करोमीत्यभिप्रायेण कर्माणि लौकिकानि वैदिकानि च करोति यो लिप्यते न स पापेन पापपुण्यात्मकेन कर्मणेति यावत्। यथा पद्मपत्रमुपरि प्रक्षिप्तेनाम्भसा न लिप्यते तद्वद्भगवदर्पणबुद्ध्यानुष्ठितं कर्म बुद्धिशुद्धिफलमेव स्यात्।
।।5.10।।तर्हि यस्य करोमीत्यभिमानोऽस्ति तस्य कर्मलेपो दुर्वारः अविशुद्धचित्तत्वात्संन्यासोऽपि नास्तीति महत्संकटमापन्नमित्याशङ्क्याह ब्रह्मणीति। ब्रह्मण्याधाय परमेश्वरे समर्प्य तत्फले च सङ्गं त्यक्त्वा यः कर्माणि करोति असौ पापेन बन्धहेतुतया पापिष्ठेन पुण्यपापात्मकेन कर्मणा न लिप्यते। यथा पद्मपत्रमम्भसि स्थितमप्यम्भसा न लिप्यते तद्वत्।
।।5.10।।नन्वेवं फलाभिसन्धिपूर्वकेऽपि कर्मणि क्रियमाणेनैव किञ्चित्करोमि इति भावनया तत्करणेऽपि न दोषः स्यात् यदि च परमार्थतः स्वस्यैव कर्तृत्वं किं तस्योपाधिकत्वानुसन्धानेन प्रयोजनम् तथानुसन्धानेऽपि प्रकृतिसंसर्ग एवैनं देहात्मभ्रमे निमज्जयेदिति शङ्का निराक्रियतेब्रह्मणि इति श्लोकेन। न तावदत्र ब्रह्मशब्देन जीव उच्यते तत्कर्तृत्वतिरस्कारप्रकरणत्वात्। नापि परं ब्रह्म औपाधिकत्वप्रतिपादनप्रकरणे तदनपेक्षणात् अनन्तरं चसर्वकर्माणि मनसा 5।13़ इति श्लोकेन देहकर्तृत्वाभिसन्धानाभिधानात्। अतः पूर्वोक्तस्यार्थस्य आकाङ्क्षितफलनिर्देशपरत्वोपपत्तेः ब्रह्मशब्दोऽत्रेन्द्रियाकारपरिणतप्रकृतिगोचरः। भवति हि प्रकृतिकार्येऽपि ब्रह्मशब्दप्रयोगः तस्मादेतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं जायते मुं.उ.1।1।9 इति। तदेतदखिलमभिप्रेत्याह ब्रह्मशब्देनेति। ब्रह्मशब्दस्य प्रकृतौ प्रयोगं भगवद्गीतायामेवोदाहरति मम योनिरिति। भवतु प्रकृतौ ब्रह्मशब्दः प्रस्तुतस्य किमायातं इति शङ्कायां पूर्वश्लोकार्थन्यायाभ्यामुपबृंहितं वाक्यार्थमाह इन्द्रियाणामिति। ननु बृहत्त्वगुणात्प्रयोगबलाच्च मूलप्रकृतिर्ब्रह्मशब्देनोच्यताम् तत्र दर्शनश्रवणादिकर्तृत्वानुसन्धानमशक्यम् मूलप्रकृतिरूपे तद्धेतुत्वाभावादिति शङ्कानिराकरणायअवस्थितायामित्यन्तमुक्तम्। औपचारिकोऽपि कारणविषयः प्रयोगो द्रव्यैक्यात्कार्यमपि गोचरयेदिति भावः।कर्माणीति बहुवचनं पूर्वोक्तवैविध्यपरमिति प्रदर्शनायोक्तंपश्यउच्छृण्वन्नित्याद्युक्तप्रकारेणेति।यः करोति इत्यात्मन्येव कर्तृत्वनिर्देशात्तदौपाधिकत्वस्मारणाय पूर्वोक्तमाकृष्टंनैव किञ्चित्करोमीति। पापशब्दोत्र देहात्मभ्रमविषयःयोऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चोरेणात्मापहारिणा म.भा.1।74।27 इत्यादिषु चात्मान्यथाज्ञानस्य पापत्वं प्रसिद्धम् आत्मनोऽकर्तृत्वानुसन्धानप्रकरणे तन्निवृत्तिरेव वक्तुमुचितेत्यभिप्रायेणप्रकृत्यात्माभिमानरूपेणेत्युक्तम्।बन्धहेतुनेति। तत्र पापलक्षणद्योतनम्। अलौकिकमनिष्टफलासाधारणकारणं हि पापम्। प्रयुक्तश्च पापशब्दोऽनेकेष्वर्थेषु यथा न सुकृतं न दुष्कृतं सर्वे पाप्मानोऽतो निवर्तन्ते छां.उ.8।4।1 इति। ननु पद्मपत्रमम्भसा संस्पृष्टं कथमत्र दृष्टान्तः इत्यत्राह यथेति। न संसर्गमात्रनिषेधायात्र दृष्टान्तः किन्तु यथा पद्मपत्रस्य जन्मस्थित्यादिकंसर्वमम्भस्येव तथापि न तत्कार्यक्लेशादिः तद्वत् प्रकृत्यधीनभोगस्थित्यादेरस्य तत्कार्यदेहात्मभ्रमादिर्न स्यादिति भावः।
।।5.10।।ब्रह्मणि पुरुषोत्तमे सङ्गं आधाय संयोगावस्थायां स्थित्वा सङ्गं त्यक्त्वा वा विप्रयोगावस्थायां स्थित्वा कर्माण्यपि यः करोति स तेन न लिप्यते। तत्र दृष्टान्तमाह पद्मपत्रमिवेति। अम्भसा पद्मपत्रमिव। जले तिष्ठन्नपि तद्यथा न लिप्तं भवति तथेत्यर्थः।
।।5.10।।ब्रह्मणीति। यतो विद्वानसङ्गत्वात्कुर्वन्नपि न लिप्यते तस्मादविद्वानपि ब्रह्मणि सर्वान्तर्यामिणि कर्माण्याधाय अयमेव कारयिता नत्वहं कर्तेति समर्प्य यः कर्माणि करोति सः पापेन न लिप्यतेऽम्भसा पद्मपत्रमिव।
।।5.10।।एवं तत्त्वविदो लौकिककर्मणा मुधा चेष्टामात्रेण लेपो नास्तीत्युक्तं इदानीमतत्त्वविविदो मुमुक्षोः का गतिरित्यपेक्षायामाह ब्रह्मणीति। ब्रह्मणि परमेश्वरे भृत्यइव स्वामिने तदर्थं करोमीति समर्प्य मोक्षेऽपि फले सङ्गं त्यक्त्वा यः सर्वाणि कर्माणि करोति सोऽम्भसा पद्मपत्रमिव पापेन न संबध्यते। मुमुक्षुं प्रति पुण्यस्यापि प्रतिबन्धकत्वात्पापेनेत्युक्तं इतरे तु विद्वत्परत्वेनैवं श्लोकं योजयन्ति। तथाहि तत्त्वविदो यो लोपः स किंस्वाभाविकेन्द्रियशरीरचेष्टाजन्य उत वैधेन्द्रियादिचेष्टाजन्यः। आद्यंप्रति द्वाभ्यामुक्त्वा द्वितीयं प्रत्याह ब्रह्मणीति। स किंवा तत्तत्कर्मजन्यसुकृतापूर्वलक्षणः किंवातत्तत्कर्मोपयोग्यर्थप्रतिग्रहादिजन्यदुरितापूर्वलक्षणः। नाद्य प्रत्याह ब्रह्मणीत्यादि। ब्रह्मार्पणबुद्य्धा क्रियमाणेषु कर्मसु नापूर्वोत्पत्तिरिति भावः। न द्वितीय इत्याह सङगंत्यक्त्वेति। सङ्गमैहिकधनादिफलासङगं ततश्च न दुरितापूर्वोत्पत्तिरिति भावः। तद्विचार्यम्। बह्यार्पणबुद्य्धा कर्मकरणेऽतत्त्वविदो मुमुक्षोरेवाधिकारादन्यथानन्तरश्लोकेनासंगत्यापत्तेः। ननु कानि चेदृशानि कर्माणि यानि धनार्जनतया विनानुष्ठातुं शक्यानि सन्ति सत्त्वविशुद्धये भवन्तीत्याशङ्कां परिहरन् कर्मयोगानुष्ठाने शिष्टाचारं प्रमाणयति कायेनेतीति स्वपरग्रन्थविरोधाच्च। अवशिष्टं तु भाष्यानुरोधेनोपादेयं मोक्षफले सर्वफलानामन्तर्भावेन तदासक्तिवारणेन भाष्यकारैः सर्वफलासक्तेर्वारितत्वात्।
5.10 ब्रह्मणि in Brahman? आधाय having placed? कर्माणि actions? सङ्गम् attachment? त्यक्त्वा having abandoned? करोति acts? यः who? लिप्यते is tainted? न not? सः he? पापेन by sin? पद्मपत्रम् lotusleaf? इव like? अम्भसा by water.Commentary Chapter IV verses 18? 20? 21? 22? 23? 37? 41 Chapter V verses 10? 11 and 12 all convey the one idea that the Yogi who does actions without egoism and attachment to results or fruits of the actions? which he regards as offerings unto the Lord? is not tainted by the actions (Karma). He has no attachment even for Moksha. He sees inaction in action. All his actions are burnt in the fire of wisdom. He escapes from the wheel of Samsara. He is freed from the round of births and deaths. He gets purity of heart and through purity of heart attains to the knowledge of the Self. Through the knowledge of the Self he is liberated. This is the gist of the above ten verses. (Cf.III.30)
5.10 He who does actions, offering them to Brahman, and abandoning attachment, is not tainted by sin, just as a lotus-leaf is not tainted by water.
5.10 He who dedicates his actions to the Spirit, without any personal attachment to them, he is no more tainted by sin than the water lily is wetted by water.
5.10 One who acts by dedicating actions to Brahman and by renouncing attachment, he does not become polluted by sin, just as a lotus leaf is not by water.
5.10 On the other hand, again, one who is ignorant of the Truth and is engaged in Karma-yoga, yah, who; karoti, acts; adhaya, by dedicating, by surrendering; all karmani, actions; brahmani, to Brahman, to God; with the idea, 'I am working for Him, as a servant does everything for his master', and tyaktva, by renouncing; sangam, attachment, even with regard to teh resulting Liberation; sah, he; na lipyate, does not get polluted, is not affected; papena, by sin; iva, just as; padma-patram, a lotus leaf; is not ambhasa, by water. The only result that will certainly accrue from such action will be the purification of the heart.
5.10. Who performs actions by offering them to the Brahman and giving up attachment-he is not stained by sin just as the lotus-leaf is [not stained] by water.
5.10 See Comment under 5.11
5.10 Here the term, Brahman denotes Prakrti. Later on Sri Krsna will say: 'The great Brahman is My womb' (14.3). Since Prakrti abides in the form of senses which are particular off-shoots of Prakrti, he who, as said in the passage beginning with 'Even though he is seeing, hearing ৷৷.' (5.8), understands that all actions proceed from Brahman (Prakrti); renounces all attachment while engaging himself in all actions, reflecting, 'I am doing nothing.' Such a person, though existing in contact with Prakrti, is not contaminated by sin which is the result of the wrong identification of the Atman with Prakrti and is the cause of bondage. Just as a lotus leaf is not wetted by water, actions do not affect or defile a person with sin, if he is free from such identification with the body.
5.10 He who acts without attachment, reposing all actions on Brahman (Prakrti), is untouched by evil, as a lotus-leaf by water.
।।5.10।।परंतु जो तत्त्वज्ञानी नहीं है और कर्मयोगमें लगा हुआ है ( यानी ) जो स्वामीके लिये कर्म करनेवाले नौकरकी भाँति मैं ईश्वरके लिये करता हूँ इस भावसे सब कर्मोंको ईश्वरमें अर्पण करके यहाँतक कि मोक्षरूप फलकी भी आसक्ति छोड़कर कर्म करता है। वह जैसे कमलका पत्ता जलमें रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता वैसे ही पापोंसे लिप्त नहीं होता।
।।5.10।। ब्रह्मणि ईश्वरे आधाय निक्षिप्य तदर्थं कर्म करोमि इति भृत्य इव स्वाम्यर्थं सर्वाणि कर्माणि मोक्षेऽपि फले सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः सर्वकर्माणि लिप्यते न स पापेन न संबध्यते पद्मपत्रमिव अम्भसा उदकेन। केवलं सत्त्वशुद्धिमात्रमेव फलं तस्य कर्मणः स्यात्।।यस्मात्
।।5.10।।ननुयोगयुक्तः 7।5 इत्यनेन यत्सन्न्यासयोगयुक्तस्य कर्मालेपलक्षणं फलमुक्तं तदेव तस्यब्रह्मण्याधाय इति किमर्थं पुनरुच्यते इत्यत आह सन्न्यासेति। प्रागुक्तस्यैव नियमोऽत्र क्रियते। सिद्धे सत्यारम्भस्य नियमार्थत्वादिति भावः। योगविवरणं च किञ्चिदधिकमिति चार्थः। ननु सन्न्यासस्त्वित्यनेनैव सन्न्यासयोगौ मिलितावेव फलं साधयत इति नियमोऽपि लब्ध एव तत्किमर्थमिदं सन्न्यासयोगयुक्तस्यकुर्वन्नपि न लिप्यते 5।7लिप्यते न स पापेन इति पुनः पुनः फलकथनं इत्यत आह साधनेति। साधननियमस्येति तदुक्तेरित्यर्थः। सन्न्यासयोगौ मिलितावेव फलसाधनमिति नियमोक्तेरुपचारत्वमपि सम्भवति लोकवत्। तन्निवृत्त्यर्थमित्यर्थः।
।।5.10।।सन्न्यासयोगयुक्त एव च कर्मणा न लिप्यत इत्याह ब्रह्मणीति। साधननियमस्योपचारत्वव्यावृत्त्यर्थं पुनः पुनः फलकथनम्।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।5.10।।
ব্রহ্মণ্যাধায কর্মাণি সঙ্গং ত্যক্ত্বা করোতি যঃ৷ লিপ্যতে ন স পাপেন পদ্মপত্রমিবাম্ভসা৷৷5.10৷৷
ব্রহ্মণ্যাধায কর্মাণি সঙ্গং ত্যক্ত্বা করোতি যঃ৷ লিপ্যতে ন স পাপেন পদ্মপত্রমিবাম্ভসা৷৷5.10৷৷
બ્રહ્મણ્યાધાય કર્માણિ સઙ્ગં ત્યક્ત્વા કરોતિ યઃ। લિપ્યતે ન સ પાપેન પદ્મપત્રમિવામ્ભસા।।5.10।।
ਬ੍ਰਹ੍ਮਣ੍ਯਾਧਾਯ ਕਰ੍ਮਾਣਿ ਸਙ੍ਗਂ ਤ੍ਯਕ੍ਤ੍ਵਾ ਕਰੋਤਿ ਯ। ਲਿਪ੍ਯਤੇ ਨ ਸ ਪਾਪੇਨ ਪਦ੍ਮਪਤ੍ਰਮਿਵਾਮ੍ਭਸਾ।।5.10।।
ಬ್ರಹ್ಮಣ್ಯಾಧಾಯ ಕರ್ಮಾಣಿ ಸಙ್ಗಂ ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ ಕರೋತಿ ಯಃ. ಲಿಪ್ಯತೇ ನ ಸ ಪಾಪೇನ ಪದ್ಮಪತ್ರಮಿವಾಮ್ಭಸಾ৷৷5.10৷৷
ബ്രഹ്മണ്യാധായ കര്മാണി സങ്ഗം ത്യക്ത്വാ കരോതി യഃ. ലിപ്യതേ ന സ പാപേന പദ്മപത്രമിവാമ്ഭസാ৷৷5.10৷৷
ବ୍ରହ୍ମଣ୍ଯାଧାଯ କର୍ମାଣି ସଙ୍ଗଂ ତ୍ଯକ୍ତ୍ବା କରୋତି ଯଃ| ଲିପ୍ଯତେ ନ ସ ପାପେନ ପଦ୍ମପତ୍ରମିବାମ୍ଭସା||5.10||
brahmaṇyādhāya karmāṇi saṅgaṅ tyaktvā karōti yaḥ. lipyatē na sa pāpēna padmapatramivāmbhasā৷৷5.10৷৷
ப்ரஹ்மண்யாதாய கர்மாணி ஸங்கஂ த்யக்த்வா கரோதி யஃ. லிப்யதே ந ஸ பாபேந பத்மபத்ரமிவாம்பஸா৷৷5.10৷৷
బ్రహ్మణ్యాధాయ కర్మాణి సఙ్గం త్యక్త్వా కరోతి యః. లిప్యతే న స పాపేన పద్మపత్రమివామ్భసా৷৷5.10৷৷
5.11
5
11
।।5.11।। कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँ-शरीर-मन-बुद्धि के द्वारा केवल अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ही कर्म करते हैं।
।।5.11।। योगीजन, शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि (चित्तशुद्धि) के लिए कर्म करते हैं।।
।।5.11।। कर्मयोगी का प्रयत्न यह होता है कि अपने स्वरूप में ही रहकर स्वयं के अन्तर्बाह्य घटित हो रही घटनाओं को उनके साथ तादात्म्य किये बिना केवल साक्षी भाव से देखे। कुछ काल तक इसका अभ्यास करने पर उसे यह स्पष्टतया ज्ञात होगा कि समस्त कर्म उपाधियों के द्वारा किये जाते हैं और साक्षी के साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। तथापि उसको इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह साक्षित्व अथवा साक्षी स्वयं पारमार्थिक सत्य नहीं है वरन् बुद्धि की खिड़की में से झांकता हुआ परम सत्य यह साक्षी है। हमारा अनुभव है कि हम स्वयं को कार्यरत देखते हैं तब हमें इस देखने वाले साक्षी का भी भान होता है। शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व वह है जो इस उपर्युक्त द्रष्टा को भी प्रकाशित करता है यह उपनिषदों की घोषणा है।यदि परम सत्य साक्षित्व से भी परे है तो कर्मयोगी को इस साक्षीभाव का अभ्यास क्यों करना चाहिये इसका उत्तर है आत्मविशुद्धये अर्थात् अन्तकरण की शुद्धि के लिए। साक्षीभाव से कर्म करने पर स्वाभाविक ही अहंकार का त्याग होकर पूर्व संचित वासनाओं का क्षय हो जायेगा। जितनी अधिक मात्रा में वासना निवृत्ति होगी उतना ही शुद्ध और स्थिर अन्तकरण होगा जिसमें परमात्मा की अनुभूति स्पष्ट रूप से होगी।निम्नलिखित कारण से भी कर्मयोगी अनासक्त भाव से कर्म करता है
5.11।। व्याख्या--'योगिनः' यहाँ 'योगिनः'--पद कर्मयोगीके लिये आया है। जो योगी भगवदर्पणबुद्धिसे कर्म करते हैं, वे भक्तियोगी कहलाते हैं। परन्तु जो योगी केवल संसारकी सेवा के लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करते हैं, वे कर्मयोगी कहलाते हैं। कर्मयोगी अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिसे कर्म करते हुए भी उन्हें अपना नहीं मानता, प्रत्युत संसारका ही मानता है। कारण कि शरीरादिकी संसारके साथ एकता है।
।।5.7 5.11।।योगयुक्त इत्यादि आत्मसिद्धये इत्यन्तम्। सर्वभूतानामात्मभूतः आत्मा यस्य स सर्वमपि कुर्वाणो न लिप्यते अकरणप्रतिषेधारूढत्वात्। अत एव दर्शनादीनि कुर्वन्नपि असौ एवं धारयति प्रतिपत्तिदार्ढ्येन निश्चिनुते चक्षुरादीनामिन्द्रियाणां यदि स्वविषयेषु प्रवृत्तिः मम किमायातम् न हि अन्यस्य कृतेनापरस्य (S अन्यस्य कृतेनान्यस्य अन्यकृतेन परस्य) लेपः इति। तदेव ब्रह्मणि कर्मणां समर्पणम्। अत्र चिह्नम् अस्य गतसङ्गता। अतो न लिप्यते। योगिनश्च केवलैः सङ्गरहितैः परस्परानपेक्षिभिश्च कायादिभिः कुर्वन्ति कर्माणि सङ्गाभावात्।
।।5.11।।कायमनोबुद्धीन्द्रियसाध्यं कर्म स्वर्गादिफलसङ्गं त्यक्त्वा योगिनः आत्मविशुद्धये कुर्वन्ति आत्मगतप्राचीनकर्मबन्धनविनाशाय कुर्वन्ति इत्यर्थः।
।।5.11।।अविदुषस्तर्हि कृतेन कर्मणा किं स्यादित्याशङ्क्याह केवलमिति। अज्ञस्येश्वरार्पणबुद्ध्यानुष्ठितं कर्म बुद्धिशुद्धिफलमित्यत्रैव हेतुमाह यस्मादिति। केवलशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धे प्रयोजनमाह सर्वव्यापारेष्विति। कर्मणश्चित्तशुद्धिफलत्वे तादर्थ्येन कर्मानुष्ठानमेव तव कर्तव्यमिति यस्मादित्यस्यापेक्षितं वदन्फलितमाह तस्मादिति।
।।5.11।।अत्र सदाचारं प्रमाणयति कायेनेति। कायेनाऽऽसनादिना मनसा ध्यानादिना बुद्ध्या तत्त्वनिश्चयादिना अभिनिवेशरहितैरिन्द्रियैः शुद्धं श्रवणदर्शनकीर्त्तनादिलक्षणं कर्म नारदादयः सङ्गं त्यक्त्वा आत्मनः शुद्धये समत्वाय कुर्वन्ति। अतो ये केवलं साङ्ख्यास्ते कर्मसन्न्यासं सिद्धान्ततयाऽभ्युपगच्छन्ति। ये च योगिनस्ते कर्मकरणमेवेति फलितम्।
।।5.11।।तदेव विवृणोति कायेन मनसा बुद्ध्येन्द्रियैरपि योगिनः कर्मिणः फलसङ्गं त्यक्त्त्वा कर्म कुर्वन्ति। कायादीनां सर्वेषां विशेषणं केवलैरिति। ईश्वरायैव करोमि न मम फलायेति ममताशून्यैरित्यर्थः। आत्मशुद्धये चित्तसत्त्वशुद्ध्यर्थम्।
।।5.11।।बन्धकत्वाभावमुक्त्वा मोक्षहेतुत्वं सदाचारेण दर्शयति कायेनेति। कायेन स्नानादि बुद्ध्या तत्त्वनिश्चयादि केवलैः कर्माभिनिवेशरहितैरिन्द्रियैश्च श्रवणकीर्तनादिलक्षणं कर्म फलसङ्गं त्यक्त्वा चित्तशुद्धये योगिनः कर्म कुर्वन्ति।
।।5.11।।एवमुक्तार्थदृढीकरणाय शिष्टाचारसिद्धतोच्यते कायेनेतिश्लोकेन। बुद्धिरत्र कृत्यध्यवसायः।केवलैः इति कर्तृत्वाभिमानत्यागो विवक्षितः। अथवा ममत्वबुद्धिविषयतारहितैरित्यर्थः। तदाकायेन इत्यादौ केवलेनेत्यादि परिणाम्यम्। यद्वा कायशब्देन कर्मेन्द्रियवर्गस्यापि लक्षणया सङ्ग्रहणात्केवलैरिन्द्रियैः इति ज्ञानेन्द्रियाण्युच्यन्ते तेषां च केवलत्वं वचनादानादिकर्मरहितत्वम् ततश्चधर्मः श्रुतो वा दृष्टो वा कथितो वा कृतोऽपि वा। अनुमोदितो वा राजेन्द्र नयतीन्द्रपदं नरम्।।म.भा.14।93।31 इत्यादिकमपि सूचितं भवति। आत्मशुद्धेरत्रैव फलतया निर्देशात् निष्फलप्रवृत्त्ययोगाच्चस्वर्गादिफलसङ्गमित्युक्तम्। शुद्धिर्हि केनचिद्दूषितस्यापेक्षिता स च दोषोऽत्र स्वतः शुद्धस्याप्यात्मनोऽनादिकालकृतमात्मतत्त्वसाक्षात्कारविरोधि कर्मेत्यभिप्रायेणाह आत्मगतेति।
।।5.11।।नन्वेतत्सिद्धदशायामुक्तं साधनदशायां तत्करणे कथं न लेपः स्यात् इत्याशङ्क्याह कायेनेति। कायेन देहेन भावस्वरूपरहितेन अधिष्ठानात्मकेन तादृशेनैव मनसा केवलैरिन्द्रियैराध्यात्मिकैर्बुद्ध्यापि तत्प्राप्ति रूपेच्छया आत्मशुद्धये भावस्वरूपप्राप्त्यर्थं योगिनः संयोगात्मकसाधनवन्तः सङ्गं कर्मफलं त्यक्त्वा कर्म भगवदिच्छया कर्तव्यात्मकत्वेन कुर्वन्ति। साधनदशायामपि भगवदिच्छां ज्ञात्वा फलाभावेन कृतं कर्म न बन्धकं भवतीति भावः।
।।5.11।।कायेनेति। केवलैरिति विपरिणामेन सर्वत्र संबन्धनीयम्। केवलेन कायेन अहमयं ब्राह्मणो युवेत्यात्माध्यासशून्येन। एवमन्यत्रापि सङ्गं त्यक्त्वा देहादिभ्यो विविक्तेऽपि आत्मनि तार्किकादिवदहं करोमीत्यभिनिवेशं त्यक्त्वा योगिनः कर्म कुर्वन्ति। आत्मशुद्धये चित्तशुद्ध्यर्थम्। तस्मात्तवापि तत्रैवाधिकारोऽस्तीति तदेव त्वं कुरु।
।।5.11।।यस्मात्कायेन केवलेनाहंभावममभाविवर्जितेन तथा केवलेन मनसा केवलया बुद्य्धा केवलैरिन्द्रियैरपि कर्मयोगिनः कर्म कुर्वन्ति। केवलैरितिपदं मनसेत्यनेन वचनस्य कायेन बुद्य्धेत्याभ्यां लिङ्गवचनयोर्व्यत्ययेन योजनीयम्। अत्रापरे केवलपदव्यावर्त्यं धनादि वर्णयन्ति। तथाहि केवलवाचालब्धधनादिलाभानपेक्षितता ततश्च केवलेन कायेन स्त्रानशौचद्विजोच्छिष्टमार्जनादीनि कर्माणि योगिनः कुर्वन्ति नतु तेषामतीतकालता नापि कदाचिद्धनापेक्षेति भावः। तथा केवलेन मनसा जगदीशध्यानं यथाशक्ति परोपकारसंकल्पनादीनि च कर्णाभ्यामुत्तमश्लेकजन्मकर्माकर्णनादीनि रसनया तीर्थनैवेद्यास्वादनादीनि घ्राणेन तदुपभुक्तमाल्यामोदग्रहणादीनि त्वचा पुण्यतीर्थोदकस्पर्शादीनि पद्य्भां तीर्थाटनादीनि हस्ताभ्यां परेशपूजादीनि वाचा स्तुत्यादीनि च कुर्वन्ति सङ्गं धनादिफलासङ्गं त्यक्त्वेति तैर्मानसादिकर्माणि धनाद्यपेक्षाऽप्रसक्तेस्तत्रापि स्वेन संबन्धितस्य केवलपदस्य वैयर्थ्य परिहर्तव्यम्। तस्मात्सर्वव्यापारेषु ममतावर्जिता योगिनः कर्म कुर्वन्ति। सङ्गं त्यक्त्वा फलविषयमात्मशुद्धये सत्त्वशुद्धय इत्यर्थ इति भाष्यमेव रमणीयम्।
5.11 कायेन by the body? मनसा by the mind? बुद्ध्या by the intellect? केवलैः only? इन्द्रियैः by the senses? अपि also? योगिनः Yogis? कर्म action? कुर्वन्ति perform? सङ्गम् attachment? त्यक्त्वा having abandoned? आत्मशुद्धये for the purification of the self. Commentary Yogis here means Karma Yogis who are devoted to the path of action? who are free from egoism and selfishness? who work for the purification of their hearts without the least attachment to the fruits or results of their actions? and who dedicate all actions to the Lord as their offerings.Kevalam only by (free from egoism and selfishness) applies to the body? mind? intellect and the senses.
5.11 Yogis, having abandoned attachment, perform actions only by the body, mind, intellect, and even by the senses, for the purification of the self.
5.11 The sage performs his action dispassionately, using his body, mind and intellect, and even his senses, always as a means of purification.
5.11 By giving up attachment, the yogis undertake work merely through the body, mind, intellect and even the organs, for the purification of themselves.
5.11 Since tyaktva, by giving up sangam, attachment with regard to results; yoginah, the yogis, men of action; kurvanti, undertake; karma, work; kevalaih, merely- this word is to be construed with each of the words, body etc., so as to deny the idea of ownership with regard to all actions-; kayena, through the body; manasa, through the mind; buddhya, through the intellect; and api, even; indriyaih, through the organs, which are devoid of the idea of ownership, which are unassociated with ownership thus: 'I act only for God, and not for my gain'; atmasudhaye, for the purification of themselves, i.e., for the purification of the heart, therefore you have competence only for that. So you undertake action alone. And also since,
5.11. Having given up attachment, the men of Yoga perform action, just with the body, with the mind, with intellect and also with sense-organs, for attaining the Self.
5.7-11 Yogayuktah etc. upto atma-siddhaye. He, whose (by whom) Self is [realised to be] the Self of all beings, is not stained, eventhough he performs all [sorts of] actions. For, he has undertaken neither what is enjoined nor what is prohibited. Hence, even while performing actions such as seeing and the like, he bears in mind, -i.e., he resolves with [all] firmness of observation, - that 'If the sense-organs like eyes etc., function on their respective objects, what does it matter for me ? Indeed one is not stained by what another does'. This act is nothing but dedicating one's actions to the Brahman. In this regard the characteristic mark is his detachment. Due to that he is not stained. Because they do not have attachment, the men of Yoga perform actions only with their body etc., that are freed from attachment and do not depend on each other.
5.11 Renouncing attachment to heaven etc., the Yogins perform actions accomplishable by the body, the mind and the intellect for the purification of themselves, i.e., for annulling the bonds of his previous Karma which have afected the self and which involve the self in Samsara.
5.11 Merely witth the body, the mind, the intellect and the senses, Yogins do actions, renouncing attachment, for the purification of the self.
।।5.11।।उसके कर्मोंका फल तो केवल अन्तःकरणकी शुद्धिमात्र ही होता है क्योंकि योगी लोग केवल यानी मैं सब कर्म ईश्वरके लिये ही करता हूँ अपने फलके लिये नहीं। इस भावसे जिनमें ममत्वबुद्धि नहीं रही है ऐसे शरीर मन बुद्धि और इन्द्रियोंसे फलविषयक आसक्तिको छोड़कर आत्मशुद्धिके लिये अर्थात् अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं। सभी क्रियाओंमें ममताका निषेध करनेके लिये केवल शब्दका काया आदि सभी शब्दोंके साथ सम्बन्ध है। तेरा भी उसीमें अधिकार है इसलिये तू भी कर्म ही कर।
।।5.11।। कायेन देहेन मनसा बुद्ध्या च केवलैः ममत्ववर्जितैः ईश्वरायैव कर्म करोमि न मम फलाय इति ममत्वबुद्धिशून्यैःइन्द्रियैरपि केवलशब्दः कायादिभिरपि प्रत्येकं संबध्यते सर्वव्यापारेषु ममतावर्जनाय। योगिनः कर्मिणः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वा फलविषयम् आत्मशुद्धये सत्त्वशुद्धये इत्यर्थः। तस्मात् तत्रैव तव अधिकारः इति कुरु कर्मैव।।यस्माच्च
।।5.11।।कायेनेत्यनेनापि सन्न्यासयोगयुक्तस्यात्मशुद्धिलक्षणः पापालेष उच्यत इत्यत आह एवं चेति। उभयसमुच्चयरूप एवेत्यर्थः। अन्यत्र तात्पर्यान्न पुनरुक्तिरिति भावः। आचारकथनमपि नियमसमर्थनार्थमिति ज्ञातव्यम्।
।।5.11।।एवं चाचार इत्याह कायेनेति।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि। योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।5.11।।
কাযেন মনসা বুদ্ধ্যা কেবলৈরিন্দ্রিযৈরপি৷ যোগিনঃ কর্ম কুর্বন্তি সঙ্গং ত্যক্ত্বাত্মশুদ্ধযে৷৷5.11৷৷
কাযেন মনসা বুদ্ধ্যা কেবলৈরিন্দ্রিযৈরপি৷ যোগিনঃ কর্ম কুর্বন্তি সঙ্গং ত্যক্ত্বাত্মশুদ্ধযে৷৷5.11৷৷
કાયેન મનસા બુદ્ધ્યા કેવલૈરિન્દ્રિયૈરપિ। યોગિનઃ કર્મ કુર્વન્તિ સઙ્ગં ત્યક્ત્વાત્મશુદ્ધયે।।5.11।।
ਕਾਯੇਨ ਮਨਸਾ ਬੁਦ੍ਧ੍ਯਾ ਕੇਵਲੈਰਿਨ੍ਦ੍ਰਿਯੈਰਪਿ। ਯੋਗਿਨ ਕਰ੍ਮ ਕੁਰ੍ਵਨ੍ਤਿ ਸਙ੍ਗਂ ਤ੍ਯਕ੍ਤ੍ਵਾਤ੍ਮਸ਼ੁਦ੍ਧਯੇ।।5.11।।
ಕಾಯೇನ ಮನಸಾ ಬುದ್ಧ್ಯಾ ಕೇವಲೈರಿನ್ದ್ರಿಯೈರಪಿ. ಯೋಗಿನಃ ಕರ್ಮ ಕುರ್ವನ್ತಿ ಸಙ್ಗಂ ತ್ಯಕ್ತ್ವಾತ್ಮಶುದ್ಧಯೇ৷৷5.11৷৷
കായേന മനസാ ബുദ്ധ്യാ കേവലൈരിന്ദ്രിയൈരപി. യോഗിനഃ കര്മ കുര്വന്തി സങ്ഗം ത്യക്ത്വാത്മശുദ്ധയേ৷৷5.11৷৷
କାଯେନ ମନସା ବୁଦ୍ଧ୍ଯା କେବଲୈରିନ୍ଦ୍ରିଯୈରପି| ଯୋଗିନଃ କର୍ମ କୁର୍ବନ୍ତି ସଙ୍ଗଂ ତ୍ଯକ୍ତ୍ବାତ୍ମଶୁଦ୍ଧଯେ||5.11||
kāyēna manasā buddhyā kēvalairindriyairapi. yōginaḥ karma kurvanti saṅgaṅ tyaktvā৷৷tmaśuddhayē৷৷5.11৷৷
காயேந மநஸா புத்த்யா கேவலைரிந்த்ரியைரபி. யோகிநஃ கர்ம குர்வந்தி ஸங்கஂ த்யக்த்வாத்மஷுத்தயே৷৷5.11৷৷
కాయేన మనసా బుద్ధ్యా కేవలైరిన్ద్రియైరపి. యోగినః కర్మ కుర్వన్తి సఙ్గం త్యక్త్వాత్మశుద్ధయే৷৷5.11৷৷
5.12
5
12
।।5.12।। कर्मयोगी कर्मफलका त्याग करके नैष्ठिकी शान्तिको प्राप्त होता है। परन्तु सकाम मनुष्य कामनाके कारण फलमें आसक्त होकर बँध जाता है।
।।5.12।। युक्त पुरुष कर्मफल का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त होता है;  और अयुक्त पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बँधता है।।
।।5.12।। कर्मफल की प्राप्ति की चिन्ताओं से मुक्त होकर सम्यक् प्रकार से कर्माचरण के द्वारा कर्मयोगी को अनिर्वचनीय शान्ति प्राप्त होती है। यह शान्ति आर्थिक अथवा राजनैतिक परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न की जाने वाली कोई वस्तु नहीं है। संविधान बनाने वाली संस्थाओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के द्वारा भी इस शान्ति को स्थापित नहीं किया जा सकता। यह तो मनुष्य के मन की वह स्थिति है जबकि उसका आन्तरिक संसार विक्षुब्ध करने वाले विचारों के मदोन्मत्त तूफानों से विचलित नहीं होता। शान्ति एक अखण्डानुभूति एवं एक संगठित व्यक्तित्व को सुरभि है। यज्ञ भावना से कर्म करते हुए इस शान्ति को प्राप्त करना ही यहां प्रतिपादित क्रांतिकारी सिद्धांत है। जब साधक कर्तृत्व के अभिमान और फल की आसक्ति का त्याग करके अपने कर्तव्य कर्म करता है तब उसे कर्मयोग निष्ठा की शान्ति शीघ्र ही प्राप्त होती है।इसी बात पर अधिक बल देने के लिये भगवान् कहते हैं कि कर्मयोगी के विपरीत जो अयुक्त पुरुष है वह अभिमान तथा फलासक्ति के कारण अपने ही कर्मों से बँधता है। जो औषधि कम मात्रा में उपचार का कार्य करती है उसी का अधिक मात्रा में सेवन मृत्यु का कारण बन सकता है जैसे नींद की गोलियाँ। जो शस्त्र आत्मरक्षण का साधन है वही आत्महनन का भी कारण बन सकता है।इसी प्रकार जगत् में अविवेक से कार्य करने पर संतोष और आनन्द के आलोक के मिलन के स्थान पर दृढ़तर बन्धन और अथाह अन्धकारमय जीवन प्राप्त होता है। इसका एकमात्र कारण है हमारी किसी फलविशेष के लिए कामना। भविष्य मे अपने मन के अनुकूल स्थिति को चाहने का नाम है कामना अथवा इच्छा। यदि एक मेंढक अपना विस्तार करता हुआ बैल के आकार का बनने का प्रयत्न करे तो उसका अन्त दुखपूर्ण ही होगा। एक परिच्छिन्न सार्मथ्य का जीव स्वयं के अनुकूल और इष्ट परिस्थिति का निर्माण करने में सर्वथा असमर्थ है। उसका प्रयत्न उस मेढक के समान ही होने के कारण अविवेकपूर्ण है। उसको यह समझना चाहिए कि कर्म करने में वह स्वतन्त्र है परन्तु कर्मफल अनेक नियमों के अनुसार प्राप्त होने के कारण फल प्राप्ति में वह परवश है। इसलिए किसी फलविशेष में आसक्त होकर उसका आग्रह रखना केवल अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं।परन्तु जो परमार्थदर्शी हैं उसके विषय में कहते हैं
5.12।। व्याख्या--'युक्तः'--इस पदका अर्थ प्रसङ्गके अनुसार लिया जाता है; जैसे--इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें अपनेको अकर्ता माननेवाले सांख्ययोगीके लिये 'युक्तः' पद आया है, ऐसे ही यहाँ कर्मफलका त्याग करनेवाले कर्मयोगीके लिये 'युक्तः' पद आया है।जिनका उद्देश्य 'समता' है वे सभी पुरुष युक्त अर्थात् योगी हैं। यहाँ कर्मयोगीका प्रकरण चल रहा है, इसलिये यहाँ 'युक्तः' पद ऐसे कर्मयोगीके लिये आया है, जिसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका होनेसे जिसमें सांसारिक कामनाओंका अभाव हो गया है।
।।5.12।।युक्त इति। नैष्ठिकीम् अपुनरावर्तिनीम्।
।।5.12।।युक्तः आत्मव्यतिरिक्तफलेषु अचपलः आत्मैकप्रवणः कर्मफलं त्यक्त्वा केवलात्मशुद्धये कर्मानुष्ठाय नैष्ठिकीं शान्तिम् आप्नोति स्थिराम् आत्मानुभवरूपां निर्वृतिम् आप्नोति। अयुक्तः आत्मव्यतिरिक्तफलेषु चपलः आत्मावलोकनविमुखः कामकारेण फले सक्तः कर्माणि कुर्वन् नित्यं कर्मभिः बध्यते नित्यसंसारी भवति। अतः फलसङ्गरहित इन्द्रियाकारेण परिणतायां प्रकृतौ कर्माणि संन्यस्य आत्मनो बन्धमोचनाय एव कर्माणि कुर्वीत इति उक्तं भवति।अथ देहाकारपरिणतायां प्रकृतौ कर्तृत्वसंन्यास उच्यते
।।5.12।।इतश्च सङ्गं त्यक्त्वा कर्मानुष्ठानं त्वया कर्तव्यमित्याह यस्माच्चेति। युक्तः सन्फलं त्यक्त्वा कर्म कुर्वन्मोक्षाख्यां शान्तिं यस्मादाप्नोति तस्माच्च त्वया सङ्गं त्यक्त्वा कर्म कर्तव्यमिति योजना। विपक्षे दोषमाह अयुक्त इति। युक्तत्वं व्याकरोति ईश्वरायेति। फलं परित्यज्य कर्म कुर्वन्निति शेषः। नैष्ठिकी शान्तिरित्येतदेव विशदयति सत्त्वेति। द्वितीयमर्धं विभजते यस्त्विति। असमाधाने दोषादर्जुनस्य नियोगं दर्शयति अतस्त्वमिति।
।।5.12।।एवं च योगेन कर्मकरणे मोक्षं विपरीते बन्धनं चाह युक्त इति। शान्तिः फलं तत्र च बन्धः।
।।5.12।।कर्तृत्वाभिमानसाम्येऽपि तेनैव कर्मणा कश्चिन्मुच्यते कश्चित्तु बध्यत इति वैषम्ये को हेतुरिति तत्राह युक्तः ईश्वरायैवैतानि कर्माणि न मभ फलायेत्येवमभिप्रायवान्कर्मफलं त्यक्त्वा कर्माणि कुर्वन् शान्तिं मोक्षाख्यामाप्नोति। नैष्ठिकीं सत्त्वशुद्धिं नित्यानित्यवस्तुविवेकसंन्यासज्ञाननिष्ठाक्रमेण जातामिति यावत्। यस्तु पुनरयुक्त ईश्वरायैवैतानि कर्माणि न मम फलायेत्यभिप्रायशून्यः स कामकारेण कामतः प्रवृत्त्या मम फलायैवेदं कर्म करोमीति फले सक्तो निबध्यते कर्मभिर्नितरां संसारबन्धं प्राप्नोति। यस्मादेवं तस्मात्त्वमपि युक्तः सन्कर्माणि कुर्विति वाक्यशेषः।
।।5.12।।ननु तेनैव कर्मणा कश्चिन्मुच्यते कश्चिद्बध्यत इति व्यवस्था कथमत आह युक्त इति। युक्तः परमेश्वरैकनिष्ठः सन्कर्मणां फलं त्यक्त्वा कर्माणि कुर्वन्नात्यन्तिकीं शान्तिं मोक्षं प्राप्नोति। अयुक्तस्तु बहिर्मुखः कामकारेण कामतः प्रवृत्त्या फले आसक्तो नितरां बन्धं प्राप्नोति।
।।5.12।।एकस्यैव कर्मणो बन्धहेतुत्वं मोक्षहेतुत्वं च फलसङ्गतदभावादिरूपसहकारिविशेषाद्युज्यत इतीममर्थं विशदयति युक्तः इति श्लोकेन। अत्र युक्तशब्देन समाहितचेतस्त्वमुच्यते। तच्चात्र फलान्तरविरक्तिपूर्वकमात्मप्रावण्यमेवेति व्यञ्जनाय आत्मव्यतिरिक्तेत्याद्युक्तम्।कर्मफलं त्यक्त्वेति वचनात्कर्मस्वरूपानुष्ठानं पूर्वोक्तमिहार्थसिद्धं दर्शितम्।नैष्ठिकीं शान्तिमित्यनेन साक्षान्मोक्षप्रतीतिः स्यात्। तद्व्युदासायाह स्थिरामिति। प्रकरणलब्धोऽयं विशेषः। निष्ठायां भवतीति नैष्ठिकी।कामकारेण इति न स्वैराचारो विवक्षितः तस्य दूरनिरस्तत्वात्। अतः कामकर्तृकंप्रेरणं कामकारः तेन यथाभिमतफलसङ्गमात्रं विवक्षितमित्याह कामकारेण फले सक्त इति। निबध्यत इत्यत्रोपसर्गेण नितरां बन्धो विवक्षित इति दर्शयतिनित्यसंसारी भवतीति। वर्तमानव्यपदेशाद्वा तथा विवक्षा।
।।5.12।।ननु साधनदशायां फलत्यागेन कर्मकरणं किम्प्रयोजनकं इत्याशङ्क्याह युक्त इति। युक्तो भगवद्भजनैकनिष्ठः सन् कर्मफलं त्यक्त्वा भगवदाज्ञारूपत्वेन कर्म करोति स नैष्ठिकीं भगवत्तोपरूपां शान्तिं भगवदाज्ञाकरणाभावं तापरहितभगवदाज्ञाकरणतोपरूपां प्राप्नोतीत्यर्थः। अतः साधनदशायामपि भगवदाज्ञात्वेन कर्मकरणमुत्तममिति भावः। अभगवदीयस्तु फलाशया कर्मकरणेन बद्धो भवतीत्याह अयुक्त इति। अयुक्तः अभगवदीयः कामकारेण कामनया प्रवृत्तः फले सक्तः सन्निबध्यते नितरां बद्धो भवति। न भगवत्सम्बन्धं प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।5.12।।किंच युक्त इति। युक्तो ब्रह्मण्याधाय कर्माणीत्यादिनोक्तलक्षणः कर्मणां फलं त्यक्त्वा ईश्वरे समर्प्य शान्तिं कैवल्यं नैष्ठिकीं सत्वशुद्ध्यादिक्रमप्राप्तब्रह्मनिष्ठाफलभूतां प्राप्नोति। अयुक्तस्तद्विपरीतः कामकारेण स्वैरवृत्त्या फले सक्तः सन् नितरां बध्यते।
।।5.12।।न केवलं सत्त्वशुद्य्धर्थमेव कर्माण्यनुष्ठेयान्यपितु परंपरया मोक्षायापीत्याह युक्त इति। युक्तः परमेश्वराय कर्माणि न मम फलायेत्येवं समाहितः सन् फर्मफलं परित्यज्य शान्तिं मोक्षाख्यां नैष्ठिकीं निष्ठायां भवां सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिसर्वकर्मसंन्यासज्ञाननिष्ठाक्रमेण प्राप्नोति। विपक्षे दोषमाह। यस्तु पुनरयुक्तोऽसमाहितः कामकारेण कामप्रेरणया फलार्थमिदं कर्म करोमीत्येवं फले सक्तः स निबध्यतेऽतस्त्वं युक्तः सन् कर्माणि कुर्वित्यभिप्रायः।
5.12 युक्तः the united one (the well poised)? कर्मफलम् fruit of action? त्यक्त्वा having abandoned? शान्तिम् peace? आप्नोति attains? नैष्ठिकीम् final? अयुक्तः the nonunited one? कामकारेण impelled by desire? फले in the fruit (of action)? सक्तः attached? निबध्यते is bound.Commentary Santim naishthikim is interpreted as peace born of devotion of steadfastness. The harmonious man who does actions for the sake of the Lord without expectation of the fruit and who says? I do actions for my Lord only? not for my personal gain or profit? attains to the peace born of devotion? through the following four stages? viz.? purity of mind? the attainment of knowledge? renunciation of actions? and steadiness in wisdom. But the unbalanced or the unharmonised man who is led by desire and who is attached to the fruits of the actions and who says? I have done such and such an action I will get such and such a fruit? is firmly bound.
5.12 The united one (the well poised or the harmonised) having abandoned the fruit of action attains to the eternal peace: the non-united only (the unsteady or the unbalanced) impelled by desire, attached to the fruit, is bound.
5.12 Having abandoned the fruit of action, he wins eternal peace. Others unacquainted with spirituality, led by desire and clinging to the benefit which they think will follow their actions, become entangled in them.
5.12 Giving up the result of work by becoming resolute in faith, one attains Peace arising from steadfastness. One who is lacking in resolute faith, being attached to the result under the impulsion of desire, becomes bound.
5.12 Tyaktva, giving up; karma-phalam, the result of work; yuktah, by becoming resolute in faith, by having this conviction thus-'Actions are for God, not for my gain'; apnoti, attains; santim, Peace, called Liberation; naisthikim arising from steadfastness. It is to be understood that he attains this through the stages of purification of the heart, acisition of Knowledge, renunciation of all actions, and steadfastness in Knowledge. On the other hand, however, he who is ayuktah, lacking in resolute faith; he, phale saktah, being attached to result; thinking, 'I am doing this work for my gain'; kama-karena, under the impulsion of desire-kara is the same as karana (action); the action of desire (kama-kara; under that impulsion of desire, i.e. being prompted by desire; nibadhyate, gets bound. Therefore you become resolute in faith. This is the idea. But one who has experienced the supreme Reality-
5.12. Having abandoned [the attachment for] the fruit of actions, the master of Yoga attains the highest Peace. [But] the person, other than the master of Yoga, attached to the fruit of action, is bound by his action born of desire.
5.12 Yuktah etc. Highest : that from which there is no return.
5.12 A Yogin is one who has no hankering for fruits other than the self, and who is exclusively devoted to the self. If a man renounces the fruits of actions and performs actions merely for the purification of himself, he attains lasting peace, i.e., he attains bliss which is of the form of lasting experience of the self. The unsteady person is one who is inclined towards fruits other than the self. He has turned himself away from the vision of the self. Being impelled by desire, he becomes attached to fruits of actions, and remains bound for ever by them. That is, he becomes a perpetual Samsarin or one involved in transmigratory cycle endlessly. What is said is this: Free of attachment for fruits and attributing one's actions to Prakrti which has developed into the form of senses, one should perform actions merely to free the self from bondage. Next, the shifting of agency to Prakrti, from which the body has come into existence, is described:
5.12 A Yogin, renouncing the fruits of his actions, attains lasting peace. But the unsteady man who is attached to fruits of actions, being impelled by desire, is bound.
।।5.12।।क्योंकि सब कर्म ईश्वरके लिये ही हैं मेरे फलके लिये नहीं इस प्रकार निश्चयवाला योगी कर्मफलका त्याग करके ज्ञाननिष्ठामें होनेवाली मोक्षरूप परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है। यहाँ पहले अन्तःकरणकी शुद्धि फिर ज्ञानप्राप्ति फिर सर्वकर्मसंन्यासरूप ज्ञाननिष्ठाकी प्राप्ति इस प्रकार क्रमसे परम शान्तिको प्राप्त होता है इतना वाक्य अधिक समझ लेना चाहिये। परंतु जो अयुक्त है अर्थात् उपर्युक्त निश्चयवाला नहीं है वह कामकी प्रेरणासे अपने फलके लिये यह कर्म मैं करता हूँ इस प्रकार फलमें आसक्त होकर बँधता है। इसलिये तू युक्त हो अर्थात् उपर्युक्त निश्चयवाला हो यह अभिप्राय है। करणका नाम कार है कामके करणका नाम कामकार है उसमें तृतीया विभक्ति जो़ड़नेसे कामके कारणसे अर्थात् कामकी प्रेरणासे यह अर्थ हुआ।
।।5.12।। युक्तः ईश्वराय कर्माणि करोमि न मम फलाय इत्येवं समाहितः सन् कर्मफलं त्यक्त्वा परित्यज्य शान्तिं मोक्षाख्याम् आप्नोति नैष्ठिकीं निष्ठायां भवां सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिसर्वकर्मसंन्यासज्ञाननिष्ठाक्रमेणेति वाक्यशेषः। यस्तु पुनः अयुक्तः असमाहितः कामकारेण करणं कारः कामस्य कारः कामकारः तेन कामकारेण कामप्रेरिततयेत्यर्थः मम फलाय इदं करोमि कर्म इत्येवं फले सक्तः निबध्यते। अतः त्वं युक्तो भव इत्यर्थः।।यस्तु परमार्थदर्शी सः
।।5.12।।तथापि युक्त इत्येतत् पुनरुक्तमित्यत आह पुनरिति। युक्तिर्योगः। आदिपदेन सन्न्यासः। युक्तायुक्तेत्युपलक्षणम्। सन्न्यास्यसन्न्यासीत्यपि ग्राह्यम्। प्राक् सन्न्यासयोगौ मिलितावेव फलं साधयतो नान्यतरपरित्यागेनान्यतर इति नियमज्ञापनार्थं तयोः फलमुक्तम्। इदानीं तु तावेव मोक्षसाधनम् न तु तदुभयत्यागेनान्यदिति नियमज्ञापनाय योगसन्न्यासवतस्तदुभयाभाववतश्च मुक्तिसंसारविस्तारलक्षणं फलमाहेत्यर्थः। युक्तशब्दस्य सहिताद्यर्थनिवारणायार्थमाह युक्त इति।
।।5.12।।पुनर्युक्त्यादिनियमनार्थं युक्तायुक्तफलमाह युक्त इति। युक्तो योगयुक्तः।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्। अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।5.12।।
যুক্তঃ কর্মফলং ত্যক্ত্বা শান্তিমাপ্নোতি নৈষ্ঠিকীম্৷ অযুক্তঃ কামকারেণ ফলে সক্তো নিবধ্যতে৷৷5.12৷৷
যুক্তঃ কর্মফলং ত্যক্ত্বা শান্তিমাপ্নোতি নৈষ্ঠিকীম্৷ অযুক্তঃ কামকারেণ ফলে সক্তো নিবধ্যতে৷৷5.12৷৷
યુક્તઃ કર્મફલં ત્યક્ત્વા શાન્તિમાપ્નોતિ નૈષ્ઠિકીમ્। અયુક્તઃ કામકારેણ ફલે સક્તો નિબધ્યતે।।5.12।।
ਯੁਕ੍ਤ ਕਰ੍ਮਫਲਂ ਤ੍ਯਕ੍ਤ੍ਵਾ ਸ਼ਾਨ੍ਤਿਮਾਪ੍ਨੋਤਿ ਨੈਸ਼੍ਠਿਕੀਮ੍। ਅਯੁਕ੍ਤ ਕਾਮਕਾਰੇਣ ਫਲੇ ਸਕ੍ਤੋ ਨਿਬਧ੍ਯਤੇ।।5.12।।
ಯುಕ್ತಃ ಕರ್ಮಫಲಂ ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ ಶಾನ್ತಿಮಾಪ್ನೋತಿ ನೈಷ್ಠಿಕೀಮ್. ಅಯುಕ್ತಃ ಕಾಮಕಾರೇಣ ಫಲೇ ಸಕ್ತೋ ನಿಬಧ್ಯತೇ৷৷5.12৷৷
യുക്തഃ കര്മഫലം ത്യക്ത്വാ ശാന്തിമാപ്നോതി നൈഷ്ഠികീമ്. അയുക്തഃ കാമകാരേണ ഫലേ സക്തോ നിബധ്യതേ৷৷5.12৷৷
ଯୁକ୍ତଃ କର୍ମଫଲଂ ତ୍ଯକ୍ତ୍ବା ଶାନ୍ତିମାପ୍ନୋତି ନୈଷ୍ଠିକୀମ୍| ଅଯୁକ୍ତଃ କାମକାରେଣ ଫଲେ ସକ୍ତୋ ନିବଧ୍ଯତେ||5.12||
yuktaḥ karmaphalaṅ tyaktvā śāntimāpnōti naiṣṭhikīm. ayuktaḥ kāmakārēṇa phalē saktō nibadhyatē৷৷5.12৷৷
யுக்தஃ கர்மபலஂ த்யக்த்வா ஷாந்திமாப்நோதி நைஷ்டிகீம். அயுக்தஃ காமகாரேண பலே ஸக்தோ நிபத்யதே৷৷5.12৷৷
యుక్తః కర్మఫలం త్యక్త్వా శాన్తిమాప్నోతి నైష్ఠికీమ్. అయుక్తః కామకారేణ ఫలే సక్తో నిబధ్యతే৷৷5.12৷৷
5.13
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।।5.13।। जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारोंवाले शरीररूपी पुरमें सम्पूर्ण कर्मोंका विवेकपूर्वक मनसे त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है।
।।5.13।। सब कर्मों का मन से संन्यास करके संयमी पुरुष नवद्वार वाली शरीर रूप नगरी में सुख से रहता हुआ न कर्म करता है और न करवाता है।।
।।5.13।। जगत् से पलायन करना संन्यास नहीं है। मिथ्या धारणाओं एवं अविवेकपूर्ण आसक्तियों का त्याग ही वास्तविक संन्यास है। जिस पुरुष की सम्पूर्ण इन्द्रियाँ एवं मन की प्रवृत्तियाँ स्वयं के वश में हैं और जिसके कर्म अहंकार और स्वार्थ से रहित होते हैं उसे ही अनिर्वचनीय आनन्द परम संतोष प्राप्त होता है। तब वह सुखपूर्वक शरीर रूपी नवद्वार नगरी में निवास करता है।नवद्वारयुक्त नगरी का रूपक उपनिषदों में प्रसिद्ध है। शरीर को उस नगरी के समान माना गया है जो प्राचीन काल में किलों की प्राचीर के अन्दर बसायी गयी होता थी। इस शरीर रूपी नगरी के नवद्वार हैं दो आँखें दो नासिका छिद्र दो कान मुँह जननेन्द्रिय तथा गुदेन्द्रिय। इस शरीर में जीवन व्यापार सुचारु रूप से चलने के लिए इनमें से समस्त अथवा अधिकांश द्वारों का होना आवश्यक है। जैसे एक राजा किले में रहकर अपने मंत्रियों द्वारा शासन करता है तब उसकी परिस्थिति मात्र से अधिकारीगण प्रेरणाशक्ति और अनुमति प्राप्त कर अपनाअपना कार्य करते है इसी प्रकार चैतन्य आत्मा स्वयं अकर्ता रहते हुये भी उसके केवल सान्निध्य से समस्त ज्ञानेन्द्रयाँ एवं कर्मेन्द्रियां स्वव्यापार मे व्यस्त रहती हैं।इस प्रसिद्ध रूपक का प्रयोग करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि संयमी एवं तत्त्वदर्शी पुरुष शरीर में सुख से रहते हुए उपाधियों के कार्य देखता रहता है परन्तु स्वयं न कर्म करता है और न उपाधियों से करवाता है।और
5.13।। व्याख्या--'वशी देही'--इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति होनेसे ही ये मनुष्यपर अपना अधिकार जमाते हैं। ममता-आसक्ति न रहनेपर ये स्वतः अपने वशमें रहते हैं। सांख्ययोगीकी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति न रहनेसे ये सर्वथा उसके वशमें रहते हैं। इसलिये यहाँ उसे 'वशी' कहा गया है। जबतक किसी भी मनुष्यका प्रकृतिके कार्य (शरीर, इन्द्रियों आदि) के साथ किञ्चिन्मात्र भी कोई प्रयोजन रहता है, तबतक वह प्रकृतिके 'अवश' अर्थात् वशीभूत रहता है--'कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः' (गीता 3। 5)। प्रकृति सदैव क्रियाशील रहती है। अतः प्रकृतिसे सम्बन्ध बना रहनेके कारण मनुष्य कर्मरहित हो ही नहीं सकता। परन्तु प्रकृतिके कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण--तीनों शरीरोंसे ममता-आसक्तिपूर्वक कोई सम्बन्ध न होनेसे सांख्ययोगी उनकी क्रियाओंका कर्ता नहीं बनता। यद्यपि सांख्ययोगीका शरीरके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं होता, तथापि लोगोंकी दृष्टिमें वह शरीरधारी ही दीखता है। इसलिये उसे 'देही'कहा गया है।
।।5.13।।सर्वेति। यथा वेश्मान्तर्गतस्य पुंसो न गृहगतैर्जीर्णत्वादिभिः योगः एवं मम चक्षुरादिच्छिद्रगवाक्षनवकालंकृतदेहगेहगतस्य न तद्धर्मयोगः।
।।5.13।।आत्मनः प्राचीनकर्ममूलदेहसम्बन्धप्रयुक्तम् इदं कर्मणां कर्तृत्वं न स्वरूपप्रयुक्तम् इति विवेकविषयेण मनसा सर्वाणि कर्माणि नवद्वारे पुरे सन्यस्य वशी देही स्वयं देहाधिष्ठानप्रयत्नम् अकुर्वन् देहेन न एव कारयन् सुखम् आस्ते।साक्षाद् आत्मनः स्वाभाविकरूपम् आह
।।5.13।।तर्हि फले सक्तिं त्यक्त्वा सर्वैरपि कर्तव्यमिति कर्मसंन्यासस्य निरवकाशत्वमित्याशङ्क्याऽविदुषः सकाशाद्विदुषो विशेषं दर्शयति यस्त्विति। सर्वकर्मपरित्यागे प्राप्तं मरणं व्यावर्तयति आस्त इति। वृत्तिं लभमानोऽपि शरीरतापेनाध्यात्मिकादिना तप्यमानस्तिष्ठतीति चेन्नेत्याह सुखमिति। कार्यकरणसंघातपारवश्यं पर्युदस्यति वशीति। आसनस्यापेक्षितमधिकरणं निर्दिशति नवेति। देहसंबन्धाभिमानाभासवत्त्वमाह देहीति। मनसा सर्वकर्मसंन्यासेऽपि लोकसंग्रहार्थं बहिः सर्वं कर्म कर्तव्यमिति प्राप्तं प्रत्याह नैवेति। तान्येव सर्वाणि कर्माणि परित्याज्यानि विशिनष्टि नित्यमिति। तेषां परित्यागे हेतुमाह तानीति। यदुक्तं सुखमास्त इति तदुपपादयति त्यक्तेति। जितेन्द्रियत्वं कायवशीकारस्याप्युपलक्षणम् द्वे श्रोत्रे द्वे चक्षुषी द्वे नासिके वागेकेति सप्त शीर्षण्यानि शिरोगतानि शब्दाद्युपलब्धिद्वाराणि। अथापि कथं नवद्वारत्वमधोगताभ्यां पायूपस्थाभ्यां सहेत्याह अर्वागिति। शरीरस्य पुरसाम्यं स्वामिना पौरैश्चाधिष्ठितत्वेन दर्शयति आमेत्यादिना। यद्यपि देहे जीवनत्वाद्देहसंबन्धाभिमानाभासवानवतिष्ठते तथापि प्रवासीव परगेहे तत्पूजापरिभवादिभिरप्रहृष्यन्नविषीदन्व्यामोहादिरहितश्च तिष्ठतीति मत्वाह तस्मिन्निति। विशेषणमाक्षिपति किमिति। तदनुपपत्तिमेव दर्शयति सर्वो हीति। सर्वसाधारणे देहावस्थाने संन्यस्य देहे तिष्ठति विद्वानिति विशेषणमकिंचित्करमिति फलितमाह तत्रेति। विशेषणफलं दर्शयन्नुत्तरमाह उच्यत इति। किमविवेकिनं प्रति विशेषणानर्थक्यं चोद्यते किं वा विवेकिनं प्रतीति विकल्प्याद्यमङ्गीकरोति यस्त्विति। अज्ञत्वं देहित्वेहेतुः। तदेव देहित्वं स्फुटयति देहेति। संघातात्मदर्शिनोऽपि देहे स्थितिप्रतिभासः स्यादिति चेन्नेत्याह नहीति। द्वितीयं दूषयति देहादीति। गृहादिषु देहस्यावस्थानेनात्मावस्थानभ्रमव्यावृत्त्यर्थं देहे विद्वानास्त इति विशेषणमुपपद्यते विवेकवतो देहेऽवस्थानप्रतिभाससंभवादित्यर्थः। ननु विवेकिनो देहावस्थानप्रतिभानेऽपि वाङ्मनोदेहव्यापारात्मनां कर्मणां तस्मिन्प्रसङ्गाभावात्तत्त्यागेन कुतस्तस्य देहेऽवस्थानमुच्यते तत्राह परकर्मणां चेति। ननु विवेकिनो दिगाद्यनवच्छिन्नबाह्याभ्यन्तराविक्रियब्रह्मात्मतां मन्यमानस्य कुतो देहेऽवस्थानमास्थातुं शक्यते तत्राह उत्पन्नेति। तत्र हेतुमाह प्रारब्धेति। यदि प्रारब्धफलं धर्माधर्मात्मकं कर्म तस्योपभुक्तस्य शेषादनुपभुक्ताद्देहादिसंस्कारोऽनुवर्तते तदनुवृत्त्या च तत्रैव देहे विशेषविज्ञानमवस्थानविषयमुपपद्यतेऽतो विवेकवतः संन्यासिनो देहेऽवस्थानव्यपदेशः संभवतीत्यर्थः। अविद्वत्प्रत्ययापेक्षया विशेषणासंभवेऽपि विद्वत्प्रत्ययापेक्षया विशेषणमर्थवदित्युपसंहरति देह एवेति। देहे स्वावस्थानविषयो विद्वत्प्रत्ययस्तदविषयश्चाविद्वत्प्रत्ययस्तयोरेवं भेदे विद्वत्प्रत्ययापेक्षया विशेषणमर्थवदित्युपसंहरन्नेव हेतुं विशदयति विद्वदिति। आरोपितकर्तृत्वाद्यभावेऽपि स्वगतकर्तृत्वादि दुर्वारमित्याशङ्कामनूद्य दूषयति यद्यपीत्यादिना। क्रियासु प्रवर्तयन्नास्त इति पूर्वेण संबन्धः। पूर्वस्यापि शतुरेवमेव संबन्धः। कर्तृत्वं कारयितृत्वं चात्मनो नेत्यत्र विचारयति किमिति। यत्कर्तृत्वं कारयितृत्वं च तत्किं देहिनः स्वात्मसमवायि सदेव संन्यासान्न भवतीत्युच्यते यथा गच्छतो देवदत्तस्य स्वगतैव गतिस्तत्स्थित्या त्यागान्न भवत्यथ वा स्वारस्येन कर्तृत्वं कारयितृत्वं चात्मनो नास्तीति वक्तव्यमाद्ये सक्रियत्वं द्वितीये कूटस्थत्वमित्यर्थः। द्वितीयं पक्षमाश्रित्योत्तरमाह अत्रेति। उक्तेऽर्थे वाक्योपक्रममनुकूलयति उक्तं हीति। तत्रैव वाक्यशेषमपि संवादयति शरीरस्थोऽपीति। स्मृत्युक्तेऽर्थे श्रुतिमपि दर्शयति ध्यायतीवेति। उपाधिगतैव सर्वा विक्रिया नात्मनि स्वतोऽस्तीत्यर्थः।
।।5.13।।अतो योगे मनसैव कर्मत्यागः बाह्यतः कर्म करणं चाभिप्रेतम् अन्यथा मिथ्याचार इति तत्त्वं स्पष्टयति सर्वकर्माणीति। योगे समभूतेन मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं यथा भवति तथा स्वयं नैव कुर्वन्मनसा त्यागात् इन्द्रियैरपि न कारयन्निति साङ्ख्याद्भेदोऽपि सूचितः।
।।5.13।।अशुद्धचित्तस्य केवलात्संन्यासात्कर्मयोगः श्रेयानिति पूर्वोक्तं प्रपञ्च्याधुना शुद्धचित्तस्य सर्वकर्मसंन्यास एव श्रेयानित्याह नित्यं नैमित्तिकं काम्यं प्रतिषिद्धं चेति सर्वाणि कर्माणि मनसाकर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यत्रोक्तेनाकर्त्रात्मस्वरूपसम्यग्दर्शनेन संन्यस्य परित्यज्य प्रारब्धकर्मवशादास्ते तिष्ठत्येव। किं दुःखेन नेत्याह सुखमनायासेन आयासहेतुकायवाङ्मनोव्यापारशून्यत्वात्। कायवाङ्मनांसि स्वच्छन्दानि कुतो न व्याप्रियन्ते तत्राह वशी स्ववशीकृतकार्यकरणसंघातः। क्वास्ते। नवद्वारे पुरे। द्वे श्रोत्रे द्वे चक्षुषी द्वे नासिके वागेकेति शिरसि सप्त द्वे पायूपस्थाख्ये अध इति नवद्वारविशिष्टे देहे। देही देहभिन्नात्मदर्शी प्रवासीव परगेहेतत्पूजापरिभवादिभिरप्रहृष्यन्नविषीदन्नहंकारममकारशून्यस्तिष्ठति। अज्ञो हि देहतादात्म्याभिमानाद्देह एव नतु देही। सच देहाधिकरणमेवात्मनोऽधिकरणं मन्यमानो गृहे भूमावासने वाहमास इत्यभिमन्यते नतु देहेऽहमास इति भेददर्शनाभावात्। संघातव्यतिरिक्तात्मदर्शी तु सर्वकर्मसंन्यासी भेददर्शनाद्देहेऽहमास इति प्रतिपद्यते। अतएव देहादिव्यापाराणामविद्ययात्मन्यक्रिये समारोपितानां विद्यया बाधएव सर्वकर्मसंन्यास इत्युच्यते। एतस्मादेवाज्ञवैलक्षण्याद्युक्तं विशेषणं नवद्वारे पुर आस्त इति। ननु देहादिव्यापाराणामात्मन्यारोपितानां नौव्यापाराणां तीरस्थवृक्ष इव विद्यया बाधेऽपि स्वव्यापारेणात्मनः कर्तृत्वं देहादिव्यापारेषु कारयितृत्वं च स्यादिति नेत्याह नैव कुर्वन्न कारयन् आस्त इति संबन्धः।
।।5.13।।एवं तावच्चित्तशुद्धिशून्यस्य संन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यत इत्येतत्प्रपञ्चितम्। इदानीं शुद्धचित्तस्य संन्यासः श्रेष्ठ इत्याह सर्वकर्माणीति। वशी यतचित्तः। सर्वाणि कर्माणि विक्षेपकाणि मनसा विवेकयुक्तेन संन्यस्य सुखं यथा भवत्येवं ज्ञाननिष्ठः सन्नास्ते। क्वास्त इत्यत आह। नवद्वारे नेत्रे नासिके कर्णौ मुखं चेति सप्त शिरोगतानि अधोगते द्वे पायूपस्थरूपे इत्येवं नव द्वाराणि यस्मिंस्तस्मिन्पुरे पुरवदहंभावशून्ये देहे देही अवतिष्ठते। अहंकाराभावादेव स्वयं तेन देहेन नैव कुर्वन्ममकाराभावाच्च न कारयन्नित्यविशुद्धचित्ताद्ध्यावृत्तिरुक्ता। अविशुद्धचित्तो हि संन्यस्य पुनः करोति कारयति च। नत्वयं तथा। अतः सुखमास्त इत्यर्थः।
।।5.13।।नैव किञ्चित्करोमि इत्यादेःफले सक्तो निबध्यते 5।12 इत्यन्तस्य सङ्कलितार्थमुत्तरश्लोकसङ्गत्यर्थमाह अत इति। अनन्तरश्लोकार्थमाहअथेति। शरीराश्रितेन्द्रियप्राणेषु कर्तृत्वसन्न्यासाभिधानादनन्तरं तदाश्रये शरीर एव कर्तृत्वसन्न्यास उच्यत इति सङ्गतिः। शरीर कर्तृत्वसन्न्यासं प्रति करणतयोक्तस्य मनसः करणीभावानुगुणव्यापारं दर्शयितुंआत्मन इत्याद्युक्तम्। नहि देवादिदेहसम्बन्धमात्रकृतं पुण्यपापकर्तृत्वं तत्सम्बन्धमात्रस्याकर्मवश्येऽपि सद्भावात् अतःप्राचीनकर्ममूलेत्युक्तम्। मुख्यैः सप्तभिरर्वाक् द्वाभ्यां चात्र नवद्वारता पुरमेकादशद्वारम् कठो.2।5।1 इति श्रुतौ तु नाभिब्रह्मरन्ध्राभ्यां सहैकादशद्वारतोक्तिः।पुरे सन्न्यस्येति पुरस्य सन्न्यसनक्रियाधिकरणत्वेनान्वयः प्रकृतानुपयुक्त इति भावः।नवद्वारे पुरे इति निर्देशःसावयवत्वनिरवयवत्वसच्छिद्रत्वनिश्छिद्रत्वपृथुत्वाणुत्वस्वतन्त्रत्वपरतन्त्रत्वनियन्तृत्वनियन्तव्यत्वादिभिर्देहात्मनो विवेकस्य प्रदर्शनार्थः।स्वयमिति देहादिपारतन्त्र्यरहित इत्यर्थः यद्वा परिशुद्धेन स्वेन रूपेणेति भावः।वशी अभिमानबलात्काराद्यविषय इत्यर्थः। प्रयत्नाश्रयत्वशरीरस्पन्दनादिहेतुत्वयोरौपाधिकत्वात्नैव कुर्वन् इत्याद्युक्तम्।सुखमास्ते कर्तृत्वाभिमानप्रयुक्तक्लेशादिरहित आस्त इत्यर्थः। पुरमिव शरीरं पौरानिवेन्द्रियाणि सार्वभौममिव परमात्मानं भृत्यमिव स्वात्मानं पश्यतो भवति हि स्वास्थ्यम्। देहात्मभ्रमे हि पुरादिष्वासीनोऽहमिति मन्यते तन्निवृत्तौ च देह एव पुरस्थानीयो भवतीति भावः।
।।5.13।।एवं भगवद्भक्तो भगवदाज्ञया कर्म कुर्वन् सुखमाप्नोति अयुक्तस्तु फलाशया कर्म कुर्वन् बद्धो भवतीत्युक्तं तत्र अभक्तस्य सर्वकर्मत्याग एवोत्तम इत्यर्जुनमनस्याभासं प्राप्य त्यागेऽपि भक्तानामेव सुखं नेतरेषामित्याह सर्वकर्माणीति। वशी भगवद्वशे स्थितः सर्वकर्माणि सन्नयस्य त्यक्त्वा नवद्वारे पुरे श्रवणादिकरणसमर्थे देहे देही भगवदर्थं देहाभिमानवान् सुखमास्ते तिष्ठति। मनसा नैव कुर्वन् स्वार्थाहङ्काराभावान्न किञ्चित्कुर्वन्। न वा ममताभावादन्येभ्यः৷৷৷৷৷৷৷৷. परोपकार उपदेशादिना कारयन् सुखमास्त इति भावः।
।।5.13।।एवमविद्वान्फलासक्त्यनासक्तिवशात्कर्मभिर्बध्यते न बध्यते चेत्युक्तम् विद्वांस्तु तद्विपरीत इत्याह सर्वकर्माणीति। वशी जितचित्तः समाधिस्थो योगी नवद्वारे नवैव पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि षष्ठः प्राणस्तेनैव तत्प्रवर्त्यानां कर्मेन्द्रियाणां संग्रहः। बुद्ध्यहंकारचित्तानीति नव। एतानि द्वाराणीव पुरपतेर्जीवस्य भोगार्थं विषयप्रवेशस्थानानि यस्मिन्नवद्वारे शरीराख्ये पुरे विचित्रवासनाकल्पितानन्तविषयवति अनेकैः कर्मसचिवैरधिष्ठिते सुखदुःखादिनानापण्यवति मनसा सर्वद्वारोद्धाटनकुञ्चिकया सह सर्वाणि कर्माणि पुरपतिरिव राजकार्याणि संन्यस्य सुखं निर्विकल्पसंविन्मात्ररूपेणास्ते। कर्माणि क्षेत्रस्यैव धर्मो नत्वात्मन इति क्षेत्रे त्यक्तुं शक्यान्येव। तथाच श्रुतिःशरीरे पाप्मनो हित्वा इति।यत्र सुहार्दः सुकृतो मदन्ते विहाय रोगं तन्वा्ँस्वायाम् इति च। देही सन् देहाभिमानकाले। व्युत्थानेऽपीत्यर्थः। तदापि नैव कुर्वन्नास्ते नापि कारयन्नास्ते राजेवामात्येषु निहितभारः। समाधौ क्षेत्रेण सहात्मनः संबन्धाभावदर्शनात्। यद्वा नवद्वाराणि चक्षुःश्रोत्रनासाबिलद्वन्द्वानि षट् सप्तमं मुखं अधस्तने द्वे इति। अस्मिन्पक्षे इन्द्रियाणि परिचारका बुद्धिरमात्योऽहंकारो युवराज इत्यादिकमूह्यम्। विदुषः कर्मसंबन्ध एव नास्ति दूरे तत्फलासक्त्यनासक्ती इति भावः।
।।5.13।।एवमशुद्धचित्तस्याविदुषः संन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यत इत्युपपादितम्। शुद्धचित्तः परमार्थदर्शी कथमास्त इत्यपेक्षायामाह सर्वेति। सर्वाणि नित्यं नैमित्तिकं काम्यं प्रतिषिद्धं चेति तानि कर्माणि मनसा विवेकबुद्य्धा कर्मादावकर्मदर्शनेन संत्यज्य सुखमास्ते दुःखहेतुसर्वव्यापारोपरभात्। यतः वशी जितेन्द्रियः। क्व आस्त इत्यत आह। नवद्वारे पुरे। द्वे श्रोत्रे नेत्रे नासिके मुखं चेति सप्त शिरसि अवाक् द्वे मूत्रपुरीषविसर्गार्थे। एवं नवद्वारयुक्ते पुरे नगरस्थानीये आत्मेकस्वामिके इन्द्रियाणि परिचारकाः बुद्धिरमात्योऽहंकारो युवराजो मनःशिल्पीत्येवंरुपैरिन्द्रियादिभिः पौरेरधिष्ठिते आस्ते। यतो देही देहाद्य्वतिरिक्तात्मदर्शी। यस्त्वज्ञः सतु देहात्मदर्शी गेहादावास्तेऽतो युक्तं विशेषणम्। यद्यप्येवं तथाप्यात्मसमवायित्वेन कर्तृत्वकारयितृत्वे तस्य स्यातामित्यत आह। नैव कुर्वन्स्वयं न च कारयन् कार्यकरणानि क्रियासु प्रवर्तयन्नास्त इति संबन्धः। यत्तु वशी विवेकवैराग्यसंपन्नो नवद्वारे पुरे मानुषे शरीरे सुखमास्त इति संबन्धः। यद्यपि नवद्वारं श्वमार्जारादिशरीरमपि भवति तथापि वशिशब्दसंयोगान्मानुषमिति लभ्यते। सुखमिति क्रियाविशेषणम्। अनेनान्तःकरणस्य हर्षशोकादयः परिणामा निराकृताः। वशीत्यत्र वैराग्योक्त्या रागाद्यपरपर्यायकामतदवस्थाविशेषक्रोधरूपावन्तःकरणपरिणामौ वारितौ। विवेकोक्त्या चाहंकारतन्निबन्धनममकाराध्यासौ चिन्तनात्मकचित्तपरिणामं च निराकृत्य विशुद्धचिदाकारतया बुद्धेरवस्थानमुक्तम्। ततश्च विशुद्धचिदाकारबुद्धिपरिणाम एव निष्कृष्टो वशिशब्देनोक्तः। किं कृत्वेत्यत आह। मनसा सह सर्वकर्माणि संन्यस्य त्यागेन ज्ञानमप्युपलक्ष्यते। ततश्च संन्यस्यात्मानं ज्ञात्वा सुखमास्त इति ज्ञेयम्। वशिनं विशिनष्टि अदेहीति। देहो लिङ्गशरीरं तद्रहितः। अयमाशयः षोडशकलात्मा हि पुरुषः। तत्र भूतेन्द्रियप्राणाः प्रवर्त्याः। प्रवर्तकमन्तःकरणम्। तच्च बुद्धिसंकल्पकतया। सर्वो हि बुद्य्धा निश्चित्य मनसा संकल्प्य प्रवर्तते। तत्र मनस्त्यागेन विज्ञानकर्मत्यागः संभवतीति क्वेदानीं लिङ्गदेहः। नहि शिरसि च्छिन्ने कबन्धो देहतां प्रतिपद्यते इति मनसेत्युक्तम्। बुद्धिस्तु सर्वाकारपरित्यागेन चिन्मात्र उपसंक्रान्ताहंकारदीनां तु कथापि विवेकेनोमन्मूलितेतीतरे व्याचख्युः। तत्रेदं वक्तव्यम् वशिशब्दयोगं विनापि सर्वकर्माणीत्यादेर्योगात् प्रकरणाच्च मानुषशरीरमेवोपलभ्यते। सर्वकर्माणि संन्यस्येत्यनेन निषिद्धादिमननरुपमानसकर्मत्यागे मनस्त्यागसिद्य्धा त्यागकरणस्यापेक्षितत्वेन च सहशब्दध्याहृत्य पृथङ्यनस्त्यागवर्तनमसंगतम्। किंच विवेकयुक्तमेव मनस्त्यागोऽतो विवेकयुक्तेन मनसा सर्वकर्माणि संन्यस्येत्येव युक्तम्। एतेन वशिशब्देन विवेकवैराग्ययुक्तत्ववर्णनं प्रत्युक्तम्। वशिशब्दस्य स्वतन्त्रवाचि त्वेन जितेन्द्रियत्वप्रतीत्या इतरोक्तार्थस्यार्थिकार्थत्वात्। यदप्यदेही लिङ्गशरीररहित इति तदपि न। भेदबोधकेनिप्रत्येन देहादितरात्मदर्शीति वर्णनस्यैव नवद्वारे पुरे आस्ते इत्यस्य योगेन स्वारसिकत्वेन प्रश्लेषेण क्लिष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वात्। इमामेवारुचिं मनसि निधाय पक्षान्तरस्यैतद्य्वाख्यानकर्तृभिर्दर्शितत्वाच्चेति दिक्। यदप्यन्ते वशी जितचित्तः। समाधिस्थो योगी नवद्वारे नवैव पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि षष्ठः प्राणस्तेनैव तत्प्रवर्त्यानां कर्मेन्द्रियाणां संग्रहः। बुद्य्धहंकारचित्तानीति नवैतानि द्वाराणीव पुरपतेर्जीवस्य भोगार्थं विषयप्रवेशस्थानानि यस्मिन्नवद्वारे पुरे शरीराख्ये विचित्रवासनाकल्पितानन्तविषयवति अनेकैः कर्मसचिवैरधिष्ठिते सुखदुःखादिनानापण्यवति मनसा सर्वद्वारेद्धाटनकुञ्चिकया सह सर्वाणि कर्माणि पुरपतिरिव राज्यकार्याणि संन्यस्य सुखं निर्विकल्पसंविन्मात्ररुपेणास्ते इति तदपि असङ्गतमेव। चित्तस्य वृत्तिनिरोधरुपजयापेक्षया वस्त्रादित्यागवदितरत्यागाप्रसिद्य्धा मनसा सहेति सहशब्दाध्याहारेण वर्णनस्य पुनरुक्तिग्रस्तत्वात्। मृतशरीरस्य पुरस्य सत्त्वेऽपि परोक्तद्वाराणामभावेन नवद्वाराणि यस्मिन्नित्युक्तेरनुचितत्वात्। निर्विकल्पसमाधिस्थस्य भोगप्राप्तिद्वाराणां लयादहं देहाद्भिन्न इत्येतावन्मात्रभानस्याप्यभावात्। नवद्वारे पुरे आस्ते इत्यस्य वैयर्थ्यापत्तेश्चेतिदिक्।
5.13 सर्वकर्माणि all actions? मनसा by the mind? संन्यस्य having renounced? आस्ते rests? सुखम् happily? वशी the selfcontrolled? नवद्वारे in the ninegated? पुरे in the city? देही the embodied? न not? एव even? कुर्वन् acting? न not? कारयन् causing to act.Commentary All actions -- (1) Nitya Karmas These are obligatory duties. Their performance does not produce any merit but their nonperformance produces demerit. Sandhyavandana? etc.? belong to this category.(2) Naimittika Karmas These Karmas are performed on the occurrence of some special events such as the birth of a son? eclipse? etc.(3) Kamya Karmas These are optional. They are intended for the attainment of some special ends (for getting rain? son? etc.)(4) Nishiddha Karmas These are forbidden actions such as theft? drinking liour? etc.(5) Prayaschitta Karmas Actions performed to neutralise the effects of evil actions or sins.The man who has controlled the senses renounces all actions by discrimination? by seeing inaction in action and rests happily in this body of nine openings (the ninegated city)? because he is free from cares? worries? anxieties and fear and his mind is ite calm and he enjoys the supreme peace of the Eternal. In this ninegated city the Self is the king. The senses? the mind? the subconscious mind? and the intellect are the inhabitants or subjects.The ignorant wordly man says? I am resting in the easychair. The man of wisdom who has realised that the Self is distinct from the body which is a product of the five elements? says? I am resting in this body. (Cf.XVIII.17?50)
5.13 Mentally renouncing all actions and self-controlled, the embodied one rests happily in the nine-gated city, neither acting nor causing others (body and senses) to act.
5.13 Mentally renouncing all actions, the self-controlled soul enjoys bliss in this body, the city of the nine gates, neither doing anything himself nor causing anything to be done.
5.13 The embodied man of self-control, having given up all actions mentally, continues happily in the town of nine gates, without doing or causing (others) to do anything at all.
5.13 Aste, he continues; sukham, happily; sannyasya, having given up; sarva-karmani, all actions-nitya, naimittika, kamya and nisiddha (prohibited actions); [See note on p. 128.-Tr.] manasa, mentally, through discriminating wisdom-i.e. having given up (all actions) by seeing inaction in action, etc. Freed from the activities of speech, mind and body, effortles, placid in mind, and devoid of all external wants which are different from the Self, he continues happily. This is what has been said. Where and how does the vasi, man of self-control, i.e. one who has his organs under control, remain? This is being answered: Nava-dvare pure, in the town with nine gates, of which seven [Two ears, two eyes nostrils, and mouth.] are in the head for one's own experiences, and two are below for urination and defecation. As possessed of those gates, it is called the 'town with nine gates'. Being like a town, the body is called a town with the Self as its only master. And it is inhabited by the organs, mind, intellect and objects, like citizens, as it were, which serve its needs and which are productive of many results and experience. Renouncing all actions, the dehi, embodied one, resides in that town with nine gates. Objection: What is the need of this specification? For all embodied beings, be they monks or not, reside in bodies to be sure! That being so, the specification is needless. The answer is: The embodied one, however, who is unenlightened, who perceives merely the aggregate of the body and organs as the Self, he, in his totality, thinks, 'I am in a house, on the ground, or on the seat.' For one who experiences the body alone as the Self, there can certainly be no such conviction as, 'I am in the body, like one's being in a house.' But, for one who realizes the Self as distinct from the aggregate of body etc. it becomes reasonable to have the conviction, 'I am in the bdoy. It is reasonable that as a result of knowledge in the form of discriminating wisdom, there can be a mental renunciation of the actions of others, which have been ignorantly superimposed on the supreme Self. Even in the case of one in whom has arisen discriminating wisdom and who has renounced all actions, there can be, like staying in a house, the continuance in the body itself-the town with nine gates-as a conseence of the persistence of the remnants of the results of past actions which have started bearing fruit, because the awareness of being distinct (from the body) arises while one is in the body itself. Form the point of veiw of the difference between the convictions of the enlightened and the unenlightened persons, the alifying words, 'He continues in the body itself', do have a purpose to serve. Although it has been stated that one continues (in the body) by relinishing actions of the body and organs ignorantly superimposed on the Self, still there may be the apprehesion that direct or indirect agentship inheres in the Self. Anticipating this, the Lord says: na eva kurvan, without himself doing anything at all; and na karayan, not causing (others) to do, (not) inducing the body and organs to activity. Objection: Is it that the direct or indirect agentship of the embodied one inheres in the Self and ceases to be after renunciation, as the movement of a traveller ceases with the stoppage of his movement? Or, is it that they do not exist owing to the very nature of the Self? As to this, the answer is: The Self by Its nature has neither direct nor indirect agentship. For it was stated, 'It is said that৷৷.This (Self) is unchangeable' (2.25). 'O son of Kunti, although existing in the body, It does not act, nor is It affected' (13.31). And it is also stated in the Upanisad, 'It seems to meditate, as it were; It seems to move, as it were' (Br. 4.3.7).
5.13. Having renounced all actions by mind, a man of self-control, dwells happily in his body, a nine-win-dowed mansion, neither performing, nor causing others to perform [actions].
5.13 Sarva - etc. [He would view as] : 'Just as for a person within a house there is no connection with dilapidation etc., that are found in the house, in the same way for me too residing in the body-house beautified with nine windows in the form of openings like the eyes etc., there is no connection with its attributes.' For -
5.13 The embodied self who is self-controlled, renounces all actions to the city of nine gates, i.e., the body with its sensory and motor functions which are nine in number. He discriminates that all actions are due to conjunction of the self with the body which is rooted in previous Karmas, and is not by Its own nature. [It means that the self merely rests in the body, without any identification with bodily activities.] Sri Krsna now teaches the natural condition of the self as It is:
5.13 The embodied self, mentally resigning all actions as belonging to the city of nine gates (i.e., the body) and becoming self-controlled, dwells happily, neither himself acting nor causing the body to act.
।।5.13।।परंतु जो यथार्थ ज्ञानी है वह ( वशी जितेन्द्रिय पुरुष ) समस्त कर्मोंको मनसे छोड़कर अर्थात् नित्य नैमित्तिक काम्य और निषिद्ध इन सब कर्मोंको कर्मादिमें अकर्मदर्शनरूप विवेकबुद्धिके द्वारा त्यागकर सुखपूर्वक स्थित हो जाता है। मन वाणी और शरीरकी चेष्टाको छोड़कर परिश्रमरहित प्रसन्नचित्त और आत्मासे अतिरिक्त अन्य सब बाह्य प्रयोजनोंसे निवृत्त हुआ ( वह ) सुखपूर्वक स्थित होता है ऐसे कहा जाता है। वशी जितेन्द्रिय पुरुष कहाँ और कैसे रहता है सो कहते हैं नौ द्वारवाले पुरमें रहता है। अभिप्राय यह कि दो कान दो नेत्र दो नासिका और एक मुख शब्दादि विषयोंको उपलब्ध करनेके ये सात द्वार शरीरके ऊपरी भागमें हैं और मलमूत्रका त्याग करनेके लिये दो नीचेके अङ्गमें हैं इन नौ द्वारोंवाला शरीर पुर कहलाता है। शरीर भी एक पुरकी भाँति पुर है जिसका स्वामी आत्मा है उस आत्माके लिये ही जिनके सब प्रयोजन हैं एवं जो अनेक फल और विज्ञानके उत्पादक हैं उन इन्द्रिय मन बुद्धि और विषयरूप पुरवासियोंसे जो युक्त है उस नौ द्वारवाले पुरमें देही सब कर्मोंको छोड़कर रहता है। पू0 इस विशेषणसे क्या सिद्ध हुआ संन्यासी हो चाहे असंन्यासी सभी जीव शरीरमें ही रहते हैं। इस स्थलमें विशेषण देना व्यर्थ है। उ0 जो अज्ञानी जीव शरीर और इन्द्रियोंके संघातमात्रको आत्मा माननेवाले हैं। वे सब घरमें भूमिपर या आसनपर बैठता हूँ ऐसे ही माना करते हैं क्योंकि देहमात्रमें आत्मबुद्धियुक्त अज्ञानियोंको घरकी भाँति शरीरमें रहता हूँ यह ज्ञान होना सम्भव नहीं। परंतु देहादिसंघातसे आत्मा भिन्न है ऐसा जाननेवाले विवेकीको मैं शरीरमें रहता हूँ यह प्रतीति हो सकती है। तथा निर्लेप आत्मामें अविद्यासे आरोपित जो परकीय ( देहइन्द्रियादिके ) कर्म हैं उनका विवेकविज्ञानरूप विद्याद्वारा मनसे संन्यास होना भी सम्भव है। जिससे विवेकविज्ञान उत्पन्न हो गया है ऐसे सर्वकर्मसंन्यासीका भी घरमें रहनेकी भाँति नौ द्वारवाले शरीररूप पुरमें रहना प्रारब्धकर्मोंके अवशिष्ट संस्कारोंकी अनुवृत्तिसे बन सकता है क्योंकि शरीरमें ही प्रारब्धफलभोगका विशेष ज्ञान होना सम्भव है। अतः ज्ञानी और अज्ञानीकी प्रतीतिके भेदकी अपेक्षासे देहे एव आस्ते इस विशेषणका फल अवश्य ही है। यद्यपि कार्य करण और कर्म जो अविद्यासे आत्मामें आरोपित हैं उन्हें छोड़कर रहता है ऐसा कहा है तथापि आत्मासे नित्य सम्बन्ध रखनेवाले कर्तापन और करानेकी प्रेरकता ये दोनों भाव तो उस ( आत्मा ) में रहेंगे ही। इस शङ्कापर कहते हैं स्वयं न करता हुआ और शरीरइन्द्रियादिसे न करवाता हुआ अर्थात् उनको कर्मोंमें प्रवृत्त न करता हुआ ( रहता है )। पू0 जैसे गमन करनेवालेकी गति गमनरूप व्यापारका त्याग करनेसे नहीं रहती वैसे ही आत्मामें जो कर्तृत्व और कारयितृत्व हैं वह क्या आत्माके नित्य सम्बन्धी होते हुए ही संन्याससे नहीं रहते अथवा स्वभावसे ही आत्मामें नहीं हैं उ0 आत्मामें कर्तृत्व और कारयितृत्व स्वभावसे ही नहीं हैं क्योंकि यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। हे कौन्तेय यह आत्मा शरीरमें स्थित हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है। ऐसा कह चुके हैं एवं ध्यान करता हुआसा क्रिया करता हुआसा। इस श्रुतिसे भी यही सिद्ध होता है।
।।5.13।। सर्वाणि कर्माणि सर्वकर्माणि संन्यस्य परित्यज्य नित्यं नैमित्तिकं काम्यं प्रतिषिद्धं च तानि सर्वाणि कर्माणि मनसा विवेकबुद्ध्या कर्मादौ अकर्मसंदर्शनेन संत्यज्येत्यर्थः आस्ते तिष्ठति सुखम्। त्यक्तवाङ्मनःकायचेष्टः निरायासः प्रसन्नचित्तः आत्मनः अन्यत्र निवृत्तसर्वबाह्यप्रयोजनः इति सुखम् आस्ते इत्युच्यते। वशी जितेन्द्रिय इत्यर्थः। क्व कथम् आस्ते इति आह नवद्वारे पुरे। सप्त शीर्षण्यानि आत्मन उपलब्धिद्वाराणि अवाग् द्वे मूत्रपुरीषविसर्गार्थे तैः द्वारैः नवद्वारं पुरम् उच्यते शरीरम् पुरमिव पुरम् आत्मैकस्वामिकम् तदर्थप्रयोजनैश्च इन्द्रियमनोबुद्धिविषयैः अनेकफलविज्ञानस्य उत्पादकैः पौरैरिव अधिष्ठितम्। तस्मिन् नवद्वारे पुरे देही सर्वं कर्म संन्यस्य आस्ते किं विशेषणेन सर्वो हि देही संन्यासी असंन्यासी वा देहे एव आस्ते तत्र अनर्थकं विशेषणमिति। उच्यते यस्तु अज्ञः देही देहेन्द्रियसंघातमात्रात्मदर्शी स सर्वोऽपि गेहे भूमौ आसने वा आसे इति मन्यते। न हि देहमात्रात्मदर्शिनः गेहे इव देहे आसे इति प्रत्ययः संभवति। देहादिसंघातव्यतिरिक्तात्मदर्शिनस्तु देहे आसे इति प्रत्ययः उपपद्यते। परकर्मणां च परस्मिन् आत्मनि अविद्यया अध्यारोपितानां विद्यया विवेकज्ञानेन मनसा संन्यास उपपद्यते। उत्पन्नविवेकज्ञानस्य सर्वकर्मसंन्यासिनोऽपि गेहे इव देहे एव नवद्वारे पुरे आसनम् प्रारब्धफलकर्मसंस्कारशेषानुवृत्त्या देह एव विशेषविज्ञानोत्पत्तेः। देहे एव आस्ते इति अस्त्येव विशेषणफलम् विद्वदविद्वत्प्रत्ययभेदापेक्षत्वात्।।यद्यपि कार्यकरणकर्माणि अविद्यया आत्मनि अध्यारोपितानि संन्यस्यास्ते इत्युक्तम् तथापि आत्मसमवायि तु कर्तृत्वं कारयितृत्वं च स्यात् इति आशङ्क्य आह नैव कुर्वन् स्वयम् न च कार्यकरणानि कारयन् क्रियासु प्रवर्तयन्। किं यत् तत् कर्तृत्वं कारयितृत्वं च देहिनः स्वात्मसमवायि सत् संन्यासात् न संभवति यथा गच्छतो गतिः गमनव्यापारपरित्यागे न स्यात् तद्वत् किं वा स्वत एव आत्मनः न अस्ति इति अत्र उच्यते न अस्ति आत्मनः स्वतः कर्तृत्वं कारयितृत्वं च। उक्तं हि अविकार्योऽयमुच्यते (गीता 2.25) शरीरस्थोऽपि न करोति न लिप्यते (गीता 13.31) इति। ध्यायतीव लेलायतीव (बृ0 उ0 4.34) इति श्रुतेः।।किञ्च
।।5.13।।सर्वकर्माणि इत्यस्य स्वरूपेण कर्मत्यागोऽर्थ इति प्रतीतिनिवारणाय प्रतिपाद्यमाह पुनरिति। प्राक्कर्तृत्वाभिमानत्याग उक्तः इदानीं तु कारयितृत्वाभिमानत्यागोऽपीति स्पष्टनम्। स्वरूपेण कर्मत्याग एवोच्यत इत्येतन्निराचष्टे मनसेति। अन्यथा तद्व्यर्थं स्यादिति भावः।
।।5.13।।पुनः सन्न्यासशब्दार्थं स्पष्टयति सर्वकर्माणीति। मनसेति विशेषणादभिमानत्यागः।
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।5.13।।
সর্বকর্মাণি মনসা সংন্যস্যাস্তে সুখং বশী৷ নবদ্বারে পুরে দেহী নৈব কুর্বন্ন কারযন্৷৷5.13৷৷
সর্বকর্মাণি মনসা সংন্যস্যাস্তে সুখং বশী৷ নবদ্বারে পুরে দেহী নৈব কুর্বন্ন কারযন্৷৷5.13৷৷
સર્વકર્માણિ મનસા સંન્યસ્યાસ્તે સુખં વશી। નવદ્વારે પુરે દેહી નૈવ કુર્વન્ન કારયન્।।5.13।।
ਸਰ੍ਵਕਰ੍ਮਾਣਿ ਮਨਸਾ ਸਂਨ੍ਯਸ੍ਯਾਸ੍ਤੇ ਸੁਖਂ ਵਸ਼ੀ। ਨਵਦ੍ਵਾਰੇ ਪੁਰੇ ਦੇਹੀ ਨੈਵ ਕੁਰ੍ਵਨ੍ਨ ਕਾਰਯਨ੍।।5.13।।
ಸರ್ವಕರ್ಮಾಣಿ ಮನಸಾ ಸಂನ್ಯಸ್ಯಾಸ್ತೇ ಸುಖಂ ವಶೀ. ನವದ್ವಾರೇ ಪುರೇ ದೇಹೀ ನೈವ ಕುರ್ವನ್ನ ಕಾರಯನ್৷৷5.13৷৷
സര്വകര്മാണി മനസാ സംന്യസ്യാസ്തേ സുഖം വശീ. നവദ്വാരേ പുരേ ദേഹീ നൈവ കുര്വന്ന കാരയന്৷৷5.13৷৷
ସର୍ବକର୍ମାଣି ମନସା ସଂନ୍ଯସ୍ଯାସ୍ତେ ସୁଖଂ ବଶୀ| ନବଦ୍ବାରେ ପୁରେ ଦେହୀ ନୈବ କୁର୍ବନ୍ନ କାରଯନ୍||5.13||
sarvakarmāṇi manasā saṅnyasyāstē sukhaṅ vaśī. navadvārē purē dēhī naiva kurvanna kārayan৷৷5.13৷৷
ஸர்வகர்மாணி மநஸா ஸஂந்யஸ்யாஸ்தே ஸுகஂ வஷீ. நவத்வாரே புரே தேஹீ நைவ குர்வந்ந காரயந்৷৷5.13৷৷
సర్వకర్మాణి మనసా సంన్యస్యాస్తే సుఖం వశీ. నవద్వారే పురే దేహీ నైవ కుర్వన్న కారయన్৷৷5.13৷৷
5.14
5
14
।।5.14।। परमेश्वर मनुष्योंके न कर्तापनकी, न कर्मोंकी और न कर्मफलके साथ संयोगकी रचना करते हैं; किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है।
।।5.14।। लोकमात्र के लिए प्रभु (ईश्वर) न कर्तृत्व, न कर्म और न कर्मफल के संयोग को रचता है। परन्तु प्रकृति (सब कुछ) करती है।।
।।5.14।। वेदों में ईश्वर के विषय में प्रतिपादन करते हुये कहा गया है कि वह सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् सर्वद्रष्टा कर्माध्यक्ष और कर्मफलदाता है जो समस्त जीवों को उनके कर्मों के अनुसार ही न्यायपूर्वक फल प्रदान करता है। यहाँ परमात्मा का वर्णन जगत् के साथ उसके सम्बन्ध को दिखाकर किया गया है।परमात्मा न कर्तृत्व को उत्पन्न करता है और न ही कर्मों का अनुमोदन करता है। कर्म का फल के साथ संयोग कराना यह भी उसका कार्य नहीं।अनेक व्याख्याकारों के मतानुसार इस श्लोक में प्रभु शब्द से कर्माध्यक्ष कर्मफलदाता ईश्वर को सूचित किया गया है परन्तु भगवान् के कथन से उनके मत की पुष्टि नहीं होती। विचार करने पर कोई भी विद्यार्थी स्पष्ट रूप से समझ सकता है कि यहाँ भगवान अर्जुन को निरुपाधिक चैतन्य आत्मा का स्वरूप समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यहाँ आत्मा का तीन शरीरों स्थूल सूक्ष्म और कारण के साथ सम्बन्ध बताया गया है।यदि श्रीकृष्ण के कथन के अनुसार आत्मा का कर्तृत्व कर्म और कर्मफल संयोग से कोई सम्बन्ध नहीं है तब हमारे जीवन का भी आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिये क्योंकि कर्तृत्वादि से भिन्न हमारे जीवन का अस्तित्व ही नहीं है। तथापि आत्मा के अभाव में किसी भी वस्तु का न अस्तित्व है और न क्रियारूप व्यापार। इसलिये आत्मा और अनात्मा के बीच किसीनकिसी प्रकार का सम्बन्ध होना अनिवार्य है और उस विचित्र सम्बन्ध रहित सम्बन्ध का वर्णन यहाँ किया गया है।यह तो सर्वविदित है कि मनुष्य की नाक अपनी जगह पर सुस्थिर रहती है। उसमें स्वेच्छा से अथवा अनिच्छा से गति नहीं होती। और फिर भी यदि कोई व्यक्ति जल में अपने मुख को देखते हुये यह पाये कि उसकी नाक किसी कील पर लटकी हुयी वस्तु के समान हिल रही है तब वह क्या सोचेगा वह जानेगा कि नाक अपने स्थान पर सुस्थित है तथापि जल में वह उसे हिलती दिखाई दे रही है। स्पष्ट है कि चेहरे के प्रतिबिम्ब की स्थिति जल की स्थिति पर निर्भर करती है। आत्मा में न कर्तृत्व है और न क्रिया परन्तु उपाधियों में व्यक्त आत्मा जिसे जीव कहते हैं के लिए कर्तृत्व कर्म और फल संयोग प्राप्त हो जाते हैं।विद्युत स्वयं स्थिर शक्ति है। उसके उत्पादन के पश्चात् उसका वितरण करने पर अनेक प्रकार के उपकरणों के माध्यम से वह अनेक रूपों में व्यक्त होती है। चैतन्यस्वरूप आत्मा भी जड़ उपाधियों से परिच्छिन्नसा हुआ कर्तृत्वादि को प्राप्त होता है।कर्मों का कर्ता और भोक्ता जीव है आत्मा नहीं। स्वभाव अर्थात् त्रिगुणात्मिका माया के सम्बन्ध से ही आत्मा में कर्तृत्व और भोक्तृत्वादि गुण प्रतीत होते हैं।पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा प्रकृति के गुणों से सर्वथा निर्लिप्त ही है। भगवान् कहते है
5.14।। व्याख्या--'न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः'--सृष्टिकी रचनाका कार्य सगुण भगवान्का है, इसलिये 'प्रभुः' पद दिया है। भगवान् सर्वसमर्थ हैं और सबके शासक, नियामक हैं। सृष्टिरचनाका कार्य करनेपर भी वे अकर्ता ही हैं (गीता 4। 13)। किसी भी कर्मके कर्तापनका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ नहीं है। मनुष्य स्वयं ही कर्मोंके कर्तापनकी रचना करता है। सम्पूर्ण कर्म प्रकृतिके द्वारा किये जाते हैं ;परन्तु मनुष्य अज्ञानवश प्रकृतिसे तादात्म्य कर लेता है और उसके द्वारा होनेवाले कर्मोंका कर्ता बन जाता है (गीता 3। 27)। यदि कर्तापनका सम्बन्ध भगवान्का बनाया हुआ होता, तो भगवान् इसी अध्यायके आठवें श्लोकमें
।।5.14।।यतः न कर्तृत्वमिति। एष आत्मा न किंचित् कस्यचित् करोति प्रवृत्तिस्तु अस्य स्वभावमात्रं न फलेप्सया। तथाहि संवेदनात्मनो भगवतः प्रकाशानन्दस्वातन्त्र्यपरमार्थस्वभावस्य स्वभावमात्राक्षिप्तसमस्तसृष्टिस्थितिसंहृतिप्रबन्धस्य स्वस्वभावान्न मनागप्यपायो जातुचित् इति न कर्त्रवस्था अतिरिक्तं कर्तृत्वं किंचित्। तदभावात् कानि कर्माणि तदसत्वे कस्य फलम् को वा कर्मफलसंबन्धः कर्म अत्र क्रिया कर्मफलमपि (S क्रियाफलमपि च कर्म ) च क्रियाफलमेव। तथाहि दण्डचक्रपरिवर्तनादिक्रिया नान्या। न च सा घटनिष्पादिता संविदन्तवंर्त्तित्त्वात्। अस्माच्चेतनः (K तस्मात् omits अस्मात् सिद्धान्तः) स्वतन्त्रः परमेश्वर एव तथा तथा भाति इति न तद्व्यतिरिक्तं क्रिया तत्फलादिकमिति सिद्धान्तः।
।।5.14।।अस्य देवतिर्यङ्मनुष्यस्थावरात्मना प्रकृतिसंसर्गेण वर्तमानस्य लोकस्य देवाद्यसाधारणं कर्तृत्वं तत्तदसाधारणानि कर्माणि तत्तत् कर्म जन्यदेवादिफलसंयोगं च अयं प्रभुः अकर्मवश्यः स्वाभाविकस्वरूपेण अवस्थित आत्मा न सृजति नोत्पादयति।कः तर्हि स्वभावः तु प्रवर्तते स्वभावः प्रकृतिवासना अनादिकालप्रवृत्तपूर्वपूर्वकर्मजनितदेवाद्याकारप्रकृतिसंसर्गकृततत्तदात्माभिमानजनितवासनाकृतम् ईदृशं कर्तृत्वादिकं सर्वम् न स्वरूपप्रयुक्तम् इत्यर्थः।
।।5.14।।आत्मनो यदुक्तं कारयितृत्वं नास्तीति तत्प्रपञ्चयति नेत्यादिना। यद्यपि लोकस्य कर्तृत्वं न सृजतीति नास्ति कारयितृत्वं तथापि रथशकटादीनि कुर्वन्भवति कर्तेत्याशङ्क्याह न कर्माणीति। तथापि भोजयितृत्वेन विक्रियावत्त्वं दुष्परिहरमित्याशङ्क्याह न कर्मेति। कस्य तर्हि प्रवर्तकत्वं तदाह स्वभावस्त्विति। कुर्विति कर्तृत्वं लोकस्य न सृजत्यात्मेति संबन्धः। रथादीनां कर्मत्वं साधयति ईप्सितेति। आत्मनो देहादिस्वामित्वेन प्रभुत्वं रथादिकृतवतो लोकस्य रथादिफलेन संबन्धमपि न सृजत्यात्मेत्यात्मनो भोजयितृत्वं प्रत्याचष्टे नापीति। चतुर्थपादं शङ्कोत्तरत्वेनावतारयति यदीत्यादिना। स्वभाववादस्तर्हीत्याशङ्क्य व्याकरोति अविद्यालक्षणेति। प्रकृतेर्विद्याभावत्वं व्युदसितुं मायेत्युक्तं सा च सप्तमे वक्ष्यते तेन प्रधानविलक्षणेत्याह दैवी हीति।
।।5.14।।किञ्चआत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः 6।5 इत्युक्तत्वादात्मन एव निरोधे समत्वे सर्वं सेत्स्यतीति। अन्यथा कर्तृत्वाद्यहङ्कारादिना मिथ्याचरणमेव भविष्यति। तत्र च हेतुरात्मैव नान्यः सोऽपि प्राकृतस्वभावमय इति तन्निरोधं दृढयितुं सिद्धान्तमाह न कर्तृत्वमिति। प्रभुरीश्वरः परमात्मा लोकस्य प्राकृतशरीराभिमानिनः नानायोनिबीजाशयस्वभावकृतिकस्य कर्तृत्वं कर्माणि तत्फलसंयोगं च न सृजति। किन्तु तादृशः स्वभावो लोकनिष्ठः स्वत एव प्रवर्तते। अन्यथा परमात्मनो वैषम्यनैर्घृण्यप्रसङ्गः।
।।5.14।।देवदत्तस्य स्वगतैव गतिर्यथा स्थितौ न भवति एवमात्मनोऽपि कर्तृत्वं कारयितृत्वं च स्वगतमेव सत्संन्यासे सति न भवति अथवा नभसि तलमलिनतादिवद्वस्तुवृत्त्या तत्र नास्त्येवेति संदेहापोहायाह लोकस्य देहादेः कर्तृत्वं प्रभुरात्मा स्वामी न सृजति त्वं कुर्विति नियोगेन तस्य कारयिता न भवतीत्यर्थः। नापि लोकस्य कर्माणीप्सिततमानि घटादीनि स्वयं सृजति कर्तापि न भवतीत्यर्थः। नापि लोकस्य कर्म कृतवतस्तत्फलसंबन्धं सृजति भोजयितापि भोक्तापि न भवतीत्यर्थः।स समानः सन्नुभौ लोकावनुसंचरति ध्यायतीव लेलायतीव सुधीः इत्यादिश्रुतेः। अत्रापिशरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते इत्युक्तेः यदि किंचिदपि स्वतो न कारयति न करोति चात्मा कस्तर्हि कारयन्कुर्वंश्च प्रवर्तत इति तत्राह स्वभावस्तु अज्ञानात्मिका दैवी माया प्रकृतिः प्रवर्तते।
।।5.14।।ननुएष एव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषत एष एवासाधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्योऽधो निनीषते इत्यादिश्रुतेः परमेश्वरेणैव शुभाशुभफलेषु कर्मसु कर्तृत्वेन प्रयुज्यमानोऽस्वतन्त्रः पुरुषः कथं तानि कर्माणि त्यजेत्। ईश्वरेणैव ज्ञानमार्गे प्रयुज्यमानः शुभान्यशुभानि च त्यक्ष्यतीति चेत् एवं सति वैषम्यनैर्घृण्याभ्यां प्रयोजककर्तृत्वादीश्वरस्यापि पुण्यपापसंबन्धः स्यादित्याशङ्क्याह न कर्तृत्वमिति द्वाभ्याम्। प्रभुरीश्वरः जीवलोकस्य कर्तृत्वादिकं न सृजति किंतु जीवस्यैव स्वभावोऽविद्यैव कर्तृत्वादिरूपेण प्रवर्तते। अनाद्यविद्याकामवशात्प्रवृत्तिस्वभावं जीवलोकमीश्वरः कर्मसु नियुङ्क्ते न तु स्वयमेव कर्तृत्वादिकमुत्पादयतीत्यर्थः।
।।5.14।।एवमौपाधिकस्य स्वरूपस्योपाधिषु सन्न्यास उक्तः अथ स्वस्मिन्ननुसन्धेयस्वाभाविकरूपमुच्यत इति सङ्गत्यभिप्रायेणाह साक्षादिति। विचित्रजनविषयेणलोकस्य इत्यनेनाभिप्रेतमुपाधिवैचित्र्यादिकं दर्शयितुंअस्येत्याद्युक्तम्। कर्तृत्वं प्रयत्नादिरूपम् कर्माणि शरीरेन्द्रियादिचेष्टाः। यद्यात्मनां स्वाभाविकमिदं कर्तृत्वादिकं तदा सर्वेषामेकरूपं तत् स्यात् न च तथा दृश्यत इत्यभिप्रायेणदेवाद्यसाधारणं कर्तृत्वमित्याद्युक्तम्। देवाद्यसाधारणं देवत्वादिजातिमत्पिण्डपरिग्रहदशाप्रतिनियतमित्यर्थः। फलसंयोगः फलानुभवः। प्रकरणवशात् प्रभुशब्दोऽत्र जीवविषय इति प्रदर्शनार्थंअयं प्रभुरित्युक्तम्। जीवे प्रभुशब्दाभिप्रेतमाहअकर्मवश्यः स्वाभाविकस्वरूपेणावस्थित इति। अत्र हि प्रकरणेमयि सर्वाणि 3।30 इत्यादिना जीवस्य कर्तृत्वं परमात्मन्यध्यस्यते अतोऽत्राकर्तृविषयः प्रभुशब्दो न परविषय इति भावः।न सृजति इत्यत्रसृज विसर्गे इति धातोस्त्यागार्थत्वे कर्तृत्वादित्रयं स्वीकरोतीति वाक्यार्थः स्यादिति तद्व्युदासायाह नोत्पादयतीति। कारणान्तरादर्शनात् तस्यैव कर्तृत्वमित्यभिप्रायेण चतुर्थपादस्य शङ्कामाहकस्तर्हीति। सृजतीति शेषः। स्वभावशब्दं प्रकरणोपयुक्तविशेषे स्थापयितुं वाच्यं तावदाहप्रकृतीति। ननु चेतनस्यात्मनः कर्तृत्वादिकं नास्ति अचेतनायास्तु वासनायाश्चेतनगुणमात्रभूतायाः कर्तृत्वादिकमिति कथमिदं ज्ञायते यद्यात्मनः स्वतश्शुद्धस्य न कर्तृत्वं तर्हि तस्य वासनाऽपि कुतः समागता यदि न कुतश्चित् तदा वासनैव स्वाभाविकीति तत्कृतकर्तृत्वादिकमपि स्वाभाविकं स्यात् यदि कुतश्चिद्धेतोः तदा तस्यापि स्वाभाविकत्वे पूर्वदोषः औपाधिकत्वे त्वकर्तुरात्मनस्तदागमोऽपि कुतः यदि वासनया तर्ह्यन्योन्याश्रयणम् यद्यन्यस्मात्कुतश्चित् तत्रापि तथैवेत्यनवस्थेत्यादिचोद्यनिरसनाय तुशब्दः। तदाह अनादिकालेति। बीजाङ्कुरन्यायादन्योन्याश्रयादिपरिहारः। वासनाहेतुवैचित्र्यसिद्ध्यर्थंदेवाद्याकारेत्याद्युक्तम्। यथा तप्तायःपिण्डे वह्निसंसर्गाद्वह्नित्वबुद्धिः तथाऽत्रेति दर्शयितुंसंसर्गकृतशब्दः।वासनाकृतं वासनाख्यविशेषहेतूपाधिकमित्यर्थः।
।।5.14।।ननूपदेशादिना कारणे को दोषः इति चेत्तत्राह न कर्तृत्वमिति। प्रभुः ईश्वरः लोकस्य कर्तृत्वं न सृजति न कर्माणि सृजति न वा कर्मफलसंयोगं सृजति। अतः स्वयमपि किमिति तथोपदिशेदिति भावः। नन्वीश्वरोत्पादनाभावे लोकः कथं प्रवर्तते इत्यत आह स्वभावस्तु प्रवर्तत इति। जीवस्य स्वभावः प्रकृत्यात्मकः प्रवर्त्तते कर्तृत्वादिरूपेण।
।।5.14।।नन्वेवं भृत्यवत्कर्तृत्वं स्वामिवत्कारयितृत्वं वास्य मास्तु। अयस्कान्तवदविकारस्यैव सतः कर्त्रादिधर्मकाहंकारादिप्रवर्तकत्वमस्त्वित्याशङ्क्याह न कर्तृत्वमिति। कर्तृत्वमहंकारस्य कर्माणीन्द्रियाणां वचनादानादीनि श्रवणदर्शनादीनि च। लोकस्य लोक्यते प्रकाश्यत इति लोको जडवर्गः प्रभुश्चिदात्मा सूर्य इवास्मदादीनां प्रकाशकोऽपि न कर्मादौ प्रवर्तकस्तद्वदस्य कर्मफलसंयोगं वा न सृजति किंतु यो यादृक् यस्य स्वभावः स तथा प्रवर्तते। यथा सूर्येऽभ्युदिते कमलानां विकसनं कुमुदानामुन्मुद्रणं चेति तद्वदेवमात्मनि प्रकाशमाने घटादयो न चेष्टन्ते मनुष्यादयस्तु चेष्टन्ते। नत्वात्मा कस्यचित्प्रवर्तको निवर्तको वा। लोहायस्कान्तयोरिव सत्यानृतयोरात्मानात्मनोः संबन्धाभावादिति भावः।
।।5.14।।नैव कुर्वन्न कारयन्नित्युक्तं प्रपञ्चयति नेति। प्रभुरात्मा लोकस्य देहादेः कर्तृत्वं न सृजति न घटप्रासादादीनि कर्माणि नापि घटादिकृतवतस्तत्फलेन संयोगम्। अनेन भोजयितृत्वमप्यात्मनो वारितम्। उपलक्षणमेतत् भोक्तृत्वस्य। विविधनिषेधस्यापि तर्हि कस्य कर्तृत्वादिकमित्यपेक्षायामाह। स्वभावोऽविद्यालक्षणा प्रकृतिर्माया कुर्वन्कारयन्प्रवर्तते। यत्तु स्वस्मिन् भावस्यापि आरोपिता सत्ताऽस्येति स्वभावोऽन्तःकरणं तदेव प्रवर्तते कृत्यै मुक्त्यै वेत्यर्थ इति। तन्न अन्तःकरणस्यापि प्रकृत्यधीनप्रवृत्तिकत्वेन साकाङ्क्षायाः क्लिष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वात्।नन्वेष साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषत एष एवासाधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्योऽधो निनीषते इत्यादिश्रुतेःअज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा।। इतिस्मृतेश्च परमेश्वरेणैव शुभाशुभफलेषु कर्मसु कर्तृत्वेन प्रयुज्यमानः अस्वतन्त्रः पुरुषः कथं तानि कर्माणि त्यजेत। ईश्वरेणऐव ज्ञानमार्गे प्रयुज्यमानस्त्यक्ष्यतीति चेत्। एवंसतिवैषम्यनैर्घृण्याभ्यां प्रयोजककर्तृत्वादीश्वरस्यापि पुण्यपापसंबन्धः स्यादित्याशङ्क्याह नेति। द्वाभ्यामित्येवभुत्थाप्यायमपि श्लोको भाष्यकृद्भिरीश्वरत्वेन कुतो न व्याख्यात इति चेत् अतीतानन्तरश्लोकेन क्लिष्टकल्पनां विनैव संगतिसंभवमभिप्रेत्येति गृहाण।
5.14 न not? कर्तृत्वम् agency? न not? कर्माणि actions? लोकस्य for this world? सृजति creates? प्रभुः the Lord? न not? कर्मफलसंयोगम् union with the fruits of actions? स्वभावः nature? तु but? प्रवर्तते leads to action.Commentary The Lord does not create agency or doership. He does not press anyone to do actions. He never tells anyone? Do this or do that. He does not bring about the union with the fruit of actions. It is Prakritit or Nature that does everything. (Cf.III.33)
5.14 Neither agency nor actions does the Lord create for the world, nor union with the fruits of actions. But it is Nature that acts.
5.14 The Lord of this universe has not ordained activity, or any incentive thereto, or any relation between an act and its consequences. All this is the work of Nature.
5.14 The Self does not create agentship or any objects (of desire) for anyone; nor association with the results of actions. But it is Nature that acts.
5.14 Prabhuh, the Self; na srjati, does not create; lokasya, for anyone; kartrtvam, agentship, by saying 'Do this'; or even karmani, any objects-such objects as chariot, pot, palace, etc. which are intensely longed for; nor even karma-phala-samyogam, association with the results of actions-association of the creator of a chariot etc. with the result of his work. Objection: If the embodied one does not do anything himself, and does not make others do, then who is it that engages in work by doing and making others do? The answer is: Tu, but; it is svabhavah, Nature- one's own (sva) nature (bhava)-characterized as ignorance, Maya, which will be spoken of in, 'Since this divine Maya' (7.14); pravartate, that acts. But from the highest standpoint-
5.14. The Lord (Self) acires neither the state of being a creator of the world, nor the actions, nor the connecting with the fruits of their actions. But it is the inherent nature [in It] that exerts.
5.14 Na kartrtvam etc. This Soul does not do anything for anything. But, Its exertion is only Its inherent nature and it is not due to any desire for results. For, the Bhagavat, the Conscious Energy Itself Whose ultimately true inherent nature is the Illumination-Bliss-Freedom-of-Will, and Which brings out, merely by Its own nature, the continuous series of creation, manitenance and withdrawl of all (the Universe); hence in It, there is never a departure, even to a little extent, from Its own inherent nature. Hence there is no such thing as a particular stage of being a creator i.e., a creatorhood separate [from Itself]. Because that does not exist, what actions can be there ? If actions are not there, the fruit is to be of what or for whom ? Then what connection could be three with the fruit of action ? [Further], 'action' in this context is [only] the kriya-[sakti] or creative energy [which is nothing but His will], and 'result of action' too in only the fruit of this kriya. For example, the activity like rotating the [potter's] wheel by the stick is not [actually] different [from what is to be created i.e., the pot]. Nor the creator of the pot is different from it. For, all exist within the Conscious Energy. Therefore, it is only the Animate Sovereign Supreme Lord that manifests in this and that form. Therefore there exist no activity and its result etc., apart from That. This is demonstrated conclusion [of the scriptures]. So, if there is no activity or its result [as stated above], then even the result, ordained in [the scriptural] injunctions cannot have a status of being produced by the unseen [cause]. After saying this in the other first hemistich [of the following verse], the Lord justifies in the other hemistich the same statement with reference to the men of mundane life :-
5.14 When the world of embodied selves exists in conjunction with the Prakrti in the form of gods, animals, men, immobile things etc., the master (Prabhu i.e., the Jiva who is the master of the body), who is not subject to Karma and is established in Its own essential nature, does not bring about: (i) the agency of gods, men etc. (ii) their manifold and particular actions and (iii) their connection with the fruits in the form of embodiment as gods etc., resulting from their actions. Who then brings about agency etc.? It is only the tendencies that act. A tendency (Svabhava) is subtle impressions (Vasanas) originating from Prakrti. The meaning is that agency, etc., do not originate from the natural or pristine condition of the self but are generated by the subtle impressions created by misconceiving those forms of Prakrti etc., as of the self. This is the result of the conjunction of the self with Prakrti in the form of gods, etc., which has been generated by the flow of previous Karmas brought about in beginningless time.
5.14 The lord of the body (the self i.e., the Jiva) does not create agency, nor actions, nor union with the fruits of actions in relation to the world of selves. It is only the inherent tendencies that function.
।।5.14।।देहादिका स्वामी आत्मा न तो तू अमुक कर्म कर इस प्रकार लोगोंके कर्तापनको उत्पन्न करता है और न रथ घट महल आदि कर्म जो अत्यन्त इष्ट हैं उनको रचता है तथा न रथादि बनानेवालेका उसके कर्मफलके साथ संयोग ही रचता है यदि यह देहादिका स्वामी आत्मा स्वयं कुछ भी नहीं करताकराता तो फिर यह सब कौन कर रहा और करा रहा है इसपर कहते हैं स्वभाव ही बर्तता है अर्थात् जो अपना भाव है अविद्या जिसका स्वरूप है जो दैवी हि इत्यादि श्लोकोंसे आगे कही जानेवाली है वह प्रकृति यानी माया ही सब कुछ कर रही है।
।।5.14।। न कर्तृत्वं स्वतः कुरु इति नापि कर्माणि रथघटप्रासादादीनि ईप्सिततमानि लोकस्य सृजति उत्पादयति प्रभुः आत्मा। नापि रथादि कृतवतः तत्फलेन संयोगं न कर्मफलसंयोगम्। यदि किञ्चिदपि स्वतः न करोति न कारयति च देही कः तर्हि कुर्वन् कारयंश्च प्रवर्तते इति उच्यते स्वभावस्तु स्वो भावः स्वभावः अविद्यालक्षणा प्रकृतिः माया प्रवर्तते दैवी हि इत्यादिना वक्ष्यमाणा।।परमार्थतस्तु
।।5.14।।ननु कर्तृत्वमित्येतत्प्रागुक्तान्न विशिष्यत इत्यत आह न चेति। दर्शनादिकं कुर्वन्नेव नैव किञ्चित्करोमीति मन्यत इत्युक्तम्। तर्हि मिथ्या ज्ञानी प्रसज्येतेत्याशङ्कानिरासाय परमेश्वरप्रेरितः कुर्वन् कारयन् वस्तुतः स्वातन्त्र्येण न करोति न कारयति चेत्यनेनाहेत्यर्थः। अस्य जीवविषयत्वे प्रभुरित्येतदसम्भवीत्यत आह प्रभुर्हीति। अनेन विभुरित्युपपादितप्रायम्।
।।5.14।।न च करोति वस्तुत इत्याह न कर्तृत्वमिति। प्रभुर्हि जीवो जडमपेक्ष्य।
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5.14।।
ন কর্তৃত্বং ন কর্মাণি লোকস্য সৃজতি প্রভুঃ৷ ন কর্মফলসংযোগং স্বভাবস্তু প্রবর্ততে৷৷5.14৷৷
ন কর্তৃত্বং ন কর্মাণি লোকস্য সৃজতি প্রভুঃ৷ ন কর্মফলসংযোগং স্বভাবস্তু প্রবর্ততে৷৷5.14৷৷
ન કર્તૃત્વં ન કર્માણિ લોકસ્ય સૃજતિ પ્રભુઃ। ન કર્મફલસંયોગં સ્વભાવસ્તુ પ્રવર્તતે।।5.14।।
ਨ ਕਰ੍ਤਰਿਤ੍ਵਂ ਨ ਕਰ੍ਮਾਣਿ ਲੋਕਸ੍ਯ ਸਰਿਜਤਿ ਪ੍ਰਭੁ। ਨ ਕਰ੍ਮਫਲਸਂਯੋਗਂ ਸ੍ਵਭਾਵਸ੍ਤੁ ਪ੍ਰਵਰ੍ਤਤੇ।।5.14।।
ನ ಕರ್ತೃತ್ವಂ ನ ಕರ್ಮಾಣಿ ಲೋಕಸ್ಯ ಸೃಜತಿ ಪ್ರಭುಃ. ನ ಕರ್ಮಫಲಸಂಯೋಗಂ ಸ್ವಭಾವಸ್ತು ಪ್ರವರ್ತತೇ৷৷5.14৷৷
ന കര്തൃത്വം ന കര്മാണി ലോകസ്യ സൃജതി പ്രഭുഃ. ന കര്മഫലസംയോഗം സ്വഭാവസ്തു പ്രവര്തതേ৷৷5.14৷৷
ନ କର୍ତୃତ୍ବଂ ନ କର୍ମାଣି ଲୋକସ୍ଯ ସୃଜତି ପ୍ରଭୁଃ| ନ କର୍ମଫଲସଂଯୋଗଂ ସ୍ବଭାବସ୍ତୁ ପ୍ରବର୍ତତେ||5.14||
na kartṛtvaṅ na karmāṇi lōkasya sṛjati prabhuḥ. na karmaphalasaṅyōgaṅ svabhāvastu pravartatē৷৷5.14৷৷
ந கர்தரித்வஂ ந கர்மாணி லோகஸ்ய ஸரிஜதி ப்ரபுஃ. ந கர்மபலஸஂயோகஂ ஸ்வபாவஸ்து ப்ரவர்ததே৷৷5.14৷৷
న కర్తృత్వం న కర్మాణి లోకస్య సృజతి ప్రభుః. న కర్మఫలసంయోగం స్వభావస్తు ప్రవర్తతే৷৷5.14৷৷
5.15
5
15
।।5.15।। सर्वव्यापी परमात्मा न किसीके पापकर्मको और न शुभकर्मको ही ग्रहण करता है; किन्तु अज्ञानसे ज्ञान ढका हुआ है, उसीसे सब जीव मोहित हो रहे हैं।
।।5.15।। विभु परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न पुण्यकर्म को ही ग्रहण करता है;  (किन्तु) अज्ञान से ज्ञान ढका हुआ है,  इससे सब जीव मोहित होते हैं।।
।।5.15।। विभु अर्थात् सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को ग्रहण करता है और न पुण्य कर्म को। यह कथन पुराणों में वर्णित देवताओं की कल्पना से भिन्न है क्योंकि वहाँ देवताओं को जीवों के पाप और पुण्य कर्मों का लेखाजोखा रखने वालों के रूप में वर्णन किया गया है। कथा प्रेमी भक्त लोगों को वेदान्त सिद्धांत उनके प्रेम को आघात पहुँचाने वाला प्रतीत होता है और इसलिये वे गीता के स्थान पर श्रीकृष्ण की लीलाओं का अध्ययन कर भाव विभोर होना अधिक पसन्द करते हैं। ईश्वर के विषय में यह धारणा है कि मेघों के ऊपर कहीं आकाश में बैठा विश्व भर के प्राणियों के शुभअशुभ कर्मों का निरीक्षण करते हुए उनका ख्याल रखता है जिससे प्र्ालय के पश्चात् न्याय के दिन जब समस्त जीव उसके पास पहुँचें तो वह उनका कर्मानुसार न्याय कर सके। यह रोचक धारणा केवल सामान्य जनों की ही हो सकती है जिनकी बुद्धि अधिक विकसित नहीं है।समस्त विश्व के अधिष्ठानस्वरूप परमात्मा को जीवन के कर्मों से कोई प्रयोजन हो या परिच्छिन्न वस्तुओं में उसकी कोई विशेष रुचि हो ऐसा हम नहीं मान सकते। परमार्थ की दृष्टि से तो परिच्छिन्न जगत् का आत्यन्तिक अभाव है। केवल आत्म विस्मृति के कारण ही उपाधियों में व्यक्त हुआ वह आत्मा कर्तृत्व कर्म फलभोग आदि से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है। समतल काँच के माध्यम से निर्गत सूर्यप्रकाश में कोई विकार नहीं होता परन्तु यदि वही प्रकाश एक प्रिज्म (आयत) में से निकले तो सात रंगों में विभाजित हो जाता है। इसी प्रकार एकमेव अद्वितीय सर्वव्यापी परिपूर्ण परमात्मा शरीर मन और बुद्धि इन आविद्यक उपाधियों में व्यक्त होकर नानारूप जगदाभास के रूप में प्रतीत होता है।यहाँ ज्ञान और अज्ञान के सम्बन्ध का सुन्दर वर्णन किया गया है। अज्ञान ज्ञान नहीं हो सकता और न ज्ञान अज्ञान का एक अंश। परस्पर विरोधी स्वभाव के कारण इन दोनों का सह अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता हैं। परन्तु यहाँ कहा गया है कि अज्ञान के द्वारा ज्ञान आवृत हुआ है यह ऐसे ही है जैसे किसी जंगल में सर्वत्र व्याप्त अंधकार में दूर कहीं प्रकाश की किरण को देखकर कहा जा सकता है कि वह प्रकाश अंधकार से आवृत है। अगले श्लोक में अज्ञान आवरण को दूर करने के उपाय तथा उसकी निवृत्ति के फल को विस्तार से बताया गया है।सत्य के अनावरण की प्रक्रिया में अज्ञान की निवृत्ति मात्र अपेक्षित है न कि ज्ञान की उत्पत्ति। इसलिए सत्य की प्राप्ति वास्तव में सिद्ध वस्तु की ही प्राप्ति है और कोई नवीन उपलब्धि नहीं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
5.15।। व्याख्या--'नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः'--पूर्वश्लोकमें जिसको 'प्रभुः' पदसे कहा गया है, उसी परमात्माको यहाँ 'विभुः' पदसे कहा गया है।कर्मफलका भागी होना दो प्रकारसे होता है--जो कर्म करता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है और जो दूसरेसे कर्म करवाता है, वह भी कर्मफलका भागी होता है। परन्तु परमात्मा न तो किसीके कर्मको करनेवाला है और न कर्म करवानेवाला ही है; अतः वह किसीके भी कर्मका फलभागी नहीं हो सकता।सूर्य सम्पूर्ण जगत्को प्रकाश देता है और उस प्रकाशके अन्तर्गत मनुष्य पाप और पुण्य-कर्म करते हैं; परन्तु उन कर्मोंसे सूर्यका किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्वसे प्रकृति सत्ता पाती है अर्थात् सम्पूर्ण संसार सत्ता पाता है। उसीकी सत्ता पाकर प्रकृति और उसका कार्य संसार-शरीरादि क्रियाएँ करते हैं। उन शरीरादिसे होनेवाले पाप-पुण्योंका परमात्मतत्त्वसे किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। कारण कि भगवान्ने मनुष्यमात्रको स्वतन्त्रता दे रखी है; अतः मनुष्य उन कर्मोंका फलभागी अपनेको भी मान सकता है और भगवान्को भी मान सकता है अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों और कर्मफलोंको भगवान्के अर्पण भी कर सकता है। जो भगवान्की दी हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके कर्मोंका कर्ता और भोक्ता अपनेको मान लेता है, वह बन्धनमें प़ड़ जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण नहीं करते। परन्तु जो मनुष्य उस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करके कर्म और कर्मफल भगवान्के अर्पण करता है, वह मुक्त हो जाता है। उसके कर्म और कर्मफलको भगवान् ग्रहण करते हैं। जैसे सातवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें 'सर्वस्य' पदसे और छब्बीसवें श्लोकमें 'कश्चन' पदसे सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, ऐसे ही यहाँ 'कस्यचित्' पदसे अपनेको कर्ता और भोक्ता मानकर कर्म करनेवाले सामान्य मनुष्योंकी बात कही गयी है, न कि भक्तोंकी। कारण कि भावग्राही होनेसे भगवान् भक्तोंके द्वारा अर्पण किये हुए पत्र, पुष्प आदि पदार्थोंको और सम्पूर्ण कर्मोंको ग्रहण करते हैं (गीता 9। 26 27)। 'अज्ञानेनावृतं ज्ञानम्'--स्वरूपका ज्ञान सभी मनुष्योंमें स्वतः सिद्ध है; किन्तु अज्ञानके द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ है। उस अज्ञानके कारण जीव मूढ़ताको प्राप्त हो रहे हैं। अपनेको कर्मोंका कर्ता मानना मूढ़ता है (गीता 3। 27)। भगवान्के द्वारा मनुष्यमात्रको विवेक दिया हुआ है, जिसके द्वारा इस मूढ़ताका नाश किया जासकता है। इसलिये इस अध्यायके आठवें श्लोकमें कहा गया है कि सांख्ययोगी कभी भी अपनेको किसी कर्मका कर्ता न माने और तेरहवें श्लोकमें कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मोंके कर्तापनको विवेकपूर्वक मनसे छोड़ दे।शरीरादि सम्पूर्ण पदार्थोंमें निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। स्वरूपमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। स्वरूपसे अपरिवर्तनशील होनेपर भी अपनेको परिवर्तनशील पदार्थोंसे एक मान लेना अज्ञान है। शरीरादि सब पदार्थ बदल रहे हैं--ऐसा जिसे अनुभव है वह स्वयं कभी नहीं बदलता। इसलिये स्वयंके बदलनेका अनुभव किसीको नहीं होता। अतः मैं बदलनेवाला नहीं हूँ--इस प्रकार परिवर्तनशील पदार्थोंसे अपनी असङ्गताका अनुभव कर लेनेसे अज्ञान मिट जाता है और तत्त्वज्ञान स्वतः प्रकाशित हो जाता है। कारण कि प्रकृतिके कार्यसे अपना सम्बन्ध मानते रहनेसे ही तत्त्वज्ञान ढका रहता है।'अज्ञान' शब्दमें जो 'नञ्'समास है, वह ज्ञानके अभावका वाचक नहीं है, प्रत्युत अल्पज्ञान अर्थात् अधूरे ज्ञानका वाचक है। कारण कि ज्ञानका अभाव कभी होता ही नहीं, चाहे उसका अनुभव हो या न हो। इसलिये अधूरे ज्ञानको ही अज्ञान कहा जाता है। इन्द्रियोंका और बुद्धिका ज्ञान ही अधूरा ज्ञान है। इस अधूरे ज्ञानको महत्त्व देनेसे, इसके प्रभावसे प्रभावित होनेसे वास्तविक ज्ञानकी ओर दृष्टि जाती ही नहीं--यही अज्ञानके द्वारा ज्ञानका आवृत होना है। इन्द्रियोंका ज्ञान सीमित है। इन्द्रियोंके ज्ञानकी अपेक्षा बुद्धिका ज्ञान असीम है। परन्तु बुद्धिका ज्ञान मन और इन्द्रियोंके ज्ञान-(जानने और न जानने-) को ही प्रकाशित करता है अर्थात् बुद्धि अपने विषय-पदार्थोंको ही प्रकाशित करती है। बुद्धि जिस प्रकृतिका कार्य है और जिस बुद्धिका कारण प्रकृति है, उस प्रकृतिको बुद्धि प्रकाशित नहीं करती। बुद्धि जब प्रकृतिको भी प्रकाशित नही कर सकती, तब प्रकृतिसे अतीत जो चेतन-तत्त्व है, उसे कैसे प्रकाशित कर सकती है! इसलिये बुद्धिका ज्ञान अधूरा ज्ञान है। 'तेन मुह्यन्ति जन्तवः'--भगवान्ने 'जन्तवः' पद देकर मानो मनुष्योंकी ताड़ना की है कि जो मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व नहीं देते, वे वास्तवमें जन्तु अर्थात् पशु ही हैं, (टिप्पणी प0 303) क्योंकि उनके और पशुओंके ज्ञानमें कोई अन्तर नहीं है। आकृतिमात्रसे कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है, जो अपने विवेकको महत्त्व देता है। इन्द्रियोंके द्वारा भोग तो पशु भी भोगते हैं; पर उन भोगोंको भोगना मनुष्य-जीवनका लक्ष्य नहीं है। मनुष्य-जीवनका लक्ष्य सुख-दुःखसे रहित तत्त्वको प्राप्त करना है। जिनको अपने कर्तव्य और अकर्तव्यका ठीक-ठीक ज्ञान है, वे मनुष्य साधक कहलानेयोग्य हैं।अपनेको कर्मोंका कर्ता मान लेना तथा कर्मफलमें हेतु बनकर सुखी-दुःखी होना ही अज्ञानसे मोहित होना है। पापपुण्य हमें करने पड़ते हैं इनसे हम कैसे छूट सकते हैं सुखीदुःखी होना हमारे कर्मोंका फल है, इनसे हम अतीत कैसे हो सकते हैं?--इस प्रकारकी धारणा बना लेना ही अज्ञानसे मोहित होना है।जीव स्वरूपसे अकर्ता तथा सुख-दुःखसे रहित है। केवल अपनी मूर्खताके कारण वह कर्ता बन जाता है और कर्मफलके साथ सम्बन्ध जोड़कर सुखीदुःखी होता है। इस मूढ़ता(अज्ञान) को ही यहाँ 'तेन' पदसे कहा गया है। इस मूढ़तासे अज्ञानी मनुष्य सुखी-दुःखी हो रहे हैं,  इस बातको यहाँ 'तेन मुह्यन्ति जन्तवः' पदोंसे कहा गया है।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया है कि अज्ञानके द्वारा ज्ञान ढका जानेके कारण सब जीव मोहित हो रहे हैं। अपने विवेकके द्वारा उस अज्ञानका नाश कर देनेपर जिस ज्ञानका उदय होता है, उसकी महिमा आगेके श्लोकमें कहते हैं।
।।5.15।।अत एव क्रियातत्फलयोरभावे विधिफलस्यापि नादृष्टकृतता काचित् इत्यर्धेन अभिधाय अर्धान्तरेण संसारिणः प्रति तत्समर्थनं कर्तुमाह नादत्ते इति। पापादीनि नैतत्कृतानि किं तु निजेन अज्ञानेन कृतानि शङ्कयेव अमृते विषयम् ( omits पापादीनि विषम्)।
।।5.15।।कस्यचित् स्वसम्बन्धितया अभिमतस्य पुत्रादेः पापं दुःखं न आदत्ते न अपनुदति कस्यचित् प्रतिकूलतया अभिमतस्य सुकृतं सुखं च न आदत्ते न अपनुदति। यतः अयं विभुः न क्वाचित्कः न देवादिदेहाद्यसाधारणदेशः अत एव न कस्यचित् सम्बन्धी न कस्यचित् प्रतिकूलः च। सर्वम् इदं वासनाकृतम्।एवंस्वभावस्य कथम् इयं विपरीतवासना उत्पद्यते अज्ञानेन आवृतं ज्ञानम् ज्ञानविरोधिना पूर्वपूर्वकर्मणा स्वफलानुभवयोग्यत्वाय अस्य ज्ञानम् आवृतं संकुचितम् तेन ज्ञानावरणरूपेण कर्मणा देवादिदेहसंयोगः तत्तदात्माभिमानरूपमोहः च जायते। ततः च तथाविधात्माभिमानवासना तदुचितकर्मवासना च। वासनातो विपरीतात्माभिमानः कर्मारम्भश्च उपपद्यते।सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि (गीता 4।36)ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा (गीता 4।37)न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रम् (गीता 4।38) इति पूर्वोक्तं स्वकाले संगमयति
।।5.15।।कर्तृत्वभोक्तृत्वैश्वर्याण्यात्मनोऽविद्याकृतानीत्युक्तमिदानीमीश्वरे संन्यस्तसमस्तव्यापारस्य तदेकशरणस्य दुरितं सुकृतं वा तदनुग्रहार्थं भगवानादत्ते मदेकशरणो मत्प्रीत्यर्थं कर्म कुर्वाणो दुष्कृताद्यनुमोदनेनानुग्राह्यो मयेति प्रत्ययभाक्त्वादित्याशङ्क्य सोऽपि परमार्थतो नास्यास्त्यविक्रियत्वादित्याह परमार्थतस्त्विति। पूर्वार्धगतान्यक्षराणि व्याख्यायाकाङ्क्षापूर्वकमुत्तरार्धमवतार्य व्याचष्टे किमर्थमित्यादिना।
।।5.15।।यस्मादेवं तस्मान्नादत्ते न भजते पापं पुण्यं च कारयितृत्वं च तत्साधकतमविसर्जनादेवोपयुज्यते।बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् भाग.10।87।2 इत्यादिवाक्यात्तैर्भोगमोक्षोपायप्रवृत्तौ तदात्मैवेह हेतुरिति तत्त्वम्। अतः स्वभावकृतं सर्वम्। ननु तदेशभूता अपि एते आत्मनः कथं प्राकृतत्वभावेन सम्मुह्यन्ति स्वरूपाज्ञानादित्याह अज्ञानेनेति। तत्र ज्ञानं स्वरूपविषयकं अज्ञानेनाविद्यायाः प्रथमपर्वस्वरूपाज्ञानेनावृतं ततोऽन्यपर्वभिः प्राणान्तःकरणेन्द्रियदेहाध्यासैः वस्तुतस्तु विचित्ररिरंसावतो भगवतो नित्या आज्ञाकारिण्यो द्वादशशक्तयो मुख्याःगिरा पृष्ट्या इत्यादिना निरूपिता भागवते। तत्र मायाख्याया अशंद्वयं विद्याविद्येति। भगवदाज्ञयैव विद्यया आत्मनां स्वरूपगमकात्सत्त्वानुगुण्यात् अविद्यया च विपरीतस्वभावया कर्मजन्ममरणादिपर्यावर्तगम इतरानुगुण्यात् अन्यथा स्वरूपवैचित्र्यं न स्यादित्यज्ञानेनावृतमात्मनां स्वरूपज्ञानम्। उक्तं चविद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव शरीरिणाम्। मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते भाग.11।11।3 इति।पञ्चपर्वा त्वविद्येयं जीवगा मायया कृता इति। अतस्तेन जन्तवो भवन्तो मुह्यन्ति। स्वयमेवात्मनि कर्तृत्वादिस्वभावं सृजन्ति न परमात्मेति सिद्धान्तः।
।।5.15।।नन्वीश्वरः कारयिता जीवः कर्ता। तथाच श्रुतिःएष उ ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते एष उ एवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते इत्यादिः। स्मृतिश्चअज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा।। इति। तथाच जीवेश्वरयोः कर्तृत्वकारयितृत्वाभ्यां भोक्तृत्वभोजयितृत्वाभ्यां चपापपुण्यलेपसंभवात्कथमुक्तं स्वभावस्तु प्रवर्तत इति तत्राह परमार्थतः विभुः परमेश्वरः कस्यचिज्जीवस्य पापं सुकृतं च नैवादत्ते परमार्थतो जीवस्य कर्तृत्वाभावात् परमेश्वरस्य च कारयितृत्वाभावात्। कथं तर्हि श्रुतिः स्मृतिर्लोकव्यवहारश्च तत्राह अज्ञानेनावरणविक्षेपशक्तिमता मायाख्येनानृतेन तमसा आवृतमाच्छादितं ज्ञानं जीवेश्वरजगद्भेदभ्रमाधिष्ठानभूतं नित्यं स्वप्रकाशं सच्चिदानन्दरूपमद्वितीयं परमार्थसत्यं तेन स्वरूपावरणेन मुह्यन्ति प्रमातृप्रमेयप्रमाणकर्तृकर्मकरणभोक्तृभोग्यभोगाख्यनवविधसंसाररूपं मोहमतस्मिंस्तदवभासरूपं विक्षेपं गच्छन्ति जन्तवो जननशीलाः संसारिणो वस्तुस्वरूपादर्शिनः। अकर्त्रभोक्तृपरमानन्दाद्वितीयात्मस्वरूपादर्शननिबन्धनो जीवेश्वरजगद्भेदभ्रमःप्रतीयमानो वर्तते मूढानाम्। तस्यां चावस्थायां मूढप्रत्ययानुवादिन्यावेते श्रुतिस्मृती वास्तवाद्वैतबोधिवाक्यशेषभूते इति न दोषः।
।।5.15।।यस्मादेवं तस्मात् नादत्त इति। प्रयोजकोऽपि सन्प्रभुः कस्यचित्पापं सुकृतं च नैवादत्ते न भजते। तत्र हेतुःविभुः परिपूर्णः। आप्तकाम इत्यर्थः। यदि हि स्वार्थकामनया कारयेत्तर्हि तथा स्यात् नत्वेतदस्ति। आप्तकामस्यैवाचिन्त्यनिजमायया तत्तत्पूर्वकर्मानुसारेण प्रवर्तकत्वात्। ननु भक्ताननुगृह्णतोऽभक्तान्निगृह्णतश्च वैषम्योपलम्भात्कथमाप्तकामत्वमित्यत आह अज्ञानेनेति। निग्रहोऽपि दण्डरूपोऽनुग्रह एवेत्येवमज्ञानेन सर्वत्र समः परमेश्वर इत्येवंभूतं ज्ञानमावृतम्। तेन हेतुना जन्तवो जीवा मुह्यन्ति। भगवति वैषम्यं मन्यन्त इत्यर्थः।
।।5.15।।आत्मनोऽकर्तृत्वादिकस्य वासनायाः कर्तृत्वादिकस्य च विवरणंनादत्ते इति श्लोकस्यार्धद्वयम्। परगतपापसुकृतयोरादानप्रसङ्गाभावात्तत्प्रतिषेधोऽनुचितः अतस्तत्कार्यं दुःखं सुखं च लक्ष्यते तत्रापि परगतसुखदुःखयोः स्वस्मिन्नाकर्षणं न शक्यम् अतस्तदपनयनमात्रं विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह कस्यचिदिति।कस्यचित् इत्यनेन सूचितमपनोदनहेतुविशेषं दर्शयितुंस्वसम्बन्धितयाऽभिमतस्येत्याद्युक्तम्।आदत्ते इत्यस्य करोत्याद्यर्थत्वानौचित्यादपहरणार्थत्वे च प्रयोगादपहरणनिषेधेनैव तुल्यतया करणनिषेधसिद्धेःनापनुदतीति व्याख्यातम्।विभुरिति न परिमाणविशेषाद्यभिप्रायम् जीवस्याणुतया श्रुत्यादिसिद्धेः। नापि प्रभुत्वपरम् अत्रानुपयुक्तत्वात्। अतस्तत्तत्कर्मानुकूलसमस्तदेहानुप्रवेशयोग्यतामात्रं प्रतिनियतदेशराहित्यं विवक्षितम्। अतएव आगन्तुकेषु मित्रामित्रादिषु सम्बन्धित्वं प्रतिकूलत्वं च आगन्तुकानां तत्तद्देहानामेव न त्वात्मन इति सिध्यति। तत एव चानुकूलप्रतिकूलपुरुषविषयदुःखाद्यपनयनमौपाधिकमित्यायातम्। तदेवं कार्याभावौपयिकहेत्वभावप्रतिपादनपरो विभुशब्द इत्यभिप्रायेणाह यतोऽयमिति। उत्तरार्धोत्थानाय शङ्कते एवंस्वभावस्येति।विपरीतवासना स्वभावविरुद्धवासनेत्यर्थः। अत्रोत्तरम् अज्ञानेनावृतं ज्ञानम् इति।अविद्या कर्मसंज्ञाऽन्या तृतीया शक्तिरिष्यते। यया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा वेष्टिता नृप सर्वगा।।संसारतापानखिलानवाप्नोत्यतिसन्ततान्। तया तिरोहितत्वाच्च शक्तिः क्षेत्रज्ञसंज्ञिता।।सर्वभूतेषु भूपाल तारतम्येन वर्तते वि.पु.6।8।6163 इति भगवत्पराशरवचनमनुस्मरन्नाहज्ञानविरोधिनेति। अत्र नञस्तदन्यतदभावार्थत्वमावरणानुपयुक्तमिति भावः।स्वफलेत्यादि नह्यसावसङ्कुचितज्ञानसंसारतापानुभवयोग्य इति भावः। अत्यन्तविलोपपरिहारायावरणशब्दोपचरितमाह सङ्कुचितमिति। नहि विज्ञातुर्विज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यते बृ.उ.4।3।30 इत्यादिश्रुतिसिद्धमनेन स्मारितम्।देवादिदेहसंयोग इति जन्तुशब्दाभिप्रेतोऽर्थः। स च मोहजनने कर्मणो द्वारम्। शङ्कोत्तरत्वमाह ततश्चेति। आत्मनि प्रतिषिद्धस्येष्टानिष्टाचरणस्यान्यहेतुतामाह वासनात इति।
।।5.15।।यतः प्रभुर्न सृजत्यतः कस्यचित् पापपुण्यादिकमङ्गीकृत्य फलं न ददातीत्याह नादत्त इति। विभुः अनियम्यः स्वेच्छयैव सर्वफलदानसमर्थः कस्यचित् जीवस्य पापं पापरूपं कर्म न आदत्ते नाङ्गीकरोति तदङ्गीकृत्य नरकादिफलं न ददातीत्यर्थः। सुकृतं च नैवाङ्गीकरोति तदङ्गीकारेण स्वर्गादिसुखं न ददातीत्यर्थः। विभुत्वात् स्वक्रीडेच्छयैव यथासुखं करोतीति भावः। तर्हि एष एव तं ह्येवैनं साधु कर्म कारयति कौ.उ.3।9 इत्यादिश्रुतिभ्य ईश्वर एव तत्तत्कर्म कारयित्वा सर्वेभ्यः फलं ददातीति कथमुच्यते तत्राह अज्ञानेनेति। अज्ञानेन प्रकृत्युत्पन्नेन ज्ञानं भगवत्स्वरूपात्मकं श्रुत्यर्थरूपं वा तेन जन्तवः जीवा मुह्यन्ति मोहं प्राप्नुवन्ति अन्यथा वदन्तीत्यर्थः। श्रुतौ तु पूर्वं तादृक्फलदानेच्छां निरूप्य पश्चात् कर्मकारणत्वमुच्यते न तु कर्मफलत्वमागच्छति किन्तु विचित्रेच्छात्वमेवायातीति।
।।5.15।।ननुएष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते एष ह्येवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते इति श्रुत्या परमेश्वरे कारयितृत्वं बोध्यते। तत्कथमुच्यतेस्वभावस्तु प्रवर्तते इति तत्राह नादत्त इति। कस्यचित्कर्तुः पापमयं नादत्ते नापि सुकृतम्। कारयितृत्वाभावात्। यतो विभुर्व्यापकः। निष्क्रिय इति यावत्। सक्रियो ह्यन्यं प्रवर्तयति तदीयं पापं पुण्यं वा लभते। अयं तु न तथा किंतु सूर्यवत् प्रकाशत एव नतु स्वप्रकाश्यानां कर्त्रादीनां कर्मणा संबध्यते इति भावः। कारयितृत्वमप्यस्य सत्तामात्रेण सूर्यवत्। यथा घटः प्रकाशते सविता प्रकाशयतीति नोदाहृतश्रुतिविरोधः। कथं तर्हि ईश्वराराधनार्थं कर्माणि कुर्वन्ति तदकरणाच्च बिभ्यतीत्याशङ्क्याह अज्ञानेनेति। यथा हि महाराजस्य सार्वभौमस्याहं सर्वेश्वरो निर्वृतोऽस्मीति ज्ञानं अज्ञानेन सौषुप्तेनावृतं चेत्स तत्र विविधानि परचक्रादीनि महान्ति संकटशतानि पश्यति अहो अहं दीनोऽस्मिदुःख्यस्मीति च मुह्यति तद्वदेते जन्तवः स्वस्याहं ब्रह्मास्मीति प्रमाणेन ब्रह्मभावमजानन्त ईश्वरादात्मानं पृथङ्मन्यमाना ईशात्मनोः सेव्यसेवकभावं च पश्यन्तो मुह्यन्ति। तथाच श्रुतिःअथ योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योऽसावन्योऽहमिति न स वेद यथा पशुरेव स देवानाम् इति। एष ह्येवेति श्रुतिरपि भ्रान्तजनव्यवहारविषयैवेति भावः।
।।5.15।।ननु यः परमेश्वरैकशरणो ब्रह्मणि संन्यस्तसमस्तकर्मा यानि पुण्यपापानि करोति तानि क्व गच्छन्ति।लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा इत्यनेन तस्य लेपाभावोक्तेः। तथाच स्वस्य भक्तस्य पुण्यं च पापं च तदसुग्रहार्थ भगवानादत्ते इति चेत्तत्राह नेति। विभुः परमेश्वरः कस्यचित्स्वभक्तस्यापि पापं नादत्ते न गृह्णाति। तथा भक्तैः समर्पितं सुकृतं पूर्णकामत्वान्न चैवादत्ते। ननु परमार्थतो जीवस्यापीश्वराव्यतिरेकात्कर्तृत्वाद्यभावः ईश्वरस्य सुतरां अतः किमर्थमीश्वरात्स्वस्य भेदं प्रकल्प्य परमेश्वरो भजनीयोऽहं तस्य भक्तस्तदर्थं मया पूजायागदानहोमादिलक्षणं कर्मानुष्ठेयमिति बुद्य्धा परमेश्वरैकशरणैरन्यैश्चाहं कर्म करोमि कारयामि तस्य फलं भोक्ष्ये भोजयामीति बुद्य्धा कर्माण्यनुष्ठीयन्त इति चेत्तत्राह। अज्ञानेनावृतं कर्तृत्वादिविनिर्मुक्तोऽहमस्मीति विवेकज्ञानम्। वसिष्ठोऽप्याहविवेकमाच्छादयति जगन्ति जनयत्यलम् इति। पूर्वप्रस्तुताऽविद्या तेन जन्तवो मुह्यन्ति मोहं गच्छन्ति। यथा शुक्तिज्ञानं शुक्त्यज्ञानेनावृतं तेन रजतमिदमिति पुरुषाणां मोहस्तथाहमुपासक ईश्वरार्थं कर्म करोभ्यहं कर्ता कारयिता भोक्ता भोजयितेत्येवं मुह्यन्तीत्यर्थः। ज्ञानं जीवेश्वरजगद्भेदभ्रमाधिष्ठानभूतं स्वप्रकाशं सच्चिदानन्दरुपं परमार्थमिति तु लोकप्रसिद्धज्ञानपदार्थत्यागे बीजाभावमभिप्रेत्याचार्यैर्न व्याख्यातमिति बोध्यम्। एतेन ननु भक्ताननुगृह्णतोऽभक्तान्निगृह्णतश्च वैषम्योपलम्भात्कथमाप्तकामत्वमत आह अज्ञानेनेति। निग्रहोऽपि दण्डरुपोऽनुग्रह एवेत्येवमज्ञानेन सर्वत्र समः परमेश्वर इत्येवंभूतं ज्ञानमावृतं तेन हेतुना जन्तवो जीवा मुह्यन्ति। भगवति वैषम्यं मन्यन्त इत्यर्थ इति प्रत्युक्तम्। ज्ञानं प्रकाशयति। ज्ञाननिर्धूतकल्मषा इत्यत्राभिमततद्य्वतिरिक्तज्ञानपदार्थकल्पनानुपपतेश्च। यत्त्वितरैः स्वभावस्तु प्रवर्तत इत्यत्रान्तःकरणं प्रवर्तत इति व्याख्याय৷৷৷৷नन्वेवंसति देवदत्तः पापी यज्ञदत्तः सुकृतीत्यादिव्यवहाराणां का गतिरित्यत आह नादत्ते इति। चिच्चिदात्मा कस्य ज्ञानशक्तिक्रियाशक्त्याधारत्वगुणयोगात्कशब्दस्यान्तःकरणस्य पापं सुकृतं च नादत्ते नात्मसंबन्धि करोति। तत्र हेतुमाह विभुरिति। अपरिणामीत्यर्थः। कथंतर्ह्ययं लोकव्यवहारस्तत्राह अज्ञानेनेति। अज्ञानेनाज्ञानपरिणामरुपेणान्तःकरणेन ज्ञानं स्वरुपमावृतम्। अन्योन्यतादात्म्याध्यासविषयभावं गमितमित्यर्थः। तेन कारणेन जन्तवोऽज्ञामनुष्या मुह्यन्ति। आत्मगतत्वेन सुकृतदुष्कृतादिव्यवहरन्तीत्यर्थ इति व्याख्यातं तदुपेक्ष्यम्। मुख्यवृत्त्या सभ्यक् वाक्यार्थसंभवे गौण्यादिवृत्त्याश्रयणस्य क्लिष्टकल्पनायाश्चान्याय्यत्वात्।
5.15 न not? आदत्ते takes? कस्यचित् of anyone? पापम् demerit? न not? च and? एव even? सुकृतम् merit? विभुः the Lord? अज्ञानेन by ignorance? आवृतम् enveloped? ज्ञानम् knowledge? तेन by that? मुह्यन्ति are deluded? जन्तवः beings.Commentary Knowledge is enveloped by ignorance. Conseently man is deluded. He thinks? I act. I enjoy. I have done such and such a meritourious act. I will get such and such a fruit. I will enjoy in heaven. I will get a birth in a rich family.Of anyone even of His devotees.Man is bound when he is identifies himself with Nature and its effects -- body? mind? Prana or the lifeforce? and senses. He attains freedom or Moksha when he identifies himself with the immortal? actionless Self that dwells within his heart.When I does not act how can God accept good or evil deeds (Cf.V.29)
5.15 The Lord takes neither the demerit nor even the merit of any; knowledge is enveloped by ignorance, thery beings are deluded.
5.15 The Lord does not accept responsibility for any man's sin or merit. Men are deluded because in them wisdom is submerged in ignorance.
5.15 The Omnipresent neither accepts anybody's sin nor even virtue. Knowledge remains covered by ignorance. Thery the creatures become deluded.
5.15 Vibhuh, the Omnipresent; na adatte, neither accetps; kasyacit, anybody's-even a adevotee's; papam, sin; na ca eva, nor even; does He accept sukrtam, virtue offered by devotees. Why then are such virtuous acts as worship etc. as also sacrifices, charity, oblation, etc. worship etc. as also sacrifices, charity, oblation, etc. offered by devotees? To this the Lord says: Jnanam, knowledge, discriminating wisdom; remains avrtam, covered; ajnanena, by ignorance. Tena, thery; jantavah, the creatures, the non-discriminating people in the world; muhyanti, become deluded thus-'I do; I make others do; I eat; I make others eat.'
5.15. The Omnimanifest (Soul) takes [upon Itself] neither sin nor merit [born] of any [action]. But, the perfect knowledge is clouded by Illusion and hence the creatures are deluded.
5.15 Nadatte etc. The sinful acts and the like have been effected not by the Soul; but they have been effected by the Illusion belonging to It, just as a poison is effected in the nectar by a doubt. Therefore-
5.15 Because, It, the Atman is 'all-pervading', i.e., is not limited to particular area or space included in the bodies of gods, men etc.; It is not the relative or the enemy of any one. For this reason It does not take away or remove the evil or suffering of anyone such as a son who is related and therefore dear to one; nor does It take away, i.e., remove the happiness of anyone whom It deems with aversion. All this is the effect of Vasanas or subtle impressions of Prakrti. How does do these contrary Vasanas originte in the case of one whose intrinsic nature is a described above? In answer it is said that knowledge is enveloped by the darkness of ignorance. The Atman's knowledge is enveloped, i.e., contracted by preceding Karmas which are opposed to knowledge, so that a person may be alified to experience the fruits of his own Karma. It is by this Karma, which contracts knowledge, and can join the Jiva with the bodies of gods etc., that the misconception that the bodies are the selves is produced. Conseently there will originate the Vasanas or the unconscious subtle impressions born of such misapprehension of the self and the inclination to undertake actions corresponding to them. Sri Krsna now brings into proper seence what has been taught before in the following verses: 'You will completely cross over the sea of all your sins with the boat of knowledge' (4.36), and 'The fire of knowledge reduces all Karmas to ashes in the same way' (4.37), and 'For there is no purifier here eal to knowledge' (4.38).
5.15 The all-pervading One takes away neither the sin nor the merit of any one. Knowledge is enveloped by ignorance. Creatures are thery deluded.
।।5.15।।वास्तवमें तो विभु ( सर्वव्यापी परमात्मा ) किसी भक्तके पापको भी ग्रहण नहीं करता और भक्तोंद्वारा अर्पण किये हुए सुकृतको भी वह नहीं लेता। तो फिर भक्तोंद्वारा पूजा आदि अच्छे कर्म एवं यज्ञ दान होम आदि सुकृत कर्म किस लिये अर्पण किये जाते हैं इसपर कहते हैं जीवोंका विवेकविज्ञान अज्ञानसे ढका हुआ है। इस कारण अविवेकी संसारी जीव ही करता हूँ कराता हूँ खाता हूँ खिलाता हूँ इस प्रकार मोहको प्राप्त हो रहे हैं।
।।5.15।। न आदत्ते न च गृह्णाति भक्तस्यापि कस्यचित् पापम्। न चैव आदत्ते सुकृतं भक्तैः प्रयुक्तं विभुः। किमर्थं तर्हि भक्तैः पूजादिलक्षणं यागदानहोमादिकं च सुकृतं प्रयुज्यते इत्याह अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं विवेकविज्ञानम् तेन मुह्यन्ति करोमि कारयामि भोक्ष्ये भोजयामि इत्येवं मोहं गच्छन्ति अविवेकिनः संसारिणो जन्तवः।।
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नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।5.15।।
নাদত্তে কস্যচিত্পাপং ন চৈব সুকৃতং বিভুঃ৷ অজ্ঞানেনাবৃতং জ্ঞানং তেন মুহ্যন্তি জন্তবঃ৷৷5.15৷৷
নাদত্তে কস্যচিত্পাপং ন চৈব সুকৃতং বিভুঃ৷ অজ্ঞানেনাবৃতং জ্ঞানং তেন মুহ্যন্তি জন্তবঃ৷৷5.15৷৷
નાદત્તે કસ્યચિત્પાપં ન ચૈવ સુકૃતં વિભુઃ। અજ્ઞાનેનાવૃતં જ્ઞાનં તેન મુહ્યન્તિ જન્તવઃ।।5.15।।
ਨਾਦਤ੍ਤੇ ਕਸ੍ਯਚਿਤ੍ਪਾਪਂ ਨ ਚੈਵ ਸੁਕਰਿਤਂ ਵਿਭੁ। ਅਜ੍ਞਾਨੇਨਾਵਰਿਤਂ ਜ੍ਞਾਨਂ ਤੇਨ ਮੁਹ੍ਯਨ੍ਤਿ ਜਨ੍ਤਵ।।5.15।।
ನಾದತ್ತೇ ಕಸ್ಯಚಿತ್ಪಾಪಂ ನ ಚೈವ ಸುಕೃತಂ ವಿಭುಃ. ಅಜ್ಞಾನೇನಾವೃತಂ ಜ್ಞಾನಂ ತೇನ ಮುಹ್ಯನ್ತಿ ಜನ್ತವಃ৷৷5.15৷৷
നാദത്തേ കസ്യചിത്പാപം ന ചൈവ സുകൃതം വിഭുഃ. അജ്ഞാനേനാവൃതം ജ്ഞാനം തേന മുഹ്യന്തി ജന്തവഃ৷৷5.15৷৷
ନାଦତ୍ତେ କସ୍ଯଚିତ୍ପାପଂ ନ ଚୈବ ସୁକୃତଂ ବିଭୁଃ| ଅଜ୍ଞାନେନାବୃତଂ ଜ୍ଞାନଂ ତେନ ମୁହ୍ଯନ୍ତି ଜନ୍ତବଃ||5.15||
nādattē kasyacitpāpaṅ na caiva sukṛtaṅ vibhuḥ. ajñānēnāvṛtaṅ jñānaṅ tēna muhyanti jantavaḥ৷৷5.15৷৷
நாதத்தே கஸ்யசித்பாபஂ ந சைவ ஸுகரிதஂ விபுஃ. அஜ்ஞாநேநாவரிதஂ ஜ்ஞாநஂ தேந முஹ்யந்தி ஜந்தவஃ৷৷5.15৷৷
నాదత్తే కస్యచిత్పాపం న చైవ సుకృతం విభుః. అజ్ఞానేనావృతం జ్ఞానం తేన ముహ్యన్తి జన్తవః৷৷5.15৷৷
5.16
5
16
।।5.16।। परन्तु जिन्होंने अपने जिस ज्ञान-(विवक-) के द्वारा उस अज्ञानका नाश कर दिया है, उनका वह ज्ञान सूर्यकी तरह परमतत्त्व परमात्माको प्रकाशित कर देता है।
।।5.16।। परन्तु जिनका वह अज्ञान आत्मज्ञान से नष्ट हो जाता है,  उनके लिए वह ज्ञान,  सूर्य के सदृश,  परमात्मा को प्रकाशित करता है।।
।।5.16।। शोक और मोह से ग्रस्त जीवों के लिए शुद्ध आत्मस्वरूप अविद्या से आवृत रहता है अर्थात् उन्हें आत्मा का उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव नहीं होता। ज्ञानी पुरुष के लिए अज्ञानावरण पूर्णतया निवृत्त हो जाता है। कितने ही दीर्घ काल से किसी स्थान पर स्थित अंधकार प्रकाश के आने पर तत्काल ही दूर हो जाता है न कि धीरेधीरे किसी विशेष क्रम से। इसी प्रकार से आत्मज्ञान का उदय होते ही अनादि अविद्या उसी क्षण निवृत्त हो जाती है। अविद्या से उत्पन्न होता है अहंकार जिसका अस्तित्व शरीर मन और बुद्धि के साथ हुए तादात्म्य के कारण बना रहता है। अज्ञान के नष्ट हो जाने पर अहंकार भी नष्ट हो जाता है।द्वैतवादियों को वेदान्त के इस सिद्धांत को समझने में कठिनाई होती है। वस्तुओं को जानने के लिए हमारे पास उपलब्ध साधन हैं इन्द्रियां मन और बुद्धि। अहंकार इनके माध्यम से देखता अनुभव करता और विचार करता है। द्वैतवादी यह समझने में असमर्थ हैं कि अहंकार इन्द्रियां मन और बुद्धि के अभाव में आत्मज्ञान कैसे सम्भव है। एक बुद्धिमान् विचारक में यह शंका आना स्वाभाविक है। इसका अनुमान लगाकर श्रीकृष्ण यह बताते है कि अहंकार नष्ट होने पर आत्मज्ञान स्वत हो जाता है।विचाररत बुद्धि को यह बात सरलता से नहीं समझायी जा सकती। इसलिए दूसरी पंक्ति में प्रभु एक दृष्टान्त देते हैं आदित्यवत्। हम सबका सामान्य अनुभव है कि प्रावृट् ऋतु में कई दिनों तक सूर्य नहीं दिखाई देता और हम जल्दी में कह देते हैं कि सूर्य बादलों से ढक गया है।इस वाक्य के अर्थ पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सूर्य बादल के छोटे से टुकड़े से ढक नहीं सकता। इस विश्व के मध्य में जहाँ सूर्य अकेला अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है वहाँ से बादल बहुत दूर है। पृथ्वी तल पर खड़ा छोटा सा मनुष्य अपनी बिन्दु मात्र आँखों से देखता है कि बादल की एक टुकड़ी ने दैदीप्यमान आदित्य को ढक लिया है। यदि हम अपनी छोटी सी उँगली अपने नेत्र के सामने निकट ही लगा लें तो विशाल पर्वत भी ढक सकता है।इसी प्रकार जीव जब आत्मा पर दृष्टि डालता है तो उस अनन्त आत्मा को अविद्या से आवृत पाता है। यह अविद्या सत् स्वरूप आत्मा में नहीं है जैसे बादल सूर्य में कदापि नहीं है। अनन्त सत् की तुलना में सीमित अविद्या बहुत ही तुच्छ है। किन्तु आत्मस्वरूप की विस्मृति हमारे हृदय में उत्पन्न होकर अहंकार में यह मिथ्या धारणा उत्पन्न करती है कि आध्यात्मिक सत् अविद्या से प्रच्छन्न है। इस अज्ञान के नष्ट होने पर आत्मतत्त्व प्रकट हो जाता है जैसे मेघपट हटते ही सूर्य प्रकट हो जाता है।सूर्य को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं है आत्मानुभव के लिए भी किसी अन्य अनुभव की अपेक्षा नहीं है वह चित् स्वरूप है। चित् की चेतना के लिए किसी दूसरे चैतन्य की अपेक्षा नहीं है। ज्ञान का अन्तर्निहित तत्त्व चेतना ही है। अत अहंकार आत्मा को पाकर आत्मा ही हो जाता है।स्वप्न से जागने पर स्वप्नद्रष्टा अपनी स्वप्नावस्था से मुक्त होकर जाग्रत् पुरुष बन जाता है। वह जाग्रत् पुरुष को कभी भिन्न विषय के रूप में न देखता है और न अनुभव करता है बल्कि वह स्वयं ही जाग्रत् पुरुष बन जाता है। ठीक इसी प्रकार अहंकार भी अज्ञान से ऊपर उठकर स्वयं आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाता है। अहंकार और आत्मा का सम्बन्ध तथा आत्मानुभूति की प्रक्रिया का बड़ा ही सुन्दर वर्णन सूर्य के दृष्टान्त द्वारा किया गया है जिसके लक्ष्यार्थ पर सभी साधकों को मनन करना चाहिये।आत्मनिष्ठ पुरुष सदा के लिए जन्ममरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। भगवान् कहते हैं
5.16।। व्याख्या--'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः'--पीछेके श्लोकमें कही बातसे विलक्षण बात बतानेके लिये यहाँ 'तु'पदका प्रयोग किया गया है।पीछेके श्लोकमें जिसको 'अज्ञानेन' पदसे कहा था, उसको ही यहाँ 'तत् अज्ञानम्' पदसे कहा गया है।अपनी सत्ताको और शरीरको अलग-अलग मानना 'ज्ञान' है और एक मानना 'अज्ञान' है।उत्पत्ति-विनाशशील संसारके किसी अंशमें तो हमने अपनेको रख लिया अर्थात् मैं-पन (अहंता) कर लिया और किसी अंशको अपनेमें रख लिया अर्थात् मेरापन (ममता) कर लिया। अपनी सत्ताका तो निरन्तर अनुभव होता है और मैं-मेरापन बदलता हुआ प्रत्यक्ष दीखता है; जैसे--पहले मैं बालक था और खिलौने आदि मेरे थे, अब मैं युवा या वृद्ध हूँ और स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि मेरे हैं। इस प्रकार मैं-मेरेपनके परिवर्तनका ज्ञान हमें है, पर अपनी सत्ताके परिवर्तनका ज्ञान हमें नहीं है--यह ज्ञान अर्थात् विवेक है।मैं-मेरेपनको जडके साथ न मिलाकर साधक अपने-विवेकको महत्त्व दे कि मैं-मेरापन जिससे मिलाता हूँ, वह सब बदलता है; परन्तु मैं-मेरा कहलानेवाला मैं (मेरी सत्ता) वही रहता हूँ। जडका बदलना और अभाव तो समझमें आता है, पर स्वयंका बदलना और अभाव किसीकी समझमें नहीं आता; क्योंकि स्वयंमें किञ्चित् भी परिवर्तन और अभाव कभी होता ही नहीं--इस विवेकके द्वारा मैं-मेरेपनका त्याग कर दे कि शरीर 'मैं' नहीं और बदलनेवाली वस्तु 'मेरी' नहीं। यही विवेकके द्वारा अज्ञानका नाश करना है। परिवर्तनशीलके साथ अपरिवर्तनशीलका सम्बन्ध अज्ञानसे अर्थात् विवेकको महत्त्व न देनेसे है। जिसने विवेकको जाग्रत् करके परिवर्तनशील मैं-मेरेपनके सम्बन्धका विच्छेद कर दिया है, उसका वह विवेक सच्चिदानन्दघन परमात्माको प्रकाशित कर देता है अर्थात् अनुभव करा देता है।'तेषामादित्यव़ज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्' विवेकके सर्वथा जाग्रत् होनेपर परिवर्तनशीलकी निवृत्ति हो जाती है। परिवर्तनशीलकी निवृत्ति होनेपर अपने स्वरूपका स्वच्छ बोध हो जाता है जिसके होते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मतत्त्व प्रकाशित हो जाता है अर्थात् उसके साथ अभिन्नताका अनुभव हो जाता है।यहाँ 'परम' पद परमात्मतत्त्वके लिये प्रयुक्त हुआ है। दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें तथा तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भी परमात्मतत्त्वके लिये 'परम' पद आया है।'प्रकाशयति' पदका तात्पर्य है कि सूर्यका उदय होनेपर नयी वस्तुका निर्माण नहीं होता, प्रत्युत अन्धकारसे ढके जानेके कारण जो वस्तु दिखायी नहीं दे रही थी, वह दीखने लग जाती है। इसी प्रकार परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध है, पर अज्ञानके कारण उसका अनुभव नहीं हो रहा था। विवेकके द्वारा अज्ञान मिटते ही उस स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका अनुभव होने लग जाता है।
।।5.16।।अत एव ज्ञानेन त्विति। ज्ञानेन तु अज्ञाने नाशिते ज्ञानस्य स्वपरप्रकाशकत्वं (K स्वप्रकाशकत्वं) स्वतःसिद्धम् यथा आदित्यस्य तमसि नष्टे विनिवर्तितायां ( निवर्तितायां) हि शङ्कायाम् अमृतं अमृतकार्य स्वयमेव करोति।
।।5.16।।एवं वर्तमानेषु सर्वात्मसु येषाम् आत्मनाम् उक्तलक्षणेन आत्मयाथात्म्योपदेशजनितेन आत्मविषयेण अहरहः अभ्यासाधेयातिशयेन निरतिशयपवित्रेण ज्ञानेन तदज्ञानावरणम् अनादिकालप्रवृत्तानन्तकर्मसंशयरूपाज्ञानं नाशितं तेषां तत् स्वाभाविकं परं ज्ञानं अपरिमितम् असंकुचितम् आदित्यवत् सर्वम् यथावस्थितं प्रकाशयति। तेषाम् इति विनष्टाज्ञानानां बहुत्वाभिधानाद् आत्मस्वरूपबहुत्वम् न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे (गीता 2।12) इति उपक्रमावगतम् अत्र स्पष्टतरम् उक्तम्।न च इदं बहुत्वम् उपाधिकृतं विनष्टाज्ञानानाम् उपाधिगन्धाभावात्।तेषाम् आदित्यवज्ज्ञानम् इति व्यतिरेकनिर्देशात् ज्ञानस्य स्वरूपानुबन्धित्वम् उक्तम् आदित्यदृष्टान्तेन च ज्ञातृज्ञानयोः प्रभाप्रभावतोः इव अवस्थानं च। तत एव संसारदशायां ज्ञानस्य कर्मणा संकोचः मोक्षदशायां विकासः च उपपन्नः।
।।5.16।।तर्हि सर्वेषामनाद्यज्ञानावृतज्ञानत्वाद्व्यामोहाभावाच्च कुतः संसारनिवृत्तिरिति तत्राह ज्ञानेनेति। सर्वमिति पूर्णत्वमुच्यते ज्ञेयस्यैव वस्तुनस्तत्परमिति विशेषणम्। तद्व्याचष्टे परमार्थतत्त्वमिति।
।।5.16।।भगवत्प्रदत्तात्मविद्यावन्तस्तु न मुह्यन्तीत्याह ज्ञानेनेति। येषां दयनीयानां साधनवतां वा आत्मज्ञानं यदक्षरात्मत्वज्ञानेन नाशितं तेषां तज्ज्ञानं कर्तृ आदित्यवत्परम् ब्रह्मविदाप्नोति परं तै.उ.2।1 इत्यत्र श्रुतं प्रकाशयति स्वयमेवेति भगवत्प्रदत्तत्वाद्भगवद्रूपं तदिति स्वतन्त्रकर्तृत्वं तस्योक्तम्। अन्यथा करणत्वे कर्तृत्वोक्तिर्व्याहता स्यात्।
।।5.16।।तर्हि सर्वेषामनाद्यज्ञानावृत्वात्कथं संसारनिवृत्तिः स्यादत आह तदावरणविक्षेपशक्तिमदनाद्यनिर्वाच्यमनृतमनर्थव्रातमूलमज्ञानमात्माश्रयविषयमविद्यामायादिशब्दवाच्यमात्मनो ज्ञानेन गुरूपदिष्टवेदान्तमहावाक्यजन्येन श्रवणमनननिदिध्यासनपरिपाकनिर्मलान्तःकरणवृत्तिरूपेण निर्विकल्पकसाक्षात्कारेण शोधिततत्त्वंपदार्थाभेदरूपशुद्धसच्चिदानन्दाखण्डैकरसवस्तुमात्रविषयेण नाशितं बाधितं कालत्रयेऽप्यसदेवासत्तया ज्ञातमधिष्ठानचैतन्यमात्रतां प्रापितं शुक्ताविव रजतं शुक्तिज्ञानेन येषां श्रवणमननादिसाधनसंपन्नानां भगवदनुगृहीतानां मुमुक्षूणां तेषां तज्ज्ञानं कर्तृ आदित्यवत् यथादित्यः स्वोदयमात्रेणैव तमो निरवशेषं निवर्तयति नतु कंचित्सहायमपेक्षते तथा ब्रह्मज्ञानमपि शुद्धसत्त्वपरिणामत्वाद्व्यापकप्रकाशरूपं स्वोत्पत्तिमात्रेणैव सहकार्यन्तरनिरपेक्षतया सकार्यमज्ञानं निवर्तयत्परं सत्यज्ञानानन्तानन्दरूपमेकमेवाद्वितीयं परमात्मतत्त्वं प्रकाशयति प्रतिच्छायाग्रहणमात्रेणैव कर्मतान्तरेणाभिव्यनक्ति। अत्राज्ञानेनावृतं ज्ञानेन नाशितमित्यज्ञानस्यावरणत्वज्ञाननाश्यत्वाभ्यां ज्ञानाभावरूपत्वं व्यावर्तितम्। नह्यभावः किंचिदावृणोति न वा ज्ञानाभावो ज्ञानेन नाश्यते स्वभावनाशरूपत्वात्तस्य। तस्मादहमज्ञो मामन्यं च न जानामीत्यादिसाक्षिप्रत्यक्षसिद्धं भावरूपमेवाज्ञानमिति भगवतो मतम्। विस्तरस्त्वद्वैतसिद्धौ द्रष्टव्यः। येषामिति बहुवचनेनानियमो दर्शितः। तथाच श्रुतिःतद्यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत्तथर्षीणां तथा मनुष्याणां तदिदमप्येतर्हि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवति इत्यादिर्यद्विषयं यदाश्रयमज्ञानं तद्विषयतदाश्रयप्रमाणज्ञानात्तन्निवृत्तिरिति न्यायप्राप्तनियमं दर्शयति। तत्राज्ञानगतमावरणं द्विविधम्। एकं सतोऽप्यसत्त्वापादकं अन्यत्तु भासतोऽप्यभानापादकम्। तत्राद्यं परोक्षापरोक्षसाधारणप्रमाणज्ञानमात्रान्निवर्तते। अनुमितेऽपि वह्न्यादौ पर्वते वह्निर्नास्तीत्यादिभ्रमादर्शनात्। तथासत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मास्ति इति वाक्यात्परोक्षनिश्चयेऽपि ब्रह्म नास्तीति भ्रमो निवर्तत एव। अस्त्येव ब्रह्म किंतु मम न भातीत्येवं भ्रमजनकं द्वितीयमभानावरणं साक्षात्कारादेव निवर्तते। स च साक्षात्कारो वेदान्तवाक्येनैव जन्यते निर्विकल्पक इत्याद्यद्वैतसिद्धावनुसंधेयम्।
।।5.16।।ज्ञानिनस्तु न मुह्यन्तीत्याह ज्ञानेनेति। आत्मनो भगवतो ज्ञानेन येषां तद्वैषम्योपलम्भकज्ञानं नाशितं तज्ज्ञानं तेषामज्ञानं नाशयित्वा तत्परं परिपूर्णमीश्वरस्वरूपं प्रकाशयति। यथा आदित्यस्तमो निरस्य समस्तं वस्तुजातं प्रकाशयति तद्वत्।
।।5.16।।एवं तृतीयाध्यायोक्ताकर्तृत्वानुसन्धानस्य प्रकारविशेषाः प्रतिपादिताः अथ चतुर्थाध्यायोक्तस्य ज्ञानविशेषस्य विशोधनं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह सर्वमिति।स्वकाले अकर्तृत्वानुसन्धानप्रकारकथनादनन्तरं ज्ञानस्वरूपकथनावसर इत्यर्थः। यद्वातद्विद्धि प्रणिपातेन इत्यत्रउपदेक्ष्यन्ति 4।34 इति स्वेनैव निर्दिष्टे विपाककाल इत्यर्थः।एवं वर्तमानेषु मुह्यत्स्वपीत्यर्थः। यद्वा कर्मयोगनिष्ठेष्वित्यर्थः। अज्ञानेन ज्ञानमावृतं चेत् कथं ज्ञानेन तस्य नाश इति शङ्कां व्यवच्छिन्दता तुशब्देन द्योतितं ज्ञानस्य विशेषं दर्शयितुंउक्तलक्षणेनेत्यादिनिरतिशयपवित्रेणेत्यन्तमुक्तम्। आत्मनो ज्ञानेनेत्यन्वयः।आत्मविषयेणेति आत्मनः इति षष्ठ्या सम्बन्धसामान्यमात्रपरत्वं कर्तृविषयत्वं चात्रानुपयुक्तमिति भावः। तच्छब्दपरामृष्टप्रकारमाह ज्ञानावरणमिति। अज्ञानस्वरूपस्यातिगहनत्वसूचनार्थम् निरतिशयपवित्रस्य ज्ञानभास्वतो निश्शेषाज्ञानतिमिरकुक्षिम्भरित्वप्रदर्शनार्थं चअनादिकालेत्याद्युक्तम्। उत्तरार्धगततच्छब्दार्थःस्वाभाविकमिति। सामानाधिकरण्यस्वारस्यात्परमिति ज्ञानविशेषणम्। तदर्थमाहअपरिमितमसङ्कुचितमिति। ज्ञानस्य परत्वं ह्यनवच्छिन्नविषयत्वम् तत्र च हेतुः सङ्कोचाभाव इत्यभिप्रायः।सर्वमिति प्रकाशयतेरर्थसिद्धकर्मोक्तिः। अज्ञाननिवृत्तौ च ज्ञानस्य सर्वगोचरत्वं श्रौतमिति भावः।आदित्यवत् इति दृष्टान्तसामर्थ्यसिद्धमाहयथावस्थितमिति। एतेन परमित्यत्र पदमिति विशेष्याध्याहारः। परमार्थतत्त्वमिति विवक्षा च परोक्ता निरस्ता। भेदव्यपदेशबलादद्वैतमतस्योपक्रमविरोधः प्रागुक्तः मध्येऽपि स एव तात्त्विको भेदः स्पष्टमुपदिश्यत इति तस्य तात्पर्यविषयत्वं दर्शयति तेषामिति।विनष्टाज्ञानानामिति नहीदं बहुत्वं भ्रान्तिसिद्धमुपाधिसिद्धं वा वक्तुं शक्यमिति भावः।सत्यमिथ्योपाधिकृतभेदवादिनोर्भास्करशङ्करयोर्मतमनूद्य परिहरति नचेदमिति। मिथ्याभूतस्याज्ञानाख्योपादानस्य विनाशे तदुपात्तमिथ्याभूतान्तःकरणाद्युपाधेरपि निवृत्तेरितिशङ्करं प्रति हेत्वर्थः। इतरं प्रत्यज्ञानशब्दवाच्यस्य कर्मादेर्विनाशे तन्निमित्तशरीरान्तःकरणाद्युपाधिनिवृत्तिरित्यर्थः।शङ्करमतदूषणप्रसङ्गे तदुक्तं ज्ञानमात्रात्मवादं दूषयितुं शुद्धदशायां ज्ञातृत्वमत्र सिद्धमिति दर्शयतितेषामिति। सम्बन्धविषतया षष्ठी व्यतिरेकगर्भेतिव्यतिरेकनिर्देशादित्युक्तम्। विनष्टोपाधीनामात्मनां धर्मतया निर्देशात् ज्ञानस्य स्वरूपानुबन्धित्वसिद्धेरागन्तुकचैतन्यवादोऽपि निरस्तः। आदित्यशब्दोऽत्रादित्यप्रभापरः प्रभाद्वारेणैवादित्यस्य प्रकाशकत्वात् धर्मभूतज्ञाने च सैव दृष्टान्तो भवितुमर्हतियथा न क्रियते ज्योत्स्ना मलप्रक्षालनान्मणेः। दोषप्रहाणान्न ज्ञानमात्मनः क्रियते तथा वि.ध.10।4।5 इत्यादिसाम्याच्च तदेतदभिप्रेत्य तत्फलितमाह आदित्यदृष्टान्तेनेति। ततः प्रस्तुतस्य किं इत्यत्राह तत एवेति। यथा प्रभाया आवारकसन्निधौ सङ्कोचस्तन्निवृत्तौ पुनर्विकासश्च दृश्यते तथा ज्ञानस्यापीति भावः। यद्वा तेषामादित्यवदवस्थितानां प्रभातुल्यं ज्ञानमित्यर्थः। प्रभायाः प्रदीपादित्याद्यपृथक्सिद्धतेजोद्रव्यविशेषत्वं ज्ञानस्यात्मधर्मत्वेऽपि द्रव्यत्वं सङ्कोचविकासयोगित्वादीनि च शारीरकभाष्ये प्रपञ्चितानि। एवं प्रभातुल्यद्रव्यत्वोपपादनेन प्रकृतमावृतत्वादिकं युज्यत इत्याह तत एवेति।
।।5.16।।येषां भगवता ज्ञानेनाज्ञानं नाशितं ते न मुह्यन्तीत्याह ज्ञानेनेति। तु पुनः। आत्मज्ञानेन भगवत्सम्बन्धिज्ञानेन ज्ञानात्मकभगवद्रूपेण येषां दुर्लभानां कृपापात्राणां तत्पूर्वोक्तमज्ञानं नाशितं तेषां तद्भगवदात्मकं ज्ञानं परं ब्रह्म प्रकाशयति प्रकटयतीत्यर्थः। आदित्यवत् यथा सूर्यस्तमो दूरीकृत्य स्वात्मसहितं सर्वं वस्तुमात्रं प्रकाशयति तथा।
।।5.16।।तदात्मन आवरकमज्ञानं येषां ज्ञानेन ब्रह्मास्मीति प्रमाणजेन नाशितं तेषां तज्ज्ञानं कर्तु आदित्यवदादित्यो यथा कृत्स्नं दृश्यं प्रकाशयति तद्वत्परं परमार्थवस्तु प्रकाशयति। अज्ञानजानर्थनिवृत्त्यर्थं ज्ञानमेष्टव्यमिति भावः।
।।5.16।।तर्हि सर्वेषामनादिभावरुपाज्ञानावृतज्ञानत्वाद्य्वामोहस्य निवृत्त्यभावात्संसारनिवृत्तिः कथं स्यादिति तत्राह ज्ञानेनेति। ज्ञानेन तु गुरुपदिष्टेन शास्त्रीयेण विवेकज्ञानेन स्वपरमार्थस्वरुपविषयेण तदज्ञानं कर्तृत्वादिविनिर्मुक्तं ब्रह्माहमस्मीति परमात्माभेदास्तित्वज्ञानावरकं येषां मुमुक्षूणां नाशितं तेषामादित्यवत् यथादित्योऽस्तित्वेन भान्तमपि घटादिवस्तु तद्गतसमस्तरुपा भानापादकं तमो निवर्त्य प्रकाशयति तथा गुरुपदिष्टं ज्ञानं भावनाप्रकर्षेण भानावरणमज्ञानमपि निवर्त्य तत् श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणादौ प्रसिद्धं परं परमार्थतत्त्वं प्रकाशयति सच्चिदानन्दानन्तात्मकं ब्रह्माहमस्मीति साक्षाद्य्वक्तीकरोतीत्यर्थः।
5.16 ज्ञानेन by wisdom? तु but? तत् that? अज्ञानम् ignorance? येषाम् whose? नाशितम् is destroyed? आत्मनः of the Self? तेषाम् their? आदित्यवत् like the sun? ज्ञानम् knowledge? प्रकाशयति reveals? तत्परम् that Highest.Commentary When ignorance? the root cause of human sufferings? is annihilated by the knowledge of the Self? this knowledge illuminates the Supreme Brahman or that highest immortal Being? just as the sun illumines all the objects of this gross? physical universe.
5.16 But to those whose ignorance is destroyed by the knowledge of the Self, like the sun, knowledge reveals the Supreme (Brahman).
5.16 Surely wisdom is like the sun, revealing the supreme truth to those whose ignorance is dispelled by the wisdom of the Self.
5.16 But in the case of those of whom that ignorance of theirs becomes destroyed by the knowledge (of the Self), their Knowledge, like the sun, reveals that supreme Reality.
5.16 Tu, but; yesam, in the case of those creatures; of whom tat ajnanam, that ignorance; atmanah, of theirs-being covered by which ignorance creatures get deluded-; nasitam, becomes destroyed; jnanena, by knowledge, by discriminating knowledge concerning the Self; tesam, their; jnanam, knowledge; adityavat, like the sun; prakasayati, reveals, in the same way as the sun reveals all forms whatever; tat-param, that supreme Reality, the Reality which is the highest Goal, the totality of whatever is to be known.
5.16. In the case of those whose Illusion has been, however, destroyed by the Self-knowledge, then for them that knowledge illumines itself, like the sun.
5.16 Jnanena etc. When however the Illusion is destroyed by knowledge, then the natural capacity of knowledge, in illuminating itself and other things starts to work automatically just as the sun does when the darkness is lost. Indeed when the doubt [of poison] is completely rooted out, the nectar does the work of the nectar just automatically. But this is possible for those who have their intellect and mind gone to This [Self] and have abandoned [all] other activities. To make this idea clear [the Lord] says -
5.16 While all these selves are thus deluded, in the case of enlightened souls, their delusive ignorance - which envelops knowledge and which is of the form of accumulated, beginningless and endless Karma - is destroyed by knowledge. As already described this knowledge is produced by the teachings of the scriptures about the real nature of the self, which are enriched by daily practice. The purity of this knowledge is unexcelled. And in the case of those selves who regain the knowledge that is natural to Them, it is found that it is unlimited and uncontracted and illumining everything like the sun. Plurality of the selves in Their essence is expressly mentioned in the case of those whose ignorance is overcome, in the expression 'for those' in the text. What was stated at the commencement, 'There never was a time when I did not exist' (2.12) is expressed here with greater clarity. Moreover, this plurality is not due to limiting adjuncts imposed on a single universal self. For, as stated here, there cannot be any trace of such adjuncts for those whose ignorance is destroyed, and still They are described as a plurality. Hence knowledge is taught as an attribute inseparable from the essential nature of the self, because a difference between the self and its knowledge is made out in the statement, 'Knowledge, in their case illuminates like the sun'. By the illustration of the sun, the relation of the knower to his knowledge is brought out to be similar to the luminous object and its luminosity. Therefore, it is appropriate to understand that knowledge contracts by Karma in the stage of Samsara and expands in the stage of Moksa (release). [In this system the Atman has two forms of Jnana or Knowledge - Dharmi-Jnana (self-awareness) and Dharma-bhuta-Jnana (awareness of objects other than itself). It is the latter that is contracted by ignorance and expands by knowledge. See Intrdocution.]
5.16 But for those in whom this ignorance is destroyed by the knowledge of the self, that knowledge, in their case, is supreme and shines like the sun.
।।5.16।।जिन जीवोंके अन्तःकरणका वह अज्ञान जिस अज्ञानसे आच्छादित हुए जीव मोहित होते हैं आत्मविषयक विवेकज्ञानद्वारा नष्ट हो जाता है उनका वह ज्ञान सूर्यकी भाँति उस परम परमार्थतत्त्वको प्रकाशित कर देता है। अर्थात् जैसे सूर्य समस्त रूपमात्रको प्रकाशित कर देता है वैसे ही उनका ज्ञान समस्त ज्ञेय वस्तुको प्रकाशित कर देता है।
।।5.16।। ज्ञानेन तु येन अज्ञानेन आवृताः मुह्यन्ति जन्तवः तत् अज्ञानं येषां जन्तूनां विवेकज्ञानेन आत्मविषयेण नाशितम् आत्मनः भवति तेषां जन्तूनाम् आदित्यवत् यथा आदित्यः समस्तं रूपजातम् अवभासयति तद्वत् ज्ञानं ज्ञेयं वस्तु सर्वं प्रकाशयति तत् परं परमार्थतत्त्वम्।।यत् परं ज्ञानं प्रकाशितम्
।।5.16।।ननु ज्ञानस्याज्ञाननाशकत्वमर्थप्रकाशकत्वं च प्रसिद्धमेव तत्किमर्थमुच्यते इत्यत आह ज्ञानमेवेति।अज्ञानेनावृतं ज्ञानं 5।15 इत्युक्तम्। एवं तर्हि तस्याविनाश एव स्यात्। तथा च न कदाचिद्ब्रह्मप्रकाशः। विनाशकान्तराङ्गीकारे च ज्ञानार्थयोः सन्न्यासयोगयोर्वैयर्थ्यमित्याशङ्क्यज्ञानमेवाज्ञाननाशकम् अतो नोक्तदोषः। किन्तु स्वरूपज्ञानमविद्ययाऽऽवृतम् वृत्तिज्ञानं त्वविद्यां शिथिलयति। ब्रह्म प्रकाशयतीत्येतदनेनाहेत्यर्थः। अत्र केचित् यथैक एवादित्योऽन्धकारं नाशयति भूमण्डलं च प्रकाशयति तथैकमेव ज्ञानमज्ञानं निवर्तयति परं च प्रकाशयति इति व्याचक्षतेतदसदिति भावेनाह प्रथमेति। तृतीयान्तपदोक्तम् द्वितीयमपरोक्षमिति शेषः। अन्यथा द्विर्ज्ञानग्रहणं व्यर्थं स्यादिति भावः।
।।5.16।।ज्ञानमेवाज्ञाननाशकमित्याह ज्ञानेनेति। प्रथमज्ञानं परोक्षम्।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।5.16।।
জ্ঞানেন তু তদজ্ঞানং যেষাং নাশিতমাত্মনঃ৷ তেষামাদিত্যবজ্জ্ঞানং প্রকাশযতি তত্পরম্৷৷5.16৷৷
জ্ঞানেন তু তদজ্ঞানং যেষাং নাশিতমাত্মনঃ৷ তেষামাদিত্যবজ্জ্ঞানং প্রকাশযতি তত্পরম্৷৷5.16৷৷
જ્ઞાનેન તુ તદજ્ઞાનં યેષાં નાશિતમાત્મનઃ। તેષામાદિત્યવજ્જ્ઞાનં પ્રકાશયતિ તત્પરમ્।।5.16।।
ਜ੍ਞਾਨੇਨ ਤੁ ਤਦਜ੍ਞਾਨਂ ਯੇਸ਼ਾਂ ਨਾਸ਼ਿਤਮਾਤ੍ਮਨ। ਤੇਸ਼ਾਮਾਦਿਤ੍ਯਵਜ੍ਜ੍ਞਾਨਂ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਯਤਿ ਤਤ੍ਪਰਮ੍।।5.16।।
ಜ್ಞಾನೇನ ತು ತದಜ್ಞಾನಂ ಯೇಷಾಂ ನಾಶಿತಮಾತ್ಮನಃ. ತೇಷಾಮಾದಿತ್ಯವಜ್ಜ್ಞಾನಂ ಪ್ರಕಾಶಯತಿ ತತ್ಪರಮ್৷৷5.16৷৷
ജ്ഞാനേന തു തദജ്ഞാനം യേഷാം നാശിതമാത്മനഃ. തേഷാമാദിത്യവജ്ജ്ഞാനം പ്രകാശയതി തത്പരമ്৷৷5.16৷৷
ଜ୍ଞାନେନ ତୁ ତଦଜ୍ଞାନଂ ଯେଷାଂ ନାଶିତମାତ୍ମନଃ| ତେଷାମାଦିତ୍ଯବଜ୍ଜ୍ଞାନଂ ପ୍ରକାଶଯତି ତତ୍ପରମ୍||5.16||
jñānēna tu tadajñānaṅ yēṣāṅ nāśitamātmanaḥ. tēṣāmādityavajjñānaṅ prakāśayati tatparam৷৷5.16৷৷
ஜ்ஞாநேந து ததஜ்ஞாநஂ யேஷாஂ நாஷிதமாத்மநஃ. தேஷாமாதித்யவஜ்ஜ்ஞாநஂ ப்ரகாஷயதி தத்பரம்৷৷5.16৷৷
జ్ఞానేన తు తదజ్ఞానం యేషాం నాశితమాత్మనః. తేషామాదిత్యవజ్జ్ఞానం ప్రకాశయతి తత్పరమ్৷৷5.16৷৷
5.17
5
17
।।5.17।। जिनकी बुद्धि तदाकार हो रही है, जिनका मन तदाकार हो रहा है, जिनकी स्थिति परमात्मतत्वमें है, ऐसे परमात्मपरायण साधक ज्ञानके द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति (परमगति) को प्राप्त होते हैं।
।।5.17।। जिनकी बुद्धि उस (परमात्मा) में स्थित है,  जिनका मन तद्रूप हुआ है,  उसमें ही जिनकी निष्ठा है,  वह (ब्रह्म) ही जिनका परम लक्ष्य है,  ज्ञान के द्वारा पापरहित पुरुष अपुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं,  अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता है।।
।।5.17।। शास्त्रों के गहन अध्ययन के द्वारा साधक अपने व्यक्तित्व के सभी पक्षों के साथ आत्मयुक्त हो जाता है। बुद्धि आत्मस्वरूप का निश्चय करके उसमें ही स्थित हो जाती है और उसके मन की प्रत्येक भावना ईश्वर की ही स्तुति का गान करती है। अनन्त आनन्दस्वरूप को आत्मरूप से पहचान कर साधक की उसमें निष्ठा हो जाती है। ऐसे व्यक्ति के लिए अपरिच्छिन्न और अपरिच्छेद्य आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई परम लक्ष्य नहीं हो सकता।शास्त्राध्ययन के द्वारा जो व्यक्ति अपने सत्यात्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसके लिए पुन राग या द्वेष के बन्धन में आने का अवसर या कारण ही नहीं रह जाता। यही शास्त्राध्ययन का फल है। अध्ययन के पश्चात् आवश्यकता होती है उस ज्ञान के अनुसार जीवन जीने की अर्थात् उस ज्ञान के आचरण की। अध्ययन और आचरण से ही स्वस्वरूप में अवस्थान सम्भव हो सकता है।स्वरूप में अवस्थान प्राप्त पुरुष का पुनर्जन्म नहीं होता। इसका कारण क्या है हम कैसेे कह सकते हैं कि ज्ञान के उपरान्त पुन अहंकार उत्पन्न नहीं होगा ज्ञानी पुरुषों के लिए प्रयुक्त ज्ञाननिर्धूतकल्मषा इस विशेषण के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं। कल्मष अर्थात् पाप से तात्पर्य वासनाओं से है। वासनाओं से उत्पन्न होता है अहंकार। वेदान्त में वासना को ही आत्मअज्ञान कहते हैं। अज्ञान के विरोधी आत्मज्ञान का उदय होने पर दुखदायक अज्ञान अंधकार का विनाश हो जाता है और उसके साथ ही तज्जनित अहंकार भी नष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् अहंकार पुन जन्म नहीं ले सकता क्योंकि ज्ञान की उपस्थिति में अज्ञान लौटकर नहीं आ सकता। कारण के ही अभाव में कार्यरूप अहंकार कैसे उत्पन्न हो सकता है इस श्लोक में हमें विश्व के सबसे आशावादी तत्त्वज्ञान के दर्शन होते हैं जहाँ स्पष्ट घोषणा की गई है कि आत्मसाक्षात्कार जीव के विकास का चरम लक्ष्य है। परम तत्त्व की अनुभूति विकास के सोपान की अन्तिम सीढ़ी है जिसे प्राप्त करने के लिए ही जीव स्वनिर्मित विषयों के बन्धनों में यत्रतत्र भटकता रहता है।ज्ञान के द्वारा जिनका अज्ञान नष्ट हो जाता है वे ज्ञानी पुरुष किस प्रकार तत्त्व को देखते हैं उत्तर है
5.17।। व्याख्या--[परमात्मतत्त्वका अनुभव करनेके लिये दो प्रकारके साधन हैं एक तो विवेकके द्वारा असत्का त्याग करनेपर सत्में स्वरूप-स्थिति स्वतः हो जाती है और दूसरा, सत्का चिन्तन करते-करते सत्की प्राप्ति हो जाती है। चिन्तनसे सत्की ही प्राप्ति होती है। असत्की प्राप्ति कर्मोंसे होती है, चिन्तनसे नहीं। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु कर्मसे मिलती है और नित्य परिपूर्ण तत्त्व चिन्तनसे मिलता है। चिन्तनसे परमात्मा कैसे प्राप्त होते हैं--इसकी विधि इस श्लोकमें बताते हैं।]'तद्बुद्धयः' निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम 'बुद्धि' है। साधक पहले बुद्धिसे यह निश्चय करे कि सर्वत्र एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है। संसारके उत्पन्न होनेसे पहले भी परमात्मा थे और संसारके नष्ट होनेके बाद भी परमात्मा रहेंगे। बीचमें भी संसारका जो प्रवाह चल रहा है, उसमें भी परमात्मा वैसे-के-वैसे ही हैं। इस प्रकार परमात्माकी सत्ता-(होनेपन-) में अटल निश्चय होना ही 'तद्बुद्धयः' पदका तात्पर्य है।
।।5.17।।एतच्च (K तच्च) तद्गतबुद्धिमनसा त्यक्तान्यव्यापाराणां घटत इत्याशयं प्रकटयितुमाह (S तुमुक्तम्) यत एवं स्वभावस्तु प्रवर्तते इत्यतो ध्वस्ताज्ञानानामित्थं स्थितिरित्याह विद्येति। तथा च तेषां योगिना ब्राह्मणे न ईदृशी (N अनीदृशी) बुद्धिः अस्य शुश्रूषादिना अहं पुण्यवान् भविष्यामि इत्यादि गवि न पावनी इयम् इत्यादि हस्तिनि न अर्थादिधीः शुनि अपवित्रपापकारितादिनिश्चयः श्वपाके च न पापापवित्रादिधिषणा। अत एव समं पश्यन्ति इति न तुव्यवहरन्ति इति। तदुक्तम् (K यदुक्तम्) चिद्धर्मा सर्वदेहेषु विशेषो नास्ति कुत्रचित्।अतश्च तन्मयं सर्वं भावयन् भवजिज्जनः ( N भवभिज्जनः)।।इति। (V 100 )।
।।5.17।।तद्बुद्धयः तथाविधात्मदर्शनाध्यवसायाः तदात्मानः तद्विषयमनसः तन्निष्ठाः तदभ्यासनिरताः तत्परायणाः तद् एव परम् अयनं येषां ते एवमभ्यस्यमानेन ज्ञानेन निर्धूतप्राचीनकल्मषाः तथाविधम् आत्मानम् अपुनरावृत्तिं गच्छन्ति। यदवस्थाद् आत्मनः पुनरावृत्तिः न विद्यते स आत्मा अपुनरावृत्तिः स्वेन रूपेण अवस्थितः तम् आत्मानं गच्छन्ति इत्यर्थः।
।।5.17।।विदुषां विविदिषूणां चान्तरङ्गाणि विद्यापरिपाकसाधनानीत्युपदिदिक्षुरुत्तरश्लोकस्यापेक्षितं पूरयति यत्परमिति। तस्मिन्परमार्थतत्त्वे परस्मिन्ब्रह्मणि बाह्यं विषयमपोह्य गता प्रवृत्ता श्रवणमनननिदिध्यासनैरसकृदनुष्ठितैर्बुद्धिः साक्षात्कारलक्षणा येषां ते तथेति प्रथमविशेषणं विभजते तस्मिन्निति। तर्हि बोद्धा जीवो बोद्धव्यं ब्रह्मेति जीवब्रह्मभेदाभ्युपगमो नेत्याह तदात्मान इति। कल्पितं बोद्धृबोद्धव्यत्वं वस्तुतस्तु न भेदोऽस्तीत्यङ्गीकृत्य व्याचष्टे तदेवेति। ननु देहादावात्माभिमानमपनीय ब्रह्मण्येवाहमस्मीत्यवस्थानं तत्तदनुष्ठीयमानकर्मप्रतिबन्धान्न सिध्यतीत्याशङ्क्य विशेषणान्तरमादत्ते तन्निष्ठा इति। तत्र निष्ठाशब्दार्थं दर्शयन्विवक्षितमर्थमाह निष्ठेत्यादिना। तथापि पुरुषार्थान्तरापेक्षाप्रतिबन्धात्कथंयथोक्ते ब्रह्मण्येवावस्थानं सेद्धुं पारयति तत्राह तत्परायणाश्चेति। यथोक्तानामधिकारिणां परमपुरुषार्थस्योक्तब्रह्मानतिरेकान्नान्यत्रासक्तिरिति तात्पर्यार्थमाह केवलेति। ननु यथोक्तविशेषणवतां वर्तमानदेहपातेऽपि देहान्तरपरिग्रहव्यग्रतया कुतो यथोक्ते ब्रह्मण्यवस्थानमास्थातुं शक्यते तत्राह ते गच्छन्तीति। सति संसारकारणे दुरितादौ संसारप्रसरस्य दुर्वारत्वान्नापुनरावृत्तिसिद्धिरित्याशङ्क्याह ज्ञानेति। उक्तविशेषसंपत्त्या दर्शितफलशालित्वमाश्रमान्तरेष्वसंभावितमिति मन्वानो विशिनष्टि यतय इति।
।।5.17।।य एतादृशज्ञानिनस्ते मुक्ता इत्याह तद्बुद्धय इति। तत्प्रसादलब्धेन ज्ञानेन ब्रह्मस्वरूपविषयकेण निरस्तकल्मषा मुक्तिं यान्तीत्यर्थः।
।।5.17।।ज्ञानेन परमात्मतत्त्वप्रकाशे सति तस्मिञ्ज्ञानप्रकाशिते परमात्मतत्त्वे सच्चिदानन्दघन एव बाह्यसर्वविषयपरित्यागेन साधनपरिपाकात्पर्यवसिता बुद्धिरन्तःकरणवृत्तिः साक्षात्कारलक्षणा येषां ते तद्बुद्धयः। सर्वदा निर्बीजसमाधिभाज इत्यर्थः। तत्किं बोद्धारो जीवा बोद्धव्यं ब्रह्मतत्त्वमिति बोद्धृबोद्धव्यलक्षणभेदोऽस्ति नेत्याह तदात्मानः तदेव परं ब्रह्म आत्मा येषां ते तथा। बोद्धृबोद्धव्यभावो हि मायाविजृम्भितो न वास्तवाभेदविरोधीति भावः। ननु तदात्मान इति विशेषणं व्यर्थं अविद्वद्व्यावर्तकं हि विद्वद्विशेषणम्। अज्ञा अपि हि वस्तुगत्या तदात्मान इति कथं तद्व्यावृरिति चेत्। न। इतरात्मत्वव्यावृत्तौ तात्पर्यात्। अज्ञा हि अनात्मभूते देहादावात्माभिमानिन इति न तदात्मान इति व्यपदिश्यन्ते। विज्ञास्तु निवृत्तदेहाद्यभिमाना इति विरोधिनिवृत्त्या तदात्मान इति व्यपदिश्यन्त इति युक्तं विशेषणम्। ननु कर्मानुष्ठानविक्षेपे सति कथं देहाद्यभिमाननिवृत्तिरिति तत्राह तन्निष्ठाः तस्मिन्नेव ब्रह्मणि सर्वकर्मानुष्ठानविक्षेपनिवृत्त्या निष्ठा स्थितिर्येषां ते तन्निष्ठाः। सर्वकर्मसंन्यासेन तदेकविचारपरा इत्यर्थः। फलरागे सति कथं तत्साधनभूतकर्मत्याग इति तत्राह तत्परायणाः। तदेव परमयनं प्राप्तव्यं येषां ते तत्परायणाः। सर्वतो विरक्ता इत्यर्थः। अत्र तद्बुद्धय इत्यनेन साक्षात्कार उक्तः। तदात्मान इत्यनात्माभिमानरूपविपरीतभावनानिवृत्तिफलको निदिध्यासनपरिपाकः। तन्निष्ठा इत्यनेन सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकः प्रमाणप्रमेयगतासंभावनानिवृत्तिफलको वेदान्तविचारः श्रवणमननपरिपाकरूपः। तत्परायणा इत्यनेन वैराग्यप्रकर्ष इत्युत्तरोत्तरस्य पूर्वपूर्वहेतुत्वं द्रष्टव्यम्। उक्तविशेषणा यतयो गच्छन्त्यपुनरावृत्ति पुनर्देहसंबन्धाभावरूपां मुक्तिं प्राप्नुवन्ति। सकृन्मुक्तानामपि पुनर्देहसंबन्धः कुतो न स्यादिति तत्राह ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ज्ञानेन निर्धूतं समूलमुन्मूलितं पुनर्देहसंबन्धकारणं कल्मषं पुण्यपापात्मकं कर्म येषां ते तथा। ज्ञानेनानाद्यज्ञाननिवृत्त्या तत्कार्यकर्मक्षये तन्मूलकं पुनर्देहग्रहणं कथं भवेदिति भावः।
।।5.17।।एवंभूतेश्वरोपासनाफलमाह तद्बुद्धय इति। तस्मिन्नेव बुद्धिर्निश्चयात्मिका येषाम् तस्मिन्नेवात्मा मनो येषाम् तस्मिन्नेव निष्ठा तात्पर्यं येषाम् तदेव परमयनमाश्रयो येषाम् ततश्च तत्प्रसादलब्धेनात्मज्ञानेन निर्धूतं निरस्तं कल्मषं येषांतेऽपुनरावृत्तिं मुक्तिं यान्ति।
।।5.17।।आत्मानुभवसौधसोपानस्य ज्ञानस्यारोहणक्रमं दर्शयति तद्बुद्धयः इति श्लोकेन। तच्छब्देनात्र पूर्वप्रस्तुतस्वाभाविकात्मस्वरूपं पूर्वश्लोकोक्ततज्ज्ञानं वा परामृश्यत इत्यभिप्रायेणतथाविधात्मदर्शनाध्यवसाया इत्युक्तम्।तदात्मानः इत्यनेन द्रष्टव्यत्वाध्यवसायादनन्तरो दर्शनार्थप्रवृत्तियोग उच्यत इत्यभिप्रायेणतद्विषयमनस इत्युक्तम्।तन्निष्ठत्वं विषयान्तरवैमुख्यात्तत्परायणत्वे हेतुः। अयनशब्दोऽत्र कर्मणि ल्युडन्तः प्राप्यपरः। वाक्यार्थज्ञानादिमात्रव्यावृत्त्यर्थंएवमभ्यस्यमानेनेत्युक्तम्। प्राप्तिप्रतिबन्धककल्मषनिवृत्तिर्ह्युपान्त्यपर्व। अतोऽन्तिमं प्राप्यमत्रापुनरावृत्तिशब्देन विवक्षितम् स च यथावस्थित आत्मैवेत्यभिप्रायेणतथाविधमात्मानमिति। अपुनरावृत्तिशब्दस्यात्रानुद्दिष्टावध्यन्तरपरामर्शसापेक्षसमासान्तरव्युदासेनात्मविशेषणत्वायाहयदवस्थादिति। नन्वात्मन एवक्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति 9।29 इति पुनरावृत्तिरुच्यते यदवस्थादिति चायुक्तं मोक्षस्याप्यवस्थाविशेषत्वे नित्यत्वायोगात्पुनरावृत्तिप्रसङ्गादित्यत्राहस्वेन रूपेणेति। औपाधिकसमस्ताकारनिवृत्तिरूपावस्थाविनाशकासम्भवात्परमतेऽपि प्रध्वंसरूपत्वादनिवर्त्येति भावः।
।।5.17।।तत्प्रकाशात्फलं भवतीत्याह तद्बुद्धय इति। तस्मिन् ईश्वरे बुद्धिर्येषां ते तस्मिन् स एव वाऽत्मा येषाम् तस्मिन्नेव निष्ठा भावो येषाम् तस्मिन्नेव परायणाः तत्परास्तादृशाः ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः निरस्ताज्ञानाः अपुनरावृत्तिं मोक्षं गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति।
।।5.17।।तद्बुद्धय इति। यत् परं ब्रह्म प्रशान्तं तत्रैव बुद्धिरस्ति ब्रह्मेति निश्चयो येषामापाततः श्रुत्यर्थविदां ते तद्बुद्धयः तदेव आत्मा प्रत्यक्तत्त्वं येषां श्रवणमननात्मकविचारेण प्रमाणप्रमेयगतासंभावनाविहीनानां ते तदात्मानः तत्रैव निष्ठा विजातीयवृत्त्यनन्तरितसजातीयवृत्तिप्रवाहो येषां देहादावनात्मन्यात्मधीरूपविपरीतभावनारहितानां ते तन्निष्ठाः तदेव परमयनमज्ञानरूपोपाधिनिरासेन प्राप्यं येषामखण्डानन्दमग्नानां ते तत्परायणाः अपुनरावृत्तिं मोक्षं गच्छन्ति। यतो ज्ञानेन निर्धूतं कल्मषं मूलाज्ञानं संसारबीजभूतं येषां ते ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।
।।5.17।।तत्परमार्थतत्त्वं ज्ञानप्रकाशितं तस्मिन्गता बुद्धिर्येषां ते। ननु ते किं तस्माद्य्वतिरिक्ता नेत्याह। तदेव परंब्रह्मात्मा स्वरुपं येषां ते। तत्र हेतुमाह। यतस्तस्मिन्ब्रह्मणि निष्ठा निदिध्यासनात्मकोऽभिनिवेशो येषां ते। तत्रापि हेतुमाह। यतस्तदेव परमयनं परा गतिर्येषां ते तदेव परां गतिं बुद्ध्वा इहामुत्रार्थभोगे विरज्य तत्छ्रवणतन्मननैकपरत्वेन तत्पराणा इत्यर्थः। एवंभूता अपुनरावृत्तिं मोक्षं गच्छन्ति। यतो ज्ञानेन ब्रह्मात्मसाक्षात्कारेण नितरां मूलोच्छेदेन धूतो नाशितः कल्मषः पुनरावृत्तिकारणीभूतो येषां ते।
5.17 तद्बुद्धयः intellect absorbed in That? तदात्मानः their self being That? तन्निष्ठाः established in That? तत्परायणाः with That for their supreme goal? गच्छन्ति go? अपुनरावृत्तिम् not again returning? ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः,those whose sins have been dispelled by knowledge.Commentary They fix their intellects on Brahman or the Supreme Self. They feel and realise that Brahman is their self. By constant and protracted meditation? they get established in Brahman. The whole world of names and forms vanishes for them. They live in Brahman alone. They have Brahman alone as their supreme goal or sole refuge. They rejoice in the Self alone. They are satisfied in the Self alone. They are contented in the Self alone. Such men never come back to this Samsara? as their sins are dispelled by knowledge (BrahmaJnana). (Cf.IX.34)
5.17 Their intellect absorbed in That, their self being That, established in That, with That for their supreme goal, they go whence there is no return, their sins dispelled by knowledge.
5.17 Meditating on the Divine, having faith in the Divine, concentrating on the Divine and losing themselves in the Divine, their sins dissolved in wisdom, they go whence there is no return.
5.17 Those who have their intellect absorbed in That, whose Self is That, who are steadfast in That, who have That as their supreme Goal-they attain the state of non-returning, their dirt having been removed by Knowledge.
5.17 Tat-buddhayah, those who have their intellect absorbed in That, [Here Ast. reads 'tasmin brahmani, in that Brahman'.-Tr.] in the supreme Knowledge which has been revealed; tat-atmanah, whose Self is That, who have That (tat) supreme Brahman Itself as their Self (atma); tat-nisthah, who are steadfast in That-nistha is intentness, exclusive devotion; they are called tat-nisthah who become steadfast only in Brahman by renouncing all actions; and tat-parayanah, who have That as their supreme (para) Goal (ayana), who have That alone as their supreme Resort, i.e. who are devoted only to the Self; those who have got their ignorance destroyed by Knowledge-those who are of this kind-, they gacchanti, attain; apunaravrttim, the state of non-returning, non-association again with a body; jnana-nirdhuta-kalmasah, their dirt having been removed, destroyed, by Knowledge. Those whose dirt (kalmasa), the defect in the form of sin etc., which are the cause of transmigration, have been removed, destryed (nirdhuta), by the aforesaid Knowledge (jnana) are jnana-nirdhuta-kalmasah, i.e. the monks. How do those learned ones, whose ignorance regarding the Self has been destroyed by Knowledge, look upon Reality? That is being stated:
5.17. Those, who have their intellect and self (mind) gone to This; who have established themselves in This and have This [alone] as their supreme goal; and who have washed off their sins by means of [perfect] knowledge-they reach a state from which there is no more return.
5.17 Because it is only the inherent nature that exerts thus, therefore [the Lord] says that the men, who have destroyed their illusion would remain as follows -
5.17 'Those whose intellects pursue It,' i.e., those who have determined to have the vision of the self in this way; 'those whose minds think about It,' i.e., those whose minds have the self for their aim, those who undergo discipline for It, i.e., those who are devoted to the practices for Its attainment; 'those who hold It as their highest object,' i.e., those who consider It as their highest goal - such persons, having their previous impurities cleansed by the knowledge which is practised in this way, attain the self as taught. 'From that state there is no return' - the state from which there is no return means the state of the self. The meaning is that they attain the self which rests in Its own nature.
5.17 Those whose intellects pursue It (the self), whose minds think about It, who undergo discipline for It, and who hold It as their highest object, have their impurities cleansed by knowledge and go whence there is no return.
।।5.17।।जो प्रकाशित हुआ परमज्ञान है उस परमार्थतत्त्वमें जिनकी बुद्धि जा पहुँची है वे तद्बुद्धि हैं वह परब्रह्म ही जिनका आत्मा है वे तदात्मा हैं उस ब्रह्ममें ही जिनकी निष्ठादृढ़ आत्मभावनातत्परता है अर्थात् जो सब कर्मोंका संन्यास करके ब्रह्ममें ही स्थित हो गये हैं वे तन्निष्ठ हैं। वह परब्रह्म ही जिनका परम अयनआश्रय परमगति है अर्थात् जो केवल आत्मामें ही रत हैं वे तत्परायण हैं ( इस प्रकार ) जिनके अन्तःकरणका अज्ञान ज्ञानद्वारा नष्ट हो गया है एवं उपर्युक्त ज्ञानद्वारा संसारके कारणरूप पापादि दोष जिनके नष्ट हो चुके हैं ऐसे ज्ञाननिर्धूतकल्मष संन्यासी अपुनरावृत्तिको अर्थात् जिस अवस्थाको प्राप्त कर लेनेपर फिर देहसे सम्बन्ध होना छूट जाता है ऐसी अवस्थाको प्राप्त होते हैं।
।।5.17।। तस्मिन् ब्रह्मणि गता बुद्धिः येषां ते तद्बुद्धयः तदात्मानः तदेव परं ब्रह्म आत्मा येषां ते तदात्मानः तन्निष्ठाः निष्ठा अभिनिवेशः तात्पर्यं सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य तस्मिन् ब्रह्मण्येव अवस्थानं येषां ते तन्निष्ठाः तत्परायणाश्च तदेव परम् अयनं परा गतिः येषां भवति ते तत्परायणाः केवलात्मरतय इत्यर्थः। येषां ज्ञानेन नाशितम् आत्मनः अज्ञानं ते गच्छन्ति एवंविधाः अपुनरावृत्तिम् अपुनर्देहसंबन्धं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः यथोक्तेन ज्ञानेन निर्धूतः नाशितः कल्मषः पापादिसंसारकारणदोषः येषां ते ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः यतयः इत्यर्थः।।येषां ज्ञानेन नाशितम् आत्मनः अज्ञानं ते पण्डिताः कथं तत्त्वं पश्यन्ति इत्युच्यते
।।5.17।।तद्बुद्धित्वादिकं यद्यपुनरावृत्तिसाधनत्वेनोच्यते तदाऽपरोक्षज्ञानादेव मोक्ष इति गतः पक्षः। अथ तद्बुद्धयो ज्ञाननिर्धूतकल्मषा इति ज्ञानसाधनत्वेन। तदसत् ज्ञानेनेति परोक्षज्ञानस्यापरोक्षज्ञानसाधनत्वेनोक्तत्वादित्यत आह अपरोक्षेति। सत्यम् परोक्षज्ञानमपरोक्षज्ञानसाधनम् किन्तु व्यवहितम्। न हि श्रवणमननानन्तरमेवापरोक्षज्ञानमुत्पद्यते। इदं त्वव्यवहितसाधनमाहेत्यर्थः।
।।5.17।।अपरोक्षज्ञानाव्यवहितसाधनमाह तद्बुद्धय इति।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः। गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।।5.17।।
তদ্বুদ্ধযস্তদাত্মানস্তন্নিষ্ঠাস্তত্পরাযণাঃ৷ গচ্ছন্ত্যপুনরাবৃত্তিং জ্ঞাননির্ধূতকল্মষাঃ৷৷5.17৷৷
তদ্বুদ্ধযস্তদাত্মানস্তন্নিষ্ঠাস্তত্পরাযণাঃ৷ গচ্ছন্ত্যপুনরাবৃত্তিং জ্ঞাননির্ধূতকল্মষাঃ৷৷5.17৷৷
તદ્બુદ્ધયસ્તદાત્માનસ્તન્નિષ્ઠાસ્તત્પરાયણાઃ। ગચ્છન્ત્યપુનરાવૃત્તિં જ્ઞાનનિર્ધૂતકલ્મષાઃ।।5.17।।
ਤਦ੍ਬੁਦ੍ਧਯਸ੍ਤਦਾਤ੍ਮਾਨਸ੍ਤਨ੍ਨਿਸ਼੍ਠਾਸ੍ਤਤ੍ਪਰਾਯਣਾ। ਗਚ੍ਛਨ੍ਤ੍ਯਪੁਨਰਾਵਰਿਤ੍ਤਿਂ ਜ੍ਞਾਨਨਿਰ੍ਧੂਤਕਲ੍ਮਸ਼ਾ।।5.17।।
ತದ್ಬುದ್ಧಯಸ್ತದಾತ್ಮಾನಸ್ತನ್ನಿಷ್ಠಾಸ್ತತ್ಪರಾಯಣಾಃ. ಗಚ್ಛನ್ತ್ಯಪುನರಾವೃತ್ತಿಂ ಜ್ಞಾನನಿರ್ಧೂತಕಲ್ಮಷಾಃ৷৷5.17৷৷
തദ്ബുദ്ധയസ്തദാത്മാനസ്തന്നിഷ്ഠാസ്തത്പരായണാഃ. ഗച്ഛന്ത്യപുനരാവൃത്തിം ജ്ഞാനനിര്ധൂതകല്മഷാഃ৷৷5.17৷৷
ତଦ୍ବୁଦ୍ଧଯସ୍ତଦାତ୍ମାନସ୍ତନ୍ନିଷ୍ଠାସ୍ତତ୍ପରାଯଣାଃ| ଗଚ୍ଛନ୍ତ୍ଯପୁନରାବୃତ୍ତିଂ ଜ୍ଞାନନିର୍ଧୂତକଲ୍ମଷାଃ||5.17||
tadbuddhayastadātmānastanniṣṭhāstatparāyaṇāḥ. gacchantyapunarāvṛttiṅ jñānanirdhūtakalmaṣāḥ৷৷5.17৷৷
தத்புத்தயஸ்ததாத்மாநஸ்தந்நிஷ்டாஸ்தத்பராயணாஃ. கச்சந்த்யபுநராவரித்திஂ ஜ்ஞாநநிர்தூதகல்மஷாஃ৷৷5.17৷৷
తద్బుద్ధయస్తదాత్మానస్తన్నిష్ఠాస్తత్పరాయణాః. గచ్ఛన్త్యపునరావృత్తిం జ్ఞాననిర్ధూతకల్మషాః৷৷5.17৷৷
5.18
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।।5.18।। ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मणमें और चाण्डालमें तथा गाय, हाथी एवं कुत्तेमें भी समरूप परमात्माको देखनेवाले होते हैं।
।।5.18।। (ऐसे वे) ज्ञानीजन विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण,  तथा गाय,  हाथी,  श्वान और चाण्डाल में भी सम तत्त्व को देखते हैं।।
।।5.18।। अपने ज्ञानानुसार ही हमारी जगत् को देखने की दृष्टि होती है। आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र समरूप विद्यमान दिव्य आत्मतत्त्व का ही दर्शन करता है। समुद्र मंे उठती हुई असंख्य लहरों के प्रति समुद्र की अलगअलग भावना नहीं हो सकती। मिट्टी की दृष्टि से मिट्टी से निर्मित सभी घट एक समान ही हैं। इसी प्रकार जिस अहंकार रहित पुरुष ने अपने ब्रह्मस्वरूप को पहचान लिया है उसकी नामरूपमय सृष्टि की ओर देखने की दृष्टि सम बन जाती है। दृष्टिगोचर सभी प्रकार के भेद केवल उपाधियों में ही हैं। मनुष्यमनुष्य में भेद शरीर के रूप और रंग में हो सकता है अथवा मन के स्वभाव या बुद्धि की प्रखरता में। परन्तु जीवन तत्त्व तो सबमें सदा एक ही होता है।इसलिए इस श्लोक में कहा गया है कि विद्याविनययुक्त ब्राह्मण गाय हाथी श्वान और चाण्डाल इन सबकी ओर आत्मप्रज्ञा प्राप्त पण्डित पुरुष समदृष्टि से देखता है। सब उपाधियों में एक ही परम सत्य विराजमान है।आत्मसाक्षात्कार का मुख्य लक्षण है समदर्शन। ज्ञानी पुरुष अपने व्यक्तिगत रागद्वेष के आधार पर भेद नहीं करता। आत्मरूप से अनुभव किये परम सत्य को ही विभिन्न नामरूपों में व्यक्त देखता है।इस श्लोक के सन्दर्भ में श्री शंकराचार्य गौतमस्मृति को उद्धृत करते हुए एक शंका उठाते हैं जिसका निराकरण अगले श्लोक में किया गया है। उस स्मृति ग्रन्थ के अनुसार जैसे पूजनीय व्यक्ति का अनादर करना दोषयुक्त है वैसे ही अनादरणीय व्यक्ति का सम्मान करने में भी उतना ही दोष है। स्मृति के इस कथन की दृष्टि से ब्राह्मण के असमान ही श्वान को आदर देना अथवा जो अनादर श्वान का किया जाता है उतना ही असम्मान एक श्रेष्ठ ब्राह्मण का करना ये दोनों ही पापपूर्ण कर्म होंगे। परन्तु समदर्शी पुरुष इस दोष से सर्वथा मुक्त होते हैं। उसका कारण यह है कि
5.18।। व्याख्या--विद्याविनयसम्पन्ने ৷৷. पण्डिताः समदर्शिनः यहाँ ब्राह्मणके लिये दो विशेषण दिये गये हैं विद्यायुक्त और विनययुक्त अर्थात् ऐसा ब्राह्मण जो विद्वान् भी है और विनम्र स्वभाववाला (ब्राह्मणपनेके अभिमानसे रहित) भी है। ब्राह्मण होनेसे वह जातिसे तो ऊँचा है ही साथहीसाथ विद्या और विनयसे भी सम्पन्न है यह ब्राह्मणत्वकी पूर्णता है। जहाँ पूर्णता होती है वहाँ अभिमान नहीं रहता। अभिमान वहीं रहता है जहाँ पूर्णता नहीं होती।ब्राह्मण और चाण्डालमें तथा गाय हाथी एवं कुत्तेमें व्यवहारकी विषमता अनिवार्य है। इनमें समान बर्ताव शास्त्र भी नहीं कहता उचित भी नहीं और कर सकते भी नहीं। जैसे पूजन विद्याविनययुक्त ब्राह्मणका ही हो सकता है न कि चाण्डालका दूध गायका ही पीया जाता है न कि कुतियाका सवारी हाथीकी ही हो सकती है न कि कुत्तेकी। इन पाँचों प्राणियोंका उदाहरण देकर भगवान् यह कह रहे हैं कि इनमें व्यवहारकी समता सम्भव न होनेपर भी तत्त्वतः सबमें एक ही परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है। महापुरुषोंकी दृष्टि उस परमात्मतत्त्वपर ही सदासर्वदा रहती है। इसलिये उनकी दृष्टि कभी विषम नहीं होती। यहाँ एक शङ्का हो सकती है कि दृष्टि विषम हुए बिना व्यवहारमें भिन्नता कैसे होगी इसका समाधान यह है कि अपने शरीरके सब अङ्गों (मस्तक पैर हाथ गुदा आदि) में हमारी दृष्टि अर्थात् अपनेपन और हितकी भावना समान रहती है फिर भी हम उनके व्यवहारमें भेद रखते हैं जैसे किसीको पैर लग जाय तो क्षमायाचना करते हैं पर किसीको हाथ लग जाय तो क्षमायाचना नहीं करते। प्रणाम मस्तक और हाथोंसे करते हैं पैरोंसे नहीं। गुदासे हाथ लगनेपर हाथ धोते हैं हाथसे हाथ लगनेपर नहीं। इतना ही नहीं एक हाथकी अँगुलियोंमें भी व्यवहारमें भेद रहता है। किसीको तर्जनी अँगुली दिखाने और अँगूठा दिखानेका तो भेद तो सब जानते ही हैं। इस प्रकार शरीरके भिन्नभिन्न अङ्गोंके व्यवहारमें तो भेद होता है पर आत्मीयतामें भेद नहीं होता। इसलिये शरीरके किसी भी पीड़ित अङ्गकी उपेक्षा नहीं होती। व्यवहारमें भेद होनेपर भी पीड़ा मिटानेमें हम समानताका व्यवहार करते हैं। शरीरके सभी अङ्गोंके सुखदुःखमें हमारा एक ही भाव रहता है (गीता 6। 32)। इसी प्रकार प्राणियोंमें खानपान गुण आचरण जाति आदिका भेद होनेसे उनके साथ ज्ञानी महापुरुषोंके व्यवहारमें भी भेद होता है और होना भी चाहिये। परन्तु उन सब प्राणियोंमें एक ही परमात्मतत्त्व परिपूर्ण होनेके कारण महापुरुषकी दृष्टिमें भेद नहीं होता। उन प्राणियोंके प्रति महापुरुषकी आत्मीयता प्रेम हित दया आदिके भावमें कभी फरक नहीं पड़ता। उनके अन्तःकरणमें रागद्वेष ममता आसक्ति अभिमान पक्षपात विषमता आदिका सर्वथा अभाव होता है। जैसे अपने शरीरके किसी अङ्गका दुःख दूर करनेकी चेष्टा स्वाभाविक होती है ऐसे ही पता लगनेपर दूसरे प्राणीका दुःख दूर करनेकी और उसे सुख पहुँचानेकी चेष्टा भी उनके द्वारा स्वाभाविक होती है। यही कारण है कि भगवान्ने यहाँ महापुरुषोंको समदर्शी कहा है न कि समवर्ती। गीतामें दूसरी जगह भी सम देखनेकी या समबुद्धिकी ही बात आयी है जैसे समबुद्धिर्विशिष्यते (6। 9) सर्वत्र समदर्शनः (6। 29) आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति (6। 32) सर्वत्र समबुद्धयः (12। 4) समं सर्वेषु भूतेषु ৷৷. यः पश्यति स पश्यति (13। 27) और समं पश्यन् हि सर्वत्र (13। 28)।श्रीशङ्कराचार्यजी महाराज कहते हैं भावाद्वैतं सदा कुर्यात् क्रियाद्वैतं न कुत्रचित्। (तत्त्वोपदेश)भावमें ही सदा अद्वैत होना चाहिये क्रिया (व्यवहार) में कहीं नहीं।समतासम्बन्धी विशेष बात आजकल समतापर विशेष चर्चा चल रही है। सबके साथ समताका बर्ताव करो ऐसा प्रचार किया जा रहा है। परन्तु वास्तवमें समता किसे कहते हैं और वह कब आती है इसे समझनेकी बड़ी आवश्यकता है। समता कोई खेलतमाशा नहीं है प्रत्युत परमात्माका साक्षात् स्वरूप है। जिनका मन समतामें स्थित हो जाता है वे यहाँ जीतेजी ही संसारपर विजय प्राप्त कर लेते हैं और परब्रह्म परमात्माका अनुभव कर लेते हैं (गीता 5। 19)। यह समता तब आती है जब दूसरोंका दुःख अपना दुःख और दूसरोंका सुख अपना सुख हो जाता है। गीतामें भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन जो पुरुष अपने शरीरकी तरह सब जगह सम देखता है और सुख अथवा दुःखको भी सब जगह सम देखता है वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है (6। 12)। जैसे शरीरके किसी भी अङ्गमें पीड़ा होनेपर उसको दूर करनेकी लगन लग जाती है ऐसे ही किसी प्राणीको दुःख सन्ताप आदि होनेपर उसको दूर करनेकी लगन लग जाय तब समता आती है। सन्तोंके लक्षणोंमें भी आया है पर दुख दुख सुख सुख देखे पर (मानस 7। 38। 1)जबतक अपने सुखकी लालसा है तबतक चाहे जितना उद्योग कर लें समता नहीं आयेगी। परन्तु जब हृदयसे यह लगन लग जायगी कि दूसरोंको सुख कैसे पहुँचे उनको आराम कैसे हो उनको लाभ कैसे हो उनका कल्याण कैसे हो तब समता स्वतः आ जायगी। इसका आरम्भ सर्वप्रथम अपने घरसे करना चाहिये। हृदयमें ऐसा भाव हो कि किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख या कष्ट न पहुँचे किसीका कभी अनिष्ट न हो। चाहे मैं कितना ही कष्ट पाऊँ पर मेरे मातापिता स्त्रीपुत्र भाईभौजाई आदिको सुख होना चाहिये। घरवालोंको सुख पहुँचानेसे अपने हृदयमें शान्ति आयेगी ही। जहाँ अपने घरका भी सम्बन्ध नहीं है वहाँ सुख पहुँचायेंगे तो विशेष आनन्दकी लहरें आने लग जायँगी। परन्तु ममतापूर्वक सुख पहुँचानेसे हमारी उन्नति नहीं होगी। जहाँ हमारी ममता न हो वहाँ सुख पहुँचायें अथवा जहाँ हम ममतापूर्वक सुख पहुँचाते हैं वहाँसे अपनी ममता हटा लें दोनोंका परिणाम एक ही होगा।चित्रकूटमें लक्ष्मणजी भगवान् राम और सीताकी सेवा कैसे करते हैं यह बताते हुए गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि ।।(मानस 2। 142। 1)अर्थात् लक्ष्मणजी भगवान् राम और सीताजीकी वैसे ही सेवा करते हैं जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने शरीरकी सेवा करता है। अपने शरीरकी सेवा करना उसे सुख पहुँचाना समझदारी नहीं है। अपने शरीरकी सेवा तो पशु भी करते हैं। जैसे बँदरीकी अपने बच्चेपर इतनी ममता रहती है कि उसके मरनेके बाद भी वह उसके शरीरको पकड़े हुए चलती है छोड़ती नहीं। परन्तु जब कोई वस्तु खानेके लिये मिल जाती है तब वह स्वयं तो खा लेती है पर बच्चेको नहीं खाने देती। बच्चा खानेकी चेष्टा करता है तो उसे ऐसी घुड़की मारती है कि वह चींचीं करते भाग जाता है। अतः ममताके रहते हुए समताका आना असम्भव है।जिससे हमें कुछ लेना नहीं है जिससे हमारा कोई स्वार्थ नहीं है ऐसे व्यक्तिके साथ भी हम प्रेमपूर्वकअच्छासेअच्छा बर्ताव करें जिससे उसका हित हो। कोई व्यक्ति मार्गमें भटक गया है उसे मार्गका पता नहीं है और वह हमसे पूछता है। हम उसे बड़ी प्रसन्नतासे मार्ग बतायें अथवा कुछ दूरतक उसके साथ चलें तो हमें हृदयमें प्रत्यक्ष सुखका शान्तिका अनुभव होगा। परन्तु यदि हम जानते हुए भी उसे मार्ग नहीं बतायेंगे तो हमारे हृदयमें सुख नहीं होगा। यह अनुभवकी बात है कोई करके देख ले। किसीको प्यास लगी है तो उसे बता दे कि भाई इधर आओ इधर ठण्डा जल है। फिर हम अपना हृदय देखें। हमारे हृदयमें प्रसन्नता आयेगी सुख आयेगा। यह सुख हमारा कल्याण करनेवाला है। दूसरा दुःख पाये पर मैं सुख ले लूँ यह सुख पतन करनेवाला है। इससे न तो व्यवहारमें हमारी उन्नति होगी और न परमार्थमें। हम सत्सङ्गका आयोजन करते हैं। उसमें आनेवाले व्यक्तियोंके बैठनेकी व्यवस्था करते हैं तो उनसे प्रेमपूर्वक कहें कि आइये यहाँ बैठिये। उन्हें वहाँ बैठायें जहाँसे वे ठीक तरहसे कैसे सुन सकें। वे आरामसे कैसे बैठ सकें ठीक तरहसे कैसे सुन सकें ऐसा भाव रखकर उनसे बर्ताव करें। ऐसा करनेसे हमारे हृदयमें प्रत्यक्ष शान्ति आयेगी। पर वहीं हुक्म चलायें कि क्या करते हो इधर बैठो इधर नहीं तो बात वही होनेपर भी हृदयमें शान्ति नहीं आयेगी। भीतरमें जो अभिमान है वह दूसरोंको चुभेगा बुरा लगेगा। ऐसा बर्ताव करें और चाहें कि समता आ जाय तो वह कभी आयेगी नहीं। सबके हितमें जिसकी प्रीति हो गयी है उन्हें भगवान् प्राप्त हो जाते हैं ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः (गीता 12। 4)। कारण कि भगवान् प्राणिमात्रके परम सुहृद् हैं (गीता 5। 29)। वे प्राणिमात्रका पालनपोषण करनेवाले हैं। आस्तिकसेआस्तिक हो अथवा नास्तिकसेनास्तिक दोनोंके लिये भगवान्का विधान बराबर है। एक व्यक्ति बड़ा आस्तिक है भगवान्को बहुत मानता है और उन्हें पानेके लिये साधनभजन करता है और एक व्यक्ति ऐसा नास्तिक है कि संसारसे भगवान्का खाता उठा देना चाहता है। भगवान्को माननेसे और भगवान्के कारण ही दुनिया दुःख पा रही है भगवान् नामकी कोई चीज है ही नहीं ऐसा उसके हृदयमें भाव है और ऐसा ही प्रचार करता है। ऐसे नास्तिकसेनास्तिक व्यक्तिकी भी प्यास जल मिटाता है और यही जल आस्तिकसेआस्तिक व्यक्तिकी भी प्यास मिटाता है। जलमें यह भेद नहीं है कि वह आस्तिककी प्यास ठीक तरहसे शान्ति करे और नास्तिककी प्यास शान्त न करे। वह समान रीतिसे सबकी प्यास मिटाता है। ऐसे ही सूर्य समान रीतिसे सबको प्रकाश देता है हवा समान रीतिसे सबको श्वास लेने देती है पृथ्वी समान रीतिसे सबको रहनेका स्थान देती है। इस प्रकार भगवान्की रची हुई प्रत्येक वस्तु सबको समान रीतिसे मिलती है। समताका अर्थ यह नहीं है कि समान रीतिसे सबके साथ रोटीबेटी (भोजन और विवाह) का बर्ताव करें। व्यवहारमें समता तो महान् पतन करनेवाली चीज है। समान बर्ताव यमराजका मौतका नाम है क्योंकि उसके बर्तावमें विषमता नहीं होती। चाहे महात्मा हो चाहे गृहस्थ हो चाहे साधु हो चाहे पशु हो चाहे देवता हो मौत सबकी बराबर होती है। इसलिये यमराजको समवर्ती (समान बर्ताव करनेवाला) कहा गया है (टिप्पणी प0 307)। अतः जो समान बर्ताव करते हैं वे भी यमराज हैं।पशुओंमें भी समान बर्ताव पाया जाता है। कुत्ता ब्राह्मणकी रसोईमें जाता है तो पैर धोकर नहीं जाता। ब्राह्मणकी रसोई हो अथवा हरिजनकी वह तो जैसा है वैसा ही चला जाता है क्योंकि यह उसकी समता है। पर मनुष्यके लिये यह समता नहीं है प्रत्युत महान् पशुता है। समता तो यह है कि दूसरेका दुःख कैसे मिटे दूसरेको सुख कैसे हो आराम कैसे हो ऐसी समता रखते हुए बर्तावमें पवित्रता निर्मलता रखनी चाहिये। बर्तावमें पवित्रता रखनेसे अन्तःकरण पवित्र निर्मल होता है। परन्तु बर्तावमें अपवित्रता रखनेसे खानपान आदि एक करनेसे अन्तःकरणमें अपवित्रता आती है जिससे अशान्ति बढ़ती है। केवल बाहरका बर्ताव समान रखना शास्त्र और समाजकी मर्यादाके विरुद्ध है। इससे समाजमें संघर्ष पैदा होता है।वर्णोंमें ब्राह्मण ऊँचे हैं और शूद्र नीचे हैं ऐसा शास्त्रोंका सिद्धान्त नहीं है। ब्राह्मण उपदेशके द्वारा क्षत्रिय रक्षाके द्वारा वैश्य धनसम्पत्ति आवश्यक वस्तुओँके द्वारा और शूद्र शरीरसे परिश्रम करके सभी वर्णोंकी सेवाकरे। इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे अपने कर्तव्यपालनमें परिश्रम न करें प्रत्युत अपने कर्तव्यपालनमें समान रीतिसे सभी परिश्रम करें। जिसके पास जिस प्रकारकी शक्ति विद्या वस्तु कला आदि है उसके द्वारा चारों ही वर्ण चारों वर्णोंकी सेवा करें उनके कार्योंमें सहायक बनें। परन्तु चारों वर्णोंकी सेवा करनेमें भेदभाव न रखें।आजकल वर्णाश्रमको मिटाकर पार्टीबाजी हो रही है। आज वर्णाश्रममें इतनी लड़ाई नहीं है जितनी लड़ाई पार्टीबाजीमें हो रही है यह प्रत्यक्ष बात है। पहले लोग चारों वर्णों और आश्रमोंकी मर्यादामें चलते थे और सुखशान्तिपूर्वक रहते थे। आज वर्णाश्रमकी मर्यादाको मिटाकर अनेक पार्टियाँ बनायी जा रही हैं जिससे संघर्षको बढ़ावा मिल रहा है। गाँवोंमें सब लोगोंको पानी मिलना कठिन हो रहा है। जिनके अधिकारमें कुआँ है वे कहते हैं कि तुमने उस पार्टीको वोट दिया है इसलिये तुम यहाँसे पानी नहीं भर सकते। माँ बाप और बेटा तीनों अलगअलग पार्टियोंको वोट देते हैं और घरमें लड़ते हैं। भीतरमें वैर बाँध लिया कि तुम उस पार्टीके और हम इस पार्टीके। कितना महान् अनर्थ हो रहा हैयदि समता लानी हो तो दूसरा व्यक्ति किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय मत आदिका क्यों न हो उसे सुख देना है उसका दुःख दूर करना है और उसका वास्तविक हित करना है। उनमें यह भेद हो सकता है कि आप रामराम कहते हैं हम कृष्णकृष्ण कहेंगे आप वैष्णव हैं हम शैव हैं आप मुसलमान हैं हम हिन्दू हैं इत्यादि। परन्तु इससे कोई बाधा नहीं आती है। बाधा तब आती है जब यह भाव रहता है कि वे हमारी पार्टीके नहीं हैं इसलिये उनको चाहे दुःख होता रहे पर हमें और हमारी पार्टीवालोंको सुख हो जाय। यह भाव महान् पतन करनेवाला है। इसलिये कभी किसी वर्ण आदिके मनुष्योंको कष्ट हो तो उनके हितकी चिन्ता समान रीतिसे होनी चाहिये और उन्हें सुख हो तो उससे प्रसन्नता समान रीतिसे होनी चाहिये। जैसे ब्राह्मणों और हरिजनोंमें संघर्ष हुआ। उसमें हरिजनोंकी हार और ब्राह्मणोंकी जीत होनेपर हमारे मनमें प्रसन्नता हो अथवा ब्राह्मणोंकी हार और हरिजनोंकी जीत होनेपर हमारे मनमें दुःख हो तो यह विषमता है जो बहुत हानिकारक है। ब्राह्मणों और हरिजनों दोनोंके प्रति ही हमारे मनमें हितकी समान भावना होनी चाहिये। किसीका भी अहित हमें सहन न हो। किसीका भी दुःख हमें समान रीतिसे खटकना चाहिये। यदि ब्राह्मण दुःखी है तो उसे सुख पहुँचायें और यदि हरिजन दुःखी है तो उसे सुख न पहुँचायें ऐसा पक्षपात नहीं होना चाहिये प्रत्युत हरिजनको सुख पहुँचानेकी विशेष चेष्टा होनी चाहिये। हरिजनोंको सुख पहुँचानेकी चेष्टा करते हुए भी ब्राह्मणोंके दुःखकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिये। इस प्रकार किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय आदिको लेकर पक्षपात नहीं होना चाहिये। सभीके प्रति समान रीतिसे हितका बर्ताव होना चाहिये। यदि कोई निम्नवर्ग है और उसे हम ऊँचा उठाना चाहते हों तो उस वर्गके लोगोंके भावों और आचरणोंको शुद्ध और श्रेष्ठ बनाना चाहिये उनके पास वस्तुओंकी कमी हो तो उसकी पूर्ति करनी चाहिये परन्तु उन्हें उकसाकर उनके हृदयोंमें दूसरे वर्गके प्रति ईर्ष्या और द्वेषके भाव भर देना अत्यन्त ही अहितकर घातक है तथा लोकपरलोकमें पतन करनेवाला है। कारण कि ईर्ष्या द्वेष अभिमान आदि मनुष्यका महान् पतन करनेवाले हैं। यदि ऐसे भाव ब्राह्मणोंमें हैं तो उनका भी पतन होगा और हरिजनोंमें हैं तो उनका भी पतन होगा। उत्थान तो सद्भावों सद्गुणों सदाचारोंसे ही होता है। भोजन वस्त्र मकान आदि निर्वाहकी वस्तुओंकी जिनके पास कमी है उन्हें ये वस्तुएँ विशेषतासे देनी चाहिये चाहे वे किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय आदिके क्यों न हों। सबका जीवनयापन सुखपूर्वक होना चाहिये। सभी सुखी हों सभी नीरोग हों सभीका हित हो कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न हो (टिप्पणी प0 308) ऐसा भाव रखते हुए यथायोग्य बर्ताव करना ही समता है जो सम्पूर्ण मनुष्योंके लिये हितकर है।  सम्बन्ध   अब भगवान् पूर्वश्लोकमें वर्णित समताकी विशेष महिमा कहते हैं।
।।5.18।।अत्रापि भावयन्निति ज्ञानस्यैवेयं धारा उक्ता।
।।5.18।।विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणो गोहस्तिश्वपचादिषु अत्यन्तविषमाकारतया प्रतीयमानेषु च आत्मसु पण्डिताः आत्मयाथात्म्यविदो ज्ञानैकाकारतया सर्वत्र समदर्शिनः। विषमाकारः तु प्रकृतेः न आत्मनःआत्मा तु सर्वत्र ज्ञानैकाकारतया समः इति पश्यन्ति इत्यर्थः।
।।5.18।।यदपुनरावृत्तिसाधनं तत्त्वज्ञानं तदेव प्रश्नद्वारेण विवृणोति येषामित्यादिना। विद्या वेदार्थविज्ञानमित्यङ्गीकृत्य विनय व्याचष्टे विनय इति। उपशमो निरहंकारत्वमनौद्धत्यम्। पदार्थमेवमुक्त्वा वाक्यार्थं दर्शयति विद्वानिति। गवीत्याद्यनूद्य वाक्यार्थं कथयति विद्येति। हस्त्यादौ पण्डिताः समदर्शिन इत्युत्तरत्र संबन्धः। तत्र तत्र प्राणिभेदेषु तत्तद्गुणैस्तत्तन्निमित्तसंस्कारैश्च संस्पृष्टत्वसंभवान्न ब्रह्मणः समत्वमित्याशङ्क्याह सत्त्वादीति। तज्जैश्चेत्यत्र तच्छब्देन सत्त्वमेव गृह्यते। सात्त्विकसंस्कारैरिव राजससंस्कारैरपि सर्वथैवासंस्पृष्टं ब्रह्मेत्याह तथेति। राजसैरिव तामसैरपि संस्कारैर्ब्रह्मात्यन्तमेवास्पृष्टमित्याह तथा तामसैरिति। ब्रह्मणोऽद्वितीयत्वं कूटस्थत्वमसङ्गत्वं चोक्तेऽर्थे हेतुरिति मत्वा समशब्दार्थमाह सममिति। समदर्शित्वमेव पाण्डित्यं तद्व्याचष्टे ब्रह्मेति।
।।5.18।।कीदृशास्ते इति जिज्ञासायां तेषां स्वरूपमाह विद्येति। एतेषु विषमेषु गवादिष्वपि समं ब्रह्म द्रष्टुं शीलं येषां ते पण्डिता उक्तलक्षणाः।
।।5.18।।देहपातादूर्ध्वं विदेहकैवल्यरूपं ज्ञानफलमुक्त्वा प्रारब्धकर्मवशात्सत्यपि देहे जीवन्मुक्तिरूपं तत्फलमाह विद्या वेदार्थपरिज्ञानं ब्रह्मविद्या वा विनयो निरहंकारत्वम् अनौद्धृत्यमिति यावत्। ताभ्यां संपन्ने ब्रह्मविदि विनीते च ब्राह्मणे सात्त्विकेसर्वोत्तमे। तथा गवि संस्कारहीनायां राजस्यां मध्यमायाम्। तथा हस्तिनि शुनि श्वपाके चात्यन्ततामसे सर्वाधर्मेऽपि सत्त्वादिगुणैस्तज्जैश्च संस्कारैरस्पृष्टमेव समं ब्रह्म द्रष्टुं शीलं येषां ते समदर्शिनः पण्डिता ज्ञानिनः। यथा गङ्गातोये तडागे सुरायां मूत्रे वा प्रतिबिम्बितस्यादित्यस्य न तद्गुणदोषसंबन्धस्तथा ब्रह्मणोऽपि चिदामासद्वारा प्रतिबिम्बितस्य नोपाधिगतगुणदोषसंबन्ध इति प्रतिसंदधानाः सर्वत्र समदृष्ट्यैव रागद्वेषराहित्येन परमानन्दस्फूर्त्या जीवन्मुक्तिमनुभवन्तीत्यर्थः।
।।5.18।।कीदृशास्ते ज्ञानिनो येऽपुनरावृत्तिं गच्छन्तीत्यपेक्षायामाह विद्याविनयसंपन्न इति। विषमेष्वपि समं ब्रह्मैव द्रष्टुं शीलं येषां ते। पण्डिताः ज्ञानिन इत्यर्थः। तत्र विद्याविनयाभ्यां युक्ते ब्राह्मणे च शुनो यः पचति तस्मिञ्श्वपाके चेति कर्मणा वैषम्यम्। गवि हस्तिनि शुनि चेति जातितो वैषम्यं दर्शितम्।
।।5.18।।कीदृशोऽयमात्मसाक्षात्कारः इत्याकाङ्क्षायांयेन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि 4।35 इति प्रागुक्तं व्यनक्ति विद्याविनय इति श्लोकेन।विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे इति पदद्वयं न समानाधिकरणं निर्विशेषणसमुदायसहपठितत्वाद्विद्याविनयसम्पन्नविशेषणप्रतिशीर्षानुक्तेश्च।गवि हस्तिनि इत्याकारवैषम्यं द्वाभ्यां दर्शितम् श्वश्वपचशब्दाभ्यां वृत्त्या वैषम्यम् तद्वत्पूर्वाभ्यामपि मिथो वैषम्यमेवाभिप्रेतम् अतोब्राह्मणे इति ब्राह्मणत्वजात्याक्रान्ततामात्रं विवक्षितमिति दर्शयति केवलब्राह्मण इति। सात्त्विकराजसतामसरूपानेकोदाहरणाभिप्रेतमाह अत्यन्तविषमेति।आत्मस्विति शरीराणामन्योन्यवैषम्यनिषेधो दुश्शक इति भावः। अत्र समदर्शित्वोपयुक्तमूहापोहक्षमत्वं पण्डितत्वमिति दर्शयितुंआत्मयाथात्म्यविद इत्युक्तम्। सम द्रष्टुं शीलं येषां ते समदर्शिनः। ननु प्रत्यक्षसिद्धं शरीरवैषम्यम् शरीरिणामपि तत्तद्विशिष्टत्वात्तत्कृतज्ञानादिवैषम्यं च दुरपह्नवम् अतोऽत्यन्तविषमेषु पदार्थत्वादिवत्स्थूलं सामान्यमकिञ्चित्करमित्यत्राहविषमाकारस्त्विति।प्रकृतेः इति सम्बन्धसामान्ये षष्ठी। तेन साक्षात्प्रकृतिगतं देवत्वादिकं तत्प्रयुक्तं सुखित्वादिकं च कथञ्चित्सम्बन्धमात्रात् प्रकृतेरित्युक्तम्। न शरीरगतं वैषम्यं प्रतिषिध्यते किन्तु तदेवात्र प्रतिपाद्यते न च तत्तच्छरीरविशिष्टत्वलक्षणं तन्मूलज्ञानसङ्कोचादिलक्षणं वा वैषम्यमपह्नूयते अपितु तस्यौपाधिकत्वमुच्यते। न च शरीरादिविशिष्टत्वं विरोधि स्वाभाविकस्वरूपसाम्यमात्रपरत्वात्। न चैतदत्यन्तस्थूलं शुद्धानामात्मनां स्वरूपभेदस्य दुर्विवेचत्वात्स्फुटविशेषाकारान्तराभावादिति भावः। ननु तथापि ब्राह्मणादिषु पूज्यत्वादिसाम्यबुद्धौ अभोज्यान्नत्वादिदोषः स्मृतस्तत्राह आत्मा त्विति।
।।5.18।।तेषां लक्षणमाह विद्येति। विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे श्वपाके शुनो यः पचति तस्िमँश्च गवि हस्तिनि शुनि च समदर्शिनः मदंशात्मज्ञानेन ते पण्डिता ज्ञानिनः ज्ञेया इत्यर्थः।
।।5.18।।एतेषां जगति दृष्टिमाह विद्येति। उत्तमब्राह्मणे चण्डालादौ वा समं ब्रह्मैव सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च भासमानं द्रष्टुं शीलं येषां ते समदर्शिनः। यथोक्तम्अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम्। आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम्। इति। चराचरं जगद्ब्रह्मदृष्ट्यैव पश्यन्तीत्यर्थः।
।।5.18।। येषां ज्ञानेन नाशितमात्मनोऽज्ञानं ते पण्डिता मोक्षगामिनः कथमात्मतत्त्वं पश्यन्तीति तत्राह विद्येति। विद्या आत्मबोधः विनय उपशम औद्धत्याद्यभावः। दैन्यवारणाय विद्यापदमौद्धत्यादिवारणाय विनयपदं ताभ्यां संपन्ने युक्ते उत्तमसंस्कारवति सात्त्विके ब्राह्मणे मध्यमायां राजस्यां गवि संस्काररहितायां अधमे केवलतामसे हस्तिनि गजे शुनि सारभेये श्वपाके चाण्डाले। तामसानां बहूनामुपादानं तु सात्त्विकराजसापेक्षया तेषां बाहुल्यसूचनार्थम्। समं सत्त्वादिगुणैस्तज्जन्यसंस्कारैश्चास्पृष्टमेकमविक्रियं गङ्गाजले तडागोदके मूत्रादावच्छिन्नाकाशमिव ब्रह्म द्रष्टुं शीलं येषां ते पण्डिताः समदर्शिन इत्यर्थः। यत्तु ननु ज्ञानसंन्याससंपन्नानामेव जीवे कोऽयमतिशयो यत्परैक्यं नाम। नहि मनुष्याणां लोके उत्तममध्यमतया व्यवह्नियमाणानां पशूनां वा तादृशानां न जीवोऽस्ति सन्वा न परैक्यं प्रतिपद्यते। इत्याशङ्क्याह विद्येति।अत्र गवि हस्तिनि शुनीति गोत्वादिजात्याधारपिण्डरुपोपाधी नाभुत्तममध्यमाधमानामुक्तत्वान्मानुषपिण्डानामप्यात्मोपाधीनामेवं विवेको ज्ञेयः। ब्राह्मणस्योत्तमस्य पृथगभिधानात्। विद्यासंपन्नाबशिष्टौ क्षत्रियवैश्यपिण्डौ। विनयसंपन्नस्त्रैवर्णिकसेवामात्रधर्मकः शूद्रपिण्डः। पिण्डसमुदायाभिप्रायं चैकवचनम्। तथोत्तमो ब्राह्मणः क्षत्रियवैश्यौ मध्यमौ ततः किंचिन्निकृष्टः शूद्रः सर्वथाधमः श्वपाकः। एतेषु मानुषपशूत्तममध्यमाधमेषु पिण्डेष्वात्मोपाधिषु सत्स्वप्यनुपहितं सर्वत्राविशेषत्वात् समं ब्रह्मैव तत्रतत्र प्रविष्टं पण्डिताः पश्यन्ति नत्वात्मानमेव ब्रह्मात्मकं पश्यन्तीत्यर्थ इतीतरे व्याचख्युः। तन्मन्दम्। सर्वभूतात्मभूतब्रह्मदर्शिन इत्येतावतैवोक्तार्थे सिद्धेऽमूलोक्तानामुपाधिभेदानां क्लिष्टकल्पनया प्रदर्शितानां समपदस्य च वैयर्थ्यप्रसङ्गात्।
5.18 विद्याविनयसंपन्ने upon one endowed with learning and humility? ब्राह्मणे on a Brahmana? गवि on a cow? हस्तिनि on an elephant? शुनि on a dog? च and? एव even? श्वपाके on an outcaste? च and? पण्डिताः sages? समदर्शिनः eal seeing.Commentary The liberated sage or Jivanmukta or a Brahmana has eal vision as he beholds the Self only everywhere. This magnificent vision of a Jnani is beyond description. Atman or Brahman is not at all affected by the Upadhis or limiting adjuncts as He is extremely subtle? pure? formless and attributeless. The suns reflection falls on the river Ganga? on the ocean or on a dirty stream. The sun is not at all affected in any way. This makes no difference to the sun. So is the case with the Supreme Self. The Upadhis (limiting adjuncts) cannot affect Him. Just as the ether is not affected by the limiting adjuncts? viz.? a pot? the walls of a room? cloud? etc.? so also the Self is not affected by the Upadhis.The Brahmana is Sattvic. The cow is Rajasic. The elephant? the dog and the outcaste are Tamasic. The sge sees in all of them the one homogeneous immortal Self Who is not affected by the three Gunas and their tendencies. (Cf.VI.8?32XIV.24)
5.18 Sages look with an eal eye on a Brahmana endowed with learning and humility, on a cow, on an elephant, and even on a dog and an outcaste.
5.18 Sages look equally upon all, whether he be a minister of learning and humility, or an infidel, or whether it be a cow, an elephant or a dog.
5.18 The learned ones look with eanimity on a Brahmana endowed with learning and humality, a cow, an elephant and even a dog as well as an eater of dog's meat.
5.18 Panditah, the learned ones; sama-darsinah, look with equanimity; brahmane, on a Brahmana; vidya-vinayasampanne, endowed with learning and humility-vidya means knowledge of the Self, and vinaya means pridelessness-, on a Brahmana who has Self-knowledge and modesty; gavi, on a cow; hastini, on an elephant; ca eva, and even; suni, on a dog; ca, as well as; svapake, on an eater of dog's meat.Those learned ones who are habituated to see (equally) the unchanging, same and one Brahman, absolutely untouched by the qualities of sattva etc. and the tendencies created by it, as also by the tendencies born of rajas and tamas, in a Brahmana, who is endowed with Knowledge and tranquillity, who is possessed of good tendencies and the quality of sattva; in a cow, which is possessed of the middling quality of rajas and is not spiritually refined; and in an elephant etc., which are wholly and absolutely imbued with the quality of tamas-they are seers of equality.Objection: On the strength of the text, 'A sacrificer incurs sin by not adoring equally one who is an equal, and by adoring equally one who is an equal, to himself' (Gau. Sm. 17.20), are not they sinful, whose food should not be eaten?Reply: They are not open to the charge.Objection: How?
5.18. The wise men look, by nature, eally upon a Brahmana, rich in learning and humility, on a cow, on an elephant, and on a mere dog and on a dog-cooker (an out-caste).
5.18 Vidya-etc. So, regarding a Brahmana these men of Yoga entertain no such veiw as 'I shall become a man of merit by serving him' and so on; regarding a cow, no [idea] like 'It is purifying and sacred' and so on; regarding an elephant, no thought of wealth and so on; regarding a dog, no conviction that it is impure, mischievous and so on; and with regard to a dog-cooker no opinion that he is a sinner, is impure and so on. That is why it is said that 'they look eally [upon these]' and not that 'they act eally [with them]. This has been said as - The Self, which is of the nature of pure Consciousness, [shines] in he bodies of all; no discriminating factor exists anywhere. Hence, the person who has conered the cycle of birth-and-death, remains consdering all as fully absorbed in That (Consciousness) (VB, verse 100). Here too nothing but this stream of thought has been mentioned by 'remains considering'. The proper mental disposition of a man of wisdom, says [the Lord], would be like this :
5.18 The sages are those who know the real nature of the self in all beings. They see the selves to be of the same nature, though they are perceived in extremely dissimlar embodiments such as those of one endowed with learning and humility, a mere Brahmana, a cow, an elephant, a dog, a dog-eater etc., because they all have the same form of knowledge in their nature as the Atman. The dissimilarity of the forms observed is due to Prakrti (body) and not to any dissimilarity in the self; conseently they, the wise, perceive the self as the same everywhere, because all selves, though distinct, have the same form of knowledge.
5.18 The sages look with an eal eye on one endowed with learning and humility, a Brahmana, a cow, an elephant, a dog and a dog-eater.
।।5.18।।जिनके आत्माका अज्ञान ज्ञानद्वारा नष्ट हो चुका है वे पण्डितजन परमार्थतत्त्वको कैसे देखते हैं सो कहते हैं विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें अर्थात् विद्याआत्मबोध और विनयउपरामता इन दोनों गुणोंसे सम्पन्न जो विद्वान् और विनीत ब्राह्मण है उस ब्राह्मणमें गौमें हाथीमें कुत्ते और चाण्डालमें भी पण्डितजन समभावसे देखनेवाले ( होते हैं )। अभिप्राय यह कि उत्तम प्राणी संस्कारयुक्त विद्याविनयसम्पन्न सात्त्विक ब्राह्मणमें मध्यम प्राणीसंस्काररहित रजोगुणयुक्त गौमें और ( कनिष्ठ प्राणी ) अतिशय मूढ़ केवल तमोगुणयुक्त हाथी आदिमें सत्त्वादि गुणोंसे और उनके संस्कारोंसे तथा राजस और तामस संस्कारोंसे सर्वथा ही निर्लेप रहनेवाले सम एक निर्विकार ब्रह्मको देखना ही जिनका स्वभाव है वे पण्डित समदर्शी हैं। पू0 वे ( इस प्रकार देखनेवाले ) दोषयुक्त हैं उनका अन्न भोजन करने योग्य नहीं क्योंकि यह स्मृतिका प्रमाण है कि समान गुणशीलवालोंकी विषम पूजा करनेसे और विषम गुणशीलवालोंकी सम पूजा करनेसे ( यजमान दोषी होता है )।
।।5.18।। विद्याविनयसंपन्ने विद्या च विनयश्च विद्याविनयौ विद्या आत्मनो बोधो विनयः उपशमः ताभ्यां विद्याविनयाभ्यां संपन्नः विद्याविनयसंपन्नः विद्वान् विनीतश्च यो ब्राह्मणः तस्मिन् ब्राह्मणे गवि हस्तिनि शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः। विद्याविनयसंपन्ने उत्तमसंस्कारवति ब्राह्मणे सात्त्विके मध्यमायां च राजस्यां गवि संस्कारहीनायाम् अत्यन्तमेव केवलतामसे हस्त्यादौ च सत्त्वादिगुणैः तज्जैश्च संस्कारैः तथा राजसैः तथा तामसैश्च संस्कारैः अत्यन्तमेव अस्पृष्टं समम् एकम् अविक्रियं तत् ब्रह्म द्रष्टुं शीलं येषां ते पण्डिताः समदर्शिनः।।ननु अभोज्यान्नाः ते दोषवन्तः समासमाभ्यां विषमसमे पूजातः (गौ0 स्म0 17.20) इति स्मृतेः। न ते दोषवन्तः। कथम्
।।5.18।।विद्याविनयेत्यादिप्रकृतानुपयुक्तमयुक्तं च कथमुच्यते इत्यत आह परमेश्वरेति। सर्वत्र ब्राह्मणादिषु स्थितानां सर्वत्र गुणेषु दोषाभावेषु वा साम्यं तारतम्याभावः। तद्बुद्धित्वादिना सहास्य समुच्चयार्थश्चशब्दः। परमेश्वरविषयतानिर्दोषं हि 5।19 इत्युत्तरवाक्यगम्या अपरोक्षज्ञानसाधनता च प्रकरणगम्येत्यत आशयवानित्युक्तम्। पण्डितशब्दस्तु परोक्षज्ञानवचनः पाण्डित्यमागमज्ञानमिति वचनात्।
।।5.18।।परमेश्वरस्वरूपाणां सर्वत्र साम्यदर्शनं चापरोक्षज्ञानसाधनमित्याशयवानाह विद्येति।
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18।।
বিদ্যাবিনযসংপন্নে ব্রাহ্মণে গবি হস্তিনি৷ শুনি চৈব শ্বপাকে চ পণ্ডিতাঃ সমদর্শিনঃ৷৷5.18৷৷
বিদ্যাবিনযসংপন্নে ব্রাহ্মণে গবি হস্তিনি৷ শুনি চৈব শ্বপাকে চ পণ্ডিতাঃ সমদর্শিনঃ৷৷5.18৷৷
વિદ્યાવિનયસંપન્ને બ્રાહ્મણે ગવિ હસ્તિનિ। શુનિ ચૈવ શ્વપાકે ચ પણ્ડિતાઃ સમદર્શિનઃ।।5.18।।
ਵਿਦ੍ਯਾਵਿਨਯਸਂਪਨ੍ਨੇ ਬ੍ਰਾਹ੍ਮਣੇ ਗਵਿ ਹਸ੍ਤਿਨਿ। ਸ਼ੁਨਿ ਚੈਵ ਸ਼੍ਵਪਾਕੇ ਚ ਪਣ੍ਡਿਤਾ ਸਮਦਰ੍ਸ਼ਿਨ।।5.18।।
ವಿದ್ಯಾವಿನಯಸಂಪನ್ನೇ ಬ್ರಾಹ್ಮಣೇ ಗವಿ ಹಸ್ತಿನಿ. ಶುನಿ ಚೈವ ಶ್ವಪಾಕೇ ಚ ಪಣ್ಡಿತಾಃ ಸಮದರ್ಶಿನಃ৷৷5.18৷৷
വിദ്യാവിനയസംപന്നേ ബ്രാഹ്മണേ ഗവി ഹസ്തിനി. ശുനി ചൈവ ശ്വപാകേ ച പണ്ഡിതാഃ സമദര്ശിനഃ৷৷5.18৷৷
ବିଦ୍ଯାବିନଯସଂପନ୍ନେ ବ୍ରାହ୍ମଣେ ଗବି ହସ୍ତିନି| ଶୁନି ଚୈବ ଶ୍ବପାକେ ଚ ପଣ୍ଡିତାଃ ସମଦର୍ଶିନଃ||5.18||
vidyāvinayasaṅpannē brāhmaṇē gavi hastini. śuni caiva śvapākē ca paṇḍitāḥ samadarśinaḥ৷৷5.18৷৷
வித்யாவிநயஸஂபந்நே ப்ராஹ்மணே கவி ஹஸ்திநி. ஷுநி சைவ ஷ்வபாகே ச பண்டிதாஃ ஸமதர்ஷிநஃ৷৷5.18৷৷
విద్యావినయసంపన్నే బ్రాహ్మణే గవి హస్తిని. శుని చైవ శ్వపాకే చ పణ్డితాః సమదర్శినః৷৷5.18৷৷
5.19
5
19
।।5.19।। जिनका अन्तःकरण समतामें स्थित है, उन्होंने इस जीवित-अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है; ब्रह्म निर्दोष और सम है, इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं।
।।5.19।। जिनका मन समत्वभाव में स्थित है,  उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।।
।।5.19।। इस श्लोक में प्राय सम्पूर्ण शास्त्र को ही गागर में सागर की भाँति भर दिया गया है। प्रस्तुत प्रकरण के सन्दर्भ में सर्वप्रथम यह दर्शाना आवश्यक था कि पूर्व श्लोक में वर्णित समदर्शनरूप पूर्णत्व कोई ऐसा दैवी आदर्श नहीं जिसकी प्राप्ति या अनुभूति देहत्याग के पश्चात् स्वर्ग नामक किसी लोक विशेष में होगी। पुराणों तथा यहूदी धर्मों में धर्म साधना और जीवन का लक्ष्य स्वर्गप्राप्ति ही बताया गया है। एक बुद्धिमान् एवं विचारशील पुरुष को स्वर्ग का आश्वासन एक आकर्षक माया जाल से अधिक कुछ प्रतीत नहीं होता। ऐसे अस्पष्ट और अज्ञात लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बुद्धिमान् पुरुष को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। उसमें उस लक्ष्य के प्रति न उत्साह होगा और न लगन।स्वर्ग प्राप्ति के आश्वासन के विपरीत यहाँ वेदान्त में स्पष्ट घोषणा की गयी है कि जीव का संसार यहीं पर समाप्त होकर वह अपने अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है। आत्मानुभूति का यह लक्ष्य मृत्यु के पश्चात् प्राप्य नहीं वरन् इसी जीवन में इसी देह में और इसी लोक में प्राप्त करने योग्य है। जीवभाव की परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठकर मनुष्य ईश्वरानुभूति में स्थित रह सकता है।जीवत्व से ईश्वरत्व तक आरोहण करने में कौन समर्थ है किस उपाय से संसार बन्धनों से मुक्ति पायी जा सकती है इस श्लोक में केवल जीवन के लक्ष्य का ही नहीं बल्कि तत्प्राप्ति के लिए साधन का भी संकेत किया गया है। भगवान् कहते हैं कि जिनका मन समत्व भाव में स्थित है वे ब्रह्म में स्थित हैं।पतंजलि मुनि इसी बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि योगश्चित्तवृत्तिनिरोध अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। जहाँ मन की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हुआ वहाँ मन का अस्तित्व ही समाप्त समझना चाहिए। मन ही वह उपाधि है जिसमें व्यक्त चैतन्य जीव या अहंकार के रूप में प्रकट होकर स्वयं को सम्पूर्ण जगत् से भिन्न मानता है। अत मन के नष्ट होने पर अहंकार और उसके संसार का भी नाश अवश्यंभावी है। सांसारिक दुखों से मुक्त जीव अनुभव करता है कि वह परमात्मस्वरूप से भिन्न नहीं। इस स्वरूपानुभूति के बिना पूर्व श्लोक में कथित समदर्शित्व प्राप्त नहीं हो सकता।भगवान् कहते हैं कि जिसने सर्ग (जन्मादिरूप संसार) को जीत लिया और जिसका मन समस्त परिस्थितिओं में समभाव में स्थित रहता है वह पुरुष निश्चय ही ब्रह्म में स्थित है। प्रथम बार में अध्ययन करने पर यह कथन अयुक्तिक प्रतीत हो सकता है। इसलिये भगवान् इसका कारण बताते हैं क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है।ब्रह्म सर्वत्र समानरूप से व्याप्त है। सब घटनाएं उसमें ही घटती हैं परन्तु उसको कोई विकार प्राप्त नहीं होता। सत्य सदैव नदी के तल के समान अपरिवर्तित रहता है जबकि उसका जल प्रवाह सदैव चंचल रहता है। अधिष्ठान सदा अविकारी रहता है परन्तु अध्यस्त (कल्पित) अथवा व्यक्त हुई सृष्टि का स्वभाव है नित्य परिवर्तनशीलता। जीव देहादि के साथ तादात्म्य करके इन परिवर्तनों का शिकार बन जाता है जबकि अधिष्ठानरूप आत्मा नित्य अपरिवर्तनशील और एक समान रहता है।जो व्यक्ति मनुष्य को विचलित कर देने वाली समस्त परिस्थितियों में अविचलित और समभाव रहता है उसने निश्चय ही अधिष्ठान में स्थिति प्राप्त कर ली है। समुद्र की लहरों पर बढ़ती हुई लकड़ी इतस्तत भटकती रह सकती है लेकिन दृढ़ चट्टानों पर निर्मित दीपस्तम्भ अविचल खड़ा रहता है। तूफान उसके चरणों से टकराकर अपना क्रोध शान्त करते हैं। इसलिए भगवान् का कथन युक्तियुक्त ही है कि समत्वभाव में स्थित पुरुष ब्रह्म में ही स्थित है।इसलिए
5.19।। व्याख्या--'येषां साम्ये स्थितं मनः'--परमात्मतत्त्व अथवा स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होनेपर जब मन-बुद्धिमें राग-द्वेष, कामना, विषमता आदिका सर्वथा अभाव हो जाता है, तब मन-बुद्धिमें स्वतः-स्वाभाविक समता आ जाती है, लानी नहीं पड़ती। बाहरसे देखनेपर महापुरुष और साधारण पुरुषमें खाना-पीना, चलना-फिरना आदि व्यवहार एक-सा ही दीखता है, पर महापुरुषोंके अन्तःकरणमें निरन्तर समता, निर्दोषता, शान्ति आदि रहती है और साधारण पुरुषोंके अन्तःकरणमें विषमता, दोष, अशान्ति आदि रहती है।जैसे, पूर्वमें और पश्चिममें--दोनों ओर पर्वत हों, तो पूर्वमें सूर्यका उदय होना नहीं दीखता; परन्तु पश्चिममें स्थित पर्वतकी चोटीपर प्रकाश दीखनेसे सूर्यके उदय होनेमें कोई सन्देह नहीं रहता। कारण कि सूर्यका उदय हुए बिना पश्चिमके पर्वतपर प्रकाश दीखना सम्भव ही नहीं। ऐसे ही जिनके मन-बुद्धिपर मान-अपमान, निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख आदिका कोई असर नहीं पड़ता तथा जिनके मन-बुद्धि राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंसे सर्वथा रहित हैं, उनकी स्वरूपमें स्वाभाविक स्थिति अवश्य होती है। कारण कि स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिके बिना मन-बुद्धिमें अटल और एकरस समताका रहना सम्भव ही नहीं है
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।।5.19।।इह एव साधनानुष्ठानदशायाम् एव तैः सर्गो जितः संसारो जितः येषाम् उक्तरीत्या सर्वेषु आत्मसु साम्ये स्थितं मनः निर्दोषं हि समं ब्रह्म प्रकृतिसंसर्गदोषवियुक्ततया समम् आत्मवस्तु हि ब्रह्म आत्मसाम्ये स्थिताः चेद् ब्रह्मणि स्थिता एव ते। ब्रह्मणि स्थितिः एव हि संसारजयः। आत्मसु ज्ञानैकाकारतया साम्यम् एव अनुसन्दधाना मुक्ता एव इत्यर्थः।येन प्रकारेण अवस्थितस्य कर्मयोगिनः समदर्शनरूपो ज्ञानविपाको भवति तं प्रकारम् उपदिशति
।।5.19।।सात्त्विकेषु राजसेषु तामसेषु च सत्वेषु समत्वदर्शनमनुचितमिति शङ्कते नन्विति। सर्वत्र समदर्शिनस्तच्छब्देन परामृश्यन्ते। तेषां दोषवत्त्वादभोज्यान्नत्वमित्यत्र प्रमाणमाह समासमाभ्यामिति। समानामध्ययनादिभिः। समानधर्मकाणां वस्त्रालंकारादिपूजया विषमे प्रतिपत्तिविशेषे क्रियमाणे सत्यसमानां चासमानधर्मकाणां कस्यचिदेकवेदत्वमपरस्य द्विवेदत्वमित्यादिधर्मवतां प्रागुक्ततया पूजया समे प्रतिपत्तिविशेषे पूजयिता पुरुषविशेषं ज्ञात्वा प्रतिपत्तिमकुर्वन्धनाद्धर्माच्च हीयते तेन सात्त्विके राजसतामसयोश्च समबुद्धिं कुर्वन्प्रत्यवैतीत्यर्थः। उत्तरत्वेनोत्तरश्लोकमवतारयति न ते दोषवन्त इति। स्मृत्यवष्टम्भेन सर्वसत्त्वेषु समत्वदर्शिनां दोषवत्त्वमुक्तं कथं नास्तीति प्रतिज्ञामात्रेण सिध्यतीति शङ्कते कथमिति। स्मृतेर्गतिमग्रे वदिष्यन्निर्दोषत्वं समत्वदर्शिनां विशदयति इहैवेति। सर्वेषां चेतनानां साम्ये प्रवणमनसां ब्रह्मलोकगमनमन्तरेण तस्मिन्नेव देहे परिभूतजन्मनामशेषदोषराहित्ये हेतुमाह निर्दोषं हीति। वर्तमानो देहः सप्तम्या परिगृह्यते। तानेव समदर्शिनो विशिनष्टि येषामिति। ननु ब्रह्मणो निर्दोषत्वमसिद्धं दोषवत्सु श्वपाकादिषु तद्दोषैर्दोषवत्त्वोपलम्भसंभवात्तत्राह यद्यपीति। यस्मात्तन्निर्दोषं तस्मात्तस्मिन्ब्रह्मणि स्थितैर्निर्दोषैः सर्गो जित इति संबन्धः। ब्रह्मणो गुणभूयस्त्वादल्पीयान्दोषोऽपि स्यादित्याशङ्क्याह नापीति। चेतनस्य स्वगुणविशेषविशिष्टत्वमनिष्टं निर्गुणत्वश्रवणादित्ययुक्तमिच्छादीनां परिशेषादात्मधर्मत्वस्य कैश्चिन्निश्चितत्वादित्याशङ्क्याह वक्ष्यति चेति। आत्मनो निर्गुणत्वे वाक्यशेषं प्रमाणयति अनादित्वादिति। चकारो वक्ष्यतीत्यनेन संबन्धार्थः। गुणदोषवशादात्मनो भेदाभावेऽपि भेदोऽन्त्यविशेषेभ्यो भविष्यतीत्यतिप्रसङ्गादाशङ्क्य दूषयति नापीति। प्रतिशरीरमात्मभेदसिद्धौ तद्धेतुत्वेन तेषां सत्त्वं तेषां च सत्त्वे प्रतिशरीरमात्मनो भेदसिद्धिरिति परस्पराश्रयत्वमभिप्रेत्य हेतुमाह प्रतिशरीरमिति। आत्मनो भेदकाभावे फलितमाह अत इति। समत्वमेव व्याकरोति एकं चेति। ब्रह्मणो निर्विशेषत्वेनैकत्वाज्जीवानां च भेदकाभावेनैकत्वस्योक्तत्वादेकलक्षणत्वादेकत्वं जीवब्रह्मणोरेष्टव्यमित्याह तस्मादिति। जीवब्रह्मणोरेकत्वे जीवानां ब्रह्मवन्निर्दोषत्वं सिध्यतीत्याह तस्मान्नेति। तच्छब्दार्थमेव स्फोरयति देहादीति। यदि सर्वसत्त्वेषु समत्वदर्शनमदुष्टमिष्टं तर्हि कथं गौतमसूत्रमित्याशङ्क्याह देहादिसंघातेति। सूत्रस्य यथोक्ताभिमानवद्विषयत्वे गमकमाह पूजेति। यदि वा चतुर्वेदानामेव सतां पूजया वैषम्यं यदि वा चतुर्वेदानां षडङ्गविदां च पूजया साम्यं तदा तेषामुक्तपूजाविषयाणां केषांचिन्मनोविकारसंभवे कर्ता प्रत्यवैतीत्यविद्वद्विषयत्वं सूत्रस्य प्रतिभातीत्यर्थः। तत्रैव चानुभवमनुकूलत्वेनोदाहरति दृश्यते हीति। देहादिसंघाताभिमानवतां गुणदोषसंबन्धसंभवात्तद्विषयं सूत्रमित्युक्तमिदानीं ब्रह्मात्मदर्शनाभिमानवतां गुणदोषासंबन्धान्न तद्विषयं सूत्रमित्यभिप्रेत्याह ब्रह्म त्विति। इतश्च नेदं सूत्रं ब्रह्मविद्विषयमित्याह कर्मीति। तत्रैव पूजापरिभवसंभवादित्यर्थः। ननु यत्र समत्वदर्शनं तत्रैव त्विदं सूत्रं नतु कर्मिण्यकर्मिणि वेति विभागोऽस्ति तत्राह इदं त्विति। समत्वदर्शनस्य संन्यासिविषयत्वेन प्रस्तुतत्वे हेतुमाह सर्वकर्माणीति। आऽध्यायपरिसमाप्तेःसर्वकर्माणीत्यारभ्य तत्र तत्र सर्वकर्मसंन्यासाभिधानात्तद्विषयमिदं समत्वदर्शनं गम्यते तत्र तन्निरहंकारे निरवकाशं सूत्रमित्यर्थः।
।।5.19।।अतो यद्यत्समं तद्ब्रह्मरूपमिति मन्तव्यं यदि मनोऽपि निरोधे समं स्यात्तदा ब्रह्मैव तादात्म्यात्सिद्ध्यसिद्धयो ৷৷. समत्वं योगः 2।48 इत्युक्तत्वात्। तद्विषयके मनसि ते ब्रह्मतादात्म्यापन्ना इत्याह इहैवेति। येषां साम्ये स्थितं मनस्तैः सर्गः प्रवाहमार्गो जितः।समदर्शिनः इत्यस्याथ त्वयमेव विवृणोति निर्दोष हि समं ब्रह्मेति। तस्मात्ते ब्रह्मणि स्थिता इत्यर्थो ज्ञातव्यः।
।।5.19।।ननु सात्त्विकराजसतामसेषु स्वभावविषमेषु प्राणिषु समत्वदर्शनं धर्मशास्त्रनिषिद्धम्। तथाचतस्यान्नमभोज्यम्इत्युपक्रम्य गौतमः स्मरतिसमासमाभ्यां विषमसमे पूजातः इति। समासमाभ्यामिति चतुर्थीद्विवचनम्। विषमसमे इति द्वन्द्वैकवद्भावेन सप्तम्येकवचनम्। चतुर्वेदपारगाणामत्यन्तसदाचाराणां यादृशो वस्त्रालंकारान्नादिदानपुरःसरः पूजाविशेषः क्रियते तत्समायैवान्यस्मै चतुर्वेदपारगाय सदाचाराय विषमे तदपेक्षया न्यूने पूजाप्रकारे कृते तथाल्पवेदानां हीनाचाराणां यादृशो हीनसाधनः पूजाप्रकारः क्रियते तादृशायैवासमाय पूर्वोक्तवेदपारगसदाचारब्राह्मणापेक्षया हीनाय तादृशहीनपूजाधिके मुख्यपूजासमे पूजाप्रकारे कृते उत्तमस्य हीनतया हीनस्योत्तमतया पूजातो हेतोस्तस्य पूजयितुरन्नमभोज्यं भवतीत्यर्थः। पूजयिता प्रतिपत्तिविशेषमकुर्वन्धनाद्धर्माच्च हीयत इति च दोषान्तरम्। यद्यपि यतीनां निष्परिग्रहाणां पाकाभावाद्धनाभावाच्चाभोज्यान्नत्वं धनहीनत्वं च स्वतएव विद्यते तथापि धर्महानिर्दोषो भवत्येव। अभोज्यान्नत्वं चाशुचित्वेन पापोत्पत्त्युपलक्षणम्। तपोधनानां च तपएव धनमिति तद्धानिरपि दूषणं भवत्येवेति कथं समदर्शिनः पण्डिता जीवन्मुक्ता इति प्राप्ते परिहरति तैः समदर्शिभिः पण्डितैरिहैव जीवनदशायामेव जितोऽतिक्रान्तः सर्गः सृज्यत इति व्युत्पत्त्या द्वैतप्रपञ्चः। देहपातादूर्ध्वमतिक्रमितव्य इति किमु वक्तव्यम्। कैः। येषां साम्ये सर्वभूतेषु विषमेष्वपि वर्तमानस्य ब्रह्मणः समभावे स्थितं निश्चलं मनः। हि यम्मान्निर्दोषं समं सर्वविकारशून्यं कूटस्थनित्यमेकं च ब्रह्म तस्मात्ते समदर्शिनो ब्रह्मण्येव स्थिताः। अयं भावः दुष्टत्वं हि द्वेधा भवति अदुष्टस्यापि दुष्टसंबन्धात्स्वतो दुष्टत्वाद्वा। यथा गङ्गोदकस्य मूत्रगर्तपातात् स्वतएव वा यथा मूत्रादेः। तत्र दोषवस्तु श्वपाकादिषु स्थितं तद्दोषैर्दुष्यति ब्रह्मेति मूढैर्विभाव्यमानमपि सर्वदोषासंसृष्टमेव ब्रह्म व्योमवदसङ्गत्वात्।असङ्गो ह्ययं पुरुषःसूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः इति श्रुतेः। नापि कामादिधर्मवत्तया स्वतएव कलुषितं कामादेरन्तःकरणधर्मत्वस्य श्रुतिस्मृतिसिद्धत्वात्। तस्मान्निर्दोषब्रह्मरूपा यतयो जीवन्मुक्ता अभोज्यान्नादिदोषदुष्टाश्चेति व्याहतम्। स्मृतिस्त्वविद्वद्गृहस्थविषयैवतस्यान्नमभोज्यम् इत्युपक्रमात् पूजात इति मध्ये निर्देशात्धनाद्धर्माच्च हीयते इत्युपसंहाराच्चेति द्रष्टव्यम्।
।।5.19।। ननु विषमेषु समदर्शनं निषिद्धं कुर्वन्तोऽपि कथं ते पण्डिताः। यथाह गौतमःसमासमाभ्यां विषमसमे पूजातः इति। अस्यार्थःसमाय पूजाया विषमे प्रकारे कृते सति विषमाय च समे प्रकारे कृते सति स पूजक इह लोकात्परलोकाच्च हीयत इति। तत्राह इहैवेति। इहैव जीवद्भिरेव तैः सृज्यत इति सर्गः संसारो जितो निरस्तः। कैः। येषां मनः साम्ये समत्वे स्थितम्। तत्र हेतुः हि यस्मात् ब्रह्म समं निर्दोषं च तस्मात्ते समदर्शिनो ब्रह्मण्येव स्थिताः। ब्रह्मभावं प्राप्ता इत्यर्थः। गौतमोक्तस्तु दोषो ब्रह्मभावप्राप्तेः पूर्वमेव। पूजात इति पूजकावस्थाश्रवणात्।
।।5.19।।इदं समदर्शित्वं न कालान्तरभाविफलसाधनमात्रं किन्त्विदानीमेव निश्श्रेयसकल्पां क्लेशनिवृत्तिं दिशतीति समदर्शिनां प्रशंसा क्रियते इहैवेति श्लोकेन।साधनानुष्ठानदशायामेवेति इहशब्दस्यात्र लोकपरत्वादपि स्वावस्थाविशेषपरत्वमेवोचितमिति भावः।संसारो जित इति मुक्तप्रायास्त इत्यर्थः। सृष्ट्यादेरत्रानन्वयात्सर्गशब्दः सृज्यत इति व्युत्पत्त्याऽत्र संसारपरः। ब्राह्मणचण्डालादीनां स्पृश्यत्वादिसाम्यप्रसङ्गव्युदासायउक्तरीत्येत्युक्तम्। निरुपाधिकात्मस्वरूपं ज्ञानैकाकारतया सममिति पूर्वभाष्योक्तप्रकारेणेत्यर्थः। नन्वात्मन्येव स्थितिः संसारजयहेतुः न तु तत्साम्ये तत्राह निर्दोषं हि समं ब्रह्मइति। ब्रह्मत्वमेव विधेयम् अन्यथातस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः इत्यनन्वयात् समदर्शिनो ब्रह्मणि स्थिताः समस्य ब्रह्मत्वात् इति ह्यन्वयः स्यात् ततश्चोक्तचोद्यपरिहार इत्यभिप्रायेणाह आत्मवस्त्विति। ततः किं प्रकृतस्येत्यत्राह ब्रह्मणि स्थितिरिति। ब्रह्मशब्दोऽत्र शुद्धात्मनि ब्रह्मसाम्यात्। अत्र फलितं पिण्डितार्थमाह आत्मस्विति।
।।5.19।।य एतादृशास्त उत्तमा इत्याह इहैवेति। येषां मनः साम्ये समभावे स्थितं तैरिहैव सर्गो जितः।अत्रायं भावः भगवता स्वक्रीडार्थं जगदुत्पादितं तत्र यस्य यादृशेच्छया यो भाव उत्पादितः स तथैव करोति। स योग्यो भवति नवेति किमर्थं विचारणीयम् अतो येषां मनः साम्ये भगवत्क्री़डारूपे स्थितं तैरिहैव अधिष्ठानात्मकदेह एव सर्गः संसारो मायारूपो जितः। यतो ब्रह्म समं स्वक्रीडार्थरूपेषु निर्दोषं तेषु दोषादिरहितं तस्माद्येषां मनः साम्ये स्थितं ते ब्रह्मणि ब्रह्मभावे स्थिताः अतस्तैः संसारो जित इत्यर्थः। यद्वा सर्गः स्वोत्पत्तिर्जिता वशीकृता सफलीकृतेत्यर्थः। भगवता स्वमेवार्थमुत्पादितास्तत्कृतमिति भावः। यद्वा येषां मनः संयोगवियोगयोः साम्येन स्थितं तैरिहैव अधिकरणदेह एव सर्गः अलौकिकोऽग्रेभावी जितो वशीकृतः सर्वथैवालौकिकदेहो भावरूपो वशे जातो यतोऽयं यदैवेच्छति तदैव भावप्राकट्यं भवतीति भावः। हीति युक्तमेव। यतो ब्रह्म भगवान् स्वस्थायिरसात्मकत्वात् समानाद्यवस्थासु। निर्दोषं यथा रासे। यतो ब्रह्म तादृशं तस्मात् ते ब्रह्मणि ब्रह्मभावे निरोधरूपे स्थिता इति भावः।
।।5.19।।ननुसमासमाभ्यां विषमसमे पूजातः इति तुल्यश्रुतशीलाय ब्राह्मणद्वयाय विषमां पूजां प्रयुक्तवतः तथा अतुल्यश्रुतशीलाय ब्राह्मणद्वयाय समां पूजां प्रयुक्तवतश्चाभोज्यान्नत्वं गौतमेन स्मर्यते तत्कथं ब्राह्मणचण्डालयोः समदर्शित्वं युक्तमित्याशङ्क्याह इहैवेति। येषां मनः सर्वभूतेषु साम्ये ब्रह्मभावे स्थितं निश्चलं तैरिहैव जीवद्भिरेव सर्गो जन्म जितो वशीकृतः। हि यस्मान्निर्दोषं समं सर्वत्राविषमं ब्रह्मास्ति यथा हिरण्मययोर्देवतातत्पीठयोः स्वर्णदृक्साम्यं पश्यति पूजकस्तु आकारदृक्तारतम्यं पश्यति तद्वत्। पूजास्मृतिर्भ्रान्तिकृततारतम्यविषया। साम्यदृष्टिस्तु तत्त्वविषयेति भावः। यस्मादेवं ते साम्यं पश्यन्ति तस्माद्ब्रह्मण्यखण्डैकरसे ते द्रष्टारः स्थिता एकीभावेन समाप्तिं गताः।
।।5.19।।ननु सात्त्विकादिषु समत्वदर्शनमनुचितंसमासमाभ्यां विषमसमे पूजातः इति तस्यान्नमभोज्यमित्युपक्रम्य स्मृत्या समदर्शिनोऽभोज्यान्नत्वप्रतिपादनात् समानामध्ययनादिभिस्तुल्यधर्मवतां वस्त्रालंकाररत्नादिदानपूर्वके विषमे पूजाविशेषे क्रियमाणे सति असमानां च कस्यचित् द्विवेदाध्ययनमपरस्यैकवेदाध्ययनमित्येवमध्यनादिभिरतुल्यधर्मवतां प्रागुक्ते समे पूजाविशेषे तस्याः पूजातो हेतोः पूजयिता पुरुषविशेषं ज्ञात्वा पूजाविशेषमकुर्वन्नभोज्यान्नो भवति धनाद्धर्माच्च हीयत इति स्मृतेरर्थः। तथाच सर्वसत्त्वेषु समत्वदर्शिनः दोषवत्त्वमित्याशङ्कायाः कार्यकरणसंघातात्मदर्शनाभिमानवत्कर्मठविषया तु गौतमस्मृतिः। पूजात इति पूजाविषयत्वेन विशेषणात्। इदं तु यः सर्वकर्मसंन्यासी निष्परिग्रहः पाकानधिकारी अभोज्यान्नो धनहीनो धर्मादिदत्तजलाञ्जलिः तत्त्ववित् तद्विषयमिति विषयभेदेनाविरोधमभिप्रेत्योत्तरमाह इहेति। इहैव जीवद्भिरेव तैर्जितो वशीकृतः अतिक्रान्तो जन्मादिलक्षणः संसारः। कैरित्यपैक्षायामाह। येषां सर्वसत्त्वेषु ब्राह्मणः समभावे स्थितं स्थिरीभूतं मनोऽन्तःकरणम्। हि यस्मान्मनः स्थितिविषयो ब्रह्म निर्दोषं तोषवत्सु चाण्डालादिषु स्थितमप्याकाशवत्तद्दोषैरस्पृष्टमतएव समं सदैव सर्वत्रैकरुपम्। तस्मादेतादृशे ब्रह्मणि ते पण्डिताः स्थिताः अतो न दोषगन्धमात्रमपि तान्स्पृशतीत्यर्थः।
5.19 इह here? एव even? तैः by them? जितः is conered? सर्गः rirth or creation? येषाम् of whom? साम्ये in eality? स्थितम् established? मनः mind? निर्दोषम् spotless? हि indeed? समम् eal? ब्रह्म Brahman? तस्मात् therefore? ब्रह्मणि in Brahman? ते they? स्थिताः are established.Commentary When the mind gets rooted in eanimity or evenness or eality? when it is always in a balanced state? one coners birth and death. Bondage is annihilated and freedom is attained by him. When the mind is in a perfectly balanced state he overcomes Brahman Himself? i.e.? realises Brahman.Brahman is ever pure and attributeless and so He is not affected even though He dwells in an outcaste? dog? etc. So He is spotless. He is homogeneous and one? as He dwells eally in all beings.
5.19 Even here (in this world) birth (everything) is overcome by those whose minds rest in eality; Brahman is spotless indeed and eal; therefore they are established in Brahman.
5.19 Even in this world they conquer their earth-life whose minds, fixed on the Supreme, remain always balanced; for the Supreme has neither blemish nor bias.
5.19 Here [i.e. even while living in the body.] itself is rirth conered by them whose minds are established on sameness. Since Brahman is the same (in all) and free from defects, therefore they are established in Brahman.
5.19 Iha eva, here itself, even while they are living; is sargah, rirth; jitah, conered, overcome; taih, by them, by the learned ones who see with eanimity; yesam, whose; manah, minds, the internal organs; are sthitam, established, made steadfast; samye, on sameness, in Brahman that exists as the same in all beings. It is nirdosam, free from defects. Because of Its existence in such mean objects as an eater of dog's meat, etc., though It is supposed by fools to be affected by the defects of those (objects), still It remains untouched by those blemishes, hi, because It is free from defects. Nor even is It differentiated by Its alities, since Consciousness is free from alifications. And the Lord will speak of desires etc. (cf. 13.6 etc.) as the attributes of the aggregate of body and organs, and will also say, 'Being without beginning and without alities' (13.31). Nor even are there the ultimate distinctions which can create differentiation in the Self, [According to the Vaisesikas, everything is possessed of not only alities but also of antya-visesa (ultimate distinction), which is a category like substance, ality, action, etc. This distinction makes every entity different from other entities. Thus, individual souls have their own ultimate distinctions by the very fact that they are individuals. Vedanta denies such a category. Besides, the Self is one and omnipresent. Therefore there is nothing else from which It can be distinguished.-Tr.] because there is nothing to prove that these ultimate distinctions exist in every body. Hence, samam brahma, Brahman is the same and one. Tasmat, therefore; te, they; sthitah, are established; brahmani, in Brahman Itself. As a result, not even a shade of defect touches them. For they have no self-identification in the form of perceiving the aggregate of body etc. as the Self. On the other hand, that statement (Gau. Sm. 17.20) refers to the man who has self-identification in the form of perceiving the aggregate of body, (organs) etc. as the Self, for that statement-'A sacrificer incurs sin by not adoring eally one who is an eal, and by adoring eally one who is not eal to himself, pointedly refers to persons who are the objects of adoration. It is indeed seen that in worship, charity, etc. the determining factors are the possession of such special alities as being 'a knower of Brahman', 'versed in the six auxiliary branches of Vedic learning', and 'versed in the four Vedas'. But Brahman is bereft of association with all alities and defects. This being so, it is logical that they are established in Brahman. And 'adoring an eal, ৷৷.an uneal,' etc. has reference to men of action. [Those engaged in actions with a sense of agentship, etc.-Tr.] But this subject under consideration, beginning from 'The embodied man৷৷.having given up all actions mentally' (13) to the end of the chapter, is concerning one who has given up all actions. Since the Self is Brahman which is without blemish and is the same (in all), therefore-
5.19. The Brahman-knower, who is disillusioned, who is established in Brahman and has a firm intellect, would neither rejoice on meeting a friend nor get agitated on meeting a foe.
5.19 This sloka does not exit in Gitartha sangraha of Abhinavagupta.
5.19 By those whose minds rest in ealness with regard to all selves in the aforesaid manner, even here, i.e., even at the stage of executing the means, Samsara is overcome. For the Brahman is of the same nature everywhere when uncontaminated. The meaning is that the substance of self, when free from the contaminations resulting from contact with the Prakrti (body), is the same everywhere i.e., as the Brahman (the Atman). If they are fixed in the eality of all selves, they verily abide in Brahman. The abidance in the Brahman is verily the conest of Samsara. Those who contemplate on the sameness of all selves, because of their having the form of knowledge, they are liberated. Sri Krsna now teaches that mode of life by following which the maturity of knowledge in the form of sameness of vision comes to a Karma Yogin.
5.19 Here itself Samsara is overcome by those whose minds rest in ealness. For the Brahman (individual self), when uncontaminated by Prakrti, is the same everywhere. Therefore they abide in Brahman.
।।5.19।।उ0 वे दोषी नहीं हैं क्योंकि जिनका अन्तःकरण समतामें अर्थात् सब भूतोंके अन्तर्गत ब्रह्मरूप समभावमें स्थित यानी निश्चल हो गया है उन समदर्शी पण्डितोंने यहाँ जीवितावस्थामें ही सर्गको यानी जन्मको जीत लिया है अर्थात् उसे अपने अधीन कर लिया है। क्योंकि ब्रह्म निर्दोष ( और सम ) है। यद्यपि मूर्ख लोगोंको दोषयुक्त चाण्डालादिमें उनके दोषोंके कारण आत्मा दोषयुक्तसा प्रतीत होता है तो भी वास्तवमें वह ( आत्मा ) उनके दोषोंसे निर्लिप्त ही है। चेतन आत्मा निर्गुण होनेके कारण अपने गुणके भेदसे भी भिन्न नहीं है। भगवान् भी इच्छादिको क्षेत्रके ही धर्म बतलावेंगे तथा अनादि और निर्गुण होनेके कारण ( आत्मा लिप्त नहीं होता ) यह भी कहेंगे। ( वैशेषिक शास्त्रमें बतलाये हुए नित्य द्रव्यगत ) अन्त्य विशेष भी आत्मामें भेद उत्पन्न करनेवाले नहीं हैं क्योंकि प्रत्येक शरीरमें उन अन्त्य विशेषोंके होनेका कोई प्रमाण सम्भव नहीं है। अतः ( यह सिद्ध हुआ कि ) ब्रह्म सम है और एक ही है। इसलिये वे समदर्शी पुरुष ब्रह्ममें ही स्थित हैं इसी कारण उनको दोषकी गन्ध भी स्पर्श नहीं कर पाती क्योंकि उनमेंसे देहादि संघातको आत्मारूपसे देखनेका अभिमान जाता रहा है।। समासमाभ्यां विषमसमे पूजातः यह सूत्र पूजाविषयक विशेषणसे युक्त होनेके कारण देहादि संघातमें आत्मदृष्टिके अभिमानवाले पुरुषोंके विषयमें है। क्योंकि पूजा दान आदि कर्मोंमें ( भेदबुद्धिका ) कारण ब्रह्मवेत्ता छओं अङ्गोंको जाननेवाला चारों वेदोंको जाननेवाला इत्यादि विशेष गुणोंका सम्बन्ध देखा जाता है। परंतु ब्रह्म सम्पूर्ण गुणदोषोंके सम्बन्धसे रहित है इसलिये यह ( कहना ) ठीक है कि वे ब्रह्ममें स्थित हैं। इसके अतिरिक्त समासमाभ्याम् इत्यादि कथन तो कर्मियोंके विषयमें है और यह सर्वकर्माणि मनसा इस श्लोकसे लेकर अध्यायसमाप्तितक सारा प्रकरण सर्वकर्मसंन्यासी के विषयमें है।
।।5.19।। इह एव जीवद्भिरेव तैः समदर्शिभिः पण्डितैः जितः वशीकृतः सर्गः जन्म येषां साम्ये सर्वभूतेषु ब्रह्मणि समभावे स्थितं निश्चलीभूतं मनः अन्तःकरणम्। निर्दोषं यद्यपि दोषवत्सु श्वपाकादिषु मूढैः तद्दोषैः दोषवत् इव विभाव्यते तथापि तद्दोषैः अस्पृष्टम् इति निर्दोषं दोषवर्जितं हि यस्मात् नापि स्वगुणभेदभिन्नम् निर्गुणत्वात् चैतन्यस्य। वक्ष्यति च भगवान् इच्छादीनां क्षेत्रधर्मत्वम् अनादित्वान्निर्गुणत्वात् (गीता 13.31) इति च। नापि अन्त्या विशेषाः आत्मनो भेदकाः सन्ति प्रतिशरीरं तेषां सत्त्वे प्रमाणानुपपत्तेः। अतः समं ब्रह्म एकं च। तस्मात् ब्रह्मणि एव ते स्थिताः। तस्मात् न दोषगन्धमात्रमपि तान् स्पृशति देहादिसंघातात्मदर्शनाभिमानाभावात् तेषाम्। देहादिसंघातात्मदर्शनाभिमानवद्विषयं तु तत् सूत्रम् समासमाभ्यां विषमसमे पूजातः (गौ0 स्मृ0 17.20) इति पूजाविषयत्वेन विशेषणात्। दृश्यते हि ब्रह्मवित् षडङ्गवित् चतुर्वेदवित् इति पूजादानादौ गुणविशेषसंबन्धः कारणम्। ब्रह्म तु सर्वगुणदोषसंबन्धवर्जितमित्यतः ब्रह्मणि ते स्थिताः इति युक्तम्। कर्मविषयं च समासमाभ्याम् इत्यादि। इदं तु सर्वकर्मसंन्यासविषयं प्रस्तुतम् सर्वकर्माणि मनसा (गीता 5.13) इत्यारभ्य आध्यायपरिसमाप्तेः।।यस्मात् निर्दोषं समं ब्रह्म आत्मा तस्मात्
।।5.19।।ननूत्तरवाक्ये साम्यदर्शनं मुक्तिसाधनमेवोच्यते तत्कथमुच्यते अपरोक्षज्ञानसाधनमिति प्राग्ज्ञानिनोऽपि जन्मान्तरसद्भाव उक्तः तत्कथमिहैवेति तद्देह एव मुक्तिरुक्तेत्यत आह तदेवेति। स्तुतावधिकोक्तिः सम्भवतीति भावः।
।।5.19।।तदैव स्तौति इहैवेति।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।
ইহৈব তৈর্জিতঃ সর্গো যেষাং সাম্যে স্থিতং মনঃ৷ নির্দোষং হি সমং ব্রহ্ম তস্মাদ্ব্রহ্মণি তে স্থিতাঃ৷৷5.19৷৷
ইহৈব তৈর্জিতঃ সর্গো যেষাং সাম্যে স্থিতং মনঃ৷ নির্দোষং হি সমং ব্রহ্ম তস্মাদ্ব্রহ্মণি তে স্থিতাঃ৷৷5.19৷৷
ઇહૈવ તૈર્જિતઃ સર્ગો યેષાં સામ્યે સ્થિતં મનઃ। નિર્દોષં હિ સમં બ્રહ્મ તસ્માદ્બ્રહ્મણિ તે સ્થિતાઃ।।5.19।।
ਇਹੈਵ ਤੈਰ੍ਜਿਤ ਸਰ੍ਗੋ ਯੇਸ਼ਾਂ ਸਾਮ੍ਯੇ ਸ੍ਥਿਤਂ ਮਨ। ਨਿਰ੍ਦੋਸ਼ਂ ਹਿ ਸਮਂ ਬ੍ਰਹ੍ਮ ਤਸ੍ਮਾਦ੍ਬ੍ਰਹ੍ਮਣਿ ਤੇ ਸ੍ਥਿਤਾ।।5.19।।
ಇಹೈವ ತೈರ್ಜಿತಃ ಸರ್ಗೋ ಯೇಷಾಂ ಸಾಮ್ಯೇ ಸ್ಥಿತಂ ಮನಃ. ನಿರ್ದೋಷಂ ಹಿ ಸಮಂ ಬ್ರಹ್ಮ ತಸ್ಮಾದ್ಬ್ರಹ್ಮಣಿ ತೇ ಸ್ಥಿತಾಃ৷৷5.19৷৷
ഇഹൈവ തൈര്ജിതഃ സര്ഗോ യേഷാം സാമ്യേ സ്ഥിതം മനഃ. നിര്ദോഷം ഹി സമം ബ്രഹ്മ തസ്മാദ്ബ്രഹ്മണി തേ സ്ഥിതാഃ৷৷5.19৷৷
ଇହୈବ ତୈର୍ଜିତଃ ସର୍ଗୋ ଯେଷାଂ ସାମ୍ଯେ ସ୍ଥିତଂ ମନଃ| ନିର୍ଦୋଷଂ ହି ସମଂ ବ୍ରହ୍ମ ତସ୍ମାଦ୍ବ୍ରହ୍ମଣି ତେ ସ୍ଥିତାଃ||5.19||
ihaiva tairjitaḥ sargō yēṣāṅ sāmyē sthitaṅ manaḥ. nirdōṣaṅ hi samaṅ brahma tasmādbrahmaṇi tē sthitāḥ৷৷5.19৷৷
இஹைவ தைர்ஜிதஃ ஸர்கோ யேஷாஂ ஸாம்யே ஸ்திதஂ மநஃ. நிர்தோஷஂ ஹி ஸமஂ ப்ரஹ்ம தஸ்மாத்ப்ரஹ்மணி தே ஸ்திதாஃ৷৷5.19৷৷
ఇహైవ తైర్జితః సర్గో యేషాం సామ్యే స్థితం మనః. నిర్దోషం హి సమం బ్రహ్మ తస్మాద్బ్రహ్మణి తే స్థితాః৷৷5.19৷৷
5.20
5
20
।।5.20।। जो प्रियको प्राप्त होकर हर्षित न हो और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धिवाला, मूढ़तारहित तथा ब्रह्मको जाननेवाला मनुष्य ब्रह्ममें स्थित है।
।।5.20।। जो स्थिरबुद्धि,  संमोहरहित ब्रह्मवित् पुरुष ब्रह्म में स्थित है,  वह प्रिय वस्तु को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता।।
।।5.20।। एक कुशल चितेरा अपने सुन्दरतम चित्र को पूर्णता और सुन्दरता प्रदान करने के लिए चित्र पटल पर अपनी तूलिका से बारम्बार रेखायें बनाता है और थोड़ी दूर हटकर उनका अवलोकन करता है। इसी प्रकार एक कुशल और श्रेष्ठ चित्रकार के समान भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य के हृदय पटल पर ज्ञानी पुरुष का शब्द चित्र अंकित करते हुए उसमें ज्ञानी के मन के भावों का एवं गुणों का सुन्दर चित्रण करते हैं। अनेक श्लोकों के द्वारा ज्ञानी पुरुष का वर्णन करने में भगवान् का एक मात्र उद्देश्य यह है कि एक सामान्य पुरुष भी ज्ञानी के लक्षणों को स्पष्ट रूप से समझ सके। वे स्पष्ट करते हैं कि महात्मा पुरुष कोई गंगातट की निर्जीव पाषाणी प्रतिमा नहीं होता बल्कि वह ऐसा स्फूर्त समर्थ और कुशल व्यक्ति होता है जो अपनी पीढ़ी को प्रभावित करके उसका नवनिर्माण करता है।बाह्य जगत् में घटित होने वाली घटनाओं के कारण नहीं वरन् उनके साथ अपने सम्बन्धों के कारण मनुष्य हर्ष से उत्तेजित अथवा दुख से निराश होता है। महानगर में किसी एक व्यक्ति की मृत्यु से मनुष्य को दुख नहीं होता परन्तु उस मनुष्य के पिता की मृत्यु उसके लिए दुखदायी घटना बन जाती है। इससे स्पष्ट होता है कि किसी व्यक्ति की मृत्युमात्र दुख का कारण नहीं बल्कि कारण तो मृत व्यक्ति के साथ का सम्बन्ध है। अपने मन के ऊपर विजय प्राप्त कर अनंतस्वरूप में स्थित ब्रह्मवित् पुरुष प्रिय या अप्रिय को प्राप्त कर सुख या दुख के आवेग में नहीं बह जाता। इसका अर्थ यह नहीं कि वह कोई लकड़ी के खिलौने या पत्थर की मूर्ति के समान जगत् में होने वाली घटनाओं को जानने में अथवा अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में समर्थ नहीं होता। इस श्लोक का अभिप्राय यह है कि ज्ञान के कारण उसे जो मन का समत्व प्राप्त होता है उसे ये घटनाएँ प्रभावित अथवा विचलित नहीं कर सकती हैं।तत्त्ववित् पुरुष की बुद्धि ज्ञान में स्थिर हो जाती है क्योंकि अहंकार और तज्जनित मिथ्या धारणाओं के विष का उसमें सर्वथा अभाव होता है। जिस क्रम से ज्ञानी पुरुष के विशेषण यहाँ बताये हैं उसका अध्ययन बड़ा रोचक है। प्रिय और अप्रिय वस्तुओं की उपस्थिति से जो विचलित रहता है वही स्थिरबुद्धि पुरुष है। स्थिर बुद्धि पुरुष संमोहरहित हो जाता है। जिसके मन में किसी प्रकार का मोह नहीं होता वही पुरुष ब्रह्मज्ञान का योग्य अधिकारी बनकर ब्रह्मवित् हो जाता है। और ब्रह्मवित् पुरुष ब्रह्म ही बनकर स्वस्वरूप में स्थित होकर इस जगत् में विचरण करता है।आगे कहते हैं
5.20।। व्याख्या--'न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्' शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदिके अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होना ही प्रिय को प्राप्त होना है।शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, सिद्धान्त, सम्प्रदाय, शास्त्र आदिके प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना परिस्थिति आदिकी प्राप्ति होना ही 'अप्रिय' को प्राप्त होना है।प्रिय और अप्रियको प्राप्त होनेपर भी साधकके अन्तःकरणमें हर्ष और शोक नहीं होने चाहिये। यहाँ प्रिय और अप्रियकी प्राप्तिका यह अर्थ नहीं है कि साधकके हृदयमें अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी-पदार्थोंके प्रति राग या द्वेष है, प्रत्युत यहाँ उन प्राणी-पदार्थोंकी प्राप्तिके ज्ञानको ही प्रिय और अप्रियकी प्राप्ति कहा गया है। प्रिय या अप्रियकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिका ज्ञान होनेमें कोई दोष नहीं है। अन्तःकरणमें उनकी प्राप्ति अथवा अप्राप्तिका असर पड़ना अर्थात् हर्ष-शोकादि विकार होना ही दोष है। प्रियता और अप्रियताका ज्ञान तो अन्तःकरणमें होता है, पर हर्षित और उद्विग्न कर्ता होता है। अहंकारसे मोहित अन्तःकरणवाला पुरुष प्रकृतिके करणोंद्वारा होनेवाली क्रियाओँको लेकर 'मैं कर्ता हूँ' --ऐसा मान लेता है तथा हर्षित और उद्विग्न होता रहता है। परन्तु जिसका मोह दूर हो गया है, जो तत्त्ववेत्ता है, वह 'गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं'--ऐसा जानकर अपनेमें (स्वरूपमें) वास्तविक अकर्तृत्वका अनुभव करता है (गीता 3। 28)। स्वरूपका हर्षित और उद्विग्न होना सम्भव ही नहीं है।स्थिरबुद्धिः-- स्वरूपका ज्ञान स्वयंके द्वारा ही स्वयंको होता है। इसमें ज्ञाता और ज्ञेयका भाव नहीं रहता। यह ज्ञान करण-निरपेक्ष होता है अर्थात् इसमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि किसी करणकी अपेक्षा नहीं होती। करणोंसे होनेवाला ज्ञान स्थिर तथा सन्देहरहित नहीं होता, इसलिये वह अल्पज्ञान है। परन्तु स्वयं-(अपने होनेपन-) का ज्ञान स्वयंको ही होनेसे उसमें कभी परिवर्तन या सन्देह नहीं होता। जिस महापुरुषको ऐसे करण-निरपेक्ष ज्ञानका अनुभव हो गया है, उसकी कही जानेवाली बुद्धिमें यह ज्ञान इतनी दृढ़तासे उतर आता है कि उसमें कभी विकल्प, सन्देह, विपरीत भावना, असम्भावना आदि होती ही नहीं। इसलिये उसे 'स्थिरबुद्धिः' कहा गया है।'असम्मूढः'-- जो परमात्मतत्त्व सदासर्वत्र विद्यमान है, उसका अनुभव न होना और जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, उस उत्पत्ति-विनाशशील संसारको सत्य मानना--ऐसी मूढ़ता साधारण मनुष्यमें रहती है। इस मूढ़ताका जिसमें सर्वथा अभाव हो गया है, उसे ही यहाँ 'असम्मूढः' कहा गया है। 'ब्रह्मवित्' परमात्मासे अलग होकर परमात्माका अनुभव नहीं होता। परमात्माका अनुभव होनेमें अनुभविता, अनुभव और अनुभाव्य--यह त्रिपुटी नहीं रहती, प्रत्युत त्रिपुटीरहित अनुभवमात्र (ज्ञानमात्र) रहता है। वास्तवमें ब्रह्मको जाननेवाला कौन है--यह बताया नहीं जा सकता। कारण कि ब्रह्मको जाननेवाला ब्रह्मसे अभिन्न हो जाता है, (टिप्पणी प0 311) इसलिये वह अपनेको ब्रह्मवित् मानता ही नहीं अर्थात् उसमें 'मैं ब्रह्मको जानता हूँ' ऐसा अभिमान नहीं रहता।'ब्रह्मणि स्थितः'-- वास्तवमें सम्पूर्ण प्राणी तत्त्वसे नित्य-निरन्तर ब्रह्ममें ही स्थित हैं; परन्तु भूलसे अपनी स्थिति शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ही मानते रहनेके कारण मनुष्यको ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव नहीं होता। जिसे ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो गया है, ऐसे महापुरुषके लिये यहाँ 'ब्रह्मणि स्थितः' पदोंका प्रयोग हुआ है। ऐसे महापुरुषको प्रत्येक परिस्थितिमें नित्य-निरन्तर ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव होता रहता है।यद्यपि एक वस्तुकी दूसरी वस्तुमें स्थिति होती है, तथापि ब्रह्ममें स्थिति इस प्रकारकी नहीं है। कारण कि ब्रह्मका अनुभव होनेपर सर्वत्र एक ब्रह्म-ही-ब्रह्म रह जाता है। उसमें स्थिति माननेवाला दूसरा कोई रहता ही नहीं। जबतक कोई ब्रह्ममें अपनी स्थिति मानता है, तबतक ब्रह्मकी वास्तविक अनुभूतिमें कमी है, परिच्छिन्नता है।  सम्बन्ध--ब्रह्ममें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव किस प्रकार होता है, इसका विवेचन आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।5.20।।तस्य च इत्थं संभावना इत्याह न प्रहृष्येदिति। एतस्य समदर्शिनः शत्रुमित्रादिविभागोऽपि व्यवहारमात्र एव नान्तः ब्रह्मनिष्ठत्वात्।
।।5.20।।यादृशदेहस्थस्य यदवस्थस्य प्राचीनकर्मवासनया यत् प्रियं यच्च अप्रियं तद् उभयं प्राप्य हर्षोद्वेगौ न कुर्यात्।कथम् स्थिरबुद्धिः स्थिरे आत्मनि बुद्धिः यस्य स स्थिरबुद्धिः। असंमूढः अस्थिरेण शरीरेण स्थिरम् आत्मानम् एकीकृत्य मोहः संमोहः तद्रहितः।तत् च कथम् ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः उपदेशेन ब्रह्मवित् सन् तस्मिन् ब्रह्मणि अभ्यासयुक्तः।एतद् उक्तं भवति तत्त्वविदाम् उपदेशेन आत्मयाथात्म्यविद् भूत्वा तत्र एव यतमानो देहाभिमानं परित्यज्य स्थिररूपात्मावलोकनप्रियानुभवे व्यवस्थितः अस्थिरे प्राकृतप्रियाप्रिये प्राप्य. हर्षोद्वेगौ न कुर्याद् इति।
।।5.20।।नन्विष्टानिष्टप्राप्तिभ्यां हर्षविषादौ विद्वानपि कुर्वन्निर्दोषे ब्रह्मणि कथं स्थितिं लभेतेत्याशङ्क्याकाङ्क्षितं पूरयन्नुत्तरश्लोकमुत्थापयति यस्मादिति। आत्मज्ञाननिष्ठावतो विदुषो हर्षविषादनिमित्ताभावान्न तावुचितावित्याह स्थिरबुद्धिरिति। ननु हर्षविषादनिमित्तत्वं प्रियाप्रिययोः सिद्धमिति कथं तत्प्राप्त्या हर्षोद्वेगौ न कर्तव्याविति नियुज्यते तत्राह देहेति। विदुषोऽपि प्रियाप्रियप्राप्तिसामर्थ्यादेव हर्षविषादौ दुर्वारावित्याशङ्क्याह न केवलेति। अद्वितीयात्मदर्शनशीलस्य व्यतिरिक्तप्रियाप्रियप्राप्त्ययोगान्न तन्निमित्तौ हर्षविषादावित्यर्थः। इत्यपि विदुषो हर्षविषादावसंभावितावित्याह किंचेति। निर्दोषे ब्रह्मणि प्रागुक्ते दृढप्रतिपत्तिः संमोहेन हर्षादिहेतुना रहितो यथोक्ते सर्वदोषरहिते ब्रह्मण्यहमस्मीति विद्यावानशेषदोषशून्ये तस्मिन्नेव ब्रह्मणि स्थितस्तदनुरोधात्कर्माण्यमृष्यमाणो नैव हर्षविषादभागी भवितुमलमित्यर्थः।
।।5.20 5.21।।तादृशस्य परमानन्दावाप्तिगमकं लक्षणमाह द्वाभ्यां न प्रहृष्येदिति। यतः स्थिरबुद्धिः सम्मोहस्यासुरत्वात्तद्रहितश्च बाह्यविषयेष्वसक्तात्मा स योगी यदात्मनि सुखं सात्विकं विन्दति स एवोपशमसुखी ब्रह्मणि योगेन युक्तस्तदैक्यं प्राप्त आत्मा यस्य तथाभूतः सन्नक्षयं ब्रह्मसुखमनुभवतीत्यर्थः।
।।5.20।।यस्मान्निर्दोषं समं ब्रह्म तस्मात्तद्रूपमात्मानं साक्षात्कुर्वन् दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः इत्यत्र व्याख्यातं पूर्वार्धम्। जीवन्मुक्तानां स्वाभाविकं चरितमेव मुमुक्षुभिः प्रयत्नपूर्वकमनुष्ठेयमिति वदितुं लिङ्प्रत्ययौ। अद्वितीयात्मदर्शनशीलस्य व्यतिरिक्तप्रियाप्रियप्राप्त्ययोगान्न तन्निमित्तौः हर्षविषादावित्यर्थः। अद्वितीयात्मदर्शनमेव विवृणोति स्थिरबुद्धिः स्थिरा निश्चला संन्यासपूर्वकवेदान्तवाक्यविचारपरिपाकेन सर्वसंशयशून्यत्वेन निर्विचिकित्सा निश्चिता ब्रह्मणि बुद्धिर्यस्य स तथा। लब्धश्रवणमननफल इति यावत्। एतादृशस्य सर्वासंभावनाशून्यत्वेऽपि विपरीतभावनाप्रतिबन्धात्साक्षात्कारो नोदेतीति निदिध्यासनमाह असंमूढः निदिध्यासनस्य विजातीयप्रत्ययानन्तरितसजातीयप्रत्ययप्रवाहस्य परिपाकेन विपरीतभावनाख्यसंमोहरहितः ततः सर्वप्रतिबन्धापगमाद्ब्रह्मविद्ब्रह्मसाक्षात्कारवान् ततश्च समाधिपरिपाकेन निर्दोषे समे ब्रह्मण्येव स्थितो नान्यत्रेति ब्रह्मणि स्थितो जीवन्मुक्तः स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः। एतादृशस्य द्वैतदर्शनाभावात्प्रहर्षोद्वेगो न भवत इत्युचितमेव। साधकेन तु द्वैतदर्शने विद्यमानेऽपि विषयदोषदर्शनादिना प्रहर्षविषादौ त्याज्यावित्यभिप्रायः।
।।5.20।।ब्रह्मप्राप्तस्य लक्षणमाह नेति। यो ब्रह्मविद्भूत्वा ब्रह्मण्येव स्थितः स प्रियं प्राप्य न प्रहृष्येन्न प्रहृष्टो हर्षवान्स्यात्। अप्रियं च प्राप्य नोद्विजेत्। न विषीदेदित्यर्थः। यतः स्थिरबुद्धिः स्थिरा निश्चला बुद्धिर्यस्य। तत्कुतः। यतोऽसंमूढो निवृत्तमोहः।
।।5.20।।प्रियाप्रिये तदधीनहर्षोद्वेगौ च देहतदवस्थाद्युपाधिभेदनिबन्धनाविति व्यञ्जयितुंयादृशदेहस्थयदवस्थस्येत्याद्युक्तम्।यदवस्थस्येत्येतद्देहादिकृतज्ञानसङ्कोचाद्यवस्थाविषयं वा। प्रियाप्रियरूपकारणागमे तत्कार्यहर्षोद्वेगनिवृत्तिर्दुश्शकेत्यभिप्रायेणाह कथमिति। तत्रोत्तरं स्थिरबुद्धिरिति। समानाधिकरणसमासादप्युपयोगातिशयादत्र व्यधिकरणसमास उपपन्न इत्यभिप्रायेणाह स्थिरे आत्मनीति।असम्मूढः इत्यत्र समित्युपसर्ग एकीकारपरः एवंविधस्थिरबुद्धित्वासम्मूढत्वयोर्हेत्वाकाङ्क्षां दर्शयति तच्च कथमिति। स्थिरबुद्धित्वासम्मूढत्वे द्वे अपि सङ्कलय्य तदिति परामृश्यते।ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः इति शब्दाभ्यां सिद्धमवान्तरदशाविशेषं विशदयति उपदेशेनेत्यादिना। सन्नित्यनेनोपदेशजनितज्ञानमनूद्य विशिष्टं विज्ञानं विधीयते इति सूचितम्। उक्तमेवार्थं समदर्शित्वरूपज्ञानविपाकाभिलाषिणां अव्याकुलानुष्ठानपूर्वक्रमप्रदर्शनार्थं श्लोकस्थपदानां हेतुकार्यभावेन महावाक्यान्वयं दर्शयति एतदुक्तमिति। बाह्यकुदृष्ट्युपदेशनिवृत्त्यर्थम्तत्त्वविदामित्युक्तम्।भूत्वेत्येतदप्यनुवादत्वसूचनार्थम्।
।।5.20।।एवं साम्यस्थितस्य ब्रह्मभावापत्तिमुक्त्वा तद्भावापन्नस्य लक्षणमाह न प्रहृष्येदिति। प्रियं प्राप्य संयोगेन न प्रहृष्येत्। यतः प्रकृष्टहर्षेणाग्रे मानोत्पत्त्या दोषः स्यात्। च पुनः अप्रियं विप्रयोगं प्राप्य नोद्विजेदुद्वेगं न प्राप्नुयात् यतो भगवता विप्रयोगः परमसुखदानार्थं दत्तस्तत्रोद्वेगेऽग्रे न तत्प्राप्तिः स्यात्। एवमवस्थाद्वये स्थिरबुद्धिः स असम्मूढः ब्रह्मवित् मोहाभावेन ब्रह्मस्वरूपज्ञ इति भावः। ब्रह्मणि ब्रह्मभावे स्थितः स इत्यर्थः।
।।5.20।।न प्रहृष्येदिति। यस्मान्निर्दोषं समं ब्रह्म तस्मात् प्रियं पुत्रादिं प्राप्य न प्रहृष्येत्। अप्रियं शत्रुं दुःखदं प्राप्य नोद्विजेत्। बुद्धस्थितिरबुद्धेनानुष्ठेयति ज्ञापयितुमुभयत्र लिङ्प्रयोगः। स्थिरबुद्धिः प्रत्यगद्वैते श्रुतियुक्तिभ्यां स्थिरीकृतप्रज्ञः। असंमूढो ध्यानजसाक्षात्कारेण निर्गतमोहः। अतएव ब्रह्मविद्ब्रह्मभावस्य लब्धा। ब्रह्मभावं गत इत्यर्थः। ब्रह्मण्येव प्रत्यगद्वये व्युत्थानावस्थायामपि स्थितः। सर्वं ब्रह्मेत्येव पश्यन्नित्यर्थः।
।।5.20।।समे निर्दोषे ब्रह्मणि स्थितो जीवन्मुक्तिसुखार्थं कीदृशः स्यादित्याकाङ्क्षायामाह नेति। स्थिरा संशयवर्जिता सर्वभूतेष्वेकः समो निर्दोष आत्मेति बुद्धिर्यस्य। यतोऽसंमूढः संशयमूलभूतेन संमोहेन रहितः। यतस्तत्त्ववित् मोहनिवर्तकतत्तसाक्षात्कारवान्। तदपि कुतः। यतो ब्रह्मणि स्थितः सर्वं विक्षेपकारणं परित्यज्य श्रवणादिना तत्रैव स्थितः। तन्निष्ठ इतियावत्। एतादृशः प्रियः प्राप्य हर्षं न कुर्यात्। अप्रियं प्राप्योद्वेगं न कुर्यात्। एतादृशेनापि मनोनाशवासनाक्षयप्रयत्नेन हर्षविषादाभावत्वे यतितव्यं षष्ठ्यादिभूमिकायै इति सूचनार्थमुभयत्र लिङ्प्रयोगः।
5.20 न not? प्रहृष्येत् should rejoice? प्रियम् the pleasant? प्राप्य having obtained? न not? उद्विजेत् should be troubled? प्राप्य having obtained? च and? अप्रियम् the unpleasant? स्थिरबुद्धिः one with steady intellect? असम्मूढः undeluded? ब्रह्मवित् knower of Brahman? ब्रह्मणि in Brahman? स्थितः established.Commentary This is the state of a Jivanmukta or a liberated sage or a Brahmana who identifies himself with the Self or Atman. He always has a balanced mind. He is never deluded. He has abandoned all actions as he rests in Brahman. He who has an unbalanced mind? who identifies himself with the body and mind feels pleasure and pain? exhilaration of spirits when he gets a pleasant object and grief when he obtains an unpleasant object. (Cf.VI.21?27?28XIII.12XIV.20)
5.20 Resting in Brahman, with steady intellect and undeluded, the knower of Brahman neither rejoiceth on obtaining what is pleasant nor grieveth on obtaining what is unpleasant.
5.20 He who knows and lives in the Absolute remains unmoved and unperturbed; he is not elated by pleasure or depressed by pain.
5.20 A knower of Brahman, who is established in Brahman, should have his intellect steady and should not be deluded. He should not get delighted by getting what is desirable, nor become dejected by getting what is undesirable.
5.20 Brahmavit, a knower of Brahman, as described; sthitah, who is established; brahmani in Brahman- who is not a performer of actions, i.e. one who has renounced all actions; sthira-buddhih, should have his intellect steady-the man of steady intellect is one who has the unwavering, firm conviction of the existence of the one and the same taintless Self in all beings; and further, asammudhah, he should not be deluded, he should be free from delusion. Na prahrsyet, he should not get delighted; prapya, by getting; priyam, what is desirable; na ca udvijet, and surely, neither should he become dejected; prapya, by getting; apriyam, what is undesirable-because the acisition of the desirable and the undesirable are causes of [Ast.'s reading is 'horsa-visadau kurvate, cause happiness and sorrow' in place of 'harsa-visada-sthane, sources of happiness and sorrow', which (latter) reading occurs in G1. Pr. and A.A.-Tr.] happiness and sorrow for one who considers the body as the Self; not for the one who has realized the absolute Self, since in his case there can be no acisition of desirable and undesirable objects. Further, the one who is established in Brahman-
5.20. He who, with his self (mind) not attached to the external contacts, finds happiness in the Self-that person, with his self engaged in the Yoga, pervades easily, suffering no loss, the Brahman.
5.20 Na prahrsyet etc. In the case of this person, who habitually looks [upon all] alike, the classification of foes and friends is at the level of mundane business alone, and not internally, as he is firmly established in the Brahman.
5.20 Whatever is experienced as pleasant by one staying in a body and remaining in a particular condition because of the subtle impressions of his old Karmas, and whatever is experienced as unpleasant - on attaining those two types of experiences, one should not feel joy or grief. How? By having the mind on that 'Which is steadfast' i.e., the self, 'Undeluded,' i.e., one must be free from the delusion of identity of the steadfast self with the transient body. And how can this be? He who knows Brahman and abides in Brahman, i.e., by becoming a knower of Brahman by instruction by the teachers - such a person abides steadily, engaged in the practices towards winning Brahman. What is said is this: From the instructions received from the sages who know the truth, one should learn what has to be learnt about the self. Endeavouring to actualise the same, one does not consider the body as the sefl and remains fixed in the joyous experience of the vision of the steadfast self. Let him not rejoice and grieve when he experiences pleasant and unpleasant things, as such experiences result from the Prakrti and are transient.
5.20 He who knows Brahman (individual self) and abides in Brahman, whose mind is steadfastly on the self and undeluded by the body consciousness - he neither rejoices at gaining what is pleasant, nor grieves on obtaining what is unpleasant.
।।5.20।।क्योंकि निर्दोष और सम ब्रह्म ही आत्मा है इसलिये प्रिय वस्तुको प्राप्त करके तो हर्षित न हो अर्थात् इष्टवस्तु पाकर तो हर्ष न माने और अप्रिय अनिष्ट पदार्थके मिलनेपर उद्वेग न करे। क्योंकि देहमात्रमें आत्मबुद्धिवाले पुरुषको ही प्रियकी प्राप्ति हर्ष देनेवाली और अप्रियकी प्राप्ति शोक उत्पन्न करनेवाली हुआ करती है केवल उपाधिरहित आत्माका साक्षात् करनेवाले पुरुषको नहीं। कारण उसके लिये ( वास्तवमें ) प्रिय और अप्रियकी प्राप्ति असम्भव है। सब भूतोंमें आत्मा एक है सम है और निर्दोष है ऐसी संशयरहित बुद्धि जिसकी स्थिर हो चुकी है और जो मोह अज्ञानसे रहित है वह स्थिरबुद्धि ब्रह्मज्ञानी ब्रह्ममें ही स्थित है। अर्थात् वह कर्म न करनेवाला सर्व कर्मोंका त्यागी ही है।
।।5.20।। न प्रहृष्येत् प्रहर्षं न कुर्यात् प्रियम् इष्टं प्राप्य लब्ध्वा। न उद्विजेत् प्राप्य च अप्रियम् अनिष्टं लब्ध्वा। देहमात्रात्मदर्शिनां हि प्रियाप्रियप्राप्ती हर्षविषादौ कुर्वाते न केवलात्मदर्शिनः तस्य प्रियाप्रियप्राप्त्यसंभवात्। किञ्च सर्वभूतेषु एकः समः निर्दोषः आत्मा इति स्थिरा निर्विचिकित्सा बुद्धिः यस्य सः स्थिरबुद्धिः असंमूढः संमोहवर्जितश्च स्यात् यथोक्तब्रह्मवित् ब्रह्मणि स्थितः अकर्मकृत् सर्वकर्मसंन्यासी इत्यर्थःकिञ्च ब्रह्मणि स्थितः
।।5.20।।अत्र कश्चिदाध्यायपरिसमाप्तेः ज्ञानिनः कर्माभावः प्रतिपाद्यत इत्याह अपरस्तु ज्ञानस्वरूपं तत्सहकारिसाधनं च प्रतिपाद्यत इति। तदुभयमसत्। अप्रतीतेरिति भावेनाध्यायशेषप्रतिपाद्यमाह सन्न्यासेति। मिलित्वा मेलयित्वा शङ्कानुसारेणैव न तु प्रकरणभेदेनेत्यर्थः। पुनरुक्तिपरिहारार्थं प्रपञ्चयतीत्युक्तम्। सन्न्यासस्यादौ ग्रहणेनन प्रहृष्येत् इति सन्न्यासप्रपञ्चनमिति सूचितम्।
।।5.20।।सन्न्यासयोगज्ञानानि मिलित्वा प्रपञ्च्यत्यध्यायशेषेण।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः।।5.20।।
ন প্রহৃষ্যেত্প্রিযং প্রাপ্য নোদ্বিজেত্প্রাপ্য চাপ্রিযম্৷ স্থিরবুদ্ধিরসম্মূঢো ব্রহ্মবিদ্ব্রহ্মণি স্থিতঃ৷৷5.20৷৷
ন প্রহৃষ্যেত্প্রিযং প্রাপ্য নোদ্বিজেত্প্রাপ্য চাপ্রিযম্৷ স্থিরবুদ্ধিরসম্মূঢো ব্রহ্মবিদ্ব্রহ্মণি স্থিতঃ৷৷5.20৷৷
ન પ્રહૃષ્યેત્પ્રિયં પ્રાપ્ય નોદ્વિજેત્પ્રાપ્ય ચાપ્રિયમ્। સ્થિરબુદ્ધિરસમ્મૂઢો બ્રહ્મવિદ્બ્રહ્મણિ સ્થિતઃ।।5.20।।
ਨ ਪ੍ਰਹਰਿਸ਼੍ਯੇਤ੍ਪ੍ਰਿਯਂ ਪ੍ਰਾਪ੍ਯ ਨੋਦ੍ਵਿਜੇਤ੍ਪ੍ਰਾਪ੍ਯ ਚਾਪ੍ਰਿਯਮ੍। ਸ੍ਥਿਰਬੁਦ੍ਧਿਰਸਮ੍ਮੂਢੋ ਬ੍ਰਹ੍ਮਵਿਦ੍ਬ੍ਰਹ੍ਮਣਿ ਸ੍ਥਿਤ।।5.20।।
ನ ಪ್ರಹೃಷ್ಯೇತ್ಪ್ರಿಯಂ ಪ್ರಾಪ್ಯ ನೋದ್ವಿಜೇತ್ಪ್ರಾಪ್ಯ ಚಾಪ್ರಿಯಮ್. ಸ್ಥಿರಬುದ್ಧಿರಸಮ್ಮೂಢೋ ಬ್ರಹ್ಮವಿದ್ಬ್ರಹ್ಮಣಿ ಸ್ಥಿತಃ৷৷5.20৷৷
ന പ്രഹൃഷ്യേത്പ്രിയം പ്രാപ്യ നോദ്വിജേത്പ്രാപ്യ ചാപ്രിയമ്. സ്ഥിരബുദ്ധിരസമ്മൂഢോ ബ്രഹ്മവിദ്ബ്രഹ്മണി സ്ഥിതഃ৷৷5.20৷৷
ନ ପ୍ରହୃଷ୍ଯେତ୍ପ୍ରିଯଂ ପ୍ରାପ୍ଯ ନୋଦ୍ବିଜେତ୍ପ୍ରାପ୍ଯ ଚାପ୍ରିଯମ୍| ସ୍ଥିରବୁଦ୍ଧିରସମ୍ମୂଢୋ ବ୍ରହ୍ମବିଦ୍ବ୍ରହ୍ମଣି ସ୍ଥିତଃ||5.20||
na prahṛṣyētpriyaṅ prāpya nōdvijētprāpya cāpriyam. sthirabuddhirasammūḍhō brahmavidbrahmaṇi sthitaḥ৷৷5.20৷৷
ந ப்ரஹரிஷ்யேத்ப்ரியஂ ப்ராப்ய நோத்விஜேத்ப்ராப்ய சாப்ரியம். ஸ்திரபுத்திரஸம்மூடோ ப்ரஹ்மவித்ப்ரஹ்மணி ஸ்திதஃ৷৷5.20৷৷
న ప్రహృష్యేత్ప్రియం ప్రాప్య నోద్విజేత్ప్రాప్య చాప్రియమ్. స్థిరబుద్ధిరసమ్మూఢో బ్రహ్మవిద్బ్రహ్మణి స్థితః৷৷5.20৷৷
5.21
5
21
।।5.21।। बाह्यस्पर्शमें आसक्तिरहित अन्तःकरणवाला साधक आत्मामें जो सुख है, उसको प्राप्त होता है। फिर वह ब्रह्ममें अभिन्नभावसे स्थित मनुष्य अक्षय सुखका अनुभव करता है।
।।5.21।। बाह्य विषयों में आसक्तिरहित अन्त:करण वाला पुरुष आत्मा में ही सुख प्राप्त करता है;  ब्रह्म के ध्यान में समाहित चित्त वाला पुरुष अक्षय सुख प्राप्त करता है।।
।।5.21।। पूर्व श्लोक से यह धारणा बनने की संभावना है कि आध्यात्मिक जीवन वह गतिशून्य अस्तित्व है जिसमें एक शुष्क हृदय का व्यक्ति बाह्य जगत् की आकर्षक एवं उत्तेजक वस्तुओं के सम्पर्क में आने पर भी मन के अपरिवर्तित समत्व के अतिरिक्त कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता और न उसे कुछ विशेष अनुभव ही होता है। यदि र्वास्तविकता ऐसी होती तो अधिकांश साधकों ने आध्यात्मिकता से तत्काल ही विदा ले ली होती। बाह्य जगत् में विद्यमान परिच्छिन्नताओं एवं दोषों के होते हुए भी इस तथ्य को कौन नकार सकता है कि विषयोपभोग से क्षणिक ही सही आनन्द तो प्राप्त होता ही है क्यों कोई व्यक्ति स्वयं को असंख्य प्रकार के क्षणिक आनन्दों से वंचित रखकर पत्थर के समान अचल अभेद्य समत्व की कामना करे फिर आप उस स्थिति को चाहे परम शान्ति कहें या ईश्वरतत्त्व या और कुछ नाम परिवर्तन से स्वयं वस्तु परिवर्तित नहीं हो जाती यह शंका कोई अतिशयोक्ति नहीं है। वेदान्त के विद्यार्थी प्राय ऐसा प्रश्न करते हैं। कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति जिस किसी कार्य में प्रवृत्त होता है तो उसका प्रयोजन या उपयोगिता जानना चाहता ही है। कोई भी गुरु शिष्यों के इन प्रश्नों की उपेक्षा नहीं कर सकते। जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण भी इस शंका का निवारण करते हुए अर्जुन को आश्वस्त करते हैं।जो पुरुष बाह्य विषयों की आसक्ति से पूर्णतया मुक्त हो जाता है वह आत्मा के स्वरूपभूत आनन्द का साक्षात् अनुभव करता है। यद्यपि आत्मोन्नति की साधना में वैराग्य की प्रधानता है तथापि यह अनासक्ति हमें खोखली निर्रथक शून्यावस्था को नहीं प्राप्ति कराती। सभी मिथ्या वस्तुओं का त्याग करने पर परमार्थ सत्यस्वरूप पूर्ण परमात्मा को हम प्राप्त करते हैं। जब स्वप्नद्रष्टा स्वप्निल वस्तुओं तथा स्वप्न के व्यक्तित्व का त्याग कर देता है तब वह कोई अभावरूप नहीं बन जाता वरन् वह अपने अधिक शक्तिशाली जाग्रत अवस्था के व्यक्तित्व को प्राप्त कर लेता है।इसी प्रकार जब कभी हम शरीर मन और बुद्धि के साथ के अपने तादात्म्य से ऊपर उठ जाते हैं तब हमें आत्मानुभूति का आनन्द प्राप्त होता है। यदि साधक केवल ध्यानाभ्यास के समय भी विषयासक्ति को त्याग कर हृदय से ब्रह्म का ध्यान करता है तो वह अक्षय सुख का अनुभव करता है। हृदय का अर्थ है अन्तकरण।इस कारण से भी साधक को विषयोपभोग का त्याग करना चाहिए क्योंकि
5.21।। व्याख्या--'बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा'--परमात्माके अतिरिक्त शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिमें तथा शब्द, स्पर्श आदि विषयोंके संयोगजन्य सुखमें जिसकी आसक्ति मिट गयी है, ऐसे साधकके लिये यहाँ ये पद प्रयुक्त हुए हैं। जिन साधकोंकी आसक्ति अभी मिटी नहीं है, पर जिनका उद्देश्य आसक्तिको मिटानेका हो गया है, उन साधकोंको भी आसक्तिरहित मान लेना चाहिये। कारण कि उद्देश्यकी दृढ़ताके कारण वे भी शीघ्र ही आसक्तिसे छूट जाते हैं।पूर्वश्लोकमें वर्णित 'प्रियको प्राप्त होकर हर्षित और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होना चाहिये'--ऐसी स्थितिको प्राप्त करनेके लिये बाह्यस्पर्शमें आसक्तिरहित होना आवश्यक है।उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुमात्रका नाम 'बाह्यस्पर्श' है, चाहे उसका सम्बन्ध बाहरसे हो या अन्तःकरणसे। जबतक बाह्यस्पर्शमें आसक्ति रहती है, तबतक अपने स्वरूपका अनुभव नहीं होता। बाह्यस्पर्श निरन्तर बदलता रहता है, पर आसक्तिके कारण उसके बदलनेपर दृष्टि नहीं जाती और उसमें सुखका अनुभव होता है। पदार्थोंको अपरिवर्तनशील, स्थिर माननेसे ही मनुष्य उनसे सुख लेता है। परन्तु वास्तवमें उन पदार्थोंमें सुख नहीं है। सुख पदार्थोंके सम्बन्ध-विच्छेद-से ही होता है। इसीलिये सुषुप्तिमें जब पदार्थोंके सम्बन्धकी विस्मृति हो जाती है, तब सुखका अनुभव होता है।वहम तो यह है कि पदार्थोंके बिना मनुष्य जी नहीं सकता, पर वास्तवमें देखा जाय तो बाह्य पदार्थोंके वियोगके बिना मनुष्य जी ही नहीं सकता। इसीलिये वह नींद लेता है, क्योंकि नींदमें पदार्थोंको भूल जाते हैं। पदार्थोंको भूलनेपर भी नींदसे जो सुख, ताजगी, बल, नीरोगता, निश्चिन्तता आदि मिलती है, वह जाग्रत्में पदार्थोंके संयोगसे नहीं मिल सकती। इसलिये जाग्रत्में मनुष्यको विश्राम पानेकी, प्राणी-पदार्थोंसे अलग होनेकी इच्छा होती है। वह नींदको अत्यन्त आवश्यक समझता है; क्योंकि वास्तवमें पदार्थोंके वियोगसे ही मनुष्यको जीवन मिलता है।नींद लेते समय दो बातें होती हैं--एक तो मनुष्य बाह्य पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहता है और दूसरी, उसमें यह भाव रहता है कि नींद लेनेके बाद अमुक कार्य करना है। इन दोनों बातोंमें पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेद चाहना तो स्वयंकी इच्छा है, जो सदा एक ही रहती है; परन्तु कार्य करनेका भाव बदलता रहता है। कार्य करनेका भाव प्रबल रहनेके कारण मनुष्यकी दृष्टि पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेदकी तरफ नहीं जाती। वह पदार्थोंका सम्बन्ध रखते हुए ही नींद लेता है और जागता है।यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि सम्बन्धी तो नहीं रहता, पर सम्बन्ध रह जाता है ! इसका कारण यह है कि स्वयं (अविनाशी चेतन) जिस सम्बन्धको अपनेमें मान लेता है, वह मिटता नहीं। इस माने हुए सम्बन्धको मिटानेका उपाय है--अपनेमें सम्बन्धको न माने। कारण कि प्राणी-पदार्थोंसे सम्बन्ध वास्तवमें है नहीं, केवल माना हुआ है। मानी हुई बात न माननेपर टिक नहीं सकती और मान्यताको पकड़े रहनेपर किसी अन्य साधनसे मिट नहीं सकती। इसलिये माने हुए सम्बन्धकी मान्यताको वर्तमानमें ही मिटा देना चाहिये। फिर मुक्ति स्वतःसिद्ध है। बाह्य पदार्थोंका सम्बन्ध अवास्तविक है, पर परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध वास्तविक है। मनुष्य सुखकी इच्छासे बाह्य पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, पर परिणाममें उसे दुःख-ही-दुख प्राप्त होता है (गीता 5। 22)। इस प्रकार अनुभव करनेसे बाह्य पदार्थोंकी आसक्ति मिट जाती है।
।।5.21।।बाह्यस्पर्शे विषयात्मनि सक्तिर्यस्य नास्ति स ह्येवं मन्यते इत्याह ।
।।5.21।।एवम् उक्तेन प्रकारेण बाह्यस्पर्शेषु आत्मव्यतिरिक्तविषयानुभावेषु असक्तमनाः अन्तरात्मनि एव यः सुखं विन्दति लभते स प्रकृत्यभ्यासं विहाय ब्रह्मयोगयुक्तात्मा ब्रह्माभ्यासयुक्तमना ब्रह्मानुभवरूपम् अक्षयं सुखं प्राप्नोति।प्राकृतस्य भोगस्य सुत्यजताम् आह
।।5.21।।शब्दादिविषयप्रीतिप्रतिबन्धान्न कस्यचिदपि ब्रह्मणि स्थितिः सिध्येदित्याशङ्क्याह किंचेति। न केवलं पूर्वोक्तरीत्या ब्रह्मणि स्थितो हर्षविषादरहितः किंतु विद्यान्तरेणापीत्यर्थः। यावद्यावद्विषयेषु रागरूपमावरणं निवर्तते तावत्तावदात्मस्वरूपसुखमभिव्यक्तं भवतीत्याह बाह्ये। न केवलमसक्तात्मा शमवशादेव सुखं विन्दति किंतु ब्रह्मसमाधिना समाहितान्तःकरणः सुखमनन्तं प्राप्नोतीत्याह स ब्रह्मेति। तत्र पूर्वार्धं व्याचष्टे बाह्याश्चेति। समाधानाधीनसम्यग्ज्ञानद्वारा निरतिशयसुखप्राप्तिमुत्तरार्धव्याख्यानेन कथयति ब्रह्मणीत्यादिना। शब्दादिविषयविमुखस्यानन्तसुखाप्तिसंभवात्तदर्थिना प्रयत्नेन विषयवैमुख्यं कर्तव्यमिति शिष्यशिक्षार्थमाह तस्मादिति।
।।5.20 5.21।।तादृशस्य परमानन्दावाप्तिगमकं लक्षणमाह द्वाभ्यां न प्रहृष्येदिति। यतः स्थिरबुद्धिः सम्मोहस्यासुरत्वात्तद्रहितश्च बाह्यविषयेष्वसक्तात्मा स योगी यदात्मनि सुखं सात्विकं विन्दति स एवोपशमसुखी ब्रह्मणि योगेन युक्तस्तदैक्यं प्राप्त आत्मा यस्य तथाभूतः सन्नक्षयं ब्रह्मसुखमनुभवतीत्यर्थः।
।।5.21।।ननु बाह्यविषयप्रीतेरनेकजन्मानुभूतत्वेनातिप्रबलत्वात्तदासक्तचित्तस्य कथमलौकिके ब्रह्मणि दृष्टे सर्वसुखरहिते स्थितिः स्यात्। परमानन्दरूपत्वादिति चेत् न तदानन्दस्याननुभूतचरत्वेन चित्तस्थितिहेतुत्वाभावात्। तदुक्तं वार्तिकेअप्यानन्दः श्रुतः साक्षान्मानेनाविषयीकृतः। दृष्टानन्दाभिलाषं स न मन्दीकर्तुमप्यलम्।। इति। तत्राह इन्द्रियैः स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः शब्दादयः। तेच बाह्या अनात्मधर्मत्वात्। तेष्वसक्तात्माऽनासक्तचित्तस्तृष्णाशून्यतया विरक्तः सन्नात्मनि अन्तःकरणएव बाह्यविषयनिरपेक्षं यदुपशमात्मकं सुखं तद्विन्दति लभते निर्मलसत्त्ववृत्त्या। तदुक्तं भारतेयच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम्।। इति। अथवा प्रत्यगात्मनि त्वंपदार्थे यत्सुखं स्वरूपभूतं सुषुप्ताननुभूयमानं बाह्यविषयासक्तिप्रतिबन्धादलभ्यमानं तदेव तदभावाल्लभते। न केवलं त्वंपदार्थसुखमेव लभते किंतु तत्पदार्थैक्यानुभवेन पूर्णसुखमपीत्याह स तृष्णाशून्यो ब्रह्मणि परमात्मनि योगः समाधिस्तेन युक्तस्तस्मिन्व्यापृत आत्मान्तःकरणं यस्य स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा। अथवा ब्रह्मणि तत्पदार्थे योगेन वाक्यार्थानुभवरूपेण समाधिना युक्त ऐक्यं प्राप्त आत्मा त्वंपदार्थः स्वरूपं यस्य स तथा। सुखमक्षय्यमनन्तं स्वस्वरूपभूतमश्नुते व्याप्नोति। सुखानुभवरूप एव सर्वदा भवतीत्यर्थः। नित्येऽपि वस्तुन्यविद्यानिवृत्त्यभिप्रायेण धात्वर्थयोग औपचारिकः। तस्मादात्मन्यक्षयसुखानुभवार्थी सन्बाह्यविषयप्रीतेः क्षणिकाया महानरकानुबन्धिन्याः सकाशादिन्द्रियाणि निवर्तयेत्तावतैव च ब्रह्मणि स्थितिर्भवतीत्यभिप्रायः।
।।5.21।।मोहनिवृत्त्या बुद्धिस्थैर्यहेतुमाह बाह्यस्पर्शेष्विति। इन्द्रियैः स्पृश्यन्त इति स्पर्शा विषयाः बाह्येन्द्रियविषयेष्वसक्तात्मानासक्तचित्तः आत्मन्यन्तःकरणे यदुपशमात्मकं सात्त्विकं सुखं तद्विन्दति लभते। स चोपशमात्मकं सुखं लब्ध्वा ब्रह्मणि योगेन समाधिना युक्तस्तदैक्यं प्राप्त आत्मा यस्य सोऽक्षय्यं सुखमश्नुते प्राप्नोति।
।।5.21।।एवं हर्षोद्वेगावकुर्वतः समदर्शित्वप्रयुक्तं निरतिशयसुखं स्वयमापततीत्युच्यते बाह्य इति श्लोकेन।सुखं विन्दति इत्यस्यसुखमक्षयमश्नुते इत्यतोऽभेदप्रदर्शनायलभत इत्युक्तम्। अक्षयसुखप्रारम्भोऽयमिति भावः।प्रकृत्यभ्यासं विहायेत्यर्थलब्धोक्तिः प्रकृत्यभ्यासः पुनः पुनः प्राकृतशब्दादिभोग्यचिन्ता।विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् इत्युपदेशादिजन्यज्ञानमूलं सुखमुक्तम्।सुखमक्षयमश्नुते इति तु साक्षात्कारानन्तरभावि नित्यं सुखमुच्यत इति विशेषं दर्शयितुंब्रह्मानुभवरूपमित्युक्तम्।
।।5.21।।नन्वनेन शरीरेण कथं तद्भावप्राप्तिः इत्याशङ्क्याह बाह्यस्पर्शेष्विति। बाह्यस्पर्शेषु लौकिकेन्द्रियविषयेष्वसक्त आत्मा अन्तःकरणं यस्य स आत्मनि भावात्मके स्वस्वरूपे यत्सुखं तद्विन्दति प्राप्नोतीत्यर्थः। योगो भावात्मकं सुखं तं जानाति। स ब्रह्मयोगे सद्भावात्मके युक्त आत्मा यस्य तादृशो भवति। अक्षयं तद्दास्यात्मकं सुखमश्नुते भुङ्क्त इत्यर्थः।
।।5.21।।नन्वननुभूतात्मसुखेप्सया प्रसिद्धं बाह्यं सुखं त्यक्तुमशक्यमतो न प्रहृष्येदित्यसंगतमत आह बाह्येति। बहिर्भवाः बाह्याः स्पर्शा विषयेन्द्रियसंबन्धास्तेषु असक्तात्माऽनासक्तचित्तः सन्नात्मनि प्रत्यगद्वयानन्दे सुषुप्तिकाले स्थित्वा यत्सुखं विन्दति लभते स तदेव सुखम्। विधेयापेक्षं पुंस्त्वम्। कस्तत्सुखम्। यो ब्रह्मयोगे ब्रह्मणि योगः समाधिस्तत्र युक्तो योजित आत्मा बुद्धिर्येन स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा। ब्रह्मविदित्यर्थः।ब्रह्मविद्ब्रह्मैव भवति इति श्रुतेः। ब्रह्मयोगयुक्तात्मा तदेव सुखं विन्दतीति वक्तव्ये ब्रह्मविदेव तत्सुखमिति तस्य सुखाभिन्नत्वविवक्षयेदमुक्तम्। ननूभयत्रैकमेव सुखं चेत्कः सुप्तसमाधिस्थयोर्विशेष इत्याशङ्क्याह सुखमिति। अक्षय्यं सुखं मोक्षस्तमश्नुते व्याप्नोति द्वैतादर्शनस्य तुल्यत्वादुभयत्रैकमेव सुखं तत्रापि योगी मूलाविद्याया नष्टत्वादक्षय्यं सुखमश्नुते न सुप्तः। अविद्यानुच्छेदात्। तथा च मोक्षसुखस्य मुख्यस्याप्यनुभूतत्वात्तदर्थं बाह्यं सुखं सुत्यजमित्यर्थः।
।।5.21।।किंच विषयसुखस्य ब्रह्मानन्दापेक्षयातितुच्छत्वात् ब्रह्मणि स्थितः। स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः शब्दादयो विषयाः तेष्वसक्तः प्रीतिवर्जितः आत्मान्तःकरणं यस्य स आत्मनि त्वंपदलक्ष्ये यत्सुखं तद्विन्दति लभते। स ब्रह्मणि तत्पदलक्ष्ये परमात्मनि योगः समाधिः त्वंपद लक्ष्यस्य तत्पदलक्ष्ये एकत्वापादनं तेन युक्त आत्मान्तः करणमखण्डसाक्षात्कारलक्षणान्तःकरणवृत्तिर्यस्य स सुखं ब्रह्मानन्दमक्षय्यमश्रुते व्याप्नोति तस्मादात्मनि जीवन्नेवाक्षयसुखार्थी क्षणिकाया विषयप्रीतेरिन्द्रियाणि निवर्तयेदित्याशयः। अत्रत्यभाष्यस्य सामान्यरुपतया न व्याख्यानान्तरैर्विरोध इति ध्येयम्।
5.21 बाह्यस्पर्शेषु in external contacts? असक्तात्मा one whose mind is unattached? विन्दति finds? आत्मनि in,the Self? यत् (that) which? सुखम् happiness? सः he? ब्रह्मयोगयुक्तात्मा with the self engaged in the meditation of Brahman? सुखम् happiness? अक्षयम् endless? अश्नुते enjoys.Commentary When the mind is not attached to external objects of the senses? when one is deeply engaged in the contemplation of Brahman? he finds undecaying bliss in the Self within. If you want to enjoy the imperishable happiness of the Self within? you will have to withdraw the senses from their respective objects and plunge yourself in deep meditation on the Self within. This is the gist of this verse.
5.21 With the self unattached to external contacts he finds happiness in the Self; with the self engaged in the meditation of Brahman he attains to the endless happiness.
5.21 He finds happiness in his own Self, and enjoys eternal bliss, whose heart does not yearn for the contacts of earth and whose Self is one with the Everlasting.
5.21 With his heart unattached to external objects, he gets the bliss that is in the Self. With his heart absorbed in meditation on Brahman, he acires undecaying Bliss.
5.21 Asakta-atma, with his heart, internal organ, unattached, bahya-sparsesu, to external objects-sparsah means objects that are contacted, viz sound etc.; bahya-sparsah means those things which are external (bahya) and are objects of contact; that person who thus has his heart unattached, who derives no happiness from objects; he vindati, gets that sukham, bliss; yat, which is; atmani, in the Self. Brahma-yoga-yukta-atma, with his heart absorbed in meditation on Brahman-meditation (yoga) on Brahman is brahma-yoga; one whose internal organ (atma) is absorbed in (yukta), engaged in, that meditation on Brahman is brahma-yoga-yukta-atma; he asnute, acires; aksayam, undecaying; sukham, Bliss. So, he who cherishes undecaying happiness in the Self should withdraw the organs from the momentary happiness in external objects. This is the meaning. For this reason also one should withdraw:
5.21. The enjoyments that are born of contacts [with objects] are indeed nothing but sources of misery and have beginning and end. [Hence], an intelligent man does not get delighted in them, O son of Kunti !
5.21 He, in whom there is no desire for the external touch viz., the object-he thinks says as follows the Bhagawat -
5.21 He who finds happiness in the self within himself, his mind detached from external contact in the manner already mentioned, i.e., from experience of objects other than the self - such a person abandoning the contemplation on Prakrti or bodily experiences, has his mind engaged in the contemplation on Brahman i.e., the Atman. Thus he attains everlasting bliss which consists in the experience of Brahman (the self). Sri Krsna speaks of the abandonment of material pleasure as easy:
5.21 He whose mind is detached from external contact, and finds happiness in the self - he has his mind engaged in the contemplation of Brahman and he enjoys undecaying bliss.
।।5.21।।और भी वह ब्रह्ममें स्थित हुआ पुरुष ( कैसा होता है सो बताते हैं ) जिनका इन्द्रियोंद्वारा स्पर्श ( ज्ञान ) किया जा सके वे स्पर्श हैं इस व्युत्पत्तिसे शब्दादि विषयोंका नाम स्पर्श है ( वे सब अपने भीतर नहीं हैं इसलिये बाह्य हैं ) उस बाह्य स्पर्शोंमें जिसका अन्तःकरण आसक्त नहीं है ऐसा विषयप्रीतिसे रहित पुरुष उस सुखको प्राप्त होता है जो अपने भीतर है। तथा वह ब्रह्मयोगयुक्तात्मा ब्रह्ममें जो समाधि है उसका नाम ब्रह्मयोग है उस ब्रह्मयोगसे जिसका अन्तःकरण युक्त है अच्छी प्रकार उसमें समाहित है लगा हुआ है ऐसा पुरुष अक्षय सुखको अनुभव करता है प्राप्त होता है। इसलिये अपनेआप अक्षय सुख चाहनेवाले पुरुषको चाहिये कि वह क्षणिक बाह्य विषयोंकी प्रीतिसे इन्द्रियोंको हटा ले। यह अभिप्राय है।
।।5.21।। बाह्यस्पर्शेषु बाह्याश्च ते स्पर्शाश्च बाह्यस्पर्शाः स्पृश्यन्ते इति स्पर्शाः शब्दादयो विषयाः तेषु बाह्यस्पर्शेषु असक्तः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः अयम् असक्तात्मा विषयेषु प्रीतिवर्जितः सन् विन्दति लभते आत्मनि यत् सुखं तत् विन्दति इत्येतत्। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा ब्रह्मणि योगः समाधिः ब्रह्मयोगः तेन ब्रह्मयोगेन युक्तः समाहितः तस्मिन् व्यापृतः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखम् अक्षयम् अश्नुते व्याप्नोति। तस्मात् बाह्यविषयप्रीतेः क्षणिकायाः इन्द्रियाणि निवर्तयेत् आत्मनि अक्षयसुखार्थी इत्यर्थः।।इतश्च निवर्तयेत्
।।5.21।।प्रकृतस्य सन्न्यासिन एवाक्षयसुखप्राप्तिरुच्यत इति परव्याख्यानमसदिति भावेनाह पुनरिति।सन्न्यासस्तु 5।6 इत्यादिना प्रागुक्तत्वात्पुनरिति आधिक्यसन्न्यासात्। प्राग्योगाभावे सन्न्यासस्य वैयर्थ्यमुक्तम्। तदसत्। कामाद्युपद्रवक्षये स्वरूपसुखस्याविर्भावादित्याशङ्कानिराकारणात्स्पष्टनम्। नैतदत्र प्रतीयत इत्यतो व्याचष्टे कामेति।बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा इत्यस्यार्थः कामरहित इति। आत्मस्वरूपस्यापि सुखस्य न निर्विशेषत्वमिति ज्ञापनायात्मनीत्युक्तम्। स एव कामरहित एव। तदेव आत्मसुखमेव। ब्रह्मणा योग इति प्रतीतिनिरासायाह ब्रह्मेति। कथमनेन सन्न्यासाद्योगस्याधिक्यं स्पष्टीकृतं इत्यतो ब्रह्मयोगशब्दार्थं विवृण्वन् तात्पर्यमाह ध्यानादीति। ज्ञानद्वारेति शेषः। अक्षयं पुनस्तिरोभावरहितम्। अन्यथा सन्न्यासमात्रेण तिरोभावोपेतं त्वल्पत्वादफलमेवेत्युक्तमेव 5।6। व्याख्यानान्तरे तु बहूनां पदानां वैयर्थ्यमिति भावः।
।।5.21।।पुनर्योगस्याधिक्यं स्पष्टयति बाह्यस्पर्शेष्विति। कामरहित आत्मनि यत्सुखं विन्दति स एव ब्रह्मयोगयुक्तात्मा चेत्तदेवाक्षयं सुखं विन्दति। ब्रह्मविषयो योगो ब्रह्मयोगः ध्यानादियुक्तस्यैवात्मसुखमक्षयम्। अन्यथा नेत्यर्थः।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्। स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।5.21।।
বাহ্যস্পর্শেষ্বসক্তাত্মা বিন্দত্যাত্মনি যত্সুখম্৷ স ব্রহ্মযোগযুক্তাত্মা সুখমক্ষযমশ্নুতে৷৷5.21৷৷
বাহ্যস্পর্শেষ্বসক্তাত্মা বিন্দত্যাত্মনি যত্সুখম্৷ স ব্রহ্মযোগযুক্তাত্মা সুখমক্ষযমশ্নুতে৷৷5.21৷৷
બાહ્યસ્પર્શેષ્વસક્તાત્મા વિન્દત્યાત્મનિ યત્સુખમ્। સ બ્રહ્મયોગયુક્તાત્મા સુખમક્ષયમશ્નુતે।।5.21।।
ਬਾਹ੍ਯਸ੍ਪਰ੍ਸ਼ੇਸ਼੍ਵਸਕ੍ਤਾਤ੍ਮਾ ਵਿਨ੍ਦਤ੍ਯਾਤ੍ਮਨਿ ਯਤ੍ਸੁਖਮ੍। ਸ ਬ੍ਰਹ੍ਮਯੋਗਯੁਕ੍ਤਾਤ੍ਮਾ ਸੁਖਮਕ੍ਸ਼ਯਮਸ਼੍ਨੁਤੇ।।5.21।।
ಬಾಹ್ಯಸ್ಪರ್ಶೇಷ್ವಸಕ್ತಾತ್ಮಾ ವಿನ್ದತ್ಯಾತ್ಮನಿ ಯತ್ಸುಖಮ್. ಸ ಬ್ರಹ್ಮಯೋಗಯುಕ್ತಾತ್ಮಾ ಸುಖಮಕ್ಷಯಮಶ್ನುತೇ৷৷5.21৷৷
ബാഹ്യസ്പര്ശേഷ്വസക്താത്മാ വിന്ദത്യാത്മനി യത്സുഖമ്. സ ബ്രഹ്മയോഗയുക്താത്മാ സുഖമക്ഷയമശ്നുതേ৷৷5.21৷৷
ବାହ୍ଯସ୍ପର୍ଶେଷ୍ବସକ୍ତାତ୍ମା ବିନ୍ଦତ୍ଯାତ୍ମନି ଯତ୍ସୁଖମ୍| ସ ବ୍ରହ୍ମଯୋଗଯୁକ୍ତାତ୍ମା ସୁଖମକ୍ଷଯମଶ୍ନୁତେ||5.21||
bāhyasparśēṣvasaktātmā vindatyātmani yatsukham. sa brahmayōgayuktātmā sukhamakṣayamaśnutē৷৷5.21৷৷
பாஹ்யஸ்பர்ஷேஷ்வஸக்தாத்மா விந்தத்யாத்மநி யத்ஸுகம். ஸ ப்ரஹ்மயோகயுக்தாத்மா ஸுகமக்ஷயமஷ்நுதே৷৷5.21৷৷
బాహ్యస్పర్శేష్వసక్తాత్మా విన్దత్యాత్మని యత్సుఖమ్. స బ్రహ్మయోగయుక్తాత్మా సుఖమక్షయమశ్నుతే৷৷5.21৷৷
5.22
5
22
।।5.22।। क्योंकि हे कुन्तीनन्दन ! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही कारण हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।
।।5.22।। हे कौन्तेय (इन्द्रिय तथा विषयों के) संयोग से उत्पन्न होने वाले जो भोग हैं वे दु:ख के ही हेतु हैं, क्योंकि वे आदि-अन्त वाले हैं। बुद्धिमान् पुरुष उनमें नहीं रमता।।
।।5.22।। आत्मा के अनन्त आनन्द का अनुभव करने के लिए हम साधक लोग भी विषयासक्ति से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं। एक सामान्य स्तर का बुद्धिमान् पुरुष भी यदि जीवन के अनुभवों पर विचार करे तो वह समझ सकता है कि अनित्य विषयों में सुख की खोज करना कोई लाभदायक व्यापार नहीं है। हमारे सभी अनुभवों में उपयोगिता के ह्रास का नियम समान रूप से कार्य करता है। जो वस्तु प्रारम्भ में सुख देती है वही कुछ समय पश्चात् अत्यन्त दुखदायी भी बन जाती है। भूखे होने पर पहले और पच्चीसवें लड्डू को खाते समय हमारे क्या अनुभव होगें इसका प्रत्यक्ष प्रयोग करके देखा जा सकता है जो इस मूलभूत सत्य को प्रमाणित करेगा कि वैषयिक उपभोग सदा ही दुख के कारण होते हैं।इन्द्रियोपभोग की वस्तुएँ उतनी ही सुन्दर एवं सुखदायक हो सकती हैं जितनी कि कुष्ठ रोगिणी कोई वेश्या जो सौन्दर्य़ प्रसाधनों से सजधज कर किसी व्यापारिक नगरी की अंधेरी संकरी गली में स्थित अपने कोठेमें अनजाने लोगों को लुभाने का प्रयत्न करती खड़ी रहती है। श्रीकृष्ण इस तथ्य को सुन्दर शैली में समझाते हुए कहते हैं कि वैषयिक सुख अनित्य होने के कारण विवेकी पुरुष को मोहित नहीं कर सकते।बुद्धिमान् पुरुष पूर्णत्व प्राप्ति से ही सन्तुष्ट होता है। हम भौतिक परिच्छिन्न वस्तुओं के पीछे अधिक सन्तोष और आनन्द पाने की आशा में दौड़दौड़ कर स्वयं को थका लेते हैं और उस झूठी आशा में न जाने कितने हीन कर्म भी करते हैं। जबकि वास्तविक शुद्ध दिव्य और पूर्ण आनन्द केवल आत्मानुभूति के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।श्रेय मार्ग का एक और प्रतिपक्षी शत्रु है जो सब अनर्थों का कारण तथा दुर्जेय है इसलिये सबके परिहार के लिये प्रयत्नाधिक्य की आवश्यकता है। भगवान् कहते हैं
5.22।। व्याख्या--'ये हि संस्पर्शजा भोगाः'--शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--इन विषयोंसे इन्द्रियोंका रागपूर्वक सम्बन्ध होनेपर जो सुख प्रतीत होता है, उसे 'भोग' कहते हैं। सम्बन्ध-जन्य अर्थात् इन्द्रिय-जन्य भोगमें मनुष्य कभी स्वतन्त्र नहीं है। सुख-सुविधा और मान-बड़ाई मिलनेपर प्रसन्न होना भोग है। अपनी बुद्धिमें जिस सिद्धान्तका आदर है, दूसरे व्यक्तिसे उसी सिद्धान्तकी प्रशंसा सुनकर जो प्रसन्नता होतीहै, सुख होता है, वह भी एक प्रकारका भोग ही है। तात्पर्य यह है कि परमात्माके सिवाय जितने भी प्रकृतिजन्य प्राणी, पदार्थ, परिस्थितियाँ, अवस्थाएँ आदि हैं, उनसे किसी भी प्रकृति-जन्य करणके द्वारा सुखकी अनुभूति करना भोग ही है।शास्त्रनिषिद्ध भोग तो सर्वथा त्याज्य हैं ही, शास्त्र-विहित भोग भी परमात्मप्राप्तिमें बाधक होनेसे त्याज्य ही हैं। कारण कि जडताके सम्बन्धके बिना भोग नहीं होता, जब कि परमात्मप्राप्तिके लिये जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है। 'आद्यन्तवन्तः'--सम्पूर्ण भोग आने-जानेवाले हैं, अनित्य हैं, परिवर्तनशील हैं (गीता 2। 14)। ये कभी एकरूप रह सकते ही नहीं। तात्पर्य है कि इन भोगोंकी स्वयंके साथ किसी भी अंशमें एकता नहीं है। भोग आने-जानेवाले हैं और स्वयं सदा रहनेवाला है। भोग जड हैं और स्वयं चेतन है। भोग विकारी हैं और स्वयं निर्विकार है। भोग आदि-अन्तवाले हैं और स्वयं आदि-अन्तसे रहित है। इसलिये स्वयंको भोगोंसे कभी सुख नहीं मिल सकता। जीव परमात्माका अंश है--'ममैवांशो जीवलोके' (गीता 15। 7), इसलिये उसे परमात्मासे ही अक्षय सुख मिल सकता है--'स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते' (गीता 5। 21)।भोग आने-जानेवाले हैं--इस तरफ ध्यान जाते ही सुख-दुःखका प्रभाव कम हो जाता है। इसलिये 'आद्यन्तवन्तः' पद भोगोंके प्रभावको मिटानेके लिये औषधरूप है।
।।5.22।।ये हीति। स ह्येवं भावयति बाह्यविषयजा भोगाः ( N बाह्यविषयभोगाः) सर्वे दुःखकारणरूपाः तथाविधा अपि अनित्याः।
।।5.22।।विषयेन्द्रियस्पर्शजा ये भोगाः दुःखयोनयः ते दुःखोदर्का आद्यन्तवन्तः अल्पकालवर्तिनो हि उपलभ्यन्ते न तेषु तद्याथात्म्यविद् रमते।
।।5.22।।तत्रैव हेत्वन्तरपरत्वेनोत्तरश्लोकमुदाहरति इतश्चेति। विषयेभ्यः सकाशादिन्द्रियाणीति शेषः। वैराग्यार्थमेव वैषयिकाणि सुखानि दूषयति ये हीति। ननु विषयेन्द्रियसंप्रयोगसंप्रसूतेषु भोगेषु जन्तूनामभिरुचिदर्शनात्कुतस्तेषां दुःखयोनित्वमित्याशङ्क्याविवेकिनां तेष्वासङ्गेऽपि न विवेकिनामित्याह आद्यन्तवन्त इति। यस्मादाधिव्याधिजरामरणादिसहितेभ्यः समागमनादिक्लेशरूपभागिभ्यश्च विषयेन्द्रियसंबन्धेभ्यो भोगाः सुखलवानुभवा जायन्ते तस्मात्ते दुःखहेतवो भवन्तीति योजना। अविद्याकार्यत्वाद्दुःखानां कुतो भोगजन्यत्वमित्याशङ्क्य भोगानामविद्याप्रयुक्तत्वात्तन्निबन्धनत्वं दुःखानां युक्तमित्यभिप्रेत्याह अविद्येति। भोगानां दुःखयोनित्वे मानवमनुभवमुपन्यस्यति दृश्यन्ते हीति। ऐहिकानां भोगानां दुःखनिमित्तत्वेऽपि नामुष्मिकाणां तथात्वमनुभवाभावादित्याशङ्क्यावधारणसामर्थ्यसिद्धमर्थमाह यथेति। पूर्वार्धस्याक्षरार्थमुक्त्वा तात्पर्यार्थमाह नेत्यादिना। इतश्च विषयेभ्यः सकाशादिन्द्रियाणि निवर्तयितव्यानीत्याह न केवलमिति। आद्यन्तवत्त्वे मध्यक्षणवर्तित्वेन क्षणभङ्गुरत्वादुपेक्षणीयत्वं भोगानां सिध्यति। अस्ति हि तेषां क्षणभङ्गुरत्वं क्षणिकविषयाकारमनोवृत्तिव्यङ्ग्यत्वादिति मन्वानः सन्नाह अत इति। बुद्धिपूर्वकारिणां विवेकवतां भोगेषूपेक्षोपलब्धेश्च तेषामाभासत्वं प्रतिभातीत्याह न तेष्विति। प्रतीकोपादानमाद्यमिदं पुनर्व्याख्यानमिति न पुनरुक्तिः। ननु केषांचिद्भोगेष्वभिरुचिरुपलभ्यते तत्राह अत्यन्तेति।
।।5.22।।ननु सुखहेतुविषयाणामपि निवृत्तेः कथं श्रुतमात्रस्य मोक्षस्य ब्रह्मानन्दस्य पुरुषार्थता स्यात् तत्राह ये हीति। प्राकृतेन्द्रियजन्यानां विषयभोगानां आद्यन्तवत्त्वेन दुःखयोनित्वादपुरुषार्थत्वमनर्थत्वमर्थसिद्धं तेन तद्विपरीतत्वाद्ब्रह्मानन्दस्यैव पुरुषार्थत्वमिति विज्ञाय योगिनो बुधस्य तत्रैव प्रवृत्तिस्तदाह न तेषु रमते बुध इति।
।।5.22।।ननु बाह्यविषयप्रीतिनिवृत्तावात्मन्यक्षयसुखानुभवस्तस्मिंश्च सति तत्प्रसादादेव बाह्यविषयप्रीतिनिवृत्तिरितीतरेतराश्रयवशान्नैकमपि सिध्येदित्याशङ्क्य विषयदोषदर्शनाभ्यासेनैव तत्प्रीतिनिवृत्तिर्भवतीति परिहारमाह हि यस्मात् ये संस्पर्शजा विषयेन्द्रियसंबन्धजा भोगाः क्षुद्रसुखलवानुभवाः इह वा परत्र वा रागद्वेषादिव्याप्तत्वेनदुःखयोनय एव ते ते सर्वेऽपि ब्रह्मलोकपर्यन्तं दुःखहेतव एव। तदुक्तं विष्णुपुराणेयावन्तः कुरुते जन्तुः संबन्धान्मनसः प्रियान्। तावन्तोऽस्य निखन्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः।। इति। एतादृशा अपि न स्थिराः किंतु आद्यन्तवन्तः आदिर्विषयेन्द्रियसंयोगोऽन्तश्च तद्वियोग एव तौ विद्येते येषां ते। पूर्वापरयोरसत्त्वान्मध्ये स्वप्नवदाविर्भूताः क्षणिका मिथ्याभूताः। तदुक्तं गौडपादाचार्यैःआदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति। यस्मादेवं तस्मात्तेषु बुधो विवेकी न रमते प्रतिकूलवेदनीयत्वान्न प्रीतिमनुभवति। तदुक्तं भगवता पतञ्जलिनापरिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनःइति। सर्वमपि विषयसुखं दृढमानुश्रविकं च दुःखमेव प्रतिकूलवेदनीयत्वात्। विवेकिनः परिज्ञातेक्लेशादिस्वरूपस्य न त्वविवेकिनः। अक्षिपात्रकल्पो हि विद्वानत्यल्पदुःखलेशेनाप्युद्विजते यथोर्णातन्तुरतिसुकुमारोऽप्यक्षिपात्रे न्यस्तः स्पर्शेन दुःखयति नेतरेष्वङ्गेषु तद्वद्विवेकिन एव मधुविषसंपृक्तान्नभोजनवत्सर्वमपि भोगसाधनं कालत्रयेऽपि क्लेशानुविद्धत्वाद्दुःखं विवेकिनः न मूढस्य बहुविधदुःखसहिष्णोरित्यर्थः। तत्र परिणामतापसंस्कारदुःखैरिति भूतवर्तमानभविष्यत्कालेऽपि दुःखानुविद्धत्वादौपाधिकं दुःखत्वं विषयसुखस्योक्तम्। गुणवृत्तिविरोधाच्चेत्यनेन स्वरूपतोऽपि दुःखत्वं तत्र परिणामश्च तापश्च संस्कारश्च त एव दुःखानि तैरित्यर्थः। इत्यंभूतलक्षणे तृतीया। तथाहि रागानुविद्ध एव सर्वोऽपि सुखानुभवः। नहि तत्र न रज्यति तेन सुखी चेति संभवति। राग एव च पूर्वमुद्भूतः सन्विषयप्राप्त्या सुखरूपेण परिणमते। तस्य च प्रतिक्षणं वर्धमानत्वेन स्वविषयाप्राप्तिनिबन्धनदुःखस्यापरिहार्यत्वाद्दुःखरुपतैव। याहि भोगेष्विन्द्रियाणामुपशान्तिः परितृप्तत्वात्सुखम्। या लौल्यादनुपशान्तिस्तद्दुःखम्। नचेन्द्रियाणां भोगाभ्यासेन वैतृष्णयं कर्तुं शक्यम्। यतो भोगाभ्यासमनु विवर्धन्ते रागाः कौशलानि चेन्द्रियाणाम्। स्मृतिश्चन जातु कामः इत्यादिः। तस्माद्दुःखात्मकरागपरिणामत्वाद्विषयसुखमपि दुःखमेव कार्यकारणयोरभेदादिति परिणामदुःखत्वम्। तथा सुखानुभवकाले तत्प्रतिकूलानि दुःखसाधनानि द्वेष्टि। नानुपहत्य भूतान्युपभोगः संभवतीति भूतानि च हिनस्ति। द्वेषश्च सर्वाणि दुःखसाधनानि मे माभूवन्निति संकल्पविशेषः। नच तानि सर्वाणि कश्चिदपि परिहर्तुं शक्नोति। अतः सुखानुभवकालेऽपि तत्परिपन्थिनं प्रति द्वेषस्य सर्वदैवावस्थितत्वात्तापदुःखं दुष्परिहरमेव। तापो हि द्वेषः। एवंच दुःखसाधनानि परिहर्तुमशक्तो मुह्यति चेति मोहदुःखतापि व्याख्येया। तथाचोक्तं योगभाष्यकारैःसर्वस्य द्वेषानुविद्धश्चेतनाचेतनसाधनाधीनस्तापानुभवः इति। तत्रास्ति द्वेषजः कर्माशयः। सुखसाधनानि च प्रार्थयमानः कायेन वाचा मनसा च परिस्पन्दते। ततः परमनुगृह्णात्युपहन्ति चेति परानुग्रहपीडाभ्यां धर्माधर्मावुपचिनोति। स कर्माशयो लोभान्मोहाच्च भवतीत्येषा तापदुःखतोच्यते। यथा वर्तमानः सुखानुभवः स्वविनाशकाले संस्कारमाधत्ते। सच सुखस्मरणं तच्च रागं सच मनःकायवचनचेष्टां साच पुण्यापुण्यकर्माशयौ तौ च जन्मादीनि संस्कारदुःखता। एवं तापमोहयोरपि संस्कारौ व्याख्येयौ। एवं कालत्रयेऽपि दुःखानुवेधाद्विषयसुखं दुःखमेवेत्युक्त्वा स्वरूपतोऽपि दुःखतामाह गुणवृत्तिविरोधाच्च गुणाः सत्त्वरजस्तमांसि सुखदुःखमोहात्मकाः परस्परविरुद्धस्वभावा अपि तैलवर्त्यग्नय इव दीपं पुरुषभोगोपयुक्तत्वेन त्र्यात्मकमेकं कार्यमारभन्ते। तत्रैकस्य प्राधान्ये द्वयोर्गुणभावात्प्रधानमात्रव्यपदेशेन सात्त्विकं राजसं तामसमिति त्रिगुणमपि कार्यमेकेन गुणेन व्यपदिश्यते। तत्र सुखोपभोगरूपोऽपि प्रत्यय उद्भूतसत्त्वकार्यत्वेऽप्यनुद्भूतरजस्तमःकार्यत्वात्ित्रगुणात्मक एव। तथाच सुखात्मकत्ववद्दुःखात्मकत्वं विषादात्मकत्वं च तस्य ध्रुवमिति दुःखमेव सर्वं विवेकिनः। नचैतादृशोऽपि प्रत्ययः स्थिरः। यस्माच्चलं च गुणवृत्तमिति क्षिप्रपरिणामि चित्तमुक्तम्। नन्वेकः प्रत्ययः कथं परस्परविरुद्धसुखदुःखमोहत्वान्येकदा प्रतिपद्यत इति चेत् न। उद्भूतानुद्भूतयोर्विरोधाभावात्। समवृत्तिकानामेव हि गुणानां युगपद्विरोधो न विषमवृत्तिकानाम्। यथा धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्याणि लब्धवृत्तिकानि लब्धवृत्तिकैरेवाधर्माज्ञानावैराग्यानैश्वर्यैः सह विरुध्यन्ते नतु स्वरूपसद्भिः। प्रधानस्य प्रधानेन सह विरोधो नतु दुर्बलेनेति हि न्यायः। एवं सत्त्वरजस्तमांस्यपि परस्परं प्राधान्यमात्रं युगपन्न सहन्ते नतु सद्भावमपि। एतेन परिणामतापसंस्कारदुःखेष्वपि रागद्वेषमोहानां युगपत्सद्भावो व्याख्यातः प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाररूपेण क्लेशानां चतुरवस्थत्वात्। तथाहिअविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः। अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छन्नोदाराणाम्। अनित्याशुचिदुःखानामत्सु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या। दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतैवास्मिता। सुखानुशयी रागः। दुःखानुशयी द्वेषः। स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूढोऽभिनिवेशः। ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः। ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः। क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः। सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः इति पातञ्जलानि सूत्राणि। तत्रातस्मिंस्तद्बुद्धिर्विपर्ययो मिथ्याज्ञानमविद्येति पर्यायाः। तत्राशेषसंसारनिदानम्। तत्रानित्ये नित्यबुद्धिर्यथा ध्रुवा पृथिवी ध्रुवा सचन्द्रतारका द्यौरमृता दिवौकस इति। अशुचौ परमबीभत्से काये शुचिबुद्धिर्यथा नवेव शशाङ्कलेखा कमनीयेयं कन्या मध्वमृतावयवनिर्मितेव चन्द्रं भित्त्वा निःसृतेव ज्ञायते नीलोत्पलपत्रायताक्षी हावगर्भाभ्यां लोचनाभ्यां जीवलोकमाश्वासयतीवेति कस्य केन संबन्धः स्थानाद्बीजादुपष्टम्भान्निष्यन्दान्निधनादपि। कायमाधेयशौचत्वात्पण्डिता ह्यशुचिं विदुः।। इति च वैयासकः श्लोकः। एतेनापुण्ये पुण्यप्रत्ययोऽनर्थे चार्थप्रत्ययो व्याख्यातः। दुःखे सुखख्यातिरुदाहृतापरिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः इति। अनात्मन्यात्मख्यातिर्यथा शरीरे मनुष्योऽहमित्यादिः। इयं चाविद्या सर्वक्लेशमूलभूता तम इत्युच्यते। बुद्धिपुरुषयोरभेदाभिमानोऽस्मिता मोहः। साधनरहितस्यापि सर्वं सुखजातीयं मे भूयादिति विपर्ययविशेषो रागः। सएव महामोहः। दुःखसाधने विद्यामानेऽपि किमपि दुःखं मे माभूदिति विपर्ययविशेषो द्वेषः। स तामिस्रः। आयुरभावेऽप्येतैः शरीरेन्द्रियादिभिरनित्यैरपि वियोगो मे माभूदित्यविद्वदङ्गनाबालं स्वाभाविकः सर्वप्राणिसाधरणो मरणत्रासरूपो विपर्ययविशेषोऽभिनिवेशः। सोऽन्धतामिस्रः। तदुक्तं पुराणेतमो मोहो महामोहस्तामिस्रो ह्यन्धसंज्ञितः। अविद्या पञ्चपर्वैषा प्रादुर्भूता महात्मनः।। इति। एते च क्लेशाश्चतुरवस्था भवन्ति। तत्रासतोऽनुत्पत्तेरनभिव्यक्तरूपेणावस्थानं सुप्तावस्था। अभिव्यक्तस्यापि सहकार्यलाभभावात्कार्याजनकत्वं तन्ववस्था। अभिव्यक्तस्य जनितकार्यस्यापि केनचिद्बलवताभिभवो विच्छेदावस्था। अभिव्यक्तस्य प्राप्तसहकारिसंपत्तेरप्रतिबन्धेन स्वकार्यकरत्वमुदारावस्था। एतादृगवस्थाचतुष्टयविशिष्टानामस्मितादीनां चतुर्णां विपर्ययरूपाणां क्लेशानामविद्यैव सामान्यरूपा क्षेत्रं प्रसवभूमिः। सर्वेषामपि विपर्ययरूपत्वस्य दर्शितत्वात्। तेनाविद्यानिवृत्त्यैव क्लेशानां निवृत्तिरित्यर्थः। ते च क्लेशाः प्रसुप्ता यथा प्रकृतिलीनानां तनवः प्रतिपक्षभावनया तनूकृता यथा योगिनाम्। त उभयेऽपि सूक्ष्माः प्रतिप्रसवेन मनोनिरोधेनैव निर्बीजसमाधिना हेयाः। ये तु सूक्ष्मवृत्तयस्तत्कार्यभूताः स्थूला विच्छिन्ना उदाराश्च विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मना पुनः प्रादुर्भवन्तीति विच्छिन्नाः। यथा रागकाले क्रोधो विद्यमानोऽपि न प्रादुर्भूत इति विच्छिन्न उच्यते। एवमेकस्यां स्त्रियां चैत्रो रक्त इति नान्यासु विरक्तः किंत्वेकस्यां रागो लब्धवृत्तिरन्यासु च भविष्यद्वृत्तिरिति स तदा विच्छिन्न उच्यते। ये यदा विषयेषु लब्धवृत्तयस्ते तदा सर्वात्मना प्रादुर्भूता उदारा उच्यन्ते। तत उभयेऽप्यतिस्थूलत्वाच्छुद्धसत्त्वमयेन भगवद्व्यानेन हेया न मनोनिरोधमपेक्षन्ते। निरोधहेयास्तु सूक्ष्मा एव। तथाच परिणामतापसंस्कारदुःखेषु प्रसुप्ततनुविच्छिन्नरूपेण सर्वे क्लेशाः सर्वदा सन्ति। उदारता तु कादाचित्की स्यादिति विशेषः। एते च बाधनालक्षणं दुःखमुपजनयन्तः क्लेशशब्दवाच्या भवन्ति। यतः कर्माशयो धर्माधर्माख्यः क्लेशमूलक एव। सति च मूलभूते क्लेशे तस्य कर्माशयस्य विपाकः फलं जन्मायुर्भोगश्चेति। सच कर्माशय इह परत्र च स्वविपाकारम्भकत्वेन दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः। एवं क्लेशसंततिर्घटीयन्त्रवदनिशमावर्तते। अतः समीचीनमुक्तंये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः इति। दुःखयोनित्वं परिणामादिभिर्गुणवृत्तिविरोधाच्च आद्यन्तवत्त्वं गुणवृत्तस्य चलत्वादिति योगमते व्याख्या। औपनिषदानां तु अनादिभावरूपज्ञानमविद्या। अहंकारधर्म्यध्यासोऽस्मिता। रागद्वेषाभिनिवेशास्तद्वृत्तिविशेषा इत्यविद्यामूलत्वात्सर्वेऽप्यविद्यात्मकत्वेन मिथ्याभूता रज्जुभुजङ्गाध्यासवन्मिथ्यात्वेऽपि दुःखयोनयः स्वप्नादिवद्दृष्टिसृष्टिमात्रत्वेनाद्यन्तवन्तश्चेति बुधोऽधिष्ठानसाक्षात्कारेण निवृत्तभ्रमस्तेषु न रमते। मृगतृष्णिकास्वरूपज्ञानवानिव तत्रोदकार्थी न प्रवर्तते। न संसारे सुखस्य गन्धमात्रमप्यस्तीति बुद्ध्वा ततः सर्वाणीन्द्रियाणि निवर्तयेदित्यर्थः।
।।5.22।।ननु प्रियविषयभोगानामपि निवृत्तेः कथं मोक्षः पुरुषार्थः स्यात्तत्राह ये हीति। संस्पृश्यन्त इति संस्पर्शा विषयास्तेभ्यो जाता ये भोगाः सुखानि ते हि वर्तमानकालेऽपि स्पर्धासूयादिव्याप्तत्वाद्दुःखस्यैव योनयः कारणभूतास्तथादिमन्तोऽन्तवन्तश्च। अतो वेकी तेषु न रमते।
।।5.22।।अनादिकालं बाह्यस्पर्शरसिकस्य तत्परित्यागः कथम् इत्याकाङ्क्षायामार्जनरक्षणादिदोषदर्शनात्तत्रोपरमः शक्य इतिये हि इत्यादिश्लोकेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाहप्राकृतस्येति।संस्पर्शजाः इत्यनेनाभिप्रेतमौपाधिकत्वं व्यञ्जयतिविषयेन्द्रियस्पर्शजा इति। स्पर्शोऽत्र सम्बन्धमात्रम्। एतेन सुखस्वरूपस्य क्षुद्रत्वमुक्तम्।दुःखयोनयः इत्यत्र तत्पुरुषविवक्षां दर्शयितुंदुःखोदर्का इत्युक्तम्। संस्पर्शजत्वात्परलोकेऽपि दुःखयोनित्वं स्वध्यवसानमित्येवकाराभिप्रायः। न खलु हिरण्यगर्भभोगादभ्यधिकः प्राकृतभोगोऽस्ति सोऽपि स्वमानेन शतसंवत्सरपरिमिततया मानुषादिसम इति दर्शयितुंअल्पकालवर्तिन इत्युक्तम्। क्षणरुचिबुद्बुदादिष्विवावान्तरस्थितिकालवैषम्यम् आद्यन्तवत्त्वविशिष्टमिति भावः। एवंसंस्पर्शजाः इत्यादिविशेषणत्रयेण अल्पत्वदुःखमिश्रत्वान्तवत्त्वानि दर्शितानि। प्रत्यक्षसिद्धेषु दोषेषु निपुणस्य किमुपदेशापेक्षयेति दर्शयितुंउपलभ्यन्त इत्युक्तम्। बुधशब्देनात्र पञ्चविधोपरमोपयुक्तविवेकज्ञानवत्त्वं विवक्षितमिति दर्शयितुंतद्याथात्म्यविदित्युक्तम्। न तेषु रमते किन्तु क्रमादुपरमत इति भावः। सागरतरणराजसेवादिषु शरीरविनाशपर्यन्ता आर्जनदोषाः। सहस्रप्राकारपरिवृतगर्भगृहे निवेशितस्यापि रक्ष्यवस्तुनो राजदहनचोरमूषिकादयस्तन्निवारणक्लेशादयश्च रक्षणदोषाः।स्वर्गेऽपि पातभीतस्य क्षयिष्णोर्नास्ति निर्वृतिः वि.पु.6।5।50 इत्यादयः क्षयदोषाः।न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते भाग.9।19।14म.भा.1।85।12वि.पु.4।10।22अलाभे मत्तकाशिन्या दृष्टा तिर्यक्षु कामिता इत्यादिवदुत्तरोत्तररागप्रबन्धानर्थहेत्वयोग्यविषयप्रवृत्त्यादयो भोगदोषाः। सर्वस्य चास्य प्रायशः परहिंसागर्भत्वात्तदधीना ऐहिकामुष्मिकदुःखसन्ततयो हिंसादोषाः। पञ्चविधाश्चैते दोषाः प्रत्यक्षादिसिद्धा इति तद्भावनावतां प्राकृतस्यानादिकालशीलितस्यापि सुत्यजत्वं सिद्धमिति भावः। उक्तं च तुष्टिप्रकरणे साङ्ख्यैरपिबाह्या विषयोपरमात्पञ्च सां.का.50 इति।
।।5.22।।ननु लौकिकरसभोगाभावेऽनुभवं विना कथमलौकिकरसज्ञानं स्यात् तदभावे च कथं तदनुभवःस्यात् इत्यत आह ये हि संस्पर्शजा इति। संस्पर्शजा भोगा विषयसम्बन्धिनो लौकिकार्थे भोगास्ते दुःखयोनयो भगवत्सम्बन्धाभावक्लेशकारणभूताः यत आद्यन्तवन्तः आदिमन्तः स्वभावेनैवोत्पन्नाः नतु भगवदिच्छया। अन्तवन्तः स्वमनोरथपूर्त्यैव पूर्णाः। यतस्त एव तादृशा अतो हे कौन्तेय मद्भावानुभवयोग्य हीति निश्चयेन। बुधः सर्वरसज्ञो भगवान् न रमते न रसदानं करोतीत्यर्थः। यतो भगवान् बुधः सर्वरसज्ञः अतस्तदिच्छया तद्भोगानुभवः सिद्ध एव भविष्यतीति भावः।
।।5.22।।ननु सुषुप्तितुल्यस्य मोक्षसुखस्यार्थे कः प्राप्तमेव बाह्यं दिव्यस्त्र्यन्नपानगीतवाद्यादिसुखं त्यजेदित्याशङ्क्य बाह्यसुखमनित्यत्वान्निन्दति ये हीति। संस्पर्शजा विषयसंबन्धजाः। दुःखयोनित्वे हेतुः आद्यन्तवन्त इति। जाते पुत्रे यत्सुखं तत्तस्मिन्नष्टे नश्यति दुःखं च महत्प्रयच्छतीति तेषु भोगेषु बुधः परिपाकदर्शी न रमते।
।।5.22।।विषयेष्वसक्ततां संपादयेदित्युक्तं तत् भोगानां दुःखरुपत्वप्रतिपादनेन द्रढयति ये हीति। ये हि यस्माद्विषयेन्द्रियसंस्पर्शेभ्यो जाता भोगास्ते दुःखानामाध्यात्मिकादीनां योनयः कारणानि। अविद्यावृतत्वात्। एवकारात्संसारे सुखस्य गन्धमात्रमपि नास्तीति ज्ञात्वा शुक्तिरजतनिमेभ्यो भोगेभ्यो इन्द्रियाणि निवर्तयेत्। न केवलं दुःख योनय एवापि त्वाद्यन्तवन्तश्च आदिर्विषयेन्द्रियसंयोगो भोगानामन्तश्च एतद्वियोगएव। तस्माद्बुधो विवेकी दृग्दृश्यतत्त्ववित् तेषु भोगेषु न रमते। तदुक्तं वासिष्ठेसंपदः प्रमदाश्चैव तरङ्गोत्सङ्गभङ्गुराः। कस्तास्वहिफणाच्छत्रच्छायासु रमते बुधः इति। कौन्तेयेति संबोधयन् स्त्रीस्वभावोऽदीर्घदर्श्यत्यन्तमूढ एव भोगेषु रमते इति ध्वनयति। यद्वा विषयेषु रतिरहितायाः कुन्त्याः पुत्रस्त्वं तेषु रन्तुभयोग्योऽसीति सूचयति।
5.22 ये which? हि verily? संस्पर्शजाः contactborn? भोगाः enjoyments? दुःखयोनयः generators of pain? एव only? ते they? आद्यन्तवन्तः having beginning and end? कौन्तेय O Kaunteya? न not? तेषु in those? रमते rejoices? बुधः the wise.Commentary Man goes in est of joy and searches in the external perishable objects for his happiness. He fails to get it but instead he carries a load of sorrow on his head.You should withdraw the senses from the senseobjects as there is no trace of happiness in them and fix the min on the immortal? blissful Self within. The senseobjects have a beginning and an end. Separation from the senseobjects gives you a lot of pain. During the interval between the origin and the end you experience a hollow? momentary? illusory pleasure. This fleeting pleasure is due to Avidya or ignorance. Even in the other world you will have the same experience. He who is endowed with discrimination or the knowledge of the Self will never rejoice in these sensual objects. Only ignorant persons who are passionate will rejoice in the senseobjects. (Cf.II.14?XVIII.38)
5.22 The enjoyments that are born of contacts are only generators of pain, for they have a beginning and an end, O Arjuna; the wise man does not rejoice in them.
5.22 The joys that spring from external associations bring pain; they have their beginning and their endings. The wise man does not rejoice in them.
5.22 Since enjoyments that result from contact (with objects) are verily the sources of sorrow and have a beginning and an end, (therefore) O son of Kunti, the wise one does not delight in them.
5.22 Hi, since; bhogah, enjoyments; ye samsparsajah, that result from contact with objects, that arise from contact between the objects and the organs; are eva, verily; duhkha-yonayah, sources of sorrow, because they are creations of ignorance. It is certainly a matter of experience that physical and other sorrows are created by that itself. By the use of the word eva (verily), it is understood that, as it happens here in this world, so does it even in the other world. Realizing that there is not the least trace of happiness in the world, one should withdraw the organs from the objects which are comparable to a mirage. Not only are they sources of sorrow, they also adi-antavantah, have a beginning and an end. Adi (beginning) of enjoyments consists in the contact between objects and senses, and their end (anta), indeed, is the loss of that contact. Hence, they have a beginning and an end, they are impermanent, being present in the intervening moment. This is the meaning. (Therefore) O son of Kunti, budhah, the wise one, the discriminating person who has realized the Reality which is the supreme Goal; na ramate, does not delight; tesu, in them, in enjoyments. For delight in objects is seen only in very foolish beings, as for instance in animals etc. This extremely painful evil, which is opposed to the path of Bliss and is the source of getting all miseries, is difficult to resist. Therefore one must make the utmost effort to avoid it. Hence the Lord says:;
5.22. Whosoever, right here, before abandoning the body, is capable of bearing the force sprung from desire and wrath-he is considered to be a man of Yoga and a happy man.
5.22 Ye hi etc. He considers indeed as follows : 'All enjoyments born of the external objects are in the form of causes of misery; and even otherwise , they are impermanent'.
5.22 Those pleasures which result from the contact of sense objects with the senses, are the wombs of pain, i.e., have pain as their ultimate fruit 'They have a beginning and an end,' i.e., they are seen to remain only for a brief period and the reaction that follows their cessation is painful. He who knows what they themselves are, i.e., know themselves as Atman, will not find pleasure in them.
5.22 For those pleasures that are born of contact are wombs or pain. They have a beginning and an end, O Arjuna. The wise do not rejoice in them.
।।5.22।।इसलिये भी ( इन्द्रियोंको विषयोंसे ) हटा लेना चाहिये क्योंकि विषय और इन्द्रियोंके सम्बन्धसे उत्पन्न जो भोग हैं वे सब अविद्याजन्य होनेसे केवल दुःखके ही कारण हैं क्योंकि आध्यात्मिक आदि ( तीनों प्रकारके ) दुःख उनके ही निमित्तसे होते हुए देखे जाते हैं। एव शब्दसे यह भी प्रकट होता है कि ये जैसे इस लोकमें दुःखप्रद हैं वैसे ही परलोकमें भी दुःखद हैं। संसारमें सुखकी गन्धमात्र भी नहीं है यह समझकर विषयरूप मृगतृष्णिकासे इन्द्रियोंको हटा लेना चाहिये। ये विषयभोग केवल दुःखके कारण हैं इतना ही नहीं किंतु ये आदिअन्तवाले भी हैं विषय और इन्द्रियोंका संयोग होना भोगोंका आदि है और वियोग होना ही अन्त है। इसलिये जो आदिअन्तवाले हैं वे केवल बीचके क्षणमें ही प्रतीतिवाले होनेसे अनित्य हैं। हे कौन्तेय परमार्थतत्त्वको जाननेवाला विवेकशील बुद्धिमान् पुरुष उन भोगोंमें नहीं रमा करता। क्योंकि केवल अत्यन्त मूढ़ पुरुषोंकी ही पशु आदिकी भाँति विषयोंमें प्रीति देखी जाती है। कल्याणके मार्गका प्रतिपक्षी यह ( कामक्रोधका वेगरूप ) दोष ब़ड़ा दुःखदायक है सब अनर्थोंकी प्राप्तिका कारण है और निवारण करनेमें अति कठिन भी है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि इसको नष्ट करनेके लिये खूब प्रयत्न करना चाहिये।
।।5.22।। ये हि यस्मात् संस्पर्शजाः विषयेन्द्रियसंस्पर्शेभ्यो जाताः भोगा भुक्तयः दुःखयोनय एव ते अविद्याकृतत्वात्। दृश्यन्ते हि आध्यात्मिकादीनि दुःखानि तन्निमित्तान्येव। यथा इहलोके तथा परलोकेऽपि इति गम्यते एवशब्दात्। न संसारे सुखस्य गन्धमात्रमपि अस्ति इति बुद्ध्वा विषयमृगतृष्णिकाया इन्द्रियाणि निवर्तयेत्। न केवलं दुःखयोनय एव आद्यन्तवन्तश्च आदिः विषयेन्द्रियसंयोगो भोगानाम् अन्तश्च तद्वियोग एव अतः आद्यन्तवन्तः अनित्याः मध्यक्षणभावित्वात् इत्यर्थः। कौन्तेय न तेषु भोगेषु रमते बुधः विवेकी अवगतपरमार्थतत्त्वः अत्यन्तमूढानामेव हि विषयेषु रतिः दृश्यते यथा पशुप्रभृतीनाम्।।अयं च श्रेयोमार्गप्रतिपक्षी कष्टतमो दोषः सर्वानर्थप्राप्तिहेतुः दुर्निवारश्च इति तत्परिहारे यत्नाधिक्यं कर्तव्यम् इत्याह भगवान्
।।5.22।।ननूत्तरश्लोके सन्न्यासादित्रितयान्तर्गतं न किञ्चिदुच्यत इत्यत आह सन्न्यासार्थमिति। निन्दयतीति स्वार्थे णिच्। सन्न्यासार्थिनेति वा।
।।5.22।।सन्न्यासार्थं कामभोगं निन्दयति येहीति।
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।5.22।।
যে হি সংস্পর্শজা ভোগা দুঃখযোনয এব তে৷ আদ্যন্তবন্তঃ কৌন্তেয ন তেষু রমতে বুধঃ৷৷5.22৷৷
যে হি সংস্পর্শজা ভোগা দুঃখযোনয এব তে৷ আদ্যন্তবন্তঃ কৌন্তেয ন তেষু রমতে বুধঃ৷৷5.22৷৷
યે હિ સંસ્પર્શજા ભોગા દુઃખયોનય એવ તે। આદ્યન્તવન્તઃ કૌન્તેય ન તેષુ રમતે બુધઃ।।5.22।।
ਯੇ ਹਿ ਸਂਸ੍ਪਰ੍ਸ਼ਜਾ ਭੋਗਾ ਦੁਖਯੋਨਯ ਏਵ ਤੇ। ਆਦ੍ਯਨ੍ਤਵਨ੍ਤ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਨ ਤੇਸ਼ੁ ਰਮਤੇ ਬੁਧ।।5.22।।
ಯೇ ಹಿ ಸಂಸ್ಪರ್ಶಜಾ ಭೋಗಾ ದುಃಖಯೋನಯ ಏವ ತೇ. ಆದ್ಯನ್ತವನ್ತಃ ಕೌನ್ತೇಯ ನ ತೇಷು ರಮತೇ ಬುಧಃ৷৷5.22৷৷
യേ ഹി സംസ്പര്ശജാ ഭോഗാ ദുഃഖയോനയ ഏവ തേ. ആദ്യന്തവന്തഃ കൌന്തേയ ന തേഷു രമതേ ബുധഃ৷৷5.22৷৷
ଯେ ହି ସଂସ୍ପର୍ଶଜା ଭୋଗା ଦୁଃଖଯୋନଯ ଏବ ତେ| ଆଦ୍ଯନ୍ତବନ୍ତଃ କୌନ୍ତେଯ ନ ତେଷୁ ରମତେ ବୁଧଃ||5.22||
yē hi saṅsparśajā bhōgā duḥkhayōnaya ēva tē. ādyantavantaḥ kauntēya na tēṣu ramatē budhaḥ৷৷5.22৷৷
யே ஹி ஸஂஸ்பர்ஷஜா போகா துஃகயோநய ஏவ தே. ஆத்யந்தவந்தஃ கௌந்தேய ந தேஷு ரமதே புதஃ৷৷5.22৷৷
యే హి సంస్పర్శజా భోగా దుఃఖయోనయ ఏవ తే. ఆద్యన్తవన్తః కౌన్తేయ న తేషు రమతే బుధః৷৷5.22৷৷
5.23
5
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।।5.23।। इस मनुष्य-शरीरमें जो कोई (मनुष्य) शरीर छूटनेसे पहले ही काम-क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले वेगको सहन करनेमें समर्थ होता है, वह नर योगी है और वही सुखी है।
।।5.23।। जो मनुष्य इसी लोक में शरीर त्यागने के पूर्व ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है,  वह योगी (युक्त) और सुखी मनुष्य है।।
।।5.23।। भगवान् स्वयं अनुभव करते हैं कि उनके द्वारा ज्ञानी पुरुष का कुछ अत्यधिक उत्साह से किया हुआ वर्णन साधकों को असम्भव सा प्रतीत हो सकता है। कारण यह है कि मनुष्य़ का वर्तमान जीवन इतना अधिक दुखपूर्ण और परावलम्बी है कि साधारण मनुष्य पूर्ण आनन्द के जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। यदि कोई दर्शन ऐसा आदर्शवादी है जिसका हमारे व्यवहारिक जगत् से कोई सम्बन्ध ही न हो तो वह केवल एक मनोरंजक कल्पना तो हो सकता है परन्तु मनुष्य को श्रेष्ठतर बनाने की सार्मथ्य उसमें नहीं होगी।ऐसी त्रुटिपूर्ण धारणा को दूर करने के लिये श्रीकृष्ण सभी साधकों को यह कह कर आश्वस्त करते हैं कि आवश्यक प्रयत्नों के द्वारा इस आनन्दपूर्ण जीवन को इसी लोक में रहकर जिया जा सकता है।मेरे पितामह एक महान् वीणा वादक थे। आज तक उनकी वीणा घर में सुरक्षित रखी है। संगीत से मेरा भी प्रारम्भिक परिचय होने के कारण एक दिन अचानक मेरे मन में विचार आया कि क्यों न पितामह की वीणा का उपयोग कर रातोंरात महान् संगीतज्ञ बना जाय यह विचार करके यदि उस वीणा को मैं उसी स्थिति में बजाने का प्रयत्न करूँ तो उसमें से शुद्ध संगीत नहीं सुनाई पड़ सकता और हो सकता है कि उसके साथ अधिक खिलवाड़ करने से वह टूट ही जाय। उस वाद्य का उपयोग करने से पूर्व आवश्यकता है उसे स्वच्छ करने की उसके तार बदलने की और उसे स्वर में मिलाने की। इन सबके सुव्यवस्थित होने पर उसी वीणा पर मधुर संगीत सुना जा सकता है। ठीक इसी प्रकार अनादि काल से उपेक्षित हमारा अन्तकरण इस योग्य नहीं रहा है कि पूर्णत्व के गान को वह गा सके। अब हमको चाहिये कि साधनाभ्यास से उसे शुद्ध और सुव्यवस्थित करें जिससे उसमें पूर्ण आनन्द की अनुभूति हो और वह आनन्द उसके माध्यम से व्यक्त हो सके।अन्तकरण को पुर्नव्यवस्थित करने की विधि का वर्णन यहाँ भगवान् संक्षेप में किन्तु सुन्दर ढंग से कर रहे हैं। कभीकभी उनके कथन की संक्षिप्तता और सरलता ही उनके गम्भीर अभिप्राय को समझने में बाधक सी बन जाती है। उनके उपदेश में सरलता का आभास होता है परन्तु अर्थ गाम्भीर्य रहता है। काम और क्रोध के वेग को सहन करो और फिर वह व्यक्ति इसी जगत् और जीवन में योगी और सुखी है।सिगमण्ड फ्रायड के आधुनिक विद्यार्थियों तथा अन्य पुरुषों को भगवान् का कथन अवैज्ञानिक और रुक्ष उत्साह का प्रतीक प्रतीत हो सकता है। इसका कारण केवल यही है कि मानव व्यवहार तथा मनोविज्ञान की सतही बातों से उनके मन में अनेक धारणाएँ बन चुकी होती हैं पूर्वाग्रह दृढ़ हो गये होते हैं। परन्तु उक्त विचार की सम्यक् समीक्षा करने पर हम देखेंगे कि उसमें जीवन को सुखपूर्ण बनाने के लिए अत्यन्त उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।बुद्धिरूपी पर्वत शृंग से नीचे की ओर तीव्रगति से सरकती हुई विचारों की हिमराशि का नाम है कामना जो हृदय रूपी घाटियों से गुजरती हुई बाह्य जगत् में स्थित प्रिय विषय की ओर अग्रसर होती है। जब विचाररूपी हिमराशि के फिसलन मार्ग पर शक्तिशाली अवरोधक लगा दिया जाता है तब उस अवरोधक तक शीघ्र ही पहुँचकर छिन्नभिन्न होकर वह आत्मविनाश का रूप धारण करती है जिसे कहते हैं क्रोध। काम और क्रोध यही दो वृत्तियां है जो साधारणत हमारे मन में अत्यन्त विक्षेप या क्षोभ उत्पन्न करती हैं। कामना की तीव्रता जितनी अधिक होती है उसमें विघ्न आने पर क्रोध का रूप भी उतना भयंकर होता है।मनुष्य विषयों की कामना केवल सुखप्राप्ति के लिये ही करता है। जिस व्यक्ति ने यह समझ लिया कि विषयों में सुख नहीं होता और आनन्द तो स्वयं का आत्मस्वरूप ही है वह व्यक्ति इन उपभोगों से विरक्त होकर स्वरूप में स्थित होने का प्रयत्न करेगा। ऐसे व्यक्ति के मन में विषयों की कामनाएँ नहीं होंगी और स्वाभाविक है कि उनके अभाव में क्रोध उत्पन्न होने के लिए कारण ही नहीं रह जायेगा। जिसने इन दो शक्तिशाली एवं दुर्जेय वृत्तियों को अपने वश में कर लिया है वही एक पुरुष इस जगत् के प्रलोभनों में स्वतन्त्ररूप से अप्रभावित रह सकता है। वही वास्तव में सुखी पुरुष है।अर्जुन के माध्यम से भगवान् का हम सबके लिये यही उपदेश है कि हमें काम और क्रोध को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। उनका आश्वासन है कि इन पर विजय प्राप्त करने पर हम इसी जगत् और जीवन में परमानन्द का अनुभव कर सकते हैं।किन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ब्रह्म में स्थित होता है भगवान् कहते हैं
5.23।। व्याख्या--'शक्नोतीहैव यः ৷৷. कामक्रोधोद्भवं वेगम्'--प्राणिमात्रको एक अलौकिक विवेक प्राप्त है। यह विवेक पशु-पक्षी आदि योनियोंमें प्रसुप्त रहता है। उनमें केवल अपनी-अपनी योनिके अनुसार शरीर-निर्वाहमात्रका विवेक रहता है। देव आदि योनियोंमें यह विवेक ढका रहता है; क्योंकि वे योनियाँ भोगोंके लिये मिलती हैं; अतः उनमें भोगोंकी बहुलता तथा भोगोंका उद्देश्य रहता है। मनुष्ययोनिमें भी भोगी और संग्रही मनुष्यका विवेक ढका रहता है। ढके रहनेपर भी यह विवेक मनुष्यको समय-समयपर भोग और संग्रहमें दुःख एवं दोषका दर्शन कराता रहता है। परन्तु इसे महत्त्व न देनेके कारण मनुष्य भोग और संग्रहमें फँसा रहता है। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह इस विवेकको महत्त्व देकर इसे स्थायी बना ले। इसकी उसे पूर्ण स्वतन्त्रता है। विवेकको स्थायी बनाकर वह राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारोंको सर्वथा समाप्त कर सकता है। इसलिये भगवान् 'इह' पदसे मनुष्यको सावधान करते हैं कि अभी उसे ऐसा दुर्लभ अवसर प्राप्त है, जिसमें वह काम-क्रोधपर विजय प्राप्त करके सदाके लिये सुखी हो सकता है।मनुष्य-शरीर मुक्त होनेके लिये ही मिला है। इसलिये मनुष्यमात्र काम-क्रोधका वेग सहन करनेमें योग्य, अधिकारी और समर्थ है। इसमें किसी वर्ण, आश्रम आदिकी उपेक्षा भी नहीं है।मृत्युका कुछ पता नहीं कि कब आ जाय; अतः सबसे पहले काम-क्रोधके वेगको सहन कर लेना चाहिये। काम-क्रोधके वशीभूत नहीं होना है--यह सावधानी जीवनभर रखनी है। यह कार्य मनुष्य स्वयं ही कर सकता है, कोई दूसरा नहीं। इस कार्यको करनेका अवसर मनुष्य-शरीरमें ही है, दूसरे शरीरोंमें नहीं। इसलिये शरीर छूटनेसे पहले-पहले ही यह कार्य जरूर कर लेना चाहिये--यही भाव इन पदोंमें है।उपर्युक्त पदोंसे एक भाव यह भी लिया जा सकता है कि काम-क्रोधके वशीभूत होकर शरीर क्रिया करने लगे--ऐसी स्थितिसे पहले ही उनके वेगको सह लेना चाहिये। कारण कि काम-क्रोधके अनुसार क्रिया आरम्भ होनेके बाद शरीर और वृत्तियाँ अपने वशमें नहीं रहतीं।भोगोंको पानेकी इच्छासे पहले उनका संकल्प होता है। वह संकल्प होते ही सावधान हो जाना चाहिये कि मैं तो साधक हूँ, मुझे भोगोंमें नहीं फँसना है; क्योंकि यह साधकका काम नहीं है। इस तरह संकल्प उत्पन्न होते ही उसका त्याग कर देना चाहिये।पदार्थोंके प्रति राग (काम) रहनेके कारण 'अमुक पदार्थ सुन्दर और सुखप्रद हैं' आदि संकल्प उत्पन्न होते हैं। संकल्प उत्पन्न होनेके बाद उन पदार्थोंको प्राप्त करनेकी कामना उत्पन्न हो जाती है, और उनकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंके प्रति क्रोध उत्पन्न होता है। काम-क्रोधके वेगको सहन करनेका तात्पर्य है--काम-क्रोधके वेगको उत्पन्न ही न होने देना। काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होनेके बाद वेग आता है और वेग आनेके बाद काम-क्रोधको रोकना कठिन हो जाता है, इसलिये काम-क्रोधके संकल्पको उत्पन्न न होने देनेमें ही उपर्युक्त पदोंका भाव प्रतीत होता है। कारण यह है कि काम-क्रोधका संकल्प उत्पन्न होनेपर अन्तःकरणमें अशान्ति, उत्तेजना, संघर्ष आदि होने लग जाते हैं, जिनके रहते हुए मनुष्य सुखी नहीं कहा जा सकता। परन्तु इसी श्लोकमें 'स सुखी' पदोंसे काम-क्रोधका वेग सहनेवाले मनुष्यको 'सुखी' बताया गया है। दूसरी बात यह है कि काम-क्रोधके वेगको मनुष्य अपनेसे शक्तिशाली पुरुषके सामने भयसे भी रोक सकता है अथवा व्यापारमें आमदनी होती देखकर लोभसे भी रोक सकता है। परन्तु इस प्रकार भय और लोभके कारण काम-क्रोधका वेग सहनेसे वह सुखी नहीं हो जाता; क्योंकि वह जैसे क्रोधमें फँसा था, ऐसे ही भय और लोभमें फँस गया। तीसरी बात यह है कि इस श्लोकमें 'युक्तः' पदसे काम-क्रोधका वेग सहनेवाले व्यक्तिको योगी कहा गया है; परन्तु संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं होता (गीता 6। 2)। इसलिये काम-क्रोधके वेगको रोकना अच्छा होते हुए भी साधकके लिये इनके संकल्पको उत्पन्न न होने देना ही उचित है। काम-क्रोधके संकल्पको रोकनेका उपाय है अपनेमें काम-क्रोधको न मानना। कारण कि हम (स्वयं) रहनेवाले हैं और काम-क्रोध आने-जानेवाले हैं। इसलिये वे हमारे साथ रहनेवाले नहीं हैं। दूसरी बात, हम काम-क्रोधको अपनेसे अलगरूपसे भी जानते हैं। जिस वस्तुको हम अलगरूपसे जानते हैं, वह वस्तु अपनेमें नहीं होती। तीसरी बात, काम-क्रोधसे रहित हुआ जा सकता है--'कामक्रोधवियुक्तानाम्'(गीता 5। 26) 'एतैर्विमुक्तः' (गीता 16। 22)। इनसे रहित वही हो सकता है, जो वास्तवमें पहलेसे ही इनसे रहित होता है। चौथी बात, भगवान्ने काम-क्रोधको (जो राग-द्वेषके ही स्थूलरूप हैं) क्षेत्र अर्थात् प्रकृतिके विकार बताया है (गीता 13। 6)। अतः ये प्रकृतिमें ही होते हैं, अपनेमें नहीं; क्योंकि स्वरूप निर्विकार है। इससे सिद्ध होता है कि काम-क्रोध अपनेमें नहीं हैं। इनको अपनेमें मानना मानो इनको निमन्त्रण देना है।
।।5.23।।शक्नोतीति। न चैतद्दुःशकम् शरीरान्तकालं यावत् क्रोधकामजो वेगः क्षणमात्रं यदि सह्यते तदा आत्यन्तिकी सुखप्राप्तिः।
।।5.23।।शरीरविमोक्षणात् प्राग् इह एव साधनानुष्ठानदशायाम् एव आत्मानुभवप्रीत्या कामक्रोधोद्भवं वेगं सोढुं निरोद्धुं यः शक्नोति स युक्तः आत्मानुभवाय अर्हः। शरीरमोक्षणोत्तरकालम् आत्मानुभवसुखः संपत्स्यते।
।।5.23।।उत्तरश्लोकस्य तात्पर्यमाह अयं चेति। श्रेयोमार्गप्रतिपक्षत्वं कष्टतमत्वे हेतुस्तत्रैव हेत्वन्तरमाह सर्वेति। प्रयत्नाधिक्यस्य कर्तव्यत्वे हेतुं सूचयति दुर्निवार्य इति। प्रसिद्धं हि कामक्रोधोद्भवस्य वेगस्य दुर्निवारत्वं येन मातरमपि चाधिरोहति पितरमपि हन्ति तमवश्यं परिहर्तव्यं दर्शयति शक्नोतीति। यथोक्तं वेगं बहिरनर्थरूपेण परिणामात्प्रागेव देहान्तरुत्पन्नं यः सोढुं क्षमते तं स्तौति स युक्त इति। मरणसीमाकरणस्य तात्पर्यमाह मरणेति। प्रसिद्धौ हिशब्दः। तत्र हेतुमाह अनन्तेति। व्याध्युपहतानां वृद्धानां च कामादिवेगो न भवतीत्याशङ्क्याह यावदिति। कामक्रोधोद्भवं वेगं व्याख्यातुमादौ कामं मनोविकारविशेषत्वेन व्याचष्टे काम इति। कथमस्य मनोविकारविशेषत्वं तदाह इन्द्रियेति। कामो गर्धिस्तृष्णेति पर्यायाः सन्तः शब्दा मनोविकारविशेषे पर्यवस्यन्तीत्यर्थः। क्रोधश्च मनोविकारविशेषस्तद्वदित्याह क्रोधश्चेति। तमेव क्रोधं स्पष्टयति आत्मन इति। एवं कामक्रोधौ व्याख्याय तयोरुत्कटत्वावस्थात्मनो वेगस्य ताभ्यामुत्पत्तिमुपन्यस्यति ताविति। यथोक्तवेगावगमोपायमुपदिशति रोमाञ्चनहृष्टनेत्रेत्यादिना। उभयविधवेगं यो जीवन्नेव सोढुं शक्नोति तं पुरुषधौरेयत्वेन स्तौति तमित्यादिना।
।।5.23।।अतो मोक्ष एव योगिनः पुरुषार्थः तत्र सर्वप्रतिपक्षसहनेनैव तल्लाभ इत्याह शक्नोतीहेति। शरीरत्यागात्प्रागेव कामक्रोधोद्भवं वेगं यः सोढुं शक्नोति सोद्वापि न मोक्षसाधनं त्यजति स ज्ञातव्यो योगी युक्तो ब्रह्मानन्दवांश्च अन्यथा तु गत शरीरे सिद्धमेवेति न पुरुषकारः स्यात्। एवमेवोक्तं वशिष्ठेन प्राणे गते यथा देही सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रयो भवेत् इति।
।।5.23।।सर्वानर्थप्राप्तिहेतुर्दुर्निवारोऽयं श्रेयोमार्गप्रतिपक्षः कष्टतमो दोषो महता यत्नेन मुमुक्षुणा निवारणीय इति यत्नाधिक्यविधानाय पुनराह आत्मोऽनुकूलेषु सुखहेतुषु दृश्यमानेषु श्रूयमाणेषु स्मर्यमाणेषु वा तद्गुणानुसंधानाभ्यासेन यो रत्यात्मको गर्धोऽभिलाषस्तृष्णा लोभः स कामः। स्त्रीपुंसयोः परस्परव्यतिकराभिलाषे त्वत्यन्तनिरूढः कामशब्दः। एतदभिप्रायेणकामः क्रोधस्तथा लोभः इत्यत्र धनतृष्णा लोभः स्त्रीपुंसव्यतिकरस्तृष्णा कामः इति कामलोभौ पृथगुक्तौ। इह तु तृष्णासामान्याभिप्रायेण कामशब्दः प्रयुक्त इति लोभः पृथङ्नोक्तः। एवमात्मनः प्रतिकूलेषु दुःखहेतुषु दृश्यमानेषु श्रूयमाणेषु स्मर्यमाणेषु वा तत्तद्दोषानुसंधानाभ्यासेन यः प्रज्वलनात्मको द्वेषो मन्युः स क्रोधः। तयोरुत्कटावस्था लोकवेदविरोधप्रतिसंधानप्रतिबन्धकतया लोकवेदविरुद्धप्रवृत्त्युन्मुखत्वरूपा नदीवेगसाम्येन वेग इत्युच्यते। यथा हि नद्या वेगो वर्षास्वतिप्रबलतया लोकवेदविरोधप्रतिसंधानेनानिच्छन्तमपि गर्ते पातयित्वा मज्जयति चाधो नयति च तथा कामक्रोधयोरपि वेगो विषयाभिध्यानाभ्यासेन वर्षाकालस्थानीयेनातिप्रबलो लोकवेदविरोधप्रतिसंधानेनानिच्छन्तमपि विषयगर्ते पातयित्वा मज्जयति चाधो महानरकान्नयति चेति वेगपदप्रयोगेण सूचितम्। एतच्चाथ केन प्रयुक्तोऽयमित्यत्र विवृतम्। तमेतादृशं कामक्रोधोद्भवं वेगमन्तःकरणप्रक्षोभरूपं स्तम्भस्वेदाद्यनेकबाह्यविकारलिङ्गमाशरीरविमोक्षणाच्छरीरविमोक्षणपर्यन्तमनेकनिमित्तवशात्सर्वदा संभाव्यमानत्वेनाविस्रम्भणीयमन्तरुत्पन्नमात्रमिहैव बहिरिन्द्रियव्यापाररूपाद्गर्तपतनात्प्रागेव यो यतिर्धीरस्तिमिङ्गिल इव नदीवेगं विषयदोषदर्शनाभ्यासजेन वशीकारसंज्ञकवैराग्येण सोढुं तदनुरूपकार्यसंपादनेनानर्थकं कर्तुं शक्नोति समर्थो भवति स एव युक्तो योगी स एव सुखी स एव नरः पुमान्पुरुषार्थसंपादनात् तदितरस्त्वाहारनिद्राभयमैथुनादिपशुधर्ममात्ररतत्वेन मनुष्याकारः पशुरेवेति भावः। प्राक्शरीरविमोक्षणादित्यत्रान्यद्व्याख्यानं यथामरणादूर्ध्वं विलपन्तीभिर्युवतीभिरालिङ्ग्यमानोऽपि पुत्रादिभिर्दह्यमानोऽपि प्राणशून्यत्वात्कामक्रोधवेगं सहते तथा मरणात्प्रागपि जीवन्नेव यः सहते स युक्त इत्यादि। अत्र यदि मरणवज्जीवनेऽपि कामक्रोधानुत्पत्तिमात्रं ब्रूयात्तदैतद्युज्येत। यथोक्तं वसिष्ठेनप्राणे गते यथा देहः सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत्।। इति। इह तूत्पन्नयोः कामक्रोधयोर्वेगसहने प्रस्तुते तयोरनुत्पत्तिमात्रं न दृष्टान्त इति किमतिनिर्बन्धेन।
।।5.23।।तस्मान्मोक्ष एव परः पुरुषार्थस्तस्य च कामक्रोधवेगोऽतिप्रतिपक्षोऽतस्तत्सहनसमर्थ एव मोक्षभागित्याह शक्नोतीति। कामात्क्रोधाच्चोद्भवति यो वेगो मनोनेत्रादिक्षोभलक्षणस्तमिहैव तदुद्भवसमय एव यो नरः सोढुं प्रतिरोद्धुं शक्नोति। तदपि न क्षणमात्रं किंतु शरीरविमोक्षणात्प्राक्। यावद्देहपातमित्यर्थः। य एवंभूतः स एव मुक्तः समाहितः सुखी च भवति नान्यः। यद्वा मरणादूर्ध्वं विलपन्तीभिर्युवतीभिरालिङ्ग्यमानोऽपि पुत्रादिभिर्दह्यमानोऽपि यथा प्राणशून्यः कामक्रोधवेगं सहते तथा मरणात्प्रागपि जीवन्नेव यः सहेत स एव युक्तः सुखी चेत्यर्थः। तदुक्तं वसिष्ठेन प्राणे गते यथा देहः सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणयुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत्।। इति।
।।5.23।।एवं बाह्यस्पर्शेष्वसक्तस्यात्मनि सुखं विन्दतः प्राकृतभोगेषु दोषदर्शिनः स्वरसवाहिनीं दशामनुवदंस्तथाभूतस्यात्मसाक्षात्कारे तदधीनसुखे च योग्यतामाह शक्नोति इति। आशरीरपातात्कामक्रोधौ दुर्जयावित्यभिप्रायेणाह शरीरविमोक्षणात्प्रागिति। साक्षात्कारदशायां कामक्रोधप्रसङ्गो न विद्यत इति तत्प्रसङ्गनिवारणदशाज्ञापनायइहैव इत्यनेन साधनानुष्ठानदशोच्यते।विन्दत्यात्मनि यः सुखम् 5।21 इति पूर्वोक्तहेतुं स्मारयतिआत्मानुभवप्रीत्येति। वेगोऽत्र मनोवाक्कायानामतित्वरिता प्रवृत्तिः। तत्रानुचितविषयाभिध्याननीचचाटुनरपतिशुद्धान्तप्रवेशादयः कामजा वेगाः। परहिंसाद्युपायचिन्तनपरुषभाषणप्रहारादयः क्रोधजा वेगाः।सोढुम् इत्यस्य तितिक्षार्थत्वव्युदासायोक्तंनिरोद्धुमिति।शक्नोति शक्तः सन्नुत्सहत इत्यर्थः। युक्तशब्दोऽत्र समाधिलाभपर इत्याह आत्मानुभवायार्ह इति।प्राक्शरीरविमोक्षणात् इत्यस्य शरीरानन्तरमेव फलप्राप्तौ तात्पर्यम् अन्यथा तद्वचनस्य निष्फलत्वप्रसङ्गादित्यभिप्रायेणस एव शरीरविमोक्षौत्तरकालमित्युक्तम्।सुखमक्षयमश्नुते 2।21 इत्याद्युक्तफलभूतभविष्यत्सुखयोगोऽत्रापिस सुखी इति व्यपदिश्यत इत्यभिप्रायेणाह आत्मानुभवैकसुखः सम्पत्स्यत इति।
।।5.23।।तस्माल्लौकिकभोगत्याग एव तत्सम्बन्धप्रापक इत्याह शक्नोतीति। यः शरीरविमोक्षणात् प्राक् अलौकिकदेहाप्तिकालात् पूर्वं कामक्रोधोद्भवं वेगं कामोद्भवं स्वेच्छाजनितरसभावाभावजं क्रोधोद्भवमन्येषु तदिच्छापूर्तिदर्शनक्षोभजं सोढुं शक्नोति स इहैव अस्मिन्नेव शरीरे युक्तो भावात्मरूपयुक्तः स सुखी नरः मद्भक्तः स्यादित्यर्थः।
।।5.23।।कः पुनर्मुख्यः सुखीत्याह शक्नोतीति। इहैव जीवत्येव देहे प्राक्शरीरविमोक्षणाद्यावद्देहपातं मया कामक्रोधौ जिताविति विस्रम्भो न कर्तव्य इत्यर्थः। श्रुते दृष्टेऽनुमिते वा विषये यो गर्धस्तृष्णारूपोऽतृप्तिश्च स कामः क्रोधस्तादृशे एव विषये द्वेषस्तौ कामक्रोधावुद्भवो यस्य वेगस्य स रोमाञ्चहृष्टनेत्रवक्त्रलिङ्गोऽन्तःकरणप्रक्षोभरूपः कामोद्भवो वेगः। गात्रप्रकम्पप्रस्वेदसंदष्टौष्ठपुटरक्तनेत्रादिलिङ्गः क्रोधोद्भवो वेगस्तं कामक्रोधोद्भवं वेगं सोढुं यः शक्नोति स एव युक्तो योगी मुख्यः सुखी च नान्यः।
।।5.23।।अयं च श्रयोमार्गप्रतिपक्षी कष्टतमो दोषः सर्वानर्थप्राप्तिहेतुः दुर्निवार्यश्चेति तत्परिहारे यत्नाधिक्यविधानायाह शक्नोतीति। यः इहैव जीवन्नेव इन्द्रियगोचरे प्राप्ते इष्टे विषये श्रुयमाणे स्मर्यमाणे वा सुखहेतौ या तृष्णा स कामः। क्रोधश्चैवंभूतेऽनिष्टे विषये द्वेषः। तौ कामक्रोधावुद्भवो यस्य स रोमाञ्चनहृष्टनेत्रवदनलिङ्गोऽन्तःकरणप्रक्षोभरुपः कामोद्भवो वेगः। गात्रप्रकम्पप्रस्वेदसंदष्टौष्ठपुटरक्तनेत्रवक्ततादिलिङग चित्तप्रक्षोभरुपः क्रोधोद्भवो वेगः। तं कामक्रोधोद्भवं शरीरविमोक्षणात्प्रागामरणात् सोढुं प्रसहितुं शक्नोति। मरणसीमाकरणं तु निमित्तानामनन्तत्वात् कामक्रोधोद्भवस्य वेगस्य जीवतोऽवश्यंभावित्वात् यावन्मरणं न विश्वसनीय इति कथनार्थं यः सोढुं श्कनोति स युक्तो योगी सुखी चेह लोके नरः स एव नर इति सूचनार्थ नरपदम्। यत्तु परे मरणादूर्ध्वंविलपन्तीभिर्युवतिभिरालिङ्ग्यमानोऽपि पुत्रादिभिर्दह्यमानोऽपि यथा प्राणाशून्यः कामक्रोधवेगं सहते तथा मरणात्प्राक् जीवन्नेव यः सहते स एव युक्तः सुखी चेत्यर्थः। तदुक्तं वसिष्ठेनप्राणे गते यथा देहः सुखं दुःखं न विन्दति। तथा चेत्प्राणायुक्तोऽपि स कैवल्याश्रमे वसेत् इति तन्मन्दम्। प्राणशून्ये कामक्रोधोद्भववेगस्याभावादत्र तद्दृष्टान्तीकरणस्यानुचितत्वात्।
5.23 शक्नोति is able? इह here (in this world)? एव even? यः who? सोढुम् to withstand? प्राक् before? शरीरविमोक्षणात् liberation from the body? कामक्रोधोद्भवम् born out of desire and anger? वेगम् the impulse? सः he? युक्तः united? सः he? सुखी happy? नरः man.Commentary Yukta means harmonised or steadfast in Yoga or selfabiding.Desire and anger are powerful enemies of peace. It is very difficult to annihilate them. You will have to make very strong efforts to destroy these enemies.When the word Kama (desire) is used in a general sense it includes all sorts of desires. It means lust in a special sense.While still here means while yet living. The impulse of desire is the agitation of the mind which is indicated by hairs standing on end and cheerful face. The impulse of anger is agitation of the mind which is indicated by fiery eyes? perspiration? biting of the lips and trembling of the body. In this verse you will clearly understand that he who has controlled desire and anger is the most happy man in this world? nor he who has immense wealth? a beautiful wife and beautiful children. Therefore you must try your level best to eradicate desire and anger? the dreadful enemies of eternal bliss.Kama (desire) is longing for a pleasant and agreeable object which gives pleasure and which is seen? heard of? or remembered. Anger is aversion towards an unpleasant and disagreeable object which gives pain and which is seen? heard or? or remembered.A Yogi controls the impulse born of desire and anger? destroyes the currents of likes and dislikes,and attains to eanimity of the mind? by resting in the innermost Self? and so he is very happy.(Cf.VI.18)
5.23 He who is able, while still here (in this world) to withstand, before the liberation from the body, the impulse born out of desire and anger he is a Yogi, he is a happy man.
5.23 He who, before he leaves his body, learns to surmount the promptings of desire and anger is a saint and is happy.
5.23 One who can withstand here itself-before departing from the body-the impulse arising from desire and anger, that man is a yogi; he is happy.
5.23 Yah saknoti, one who can, is able to; sodhum, withstand; iha eva, here itself, while alive; prak, before; sarira-vimoksanat, departing from the body, till death-. Death is put as a limit because the impulse of desire and anger is certanily inevitable for a living person. For this impulse has got infinite sources. One should not relax until his death. That is the idea. Kama, desire, is the hankering, thirst, with regard to a coveted object-of an earlier experience, and which is a source of pleasure-when it comes within the range of the senses, or is heard of or remembered. And krodha, anger, is that repulsion one has against what are adverse to oneself and are sources of sorrow, when they are seen, heard of or remembered. That impulse (veda) which has those desire and anger as its source (udbhava) is kama-krodha-udbhava-vegah. The impulse arising from desire is a kind of mental agitation, and has the signs of horripilation, joyful eyes, face, etc. The impulse of anger has the signs of trembling of body, perspiration, bitting of lips, red eyes, etc. He who is able to withstand that impulse arising from desire and anger, sah narah, that man; is yuktah, a yogi; and sukhi, is happy, in this world. What kind of a person, being established in Brahman, attains Brahman? The Lord says:
5.23. He, whose pleasure, delight and again light are just within-O son of Prtha ! he attains the supreme Yoga, himself becoming the Brahman.
5.23 Saknoti etc. It is not easy to accomplish this; [for], if this force of wrath and desire, hard to bear is endured till the last moment of the body, not for a moment alone-then is the total Bliss achievement.
5.23 When a man is able to withstand, i.e., to control the impulses of emotions like desire and anger by his longing for the experience of self, he is released 'here itself from the body,' i.e., even during the state when he is practising the means for release, he gains the capacity for experiencing the self. But he becomes blessed by the experience and gets immersed in the bliss of the self only after the fall of the body (at the end of his Prarabdha or operative Karma). [The implication is that in this system there is no Jivan-Mukti or complete liberation even when the body is alive. Only the state of Sthita-prajna or of 'one of steady wisdom' can be attained by an embodied Jiva.]
5.23 He who is able, even here, before he is released from the body, to bear the impulse generated by desire and wrath, he is a Yogin (competent for self-realisation); he is the happy man.
।।5.23।।जो मनुष्य यहाँजीवितावस्थामें ही शरीर छूटनेसे पहलेपहले अर्थात् मरणपर्यन्त ( कामक्रोधसे उत्पन्न हुए वेगको ) सहन कर सकता है अर्थात् सहन करनेका उत्साह रखता है ( वही युक्त और सुखी है )। जीवित पुरुषके अन्तःकरणमें कामक्रोधका वेग अवश्य ही होता है इसलिये मरणपर्यन्तकी सीमा की गयी है क्योंकि वह कामक्रोधजनित वेग अनेक निमित्तोंसे प्रकट होनेवाला है अतः मरनेतक उसका विश्वास न करे। ( सदैव उससे सावधान रहे ) यह अभिप्राय है। किसी अनुभव किये हुए सुखदायक इष्टविषयके इन्द्रियगोचर हो जानेपर यानी सुन जानेपर या स्मरण हो जानेपर उसको पानेकी जो लालसा तृष्णा होती है उसका नाम काम है। वैसे ही अपने प्रतिकूल दुःखदायक विषयोंके दीखने सुनायी देने या स्मरण होनेपर उनमें जो द्वेष होता है उसका नाम क्रोध है। वे काम और क्रोध जिस वेगके उत्पादक होते हैं वह कामक्रोधसे उत्पन्न हुआ वेग कहलाता है। रोमाञ्च होना मुख और नेत्रोंका प्रफुल्लित होना इत्यादि चिह्नोंवाला जो अन्तःकरणका क्षोभ है वह कामसे उत्पन्न हुआ वेग है। तथा शरीरका काँपना पसीना आ जाना होठोंको चबाने लगना नेत्रोंका लाल हो जाना इत्यादि चिह्नोंवाला वेग क्रोधसे उत्पन्न हुआ वेग है। ऐसे काम और क्रोधके वेगको जो सहन कर सकता है उसको सहन करनेका उत्साह रखता है वह मनुष्य इस संसारमें योगी है और वही सुखी है।
।।5.23।। शक्नोति उत्सहते इहैव जीवन्नेव यः सोढुं प्रसहितुं प्राक् पूर्वं शरीरविमोक्षणात् आ मरणात् इत्यर्थः। मरणसीमाकरणं जीवतोऽवश्यंभावि हि कामक्रोधोद्भवो वेगः अनन्तनिमित्तवान् हि सः इति यावत् मरणं तावत् न विश्रम्भणीय इत्यर्थः। कामः इन्द्रियगोचरप्राप्ते इष्टे विषये श्रूयमाणे स्मर्यमाणे वा अनुभूते सुखहेतौ या गर्धिः तृष्णा स कामः क्रोधश्च आत्मनः प्रतिकूलेषु दुःखहेतुषु दृश्यमानेषु श्रूयमाणेषु स्मर्यमाणेषु वा यो द्वेषः सः क्रोधः तौ कामक्रोधौ उद्भवो यस्य वेगस्य सः कामक्रोधोद्भवः वेगः। रोमाञ्चनप्रहृष्टनेत्रवदनादिलिङ्गः अन्तःकरणप्रक्षोभरूपः कामोद्भवो वेगः गात्रप्रकम्पप्रस्वेदसंदष्टोष्ठपुटरक्तनेत्रादिलिङ्गः क्रोधोद्भवो वेगः तं कामक्रोधोद्भवं वेगं यः उत्सहते प्रसहते सोढुं प्रसहितुम् सः युक्तः योगी सुखी च इह लोके नरः।।कथंभूतश्च ब्रह्मणि स्थितः ब्रह्म प्राप्नोति इति आह भगवान्
।।5.23।।उत्तरश्लोकमप्यन्तर्भावयितुमाह तदिति। कामभोगपरित्यागं सन्न्यासार्थमिति वर्तते। इहैव शरीरविमोक्षणात् प्रागिति प्रशंसायामनुपयुक्तमिति भावेन तद्विहायान्यद्योजयति कामेति। वेगं मनसोऽनवस्थानम्। एवं तर्हिइहैव शरीरविमोक्षणात् प्राक् इति किमर्थमुक्तं इत्यतस्तदनूद्य तात्पर्य माह शरीरेति। इहैवेत्यनुवादे ग्राह्यं अस्मिन्नेव लोक इति। अत एवोक्तं मनुष्यशरीर इति। अतोऽत्रैव तत्सहनाय प्रयतितव्यमित्यभिप्रायशेषः। ननु ब्रह्मलोकादौ तत्सहनमत्यन्तसुशकम् तत्कथमेवमुच्यते इत्यत आह ब्रह्मेति। तथा चान्योन्याश्रय इति भावः। अन्यत्रेति पश्वादिशरीरं व्युदस्तमिति हृदयम्। एतेनात्र वाक्यभेदः कार्य इति सूचितम्। शरीरविमोक्षणपर्यन्तं न सकृदिति कश्चित्। तदसत् तथा सत्याशरीरविमोक्षणादिति स्यात्। इहैवेति च व्यर्थम्।
।।5.23।।तत्परित्यागं प्रशंसति शक्नोतीति। कामक्रोधोद्भवं वेगं सोढुं शक्नोति। शरीरविमोक्षणात्प्राक्। यथा मनुष्यशरीरे सोढुं सुशकः तथा नान्यत्रेति भावः। ब्रह्मलोकादिस्तु जितकामानामेव भवति।
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।।5.23।।
শক্নোতীহৈব যঃ সোঢুং প্রাক্শরীরবিমোক্ষণাত্৷ কামক্রোধোদ্ভবং বেগং স যুক্তঃ স সুখী নরঃ৷৷5.23৷৷
শক্নোতীহৈব যঃ সোঢুং প্রাক্শরীরবিমোক্ষণাত্৷ কামক্রোধোদ্ভবং বেগং স যুক্তঃ স সুখী নরঃ৷৷5.23৷৷
શક્નોતીહૈવ યઃ સોઢું પ્રાક્શરીરવિમોક્ષણાત્। કામક્રોધોદ્ભવં વેગં સ યુક્તઃ સ સુખી નરઃ।।5.23।।
ਸ਼ਕ੍ਨੋਤੀਹੈਵ ਯ ਸੋਢੁਂ ਪ੍ਰਾਕ੍ਸ਼ਰੀਰਵਿਮੋਕ੍ਸ਼ਣਾਤ੍। ਕਾਮਕ੍ਰੋਧੋਦ੍ਭਵਂ ਵੇਗਂ ਸ ਯੁਕ੍ਤ ਸ ਸੁਖੀ ਨਰ।।5.23।।
ಶಕ್ನೋತೀಹೈವ ಯಃ ಸೋಢುಂ ಪ್ರಾಕ್ಶರೀರವಿಮೋಕ್ಷಣಾತ್. ಕಾಮಕ್ರೋಧೋದ್ಭವಂ ವೇಗಂ ಸ ಯುಕ್ತಃ ಸ ಸುಖೀ ನರಃ৷৷5.23৷৷
ശക്നോതീഹൈവ യഃ സോഢും പ്രാക്ശരീരവിമോക്ഷണാത്. കാമക്രോധോദ്ഭവം വേഗം സ യുക്തഃ സ സുഖീ നരഃ৷৷5.23৷৷
ଶକ୍ନୋତୀହୈବ ଯଃ ସୋଢୁଂ ପ୍ରାକ୍ଶରୀରବିମୋକ୍ଷଣାତ୍| କାମକ୍ରୋଧୋଦ୍ଭବଂ ବେଗଂ ସ ଯୁକ୍ତଃ ସ ସୁଖୀ ନରଃ||5.23||
śaknōtīhaiva yaḥ sōḍhuṅ prākśarīravimōkṣaṇāt. kāmakrōdhōdbhavaṅ vēgaṅ sa yuktaḥ sa sukhī naraḥ৷৷5.23৷৷
ஷக்நோதீஹைவ யஃ ஸோடுஂ ப்ராக்ஷரீரவிமோக்ஷணாத். காமக்ரோதோத்பவஂ வேகஂ ஸ யுக்தஃ ஸ ஸுகீ நரஃ৷৷5.23৷৷
శక్నోతీహైవ యః సోఢుం ప్రాక్శరీరవిమోక్షణాత్. కామక్రోధోద్భవం వేగం స యుక్తః స సుఖీ నరః৷৷5.23৷৷
5.24
5
24
।।5.24।। जो मनुष्य केवल परमात्मामें सुखवाला है और केवल परमात्मामें रमण करनेवाला है तथा जो केवल परमात्मामें ज्ञानवाला है, वह ब्रह्ममें अपनी स्थितिका अनुभव करनेवाला सांख्ययोगी निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होता है।
।।5.24।। जो पुरुष अन्तरात्मा में ही सुख वाला,  आत्मा में ही आराम वाला तथा आत्मा में ही ज्ञान वाला है,  वह योगी ब्रह्मरूप बनकर ब्रह्मनिर्वाण अर्थात् परम मोक्ष को प्राप्त होता है।।
।।5.24।। सामान्यत मनुष्य तीन प्रकार के सुख जानता है शारीरिक उपभोगों का सुख तथा भावनाओं एवं विचारों का आनन्द। उपर्युक्त तीन श्लोकों से यह बात स्पष्ट होती है कि तत्त्ववित् पुरुष का आनन्द तो इनसे भिन्न स्वरूप में ही होता है। अत काम और क्रोध से मुक्त आत्मानन्द में स्थित पुरुष ही योगी है वही वास्तव में सुखी भी है।हम विश्वास नहीं कर पाते कि सामान्यतया सर्वविदित सुख के साधनों को त्यागने पर भी ज्ञानी की उपर्युक्त वर्णित स्थिति में कोई सुख या सन्तोष भी हो सकता है। सब प्रकार के भोजनों का त्याग करने पर भोजन का आनन्द कैसे प्राप्त हो सकता है यह भी बात तर्क और अनुभव के विरुद्ध है कि मनुष्य कभी अन्धकारमय शून्यावस्था मात्र से सन्तुष्ट हो सकता है। प्राणिमात्र दिनरात अपनेअपने कार्य क्षेत्रों में कार्यरत दिखाई देते हैं। किस वस्तु को प्राप्त करने के लिये उनका यह परिश्रम है उत्तर केवल एक है अधिकसेअधिक सुख और सन्तोष की प्राप्ति के लिए। सब दुखों के अभावमात्र की स्थिति भी जैसे निद्रावस्था आनन्द का शिखर नहीं कही जा सकती जिसे प्राप्त कर मनुष्य़ पूर्ण सन्तोष का अनुभव कर सकता है।इन कारणों से ज्ञानी के विषय में कहे हुये भगवान् के वचन को अतिशयोक्ति ही माना जायेगा। इस श्लोक में ऐसी ही विपरीत धारणा को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। जब जीव मिथ्या और अनित्य वस्तुओं को त्यागकर आत्मस्वरूप को पहचानता है तब वह कोई शून्यावस्था नहीं बल्कि आत्मा के द्वारा आत्मा में ही आत्मानन्द की अनुभूति की स्थिति है।आध्यात्मिक साधना में उपदिष्ट विषयों से वैराग्य कोई दुख का कारण नहीं है वरन् उसके द्वारा साधक निश्चयात्मकरूप से सुखशान्ति प्राप्त करता है। यह स्वरूपानुभव का आन्तरिक आनन्द नित्य बना रहता है न कि वैषयिक सुखों के समान क्षणमात्र। आत्मोन्नति के मार्ग में अग्रसर साधक अन्तसुख और अन्तराराम बन जाता है। उसका आनन्द बाह्य विषय निरपेक्ष होता है। उसका हृदय सदैव चैतन्य के प्रकाश से आलोकित रहता है।आत्मानुभूति में स्थित यह पुरुष ब्रह्मवित् कहलाता है। ब्रह्म को जानकर वह स्वयं ब्रह्मस्वरूप बनकर परम मोक्ष को प्राप्त होता है।
5.24।। व्याख्या--'योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः' जिसको प्रकृतिजन्य बाह्य पदार्थोंमें सुख प्रतीत नहीं होता, प्रत्युत एकमात्र परमात्मामें ही सुख मिलता है, ऐसे साधकको यहाँ 'अन्तःसुखः' कहा गया है। परमात्मतत्त्वके सिवाय कहीं भी उसकी सुख-बुद्धि नहीं रहती। परमात्मतत्त्वमें सुखका अनुभव उसे हर समय होता है; क्योंकि उसके सुखका आधार बाह्य पदार्थोंका संयोग नहीं होता।स्वयं अपनी सत्तामें निरन्तर स्थित रहनेके लिये बाह्यकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। स्वयंको स्वयंसे दुःख नहीं होता, स्वयंको स्वयंसे अरुचि नहीं होती--यह अन्तःसुख है।जो सदाके लिये न मिले और सभीको न मिले, वह 'बाह्य' है। परन्तु जो सदाके लिये मिले और सभीको मिले, वह 'आभ्यन्तर' है।जो भोगोंमें रमण नहीं करता, प्रत्युत केवल परमात्म-तत्त्वमें ही रमण करता है, और व्यवहारकालमें भी जिसका एकमात्र परमात्मतत्त्वमें ही व्यवहार हो रहा है, ऐसे साधकको यहाँ 'अन्तरारामः' कहा गया है।इन्द्रियजन्य ज्ञान, बुद्धिजन्य ज्ञान आदि जितने भी सांसारिक ज्ञान कहे जाते हैं, उन सबका प्रकाशक और आधार परमात्मतत्त्वका ज्ञान है। जिस साधकका यह ज्ञान हर समय जाग्रत् रहता है, उसे यहाँ 'अन्तर्ज्योतिः' कहा गया है।सांसारिक ज्ञानका तो आरम्भ और अन्त होता है, पर उस परमात्मतत्त्वके ज्ञानका न आरम्भ होता है, न अन्त। वह नित्य-निरन्तर रहता है। इसलिये सबमें एक परमात्मतत्त्व ही परिपूर्ण है'--ऐसा ज्ञान सांख्ययोगीमें नित्य-निरन्तर और स्वतः-स्वाभाविक रहता है।
।।5.24।।योऽन्तरिति। अन्तः तस्यान्तरेव बाह्यानपेक्षि ( omits बाह्यानपेक्षि to व्यवहारे तु) सुखं तत्रैव रमते तत्र चास्य प्रकाशः व्यवहारे तु मूढत्वमिव। उक्तं च जड इव विचरेदवादमतिः इति। ( PS 71 ) ।
।।5.24।।यो बाह्यविषयानुभवं सर्वं विहाय अन्तःसुखः आत्मानुभवैकसुखः अन्तरारामः आत्मैकाधीनः स्वगुणैः आत्मा एव सुखवर्धको यस्य स तथोक्तः तथा अन्तर्ज्योतिः आत्मैकज्ञानो यो वर्तते स ब्रह्मभूतो योगी ब्रह्मनिर्वाणम् आत्मानुभवसुखं प्राप्नोति।
।।5.24।।ज्ञानस्यात्यन्तमन्तरङ्गमात्मनिष्ठत्वं दर्शयन्प्रकृतं ब्रह्मविदमेव विशिनष्टि कथंभूतश्चेति। यथान्तरेव सुखं न बाह्यैर्विषयैस्तथान्तरेव ज्योतिर्न श्रोत्रादिभिरतो विषयान्तरविज्ञानरहित इत्याह तथेति। यथोक्तविशेषणसमाधिमा़ञ्जीवन्नेव मुक्तिमधिगच्छतीत्याह स योगीति। आत्मन्यन्तःसुखमिति बाह्यविषयनिरपेक्षत्वं विवक्षितमन्तरारामत्वं च स्त्र्यादिविषयापेक्षामन्तरेण क्रीडाप्रयुक्तफलभाक्त्वमभिमतमिन्द्रियादिजन्यप्रकाशशून्यत्वमात्मज्योतिष्ट्वमिष्टम्। यथोक्तविशेषणसंपन्नः समाहितश्च जीवन्नेव ब्रह्मभावं प्राप्नोति। ब्रह्मणि परिपूर्णे निर्वृत्तिं सर्वानर्थनिवृत्त्युपलक्षितां स्थितिमनतिशयानन्दाविर्भावलक्षणां प्राप्नोतीत्याह य ईदृश इति।
।।5.24।।न केवलं कामक्रोधवेगसहनमात्रेण मोक्षप्राप्तिः अपितु योऽन्तरिति। अन्तरात्मनि सुखादि यस्य स योगी ब्रह्मसुखं गतः जीवन्मुक्तः तस्यसंसारस्य लयो मुक्तौ न प्रपञ्चस्य कर्हिचित्।
।।5.24।।कामक्रोधवेगसहनमात्रेणैव मुच्यत इति न किंतु अन्तर्बाह्यविषयनिरपेक्षमेव स्वरूपभूतं सुखं यस्य सोऽन्तःसुखः। बाह्यविषयजनितसुखशून्य इत्यर्थः। कुतो बाह्यसुखाभावस्तत्राह अन्तरात्मन्यैव नतु स्त्र्यादिविषये बाह्यसुखसाधने आराम आरमणं क्रीडा यस्य सोऽन्तरारामः। त्यक्तसर्वपरिग्रहत्वेन बाह्यसुखासाधनशून्य इत्यर्थः। ननु त्यक्तसंर्वपरिग्रहस्यापि यतेर्यदृच्छोपनतैः कोकिलादिमधुरशब्दश्रवणमन्दपवनस्पर्शनचन्द्रोदयमयूरनृत्यादिदर्शनातिमधुरशीतलगङ्गोदकपानकेतकीकुसुमसौरभाद्यवघ्राणादिभिर्ग्राम्यैः सुखोत्पत्तिसंभवात्कथं बाह्यसुखतत्साधनशून्यत्वमिति तत्राह तथान्तर्ज्योतिरेव यः। यथान्तरेव सुखं न बाह्यैर्विषयैस्तथान्तरेवात्मनि ज्योतिर्विज्ञानं न बाह्यैरिन्द्रियैर्यस्य सोऽन्तर्ज्योतिः श्रोत्रादिजन्यशब्दादिविषयविज्ञानरहितः। एवकारो विशेषणत्रयेऽपि संबध्यते। समाधिकाले शब्दादिप्रतिभासाभावात् व्युत्थानकाले तत्प्रतिभासेऽपि मिथ्यात्वनिश्चयान्न बाह्यविषयैस्तस्य सुखोत्पत्तिसंभव इत्यर्थः। य एवं यथोक्तविशेषणसंपन्नः स योगी समाहितो ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्म परमानन्दरूपं कल्पितद्वैतोपशमरूपत्वेन निर्वाणं तदेव कल्पिताभावस्याधिष्ठानात्मकत्वात् अविद्यावरणनिवृत्त्याधिगच्छति नित्यप्राप्तमेव प्राप्नोति। यतः सर्वदैव ब्रह्मभूतो नान्यःब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति इति श्रुतेःअवस्थितेरिति काशकृत्स्नः इति न्यायाच्च।
।।5.24।। न केवलं कामक्रोधवेगसंहरणमात्रेण मोक्षं प्राप्नोति अपितु योऽन्तरिति। अन्तः आत्मन्येव सुखं यस्य न विषयेषु अन्तरेवारामः क्रीडा यस्य न बहिः अन्तरेव ज्योतिर्दृष्टिर्यस्य न गीतनृत्यादिषु स एव ब्रह्मणि भूतः स्थितः सन्ब्रह्मणि निर्वाणं लयमधिगच्छति प्राप्नोति।
।।5.24।।एवं परित्यक्तं प्राकृतं भोग्यभोगोपकरणादेकं सर्वमात्मनि तदेकरसिकत्वाय कल्पयन्विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् 5।21 इत्युक्तमुपायदशास्थं प्रपञ्चयति योऽन्तस्सुखः इति श्लोकेन। अन्तश्शब्दाभिप्रायं पूर्वोक्तं चानुसन्धायोक्तंयो बाह्यविषयानुभवं सर्वं विहायेति। अन्तश्शब्दोऽत्र बाह्यव्यतिरेकादात्मपरः। आत्मैवात्मन्येव वा सुखं यस्य सोऽन्तस्सुखः। तत्र फलितोक्तिःआत्मानुभवैकसुख इति। अवधारणस्याविशेषेण सर्वत्रान्वयादेकशब्दः।अन्तरारामः इत्यस्याभिप्रेतं वक्तुं पदार्थं तावदाहआत्मैकोद्यान इति। आरामो हि भोगस्थानभूतश्छायापल्लवपुष्पफलादिभिः स्वगुणैः सुखवर्धकः। तद्वदत्रापि स्वगुणैरपहतपाप्मत्वज्ञानानन्दादिभिः स्वविषयवादकरणसंवादकरणग्रन्थकरणादिक्रीडोत्थापकैरात्मैव सुखवर्धक इत्यारामशब्देनोपचर्यत इत्याहस्वगुणैरिति। एवं भोग्यं भोगस्थानं चआत्मैवेत्युक्तम्। अथ भोगोपकरणादिकमपि स एवेति अन्तर्ज्योतिश्शब्देनोच्यत इत्यभिप्रायेणाहआत्मैकज्ञानो यो वर्तत इति। अन्येषां हि भोग्यानां स्वरूपादुपकरणस्य भिन्नत्वादुपकरणमपि हि तदर्थतया पृथक् ज्ञातव्यम् अतस्तेषु तदेकज्ञानत्वं नास्तीति भावः यद्वा प्रकाशकान्तरनैरपेक्ष्यं बाह्यं प्रकाशाभावमात्रं वाऽत्र विवक्षितम्। पूर्वं शरीरात्माभिमानाद्देवमनुष्यादिभूतोऽयम् इदानीं तु तन्निवृत्त्या यथावस्थितासङ्कुचितज्ञानादिस्वरूपेणावस्थित इति ब्रह्मभूतशब्दाभिप्रायः। ब्रह्मैव निर्वाणमिति वा ब्रह्मणि निर्वाणमिति वा समासार्थमभिप्रयन्नत्र विवक्षितमाहआत्मानुभवसुखमिति। अत्र निर्वाणशब्दस्य परोक्तं शान्त्यर्थत्वं सुखप्रकरणानौचित्यान्मन्दमिति भावः।
।।5.24।।ननु सुखावलम्बनाभावे कथं बाह्यदुःखसहनं न स्यात् इत्याशङ्क्याह योऽन्तस्सुख इति। योऽन्तस्सुखः भावात्मकस्वरूपसुखवान्। अन्तरारामः अन्तरेव भावात्मकस्वरूप एव भगवद्रमणकारणवान्। तथा अन्तर्ज्योतिः संयोगरससुखसमत्वेनैव वियोगतासुखानुभववान्। स योगी मत्संयोगरसयुक्तो भूत्वा ब्रह्मभूतः अलौकिकस्वरूपः सन् ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मवत् भगवन्निर्वाणं लयं लीलात्मकतामधिगच्छति प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।5.24।।कोऽसौ योगी यो मुख्यः सुखीत्युक्तं तत्राह य इति। सुखं विषयसङ्गजा प्रीतिः आरामः प्रीतिहेतुः स्त्र्यादिभिः सह क्रीडा ज्योतिः क्रीडोपकरणानां प्रकाशः तदेतत्त्र्यं यस्यान्तरेव सोऽन्तःसुखोऽन्तरारामोऽन्तर्ज्योतिश्च न त्विन्द्रियद्वारकमिति एवशब्दार्थः। य एवंभूतः स योगी किमतो यद्येवं ब्रह्मनिर्वाणं गत्यप्राप्यपरमानन्दं ब्रह्म इहैवाधिगच्छति। यतो ब्रह्मभूतो जीवन्नेव ब्रह्मदर्शने ब्रह्मभावं गतः।
।।5.24।।न केवलं कामक्रोधोद्भववेगसहनमात्रेण जीवन्नेव मोक्षं प्राप्नोति अपितु योऽन्तरात्मनि सुखं यस्य स तथा अन्तरेवात्मन्यारमणं क्रीडा यस्य सः। यस्य च स्त्र्यादौ सुखबुद्धिः स तत्रैवारमते। अयं तु यतोऽन्तःसुखोऽतोन्तरारामः। यतोऽन्तरात्मैव प्रकाशो यस्य स आत्मैवैकोऽद्वितीयः। सर्वावस्थासु जाग्रदादिषु स्वप्रकाशः सत्योऽन्यत्सर्वमिन्द्रियविषयादिकं तत्र कल्पितमनृतमतः सुखहीनं दुःखरुपं क्रीडानास्पदमिति बोधवान्। यत्त्वन्तरेव ज्योतिर्द्दृष्टिर्यस्य न गीतनृत्यादिष्विति। तन्न अन्तःसुखोन्तराराम इत्यनयोरम्यतरेणाप्यस्यार्थस्य लाभात्। य एतादृशः स योगी ब्रह्मभूतः सन्नपि ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मनिर्वृतिं। ब्रह्मानन्दमिति यावत्। गच्छति प्राप्नोति प्राप्तमेव विस्मृतग्रैवेयकमिव प्राप्नोति।ब्रह्मैव सन्ब्राह्माप्येति इति श्रुतेःअवस्थितेरिति काशकृत्स्त्रः इतिन्यायाच्चास्यैव परमात्मनोऽनेनापि विज्ञानात्मभावेनावस्थानादुपपन्नमिदमभेदेनोपक्रमणमिति काशकृत्स्त्र आचार्यो मन्यते। तथाच ब्राह्मणंअनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य नामरुपे व्याकरवाणि इति एवंजातीयकं परस्यैवात्मनो जीवभावेनावस्थानं दर्शयतीति तदर्थः।
5.24 यः who? अन्तःसुखः one whose happiness is within? अन्तरारामः one who rejoices within? तथा also? अन्तर्ज्योतिः one who is illuminated within? एव even? यः who? सः that? योगी Yogi? ब्रह्मनिर्वाणम् absolute freedom or Moksha? ब्रह्मभूतः becoming Brahman? अधिगच्छति attains.Commentary Within meansin the Self. He attains Brahmanirvanam or liberation while living. He becomes a Jivanmukta.
5.24 He who is happy within, who rejoices within, and who is illuminated within, that Yogi attains absolute freedom or Moksha, himself becoming Brahman.
5.24 He who is happy within his Self and has found Its peace, and in whom the inner light shines, that sage attains Eternal Bliss and becomes the Spirit Itself.
5.24 One who is happy within, whose pleasure is within, and who has his light only within, that yogi, having become Brahman, attains absorption in Brahman.
5.24 Yah antah-sukhah, one who is happy within, in the indwelling Self; and so also antar-aramah, has pleasure within-he disports only in the Self within; similarly, antar-jyotih eva, has his light only within, has the indwelling Self alone as his light; [He has not to depend on the organs like ear etc. for aciring knowledge.] sah yogi, that yogi; yah, who is of this kind; brahma-bhutah, having become Brahman, even while he is still living; adhigacchati, attains; brahma-nirvanam, absorption in Brahman-gets Liberation. Besides,
5.24. The seers, whose dirts have decayed; by whom dualities have been out off; whose self (mind) is controlled; and who are delighted in the welfare of all; they gain the Brahman, the Tranil One.
5.24 Yo'ntah etc : Within : For him there is happiness nowhere but within and it does not depend on any external object ; there alone he rejoices; his lustre is there only. But, there is an apparent ignorance [of him] in his worldly dealings. That has been said as - '[A man of realisation] would wander, like a fool, with no inclination for discussion.' (PS, 71)
5.24 He who, renouncing all the experiences of outside objects, 'finds joy within,' i.e., finds his sole joy in experiencing the self; 'who has his pleasure within,' i.e., whose pleasure-garden is the self; and with regard to whom the self increases his happiness by Its own alities like bliss, knowledge, sinlessness, etc.; 'whose light is within,' i.e., who lives, directing his knowledge solely on the self - a person of such a description is the Yogin, who 'having become the Brahman (the self), attains the bliss of the Brahman' i.e., the bliss of experiencing the self.
5.24 He whose joy is within, pleasure is within, and similarly light is within - he is a Yogin, who having become the Brahman, attains the bliss of the Brahman.
।।5.24।।ब्रह्ममें स्थित हुआ कैसा पुरुष ब्रह्मको प्राप्त होता है सो कहते हैं जो पुरुष अन्तरात्मामें सुखवाला है जिसको अन्तरात्मामें ही सुख है वह अन्तःसुखवाला है तथा जो अन्तरात्मामें रमण करनेवाला है जिसकी क्रीड़ा ( खेल ) अन्तरात्मामें ही होती है वह अन्तरारामी है और अन्तरात्मा ही जिसकी ज्योति प्रकाश है वह अन्तर्ज्योति है। जो ऐसा योगी है वह यहाँ जीवितावस्थामें ही ब्रह्मरूप हुआ ब्रह्ममें लीन होनारूप मोक्षको प्राप्त हो जाता है।
।।5.24।। यः अन्तःसुखः अन्तः आत्मनि सुखं यस्य सः अन्तःसुखः तथा अन्तरेव आत्मनि आरामः आरमणं क्रीडा यस्य सः अन्तरारामः तथा एव अन्तः एव आत्मन्येव ज्योतिः प्रकाशो यस्य सः अन्तर्ज्योतिरेव यः ईदृशः सः योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मणि निर्वृतिं मोक्षम् इह जीवन्नेव ब्रह्मभूतः सन् अधिगच्छति प्राप्नोति।।किञ्च
।।5.24।।ननु योगिनो ब्रह्माधिगतिः प्रागुक्ता 2।70 तत्किं पुनरुच्यते इत्यत आह ज्ञानीति। द्वितीये कथितत्वात् प्रपञ्चयतीत्युक्तम्। यथा योगस्याधिक्यकथनं योगनिरूपणमेव। सन्न्यासार्थे निन्दास्तुती च सन्न्यासनिरूपणमेव तथा ज्ञानिलक्षणकथनं च ज्ञाननिरूपणमिति। आरामशब्दार्थं तावदाह आराम इति। इदानीमन्तरारामशब्दलब्धमर्थमाह अत्र त्विति। तत्सुखम्। एवं तर्ह्यन्तस्सुख इत्यनेनैव गतार्थमेतदित्याशङ्क्य सुखशब्दस्य तावदर्थभेदमाह सुखं त्विति। व्यक्तमात्मसुखमिति सम्बन्धः। तर्ह्यन्तस्सुख इति कथं इत्यतस्तल्लब्धार्थमाह अत्र त्विति। अनेनारामसुखशब्दार्थान्तर्गतयोः परोपद्रवक्षययोरन्तरित्येतत् सामर्थ्याद्विशेषणमित्युक्तं भवति। ज्योतिश्शब्दार्थं तावदाह स्वयमिति। ज्योतिष्ट्वमिति शेषः। यद्यपि ज्योतिश्शब्दः प्रकाशमात्रे प्रवर्तते तथापि भगवत एव परानपेक्ष्य प्रकाशत्वात् मुख्ये च सम्प्रत्ययात् स एव ज्योतिरित्यर्थः। इदानीमन्तर्ज्योतिश्शब्दार्थमाह तद्व्यक्तेरिति। तस्य भगवतोऽन्तर्हृदये व्यक्तेरित्यर्थः। नन्वन्तर्ज्योतिर्यस्यासावन्तर्ज्योतिः। व्यक्तेरिति तु कथं लभ्यते इत्यत आह सर्वेषामिति। शब्दतः प्राप्तमन्तर्ज्योतिष्ट्वं सर्वसाधारणम्। अत्र तु ज्ञानिनो विशेषणत्वेनोच्यते तत्सामर्थ्यादिदं लब्धमिति भावः। यद्वा तद्व्यक्तेरित्यध्याहारेण तात्पर्यमुक्तम्। अद्याहारस्येदानीं प्रयोजनमुच्यते। नन्वेवशब्दो यदि धर्मान्तरनिवृत्त्यर्थः तदाऽन्तस्सुखमित्यादि व्याहतम्।अथ वस्त्वन्तरदर्शननिवृत्त्यर्थः। तदाऽसम्भवित्वमित्यत आह असम्प्रज्ञातेति। बाह्यं भगवतोऽन्यत्। दर्शनेऽप्यन्यदेति शेषः। अकिञ्चित्कराद्विक्षेपकरणाभावादित्यर्थः। एवशब्दः सम्भवदर्थ इति शेषः। एतेन लक्ष्यमेवेदं कथं लक्षणत्वेनोच्यत इति परिहृतम् व्यवच्छेदप्रधानत्वात्। एवशब्दस्य सामर्थ्याज्ज्योतिषा सम्बन्ध इति। आरामसुखशब्दयोरुक्तार्थत्वं कुतः इत्यत आह उक्तं चेति। न केवलं पुनरुक्तिबलादिति चार्थः। द्वन्द्वैकत्वादेकवचनम्। कामेत्युपद्रवोपलक्षणम्। उदितं व्यक्तम्। अन्तर्ज्योतिरित्यस्योक्तार्थत्वे प्रमाणमाह स्वेति। स स्थितो यस्मिन्निति तत्स्थितः। अन्तरेव ज्योतिर्दर्शनं यस्येत्येवं व्याख्यानेऽपि यद्यप्युक्तार्थो लभ्यते तथाप्यार्थिकाच्छाब्दं वरमित्येवं व्याख्यातम्। ब्रह्मैव भूत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासाय ब्रह्मभूतशब्दस्य विग्रहं दर्शयन् प्रकृतसङ्गतिमाह अन्तरिति। ब्रह्मणि भूत इत्येवं विग्रहः न तु ब्रह्मैव भूत इति प्रमाणविरोधात्। ननु ब्रह्मणि भूतत्वं साधकधर्मः तत्कथं ज्ञानिलक्षणत्वेनोच्यते मैवं यतोऽन्तस्सुखत्वादेः कारणत्वेनोच्यते। नन्वेवं सत्यर्थादिदं ज्ञानसाधनत्वेनोच्यते तच्चतद्बुद्धयः इत्यनेनैवोक्तम्। सत्यम्। तद्बुद्धित्वादिकं ब्रह्मणि भूतत्वं यस्य कारणं तद्वानेवंलक्षणक इत्येवं सङ्गतिसूचनार्थोऽयमनुवाद इति भावः। एवं चअधिगच्छति इत्यस्य जानातीत्यर्थो ज्ञातव्यः।
।।5.24।।ज्ञानिलक्षणं प्रपञ्चयत्युत्तरैः श्लोकैः। आरामः परदर्शनादिनिमित्तं सुखम्। अत्र तु परमात्मदर्शनादिनिमित्तं तत्। सुखं तूपद्रवक्षये व्यक्तम्। अत्र तु कामादिक्षये व्यक्तमात्मनः सुखम् स्वयञ्ज्योतिष्ट्वाद्भगवतः। तद्व्यक्तेरन्तर्ज्योतिः। सर्वेषामन्तर्ज्योतिष्ट्वेऽपि व्यक्तेर्विशेषः।असम्प्रज्ञातसमाधीनां बाह्यादर्शनात्। दर्शनेऽप्यकिंञ्चित्करत्वादेवशब्दः। उक्तं चैतत् दर्शनस्पर्शसम्भाषाद्यत्सुखं जायते नृणाम्। आरामः स तु विज्ञेयः सुखं कामक्षयोदितम् इति नारदीये।स्वज्योतिष्ट्वान्महाविष्णोरन्तर्ज्योतिस्तु तत्स्थितः इति च। अन्तस्सुखत्वादेः कारणमाह ब्रह्मणि भूत इति।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति।।5.24।।
যোন্তঃসুখোন্তরারামস্তথান্তর্জ্যোতিরেব যঃ৷ স যোগী ব্রহ্মনির্বাণং ব্রহ্মভূতোধিগচ্ছতি৷৷5.24৷৷
যোন্তঃসুখোন্তরারামস্তথান্তর্জ্যোতিরেব যঃ৷ স যোগী ব্রহ্মনির্বাণং ব্রহ্মভূতোধিগচ্ছতি৷৷5.24৷৷
યોન્તઃસુખોન્તરારામસ્તથાન્તર્જ્યોતિરેવ યઃ। સ યોગી બ્રહ્મનિર્વાણં બ્રહ્મભૂતોધિગચ્છતિ।।5.24।।
ਯੋਨ੍ਤਸੁਖੋਨ੍ਤਰਾਰਾਮਸ੍ਤਥਾਨ੍ਤਰ੍ਜ੍ਯੋਤਿਰੇਵ ਯ। ਸ ਯੋਗੀ ਬ੍ਰਹ੍ਮਨਿਰ੍ਵਾਣਂ ਬ੍ਰਹ੍ਮਭੂਤੋਧਿਗਚ੍ਛਤਿ।।5.24।।
ಯೋನ್ತಃಸುಖೋನ್ತರಾರಾಮಸ್ತಥಾನ್ತರ್ಜ್ಯೋತಿರೇವ ಯಃ. ಸ ಯೋಗೀ ಬ್ರಹ್ಮನಿರ್ವಾಣಂ ಬ್ರಹ್ಮಭೂತೋಧಿಗಚ್ಛತಿ৷৷5.24৷৷
യോന്തഃസുഖോന്തരാരാമസ്തഥാന്തര്ജ്യോതിരേവ യഃ. സ യോഗീ ബ്രഹ്മനിര്വാണം ബ്രഹ്മഭൂതോധിഗച്ഛതി৷৷5.24৷৷
ଯୋନ୍ତଃସୁଖୋନ୍ତରାରାମସ୍ତଥାନ୍ତର୍ଜ୍ଯୋତିରେବ ଯଃ| ସ ଯୋଗୀ ବ୍ରହ୍ମନିର୍ବାଣଂ ବ୍ରହ୍ମଭୂତୋଧିଗଚ୍ଛତି||5.24||
yō.ntaḥsukhō.ntarārāmastathāntarjyōtirēva yaḥ. sa yōgī brahmanirvāṇaṅ brahmabhūtō.dhigacchati৷৷5.24৷৷
யோந்தஃஸுகோந்தராராமஸ்ததாந்தர்ஜ்யோதிரேவ யஃ. ஸ யோகீ ப்ரஹ்மநிர்வாணஂ ப்ரஹ்மபூதோதிகச்சதி৷৷5.24৷৷
యోన్తఃసుఖోన్తరారామస్తథాన్తర్జ్యోతిరేవ యః. స యోగీ బ్రహ్మనిర్వాణం బ్రహ్మభూతోధిగచ్ఛతి৷৷5.24৷৷
5.25
5
25
।।5.25।। जिनका शरीर मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित वशमें है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं, जिनके सम्पूर्ण संशय मिट गये हैं, जिनके सम्पूर्ण कल्मष (दोष) नष्ट हो गये हैं, वे विवेकी साधक निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।
।।5.25।। वे ऋषिगण मोक्ष को प्राप्त होते हैं - जिनके पाप नष्ट हो गये हैं, जो छिन्नसंशय, संयमी और भूतमात्र के हित में रमने वाले हैं।।
।।5.25।। जितेन्द्रिय होकर जब मनुष्य ध्यानभ्यास करता है तब वह अपने मन की सभी पापपूर्ण वासनाओं को धो डालता है जिन्होनें आत्मस्वरूप को आवृत्त कर रखा है और जिसके कारण सत्य के विषय में असंख्य संशय उत्पन्न होते हैं। मन के शुद्ध होने पर आत्मानुभव भी सहजसिद्ध हो जाता है। आत्मज्ञान का उदय होने के साथ ही आवरण और विक्षेप रूप अज्ञान की आत्यंतिक निवृत्ति होकर स्वरूप में अवस्थान प्राप्त हो जाता है।विकास के सर्वोच्च शिखरआत्मस्थिति को प्राप्त करने के पश्चात् देह त्याग तक ज्ञानी पुरुष का क्या कर्तव्य होता है इस विषय में सामान्य धारणा यह है कि वह जगत् में विक्षिप्त के समान अथवा पाषाण प्रतिमा के समान रहेगा दिन में कमसेकम एक बार भोजन करेगा और घूमता रहेगा। लोग ऐसे पुरुष को समाज पर भार समझते हैं। परन्तु वेदों में मनुष्य के लिए कोई जीवित प्रेत का लक्ष्य नहीं बताया गया है और न ऋषियों ने किसी ऐसे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया है।आत्मसाक्षात्कार कोई दैवनिर्धारित शवगर्त की ओर धीरेधीरे बढ़ने वाला दुखद संचलन नहीं वरन् सत्य के राजप्रासाद तक पहँचने की सुखद यात्रा है। यह सत्य जीव का स्वयं सिद्ध स्वरूप ही है जिसके अज्ञान से वह अपने से ही दूर भटक गया था। आत्मानुभव में स्थित ज्ञानी पुरुष का सम्पूर्ण जीवन मनुष्यों का आत्म अज्ञान दूर करने और आत्मवैभव को प्रकट करने में समर्पित होता है। इसका संकेत भगवान् के शब्दों में सर्वभूत हिते रता के द्वारा किया गया है।यह लोक सेवा उसका स्वनिर्धारित कार्य और मनोरंजन दोनों ही है। उपाधियों के द्वारा सब की सेवा में अपने को समर्पित करते हुए ज्ञानी पुरुष स्वयं अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहता है।भगवान् आगे कहते हैं
5.25।। व्याख्या--'यतात्मानः'--नित्य सत्यतत्त्वकी प्राप्तिका दृढ़ लक्ष्य होनेके कारण साधकोंको शरीर-इन्द्रियाँ-मनबुद्धि वशमें करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही सुगमतापूर्वक उनके वशमें हो जाते हैं। वशमें होनेके कारण इनमें राग-द्वेषादि दोषोंका अभाव हो जाता है और इनके द्वारा होनेवाली प्रत्येक क्रिया दूसरोंका हित करनेवाली हो जाती है।शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको अपने और अपने लिये मानते रहनेसे ही ये अपने वशमें नहीं होते और इनमें राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि दोष विद्यमान रहते हैं। ये दोष जबतक विद्यमान रहते हैं, तबतक साधक स्वयं इनके वशमें रहता है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह शरीरादिको कभी अपना और अपने लिये न माने। ऐसा माननेसे इनकी आग्रहकारिता समाप्त हो जाती है और ये वशमें हो जाते हैं। अतः जिनका शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिमें अपनेपनका भाव नहीं है तथा जो इन शरीरादिको कभी अपना स्वरूप नहीं मानते, ऐसे सावधान साधकोंके लिये यहाँ 'यतात्मानः' पद आया है।
।।5.25।।लभन्ते इति। एतच्च तैः प्राप्यं येषां भेदसंशयरूपौ ग्रन्थी विनष्टौ।
।।5.25।।छिन्नद्वैधाः शीतोष्णादिद्वन्द्वैः विमुक्ताः यतात्मानः आत्मनि एव नियमितमनसः सर्वभूतहिते रताः आत्मवत् सर्वेषां भूतानां हितेषु निरताः ऋषयः द्रष्टारः आत्मावलोकनपरा ये एवंभूताः ते क्षीणाशेषात्मप्राप्तिविरोधिकल्मषाः ब्रह्मनिर्वाणं लभन्ते।उक्तगुणानां ब्रह्म अत्यन्तसुलभम् इत्याह
।।5.25।।मुक्तिहेतोर्ज्ञानस्य साधनान्तरमाह किंचेति। यज्ञादिनित्यकर्मानुष्ठानात्पापादिलक्षणं कल्मषं क्षीयते ततश्च श्रवणाद्यावृत्तेः सम्यग्दर्शनं जायते ततो मुक्तिरप्रयत्नेन भवतीत्याह लभन्त इति। ज्ञानप्राप्त्युपायान्तरं दर्शयति छिन्नेति। श्रवणादिना संशयनिरसनं कार्यकरणनियमनं च दयालुत्वेनाहिंसकत्वमित्येतदपि सम्यग्ज्ञानप्राप्तौ कारणमित्यर्थः। अक्षरव्याख्यानं स्पष्टत्वान्न व्याख्यायते।
।।5.25।।तत्र सतामाचरणं प्रमाणयति लभन्त इति। ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः सर्वज्ञा भूत्वा छिन्नसंशया यतात्मानो ब्रह्मानन्दं लभन्ते।
।।5.25।।मुक्तिहेतोर्ज्ञानस्य साधनान्तराणि विवृण्वन्नाह प्रथमं यज्ञादिभिः क्षीणकल्मषाः ततोऽन्तःकरणशुद्ध्या ऋषयः सूक्ष्मवस्तुविवेचनसमर्थाः संन्यासिनः ततः श्रवणादिपरिपाकेन छिन्नद्वैधा निवृतसर्वसंशयाः ततो निदिध्यासनपरिपाकेन संयतात्मानः परमात्मन्येवैकाग्रचित्ताः एतादृशाश्च द्वैतादर्शित्वेन सर्वभूतहिते रता हिंसाशून्या ब्रह्मविदो ब्रह्मनिर्वाणं लभन्ते।यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।। इति श्रुतेः। बहुवचनंतद्यो यो देवानाम् इत्यादिश्रुत्युक्तनियमप्रदर्शनार्थम्।
।।5.25।।किंच लभन्त इति। ऋषयः सम्यग्दर्शिनः क्षीणं कल्मषं येषां छिन्नं द्वैधं संशयो येषां यत संयत आत्मा चित्तं येषां सर्वेषां भूतानां हिते रताः कृपालवस्ते ब्रह्मनिर्वाणं मोक्षं लभन्ते।
।।5.25।।समदर्शित्वरूपज्ञानविपाकसिद्ध्यर्थमनुष्ठानप्रकारो हिन प्रहृष्येत् 5।20 इत्यादिनोच्यते। तत्र हर्षोद्वेगविनिवृत्तिः बाह्यविषयनिस्सङ्गत्वं तदर्थदोषदर्शनं कामक्रोधवेगनिवारणम् आत्मन्येव सर्वविधभोग्यताकल्पनं च क्रमाच्छ्लोकपञ्चकेनोक्तम्। अथ प्रागुक्तद्वन्द्वसहत्वादिस्मारणपूर्वकं सर्वभूतहितेरतत्वं नाम समदर्शित्वेऽत्यन्तान्तरङ्गं साधनमुपदिश्यतेलभन्ते इति श्लोकेन।छिन्नद्वैधाः इत्यनेन भेदस्वरूपनिषेधभ्रमव्युदासायाहशीतोष्णादिद्वन्द्वैर्विमुक्ता इति। द्वैधशब्दस्यात्र संशयाद्यर्थत्वं चानुचितमिति भावः। नियन्तव्येषु प्रधानं मन इहात्मशब्देनोच्यते। नियमनं च तस्योचितविषयव्यवस्थापनमित्यभिप्रायेणआत्मन्येव नियमितमनस इत्युक्तम्।श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् इति पञ्चमवेदद्रष्ट्रा परमर्षिणा निर्णीतोऽयमर्थं इति ज्ञापनायआत्मवदिति दृष्टान्तःहितेष्वेवेत्यवधारणं च। सर्वशब्दोऽत्र दृष्टान्तभूतं स्वात्मानमात्मान्तरं च सङ्गृह्णातीति भावः। एवमवस्थितस्य परिशुद्धान्योन्यसदृशात्मस्वरूपसाक्षात्कारवत्त्वमपिशब्देन विवक्षितमिति ज्ञापनायाहद्रष्टार इति। एवंविधसाक्षात्कारसिद्धावनिष्टनिवृत्तिरिष्टप्राप्तिसिद्धिश्चक्षीणकल्मषाः ब्रह्मनिर्वाणंलभन्ते इत्युभाभ्यामुच्यत इत्याहय एवम्भूता इति।न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते 4।38 इति ज्ञानस्य कल्मषनिवर्तकत्वं प्रागेवोक्तमिह स्मारितम्।
।।5.25।।ननु लीलात्मकता ऋषीणामपि दुर्लभा कथं केवलभाववतामेव सिद्ध्येत् इत्यत आह लभन्त इति। क्षीणकल्मषा भगवल्लीलानुभवफलेतरफलानभिलाषिण ऋषयः फलदर्शिनोऽग्निकुमारादितुल्याः ब्रह्मनिर्वाणं लीलात्मकत्वं लभन्ते। कीदृशाः छिन्नद्वैधाश्छिन्नसंशयाः एतत्फलेतरफलाज्ञानिनः। पुनः कीदृशाः यतात्मानः केवलं भगवदर्थैकनिष्ठात्मवन्तः। पुनः कीदृशाः सर्वभूतहिते भगवति रता अनुरागिणो ये ते लीलात्मकतां प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। यद्वा भिन्नतया सर्व एव लभन्ते ऋषयः तत्र निदर्शनमग्निकुमाराः। छिन्नद्वैधाः श्रुतयो गोपीरूपाः। यतात्मानो वृन्दावने पक्ष्यादिरूपा मुनयः। सर्वभूतहिते रताः पुलिन्द्यः। एवं भाववन्तः सर्वेऽपि लभन्त इति भावः।
।।5.25।।लभन्त इति। ऋषयः सम्यग्दर्शिनः। छिन्नद्वैधाश्छिन्नसंशयाः। यतात्मानो जितचित्ताः।
।।5.25।।ब्रह्मनिर्वाणप्राप्तिहेतोर्ज्ञानस्य साधनान्तराण्याह लभन्त इति। ऋषयः सूक्ष्मतत्त्वदर्शिनःदृश्यते त्वग्र्यया बुद्य्धा सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः इति श्रुतेः। ब्रह्म निर्वाणं लभन्त इत्यन्वयः।ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः इचिवचनमनुरुध्याह। निष्कामकर्मणा ईश्वराराधनलक्षणेन क्षीणपापाःआत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः इत्यात्मदर्शनसाधनं श्रवणादिकं कथयन्तीं श्रुतिमनुरुध्याह। श्रवणेन मननेन च च्छिन्नद्वैधाः च्छिन्नसंशयाः यतात्मानः संयतानि समनस्कानीन्द्रियाणि यैस्ते। अनेन विजातीयप्रत्ययतिरस्कारपुरःसरसजातीयप्रत्ययप्रवाहीकरणात्मकं निदिध्यासनमुक्तम्। एतादृशानां लक्षणमाह। सर्वेषां भूतानां हिते अनुकूले रताः। अहिंसका इत्यर्थः।
5.25 लभन्ते obtain? ब्रह्मनिर्वाणम् absolute freedom? ऋषयः the Rishis? क्षीणकल्मषाः those whose sins are destroyed? छिन्नद्वैधाः whose dualities are torn asunder? यतात्मानः those who are selfcontrolled? सर्वभूतहिते in the welfare of all beings? रताः rejoicing.Commentary Sins are destroyed by the performance of Agnihotra (a daily obligatoyr ritual) and other Yajnas (vide notes on verse III. 13) without expectation of their fruits and by other selfless services. The duties vanish by constant meditation on the nondual Brahman. He never hurts others in thought? word and deed? and he is devoted to the welfare of all beings as he feels that all beings are but his own Self. (Cf.XII.4)
5.25 The sages (Rishis) obtain absolute freedom or Moksha they whose sins have been destroyed, whose dualities (perception of dualities or experience of the pairs of opposites) are torn asunder, who are self-controlled, and intent on the welfare of all beings.
5.25 Sages whose sins have been washed away, whose sense of separateness has vanished, who have subdued themselves, and seek only the welfare of all, come to the Eternal Spirit.
5.25 The seers whose sins have been attenuated, who are freed from doubt, whose organs are under control, who are engaged in doing good to all beings, attain absorption in Brahman.
5.25 Rsayah, the seers, those who have full realization, the monks; ksina-kalmasah, whose sins, defects like sin etc., have been attenuated; chinna-dvaidhah, who are freed from doubt; yata-atmanah, whose organs are under control; ratah, who are engaged; sarvabhutahite, in doing good to all beings-favourably disposed towards all, i.e. harmless; labhante, attain; brahma-nirvanam, absorption in Brahman, Liberation. Further,
5.25. At all times there is the tranil Brahman for the ascetics who have severed their connection with desire and anger, who have controlled their mind and have realised their Self.
5.25 Labhante etc. This [goal] is however possible to attain for those in whom the double knots in the form of dualism and doubt have been cut off.
5.25 The sages are seers who are devoted to the vision of the self. For them the pairs of opposites are annulled; i.e., they are freed from pairs of opposites like cold and heat, etc. 'They have their minds well subdued,' i.e., their minds are directed to the self. 'They are devoted to the welfare of all beings,' i.e., they are interested in the welfare of all beings like their own selves. Those persons who are like this have all their impurities, which are incompatible with the attainment of the self, annulled, and they attain to the bliss of the Brahman. For those possessing the characteristics mentioned above, Sri Krsna now teaches that the Brahman is easy to attain.
5.25 The sages who are free from the pairs of opposites, whose minds are well subdued and who are devoted to the welfare of all beings, become cleansed of all impurities and attain the bliss of the Brahman.
।।5.25।।और भी जिनके पापादि दोष नष्ट हो गये हैं जिनके सब संशय क्षीण हो गये हैं जो जितेन्द्रिय हैं जो सब भूतोंके हितमें अर्थात् अनुकूल आचरणमें रत हैं अर्थात् अहिंसक हैं ऐसे ऋषिजन सम्यक् ज्ञानीसंन्यासी लोग ब्रह्मनिर्वाणको अर्थात् मोक्षको प्राप्त होते हैं।
।।5.25।। लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं मोक्षम् ऋषयः सम्यग्दर्शिनः संन्यासिनः क्षीणकल्मषाः क्षीणपापाः निर्दोषाः छिन्नद्वैधाः छिन्नसंशयाः यतात्मानः संयतेन्द्रियाः सर्वभूतहिते रताः सर्वेषां भूतानां हिते आनुकूल्ये रताः अहिंसका इत्यर्थः।।किञ्च
।।5.25।।उत्तरश्लोके ज्ञानिनो ब्रह्मप्राप्तिः पुनः किमर्थमुच्यते इत्यत आह पापेति। ब्रह्मभूतत्वेन सहास्य समुच्चयार्थश्चशब्दः। एतदुक्तलक्षणं ज्ञानम्। अतो लभन्त इत्यस्योपलभन्त इत्यर्थः। कथं तर्हि ज्ञानिलक्षणप्रपञ्चार्थत्वं श्लोकत्रयस्योक्तं इति। उच्यते ज्ञानप्रतिबन्धकपापक्षयाख्यमसाधारणं कारणं कार्यस्य लक्षणं भवत्येवेति। अत्र कार्यकारणभावो न प्रतीयत इत्यत आह क्षीणेति। भवन्ति ततो ब्रह्मोपलभन्त इत्यर्थः। छिन्नद्वैधशब्दार्थं ज्ञापयन् द्वैधशब्दं व्याचष्टे द्वैधेति। विषयापेक्षयाऽन्यप्रकारत्वं अयथार्थत्वमिति यावत्। तेन च तद्वज्ज्ञानमुपलक्ष्यत इति भावेनाह संशय इति। वाशब्दश्चार्थे। अत्रैव प्रमाणमाह तच्चेति। अकृतात्मनामशुद्धबुद्धीनाम्। छिन्नेत्यादेः समासत्वमभिप्रेत्य विग्रहमाह छिन्नेति। आयतशब्दस्य आत्मशब्दस्य चानेकार्थत्वात् आयतात्मान इत्येतद्व्याचष्टे दीर्घेति। अणुनो मनसः कथं दीर्घत्वमित्यत आह सर्वज्ञा इति। बहुविषयत्वमुपलक्ष्यत इति भावः। श्रवणादिना विदितवेद्या इत्यर्थः। समासेनोक्तयोरप्यर्थयोर्बुद्ध्या विविक्तयोर्हेतुहेतुमद्भावोऽस्तीति भावेनाह तत एवेति। आयतात्मत्वादेव क्षीणकल्मषत्वायतात्मत्वछिन्नद्वैधत्वानां हेतुहेतुमद्भावे प्रमाणमाह तच्चेति। व्यस्ते एवैते पदे इत्याह छिन्नेति नियतमनस इत्यर्थः।
।।5.25।।पापक्षयाच्चैतद्भवतीत्याह लभन्त इति। क्षीणकल्मषा भूत्वा छिन्नद्वैधा यतात्मानः। द्वेधा भावो द्वैधम् संशयो विपर्ययो वा। तच्चोक्तम् विपर्ययः संशयो वा यद्वैधं त्वकृतात्मनाम्। ज्ञानासिना तु तच्छित्त्वा मुक्तसङ्गः परिव्रजेत् इति च। छिन्नद्वैधास्त एवायतात्मानः दीर्घमनसः सर्वज्ञा इत्यर्थः। तत एव छिन्नद्वैधाः। तच्चोक्तम् क्षीणपापा महाज्ञाना जायन्ते गतसंशयाः इति।छिन्नद्वैधा यतात्मानः इति वा।
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः। छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।।5.25।।
লভন্তে ব্রহ্মনির্বাণমৃষযঃ ক্ষীণকল্মষাঃ৷ ছিন্নদ্বৈধা যতাত্মানঃ সর্বভূতহিতে রতাঃ৷৷5.25৷৷
লভন্তে ব্রহ্মনির্বাণমৃষযঃ ক্ষীণকল্মষাঃ৷ ছিন্নদ্বৈধা যতাত্মানঃ সর্বভূতহিতে রতাঃ৷৷5.25৷৷
લભન્તે બ્રહ્મનિર્વાણમૃષયઃ ક્ષીણકલ્મષાઃ। છિન્નદ્વૈધા યતાત્માનઃ સર્વભૂતહિતે રતાઃ।।5.25।।
ਲਭਨ੍ਤੇ ਬ੍ਰਹ੍ਮਨਿਰ੍ਵਾਣਮਰਿਸ਼ਯ ਕ੍ਸ਼ੀਣਕਲ੍ਮਸ਼ਾ। ਛਿਨ੍ਨਦ੍ਵੈਧਾ ਯਤਾਤ੍ਮਾਨ ਸਰ੍ਵਭੂਤਹਿਤੇ ਰਤਾ।।5.25।।
ಲಭನ್ತೇ ಬ್ರಹ್ಮನಿರ್ವಾಣಮೃಷಯಃ ಕ್ಷೀಣಕಲ್ಮಷಾಃ. ಛಿನ್ನದ್ವೈಧಾ ಯತಾತ್ಮಾನಃ ಸರ್ವಭೂತಹಿತೇ ರತಾಃ৷৷5.25৷৷
ലഭന്തേ ബ്രഹ്മനിര്വാണമൃഷയഃ ക്ഷീണകല്മഷാഃ. ഛിന്നദ്വൈധാ യതാത്മാനഃ സര്വഭൂതഹിതേ രതാഃ৷৷5.25৷৷
ଲଭନ୍ତେ ବ୍ରହ୍ମନିର୍ବାଣମୃଷଯଃ କ୍ଷୀଣକଲ୍ମଷାଃ| ଛିନ୍ନଦ୍ବୈଧା ଯତାତ୍ମାନଃ ସର୍ବଭୂତହିତେ ରତାଃ||5.25||
labhantē brahmanirvāṇamṛṣayaḥ kṣīṇakalmaṣāḥ. chinnadvaidhā yatātmānaḥ sarvabhūtahitē ratāḥ৷৷5.25৷৷
லபந்தே ப்ரஹ்மநிர்வாணமரிஷயஃ க்ஷீணகல்மஷாஃ. சிந்நத்வைதா யதாத்மாநஃ ஸர்வபூதஹிதே ரதாஃ৷৷5.25৷৷
లభన్తే బ్రహ్మనిర్వాణమృషయః క్షీణకల్మషాః. ఛిన్నద్వైధా యతాత్మానః సర్వభూతహితే రతాః৷৷5.25৷৷
5.26
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।।5.26।। काम-क्रोधसे सर्वथा रहित,  जीते हुए मनवाले और स्वरूपका साक्षात्कार किये हुए सांख्ययोगियोंके लिये दोनों ओरसे--शरीरके रहते हुए अथवा शरीर छूटनेके बाद) निर्वाण ब्रह्म परिपूर्ण है।
।।5.26।। काम और क्रोध से रहित,  संयतचित्त वाले तथा आत्मा को जानने वाले यतियों के लिए सब ओर मोक्ष (या ब्रह्मानन्द) विद्यमान रहता है।।
।।5.26।। इस आसुरी युग में लोगों को दैवी जीवन जीने की प्रेरणा देने प्राणि मात्र के प्रति हृदय मे उमड़ते प्रेम के कारण वेश्या को पापमुक्त अथवा कोढ़ी को रोग मुक्त करने अंधकार को प्रकाशित करके अज्ञानियों का पथप्रदर्शन करने का समाज सेवा का कार्य करते हुए ज्ञानी पुरुष स्वयं अपने दिव्य स्वरूप में स्थित समाज की अशुद्धियों से लिप्त नहीं होता। जैसे एक चिकित्सक अस्वस्थ रोगियों का उपचार उनके मध्य रहकर करता हुआ भी उनके रोगें से अछूता रहता है या उनके दुखों से स्वयं भावावेश में नहीं आ जाता वैसे ही दुखार्त कामुक हीन वैषयिक प्रवृत्तियों के लोगों के मध्य रहकर भी ज्ञानी पुरुष को उनके अवगुणों का स्पर्श तक नहीं होता।किस प्रकार सिद्ध पुरुष जगत् के प्रलोभनों में अपने मन का समत्व बनाये रख पाता है भगवान् कहते हैं जो पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल पर मन की काम और क्रोध की प्रवृत्तियों को विजित कर लेता है और शास्त्रों में उपदिष्ट दैवी जीवन के मार्ग का अनुसरण करता है वह आत्मज्ञान को प्राप्त करके इस समत्व को प्राप्त करता है जिसे कोई भी वस्तु या परिस्थिति विचलित नहीं कर पाती। वह इसी जीवन में तथा देह त्याग के पश्चात् भी ब्रह्मानन्द में ही स्थित रहता है।अब भगवान् सम्यक् दर्शन के साक्षात् अन्तरंग साधनध्यानयोग का वर्णन अगले दो सूत्ररूप श्लोकों में करते हैं
5.26।। व्याख्या--'कामक्रोधवियुक्तानां यतीनाम्'--भगवान् उपर्युक्त पदोंसे यह स्पष्ट कह रहे हैं कि सिद्ध महापुरुषमें काम-क्रोधादि दोषोंकी गन्ध भी नहीं रहती। काम-क्रोधादि दोष उत्पत्ति-विनाशशील असत् पदार्थों (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) के सम्बन्धसे उत्पन्न होते हैं। सिद्ध महापुरुषको उत्पत्ति-विनाशशील सत्त-त्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है, अतः उत्पत्ति-विनाशरहित असत् पदार्थोंसे उसका सम्बन्ध सर्वथा नहीं रहता। उसके अनुभवमें अपने कहलानेवाले शरीर अन्तःकरणसहित सम्पूर्ण संसारके साथ अपने सम्बन्धका सर्वथा अभाव हो जाता है, अतः उसमें काम-क्रोध आदि विकार कैसे उत्पन्न हो सकते हैं? यदि काम-क्रोध सूक्ष्मरूपसे भी हों, तो अपनेको जीवन्मुक्त मान लेना भ्रम ही है।उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंकी इच्छाको 'काम' कहते हैं। काम अर्थात् कामना अभावमें पैदा होती है। अभाव सदैव असत्में रहता है। सत्-स्वरूपमें अभाव है ही नहीं। परन्तु जब स्वरूप असत्से तादात्म्य कर लेता है, तब असत्-अंशके अभावको वह अपनेमें मान लेता है। अपनेमें अभाव माननेसे ही कामना पैदा होती है और कामना-पूर्तिमें बाधा लगनेपर क्रोध आ जाता है। इस प्रकार स्वरूपमें कामना न होनेपर भी तादात्म्यके कारण अपनेमें कामनाकी प्रतीति होती है। परन्तु जिनका तादात्म्य नष्ट हो गया है और स्वरूपमें स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो गया है, उन्हें स्वयंमें असत्के अभावका अनुभव हो ही कैसे सकता है ?साधन करनेसे कामक्रोध कम होते हैं ऐसा साधकोंका अनुभव है। जो चीज कम होनेवाली होती है वह मिटनेवाली होती है अतः जिस साधनसे ये काम-क्रोध कम होते हैं उसी साधनसे ये मिट भी जाते हैं।साधन करनेवालोंको यह अनुभव होता है कि (1) कामक्रोध आदि दोष पहले जितनी जल्दी आते थे, उतनी जल्दी अब नहीं आते। (2) पहले जितने वेगसे आते थे उतने वेगसे अब नहीं आते और (3) पहले जितनी देरतक ठहरते थे उतनी देरतक अब नहीं ठहरते। कभी-कभी साधकको ऐसा भी प्रतीत होता है कि काम-क्रोधका वेग पहलेसे भी अधिक आ गया। इसका कारण यह है कि (1) साधन करनेसे भोगासक्ति तो मिटती चली गयी और पूर्णावस्था प्राप्त हुई नहीं। (2) अन्तःकरण शुद्ध होनेसे थोड़े काम-क्रोध भी साधकको अधिक प्रतीत होते हैं। (3) कोई मनके विरुद्ध कार्य करता है तो वह साधकको बुरा लगता है, पर साधकउसकी परवाह नहीं करता। बुरा लगनेके भावका भीतर संग्रह होता रहता है। फिर अन्तमें थोड़ी-सी बातपर भी जोरसे क्रोध आ जाता है; क्योंकि भीतर जो संग्रह हुआ था, वह एक साथ बाहर निकलता है। इससे दूसरे व्यक्तिको भी आश्चर्य होता है कि इतनी थोड़ी-सी बातपर इसे इतना क्रोध आ गया! कभी-कभी वृत्तियाँ ठीक होनेसे साधकको ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी पूर्णावस्था हो गयी। परन्तु वास्तवमें जबतक पूर्णावस्थाका अनुभव करनेवाला है, तबतक (व्यक्तित्व बना रहनेसे) पूर्णावस्था हुई नहीं।
।।5.26।।कामेति। तेषां सर्वतः सर्वास्ववस्थासु ब्रह्मसत्ता पारमार्थिकी न निरोधकालमपेक्षते।
।।5.26।।कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतनशीलानां यतचेतसां नियमितमनसां विजितात्मनां विजितमनसां ब्रह्मनिर्वाणम् अभितो वर्तते। एवंभूतानां हस्तस्थं ब्रह्मनिर्वाणम् इत्यर्थः।उक्तं कर्मयोगं स्वलक्ष्यभूतयोगशिरस्कम् उपसंहरति
।।5.26।।पूर्वं कामक्रोधयोर्वेगः सोढव्यो दर्शितः संप्रति तावेव त्याज्यावित्याह किंचेति। ननु दर्शितविशेषणवतां मृतानामेव मोक्षो नतु जीवतामिति चेन्नेत्याह अभित इति। अस्मदादीनामपि तर्हि प्रभूतकामादिप्रभावविधुराणां किमिति मोक्षो न भवतीत्याशङ्क्य सम्यग्दर्शनवैशेष्याभावादित्याह विदितेति। उक्तेऽर्थे श्लोकाक्षराणामन्वयमाचष्टे कामक्रोधेत्यादिना।
।।5.26।।किञ्च कामक्रोधवियुक्तानामिति। अभित उभयतः मृतानां जीवतां न देहान्तर एव तेषां ब्रह्मानन्दः अपितु जीवतामपि वर्त्तते इत्यर्थः।
।।5.26।।पूर्वं कामक्रोधयोरुत्पन्नयोरपि वेगः सोढव्य इत्युक्तमधुना तु तयोरुत्पत्तिप्रतिबन्ध एव कर्तव्य इत्याह कामक्रोधयोर्वियोगस्तदनुत्पत्तिरेव तद्युक्तानां कामक्रोधवियुक्तानाम्। अतएव यतचेतसां संयतचित्तानां यतीनां यत्नशीलानां संन्यासिनां विदितात्मनां साक्षात्कृतपरमात्मनामभित उभयतो जीवतां मृतानां च तेषां ब्रह्मनिर्वाणं मोक्षो वर्तते नित्यत्वात् नतु भविष्यति साध्यत्वाभावात्।
।।5.26।।किंच कामक्रोधवियुक्तानामिति। कामक्रोधाभ्यां वियुक्तानां यतीनां संन्यासिनां संयतचित्तानां ज्ञातात्मतत्त्वानां अभित उभयतो मृतानां जीवतां च न देहान्तर एव तेषां ब्रह्मणि लयः अपितु जीवतामपि वर्तत इत्यर्थः।
।।5.26।।एवं षड्भिः श्लोकैः समदर्शित्वसाधकमनुष्ठानप्रकारमुपदिश्य तत्र शीघ्रप्रवृत्तिसिद्ध्यर्थं फलस्याविलम्बितत्वमनन्तरमुच्यत इत्यभिप्रायेणाह उक्तलक्षणानामिति। कामक्रोधवियुक्ततोक्तिःशक्नोति 5।23 इति श्लोकार्थानुवादः। क्रोधनिवृत्त्यैव सर्वभूतहितेरतत्वमिति सूचितम्।यतीनाम् इत्यत्र रूढेरयुक्तत्वात् प्रकृतिप्रत्ययार्थवैशद्याययतनशीलानामित्युक्तम्। तेनन प्रहृष्येत् इति श्लोकद्वयार्थाऽनुदितः।यतचेतसां इत्येतदात्मन्येव सर्वाकारकल्पनानुवाद इति दर्शयितुंनियमितमनसां इत्युक्तम्।विजितात्मनां इत्यनेन दोषप्रदर्शनेनान्तःकरणावर्जनपरस्यये हि 5।22 इति श्लोकस्यार्थः सूचित इति प्रदर्शनायविजितमनसामित्युक्तम्। एवं पुनरुक्तिपरिहाराज्ञानात्विदितात्मनां इति परैः पठितम्।अभितो৷৷.वर्तते इत्यत्यन्तासन्नकालत्वं विवक्षितमिति दर्शयति एवम्भूतानामिति।हस्तस्थं न तु हस्तोद्धृतदण्डादिग्राह्यफलादिवद्व्यवहितलाभमिति भावः।
।।5.26।।किञ्च कामक्रोधवियुक्तोनां पूर्वोक्तप्रकारेण कामक्रोधरहितानां यतीनां परमहंसानां भगवदर्थं सर्वपरित्यागेन स्थितानां वृन्दावनीयवृक्षादिवत् यतचेतसां भगवत्स्वरूपानुभवैकपरचित्तानां विदितात्मनां भगवत्स्वरूपज्ञानिनां अभितः सर्वजन्मसु सर्वदिक्षु वा ब्रह्मनिर्वाणं लीलात्मकत्वं वर्त्तते अनुवर्तत इत्यर्थः। यथा वृन्दावने वृक्षेषु तन्मूलेषु परितश्च क्री़डति तथेति भावः।
।।5.26।।किञ्च कामेति। अभितो जीवतां मृतानां च विदितात्मनां ज्ञातात्मतत्त्वानाम्।
।।5.26।।पूर्वं कामक्रोधोद्भवो वेगः सोढव्य इत्युक्तं इदानीं तावेव त्याज्यवित्याह। कामक्रोधाभ्यां वियुक्तानां यतीनां संन्यासिनां संयतचित्तात्मनां विदितात्मतत्त्वानां ब्रह्मनिर्वाणमभितः उभयतो जीवतां मृतानां च वर्तते।
5.26 कामक्रोधवियुक्तानाम् of those who are free from desire and anger? यतीनाम् of the selfcontrolled ascetics? यतचेतसाम् of those who have controlled their thoughts? अभितः on all sides? ब्रह्मनिर्वाणम् absolute freedom? वर्तते exists? विदितात्मनाम् of those who have realised the Self.Commentary Those who renounce all actions and practise Sravana (hearing of the scriptures)? Manana (reflection) and Nididhyasana (meditation)? who are established in Brahman or who are steadily devoted to the knowledge of the Self attain liberation or Moksha instantaneously (Kaivalya Moksha). Karma Yoga leads to Moksha step by step (Krama Mukti). First comes purification of the mind? then knowledge? then renunciation of all actions and eventually Moksha.
5.26 Absolute freedom (or Brahmic bliss) exists on all sides for those self-controlled ascetics who are free from desire and anger, who have controlled their thoughts and who have realised the Self.
5.26 Saints who know their Selves, who control their minds, and feel neither desire nor anger, find Eternal Bliss everywhere.
5.26 To the monks who have control over their internal organ, who are free from desire and anger, who have known the Self, there is absorption in Brahman either way.
5.26 Yatinam, to the monks; yata-cetasam, who have control over their internal organ; kama-krodha-viyuktanam, who are free from desire and anger; vidita-atmanam, who have known the Self, i.e. who have full realization; vartate, there is; brahma-nir-vanam, absorption in Brahman, Liberation; abhitah, either way, whether living or dead. Immediate Liberation of the monks who are steadfast in full realization has been stated. And the Lord has said, and will say, at every stage that Karma-yoga, undertaken as a dedication to Brahman, to God, by surrendering all activities [The activities of body, mind and organs] to God, leads to Liberation through the stages of purification of the heart, attainment of Knowledge, and renunciation of all actions. Thereafter, now, with the idea, 'I shall speak elaborately of the yoga of meditation which is the proximate discipline for full realization,' the Lord gave instruction through some verses in the form of aphorisms:
5.26. Warding off the external contacts outside; making the sense of sight in the middle of the two wandering ones; counter-balancing both the forward and backward moving forces that travel within what acts crookedly;
5.26 Kama - etc. For them at all times i.e., at all stages, there is Brahman-Existence, the ultimately true one, and it does not look for the time of control [of the mind (mediation)]
5.26 To those who are free from desire and wrath; 'who are wont to exert themselves' i.e., who are practising self-control; whose 'thought is controlled,' i.e., whose minds are subdued; 'who have conered them,' i.e., whose minds are under their control - to such persons the beatitude of the Brahman is close at hand. The beatitude of the Brahman is already in hand to persons of this type. Sri Krsna concludes the examination of Karma Yoga already stated, as reaching the highest point in the practice of mental concentration (Yoga) having for its object the vision of the self:
5.26 To those who are free from desire and wrath, who are wont to exert themselves, whose thought is controlled, and who have conered it - the beatitude of the Brahman is close at hand.
।।5.26।।तथा जो काम और क्रोध इन दोनों दोषोंसे रहित हो चुके हैं जिन्होंने अन्तःकरणको अपने वशमें कर लिया है जिन्होंने आत्माको जान लिया है ऐसे आत्मज्ञानी सम्यग्दर्शी यती संन्यासियोंको दोनों ओरसे अर्थात् जीवित रहते हुए भी और मरनेके पश्चात् भी दोनों अवस्थाओंमें ब्रह्मनिर्वाण यानी मोक्ष प्राप्त रहता है। यथार्थ ज्ञानमें निष्ठावाले संन्यासियोंके लिये सद्यः ( तुरंत ही होनेवाली ) मुक्ति बतलायी गयी है तथा सब प्रकार ईश्वरार्पितभावसे पूर्ण ब्रह्म परमात्मामें सब कर्मोंका त्याग करके किया हुआ कर्मयोग भी अन्तःकरणकी शुद्धि ज्ञानप्राप्ति और सर्वकर्मसंन्यासके क्रमसे मोक्षदायक है यह बात भगवान्ने पदपदपर कही है और (आगे भी ) कहेंगे।
।।5.26।। कामक्रोधवियुक्तानां कामश्च क्रोधश्च कामक्रोधौ ताभ्यां वियुक्तानां यतीनां संन्यासिनां यतचेतसां संयतान्तःकरणानाम् अभितः उभयतः जीवतां मृतानां च ब्रह्मनिर्वाणं मोक्षो वर्तते विदितात्मनां विदितः ज्ञातः आत्मा येषां ते विदितात्मानः तेषां विदितात्मनां सम्यग्दर्शिनामित्यर्थः।।सम्यग्दर्शननिष्ठानां संन्यासिनां सद्यः मुक्तिः उक्ता। कर्मयोगश्च ईश्वरार्पितसर्वभावेन ईश्वरे ब्रह्मणि आधाय क्रियमाणः सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिसर्वकर्मसंन्यासक्रमेण मोक्षाय इति भगवान् पदे पदे अब्रवीत् वक्ष्यति च। अथ इदानीं ध्यानयोगं सम्यग्दर्शनस्य अन्तरङ्गं विस्तरेण वक्ष्यामि इति तस्य सूत्रस्थानीयान् श्लोकान् उपदिशति स्म
।।5.26।।यतीनां सर्वं ब्रह्मतयैव प्रतीयत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह सुलभं चेति। न केवलं उक्तलक्षणा इति चार्थः। इदं चासाधारणधर्मत्वात् ज्ञानिलक्षणं भवत्येव। सौलभ्यवाचि किमप्यत्र न प्रतीयत इत्यतस्तदुपादाय व्याचष्टे अभित इति सर्वदेशकालेष्वित्यर्थः।
।।5.26।।सुलभं च तेषां ब्रह्मेत्याह कामक्रोधेति। अभितः सर्वतः।
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्। अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्।।5.26।।
কামক্রোধবিযুক্তানাং যতীনাং যতচেতসাম্৷ অভিতো ব্রহ্মনির্বাণং বর্ততে বিদিতাত্মনাম্৷৷5.26৷৷
কামক্রোধবিযুক্তানাং যতীনাং যতচেতসাম্৷ অভিতো ব্রহ্মনির্বাণং বর্ততে বিদিতাত্মনাম্৷৷5.26৷৷
કામક્રોધવિયુક્તાનાં યતીનાં યતચેતસામ્। અભિતો બ્રહ્મનિર્વાણં વર્તતે વિદિતાત્મનામ્।।5.26।।
ਕਾਮਕ੍ਰੋਧਵਿਯੁਕ੍ਤਾਨਾਂ ਯਤੀਨਾਂ ਯਤਚੇਤਸਾਮ੍। ਅਭਿਤੋ ਬ੍ਰਹ੍ਮਨਿਰ੍ਵਾਣਂ ਵਰ੍ਤਤੇ ਵਿਦਿਤਾਤ੍ਮਨਾਮ੍।।5.26।।
ಕಾಮಕ್ರೋಧವಿಯುಕ್ತಾನಾಂ ಯತೀನಾಂ ಯತಚೇತಸಾಮ್. ಅಭಿತೋ ಬ್ರಹ್ಮನಿರ್ವಾಣಂ ವರ್ತತೇ ವಿದಿತಾತ್ಮನಾಮ್৷৷5.26৷৷
കാമക്രോധവിയുക്താനാം യതീനാം യതചേതസാമ്. അഭിതോ ബ്രഹ്മനിര്വാണം വര്തതേ വിദിതാത്മനാമ്৷৷5.26৷৷
କାମକ୍ରୋଧବିଯୁକ୍ତାନାଂ ଯତୀନାଂ ଯତଚେତସାମ୍| ଅଭିତୋ ବ୍ରହ୍ମନିର୍ବାଣଂ ବର୍ତତେ ବିଦିତାତ୍ମନାମ୍||5.26||
kāmakrōdhaviyuktānāṅ yatīnāṅ yatacētasām. abhitō brahmanirvāṇaṅ vartatē viditātmanām৷৷5.26৷৷
காமக்ரோதவியுக்தாநாஂ யதீநாஂ யதசேதஸாம். அபிதோ ப்ரஹ்மநிர்வாணஂ வர்ததே விதிதாத்மநாம்৷৷5.26৷৷
కామక్రోధవియుక్తానాం యతీనాం యతచేతసామ్. అభితో బ్రహ్మనిర్వాణం వర్తతే విదితాత్మనామ్৷৷5.26৷৷
5.27
5
27
।।5.27 -- 5.28।। बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़कर और नेत्रोंकी दृष्टिको भौंहोंके बीचमें स्थित करके तथा नासिकामें विचरनेवाले प्राण और अपान वायुको सम करके जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वशमें हैं, जो मोक्ष-परायण है तथा जो इच्छा, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है।
।।5.27।। बाह्य विषयों को बाहर ही रखकर नेत्रों की दृष्टि को भृकुटि के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपानवायु को सम करके,।।
null
5.27।। व्याख्या--'स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान्'--परमात्माके सिवाय सब पदार्थ बाह्य हैं। बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़ देनेका तात्पर्य है कि मनसे बाह्य विषयोंका चिन्तन न करे।बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धका त्याग कर्मयोगमें सेवाके द्वारा और ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा किया जाता है। यहाँ भगवान् ध्यानयोगके द्वारा बाह्य पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेदकी बात कह रहे हैं। ध्यानयोगमें एकमात्र परमात्माका ही चिन्तन होनेसे बाह्य पदार्थोंसे विमुखता हो जाती है।वास्तवमें बाह्य पदार्थ बाधक नहीं हैं। बाधक है--इनसे रागपूर्वक माना हुआ अपना सम्बन्ध। इस माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेमें ही उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य है। 'चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः'--यहाँ 'भ्रुवोः अन्तरे'पदोंसे दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीचमें रखना अथवा दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर रखना (गीता 6। 13)--ये दोनों ही अर्थ लिये जा सकते हैं।ध्यानकालमें नेत्रोंको सर्वथा बंद रखनेसे लयदोष अर्थात् निद्रा आनेकी सम्भावना रहती है, और नेत्रोंको सर्वथा खुला रखनेसे (सामने दृश्य रहनेसे) विक्षेपदोष आनेकी सम्भावना रहती है। इन दोनों प्रकारके दोषोंको दूर करनेके लिये आधे मुँदे हुए नेत्रोंकी दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीच स्थापित करनेके लिये कहा गया है।
।।5.27 5.28।।स्पर्शानिति। यतेन्द्रियेति। बाह्यस्पर्शान् बहिः कृत्वा अनङ्गीकृत्य भ्रुवोः वामदक्षिणदृष्ट्योः क्रोधरागात्मकयोः अन्तरे तद्रहिते स्थानविशेषे चक्षुरुपलक्षितानि सर्वेन्द्रियाणि कृत्वा विधाय प्राणापानौ धर्माधर्मौ चित्तवृत्त्यभ्यन्तरे साम्येनावस्थाप्य आसीत (K omits आसीत)। नसते कौटिल्येन असाम्येन क्रोधादिवशात् व्यवहरति इति नासा चित्तवृत्तिः। एतदेव बाह्ये। एवंविधो योगी सर्वव्यवहारान् वर्तयन्नपि मुक्त एव।
।।5.27।।बाह्यान् विषयस्पर्शान् बहिः कृत्वा बाह्येन्द्रियव्यापारं सर्वम् उपसंहृत्य योगयोग्यासने ऋजुकाय उपविश्य चक्षुः भ्रुवोः अन्तरे नासाग्रे विन्यस्य नासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानौ समौ कृत्वा उच्छवासनिः श्वासौ समगति कृत्वा आत्मावलोकनाद् अन्यत्र प्रवृत्त्यनर्हेन्द्रियमनोबुद्धिः तत एव विगतेच्छाभयक्रोधो मोक्षपरायणो मोक्षैकप्रयोजनो मुनिः आत्मावलोकनशीलो यः सदा मुक्त एव साध्यदशायाम् इव साधनदशायाम् अपि मुक्त एव स इत्यर्थः।उक्तस्य नित्यनैमित्तिककर्मेति कर्तव्यताकस्य कर्मयोगस्य योगशिरस्कस्य सुशकताम् आह
।।5.27।।वृत्तमनूद्योत्तरश्लोकत्रयस्य तात्पर्यार्थमाह सम्यग्दर्शनेति। ईश्वरार्पितसर्वभावेनेति। भगवति परस्मिन्नीश्वरे समर्पितः सर्वेषां देहेन्द्रियमनसां भावश्चेष्टाविशेषो न क्वचिदपि बहिस्तेषां व्यापारस्तेनेत्यर्थः। कर्मयोगस्य तत्फलस्य चाभिधानानन्तरमित्यथशब्दार्थः। स्वतो बाह्यानां विषयाणां कुतो बहिष्करणमित्याशङ्क्याह श्रोत्रादीति। तेषां बहिःकरणं कीदृगित्याशङ्क्याह तानिति।
।।5.27 5.28।।स योगी ब्रह्मनिर्वाणं 5।24 इत्यादौ प्रोक्तं तमेव योगं समासेन दर्शयन्नाह द्वाभ्याम् स्पर्शानिति।ईश्वरालम्बनं योगो जनयित्वा तु तादृशम्। बहुजन्मविपाकेन भक्तिं जनयति ध्रुवम्। योगेन तु निषिद्धेन यदि देहः प्रसिद्ध्यति। तदा कल्पान्तपर्यन्तं भावनातस्तु तत्फलम्। इति निबन्धे ईश्वरालम्बनस्यैव योगस्य भक्तिजनकत्वमिति। योगेश्वरालम्बनतायाः स्वरूपमाह स्पर्शाः बाह्याः रूपरसादयो विषयाश्चिन्तितता एवान्तः प्रविशन्ति तांस्तच्चिन्तात्यागेन बहिरेव कृत्वा ज्ञानप्रधानं चक्षुश्च भ्रुवोरन्तरे कृत्वा अर्द्धोन्मीलितलोचनेनमन एकाग्रं कृत्वेत्यर्थः। तथोर्द्धाधोगतिकौ प्राणापानौ च समौ कृत्वा कुम्भयित्वा प्राणायामाभिनयेन तदाह नासाभ्यन्तरचारिणाविति। एतेनोपायेन यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्योगफलं न तत्र सिद्धिकामः स्यात् किन्तु मोक्षपरायणः मोक्षार्थं पर ईश्वरस्तदालम्बनो यः स सदा प्रपञ्च एवमुक्त एव जीवन्मुक्त इत्यर्थः।
।।5.27 5.28।।पूर्वमीश्वरार्पितसर्वभावस्य कर्मयोगेनान्तःकरणशुद्धिस्ततः सर्वकर्मसंन्यासस्ततः श्रवणादिपरस्य तत्त्वज्ञानं मोक्षसाधनमुदेतीत्युक्तम् अधुनास योगी ब्रह्मनिर्वाणम् इत्यत्र सूचितं ध्यानयोगं सम्यग्दर्शनस्यान्तरङ्गसाधनं विस्तरेण वक्तुं सूत्रस्थानीयांस्त्रीञ्श्लोकानाह भगवान्। एतेषामेव वृत्तिस्थानीयः कृत्स्नः षष्ठोऽध्यायो भविष्यति। तत्रापि द्वाभ्यां संक्षेपेण योग उच्यते। तृतीयेन तु तत्फलं परमात्मज्ञानमिति विवेकः स्पर्शाञ्शब्दादीन्बाह्यान्बहिर्भवानपि श्रोत्रादिद्वारा तत्तदाकारान्तःकरणवृत्तिभिरन्तःप्रविष्टान्पुनर्बहिरेव कृत्वा परवैराग्यवशेन तत्तदाकारां वृत्तिमनुत्पाद्येत्यर्थः। यद्येते आन्तरा भवेयुस्तदोपायसहस्रेणामि बहिर्न स्युः स्वभावभङ्गप्रसङ्गात् बाह्यानां तु रागवशादन्तःप्रविष्टानां वैराग्येण बहिर्गमनं संभवतीति वदितुं बाह्यानिति विशेषणम्। तदनेन वैराग्यमुक्त्वाभ्यासमाह चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः कृत्वेत्यनुषज्यते। अत्यन्तनिमीलने हि निद्राख्या लयात्मिका वृत्तिरेका भवेत्। प्रसारणे तु प्रमाणविपर्ययविकल्पस्मृतयश्चतस्रो विक्षेपात्मिका वृत्तयो भवेयुः। पञ्चापि तु वृत्तयो निरोद्धव्या इति अर्धनिमीलनेन भ्रूमध्ये चक्षुषो निधानम्। तथा प्राणापानौ समौ तुल्यावूर्ध्वाधोगतिविच्छेदेन नासाभ्यन्तरचारिणौ कुम्भकेन कृत्वा अनेनोपायेन यताः संयता इन्द्रियमनोबुद्धयो यस्य स तथा। मोक्षपरायणः सर्वविषयविरक्तो मुनिर्मननशीलो भवेत्। विगतेच्छाभयक्रोध इति वीतरागभयक्रोध इत्यत्र व्याख्यातम्। एतादृशो यः संन्यासी सदा भवति मुक्त एव सः। नतु मोक्षः तस्य कर्तव्योऽस्ति। अथवा य एतादृशः स सदा जीवन्नपि मुक्त एव।
।।5.27।।स योगी ब्रह्मनिर्वाणमित्यादिषु योगी मोक्षमाप्नोतीत्युक्तं तमेव योगं संक्षेपेण दर्शयन्नाह स्पर्शानिति द्वाभ्याम्। बाह्या एव स्पर्शा रूपरसादयो विषयाश्चिन्तिताः सन्तोऽन्तः प्रविशन्ति तांस्तच्चिन्तात्यागेन बहिरेव कृत्वा चक्षुश्च भ्रुवोरन्तरे भ्रूमध्य एव कृत्वाऽत्यन्तं नेत्रयोर्निमीलने निद्रया मनो लीयते। उन्मीलनेन च बहिः प्रसरति। तदुभयदोषपरिहारार्थमर्धनिमीलनेन भ्रूमध्ये दृष्टिं निधायेत्यर्थः। उच्छ्वासनिःश्वासरूपेण नासिकयोरभ्यन्तरे च चरन्तौ प्राणापानावूर्ध्वाधोगतिनिरोधेन समौ कृत्वा। कुम्भयित्वेत्यर्थः। यद्वा प्राणो यथा बहिर्न निर्याति यथा चापानोऽन्तर्न प्रविशति किंतुनासामध्य एव द्वावपि यथा चरतः तथा मन्दाभ्यामुच्छ्वासनिःश्वासाभ्यां समौ कृत्वेति।
।।5.27।।ज्ञानकर्मात्मिके निष्ठे योगलक्षे सुसंस्कृते। आत्मानुभूतिसिद्ध्यर्थे पूर्वषट्केन चोदिते गी.सं.2 इति सङ्ग्रहमनुसन्दधान उत्तरश्लोकानां सङ्गतिमाह उक्तं कर्मयोगमिति। स्पर्शशब्दस्यात्रानुभवपरस्यानुभाव्यार्थज्ञापनायविषयस्पर्शानित्युक्तम्। फलितमाह बाह्येन्द्रियव्यापारं सर्वमुपसंहृत्येति।उपविश्यासने 6।12 इत्यादिवक्ष्यमाणानुसन्धानेनयोगयोग्येत्याद्युक्तम्।चक्षुः इत्येकवचनं करणाकारैक्यादिति दर्शयितुंचक्षुषी इत्युक्तम्।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं 6।13 इति वक्ष्यमाणेननासाग्रन्यस्तलोचनः इत्यादिप्रकरणान्तरोक्त्या चभ्रुवोरन्तरे कृत्वा इत्यस्यैकार्थ्यमाहनासाग्र इति। नासाभ्यन्तरसञ्चारमात्रस्य स्वतस्सिद्धस्य विधेयत्वायोगात्समौ कृत्वा इत्येतदेव विधेयमिति दर्शयितुंनासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानावित्यनुवादः। अपानस्य नासाभ्यन्तरसञ्चारव्यञ्जनायउच्छ्वासनिश्श्वासावित्युक्तम्। एक एव हि वायुर्नासापुटेन निष्कामन् प्रविशंश्च प्राणोऽपान इति चोच्यते। वृत्तिस्थानादिसाम्यायोगात्तद्गतिसाम्योक्तिः। न दीर्घमुच्छ्वसन्नापि निश्श्वसन्नित्यर्थः। साक्षात्कारात्यन्ताव्यवहितपूर्वावस्थाविषयत्वाद्यतशब्दस्यप्रवृत्त्यनर्हेत्यर्थ उक्तः।स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यान् इत्यत्र प्रवृत्तिनिवारणम्यतेन्द्रियः इत्यादौ तु तत्फलभूता प्रवृत्त्यनर्हतेत्यपुनरुक्तिरिति भावः। ज्ञानार्थधातौ निष्पन्नस्य मुनिशब्दस्य योगावस्थायां आत्मसाक्षात्काररूपज्ञानविशेषे तात्पर्यमाहआत्मावलोकनशील इति। अत्र वाचंयमत्वादप्यन्तरङ्गभूतोऽयमर्थ इति भावः। सदाशब्दाभिप्रेतं व्यनक्तिसाध्यदशायामिवेति।मुक्त एव मुक्तप्राय इत्यर्थः।
।।5.27।।ननु स्पर्शभावरूपा स्थितिरतिकठिना अतः स्पर्शसंयोगेऽपि या प्राप्तिः स्यात् स्पर्शजबन्धाभावे न तथा भवेदित्यभिप्रायेणाह स्पर्शानिति द्वयेन। बहिर्बाह्यान् स्पर्शान् कृत्वा बाह्याँल्लौकिकान् स्पर्शानिन्द्रियादिविषयभोगान् बहिः तेषूत्तमाद्यभावेन प्रारब्धकर्मभोगवत्। किञ्च पुनर्भ्रुवोः कालयमरूपयोरन्तरैव चक्षुः दृष्टिं कृत्वा कालयममध्ये मरणरूपोऽस्मीति दृष्ट्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानावूर्ध्वाधोगतिरूपौ संयोगविप्रयोगसुखानुभवाविव समौ कृत्वा मोक्षपरायणः विषयादित्यागपरो विगतेच्छाभयक्रोधो भूत्वा यतेन्द्रियमनोबुद्धिः सन् यः सदा मुनिर्मननशीलो भवति स स्पर्शादिभिर्मुक्त एव स्यादित्यर्थः।
।।5.27।।एवं सम्यग्दर्शननिष्ठानां सद्योमुक्तिरुक्ता कर्मयोगश्च सङ्गफलत्यागेन ईश्वरप्रीत्यर्थमनुष्ठितः सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण मोक्षाय भवतीत्यप्युक्तं अथेदानीं सम्यग्दर्शनस्यान्तरङ्गसाधनं ध्यानयोगं विस्तरेण वक्ष्यामीति तत्सूत्रभूतांस्त्रीन्श्लोकानुपदिशति स्पर्शानिति। अत्रोत्तरार्धेन प्राणायाम उक्तः स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यानिति प्रत्याहर उक्तः भ्रुवोरन्तरे चक्षुः कृत्वेति धारणोक्ता विगतेच्छाभयक्रोध इति साधनभूताः फलभूताश्च द्विविधा यमा नियमाश्चोक्ताः यतेन्द्रिय इति वितर्काख्यः संप्रज्ञातः यतमान इति विचाराख्यः यतबुद्धिरित्यानन्दास्मिताख्यौ मोक्षपरायण इत्यसंप्रज्ञात उक्तः शेषेण योगफलमिति विभागः। पाठक्रममनुरुध्यार्थक्रमेणाक्षरार्थः स्पष्टीक्रियते। तत्र विगतेच्छो विगतभयो विगतक्रोध इति संबन्धः। यो हि इच्छावान्स इष्टसिद्ध्यर्थं हिंसानृतस्तेयस्त्रीपरिग्रहानिच्छेत्। अतो विगतेच्छपदेन तद्विपर्ययान्अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः इति सूत्रोक्तान्यमाँल्लक्षयति। तथा भयं स्वोच्छेदशङ्का तया ह्युद्विग्नो नशौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः इति सूत्रोक्तान्नियमान्स्वीकर्तुमिच्छेदतो विगतभय इत्यनेन तेषां ग्रहणम्। तथा क्रोधाक्रान्तो मैत्र्यादीन्भावयितुमशक्तश्चित्तप्रसाधनं कर्तुं न शक्नोति। तच्चमैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसाधनं इति सूत्रितम्। तत्र विगतक्रोधः शान्तप्रकृतित्वात्सुखितेषु मैत्रीं परस्येष्टे न ममैवेष्टमिदं जातमिति भावयेत्। तथा दुःखितेषु करुणां पुण्यवत्सु मुदितां पापवत्सूपेक्षां च भावयेत्। नचैतेन प्रसाधनेन विना चित्तादर्शस्य नैर्मल्यं भवति एवं साधनावस्थायां यमनियमचित्तप्रसाधनानां सिद्ध्यर्थं विगतेच्छाभयक्रोधत्वमीप्सितम्। एवं फलावस्थायामपि तदीप्सितम्। तथाहि संप्रज्ञातसमाधिफलभूतायां मधुमत्यां योगभूमौ स्थितं योगिनं प्रति दिव्याः कामा उपतिष्ठन्ते तत्रापि विगतेच्छत्वमिष्टम्। तथाहिस्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसङ्गात् इति सूत्रम्। स्थानिनो देवास्तैरुपनिमन्त्रणे इहास्यतां इमे रम्यावसथाः इमा रम्या रमाः इमानि जरामरणहराणि रसायनानि इमे वयं किंकराः स्वपुण्यार्जितमिदं स्थानं त्वया भुज्यतामिति प्रार्थनायां क्रियमाणायां सङ्गो लिप्सा तत्र न कर्तव्या नापि तल्लाभेनात्मनो महाभागत्वं देवप्रार्थ्यत्वं मत्वा गर्वोऽपि कर्तव्यस्तयोः सङ्गस्मययोर्भ्रंशहेतुत्वादिति सूत्रार्थः। तथा भयमपि द्विविधं योगान्तरायजं वितर्कजं च। तत्राद्यंव्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाःदुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासाविक्षेपसहभुवः इति सूत्राभ्यामुक्तं। स्त्यानं अकर्मण्यता अविरतिरवैराग्यं अङ्गमेजयत्वं कंपवायुः वितर्काहिंसादयस्तज्जं च भयं आद्यस्य निवारणं ईश्वरप्रणिधानेन। तथा च सूत्रिंतततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽन्तरायाभावश्च इति। तत ईश्वरप्रणिधानात् द्वितीयस्य प्रतिपक्षभावनेन। तथाच सूत्रितम्वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् इति।वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदितालोभक्रोधमोहमूला मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् इति च। आदिपदादनृतस्तेयादयः। हिंसादयः प्रत्येकं कृतकारितानुमोदितभेदेन त्रिविधाः। तेऽपि प्रत्येकं लोभादिमूलकत्वेन त्रिविधाः। तेऽपि मृदुमध्यमाधिमात्रभेदेन प्रत्येकं त्रिविधाः। ते च मूलभूता वितर्कास्त्रयश्चत्वारः पञ्च अधिका वा त्रिस्त्रिगुणिता एकाशीतिरष्टोत्तरशतं पञ्चत्रिंशदधिकं शतमधिका वा भवन्ति। शाखाप्रशाखाभेदेनानन्ताश्च। दुःखरूपमज्ञानरूपं चानन्तफलं येषां ते दुःखाज्ञानानन्तफला इत्यनया प्रतिपक्षभावनया ते निवर्तनीया इति। एवं यमनियमचित्तप्रसाधनप्रतिपक्षभावनैर्निरन्तरायं मृदूकृतचित्तो योगी विविक्ते देशेआसीनः संभवात् इति न्यायेन स्थिरसुखमासनमध्यासीत। तत्र देशासने श्रूयेतेसमे शुचौ शर्करवह्निवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः। मनोनुकूले नतु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत्। त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्य। ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान्स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि। इति। चक्षुरित्यत्र विसर्गलोपश्छान्दसः। त्रिरुन्नतं कटिवक्षःकन्धराप्रदेशेषून्नतम्। ततो जितासनः प्राणायाममभ्यसेत्। तेन हि मन्दगतौ प्राणे सति तदनुसारि मनोऽपि चाञ्चल्यं त्यजति। नोचेद्वायुविक्षेपेण विक्षिप्यते। तत्र प्राणजयप्रमाणम्प्राणान्प्रपीड्येह सयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत इति श्रुत्युक्तमेव संगृह्णाति। प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ इति। प्राणापानौ समौ तुल्यावूर्ध्वाधोगतिविच्छेदेन नासाभ्यन्तरचारिणौ कुम्भकेन कृत्वा ततो बाह्यान्बहिर्भवान्स्पर्शान्विषयसंबन्धानिन्द्रियद्वारा नित्यमन्तर्बुद्धौ क्रियमाणान् योगीन्द्रियाणां प्रत्याहरणेन तान्बहिरेव कुर्यात्। ततो विषयेभ्यो व्यावृत्तेषु करणेषु स्वप्नकाले इवान्तर्मनोमात्रेणावतिष्ठत इत्यर्थः। इमं प्रत्याहारं कर्तुमशक्तस्याविरक्तस्य का गतिरित्यत आह चक्षुश्चैवान्तरेभ्रुवोरिति। चशब्दो वार्थे। चक्षुरेव वा भ्रुवोरन्तरे कुर्यात्। खेचरीं मुद्रामभ्यस्येदित्यर्थः। सा चोक्ता योगसारेलम्बिकोर्ध्वस्थिते गर्ते जिह्वां व्यावृत्य धारयेत्। दृढासनश्चिरं तिष्ठेन्मुद्रैषा खेचरी मता। भ्रूमध्यदृष्टिरप्येषा महादेवेन कीर्तिता इति। य एवं सर्वोऽपि बाह्ये विषये सूर्यादौ संयमो यथोक्तं प्रत्याहारमनुष्ठातुमशक्तान्प्रत्येवोपदिश्यत इति ज्ञेयम्।
।।5.27।।एवं तत्त्वज्ञाननिष्ठानां यतीनां सद्योमुक्तिरुक्त्वा कर्मयोगिनं च सत्त्वशुद्य्धादिक्रमेण। अथेदानीं ध्यानयोगस्य सम्यग्दर्शनान्तरङ्गासाधनस्य षष्ठाध्या ये विस्तरेण वक्ष्यमाणस्य सूत्रस्थानीयांस्त्रीन्श्लोकानाह। स्पर्शान् शब्दादीन्बाह्यानेव श्रोत्रादिद्वारेण अन्तर्बुद्धौ प्रविष्टन्विषयान् अचिन्तनेन बहिःकृत्वा चक्षुश्चैव भ्रुवोरन्तरे कृत्वा तथा प्राणपानौ नासाभ्यन्तरचारिणौ समौ कृत्वा।
5.27 स्पर्शान् contacts? कृत्वा बहिः shutting out? बाह्यान् external? चक्षुः eye (gaze)? च and? एव even? अन्तरे in the middle? भ्रुवोः of the (two) eyrows? प्राणापानौ the outgoing and incoming breaths? समौ eal? कृत्वा having made? नासाभ्यन्तरचारिणौ moving inside the nostrils.Commentary The verses 27 and 28 deal with the Yoga of meditation (Dhyana). External objects or contacts are the sound and the other senseobjects. If the mind does not think of the external objects they are shut out from the mind. The senses are the doors or avenues through which sound and the other senseobjects enter the mind.If you fix the gaze between the eyrows the eyalls remain fixed and steady. Rhythmical breathing is described here. You will have to make the breath rhythmical. The mind becomes steady when the breath becomes rhythmical. When the breath becomes rhythmical there is perfect harmony in the mind and the whole system. (Cf.VI.10?14VIII.10)
5.27 Shutting out (all) external contacts and fixing the gaze between the eyrow, ealising the outgoing and incoming breaths moving within the nostrils.
5.27 Excluding external objects, his gaze fixed between the eyebrows, the inward and outward breathings passing equally through his nostrils;
5.27-5.28 Keeping the external objects outside, the eyes at the juncture of the eye-brows, and making eal the outgoing and incoming breaths that move through the nostrils, the contemplative who has control over his organs, mind and intellect should be fully intent on Liberation and free from desire, fear and anger. He who is ever is verily free.
5.27 Krtva, keeping; bahyan, the external; sparsan, objects-sound etc.; bahih, outside: To one who does not pay attention to the external objects like sound etc., brought to the intellect through the ear etc., the objects become verily kept outside. Having kept them out in this way, and (keeping) the caksuh, eyes; antare, at the juncture; bhruvoh, of the eye-brows (-the word 'keeping' has to be supplied-); and similarly, samau krtva, making eal; prana-apanau, the outgoing and the incoming breaths; nasa-abhyantara-carinau, that move through the nostrils; munih, the contemplative-derived (from the root man) in the sense of contemplating-, the monk; yata-indriya-mano-buddhih, who has control over his organs, mind and intellect; should be moksa-para-yanah, fully intent on Liberation-keeping his body is such a posture, the contemplative should have Liberation itself as the supreme Goal. He should be vigata-iccha-bhaya-krodhah, free from desire, fear and anger. The monk yah, who; sada, ever remains thus; sah, he; is muktah yah, who;sada, ever remains thus; sah, he; is muktah, ever, verily free. He has no other Liberation to seek after. What is there to be realized by one who has his mind thus concentrated? The answer this is beig stated:
5.27. The sage, who has controlled his sense-organs, mind and intellect; whose chief aim is emancipation; and from whom desire, fear and wrath have departed-he remains just free always.
5.27 See Comment under 5.28
5.27 - 5.28 'Shutting off all contact with outside objects,' i.e., stopping the outward functioning of the senses; seated with his trunk straightened in a posture fit for meditation (Yoga); 'fixing the gaze between the eye-brows,' i.e., at the root of the nose where the eye-brows meet; 'ealising inward and outward breaths,' i.e., making exhalatory and inhalatory breath move eally: making the senses, Manas and intellect no longer capable of anything except the vision of the self, conseently being free from 'desire, fear and wrath'; 'who is intent on release as his final goal,' i.e., having release as his only aim - the sage who is thus intent on the vision of the self 'is indeed liberated for ever,' i.e., he is almost a liberated person, as he would soon be in the ultimate stage of fruition. Sri Krsna now says that Karma Yoga, described above, which is facilitated by the performance of obligatory and occasional rites and which culminates in meditation (Yoga), is easy to practise:
5.27 Shutting off outward contacts, fixing the gaze between the eye-brows, ealising inward and outward breaths moving in the nostrils;
।।5.27।।अब सम्यक् ज्ञानके अन्तरङ्ग साधनरूप ध्यानयोगको विस्तारपूर्वक कहूँगा यह विचारकर उस ध्यानयोगके सूत्रस्थानीय श्लोकोंका उपदेश करते हैं शब्दादि बाह्य विषयोंको बाहर करके यानी जो शब्दादि विषय श्रोत्रादि इन्द्रियोंद्वारा अन्तःकरणके भीतर प्रविष्ट कर लिये गये हैं उनका चिन्तन न करना ही बाह्य विषयोंको निकाल बाहर करना है इस प्रकार उनको बाहर करके एवं दोनों नेत्रों ( की दृष्टि ) को भृकुटिके मध्यस्थानमें स्थित करके तथा नासिका ( और कण्ठादि आभ्यन्तर भागों ) के भीतर विचरनेवाले प्राण और अपानको समान करके।
।।5.27 5.28।। स्पर्शान् शब्दादीन् कृत्वा बहिः बाह्यान् श्रोत्रादिद्वारेण अन्तः बुद्धौ प्रवेशिताः शब्दादयः विषयाः तान् अचिन्तयतः शब्दादयो बाह्या बहिरेव कृताः भवन्ति तान् एवं बहिः कृत्वा चक्षुश्चैव अन्तरे भ्रुवोः कृत्वा इति अनुषज्यते। तथा प्राणापानौ नासाभ्यन्तरचारिणौ समौ कृत्वा यतेन्द्रियमनोबुद्धिः यतानि संयतानि इन्द्रियाणि मनः बुद्धिश्च यस्य सः यतेन्द्रियमनोबुद्धिः मननात् मुनिः संन्यासी मोक्षपरायणः एवं देहसंस्थानात् मोक्षपरायणः मोक्ष एव परम् अयनं परा गतिः यस्य सः अयं मोक्षपरायणो मुनिः भवेत्। विगतेच्छाभयक्रोधः इच्छा च भयं च क्रोधश्च इच्छाभयक्रोधाः ते विगताः यस्मात् सः विगतेच्छाभयक्रोधः यः एवं वर्तते सदा संन्यासी मुक्त एव सः न तस्य मोक्षायान्यः कर्तव्योऽस्ति।।एवं समाहितचित्तेन किं विज्ञेयम् इति उच्यते भोक्तारं यज्ञतपसां यज्ञानां तपसां च कर्तृरूपेण देवतारूपेण च सर्वलोकमहेश्वरं सर्वेषां लोकानां महान्तम् ईश्वरं सुहृदं सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां प्रत्युपकारनिरपेक्षतया उपकारिणं सर्वभूतानां हृदयेशयं सर्वकर्मफलाध्यक्षं सर्वप्रत्ययसाक्षिणं मां नारायणं ज्ञात्वा शान्तिं सर्वसंसारोपरतिम् ऋच्छति प्राप्नोति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येपञ्चमोऽध्यायः।।
।।5.27 5.28।।ध्यायिनां मुक्तत्वं साक्षाच्चेत्प्रमाणविरोधः ज्ञानद्वारा चेत्पुनरुक्तिरित्यतः श्लोकद्वयतात्पर्यमाह ध्यानेति। मुक्त एव स इति स्तुतिरिति भावः। पदानां व्यवहितत्वादन्वयमाह बाह्यानिति। स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः शब्दाद्याः। स्पर्शा बाह्या एव तेषां किं बहिष्करणं इत्यत आह श्रोत्रादीनीति। योगेन प्रत्याहारेण श्रोत्रादीनामनियमे पट्वभ्यासादरप्रत्ययवशाच्छब्दाद्या आन्तरा इव भवन्ति। तन्िनयमे तु बाह्या बहिष्कृताः स्युरिति भावः। कृत्वेत्यस्यानुवृत्त्या योजयति चक्षुरिति। दुर्घटमेतदित्यत आह भ्रुवोरिति। चक्षुर्वृत्तौ चक्षुश्शब्द इत्यर्थः।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं 6।13 इति वक्ष्यमाणविरोध इत्यत आह उक्तं चेति। न्यूनाधिकभावराहित्यं समीकरणमित्यन्यथाप्रतीतिनिरासायानूद्य व्याचष्टे प्राणेति। कुम्भके प्राणायामे ततश्च समौ निर्विकारौ निश्चलावित्यर्थः। इतरत्समीकरणं कुम्भकार्थमेवेति भावः।
।।5.27 5.28।।ध्यानप्रकारमाह स्पर्शानित्यादिना। बाह्यान्स्पर्शन्वहिः कृत्वा श्रोत्रादीनि योगेन नियम्येत्यर्थः। चक्षुर्भ्रुवोरन्तरं कृत्वा भ्रुवोर्मध्यमवलोकयन्नित्यर्थः। उक्तं च नासाग्रे वा भ्रुवोर्मध्ये ध्यानी चक्षुर्निधापयेत् इति। प्राणापानौ समौ कृत्वा कुम्भके स्थितत्वेत्यर्थः।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः। प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।5.27।।
স্পর্শান্কৃত্বা বহির্বাহ্যাংশ্চক্ষুশ্চৈবান্তরে ভ্রুবোঃ৷ প্রাণাপানৌ সমৌ কৃত্বা নাসাভ্যন্তরচারিণৌ৷৷5.27৷৷
স্পর্শান্কৃত্বা বহির্বাহ্যাংশ্চক্ষুশ্চৈবান্তরে ভ্রুবোঃ৷ প্রাণাপানৌ সমৌ কৃত্বা নাসাভ্যন্তরচারিণৌ৷৷5.27৷৷
સ્પર્શાન્કૃત્વા બહિર્બાહ્યાંશ્ચક્ષુશ્ચૈવાન્તરે ભ્રુવોઃ। પ્રાણાપાનૌ સમૌ કૃત્વા નાસાભ્યન્તરચારિણૌ।।5.27।।
ਸ੍ਪਰ੍ਸ਼ਾਨ੍ਕਰਿਤ੍ਵਾ ਬਹਿਰ੍ਬਾਹ੍ਯਾਂਸ਼੍ਚਕ੍ਸ਼ੁਸ਼੍ਚੈਵਾਨ੍ਤਰੇ ਭ੍ਰੁਵੋ। ਪ੍ਰਾਣਾਪਾਨੌ ਸਮੌ ਕਰਿਤ੍ਵਾ ਨਾਸਾਭ੍ਯਨ੍ਤਰਚਾਰਿਣੌ।।5.27।।
ಸ್ಪರ್ಶಾನ್ಕೃತ್ವಾ ಬಹಿರ್ಬಾಹ್ಯಾಂಶ್ಚಕ್ಷುಶ್ಚೈವಾನ್ತರೇ ಭ್ರುವೋಃ. ಪ್ರಾಣಾಪಾನೌ ಸಮೌ ಕೃತ್ವಾ ನಾಸಾಭ್ಯನ್ತರಚಾರಿಣೌ৷৷5.27৷৷
സ്പര്ശാന്കൃത്വാ ബഹിര്ബാഹ്യാംശ്ചക്ഷുശ്ചൈവാന്തരേ ഭ്രുവോഃ. പ്രാണാപാനൌ സമൌ കൃത്വാ നാസാഭ്യന്തരചാരിണൌ৷৷5.27৷৷
ସ୍ପର୍ଶାନ୍କୃତ୍ବା ବହିର୍ବାହ୍ଯାଂଶ୍ଚକ୍ଷୁଶ୍ଚୈବାନ୍ତରେ ଭ୍ରୁବୋଃ| ପ୍ରାଣାପାନୌ ସମୌ କୃତ୍ବା ନାସାଭ୍ଯନ୍ତରଚାରିଣୌ||5.27||
sparśānkṛtvā bahirbāhyāṅścakṣuścaivāntarē bhruvōḥ. prāṇāpānau samau kṛtvā nāsābhyantaracāriṇau৷৷5.27৷৷
ஸ்பர்ஷாந்கரித்வா பஹிர்பாஹ்யாஂஷ்சக்ஷுஷ்சைவாந்தரே ப்ருவோஃ. ப்ராணாபாநௌ ஸமௌ கரித்வா நாஸாப்யந்தரசாரிணௌ৷৷5.27৷৷
స్పర్శాన్కృత్వా బహిర్బాహ్యాంశ్చక్షుశ్చైవాన్తరే భ్రువోః. ప్రాణాపానౌ సమౌ కృత్వా నాసాభ్యన్తరచారిణౌ৷৷5.27৷৷
5.28
5
28
।।5.27 -- 5.28।। बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़कर और नेत्रोंकी दृष्टिको भौंहोंके बीचमें स्थित करके तथा नासिकामें विचरनेवाले प्राण और अपान वायुको सम करके जिसकी इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अपने वशमें हैं, जो मोक्ष-परायण है तथा जो इच्छा, भय और क्रोधसे सर्वथा रहित है, वह मुनि सदा मुक्त ही है।
।।5.28।। जिस पुरुष की इन्द्रियाँ,  मन और बुद्धि संयत हैं, ऐसा मोक्ष परायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित है, वह सदा मुक्त ही है।।
।।5.28।। सूत्रस्थानीय इन श्लोकों में भगवान् ने ध्यानयोग का संक्षेप में संकेत किया है जिसका विस्तृत वर्णन अगले अध्याय में किया गया है। संस्कृत में ब्रह्मविद्या के ग्रन्थों की यह पारम्परिक शैली है कि प्राय उनमें एक अध्याय के अन्तिम श्लोकों में आगामी अध्याय के विषय की प्रस्तावना प्रस्तुत की जाती है।इन श्लोकों में ज्ञानी पुरुष के अर्थपूर्ण जीवन के सभी पक्षों का वर्णन मिलता है। वेदान्त के साधक पूर्णत्व का जीवन जीने के लिए सदैव उत्सुक एवं तत्पर रहते हैं। वे उन स्वप्नद्रष्टा पुरुषों के समान नहीं होते जो किसी आदर्शवादी कल्पना में रमना पसन्द करते हैं बल्कि वे तो अत्यन्त व्यवहारकुशल उपयोगी और प्रेरणा का जीवन जीना चाहते हैं। इसलिए उन्हें अव्यावहारिक एवं आदर्शवादी तत्त्वज्ञान का कोई आकर्षण नहीं होता।पूर्णरूप से मन का समत्व कैसे प्राप्त किया जाय यह शंका सभी साधकों के मन में उठती है। श्रीकृष्ण यहाँ संक्षेप में उस साधन क्रम का वर्णन करते हैं जिसके अभ्यास से सिद्ध पुरुष के सुसंगठित व्यक्तित्व को प्राप्त किया जा सकता है। इसी का विस्तार अगले अध्याय में है।बाह्य विषयों की स्वयं में यह सार्मथ्य नहीं है कि वे किसी व्यक्ति को क्षुब्ध या लुब्ध कर सकें। विक्षेप का होना तो उनके साथ हमारे सम्बन्ध पर निर्भर करता है। समुद्रतट पर खड़े होकर उसमें उत्ताल तरंगों को देखने मात्र से कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती किन्तु समुद्र में कूद पड़ने पर तरंगों के द्वारा हमें इधरउधर फेंका जाना प्रारंभ होता है। शब्दस्पर्श रूप आदि ग्रहण करने पर विक्षेप तभी होता है जब हम अपने मन की परिवर्तनशील परिस्थितियों से तादात्म्य करते हैं। इसलिए यदि हम बाह्य विषयों को बाहर ही रख सकें तो निश्चय ही ध्यानाभ्यास के लिए आवश्यक मनशान्ति प्राप्त की जा सकती है। यहाँ विषयों को बाहर रखने का अर्थ यह नहीं कि हम अपनी इंद्रियों का उपयोग करना बंद कर दें। इसका तात्पर्य यह है कि हम विषयों का चिन्तन न करें। विचार द्वारा यह जानकर कि उनमें सुख नहीं होता उनसे विरक्त हो जायें।अनेक साधक गुरु के उपदेशों का शाब्दिक अर्थ लेकर विचित्र ध्यानाभ्यास करने लगते हैं। ध्यान के लिए वे नेत्रदृष्टि को भृकुटियों के मध्य स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं। यह तो उपदेश का अतिप्रसंग ही कहा जायेगा। जैसा कि श्री शंकराचार्य बताते हैं यहाँ दृष्टि को मानो भृकुटियों के बीच स्थिर करना है वास्तव में नहीं। यह एक मनोवौज्ञानिक सत्य है कि भृकुटियों के बीच दृष्टि को स्थिर करने की कल्पना से 45 अंश का कोण बनता है और यह स्थिति ध्यान के लिए अत्यन्त अनुकूल होती है।हमारे श्वासोच्छ्वास की गति एवं मन की स्थिति के बीच अत्यन्त समीप का सम्बन्ध है। मन के क्षुब्ध होने पर श्वासोच्छ्वास की लय भी बिगड़कर असंयमित हो जाती है। यहाँ प्राणापान की गति को सम करने का उपदेश है क्योंकि प्राणायाम मन को शान्त करने में उपयोगी होता है।प्रथम तो शरीर तथा प्राण को सुव्ययवस्थित करने का उपदेश है और तत्पश्चात् मन और बुद्धि को। इन्द्रियों की भूख मन की चंचलता और बुद्धि की अस्थिरता इन सबको संयमित करने का एक मात्र उपाय है मोक्ष को अपने जीवन का परम लक्ष्य बनाना। लक्ष्य का निर्धारण करने पर समस्त कर्मों का उसी लक्ष्य के प्रति अर्पण करना चाहिए। बुद्धि पर संयम होने का अर्थ इच्छा भय और क्रोध से मुक्त हो जाना है।उपर्युक्त तीनों गुणों में निकट का सम्बन्ध है। किसी अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र लालसा को इच्छा कहते हैं। इच्छा के तीव्र होने पर वह वस्तु प्राप्त होगी अथवा नहीं इसका भय लगा रहता है और उसके प्राप्त हो जाने पर यह भय होता है कि कहीं खो न जाय। जब व्यक्ति इस प्रकार भयभीत होता है तब स्वाभाविक है कि उसके और वस्तु प्राप्ति के बीच कोई विघ्न आ जाये तब वह व्यक्ति क्रोधित हो जाता है। अत तीनों पर विजय पाना बुद्धि की सभी वृत्तियों को अपने वश में करना है। इस प्रकार इन दो श्लोकों में वर्णित गुणों से सम्पन्न व्यक्ति भगवान् के शब्दों में सदा मुक्त ही है।इन गुणों के होने पर मुक्ति दूर नहीं रहती इसलिए भगवान् यहाँ कहते हैं कि इच्छा भय और क्रोध से रहित व्यक्ति मुक्त ही है। व्यवहार में भी रोटी पकाना इस प्रकार की शब्दावली प्रचलित है। किन्तु वास्तव में गूंथे हुए आटे को पकाया जाता हैं और न कि रोटी को। परन्तु हम उस वाक्य के अभिप्राय को समझते हैं। ठीक वैसे ही यदि साधक सब साधन सम्पन्न होकर ध्यान का अभ्यास करे तो सब मिथ्या धारणाओं से मुक्त होकर वह शीघ्र ही नित्यमुक्त आत्मा का साक्षात् अनुभव करता है।इस प्रकार समाहित चित्त के पुरुष के लिए कौन सी वस्तु ज्ञेय और ध्येय है इस सम्बन्ध में कहते हैं
5.28।। व्याख्या--'स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान्'--परमात्माके सिवाय सब पदार्थ बाह्य हैं। बाह्य पदार्थोंको बाहर ही छोड़ देनेका तात्पर्य है कि मनसे बाह्य विषयोंका चिन्तन न करे।बाह्य पदार्थोंके सम्बन्धका त्याग कर्मयोगमें सेवाके द्वारा और ज्ञानयोगमें विवेकके द्वारा किया जाता है। यहाँ भगवान् ध्यानयोगके द्वारा बाह्य पदार्थोंसे सम्बन्ध-विच्छेदकी बात कह रहे हैं। ध्यानयोगमें एकमात्र परमात्माका ही चिन्तन होनेसे बाह्य पदार्थोंसे विमुखता हो जाती है।वास्तवमें बाह्य पदार्थ बाधक नहीं हैं। बाधक है--इनसे रागपूर्वक माना हुआ अपना सम्बन्ध। इस माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेमें ही उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य है। 'चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः' यहाँ 'भ्रुवोः अन्तरे'--पदोंसे दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीचमें रखना अथवा दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर रखना (गीता 6। 13)--ये दोनों ही अर्थ लिये जा सकते हैं।ध्यानकालमें नेत्रोंको सर्वथा बंद रखनेसे लयदोष अर्थात् निद्रा आनेकी सम्भावना रहती है, और नेत्रोंको सर्वथा खुला रखनेसे (सामने दृश्य रहनेसे) विक्षेपदोष आनेकी सम्भावना रहती है। इन दोनों प्रकारके दोषोंको दूर करनेके लिये आधे मुँदे हुए नेत्रोंकी दृष्टिको दोनों भौंहोंके बीच स्थापित करनेके लिये कहा गया है।
।।5.27 5.28।।स्पर्शानिति। यतेन्द्रियेति। बाह्यस्पर्शान् बहिः कृत्वा अनङ्गीकृत्य भ्रुवोः वामदक्षिणदृष्ट्योः क्रोधरागात्मकयोः अन्तरे तद्रहिते स्थानविशेषे चक्षुरुपलक्षितानि सर्वेन्द्रियाणि कृत्वा विधाय प्राणापानौ धर्माधर्मौ चित्तवृत्त्यभ्यन्तरे साम्येनावस्थाप्य आसीत (K omits आसीत)। नसते कौटिल्येन असाम्येन क्रोधादिवशात् व्यवहरति इति नासा चित्तवृत्तिः। एतदेव बाह्ये। एवंविधो योगी सर्वव्यवहारान्वर्तयन्नपि मुक्त एव।
।।5.28।।बाह्यान् विषयस्पर्शान् बहिः कृत्वा बाह्येन्द्रियव्यापारं सर्वम् उपसंहृत्य योगयोग्यासने ऋजुकाय उपविश्य चक्षुः भ्रुवोः अन्तरे नासाग्रे विन्यस्य नासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानौ समौ कृत्वा उच्छवासनिः श्वासौ समगति कृत्वा आत्मावलोकनाद् अन्यत्र प्रवृत्त्यनर्हेन्द्रियमनोबुद्धिः तत एव विगतेच्छाभयक्रोधो मोक्षपरायणो मोक्षैकप्रयोजनो मुनिः आत्मावलोकनशीलो यः सदा मुक्त एव साध्यदशायाम् इव साधनदशायाम् अपि मुक्त एव स इत्यर्थः।उक्तस्य नित्यनैमित्तिककर्मेति कर्तव्यताकस्य कर्मयोगस्य योगशिरस्कस्य सुशकताम् आह
।।5.28।।विषयप्रावण्यं परित्यज्य चक्षुरपि भ्रुवोर्मध्ये विक्षेपपरिहारार्थं कृत्वा प्राणापानौ च नासाभ्यन्तरचरणशीलौ समौ न्यूनाधिकवर्जितौ कुम्भकेन निरुद्धौ कृत्वा करणानि सर्वाण्येवं संयम्य प्राणायामपरो भूत्वा किं कुर्यादित्यपेक्षायामाह यतेन्द्रियेति। इन्द्रियादिसंयमं कृत्वा मोक्षमेवापेक्षमाणो मननशीलः स्यादित्यर्थः। ज्ञानातिशयनिष्ठस्य सर्वदेच्छादिशून्यस्य संन्यासिनो मुक्तेरनायाससिद्धत्वान्न तस्य किंचिदपि कर्तव्यमस्तीत्याह विगतेति। पूर्वार्धाक्षराणि व्याकरोति यतेत्यादिना। द्वितीयार्धाक्षराणि व्याचष्टे विगतेत्यादिना।
।।5.27 5.28।।स योगी ब्रह्मनिर्वाणं 5।24 इत्यादौ प्रोक्तं तमेव योगं समासेन दर्शयन्नाह द्वाभ्याम् स्पर्शानिति।ईश्वरालम्बनं योगो जनयित्वा तु तादृशम्। बहुजन्मविपाकेन भक्तिं जनयति ध्रुवम्। योगेन तु निषिद्धेन यदि देहः प्रसिद्ध्यति। तदा कल्पान्तपर्यन्तं भावनातस्तु तत्फलम्। इति निबन्धे ईश्वरालम्बनस्यैव योगस्य भक्तिजनकत्वमिति। योगेश्वरालम्बनतायाः स्वरूपमाह स्पर्शाः बाह्याः रूपरसादयो विषयाश्चिन्तितता एवान्तः प्रविशन्ति तांस्तच्चिन्तात्यागेन बहिरेव कृत्वा ज्ञानप्रधानं चक्षुश्च भ्रुवोरन्तरे कृत्वा अर्द्धोन्मीलितलोचनेन मन एकाग्रं कृत्वेत्यर्थः। तथोर्द्धाधोगतिकौ प्राणापानौ च समौ कृत्वा कुम्भयित्वा प्राणायामाभिनयेन तदाह नासाभ्यन्तरचारिणाविति। एतेनोपायेन यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्योगफलं न तत्र सिद्धिकामः स्यात् किन्तु मोक्षपरायणः मोक्षार्थं पर ईश्वरस्तदालम्बनो यः स सदा प्रपञ्च एवमुक्त एव जीवन्मुक्त इत्यर्थः।
।।5.27 5.28।।पूर्वमीश्वरार्पितसर्वभावस्य कर्मयोगेनान्तःकरणशुद्धिस्ततः सर्वकर्मसंन्यासस्ततः श्रवणादिपरस्य तत्त्वज्ञानं मोक्षसाधनमुदेतीत्युक्तम् अधुनास योगी ब्रह्मनिर्वाणम् इत्यत्र सूचितं ध्यानयोगं सम्यग्दर्शनस्यान्तरङ्गसाधनं विस्तरेण वक्तुं सूत्रस्थानीयांस्त्रीञ्श्लोकानाह भगवान्। एतेषामेव वृत्तिस्थानीयः कृत्स्नः षष्ठोऽध्यायो भविष्यति। तत्रापि द्वाभ्यां संक्षेपेण योग उच्यते। तृतीयेन तु तत्फलं परमात्मज्ञानमिति विवेकः स्पर्शाञ्शब्दादीन्बाह्यान्बहिर्भवानपि श्रोत्रादिद्वारा तत्तदाकारान्तःकरणवृत्तिभिरन्तःप्रविष्टान्पुनर्बहिरेव कृत्वा परवैराग्यवशेन तत्तदाकारां वृत्तिमनुत्पाद्येत्यर्थः। यद्येते आन्तरा भवेयुस्तदोपायसहस्रेणामि बहिर्न स्युः स्वभावभङ्गप्रसङ्गात् बाह्यानां तु रागवशादन्तःप्रविष्टानां वैराग्येण बहिर्गमनं संभवतीति वदितुं बाह्यानिति विशेषणम्। तदनेन वैराग्यमुक्त्वाभ्यासमाह चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः कृत्वेत्यनुषज्यते। अत्यन्तनिमीलने हि निद्राख्या लयात्मिका वृत्तिरेका भवेत्। प्रसारणे तु प्रमाणविपर्ययविकल्पस्मृतयश्चतस्रो विक्षेपात्मिकावृत्तयो भवेयुः। पञ्चापि तु वृत्तयो निरोद्धव्या इति अर्धनिमीलनेन भ्रूमध्ये चक्षुषो निधानम्। तथा प्राणापानौ समौ तुल्यावूर्ध्वाधोगतिविच्छेदेन नासाभ्यन्तरचारिणौ कुम्भकेन कृत्वा अनेनोपायेन यताः संयता इन्द्रियमनोबुद्धयो यस्य स तथा। मोक्षपरायणः सर्वविषयविरक्तो मुनिर्मननशीलो भवेत्। विगतेच्छाभयक्रोध इति वीतरागभयक्रोध इत्यत्र व्याख्यातम्। एतादृशो यः संन्यासी सदा भवति मुक्त एव सः। नतु मोक्षः तस्य कर्तव्योऽस्ति। अथवा य एतादृशः स सदा जीवन्नपि मुक्त एव।
।।5.28।।यत इति। अनेनोपायेन यताः संयता इन्द्रियमनोबुद्धयो यस्य मोक्ष एव परमयनं प्राप्यं यस्य अतएव विगता इच्छाभयक्रोधा यस्य य एंवभूतो मुनिः स सदा जीवन्नपि मुक्त एवेत्यर्थः।
।। 5.28 ज्ञानकर्मात्मिके निष्ठे योगलक्षे सुसंस्कृते। आत्मानुभूतिसिद्ध्यर्थे पूर्वषट्केन चोदिते गी.सं.2 इति सङ्ग्रहमनुसन्दधान उत्तरश्लोकानां सङ्गतिमाह उक्तं कर्मयोगमिति। स्पर्शशब्दस्यात्रानुभवपरस्यानुभाव्यार्थज्ञापनायविषयस्पर्शानित्युक्तम्। फलितमाह बाह्येन्द्रियव्यापारं सर्वमुपसंहृत्येति।उपविश्यासने 6।12 इत्यादिवक्ष्यमाणानुसन्धानेनयोगयोग्येत्याद्युक्तम्।चक्षुः इत्येकवचनं करणाकारैक्यादिति दर्शयितुंचक्षुषी इत्युक्तम्।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं 6।13 इति वक्ष्यमाणेननासाग्रन्यस्तलोचनः इत्यादिप्रकरणान्तरोक्त्या चभ्रुवोरन्तरे कृत्वा इत्यस्यैकार्थ्यमाहनासाग्र इति। नासाभ्यन्तरसञ्चारमात्रस्य स्वतस्सिद्धस्य विधेयत्वायोगात्समौ कृत्वा इत्येतदेव विधेयमिति दर्शयितुंनासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानावित्यनुवादः। अपानस्य नासाभ्यन्तरसञ्चारव्यञ्जनायउच्छ्वासनिश्श्वासावित्युक्तम्। एक एव हि वायुर्नासापुटेन निष्कामन् प्रविशंश्च प्राणोऽपान इति चोच्यते। वृत्तिस्थानादिसाम्यायोगात्तद्गतिसाम्योक्तिः। न दीर्घमुच्छ्वसन्नापि निश्श्वसन्नित्यर्थः। साक्षात्कारात्यन्ताव्यवहितपूर्वावस्थाविषयत्वाद्यतशब्दस्यप्रवृत्त्यनर्हेत्यर्थ उक्तः।स्पर्शान् कृत्वा बहिर्बाह्यान् इत्यत्र प्रवृत्तिनिवारणम्यतेन्द्रियः इत्यादौ तु तत्फलभूता प्रवृत्त्यनर्हतेत्यपुनरुक्तिरिति भावः। ज्ञानार्थधातौ निष्पन्नस्य मुनिशब्दस्य योगावस्थायां आत्मसाक्षात्काररूपज्ञानविशेषे तात्पर्यमाहआत्मावलोकनशील इति। अत्र वाचंयमत्वादप्यन्तरङ्गभूतोऽयमर्थ इति भावः। सदाशब्दाभिप्रेतं व्यनक्तिसाध्यदशायामिवेति।मुक्त एव मुक्तप्राय इत्यर्थः।
।। 5.28 ननु स्पर्शभावरूपा स्थितिरतिकठिना अतः स्पर्शसंयोगेऽपि या प्राप्तिः स्यात् स्पर्शजबन्धाभावे न तथा भवेदित्यभिप्रायेणाह स्पर्शानिति द्वयेन। बहिर्बाह्यान् स्पर्शान् कृत्वा बाह्याँल्लौकिकान् स्पर्शानिन्द्रियादिविषयभोगान् बहिः तेषूत्तमाद्यभावेन प्रारब्धकर्मभोगवत्। किञ्च पुनर्भ्रुवोः कालयमरूपयोरन्तरैव चक्षुः दृष्टिं कृत्वा कालयममध्ये मरणरूपोऽस्मीति दृष्ट्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ प्राणापानावूर्ध्वाधोगतिरूपौ संयोगविप्रयोगसुखानुभवाविव समौ कृत्वा मोक्षपरायणः विषयादित्यागपरो विगतेच्छाभयक्रोधो भूत्वा यतेन्द्रियमनोबुद्धिः सन् यः सदा मुनिर्मननशीलो भवति स स्पर्शादिभिर्मुक्त एव स्यादित्यर्थः।
।।5.28।।यतेन्द्रियेति। यस्मिन्कस्मिंश्चित्स्थूले विषये सूर्ये तद्रश्मिषु वा विष्णुप्रतिमायां वाऽनाहतध्वनौ वान्यत्र वा चक्षुराद्यन्यतमद्वारा मनो धारयेत्। तच्च मनस्तद्विषयाकारतां प्राप्तं तत्रैव स्थिराभ्यासेन विश्रान्तं स्वदेहमपि न पश्यति सेयं महाविदेहा नाम धारणा। अस्यां सिद्धायामिन्द्रियगणः स्वंस्वं विषयं न तु गृह्णाति। सोऽयं बहिर्विषयप्रत्याहारः पूर्वोक्तस्त्वान्तर इति भेदः। अतएव तयोस्तुल्यफलत्वं सूत्रितम्ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् इति। ततः अभ्यन्तरप्रत्याहारत् तथा बहिरकल्पिता वृत्तिर्महाविदेहा तत्संयमात्प्रकाशावरणक्षय इति। यदा चित्तं देहमविस्मृत्यैव हठेन पुरःस्थितमूर्त्याद्याकारं क्रियते तदा सा चित्तस्य मूर्त्याकारतारूपा वृत्तिः कल्पिता। यदा तु निरवशेषेण देहं विस्मृत्य चेतः केवलं ध्येयाकारमात्रं भवति सदा सा महाविदेहा नाम धारणा। तस्या अपि फलं तदेव। तत्संयमात्तस्यां चेतसो निग्रहात्प्रकाशावरणक्षयो भवति सोयं बाह्यविषयः समाधिः। वितर्काख्यो द्विविधः सवितर्कनिर्वितर्कभेदात्। तत्राद्यस्य लक्षणं सूत्रितंशब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का इति। सवितर्का नाम समापत्तिः समाधिरित्यर्थः। यदा विष्णुप्रतिमादौ पूर्वापरानुसंधानेन शब्दार्थोल्लेखेन च भावना प्रवर्तते तदा सवितर्का समापत्तिः। अस्मिन्नेवालम्बने पूर्वापराननुसंधानेन शब्दार्थोल्लेखनमन्तरेण भावना प्रवर्तते तदा निर्वितर्का नाम समापत्तिः। तथा च सूत्रंस्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्ये वार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का। स्मृतेः शब्दार्थस्मरणस्य परिशुद्धौ वर्जने सति भावयितुः स्वरूपेण शून्या तदाहमिदं भावयामीत्येवमाकारा वृत्तिरपि भावयितुर्नास्तीवेति भाति। यतोऽर्थमात्रनिर्भासा ध्येयार्थमात्रमस्यां भासते नत्वन्यदिति सूत्रार्थः। अस्यां सिद्धायां योगी जितेन्द्रिय इत्युच्यते। जितमना इति आभ्यन्तरप्रत्याहारपूर्वकं यदा मनःकल्पिते सूक्ष्मे विषये पूर्ववच्छब्दार्थोल्लेखपूर्वकं तद्वर्जं च मनसो भावना प्रवर्तते तदा ते उभे समापत्ती सविचारनिर्विचाराख्ये भवतः। तथा च सूत्रंएतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता इति। अत्र सूक्ष्मविषयेति ग्रहणात्पूर्वस्यां स्थूलविषयत्वं गम्यते। एतयैव द्विविधवितर्कसमापत्त्यैव निर्विचारसमापत्तौ दृढायां योगी जितमना इत्युच्यते। यदा पुनश्चेतसो मूर्त्याकारतां परित्यज्य सत्त्वोद्रेकात्समष्टिमनोमयविषया अहमेवेदं सर्वोऽस्मीत्येवमाकारा भावनाप्रवर्तते सोऽयं सानन्दः समाधिः। यदा तु तामपि भावनां परित्यज्य विषयवेदनमन्तरेणास्मीत्येतावन्मात्राकारा भावना प्रवर्तते साऽस्मिता। अस्मिताहंकारयोर्भेदस्तु क्रमेण विषयवैमुख्यतदाभिमुख्यमात्रकृतः। यथैक एव पूर्वाभिमुखः पश्चिमाभिमुखश्चेति तद्वत्। अस्यामवस्थायां योगी बुद्धितो विविक्तस्य त्वंपदार्थस्य साक्षात्काराज्जितबुद्धिरित्युच्यते। तदेतदुक्तं यतेन्द्रियमनोबुद्धिरिति। एतान्येव प्रसाधनानि गुणपर्वाण्युच्यन्ते। तथा च सूत्रम्विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि इति। तत्र विशेषाः स्थूलभूतानि एकादशेन्द्रियाणि च। अविशेषाः पञ्चतन्मात्राणि अहंकारश्च। लिङ्गमात्रं महत्तत्वम्। अलिङ्गं प्रधानम्। तत्र विशेषादविशेषं प्रविविक्षितो योगिनो दैनंदिनलयाभ्यासात्समनस्कानीन्द्रियाणि लीयन्ते स लयः। बहिर्मुखान्येव वा भवन्ति स विक्षेपः। एवमविशेषेभ्यो लिङ्गमात्रं विविक्षतोऽपि लयविक्षेपौ स्तः। लिङ्गमात्रात्परं पुरुषं प्रविविक्षतोऽपि तौ स्तः। तावेतौ लयविक्षेपौ हेयौ श्रूयेतेलयविक्षेपरिहतं मनः कृत्वा सुनिश्चलम्। यदा यात्युन्मनीभावं तदा तत्परमं पदम्। इति। एतेषु त्रिषु लीनेष्वाद्यः सुप्त एव। द्वितीयो विगलितदेहाहंकारत्वाद्विदेहसंज्ञः। तृतीयः प्रकृतिलय इति। एतयोः समाधिर्गौणः। अतएव सूत्रितम्भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् इति। भवप्रत्ययो जन्मान्तरहेतुरेषां समाधिर्भवति। यद्वा जन्मान्तरे एतेषां जन्मनैव समाधिसिद्धिः पक्षिणामाकाशगमनसिद्धिवद्भवतीति सूत्रार्थः। सर्वथापि तेषां सद्योमुक्तिर्नास्तीति सिद्धम्। यदातु अस्मितामात्रस्यापि निर्विकल्पे चिन्मात्रे लयो भवति तदायं विद्वान्कैवल्यं धर्ममेव समाध्याख्यमनुभवति। यमधिकृत्य श्रूयतेक्षणमेकं क्रतुशतस्य चतुःसप्तत्या यत्फलं तदवाप्नोति इति। अयमेव मोक्षाख्यः परमयनं प्राप्यं स्थानं यस्य स मुनिर्मोक्षपरायण इत्युच्यते। यतोऽस्यामेवावस्थायां योगी जीवन्मुक्त इत्युच्यते। विगतेच्छाभयक्रोध इति पादः प्रागेव व्याख्यातः। य एवंभूतः स सदा मुक्तः बन्धप्रतीतिकालेऽपि स मुक्त एवास्ति। अज्ञानमात्रव्यवधानान्मुक्तेः। एतेनाहंकारादेर्बन्धस्य कालत्रयेऽप्यसत्त्वोक्त्या मिथ्यात्वं दर्शितम्।
।।5.28।।यतानि संयतानि इन्द्रियादीनि येन स मुनिर्मननशीलः मोक्ष एव परमयनं परा गतिर्यस्य स मोक्षपरायणो मुमुक्षुः विगता इच्छादयो यस्मात्स य एवं वर्तते स मुमुक्षुरेव न तस्य मोक्षादन्यत्कर्तव्यमस्ति स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान् मोक्षपरायण इत्यनेन वैराग्यान्मुमुक्षुरधिकारी कथितः। चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोरित्यनेनासनजयेन लयविक्षेपराहित्यमुक्तम्। प्राणेत्यादिना प्राणायामो निरुपितः। स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यानित्यनेनैवअहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः इतिसूत्रोक्ता यमाः।शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः इति सूत्रोक्ता नियमाश्च प्रदर्शिताः। यतेन्द्रिय इति प्रत्याहारः यतमना इति धारणाध्याने यतबुद्धिरिति समाधिकथितः विगतेच्छाभक्रोध इति मोक्षपरायणस्य योगिनः स्वरुपनिरुपणमिति विवेकः।
5.28 यतेन्द्रियमनोबुद्धिः with senses? mind and intellect (ever) controlled? मुनिः the sage? मोक्षपरायणः having liberation as his supreme goal? विगतेच्छाभयक्रोधः free from desire? fear and anger? यः who? सदा for ever? मुक्तः free? एव verily? सः he.Commentary If one is free from desire? fear and anger he enjoys perfect peace of mind. When the senses? the mind and the intellect are subjugated? the sage does constant contemplation and,attains for ever to the absolute freedom or Moksha.The mind becomes restless when the modifications of deisre? fear and anger arise in it. When one becomes desireless? the mind moves towards the Self spontaneously liberation or Moksha becomes his highest goal.Muni is one who does Manana or reflection and contemplation.
5.28 With the senses, the mind and the intellect (ever) controlled, having liberation as his supreme goal, free from desire, fear and anger the sage is verily liberated for ever.
5.28 Governing sense, mind and intellect, intent on liberation, free from desire, fear and anger, the sage is forever free.
5.27-5.28 Keeping the external objects outside, the eyes at the juncture of the eye-brows, and making eal the outgoing and incoming breaths that move through the nostrils, the contemplative who has control over his organs, mind and intellect should be fully intent on Liberation and free from desire, fear and anger. He who is ever is verily free.
5.28 Krtva, keeping; bahyan, the external; sparsan, objects-sound etc.; bahih, outside: To one who does not pay attention to the external objects like sound etc., brought to the intellect through the ear etc., the objects become verily kept outside. Having kept them out in this way, and (keeping) the caksuh, eyes; antare, at the juncture; bhruvoh, of the eye-brows (-the word 'keeping' has to be supplied-); and similarly, samau krtva, making eal; prana-apanau, the outgoing and the incoming breaths; nasa-abhyantara-carinau, that move through the nostrils; munih, the contemplative-derived (from the root man) in the sense of contemplating-, the monk; yata-indriya-mano-buddhih, who has control over his organs, mind and intellect; should be moksa-para-yanah, fully intent on Liberation-keeping his body is such a posture, the contemplative should have Liberation itself as the supreme Goal. He should be vigata-iccha-bhaya-krodhah, free from desire, fear and anger. The monk yah, who; sada, ever remains thus; sah, he; is muktah yah, who;sada, ever remains thus; sah, he; is muktah, ever, verily free. He has no other Liberation to seek after. What is there to be realized by one who has his mind thus concentrated? The answer this is beig stated:
5.28. Having known Me as the Enjoyer of [the fruits of] sacrifices and austerties, as the great Lord of all the worlds, and as the Friend of all beings, he (the man of Yoga) attains peace.
5.27-28 Sparsan etc.; Yatendriya-etc. Warding off outside, i.e., not accepting, the external contacts (objects); establishing all the sense-organs - indicated by 'sense of sight' - in the middle place in between the two wandering ones, i.e., the right and the left views in the form of desire and wrath viz., in that particular place which is free from both these; he would remain fixing in eipoise (or making neutral) both the forward (upward) and backward (downward) moving forces viz., the pious and impious acts, within the mental modification. Nasa 'that which acts crookedly'. This is mental modification, because it behaves crookedly i.e., ineally due to anger etc. The same is in the external plane. A man of Yoga of this type is just free, though he transacts all mundane business.
5.27 - 5.28 'Shutting off all contact with outside objects,' i.e., stopping the outward functioning of the senses; seated with his trunk straightened in a posture fit for meditation (Yoga); 'fixing the gaze between the eye-brows,' i.e., at the root of the nose where the eye-brows meet; 'ealising inward and outward breaths,' i.e., making exhalatory and inhalatory breath move eally: making the senses, Manas and intellect no longer capable of anything except the vision of the self, conseently being free from 'desire, fear and wrath'; 'who is intent on release as his final goal,' i.e., having release as his only aim - the sage who is thus intent on the vision of the self 'is indeed liberated for ever,' i.e., he is almost a liberated person, as he would soon be in the ultimate stage of fruition. Sri Krsna now says that Karma Yoga, described above, which is facilitated by the performance of obligatory and occasional rites and which culminates in meditation (Yoga), is easy to practise:
5.28 The sage who has controlled his senses, mind and intellect, who is intent on release as his final goal, freed for ever from desire, fear and wrath - is indeed liberated forever.
।।5.28।।जिसके इन्द्रिय मन और बुद्धि वशमें किये हुए हैं जो ईश्वरके स्वरूपका मनन करनेसे मुनि यानी संन्यासी है जो शरीरमें रहता हुआ भी मोक्षपरायण है अर्थात् जो मोक्षको ही परम आश्रय परम गति समझनेवाला मुनि है तथा जो इच्छा भय और क्रोधसे रहित हो चुका है जिसके इच्छा भय और क्रोध चले गये हैं जो इस प्रकार बर्तता है वह संन्यासी सदा मुक्त ही है उसे कोई दूसरी मुक्ति प्राप्त नहीं करनी है।
।।5.27 5.28।। स्पर्शान् शब्दादीन् कृत्वा बहिः बाह्यान् श्रोत्रादिद्वारेण अन्तः बुद्धौ प्रवेशिताः शब्दादयः विषयाः तान् अचिन्तयतः शब्दादयो बाह्या बहिरेव कृताः भवन्ति तान् एवं बहिः कृत्वा चक्षुश्चैव अन्तरे भ्रुवोः कृत्वा इति अनुषज्यते। तथा प्राणापानौ नासाभ्यन्तरचारिणौ समौ कृत्वा यतेन्द्रियमनोबुद्धिः यतानि संयतानि इन्द्रियाणि मनः बुद्धिश्च यस्य सः यतेन्द्रियमनोबुद्धिः मननात् मुनिः संन्यासी मोक्षपरायणः एवं देहसंस्थानात् मोक्षपरायणः मोक्ष एव परम् अयनं परा गतिः यस्य सः अयं मोक्षपरायणो मुनिः भवेत्। विगतेच्छाभयक्रोधः इच्छा च भयं च क्रोधश्च इच्छाभयक्रोधाः ते विगताः यस्मात् सः विगतेच्छाभयक्रोधः यः एवं वर्तते सदा संन्यासी मुक्त एव सः न तस्य मोक्षायान्यः कर्तव्योऽस्ति।।एवं समाहितचित्तेन किं विज्ञेयम् इति उच्यते भोक्तारं यज्ञतपसां यज्ञानां तपसां च कर्तृरूपेण देवतारूपेण च सर्वलोकमहेश्वरं सर्वेषां लोकानां महान्तम् ईश्वरं सुहृदं सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां प्रत्युपकारनिरपेक्षतया उपकारिणं सर्वभूतानां हृदयेशयं सर्वकर्मफलाध्यक्षं सर्वप्रत्ययसाक्षिणं मां नारायणं ज्ञात्वा शान्तिं सर्वसंसारोपरतिम् ऋच्छति प्राप्नोति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येपञ्चमोऽध्यायः।।
।।5.27 5.28।।ध्यायिनां मुक्तत्वं साक्षाच्चेत्प्रमाणविरोधः ज्ञानद्वारा चेत्पुनरुक्तिरित्यतः श्लोकद्वयतात्पर्यमाह ध्यानेति। मुक्त एव स इति स्तुतिरिति भावः। पदानां व्यवहितत्वादन्वयमाह बाह्यानिति। स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः शब्दाद्याः। स्पर्शा बाह्या एव तेषां किं बहिष्करणं इत्यत आह श्रोत्रादीनीति। योगेन प्रत्याहारेण श्रोत्रादीनामनियमे पट्वभ्यासादरप्रत्ययवशाच्छब्दाद्या आन्तरा इव भवन्ति। तन्िनयमे तु बाह्या बहिष्कृताः स्युरिति भावः। कृत्वेत्यस्यानुवृत्त्या योजयति चक्षुरिति। दुर्घटमेतदित्यत आह भ्रुवोरिति। चक्षुर्वृत्तौ चक्षुश्शब्द इत्यर्थः।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं 6।13 इति वक्ष्यमाणविरोध इत्यत आह उक्तं चेति। न्यूनाधिकभावराहित्यं समीकरणमित्यन्यथाप्रतीतिनिरासायानूद्य व्याचष्टे प्राणेति। कुम्भके प्राणायामे ततश्च समौ निर्विकारौ निश्चलावित्यर्थः। इतरत्समीकरणं कुम्भकार्थमेवेति भावः।
।।5.27 5.28।।ध्यानप्रकारमाह स्पर्शानित्यादिना। बाह्यान्स्पर्शन्वहिः कृत्वा श्रोत्रादीनि योगेन नियम्येत्यर्थः। चक्षुर्भ्रुवोरन्तरं कृत्वा भ्रुवोर्मध्यमवलोकयन्नित्यर्थः। उक्तं च नासाग्रे वा भ्रुवोर्मध्ये ध्यानी चक्षुर्निधापयेत् इति। प्राणापानौ समौ कृत्वा कुम्भके स्थितत्वेत्यर्थः।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।5.28।।
যতেন্দ্রিযমনোবুদ্ধির্মুনির্মোক্ষপরাযণঃ৷ বিগতেচ্ছাভযক্রোধো যঃ সদা মুক্ত এব সঃ৷৷5.28৷৷
যতেন্দ্রিযমনোবুদ্ধির্মুনির্মোক্ষপরাযণঃ৷ বিগতেচ্ছাভযক্রোধো যঃ সদা মুক্ত এব সঃ৷৷5.28৷৷
યતેન્દ્રિયમનોબુદ્ધિર્મુનિર્મોક્ષપરાયણઃ। વિગતેચ્છાભયક્રોધો યઃ સદા મુક્ત એવ સઃ।।5.28।।
ਯਤੇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਮਨੋਬੁਦ੍ਧਿਰ੍ਮੁਨਿਰ੍ਮੋਕ੍ਸ਼ਪਰਾਯਣ। ਵਿਗਤੇਚ੍ਛਾਭਯਕ੍ਰੋਧੋ ਯ ਸਦਾ ਮੁਕ੍ਤ ਏਵ ਸ।।5.28।।
ಯತೇನ್ದ್ರಿಯಮನೋಬುದ್ಧಿರ್ಮುನಿರ್ಮೋಕ್ಷಪರಾಯಣಃ. ವಿಗತೇಚ್ಛಾಭಯಕ್ರೋಧೋ ಯಃ ಸದಾ ಮುಕ್ತ ಏವ ಸಃ৷৷5.28৷৷
യതേന്ദ്രിയമനോബുദ്ധിര്മുനിര്മോക്ഷപരായണഃ. വിഗതേച്ഛാഭയക്രോധോ യഃ സദാ മുക്ത ഏവ സഃ৷৷5.28৷৷
ଯତେନ୍ଦ୍ରିଯମନୋବୁଦ୍ଧିର୍ମୁନିର୍ମୋକ୍ଷପରାଯଣଃ| ବିଗତେଚ୍ଛାଭଯକ୍ରୋଧୋ ଯଃ ସଦା ମୁକ୍ତ ଏବ ସଃ||5.28||
yatēndriyamanōbuddhirmunirmōkṣaparāyaṇaḥ. vigatēcchābhayakrōdhō yaḥ sadā mukta ēva saḥ৷৷5.28৷৷
யதேந்த்ரியமநோபுத்திர்முநிர்மோக்ஷபராயணஃ. விகதேச்சாபயக்ரோதோ யஃ ஸதா முக்த ஏவ ஸஃ৷৷5.28৷৷
యతేన్ద్రియమనోబుద్ధిర్మునిర్మోక్షపరాయణః. విగతేచ్ఛాభయక్రోధో యః సదా ముక్త ఏవ సః৷৷5.28৷৷
5.29
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।।5.29।। भक्त मुझे सब यज्ञों और तपोंका भोक्ता, सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् (स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी) जानकर शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
।।5.29।। (साधक भक्त) मुझे यज्ञ और तपों का भोक्ता और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर तथा भूतमात्र का सुहृद् (मित्र) जानकर शान्ति को प्राप्त होता है।।
।।5.29।। हमको सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भगवान् श्रीकृष्ण जब कभी स्वयं के लिए मैं शब्द का प्रयोग करते हैं तब उनका अभिप्राय भूतमात्र के हृदय में वास करने वाली आत्मा से होता है और न कि देवकी पुत्र शरीरधारी श्रीकृष्ण से। अहंकार का मूलस्वरूप शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा है जो देहादि उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण कर्ता और भोक्ता के रूप में प्रतीत होता है। यज्ञ शब्द का अर्थ पहले भी बताया जा चुका है। गीता के अनुसार किसी भी कार्यक्षेत्र में निस्वार्थ भाव से विश्व कल्याण के लिए अर्पित किया गया कर्म यज्ञ कहलाता है। जिन शक्तियों का हम व्यर्थ में अपव्यय करते हैं उनका आत्मसंयम के द्वारा संचय करना तप है। फिर इस तप का उपयोग आत्म प्राप्ति के लिए किया जाना चाहिए।यह आत्मा वास्तव में सब देवों का देवमहेश्वर है। ज्ञान और कर्म के सम्पूर्ण व्यापारों के नियन्ता के अर्थ में यहाँ ईश्वर शब्द का प्रयोग किया गया है। शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक कर्मेन्द्रिय तथा ज्ञानेन्द्रिय का एकएक अधिष्ठाता देवता है। नेत्र से रूपवर्ण श्रोत्र से शब्द और इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के द्वारा भिन्नभिन्न विषयों का ज्ञान होता है। इन दस इन्द्रियों का शासक और नियन्ता हैचैतन्य आत्मा। अत श्रीकृष्ण यहाँ आत्मा को महेश्वर विशेषण देते हैं।इस श्लोक में हमारा अनुभव यह है कि किसी बड़े पद के शासकीय अधिकारी के पास पहुँचने में अत्यन्त कठिनाई का सामना करना पड़ता है और उसमें भी राजनीति सत्ता के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति की ओर तो सामान्य जन भयमिश्रित आदर के साथ देखते हैं। सामान्य मनुष्य में तो उसके समीप जाने का साहस ही नहीं होता। परन्तु सर्वलोक महेश्वर आत्मा के साथ यह बात नहीं है। भगवान् कहते हैं आत्मा सर्व प्राणियों का सुहृद (मित्र) है।मुझे (इस प्रकार) जानकर वह पुरुष शान्ति को प्राप्त होता है। यहाँ जानकर शब्द का अर्थ यह नहीं कि जैसे हम किसी फूल या फल को विषय रूप में उससे भिन्न रहकर जानते हैं वैसे ही श्रीकृष्ण को जानना है। ज्ञात्वा शब्द से तात्पर्य है श्रीकृष्ण को आत्मरूप से अनुभव करना। यज्ञ और तपों के भोक्ता महेश्वर और सुहृद भगवान् श्रीकृष्ण को आत्मरूप से साक्षात् अनुभव करके साधक परम शान्ति को प्राप्त होता है।Conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्याय।।
।।5.29।। व्याख्या--'भोक्तारं यज्ञतपसाम्'--जब मनुष्य कोई शुभ कर्म करता है, तब वह जिनसे शुभ कर्म करता है, उन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदिको अपना मानता है और जिसके लिये शुभ कर्म करता है, उसे उस कर्मका भोक्ता मानता है; जैसे--किसी देवताकी पूजा की तो उस देवताको पूजारूप कर्मका भोक्ता मानता है; किसीकी सेवा की तो उसे सेवारूप कर्मका भोक्ता मानता है; किसी भूखे व्यक्तिको अन्न दिया तो उसे अन्नका भोक्ता मानता है, आदि। इस मान्यताको दूर करनेके लिये भगवान् उपर्युक्त पदोंमें कहते हैं कि वास्तवमें सम्पूर्ण शुभ कर्मोंका भोक्ता मैं ही हूँ। कारण कि प्राणिमात्रके हृदयमें भगवान् ही विद्यमान हैं (टिप्पणी प0 321)। इसलिये किसीका पूजन करना, किसीको अन्न-जल देना, किसीको मार्ग बताना आदि जितने भी शुभ कर्म हैं, उन सबका भोक्ता भगवान्को ही मानना चाहिये। लक्ष्य भगवान्पर ही रहना चाहिये प्राणीपर नहीं।नवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता बताया है--'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता।'
।।5.29।।भोक्तारमिति। यज्ञफलेषु भोक्ता त्यक्तफलत्वात् (NK ( n) भोक्तात्यन्तफलत्वात्)। एवं तपस्सु। ईदृशं भगवत्तत्त्वं विदन् यथातथावस्थितोऽपि मुच्यते (S यथा तथा विमुच्यते) इति।
।।5.29।।यज्ञतपसां भोक्तारं सर्वलोकमहेश्वरं सर्वभूतानां सुहृदं मां ज्ञात्वा शान्तिम् ऋच्छति कर्मयोगकरण एव सुखम् ऋच्छति।सर्वलोकमहेश्वरं सर्वेषां लोकेश्वराणाम् अपि ईश्वरम्तमीश्वराणां परमं महेश्वरम् (श्वेता0 उ0 6।7) इति हि श्रूयते। मां सर्वलोकमहेश्वरं सर्वसुहृदं ज्ञात्वा मदाराधनरूपः कर्मयोग इति सुखेन तत्र प्रवर्तते इत्यर्थः सुहृदाम्आराधनाय सर्वे प्रवर्तन्ते।
।।5.29।।अधिकारिणो यथोक्तस्य कर्तव्याभावे ज्ञातव्यमपि नास्तीत्याशङ्क्य परिहरति एवमित्यादिना। प्रसिद्धं भोक्तारं व्यवच्छिनत्ति सर्वलोकेति। ततो ह्यस्य बन्धविपर्ययाविति न्यायेन सर्वफलदातृत्वं दर्शयति सुहृदमिति। उक्तेश्वरज्ञाने फलं कथयति ज्ञात्वेति। यज्ञेषु तपःसु च द्विधा भोक्तृत्वं व्यनक्ति कर्तृरूपेणेति। हिरण्यगर्भादिव्यवच्छेदार्थं विशिनष्टि महान्तमिति। स्वपरिकरोपकारिणं राजानं व्यावर्तयति प्रत्युपकारेति। ईश्वरस्य ताटस्थ्यं व्युदस्यति सर्वभूतानामिति। तर्हि तत्र तत्र व्यवस्थितकर्मतत्फलसंसर्गित्वं स्यादित्याशङ्क्याह सर्वकर्मेति। नच तस्य बुद्धितद्वृत्तिसंबन्धोऽपि वस्तुतोऽस्तीत्याह सर्वप्रत्ययेति। यथोक्तेश्वरपरिज्ञानफलमभिदधाति मां नारायणमिति। तदेवं कर्मयोगस्यामुख्यसंन्यासापेक्षया प्रशस्तत्वेऽपि ततो मुख्यसंन्यासस्याधिक्यात्तद्वतो बुद्धिशुद्ध्यादियुक्तस्य कामक्रोधोद्भवं वेगमिहैव सोढुं शक्तस्य शमदमादिमतो योगाधिकृतस्य त्वंपदार्थाभिज्ञस्य परमात्मानं प्रत्यक्त्वेन जानतो मुक्तिरिति सिद्धम्।इत्यानन्दगिरिकृतटीकायां पञ्चमोऽध्यायः।।5।।
।।5.29।।ननु एवमिन्द्रियादिसंयममात्रेण कथं मुक्तः त्यात् इत्याशङ्क्य न तावन्मात्रेण किन्तु भगवन्माहात्म्यज्ञानद्वारेणेत्याह भोक्तारमिति। यज्ञतपसां भोक्तृत्वेन ज्ञातः कर्मकाण्डतात्पर्यभूतः सर्वलोकमहेश्वर इत्युपासनातात्पर्यभूतः सर्वभूतानामात्मा चेति ज्ञानकाण्डतात्पर्यभूत इति मां ज्ञात्वा शान्तिमुक्तां श्रोतव्यश्रुतविषयां कर्मफलान्निर्वेदरूपां प्राप्नोति।विकल्पकल्पनां त्यक्त्वा येनैवं साङ्ख्ययोगयोः। एकोऽर्थ उक्तः पार्थाय तं सर्वज्ञं हरिं नुमः।
।।5.29।।एंव योगयुक्तः किं ज्ञात्वा मुच्यत इति तदाह सर्वेषां यज्ञानां तपसां च कर्तृरूपेण देवतारूपेण च भोक्तारं भोगकर्तारं पालकमिति वा।भुज पालनाभ्यवहारयोः इति धातुः। सर्वेषां लोकानां महान्तमीश्वरं हिरण्यगर्भादीनामपि नियन्तारं सर्वेषां प्राणिनां सुहृदं प्रत्युपकारनिरपेक्षतयोपकारिणं सर्वान्तर्यामिणं सर्वभासकं परिपूर्णसच्चिदानन्दैकरसं परमार्थसत्यं सर्वात्मानं नारायणं मां ज्ञात्वा आत्मत्वेन साक्षात्कृत्य शान्तिं सर्वसंसारोपरतिं मुक्तिमृच्छति प्राप्नोतीत्यर्थः। त्वां पश्यन्नपि कथं नाहं मुक्त इत्याशङ्कानिराकरणाय विशेषणानि। उक्तरूपेणैव मम ज्ञानं मुक्तिकारणमिति भावः।
।।5.29।।नन्वेवमिन्द्रियादिसंयममात्रेण कथं मुक्तिः स्यान्न तावन्मात्रेण किंतु ज्ञानद्वारेणेत्याह भोक्तारमिति। यज्ञानां तपसां च मद्भक्तैः समर्पितानां यदृच्छया भोक्तारं पालकमिति वा सर्वेषां लोकानां महान्तमीश्वरं सर्वेषां भूतानां सुहृदं निरपेक्षोपकारिणमन्तर्यामिणं मां ज्ञात्वा मत्प्रसादेन शान्तिं मोक्षमृच्छति प्राप्नोति।
।।5.29।।अध्यायारम्भेसन्न्यासं कर्मणां कृष्ण 5।1 इत्यादिना वैषम्ये पृष्टे ज्ञानयोगस्य दुष्करत्वादिकं कर्मयोगस्य सौकर्यं शैघ्र्यं चोक्तम् ततश्च सेतिकर्तव्यताकसशिरस्ककर्मयोगो विशदीकृतः अथात्रोपसंहारेऽपि प्राक्प्रश्नोत्तरतया प्रक्रान्तसौकर्यादिकमेव प्रकारान्तरेण स्थिरीक्रियत इत्यभिप्रायेणाह उक्तस्येति। अत्र कर्मयोगशब्देनदैवमेव 4।25 इत्याद्युक्तप्रातिस्विकप्रधानांशो गृहीतः।नित्यनैमित्तिककर्मेतिकर्तव्यताकस्येत्यनेन सर्वकर्मयोगभेदनिष्ठानां ज्ञानयोगभक्तियोगनिष्ठानां चावर्जनीयः साधारणांशः। सुशकत्वमनिर्वेदेन प्रवृत्तिविषयत्वम्। शान्तिशब्दोऽत्र न भगवत्प्राप्तिरूपमोक्षपरः जीवोपासनप्रकरणत्वात् नापि कर्मयोगसाध्यफलपरः ततोऽप्युपयुक्तस्य प्रसिद्धिस्वारस्यानुरोधिनः कर्माङ्गोपशमस्य वक्तुमुचितत्वात्ज्ञात्वा इत्यत्रअनुष्ठाय इत्यध्याहारसापेक्षत्वप्रसङ्गात् अतःसुखं बन्धात्प्रमुच्यते 5।3 इत्यादिनोक्तं मनःक्लेशशान्त्यादिरूपं सुखमत्र शान्तिशब्देन विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह कर्मयोगकरणक्षण एव सुखमृच्छतीति। भगवत्समानाधिकरणतया सर्वलोकप्रतिसम्बन्धिकतया च महेश्वरशब्दस्यात्र न रूढिविशेषेण प्रवृत्तिरित्याह सर्वेषां लोकेश्वराणामपीति। सर्वेषां लोकानां महान्तमीश्वरमित्येव तु समासार्थः। तत्र प्रमाणमाह तमीश्वराणामिति। श्रुतावपि महेश्वरशब्दः सप्रतिसम्बन्धिकत्वात्परमत्वविशेषणाच्च न रूढः तद्वदत्रापि। सर्वशब्दासङ्कोचान्महत्त्वविशेषणावाच्च रुद्रादिलोकेश्वरान्तरव्यवच्छेद उक्तः।सर्वेश्वरेश्वरः कृष्णः वि.ध.74।44 इति हि स्मर्यते। कर्मयोगस्य दुःखरूपस्य अनुष्ठानदशायामेव कथं सुखं इति शङ्कां विशेषणत्रयेण व्युदस्यतिमामित्यादिना। महोदारसार्वभौमप्रियसखसेवायामिव कर्मयोगे सुखबुद्ध्यैव प्रवर्तत इति भावः।मदाराधनरूपः कर्मयोग इत्यनेनभोक्तारं यज्ञतपसाम् इत्यस्यार्थो विवृतः। यज्ञास्तपांसि च कर्मयोगवर्गोपलक्षणमिति भावः। सौहार्दस्य प्रयोजनान्तरनिरपेक्षसमाराधनहेतुत्वे लोकदृष्टान्तमाहसुहृद इति।सर्व इति न केवलं शास्त्रनिष्ठाः किन्तु पामरास्तिर्यञ्चोऽपि केचित् स्वेषु सौहार्दवन्तं पुरुषमिङ्गिताकारैरुपलक्ष्य तावन्मात्रेणसम्प्रीतास्तदनुवर्तनमतिप्रयत्नेन कुर्वन्तीत्यर्थः। पुरुषान्तरवदैश्वर्यमदगर्वमूलदौर्मुख्यादिवर्जनं चास्य सुहृत्त्वेन लभ्यते।
।।5.29।।ननु कथमेतावन्मात्रेण स्पर्शादिमोक्षः स्यात् इत्याशङ्क्याह भोक्तारमिति। यज्ञतपसां पुण्योपार्जिततापानां भोक्तारं तापोद्भूतरसभोक्तारं सर्वलोकमहेश्वरं स्वक्रीडार्थं जगत्कर्तारं सर्वभूतानां सुहृदं भक्तिमुक्तिस्वरूपरसादिदानेन। एतादृशं मां ज्ञात्वा लौकिकाच्छान्तिमृच्छतिं प्राप्नोति।सन्न्यासरूपकथनान्मनोवैकल्पिकं भ्रमम्। नाशयामास कौन्तेयप्रश्नव्याजान्नतोऽस्मि तम्।।5।।
।।5.29।।एवं समाहितचित्तेन किं विज्ञेयमित्युच्यते भोक्तारमिति। सोपाधिकेन रूपेण यज्ञानां तपसां च कर्तृरूपेण देवतारूपेण च भोक्तारम्। तथा सर्वेषां भूतानां हिरण्यगर्भादीनामपि महान्तं व्यापकमीश्वरमीशितारमन्तर्यामिणम्। सुहृदं सर्वभूतानां प्राणिनां प्रत्युपकारनिरपेक्षतयोपकारिणं सर्वप्रत्ययसाक्षिणं नारायणं मां प्रत्यगभेदेन ज्ञात्वा साक्षात्कृत्य तद्भावं प्राप्य शान्तिमनुपाध्यवस्थां निरुपाख्यां कैवल्यसंज्ञां ऋच्छति प्राप्नोति। एवं च सोपाधिब्रह्मभावप्राप्तिपूर्वकैव निरुपाधिप्राप्तिरिति गम्यते। यथोक्तं वार्तिकसारेसोपाधिर्निरुपाधिश्च द्वेधा ब्रह्मविदुच्यते। सोपाधिकः स्यात्सर्वात्मा निरुपाख्योऽनुपाधिकः। जक्षन्क्रीडन्रतिं प्राप्त इति सोपाधिकस्य तु। छान्दोग्ये सर्वकामाप्तिः सार्वात्म्यात्स्पष्टमीरिता। अहमन्नं तथान्नादः श्लोककार्यप्यहो अहम्। इति तत्त्वविदः सामगाने सर्वात्मता श्रुता। अत्रापि चक्रदृष्टान्तात्सोपाधिस्तत्त्वविच्छ्रुतः। अपूर्वानपराद्युक्त्या श्रोष्यते निरुपाधिकः। इति।
।।5.29।।एवं द्वाभ्यां ध्यानयोगं सूत्रयित्वाऽन्ते मुक्त एव स इत्युक्तं तत्किं साक्षाज्ज्ञानं विनैव मोक्षसाधनमुत ज्ञानद्वारेणेति संशयनिवृत्तयेतमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनायज्ञानदेव तु कैवल्यंऋते ज्ञानान्न मोक्षः इत्यादिश्रुत्यनुरोधेन द्वितीयपक्षं सिद्धान्तयति। तृतीयेन भोक्तारं यज्ञानां तपसां च कर्तृरुपेण देवतारुपेण च सर्वेषां ब्रह्मादिस्थावरपर्यन्तानां महान्तरमीश्वरं सर्वभूतानां सुहृदं सर्वप्राणिनां प्रत्युपकार निरपेक्षतया उपकारिणं सर्वभूतानां हृदयस्थं मां नारायणमात्मत्वेन ज्ञात्वा शान्तिं सर्वसंसारोपरतिं मोक्षाख्यामृच्छति प्राप्नोति। यत्तु चतुर्विशतिश्लोकव्याख्यानानन्तरं एवं मुक्त उक्तः। मुमुक्षवस्त्रिविधाः श्रवणमनननिदिध्यासनरताः तेषु श्रवणनिरतो द्वितीयश्लोकेनोच्यते लभन्त इति अथ मनननिरतस्तृतीयश्लोकेनोच्यते कामेति अवशिष्टश्लोकद्वयेन निदिध्यासननिरत उच्यते स्पर्शानितीति वर्णयन्ति तच्चिन्त्यम्। लभन्ते ब्रह्म निर्वाणमिति मोक्षलाभस्य श्रवणमात्रेणानुपपत्तेः द्वारकल्पनाया गौणत्वकल्पनस्य च सतिसंभवेऽन्याय्यत्वात्। विदितात्मनामित्यस्य षष्ठाध्यायसूत्रस्थानीयस्य प्राणेत्यादिना स्पष्टतया प्रतीयमानस्य ध्यानयोगस्य च बाधकप्रसङ्गादितिदिक्। तदनेन पञ्चमाध्यायेनाशुद्धचित्तेन कृताज्ज्ञानिष्ठारहितात्संन्यासात्कर्मयोगस्य चित्तशुद्य्धादिसंपादकस्य श्रैष्ठ्यमुक्त्वा शुद्धचित्तस्य संन्यासिनाः शमदमादिसंपन्नस्य कामाद्युद्भवं वेगमिहैव सोढुं शक्तस्य योगाधिकृतस्य त्वंपदार्थाभिज्ञस्य परमात्मानं प्रत्यक्त्वेन जानतो मुक्तिरित्युक्तम्। इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां पञ्चमोऽध्यायः।।5।।
5.29 भोक्तारम् the enjoyer? यज्ञतपसाम् of sacrifices and austerities? सर्वलोकमहेश्वरम् the great Lord of all worlds? सुहृदम् friend? सर्वभूतानाम् of all beings? ज्ञात्वा having known? माम् Me? शान्तिम् peace? ऋच्छति attains.Commentary I am the Lord of all sacrifices and austerities. I am their author? goal and their God. I am the friend of all beings? the doer of good to them without expecting any return for it. I am the dispenser of the fruits of all actions and the silent witness of their minds? thoughts and actions as I dwell in their hearts. On knowing Me? they attain peace and liberation or Moksha (deliverance from the round of birth and death and all worldly miseries and sorrows). (Cf.V.15IX.24)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the fifth discourse entitledThe Yoga of Renunciation of Action.
5.29 He who knows Me as the enjoyer of sacrifices and austerities, the great Lord of all the worlds and the friend of all beings, attains to peace.
5.29 Knowing me as Him who gladly receives all offerings of austerity and sacrifice, as the Might Ruler of all the Worlds and the Friend of all beings, he passes to Eternal Peace."
5.29 One attains Peace by knowing Me who, as the great Lord of all the worlds, am the enjoyer of sacrifices and austerities, (and) who am the friend of all creatures.
5.29 Rcchati, one attains; santim, Peace, complete cessation of transmigration; jnatva, by knowing; mam, Me who am Narayana; who, as the sarva-loka-mahesvaram, great Lord of all the worlds; am the bhoktaram, enjoyer (of the fruits); yajna-tapasam, of sacrifices and austerities, as the performer and the Deity of the sacrifices and austerities (respectively); (and) who am the suhrdam, friend; sarva-bhutanam, of all creatures-who am the Benefactor of all without consideration of return, who exist in the heart of all beings, who am the dispenser of the results of all works, who am the Witness of all perceptions.
5.29. There is no such translation for this sloka.
5.29 Bhokatram etc. [The Lord is deemed to be] the enjoyer in the caste of their fruit of the sacrifices. For, it is in favour of Him that the fruit is renounced. the same is with regard to the austerities. By knowing the nautre of the Lord as such, a man of Yoga is released, whatever way he may remain in.
5.29 Knowing Me as the enjoyer of all sacrifices and austerities, as the Supreme Lord of all the worlds, and as the Friend of every being, he attains peace, i.e., wins happiness even while performing Karma Yoga. 'Him who is the Supreme Lord of all worlds' means 'Him who is the Lord of all the lords of the worlds.' For the Sruti says: 'Him who is the supreme mighty Lord of lords' (Sve. U., 6.7). The meaning is that knowing Me as the Supreme Lord of all the worlds and the 'friend' of all and considering Karma Yoga to be My worship, he becomes gladly engaged in it. All beings endeavour to please a 'friend'.
5.29 Knowing Me as the enjoyer of all sacrifices and austerities, as the Supreme Lord of all the worlds, as the Friend of every being, he attains peace.
।।5.29।।इस प्रकार समाहितचित्त हुए पुरुषद्वारा जाननेयोग्य क्या है इसपर कहते हैं ( मनुष्य ) मुझ नारायणको कर्तारूपसे और देवरूपसे समस्त यज्ञों और तपोंका भोक्ता सर्वलोकमहेश्वर अर्थात् सब लोकोंका महान् ईश्वर समस्त प्राणियोंका सुहृद् प्रत्युपकार न चाहकर उनका उपकार करनेवाला सब भूतोंके हृदयमें स्थित सब कर्मोंके फलोंका स्वामी और सब संकल्पोंका साक्षी जानकर शान्तिको अर्थात् सब संसारसे उपरामताको प्राप्त हो जाता है।
।।5.29।। एवं समाहितचित्तेन किं विज्ञेयम् इति उच्यते भोक्तारं यज्ञतपसां यज्ञानां तपसां च कर्तृरूपेण देवतारूपेण च सर्वलोकमहेश्वरं सर्वेषां लोकानां महान्तम् ईश्वरं सुहृदं सर्वभूतानां सर्वप्राणिनां प्रत्युपकारनिरपेक्षतया उपकारिणं सर्वभूतानां हृदयेशयं सर्वकर्मफलाध्यक्षं सर्वप्रत्ययसाक्षिणं मां नारायणं ज्ञात्वा शान्तिं सर्वसंसारोपरतिम् ऋच्छति प्राप्नोति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येपञ्चमोऽध्यायः।।
।।5.29।।भगवज्ज्ञानस्य शान्तिसाधनत्वं पुनः किमर्थमुच्यते इत्यत आह ध्येयमिति। ततश्च ज्ञात्वेत्यस्य ध्यात्वेत्यर्थः। शान्तिसाधनज्ञानत्वमपि भोक्तृत्वादिवत् ध्येयविशेषणमेवेति भावः।
।।5.29।।ध्येयमाह भोक्तारमिति।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।5.29।।
ভোক্তারং যজ্ঞতপসাং সর্বলোকমহেশ্বরম্৷ সুহৃদং সর্বভূতানাং জ্ঞাত্বা মাং শান্তিমৃচ্ছতি৷৷5.29৷৷
ভোক্তারং যজ্ঞতপসাং সর্বলোকমহেশ্বরম্৷ সুহৃদং সর্বভূতানাং জ্ঞাত্বা মাং শান্তিমৃচ্ছতি৷৷5.29৷৷
ભોક્તારં યજ્ઞતપસાં સર્વલોકમહેશ્વરમ્। સુહૃદં સર્વભૂતાનાં જ્ઞાત્વા માં શાન્તિમૃચ્છતિ।।5.29।।
ਭੋਕ੍ਤਾਰਂ ਯਜ੍ਞਤਪਸਾਂ ਸਰ੍ਵਲੋਕਮਹੇਸ਼੍ਵਰਮ੍। ਸੁਹਰਿਦਂ ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਨਾਂ ਜ੍ਞਾਤ੍ਵਾ ਮਾਂ ਸ਼ਾਨ੍ਤਿਮਰਿਚ੍ਛਤਿ।।5.29।।
ಭೋಕ್ತಾರಂ ಯಜ್ಞತಪಸಾಂ ಸರ್ವಲೋಕಮಹೇಶ್ವರಮ್. ಸುಹೃದಂ ಸರ್ವಭೂತಾನಾಂ ಜ್ಞಾತ್ವಾ ಮಾಂ ಶಾನ್ತಿಮೃಚ್ಛತಿ৷৷5.29৷৷
ഭോക്താരം യജ്ഞതപസാം സര്വലോകമഹേശ്വരമ്. സുഹൃദം സര്വഭൂതാനാം ജ്ഞാത്വാ മാം ശാന്തിമൃച്ഛതി৷৷5.29৷৷
ଭୋକ୍ତାରଂ ଯଜ୍ଞତପସାଂ ସର୍ବଲୋକମହେଶ୍ବରମ୍| ସୁହୃଦଂ ସର୍ବଭୂତାନାଂ ଜ୍ଞାତ୍ବା ମାଂ ଶାନ୍ତିମୃଚ୍ଛତି||5.29||
bhōktāraṅ yajñatapasāṅ sarvalōkamahēśvaram. suhṛdaṅ sarvabhūtānāṅ jñātvā māṅ śāntimṛcchati৷৷5.29৷৷
போக்தாரஂ யஜ்ஞதபஸாஂ ஸர்வலோகமஹேஷ்வரம். ஸுஹரிதஂ ஸர்வபூதாநாஂ ஜ்ஞாத்வா மாஂ ஷாந்திமரிச்சதி৷৷5.29৷৷
భోక్తారం యజ్ఞతపసాం సర్వలోకమహేశ్వరమ్. సుహృదం సర్వభూతానాం జ్ఞాత్వా మాం శాన్తిమృచ్ఛతి৷৷5.29৷৷
6.1
6
1
।।6.1।। श्रीभगवान् बोले -- कर्मफलका आश्रय न लेकर जो कर्तव्यकर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।
।।6.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है।।
।।6.1।। प्रथम अध्याय में अर्जुन का विचार युद्धभूमि से पलायन करके संन्यास जीवन व्यतीत करने का था। उसे यह नहीं ज्ञात था कि निस्वार्थ भाव से कर्म करने वाला कर्मयोगी पुरुष ही सबसे बड़ा संन्यासी है। स्वार्थ का त्याग किये बिना कर्म का आचरण अथवा उससे पलायन करने का अर्थ है विश्व के सामंजस्य में अनर्थकारी हस्तक्षेप करना।मन की अपरिपक्व स्थिति में जीवन संघर्ष से पलायन करके गंगा के किनारे शान्त वातावरण में ध्यानाभ्यास के लिए जाने से सामान्य स्तर के अच्छे मनुष्य का भी गंगा में पड़े पाषाण के स्तर तक पतन होगा इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के इस त्रुटिपूर्ण विचार की मानो हंसी उड़ाते हैं। परन्तु भगवान् के व्यंग्य में किसी प्रकार की कटुता नहीं है। हम आगे देखेंगे कि अर्जुन को स्वयं भी अपनी गलत धारणा पर हंसी आती है।निदिध्यासन की सफलता के लिए आन्तरिक शक्तियों का विकास तथा उनका सही दिशा में उचित उपयोग करना भी अत्यन्त आवश्यक है। भगवान् ने इस अध्याय में हमारे मन के उद्देश्यों तथा भावनाओं मंे परिवर्तन लाने के लिए विशेष बल दिया है। इसके द्वारा हम आध्यात्मिक मार्ग में प्रवेश कर सकते हैं।
।।6.1।। व्याख्या--अनाश्रितः कर्मफलम् इन पदोंका आशय यह प्रतीत होता है कि मनुष्यको किसी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया आदिका आश्रय नहीं रखना चाहिये। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्माका अंश होनेसे नित्य-निरन्तर रहनेवाला है और यह जिन वस्तु, व्यक्ति आदिका आश्रय लेता है, वे उत्पत्ति-विनाशशील तथा प्रतिक्षण परिवर्तित होनेवाले हैं। वे तो परिवर्तनशील होनेके कारण नष्ट हो जाते हैं और यह (जीव) रीता-का-रीता रह जाता है। केवल रीता ही नहीं रहता, प्रत्युत उनके रागको पकड़े रहता है। जबतक यह उनके रागको पकड़े रहता है, तबतक इसका कल्याण नहीं होता अर्थात् वह राग उसके ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बन जाता है (गीता 13। 21)। अगर यह उस रागका त्याग कर दे तो यह स्वतः मुक्त हो जायगा। वास्तवमें यह स्वतः मुक्त है ही, केवल रागके कारण उस मुक्तिका अनुभव नहीं होता। अतः भगवान् कहते हैं कि मनुष्य कर्मफलका आश्रय न रखकर कर्तव्य-कर्म करे। कर्मफलके आश्रयका त्याग करनेवाला तो नैष्ठिकी शान्तिको प्राप्त होता है, पर कर्मफलका आश्रय रखनेवाला बँध जाता है (गीता 5। 12)।स्थूल, सूक्ष्म और कारण--ये तीनों शरीर 'कर्मफल' हैं। इन तीनोंमेंसे किसीका भी आश्रय न लेकर इनको सबके हितमें लगाना चाहिये। जैसे, स्थूलशरीरसे क्रियाओँ और पदार्थोंको संसारका ही मानकर उनका उपयोग संसारकी सेवा-(हित-) में करे, सूक्ष्मशरीरसे दूसरोंका हित कैसे हो, सब सुखी कैसे हों, सबका उद्धार कैसे हो--ऐसा चिन्तन करे; और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता-(समाधि-) का भी फल संसारके हितके लिये अर्पण करे। कारण कि ये तीनों शरीर अपने (व्यक्तिगत) नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं हैं, प्रत्युत संसारके और संसारकी सेवाके लिये ही हैं। इन तीनोंकी संसारके साथ अभिन्नता और अपने स्वरूपके साथ भिन्नता है। इस तरह इन तीनोंका आश्रय न लेना ही 'कर्मफलका' आश्रय न लेना' है और इन तीनोंसे केवल संसारके हितके लिये कर्म करना ही 'कर्तव्य-कर्म करना' है।आश्रय न लेनेका तात्पर्य हुआ कि साधनरूपसे तो शरीरादिको दूसरोंके हितके लिये काममें लेना है, पर स्वयं उनका आश्रय नहीं लेना है अर्थात् उनको अपना और अपने लिये नहीं मानना है। कारण कि मनुष्य-जन्ममें शरीर आदिका महत्त्व नहीं है ,प्रत्युत शरीर आदिके द्वारा किये जानेवाले साधनका महत्त्व है। अतः संसारसे मिली हुई चीज संसारको दे दें, संसारकी सेवामें लगा दें तो हम 'संन्यासी' हो गये और मिली हुई चीजमें अपनापन छोड़ दें तो हम 'त्यागी' हो गये।कर्मफलका आश्रय न लेकर कर्तव्य-कर्म करनेसे क्या होगा? अपने लिये कर्म न करनेसे नयी आसक्ति तो बनेगी नहीं और केवल दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे पुरानी आसक्ति मिट जायगी तथा कर्म करनेका वेग भी मिट जायगा। इस प्रकार आसक्तिके सर्वथा मिटनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध है। उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओँको पकड़नेका नाम बन्धन है और उनसे छूटनेका नाम मुक्ति है। उन उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंसे छूटनेका उपाय है--उनका आश्रय न लेना अर्थात् उनके साथ ममता न करना और अपने जीवनको उनके आश्रित न मानना।
।।6.1 6.2।।एवं प्राक्तनेनाध्यायगणेन साधितोऽर्थः श्लोकद्वयेन निगद्यते अनाश्रित इति। य संन्यासमिति। कार्यं स्वजात्यादिविहितम्। संन्यासी (S संन्यासीति) योगीति पर्यायावेतौ। अत एवाह यं संन्यासमिति। तथा च योगमन्तरेण संन्यासो नोपपद्यते। एवं संकल्पसंन्यासं विना योगो न युज्यते। तस्मात्सततसंबद्धौ योगसंन्यासौ। न निरग्निरित्यादिना अयमर्थो ध्वन्यते निरग्निश्च न भवति निष्क्रियश्च न भवति अथ च संन्यासी इत्यद्भुतम् इति।
।।6.1।।श्रीभगवानुवाच कर्मफल स्वर्गादिकम् अनाश्रितः कार्यं कर्मानुष्ठानमेव कार्यं सर्वात्मनास्मत्सुहृद्भूतपरमपुरुषाराधनरूपतया कर्मैव मम प्रयोजनं न तत्साध्यं किञ्चिद् इति यः कर्म करोति स संन्यासी च ज्ञानयोगनिष्ठश्च योगी च कर्मयोगनिष्ठश्च। आत्मावलोकनरूपयोगसाधनभूतोभयनिष्ठ इत्यर्थः। न निरग्निचाक्रियः न चोदितयज्ञादिकर्मसु अप्रवृत्तः केवलज्ञाननिष्ठः तस्य हि ज्ञाननिष्ठा एव कर्मयोगनिष्ठस्य तु उभयम् अस्ति इति अभिप्रायः।उक्तलक्षणे कर्मयोगे ज्ञानम् अपि अस्ति इत्याह
।।6.1।।ध्यानयोगप्रस्तावानन्तरं तद्योग्यताहेतुकर्मणः स्तुतिं भगवानुक्तवानित्याह श्रीभगवानिति। पूर्वोत्तराध्याययोः सङ्गतिमभिदधानो वृत्तमनूद्याध्यायान्तरमवतारयति अतीतेति। सम्यग्दर्शनप्रकरणे ध्यानयोगस्य प्रसङ्गाभावं व्युदस्यति सम्यगिति। संग्रहविवरणयोरतीतानन्तराध्याययोर्युक्तं हेतुहेतुमत्त्वमिति भावः। अध्यायसंबन्धमभिधायानाश्रितः कर्मफलमित्यादिश्लोकद्वयस्य तात्पर्यमाह तत्रेति। कर्मयोगस्य संन्यासहेतोर्मर्यादां दर्शयितुं साङ्गं च योगं विचारयितुमध्याये प्रवृत्ते सतीति सप्तम्यर्थः। संन्यासिना कर्तव्यं कर्मेत्येवं प्रतिभासं व्युदस्यति गृहस्थेनेति। कर्तव्यत्वं स्तुतियोग्यत्वमतःशब्दार्थः। समुच्चयवादी सीमाकरणमाक्षिपति नन्विति। यावज्जीवश्रुतिवशाद्ध्यानारोहणसामर्थ्ये सत्यपि कर्मानुष्ठानस्य दुर्वारत्वादिति हेतुमाह यावतेति। भार्यावियोगादिप्रतिबन्धाद्यावज्जीवश्रुतिचोदितकर्माननुष्ठानवद्वैराग्यप्रतिबन्धादपि तदननुष्ठानसंभवाद्भगवतो विशेषवचनाच्च न यावज्जीवं कर्मानुष्ठानप्रसक्तिरिति परिहरति नारुरुक्षोरिति। उक्तमेवार्थं व्यतिरेकद्वारेण विवृणोति आरुरुक्षोरित्यादिना। आरोढुमिच्छतीत्यारुरुक्षुरित्यत्रारोहणेच्छाविशेषणमारोहणं कृतवानित्यारूढ इत्यत्र पुनरिच्छाविषयभूतमारोहणं विशेषणमेवं शमकर्मविषययोर्भेदेन विशेषणं मर्यादाकरणानङ्गीकरणे विरुद्धमापद्येत तयोरेवं विभागकरणं च भागवतसीमानङ्गीकारे न युज्येतेत्यर्थः। विशेषणविभागकारणयोरन्यथोपपत्तिमाशङ्कते तत्रेति। व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। षष्ठी निर्धारणे। भवत्वधिकारिणां त्रैविध्यं तथापि प्रकृते विशेषणादौ किमायातमित्याशङ्क्य तृतीयापेक्षया तदुपपत्तिरित्याह तानपेक्ष्येति। आरुरुक्षोरारूढस्य च भेदे तस्यैवेति प्रकृतपरामर्शानुपपत्तिरिति दूषयति न तस्येति। यद्यनारुरुक्षुं पुरुषमपेक्ष्यारुरुक्षोरिति विशेषणं तस्य च कर्मारोहणकारणमनारूढं च पुरुषमपेक्ष्यारूढस्येति विशेषणं तस्य च शमः संन्यासो योगफलप्राप्तौ कारणमिति विशेषणविभागकरणयोरुपपत्तिस्तदारुरुक्षोरारूढस्य च भिन्नत्वात्प्रकृतपरामर्शिनस्तच्छब्दस्यानुपपत्तेर्न युक्तमित्थं विशेषणाद्युपपादनमित्यर्थः। किञ्चयोगमारुरुक्षोस्तदारोहणे कारणं कर्मेत्युक्त्वा पुनर्योगारूढस्येति योगशब्दप्रयोगाद्यो योगं पूर्वमारुरुक्षुरासीत्तस्यैवापेक्षितं योगमारूढस्य तत्फलप्राप्तौ कर्मसंन्यासः शमशब्दवाच्यो हेतुत्वेन कर्तव्य इति वचनादारुरुक्षोरारूढस्य चाभिन्नत्वप्रत्यभिज्ञानान्न तयोर्भिन्नत्वं शङ्कितुं शक्यमित्याह पुनरिति। यत्तु यावज्जीवश्रुतिविरोधाद्योगारोहणसीमाकरणं कर्मणोऽनुचितमिति तत्राह अत इति। पूर्वोक्तरीत्या कर्मतत्त्यागयोर्विभागोपपत्तौ श्रुतेरन्यविषयत्वाद्योगमारूढस्य मुमुक्षोर्जिज्ञासमानस्य नित्यनैमित्तिककर्मस्वपि परित्यागसिद्धिरित्यर्थः। इतश्च यावज्जीवं कर्म कर्तव्यं न भवतीत्याह योगेति। संन्यासिनो योगभ्रष्टस्य विनाशशङ्कावचनान्न यावज्जीवं कर्म कर्तव्यं प्रतिभातीत्यर्थः। ननु योगभ्रष्टशब्देन गृहस्थस्यैवाभिधानात्तस्यैवास्मिन्नध्याये योगविधानाद्योगारोहणयोग्यत्वे सत्यपि यावज्जीवं कर्म कर्तव्यमिति नेत्याह गृहस्थस्येति। तेनापि मुमुक्षुणा कृतस्य कर्मणो मोक्षातिरिक्तफलानारम्भकत्वाद्योगभ्रष्टोऽसौ छिन्नाभ्रमिव नश्यतीति शङ्का सावकाशेत्याशङ्क्याह अवश्यं हीति। अपौरुषेयान्निर्दोषाद्वेदात्फलदायिनी कर्मणः स्वाभाविकी शक्तिरवगता ब्रह्मभावस्य च स्वतःसिद्धत्वान्न कर्मफलवत्त्वमतो मोक्षातिरिक्तस्यैव फलस्य कर्मारम्भकमिति कर्मिणि योगभ्रष्टेऽपि कर्मगतिं गच्छतीति निरवकाशा शङ्केत्यर्थः। ननु मुमुक्षुणाकाम्यप्रतिषिद्धयोरकरणात्कृतयोश्च नित्यनैमित्तिकयोरफलत्वात्कथं तदीयस्य कर्मणो नियमेन फलारम्भकत्वं तत्राह नित्यस्य चेति। चकारेण नैमित्तिकं कर्मानुकृष्यते। वेदप्रमाणकत्वेऽपि नित्यनैमित्तिकयोरफलत्वे दोषमाह अन्यथेति। कर्मणोऽनुष्ठितस्य फलारम्भकत्वध्रौव्याद्गृहस्थो योगभ्रष्टोऽपि कर्मगतिं गच्छतीति न तस्य नाशाशङ्केति शेषः। इतोऽपि गृहस्थो योगभ्रष्टशब्दवाच्यो न भवतीत्याह नचेति। ज्ञानं कर्म चेत्युभयं ततो विभ्रष्टोऽयं नश्यतीति वचनं गृहस्थे कर्मणि सति नार्थवद्भवितुमलं तस्य कर्मनिष्ठस्य कर्मणो विभ्रंशे हेत्वभावात्तत्फलस्यावश्यकत्वादित्यर्थः। कृतस्य कर्मणो मुमुक्षुणा भगवति समर्पणात्कर्तरि फलानारम्भकत्वादस्ति विभ्रंशकारणमिति शङ्कते कर्मेति। राजाराधनबुद्ध्या धनधान्यादिसमर्पणस्याधिकफलहेतुत्वोपलम्भादीश्वरे समर्पणं न भ्रंशकारणमिति दूषयति नेत्यादिना। अधिकफलहेतुत्वेऽपि मोक्षहेतुत्वमिष्यतामिति शङ्कते मोक्षायेति। तदेव चोद्यं विवृणोति स्वकर्मणामिति। सहकारिसामर्थ्यात्तस्य फलान्तरं प्रत्युपायत्वासिद्धिरिति हेतुं सूचयति योगेति। ध्यानसहितस्य संन्यासस्य मोक्षौपयिकत्वे कुतो योगभ्रष्टमधिकृत्य नाशाशङ्केत्याशङ्क्याह योगाच्चेति। सहकार्यभावे सामग्र्यभावात्फलानुपपत्तेर्युक्ता नाशाशङ्केत्यर्थः। ध्यानसहितमीश्वरे कर्मसमर्पणं मोक्षायेत्यत्र प्रमाणाभावाद्गृहस्थो योगभ्रष्टशब्दवाच्यो न भवतीति दूषयति नेति। गृहस्थस्य योगभ्रष्टशब्दवाच्यत्वाभावे हेत्वन्तरमाह एकाकीति। न खल्वेतानि विशेषणानि गृहस्थसमवायीनि संभवन्ति तेन तस्य ध्यानयोगविध्यभावान्न तं प्रति योगभ्रष्टशब्दवचनमुचितमित्यर्थः। एकाकित्ववचनं गृहस्थस्यापि ध्यानकाले स्त्रीसहायत्वाभावाभिप्रायेण भविष्यतीत्याशङ्क्याग्निहोत्रादिवद्ध्यानस्य पत्नीसाध्यत्वाभावादप्राप्तप्रतिषेधान्मैवमित्याह नचात्रेति। विशेषणान्तरपर्यालोचनयापि नायमेकाकिशब्दो गृहस्थपरो भवितुमर्हतीत्याह नचेति। किञ्चगृहस्थस्यैवैकाकित्वादि विवक्षित्वा ध्यानयोगविधौ तं प्रत्युभयभ्रष्टप्रश्नो नोपपद्यत इत्याह उभयेति। नहि गृहस्थं प्रत्युभयस्माज्ज्ञानात्कर्मणश्च विभ्रष्टत्वमुपेत्य प्रष्टुं युज्यते तस्य ज्ञानाद्भ्रंशेऽपि कर्मणस्तदभावादनुष्ठीयमानकर्मभ्रंशेऽपि प्रागनुष्ठितकर्मवशात्फलप्रतिलम्भादतो यथोक्तप्रश्नालोचनया न गृहस्थं प्रति ध्यानविधानोपपत्तिरित्यर्थः। ननु भगवता संन्यासस्य प्रतिषिद्धत्वाद्गृहस्थस्यैव योगविधानात्तस्यैव योगभ्रष्टशब्दवाच्यत्वमिति शङ्कते अनाश्रित इत्यनेनेति। भगवद्वाक्यं न प्रतिषेधपरमिति परिहरति न। ध्यानेति। स्तुतिपरत्वमेव स्फोरयति न केवलमिति। सत्त्वशुद्ध्यर्थमनुतिष्ठन्निति संबन्धः। वाक्यस्योभयपरत्वमाशङ्क्य वाक्यभेदप्रसङ्गान्मैवमित्याह नचेति। इतोऽपि भगवतः संन्यासाश्रमप्रतिषेधोऽभिप्रेतो न भवतीत्याह नच प्रसिद्धमिति। तस्य प्रसिद्धं संन्यासित्वं योगित्वं चेति संबन्धः। प्रसिद्धत्वमेव व्याकरोति श्रुतीति। इतोऽपि संन्यासाश्रमं भगवान्न प्रतिषेधतीत्याह स्ववचनेति। विरोधमेव साधयति सर्वकर्माणीत्यादिना। अनाश्रित इत्यादिवाक्यस्य यथाश्रुतार्थत्वानुपपत्तेः स्तुतिपरत्वमुपपादितमुपसंहरति तस्मादिति। कर्मफलसंन्यासित्वमत्र मुनिशब्दार्थः। स्तुतिपरं वाक्यमक्षरयोजनार्थमुदाहरति अनाश्रित इति। कर्मफलेऽभिलाषो नास्तीत्येतावता कथं तदनाश्रितत्ववाचोयुक्तिरित्याशङ्क्य व्यतिरेकमुखेन विशदयति यो हीति। कार्यमित्यादि व्याकरोति एवंभूतः सन्निति। कथं कर्मिणः संन्यासित्वं योगित्वं च कर्मित्वविरोधादित्याशङ्क्याह ईदृश इति। स्तुतेरत्र विवक्षितत्वान्नानुपपत्तिश्चोदनीयेति मन्वानः सन्नाह इत्येवमिति। न निरग्निरित्यादेरर्थमाह न केवलमिति। अग्नयो गार्हपत्याहवनीयान्वाहार्यपचनप्रभृतयः। नन्वनग्नित्वे सिद्धमक्रियत्वमग्निसाध्यत्वात्क्रियाणां तथाच न निरग्निरित्येतावतैवापेक्षितसिद्धेर्न चाक्रिय इत्यनर्थकमर्थपुनरुक्तेरिति तत्राह अनग्नीति।
।।6.1।।उक्तौभयैकार्थसिद्धिरात्मसंयमधर्मतः। भवत्येवमिदं वक्तुं पार्थायाह हरिः पुनः।।1।।श्रीभगवानुवाच अनाश्रित इति। साङ्ख्ययोगयोरेकार्थतां तस्मै कर्मयोगे दर्शयति। यः कर्मफलमनाश्रितः कर्तव्यत्वात्कार्यं कर्म अग्निहोत्रादिकं करोति तदोभयोरेकार्थरूपसिद्धिः फलत्यागात्साङ्ख्यस्य कर्मकरणाच्च योगस्यैकार्थ्यमुपदिष्टं भवति। तदाह स सन्न्यासी स योगी चेति। नह्यग्निहोत्रादिसकलकर्मरहितः सन्न्यासी मे मतः। न चानग्निसाध्यपूर्त्तकर्मरहितोऽपि तथा। अनेनात्मसंयमयोगेन कर्मणां कर्त्ताऽभिमतो लक्षितः।
।।6.1।।योगसूत्रं त्रिभिः श्लोकैः पञ्चमान्ते यवदीरितम्। षष्ठस्त्वारभ्यतेऽध्यायस्तद्व्याख्यानाय विस्तरात्।।तत्र सर्वकर्मत्यागेन योगं विधास्यंस्त्याज्यत्वेन हीनत्वमाशङ्क्य कर्मयोगं स्तौति द्वाभ्याम् श्रीभगवानुवाच कर्मणां फलमनाश्रितोऽनपेक्षमाणः फलाभिसंधिरहितः सन् कार्यं कर्तव्यतया शास्त्रेण विहितं नित्यमग्निहोत्रादि कर्म करोति यः स कर्म्यपि सन् संन्यासी योगी चेति स्तूयते। संन्यासो हि त्यागः। चित्तगतविक्षेपाभावश्च योगः। तौ चास्य विद्येते फलत्यागात् फलतृष्णारूपचित्तविक्षेपाभावाच्च। कर्मफलतृष्णात्याग एवात्र गौण्या वृत्त्या संन्यासयोगशब्दाभ्यामभिधीयते सकामानपेक्ष्य प्राशस्त्यकथनाय। अवश्यंभाविनौ हि निष्कामकर्मानुष्ठातुर्मुख्यौ संन्यासयोगौ। तस्मादयं यद्यपि न निरग्निरग्निसाध्यश्रौतकर्मत्यागी न भवति न चाक्रियोऽग्निनिरपेक्षस्मार्तक्रियात्यागी च न भवति तथापि संन्यासी योगी चेति मन्तव्यः। अथवा न निरग्निर्न चाक्रियः संन्यासी योगी चेति मन्तव्यः किंतु साग्निः सक्रियश्च निष्कामकर्मानुष्ठायी संन्यासी योगी चेति मन्तव्य इति स्तूयते।अपशवो वा अन्ये गोअश्वेभ्यः पशवो गोअश्चान् इत्यत्रेव प्रशंसालक्षणयानया नञन्वयोपपत्तिः। अत्र चाक्रियं इत्यनेनैव सर्वकर्मसंन्यासिने लब्धे निरग्निरिति व्यर्थं स्यादित्यग्निशब्देन सर्वाणि कर्माण्युपलक्ष्य निरग्निरिति संन्यासी क्रियाशब्देन चित्तवृत्तीरुपलक्ष्याक्रिय इति निरुद्धचित्तवृत्तिर्योगी च कथ्यते। तेन न निरग्निः संन्यासी मन्तव्यो न चाक्रियो योगी मन्तव्य इति यथासंख्यमुभयव्यतिरेको दर्शनीयः। एंव सति नञ्द्वयमप्युपपन्नमिति द्रष्टव्यम्।
।।6.1।।चित्ते शुद्धेऽपि न ध्यानं विना संन्यासमात्रतः। मुक्तिः स्यादिति षष्ठेऽस्मिन्ध्यानयोगो वितन्यते।।1।।पूर्वाध्यायान्ते संक्षेपेणोक्तं योगं प्रपञ्चयितुं षष्ठाध्यायारम्भः। तत्र तावत्सर्वकर्माणि मनसेत्यारभ्य संन्यासपूर्विकाया ज्ञाननिष्ठायास्तात्पर्येणाभिधानाद्दुःखस्वरूपत्वाच्च कर्मणः सहसा संन्यासातिप्रसङ्गं प्राप्तं वारयितुं संन्यासादपि श्रेष्ठत्वेन कर्मयोगं स्तौति। श्रीभगवानुवाच अनाश्रित इति द्वाभ्याम्। कर्मफलमनाश्रितोऽनपेक्षमाणः अवश्यं कर्तव्यतया विहितं कर्म यः करोति स एव संन्यासी योगी च नतु निरग्निः अग्निसाध्येष्टाख्यकर्मत्यागी न चाक्रियोऽनग्निसाध्यपूर्ताख्यकर्मत्यागी च।
।।6.1।।षष्ठाध्यायोपक्रमस्य पूर्वोक्तार्थानुवादरूपतां दर्शयितुं पूर्वेणाविच्छिन्नानुसन्धानार्थमध्यायसङ्गतिवचनात् पूर्वमेव व्याख्येयोपादानम् वृत्तवर्तिष्यमाणाभिधानमुखेन सङ्गतिं दर्शयति उक्त इति। कर्मयोग उक्तः तत्साध्यतयोपक्षिप्तः समाधिलक्षणो योग एवात्र सानुबन्धः प्रतिपाद्यत इति सङ्गतिः।योगाभ्यासविधिरुच्यत इति योगाभ्यासविधिर्योगी चतुर्धा योगसाधनम्। योगसिद्धिः स्वयोगस्य पारम्यं षष्ठ उच्यते गी.सं.10 इति सङ्ग्रहश्लोके प्रथमं योगाभ्यासविधेरुपादानादन्येषां च तदर्थत्वात् स एवाध्यायप्रधानार्थतया संगृहीत इति भावः।अनाश्रितः इत्यादीनांसमबुद्धिर्विशिष्यते 6।9 इत्यन्तानां नवानां श्लोकानां प्रागुक्तानधिकार्थत्वान्निष्प्रयोजनत्वमाशङ्क्याह तत्रेति। अभ्यासो हि तात्पर्यलिङ्गम् अव्यवहितनिर्देशश्च नैरपेक्ष्यं सूचयेदिति भावः।ज्ञानाकारो योगशिरस्क इति पदाभ्यां साधनस्य प्रागुक्तमन्तर्गतात्मज्ञानत्वादिलक्षणं पौष्कल्यं साध्यस्यात्मावलोकनस्याव्यवहितत्वं चाभिप्रेतम्।अनाश्रितः इतिश्लोके पूर्वार्धेन ज्ञानाकारकर्मयोगानुवादः उत्तरार्धेन नैरपेक्ष्यदृढीकरणम्।भोक्तारं यज्ञतपसाम् 5।29 इत्यव्यवहितपूर्वश्लोकालोचनयासर्वात्मनाऽस्मत्सुहृद्भूतेत्यादिकमुक्तम्। ततश्चकर्मफलमनाश्रितः इत्युक्ते निष्फलप्रवृत्तिः स्यादिति शङ्कायां कर्मस्वरूपफलत्वस्य वक्तुमुचितत्वात् कार्यशब्दः प्रयोजनविषय इति दर्शयितुं कर्मानुष्ठानमेव कार्यमिति वचनव्यक्तिर्दर्शिता। कार्यशब्दस्य चोदितविषयत्वे मन्दप्रयोजनत्वं स्यादिति भावः। ननु कर्मयोगनिष्ठमनूद्य तस्यैव ज्ञानयोगनिष्ठत्वं कर्मयोगनिष्ठत्वं च विधातुमयुक्तम् प्रथमे विरोधात् द्वितीये तूद्देश्योपादेयविभागाभावपौनरुक्त्यनिष्प्रयोजनत्वेभ्य इति शङ्कायामाह आत्मावलोकनेति। पृथक्साधनभूतोभयसाध्यं फलमनेन लब्धमित्युभयनिष्ठत्वमुपचारादुच्यते ततश्च कर्मयोगस्य निरपेक्षसाधनत्वं विवक्षितमिति भावः। यद्वा कर्मयोगांशभूतज्ञानक्रियाभेदेन परिहार इति भावः। अग्निशब्दस्यात्राग्निसम्बन्धि कर्मलक्षकत्वव्यञ्जनाय यज्ञादिशब्दः। लक्ष्यार्थानां सङ्ग्राहकं चोदितत्वम्।निरग्निः इत्यनेनैव कर्मनिवृत्तेरुक्तत्वादक्रियशब्दः क्रियानिवृत्तिमुखेन क्रियाव्यतिरिक्तनिष्ठत्वलक्षकः व्यतिरिक्तश्चात्रासन्नो ज्ञानयोग इति दर्शयितुंकेवलज्ञाननिष्ठ इत्युक्तम् यद्वान निरग्निर्न चाक्रियः इत्युभाभ्यां श्रौतस्मार्तक्रियाविशेषनिषेधकाभ्यां फलितमाहन चोदितेत्यादि। तदभिप्रेतमाह नच केवलज्ञाननिष्ठ इति।अनग्निरनिकेतः स्यात् मनुः 6।256।43त्यक्त्वा द्रव्याग्निसाध्यानि कर्माणि इत्यादिप्रतिपादितसन्न्यासाश्रमव्यवच्छेद इहासङ्गत इति भावः।
।।6.1।।कृत्वाऽपि सर्वसन्न्यासं जडवच्चरणादिह। न भक्तिं प्राप्नुयात्तस्माद्ध्यानयोगमुवाच ह।।पूर्वाध्याये सन्न्यासमुक्त्वाऽध्यायान्ते इच्छादिविहीनो विषयमोक्षेच्छुर्विषयभोक्तृत्वात्तेभ्यो विमुक्तो भवेदित्युक्तम् ततस्तद्विमुक्तिरेव न फलं किन्तु तद्विमुक्त्या भगवद्ध्यानेन भगवदावेशः फलमिति ध्यानस्वरूपमाह भगवान् अनाश्रित इति। कर्मफलं स्वर्गादिरूपमनाश्रितः कार्यं कर्म भगवदुक्तत्वादवश्यकर्तव्यं कर्म सेवादिरूपं यः करोति स सन्न्यासी त्यागवान् च पुनर्योगी च भवतीति शेषः। न निरग्निः न गार्हपत्यादित्यागवान् सन्न्यासी। न च अक्रियः न सेवादिरहितो योगी भवतीत्यर्थः।
।।6.1।।पूर्वाध्यायान्ते सूत्रितं ध्यानयोगं विवरीतुमिच्छंस्तत्राधिकारहेतुत्वात्कर्मयोगं तावत्स्तौति द्वाभ्याम् अनाश्रित इति। यः कर्मणां फलमनाश्रितोऽनपेक्षमाणः कार्यमवश्यकर्तव्यं नित्यं कर्म करोति स एव फलसंकल्पत्यागात्संन्यासी च योगी च भवति न तु निरग्निर्यो विधितः श्रौतस्मार्तकर्मत्यागी स एव संन्यासी नापि अक्रियस्त्यक्तवाङ्मनःकायक्रिय एव वा योगीति।
।।6.1।।पञ्चमाध्यायान्ते सम्यग्दर्शनं प्रत्यन्तरङ्गसाधनस्य ध्यानयोगस्य सूत्रस्थानीयास्त्रयः श्लोका उदाहृतास्तद्वृत्तिस्थानीयोऽयं षष्ठाध्याय आरभ्यते। तत्र तदधिकारसंपत्तये गृहस्थेनाधिकृतेन कर्तव्यमेव कर्मेत्यतस्तत्स्तौति अनाश्रित इति द्वाभ्याम्। कर्मणः फलमनाश्रितः कर्मफलतृष्णारहितः सन् कार्यमवश्यकर्तव्यं काम्यविपरीतं नित्याग्निहोत्रादिकं यः करोति स संन्यासी च योगी चेति कर्मफलतृष्णावद्य्भ इतरकर्मिभ्य उत्कृष्ट इति गौणप्रयोगेण स्तुयते। तथाच संन्यासः परित्यागः सोऽस्यास्तीति सः। योगश्चित्तसमाधानं सोऽस्यास्तीति स योगी चेत्येवमुभयगुणसंपन्नोऽयं मन्तव्यः न केवलं निरग्निरक्रिय एव संन्यासी योगी चेति मन्तव्यः। निर्गता अग्नयः कर्माङ्गभूता यस्मात्सः। अनग्निसाधना अप्यविद्यमानाः क्रियास्तपोदानादिका यस्य स नित्यसमाधिनिष्ठ इत्यर्थः। एतेन कार्यं कर्म यः करोति स एव संन्यासी च योगी च नतु निरग्निः नचाक्रिय इति प्रत्युक्तम्। न केवलं निरग्निरग्नयो गार्हपत्याहवनीयान्वाहार्यपचनप्रभृतयः तानुद्वास्य स्थित एव संन्यासी। तथा अन्याश्च तपोदानाद्याः क्रियास्तद्रहितः समाधिनिष्ठ एव योगी चेति। न चेति यथासंख्यमुभयव्यतिरेको व्याख्येयः। एतेनाग्निशब्देन सर्वाणि कर्माण्युपलक्ष्य निरग्निरिति संन्यासी। क्रियाशब्देन चित्तवृत्तीरुपलक्ष्याक्रिय इति निरुद्धचित्तवृत्तिर्योगीति कथ्यते इति लक्षणया व्याख्याय उभयव्यतिरेकप्रदर्शनं प्रत्युक्तम्। एवं भाष्योक्तेनर्जुमार्गेणाविरोधस्य सम्यगुपपत्त्या पूर्वाध्यायान्ते श्लोकद्वयेन सूत्रितं ज्ञानयोगं प्राधान्येन षष्ठे प्रपञ्चयिष्यन् श्रीभगवानुवाचेत्याद्यामूलतद्भाष्यतद्विरुद्धाः कल्पना उपेक्ष्याः।
6.1 अनाश्रितः not depending (on)? कर्मफलम् fruit of action? कार्यम् bounden? कर्म duty? करोति performs? यः who? सः he? संन्यासी Sannyasi (ascetic)? च and? योगी Yogi? च and? न not? निरग्निः without fire? न not? च and? अक्रियः without action.Commentary Actions such as Agnihotra? etc.? performed without the expectation of their fruits purify the mind and become the means to Dhyana Yoga or the Yoga of Meditation.Karyam Karma bounden duty.Niragnih without fire. He who has renounced the daily rituals like Agnihotra? which are performed with the help of fire.Akriya without action. He who has renounced austerities and other meritorious acts like building resthouses? charitable dispensaries? digging wells? feeding the poor? etc.Sannyasi he who has renounced the fruits of his actions.Yogi he who has a steady mind. These two terms are applied to him in a secondary sense only. They are not used to denote that he is in reality a Sannyasi and a Yogi.The Sannyasi performs neither Agnihotra nor other ceremonies. But simply to omit these without genuine renunciation will not make one a real Sannyasi. (Cf.V.3)
6.1 The Blessed Lord said He who performs his bounden duty without depending on the fruits of his actions he is a Sannyasi and a Yogi; not he who is without fire and without action.
6.1 "Lord Shri Krishna said: He who acts because it is his duty, not thinking of the consequences, is really spiritual and a true ascetic; and not he who merely observes rituals or who shuns all action.
6.1 The Blessed Lord said He who performs an action which is his duty, without depending on the result of action, he is a monk and a yogi; (but) not (so in) he who does not keep a fire and is actionless.
6.1 Anasritah, without depending on;-on what?-on that which is karma-phalam, the result of action- i.e. without craving for the result of action-. He who craves for the results of actions becomes dependent on the results of actions. But this person is the opposite of such a one. Hence (it is said), 'wihtout depending on the result of action. Having become so, yah he who; karoti, performs accomplishes; (karma, an action;) which is his karyam, duty, the nityakarmas such as Agnihotra etc. which are opposed to the kamya-karmas-. Whoever is a man of action of this kind is distinguished from the other men of action. In order to express this idea the Lord says, sah, he ; is a sannyasi, monk, and a yogi. Sanyyasa, means renunciation. he who is possessed of this is a sannyasi, a monk. And he is also a yogi. Yoga means concentration of mind. He who has that is a yogi. It is to be understood that this man is possessed of these alities. It is not to be understood that, only that person who does not keep a fire (niragnih) and who is actionless (akriyah) is a monk and a yogi. Niragnih is one from whom the fires [viz Garhapatya, Ahavaniya, Anvaharya-pacana, etc.], which are the accessories of rites, have bocome dissociated. By kriya are mean austerity, charity, etc. which are performed wityout fire. Akriyah, actionless, is he who does not have even such kriyas. Objection: Is it not only with regard to one who does not keep a fire and is acitonless that monasticsm and meditativeness are well known in the Vedas, Smrtis and scriptures dealing with meditation? Why are monasticism and meditativeness spoken of here with regard to one who keeps a fire and is a man of action-which is not accepted as a fact? Reply: This defect does not arise, because both are sought to be asserted in some secondary sense. Objection: How is that? Reply: His being monk is by virtue of his having given up hankering for the results of actions; and his being a man of meditation is from the fact of his doing actions as accesories to meditation or from his rejection of thoughts for the results of actions which cause disturbances in the mind. Thus both are used in a figurative sense. On the contrary, it is not that monasticism and meditativeness are meant in the primary sense. With a veiw to pointing out this idea, the Lord says:
6.1. The Bhagavat said He who performs his bounden action, not depending on its fruit, in the man of renunciation and also the man of Yoga ! and not he, who remains [simply] without his fires and actions [is a Samnyasin or a Yogin]
6.1 See Comment under 6.2
6.1 The Lord said He who, without depending on such fruits of works as heaven, etc., performs them, reflecting, 'The performance of works alone is my duty (Karya). Works themselves are my sole aim, because they are a form of worship of the Supreme Person who is our Friend in every way. There is nothing other than Him to be gained by them' - such a person is a Sannyasin, i.e., one devoted to Jnana Yoga, and also a Karma Yogin, i.e., one devoted to Karma Yoga. He is intent on both these, which is the means for attaining Yoga, which is of the nature of the vision of the self. 'And not he who maintains no sacred fires and performs no works,' i.e., not he who is disinclined to perform the enjoined works such as sacrifices, etc., nor he who is devoted to mere knowledge. The meaning is that such a person is devoted only to knowledge, whereas a person who is devoted to Karma Yoga has both knowledge and works. Now Sri Krsna teaches that there is an element of knowledge in the Karma Yoga as defined above.
6.1 The Lord said He who performs works that ought to be done without seeking their fruits - he is a Sannyasin and Yogin, and not he who maintains no sacred fires and performs no actions.
।।6.1।।इसी भावसे वह संन्यासी और योगी है इस प्रकार उसकी स्तुति की जाती है भगवान् श्रीकृष्ण बोले जिसने आश्रय नहीं लिया हो वह अनाश्रित है किसका कर्मफलका अर्थात् जो कर्मोंके फलका आश्रय न लेनेवाला कर्मफलकी तृष्णासे रहित है। क्योंकि जो कर्मफलकी तृष्णावाला होता है वही कर्मफलका आश्रय लेता है यह उससे विपरीत है इसलिये कर्मफलका आश्रय न लेनेवाला है। ऐसा ( कर्मफलके आश्रयसे रहित ) होकर जो पुरुष कर्तव्यकर्मोंको अर्थात् काम्यकर्मोंसे विपरीत नित्य अग्निहोत्रादि कर्मोंको पूरा करता है ऐसा जो कोई कर्मी है वह दूसरे कर्मियोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है इसी अभिप्रायसे यह कहा है कि वह संन्यासी भी है और योगी भी है। संन्यास नाम त्यागका है वह जिसमें हो वही संन्यासी है और चित्तके समाधानका नाम योग है वह जिसमें हो वही योगी है अतः वह कर्मयोगी भी इन गुणोंसे सम्पन्न माना जाना चाहिये। केवल अग्निरहित और क्रियारहित पुरुष ही संन्यासी और योगी है ऐसा नहीं मानना चाहिये। कर्मोंके अङ्गभूत गार्हपत्यादि अग्नि जिससे छूट गये हैं वह निरग्नि है और बिना अग्निके होनेवाली तपदानादि क्रिया भी जो नहीं करता वह अक्रिय है। पू0 जब कि निरग्नि और अक्रिय पुरुषके लिये ही श्रुति स्मृति और योगशास्त्रोंमें संन्यासित्व और योगित्व प्रसिद्ध है तब यहाँ अग्नियुक्त और क्रियायुक्त पुरुषके लिये अप्रसिद्ध संन्यासित्व और योगित्वका प्रतिपादन कैसे किया जाता है उ0 यह दोष नहीं है क्योंकि किसी एक गुणवृत्तिसे ( किसी एक गुणविशेषको लेकर ) संन्यासित्व और योगित्व इन दोनों भावोंको उसमें ( गृहस्थमें ) सम्पादन करना भगवान्को इष्ट है। पू0 वह कैसे उ0 कर्मफलके संकल्पोंका त्याग होनेसे संन्यासित्व है और योगके अङ्गरूपसे कर्मोंका अनुष्ठान होनेसे या चित्तविक्षेपके कारणरूप कर्मफलके संकल्पोंका परित्याग होनेसे योगित्व है इस प्रकार दोनों भाव ही गौणरूपसे माने गये हैं।
।।6.1।। अनाश्रितः न आश्रितः अनाश्रितः। किम् कर्मफलं कर्मणां फलं कर्मफलं यत् तदनाश्रितः कर्मफलतृष्णारहित इत्यर्थः। यो हि कर्मफले तृष्णावान् सः कर्मफलमाश्रितो भवति अयं तु तद्विपरीतः अतः अनाश्रितः कर्मफलम्। एवंभूतः सन् कार्यं कर्तव्यंनित्यं काम्यविपरीतम् अग्निहोत्रादिकं कर्म करोति निर्वर्तयति यः कश्चित् ईदृशः कर्मी स कर्म्यन्तरेभ्यो विशिष्यते इत्येवमर्थमाह स संन्यासी च योगी च इति। संन्यासः परित्यागः स यस्यास्ति स संन्यासी च योगी च योगः चित्तसमाधानं स यस्यास्ति स योगी च इति एवंगुणसंपन्नः अयं मन्तव्यः न केवलं निरग्निः अक्रिय एव संन्यासी योगी च इति मन्तव्यः। निर्गताः अग्नयः कर्माङ्गभूताः यस्मात् स निरग्निः अक्रियश्च अनग्निसाधना अपि अविद्यमानाः क्रियाः तपोदानादिकाः यस्य असौ अक्रियः।।ननु च निरग्नेः अक्रियस्यैव श्रुतिस्मृतियोगशास्त्रेषु संन्यासित्वं योगित्वं च प्रसिद्धम्। कथम् इह साग्नेः सक्रियस्य च संन्यासित्वं योगित्वं च अप्रसिद्धमुच्यते इति। नैष दोषः कयाचित् गुणवृत्त्या उभयस्य संपिपादयिषितत्वात्। तत् कथम् कर्मफलसंकल्पसंन्यासात् संन्यासित्वम् योगाङ्गत्वेन च कर्मानुष्ठानात् कर्मफलसंकल्पस्य च चित्तविक्षेपहेतोः परित्यागात् योगित्वं च इति गौणमुभयम् न पुनः मुख्यं संन्यासित्वं योगित्वं च अभिप्रेतमित्येतमर्थँ दर्शयितुमाह
।।6.1।।श्रीवेङ्कटेशाय नमः। सङ्गतिं सूचयन्नेतदध्यायप्रतिपाद्यमर्थमाह ज्ञानान्तरङ्गमिति।योगे त्विमां शृणु 2।39 इति प्रतिज्ञाय द्वितीयषट्के वक्ष्यमाणं भगवज्ज्ञानं प्रति कर्मयोगस्य बहिरङ्गत्वात्स प्राधान्येनातीते ग्रन्थे प्रतिपादितः। तत्साध्यत्वाज्ज्ञानान्तरङ्गत्वाच्चावसरप्राप्तं समाधियोगमाहानेन षष्ठाध्यायेनेत्यर्थः। आसनादीनामङ्गानां वक्ष्यमाणत्वेऽपि तेषां समाध्यर्थत्वात् प्राधान्येन समाधियोगस्य ग्रहणम्। पञ्चमान्तोक्तस्य प्रपञ्चोऽयमित्यदोषः।गृहस्थस्यापि स्तुत्यर्थमुपचरितं सन्न्यासित्वं योगित्वं चाद्येन श्लोकेनोच्यते इति परकीयतात्पर्यकथनमसदिति भावेनाह विवक्षितमिति। समाधियोगं विधातुं तत्राधिकारिणं ज्ञापयिष्यन् साङ्ख्याद्यभिमततदधिकारिनिरासाय तद्विशेषणं प्राग्विवक्षितं कामादिवर्जनलक्षणं सन्न्यासमीश्वराराधनस्वकर्मानुष्ठानलक्षणेन योगेन सहाहेत्यर्थः। यदि हि सन्न्यासो यत्याश्रमोऽत्र विवक्षितः स्यात् योगश्च कश्चिद्गृहस्थासम्भवी स्यात् तदोपचारेण तत्स्तुतिरियम्। न चैवमिति भावः। न केवलं निरग्निरक्रियश्चतुर्थाश्रमी सन्न्यासी योगी च किन्त्वनाश्रित इत्याद्युक्तो गृहस्थोऽपीति (शां.) परकीयां योजनां निराकरोति चतुर्थेति। अत्रैव स्पष्टं वाक्यान्तरं पठति अग्निरिति। चस्त्वर्थः। अतो न परकीया योजना युक्तेति शेषः। तर्हि कथं इत्यत आह तस्मादिति परकृतयोजनाया निरस्तत्वात्। ननु निरग्नेरक्रियस्य चतुर्थाश्रमिणोऽपि सन्न्यासित्वाद्योगित्वाच्च कथं न निरग्निरित्याद्युक्तं इत्यतो वाहचतुर्थाश्रमिणोऽपीत्यादि। न भवत्येवेति युक्तमिति शेषः। अनग्नित्वादिप्रवादश्च बाह्याग्न्याद्यभावनिबन्धन इति भावः।
।।6.1।।ँ़ ज्ञानान्तरङ्गं समाधियोगमाद्वानेनाध्यायेन। विवक्षितं सन्न्यासमाह योगेन सह अनाश्रित इति। चतुर्थाश्रमिणोऽप्यग्निः क्रिया चोक्तादैवमेव 4।25 इत्यादौ।अग्निर्ब्रह्म च तत्पूजा क्रिया न्यासाश्रमे स्मृता इति च। तस्मान्निरग्निरक्रियः सन्न्यासी योगी च न भवत्येव।
श्री भगवानुवाच अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।6.1।।
শ্রী ভগবানুবাচ অনাশ্রিতঃ কর্মফলং কার্যং কর্ম করোতি যঃ৷ স সংন্যাসী চ যোগী চ ন নিরগ্নির্ন চাক্রিযঃ৷৷6.1৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ অনাশ্রিতঃ কর্মফলং কার্যং কর্ম করোতি যঃ৷ স সংন্যাসী চ যোগী চ ন নিরগ্নির্ন চাক্রিযঃ৷৷6.1৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ અનાશ્રિતઃ કર્મફલં કાર્યં કર્મ કરોતિ યઃ। સ સંન્યાસી ચ યોગી ચ ન નિરગ્નિર્ન ચાક્રિયઃ।।6.1।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਅਨਾਸ਼੍ਰਿਤ ਕਰ੍ਮਫਲਂ ਕਾਰ੍ਯਂ ਕਰ੍ਮ ਕਰੋਤਿ ਯ। ਸ ਸਂਨ੍ਯਾਸੀ ਚ ਯੋਗੀ ਚ ਨ ਨਿਰਗ੍ਨਿਰ੍ਨ ਚਾਕ੍ਰਿਯ।।6.1।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಅನಾಶ್ರಿತಃ ಕರ್ಮಫಲಂ ಕಾರ್ಯಂ ಕರ್ಮ ಕರೋತಿ ಯಃ. ಸ ಸಂನ್ಯಾಸೀ ಚ ಯೋಗೀ ಚ ನ ನಿರಗ್ನಿರ್ನ ಚಾಕ್ರಿಯಃ৷৷6.1৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച അനാശ്രിതഃ കര്മഫലം കാര്യം കര്മ കരോതി യഃ. സ സംന്യാസീ ച യോഗീ ച ന നിരഗ്നിര്ന ചാക്രിയഃ৷৷6.1৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ଅନାଶ୍ରିତଃ କର୍ମଫଲଂ କାର୍ଯଂ କର୍ମ କରୋତି ଯଃ| ସ ସଂନ୍ଯାସୀ ଚ ଯୋଗୀ ଚ ନ ନିରଗ୍ନିର୍ନ ଚାକ୍ରିଯଃ||6.1||
śrī bhagavānuvāca anāśritaḥ karmaphalaṅ kāryaṅ karma karōti yaḥ. sa saṅnyāsī ca yōgī ca na niragnirna cākriyaḥ৷৷6.1৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச அநாஷ்ரிதஃ கர்மபலஂ கார்யஂ கர்ம கரோதி யஃ. ஸ ஸஂந்யாஸீ ச யோகீ ச ந நிரக்நிர்ந சாக்ரியஃ৷৷6.1৷৷
శ్రీ భగవానువాచ అనాశ్రితః కర్మఫలం కార్యం కర్మ కరోతి యః. స సంన్యాసీ చ యోగీ చ న నిరగ్నిర్న చాక్రియః৷৷6.1৷৷
6.2
6
2
।।6.2।। हे अर्जुन ! लोग जिसको संन्यास कहते हैं, उसीको तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता।
।।6.2।। हे पाण्डव ! जिसको (शास्त्रवित्) संन्यास कहते हैं, उसी को तुम योग समझो; क्योंकि संकल्पों को न त्यागने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।।
।।6.2।। भगवान् यहाँ पूर्वकथित विचार को ही दोहराते हैं क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि अर्जुन को इस तथ्य विस्मरण हो जाय कि संन्यास (कर्तृत्व का त्याग) और योग(फलासक्ति का त्याग) दोनों वास्तव में एक ही हैं। योग के द्वारा संन्यास की स्थिति तक पहुँचा जाता है और मन में संन्यास की भावना के बिना योग के अभ्यास का विचार तक नहीं किया जा सकता। वास्तव में देखा जाय तो यह दोनों आध्यात्मिक पूर्णत्व रूपी सिक्के के दो पहलू हैं।भगवान् के इस कथन पर स्वाभाविक है कि अर्जुन ने उनकी ओर प्रश्नार्थक मुद्रा में देखा होगा। संन्यास और योग को एक ही कहने का क्या कारण है भगवान् स्पष्ट करते हैं कि संकल्पों का संन्यास किये बिना योगाभ्यास में दृढ़ता नहीं आ सकती और उसके अभाव में आध्यात्मिक प्रगति भी नहीं हो सकती।साधारणत मनुष्य संकल्पविकल्प किये बिना नहीं रह सकता। वह भविष्य की सुन्दरसुन्दर कल्पनाएँ करता रहता है। हम स्वयं ही किसी एक परिच्छिन्न लक्ष्य को निर्धारित करके उसे पाने के लिए योजनाएं बनाते हैं और उस पर प्रयत्नशील हो जाते हैं। परन्तु अपनी योजनाओं को पूर्णतया कार्यान्वित करने के पूर्व ही मन की कभी न थकने वाली क्रियाशील कल्पना शक्ति हमें नये लक्ष्य का निर्देश करती है जो पूर्व निर्धारित लक्ष्य से सर्वथा भिन्न होता है।जैसे ही हम उस नये लक्ष्य को पाने के लिए तत्पर हो जाते हैं उसी समय फिर यह अनोखी कल्पना शक्ति अन्य विकल्प को उपस्थित कर देती है। इस प्रकार प्रत्येक समय हमारा लक्ष्य तब तक ही निश्चित रहता है जब तक उसे पाने के लिए हम प्रयत्न आरम्भ नहीं कर देते यात्रा प्रारम्भ हुई कि गन्तव्य लुप्त।संक्षेप में विडम्बना यह है कि जब हमारे समक्ष लक्ष्य होता है तब प्रयत्न का आरम्भ नहीं और जैसे ही हम प्रयत्नशील होते हैं तो सामने कोई लक्ष्य ही नहीं दिखाई देता हमारे अन्तकरण में जो सूक्ष्म शक्ति इस उन्मत्त स्वभाव को जन्म देती है वह है निरंकुश संकल्पशक्ति।यह तो स्वत स्पष्ट हो जाता है कि जब तक हम इस विनाशकारी संकल्प शक्ति को वश में करके विनष्ट नहीं कर देते तब तक हम भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसे समझने के लिए किसी व्याख्याकार की आवश्यकता नहीं हैं।यह कहकर कि कोई भी (कश्चन) पुरुष संकल्प के बिना योगी नहीं बन सकता भगवान् यह दर्शाते हैं कि बिना संकल्प शक्ति के विनष्ट किये इस विषय में किसी प्रकार का समझौता नहीं हो सकता।फलनिरपेक्ष कर्मयोग का अनुष्ठान ध्यानयोग का बहिरंग साधन है। अत उसकी प्रशंसा करने के पश्चात् अब भगवान् यह बताते हैं कि किस प्रकार कर्मयोग ध्यान का साधन है
।।6.2।। व्याख्या--यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव'--पाँचवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने बताया था कि संन्यास (सांख्ययोग) और योग (कर्मयोग)--ये दोनों ही स्वतन्त्रतासे कल्याण करनेवाले हैं (5। 2), तथा दोनोंका फल भी एक ही है (5। 5) अर्थात् संन्यास और योग दो नहीं हैं, एक ही हैं। वही बात भगवान् यहाँ कहते हैं कि जैसे संन्यासी सर्वथा त्यागी होता है, ऐसे ही कर्मयोगी भी सर्वथा त्यागी होता है।अठारहवें अध्यायके नवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि फल और आसक्तिका सर्वथा त्याग करके जो नियत कर्तव्य-कर्म केवल कर्तव्यमात्र समझकर किया जाता है, वह 'सात्त्विक त्याग' है, जिससे पदार्थों और क्रियाओंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और मनुष्य त्यागी अर्थात् योगी हो जाता है। इसी तरह संन्यासी भी कर्तृत्वाभिमानका त्यागी होता है। अतः दोनों ही त्यागी हैं। तात्पर्य है कि योगी और संन्यासीमें कोई भेद नहीं है। भेद न रहनेसे ही भगवान्ने पाँचवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें कहा है कि राग-द्वेषका त्याग करनेवाला योगी 'संन्यासी' ही है।
।।6.1 6.2।।एवं प्राक्तनेनाध्यायगणेन साधितोऽर्थः श्लोकद्वयेन निगद्यते अनाश्रित इति। य संन्यासमिति। कार्यं स्वजात्यादिविहितम्। संन्यासी (S संन्यासीति) योगीति पर्यायावेतौ। अत एवाह यं संन्यासमिति। तथा च योगमन्तरेण संन्यासो नोपपद्यते। एवं संकल्पसंन्यासं विना योगो न युज्यते। तस्मात्सततसंबद्धौ योगसंन्यासौ। न निरग्निरित्यादिना अयमर्थो ध्वन्यते निरग्निश्च न भवति निष्क्रियश्च न भवति अथ च संन्यासी इत्यद्भुतम् इति।
।।6.2।।ज्ञानयोग इति आत्मयाथात्म्यज्ञानम् इति प्राहुः तं कर्मयोगम् एव विद्धि। तद् उपपादयति न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन इति।आत्मयाथात्म्यानुसन्धानेन अनात्मनि प्रकृतौ आत्मसंकल्पः संन्यस्तः परित्यक्तो येन स संन्यस्तसंकल्पः अनेवंभूतो यः स असंन्यस्तसंकल्पः। न हि उक्तेषु कर्मयोगेषु अनेवंभूतः कश्चन कर्मयोगी भवतियस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः। (गीता 4।19) इति हि उक्तम्।कर्मयोग एव अप्रमादेन योगं साधयति इत्याह
।।6.2।।उत्तरश्लोकस्य तात्पर्यं दर्शयितुं व्यावर्त्यामाशङ्कां दर्शयति ननु चेति। प्रसिद्धिं परित्यज्याप्रसिद्धिरुपादीयमाना प्रसिद्धिविरुद्धेति चोद्यं दूषयति नैष दोष इति। उभयस्य साग्नौ सक्रिये च संन्यासित्वस्य योगित्वस्य चेत्यर्थः। गुणवृत्त्योभयसंपादनं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति तत्कथमित्यादिना। संभवति मुख्ये संन्यासित्वादौ किमिति गौणमुभयमभीष्टमित्याशङ्क्य मुख्यस्य कर्मण्यसंभवाद्गौणमेव स्तुतिसिद्ध्यर्थं तदिष्टमित्यभिप्रेत्याह न पुनरिति। चित्तव्याकुलत्वहेतुकामनात्यागाच्चित्तसमाधानसिद्धेर्योगित्वं कर्मिणोऽपि युक्तं संन्यासित्वं तु तस्य विरुद्धमिति शङ्कमानं प्रत्युक्तेऽर्थे श्लोकमवतारयति इत्येतमिति। परमार्थसंन्यासं प्राहुरिति संबन्धः। इतीत्थं संन्यासस्य प्रामाणिकाभ्युपगतत्वादितीतिशब्दो योज्यः। योगं फलतृष्णां परित्यज्य समाहितचेतस्तयेति शेषः। यदुक्तं संन्यासित्वं योगित्वं च गृहस्थस्य गौणमिति तदुत्तरार्धयोजनया प्रकटयितुमुत्तरार्धमुत्थापयति कर्मयोगस्येति। कर्मयोगस्य परमार्थसंन्यासेन कर्तृद्वारकं साम्यमुक्तं व्यक्तीकरोति यो हीति। त्यक्तानि सर्वाणि कर्माणि साधनानि च येन स तथोक्तस्तस्य भावस्तत्ता तया सर्वकर्मविषयं तत्फलविषयं च संकल्पं त्यजतीत्यर्थः। संकल्पत्यागे तत्कार्यकामत्यागस्तत्त्यागे तज्जन्यप्रवृत्तित्यागश्च सिध्यतीत्यभिसंधाय विशिनष्टि प्रवृत्तीति। कर्मिण्यपि यथोक्तसंकल्पसंन्यासित्वमस्तीत्याह अयमपीति। तदपरित्यागे व्याकुलचेतस्तया कर्मानुष्ठानस्यैव दुःशकत्वादित्यर्थः। उक्तमेव साम्यं व्यक्तीकुर्वन्व्यतिरेकं दर्शयति इत्येतमिति। फलसंकल्पापरित्यागे किमिति समाधानवत्त्वाभावस्तत्राह फलेति। व्यतिरेकमुखेनोक्तमर्थमन्वयमुखेनोपसंहरति तस्मादिति। हिशब्दार्थस्य यस्मादित्युक्तस्य तस्मादित्यनेन संबन्धः। कर्मिणं प्रति यथोक्तविधौ हेतुहेतुमद्भावमभिप्रेत्य द्वितीयविधौ हेतुमाह चित्तविक्षेपेति। पूर्वश्लोके पूर्वोत्तरार्धाभ्यामुक्तमनुवदति एवमिति।
।।6.2।।कुत इत्यपेक्षायां साङ्ख्ययोगविषययोरत्यागात्यागयोरेवैकार्थतां सम्पादयन्नाह यं सन्न्यासमिति। ऋषयो यं सन्न्यासं प्राहुस्त्यागविधया तं योगमेव विद्धि यत्रत्यकर्मसु फलसङ्कल्पत्यागस्य निरूप्यमाणत्वात्। तथाहि नहीति। असन्न्यस्तसङ्कल्पः योगी न भवति। तादृशकर्मकर्त्ता चेद्योग्येव न। तथा चेद्योग्येवेति भावः।
।।6.2।।असंन्यासेऽपि संन्याशब्दप्रयोगे निमित्तभूतं गुणयोगं दर्शयितुमाह यं सर्वकर्मतत्फलपरित्यागं संन्यासमिति प्राहुः श्रुतयःसंन्यास एवात्यरेचयत् इतिब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ मिक्षाचर्यं चरन्ति इत्याद्याः। योगं फलतृष्णाकर्तृत्वाभिमानयोः परित्यागेन विहितकर्मानुष्ठानं तं संन्यासं विद्धि। हे पाण्डव अब्रह्मदत्तं ब्रह्मदत्तमित्याह तं वयं मन्यामहे ब्रह्मदत्तसदृशोऽयमिति न्यायात्परशब्दः परत्र प्रयुज्यमानः सादृश्यं बोधयति गौण्या वृत्त्या तद्भावारोपेण वा। प्रकृते तु किं सादृश्यमिति तदाह नहीति। हि यस्मादसंन्यस्तसंकल्पोऽत्यक्तफलसंकल्पः कश्चन कश्चिदपि योगी न भवति अपितु सर्वो योगी त्यक्तफलसंकल्प एव भवतीति फलत्यागसाम्यात्तृष्णारूपचित्तवृत्तिनिरोधसाम्याच्च गौण्या वृत्त्या कम्र्येव संन्यासी च योगी च भवतीत्यर्थः। तथाहियोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय इति वृत्तयः पञ्चविधाः। तत्र प्रत्यक्षानुमानशास्त्रोपमानार्थापत्त्यभावाख्यानि प्रमाणानि षडिति वैदिकाः। प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि त्रीणीत योगाः। अन्तर्भावबहिर्भावाभ्यां संकोचविकासौ द्रष्टव्यौ। अतएव तार्किकादीनां मदभेदाः। विपर्ययो मिथ्याज्ञानं तस्य पञ्च भेदा अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः। तएव च क्लेशाः। शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्योऽवभासो विकल्पः प्रमाभ्रमविलक्षणोऽसदर्थव्यवहारः शशविषाणमसत्पुरुषस्य चैतन्यमित्यादिः। अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा चतसृणां वृत्तीनामभावस्य प्रत्ययः कारणं तमोगुणस्तदालम्बना वृत्तिरेव निद्रा नतु ज्ञानाद्यभावमात्रमित्यर्थः। अनुभूतविषयासंप्रमोषः प्रत्ययः स्मृतिः पूर्वानुभवसंस्कारजं ज्ञानमित्यर्थः। सर्ववृत्तिजन्यत्वादन्ते कथनम्। लज्जादिवृत्तीनामपि पञ्चस्वेवान्तर्भावो द्रष्टव्यः। एतादृशां सर्वासां चित्तवृत्तीनां निरोधो योग इति च समाधिरिति च कथ्यते। फलसंकल्पस्तु रागाख्यस्तृतीयो विपर्ययभेदस्तन्निरोधमात्रमपि गौण्या वृत्त्या योग इति संन्यास इति चोच्यत इति न विरोधः।
।।6.2।।कुत इत्यपेक्षायां कर्मयोगस्यैव संन्यासत्वं संपादयन्नाह यमिति। यं संन्यासमिति प्राहुः प्रकर्षेण श्रेष्ठत्वेनाहुःसंन्यास एवात्यरेचयत् इत्यादिश्रुतेः केवलात्फलसंन्यसनाद्धेतोः योगमेव तं जानीहि। कुत इत्यपेक्षायामितिशब्दोक्तो हेतुर्योगेऽप्यस्तीत्याह नहीति। न संन्यस्तः फलसंकल्पो येन सः कर्मनिष्ठो ज्ञाननिष्ठो वा कश्चिदपि न हि योगी भवति। अतः फलसंकल्पत्यागसाम्यात्संन्यासात्संन्यासी च फलसंकल्पत्यागादेव चित्तविक्षेपाभावाद्योगी च भवत्येव स इत्यर्थः।
।।6.2।।सन्न्यासमनूद्य योगत्वे विधीयमाने ज्ञानयोगे कर्मयोगसद्भावप्रतिपादनभ्रमः स्यात् तच्चनह्यसन्न्यस्त इत्युपपादनविरुद्धम् अत्रानुपयुक्तं चेत्यभिप्रायेणाह उक्तलक्षणेति। योगोद्देशेन सन्न्यासत्वविधिपरं वाक्यमित्यर्थः। सन्न्यासशब्दस्याभिप्रेतं वक्तुं प्राकरणिकं वाच्यं तावदाह ज्ञानयोग इति। अत्र तदभिप्रेतमाह आत्मयाथात्म्यज्ञानमिति। समुदायवाचकशब्दस्तदंशेऽपि प्रयुज्यत इति भावः।तं कर्मयोगमेव विद्धीति कर्मयोगान्तर्गतमेव विद्धीत्यर्थः।आत्मयाथात्म्येत्यादेरयमभिप्रायः सङ्कल्पशब्दो न तावदत्र कुर्यामिति सङ्कल्पविषयः तदभावे कर्मकरणस्यैव अशक्यत्वात्। नापि फलाभिसन्धिविषयः तथात्वेऽपि कर्मयोगे ज्ञानयोगान्तर्भावप्रतिज्ञाया उपपादकत्वासिद्धेः। अतएवसङ्कल्पमूलः कामो हि यज्ञाः सङ्कल्पसम्भवाः मनु.2।3 इत्यादिस्मृतिपठितः कामस्य कर्मणां च हेतुः सङ्कल्पोऽत्र न विवक्षितः। तस्मादेकीकृत्य कल्पोऽत्र सङ्कल्पः। स चात्र देहात्मगोचरः। तत्परित्यागश्च तत्त्वज्ञानात्। एवं सत्येवनहि इत्यादेरुक्तोपपादकत्वमुपपद्येत इति।कश्चन इति निर्देशः प्रागुक्तकर्मयोगनिष्ठवैविध्यसूचक इत्यभिप्रायेणउक्तेषु कर्मयोगिप्वित्युक्तम्। सिद्धो ह्यत्रोपपादको भवति तत्सिद्धिरत्र कुतः इत्याकाङ्क्षायां हिशब्दाभिप्रेतमाहयस्येति।
।।6.2।।ननु कथमुक्तत्यागवान् योगी न भवेत् इत्याशङ्क्याह यं सन्न्यासमिति। यं सन्न्यासमिति प्राहुः प्रकर्षेण सर्वात्मभावरूपेण आहुस्तत्स्वरूपविदो भक्ताः तेऽधुनाऽधिकाराभावान्नोच्यन्ते अग्रे वाच्याः तं हे पाण्डव। योगं योगरूपं विद्धि जानीहि।पाण्डव इतिसम्बोधनेन ज्ञानयोग्यता निरूपिता। तस्मिन् सन्न्यासे विप्रयोगरसानुभवरूपे स्वाकाङ्क्षितफलत्यागो भवत्यतः संयोगसिद्धिः। अस्मिंस्तदभावान्न तत्सिद्धिरित्याह न हीति। असन्न्यस्तसङ्कल्पः न त्यक्तो मानसो नियमः स्वसुखानुभवरूपो येन तादृश कश्चन भावादिमानपि योगो न भवति। हीति युक्तश्चायमर्थः। यतः स्वसुखानुभवेच्छोः प्रभुसुखानुभवेच्छा नोदेति परस्परमुभयोः स्थितिरेकत्र न सम्भवति अतः स्वसुखानुभवरूपमानसनिश्चयत्यागवान् योगी भवतीति भावः।
।।6.2।।केन साम्येनायं संन्यासी योगी चेति स्तूयते अत आह यमिति। यो हि त्यक्तसर्वसंकल्पः स संन्यासी तादृशश्च ध्यानयोगी अतो न तयोर्भेदः।निःसंकल्पस्तटस्थस्तिष्ठेदेतन्मोक्षलक्षणम् इति मैत्रायणीयोपनिषच्छ्रुतस्य मोक्षलक्षणस्य निःसंकल्पत्वस्योभयत्रापि तुल्यत्वात्। अतोऽयमपि कर्मयोगी फलसंकल्पत्यागान्निःसंकल्पत्वसाम्यात्संन्यासी योगी च भवतीति स्तूयत इत्यर्थः। योगाधिकारसिद्धये निष्कामकर्माण्यनुष्ठेयानीति श्लोकद्वयतात्पर्यार्थः।
।।6.2।।गौणप्रयोगे निमित्तभूतं गुणयोगमेव दर्शयितुमाह यमिति। यं सर्वकर्मतत्फलत्यागलक्षणं परमार्थसंन्यासं श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणानि प्राहुः योगं फलाभिसंधिरहितकर्मानुष्ठानलक्षणं तं परमार्थसंन्यासं विद्धि फलविषयसंकल्पत्यागरुपगुणयोगाज्जनीहि। यथा भवान् वस्तुत इन्द्रसुतोऽपि पाण्डुक्षेत्रे जातत्वात्पाण्डव इति लोकैरुच्यते तथेतिगुढाभिप्रायेण संबोधयति हे पाण्डवेति। गुणयोगमेवाह। हि यस्मादसंन्यस्तसंकल्पः अत्यक्तफलाभिसंधिः कश्चन कश्चिदपि कर्मयोगी समाधानवान् न भवति संन्यस्तसंकल्प एव योगी भवतीत्यर्थः। चित्तविक्षेपहेतोः फलसंकल्पस्य संन्यस्तत्वादित्यभिप्रायः। योगाङ्गत्वेन कर्मानुष्ठानात् कर्मफलसंकल्पस्य च चित्तविक्षेपहेतोः परित्यागात् योगित्वं संन्यासित्वं चोत्यते। यत्त्वपरे एवं कर्मयोगसंन्यासयोर्भेदमङ्गीकृत्याविरोधेन स्तुतिरुक्ता। इदानीं तयोरैक्येनैव स्तुतिमारभते यमिति। इत्यतस्तं योगं कर्मयोगं विद्धि यं संन्यासं प्रकर्षेणाहुः। प्रकर्षस्तु कर्मस्वरुपत्यागोऽलसस्यापि संभाव्यते। कर्मानुतिष्ठतः फलसंकल्पत्यागस्तु दुर्लभतर इत्येवंलक्षणो ज्ञेयः। अतः कुत इत्यत उक्तम्। हि यस्मात्कश्चन योगी कर्मयोगी ज्ञानयोगी वाऽसंन्यस्तसंकल्पो न भवति संन्यस्तसंकल्प एव योगितां पतिपद्यत इति भावः। अतस्तयोः स्वीयस्वीयस्वरुपवदन्योन्यव्यभिचाराभावादैक्यान्न विरोध इति भाव इति तन्मन्दम्। संन्यासनिष्कामकर्मयोगयोरैक्येनैव स्तुतिमारभत इत्युत्थानिकया तं कर्मयोगं विद्धि यं संन्यासमित्यादिव्याख्यानस्य संन्यासापेक्षया कर्मयोगप्रकर्षबोधकस्य विरोधात्। किंच संन्यासकर्मयोगयोः सिंहमाणवकयोरिवैक्यं न संभवति किंतु माणवके सिंहशब्दप्रयोग इव निष्कामकर्मयोगे संन्यासशब्दप्रयोगो गौण एवेति दिक्।
6.2 यम् which? संन्यासम् renunciation? इति thus? प्राहुः (they) call? योगम् Yoga? तम् that? विद्धि know? पाण्डव O Pandava? न not? हि verily? असंन्यस्तसङ्कल्पः one who has not renounced thoughts? योगी Yogi? भवति becomes? कश्चन anyone.Commentary Sankalpa is the working of the imagining faculty of the mind that makes plans for the future and guesses the results of plans so formed. No one can become a Karma Yogi who plans and schemes and expects fruits for his actions. No devotee of action who has not renounced the thought of the fruits of his actions can become a Yogi of steady mind. The thought of the fruits will certainly make the mind unsteady.Lord Krishna eulogises Karma Yoga here because it is the means or an external aid (Bahiranga Sadhana) to Dhyana Yoga. Karma Yoga is a steppingstone to Dhyana Yoga. It leads to the Yoga of Meditation in due course. In order to encourage the practice of Karna Yoga it is stated here that Karma Yoga is Sannyasa. (Cf.V.4)
6.2 Do thou, O Arjuna, know Yoga to be that which they call renunciation; no one verily becomes a Yogi who has not renounced thoughts.
6.2 O Arjuna! Renunciation is in fact what is called Right Action. No one can become spiritual who has not renounced all desire.
6.2 That which they call monasticism, know that to be Yoa, O Pandava, For, nobody who has not given up expectations can be a yogi.
6.2 Yam, that which is characterized by the giving up of all actions and their results; which prahuh, they, the knowers of the Vedas and the Smrtis, call; sannyasam iti, monasticism, in the real sense; viddhi, known; tam, that monasticism in the real sense; to be yogam, Yoga, consisting in the performance of actions, O Pandava. Accepting what kind of similarity between Karma-yoga, which is characterized by engagement (in actions), and its opposite, renunciation in the real sense, which is characterized by cessation from work, has their eation been stated? When such an apprehension arises, the answer is this; From the point of view of the agent, there does exist a simialrity of Karma-yoga with real renunciation. For he who is a monk in the real sense, from the very fact of his having given up all the means needed for accomplishing actions, gives up the thought of all actions and their results-the source of desire that leads to engagement in work. [Thoughts about an object lead to the desire for it, which in turn leads to actions for getting it. (Also see note under 4.19)] also, even while performing actions, gives up the thought for results. Pointing out this idea, the Lord says: Hi, for; kascit, nobody, no man of action whosoever; asannyasta-sankalpah, who has not given up expactaions-one by whom has not been renounced expectation, anticipation, of results;bhavati, becomes, i.e. can become; yogi, a yogi, a man of concentration, because thought of results is the cause of the disturbance of mind. Therefore, any man of action who gives up the thought of results would become a yogi, a man of concentration with an unperturbed mind, because of his having given up thought of results which is the cause of mental distractions. This is the purport. Thus, because of the similarity of real monasticism with Karma-yoga from the point of veiw of giving up by the agent, Karma-yoga is extolled as monasticism in, 'That which they call monasticism, know that to be Yoga, O Pandava.' Since Karma-yoga, which is independent of results, is the remote help to Dhyana-yoga, therefore it has been praised as monasticism. Thereafter, now the Lord shows how Karma-yoga is helpful to Dhyana-yoga:
6.2. What [the learned] call renunciation, O son of Pandu, know that to be [the same as] the Yoga. For without renouncing intention [for fruit], one does not become a man of Yoga.
6.1-2 The subject matter that has been thus established in the series of the preceding chapters is summarised by a couple of verses. Anasritah etc. Yam etc. Bounden : Ordained [in the law books] according to one's caste etc. [Thus] man-lf-renunciation and man-of-Yoga are synonyms. That is why [the Lord] says, 'what [the learned] call renunciation' etc. Therefore, without Yoga no renunciation is possible. Similarly Yoga is not possible without renouncing the intention [for fruit]. Conseently, the Yoga and renunciation are ever interlinked. The idea, suggested by 'not he who remains [simply] without his fires etc.' is this : He remains neither without fires, nor without actions and yet he is man of renunciation, Hence this is strange. Of course, following the principle [involved in the statement] 'Playing dice is the kingship, without throne', and following logic it has been asserted already that renunciation is not possible for a person who remains simply without actions. Yet-
6.2 Know Karma Yoga only to be that which they call as Sannyasa i.e., as Jnana Yoga or knowledge of the real nature of the self. Sri Krsna substantiates this by the words, 'For no one whose delusive identification of the body with the self is not abandoned, becomes a true Karma Yogin.' 'One whose delusion is abandoned is one by whom the delusion of identifying the self with Prakrti (body), which is in reality distinct from the self, is not rejected by the contemplation of the real nature of the self. One who is not of this kind is one whose delusion is not abandoned. One who is not of this kind cannot become a Karma Yogin of the type described here. It has already been said: 'He whose every undertaking is free from desire for fruits and delusive identification of the body with the self ৷৷.' (4.19). Sri Krsna now teaches that by Karma Yoga alone one succeeds in Yoga without the risk of fall.
6.2 That which is called Sannyasa (Jnana Yoga), know that to be Yoga (Karma Yoga), O Arjuna. For (among Karma Yogins) no one whose delusive identification of the body with the self is not abandoned, becomes a true Karma Yogin.
।।6.2।।इससे मुख्य संन्यासित्व और योगित्व इष्ट नहीं है। इसी भावको दिखलानेके लिये कहते हैं श्रुतिस्मृतिके ज्ञाता पुरुष सर्वकर्म और उनके फलके त्यागरूप जिस भावको वास्तविक संन्यास कहते हैं हे पाण्डव कर्मानुष्ठानरूप योगको ( निष्काम कर्मयोगको ) भी तू वही वास्तविक संन्यास जान। प्रवृत्तिरूप कर्मयोगकी उससे विपरीत निवृत्तिरूप परमार्थसंन्यासके साथ कैसी समानता स्वीकार करके एकता कही जाती है ऐसा प्रश्न होनेपर यह कहा जाता है परमार्थसंन्यासके साथ कर्मयोगकी कर्तृविषयक समानता है क्योंकि जो परमार्थसंन्यासी है वह सब कर्मसाधनोंका त्याग कर चुकता है इसलिये सब कर्मोंका और उनके फलविषयक संकल्पोंका जो कि प्रवृत्तिहेतुक कामके कारण है त्याग करता है। और यह कर्मयोगी भी कर्म करता हुआ फलविषयक संकल्पोंका त्याग करता ही है ( इस प्रकार दोनोंकी समानता है ) इस अभिप्रायको दिखलाते हुए कहते हैं जिसने फलविषयक संकल्पोंका यानी इच्छाओंका त्याग न किया हो ऐसा कोई भी कर्मी योगी नहीं हो सकता। अर्थात् ऐसे पुरुषका चित्त समाधिस्थ होना सम्भव नहीं है क्योंकि फलका संकल्प ही चित्तके विक्षेपका कारण है। इसलिये जो कोई कर्मी फलविषयक संकल्पोंका त्याग कर देता है वही योगी होता है। अभिप्राय यह है कि चित्तविक्षेपका कारण जो फलविषयक संकल्प है उसके त्यागसे ही मनुष्य समाधानयुक्त यानी चित्तविक्षेपसे रहित योगी होता है। इस प्रकार परमार्थसंन्यासकी और कर्मयोगकी कर्त्ताके भावसे सम्बन्ध रखनेवाली जो त्यागविषयक समानता है उसकी अपेक्षासे ही कर्मयोगकी स्तुति करनेके लिये यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव इस श्लोकमें उसे संन्यास बतलाया है।
।।6.2।। यं सर्वकर्मतत्फलपरित्यागलक्षणं परमार्थसंन्यासं संन्यासम् इति प्राहुः श्रुतिस्मृतिविदः योगं कर्मानुष्ठानलक्षणं तं परमार्थसंन्यासं विद्धि जानीहि हे पाण्डव। कर्मयोगस्य प्रवृत्तिलक्षणस्य तद्विपरीतेन निवृत्तिलक्षणेन परमार्थसंन्यासेन कीदृशं सामान्यमङ्गीकृत्य तद्भाव उच्यते इत्यपेक्षायाम् इदमुच्यते अस्ति हि परमार्थसंन्यासेन सादृश्यं कर्तृद्वारकं कर्मयोगस्य। यो हि परमार्थसंन्यासी स त्यक्तसर्वकर्मसाधनतया सर्वकर्मतत्फलविषयं संकल्पं प्रवृत्तिहेतुकामकारणं संन्यस्यति। अयमपि कर्मयोगी कर्म कुर्वाण एव फलविषयं संकल्पं संन्यस्यति इत्येतमर्थं दर्शयिष्यन् आह न हि यस्मात् असंन्यस्तसंकल्पः असंन्यस्तः अपरित्यक्तः फलविषयः संकल्पः अभिसंधिः येन सः असंन्यस्तसंकल्पः कश्चन कश्चिदपि कर्मी योगी समाधानवान् भवति न संभवतीत्यर्थः फलसंकल्पस्य चित्तवेक्षेपहेतुत्वात्। तस्मात् यः कश्चन कर्मी संन्यस्तफलसंकल्पोभवेत् स योगी समाधानवान् अविक्षिप्तचित्तो भवेत् चित्तविक्षेपहेतोः फलसंकल्पस्य संन्यस्तत्वादित्यभिप्रायः।।एवं परमार्थसंन्यासकर्मयोगयोः कर्तृद्वारकं संन्याससामान्यमपेक्ष्य यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव इति कर्मयोगस्य स्तुत्यर्थं संन्यासत्वम् उक्तम्। ध्यानयोगस्य फलनिरपेक्षः कर्मयोगो बहिरङ्गं साधनमिति तं संन्यासत्वेन स्तुत्वा अधुना कर्मयोगस्य ध्यानयोगसाधनत्वं दर्शयति
।।6.2।।ननु सन्न्यासयोगौ भिन्नलक्षणौ तत्कथं तयोरैक्यमुच्यते इत्यत आह सन्न्यासोऽपीति। सन्न्यासी च योगी चेत्युक्त्या प्राप्तात्यन्तभेदशङ्कानिवृत्त्यर्थमिति शेषः। अमुख्ययोगापेक्षया पृथगुक्तोऽपीत्यपेरर्थः। योगशब्देन मुख्योऽत्राभिहितः। अतएव वक्ष्यत्युपायवानिति अन्तर्भूतत्वादैक्योक्तिरित्यर्थः। सन्न्यासस्य योगान्तर्भूतत्वमुपपाद्यते न हीति। तदसत् सङ्कल्पत्यागमात्रस्यासन्न्यासत्वात्। ईश्वराराधनाय स्वकर्मकरणमात्रं योगः तस्य सन्न्यासाभावेऽप्युपपत्तेरित्यत आह कामेति। सङ्कल्पशब्दस्य कामाद्युपलक्षणत्वाद्योगशब्दस्य ज्ञानोपायरूपमुख्ययोगार्थत्वान्नानुपपत्तिरिति भावः।
।।6.2।।सन्न्यासोऽपि योगान्तर्भूत इत्याह यं सन्न्यासमिति। कामसङ्कल्पाद्यपरित्यागे कथमुपायवान्स्यात् इत्याशयः।
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव। न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन।।6.2।।
যং সংন্যাসমিতি প্রাহুর্যোগং তং বিদ্ধি পাণ্ডব৷ ন হ্যসংন্যস্তসঙ্কল্পো যোগী ভবতি কশ্চন৷৷6.2৷৷
যং সংন্যাসমিতি প্রাহুর্যোগং তং বিদ্ধি পাণ্ডব৷ ন হ্যসংন্যস্তসঙ্কল্পো যোগী ভবতি কশ্চন৷৷6.2৷৷
યં સંન્યાસમિતિ પ્રાહુર્યોગં તં વિદ્ધિ પાણ્ડવ। ન હ્યસંન્યસ્તસઙ્કલ્પો યોગી ભવતિ કશ્ચન।।6.2।।
ਯਂ ਸਂਨ੍ਯਾਸਮਿਤਿ ਪ੍ਰਾਹੁਰ੍ਯੋਗਂ ਤਂ ਵਿਦ੍ਧਿ ਪਾਣ੍ਡਵ। ਨ ਹ੍ਯਸਂਨ੍ਯਸ੍ਤਸਙ੍ਕਲ੍ਪੋ ਯੋਗੀ ਭਵਤਿ ਕਸ਼੍ਚਨ।।6.2।।
ಯಂ ಸಂನ್ಯಾಸಮಿತಿ ಪ್ರಾಹುರ್ಯೋಗಂ ತಂ ವಿದ್ಧಿ ಪಾಣ್ಡವ. ನ ಹ್ಯಸಂನ್ಯಸ್ತಸಙ್ಕಲ್ಪೋ ಯೋಗೀ ಭವತಿ ಕಶ್ಚನ৷৷6.2৷৷
യം സംന്യാസമിതി പ്രാഹുര്യോഗം തം വിദ്ധി പാണ്ഡവ. ന ഹ്യസംന്യസ്തസങ്കല്പോ യോഗീ ഭവതി കശ്ചന৷৷6.2৷৷
ଯଂ ସଂନ୍ଯାସମିତି ପ୍ରାହୁର୍ଯୋଗଂ ତଂ ବିଦ୍ଧି ପାଣ୍ଡବ| ନ ହ୍ଯସଂନ୍ଯସ୍ତସଙ୍କଲ୍ପୋ ଯୋଗୀ ଭବତି କଶ୍ଚନ||6.2||
yaṅ saṅnyāsamiti prāhuryōgaṅ taṅ viddhi pāṇḍava. na hyasaṅnyastasaṅkalpō yōgī bhavati kaścana৷৷6.2৷৷
யஂ ஸஂந்யாஸமிதி ப்ராஹுர்யோகஂ தஂ வித்தி பாண்டவ. ந ஹ்யஸஂந்யஸ்தஸங்கல்போ யோகீ பவதி கஷ்சந৷৷6.2৷৷
యం సంన్యాసమితి ప్రాహుర్యోగం తం విద్ధి పాణ్డవ. న హ్యసంన్యస్తసఙ్కల్పో యోగీ భవతి కశ్చన৷৷6.2৷৷
6.3
6
3
।।6.3।। जो योग-(समता-) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ़ मनुष्यका शम (शान्ति) परमात्मप्राप्तिमें कारण कहा गया है।
।।6.3।। योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मुनि के लिए कर्म करना ही हेतु (साधन) कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उसी पुरुष के लिए शम को (शांति, संकल्पसंन्यास) साधन कहा गया है।।
।।6.3।। ध्यानयोग पर आरूढ़ होने के इच्छुक व्यक्ति के लिए प्रथम साधन कहा गया है कर्म। जगत् में कर्तृत्व के अभिमान और फलासक्ति का त्याग करके कर्म करने से पूर्व संचित वासनाओं का क्षय होता है और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं।यहाँ योगारूढ़ होने के विषय को स्पष्ट करने के लिए अश्वारोहण (घोड़े की सवारी) के अत्यन्त उपयुक्त रूपक का प्रयोग किया गया है। जब मनुष्य किसी स्वच्छंद अश्व पर पहली बार सवार होने का प्रयत्न करता है तब पहले तो वह अश्व ही उस पर सवार हो जाता है यदि कोई व्यक्ति युद्ध के अश्व को अपने पूर्णवश में करना चाहे तो कुछ काल तक उसे उस अश्व पर सवार होने का प्रयास करना पड़ता है। एक पैर को पायदान पर रखकर जीन पर झूलते हुए दूसरे पैर को पृथ्वी से उठाकर (उछलकर) अश्व की पीठ पर बैठने और उसे अपने वश में करने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। एक बार उस पर सवार हो जाने के बाद उसे अपने वश में रखना सरल काय्र्ा है परन्तु तब तक अश्वारोही को उस अवस्था में से गुजरना पड़ता है जब तक वह पूर्णरूप से न अश्व पर बैठा होता है और न पृथ्वी पर खड़ा होता है।प्रारम्भ में हम केवल कर्म करने वाले होते हैं अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुए हम परिश्रम करते हैं पसीना बहाते हैं रोते हैं हँसते हैं। जब व्यक्ति इस प्रकार के कर्मों से थक जाता है तब वह मनोरूप अश्व पर आरूढ़ होना चाहता है। ऐसे ही व्यक्ति को कहते हैं आरुरुक्ष (आरूढ़ होने की इच्छा वाला)। वह पुरुष कर्म तो पूर्व के समान ही करता है परन्तु अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर। यज्ञ भावना से किये गये कर्म वासनाओं को नष्ट करके अन्तकरण को शुद्ध एवं सुसंगठित कर देते हैं। ऐसे शुद्धान्तकरण वाले साधक को शनैशनै कर्म से निवृत्त होकर ध्यान का अभ्यास अधिक करना चाहिए। जब वह मन पर विजय प्राप्त करके उसकी प्रवृत्त्ायों को अपने वश में कर लेता है तब वह योगारूढ़ कहा जाता है। मन के समत्व प्राप्त योगारूढ़ व्यक्ति के लिए ज्ञानरूप शम अर्थात् शांति वह साधन है जिसके द्वारा वह अपने पूर्णस्वरूप में स्थित हो सकता है।इस प्रकार एक ही व्यक्ति के लिए उसके विकास की अवस्थाओं को देखते हुए कर्म और ध्यान की दो साधनाएँ बतायी गयी हैं जो परस्पर विरोधी नहीं है । एक अवस्था में निष्काम कर्मों का आचरण उपयुक्त है तथापि कुछ काल के पश्चात् वह भी कभीकभी मनुष्य की शांति को भंग करके उसे मानो पृथ्वी पर पटक देता है। दुग्ध चूर्ण को पानी में घोलकर बनाया हुआ पतला दूध एक छोटे से शिशु के लिए तो पुष्टिवर्धक होता है परन्तु दूध की वह बोतल बड़े बालक के लिए पर्याप्त नहीं होती जो दिन भर खेलता है और काम करता है। उसे मक्खन और रोटी की आवश्यकता होती है। किन्तु यही रोटी शिशु के लिए प्राणघातक हो सकती है।इसी प्रकार साधना की प्रारम्भिक अवस्था में निष्काम कर्म समीचीन है परन्तु और अधिक विकसित हुए साधक को आवश्यक है आत्मचिन्तनरूप निदिध्यासन। पहले अहंकार रहित कर्म साधन है और तत्पश्चात् आत्मस्वरूप का ध्यान। इस ध्यानाभ्यास की आवश्यकता तब तक होती है जब तक साधक निश्चयात्मक रूप से यह अनुभव न कर ले कि शुद्ध आत्मा ही पारमार्थिक सत्य वस्तु है न कि अहंकार। तत्पश्चात् वह कर्म करे अथवा न करे उसे इस ज्ञान की विस्मृति नहीं होती।इस प्रकार आत्मोन्नति के मार्ग में कर्मों का एक निश्चित स्थान होना सिद्ध होता है और उसी प्रकार इसका उपदेश देने वाले मनीषियों की बुद्धिमत्ता भी प्रमाणित होती है।कब यह साधक योगरूढ़ बन जाता है उत्तर है
।।6.3।। व्याख्या--'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते'--जो योग-(समता-) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगीके लिये (योगारूढ़ होनेमें) निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्म करना कारण है। तात्पर्य है कि करनेका वेग मिटानेमें प्राप्त कर्तव्य-कर्म करना कारण है; क्योंकि कोई भी व्यक्ति जन्मा है, पला है और जीवित है तो उसका जीवन दूसरोंकी सहायताके बिना चल ही नहीं सकता। उसके पास शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्तक कोई ऐसी चीज नहीं है, जो प्रकृतिकी न हो। इसलिये जबतक वह इन प्राकृत चीजोंको संसारकी सेवामें नहीं लगाता, तबतक वह योगारूढ़ नहीं हो सकता अर्थात् समतामें स्थित नहीं हो सकता; क्योंकि प्राकृत वस्तुमात्रकी संसारके साथ एकता है, अपने साथ एकता है ही नहीं। प्राकृत पदार्थोंमें जो अपनापन दीखता है, उसका तात्पर्य है कि उनको दूसरोंकी सेवामें लगानेका दायित्व हमारेपर है। अतः उन सबको दूसरोंकी सेवामें लगानेका भाव होनेसे सम्पूर्ण क्रियाओंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जायगा और वह स्वयं योगारूढ़ हो जायगा। यही बात भगवान्ने दूसरी जगह अन्वय-व्यतिरेक रीतिसे कही है कि यज्ञके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेवालोंके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं अर्थात् किञ्चिन्मात्र भी बन्धनकारक नहीं होते (गीता 4। 23) और यज्ञसे अन्यत्र अर्थात् अपने लिये किये गये कर्म बन्धनकारक होते हैं (गीता 3। 9)।योगारूढ़ होनेमें कर्म कारण क्यों हैं? क्योंकि फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें हमारी समता है या नहीं, उसका हमारेपर क्या असर पड़ता है--इसका पता तभी लगेगा, जब हम कर्म करेंगे। समताकी पहचान कर्म करनेसे ही होगी। तात्पर्य है कि कर्म करते हुए यदि हमारेमें समता रही, राग-द्वेष नहीं हुए, तब तो ठीक है; क्योंकि वह कर्म 'योग' में कारण हो गया। परन्तु यदि हमारेमें समता नहीं रही, राग-द्वेष हो गये; तो हमारा जडताके साथ सम्बन्ध होनेसे वह कर्म 'योग' में कारण नहीं बना।
।।6.3।।यद्यपि द्यूतम् (N हतम्) असिंहासननं राज्यम् इति रीत्या युक्त्या च केवलस्य निष्क्रियस्य संन्यासित्वं नोपपद्यते (K उपपद्यते) इत्युक्तम्। तथापि आरुरुक्षोरिति मुनेः ज्ञानवतः कर्म करणीयम् कारणं प्रापकम्। शमः प्राप्तभूमावुपरमः (NK भूमावनुपरमः)। कारणमत्र लक्षणम्।
।।6.3।।योगम् आत्मावलोकनं प्राप्तुम् इच्छोः मुमुक्षोः कर्मयोग एव कारणम् उच्यते तस्य एव योगारूढस्य प्रतिष्ठितयोगस्य एव शमः कर्मनिवृत्तिः कारणम् उच्यते। यावदात्मावलोकनरूपमोक्षप्राप्तिः तावत्कर्म कार्यम् इत्यर्थः।कदा प्रतिष्ठितयोगो भवति इत्यत्र आह
।।6.3।।परमार्थसंन्यासस्य कर्मयोगान्तर्भावे कर्मयोगस्यैव सदा कर्तव्यत्वमापद्येत तेनेतरस्यापि कृतत्वसिद्धेरित्याशङ्क्योक्तानुवादपूर्वकमुत्तरश्लोकतात्पर्यमाह ध्यानयोगस्येति। भाविन्या वृत्त्या मुनेर्योगमारोढुमिच्छोरिष्यमाणस्य योगारोहणस्य कर्म हेतुश्चेदपेक्षितं योगमारूढस्यापि तत्फलप्राप्तौ तदेव कारणं भविष्यति तस्य कारणत्वे क्लृप्तशक्तित्वादित्याशङ्क्याह योगारूढस्येति। अनारूढस्येत्येतस्यैवार्थं स्फुटयति ध्यानेति। मुनित्वं कर्मफलसंन्यासिन्यौपचारिकमित्याह कर्मफलेति। साधनं चित्तशुद्धिद्वारा ध्यानयोगप्राप्तीच्छायामिति शेषः। तस्येति प्रकृतस्य कर्मिणो ग्रहणम्। एवकारो भिन्नक्रमः शमशब्देन संबध्यते। कस्यान्ययोगव्यवच्छेदेन शमो हेतुरिति तत्राह योगारूढत्वस्येति। सर्वव्यापारोपरमरूपोपशमस्य योगारूढत्वे कारणत्वं विवृणोति यावद्यावदिति। सर्वकर्मनिवृत्तावायासाभावाद्वशीकृतस्येन्द्रियग्रामस्य चित्तसमाधाने योगारूढत्वं सिध्यतीत्यर्थः। सर्वकर्मोपरमस्य पुरुषार्थसाधनत्वे पौराणिकीं संमतिमाह तथाचेति। एकता सर्वेषु भूतेषु वस्तुतो द्वैताभावोपलक्षितत्वमिति प्रतिपत्तिः। समता तेष्वेवौपाधिकविशेषेऽपि स्वतो निर्विशेषत्वधीः। सत्यता तेषामेव हितवचनम्। शीलं स्वभावसंपत्तिः। स्थितिः स्थैर्यम्। दण्डनिधानमहिंसनम्। आर्जवमवक्रत्वम्। क्रियाभ्यः सर्वाभ्यः सकाशादुपरतिश्चेत्येतदुक्तं सर्वं यथा यादृशमेतादृशं नान्यद्ब्राह्मणस्य वित्तं पुमर्थसाधनमस्ति तस्मादेतदेवास्य निरतिशयं पुरुषार्थसाधनमित्यर्थः।
।।6.3।।तत्र योगेऽपि साङ्ख्यवत्कर्त्तव्यव्यवस्थामाह आरुरुक्षोरिति। योगमात्मसंयमनं पदमारुरुक्षोरधिकारिणस्त्वादृशस्योक्तरीत्या कर्म स्वधर्मकरणं तदारोहे कारणमुच्यते। तस्यैव योगारूढस्य सतः सर्वतः संयतचेतसः शमः समस्तसङ्कल्पपरित्यागस्तद्दाढर्ये कारणं स्थूणाखननवन्मतं योगारूढतया सिद्धत्वात्।
।।6.3।।तत्किं प्रशस्तत्वात्कर्मयोग एव यावज्जीवमनुष्ठेय इति नेत्याह योगमन्तःकरणशुद्धिरूपं वैराग्यमारुरुक्षोरारोढुमिच्छोर्न त्वारूढस्य मुनेर्भविष्यतः कर्मफलतृष्णात्यागिनः कर्म शास्त्रविहितमग्निहोत्रादि नित्यं भगवदर्पणबुद्ध्या कृतं कारणं योगारोहणे साधनमनुष्ठेयमुच्यते वेदमुखेन मया। योगारूढस्य योगमन्तःकरणशुद्धिरूपं वैराग्यं प्राप्तवतस्तु तस्यैव पूर्वं कर्मिणोऽपि सतः शमः सर्वकर्मसंन्यासएव कारणमनुष्ठेयतया ज्ञानपरिपाकसाधनमुच्यते।
।।6.3।।तर्हि यावज्जीवं कर्मयोग एव प्राप्त इत्याशङ्क्य तस्यावधिमाह आरुरुक्षोरिति। ज्ञानयोगमारोढुं प्राप्तुमिच्छोः पुंसस्तदारोहे कारणं कर्मोच्यते चित्तशुद्धिकरत्वात्। ज्ञानयोगमारूढस्य तु तस्यैव ज्ञाननिष्ठस्य शमः समाधिश्चित्तविक्षेपकर्मोपरमो ज्ञानपरिपाके कारणमुच्यते।
।।6.3।।आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते इत्यत्र विशेषविधिः शेषनिषेधपर इत्यभिप्रायेणाह कर्मयोग एवेति। कर्मयोगमात्रसाध्यो हि योगः न परमात्मावलोकनमित्यभिप्रायेणाह आत्मावलोकनमिति।आमोक्षाद्यत्किञ्चित्कर्म कर्तव्यमित्यभिप्रायेणाह मुमुक्षोरिति। आत्मावलोकनस्यात्र मोक्षकल्पतया मोक्षशब्दोपचारः।योगारूढस्य इति युक्तावस्थाविषयत्वभ्रमव्युदासायप्रतिष्ठितयोगस्येत्युक्तम्।कर्म कारणं इत्युक्तकर्मप्रतियोगिकः शमस्तन्निवृत्तिरेवात्र भवितुमर्हतीत्यभिप्रायेणशमः कर्मनिवृत्तिरित्युक्तम्। एतेनमुनिरत्र परिव्राजकः शमश्च पारिव्रज्यारूपः इति परोक्तं निरस्तम्। ननु प्रतिष्ठितयोगस्य किं कारणापेक्षया न ह्यन्यदस्य कार्यमस्तीति शङ्कायांयोगारूढस्य इत्यादिना कर्मनिवृत्तिविधानं ततः पूर्वमनिवृत्त्यभिप्रायमिति दर्शयति यावदिति।
।।6.3।।ननु स्वसुखानुभवसङ्कल्पत्यागः सिद्धस्य भवति साधनदशापन्नस्य किं कर्त्तव्यं इत्यत आह आरुरुक्षोरिति। योगं आरुरुक्षोः संयोगरसप्राप्तीच्छोर्मुनेर्मननशीलस्य कारणं कर्म सेवात्मकमनुकारणरूपमुच्यते कथ्यत इत्यर्थः तस्यैव सेवादिकरणेन योगारूढस्य संयोगरसव्याप्तमनसः शमः अनुकरणादिकृतिरहितभावनाप्रवणस्थितिः कारणमुच्यते कथ्यते तत्प्राप्त्यर्थमिति शेषः।
।।6.3।।तत्र कर्मानुष्ठानस्यावधिमाह आरुरुक्षोरिति। यावद्धि योगं यमनियमाद्यष्टाङ्गोपेतमत्यौत्कण्ठ्यादारोढुमिच्छति तावत्कर्माण्यनुतिष्ठेत्। तस्यारुरुक्षोर्मुनेरारुरुक्षाकारणं तीव्रवैराग्योत्पादनद्वारा कर्म भवति। तस्यैव योगारूढस्य योगाङ्गानुष्ठाने प्रवृत्तस्य विक्षेपासहस्य योगारोहे कर्मणां शमः संन्यासः कारणमुच्यते। नहि कर्मसु व्यापृतोऽनन्यचित्ततया योगमनुष्ठातुमीष्टे।
।।6.3।।किं प्रशस्तत्वाद्यावज्जीवं कर्मयोग एवानुष्ठेय इत्याशङ्कायां ध्यानयोगाधिकारसंपत्तिपर्यन्तमवधिमभिप्रेत्य कर्मयोगस्य ध्नायोगसाधनत्वप्रदर्शनेन उत्तरमाह आरुरुक्षोरिति। योगं ध्यानयोगमारुक्षोरारोढुमिच्छोर्ध्यानयोगेऽवस्थातुमसमर्थस्य। यत्तु योगं ज्ञानयोगमिति तन्न। ध्यानयोगस्यैव प्रक्रान्तत्वात्। कस्यारुरुक्षोः मुनेः। कर्मफलसंन्यासिन इत्यर्थः। यत्तु मनेर्निदिध्यासनाख्यज्ञानयोगवतः श्रवणमननक्रमेण योगमारुरुक्षोरिति तन्न। निदिध्यासनवतः पुनः श्रवणमननक्रमस्यानपेक्षणात् तयोर्निदिध्यासनार्थत्वात्। कर्मफलाभिसंधिरहितं कारणं साधनमुच्यते। तस्यैव पूर्वं कर्मिणः पश्चाद्योगारुढस्य प्राप्तध्यानयोगस्य शम उपशमः सर्वकर्मभ्यो निवृत्तिः कारणं योगारुढताया आत्मसाक्षात्कारनिर्विकल्पसमाधिपर्यन्तायाः साधनमुच्यते। एतेन योगमन्तःकरणशुद्धिरुपं वैराग्यं आरुरुक्षोर्नत्वारुढस्य मुनेर्भविष्यतः कर्मफलतृष्णात्यागिनः कर्म कारणं योगारोहणे साधनमनुष्ठेयमुच्यते। योगारुढस्य योगं पूर्वोक्तं प्राप्तवतस्तु तस्यैव शमः सर्वकर्मसंन्यास एव कारणमनुष्ठेयतया ज्ञानपरिपाकसाधनमुच्यत इति प्रत्युक्तम। ध्यानयोगस्यैवास्मिन्नध्याये वर्णनीयत्वेन तत्पक्षे श्लोकस्य सभ्यगुपपत्त्या वर्णनीयार्थम। श्रोतं विहायाश्रौतार्थवर्णनस्यानुचितत्वात्।योगसूत्रं त्रिभिः श्लोकैः पञ्चमान्ते यदीरितम्। षष्ठ आरभ्यतेऽध्यायस्तह्याख्यानाय विस्तरात्।। तत्र सर्वकर्मत्यागेन योगं विधास्यंस्त्याज्यत्वेन हीनत्वमाशङ्क्य कर्मयोगं द्वाभ्यां स्तुतवानिति स्वपूर्वग्रन्थादप्यस्मिन् तृतीयश्लोके ध्यानयोगविधानवर्णनस्यावश्यकत्वात्। कदा योगारुढो भवतीत्युच्यत इत्युत्तरश्लोकमवतार्य योगं समाधिमारुढो योगारुढ इत्युच्यत इति योगारुढशब्दार्थप्रदर्शनपरस्वग्रन्थतन्मूलविरोधाच्च।
6.3 आरुरुक्षोः wishing to climb? मुनेः of a Muni or sage? योगम् Yoga? कर्म action? कारणम् the cause? उच्यते is said? योगारूढस्य of one who has attained to Yoga? तस्य of him? एव even? शमः inaction (iescence)? कारणम् the cause? उच्यते is said.Commentary For a man who cannot practise meditation for a long time and who is not able to keep his mind steady in meditation? action is a means to get himself enthroned in Yoga. Action purifies his mind and makes the mind fit for the practice of steady meditation. Action leads to steady concentration and meditation.For the sage who is enthroned in Yoga? Sama or renunciation of actions is said to be the means.The more perfectly he abstains from actions? the more steady his mind is? and the more peaceful,he is? the more easily and thoroughly does his mind get fixed in the Self. For a Brahmana there is no wealth like unto the knowledge of oneness and homogeneity (of the Self in all beings)? truthfulness? good character? steadiness? harmlessness? straightforwardness and renunciation of all actions. (Mahabharata? Santi Parva? 175.38)
6.3 For a sage who wishes to attain to Yoga, action is said to be the means; for the same sage who has attained to Yoga, inaction (iescence) is said to be the means.
6.3 For the sage who seeks the heights of spiritual meditation, practice is the only method, and when he has attained them, he must maintain himself there by continual self-control.
6.3 For the sage who wishes to ascend to (Dhyana-) yoga, action is said to be the means. For that person, when he has ascended to (Dhyana-)yoga, inaction alone is said to be the means.
6.3 Aruruksoh, for one who wishes to ascend, who has not ascended, i.e. for that very person who is unable to remain established in Dhyana-yoga;-for which person who is desirous to ascend?-munch, for the sage, i.e. for one who has renounced the results of actions;-trying to ascend to what?-yogam, to (Dhyana-) yoga; karma, action; ucyate, is said to be; the karanam, means. Tasya, for that person, again; yoga-arudhasya, when he has ascended to (Dhyana-) yoga; samah, inaction, withdrawl from all actions; eva, alone; ucyate, is said to be; karanam, the means for remaining poised in the state of meditation. This is the meaning. To the extent that one withdraws from actions, the mind of that man who is at cease and self-controlled becomes concentrated. When this occurs, he at once becomes established in Yoga. And accordingly has it been said by Vyasa: 'For a Brahmana there is no wealth conparable to (the knowledge of) oneness, sameness, truthfulness, character, eipoise, harmlessness, straightforwardness and withdrawal from various actions' (Mbh. Sa. 175.37). After that, now is being stated when one becomes established in Yoga:
6.3. For a sage, who is desirous of mounting upon the Yoga, action is said to be the cause; for the same [sage], when he has mounted upon the Yoga, ietude is said to be the cause.
6.3 Aruruksoh etc for a sage : For a man of wisdom. Action : that which reires to be performed. Cause (1st) : a means to attain. Quietude : to remain uninterrupted at the stage [already] achieved. Here Cause (2nd) is an indicator. The same idea is made clear as-
6.3 Karma Yoga is said to be the means for an aspirant for release who 'seeks to climb the heights of Yoga,' i.e., the vision of the self. For the same person, when he has climbed the 'heights of Yoga,' i.e., when he is established in Yoga - tranility, i.e., freedom from actions is said to be the means. A man should perform actions until he has attained release (Moksa) in the form of the vision of the self. Full release comes only with the fall of the body. The 'vision of the self' referred to here is called Moksa by courtesy. When does not become established in Yoga? Sri Krsna replies:
6.3 Action is said to be the means for the sage who seeks to climb the heights of Yoga; but when he has climbed the heights of Yoga, tranillity is said to be the means.
।।6.3।।फलेच्छासे रहित जो कर्मयोग है वह ध्यानयोगका बहिरंग साधन है इस उद्देश्यसे उसकी संन्यासरूपसे स्तुति करके अब यह भाव दिखलाते हैं कि कर्मयोग ध्यानयोगका साधन है जो ध्यानयोगमें आरूढ़ नहीं ध्यानयोगमें स्थित नहीं रह सकता है ऐसे योगारूढ़ होनेकी इच्छावाले मुनि अर्थात् कर्मफलत्यागी पुरुषके लिये ध्यानयोगपर आरूढ़ होनेका साधन कर्म बतलाया गया है। तथा वही जब योगारूढ़ हो जाता है तो उसके लिये योगारूढ़ता ( ध्यानयोगमें सदा स्थित रहनेका ) साधन शम उपशम यानी सर्व कर्मोंसे निवृत्त होना बतलाया गया है। ( मनुष्य ) जितनाजितना कर्मोंसे उपरत होता जाता है उतनाउतना ही उस परिश्रमरहित जितेन्द्रिय पुरुषका चित्त समाहित होता जाता है। ऐसा होनेसे वह झटपट योगारूढ़ हो जाता है। व्यासजीने भी यही कहा है कि ब्राह्मणके लिये दूसरा ऐसा कोई धन नहीं है जैसा कि एकता समता सत्यता शील स्थिति अहिंसा आर्जव और उनउन क्रियाओंसे उपराम होना है।
।।6.3।। आरुरुक्षोः आरोढुमिच्छतः अनारूढस्य ध्यानयोगे अवस्थातुमशक्तस्यैवेत्यर्थः। कस्य तस्य आरुरुक्षोः मुनेः कर्मफलसंन्यासिन इत्यर्थः। किमारुरुक्षोः योगम्। कर्म कारणं साधनम् उच्यते। योगारूढस्य पुनः तस्यैव शमः उपशमः सर्वकर्मभ्यो निवृत्तिः कारणं योगारूढस्य साधनम् उच्यते इत्यर्थः। यावद्यावत् कर्मभ्यः उपरमते तावत्तावत् निरायासस्य जितेन्द्रियस्य चित्तं समाधीयते। तथा सति स झटिति योगारूढो भवति। तथा चोक्तं व्यासेन नैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति चित्तं यथैकता समता सत्यता च। शीलं स्थितिर्दण्डनिधानमार्जवं ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः (महा0 शान्ति0 175।37) इति।।अथेदानीं कदा योगारूढो भवति इत्युच्यते
।।6.3।।नन्वेवं समाधियोगस्याधिकारिणि निरूपितेतं प्रति समाधिरभिधेयः आरुरुक्षोरित्यादि किमर्थमुच्यते इत्यत आह कियदिति। समाधियोगाधिकारत्वेनोक्तं कर्म किं सकृदनुष्ठेयं उताफलप्राप्तेः इति प्रश्नार्थः। ननु योगो नाम नाश्वादिरिवारोढव्यः तत्कथमुच्यते योगमारुरुक्षोर्योगारूढस्येति तत्राह योगमिति। उपरिभवनसादृश्यादुपचार इत्यर्थः। उपायः समाधिरेव। समाधेः फलपरिमाणाद्यवच्छेदाभावात् कीदृशी सम्पूर्णता इत्यत आह अपरोक्षेति। साधनस्य हि पूर्णता साध्याय पर्याप्तत्वम्। अतो यावताऽपरोक्षज्ञानं सम्पद्यते तावत्त्वं सम्पूर्णत्वमिति भावः। ननु योगमारुरुक्षोः कर्म कारणं सन्निधानाद्योगारोहस्येति लभ्यते। कारणत्वाच्च तत्पर्यन्तं कर्तव्यमिति कार्यापेक्षया नियतपूर्वक्षणभावित्वात्कारणस्य। योगारूढस्य तु शमः किं प्रति कारणं ज्ञानस्य तत एव सिद्धेरित्यत आह कारणमिति। परमसुखं मुक्तिगतम्। नन्वयं प्रश्नोयदा ते मोहकलिलं 2।52 इति परिहृतः। मैवम्। तत्र ज्ञानार्थिनाऽत्र तु योगारोहार्थिनेति भेदात् तयोश्च साध्यसाधनयोः पृथक्त्वात्।अपरोक्षज्ञानिनः इति चानतिविप्रकर्षेणोक्तत्वात्। तथोक्तं ऐहिकमप्रस्तुतप्रतिबन्धः ब्र.सू.3।4।51 इति। अथवा योगारूढस्यापि कर्तव्यं वक्तुं प्रश्नोत्तरानुवादोऽयमिति। नन्वपरोक्षज्ञानिनोऽनाधेयातिशयस्य कथं शमः परमसुखकारणमुच्यते इत्यत आह अपरोक्षेति। उक्तं समर्थितं द्वितीये।समाध्यादि इत्यनेन शमशब्दार्थः समाधिरिति सूचितम्। तत्किं तस्यान्यत्कर्तव्यमेव नास्ति इत्यत आह तस्येति। सर्वोपशमेन सर्वविषयोपरतिलक्षणेनेति समाधौ शमशब्दं समर्थयितुमुक्तम्। कारणं सुखाभिवृद्धेः। तदविरोधेनान्यत्कार्यमिति भावः। यदि ज्ञानिनः समाधिरानन्दवृद्धेः कारणं तर्हि तमेव कुतो न कुर्युः कुतश्च व्याख्यानादौ प्रवर्तन्ते इत्यत आह तथापीति। भोक्तव्योपरमः प्रतिबन्धकप्रारब्धकर्मोपरमः। अन्यदा सम्यक् समाधिप्रतिबन्धककर्मानुपरमकाले। अत्रागमसम्मतिमाह तच्चेति। परं केवलम्। तेषामेव सम्यगेव समाधिश्च जायत इति योजना। वर्तयन्ति वर्तन्ते कालं नयन्तीति वा।
।।6.3।।कियत्कालं कर्म कर्त्तव्यं इत्यत आह आरुरुक्षोर्मुनेरिति। योगमारुरुक्षोपायसम्पूर्तिमिच्छोः। योगमारूढस्य सम्पूर्णोपायस्य अपरोक्षज्ञानिन इत्यर्थः। कारणं परमसुखकारणम्। अपरोक्षज्ञानिनोऽपि समाध्यादि फलमुक्तम् पृ.199200। तस्य सर्वोपशमेन समाधिरेव कारणं प्राधान्येनेत्यर्थः। तथापि यदा भोक्तव्योपरमस्तदैव सम्यगसम्प्रज्ञातसमाधिर्जायते अन्यदा तु भगवच्चरितादौ स्थितिः। तच्चोक्तम् ये त्वां पश्यन्ति भगवंस्त एव सुखिनः परम्। तेषामेव तु संक्रम्य समाधिर्जायते नृणाम्। भोक्तव्यकर्मण्यक्षीणे जपेन कथयाऽपि वा। वर्तयन्ति महात्मानस्तद्भक्तास्तत्परायणाः इति।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।।6.3।।
আরুরুক্ষোর্মুনের্যোগং কর্ম কারণমুচ্যতে৷ যোগারূঢস্য তস্যৈব শমঃ কারণমুচ্যতে৷৷6.3৷৷
আরুরুক্ষোর্মুনের্যোগং কর্ম কারণমুচ্যতে৷ যোগারূঢস্য তস্যৈব শমঃ কারণমুচ্যতে৷৷6.3৷৷
આરુરુક્ષોર્મુનેર્યોગં કર્મ કારણમુચ્યતે। યોગારૂઢસ્ય તસ્યૈવ શમઃ કારણમુચ્યતે।।6.3।।
ਆਰੁਰੁਕ੍ਸ਼ੋਰ੍ਮੁਨੇਰ੍ਯੋਗਂ ਕਰ੍ਮ ਕਾਰਣਮੁਚ੍ਯਤੇ। ਯੋਗਾਰੂਢਸ੍ਯ ਤਸ੍ਯੈਵ ਸ਼ਮ ਕਾਰਣਮੁਚ੍ਯਤੇ।।6.3।।
ಆರುರುಕ್ಷೋರ್ಮುನೇರ್ಯೋಗಂ ಕರ್ಮ ಕಾರಣಮುಚ್ಯತೇ. ಯೋಗಾರೂಢಸ್ಯ ತಸ್ಯೈವ ಶಮಃ ಕಾರಣಮುಚ್ಯತೇ৷৷6.3৷৷
ആരുരുക്ഷോര്മുനേര്യോഗം കര്മ കാരണമുച്യതേ. യോഗാരൂഢസ്യ തസ്യൈവ ശമഃ കാരണമുച്യതേ৷৷6.3৷৷
ଆରୁରୁକ୍ଷୋର୍ମୁନେର୍ଯୋଗଂ କର୍ମ କାରଣମୁଚ୍ଯତେ| ଯୋଗାରୂଢସ୍ଯ ତସ୍ଯୈବ ଶମଃ କାରଣମୁଚ୍ଯତେ||6.3||
ārurukṣōrmunēryōgaṅ karma kāraṇamucyatē. yōgārūḍhasya tasyaiva śamaḥ kāraṇamucyatē৷৷6.3৷৷
ஆருருக்ஷோர்முநேர்யோகஂ கர்ம காரணமுச்யதே. யோகாரூடஸ்ய தஸ்யைவ ஷமஃ காரணமுச்யதே৷৷6.3৷৷
ఆరురుక్షోర్మునేర్యోగం కర్మ కారణముచ్యతే. యోగారూఢస్య తస్యైవ శమః కారణముచ్యతే৷৷6.3৷৷
6.4
6
4
।।6.4।। जिस समय न इन्द्रियोंके भोगोंमें तथा न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पोंका त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है।
।।6.4।। जब (साधक) न इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में आसक्त होता है तब सर्व संकल्पों के संन्यासी को योगारूढ़ कहा जाता है।।
।।6.4।। स्वयं को साधनावस्था का अनुभव होने से एक साधक को आरुरुक्ष की स्थिति समझना कठिन नहीं है। साधक के लिए निष्काम कर्म साधन है। कर्मों का संन्यास तभी करना चाहिए जब मन के ऊपर पूर्ण संयम प्राप्त हो गया हो। इसके पूर्व ही कर्मों का त्यागना उतना ही हानिकारक होगा जितना कि योगारूढ़त्व की अवस्था को प्राप्त होने पर कर्मों से मन को क्षुब्ध करना। उस अवस्था में तो साधन है शम। स्वाभाविक ही योगारूढ़ के लक्षणों को जानने की उत्सुकता सभी साधकों के मन में उत्पन्न होती है।इस श्लोक में श्रीकृष्ण मन रूपी अश्व पर आरूढ़ हुए पुरुष के बाह्य एवं आन्तरिक लक्षणों को दर्शाते हैं। उस पुरुष का एक लक्षण यह है कि वह मन से न इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है और न जगत् में किये जाने वाले कर्मों में। इस कथन का शाब्दिक अर्थ लेकर परमसत्य का विचित्र हास्यजनक चित्र खींचने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि ध्यानाभ्यास के समय साधक का मन विषयों तथा कर्मों से पूर्णतया निवृत्त होता है जिससे वह एकाग्रचित्त से ध्यान करने में समर्थ होता है। मन के सहयोग के बिना इन्द्रियों की स्वयं ही विषयों की ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यदि मन को आनन्दस्वरूप आत्मतत्त्व के ध्यान में लगाया जाय तो उस निर्विषय आनन्द का अनुभव कर लेने के उपरान्त वह स्वयं ही विषयों के क्षणिक सुखों की खोज में नहीं भटकेगा। किसी धनवान् व्यक्ति का हष्टपुष्ट पालतू कुत्ता स्थानस्थान पर रखे कूड़ेदानों में अन्न के कणों को नहीं खोजता।इन्द्रियों के भोग तथा कर्म से परावृत्त हुआ मन आत्मचिन्तन में स्थिर हो जाता है। यहाँ न अनुषज्जते शब्द पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। सज्जते को अनु यह उपसर्ग लगाकर भगवान यहाँ दर्शाते हैं कि उस पुरुष को विषयों से रंचमात्र भी आसक्ति नहीं होती।उपर्युक्त स्थिति को प्राप्त होने पर भी संभव है कि साधक अपने मन में ही उठने वाले संकल्पोंविकल्पों से क्षुब्ध हो जाय। बाह्य जगत् के विक्षेपों की अपेक्षा इन संकल्पों से उत्पन्न विक्षेप अधिक भयंकर होते हैं । भगवान् कहते हैं कि योगारूढ़ पुरुष न केवल बाह्य विक्षेपों से मुक्त है बल्कि इस संकल्प शक्ति के विक्षेपों से भी।स्पष्ट है कि ऐसे योगारूढ़ के लिए ध्यान की गति तीव्र करने के लिए शम की आवश्यकता होती है।योगारूढ़ पुरुष अनर्थ रूप संसार से अपना उद्धार कर लेता है। इसलिए
।।6.4।। व्याख्या--'यदा हि नेन्द्रियार्थेषु (अनुषज्जते)'--साधक इन्द्रियोंके अर्थोंमें अर्थात् प्रारब्धके अनुसार प्राप्त होनेवाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--इन पाँचों विषयोंमें; अनुकूल पदार्थ, परिस्थिति, घटना, व्यक्ति आदिमें और शरीरके आराम, मान, बड़ाई आदिमें आसक्ति न करे, इनका भोगबुद्धिसे भोग न करे, इनमें राजी न हो, प्रत्युत यह अनुभव करे कि ये सब विषय, पदार्थ आदि आये हैं और प्रतिक्षण चले जा रहे हैं। ये आने-जानेवाले और अनित्य हैं, फिर इनमें क्या राजी हों--ऐसा अनुभव करके इनसे निर्लेप रहे।इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्त न होनेका साधन है--इच्छापूर्तिका सुख न लेना। जैसे, कोई मनचाही बात हो जाय; मनचाही वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि मिल जाय और जिसको नहीं चाहता, वह न हो तो मनुष्य उसमें राजी (प्रसन्न) हो जाता है तथा उससे सुख लेता है। सुख लेनेपर इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्ति बढ़ती है। अतः साधकको चाहिये कि अनुकूल वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदिके मिलनेकी इच्छा न करे और बिना इच्छाके अनुकूल वस्तु आदि मिल भी जाय तो उसमें राजी न हो। ऐसे होनेसे इन्द्रियोंके भोगोंमें आसक्ति नहीं होगी।दूसरी बात, मनुष्यके पास अनुकूल चीजें न होनेसे यह उन चीजोंके अभावका अनुभव करता है और उनकेमिलनेपर यह उनके अधीन हो जाता है। जिस समय इसको अभावका अनुभव होता था, उस समय भी परतन्त्रता थी और अब उन चीजोंके मिलनेपर भी 'कहीं इनका वियोग न हो जाय'--इस तरहकी परतन्त्रता होती है। अतः वस्तुके न मिलने और मिलनेमें फरक इतना ही रहा कि वस्तुके न मिलनेसे तो वस्तुकी परतन्त्रताका अनुभव होता था, पर वस्तुके मिलनेपर परतन्त्रताका अनुभव नहीं होता, प्रत्युत उसमें मनुष्यको स्वतन्त्रता दीखती है--यह उसको धोखा होता है। जैसे कोई किसीके साथ विश्वासघात करता है, ऐसे ही अनुकूल परिस्थितिमें राजी होनेसे मनुष्य अपने साथ विश्वासघात करता है। कारण कि यह मनुष्य अनुकूल परिस्थितिके अधीन हो जाता है, उसको भोगते-भोगते इसका स्वभाव बिगड़ जाता है और बार-बार सुख भोगनेकी कामना होने लगती है। यह सुखभोगकी कामना ही इसके जन्म-मरणका कारण बन जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि अनुकूलताकी इच्छा करना, आशा करना और अनुकूल विषय आदिमें राजी होना--यह सम्पूर्ण अनर्थोंका मूल है। इससे कोई-सा भी अनर्थ, पाप बाकी नहीं रहता। अगर इसका त्याग कर दिया जाय तो मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है।तीसरी बात, हमारे पास निर्वाहमात्रके सिवाय जितनी अनुकूल भोग्य वस्तुएँ हैं, वे अपनी नही हैं। वे किसकी हैं इसका हमें पता नहीं है; परन्तु जब कोई अभावग्रस्त प्राणी मिल जाय, तो उस सामग्रीको उसीकी समझकर उसके अर्पण कर देनी चाहिये [यह आपकी ही है--ऐसा उससे कहना नहीं है], और उसे देकर ऐसा मानना चाहिये कि निर्वाहसे अतिरिक्त जो वस्तुएँ मेरे पास पड़ी थीं, उस ऋणसे मैं मुक्त हो गया हूँ। तात्पर्य है कि निर्वाहसे अतिरिक्त वस्तुओंको अपनी और अपने लिये न माननेसे मनुष्यकी भोगोंमें आसक्ति नहीं होती। 'न कर्मस्वनुषज्जते' (टिप्पणी प0 330)--जैसे इन्द्रियोंके अर्थोंमें आसक्ति नहीं होनी चाहिये ऐसे ही कर्मोंमें भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये, अर्थात् क्रियमाण कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें और उन कर्मोंकी तात्कालिक फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये। कारण कि कर्म करनेमें भी एक राग होता है। कर्म ठीक तरहसे हो जाता है तो उससे एक सुख मिलता है, और कर्म ठीक तरहसे नहीं होता तो मनमें एक दुःख होता है। यह सुख-दुःखका होना कर्मकी आसक्ति है। अतः साधक कर्म तो विधिपूर्वक और तत्परतासे करे पर उसमें आसक्त न होकर सावधानीपूर्वक निर्लिप्त रहे कि ये तो आने-जानेवाले हैं और हम नित्य-निरन्तर रहनेवाले हैं अतः इनके होने-न-होनेमें, आने-जानेमें हमारेमें क्या फरक पड़ता है? कर्मोंमें आसक्ति होनेकी पहचान क्या है? अगर क्रियमाण (वर्तमानमें किये जानेवाले) कर्मोंकी पूर्तिअपूर्तिमें और उनसे मिलनेवाले तात्कालिक फलकी प्राप्तिअप्राप्तिमें अर्थात् सिद्धि-असिद्धिमें मनुष्य निर्विकार नहीं रहता, प्रत्युत उसके अन्तःकरणमें हर्ष-शोकादि विकार होते हैं, तो समझना चाहिये कि उसकी कर्मोंमें और उनके तात्कालिक फलमें आसक्ति रह गयी है।इन्द्रियोंके अर्थोंमें और कर्मोंमें आसक्त न होनेका तात्पर्य यह हुआ कि स्वयं (स्वरूप) चिन्मय परमात्माका अंश होनेसे नित्य अपरिवर्तनशील है और पदार्थ तथा क्रियाएँ प्रकृतिका कार्य होनेसे नित्य-निरन्तर बदलते रहते हैं। परन्तु जब स्वयं उन परिवर्तनशील पदार्थों और क्रियाओंमें आसक्त हो जाता है, तब यह उनके अधीन हो जाता है और बार-बार जन्म-मरणरूप महान् दुःखोंका अनुभव करता रहता है। उन पदार्थों और क्रियाओंसे अर्थात् प्रकृतिसे सर्वथा मुक्त होनेके लिये भगवान्ने दो विभाग बताये हैं कि न तो इन्द्रियोंके अर्थोंमें अर्थात् पदार्थोंमें आसक्ति करे और न कर्मोंमें (क्रियाओंमें) आसक्ति करे। ऐसा करनेपर मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है।यहाँ एक बात समझनेकी है कि क्रियाओंमें प्रियता प्रायः फलको लेकर ही होती है, और फल होता है--इन्द्रियोंके भोग। अतः इन्द्रियोंके भोगोंकी आसक्ति सर्वथा मिट जाय तो क्रियाओंकी आसक्ति भी मिट जाती है। फिर भी भगवान्ने क्रियाओंकी आसक्ति मिटानेकी बात अलग क्यों कही ? इसका कारण यह है कि क्रियाओंमें भी एक स्वतन्त्र आसक्ति होती है। फलेच्छा न होनेपर भी मनुष्यमें एक करनेका वेग होता है। यह वेग ही क्रियाओंकी आसक्ति है, जिसके कारण मनुष्यसे बिना कुछ किये रहा नहीं जाता, वह कुछ-न-कुछ काम करता ही रहता है। यह आसक्ति मिटती है केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे अथवा भगवान्के लिये कर्म करनेसे। इसलिये भगवान्ने बारहवें अध्यायमें पहले अभ्यासयोग बताया। परन्तु भीतरमें करनेका वेग होनेसे अभ्यासमें मन नहीं लगता; अतः करनेका वेग मिटानेके लिये दसवें श्लोकमें बताया कि साधक मेरे लिये ही कर्म करे (12। 10)। तात्पर्य है कि पारमार्थिक अभ्यास आदि करनेमें जिसका मन नहीं लगता और भीतरमें कर्म करनेका वेग (आसक्ति) पड़ा है, तो वह भक्तियोगका साधक केवल भगवान्के लिये ही कर्म करे। इससे उसकी आसक्ति मिट जायगी। ऐसे ही कर्मयोगका साधक केवल संसारके हितके लिये ही कर्म करे, तो उसका करनेका वेग (आसक्ति) मिट जायगा।जैसे कर्म करनेकी आसक्ति होती है, ऐसे ही कर्म न करनेकी भी आसक्ति होती है। कर्म न करनेकी आसक्ति भी नहीं होनी चाहिये; क्योंकि कर्म न करनेकी आसक्ति आलस्य और प्रमाद पैदा करती है, जो कि तामसी वृत्ति है और कर्म करनेकी आसक्ति व्यर्थ चेष्टाओंमें लगाती है, जो कि राजसी वृत्ति है।वह योगारूढ़ कितने दिनोंमें, कितने महीनोंमें अथवा कितने वर्षोंमें होगा? इसके लिये भगवान् 'यदा' और 'तदा' पद देकर बताते हैं कि जिस कालमें मनुष्य इन्द्रियोंके अर्थोंमें और क्रियाओँमें सर्वथा आसक्ति-रहित हो जाता है, तभी वह योगारूढ़ हो जाता है। जैसे, किसीने यह निश्चय कर लिया कि 'मैं आजसे कभी इच्छापूर्तिका सुख नहीं लूँगा।' अगर वह अपने इस निश्चय (प्रतिज्ञा) पर दृढ़ रहे, तो वह आज ही योगारूढ़ हो जायगा। इस बातको बतानेके लिये ही भगवान्ने 'यदा' और 'तदा' पदोंके साथ 'हि' पद दिया है।पदार्थों और क्रियाओँमें आसक्ति करने और न करनेमें भगवान्ने मनुष्यमात्रको यह स्वतन्त्रता दी है कि तुम साक्षात् मेरे अंश हो और ये पदार्थ और क्रियाएँ प्रकृतिजन्य हैं। इनमें पदार्थ भी उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तथा क्रियाओंका भी आरम्भ और अन्त हो जाता है। अतः ये नित्य रहनेवाले नहीं हैं और तुम नित्य रहनेवाले हो। तुम नित्य होकर भी अनित्यमें फँस जाते हो, अनित्यमें आसक्ति, प्रियता कर लेते हो। इससे तुम्हारे हाथ कुछ नहीं लगता, केवल दुःख-ही-दुःख पाते रहते हो। अतः तुम आजसे ही यह विचार कर लो कि 'हमलोग पदार्थों और क्रियाओंमें सुख नहीं लेंगे' तो तुमलोग आज ही योगारूढ़ हो जाओगे; क्योंकि योग अर्थात् समता तुम्हारे घरकी चीज है। समता तुम्हारा स्वरूप है और स्वरूप सत् है। सत्का कभी अभाव नहीं होता और असत्का कभी भाव नहीं होता। ऐसे सत्-स्वरूप तुम असत् पदार्थों और क्रियाओंमें आसक्ति मत करो तो तुम्हें स्वतःसिद्ध योगारूढ़ अवस्थाका अनुभव हो जायगा।
।।6.4।।एष एवार्थः प्रकाश्यते यदेति। इन्द्रियार्थाः विषयाः तदर्थानि च कर्माणि विषयार्जनादीनि।
।।6.4।।यदा अयं योगी आत्मैकानुभवस्वभावतया इन्द्रियार्थेषु आत्मव्यतिरिक्तप्राकृतविषयेषु तत्सम्बन्धिषु कर्मसु च न अनुषज्जते न सङ्गम् अर्हति तदा हि सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढः इति उच्यते।तस्माद् आरुरुक्षोः विषयानुभवार्हतया तदननुषङ्गाभ्यासरूपः कर्मयोग एव निष्पत्तिकारणम् अतो विषयाननुषङ्गाभ्यासरूपं कर्मयोगम् एव आरुरुक्षुः कुर्यात्।तद् एव आह
।।6.4।।योगप्राप्तौ कारणकथनानन्तरं तत्प्राप्तिकालं दर्शयितुं श्लोकान्तरमवतारयति अथेति। समाधानावस्था यदेत्युच्यते। अतएवोक्तं समाधीयमानचित्तो योगीति। शब्दादिषु कर्मसु चानुषङ्गस्य योगारोहणप्रतिबन्धकत्वात्तदभावस्य तदुपायत्वं प्रसिद्धमिति द्योतयितुं हीत्युक्तम्। सर्वेषामपि संकल्पानां योगारोहणप्रतिबन्धकत्वमभिप्रेत्य सर्वसंकल्पसंन्यासीत्यत्र विवक्षितमर्थमाह सर्वानिति। सर्वसंकल्पसंन्यासेऽपि सर्वेषां कामानां कर्मणां च प्रतिबन्धकत्वसंभवे कुतो योगप्राप्तिरित्याशङ्क्याह सर्वेति। सर्वसंकल्पपरित्यागे यथोक्तविध्यनुष्ठानमयत्नसिद्धमिति मन्वानः सन्नाह संकल्पेति। मूलोन्मूलने च तत्कार्यनिवृत्तिरयत्नसुलभेति भावः। तत्र प्रमाणमाह संकल्पमूल इति। तत्रान्वयव्यतिरेकावभिप्रेत्योक्तमुपपादयति कामेति। सर्वसंकल्पाभावे कामाभाववत्कर्माभावस्य सिद्धत्वेऽपि कर्मणां कामकार्यत्वात्तन्निवृत्तिप्रयुक्तामपि निवृत्तिमुपन्यस्यति सर्वकामेति। यदुक्तं कर्मणां कामकार्यत्वं तत्र श्रुतिस्मृती प्रमाणयति स यथेति। स पुरुषः स्वरूपमजानन्यत्फलकामो भवति तत्साधनमनुष्ठेयतया बुद्धौ धारयतीति तत्क्रतुर्भवति यच्चानुष्ठेयतया गृह्णाति तदेव कर्म बहिरपि करोतीति कामाधीनं कर्मोक्तमिति श्रुत्यर्थः। कामजन्यं कर्मेत्यन्वयव्यतिरेकसिद्धमिति द्योतयितुं स्मृतौ हिशब्दः। न्यायमेव दर्शयति नहि सर्वसंकल्पेति। स्वापादावदर्शनादित्यर्थः। नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानं दूरनिरस्तमिति वक्तुमपिशब्दः। श्रुतिस्मृतिन्यायसिद्धमर्थमुपसंहरति तस्मादिति।
।।6.4।।कदैवं योगारूढ इत्यपेक्षायामाह यदा हीति। स्वक्रियानिर्वर्त्येष्वपि कर्मसु नानुषज्जते।
।।6.4।।कदा योगारूढो भवतीत्युच्यते यदा यस्मिंश्चित्तसमाधानकाल इन्द्रियार्थेषु शब्दादिषु कर्मसु च नित्यनैमित्तिककाम्यलौकिकप्रतिषिद्धेषु नानुषज्जते तेषां मिथ्यात्वदर्शनेनात्मनोऽकर्त्रभोक्तृपरमानन्दाद्वयस्वरूपदर्शनेन च प्रयोजनाभावबुद्ध्याऽहमेतेषां कर्ता ममैते भोग्या इत्यभिनिवेशरूपमनुषङ्गं न करोति हि यस्मात्तस्मात्सर्वसंकल्पसंन्यासी सर्वेषां संकल्पानामिदं मया कर्तव्यमेतत्फलं भोक्तव्यमित्येवंरूपाणां मनोवृत्तिविशेषाणां तद्विषयाणां च कामानां तत्साधनानां च कर्मणां त्यागशीलः तदा शब्दादिषु कर्मसु चानुषङ्गस्य तद्धेतोश्च संकल्पस्य योगारोहणप्रतिबन्धकस्याभावाद्योगं समाधिमारूढो योगारूढ इत्युच्यते।
।।6.4।। कीदृशोऽसौ योगारूढः यस्य शमः कारणमुच्यत इत्यत्राह यदा हीति। इन्द्रियार्थेषु इन्द्रियभोग्येषु शब्दादिषु तत्साधनेषु च कर्मसु यदा नानुषज्जते आसक्तिं न करोति। तत्र हेतुः आसक्तिमूलभूतान्सर्वान्भोगविषयान्कर्मविषयांश्च संकल्पान्संन्यसितुं त्यक्तुं शीलं यस्य सः। तदा योगारूढ उच्यते।
।।6.4।।सङ्गमयति कदेति।अयं योगी त्विति। यावदात्मावलोकनं कर्मयोगे वर्तमान इति भावः। अर्थसिद्धं हेतुमाहआत्मैकानुभवस्वभावतयेति। अनित्यत्वहेयत्वादिसूचनाय प्राकृतशब्दः।कर्मस्विति न चोदितकर्ममात्रविषयम् तस्य स्वारसिकसङ्गास्पदत्वाभावेन निषेधायोगात्। नापि परोक्तप्रक्रिययाऽग्निहोत्रादिनित्यनैमित्तिकविषयम् वैदिकस्य तत्र निस्सङ्गत्वायोगात्। अतःयो हि यदिच्छति तस्य तस्मिंस्तत्साधने वा कार्यताबुद्धिः इति न्यायादिन्द्रियार्थेषु सङ्गिनां तदुपायभूतेषु विहितेषु निषिद्धेष्वनुभयेषु च कर्मसु यथासम्भवं सङ्गः स्यादिति तन्निषेध एवोचित इत्यभिप्रायेण तत्सम्बन्धिषु च कर्मस्वित्युक्तम्। सङ्गं त्यजति निवर्तयतीत्यादिषु प्रयोगेषु जायमानस्य सङ्गस्य बलान्निवर्तनं प्रतीयते अत्र तुनानुषज्जत इत्युक्तम्। सङ्गः स्वयमेव न जायत इत्यर्थः। ततः फलितमाहन सङ्गमर्हतीति। हिशब्दस्य वाक्यार्थान्वयौचित्यात्तदा हीत्युक्तम्। तदा ह्यसौ सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढो भवति न तु सङ्गकाल इति भावः। व्याख्यातश्लोकद्वयतात्पर्यार्थमाह तस्मादिति। इष्टकारणत्वोपदेशो हि तत्र प्रवृत्त्यर्थ इति तात्पर्येणाह अत इति।
।।6.4।।स योगारूढः कथं ज्ञातव्यः इत्यत आह यदा हीति। यदा इन्द्रियार्थेषु रूपादिषु उत्कटतापनिवृत्त्यर्थं स्वप्नादिप्राप्तेषु हीति निश्चयेन पुरुषार्थरूपेण नानुषज्जते नाऽऽसक्तो भवति। न कर्मसु तत्साधककृतिरूपेषु अनुषज्जते नाऽऽसक्तो भवति। सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी मनोनिश्चयात्मकस्वभोगेच्छादित्यागवान् यो नासक्तो भवेत्तदा योगारूढः संयोगभावे प्रतिष्ठित उच्यते कथ्यत इत्यर्थः।
।।6.4।।ननु योगपदेन मुख्यया वृत्त्या निर्बीजः समाधिरुच्यते तमारूढस्य कर्मणां त्यागः स्वतःसिद्धत्वादविधेय इत्याशङ्क्य प्रकृते योगारूढपदस्यार्थमाह यदाहीति। इन्द्रियार्थेषु शब्दादिषु रमणीयेषु कर्मसु च तत्प्राप्तिसाधनेषु तद्दर्शनमनु न सज्जते वैराग्यदाढर्यात्सक्तो न भवति। नापि मनसा इदं मे भूयादेतदर्थमहमिदं कर्म कुर्यामिति संकल्पयति। तादृशश्च सर्वसंकल्पसंन्यासी यदा भवति तदा योगारूढ इत्युच्यते। यथा तीव्रबुभुक्षयोपेतोऽन्यत्र नीरागो व्यासङ्गान्तरं त्यक्त्वा भोजनारूढ एव भवति तथा तीव्रारुरुक्षावान् सर्वत्र वीतरागस्त्यक्तसर्वकर्मा योगारूढ एव भवति। तावत्कर्माणि कर्तव्यानि ततः परं त्याज्यानीत्यर्थः।
।।6.4।।कदा योगारुढो भवतीत्यपेक्षायामाह यदेति। एतेन कीदृशोऽसौ योगारुढः यस्य शमः कारणमुच्यत इत्यत्राह। कः पुनर्योगारुढ इत्यत उच्यत इत्यापातनिकाद्वयमपि प्रत्युक्तं यदातदापतयोः प्रत्यक्षमुपलब्धेर्भाष्योक्तापातनिकाया एव युक्तत्वाद्यदायस्मिन्काले समाधीयमानचित्तो योगी इन्द्रियार्थेषु विषयेषु शब्दादिषु कर्मसु च नित्यादिषु प्रयोजनाभावबुद्य्धा नानुषज्जते। अनुषङ्गकर्तृत्वादिबुद्धिं न करोतीत्यर्थः। यतः सर्वान् कंकल्पान् विषयविषयकमनोवृत्तिभेदान् कामान् सर्वाणि कर्माणि चेति सर्वसंकल्पान् इहामुत्रार्थकामहेतून् संन्यसितुं शीलमस्येति सर्वसंकल्पसंन्यासी तदा योगारुढः प्राप्तसमाधिरुच्यते।
6.4 यदा when? हि verily? न not? इन्द्रयार्थेषु in senseobjects? न not? कर्मसु in actions? अनुषज्जते is attached? सर्वसङ्कल्पसंन्यासी renouncer of all thoughts? योगारूढः one who has attained to Yoga? तदा then? उच्यते is said.Commentary Yogarudha he who is enthroned or established in Yoga. When a Yogi? by keeping the mind ite steady? by withdrawing it from the objects of the senses? has attachment neither for sensual objects such as sound? nor for the actions (Karmas? Cf. notes to V.13)? knowing that they are of no use to him when he has renounced all thoughts which generate various sorts of desires for the objects of this world and of the next? then he is said to have become a Yogarudha.Do not think of senseobjects. The desires will die by themselves. How can you free yourself from thinking of the objects Think of God or the Self. Then you can avoid thinking of the objects. Then you can free yourself from thinking of the objects of the senses.Renunciation of thoughts implies that all desires and all actions should be renounced? because all desires are born of thoughts. You think first and then act (strive) afterwards to possess the objects of your desire for enjoyment.Whatever a man desires? that he willsAnd whatever he wills? that he does. -- Brihadaranyaka Upanishad? 4.4.5Renunciation of all actions necessarily follows from the renunciation of all desires.O desire I know where thy root lies. Thou art born of Sankalpa (thought). I will not think of thee and thou shalt cease to exist along with the root. -- Mahabharata? Santi Parva? 177.25Indeed desire is born of thought (Sankalpa)? and of thought? Yajnas are born. -- Manu Smriti? II.2
6.4 When a man is not attached to the sense-objects or to actions, having renounced all thoughts, then he is said to have attained to Yoga.
6.4 When a man renounces even the thought of initiating action, when he is not interested in sense objects or any results which may flow from his acts, then in truth he understands spirituality.
6.4 Verily, [Verily: This word emphasizes the fact that, since attachment to sense objects like sound etc. and to actions is an obstacle in the path of Yoga, therefore the removal of that obstruction is the means to its attainment.] when a man who has given up thought about everything does not get attached to sense-objects or acitons, he is then said to be established in Yoga.
6.4 Hi, verily; yada, when; a yogi who is concentrating his mind, sarva-sankalpa-sannyasi, who has given up thought about everything-who is apt to give up (sannyasa) all (sarva) thoughts (sankalpa) which are the causes of desire, for things here and hereafter; na anusajjate, does not become attached, i.e. does not hold the idea that they have to be done by him; indriya-arthesu, with regard to sense-objects like sound etc.; and karmasu, with regard to actions-nitya, naimittika, kamya and nisiddha (prohibited) because of the absence of the idea of their utility; tada, then, at that time; ucyate, he is said to be; yoga-arudhah, established in Yoga, i.e. he is said to have attained to Yoga. From the expression, 'one who has given up thought about eveything', it follows that one has to renounce all desires and all actions, for all desires have thoughts as their source. This accords with such Smrti texts as: 'Verily, desire has thought as its source. Sacrifices arise from thoughts' (Ma. Sm. 2.3); 'O Desire, I know your source. You surely spring from thought. I shall not think of you. So you will not arise in me' (Mbh. Sa. 177.25). And when one gives up all desires, renunciation of all actions becomes accomplished. This agrees with such Upanisadic texts as, '(This self is identified with desire alone.) What it desires, it resolves; what it resolves, it works out' (Br. 4.4.5); and also such Smrti texts as, 'Whatever actions a man does, all that is the effect of desire itself' (Ma. Sm. 2.4). It accords with reason also. For, when all thoughts are renounced, no one can even move a little. So, by the expression, 'one who has given up thought about everything', the Lord makes one renounced all desires and all actions. When one is thus established in Yoga, then by that very fact one's self becomes uplifted by oneself from the worldly state which is replete with evils. Hence,
6.4. When, a person indulges himself neither in what is desired by the senses nor in the actions [for it], then [alone], being a man renouncing all intentions, he is said to have mounted on the Yoga.
6.4 Yada etc. What is desired by the senses : Objects of senses. The actions for them : actions such as earning the objects and so on. In this [path of] knowledge one should be necessarily attentive. This [the Lord] says-
6.4 When this Yogin, because of his natural disposition to the experience of the self, loses attachment, i.e., gets detached from sense-objects, i.e., things other than the self, and actions associated with them - then he has abandoned all desires and is said to have climbed the heights of Yoga. Therefore, for one wishing to climb to Yoga, but is still disposed to the experience of the sense-objects, Karma Yoga consisting of the practice of detachment to these objects, becomes the cause for success in Yoga. Therefore one who wishes to climb to Yoga must perform Karma Yoga consisting in the practice of detachment from sense-objects. Sri Krsna further elucidates the same:
6.4 For, when one loses attachment for the things of the senses and to actions, then has the abandoned all desires and is said to have climbed the heights of Yoga.
।।6.4।।साधक कब योगारूढ़ हो जाता है यह अब बतलाते हैं चित्तका समाधान कर लेनेवाला योगी जब इन्द्रियोंके अर्थोंमें अर्थात् इन्द्रियोंके विषय जो शब्दादि हैं उनमें एवं नित्य नैमित्तिक काम्य और निषिद्ध कर्मोंमें अपना कुछ भी प्रयोजन न देखकर आसक्त नहीं होता उनमें आसक्ति यानी ये मुझे करने चाहिये ऐसी बुद्धि नहीं करता। तब उस समय वह सब संकल्पोंका त्यागी अर्थात् इस लोक और परलोकके भोगोंकी कामनाके कारणरूप सब संकल्पोंका त्याग करना जिसका स्वभाव हो चुका है ऐसा पुरुष योगारूढ़ यानी योगको प्राप्त हो चुका है ऐसे कहा जाता है। सर्वसंकल्पसंन्यासी इस कथनका यह आशय है कि सब कामनाओंको और समस्त कर्मोंको छोड़ देना चाहिये। क्योंकि सब कामनाओंका मूल संकल्प ही है। स्मृतिमें भी कहा है कि कामका मूल कारण संकल्प ही है। समस्त यज्ञ संकल्पसे उत्पन्न होते हैं। हे काम मैं तेरे मूल कारणको जानता हूँ। तू निःसन्देह संकल्पसे ही उत्पन्न होता है। मैं तेरा संकल्प नहीं करूँगा अतः फिर तू मूझे प्राप्त नहीं होगा। सब कामनाओंके परित्यागसे ही सर्व कर्मोंका त्याग सिद्ध हो जाता है। यह बात वह जैसी कामनावालाहोता है वैसे ही निश्चयवाला होता है जैसे निश्चयवाला होता है वही कर्म करता है इत्यादि श्रुतिसे प्रमाणित है और जीव जोजो कर्म करता है वह सब कामकी ही चेष्टा है। इत्यादि स्मृतिसे भी प्रमाणित है। युक्तिसे भी यही बात सिद्ध होती है क्योंकि सब संकल्पोंका त्याग कर देनेपर तो कोई जरासा हिल भी नहीं सकता। सुतरां सर्वसंकल्पसंन्यासी कहकर भगवान् समस्त कामनाओंका और समस्त कर्मोंका त्याग कराते हैं।
।।6.4।। यदा समाधीयमानचित्तो योगी हि इन्द्रियार्थेषु इन्द्रियाणामर्थाः शब्दादयः तेषु इन्द्रियार्थेषु कर्मसु च नित्यनैमित्तिककाम्यप्रतिषिद्धेषु प्रयोजनाभावबुद्ध्या न अनुषज्जते अनुषङ्गं कर्तव्यताबुद्धिं न करोतीत्यर्थः। सर्वसंकल्पसंन्यासी सर्वान् संकल्पान् इहामुत्रार्थकामहेतून् संन्यसितुं शीलम् अस्य इति सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढः प्राप्तयोग इत्येतत् तदा तस्मिन् काले उच्यते। सर्वसंकल्पसंन्यासी इति वचनात् सर्वांश्च कामान् सर्वाणि च कर्माणि संन्यस्येदित्यर्थः। संकल्पमूला हि सर्वे कामाः संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसंभवाः (मनु 2।3)। काम जानामि ते मूलं संकल्पात्किल जायसे। न त्वां संकल्पयिष्यामि तेन मे न भविष्यसि (महा0 शान्ति0 177।25) इत्यादिस्मृतेः। सर्वकामपरित्यागे च सर्वकर्मसंन्यासः सिद्धो भवति स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते (बृह0 उ0 4।4।5) इत्यादिश्रुतिभ्यः यद्यद्धि कुरुते जन्तुः तत्तत् कामस्य चेष्टितम् (मनु0 2।4) इत्यादिस्मृतिभ्यश्च न्यायाच्च न हि सर्वसंकल्पसंन्यासे कश्चित् स्पन्दितुमपि शक्तः। तस्मात् सर्वसंकल्पसंन्यासी इति वचनात् सर्वान् कामान् सर्वाणि कर्माणि च त्याजयति भगवान्।।यदा एवं योगारूढः तदा तेन आत्मा उद्धृतो भवति संसारादनर्थजातात्। अतः
।।6.4।।स्फुटमपि तात्पर्यं मन्दानुजिघृक्षयाऽऽह योगेति। अपरोक्षज्ञानं तु योगारोहस्य कार्यं सति प्रतिबन्धे विलम्बत इति न लक्षणम्। नन्विदं साधकेऽपि विद्यतेवशे हि यस्येन्द्रियाणि 2।61 इत्यादेः अतोऽतिव्यापकमित्यत आह सम्यगिति। प्रयत्नं विनेत्यर्थः। तस्यैव योगारूढस्यैव। अत्र प्रमाणमाह उक्तंचेति। परमात्मानं दृष्ट्वा त्वाप्यत इति शेषः। मुख्य एव चाननुषङ्गोऽत्र विवक्षित इति भावः।
।।6.4।।योगारूढस्य लक्षणमाह यदेति। सम्यगननुषङ्गस्तस्यैव भवति। उक्तं च स्वतो दोषलयो दृष्ट्वा त्वितरेषां प्रयत्नतः इति।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते। सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।।6.4।।
যদা হি নেন্দ্রিযার্থেষু ন কর্মস্বনুষজ্জতে৷ সর্বসঙ্কল্পসংন্যাসী যোগারূঢস্তদোচ্যতে৷৷6.4৷৷
যদা হি নেন্দ্রিযার্থেষু ন কর্মস্বনুষজ্জতে৷ সর্বসঙ্কল্পসংন্যাসী যোগারূঢস্তদোচ্যতে৷৷6.4৷৷
યદા હિ નેન્દ્રિયાર્થેષુ ન કર્મસ્વનુષજ્જતે। સર્વસઙ્કલ્પસંન્યાસી યોગારૂઢસ્તદોચ્યતે।।6.4।।
ਯਦਾ ਹਿ ਨੇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਾਰ੍ਥੇਸ਼ੁ ਨ ਕਰ੍ਮਸ੍ਵਨੁਸ਼ਜ੍ਜਤੇ। ਸਰ੍ਵਸਙ੍ਕਲ੍ਪਸਂਨ੍ਯਾਸੀ ਯੋਗਾਰੂਢਸ੍ਤਦੋਚ੍ਯਤੇ।।6.4।।
ಯದಾ ಹಿ ನೇನ್ದ್ರಿಯಾರ್ಥೇಷು ನ ಕರ್ಮಸ್ವನುಷಜ್ಜತೇ. ಸರ್ವಸಙ್ಕಲ್ಪಸಂನ್ಯಾಸೀ ಯೋಗಾರೂಢಸ್ತದೋಚ್ಯತೇ৷৷6.4৷৷
യദാ ഹി നേന്ദ്രിയാര്ഥേഷു ന കര്മസ്വനുഷജ്ജതേ. സര്വസങ്കല്പസംന്യാസീ യോഗാരൂഢസ്തദോച്യതേ৷৷6.4৷৷
ଯଦା ହି ନେନ୍ଦ୍ରିଯାର୍ଥେଷୁ ନ କର୍ମସ୍ବନୁଷଜ୍ଜତେ| ସର୍ବସଙ୍କଲ୍ପସଂନ୍ଯାସୀ ଯୋଗାରୂଢସ୍ତଦୋଚ୍ଯତେ||6.4||
yadā hi nēndriyārthēṣu na karmasvanuṣajjatē. sarvasaṅkalpasaṅnyāsī yōgārūḍhastadōcyatē৷৷6.4৷৷
யதா ஹி நேந்த்ரியார்தேஷு ந கர்மஸ்வநுஷஜ்ஜதே. ஸர்வஸங்கல்பஸஂந்யாஸீ யோகாரூடஸ்ததோச்யதே৷৷6.4৷৷
యదా హి నేన్ద్రియార్థేషు న కర్మస్వనుషజ్జతే. సర్వసఙ్కల్పసంన్యాసీ యోగారూఢస్తదోచ్యతే৷৷6.4৷৷
6.5
6
5
।।6.5।। अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।
।।6.5।। मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध: पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।
।।6.5।। शास्त्र के रूप में गीता का प्रयोजन सत्य का और केवल सत्य का ही प्रतिपादन करना है। यह बात और है कि किसी काल विशेष में लोगों की धारणाएं कुछ अन्य प्रकार की बन गयीं हों परन्तु सत्य के प्रतिपादन में समाज में प्रचलित मान्यताओं का कोई महत्व नहीं होता। यह प्रचलित मान्यता कि किसी बाह्य स्रोत जैसे ईश्वर की कृपा साधक की निरन्तर सहायता करके उसे साधन मार्ग में आगे बढ़ाती है हानिकारक नहीं है परन्तु इस मान्यता के साथ ही स्वयं का पुरुषार्थ भी होना पूर्ण सफलता के लिये आवश्यक है। मनुष्य को आत्मोद्धार अपने द्वारा ही करना चाहिये यह स्पष्ट घोषणा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की है। यह कोई यमुना तट पर गोपियों के साथ रासलीला करते हुये आनन्दपूर्ण क्षणों में किया हुआ श्रीकृष्ण का मधुर विनोद नहीं वरन् समरांगण के चरम तनावपूर्ण क्षणों में अर्जुन को किया हुआ आह्वान है और अपने अवतार कार्य की परिपूर्णता भी है। यदि मनुष्य सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति चाहता है तो उसको अपनी सुप्त आन्तरिक शक्तियों को वर्तमान की हीन स्थिति से ऊँचा उठाना होगा और अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानना होगा।प्रत्येक मनुष्य के मन में एक आदर्श की कल्पना होती है। यद्यपि बौद्धिक स्तर पर वह उस आदर्श को स्पष्ट देखता है परन्तु दुर्भाग्य से वह आदर्श हमेशा कल्पना में ही बना रहता है और व्यवहारिक जगत् में वास्तविकता का रूप नहीं ले पाता। हो सकता है हम अपनी बुद्धि से यह जानते हों कि हमें क्या होना चाहिये परन्तु व्यवहार में हम अपने ही आदर्श के सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। आदर्शमैं और वास्तविकमैंके बीच की खाई ही मनुष्य के पूर्णत्व से पतन का मापदण्ड है।अधिकांश लोग अपने दोहरे व्यक्तित्व के विषय में अनभिज्ञ ही होते हैं। सामान्यत हम अपने को आदर्श व्यक्ति समझते हैं जबकि वास्तव में हम अनेक दोषों से युक्त रहते हैं किन्तु इसे हम स्वीकार नहीं करते। समाज में हम ऐसे व्यक्ति को भी देखते हैं जो स्वयं अत्यन्त स्वार्थी होते हुए अपने पड़ोसी की अल्पसी स्वार्थपरता की भी कटु आलोचना करता है दर्पण विहीन देश में संभव है कि एक वक्रदृष्टि का पुरुष दूसरे वक्रदृष्टि वाले पुरुष की खिल्ली उड़ाये क्योंकि वह स्वयं नहीं जानता कि उसकी अपनी आंखे एक दूसरे के साथ कौन सा कोण बना रही हैं।ध्यानपूर्वक आत्मनिरीक्षण करने पर ज्ञात होता है कि बौद्धिक स्तर पर हमारा आदर्श एक नैतिक स्नेहपूर्ण और अनुशासित व्यक्ति का होता है जो हम बनना भी चाहते हैं किन्तु मन के भावनात्मक जगत् में हम अपनी ही आसक्तियों राग और द्वेष प्रेम और घृणा काम और क्रोध के विकारों से पीडित होते हैं और फिर हम एक गली के सामान्य कुत्ते के समान व्यवहार करने लगते हैं जो मांसमज्जा रहित शुष्क हड्डी के लिए अपनी ही जाति के कुत्ते के साथ लड़ाईझगड़ा करता रहता है जब तक मनुष्य अपने इस दोहरे व्यक्तित्त्व के प्रति सजग नहीं होता तब तक उसके लिये धर्म का कोई अर्थ या प्रयोजन नहीं होता। आदर्श और वास्तविकता के बीच की खाई को जिसने पहचान लिया और जो स्वयं का उद्धार करना चाहता है उसके लिये जो साधन बताया जाता है उसे धर्म कहते हैं।हमारा मन ही विनाशक है जो हमें विषय सुखों की ओर लुभाकर उनका दास बना देता है। मन ही है जो आदर्श को भुलाकर निम्न प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है। ऐसे ही मन को बुद्धि के नियन्त्रण में लाना है जो आत्मा को व्यक्त करने की सर्वश्रेष्ठ उपाधि है। संक्षेप में जब बुद्धि की विवेक सार्मथ्य के प्रभाव का उपयोग चंचल स्वभाव के विषयाभिमुख मन को संयमित करने में किया जाता है तब वही मन श्रेष्ठ और दिव्य स्वरूप के साथ युक्त हो जाता है। जिस प्रक्रिया के द्वारा इस कार्य को सम्पन्न किया जाता है उसे आध्यात्मिक साधन कहते हैं।आत्मोद्धार का यह कार्य किसी को ठेका देकर नहीं कराया जा सकता प्रत्येक साधक को यह कार्य स्वयं ही करना होगा यह अकेले नितान्त अकेले चलने का मार्ग है।कोई भी गुरु इसका उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं ले सकता और न कोई शास्त्र इस मुक्ति का वचन दे सकता है पूजा की कोई वेदी अपने आशीर्वाद मात्र से निकृष्ट को उत्कृष्ट नहीं बना सकती। यह सत्य है कि आत्मविकास के मार्ग में गुरु शास्त्र और मन्दिर का अपना स्थान है प्रयोजन है और प्रभाव भी है तथापि अपने अवगुणों एवं मिथ्या धारणाओं से स्वयं को मुक्त करने का मुख्य कार्य तो हमें स्वयं ही करना होगा।अब तक भगवान् ने जो उपचार बताया वह कुछ अंशों में आधुनिक मनोविज्ञान में कहा जाने वाला आत्मनिरीक्षण का मार्ग है जिसमें यह प्रयत्न किया जाता है कि अपने दोषों को समझें मिथ्या का त्याग करें जहाँ तक सम्भव हो सके श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करें आदि। परन्तु यह आंशिक उपचार ही है सम्पूर्ण नहीं।यहाँ श्रीकृष्ण पूर्ण उपचार का वर्णन करते हैं। आत्मनिरीक्षण में निर्दिष्ट साधना को करना मात्र पर्याप्त नहीं है वरन् हमारा प्रयत्न यह होना चाहिये कि आन्तरिक राक्षस के राज्य पर जो कुछ विजय हम पाते हैं उसे सुरक्षित रखें न कि उसे पुन लौटा दें। इस एक ही वाक्य में भगवान् हमें सावधान करते हैं आत्मा का पुन अधपतन न होने दें।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में एक महान् विचार को सुन्दर शैली में व्यक्त किया गया है जिसने व्यासजी को अमर बना दिया है। हम स्वयं ही अपने मित्र हैं और शत्रु भी। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों पर विचार करके उक्त कथन की सत्यता को प्रमाणित कर सकता है। दर्शनशास्त्र की दृष्टि से इसका अभिप्राय गम्भीर है।निम्नस्तर के मन का उत्थान संभव है यदि वह श्रेष्ठ गुणों के प्रभाव मे आने के लिए तत्पर है। जिस मात्रा में वह सहयोग करेगा उसी मात्रा में ही उसका उत्थान भी होगा। चैतन्य आत्मा तो नित्य उपलब्ध है जिससे चेतना पाकर मनुष्य अपना उत्थान अथवा पतन कर सकता है। दोनों विकल्प मनुष्य के समक्ष प्रस्तुत हैं। इनमें से वह किसे चुनता है यह उसकी इच्छा पर निर्भर करता है।यहाँ एक प्रश्न मन में आ सकता है कि कौन सा पुरुष स्वयं का ही मित्र है और कौन सा पुरुष स्वयं का ही शत्रु उत्तर है
।।6.5।। व्याख्या-- 'उद्धरेदात्मनात्मानम्'--अपने-आपसे अपना उद्धार करे--इसका तात्पर्य है कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण आदिसे अपने-आपको ऊँचा उठाये। अपने स्वरूपसे जो एकदेशीय 'मैं'-पन दीखता है, उससे भी अपनेको ऊँचा उठाये। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ आदि और 'मैं'-पन--ये सभी प्रकृतिके कार्य हैं; अपना स्वरूप नहीं है। जो अपना स्वरूप नहीं है, उससे अपनेको ऊँचा उठाये।अपना स्वरूप परमात्माके साथ एक है और शरीर, इन्द्रियाँ आदि तथा 'मैं'-पन प्रकृतिके साथ एक है। अगर यह अपना उद्धार करनेमें, अपनेको ऊँचा उठानेमें शरीर इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी सहायता मानेगा, इनका सहारा लेगा तो फिर जडताका त्याग कैसे होगा? क्योंकि जड वस्तुओंसे सम्बन्ध मानना, उनकीआवश्यकता समझना उनका सहारा लेना ही खास बन्धन है। जो अपने हैं, अपनेमें हैं, अभी हैं और यहाँ हैं, ऐसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिकी आवश्यकता नहीं है। कारण कि असत्के द्वारा सत्की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत असत्के त्यागसे सत्की प्राप्ति होती है।दूसरा भाव, अभी पूर्वश्लोकमें आया है कि प्राकृत पदार्थ, क्रिया और संकल्पमें आसक्त न हो, उनमें फँसे नहीं, प्रत्युत उनसे अपने-आपको ऊपर उठाये। यह सबका प्रत्यक्ष अनुभव है कि पदार्थ, क्रिया और संकल्पका आरम्भ तथा अन्त होता है, उनका संयोग तथा वियोग होता है, पर अपने (स्वयंके) अभावका और परिवर्तनका अनुभव किसीको नहीं होता। स्वयं सदा एकरूप रहता है। अतः उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थ आदिमें न फँसना, उनके अधीन न होना, उनसे निर्लिप्त रहना ही अपना उद्धार करना है। मनुष्यमात्रमें एक ऐसी विचारशक्ति है, जिसको काममें लानेसे वह अपना उद्धार कर सकता है। 'ज्ञानयोग'का साधक उस विचारशक्तिसे जड-चेतनका अलगाव करके चेतन (अपने स्वरूप) में स्थित हो जाता है और जड (शरीर-संसार) से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है। 'भक्तियोग' का साधक उसी विचारशक्तिसे 'मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं' इस प्रकार भगवान्से आत्मीयता करके अपना उद्धार कर लेता है। 'कर्मयोग' का साधक उसी विचारशक्तिसे मिले हुए शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि पदार्थोंको संसारका ही मानते हुए संसारकी सेवामें लगाकर उन पदार्थोंमें सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है और अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। इस दृष्टिसे मनुष्य अपनी विचारशक्तिको काममें लेकर किसी भी योग-मार्गसे अपना कल्याण कर सकता है।
।।6.5 6.6।।अस्यां च बुद्धौ अवश्यमेवावधेयमित्याह उद्धरेदिति। बन्धुरिति। अत्र च नान्य उपायः अपि तु आत्मैव मन एवेत्यर्थः। जितं हि मनो मित्रं घोरतरसंसारोद्धरणं करोति अजितं तु तीव्रनिरयपातनात् शत्रुत्वं कुरुते।
।।6.5।।आत्मना मनसा विषयाननुषक्तेन मनसा आत्मानम् उद्धरेत्। तद्विपरीतेन मनसा आत्मानं न अवसादयेत्। आत्मा एव मन एव हि आत्मनो बन्धुः तद् एव आत्मनो रिपुः।
।।6.5।।योगारूढस्य किं स्यादित्याशङ्क्याह यदैवमिति। योगारोहस्य दृष्टादृष्टोपायैरवश्यकर्तव्यतायै मुक्तिहेतुत्वं तद्विपर्ययस्याधःपतनहेतुत्वं च दर्शयति अत इति। तत्र हेतुमाह आत्मैव हीति। उद्धरणापेक्षामात्मनः सूचयति संसारेति। संसारादूर्ध्वं हरणं कीदृगित्याशङ्क्याह योगारूढतामिति। योगप्राप्तावनास्था तु न कर्तव्येत्याह नात्मानमिति। योगप्राप्त्युपायश्चेन्नानुष्ठीयते तदा योगाभावे संसारपरिहारासंभवादात्माधो नीतः स्यादित्यर्थः। नन्वात्मानं संसारे निमग्नं तदीयो बन्धुस्तस्मादुद्धरिष्यति नेत्याह आत्मैव हीति। कुतोऽवधारणमन्यस्यापि प्रसिद्धस्य बन्धोः संभवात्तत्राह नहीति। अन्यो बन्धुः सन्नपि संसारमुक्तये न भवतीत्येतदुपपादयति बन्धुरपीति। स्नेहादीत्यादिशब्दात्तदनुगुणप्रवृत्तिविषयत्वं गृह्यते। आत्मातिरिक्तस्यापि शत्रोरपकारिणः सुप्रसिद्धत्वादवधारणमनुचितमित्याशङ्क्याह योऽन्य इति।
।।6.5।।अतो विषयेष्वननुषञ्जनं कर्म कृत्वैवात्मानमात्मना स्वेनोद्धरेन्नावसादयेच्च। परोपदेशस्य प्रवर्त्तकत्वमेव नान्यदित्याशयेनात्मनाऽऽत्मानमुद्धरेदित्युक्तम्। तथाहि आत्मैव कर्त्तैव न परो बन्ध्वादिर्भवति। उक्तं च भागवते 5।5।19 गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात् ৷৷. न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम्। इति।
।।6.5।। यो यदैवं योगारूढो भवति तदा तेनात्मनैवात्मोद्धृतो भवति संसारानर्थव्रातात् अतः आत्मना विवेकयुक्तेन मनसा आत्मानं स्वं जीवं संसारसमुद्रे निमग्नं तत् उद्धरेत् उत् ऊर्ध्वं हरेत्। विषयासङ्गपरित्यागेन योगारूढतामापादयेदित्यर्थः।नतु विषयासङ्गेनात्मानमवसादयेत्संसारसमुद्रे मज्जयेत्। हि यस्मादात्मैवात्मनो बन्धुर्हितकारी संसारबन्धनान्मोचनहेतुर्नान्यः कश्चित्। लौकिकस्य बन्धोरपि स्नेहानुबन्धेन बन्धहेतुत्वात्। आत्मैव नान्यः कश्चित् रिपुः शत्रुरहितकारिविषयबन्धनागारप्रवेशात्कोशकार इवात्मनः स्वस्य। बाह्यस्यापि रिपोरात्मप्रयुक्तत्वाद्युक्तमवधारणमात्मैव रिपुरात्मन इति।
।।6.5।।अतो विषयासक्तित्यागे मोक्षं तदासक्तौ च बन्धं पर्यालोच्य रागादिस्वभावं त्यजेदित्याह उद्धरेदिति। आत्मना विवेकयुक्तेनात्मानं संसारादुद्धरेन्नत्ववसादयेदधो न नयेत्। हि यस्मादात्मैव मनःसङ्गादुपरत आत्मनः स्वस्य बन्धुरुपकारकः रिपुरपकारकश्च।
।।6.5।।श्लोकद्वयाभिप्रेतमर्थं विवृणोतीत्याह तदेवाहेति।आत्मना इत्यस्य करणार्थत्वौचित्यात्मनसेत्युक्तम्।विषयाननुषक्तेन तद्विपरीतेनेत्युभयं क्रियाद्वयसामर्थ्यात् पूर्वोत्तरानुसन्धानाच्चोक्तम्।उद्धरेत् योगारूढतापादनेन संसारसमुद्रादुत्तारयेत् न पुनरधो नयेदित्यर्थः। आत्मोद्धरणात्मावसादयोर्द्वयोरपि मनसो हेतुत्वं प्रपञ्च्यते आत्मैवेति। अन्ये बन्धवोऽपवर्गविरोधित्वादबन्धवः। अन्ये च रिपव आत्मप्रवृत्तिमूला इत्यवधारणाभिप्रायः।
।।6.5।।ननु कर्मसु भगवल्लीलानुकरणरूपेषु मनोहरणैकस्वभावेषु कथमासक्तिर्न स्यात् इत्याकाङ्क्षायामाह उद्धरेदिति। आत्मना पुरुषोत्तमरूपेण आत्मानं जीवं कर्मभ्य उद्धरेत् आत्मानं न अवसादयेत् तत्रैवासक्तियुक्तं न कुर्यात्। हि युक्तश्चायमर्थः। आत्मनो जीवस्य आत्मैव जीव एव बन्धुः हितकृत्। आत्मनो जीवस्य आत्मैव स एव रिपुः शत्रुः अत्र आत्मना आत्मानमुद्धरेद्बन्धुभावेन न रिपुभावेन अवसादयेत्।
।।6.5।।उद्धरेदिति। एवं क्रमेण कर्मद्वारा चित्तशुद्धिं संपाद्य योगारूढोऽभ्यासवैराग्यबलेनात्मानमुद्धरेत्। हि यस्मादात्मैवात्मनो बन्धुर्न पुत्रादय उद्धर्तुं क्षमाः। आत्मैव रिपुरात्मनः नत्वन्ये शत्रवः संसारे मज्जयितुमेनं क्षमा इत्यर्थः।
।।6.5।।यदैवं योगारुढस्तदा तेनात्मना त्माद्धृतो भवति संसारानर्थसमूहात् अतः संसारार्णवे निमग्नमात्मानमात्मनोद्धरेत् तत ऊर्ध्वं नयेद्योगारुढतामापादयेत्। आत्मनं नावसादयेन्नाधो नयेत्। हि यस्मादात्मैव बन्धुः संसारान्मोचको नान्यः कश्चन पुत्रादिः प्रत्युत मोक्षं प्रति प्रतिकूलएव स्नेहादिबन्धनायतनत्वात्।बन्धवो दृढबन्धन मित्युक्तत्वात् तथात्मैवात्मनो रिपुः नान्यो बाह्योऽपकारी। तस्यात्मप्रयुक्तत्वात्। तस्माद्युक्तमेवोभयत्रावधारणम्। आत्मैव बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन इत्युक्तं तत्र किंलक्षण आत्मात्मनो बन्धुरात्मात्मनो रिपुश्चेति तत्राह बन्धुरिति। तस्यात्मनः स आत्मा बन्धुः येनात्मना आत्मैव कार्यकरणसंघात एव जितः वशीकृतः श्रेयोऽभिमुखः जितेन्द्रिय इत्यर्थः। अनात्मनः अजितात्मनस्त्वजितकार्यकरणसंघातस्यात्मैव स्वयमेव शत्रुत्वे शत्रुभावे वर्तेत शत्रुवत्। यथात्मेतर आत्मनोपकारी तथात्मात्मनोपकारे वर्तेतेत्यर्थः। तथा चैतदनुरोधात्पुनःपुनरात्मशब्दस्वारस्याच्चोद्धरेदात्मनात्मानमित्यत्रापि स्वं स्वेनैवोद्धरेत्। हि यस्मात्स्वयमेव स्वस्य बन्धुः स्वयमेव स्वस्य शत्रुरित्यर्थः। एतेनात्मना विवेकयुक्तेन मनसा आत्मानं स्वं जीवं आत्मैव विवेकयुक्तं मनएवात्मनः स्वस्य बन्धुः येनात्मैवात्मना विवेकयुक्तेन मनसा जितो नतु शास्त्रादिनेति प्रत्युक्तम्। यत्तु नन्विन्द्रियार्थेष्वनासक्तौ तस्य सर्वसंकल्पसंन्यासिनः किं प्रयोजनं तत्राह उद्धरेदिति। अत्रोत्तरार्धस्थमात्मेतिपदं पूर्वार्धेऽनुषञ्जनीयम्। तथाचायं संबन्धः आत्मा पूर्वपूर्वापरिमितजन्मोपार्जितपुण्यपुञ्जपूर्णमन्तःकरणं कर्तृ आत्मानं प्रत्यञ्चं कर्म अन्तःकरणापरपर्यायजडाशयनिमग्नतया सकलानर्थभाजनतां गतं आत्मना विवेकवैराग्यादिसंपन्नेनोद्धरेदुक्तजडाशयात्पृथक् कुर्यात् न स्वधर्मैः कर्तृत्वादिभिस्तिरस्कुर्यात्। यत आत्मानं स्वस्य स्वधर्माणां च सत्तायाः प्रत्यगधीनत्वात् स्वजीवनभूतम् तथा चेदृशमुपकारं कुर्वत उद्धरणं तिरस्काराकरणं चोचितमेव। एवंच यदीन्द्रियार्थेषु सक्तः स्यात्तर्हि हविषा कृष्णवर्त्मेवेत्यादिन्यायेन कामानुपरमात् तत्क्रोधाद्युपस्थितौ न कदाचित्प्रतीचः संसारादुद्धारः स्यादिति युक्तएवेन्द्रियार्थेष्वनासक्त इत्याकूतम्। यद्वा आत्मा प्रत्यगात्मान्तर्यामी आत्मना विवेकादिसंपन्नेनान्तःकरणेन कर्तृत्वाद्यभिमानकलुषमन्तःकरणं उद्धरेत् कण्टकेनेव कण्टकं दूरेणोत्सादयेत्। कुतएवं कर्तव्यमत आह नात्मानमवसादयेदिति। आत्मानं प्रत्यग्रूपं स्वं नावसादयेत् न विशीर्ण परमात्मनो विभक्तरुपं कुर्यादित्यर्थः। ननु तदेवमेकमन्तःकरणमात्मन उपकारकमपकारकं च कथं भवतीत्याशङ्क्य स्वभावसहकारिवशात् विषस्येव मरणजीवनहेतुतया भेदं पुनरुक्तात्मपदप्रयोगात्सूचयन्नाह। आत्मैवान्तःकरणमेव विवेकादिसंपन्नं आत्मनो जीवस्य बन्धुः बन्धध्वंसहेतुः तथा विवेकाद्यसंपन्नमन्तःकरणमेव आत्मनः स्वभावज्जीवस्य सर्वानर्थात्मकबन्धनहेतुत्वादित्यर्थः।
6.5 उद्धरेत् should raise? आत्मना by the Self? आत्मानम् the self? न not? आत्मानम् the self? अवसादयेत् let (him) lower? आत्मा the Self? एव only? हि verily? आत्मनः of the self? बन्धुः friend? आत्मा the Self? एव only? रिपुः the enemy? आत्मनः of the self.Commentary Practise Yog. Discipline the senses and the mind. Elevate yourself and become a Yogarudha. Attain to Yoga. Shine gloriously as a dynamic Yogi. Do not sink into the ocean of Samsara (transmigration). Do not become a wordlyminded man. Do not become a slave of lust? greed and anger. Rise above worldliness? become divine and attain Godhead.You alone are your friend you alone are your enemy. The socalled worldly friend is not your real friend? because he gets attached to you? wastes your time and puts obstacles on your path of Yoga. He is very selfish and keeps friendship with you only to extract something. If he is not able to get from you the object of his selfish interest? he forsakes you. Therefore he is your enemy in reality. If you are attached to your friend on account of delusion or affection? this will become a cause of your bondage to Samsara.Friends and enemies are not outside. They exist in the mind only. It is the mind that makes a friend an enemy and an enemy a friend. Therefore the Self alone is the friend of oneself? and the Self alone is the enemy of oneself. The lower mind or the Asuddha Manas (impure mind) is your real enemy because it binds you to the Samsara? and the higher mind or the Sattvic mind (Suddha Manas or the pure mind) is your real friend? because it helps you in the attainment of Moksha.
6.5 One should raise oneself by one's Self alone; let not one lower oneself; for the Self alone is the friend of oneself, and the Self alone is the enemy of oneself.
6.5 Let him seek liberation by the help of his Highest Self, and let him never disgrace his own Self. For that Self is his only friend; yet it may also be his enemy.
6.5 One should save oneself by oneself; one should not lower oneself. For oneself is verily one's onw friend; oneself is verily one's own enemy.
6.5 Uddharet, one should save; atmanam, oneself sunk in the sea of the world; atmana, by oneself; one should save, ut-haret, should uplift (oneself) from that, i.e. make it attain the state of being established in Yoga. Na avasadayet, one should not lower, dase; atmanam, oneself. Hi, for; atma eva, oneself is verily; atmanah one's own; bandhuh, friend. Centainly there is no other friend who can bring about liberation from this world. In fact, even a friend is an obstacle to Liberation, he being the source of such bondages as love etc. Therefore the emphatic statement, 'For one is one's own friend, is justifiable. Atma eva, oneself verily; is atmanah, one's own: ripuh, enemy. Anyone else who is an external harmful enemy, even he is of one's own making! Therefore the firm conclusion, 'oneself verily is one's own enemy's is reasonable. It has been said that 'oneself is verily one's own friend, oneself verily is one's own enemy.' As to that, (the self) [Ast. has this additional word, atma, self.-Tr.] of what kind is one's own friend, or (the self) of what kind is one's own enemy? This is being answered:
6.5. Let a person lift the Self by self and let him not depress the Self. For, the self alone is the friend of the Self and self alone is the foe of the Self.
6.5 See Comment under 6.6
6.5 By the self (Atman), i.e., by the mind, which is unattached to sense-objects, one should raise the self. One should not allow the self to sink by a mind which is of the contrary kind. 'For the self alone,' i.e., the mind alone is the friend of the self; and it alone is the foe of the self. [The figure of speech here is of Samsara as the ocean in which the individual self is like an object with liability to sink. What causes its sinking is the lingering attachments of the mind to some objects, though in the discipline of Jnana Yoga one may keep aloof from such objects. A mind with such attachments is the foe and without them, the friend.]
6.5 One should raise the self by his own mind and not allow the self to sink; for the mind alone is the friend of the self, and the mind alone is the foe of the slef.
।।6.5।।जब मनुष्य इस प्रकार योगारूढ़ हो जाता है तब वह अनर्थोंके समूह इस संसारसमुद्रसे स्वयं अपना उद्धार कर लेता है इसलिये संसारसागरमें डूबे पड़े हुए अपनेआपको उस संसारसमुद्रसे आत्मबलके द्वारा ऊँचा उठा लेना चाहिये अर्थात् योगारूढ़ अवस्थाको प्राप्त कर लेना चाहिये। अपना अधःपतन नहीं करना चाहिये अर्थात् अपने आत्माको नीचे नहीं गिरने देना चाहिये। क्योंकि यह आप ही अपना बन्धु है। दूसरा कोई ( ऐसा ) बन्धु नहीं है जो संसारसे मुक्त करनेवाला हो। प्रेमादि भाव बन्धनके स्थान होनेके कारण सांसारिक बन्धु भी ( वास्तवमें ) मोक्षमार्गका तो विरोधी ही होता है। इसलिये निश्चयपूर्वक यह कहना ठीक ही है कि आप ही अपना बन्धु है। तथा आप ही अपना शत्रु है। जो कोई दूसरा अनिष्ट करनेवाला बाह्य शत्रु है वह भी अपना ही बनाया हुआ होता है इसलिये आप ही अपना शत्रु है इस प्रकार केवल अपनेको ही शत्रु बतलाना भी ठीक ही है।
।।6.5।। उद्धरेत् संसारसागरे निमग्नम् आत्मना आत्मानं ततः उत् ऊर्ध्वं हरेत् उद्धरेत् योगारूढतामापादयेदित्यर्थः। न आत्मानम् अवसादयेत् न अधः नयेत् न अधः गमयेत्। आत्मैव हि यस्मात् आत्मनः बन्धुः। न हि अन्यः कश्चित् बन्धुः यः संसारमुक्तये भवति। बन्धुरपि तावत् मोक्षं प्रति प्रतिकूल एव स्नेहादिबन्धनायतनत्वात्। तस्मात् युक्तमवधारणम् आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः इति। आत्मैव रिपुः शत्रुः। यः अन्यः अपकारी बाह्यः शत्रुः सोऽपि आत्मप्रयुक्त एवेति युक्तमेव अवधारणम् आत्मैवरिपुरात्मनः इति।।आत्मैव बन्धुः आत्मैव रिपुः आत्मनः इत्युक्तम्। तत्र किंलक्षण आत्मा आत्मनो बन्धुः किंलक्षणो वा आत्मा आत्मनो रिपुः इत्युच्यते
।।6.5।।नन्वेवं विद्ध्युपयुक्तमुक्त्वा समाधियोगे विधेये किमर्थमात्मोद्धारकर्तव्यतोच्यते इत्यतोऽनया वाचोभङ्ग्या योग एव विधीयत इत्याह स चेति। तस्याधिकार्यादिकमुक्तं स एव च योग इति वक्तव्ये यदाऽऽरोहग्रहणं कृतं तेन तावत्पर्यन्तं योगः कर्तव्यः न मध्य एव त्याज्य इति ज्ञापितम्। प्रयत्नेनाभियोगेन।
।।6.5।।स च योगारोहः प्रयत्नेन कर्तव्य इत्याह उद्धरेदित्यादिना।
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।6.5।।
উদ্ধরেদাত্মনাত্মানং নাত্মানমবসাদযেত্৷ আত্মৈব হ্যাত্মনো বন্ধুরাত্মৈব রিপুরাত্মনঃ৷৷6.5৷৷
উদ্ধরেদাত্মনাত্মানং নাত্মানমবসাদযেত্৷ আত্মৈব হ্যাত্মনো বন্ধুরাত্মৈব রিপুরাত্মনঃ৷৷6.5৷৷
ઉદ્ધરેદાત્મનાત્માનં નાત્માનમવસાદયેત્। આત્મૈવ હ્યાત્મનો બન્ધુરાત્મૈવ રિપુરાત્મનઃ।।6.5।।
ਉਦ੍ਧਰੇਦਾਤ੍ਮਨਾਤ੍ਮਾਨਂ ਨਾਤ੍ਮਾਨਮਵਸਾਦਯੇਤ੍। ਆਤ੍ਮੈਵ ਹ੍ਯਾਤ੍ਮਨੋ ਬਨ੍ਧੁਰਾਤ੍ਮੈਵ ਰਿਪੁਰਾਤ੍ਮਨ।।6.5।।
ಉದ್ಧರೇದಾತ್ಮನಾತ್ಮಾನಂ ನಾತ್ಮಾನಮವಸಾದಯೇತ್. ಆತ್ಮೈವ ಹ್ಯಾತ್ಮನೋ ಬನ್ಧುರಾತ್ಮೈವ ರಿಪುರಾತ್ಮನಃ৷৷6.5৷৷
ഉദ്ധരേദാത്മനാത്മാനം നാത്മാനമവസാദയേത്. ആത്മൈവ ഹ്യാത്മനോ ബന്ധുരാത്മൈവ രിപുരാത്മനഃ৷৷6.5৷৷
ଉଦ୍ଧରେଦାତ୍ମନାତ୍ମାନଂ ନାତ୍ମାନମବସାଦଯେତ୍| ଆତ୍ମୈବ ହ୍ଯାତ୍ମନୋ ବନ୍ଧୁରାତ୍ମୈବ ରିପୁରାତ୍ମନଃ||6.5||
uddharēdātmanā৷৷tmānaṅ nātmānamavasādayēt. ātmaiva hyātmanō bandhurātmaiva ripurātmanaḥ৷৷6.5৷৷
உத்தரேதாத்மநாத்மாநஂ நாத்மாநமவஸாதயேத். ஆத்மைவ ஹ்யாத்மநோ பந்துராத்மைவ ரிபுராத்மநஃ৷৷6.5৷৷
ఉద్ధరేదాత్మనాత్మానం నాత్మానమవసాదయేత్. ఆత్మైవ హ్యాత్మనో బన్ధురాత్మైవ రిపురాత్మనః৷৷6.5৷৷
6.6
6
6
।।6.6।। जिसने अपने-आपसे अपने-आपको जीत लिया है, उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने-आपको नहीं जीता है, ऐसे अनात्माका आत्मा ही शत्रुतामें शत्रुकी तरह बर्ताव करता है।
।।6.6।। जिसने आत्मा (इंद्रियों,आदि) को आत्मा के द्वारा जीत लिया है, उस पुरुष का आत्मा उसका मित्र होता है, परन्तु अजितेन्द्रिय के लिए आत्मा शत्रु के समान स्थित होता है।।
।।6.6।। जिस मात्रा में जीव शरीर मन और बुद्धि से तादात्म्य को त्यागता है उस मात्रा में वह आत्मा के दिव्य प्रभाव से प्रभावित होता है। तब आत्मा उसका मित्र कहलाता है। वही मन जब बहिर्मुखी होकर विषयों मे आसक्त होता है तब मानों आत्मा उसका शत्रु होता है।निष्कर्ष यह निकला कि चैतन्य आत्मा समान रूप से विद्यमान रहता है परन्तु मन की अन्तर्मुखी अथवा बहिर्मुखी प्रवृत्तियों की दृष्टि से वह मनुष्य का मित्र अथवा शत्रु कहलाता है। और यदि आत्मा शब्द का अर्थ मन करें तो अर्थ होगा कि संयमित मन मनुष्य का मित्र है और स्वेच्छाचारी उसका शत्रु । यह श्लोक पूर्व श्लोक के अर्थ को अधिक स्पष्ट करता है।योगरूढ़ मनुष्य के पूर्णत्व की स्थिति को अगले श्लोक में बताया गया है
।।6.6।। व्याख्या--'बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः'--अपनेमें अपने सिवाय दूसरेकी सत्ता है ही नहीं। अतः जिसने अपनेमें अपने सिवाय दूसरे-(शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि-) की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं रखी है अर्थात् असत् पदार्थोंके आश्रयका सर्वथा त्याग करके जो अपने सम स्वरूपमें स्थित हो गया ,है उसने अपने-आपको जीत लिया है। वह अपने-आपमें स्थित हो गया--इसकी क्या पहचान है? उसका अन्तःकरण समतामें स्थित हो जायगा; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है। उस ब्रह्मकी निर्दोषता और समता उसके अन्तःकरणपर आ जाती है। इससे पता लग जाता है कि वह ब्रह्ममें स्थित है (गीता 5। 19)। तात्पर्य यह निकला कि ब्रह्ममें स्थित होनेसे ही उसने अपने द्वारा अपने-आपपर विजय प्राप्त कर ली है। वास्तवमें ब्रह्ममें स्थिति तो नित्य-निरन्तर थी ही, केवल मन, बुद्धि आदिको अपना माननेसे ही उस स्थितिका अनुभव नहीं हो रहा था।संसारमें दूसरोंकी सहायताके बिना कोई भी किसीपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता और दूसरोंकी सहायता लेना ही स्वयंको पराजित करना है। इस दृष्टिसे स्वयं पहले पराजित होकर ही दूसरोंपर विजय प्राप्त करता है। जैसे, कोई अस्त्र-शस्त्रोंसे दूसरेको पराजित करता है, तो वह दूसरोंको पराजित करनेमें अपने लिये अस्त्र-शस्त्रोंकी आवश्यकता मानता है; अतः स्वयं अस्त्र-शस्त्रोंसे पराजित ही हुआ। कोई शास्त्रके द्वारा, बुद्धिके द्वारा शास्त्रार्थ करके दूसरोंपर विजय प्राप्त करता है, तो वह स्वयं पहले शास्त्र और बुद्धिसे पराजित होता ही है और होना ही पड़ेगा। तात्पर्य यह निकला कि जो किसी भी साधनसे जिस किसीपर भी विजय करता है, वह अपने-आपको ही पराजित करता है। स्वयं पराजित हुए बिना दूसरोंपर कभी कोई विजय कर ही नहीं सकता--यह नियम है। अतः जो अपने लिये दूसरोंकी किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं समझता, वही अपने-आपसे अपने-आपपर विजय प्राप्त करता है और वही स्वयं अपना बन्धु है।
।।6.5 6.6।।अस्यां च बुद्धौ अवश्यमेवावधेयमित्याह उद्धरेदिति। बन्धुरिति। अत्र च नान्य उपायः अपि तु आत्मैव मन एवेत्यर्थः। जितं हि मनो मित्रं घोरतरसंसारोद्धरणं करोति अजितं तु तीव्रनिरयपातनात् शत्रुत्वं कुरुते।
।।6.6।।येन पुरुषेण स्वेन एव स्वमनो विषयेभ्यो जितं तन्मनः तस्य बन्धुः अनात्मनः अजितमनसः स्वकीयम् एव मनः स्वस्य शत्रुवत् शत्रुत्वे वर्तेत स्वनिःश्रेयसविपरीते वर्तेत इत्यर्थः। यथोक्तं भगवता पराशरेण अपि मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। बन्धाय विषयासङ्गि मुक्त्यै निर्विषयं मनः। (वि0 पु0 6।7।28) इति।योगारम्भयोग्यावस्था उच्यते
।।6.6।।उक्तमनूद्य प्रश्नपूर्वकं श्लोकान्तरमवतारयति आत्मैवेत्यादिना। एकस्यैवात्मनो मिथो विरुद्धं बन्धुत्वं रिपुत्वं च लक्षणभेदमन्तरेणायुक्तमिति चोदिते वशीकृतसंघातस्यात्मानं प्रति बन्धुत्वमितरस्य शत्रुत्वमित्यविरोधं दर्शयति बन्धुरित्यादिना। वशीकृतसंघातस्य विक्षेपाभावादात्मनि समाधानसंभवादुपपन्नमात्मानं प्रति बन्धुत्वमिति साधयति तस्येति। अवशीकृतसंघातस्य पुनर्विक्षेपोपपत्तेरात्मनि समाधानायोगादात्मानं प्रति शत्रुभावे प्रसिद्धशत्रुवदात्मैव शत्रुत्वेन वर्तेतेत्युत्तरार्धं व्याकरोति अनात्मन इति। दृष्टान्तं व्याचष्टे यथेति।उक्तदृष्टान्तवशादवशीकृतसंघातः स्वस्य हितानाचरणादात्मानं प्रति शत्रुरेवेति दार्ष्टान्तिकमाह तथेति।
।।6.6।।किम्भूतस्यैवात्मा बन्धुरात्मा रिपुश्च इत्यपेक्षायामाह बन्धुरिति। आत्मा कार्यकरणसङ्घाताभिमानिरूपः। आत्मना विविक्तधिया।
।।6.6।।इदानीं किंलक्षण आत्मात्मनो बन्धुः किंलक्षणो वात्मनो रिपुरित्युच्यते आत्मा कार्यकरणसंघातो येन जितः स्ववशीकृतः आत्मनैव विवेकयुक्तेन मनसैव नतु शस्त्रादिना तस्यात्मा स्वरूपमात्मनो बन्धुरुच्छृङ्खलस्वप्रवृत्त्यभावेन स्वहितकरणात् अनात्मनस्तु अजितात्मन इत्येतत्। शत्रुत्वे शत्रुभावे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् बाह्यशत्रुरिवोच्छृङ्खलप्रवृत्त्या स्वस्य स्वेनानिष्टाचरणात्।
।।6.6।।कथंभूतस्यात्मैव बन्धुः कथंभूतस्य चात्मैव रिपुरित्यपेक्षायामाह बन्धुरिति। येनात्मनैवात्मा कार्यकारणसंघातरूपो जितो वशीकृतस्तस्य तथाभूतस्यात्मन आत्मैव बन्धुः। अनात्मनोऽजितात्मनस्त्वात्मैवात्मनः शत्रुत्वे शत्रुवदपकारकारित्वे वर्तेत।
।।6.6।।एकस्यैवैकं प्रति बन्धुत्वं रिपुत्वं च व्याहतमिति शङ्का परिह्रियते बन्धुरात्मेति श्लोकेन।स्वेनैवेति स्वात्मनेत्यर्थः। मनसो विजयो नाम विषयेभ्यो व्यावर्तनमित्यभिप्रायेणोक्तं विषयेभ्यो विजितमिति। बन्धुत्वोपपादनं हि मनसो विजयेनोक्तम्। शत्रुत्वोपपादनमपि हि तदभावेनेत्यभिप्रायेणोक्तंअनात्मनोऽजितमनस इति।आत्मैव इत्येवकाराभिप्रेतमाह स्वकीयमेव मन इति। स्वशेषभूतमेव हि विरोधि सञ्जातमिति भावः। शत्रुशब्दयोः पुनरुक्तिभ्रमव्युदासायान्वयमाह शत्रुवच्छत्रुत्वे वर्तेतेति। सम्प्रतिपन्नो बाह्यशत्रुरिह दृष्टान्तितः। शत्रुकृत्यमिह शत्रुत्वंविवक्षितमित्याह स्वनिश्श्रेयसविपरीत इति। नन्वत्रात्मनेत्यादीनां मनोविषयत्वं कथम् कार्यकरणसङ्घातविषयत्वं हि परैः (शं.) उक्तम् ऐकरूप्येण सर्वेषामात्मशब्दानां स्वात्मविषयत्वं किं न स्यात् कथं च मनसो जयादिः विषयव्यावर्तनादिरूपः इति शङ्कायां कर्मकर्त्रादिभेदव्यपदेशौचित्यात् पूर्वोत्तरानुसन्धानाच्च सिद्धमेवार्थं संवादेन द्रढयति यथोक्तमिति।
।।6.6।।ननु कथं स एव बन्धुः कथं वा स एव शत्रुः अत आह बन्धुरिति। येन आत्मना भावस्वरूपेण आत्मा जितः वशीकृतः अधिकरणादिदेहकृतिभ्यो भावरूपे स्थापित इत्यर्थः। तस्य आत्मन आत्मैव बन्धुर्हितकृद्भवतीत्यर्थः। स्वस्य दास्यार्थे प्रकटितस्य तदुचितकरणैकभावप्रयुक्तसन्तोषेण बन्धुस्तद्भावस्वरूप एव स्वाधिदैविकस्वरूपेण भवतीति भावः। तु पुनः। अनात्मनो भावस्वरूपरहितस्य आत्मैव शत्रुवत् शत्रुत्वे तद्भावप्रतिबन्धके वर्तेत। तथा चायमर्थः भावरहितकेवलकर्मासक्तस्वदास्यार्थप्रकटितप्रयोजनरहितस्वस्य स्वरूपानर्थक्यकृतिरोषेणाधिदैविक आत्मा अत्र कर्मसु सेवादिषु तदावेशप्रतिबन्धको भवेत्।
।।6.6।।आत्मना मनः आत्मना मनसा अनात्मनः अजितचेतसः आत्मा मन एव शत्रुः।
।।6.6।।उभयत्रैवकारं प्रत्युञ्जनस्यायमाशयः यत्रापि देवदत्तस्य यज्ञदत्तो बन्धुरुच्यते यत्र वा चैत्रस्य मैत्रो वैरीत्युच्यते तत्रापि चैतन्यस्योपधीयमानस्य स्वतोऽपरिणामित्वान्न बन्धुतारिते। उपाधेः परमन्तःकरणस्यैव रागाख्ये परिणामे बन्धुता द्वेषाख्ये तस्मिन् अरितेति नान्यत्रैतौ धर्मौ संभवत इति बन्धुत्वं रिपुत्वं चान्तःकरणस्य स्पष्टयति बन्धुरिति। तस्यात्मनो जीवस्यात्मान्तःकरणं बन्धुर्भवति येन नियन्त्रा जीवेनान्तःकरणेनैव पूर्वोक्तसहायसहकृतेनात्मा शरीराख्यः सेन्द्रियो जितः स्वाधीनः संपादितः तस्यान्तःकरणं बन्धुरित्यर्थः। कदा पुनरन्तःकरणं रिपुस्तत्राह अनात्मनः पूर्वमात्मशब्देनोक्तस्य देहस्य यदा शत्रुत्वं वशत्वाभावस्तदात्मान्तःकरणमेव शत्रुवद्वर्तत इति ज्ञेयमित्यर्थ इतीतरकल्पितं तत्पुनः पुनरात्मशब्दप्रयोगस्वारस्यान्निरसनीयम्। अन्यथा आत्मशब्दस्य मुख्यामुख्यवृत्त्या बह्वर्थकत्वादन्यदपि किंचित्कल्पयितुं शक्यम्। तथाहि आत्मनेश्वरेणात्मानं जीवमुद्धरेत्। नात्मानमवसादयेत्। यत आत्मा ईश्वर एक जीवस्य बन्धुः स एव चैतस्य रिपुरित्यर्थः। ईश्वरस्यैव बन्धुत्वं रिपुत्वं च स्फुटयति। तस्य जीवस्यात्मेश्वरो बन्धुरुद्धारकः। येनात्मना भक्तियुक्तेन मनसा आत्मेश्वरो जितः वशीकृतः। अनात्मनस्त्ववशीकृतपरमेश्वरस्य त्वीश्वर एव शत्रुवत् शत्रुत्वेन वर्तेत। यद्वा आत्मना पुण्यलब्धेन मनुष्यदेहेनात्मानमुद्धरेत्। यतः आत्मैव देह एवात्मनो बन्धुः सएव जीवस्य रिपुः। देहस्य बन्धुत्वं रिपुत्वं च स्फुटयति। तस्यात्मनः आत्मा देहो बन्धुः येनात्मना विवेकयुक्तेन मनसा आत्मा देहो जितः। अनात्मनस्तु अजितदेहस्य तु शत्रुवत्। शत्रुत्वं देहएव वर्तत इत्यर्थः। अथवा आत्मना अखण्डाकारबुद्धिरुपेणात्मानमहंकारमुत् ऊर्ध्वं नयेत् देहात् प्रच्याव्य ब्रह्मण्यहंब्रह्मास्मीति योजयेत्। नात्मानमहंकारमवसादयेत् परिच्छिन्ने देहे तदभिमानेन पीडयेत्। यत आत्मैवाहंकारएव ब्रह्मणि नियोजितो बन्धुरात्मनो जीवस्य ब्रह्माभेदसंपादनेन बन्धनिवर्तकत्वात्। सएव परिच्छिन्ने देहे पीडितः शत्रुर्जन्ममरणाद्यनर्थनिचयसंपादकत्वात्। अहंकारस्यैव बन्धुत्वं निपुत्वं च विशदयति। तस्यात्मन आत्मा अहंकाररुपो बन्धुर्येनाहंकार एव आत्मनोक्तबुद्धिरुपेण जितः वशीकृत्य ब्रह्माकारतां नीतः। अनात्मनस्त्ववशीकृताहंकारस्य तु शत्रुवच्छत्रुत्वे वर्तत इत्यर्थः। सर्वथाप्यनासक्तेन संसारनिवृत्तिः संपाद्येत्यलं विस्तरेण। तस्मात्प्रकृतानुसारिभाष्योक्तव्याख्यानमेव शरणीकरणीयमिति दिक्।
6.6 बन्धुः friend? आत्मा the Self? आत्मनः of the self? तस्य his? येन by whom? आत्मा the self? एव even? आत्मना by the Self? जितः is conered? अनात्मनः of unconered self? तु but? शत्रुत्वे in the place of an enemy? वर्तेत would remain? आत्मा the Self? एव even? शत्रुवत् like an enemy.Commentary Coner the lower mind through the higher mind. The lower mind is your enemy. The higher mind is your friend. If you make friendship with the higher mind you can subdue the lower mind ite easily. The lower mind is filled with Rajas and Tamas (passion and darkness). The higher mind is filled with Sattva or purity.The Self is the friend of one who is selfcontrolled? and who has subjugated the lower mind and the senses. But the Self is an enemy of one who has no selfrestraint? and who has not subdued the lower mind and the senses. Just as an external enemy does harm to him? so also his own (lower) self (mind) does harm to him. The lower mind injures him severely. The highest Self or Atman is the primary Self. Mind also is self. This is the secondary self.
6.6 The Self is the friend of the self of him by whom the self has been conered by the Self, but to the unconered self, this Self stands in the position of an enemy, like an (external) foe.
6.6 To him who has conquered his lower nature by Its help, the Self is a friend, but to him who has not done so, It is an enemy.
6.6 Of him, by whom has been conered his very self by the self, his self is the friend of his self. But, for one who has not conered his self, his self itself acts inimically like an enemy.
6.6 Tasya, of him; yena, by whom; jitah, has been conered, subdued; his eva atma, very self, the aggregate of body and organs; that atma, self; is bandhuh, the friend; atmanah, of his self. The idea is that he is a coneror of his senses. Tu, but; anatmanah, for one who has not conered his self, who has no self-control; atma eva, his self itself; varteta, acts; satruvat, like an enemy; satrutve, inimically, with the attitude of an enemy. As an enemy, who is different from oneself, does harm to oneself, similarly one's self behaves like an enemy to oneself. This is the meaning. [If the body and organs are under control, they are helpful in concentrating one's mind on the Self; but, if they are not under control, they oppose this concentration.]
6.6. The self is the friend of that Self by Which the self has been verily subdued; but [in the case of] a person with an unsubdued self, the self alone would abide in enmity like an enemy.
6.5-6 Uddharet etc. Bandhuh etc. In this [path] there is no other means excepting the self i.e. nothing but one's mind. Indeed the subdued mind is a friend and it lifts up [the Self] from the highly dreadful cycle of birth and death. But the unsubdued one does the act of enmity as it throws [the Self] down in the horrible hell. The characteristic mark of the subdued-minded man is this :
6.6 A person whose mind is conered by himself in relation to sense-objects, has that mind as his friend. In the case of one whose mind is not conered in this way, his own mind, like an enemy, remains hostile. The meaning is that it acts, against his attainment of supreme beatitude. It has been stated by Bhagavan Parasara also: 'The mind of man is the cause both of his bondage and his release. Its addiction to sense objects is the cause of his bondage; its separation from sense objects is the means of one's release' (V. P., 6.7.28). The proper condition for the beginning of Yoga is now taught:
6.6 The mind is the friend of him by whom the mind has been conered. But for him whose mind is not conered, the mind, like an enemy, remains hostile.
।।6.6।।आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है यह बात कही गयी उसमें किन लक्षणोंवाला पुरुष तो ( आप ही ) अपना मित्र होता है और कौन ( आप ही ) अपना शत्रु होता है सो कहा जाता है उस जीवात्माका तो वही आप मित्र है कि जिसने स्वयमेव कार्यकरणके समुदाय शरीररूप आत्माको अपने वशमें कर लिया हो अर्थात् जो जितेन्द्रिय हो। जिसने ( कार्यकरणके संघात ) शरीररूप आत्माको अपने वशमें नहीं किया उसका वह आपही शत्रुकी भाँति शत्रुभावमें बर्तता है। अर्थात् जैसे दूसरा शत्रु अपना अनिष्ट करनेवाला होता है वैसे ही वह आप ही अपना अनिष्ट करनेमें लगा रहता है।
।।6.6।। बन्धुः आत्मा आत्मनः तस्य तस्य आत्मनः स आत्मा बन्धुः येन आत्मना आत्मैव जितः आत्मा कार्यकरणसंघातो येन वशीकृतः जितेन्द्रिय इत्यर्थः। अनात्मनस्तु अजितात्मनस्तु शत्रुत्वे शत्रुभावे वर्तेत आत्मैव शत्रुवत् यथा अनात्मा शत्रुः आत्मनः अपकारी तथा आत्मा आत्मन अपकारे वर्तेत इत्यर्थः।।
।।6.6।।आत्मैव हि 6।5 इत्युक्तमेव उत्तरश्लोके किमिति कथ्यते इति मन्दाशङ्कानिरासार्थमाह कस्येति। किंविशेषणश्चेत्यपि ग्राह्यम्। तस्यैव तमेव प्रति बन्धुत्वं रिपुत्वं च विरुद्धम् तद्विशेषणभेदेन व्यवस्थाप्यम्। तथा च किंविशेषणस्यात्मनः किंविशेषणो वाऽऽत्मा बन्धू रिपुश्च इत्यर्थ इति पृच्छायामिति शेषः।आत्मा आत्मनः इति पदद्वयम्। आत्मशब्दस्यानेकार्थत्वाद्व्याचष्टे आत्मेति। नन्वाद्यश्लोके स्वपर्याय एवात्मशब्दः प्रकृतः तदुपपादकद्वितीये कथमन्योऽर्थः इत्यत आह आत्मनेति। अनयैव रीत्याऽऽद्यश्लोकोत्तरार्धगतात्मशब्दव्याख्यानं द्रष्टव्यम्।येनात्मैवात्मना जितः इत्यत्रात्मशब्दौ व्याचष्टे आत्मैवेति। एवशब्दोपादानं व्याख्येयविवेकार्थम्। जीवेनैव इत्यवधारणं प्राधान्यज्ञापनार्थम्। यदाऽऽत्मशब्दो जीवे तदा कर्तरि तृतीया यदा बुद्धौ तदा करण इति ज्ञापयन्नुपपादयति स हीति। विजयति विजयते मन इति शेषः।स्वेनैव रा.भा. इत्यादिव्याख्याननिरासार्थमुक्तेऽर्थे प्रमाणान्याह उक्तं चेति। अनात्मन इति नञ्समासो बहुव्रीहिर्वा स्यात्। नाद्यः आत्मन आत्मान्यत्वानुपपत्तेः आत्मान्तरादन्यत्वस्य च प्रकृतेऽनुपयोगात्। न द्वितीयः आत्मशब्दस्य जीववाचित्वे वा मनोवाचित्वे वा संसारिणि तदभावस्यासम्भवादित्यत आह अनात्मन इति। बहुव्रीहिपरिग्रहसूचनाय पुरुषस्येत्यन्यपदार्थो दर्शितः। अनात्मशब्दार्थं दर्शयितुमाह अजितेति। नन्वविद्यमान आत्मा यस्यासावनात्मा तत्कथमुच्यतेऽजितात्मन इति तत्राह सदपीति। विद्यमानमपि मनोऽजितमनुपकारीति। अविद्यमानसादृश्यादविद्यमानतामुपचर्य अजितात्मा अनात्मोक्त इत्यर्थः। गौणप्रयोगे किं प्रयोजनं इति चेत् न रूढोपचारे प्रयोजनानपेक्षणात् इति भावेनाह सन्नपीति। भृत्यपदे सेवादौ। पदानां व्यवहितत्वादनात्मन इत्यर्धं व्याचष्टे तस्येति। तस्याजितमनस्कस्य बन्धुरेवेत्येवार्थः। शत्रुवत्प्रसिद्धशत्रुरिव शत्रुत्वेऽपकारित्वे।
।।6.6।।कस्य बन्धुरात्मा इत्याह बन्धुरात्मेति। आत्मा मनः आत्मनो जीवस्य। आत्मना मनसा आत्मानं जीवम्। आत्मैव मनः आत्मना बुद्ध्या जीवेनैव वा।स हि बुद्ध्या विजयति। उक्तं च मनः परं कारणमामनन्तिमन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः मैत्रा.4।3।11।ब्र.बिं.2उद्धरेन्मनसा जीवं न जीवमवसादयेत्। जीवस्य बन्धुः शत्रुश्च मन एव न संशयः।जीवेन बुद्ध्या हि यदा मनो जितं तदा बन्धुः शत्रुरन्यत्र चास्य। ततो जयेद्बुद्धिबलो नरस्तद्देवे च भक्त्या मधुकैटभारौं। इत्यादि ब्रह्मवैवर्ते। अनात्मनोऽजितात्मनः पुरुषस्य अजितमनस्कस्य सदपि मनोऽनुपकारीत्यनात्मा। सन्नपि भृत्यो न यस्य भृत्यपदे वर्तते स ह्यभृत्यः तस्यात्मन एव शत्रुवच्छत्रुत्वे वर्तते।
बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।6.6।।
বন্ধুরাত্মাত্মনস্তস্য যেনাত্মৈবাত্মনা জিতঃ৷ অনাত্মনস্তু শত্রুত্বে বর্তেতাত্মৈব শত্রুবত্৷৷6.6৷৷
বন্ধুরাত্মাত্মনস্তস্য যেনাত্মৈবাত্মনা জিতঃ৷ অনাত্মনস্তু শত্রুত্বে বর্তেতাত্মৈব শত্রুবত্৷৷6.6৷৷
બન્ધુરાત્માત્મનસ્તસ્ય યેનાત્મૈવાત્મના જિતઃ। અનાત્મનસ્તુ શત્રુત્વે વર્તેતાત્મૈવ શત્રુવત્।।6.6।।
ਬਨ੍ਧੁਰਾਤ੍ਮਾਤ੍ਮਨਸ੍ਤਸ੍ਯ ਯੇਨਾਤ੍ਮੈਵਾਤ੍ਮਨਾ ਜਿਤ। ਅਨਾਤ੍ਮਨਸ੍ਤੁ ਸ਼ਤ੍ਰੁਤ੍ਵੇ ਵਰ੍ਤੇਤਾਤ੍ਮੈਵ ਸ਼ਤ੍ਰੁਵਤ੍।।6.6।।
ಬನ್ಧುರಾತ್ಮಾತ್ಮನಸ್ತಸ್ಯ ಯೇನಾತ್ಮೈವಾತ್ಮನಾ ಜಿತಃ. ಅನಾತ್ಮನಸ್ತು ಶತ್ರುತ್ವೇ ವರ್ತೇತಾತ್ಮೈವ ಶತ್ರುವತ್৷৷6.6৷৷
ബന്ധുരാത്മാത്മനസ്തസ്യ യേനാത്മൈവാത്മനാ ജിതഃ. അനാത്മനസ്തു ശത്രുത്വേ വര്തേതാത്മൈവ ശത്രുവത്৷৷6.6৷৷
ବନ୍ଧୁରାତ୍ମାତ୍ମନସ୍ତସ୍ଯ ଯେନାତ୍ମୈବାତ୍ମନା ଜିତଃ| ଅନାତ୍ମନସ୍ତୁ ଶତ୍ରୁତ୍ବେ ବର୍ତେତାତ୍ମୈବ ଶତ୍ରୁବତ୍||6.6||
bandhurātmā৷৷tmanastasya yēnātmaivātmanā jitaḥ. anātmanastu śatrutvē vartētātmaiva śatruvat৷৷6.6৷৷
பந்துராத்மாத்மநஸ்தஸ்ய யேநாத்மைவாத்மநா ஜிதஃ. அநாத்மநஸ்து ஷத்ருத்வே வர்தேதாத்மைவ ஷத்ருவத்৷৷6.6৷৷
బన్ధురాత్మాత్మనస్తస్య యేనాత్మైవాత్మనా జితః. అనాత్మనస్తు శత్రుత్వే వర్తేతాత్మైవ శత్రువత్৷৷6.6৷৷
6.7
6
7
।।6.7।। जिसने अपने-आपपर अपनी विजय कर ली है, उस शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) सुख-दुःख तथा मान-अपमानमें निर्विकार मनुष्यको परमात्मा नित्यप्राप्त हैं।
।।6.7।। शीत-उष्ण, सुख-दु:ख तथा मान-अपमान में जो प्रशान्त रहता है, ऐसे जितात्मा पुरुष के लिये परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है, अर्थात्, आत्मरूप से विद्यमान है।।
।।6.7।। जब योगारूढ़ पुरुष आत्मचिन्तन में स्थित हो जाता है तब उसमें वह क्षमता आ जाती है कि वह जीवन की सभीअनुकूल और प्रतिकूलपरिस्थितियों में ध्यानाभ्यास की निरन्तरता बनाये रख सकता है। यहाँ दूसरी पंक्ति में स्पष्ट दर्शाया है कि बाह्य जगत् में कोई ऐसा पर्याप्त कारण नहीं रह जाता जो उसे आत्मध्यान से विचलित कर सके।शीतउष्ण सुखदुख तथा मानअपमान इन तीन द्वन्द्वों के द्वारा भगवान् सभी संभाव्य विघ्नों को सूचित करते हैं जो मनुष्य के जीवन में आकर उसकी समता और शांति को भंग करने में समर्थ होते हैं।शीतउष्ण इसका अनुभव स्थूल शरीर के स्तर पर होता है। शीत या उष्ण में हमारे मन के विचारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे शीत में न सिकुड़ते हैं और न काँपते हैं उसी प्रकार उष्णता से न वे अधिक व्यापक होते हैं और न उन्हें स्वेद आता है ये सब लक्षण शरीर में ही दिखाई देते हैं और इसलिये शीतउष्ण इस द्वन्द्व के द्वारा वे सभी अनुभव बताये गये हैं जो शरीर को होते हैं जैसेरोग युवावस्था वृद्धावस्था आदि।सुखदुख मन के स्तर पर प्राप्त होने वाले सभी अनुभवों को सुखदुख रूप द्वन्द्व से दर्शाया गया है। स्पष्ट है कि इसका अनुभव मन को होता है शरीर को नहीं। प्रेम और घृणा स्नेह और ईर्ष्या करुणा और क्रूरता ऐसी ही असंख्य प्रकार की भावनाएँ मन में उठती रहती हैं जो मनुष्य को विचलित कर देती हैं परन्तु इनमें किसी में भी यह सार्मथ्य नहीं कि वह जितेन्द्रिय संयमित पुरुष को किसी प्रकार की हानि पहुँचा सके।मानअपमान के कारण यदि किसी साधक को विक्षेप होता है तो उसके प्रति सहानुभूति दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं। मानअपमान की कल्पना बुद्धि की होती है और फिर मनुष्य अपनी कल्पना के अनुसार प्राप्त परिस्थितियों में प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।शरीर मन और बुद्धि ये तीन उपाधियाँ हैं जिनके द्वारा उपर्युक्त द्वन्द्वरूप विघ्न आने की संभावनायें रहती हैं। भगवान् कहते हैं कि प्रशान्त चित्त वाले जितेन्द्रिय पुरुष के लिये परमात्मा सदा ही आत्मभाव से विद्यमान रहता है। इन परिस्थितियों का उस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितयाँ हों अच्छा या बुरा वातावरण हो अथवा मूर्ख या बुद्धिमान का साथ हो आत्मज्ञानी पुरुष सदा प्रशान्त और समभाव में स्थित रहता है।ऐसे ज्ञानी पुरुष की क्या विशेषता है क्यों कोई पुरुष इस कठिन साधना का अभ्यास करे भगवान् कहते हैं
।।6.7।। व्याख्या--[छठे श्लोकमें'अनात्मनः' पद और यहाँ 'जितात्मनः' पद आया है। इसका तात्पर्य है कि जो 'अनात्मा' होता है, वह शरीरादि प्राकृत पदार्थोंके साथ 'मैं 'और 'मेरा'-पन करके अपने साथ शत्रुताका बर्ताव करता है और जो 'जितात्मा' होता है, वह शरीरादि प्राकृत पदार्थोंसे अपना सम्बन्ध न मानकर अपने साथ मित्रताका बर्ताव करता है। इस तरह अनात्मा मनुष्य अपना पतन करता है और जितात्मा मनुष्य अपना उद्धार करता है।]'जितात्मनः' जो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि किसी भी प्राकृत पदार्थकी अपने लिये सहायता नहीं मानता और उन प्राकृत पदार्थोंके साथ किञ्चिन्मात्र भी अपनेपनका सम्बन्ध नहीं जोड़ता, उसका नाम 'जितात्मा' है। जितात्मा मनुष्य अपनी तो हित करता ही है, उसके द्वारा दुनियाका भी बड़ा भारी हित होता है।
।।6.7।।तत्र जितमनस इदं रूपम् जितेति। प्रशान्तो निरहंकारः। परेषु आत्मनि च शीतोष्णादिषु च अभेदधीः न रागद्वेषौ।
।।6.7।।शीतोष्णसुखदुःखेषु मानापमानयोः च जितात्मनः जितमनसः विकाररहितमनसः प्रशान्तस्य मनसि परमात्मा समाहितः सम्यगाहितः। स्वरूपेण अवस्थितः प्रत्यगात्मा अत्र परमात्मा इत्युच्यते तस्य एव प्रकृतत्वात् तस्य अपि पूर्वपूर्वास्थापेक्षया परमात्मत्वात्। आत्मा परं समाहित इति वा सम्बन्धः।
।।6.7।।कथं संयतकार्यकरणस्य बन्धुरात्मेति तत्राह जितात्मन इति। जितकार्यकरणसंघातस्य प्रकर्षेणोपरतबाह्याभ्यन्तरकरणस्य परमात्मा विक्षेपेण पुनः पुनरनभिभूयमानो निरन्तरं चित्ते प्रथत इत्यर्थः। जितात्मानं संन्यस्तसमस्तकर्माणमधिकारिणं प्रदर्श्य योगाङ्गानि दर्शयति शीतेति। समः स्यादित्यध्याहारः। पूर्वार्धं व्याचष्टे जितेत्यादिना। न केवलं तस्य परमात्मा साक्षादात्मभावेन वर्तते किंतु शीतोष्णादिभिरपि नासौ चाल्यते तत्त्वज्ञानादित्युत्तरार्धं विभजते किञ्चेति। तेषु समः स्यादिति संबन्धः।
।।6.7।।जितात्मनो बन्धुत्वं स्फुटयति जितात्मन इति। कालधर्मेषु शीतोष्णादिषु सत्स्वपि तस्य परं केवलमात्मा समाहितो भवतीति परमात्माऽन्तर्यामीव समाधिगतो भवति।
।।6.7।।जितात्मनः स्वबन्धुत्वं विवृणोति शीतोष्णसुखदुःखेषु चित्तविक्षेपकरेषु सत्स्वपि तथा मानापमानयोः पूजापरिभवयोश्चित्तविक्षेपहेत्वोः सतोरपि तेषु समत्वेनेति वा जितात्मनः प्रागुक्तस्य जितेन्द्रियस्य प्रशान्तस्य सर्वत्र समबुद्ध्या रागद्वेषशून्यस्य परमात्मा स्वप्रकाशज्ञानस्वभाव आत्मा समाहितः समाधिविषयो योगारूढो भवति। परमिति वा छेदः। जितात्मनः प्रशान्तस्यैव परं केवलमात्मा समाहितो भवति नान्यस्य। तस्माज्जितात्मा प्रशान्तश्च भवेदित्यर्थः।
।।6.7।।जितात्मनः स्वस्मिन्बन्धुत्वं स्फुटयति जितात्मन इति। जित आत्मा येन तस्य प्रशान्तस्य रागादिरहितस्यैव परं केवलमात्मा शीतोष्णादिषु सत्स्वपि समाहितः स्वात्मनिष्ठो भवति नान्यस्य। यद्वा तस्य हृदि परमात्मा समाहितः स्थितो भवति।
।।6.7।।प्रतिष्ठितयोगत्वावस्था तदारोहणोपायश्चोक्तौ अथ योगप्रक्रियां वक्तुं तदारम्भदशा ज्ञाप्यत इत्याह योगारम्भेति। सप्तम्याःसमाहितः इत्यनेन अन्वयभ्रमव्युदासायान्वयं पदार्थांश्च व्यञ्जयति शीतोष्णेति। एतेनमानावमानयोः समस्य इति परोक्ताध्याहारोऽनपेक्षित इति दर्शितम्। शीतोष्णादिषु द्वन्द्वेष्वनुभूयमानेषु कथं मनसो विजयः इत्यत्राह विकाररहितमनस इति। विकारश्च हर्षोद्रेकादिरूपः प्रागुक्तः।प्रशान्तस्य इत्येतद्बाह्येन्द्रियव्यापारनिवृत्तिपरम् मनोविकारनिवृत्तेरुक्तत्वात् असन्निहितफलाभिसन्ध्यादिराहित्यपरं वा।समाहितः इत्यस्याकाङ्क्षितं प्रकृतमुचितं चाधिकरणमाह मनसीति।सम्यगाहित इति विशदानुसन्धानयोग्यो जात इत्यर्थः। जीवात्मप्रकरणे परमात्माकथमुच्यते इत्यत्राहस्वरूपेणेति।अत्रेति प्रकरणौचित्यसूचनम्। तदेव दर्शयति तस्यैवेति। एवकारेण प्रासङ्गिको हि पूर्वं परमात्मप्रसङ्ग इतिज्ञापितम्। अपरस्य जीवस्य परमात्मशब्दविषयत्वं कथं इत्यत्राह तस्यापीति। तथापि परमात्मशब्दस्य प्रसिद्धार्थः परित्यक्तः स्यात् परत्वं च सङ्कुचितम् परमशब्दनिर्वचनं च न घटते परो मा अस्मादिति हि तत्। नच पूर्वपूर्वावस्थापेक्षया परो मा अस्मादित्यन्वयः सिध्यतीत्यरुचेरन्वयान्तरमाह आत्मा परमिति। अत्र चाधिकं केवलमिति वा परशब्दार्थः।
।।6.7।।ननु बन्धुत्वे कथं हितकृद्भवेत् इत्यत आह जितात्मन इति। जितात्मनः वशीकृतभावात्मनः। शीतोष्णसुखदुःखेषु संयोगविप्रयोगेषु प्रशान्तस्य संयोगे स्वसौभाग्यादिमदरहितस्य विप्रयोगे क्लेशेन प्रिये दोषारोपरहितस्य। तथा भगवतः सकाशान्मानापमानयोः समस्य। परमात्मा पुरुषोत्तमः समाहितस्तदर्थं दास्यदाने सावधानस्तिष्ठति। तद्धृदय एव समाहितस्तिष्ठतीति भावः।
।।6.7।।मनसो जये फलमाह जितात्मन इति। शीतोष्णादिषु प्राप्तेषु जितात्मनो निर्विकारचित्तस्य आत्मा चित्तं परमुत्कर्षेण समाहितः समाधिं प्राप्तो भवति। अतः समाधिसिद्ध्यर्थं मनो जेतव्यमेवेत्यर्थः।
।।6.7।।जितात्मनः स्वबन्धुत्वे फल माह जितात्मन इति। कार्यकारणसंगात आत्मा जितो येन स तस्य प्रशान्तस्य योगेन जितचित्तस्य योगारुढस्येतियावत्। परमात्मा शुद्धस्तत्पदार्थः समाहितः साक्षादात्मभावेन वर्तते। सत जीवन्मुक्तो भवतीत्याह शीतेत्यादिना। शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः पूजापरिभवयोः समः स्यादित्यध्याहारः। सर्वं वाक्यं सावधारणमिति न्यायेन जितात्मनः प्रशान्तस्यैवेत्यर्थः। एतेन प्रशान्तस्यैव परं केवलमिति प्रत्युक्तम्। यत्तु शीतोष्णसुखदुःखेषु चित्तविक्षेपकरेषु सत्स्वपि तथा मानापमानयोः सतोरपि तेषु समत्वेनेति वा जितात्मन इति केचिद्वर्णयन्ति तत्रेन्द्रियेषु जाग्रत्सु शीतादेरस्तित्वं संभवत्येवेति सत्स्वपीत्याद्युक्तिररुचिग्रस्ता। एतेन शीतादिषु प्राप्तेषु जितात्मनो निर्विकारचित्तस्य परमुत्कर्षेणात्मा समाहितः समाधिं प्राप्तो भवत्यतः समाधिसिद्य्धर्थ मनो जेतव्यं भवतीत्यर्थ इति प्रत्युक्तम्। शीतादिष्वप्राप्तेषु किंचित्समाहितस्य प्राप्तेषूत्कर्षेणेत्यस्य विपर्ययरुपत्वात् येतव्यस्य मनसः स्थितौ शीतादयोऽपि संत्येवेति प्राप्तेष्वित्यस्य व्यर्थत्वाच्च। यदप्येवंविधस्यात्मान्तःकरणं शीतादिषु द्वन्द्वशब्दवाच्येषु परमत्यर्थ समाहितः सहिष्णुरविक्रियो भवतीत्यर्थ इति तदपि न। मुख्यार्थे संभवत्यमुख्यार्थस्यान्याय्यत्वात्। यद्वा भाष्यस्योपलक्षणार्थत्वमङ्गीकृत्योदाहृतव्याख्यानान्युपादेयानि।
6.7 जितात्मनः of the selfcontrolled? प्रशान्तस्य of the peaceful? परमात्मा the Supreem Self? समाहितः balanced? शीतोष्णसुखदुःखेषु in cold and heat? pleasure and pain? तथा as also? मानापमानयोः in honour and dishonour.Commentary The selfcontrolled Yogi who is rooted in the Self keeps poise amidst the pairs of opposites (Dvandvas) or the alternating waves of cold and heat? pleasure and pain? honour and dishonour. When the Yogi has subdued his senses? when his mind is balanced and peaceful under all conditions? when he is not in the least influenced by the pairts of opposites? when he has renounced all actions? then the Highest Self really becomes his own Self. He attains to Selfrealisation. As he rests in hiw own Self? he is ever serene or tranil he is not affected by the pairs of opposites? and he stands as adamant in the face of the changing conditions of Nature.
6.7 The Supreme Self of him who is self-controlled and peaceful is balanced in cold and heat, pleasure and pain, as also in honour and dishonour.
6.7 The Self of him who is self-controlled, and has attained peace is equally unmoved by heat or cold, pleasure or pain, honour or dishonour.
6.7 The supreme Self of one who has control over the aggregate of his body and organs, and who is tranil, becomes manifest. (He should be eipoised) [These words are supplied to complete the sentence.] in the midst of cold and heat, happiness and sorrow, as also honour and dishonour.
6.7 Parama-atma, the supreme Self; jita-atmanah, of one who has control over the aggregate of his body and organs; prasantasya, who is tranil, who is a monk with his internal organ placid; samahitah, becomes manifest, i.e. becomes directly manifest as his own Self. Moreover, (he should be eipoised) sita-usna-sukha-duhkhesu, in the midst of cold and heat, happiness and sorrow; tatha, as also; mana-apamanayoh in honour and dishonour, adoration and despise.
6.7. The thinking of the person, with subdued mind and [hence] with complete calmness, remains in eilibrium in the case of others and of himself, in cold and heat, in pleasure and pain, like-wise in honour and dishonour.
6.7 Jita-etc. A person with complete calmness : a person without ego. [The thinking etc.] ; A thinking that entertains no difference in the case of others and of himself, and of cold and heat etc., i.e., [entertains] no like and dislike [for them].
6.7 Of him whose self is conered, i.e., whose mind is conered, whose mind is free from fluctuations and who is very calm, 'the great self' becomes well secured, i.e., exceedingly well secured in connection with heat and cold, pleasure and pain, and honour and dishonour. Here the individual self (Pratyagatman) is called 'the great self' (Paramatman), as the context justifies this only. It can also be called 'great', because it is at a higher stage relatively to previous successive stages. Or the word may be construed as follows: The self is secured greatly - Atma parma samahitah. [In any case it should not be taken as the Supreme Being].
6.7 Of him whose mind is conered and who is serene, the great self is well secured in heat and cold, in pleasure and pain, and in honour and dishonour.
।।6.7।।जिसने मन इन्द्रिय आदिके संघातरूप इस शरीरको अपने वशमें कर लिया है और जो प्रशान्त है जिसका अन्तःकरण सदा प्रसन्न रहता है उस संन्यासीको भली प्रकारसे सर्वत्र परमात्मा प्राप्त है अर्थात् साक्षात् आत्मभावसे विद्यमान है। तथा वह सर्दीगर्मी और सुखदुःखमें एवं मान और अपमानमें यानी पूजा और तिरस्कारमें भी ( सम हो जाता है )।
।।6.7।। जितात्मनः कार्यकरणसंघात आत्मा जितो येन सः जितात्मा तस्य जितात्मनः प्रशान्तस्य प्रसन्नान्तःकरणस्य सतः संन्यासिनः परमात्मा समाहितः साक्षादात्मभावेन वर्तते इत्यर्थः। किञ्च शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा माने अपमाने च मानापमानयोः पूजापरिभवयोः समः स्यात्।।
।।6.7 6.8।।योगो विहितः तत्किं जितात्मन इत्यनेन इत्यत आह जितात्मन इति। उपकारी हि बन्धुरुच्यते। तत्र जितं मनः कमुपकारं करोति येन बन्धुः स्यात् आत्मोद्धारं करोतीति चेत् स एव च कः इत्याशङ्क्येति शेषः। जितात्मनः फले वक्तव्ये प्रशान्तस्येत्यनुवादः किमर्थः इत्यत आह जितात्मा हीति। वाक्यभेदेनेदमेव फलकथनमिति भावः। ननु जितात्मत्वमेव प्रशान्तत्वं तत्कथं तत्फलं स्यात् इत्यत आह नेति। तस्य जितात्मनः स्वत एवेति शेषः। तर्हि निराकाङ्क्षत्वादुत्तरं वाक्यं व्यर्थमित्यतः परमफलं दर्शयितुं तदिति भावेन न्यूनमध्याहारेण पूरयन्व्याचष्टे तदा चेति। प्रशान्तत्वे सति परमात्मा सर्वेषां हृदि सन्निहित एव तत्कुतः प्रशान्तस्य विशेषः इत्यतः सम्यक्पदसूचितार्थं विवृणोति अपरोक्षेति। योगारूढ इत्यर्थः।यदा हि 6।5 इति योगारूढस्य लक्षणमुक्तं तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यत आह अपरोक्षेति। सार्धश्लोकद्वयग्रहणायादिपदं अत्र सप्तम्या अन्वयो न दृश्यतेऽत आह शीतेति। अत्र भास्करोऽन्वयमपश्यन्परमात्मा समाहितः इति सम्प्रदायागतं पाठं विसृज्यपरात्मसु समा मतिः इति पाठान्तरं प्रकल्प्यसमा मतिः इति तु आवर्त्य सप्तम्या अन्वयमुक्त्वा पूर्वपाठेऽन्वयाभाव इत्यवादीत् तदनेन नापहसितं भवति। कृत्रिमेऽपि पाठेसुहृत् इत्यादिकंआत्मौपम्येन 6।32 इत्यादिकं च पुनरुक्तं स्यात्। ननु यः शीतोष्णादिषु कूटस्थः तस्य ज्ञानविज्ञानतृप्तमनस्त्वं विजितेन्द्रियत्वं चार्थात्सिद्धमेव तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यत आह ज्ञानेति। प्रत्येकमन्वयादेकवचनम्। ननु शिल्पादिविषया बुद्धिर्विज्ञानम्मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः अमरः1।5।6 इत्यभिधानात् तत्कथं विज्ञानेन तृप्तात्माऽयं स्यात् इत्यत आह विज्ञानमिति। अनेन सामान्यज्ञानं परोक्षज्ञानं वा ज्ञानमिति सूचितम्। कुत एतत् इत्यत आह तच्चेति। प्रसिद्धाभिधानार्थोऽप्यङ्गीक्रियत इति चशब्दः। सामान्यैः साधारणैः पुरुषैः। सामान्यविषयं तु ज्ञानमित्यपि द्रष्टव्यम्। तदेव ज्ञानमिति सम्बन्धः। अङ्गादेर्व्याकरणादेः शिल्पस्य च। विशिष्टं दर्शनं वैष्णवशास्त्रम्। कूटस्थशब्दो नित्यादिपर्यायः तेन कथमन्वयः सप्तम्याः इत्यत आह कूटस्थ इति। तत्कथं इत्यत आह कूटवदिति।सुपि स्थः अष्टा.3।2।4 कूटशब्दोऽनृतवाद्यादिवाची तत्परिग्रहे निर्विकारत्वं न लभ्यत इत्यत आह कूटमिति। एतैः शब्दैराकाश उच्यत इत्यर्थः।युक्तो योगी इति पुनरुक्तिरिति मन्दाशङ्कानिरासार्थमाह योगीति। इनेरस्त्यर्थत्वात् कुर्वन्नित्युक्तम्। निष्ठाया भूतार्थत्वात् सम्पूर्ण इति। वक्ष्यमाणान्वयापेक्षया क्रमोल्लङ्घनम्। तर्हि विरुद्धार्थयोः कथं सामानाधिकरण्यं इत्यत आह एवम्भूत इति।धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः इति ह्युक्तम्।
।।6.7 6.8।।जितात्मनः फलमाह जितात्मन इति। जितात्मा हि प्रशान्तो भवति। न तस्य मनः प्रायो विषयेषु गच्छति। तदा च परमात्मा सम्यगाहितः हृदि सन्निहितो भवति अपरोक्षज्ञानी भवतीत्यर्थः। अपरोक्षज्ञानिनो लक्षणं स्पष्टयति शीतोष्णेत्यादिना। शीतोष्णादिषु कूटस्थः ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा विजितेन्द्रिय इति कूटस्थत्वे हेतुः। विज्ञानं विशेषज्ञानं अपरोक्षज्ञानं वा। तच्चोक्तं सामान्यैर्ये त्वविज्ञेया विशेषा मम गोचराः। देवादीनां तु तज्ज्ञानं विज्ञानमिति कीर्तितम्। इति।श्रवणान्मननाच्चैव यज्ज्ञानमुपजायते। तज्ज्ञानं दर्शनं विष्णोर्विज्ञानं शम्भुरब्रवीत्। विज्ञानं ज्ञानमङ्गादेर्विशिष्टं दर्शनं तथा इत्यादि। कूटस्थो निर्विकारः कूटवत्स्थित इति व्युत्पत्तेः। कूटमाकाशःकूटं खं विदलं व्योम सन्धिराकाश उच्यते। इत्यभिधानात्। योगी योगं कुर्वन्। युक्तो योगसम्पूर्णः। एवम्भूतो योगानुष्ठाता योगसम्पूर्ण उच्यत इत्यर्थः।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।।6.7।।
জিতাত্মনঃ প্রশান্তস্য পরমাত্মা সমাহিতঃ৷ শীতোষ্ণসুখদুঃখেষু তথা মানাপমানযোঃ৷৷6.7৷৷
জিতাত্মনঃ প্রশান্তস্য পরমাত্মা সমাহিতঃ৷ শীতোষ্ণসুখদুঃখেষু তথা মানাপমানযোঃ৷৷6.7৷৷
જિતાત્મનઃ પ્રશાન્તસ્ય પરમાત્મા સમાહિતઃ। શીતોષ્ણસુખદુઃખેષુ તથા માનાપમાનયોઃ।।6.7।।
ਜਿਤਾਤ੍ਮਨ ਪ੍ਰਸ਼ਾਨ੍ਤਸ੍ਯ ਪਰਮਾਤ੍ਮਾ ਸਮਾਹਿਤ। ਸ਼ੀਤੋਸ਼੍ਣਸੁਖਦੁਖੇਸ਼ੁ ਤਥਾ ਮਾਨਾਪਮਾਨਯੋ।।6.7।।
ಜಿತಾತ್ಮನಃ ಪ್ರಶಾನ್ತಸ್ಯ ಪರಮಾತ್ಮಾ ಸಮಾಹಿತಃ. ಶೀತೋಷ್ಣಸುಖದುಃಖೇಷು ತಥಾ ಮಾನಾಪಮಾನಯೋಃ৷৷6.7৷৷
ജിതാത്മനഃ പ്രശാന്തസ്യ പരമാത്മാ സമാഹിതഃ. ശീതോഷ്ണസുഖദുഃഖേഷു തഥാ മാനാപമാനയോഃ৷৷6.7৷৷
ଜିତାତ୍ମନଃ ପ୍ରଶାନ୍ତସ୍ଯ ପରମାତ୍ମା ସମାହିତଃ| ଶୀତୋଷ୍ଣସୁଖଦୁଃଖେଷୁ ତଥା ମାନାପମାନଯୋଃ||6.7||
jitātmanaḥ praśāntasya paramātmā samāhitaḥ. śītōṣṇasukhaduḥkhēṣu tathā mānāpamānayōḥ৷৷6.7৷৷
ஜிதாத்மநஃ ப்ரஷாந்தஸ்ய பரமாத்மா ஸமாஹிதஃ. ஷீதோஷ்ணஸுகதுஃகேஷு ததா மாநாபமாநயோஃ৷৷6.7৷৷
జితాత్మనః ప్రశాన్తస్య పరమాత్మా సమాహితః. శీతోష్ణసుఖదుఃఖేషు తథా మానాపమానయోః৷৷6.7৷৷
6.8
6
8
।।6.8।। जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त है, जो कूटकी तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टीके ढेले, पत्थर तथा स्वर्णमें समबुद्धिवाला है -- ऐसा योगी युक्त (योगारूढ़) कहा जाता है।
।।6.8।। जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है, जिसको मिट्टी, पाषाण और कंचन समान है, वह (परमात्मा से) युक्त कहलाता है।।
।।6.8।। शास्त्रोपदेश से ज्ञात आत्मा का जो निरन्तर ध्यान करता है ऐसा आत्मसंयमी पुरुष शीघ्र ही दिव्य तृप्ति और आनन्द का अनुभव पाकर पूर्णयोगी बन जाता है। उसकी तृप्ति शास्त्रों के पाण्डित्य की नहीं वरन् दिव्य आत्मानुभूति की होती है जो शास्त्राध्ययन के सन्तोष से कहीं अधिक उत्कृष्ट होती है।श्री शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान का अर्थ है शास्त्रोक्त पदार्थों का परिज्ञान और विज्ञान शास्त्र से ज्ञात तत्त्व का स्वानुभवकरण है। ज्ञान और विज्ञान के प्राप्त होने पर पुरुष का हृदय अलौकिक तृप्ति का अनुभव करता है।अविचल (कूटस्थ) वेदान्त में आत्मा को कूटस्थ कहा गया है। कूट का अर्थ है निहाई। लुहार तप्त लौहखण्ड को निहाई पर रखकर हथौड़े से उस पर चोट करके लौहखण्ड को विभिन्न आकार देता है। हथौड़े की चोट का प्रभाव लौहखण्ड पर तो पड़ता है परन्तु निहाई पर नहीं। वह स्वयं अविचल रहते हुये लोहे को अनेक आकार देने के लिये आश्रय देती है। इस प्रकार कूटस्थ का अर्थ हुआ जो कूट के समान अविचल अविकारी रहता है।ज्ञानविज्ञान से सन्तुष्ट पुरुष कूटस्थ आत्मा को जानकर स्वयं भी सभी परिस्थितियों में कूटस्थ बनकर रहता है। वह समदर्शी बन जाता है। उसके लिए मिट्टी पाषाण और सुवर्ण सब समान होते हैं अर्थात् वह इन सबके प्रति समान भाव से रहता है। सामान्य जन इसमें रागद्वेषादि रखकर प्रियअप्रिय की प्राप्ति या हानि में सुखी या दुखी होते हैं। ज्ञान का मापदण्ड यही है कि इन वस्तुओं के प्राप्त होने पर पुरुष एक समान रहता है।स्वप्नावस्था में कोई पुरुष कितना ही धन अर्जित करे अथवा सम्पत्ति को खो दे परन्तु जाग्रत अवस्था में आने पर स्वप्न में देखे हुये धन के लाभ या हानि का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसी प्रकार उपाधियाँ के द्वारा अनुभूत जगत के परे परमपूर्ण स्वरूप में स्थित पुरुष के लिए मिट्टी पाषाण और स्वर्ण का कोई अर्थ नहीं रह जाता वे उसके आनन्द में न वृद्धि कर सकते हैं न क्षय। वह परमानन्द का एकमात्र स्वामी बन जाता है। स्वर्ग के कोषाधिपति कुबेर के लिए पृथ्वी का राज्य कोई बड़ी उपलब्धि नहीं कि वे हर्षोल्लास में झूम उठें।
।।6.8।। व्याख्या--'ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा'--यहाँ कर्मयोगका प्रकरण है; अतः यहाँ कर्म करनेकी जानकारीका नाम 'ज्ञान' है और कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहनेका नाम 'विज्ञान' है।स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली समाधि--इन तीनोंको अपने लिये करना 'ज्ञान' नहीं है। कारण कि क्रिया, चिन्तन, समाधि आदि मात्र कर्मोंका आरम्भ और समाप्ति होती है तथा उन कर्मोंसे मिलनेवाले फलका भी आदि और अन्त होता है। परन्तु स्वयं परमात्माका अंश होनेसे नित्य रहता है। अतः अनित्य कर्म और फलसे इस नित्य रहनेवालेको क्या तृप्ति मिलेगी? जडके द्वारा चेतनको क्या तृप्ति मिलेगी? ऐसा ठीक अनुभव हो जाय कि कर्मोंके द्वारा मेरेको कुछ भी नहीं मिल सकता, तो यह कर्मोंको करनेका 'ज्ञान' है। ऐसा ज्ञान होनेपर वह कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें और पदार्थोंकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहेगा--यह 'विज्ञान' है। इस ज्ञान और विज्ञानसे वह स्वयं तृप्त हो जाता है। फिर उसके लिये करना, जानना और पाना कुछ भी बाकी नहीं रहता। 'कूटस्थः'(टिप्पणी प0 338)--कूट (अहरन) एक लौह-पिण्ड होता है, जिसपर लोहा, सोना, चाँदी आदि अनेक रूपोंमें गढ़े जाते हैं, पर वह एकरूप ही रहता है। ऐसे ही सिद्ध महापुरुषके सामने तरह-तरहकी परिस्थितियाँ आती हैं, पर वह कूटकी तरह ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है।
।।6.8।।ज्ञानेति। ज्ञानम् अभ्रान्ता बुद्धिः। विविधं ज्ञानं यत्र तत् विज्ञानम् प्रग्युक्त्युदितं कर्म।
।।6.8।।ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा आत्मस्वरूपविषयेण ज्ञानेन तस्य च प्रकृतिविसजातीयाकारविषयेण विज्ञानेन च तृप्तमनाः कूटस्थः देवाद्यवस्थासु अनुवर्तमानः सर्वसाधारणज्ञानैकाकारात्मनि स्थितः तत्र एव विजितेन्द्रियः समलोष्टाश्मकाञ्चनः प्रकृतिविविक्तस्वरूपनिष्ठतया प्राकृतवस्तुविशेषेषु भोग्यत्वाभावात् लोष्टाश्मकाञ्चनेषु समप्रयोजनो यः कर्मयोगी स युक्त इति उच्यते आत्मावलोकनरूपयोगाभ्यासार्ह उच्यते।तथा च
।।6.8।।चित्तसमाधानमेव विशिष्टफलं चेदिष्टं तर्हि कथंभूतः समाहितो व्यवह्रियते तत्राह ज्ञानेति। परोक्षापरोक्षाभ्यां ज्ञानविज्ञानाभ्यां संजातालंप्रत्ययो यस्मिन्नन्तःकरणे सोऽविक्रियो हर्षविषादकामक्रोधादिरहितो योगी युक्तः समाहित इति व्यवहारभागी भवतीति पादत्रयव्याख्यानेन दर्शयति ज्ञानमित्यादिना। स च योगी परमहंसपरिव्राजकः सर्वत्रोपेक्षाबुद्धिरनतिशयवैराग्यभागीति कथयति स योगीति।
।।6.8 6.9।।योगारूढस्य स्वरूपं श्रैष्ठ्यं चोपपादयति द्वाभ्यां ज्ञानविज्ञानेति। ज्ञानमौपदेशिकं विज्ञानमपरोक्षानुभवः ताभ्यां तृप्त आत्मा यस्य कूटे स्थितोऽपि युक्त इत्युच्यते स योगी सुहृदादिषु तद्विपरीतेषु च समबुद्धिरधिकतरो भवतीति विशिष्यते।
।।6.8।।किंच ज्ञानं शास्त्रोक्तानां पदार्थानामौपदेशिकं ज्ञानं विज्ञानं तदप्रामाण्यशङ्कानिराकरणफलेन विचारेण तथैव तेषां स्वानुभवेनापरोक्षीकरणं ताभ्यां तृप्तः संजातालंप्रत्यय आत्मा चित्तं यस्य स तथा। कूटस्थो विषयसंनिधावपि विकारशून्यः। अतएव विजितानि रागद्वेषपूर्वकाद्विषयग्रहणाद्व्यावर्तितानीन्द्रियाणि येन सः। अतएव हेयोपादेयबुद्धिशून्यत्वेन समानि मृत्पिण्डपाषाणकाञ्चनानि यस्य सः। योगी परमहंसपरिव्राजकः परवैराग्ययुक्तो योगारूढ इत्युच्यते।
।।6.8।।योगारूढस्य लक्षणं श्रैष्ठ्यं चोक्तमुपपाद्योपसंहरति ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मेति। ज्ञानमौपदेशिकं विज्ञानमपरोक्षानुभवस्ताभ्यां तृप्तो निराकाङ्क्ष आत्मा चित्तं यस्य। अतः कूटस्थो निर्विकारः अतएव विजितानीन्द्रियाणि येन अतएव समानि लोष्टादीनि यस्य मृत्खण्डपाषाणसुवर्णेषु हेयोपादेयबुद्धिशून्यः स युक्तो योगारूढ इत्युच्यते।
।।6.8।।इन्द्रियविजयो द्वन्द्वसहत्वं चोक्तम् अथ तयोहेतुरुच्यते ज्ञान इति श्लोकेन। ज्ञानविज्ञानशब्दयोः पौनरुक्त्यव्युदासायोपसर्गद्योतितं विषयविशेषं व्यञ्जयतिआत्मस्वरूपेत्यादिना। पारलौकिकसमस्तकर्मापेक्षितदेहादिव्यतिरिक्तत्वधीरिहज्ञानम्। मोक्षाधिकारिणो विशेषतोऽपेक्षितनित्यत्वनिरतिशयानन्दत्वादिधीस्तुविज्ञानं न पुनरुपासनरूपज्ञानम्। तत्सामग्रीपरत्वाद्वाक्यस्येति भावः। कूटे तिष्ठतीति कूटस्थः। कूटशब्दश्च परिशुद्धात्मन्यौपचारिकः। कूटस्य ह्यागन्तुकविनश्वरायःपिण्डादिसंश्लेषविश्लेषरूपावस्थाप्रवाहे वर्तमानेऽपि स्वस्वरूपे न शैथिल्यादिरूपो विकारः तद्वदत्रापि देवादिशरीरसंश्लेषविश्लेषरूपावस्थाप्रवाहेऽपिन जायते म्रियते 2।20 इत्यादिनोक्तप्रकारेण निर्विकारत्वं सिद्धमिति कूटशब्देनोपचारो युज्यत इत्यभिप्रायेणाह देवादीति। शिखरपर्यायकूटविवक्षया वोपचारः। कूटस्थ इव वा साधारणतयानुसन्धानादसौ कूटस्थ इत्यभिप्रायेणाह देवाद्यवस्थास्विति। देवशब्दोऽत्र भावप्रधानः। अनुवर्तमानत्वात् सर्वसाधारणत्वमित्यपौनरुक्त्यम्। यद्वा सर्वात्मसाधारणेत्यर्थः। पूर्वश्लोकोक्तजितेन्द्रियत्वादौ हेतुरयमुक्त इत्याह तत एवेति। स्वरूपकार्यकारणादिभिरत्यन्तविषमाणां लोष्टादीनां समत्वं कथमिति शङ्कानिराकरणायप्रकृतीत्यादिसमप्रयोजन इत्यन्तमुक्तम्। लोष्टाश्मभेदवदश्मकाञ्चनादिभेदेऽपीत्यनेकदृष्टान्ताभिप्रायः। अत्रोद्देश्योपादेयांशौ विभजते य इत्यादिना। युक्तशब्द एवात्र योग्यपर्यायः प्रकरणवशात्तु योगाभ्यासविषयत्वं सिद्धम्। यद्वा प्रकृतिप्रत्यययोरर्थभेदविवक्षयायोगाभ्यासार्ह इत्युक्तम्।
।।6.8।।ननु परमात्मा हृदयस्थोऽस्तीति कथं ज्ञातव्यः इत्याकाङ्क्षायामाह ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मेति। ज्ञाने शास्त्ररीत्या भगवत्स्वरूपज्ञाने विज्ञाने भावात्मकत्वरूपानुभवे तृप्तः संशयकोटिरहित आत्मा अन्तःकरणं यस्य कूटस्थः निर्विकारः भगवच्चरणस्वरूपैकनिष्टः विजितेन्द्रियः स्वभोगेच्छारहितः युक्तो योगारूढ इत्युच्यते। समलोष्टाश्मकाञ्चनः मृत्पाषाणसुवर्णेषु समो भगवदीयभावरूपवान् योगी मत्संयोगवानुच्यते मयेति शेषः। अत्रायं भावः मृत्तिकायां भगवदङ्गसौगन्ध्यस्मरणेन सेवौपायिकशरीराप्तितापभाववान् पाषाणे भगवद्विप्रयोगजडतास्मरणेन स्वस्य तदभावतापात्तत्र स्निग्धभाववान् सौवर्णे चालौकिककान्तिदर्शनेन रसभाववांस्तथोच्यत इति भावः।
।।6.8।।समाधिसिद्धेरपि किं फलमत आह ज्ञानेति। ज्ञानं शास्त्रोपदेशजा बुद्धिः। विज्ञानं शास्त्रार्थध्यानजः प्रमारूपोऽनुभवस्ताभ्यां तृप्तः संजातालंप्रत्यय आत्मा चित्तं यस्य स ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा। यतस्तृप्तात्माऽतः कूटस्थोऽप्रकम्प्यः संसारतापानास्कन्दितो भवतीति समाधिफलम्। अस्य लोकप्रसिद्धं लक्षणमाह विजितेन्द्रिय इति। समलोष्टाश्मकाञ्चन इति एवंविधो योगी स युक्तः प्राप्तयोग इत्युच्यते विद्वद्भिः।
।।6.8।।शीतादिषु समो भवतीत्युक्त तत्कुंत इत्यत आह ज्ञानेति। ज्ञानं शास्त्रोक्तानां धर्मादिरुपाणां पदार्थानां तत्त्वज्ञानं विज्ञानं शास्त्रतो ज्ञातानां वेदोक्तो यादृशो धर्मादितादृश एव तथा तत्त्वमसीति श्रुत्यर्थानुसारेणाहं ब्रह्मास्मीत्यनुभवस्ताभ्यां तृप्त आत्मान्तःकरणं यस्य सः। अतः कुटस्थोऽप्रकम्प्यः केनापि शीतादिना चालयितुमशक्यो भवतीत्यर्थः। नन्वन्तःकरणस्य ज्ञानविज्ञानतृप्तेत्वनाप्रकम्प्योऽपीन्द्रियाणामतृप्तत्वाद्विषयैरिन्द्रियद्वारा प्रकम्प्यो भविष्यतीति तत्राह विजितेन्द्रियः। अन्तःकरणस्येन्द्रियस्वामिनो जयादिन्द्रियाणामपि जय इति भावः। अतएव समलोष्टाश्मकाञ्चनः। अत्राश्मशब्देन पाषाणसामान्यवाचिना तद्विशेषा वज्रवैदूर्यादयोऽपि गृह्यन्ते। समानि लोष्टादीनि यस्य सः य ईदृशो योगी स युक्तः यथार्थयोगयुक्तः योगारुढ इत्युच्यत इत्यर्थः।
6.8 ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा one who is satisfied with knowledge and wisdom (Selfrealisation)? कूटस्थः unshaken? विजितेन्द्रियः who has conered the senses? युक्तः united or harmonised? इति thus? उच्यते is said? योगी Yogi? समलोष्टाश्मकाञ्चनः one to whom a lump of earth? a stone and gold are the same.Commentary Jnana is ParokshaJnana or theoretical knowledge from the study of the scriptures. Vijnana is Visesha Jnana or Aparoksha Jnana? i.e.? direct knowledge of the Self through Selfrealisation (spiritual experience or Anubhava).Kutastha means changeless like the anvil. Various kinds of iron pieces are hammered and shaped on the anvil? but the anvil remains unchanged. Even so the Yogi remains unshaken or unchanged or unaffected though he comes in contact with the senseobjects. So he is called Kutastha. Kutastha is another name of Brahman? the silent witness of the mind. (Cf.V.18VI.18)
6.8 The Yogi who is satisfied with the knowledge and the wisdom (of the Self), who has conered the senses, and to whom a clod of earth, a piece of stone and gold are the same, is said to be harmonied (i.e., is said to have attained Nirvikalpa Samadhi).
6.8 He who desires nothing but wisdom and spiritual insight, who has conquered his senses and who looks with the same eye upon a lump of earth, a stone or fine gold, is a real saint.
6.8 One whose mind is satisfied with knowledge and realization, who is unmoved, who has his organs under control, is sadi to be Self-absorbed. The yogi treats eally a lump of earth, a stone and gold.
6.8 A yogi, jnana-vijnana-trpta-atma, whose mind is satisfied with knowledge and realization-jnana is thorough knowledge of things presented by the scriptures, but vijnana is making those things known from the scriptures a subject of one's own realization just as they have been presented; he whose mind (atma) has become contented (trpta) with those jnana and vijnana is jnana-vijnana-trpta-atma-; kutasthah, who is unmoved, i.e. who becomes unshakable; and vijita-indriyah, who has his organs under control;- he who is of this kind, ucyate, is said to be; yuktah, Self-absorbed. That yogi sama-losta-asma-kancanah, treats eally a lump of earth, a stone and gold. Further,
6.8. He, whose self (mind) is satisfied with knowledge and with what consists of varied thoughts; who remains peak-like and has completely subdued his sense organs; and to whom a clod, a stone and a piece of gold are the same-that man of Yoga is called a master of Yoga.
6.8 Jnana - etc. Knowledge : a knowledge which is different from the false one. What consists of varied thoughts : the action in which varied thoughts are involved, i.e. the action that is born as result of preceding thoughts of reasoning.
6.8 That Karma Yogin whose mind is content with the knowledge of the self and the knowledge of the difference, i.e., whose mind is content with the knowledge concerning the real nature of the self as well as with the knowledge of the difference of Its nature from Prakrti; 'who is established in the self' (Kutasthah), i.e., who remains as the self which is of the uniform nature of knowledge in all stages of evolution as men, gods etc. whose senses are therefore subdued; and to whom 'earth, stone and gold are of eal value' because of his lack of interest in any material objects of enjoyment on account of his intense earnestness to know the real nature of the self as different from Prakrti - he, that Karma Yogi, is called integrated i.e., fit for the practice of Yoga which is of the nature of the vision of the self. And also.
6.8 The Yogin whose mind is content with knowledge of the self and also of knowledge of the difference of the self from Prakrti, who is established in the self, whose senses are subdued and to whom earth, stone and gold seem all alike, is called integrated.
।।6.8।।शास्त्रोक्त पदार्थोंको समझनेका नाम ज्ञान है और शास्त्रसे समझे हुए भावोंको वैसे ही अपने अन्तःकरणमें प्रत्यक्ष अनुभव करनेका नाम विज्ञान है ऐसे ज्ञान और विज्ञान से जिसका अन्तःकरण तृप्त है अर्थात् जिसके अन्तःकरणमें ऐसा विश्वास उत्पन्न हो गया है कि बस अब कुछ भी जानना बाकी नहीं है ऐसा जो ज्ञानविज्ञानसे तृप्त हुए अन्तःकरणवाला है तथा जो कूटस्थ यानी अविचल और जितेन्द्रिय हो जाता है वह युक्त यानी समाहित ( समाधिस्थ ) कहा जाता है। वह योगी मिट्टी पत्थर और सुवर्णको समान समझनेवाला होता है अर्थात् उसकी दृष्टिमें मिट्टी पत्थर और सोना सब समान हैं ( एक ब्रह्मरूप है )।
।।6.8।। ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा ज्ञानं शास्त्रोक्तपदार्थानां परिज्ञानम् विज्ञानं तु शास्त्रतो ज्ञातानां तथैव स्वानुभवकरणम् ताभ्यां ज्ञानविज्ञानाभ्यां तृप्तः संजातालंप्रत्ययः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सः ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थः अप्रकम्प्यः भवति इत्यर्थः विजितेन्द्रियश्च। य ईदृशः युक्तः समाहितः इति स उच्यते कथ्यते। स योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः लोष्टाश्मकाञ्चनानि समानि यस्य सः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।किञ्च
।।6.7 6.8।।योगो विहितः तत्किं जितात्मन इत्यनेन इत्यत आह जितात्मन इति। उपकारी हि बन्धुरुच्यते। तत्र जितं मनः कमुपकारं करोति येन बन्धुः स्यात् आत्मोद्धारं करोतीति चेत् स एव च कः इत्याशङ्क्येति शेषः। जितात्मनः फले वक्तव्ये प्रशान्तस्येत्यनुवादः किमर्थः इत्यत आह जितात्मा हीति। वाक्यभेदेनेदमेव फलकथनमिति भावः। ननु जितात्मत्वमेव प्रशान्तत्वं तत्कथं तत्फलं स्यात् इत्यत आह नेति। तस्य जितात्मनः स्वत एवेति शेषः। तर्हि निराकाङ्क्षत्वादुत्तरं वाक्यं व्यर्थमित्यतः परमफलं दर्शयितुं तदिति भावेन न्यूनमध्याहारेण पूरयन्व्याचष्टे तदा चेति। प्रशान्तत्वे सति परमात्मा सर्वेषां हृदि सन्निहित एव तत्कुतः प्रशान्तस्य विशेषः इत्यतः सम्यक्पदसूचितार्थं विवृणोति अपरोक्षेति। योगारूढ इत्यर्थः।यदा हि 6।5 इति योगारूढस्य लक्षणमुक्तं तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यत आह अपरोक्षेति। सार्धश्लोकद्वयग्रहणायादिपदं अत्र सप्तम्या अन्वयो न दृश्यतेऽत आह शीतेति। अत्र भास्करोऽन्वयमपश्यन्परमात्मा समाहितः इति सम्प्रदायागतं पाठं विसृज्यपरात्मसु समा मतिः इति पाठान्तरं प्रकल्प्यसमा मतिः इति तु आवर्त्य सप्तम्या अन्वयमुक्त्वा पूर्वपाठेऽन्वयाभाव इत्यवादीत् तदनेन नापहसितं भवति। कृत्रिमेऽपि पाठेसुहृत् इत्यादिकंआत्मौपम्येन 6।32 इत्यादिकं च पुनरुक्तं स्यात्। ननु यः शीतोष्णादिषु कूटस्थः तस्य ज्ञानविज्ञानतृप्तमनस्त्वं विजितेन्द्रियत्वं चार्थात्सिद्धमेव तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यत आह ज्ञानेति। प्रत्येकमन्वयादेकवचनम्। ननु शिल्पादिविषया बुद्धिर्विज्ञानम्मोक्षे धीर्ज्ञानमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः अमरः1।5।6 इत्यभिधानात् तत्कथं विज्ञानेन तृप्तात्माऽयं स्यात् इत्यत आह विज्ञानमिति। अनेन सामान्यज्ञानं परोक्षज्ञानं वा ज्ञानमिति सूचितम्। कुत एतत् इत्यत आह तच्चेति। प्रसिद्धाभिधानार्थोऽप्यङ्गीक्रियत इति चशब्दः। सामान्यैः साधारणैः पुरुषैः। सामान्यविषयं तु ज्ञानमित्यपि द्रष्टव्यम्। तदेव ज्ञानमिति सम्बन्धः। अङ्गादेर्व्याकरणादेः शिल्पस्य च। विशिष्टं दर्शनं वैष्णवशास्त्रम्। कूटस्थशब्दो नित्यादिपर्यायः तेन कथमन्वयः सप्तम्याः इत्यत आह कूटस्थ इति। तत्कथं इत्यत आह कूटवदिति।सुपि स्थः अष्टा.3।2।4 कूटशब्दोऽनृतवाद्यादिवाची तत्परिग्रहे निर्विकारत्वं न लभ्यत इत्यत आह कूटमिति। एतैः शब्दैराकाश उच्यत इत्यर्थः।युक्तो योगी इति पुनरुक्तिरिति मन्दाशङ्कानिरासार्थमाह योगीति। इनेरस्त्यर्थत्वात् कुर्वन्नित्युक्तम्। निष्ठाया भूतार्थत्वात् सम्पूर्ण इति। वक्ष्यमाणान्वयापेक्षया क्रमोल्लङ्घनम्। तर्हि विरुद्धार्थयोः कथं सामानाधिकरण्यं इत्यत आह एवम्भूत इति।धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः इति ह्युक्तम्।
।।6.7 6.8।।जितात्मनः फलमाह जितात्मन इति। जितात्मा हि प्रशान्तो भवति। न तस्य मनः प्रायो विषयेषु गच्छति। तदा च परमात्मा सम्यगाहितः हृदि सन्निहितो भवति अपरोक्षज्ञानी भवतीत्यर्थः। अपरोक्षज्ञानिनो लक्षणं स्पष्टयति शीतोष्णेत्यादिना। शीतोष्णादिषु कूटस्थः ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा विजितेन्द्रिय इति कूटस्थत्वे हेतुः। विज्ञानं विशेषज्ञानं अपरोक्षज्ञानं वा। तच्चोक्तं सामान्यैर्ये त्वविज्ञेया विशेषा मम गोचराः। देवादीनां तु तज्ज्ञानं विज्ञानमिति कीर्तितम्। इति।श्रवणान्मननाच्चैव यज्ज्ञानमुपजायते। तज्ज्ञानं दर्शनं विष्णोर्विज्ञानं शम्भुरब्रवीत्। विज्ञानं ज्ञानमङ्गादेर्विशिष्टं दर्शनं तथा इत्यादि। कूटस्थो निर्विकारः कूटवत्स्थित इति व्युत्पत्तेः। कूटमाकाशःकूटं खं विदलं व्योम सन्धिराकाशउच्यते। इत्यभिधानात्। योगी योगं कुर्वन्। युक्तो योगसम्पूर्णः। एवम्भूतो योगानुष्ठाता योगसम्पूर्ण उच्यत इत्यर्थः।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः। युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः।।6.8।।
জ্ঞানবিজ্ঞানতৃপ্তাত্মা কূটস্থো বিজিতেন্দ্রিযঃ৷ যুক্ত ইত্যুচ্যতে যোগী সমলোষ্টাশ্মকাঞ্চনঃ৷৷6.8৷৷
জ্ঞানবিজ্ঞানতৃপ্তাত্মা কূটস্থো বিজিতেন্দ্রিযঃ৷ যুক্ত ইত্যুচ্যতে যোগী সমলোষ্টাশ্মকাঞ্চনঃ৷৷6.8৷৷
જ્ઞાનવિજ્ઞાનતૃપ્તાત્મા કૂટસ્થો વિજિતેન્દ્રિયઃ। યુક્ત ઇત્યુચ્યતે યોગી સમલોષ્ટાશ્મકાઞ્ચનઃ।।6.8।।
ਜ੍ਞਾਨਵਿਜ੍ਞਾਨਤਰਿਪ੍ਤਾਤ੍ਮਾ ਕੂਟਸ੍ਥੋ ਵਿਜਿਤੇਨ੍ਦ੍ਰਿਯ। ਯੁਕ੍ਤ ਇਤ੍ਯੁਚ੍ਯਤੇ ਯੋਗੀ ਸਮਲੋਸ਼੍ਟਾਸ਼੍ਮਕਾਞ੍ਚਨ।।6.8।।
ಜ್ಞಾನವಿಜ್ಞಾನತೃಪ್ತಾತ್ಮಾ ಕೂಟಸ್ಥೋ ವಿಜಿತೇನ್ದ್ರಿಯಃ. ಯುಕ್ತ ಇತ್ಯುಚ್ಯತೇ ಯೋಗೀ ಸಮಲೋಷ್ಟಾಶ್ಮಕಾಞ್ಚನಃ৷৷6.8৷৷
ജ്ഞാനവിജ്ഞാനതൃപ്താത്മാ കൂടസ്ഥോ വിജിതേന്ദ്രിയഃ. യുക്ത ഇത്യുച്യതേ യോഗീ സമലോഷ്ടാശ്മകാഞ്ചനഃ৷৷6.8৷৷
ଜ୍ଞାନବିଜ୍ଞାନତୃପ୍ତାତ୍ମା କୂଟସ୍ଥୋ ବିଜିତେନ୍ଦ୍ରିଯଃ| ଯୁକ୍ତ ଇତ୍ଯୁଚ୍ଯତେ ଯୋଗୀ ସମଲୋଷ୍ଟାଶ୍ମକାଞ୍ଚନଃ||6.8||
jñānavijñānatṛptātmā kūṭasthō vijitēndriyaḥ. yukta ityucyatē yōgī samalōṣṭāśmakāñcanaḥ৷৷6.8৷৷
ஜ்ஞாநவிஜ்ஞாநதரிப்தாத்மா கூடஸ்தோ விஜிதேந்த்ரியஃ. யுக்த இத்யுச்யதே யோகீ ஸமலோஷ்டாஷ்மகாஞ்சநஃ৷৷6.8৷৷
జ్ఞానవిజ్ఞానతృప్తాత్మా కూటస్థో విజితేన్ద్రియః. యుక్త ఇత్యుచ్యతే యోగీ సమలోష్టాశ్మకాఞ్చనః৷৷6.8৷৷
6.9
6
9
।।6.9।। सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियोंमें तथा साधु-आचरण करनेवालोंमें और पाप-आचरण करनेवालोंमें भी समबुद्धिवाला मनुष्य श्रेष्ठ है।
।।6.9।। जो पुरुष सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बान्धवों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह श्रेष्ठ है।।
।।6.9।। पूर्व श्लोक में ज्ञानी पुरुष की जड़ वस्तुओं की ओर अवलोकन करने की दृष्टि का वर्णन किया गया है। परन्तु जगत् केवल जड़ वस्तुओं से ही नहीं बना है। उसमें चेतन प्राणी भी हैं। मानव मात्र के साथ ज्ञानी पुरुष किस भाव से रहेगा क्या उन्हें मिथ्या कहकर उनके अस्तित्व का निषेध कर देगा क्या जगत् के अधिष्ठान स्वरूप परमात्मा में स्थित होकर वह लोगों की सेवा के प्रति उदासीन रहेगा इन प्रश्नों का उत्तर इस श्लोक में दिया गया है।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा ज्ञानी पुरुष सभी मनुष्यों के साथ समान प्रेम भाव से रहता है चाहे वे सुहृद् हों या मित्र शत्रु उदासीन मध्यस्थ बन्धु साधु हों या पापी। अपनी विशाल सहृदयता में वह सबका आलिंगन करता है। प्रेम और आदरभाव से सबके साथ रहता है। उसकी दृष्टि में वे सभी समान महत्त्वपूर्ण हैं।उसका प्रेम साधु और पापी उत्कृष्ट और निकृष्ट में भेद नहीं करता। वह जानता है कि आत्मस्वरूप के अज्ञान से ही पुरुष पापकर्म में प्रवृत्त होता है और अपने ही कर्मों से दुख उठाता है। स्वामी रामतीर्थ इसे बड़ी सुन्दरता से व्यक्त करते हुये कहते हैं कि हम अपने पापों से दण्डित होते हैं न कि पापों के लिए।आत्मस्वरूप के अपरोक्ष अनुभव से वह यह पहचान लेता है कि एक ही आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। अनेकता में एकता को वह जानता है औऱ विश्व के सामञ्जस्य को पहचानता है। सर्वत्र व्याप्त आत्मस्वरूप का अनुभव कर लेने पर वह किसके साथ प्रेम करेगा और किससे घृणा मनुष्य के शरीर के किसी भी अंग में पीड़ा होने पर सबकी ओर देखने का उसका भाव एक ही होता है क्योंकि सम्पूर्ण शरीर में ही वह स्वयं व्याप्त है।इस उत्तम फल को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिये उत्तर है
।।6.9।। व्याख्या--[आठवें श्लोकमें पदार्थोंमें समता बतायी, अब इस श्लोकमें व्यक्तियोंमें समता बताते हैं। व्यक्तियोंमें समता बतानेका तात्पर्य है कि वस्तु तो अपनी तरफसे कोई क्रिया नहीं करती; अतः उसमें समबुद्धि होना सुगम है, परन्तु व्यक्ति तो अपने लिये और दूसरोंके लिये भी क्रिया करता है; अतः उसमें समबुद्धि होना कठिन है। इसलिये व्यक्तियोंके आचरणोंको देखकर भी जिसकी बुद्धिमें, विचारमें कोई विषमता या पक्षपात नहीं होता, ऐसा समबुद्धिवाला पुरुष श्रेष्ठ है।]
।।6.9।।सुहृदिति। सुहृत् यस्य हृदयम् अकारणमेव शोभनम्। मित्रत्वम् अन्योन्यम्। अरित्वं परस्परम्। उदासीन एतदुभयरहितः (S N K (n) एतद्रूपरहितः) मध्यस्थः केनचिदंशेन मित्रं केनचिच्छत्रुः। द्वेषार्हो द्वेष्टुमशक्यो (N द्वेष्टुं शक्यः) द्वेष्यः। बन्धुः योन्यादिसंबन्धेन। एतेषु सर्वेषु समधीः एवं साधुषु पापेषु च स च विशिष्यते क्रमात् क्रम संसारात् तरति।
।।6.9।।वयोविशेषानङ्गीकारेण स्वहितैषिणः सुहृदः सवयसो हितैषिणो मित्राणि अरयो निमित्ततः अनर्थेच्छवः उभयहेत्वभावाद् उभयरहिता उदासीनाः जन्मत एव उभयरहिता मध्यस्थाः जन्मत एव अनिष्टेच्छवो द्वेष्याः जन्मत एव हितैषिणो बन्धवः साधवो धर्मशीलाः पापाः पापशीलाः आत्मैकप्रयोजनतया सुहृन्मित्रादिभिः प्रयोजनाभावाद् विरोधाभावाच्च तेषु समबुद्धिः योगाभ्यासार्हत्वे विशिष्यते।
।।6.9।।योगारूढस्य प्रशस्तत्वमभ्युपेत्य योगस्याङ्गान्तरं दर्शयति किञ्चेति। परच्छेदः पदार्थोक्तिरिति व्याख्यानाङ्गं संपादयति सुहृदितीति। अरिर्नाम परोक्षमपकारकः प्रत्यक्षमप्रियो द्वेष्य इति विभागः। समबुद्धिरिति व्याचष्टे कः किमिति। प्रथमो हि प्रश्नो जातिगोत्रादिविषयो द्वितीयो व्यापारविषयः। उक्तप्रकारेणाव्यापृतबुद्धित्वे सर्वोत्कर्षो वा सर्वपायविमोक्षो वा सिध्यतीत्याह विशिष्यत इति। पाठद्वयेऽपि सिद्धमर्थं संगृह्य कथयति योगारूढानामिति।
।।6.8 6.9।।योगारूढस्य स्वरूपं श्रैष्ठ्यं चोपपादयति द्वाभ्यां ज्ञानविज्ञानेति। ज्ञानमौपदेशिकं विज्ञानमपरोक्षानुभवः ताभ्यां तृप्त आत्मा यस्य कूटे स्थितोऽपि युक्त इत्युच्यते स योगी सुहृदादिषु तद्विपरीतेषु च समबुद्धिरधिकतरो भवतीति विशिष्यते।
।।6.9।।सुहृन्मित्रादिषु समबुद्धिस्तु सर्वयोगिश्रेष्ठ इत्याह सुहृत्प्रत्युपकारमनपेक्ष्य पूर्वस्नेहं संबन्धं च विनैवोपकर्ता। मित्रं स्नेहेनोपकारकः। अरिः स्वकृतापकारमनपेक्ष्य स्वभावक्रौर्येणापकर्ता। उदासीनो विवदमानयोरुभयोरप्युपेक्षकः। मध्यस्थो विवदमानयोरुभयोरपि हितैषी। द्वेष्यः स्वकृतापकारमपेक्ष्यापकर्ता। बन्धुः संबन्धेनोपकर्ता। एतेषु साधुषु शास्त्रविहितकारिषु पापेषु शास्त्रप्रतिषिद्धकारिष्वपि। चकारादन्येषु च सर्वेषु समबुद्धिः कः कीदृक्कर्मेत्यव्यापृतबुद्धिः सर्वत्र रागद्वेषशून्यो विशिष्यते सर्वत उत्कृष्टो भवति।विमुच्यते इति वा पाठः।
।।6.9।।सुहृन्मित्रादिषु समबुद्धियुक्तस्ततोऽपि श्रेष्ठ इत्याह सुहृदिति। सुहृत् स्वभावेनैव हिताशंसी मित्रं स्नेहवशेनोपकारकः अरिर्घातुकः उदासीनो विवदमानयोरुभयोरप्युपेक्षकः मध्यस्थो विवदमानयोरपि हिताशंसी द्वेष्यो द्वेषविषयः बन्धुः संबन्धी साधवः सदाचारः पापा दुराचाराः एतेषु समा रागद्वेषादिशून्या बुद्धिर्यस्य स तु विशिष्टः।
।।6.9।।समलोष्टाश्मकाञ्चनः 6।8 इति अचेतनेषूक्त एवार्थश्चेतनविषयतया प्रपञ्च्यत इत्यभिप्रायेणाह तथा चेति। यद्वा सुहृदादिषु समबुद्धित्वस्य दुष्करतरत्वादत्रविशिष्यते इत्युक्तेश्च समदर्शित्वातिशयोऽत्र विवक्षितः तथाच अपिचेत्यर्थः सुहृन्मित्रबन्धुशब्दानां अरिद्वेष्यशब्दयोरुदासीनमध्यशब्दयोश्च पौनरुक्त्यमपाकर्तुं तत्तत्पदव्याख्या। बन्धुशब्दस्तावत्पित्रादिषु प्रसिद्धः मित्रशब्दश्च सवयस्सु अतः पारिशेष्यात्सुहृच्छब्दस्तदुभयव्यतिरिक्तविषय इत्यभिप्रायेणाह वयोविशेषानङ्गीकारेणेति।सवयस इत्यनेन मित्राणां क्रीडादिरूपप्रियैषित्वमप्यस्तीति सूचितम्। बन्धुशब्दासक्तेर्द्वेष्यशब्दस्तावत्सहजशत्रुविषयः प्राप्तः ततोऽत्रापि पारिशेष्यादरिशब्दं कृत्रिमशत्रुविषयमाह अरयो निमित्ततोऽनर्थेच्छव इति। मध्यस्थशब्दोऽपि द्वेष्यबन्धुशब्दासक्तेर्हेतुतो हिताहितप्रवृत्तियोग्येषु प्रयोगाभावाच्च जन्मत एवोभयरहितविषय उचितः। ततः परिशेषादौदासीन्यस्य प्रवृत्तिप्रतिसम्बन्धिकत्वेन तत्स्मारकत्वात्कारणागमे हिताहितप्रवृत्तियोग्यास्तदभावमात्रेण तद्रहिता उदासीना इत्यभिप्रायेणाह उभयेति। उभयं हितैषित्वमहितैषित्वं च जन्मतः सम्बन्धिनो बन्धव इत्येतावन्मात्रस्य दुर्योधनादिष्वतिव्याप्तेःजन्मत एव हितैषिणो बन्धव इत्युक्तम्। एवं स्वप्रतिसम्बन्धिनः पुरुषा उक्ताः अथ साधारण्येन श्लाघ्यत्वनिन्द्यत्वाद्याश्रयाः पुरुषाः साधुपापशब्दाभ्यामभिधीयन्त इत्यभिप्रायेणाह साधव इति। वाक्यार्थमाह आत्मैकेति। सुहृदादिभिः प्रयोजनाभावादितरैर्विरोधाभावाच्चेत्यर्थः। ननु युक्तं नाम सुहृदादिषु समबुद्धित्वम् न तु साधुषु पापेषु च योगिनां समं प्रायोजनम् सत्सङ्गमादेरसत्परित्यागादेश्च ज्ञानवृद्धिहेतुत्वेन तेषामवस्यापेक्षितत्वात्। उच्यते नेदानीमुपजीवकदशापन्नो योगी निर्दिश्यते किन्तु श्रुतसकलश्रोतव्यः कृतसकलकर्तव्यः साक्षात्कारात्यन्तयोग्यदशापन्नः तथाविधस्य च तस्य साधुभिः पापैश्च प्रयोजनाभावः समः केवलं योगोपयुक्तरहस्यस्थानादेरेवोपादेयत्वादिति भावः। योगाभ्यासार्हदशा हि प्रागप्युक्ता इयं तु तत्र काष्ठाप्राप्तावस्थेतिविशिष्यते इत्यस्य भावः। तदाह योगाभ्यासार्हत्वे विशिष्यते इति. अत्रविमुच्यते इति परैः (शं.) पठितात्पाठविकल्पादयमेव पाठ उचित इति भावः।
।।6.9।।किञ्च एतत्ित्रतय एव न समः किन्तु सर्वत्रैव समबुद्धिरुत्तम इत्याह सुहृदिति। सुहृत् सर्वहितोपदेशकृत्। मित्रं स्नेहपरवशः अरिः स्वस्मिन् शत्रुबुद्धिमान् उदासीनो निरपेक्षः मध्यस्थो विवदमानयोः सदसद्वाक्यविचारकः द्वेष्यः सद्भावहीनः बन्धुः सम्बन्धी एतेषु साधुषु सदाचारेषु। अपि च किं पुनः पापेषु धर्मविरोधिषु समबुद्धिः भगवद्विप्रयोगेन भगवदात्मबुद्धिस्तेषु वा तद्विप्रयोगेन तथाभावदर्शी विशिष्यते योगयुक्तेपूत्तम इत्यर्थः। अत्रायं भावः भगवद्विप्रयोगे तत्सौहार्दस्मरणेनायं सर्वेषु सौहार्दधर्मवान् तथैव च मित्रधर्मवान् तद्रहितेषु अरिबुद्धिमान् तत्तद्दुःखेन सर्वत्रौदासीन्यधर्मवान् विप्रयोगावस्थायां तदनुकरणेन मध्यस्थधर्मवान् तथैव तत्क्लेशेन द्वेषधर्मवान् तत्सम्बन्धस्मरणेन बन्धुधर्मवान् तदर्थं सदाचारवान् तत्तापातिशयेन पापरूपवान् जडत्वधर्मेण एवं यः समबुद्धिः स विशिष्ट इत्यर्थः।
।।6.9।।समत्वमेव स्तौति सुहृदिति। सुहृत् प्रत्युपकारमनपेक्ष्योपकर्ता मित्रं स्नेहवान् अरिः शत्रुः उदासीन उभयत्र पक्षपातशून्यः मध्यस्थः उभयहितैषी द्वेष्य आत्मनोऽप्रियः बन्धुः संबन्धी तेषु साधुषु पुण्यकृत्सु पापेषु पापाचारेषु कस्य किं कर्मेत्यनालोचयन् तेषु सर्वेषु यः समबुद्धिः स विशिष्यते।
।।6.9।।न केवलं समलोष्टाश्मकाञ्चन एव अपितु सुहृदादिष्वपि समबुद्धिरित्याह सुहृदिति। सुहृत्प्रत्युपकारमनपेक्ष्योपकर्ता मित्रं स्नेहादिमपेक्ष्य तत्कर्ता अरिः शत्रुः खङ्गहस्तो मारणायोद्यतः उदासीनः पक्षपातशून्यः मध्यस्थो विरोधं कुर्वतोर्द्वयोरपि हितैषी द्वेष्योऽपकर्तृत्वाद्वेषविषयः बन्धुर्भ्रात्रादिः संबन्धीत्येतेषु साधुषु शास्त्रानुवर्तिष्वपिच पापेषु प्रतिषिद्धकारिषु सर्वेष्वेतेषु समबुद्धिः। कः सुहृदादिः किमुपकारादिकर्मकर्तेत्यव्यापृतबुद्धिरित्यर्थः। विशिष्यते सर्वतः श्रेष्ठो भवतीत्यर्थः।विमुच्यते इति वा पाठः।
6.9 सुह्यन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु in the goodhearted? in friends? in enemies? in the indifferent? in neutrals? in haters and in relatives? साधुषु in the righteous? अपि also? च and? पापेषु in the unrighteous?,समबुद्धिः one who has eal mind? विशिष्यते excels.Commentary He excels He is the best among the Yogarudhas.Samabudhhi is eanimity or evenness of mind. A Yogi of Samabuddhi has eal vision. He is ite impartial. He is the same to all. He makes no difference with reference to caste? creed or colour. He loves all as his own self? as rooted in the Self.A goodhearted man does good to others without expecting any servie from them in return.Udasina is one who is ite indifferent.A neutral is one who does not join any of the two contending parties. He stands as a silent spectator or witness.The righteous are those who do righteous actions and follow the injunctions of the scriptures.The unrighteous are those who do wrong and forbidden actions? who inure others and who do not follow the scriptures.
6.9 He who is of the same mind to the good-hearted, friends, enemies, the indifferent, the neutral, the hateful, the relatives, the righteous and the unrighteous, excels.
6.9 He looks impartially on all - lover, friend or foe; indifferent or hostile; alien or relative; virtuous or sinful.
6.9 He excels who has sameness of view with regard to a benefactor, a friend, a foe [Ari (foe) is one who does harm behind one's back.], a neutral, an arbiter, the hateful, [Dvesyah is one who openly hateful.] a relative, good people and even sinners.
6.9 The first line of the verse beginning with 'benefactor,' etc. is a single compound word. Visisyate, he excels, i.e. he is the best among all those who are established in Yoga-(a different reading is vimucyate, he becomes free); sama-buddhih, who has sameness of view, i.e. whose mind is not engaged with the estion of who one is and what he does; with regard to a suhrd, benefactor-one who does some good without consideration of return; mitram, a friend, one who is affectionate; arih, a foe; udasinah, a neutral, who sides with nobody; madhyasthah, an arbiter, who is a well-wisher of two conflicting parties; dvesyah, the hateful, who is repulsive to oneself; bandhuh, a relative;- to all these as also sadhusu, with regard to good people, who follow the scriptures; api ca, and even; papesu, sinners, who perform prohibited actions-with regard to all of them. Therefore, to acire this excellent result-
6.9. He whose mind is eal in the case of the friend, companion, enemy, the indifferent one, the one who remains in the middle, the foe, the relative, the righteous and also the sinful-he excells [all].
6.9 Suhrt etc. Friend is one whose heart remains good and auspicious without cause (on its own accord). Companionship is [that which is felt] mutually. Enmity is [also that which is felt] between one another. The indifferent one : the one, who is free from both these. One who remains in the middle : he who is partly a friend and partly an enemy. Foe : he who deserves to be hated, [but] cannot be hated. Relative : the one [connected] by marital bondage. Whosoever is with his mind eal to all these as well as to the righteous and the sinful; he excells [all] i.e., stage after stage he goes out of the cycle of birth-and-death. By the worshipful-footed persons of this sort -
6.9 'Well-wishers' (Suhrt) are those who wish one well, regardless of differences in age. 'Friends' (Mitra) are well-wisheres of eal age. 'Foes' (Ari) are those who wish ill to one because of some particular cause. 'The indifferent' (Udasina) are those devoid of both friendship and hostility because of the absence of causes for both; 'neutrals' (Madhyastha) are those who are by their very nature incapable of both friendship and hostility. 'The hateful' are those who wish ill to one even from birth. 'Relations' are those who bear goodwill from birth. 'The good' are those devoted to virtue. 'The sinful' are those given to sin. Because of the self being the only end of Yoga, and because of there being no gain and no opposition from well-wishers, friends, etc., he who could regard them all with an eal eye as selves, excels in respect of fitness for the practice of Yoga.
6.9 He who regards with an eal eye well-wishers, friends, foes, the indifferent, neutrals, the hateful, the relations, and even the good and the sinful - he excels.
।।6.9।।तथा सुहृत् शब्दसे लेकर आधा श्लोक एक पद है। सुहृत् प्रत्युपकार न चाहकर उपकार करनेवाला मित्र प्रेमी अरि शत्रु उदासीन पक्षपातरहित मध्यस्थ जो परस्पर विरोध करनेवाले दोनोंका हितैषी हो द्वेष्य अपना अप्रिय और बन्धु अपना कुटुम्बी इन सबमें तथा शास्त्रानुसार चलनेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंमें और निषिद्ध कर्म करनेवाले पापियोंमें भी जो समबुद्धिवाला है इन सबमें कौन कैसा क्या कर रहा है ऐसे विचारमें जिसकी बुद्धि नहीं लगती है वह श्रेष्ठ है। अर्थात् ऐसा योगी सब योगारूढ़ पुरुषोंमें उत्तम है। यहाँ विशिष्यते के स्थानमें विमुच्यते ( मुक्त हो जाता है ) ऐसा पाठान्तर भी है।
।।6.9।। सुहृत् इत्यादिश्लोकार्धम् एकं पदम्। सुहृत् इति प्रत्युपकारमनपेक्ष्य उपकर्ता मित्रं स्नेहवान् अरिः शत्रुः उदासीनः न कस्यचित् पक्षं भजते मध्यस्थः यो विरुद्धयोः उभयोः हितैषी द्वेष्यः आत्मनः अप्रियः बन्धुः संबन्धी इत्येतेषु साधुषु शास्त्रानुवर्तिषु अपि च पापेषु प्रतिषिद्धकारिषु सर्वेषु एतेषु समबुद्धिः कः किंकर्मा इत्यव्यापृतबुद्धिरित्यर्थः। विशिष्यतेविमुच्यते इति वा पाठान्तरम्। योगारूढानां सर्वेषाम् अयम् उत्तम इत्यर्थः।।अत एवमुत्तमफलप्राप्तये
।।6.9।।मध्ये लक्ष्यस्योक्तत्वात्सुहृत् इत्यादिकं न योगारूढलक्षणमिति प्रतीतिनिरासायाह स एवेति। साधुपापादिषु समबुद्धिश्च स योगारूढ एवेति न किन्तु सर्वस्मादयोगिवर्गाद्विशिष्यत इत्येतद्वक्तुं पृथगन्वय इति भावः। साधुत्वं धर्मित्वम् पापत्वं पापवत्त्वं च नियतं न तु सुहृत्त्वादिवदव्यवस्थितमित्यतः सुहृदादिष्वित्यनुक्त्वासाधुपापादिषु इत्युक्तम्। समबुद्धित्वं नाम पूजादिसाम्यमित्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह जीवचित इति।एष चेतनया युक्तो जीव इत्यभिधीयते इति चेतनाचेतनपिण्डे जीवशब्दप्रयोगात् चित इत्युक्तम्। सुहृदादिचैतन्यस्य तथा सर्वत्र सुहृदादिषु स्थितस्य परमात्मनः एवं सर्वत्र सुहृदादिषु स्थितस्य सुदृत्त्वादेः परमात्मनिमित्तकत्वस्य चैकरूप्येण कारणेन तद्दर्शी समबुद्धिरित्यर्थः। तत्राद्यं प्रकारं विवृणोति चिद्रूपा एवेति। मनुष्येषु यदेक एकं प्रति सुहृदित्यादि तत् न जीवस्वभावान्तर्गतं किन्तु चिद्रूपत्वादिकमेवेत्यर्थः। तर्हि सुहृत्त्वादिधर्मः किमात्मकः इत्यत आह विशेषस्त्विति। अन्तःकरणोपादानको बाह्यधर्मः। एतदुक्तं भवति मुक्ताववशिष्यमाणं यज्जीवरूपं तत्त्रिविधा जीवसङ्घाः इत्यादिप्रमाणाद्विषममेव किन्तु देहेन्द्रियान्तःकरणधर्मैर्यद्वैषम्यं तत्तत्स्वरूप एवारोप्य विषमबुद्धित्वं योगारूढस्य नास्तीति द्वितीयः प्रकारः स्फुटः। तृतीयं विवृणोति सर्वेषामिति। स्वतः स्वातन्त्र्येण।अत्र प्रमाणमाह उक्तं चेति। स्वतः स्वरूपेण। दोषैररित्वादिभिः। एवं सुहृत्त्वादिगुणैरित्यपि ग्राह्यम्। आगन्तुकधर्मा न स्वरूपान्तर्गता इत्यर्थः। किं तर्हि इत्यत आह तेषां त्विति। दोषा गुणाश्च। उपाधिरन्तःकरणादिः। सर्वं सुहृत्वादिकम्। अतएव प्रकारद्वयेन यदनात्मधर्मानात्मस्वन्तर्भाव्य वैषम्यम् यच्च क्वचित् परमेश्वरानधीनरूपत्वं तद्भ्रान्तिप्रतीतम्। योगे प्रवर्तमानं प्रति यत्सुहृत्त्वादिकं तत् मनुष्येष्वेव स्वरूपवैषम्यकारणं न भवति। न तु देवादिष्वित्युक्तस्यापवादमाह एवमिति। तुशब्दोऽवधारणे। अवधारणार्थं विवृणोति विशेष इति। विशेषो योगिनं प्रति सुहृत्त्वादिः। तदेव प्रपञ्चयति असुरादेरिति। तथाशब्दो वक्ष्यमाणसमुच्चये। दोषा योगिनं प्रति अरित्वाद्याः। तथा चोक्तम्विद्ध्येनमिह वैरिणम् 3।37 इति। गुणदोषौ सुहृत्त्वारित्वादी अनागन्तुकौ। गुणैः सुहृत्त्वादिभिरेकमात्रं गुणैकमात्रम्। तथा च श्रुतिः यथा ह वै बहवः पशवः बृ.उ.1।4।10 इत्यादिका।सुहृत् इत्यादिश्लोकस्य प्रतीत एवार्थः किं न स्यात्। इत्यत आह न त्विति। सर्वशब्दपर्यायस्य समशब्दस्यैव सर्वनामसंज्ञा न साधारणार्थस्य समे देशे यजति इति।तथा न केवलं समपूजायां दोषः किन्तु विषमपूजाविधानं चास्तीत्याह वित्तमिति। बन्धुरिति बन्धुत्वम्। मान्यानि च तानि स्थानानि च। वित्तादिशब्दैः तद्वन्त उपलक्ष्यन्ते। दृष्टिरेवोक्तप्रकारत्रयेण समा कार्या पूजा तु विषमैवेत्यत्र प्रमाणान्तरमाह गुणेति। या विषमा पूजा सा वैषम्यम्। तस्यैव व्याख्यानमुत्तमत्वम्। साम्यं ददाति विदुःखत्वनिमित्तम्। समबुद्धित्वं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे सुहृदादिष्विति। एतन्न योगारूढविषयमिति तत्रैव नोक्तम्। न हि योगारूढो लौकिकेष्वरिष्वपकारं करोति यः। सुहृन्मित्रशब्दयोररिद्वेष्यशब्दयोरुदासीनमध्यस्थशब्दयोश्चार्थभेदो न प्रतीयते अत आह प्रत्युपकारेति। निरपेक्षयाऽनपेक्षया अवासितमप्रियं तत उपक्रियमाणात्।
।।6.9।।स एव च सर्वस्माद्विशिष्यते। साधुपापादिषु समबुद्धिः जीवचितः। परमात्मनः सर्वस्य तन्निमित्तकत्वस्य च सर्वत्रैकरूप्येण चिद्रूपा एव हि जीवाः। विशेषस्त्वन्तःकरणकृतः। सर्वेषां साधुत्वादिकं सर्वमीश्वरकृतमेव। स्वतो न किञ्चिदपि।उक्तं चैतत्सर्वम् स्वतः सर्वेऽपि चिद्रूपाः सर्वदोषविवर्जिताः। जीवास्तेषां तु ये दोषास्त उपाधिकृता मताः। सर्वं चेश्वरतस्तेषां न किञ्चित्स्वत एव तु। समा एवं ह्यतः सर्वे वैषम्यं भ्रान्तिसम्भवम्। एवं समानजीवास्तु विशेषो देवतादिषु। स्वाभाविकस्तु नियमादत एव सनातनाः। असुरादेस्तथा दोषा नित्याः स्वाभाविका अपि। गुणदोषौ मानवानां नित्यौ स्वाभाविकौ मतौ। गुणैकमात्ररूपास्तु देवा एव सदा मताः। इति ब्राह्मे। न तु साधुपापादीनां पूजादिसाम्यम् तत्र दोषस्मृतेःसमानां विषमा पूजा विषमानां समा तथा। क्रियते येन देवोऽपि स्वपदाद्भ्रश्यते पुमान्। इति ब्राह्मे।वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या चैव तु (भवति) पञ्चमी। एतानि मान्यस्थानानि गरीयो ह्युत्तरो (यद्यदु)त्तरम्। 2।136 इति मानवे।गुणानुसारिणीं पूजां समां दृष्टिं च यो नरः। सर्वभूतेषु कुरुते तस्य विष्णुः प्रसीदति। वैषम्यमुत्तमत्वं तु ददाति नरसञ्चयात्। पूजाया विषमा दृष्टिः समा साम्यं विदुःखजम्। इति ब्रह्मवैवर्ते। सुहृदादिषु शास्त्रोक्तपूजादिकृतिः। अन्यूनानधिका या साऽपि समता। तदप्याहुः यथा सुहृत्सु कर्तव्यं पितृशत्रुसुतेषु च। तथा करोति पूजादि समबुद्धिः स उच्यते। इति गारुडे। प्रत्युपकारनिरपेक्षयोपकारकृत्सुहृत्। क्लेशस्थानं निरूप्य यो रक्षां करोति स मित्रम्। अरिर्वधादिकर्ता। कर्तव्ये उपकारे अपकारे च य उदास्ते स उदासीनः। कर्तव्यमुभयमपि यः करोति स मध्यमः। अवासितकृद्वेष्यः। आह चतत् द्वेष्योऽवासितकृत्कार्यमात्रकारी तु मध्यमः। प्रियकृत्प्रियो निरूप्यापि क्लेशं यः परिरक्षति। स मित्रमुपकारं तु अनपेक्ष्योपकारकृत्। यस्ततः स सुहृत्प्रोक्तः शत्रुश्चापि वधादिकृत्। इति।
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु। साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।।6.9।।
সুহৃন্মিত্রার্যুদাসীনমধ্যস্থদ্বেষ্যবন্ধুষু৷ সাধুষ্বপি চ পাপেষু সমবুদ্ধির্বিশিষ্যতে৷৷6.9৷৷
সুহৃন্মিত্রার্যুদাসীনমধ্যস্থদ্বেষ্যবন্ধুষু৷ সাধুষ্বপি চ পাপেষু সমবুদ্ধির্বিশিষ্যতে৷৷6.9৷৷
સુહૃન્મિત્રાર્યુદાસીનમધ્યસ્થદ્વેષ્યબન્ધુષુ। સાધુષ્વપિ ચ પાપેષુ સમબુદ્ધિર્વિશિષ્યતે।।6.9।।
ਸੁਹਰਿਨ੍ਮਿਤ੍ਰਾਰ੍ਯੁਦਾਸੀਨਮਧ੍ਯਸ੍ਥਦ੍ਵੇਸ਼੍ਯਬਨ੍ਧੁਸ਼ੁ। ਸਾਧੁਸ਼੍ਵਪਿ ਚ ਪਾਪੇਸ਼ੁ ਸਮਬੁਦ੍ਧਿਰ੍ਵਿਸ਼ਿਸ਼੍ਯਤੇ।।6.9।।
ಸುಹೃನ್ಮಿತ್ರಾರ್ಯುದಾಸೀನಮಧ್ಯಸ್ಥದ್ವೇಷ್ಯಬನ್ಧುಷು. ಸಾಧುಷ್ವಪಿ ಚ ಪಾಪೇಷು ಸಮಬುದ್ಧಿರ್ವಿಶಿಷ್ಯತೇ৷৷6.9৷৷
സുഹൃന്മിത്രാര്യുദാസീനമധ്യസ്ഥദ്വേഷ്യബന്ധുഷു. സാധുഷ്വപി ച പാപേഷു സമബുദ്ധിര്വിശിഷ്യതേ৷৷6.9৷৷
ସୁହୃନ୍ମିତ୍ରାର୍ଯୁଦାସୀନମଧ୍ଯସ୍ଥଦ୍ବେଷ୍ଯବନ୍ଧୁଷୁ| ସାଧୁଷ୍ବପି ଚ ପାପେଷୁ ସମବୁଦ୍ଧିର୍ବିଶିଷ୍ଯତେ||6.9||
suhṛnmitrāryudāsīnamadhyasthadvēṣyabandhuṣu. sādhuṣvapi ca pāpēṣu samabuddhirviśiṣyatē৷৷6.9৷৷
ஸுஹரிந்மித்ரார்யுதாஸீநமத்யஸ்தத்வேஷ்யபந்துஷு. ஸாதுஷ்வபி ச பாபேஷு ஸமபுத்திர்விஷிஷ்யதே৷৷6.9৷৷
సుహృన్మిత్రార్యుదాసీనమధ్యస్థద్వేష్యబన్ధుషు. సాధుష్వపి చ పాపేషు సమబుద్ధిర్విశిష్యతే৷৷6.9৷৷
6.10
6
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।।6.10।। भोगबुद्धिसे संग्रह न करनेवाला, इच्छारहित और अन्तःकरण तथा शरीरको वशमें रखनेवाला योगी अकेला एकान्तमें स्थित होकर मनको निरन्तर परमात्मामें लगाये।
।।6.10।। शरीर और मन को संयमित किया हुआ योगी एकान्त स्थान पर अकेला रहता हुआ आशा और परिग्रह से मुक्त होकर निरन्तर मन को आत्मा में स्थिर करे।।
।।6.10।। महाभारत में स्पष्ट कहा गया है कि श्रीकृष्ण सर्वज्ञ ईश्वर के अवतार थे इसीलिए उन्हें श्रीकृष्ण परमात्मा कहा गया है। वे यहाँ अर्जुन को आत्मोन्नति के साधन का उपदेश दे रहे हैं। अर्जुन उनका परम मित्र था। स्वयं भगवान् की मित्रता प्राप्त होने पर भी महाभारत में किसी भी स्थान पर यह नहीं कहा गया है कि अर्जुन को स्वयं संघर्ष किये बिना आत्मविकास की प्राप्ति के लिए भगवान् कोई गुप्त साधन बतलायेंगे जिसका सम्पूर्ण उत्तरदायित्व श्रीकृष्ण के ऊपर होगा। इस श्लोक की प्रथम पंक्ति ही किसी ऐसी मिथ्या आशा को साधक के मन से दूर कर देती है। यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि योगी को निरन्तर मन को आत्मा में स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिए। ध्यानाभ्यास के द्वारा ही मनुष्य अपने दोषों से मुक्त होकर पूर्णत्व को प्राप्त हो सकता है।ध्यानविधि की विस्तृत जानकारी यहाँ दी गयी है। ध्यान का अभ्यास एकांत में करने को कहा गया हैं। कुछ समय पहले भारत में एकान्त शब्द पर इतना अधिक बल दिया गया कि ध्यान शब्द से ही लोगों के मन में उसके प्रति एक प्रकार का भय व्याप्त हो गया। एकान्त का अर्थ केवल जंगल या गुफा नहीं वरन् बाह्य विषयों से मन को विमुख करना है। अपने ही घर में शान्त समय में एक आसन में बैठकर ध्यान का अभ्यास किया जा सकता है।वास्तविक एकान्त तो तभी प्राप्त होगा जब मन की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति क्षीण होगी। मन इच्छाओं से परिपूर्ण होने पर निर्जन वन अथवा गुफा में जाने से भी मनुष्य विषयों का ही चिन्तन करता रहेगा और उसे एकान्त की प्राप्ति नहीं होगी। रहसि अर्थात् एकान्त इस शब्द के द्वारा यह सूचित करते हैं कि धर्म आत्म प्रचार का कोई साधन नहीं वरन् जीवन में उच्च मूल्यों को जीने का सतत् प्रयत्न है जिनका गोपन शैली में अभ्यास करना चाहिए। साधक को चाहिए कि वह पूरी लगन से विचारों को सही दिशा प्रदान कर लक्ष्य की ओर अग्रसर होने का प्रयत्न करे।दैनिक जीवन में ध्यानाभ्यास की सफलता साधक के आत्मसंयम पर निर्भर करती है। जब तक हम वस्तुओं की प्राप्ति की आशा तथा वस्तुओं का संग्रह (परिग्रह) करने की प्रवृत्ति से स्वयं को मुक्त करना नहीं सीखते तब तक वास्तविक अर्थ में आत्मसंयम संभव नहीं होता। अत साधक को निराशी अर्थात् झूठी आशाओं से रहित तथा अपरिग्रह होना चाहिए।उक्त गुणों से युक्त होकर जो साधक ध्यान का अभ्यास करता है वह जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सही दिशा में आगे बढ़ता है।अब योगाभ्यास करने वाले साधक के लिए उपयोगी आसन आहार विहार आदि के नियम बताते हैं। सर्वप्रथम आसन का वर्णन करते हैं
।।6.10।। व्याख्या--[पाँचवें अध्यायके सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकोंमें जिस ध्यानयोगका संक्षेपसे वर्णन किया था, अब यहाँ उसीका विस्तारसे वर्णन कर रहे हैं। 'युज् समाधौ' धातुसे जो 'योग' शब्द बनता है, जिसका अर्थ चित्तवृत्तियोंका निरोध करना है (टिप्पणी प0 341.1), उस योगका वर्णन यहाँ दसवें श्लोकसे आरम्भ करते हैं।]
।।6.10 6.15।।ननु जितात्मनः इत्युक्तम् तत्कथं तज्जय इत्याशङ्क्य आरुरुक्षोः कश्चिदुपायः कायसमत्वादिकः (SN कायसमुद्धारकः) चित्तसंयम उपदिश्यते योगीत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। आत्मानं च चित्तं च युञ्जीत एकाग्रीकुर्यात्। सततमिति न परिमितं कालम्। एकाकित्वादिषु सत्सु एतद्युज्यते ( N युञ्जीत) नान्यथा। आसनस्थैर्यात् कालस्थैर्ये (S कालस्थैर्यम्) चित्तस्थैर्यम्। चित्तक्रियाः संकल्पात्मनः अन्याश्चेन्द्रियक्रिया येन यताः नियमं नीताः। धारयन् यत्नेन। नासिकाग्रस्यावलोकने सति दिशामनवलोकनम्। मत्परमतया युक्त आसीत (N आसीत्) इत्यर्थः (S omits इत्यर्थः)। एवमात्मानं युञ्जतः समादधतः शान्तिर्जायते यस्यां संस्थापर्यन्तकाष्ठा मत्प्राप्तिः (K प्राप्तिर्योगोऽस्तीति)।
।।6.10।।योगी उक्तप्रकारकर्मयोगनिष्ठः सततम् अहरहः योगकाले आत्मानं युञ्जीत आत्मानं युक्तं कुर्वीत स्वदर्शननिष्ठं कुर्वीत इत्यर्थः। रहसि जनवर्जिते निःशब्दे देशे स्थितः एकाकी तत्रापि न सद्वितीयः तत्रापि यतचित्तात्मा यतचित्तमनस्कः निराशीः आत्मव्यतिरिक्ते कृत्स्ने वस्तुनि निरपेक्षः अपरिग्रहः तद्व्यतिरिक्ते कस्मिंश्चिद् अपि ममतारहितः।
।।6.10।।यथोक्तविशेषणवतो योगारूढेषूत्तमत्वे योगानुष्ठाने प्रयतितव्यमित्यङ्गाभिधानानन्तरं प्रधानमभिदधाति अत एवमिति। आदरनैरन्तर्यदीर्घकालत्वं विशेषणत्रयं योगस्य सूचयति सततमिति। तस्यैव पञ्चाङ्गान्युपन्यस्यति रहसीत्यादिना। सर्वदेत्यादरदीर्घकालयोरुपलक्षणम्। प्रत्यगात्मानं व्यावर्तयति अन्तःकरणमिति। गिरिगुहादावित्यादिशब्देन योगप्रतिबन्धकदुर्जनादिविधुरो देशो गृह्यते। विशेषणद्वयस्य तात्पर्यमाह रहसीति। योगं युञ्जानस्य संन्यासिनो विशेषणान्तराणि दर्शशति यतेति। सति संन्यासित्वे किमित्यपरिग्रहग्रहणमर्थपुनरुक्तेरित्याशङ्क्य कौपीनाच्छादनादिष्वपि शक्तिनिवृत्त्यर्थमित्याह संन्यासित्वेऽपीति।
।।6.10 6.13।।एवं योगारूढस्य स्वरूपमुक्त्वाऽऽरुरुक्षोः साङ्गं योगं विदधतः सिद्धिमाह योगी इत्यादिनामत्संस्थामधिगच्छति 15 इत्यन्तेन। योगी युञ्जानो रहसि स्थितः आत्मानं सततं युञ्जीत।
।।6.10।।एवं योगारूढस्य लक्षणं फलं चोक्त्वा तस्य साङ्गं योगं विधत्ते योगीत्यादिभिः स योगी परमो मत इत्यन्तैस्त्रयोविंशत्या श्लोकैः। तत्रैवमुत्तमफलप्राप्तये योगी योगारूढ आत्मानं चित्तं सततं निरन्तरं युञ्जीत क्षिप्तमूढविक्षिप्तभूमिपरित्यागेनैकाग्रनिरोधभूम्यां समाहितं कुर्यात्। रहसि गिरिगुहादौ योगप्रतिबन्धकदुर्जनादिवर्जिते देशे स्थितः एकाकी त्यक्तसर्वपरिग्रहजनः संन्यासी चित्तमन्तःकरणमात्मा देहश्च संयतौ योगप्रतिबन्धकव्यापारशून्यौ यस्य स यतचित्तात्मा। यतो निराशीर्वैराग्यदार्ढ्येन विगततृष्णः। अतएव वापरिग्रहः शास्त्राभ्यनुज्ञातेनापि योगप्रतिबन्धकेन परिग्रहेण शून्यः।
।।6.10।।एवं योगारूढस्य लक्षणमुक्त्वेदानीं तस्य साङ्गं योगं विधत्ते योगीत्यादिना। स योगी परमो मत इत्यन्तेन ग्रन्थेन। योगीति। योगी योगारूढः आत्मानं मनो युञ्जीत समाहितं कुर्यात्। सततं निरन्तरं रहस्येकान्ते स्थितः सन्नेकाकी सङ्गशून्यः यतं संयतं चित्तमात्मा देहश्च यस्य निराशीर्निराकाङ्क्षो निराहारो वा अपरिग्रहः परिग्रहशून्यश्च।
।।6.10।।अथाध्यायप्रधानाथेभूतयोगाभ्यासविधिरुच्यते योगीं युञ्जीत इत्यादिना।युञ्जीत इति साक्षात्काररूपस्य योगस्य विधीयमानत्वात्योगी इत्यनेन कर्मयोगनिष्ठत्वानुवादः क्रियत इत्यभिप्रायेणाह उक्तप्रकारेति।सततं इत्येतन्न सर्वकालविषयम् तथा योगशास्त्रैः अनभिहितत्वात् अशक्यत्वाच्च। अतः प्रतिदिवसं योगयोग्यतया विहितसत्त्वोत्तरकालसामस्त्यपरमित्यभिप्रायेणाह अहरहर्योगकाल इति।युञ्जीत इत्यत्र विवक्षितमर्थं वक्तुं प्रकृतिप्रत्ययार्थभेदं दर्शयति युक्तं कुर्वीतेति। तत्रयुज समाधौ इति प्रकृत्यंशस्य विवक्षितं व्यनक्ति स्वदर्शनेति। आत्माऽत्र मनः स्वात्मा वा। जनवर्जितेऽपि देशे बाह्यदेशस्थितानां शब्दस्यावने सति मनस्समाधानं न स्यादिति तन्निवृत्त्यर्थमुक्तंनिश्शब्द इति।रहसि इति विजनदेशाभिधानेऽपि पुनःएकाकी इति पदं रहस्यार्हात्यासन्नशिष्यसब्रह्मचार्यादिसन्निधिपरित्यागार्थमित्यभिप्रायेणाहतत्रापि न सद्वितीय इति। यद्वा रहश्शब्देन जनवर्जनद्वारा निश्शब्दत्वं लक्ष्यते। एकाकिशब्देन तु जनवर्जनमेवोच्यत इति भावः। व्युत्थानकालेऽपि एकाकित्वमनेनोच्यत इत्येके। ततोऽप्यस्यार्थस्यात्यन्तोपकारित्वादेवं योजना। एतेनरहसि स्थितः एकाकी च इति विशेषणात् सन्न्यासं कृत्वेत्यर्थः इतिशङ्करोक्तं प्रत्युक्तम्। आत्मशब्देन मनसोऽभिधानेऽपि तस्यैव चिन्तारूपवृत्त्यपेक्षया तद्विशिष्टापेक्षया वा चित्तशब्द इत्यभिप्रायेणाह यतचित्तमनस्क इति। आशीश्शब्दस्यानेकार्थत्वादिह निषेध्यविशेषव्यक्त्यर्थमुक्तंनिरपेक्ष इति। अपरिग्रहशब्देन बुद्ध्या स्वीकारपर्यायः परिग्रहोऽत्र निषिध्यत इत्यभिप्रायेणाह ममतारहित इति।
।।6.10।।एवं योगारूढस्वरूपमुक्त्वा तस्य भावस्वरूपसिद्ध्यर्थं योगसाधनप्रकारमाहयोगी इत्यारभ्यस योगी परमो मतः 6।32 इत्यन्तम्। योगी योगारूढः आत्मानं भावात्मकं रूपं रहसि एकान्ते भगवच्चिन्तनस्थाने स्थितः सन् समाहितः सन् सततं युञ्जीत भगवति युक्तं कुर्यात्। एकाकी सङ्गदोषरहितः। यतचित्तात्मा यर्त वशीकृतं स्वभोगादिरहितं चित्तं भावरूपमात्मा देहेऽधिकरणात्मको येन। निराशीर्निर्गता मोक्षाद्याऽऽकाङ्क्षा यस्य। अपरिग्रहः संसर्गदुःखज्ञानेन त्यक्तपरिग्रहः सर्वापेक्षारहितः। एव युक्तचित्तः सन् मद्ध्यानं कुर्यादित्यर्थः।
।।6.10।।योगीति। योगी योगाभ्यासपरः रहसि एकान्ते स्थितः सन् आत्मानं बुद्धिं युञ्जीत समादध्यात्। सततमिति नैरन्तर्यमुक्तम्। निराशीर्योगसिद्धेरन्यदप्रार्थयानः तेदकनिष्ठ इति यावत्। तेन सत्कार उक्तः। एकाकीअसहायः संन्यासीत्यर्थः। यतौ स्थिरीकृतौ चित्तं मनः आत्मा सेन्द्रियं शरीरं येन स यतचित्तात्मा। तथा अपरिग्रह एकाकित्वेऽपि कन्थापुस्तकादिबहुपरिग्रहशून्यः।
।।6.10।।एवं योगारुढस्य लक्षणं फलं च प्रदर्शितम्। अत उत्तमफलप्राप्तये योगारुढतां संपादयेदित्याह योगीति। योगी ध्यानी रहसि एकान्ते गिरिगुहादौ स्थितः सन् एकाकी सहायवर्जितः। रहसि स्थित एकाकीति विशेषणात्संन्यासं कृत्वेत्यर्थः। एकाकीत्यस्य शिष्यादिसहायरहित इत्यपि बोध्यम्। यतौ वशीकृतौ चित्तात्मानौ चित्तदेहौ यस्य स चित्तस्य चिन्तनात्मनोऽन्तःकरणपरिणामस्य यतत्वमनुभूतार्थचिन्ताव्यावृत्तत्वं देहस्य च यतत्वं मक्षिकादंशपिपीलिकादिबाधयाप्यकम्पितत्वे सति चिरकालासनप्रयुक्तदुःखशून्यत्वम्। निराशीः फलतृष्णाशून्यः। अनेन वैराग्यादिसाधनसंपन्नो मुमुक्षुः कथितः। अपरिग्रहः संन्यासित्वेऽपि चोरभयजनकपुस्तकादिसर्वपरिग्रहशून्यः एतादृशः सन् सततं सर्वदा आत्मानमन्तःकरणं युञ्जीत समादध्यात् वृत्तिनिरोधेन निरुन्ध्यात्। वृत्तयश्च पञ्चविधाः प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय इति। तत्र प्रत्यक्षानुमानागमाख्यानि त्रीणि प्रमाणानीति सांख्यादयः। उपमानमप्यङ्गीकृत्य चत्वारीति गौतमाः। अर्थापत्तिमनुपलब्धिं चाश्रित्य षडिति वेदान्तिनो याज्ञिकाश्च। संभवमैतिह्यं चाश्रित्याष्टाविति पौराणिकाः। विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतस्मिंस्तद्वुद्धिः शुक्तिर्वा रजतः वेत्येवमादिरुपः। प्रमा भ्रमविलक्षणो विकल्पः। निद्रास्मृती लोकप्रसिद्धे। अन्यासामपि वृत्तीनामेतास्वन्तर्भावो द्रष्टव्यः। तथाचैतदृत्तिनिरोधेनान्तःकरणं चित्तं समादध्यादिति।
6.10 योगी the Yogi? युञ्जीत let him keep the mind steady? सततम् constantly? आत्मानम् self? रहसि in solitude? स्थितः remaining? एकाकी alone? यतचित्तात्मा one with the mind and the body controlled? निराशीः free from hope? अपरिग्रहः noncovetousness.Commentary The Yogi who treads the path of renunciation (NivrittiMarga) can practise meditation in a solitary cave in the mountains. He should renounce all possessions.A householder with Yogic tendencies and spiritual inclination? can practise meditation in a solitary and iet room in his own house or any solitary place on the banks of any holy river (during the holidays or throughout the year if he is a wholetime aspirant or if he has retired from service).The practice must be constant. Only then can one attain Selfrealisation surely and ickly. He who practises meditation by fits and starts and for a few minutes daily will not be able to achieve any tangible results in Yoga. The Yogic aspirant should be free from hope? desire and greed. Only then will he have a steady mind. Hope? desire and greed make the mind ever restless and turbulent. They are the enemies of peace and Selfknowledge. The aspirant should not have many possessions either. He can only keep those articles which are absolutely necessary for the maintenance of his body. If there are many possessions? the mind will be ever thinking of them and attempting to protect them.It you are well established in the practice of Pratyahara? Sama and Dama (withdrawal of the senses? control of mind and the body respectively)? if you have the senses under your full control? you can find perfect solitude and peace even in the most crowded and noisy place of a big city. If the senses are turbulent? if you have not got the power to withdraw them? you will have no peace of mind even in a solitary cave of the Himalayas. A disciplined Yogi who has controlled the senses and the mind can enjoy peace of mind in a solitary cave. A passionate man who has not controlled the senses and the mind will only be building castles in the air if he lives in a solitary cave in a mountain.He who has reduced his wants? who has not a bit of attraction for the world? who has,discrimination and burning aspiration for liberation? and who has observed Mauna (the vow of silence) for months together will be able to live in a cave.You should have perfect control over the body through the regular practice of Yoga Asanas before you take to serious and constant meditation.Aparigraha means noncovetousness? freedom from possessions.The spiritual aspirant need not bother himself about his bodily needs. Everything is provided by God. Everything is prearranged by Mother Nature. She looks after the bodily needs of all very carefully in a more efficient manner than they themselves would do. She knows beter what the reirements are and provides them then and there. Understand the mysterious ways of Mother Nature and become wise. Be grateful to Her for Her unie kindness? grace and mercy.If you want to retire into solitue for the practice of meditation? and if you are a householder with a thirst for intense spiritual Sadhana? you cannot all of a sudden sever your connection with your family. Sudden severance of worldly ties may produce intense mental agony in you and shock in them. You will have to break the ties gradually. Stay for a week or a month in seclusion to begin with. Then gradually prolong the period. They will not feel the pangs of separation from you.As your will has become very weak? as you had no religious discipline or training in schools and colleges when you were young? and as you are under the sway of materialistic influences? it is necessary for you to go in for seclusion for some days or weeks (during the Chritstmas? Easter or other holidays) to practise rigorous Japa and meditation and to develop your willpower.Those who have fixed up their sons in life and who have retired from service? and who have discharged their duties as householders can remain in seclusion for four or five years and practise intense meditation and Tapas (penance) for selfpurification and Selfrealisation. This is like entering a university for higher studies or postgraduate course of study. When the Tapas is over? and when they have attained to Selfknowledge? they should come out and share their knowledge of the Self with others through lectures? conversations? discourses or hearttoheart talks according to their capacity and disposition.How can sensecontrol be tested in a lonely forest where there are no temptations The Yogic student living in a cave should test himself after he has sufficiently advanced? by coming into the society of people. But he should not test himself every now and then like the man who removed the young plant daily after watering it to see whether it had struck deep root or not.
6.10 Let the Yogi try constantly to keep the mind steady, remaining in solitude, alone, with the mind and the body controlled, and free from hope and covetousness.
6.10 Let the student of spirituality try unceasingly to concentrate his mind; Let him live in seclusion, absolutely alone, with mind and personality controlled, free from desire and without possessions.
6.10 A yogi should constantly concentrate his mind by staying in a solitary place, alone, with mind and body controlled, free from expectations, (and) free from acisition.
6.10 A yogi, a man of meditation; satatam yunjita, should constantly concentrate; atmanam, his mind; sthitah, by staying; rahasi, in a solitary place, in mountain caves etc.; ekaki, alone, without any companion; yata-citta-atma, with mind and body controlled; nirasih, without expectations, free from hankering; and aparigrahah, free from acisition. From the uise of the alifying words, 'in a solitary place' and 'alone', it follows that (he has to undertake all these) after espousing monasticism. And even after renunciation, he should concentrate his mind by desisting from all acisition. This is the meaning. Now then have to be stated the rules regarding seat, food, movements, etc. as disciplines for yoga in the case of one practising concentration; as also the signs of one who has succeeded in Yoga, and the conseent result etc. Hence this is begun. Among these, the seat is being first spoken of:
6.10. Let the man of Yoga yoke always the self (mind) by remaining alone in a lonely place, with his mind and self (body) controlled, without desire and without the sense of possession.
6.10 See Comment under 6.15
6.10 The Yogin who is steady in the practice of Karma Yoga, should 'constantly', i.e., daily when practising Yoga, fix his mind to the practice of Yoga, i.e., make himself engaged in the vision of the self. He must remain in a 'solitary place,' i.e., a place devoid of crowd and noise. And even there he must be 'all alone,' i.e., must not have a second person with him. He should 'control his thought and mind,' i.e., he should control the activities of thinking. He must be free from 'desire', i.e., he should not depend on anything except the self and be without the 'sense of possession,' without the idea of mineness with regard to anything other than the self.
6.10 The Yogin should constantly fix his mind on Yoga, remaining in a solitary place all alone, controlling his thought and mind, free from desire and sense of possession.
।।6.10।।अतः ऐसे उत्तम फलकी प्राप्तिके लिये ध्यान करनेवाला योगी अकेला किसीको साथ न लेकर पहाड़की गुफा आदि एकान्त स्थानमें स्थित हुआ निरन्तर अपने अन्तःकरणको ध्यानमें स्थिर किया करे। एकान्त स्थानमें स्थित हुआ और अकेला इन विशेषणोंसे यह भाव पाया जाता है कि संन्यास ग्रहण करके योगका साधन करे। जिसका चित्त अन्तःकरण और आत्मा शरीर ( दोनों ) जीते हुए हैं ऐसा यतचित्तात्मा निराशी तृष्णाहीन और संग्रहरहित होकर अर्थात् संन्यासी होनेपर भी सब संग्रहका त्याग करके योगका अभ्यास करे।
।।6.10।। योगी ध्यायी युञ्जीत समादध्यात् सततं सर्वदा आत्मानम् अन्तःकरणं रहसि एकान्ते गिरिगुहादौ स्थितः सन् एकाकी असहायः। रहसि स्थितः एकाकी च इति विशेषणात् संन्यासं कृत्वा इत्यर्थः। यतचित्तात्मा चित्तम् अन्तःकरणम् आत्मा देहश्च संयतौ यस्य सः यतचित्तात्मा निराशीः वीततृष्णः अपरिग्रहः परिग्रहरहितश्चेत्यर्थः। संन्यासित्वेऽपि त्यक्तसर्वपरिग्रहः सन् युञ्जीत इत्यर्थः।।अथेदानीं योगं युञ्जतः आसनाहारविहारादीनां योगसाधनत्वेन नियमो वक्तव्यः प्राप्तयोगस्य लक्षणं तत्फलादि च इत्यत आरभ्यते। तत्र आसनमेव तावत् प्रथममुच्यते
।।6.10 6.11।।ननुउद्धरेत् 6।5 इत्यनेनैव योगो विहितः तत्किं पुनर्विधीयते इत्यत आह समाधीति। प्रकारकथनाय विध्यनुवाद इत्यर्थः।युञ्जीत इति योगमात्रमुच्यते तत्कथं समाधीत्युक्तं इत्यत आह युञ्जीतेति। सामान्यशब्दोऽपि प्रकरणाद्विशेषेऽवतिष्ठते इत्यर्थः। आत्मशब्दस्यात्र विवक्षितमर्थमाह आत्मानमिति।
।।6.10 6.11।।समाधियोगप्रकारमाह योगं युञ्जीतेत्यादिना इति। युञ्जीत समाधियोगयुक्तं कुर्यात्। आत्मानं मनः।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।6.10।।
যোগী যুঞ্জীত সততমাত্মানং রহসি স্থিতঃ৷ একাকী যতচিত্তাত্মা নিরাশীরপরিগ্রহঃ৷৷6.10৷৷
যোগী যুঞ্জীত সততমাত্মানং রহসি স্থিতঃ৷ একাকী যতচিত্তাত্মা নিরাশীরপরিগ্রহঃ৷৷6.10৷৷
યોગી યુઞ્જીત સતતમાત્માનં રહસિ સ્થિતઃ। એકાકી યતચિત્તાત્મા નિરાશીરપરિગ્રહઃ।।6.10।।
ਯੋਗੀ ਯੁਞ੍ਜੀਤ ਸਤਤਮਾਤ੍ਮਾਨਂ ਰਹਸਿ ਸ੍ਥਿਤ। ਏਕਾਕੀ ਯਤਚਿਤ੍ਤਾਤ੍ਮਾ ਨਿਰਾਸ਼ੀਰਪਰਿਗ੍ਰਹ।।6.10।।
ಯೋಗೀ ಯುಞ್ಜೀತ ಸತತಮಾತ್ಮಾನಂ ರಹಸಿ ಸ್ಥಿತಃ. ಏಕಾಕೀ ಯತಚಿತ್ತಾತ್ಮಾ ನಿರಾಶೀರಪರಿಗ್ರಹಃ৷৷6.10৷৷
യോഗീ യുഞ്ജീത സതതമാത്മാനം രഹസി സ്ഥിതഃ. ഏകാകീ യതചിത്താത്മാ നിരാശീരപരിഗ്രഹഃ৷৷6.10৷৷
ଯୋଗୀ ଯୁଞ୍ଜୀତ ସତତମାତ୍ମାନଂ ରହସି ସ୍ଥିତଃ| ଏକାକୀ ଯତଚିତ୍ତାତ୍ମା ନିରାଶୀରପରିଗ୍ରହଃ||6.10||
yōgī yuñjīta satatamātmānaṅ rahasi sthitaḥ. ēkākī yatacittātmā nirāśīraparigrahaḥ৷৷6.10৷৷
யோகீ யுஞ்ஜீத ஸததமாத்மாநஂ ரஹஸி ஸ்திதஃ. ஏகாகீ யதசித்தாத்மா நிராஷீரபரிக்ரஹஃ৷৷6.10৷৷
యోగీ యుఞ్జీత సతతమాత్మానం రహసి స్థితః. ఏకాకీ యతచిత్తాత్మా నిరాశీరపరిగ్రహః৷৷6.10৷৷
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।।6.11।। शुद्ध भूमिपर, जिसपर क्रमशः कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न अत्यन्त ऊँचा है और न अत्यन्त नीचा, ऐसे अपने आसनको स्थिरस्थापन करके।
।।6.11।। शुद्ध (स्वच्छ) भूमि में कुश, मृगशाला और उस पर वस्त्र रखा हो ऐसे अपने आसन को न अति ऊँचा और न अति नीचा स्थिर स्थापित करके....৷৷.।।
।।6.11।। परम शांति एवं समदृष्टि प्राप्त करने का साधन निदिध्यासन है और इसलिए आवश्यक है कि भगवान् यहाँ उस विधि का विस्तृत वर्णन करें। यहाँ कुछ श्लोकों में साधक के लिए आसन साधन एवं ध्यान के फल को बताया गया है।विचाराधीन श्लोक में स्थान एवं आसन का वर्णन है। शुद्ध भूमि में बाह्य वातावरण एवं परिस्थितियों का मनुष्य के मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसलिए ध्यानाभ्यास का स्थान स्वच्छ एवं शुद्ध होना चाहिए। मन की शुद्धि में भी वह उपयोगी होता है। व्याख्याकार बताते हैं कि वह स्थान मच्छर मक्खी चींटी खटमल आदि कृमि कीटों से रहित होना चाहिए जो प्रारम्भ में साधक की एकाग्रता में बाधक हो सकते हैं।आसन के विषय में कहते हैं कि वह स्थिर होना चाहिए। उसे न अति ऊँचा और न अति नीचा होना चाहिए। ऊँचे से तात्पर्य पर्वत की चोटी से है। ऐसे स्थान पर बैठने से साधक के मन में असुरक्षा का भय उत्पन्न हो सकता है और उस स्थिति में बाह्य जगत् से मन को हटाकर आत्मा में स्थिर करना अत्यन्त कठिन होगा। इसी प्रकार नीचे का अर्थ जमीन के अन्दर गुफा आदि। ऐसा स्थान गीला आदि होने से जोड़ो में पीड़ा होने की सम्भावना रहती है। ध्यानाभ्यास के समय हृदय की गति तथा रक्त प्रवाह का दबाव भी कुछ धीमा पड़ जाता है और तब नीचा स्थान और भी हानिकारक हो सकता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि ध्यान का स्थान न अति ऊँचा हो न अति नीचा।गीता में किसी भी विषय का वर्णन किया जाता है तो कोई भी बात अनकही नहीं रहती कि जिससे विद्यार्थी उसे स्वयं समझ न सके। ध्यानविधि का वर्णन इसका स्पष्ट उदाहरण है। कुश नामक घास के ऊपर मृगछाला बिछाकर उसके ऊपर स्वच्छ वस्त्र को बिछाने से उपयुक्त आसन बनता है। कुशा घास से भूमि के गीलेपन से सुरक्षा होती है। उसी प्रकार ग्रीष्मकाल में मृगछाला के भी गर्म होने से साधक के स्वेद आने से एकाग्रता में बाधा आ सकती है। उसे दूर करने के लिए मृगचर्म पर वस्त्र बिछाने को कहा गया है। ऐसे उपयुक्त आसन पर बैठने के पश्चात् साधक को मन और बुद्धि से क्या करना चाहिए इसका उपदेश अगले श्लोक में किया गया है।
।।6.11।। व्याख्या--'शुचौ देशे'--भूमिकी शुद्धि दो तरहकी होती है--(1) स्वाभाविक शुद्ध स्थान; जैसे--गङ्गा आदिका किनारा; जंगल; तुलसी, आँवला, पीपल आदि पवित्र वृक्षोंके पासका स्थान आदि और (2) शुद्ध किया हुआ स्थान; जैसे--भूमिको गायके गोबरसे लीपकर अथवा जल छिड़ककर शुद्ध किया जाय; जहाँ मिट्टी हो, वहाँ ऊपरकी चार-पाँच अंगुली मिट्टी दूर करके भूमिको शुद्ध किया जाय। ऐसी स्वाभाविक अथवा शुद्ध की हुई समतल भूमिमें काठ या पत्थरकी चौकी आदिको लगा दे। 'चैलाजिनकुशोत्तरम्'--यद्यपि पाठके अनुसार क्रमशः वस्त्र, मृगछाला और कुश बिछानी चाहिये (टिप्पणी प0 343), तथापि बिछानेमें पहले कुश बिछा दे, उसके ऊपर बिना मारे हुए मृगका अर्थात् अपने-आप मरे हुए मृगका चर्म बिछा दे; क्योंकि मारे हुए मृगका चर्म अशुद्ध होता है। अगर ऐसी मृगछाला न मिले, तो कुशपर टाटका बोरा अथवा ऊनका कम्बल बिछा दे। फिर उसके ऊपर कोमल सूती कपड़ा बिछा दे।वाराहभगवान्के रोमसे उत्पन्न होनके कारण कुश बहुत पवित्र माना गया है; अतः उससे बना आसन काममें लाते हैं। ग्रहण आदिके समय सूतकसे बचनेके लिये अर्थात् शुद्धिके लिये कुशको पदार्थोंमें, कपड़ोंमें रखते हैं। पवित्री, प्रोक्षण आदिमें भी इसको काममें लेते हैं। अतः भगवान्ने कुश बिछानेके लिये कहा है।कुश शरीरमें गड़े नहीं और हमारे शरीरमें जो विद्युत्शक्ति है वह आसानमेंसे होकर जमीनमें न चली जाय, इसलिये (विद्युत्शक्तिको रोकनेके लिये) मृगछाला बिछानेका विधान आया है।मृगछालाके रोम (रोएँ) शरीरमें न लगें और आसन कोमल रहे, इसलिये मृगछालाके ऊपर सूती शुद्ध कपड़ा बिछानेके लिये कहा गया है। अगर मृगछालाकी जगह कम्बल या टाट हो, तो वह गरम न हो जाय, इसलिये उसपर सूती कपड़ा बिछाना चाहिये।
।।6.10 6.15।।ननु जितात्मनः इत्युक्तम् तत्कथं तज्जय इत्याशङ्क्य आरुरुक्षोः कश्चिदुपायः कायसमत्वादिकः (SN कायसमुद्धारकः) चित्तसंयम उपदिश्यते योगीत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। आत्मानं च चित्तं च युञ्जीत एकाग्रीकुर्यात्। सततमिति न परिमितं कालम्। एकाकित्वादिषु सत्सु एतद्युज्यते ( N युञ्जीत) नान्यथा। आसनस्थैर्यात् कालस्थैर्ये (S कालस्थैर्यम्) चित्तस्थैर्यम्। चित्तक्रियाः संकल्पात्मनः अन्याश्चेन्द्रियक्रिया येन यताः नियमं नीताः। धारयन् यत्नेन। नासिकाग्रस्यावलोकने सति दिशामनवलोकनम्। मत्परमतया युक्त आसीत (N आसीत्) इत्यर्थः (S omits इत्यर्थः)। एवमात्मानं युञ्जतः समादधतः शान्तिर्जायते यस्यां संस्थापर्यन्तकाष्ठा मत्प्राप्तिः (K प्राप्तिर्योगोऽस्तीति)।
।।6.11।।शुचौ देशे अशुचिभिः पुरुषैः अनधिष्ठिते अपरिगृहीते च अशुचिभिः वस्तुभिः अस्पृष्टे च पवित्रीभूते देशे दार्वादिनिर्मितं नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् आसनं प्रतिष्ठाय तस्मिन् मनःप्रसादकरे सापाश्रये उपविश्य योगैकाग्रम् अव्याकुलम् मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः सर्वात्मना उपसंहृतचित्तेन्द्रियक्रियः आत्मविशुद्धये बन्धविमुक्तये योगं यु़ञ्ज्यात् आत्मावलोकनं कुर्वीत।
।।6.11।।योगं योगाङ्गानि चोपदिश्योत्तरसंदर्भस्य तात्पर्यमाह अथेति। योगस्वरूपकतिपयतदङ्गप्रदर्शनानन्तर्यमथशब्दार्थः। विहारादीनामित्यादिशब्देन यथोक्तासनादिगतावान्तरभेदग्रहणम्। तत्फलादि चेत्यादिशब्देन योगफलसम्यग्ज्ञानं च तत्फलं कैवल्यं ततो भ्रष्टस्यात्यन्तिकविनष्टत्वमित्यादि गृह्यते। एवं समुदायतात्पर्ये दर्शिते किमासीनः शयानस्तिष्ठन्गच्छन्कुर्वन्वा युञ्जीतेत्यपेक्षायामनन्तरश्लोकतात्पर्यमाह तत्रेति। निर्धारणे सप्तमी। प्रथमं योगानुष्ठानस्य प्रधानम्असीनः संभवात् इति न्यायादिति यावत्। विविक्तत्वं द्वेधा विभजते स्वभावत इति। आसनस्यास्थैर्ये तत्रोपविश्य योगमनुतिष्ठतः समाधानायोगाद्योगासिद्धिरित्यभिसंधाय विशिनष्टि अचलनमिति। आस्यतेऽस्मिन्निति व्युत्पत्तिमनुसृत्याह आसनमिति। आत्मन इति परकीयासनव्युदासार्थं पतनभयपरिहारार्थं नात्युच्चमित्युक्तं नाप्यतिनीचमिति भूतलपाषाणादिसंश्लेषे वातक्षोभाग्निमान्द्यादिसंभावितदोषनिरासार्थं चैलं वस्त्रमजिनं चर्म पशूनां तच्च मृगस्य कुशा दर्भास्ते चोत्तरे यस्मिन्नुपरिष्टादारभ्य तत्तथोक्तम्। प्रथमं चैलं ततोऽजिनं ततश्च कुशा इति प्रतिपन्नपाठक्रममापातिकं क्रममतिक्रम्यादौ कुशास्ततोऽजिनं ततश्चैलमिति क्रमं विवक्षित्वाह विपरीतोऽवेति।
।।6.10 6.13।।एवं योगारूढस्य स्वरूपमुक्त्वाऽऽरुरुक्षोः साङ्गं योगं विदधतः सिद्धिमाह योगी इत्यादिनामत्संस्थामधिगच्छति 15 इत्यन्तेन। योगी युञ्जानो रहसि स्थितः आत्मानं सततं युञ्जीत।
।।6.11।।तत्रासननियमं दर्शयन्नाह द्वाभ्याम् शुचौ स्वभावतः संस्कारतो वा शुद्धे जनसमुदायरहित निर्भये गङ्गातटगुहादौ देशे समे स्थाने प्रतिष्ठाप्य स्थिरं निश्चलं नात्युच्छ्रितं नात्युच्चं नाप्यतिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरं चैलं मृदु वस्त्रं अजिनं व्याघ्रादिचर्म ते कुशेभ्य उत्तरे उपरितने यस्मिंस्तत् आस्यतऽस्मिन्नित्यासनं कुशमयबृस्युपरि मृदुचर्म तदुपरि मृदुवस्त्ररूपमित्यर्थः। तथाचाह भगवान्पतञ्जलिःस्थिरसुखमासनम् इति। आत्मन इति परासनव्यावृत्त्यर्थं तस्यापि परेच्छानियमाभावेन योगविक्षेपकरत्वात्।
।।6.11।।आसननियमं दर्शयन्नाह शुचाविति द्वाभ्याम्। शुद्धे स्थाने आत्मनः स्वस्यासनं स्थापयित्वा। कीदृशम्। स्थिरमचलम्। नातिचोन्नतं न चातिनीचं च। चैलं वस्त्रमजिनं व्याघ्रादिचर्म चैलाजिने कुशेभ्य उत्तरे यस्मिन्। कुशानामुपरिचर्म तदुपरि वस्त्रमास्तीर्येत्यर्थः।
।।6.11।।बाह्योपकरणनियममाह शुचौ देश इत्यादिना। शुचिशब्दः सङ्कोचकाभावात्संसर्गजं स्वाभाविकं चाशुचित्वं निवर्तयतीत्यभिप्रायेणाहअशुचिभिरिति। अशुचयः पुरुषाः पाषण्डिपतितादयः।अनधिष्ठिते अपरिगृहीते चेति अधिष्ठानं परकीयेषु निर्वाहकत्वादिरूपेण संसर्गः परिग्रहः स्वकीयत्वाभिमानः तदुभयवर्जिते। शुचिशब्दः शास्त्रान्तरोक्तं शोधकत्वमपि लक्षयतीत्यभिप्रायेणोक्तंपवित्रभूत इति। च्विप्रत्ययरहितप्रयोगात् स्वतश्शुद्धिरुक्तानात्युच्छ्रितं नातिनीचं इत्यादिदृष्टसौकर्यार्थम्। स्थिरत्वे हेतुर्दार्वादिनिर्मितत्वम् तस्य कठिनत्वान्मृदुत्वार्थं चेलम् तत्रापि निस्तरङ्गत्वार्थं शुद्ध्यर्थं चाजिनम् सर्वस्योपरि शुद्ध्यर्थं सत्वोन्मेषार्थं च कुशाः।कुशाजिनचेलोत्तरम् इति कश्चिद्भाष्यपाठः तथासत्युत्तरोत्तरमार्दवसिद्ध्यर्थमुक्तमिति मन्तव्यम्।विपरीतोऽत्र क्रमश्चेलादीनाम् इति चशाङ्करम्। केचित्त्वव्यवस्थितक्रमत्वमूचुः।प्रतिष्ठाप्य दृढं स्थापयित्वा। तत्रासन उपविश्येत्यन्वयव्यक्त्यर्थंतस्मिन्नित्यादिकमुक्तम्। उक्तानां शुचिदेशादीनां दृष्टादृष्टद्वारा योगोपयोगं दर्शयितुंमनःप्रसादकर इत्युक्तम्।सापाश्रय उपविश्येति। अन्यथा पाश्चात्यधारणप्रयत्नः समाधिविरोधी स्यादिति भावः। उपविश्य न तु तिष्ठञ्च्छयानो वा। तथा च सूत्रम्आसीनः सम्भवात् ब्र.सू.4।1।7 इति। स्थानशयनयोश्च आयासनिद्रादिप्रसङ्गेन योगो न सम्भवेत्।तत्रैकाग्रं इत्यन्वयभ्रमव्युदासाययोगैकाग्रमित्युक्तम्। विरुद्धान्यवृत्तेरेतद्वृत्तिप्रधानत्वमिहैकाग्रत्वम्।अव्याकुलमेकाग्रम् इति केषुचिद्भाष्यकोषेषु पाठः आत्मावलोकनोन्मुखं कृत्वेत्यर्थः। सार्वभौमो हि चित्तस्य वृत्तिनिरोधो योगतया योगशास्त्रेऽभिहित इत्यभिप्रायेण सर्वात्मनोपसंहृतचित्तेन्द्रियक्रिय इत्युक्तम्। चित्तमिह चिन्तावृत्तिः इन्द्रियाणि च बाह्यानिएकाग्रं मनः कृत्वा इति वचनात् बाह्यविषयेभ्य एवायमुपसंहारः अन्यथाऽऽत्मावलोकनमपि न स्यात्। एतेनमनसो निश्शेषवृत्तिविलयो योगः इति वदन्तो निरस्ताः। शुद्धान्तःकरणस्य साक्षात्कारसाध्या ह्यात्मविशुद्धिर्मोक्ष एवेत्यभिप्रायेणबन्धनिवृत्तय इत्युक्तम्।अशुद्धास्ते समस्तास्तु देवाद्याः कर्मयोनयः वि.पु.6।7।77 इति कर्मबन्धो ह्यात्मनामशुद्धिरुच्यते।योगं युञ्जीत इत्येतत्ओदनपाकं पचति इतिवदित्यभिप्रायेणआत्मावलोकनं कुर्वीतेत्युक्तम्।
।।6.11।।ससामग्रीकं ध्यानस्वरूपमाह शुचाविति चतुष्टयेन। शुचौ देशे भावात्मकवृन्दावनादौ आत्मनो भगवतः स्थिरमासनं भावरूपं नात्युच्छ्रितं हृदयाद्बहिः केवलक्रीडायामेव स्थितम् नातिनीचं भावरहितानुकरणात्मकम्। कीदृशं चैलाजिनकुशोत्तरं चैलं वस्त्रं भावरूपंस्वैरुत्तरीयैः कुचकुङ्कुमाङ्कितैः भाग.10।32।13 इति न्यायेन अजिनं अधिकरणदेहस्थहृदयकमलात्मकं चैलाजिने कुशेभ्यः श्रीगोवर्धनादिस्थिततृणादिरूपेभ्य उत्तरे यस्मिन्। पूर्वं भावरूपतृणानि तदुपरि हृदयात्मकं तदुपरि भावात्मकं वस्त्रमेवं प्रतिष्ठाप्य।
।।6.11।।योगं युञ्जीतेत्युक्तं तत्कथमित्याकाङ्क्षायां तदङ्गान्यासनादीन्याह शुचौ देशे इत्यादिना। शुचौ स्वभावतः संस्कारतो वा पुण्ये देशे स्थाने प्रतिष्ठाप्य सुस्थितं कृत्वा स्थिरं निश्चलं आस्तेऽस्मिन्नित्यासनं स्थण्डिलं निश्चलमित्यनेन मृन्मयमेव स्थण्डिलं नतु काष्ठमयं पीठम्। आत्मन इति परासनव्यावृत्त्यर्थम्। नात्युच्छ्रितं नात्युच्चं नातिनीचम्। चैलाजिनकुशाः उत्तरे उपर्युपरि यस्य तच्चैलाजिनकुशोत्तरम्। अजिनादुपरि चैलं कुशेभ्य उपरि अजिनं स्थण्डिलस्योपरि कुशा इत्यर्थः।
।।6.11।।एवं पूर्वोक्तलक्षणसंपन्नस्य योगारुढस्य यत्फलं भवति तत्प्राप्तये योगारुढतां संपादयेदित्युक्तम्। अथेदानीं योगं युञ्जानस्य तद्ङगान्यासनाहारविहारादीनि नियतानि फलं च सर्वतः श्रैष्ठ्यं मुक्तिलक्षणं वक्तुमारभते शुचावित्यादिना। शुचौ शुद्धे स्वभावतः संस्कारतो वा देशे स्थाने विविक्ते आत्मनः स्वस्यासनं स्थिरमचलं नात्युच्छ्रितं नाप्यतिनीचं तच्च चैलादीन्युत्तरे यस्मिंस्तत्। आदौ कुशानां स्थापनं तदुपर्यजिनं मृगचर्म तदुपरि चैलं भृदुवस्त्रमित्येतादृशमासनं प्रतिष्ठाप्य चतुष्कोणादिसंनिवेशविचारेण कृत्वा। आत्मन इत्यनेन स्वस्यैवोपशमयोग्यमित्युक्तम्। तेनान्यस्थिति प्रयुक्तविक्षेपप्रसक्तिर्वारिता।
6.11 शुचौ in a clean? देशे spot? प्रतिष्ठाप्य having established? स्थिरम् firm? आसनम् seat? आत्मनः his own? न not? अत्युच्छ्रितम् very high? न not? अतिनीचम् very low? चैलाजिनकुशोत्तरम् a cloth? skin and Kusagrass? one over the other.Commentary In this verse the Lord has prescribed the external seat for practising meditation. Details of the pose are given in verse 13.Spread the Kusagrass on the ground first. Over this spread a tigerskin or deerskin over this spread a white cloth.Sit on a naturally clean spot? such as the bank of a river. Or? make the place clean? wherever you want to practise meditation.
6.11 In a clean spot, having established a firm seat of his own, neither too high nor too low, made of a cloth, a skin and Kusa-grass, one over the other.
6.11 Having chosen a holy place, let him sit in a firm posture on a seat, neither too high nor too low, and covered with a grass mat, a deer skin and a cloth.
6.11 Having firmly established in a clean place his seat, neither too high nor too low, and made of cloth, skin and kusa-grass, placed successively one below the other;
6.11 See Commentary under 6.12
6.11. Setting up in a clean place his own [suitable] firm seat which is predominantly of cloth, skin and kusa-grass, and which, is neither too high nor too low for him;
6.11 See Comment under 6.15
6.11 - 6.12 'In a clean spot,' i.e., in a spot pure in itself, not owned or controlled by impure persons and untouched by impure things; having 'established a firm seat,' a seat made of wood or similar material, which is neither too high nor too low; which is covered with cloth, deer-skin and Kusa grass in the reverse order; seated on it in a way which promotes the serenity of mind; having the mind concentrated on Yoga; and holding the activities of the mind and senses in check in all ways - he should practise 'Yoga', i.e., practise the vision of the self for 'the purification of the self,' i.e., to end his bondage.
6.11 Having established for himself, in a clean spot, a firm seat, which is neither too hight nor too low, and covering it with cloth, deer-skin and Kusa grass in the reverse order -
।।6.11।।योगाभ्यास करनेवालेके लिये योगके साधनरूप आसन आहार और विहार आदिका नियम बतलाना उचित है एवं योगको प्राप्त हुए पुरुषका लक्षण और उसका फल आदि भी कहना चाहिये। इसलिये अब ( यह प्रकरण ) आरम्भ किया जाता है। उसमें पहले आसनका ही वर्णन करते हैं शुद्ध स्थानमें अर्थात् जो स्वभावसे अथवा झाड़नेबुहारने आदि संस्कारोंसे साफ किया हुआ पवित्र और एकान्त स्थान हो उसमें अपने आसनको जो न अति ऊँचा हो और न अति नीचा हो और जिसपर क्रमसे वस्त्र मृगचर्म और कुशा बिछाये गये हों अविचलभावसे स्थापन करके। यहाँ पाठक्रमसे उन वस्त्रादिका क्रम उलटा समझना चाहिये अर्थात् पहले कुशा उसपर मृगचर्म और फिर उसपर वस्त्र बिछावे।
।।6.11।। शुचौ शुद्धे विविक्ते स्वभावतः संस्कारतो वा देशे स्थाने प्रतिष्ठाप्य स्थिरम् अचलम् आत्मनः आसनं नात्युच्छ्रितं नातीवउच्छ्रितं न अपि अतिनीचम् तच्च चैलाजिनकुशोत्तरं चैलम् अजिनं कुशाश्च उत्तरे यस्मिन् आसने तत् आसनं चैलाजिनकुशोत्तरम्। पाठक्रमाद्विपरीतः अत्र क्रमः चैलादीनाम्।।प्रतिष्ठाप्य किम्
।।6.10 6.11।।ननुउद्धरेत् 6।5 इत्यनेनैव योगो विहितः तत्किं पुनर्विधीयते इत्यत आह समाधीति। प्रकारकथनाय विध्यनुवाद इत्यर्थः।युञ्जीत इति योगमात्रमुच्यते तत्कथं समाधीत्युक्तं इत्यत आह युञ्जीतेति। सामान्यशब्दोऽपि प्रकरणाद्विशेषेऽवतिष्ठते इत्यर्थः। आत्मशब्दस्यात्र विवक्षितमर्थमाह आत्मानमिति।
।।6.10 6.11।।समाधियोगप्रकारमाह योगं युञ्जीतेत्यादिना इति। युञ्जीत समाधियोगयुक्तं कुर्यात्। आत्मानं मनः।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः। नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।6.11।।
শুচৌ দেশে প্রতিষ্ঠাপ্য স্থিরমাসনমাত্মনঃ৷ নাত্যুচ্ছ্রিতং নাতিনীচং চৈলাজিনকুশোত্তরম্৷৷6.11৷৷
শুচৌ দেশে প্রতিষ্ঠাপ্য স্থিরমাসনমাত্মনঃ৷ নাত্যুচ্ছ্রিতং নাতিনীচং চৈলাজিনকুশোত্তরম্৷৷6.11৷৷
શુચૌ દેશે પ્રતિષ્ઠાપ્ય સ્થિરમાસનમાત્મનઃ। નાત્યુચ્છ્રિતં નાતિનીચં ચૈલાજિનકુશોત્તરમ્।।6.11।।
ਸ਼ੁਚੌ ਦੇਸ਼ੇ ਪ੍ਰਤਿਸ਼੍ਠਾਪ੍ਯ ਸ੍ਥਿਰਮਾਸਨਮਾਤ੍ਮਨ। ਨਾਤ੍ਯੁਚ੍ਛ੍ਰਿਤਂ ਨਾਤਿਨੀਚਂ ਚੈਲਾਜਿਨਕੁਸ਼ੋਤ੍ਤਰਮ੍।।6.11।।
ಶುಚೌ ದೇಶೇ ಪ್ರತಿಷ್ಠಾಪ್ಯ ಸ್ಥಿರಮಾಸನಮಾತ್ಮನಃ. ನಾತ್ಯುಚ್ಛ್ರಿತಂ ನಾತಿನೀಚಂ ಚೈಲಾಜಿನಕುಶೋತ್ತರಮ್৷৷6.11৷৷
ശുചൌ ദേശേ പ്രതിഷ്ഠാപ്യ സ്ഥിരമാസനമാത്മനഃ. നാത്യുച്ഛ്രിതം നാതിനീചം ചൈലാജിനകുശോത്തരമ്৷৷6.11৷৷
ଶୁଚୌ ଦେଶେ ପ୍ରତିଷ୍ଠାପ୍ଯ ସ୍ଥିରମାସନମାତ୍ମନଃ| ନାତ୍ଯୁଚ୍ଛ୍ରିତଂ ନାତିନୀଚଂ ଚୈଲାଜିନକୁଶୋତ୍ତରମ୍||6.11||
śucau dēśē pratiṣṭhāpya sthiramāsanamātmanaḥ. nātyucchritaṅ nātinīcaṅ cailājinakuśōttaram৷৷6.11৷৷
ஷுசௌ தேஷே ப்ரதிஷ்டாப்ய ஸ்திரமாஸநமாத்மநஃ. நாத்யுச்ச்ரிதஂ நாதிநீசஂ சைலாஜிநகுஷோத்தரம்৷৷6.11৷৷
శుచౌ దేశే ప్రతిష్ఠాప్య స్థిరమాసనమాత్మనః. నాత్యుచ్ఛ్రితం నాతినీచం చైలాజినకుశోత్తరమ్৷৷6.11৷৷
6.12
6
12
।।6.12।। उस आसनपर बैठकर चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको वशमें रखते हुए मनको एकाग्र करके अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये योगका अभ्यास करे।
।।6.12।। वहाँ (आसन में बैठकर) मन को एकाग्र करके, चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में किये हुये आत्मशुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे।।
।।6.12।। उपयुक्त आसन में बैठना मात्र योग नहीं है। बाह्य आसन तथा शरीर का विशेष स्थिति मे बैठना मन की एकाग्रता के लिए उपयोगी अवश्य हो सकता है किन्तु इतना ही करने मात्र से आत्मविकास के प्रति हम आश्वस्त नहीं हो सकते।आसन में बैठने के पश्चात् अन्तकरण के द्वारा किस प्रकार ध्यान करना चाहिये इसका निर्देश श्रीकृष्ण यहाँ देते हैं। प्रथम निर्देश मन को एकाग्र करने का है। किसी गुरु के लिए इस भ्रमित पीढ़ी के किसी शिष्य के मन को एकाग्र करने का उपदेश देना तो सरल है परन्तु बिना ज्ञान के साधक को उपदेश का पालन करना संभव नहीं होता। अत इस उपदेश के साथ ही उन व्यावहारिक विधियों को भी बताना आवश्यक है जिनके द्वारा यह एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है। व्यावहारिक विधि के बिना वह उपदेश केवल आदर्श तत्त्व ज्ञान बनकर रह जाता है। गीता की यही विशेषता है कि ज्ञान को जीवन के लिए व्यवहार्य बनाने में वह अनेक उपायों को भी बताती है।मन की कल्पना शक्ति एवं इन्द्रियों के व्यापार को संयमित करने के लिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह एक उपाय है। एकाग्रता तो मन की वास्तविक सार्मथ्य है परन्तु कभीकभी अचानक प्राप्त हुई शांति को वह समझ नहीं पाता तब पूर्वाजित अनुभवों के स्मरण से अथवा इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण से वह क्षुब्ध हो जाता है। इन्ही संकल्पों के कारण एकाग्रता भंग हो जाती है। यदि चित्त और इन्द्रियों की क्रियायों से होने वाली शांति के ह्रास को रोक दिया जाय तो मन तत्काल और सहज ही एकाग्र हो जाता है। इस प्रकार बाह्य आसन में बैठ कर अन्तकरण के द्वारा आत्मतत्त्व का ध्यान करना चाहिए।ध्यानाभ्यास का प्रयोजन ज्ञात करने की सभी साधकों की स्वाभाविक इच्छा होती है। प्रचलित धारणा यह है कि हमें आत्मा का अनुभव उसी प्रकार होगा जैसे कि किसी दृश्य वस्तु का। परन्तु श्रीकृष्ण ऐसी धारणा को दूर करते हुए कहते हैं कि ध्यान का प्रयोजन है आत्मशुद्धि अर्थात् अन्तकरण की शुद्धि। मन का विक्षेप ही उसकी अशुद्धि कहलाती है। शास्त्रों का वचन है कि प्रतिदिन दृढ़ता से ध्यान का अभ्यास करने से चित्त शुद्ध हो जाता है और ऐसे ही शुद्ध और स्थिर अन्तकरण में आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है जो स्वयंसिद्ध नित्य उपलब्ध है। जैसे दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब को देखकर अपनी पहचान होती है उसी प्रकार यह ध्यान विधि भी है।अब अगले श्लोक में शरीर की स्थिति का वर्णन करते हैं
।।6.12।। व्याख्या--[पूर्वश्लोकमें बिछाये जानेवाले आसनकी विधि बतानेके बाद अब भगवान् बारहवें और तेरहवें श्लोकमें बैठनेवाले आसनकी विधि बताते हैं।]
।।6.10 6.15।।ननु जितात्मनः इत्युक्तम् तत्कथं तज्जय इत्याशङ्क्य आरुरुक्षोः कश्चिदुपायः कायसमत्वादिकः (SN कायसमुद्धारकः) चित्तसंयम उपदिश्यते योगीत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। आत्मानं च चित्तं च युञ्जीत एकाग्रीकुर्यात्। सततमिति न परिमितं कालम्। एकाकित्वादिषु सत्सु एतद्युज्यते ( N युञ्जीत) नान्यथा। आसनस्थैर्यात् कालस्थैर्ये (S कालस्थैर्यम्) चित्तस्थैर्यम्। चित्तक्रियाः संकल्पात्मनः अन्याश्चेन्द्रियक्रिया येन यताः नियमं नीताः। धारयन् यत्नेन। नासिकाग्रस्यावलोकने सति दिशामनवलोकनम्। मत्परमतया युक्त आसीत (N आसीत्) इत्यर्थः (S omits इत्यर्थः)। एवमात्मानं युञ्जतः समादधतः शान्तिर्जायते यस्यां संस्थापर्यन्तकाष्ठा मत्प्राप्तिः (K प्राप्तिर्योगोऽस्तीति)।
।।6.12।।शुचौ देशे अशुचिभिः पुरुषैः अनधिष्ठिते अपरिगृहीते च अशुचिभिः वस्तुभिः अस्पृष्टे च पवित्रीभूते देशे दार्वादिनिर्मितं नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् आसनं प्रतिष्ठाय तस्मिन् मनःप्रसादकरे सापाश्रये उपविश्य योगैकाग्रम् अव्याकुलम् मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः सर्वात्मना उपसंहृतचित्तेन्द्रियक्रियः आत्मविशुद्धये बन्धविमुक्तये योगं यु़ञ्ज्यात् आत्मावलोकनं कुर्वीत।
।।6.12।।यथोक्तमासनं संपाद्य किं कर्तव्यमिति प्रश्नपूर्वकं कर्तव्यं तन्निर्दिशति प्रतिष्ठाप्येति। योगं युञ्जानस्येतिकर्तव्यताकलापं पृच्छति कथमिति। सर्वेभ्यो विषयेभ्यः सकाशात्प्रत्याहृत्य मनसो यदेकस्मिन्नेव ध्येये विषये समाधानं यच्चित्तस्येन्द्रियाणां च बाह्यक्रियाणां संयमनं तदुभयं कृत्वा योगमनुतिष्ठेदित्याह सर्वेति। आसने यथोक्ते स्थित्वा यथोक्तया रीत्या योगानुष्ठानस्य प्रश्नपूर्वकं फलमाह स किमर्थमित्यादिना।
।।6.10 6.13।।एवं योगारूढस्य स्वरूपमुक्त्वाऽऽरुरुक्षोः साङ्गं योगं विदधतः सिद्धिमाह योगी इत्यादिनामत्संस्थामधिगच्छति 15 इत्यन्तेन। योगी युञ्जानो रहसि स्थितः आत्मानं सततं युञ्जीत।
।।6.12।।एवमासनं प्रतिष्ठाप्य किं कुर्यादिति तत्राह तत्र तस्मिन्नासन उपविश्यैव नतु शयानस्तिष्ठन्वा।आसीनः संभवात् इति न्यायात्। यताः संयता उपरताश्चित्तस्येन्द्रियाणां च क्रिया वृत्तयो येन स यतचित्तेन्द्रियक्रियः सन् योगं समाधिं युञ्जीताभ्यसेत्। किमर्थं आत्मविशुद्धये आत्मनोऽन्तःकरणस्य सर्वविक्षेपशून्यत्वेनातिसूक्ष्मतया ब्रह्मसाक्षात्कारयोग्यतायै।दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः इति श्रुतेः। किं कृत्वा योगमभ्यसेदिति तत्राह एकाग्रं राजसतामसव्युत्थानाख्यप्रागुक्तभूमित्रयपरित्यागेनैकविषयकधारावाहिकानेकवृत्तियुक्तमुद्रिक्तसत्त्वं मनः कृत्वा दृढभूमिकेन प्रयत्नेन संपाद्यैकाग्रताविवृद्ध्यर्थं योगं संप्रज्ञातसमाधिमभ्यसेत्। सच ब्रह्माकारमनोवृत्तिप्रवाह एव निदिध्यासनाख्यः। तदुक्तम्ब्रह्माकारमनोवृत्तिप्रवाहोऽहंकृतिं विना। संप्रज्ञातसमाधिः स्याद्ध्यानाभ्यासप्रकर्षतः इति। एतदेवाभिप्रेत्य ध्यानाभ्यासप्रकर्षं विदधे भगवान्योगी युञ्जीत सततंयुञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धयेयुक्त आसीत मत्परः इत्यादि बहुकृत्वः।
।।6.12।। तत्रेति। तत्र तस्मिन्नासने उपविश्य एकाग्रं विक्षेपरहितं मनः कृत्वा योगं युञ्ज्यादभ्यसेत्। यताः संयताश्चित्तस्येन्द्रियाणां च क्रिया यस्यात्मनो मनसो विशुद्धये उपशान्तये।
।। 6.12 बाह्योपकरणनियममाह शुचौ देश इत्यादिना। शुचिशब्दः सङ्कोचकाभावात्संसर्गजं स्वाभाविकं चाशुचित्वं निवर्तयतीत्यभिप्रायेणाहअशुचिभिरिति। अशुचयः पुरुषाः पाषण्डिपतितादयः।अनधिष्ठिते अपरिगृहीते चेति अधिष्ठानं परकीयेषु निर्वाहकत्वादिरूपेण संसर्गः परिग्रहः स्वकीयत्वाभिमानः तदुभयवर्जिते। शुचिशब्दः शास्त्रान्तरोक्तं शोधकत्वमपि लक्षयतीत्यभिप्रायेणोक्तंपवित्रभूत इति। च्विप्रत्ययरहितप्रयोगात् स्वतश्शुद्धिरुक्तानात्युच्छ्रितं नातिनीचं इत्यादिदृष्टसौकर्यार्थम्। स्थिरत्वे हेतुर्दार्वादिनिर्मितत्वम् तस्य कठिनत्वान्मृदुत्वार्थं चेलम् तत्रापि निस्तरङ्गत्वार्थं शुद्ध्यर्थं चाजिनम् सर्वस्योपरि शुद्ध्यर्थं सत्वोन्मेषार्थं च कुशाः।कुशाजिनचेलोत्तरम् इति कश्चिद्भाष्यपाठः तथासत्युत्तरोत्तरमार्दवसिद्ध्यर्थमुक्तमिति मन्तव्यम्।विपरीतोऽत्र क्रमश्चेलादीनाम् इति चशाङ्करम्। केचित्त्वव्यवस्थितक्रमत्वमूचुः।प्रतिष्ठाप्य दृढं स्थापयित्वा। तत्रासन उपविश्येत्यन्वयव्यक्त्यर्थंतस्मिन्नित्यादिकमुक्तम्। उक्तानां शुचिदेशादीनां दृष्टादृष्टद्वारा योगोपयोगं दर्शयितुंमनःप्रसादकर इत्युक्तम्।सापाश्रय उपविश्येति। अन्यथा पाश्चात्यधारणप्रयत्नः समाधिविरोधी स्यादिति भावः। उपविश्य न तु तिष्ठञ्च्छयानो वा। तथा च सूत्रम्आसीनः सम्भवात् ब्र.सू.4।1।7 इति। स्थानशयनयोश्च आयासनिद्रादिप्रसङ्गेन योगो न सम्भवेत्।तत्रैकाग्रं इत्यन्वयभ्रमव्युदासाययोगैकाग्रमित्युक्तम्। विरुद्धान्यवृत्तेरेतद्वृत्तिप्रधानत्वमिहैकाग्रत्वम्।अव्याकुलमेकाग्रम् इति केषुचिद्भाष्यकोषेषु पाठः आत्मावलोकनोन्मुखं कृत्वेत्यर्थः। सार्वभौमो हि चित्तस्य वृत्तिनिरोधो योगतया योगशास्त्रेऽभिहित इत्यभिप्रायेण सर्वात्मनोपसंहृतचित्तेन्द्रियक्रिय इत्युक्तम्। चित्तमिह चिन्तावृत्तिः इन्द्रियाणि च बाह्यानिएकाग्रं मनः कृत्वा इति वचनात् बाह्यविषयेभ्य एवायमुपसंहारः अन्यथाऽऽत्मावलोकनमपि न स्यात्। एतेनमनसो निश्शेषवृत्तिविलयो योगः इति वदन्तो निरस्ताः। शुद्धान्तःकरणस्य साक्षात्कारसाध्या ह्यात्मविशुद्धिर्मोक्ष एवेत्यभिप्रायेणबन्धनिवृत्तय इत्युक्तम्।अशुद्धास्ते समस्तास्तु देवाद्याः कर्मयोनयः वि.पु.6।7।77 इति कर्मबन्धो ह्यात्मनामशुद्धिरुच्यते।योगं युञ्जीत इत्येतत्ओदनपाकं पचति इतिवदित्यभिप्रायेणआत्मावलोकनं कुर्वीतेत्युक्तम्।
।।6.12।।तत्र भगवत्स्वरूपे एकाग्रं केवलदास्यभावेऽनन्यतया स्थितं मनः कृत्वा। यताः शान्ताश्चित्तन्द्रियक्रिया यस्य। चित्तक्रियाः स्वभोगचाञ्चल्यादयः इन्द्रियक्रियाः स्वतापनिवृत्त्यर्थं दर्शनाद्यभिलाषाः तादृशो भूत्वा आसने उपविश्य आत्मशु द्ध्यर्थं भावस्वरूपसिद्ध्यर्थं योगं भगवत्संयोगं युञ्ज्यात् अभ्यसेत्।
।।6.12।।प्रतिष्ठाप्य किं कुर्यादिति तत्राह तत्रेति। तत्रासने पद्मस्वस्तिकाद्यन्यतमेनासनेनोपविश्य यता निगृहीताः चित्तस्य क्रियाः विषयाणां स्मरणानि इन्द्रियक्रियास्तेषां ग्रहणं येनासौ यतचित्तेन्द्रियक्रियः। अतएव मनः बाह्याभ्यन्तरविषयानुपरक्ततया एकं ध्येयमेव प्रत्यक्तत्वं अग्रे यस्य स्फुरति नान्यत् तदेकाग्रं वृत्त्यन्तरानन्तरितब्रह्मैकाकारवृत्तिप्रवाहि कृत्वा आत्मविशुद्धये चित्तशुद्ध्यर्थं योगं वृत्तिप्रवाहस्यापि निरोधं युञ्ज्यादनुतिष्ठेत्। चित्तस्य स्थैर्यतापादनेन।
।।6.12।।तत्रासनं प्रतिष्ठाप्य तत्रासन उपविश्यात्मशुद्धयेऽन्तःकरणशुद्धये। यत्त्वात्मनः प्रतीचा विशुद्धिः सविलासाविद्यापङ्कसंपर्कहानिस्तस्या इत्यर्थं इति तन्न। अविद्यापङ्कनिवृत्तेर्ज्ञानाधीनत्वात्। ज्ञानप्राप्तिद्वारा प्रतीचो विशुद्धय इति द्वारकल्पनापेक्षयान्तःकरणविशुद्य्धर्थमित्यस्यैव न्याय्यत्वात्। योगं युञ्ज्यात्। कथमित्यत आह। सर्वविषयेभ्य उपसंहृत्य मनः एकमग्रं प्रधानं चिन्तनीयं यस्येति तथा कृत्वा क्षिप्तमूढविक्षिप्तभूमित्यागेन एकाग्रनिरोधभूमिभ्यां समाहितं कृत्वेत्यपि बोध्यम्। पुनश्च यतचित्तेन्द्रियक्रियः सन् चित्तं चेन्द्रियाणि च तेषां क्रियाः संयता यस्य सः।
6.12 तत्र there? एकाग्रम् onepointed? मनः the mind? कृत्वा having made? यतचित्तेन्द्रियक्रियः one who has controlled the actions of the mind and the senses? उपविश्य being seated? आसने on the seat? युञ्ज्यात् let him practise? योगम् Yoga? आत्मविशुद्धये for the purification of the self.Commentary The self means the mind. The real Supreme Self is the Atma. This is Primary (Mukhya). Mind also is the self. But this is used in a secondary sense (Gauna). Mukhya Atma is Brahman or the highest Self. Gauna Atma is the mind.Make the mind onepointed by collecting all its dissipated rays by the practice of Yoga. Withdraw it from all senseobjects again and again and try to fix it steadily on your Lakshya or point of meditation or centre. Gradually you will have concentration of the mind or onepointedness. You must be very regular in your practice. Only then will you succeed. Regularity is of paramount importance. You should know the ways and habits of the mind through daily introspection? selfanalysis or selfexamination. You should have a knowledge of the laws of the mind. Then it will be easy for you to check the wandering mind. When you sit for meditation? and when you deliberately attempt to forget the worldly objects? all sorts of worldly thoughts will crop up in your mind and disturb your meditation. You will be ite astonished. Old thoughts that you entertained several years ago? and old memories of past enjoyments will bubble up and force the mind to wander in all directions. You will find that the trapdoor of the vast subconscious mind is opened or the lid of the storehouse of thoughts within is lifted up and the thoughts gush out in a continous stream. The more you attempt to still them? the more they will bubble up with redoubled force and strength.Be not discouraged. Nil desperandum. Never despair. Through regular and constant meditation you can purify the subconscious mind and its constant memories. The fire of meditation will burn all thoughts. Be sure of this. Meditation is a potent antidote to annihilate the poisonous worldly thoughts. Be assured of this.Meditation on the immortal Self will act like a dynamite and blow up all thoughts and memories in the conscious mind. If the thoughts trouble you much? do not try to suppress them by force. Be a silent witness as in a bioscope. They will subside gradually. Then try to root them out through regual silent meditation.During introspection you can clearly observe the rapid shifting of the mind from one line of thought to another. Herein lies a chance for you to mould the mind properly and direct the thoughts and the mental energy in the divine channel. You can rearrange the thoughts and make new associations on a new Sattvic basis. You can throw out wordly and useless thoughts. Just as you remove the weeds and throw them out? you can throw these out? and you can cultivate sublime? divine thoughts in the divine garden of your mind. This is a very patient work. This is a stupendous task indeed. But for a Yogi of determination who has the grace of the Lord and an iron will it is nothing.Calm the bubbling emotions? sentiments? instincts and impulses gradually through silent meditation. You can give a new orientation to your feelings by gradual and systematic practice. You can entirely transmute your wordly nature into divine nature. You can exercise supreme control over the nervecurrents? muscles? the five sheaths (of the Self)? emotions? impulses and instincts through meditation.
6.12 There, having made the mind one-pointed, with the actions of the mind and the senses controlled, let him, seated on the seat, practise Yoga for the purification of the self.
6.12 Seated thus, his mind concentrated, its functions controlled and his senses governed, let him practise meditation for the purification of his lower nature.
6.12 (and) sitting on that seat, he should concentrate his mind for the purification of the internal organ, making the mind one-pointed and keeping the actions of the mind and senses under control.
6.12 Pratisthapya, having established; sthiram, firmly; sucau, in a clean; dese, place, which is solitary, either naturally or through improvement; atmanah, his own; asanam, seat; na ati ucchritam, neither too high; na ati nicam, nor even too low; and that made of caila-ajina-kusa-uttram, cloth, skin, and kusa-grass, placed successively one below the other-the successive arrangement of cloth etc. here is in a reverse order to that of the textual reading-. What follows after thus establishing the seat? Upavisya, sitting; tatra, on that; asane, seat; yogam yunjyat, he should concentrate his mind. To what purpose should he concentrate his mind? In answer the Lord says: atma-visuddhaye, for the purification of the internal organ. How? Krtva, making; manah, the mind; ekagram, one-pointed,by withdrawing it from all objects; and yata-citta-indriya-kriyah, keeping the actions (kriyah) of the mind (citta) and senses (indriya) under control (yata). The external seat has been spoken of. Now is being stated how the posture of the body should be:
6.12. Sitting there on the seat and making the mind single-pointed, let him, with the activities of his mind and senses subdued, practise Yoga for self-purification.
6.12 See Comment under 6.15
6.11 - 6.12 'In a clean spot,' i.e., in a spot pure in itself, not owned or controlled by impure persons and untouched by impure things; having 'established a firm seat,' a seat made of wood or similar material, which is neither too high nor too low; which is covered with cloth, deer-skin and Kusa grass in the reverse order; seated on it in a way which promotes the serenity of mind; having the mind concentrated on Yoga; and holding the activities of the mind and senses in check in all ways - he should practise 'Yoga', i.e., practise the vision of the self for 'the purification of the self,' i.e., to end his bondage.
6.12 There, sitting on the seat, with the mind concentrated and holding the mind and senses in check, he should practise Yoga for the purification of the self.
।।6.12।।( आसनको ) स्थिर स्थापन करके क्या करे ( सो कहते हैं ) उस आसनर बैठकर योगका साधन करे। कैसे करे मनको सब विषयोंसे हटाकर एकाग्र करके तथा यतचित्तेन्द्रियक्रिय यानी चित्त और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको जीतनेवाला होकर योगका साधन करे। जिसने मन और इन्द्रियोंकी क्रियाओंका संयम कर लिया हो उसको यतचित्तेन्द्रियक्रिय कहते हैं। वह किसलिये योगका साधन करे सो कहते हैं आत्मशुद्धिके लिये अर्थात् अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये करे।
।।6.12।। तत्र तस्मिन् आसने उपविश्य योगं युञ्ज्यात्। कथम् सर्वविषयेभ्यः उपसंहृत्य एकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः चित्तं च इन्द्रियाणि च चित्तेन्द्रियाणि तेषां क्रियाः संयता यस्य सः यतचित्तेन्द्रियक्रियः। स किमर्थं योगं युञ्ज्यात् इत्याह आत्मविशुद्धये अन्तःकरणस्य विशुद्ध्यर्थमित्येतत्।।बाह्यमासनमुक्तम् अधुना शरीरधारणं कथम् इत्युच्यते
।।6.12 6.14।।उपविश्यासन इत्यत्रापि योगशब्द एवमेव व्याख्येय इत्याह योगमिति। स्थानविवेकार्थं युञ्ज्यादित्युक्तम् कुर्यादिति यावत्।
।।6.12 6.14।।योगं समाधियोगं युञ्ज्यात्।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः। उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।6.12।।
তত্রৈকাগ্রং মনঃ কৃত্বা যতচিত্তেন্দ্রিযক্রিযঃ৷ উপবিশ্যাসনে যুঞ্জ্যাদ্যোগমাত্মবিশুদ্ধযে৷৷6.12৷৷
তত্রৈকাগ্রং মনঃ কৃত্বা যতচিত্তেন্দ্রিযক্রিযঃ৷ উপবিশ্যাসনে যুঞ্জ্যাদ্যোগমাত্মবিশুদ্ধযে৷৷6.12৷৷
તત્રૈકાગ્રં મનઃ કૃત્વા યતચિત્તેન્દ્રિયક્રિયઃ। ઉપવિશ્યાસને યુઞ્જ્યાદ્યોગમાત્મવિશુદ્ધયે।।6.12।।
ਤਤ੍ਰੈਕਾਗ੍ਰਂ ਮਨ ਕਰਿਤ੍ਵਾ ਯਤਚਿਤ੍ਤੇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਕ੍ਰਿਯ। ਉਪਵਿਸ਼੍ਯਾਸਨੇ ਯੁਞ੍ਜ੍ਯਾਦ੍ਯੋਗਮਾਤ੍ਮਵਿਸ਼ੁਦ੍ਧਯੇ।।6.12।।
ತತ್ರೈಕಾಗ್ರಂ ಮನಃ ಕೃತ್ವಾ ಯತಚಿತ್ತೇನ್ದ್ರಿಯಕ್ರಿಯಃ. ಉಪವಿಶ್ಯಾಸನೇ ಯುಞ್ಜ್ಯಾದ್ಯೋಗಮಾತ್ಮವಿಶುದ್ಧಯೇ৷৷6.12৷৷
തത്രൈകാഗ്രം മനഃ കൃത്വാ യതചിത്തേന്ദ്രിയക്രിയഃ. ഉപവിശ്യാസനേ യുഞ്ജ്യാദ്യോഗമാത്മവിശുദ്ധയേ৷৷6.12৷৷
ତତ୍ରୈକାଗ୍ରଂ ମନଃ କୃତ୍ବା ଯତଚିତ୍ତେନ୍ଦ୍ରିଯକ୍ରିଯଃ| ଉପବିଶ୍ଯାସନେ ଯୁଞ୍ଜ୍ଯାଦ୍ଯୋଗମାତ୍ମବିଶୁଦ୍ଧଯେ||6.12||
tatraikāgraṅ manaḥ kṛtvā yatacittēndriyakriyaḥ. upaviśyāsanē yuñjyādyōgamātmaviśuddhayē৷৷6.12৷৷
தத்ரைகாக்ரஂ மநஃ கரித்வா யதசித்தேந்த்ரியக்ரியஃ. உபவிஷ்யாஸநே யுஞ்ஜ்யாத்யோகமாத்மவிஷுத்தயே৷৷6.12৷৷
తత్రైకాగ్రం మనః కృత్వా యతచిత్తేన్ద్రియక్రియః. ఉపవిశ్యాసనే యుఞ్జ్యాద్యోగమాత్మవిశుద్ధయే৷৷6.12৷৷
6.13
6
13
।।6.13।। काया, शिर और ग्रीवाको सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओंको न देखकर केवल अपनी नासिकाके अग्रभागको देखते हुए स्थिर होकर बैठे।
।।6.13।। काया, सिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण किये हुए स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्र भाग को देखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।।
।।6.13।। बाह्य आसन के उपरान्त मन को एकाग्र करने का उपदेश दिया गया है। अब शरीर का आसन बताते हैं। साधक को इस प्रकार स्थित होकर बैठना चाहिए कि उसका मेरुदण्ड शिर और ग्रीवा एक समान सरल लम्बरूप में रहे। जिस क्षैतिज आसन में साधक बैठता है वह आधार और काया शिर और ग्रीवा उस पर लम्ब रूप में होगी। दोनों हाथों की उँगलियों को आपस में बांधकर गोद में रखे। यहाँ विशेष रूप से कहा गया है कि शरीर को अचल रखना चाहिए।अचल का अर्थ यह नहीं कि शरीर को तनाव की स्थिति में रखना है। शरीर की स्थिति सीधी लेकिन इस प्रकार तनावरहित होनी चाहिए कि वह आगेपीछे दायेंबायें हिले नहीं।फिर साधक अपनी नासिका के अग्र भाग को देखे। इस कथन का शाब्दिक अर्थ नहीं लेना चाहिए। अनेक साधक लोग नासिकाग्र पर दृष्टि स्थिर करके शीश पीड़ा चक्कर थकान तनाव आदि रोगों को व्यर्थ मोल ले लेते हैं। शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि मानो नासिकाग्र को देखते हुए न कि वास्तव में। यह नहीं कहा जा सकता कि शंकराचार्य ने अपनी बुद्धि से खींचतान कर ऐसा अर्थ किया है क्योंकि भगवान् स्वयं अपने कथन को स्पष्ट करते हैं।अन्य दिशाओं को न देखते हुए श्रीकृष्ण के इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नासिकाग्र को देखने का अभिप्राय यह है कि यहाँवहाँ देखकर साधक को अपनी एकाग्रता भंग नहीं करनी चाहिए। यह नियम है कि जहाँ हमारी दृष्टि जाती है वहीं पर हमारा मन भी। यही कारण है कि भ्रमित अवस्था में मनुष्य की दृष्टि स्थिर नहीं रहती। दृष्टि की अस्थिरता मनुष्य के विचित्र सन्देहास्पद व्यवहार का लक्षण है और प्रमाण भी। आगे कहते हैं
।।6.13।। व्याख्या--'समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलम्'--यद्यपि 'काय' नाम शरीरमात्रका है, तथापि यहाँ (आसनपर बैठनेके बाद) कमरसे लेकर गलेतकके भागको 'काय' नामसे कहा गया है। 'शिर' नामऊपरके भागका अर्थात् मस्तिष्कका है और 'ग्रीवा' नाम मस्तिष्क और कायाके बीचके भागका है। ध्यानके समय ये काया, शिर और ग्रीवा सम, सीधे रहें अर्थात् रीढ़की जो हड्डी है, उसकी सब गाँठें सीधे भागमें रहें और उसी सीधे भागमें मस्तक तथा ग्रीवा रहे। तात्पर्य है कि काया, शिर और ग्रीवा --ये तीनों एक सूतमें अचल रहें। कारण कि इन तीनोंके आगे झुकनेसे नींद आती है, पीछे झुकनेसे जडता आती है और दायें-बायें झुकनेसे चञ्चलता आती है। इसलिये न आगे झुके, न पीछे झुके और न दायें-बायें ही झुके। दण्डकी तरह सीधा-सरल बैठा रहे।सिद्धासन, पद्मासन आदि जितने भी आसन हैं, आरोग्यकी दृष्टिसे वे सभी ध्यानयोगमें सहायक हैं। परन्तु यहाँ भगवान्ने सम्पूर्ण आसनोंकी सार चीज बतायी है--काया, शिर और ग्रीवाको सीधे समतामें रखना। इसलिये भगवान्ने बैठनेके सिद्धासन, पद्मासन आदि किसी भी आसनका नाम नहीं लिया है, किसी भी आसनका आग्रह नहीं रखा है। तात्पर्य है कि चाहे किसी भी आसनसे बैठे, पर काया, शिर और ग्रीवा एक सूतमें ही रहने चाहिये; क्योंकि इनके एक सूतमें रहनेसे मन बहुत जल्दी शान्त और स्थिर हो जाता है।आसनपर बैठे हुए कभी नींद सताने लगे, तो उठकर थोड़ी देर इधर-उधर घूम ले। फिर स्थिरतासे बैठ जाय और यह भावना बना ले कि अब मेरेको उठना नहीं है, इधर-उधर झुकना नहीं है। केवल स्थिर और सीधे बैठकर ध्यान करना है।
।।6.10 6.15।।ननु जितात्मनः इत्युक्तम् तत्कथं तज्जय इत्याशङ्क्य आरुरुक्षोः कश्चिदुपायः कायसमत्वादिकः (SN कायसमुद्धारकः) चित्तसंयम उपदिश्यते योगीत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। आत्मानं च चित्तं च युञ्जीत एकाग्रीकुर्यात्। सततमिति न परिमितं कालम्। एकाकित्वादिषु सत्सु एतद्युज्यते ( N युञ्जीत) नान्यथा। आसनस्थैर्यात् कालस्थैर्ये (S कालस्थैर्यम्) चित्तस्थैर्यम्। चित्तक्रियाः संकल्पात्मनः अन्याश्चेन्द्रियक्रिया येन यताः नियमं नीताः। धारयन् यत्नेन। नासिकाग्रस्यावलोकने सति दिशामनवलोकनम्। मत्परमतया युक्त आसीत (N आसीत्) इत्यर्थः (S omits इत्यर्थः)। एवमात्मानं युञ्जतः समादधतः शान्तिर्जायते यस्यां संस्थापर्यन्तकाष्ठा मत्प्राप्तिः(K प्राप्तिर्योगोऽस्तीति)।
।।6.13।।कायशिरोग्रीवं समम् अचलं सापाश्रयतया स्थिरं धारयन् दिशश्च अनवलोकयन् स्वं नासिकाग्रं संप्रेक्ष्य प्रशान्तात्मा अत्यन्तनिर्वृतमनाः विगतभीः ब्रह्मचर्ययुक्तो मनः संयम्य मच्चित्तो युक्तः अवहितो मत्पर आसीत माम् एव चिन्तयन् आसीत।
।।6.13।।उक्तमनूद्यानन्तरश्लोकस्य पुनरुक्तमर्थमाह बाह्येति। समत्वमृजुत्वं कायः शरीरमध्यम्। अचलमिति विशेषणमवतार्य तस्य तात्पर्यमाह सममित। कार्यकरणयोर्विषयपारवश्यशून्यत्वमचलत्वं स्थैर्यम्। किमितीवशब्दलोपोऽत्र कल्प्यते स्वनासिकाग्रसंप्रेक्षणमेव योगाङ्गत्वेनात्र विधित्सितं किं न स्यादित्याशङ्क्याह नहीति। तर्हि किमत्र विवक्षितमिति प्रश्नपूर्वकमाह किं तर्हीति। दृष्टिसंनिपातो दृष्टेश्चक्षुषो रूपादिविषयप्रवृत्तिराहित्यम्। कथमसावनायासेन सिध्यति तत्राह स चेति। समाधानस्य प्राधान्येनात्र विवक्षितत्वाद्दृष्टेर्बहिर्विषयत्वेन तद्भङ्गप्रसङ्गात्तस्या विषयेभ्यो व्यावृत्त्यान्तरेव संनिपातो विवक्षितो भवतीत्यर्थः। तथापि कथं स्वनासिकाग्रसंप्रेक्षणमत्र श्रुतमविवक्षितमित्याशङ्क्याह स्वनासिकेति। तत्रैव मनःसमाधाने का हानिरित्याशङ्क्य वाक्यशेषविरोधान्मैवमित्याह आत्मनि हीति। किं तर्हि संप्रेक्ष्येत्यादौ विवक्षितमित्याशङ्क्याह तस्मादिति। दक्षिणेतरचक्षुषोर्या दृष्टिस्तस्या बाह्याद्विषयाद्वैमुख्येनान्तरेव संनिपतनमत्र स्वकीयं नासिकाग्रं नासिकान्तं संप्रेक्ष्येति विवक्षितमित्यर्थः। तत्रैवोत्तरमपि विशेषणमनुकूलमित्याह दिशश्चेति। अनवलोकयन्नासीतेत्युत्तरत्र संबन्धः अन्तरान्तरा दिशामवलोकनमपि योगप्रतिबन्धकमिति तत्प्रतिषेधः।
।।6.10 6.13।।एवं योगारूढस्य स्वरूपमुक्त्वाऽऽरुरुक्षोः साङ्गं योगं विदधतः सिद्धिमाह योगी इत्यादिनामत्संस्थामधिगच्छति 15 इत्यन्तेन। योगी युञ्जानो रहसि स्थितः आत्मानं सततं युञ्जीत।
।।6.13।।तदर्थं बाह्यमासनमुक्त्वाऽधुना तत्र कथं शरीरधारणमित्युच्यते कायः शरीरमध्यं स च शिरश्च ग्रीवा च कायशिरोग्रीवं मूलाधारादारभ्य मूर्धान्तपर्यन्तं सममवक्रमचलमकम्पं धारयन्नेकतत्त्वाभ्यासेन विक्षेपसहभाव्यङ्गमेजयत्वाभावं संपादयन् स्थिरो दृढप्रयत्नो भूत्वा किंच स्वं स्वीयं नासिकाग्रं संप्रेक्ष्यैव लयविक्षेपराहित्याय विषयप्रवृत्तिरहितः अनिमीलितनेत्र इत्यर्थः। दिशश्चानवलोकयन् अन्तरान्तरा दिशां चावलोकनमकुर्वन् योगप्रतिबन्धकत्वात्तस्य। एवंभूतः सन्नासीतेत्युत्तरेण संबन्धः।
।।6.13।।चित्तैकाग्र्योपयोगिनीं देहादिधारणां दर्शयन्नाह सममिति द्वाभ्याम्। काय इति देहमध्यभागो विवक्षितः। कायश्च शिरश्च ग्रीवा च कायशिरोग्रीवं मूलाधारादारभ्य मूर्धाग्रपर्यन्तं सममवक्रं निश्चलं धारयन् स्थिरः। दृढप्रयत्नो भूत्वेत्यर्थः। स्वकीयं नासिकाग्रं संप्रेक्ष्य च। अर्धनिमीलितनेत्र इत्यर्थः। इतस्ततो दिशश्चानवलोकयन्नासीतेत्युत्तरेणान्वयः।
।।6.13।।एवं शुचिदेशासनादिरूपं बाह्यं योगोपकरणं मनसश्चैकाग्र्यमुक्तम् अथान्तरान्तरतमयोः कायमनसोः क्रमात्कर्तव्यनियमविशेषा उच्यन्ते समं इत्यादिश्लोकद्वयेन।कायशिरोग्रीवं इति द्वन्द्वैकवद्भावः तत एव नपुंसकता। अत्र सिद्धापर(मध्यापर) नामा शरीरस्य मध्यप्रदेशः कायशब्देन विवक्षितः।समं अचलं स्थिरम् इति धारणक्रियाविशेषणानिसमं इत्यत्रार्जवं विवक्षितम् अचलशब्देन निष्कम्पत्वेऽभिहितेऽपि स्थिरमित्येतदङ्गकम्पकरश्रमहेतुभूतपश्चाद्धारणप्रयत्ननिवृत्तिहेत्त्वभिप्रायमिति दर्शयितुंसापाश्रयतया स्थिरमित्युक्तम्। अनेनाचलत्वस्य चिरानुवर्तनयोग्यत्वमुक्तं भवति। बाह्येभ्यो व्यावर्तनं नासिकाग्रे स्थापनं चेति क्रमप्रदर्शनायदिशश्चानवलोकयन्स्वं नासिकाग्रं सम्प्रेक्ष्य इति व्युत्क्रमेणोक्तम्। यद्वा शतुरत्र हेत्वर्थत्वाद्दिक्छब्दोपलक्षितबाह्यसकलपदार्थावलोकननिवृत्त्यर्थं योगारम्भक्षणे स्वनासिकाग्रप्रेक्षणमिति भावः। भोग्येतरानुपयुक्तविषयनिरीक्षणमपि निवर्तनीयमित्यभिप्रायेणदिशश्चत्युक्तम्। निमीलनेनापि बाह्यानवलोकनसिद्धौ स्वनासिकाग्रावेक्षणं निद्रादिनिवृत्त्यर्थम्।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं इत्येतावत्यभिहिते परनासिकाग्रप्रेक्षणमपि शङ्क्येतेति तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तंस्वम् इति। मनस्यन्तर्मुखे नासाग्रसम्प्रेक्षणस्यासम्भवाच्चक्षुषो दृष्टिसन्निपातमात्रमिह विवक्षितम्। अतः सम्प्रेक्ष्येत्यत्रइवशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः इतिशाङ्करम्। नायनस्य तेजसः स्वच्छन्दवृत्त्या। नासाग्रसन्निपातमात्रमिह विवक्षितम्मनः संयम्य इति संयमस्याभिधानात् प्रशान्तात्मशब्दोऽयं योगोपयुक्तमनस्सन्तोषपर इत्यभिप्रायेणअत्यन्तनिर्वृतमना इत्युक्तम्।ब्रह्मचारिव्रते स्थितः इत्यनेन ब्रह्मचर्याश्रमप्रतीतिःशङ्करोक्तप्रक्रियया वा ब्रह्मचर्यगुरुशुश्रूषाभिक्षाचर्यादिधीः स्यादिति तद्व्यवच्छेदायाहब्रह्मचर्ययुक्त इति। ब्रह्मचर्यं च स्तनवति पिशितपिण्डे भोग्यताधीगर्भस्मरणालोकनालापादिरहितत्वमत्र विवक्षितम्। स्मरन्ति च ब्रह्मचर्यं च योषित्सु भोग्यताबुद्धिवर्जनम् इत्यादि। तथास्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम्। सङ्कल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिर्वृत्तिरेव च। एतन्मैथुनमष्टाङ्गं प्रवदन्ति मनीषिणः। विपरीतं ब्रह्मचर्यमेतदेवाष्टलक्षणम् अ.पु.372।10।11 इति। युक्तशब्दस्य पूर्वोत्तरप्रतिपन्नात्मावलोकनाभिधानादपि तदुपयुक्तावधानविषयत्वमत्रोचितमित्यभिप्रायेणअवहित इत्युक्तम्। मच्चित्तशब्दो भगवति चित्तस्यानुप्रवेशपरः। मत्परशब्दस्तु तदेकचित्तत्वपरः तदनुवृत्तिपरो वेत्यपौनरुक्त्यमाह मामेवेति। यद्वा स्त्र्यादौ भोग्यचिन्ता राजादौ च महति परधीर्लोके विभक्ता मयि तु तदुभयमित्यपुनरुक्तिः।
।।6.13।।समं कायशिरोग्रीवं कायश्च शिरश्च ग्रीवा चकायशिरोग्रीवम्। कायपदेन चरणमारभ्य सर्वोऽपि देहः। भक्तिमार्गानुसारेण शिरः सत्यलोकात्मकम् ग्रीवा मुक्तिस्थानम्। समं यथास्थितरूपमचलं धारयन् ध्यानंकुर्वन्। स्थितः सन् स्वनासिकाग्रं सम्प्रेक्ष्य अर्धनिमीलितनेत्रो भावस्थः दिशश्चानवलोकयन् दिग्भावज्ञानशून्यः सर्वत्र भगवद्दर्शनवान्।
।।6.13।।आसन उपविश्येत्युक्तं तत्कथमित्यत आह सममिति। कायः शरीरमध्यं शिरः ग्रीवा च कायशिरोग्रीवं समं मूलाधारमारभ्य मूर्धान्तं अवक्रमचलं निष्कम्पं धारयन्स्थिरो भूत्वा। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वमिति नासिकाग्रावेक्षणं न विधीयते किंतु निमीलने लयभयं उन्मीलने विक्षेपभयम्। अतो दिशोऽपि स्त्र्यादिविक्षेपकविषयदर्शनभयादनवलोकयन्नर्धोन्मीलितनेत्र आसीतेत्युत्तरेणान्वयः।
।।6.13।।आसन उपविशय शरीरं कथ स्थापयेदिति तत्राह सममिति। कायश्च शिरश्च ग्रीवा च कायशिरोग्रीवं तत्समं धारयन्। कायशब्देन कायस्यैकदेशः कटिप्रदेशादूर्ध्वा ग्रीवावधिरत्र गृह्यते। शिरोग्रीवयोः पृथग्ग्रहणात् कठ्यधोभागस्योपवेशने समत्वायोगात्। समत्वेऽपीतस्ततश्चलनं संभाव्याह अचलमिति। उभयत्राप्युपायमाह स्थिर इति। स्थिरो भूत्वेत्यर्थः। अत्राप्युपायं लयविक्षेपनिवृत्तिद्वारकमाह। स्वं स्वकीयं नासिकाग्रं संप्रेक्ष्य। अनेन लयनिवृत्तिः। दिशश्चानवलोकयन्। अनेन विक्षेपनिवृत्तिः। एवंभूत आसीतेत्युत्तरेणान्यवयः।
6.13 समम् erect? कायशिरोग्रीवम् body? head and neck? धारयन् holding? अचलम् still? स्थिरः steady? संप्रेक्ष्य,gazing at? नासिकाग्रम् tip of the nose? स्वम् ones own? दिशः directions? च and? अनवलोकयन् not looking.Commentary The Lord describes here the pose or Asana and the Drishti (gaze) in this verse.You cannot practise meditation without a firm seat. If the body is unsteady? the mind will also become unsteady. There is an intimate connection between the body and the mind.You should not shake the body even a bit. You should attain mastery over the Asana (AsanaJaya) by daily practice. You should be as firm as a statue or a rock. If you keep the body? head and neck erect? the spinal cord also will be erect and the Kundalini will rise up steadily through the subtle nervechannel (Nadi) called the Sushumna. Sit in the lotus pose or the adept pose. This will help you in maintaining the nervous eilibrium and mental poise. You should steadily direct your gaze towards the tip of your nose. This is known as the Nasikagra Drishti. The other gaze is the Bhrumadhya Drishti or gazing between the two eyrows where the psychic centre known as the Ajna Chakra is situated. This is described in chapter V? verse 27. In Bhrumadhya Drishti direct the gaze towards the Ajna Chakra with closed eyes. If you practise this with open eyes? it may produce headache. Foreign particles or dust may fall into the eyes. There may be distraction of the mind also. Do not strain the eyes. Practise gently. When you practise concentration at the tip of the nose you will experience DivyaGandha (various aromas). When you concentrate your gaze at the Ajna Chakra you will experience DivyaJyotis (perception of supraphenomenal lights). This is an experience to give you encouragement? push you up in the spiritual path and convince you of the existence of transcendental or supraphysical things. Do not stop your Sadhana. Yogins and those Bhaktas who meditate on Lord Siva concentrate on the Ajna Chakra with the Bhrumadhya Drishti. You can select whichever Drishti suits you best.Though the gaze is directed towards the tip of the nose when the eyes are halfclosed and the eyalls are steady the mind should be fixed only on the self. Therefore you will have to gaze? as it were? at the tip of the nose. In chapter VI? verse 25? the Lord says Having made the mind abide in the Self? let him not think of anything. Gazing at the tip of the nose will soon bring about concentration of the mind.Whichever be the point selected? visualise your own tutelary deity there and feel His Living Presence.
6.13 Let him firmly hold his body, head and neck erect and still, gazing at the tip of his nose, without looking around.
6.13 Let him hold body, head and neck erect, motionless and steady; let him look fixedly at the tip of his nose, turning neither to the right nor to the left.
6.13 Holding the body, head and neck erect and still, being steady, looking at the tip of his own nose-and not looking around;
6.13 See Commentary under 6.14
6.13. Holding the body, the head and the neck erect and motionless; remaining firm; looking properly at his own nose-tip; and not looking at [different] directions;
6.13 See Comment under 6.15
6.13 - 6.14 Keeping the trunk, head and neck erect and motionless; well seated in order to be steady; looking not in any direction but gazing at the tip of the nose; serene, i.e., holding the mind extremely peaceful; fearless; firm in the vow of celibacy; holding the mind in check; and fixing his thoughts on Me - he should sit in Yoga, i.e., remain concentrated and intent on Me, i.e., he should concentrating on Me only.
6.13 Holding the trunk, head and neck erect, motionless and steady, gazing at the tip of the nose, and looking not in any direction;
।।6.13।।बाह्य आसनका वर्णन किया अब शरीरको कैसे रखना चाहिये सो कहते हैं काया शिर और गरदनको सम और अचल भावसे धारण करके स्थिर होकर बैठे। समानभावसे धारण किये हुए कायादिका भी चलन होना सम्भव है इसलिये अचलम् यह विशेषण दिया गया है। तथा अपनी नासिकाके अग्रभागको देखता हुआ यानी मानो वह उधर ही अच्छी तरह देख रहा है। इस प्रकार दृष्टि करके। यहाँ संप्रेक्ष्य के साथ इव शब्द लुप्त समझना चाहिये क्योंकि यहाँ अपनी नासिकाके अग्रभागको देखनेका विधान करना अभिमत नहीं है। तो क्या है बस नेत्रोंकी दृष्टिको ( विषयोंकी ओरसे रोककर ) वहाँ स्थापन करना ही इष्ट है। वह ( इस तरह दृष्टिस्थापना करना ) भी अन्तःकरणके समाधानके लिये आवश्यक होनेके कारण भी अभीष्ट है। क्योंकि यदि अपनी नासिकाके अग्रभागको देखना ही विधेय माना जाय तो फिर मन वहीं स्थित होगा आत्मामें नहीं। परंतु ( आगे चलकर ) आत्मसंस्थं मनः कृत्वा इस पदसे आत्मामें ही मनको स्थित करना बतलायेंगे। इसलिये इव शब्दके लोपद्वारा नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर लगाना ही संप्रेक्ष्य इस पदसे कहा गया। इस प्रकार ( नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर लगाकर ) तथा अन्य दिशाओंको न देखता हुआ अर्थात् बीचबीचमें दिशाओंकी ओर दृष्टि न डालता हुआ।
।।6.13।। समं कायशिरोग्रीवं कायश्च शिरश्च ग्रीवा च कायशिरोग्रीवं तत् समं धारयन् अचलं च। समं धारयतः चलनं संभवति अतः विशिनष्टि अचलमिति। स्थिरः स्थिरो भूत्वा इत्यर्थः। स्वं नासिकाग्रं संप्रेक्ष्य सम्यक् प्रेक्षणं दर्शनं कृत्वेव इति। इवशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः। न हि स्वनासिकाग्रसंप्रेक्षणमिह विधित्सितम्। किं तर्हि चक्षुषो दृष्टिसंनिपातः। स च अन्तःकरणसमाधानापेक्षो विवक्षितः। स्वनासिकाग्रसंप्रेक्षणमेव चेत् विवक्षितम् मनः तत्रैव समाधीयेत नात्मनि। आत्मनि हि मनसः समाधानं वक्ष्यति आत्मसंस्थं मनः कृत्वा (गीता 6।25) इति। तस्मात् इवशब्दलोपेन अक्ष्णोः दृष्टिसंनिपात एव संप्रेक्ष्य इत्युच्यते। दिशश्च अनवलोकयन् दिशां च अवलोकनमन्तराकुर्वन् इत्येतत्।।किञ्च
।।6.12 6.14।।उपविश्यासन इत्यत्रापि योगशब्द एवमेव व्याख्येय इत्याह योगमिति। स्थानविवेकार्थं युञ्ज्यादित्युक्तम् कुर्यादिति यावत्।
।।6.12 6.14।।योगं समाधियोगं युञ्ज्यात्।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।6.13।।
সমং কাযশিরোগ্রীবং ধারযন্নচলং স্থিরঃ৷ সংপ্রেক্ষ্য নাসিকাগ্রং স্বং দিশশ্চানবলোকযন্৷৷6.13৷৷
সমং কাযশিরোগ্রীবং ধারযন্নচলং স্থিরঃ৷ সংপ্রেক্ষ্য নাসিকাগ্রং স্বং দিশশ্চানবলোকযন্৷৷6.13৷৷
સમં કાયશિરોગ્રીવં ધારયન્નચલં સ્થિરઃ। સંપ્રેક્ષ્ય નાસિકાગ્રં સ્વં દિશશ્ચાનવલોકયન્।।6.13।।
ਸਮਂ ਕਾਯਸ਼ਿਰੋਗ੍ਰੀਵਂ ਧਾਰਯਨ੍ਨਚਲਂ ਸ੍ਥਿਰ। ਸਂਪ੍ਰੇਕ੍ਸ਼੍ਯ ਨਾਸਿਕਾਗ੍ਰਂ ਸ੍ਵਂ ਦਿਸ਼ਸ਼੍ਚਾਨਵਲੋਕਯਨ੍।।6.13।।
ಸಮಂ ಕಾಯಶಿರೋಗ್ರೀವಂ ಧಾರಯನ್ನಚಲಂ ಸ್ಥಿರಃ. ಸಂಪ್ರೇಕ್ಷ್ಯ ನಾಸಿಕಾಗ್ರಂ ಸ್ವಂ ದಿಶಶ್ಚಾನವಲೋಕಯನ್৷৷6.13৷৷
സമം കായശിരോഗ്രീവം ധാരയന്നചലം സ്ഥിരഃ. സംപ്രേക്ഷ്യ നാസികാഗ്രം സ്വം ദിശശ്ചാനവലോകയന്৷৷6.13৷৷
ସମଂ କାଯଶିରୋଗ୍ରୀବଂ ଧାରଯନ୍ନଚଲଂ ସ୍ଥିରଃ| ସଂପ୍ରେକ୍ଷ୍ଯ ନାସିକାଗ୍ରଂ ସ୍ବଂ ଦିଶଶ୍ଚାନବଲୋକଯନ୍||6.13||
samaṅ kāyaśirōgrīvaṅ dhārayannacalaṅ sthiraḥ. saṅprēkṣya nāsikāgraṅ svaṅ diśaścānavalōkayan৷৷6.13৷৷
ஸமஂ காயஷிரோக்ரீவஂ தாரயந்நசலஂ ஸ்திரஃ. ஸஂப்ரேக்ஷ்ய நாஸிகாக்ரஂ ஸ்வஂ திஷஷ்சாநவலோகயந்৷৷6.13৷৷
సమం కాయశిరోగ్రీవం ధారయన్నచలం స్థిరః. సంప్రేక్ష్య నాసికాగ్రం స్వం దిశశ్చానవలోకయన్৷৷6.13৷৷
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।।6.14।। जिसका अन्तःकरण शान्त है, जो भय-रहित है और जो ब्रह्मचारिव्रतमें स्थित है, ऐसा सावधान योगी मनका संयम करके मेरेमें चित्त लगाता हुआ मेरे परायण होकर बैठे।
।।6.14।। (साधक को) प्रशान्त अन्त:करण, निर्भय और ब्रह्मचर्य ब्रत में स्थित होकर, मन को संयमित करके चित्त को मुझमें लगाकर मुझे ही परम लक्ष्य समझकर बैठना चाहिए।।
।।6.14।। कुछ काल तक ध्यान का निरन्तर अभ्यास करने के फलस्वरूप साधक को अधिकाधिक शांति और सन्तोष का अनुभव होता है अत्यन्त सूक्ष्म आन्तरिक शांति को प्राप्त पुरुष को यहाँ प्रशान्तात्मा कहा गया है। आत्मा को अपने शुद्ध और दिव्य स्वरूप में व्यक्त होने के लिए प्रशान्त अन्तकरण ही अत्यन्त उपयुक्त माध्यम है।ध्यानाभ्यास करने वाले साधक को केवल मानसिक भय के कारण आत्मानुभव की ऊँचाई नापने में कठिनाई होती है। शनैशनै योगी अपने मन की वैषयिक वासनाओं से मुक्त होता है और तदुपरांत यदि उसमें आवश्यक साधना की परिपक्वता न हो तो वह इस मन के अतीत आत्मतत्त्व के अनुभव से भयभीत हो जाता है। उसे लगता है कि वह शून्य में विलीन हो रहा है। अनादि काल से उपाधियों के साथ तादात्म्य करके जीवभाव में रहने से उसे विश्वास भी नहीं होता कि इन उपाधियों से परे किसी तत्त्व का अस्तित्व भी हो सकता है। यहाँ उन मछली बेचने वाली स्त्रियों की कथा का स्मरण होता है जिन्हें किसी कारणवश फूलों की दुकान मेें एक रात व्यतीत्ा करनी पड़ी। मछली की दुर्गन्ध की अभ्यस्त होने से वे फूलों की सुगन्ध के कारण तब तक नहीं सो पायीं जब तक कि मछली की टोकरियों को उन्होंने अपने सिरहाने नहीं रख लिया दुखदायी उपाधियों से दूर रहकर अनन्त आनन्द में प्रवेश करने से हम भयभीत हो जाते हैं।इस भय के कारण आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग ही अवरूद्ध हो जाता है। यदि सफलता प्राप्त भी होने लगे तो इसी मानसिक भय के कारण साधक उसकी उपेक्षा कर देगा। प्रशान्तचित्त होकर शास्त्राध्ययन के द्वारा निर्भय मन नित्य ध्यान का अभ्यास करने पर भी यदि ब्रह्मचर्य व्रत में दृढ़ स्थिति न हो तो सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। ब्रह्मचर्य व्रत औपनिषदिक अर्थ के साथसाथ इस शब्द का यहाँ विशिष्ट अर्थ भी है। सामान्यत ब्रह्मचर्य का अर्थ किया जाता है मैथुन का त्याग। परन्तु इस शब्द का अर्थ अधिक व्यापक है। केवल संभोग की वृत्ति का संयम ही ब्रह्मचर्य नहीं वरन् समस्त इन्द्रियों की प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण होना ब्रह्मचर्य है। परन्तु यह संयम विवेकपूर्वक होना चाहिए इच्छाओं का मूढ़ दमन नहीं। असंयमित मन विषयों की संवेदनाओं से विचलित और क्षुब्ध हो जाता है और अपनी सम्पूर्ण शक्ति को विनष्ट कर देता है।इन्द्रिय संयम के इस सामान्य अर्थ के अतिरिक्त भी ब्रह्मचर्य का विशेष प्रयोजन है। संस्कृत भाषा में ब्रह्मचारी का अर्थ है वह पुरुष जिसका स्वभाव ब्रह्म में विचरण करने का हो। इस दृष्टि से ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा अपने मन को निरन्तर ब्रह्मविचार और निदिध्यासन में स्थिर करने का प्रयत्न करना। यही एकमात्र मुख्य उपाय है जिसके द्वारा हम मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को शांत एवं संयमित कर सकते हैं।मन का स्वभाव ही किसी न किसी विषय का चिन्तन करना है। जब तक उसे उत्कृष्ट लक्ष्य का ज्ञान नहीं कराया जाता तब तक उसकी विषयाभिमुखी प्रवृत्ति उनसे विमुख नहीं हो सकती। पूर्ण ब्रह्मचर्य की सफलता का रहस्य भी यही है। किसी योगी की ओर आश्चर्यचकित होकर देखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हममें से प्रत्येक व्यक्ति उस योगी की सफलता को प्राप्त कर सकता है। उस सफलता के लिए आत्मसंयम की आवश्यकता है। इन्द्रियों के विषयों के आकर्षण से स्वयं को बचाने के निश्चयात्मक उपायों का ज्ञान न होने से ही मनुष्य उनके प्रलोभन में फँस जाता है और लोभ संवरण नहीं कर पाता।इस श्लोक में वर्णित तीनों गुणों से सम्पन्न साधक को ध्यान साधना में कठिनाई नहीं होती। प्रशान्ति निर्भयता और ब्रह्मचर्यये क्रमश बुद्धि मन और शरीर को ध्यान के योग्य बनाते हैं। इन तीनों के सुसंगठित होने पर साधक को अधिकतम शक्ति एवं शान्ति प्राप्त होती है जिनका उपयोग ध्यान के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार नवशक्ति सम्पन्न साधक क्षमतावान हो जाता है। वह अपने भटकने वाले मन को सहज ही विषयों से परावृत्त करके आत्मतत्त्व का ध्यान कर सकता है।इस श्लोक में दिया गया यह निर्देश अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि साधक को मुझे ही परम लक्ष्य समझकर ध्यान के लिए बैठना चाहिए। यह हम अपने अनुभव से जानते हैं कि जिस वस्तु को हम सर्वाधिक महत्त्व देते हैं उसकी प्राप्ति के लिए सर्व प्रथम प्रयत्न करते हैं। इसलिए जो पुरुष परमात्मा को ही सर्वोच्च लक्ष्य समझकर निरन्तर साधनारत रहता है वह शीघ्र ही अपने अनन्त सनातन शान्त और आनन्द स्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है।
।।6.14।। व्याख्या--'प्रशान्तात्मा'--जिसका  अन्तःकरण राग-द्वेषसे रहित है, वह 'प्रशान्तात्मा' है। जिसका सांसारिक विशेषता प्राप्त करनेका, ऋद्धि-सिद्धि आदि प्राप्त करनेका उद्देश्य न होकर केवल परमात्मप्राप्तिका ही दृढ़ उद्देश्य होता है, उसके राग-द्वेष शिथिल होकर मिट जाते हैं। राग-द्वेष मिटनेपर स्वतः शान्ति आ जाती है, जो कि स्वतःसिद्ध है। तात्पर्य है कि संसारके सम्बन्धके कारण ही हर्ष, शोक, राग-द्वेष आदि द्वन्द्व होते हैं और इन्हीं द्वन्द्वोंके कारण शान्ति भङ्ग होती है। जब ये द्वन्द्व मिट जाते हैं, तब स्वतःसिद्ध शान्ति प्रकट हो जाती है। उस स्वतःसिद्ध शान्तिको प्राप्त करनेवालेका नाम ही 'प्रशान्तात्मा' है।
।।6.10 6.15।।ननु जितात्मनः इत्युक्तम् तत्कथं तज्जय इत्याशङ्क्य आरुरुक्षोः कश्चिदुपायः कायसमत्वादिकः (SN कायसमुद्धारकः) चित्तसंयम उपदिश्यते योगीत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। आत्मानं च चित्तं च युञ्जीत एकाग्रीकुर्यात्। सततमिति न परिमितं कालम्। एकाकित्वादिषु सत्सु एतद्युज्यते ( N युञ्जीत) नान्यथा। आसनस्थैर्यात् कालस्थैर्ये (S कालस्थैर्यम्) चित्तस्थैर्यम्। चित्तक्रियाः संकल्पात्मनः अन्याश्चेन्द्रियक्रिया येन यताः नियमं नीताः। धारयन् यत्नेन। नासिकाग्रस्यावलोकने सति दिशामनवलोकनम्। मत्परमतया युक्त आसीत (N आसीत्) इत्यर्थः (S omits इत्यर्थः)। एवमात्मानं युञ्जतः समादधतः शान्तिर्जायते यस्यां संस्थापर्यन्तकाष्ठा मत्प्राप्तिः (K प्राप्तिर्योगोऽस्तीति)।
।।6.14।।कायशिरोग्रीवं समम् अचलं सापाश्रयतया स्थिरं धारयन् दिशश्च अनवलोकयन् स्वं नासिकाग्रं संप्रेक्ष्य प्रशान्तात्मा अत्यन्तनिर्वृतमनाः विगतभीः ब्रह्मचर्ययुक्तो मनः संयम्य मच्चित्तो युक्तः अवहितो मत्पर आसीत माम् एव चिन्तयन् आसीत।
।।6.14।।योगं युञ्जानस्य विशेषणान्तराणि दर्शयति किञ्चेति। अन्तःकरणस्य प्रशान्ती रागद्वेषादिदोषराहित्यं तस्याश्च प्रकर्षो रागादिहेतोरपि निवृत्तिः विगतभयत्वं सर्वकर्मपरित्यागे शास्त्रीयनिश्चयवशान्निःसंदिग्धबुद्धित्वम्। भिक्षाभुक्त्यादीत्यादिशब्देन त्रिषवणस्नानशौचाचमनादि गृह्यते। विशेषणान्तरमाह किञ्चेति। उपसंहृत्य योगनिष्ठो भवेदिति शेषः। मनोवृत्त्युपसंहारे ध्यानमपि न सिध्येत्तस्य तद्वृत्त्यावृत्तिरूपत्वादित्याशङ्क्याह मच्चित्त इति। विषयान्तरविषयमनोवृत्त्युपसंहारेणात्मन्येव तन्नियमनान्न ध्यानानुपपत्तिरित्यर्थः। मच्चित्तत्वेनैव मत्परत्वस्य सिद्धत्वान्मत्पर इति पृथग्विशेषणमनर्थकमित्याशङ्क्याह भवतीति। अन्तःकरणशुद्धिर्योगस्यावान्तरफलम्।
।।6.14।।प्रशान्तात्मेति। मैत्र्यादिचित्तपरिकर्मवित्त्वात् अविद्यादिपञ्चक्लेशभयरहितः। सबीजयोगिनस्तस्य सम्प्रज्ञातसमाधिप्रकारमाह मनः संयम्य मच्चित्त इति। मनश्च तादृशं संयतं वासुदेवाधिष्ठितं चित्तरूपेण परिणमते इति तच्चित्तं तदधिष्ठातरि मयि यस्य स इति युक्तस्य भक्तिसम्बन्धिंत्वमुक्तम्। तदाह युक्तः सन्मत्पर आसीत।
।।6.14।।किंच निदाननिवृत्तरूपेण प्रकर्षेण शान्तो रागादिदोषरहित आत्मान्तःकरणं यस्य स प्रशान्तात्मा शास्त्रीयनिश्चयदार्ढ्याद्विगता भीः सर्वकर्मपरित्यागेन युक्तत्वायुक्तत्वशङ्का यस्य स विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते ब्रह्मचर्यगुरुशुश्रूषाभिक्षाभोजनादौ स्थितः सन् मनः संयम्य विषयाकारवृत्तिशून्यं कृत्वा मयि परमेश्वरे प्रत्यक्चिति सगुणे निर्गुणे वा चित्तं यस्य स मच्चित्तो मद्विषयकधारावाहिकचित्तवृत्तिमान्। पुत्रादौ प्रिये चिन्तनीये सति कथमेवं स्यादत आह मत्परः अहमेव परमानन्दरूपत्वात्परः पुरुषार्थः प्रियो यस्य स तथा।तदेतत्प्रेयः पुत्रात्प्रेयो वित्तात्प्रेयोऽन्यस्मात्सर्वस्मादन्तरतरो यदयमात्मा इति श्रुतेः। एवं विषयाकारसर्ववृत्तिनिरोधेन भगवदेकाकारचित्तवृत्तिर्युक्तः संप्रज्ञातसमाधिमानासीतोपविशेद्यथाशक्ति नतु स्वेच्छया व्युत्तिष्ठेदित्यर्थः। भवति कश्चिद्रागी स्त्रीचित्तो नतु स्त्रियमेव परत्वेनाराध्यत्वेन गुह्णाति किं तर्हि राजानं वा देवं वा। अयं तु मच्चित्तो मत्परश्च सर्वाराध्यत्वेन मामेव मन्यत इति भाष्यकृतां व्याख्या।।व्याख्यातृत्वेऽपि मे नात्र भाष्यकारेण तुल्यता। गुञ्जायाः किं नु हेम्नैकतुलारोहेऽपि तुल्यता।
।।6.14।। प्रशान्तेति। प्रशान्त आत्मा चित्तं यस्य विगता भीर्भयं यस्य ब्रह्मचारिव्रते ब्रह्मचर्ये स्थितः सन् मनः संयम्य प्रत्याहृत्य। मय्येव चित्तं यस्य अहमेव परः पुरुषार्थो यस्य स मत्परः एवं युक्तो भूत्वा आसीत तिष्ठेत्।
।। 6.14 एवं शुचिदेशासनादिरूपं बाह्यं योगोपकरणं मनसश्चैकाग्र्यमुक्तम् अथान्तरान्तरतमयोः कायमनसोः क्रमात्कर्तव्यनियमविशेषा उच्यन्ते समं इत्यादिश्लोकद्वयेन।कायशिरोग्रीवं इति द्वन्द्वैकवद्भावः तत एव नपुंसकता। अत्र सिद्धापर(मध्यापर) नामा शरीरस्य मध्यप्रदेशः कायशब्देन विवक्षितः।समं अचलं स्थिरम् इति धारणक्रियाविशेषणानिसमं इत्यत्रार्जवं विवक्षितम् अचलशब्देन निष्कम्पत्वेऽभिहितेऽपि स्थिरमित्येतदङ्गकम्पकरश्रमहेतुभूतपश्चाद्धारणप्रयत्ननिवृत्तिहेत्त्वभिप्रायमिति दर्शयितुंसापाश्रयतया स्थिरमित्युक्तम्। अनेनाचलत्वस्य चिरानुवर्तनयोग्यत्वमुक्तं भवति। बाह्येभ्यो व्यावर्तनं नासिकाग्रे स्थापनं चेति क्रमप्रदर्शनायदिशश्चानवलोकयन्स्वं नासिकाग्रं सम्प्रेक्ष्य इति व्युत्क्रमेणोक्तम्। यद्वा शतुरत्र हेत्वर्थत्वाद्दिक्छब्दोपलक्षितबाह्यसकलपदार्थावलोकननिवृत्त्यर्थं योगारम्भक्षणे स्वनासिकाग्रप्रेक्षणमिति भावः। भोग्येतरानुपयुक्तविषयनिरीक्षणमपि निवर्तनीयमित्यभिप्रायेणदिशश्चत्युक्तम्। निमीलनेनापि बाह्यानवलोकनसिद्धौ स्वनासिकाग्रावेक्षणं निद्रादिनिवृत्त्यर्थम्।सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं इत्येतावत्यभिहिते परनासिकाग्रप्रेक्षणमपि शङ्क्येतेति तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तंस्वम् इति। मनस्यन्तर्मुखे नासाग्रसम्प्रेक्षणस्यासम्भवाच्चक्षुषो दृष्टिसन्निपातमात्रमिह विवक्षितम्। अतः सम्प्रेक्ष्येत्यत्रइवशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः इतिशाङ्करम्। नायनस्य तेजसः स्वच्छन्दवृत्त्या। नासाग्रसन्निपातमात्रमिह विवक्षितम्मनः संयम्य इति संयमस्याभिधानात् प्रशान्तात्मशब्दोऽयं योगोपयुक्तमनस्सन्तोषपर इत्यभिप्रायेणअत्यन्तनिर्वृतमना इत्युक्तम्।ब्रह्मचारिव्रते स्थितः इत्यनेन ब्रह्मचर्याश्रमप्रतीतिःशङ्करोक्तप्रक्रियया वा ब्रह्मचर्यगुरुशुश्रूषाभिक्षाचर्यादिधीः स्यादिति तद्व्यवच्छेदायाहब्रह्मचर्ययुक्त इति। ब्रह्मचर्यं च स्तनवति पिशितपिण्डे भोग्यताधीगर्भस्मरणालोकनालापादिरहितत्वमत्र विवक्षितम्। स्मरन्ति च ब्रह्मचर्यं च योषित्सु भोग्यताबुद्धिवर्जनम् इत्यादि। तथास्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम्। सङ्कल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिर्वृत्तिरेव च। एतन्मैथुनमष्टाङ्गं प्रवदन्ति मनीषिणः। विपरीतं ब्रह्मचर्यमेतदेवाष्टलक्षणम् अ.पु.372।10।11 इति। युक्तशब्दस्य पूर्वोत्तरप्रतिपन्नात्मावलोकनाभिधानादपि तदुपयुक्तावधानविषयत्वमत्रोचितमित्यभिप्रायेणअवहित इत्युक्तम्। मच्चित्तशब्दो भगवति चित्तस्यानुप्रवेशपरः। मत्परशब्दस्तु तदेकचित्तत्वपरः तदनुवृत्तिपरो वेत्यपौनरुक्त्यमाह मामेवेति। यद्वा स्त्र्यादौ भोग्यचिन्ता राजादौ च महति परधीर्लोके विभक्ता मयि तु तदुभयमित्यपुनरुक्तिः।
।।6.14।।प्रशान्तात्मा भक्तिरसाभिनिविष्टचित्तः विगतभीःब्रह्मचारीश्रुत्यादिदुरापचरणरेणुभगवत्प्राप्तिसन्देहरहितः। ब्रह्मचारिव्रते स्थितः भगवदर्थेन्द्रियनिग्रहवान्। तादृशः सन् मनः संयम्य सर्वतः आकृष्य वशे कृत्वा मच्चित्तो मय्येव चित्तं यस्य। मत्परः अहमेव परः पुरुषार्थरूपो यस्य। एतादृशो भूत्वा युक्तः मद्योगस्थ आसीत तिष्ठेत्।
।।6.14।।एवमासने उपविष्टेन यत्कर्तव्यं तदाह प्रशान्तात्मेति। योगयुक्तो योगी ब्रह्मचारिव्रते भैक्षचर्यायां स्थितः संन्यासीत्यर्थः। मच्चितो मयि परमे चित्तं यस्य स एवंभूतो मय्येव मनः संयम्य मत्पर आसीत स प्रशान्तात्मा भूत्वा विगतभीर्भवतीति योजना। भवति हि कश्चिदात्मनोऽन्यमीश्वरं मत्वा तच्चित्तस्तमेवाराध्यत्वेनाभिगतः तत्रैव च मनसः संयमं करोति न तु स तत्परस्तमेव परमपुरुषार्थतया प्राप्यत्वेन मन्यते किंतु तत्प्रीत्यान्यदेव फलं कामयते अयं तु मच्चित्तो मय्येव मनः संयम्य मत्परो मामेव सर्वान्तरं प्रत्यगद्वयं कामयत इति। यतो मत्परोऽतएव प्रशान्तात्मा प्रकर्षेण बाह्याभ्यन्तरविषयत्यागेन समाधिसुखास्वादत्यागेन च शान्त उपरतः आत्मा चित्तं यस्य सोऽस्मितामात्रावशेषो विगतभीर्भवति। इयमेवावस्था सत्त्वपुरुषान्यथाख्यातिरिति ब्रह्मसाक्षात्कार इति च विकल्प्यते। सर्वथा तस्यां सिद्धायां पुरुषः परमपुरुषार्थभाग्भवति।
।।6.14।।प्रशान्तात्मा प्रकर्षेण शान्तः आत्मान्तःकरणं यस्य सः। अनेन रम्यशब्दश्रवणादीना शान्तचित्तस्य क्षोभाभावाद्दिगव लोकनं वारितम्। व्याघ्रादिभयप्रयुक्तमपि तद्वारयति। विशेषेण गता भीर्भयं यस्मात्सः। व्याघ्रादिप्रयुक्तभयाभावेऽपि क्षुधादिजन्यभयं संभाव्याह। मनः संयम्य स्वादिष्ठान्नादौ प्रवृत्ता मनोवृत्तीरुपसंहृत्येत्यर्थः। एवंभूतः किं कुर्यादिति तत्राह। युक्तः समाहितः सन् मच्चितः मत्परश्चासीतेति मयि परमेश्वरे चित्तं यस्य सः। कश्चिद्रागी स्त्रीचित्तो नतु स्त्रियमेव परत्वेन गृह्णाति किं तर्हि राजानं वाराध्यत्वेन देवं वाराध्यत्वेन परमपुरुषार्थत्वेन च। अयं तु मच्चित्तो मत्परश्च अहमेव पर आराध्यः परमपुरुषार्थश्च यस्य सः। यत्तु तत्किं द्वितीयाद्यवस्थास्य संभवति ओमित्याह अयुक्त इति। अयुक्तो मत्परः अहं परोऽन्तर्यामी प्रेरको यस्येत्येवंरुपः। आस्ते तस्यां दशायामैक्यभावानाभावादिति तथाचायुक्तावस्थायां भिक्षाद्याचरतीति तात्पर्यमिति तन्न। वाक्यभेदप्रसङ्गात्। यथाश्रुतार्थसंभवे आसीतेत्यस्यास्त इत्यर्थकरणानुचितत्वाच्च।
6.14 प्रशान्तात्मा sereneminded? विगतभीः fearless? ब्रह्मचारिव्रते in the vow of Brahmacharya? स्थितः firm? मनः the mind? संयम्य having controlled? मच्चित्तः thinking on Me? युक्तः balanced? आसीत let him sit? मत्परः Me as the supreme goal.Commentary The spiritual aspirant should possess serenity of mind. The Divine Light can descend only in a serene mind. Serenity is attained by the eradication of Vasanas or desires and cravings. He should be fearless. This is the most important alification. A timid man or a coward is very far from Selfrealisation.A Brahmachari (celibate) should serve his Guru or the spiritual preceptor wholeheartedly and should live on alms. This also constitutes the BrahmachariVrata. The aspirant should control the modifications of the mind. He should be balanced in pleasure and pain? heat and cold? honour and dishonour. He should ever think of the Lord and take Him as the Supreme Goal.Brahmacharya also means continence. Semen or the vital fluid tones the nerves and the brain? and energises the whole system. That Brahmachari who has preserved this vital force by the vow,of celibacy and sublimated it into Ojas Sakti or radiant spiritual power can practise steady meditation for a long period. Only he can ascend the ladder of Yoga. Without Brahmacharya or celibacy not an iota or spiritual progress is possible. Continence is the very foundation on which the superstructure of meditation and Samadhi can be built up. Many persons waste this vital energy -- a great spiritual treasure indeed -- when they become blind and lose their power of reason under sexual excitement. Pitiable is their lot They cannot make substantial progress in Yoga.
6.14 Serene-minded, fearless, firm in the vow of a Brahmachari, having controlled the mind, thinking of Me and balanced in mind, let him sit, having Me as his supreme goal.
6.14 With peace in his heart and nor fear, observing the vow of celibacy, with mind controlled and fixed on Me, let the student lose himself in contemplation of Me.
6.14 He should remain seated with a placid mind, free from fear, firm in the vow of a celibate, and with the mind fixed on Me by controlling it through concentration, having Me as the supreme Goal.
6.14 Dharayan, holding; kaya-siro-girvam, the body (torso), head and neck; samam, erect; and acalam, still-movement is possible for one (even while) holding these erect; therefore it is specified, 'still'-; sthirah, being steady, i.e. remaining steady; sampreksya, looking svam nasikagram, at tip of his own nose -looking at it intently, as it were; ca, and; anavalokayan, not looking; disah, around, i.e. not glancing now and then in various directions-. The words 'as it were' are to be understood because what is intended here is not an injunction for looking at the tip of one's own nose! What then? It is the fixing the gaze of the eyes by withdrawing it from external objects; and that is enjoined with a veiw to concentrating the mind. [What is sought to be presented here as the primary objective is the concentration of mind. If the gaze be directed outward, then it will result in interrupting that concentration. Therefore the purpose is to first fix the gaze of the eyes within.] If the intention were merely the looking at the tip of the nose, then the mind would remain fixed there itself, not on the Self! In, 'Making the mind fixed in the Self' (25), the Lord will speak of concentrating the mind verily on the Self. Therefore, owing to the missing word iva (as it were), it is merely the withdrawl of the gaze that is implied by sampreksya (looking). Further, prasantatma, with a placid mind, with a mind completely at peace; vigata-bhih, free from fear sthitah, firm; brahmacari-vrate, in the vow of a celibate, the vow cosisting in serivce of the teacher, eating food got by beggin, etc.-firm in that, i.e. he should follow these; besides, mat-cittah, with the mind fixed on Me who am the supreme God; samyamya, by controlling; manah, the mind, i.e. by stopping the modifications of the mind; yuktah, through concentration, i.e. by becoming concentrated; asita, he should remain seated; matparah, with Me as the supreme Goal. Some passionate person may have his mind on a woman, but he does not accept the woman as his supreme Goal. What then? He accepts the king or Sive as his goal. But this one (the yogi) not only has his mind on Me but has Me as his Goal. After that, now is being stated the result of Yoga:
6.14. Being calm-minded, fearless, firm in the vow of celibacy; controlling mind fully; let the master of Yoga remain, fixing his mind in Me and having Me [alone] as his supreme goal.
6.14 See Comment under 6.15
6.13 - 6.14 Keeping the trunk, head and neck erect and motionless; well seated in order to be steady; looking not in any direction but gazing at the tip of the nose; serene, i.e., holding the mind extremely peaceful; fearless; firm in the vow of celibacy; holding the mind in check; and fixing his thoughts on Me - he should sit in Yoga, i.e., remain concentrated and intent on Me, i.e., he should concentrating on Me only.
6.14 Serene and fearless, firm in the vow of celibacy, holding the mind in check and fixing the thought on Me, he should sit in Yoga, intent on Me.
।।6.14।।तथा प्रशान्तात्मा अच्छी प्रकारसे शान्त हुए अन्तःकरणवाला विगतभी निर्भय और ब्रह्मचारियोंके व्रतमें स्थित हुआ अर्थात् ब्रह्मचर्य गुरुसेवा भिक्षाभोजन आदि जो ब्रह्मचारीके व्रत हैं उनमें स्थित हुआ उनका अनुष्ठान करनेवाला होकर और मनका संयम करके अर्थात् मनकी वृत्तियोंका उपसंहार करके तथा मुझमें चित्तवाला अर्थात् मुझ परमेश्वरमें ही जिसका चित्त लग गया है ऐसा मच्चित्त होकर तथा समाहितचित्त होकर और मुझे ही सर्वश्रेष्ठ माननेवाला अर्थात् मैं ही जिसके मतमें सबसे श्रेष्ठ हूँ ऐसा होकर बैठे। कोई स्त्रीप्रेमी स्त्रीमें चित्तवाला हो सकता है परंतु वह स्त्रीको सबसे श्रेष्ठ नहीं समझता। तो किसको समझता है वह राजाको या महादेवको स्त्रीकी अपेक्षा श्रेष्ठ समझता है परंतु यह साधक तो चित्त भी मुझमें ही रखता है और मुझे ही सबसे अधिक श्रेष्ठ भी समझता है।
।।6.14।। प्रशान्तात्मा प्रकर्षेण शान्तः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सोऽयं प्रशान्तात्मा विगतभीः विगतभयः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ब्रह्मचारिणो व्रतं ब्रह्मचर्यं गुरुशुश्रूषाभिक्षान्नभुक्त्यादि तस्मिन् स्थितः तदनुष्ठाता भवेदित्यर्थः। किञ्च मनः संयम्य मनसः वृत्तीः उपसंहृत्य इत्येतत् मच्चित्तः मयि परमेश्वरे चित्तं यस्य सोऽयं मच्चित्तः युक्तः समाहितः सन् आसीत उपविशेत्। मत्परः अहं परो यस्य सोऽयं मत्परो भवति। कश्चित् रागी स्त्रीचित्तः न तु स्त्रियमेव परत्वेन गृह्णाति किं तर्हि राजानं महादेवं वा। अयं तु मच्चित्तो मत्परश्च।।अथेदानीं योगफलमुच्यते
।।6.12 6.14।।उपविश्यासन इत्यत्रापि योगशब्द एवमेव व्याख्येय इत्याह योगमिति। स्थानविवेकार्थं युञ्ज्यादित्युक्तम् कुर्यादिति यावत्।
।।6.12 6.14।।योगं समाधियोगं युञ्ज्यात्।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।6.14।।
প্রশান্তাত্মা বিগতভীর্ব্রহ্মচারিব্রতে স্থিতঃ৷ মনঃ সংযম্য মচ্চিত্তো যুক্ত আসীত মত্পরঃ৷৷6.14৷৷
প্রশান্তাত্মা বিগতভীর্ব্রহ্মচারিব্রতে স্থিতঃ৷ মনঃ সংযম্য মচ্চিত্তো যুক্ত আসীত মত্পরঃ৷৷6.14৷৷
પ્રશાન્તાત્મા વિગતભીર્બ્રહ્મચારિવ્રતે સ્થિતઃ। મનઃ સંયમ્ય મચ્ચિત્તો યુક્ત આસીત મત્પરઃ।।6.14।।
ਪ੍ਰਸ਼ਾਨ੍ਤਾਤ੍ਮਾ ਵਿਗਤਭੀਰ੍ਬ੍ਰਹ੍ਮਚਾਰਿਵ੍ਰਤੇ ਸ੍ਥਿਤ। ਮਨ ਸਂਯਮ੍ਯ ਮਚ੍ਚਿਤ੍ਤੋ ਯੁਕ੍ਤ ਆਸੀਤ ਮਤ੍ਪਰ।।6.14।।
ಪ್ರಶಾನ್ತಾತ್ಮಾ ವಿಗತಭೀರ್ಬ್ರಹ್ಮಚಾರಿವ್ರತೇ ಸ್ಥಿತಃ. ಮನಃ ಸಂಯಮ್ಯ ಮಚ್ಚಿತ್ತೋ ಯುಕ್ತ ಆಸೀತ ಮತ್ಪರಃ৷৷6.14৷৷
പ്രശാന്താത്മാ വിഗതഭീര്ബ്രഹ്മചാരിവ്രതേ സ്ഥിതഃ. മനഃ സംയമ്യ മച്ചിത്തോ യുക്ത ആസീത മത്പരഃ৷৷6.14৷৷
ପ୍ରଶାନ୍ତାତ୍ମା ବିଗତଭୀର୍ବ୍ରହ୍ମଚାରିବ୍ରତେ ସ୍ଥିତଃ| ମନଃ ସଂଯମ୍ଯ ମଚ୍ଚିତ୍ତୋ ଯୁକ୍ତ ଆସୀତ ମତ୍ପରଃ||6.14||
praśāntātmā vigatabhīrbrahmacārivratē sthitaḥ. manaḥ saṅyamya maccittō yukta āsīta matparaḥ৷৷6.14৷৷
ப்ரஷாந்தாத்மா விகதபீர்ப்ரஹ்மசாரிவ்ரதே ஸ்திதஃ. மநஃ ஸஂயம்ய மச்சித்தோ யுக்த ஆஸீத மத்பரஃ৷৷6.14৷৷
ప్రశాన్తాత్మా విగతభీర్బ్రహ్మచారివ్రతే స్థితః. మనః సంయమ్య మచ్చిత్తో యుక్త ఆసీత మత్పరః৷৷6.14৷৷
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।।6.15।। नियत  मनवाला योगी मनको इस तरहसे सदा परमात्मामें लगाता हुआ मेरेमें सम्यक् स्थितिवाली जो निर्वाणपरमा शान्ति है, उसको प्राप्त हो जाता है।
।।6.15।। इस प्रकार सदा मन को स्थिर करने का प्रयास करता हुआ संयमित मन का योगी मुझमें स्थित परम निर्वाण (मोक्ष) स्वरूप शांति को प्राप्त होता है।।
।।6.15।। शरीर का आसन मन का भाव बुद्धि के द्वारा चिन्तन का वर्णन करने के पश्चात् अब भगवान् ध्यानविधि के अन्तिम चरण का वर्णन अपने प्रिय मित्र अर्जुन के लिए करते हैं। उक्त गुणों से सम्पन्न साधक अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन में सामञ्जस्य स्थापित करके एक अलौकिक क्षमता को प्राप्त करता है। ऐसा संयमित मन का पुरुष सतत साधनारत हुआ परम पद को प्राप्त होता है।सदा का अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि साधक को अपने परिवार एवं समाज के प्रति कर्तव्यों की उपेक्षा करने की सीख यहाँ दी गयी है। ऐसा करना समाज के प्रति अपराध होगा। सदा का तात्पर्य प्रतिदिन के ध्यान के अभ्यास के समय से है। पूरी लगन से ध्यान करने पर साधक पूर्ण शांति का अनुभव करता है।यह शांति ही परमात्मा का स्वरूप है क्योंकि आत्मा में शरीर मन और बुद्धि की उत्तेजना चंचलता और विक्षेपों का सर्वथा अभाव है। आत्मा इन उपाधियों से परे है। भगवान् के इस कथन से कि योगी मुझमें स्थित परम शांति को प्राप्त होता है ऐसा प्रतीत हो सकता है कि यहाँ श्रीकृष्ण द्वैतवाद के मत का प्रतिपादन कर रहे हैं। परन्तु परम सत्य को गुण युक्त मानने का अर्थ होगा उसे एक द्रव्य पदार्थ समझना जो कि परिच्छिन्न और विकारी होगा। उसी प्रकार उस शांति की प्राप्ति एक विषय की प्राप्ति के समान होगी।भगवान् श्रीकृष्ण तत्त्व का ज्ञान कराने में भाषा की असमर्थता एवं सीमित योग्यता को जानते हैं इसलिए वे उक्त दोष का परिहार करने के लिए शांति को एक विशेषण देते हैं निर्वाण परमाम् अर्थात् मोक्ष स्वरूप शांति।तात्पर्य यह है कि जब योगी का मन विषयों से पूर्णतया निवृत्त होता है तब वह उस शांति का अनुभव करता है जो उसने बाह्य जगत् में कभी अनुभव नहीं की थी। शीघ्र ही वह पुरुष परम सत्य स्वरूप के साथ एक हो जाता है जिसकी सुगंध पूर्वानुभूत शांति होती है। ध्यान के अन्तिम चरण में योगी अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात् अनुभव तद्रूप होकर ही करता है। इसी अद्वैतानुभूति का वर्णन सम्पूर्ण गीता में किया गया है।अब योगी के लिए आहारादि के नियम का वर्णन करते हैं
।।6.15।। व्याख्या--'योगी नियतमानसः' जिसका मनपर अधिकार है, वह 'नियतमानसः' है। साधक 'नियतमानस' तभी हो सकता है, जब उसके उद्देश्यमें केवल परमात्मा ही रहते हैं। परमात्माके सिवाय उसका और किसीसे सम्बन्ध नहीं रहता। कारण कि जबतक उसका सम्बन्ध संसारके साथ बना रहता है, तबतक उसका मन नियत नहीं हो सकता।साधकसे यह एक बड़ी गलती होती है कि वह अपने-आपको गृहस्थ आदि मानता है और साधन ध्यानयोगका करता है। जिससे ध्यानयोगकी सिद्धि जल्दी नहीं होती। अतः साधकको चाहिये कि वह अपने-आपको गृहस्थ, साधु, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि किसी वर्ण-आश्रमका न मानकर ऐसा माने कि 'मैं तो केवल ध्यान करनेवाला हूँ। ध्यानसे परमात्माकी प्राप्ति करना ही मेरा काम है। सांसारिक ऋद्धि-सिद्धि आदिको प्राप्त करना मेरा उद्देश्य ही नहीं है।' इस प्रकार अहंताका परिवर्तन होनेपर मन स्वाभाविक ही नियत हो जायगा; क्योंकि जहाँ अहंता होती है, वहाँ ही अन्तःकरण और बहिःकरणकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।
।।6.10 6.15।।ननु जितात्मनः इत्युक्तम् तत्कथं तज्जय इत्याशङ्क्य आरुरुक्षोः कश्चिदुपायः कायसमत्वादिकः (SN कायसमुद्धारकः) चित्तसंयम उपदिश्यते योगीत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। आत्मानं च चित्तं च युञ्जीत एकाग्रीकुर्यात्। सततमिति न परिमितं कालम्। एकाकित्वादिषु सत्सु एतद्युज्यते ( N युञ्जीत) नान्यथा। आसनस्थैर्यात् कालस्थैर्ये (S कालस्थैर्यम्) चित्तस्थैर्यम्। चित्तक्रियाः संकल्पात्मनः अन्याश्चेन्द्रियक्रिया येन यताः नियमं नीताः। धारयन् यत्नेन। नासिकाग्रस्यावलोकने सति दिशामनवलोकनम्। मत्परमतया युक्त आसीत (N आसीत्) इत्यर्थः (S omits इत्यर्थः)। एवमात्मानं युञ्जतः समादधतः शान्तिर्जायते यस्यां संस्थापर्यन्तकाष्ठा मत्प्राप्तिः (K प्राप्तिर्योगोऽस्तीति)।
।।6.15।।एवं मयि परस्मिन् ब्रह्मणि पुरुषोत्तमे मनसः शुभाश्रये सदा आत्मानं मनो युञ्जन् नियतमानसः निश्चलमानसः मत्स्पर्शपवित्रीकृतमानसतया निश्चलमानसः मत्संस्थां निर्वाणपरमां शान्तिम् अधिगच्छति निर्वाणकाष्ठारूपां मत्संस्थां मयि संस्थितां शान्तिम् अधिगच्छति।एवम् आत्मयोगम् आरभमाणस्य मनोनैर्मल्यहेतुभूतां मनसो भगवति शुभाश्रये स्थितिम् अभिधाय अन्यद् अपि योगोपकरणम् आह
।।6.15।।संप्रति परमफलकथनपरत्वेनानन्तरश्लोकमादत्ते अथेति। योगस्वरूपं तदङ्गमासनद्वयं तत्कर्तृविशेषणमित्यस्यार्थस्य प्रकथनानन्तरमित्यथशब्दार्थः। आत्मानं युञ्जन्निति संबन्धः। आत्मशब्दो मनोविषयः। यथोक्तो विधिरासनादिः। उक्तविशेषणत्रयद्योतनार्थं सदेत्युक्तम्। योगी ध्यायी संन्यासीत्यर्थः। मनःसंयमस्य योगं प्रत्यसाधारणत्वं दर्शयति नियतेति। शान्तिशब्दितोपरतेः सर्वसंसारनिवृत्तिपर्यवसायित्वं मत्वा विशिनष्टि निर्वाणेति। यथोक्ताया मुक्तेर्ब्रह्मस्वरूपावस्थानादनर्थान्तरत्वमाह मत्संस्थामिति। मदधीनां मदात्मिकामित्यर्थः।
।।6.15।।एवं सदा योगी युक्तः सिद्धः स मयि संस्थां लयं मोक्षादक्षरतादात्म्यरूपादपि परमं प्रवेशं प्राप्नोति।
।।6.15।।एवं संप्रज्ञातसमाधिनासीनस्य किं स्यादित्युच्यते एवं रहोवस्थानादिपूर्वोक्तनियमेनात्मानं मनो युञ्जन्नभ्यासवैराग्याभ्यां समाहितं कुर्वन् योगी सदा योगाभ्यासपरोऽभ्यासातिशयेन नियतं निरुद्धं मानसं मनो येन। नियता निरुद्धा मानसा मनोवृत्तिरूपा विकारा येनेति वा नियतमानसः सन् शान्तिं सर्ववृत्त्युपरतिरूपां प्रशान्तवाहितां निर्वाणपरमां तत्त्वसाक्षात्कारोत्पत्तिद्वारेण सकार्याविद्यानिवृत्तिरूपमुक्तिपर्यवसायिनीं मत्संस्थां मत्स्वरूपपरमानन्दरूपां निष्ठामधिगच्छति नतु सांसारिकाण्यैश्वर्याण्यनात्मविषयसमाधिफलान्यधिगच्छति तेषामपवर्गोपयोगिसमाध्युपसर्गत्वात्। तथाच तत्तत्समाधिफलान्युक्त्वाह भगवान्पतञ्जलिःते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः इतिस्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रङ्गात् इति च। स्थानिनो देवाः। तथाचोद्दालको देवैरामन्त्रितोऽपि तत्र सङ्गमादरं स्मयं गर्वं चाकृत्वा देवानवज्ञाय पुनरनिष्टप्रसङनिवारणाय निर्विकल्पकमेव समाधिमकरोदिति वसिष्ठेपाख्यायते। मुमुभिर्हेयश्च समाधिः सूत्रितः पतञ्जलिनावितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात्संप्रज्ञातः। सम्यक् संशयविपर्ययानध्यवसायरहितत्वेन प्रज्ञायते प्रकर्षेण विशेषरूपेण ज्ञायते भाव्यस्वरूपं येन स संप्रज्ञातः समाधिर्भावनाविशेषः। भावना हि भावस्य विषयान्तरपरिहारेण चेतसि पुनःपुनर्निवेशनम्। भाव्यं च त्रिविधं ग्राह्यग्रहणग्रहीतृभेदात्। ग्राह्यमपि द्विविधं स्थूलसूक्ष्मभेदात्। तदुक्तंक्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनतासमापत्तिः इति। क्षीणा राजसतामसवृत्तयो यस्य तस्य चित्तस्य ग्रहीतृग्रहणग्राह्येष्वात्मेन्द्रियविषयेषु तत्स्थता तत्रैवैकाग्रकता। तदञ्जनता तन्मयता। न्यग्भूते चित्ते भाव्यमानस्यैवोत्कर्ष इति यावत्। तथाविधा समापत्तिस्तद्रूपः परिणामो भवति। यथाभिजातस्य निर्मलस्य स्फटिकमणेस्तत्तदुपाश्रयवशात्तत्तद्रूपापत्तिरेवं निर्मलस्य चित्तस्य तत्तद्भावनीयवस्तूपरागतत्तद्रूपापत्तिः समापत्तिः समाधिरिति च पर्यायः। यद्यपि ग्रहीतृग्रहणग्राह्येष्वित्युक्तं तथापि भूमिकाक्रमवशाद्ग्राह्यग्रहणग्रहीतृष्विति बोद्धव्यम्। यतः प्रथमं ग्राह्यनिष्ठ एव समाधिर्भवति ततो ग्रहणनिष्ठस्ततो ग्रहीतृनिष्ठ इति। ग्रहीत्रादिक्रमोऽप्यग्रे व्याख्यास्यते। तत्र यदा स्थूलं महाभूतेन्द्रियात्मकषोडशविकाररूपं विषयमादाय पूर्वापरानुसंधानेन शब्दार्थोल्लेखेन च भावना क्रियते तदा सवितर्कः समाधिः। अस्मिन्नेवालम्बने पूर्वापरानुसंधानशब्दार्थोल्लेखशून्यत्वेन यदा भावना प्रवर्तते तदा निर्वितर्कः। एतावुभावप्यत्र वितर्कशब्देनोक्तौ। तन्मात्रान्तःकरणलक्षणं सूक्ष्मं विषयमालम्ब्य तस्य देशकालधर्मावच्छेदेन यदा भावना प्रवर्तते तदा सविचारः। अस्मिन्नेवालम्बने देशकालधर्मावच्छेदं विना धर्मिमात्रावभासित्वेन यदा भावना प्रवर्तते तदा निर्विचारः। एतावुभावप्यत्र विचारशब्देनोक्तौ। तथाच भाष्यंवितर्कश्चित्तस्य स्थूल आलम्बने आभोगः सूक्ष्मे विचारः इति। इयं ग्राह्यसमापत्तिरिति व्यपदिश्यते। यदा रजस्तमोलेशानुविद्धमन्तःकरणसत्त्वं भाव्यते तदा गुणभावाच्चिच्छक्तेः सुखप्रकाशमयस्य सत्त्वस्य भाव्यमानस्योद्रेकात्सानन्दः समाधिर्भवति। अस्मिन्नेव समाधौ ये बद्धधृतयस्तत्त्वान्तरं प्रधानपुरुषरूपं न पश्यन्ति ते विगत देहाहंकारत्वाद्विदेहशब्देनोच्यन्ते। इयं ग्रहणसमापत्तिः। ततःपरं रजस्तमोलेशानभिभूतं शुद्धं सत्त्वमालम्बनीकृत्य या भावनप्रवर्तते तस्यां ग्राह्यस्य सत्त्वस्य न्यग्भावाच्चितिशक्तेरुद्रेकात्सत्तामात्रावशेषत्वेन समाधिः सास्मित इत्युच्यते। नचाहंकारास्मितयोरभेदः शङ्कनीयः। यतोयत्रान्तःकरणमहमित्युल्लेखेन विषयान्वेदयते सोऽहंकारः। यत्र त्वन्तर्मुखतया प्रतिलोम परिणामेन प्रकृतिलीने चेतसि सत्तामात्रमवभाति सास्मिता। अस्मिन्नेव समाधौ ये कृतपरितोषास्ते परं पुरुषमपश्यन्तश्चेतसः प्रकृतौ लीनत्वात्प्रकृतिलया इत्युच्यन्ते। सेयं ग्रहीतृसमापत्तिरस्मितामात्ररूपग्रहीतृनिष्ठत्वात्। येतु परं पुरुषं विविच्य भावनायां प्रवर्तन्ते तेषामपि केवलपुरुषविषया विवेकख्यातिर्गहीतृसमापत्तिरपि न सास्मितः समाधिर्विवेकेनास्मितायास्त्यागात्। तत्र ग्रहीतृभानपूर्वकमेव ग्रहणभानं तत्पूर्वकं च सूक्ष्मग्राह्यभानं तत्पूर्वकं च स्थूलग्राह्यभानमिति स्थूलविषयो द्विविधोऽपि वितर्कश्चतुष्टयानुगतः द्वितीयो वितर्कविकलस्त्रितयानुगतः तृतीयोऽवितर्कविचाराभ्यां विकलो विक्रीयानुगतः चतुर्थो वितर्क विचारानन्दैर्विकलोऽस्मितामात्र इति चतुरवस्थोऽयं संप्रज्ञात इति। एवं सवितर्कः सविचारः सानन्दः सास्मितश्च समाधिरन्तर्धानादिसिद्धिहेतुतया मुक्तिहेतुसमाधिविरोधित्वाद्धेय एव मुमुक्षुभिः। ग्रहीतृग्रहणयोरपि चित्तवृत्तिविषयतादशायां ग्राह्यकोटौ निक्षेपाद्धेयोपादेयविभागकथनाय ग्राह्यसमापत्तिरेव विवृता सूत्रकारेण। चतुर्विधा हि ग्राह्यसमापत्तिः स्थूलग्राह्यगोचरा द्विविधा सवितर्का निर्वितर्का च। सूक्ष्मग्राह्यगोचरापि द्विविधा सविचारा निर्विचारा च। तत्रशब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का शब्दार्थज्ञानविकल्पसंभिन्ना स्थूलार्थावभासरूपा सवितर्का समापत्तिः स्थूलगोचरा सविकल्पकवृत्तिरित्यर्थः।स्मृतिपरिशुद्धौ स्वस्वरूपशून्ये वार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का। तस्मिन्नेव स्थूल आलम्बने शब्दार्थस्मृतिप्रविलये प्रत्युदितस्पष्टग्राह्याकारप्रतिभासितया न्यग्भूतज्ञानांशत्वेन स्वरूपशून्यैव निर्वितर्का समापत्तिः। स्थूलगोचरा निर्विकल्पकवृत्तिरित्यर्थः।एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता। सूक्ष्मस्तन्मात्रादिर्विषयो यस्याः सा सूक्ष्मविषया समापत्तिर्द्विविधा सविचारा निर्विचारा च। सविकल्पकनिर्विकल्पकभेदेन। एतयैव सवितर्कया निर्वितर्कया च स्थूलविषयया समापत्त्या व्याख्याता। शब्दार्थज्ञानविकल्पसहितत्वेन देशकालधर्माद्यवच्छिन्नः सूक्ष्मोऽर्थः प्रतिभाति यस्यां सा सविचारा। शब्दार्थज्ञानविकल्परहितत्वेन देशकालधर्माद्यनवच्छिन्नत्वेन च धर्मिमात्रतया सूक्ष्मोऽर्थः प्रतिभाति यस्यां सा निर्विचारा। सविचारनिर्विचारयोः सूक्ष्मविषयत्वविशेषणात्सवितर्कनिर्वितर्कयोः स्थूलविषयत्वमर्थाद्व्याख्यातम्।सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम्। सविचाराया निर्विचारायाश्च समापत्तेर्यत्सूक्ष्मविषयत्वमुक्तं तदलिङ्गपर्यन्तं द्रष्टव्यम्। तेन सानन्दसास्मितयोर्ग्रहीतृग्रहणसमापत्त्योरपि ग्राह्मसमापत्तावेवान्तर्भाव इत्यर्थः। तथाहि पार्थिवस्याणोर्गन्धतन्मात्रं सूक्ष्मो विषयः आप्यस्यापि रसतन्मात्रं तैजसस्य रूपतन्मात्रं वायवीयस्य स्पर्शतन्मात्रं नभसः शब्दतन्मात्रं तेषामहंकारस्तस्य लिङ्गमात्रं महत्तत्त्वं तस्याप्यलिङ्गं प्रधानं सूक्ष्मो विषयः। सप्तानामपि प्रकृतीनां प्रधान एव सूक्ष्मताविश्रान्तेस्तत्पर्यन्तमेव सूक्ष्मविषयत्वमुक्तम्। यद्यपि प्रधानादपि पुरुषः सूक्ष्मोऽस्ति तथाप्यन्वयिकारणत्वाभावात्तस्य सर्वान्वयिकारणे प्रधान एव निरतिशयं सौक्ष्म्यं व्याख्यातम्। पुरुषस्तु निमित्तकारणं सदपि नान्वयिकारणत्वेन सूक्ष्मतामर्हति। अन्वयिकारणत्वाविवक्षायां तु पुरुषोऽपि सूक्ष्मो भवत्येवेति द्रष्टव्यम्।ता एव सबीजः समाधिः। ताश्चतस्त्रः समापत्तयो ग्राह्येण बीजेन सह वर्तन्त इति सबीजः समाधिर्वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात्संप्रज्ञात इति प्रागुक्तः। स्थूलेऽर्थे सवितर्को निर्वितर्कः। सूक्ष्मेऽर्थे सविचारो निर्विचार इति। तत्रान्तिमस्य फलमुच्यते।निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः स्थूलविषयत्वे तुल्येऽपि सवितर्कशब्दार्थज्ञानविकल्पसंकीर्णमपेक्ष्य तद्रहितस्य निर्विकल्परूपस्य निर्वितर्कस्य प्राधान्यम्। ततः सूक्ष्मविषयस्य सविकल्पकप्रतिभासरूपस्य सविचारस्य ततोऽपि सूक्ष्मविषयस्य निर्विकल्पकप्रतिभासरूपस्य निर्विचारस्य प्राधान्यम्। तत्र पूर्वेषां त्रयाणां निर्विचारार्थत्वान्निर्विचारफलेनैव फलवत्त्वं निर्विचारस्य तु प्रकृष्टाभ्यासबलाद्वैशारद्ये रजस्तमोऽनभिभूतसत्त्वोद्रेके सत्यध्यात्मप्रसादः। क्लेशवासनारहितस्य चित्तस्य भूतार्थविषयः क्रमाननुरोधी स्फुटः प्रज्ञालोकः प्रादुर्भवति। तथाच भाष्यम्प्रज्ञाप्रसादमारुह्य अशोच्यः शोचतो जनान्। भूमिष्ठानिव शैलस्थः सर्वान्प्राज्ञोऽनुपश्यति।। इति।ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा। तत्र तस्मिन्प्रज्ञाप्रसादे सति समाहितचित्तस्य योगिनो या प्रज्ञा जायते सा ऋतंभरा ऋंत सत्यमेव बिभर्ति न तत्र विपर्यासगन्धोऽप्यस्तीति यौगिक्येवेयं समाख्या। सा चोत्तमो योगः। तथाच भाष्यम्आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासरसेन च। त्रिधा प्रकल्पयन्प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम्।। इति। सातुश्रुतानु मानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् श्रुतमागमविज्ञानं तत्सामान्यविषयमेव। नहि विशेषेण सह कस्यचिच्छब्धस्य संगतिर्ग्रहीतुं शक्यते। तथानुमानं सामान्यविषयमेव। नहि विशेषेण सह कस्यचिद्व्याप्तिर्ग्रहीतुं शक्यते। तस्माच्छुतानुमानविषयो न विशेषः कश्चिदस्ति। नचास्य सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टस्य वस्तुनो लोकप्रत्यक्षेण ग्रहणमस्ति किंतु समाधिप्रज्ञानिर्ग्राह्य एव च सविशेषो भवति भूतसूक्ष्मगतो वा पुरुषगतो वा। तस्मान्निर्विचारवैशारद्यसमुद्भवायां श्रुतानुमानविलक्षणायां सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टसर्वविशेषविषयायामृतंभरायामेव प्रज्ञायां योगिना महान्प्रयत्न आस्थेय इत्यर्थः। ननु क्षिप्तमूढविक्षिप्ताख्यव्युत्थानसंस्काराणामेकाग्रतायामपि सवितर्कनिर्वितर्कसविचारजानां संस्काराणां सद्भावात्तैश्चाल्यमानस्य चित्तस्य कथं निर्विचारवैशारद्यपूर्वकाध्यात्मप्रसादलभ्या ऋतंभरा प्रज्ञा प्रतिष्ठिता स्यादत आह तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी। तया ऋतंभरया प्रज्ञया जनितो यः संस्कारः स तत्त्वविषयया प्रज्ञया जनितत्वेन बलवत्त्वादन्यान्व्युत्थानजान्समाधिजांश्च संस्कारानतत्त्वविषयप्रज्ञाजनितत्वेन दुर्बलान्प्रतिबध्नाति स्वकार्याक्षमान्करोति नाशयतीति वा। तेषां संस्काराणामभिभवात्तत्प्रभवाः प्रत्यया न भवन्ति। ततः समाधिरुपतिष्ठते। ततः समाधिजा प्रज्ञा। ततः प्रज्ञाकृताः संस्कारा इति नवोनवः संस्कारातिशयो वर्धते। ततश्च प्रज्ञा। ततश्च संस्कारा इति। ननुभवति व्युत्थानसंस्काराणामतत्त्वविषयप्रज्ञाजनितानां तत्त्वमात्रविषयसंप्रज्ञातसमाधिप्रज्ञाप्रभवैः संस्कारैः प्रतिबन्धस्तेषां तु संस्काराणां प्रतिबन्धकाभावदेकाग्रभूमावेव सबीजः समाधिः स्यान्न तु निर्बीजो निरोधभूमाविति तत्राह तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः तस्य संप्रज्ञातस्य समाधेरेकाग्रभूमिजन्यस्य अपिशब्दात्क्षिप्तमूढविक्षिप्तानामपि निरोधे योगिप्रयत्नविशेषेण विलये सति सर्वनिरोधात्समाधेः समाधिजस्य संस्कारस्यापि निरोधान्निर्बीजो निरालम्बनोऽसंप्रज्ञातसमाधिर्भवति. सच चोपायः प्राक्सूत्रितःविरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः इति। विरम्यतेऽनेनेति विरामो वितर्कविचारानन्दास्मितादिरूपचिन्तात्यागः। तस्य प्रत्ययः कारणम्। परं वैराग्यमिति यावत्। विरामश्चासौ प्रत्ययश्चित्तवृत्तिविशेष इति वा तस्याभ्यासः पौनःपुन्येन चेतसि निवेशनं तदेव पूर्वं कारणं यस्य स तथा संस्कारमात्रशेषः सर्वथा निर्वृत्तिकोऽन्यः पूर्वोक्तात्सबीजाद्विलक्षणो निर्बीजोऽसंप्रज्ञातसमाधिरित्यर्थः। संप्रज्ञातस्य हि समाधेर्द्वावुपायावुक्तावभ्यासो वैराग्यं च। तत्र सालम्बनत्वादभ्यासस्य न निरालम्बनसमाधिहेतुत्वं घटत इति निरालम्बनं परं वैराग्यमेव हेतुत्वेनोच्यते। अभ्यासस्तु संप्रज्ञातसमाधिद्वारा प्रणाड्योपयुज्यते। तदुक्तंत्रयमन्तरङगं पूर्वेभ्यः धारणाध्यानसमाधिरूपं साधनत्रयं यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहाररूपसाधनपञ्चकापेक्षया सबीजस्य समाधेरन्तरङ्गं साधनम्। साधनकोटौ च समाधिशब्देनाभ्यास एवोच्यते। मुख्यस्य समाधेः साध्यत्वात्।तदपि बहिरङ्गं निर्बीजस्य। अनिर्बीजस्य तु समाधेस्तदपि त्रयं बहिरङ्गं परंपरयोपकारि तस्य तु परं वैराग्यमेवान्तरङ्गमित्यर्थः। अयमपि द्विविधो भवप्रत्यय उपायप्रत्ययश्च।भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् विदेहानां सानन्दानां प्रकृतिलयानां च सास्मितानां देवानां प्राग्व्याख्यातानां जन्मविशेषादोषधिविशेषान्मन्त्रविशेषात्तपोविशेषाद्वा यः समाधिः स भवप्रत्ययः। भवः संसार आत्मनात्मविवेकाभावरूपः प्रत्ययः कारणं यस्य स तथा। जन्ममात्रहेतुको वा पक्षिणामाकाशगमनवत् पुनः संसारहेतुत्वान्मुमुक्षुभिर्हेय इत्यर्थः।श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् जन्मौषधिमन्त्रतपःसिद्धव्यतिरिक्तानामात्मानात्मविवेकदर्शिनां तु यः समाधिः स श्रद्धादिपूर्वकः। श्रद्धादयः पूर्वे उपाया यस्य स तथा। उपायप्रत्यय इत्यर्थः। तेषु श्रद्धा योगविषये चेतसः प्रसादः। सा हि जननीव योगिनं पाति। ततः श्रद्दधानस्य विवेकार्थिनो वीर्यमुत्साह उपजायते। समुपजातवीर्यस्य पाश्चात्त्यासु भूमिषु स्मृतिरुत्पद्यते तत्स्मरणाच्च चित्तमनाकुलं सत्समाधीयते। समाधिरत्रैकाग्रता। समाहितचित्तस्य प्रज्ञा भाव्यगोचरा विवेकेन जायते। तदभ्यासात्पराच्च वैराग्याद्भवत्यसंप्रज्ञातः समाधिर्मुमुक्षूणामित्यर्थः।प्रतिक्षणपरिणामिनो हि भावा ऋते चितिशक्तेः इति न्यायेन तस्यामपि सर्ववृत्तिनिरोधावस्थायां चित्तपरिणामप्रवाहस्तज्जन्यसंस्कारप्रवाहश्च भवत्येवेत्यभिप्रेत्य संस्कारशेष इत्युक्तम्। तस्य च संस्कारस्य प्रयोजनमुक्तम्ततः प्रशान्तवाहिता संस्कारात् इति। प्रशान्तवाहिता नामावृत्तिकस्य चित्तस्य निरिन्धनाग्निवत्प्रतिलोमपरिणामेनोपशमः। यथा समिदाज्याद्याहुतिप्रक्षेपे वह्निरुत्तरोत्तरवृद्ध्या प्रज्वलति समिदादिक्षये तु प्रथमक्षणे किंचिच्छाम्यति उत्तरोत्तरक्षणेषु त्वधिकमधिकं शाम्यतीति क्रमेण शान्तिर्वर्धते तथा निरुद्धचित्तस्योत्तरोत्तराधिकः प्रशमः प्रवहति। तत्र पूर्वप्रशमजनितः संस्कार एवोत्तरोत्तरप्रशमस्य कारणम्। यदा च निरिन्धनाग्निवच्चित्तं क्रमेणोपशाम्यद्व्युत्थानसमाधिनिरोधसंस्कारैः सह स्वस्यां प्रकृतौ लीयते तदा समाधिपरिपाकप्रभवेन वेदान्तवाक्यजेन सम्यग्दर्शनेनाविद्यायां निवृत्तायां तद्धेतुकदृग्दृश्यसंयोगाभावाद्वृत्तौ पञ्चविधायामपि निवृत्तायां स्वरूपप्रतिष्ठः पुरुषः शुद्धः केवलो मुक्त इत्युच्यते। तदुक्तंतदा द्रष्टुः स्वरूपेणावस्थानम् इति। तदा सर्ववृत्तिनिरोधे। वृत्तिदशायां तु नित्यापरिणामिचैतन्यरूपत्वेन तस्य सर्वदा शुद्धत्वेऽप्यनादिना दृश्यसंयोगेनाविद्यकेनान्तःकरणतादात्म्याध्यासादन्तःकरणवृत्तिसारूप्यं प्राप्नुवन्नभोक्तापि भोक्तेव दुःखानां भवति। तदुक्तंवृत्तिसारूप्यमितरत्र। इतरत्र वृत्तिप्रादुर्भावे। एतदेव विवृतंद्रष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थम् चित्तमेव द्रष्टृदृश्योपरक्तं विषयिविषयनिर्भासं चेतनाचेतनस्वरूपापन्नं विषयात्मकमप्यविषयात्मकमिवाचेतनमपि चेतनमिव स्फटिकमणिकल्पं सर्वार्थमित्युच्यते। तदनेन चित्तसारूप्येण भ्रान्ताः केचित्तदेव चेतनमित्याहुः तदसंख्येयवासनाभिश्चित्तमपि परार्थं संहत्यकारित्वात्। यस्य भोगापवर्गार्थं तत्स एव परश्चेतनोऽसंहतः पुरुषो नतु घटादिवत्संहत्यकारि चित्तं चेतनमित्यर्थः। एवंचविशेषदर्शिन आत्मभावभावनानिवृत्तिः। एवं योऽन्तःकरणपुरुषयोर्विशेषदर्शी तस्य यान्तःकरणे प्रागविवेकवशादात्मभावनासीत्सा निवर्तते। भेददर्शने सत्यभेदभ्रमानुपपत्तेः। सत्त्वपुरुषयोर्विशेषदर्शनं च भगवदर्पितनिष्कामकर्मसाध्यम्। तल्लिङंग च योगभाष्ये दर्शितम् यथा प्रावृषि तृणाङ्कुरस्योद्भेदेन तद्बीजसत्तानुमीयते तथा मोक्षमार्गश्रवणेन सिद्धान्तरुचिवशाद्यस्य लोमहर्षाश्रुपातौ दृश्येते तत्राप्यस्ति विशेषदर्शनबीजमपवर्गभागीयं कर्माभिनिर्वर्तितमित्यनुमीयते। यस्य तु तादृशं कर्मबीजं नास्ति तस्य मोक्षमार्गश्रवणे पूर्वपक्षयुक्तिषु रुचिर्भवत्यरुचिश्च सिद्धान्तयुक्तिषु। तस्य कोऽहमासं कथमहमासमित्यादिरात्मभावभावना स्वाभाविकी प्रवर्तते। सा तु विशेषदर्शिनो निवर्तत इति। एंव सति किं स्यादिति तदाह तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्। निम्नं जलप्रवहणयोग्यो नीचदेशः। प्राग्भारस्तदयोग्य उच्चप्रदेशः। चित्तं च सर्वदा प्रवर्तमानवृत्तिप्रवाहेण प्रवहज्जलतुल्यं तत्प्रागात्मानात्मविवेकरूपविमार्गवाहिविषयभोगपर्यन्तमस्यासीत्। अधुना त्वात्मानात्मविवेकमार्गवाहिकैवल्यपर्यन्तं संपद्यत इति। अस्मिंश्च विवेकवाहिनि चित्ते येऽन्तरायास्ते सहेतुका निवर्तनीया इत्याह सूत्राभ्याम्तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्तराणि संस्कारेभ्यःहानमेषां क्लेशवदुक्तम्। तस्मिन्विवेकवाहिनि चित्ते छिद्रेष्वन्तरालेषु प्रत्ययान्तराणि व्युत्थानरूपाण्यहंममेत्येवंरूपाणि व्युत्थानानुभवजेभ्यः संस्कारेभ्यः क्षीयमाणेभ्योऽपि प्रादुर्भवन्ति। एषां च संस्काराणां क्लेशानामिव हानमुक्तं यथा क्लेशा अविद्यादयो ज्ञानाग्निना दग्धबीजभावा न पुनश्चित्तभूमौ प्ररोहं प्राप्नुवन्ति तथा ज्ञानाग्निना दग्धबीजभावाः संस्काराः प्रत्ययान्तराणि न प्ररोढुमर्हन्ति। ज्ञानाग्निसंस्कारास्तु यावच्चित्तमनुशेरत इति। एवंच प्रत्ययान्तरानुदयेन विवेकवाहिनि चित्ते स्थिरीभूते सतिप्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः प्रसंख्यानं सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिः शुद्धात्मज्ञानमिति यावत्। तत्र बुद्धेः सात्त्विके परिणामे कृतसंयमस्य सर्वेषां गुणपरिणामानां स्वामिवदाक्रमणं सर्वाधिष्ठातृत्वम् तेषामेव च शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मित्वेन स्थितानां यथावद्विवेकज्ञानं सर्वज्ञातृत्वं च विशोका नाम सिद्धिः फलं तद्वैराग्याच्च कैवल्यमुक्तंसत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं चतद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् इति सूत्राभ्याम्। तदेतदुच्यते तस्मिन्प्रसंख्याने सत्यप्यकुसीदस्य फलमलिप्सोः प्रत्ययान्तराणामनुदये सर्वप्रकारैर्विवेकख्यातेः परिपोषाद्धर्ममेघः समाधिर्भवति।इज्याचारदमाहिंसादानस्वाध्यायकर्मणाम्। अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम्।। इति स्मृतेः धर्मं प्रत्यग्ब्रह्मैक्यसाक्षात्कारं मेहति सिंचतीति धर्ममेघः तत्त्वसाक्षात्कारहेतुरित्यर्थः।ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः। ततो धर्ममेघात्समाधेर्धर्माद्वा क्लेशानां पञ्चविधानामविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशानां कर्मणां च रक्तकृष्णशुक्लभेदेन त्रिविधानामविद्यामूलानामविद्याक्षये बीजक्षयादात्यन्तिकी निवृत्तिः कैवल्यं भवति। कारणनिवृत्त्या कार्यनिवृत्तेरात्यन्तिक्या उचितत्वादित्यर्थः। एवं स्थितेयुञ्जन्नेवं सदात्मानम् इत्यनेन संप्रज्ञातः समाधिरेकाग्रभूमावुक्तः। नियतमानसः इत्यनेन तत्फलभूतोऽसंप्रज्ञातसमाधिर्निरोधभूमावुक्तः। शान्तिमिति निरोधसमाधिजसंस्कारफलभूता प्रशान्तवाहिता। निर्वाणपरमामिति धर्ममेघस्य समाधेस्तत्त्वज्ञानद्वारा कैवल्यहेतुत्वम्। मत्संस्थामित्यनेनौपनिषदभिमतं कैवल्यं दर्शितम्। यस्मादेवं महाफलो योगस्तस्मात्तं महता प्रयत्नेन संपादयेदित्यभिप्रायः।
।।6.15।।योगाभ्यासफलमाह युञ्जन्नेवमिति। एवमुक्तप्रकारेण सदात्मानं मनो युञ्जन्समाहितं कुर्वन्नियतं निरुद्धं मानसं चित्तं यस्य सः। शान्तिं संसारोपरतिं प्राप्नोति। कथंभूताम्। निर्वाणं परमं प्राप्यं यस्यां तां मत्संस्थां मद्रूपेणावस्थितिम्।
।।6.15।।जीवात्मयोगप्रकरणेमच्चित्तो मत्परः 6।14 इति परमात्मचिन्तनं किमर्थं विधीयते इत्यत्रोच्यते युञ्जन्नेवम् इति। एवमित्यनुवादेमच्चित्तः मत्परः इत्युक्तमच्छब्दाभिप्रेतं परत्वादिकं विवृण्वन्नाह एवं मयीति।परस्मिन् ब्रह्मणीत्यनेन सर्वकारणत्वेन सर्वात्मत्वादिकं विवक्षितम्। तथात्वेऽपि समस्तवैलक्षण्येन तद्गतदोषासंस्पर्शो देवताविशेषनिष्कर्षश्चपुरुषोत्तमशब्दाभिप्रेतः। उक्ताकारविशिष्टत्वाच्च मनसः शुभाश्रयत्वम्। एतेन शुभाश्रयप्रकरणान्तरोक्तदिव्यमङ्गलविग्रहविशिष्टत्वमप्यभिप्रेतम्। तत्रात्मशब्दः प्रकृतानुवादपरतया मनोविषयः।युञ्जन् इत्यस्य प्रयोजनं नियतमानसत्वम् तच्च निश्चलमानसत्वम्। तदुत्पत्तौ हेतोरवान्तरव्यापारोऽयमित्यभिप्रायेणाह मत्स्पर्शेति।मत्संस्थाम् इत्यादिपरमप्रयोजनम्।निर्वाणपरमाम् इत्यत्र निर्वाणं परमं यस्या इति समासे विशेषणव्यत्यासास्वारस्यम्। निर्वाणहेतुशान्तेश्चनियतमानसः इत्यनेन सिद्धत्वात् पुनरुक्तिश्च स्यात् परमशब्दश्चास्वरसः अतो निर्वाणस्य परमामिति समासः परमशब्दश्च परमावस्थाविषय इत्यभिप्रायेणाह निर्वाणकाष्ठेति। परमात्मनि संस्थिता च शान्तिरशनायादिषडूर्भिराहित्यरूपा। यद्वामयि संस्थितां शान्तिमित्येतदेवशुभाश्रये स्थितिम् इत्यन्तेन विवृतण्।
।।6.15।।एवं योगाभ्यासकर्तुः फलमाह युञ्जन्निति। एवं सदा निरन्तरं नियतमानसः दास्यैकपरचित्तः आत्मानं युञ्जन्नपि युक्तं कुर्वन् योगी मयि योगवान् निर्वाणपरमां मोक्षाधिकां मत्संस्थां मत्स्वरूपरसात्मिकां शान्तिं वियोगक्लेशादिरहितभावमधिगच्छति प्राप्नोति।
।।6.15।।अस्याः फलमाह युञ्जन्निति। एवमनेन प्रकारेण सदा निरन्तरं दीर्घकालं च आत्मानं मनो युञ्जन्समादधानो योगी नियतं ख्यातिफलादपि निगृहीतं मानसं येन स नियतमानसः शान्तिं परमवैराग्यबलात्ख्यातिमपि निरुध्य निर्विकल्पं पदं निर्वाणं मोक्षस्तदेव परमा निष्ठा यस्याः शान्तेस्तां मत्संस्थां मय्येव संस्था एकीभावेनावस्थानं समाप्तिर्वा यस्यास्तामधिगच्छति प्राप्नोति। ख्यातिफलं च सूत्रकृता दर्शितंप्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः इतितत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् इतिसत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रात्सर्वज्ञातृत्वं सर्वभावाधिष्ठातृत्वं च इति सूत्रत्रयेण। प्रसंख्याने ध्याने। अकुसीदस्य वणिज इव फलानिच्छोः सर्वथा विवेकख्यातिरेव भवति तस्याश्च फलं धर्ममेघः समाधिः स च प्रागेव व्याख्यातः। तत् वैराग्यं परं परसंज्ञं पुरुषख्यातेः फलं। तस्य लक्षणं गुणेषु दिव्यादिव्यविषयेषु वैतृष्ण्यम्। एतस्यैव हि नान्तरीयकं फलं कैवल्यमिति योगा वदन्ति। तृतीयसूत्रोक्तं फलं सार्वज्ञ्यादिकं तु अभिप्रेत्य श्रूयतेकस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति सर्वस्य वशी सर्वस्येशानः सर्वस्याधिपतिः इत्यादिकम्।
।।6.15।।अथेदानीं योगफलमाह युञ्जन्निति। एवं यथोक्तेन विधानेन योगी आत्मानं मनः सदा सर्वदा युञ्जन्समाधनं कुर्वन् नियतं संयतं मानसं मनो यस्य स योगान्नियतमानसो भूत्वा शान्तिमुपरतिं अविद्यानिवृत्तिलक्षणां ब्रह्मविद्याम्। कीदृशीम्। निर्वाणं मुक्तिः सैव परमा निष्ठा यस्यास्तां मोक्षस्यानन्यसाधनभूताम्।तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति। नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इति श्रुतेः। तर्हि मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर इति किमर्थमुक्तमित्याशङ्क्याह मत्संस्थां मदधीनां योगेनाराधितान्मत्तः सा लभ्यत इत्यर्थः। तथाच वक्ष्यतितेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।। इति। अधिगच्छति प्राप्नोति।
6.15 युञ्जन् balancing? एवम् thus? सदा always? आत्मानम् the self? योगी Yogi? नियतमानसः one with the controlled mind? शान्तिम् to peace? निर्वाणपरमाम् that which culminates in Nirvana (Moksha)? मत्संस्थाम् abiding in Me? अधिगच्छति attains.Commentary Thus in the manner prescribed in the previous verse.The Supreme Self is an embodiment of peace. It is an ocean of peace. When one attains to the supreme peace of the Eternal? by controlling the modifications of the mind and keeping it always balanced? he attains to liberation or perfection.
6.15 Thus always keeping the mind balanced, the Yogi, with the mind controlled, attains to the peace abiding in Me, which culminates in liberation.
6.15 Thus keeping his mind always in communion with Me, and with his thoughts subdued, he shall attain that Peace which is mine and which will lead him to liberation at last.
6.15 Concentrating the mind thus for ever, the yogi of controlled mind achieves the Peace which culminates in Liberation and which abides in Me.
6.15 Yunjan, concentrating; atmanam, the mind; evam, thus, according to the methods shown above; sada, for ever; the yogi, niyata-manasah, of controlled mind; adhi-gacchati, achieves; santim, the Peace, the indifference to worldly attachments and possessions; nirvana-paramam, which culminates in Liberation; and mat-samstham, which abides in Me. Now are bieng mentioned the rules about the yogi's food etc.:
6.15. Yoking his self (mind) incessantly in this manner, My devotee, with mind not attached to anything else, realises peace which culminates in the nirvana and is in the form of ending in Me.
6.10-15 Yogi etc. upto adhigacchati. Self : the mind. Let him yoke it : let him make it single-pointed. Always : not for a limited period of time. If the conditions like remaining alone etc., are fulfilled, this [controlling of mind] is possible and not otherwise. On account of the firmness of seat, the time-nerve (or the body ?) remains firm and due to this, mind remains firm. He, by whom the mental activities i.e., those that are in the form of intention, and other activities of the sense-organs are subdued i.e., are brought under full control; [he is the person of the subdued mental and sensual activities]. Holding : i.e., with effort. If the nose-tip is looked at, [it is possible] not to look at [different] directions. Let him remain endowed with the state of having Me alone as supreme goal. This is the meaning [here]. He who yokes i.e., concentrates his self (mind) in this manner, there arises for him Peace in which the culmination - as far as the end-is the same as attaining Me.
6.15 'Ever applying his mind on Me,' i.e., the Supreme Brahman, the Supreme Person and the holy and auspicious object of meditation, 'the Yogin of controlled mind,' i.e., one having his mind steady because of his being purified in mind through contact with Me, comes to the peace which abides in Me, which is of the highest degree of beatitude. That means he comes to the peace which is the supreme end of beatitude which abides in Me. For the person who commences Yoga of the self, Sri Krsna, after thus teaching how the mind should be fixed on the Lord, who is the holy and auspicious object of meditation, proceeds in order to effect the purification of the mind, to speak of the other side of Yoga:
6.15 Ever applying his mind in this way, the Yogin of controlled mind, attains the peace which is the summit of beatitude and which abides in Me.
।।6.15।।अब योगका फल कहा जाता है नियत मनवाला योगी अर्थात् जिसका मन जीता हुआ है ऐसा योगी उपर्युक्त प्रकारसे सदा आत्माका समाधान करता हुआ अर्थात् मनको परमात्मामें स्थिर करताकरता मुझमें स्थित निर्वाणदायिनी शान्तिको उपरतिको पाता है अर्थात् जिस शान्तिकी परमनिष्ठा अन्तिम स्थिति मोक्ष है एवं जो मुझमें स्थित है मेरे अधीन है ऐसी शान्तिको प्राप्त होता है।
।।6.15।। युञ्जन् समाधानं कुर्वन् एवं यथोक्तेन विधानेन सदा आत्मानं सर्वदा योगी नियतमानसः नियतं संयतं मानसं मनो यस्य सोऽयं नियतमानसः शान्तिम् उपरतिं निर्वाणपरमां निर्वाणं मोक्षः तत् परमा निष्ठा यस्याः शान्तेः सा निर्वाणपरमा तां निर्वाणपरमाम्. मत्संस्थां मदधीनाम् अधिगच्छति प्राप्नोति।।इदानीं योगिनः आहारादिनियम उच्यते
।।6.15।।ननु शान्तिर्निर्वाणमिति मोक्षपर्यायौ तत्कथं शान्तेर्निर्वाणपरमत्वं इत्यत आह निर्वाणेति। न जीवन्मुक्तिमात्रमित्यर्थः। उपशान्तेर्योगकारणत्वात् योगफलत्वमनुपपन्नम्।
।।6.15।।निर्वाणपरमां शरीरत्यागोत्तरकालीनाम्।
युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः। शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।।6.15।।
যুঞ্জন্নেবং সদাত্মানং যোগী নিযতমানসঃ৷ শান্তিং নির্বাণপরমাং মত্সংস্থামধিগচ্ছতি৷৷6.15৷৷
যুঞ্জন্নেবং সদাত্মানং যোগী নিযতমানসঃ৷ শান্তিং নির্বাণপরমাং মত্সংস্থামধিগচ্ছতি৷৷6.15৷৷
યુઞ્જન્નેવં સદાત્માનં યોગી નિયતમાનસઃ। શાન્તિં નિર્વાણપરમાં મત્સંસ્થામધિગચ્છતિ।।6.15।।
ਯੁਞ੍ਜਨ੍ਨੇਵਂ ਸਦਾਤ੍ਮਾਨਂ ਯੋਗੀ ਨਿਯਤਮਾਨਸ। ਸ਼ਾਨ੍ਤਿਂ ਨਿਰ੍ਵਾਣਪਰਮਾਂ ਮਤ੍ਸਂਸ੍ਥਾਮਧਿਗਚ੍ਛਤਿ।।6.15।।
ಯುಞ್ಜನ್ನೇವಂ ಸದಾತ್ಮಾನಂ ಯೋಗೀ ನಿಯತಮಾನಸಃ. ಶಾನ್ತಿಂ ನಿರ್ವಾಣಪರಮಾಂ ಮತ್ಸಂಸ್ಥಾಮಧಿಗಚ್ಛತಿ৷৷6.15৷৷
യുഞ്ജന്നേവം സദാത്മാനം യോഗീ നിയതമാനസഃ. ശാന്തിം നിര്വാണപരമാം മത്സംസ്ഥാമധിഗച്ഛതി৷৷6.15৷৷
ଯୁଞ୍ଜନ୍ନେବଂ ସଦାତ୍ମାନଂ ଯୋଗୀ ନିଯତମାନସଃ| ଶାନ୍ତିଂ ନିର୍ବାଣପରମାଂ ମତ୍ସଂସ୍ଥାମଧିଗଚ୍ଛତି||6.15||
yuñjannēvaṅ sadā৷৷tmānaṅ yōgī niyatamānasaḥ. śāntiṅ nirvāṇaparamāṅ matsaṅsthāmadhigacchati৷৷6.15৷৷
யுஞ்ஜந்நேவஂ ஸதாத்மாநஂ யோகீ நியதமாநஸஃ. ஷாந்திஂ நிர்வாணபரமாஂ மத்ஸஂஸ்தாமதிகச்சதி৷৷6.15৷৷
యుఞ్జన్నేవం సదాత్మానం యోగీ నియతమానసః. శాన్తిం నిర్వాణపరమాం మత్సంస్థామధిగచ్ఛతి৷৷6.15৷৷
6.16
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।।6.16।। हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवालेका और न बिलकुल न खानेवालेका तथा न अधिक सोनेवालेका और न बिलकुल न सोनेवालेका ही सिद्ध होता है।
।।6.16।। परन्तु, हे अर्जुन ! यह योग उस पुरुष के लिए सम्भव नहीं होता, जो अधिक खाने वाला है या बिल्कुल न खाने वाला है तथा जो अधिक सोने वाला है या सदा जागने वाला है।।
।।6.16।। उपर्युक्त साधन और साध्य का विस्तृत विवरण जानकर यदि कोई व्यक्ति निर्दिष्ट साध्य की प्राप्ति में स्वयं को असमर्थ पाये तो कोई आश्चर्य नहीं । ऐसा भी नहीं कि साधक में इच्छा या प्रयत्न का अभाव हो फिर भी लक्ष्य प्राप्त करना उसे कठिन ही प्रतीत होता है। वह क्या कारण है जो अनजाने ही साधक को अपने साध्य से दूर ले जाता है कोई भी वैज्ञानिक सिद्धांत प्रयोग में सफलता के लिए सावधानियों को बताये बिना पूर्ण नहीं होता। अगले कुछ श्लोकों में ध्यानयोग के मार्ग में आने वाले सम्भावित गर्तों का संकेत किया गया है जिनसे साधक को बचने का प्रयत्न करना चाहिए।ध्यान की सफलता के लिए महत्त्व का नियम यह है कि अति सर्वत्र वर्जयेत् अर्थात् जीवन के कार्यों और उपभोगो में अतिरेक का त्याग करना चाहिए। परिमितता या संयम सफलता की कुन्जी है। असंयम से विक्षेप उत्पन्न होते हैं और संगठित व्यक्तित्व का सांमजस्य भंग हो जाता है। इसलिए आहार विहार और निद्रा में परिमितता का होना आवश्यक है।भगवान् कहते हैं कि अत्याधिक मात्रा में भोजन करने वाले या अति उपवास करने वाले व्यक्ति के लिए योग असाध्य है। यहाँ खाने का अर्थ केवल मुख के द्वारा अन्न भक्षण ही नहीं वरन् सभी इन्द्रियों के द्वारा किये जाने वाले विषय ग्रहण है। इस शब्द में समाविष्ट हैं विषय ग्रहण मन की भावनाएँ और बुद्धि के विचार।संक्षेप में योगाभ्यासी पुरुष के लिए नियम यह होना चाहिए कि केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए प्राणी जगत् का संहार किये बिना समयसमय पर जो कुछ प्राप्त होता है उसका ग्रहण या भक्षण केवल इतना ही करे कि पेट को भार न हो।यहाँ ठीक ही कहा गया है कि अत्याधिक निद्रा अथवा जागरण योग के अनुकूल नहीं है। यहाँ भी विवेकपूर्ण परिमितता ही नियम होना चाहिए। संभव है कि मन्दबुद्धि पुरुष इस श्लोक के तात्पर्य को न समझकर प्रश्न पूछे कि किस पुरुष के लिए योग सहज साध्य होता है इसके उत्तर में कहते हैं।
।।6.16।। व्याख्या--'नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति'--अधिक खानेवालेका योग सिद्ध नहीं होता (टिप्पणी प0 347)। कारण कि अन्न अधिक खानेसे अर्थात् भूखके बिना खानेसे अथवा भूखसे अधिक खानेसे प्यास ज्यादा लगती है, जिससे पानी ज्यादा पीना पड़ता है। ज्यादा अन्न खाने और पानी पीनेसे पेट भारी हो जाता है। पेट भारी होनेसे शरीर भी बोझिल मालूम देता है। शरीरमें आलस्य छा जाता है। बार-बार पेट याद आताहै। कुछ भी काम करनेका अथवा साधन, भजन, जप, ध्यान आदि करनेका मन नहीं करता। न तो सुखपूर्वक बैठा जाता है और न सुखपूर्वक लेटा ही जाता है तथा न चलने-फिरनेका ही मन करता है। अजीर्ण आदि होनेसे शरीरमें रोग पैदा हो जाते हैं। इसलिये अधिक खानेवाले पुरुषका योग कैसे सिद्ध हो सकता है? नहीं हो सकता।
।।6.16 6.17।।योगोऽस्तीति। युक्ताहारेति। आहारेषु (N योऽपि आहारेषु) आह्रियमाणेषु विषयेषु ( omits विषयेषु)। विहारः उपभोगाय प्रवृत्तिः (SK (n) उपयोगाय प्रवृत्तिः)। तस्याश्च युक्तत्वं नात्यन्तासक्तिर्नात्यन्तपरिवर्जनम्। एवं सर्वत्र। शिष्टं स्पष्टम्। जागरत इत्यादि मुनेः प्रमाणत्वात्(N जाग्रत इति मनःप्रमाणत्वात्) वेदवत्। एवमन्यत्रापि।
।।6.16।।अत्यशनानशने योगविरोधिनी अतिविहारविहारौ च तथातिमात्रस्वप्नजागर्ये तथा च अत्यायासानायासौ।
।।6.16।।आहारादीत्यादिशब्देन विहारजागरितादि चोच्यते आत्मसंमितमन्नपरिमाणमष्टग्रासादि। आहारनियमे शतपथश्रुतिं प्रमाणयति यदु ह वा इति। तदन्नं भुज्यमानं यदु ह वा इति प्रसिद्ध्यानूदितमवति अनुष्ठानयोग्यतामापाद्यानुष्ठानद्वारेण भोक्तारं रक्षति न पुनस्तदन्नमस्यानर्थाय भवतीत्यर्थः। यत्पुनरात्मसंमिताद्भूयोऽधिकतरं शास्त्रमतिक्रम्य भुज्यते तदात्मानं हिनस्ति भोक्तुरनर्थाय भवति। यच्चान्नं कनीयोऽल्पतरं शास्त्रनिश्चयाभावादद्यते तदन्नमनुष्ठानयोग्यतादिद्वारा न रक्षितुं क्षमते। तस्मादत्यधिकमत्यल्पं चान्नं योगमारुरुक्षता त्याज्यमित्यर्थः। श्रुतिसिद्धमर्थं निगमयति तस्मादिति। नेत्यादेर्व्याख्यानान्तरमाह अथवेति। किं तदन्नपरिमाणं योगशास्त्रोक्तं यदधिकं न्यूनं वाभ्यवहरतो योगानुपपत्तिरित्याशङ्क्याह उक्तं हीति।पूरयेदशनेनार्धं तृतीयमुदकेन तु। वायोः संचरणार्थं तु चतुर्थमवशेषयेत्।। इति वाक्यमादिशब्दार्थः। यथा अत्यन्तमश्नतोऽनश्नतश्च योगो न संभवति तथात्यन्तं स्वपतो जाग्रतश्च न योगः संभवतीत्याह तथेति।
।।6.16 6.17।।तमेव परावृत्त्या द्रढयति नात्यश्नत इति स्पष्टम्। किन्तु युक्ताहारविहारस्य योगो दुःखहा भवति।
।।6.16।।एवं योगाभ्यासनिष्ठस्याहारादिनियममाह द्वाभ्याम् यद्भुक्तं सज्जीर्यति शरीरस्य च कार्यक्षमतां संपादयति तदात्मसंमितमन्नं तदतिक्रम्य लोभेनाधिकमश्नतो न योगोऽस्ति। अजीर्णदोषेण व्याधिपीडितत्वात्। नचैकान्तमनश्नतो योगोऽस्ति अनाहारादत्यल्पाहाराद्वा रसपोषणाभावेन शरीरस्य कार्याक्षमत्वात्।यदु ह वा आत्मसंमितमन्नं तदवति तन्न हिनस्ति यद्भूयो हिनस्ति तद्यत्कनीयो न तदवति इति शतपथश्रुतेः। तस्माद्योगी नात्मसंमितादन्नादधिकं न्यूनं वाश्नीयादित्यर्थः। अथवापूरयेदशनेनार्धं तृतीयमुदकेन तु। वायोः संचारणार्थं तु चतुर्थमवशेषयेत्।। इत्यादियोगशास्त्रोक्तपरिमाणादधिकं न्यूनं वाश्नतो योगो न संपद्यत इत्यर्थः। तथातिनिद्राशीलस्यातिजाग्रतश्च योगो नैवास्ति। हे अर्जुन सावधानो भवेत्यभिप्रायः। एकश्चकार उक्ताहारातिक्रमसमुच्चयार्थः। अपरोऽत्रानुक्तदोषसमुच्चयार्थः। यथा मार्कण्डेयपुराणेनाध्मातः क्षुधितः श्रान्तो न च व्याकुलचेतनः। युञ्जीत योगं राजेन्द्र योगी सिद्ध्यर्थमात्मनः।।नातिशीते न चैवोष्णे न द्वन्द्वे नानिलान्विते। कालेष्वेतेषु युञ्जीत न योगं ध्यानतत्परः।। इत्यादि।
।।6.16।।योगाभ्यासनिष्ठस्याहारादिनियममाह नेति द्वाभ्याम्। अत्यन्तमधिकं भुञ्जानस्य। एकान्तमत्यन्तमभुञ्जानस्यापि योगः समाधिर्न भवति। तथातिनिद्राशीलस्यातिजाग्रतश्च योगो नैवास्ति।
।।6.16।।उचितदेशप्रभृति परमात्मचिन्तनपर्यन्तं ह्यत्र योगोपकरणमेव अतःअन्यदपीत्युक्तम्। योगोपकरणं योगोपकारकम्। अत्यशनादेर्योगविरोधित्वंनात्यश्नतः इति श्लोकस्यार्थः। मिताहारादेस्तु योगोपयुक्तत्वंयुक्ताहार इति श्लोकेनोच्यत इति व्यतिरेकतोऽन्वयतश्च एक एवार्थः स्थिरीक्रियत इति विभागमभिप्रेत्याह अत्यशनेति।युक्ताहार इति श्लोके विहारायासयोरपि उक्तत्वात् पूर्वत्रापि हि तावभिप्रेताविति दर्शयितुंअतिविहाराविहारावत्यायासानायासावित्युक्तम्।जाग्रतः इत्यत्राप्यतिरनुषञ्जनीयः। पूर्वश्लोकोक्तातिशब्दप्रतियोगिकत्वाद्युक्तशब्दो मितपर इत्यभिप्रायेणमिताहारेत्यादिकमुक्तम्। श्रूयते हि यद्ध्यात्मसम्मितमन्नं तदवति तन्न हिनस्ति तद्यत्कनीयो न तदवति इति। स्मरन्ति चउदरस्यार्धमन्नस्य तृतीयमुदकस्य तु। वायोः सच्चरणार्थं तु चतुर्थमवशेषयेत् इति। अतो न्यूनाधिकादिसमस्तदोषराहित्यं युक्तशब्देनाभिप्रेतम्। द्वन्द्वात्पूर्वमपि परमिव प्रत्येकमन्वेतव्यम्। विहारशब्दः सञ्चारपरः तन्द्रीपरिहारार्थविनोदपरो वा। पारिशेष्यादौचित्याच्च चेष्टाशब्दार्थोऽत्र श्रमहेतुरायासः। दुःखशब्दासङ्कोचाद्योगसामर्थ्याच्चसकलेति विशेषितम्। तत्फलितमाह बन्धनाशन इति। एवंविधस्य योगो दुःखहा भवतीत्यन्वये योगस्य पूर्वसिद्धताभ्रमः स्यात् तद्वयदासायसम्पन्नो भवतीत्युक्तम्।
।।6.16।।एवं योगफलमुक्त्वा तस्य स्थित्यर्थमाहारादिकमाह नात्यश्नतस्त्विति। अति अश्नतः अधिकभोक्तुर्देहपुष्ट्यर्थं भुञ्जानस्य न च। एकान्तं सर्वथा अभुञ्जानस्य भगवत्स्वरूपमज्ञात्वा उपवासं कुर्वतः अतिस्वप्नशीलस्य निद्राशीलस्य सर्वविस्मरणैकस्वभावस्य जाग्रतश्च न चैव योगो मत्संयोगोऽस्ति।
।।6.16।।एवं योगाभ्यासनिष्ठस्याहारादिनियममाह द्वाभ्याम् नात्यश्नत इति। एकान्तमतिशयेन। अतिजाग्रत इत्यत्राप्यतिशब्दो योज्यः।
।।6.16।।योगिन आहारादिनियमं वक्तुं प्रथमं व्यतिरेकमाह नेति। अत्यश्रतः आत्मसंमितादन्नादधिकमश्रतः योगो नास्ति। नचैकान्तमात्मसंमितमप्यनश्रतो योगोऽस्ति। उभयथापि व्याध्यादिना नाशप्रसङ्गात्। तथाच शतपथश्रुतिःयदु ह वा आत्मसंमितमन्नं तदवति तन्न हिनस्ति यद्भूयो हिनस्ति तद्यत्कनीयो न तदवति इति तस्माद्योगी नात्मसंमितादन्नादधिकं न्यूनं वाश्रीयात्। योगशास्त्रे परिपठितादन्नपरिणादतिमात्रं न्यूनं वाश्रतो योगिनो योगो नास्तीति वा व्याख्येयम्। तदुक्तम्पूरयेदशनेनार्धं तृतीयमुदकेन तु। वायोः संचरणार्थं तु चतुर्थमवशेषयेत्।। इति। एतादृशस्य योग एव न सिध्यति। तेन दुःखरुपसमूलसंसारपङ्कहान्या शुद्धत्वाविर्भावस्तु दूरनिरस्त इति सूचयन्संबोधयति हे अर्जुनेति।
6.16 न not? अत्यश्नतः of one who eats too much? तु verily? योगः Yoga? अस्ति is? न not? च and? एकान्तम् at all? अनश्नतः of one who does not eat? न not? च and? अतिस्वप्नशीलस्य of one who sleeps too much? जाग्रतः one who is awake? न not? एव even? च and? अर्जुन O Arjuna.Commentary In this verse the Lord prescribes the diet for the students of Yoga. You must observe moderation in eating and sleeping. If you eat too much you will feel drowsy? and sleep will overpower you. You will get indigestion? flatulence? diseases of the bowels and the liver. If you eat too little you will get weakness and you will not be able to sit for a long time in meditation. You should eat neither more nor less than what is actually necessary for maintaining the body in a healthy and strong state.It may mean also that success in Yoga is not possible for him who eats more than the antity prescribed in the text books on Yoga. They prescribe Half the stomach must be filled with food a arter with water and the remaining fourth must be empty for the free movement of air. This is the Mitahara or moderate diest for a student of Yoga.If you sleep too much you will become lethargic. The mind will be dull and the body will be heavy. You cannot meditate. If you sleep too little you will experience drowsiness. You will sleep during meditation. Keep the golden medium. You will have rapid progress in Yoga.
6.16 Verily Yoga is not possible for him who eats too much, nor for him who does not eat at all, nor for him who sleeps too much, nor for him who is (always) awake, O Arjuna.
6.16 Meditation is not for him who eats too much, not for him who eats not at all; not for him who is overmuch addicted to sleep, not for him who is always awake.
6.16 But, O Arjuna, Yoga is not for one who eats too much, nor for one who does not eat at all; neither for one who habitually sleeps too long, nor surely for one who keeps awake.
6.16 (Tu, but) O Arjuna, Yoga na asti, is not; atiasnatah, for one who eats too much, for one who eats food more than his capacity; na ca, nor is Yoga; anasnatah, for one who does not eat; ekantam, at all. This accords with the Vedic text, 'As is well known, if one eats that much food which is within one's capacity, then it sustains him, it does not hurt him; that which is more, it harms him; that which is less, it does not sustain him' (Sa. Br.; Bo. Sm. 2.7.22). Therefore, a yogi should not eat food more or less than what is suitable for him. Or the meaning is that Yoga is not for one who eats more food than what is prescribed for a yogi in the scriptures on Yoga. Indeed, the antity has been mentioned in, 'One half of the stomach is to be filled with food including curries; the third arter is to be filled with water; but the fourth arter is to be left for the movement of air,' etc. Similarly, Yoga is not for ati svapna-silasya, one who habitually sleeps too long; and Yoga is na eva, surely not; jagratah, for one who keeps awake too long. How, again, does Yoga become possibel? This is being stated:
6.16. Yoga is neither for him who eats too much; nor for him who totally abstains from eating; nor for him who is prone to sleep too much; and nor for him who keeps awake too much.
6.16 See Comment under 6.17
6.16 Over-eating and excessive fasting are opposed to Yoga. So also are excessive recreation and non-recreation, too much of sleep and too much of vigil. So too, are overwork and idleness.
6.16 Yoga is not for him who over-eats, nor for him who fasts excessively; not for him, O Arjuna, who sleeps too much, nor for him who stays awake too long.
।।6.16।।अब योगीके आहार आदिके नियम कहे जाते हैं अधिक खानेवालेका अर्थात् अपनी शक्तिका उल्लङ्घन करके शक्तिसे अधिक भोजन करनेवालाका योग सिद्ध नहीं होता और बिल्कुल न खानेवालेका भी योग सिद्ध नहीं होता क्योंकि यह श्रुति है कि जो अपने शरीरकी शक्तिके अनुसार अन्न खाया जाता है वह रक्षा करता है वह कष्ट नहीं देता ( बिगाड़ नहीं करता ) जो उससे अधिक होता है वह कष्ट देता है और जो प्रमाणसे कम होता है वह रक्षा नहीं करता। इसलिये योगीको चाहिये कि अपने लिये जितना उपयुक्त हो उससे कम या ज्यादा अन्न न खाय। अथवा यह अर्थ समझो कि योगीके लिये योगशास्त्रमें बतलाया हुआ जो अन्नका परिमाण है उससे अधिक खानेवालेका योग सिद्ध नहीं होता। वहाँ यह परिमाण बतलाया है कि पेटका आधा भाग अर्थात् दो हिस्से तो शाकपात आदि व्यञ्जनोंसहित भोजनसे और तीसरा हिस्सा जलसे पूर्ण करना चाहिये तथा चौथा वायुके आनेजानेके लिये खाली रखना चाहिये इत्यादि। तथा हे अर्जुन न तो बहुत सोनेवालेका ही योग सिद्ध होता है और न अधिक जागनेवालेको ही योगसिद्धि प्राप्त होती है।
।।6.16।। न अत्यश्नतः आत्मसंमितमन्नपरिमाणमतीत्याश्नतः अत्यश्नतः न योगः अस्ति। न च एकान्तम् अनश्नतः योगः अस्ति। यदु ह वा आत्मसंमितमन्नं तदवति तन्न हिनस्ति यद्भूयो हिनस्ति तद्यत् कनीयोऽन्नं न तदवति (शतपथ) इति श्रुतेः। तस्मात् योगी न आत्मसंमितात् अन्नात् अधिकं न्यूनं वा अश्नीयात्। अथवा योगिनः योगशास्त्रे परिपठितात् अन्नपरिमाणात् अतिमात्रमश्नतः योगो नास्ति। उक्तं हि अधर्मशब्दस्य सव्यञ्जनान्नस्य तृतीयमुदकस्य च। वायोः संचरणार्थं तु चतुर्थमवशेषयेत् इत्यादिपरिमाणम्। तथा न च अतिस्वप्नशीलस्य योगो भवति नैव च अतिमात्रं जाग्रतो भवति च अर्जुन।।कथं पुनः योगो भवति इत्युच्यते
।।6.16 6.17।।न चैकान्तमनश्नतः ৷৷. जाग्रतो नैव च इति युञ्जानस्यानशनजागरणनिषेधः क्रियते ससर्वविषय इति प्रतीतिनिरासायार्थमाह अनशनादिति। कुतः इत्यतः शक्तस्य तद्विधानादित्याह उक्तं हीति। आमीलिताक्ष ईषन्निमीलिताक्षः शक्तस्त्विति सम्बन्धः। आहारादीनां केन युक्तत्वं इत्यत आह युक्तेति। उपायः समाधिः। समाधिर्हि धात्वर्थः। तद्वत्ता च प्रत्ययार्थः। अतः सोपायेत्युक्तम्। आहारादेः सोपायत्वं नाम कीदृशं इत्यत आह यावतेति। आदिपदेनेन्द्रियोत्सेकालस्यादेः सङ्ग्रहः। उपायेन साहित्यं नाम तदविरोधित्वम्। तच्चैवम्भूतमित्यर्थः।
।।6.16।।अनशनादिनिषेधोऽशक्तस्य। उक्तं हिनिद्राशनभयश्वासचेष्टातन्त्रादिवर्जनम्। कृत्वाऽनिमीलिताक्षस्तु शक्तो ध्यायन्प्रसीदति (प्रसिध्यति)। इति नारदीये।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।
নাত্যশ্নতস্তু যোগোস্তি ন চৈকান্তমনশ্নতঃ৷ ন চাতিস্বপ্নশীলস্য জাগ্রতো নৈব চার্জুন৷৷6.16৷৷
নাত্যশ্নতস্তু যোগোস্তি ন চৈকান্তমনশ্নতঃ৷ ন চাতিস্বপ্নশীলস্য জাগ্রতো নৈব চার্জুন৷৷6.16৷৷
નાત્યશ્નતસ્તુ યોગોસ્તિ ન ચૈકાન્તમનશ્નતઃ। ન ચાતિસ્વપ્નશીલસ્ય જાગ્રતો નૈવ ચાર્જુન।।6.16।।
ਨਾਤ੍ਯਸ਼੍ਨਤਸ੍ਤੁ ਯੋਗੋਸ੍ਤਿ ਨ ਚੈਕਾਨ੍ਤਮਨਸ਼੍ਨਤ। ਨ ਚਾਤਿਸ੍ਵਪ੍ਨਸ਼ੀਲਸ੍ਯ ਜਾਗ੍ਰਤੋ ਨੈਵ ਚਾਰ੍ਜੁਨ।।6.16।।
ನಾತ್ಯಶ್ನತಸ್ತು ಯೋಗೋಸ್ತಿ ನ ಚೈಕಾನ್ತಮನಶ್ನತಃ. ನ ಚಾತಿಸ್ವಪ್ನಶೀಲಸ್ಯ ಜಾಗ್ರತೋ ನೈವ ಚಾರ್ಜುನ৷৷6.16৷৷
നാത്യശ്നതസ്തു യോഗോസ്തി ന ചൈകാന്തമനശ്നതഃ. ന ചാതിസ്വപ്നശീലസ്യ ജാഗ്രതോ നൈവ ചാര്ജുന৷৷6.16৷৷
ନାତ୍ଯଶ୍ନତସ୍ତୁ ଯୋଗୋସ୍ତି ନ ଚୈକାନ୍ତମନଶ୍ନତଃ| ନ ଚାତିସ୍ବପ୍ନଶୀଲସ୍ଯ ଜାଗ୍ରତୋ ନୈବ ଚାର୍ଜୁନ||6.16||
nātyaśnatastu yōgō.sti na caikāntamanaśnataḥ. na cātisvapnaśīlasya jāgratō naiva cārjuna৷৷6.16৷৷
நாத்யஷ்நதஸ்து யோகோஸ்தி ந சைகாந்தமநஷ்நதஃ. ந சாதிஸ்வப்நஷீலஸ்ய ஜாக்ரதோ நைவ சார்ஜுந৷৷6.16৷৷
నాత్యశ్నతస్తు యోగోస్తి న చైకాన్తమనశ్నతః. న చాతిస్వప్నశీలస్య జాగ్రతో నైవ చార్జున৷৷6.16৷৷
6.17
6
17
।।6.17।। दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार और विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका तथा यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।
।।6.17।। उस पुरुष के लिए योग दु:खनाशक होता है, जो युक्त आहार और विहार करने वाला है, यथायोग्य चेष्टा करने वाला है और परिमित शयन और जागरण करने वाला है।।
।।6.17।। इस श्लोक में वर्णित नियमों का जीवन में पालन करने से ध्यान का अभ्यास सहज सुलभ हो जाता है। आहारविहारादि में संयम रखने पर भगवान् विशेष बल देते हैं।आत्मसंयम के श्रेष्ठ जीवन का वर्णन करने में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है उनका भाव गम्भीर है और अर्थ व्यापक। साधारणत साधक निस्वार्थ कर्म को यह समझ कर अपनाते हैं कि यह कर्मपालन ही उन्हें आध्यात्मिक जीवन की योग्यता प्रदान करेगा। मुझे ऐसे अनेक साधक मिले हैं जो अपने ही प्रारम्भ किये गये कर्मों में इतना अधिक उलझ गये हैं कि वे उनसे बाहर निकल ही नहीं पाते। इस प्रकार स्वनिर्मित जाल से बचने का उपाय इस श्लोक में दर्शाया गया है।अपना कार्यक्षेत्र चुनने में विवेक का उपयोग करना ही चाहिए परन्तु तत्पश्चात् यह भी आवश्यक है कि हमारे प्रयत्न यथायोग्य हों। किसी श्रेष्ठ कर्म का चयन करने के पश्चात् यदि हम उसी मे उलझ जायँ तो वासनाक्षय के स्थान पर नवीन वासनाओं की निर्मिति की संभावना ही अधिक रहेगी। और तब हो सकता है कि कर्मों की थकान एवं विक्षेपों के कारण हम नीचे पशुत्व की श्रेणी में गिर सकते हैं।स्वप्न और अवबोध का सामान्य अर्थ क्रमश निद्रावस्था और जाग्रतअवस्था है। परन्तु इनमें एक अन्य गम्भीर अर्थ भी निहित है।उपनिषदों में पारमार्थिक सत्य के अज्ञान की अवस्था को निद्रा कहा गया है तथा उस अज्ञान के कारण प्रतीति और अनुभव में आनेवाली अवस्था को स्वप्न कहा गया है जिसमें हमारी जाग्रत अवस्था और स्वप्नावस्था दोनों ही सम्मिलित हैं। इस दृष्टि से वास्तविक अवबोध की स्थिति तो तत्त्व के यथार्थ ज्ञान की ही कही जा सकती है। अत इस श्लोक में कथित स्वप्न और अवबोध का अर्थ है जीव की जाग्रत अवस्था तथा ध्यानाभ्यास की अवस्था। इन दोनों में युक्त रहने का अर्थ यह होगा कि दैनिक कार्यकलापों में तो साधक को संयमित होना ही चाहिये तथा उसी प्रकार प्रारम्भ में ध्यानाभ्यास में भी मन को बलपूर्वक शान्त करके दीर्घ काल तक उस स्थिति में रहने का प्रयत्न्ा नहीं करना चाहिये। ऐसा करने से थकान के कारण ध्यान में मन की रुचि कम हो सकती है।समस्त दुखों का नाश करने की सार्मथ्य ध्यान योग में होने के कारण इसका नित्य अभ्यास करना चाहिए।कब यह साधक युक्त बन जाता है उत्तर है
।।6.17।। व्याख्या-- युक्ताहारविहारस्य--भोजन सत्य और न्यायपूर्वक कमाये हुए धनका हो, सात्त्विक हो, अपवित्र न हो। भोजन स्वादबुद्धि और पुष्टिबुद्धिसे न किया जाय, प्रत्युत साधनबुद्धिसे किया जाय। भोजन धर्मशास्त्र और आयुर्वेदकी दृष्टिसे किया जाय तथा उतना ही किया जाय, जितना सुगमतासे पच सके। भोजन शरीरके अनुकूल हो तथा वह हलका और थोड़ी मात्रामें (खुराकसे थोड़ा कम) हो--ऐसा भोजन करनेवाला ही युक्त (यथोचित) आहार करनेवाला है।विहार भी यथायोग्य हो अर्थात् ज्यादा घूमनाफिरना न हो प्रत्युत स्वास्थ्यके लिये जैसा हितकर हो, वैसा ही घूमना-फिरना हो। व्यायाम, योगासन आदि भी न तो अधिक मात्रामें किये जायँ और न उनका अभाव ही हो। ये सभी यथायोग्य हों। ऐसा करनेवालोंको यहाँ युक्त-विहार करनेवाला बताया गया है।
।।6.16 6.17।।योगोऽस्तीति। युक्ताहारेति। आहारेषु (N योऽपि आहारेषु) आह्रियमाणेषु विषयेषु ( omits विषयेषु)। विहारः उपभोगाय प्रवृत्तिः (SK (n) उपयोगाय प्रवृत्तिः)। तस्याश्च युक्तत्वं नात्यन्तासक्तिर्नात्यन्तपरिवर्जनम्। एवं सर्वत्र। शिष्टं स्पष्टम्। जागरत इत्यादि मुनेः प्रमाणत्वात्(N जाग्रत इति मनःप्रमाणत्वात्) वेदवत्। एवमन्यत्रापि।
।।6.17।।मिताहारविहारस्य मितायासस्य मितस्वप्नावबोधस्य सकलदुःखहा बन्धनाशनो योगः संपन्नो भवति।
।।6.17।।आहारनिद्रादिनियमविरहिणो योगव्यतिरेकमुक्त्वा तन्नियमवतो योगान्वयमन्वाचष्टे कथं पुनरित्यादिना। अन्नस्य नियतत्वमर्धमशनस्येत्यादि विहारस्य नियतत्वं योजनान्न परं गच्छेदित्यादि कर्मसु चेष्टाया नियतत्वं वाङ्नियमादि रात्रौ प्रथमतो दशघटिकापरिमिते काले जागरणं मध्यतः स्वपनं पुनरपि दशघटिकापरिमिते जागरणमिति स्वप्नावबोधयोर्नियतकालत्वम्। एवं प्रयतमानस्य योगिनो भवतो योगस्यफलमाह दुःखहेति। सर्वाणीत्याध्यात्मिकादिभेदभिन्नानीत्यर्थः। यथोक्तयोगमन्तरेणापि स्वप्नादौ दुःखनिवृत्तिरस्तीति विशिनष्टि सर्वेति। विशुद्धविज्ञानद्वारेति शेषः।
।।6.16 6.17।।तमेव परावृत्त्या द्रढयति नात्यश्नत इति स्पष्टम्। किन्तु युक्ताहारविहारस्य योगो दुःखहा भवति।
।।6.17।।एवमाहारादिनियमविरहिणो योगव्यतिरेकमुक्त्वा तन्नियमवतो योगान्वयमाह आह्नियत इत्याहारोऽन्नं विहरणं विहारः पादश्रमः तौ युक्तौ नियतपरिमाणौ यस्य। तथाऽन्येष्वपि प्रणवजपोपनिषदावर्तनादिषु कर्मसु युक्ता नियतकाला चेष्टा यस्य तथा स्वप्नो निद्रा अवबोधो जागरणं तौ युक्तौ नियतकालौ यस्य तस्य योगो भवति साधनपाटवात्समाधिः सिध्यति नान्यस्य। एवं प्रयत्नविशेषेण संपादितो योगः किंफल इति तत्राह दुःखहेति। सर्वसंसारदुःखकारणाविद्योन्मूलनहेतुब्रह्मविद्योत्पादकत्वात्समूलसर्वदुःखनिवृत्तिहेतुरित्यर्थः। अत्राहारस्य नियतत्वम्अर्धमशनस्य सव्यञ्जनस्य तृतीयमुदकस्य तु। वायोः संचरणार्थं तु चतुर्थमवशेषयेत्।। इत्यादि प्रागुक्तम्। विहारस्य नियतत्वंयोजनान्न परं गच्छेत् इत्यादि। कर्मसु चेष्टाया नियतत्वं वागादिचापलपरित्यागः। रात्रेर्विभागत्रयं कृत्वा प्रथमान्त्ययोर्जागरणं मध्ये स्वपनमिति स्वप्नावबोधयोर्नियतकालत्वम्। एवमन्येऽपि योगशास्त्रोक्ता नियमा द्रष्टव्याः।
।।6.17।।तर्हि कथंभूतस्य योगो भवतीत्यत आह युक्तेति। युक्तो नियत आहारो विहारश्च गतिर्यस्य कर्मसु कार्येषु युक्ता नियतैव चेष्टा यस्य युक्तौ नियतौ स्वप्नावबोधौ निद्राजागरौ यस्य तस्य दुःखनिवर्तको योगो भवति सिध्यति।
।। 6.17 उचितदेशप्रभृति परमात्मचिन्तनपर्यन्तं ह्यत्र योगोपकरणमेव अतःअन्यदपीत्युक्तम्। योगोपकरणं योगोपकारकम्। अत्यशनादेर्योगविरोधित्वंनात्यश्नतः इति श्लोकस्यार्थः। मिताहारादेस्तु योगोपयुक्तत्वंयुक्ताहार इति श्लोकेनोच्यत इति व्यतिरेकतोऽन्वयतश्च एक एवार्थः स्थिरीक्रियत इति विभागमभिप्रेत्याह अत्यशनेति।युक्ताहार इति श्लोके विहारायासयोरपि उक्तत्वात् पूर्वत्रापि हि तावभिप्रेताविति दर्शयितुंअतिविहाराविहारावत्यायासानायासावित्युक्तम्।जाग्रतः इत्यत्राप्यतिरनुषञ्जनीयः। पूर्वश्लोकोक्तातिशब्दप्रतियोगिकत्वाद्युक्तशब्दो मितपर इत्यभिप्रायेणमिताहारेत्यादिकमुक्तम्। श्रूयते हि यद्ध्यात्मसम्मितमन्नं तदवति तन्न हिनस्ति तद्यत्कनीयो न तदवति इति। स्मरन्ति चउदरस्यार्धमन्नस्य तृतीयमुदकस्य तु। वायोः सच्चरणार्थं तु चतुर्थमवशेषयेत् इति। अतो न्यूनाधिकादिसमस्तदोषराहित्यं युक्तशब्देनाभिप्रेतम्। द्वन्द्वात्पूर्वमपि परमिव प्रत्येकमन्वेतव्यम्। विहारशब्दः सञ्चारपरः तन्द्रीपरिहारार्थविनोदपरो वा। पारिशेष्यादौचित्याच्च चेष्टाशब्दार्थोऽत्र श्रमहेतुरायासः। दुःखशब्दासङ्कोचाद्योगसामर्थ्याच्चसकलेति विशेषितम्। तत्फलितमाह बन्धनाशन इति। एवंविधस्य योगो दुःखहा भवतीत्यन्वये योगस्य पूर्वसिद्धताभ्रमः स्यात् तद्वयदासायसम्पन्नो भवतीत्युक्तम्।
।।6.17।।यत एतादृशस्य योगो न भवतीत्यतो यथा योगसिद्धिः स्यात्तथोपायमाह युक्ताहारेति। युक्त आहारो विहारश्च यस्य भगवत्सेवार्थदेहपोषार्थं प्रसादं भुञ्जानस्य भगवत्सेवार्थानुकरणात्मककर्मसु प्रातरारभ्य स्नापानकादिरूपेषु नियुक्ता भगवदर्थैकरूपा चेष्टा यस्य युक्तौ स्वप्नावबोधौ भगवद्विश्रामोत्तरक्षणे सेवायां देहालस्यनिवारणार्थं स्वापः सेवासामग्रीसम्पादनादिष्ववबोधः एतादृशौ तौ यस्य। तस्य योगो भावात्मको मत्सङ्गात्मको दुःखहा तद्भावाभावतापादिहर्ता भवतीत्यर्थः।
।।6.17।।युक्ताः परिमिता आहारादयो यस्य स तथा।
।।6.17।।अन्वयमाह युक्तेति। आह्वियत इत्याहारः अन्नं विहरणं विहारः पादकमस्तौ युक्तौ नियतपरिमाणौ यस्यान्नस्य युक्तत्वमुक्तमेव पादक्रमस्य नियतत्वं तु योजनान्न परं गच्छेदित्युक्तरुपम्। तथा कर्मस्वितरव्यापारेषु युक्ता नियता चेष्टा यस्य सः तथा युक्तौ स्वप्नाबोधौ निद्राजागरौ रात्रेराद्यन्तभागयोर्जागरो मध्ये निद्रेत्येवं नियतकालौ यस्य तस्य योगिनो योगो दुःखहा ज्ञानप्राप्त्या सर्वानर्थमूलभूताविद्यानिवृत्त्या सर्वसंसारदुःखक्षयकृद्भवतीत्यर्थः।
6.17 युक्ताहारविहारस्य of one who is moderate in eating and recreation (such as walking? etc.)? युक्तचेष्टस्य कर्मसु of one who is moderate in exertion in actions? युक्तस्वप्नावबोधस्य of one who is moderate in sleep and wakefulness? योगः Yoga? भवति becomes? दुःखहा the destroyer of pain.Commentary In this verse the Lord prescribes for the student of Yoga? diet? recreation and th like. The student of Yoga should always adopt the happy medium or the middle course. Lord Buddha went to the extremes in the beginning in matters of food? drink? etc. He was very abstemious and became extremely weak. He tortured his body very much. Therefore he was not able to attain to success in Yoga. Too much of austerity is not necessary for Selfrealisation. This is condemned by the Lord in chapter XVII? verses 5 and 6. Austerity should not mean selftorture. Then it becomes diabolical. The Buddi Yoga of Krishna is a wise approach to austerity. Some aspirants take asceticism as the goal it is only the means but not the end. The nervous system is extremely,sensitive. It responds even to very slight changes and causes distraction of the mind. It is? therefore? very necessary that you should lead a very regulated and disciplined life and should be moderate in food? sleep and recreation. Take measured food. Sleep and wake up at the prescribed time. Sleeo at 9 or 10 p.m. and get up at 3 or 4 a.m. Only then will you attain to success in Yoga which will kill all sorts or pains and sorrows of this life.
6.17 Yoga becomes the destroyer of pain for him who is moderate in eating and recreation (such as walking, etc.), who is moderate in exertion in actions, who is moderate in sleep and wakefulness.
6.17 But for him who regulates his food and recreation, who is balanced in action, in sleep and in waking, it shall dispel all unhappiness.
6.17 Yoga becomes a destroyer of sorrow of one whose eating and movements are regulated, whose effort in works is moderate, and whose sleep and wakefulness are temperate.
6.17 Yogah bhavati, Yoga becomes; duhkha-ha, a destroyer of sorrow-that which destroys (hanti) all sorrows (duhkhani)-, i.e., Yoga destroys all worldly sorrows; yukta-ahara-viharasya, of one whose eating and movements are regulated- ahara (lit. food) means all that is gathered in, [According to the Commentator, ahara, which also means food, includes mental 'food as well. See Ch. 7.26.2.-Tr.] and vihara means moving about, walking; one for whom these two are regulated (yukta) is yukta-ahara-vihara-; and also yukta-cestasya, of one whose effort (cesta) is moderate (yukta); karmasu, in works; similarly, yukta-svapna-avabodhasya, of one whose sleep (svapna) and wakefulness (avabodha) are temperate (yukta), have regulated periods. To him whose eating and movements are regulated, whose effort in work is moderate, whose sleep and wakefulness are temperate, Yoga becomes a destroyer of sorrows. When does a man become concentrated? That is being presently stated:
6.17. The Yoga becomes a misery-killer for him whose effort for food is appropriate, exertion in activities is proper, and sleep and waking are proportionate.
6.16-17 Yogosti etc. Yuktahara etc. For foods : for sense-objects that are being brought [by sense-organs]. Effort : activity for enjoying [them]. Its appropriateness is neither to have unlimited indulgence, nor to have unlimited abstention. The same is in all cases. The rest [of the text] is clear. On the authority of the Sage [Vyasa], the form jagaratah etc. [may be viewed correct] as those in the Vedic literature. The same is in other similar instances also.
6.17 The 'yoga which destroys all sorrows,' i.e., unties bondages, is successfully practised by him who is temperate in eating and recreation, temperate in exertion, and temperate in sleep and vigil.
6.17 Yoga becomes the destroyer of sorrows to him who is temperate in food and recreation, who is temperate in actions, who is temperate in sleep and wakefulness.
।।6.17।।तो फिर योग कैसे सिद्ध होता है सो कहते हैं जो खाया जाय वह आहार अर्थात् अन्न और चलनाफिरनारूप जो पैरोंकी क्रिया है वह विहार यह दोनों जिसके नियमित परिमाणसे होते हैं और कर्मोंमें जिसकी चेष्टा नियमित परमाणसे होती है जिसका सोना और जागना नियतकालमें यथायोग्य होता है ऐसे यथायोग्य आहारविहारवाले और कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवाले तथा यथायोग्य सोने और जागनेवाले योगीका दुःखनाशक योग सिद्ध हो जाता है। सब दुःखोंको हरनेवालेका नाम दुःखहा है। ऐसा सब संसाररूप दुःखोंका नाश करनेवाला योग ( उस योगीका ) सिद्ध होता है यह अभिप्राय है।
।।6.17।। युक्ताहारविहारस्य आह्रियते इति आहारः अन्नम् विहरणं विहारः पादक्रमः तौ युक्तौ नियतपरिमाणौ यस्य सः युक्ताहारविहारः तस्य तथा युक्तचेष्टस्य युक्ता नियता चेष्टा यस्य कर्मसु तस्य तथा युक्तस्वप्नावबोधस्य युक्तौ स्वप्नश्च अवबोधश्च तौनियतकालौ यस्य तस्य युक्त्ताहारविहारस्य युक्त्तचेष्टस्य कर्मसु युक्त्तस्वप्नावबोधस्य योगिनो योगो भवति दुःखहा दुःखानि सर्वाणि हन्तीति दुःखहा सर्वसंसारदुःखक्षयकृत योगः भवतीत्यर्थः।।अथ अधुना कदा युक्तो भवति इत्युच्यते
।।6.16 6.17।।न चैकान्तमनश्नतः ৷৷. जाग्रतो नैव च इति युञ्जानस्यानशनजागरणनिषेधः क्रियते स सर्वविषय इति प्रतीतिनिरासायार्थमाह अनशनादिति। कुतः इत्यतः शक्तस्य तद्विधानादित्याह उक्तं हीति। आमीलिताक्ष ईषन्निमीलिताक्षः शक्तस्त्विति सम्बन्धः। आहारादीनां केन युक्तत्वं इत्यत आह युक्तेति। उपायः समाधिः। समाधिर्हि धात्वर्थः। तद्वत्ता च प्रत्ययार्थः। अतः सोपायेत्युक्तम्। आहारादेः सोपायत्वं नाम कीदृशं इत्यत आह यावतेति। आदिपदेनेन्द्रियोत्सेकालस्यादेः सङ्ग्रहः। उपायेन साहित्यं नाम तदविरोधित्वम्। तच्चैवम्भूतमित्यर्थः।
।।6.17।।युक्ताहारविहारस्य सोपायाहारादेः। यावता श्रमाद्यभावो भवति तावदाहारादेरित्यर्थः।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6.17।।
যুক্তাহারবিহারস্য যুক্তচেষ্টস্য কর্মসু৷ যুক্তস্বপ্নাববোধস্য যোগো ভবতি দুঃখহা৷৷6.17৷৷
যুক্তাহারবিহারস্য যুক্তচেষ্টস্য কর্মসু৷ যুক্তস্বপ্নাববোধস্য যোগো ভবতি দুঃখহা৷৷6.17৷৷
યુક્તાહારવિહારસ્ય યુક્તચેષ્ટસ્ય કર્મસુ। યુક્તસ્વપ્નાવબોધસ્ય યોગો ભવતિ દુઃખહા।।6.17।।
ਯੁਕ੍ਤਾਹਾਰਵਿਹਾਰਸ੍ਯ ਯੁਕ੍ਤਚੇਸ਼੍ਟਸ੍ਯ ਕਰ੍ਮਸੁ। ਯੁਕ੍ਤਸ੍ਵਪ੍ਨਾਵਬੋਧਸ੍ਯ ਯੋਗੋ ਭਵਤਿ ਦੁਖਹਾ।।6.17।।
ಯುಕ್ತಾಹಾರವಿಹಾರಸ್ಯ ಯುಕ್ತಚೇಷ್ಟಸ್ಯ ಕರ್ಮಸು. ಯುಕ್ತಸ್ವಪ್ನಾವಬೋಧಸ್ಯ ಯೋಗೋ ಭವತಿ ದುಃಖಹಾ৷৷6.17৷৷
യുക്താഹാരവിഹാരസ്യ യുക്തചേഷ്ടസ്യ കര്മസു. യുക്തസ്വപ്നാവബോധസ്യ യോഗോ ഭവതി ദുഃഖഹാ৷৷6.17৷৷
ଯୁକ୍ତାହାରବିହାରସ୍ଯ ଯୁକ୍ତଚେଷ୍ଟସ୍ଯ କର୍ମସୁ| ଯୁକ୍ତସ୍ବପ୍ନାବବୋଧସ୍ଯ ଯୋଗୋ ଭବତି ଦୁଃଖହା||6.17||
yuktāhāravihārasya yuktacēṣṭasya karmasu. yuktasvapnāvabōdhasya yōgō bhavati duḥkhahā৷৷6.17৷৷
யுக்தாஹாரவிஹாரஸ்ய யுக்தசேஷ்டஸ்ய கர்மஸு. யுக்தஸ்வப்நாவபோதஸ்ய யோகோ பவதி துஃகஹா৷৷6.17৷৷
యుక్తాహారవిహారస్య యుక్తచేష్టస్య కర్మసు. యుక్తస్వప్నావబోధస్య యోగో భవతి దుఃఖహా৷৷6.17৷৷
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।।6.18।। वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी है - ऐसा कहा जाता है।
।।6.18।। वश में किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरुपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थों नि: स्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी कहा जाता है।
।।6.18।। इस श्लोक से लेकर अगले पाँच श्लोकों में योग के फल पर विचार किया गया है तथा पूर्ण योगी का आत्मसाक्षात्कार के समय और तदुपरान्त जीवन में जीते हुये क्या अनुभव होता है इसे भी स्पष्ट किया गया है।सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण ने युक्त शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर किया है तथा साधक के युक्त बनने पर विशेष बल दिया है तथापि इस शब्द की सम्पूर्ण परिभाषा अब तक नहीं बतायी गई यद्यपि यत्रतत्र उसका संकेत अवश्य किया गया है। विचाराधीन श्लोक में हमें युक्त शब्द की विस्तृत परिभाषा मिलती है।पूर्णतया संयमित किया हुआ मन आत्मा में ही स्थित होता है। इस कथन पर विचार करने से इसका सत्यत्व स्वयं ही स्पष्ट हो जायेगा। असंयमित मन का लक्षण है विषयों में सुख की खोज करना। जैसा कि पहले बताया जा चुका है मन की इस बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अवरुद्ध करने का सर्वोत्तम उपाय उसके प्रकाशक चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनुसंधान करना है। उस ध्यान का स्थिति में स्वाभाविक ही विषयों से परावृत्त हुआ मन आत्मस्वरूप में स्थिर होकर रहेगा।उपर्युक्त विवेचन की पुष्टि श्लोक की दूसरी पंक्ति में होती है जिसमें मन के स्थिरीकरण का उपाय बताया गया है सब कामनाओं से निस्पृहता। दुर्भाग्य से अनेक व्याख्याकारों ने कामनाओं के त्याग पर अत्याधिक बल देकर उसे हिन्दू धर्म का प्रमुख गुण घोषित किया है। कामना और विषयों की स्पृहा में धरतीआकाश का अन्तर है। कामना या इच्छा का होना अनुचित नहीं है और न ही वह स्वयं हमें किसी प्रकार का दुख पहुँचा सकती है। किन्तु इच्छापूर्ति के प्रति हमारे मन में जो अत्याधिक लालसा या स्पृहा होती है वही जीवन में हमारे कष्टों का कारण होती है।उदाहरणार्थ धनार्जन की इच्छा अनुचित नहीं क्योंकि वह मनुष्य को कर्म करने लक्ष्य को प्राप्त करने और उसे सुरक्षित रखने में प्रोत्साहित करती है परन्तु यदि वह पुरुष धनार्जन की उस इच्छा के वशीभूत होकर आसक्ति के कारण उन्माद के रोगी के समान व्यवहार करने लगे तो वह अपने लक्ष्य को पाने में असमर्थ हो जायेगा। उसकी असफलता का कारण है स्पृहा। अत गीता हमें केवल विषयों की स्पृहा त्यागने का उपदेश देती है।विषयों की उपयोगिता का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करने से मन विषयों से परावृत्त होकर आत्मा में स्थिर हो जाता है। परिच्छिन्न विषय मन को क्षुब्ध करते हैं। जबकि अनन्त स्वरूप आत्मा उसे आनन्द से परिपूर्ण कर देता है। मन का विषयों से निवृत्त होकर आत्मा में स्थिर होना ही युक्तता का लक्षण है। उक्त लक्षण सम्पन्न व्यक्ति ही युक्त कहलाता है।ऐसे योगी के समाहित चित्त का वर्णन वे इस प्रकार करते हैं
।।6.18।। व्याख्या--[इस अध्यायके दसवेंसे तेरहवें श्लोकतक सभी ध्यानयोगी साधकोंके लिये बिछाने और बैठनेवाले आसनोंकी विधि बतायी। चौदहवें और पंद्रहवें श्लोकमें सगुणसाकारके ध्यानका फलसहितवर्णन किया। फिर सोलहवेंसत्रहवें श्लोकोंमें सभी साधकोंके लिये उपयोगी नियम बताये। अब इस (अठारहवें) श्लोकसे लेकर तेईसवें श्लोकतक स्वरूपके ध्यानका फलसहित वर्णन करते हैं।] 'यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते'--अच्छी तरहसे वशमें किया हुआ चित्त (टिप्पणी प0 350) अर्थात् संसारके चिन्तनसे रहित चित्त जब अपने स्वतःसिद्ध स्वरूपमें स्थित हो जाता है। तात्पर्य है कि जब यह सब कुछ नहीं था, तब भी जो था और सब कुछ नहीं रहेगा, तब भी जो रहेगा तथा सबके उत्पन्न होनेके पहले भी जो था, सबका लय होनेके बाद भी जो रहेगा और अभी भी जो ज्यों-का-त्यों है, उस अपने स्वरूपमें चित्त स्थित हो जाता है। अपने स्वरूपमें जो रस है, आनन्द है, वह इस मनको कहीं भी और कभी भी नहीं मिला है। अतः वह रस, आनन्द मिलते ही मन उसमें तल्लीन हो जाता है।
।।6.18।।यदेति। अस्य च योगिनश्चिह्नम् आत्मन्येव नियतमना न किंचिदपि स्पृहयते।
।।6.18।।यदा प्रयोजनविषयं चित्तम् आत्मनि एव विनियतं विशेषेण नियतं निरतिशयप्रयोजनतया तत्रैव नियतंनिश्चलम् अवतिष्ठते तदा सर्वकामेभ्यो निःस्पृहः सन् युक्त इति उच्यते योगार्ह इति उच्यते।
।।6.18।।सफलस्य साङ्गस्य योगस्योक्त्यनन्तरं यदा हीत्यादावुक्तकालानुवादेन युक्तं लक्षयितुमनन्तरश्लोकप्रवृत्तिं दर्शयति अथाधुनेति। विशेषेण संयतत्वमेव संक्षिपति एकाग्रतामिति। आत्मन्येवेत्येवकारार्थं कथयति हित्वेति। केवलत्वमद्वितीयत्वम्। तस्यात्मस्थितिं विवृणोति स्वात्मनीति। चित्तस्य हि कल्पितस्यात्मैव तत्त्वं तत्पुनरन्यतः सर्वतो निवारितमधिष्ठाने निमग्नं तिष्ठतीति भावः। तस्यामवस्थायां सर्वेभ्यो विषयेभ्यो व्यावृत्ततृष्णो युक्तो व्यवह्रियत इत्याह निःस्पृह इति।
।।6.18।।कदा सिद्धयोगी पुरुषो भवतीत्यपेक्षायां निर्बीजयोगमसम्प्रज्ञातसमाधिमाह यदेति। आत्मन्येव चित्तं विनियतं संयतं तिष्ठति यस्य सोऽपि योगकाले सम्प्राप्ते तेभ्यो योगैश्वर्याष्टसिद्धिरूपेभ्योऽशेषकामेभ्यो निस्स्पृहो भवेत् तदा युक्तः सिद्धयोगी दृढतरयोगीत्युच्यतेऽसम्प्रज्ञातसमाधिनिष्ठः।
।।6.18।।एवमेकाग्रभूमौ संप्रज्ञातं समाधिमभिधाय निरोधभूमावसंप्रज्ञातं समाधिं वक्तुमुपक्रमते यदा यस्मिन्काले परवैराग्यवशाद्विनियतं विशेषेण नियतं सर्वशून्यतामापादितं चित्तं विगतरजस्तमस्कमन्तःकरणसत्त्वं स्वच्छत्वात्सर्वविषयाकारग्रहणसमर्थमपि सर्वतोनिरुद्धवृत्तिकत्वादात्मन्येव प्रत्यक्िचति अनात्मानुपरक्ते वृत्तिराहित्येऽपि स्वतःसिद्धस्यात्माकारस्य वारयितुमशक्यत्वाच्चितेरेव प्राधान्यान्न्यग्भूतं सदवतिष्ठते निश्चलं भवति तदा तस्मिन्सर्ववृत्तिनिरोधकाले युक्तः समाहित इत्युच्यते। कः। यः सर्वकामेभ्यो निःस्पृहः निर्गता दोषदर्शनेन सर्वेभ्यो दृष्टादृष्टविषयेभ्यः कामेभ्यः स्पृहा तृष्णा यस्येति परं वैराग्यमसंप्रज्ञातसमाधेरन्तरङ्गं साधनमुक्तम्। तथाच व्याख्यातं प्राक्।
।।6.18।। कदा निष्पन्नयोगः पुरुषो भवतीत्यपेक्षायामाह यदेति। विनियतं विशेषेण निरुद्धं सच्चित्तमात्मन्येव यदा निश्चलं तिष्ठति। किंच सर्वकामेभ्य ऐहिकामुष्मिकभोगेभ्यो विगततृष्णो भवति तदा प्राप्तयोग इत्युच्यते।
।।6.18।।एवं परिकरोक्तिसमनन्तरं योगदशां प्रदर्शयितुं ततः पूर्वा प्रागुक्तैव योगयोग्यदशा परामृश्यते यदा विनियतं इति श्लोकेन।आत्मन्येव इत्येवकारव्यवच्छेद्यक्षुद्रप्रयोजनान्तरज्ञापनाय सामान्यतःप्रयोजनविषयमित्युक्तम्। प्रयोजनान्तरेषु सत्सु क्वचित् विशेषेण नियतत्वे को हेतुः इत्यत्राहनिरतिशयेति।युक्तः इत्येतावतोऽत्र विधेयत्वात्निस्स्पृहः इत्यस्याप्युद्देश्यकोट्यनुप्रवेशायनिस्स्पृहः सन्नित्युक्तम् सर्वकामेभ्यो निर्गता स्पृहा यस्य स तथोक्तः सर्वकामेषु निस्स्पृह इत्यर्थः।
।।6.18।।नन्वेवं प्रवृत्तस्य भगवद्योगसिद्धिः कदा स्यात् इत्याकाङ्क्षायामाह यदेति। यदा यस्मिन् समये भगवत्सम्बन्धलक्षणभद्रकाले विनियतं वशीभूतं चित्तमात्मन्येव भावात्मकस्वरूप एव अवतिष्ठते स्थिरं भवति सर्वकामेभ्यो लौकिकेभ्यो निस्स्पृहो विगतेच्छो भवति तदा युक्त इत्युच्यते। सिद्धयोग उच्यत इत्यर्थः।
।।6.18।।निर्वाणपरमां शान्तिं प्राप्तस्य लक्षणान्याह यदेत्यादिभिः षड्भिः। विनियतं विशेषेण एकाग्रताभूमेरपि निरुद्धमात्मनि प्रत्यगात्मन्येवावतिष्ठते नत्वस्मितादिरूपेणोद्रिच्यते तदा योगी सर्वेभ्यो जाग्रत्स्वप्नसबीजसमाधिषूपस्थितेभ्यः। ल्यब्लोपे पञ्चमी। सार्वात्म्यप्राप्त्यैव तान् प्राप्य तेषु निःस्पृहो भवति तदा युक्तो निर्विकल्पक इत्युच्यते।
।।6.18।।एतादृशयोगयुक्तः कदा भवतीति तत्राह। यस्मिन्काले विशेषेण नियतं चित्तं संयतमेकाग्रतामापन्नं निरुद्धं चित्तं बाह्यविषयचिन्तां विहायात्मन्येव प्रत्यगभिन्ने केवलेऽवतिष्ठते। स्थितं लभत इत्यर्थः। सर्वकामेभ्यो दृष्टादृष्टविषयेभ्यः निर्गता निवृत्ता स्पृहा तृष्णा यस्य स तदा तस्मिन्काले युक्त इत्युच्यते।
6.18 यदा when? विनियतम् perfectly controlled? चित्तम् mind? आत्मनि in the Self? एव only? अवतिष्ठते rests? निःस्पृहः free from longing? सर्वकामेभ्यः from all (objects of) desires? युक्तः united? इति thus? उच्यते is said? तदा then.Commentary Perfectly controlled mind The mind with onepointedness.When all desires for the objects of pleasure seen or unseen die? the mind becomes very peaceful and rests steadily in the Supreme Self within. As the Yogi is perfectly harmonised? as he has attained to oneness with the Self and as he has become identical with Brahman? sense phenomena and bodily affections do not disturb him. He is conscious of his immortal? imperishable and invincible nature.Yukta means united (with the Self) or harmonised or balanced. Without union with the Self neither harmony nor balance nor Samadhi is possible. (Cf.V.23VI.8)
6.18 When the perfectly controlled mind rests in the Self only, free from longing for all the objects of desires, then it is said, 'He is united'.
6.18 When the mind, completely controlled, is centered in the Self, and free from all earthly desires, then is the man truly spiritual.
6.18 A man who has become free from hankering for all desirable objects is then said to be Self-absorbed when the controlled mind rests in the Self alone.
6.18 A yogi, nihsprhah, who has become free from hankering, thirst; sarva-kamhyah, for all desirable objects, seen and unseen; is tada, then; ucyate, said to be; yuktah, Self-absorbed; yada, when; the viniyatam, controlled; cittam, mind, the mind that has been made fully one-pointed by giving up thought of external objects; avatisthate, rests; atmani eva, in the non-dual Self alone, i.e. he gets established in his own Self. An illustration in being given for the mind of that yogi which has become Self-absorbed:
6.18. When [his] well-controlled mind gets established in nothing but the Self and he is free from craving for any desired object-at that time his is called a master of Yoga.
6.18 Yada etc. The distinguishing mark of this man of Yoga is : Havnig his mind controlled in nothing but the Self, he does not crave at all [for anything].
6.18 When the mind which usually goes after sense enjoyments, abandons such desires and 'rests on the self alone,' i.e., becomes well-settled on account of discerning unsurpassable good in the self alone and rests there alone steadily, without movement - then, being 'free of yearning for all desires,' one is said to be integrated. He is said to be fit for Yoga.
6.18 When the subdued mind rests on the self alone, then, free of all yearning for objects of desire, one is said to be fit for Yoga.
।।6.18।।अब यह बतलाते हैं कि ( साधक पुरुष ) कब युक्त ( समाधिस्थ ) हो जाता है वशमें किया हुआ चित्त यानी विशेषरूपसे एकाग्रताको प्राप्त हुआ चित्त जब बाह्य चिन्तनको छोड़कर केवल आत्मामें ही स्थित होता है अपने स्वरूपमें स्थिति लाभ करता है। तब उस समय सब भोगोंकी लालसासे रहित हुआ योगी अर्थात् दृष्ट और अदृष्ट समस्त भोगोंसे जिसकी तृष्णा नष्ट हो गयी है ऐसा योगी युक्त है समाधिस्थ ( परमात्मामें स्थितिवाला ) है ऐसे कहा जाता है।
।।6.18।। यदा विनियतं चित्तं विशेषेण नियतं संयतम् एकाग्रतामापन्नं चित्तं हित्वा बाह्यार्थचिन्ताम् आत्मन्येव केवले अवतिष्ठते स्वात्मनि स्थितिं लभते इत्यर्थः। निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः निर्गता दृष्टादृष्टविषयेभ्यः स्पृहा तृष्णा यस्य योगिनः सः युक्तः समाहितः इत्युच्यते तदा तस्मिन्काले।।तस्य योगिनः समाहितं यत् चित्तं तस्योपमा उच्यते
।।6.18।।आत्मान्येवावतिष्ठते इत्यत्र स्वस्मिन्नेवेति प्रतीतिनिरासायाह आत्मनीति। अन्यथा ज्ञात्वा मामित्यादिविरोधः।
।।6.18।।आत्मनि भवति।
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते। निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।6.18।।
যদা বিনিযতং চিত্তমাত্মন্যেবাবতিষ্ঠতে৷ নিঃস্পৃহঃ সর্বকামেভ্যো যুক্ত ইত্যুচ্যতে তদা৷৷6.18৷৷
যদা বিনিযতং চিত্তমাত্মন্যেবাবতিষ্ঠতে৷ নিঃস্পৃহঃ সর্বকামেভ্যো যুক্ত ইত্যুচ্যতে তদা৷৷6.18৷৷
યદા વિનિયતં ચિત્તમાત્મન્યેવાવતિષ્ઠતે। નિઃસ્પૃહઃ સર્વકામેભ્યો યુક્ત ઇત્યુચ્યતે તદા।।6.18।।
ਯਦਾ ਵਿਨਿਯਤਂ ਚਿਤ੍ਤਮਾਤ੍ਮਨ੍ਯੇਵਾਵਤਿਸ਼੍ਠਤੇ। ਨਿਸ੍ਪਰਿਹ ਸਰ੍ਵਕਾਮੇਭ੍ਯੋ ਯੁਕ੍ਤ ਇਤ੍ਯੁਚ੍ਯਤੇ ਤਦਾ।।6.18।।
ಯದಾ ವಿನಿಯತಂ ಚಿತ್ತಮಾತ್ಮನ್ಯೇವಾವತಿಷ್ಠತೇ. ನಿಃಸ್ಪೃಹಃ ಸರ್ವಕಾಮೇಭ್ಯೋ ಯುಕ್ತ ಇತ್ಯುಚ್ಯತೇ ತದಾ৷৷6.18৷৷
യദാ വിനിയതം ചിത്തമാത്മന്യേവാവതിഷ്ഠതേ. നിഃസ്പൃഹഃ സര്വകാമേഭ്യോ യുക്ത ഇത്യുച്യതേ തദാ৷৷6.18৷৷
ଯଦା ବିନିଯତଂ ଚିତ୍ତମାତ୍ମନ୍ଯେବାବତିଷ୍ଠତେ| ନିଃସ୍ପୃହଃ ସର୍ବକାମେଭ୍ଯୋ ଯୁକ୍ତ ଇତ୍ଯୁଚ୍ଯତେ ତଦା||6.18||
yadā viniyataṅ cittamātmanyēvāvatiṣṭhatē. niḥspṛhaḥ sarvakāmēbhyō yukta ityucyatē tadā৷৷6.18৷৷
யதா விநியதஂ சித்தமாத்மந்யேவாவதிஷ்டதே. நிஃஸ்பரிஹஃ ஸர்வகாமேப்யோ யுக்த இத்யுச்யதே ததா৷৷6.18৷৷
యదా వినియతం చిత్తమాత్మన్యేవావతిష్ఠతే. నిఃస్పృహః సర్వకామేభ్యో యుక్త ఇత్యుచ్యతే తదా৷৷6.18৷৷
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।।6.19।। जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए वश में किए हुए चित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।
।।6.19।। जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।।
।।6.19।। योगी के समाहित चित्त का वर्णन करने के लिए निर्वात स्थान में रख दीप की उपमा यहाँ दी गयी है जो अत्यन्त समीचीन है। मन में निरन्तर वृत्तियां उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं और हमें एक अखण्ड मन का अनुभव होता है। इसी प्रकार दीपज्योति भी वास्तव में कभी स्थिर नहीं होती तथापि उसका कम्पन इतनी तीव्र गति से होता है कि हमें एक निश्चित आकार की ज्योति प्रतीत होती है।जब इस ज्योति को वायु के झकोरों से सुरक्षित रखा जाता है तब यह उर्ध्वगामी ज्योति स्थिर हो जाती है। ठीक उसी प्रकार सामान्यत वैषयिक इच्छाओं के कारण चंचल रहने वाला मन जब ध्यान के समय शान्त किया जाता है तब वह स्थिर हो जाता है और मन में एक अखण्ड ब्रह्माकार वृत्ति बनी रहती है। संक्षेप में समस्त जगत् के अधिष्ठान नित्य अनन्त आनन्दस्वरूप ब्रह्म का नित्य निरन्तर ध्यान ही आत्मयोग है।योगाभ्यास से इस एकाग्रता को प्राप्त करने के पश्चात् प्रगति के क्या सोपान हांेगे अगले चार श्लोकों में इसका वर्णन किया गया है
।।6.19।। व्याख्या--'यथा दीपो निवातस्थो ৷৷. युञ्जतो योगमात्मनः'--जैसे सर्वथा स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें रखे हुए दीपककी लौ थोड़ी भी हिलती-डुलती नहीं है ,ऐसे ही जो योगका अभ्यास करता है, जिसका मन स्वरूपके चिन्तनमें लगता है और जिसने चित्तको अपने वशमें कर रखा है, उस ध्यानयोगीकेचित्तके लिये भी दीपककी लौकी उपमा दी गयी है। तात्पर्य है कि उस योगीका चित्त स्वरूपमें ऐसा लगा हुआ है कि उसमें एक स्वरूपके सिवाय दूसरा कुछ भी चिन्तन नहीं होता।पूर्वश्लोकमें जिस योगीके चित्तको विनियत कहा गया है, उस वशीभूत किये हुए चित्तवाले योगीके लिये यहाँ 'यतचित्तस्य' पद आया है।कोई भी स्थान वायुसे सर्वथा रहित नहीं होता। वायु सर्वत्र रहती है। कहींपर वायु स्पन्दनरूपसे रहती है और कहींपर निःस्पन्दनरूपसे रहती है। इसलिये यहाँ
।।6.19।।यथेति। यथा निवातस्थो (S omits निवातस्थो) दीपो न चलति एवं योगी। चलनमस्य विषयादीनामर्जनादयः प्रयासाः।
।।6.19।।निवातस्थो दीपो यथा न इङ्गते न चलति अचलः सप्रभः तिष्ठति यतचित्तस्य निवृत्तसकलेतरमनोवृत्तेः योगिनः आत्मनि योगं युञ्जतः आत्मस्वरूपस्य सा उपमा।निवातस्थतया निश्चलसप्रभदीपवन्निवृत्तसकलेतरमनोवृत्तितया निश्चलो ज्ञानप्रभ आत्मा तिष्ठति इत्यर्थः।
।।6.19।।उपमा योगिनश्चित्तस्थैर्यस्योदाहरणमित्यर्थः। उपमाशब्दस्य प्रदीपविषयत्वसिद्ध्यर्थं करणव्युत्पत्तिं दर्शयति उपमीयत इति। योगिनो यथोक्तविशेषणवतश्चित्तस्थैर्यस्यैति शेषः।
।।6.19।।आत्मैक्याकारतयाऽवस्थितचित्तस्योपमानमाह यथेति। निर्गतो वातो यस्मिंस्तत्र देशे स्थितो यथा दीपो नेङ्गते सोपमा निदर्शनं यतचित्तस्य ज्ञेयम्।
।।6.19।।समाधौ निर्वृत्तिकस्य चित्तस्योपमानमाह दीपचलनहेतुना वातेन रहिते देशे स्थितो दीपो यथाचलनहेत्वभावान्नेङ्गते न चलति सोपमा स्मृता स दृष्टान्तश्चिन्तितो योगज्ञैः। कस्य योगिन एकाग्रभूमौ संप्रज्ञातसमाधिमतोऽभ्यासपाटवाद्यतचित्तस्य निरुद्धसर्वचित्तवृत्तेरसंप्रज्ञातसमाधिरूपं योगं निरोधभूमौ युञ्जतोऽनुतिष्ठतो य आत्मान्तःकरणं तस्य निश्चलतया सत्त्वोद्रेकेण प्रकाशकतया च निश्चलो दीपो दृष्टान्त इत्यर्थः। आत्मनो योगं युञ्जत इति व्याख्याने दार्ष्टान्तिकालाभः सर्वावस्थस्यापि चित्तस्य सर्वदात्माकारतयात्मपदवैयर्थ्यं च। नहि योगेनात्माकारता चित्तस्य संपाद्यते किंतु स्वत एवात्माकारस्य सतो नात्माकारता निवर्त्यत इति। तस्माद्दार्ष्टान्तिकलाभप्रतिपादनार्थमेवात्मपदम्। यतचित्तस्येति भावपरो निर्देशः कर्मधारयो वा। यतस्य चित्तस्येत्यर्थः।
।।6.19।।आत्मैकाकारतयावस्थितस्य चित्तस्योपमानमाह यथेति। वातशून्ये देशे स्थितो दीपो यथा नेङ्गते न विचलति सा उपमा दृष्टान्तः। कस्य आत्मविषयं योगं युञ्जतोऽभ्यसतो योगिनो यतं नियतं चित्तं यस्य निष्कम्पतया प्रकाशकतया चञ्चलं यच्चित्तं तद्वत्तिष्ठतीत्यर्थः।
।।6.19।।अथ योगदशा लक्ष्यते यथा इत्यादिना। दीपस्याचलत्वे हेतुर्निवातस्थत्वम्। इङ्गतेश्चेष्टार्थत्वे विवक्षिते दीपे तदनन्वयात्साधारण्यसिद्ध्यर्थमाह न चलतीति। निश्चलत्वे पर्वतादिनिदर्शनसद्भावेऽपि दीपदृष्टान्ताभिप्रेतमर्थं दर्शयितुमाहअचलः सप्रभस्तिष्ठतीति।यतचित्तस्य इत्यनेन चिन्तारूपवृत्तिनियमनवचनमुपलक्षणमित्याहनिवृत्तेति। मनोमात्रपर्यायो वाऽत्र चित्तशब्दः। इतरशब्देनात्मविषयवृत्तिरस्तीति सूचितम्। अन्यथायुञ्जतो योगम् इत्येतद्व्याहन्येतेत्यभिप्रायेणाह आत्मनि योगं युञ्जत इति आत्मनि विषये साक्षात्कारं कुर्वत इत्यर्थः।नेङ्गते इति न शरीरस्य निष्कम्पत्वमुदाह्रियतेसमं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरम् 6।13 इति तस्योक्तत्वात् ध्यानदशासाधारणत्वेन समाधिदशाविशेषकत्वानुपपत्तेश्च। नापीन्द्रियाणां निष्कम्पत्वम्योगिनः सोपमा इत्यन्वयायोगात्। नाप्यात्मस्वरूपस्य निश्चलत्वम् अवस्थान्तरेऽपि तत्सिद्धेः। अतः स्वयम्प्रकाशज्ञानप्रभानिरस्तसमस्तवृत्त्यन्तरपरिशुद्धात्मस्वरूपप्रदर्शनार्थोऽयं दृष्टान्त इति सूचयितुंयोगिनः इत्युक्तेऽपि पुनरपिआत्मनः इत्युक्तमित्यभिप्रायेणआत्मस्वरूपस्य सोपमेत्युक्तम्।योगिनः आत्मनः इति व्यधिकरणे षष्ठ्यौ। ननुसोपमा इत्यत्र उपमाशब्द उपमितिपरो वा दृष्टान्तपरो वा उभयथाऽपि न सम्भवति यथेति निर्दिष्टप्रकारपरामर्शित्वादत्र तच्छब्दस्य उपमाशब्दस्य च तत्समानाधिकरणत्वात्सप्रभस्तिष्ठति इत्येतच्च कथं दार्ष्टान्तिके निर्वाह्यम् अयोगिनामप्यात्मस्वरूपस्य चलत्वप्रतीत्यभावात् किमर्थं च निश्चलत्वोपदेशः इत्यत्राह निवातस्थतयेति।अयमभिप्रायः उपमेति दृष्टान्तगतं साधर्म्यमत्र निर्दिश्यते। तस्मात्यथा इत्यनेनसोपमा इत्यस्यान्वय उपपन्नः। प्रभायाश्च प्रतिधर्मोऽत्र ज्ञानम्। आत्मनो निश्चलत्वं चात्र स्वप्रभाभूतज्ञानस्य विविधप्रसरणनिवृत्तिः। सा च बाह्यविषयेषु मनोवृत्तेरेवाभावात् संसारदशायां च ज्ञानस्येन्द्रियद्वारैव प्रसरणादिति।स्मृता समाधिदशासन्दर्शिभिर्योगिभिरिति शेषः।
।।6.19।।विनियतचित्तः कीदृग्विधः स्यात् इत्याकाङ्क्षायामाह यथेति। यथा दीपो वायुरहितप्रदेशस्थितो नेङ्गते न चलति यतचित्तस्यात्मनो भगवति योगं युञ्जतो भावयतो योगिनः सा उपमा स्मृता। अत्र दीपदृष्टान्तस्वायं भावः दीपस्य तापरूपत्वाद्वायोश्च शैत्यधर्मत्वात् तद्रहितदेशे तस्य नाशार्थं चाञ्चल्यं न भवति तथा भगवद्विप्रयोगतापनिवर्तकधर्मभावेन योगं युञ्जतो मनश्चञ्चलं न भवति।
।।6.19।।एकाग्रतावस्थायांयोगिचित्तस्योपमामाह यथेति। नेङ्गते न चलति तद्वत्। यतं च तच्चित्तं च यतचित्तं तस्य। एकाग्रतां प्राप्तं चित्तं निवातप्रदीपवन्न चलतीत्यर्थः। आत्मनो योगं समाधिं युञ्जतोऽनुतिष्ठतः।
।।6.19।।योगिनः समाहितचित्तस्योपमानमाह यथेति। यथा प्रदीपो निवाते वायुवर्जिते देशे स्थितो नेङ्गते न चलति।उपमीयतेऽनयेत्युपमा सा योगज्ञैः चित्तप्रचारज्ञैः स्मृता चिन्तिता। योगिनो यतचित्तस्य संयतान्तःकरणस्यात्मनो योगं समाधिमनुतिष्ठतः। अत्रोत्थानिकायां समाहितं च तच्चित्तमिति कर्मधारयः। योगिनः समाहितचित्तस्येति व्यधिकरणे षष्ठ्यौ। एवं मूले तद्भाष्ये च ज्ञेयम्। एवं योगाभ्यासबलादेकाग्रीभूतं निवातप्रदीपकल्पं सदित्युत्तरश्लोकस्थभाष्यात्। योगिनो यथोक्तविशेषणवतश्चित्तस्थैर्यस्येति शेष इति तु भाष्यटीकाकाराः। एतेनात्मनो योगं नियुञ्जत इति व्याख्याने दार्ष्टान्तिकालाभः सर्वावस्थस्यापि चित्तस्य सर्वदात्माकारतयात्मपदवैयर्थ्यं च। नहि योगेनात्माकारता चित्तस्य संपाद्यते किंतु स्वतएवात्माकारस्य सतो नात्माकारता निवर्त्यत इति तस्माद्दार्ष्टान्तिकलाभप्रतिपादनार्थमात्मपदमिति प्रत्युक्तम्। विवेकादियुक्तेन मनसाऽविद्यानिवृत्त्यात्मा स्वयमेव प्रकाशते इत्यर्थे मनसैवानुद्रष्टव्यमितिवत् योगेनानात्माकारतां चित्तस्य प्रत्युक्तम्। विवेकादियुक्तेन मनसाऽविद्यानिवृत्त्यात्मा स्वयमेव प्रकाशते इत्यर्थे मनसैवानुद्रष्टव्यमितिवत् योगेनानात्माकारतां चित्तस्य निवर्त्य स्वतःसिद्धामात्माकारतां स्फुरणरुपां समाधिमनुतिष्ठत इत्यर्थके आत्मनो योगं युञ्जत इति वाक्ये आत्मपदस्य सार्थक्यात्। अन्यथा आत्मसंस्थं मनःकृत्वेति वक्ष्यमाणात्मपदवैयर्थ्यप्रसङ्गात्। युञ्जतन्नेवं सदात्मानमितिवत् आत्मनोऽन्तःकरणस्य समाधिं निरोधमनुतिष्ठतोऽसंप्रज्ञातसमाध्यभिमुखस्येति भाष्यार्थसंभवेनात्मपदसार्थक्याच्च। अतएव योगिनो यतचित्तस्य निरुद्धसर्ववृत्तेरसंप्रज्ञातसमाधिरुपं योगं निरोधभूमौ युञ्जतोऽनुतिष्ठितः य आत्मान्तःकरणं तस्य निश्चलतया सत्त्वोद्रेकेण प्रकाशकतया च निश्चलो दीपो दृष्टान्त इत्यप्यपास्तम्। निश्चलताप्रतिपादकयतपदसमभिव्याहारात्। समीपत्वाच्चान्वययोग्यं चित्तपदं विहायात्मपदस्य दार्ष्टान्तिकपरत्वानौचित्यात् असंप्रज्ञातसमाधौ चित्तस्य कथमपि पृथग्ज्ञायमानत्वात् असंप्रज्ञातसमाध्यभिमुखस्य योगिनस्तत्सिद्धिपूर्वकाले यदेकाग्रीभूतं चित्तं तस्यायं दृष्टान्तो नतु निरुद्धसर्ववृत्तेरसंप्रज्ञातसमाधिस्थस्य योगिनोऽन्तःकरणस्येति विद्वद्भिराकलनीयम्।
6.19 यथा as? दीपः lamp? निवातस्थः placed in a windless place? न not? इङ्गते flicker? सा that? उपमा simile? स्मृता is thought? योगिनः of the Yogi? यतचित्तस्य of one with controlled mind? युञ्जतः of the practising? योगम् the Yoga? आत्मनः of the Self.Commentary This is a beautiful simile. Yogins ote this simile very often when they talk of concentration or steadiness or onepointedness of the mind. A steady mind will serve as a powerful searchlight to find out the hidden spiritual treasures of the Self.
6.19 As a lamp placed in a windless spot does not flicker to such is compared the Yogi of controlled mind, practising Yoga in the Self (or absorbed in the Yoga of the Self).
6.19 The wise man who has conquered his mind and is absorbed in the Self is as a lamp which does not flicker, since it stands sheltered from every wind.
6.19 As a lamp kept in a windless place does not flicker, such is the simile thought of for the yogi whose mind is under control, and who is engaged in concentration on the Self.
6.19 Yatha, as; a dipah, lamp; nivata-sthah, kept in a windless place; na ingate, does not flicker; sa upama, such is the simile-that with which something is compared is an upama (smile)-; smrta, thought of, by the knowers of Yoga who understand the movements of the mind; yoginah, for the yogi; yata-citasya, whose mind is under control; and yunjatah, who is engaged in; yogam, concentration; atmanah, on the Self, i.e. who is practising Self-absorption. By dint of practising Yoga thus, when the mind, comparable to a lamp in a windless place, becomes concentrated, then-
6.19. 'Just as a lamp in the windless place does not shake' - This simile is recalled in the case of the man of Yoga, with subdued mind, practising the Yoga in the Self.
6.19 Yatha etc. Just as a lamp existing in the windless palce does not shake, so is the man of Yoga. Shaking in his case is the efforts like aciring sense objects and so on. Now, the characteristic of this Brahman - Itself being Its own nature - is described indirectly with a good number of adjectives. This is different from the characteristics assumed in other systems -
6.19 As a lamp does not flicker in a windless place, i.e., does not move, but remains steady with its illumination - this is the simile used to illustrate the nature of the self of the Yogin who has subdued his mind, who has got rid of all other kinds of mental activity and who is practising Yoga concerning the self. The meaning is that the self remains with its steadily illumining light of knowledge because all other activities of the mind have ceased, just as a lamp kept in a windless place has an unflickering flame.
6.19 'A lamp does not flicker in a windless place' - that is the simile employed for the subdued mind of a Yogin who practises Yoga.
।।6.19।।उस योगीका जो समाधिस्थ चित्त है उसकी उपमा कही जाती है जैसे वायुरहित स्थानमें रखा हुआ दीपक विचलित नहीं होता वही उपमा आत्मध्यानका अभ्यास करनेवाले समाधिमें स्थित हुए योगीके जीते हुए अन्तःकरणकी चित्तगतिको प्रत्यक्ष देखनेवाले योगवेत्ता पुरुषोंने मानी है। जिससे किसीकी समानता की जाय उसका नाम उपमा है।
।।6.19।। यथा दीपः प्रदीपः निवातस्थः निवाते वातवर्जिते देशे स्थितः न इङ्गते न चलति सा उपमा उपमीयते अनया इत्युपमा योगज्ञैः चित्तप्रचारदर्शिभिः स्मृता चिन्तिता योगिनो यतचित्तस्य संयतान्तःकरणस्य युञ्जतो योगम् अनुतिष्ठतः आत्मनः समाधिमनुतिष्ठत इत्यर्थः।।एवं योगाभ्यासबलादेकाग्रीभूतं निवातप्रदीपकल्पं सत्
।।6.19।।युञ्जतो योगमात्मनः इत्यत्रात्मशब्दस्य षष्ठ्याश्च विवक्षितमर्थमाह आत्मन इति।योगिन आत्मनः इति अन्वयनिरासाय योगमित्युक्तम् अन्यथा वैयर्थ्यात्।
।।6.19।।आत्मनो भगवद्विषयं योगम्।
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता। योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।6.19।।
যথা দীপো নিবাতস্থো নেঙ্গতে সোপমা স্মৃতা৷ যোগিনো যতচিত্তস্য যুঞ্জতো যোগমাত্মনঃ৷৷6.19৷৷
যথা দীপো নিবাতস্থো নেঙ্গতে সোপমা স্মৃতা৷ যোগিনো যতচিত্তস্য যুঞ্জতো যোগমাত্মনঃ৷৷6.19৷৷
યથા દીપો નિવાતસ્થો નેઙ્ગતે સોપમા સ્મૃતા। યોગિનો યતચિત્તસ્ય યુઞ્જતો યોગમાત્મનઃ।।6.19।।
ਯਥਾ ਦੀਪੋ ਨਿਵਾਤਸ੍ਥੋ ਨੇਙ੍ਗਤੇ ਸੋਪਮਾ ਸ੍ਮਰਿਤਾ। ਯੋਗਿਨੋ ਯਤਚਿਤ੍ਤਸ੍ਯ ਯੁਞ੍ਜਤੋ ਯੋਗਮਾਤ੍ਮਨ।।6.19।।
ಯಥಾ ದೀಪೋ ನಿವಾತಸ್ಥೋ ನೇಙ್ಗತೇ ಸೋಪಮಾ ಸ್ಮೃತಾ. ಯೋಗಿನೋ ಯತಚಿತ್ತಸ್ಯ ಯುಞ್ಜತೋ ಯೋಗಮಾತ್ಮನಃ৷৷6.19৷৷
യഥാ ദീപോ നിവാതസ്ഥോ നേങ്ഗതേ സോപമാ സ്മൃതാ. യോഗിനോ യതചിത്തസ്യ യുഞ്ജതോ യോഗമാത്മനഃ৷৷6.19৷৷
ଯଥା ଦୀପୋ ନିବାତସ୍ଥୋ ନେଙ୍ଗତେ ସୋପମା ସ୍ମୃତା| ଯୋଗିନୋ ଯତଚିତ୍ତସ୍ଯ ଯୁଞ୍ଜତୋ ଯୋଗମାତ୍ମନଃ||6.19||
yathā dīpō nivātasthō nēṅgatē sōpamā smṛtā. yōginō yatacittasya yuñjatō yōgamātmanaḥ৷৷6.19৷৷
யதா தீபோ நிவாதஸ்தோ நேங்கதே ஸோபமா ஸ்மரிதா. யோகிநோ யதசித்தஸ்ய யுஞ்ஜதோ யோகமாத்மநஃ৷৷6.19৷৷
యథా దీపో నివాతస్థో నేఙ్గతే సోపమా స్మృతా. యోగినో యతచిత్తస్య యుఞ్జతో యోగమాత్మనః৷৷6.19৷৷
6.20
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।।6.20।। योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आप से अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हो जाता है।
।।6.20।। योगका सेवन करनेसे जिस अवस्थामें निरुध्द चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्थामें स्वयं अपने-आपमें अपने-आपको देखता हुआ अपने-आपमें सन्तुष्ट हो जाता है।।
null
।।6.20।। व्याख्या--'यत्रोपरमते चित्तं ৷৷. पश्यन्नात्मनि तुष्यति'--ध्यानयोगमें पहले 'मनको केवल स्वरूपमें ही लगाना है' यह धारणा होती है। ऐसी धारणा होनेके बाद स्वरूपके सिवाय दूसरी कोई वृत्ति पैदा हो भी जाय, तो उसकी उपेक्षा करके उसे हटा देने और चित्तको केवल स्वरूपमें ही लगानेसे जब मनका प्रवाह केवल स्वरूपमें ही लग जाता है, तब उसको ध्यान कहते हैं। ध्यानके समय ध्याता, ध्यान और ध्येय--यह त्रिपुटी रहती है अर्थात् साधक ध्यानके समय अपनेको ध्याता (ध्यान करनेवाला) मानता है, स्वरूपमें तद्रूप होनेवाली वृत्तिको ध्यान मानता है और साध्यरूप स्वरूपको ध्येय मानता है। तात्पर्य है कि जबतक इन तीनोंका अलग-अलग ज्ञान रहता है, तबतक वह 'ध्यान' कहलाता है। ध्यानमें ध्येयकी मुख्यता होनेके कारण साधक पहले अपनेमें ध्यातापना भूल जाता है। फिर ध्यानकी वृत्ति भी भूल जाता है। अन्तमें केवल ध्येय ही जाग्रत् रहता है। इसको 'समाधि' कहते हैं। यह 'संप्रज्ञातसमाधि' है जो चित्तकी एकाग्र अवस्थामें होती है। इस समाधिके दीर्घकालके अभ्याससे फिर 'असंप्रज्ञात-समाधि' होती है। इन दोनों समाधियोंमें भेद यह है कि जबतक ध्येय, ध्येयका नाम और नाम-नामीका सम्बन्ध--ये तीनों चीजें रहती हैं, तबतक वह 'संप्रज्ञात-समाधि' होती है। इसीको चित्तकी 'एकाग्र' अवस्था कहते हैं। परन्तु जब नामकी स्मृति न रहकर केवल नामी (ध्येय) रह जाता है, तब वह 'असंप्रज्ञात-समाधि' होती है। इसीको चित्तकी 'निरुद्ध' अवस्था कहते हैं।निरुद्ध अवस्थाकी समाधि दो तरहकी होती है--सबीज और निर्बीज। जिसमें संसारकी सूक्ष्म वासना रहती है, वह 'सबीज समाधि' कहलाती है। सूक्ष्म वासनाके कारण सबीज समाधिमें सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं। ये सिद्धियाँ सांसारिक दृष्टिसे तो ऐश्वर्य हैं, पर पारमार्थिक दृष्टिसे (चेतन-तत्त्वकी प्राप्तिमें) विघ्न हैं। ध्यानयोगी जब इन सिद्धियोंको निस्तत्त्व समझकर इनसे उपराम हो जाता है, तब उसकी 'निर्बीज समाधि' होती है, जिसका यहाँ (इस श्लोकमें)
।।6.20 6.23।।इदानीं तस्य स्वस्वभावस्य ब्रह्मणो बहुतरविशेषणद्वारेण स्वरूपं निरूप्यते यः तीर्थान्तरकल्पितेभ्यश्च रूपेभ्यो व्यतिरेकः यत्रेत्यादि अनिर्विण्णचेतसा इत्यन्तम्। यत्र मनो निरुद्धम् उपरमते स्वयमेव। आत्यन्तिकं विषयकृतकालुष्याभावात् सुखं यत्र वेत्ति। अपरो लाभो धनदारपुत्रादीनां संनियोगलब्धश्च योगः अन्यत्र सुखधीर्निवर्तते च इति वस्तुस्वभावोऽयमित्यर्थः। न विचाल्यते विशेषेण न चाल्यते अपि तु संस्कारमात्रेणैवास्यप्रथमक्षणमात्रमेव चलनं कारुण्यादिवशात् न तु मूढतया विनष्टो बताहम्। किं मया प्रतिपत्तव्यम् इत्यादि। दुःखसंयोगस्य वियोगो यतः स च निश्चयेन आस्तिकताजनितया श्रद्धया सर्वथा योक्तव्यः अभ्यसनीयः। अनिर्विण्णम् उपेयप्राप्तौ दृढतरं संसारं दुःखबहुलम् प्रति निर्विण्णं वा (S N omit वा) चेतो यस्य।
।।6.20।।योगसेवया हेतुना सर्वत्र निरुद्धं चित्तं यत्र योगे उपरमते अतिशयितसुखम् इदम् एव इति रमते यत्र च योगे आत्मना मनसा आत्मानं पश्यन् अन्यनिरपेक्षम् आत्मनि एव तुष्यति।
।।6.20।।द्विविधः समाधिः संप्रज्ञातोऽसंप्रज्ञातश्च ध्येयैकाकारसत्त्ववृत्तिर्भेदेन कथंचिज्ज्ञायमाना संप्रज्ञातः समाधिः कथमपि पृथगज्ञायमाना सैव सत्त्ववृत्तिरसंप्रज्ञातः समाधिः तत्र सामान्येन समाधिलक्षणमभिधायासंप्रज्ञातस्य समाधेरधुना लक्षणं विवक्षन्नाह एवमिति। काले समाध्युपलक्षिते। एवकारस्तुष्यतीत्यनेन संबध्यते। चकारस्य संबन्धमाह यस्मिंश्चेति। कालस्तु पूर्ववत्। कर्मकारकत्वेन निर्दिष्टमात्मानं तत्पदार्थत्वेन व्याचष्टे परमिति। आत्मनीत्यस्य त्वंपदार्थविषयत्वमाह स्व एवेति। परमात्मानं प्रतीच्येव तद्भावेनापरोक्षीकुर्वन्नतुष्टिहेत्वभावात्तुष्यत्येवेत्यर्थः। तस्मिन्काले योगसिद्धिर्भवतीति शेषः।
।।6.20।।तमेव योगं स्वरूपतः फलतश्च लक्षयति यत्रेति सार्धैस्त्रिभिः। यत्र यस्मिन् काले योगतन्त्रसेवया निरुद्धं चित्तमुपरमते सर्वत इति स्वरूपलक्षणमुक्तम्। तथाच पातञ्जलसूत्रम् 1।2योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति।
।।6.20।।एवं सामान्येन समाधिमुक्त्वा निरोधसमाधिं विस्तरेण विवरीतुमारभते यत्र यस्मिन्परिणामविशेषे योगसेवया योगाभ्यासपाटवेन जाते सति चित्तं निरुद्धमेकविषयकवृत्तिप्रवाहरूपामेकाग्रतां त्यक्त्वा निरिन्धनाग्निवदुपशाम्यन्निर्वृत्तिकतया सर्ववृत्तिनिरोधरूपेण परिणतं भवति यत्र यस्मिंश्च परिणामे सति आत्मना रजस्तमोऽनभिभूतशुद्धसत्त्वमात्रेणान्तःकरणेनात्मानं प्रत्यक्चैतन्यं परमात्माभिन्नं सच्चिदानन्दघनमनन्तद्वितीयं पश्यन् वेदान्तप्रमाणजया वृत्त्या साक्षात्कुर्वन्नात्मन्येव परमानन्दघने तुष्यति न देहेन्द्रियसंघाते न वा तद्भोग्येऽन्यत्र। परमात्मदर्शने सत्यतुष्टिहेत्वभावात्तुष्यत्येवेति वा। तमन्तःकरणपरिणामं सर्वचित्तवृत्तिनिरोधरूपं योगं विद्यादिति परेणान्वयः। यत्र काल इति तु व्याख्यानमसाधु तच्छब्दानन्वयात्।
।।6.20।।यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डवेत्यादौ कर्मैव योगशब्देनोक्तं नात्यश्नतस्तु योगोस्तीत्यादौ तु समाधिर्योगशब्देनोक्तः। तत्र मुख्यो योगः क इत्यपेक्षायां समाधिमेव स्वरूपतः फलतश्च लक्षयन्स एव मुख्यो योग इत्याह यत्रेति सार्धैस्त्रिभिः। यत्र यस्मिन्नवस्थाविशेषे योगाभ्यासेन निरुद्धं चित्तमुपरतं भवतीति योगस्य स्वरूपलक्षणमुक्तम्। तथाच पातञ्जलं सूत्रम्योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति। इष्टप्राप्तिलक्षणेन फलेन तमेव लक्षयति। यत्र च यस्मिन्नवस्थाविशेषे आत्मना शुद्धेन मनसात्मानमेव पश्यति नतु देहादि पश्यंश्चात्मन्येव तुष्यति नतु विषयेषु। यत्रेत्यादीनां यच्छब्दानां तं योगसंज्ञितं विद्यादिति चतुर्थेनान्वयः।
।।6.20।।पुनरपि योगदशैव आदरातिरेकाय निरतिशयपुरुषार्थत्वप्रतिपादनेन प्रपञ्च्यते यत्र इत्यादिभिः।निरुद्धं इत्यत्र परिगृहीतत्वविनष्टत्वादिभ्रमव्युदासाय योगसेवया हेतुना सर्वत्र निरुद्धमित्युक्तम्। सर्वतो निरुद्धमित्युक्ते प्रवृत्तस्य निवारणमात्रं प्रतीयेतसर्वत्र इत्युक्ते तूत्तरोत्तरप्रवृत्त्यनुदयोऽपि सिध्यतीति सप्तमीनिर्देशः।योगसेवया निरुद्धं यत्रोपरमते इत्युक्ते योगस्य पृथगुपादानात् यच्छब्दार्थस्य योगाद्व्यतिरेकः प्रतीयेतेति तद्व्युदासाययोगसंज्ञितम् इति वक्ष्यमाणान्वयेनयत्र योग इत्युक्तम्।यत्र यस्मिन् काले इति परोक्तमयुक्तम् उपरितनयच्छब्दभिन्नार्थत्वप्रसङ्गात् प्रतिनिर्देशस्थयोगशब्दानन्वयाच्चेति भावः।यत्रोपरमते इत्यत्र यतो विच्छिद्यत इति भ्रमापाकरणायाहअतिशयितेति। यत्र सिद्धेऽन्यत उपरमत इत्यध्याहारेण योजना न युक्ता तथा सतिनिरुद्धं इत्यनेन पुनरुक्तिश्च स्यात्। उपसर्गाणां च नानार्थत्वादयमेवातिशयितार्थ उपपन्नः। आसक्तिप्रतिपादनद्वारा तात्पर्येण वायमर्थः सिध्यतीति भावः। यत्र चैवेत्येवकारस्य यथाक्रमान्वये प्रयोजनाभावात् उचितान्वयप्रदर्शनाय आत्मन्येव तुष्यतीत्युक्तम्।अन्यनिरपेक्षमित्यवधारणतोषशब्दाभ्यां अर्थसिद्धोक्तिः। यद्वाआत्मानं पश्यंस्तुष्यति इत्येतावतैव विवक्षितसिद्धौ पुनरात्मनीति निर्देशः तदन्यव्युदासार्थ इत्यभिप्रायः। आत्मनि परमात्मानमिति योजना तु जीवयोगविषयत्वादिहासङ्गता। अतीन्द्रियमित्युक्तत्वात् परिशेषात् औचित्याच्चबुद्धिग्राह्यम् इत्यत्र बुद्धिं विशिनष्टि आत्मबुद्ध्येकेति।आत्यन्तिकं पुनर्दुःखसम्भेदरहितमित्यर्थः। यदेवंविधं सुखं तद्यत्र वेत्तीत्यन्वयः। यद्वा यत्तदिति पिण्डितं प्रसिद्ध्यतिशयार्थं तदित्येवार्थः। केचित्तु यत्तच्छब्दान्वयप्रकारमजानन्तःसुखमात्यन्तिकं यत्र इति पठन्तिवेत्ति यत्र इति यत्रशब्दः पूर्वोत्तरवाक्यसाधारणतया मध्ये प्रयुक्तः। वेत्तीत्यस्यापवर्गदशानुभाव्यसुखप्रतिसन्धानपरत्वव्युदासाय योगरूपापारोक्ष्याभिप्रायेणअनुभवतीत्युक्तम्।आत्मनि तुष्यति इति पूर्वमितरसुखनिरपेक्षत्वपरम्।सुखमात्यन्तिकम् इत्यादिकं तुस्वरूपसुखानुभवपरमित्यपौनरुक्त्यम्।सुखातिरेकेणेति उक्त एवाचलनहेतुरुचित इति भावः। प्रामाणिकार्थान्न चलतीति वा सम्यक् चलतीति वा निर्वहणं मन्दम्। योगदशायां च सुखातिरेकेण स्वरसतस्तदवस्थयैव चिरतरावस्थानाभिधानमुचितमपेक्षितं चेत्यभिप्रायेणतत्त्वतः इत्यस्यतद्भावादिति प्रतिपदमुक्तम्। इतरविषयनिरोधनैरपेक्ष्येयत्र इति श्लोकेनोक्ते। तत आत्मस्वरूपसुखानुभवस्तस्य स्वरसवाहितया दुर्विच्छेदत्वं चसुखम् इति श्लोकेनाभिहिते।अथयं लब्ध्वा इति श्लोकेन योगविरतिकालेष्वपि तस्यैवाभिलाषपदत्वाद्बाह्यसुखाभिलाषेण दुःखेन चानास्कन्दनमुच्यत इति विभागज्ञापनाभिप्रायेणयोगाद्विरत इत्यादिकमुक्तम्। योगदशायां तु लाभान्तरप्रतिसन्धानमेव नास्तीति भावः।गुरुणापि इत्युक्तगौरवव्यञ्जनायगुणवत्पुत्रवियोगादिनेत्युक्तम्।पुत्रजन्मविपत्तिभ्यां न परं सुखदुःखयोः इति ह्याहुः।न विचाल्यते योगप्रतिकूलमवसादं न गच्छतीत्यर्थः। दुःखसंयोगस्य वियोगस्तस्यासम्बन्धः अभाव इत्यर्थः। स च भावान्तरमिति ज्ञापनायाह दुःखसंयोगप्रत्यनीकाकारमिति। दुःखसंयोगस्य वियोगो यत्रेति व्यधिकरणबहुव्रीहौ फलितोक्तिरियम्। अथवा वियोगशब्दोऽत्र वियुज्यतेऽनेनेति करणार्थघञन्तो वियोगहेतुपर इति भावः। निर्विण्णचेतसेति पदच्छेदे संसारे तापत्रयेष्वेवेत्यध्याहारः स्यात् तत्तु सप्रयोजने योजनान्तरे सम्भवति न युक्तम् तस्मादनिर्निण्णचेतसेति पदच्छेदः। निश्चयशब्दोऽपि तेनैव हेतुसमर्पणेनान्वितः न तुयोक्तव्यः इत्यनेन निरर्थकान्वयप्रसङ्गात्। अनिर्विण्णत्वहेतुश्च निश्चयः पूर्वोक्तनिरतिशयपुरुषार्थत्वेनैव स्यात् तदेतदखिलमभिसन्धायाह स एवमिति।एवंरूपो निरतिशयपुरुषार्थरूप इत्यर्थः।योक्तव्यः इत्युक्तत्वात् आरम्भोपकारकत्वद्योतनायआरम्भदशायामित्युक्तम्।मनसा क्लिश्यमानस्तु समाधानं च कामयेत्। अनिर्वेदं मुनिर्गच्छन् कुर्यादेवात्मनो हितम्। इति ह्युच्यते।।अतो विरक्त्युपयुक्तो निर्वेदोऽन्यः अयं त्वन्यादृश इतिहृष्टचेतसेत्युक्तम्।योक्तव्यः कर्तव्य इत्यर्थः।
।।6.20।।यस्मिन् योगे मनश्चञ्चलं न भवति स कीदृशो योगः इत्यपेक्षायामाह यत्रेति सार्धैस्त्रिभिः। यत्र यस्यामवस्थायां योगसेवया भावात्मकसंयोगरूपभगवत्सेवया स्वभोगादिभ्यो निरुद्धं चित्तमुपरमते संयोगावस्थाभावरूपसमीपे रमते। यत्र चावस्थाविशेषे विविधभावस्फूर्तावात्मना भावरूपेणाऽऽत्मानं भावरूपं पश्यन् आत्मन्येव भावरूप एव तुष्यतितं योगसंज्ञितं विद्यात् इति तुर्ये 23 श्लोकत्रयस्याऽन्वयः।
।।6.20।।यत्रेति। एवं चित्तमेकाग्रीभूतं सत् योगसेवया निरुद्धं यत्र यस्यामवस्थायामुपरमते विलीनं भवति यत्र वा आत्मना चित्तेनात्मानं निर्विकल्पं पश्यन्नात्मनि तुष्यति न बाह्यार्थे तुष्टिं भजते।
।।6.20।।द्विविधः समाधिः संप्रज्ञातोऽसंप्रज्ञातश्चेति। तत्र ध्येयैकाकारसत्त्ववृत्तिर्भेदेन कथंचिज्ज्ञायमाना आद्यः। कथमपि पृथगज्ञायमाना सैव सत्त्ववृत्तिर्द्वितीयः। तत्राद्यं प्रदर्श्य इदानीं द्वितीयस्य लक्षणं विवक्षन्नाह यत्रेति। निरुद्धं सर्वतो निवारितप्रचारं यत्र चैव यस्मिंश्च काले आत्मना समाधिपरिशुद्धेनान्तःकरणेनात्मानं परं तत्पदार्थ ज्योतिःस्वरुपं पश्यन्नुपलभमाः त्वंपदार्थ आत्मन्येव तुष्यति परमात्मानं प्रत्यक्चैतन्यएव तद्भावेनापरोक्षीकुर्वन् अतुष्टिनिदानाभावात्तुष्टिं लभत एवेत्यर्थः।
6.20 यत्र where? उपरमते attains ietude? चित्तम् mind? निरुद्धम् restrained? योगसेवया by the practice of Yoga? यत्र where? च and? एव only? आत्मना by the Self? आत्मानम् the Self? पश्यन् seeing? आत्मनि in the Self? तुष्यति is satisfied.Commentary The verses 20? 21? 22 and 23 must be taken together.When the mind is completely withdrawn from the objects of the senses? supreme peace reigns within the heart. When the mind becomes ite steady by constant and protracted practice of concentration the Yogi beholds the Supreme Self by the mind which is rendered pure and onepointed and attains to supreme satisfaction in the Self within.
6.20 When the mind, restrained by the practice of Yoga attains to quietude and when seeing the Self by the self, he is satisfied in his own Self.
6.20 There, where the whole nature is seen in the light of the Self, where the man abides within his Self and is satisfied there, its functions restrained by its union with the Divine, the mind finds rest.
6.20 At the time when the mind restrained through the practice of Yoga gets withdrawn, and just when by seeing the Self by the self one remains contented in the Self alone [A.G. construes the word eva (certainly) with tusyati (remains contented).-Tr.];
6.20 Yatra, at the time when; cittam, the mind; niruddham, restrained, entirely prevented from wandering; uparamate, gets withdrawn; yoga-sevaya, through the practice of Yoga; ca, and; yatra eva, just when, at the very moment when; pasyan, by seeing, by experiencing; atmanam, the Self, which by nature is the supreme light of Consciousness; atmana, by the self, by the mind purified by concentration; tusyati, one remains contented, gets delighted; atmani eva, in one's own Self alone-. [Samadhi is of two kinds, Samprajnata and Asamprajnata. The concentration called right knowledge (Samprajnata) is that which is followed by reasoning, discrimination, blisss and unqualified egoism. Asamprajnata is that which is attained by the constant practice of cessation of all mental activity, in which the citta retains only the unmanifested impressions.-Cf. C. W., Vol. I, 1962, pp. 210, 212. According to A.G. the verses upto 6.20 state in a general way the characteristics of samadhi. From the present verse to the 25th, Asamprajnata-samadhi is introduced and defined.-Tr.] Besides,
6.20. Where the mind, well-restrained through Yoga-practice, remains iet; again where, observing, by the self, nothing but the Self, he (Yogi) is satisfied in the Self;
6.20 See Comment under 6.23
6.20 - 6.23 Where, through the practice of Yoga, the mind, which is subdued everywhere by such practice, 'rejoices', i.e., rejoices in surpassing felicity; and where, perceiving through Yoga 'the self (Atman)' by 'the mind (Atman)' one is delighted by the self and indifferent to all other objects; and where, through Yoga, one 'knows', i.e., experiences that infinite happiness which can be grasped only by the 'intellect' contemplating on the self, but is beyond the grasp of the senses; where, remaining in that Yoga, one does not 'swerve from that state,' because of the overwhelming happiness that state confers; having gained which, he desires for it alone, even when he is awakened from Yoga, and does not hold anything else as a gain; where one is not moved even by 'the heaviest sorrow' caused by any berevaement like that of a virtuous son - let him know that disunion from all union with pain, i.e., which forms the opposite of union with pain, is called by the term Yoga. This Yoga must be practised with the determination of its nature as such from the beginning with a mind free from despondency, i.e., with zestful exaltation.
6.20 Where the mind, controlled by the practice of Yoga, rests and where seeing the self by the self one is delighted by the self only;
।।6.20।।इस प्रकार योगाभ्यासके बलसे वायुरहित स्थानमें रखे हुए दीपककी भाँति एकाग्र किया हुआ योगसाधनसे निरुद्ध किया हुआ सब ओरसे चञ्चलतारहित किया हुआ चित्त जिस समय उपरत होता है उपरतिको प्राप्त होता है। तथा जिस कालमें समाधिद्वारा अति निर्मल ( स्वच्छ ) हुए अन्तःकरणसे परम चैतन्य ज्योतिःस्वरूप आत्माका साक्षात् करता हुआ वह अपने आपमें ही संतुष्ट हो जाता है तृप्ति लाभ कर लेता है।
।।6.20।। यत्र यस्मिन् काले उपरमते चित्तम् उपरतिं गच्छति निरुद्धं सर्वतो निवारितप्रचारं योगसेवया योगानुष्ठानेन यत्र चैव यस्मिंश्च काले आत्मना समाधिपरिशुद्धेन अन्तःकरणेन आत्मानं परं चैतन्यं ज्योतिःस्वरूपं पश्यन् उपलभमानः स्वे एव आत्मनि तुष्यति तुष्टिं भजते।।किञ्च
।।6.20।।यत्र चैवात्मना इत्यत्र पदत्रयं व्याख्याति आत्मनेति। अन्वयापेक्षया व्युत्क्रमः। पश्यन्निति स्थानविवेकार्थमुक्तम्।
।।6.20।।आत्मना मनसा आत्मनि देहे आत्मानं भगवन्तं पश्यन्।
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया। यत्र चैवात्मनाऽऽत्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।6.20।।
যত্রোপরমতে চিত্তং নিরুদ্ধং যোগসেবযা৷ যত্র চৈবাত্মনাত্মানং পশ্যন্নাত্মনি তুষ্যতি৷৷6.20৷৷
যত্রোপরমতে চিত্তং নিরুদ্ধং যোগসেবযা৷ যত্র চৈবাত্মনাত্মানং পশ্যন্নাত্মনি তুষ্যতি৷৷6.20৷৷
યત્રોપરમતે ચિત્તં નિરુદ્ધં યોગસેવયા। યત્ર ચૈવાત્મનાત્માનં પશ્યન્નાત્મનિ તુષ્યતિ।।6.20।।
ਯਤ੍ਰੋਪਰਮਤੇ ਚਿਤ੍ਤਂ ਨਿਰੁਦ੍ਧਂ ਯੋਗਸੇਵਯਾ। ਯਤ੍ਰ ਚੈਵਾਤ੍ਮਨਾਤ੍ਮਾਨਂ ਪਸ਼੍ਯਨ੍ਨਾਤ੍ਮਨਿ ਤੁਸ਼੍ਯਤਿ।।6.20।।
ಯತ್ರೋಪರಮತೇ ಚಿತ್ತಂ ನಿರುದ್ಧಂ ಯೋಗಸೇವಯಾ. ಯತ್ರ ಚೈವಾತ್ಮನಾತ್ಮಾನಂ ಪಶ್ಯನ್ನಾತ್ಮನಿ ತುಷ್ಯತಿ৷৷6.20৷৷
യത്രോപരമതേ ചിത്തം നിരുദ്ധം യോഗസേവയാ. യത്ര ചൈവാത്മനാത്മാനം പശ്യന്നാത്മനി തുഷ്യതി৷৷6.20৷৷
ଯତ୍ରୋପରମତେ ଚିତ୍ତଂ ନିରୁଦ୍ଧଂ ଯୋଗସେବଯା| ଯତ୍ର ଚୈବାତ୍ମନାତ୍ମାନଂ ପଶ୍ଯନ୍ନାତ୍ମନି ତୁଷ୍ଯତି||6.20||
yatrōparamatē cittaṅ niruddhaṅ yōgasēvayā. yatra caivātmanā৷৷tmānaṅ paśyannātmani tuṣyati৷৷6.20৷৷
யத்ரோபரமதே சித்தஂ நிருத்தஂ யோகஸேவயா. யத்ர சைவாத்மநாத்மாநஂ பஷ்யந்நாத்மநி துஷ்யதி৷৷6.20৷৷
యత్రోపరమతే చిత్తం నిరుద్ధం యోగసేవయా. యత్ర చైవాత్మనాత్మానం పశ్యన్నాత్మని తుష్యతి৷৷6.20৷৷
6.21
6
21
।।6.21।। जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य है, उस सुखका जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी फिर कभी तत्त्वसे विचलित नहीं होता।
।।6.21।। जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय और बुध्दिग्राह्म है, उस सुखका जिस अवस्थामें अनुभव करता है और जिस सुखमें स्थित हुआ यह ध्यानयोगी फिर कभी तत्वसे विचलित नहीं होता है।।
null
।।6.21।। व्याख्या--'सुखमात्यन्तिकं यत्'--ध्यानयोगी अपने द्वारा अपने-आपमें जिस सुखका अनुभव करता है, प्राकृत संसारमें उस सुखसे बढ़कर दूसरा कोई सुख हो ही नहीं सकता और होना सम्भव ही नहीं है। कारण कि यह सुख तीनों गुणोंसे अतीत और स्वतःसिद्ध है। यह सम्पूर्ण सुखोंकी आखिरी हद है--'सा काष्ठा सा परा गतिः।' इसी सुखको अक्षय सुख (5। 21), अत्यन्त सुख (6। 28) और ऐकान्तिक सुख (14। 27) कहा गया है। इस सुखको यहाँ 'आत्यन्तिक' कहनेका तात्पर्य है कि यह सुख सात्त्विक सुखसे विलक्षण है। कारण कि सात्त्विक सुख तो परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे उत्पन्न होता है (गीता 18। 37); परन्तु यह आत्यन्तिक सुख उत्पन्न नहीं होता, प्रत्युत यह स्वतःसिद्ध अनुत्पन्न सुख है।
।।6.20 6.23।।इदानीं तस्य स्वस्वभावस्य ब्रह्मणो बहुतरविशेषणद्वारेण स्वरूपं निरूप्यते यः तीर्थान्तरकल्पितेभ्यश्च रूपेभ्यो व्यतिरेकः यत्रेत्यादि अनिर्विण्णचेतसा इत्यन्तम्। यत्र मनो निरुद्धम् उपरमते स्वयमेव। आत्यन्तिकं विषयकृतकालुष्याभावात् सुखं यत्र वेत्ति। अपरो लाभो धनदारपुत्रादीनां संनियोगलब्धश्च योगः अन्यत्र सुखधीर्निवर्तते च इति वस्तुस्वभावोऽयमित्यर्थः। न विचाल्यते विशेषेण न चाल्यते अपि तु संस्कारमात्रेणैवास्य प्रथमक्षणमात्रमेव चलनं कारुण्यादिवशात् न तु मूढतया विनष्टो बताहम्। किं मया प्रतिपत्तव्यम् इत्यादि। दुःखसंयोगस्य वियोगो यतः स च निश्चयेन आस्तिकताजनितया श्रद्धया सर्वथा योक्तव्यः अभ्यसनीयः। अनिर्विण्णम् उपेयप्राप्तौ दृढतरं संसारं दुःखबहुलम् प्रति निर्विण्णं वा (S N omit वा) चेतो यस्य।
।।6.21।।यत्तद् अतीन्द्रियम् आत्मबुद्ध्येकग्राह्यम् आत्यन्तिकं सुखं यत्र च योगे वेत्ति अनुभवति यत्र च योगे स्थितः सुखातिरेकेण तत्त्वतः तद्भावात् न चलति।
।।6.21।।योगसिद्धिकालं प्रकारान्तरेण प्रकटयति किञ्चेति। बुद्धिशब्दः स्वानुभवविषयः। इन्द्रियनिरपेक्षस्वानुभवगम्यत्वोक्तेरतीन्द्रियमिति पुनरुक्तमित्याशङ्क्याह अविषयेति। पदच्छेदः नचेत्यादि। अपेक्षितपूरणम् आत्मस्वरूप इति। तस्मात्तत्त्वत इति संबन्धः नैवेत्येवकारसंबन्धोक्तिः चकारः सप्तम्या संबन्धनीयः। यत्रेति पूर्ववत्संबन्धः।
।।6.21।।आत्मसुखप्राप्तिलक्षणेन फलेन तमेव लक्षयति यत्रेति। सुखमात्यन्तिकं इति च आत्मरूपया बुद्ध्या ज्ञानेन ग्राह्यं इतरेन्द्रियाग्राह्यत्वात् सुखमात्मरूपं निर्दिष्टम् तत्त्वतः आत्मस्वरूपात्सुखात्मत्वाद्धि न चलति।
।।6.21।।आत्मन्येव तोषे हेतुमाह यत्र यस्मिन्नवस्थाविशेष आत्यन्तिकमनन्तं निरतिशयं ब्रह्मस्वरूपमतीन्द्रियं विषयेन्द्रियसंप्रयोगानभिव्यङ्ग्यं बुद्धिग्राह्यं बुद्ध्यैव रजस्तमोमलरहितया सत्त्वमात्रवाहिन्या ग्राह्यं सुखं योगी वेत्ति अनुभवति। यत्र च स्थितोऽयं विद्वांस्तत्त्वत आत्मस्वरूपान्नैव चलति तं योगसंज्ञितं विद्यादिति परेणान्वयः समानः। अत्रात्यन्तिकमिति ब्रह्मसुखस्वरूपकथनम्। अतीन्द्रियमिति विषयसुखव्यावृत्तिः तस्य विषयेन्द्रियसंयोगसापेक्षत्वात्। बुद्धिग्राह्यमिति सौषुप्तसुखव्यावृत्तिः सुषुप्तौ बुद्धेर्लीनत्वात्। समाधौ निर्वृत्तिकायास्तस्याः सत्त्वात्। तदुक्तं गौडपादैःलीयते तु सुषुप्तौ तन्निगृहीतं न लीयते इति। तथाच श्रूयतेसमाधिनिर्धूतमलस्य चेतसो निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं भवेत्। न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते।। इति। अन्तःकरणेन निरुद्धसर्ववृत्तिकेनेत्यर्थः। वृत्त्या तु सुखास्वादनं गौडपादाचार्यैस्तत्र प्रतिषिद्धंनास्वादयेत्सुखं तत्र निःसङ्गः प्रज्ञया भवेत् इति। महदिदं समाधौ सुखमनुभवामीति सविकल्पवृत्तिरूपा प्रज्ञा सुखास्वादः। तं व्युत्थानरूपत्वेन समाधिविरोधित्वाद्योगी न कुर्यात्। अतएवैतादृश्या प्रज्ञया सह सङ्गं परित्यजेत् तां निरुन्ध्यादित्यर्थः। निर्वृत्तिकेन तु चित्तेन स्वरूपसुखानुभवस्तैः प्रतिपादितःस्वस्थं शान्तं सनिर्वाणमकथ्यं सुखमुत्तमम् इति। स्पष्टं चैतदुपरिष्टात्करिष्यते।
।।6.21।।आत्मन्येव तोषे हेतुमाह सुखमिति। यत्र यस्मिन्नवस्थाविशेषे यत्तत्किमपि निरतिशयमात्यन्तिकं नित्यं सुखं वेत्ति। ननु तदा विषयेन्द्रियसंबन्धाभावात्कुतः सुखं स्यात्तत्राह। अतीन्द्रियं विषयेन्द्रियसंबन्धातीतम्। केवलं बुद्ध्यैवात्माकारतया ग्राह्यम्। अतएव च यत्र स्थितः संस्तत्त्वत आत्मस्वरूपान्नैव चलति।
।। 6.21 पुनरपि योगदशैव आदरातिरेकाय निरतिशयपुरुषार्थत्वप्रतिपादनेन प्रपञ्च्यते यत्र इत्यादिभिः।निरुद्धं इत्यत्र परिगृहीतत्वविनष्टत्वादिभ्रमव्युदासाय योगसेवया हेतुना सर्वत्र निरुद्धमित्युक्तम्। सर्वतो निरुद्धमित्युक्ते प्रवृत्तस्य निवारणमात्रं प्रतीयेतसर्वत्र इत्युक्ते तूत्तरोत्तरप्रवृत्त्यनुदयोऽपि सिध्यतीति सप्तमीनिर्देशः।योगसेवया निरुद्धं यत्रोपरमते इत्युक्ते योगस्य पृथगुपादानात् यच्छब्दार्थस्य योगाद्व्यतिरेकः प्रतीयेतेति तद्व्युदासाययोगसंज्ञितम् इति वक्ष्यमाणान्वयेनयत्र योग इत्युक्तम्।यत्र यस्मिन् काले इति परोक्तमयुक्तम् उपरितनयच्छब्दभिन्नार्थत्वप्रसङ्गात् प्रतिनिर्देशस्थयोगशब्दानन्वयाच्चेति भावः।यत्रोपरमते इत्यत्र यतो विच्छिद्यत इति भ्रमापाकरणायाहअतिशयितेति। यत्र सिद्धेऽन्यत उपरमत इत्यध्याहारेण योजना न युक्ता तथा सतिनिरुद्धं इत्यनेन पुनरुक्तिश्च स्यात्। उपसर्गाणां च नानार्थत्वादयमेवातिशयितार्थ उपपन्नः। आसक्तिप्रतिपादनद्वारा तात्पर्येण वायमर्थः सिध्यतीति भावः। यत्र चैवेत्येवकारस्य यथाक्रमान्वये प्रयोजनाभावात् उचितान्वयप्रदर्शनाय आत्मन्येव तुष्यतीत्युक्तम्।अन्यनिरपेक्षमित्यवधारणतोषशब्दाभ्यां अर्थसिद्धोक्तिः। यद्वाआत्मानं पश्यंस्तुष्यति इत्येतावतैव विवक्षितसिद्धौ पुनरात्मनीति निर्देशः तदन्यव्युदासार्थ इत्यभिप्रायः। आत्मनि परमात्मानमिति योजना तु जीवयोगविषयत्वादिहासङ्गता। अतीन्द्रियमित्युक्तत्वात् परिशेषात् औचित्याच्चबुद्धिग्राह्यम् इत्यत्र बुद्धिं विशिनष्टि आत्मबुद्ध्येकेति।आत्यन्तिकं पुनर्दुःखसम्भेदरहितमित्यर्थः। यदेवंविधं सुखं तद्यत्र वेत्तीत्यन्वयः। यद्वा यत्तदिति पिण्डितं प्रसिद्ध्यतिशयार्थं तदित्येवार्थः। केचित्तु यत्तच्छब्दान्वयप्रकारमजानन्तःसुखमात्यन्तिकं यत्र इति पठन्तिवेत्ति यत्र इति यत्रशब्दः पूर्वोत्तरवाक्यसाधारणतया मध्ये प्रयुक्तः। वेत्तीत्यस्यापवर्गदशानुभाव्यसुखप्रतिसन्धानपरत्वव्युदासाय योगरूपापारोक्ष्याभिप्रायेणअनुभवतीत्युक्तम्।आत्मनि तुष्यति इति पूर्वमितरसुखनिरपेक्षत्वपरम्।सुखमात्यन्तिकम् इत्यादिकं तु स्वरूपसुखानुभवपरमित्यपौनरुक्त्यम्।सुखातिरेकेणेति उक्त एवाचलनहेतुरुचित इति भावः। प्रामाणिकार्थान्न चलतीति वा सम्यक् चलतीति वा निर्वहणं मन्दम्। योगदशायां च सुखातिरेकेण स्वरसतस्तदवस्थयैव चिरतरावस्थानाभिधानमुचितमपेक्षितं चेत्यभिप्रायेणतत्त्वतः इत्यस्यतद्भावादिति प्रतिपदमुक्तम्। इतरविषयनिरोधनैरपेक्ष्येयत्र इति श्लोकेनोक्ते। तत आत्मस्वरूपसुखानुभवस्तस्य स्वरसवाहितया दुर्विच्छेदत्वं चसुखम् इति श्लोकेनाभिहिते।अथयं लब्ध्वा इति श्लोकेन योगविरतिकालेष्वपि तस्यैवाभिलाषपदत्वाद्बाह्यसुखाभिलाषेण दुःखेन चानास्कन्दनमुच्यत इति विभागज्ञापनाभिप्रायेणयोगाद्विरत इत्यादिकमुक्तम्। योगदशायां तु लाभान्तरप्रतिसन्धानमेव नास्तीति भावः।गुरुणापि इत्युक्तगौरवव्यञ्जनायगुणवत्पुत्रवियोगादिनेत्युक्तम्।पुत्रजन्मविपत्तिभ्यां न परं सुखदुःखयोः इति ह्याहुः।न विचाल्यते योगप्रतिकूलमवसादं न गच्छतीत्यर्थः। दुःखसंयोगस्य वियोगस्तस्यासम्बन्धः अभाव इत्यर्थः। स च भावान्तरमिति ज्ञापनायाह दुःखसंयोगप्रत्यनीकाकारमिति। दुःखसंयोगस्य वियोगो यत्रेति व्यधिकरणबहुव्रीहौ फलितोक्तिरियम्। अथवा वियोगशब्दोऽत्र वियुज्यतेऽनेनेति करणार्थघञन्तो वियोगहेतुपर इति भावः। निर्विण्णचेतसेति पदच्छेदे संसारे तापत्रयेष्वेवेत्यध्याहारः स्यात् तत्तु सप्रयोजने योजनान्तरे सम्भवति न युक्तम् तस्मादनिर्निण्णचेतसेति पदच्छेदः। निश्चयशब्दोऽपि तेनैव हेतुसमर्पणेनान्वितः न तुयोक्तव्यः इत्यनेन निरर्थकान्वयप्रसङ्गात्। अनिर्विण्णत्वहेतुश्च निश्चयः पूर्वोक्तनिरतिशयपुरुषार्थत्वेनैव स्यात् तदेतदखिलमभिसन्धायाह स एवमिति।एवंरूपो निरतिशयपुरुषार्थरूप इत्यर्थः।योक्तव्यः इत्युक्तत्वात् आरम्भोपकारकत्वद्योतनायआरम्भदशायामित्युक्तम्।मनसा क्लिश्यमानस्तु समाधानं च कामयेत्। अनिर्वेदं मुनिर्गच्छन् कुर्यादेवात्मनो हितम्। इति ह्युच्यते।।अतो विरक्त्युपयुक्तो निर्वेदोऽन्यः अयं त्वन्यादृश इतिहृष्टचेतसेत्युक्तम्।योक्तव्यः कर्तव्य इत्यर्थः।
।।6.21।।तेषामुत्पत्तिप्रकारमाह सुखमिति। यत्र अवस्थाविशेषे तथाभूतसेवानुभव जाताग्रिमविविधमनोरथरूपे৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. आत्यन्तिकमतिशयितं जीवभावप्राप्तिफलात्मकं सुखं बुद्धिग्राह्यं भावात्मकस्वरूपात्मबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियं लौकिकेन्द्रियसम्बन्धाविषयं यत् तद्वेति। च पुनः अयं पुञ्जीवः यत्रावस्थायां तत्त्वतो भावात्मकदास्यफले रसकोटिस्फूर्तिरहितभावेन स्थितो नैव चलतितं विद्यात् 23 इत्यभिभ()श्लोकेनैव सम्बन्धः।
।।6.21।।किं च सुखमिति। आत्यन्तिकमनन्तं यत्सुखं तत्केवलं बुद्धिग्राह्यं सौषुप्तसुखवद्यतोऽतीन्द्रियमिन्द्रियागोचरं यत्र सुखे स्थितोऽयं न वेत्ति वेद्याभावान्न किंचिदनुभवति नापि तत्त्वतश्चलति। बुद्धितादातम्याध्यासकाले चलतीवेति भाति परंतु तत्त्वतो न चलति। तथा च श्रुतिःध्यायतीव लेलायतीव इतीवशब्दं प्रयुञ्जाना ध्यानादेरतात्त्विकत्वं दर्शयति। बुद्धौ ध्यायन्त्यां ध्यायतीवेति लेलायन्त्यां लेलायतीवेति श्रुत्यर्थः। यद्वा तत्सुखं यत्रायं न चैव वेत्ति किमपि नैवानुभवति। यत्रेत्यादि भिन्नं वाक्यम्।
।।6.21।।किंच सुखमत्यन्तमेव भवतीत्यात्यन्तिकं अनन्तमित्यर्थः। यदेतादृशं ब्रह्मानन्दरुपं सुखं तदुद्य्धैव गृह्यत िति बुद्धिग्राह्मम्।दृश्यते त्वग्र्यया बुद्य्धा सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः इति श्रुतेः। अतीन्द्रियमिन्द्रियगोचरातीतम्। विषयाजन्यमित्यर्थः। यत्र यस्मिन्कालेऽयं विद्वान् आत्मस्वरुपेणावस्थितो वेत्ति अनुभवति तत्त्वतस्तत्त्वरुपान्नैव चलति। न प्रत्यवत इत्यर्थः।
6.21 सुखम् bliss? आत्यन्तिकम् infinite? यत् which? तत् that? बुद्धिग्राह्यम् that which can be grasped by reason? अतीन्द्रियम् transcending the senses? वेत्ति knows? यत्र where? न not? च and? एव even? अयम् this? स्थितः established? चलति moves? तत्त्वतः from the Reality.Commentary The Infinite Bliss of the Self (which is beyond the reach of the senses) can be grasped (realised) by the pure intellect independently of the senses. During deep meditation the senses cease to function? as they are involved into their cause? the mind. The intellect is rendered pure by the practice of Yama (selfrestriant) and Niyama (observances and disciplinary practices) and constant meditation.
6.21 When he (the Yogi) feels that Infinite Bliss which can be grasped by the (pure) intellect and which transcends the senses, and established wherein he never moves from the Reality.
6.21 When he enjoys the Bliss which passes sense, and which only the Pure Intellect can grasp, when he comes to rest within his own highest Self, never again will he stray from reality.
6.21 When one experienece that absolute Blisss which can be intuited by the intellect and which is beyond the senses, and being established (thus) this person surely does not swerve from Reality;
6.21 Yatra, when, at the time when; vetti, one experiences; tat, that; atyantikam, absolute-which is verily limitless, i.e. infinite; sukham, Bliss; yat, which; buddhi-grahyam, can be intuited by the intellect, intuited by the intellect alone, without the help of the senses; and which is atindriyam, beyond the senses, i.e. not objective; (-when one experieneces this kind of Bliss) and sthitah, being established in the nature of the Self; ayam, this person, the illumined one; eva, surely; na calati, does not swerve; tattvatah, from that Reality-i.e. does not deviate from the nature of Reality-. Further,
6.21. Where he realises that limitless Bliss Which is to be grasped by intellect and is beyond sences; remaining Where he does not stir out from the Reality;
6.20 See Comment under 6.23
6.20 - 6.23 Where, through the practice of Yoga, the mind, which is subdued everywhere by such practice, 'rejoices', i.e., rejoices in surpassing felicity; and where, perceiving through Yoga 'the self (Atman)' by 'the mind (Atman)' one is delighted by the self and indifferent to all other objects; and where, through Yoga, one 'knows', i.e., experiences that infinite happiness which can be grasped only by the 'intellect' contemplating on the self, but is beyond the grasp of the senses; where, remaining in that Yoga, one does not 'swerve from that state,' because of the overwhelming happiness that state confers; having gained which, he desires for it alone, even when he is awakened from Yoga, and does not hold anything else as a gain; where one is not moved even by 'the heaviest sorrow' caused by any berevaement like that of a virtuous son - let him know that disunion from all union with pain, i.e., which forms the opposite of union with pain, is called by the term Yoga. This Yoga must be practised with the determination of its nature as such from the beginning with a mind free from despondency, i.e., with zestful exaltation.
6.21 Where one knows that infinite happiness which can be grasped by the intellect but is beyond the grasp of the senses, wherein established one swerves not from that condition;
।।6.21।।तथा जो सुख अत्यन्त यानी अन्तसे रहित अनन्त है जो इन्द्रियोंकी कुछ भी अपेक्षा न करके केवल बुद्धिसे ही ग्रहण किया जानेयोग्य है जो इन्द्रियोंकी पहुँचसे अतीत है यानी जो विषयजनित सुख नहीं है ऐसे सुखको यह योगी जिस कालमें अनुभव कर लेता है जिस कालमें अपने स्वरूपमें स्थित हुआ यह ज्ञानी उसतत्त्वसे वास्तविक स्वरूपसे चलायमान नहीं होता विचलित नहीं होता।
।।6.21।। सुखम् आत्यन्तिकं अत्यन्तमेव भवति इत्यात्यन्तिकम् अनन्तमित्यर्थः यत् तत् बुद्धिग्राह्यं बुद्ध्यैव इन्द्रियनिरपेक्षया गृह्यते इति बुद्धिग्राह्यम् अतीन्द्रियम् इन्द्रियगोचरातीतम् अविषयजनितमित्यर्थः वेत्ति तत् ईदृशं सुखमनुभवति यत्र यस्मिन् काले न च एव अयं विद्वान् आत्मस्वरूपे स्थितः तस्मात् नैव चलति तत्त्वतः तत्त्वस्वरूपात् न प्रच्यवते इत्यर्थः।।किञ्च
।।6.21 6.22।।तत्त्वतस्तद्भावात् ब्रह्मत्वादिति प्रमाणविरुद्धं व्याख्यानं व्यावर्तयितुमाह तत्त्वत इति।
।।6.21 6.22।।तत्त्वतो भगवद्रूपत्वात्।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः।।6.21।।
সুখমাত্যন্তিকং যত্তদ্বুদ্ধিগ্রাহ্যমতীন্দ্রিযম্৷ বেত্তি যত্র ন চৈবাযং স্থিতশ্চলতি তত্ত্বতঃ৷৷6.21৷৷
সুখমাত্যন্তিকং যত্তদ্বুদ্ধিগ্রাহ্যমতীন্দ্রিযম্৷ বেত্তি যত্র ন চৈবাযং স্থিতশ্চলতি তত্ত্বতঃ৷৷6.21৷৷
સુખમાત્યન્તિકં યત્તદ્બુદ્ધિગ્રાહ્યમતીન્દ્રિયમ્। વેત્તિ યત્ર ન ચૈવાયં સ્થિતશ્ચલતિ તત્ત્વતઃ।।6.21।।
ਸੁਖਮਾਤ੍ਯਨ੍ਤਿਕਂ ਯਤ੍ਤਦ੍ਬੁਦ੍ਧਿਗ੍ਰਾਹ੍ਯਮਤੀਨ੍ਦ੍ਰਿਯਮ੍। ਵੇਤ੍ਤਿ ਯਤ੍ਰ ਨ ਚੈਵਾਯਂ ਸ੍ਥਿਤਸ਼੍ਚਲਤਿ ਤਤ੍ਤ੍ਵਤ।।6.21।।
ಸುಖಮಾತ್ಯನ್ತಿಕಂ ಯತ್ತದ್ಬುದ್ಧಿಗ್ರಾಹ್ಯಮತೀನ್ದ್ರಿಯಮ್. ವೇತ್ತಿ ಯತ್ರ ನ ಚೈವಾಯಂ ಸ್ಥಿತಶ್ಚಲತಿ ತತ್ತ್ವತಃ৷৷6.21৷৷
സുഖമാത്യന്തികം യത്തദ്ബുദ്ധിഗ്രാഹ്യമതീന്ദ്രിയമ്. വേത്തി യത്ര ന ചൈവായം സ്ഥിതശ്ചലതി തത്ത്വതഃ৷৷6.21৷৷
ସୁଖମାତ୍ଯନ୍ତିକଂ ଯତ୍ତଦ୍ବୁଦ୍ଧିଗ୍ରାହ୍ଯମତୀନ୍ଦ୍ରିଯମ୍| ବେତ୍ତି ଯତ୍ର ନ ଚୈବାଯଂ ସ୍ଥିତଶ୍ଚଲତି ତତ୍ତ୍ବତଃ||6.21||
sukhamātyantikaṅ yattadbuddhigrāhyamatīndriyam. vētti yatra na caivāyaṅ sthitaścalati tattvataḥ৷৷6.21৷৷
ஸுகமாத்யந்திகஂ யத்தத்புத்திக்ராஹ்யமதீந்த்ரியம். வேத்தி யத்ர ந சைவாயஂ ஸ்திதஷ்சலதி தத்த்வதஃ৷৷6.21৷৷
సుఖమాత్యన్తికం యత్తద్బుద్ధిగ్రాహ్యమతీన్ద్రియమ్. వేత్తి యత్ర న చైవాయం స్థితశ్చలతి తత్త్వతః৷৷6.21৷৷
6.22
6
22
।।6.22।। जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता।
।।6.22।। जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है।।
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।।6.22।। व्याख्या--'यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः'-- मनुष्यको जो सुख प्राप्त है, उससे अधिक सुख दीखता है तो वह उसके लोभमें आकर विचलित हो जाता है। जैसे, किसीको एक घंटेके सौ रुपये मिलते हैं। अगर उतने ही समयमें दूसरी जगह हजार रुपये मिलते हों, तो वह सौ रुपयोंकी स्थितिसे विचलित हो जायगा और हजार रूपयोंकी स्थितिमें चला जायगा। निद्रा, आलस्य और प्रमादका तामस सुख प्राप्त होनेपर भी जब विषयजन्य सुख ज्यादा अच्छा लगता है, उसमें अधिक सुख मालूम देता है, तब मनुष्य तामस सुखको छोड़कर विषयजन्य सुखकी तरफ लपककर चला जाता है। ऐसे ही जब वह विषयजन्य सुखसे ऊँचा उठता है, तब वह सात्त्विक सुखके लिये विचलित हो जाता है और जब सात्त्विक सुखसे भी ऊँचा उठता है, तब वह आत्यन्तिक सुखके लिये विचलित हो जाता है। परन्तु जब आत्यन्तिक सुख प्राप्त हो जाता है, तो फिर वह उससे विचलित नहीं होता; क्योंकि आत्यन्तिक सुखसे बढ़कर दूसरा कोई सुख, कोई लाभ है ही नहीं। आत्यन्तिक सुखमें सुखकी हद हो जाती है। ध्यानयोगीको जब ऐसा सुख मिल जाता है, तो फिर वह इस सुखसे विचलित हो ही कैसे सकता है?
।।6.20 6.23।।इदानीं तस्य स्वस्वभावस्य ब्रह्मणो बहुतरविशेषणद्वारेण स्वरूपं निरूप्यते यः तीर्थान्तरकल्पितेभ्यश्च रूपेभ्यो व्यतिरेकः यत्रेत्यादि अनिर्विण्णचेतसा इत्यन्तम्। यत्र मनो निरुद्धम् उपरमते स्वयमेव। आत्यन्तिकं विषयकृतकालुष्याभावात् सुखं यत्र वेत्ति। अपरो लाभो धनदारपुत्रादीनां संनियोगलब्धश्च योगः अन्यत्र सुखधीर्निवर्तते च इति वस्तुस्वभावोऽयमित्यर्थः। न विचाल्यते विशेषेण न चाल्यते अपि तु संस्कारमात्रेणैवास्य प्रथमक्षणमात्रमेव चलनं कारुण्यादिवशात् न तु मूढतया विनष्टो बताहम्। किं मया प्रतिपत्तव्यम् इत्यादि। दुःखसंयोगस्य वियोगो यतः स च निश्चयेन आस्तिकताजनितया श्रद्धया सर्वथा योक्तव्यः अभ्यसनीयः। अनिर्विण्णम् उपेयप्राप्तौ दृढतरं संसारं दुःखबहुलम् प्रति निर्विण्णं वा (S N omit वा) चेतो यस्य।
।।6.22।।यं योगं लब्ध्वा योगाद् विरतः तम् एव काङ्क्षमाणो न अपरं लाभं मन्यते यस्मिन् च योगे स्थितः अविरतः अपि गुणवत्पुत्रवियोगादिना गुरुणा अपि दुःखेन न विचाल्यते।
।।6.22।।प्रकारान्तरेण प्रकृतं योगं विशिनष्टि किञ्चेति। आत्मलाभान्न परं विद्यत इति स्मृत्वा व्याचष्टे यमात्मलाभमिति। लाभान्तरं पुरुषार्थभूतं ततस्तस्मादात्मलाभादिति यावत्। तं विद्यादित्युत्तरत्र संबन्धः। यस्मिन्नित्याद्यवतारयति किञ्चेति। अपरिपक्वयोगो यथा दर्शितेन दुःखेन प्रच्याव्यते न चैवं विचाल्यते यस्मिन्स्थितो योगी तं योगं विद्यादिति पूर्ववत्।
।।6.22 6.25।।तदेव विशिनष्टि यं लब्ध्वेति। एतेनेष्टप्राप्त्यनिष्टनिवृत्तिफलको योगः समन्वितःतं विद्यात् ৷৷. योगसंज्ञितं दुःखसंयोगेन वियोग एव योग इति विरुद्धलक्षणया उच्यते। यस्मादेवं महाफलो योगस्तस्मात्स एव यत्नोऽभ्यसनीयः इत्याह सार्धेन। स निश्चयेनेति यत्नेन।
।।6.22।।यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः इत्युक्तमुपपादयति यं च निरतिशयात्मकसुखव्यञ्जकं निर्वृत्तिकचित्तावस्थाविशेषं लबध्वा संतताभ्यासपरिपाकेन संपाद्यापरं लाभं ततोऽधिकं न मन्यतेकृतं कृत्यं प्राप्तं प्रापणीयमित्यात्मलाभान्न परं विद्यते इति स्मृतेः। एवं विषयभोगवासनया समाधेर्विचलनं नास्तीत्युक्त्वा शीतवातमशकाद्युपद्रवनिवारणार्थमपि तन्नास्तीत्याह यस्मिन्परमात्मसुखमये निर्वृत्तिकचित्तावस्थाविशेषे स्थितो योगी गुरुणा महता शास्त्रनिपातादिनिमित्तेन महतापि दुःखेन न विचाल्यते किमुत क्षुद्रेणेत्यर्थः।
।।6.22।।अचलत्वमेवोपपादयति यमिति। यमात्मसुखरूपलाभं लब्ध्वा ततोऽधिकमपरं लाभं न मन्यते न चिन्तयति तस्यैव निरतिशयसुखत्वात् यस्मिंश्च स्थितो महतापि शीतोष्णादिदुःखेन न विचाल्यते नाभिभूयते। एतेनेष्टनिवृत्तिफलेनापि योगलक्षणमुक्तं द्रष्टव्यम्।
।। 6.22 पुनरपि योगदशैव आदरातिरेकाय निरतिशयपुरुषार्थत्वप्रतिपादनेन प्रपञ्च्यते यत्र इत्यादिभिः।निरुद्धं इत्यत्र परिगृहीतत्वविनष्टत्वादिभ्रमव्युदासाय योगसेवया हेतुना सर्वत्र निरुद्धमित्युक्तम्। सर्वतो निरुद्धमित्युक्ते प्रवृत्तस्य निवारणमात्रं प्रतीयेतसर्वत्र इत्युक्ते तूत्तरोत्तरप्रवृत्त्यनुदयोऽपि सिध्यतीति सप्तमीनिर्देशः।योगसेवया निरुद्धं यत्रोपरमते इत्युक्ते योगस्य पृथगुपादानात् यच्छब्दार्थस्य योगाद्व्यतिरेकः प्रतीयेतेति तद्व्युदासाययोगसंज्ञितम् इति वक्ष्यमाणान्वयेनयत्र योग इत्युक्तम्।यत्र यस्मिन् काले इति परोक्तमयुक्तम् उपरितनयच्छब्दभिन्नार्थत्वप्रसङ्गात् प्रतिनिर्देशस्थयोगशब्दानन्वयाच्चेति भावः।यत्रोपरमते इत्यत्र यतो विच्छिद्यत इति भ्रमापाकरणायाहअतिशयितेति। यत्र सिद्धेऽन्यत उपरमत इत्यध्याहारेण योजना न युक्ता तथा सतिनिरुद्धं इत्यनेन पुनरुक्तिश्च स्यात्। उपसर्गाणां च नानार्थत्वादयमेवातिशयितार्थ उपपन्नः। आसक्तिप्रतिपादनद्वारा तात्पर्येण वायमर्थः सिध्यतीति भावः। यत्र चैवेत्येवकारस्य यथाक्रमान्वये प्रयोजनाभावात् उचितान्वयप्रदर्शनाय आत्मन्येव तुष्यतीत्युक्तम्।अन्यनिरपेक्षमित्यवधारणतोषशब्दाभ्यां अर्थसिद्धोक्तिः। यद्वाआत्मानं पश्यंस्तुष्यति इत्येतावतैव विवक्षितसिद्धौ पुनरात्मनीति निर्देशः तदन्यव्युदासार्थ इत्यभिप्रायः। आत्मनि परमात्मानमिति योजना तु जीवयोगविषयत्वादिहासङ्गता। अतीन्द्रियमित्युक्तत्वात् परिशेषात् औचित्याच्चबुद्धिग्राह्यम् इत्यत्र बुद्धिं विशिनष्टि आत्मबुद्ध्येकेति।आत्यन्तिकं पुनर्दुःखसम्भेदरहितमित्यर्थः। यदेवंविधं सुखं तद्यत्र वेत्तीत्यन्वयः। यद्वा यत्तदिति पिण्डितं प्रसिद्ध्यतिशयार्थं तदित्येवार्थः। केचित्तु यत्तच्छब्दान्वयप्रकारमजानन्तःसुखमात्यन्तिकं यत्र इति पठन्तिवेत्ति यत्र इति यत्रशब्दः पूर्वोत्तरवाक्यसाधारणतया मध्ये प्रयुक्तः। वेत्तीत्यस्यापवर्गदशानुभाव्यसुखप्रतिसन्धानपरत्वव्युदासाय योगरूपापारोक्ष्याभिप्रायेणअनुभवतीत्युक्तम्।आत्मनि तुष्यति इति पूर्वमितरसुखनिरपेक्षत्वपरम्।सुखमात्यन्तिकम् इत्यादिकं तु स्वरूपसुखानुभवपरमित्यपौनरुक्त्यम्।सुखातिरेकेणेति उक्त एवाचलनहेतुरुचित इति भावः। प्रामाणिकार्थान्न चलतीति वा सम्यक् चलतीति वा निर्वहणं मन्दम्। योगदशायां च सुखातिरेकेण स्वरसतस्तदवस्थयैव चिरतरावस्थानाभिधानमुचितमपेक्षितं चेत्यभिप्रायेणतत्त्वतः इत्यस्यतद्भावादिति प्रतिपदमुक्तम्। इतरविषयनिरोधनैरपेक्ष्येयत्र इति श्लोकेनोक्ते। तत आत्मस्वरूपसुखानुभवस्तस्य स्वरसवाहितया दुर्विच्छेदत्वं चसुखम् इति श्लोकेनाभिहिते।अथयं लब्ध्वा इति श्लोकेन योगविरतिकालेष्वपि तस्यैवाभिलाषपदत्वाद्बाह्यसुखाभिलाषेण दुःखेन चानास्कन्दनमुच्यत इति विभागज्ञापनाभिप्रायेणयोगाद्विरत इत्यादिकमुक्तम्। योगदशायां तु लाभान्तरप्रतिसन्धानमेव नास्तीति भावः।गुरुणापि इत्युक्तगौरवव्यञ्जनायगुणवत्पुत्रवियोगादिनेत्युक्तम्।पुत्रजन्मविपत्तिभ्यां न परं सुखदुःखयोः इति ह्याहुः।न विचाल्यते योगप्रतिकूलमवसादं न गच्छतीत्यर्थः। दुःखसंयोगस्य वियोगस्तस्यासम्बन्धः अभाव इत्यर्थः। स च भावान्तरमिति ज्ञापनायाह दुःखसंयोगप्रत्यनीकाकारमिति। दुःखसंयोगस्य वियोगो यत्रेति व्यधिकरणबहुव्रीहौ फलितोक्तिरियम्। अथवा वियोगशब्दोऽत्र वियुज्यतेऽनेनेति करणार्थघञन्तो वियोगहेतुपर इति भावः। निर्विण्णचेतसेति पदच्छेदे संसारे तापत्रयेष्वेवेत्यध्याहारः स्यात् तत्तु सप्रयोजने योजनान्तरे सम्भवति न युक्तम् तस्मादनिर्निण्णचेतसेति पदच्छेदः। निश्चयशब्दोऽपि तेनैव हेतुसमर्पणेनान्वितः न तुयोक्तव्यः इत्यनेन निरर्थकान्वयप्रसङ्गात्। अनिर्विण्णत्वहेतुश्च निश्चयः पूर्वोक्तनिरतिशयपुरुषार्थत्वेनैव स्यात् तदेतदखिलमभिसन्धायाह स एवमिति।एवंरूपो निरतिशयपुरुषार्थरूप इत्यर्थः।योक्तव्यः इत्युक्तत्वात् आरम्भोपकारकत्वद्योतनायआरम्भदशायामित्युक्तम्।मनसा क्लिश्यमानस्तु समाधानं च कामयेत्। अनिर्वेदं मुनिर्गच्छन् कुर्यादेवात्मनो हितम्। इति ह्युच्यते।।अतो विरक्त्युपयुक्तो निर्वेदोऽन्यः अयं त्वन्यादृश इतिहृष्टचेतसेत्युक्तम्।योक्तव्यः कर्तव्य इत्यर्थः।
।।6.22।।ननु तत्र स्थितस्य चलनाभावः कथं इत्यपेक्षायामाह यं लब्ध्वेति। यं सुखं लब्ध्वाततोऽधिकमपरं लाभं न मन्यते तत उत्तमत्वाभावात्। यस्मिन् स्थितो गुरुणाऽपि दुःखेन अधिकरणात्मकविप्रयोगादिना न विचाल्यते।
।।6.22।।दुःखेन शस्त्रपातादिलक्षणेन। गुरुणा महता।
।।6.22।।किंच यमात्मलाभं लब्ध्वा च ततोऽधिकमन्यल्लाभान्तरमस्तीति न मन्यते। किंच यस्मिन्नात्मत्त्वे स्थितो गुरुणापि दुःखेन शस्त्रनिपातादिलक्षणेन न विचाल्यते। यत्तु गुरुणा बृहस्पतिनापि दुःखेनातिप्रयासेनापि न विचाल्यते न ततः परिभ्रष्टः क्रियत इति तदुपेक्ष्यम्। क्लिष्ट कल्पनयाऽप्रसक्तप्रतिषेधस्यानुचितत्वात्।
6.22 यम् which? लब्ध्वा having obtained? च and? अपरम् other? लाभम् gain? मन्यते thinks? न not? अधिकम् greater? ततः than that? यस्मिन् in which? स्थितः established? न not? दुःखेन by sorrow? गुरुणा (by) heavy? अपि even? विचाल्यते is moved.Commentary Which the gain or the realisation of the Self or the immortal Soul.Wherein in the allblissful Self which is free from delusion and sorrow. The Self is allfull and selfcontained. All the desires are fulfilled when one attains Selfrealisation. That is the reason why the Lord says There is no other acisition superior to Selfrealisation. If one gets himself established in the Supreme Self within? he cannot be shaken every by heavy sorrow and pain? because he is mindless and he is identifying himself with the sorrowless and painless Brahman. One can experience pain and sorrow when he identifies himself with the body and the mind. If there is no mind there cannot be any pain. When one is under chloroform he feels no pian even when his hand is amputated? because the mind is withdrawn from the body.
6.22 Which, having obtained, he thinks there is no other gain superior to it; wherein estabished, he is not moved even by heavy sorrow.
6.22 Finding That, he will realise that there is no possession so precious. And when once established here, no calamity can disturb him.
6.22 Obtaining which one does not think of any other acisition to be superior to that, and being established in which one is not perturbed even by great sorrow;
6.22 Labdhva, obtaining; yam, which-by aciring which Self-attainment; na manyate, one does not think; that there is aparam, any other; labham, acisition; tatah adhikam, superior to that; and also, sthitah,being established; yasmin, in which Reality of the Self; na vicalyate, one is not perturbed; api, even; guruna, by great; duhkhena, sorrow, as may be caused by being struck with weapons, etc.-. The yoga that has been spoken of as a particular state of the Self, distinguished by its characterisics in the verses beginning with 'At the time when the mind gets withdrawn,' (20) etc.-
6.22. And having attained Which, he does not think of any other gain as superior to That; being established in Which he is not shaken much by misery, however powerful that may be;
6.20 See Comment under 6.23
6.20 - 6.23 Where, through the practice of Yoga, the mind, which is subdued everywhere by such practice, 'rejoices', i.e., rejoices in surpassing felicity; and where, perceiving through Yoga 'the self (Atman)' by 'the mind (Atman)' one is delighted by the self and indifferent to all other objects; and where, through Yoga, one 'knows', i.e., experiences that infinite happiness which can be grasped only by the 'intellect' contemplating on the self, but is beyond the grasp of the senses; where, remaining in that Yoga, one does not 'swerve from that state,' because of the overwhelming happiness that state confers; having gained which, he desires for it alone, even when he is awakened from Yoga, and does not hold anything else as a gain; where one is not moved even by 'the heaviest sorrow' caused by any berevaement like that of a virtuous son - let him know that disunion from all union with pain, i.e., which forms the opposite of union with pain, is called by the term Yoga. This Yoga must be practised with the determination of its nature as such from the beginning with a mind free from despondency, i.e., with zestful exaltation.
6.22 Which, having gained, one holds there is no greater gain beyond it; wherein established, one is not moved even by the heaviest sorrow -
।।6.22।।तथा जिस आत्मप्राप्तिरूप लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ है ऐसा नहीं मानता दूसरे लाभको स्मरण भी नहीं करता। एवं जिस आत्मतत्त्वमें स्थित हुआ योगी शस्त्राघात आदि बड़े भारी दुःखोंद्वारा भी विचलित नहीं किया जा सकता।
।।6.22।। यं लब्ध्वा यम् आत्मलाभं लब्ध्वा प्राप्य च अपरम् अन्यत् लाभं लाभान्तरं ततः अधिकम् अस्तीति न मन्यते न चिन्तयति। किञ्च यस्मिन् आत्मतत्त्वे स्थितः दुःखेन शस्त्रनिपातादिलक्षणेन गुरुणा महता अपि न विचाल्यते।। यत्रोपरमते (गीता 6।20) इत्याद्यारभ्य यावद्भिः विशेषणैः विशिष्ट आत्मावस्थाविशेषः योग उक्तः
।।6.21 6.22।।तत्त्वतस्तद्भावात् ब्रह्मत्वादिति प्रमाणविरुद्धं व्याख्यानं व्यावर्तयितुमाह तत्त्वत इति।
।।6.21 6.22।।तत्त्वतो भगवद्रूपत्वात्।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।।6.22।।
যং লব্ধ্বা চাপরং লাভং মন্যতে নাধিকং ততঃ৷ যস্মিন্স্থিতো ন দুঃখেন গুরুণাপি বিচাল্যতে৷৷6.22৷৷
যং লব্ধ্বা চাপরং লাভং মন্যতে নাধিকং ততঃ৷ যস্মিন্স্থিতো ন দুঃখেন গুরুণাপি বিচাল্যতে৷৷6.22৷৷
યં લબ્ધ્વા ચાપરં લાભં મન્યતે નાધિકં તતઃ। યસ્મિન્સ્થિતો ન દુઃખેન ગુરુણાપિ વિચાલ્યતે।।6.22।।
ਯਂ ਲਬ੍ਧ੍ਵਾ ਚਾਪਰਂ ਲਾਭਂ ਮਨ੍ਯਤੇ ਨਾਧਿਕਂ ਤਤ। ਯਸ੍ਮਿਨ੍ਸ੍ਥਿਤੋ ਨ ਦੁਖੇਨ ਗੁਰੁਣਾਪਿ ਵਿਚਾਲ੍ਯਤੇ।।6.22।।
ಯಂ ಲಬ್ಧ್ವಾ ಚಾಪರಂ ಲಾಭಂ ಮನ್ಯತೇ ನಾಧಿಕಂ ತತಃ. ಯಸ್ಮಿನ್ಸ್ಥಿತೋ ನ ದುಃಖೇನ ಗುರುಣಾಪಿ ವಿಚಾಲ್ಯತೇ৷৷6.22৷৷
യം ലബ്ധ്വാ ചാപരം ലാഭം മന്യതേ നാധികം തതഃ. യസ്മിന്സ്ഥിതോ ന ദുഃഖേന ഗുരുണാപി വിചാല്യതേ৷৷6.22৷৷
ଯଂ ଲବ୍ଧ୍ବା ଚାପରଂ ଲାଭଂ ମନ୍ଯତେ ନାଧିକଂ ତତଃ| ଯସ୍ମିନ୍ସ୍ଥିତୋ ନ ଦୁଃଖେନ ଗୁରୁଣାପି ବିଚାଲ୍ଯତେ||6.22||
yaṅ labdhvā cāparaṅ lābhaṅ manyatē nādhikaṅ tataḥ. yasminsthitō na duḥkhēna guruṇāpi vicālyatē৷৷6.22৷৷
யஂ லப்த்வா சாபரஂ லாபஂ மந்யதே நாதிகஂ ததஃ. யஸ்மிந்ஸ்திதோ ந துஃகேந குருணாபி விசால்யதே৷৷6.22৷৷
యం లబ్ధ్వా చాపరం లాభం మన్యతే నాధికం తతః. యస్మిన్స్థితో న దుఃఖేన గురుణాపి విచాల్యతే৷৷6.22৷৷
6.23
6
23
।।6.23।। जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको 'योग' नामसे जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोगका लक्ष्य है,) उस ध्यानयोगका अभ्यास न उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये।
।।6.23।। दु:ख के संयोग से वियोग है, उसीको 'योग' नामसे जानना चाहिये । (वह योग जिस ध्यानयोग लक्ष्य है,) उस ध्यानयोका अभ्यास न उकताये हुए चित्तसे   निश्चयपूर्वक करना चाहिये।।
।।6.23।। इन चार श्लोकों में योग की स्थिति का सम्पूर्ण वर्णन करते हुये भगवान् सब का आह्वान करते हैं कि इस योग का अभ्यास निश्चयपूर्वक करना चाहिये। इस मार्ग पर चलने के लिये सबको उत्साहित करने के लिए भगवान् योगी को प्राप्त सर्वोत्तम लक्ष्य का भी वर्णन करते हैं। पूर्व उपदिष्ट साधनों के अभ्यास के फलस्वरूप जब चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है तब उस शान्त चित्त में आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में नहीं वरन् अपने आत्मस्वरूप से।मन की अपने ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप की अनुभूति की यह स्थिति परम आनन्द स्वरूप है। परन्तु यह साक्षात्कार तभी संभव है जब जीव शरीर मन और बुद्धि इन परिच्छेदक उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य को पूर्णतया त्याग देता है।इस सुख को अतीन्द्रिय कहने से स्पष्ट है कि विषयोपभोग के सुख के समान यह सुख नहीं है। सामान्यत हमारे सभी अनुभव इन्द्रियों के द्वारा ही होते हैं। इसलिए जब आचार्यगण आत्मसाक्षात्कार को आनन्द की स्थिति के रूप में वर्णन करते हैं तब हम उसे बाह्य और स्वयं से भिन्न कोई लक्ष्य समझते हैं। परन्तु जब उसे अतीन्द्रिय कहा जाता है तो साधकों को उसके अस्तित्व और सत्यत्व के प्रति शंका होती है कि कहीं यह मिथ्या आश्वासन तो नहीं इस शंका का निवारण करने लिए इस श्लोक में भगवान्स्पष्ट करते हैं कि यह आत्मानन्द केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा ही ग्रहण करने योग्य है।यहाँ एक शंका मन में उठ सकती है कि प्राय अतिमानवीय प्रयत्न करने के पश्चात् इस अनन्त आनन्द का जो अनुभव होगा कहीं वह क्षणिक तो नहीं होगा जिसके लुप्त हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए पुन उतना ही परिश्रम करना पड़े नहीं। भगवान् का स्पष्ट कथन है कि जिसमें स्थित होने पर योगी तत्त्व से कभी दूर नहीं होता। यह शाश्वत सुख है जिसे प्राप्त कर लेने पर साधक पुन दुखरूप संसार को प्राप्त नहीं होता।क्या उस योगी को सामान्य जनों को अनुभव होने वाले दुख कभी नहीं होंगे क्या उसमें संसारी मनुष्यों के समान अधिकसेअधिक वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी क्या वह लोगों से प्रेम करने के साथ उनसे उसकी अपेक्षा नहीं रखेगा इस प्रकार की उत्तेजनाएं केवल अज्ञानी पुरुष के लिए ही कष्टप्रद हो सकती हैं ज्ञानी के लिए नहीं। यहाँ बाइसवें श्लोक में उस परमसत्य को उद्घाटित करते हैं जिसे प्राप्त कर लेने पर योगी इससे अधिक अन्य कोई भी लाभ नहीं मानता है।इतने अधिक स्पष्टीकरण के पश्चात् भी केवल बौद्धिक स्तर पर वेदान्त को समझने का प्रयत्न करने वाले लोगों के मन में शंका आ सकती है कि क्या इस आनन्द के अनुभव को जीवन की तनाव दुख कष्ट और शोकपूर्ण परिस्थितियों में भी निश्चल रखा जा सकता है दूसरे शब्दों में क्या धर्म धनवान् और समर्थ लोगों के लिए के लिए केवल मनोरंजन और विलास दुर्बल एवं असहाय लोगों के लिए अन्धविश्वासजन्य सन्तोष और पलायनवादियों के लिए काल्पनिक स्वर्गमात्र नहीं है क्या जीवन में आनेवाली कठिन परिस्थितियों में जैसे प्रिय का वियोग हानि रुग्णता दरिद्रता भुखमरी आदि में धर्म के द्वारा आश्वासित पूर्णत्व अविचलित रह सकता है लोगों के मन में उठने वाली इस शंका का असंदिग्ध उत्तर देते हुए यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जिसमें स्थित हो जाने पर पर्वताकार दुखों से भी वह योगी विचलित नहीं होता।उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सार यह है योगाभ्यास से मन के एकाग्र होने पर योगी को अपने उस परम आनन्दस्वरूप की अनुभूति होती है जो अतीन्द्रिय तथा केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है। उस अनुभव में फिर बुद्धि भी लीन हो जाती है। इस स्थिति में न संसार में पुनरागमन होता है न इससे श्रेष्ठतर कोई अन्य लाभ ही है। इसमें स्थित पुरुष गुरुतम दुखों से भी विचलित नहीं होता। गीता में इस अद्भुत सत्य का आत्मस्वरूप से निर्देश किया गया है और जो सभी विवेकी साधकों का परम लक्ष्य है।इस आत्मा को जानना चाहिए। आत्मज्ञान तथा आत्मानुभूति के साधन को गीता में योग कहा गया है और इस अध्याय में योग की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है।गीता की प्रस्तावना में हम देख चुकें है कि किस प्रकार गीता में महाभारत के सन्दर्भ में उपनिषद् प्रतिपादित सिद्धांतों का पुनर्विचार किया गया है। योग के विषय में व्याप्त इस मिथ्या धारणा का कि यह कोई अद्भुत साधना है जिसका अभ्यास करना सामान्य जनों के लिए अति कठिन है गीता में पूर्णतया परिहार कर दिया गया है। आत्मविकास के साधन के रूप में जो योग कुछ विरले लोगों के लिए ही उपलब्ध था उसका गीता में मानो सार्वजनिक उद्यान में रूपान्तरण कर दिया गया है। जिसमें कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से प्रवेश करके यथायोग्य लाभान्वित हो सकता है। इस दृष्टि से गीता को हिन्दुओं के पुनर्जागरण का क्रान्तिकारी ग्रन्थ कहना उचित ही है।अवतार के रूप में ईश्वरीय निर्वाध अधिकार से सम्पन्न होने के अतिरिक्त श्रीकृष्ण की भावनाओं उद्देश्यों एवं कर्मों में एक क्रान्तिकारी का अपूर्व उत्साह झलकता है। जब ऐसा दिव्य पुरुष अध्यात्म और संस्कृति के क्षेत्र में कार्य कर रहा हो तो उसकी दी हुई योग की परिभाषा भी उतनी ही श्रेष्ठ होगी। भगवान् कहते हैं दुख के संयोग से वियोग की स्थिति योग है। योग की यह पुर्नव्याख्या इस प्रकार विरोधाभास की भाषा में गुंथी हुई है कि प्रत्येक पाठक का ध्यान सहसा उसकी ओर आकर्षित होता है और वह उस पर विचार करने के लिए बाध्यसा हो सकता है।योग शब्द का अर्थ है संबंध। अज्ञान दशा में मनुष्य का संबंध केवल अनित्य परिच्छिन्न विषयों के साथ ही होने के कारण उसे जीवन में सदैव अनित्य सुख ही मिलते हैं। इन विषयों का अनुभव शरीर मन और बुद्धि के द्वारा होता है। एक सुख का अन्त ही दुख का प्रारम्भ है। इसलिए उपाधियों के साथ तादात्म्य किया हुआ जीवन दुखसंयुक्त होगा।स्पष्ट है कि योग विधि में हमारा प्रयत्न यह होगा कि इन उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग दें अर्थात् उनसे ध्यान दूर कर लें। जब तक इनका उपयोग हम करते रहेंगे तब तक जगत् से हमारा सम्पूर्ण अथवा आंशिक वियोग नहीं होगा। अत शरीर मन और बुद्धि से वियुक्त होकर आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही दुखसंयोगवियोग योग है।विषयों में आसक्ति से ही मन का अस्तित्व बना रहता है। किसी एक वस्तु से वियुक्त करने के लिए उसे अन्य श्रेष्ठतर वस्तु का आलम्बन देना पड़ता है। अत पारमार्थिक सत्य के आनन्द में स्थित होने का आलम्बन देने से ही दुखसंयोग से वियोग हो सकता है। परन्तु इसके लिए प्रारम्भ में मन को प्रयत्नपूर्वक बाह्य विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर करना होगा।कुछ विचार करने से यह ज्ञात होगा कि यहाँ श्रीकृष्ण ने किसी ऐसे नये आदर्श या विचार को प्रस्थापित नहीं किया है जो पहले से ही हिन्दू शास्त्रों में प्रतिपादित नहीं था। अन्तर केवल इतना है कि श्रीकृष्ण के समय तक साधन की अपेक्षा साध्य पर विशेष बल दिया जाता रहा था। परिणाम यह हुआ कि श्रद्धावान् लोगों के मन में उसके प्रति भय सा बैठ गया और वे योग से दूर ही रहने लगे। फलत योग कुछ विरले लोगों के लिए ही एक रहस्यमयी साधना बनकर रह गया। श्रीकृष्ण ने योग की पुर्नव्याख्या करके लोगों के मन में बैठे इस भय को निर्मूल कर दिया है।भगवान् कहते हैं कि इस योग का अभ्यास उत्साहपूर्ण और निश्चयात्मक बुद्धि से करना चाहिए। निश्चय और उत्साह ही योग की सफलता के लिए आवश्यक गुण हैं क्योंकि मिथ्या से वियोग और सत्य से संयोग ही योग है।यदि अग्नि की उष्णता असह्य लग रही हो तो हमें केवल इतना ही करना होगा कि उससे दूर हटकर किसी शीतल स्थान पर पहुँच जायें। इसी प्रकार यदि परिच्छिन्नता का जीवन दुखदायक है तो उससे मुक्ति पाने के लिए आनन्दस्वरूप आत्मा में स्थित होने की आवश्यकता है। यही है दुखसंयोगवियोग योग।योग के संदर्भ में कुछ अवान्तर विषय का वर्णन करने के पश्चात पुन अभ्यास विधि का वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं
।।6.23।। व्याख्या--तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्--जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं और होना सम्भव ही नहीं, ऐसे दुःखरूप संसार-शरीरके साथ सम्बन्ध मान लिया, यही 'दुःखसंयोग' है। यह दुःखसंयोग 'योग' नहीं है। अगर यह योग होता अर्थात् संसारके साथ हमारा नित्य-सम्बन्ध होता, तो इस दुःखसंयोगका कभी वियोग (सम्बन्ध-विच्छेद) नहीं होता। परन्तु बोध होनेपर इसका वियोग हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि दुःखसंयोग केवल हमारा माना हुआ है, हमारा बनाया हुआ है, स्वाभाविक नहीं है। इससे कितनी ही दृढ़तासे संयोग मान लें और कितने ही लम्बे कालतक संयोग मान लें, तो भी इसका कभी संयोग नहीं हो सकता। अतः हम इस माने हुए आगन्तुक दुःखसंयोगका वियोग कर सकते हैं। इस दुःखसंयोग-(शरीर-संसार-) का वियोग करते ही स्वाभाविक योग की प्राप्ति हो जातीहै अर्थात् स्वरूपके साथ हमारा जो नित्ययोग है, उसकी हमें अनुभूति हो जाती है। स्वरूपके साथ नित्ययोगको ही यहाँ 'योग' समझना चाहिये।यहाँ दुःखरूप संसारके सर्वथा वियोगको 'योग' कहा गया है। इससे यह असर पड़ता है कि अपने स्वरूपके साथ पहले हमारा वियोग था, अब योग हो गया। परन्तु ऐसी बात नहीं है। स्वरूपके साथ हमारा नित्ययोग है। दुःखरूप संसारके संयोगका तो आरम्भ और अन्त होता है तथा संयोगकालमें भी संयोगका आरम्भ और अन्त होता रहता है। परन्तु इस नित्ययोगका कभी आरम्भ और अन्त नहीं होता। कारण कि यह योग मन, बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थोंसे नहीं होता, प्रत्युत इनके सम्बन्ध-विच्छेदसे होता है। यह नित्ययोग स्वतःसिद्ध है। इसमें सबकी स्वाभाविक स्थिति है। परन्तु अनित्य संसारसे सम्बन्ध मानते रहनेके कारण इस नित्ययोगकी विस्मृति हो गयी है। संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होते ही नित्ययोगकी स्मृति हो जाती है। इसीको अर्जुनने अठारहवें अध्यायके तिहत्तरवें श्लोकमें नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा कहा है। अतः यह योग नया नहीं हुआ है, प्रत्युत जो नित्ययोग है, उसीकी अनुभूति हुई है। भगवान्ने यहाँ योगसंज्ञतिम् पद देकर दुःखके संयोगके वियोगका नाम 'योग' बताया है और दूसरे अध्यायमें समत्वं योग उच्यते कहकर समताको ही 'योग' बताया है। यहाँ साध्यरूप समताका वर्णन है और वहाँ (2। 48 में) साधनरूप समताका वर्णन है। ये दोनों बातें तत्त्वतः एक ही हैं; क्योंकि साधनरूप समता ही अन्तमें साध्यरूप समतामें परिणत हो जाती है। पतञ्जलि महाराजने चित्तवृत्तियोंके निरोधको 'योग' कहा है--योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः (योगदर्शन 1। 2) और चित्तवृत्तियोंका निरोध होनेपर द्रष्टाकी स्वरूपमें स्थिति बतायी है--तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् (1। 3)। परन्तु यहाँ भगवान्ने तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् पदोंसे द्रष्टाकी स्वरूपमें स्थितिको ही 'योग 'कहा है, जो स्वतःसिद्ध है। यहाँ तम् कहनेका क्या तात्पर्य है? अठारहवें श्लोकमें योगीके लक्षण बताकर उन्नीसवें श्लोकमें दीपकके दृष्टान्तसे उसके अन्तःकरणकी स्थितिका वर्णन किया गया। उस ध्यानयोगीका चित्त जिस अवस्थामें उपराम हो जाता है, उसका संकेत बीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें यत्र पदसे किया और जब उस योगीकी स्थिति परमात्मामें हो जाती है, उसका संकेत श्लोकके उत्तरार्धमें यत्र पदसे किया। इक्कीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें यत् पदसे उस योगीके आत्यन्तिक सुखकी महिमा कही और उत्तरार्धमें यत्र पदसे उसकी अवस्थाका संकेत किया। बाईसवें श्लोकके पूर्वार्धमें यम् पदसे उस योगीके लाभका वर्णन किया और उत्तरार्धमें उसी लाभको यस्मिन् पदसे कहा। इस तरह बीसवें श्लोकसे बाईसवें श्लोकतक छः बार यत् (टिप्पणी प0 356) शब्दका प्रयोग करके योगीका जो विलक्षण स्थिति बतायी गयी है, उसीका यहाँ तम् पदे संकेत करके उसकी महिमा कही गयी है।
।।6.20 6.23।।इदानीं तस्य स्वस्वभावस्य ब्रह्मणो बहुतरविशेषणद्वारेण स्वरूपं निरूप्यते यः तीर्थान्तरकल्पितेभ्यश्च रूपेभ्यो व्यतिरेकः यत्रेत्यादि अनिर्विण्णचेतसा इत्यन्तम्। यत्र मनो निरुद्धम् उपरमते स्वयमेव। आत्यन्तिकं विषयकृतकालुष्याभावात् सुखं यत्र वेत्ति। अपरो लाभो धनदारपुत्रादीनां संनियोगलब्धश्च योगः अन्यत्र सुखधीर्निवर्तते च इति वस्तुस्वभावोऽयमित्यर्थः। न विचाल्यते विशेषेण न चाल्यते अपि तु संस्कारमात्रेणैवास्य प्रथमक्षणमात्रमेव चलनं कारुण्यादिवशात् न तु मूढतया विनष्टो बताहम्। किं मया प्रतिपत्तव्यम् इत्यादि। दुःखसंयोगस्य वियोगो यतः स च निश्चयेन आस्तिकताजनितया श्रद्धया सर्वथा योक्तव्यः अभ्यसनीयः। अनिर्विण्णम् उपेयप्राप्तौ दृढतरं संसारं दुःखबहुलम् प्रति निर्विण्णं वा (S N omit वा) चेतो यस्य।
।।6.23।।तं दुःखसंयोगवियोगं दुःखसंयोगप्रत्यनीकाकारं योगशब्दाभिधेयं ज्ञानं विद्यात् स एवंभूतो योगः इत्यारम्भदशायां निश्चयेन अनिर्विण्णचेतसा हृष्टचेतसा योगो योक्तव्यः।
।।6.23।।तं विद्यादित्याद्यपेक्षितं पूरयन्नवतारयति यत्रेति। तमित्यात्मावस्थाविशेषं परामृशति। दुःखसंयोगस्य वियोगो वियोगसंज्ञितो युज्यते स कथं योगसंज्ञितः स्यादित्याशङ्क्याह विपरीतेति। इयं हि योगावस्था समुत्खातनिखिलदुःखभेदेति दुःखसंयोगाभावो योगसंज्ञामर्हतीत्यर्थः। उपसंहृते योगफले किमिति पुनर्योगस्य कर्तव्यत्वमुच्यते तत्राह योगफलमिति। प्रकारान्तरेण योगस्य कर्तव्यत्वोपदेशारम्भोऽत्रान्वारम्भः योगं युञ्जानस्तत्क्षणादुक्तां संसिद्धिमलभमानः संशयानो निवर्तेतेति तन्निवृत्त्यर्थं पुनः कर्तव्यत्वोपदेशोऽर्थवानिति मत्वाह निश्चयेति। तयोः साधनत्वविधानमेवाक्षरयोजनया साधयति स यथेति। इह जन्मनि जन्मान्तरे वा सेत्स्यतीत्यध्यवसापः। योक्तव्यः कर्तव्यः।
।।6.22 6.25।।तदेव विशिनष्टि यं लब्ध्वेति। एतेनेष्टप्राप्त्यनिष्टनिवृत्तिफलको योगः समन्वितःतं विद्यात् ৷৷. योगसंज्ञितं दुःखसंयोगेन वियोग एव योग इति विरुद्धलक्षणया उच्यते। यस्मादेवं महाफलो योगस्तस्मात्स एव यत्नोऽभ्यसनीयः इत्याह सार्धेन। स निश्चयेनेति यत्नेन।
।।6.23।।यत्रोपरमत इत्यारभ्य बहुभिर्विशेषणैर्यो निर्वृत्तिकः परमानन्दाभिव्यञ्जकाश्चित्तावस्थाविशेष उक्तस्तं चित्तवृत्तिनिरोधं चित्तवृत्तिमयसर्वदुःखविरोधित्वेन दुःखवियोगमिव सन्तं योगसंज्ञितं वियोगशब्दार्हमपि विरोधिलक्षणया योगशब्दवाच्यं विद्यज्जानीयान्नतु योगशब्दानुरोधात्कंचित्संबन्धं प्रतिपद्येतेत्यर्थः। तथाच भगवान्पतञ्जलिरसूत्रयत्योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति।योगो भवति दुःखहा इति यत्प्रागुक्तं तदेतदुपसंहृतम्। एवंभूते योगे निश्चयानिर्वेदयोः साधनत्वविधानायाह स यथोक्तफलो योगो निश्चयेन शास्त्राचार्यवचनतात्पर्यविषयोऽर्थः सत्य एवेत्यध्यवसायेन योक्तव्योऽभ्यसनीयः। अनिर्विण्णचेतसा एतावतापि कालेन योगो न सिद्धः किमतः परं कष्टमित्यनुतापो निर्वेदस्तद्रहितेन चेतसा। इह जन्मनि जन्मान्तरे वा सेत्स्यसि किं त्वरयेत्येवं धैर्ययुक्तेन मनसेत्यर्थः। तदेतद्गौडपादा उदाजह्नुःउत्सेक उदधेर्यद्वत्कुशाग्रेणैकबिन्दुना। मनसो निग्रहस्तद्वद्भवेदपरिखेदतः।। इति। उत्सेक उत्सेचनम् शोषणाध्यवसायेन जलोद्धरणमिति यावत्। अत्र संप्रदायविद आख्यायिकामाचक्षते कस्यचित्किल पक्षिणोऽण्डानि तीरस्थानि तरङ्गवेगेन समुद्रोऽपजहार। स च समुद्रं शोषयिष्याम्येवेति प्रवृत्तः स्वमुखाग्रेणैकैकं जलबिन्दुमुपरि प्रचिक्षेप। तदा च बहुभिः पक्षिभिर्बन्धुर्गैर्वार्यमाणोऽपि नैवोपरराम। यदृच्छया च तत्रागतेन नारदेन निवारितोऽप्यस्मिञ्जन्मनि जन्मान्तरे वा येन केनाप्युपायेन समुद्रं शोषयिष्याम्येवेति प्रतिजज्ञे। ततश्च दैवानुकूल्यात्कृपालुर्नारदो गरुडं तत्साहाय्याय प्रेषयामास समुद्रस्त्वज्ज्ञातिद्रोहेण त्वामवमन्यत इति वचनेन। ततो गरुडपक्षवातेन शुष्यन्समुद्रो भीतस्तान्यण्डानि तस्मै पक्षिणेप्रददौइति। एवमखेदेन मनोनिरोधे परमधर्मे प्रवर्तमानं योगिनमीश्वरोऽनुगृह्णाति। ततश्च पक्षिण इव तस्याभिमतं सिध्यतीति भावः।
।।6.23।।य एवंभूतोऽवस्थाविशेषस्तमाह तमित्यर्धेन। दुःखशब्देन दुःखमिश्रितत्वाद्वैषयिकं सुखमपि गृह्यते। दुःखस्य संयोगेन स्पर्शमात्रेणापि वियोगो यस्मिंस्तमवस्थाविशेषं योगसंज्ञितं योगशब्दवाच्यं जानीयात्। परमात्मना क्षेत्रज्ञस्य योजनंयोगः। यद्वा दुःखसंयोगेन वियोग एव शूरे कातरशब्दवद्विरुद्धलक्षणया योग उच्यते। कर्मणि तु योगशब्दस्तदुपायत्वादौपचारिक एवेति भावः। यस्मादेवं महाफलो योगस्तस्मात्स एव यत्नतोऽभ्यसनीय इत्याह स इति सार्धेन। स यो निश्चयेन शास्त्राचार्योपदेशजनितेन योक्तव्योऽभ्यसनीयः। यद्यपि शीघ्रं न सिध्यति तथाप्यनिर्विण्णेन निर्वेदरहितेन चेतसा योक्तव्यः। दुःखबुद्ध्या प्रयत्नशैथिल्यं निर्वेदः।
।। 6.23 पुनरपि योगदशैव आदरातिरेकाय निरतिशयपुरुषार्थत्वप्रतिपादनेन प्रपञ्च्यते यत्र इत्यादिभिः।निरुद्धं इत्यत्र परिगृहीतत्वविनष्टत्वादिभ्रमव्युदासाय योगसेवया हेतुना सर्वत्र निरुद्धमित्युक्तम्। सर्वतो निरुद्धमित्युक्ते प्रवृत्तस्य निवारणमात्रं प्रतीयेतसर्वत्र इत्युक्ते तूत्तरोत्तरप्रवृत्त्यनुदयोऽपि सिध्यतीति सप्तमीनिर्देशः।योगसेवया निरुद्धं यत्रोपरमते इत्युक्ते योगस्य पृथगुपादानात् यच्छब्दार्थस्य योगाद्व्यतिरेकः प्रतीयेतेति तद्व्युदासाययोगसंज्ञितम् इति वक्ष्यमाणान्वयेनयत्र योग इत्युक्तम्।यत्र यस्मिन् काले इति परोक्तमयुक्तम् उपरितनयच्छब्दभिन्नार्थत्वप्रसङ्गात् प्रतिनिर्देशस्थयोगशब्दानन्वयाच्चेति भावः।यत्रोपरमते इत्यत्र यतो विच्छिद्यत इति भ्रमापाकरणायाहअतिशयितेति। यत्र सिद्धेऽन्यत उपरमत इत्यध्याहारेण योजना न युक्ता तथा सतिनिरुद्धं इत्यनेन पुनरुक्तिश्च स्यात्। उपसर्गाणां च नानार्थत्वादयमेवातिशयितार्थ उपपन्नः। आसक्तिप्रतिपादनद्वारा तात्पर्येण वायमर्थः सिध्यतीति भावः। यत्र चैवेत्येवकारस्य यथाक्रमान्वये प्रयोजनाभावात् उचितान्वयप्रदर्शनाय आत्मन्येव तुष्यतीत्युक्तम्।अन्यनिरपेक्षमित्यवधारणतोषशब्दाभ्यां अर्थसिद्धोक्तिः। यद्वाआत्मानं पश्यंस्तुष्यति इत्येतावतैव विवक्षितसिद्धौ पुनरात्मनीति निर्देशः तदन्यव्युदासार्थ इत्यभिप्रायः। आत्मनि परमात्मानमिति योजना तु जीवयोगविषयत्वादिहासङ्गता। अतीन्द्रियमित्युक्तत्वात् परिशेषात् औचित्याच्चबुद्धिग्राह्यम् इत्यत्र बुद्धिं विशिनष्टि आत्मबुद्ध्येकेति।आत्यन्तिकं पुनर्दुःखसम्भेदरहितमित्यर्थः। यदेवंविधं सुखं तद्यत्र वेत्तीत्यन्वयः। यद्वा यत्तदिति पिण्डितं प्रसिद्ध्यतिशयार्थं तदित्येवार्थः। केचित्तु यत्तच्छब्दान्वयप्रकारमजानन्तःसुखमात्यन्तिकं यत्र इति पठन्तिवेत्ति यत्र इति यत्रशब्दः पूर्वोत्तरवाक्यसाधारणतया मध्ये प्रयुक्तः। वेत्तीत्यस्यापवर्गदशानुभाव्यसुखप्रतिसन्धानपरत्वव्युदासाय योगरूपापारोक्ष्याभिप्रायेणअनुभवतीत्युक्तम्।आत्मनि तुष्यति इति पूर्वमितरसुखनिरपेक्षत्वपरम्।सुखमात्यन्तिकम् इत्यादिकं तु स्वरूपसुखानुभवपरमित्यपौनरुक्त्यम्।सुखातिरेकेणेति उक्त एवाचलनहेतुरुचित इति भावः। प्रामाणिकार्थान्न चलतीति वा सम्यक् चलतीति वा निर्वहणं मन्दम्। योगदशायां च सुखातिरेकेण स्वरसतस्तदवस्थयैव चिरतरावस्थानाभिधानमुचितमपेक्षितं चेत्यभिप्रायेणतत्त्वतः इत्यस्यतद्भावादिति प्रतिपदमुक्तम्। इतरविषयनिरोधनैरपेक्ष्येयत्र इति श्लोकेनोक्ते। तत आत्मस्वरूपसुखानुभवस्तस्य स्वरसवाहितया दुर्विच्छेदत्वं चसुखम् इति श्लोकेनाभिहिते।अथयं लब्ध्वा इति श्लोकेन योगविरतिकालेष्वपि तस्यैवाभिलाषपदत्वाद्बाह्यसुखाभिलाषेण दुःखेन चानास्कन्दनमुच्यत इति विभागज्ञापनाभिप्रायेणयोगाद्विरत इत्यादिकमुक्तम्। योगदशायां तु लाभान्तरप्रतिसन्धानमेव नास्तीति भावः।गुरुणापि इत्युक्तगौरवव्यञ्जनायगुणवत्पुत्रवियोगादिनेत्युक्तम्।पुत्रजन्मविपत्तिभ्यां न परं सुखदुःखयोः इति ह्याहुः।न विचाल्यते योगप्रतिकूलमवसादं न गच्छतीत्यर्थः। दुःखसंयोगस्य वियोगस्तस्यासम्बन्धः अभाव इत्यर्थः। स च भावान्तरमिति ज्ञापनायाह दुःखसंयोगप्रत्यनीकाकारमिति। दुःखसंयोगस्य वियोगो यत्रेति व्यधिकरणबहुव्रीहौ फलितोक्तिरियम्। अथवा वियोगशब्दोऽत्र वियुज्यतेऽनेनेति करणार्थघञन्तो वियोगहेतुपर इति भावः। निर्विण्णचेतसेति पदच्छेदे संसारे तापत्रयेष्वेवेत्यध्याहारः स्यात् तत्तु सप्रयोजने योजनान्तरे सम्भवति न युक्तम् तस्मादनिर्निण्णचेतसेति पदच्छेदः। निश्चयशब्दोऽपि तेनैव हेतुसमर्पणेनान्वितः न तुयोक्तव्यः इत्यनेन निरर्थकान्वयप्रसङ्गात्। अनिर्विण्णत्वहेतुश्च निश्चयः पूर्वोक्तनिरतिशयपुरुषार्थत्वेनैव स्यात् तदेतदखिलमभिसन्धायाह स एवमिति।एवंरूपो निरतिशयपुरुषार्थरूप इत्यर्थः।योक्तव्यः इत्युक्तत्वात् आरम्भोपकारकत्वद्योतनायआरम्भदशायामित्युक्तम्।मनसा क्लिश्यमानस्तु समाधानं च कामयेत्। अनिर्वेदं मुनिर्गच्छन् कुर्यादेवात्मनो हितम्। इति ह्युच्यते।।अतो विरक्त्युपयुक्तो निर्वेदोऽन्यः अयं त्वन्यादृश इतिहृष्टचेतसेत्युक्तम्।योक्तव्यः कर्तव्य इत्यर्थः।
।।6.23।।तं योगसंज्ञितं मद्योगसंज्ञात्मकं विद्यात् जानीयात्। कीदृशं तं दुःखसंयोगवियोगं दुःखात्मको यः संयोगो लौकिकोऽधिकरणदेहस्थो वा तस्य वियोगरूपम्। यतोऽयं योगः फलसाधकोऽतः स कार्य इत्याह सार्द्धेन स इति। स पूर्वोक्तः फलसाधकरूपो योगो निश्चयेन गुरूपदिष्टेन अनिर्विण्णेन दुःखज्ञानजप्रपत्तिशैथिल्येन हितेन मनसा योक्तव्यः कर्तव्य इत्यर्थः।
।।6.23।।तमिति। यत्रोपरमते चित्तमित्यादिनोक्तलक्षणं तं दुःखसंयोगस्याप्यन्तःकरणसंबन्धस्य वियोगमेव सन्तं विरुद्धलक्षणया योगसंज्ञितं विद्यात्। योगफलमुपसंहृत्य पुनर्निश्चयानिर्वेदयोः साधनत्वविधानपूर्वकं तमेव शतकृत्वोऽपि पथ्यं वदितव्यमिति न्यायेन विधत्ते स इत्यादिना। स योगो निश्चयेनाध्यवसायेनानिर्विण्णं निर्वेदरहितं चेतो यस्य तेन योक्तव्योऽभ्यसनीयः। यद्वाशान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत् इति श्रुतिविहितं श्रुत्यन्तरदृष्टं श्रद्धावित्तपदोपेतं शमादिषट्कमत्र क्रमतो विधीयते। तत्र निश्चयेनेति गुरुवेदवाक्यादौ फलावश्यंभावनिश्चयलक्षणा श्रद्धात्र निश्चयपदेन गृह्यते। तथा निर्विण्णचेतसेति वैराग्येण द्वन्द्वसहिष्णुत्वलक्षणा तितिक्षा विधीयते इति ज्ञेयम्।
।।6.23।।यत्रोपरमत इत्यारभ्य यावद्भिर्विशेषणैर्विशिष्ट आत्मावस्थाविशिष्टो योग उक्तः तं योगसंज्ञितं विद्याज्जनीयात्। इति यत्र यस्मन्काले इत्यादि भाष्यं समाध्युपलक्षिते तस्मिन्काले योगसिद्धिर्भवतीति शेषः। यमात्मलाभं तं विद्यादित्युत्तरत्र संबन्धः। यस्मिस्थितो योगी न विचाल्यते तं योगं विद्यादीति पूर्ववत्। तं विद्यादित्याद्यपेक्षितं पूरयन्नवतारयति यत्रेति तमित्यात्मावस्थाविशेषं परामृशतीति भाष्यं तट्टीकाकृद्भिर्व्याख्यातम्। वस्तुतस्तु यत्रोपरमत इत्यारम्भ यावद्भिर्विशेषणैर्विशिष्ट आत्मावस्थाविशेषो योग उक्तस्तमिति भाष्यानुरोधेन काले इत्यस्य चित्तोपरमविशिष्ट आत्मावस्थाविशेष इत्यर्थः। एवमग्रेऽपि। यमात्मलाभमित्यस्य आत्मनो लाभो यस्मिन् यस्मादिति वा आत्मलाभरुपमिति वा लब्धेत्यादिविशेषणविशिष्टमात्मावस्थाविशेषमितय्रथः। यस्मिन्नात्मतत्त्व इत्यस्यात्मतत्त्वमात्रोपलब्ध्या आत्मतत्त्वे स्थित इत्यादिविशेषणविशिष्टे आत्मावस्थाविशेष इत्यर्थः। तथाच सर्वेषां यच्छब्दानां तत्तद्विशेषणविशिष्टावस्थाविशेषप्रतिपादकानां तच्छब्देनान्वय इति। एतेन यत्र काल इति व्याख्यानं त्वसाधु तच्छब्दानन्वयादिति प्रत्युक्तम्। यत्त्वसाधुवादिनोक्तं यत्र यस्मिन्परिणामविशेषे योगसेवया योगाभ्यासपाटवेन जाते सति चित्तं निरुद्धमेकविषयकवृत्तिप्रवाहरुपामेकाग्रतां त्यक्त्वा निरिन्धनाग्निवदुपशाभ्य निर्वृत्तिकतया सर्ववृत्तिनिरोधरुपेण परिणतं भवति यत्र च यस्मिंश्च परिणामं सतीत्यादि तत्रेदं वक्तव्यम्। स चित्तपरिणाम्ः कः यस्मिन्सति चित्तं निरोधपरिणामं भजति। निरोधपरिणाम उतैकाग्रतापरिणामः। नाद्यः। यस्मिन्सति सर्ववृत्तिनिरोधरुपेण चित्तं परिणतं भवति इति तस्य ततः पृथगुक्तेः। न द्वितीयः। तमन्तःकरणपरिणामं सर्वचित्तवृत्तिनिरोधरुपं योगं विद्यादीति परेणान्वयादिति स्वपरग्रन्थविरोधात्। यस्मिंश्च परिणामं सतीति। अत्रापिविकल्पनीयम्। अयं परिणामः किं पूर्वोक्तादन्य उत स एव। आद्ये प्रथमयत्रपदार्थोकार्थताभावः। न द्वितीयः। तमन्तःकरणपरिणामं सर्वचित्तवृत्तिनिरोधरुपं योगं विद्यादीति परेणान्वयादिति स्वपरग्रन्थविरोधात्। यस्मिंश्च परिणामे सतीति। अत्रापि विकल्पनीयम्। अयं परिणामः किं पूर्वोक्तादन्य उत स एव। आद्ये प्रथमयत्रपदार्थैकार्थताभावः। न द्वितीयः। उक्तदोषात् एकाग्रतापरिणामे सति निरोधपरिणामस्तस्मिंश्च सति आत्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यतीति क्रमस्यौचित्याच्चेति दिक्। दुःखैः संयोगः दुःखसंयोगः तेन वियोगो निखिलार्थनिवृत्तिरुपस्तं योगसंज्ञितं योगशब्दितं विपरीतलक्षणेन विद्याज्जानीयादित्यर्थः। योगस्य फलमुपसंहृत्यशतं कृत्वापि पथ्यं वदितव्यम् इति न्यायेन निश्चयादेः साधनत्वविधानार्थं योगस्य कर्तव्यतामाह स इति। स यथोक्तफलो योगः निश्चयेनाध्यवसायेनेह जन्मनि जन्मान्तरे वा सेत्स्यत्येवेत्यध्यवसायः। शास्त्राचार्योपदेशे यथार्थत्वनिश्चयो वा। अनिर्विण्णचेतसा खेदरहितेन चित्तेन दुःखबुद्य्धा प्रयत्नशैथिल्यकारणं खेदः। एतावतापि कालेन योगेनेति किमतःकष्टमित्येवंरुपः निश्चयेनानिर्विण्णचेतसा योक्तव्यः फलपर्यन्तमभ्यसनीयः। तदुक्तं गौटपादाचार्यैःउत्सेक उदधैर्यद्वत्कुशाग्रेणैकबिन्दुना। मनसो निग्रहस्तद्वद्भवेदपरिखेदतः।। इति। उत्सेको जलोद्धरणम्। एतेन निर्विण्णचेतसेत्येवंपदमुत्तरशेषभूतं द्रष्टव्यम्। तथा ह्यापातनिका नन्वभ्यस्यतां नाम योगस्तत्रापि यदा हि नेन्द्रियार्तेषु न कर्मस्वनुषज्जते। स सर्वसंकल्पसंन्यासीत्यनेन स्वार्थं संकल्पमूलकामनात्यागे इन्द्रियनिग्रहे प्राप्तेऽपि प्राप्तयोगैश्वर्यो दीनानाथसंदर्शनजनितानुकम्पापरवशस्तेषां हितकामनया संकल्पपूर्वं बाह्यं कर्मा चरेदित्याशङ्क्याह निर्विण्णेति। सर्वान्कामान्स्वीयानिव परसंबन्धिनोऽपि संकल्पप्रभवान् निर्विण्णेन चेतसा अशेषतः सहसंकल्पेः त्यक्त्वेति स्वसंसारनिर्वेदवतः परार्थाप्रवृत्तिरत्यन्तासंगतेति। तथा समन्ततः सर्वविषयेभ्यो मनसा सहेन्द्रियग्रामं नियम्यैव योगो योक्तव्य इति प्रत्युक्तम्। क्त्वाप्रत्ययेन कामत्यागादेः योगाभ्याससाधनत्वस्य स्पष्टप्रतीत्या योगसिद्ध्युत्तरभाव्यैश्वर्यवशादनुम्पापरवशोऽपि स्वीयानिव परकीयानपि त्यक्त्वेत्यादिवर्णनस्यानौचित्यात्। शनैः शनैरित्यादिना मनस उपरमस्य वक्ष्यमाणत्वेनात्र मनसा विवेकादियुक्तेनेतिकरणपरत्ववर्णनस्यैवौचित्याच्च।
6.23 तम् that? विद्यात् let (him) know? दुःखसंयोगवियोगम् a state of severnace from union with pain? योगसंज्ञितम् called by the name of Yoga? सः that? निश्चयेन with determination? योक्तव्यः should be practised? योगः Yoga? अनिर्विण्णचेतसा with undesponding mind.Commentary In verses 20? 21 and 22 the Lord describes the benefits of Yoga? viz.? perfect satisfaction by resting in the Self? infinite unending bliss? freedom from sorrow and pain? etc. He further adds that this Yoga should be practised with a firm conviction and iron determination and with nondepression of heart. A spiritual aspirant with a wavering mind will not able to attain success in Yoga. He will leave the practice when he meets with some obstacles on the path. The practitioner must also be bold? cheerful and selfreliant.
6.23 Let that be known by the name of Yoga, the severance from union with pain. This Yoga should be practised with determination and with an undesponding mind.
6.23 This inner severance from the affliction of misery is spirituality. It should be practised with determination and with a heart which refuses to be depressed.
6.23 One should know that severance of contact with sorrow to be what is called Yoga. That Yoga has to be practised with perservance and with an undepressed heart.
6.23 Vidyat, one should know; tat, that; duhkha-samyoga-viyogam, severance (viyoga) of contact (samyoga) with sorrow (duhkha); to be verily yoga-sanjnitam, what is called Yoga-i.e. oen should know it through a negative definition. After concluding the topic of the result of Yoga, the need for pursuing Yoga is again being spoken of in another way in order to enjoin 'preservance' and 'freedom from depression' as the disciplines for Yoga: Sah, that; yogah, Yoga, which has the results as stated above; yoktavyah, has to be practised; niscayena, with perservance; and anirvinnacetasa, with an undepressed heart. That which is not (a) depressed (nirvinnam) is anirvinnam. What is that? The heart. (One has to practise Yoga) with that heart which is free from depression. This is the meaning. Again,
6.23. That he would realise to be the cause for [his] cessation of [his] contact with misery and to be the one made known by Yoga. With determination That is to be yoked in Yoga by a person of undepressed mind (or of the depressed mind).
6.20-23 Yatra etc. upto anirvinna-cetasa. Where the mind well restrained remains iet : i.e., on its own accord. Where he realises the limitless Bliss : Becuase the dirts created by the sense-objects are absent. Any other gain : the gain obtained through the close contacts with wealth. wives, childeren etc. The idea is : With regard to other objects, the notion of their being sources of pleasure disappears; and it is the nature of the thing in estion. Not shaken much : not shaken to a great extent; [hence] there is yet [a little] shaking in him, purely due to [former] mental impression; and it lasts only for a moment due to his compassion [towards all creatures], and not due to the wrong notions like 'Alas ! I am undone ! What is to done by me.' and so on. That, due to which the cessation of contact with misery results-that must be yoked i.e., practised (concentrated upon) by all means, with determination i.e., with faith, born of the belief [in the Self]. Of undepressed mind. i.e., because the goal has been reached. Or of depressed mind : i.e., depressed that the birth-and-death-cycle is very firm and is full of misery. The means for abandoning desire is to abandon intention. This (the Lord) says :
6.20 - 6.23 Where, through the practice of Yoga, the mind, which is subdued everywhere by such practice, 'rejoices', i.e., rejoices in surpassing felicity; and where, perceiving through Yoga 'the self (Atman)' by 'the mind (Atman)' one is delighted by the self and indifferent to all other objects; and where, through Yoga, one 'knows', i.e., experiences that infinite happiness which can be grasped only by the 'intellect' contemplating on the self, but is beyond the grasp of the senses; where, remaining in that Yoga, one does not 'swerve from that state,' because of the overwhelming happiness that state confers; having gained which, he desires for it alone, even when he is awakened from Yoga, and does not hold anything else as a gain; where one is not moved even by 'the heaviest sorrow' caused by any berevaement like that of a virtuous son - let him know that disunion from all union with pain, i.e., which forms the opposite of union with pain, is called by the term Yoga. This Yoga must be practised with the determination of its nature as such from the beginning with a mind free from despondency, i.e., with zestful exaltation.
6.23 Know this deliverance from association with misery to be Yoga. This Yoga must be practised with determination and with a mind free from despondency.
।।6.23।।यत्रोपरमते से लेकर यहाँतक समस्त विशेषणोंसे विशिष्ट आत्माका अवस्थाविशेषरूप जो योग कहा गया है उस योग नामक अवस्थाको दुःखोंके संयोगका वियोग समझना चाहिये। अभिप्राय यह कि दुःखोंसे संयोग होना दुःखसंयोग है उससे वियोग हो जाना दुःखोंके संयोगका वियोग है उस दुःखसंयोगवियोग को योग ऐसे विपरीत नामसे कहा हुआ समझना चाहिये। योगफलका उपसंहार करके अब दृढ़ निश्चयको और योगविषयक रुचिको भी योगका साधन बतानेके लिये पुनः प्रकारान्तरसे योगकी कर्तव्यता बतायी जाती है वह उपर्युक्त फलवाला योग बिना उकताये हुए चित्तसे निश्चयपूर्वक करना चाहिये। जिस चित्तमें निर्विण्णता ( उद्वेग ) न हो वह अनिर्विण्णचित्त है ऐसे अनिर्विण्ण ( न उकताये हुए ) चित्तसे निश्चयपूर्वक योगका साधन करना चाहिये यह अभिप्राय है।
।।6.23।। तं विद्यात् विजानीयात् दुःखसंयोगवियोगं दुःखैः संयोगः दुःखसंयोगः तेन वियोगः दुःखसंयोगवियोगः तं दुःखसंयोगवियोगं योग इत्येव संज्ञितं विपरीतलक्षणेन विद्यात् विजानीयादित्यर्थः। योगफलमुपसंहृत्य पुनरन्वारम्भेण योगस्य कर्तव्यता उच्यते निश्चयानिर्वेदयोः योगसाधनत्वविधानार्थम्। स यथोक्तफलो योगः निश्चयेन अध्यवसायेन योक्तव्यः अनिर्विण्णचेतसा न निर्विण्णम् अनिर्विण्णम्। किं तत् चेतः तेन निर्वेदरहितेन चेतसा चित्तेनेत्यर्थः।।किञ्च
।।6.23।।ननु दुःखसम्बन्धस्य वियोगो ध्वंसः स कथं योगः स्यात् इत्यत आह दुःखेति। करणेऽपि घञः स्मरणात्। एवं तर्हि दुःखवियोगमित्येव वक्तव्यम् किं संयोगशब्देन इत्यत आह न केवलमिति। वियोगशब्दो निवारणे वर्तत इति भावः। एतच्च पदाधिक्यादेव लभ्यते नान्यथा। ननुस निश्चयेन योक्तव्यः इति पुनर्विधानं किमर्थं निश्चयेनेत्यादिविशेषविधानार्थमिति चेत् न महाफले सन्देहात् प्रवृत्त्यभावेननिश्चयेन इत्यस्य वैयर्थ्यादित्यत आह निश्चयेनेति। अयोगव्यवच्छेदे निश्चयशब्द इत्यर्थः। कुत्रायोगो व्यवच्छिद्यत इत्यत उक्तं बुभूषुणेति मुमुक्षुणेत्यर्थः।
।।6.23।।दुःखसंयोगो येन वियुज्यते स दुःखसंयोगवियोगः। न केवलमुत्पन्नं दुःखं विनाशय्रति। उत्पत्तिमेव निवारयतीति दर्शयति संयोगशब्देन। निश्चयेन योक्तव्यः योक्तव्य एव बुभूषुणेत्यर्थः।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्। स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।6.23।।
তং বিদ্যাদ্ দুঃখসংযোগবিযোগং যোগসংজ্ঞিতম্৷ স নিশ্চযেন যোক্তব্যো যোগোনির্বিণ্ণচেতসা৷৷6.23৷৷
তং বিদ্যাদ্ দুঃখসংযোগবিযোগং যোগসংজ্ঞিতম্৷ স নিশ্চযেন যোক্তব্যো যোগোনির্বিণ্ণচেতসা৷৷6.23৷৷
તં વિદ્યાદ્ દુઃખસંયોગવિયોગં યોગસંજ્ઞિતમ્। સ નિશ્ચયેન યોક્તવ્યો યોગોનિર્વિણ્ણચેતસા।।6.23।।
ਤਂ ਵਿਦ੍ਯਾਦ੍ ਦੁਖਸਂਯੋਗਵਿਯੋਗਂ ਯੋਗਸਂਜ੍ਞਿਤਮ੍। ਸ ਨਿਸ਼੍ਚਯੇਨ ਯੋਕ੍ਤਵ੍ਯੋ ਯੋਗੋਨਿਰ੍ਵਿਣ੍ਣਚੇਤਸਾ।।6.23।।
ತಂ ವಿದ್ಯಾದ್ ದುಃಖಸಂಯೋಗವಿಯೋಗಂ ಯೋಗಸಂಜ್ಞಿತಮ್. ಸ ನಿಶ್ಚಯೇನ ಯೋಕ್ತವ್ಯೋ ಯೋಗೋನಿರ್ವಿಣ್ಣಚೇತಸಾ৷৷6.23৷৷
തം വിദ്യാദ് ദുഃഖസംയോഗവിയോഗം യോഗസംജ്ഞിതമ്. സ നിശ്ചയേന യോക്തവ്യോ യോഗോനിര്വിണ്ണചേതസാ৷৷6.23৷৷
ତଂ ବିଦ୍ଯାଦ୍ ଦୁଃଖସଂଯୋଗବିଯୋଗଂ ଯୋଗସଂଜ୍ଞିତମ୍| ସ ନିଶ୍ଚଯେନ ଯୋକ୍ତବ୍ଯୋ ଯୋଗୋନିର୍ବିଣ୍ଣଚେତସା||6.23||
taṅ vidyād duḥkhasaṅyōgaviyōgaṅ yōgasaṅjñitam. sa niścayēna yōktavyō yōgō.nirviṇṇacētasā৷৷6.23৷৷
தஂ வித்யாத் துஃகஸஂயோகவியோகஂ யோகஸஂஜ்ஞிதம். ஸ நிஷ்சயேந யோக்தவ்யோ யோகோநிர்விண்ணசேதஸா৷৷6.23৷৷
తం విద్యాద్ దుఃఖసంయోగవియోగం యోగసంజ్ఞితమ్. స నిశ్చయేన యోక్తవ్యో యోగోనిర్విణ్ణచేతసా৷৷6.23৷৷
6.24
6
24
।।6.24।। संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओंका सर्वथा त्याग करके और मनसे ही इन्द्रिय-समूहको सभी ओरसे हटाकर।
।।6.24।। संकल्प से उत्पन्न समस्त कामनाओं को नि:शेष रूप से परित्याग कर मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार वश में करके।।
null
।।6.24।। व्याख्या--[जो स्थिति कर्मफलका त्याग करनेवाले कर्मयोगीकी होती है (6। 1 9), वही स्थिति सगुणसाकार भगवान्का ध्यान करनेवालेकी (6। 14 15) तथा अपने स्वरूपका ध्यान करनेवाले ध्यानयोगीकी भी होती है (6। 18 23)। अब निर्गुण-निराकारका ध्यान करनेवालेकी भी वही स्थिति होती है--यह बतानेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण कहते हैं।]
।।6.24 6.25।।कामानां त्यागे (SN कामानामुपायत्यागे) उपायः संकल्पत्याग इत्याह संकल्पेति। शनैः शनैरिति। मनसैव न (S omit न) व्यापारोपरमेण। धृतिं गृहीत्वा क्रमात् क्रममभिलाषदुःखं प्रतनूकृत्य किंचिदपि विषयाणां त्यागग्रहणादिकं न चिन्तयेत्।यत्तु (S यथात्वन्यैर् यथा तु कैश्चिद्) अन्यैर्व्याख्यातम् नकिञ्चिदपि चिन्तयेत् इति तन्नास्मभ्यं रुचितम्। शून्यवादप्रसंगात्।।6.24 6.25।।कामानां त्यागे (SN कामानामुपायत्यागे) उपायः संकल्पत्याग इत्याह संकल्पेति। शनैः शनैरिति। मनसैव न (S omit न) व्यापारोपरमेण। धृतिं गृहीत्वा क्रमात् क्रममभिलाषदुःखं प्रतनूकृत्य किंचिदपि विषयाणां त्यागग्रहणादिकं न चिन्तयेत्।यत्तु (S यथात्वन्यैर् यथा तु कैश्चिद्) अन्यैर्व्याख्यातम् नकिञ्चिदपि चिन्तयेत् इति तन्नास्मभ्यं रुचितम्। शून्यवादप्रसंगात्।
।।6.24।। स्पर्शजाः सङ्कल्पजाश्च इति द्विविधाः कामाः स्पर्शजाः शीतोष्णादयः सङ्कल्पजाः पुत्रपौत्रक्षेत्रादयः तत्र सङ्कल्पप्रभवाः स्वरूपेण एव त्यक्तुं शक्याः तान् सर्वान् मनसा एव तदनन्वयानुसन्धानेन त्यक्त्वा स्पर्शजेषु अवर्जनीयेषु तन्निमित्तहर्षो द्वेगौ त्यक्त्वा समन्ततः सर्वस्माद् विषयात् सर्वम् इन्द्रियग्रामं विनियम्य शनैः शनैः धृतिगृहीतया विवेकविषयया बुद्ध्या सर्वस्माद् आत्मव्यतिरिक्ताद् उपरम्य आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिद् अपि चिन्तयेत्।
।।6.24।।इतश्च योगस्य कर्तव्यत्वमिति प्रतिजानीते किञ्चेति। केन क्रमेण कर्तव्यत्वमित्यपेक्षायामाह संकल्पेति। संकल्पः शोभनाध्यासः। सर्वानित्युक्त्वा पुनरशेषत इति पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याह निर्लेपेनेति। यथा शेषो न भवति तथा सर्वेषां कामानां शोभनाध्यासाधीनानां त्यागस्य योगानुष्ठानशेषत्ववद्विवेकयुक्तेन मनसा करणसमुदायस्य सर्वतो नियमनमपि तत्र शेषत्वेन कर्तव्यमित्याह किञ्चेति।
।।6.22 6.25।।तदेव विशिनष्टि यं लब्ध्वेति। एतेनेष्टप्राप्त्यनिष्टनिवृत्तिफलको योगः समन्वितःतं विद्यात् ৷৷. योगसंज्ञितं दुःखसंयोगेन वियोग एव योग इति विरुद्धलक्षणया उच्यते। यस्मादेवं महाफलो योगस्तस्मात्स एव यत्नोऽभ्यसनीयः इत्याह सार्धेन। स निश्चयेनेति यत्नेन।
।।6.24।।किंच कृत्वा योगोऽभ्यसनीयः संकल्पो दुष्टेष्वपि विषयेष्वशोभनत्वादर्शनेन शोभनाध्यासः। तस्माच्च संकल्पादिदं मे स्यादिदं मे स्यादित्येवंरूपाः कामाः प्रभवन्ति। ताञ्शोभनाध्यासप्रभवान्विषयाभिलाषान्विचारजन्याशोभनत्वनिश्चयेन शोभनाध्यासबाधाद्दृष्टेषु स्रक्चन्दनवनितादिष्वदृष्टेषु चेन्द्रलोकपारिजाताप्सरःप्रभृतिषु श्ववान्तपायसवत्स्वत एव सर्वान्ब्रह्मलोकपर्यन्तानशेषतो निरवशेषान्सवासनांस्त्यक्त्वा अतएव कामपूर्वकत्वादिन्द्रियप्रवृत्तेस्तदपाये सति विवेकयुक्तेन मनसैवेन्द्रियग्रामं चक्षुरादिकरणसमूहं विनियम्य समन्ततः सर्वेभ्यो विषयेभ्यः प्रत्याहृत्य शनैःशनैरुपरमेदित्यन्वयः।
।।6.24।।किंच संकल्पेति। संकल्पात्प्रभवो येषां तान्योगप्रतिकूलान्सर्वान्कामानशेषतः सवासनांस्त्यक्त्वा मनसैव विषयदोषदर्शिना सर्वतः प्रसरन्तमिन्द्रियसमूहं विशेषेण नियम्य योगो योक्तव्य इति पूर्वेणान्वयः।
।।6.24।।अथ ममकारपरित्यागादिकं प्राग्विप्रकीर्णोक्तमखिलमिदानीं सुखग्रहणायेह सौकर्यप्रदर्शनाय च सङ्कलय्य योगदशापर्यन्ततया स्मार्यतेसङ्कल्प इत्यादिभिः श्लोकैः।सङ्कल्पप्रभवान् सर्वान् कामांस्त्यक्त्वा इत्येतावतैव सिद्धौ पुनःअशेषतः इति पदं निश्शेषत्यागानर्हाणां विषयाणां सूचकम्। न चोत्तरवाक्ये तदन्वयः ग्रामशब्देन पर्याप्तत्वात्। अतः प्रयुक्तपदवैयर्थ्यपरिहारायअशेषतश्च कामांस्त्यक्त्वा इति चकाराभावेऽपि योज्यम्। अपि च सङ्कल्पप्रभवत्वेन विशेषणमेव असङ्कल्पप्रभवकामसूचकमित्यभिप्रायेण विभजते स्पर्शजा इति।मनसैव इति पदं मध्यस्थितत्वादपेक्षितत्वाच्च काकाक्षिन्यायेन पूर्वोत्तरान्वितमिति दर्शयितुंतान् सर्वान् मनसैवेत्यादिकमुक्तम्। कामत्यागकरणस्य मनसोऽवान्तरव्यापारतदनन्वयानुसन्धानम् कर्मोपाधिकशरीरान्विता हि पुत्रादयः न त्वात्मस्वरूपान्विता इत्यनुसन्धानेनेत्यर्थः।न प्रहृष्येत् 5।20 इत्यादिभिः प्रागेवोक्तं स्मारयतिस्पर्शजेष्वित्यादिना।समन्ततः इत्यत्र पदच्छेदादिभ्रमव्युदासायाह सर्वस्माद्विषयादिति। प्रक्रान्तादशिथिलत्वरूपाया धृतेर्हेतुमाहविवेकविषययेति। उपरम्य बाह्यालाभार्थं मानसमुद्योगं वारयित्वेत्यर्थः। उपरम्येति व्याख्यानमङ्गत्वद्योतनाय।किञ्चिदपीति आत्मव्यतिरिक्तमनुकूलप्रतिकूलोदासीनं सर्वमित्यर्थः।
।।6.24।।किञ्च सङ्कल्पप्रभवान् स्वभोगार्थकस्वमनोनिश्चयजान् कामान् स्वरमणेच्छादिरूपान् सर्वान् भावानन्तरमपि स्वेङ्गितज्ञरूपान् अशेषतः फलाभावज्ञाने त्यक्त्वा मनसैवेन्द्रियग्रामं नियम्य भगवदंशात्मकलावण्यादिरसान् पश्यन् मनसैव स्वार्थभोगरूपेणैव ततः विषयेभ्यो विनियम्य वशे संस्थाप्य योगो योक्तव्य इत्यर्थः।
।।6.24।।अथ शमदमोपरमसमाधानानि क्रमेण श्लोकद्वयेन विधत्ते संकल्पेति। संकल्प इदं मे भूयादिति चेतोवृत्तिस्तत उद्भवो येषां तान्कामान्काम्यमानान्विषयानशेषतो वासनोच्छेदपूर्वकं संकल्पनिरोधेन त्यक्त्वा। एतेनान्तरिन्द्रियनिग्रहलक्षणः शम उक्तः। बाह्येन्द्रियनिग्रहलक्षणं दममाह मनसैवेति। विषयदोषदर्शिना मनसैव सर्वतः सर्वप्रकारेण श्रोत्रादिकमिन्द्रियग्रामं समन्ततः सर्वेभ्यो विषयेभ्यो विनियम्योपरमेदित्युत्तरेणान्वयः।
।।6.24।।साधनान्तराण्यपि विधत्ते संकल्पेति। संकल्पौऽशोभनेऽपि इहामुत्रार्थभोगेऽविचारजनितः शोभनाध्यासः स प्रभवो येषां कामानां इदं मे स्यादिदं मे स्यादित्येवंरुपाणमिच्छाभेदानां ते तान्सर्वान्ब्रह्मलोकपर्यन्तानशेषतो निर्लेपेन लेपरुपेण शिष्टया वासनया सहितान् वितारेण शोभनाध्यासनिवृत्त्या त्यक्त्वा परित्यज्य। किंच मनसैवेन्द्रियग्रामं चक्षुरादीन्द्रियसमुदायं समन्ततः समन्ताद्विषयसमूहान्नयम्य नियमनं कृत्वा योगो योक्तव्य इति पूर्वेण शनैः शनैरुपरमेदिति परेण वान्वयः।
6.24 सङ्कल्पप्रभवान् born of Sankalpa (imagination)? कामान् desires? त्यक्त्वा having abandoned? सर्वान् all? अशेषतः without reserve? मनसा by the mind? एव even? इन्द्रियग्रामम् the whole group of senses? विनियम्य completely restraining? समन्ततः from all sides.Commentary Without reserve The mind is so diplomatic that it keeps certain desires for its secret gratification. Therefore you should completely abandon all desires without reservation.Desire is born of imagination (Sankalpa). Therefore destroy the Sankalpa first. If the imagination is annihilated first then the desires will die by themselves. Mark here All the senses must be controlled from all sides by the mind. Even if one sense is turbulent in one direction it will distract the mind often and often. The senses will be absorbed in the mind by the constant practice of abstraction (Pratyahara). Then the mind will not think of the objects of sensepleasure and will become perfectly calm.That mind which is endowed with a strong discrimination and dispassion will be able to control the whole ground (or group) of the senses from their objects in all directions. Therefore cultivate strong Viveka or discrimination between the Real and the unreal and also Vairagya or total dispassion for sensual pleasures. (Cf.II.62)
6.24 Abandoning without reserve all desires born of Sankalpa (thought and imagination) and completely restraining the whole group of the senses by the mind from all sides.
6.24 Renouncing every desire which imagination can conceive, controlling the senses at every point by the power of mind;
6.24 By totally eschewing all desires which arise from thoughts, and restraining with the mind itself all the organs from every side;
6.24 See Commentary under 6.25
6.24. In order ot renounce completely all desires that are born of intention, let a person, restraining the group of sense-organs from all sides by mind alone;
6.24 See Comment under 6.25
6.24 - 6.25 There are two kinds of desires: 1) those born of contact between the senses and objects like heat, cold etc.; 2) those generated by our mind (will) like that for sons, land etc. Of these, the latter type of desires are by their own nature relinishable. Relinishing all these by the mind through contemplation on their lack of association with the self; having relinished the ideas of pleasure and pain in respect of unavoidable desires resulting from contract; restraining all the senses on all sides, i.e., from contact with all their objects - one should think of nothing else, i.e., other than the self. Little by little 'with the help of intellect controlled by firm resolution,' i.e., by the power of discrimination, one should think of nothing else, having fixed the mind on the self.
6.24 Renouncing entirely all desires born of volition and restraining the mind from all the senses on all sides;
।।6.24।।तथा संकल्पसे उत्पन्न हुई समस्त कामनाओंको निःशेषतासे अर्थात् लेशमात्र भी शेष न रखते हुए निर्लेपभावसे छोड़कर एवं विवेकयुक्त मनसे इन्द्रियोंके समुदायको सब ओरसे रोककर अर्थात् उनका संयम करके।
।।6.24।। संकल्पप्रभवान् संकल्पः प्रभवः येषां कामानां ते संकल्पप्रभवाः कामाः तान् त्यक्त्वा परित्यज्य सर्वान् अशेषतः निर्लेपेन। किञ्च मनसैव विवेकयुक्तेन इन्द्रियग्रामम् इन्द्रियसमुदायं विनियम्य नियमनं कृत्वा समन्ततः समन्तात्।।
।।6.24।।सर्वानशेषतः इत्येतयोस्तात्पर्यमाह सर्वानिति। कामः स्वल्पः कादाचित्कोऽपीति मूलपाठः। नन्विन्द्रियग्रामनियमनमेवावश्यकं न तु करणनियमः कथमुच्यते मनसैवेन्द्रियग्राममिति तत्राह मनसैवेति। स्वरूपकथनमेतदिति भावः। इति ज्ञापयितुमिति शेषः।
।।6.24।।सर्वान्सर्वविषयान् अशेषतः। एकविषयोऽपि कामः स्वल्पः कादाचित्कोऽपि न कर्तव्य इत्यर्थः। मनसैव नियन्तुं शक्यते नान्येनेत्येवशब्दः।
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः। मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः।।6.24।।
সঙ্কল্পপ্রভবান্কামাংস্ত্যক্ত্বা সর্বানশেষতঃ৷ মনসৈবেন্দ্রিযগ্রামং বিনিযম্য সমন্ততঃ৷৷6.24৷৷
সঙ্কল্পপ্রভবান্কামাংস্ত্যক্ত্বা সর্বানশেষতঃ৷ মনসৈবেন্দ্রিযগ্রামং বিনিযম্য সমন্ততঃ৷৷6.24৷৷
સઙ્કલ્પપ્રભવાન્કામાંસ્ત્યક્ત્વા સર્વાનશેષતઃ। મનસૈવેન્દ્રિયગ્રામં વિનિયમ્ય સમન્તતઃ।।6.24।।
ਸਙ੍ਕਲ੍ਪਪ੍ਰਭਵਾਨ੍ਕਾਮਾਂਸ੍ਤ੍ਯਕ੍ਤ੍ਵਾ ਸਰ੍ਵਾਨਸ਼ੇਸ਼ਤ। ਮਨਸੈਵੇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਗ੍ਰਾਮਂ ਵਿਨਿਯਮ੍ਯ ਸਮਨ੍ਤਤ।।6.24।।
ಸಙ್ಕಲ್ಪಪ್ರಭವಾನ್ಕಾಮಾಂಸ್ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ ಸರ್ವಾನಶೇಷತಃ. ಮನಸೈವೇನ್ದ್ರಿಯಗ್ರಾಮಂ ವಿನಿಯಮ್ಯ ಸಮನ್ತತಃ৷৷6.24৷৷
സങ്കല്പപ്രഭവാന്കാമാംസ്ത്യക്ത്വാ സര്വാനശേഷതഃ. മനസൈവേന്ദ്രിയഗ്രാമം വിനിയമ്യ സമന്തതഃ৷৷6.24৷৷
ସଙ୍କଲ୍ପପ୍ରଭବାନ୍କାମାଂସ୍ତ୍ଯକ୍ତ୍ବା ସର୍ବାନଶେଷତଃ| ମନସୈବେନ୍ଦ୍ରିଯଗ୍ରାମଂ ବିନିଯମ୍ଯ ସମନ୍ତତଃ||6.24||
saṅkalpaprabhavānkāmāṅstyaktvā sarvānaśēṣataḥ. manasaivēndriyagrāmaṅ viniyamya samantataḥ৷৷6.24৷৷
ஸங்கல்பப்ரபவாந்காமாஂஸ்த்யக்த்வா ஸர்வாநஷேஷதஃ. மநஸைவேந்த்ரியக்ராமஂ விநியம்ய ஸமந்ததஃ৷৷6.24৷৷
సఙ్కల్పప్రభవాన్కామాంస్త్యక్త్వా సర్వానశేషతః. మనసైవేన్ద్రియగ్రామం వినియమ్య సమన్తతః৷৷6.24৷৷
6.25
6
25
।।6.25।। धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा संसारसे धीरे-धीरे उपराम हो जाय और परमात्मस्वरूपमें मन-(बुद्धि-) को सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।
।।6.25।। शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे;  मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे।।
।।6.25।। पूर्व श्लोकों के अनुसार योग का लक्ष्य है मन का अपने स्वस्वरूप में स्थित हो जाना। यह स्थिति परम आनन्दस्वरूप बतायी गयी है। परन्तु इस स्थिति को प्राप्त करने के उपायों को दर्शाये बिना विषय का सैद्धान्तिक निरूपण मात्र साधकों के लिए अधिक उपयोगी नहीं होता।विचाराधीन दो श्लोकों में ध्यान की सूक्ष्म कला का वर्णन किया गया है। मन को एकाग्र कैसे करें तत्पश्चात् उस समाहित चित्त के द्वारा आत्मा का ध्यान करके तद्रूप कैसे हो इसका विस्तृत विवेचन इन श्लोकों में मिलता है।समस्त कामनाओं का निशेष त्यागकर इन्द्रिय वर्ग को विषयों से सम्यक् प्रकार अपने वश में करना चाहिए। इस श्लोक का प्रत्येक शब्द सफलता के द्वार का सूचक होने से उसकी व्याख्या की आवश्यकता है। यहाँ विशेष रूप से कहा गया है कि सब कामनाओं का निशेष त्याग करना आवश्यक है। इससे आत्मानुभूति की स्थिति के स्वरूप के सम्बन्ध में किसी भी साधक के मन में कोई शंका नहीं रह जानी चाहिए। अशेषत से तात्पर्य यह है कि ध्यान के अन्तिम चरण में साधक को योग के पूर्णत्व की प्राप्ति की इच्छा का भी त्याग कर देना चाहिए यहाँ कामनात्याग को एक अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यक गुण बताया है परन्तु दुर्भाग्य से अविवेकी लोगों ने कामना को दिये हुए विशेषण की ओर ध्यान नहीं दिया और शास्त्रों के अर्थों को विकृत कर दिया है। उन्होंने यही समझा कि शास्त्र में महत्त्वाकांक्षा रहित जीवन का उपदेश दिया गया है और इस विपरीत धारणा के कारण वे तमोगुण की अकर्मण्यता में फंस जाते है।संकल्प प्रभवान् इस विशेषण की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इसी अध्याय के दूसरे श्लोक की व्याख्या में संकल्प शब्द का अर्थ बताया जा चुका है। उस दृष्टि से यहाँ अर्थ होगा कि ऐसी कामनाओं को त्यागना है जो विषयों में सुख होने के संकल्प से उत्पन्न होकर मन में असंख्य विक्षेपों को जन्म देती हैं।यदि मनुष्य इन संकल्पजनित इच्छाओं को त्यागने में सफल हो जाता है तो उसके मन में वह सार्मथ्य और दृढ़ता आ जाती है कि वह इन्द्रियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर सकता है। सर्वप्रथम इन्द्रियों के उन्मत्त अश्वों को वश में कर लें तो फिर उन्हें सब विषयों से परावृत्त करने में सरलता होती है।यह एक अनुभूत सत्य है कि मन स्वनिर्मित विक्षेपों के कारण दुर्बल होकर इन्द्रियों को अपने वश में नहीं रख पाता। कामनात्याग से उसमें यह क्षमता आ जाती है। परन्तु मन की यह शक्ति और शांति शीघ्रता से किये गये कर्म या कल्पना से नहीं प्राप्त होती है और न किसी विचित्र रहस्यमयी साधना से। यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि साधक को धीरेधीरे अपने मन को शांत करना चाहिए।निसन्देह इन्द्रियों की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति को संयमित करने पर कुछ मात्रा में मनशांति प्राप्त होती है। तब इस शांति को स्थिर और दृढ़ करने की आवश्यकता होती है। उसका उपाय बताते हुए भगवान् कहते हैं धैर्ययुक्त बुद्धि से मन को आत्मा में स्थिर करना चाहिए। अभ्यास के क्रम में इस उपदेश का बहुत महत्त्व है।सर्वप्रथम इन्द्रियों को मन के द्वारा संयमित करे और तत्पश्चात् मन को उससे सूक्ष्मतर विवेकवती बुद्धि के द्वारा आत्मा में स्थिर करे। ध्येय विषयक वृत्ति के अतिरिक्त अन्य सब वृत्तियों के त्याग के द्वारा ही मन को संयमित करना संभव है। वृत्तियों का प्रवाह मन कहलाता है अत आत्मा के स्वरूप पर सतत अनुसंधान करने से मन आत्मा में ही स्थित हो जायेगा। आत्मा में पूर्णतया स्थित हो जाने पर वह एक दिव्य अलौकिक शान्ति में निमग्न हो जाता है। मनुष्य अपने सजग पुरुषार्थ के द्वारा इस स्थिति तक पहुँच सकता है जो ध्यानयोग का अन्तिम सोपान है।सभी साधकों के द्वारा अभ्यसनीय इस योग का उपदेश देते हुये भगवान् उन्हें सावधान करते हैं कि योग की उपर्युक्त चरम स्थिति तक पहुँचने के पश्चात् किसी अन्य विषय का चिन्तन नहीं करना चाहिये।इस शांत क्षणको पाने के उपरान्त साधक को और कोई कर्तव्य और प्राप्तव्य शेष नहीं रह जाता। उसको इतना ही ध्यान रखना होता है कि किसी नवीन वृत्तिप्रवाह का प्रारम्भ न हो और मन की शान्ति सुदृढ़ रहे। द्वार खटखटाओ और तुम अन्दर प्रवेश करोगे यह भगवान् का आश्वासन है।विश्व के किसी भी धर्मग्रन्थ में केवल दो श्लोकों में ध्यानयोग की विधि से सम्बन्धित निर्देशों का इतना विस्तृत विवरण नहीं मिलता। स्वयं गीता में भी किसी अन्य स्थान पर ऐसा वर्णन नहीं किया गया है। इस दृष्टि से ये दो सारगर्भित श्लोक अतुलनीय और अनुपम हैं।योगाभ्यास में प्रवृत्त जिन साधकों का मन चंचल औरअस्थिर होता है उनके लिए अगले श्लोक में उपाय बताते हैं
।।6.25।। व्याख्या--'बुद्ध्या धृतिगृहीतया'--साधन करते-करते प्रायः साधकोंको उकताहट होती है, निराशा होती है कि ध्यान लगाते, विचार करते इतने दिन हो गये पर तत्त्वप्राप्ति नहीं हुई, तो अब क्या होगी कैसे होगी? इस बातको लेकर भगवान् ध्यानयोगके साधकको सावधान करते हैं कि उसको ध्यानयोगका अभ्यास करते हुए सिद्धि प्राप्त न हो, तो भी उकताना नहीं चाहिये, प्रत्युत धैर्य रखना चाहिये। जैसे सिद्धि प्राप्त होनेपर, सफलता होनेपर धैर्य रहता है, विफलता होनेपर भी वैसा ही धैर्य रहना चाहिये कि वर्ष-के-वर्ष बीत जायँ, शरीर चला जाय, तो भी परवाह नहीं, पर तत्त्वको तो प्राप्त करना ही है (टिप्पणी प0 357)। कारण कि इससे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा काम है नहीं। इसलिये इसको समाप्त करके आगे क्या काम करना है? यदि इससे भी बढ़कर कोई काम है तो इसको छोड़ो और उस कामको अभी करो!--इस प्रकार बुद्धिको वशमें कर ले अर्थात् बुद्धिमें मान, बड़ाई, आराम आदिको लेकर जो संसारका महत्त्व पड़ा है, उस महत्त्वको हटा दे। तात्पर्य है कि पूर्वश्लोकमें जिन विषयोंका त्याग करनेके लिये कहा गया है, धैर्यपूर्वक बुद्धिसे उन विषयोंसे उपराम हो जाय।
।।6.24 6.25।।कामानां त्यागे (SN कामानामुपायत्यागे) उपायः संकल्पत्याग इत्याह संकल्पेति। शनैः शनैरिति। मनसैव न (S omit न) व्यापारोपरमेण। धृतिं गृहीत्वा क्रमात् क्रममभिलाषदुःखं प्रतनूकृत्य किंचिदपि विषयाणां त्यागग्रहणादिकं न चिन्तयेत्।यत्तु (S यथात्वन्यैर् यथा तु कैश्चिद्) अन्यैर्व्याख्यातम् नकिञ्चिदपि चिन्तयेत् इति तन्नास्मभ्यं रुचितम्। शून्यवादप्रसंगात्।।6.24 6.25।।कामानां त्यागे (SN कामानामुपायत्यागे) उपायः संकल्पत्याग इत्याह संकल्पेति। शनैः शनैरिति। मनसैव न (S omit न) व्यापारोपरमेण। धृतिं गृहीत्वा क्रमात् क्रममभिलाषदुःखं प्रतनूकृत्य किंचिदपि विषयाणां त्यागग्रहणादिकं न चिन्तयेत्।यत्तु (S यथात्वन्यैर् यथा तु कैश्चिद्) अन्यैर्व्याख्यातम् नकिञ्चिदपि चिन्तयेत् इति तन्नास्मभ्यं रुचितम्। शून्यवादप्रसंगात्।
।।6.25।। स्पर्शजाः सङ्कल्पजाश्च इति द्विविधाः कामाः स्पर्शजाः शीतोष्णादयः सङ्कल्पजाः पुत्रपौत्रक्षेत्रादयः तत्र सङ्कल्पप्रभवाः स्वरूपेण एव त्यक्तुं शक्याः तान् सर्वान् मनसा एव तदनन्वयानुसन्धानेन त्यक्त्वा स्पर्शजेषु अवर्जनीयेषु तन्निमित्तहर्षो द्वेगौ त्यक्त्वा समन्ततः सर्वस्माद् विषयात् सर्वम् इन्द्रियग्रामं विनियम्य शनैः शनैः धृतिगृहीतया विवेकविषयया बुद्ध्या सर्वस्माद् आत्मव्यतिरिक्ताद् उपरम्य आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिद् अपि चिन्तयेत्।
।।6.25।।कामत्यागद्वारेणेन्द्रियाणि प्रत्याहृत्य किं कुर्यादिति शङ्कितारं प्रत्याह शनैः शनैरिति। सहसाविषयेभ्यः सकाशादुपरमे मनसो न स्वास्थ्यं संभवतीत्यभिप्रेत्याह न सहसेति। तत्र साधनं धैर्ययुक्ता बुद्धिरित्याह कयेत्यादिना। भूम्यादीरव्याकृतपर्यन्ताः प्रकृतीरष्ट पूर्वपूर्वत्र धारणं कृत्वोत्तरोत्तरक्रमेण प्रविलापयेदिति भावः। अव्यक्तमात्मनि प्रविलाप्यात्ममात्रनिष्ठं मनो विधाय चिन्तयितव्याभावादतिस्वस्थो भवेदित्याह आत्मेति। तत्र संस्थितिमेव मनसो विवृणोति आत्मैवेति। योगविधिमुपक्रम्य किमिदमुक्तमित्याशङ्क्याह एष इति। यन्मनसो नैश्चल्यमिति शेषः।
।।6.22 6.25।।तदेव विशिनष्टि यं लब्ध्वेति। एतेनेष्टप्राप्त्यनिष्टनिवृत्तिफलको योगः समन्वितःतं विद्यात् ৷৷. योगसंज्ञितं दुःखसंयोगेन वियोग एव योग इति विरुद्धलक्षणया उच्यते। यस्मादेवं महाफलो योगस्तस्मात्स एव यत्नोऽभ्यसनीयः इत्याह सार्धेन। स निश्चयेनेति यत्नेन।
।।6.25।।भूमिकाजयक्रमेण शनैःशनैरुपरमेत्। धृतिर्धैर्यमखिन्नता तथा गृहीता या बुद्धिरवश्यकर्तव्यतानिश्चयरूपा तया यदा कदाचिदवश्यं भविष्यत्येव योगः किं त्वरयेत्येवंरूपया शनैःशनैर्गुरूपदिष्टामार्गेण मनो निरुन्ध्यात्। एतेनानिर्वेदनिश्चयौ प्रागुक्तौ दर्शितौ। तथाच श्रुतिःयच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि। ज्ञानं महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि।। इति। वागिति वाचं लौकिकीं वैदिकीं च मनसि व्यापारवति नियच्छेत्।नानुध्यायाद्बहूञ्छब्दान्वाचो विग्लापनं हि तत् इति श्रुतेः। वाग्वृत्तिनिरोधेन मनोवृत्तिमात्रशेषो भवेदित्यर्थः। चक्षुरादिनिरोधोऽप्येतस्यां भूमौ द्रष्टव्यः। मनसीति छान्दसं दैर्ध्यम्। तन्मनः कर्मेन्द्रियज्ञानेन्द्रियसहकारि नानाविधविकल्पसाधनं करणम्। ज्ञाने जानातीति ज्ञानमिति व्युत्पत्त्या ज्ञातर्यात्मनि ज्ञातृत्वोपाधावहंकारे नियच्छेत् मनोव्यापारान्परित्यज्याहंकारमात्रं परिशेषयेत्। तच्च ज्ञानं ज्ञातृत्वोपाधिमहंकारमात्मनि महति महत्तत्त्वे सर्वव्यापके नियच्छेत्। द्विविधो ह्यहंकारो विशेषरूपः सामान्यरूपश्चेति। अयमहमेतस्य पुत्र इत्येवं व्यक्तमभिमन्यमानो विशेषरूपो व्यष्ट्यहंकारः। अस्मीत्येतावन्मात्रभिमन्यमानः सामान्यरूपः समष्ट्यहंकारः। स च हिरण्यगर्भो महानात्मेति च सर्वानुस्यूतत्वादुच्यते। ताभ्यामहंकारभ्यां विविक्तो निरुपाधिकः शान्तात्मा सर्वान्तरश्चिदेकरसस्तस्मिन्महान्तमात्मानं समष्टिबुद्धिं नियच्छेत्। एवं तत्कारणमव्यक्तमपि नियच्छेत्। ततो निरुपाधिकस्त्वंपदलक्ष्यः शुद्ध आत्मा साक्षात्कृतो भवति। शुद्धे हि चिदेकरसे प्रत्यगात्मनि जडशक्तिरूपमनिर्वाच्यमव्यक्तं प्रकृतिरुपाधिः। सा च प्रथमं सामान्याहंकाररूपं महत्तत्वं नाम धृत्वा व्यक्तीभवति। ततो बहिर्विशेषाहंकारूपेण ततो बहिर्मनोरूपेण ततो बहिर्वागादीन्द्रियरूपेण। तदेतच्छ्रत्याभिहितंइन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः।।महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः।। इति। तत्र गवादिष्विव वाङ्निरोधः प्रथमा भूमिः।।बालमुग्धादिष्विव निर्मनस्त्वं द्वितीया। तन्द्र्यमिवाहंकारराहित्यं तृतीया। सुषुप्ताविव महत्तत्त्वराहित्यं चतुर्थी। तदेतद्भूमिचतुष्टयमपेक्ष्य शनैःशनैःरुपरमेदित्युक्तम्। यद्यपि महत्तत्त्वशान्तात्मनोर्मध्ये महत्तत्त्वोपादानमव्याकृताख्यं तत्त्वं श्रुत्योदाहारि तथापि तत्र महत्तत्त्वस्य नियमनं नाभ्यधायि। सुषुप्ताविव जीवस्वरूपस्यसता सोम्य तदा संपन्नो भवति इति श्रुतेः स्वरूपलयप्रसङ्गात्। तस्य च कर्मक्षये सति पुरुषप्रयत्नमन्तरेण स्वतएव सिद्धत्वात्तत्त्वदर्शनानुपयोगित्वाच्चदृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः इति पूर्वमभिधाय सूक्ष्मत्वसिद्धये निरोधसमाधेरभिधानात्। सच तत्त्वदिदृक्षोर्दर्शनसाधनत्वेन दृष्टतत्त्वस्य च जीवन्मुक्तिरूपक्लेशक्षयायापेक्षितः। ननु शान्तात्मन्यवरुद्धस्य चित्तस्य वृत्तिरहितत्वेन सुषुप्तिवदर्शनहेतुत्वमिति चेत्। न। स्वतःसिद्धस्य दर्शनस्य निवारयितुमशक्यत्वात्। तदुक्तम्आत्मानात्माकारं स्वभावतोऽवस्थितं सदा चित्तम्। आत्मैकाकारतया तिरस्कृतानात्मदृष्टि विदधीत।। यथा घट उत्पद्यमानः स्वतो वियत्पूर्ण एवोत्पद्यते। जलतण्डुलादिपूरणं तूत्पन्ने घटे पश्चात्पुरुषप्रयत्नेन भवति। तत्र जलादौ निःसारितेऽपि वियन्निःसारयितुं न शक्यते। मुखपिधानेऽप्यन्तर्वियदवतिष्ठत एव तथा चित्तमुत्पद्यमानं चैतन्यपूर्णमेवोत्पद्यते। उत्पन्ने तु तस्मिन्मूषानिषिक्तद्रुतताम्रवद्धटदुःखादिरूपत्वं भोगहेतुधर्माधर्मसहकृतसामग्रीवशाद्भवति। तत्र घटदुःखाद्यनात्माकारे विरामप्रत्ययाभ्यासेन निवारितेऽपि निर्निमित्तश्चिदाकारो वारयितुं न शक्यते। ततो निरोधसमाधिना निर्वृत्तिकेन चित्तेन संस्कारमात्रशेषतयातिसूक्ष्मत्वेन निरुपाधिकचिदात्ममात्राभिमुखत्वाद्वृत्तिं विनैव निर्विघ्नमात्मानुभूयते। तदेतदाहआत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् इति। आत्मनि निरुपाधिके प्रतीचि संस्था समाप्तिर्यस्य तदात्मसंस्थं सर्वप्रकारवृत्तिशून्यं स्वभावसिद्धात्माकारमात्रविशिष्टं मनः कृत्वा धृतिगृहीतया विवेकबुद्ध्या संपाद्यासंप्रघातसमाधिस्थः सन् किंचिदपि अनात्मानमात्मानं वा न चिन्तयेन्न वृत्त्या विषयीकुर्यात्। अनात्माकारवृत्तौ हि व्युत्थानमेव स्यात्। आत्माकारवृत्तौ च संप्रज्ञातः समाधिरित्यसंप्रज्ञातसमाधिस्थैर्याय कामपि चित्तवृत्तिं नोत्पादयेदित्यर्थः।
।।6.25।।यदि तु प्राक्तनकर्मसंस्कारेण मनो विचलेत्तर्हि धारणया स्थिरीकुर्यादित्याह शनैरिति। धृतिर्धारणा तया गृहीतया वशीकृतया बुद्ध्यात्मसंस्थमात्मन्येव सम्यक् स्थितं निश्चलं मनः कृत्वोपरमेत्। तच्च शनैःशनैरभ्यासक्रमेण नतु सहसा। उपरमस्वरूपमाह। न किंचिदपि चिन्तयेत्। निश्चले मनसि स्वयमेव प्रकाशमानपरमानन्दस्वरूपो भूत्वात्मध्यानादपि न निवर्तेतेत्यर्थः।
।। 6.25 अथ ममकारपरित्यागादिकं प्राग्विप्रकीर्णोक्तमखिलमिदानीं सुखग्रहणायेह सौकर्यप्रदर्शनाय च सङ्कलय्य योगदशापर्यन्ततया स्मार्यतेसङ्कल्प इत्यादिभिः श्लोकैः।सङ्कल्पप्रभवान् सर्वान् कामांस्त्यक्त्वा इत्येतावतैव सिद्धौ पुनःअशेषतः इति पदं निश्शेषत्यागानर्हाणां विषयाणां सूचकम्। न चोत्तरवाक्ये तदन्वयः ग्रामशब्देन पर्याप्तत्वात्। अतः प्रयुक्तपदवैयर्थ्यपरिहारायअशेषतश्च कामांस्त्यक्त्वा इति चकाराभावेऽपि योज्यम्। अपि च सङ्कल्पप्रभवत्वेन विशेषणमेव असङ्कल्पप्रभवकामसूचकमित्यभिप्रायेण विभजते स्पर्शजा इति।मनसैव इति पदं मध्यस्थितत्वादपेक्षितत्वाच्च काकाक्षिन्यायेन पूर्वोत्तरान्वितमिति दर्शयितुंतान् सर्वान् मनसैवेत्यादिकमुक्तम्। कामत्यागकरणस्य मनसोऽवान्तरव्यापारतदनन्वयानुसन्धानम् कर्मोपाधिकशरीरान्विता हि पुत्रादयः न त्वात्मस्वरूपान्विता इत्यनुसन्धानेनेत्यर्थः।न प्रहृष्येत् 5।20 इत्यादिभिः प्रागेवोक्तं स्मारयतिस्पर्शजेष्वित्यादिना।समन्ततः इत्यत्र पदच्छेदादिभ्रमव्युदासायाह सर्वस्माद्विषयादिति। प्रक्रान्तादशिथिलत्वरूपाया धृतेर्हेतुमाहविवेकविषययेति। उपरम्य बाह्यालाभार्थं मानसमुद्योगं वारयित्वेत्यर्थः। उपरम्येति व्याख्यानमङ्गत्वद्योतनाय।किञ्चिदपीति आत्मव्यतिरिक्तमनुकूलप्रतिकूलोदासीनं सर्वमित्यर्थः।
।।6.25।।ननु कथमिन्द्रियग्रामं विनियच्छेदित्यपेक्षयामाह शनैः शनैरिति। धृतिगृहीतया वियोगतापादिदुःखसहनशीलधैर्यगृहीतया बुद्ध्या मनः आत्मसंस्थं भावात्मकस्थितं कृत्वा शनैःशनैरुपरमेत् स्वभोगरूपेभ्य उपशमयेत्। कथमुपरतिर्भवेदित्यत आह न किञ्चिदपि चिन्तयेदिति। भावात्मकस्वरूपातिरिक्तं किञ्चिदपि न चिन्तयेन्न भावयेत्।
।।6.25।।शनैः शनैरिति। भूमिकाजयक्रमेण दिव्यादिव्यविषयेभ्य उपरमेद्वव्यावृत्तो भवेत्। कथम्। धृतिगृहीतया बुद्ध्येति। धृतिःधृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः। योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्विकी इत्युक्तलक्षणा तया गृहीतया वशीकृतया बुद्ध्योपरमेत्। तथा एवमुपरतं मनः आत्मनि स्वरूपे संस्था स्थितिर्यस्य न तु दृश्ये द्रष्टरि वा तत्तथा आत्मैकाकारमेकाग्रमित्यर्थः। द्रष्टृदृश्योपरक्तं चित्तं सर्वार्थंसर्वार्थतैकार्थतयोः क्षयोदयौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः इति सूत्रितमैकाग्र्यं प्रापयेत्। सूत्रार्थस्तु अहमिदं पश्यामीत्यनुभवे हि द्रष्टा दृश्यं दर्शनं च भासते। तत्र दर्शनभानमप्रत्याख्येयमतो द्रष्टरि दृश्ये चोपरक्तं चित्तं सवार्थमिति। न तु दर्शनोपरक्ततापि सर्वार्थतायां गणिता। तदभावे चित्तस्य नाशापत्तेः। द्रष्टृदृश्योपरागाभावे तु एकार्थं तदुच्यते यथा स्वप्ने। तत्र हि दृश्यं नास्तीति पामराणामपि प्रसिद्धम्। द्रष्टापि नास्ति। तदा इन्द्रियाणामभावात्।आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्ता इतिश्रुत्यैव भोक्तृत्वस्येन्द्रियसंनियोगशिष्टत्वात्। किंतु द्रष्टृदृश्यवासनावासितं चित्रपटसदृशमेकं मन एवास्ति। तच्च स्वयंज्योतिषा पुरुषेण भास्यमानं जाग्रद्वत्स्वप्नेऽपि द्रष्टृदृश्योपरागं प्रकाशयति। तद्वासनावासितत्वात्। एवं सति यदा सर्वार्थतायाः क्षय एकार्थताया उदयश्च तदा चित्तस्यैकाग्रतारूपः परिणामो भवतीति। तदेवमात्मसंस्थं मनः कृत्वेति संप्रज्ञातसमाधिरुक्तः। तत्रापि पूर्वाभ्यासवशाच्चित्तस्य द्रष्टृदृश्योपरागो वासनामयो भातीति तन्निवारणेनासंप्रज्ञातसमाधिमाह न किंचिदपि चिन्तयेदिति। ध्यातृध्यानध्येयविभागमपि न स्मरेत्किंतु अखण्डैकरससंविदात्मना सुषुप्तवत्तिष्ठेदित्यर्थः।
।।6.25।।एवं कृत्वा किं कुर्यादित्यत आह शनैरिति। धृतिगृहीतया धैर्ययुक्तया बुद्य्धोपरमेन्मनस उपरतिं संपादयेत्। शनैः शनैः क्रमेण नतु सहसा। ननूपरतिं प्रापितमपि मनः पुनः पदार्थान्तरचिन्तरनेनोपरतिं हास्यतीत्याशङ्क्याह। आत्मसंस्थमात्मैव सर्वं न ततोऽन्यत् किंचिदस्तीत्येवमात्मसंस्थं मनः कृत्वा आत्मेतरवस्त्वभावान्न किंचिदपि चिन्तयेत्। मनसो मैश्चल्यस्य परमयोगावधित्वात्।
6.25 शनैः gradually? शनैः gradually? उपरमेत् let him attain to ietude? बुद्ध्या by the intellect? धृतिगृहीतया held in firmness? आत्मसंस्थम् placed in the Self? मनः the mind? कृत्वा having made? न not? किञ्चित् anything? अपि even? चिन्तयेत् let him think.Commentary The practitioner of Yoga should attain tranillity gradually or by degrees? by,means of the intellect controlled by steadiness. The peace of the Eternal will fill the heart gradually with thrill and bliss through the constant and protracted practice of steady conentration. He should make the mind constantly abide in the Self within through ceaseless practice. If anyone constantly thinks of the immortal Self within? the mind will cease to think of the objects of sensepleasure. The mental energy should be directed along the spiritual channel by Atmachintana or constant contemplation on the Self.
6.25 Little by little let him attain to ietude by the intellect held firmly; having made the mind establish itself in the Self, let him not think of anything.
6.25 Little by little, by the help of his reason controlled by fortitude, let him attain peace; and, fixing his mind on the Self, let him not think of any other thing.
6.25 One should gradually withdraw with the intellect endowed with steadiness. Making the mind fixed in the Self, one should not think of anything whatsoever.
6.25 Tyaktva, by eschewing; asesatah, totally, without a trace; sarvan, all; the kamam, desires; sankalpa-prabhavan, which arise from thoughts; and further, viniyamya, restraining; manasa eva, with the mind itself, with the mind endued with discrimination; indriya-gramam, all the organs; samantatah, from every side; uparamet, one should withdraw, abstain; sanaih sanaih, gradually, not suddenly;-with what?-buddhya, with the intellect;- possessed of what distinction?-dhrti-grhitaya, endowed with steadiness, i.e. with fortitude. Krtva, making manah, the mind; atma-samstham, fixed in the Self, with the idea, 'The Self alone is all; there is nothing apart from It'-thus fixing the mind on the Self; na cintayet, one should not think of; kincit api, anything whatsoever. Thisis the highest instruction about Yoga.
6.25. Very slowly remain iet, keeping the mind well established in the Self by means of the intellect held in steadiness; and lest him not think of anything (object).
6.24-25 Sankalpa - etc. Sanaih etc. By mind alone : i.e., not by withdrawing from activities. Holding steadiness; thinning, step after step, the misery born of desired; let him not think anything like receiving and abandoning objects and so on. Others have explained [the passage] as 'Let him think only negation (or void). But this (explanation) is not up to our taste. For, that world result in the doctrine of nihilism. What is to be achieved is not a mere withdrawl [or one-self] from the objects. This is stated as -
6.24 - 6.25 There are two kinds of desires: 1) those born of contact between the senses and objects like heat, cold etc.; 2) those generated by our mind (will) like that for sons, land etc. Of these, the latter type of desires are by their own nature relinishable. Relinishing all these by the mind through contemplation on their lack of association with the self; having relinished the ideas of pleasure and pain in respect of unavoidable desires resulting from contract; restraining all the senses on all sides, i.e., from contact with all their objects - one should think of nothing else, i.e., other than the self. Little by little 'with the help of intellect controlled by firm resolution,' i.e., by the power of discrimination, one should think of nothing else, having fixed the mind on the self.
6.25 Little by little one should withdraw oneself from the objects other than the self with the help of the intellect held by firm resolution; and then one should think of nothing else, having fixed the mind upon the self.
।।6.25।।शनैःशनैः अर्थात् सहसा नहीं क्रमक्रमसे उपरतिको प्राप्त करे। किसके द्वारा बुद्धिद्वारा। कैसी बुद्धिद्वारा धैर्यसे धारण की हुई अर्थात् धैर्ययुक्त बुद्धिद्वारा। तथा मनको आत्मामें स्थित करके अर्थात् यह सब कुछ आत्मा ही है उससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है इस प्रकार मनको आत्मामें अचल करके अन्य किसी वस्तुका भी चिन्तन न करे। यह योगकी परम श्रेष्ठ विधि है।
।।6.25।। शनैः शनैः न सहसा उपरमेत् उपरतिं कुर्यात्। कया बुद्ध्या। किंविशिष्टया धृतिगृहीतया धृत्या धैर्येण गृहीतया धृतिगृहीतया धैर्येण युक्तया इत्यर्थः। आत्मसंस्थम् आत्मनि संस्थितम् आत्मैव सर्वं न ततोऽन्यत् किञ्चिदस्ति इत्येवमात्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्। एष योगस्य परमो विधिः।।तत्र एवमात्मसंस्थं मनः कर्तुं प्रवृत्तो योगी
।।6.25।।शनैःशनैरुपरमेद्बुद्ध्या इति बुद्धेरपीन्द्रियग्रामनियमने कारणत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात् कथमेतदित्यत आह बुद्धेरिति। अनेनोपरमेदित्यस्यार्थद्वयमुक्तं भवति।
।।6.25।।बुद्धेः कारणत्वं मनोनिग्रहे आत्मरमणे च।
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।।6.25।।
শনৈঃ শনৈরুপরমেদ্ বুদ্ধ্যা ধৃতিগৃহীতযা৷ আত্মসংস্থং মনঃ কৃত্বা ন কিঞ্চিদপি চিন্তযেত্৷৷6.25৷৷
শনৈঃ শনৈরুপরমেদ্ বুদ্ধ্যা ধৃতিগৃহীতযা৷ আত্মসংস্থং মনঃ কৃত্বা ন কিঞ্চিদপি চিন্তযেত্৷৷6.25৷৷
શનૈઃ શનૈરુપરમેદ્ બુદ્ધ્યા ધૃતિગૃહીતયા। આત્મસંસ્થં મનઃ કૃત્વા ન કિઞ્ચિદપિ ચિન્તયેત્।।6.25।।
ਸ਼ਨੈ ਸ਼ਨੈਰੁਪਰਮੇਦ੍ ਬੁਦ੍ਧ੍ਯਾ ਧਰਿਤਿਗਰਿਹੀਤਯਾ। ਆਤ੍ਮਸਂਸ੍ਥਂ ਮਨ ਕਰਿਤ੍ਵਾ ਨ ਕਿਞ੍ਚਿਦਪਿ ਚਿਨ੍ਤਯੇਤ੍।।6.25।।
ಶನೈಃ ಶನೈರುಪರಮೇದ್ ಬುದ್ಧ್ಯಾ ಧೃತಿಗೃಹೀತಯಾ. ಆತ್ಮಸಂಸ್ಥಂ ಮನಃ ಕೃತ್ವಾ ನ ಕಿಞ್ಚಿದಪಿ ಚಿನ್ತಯೇತ್৷৷6.25৷৷
ശനൈഃ ശനൈരുപരമേദ് ബുദ്ധ്യാ ധൃതിഗൃഹീതയാ. ആത്മസംസ്ഥം മനഃ കൃത്വാ ന കിഞ്ചിദപി ചിന്തയേത്৷৷6.25৷৷
ଶନୈଃ ଶନୈରୁପରମେଦ୍ ବୁଦ୍ଧ୍ଯା ଧୃତିଗୃହୀତଯା| ଆତ୍ମସଂସ୍ଥଂ ମନଃ କୃତ୍ବା ନ କିଞ୍ଚିଦପି ଚିନ୍ତଯେତ୍||6.25||
śanaiḥ śanairuparamēd buddhyā dhṛtigṛhītayā. ātmasaṅsthaṅ manaḥ kṛtvā na kiñcidapi cintayēt৷৷6.25৷৷
ஷநைஃ ஷநைருபரமேத் புத்த்யா தரிதிகரிஹீதயா. ஆத்மஸஂஸ்தஂ மநஃ கரித்வா ந கிஞ்சிதபி சிந்தயேத்৷৷6.25৷৷
శనైః శనైరుపరమేద్ బుద్ధ్యా ధృతిగృహీతయా. ఆత్మసంస్థం మనః కృత్వా న కిఞ్చిదపి చిన్తయేత్৷৷6.25৷৷
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।।6.26।। यह अस्थिर और चञ्चल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँसे हटाकर इसको एक परमात्मामें ही  लगाये।
।।6.26।। यह चंचल और अस्थिर मन जिन कारणों से (विषयों में) विचरण करता है, उनसे संयमित करके उसे आत्मा के ही वश में लावे अर्थात् आत्मा में स्थिर करे।।
।।6.26।। पूर्व दो श्लोकों से साधकों के मन में उत्साह आता है परन्तु जब वे अभ्यास में प्रवृत्त होते हैं तब जो कठिनाई आती है उससे उन्हें कुछ निराशा होने लगती है। प्रत्येक साधक यह अनुभव करता है कि उसका मन समस्त विरोधों को तोड़ता हुआ ध्येय विषय से हटकर पुन विषयों का चिन्तन करने लगता है। कारण यह है कि मन का स्वभाव ही है चंचलता और अस्थिरता। न वह किसी एक विषय का सतत अनुसन्धान कर पाता है और न विभिन्न विषयों का। चंचल और अस्थिर इन दो विशेषणों के द्वारा भगवान् ने मन का सुस्पष्ट और वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया है जो सभी साधकों का अपना स्वयं का अनुभव है। ये दो शब्द इतने प्रभावशाली हैं कि आगे हम देखेंगे कि अर्जुन अपनी एक शंका को पूछते हुये इन्हीं शब्दों का प्रयोग करता है।यद्यपि ध्यान के समय साधक अपनी इन्द्रियों को वश में कर लेता है तथापि मन पूर्व अनुभवों की स्मृति से विचलित होकर पुन विषयों का चिन्तन प्रारंभ करने लगता है ये क्षण एक सच्चे साधक के लिए घोर निराशा के क्षण होते हैं। मन का यह भटकाव अनेक कारणों से हो सकता है जैसे भूतकाल की स्मृतियां किसी आकर्षक वस्तु का सामीप्य किसी से राग या द्वेष और यहाँ तक कि आध्यात्मिक विकास के लिए अधीरता भी। भगवान् का उपदेश हैं कि मन के विचरण का कोई भी कारण हो साधक को निराश और अधीर होने की आवश्यकता नहीं है। उसको यह समझना चाहिए कि अस्थिरता तो मन का स्वभाव ही है और ध्यान का प्रयोजन ही मन के इस विचरण को शांत करना है।साधक को उपदेश दिया गया है कि जबजब यह मन ध्येय को छोड़कर विषयों की ओर जाय तबतब उसे वहाँ से परावृत्त करके ध्येय में स्थिर करे। दृढ़ इच्छा शक्ति के द्वारा कुछ सीमा तक मन को विषयों से निवृत्त किया जा सकता है परन्तु वह पुन उनकी ही ओर जायेगा। साधकगण भूल जाते हैं कि वृत्तिप्रवाह ही मन है और इसलिए वृत्तिशून्य होने पर मन रहेगा ही नहीं अत विषयों से मन को निवृत्त करने के पश्चात् साधक को यह आवश्यक है कि उस समाहित मन को आत्मानुसंधान में प्रवृत्त करे। भगवान् इसी बात को इस प्रकार कहते हैं कि मन को पुन आत्मा के ही वश में लावे।अगले कुछ श्लोकों में योगी पर इस योग का क्या प्रभाव होता है उसे बताया गया है
।।6.26।। व्याख्या--'यतो यतो निश्चरति ৷৷. आत्मन्येव वशं नयेत्'--साधकने जो ध्येय बनाया है, उसमें यह मन टिकता नहीं, ठहरता नहीं। अतः इसको अस्थिर कहा गया है। यह मन तरह-तरहके सांसारिक भोगोंका, पदार्थोंका चिन्तन करता है। अतः इसको 'चञ्चल' कहा गया है। तात्पर्य है कि यह मन न तो परमात्मामें स्थिर होता है और न संसारको ही छोड़ता है। इसलिये साधकको चाहिये कि यह मन जहाँ-जहाँ जाय, जिस-जिस कारणसे जाय, जैसे-जैसे जाय और जब-जब जाय, इसको वहाँ-वहाँसे, उस-उस कारणसे वैसे-वैसे और तब-तब हटाकर परमात्मामें लगाये। इस अस्थिर और चञ्चल मनका नियमन करनेमें सावधानी रखे, ढिलाई न करे।मनको परमात्मामें लगानेका तात्पर्य है कि जब यह पता लगे कि मन पदार्थोंका चिन्तन कर रहा है, तभी ऐसा विचार करे कि चिन्तनकी वृत्ति और उसके विषयका आधार और प्रकाशक परमात्मा ही हैं। यही परमात्मामें मन लगाना है।
।।6.26 6.28।।न च विषयव्युपरममात्रमेव प्राप्यमित्युच्यते यत इत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। यतो यतो मनो निवर्तते तन्निवर्तनसमनन्तरमेव आत्मनि शमयेत्। अन्यथा अप्रतिष्ठं चित्तं पुनरपि विषयानेवावलम्बते। तत्र आत्मनि शान्तचित्तं योगिनं कर्मभूतं सुखं कर्तृभूतम् उपैति। अनेनैव क्रमेण योगिनां सुखेन ब्रह्मावाप्तिः न तु कष्टयोगादिनेति तात्पर्यम्।
।।6.26।।चलस्वभावतया आत्मनि अस्थिरं मनः यतो यतो विषयप्रावण्यहेतोः बहिः निश्चरति ततः ततो यत्नेन मनो नियम्य आत्मनि एव अतिशयितसुखभावनया वशं नयेत्।
।।6.26।।ननु मनसः शब्दादिनिमित्तानुरोधेन रागद्वेषवशादत्यन्तचञ्चलस्यास्थिरस्य तत्र तत्र स्वभावेन प्रवृत्तस्य कुतो नैश्चल्यं नैश्चिन्त्यं चेति तत्राह तत्रेति। योगप्रारम्भः सप्तम्यर्थः। एवंशब्देन मनसैवेत्यादिरुक्तप्रकारो गृह्यते। स्वाभाविको दोषो मिथ्याज्ञानाधीनो रागादिः। शब्दादेर्मनसो नियमनं कथमित्याशङ्क्याह तत्तन्निमित्तमिति। याथात्म्यनिरूपणं क्षयिष्णुत्वदुःखसंमिश्रत्वाद्यालोचनं तेन तत्र तत्र वैराग्यभावनया तत्तदाभासीकृत्य ततस्ततो नियम्यैतन्मन इति संबन्धः। मनोवशीकरणेनोपशमे किं स्यादित्याशङ्क्याह एवमिति। योगाभ्यासो विषयविवेकद्वारा मनोनिग्रहाद्यावृत्तिः। प्रशान्तमात्मन्येव प्रलीनमिति यावत्।
।।6.26।।सङ्कल्पेति। आत्मन्येव वशं नयेत् प्रत्याहारेण स्थिरं कुर्यादिति निर्बीजत्वमुक्तम्।
।।6.26।।एवं निरोधसमाधिं कुर्वन्योगी शब्दादीनां चित्तविक्षेपहेतूनां मध्ये यतो यस्माद्यस्मान्निमित्ताच्छब्दादेर्विषयाद्रागद्वेषादेश्च चञ्चलं विक्षेपाभिमुखं सन्मनो निश्चरति विक्षिप्तं सद्विषयाभिमुखीं प्रमाणविपर्ययविकल्पस्मृतीनामन्यतमामपि समाधिविरोधिनींवृत्तिमुत्पादयति तथा लयहेतूनां निद्राशेषबह्वशनश्रमादीनां मध्ये यतो यतो निमित्तादस्थिरं लयाभिमुखं सन्मनो निश्चरति लीनं सत्समाधिविरोधिनीं निद्राख्यां वृत्तिमुत्पादयति ततस्ततो विक्षेपनिमित्ताल्लयनिमित्ताच्च नियम्यैतन्मनो निर्वृत्तिकं कृत्वात्मन्येव स्वप्रकाशपरमानन्दघने वशं नयेन्निरुन्ध्यात्। यथा न विक्षिप्येत न वा लीयेतेति। एवकारो नात्मगोचरत्वं समाधेर्वारयति। एतच्च विवृतं गौडाचार्यपादैःउपायेन निगृह्णीयाद्विक्षिप्तं कामभोगयोः। सुप्रसन्नं लये चैव यथा कामो लयस्तथा।।दुःखं सर्वमनुस्मृत्य कामभोगान्निवर्तयेत्। अजं सर्वमनुस्मृत्य जातं नैव तु पश्यति।।लये संबोधयेच्चित्तं विक्षिप्तं शमयेत्पुनः। सकषायं विजानीयात्समप्राप्तं न चालयेत्।।नास्वादयेत्सुखं तत्र निःसङ्गः प्रज्ञया भवेत्। निश्चलं निश्चरच्चित्तमेकीकुर्यात्प्रयत्नतः।।यदा न लीयते चित्तं नच विक्षिप्यते पुनः। अनिङ्गनमनाभासं निष्पन्नं ब्रह्म तत्तदा।। इति पञ्चभिः श्लोकैः। उपायेन वक्ष्यमाणेन वैराग्याभ्यासेन कामभोगयोर्विक्षिप्तं प्रमाणविपर्ययविकल्पस्मृतीनामन्यतमयापि वृत्त्या परिणतं मनो निगृह्णीयान्निरुन्ध्यात्। आत्मन्येवेत्यर्थः। कामभोगयोरिति चिन्त्यमानावस्थाभुज्यमानावस्थाभेदेन द्विवचनम्। तथा लीयतेऽस्मिन्निति लयः सुषुप्तं तस्मिन्सुप्रसन्नमायासवर्जितमपि मनो निगृह्णीयादेव। सुप्रसन्नं चेत्कुतो निगृह्यते तत्राह यथा कामो विषयगोचरप्रमाणादिवृत्त्युत्पादनेन समाधिविरोधी तथा लयोऽपि निद्राख्यवृत्त्युत्पादनेन समाधिविरोधी। सर्ववृत्तिनिरोधो हि समाधिः। अतः कामादिकृतविक्षेपादिव श्रमादिकृतलयादपि मनो निरोद्धव्यमित्यर्थः। उपायेन निगृह्णीयात्केनेत्युच्यते। सर्वं द्वैतमविद्याविजृम्भितमल्पं दुःखमेवेत्यनुसृत्ययो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति। अथ यदल्पं तन्मर्त्यं तद्दुःखम् इति श्रुत्यर्थं गुरूपदेशादनु पश्चात्पर्यालोच्य कामांश्चिन्त्यमानावस्थान्विषयान्भोगान्भुज्यमानावस्थांश्च विषयान्निवर्तयेत्। मनसः सकाशादिति शेषः। कामश्च भोगश्च कामभोगं तस्मान्मनो निवर्तयेदिति वा। एंव द्वैतस्मरणकाले वैराग्यभावनोपाय इत्यर्थः। द्वैतविस्मरणं तु परमोपाय इत्याह अजं ब्रह्म सर्वं न ततोऽतिरिक्तं किंचिदस्तीति शास्त्राचार्योपदेशादनन्तरमनुस्मृत्य तद्विपरीतं द्वैतजातं न पश्यत्येव। अधिष्ठाने ज्ञाते कल्पितस्याभावात्। पूर्वोपायापेक्षया वैलक्षण्यसूचनार्थस्तुशब्दः। एवं वैराग्यभावनातत्त्वदर्शनाभ्यां विषयेभ्यो निवर्त्यमानं चित्तं यदि दैनंदिनलयाभ्यासवशाल्लयाभिमुखं भवेत्तदा निद्राशेषाजीर्णबह्वशनश्रमाणां लयकारणानां निरोधेन चित्तं सम्यक् प्रबोधयेदुत्थानप्रयत्नेन। यदि पुनरेवं प्रबोध्यमानं दैनंदिनप्रबोधाभ्यासवशात्कामभोगयोर्विक्षिप्तं स्यात्तदा वैराग्यभावनया तत्त्वसाक्षात्कारेण च पुनः शमयेत्। एवं पुनःपुनरभ्यस्यतो लयात्संबोधितं विषयेभ्यश्च व्यावर्तितं नापि समप्राप्तमन्तरालावस्थं चित्तं स्तब्धीभूतं सकषायं रागद्वेषादिप्रबलवासनावशेन स्तब्धीभावाख्येन कषायेण दोषेण युक्तं विजानीयात्समाहिताच्चित्ताद्विवेकेन जानीयात्। ततश्च नेदं समाहितमित्यवगम्य लयविक्षेपाभ्यामिव कषायादपि चित्तं निरुन्ध्यात्। ततश्च लयविक्षेपकषायेषु परिहृतेषु परिशेषाच्चित्तेन समं ब्रह्म प्राप्यते। तच्च समप्राप्तं चित्तं कषालयभ्रान्त्या न चालयेद्विषयाभिमुखं न कुर्यात् किंतु धृतिगृहीतया बुद्ध्या लयकषायप्राप्तेर्विविच्य तस्यामेव समप्राप्तावतियत्नेन स्थापयेत्। तत्र समाधौ परमसुखव्यञ्जकेऽपि सुखं नास्वादयेत्। एतावन्तं कालमहं सुखीति सुखास्वादरूपां वृत्तिं न कुर्यात् समाधिभङ्गप्रसङ्गादिति प्रागेव कृतव्याख्यानम्। प्रज्ञया यदुपलभ्यते सुखं तदप्यविद्यापरिकल्पितं मृषैवेत्येवं भावनया निःसङ्गो निःस्पृहः सर्वसुखेषु भवेत्। अथवा प्रज्ञया सविकल्पसुखाकारवृत्तिरूपया सह सङ्गं परित्यजेन्नतु स्वरूपसुखमपि निर्वृत्तिकेन चित्तेन नानुभवेत्। स्वभावप्राप्तस्य तस्य वारयितुमशक्यत्वात्। एवं सर्वतो निवर्त्य निश्चलं प्रयत्नवशेन कृतं चित्तं स्वभावचाञ्चल्याद्विषयाभिमुखतया निश्चरद्बहिर्निर्गच्छत् एकीकुर्यात्। प्रयत्नतः निरोधप्रयत्नेन समे ब्रह्मण्येकतां नयेत्। समप्राप्तं चित्तं कीदृशमुच्यते यदा न लीयते नापि स्तब्धीभवति तामसत्वसाम्येन लयशब्देनैव स्तब्धीभावस्योपलक्षणात्। नच विक्षिप्यते पुनः न शब्दाद्याकारवृत्तिमनुभवति। नापि सुखमास्वादयति राजसत्वसाम्येन सुखास्वादस्यापि विक्षेपशब्देनोपलक्षणात्। पूर्वं भेदनिर्देशस्तु पृथक्प्रयत्नकरणाय। एंव लयकषायाभ्यां विक्षेपसुखास्वादाभ्यां च रहितमनिङ्गमिङ्गनं चलनं सवातप्रदीपवल्लयाभिमुखरूपं तद्रहितं निवातप्रदीपकल्पम्। अनाभासं न केनचिद्विषयाकारेणाभासत इत्येतत्। कषायसुखास्वादयोरुभयान्तर्भाव उक्त एव। यदैवं दोषचतुष्टयरहितं चित्तं भवति तदा तच्चित्तं ब्रह्म निष्पन्नं समं ब्रह्मप्राप्तं भवतीत्यर्थः। एतादृशश्च योगः श्रुत्या प्रतिपादितःयदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।।तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्। अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।। इति। एतन्मूलकमेव चयोगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति सूत्रम्। तस्माद्युक्तं ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेदिति।
।।6.26।।एवमपि रजोगुणवशाद्यदि मनः प्रचलेत्तर्हि पुनः प्रत्याहारेण वशीकुर्यादित्याह यत इति। स्वभावतश्चञ्चलं धार्यमाणमप्यस्थिरं मनो यं यं विषयं प्रति निर्गच्छति ततस्ततः प्रत्याहृत्यात्म्यन्येव स्थिरं कुर्यात्।
।।6.26।।पूर्वोक्तमेव दुर्ग्रहत्वद्योतनाय अवधानविधानाय च प्रपञ्चयति यतो यत इति।चञ्चलं अस्थिरम् इत्यनयोः पौनरुक्त्यनिरासायोक्तंचलस्वभावतयात्मन्यस्थिरमिति। सामान्यविशेषविषयत्वादपुनरुक्तिः।चञ्चलम् इति स्वभावातिरिक्तहेतुनिवृत्तिपरं वा। यतो यतो निश्चरति येन येनेन्द्रियद्वारेण निश्चरतीत्यर्थः। यद्वा यं यं विषयमभिमुखीकृत्वेत्यर्थः। प्रयोजनतया वा हेतौ पञ्चमी। तद्व्यञ्जनायाहविषयप्रावण्यहेतोरिति। विषयसम्बन्धार्थमित्यर्थः। विषयप्रावण्यस्य हेतोरिति वा। सम्भवन्ति ह्यतर्कितोपनता विषयसन्निधानतत्कीर्तनादयो विषयप्रावण्यहेतवः। सुखभावनया वशीकरणं शक्यमित्युच्यतेअतिशयितसुखभावनयेति।
।।6.26।।शनैरित्युक्तेः स्वरूपमाह यत इति। मनो यतो यतः स्वभावतश्चञ्चलं अस्थिरं यं यं प्रति निश्चलति ततस्ततो नियम्य वशीकृत्य एतन्मन आत्मन्येव भावात्मके भगवत्येव वशं नयेत् प्रापयेत्। अत्रायं भावः पूर्वं यत्र स्थितं मनस्ततोऽन्यत्र वैशिष्ट्यबुद्ध्या ततो निर्गत्याऽपगच्छति। तत्राऽपि स्वचाञ्चल्यधर्मेण न स्थिरीभविष्यति तस्माद्भगवत्स्वरूपतोऽन्यत्रोत्तमत्वाभावान्नाग्रे चलिष्यत्यतोऽन्यतो वशीकृत्य भगवति स्थापयेत्।
।।6.26।।शनैः शनैरित्येतं श्लोकं व्याचष्टे यतो यत इति त्रिभिः। यतो यतो हेतोर्यं यं विषयं ग्रहीतुं मनो निश्चरति बहिर्गच्छति ततस्ततस्तत्रतत्र दोषदर्शनेन ततस्ततो विषयादेतन्मनो नियम्य प्रत्याहृत्य आत्मनि स्वरूपे एव वशं नयेत्पर्यवस्थापयेत्। एतेन पूर्वार्धं व्याख्यातम्।
।।6.26।।ननु मनसः शब्दादिनिमित्तानुरोधेन रागद्वेषवशादतिच्चलस्यास्थिरस्य स्वभावादेव तत्रतत्र विषये प्रवृत्त्स्य नैश्चल्यं नैश्चिन्त्यं वा कुत इत्याशङ्क्याह यत इति। एवमात्मसंस्थं मनः कर्तुं प्रवृत्तो योगी यतो यतो यस्माद्यस्मान्निमित्ताच्छब्दादेर्निःसरति निर्गच्छति स्वभावदोषान्मनश्चञ्चलमतएवास्थिरं लयाभिमुखं। ततस्ततस्तस्मात्त्स्माच्छब्दादेर्निमित्तान्नियम्य तत्तच्छब्दादिनिमित्तं क्षयिष्णुत्वदुःखसंमिश्रत्वाद्यालोचनेन तत्रतत्र वैराग्यभावनयाऽभावीकृत्यात्मन्येवैतन्मनो वशं नयेदात्मवशतामापादयेत्।
6.26 यतःयतः from whatever cause? निश्चरति wanders away? मनः mind? चञ्चलम् restless? अस्थिरम् unsteady? ततःततः from that? नियम्य having restrained? एतत् this? आत्मनि in the Self? एव alone? वशम् (under) control? नयेत् let (him) bring.Commentary In this verse the Lord gives the method to control the mind. Just as you drag the bull again and again to your house when it runs out? so also you will have to drag the mind to your point or centre or Lakshya again and again when it runs towards the external objects. If you give good cotton seed extract? sugar? plantains? etc.? to the bull? it will not turn away but will remain in your house. Even so if you make the mind taste the eternal bliss of the Self within little by little by the practice of concentration? it will gradually abide in the Self only and will not run towards the external objects of the senses. Sound and the other objects only make the mind restless and unsteady. By knowing the defects of the objects of sensual pleasure? by understanding their illusory nature? by the cultivation of discrimination between the Real and the unreal and also dispassion? and by making the mind understand the glory and the splendour of the Self you can wean the mind entirely away from sensual objects and fix it firmly on the Self.
6.26 From whatever cause the restless and unsteady mind wanders away, from that let him restrain it and bring it under the control of the Self alone.
6.26 When the volatile and wavering mind would wander, let him restrain it and bring it again to its allegiance to the Self.
6.26 (The yogi) should bring (this mind) under the subjugation of the Self Itself, by restraining it from all those causes whatever due to which the restless, unsteady mind wanders away.
6.26 In the beginning, the yogi who is thus engaged in making the mind established in the Self, etat vasamnayet, should bring this (mind) under the subjugation; atmani eva, of the Self Itself; niyamya, by restraining; etat. it; tatah tatah, from all those causes whatever, viz sound etc.; yatah yatah, due to which, doe to whatever objects like sound etc.; the cancalam, restless, very restless; and therefore asthiram, unsteady; manah, mind; niscarati, wanders away, goes out due to its inherent defects. (It should be restrained) by ascertaining through discrimination those causes to be mere appearances, and with an attitude of detachment. Thus, through the power of practice of Yoga, the mind of the yogi merges in the Self Itself.
6.26. By whatever things the shaky and unsteady mind goes astray, from those things let him restrain it and bring it back to the control of the Self alone.
6.26 See Comment under 6.28
6.26 Wherever the mind, on account of its fickle and unsteady nature, wanders, because of its proclivity to sense-objects, he should, subduing the mind everywhere with effort, bring it under control in order to remain in the self alone by contemplating on the incomparable bliss therein.
6.26 Wherever the fickle and unsteady mind wanders, he should subdue it then and there bring it back under the control of the self alone.
।।6.26।।इस प्रकार मनको आत्मामें स्थित करनेमें लगा हुआ योगी स्वाभाविक दोषके कारण जो अत्यन्त चञ्चल है तथा इसीलिये जो अस्थिर है ऐसा मन जिसजिस शब्दादि विषयके निमित्तसे विचलित होता है बाहर जाता है उसउस शब्दादि विषयरूप निमित्तसे ( इस मनको ) रोककर एवं उसउस विषयरूप निमित्तको यथार्थ तत्त्वनिरूपणद्वारा आभासमात्र दिखाकर वैराग्यकी भावनासे इस मनका ( बारंबार ) आत्मामें ही निरोध करे अर्थात् इसे आत्माके ही वशीभूत किया करे। इस प्रकार योगाभ्यासके बलसे योगीका मन आत्मामें ही शान्त हो जाता है।
।।6.26।। यतो यतः यस्माद्यस्मात् निमित्तात् शब्दादेः निश्चरति निर्गच्छति स्वभावदोषात् मनः चञ्चलम् अत्यर्थं चलम् अत एव अस्थिरम् ततस्ततः तस्मात्तस्मात् शब्दादेः निमित्तात् नियम्य तत्तन्निमित्तं याथात्म्यनिरूपणेन आभासीकृत्य वैराग्यभावनया च एतत् मनः आत्मन्येव वशं नयेत् आत्मवश्यतामापादयेत्। एवं योगाभ्यासबलात् योगिनः आत्मन्येव प्रशाम्यति मनः।।
।।6.26।।यतो यतः श्रोत्रादेरिति प्रतीतिनिरासायाह यत इति। शब्दादावित्यर्थः। कुतः सप्तम्यर्थे तसिर्लभ्यते इत्यत आह यत इति। तथा चोक्तंआद्यादिभ्य उपसंख्यानं वार्ति. इति। अन्यथा द्वारमात्रनियमे स्मरणस्य को निवारयिता षष्ठ्या ह्यत्र भाव्यं सप्तमी तु कथं इत्यत आह आत्मनीति।
।।6.26।।यतो यतो यत्र यत्रयतो यतो धावति भाग.10।1।42 इत्यादिप्रयोगात्। आत्मन्येव वशं नयेत् आत्मविषय एव वशीकुर्यादित्यर्थः।
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।6.26।।
যতো যতো নিশ্চরতি মনশ্চঞ্চলমস্থিরম্৷ ততস্ততো নিযম্যৈতদাত্মন্যেব বশং নযেত্৷৷6.26৷৷
যতো যতো নিশ্চরতি মনশ্চঞ্চলমস্থিরম্৷ ততস্ততো নিযম্যৈতদাত্মন্যেব বশং নযেত্৷৷6.26৷৷
યતો યતો નિશ્ચરતિ મનશ્ચઞ્ચલમસ્થિરમ્। તતસ્તતો નિયમ્યૈતદાત્મન્યેવ વશં નયેત્।।6.26।।
ਯਤੋ ਯਤੋ ਨਿਸ਼੍ਚਰਤਿ ਮਨਸ਼੍ਚਞ੍ਚਲਮਸ੍ਥਿਰਮ੍। ਤਤਸ੍ਤਤੋ ਨਿਯਮ੍ਯੈਤਦਾਤ੍ਮਨ੍ਯੇਵ ਵਸ਼ਂ ਨਯੇਤ੍।।6.26।।
ಯತೋ ಯತೋ ನಿಶ್ಚರತಿ ಮನಶ್ಚಞ್ಚಲಮಸ್ಥಿರಮ್. ತತಸ್ತತೋ ನಿಯಮ್ಯೈತದಾತ್ಮನ್ಯೇವ ವಶಂ ನಯೇತ್৷৷6.26৷৷
യതോ യതോ നിശ്ചരതി മനശ്ചഞ്ചലമസ്ഥിരമ്. തതസ്തതോ നിയമ്യൈതദാത്മന്യേവ വശം നയേത്৷৷6.26৷৷
ଯତୋ ଯତୋ ନିଶ୍ଚରତି ମନଶ୍ଚଞ୍ଚଲମସ୍ଥିରମ୍| ତତସ୍ତତୋ ନିଯମ୍ଯୈତଦାତ୍ମନ୍ଯେବ ବଶଂ ନଯେତ୍||6.26||
yatō yatō niścarati manaścañcalamasthiram. tatastatō niyamyaitadātmanyēva vaśaṅ nayēt৷৷6.26৷৷
யதோ யதோ நிஷ்சரதி மநஷ்சஞ்சலமஸ்திரம். ததஸ்ததோ நியம்யைததாத்மந்யேவ வஷஂ நயேத்৷৷6.26৷৷
యతో యతో నిశ్చరతి మనశ్చఞ్చలమస్థిరమ్. తతస్తతో నియమ్యైతదాత్మన్యేవ వశం నయేత్৷৷6.26৷৷
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।।6.27।। जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिसका रजोगुण तथा मन सर्वथा शान्त(निर्मल) हो गया है, ऐसे इस ब्रह्मस्वरूप योगीको निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है।
।।6.27।। जिसका मन प्रशान्त है, जो पापरहित (अकल्मषम्) है और जिसका रजोगुण (विक्षेप) शांत हुआ है, ऐसे ब्रह्मरूप हुए इस योगी को उत्तम सुख प्राप्त होता है।।
।।6.27।। पूर्व श्लोकों के विवेचन से यह स्पष्ट हो गया है कि शनै शनै मन को आत्मस्वरूप में स्थिर करने से वृत्तिप्रवाह के साथ मन भी समाप्त हो जाता हैं। मन के निर्विषयी होने पर मनुष्य को आत्मा का शुद्ध स्वरूप में अनुभव होता है और स्वाभाविक ही वह परम सुख को प्राप्त होता है।एक बुद्धिमान साधक को उक्त कथन को चुनौती देने का पूर्ण अधिकार है। क्योंकि शास्त्रीय विषयों में शास्त्रविदों को यह अधिकार नहीं कि वे अपने मत को प्रतिपादित करके विद्यार्थियों से अपेक्षा रखें कि वे उस मत को वैसा ही स्वीकार कर लें। दूसरी पंक्ति में कारण बताते हैं कि क्यों और किस प्रकार मन के शांत होने पर आत्मा का स्वत साक्षात् अनुभव होता है। कारण यह है कि मन को शांत आनन्दस्वरूप आत्मा में स्थिर करने के प्रयत्न में पूर्वसंचित वासनाएं क्षीण पड़ जाती हैं और वासनारहित मन को ही निष्पाप (अकल्मष) कहते हैं।वेदान्त में मन की अशुद्धि को कहते हैं मल। आत्मतत्त्व का अज्ञान (आवरण) और उससे उत्पन्न मन के विक्षेप संयुक्त रूप से मल कहलाते हैं। आवरण तमोगुण का कार्य है जबकि तज्जनित विक्षेप रजोगुण का। यही मनुष्य का दुखमय संसार में पतन का कारण है। भगवान् के इन शब्दों में इसका स्पष्ट निर्देश मिलता है (क) शांतरजस और (ख) अकल्मष।तमोगुण और रजोगुण के प्रभाव से मुक्त पुरुष को आत्मज्ञानी ही मानना पड़ेगा। जब तक विक्षेप है तब तक मन का अस्तित्व है और उसके साथ आत्मा के तादात्म्य से जीवभाव उत्पन्न होता है अर्थात् वह साधक जो ध्यानाभ्यास में प्रवृत्त होता है ध्यानविधि के अनुसार मन के साथ के तादात्म्य की निवृत्ति होने पर जीव अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को पहचान लेता है। ब्रह्मभूत शब्द से अद्वैत सत्य की स्पष्ट घोषणा यहाँ की गयी है जिसके अर्थानुसार योगी स्वयं ब्रह्म स्वरूप ही जाता है।अब भगवान् यह बताते हैं कि आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् ज्ञानी पुरुष का सम्पूर्ण जीवन किस प्रकार उस अऩुभव से युक्त होता है
।।6.27।। व्याख्या--'प्रशान्तमनसं ह्येनं ৷৷. ब्रह्मभूतमकल्मषम्'--जिसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो गये हैं अर्थात् तमोगुण और तमोगुणकी अप्रकाश अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह (गीता 14। 13)--ये वृत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं, ऐसे योगीको यहाँ 'अकल्मषम्' कहा गया है। जिसका रजोगुण और रजोगुणकी लोभ, प्रवृत्ति, नये-नये कर्मोंमें लगना, अशान्ति और स्पृहा (गीता 14। 12)--ये वृत्तियाँ शान्त हो गयी हैं, ऐसे योगीको यहाँ 'शान्तरजसम्' बताया गया है।
।।6.26 6.28।।न च विषयव्युपरममात्रमेव प्राप्यमित्युच्यते यत इत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। यतो यतो मनो निवर्तते तन्निवर्तनसमनन्तरमेव आत्मनि शमयेत्। अन्यथा अप्रतिष्ठं चित्तं पुनरपि विषयानेवावलम्बते। तत्र आत्मनि शान्तचित्तं योगिनं कर्मभूतं सुखं कर्तृभूतम् उपैति। अनेनैव क्रमेण योगिनां सुखेन ब्रह्मावाप्तिः न तु कष्टयोगादिनेति तात्पर्यम्।
।।6.27।।प्रशान्तमनसम् आत्मनि निश्चलमनसम् आत्मन्यस्तमनसं तत एव हेतोः दग्धाशेषकल्मषं तत एव शान्तरजसं विनष्टरजोगुणं तत एव ब्रह्मभूतं स्वस्वरूपेणावस्थितम् एनं योगिनम् आत्मानुभवरूपम् उत्तमं सुखम् उपैति हि इति हेतौ उत्तमसुखरूपम् उपैति इत्यर्थः।
।।6.27।।मनस्तद्वृत्त्योरभावे स्वरूपभूतसुखाविर्भावस्य स्वापादौ प्रसिद्धिं द्योतयितुं हिशब्दः। मोहादिक्लेशप्रतिबन्धाद्योगिनि यथोक्तसुखाप्राप्तिमाशङ्क्य मनोविलयमुपेत्य परिहरति शान्तेति। तस्यास्मदादिविलक्षणत्वमाह ब्रह्मभूतमिति। अस्मदादेरपि स्वतो ब्रह्मभूतत्वेन तुल्यं जीवन्मुक्तत्वमित्याशङ्क्याह ब्रह्मैवेति। धर्माधर्मप्रतिबन्धादयुक्ता यथोक्तसुखप्राप्तिरित्याशङ्क्योक्तम् अकल्मषमिति।
।।6.27।।ततश्च योगसुखाप्तिरित्याह प्रशान्तमनसमिति। प्रशान्तं मनो यस्य यतः शान्तं रजोविक्षेपकं यस्य तमकल्मषं ब्रह्मभावापन्नं योगिनं उत्तमं सुखं ब्रह्मभूतमुपैति प्राप्नोति।
।।6.27।।एंव योगाभ्यासबलादात्मन्येव योगिनः प्रशाम्यति मनः। ततश्च प्रशान्तं प्रकर्षेण शान्तं निर्वृत्तिकतया निरुद्धं संस्कारमात्रशेषं मनो यस्य तं प्रशान्तमनस वृत्तिशून्यतया निर्मनस्कम्। निर्मनस्कत्वे हेतुगर्भं विशेषणद्वयं शान्तरजसमकल्मषमिति। शान्तं विक्षेपकं रजो यस्य तं विक्षेपशून्यम्। तथा न विद्यते कल्मषं लयहेतुस्तमो यस्य तमकल्मषं लयशून्यम्। प्रशान्तरजसमित्यनेनैव तमोगुणोपलक्षणेऽकल्मषं संसारहेतुधर्माधर्मादिविवर्जितमिति वा। ब्रह्मभूतं ब्रह्मैव सर्वमिति निश्चयेन समं ब्रह्म प्राप्त जीवन्मुक्तमेनं योगिनम्। एवमुक्तेन प्रकारेणेति श्रीधरः। उत्तमं निरतिशयं सुखमुपैत्युपगच्छति। मनस्तद्वृत्त्योरभावे सुषुप्तौ स्वरुपसुखविर्भावप्रसिद्धिं द्योतयति हिशब्दः। तथाच प्राग्व्याख्यातं सुखमात्यन्तिकं यत्तत्त् इत्यत्र।
।।6.27।। एवं प्रत्याहारादिभिः पुनः पुनर्मनो वशीकुर्वन्तं रजोगुणक्षये सति योगसुखं प्राप्नोतीत्याह प्रशान्तमनसमिति। एवमुक्तेन प्रकारेण शान्तं रजो यस्य तम्। अतएव प्रशान्तं मनो यस्य तमेनं निष्कल्मषं ब्रह्मत्वं प्राप्तं योगिनमुत्तमं सुखं समाधिसुखं स्वयमेवोपैति प्राप्नोति।
।।6.27।।आत्मनि वशीकरणोपायः प्रागुक्तः अनन्तरं च तदेवाहप्रशान्तमनसं इति श्लोकेन। तत्र विप्रकीर्णावस्थितानां पदानामन्वयक्रममर्थं च दर्शयति।प्रशान्तमनसमित्यादिना।योगिनम् अकल्मषं शान्तरजसं शान्तमनसं ब्रह्मभूतमेनम् इति हेतुकार्यभावेनान्वयक्रमः। स्वविषययोगस्य स्वकल्मषनिवर्तकत्वं पञ्चगव्यप्राशनादेरिव परसङ्कल्पायत्तम्।ब्रह्मभूतमिति देहात्मभ्रमादिप्रयुक्तक्लेशादिदशारूपाब्रह्मत्वव्यवच्छेदार्थम्। तदाह स्वस्वरूपेणावस्थितमिति। अणोरपि हि जीवस्य स चानन्त्याय कल्पते श्वे.उ.5।9 इति श्रुतेर्धर्मतो बृहत्त्वमस्त्येव। उत्तमशब्देन वैषयिकसुखव्यवच्छेदो विवक्षित इति व्यञ्जनायआत्मानुभवरूपमित्युक्तम्।ब्रह्मसंस्पर्शम्
।।6.27।।एवम्भावात्मके भगवति मनस्स्थैर्ये यत्फलं स्यात्तदाह प्रशान्तमनसमिति। प्रशान्तमनसं भगवति स्थिरमनसमेनं योगिनं शान्तरजसं विक्षेपदोषरहितमुत्तमं सुखं ब्रह्मभूतं भगवद्रसात्मकमकल्मषं स्वभोगादिसुखदोषरहितमुपैति।
।।6.27।।एवमात्मवशे मनसि किं स्यादित्याशङ्क्याह प्रशान्तेति। हि यस्मादेनं प्रशान्तमनसं प्रकर्षेणोपरतचेतसं योगिनमेकाग्रताभूमावुत्तमं सुखं संप्रज्ञातसमाधिफलभूतमुपैति। भौतिकानां बाह्यानां मानोरथिकानामान्तराणां च विषयाणां त्यागात् शान्तरजसं प्रक्षीणमोहादिक्लेशं ब्रह्मभूतं सद्वस्तुरूपं अकल्मषं धर्माधर्मवर्जितम्। यथोक्तं योगभाष्येयस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थं प्रद्योतयति कर्मबन्धनानि श्लथयति निरोधमभिमुखीकरोति क्षिणोति च क्लेशान् स संप्रज्ञातो योग इत्याख्यायते इति। एतेनात्मसंस्थं मनः कृत्वेति व्याख्यातम्।
।।6.27।।योगिनमुत्तमं सुखमुपैतीत्युक्तं तदेव स्फुटयति यञ्जन्निति। एवं यथोक्तेन क्रमेणात्मानमन्तःकरणं सदा दीर्घकालमादरनैरन्तर्याम्यां च युञ्जन् आत्मनि स्थिरं कुर्वन्। योगान्तरायवर्जित इति भाष्यम्। योगान्तरायाश्च योगसूत्रप्रदर्शिताःव्याधिस्त्यनसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वावस्थितत्वानि चित्तविषेपास्तेऽन्तरायाः दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः इति। एत रजस्तमोवशात्प्रवर्तमानाश्चित्तस्य विक्षेपा भवन्ति। तैरेकाग्रताविरोधिभिश्चित्तं विक्षिप्यत इत्यर्थः। तत्र व्याधिर्धातुवैषम्यनिमित्तो ज्वरादिः। स्त्यानमकर्मण्यता। संशयश्चित्तस्योभयकोठ्यालम्बनम्। विज्ञानं योगः साध्यो नवेति। प्रमादोऽनुत्थानशीलता। समाधिसाधने औदासीन्यं आलस्यम्। कायचित्तयोर्गुरुत्वं योगविषये प्रीत्यभावहेतुः। अविरतिश्चित्तस्य विषयसंप्रयोगात्मागर्धः। भ्रान्तिदर्शनं शुक्तिकायां रजतवद्धिपर्ययज्ञानम्। लब्धभूमि कत्वं कुतश्चिन्निमित्तात्समाधिभूमेरलाभः। अनवस्थितत्वं लब्धावस्थायामपि समाधिभूमौ चित्तस्य तत्राप्रतिष्ठा। एते समाधेरेकाग्रताया यथायोगं प्रतिपक्षत्वादन्तराया इत्युच्यन्ते। चित्तविक्षेपकारकानन्यानप्यन्तरायान्प्रतिपादयितुमाह। कुतश्चिन्निमित्तादुत्पन्नेषु विक्षेपेषु एते दुःखादयः प्रवर्तन्ते तत्र दुःखंचित्तस्य रागजः परिणामो बाधनालक्षणः। यद्वाधात्प्राणिनस्ततपघाताय प्रवर्तन्ते। तौर्मनस्यं बाह्याभ्यन्तरैः करणैर्मनसो तौस्थ्यम्। अङ्गमेजयत्वं सर्वाङगीणो वेपथुः आसनस्थैर्यस्य बाधकः। प्राणो यद्वाह्यवायुमाचामति स श्वासः यत्कौष्ठ्यं वायुं निःश्वसिति स प्रश्वासः िति योगसूत्रार्थः। विगतकल्मषः पापादिरहितः सुखेनानायासेनात्यन्तं निरतिशयं सुखं ब्रह्मसंस्पर्शं ब्रह्मणा परमात्मना सभ्यक् स्पर्शो यस्य तत्। ब्रह्माभिन्नं सुखमश्रुते व्याप्नोति।
6.27 प्रशान्तमनसम् one of peaceful mind? हि verily? एनम् this? योगिनम् Yogi? सुखम् bliss? उत्तमम् supreme? उपैति comes? शान्तरजसम् one whose passion is ieted? ब्रह्मभूतम् one who has become Brahman? अकल्मषम् one who is free from sin.Commentary In this verse and in the next also the Lord describes the benefits of Yoga.Supreme (eternal? unalloyed and uninterrupted) bliss comes to the Yogi whose mind is perfectly serene? who has calmed his passionate nature? who has destroyed all sorts of attachments? who has attained knowledge of the Self and thus become a Jivanmukta or one who is liberated while living? who feels that all is Brahman only? and who is taintless? i.e.? who is not affected by Dharma or Adharma (good or evil).
6.27 Supreme Bliss verily comes to this Yogi whose mind is ite peaceful, whose passion is ieted, who has become Brahman and who is free from sin.
6.27 Supreme Bliss is the lot of the sage, whose mind attains Peace, whose passions subside, who is without sin, and who becomes one with the Absolute.
6.27 Supreme Bliss comes to this yogi alone whose mind has become perfectly tranil, whose (ality of) rajas has been eliminated, who has become identified with Brahman, and is taintless.
6.27 Uttamam, supreme, unsurpassable; sukham, Blisss; upaiti, comes; hi enam yoginam, to this yogi alone; prasanta-manasam, whose mind has become perfectly tranil; santa-rejasam, whose (ality of) rajas has been eliminated, i.e. whose rajas, viz defects such as delusion etc. ['The five klesas, pain-bearing obstructions, are: ignorance, egoism, attachment, aversion, and clinging to life' (P.Y.Su.2.3).] have been destroyed; brahma-bhutam, who has become identified with Brahman, who is free even while living, who has got the certitude that Bramhman is all; and akalmasam, who is taintless, free from vice etc.
6.27. Indeed the Supreme Bliss comes to this highly tranil-minded man of Yoga, whose passions remain ietened, who has become the Brahman and who is free from sins.
6.27 See Comment under 6.27
6.27 Supreme happiness, which is of the nature of experience of the self in its essential nature comes to this Yogin whose 'mind is at peace,' i.e., whose mind does not swerve from the self, whose mind abides in the self; whose impurities are thery completely burnt away; whose Rajas is thery 'wholly annulled,' i.e., in whom the ality of Rajas is destroyed; and who has thus become the Brahman, i.e., who remains steady in his essential nature as the Atman. 'Hi' (for) is added to indicate reason. The meaning is this: 'On account of the nature of the self which has the form of supreme bliss.'
6.27 For supreme happiness comes to the Yogin whose mind is at peace, who is free of evil, from whom the Rajas has departed, and who has become the Brahman.
।।6.27।।क्योंकि जिसका मन भलीभाँति शान्त है जिसका रजोगुण शान्त हो गया है अर्थात् जिसका मोहादि क्लेशरूप रजोगुण अच्छी प्रकार क्षीण हो चुका है जो ब्रह्मरूप जीवन्मुक्त अर्थात् यह सब कुछ ब्रह्म ही है ऐसे निश्चयवाला है एवं जो अधर्मादि दोषोंसे रहित है उस योगीको निरतिशय उत्तम सुख प्राप्तहोता है।
।।6.27।। प्रशान्तमनसं प्रकर्षेण शान्तं मनः यस्य सः प्रशान्तमनाः तं प्रशान्तमनसं हि एनं योगिनं सुखम् उत्तमं निरतिशयम् उपैति उपगच्छति शान्तरजसं प्रक्षीणमोहादिक्लेशरजसमित्यर्थः ब्रह्मभूतं जीवन्मुक्तम् ब्रह्मैव सर्वम् इत्येवं निश्चयवन्तं ब्रह्मभूतम् अकल्मषं धर्माधर्मादिवर्जितम्।।
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प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्। उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।6.27।।
প্রশান্তমনসং হ্যেনং যোগিনং সুখমুত্তমম্৷ উপৈতি শান্তরজসং ব্রহ্মভূতমকল্মষম্৷৷6.27৷৷
প্রশান্তমনসং হ্যেনং যোগিনং সুখমুত্তমম্৷ উপৈতি শান্তরজসং ব্রহ্মভূতমকল্মষম্৷৷6.27৷৷
પ્રશાન્તમનસં હ્યેનં યોગિનં સુખમુત્તમમ્। ઉપૈતિ શાન્તરજસં બ્રહ્મભૂતમકલ્મષમ્।।6.27।।
ਪ੍ਰਸ਼ਾਨ੍ਤਮਨਸਂ ਹ੍ਯੇਨਂ ਯੋਗਿਨਂ ਸੁਖਮੁਤ੍ਤਮਮ੍। ਉਪੈਤਿ ਸ਼ਾਨ੍ਤਰਜਸਂ ਬ੍ਰਹ੍ਮਭੂਤਮਕਲ੍ਮਸ਼ਮ੍।।6.27।।
ಪ್ರಶಾನ್ತಮನಸಂ ಹ್ಯೇನಂ ಯೋಗಿನಂ ಸುಖಮುತ್ತಮಮ್. ಉಪೈತಿ ಶಾನ್ತರಜಸಂ ಬ್ರಹ್ಮಭೂತಮಕಲ್ಮಷಮ್৷৷6.27৷৷
പ്രശാന്തമനസം ഹ്യേനം യോഗിനം സുഖമുത്തമമ്. ഉപൈതി ശാന്തരജസം ബ്രഹ്മഭൂതമകല്മഷമ്৷৷6.27৷৷
ପ୍ରଶାନ୍ତମନସଂ ହ୍ଯେନଂ ଯୋଗିନଂ ସୁଖମୁତ୍ତମମ୍| ଉପୈତି ଶାନ୍ତରଜସଂ ବ୍ରହ୍ମଭୂତମକଲ୍ମଷମ୍||6.27||
praśāntamanasaṅ hyēnaṅ yōginaṅ sukhamuttamam. upaiti śāntarajasaṅ brahmabhūtamakalmaṣam৷৷6.27৷৷
ப்ரஷாந்தமநஸஂ ஹ்யேநஂ யோகிநஂ ஸுகமுத்தமம். உபைதி ஷாந்தரஜஸஂ ப்ரஹ்மபூதமகல்மஷம்৷৷6.27৷৷
ప్రశాన్తమనసం హ్యేనం యోగినం సుఖముత్తమమ్. ఉపైతి శాన్తరజసం బ్రహ్మభూతమకల్మషమ్৷৷6.27৷৷
6.28
6
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।।6.28।। इस प्रकार अपने-आपको सदा परमात्मामें लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखको प्राप्त हो जाता है।
।।6.28।। इस प्रकार मन को सदा आत्मा में स्थिर करने का योग करने वाला पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मसंस्पर्श का परम सुख प्राप्त करता है।।
।।6.28।। आत्मविकास एवं आत्मसंयम की साधना में प्रवृत्त हुआ योगी धीरेधीरे आत्मअज्ञान के अन्धकार और दोषों से बाहर ज्ञान के प्रकाश में आकर आनन्द का अनुभव करता है। जब साधक योगाभ्यास से मन को शान्त रखता है तब मानो ध्यान की उष्णता में मन का शुद्धीकरण होता है जैसे अग्नि की उष्णता में किसी लौहखण्ड का।जैसा पहले बताया जा चुका है मनुष्य अपने पुरुषार्थ से मन को विषयों से परावृत्त करके आत्मा में स्थिर कर सकता है। तत्पश्चात् मन एक गुब्बारे के समान विनष्ट हो जाता है जो आकाश में उँचा उड़ता हुआ विरलतर वातावरण में पहुँच कर फूट जाता है। उसके फूटने पर गुब्बारा तो नीचे गिर जाता है और गुब्बारे में स्थित आकाश बाह्य महाकाश के साथ एकाकार हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान की चरम स्थिति में मन नष्ट होता है तब अहंकार गिर जाता है और वह मन परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त हो जाता है और तब उसे ब्रह्मसंस्पर्श के परम सुख की अनुभूति होती है।यहाँ भगवान् अधीर और जिज्ञासु साधक को सच्चित्स्वरूप तत्त्व का ज्ञान कराना चाहते हैं जिसका अनुभव अन्तकरण के तादात्म्य के परियोग से ही संभव है। यह दर्शाने के लिए कि आत्मानुभूति की स्थिति आनन्द की है भगवान् कहते हैं कि ब्रह्मसंस्पर्श से साधक अत्यन्त सुखी होता है। आत्मानुभव और ब्रह्मसंस्पर्श पर्यायवाची शब्द ही समझने चाहिये।अब अगले श्लोक में योग के फल एकत्वदर्शन का वर्णन किया गया है
।।6.28।। व्याख्या--'युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः'--अपनी स्थितिके लिये जो (मनको बार-बार लगाना आदि) अभ्यास किया जाता है, वह अभ्यास यहाँ नहीं है। यहाँ तो अनभ्यास ही अभ्यास है अर्थात् अपने स्वरूपमें अपने-आपको दृढ़ रखना ही अभ्यास है। इस अभ्यासमें अभ्यासवृत्ति नहीं है। ऐसे अभ्याससे वह योगी अहंताममतारहित हो जाता है। अहंता और ममतासे रहित होना ही पापोंसे रहित होना है; क्योंकि संसारके साथ अहंता-ममतापूर्वक सम्बन्ध रखना ही पाप है।पंद्रहवें श्लोकमें 'युञ्जन्नेवम्' पद सगुणके ध्यानके लिये आया है और यहाँ 'युञ्जन्नेवम्' पद निर्गुणके ध्यानके लिये आया है। ऐसे ही पंद्रहवें श्लोकमें 'नियतमानसः' आया है और यहाँ 'विगतकल्मषः' आया है; क्योंकि वहाँ परमात्मामें मन लगानेकी मुख्यता है और यहाँ जडताका त्याग करनेकी मुख्यता है। वहाँ तो परमात्माका चिन्तन करते-करते मन सगुण परमात्मामें तल्लीन हो गया तो संसार स्वतः ही छूट गया और यहाँ अंहता-ममतारूप कल्मषसे अर्थात् संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने ध्येय परमात्मामें स्थित हो गया। इस प्रकार दोनोंका तात्पर्य एक ही हुआ अर्थात् वहाँ परमात्मामें लगनेसे संसार छूट गया और यहाँसंसारको छोड़कर परमात्मामें स्थित हो गया। 'सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते'--उसकी ब्रह्मके साथ जो अभिन्नता होती है, उसमें 'मैं'-पनका संस्कार भी नहीं रहता, सत्ता भी नहीं रहती। यही सुखपूर्वक ब्रह्मका संस्पर्श करना है। जिस सुखमें अनुभव करनेवाला और अनुभवमें आनेवाला--ये दोनों ही नहीं रहते, वह 'अत्यन्त सुख' है। इस सुखको योगी प्राप्त कर लेता है। यह 'अत्यन्त सुख', 'अक्षय सुख' (5। 21) और 'आत्यन्तिक सुख' (6। 21)--ये एक ही परमात्मतत्त्वरूप आनन्दके वाचक हैं।  सम्बन्ध--अठारहवेंसे तेईसवें श्लोकतक स्वरूपका ध्यान करनेवाले जिस सांख्ययोगीका वर्णन हुआ है, उसके अनुभवका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।6.26 6.28।।न च विषयव्युपरममात्रमेव प्राप्यमित्युच्यते यत इत्यादि अधिगच्छतीत्यन्तम्। यतो यतो मनो निवर्तते तन्निवर्तनसमनन्तरमेव आत्मनि शमयेत्। अन्यथा अप्रतिष्ठं चित्तं पुनरपि विषयानेवावलम्बते। तत्र आत्मनि शान्तचित्तं योगिनं कर्मभूतं सुखं कर्तृभूतम् उपैति। अनेनैव क्रमेण योगिनां सुखेन ब्रह्मावाप्तिः न तु कष्टयोगादिनेति तात्पर्यम्।
।।6.28।।एवम् उक्तप्रकारेण आत्मानं युञ्जन् तेन एव विगतप्राचीनसमस्तकल्मषः ब्रह्मसंस्पर्शं ब्रह्मानुभवरूपं सुखम् अत्यन्तम् अपरिमितं सुखेन अनायासेन सदा अश्नुते।अथ योगविपाकदशा चतुष्प्रकारा उच्यते
।।6.28।।उत्तमं सुखं योगिनो भवतीत्युक्तं तदेव स्फुटयति युञ्जन्निति। क्रमो यथोक्तो मनसैवेन्द्रियग्राममित्यादिः योगान्तरायो रागद्वेषादिः सदात्मानं युञ्जन्निति संबन्धः। पापपदमुपलक्षणं पुण्यस्यापि। संस्पर्शस्तादात्म्यमैकरस्यम्। उत्कर्षो विषयासंस्पर्शः।
।।6.28।।ततश्च कृतार्थो भवतीत्याह युञ्जन्निति। एवमनेन प्रकारेण सर्वदाऽऽत्मानं मनो वा ब्रह्मणि युञ्जन् एकाकी कुर्वन् वशीकुर्वन् विशेषेण सर्वात्मना गतं कल्मषं यस्य स योगी सुखेनानायासेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखं च ब्रह्मण आत्मलक्षणस्याक्षरस्य संस्पर्श अत्यन्तभेदनिवर्त्तकः साक्षात्करो यत्र तत्सर्वोत्तमं लोकोत्तरं वा सुखमश्नुते भुङ्क्ते। अत्रअश् भोजने इत्यस्य धातोः परस्मैपदत्वेऽपि आत्मागामिफलार्थकत्वेनात्मनेपदं ज्ञेयम्। सोऽश्नुते सर्वान् कामान् तै.उ.2।1 इति श्रुतावपि तथैव। तथा च लोकोत्तरसुखभोगेन तस्य योगिनो जीवन्मुक्तत्वं सूचितम्।
।।6.28।।उक्तं सुखं योगिनः स्फुटीकरोति युञ्जन्निति। एवंमनसैवेन्द्रियग्रामम् इत्याद्युक्तक्रमेणात्मानं मनः सदा युञ्जन्समादधत् योगी योगेन नित्यसंबन्धी विगतकल्मषः विगतमलः संसारहेतुधर्माधर्मरहितः सुखेनानायासेन ईश्वरप्रणिधानात् सर्वान्तरायनिवृत्त्या ब्रह्मसंस्पर्शं सम्यक्त्वेन विषयास्पर्शेन सह ब्रह्मणः स्पर्शस्तादात्म्यं यस्मिंस्तद्विषयासंस्पर्शिब्रह्मस्वरूपमित्येतत् अत्यन्तं सर्वानन्तान्परिच्छेदानतिक्रान्तं निरतिशयं सुखमानन्दमश्नुते व्याप्नोति। सर्वतो निर्वृत्तिकेन चित्तेन लयविक्षेपविलक्षणमनुभवति। विक्षेपे वृत्तिसत्त्वात् लये च मनसोऽपि स्वरूपेणासत्त्वात् सर्ववृत्तिशून्येन सूक्ष्मेण मनसा सुखानुभवः समाधावेवेत्यर्थः। अत्र चानायासेनेत्यन्तरायनिवृत्तिरुक्ता। ते चान्तराया दर्शिता योगसूत्रेणव्याधिस्त्यागसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनाल्लब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि। चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः चित्तं विक्षिपन्ति योगादपनयन्तीति। चित्तविक्षेपा योगप्रतिपक्षाः। संशयभ्रान्तिदर्शने तावद्वृत्तिरूपतया वृत्तिनिरोधस्य साक्षात्प्रतिपक्षौ। व्याध्यादयस्तु सप्रवृत्तिसहचरिततया तत्प्रतिपक्षा इत्यर्थः। व्याधिर्धातुवैषम्यनिमित्तो विकारो ज्वरादिः। स्त्यानमकर्मण्यता। गुरुणा शिक्ष्यमाणस्याप्यासनादिकर्मानर्हतेति यावत्। योगः साधनीयो नवेत्युभयकोटिस्पृग्विज्ञानं संशयस्तद्रूपप्रतिष्ठत्वेन विपर्ययान्तर्गतोऽपि सन्नुभयकोटिस्पर्शित्वैककोटिस्पर्शित्वरूपावान्तरविशेषविवक्षयात्र विपर्ययोद्भेदेनोक्तः। प्रमादः समाधिसाधनानामनुष्ठानसामर्थ्येऽप्यननुष्ठानशीलता। विषयान्तरव्यापृततया योगसाधनेष्वौदासीन्यमिति यावत्। आलस्यं सत्यामप्यौदासीन्यप्रच्युतौ कफादिना तमसा च कायचित्तयोर्गुरुत्वव्याधित्वेनाप्रसिद्धमपि योगविषये प्रवृत्तिविरोधि। अविरतिश्चित्तस्य विषयविशेषे ऐकान्तिकोऽभिलाषः। भ्रान्तिदर्शनं योगासाधनेऽपि तत्साधनत्वबुद्धिस्तथा तत्साधनेऽप्यसाधनत्वबुद्धिः। अलब्धभूमिकत्वं समाधिभूमिरेकाग्रतायाश्च अलाभः। क्षिप्तमूढविक्षिप्तरूपत्वमिति यावत्। अनवस्थितत्वं लब्धायामपि समाधिभूमौ प्रयत्नशैथिल्याच्चित्तस्य तत्राप्रतिष्ठितत्वम्। त एते चित्तविक्षेपा नव योगमला योगप्रतिपक्षा योगान्तराया इति चाभिधीयन्ते। दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासविक्षेपसहभुवः। दुखं चित्तस्य राजसः परिणामो बाधनालक्षणः। तच्चाध्यात्मिकं शारीरं मानसं च व्याधिवशात्कामादिवशाच्च भवति। आधिभौतिकं व्याघ्रादिजनितं आधिदैविकं ग्रहपीडादिजनितं द्वेषाख्यविपर्ययहेतुत्वात्समाधिविरोधि। दौर्मनस्यमिच्छाविघातादि बलवद्दुःखानुभवजनितश्चित्तस्य तामसः परिणामविशेषः क्षोभापरपर्यायस्तब्धीभावः। स तु कषायत्वाल्लयवत्समाधिविरोधी। अङ्गमेजयत्वमङ्गकम्पनमासनस्थैर्यविरोधि। प्राणेन बाह्यस्य वायोरन्तःप्रवेशनं श्वासः समाध्यङ्गरेचकविरोधी। प्राणेन कोष्ठ्यस्य वायोर्बहिर्निःसारणं प्रश्वासः समाध्यङ्गपूरकविरोधी। समाहितचित्तस्यैते न भवन्ति विक्षिप्तचित्तस्यैव भवन्तीति विक्षेपसहभूवोऽन्तराया एव। एतेऽभ्यासवैराग्याभ्यां निरोद्धव्याः। ईश्वरप्रणिधानेन च तीव्रसंवेगानामासन्ने समाधिलाभे प्रस्तुतेईश्वरप्रणिधानाद्वा इति पक्षान्तरमुक्त्वा प्रणिधेयमीश्वरंक्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरःतत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् इति त्रिभिः सूत्रैः प्रतिपाद्य तत्प्रणिधानं द्वाभ्यामसूत्रयत्तस्य वाचकः प्रणवः तज्जपस्तदर्थभावनम् इति। ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च। ततः प्रणवजपरुपात्तदर्थध्यानरूपाच्चेश्वरप्रणिधानात्प्रत्यक्चेतनस्य पुरुषस्य प्रकृतिविवेकेनाधिगमः साक्षात्कारो भवति। उक्तानामन्तरायाणामभावोऽपि भवतीत्यर्थः। अभ्यासवैराग्याभ्यामन्तरायनिवृत्तौ कर्तव्यायामभ्यासदार्ढ्यार्थमाह। तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः तेषामन्तरायाणां प्रतिषेधार्थमेकस्मिन्कस्मिंश्चिदभिमते तत्त्वेऽभ्यासश्चेतसः पुनः पुनर्निवेशनं कार्यम्। तथामैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। मैत्री सौहार्दम्। करुणा कृपा। मुदिता हर्षः। उपेक्षा औदासीन्यम्। सुखादिशब्दैस्तद्वन्तः प्रतिपाद्यन्ते। सर्वप्राणिषु सुखसंभोगापन्नेषु साध्वेतन्मम मित्राणां सुखित्वमिति मैत्रीं भावयेन्नत्वीर्ष्याम्। दुःखितेषु कथं नु नामैषां दुःनिवृत्तिः स्यादिति कृपामेव भावयेत् नोपेक्षां न वा हर्षम्। पुण्यवत्सु पुण्यानुमोदनेन हर्षं कुर्यान्न तु द्वेषं न चोपेक्षाम्। अपुण्यवत्सु चौदासीन्यमेव भावयेन्नानुमोदनं न वा द्वेषम्। एवमस्य भावयतः शुक्लो धर्म उपजायते। ततश्च विगतरागद्वेषादिमलं चित्तं प्रसन्नं सदेकाग्रतायोग्यं भवति। मैत्र्यादिचतुष्टयं चोपलक्षणम्। अभयं सत्त्वसंशुद्धिरित्यादीनाममानित्वमदम्भित्वमित्यादीनां च धर्माणां सर्वेषामेतेषां शुभवासनारूपत्वेन मलिनवासनानिवर्तकत्वात् रागद्वेषौ महाशत्रू सर्वपुरुषार्थप्रतिबन्धकौ महता प्रयत्नेन परिहर्तव्यावित्येतत्सूत्रार्थः। एवमन्येऽपि प्राणायामादय उपायाश्चित्तप्रसादनाय दर्शिताः। तदेतच्चित्तप्रसादनं भगवदनुग्रहेण यस्य जातं तं प्रत्येवैतद्वचनं सुखेनेति। अन्यथा मनःप्रशमानुपपत्तेः।
।।6.28।।ततश्च कृतार्थो भवतीत्याह युञ्जन्निति। एवमनेन प्रकारेण सर्वदात्मानं मनो युञ्जन्वशीकुर्वन्विशेषेण सर्वात्मना गतं कल्मषं यस्य स योगी सुखेनानायासेन ब्रह्मणः संस्पर्शोऽविद्यानिवर्तकः साक्षात्कारस्तदेवात्यन्तं सर्वोत्तमं सुखमश्नुते। जीवन्मुक्तो भवतीत्यर्थः।
6.28 इति ह्यनन्तरमुच्यते। निरतिशयसुखत्वाद्दुःखसम्भेदविरहादुत्तमत्वम्। पूर्वश्लोकोक्तमनोवशीकरणे वैतच्छ्लोकोक्तसुखोपागमे वा हेतुपरो हिशब्द इत्याहहीति।हेताविति हेतुस्वरूपं विशदयतिउत्तमेति।।।6.28।।एवं योगप्रभावादाविर्भवतः सुखस्यात्मानुभवरूपत्वं साक्षात्कारात्पश्चान्निरतिशयत्वमनिवर्तनीयत्वमनायाससाध्यत्वं चोच्यते एवं युञ्जन् इति। एवंशब्देनयोगी युञ्जीत 6।10 इत्यारभ्योक्तः प्रकारः परामृश्यत इत्यभिप्रायेणउक्तप्रकारेणेत्युक्तम्। संस्पर्शशब्दोऽनुभवलक्षकः बुद्ध्या सह सम्बन्धपरो वेत्याभिप्रायेणब्रह्मानुभवरूपमित्युक्तम्।एवं युञ्जन् इत्यनेनैव सर्वस्योक्तत्वात्तत्र च नियतकाले सदाशब्दान्वयायोगात्सुखस्य चाविनाशित्ववचनस्यापेक्षितत्वात् सदाश्नुत इत्यन्वयः। ततश्चात्यन्तशब्दोऽपि सावधिकत्वरूपान्निवृत्तिद्वारा निरतिशयत्वपर इत्यभिप्रायेणअपरिमितमित्युक्तम्।सुखेन सुखमश्नुते इति सुखसाधनसुखान्तराभावात् सुखेनेत्यनायासत्वं विवक्षितम्।
।।6.28।।एवं सुखाप्तौ किं स्यात् इत्यत आह युञ्जन्निति। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सदा भगवति आत्मानं भावात्मकं युञ्जन् योगी विगतकल्मषः स्यात्। ततः प्राप्तेनानेन सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शं भगवच्चरणारविन्दसंवाहनादिसेवारूपमत्यन्तं सुखं दास्यात्मकमश्नुते भुञ्जत इत्यर्थः।
।।6.28।।अस्य फलमाह युञ्जन्निति। एवमनेन प्रकारेण योगी आत्मानं मनो युंजन्समादधानः विगतकल्मषो निरस्ताविद्यादिक्लेशः सुखेनानायासेन ब्रह्मसंस्पर्शं निर्विशेषं ब्रह्मणैक्यं त्रिविधोपाधिप्रविलयादश्नुते प्राप्नोति। कीदृशं ब्रह्मसंस्पर्शम्। अत्यन्तं अन्तो द्रष्टृदृश्यभावेन परिच्छेदस्तमतिक्रान्तं निर्विशेषं सुखं परमानन्दैकरूपम्। एतेन न किंचिदपि चिन्तयेदिति चतुर्थपादो व्याख्यातः।
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6.28 युञ्जन् practising Yoga? एवम् thus? सदा always? आत्मानम् the self? योगी Yogi? विगतकल्मषः freed from sin? सुखेन easily? ब्रह्मसंस्पर्शम् caused by contact with Brahman? अत्यन्तम् infinite? सुखम् bliss? अश्नुते enjoys.Commentary By Yogic practices such as the withdrawal of the senses? concentration and meditation he loses contact with the objects of the senses and comes into contact with Brahman or the immortal Self within and thus enjoys the Infinite Bliss of Brahman.Sensual pleasures are transitory or fleeting but the bliss of Brahman is uninterrupted? undecaying and everlasting. That is the reason why one should attempt to realise the Self within.The Yogi removes the obstacles that stand in the way of obtaining union with the Lord and thus always keeps the mind steady in the Self.
6.28 The Yogi, always engaging the mind thus (in the practice of Yoga), freed from sins, easily enjoys the Infinite Bliss of contact with Brahman (the Eternal).
6.28 Thus, free from sin, abiding always in the Eternal, the saint enjoys without effort the Bliss which flows from realisation of the Infinite.
6.28 By concentrating his mind constantly thus, the taintless yogi easily attains the absolute Bliss of contact with Brahman.
6.28 Sada yunjan, by constantly concentrating; atmanam, his mind; evam, thus, in the process stated; vigata-kalmasah, the taintles, sinless yogi, free from the obstacles to Yoga; sukhena, easily; asnute, attains; atayantam, absolute-that which exists by transcending limits-, supreme, unsurpassable; sukham, Bliss; of brahma-samsparsam, contact with Brahman-the Bliss that is in touch [In touch with, i.e. identified with, homogeneous with, in essential oneness with.] with the supreme Brahman. Now is being shown that result of Yoga which is the realization of identity with Brahman and which is the cause of the extinction of the whole mundane existence . [Liberation is conceived of in two ways-total cessation of sorrows, and attainment of unsurpassable Bliss.]
6.28. Thus yoking the self always, the man of Yoga, with subdued mind, easily attains a complete union [viz.,] the Brahman.
6.26-28 Yatah etc. upto adhigacchati. From whatever objects the mind returns, immediately after its return, let him ieten it on the Self. Otherwise, being not firmly established [in the Self], the mind would again take hold of nothing but the sense-objects. But the Bliss, assuming the roll of an agent (or subject, kartv-bhuta) comes to the object (karmabhuta), viz., the man-of-Yoga, whose mind remains ite in the Self. By this way alone the men-of-Yoga attain the Brahman easily and not by [any] difficult Yoga etc. This is the idea [here].
6.28 Thus, in the above - said manner, devoting himself to the Yoga of the self and by that means expelling all old impurities, the Yogin attains 'perfect', i.e., boundless felicity at all times easily, without stress and strain. The felicity is born of the contact with the Brahman (Atman), meaning the joy of experience of the Brahman. Now Sri Krsna says that the mature stage of Yoga consists of four degrees, as stated in the succeeding verses from 29th to 32nd.
6.28 Thus devoting himself to the Yoga of the self, freed from impurities, the Yogin easily attains the supreme bliss of contact with the Brahman.
।।6.28।।योगविषयक विघ्नोंसे रहित हुआ विगतकल्मषनिष्पाप योगी उपर्युक्त क्रमसे सदा चित्तको समाहित करता हुआ अनायास ही ब्रह्मप्राप्तिरूप निरतिशय उत्कृष्ट सुखका अनुभव करता है अर्थात् जिसका परब्रह्मसे सम्बन्ध है और जो अन्तसे अतीतअनन्त है ऐसे परम सुखको प्राप्त हो जाता है।
।।6.28।। युञ्जन् एवं यथोक्तेन क्रमेण योगी योगान्तरायवर्जितः सदा सर्वदा आत्मानं विगतकल्मषः विगतपापः सुखेन अनायासेन ब्रह्मसंस्पर्शं ब्रह्मणा परेण संस्पर्शो यस्य तत् ब्रह्मसंस्पर्शं सुखम् अत्यन्तम् अन्तमतीत्य वर्तत इत्यत्यन्तम् उत्कृष्टं निरतिशयम् अश्नुते व्याप्नोति।।इदानीं योगस्य यत् फलं ब्रह्मैकत्वदर्शनं सर्वसंसारविच्छेदकारणं तत् प्रदर्श्यते
।।6.28।।प्रशान्तमनसं इत्युक्तमेव पुनः कस्मादुच्यत इत्यत आह पूर्वेति।
।।6.28।।पूर्वश्लोकोक्तं प्रपञ्चयति एवं युञ्जन्निति।
युञ्जन्नेवं सदाऽऽत्मानं योगी विगतकल्मषः। सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।।6.28।।
যুঞ্জন্নেবং সদাত্মানং যোগী বিগতকল্মষঃ৷ সুখেন ব্রহ্মসংস্পর্শমত্যন্তং সুখমশ্নুতে৷৷6.28৷৷
যুঞ্জন্নেবং সদাত্মানং যোগী বিগতকল্মষঃ৷ সুখেন ব্রহ্মসংস্পর্শমত্যন্তং সুখমশ্নুতে৷৷6.28৷৷
યુઞ્જન્નેવં સદાત્માનં યોગી વિગતકલ્મષઃ। સુખેન બ્રહ્મસંસ્પર્શમત્યન્તં સુખમશ્નુતે।।6.28।।
ਯੁਞ੍ਜਨ੍ਨੇਵਂ ਸਦਾਤ੍ਮਾਨਂ ਯੋਗੀ ਵਿਗਤਕਲ੍ਮਸ਼। ਸੁਖੇਨ ਬ੍ਰਹ੍ਮਸਂਸ੍ਪਰ੍ਸ਼ਮਤ੍ਯਨ੍ਤਂ ਸੁਖਮਸ਼੍ਨੁਤੇ।।6.28।।
ಯುಞ್ಜನ್ನೇವಂ ಸದಾತ್ಮಾನಂ ಯೋಗೀ ವಿಗತಕಲ್ಮಷಃ. ಸುಖೇನ ಬ್ರಹ್ಮಸಂಸ್ಪರ್ಶಮತ್ಯನ್ತಂ ಸುಖಮಶ್ನುತೇ৷৷6.28৷৷
യുഞ്ജന്നേവം സദാത്മാനം യോഗീ വിഗതകല്മഷഃ. സുഖേന ബ്രഹ്മസംസ്പര്ശമത്യന്തം സുഖമശ്നുതേ৷৷6.28৷৷
ଯୁଞ୍ଜନ୍ନେବଂ ସଦାତ୍ମାନଂ ଯୋଗୀ ବିଗତକଲ୍ମଷଃ| ସୁଖେନ ବ୍ରହ୍ମସଂସ୍ପର୍ଶମତ୍ଯନ୍ତଂ ସୁଖମଶ୍ନୁତେ||6.28||
yuñjannēvaṅ sadā৷৷tmānaṅ yōgī vigatakalmaṣaḥ. sukhēna brahmasaṅsparśamatyantaṅ sukhamaśnutē৷৷6.28৷৷
யுஞ்ஜந்நேவஂ ஸதாத்மாநஂ யோகீ விகதகல்மஷஃ. ஸுகேந ப்ரஹ்மஸஂஸ்பர்ஷமத்யந்தஂ ஸுகமஷ்நுதே৷৷6.28৷৷
యుఞ్జన్నేవం సదాత్మానం యోగీ విగతకల్మషః. సుఖేన బ్రహ్మసంస్పర్శమత్యన్తం సుఖమశ్నుతే৷৷6.28৷৷
6.29
6
29
।।6.29।। सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्तःकरणवाला योगा अपने स्वरूपको सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपमें देखता है।
।।6.29।। योगयुक्त अन्त:करण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी आत्मा को सब भूतों में और भूतमात्र को आत्मा में देखता है।।
।।6.29।। विश्व के सभी धर्म महान हैं परन्तु यदि धर्म शब्द का अर्थ आत्मोन्नति का विज्ञान है तो उनमें से कोई भी धर्म वेदान्त के समान पूर्ण नहीं है। इस श्लोक में गीताचार्य भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं कि केवल वह पुरुष आत्मज्ञानी या ईश्वर का साक्षात्कारकर्ता नहीं कहा जा सकता जिसने मात्र स्वयं को ही शुद्ध दिव्य स्वरूप में अनुभव किया हो। वह पुरुष जिसने कि सम्पूर्ण भूतों में विराजमान एक ही आत्मतत्त्व के दर्शन किये हों आत्मज्ञानी कहा जायेगा। अपने हृदय में स्थित चैतन्य आत्मा ही सर्वत्र सभी नाम रूपों में स्थित है और यही चैतन्य सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। अत हृदयस्थ चैतन्य के अनुभव का अर्थ ही सर्वत्र व्याप्त नित्य तत्व को अनुभव करना है।हिन्दू धर्म में ऐसा कोई आत्मानुभवी पुरुष नहीं है जिसने दैवी करुणा से ही क्यों न होहे पापपुत्र जैसे अशोभनीय सम्बोधन द्वारा किसी को सम्बोधित किया हो। स्वामी रामतीर्थ के समान हिन्दू महात्मा पुरुष ने लोगों को हे अमृत के पुत्रों के अतिरिक्त किसी अन्य शब्द से संबोधित नहीं किया। अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव ही पूर्णत्व का द्योतक है जिसे ऋषियों ने सदैव अपना लक्ष्य बनाया है। इसी अनुभव को इस श्लोक में अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है।गीता के प्राय सभी अध्यायों में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि नामरूपमय यह सृष्टि पारमार्थिक सत्य की अभिव्यक्ति है अथवा यह सृष्टि उस सत्य पर अध्यस्त (कल्पित) है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण नामरूपों का अधिष्ठान यह देशकालातीत आत्मतत्व ही है। जैसे मिट्टी समस्त मिट्टी के बने पात्रों में सुवर्ण समस्त आभूषणों में जल समस्त तरंगों में वैसे ही आत्मा समस्त नामरूपों में अधिष्ठान के रूप में स्थित है।हम अपने शरीर मन और बुद्धि के द्वारा क्रमश भौतिक पदार्थ दूसरों की भावनाएँ और विचारों को देख और समझ पाते हैं। जिसने इन उपाधियों से परे ात्मस्वरूप ा साक्षात्कार कर लिया वह पुरुष उस आध्यात्मिक दृष्टि से जब जगत् को देखता है तब उसे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का ही अनुभव होता है। वह योगी स्वयं आत्मस्वरूप बन जाता है। मिट्टी की दृष्टि से घट नहीं है और न सुवर्ण की दृष्टि से आभूषण। उसी प्रकार आत्मदृष्टि से आत्मा ही विद्यमान है और उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं है।इस ज्ञान को समझने से श्लोक का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। जिसने अनेकता में एक सत्य का दर्शन कर लिया वही आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र समदृष्टि सेब्राह्मण गाय हाथी श्वान और चाण्डाल को देख सकता है।अगले श्लोक में इस आत्मैकत्व दर्शन का फल बताते हैं
।।6.29।। व्याख्या--'ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः'--सब जगह एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। जैसे मनुष्य खाँड़से बने हुए अनेक तरहके खिलौनोंके नाम, रूप, आकृति आदि भिन्न-भिन्न होनेपर भी उनमें समानरूपसे एक खाँड़को, लोहेसे बने हुए अनेक तरहके अस्त्र-शस्त्रोंमें एक लोहेको, मिट्टीसे बने हुए अनेक तरहके बर्तनोंमें एक मिट्टीको और सोनेसे बने हुए आभूषणोंमें एक सोनेको ही देखता है, ऐसे ही ध्यानयोगी तरह-तरहकी वस्तु, व्यक्ति आदिमें समरूपसे एक अपने स्वरूपको ही देखता है।
।।6.29।।सर्वेति। सर्वेषु भूतेषु आत्मानं ग्राहकतया (K ग्राहकरूपतया) अनुप्रविशन्तं भावयेत्। आत्मनि च ग्राह्यताज्ञानद्वारेण सर्वाणि भूतानि एकीकुर्यात्। अतश्च समदर्शनत्वं जायते ( ज्ञायते) योगश्चेति संक्षेपार्थः। विस्तरस्तु भेदवादविदारणादिप्रकरणे देवीस्तोत्रविवरणे च मयैव निर्णीत इति तत्रैवावधार्य (SK तत एवाव )।
।।6.29।।स्वात्मनः परेषां च भूतानां प्रकृतिवियुक्तस्वरूपाणां ज्ञानैकाकारतया साम्याद् वैषम्यस्य च प्रकृतिगतत्वाद् योगयुक्तात्मा प्रकृतिवियुक्तेषु आत्मसु सर्वत्र ज्ञानैकाकारतया समदर्शनः सर्वभूतस्थं स्वात्मानं सर्वभूतानि च स्वात्मनि ईक्षते। सर्वभूतसमानाकारं स्वात्मानं स्वात्मसमानाकाराणि च सर्वभूतानि पश्यति इत्यर्थः।एकस्मिन् आत्मनि दृष्टे सर्वस्य आत्मवस्तुनः तत्साम्यात् सर्वम् आत्मवस्तु दृष्टं भवति इत्यर्थः। सर्वत्र समदर्शनः इति वचनात्योऽयं योगस्त्वयाः प्रोक्तः साम्येन (गीता 6।33) इत्यनुभाषणाच्चनिर्दोषं हि समं ब्रह्म (गीता 5।19) इति वचनाच्च।
।।6.29।।योगमनुतिष्ठतो ब्रह्मभूतस्य सर्वानर्थनिवृत्तिनिरतिशयसुखप्राप्तिलक्षणो द्विविधो मोक्षो हेतुना केन स्यादिति शङ्कमानं प्रत्याह इदानीमिति। स्वमात्मानमीक्षत इति संबन्धः। सर्वभूतान्यपि तद्विशेषणत्वेन पश्यति चेन्न शुद्धवस्तुज्ञानमिति नाविद्यानिवृत्तिरित्याशङ्क्याह सर्वभूतानीति। उक्ते दर्शने चित्तसमाधानमुपायं दर्शयति योगेति। विषमेषूपाधिषु तदनुरोधाद्विषममेव दर्शनं तदुपदर्शितदर्शनप्रतिबन्धकं प्रत्युदस्यति सर्वत्रेति।
।।6.29 6.30।।एतादृशस्य योगिनो ब्रह्मसुखाविर्भावो वामदेववत्सर्वात्मभावे भवतीत्याह। गुह्यः असम्प्रज्ञातसमाधिर्द्विविधः अक्षरब्रह्मविषयको भगवद्विषयकश्च तत्र पूर्वस्य फलमाह भगवान् सर्वभूतस्थमिति। सर्वभूतस्थितमात्मानं पश्यति सर्वभूतानि च स्वात्मनि अवस्थानेन कार्यकारणवस्त्वैक्यमर्शनेन वा पश्यति तथा चानन्दांशाविर्भावे भगवदात्मकत्वेन तस्य व्यापकत्वं प्रकटीभवतीत्यर्थः। द्वितीयस्याह ततोऽपि गुह्यतरम्। वासुदेवं मां योगजधर्मेण पश्यति सर्वभूतानि स्वं च मय्यवस्थानेनाभेदेन च पश्यति ऐतदात्म्यमिदं सर्वं छा.उ.अ.6खं.816वासुदेवः सर्वं 7।19अखण्डं कृष्णवत्सर्वं स आत्मा तत्त्वमसि छा.उ.अ.6खं.816योऽसौ सोऽहं योऽहं सोऽसौ इति श्रुतिस्मृतिवाक्यात्। तत्राभेदोपासना तामसी काचित्तान्त्रिकीत्यग्रे वक्ष्यतिएकत्वेन पृथक्त्वेन 9।15 इत्यादौ। अतस्ततो विभिद्याह तस्याहं न प्रणश्यामीति नादृश्यो भवामीत्याह। स ममादृश्यो न भवति आनन्दाविर्भावरूपेण चतुर्भुजादिरूपो भूत्वा प्रत्यक्षं कृपादृष्टया तमनुगृह्णामीत्यर्थः।
।।6.29।।तदेवं निरोधसमाधिना त्वंपदलक्ष्ये तत्पदलक्ष्ये च शुद्धे साक्षात्कृते तदैक्ययगोचरा तत्त्वमसीतिवेदान्तवाक्यजन्या निर्विकल्पकसाक्षात्काररूपा वृत्तिर्ब्रह्मविद्याभिधाना जायते। ततश्च कृत्स्नाऽविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या ब्रह्मसुखमत्यन्तमश्नुत इत्युपपादयति त्रिभिः श्लोकैः। तत्र प्रथमं त्वंपदलक्ष्योपस्थितिमाह सर्वेषु भूतेषु स्थावरजङ्गमेषु शरीरेषु भोक्तृतया स्थितमेकमेव नित्यं विभुमात्मानं प्रत्यक्चेतनं साक्षिणं परमार्थसत्यमानन्दघनं साक्ष्येभ्योऽनृतजडपरिच्छिन्नदुःखरूपेभ्यो विवेकेनेक्षते साक्षात्करोति। तस्मिंश्चात्मनि साक्षिणि सर्वाणि भूतानि साक्ष्याण्याध्यासिकेन संबन्धेन भोग्यतया कल्पितानिसाक्षिसाक्ष्ययोः संबन्धान्तरानुपपत्तेर्मिथ्याभूतानि परिच्छिन्नानि जडानि दुःखात्मकानि साक्षिणो विवेकेनेक्षते। कः। योगयुक्तात्मा योगेन निर्विचारवैशारद्यरूपेण युक्तः प्रसादं प्राप्त आत्मान्तःकरणं यस्य स तथा। तथाच प्रागेवोक्तंनिर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादःऋतंभरा तत्र प्रज्ञाश्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् इति। तथाच शब्दानुमानागोचरयथार्थविशेषवस्तुगोचरयोगजप्रत्यक्षेण ऋतंभरसंज्ञेन युगपत्सूक्ष्मं व्यहितं विप्रकृष्टं च सर्वं तुल्यमेव पश्यतीति सर्वत्र समं दर्शनं यस्येति सर्वत्र समदर्शनः सन्नात्मानमनात्मानं च योगयुक्तात्मा यथावस्थितमीक्षत इति युक्तम्। अथवा यो योगयुक्तात्मा यो वा सर्वत्र समदर्शनः स आत्मानमीक्षत इति योगिसमदर्शिनावात्मेक्षणाधिकारिणावुक्तौ। यथा हि चित्तवृत्तिनिरोधः साक्षिसाक्षात्कारहेतुस्तथा जडविवेकेन सर्वानुस्यूतचैतन्यपृथक्करणमपि नावश्यं योग एवापेक्षितः। अतएवाह वसिष्ठःद्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं च राघव। योगो वृत्तिनिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम्।।असाध्यः कस्यचिद्योगः कस्यचित्तत्त्वनिश्चयः। प्रकारौ द्वौ ततो देवो जगाद परमः शिवः।। इति। चित्तनाशस्य साक्षिणः सकाशात्तदुपाधिभूतचित्तस्य पृथक्करणात्तददर्शनस्य। तस्योपायद्वयं एकोऽसंप्रज्ञातसमाधिः। संप्रज्ञातसमाधौ हि आत्मैकाकारवृत्तिप्रवाहयुक्तमन्तःकरणसत्त्वं साक्षिणानुभूयते निरुद्धसर्ववृत्तिकं तूपशान्तत्वान्नानुभूयत इति विशेषः। द्वितीयस्तु साक्षिणि कल्पितं साक्ष्यमनृतत्वान्नास्त्येव। साक्ष्येव तु परमार्थसत्यः केवलो विद्यत इति विचारः। तत्र प्रथममुपायं प्रपञ्चपरमार्थतावादिनो हैरण्यगर्भादयः प्रपेदिरे। तेषां परमार्थस्य चित्तस्यादर्शनेन साक्षिदर्शने निरोधातिरिक्तोपायासंभवात्। श्रीमच्छङ्करभगवत्पूज्यपादमतोपजीविनस्त्वौपनिषदाः प्रपञ्चानृतत्ववादिनो द्वितीयमेवोपायमुपेयुः। तेषां ह्यधिष्ठानज्ञानदार्ढ्ये सति तत्र कल्पितस्य बाधितस्य चित्तस्य तद्दृश्यस्य चादर्शनमनायासेनैवोपपद्यते। अतएव भगवत्पूज्यपादाः कुत्रापि ब्रह्मविदां योगापेक्षां न व्युत्पादयांबभूवुः। अतएव चौपनिषदाः परमहंसाः श्रौते वेदान्तवाक्यविचार एव गुरुमुपसृत्य प्रवर्तन्ते ब्रह्मसाक्षात्काराय नतु योगे विचारणैव चित्तदोषनिराकरणेन तस्यान्यथासिद्धत्वादिति कृतमधिकेन।
।।6.29।।ब्रह्मसाक्षात्कारमेव दर्शयति सर्वभूतस्थमिति। योगेनाभ्यस्यमानेन युक्तात्मा समाहितचित्तः सर्वत्र समं ब्रह्मैव पश्यतीति समदर्शनः। स्वमात्मानमविद्याकृतदेहादिपरिच्छेदशून्यं सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेष्ववस्थितं पश्यति। तानि चात्मन्यभेदेन पश्यति।
।।6.29।।एवं योगाभ्यासविधिः प्रपञ्चितःआत्मलाभसुखं यावत्तावद्ध्यानमुदाहृतम् इत्याद्युक्तं फलपर्यन्तत्वं चोक्तम्। अथ चतुर्धा योगी प्रतिपाद्यत इति चतुर्णां श्लोकानामर्थमाह अथेति। समदर्शित्वरूपयोगविपाकस्य पर्वक्रमेण तारतम्याच्चतुष्प्रकारत्वम्। अत्र प्रथमदशोच्यते सर्वभूतस्थम् इति श्लोकेन। समदर्शनत्वोपपत्तये स्वरूपतः साम्यं प्रकारवैषम्यस्य चौपाधिकत्वं दर्शयतिस्वात्मन इत्यादिनागतत्वादित्यन्तेन। भूतशब्दोऽत्राचिद्विशिष्टचेतनवाचकोऽपिसत्यं भूतहितं प्रोक्तम् इत्यादिष्विव चेतनांशपरः।योगयुक्तात्मा योगविनियुक्तमनाः यद्वा योगसमधिगतात्मस्वरूप इत्यर्थः। योगयुक्तात्मत्वं समदर्शनत्वे हेतुः। समदर्शनत्वस्यैव प्रतियोगिविशेषनिर्देशेन प्रपञ्चनंसर्वभूतस्थमित्यादि। आत्मशब्दस्यात्रात्मसामान्यविषयत्वपरमात्मविषयत्वव्यावर्तनेन स्वपर्यायत्वद्योतेनायस्वात्मशब्दः। नन्वन्योन्याधाराधेयभावः कथमुपपद्यते कथं चाणोः स्वात्मनः सर्वभूतस्थत्वं विप्रकीर्णदेशावस्थितानां च सर्वभूतानां कथमेकदेशस्थिते स्वात्मनि स्थितिः अतोऽयमात्मशब्दः परमात्मविषयः स्यादिति तत्राह सर्वभूतसमानाकारमिति।नन्वसौ स्वात्ममात्रानुसन्धानरूपे योगे प्रवृत्तः कथं स्वगतसाम्यप्रतियोगितया स्वप्रतियोगिकसाम्याश्रयतया च स्वव्यतिरिक्तात्मवर्गमीक्षेत इत्यत्राह एकस्मिन्निति। एकजातीयेषु पदार्थेष्वेकव्यक्तिदर्शनेनैव स्थालीपुलाकन्यायात्तज्जातीयं सर्वमपि तथात्वेनानुसंहितं हि भवतीति भावः।सर्वभूतस्थम् इत्यादेः साम्यमेव विवक्षितमिति दशयितुमेतद्ग्रन्थैकदेशं पूर्वोत्तरप्रकरणग्रन्थं चोदाहरति सर्वत्रेति। अयमभिप्रायः सर्वत्र समदर्शनः इति सर्वेषामात्मनां परस्परसाम्यदर्शनमुच्यते तदेवसर्वभूतस्थं इति प्रपञ्च्यते। अत एव च बाह्यभूतेष्वात्मतत्त्वस्य तस्मिंश्च तेषां स्थितिदर्शनमिहासङ्गतम्। न चेदं परमात्मयोगप्रकरणम् येन तथाविधपरमात्मानुसन्धानमुपदिश्येत। न च जीवात्मयोगोपयुक्तं परमात्मध्यानमिदमुच्यते समाधिदशाभेदविषयत्वात्। न च जीवानां परमात्मनश्च साम्यमिहोच्यते तस्यापियो माम्
।।6.29।।ब्रह्मसंस्पर्शसुखं स्पष्टयति सर्वभूतस्थमिति। योगयुक्तात्मा भगवत्संयोगयुक्त आत्मा सर्वत्र संयोगविप्रयोगभावे समदर्शन आत्मानं भगवन्तं सर्वभूतस्थं विप्रयोगावस्थायां च पुनरात्मनि भगवत्स्वरूपे संयोगावस्थायां सर्वभूतानि सेवास्थितानि ईक्षते पश्यतीत्यर्थः। एतेन भगवत्स्वरूपज्ञानात्मसुखमुक्तमिति भावः।
।।6.29।।द्विविधस्यापि योगस्य फलमाह सर्वेति।सोपाधिर्निरुपाधिश्च द्वेधा ब्रह्मविदुच्यते। सोपाधिकः स्यात्सर्वात्मा निरुपाख्योऽनुपाधिकः। इति वार्तिकोक्तरीत्या संप्रज्ञाते आत्मनः सार्वात्म्यमनुभवन्योगी सर्वेषु भूतेषूपादानतया स्थितमात्मानमीक्षते पश्यति। तथा असंप्रज्ञाते सर्वाणि भूतानि ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तान्यात्मन्येकतां गतानि रज्ज्वामिवाध्यस्तसर्पदण्डधारादीनि तद्वत्पश्यति। योगयुक्तात्मा योगेन समाहितचित्तः। अस्यैव व्युत्थानावस्थामाह सर्वत्रेति। सर्वेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु विषमेषु भूतेषु समं निर्विशेषं ब्रह्मात्मैकत्वविषयं दर्शनं यस्य स सर्वत्र समदर्शनः। तथा च श्रुतयःयस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।सर्वस्यात्मा भवति।ब्रह्म दाशा ब्रह्म दासा ब्रह्मेमे कितवा उत।इदं सर्वं यदयमात्मा इत्यादय एतमर्थं प्रतिपादयन्ति। यत्तु यो योगयुक्तात्मा यो वा सर्वत्र समदर्शनः स आत्मानमीक्षत इति योगिसमदर्शिनावात्मेक्षणाधिकारिणावुक्तौ। यथाहि चित्तवृत्तिनिरोधः साक्षिसाक्षात्कारहेतुस्तथा जडविवेकेन सर्वानुस्यूतचैतन्यपृथक्करणमपि नावश्यं योग एवापेक्षित इति। तन्न।समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्यतिततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः इत्यादिश्रुतिभिः समाधिध्यानापरपर्याययोगस्यैवात्मदर्शनहेतुत्वप्रतिपादनात्।तत्कारणं सांख्ययोगाभिपन्नं विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम् इति लिङ्गाच्च ज्ञानयोगयोः समुच्चयावगमात्। न च श्रौतं यौक्तिकविवेकमात्राज्जडाजडयोर्देहात्मनोः पृथक्करणं संभवति। सोपाधिकस्य भ्रमस्योपाधिनिवृत्तिमन्तरेण निवृत्त्यसंभवात्। आदर्शाद्यनिवृत्तावपि प्रतिबिम्बादिभ्रमनिवृत्त्यापतेः। अतएवाधिष्ठानज्ञानदार्ढ्ये सति तत्र कल्पितस्य चित्तस्य तद्दृश्यस्य चादर्शनमनायासेनैवोपपद्यत इति निरस्तम्। योगं विनाधिष्ठानज्ञानस्यैवासंभवात्। यदाह दक्षःस्वसंवेद्यं हि तद्ब्रह्मकुमारी स्त्रीसुखं यथा। अयोगी नैव जानाति जात्यन्धो हि यथा घटम्। इति। यत्तूक्तं भगवत्पूज्यपादैःब्रह्मविदः कुत्रापि योगापेक्षां न व्युत्पादयांबभूवुः इति तत्अथातो ब्रह्मजिज्ञासा इत्यत्राथशब्दसूचितमुमुक्षुविशेषणीभूतसाधनचतुष्टयान्तर्गतं शमाद्युपेयसमाधिमदृष्ट्वोक्तमिति न दोषः। द्वौ क्रमाविति वसिष्ठवाक्यतात्पर्यं तु परस्परनिरपेक्षमार्गद्वयोपगमेनान्यः पन्था इति श्रुतिबाधापत्त्याप्रतिपत्तिक्रमभेदमात्रपरतया प्रागेव वर्णितमिति दिक्। किं च योगप्रकारेण योगानपेक्षमार्गान्तरप्रतिपादनमसंगतम्। न च तत्सूचकोऽत्र कश्चिच्छब्दो वर्तते। संभवति वा उक्तयुक्तेरतो यो वा समदर्शन इति वापदाध्याहारोऽप्यसंगत इति दिक्।
।।6.29।।इदानीं सर्वसंसारविच्छेदकारणं ब्रह्मात्मैकत्वदर्शनं योगस्य यत्फलं तद्दर्शयति। सर्वभूतस्थं सर्वेषु ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तेषु स्वमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि एकतां गतानि योगयुक्तात्मा समाहितान्तःकरण ईक्षते पश्यति। सर्वेषु ब्रह्मदिस्थावरान्तेषु गुणरुपसंस्कारवस्तुविक्रियारहितं समं निर्विशेषब्रह्मात्मैक्यविषयं दर्शनं यस्य स कर्वत्र समदर्शनः। एतेनानेन श्लोकेन त्वंपदोपस्थितेर्द्वितीयेन तत्पदोपस्थितेस्तृतीयेनाखण्डार्थोपस्थितेर्वर्णनं प्रत्युक्तम्। अखण्डार्थसाक्षात्कारं विना तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यतीतिफलानुपपत्तेः। यदपि चित्तवृत्तिनिरोधः साक्षिसाक्षात्कारहेतुः तथा जडविवेकेन सर्वानुस्यूतचैन्यपृथक्वरणमपि नावश्यं योग एवापेक्षितः। अतएवाह वसिष्ठःद्वौ क्रमौ चित्तनाशाय योगो ज्ञानं च राघव। योगो वृत्तिनिरोधो हि ज्ञानं सभ्यगवेक्षणम्।।असाध्यः कस्यचिद्योगः कस्यचित्तत्वाविश्चयः। प्रकारौ द्वौ ततो देवो जगाद परमः शिवः।। इति। तत्र प्रथमोपायं प्रपञ्चपरमार्थवादिनो हैरण्यगर्भादयः प्रेपेदिरे तेषां परमार्थस्य चित्तस्यादर्शने तिरोधानातिरिक्तोपायासंभवात्। श्रीभच्छंकरभगवत्पूज्यपादमतोपजीविनस्त्वैपनिषदाः प्रपञ्चानृतत्वादिनः द्वितीयमेवोपायमुपेयुः। तेषां ह्यधिष्ठानज्ञानदार्ढ्ये सति तत्र कल्पितस्य बाधितस्य चित्तस्य तद्दृश्यस्य चादर्शनमनायासेनैवोपपद्यते। अतएव भगवत्पूज्यपादाः कुत्रापि ब्रह्मविदां योगापेक्षां न व्युत्पदायांबभूवुः। अतएव चोपनिषदाः परमहंसाः श्रौते वेदान्तवाक्यविचारे एव गुरुमुपसृत्य प्रवर्तन्ते ब्रह्मसाक्षात्काराय नतु योगे विचारणैव चित्तदोषनिराकरणेन तस्यान्यथासिद्धत्वादिति तदप्युपेक्ष्यम्।आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः इतिश्रुत्याधिकारिविशेषणीभूतसाधनचतुष्टयान्तर्गतशमाद्युपेतसमाहितत्वोत्रभाविब्रह्मजिज्ञासायाम्अथोतो ब्रह्मजिज्ञासा िति सूत्रस्थाथशब्देन सूचितत्वाच्च। योगिसिद्य्धुत्तरं ब्रह्मदर्शनार्थं श्रुणादेरावश्यकत्वेन तथैव श्रवणादावधिकारसिद्ध्यार्थ चित्तशोधककर्मयोगवत्तन्निरोधकध्यानयोगस्याप्यावश्यकत्वेन च अथेत्यादेरसंगतत्वात्। यत्रतु श्रणादिकं विनैव तत्त्वसाक्षात्कारो दृश्यते यत्र चास्मिञ्चन्मनि ध्यानयोगस्याप्यावश्यकत्वेन च अथेत्यादेरसंगतत्वात्। यत्रतु श्रवणादिकं योगाद्यभ्यासश्च कल्प्यः। यदपि अतएवाह वसिष्ठ इत्यादि तदपि प्रकृतासंगतमेव साक्षिणि कल्पितं साक्ष्यमृतत्वान्नास्त्येव साक्ष्येव तु परमार्थसत्यः केवलो विद्यत िति विचारात्मकस्य सम्यगवेक्षणस्य चित्तैकाग्रतां विनानुपपत्तेः साधनचतुष्टसंपन्नस्यैव ब्रह्मविचारेऽधिकार इति जिज्ञासासूत्रे निर्णीतत्वात्। वाशिष्ठवचनं तु न साक्षिसाक्षात्कारे हेतुद्वयप्रतिपादनपरं किंतु चित्तानाशं चित्तैकाग्र्तोत्तरं क्रमद्वयकथनपरम्योगो वृत्तिनिरोधो हि ज्ञानं सम्यववेक्षणम् इत्यनेन वृत्तिनिरोधरुपेण समाधिनां चित्तं नाशनीयमथवा सम्यग्ज्ञानेनेत्युक्त्त्वात्। एतेनतमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय इति श्रुतिविरुद्धमिदं वासिष्ठोक्तमिति शङ्कापि निरस्ता। श्रुत्या मोक्षं प्रति साधनान्तरनिषेधोक्तेः जीवोपाधिभूतं चित्तं चेत्यं च विषयजातमात्मनि कल्पित्वादनृतमिति विचारात्मकसम्यगवेक्षणेन वृत्तिरिनोधेन वा चित्तनाशे विषयतश्चित्ते निवृत्ते सति परात्माभेदज्ञानस्य मोक्षं प्रत्यनन्यसाधनस्योत्पत्त्या मोक्ष इत्यविरोधात्। यदि तु योगस्य मोक्षासाधनत्वं स्वात्न्त्रयेण वसिष्ठाभिप्रेतं स्यात्तर्हि उपायद्वयकथनपरं वसिष्ठवाक्यंश्रीराम उवाचसम्यग्ज्ञानविलासेन वासनाविलायोदये। जीवन्मुक्तिपदे ब्रह्मन्नूनं विश्रान्तवानहम्।।प्राणास्पन्दनिरोधेन वासनाविलयोदये। जीवन्मुक्तिपदे ब्रह्मन्वद विश्रम्यते कथम्। सुलभत्वाददुःखत्वात्कतरः शोभनोऽनयोः। येनावगतमात्रेण भूयः क्षोभो न बाधते।। इति रामचन्द्रप्रश्नानुसरणस्यावश्यकत्वात्। यदप्यतएव भगवत्पूज्यपादाः इत्यादि तत्रापि किं तत्त्वज्ञानोत्तरं योगापेक्षां न व्युत्पादयाबभूवुः उत ज्ञानसाधनत्वेन। नाद्यः। तथा जडविवेकेनेत्युपक्रमानुनरोधात्। न द्वितीयः। तस्मात्किमपि वक्तव्यं यदनन्तरं ब्रह्मजिज्ञासोपदिश्यत इति। उच्यते नित्यानित्यवस्तुविवेकः इहामुत्रार्थभोगविरागः शमदमादिसाधनसंपत् मुमुक्षुत्वं चेति। तेषु हि सत्सु प्रागपि धर्मजिज्ञासाया ऊर्ध्वं च शक्यते ब्रह्म जिज्ञासितुं ज्ञातुं च च विपर्यये इति जिज्ञासासूत्रेशान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्येत् इति श्रुत्युक्तशमादिपञ्चकस्यश्रद्धावित्तो भूत्वा िति श्रुत्यन्तरोक्तश्रद्धासहितस्य भाष्यकारैरुक्तत्वात्। नहि योगाभ्यासं विना शमादयः सिध्यन्ति। तदुक्तंतत्कारणं सांख्ययोगाभिपन्नं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः इति। तेषां प्रकृतानां कामानां कारणं सांख्ययोगाभ्यां विवेकध्यानाभ्यामभिपन्नं प्रत्यक्तया प्राप्तं देवं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः इति। तेषां प्रकृतानां कामानां कारणं सांख्ययोगाभ्यां विवेकध्यानाभ्यामभिपन्नं प्रत्क्तया प्राप्तं देवं ज्ञात्वा सर्वपाशेरविद्यादिभिर्मुच्यत इत्यर्थः। तथाच श्वेताश्वतरोपनिषदपि ध्यानयोगस्य तत्त्वज्ञानकारणतां प्रतिपादयतित्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य। ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वनस्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि। प्राणान्प्रपीड्येहसुयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत। दुष्टाश्वयुक्तमिववाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्तः।।नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फुटिकशशीनाम्। एतानि रुपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे।।पृथ्वाप्यतेजोनिलखे समुत्थिते पञ्चमात्के योगगुणे प्रवृत्ते। न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य पञ्चाग्निमयं शरीरम्।।लधुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरशौष्ठवं च। गन्धः शभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिंः प्रथमां वदन्ति।।यथैव बिम्बं मृदयोपलिप्तं तेयोमयं भ्राजते तत्सुधान्तम्। तदात्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः।।यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्। अर्जे ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः।।एषो हि देवः प्रदिशोनु सर्वाः पूर्वोहि जातः स उ गर्भे यअन्तः। ए एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः।।यो देवोऽग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश य ओषदीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमः इति। त्रिरुन्नतमित्यत्र त्रीर्ण उरेग्रीवाशिरांसि उन्नतानि यस्मिञ्शरीरं तन्त्रयुन्तम्। त्रिरुन्नतमिति तु च्छान्दसम्। ब्रह्मोडुपेन तारप्लवेन स्त्रोतांसि सुरनरतिर्यवस्थावरादिभेदभिन्नानि संसारस्त्रोतांसि अनेनोपायसंसारदुःखमहोदधिं प्रतरेदति योग्याधिकारिणं श्रुतिरनुशास्ति। नीहारदिसदृशान्येतानि योगिनोऽनुभवसिद्धानि। एतानि बुद्धे रुपाणि योगे क्रियमाणे ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि ब्रह्मभिव्यक्तिकराणि द्योतकानि निवृत्त्याख्यं तच्छाक्तीश्च साक्षात्कारेणोपास्य तेनोपासनेन तद्वशीकरणे सति अनन्तरमाप्यं तन्मण्डलं प्रतिष्ठाख्यं तच्छक्तिं चाहंत्वेनाप्सु भावयित्वा तेन तद्वशीकरणेसति अनन्तरं तेजोभूतं तन्मण्डलं विद्याख्यं तच्छक्तिं चाहंतया चिन्तयित्वा तेन तद्वशीकरणं कृत्वा एवं पृथिव्यामप्सु तेजसि वायौ खे च क्रमेण समुत्थिते ध्यानेन तत्तत्प्रयुक्तकार्ययोग्यतया वशीकृते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते पृथिव्यासप्सु तेजसि वायौ खे च क्रमेण समुत्थि ते ध्यानेन तत्तत्प्रयुक्तकार्ययोग्यतया वशीकृते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते पृथिव्यादितन्मण्डलचच्छक्तीनां उत्तरोत्तरत्रयेण पूर्वपूर्वत्रग्रं वेष्ठितं बुद्धौ तत्सर्सं स्वाभेदेन चिन्तयित्वा तेनोपासनेन पञ्चात्मके योगुगुणे प्रवृत्ते भूतपञ्चकस्य यथेष्टविनियोज्यत्वयोग्यतालक्षणे गुणे तस्य योगिनः प्रवृत्तिनिष्पादितस्य योगिनो योगो ध्यानं तदेवाग्निर्योग्निस्तेन ध्यानेन वशीकृत्य पञ्चभूतात्मकं शरीरं प्राप्तस्य तदस्मीत्यभिमातुरुक्तफलं सिध्यति यथैव बिम्बमादर्शादि मृदयोपलिप्तं मृदया भृजया शुद्धिसाधनेन भस्मादिनोपलिप्तम्। जकारस्य दकारः। तेजोमयं पूर्वमेव प्रचुरतेजस्कं सुधान्तं भस्माद्युपलेपनेन भस्मादिमलेन ह्युपलिप्तेन महापाकृतपूर्वमलं तद्दर्पणादि भ्राजते दीप्यते तद्वत् सएव प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति अनन्तसमष्टिव्यष्ट्यात्मककार्यकरणोपाधिषु एषु प्रत्यगन्तरत्वेंन जना इति शब्दाभिलाप्यो भूत्वा सएव परमात्मा तिष्ठतीति कठिनश्रुतीनामर्थः। एतदादिश्रुतीनांयोगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः इत्याद्या गीतास्मृतयः। अतएव तासां स्मृतीनां मूलभूता एतदाद्याः श्रुतय एव यथायोगमुदाहार्याः। न योगस्मृतयः। गीतास्मृतीनां वेदमूलकत्वात्। तथाच सांख्यस्मृतीनां योगस्मृतीनां तर्कस्मृतीनां च वेदविरोधनीनामेव प्रामाण्यं नेतरासाम्। तथाच प्रमाणलक्षणस्थं पारमर्षं सूत्रम्विरोधं त्वनपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम् इति।औदुम्बरीं स्पृष्ट्वोद्गायेत् इति प्रत्यक्षश्रुतिविरुद्धा सा सर्वा वेष्टयितव्येति स्मृतिर्मानं न वेति संशये मूलश्रुत्यनुमानान्मानमिति प्राप्ते राद्धान्तः क्लृप्तश्रुतिविरोधे श्रुतिप्रामाण्यमनपेक्षमपेक्षाशून्यं हेयमिति यावत्। हे यतोऽसतिविरोधे श्रुत्यनुमानं भवति। अत्रतु विरोधे सति श्रुत्यनुमानायोगान्मूलाभावात्सर्ववेष्टनस्मृतिरप्रमाणमित्यर्थः। एवंच शमादिप्रत्रिपादकश्रुतेः श्वेताश्वतरोपनिषदोऽनुरोधिन्यो योगसमृतय प्रमाणम्। तथाआत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यःततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः इत्यादिश्रुत्युपबृंहणरुपाः ससाधनसमाधिनिरुपणपराश्च स्मृतयः। नास्तिकमतमिवास्तिकमतानां सर्वांशत्यागायोगात्। तथाचएतेन योगः प्रत्युक्तः इतिसूत्रस्थं भाष्यं एतेन सांख्यस्मृतिप्रत्याख्यानेन योगस्य स्मृतिरपि प्रत्याख्यता द्रष्टव्येत्यतिदिशति। तत्रापि स्मृतिविरोधेन प्रधानं स्वतन्त्रमेव कारणं। महदादीनि च कार्याण्यलोकवेदप्रसिद्धानि कल्पयन्ते। नन्वेवंसति समानं न्याय्यत्वात्। पूर्वेणैव एतद्गतं किमर्थ पुनरतिदिश्यते। अस्ति तत्राभ्यधिकाशङ्का सम्यग्दर्शनाभ्युराो गि वेजे विहितःश्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यःइति।त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरम् इत्यादिना आसनादिकल्पनापुरःसरं बहुप्रपञ्चं योगविधानं श्वेताश्वतरोपनिषदि दृश्यते। लिङ्गानि च वैदिकानि योगविषयाणि सहस्त्रश उपलभ्यन्तेतां योगिमिति मन्यन्ते स्तिरामिन्द्रियधारणां इतिविद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्त्रम् इति चैवमादीनि। योगशास्त्रेऽपिअत तत्त्वदर्शनोपायो योगः इति सम्यग्दर्शनाभ्युपायत्नेनैव योगोऽङ्गीक्रियतेऽतः संप्रतिपन्नार्थैकदेशत्वादष्टकादिस्मृतिवद्योगस्मृतिरप्यनपवदनीया भविष्यतीति। इयमप्यधिकाशङ्कातिदेशेन निवर्त्यते। अर्थैकदेशसंप्रतिपत्तावप्यर्थैकदेशविप्रतिपत्तेः पूर्वोक्तया दर्शनात्। सतीष्वप्यध्यात्मविषयासु बह्वीषु स्मृतिषु सांख्ययोगस्मृत्योरेव निराकशे यत्नः कृतः। सांख्ययोगौ हि परमपुरुषार्थसाधनत्वेन लोके प्रख्यातौ शिष्टैश्च प्रगृहीतौ लिङ्गेनोपबृहितौ तत्कारणं सांख्ययोगाभिपन्नंज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः इति। निराकरणं तु न सांख्यज्ञानेन वेदनिरपेक्षेण योगमार्गेण वा निःश्रेयसमधिगम्यते। श्रुतिर्हि वैदिकादात्मैकविज्ञानादन्यन्निःश्रेयससाधनं वारयति।तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽन्याय इति। द्वैतिनो हि ते सांख्ययोगाश्च नात्मैकत्वदर्शिनः। यत्तु दर्शनमुक्तं तत्कारणसांख्ययोगाभिपन्नमिति वैदिकमेव तत्र ज्ञानं ध्यानं च सांख्ययोगशब्दाभ्यासभिलप्यते प्रत्यासत्तेरित्यवगन्तव्यम्। येन त्वंशेन न विरुध्यते तेनेष्टमेव सांख्ययोगस्मृत्योः सावकाशत्वम्। तद्यथाअसङ्गो ह्ययं पुरुषः इत्येवमादिश्रुतिप्रसिद्धमेव पुरुषस्य विशुद्धत्वं निर्गुणपुरुषनिरुणेन सांख्यैरुपगम्यते। तथायोगैरपिअत परिव्राट् विवर्णवासा मुण्योऽपरिग्रह इत्येवमादिश्रुतिप्रसिद्धमेव निवृत्तिनिष्ठत्वं प्रयज्याद्युपदेशेनाभ्युपगम्यते। एतेन सर्वाणि तर्कस्मरणानि प्रतिवक्तव्यानि तान्यपि तर्कोपपत्तिभ्यां तत्त्वज्ञानायोपकुर्वन्तीतिचेदुपकुर्वन्तु नाम। तत्त्ज्ञानं तु वेदान्तवाक्येभ्य एव भवतिनावेदविन्मनुते तं बृहन्तंतं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि इत्येवमादिश्रुतिभ्यः। इति तस्मादेतद्भाष्यादुदाहृतश्रुतिभ्यो गीतास्मृतिभ्यश्च औपनिषदानां परमहंसानां चित्तदोषनिरासार्थं श्रुत्यविरोधित्त्वज्ञानसाधनभूतयोगाभ्यासे प्रवृत्तेरौचित्याच्च। अतएव चौपनिषदा इत्यसंगतमित्यलं विस्तरेण।
6.29 सर्वभूतस्थम् abiding in all beings? आत्मानम् the Self? सर्वभूतानि all beings? च and? आत्मनि in the Self?,ईक्षते sees? योगयुक्तात्मा one who is harmonised by Yoga? सर्वत्र everywhere? समदर्शनः one who sees the same everywhere.Commentary The Yogi beholds through the eye of intuition (JnanaChakshus or DivyaChakshus) oneness or unity of the Self everywhere. This is a sublime and magnanimous vision indeed. He feels? All indeed is Brahman. He beholds that all beings are one with Brahman and that the Self and Brahman are identical.
6.29 With the mind harmonised by Yoga he sees the Self abiding in all beings and all beings in the Self; he sees the same everywhere.
6.29 He who experiences the unity of life sees his own Self in all beings, and all beings in his own Self, and looks on everything with an impartial eye;
6.29 One who has his mind Self-absorbed through Yoga, and who has the vision of sameness every-where, see this Self existing in everything, and every-thing in his Self.
6.29 Yoga-yukta-atma, one who has his mind Self-absorbed through Yoga, whose mind is merged in samadhi; and sarvatra-sama-darsanah, who has the vision of sameness everywhere-who has the vision (darsana) of sameness (sama-tva), the knowledge of identity of the Self and Brahman everywhere (sarvatra) without exception, in all divergent objects beginning from Brahma to immovable things; iksate, sees; atmanam, the Self, his own Self; sarva-bhuta-stham, existing in everything; and sarva-bhutani, everything from Brahma to a clump of grass; unified atmani, in his Self. The fruit of this realization of the unity of the Self is being stated:
6.29. He, who has yoked the self in Yoga and observes everything eally perceives the Self to be abiding in all beings and all beings to be abiding in the Self.
6.29 Sarva - etc. Let him consider the Self to be entering into (i.e., inherent in and manifesting as) all beings as a perceiver (or as a subject); again let him unify all beings in the Self through his realisation of the Self as being object [for them]. As a result of this, there arises a capacity to observe eally and also arises the Yoga. This is in short what is meant here. The details have been dealt with by myself (Ag.) in [my] manual, like the bhedavadavidarana and [my commentary], the Devistotra-Vivarana; and hence they may be ascertained there only. The same idea is made clear [as] -
6.29 (i) On account of the similarity between one self and other selves when They are separated from Prakrti (i.e., the body), all selves are by Themselves only of the nature of knowledge. Inealities pertain only to Prakrti or the bodies they are embodied in. One whose mind is fixed in Yoga has the experience of the sameness of the nature of all the selves as centres of intelligence, the perceived difference being caused only by the body. When separated from the body all are alike because of their being forms of centres of intelligence. An enlightened Yogin therefore sees himself as abiding in all beings and all beings abiding in his self in the sense that he sees the similarity of the selves in himself and in every being. When one self is visualised, all selves become visulaised, because of the similarity of all selves. This is supported by the statements: 'He sees sameness everywhere' (6.29). The same is again referred to in, 'This Yoga of eality which has been declared by you' (6.33), and the statement 'The Brahman when uncontaminated is the same everywhere' (5.19).
6.29 He whose mind is fixed in Yoga sees eality everywhere; he sees his self as abiding in all beings and all beings in his self.
।।6.29।।अब योगका फल जो कि समस्त संसारका विच्छेद करा देनेवाला ब्रह्मके साथ एकताका देखना है वह दिखलाया जाता है समाहित अन्तःकरणसे युक्त और सब जगह समदृष्टिवाला योगी जिसका ब्रह्म और आत्माकी एकताको विषय करनेवाला ज्ञान ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त समस्त विभक्त प्राणियोंमें भेदभावसे रहित सम हो चुका है ऐसा पुरुष अपने आत्माको सब भूतोंमें स्थित (देखता है ) और आत्मामें सब भूतोंको देखता है। अर्थात् ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त समस्त प्राणियोंको आत्मामें एकताको प्राप्त हुए देखता है।
।।6.29।। सर्वभूतस्थं सर्वेषु भूतेषु स्थितं स्वम् आत्मानं सर्वभूतानि च आत्मनि ब्रह्मादीनि स्तम्बपर्यन्तानि च सर्वभूतानि आत्मनि एकतां गतानि ईक्षते पश्यति योगयुक्तात्मा समाहितान्तःकरणः सर्वत्र समदर्शनः सर्वेषु ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु विषमेषु सर्वभूतेषु समं निर्विशेषं ब्रह्मात्मैकत्वविषयं दर्शनं ज्ञानं यस्य स सर्वत्र समदर्शनः।।एतस्य आत्मैकत्वदर्शनस्य फलम् उच्यते
।।6.29।।एवं युञ्जन्निति। योगप्रकरणस्य फलकथनेनोपसंहृतत्वात्किमुत्तरेण इत्यत आह ध्येयमिति। ननुमच्चित्तो युक्तः 6।14 इत्यादिना ध्येयमुक्तमेव सत्यम् तथाप्युत्तमाधिकारिणां ध्येयमनेनोच्यत इत्यदोषः। आत्मानं स्वात्मानमित्यादिप्रतीतिपराकरणार्थमाह सर्वेति। कुतोऽयमर्थ इत्यतः पुराणसमाख्यानादित्याह तच्चेति।सर्वत्र समदर्शनः इत्यस्योक्तार्थतां गीतासम्मत्योपपादयति सममिति।
।।6.29।।ध्येयमाह सर्वभूतस्थमिति। सर्वभूतस्थमात्मानं परमेश्वरम् सर्वभूतानि चात्मनि परमेश्वरे तं च परमेश्वरं चतुर्मुखब्रह्मतृणादावैश्वर्यादिना साम्येन पश्यति। तच्चोक्तम् आत्मानं सर्वभूतेषु भगवन्तमवस्थितम्। अपश्यत्सर्वभूतानि भगवत्यपि चात्मनि भाग.3।24।46 इति।समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् इति च।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।6.29।।
সর্বভূতস্থমাত্মানং সর্বভূতানি চাত্মনি৷ ঈক্ষতে যোগযুক্তাত্মা সর্বত্র সমদর্শনঃ৷৷6.29৷৷
সর্বভূতস্থমাত্মানং সর্বভূতানি চাত্মনি৷ ঈক্ষতে যোগযুক্তাত্মা সর্বত্র সমদর্শনঃ৷৷6.29৷৷
સર્વભૂતસ્થમાત્માનં સર્વભૂતાનિ ચાત્મનિ। ઈક્ષતે યોગયુક્તાત્મા સર્વત્ર સમદર્શનઃ।।6.29।।
ਸਰ੍ਵਭੂਤਸ੍ਥਮਾਤ੍ਮਾਨਂ ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਨਿ ਚਾਤ੍ਮਨਿ। ਈਕ੍ਸ਼ਤੇ ਯੋਗਯੁਕ੍ਤਾਤ੍ਮਾ ਸਰ੍ਵਤ੍ਰ ਸਮਦਰ੍ਸ਼ਨ।।6.29।।
ಸರ್ವಭೂತಸ್ಥಮಾತ್ಮಾನಂ ಸರ್ವಭೂತಾನಿ ಚಾತ್ಮನಿ. ಈಕ್ಷತೇ ಯೋಗಯುಕ್ತಾತ್ಮಾ ಸರ್ವತ್ರ ಸಮದರ್ಶನಃ৷৷6.29৷৷
സര്വഭൂതസ്ഥമാത്മാനം സര്വഭൂതാനി ചാത്മനി. ഈക്ഷതേ യോഗയുക്താത്മാ സര്വത്ര സമദര്ശനഃ৷৷6.29৷৷
ସର୍ବଭୂତସ୍ଥମାତ୍ମାନଂ ସର୍ବଭୂତାନି ଚାତ୍ମନି| ଈକ୍ଷତେ ଯୋଗଯୁକ୍ତାତ୍ମା ସର୍ବତ୍ର ସମଦର୍ଶନଃ||6.29||
sarvabhūtasthamātmānaṅ sarvabhūtāni cātmani. īkṣatē yōgayuktātmā sarvatra samadarśanaḥ৷৷6.29৷৷
ஸர்வபூதஸ்தமாத்மாநஂ ஸர்வபூதாநி சாத்மநி. ஈக்ஷதே யோகயுக்தாத்மா ஸர்வத்ர ஸமதர்ஷநஃ৷৷6.29৷৷
సర్వభూతస్థమాత్మానం సర్వభూతాని చాత్మని. ఈక్షతే యోగయుక్తాత్మా సర్వత్ర సమదర్శనః৷৷6.29৷৷
6.30
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।।6.30।। जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
।।6.30।। जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।।
।।6.30।। पहले यह कहा गया था कि ब्रह्मसंस्पर्श से योगी अत्यन्त सुख प्राप्त करता है। ब्रह्मसंस्पर्श से तात्पर्य आत्मा और ब्रह्म के एकत्व से है जो उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। इस ज्ञान को स्वयं भगवान् ही यहाँ स्पष्ट दर्शा रहे हैं। आत्मज्ञानी पुरुष सर्वत्र आत्मा का अनुभव करता है।जो मुझे सबमें और सब को मुझमें देखता है अन्य स्थानों के समान ही यहाँ प्रयुक्त मैं शब्द का अर्थ आत्मा है न कि देवकीपुत्र कृष्ण। इस व्याख्या के प्रकाश में जो पुरुष पूर्व श्लोक के साथ इस श्लोक को पढ़ेगा उसे प्रसिद्ध ईशावास्योपनिषद् की इस घोषणा का गूढ़ अर्थ स्पष्ट हो जायेगा ।वह मुझसे वियुक्त नहीं होता बुद्धि से अतीत आत्मा का अनुभव उससे भिन्न रहकर नहीं होता वरन् जीव पाता है कि वह स्वयं आत्मस्वरूप (शिवोऽहम्) है। स्वप्नद्रष्टा पुरुष जागने पर स्वयं जाग्रत् पुरुष बन जाता है वह जाग्रत् पुरुष को उससे भिन्न रहकर कभी नहीं जान सकता।और न मैं उससे वियुक्त होता हूँ द्वैतवादी लोग अपने जीवभाव और देहात्मभाव की दृढ़ता के कारण इस अद्वैत स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पाते । जिस स्पष्टता से यहाँ जीव के दिव्य स्वरूप की घोषणा की गयी है उसे और अधिक स्पष्ट नहीं किया जा सकता। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ किसी भी प्रकार से इस तथ्य को गूढ़ और गोपन नहीं रखना चाहते कि अनात्म उपाधियों से तादात्म्य को त्यागने पर योगी स्वयं परमात्मस्वरूप बन जाता है। हो सकता है कि किन्हींकिन्हीं लोगों के लिए यह सत्य चौंका देने वाला हो तथापि है तो वह सत्य ही। जिन्हें इसे स्वीकार करने में संकोच होता हो वे अपने जीव भाव को ही दृढ़ बनाये रख सकते हैं। परन्तु भारत में गुरुओं की परम्परा ने तथा विश्व के अन्य अनुभवी सन्तों ने इसी सत्य की पुष्टि की है कि एक व्यक्ति के हृदय में स्थित आत्मा ही सर्वत्र नामरूपों में स्थित है।वर्तमान दशा में हम अपने आप से ही दूर हो चुके हैं अहंकार एक राजद्रोही है जिसने आत्मसाम्राज्य से स्वयं का निष्कासन कर लिया है। आत्मप्राप्ति पर अहंकार उसमें पूर्णतया विलीन हो जाता है। स्वप्नद्रष्टा के जागने पर वह जाग्रत् पुरुष से भिन्न नहीं रह सकता। भगवान् यहाँ कहते हैं कि साधक और मैं एक दूसरे से कभी वियुक्त नहीं होते।वास्तव में यदि हम यह समझ लेते हैं कि आत्मविस्मृति के कारण परमात्मा जीवभाव को प्राप्त सा हुआ है तो यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि आत्मज्ञान के द्वारा जीव पुन परमात्मस्वरूप को प्राप्त हो सकता है। जैसे एक अभिनेता रंगमंच पर भिक्षुक का अभिनय करते हुए भी वास्तव में भिक्षुक नहीं बन जाता और नाटक की समाप्ति पर भिक्षुक के वेष को त्यागकर पुन स्वरूप को प्राप्त हो जाता है वैसे ही आत्मज्ञान के विषय में भी जीव का ब्रह्मरूप होना है। वेदान्त की यह साहसिक घोषणा समझनी कठिन नहीं है परन्तु सामान्य अज्ञानी जन इससे स्तब्ध होकर रह जाते हैं और अपने दोषों के कारण इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते। उनमें इतना साहस और विश्वास नहीं कि वे दिव्य जीवन जीने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले सकें। इस श्लोक में भगवान् का कथन परमार्थ सत्य के स्वरूप के संबंध में उपनिषदों के निष्कर्ष के विषय में रंचमात्र भी सन्देह नहीं रहने देता।पूर्व श्लोक में कथित सम्यक् दर्शन को पुन बताकर कहते हैं
।।6.30।। व्याख्या--'यो मां पश्यति सर्वत्र'--जो भक्त सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, पशु, पक्षी, देवता, यक्ष, राक्षस, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदिमें मेरेको देखता है। जैसे, ब्रह्माजी जब बछड़ों और ग्वालबालोंको चुराकर ले गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये। बछड़े और ग्वालबाल ही नहीं, प्रत्युत उनके बेंत, सींग, बाँसुरी, वस्त्र, आभूषण आदि भी भगवान् स्वयं ही बन गये (टिप्पणी प0 364)। यह लीला एक वर्षतक चलती रही, पर किसीको इसका पता नहीं चला। बछड़ोंमेंसे कई बछ़ड़े तो केवल दूध ही पीनेवाले थे, इसलिये वे घरपर ही रहते थे और बड़े बछड़ोंको भगवान् श्रीकृष्ण अपने साथ वनमें ले जाते थे। एक दिन दाऊ दादा (बलरामजी) ने देखा कि छोटे बछड़ोंवाली गायें भी अपने पहलेके (बड़े) बछड़ोंको देखकर उनको दूध पिलानेके लिये हुंकार मारती हुई दौड़ पड़ीं। बड़े गोपोंने उन गायोंको बहुत रोका, पर वे रुकी नहीं। इससे गोपोंको उन गायोंपर बहुत गुस्सा आ गया। परन्तु जब उन्होंने अपने-अपने बालकोंको देखा, तब उनका गुस्सा शान्त हो गया और स्नेह उमड़ पड़ा। वे बालकोंको हृदयसे लगाने लगे, उनका माथा सूँघने लगे। इस लीलाको देखकर दाऊ दादाने सोचा कि यह क्या बात है; उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो उनको बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें भगवान् श्रीकृष्ण ही दिखायी दिये। ऐसे ही भगवान्का सिद्ध भक्त सब जगह भगवान्को ही देखता है अर्थात् उसकी दृष्टिमें भगवत्सत्ताके सिवाय दूसरी किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती। 'सर्वं च मयि पश्यति'--और जो भक्त देश, काल. वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिको मेरे ही अन्तर्गत देखता है। जैसे, गीताका उपदेश देते समय अर्जुनके द्वारा प्रार्थना करनेपर भगवान् अपना विश्वरूप दिखाते हुए कहते हैं कि चराचर सारे संसारको मेरे एक अंशमें स्थित देख--'इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे' ৷৷. (11। 7) तो अर्जुन भी कहते हैं कि मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देख रहा हूँ--'पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्' (11। 15)। सञ्जयने भी कहा कि अर्जुनने भगवान्के शरीरमें सारे संसारको देखा--'तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा' (11। 13)। तात्पर्य है कि अर्जुनने भगवान्के शरीरमें सब कुछ भगवत्स्वरूप ही देखा। ऐसे ही भक्त देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ आता है, उसको भगवान्में ही देखता है और भगवत्स्वरूप ही देखता है।
।।6.30।।एष एवार्थः स्पष्टीक्रियते (K omits this sentence ) यो मामिति। प्रणाशः अकार्यकारित्वात् (S कारकत्वात्)। तथाहि परमात्मनः सर्वगतं रूपं यो न पश्यति तस्य परमात्मा पलायितः स्वरूपप्रकटीकाराभावात्। यच्चेदं (N यश्चेदम्) वस्तुजातं तत् तद्भासनात्मनि परमात्मनि ( omits परमात्मनि) निर्विष्टं भाति ( SK विनिविष्टं भाति ( K भवति) तथाविधं यो न पश्यति स परमात्मस्वरूपात् प्रणष्टः तद्व्यतिरेके सति अनिर्भासनात्। यस्तु सर्वगतं मां पश्यति तस्याहं न प्रणष्टः स्वरूपेण भासनात्। भावांश्च मयि पश्यति तत् तेषां भासनोपपत्तौ द्रष्टृतायां परिपूर्णायां स न प्रणष्टः परमात्मनः।
।।6.30।।ततो विपाकदशाम् आपन्नो मम साधर्म्यम् उपागतःनिरञ्जनः परमं साम्यमुपैति (मु0 उ0 3।1।3) इत्युच्यमानं सर्वस्य आत्मवस्तुनो विधूतपुण्यपापस्य स्वरूपेण अवस्थितस्य मत्साम्यं पश्यन् यः सर्वत्र आत्मवस्तुनि मां पश्यति सर्वम् आत्मवस्तु च मयि पश्यति अन्योन्यसाम्याद् अन्यतरदर्शनेन अन्यतरद् अपि ईदृशम् इति पश्यति तस्य स्वात्मस्वरूपं पश्यतः अहं तत्साम्यात् न प्रणश्यामि न अदर्शनम् उपयामि मम अपि मां पश्यतः मत्साम्यात् स्वात्मानं मत्समम् अवलोकयन् स न अदर्शनम् उपयाति।ततो विपाकदशाम् आह
।।6.30।।उक्तस्यैकत्वज्ञानस्य फलविकल्पत्वशङ्कां शिथिलयति एतस्येति। तत्रैकत्वदर्शनमनुवदति यो मामिति। तत्फलमिदानीमुपन्यस्यति तस्येति। ज्ञानानुवादभागं विभजते यो मामिति। तत्फलोक्तिभागं व्याचष्टे तस्यैवमिति। अनेकत्वदर्शिनोऽपीश्वरो नित्यत्वान्न प्रणश्यतीत्याशङ्क्याह नेति। अहं परमानन्दो न तं प्रति परोक्षीभवामीत्यर्थः। स चेत्यादि व्याचष्टे विद्वानिति। विद्वानिवाविद्वानपीश्वरस्य न नश्यतीत्याशङ्क्योक्तं नेत्यादिना। अविदुषश्च स्वरूपेण सतोऽपि व्यवहितत्वादविद्यया नष्टप्रायतेत्यर्थः। ईश्वरस्य विदुषस्च परस्परमपरोक्षत्वे हेतुमाह तस्य चेति। आत्मैकत्वेऽपि कथं मिथोऽपरोक्षत्वं तत्राह स्वात्मेति। विद्वदीश्वरयोरेकत्वानुवादेन विद्याफलं विवृणोति यस्माच्चेति। तस्मादेकत्वदर्शनार्थं प्रयतितव्यमिति शेषः।
।।6.29 6.30।।एतादृशस्य योगिनो ब्रह्मसुखाविर्भावो वामदेववत्सर्वात्मभावे भवतीत्याह। गुह्यः असम्प्रज्ञातसमाधिर्द्विविधः अक्षरब्रह्मविषयको भगवद्विषयकश्च तत्र पूर्वस्य फलमाह भगवान् सर्वभूतस्थमिति। सर्वभूतस्थितमात्मानं पश्यति सर्वभूतानि च स्वात्मनि अवस्थानेन कार्यकारणवस्त्वैक्यमर्शनेन वा पश्यति तथा चानन्दांशाविर्भावे भगवदात्मकत्वेन तस्य व्यापकत्वं प्रकटीभवतीत्यर्थः। द्वितीयस्याह ततोऽपि गुह्यतरम्। वासुदेवं मां योगजधर्मेण पश्यति सर्वभूतानि स्वं च मय्यवस्थानेनाभेदेन च पश्यति ऐतदात्म्यमिदं सर्वं छा.उ.अ.6खं.816वासुदेवः सर्वं 7।19अखण्डं कृष्णवत्सर्वं स आत्मा तत्त्वमसि छा.उ.अ.6खं.816योऽसौ सोऽहं योऽहं सोऽसौ इति श्रुतिस्मृतिवाक्यात्। तत्राभेदोपासना तामसी काचित्तान्त्रिकीत्यग्रे वक्ष्यतिएकत्वेन पृथक्त्वेन 9।15 इत्यादौ। अतस्ततो विभिद्याह तस्याहं न प्रणश्यामीति नादृश्यो भवामीत्याह। स ममादृश्यो न भवति आनन्दाविर्भावरूपेण चतुर्भुजादिरूपो भूत्वा प्रत्यक्षं कृपादृष्टया तमनुगृह्णामीत्यर्थः।
।।6.30।।एवं शुद्धं त्वंपदार्थं निरूप्य शुद्धं तत्पदार्थं निरूपयति यो योगी मामीश्वरं तत्पदार्थमशेषप्रपञ्चकारणमायौपाधिकमुपाधिविवेकेन सर्वत्र प्रपञ्चे सद्रूपेण स्फुरणरूपेण चानुस्यूतं सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं परमार्थसत्यमानन्दघनमनन्तं पश्यति योगजेन प्रत्यक्षेणापरोक्षीकरोति तथा सर्वं च प्रपञ्चजातं मायया मय्यारोपितं मद्भिन्नतया मृषात्वेनैव पश्यति तस्यैवंविवेकदर्शिनोऽहं तत्पदार्थों भगवान्न प्रणश्यामि ईश्वरः कश्चिन्मद्भिन्नोऽस्तीति परोक्षज्ञानविषयो न भवामि किंतु योगजापरोक्षज्ञानविषयो भवामि। यद्यपि वाक्यजापरोक्षज्ञानविषयत्वं त्वंपदार्थाभेदेनैव तथापि केवलस्यापि तत्पदार्थस्य योगजापरोक्षज्ञानविषयत्वमुपपद्यत एव। एवं योगजेन प्रत्यक्षेण मामपरोक्षीकुर्वन् स च मे न प्रणश्यति परोक्षो न भवति। स्वात्मा हि मम स विद्वानतिप्रियत्वात्सर्वदा मदपरोक्षज्ञानगोचरो भवतिये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् इत्युक्तेः। तथैव शरशय्यास्थभीष्मध्यानस्य युधिष्ठिरं प्रति भगवतोक्तेः। अविद्वांस्तु स्वात्मानमपि सन्तं भगवन्तं न पश्यति अतो भगवान् पश्यन्नपि तं न पश्यति।स एनमविदितो न भुनक्ति इति श्रुतेः। विद्वांस्तु सदैव संनिहितो भगवतोऽनुग्रहभाजनमित्यर्थः।
।।6.30।।एवंभूतात्मज्ञानस्य सर्वभूतात्मतया मदुपासनं मुख्यं कारणमित्याह य इति। मां परमेश्वरं सर्वत्र भूतमात्रे यः पश्यति सर्वं च प्राणिमात्रं मयि यः पश्यति तस्याहं न प्रणश्याम्यदृश्यो न भवामि स च ममादृश्यो न भवति। प्रत्यक्षो भूत्वा कृपादृष्ट्या तं विलोक्यानुगृह्णामीत्यर्थः।
6.3031 इति विशेषनिर्देशायुक्ते श्लोकद्वये प्रतिपादयितुमुचितत्वात्अस्य परमात्मविषयत्वेयो माम् इति श्लोकद्वयेन मात्रया पौनरुक्त्यं च स्यात्।योऽयं योगः 6।33 इत्येतदनुवादे च साम्यमात्रमेवोच्यते न तु परस्पराधाराधेयभावः। प्रागपिविद्याविनय 5।18 इत्यादौ साम्यमात्रमेवोक्तम्। अतोऽत्र जीवानां परस्परसाम्यमेव विवक्षितमिति।।।6.30।।एवं देवमनुष्यादिप्रकृतिपरिणामविशेषरूपभेदनिरसने ज्ञानद्रव्यतयैकरूपत्वानुसन्धानमुक्तम् अथ तस्यैव देवादिभेदहेतुभूतपुण्यपापतारतम्यविधूननेन परमात्मना परमसाम्यानुसन्धानमुच्यते यो मां इति। अस्यापि श्लोकस्य साम्यविषयत्वे हेतुः प्रागेवोक्तः।ततोऽपि विपाकदशापन्नः प्रथमदशातोऽधिकां विपाकदशां प्राप्त इत्यर्थः। जीवात्मनां परमात्मनश्च साधर्म्यं स्मारयति मम साधर्म्यमिति।उपागतः बुद्ध्या प्राप्त इत्यर्थः। नह्यसाविदानीं मुक्तः पुण्यपापविधूननेन साम्यप्रतिपादनाय निरञ्जनः इति श्रुतिरुपात्ता। तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति मुं.उ.3।1।3 इति हि सायो मां पश्यति इत्यनुवादः तत्सिद्धौ हि भवति। सा कुतः इति शङ्कायां साम्यं तावदुपात्तश्रुत्यादिसिद्धम्। तदनुसन्धानं च विहितम् ततश्च तदनुवादोऽप्युपपन्न इति ज्ञापनायमत्साम्यं पश्यन् यः सर्वत्रात्मवस्तुनि मां पश्यतीत्यवान्तरवचनव्यक्तिभेदो दर्शितः। परमात्मनः सर्वव्यापितया सर्वेषां परमात्मनिष्ठतया च प्रतीतिर्ह्यत्र स्वरसतो जायते तच्चात्र प्रकरणादिवशादनुचितम्। ततश्च साम्यदर्शनमेव विवक्षितमिति वाच्यम् तदप्ययुक्तम् स्वात्मानुसन्धानस्वरूपयोगविपाके परमात्मनोन्येषां च स्फुरणाभावादिति पूर्ववच्छङ्कायामाह अन्योन्येति।अन्यतरर्शनेनान्यतरदपीति एकव्यक्तिदर्शनेन व्यक्त्यन्तरमपीत्यर्थः।तस्याहं इत्यादौ न तावत्प्रध्वंसनिषेधः क्रियते नित्यतया बहुप्रमाणप्रतिपादितयोर्जीवेश्वरयोरिदानीमनित्यत्वशङ्काभावात्तस्य न प्रणश्यामि इत्यादिपरस्परप्रतियोगिनिर्देशानुपपत्तेश्च। न हि किञ्चिदपि वस्तु किञ्चित्प्रत्यनष्टं किञ्चित्प्रति च नष्टं भवति। अतोऽसावदर्शनविषय एवात्र नाशशब्दः। नशिधातोश्च अदर्शनार्थत्वं धातुपाठपठितम्। ततश्च न प्रणश्यामीति कोऽर्थः नाशदर्शनमुपयामीति तदेतद्दर्शयति तस्येत्यादिना। तादृशत्वानुसन्धानस्याभावो निषिध्यत इति भावः।स च मे न प्रणश्यति इत्येतद्दृष्टान्तार्थं साम्यस्य सर्वज्ञबुद्धिविषयतया प्रामाणिकत्वार्थं पूर्ववच्छङ्कापरिहारार्थं चेत्यभिप्रायेणाह ममापीति। सर्वसाक्षात्कारिणोऽपि मम स्वरूपानुसन्धानांशेऽपि तत्साम्यात्तत्स्वरूपमप्यनुसंहितं भवति हीत्यर्थः। स इत्यनेन तदवस्थस्य मुक्तप्रायत्वं विवक्षितमिति व्यञ्जयितुमाह मत्साम्यात्स्यात्मानं मत्सममवलोकयन्निति।
।।6.30।।एवं स्वरूपज्ञानफलमाह यो मामिति। यः सर्वत्र जीवेषु वियोगावस्थायां मां पश्यति संयोगावस्थायां मयि सर्वं पश्यति तस्याहं न प्रणश्यामि न कदाचिदपि वियुक्तो भवामि। स च मे मत्तः न प्रणश्यति न वियुक्तो भवतीत्यर्थः।
।।6.30।।अस्यात्मैकत्वदर्शनस्यापि फलमाह यो मामिति। सर्वत्रास्मच्छब्दः प्रत्यगात्मपरः। यो योगी आत्मानं सर्वत्र पश्यति सर्वं चात्मनि पश्यति तस्य योगिनो ज्ञात आत्मा न प्रणश्यति अदर्शनं न गच्छति। ज्ञात आत्मा न पुनस्तिरोभवति। सकृन्नष्टस्य मूलाज्ञानस्य बीजाभावेन पुनरुदयासंभवादित्यर्थः। ननु कार्यकारणसंघाताभिमानिना शुक्तिरूप्यवद्ब्रह्मण्यध्यस्तेन तदभिमानत्यागपूर्वकं ज्ञातं स्वाधिष्ठानभूतं ब्रह्म मा तिरोधायि बुद्धेस्तत्त्वपक्षपातित्वात् ब्रह्मदृष्ट्या तु मुक्तजीवस्य निरन्वयोच्छेदो भवतीत्याशङ्क्याह स च मे न प्रणश्यतीति। स च विद्वान्मे मम न प्रणश्यति न तिरोभवति मदभिन्नत्वात्। भवेदेतदेवं यदि जीवो मय्यध्यस्तो वा मम विकारो वा भवेत्तदा निरन्वयोच्छेदं प्राप्नुयात्। अहमेव तु सः।तत्त्वमसिअहं ब्रह्मास्मिअयमात्मा ब्रह्म इत्यादिशास्त्रात्। तस्माद्युक्तमुक्तं स च मे न प्रणश्यतीति।
।।6.30।।एकत्वदर्शनस्य फलमाह य इति। यो मां वासुदेवं प्रत्यगभिन्नं सर्वत्र तस्मन्नधिष्ठानरुपं पश्यत्यपरोक्षीकरोति स सर्वं च ब्रह्मादिभूतजातं मयि प्रत्यगभिन्ने वासुदेवे कल्पितं पश्यति तस्य ब्रह्मात्मैक्यसाक्षात्कारवतः। अहं प्रत्यगभिन्नपरमात्मा न प्रणश्यामि अदृश्यः परोक्षो न भवामि। स च विद्वानात्मैकत्वदर्शी मम प्रत्यगभिन्नस्य वासुदेवस्य न प्रणश्यति परोक्षो न भवति। यद्यपि विद्वानिवाविद्वानपि ईश्वरस्य न प्रणश्यति तथाप्यविदुशोऽविद्यया व्यवहितत्वात्परोक्षप्रायता। यत्तु एवं शुद्धं त्वंपदार्थे निरुप्य शुद्धं तत्पदार्थं निरुपयति। यो योगी मामीश्वरं तत्पदार्थ्रपञ्चकारणं मायोपाधिविवेकेन सर्वत्र प्रपञ्चे सद्रूपेण स्फुरणरुपेण चानुस्यूतं सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं परमार्थसत्यमानन्दघनमनन्तं पश्यति योगजेन प्रत्यक्षेणापरोक्षीकरोति तथा सर्वप्रपञ्चजाते मायया मय्योरोपितं मद्भिन्नतया मृषात्वेनैव पश्यति तस्यैव विवेकदर्शिनः अहं तत्पदार्थो भगवान्न प्रणशयामि ईश्वरः कश्चिन्मदभिन्नोऽस्तीति परोक्षज्ञानविषयो न भवामि कुंतु योगजापरोक्षज्ञानविषयो भवामि। यद्यपि वाक्यजापरोक्षज्ञानविषयत्वं पदार्थाभेदेनैव तथापि केवलस्यापि तत्पदार्थस्य योगजापरोक्षज्ञानविषयत्वमुपपद्यत एव। योगजेन प्रत्यक्षेण मामपरोक्षीकुर्वन्स च मे न प्रणश्यति परोक्षो न भवति। स्वात्मा हि मम स विद्वानिति प्रियत्वात्सर्वदा मदपरोक्षज्ञानगोचरो भवति।ये ता मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् इत्त्युक्तेरिति केचित्। तत्र मूलतद्भाष्यस्वव्याख्यानविरुद्धापातनिकातं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामिनावेदविन्मनुते तं बृहन्तम् इत्यादिश्रुतिविरुद्धा। योगजाखण्डापरोक्षज्ञानकल्पना न नादर्तव्या। तस्यैत्यादेः संकोचकपदाद्यभावेन कदाप्यहं तस्य परोक्षी न भवामीत्यर्थं विहाय कदाचित्समाध्यादिकारे योगजप्रत्यक्षेणेति कल्पनाया अयोगाच्चेति दिक्।
6.30 यः who? माम् Me? पश्यति sees? सर्वत्र everywhere? सर्वम् all? च and? मयि in Me? पश्यति sees? तस्य of him? अहम् I? न not? प्रणश्यामि vanish? सः he? च and? मे to Me? न not? प्रणश्यति vanishes.Commentary In this verse the Lord describes the effect of the vision of the unity of the Self or oneness.He who sees Me? the Self of all? in all beings? and everything (from Brahma the Creator down to the blade of grass) in Me? I am not lost to him? nor is he lost to Me. I and the sage or seer of unity of the Self become identical or one and the same. I never leave his presence nor does he leave My presence. I never lose hold of him nor does he lose hold of Me. I dwell in him and he dwells in Me.
6.30 He who sees Me everywhere and sees everything in Me, he never becomes separated from Me, nor do I become separated from him.
6.30 He who sees Me in everything and everything in Me, him shall I never forsake, nor shall he lose Me.
6.30 One who sees Me in everything, and sees all things in Me-I do not out of his vision, and he also is not lost to My vision.
6.30 Yah, one who; pasyati, sees; mam, Me, Vasudeva, who am the Self of all; sarvatra, in all things; ca, and; sees sarvam, all things, all created things, beginning from Brahma; mayi, in Me who am the Self of all;-aham, I who am God; na pranasyami, do not go out; tasya,of his vision-of one who has thus realized the unity of the Self; ca sah, and he also; na pranasyati, is not lost; me, to My vision. That man of realization does not get lost to Me, to Vasudeva, because of the indentity between him and Me, for that which is called one's own Self is surely dear to one, and since it is I alone who am the seer of the unity of the Self in all.
6.30. He who observes Me in all and observes all in Me-for him I am not lost and he too is not lost for me.
6.30 Yo Mam etc. Loss : i.e., on account of serving no purpose [on the part of a thing]. For example : He who does not see the all-pervasive nature of the Supreme Self, from him the Supreme Self has fled away, because It does not reveal Its own nature. Further, this aggregate of objects, which is being perceived, remains settled down in the Supreme Self, which is the very nature of their illumination (being known). Now, whosoever fails to veiw the object as such, he gets lost from the naute of that Supreme Self. For, nothing shines without It. On the other hand, he who finds Me (the Supreme Consciousness) as immanent in all - for him I am not lost; because I appear [to him] in my own nature. [Again], when he perceives objects in Me-when his perceiverhood is complete on account of the possibility of illumination and manifestation of these objects due to This - then he is not lost for the Supreme Self.
6.30 (ii) He who, having reached the highest stage of maturity, views similarity of nature with Me, i.e., sees similarity of all selves to Myself when They are freed from good and evil and when they remain in Their own essence, as declared in the Sruti, 'Stainless he attains supreme degree of eality' (Mun. U., 3.1.3); and 'sees Me in all selves and sees all selves in Me.' That is, on viewing one of Them (selves), one views another also to be the same, because of their similarity to one another. To him who perceives the nature of his own self, I am not lost on account of My similarity to him i.e., I do not become invisible to him. He (the Yogin) viewing his own self as similar to Me, always remains within My sight when I am viewing Myself, because of similarity of his self with Me. Sri Krsna describes a still more mature steps (of Yoga):
6.30 To him who sees Me in every self and sees every self in Me - I am not lost to him and he is not lost to Me.
।।6.30।।इस आत्माकी एकताके दर्शनका फल कहा जाता है जो सबके आत्मा मुझ वासुदेवको सब जगह अर्थात् सब भूतोंमें ( व्यापक ) देखता है और ब्रह्मा आदि समस्त प्राणियोंको मुझ सर्वात्मा ( परमेश्वर ) में देखता है इस प्रकार आत्माकी एकताको देखनेवाले उस ज्ञानीके लिये मैं ईश्वर कभी अदृश्य नहीं होता अर्थात् कभी अप्रत्यक्ष नहीं होता और वह ज्ञानी भी कभी मुझ वासुदेवसे अदृश्य परोक्ष नहीं होता क्योंकि उसका और मेरा स्वरूप एक ही है। निःसंदेह अपना आत्मा अपना प्रिय ही होता है और जो सर्वात्मभावसे एकताको देखनेवाला है वह मैं ही हूँ।
।।6.30।। यो मां पश्यति वासुदेवं सर्वस्य आत्मानं सर्वत्र सर्वेषु भूतेषु सर्वं च ब्रह्मादिभूतजातं मयि सर्वात्मनि पश्यति तस्य एवं आत्मैकत्वदर्शिनः अहम् ईश्वरो न प्रणश्यामि न परोक्षतां गमिष्यामि। स च मे न प्रणश्यति स च विद्वान् मम वासुदेवस्य न प्रणश्यति न परोक्षो भवति तस्य च मम च एकात्मकत्वात् स्वात्मा हि नाम आत्मनः प्रिय एव भवति यस्माच्च अहमेव सर्वात्मैकत्वदर्शी।।इत्येतत् पूर्वश्लोकार्थं सम्यग्दर्शनमनूद्य तत्फलं मोक्षः अभिधीयते
।।6.30।।किञ्चैतदर्थानुवादेन फलप्रतिपादकं उत्तरवाक्यमप्यस्य भगवद्विषयत्वं ज्ञापयतीति भावेनाह फलमिति। अस्य ध्यान विशेषस्येति शेषः। ननु भगवांस्तद्ध्यायी च सर्वान्प्रति नित्यौ तत्कथमेतत् इत्यत आह तस्येति। कथमयमर्थो लभ्यते इत्यत आह सत्यपीति। अविद्यमाननाथोऽयमिति भृत्ये प्रसिद्धिः एवं सत्यपि भृत्येऽभजत्यविद्यमानभृत्योऽयमिति स्वामिनि प्रसिद्धिः। एतदुक्तं भवतिविद्यमानस्यापि स्वयोग्यव्यापाराकरणसादृश्यादुपचारेणाविद्यमानता। प्रकृते तु तथात्वाभावात्न प्रणश्यामि इत्यादिरूढोपचारश्चायम्। अतो न प्रयोजनान्वेषणमिति। अत्र पुराणसम्मतिमाह उक्तं चेति।
।।6.30।।फलमाह यो मामिति। तस्याहं न प्रणश्यामीति सर्वदा योगक्षेमवहः स्यामित्यर्थः। स च मे न प्रणश्यति सर्वदा मद्भक्तो भवति। सत्यपि स्वामिन्यरक्षत्यनाथः एवं भृत्येऽप्यभजत्यभृत्य इति हि प्रसिद्धिः। उक्तं चसर्वदा सर्वभूतेषु समं मां यः प्रपश्यति। अचला तस्य भक्तिः स्याद्योगक्षेमं वहाम्यहम् (৷৷.वहोऽस्म्यम्) इति गारुडे।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।6.30।।
যো মাং পশ্যতি সর্বত্র সর্বং চ মযি পশ্যতি৷ তস্যাহং ন প্রণশ্যামি স চ মে ন প্রণশ্যতি৷৷6.30৷৷
যো মাং পশ্যতি সর্বত্র সর্বং চ মযি পশ্যতি৷ তস্যাহং ন প্রণশ্যামি স চ মে ন প্রণশ্যতি৷৷6.30৷৷
યો માં પશ્યતિ સર્વત્ર સર્વં ચ મયિ પશ્યતિ। તસ્યાહં ન પ્રણશ્યામિ સ ચ મે ન પ્રણશ્યતિ।।6.30।।
ਯੋ ਮਾਂ ਪਸ਼੍ਯਤਿ ਸਰ੍ਵਤ੍ਰ ਸਰ੍ਵਂ ਚ ਮਯਿ ਪਸ਼੍ਯਤਿ। ਤਸ੍ਯਾਹਂ ਨ ਪ੍ਰਣਸ਼੍ਯਾਮਿ ਸ ਚ ਮੇ ਨ ਪ੍ਰਣਸ਼੍ਯਤਿ।।6.30।।
ಯೋ ಮಾಂ ಪಶ್ಯತಿ ಸರ್ವತ್ರ ಸರ್ವಂ ಚ ಮಯಿ ಪಶ್ಯತಿ. ತಸ್ಯಾಹಂ ನ ಪ್ರಣಶ್ಯಾಮಿ ಸ ಚ ಮೇ ನ ಪ್ರಣಶ್ಯತಿ৷৷6.30৷৷
യോ മാം പശ്യതി സര്വത്ര സര്വം ച മയി പശ്യതി. തസ്യാഹം ന പ്രണശ്യാമി സ ച മേ ന പ്രണശ്യതി৷৷6.30৷৷
ଯୋ ମାଂ ପଶ୍ଯତି ସର୍ବତ୍ର ସର୍ବଂ ଚ ମଯି ପଶ୍ଯତି| ତସ୍ଯାହଂ ନ ପ୍ରଣଶ୍ଯାମି ସ ଚ ମେ ନ ପ୍ରଣଶ୍ଯତି||6.30||
yō māṅ paśyati sarvatra sarvaṅ ca mayi paśyati. tasyāhaṅ na praṇaśyāmi sa ca mē na praṇaśyati৷৷6.30৷৷
யோ மாஂ பஷ்யதி ஸர்வத்ர ஸர்வஂ ச மயி பஷ்யதி. தஸ்யாஹஂ ந ப்ரணஷ்யாமி ஸ ச மே ந ப்ரணஷ்யதி৷৷6.30৷৷
యో మాం పశ్యతి సర్వత్ర సర్వం చ మయి పశ్యతి. తస్యాహం న ప్రణశ్యామి స చ మే న ప్రణశ్యతి৷৷6.30৷৷
6.31
6
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।।6.31।। मेरेमें एकीभावसे स्थित हुआ जो योगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मेरेमें ही बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह सर्वथा मेरेमें ही स्थित है।
।।6.31।। जो पुरुष एकत्वभाव मंे स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में स्थित मुझे भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझमें स्थित रहता है।।
।।6.31।। समाहित चित्त का योगी निरन्तर मेरा अनुसंधान करता है (भजता है)। फलत बाह्य जगत् में सब प्रकार के व्यवहार करता हुआ भी वह मुझमें ही स्थित रहता है। इस श्लोक का मुख्य प्रयोजन यह दर्शाना है कि कोई आवश्यक नहीं कि एक आत्मानुभवी पुरुष हिमालय की किसी अज्ञात गुफा में जाकर निवृत्ति का जीवन व्यतीत करेगा। भगवान् कहते हैं कि जीवन के समस्त सामान्य व्यवहार करता हुआ सभी परिस्थितियों में वह अपने स्वरूप के ज्ञान में स्थित रह सकता है। जब मनुष्य रोगी हो जाता है तब उसे नित्य के कार्यों से निवृत्त होकर चिकित्सालय में रहने की आवश्यकता होती है परन्तु पूर्ण स्वस्थ हो जाने के पश्चात् नहीं। स्वस्थ होकर तो वह पुन अधिक उत्साह के साथ अपना कार्य करने लगता है।इसी प्रकार विघटित व्यक्तित्व के पुरुष के लिए ध्यानसाघना का उपचार बताया जाता है। उसके अभ्यास से जब वह स्वस्वरूप को पहचान कर दैवी सार्मथ्य प्राप्त कर लेता है तब वह निश्चय ही अपने पूर्व के कार्य क्षेत्र में जाकर कर्म करते हुए भी पूर्णत्व के ज्ञान को सुदृढ़ बनाये रख सकता है।वास्तव में देखा जाय तो चिरस्थायी फलदायी कर्म कुशलतापूर्वक तभी किये जा सकते हैं जब कर्ता आत्मस्वरूप के ज्ञान में स्थित हो। गीता का यही संदेश है कि समर्पण की भावना से किये गये कर्म आत्मोन्नति के साधन हैंयहाँ ध्यान देने की बात है कि श्रीकृष्ण संभवत अर्जुन की अपेक्षा स्वयं को ही युद्ध की विपत्तियों में अधिक डाल रहे थे। रथ में बैठे योद्धा तक पहुँचने के पूर्व प्रतिपक्षी के बाण सारथि पर पहले प्रहार करते हैं। केवल समस्त संसार को मुग्ध कर देने वाली मन्द स्मिति के अतिरिक्त किसी अन्य शस्त्र को न लेकर श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में प्रवेश किया था। तत्पश्चात् वे ही सम्पूर्ण युद्ध के स्वामी और केन्द्र बिन्दु बने रहे और सम्पूर्ण महायुद्ध का घटनाचक्र उनके ही चारों तरफ घूमता रहा। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मज्ञानी पुरुष किसी भी कार्यक्षेत्र में कर्म करते हुए भी अपने वास्तविक स्वरूप का भान रख सकता है।इस व्याख्या का अध्ययन करते समय हो सकता है कोई पाठक यह समझे कि अत्याधिक उत्साह के कारण हम इस श्लोक में कुछ अधिक अर्थ देख रहे हैं। परन्तु उन्हें सर्वथा वर्तमानोऽपि इस शब्द पर ध्यान देते हुए अधिक विचार करना चाहिए।
।।6.31।। व्याख्या--'एकत्वमास्थितः' पूर्वश्लोकमें भगवान्ने बताया था कि जो मेरेको सबमें और सबको मेरेमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता। अदृश्य क्यों नहीं होता? कारण कि सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरे साथ उसकी अभिन्नता हो गयी है अर्थात् मेरे साथ उसका अत्यधिक प्रेम हो गया है। अद्वैत-सिद्धान्तमें तो स्वरूपसे एकता होती है, पर यहाँ वैसी एकता नहीं है। यहाँ द्वैत होते हुए भी अभिन्नता है अर्थात् भगवान् और भक्त दीखनेमें तो दो हैं, पर वास्तवमें एक ही हैं (टिप्पणी प0 365)। जैसे पति और पत्नी दो शरीर होते हुए भी अपनेको अभिन्न मानते हैं, दो मित्र अपनेको एक ही मानते हैं; क्योंकि अत्यन्त स्नेह होनेके कारण वहाँ द्वैतपना नहीं रहता। ऐसे ही जो भक्तियोगका साधक भगवान्को प्राप्त हो जाता है, भगवान्में अत्यन्त स्नेह होनेके कारण उसकी भगवान्से अभिन्नता हो जाती है। इसी अभिन्नताको यहाँ 'एकत्वमास्थितः' पदसे बताया गया है। 'सर्वभूतस्थितं यो मां भजति'--सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें भगवान् ही परिपूर्ण हैं अर्थात् सम्पूर्ण चराचर जगत् भगवत्स्वरूप ही है--'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19)--यही उसका भजन है।
।।6.31।।सर्वेति। यस्त्वेवं ज्ञानाविष्टः सोऽवश्यमेव (N ज्ञानाविष्टोऽसाववश्यमेव S वश्यमेकतया) एकतया भगवन्तं सर्वगतं विदन् सर्वावस्थागतोऽपि न लिप्यते।
।।6.31।।योगदशायां सर्वभूतस्थितं माम् असंकुचितज्ञानैकाकारतया एकत्वम् आस्थितः प्राकृतभेदपरित्यागेन सुदृढं यो भजते स योगी व्युत्थानकाले अपि यथा तथा वर्तमानः स्वात्मानं सर्वभूतानि च पश्यन् मयि वर्तते माम् एव पश्यति। स्वात्मनि सर्वभूतेषु च सर्वदा मत्साम्यम् एव पश्यति इत्यर्थः।ततोऽपि काष्ठाम् आह
।।6.31।।पूर्वार्धेनानूद्योत्तरार्धेन फलविधिरिति मत्वाह इत्येतदिति। रागादिरहितस्य यमनियमादिसंस्कारवतः स्वैरप्रवृत्त्यसंभवेऽपि तामङ्गीकृत्य ज्ञानं स्तौति सर्वथेति। प्रतिभासतोऽपि यथेष्टचेष्टाङ्गीकारे कुतो ज्ञानवतो नित्यमुक्तत्वं प्रातीतिकदुराचारप्रतिबन्धादित्याशङ्क्याह न मोक्षमिति।
।।6.31।।यश्चैवमेकत्वमास्थितोऽपि मां वासुदेवं भजति सेवते मत्प्रवणं चेतः करोति स योगी मयि मदाधारो भवति। मत्किङ्करः शुक इव उद्धव इव भवतीत्यर्थः।ज्ञानी चेद्भजते कृष्णं तस्मान्नास्त्यधिकः परः इति वाक्यात्।
।।6.31।।एवं त्वंपदार्थं त्पदार्थं च शुद्धं निरूप्य तत्त्वमसीति वाक्यार्थं निरूपयति सर्वेषु भूतेष्वधिष्ठानतया स्थितं सर्वानुस्यूतसन्मात्रं मामीश्वरं तत्पदलक्ष्यं स्वेन त्वंपदलक्ष्येण सहैकत्वमत्यन्ताभेदमास्थितो घटाकाशो महाकाश इत्यत्रेवोपाधिभेदनिराकरणेन निश्चिन्वन् यो भजति अहं ब्रह्मास्मीति वेदान्तवाक्यजेन तत्त्वसाक्षात्कारेणापरोक्षीकरोति सोऽविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या जीवन्मुक्तः कृतकृत्य एव भवति। यावत्तु तस्य बाधितानुवृत्त्या शरीरादिदर्शनमनुवर्तते तावत्प्रारब्धकर्मप्राबल्यात्सर्वकर्मत्यागेन वा याज्ञवल्क्यादिवद् विहितेन कर्मणा वा जनकादिवत् प्रतिषिद्धेन कर्मणा वा दत्तात्रेयादिवत् सर्वथा येन केनापि रूपेण वर्तमानोऽपि व्यवहरन्नपि स योगी ब्रह्माहमस्मीति विद्वान्मयि परमात्मन्येवाभेदेन वर्तते। सर्वथा तस्य मोक्षंप्रति नास्ति प्रतिबन्धशङ्का।तस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवति इति श्रुतेः। देवा महाप्रभावा अपि तस्य मोक्षाभवनाय नेशते किमुतान्ये क्षुद्रा इत्यर्थः। ब्रह्मविदो निषिद्धकर्मणि प्रवर्तकयो रागद्वेषयोरसंभवेन निषिद्धकर्मासंभवेऽपि तदङ्गीकृत्य ज्ञानस्तुत्यर्थमिदमुक्तं सर्वथा वर्तमानोऽपीतिहत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते इतिवत्।
।।6.31।।न चैवंभूतो विधिकिंकरः स्यादित्याह सर्वभूतस्थितमिति। सर्वेषु भूतेषु स्थितं मामभेदमास्थित आश्रितो यो भजति स योगी ज्ञानी सन्सर्वथा कर्मत्यागेनापि वर्तमानो मय्येव वर्तते मुच्यते न तु भ्रश्यतीत्यर्थः।
।।6.31।।तृतीयां विपाकदशामाहेत्याह तत इति। अकर्मवश्यत्वाकारेणेश्वरसाम्यदर्शनं पूर्वश्लोकोक्तम्सर्वभूतस्थितं इत्यनेन तु कर्मरूपाविद्यावेष्टनविधुरत्वात् असङ्कुचितज्ञानाकारतया साम्यानुसन्धानम् तत्संस्कारप्रभावेन च व्युत्थानकालेऽपि स्वरसतस्तथाविधानुसन्धानानुवृत्तिश्चेत्येतदुच्यते।यो भजति ৷৷. स सर्वथा वर्तमानोऽपि इत्यनेन कालभेदः सिद्धः न च समाधिदशायामेव यथातथा वर्तमानत्वमुपपद्यते। सर्वभूतस्थितेन परमात्मनैकत्वानुसन्धानं नाम स्वस्यापि सर्वभूतस्थितत्वेन तदेकप्रकारत्वानुसन्धानं तच्चाणोरात्मनः स्वरूपेण न सम्भवति। धर्मतश्च परिशुद्धात्मनो व्याप्तिः वालाग्रः इत्यारभ्य स चानन्त्याय कल्पते श्वे.उ.5।9 इति श्रुतिसिद्धा। सूत्रञ्चप्रदीपवदावेशस्तथाहि दर्शयति ब्र.सू.4।4।15 इति अतोऽत्रापि साम्यं विवक्षितमिति दर्शयितुंअसंकुचितज्ञानकारतयैकत्वमास्थित इत्युक्तम्।प्राकृतभेदपरित्यागेन कर्मोपाधिकप्रकृतिविशेषसंसर्गकृतज्ञानतारतम्यरूपभेदपरित्यागेनेत्यर्थः। अनेनैकत्वोक्तेः स्वरूपभेदनिरासार्थत्वं परिहृतम्। सर्वात्मनां ब्रह्मापृथक्सिद्धत्वविवक्षयाऽप्येकत्वोक्तिश्च घटते। आस्थितशब्दस्य तात्पर्यार्थःसुदृढमिति। ततश्च व्युत्थानकालेऽपि तथाविधानुसन्धानप्रवाहहेतुभूतसंस्कारप्राबल्यं सूचितम्।मां भजति मत्समात्मावलोकनमपि हि मद्भजनमित्यभिप्रायः।सर्वथा इत्यस्य लौकिकक्रियाव्यापृतोऽपीत्यभिप्रायः।मयि वर्तते इत्यस्य परमात्मनि स्थितिर्नार्थः तस्य योग्ययोगिसा धारणत्वात्। अतो वृत्तिरत्र बुद्धिर्वृत्तिरित्यभिप्रायेणाहमामेव पश्यतीति। जीवदर्शनमात्रेण कथं परमात्मदर्शनं इत्यत्राह स्वात्मनीति। व्युत्थानकाले स्वात्मसाक्षात्काराभावेऽपि विशदपरोक्षानुसन्धाने परेषामपि तथात्वसिद्धेः फलितत्वोक्तिरियम्।
।।6.31।।किञ्च यः सर्वभूतस्थितं सर्वजीवेषु रसभोगार्थं वाऽलौकिकेषु निरोधार्थं स्थितं एकत्वं भगवदीयत्वेन सजातीयत्वमास्थितं मां भजति स योगी उच्यते। अथवा सर्वथा तेषु दास्यादिभावशिक्षणार्थं वर्त्तमानो यः स मयि च वर्तते मत्स्वरूपे तिष्ठतीत्यर्थः।
।।6.31।।यस्मात्सर्वात्मैकत्वदर्शी अहमेव अतो नास्य मोक्षः प्रतिबध्यत इत्याह सर्वभूतेति। सर्वोपादानतया सर्वेषु भूतेषु सत्तारूपेण स्फुरणरूपेण च स्थितं मां परमात्मानं एकत्वं जीवब्रह्मणोरैक्यमास्थितः सन् भजति निर्विकल्पेन समाधिना सेवते स योगी व्युत्थानदशायां प्रारब्धकर्मवशाद्बाधितानुवृत्त्या देहमारूढः सर्वथा सर्वप्रकारेण याज्ञवल्क्यादिवत्कर्मत्यागेन वा वसिष्ठजनकादिवद्विहितकर्मणा वा दत्तात्रेयादिवन्निषिद्धकर्मणा वा वर्तमानोऽपि व्यवहरन्नपि मय्येव वर्तते न मत्तश्च्युतो भवति। यतो देवेभ्योऽपि नास्य भयमिति श्रूयतेतस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवति इति च। नेत्यव्ययमप्यर्थे। देवा अपि तस्य ब्रह्मविदः अभूत्यै अनैश्चर्याय न ईशते न समर्था भवन्ति। यतोऽयमेषामात्मा इति श्रुत्यर्थः। स न पुनः संसारी पूर्ववद्भवतीत्यर्थः।
।।6.31।।पूर्वश्लोकार्थं सम्यग्दर्शनं पूर्वोर्धेनामूद्य तत्फलं मोक्षमाह सर्वेति। पूर्वोक्तेन प्रकारेण सर्वेषु ब्रह्मादिभूतेषु प्रत्यग्रूपेण स्थितं मां परमात्मानं वासुदेवं य एकत्वमहमेव वासुदेव इत्येवंरुपमास्थितः सभ्यगपोक्षीकृतवान् स योगी सम्यगदर्शी सर्वथा सर्वप्रकारेण विधिप्रतिषेधार्कैकर्येण वर्तमानोऽपि। अपिशब्देन तस्य रागादिरहितस्य यमनियमादिसंस्कारवतः स्वैरवृत्त्यसंभवेऽपि ज्ञानस्तुत्यर्थं तामङ्गीकरोतीति द्योत्यते मयि वैष्णवे परमे पदे वर्तते स नित्यमुक्त एव मोक्षं प्रति न केनचित्प्रतिबुध्यत इत्यर्थः। यत्तु तदेवं भाक्तानि सुखान्यभिधायार्जुनोपदेशच्छलेन ज्ञानमार्गे लोकानां प्रवृत्तिसिद्धये भाक्तान् ज्ञानयोगिनोऽप्युत्तरोत्तरादिशयेनाह सर्वेति। यत्संन्यासात्प्रागेव गृहस्थः सन् सर्वभूतस्थं सर्वाणि भूतानि कार्यकारणाकारेण परिणतानि तत्स्थं तत्तादात्म्यभ्रमविषय इत्यात्मानं प्रत्यञ्चमीक्षते शास्त्रजन्यापातज्ञानविषयतां नयतीत्येवं सर्वभूतान्यात्मतदात्म्यं भ्रमविषयाणीति शास्त्रजन्यापातज्ञानविषयतां नयति सोऽन्योन्याध्यामज्ञानी अयोगयुक्तोऽपि कर्मयोगज्ञानयोगाभ्यामसंस्पृष्टोऽपि योगिनमभिधाय ततोऽघिकं तमाह य इति। मां सर्वज्ञं सर्वशक्तिकं सर्वत्र पश्यति सर्वभूतोष्वीश्वरो जीवकलया प्रविष्ट इति शास्त्रजन्यापातज्ञानविषयतां नयति तस्यापातत एव ऐकात्म्यज्ञानसंपन्नस्याहं न प्रणश्यामि नान्तःकरणादपयामि स च मे मम संबन्धी सन् मत्प्रसादादेव न प्रणश्यति नानर्थ प्राप्तोतीत्यर्थः। अतः सोऽपि भाक्तो ज्ञानयोगी ज्ञेय इति भावः। ततोऽपि किंचिदधिकं तमाह सर्वेति। एतत्वामास्थिति इति जीवब्रह्मणोरौपाधिको भेद उपाधीनामसत्त्वादित्यापातज्ञानवानित्यर्थः। एवंभूतः सन् यो मां सर्वभूतेषु सेवते स सर्वथा आवर्तमानोऽपि संसारयात्रामनुवर्तनशीलोऽपि योगी ज्ञेयः। यतो मामनुवर्तते मां भजति पूर्वोक्तप्रकारएणेति ज्ञेयम्। तद्यदोरध्याहारेण योज्यमितीतरैः कल्पितं तदसत्। एतादृशकल्पनाया बह्वध्याहारग्रस्ताया अस्वारसिकायाः प्रकरणविरुद्धाया व्यर्थत्वात्।
6.31 सर्वभूतस्थितम् abiding in all beings? यः who? माम् Me? भजति worships? एकत्वम् unity? आस्थितः established? सर्वथा in every way? वर्तमानः remaining? अपि also? सः that? योगी Yogi? मयि in Me? वर्तते abides.Commentary He who has dissolved all duality in the underlying unity? who is thus established in unity? who worships Me? i.e.? who has realised Me as the Self of all? dwells always in Me? whatever his mode of living may be. He is ever liberated.Sadana lived in God though he was a butcher because his mind was ever fixed at the lotus feet of the Lord.
6.31 He who, being established in unity, worships Me Who dwells in all beings, that Yogi abides in Me, whatever may be his mode of living.
6.31 The sage who realises the unity of life and who worships Me in all beings, lives in Me, whatever may be his lot.
6.31 That yogi who, being established in unity, adores Me as existing in all things, he exist in Me-in whatever condition he may be.
6.31 This being so, i.e. after reiterating (in the first line of the present verse) the idea of full realization contained in the previous verse, the result of that (realization), viz Liberation, is being spoken of (in the second line): The yogi, the man of full realization; vartate, exists; mayi, in Me, in the supreme state of Visnu; sarvatha api, in whatever condition; vartamanah, he may be. He is verily ever-free. The idea is that he is not obstructed from Liberation by anything. Furthermore,
6.31. He, who, established firmly in the oneness (of Me), experiences Me immanent in all beings-that man of Yoga, is never stained, in whatever stage he may be.
6.31 Sarva - etc. Whosoever is completely possessed of the knowledge of this kind, he necessarily realises the Bhagavat as one and immanent in all and does not get stained [by any of his actions] is whatever condition he is.
6.31 (iii) The Yogin who, fixed in the state of Yoga in oneness because he has the same form of uncontracted knowledge (as Myself), worships Me steadfastly by renouncing the differences of the Prakrti (i.e., of the body) - then that Yogin, even while coming out of Yoga, howsoever he may live, views Me only, when viewing his own self and all other beings. The meaning is that he views his similarity to Myself in his own self and in the self of all beings. Now Sri Krsna proceeds to speak of the maturest stage beyond this:
6.31 The Yogin who, fixed in oneness, worships Me dwelling in all beings - he abides in Me, howsoever he may live.
।।6.31।।( एकत्व भावमें स्थित हुआ जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें स्थित मुझ वासुदेवको भजता है ) इस प्रकार पहले श्लोकके अर्थरूप यथार्थ ज्ञानका इस आधे श्लोकसे अनुवाद करके उसके फलस्वरूप मोक्षका विधान करते हैं। वह पूर्ण ज्ञानी योगी सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी वैष्णव परमपदरूप मुझ परमेश्वरमें ही बर्तता है अर्थात् वह सदा मुक्त ही है उसके मोक्षको कोई भी रोक नहीं सकता।
।।6.31।। सर्वथा सर्वप्रकारैः वर्तमानोऽपि सम्यग्दर्शी योगी मयि वैष्णवे परमे पदे वर्तते नित्यमुक्त एव सः न मोक्षं प्रति केनचित् प्रतिबध्यते इत्यर्थः।।किञ्च अन्यत्
।।6.31।।यो मां 30 इत्युक्तमेव पुनः किमर्थमुच्यते इत्यत आह एतदेवेति।एकत्वमास्थितः इत्यस्यान्यथाप्रतीतिनिरासार्थमर्थमाह एकत्वमिति।मयि वा मद्विकारे वा वर्तमानोऽपि इत्यपव्याख्याननिरासार्थमाह सर्वेति। न्यायेन वाऽन्यायेन वेत्यर्थः। अपव्याख्याने थाल्प्रत्ययो न युक्त इति भावः। भगवन्तं भजतो धर्माचरणं सर्वथाऽप्यकिञ्चित्करमिति प्रतीतिनिरासायाह एवमिति। अधर्माचरणेऽपीति शेषः। ज्ञानफलं मोक्षः। आनन्दह्रासादिकं तु विद्यत एवेति भावः। ननु ज्ञानिनो मोक्ष एवापेक्षितः सोऽधर्माचरणेऽपि न प्रतिबध्यते चेत् तत्किमधर्मं करोति इत्यत आह तथापीति। सर्वथाऽप्यकरणे सर्वथा वर्तमानोऽपीत्युक्तमयुक्तमित्यत उक्तम् प्राय इति। एतेननहीदृशस्य यथेष्टचेष्टता सम्भवति इति परकीयमस्मद्व्याख्यानदूषणमपि निरस्तं भवति प्रारब्धवशेन कदाचित्तथाभावदर्शनात्। कुतो न करोति इत्यत आह कुर्वतस्त्विति। अत्र प्रमाणमाह आह चेति। कियन्महदिति शेषः। कर्मणः प्रारब्धस्य बाहुल्यात् प्राबल्यात्। लोके प्रवृत्तिकर्मणो बाहुल्येन चित्तविक्षेपादिति वा।
।।6.31।।एतदेव स्पष्टयति सर्वभूतस्थितमिति। एकत्वमास्थितः सर्वत्र एक एवेश्वर इति स्थितः सर्वप्रकारेण वर्तमानोऽपि मय्येव वर्तते। एवमपरोक्षं पश्यतो ज्ञानफलं नियतमित्यर्थः। तथापि प्रायो नाधर्मं करोति कुर्वतस्तु महच्चेद्दुःखसूचकं भवतीत्युक्तं पुरस्तात्। आह चकदाचिदपि नाधर्मे बुद्दिर्विष्णुदृशां भवेत्। प्रमादात्तु कृतं पापं स्वल्पं भस्मीभविष्यति। आदिराजैस्तथा देर्वैः ऋषिभिः क्रियते कियत्। बाहुल्यात्कर्मणस्तेषां दुःखसूचकमेव तत् इति।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।6.31।।
সর্বভূতস্থিতং যো মাং ভজত্যেকত্বমাস্থিতঃ৷ সর্বথা বর্তমানোপি স যোগী মযি বর্ততে৷৷6.31৷৷
সর্বভূতস্থিতং যো মাং ভজত্যেকত্বমাস্থিতঃ৷ সর্বথা বর্তমানোপি স যোগী মযি বর্ততে৷৷6.31৷৷
સર્વભૂતસ્થિતં યો માં ભજત્યેકત્વમાસ્થિતઃ। સર્વથા વર્તમાનોપિ સ યોગી મયિ વર્તતે।।6.31।।
ਸਰ੍ਵਭੂਤਸ੍ਥਿਤਂ ਯੋ ਮਾਂ ਭਜਤ੍ਯੇਕਤ੍ਵਮਾਸ੍ਥਿਤ। ਸਰ੍ਵਥਾ ਵਰ੍ਤਮਾਨੋਪਿ ਸ ਯੋਗੀ ਮਯਿ ਵਰ੍ਤਤੇ।।6.31।।
ಸರ್ವಭೂತಸ್ಥಿತಂ ಯೋ ಮಾಂ ಭಜತ್ಯೇಕತ್ವಮಾಸ್ಥಿತಃ. ಸರ್ವಥಾ ವರ್ತಮಾನೋಪಿ ಸ ಯೋಗೀ ಮಯಿ ವರ್ತತೇ৷৷6.31৷৷
സര്വഭൂതസ്ഥിതം യോ മാം ഭജത്യേകത്വമാസ്ഥിതഃ. സര്വഥാ വര്തമാനോപി സ യോഗീ മയി വര്തതേ৷৷6.31৷৷
ସର୍ବଭୂତସ୍ଥିତଂ ଯୋ ମାଂ ଭଜତ୍ଯେକତ୍ବମାସ୍ଥିତଃ| ସର୍ବଥା ବର୍ତମାନୋପି ସ ଯୋଗୀ ମଯି ବର୍ତତେ||6.31||
sarvabhūtasthitaṅ yō māṅ bhajatyēkatvamāsthitaḥ. sarvathā vartamānō.pi sa yōgī mayi vartatē৷৷6.31৷৷
ஸர்வபூதஸ்திதஂ யோ மாஂ பஜத்யேகத்வமாஸ்திதஃ. ஸர்வதா வர்தமாநோபி ஸ யோகீ மயி வர்ததே৷৷6.31৷৷
సర్వభూతస్థితం యో మాం భజత్యేకత్వమాస్థితః. సర్వథా వర్తమానోపి స యోగీ మయి వర్తతే৷৷6.31৷৷
6.32
6
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।।6.32।। हे अर्जुन ! जो (ध्यानयुक्त ज्ञानी महापुरुष) अपने शरीरकी उपमासे सब जगह अपनेको समान देखता है और सुख अथवा दुःखको भी समान देखता है, वह परम योगी माना गया है।
।।6.32।। हे अर्जुन ! जो पुरुष अपने समान सर्वत्र सम देखता है, चाहे वह सुख हो या दु:ख, वह परम योगी माना गया है।।
।।6.32।। तत्त्वज्ञान और आत्मानुभव में स्थित योगीजन स्वभावत सर्वत्र व्याप्त आत्मा के दर्शन करते हैं। वे सभी कर्मों में आत्मा के वैभव को देखते हैं और जानते हैं कि उपाधियों के द्वारा किये जाने वाले समस्त कर्म आत्मकृपा से ही होते हैं। बाह्य स्थूल और आन्तरिक सूक्ष्म जगत् आत्मा की ही अभिव्यक्ति है।गीता के अनुसार सर्वश्रेष्ठ योगी वह है जो अन्य के सुख एवं दुख को इस प्रकार समझता है जैसे वे उसके अपने ही हों। प्रसिद्ध नैतिक नियम है कि अन्य के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा कि उससे तुम अपेक्षा रखते हो। परन्तु यह नियम सामान्य मनुष्य को अप्रिय लगता है क्योंकि स्वार्थ के कारण वह सोचता है कि क्यों वह दूसरों को अपने ही समान समझे। अज्ञान तथा स्वार्थ के कारण लोगों की स्वाभाविक प्रवृत्ति अनैतिकता की ओर झुक जाती है।पूर्व श्लोकों में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि क्यों हमें प्राणीमात्र से प्रेम करना चाहिए। योगी आत्मसाक्षात्कार के द्वारा समस्त सृष्टि को आत्मा की ही अभिव्यक्ति के रूप में पहचानता है अत सबसे प्रेम होना स्वाभाविक ही है। प्रत्येक मनुष्य को अपने शरीर से तादात्म्य होने के कारण शरीर के समस्त अंगों से उसे एक समान ही प्रेम होता है। यदि अकस्मात् दांतों से जिह्वा कट जाती है तो मनुष्य कभी भी दांतों को दण्ड देने का विचार नहीं करता क्योंकि दांतों में तथा जिह्वा में समान रूप से वह स्वयं व्याप्त है। इसी प्रकार आत्मा को पहचान लेने पर सम्पूर्ण नामरूप की सृष्टि आत्मस्वरूप ही बन जाती है और समस्त कालों में सर्वत्र केवल मैं (आत्मा) ही व्याप्त रहता हूँ।आत्मैकत्व दर्शन करने वाला सिद्ध व्यक्ति ही गीता में परम योगी माना गया है जो समाज को देता अधिक है और लेता कम है। प्रेम उसका श्वास है और करुणा उसकी जीविका।श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञानी पुरुष का जो उपर्युक्त वर्णन शब्दचित्र के माध्यम से किया गया है वह किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर सकता है किन्तु व्यावहारिक बुद्धि का अर्जुन उक्त लक्ष्य को पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है और वह प्रश्न के रूप में अपनी शंका को व्यक्त करता है।यथोक्त सम्यग्दर्शन रूप योग का संपादन दुष्कर जानकर उसकी प्राप्ति का निश्चयात्मक उपाय जानने की इच्छा से अर्जुन कहता है
।।6.32।। व्याख्या--[जिसको इसी अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें 'ब्रह्मभूत' कहा है और जिसको अट्ठाईसवें श्लोकमें 'अत्यन्त सुख' की प्राप्ति होनेकी बात कही है, उस सांख्ययोगीका प्राणियोंके साथ कैसा बर्ताव होता है--इसका इस श्लोकमें वर्णन किया गया है। कारण कि गीताके ब्रह्मभूत सांख्ययोगीका सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें स्वाभाविक ही रति होती है--'सर्वभूतहिते रताः'(5। 25 12। 4)]
।।6.32।।आत्मौपम्येनेति। सर्वस्य च सुखदुःखे आत्मतुल्यतया पश्यतीति स्वरूपमेतदनूदितम् न पुनरेषोऽपूर्वो विधिः।
।।6.32।।आत्मनः च अन्येषां च आत्मनाम् असंकुचितज्ञानैकाकारतया औपम्येन स्वात्मनि च अन्येषु सर्वत्र वर्तमानं पुत्रजन्मादिरूपं सुखं तन्मरणादिरूपं च दुःखम् असम्बन्धसाम्यात् समं यः पश्यति परपुत्रजन्ममरणादिसमं स्वपुत्रजन्ममरणादिकं यः पश्यति इत्यर्थः। स योगी परमयोगकाष्ठं गतो मतः।
।।6.32।।स्वैराचरणस्याप्रतिबन्धकत्वकथनात्परपीडनस्य योगिनः सम्यग्दर्शनं प्रत्यप्रतिबन्धकत्वप्रसक्तावुक्तं किञ्चेति। अन्यदपि किञ्चिदुच्यते परमयोगिनो निर्देशद्वारा योगमाहात्म्यमित्यर्थः। उपमैवोपम्यमात्मा च तदौपम्यं च तेन सर्वभूतेषु यः समं पश्यतीत्युक्ते तदेव समदर्शनं प्रश्नपूर्वकं विवृणोति किमित्यादिना। विकल्पार्थत्वं वारयति वाशब्द इति। उपदर्शितसमदर्शनफलमभिलषति न कस्यचिदिति। किमपेक्षया तस्य परमत्वं तत्राह सर्वेति।
।।6.32।।अतः स एवंविधो योगी परमो मत इत्याह आत्मौपम्येनेति। स्वसादृश्येन सर्वत्र समं दुःखादिकं पश्यन् भवति स परमो योगी मतः।
।।6.32।।एवमुत्पन्नेऽपि तत्त्वबोधे कश्चिन्मनोनाशवासनाक्षययोरभावाज्जीवन्मुक्तिसुखं नानुभवति चित्तविक्षेपेण च दृष्टदुःखमनुभवति सोऽपरमो योगी देहपाते कैवल्यभागित्वाद्देहसद्भावपर्यन्तं च दृष्टदुःखानुभवात् तत्त्वज्ञानमनोनाशवासनाक्षयाणां तु युगपदभ्यासाद्दृष्टदुःखनिवृत्तिपूर्वकं जीवन्मुक्तिसुखमनुभवन्प्रारब्धकर्मवशात्समाधेर्व्युत्थानकाले आत्मैवौपम्यमुपमा तेनात्मदृष्टान्तेन सर्वत्र प्राणिजाते सुखं वा यदि वा दुःखं समं तुल्यं यः पश्यति स्वस्यानिष्टं यथा न संपादयति एवं परस्याप्यनिष्टं यो न संपादयति प्रद्वेषशून्यत्वात् एवंस्वस्येष्टं यथा संपादयति तथा परस्यापीष्टं यः संपादयति रागशून्यत्वात् स निर्वासनतयोपशान्तमनाः योगी ब्रह्मवित् परमः श्रेष्ठो मतः पूर्वस्मात् हे अर्जुन अतस्तत्त्वज्ञानमनोनाशवासनाक्षयाणामाक्रममभ्यासाय महान्प्रयत्न आस्थेय इत्यर्थः। तत्रेदं सर्वं द्वैतजातमद्वितीये चिदानन्दात्मनि मायया कल्पितत्वान्मृषैव आत्मैवैकः परमार्थसत्यः सच्चिदानन्दाद्वयोऽहमस्मीति ज्ञानं तत्त्वज्ञानं प्रदीपज्वालासंतानवद्वृत्तिसंतानरूपेण परिणममानमन्तःकरणद्रव्यं मननात्मकत्वान्मन इत्युच्यते। तस्य नाशो नाम वृत्तिरूपपरिणामं परित्यज्य सर्ववृत्तिविरोधिना निरोधाकारेण परिणामः। पूर्वापरपरामर्शमन्तरेण सहसोत्पद्यमानस्य क्रोधादिवृत्तिविशेषस्य हेतुश्चित्तगतः संस्कारविशेषो वासना पूर्वपूर्वाभ्यासेन चित्ते वास्यमानत्वात्। तस्याः क्षयो नाम विवेकजन्यायां चित्तप्रशमवासनायां दृढायां सत्यपि बाह्ये निमित्ते क्रोधाद्यनुत्पत्तिः। तत्र तत्त्वज्ञाने सति मिथ्याभूते जगति नरविषाणादाविव धीवृत्त्यनुदयादात्मनश्च दृष्टत्वेन पुनर्वृत्त्यनुपयोगान्निरिन्धनाग्निवन्मनो नश्यति। नष्टे च मनसि संस्कारोद्बोधकस्य बाह्यस्य निमित्तस्याप्रतीतौ वासना क्षीयते। क्षीणायां वासनायां हेत्वभावेन क्रोधादिवृत्त्यनुदयान्मनो नश्यति। नष्टे च मनसि शमदमादिसंपत्त्या तत्त्वज्ञानमुदेति। एवमुत्पन्ने तत्त्वज्ञाने रागद्वेषादिरूपा वासना क्षीयते। क्षीणायां च वासनायां प्रतिबन्धाभावात्तत्त्वज्ञानोदय इति परस्परकारणत्वं दर्शनीयम्। अतएव भगवान्वसिष्ठ आहतत्त्वज्ञानं मनोनाशो वासनाक्षय एव च। मिथः करणतां गत्वा दुःसाध्यानि स्थितानि हि।।तस्माद्राघव यत्नेन पौरुषेण विवेकिना। भोगेच्छां दुरतस्त्यक्त्वा त्रयमेतत्समाश्रयेत।। इति। पौरुषो यत्नः केनाप्युपायेनावश्यं संपादयिष्यामीत्येवंविधोत्साहरूपो निर्बन्धः। विवेको नाम विविच्य निश्चयः। तत्त्वज्ञानस्य श्रवणादिकं साधनं मनोनाशस्य योगः वासनाक्षयस्य प्रतिकूलवासनोत्पादनमिति। एतादृशविवेकयुक्तेन पौरुषेण प्रयत्नेन भोगेच्छायाः स्वल्पाया अपि हविषा कृष्णवर्त्मेवेति न्यायेन वासनावृद्धिहेतुत्वाद्दूरत इत्युक्तम्। द्विविधो हि विद्याधिकारी कृतोपास्तिरकृतोपास्तिश्च। तत्र य उपास्यसाक्षात्कारपर्यन्तामुपास्तिं कृत्वा तत्त्वज्ञानाय प्रवृत्तस्तस्य वासनाक्षयमनोनाशयोर्दृढतरत्वेन ज्ञानादूर्ध्वं जीवन्मुक्तिः स्वत एव सिध्यति। इदानींतनस्तु प्रायेणाकृतोपास्तिरेव मुमुक्षुरौत्सुक्यमात्रत्वात्सहसा विद्यायां प्रवर्तते। योगं विना चिज्जडविवेकमात्रेणैव च मनोनाशवासनाक्षयौ तात्कालिकौ संपाद्य शमदमादिसंपत्त्या श्रवणमनननिदिध्यासनानि संपादयति। तैश्च दृढाभ्यस्तैः सर्वबन्धविच्छेदि तत्त्वज्ञानमुदेति। अविद्याग्रन्थिरब्रह्मत्वं हृदयग्रन्थिः संशयाः कर्माणि सर्वकामत्वं मृत्युः पुनर्जन्म चेत्यनेकविधो बन्धो ज्ञानान्निवर्तते। तथाच श्रुयतेयो वेद निहितं गुहायां सोऽविद्याग्रन्थिं विकिरतीह सोम्यब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवतिभिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरेसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मयो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् सोश्नुते सर्वान्कामान्सहतमेव विदित्वातिमृत्युमेतियस्तु विज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदा शुचिः। स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायतेय एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदँ्सर्वं भवति इत्यसर्वज्ञत्वनिवृत्तिफलमुदाहार्यम्। सेयं विदेहमुक्तिः सत्यपि देहे ज्ञानोत्पत्तिसमकालीना ज्ञेया। ब्रह्मण्यविद्याध्यारोपितानामेतेषां बन्धानामविद्यानाशे सति निवृत्तौ पुनरुत्पत्त्यसंभवात्। अतः शैथिल्यहेवभावात्तत्त्वज्ञानं तस्यानुवर्तते। मनोनाशवासनाक्षयौ तु दृढाभ्यासाभावाद्भोगप्रदेन प्रारब्धेन कर्मणा बाध्यमानत्वाच्च सवातप्रदेशप्रदीपवत्सहसा निवर्तते। अत इदानींतनस्य तत्त्वज्ञानिनः प्राक्सिद्धे तत्त्वज्ञाने न प्रयत्नापेक्षा किंतु मनोनाशवासनाक्षयौ प्रयत्नसाध्याविति। तत्र मनोनाशोऽसंप्रज्ञातसमाधिनिरूपणेन निरूपितः प्राक्। वासनाक्षयस्त्विदानीं निरूप्यते। तत्र वासनास्वरूपं वसिष्ठ आहदृढभावनया त्यक्तपूर्वापरविचारणम्। यदादानं पदार्थस्य वासना सा प्रकीर्तिता।। अत्रच स्वस्वदेशाचारकुलधर्मस्वभावभेदतद्गतापशब्दसुशब्दादिषु प्राणिनामभिनिवेशः सामान्येनोदाहरणम्। सा च वासना द्विविधा मलिना शुद्धा च। शुद्धा दैवी सम्पत् शास्त्रसंस्कारप्राबल्यात्तत्त्वज्ञानसाधनत्वेनैकरूपैव। मलिना तु त्रिविधा लोकवासना शास्त्रवासना देहवासना चेति। सर्वे जना यथा न निन्दन्ति तथैवाचरिष्यामीत्यशक्यार्थाभिनिवेशो लोकवासना। तस्याश्चको लोकमाराधयितुं समर्थः इति न्यायेन संपादयितुमशक्यत्वात्पुरुषार्थानुपयोगित्वाच्च मलिनत्वम्। शास्त्रवासना तु त्रिविधा पाठव्यसनं बहुशास्त्रव्यसनं अनुष्ठानव्यसनं चेति क्रमेण भरद्वाजस्य दुर्वाससो निदाघस्य च प्रसिद्धा। मलिनत्वं चास्याः क्लेशावहत्वात्पुरुषार्थानुपयोगित्वाद्दर्पहेतुत्वाज्जन्महेतुत्वाच्च। देहवासनापि त्रिविधा आत्मत्वभ्रान्तिर्गुणाधानभ्रान्तिर्दोषापनयनभ्रान्तिश्चेति। तत्रात्मत्वभ्रान्तिर्विरोचनादिषु प्रसिद्धा सार्वलौकिकी। गुणाधानं द्विविधं लौकिकं शास्त्रीयं च। समीचीनशब्दादिविषयसंपादनं लौकिकं गङ्गास्नानशालग्रामतीर्थादिसंपादनं शास्त्रीयम्। दोषापनयनमपि द्विविधं लौकिकं शास्त्रीयं च। चिकित्सकोक्तैरोषधैर्व्याध्याद्यपनयनं लौकिकम्। वैदिकस्नानाचमनादिभिरशौचाद्यपनयनं वैदिकम्। एतस्याश्च सर्वप्रकाराया मलिनत्वमप्रामाणिकत्वादशक्यत्वात्पुरुषार्थानुपयोगित्वात्पुनर्जन्महेतुत्वाच्च शास्त्रे प्रसिद्धम्। तदेतल्लोकशास्त्रदेहवासनात्रयमविवेकिनामुपादेयत्वेन प्रतिभासमानमपि विविदिषोर्वेदनोत्पत्तिविरोधित्वाद्विदुषो ज्ञाननिष्ठाविरोधित्वाच्च विवेकिभिर्हेयम्। तदेवं बाह्यविषयवासना त्रिविधा निरूपिता। आभ्यन्तरवासना तु कामक्रोधदम्भदर्पाद्यासुरसंपद्रूपा सर्वानर्थमूलं मानसी वासनेत्युच्यते। तदेवं बाह्याभ्यन्तरवासनाचतुष्टयस्य शुद्धवासनया क्षयः संपादनीयः। तदुक्तं वसिष्ठेनमानसीर्वासनाः पूर्वं त्यक्त्वा विषयवासनाः। मैत्र्यादिवासना राम गृहाणामलवासनाः।। इति। तत्र विषयवासनाशब्देन पूर्वोक्तास्तिस्त्रो लोकशास्त्रदेहवासना विवक्षिताः। मानसवासनाशब्देनकामक्रोधदम्भदर्पाद्यासुरसंपद्विवक्षिता। यद्वा शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा विषयाः। तेषां भुज्यमानत्वदशाजन्यः संस्कारो विषयवासना। काम्यमानत्वदशाजन्यः संस्कारो मानसवासना। अस्मिन्पक्षे पूर्वोक्तानां चतसृणामनयोरेवान्तर्भावः बाह्याभ्यन्तरव्यतिरेकेण वासनान्तरासंभवात्। तासां वासनानां परित्यागो नाम तद्विरुद्धमैत्र्यादिवासनोत्पादनम्। ताश्च मैत्र्यादिवासना भगवता पतञ्जलिना सूत्रिताः प्राक् संक्षेपेण व्याख्याता अपि पुनर्व्याख्यायन्ते। चित्तं हि रागद्वेषपुण्यपापैः कलुषीक्रियते। तत्रसुखानुशयी रागः मोहादनुभूयमानं सुखमनुशेते कश्चिद्धीवृत्तिविशेषो राजसः सर्वं सुखजातीयं मे भूयादिति। तच्च दृष्टादृष्टसामग्र्यभावात्संपादयितुमशक्यम्। अतः स रागश्चित्तं कलुषीकरोति। यदा तु सुखिषु प्राणिष्वयं मैत्रीं भावयेत्सर्वेऽप्येते सुखिनो मदीया इति तदा तत्सुखं स्वकीयमेव संपन्नमिति भावयतस्तत्र रागो निवर्तते। यथा स्वस्य राज्यनिवृत्तावापि पुत्रादिराज्यमेव स्वकीयं राज्यं तद्वत्। निवृत्ते च रागे वर्षाव्यपाये जलमिव चित्तं प्रसीदति। तथादुःखानुशयी द्वेषः दुःखमनुशेते कश्चिद्धीवृत्तिविशेषस्तमोनुगतरजःपरिणाम ईदृशं सर्वं दुःखं सर्वदा मे मा भूदिति। तच्च शत्रुव्याघ्रादिषु सत्सु न निवारयितुं शक्यम्। नच सर्वे ते दुःखहेतवो हन्तुं शक्यन्ते। अतः स द्वेषः सदा हृदयं दहति। यदा तु स्वस्येव परेषां सर्वेषामपि दुःखं माभूदिति करुणां दुःखिषु भावयेत्तदा वैर्यादिद्वेषनिवृत्तौ चित्तं प्रसीदति। तथाच स्मर्यतेप्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा। आत्मौपम्येन भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः।। इति। एतदेवेहाप्युक्तं आत्मौपम्येन सर्वत्रेत्यादि। तथा प्राणिनः स्वभावत एव पुण्यं नानुतिष्ठन्ति पापं त्वनुतिष्ठन्ति। तदाहुःपुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः। न पापफलमिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः।। इति। ते च पुण्यपापे अक्रियमाणक्रियमाणे पश्चात्तापं जनयतः। सच श्रुत्यानूदितःकिमहं साधु नाकरवं किमहं पापमकरवम् इति। यद्यसौ पुण्यपुरुषेषु मुदितां भावयेत्तदा तद्वासनावान्स्वयमेवाप्रमत्तोऽशुक्लकृष्णे पुण्ये प्रवर्तते। तदुक्तंकर्माशुक्लकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् अयोगिनां त्रिविधं शुक्लं शुभं कृष्णमशुभं शुक्लकृष्णं शुभाशुभमिति। तथा पापपुरुषेषूपेक्षां भावयन्स्वयमपि तद्वासनावान्पापान्निवर्तते। ततश्च पुण्याकरणपापकरणनिमित्तस्य पश्चात्तापस्याभावे चित्तं प्रसीदति। एवं सुखिषु मैत्रीं भावयतो न केवलं रागो निवर्तते किंत्वसूयेर्ष्यादयोऽपि निवर्तन्ते। परगुणेषु दोषविष्करणमसूया। परगुणानामसहनमीर्ष्या। यदा मैत्रीवशात्परसुखं स्वीयमेव संपन्नं यदा परगुणेषु कथमसूयादिकं संभवेत्। तथा दुःखिषु करुणां भावयतः शत्रुवधादिकरो द्वेषो यदा निवर्तते तदा दुःखित्वप्रतियोगिकस्वसुखित्वप्रयुक्तदर्पोऽपि निवर्तते। एवं दोषान्तरनिवृत्तिरप्यूहनीया वासिष्ठरामायणादिषु। तदेवं तत्त्वज्ञानं मनोनाशो वासनाक्षयश्चेति त्रयमभ्यसनीयम्। तत्र केनापि द्वारेण पुनःपुनस्तत्त्वानुस्मरणं तत्त्वज्ञानाभ्यासः। तदुक्तं वासिष्ठेतच्चिन्तनं तत्कथनमन्योन्यं तत्प्रबोधनम्। एतदेकपरत्वं च ब्रह्माभ्यासं विदुर्बुधाः।।सर्गादावेव नोत्पन्नं दृश्यं नास्त्येव सर्वदा। इदं जगदहं चेति बोधाभ्यासं विदुः परम्।। इति। दृश्यावभासविरोधियोगाभ्यासो मनोनिरोधाभ्यासः। तदुक्तंअत्यन्ताभावसंपत्तौ ज्ञातुर्ज्ञेयस्य वस्तुनः। युक्त्या शास्त्रैर्यतन्ते ये तेऽप्यत्राभ्यासिनः स्थिताः।। इति। ज्ञातृज्ञेययोर्मिथ्यात्वधीरभावसंपत्तिः। स्वरूपेणाप्रतीतिरत्यन्ताभावसंपत्तिस्तदर्थं युक्त्या योगेनदृश्यासंभवबोधेन रागद्वेषादितानवे। रतिर्घनोदिता याऽसौ ब्रह्माभ्यासः स उच्यते।। इति रागद्वेषादिक्षीणतारूपवासनाक्षयाभ्यास उक्तः। तस्मादुपपन्नेमेतत्तत्त्वज्ञानाभ्यासेन मनोनाशाभ्यासेन वासनाक्षयाभ्यासेन च रागद्वेषशून्यतया यः स्वपरसुखदुःखादिषु समदृष्टिः स परमो योगी मतः यस्तु विषमदृष्टिः स तत्त्वज्ञानवानप्यपरमो योगीति।
।।6.32।।एवंच मां भजतां योगिनां मध्ये सर्वभूतानुकम्पी श्रेष्ठ इत्याह आत्मौपम्येनेति। आत्मौपम्येन स्वसादृश्येन यथा मम सुखं प्रियं दुःखं चाप्रियं तथान्येषामपीति सर्वत्र समं पश्यन् सुखमेव सर्वेषां यो वाञ्छति नतु कस्यापि दुःखं स योगी श्रेष्ठो ममाभिमत इत्यर्थः।
।।6.32।।प्रबलदुःखहेत्वागमेऽपि निर्विकारत्वापादिकां योगविपाककाष्ठाभूतां कर्मज्ञानतारतम्यप्रयुक्तसुखदुःखतारतम्यनिवृत्त्यनुसन्धानरूपां चतुर्थीं दशामाहेत्याह ततोऽपि काष्ठामाहेति।आत्मौपम्येन इत्यस्य न पश्यतिनाऽन्वयः सममित्यनेन पौनरुक्त्यप्रसङ्गात्। अतः सर्वत्रात्मौपम्येनेत्यन्वयः। उपमाशब्दस्तुल्यवचनः। तस्य भाव औपम्यं सर्वेषामात्मनां पूर्वोक्तेन देहविलक्षणत्वादिसाम्येनेत्यर्थः।सर्वत्र इत्येतदेव काकाक्षिन्यायेनसमं पश्यति इत्यत्राप्यन्वितम्। सर्वेषामत्यन्तविषमतयाउपलक्ष्यमाणसुखदुःखान्वयसाम्यभ्रमव्युदासेन व्यतिरेकसाम्यानुसन्धानं दर्शयति असम्बन्धसाम्यादिति। परेष्वसम्बन्धानुसन्धानस्य निष्प्रयोजनत्वादिहाभिप्रेतमाह परेति। परंपुत्रजन्मादेः स्वात्मनि स्वपुत्रजन्मादेश्च परेषु यथा न सम्बन्धः तथा स्वात्मन्यपीत्युक्तं भवति। परमशब्दाभिप्रेतमाहपरमयोगकाष्ठां गतो मत इति। जीवात्मयोगकाष्ठेयम् परमात्मयोगस्य परस्ताद्वक्ष्यमाणत्वात्।
।।6.32।।ननु सर्वत्र कथमेकात्मत्वेन वर्तते इत्यत आह आत्मौपम्येनेति। आत्मौपम्येन स्वसादृश्येन यथा स्वस्य कृपया संयोगरसाप्तौ सुखं वियोगरसाप्तौ दुःखं तथा सर्वत्र सर्वजीवेषु सुखं यदि वा दुःखं समं यः पश्यति स योगी मम परम उत्कृष्टो मतोऽभिमत इत्यर्थः। अत्रायं भावः योऽलौकिकसुखदुःखाभिनिविष्टेष्वपि जीवेषु यथा स्वस्य तदंशलेशज्ञानेन सुखदुःखरसानुभवो भवति तथैव सर्वेषामप्यस्ति एवं यस्य सर्वत्रालौकिकस्फूर्तिः स्यात् स उत्तम इति भावः।
।।6.32।।यद्यपि निषिद्धकर्मणाप्यात्मविन्न बध्यते तथापि शीलवानेव योगी श्रेष्ठ इत्याह आत्मौपम्येनेति। यथा स्वस्य सुखमिष्टं दुःखमनिष्टं तद्वत्परस्यापीति बुद्ध्या योऽन्यस्मै दुःखं न प्रयच्छति सोऽहिंसकः परमयोगी मत इत्यर्थः।
।।6.32।।ननु सर्वथा वर्तमानोऽपीत्युक्त्या कस्यचिहुःखहेतुभूतापि तस्य प्रवृत्तिः प्राप्तेति चेत्तर्हि तल्लक्षणं श्रृण्वित्याशयेनाह आत्मेति। आत्मा स्वयमेव उपमाया भाव औपम्ायं तेन यः सर्वेषु भूतेषु। वाशब्दौ चार्थे। सुथं च यच्च दुःखं समं पश्यति यथा मम सुखदुःखे अनुकूलप्रतिकूले तथा सर्वस्यापीति तुल्यतया सर्वत्र समं पश्यति। न कस्यचित्प्रतिकुल माचरति अहिंसक इत्यर्थः। स सर्वेषां योगिनां मध्ये परमः श्रेष्ठो योगी मे मम मतः अमिमतः। तथाच महता प्रय्त्नेनापि परमयोगित्वलाभाय एतलक्षणं संपादनीयमित्याशयः। यद्यपि यः सर्वप्रकारेण वर्तते सोऽपि मुच्यत एव। तथाप्यत्र निषिद्धाद्याचरणात्सकलङ्गो भवति। अयं तु तथात्वाभावादत्रापि निष्कलङ्कः शुद्ध इति सूचयन्नाह अर्जुनेति।
6.32 आत्मौपम्येन through the likeness of the Self? सर्वत्र everywhere? समम् eality? पश्यति sees? यः who? अर्जुन O Arjuna? सुखम् pleasure? वा and? यदि if? वा or? दुःखम् pain? सः he? योगी Yogi? परमः highest? मतः is regarded.Commentary He sees that whatever is pleasure or pain to himself is also pleasure or pain to all other beings. He does not harm anyone. He is ite harmless. He wishes good to all. He is compassionate to all creatures. He has a very soft and large heart. He sees thus eality everywhere as he is endowed with the right knowlede of the Self? as he beholds the Self only everywhere? and as he is established in the unity of the Self. Therefore he is considered as the highest among all Yogis. (Cf.VI.47)
6.32 He who, through the likeness of the Self, O Arjuna, sees eality everywhere, be it pleasure or pain, he is regarded as the highest Yogi.
6.32 O Arjuna! He is the perfect saint who, taught by the likeness within himself, sees the same Self everywhere, whether the outer form be pleasurable or painful.
6.32 O Arjuna, that yogi is considered the best who judges what is happiness and sorrow in all beings by the same standard as he would apply to himself.
6.32 Atma-aupamyena: Atma means the self, i.e. oneself. That by which a comparison is made is an upama. The abstract from of that is aupamya. Atma-aupamya means a standard as would be applicable to oneself. O Arjuna, yah, he who; pasyati, judges; sarvatra, in all beings; samam, by the same standard, in the same manner; atma-aupamyena, as he would apply to himself-. And what does he view with sameness? That is being stated: As sukham, happiness, is dear to me, so also is happiness agreeable to all creatures. Va, and-the word va is (used) in the sense of and; just as yadi, whatever; duhkham, sorrow is unfavourable, unwelcome to me, so also is sorrow unwelcome and unfavourable to all creatures. In this way, he looks upon happiness and sorrow as pleasant and unpleasant to all bengs, by the same standard as he would apply to himself. He does not act against anyone. That is , he is non-injurious. He who is thus non-injurious and steadfast in full Illumination, sah, that yogi; paramah matah, is considered as the best among all the yogis. Noticing that his Yoga-as spoken of and consisting in full Illumination- is hard to acire, Arjuna, with a view to hearing the sure means to its attainment, said:
6.32. Whosoever finds pleasure or pain eally in all as in the case of himself-that person is considered to be a great man of Yoga, O Arjuna !
6.32 Atma-etc. 'That he finds the pleasure and pain of all on analogy of himself'. This is only a statement of characteristic mark [of the Yogin]; and it is not an injunction enjoining a new action.
6.32 (iv) He who - because of the similarity between his own self and other selves, as they are all constituted similarly of uncontracted knowledge in their essential being - views the pleasures in the form of the birth of a son and the sorrows in the form of the death of a son of his own and of others, as eal, on the ground of their eal unrelatedness to such pleasures and pains to him. Viewing his own pleasures and pains of the above description as being not different from those of others of the same kind - tht Yogin is deemed the highest; he is judged as having reached the summit of Yoga. [The idea is to prevent misconstruing the verse as meaning that one shares the joy and misery of all as his own. It means only that the highest type of yogins understand that the self is unrelated to the pain and pleasures of his own body-mind. He understands also that the same is the case with other selves.]
6.32 He who, by reason of the similarity of selves everywhere, sees the pleasure or pain as the same everywhere - that Yogin, O Arjuna, is deemed as the nighest.
।।6.32।।तथा और भी कहते हैं आत्मा अर्थात् स्वयं आप और जिसके द्वारा उपमित किया जाय वह उपमा उस उपमाके भावको ( सादृश्यको ) औपम्य कहते हैं। हे अर्जुन उस आत्मौपम्यद्वारा अर्थात् अपनी सदृशतासे जो योगी सर्वत्र सब भूतोंमें तुल्य देखता है। वह तुल्य क्या देखता है सो कहते हैं जैसे मुझे सुख प्रिय है वैसे ही सभी प्राणियोंको सुख अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय प्रतिकूल है वैसे ही वह सब प्राणियोंको अप्रिय प्रतिकूल है। इस प्रकार जो सब प्राणियोंमें अपने समान ही सुख और दुःखको तुल्यभावसे अनुकूल और प्रतिकूल देखता है किसीके भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता यानी अहिंसक है। यहाँ वा शब्दका प्रयोग च के अर्थमें हुआ है। जो इस प्रकारका अहिंसक पुरुष पूर्ण ज्ञानमें स्थित है वह योगी अन्य सब योगियोंमें परम उत्कृष्ट माना जाता है।
।।6.32।। आत्मौपम्येन आत्मा स्वयमेव उपमीयते अनया इत्युपमा तस्या उपमाया भावः औपम्यं तेन आत्मौपम्येन सर्वत्र सर्वभूतेषु समं तुल्यं पश्यति यः अर्जुन स च किं समं पश्यति इत्युच्यते यथा मम सुखम् इष्टं तथा सर्वप्राणिनां सुखम् अनुकूलम्। वाशब्दः चार्थे। यदि वा यच्च दुःखं मम प्रतिकूलम् अनिष्टं यथा तथा सर्वप्राणिनां दुःखम् अनिष्टं प्रतिकूलं इत्येवम् आत्मौपम्येन सुखदुःखे अनुकूलप्रतिकूले तुल्यतया सर्वभूतेषु समं पश्यति न कस्यचित् प्रतिकूलमाचरति अहिंसक इत्यर्थः। यः एवमहिंसकः सम्यग्दर्शननिष्ठः स योगी परमः उत्कृष्टः मतः अभिप्रेतः सर्वयोगिनां मध्ये।।एतस्य यथोक्तस्य सम्यग्दर्शनलक्षणस्य योगस्य दुःखसंपाद्यतामालक्ष्य शुश्रूषुः ध्रुवं तत्प्राप्त्युपायम् अर्जुन उवाच
।।6.32।।सर्वत्र समदर्शनः 5।29 इत्यस्यान्यथाव्याख्यानमितोऽप्यसदिति भावेनाह साम्यमिति। साम्यदर्शनम्। समदर्शन इत्युक्ते किं गोनवयादिवद्भवति सम्यग्दर्शनमित्याकाङ्क्षायामेकत्वमास्थित इति स्वयमेव व्याख्यातम्। इदानीं तु भगवदनुवर्तिविषयतयाऽपि व्याचष्ट इत्यर्थः।
।।6.32।।साम्यं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे आत्मौपम्येनेति।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।6.32।।
আত্মৌপম্যেন সর্বত্র সমং পশ্যতি যোর্জুন৷ সুখং বা যদি বা দুঃখং সঃ যোগী পরমো মতঃ৷৷6.32৷৷
আত্মৌপম্যেন সর্বত্র সমং পশ্যতি যোর্জুন৷ সুখং বা যদি বা দুঃখং সঃ যোগী পরমো মতঃ৷৷6.32৷৷
આત્મૌપમ્યેન સર્વત્ર સમં પશ્યતિ યોર્જુન। સુખં વા યદિ વા દુઃખં સઃ યોગી પરમો મતઃ।।6.32।।
ਆਤ੍ਮੌਪਮ੍ਯੇਨ ਸਰ੍ਵਤ੍ਰ ਸਮਂ ਪਸ਼੍ਯਤਿ ਯੋਰ੍ਜੁਨ। ਸੁਖਂ ਵਾ ਯਦਿ ਵਾ ਦੁਖਂ ਸ ਯੋਗੀ ਪਰਮੋ ਮਤ।।6.32।।
ಆತ್ಮೌಪಮ್ಯೇನ ಸರ್ವತ್ರ ಸಮಂ ಪಶ್ಯತಿ ಯೋರ್ಜುನ. ಸುಖಂ ವಾ ಯದಿ ವಾ ದುಃಖಂ ಸಃ ಯೋಗೀ ಪರಮೋ ಮತಃ৷৷6.32৷৷
ആത്മൌപമ്യേന സര്വത്ര സമം പശ്യതി യോര്ജുന. സുഖം വാ യദി വാ ദുഃഖം സഃ യോഗീ പരമോ മതഃ৷৷6.32৷৷
ଆତ୍ମୌପମ୍ଯେନ ସର୍ବତ୍ର ସମଂ ପଶ୍ଯତି ଯୋର୍ଜୁନ| ସୁଖଂ ବା ଯଦି ବା ଦୁଃଖଂ ସଃ ଯୋଗୀ ପରମୋ ମତଃ||6.32||
ātmaupamyēna sarvatra samaṅ paśyati yō.rjuna. sukhaṅ vā yadi vā duḥkhaṅ saḥ yōgī paramō mataḥ৷৷6.32৷৷
ஆத்மௌபம்யேந ஸர்வத்ர ஸமஂ பஷ்யதி யோர்ஜுந. ஸுகஂ வா யதி வா துஃகஂ ஸஃ யோகீ பரமோ மதஃ৷৷6.32৷৷
ఆత్మౌపమ్యేన సర్వత్ర సమం పశ్యతి యోర్జున. సుఖం వా యది వా దుఃఖం సః యోగీ పరమో మతః৷৷6.32৷৷
6.33
6
33
।।6.33।। अर्जुन बोले -- हे मधुसूदन ! आपने समतापूर्वक जो यह योग कहा है, मनकी चञ्चलताके कारण मैं इस योगकी स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ।
।।6.33।। अर्जुन ने कहा --  हे मधुसूदन ! जो यह साम्य योग आपने कहा, मैं मन के चंचल होने से इसकी चिरस्थायी स्थिति को नहीं देखता हूं।।
।।6.33।। अत्यन्त व्यावहारिक बुद्धि का आर्य पुरुष होने के नाते अर्जुन क्रियाशील स्वभाव का था। इसलिए उसे किसी काव्यमय सुन्दरता के पूर्ण दर्शन में कोई आकर्षण नहीं था। उसमें जीवन की प्यास थी इसलिए ध्यानयोग में उसे रुचि नहीं थी। अस्तु वह उचित ही प्रश्न पूछता है क्योंकि भगवान् द्वारा अब तक वर्णित तत्त्वज्ञान उसे अव्यावहारिक सा प्रतीत हो रहा था।इस अध्याय में श्रीकृष्ण ने सिद्ध किया है कि दुखसंयोगवियोग ही योग है। तत्प्राप्ति का उपाय मन को विषयों से परावृत्त करके आत्मानुसंधान में प्रवृत्त करना है। सिद्धांत यह है कि आत्मस्वरूप में मन स्थिर होने पर सत्य के अज्ञान से उत्पन्न अहंकार और सभी विपरीत धारणाएं समाप्त होकर साधक मुक्त हो जाता है।योग का लक्ष्य है जीवन की सभी चुनौतियों परिस्थितियों में समत्व भाव को प्राप्त होना जो प्रशंसनीय तो है परन्तु अर्जुन को प्रतीत होता है कि उसकी साधन विधि जीवन की वस्तुस्थिति से सर्वथा भिन्न होने के कारण कविकल्पना के समान अव्यावहारिक है। श्रीकृष्ण द्वारा वर्णित युक्तियों में उसे कोई कड़ी खोई हुई दिखलाई पड़ती है। वह इस विश्वास के साथ भगवान् से प्रश्न पूछता है मानो उनके तत्त्वज्ञान के खोखलेपन को वह सबके समक्ष अनावृत्त कर देगा।कुछ व्यंग के साथ अर्जुन इस समत्व योग की व्यावहारिकता के विषय में सन्देह प्रगट करता है। वेदान्त के विद्यार्थी का यही लक्षण है कि अन्धविश्वास से वह किसी की कही हुई बात को स्वीकार नहीं करता। साधकों की शंकाओं का निराकरण करना गुरु का कर्तव्य है। परन्तु यदि शिष्य को गुरु के उपदेश में कोई कमी या दोष प्रतीत होता है तो प्रश्न पूछते समय उसे अपने प्रश्न का कारण बताना भी अनिवार्य होता है। अर्जुन को समत्व योग का अभ्यास दुष्कर दिखाई दिया जिसका कारण वह बताता है कि मनुष्य मन के चंचल स्वभाव के कारण योग की चिरस्थायी स्थिति नहीं रह सकती।प्रश्न पूछते समय अर्जुन विशेष सावधानी रखता है। वह यह नहीं कहता कि मन का समत्व सर्वथा असंभव है किन्तु उसकी यह शंका है कि वह स्थिति चिरस्थायी नहीं हो सकती। तात्पर्य यह है कि अनेक वर्षों की साधना के फलस्वरूप आत्मानुभव प्राप्त भी होता है तो भी वह क्षणिक ही होगा। यद्यपि वह क्षणिक अनुभव भी आत्मा की पूर्णता में हो सकता है तथापि मन के चंचल स्वभाव के कारण ज्ञानी पुरुष उस अनुभव को स्थायी नहीं बना सकता।अपने प्रश्न को और अधिक स्पष्ट करने के लिए अर्जुन कहता है
।।6.33।। व्याख्या--[मनुष्यके कल्याणके लिये भगवान्ने गीतामें खास बात बतायी कि सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्ति-अप्राप्तिको लेकर चित्तमें समता रहनी चाहिये। इस समतासे मनुष्यका कल्याण होता है। अर्जुन पापोंसे डरते थे तो उनके लिये भगवान्ने कहा कि 'जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर तुम युद्ध करो, फिर तुम्हारेको पाप नहीं लगेगा' (गीता 2। 38)। जैसे दुनियामें बहुत-से पाप होते रहते हैं, पर वे पाप हमें नहीं लगते; क्योंकि उन पापोंमें हमारी विषम-बुद्धि नहीं होती, प्रत्युत समबुद्धि रहती है। ऐसे ही समबुद्धिपूर्वक सांसारिक काम करनेसे कर्मोंसे बन्धन नहीं होता। इसी भावसे भगवान्ने इस अध्यायके आरम्भमें कहा है कि जो कर्मफलका आश्रय न लेकर कर्तव्य-कर्म करता है, वही संन्यासी और योगी है। इसी कर्म-फलत्यागकी सिद्धि भगवान्ने 'समता' बतायी (6। 9)। इस समताकी प्राप्तिके लिये भगवान्ने दसवें श्लोकसे बत्तीसवें श्लोकतक ध्यानयोगका वर्णन किया। इसी ध्यानयोगके वर्णनका लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ अपनी मान्यता प्रकट करते हैं।]
।।6.33 6.34।।योऽयमिति। चञ्चलमिति। यः अयम् इति परोक्षप्रत्यक्षवाचकाभ्यामेवं सूच्यते भगवदभिहितानन्तरोपायपरम्परया स्पुटमपि प्रत्यक्षनिर्दिष्टमपि ब्रह्म मनसः चाञ्चल्यदौरात्म्यात् सुदूरे वर्तते(N. सुदूरीक्रियते) इति परोक्षायमाणम्। प्रमथ्नाति दृष्टादृष्टे बलवत् शक्तम्। दृढं दुष्टव्यापारात्(N द्रष्ट्व्यापारात्) वारयितुम् अशक्यम्।
।।6.33।।अर्जुन उवाच यः अयं देवमनुष्यादिभेदेन जीवेश्वरभेदेन च अत्यन्तभिन्नतया एतावन्तं कालम् अनुभूतेषु सर्वेषु आत्मसु ज्ञानैकाकारतया परस्परसाम्येन अकर्मवश्यतया च ईश्वरसाम्येन सर्वत्र समदर्शनरूपो योगः त्वया उक्तः एतस्य योगस्य स्थिरां स्थितिं न पश्यामि मनसः चञ्चलत्वात्।
।।6.33।।मनश्चञ्चलमस्थिरमित्युपश्रुत्य निर्विशेषे चित्तस्थैर्यं दुःशकमिति मन्वानस्तदुपायबुभुत्सया पृच्छतीति प्रश्नमुत्थापयति एतस्येति। तत्प्राप्त्युपायं शुश्रूषुरिति संबन्धः। मनसश्चञ्चलत्वेऽपि तन्निग्रहद्वारा योगस्थैर्यं संपाद्यतामित्याशङ्क्याह प्रसिद्धमिति।
।।6.33 6.34।।उक्तलक्षणयोगस्यासम्भवं मन्वानोऽर्जुन उवाच द्वाभ्यां योऽयं योग इति। निरोधः चित्तस्य येन साम्येनोक्तः तदेव दुष्करतरं यतः चञ्चलं मन इति। हीत्याग्नीध्रसौभरिप्रभृतीनां तथानाशस्य दृष्टत्वात् प्रसिद्धिरुक्ता। यथाऽऽकाशे दोधूयमानस्य वायोर्घटादिषु निरोधो दुष्करस्तद्वत्।
।।6.33।।उक्तमर्थमाक्षिपन् अर्जुन उवाच योऽयं सर्वत्र समदृष्टिलक्षणः परमो योगः साम्येन समत्वेन चित्तगतानां रागद्वेषादीनां विषमदृष्टिहेतूनां निराकरणेन त्वया सर्वज्ञेनेश्वरेणोक्तः हे मघुसूदन सर्ववैदिकसंप्रदायप्रवर्तक एतस्य त्वदुक्तस्य सर्वमनोवृत्तिनिरोधलक्षणस्य योगस्य स्थितिं विद्यमानतां स्थिरां दीर्घकालानुवर्तिनीं न पश्यामि न संभावयामि अहमस्मद्विधोऽन्यो वा योगाभ्यासनिपुणः। कस्मान्न संभावयसि तत्राह चञ्चलत्वात् मनस इति शेषः।
।।6.33।।उक्तलक्षणस्य योगस्यासंभवं मन्वानोऽर्जुन उवाच योऽयमिति। साम्येन मनसो लयविक्षेपशून्यतया केवलात्माकारावस्थानेन योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त एतस्य योगस्य स्थिरां दीर्घकालं स्थितिं न पश्यामि। मनसश्चञ्चलत्वात्।
।।6.33।।एवं ज्ञानैकाकारतया निर्दोषतया ब्रह्मतद्गुणसम्बन्धेनेतरासम्बन्धेन च साम्यं श्लोकचतुष्टयेनोक्तम् अत्र श्लोकद्वयेन साम्यानुसन्धानोक्तिस्तृतीयचतुर्थश्लोकाभ्यां तु दृढतरदृढतमसाम्यानुसन्धानफलपर्बद्वयोक्तिरित्येके। योगाभ्यासविधिश्चतुर्धा योगी चोक्तः। अथ प्रागुक्तमेव योगसाधनं विशदं ज्ञातुं पुनरर्जुन उवाच योऽयमिति।देवेत्यारभ्य अनुभूतेष्वित्यन्तमनाद्युपचितसुदृढविपरीतवासनया साम्यानुसन्धानस्याशक्यत्वप्रदर्शनार्थम्। परस्परवैषम्यंदेवमनुष्यादिभेदेनेति। जीवेश्वरभेदेन कर्मवश्यत्वाकर्मवश्यत्वादिभेदेनेत्यर्थः।अत्यन्तभिन्नतयेति नह्यत्र खण्डमुण्डादिवत् भेदकधर्ममात्रं किन्तु विरुद्धस्वभावत्वमेव हि दृश्यत इति भावः।एतावन्तं कालमिति।कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे अष्टा.2।3।5 द्वितीया।अकर्मवश्यतया चेश्वरसाम्येनेति चः साम्यद्वयसमुच्चयार्थः। अकर्मवश्यतया चेश्वरसाम्येन चेति कश्चित्पाठः। तदा पूर्वश्चकार ईश्वरसाम्येऽपि ज्ञानैकाकारत्वसङ्ग्रहार्थः। द्वितीयस्तु पूर्ववत्। ज्ञानपुरुषार्थवैषम्ययोः कर्मवैषम्यफलत्वात् अकर्मवश्यतयेत्यनेनैव तयोरपि निवृत्तिसङ्ग्रहः फलित इति तयोरनुपादानम्।त्वया प्रोक्तः स्वतः सर्वज्ञेन त्वयैव ह्येतदनुसन्धातुं प्रवक्तुं च शक्यमिति भावःअहं न पश्यामि इति अनादिभेदानुसन्धानवानजितचित्तश्चाहं न पश्यामीति भावः।स्थिरां स्थितिं चिरानुवृत्तिमित्यर्थः।मधुसूदन रजस्तमोमयप्रबलविरोधिनिरसनशीलस्त्वमेव मनोनिग्रहोपायमुपदिशेति भावः।चञ्चलं हि मनः इत्युत्तरवाक्यानुसन्धानेनमनस इत्यध्याहृतम्।हीति निपातस्य यादवप्रकाशोक्तादचिद्विशेषणार्थत्वादपि स्फुटमुचितं चात्र हेत्वर्थत्वमाह तथा हीति। हेतुभूतं च चलत्वं सम्प्रतिपन्नस्थले प्रदर्शनीयम्। अतश्चलस्वभावत्वमत्र चञ्चलशब्दार्थ इति दर्शयितुंअनवरतेत्यादिकम्। चञ्चलत्वफलमाह पुरुषेणेति। प्रमाथि प्रमथनशीलम्।प्रमथ्य व्याकुलीकृत्येत्यर्थः। बलवच्छब्दः प्रमथनक्रियाविशेषणं वा बलवत्त्वात्प्रमाथीति हेतुपरो वेत्यभिप्रायेणबलात्प्रमथ्येत्युक्तम्। वैपरीत्ये दार्ढ्यमित्याहदृढमन्यत्रेति।तस्य इति परामर्शाभिप्रेतमाहस्वाभ्यस्तेति।तद्विपरीताकारेति अनभ्यस्तपूर्व इत्यर्थः।स्थापयितुं स्थापनार्थम्। दार्ष्टान्तिके मनसि प्रदर्शितस्य चञ्चलत्वादेः दृष्टान्ते विवक्षितत्त्वप्रदर्शनायप्रतिकूलेत्यादिकमुक्तम्। मनोनिग्रहोपायदुर्बलत्वज्ञापनाय वायोर्मन्दैर्निग्रहासम्भावनार्थं चव्यजनादिनेवेत्युक्तम्। एवं दुष्करत्ववचनं न प्रतिक्षेपार्थम्। किन्तूपायपरिप्रश्नार्थमित्याहमन इति।
।।6.33।।उक्तभावसिद्ध्यर्थं साधनमर्जुनः पृच्छति अर्जुन उवाचयोयं योग इति। हे मधुसूदन दुष्टनिराकरणसमर्थ अयं योगस्त्वया साम्येन सुखदुःखसाम्येन स्वसाम्येन सर्वेषु प्रोक्तः। एतस्य योगस्याऽहं अभिमानयुक्तत्वान्मनसश्चञ्चलत्वात् स्थितिं स्थिरां निश्चलां न पश्यामि।
।।6.33।।साम्ययोगमशक्यं मन्वान उपायान्तरबुभुत्सयार्जुन उवाच योऽयमिति। योयं योगस्त्वया साम्येन प्रोक्तोऽहिंसाप्राधान्येन संन्यासपूर्वकतया वर्णितः हे मधुसूदन तस्य योगस्य सर्ववृत्तिनिरोधरूपस्य स्थिरां स्थितिं न पश्यामि। मनसश्चञ्चलत्वादिति शेषः।
।।6.33।।एतादृशं योगमशक्यं मन्यमानस्तदुपायं ध्रुवं जिज्ञासुरर्जुन उवाच। योऽयं साम्येन समत्वलक्षणो योगस्त्वया प्रोक्तएतस्य स्थिरां निश्चलां स्थितिमहं न पश्यामि नोपलमे। चञ्चलत्वान्मनस इति शेषः। मधुसूदनेति संबोधयन् तमोरजसो सूदनेन मम चित्तं त्वमचञ्चलं संपादयितुं समर्थोऽसीति सूचयति।
6.33 यः which? अयम् this? योगः Yoga? त्वया by Thee? प्रोक्तः taught? साम्येन by eanimity? मधुसूदन O slayer of Madhu? एतस्य its? अहम् I? न not? पश्यामि see? चञ्चलत्वात् from restlessness? स्थितिम् continuance? स्थिराम् steady.Commentary As the mind is restless? impetuous and unsteady I find it difficult to practise this Yoga of eanimity declared by Thee. O my Lord? I cannot have steady concentration of the mind? as it wanders here and there in the twinkling of an eye.
6.33 Arjuna said This Yoga of eanimity taught by Thee, O Krishna, I do not see its steady continuance, because of the restlessness (of the mind).
6.33 Arjuna said: I do not see how I can attain this state of equanimity which Thou has revealed, owing to the restlessness of my mind.
6.33 Arjuna said O Madhusudana (Krsna), this Yoga that has been spoken of by You as sameness, I do not see its steady continuance, owing to the restlessness (of the mind).
6.33 O Madhusudana, ayam, this; yogah, Yoga; yah proktah, that has been spoken of; tvaya, by You; samyena, as sameness; na pasyami, I do not see, I cannot conceive;-what?-etasya, its; sthiram, steady, undisturbed; sthitim, continuance; cancalatvat, owing to the unsteadiness of the mind, which is well known.
6.33. Arjuna said This Yoga of eal-mindedness which has been spoken of by You, O slayer of Mandhu, I do not find [any] proper foundation for it, because of the unsteadiness of the mind.
6.33 See Comment under 6.34
6.33 Arjuna said This Yoga as explained by you consists in maintaining eality of vision everywhere, viz., i) among themselves which have been so far known to be of different kinds such as gods and men, and ii) between the individual selves and the Supreme, in so far as (a) all the selves are of the same form of knowledge, and (b) in so far as the individual self (i.e., the released soul) and the Supreme are alike free from Karma. I do not see how this Yoga can be steadily established in my mind, fickle as the mind is.
6.33 Arjuna said This Yoga of eality, which has been declared by You, O Krsna, I do not see that it can be steady because of the fickleness of the mind.
।।6.33।।इस उपर्युक्त पूर्णज्ञानरूप योगको कठिनतासे सम्पादन किया जानेयोग्य समझकर उसकीप्राप्तिके निश्चित उपायको सुननेकी इच्छावाला अर्जुन बोला हे मधुसूदन आपने जो यह समत्वभावरूप योग कहा है मनकी चञ्चलताके कारण मैं इस योगकी अचल स्थिति नहीं देखता हैँ यह बात प्रसिद्ध है।
।।6.33।। यः अयं योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन समत्वेन हे मधुसूदन एतस्य योगस्य अहं न पश्यामि नोपलभे चञ्चलत्वात् मनसः। किम् स्थिराम् अचलां स्थितिम्।।प्रसिद्धमेतत्
।।6.33।।साम्यस्य योगस्य च प्रकृतत्वात् एतस्येति कस्य परामर्शः इति न ज्ञायते अतस्तत्प्रदर्शनाय व्यवहितानां पदानामन्वयमाह एतस्येति। योगस्य प्राधान्येन साम्यस्य तु तृतीययाऽप्राधान्येन प्रकृतत्वादिति भावः। चञ्चलत्वादित्यस्यान्यो धर्मी न प्रतीयतेऽतो योग एव सम्बध्यते। तथा च साध्याविशिष्टतेत्यत आह मनस इति। एतच्चोत्तरवाक्यादवगम्यत इति भावः।
।।6.33।।एतस्य योगस्य स्थिरां स्थितिं न पश्यामि मनसश्चञ्चलत्वात्।
अर्जुन उवाच योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन। एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिं स्थिराम्।।6.33।।
অর্জুন উবাচ যোযং যোগস্ত্বযা প্রোক্তঃ সাম্যেন মধুসূদন৷ এতস্যাহং ন পশ্যামি চঞ্চলত্বাত্ স্থিতিং স্থিরাম্৷৷6.33৷৷
অর্জুন উবাচ যোযং যোগস্ত্বযা প্রোক্তঃ সাম্যেন মধুসূদন৷ এতস্যাহং ন পশ্যামি চঞ্চলত্বাত্ স্থিতিং স্থিরাম্৷৷6.33৷৷
અર્જુન ઉવાચ યોયં યોગસ્ત્વયા પ્રોક્તઃ સામ્યેન મધુસૂદન। એતસ્યાહં ન પશ્યામિ ચઞ્ચલત્વાત્ સ્થિતિં સ્થિરામ્।।6.33।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਯੋਯਂ ਯੋਗਸ੍ਤ੍ਵਯਾ ਪ੍ਰੋਕ੍ਤ ਸਾਮ੍ਯੇਨ ਮਧੁਸੂਦਨ। ਏਤਸ੍ਯਾਹਂ ਨ ਪਸ਼੍ਯਾਮਿ ਚਞ੍ਚਲਤ੍ਵਾਤ੍ ਸ੍ਥਿਤਿਂ ਸ੍ਥਿਰਾਮ੍।।6.33।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಯೋಯಂ ಯೋಗಸ್ತ್ವಯಾ ಪ್ರೋಕ್ತಃ ಸಾಮ್ಯೇನ ಮಧುಸೂದನ. ಏತಸ್ಯಾಹಂ ನ ಪಶ್ಯಾಮಿ ಚಞ್ಚಲತ್ವಾತ್ ಸ್ಥಿತಿಂ ಸ್ಥಿರಾಮ್৷৷6.33৷৷
അര്ജുന ഉവാച യോയം യോഗസ്ത്വയാ പ്രോക്തഃ സാമ്യേന മധുസൂദന. ഏതസ്യാഹം ന പശ്യാമി ചഞ്ചലത്വാത് സ്ഥിതിം സ്ഥിരാമ്৷৷6.33৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ଯୋଯଂ ଯୋଗସ୍ତ୍ବଯା ପ୍ରୋକ୍ତଃ ସାମ୍ଯେନ ମଧୁସୂଦନ| ଏତସ୍ଯାହଂ ନ ପଶ୍ଯାମି ଚଞ୍ଚଲତ୍ବାତ୍ ସ୍ଥିତିଂ ସ୍ଥିରାମ୍||6.33||
arjuna uvāca yō.yaṅ yōgastvayā prōktaḥ sāmyēna madhusūdana. ētasyāhaṅ na paśyāmi cañcalatvāt sthitiṅ sthirām৷৷6.33৷৷
அர்ஜுந உவாச யோயஂ யோகஸ்த்வயா ப்ரோக்தஃ ஸாம்யேந மதுஸூதந. ஏதஸ்யாஹஂ ந பஷ்யாமி சஞ்சலத்வாத் ஸ்திதிஂ ஸ்திராம்৷৷6.33৷৷
అర్జున ఉవాచ యోయం యోగస్త్వయా ప్రోక్తః సామ్యేన మధుసూదన. ఏతస్యాహం న పశ్యామి చఞ్చలత్వాత్ స్థితిం స్థిరామ్৷৷6.33৷৷
6.34
6
34
।।6.34।। क्योंकि हे कृष्ण ! मन बड़ा ही चञ्चल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।
।।6.34।। क्योंकि हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है; उसका निग्रह करना मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ ।।
।।6.34।। आधुनिक विचारधारा का मनुष्य सभी पवित्र शास्त्रों की केवल निन्दा करता है जबकि एक जिज्ञासु साधक भी प्रत्येक शास्त्रोक्त कथन को अन्धविश्वास से स्वीकार नहीं कर लेता वरन् वह प्रश्न भी पूछता है। परन्तु आधुनिक व्यक्ति की निन्दा और जिज्ञासु द्वारा किये गये प्रश्न में जमीन आसमान का अन्तर है। जिज्ञासु का प्रयत्न होता है कि शास्त्र के तात्पर्य को पूर्ण रूप से समझे। अर्जुन अपने मन को सम्यक् प्रकार से जानता है कि वह अति चंचल प्रमथनधर्मी बलवान् और दृढ़ है।प्रमाथि बलवान् और दृढ़ ये तीन शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण और अर्थ गर्भित हैं। प्रमाथि शब्द से वृत्तिप्रवाह की द्रुत गति तथा उसके द्वारा उत्पन्न विक्षेपों की लहराती लहरें भी दर्शायी गयी हैं। अर्जुन कहता है कि यह मन प्रमाथि होने के साथसाथ बलवान् भी है। द्रुत गति का वृत्तिप्रवाह इष्ट विषय की ओर अग्रसर होते हुए उसे प्राप्त होने पर उस विषय के साथ दृढ़ आसक्ति से बंधकर इतना बलवान् हो जाता है कि उसे उस विषय से विलग करना दुष्कर कार्य हो जाता है। उसका तीसरा लक्षण है दृढ़ता अर्थात् एक बार यह स्वेच्छाचारी मन किसी विषय का चिन्तन प्रारम्भ कर दे तो उसे उससे परावृत्त करना सरल कार्य नहीं होता। इन लक्षणों से युक्त मन को किस प्रकार विषय पराङ्मुख करके आत्मा में स्थिर कर सकते हैं जैसा कि ध्यान विधि में बताया गया हैमन की शक्ति और गति भेदकता और व्यापकता को यहाँ प्रयुक्त वायु की उपमा से अधिक सुन्दर तथा प्रभावशाली शैली में व्यक्त नहीं किया जा सकता था। अर्जुन यहाँ श्रीकृष्ण से उन उपायों को जानना चाहता है जिनके द्वारा प्रचण्ड वायु के समान वेग वाले मन को पूर्णतया वश में किया जा सकता है। अर्जुन भगवान् को उनके अत्यन्त सुपरिचित नाम कृष्ण के द्वारा सम्बोधित करता है जो अत्यन्त उपयुक्त है क्योंकि कृष् धातु से कृष्ण शब्द बनता है जिसका अर्थ है जो आत्मानुभवी भक्तों के समस्त दोषों अर्थात् वासनाओं का कर्षण कर लेता है नष्ट कर देता है।स्वप्न में किसी की हत्या करने वाला स्वप्नद्रष्टा जैसे ही जाग्रत् अवस्था में आता है उसके रक्तरंजित हाथ और कलंक की कालिमा तत्काल ही स्वच्छ हो जाती हैं। इसी प्रकार जब आत्मा के वास्तविक रूप की पहचान हो जाती है तब मन और उसकी आक्रामक प्रवृत्तियाँ वासनाएं और उनकी दुष्टता बुद्धि और उसकी खोज की प्रवृत्ति शरीर और उसके भोग ये सभी नष्ट हो जाते हैं। इसके लिए दार्शनिक कवि महर्षि व्यासजी ने महाभारत में इस अन्तरात्मा का चित्रण वृन्दावन के मुरली मनोहर श्याम कृष्ण के रूप में किया है। प्रकरण के सन्दर्भ में किसी विशेष गुण को दर्शाने के लिए व्यक्ति को एक विशेष संज्ञा प्रदान करने की कला संस्कृत भाषा की अपनी विशेषता है जो विश्व की अन्य भाषाओं में नहीं मिलती।अर्जुन के तर्क को स्वीकार करते हुए भगवान् कहते हैं
।।6.34।। व्याख्या--'चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्'--यहाँ भगवान्को 'कृष्ण' सम्बोधन देकर अर्जुन मानो यह कहे रहे हैं कि हे नाथ! आप ही कृपा करके इस मनको खींचकर अपनेमें लगा लें, तो यह मन लग सकता है। मेरेसे तो इसका वशमें होना बड़ा कठिन है! क्योंकि यह मन बड़ा ही चञ्चल है। चञ्चलताके साथ-साथ यह 'प्रमाथि' भी है अर्थात् यह साधकको अपनी स्थितिसे विचलित कर देता है। यह बड़ा जिद्दी और बलवान् भी है। भगवान्ने 'काम'-(कामना-) के रहनेके पाँच स्थान बताये हैं--इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि विषय और स्वयं (गीता 3। 40 3। 34 2। 59)। वास्तवमें काम स्वयंमें अर्थात् चिज्जड़ग्रन्थिमें रहता है और इन्द्रियाँ मन बुद्धि तथा विषयोंमें इसकी प्रतीति होती है। काम जबतक स्वयंसे निवृत्त नहीं होता, तबतक यह काम समय-समयपर इन्द्रियों आदिमें प्रतीत होता रहता है। पर जब यह स्वयंसे निवृत्त हो जाता है, तब इन्द्रियों आदिमें भी यह नहीं रहता। इससे यह सिद्ध होता है कि जबतक स्वयंमें काम रहता है, तबतक मन साधकको व्यथित करता रहता है। अतः यहाँ मनको 'प्रमाथि' बताया गया है। ऐसे ही स्वयंमें काम रहनेके कारण इन्द्रियाँ साधकके मनको व्यथित करती रहती हैं। इसलिये दूसरे अध्यायके साठवें श्लोकमें इन्द्रियोंको भी प्रमाथि बताया गया है--'इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः'। तात्पर्य यह हुआ कि जब कामना मन और इन्द्रियोंमें आती है, तब वह साधकको महान् व्यथित कर देती है, जिससे साधक अपनी स्थितिपर नहीं रह पाता।उस कामके स्वयंमें रहनेके कारण मनका पदार्थोंके प्रति गाढ़ खिंचाव रहता है। इससे मन किसी तरह भी उनकी ओर जानेको छोड़ता नहीं, हठ कर लेता है; अतः मनको दृढ़ कहा है। मनकी यह दृढ़ता बहुत बलवती होती है; अतः मनको 'बलवत्' कहा है। तात्पर्य है कि मन बड़ा बलवान् है, जो कि साधकको जबर्दस्ती विषयोंमें ले जाता है। शास्त्रोंने तो यहाँतक कह दिया है कि मन ही मनष्योंके मोक्ष और बन्धनमें कारण है--'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।'परन्तु मनमें यह प्रमथनशीलता, दृढ़ता और बलवत्ता तभीतक रहती है, जबतक साधक अपनेमेंसे कामको सर्वथा निकाल नहीं देता। जब साधक स्वयं कामरहित हो जाता है, तब पदार्थोंका, विषयोंका कितना ही संसर्ग होनेपर साधकपर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ता। फिर मनकी प्रमथनशीलता आदि नष्ट हो जाती है।मनकी चञ्चलता भी तभीतक बाधक होती है, जबतक स्वयंमें कुछ भी कामका अंश रहता है। कामका अंश सर्वथा निवृत्त होनेपर मनकी चञ्चलता किञ्चिन्मात्र भी बाधक नहीं होती। शास्त्रकारोंने कहा है--
।।6.33 6.34।।योऽयमिति। चञ्चलमिति। यः अयम् इति परोक्षप्रत्यक्षवाचकाभ्यामेवं सूच्यते भगवदभिहितानन्तरोपायपरम्परया स्पुटमपि प्रत्यक्षनिर्दिष्टमपि ब्रह्म मनसः चाञ्चल्यदौरात्म्यात् सुदूरे वर्तते(N. सुदूरीक्रियते) इति परोक्षायमाणम्। प्रमथ्नाति दृष्टादृष्टे बलवत् शक्तम्। दृढं दुष्टव्यापारात्(N द्रष्ट्व्यापारात्) वारयितुम् अशक्यम्।
।।6.34।।तथा हि अनवरताभ्यस्तविषयेषु अपि स्वत एव चञ्चलं पुरुषेण एकत्र स्थापयितुम् अशक्यं मनः पुरुषं बलात् प्रमथ्य दृढम् अन्यत्र चरति। तस्य स्वाभ्यस्तविषयेषु अपि चञ्चलस्वभावस्य मनसः तद्विपरीताकारात्मनि स्थापयितुं निग्रहं प्रतिकूलगतेः महावातस्य व्यजनादिना इव सुदुष्करम् अहं मन्ये। मनोनिग्रहोपायो वक्तव्य इत्यभिप्रायः।
।।6.34।।कृष्णपदपरिनिष्पत्तिप्रकारं सूचयति कृष्णेतीति। कथं कर्षकत्वमाप्तकामस्य भगवतः संभवतीत्याशङ्क्याह भक्तेति। ऐहिकामुष्मिकसर्वसंपदामाकर्षणशीलत्वाच्चेति द्रष्टव्यम्। प्रमथ्नाति क्षोभयति। तदेव क्षोभकत्वं प्रकटयति विक्षिपतीति। दुर्निवारत्वमभिप्रेताद्विषयादाक्रष्टुमशक्यत्वं विशेषणान्तरमाह किञ्चेति। अच्छेद्यत्वं विशेषणान्तरमाह किञ्चदृढमिति। तन्तुनागो वरुणपाशशब्दितो जलचारी पदार्थोऽत्यन्तदृढतया छेत्तुमशक्यत्वेन प्रसिद्धो विवक्षितः। वायोरित्युक्तं व्यनक्ति यथेति।
।।6.33 6.34।।उक्तलक्षणयोगस्यासम्भवं मन्वानोऽर्जुन उवाच द्वाभ्यां योऽयं योग इति। निरोधः चित्तस्य येन साम्येनोक्तः तदेव दुष्करतरं यतः चञ्चलं मन इति। हीत्याग्नीध्रसौभरिप्रभृतीनां तथानाशस्य दृष्टत्वात् प्रसिद्धिरुक्ता। यथाऽऽकाशे दोधूयमानस्य वायोर्घटादिषु निरोधो दुष्करस्तद्वत्।
।।6.34।।सर्वलोकप्रसिद्धत्वेन तदेव चञ्चलत्वमुपपादयति चञ्चलं अत्यर्थं चलं सदा चलनस्वभावं मनः हि प्रसिद्धमेवैतत्। भक्तानां पापादिदोषान्सर्वथा निवारयितुमशक्यानपि कृषति निवारयति तेषामेव सर्वथा प्राप्तुमशक्यानपि पुरुषार्थानाकर्षति प्रापयतीति वा कृष्णः तेन रूपेण संबोधयन् दुर्निवारमपि चित्तचाञ्चल्यं निवार्य दुष्प्रापमपि समाधिसुखं त्वमेव प्रापयितुं शक्नोषीति सूचयति। न केवलमत्यर्थं चञ्चलं किंतु प्रमाथि शरीरमिन्द्रियाणि च प्रमथितुं क्षोभयितुं शीलं यस्य तत्। क्षोभकतया शरीरेन्द्रियसंघातस्य विवशताहेतुरित्यर्थः। किंच बलवत् अभिप्रेताद्विषयात्केनाप्युपायेन निवारयितुमशक्यम्। किंच दृढं विषयवासनासहस्त्रानुस्यूततया भेत्तुमशक्यम्। तन्तुनागवदच्छेद्यमिति भाष्ये। तन्तुनागो नागपाशः।तांतनी इति गुर्जरादौ प्रसिद्धो महाह्रदनिवासी जन्तुविशेषो वा। तस्यादिदृढतया बलवतो बलवत्तया प्रमाथिनः प्रमाथितयाऽतिचञ्चलस्य महामत्तवनगजस्येव मनोनिग्रहं निरोधं निर्वृत्तिकतयावस्थानं सुदुष्करं सर्वथा कर्तुमशक्यमहं मन्ये वायोरिव। यथाकाशे दोधूयमानस्य वायोर्निश्चलत्वं संपाद्य निरोधनमशक्यं तद्वदित्यर्थः। अयं भावः जातेऽपि तत्त्वज्ञाने प्रारब्धकर्मभोगाय जीवतः पुरुषस्य कर्तृत्वभोक्तृत्वसुखदुःखरागद्वेषादिलक्षणश्चित्तधर्मः क्लेशहेतुत्वाद्बाधितानुवृत्त्यापि बन्धो भवति। चित्तवृत्तिनिरोधरूपेणतु योगेन तस्य निवारणं जीवन्मुक्तिरित्युच्यते। यस्याः संपादनेन स योगी परमो मत इत्युक्तम् तत्रेदमुच्यते बन्धः किं साक्षिणो निवार्यते किं वा चित्तात्। नाद्यः। तत्त्वज्ञानेनैव साक्षिणो बन्धस्य निवारितत्वात्। न द्वितीयः। स्वभावविपर्ययायोगात् विरोधिसद्भावाच्च। नहि जलादार्द्रत्वमग्नेर्वोष्णत्वं निवारयितुं शक्यतेप्रतिक्षणपरिणामिनो हि भावा ऋते चितिशक्तेः इति न्यायेन प्रतिक्षणपरिणामस्वभावत्वाच्चित्तस्य प्रारब्धभोगेन च कर्मणा कृत्स्नाऽविद्यातत्कार्यनाशने प्रवृत्तस्य तत्त्वज्ञानस्यापि प्रतिबन्धं कृत्वा स्वफलदानाय देहेन्द्रियादिकमवस्थापितम्। नच कर्मणा स्वफलसुखदुःखादिभोगश्चित्तवृत्तिभिर्विना संपादयितुं शक्यते। तस्माद्यद्यपि स्वाभाविकानामपि चित्तपरिणामानां कथंचिद्योगेनाभिभवः शक्येत कर्तुं तथापि तत्त्वज्ञानादिव योगादपि प्रारब्धफलस्य कर्मणः प्राबल्यादवश्यंभाविनि चित्तस्य चाञ्चल्ये योगेन तन्निवारणमशक्यमहं स्वबोधादेव मन्ये। तस्मादनुपपन्नमेतदात्मौपम्येन सर्वत्र समदर्शी परमो योगी मत इत्यर्जुनस्याक्षेपः।
।।6.34।।एतत्स्फुटयति चञ्चलमिति। चञ्चलं स्वभावेनैव चपलम्। किंच प्रमाथि प्रमथनशीलं देहेन्द्रियक्षोभकमित्यर्थः। किंच बलवद्विचारेणापि जेतुमशक्यम्। किंच दृढं विषयवासनानुबद्धतया दुर्भेद्यम्। अतो यथाकाशे दोधूयमानस्य वायोः कुम्भादिषु निरोधनमशक्यं तथा तस्य मनसोऽपि निग्रहं निरोधं सुदुष्करं सर्वथा कर्तुमशक्यं मन्ये।
।। 6.34 एवं ज्ञानैकाकारतया निर्दोषतया ब्रह्मतद्गुणसम्बन्धेनेतरासम्बन्धेन च साम्यं श्लोकचतुष्टयेनोक्तम् अत्र श्लोकद्वयेन साम्यानुसन्धानोक्तिस्तृतीयचतुर्थश्लोकाभ्यां तु दृढतरदृढतमसाम्यानुसन्धानफलपर्बद्वयोक्तिरित्येके। योगाभ्यासविधिश्चतुर्धा योगी चोक्तः। अथ प्रागुक्तमेव योगसाधनं विशदं ज्ञातुं पुनरर्जुन उवाच योऽयमिति।देवेत्यारभ्य अनुभूतेष्वित्यन्तमनाद्युपचितसुदृढविपरीतवासनया साम्यानुसन्धानस्याशक्यत्वप्रदर्शनार्थम्। परस्परवैषम्यंदेवमनुष्यादिभेदेनेति। जीवेश्वरभेदेन कर्मवश्यत्वाकर्मवश्यत्वादिभेदेनेत्यर्थः।अत्यन्तभिन्नतयेति नह्यत्र खण्डमुण्डादिवत् भेदकधर्ममात्रं किन्तु विरुद्धस्वभावत्वमेव हि दृश्यत इति भावः।एतावन्तं कालमिति।कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे अष्टा.2।3।5 द्वितीया।अकर्मवश्यतया चेश्वरसाम्येनेति चः साम्यद्वयसमुच्चयार्थः। अकर्मवश्यतया चेश्वरसाम्येन चेति कश्चित्पाठः। तदा पूर्वश्चकार ईश्वरसाम्येऽपि ज्ञानैकाकारत्वसङ्ग्रहार्थः। द्वितीयस्तु पूर्ववत्। ज्ञानपुरुषार्थवैषम्ययोः कर्मवैषम्यफलत्वात् अकर्मवश्यतयेत्यनेनैव तयोरपि निवृत्तिसङ्ग्रहः फलित इति तयोरनुपादानम्।त्वया प्रोक्तः स्वतः सर्वज्ञेन त्वयैव ह्येतदनुसन्धातुं प्रवक्तुं च शक्यमिति भावःअहं न पश्यामि इति अनादिभेदानुसन्धानवानजितचित्तश्चाहं न पश्यामीति भावः।स्थिरां स्थितिं चिरानुवृत्तिमित्यर्थः।मधुसूदन रजस्तमोमयप्रबलविरोधिनिरसनशीलस्त्वमेव मनोनिग्रहोपायमुपदिशेति भावः।चञ्चलं हि मनः इत्युत्तरवाक्यानुसन्धानेनमनस इत्यध्याहृतम्।हीति निपातस्य यादवप्रकाशोक्तादचिद्विशेषणार्थत्वादपि स्फुटमुचितं चात्र हेत्वर्थत्वमाह तथा हीति। हेतुभूतं च चलत्वं सम्प्रतिपन्नस्थले प्रदर्शनीयम्। अतश्चलस्वभावत्वमत्र चञ्चलशब्दार्थ इति दर्शयितुंअनवरतेत्यादिकम्। चञ्चलत्वफलमाह पुरुषेणेति। प्रमाथि प्रमथनशीलम्।प्रमथ्य व्याकुलीकृत्येत्यर्थः। बलवच्छब्दः प्रमथनक्रियाविशेषणं वा बलवत्त्वात्प्रमाथीति हेतुपरो वेत्यभिप्रायेणबलात्प्रमथ्येत्युक्तम्। वैपरीत्ये दार्ढ्यमित्याहदृढमन्यत्रेति।तस्य इति परामर्शाभिप्रेतमाहस्वाभ्यस्तेति।तद्विपरीताकारेति अनभ्यस्तपूर्व इत्यर्थः।स्थापयितुं स्थापनार्थम्। दार्ष्टान्तिके मनसि प्रदर्शितस्य चञ्चलत्वादेः दृष्टान्ते विवक्षितत्त्वप्रदर्शनायप्रतिकूलेत्यादिकमुक्तम्। मनोनिग्रहोपायदुर्बलत्वज्ञापनाय वायोर्मन्दैर्निग्रहासम्भावनार्थं चव्यजनादिनेवेत्युक्तम्। एवं दुष्करत्ववचनं न प्रतिक्षेपार्थम्। किन्तूपायपरिप्रश्नार्थमित्याहमन इति।
।।6.34।।मनसश्चाञ्चल्यमेवाह चञ्चलं हीति। हे कृष्ण सदानन्द मनो हीति निश्चयेन चञ्चलं स्वभावत एव चपलम् अन्यथा सदानन्दोक्तौ कथं पुनः प्रश्नार्थमहमुद्युक्तः इति कृष्णेति सम्बोधनेन ज्ञापितम्। किञ्च प्रमाथि प्रकर्षेण मथनशीलं इन्द्रियक्षोभकम्। किञ्च बलवत् अतिप्रबलं ज्ञानादिवचनासाध्यम्। किञ्च दृढं स्वविषयानुरागाऽत्यागस्वभावम्। तस्य मनसो निग्रहं वशीकरणं आकाशे दोधूयमानस्य स्वसुखार्थं तापनिवारणाय गृहादिषु वायोरिव निरोधनं सुदुष्करं सर्वथा कर्त्तुमशक्यमहं मन्ये। यद्वा वायोः प्राणवायोर्गच्छतो निरोधमशक्यं मन्य इति भावः।
।।6.34।।एतदेवोपपादयति चञ्चलं हीति। प्रमाथि बहुदस्युवदेकस्य प्रमथनशीलम्।
।।6.34।।मनसश्चञ्चलत्वं प्रसिद्धमित्याह। चञ्चलमं प्रसिद्धं मनः भक्तजनमायाकर्षणात्कृष्णं कूर्विति सूचयति। न केवलमत्यन्तचञ्चलमे वापि तु प्रमाथि च प्रमथाति विक्षिपति परवशीकरोति देहेन्द्रियादीनीति प्रमाथि प्रमथनशीलम्। किंच बलवत्तरं केनचिन्नियन्तु मशक्यम्। किंच दृढं नागापाशवदच्छेद्यं तस्यैवंभूतस्य मनसो निग्रहं वायुनिग्रहमिव सुदुष्करमतिकष्टरमहं मन्ये स्वबुद्य्धा जानामि। चञ्चलमितिविशेषणेन साम्यरुपस्य योगस्य स्थिरां स्थितिं कर्तुमयोग्यमित्युक्तम्। इन्द्रियानिग्रहेण तस्याचञ्चलत्वं संपादनीयमित्याशङ्का प्रमाथीत्युक्तम्। बलवदित्यनेन प्रमथनसामर्थ्यं मनसः प्रदर्शितम्। दृढमिति विषलाम्बट्यात् विच्छेत्तुमशक्यमिति विवेकः।
6.34 चञ्चलम् restless? हि verily? मनः the mind? कृष्ण O Krishna? प्रमाथि turbulent? बलवत् strong? दृढम् unyielding? तस्य of it? अहम् I? निग्रहम् control? मन्ये think? वायोः of the wind? इव as? सुदुष्करम् difficult to do.Commentary The mind constantly changes its objects and so it is ever restless.Krishna is derived from Krish which means to scrape. He scrapes all the sins? evils? and the causes of evil from the hearts of His devotees. Therefore He is called Krishna.The mind is not only restless but also turbulent or impetuous? strong and obstinate. It produces violent agitation in the body and the senses. The mind is drawn by the objects in all directions. It works always in conjunction with the five senses. It is drawn by them to the five kinds of objects. Therefore it is ever restless. It enjoys the five kinds of sensobjects with the help of these senses and the body. Therefore it makes them subject to external influences. It is even more difficult to control it than to control the wind. The mind is born of Vayutanmatra (wind rootelement). That is the reason why it is as restless as the wind.
6.34 The mind verily is restless, turbulent, strong and unyielding, O Krishna: I deem it as difficult to control it as to control the wind.
6.34 My Lord! Verily, the mind is fickle and turbulent, obstinate and strong, yea extremely difficult as the wind to control.
6.34 For, O Krsna, the mind is unsteady, turbulent, strong and obstinate. I consider its control to be as greatly difficult as of the wind.
6.34 Hi, for, O Krsna-the word krsna is derived from the root krs [Another derivative meaning may be-'the capacity to draw towards Himself all glorious things of this and the other world'.], in the sense of 'uprooting'; He is Krsna because He uproots the defects such as sin etc. of devotees-; manah, the mind; is cancalam, unsteady. Not only is it very unsteady, it is also pramathi, turbulent. It torments, agitates, the body and the organs. It brings them under extraneous control. Besides, it is balavat, strong, not amenable ot anybody's restraint. Again, it is drdham, obstinate, hard as the (large shark called) Tantu-naga (also known as Varjuna-pasa). Aham, I; manye, consider; tasya, its-of the mind which is of this kind; nigrahah, control, restraint; to be (suduskaram, greatly difficult;) vayoh iva, as of the wind. Control of the wind is difficult. I consider the control of the mind to be even more difficult than that. This is the idea. 'This is just as you say.'
6.34. O Krsna ! The mind is indeed unsteady, destructive, strong and obstinate; to control it, I believe, is very difficult, just as to control the wind.
6.33-34 Yo' Yam etc. Cancalam etc. By this and which, the two words denoting [respectively] what is actually perceived and what is not perceived, the following is indicated : Thanks to the series of methods spoken just before by the Bhagavat, the Brahman is of course clear and has been no doubt shown as if by perception. Yet, It remains at agreat distance due to the unsteadiness and wickedness of the mind, and It behaves as if It is beyond perception. [Destructive] : The mind destroys both the visible and invisible [ends of man's action]. Strong : Powerful. Obstinate : impossible to ward off from evil acts. Now the answer -
6.34 For the mind, which is found to be fickle even in matters incessantly practised, cannot be firmly fixed by a person in one place. It agitates that person violently and flies away stubbornly elsewhere. Regarding such a mind, which by nature is fickle even in matters practised, I regard that its restraint and fixing in the self, which is of ite opposite nature, is as difficult as restraining a strong contrary gale with such things as a fragile fan etc. The meaning is that the means for the restraint of the mind should be explained.
6.34 For the mind is fickle, O Krsna, impetuous, powerful and stubborn. I think that restraint of it is as difficult as that of the wind.
।।6.34।।क्योंकि हे कृष्ण यह मन बड़ा ही चञ्चल है। विलेखनके अर्थमें जो कृष धातु है उसका रूप कृष्ण है। भक्तजनोंके पापादि दोषोंको निवृत्त करनेवाले होनेके कारण भगवान्का नाम कृष्ण है। यह मन केवल अत्यन्त चञ्चल है इतना ही नही किंतु प्रमथनशील भी है अर्थात् शरीरको क्षुब्ध और इन्द्रियोंको विक्षिप्त यानी परवश कर देता है। तथा बड़ा बलवान् है किसीसे भी वशमें किया जाना अशक्य है। साथ ही यह बड़ा दृढ़ भी है। अर्थात् तन्तुनाग ( गोह ) नामक जलचर जीवकी भाँति अच्छेद्य है। ऐसे लक्षणोंवाले इस मनका विरोध करना मैं वायुकी भाँति दुष्कर मानता हूँ। अभिप्राय यह कि जैसे वायुका रोकना दुष्कर है उससे भी अधिक दुष्कर मैं मनका रोकना मानता हूँ।
।।6.34।। चञ्चलं हि मनः कृष्ण इति कृष्यतेः विलेखनार्थस्य रूपम्। भक्तजनपापादिदोषाकर्षणात् कृष्णः तस्य संबुद्धिः हे कृष्ण। हि यस्मात् मनः चञ्चलं न केवलमत्यर्थं चञ्चलम् प्रमाथि च प्रमथनशीलम् प्रमथ्नाति शरीरम् इन्द्रियाणि च विक्षिपत् सत् परवशीकरोति। किञ्च बलवत् प्रबलम् न केनचित् नियन्तुं शक्यम् दुर्निवारत्वात्। किञ्च दृढं तन्तुनागवत् अच्छेद्यम्। तस्य एवंभूतस्य मनसः अहं निग्रहं निरोधं मन्ये वायोरिव यथा वायोः दुष्करो निग्रहः ततोऽपि दुष्करं मन्ये इत्यभिप्रायः।।श्रीभगवानुवाच एवम् एतत् यथा ब्रवीषि श्रीभगवानुवाच
।।6.34।।अत्रागमं चाह उक्तं चेति। एतेनअसंशयं 6।35 इति परिहारवाक्यमपि व्याख्यातम्।
।।6.34।।उक्तं च मनसश्चञ्चलत्वाद्धि स्थितिर्योगस्य वै स्थिरा। विनाऽभ्यासान्न शक्या स्याद्वैराग्याद्वा न संशयः इति व्यासयोगे।
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।6.34।।
চঞ্চলং হি মনঃ কৃষ্ণ প্রমাথি বলবদ্দৃঢম্৷ তস্যাহং নিগ্রহং মন্যে বাযোরিব সুদুষ্করম্৷৷6.34৷৷
চঞ্চলং হি মনঃ কৃষ্ণ প্রমাথি বলবদ্দৃঢম্৷ তস্যাহং নিগ্রহং মন্যে বাযোরিব সুদুষ্করম্৷৷6.34৷৷
ચઞ્ચલં હિ મનઃ કૃષ્ણ પ્રમાથિ બલવદ્દૃઢમ્। તસ્યાહં નિગ્રહં મન્યે વાયોરિવ સુદુષ્કરમ્।।6.34।।
ਚਞ੍ਚਲਂ ਹਿ ਮਨ ਕਰਿਸ਼੍ਣ ਪ੍ਰਮਾਥਿ ਬਲਵਦ੍ਦਰਿਢਮ੍। ਤਸ੍ਯਾਹਂ ਨਿਗ੍ਰਹਂ ਮਨ੍ਯੇ ਵਾਯੋਰਿਵ ਸੁਦੁਸ਼੍ਕਰਮ੍।।6.34।।
ಚಞ್ಚಲಂ ಹಿ ಮನಃ ಕೃಷ್ಣ ಪ್ರಮಾಥಿ ಬಲವದ್ದೃಢಮ್. ತಸ್ಯಾಹಂ ನಿಗ್ರಹಂ ಮನ್ಯೇ ವಾಯೋರಿವ ಸುದುಷ್ಕರಮ್৷৷6.34৷৷
ചഞ്ചലം ഹി മനഃ കൃഷ്ണ പ്രമാഥി ബലവദ്ദൃഢമ്. തസ്യാഹം നിഗ്രഹം മന്യേ വായോരിവ സുദുഷ്കരമ്৷৷6.34৷৷
ଚଞ୍ଚଲଂ ହି ମନଃ କୃଷ୍ଣ ପ୍ରମାଥି ବଲବଦ୍ଦୃଢମ୍| ତସ୍ଯାହଂ ନିଗ୍ରହଂ ମନ୍ଯେ ବାଯୋରିବ ସୁଦୁଷ୍କରମ୍||6.34||
cañcalaṅ hi manaḥ kṛṣṇa pramāthi balavaddṛḍham. tasyāhaṅ nigrahaṅ manyē vāyōriva suduṣkaram৷৷6.34৷৷
சஞ்சலஂ ஹி மநஃ கரிஷ்ண ப்ரமாதி பலவத்தரிடம். தஸ்யாஹஂ நிக்ரஹஂ மந்யே வாயோரிவ ஸுதுஷ்கரம்৷৷6.34৷৷
చఞ్చలం హి మనః కృష్ణ ప్రమాథి బలవద్దృఢమ్. తస్యాహం నిగ్రహం మన్యే వాయోరివ సుదుష్కరమ్৷৷6.34৷৷
6.35
6
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।।6.35।। श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो ! यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है -- यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन ! अभ्यास और वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।
।।6.35।। श्रीभगवान् कहते हैं --  हे महबाहो ! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है; परन्तु, हे कुन्तीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।।
।।6.35।। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को पूर्णरूप से जानते थे वह एक वीर योद्धा कर्मशील साहसी और यथार्थवादी पुरुष था। ऐसे असामान्य व्यक्तित्व का पुरुष जब गुरु के उपदिष्ट तत्त्वज्ञान से सहमत होकर उसकी सत्यता या व्यावहारिकता के विषय में सन्देह करता है तब गुरु में भी मन के सन्तुलन तथा शिष्य की विद्रोही बुद्धि को समझने और समझाने की असाधारण क्षमता का होना आवश्यक होता है। गीता में इस स्थान पर संक्षेप में स्थिति यह है कि भगवान् के उपदेशानुसार मन के स्थिर होने पर आत्मानुभूति होती है जबकि अर्जुन का कहना है कि चंचल मन स्थिर नहीं हो सकता अत आत्मानुभूति भी असंभव है।जब अर्जुन के समान समर्थ व्यक्ति किसी विचार को अपने मन में दृढ़ कर लेता है तो उसे समझाने का सर्वोत्तम उपाय है प्रारम्भ में उसके विचार को मान लेना। विजय के लिए सन्धि दार्शनिक शास्त्रार्थ में सफलता का रहस्य है और विशेषकर इस प्रकार पूर्वाग्रहों से पूर्ण स्थिति में जो अज्ञानी के लिए स्वाभाविक होती है। इस प्रकार महान मनोवैज्ञानिक श्रीकृष्ण प्रश्न के उत्तर में असंशयं कहकर प्रथम शब्द से ही अपने शक्तिशाली प्रतिस्पर्धी को निशस्त्र कर देते हैं और फिर महाबाहो के सम्बोधन से उसके अभिमान को जाग्रत करते हैं। भगवान् स्वीकार करते हैं कि मन का निग्रह करना कठिन है और इसलिए मन की स्थायी शान्ति और समता सरलता से प्राप्त नहीं हो सकती।इस स्वीकारोक्ति से अर्जुन प्रशंसित होता है। महाबाहो शब्द से उसे स्मरण कराते हैं कि वह एक वीर योद्धा है। भगवान् के कथन में व्यंग का पुट स्पष्ट झलकता है दुष्कर और असाध्य कार्य को सम्पन्न कर दिखाने में ही एक शक्तिशाली पुरुष की महानता होती है न कि अपने ही आंगन के उपवन के कुछ फूल तोड़कर लाने में निसन्देह मन एक शक्ति सम्पन्न शत्रु है परन्तु जितना बड़ा शत्रु होगा उस पर प्राप्त विजय भी उतनी ही श्रेष्ठ होगी।दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण सावधानीपूर्वक चुने हुए उपयुक्त शब्दों का प्रयोग करते हैं जिससे अर्जुन का मन शान्त और स्थिर हो सके ।हे कौन्तेय मन को वश में किया जा सकता है। अभ्यास और वैराग्य के द्वारा प्रारम्भ में उसे वश में करके पूर्णतया आत्मसंस्थ कर सकते हैं यह भगवान् की आश्वासनपूर्ण स्पष्टोक्ति है।बाह्य विषयों में आसक्ति तथा कर्मफलों की हठीली आशा ये ही दो प्रमुख कारण मन में विक्षेप उत्पन्न होने के हैं। इसके कारण मन का संयमन कठिन हो जाता है। यहाँ वैराग्य शब्द से इनका ही त्याग सूचित किया गया है। श्री शंकराचार्य के अनुसार अभ्यास का अर्थ है ध्येय विषयक चित्तवृत्ति की पुनरावृत्ति। सामान्यत ध्यानाभ्यास में इच्छाओं के बारम्बार उठने से यह समान प्रत्यय आवृत्ति खण्डित होती रहती है। परिणाम यह होता है कि पुनपुन मन ध्येय वस्तु के अतिरिक्त अन्य विषयों में विचरण करने लगता है और मनुष्य का आन्तरिक सन्तुलन एवं व्यक्तित्व भी छिन्न भिन्न हो जाता है।इस दृष्टि से अभ्यास वैराग्य को दृढ़ करता है और वैराग्य अभ्यास को। दोनों के दृढ़ होने से सफलता निश्चित हो जाती है।शास्त्रीय ग्रन्थों में प्रयुक्त शब्दों के क्रम की ओर ध्यान देना चाहिए क्योंकि उनमें महत्व की उतरती सीढ़ी में शब्दों का क्रम रखा जाता है । कभीकभी साधकों के मन में यह प्रश्न आता है कि क्या वह मन में स्वाभाविक वैराग्य होने की प्रतीक्षा करें अथवा ध्यान का अभ्यास प्रारम्भ कर दें। अधिकांश लोग व्यर्थ ही वैराग्य की प्रतीक्षा करते रहते हैं। गीता में अभ्यास को प्राथमिकता देकर यह स्पष्ट किया गया है कि अभ्यास के पूर्व वैराग्य की प्रतीक्षा करना उतना ही हास्यास्पद है जितना कि बिना बीज बोये फसल की प्रतीक्षा करना।हमको जीवन का विश्लेषण और अनुभवों पर विचार करते रहना चाहिए और इस प्रकार जानते रहना चाहिए कि हमने जीवन में क्या किया और कितना पाया। यदि ज्ञात होता है कि लाभ से अधिक हानि हुई है तो स्वाभाविक ही हम विचार करेगें कि किस प्रकार जीवन को सुनियोजित ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है और अधिकसेअधिक आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। इसी क्रम में फिर शास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ होगा जो हमें जीवनादर्श के आश्चर्य नैतिक मूल्यों की शान्ति आत्मसंयम के आनन्द आत्मविकास के रोमान्च और अहंकार के परिच्छिन्न जीवन के घुटन भरे दुखों का ज्ञान करायेगा।जिस क्षण हम अपनी जीवन पद्धति के प्रति जागरूक हो जाते हैं उसी क्षण अभ्यास का आरम्भ समझना चाहिए। इसके फलस्वरूप सहज स्वाभाविक रूप से जो अनासक्ति का भाव उत्पन्न होता है वही वास्तविक और स्थायी वैराग्य है। अन्यथा वैराग्य तो मूढ़ तापसी जीवन का मिथ्या प्रदर्शन मात्र है जो मनुष्य को संकुचित प्रवृत्ति का बना देता है इतना ही नहीं उसकी बुद्धि को इस प्रकार विकृत कर देता है कि वह उन्माद तथा अन्य पीड़ादायक मनोरोगों का शिकार बन जाता है। विवेक के अभ्यास से उत्पन्न वैराग्य ही आत्मिक उन्नति का साधन है। बौद्धिक परिपक्वता एवं श्रेष्ठतर लक्ष्य के ज्ञान से तथा वस्तु व्यक्ति परिस्थिति और जीवन की घटनाओं के सही मूल्यांकन के द्वारा विषयों के प्रति हमारी आसक्ति स्वत छूट जानी चाहिए। जीवन में सम्यक् अभ्यास और स्थायी वैराग्य के आ जाने पर अन्य विक्षेपों के कारणों के अभाव में मन अपने वश में आ जाता है और तत्पश्चात् वह एक ही संसार को जानता है और वह है सन्तुलन और समता का संसार।तब फिर आत्मसंयमरहित पुरुष का क्या होगा
।।6.35।। व्याख्या--'असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्'--यहाँ 'महाबाहो' सम्बोधनका तात्पर्य शूरवीरता बतानेमें है अर्थात् अभ्यास करते हुए कभी उकताना नहीं चाहिये। अपनेमें धैर्यपूर्वक वैसी ही शूरवीरता रखनी चाहिये।अर्जुनने पहले चञ्चलताके कारण मनका निग्रह करना बड़ा कठिन बताया। उसी बातपर भगवान् कहते हैं कि तुम जो कहते हो, वह एकदम ठीक बात है, निःसन्दिग्ध बात है; क्योंकि मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है। 'अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते' अर्जुनकी माता कुन्ती बहुत विवेकवती तथा भोगोंसे विरक्त रहनेवाली थीं। कुन्तीने भगवान् श्रीकृष्णसे विपत्तिका वरदान माँगा था (टिप्पणी प0 370)। ऐसा वरदान माँगनेवाला इतिहासमें बहुत कम मिलता है। अतः यहाँ 'कौन्तेय' सम्बोधन देकर भगवान् अर्जुनको कुन्ती माताकी याद दिलाते हैं कि जैसे तुम्हारी माता कुन्ती बड़ी विरक्त है, ऐसे ही तुम भी संसारसे विरक्त होकर परमात्मामें लगो अर्थात् मनको संसारसे हटाकर परमात्मामें लगाओ।मनको बार-बार ध्येयमें लगानेका नाम 'अभ्यास' है। इस अभ्यासकी सिद्धि समय लगानेसे होती है। समय भी निरन्तर लगाया जाय, रोजाना लगाया जाय। कभी अभ्यास किया, कभी नहीं किया--ऐसा नहीं हो। तात्पर्य है कि अभ्यास निरन्तर होना चाहिये और अपने ध्येयमें महत्त्व तथा आदर-बुद्धि होनी चाहिये। इस तरह अभ्यास करनेसे अभ्यास दृढ़ हो जाता है। अभ्यासके दो भेद हैं--(1) अपना जो लक्ष्य, ध्येय है, उसमें मनोवृत्तिको लगाये और दूसरी वृत्ति आ जाय अर्थात् दूसरा कुछ भी चिन्तन आ जाय, उसकी अपेक्षा कर दे, उससे उदासीन हो जाय। (2) जहाँ-जहाँ मन चला जाय, वहाँ-वहाँ ही अपने लक्ष्यको, इष्टको देखे।उपर्युक्त दो साधनोंके सिवाय मन लगानेके कई उपाय हैं; जैसे--
।।6.35।।अत्र उत्तरम् असंशयमिति। वैराग्येण विषयोत्सुकता विनाश्यते। अभ्यासेन मोक्षपक्षः क्रमात् क्रमं विषयीक्रियते इति द्वयोरुपादानम्। उक्तं च तत्रभवता भाष्यकृता उभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति।
।।6.35।।श्रीभगवानुवाच चलस्वभावतया मनो दुर्निग्रहम् एव इत्यत्र न संशयः तथापि आत्मनो गुणाकरत्वाभ्यासजनिताभिमुख्येन आत्मव्यतिरिक्तेषु विषयेषु अपि दोषाकरत्वदर्शनजनितैवतृष्ण्येन च कथञ्चिद् गृह्यते।
।।6.35।।प्रश्नमङ्गीकृत्य प्रतिवचनमुत्थापयति श्रीभगवानिति। कुत्र संशयराहित्यं तत्राह मन इति। कथं तर्हि मनोनिरोधो भवति तत्राह किं त्विति। अभ्यासस्वरूपं सामान्येन निदर्शयति अभ्यासो नामेति। कस्यांचिच्चित्तभूमावित्यविशेषितो ध्येयो विषयो निर्दिश्यते समानप्रत्ययावृत्तिर्विजातीयप्रत्ययान्तरितेति शेषः। चित्तस्येति षष्ठी प्रत्ययस्य तद्विकारत्वद्योतनार्था। वैराग्यस्वरूपं निरूपयति वैराग्यमिति। तेषु वैतृष्ण्यं वैराग्यं नामेति संबन्धः। तत्र हेतुं सूचयति दोषेति। विषयेषु तृष्णाविषयेषु दोषदर्शनमभ्यस्यते तेन वैतृष्ण्यं जायते। निगृह्यमाणं निर्दिशति विक्षेपेति। तस्मिन्गृहीते निरुद्धे मनोनिरोधेऽस्य किं स्यादित्यपेक्षायामाह एवमिति। अभ्यासहेतुकवैराग्यद्वारा चित्तप्रचारनिरोधे निरुद्धवृत्तिकं मनो विषयविमुखमन्तर्निष्ठं भवतीत्यर्थः।
।।6.35।।एवं तदुक्तमङ्गीकृत्य तन्निग्रहोपायं श्रीभगवानुवाच असंशयमिति। तथाप्यभ्यासवैराग्याभ्यां निग्रहो भवति।
।।6.35।।तमिममाक्षेपं परिहरन् श्रीभगवानुवाच सम्यग्विदितं ते चित्तचेष्टितं मनो निग्रहीतुं शक्ष्यसीति संतोषेण संबोधयति। हे महाबाहो महान्तौ साक्षान्महादेवेनापि सह कृतप्रहरणौ बाहू यस्येति निरतिशयमुत्कर्षं सूचयति। प्रारब्धकर्मप्राबल्यादसंयतात्मना दुर्निग्रहं दुःखेनापि निग्रहीतुमशक्यम्। प्रमाथि बलवद्दृढमिति विशेषणत्रयं पिण्डीकृत्यैतदुक्तम्। चलं स्वाभावचञ्चलं मन इत्यसंशयं नास्त्येव संशयोऽत्र। सत्यमेवैतद्ब्रवीषीत्यर्थः। एवं सत्यपि संयतात्मना समाधिमात्रोपायेन योगिनाऽभ्यासेन वैराग्येण च गृह्यते निगृह्यते सर्ववृत्तिशून्यं क्रियते तन्मन इत्यर्थः। अनिग्रहीतुरसंयतात्मनः सकाशात्संयतात्मनो निग्रहीतुर्विशेषद्योतनाय तुशब्दः। मनोनिग्रहेऽभ्यासवैराग्ययोः समुच्चयबोधनाय चशब्दः। हे कौन्तेयेति पितृष्वसृपुत्रस्त्वमवश्यं मया सुखी कर्तव्य इति स्नेहसंबन्धसूचनेनाश्वासयति। अत्र प्रथमार्धेन चित्तस्य हठनिग्रहो न संभवतीति द्वितीयार्धेन तु क्रमनिग्रहः संभवतीत्युक्तम्। द्विविधो हि मनसो निग्रहः हठेन क्रमेण च। तत्र चक्षुःश्रोत्रादीनि ज्ञानेन्द्रियाणि वाक्पाण्यादीनि कर्मेन्द्रियाणि च तद्गोलिकमात्रोपरोधेन हठान्निगृह्यन्ते। तद्दृष्टान्तेन मनोऽपि हठेन निग्रहीष्यामीति मूढस्य भ्रान्तिर्भवति। नच तथा निग्रहीतुं शक्यते तद्गोलकस्य हृदयकमलस्य निरोद्धुमशक्यत्वात्। अतएव च क्रमनिग्रह एव युक्तः। तदेतद्भगवान्वसिष्ठ आहउपविश्योपविश्यैव चित्तज्ञेन मुहुर्मुहुः। न शक्यते मनो जेतुं विना युक्तिमनिन्दिताम्।।अङ्कुशेन विना मत्तो यथा दुष्टमतङ्गजः। अध्यात्मविद्याधिगमः साधुसङ्गम एव च।।वासनासंपरित्यागः प्राणस्पन्दनिरोधनम्। एतास्ता युक्तयः पुष्टाः सन्ति चित्तजये किल।।सतीषु युक्तिष्वेताषु हठान्नियमयन्ति ये। चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिघ्नन्ति तमोऽञ्जनैः इति। क्रमनिग्रहे चाध्यात्मविद्याधिगम एक उपायः। सा हि दृश्यस्य मिथ्यात्वं दृग्वस्तुनश्च परमार्थसत्यपरमानन्दस्वप्रकाशत्वं बोधयति। तथाच सत्येतन्मनः स्वगोचरेषु दृश्येषु मिथ्यात्वेन प्रयोजनाभावं प्रयोजनवति च परमार्थसत्यपरमानन्दरूपे दृग्वस्तुनि स्वप्रकाशत्वेन स्वागोचरत्वं बुद्ध्वा निरिन्धनाग्निवत्स्वयमेवोपशाम्यति। यस्तु बोधितमपि तत्त्वं न सम्यग्बुध्यते यो वा विस्मरति तयोः साधुसङ्गम एवोपायः। साधवो हि पुनःपुनर्बोधयन्ति स्मारयन्ति च। यस्तु विद्यामदादिदुर्वासनया पीड्यमानो न साधूननुवर्तितुमुत्सहते तस्य पूर्वोक्तविवेकेन वासनापरित्याग एवोपायः। यस्तु वासनानामतिप्राबल्यात्तास्त्यक्तुं न शक्नोति तस्य प्राणस्पन्दनिरोध एवोपायः। प्राणस्पन्दवासनयोश्चित्तप्रेरकत्वात्तयोर्निरोधे चित्तशान्तिरुपपद्यते। तदेतदाह स एवद्वे बीजे चित्तवृक्षस्य प्राणस्पन्दनवासने। एकस्मिंश्च तयोः क्षीणे क्षिप्रं द्वे अपि नश्यतः।।प्राणायामदृढाभ्यासैर्युक्त्या च गुरुदत्तया। आसनाशनयोगेन प्राणस्पन्दो निरुध्यते।।असङ्गव्यवहारित्वाद्भवभावनवर्जनात्। शरीरनाशदर्शित्वाद्वासना न प्रवर्तते।।वासनासंपरिहत्यागाच्चित्तं गच्छत्यचित्तताम्। प्राणस्पन्दनिरोधा़च्च यथेच्छसि तथा कुरु।।एतावन्मात्रकं मन्ये रूपं चित्तस्य राघव। यद्भावनं वस्तुनोऽन्तर्वस्तुत्वेन रसेन च।।यदा न भाव्यते किंचिद्धेयोपादेयरूपि यत्। स्थीयते सकलं त्यक्त्वा तदा चित्तं न जायते।।अवासनत्वात्सततं यदा न मनुते मनः। अमनस्ता तदोदेति परमात्मपदप्रदा।। इति। अत्र द्वावेवोपायौ पर्यवसितौ प्राणस्पन्दनिरोधार्थमभ्यासः वासनापरित्यागार्थं च वैराग्यमिति। साधुसंगमाध्यात्मविद्याधिगमौ त्वभ्यासवैराग्योपपादकतयाऽन्यथासिद्धौ तयोरेवान्तरर्भावः। अतएव भगवताऽभ्यासेन वैराग्येण चेति द्वयमेवोक्तम्। अतएव भगवान्पतञ्जलिरसूत्रयत्अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः इति। तासां प्रागुक्तानां प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतिरूपेण पञ्चविधानामनन्तानामासुरत्वेन क्लिष्टानां दैवत्वेनाक्लिष्टानामपि वृत्तीनां सर्वासामपि निरोधो निरिन्धनाग्निवदुपशमाख्यः परिणामोऽभ्यासेन वैराग्येण च समुच्चितेन भवति। तदुक्तं योगभाष्येचित्तनदी नामोभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। तत्र या कैवल्यप्राग्भारा विवेकनिम्ना सा कल्याणवहा। या त्वविवेकनिम्ना संसारप्राग्भारा सा पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते। विवेकदर्शनाभ्यासेन च कल्याणस्रोत उद्धाठ्यते इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः इति। प्राग्भारे निम्नपदेतदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तमित्यत्र व्याख्यायते। तथा तीव्रवेगोपेतं नदीप्रवाहं सेतुबन्धनेन निर्वाय कुल्याप्रणयनेन क्षेत्राभिमुखं तिर्यक्प्रवाहान्तरमुत्पाद्यते तथा वैराग्येण चित्तनद्या विषयप्रवाहं निवार्यं समाध्यभ्यासेन प्रशान्तवाहिता संपाद्यत इति द्वारभेदात्समुच्चय एव। एकद्वारत्वे हि व्रीहियववद्विकल्पः स्यादिति। मन्त्रजपदेवताध्यानादीनां क्रियारूपाणामावृत्तिलक्षणोऽभ्यासः संभवति। सर्वव्यापारोपरमस्य तु समाधेः को नामाभ्यास इति शङ्कां निवारयितुमभ्यासंसूत्रयतिस्मतत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः इति। तत्र स्वरूपावस्थिते द्रष्टरि शुद्धे चिदात्मनि चित्तस्यावृत्तिकस्य प्रशान्तवाहितारूपा निश्चलतास्थितिस्तदर्थं यत्नो मनस उत्साहः स्वभावचाञ्चल्याद्बहिः प्रवाहशीलं चित्तं सर्वथा निरोत्स्यामीत्येवंविधः। स आवर्त्यमानोऽभ्यास उच्यते।सतु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः अनिर्वेदेन दीर्घकालासेवितो विच्छेदाभावेन निरन्तरासेवितः सत्कारेण श्रद्धातिशयेन च सेवितः। सोऽभ्यासो दृढभूमिर्विषयसूखवासनया चालयितुमशक्यो भवति। अदीर्घकालत्वे दीर्घकालत्वेपि विच्छिद्य विच्छिद्य सेवने श्रद्धातिशयाभावे च लयविक्षेपकषायसुखास्वादानामपरिहारे व्युत्थानसंस्कारप्राबल्याददृढभूमिरभ्यासः फलाय न स्यादिति त्रयमुपात्तम्। वैराग्यं तु द्विविधं अपरं परं च। यतमानसंज्ञाव्यतिरेकसंज्ञैकेन्द्रियसंज्ञावशीकारसंज्ञाभेदैरपरं चतुर्धा। तत्र पूर्वभूमिजयेनोत्तरभूमिसंपादनविवक्षया चतुर्थमेवासूत्रयत्दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञावैराग्यम् इति। स्त्रियोऽन्नपानमैश्वर्यमित्यादयो दृष्टा विषयाः। स्वर्गो विदेहता प्रकृतिलय इत्यादयो वैदिकत्वेनानुश्रविका विषयास्तेषूभयविधेष्वपि सत्यामेव तृष्णायां विवेकतारतम्येन यतमानादित्रयं भवति। अत्र जगति किं सारं किमसारमिति गुरुशास्त्राभ्यां ज्ञास्यामीत्युद्योगो यतमानम्। स्वचित्ते पूर्वविद्यमानदोषाणां मध्येऽभ्यस्यमानविवेकेनैते पक्वाः एतेऽवशिष्टा इति चिकित्सकवद्विवेचनं व्यतिरेकः। दृष्टानुश्रविकविषयप्रवृत्तेर्दुःखात्मत्वबोधेन बहिरिन्द्रियप्रवृत्तिमजनयन्त्या अपि तृष्णाया औत्सुक्यमात्रेण मनस्यवस्थानमेकेन्द्रियम्। मनस्यपि तृष्णाशून्यत्वेन सर्वथा वैतृष्ण्यं तृष्णाविरोधिनी चित्तवृत्तिर्ज्ञानप्रसादरूपा वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् संप्रज्ञातस्य समाधेरन्तरङगं साधनमसंप्रज्ञातस्य तु बहिरङ्गम्। तस्य त्वन्तरङ्गसाधनं परमेव वैराग्यम्। तच्चासूत्रयत्तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्णयम् इति। संप्रज्ञातसमाधिपाटवेन गुणत्रयात्मकात्प्रधानाद्विविक्तस्य पुरुषस्य ख्यातिः साक्षात्कार उत्पद्यते। ततश्चाशेषगुणत्रयव्यवहारेषु वैतृष्ण्यं यद्भवति तत्परं श्रेष्ठं फलभूतं वैराग्यम्। तत्परिपाकनिमित्ताच्च चित्तोपशमपरिपाकादविलम्बेन कैवल्यमिति।
।।6.35।।तदुक्तं चञ्चलत्वादिकमङ्गीकृत्यैव मनोनिग्रहोपायं श्रीभगवानुवाच असंशयमिति। चञ्चलत्वादिना मनो निरोद्धुमशक्यमिति यद्वदसि एतन्निःसंशयमेव तथापि तु विषयाचिन्तनपूर्वकमभ्यासेन परमात्माकारप्रत्ययया वृत्त्या विषयवैतृष्ण्येन च गृह्यते निगृह्यते। अभ्यासेन लयप्रतिबन्धाद्वैराग्येण च विक्षेपप्रतिबन्धादुपरतवृत्तिकं सत्परमात्माकारेण परिणतं तिष्ठतीत्यर्थः। तदुक्तं योगशास्त्रे मनसो वृत्तिशून्यस्य ब्रह्माकारतया स्थितिः। या संप्रज्ञातनामासौ समाधिरभिधीयते।। इति।
।।6.35।।अथार्जुनेन कण्ठोक्तमनुवदन् बुभुत्सितमुपायं श्लोकद्वयेनाह भगवान्। तत्रदुर्निग्रहंचलम् इति पदद्वयमर्जुनोक्तप्रतिज्ञाहेत्वनुवादरूपमाहचलस्वभावतयेति।असंशयं इत्येतत्सत्यमितिवदर्धाङ्गीकारपरम्। तुशब्दाभिप्रेतं विशेषं दर्शयतितथापीति। अनुकूलतयाऽभ्यासो हि तत्र प्रावण्यहेतुः स्यादित्यभ्यासविशेषं तत्फलं च व्यनक्तिआत्मन इति। नित्यत्वज्ञानत्वानन्दत्वाकर्मवश्यत्वामलत्वादयोऽत्र गुणाः। कथञ्चिदित्यवधानार्थम्। एवं मनसो ग्रहणोपाय उक्तः ततश्चएतस्याहं न पश्यामि 6।33 इत्युक्तमर्थं विषयविशेषे व्यवस्थापयति असंयत इति श्लोकेन। मनोनिग्रहप्रकरणत्वात् असंयतवश्यशब्दसमभिव्याहारसामर्थ्याच्चात्र आत्मशब्दो मनोविषयः। महाबाहुशब्दसम्बुद्धिसूचितमाहमहतापि बलेनेति।उपायेन तु यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः पं.तं. इति भावः।मे मतिः इत्यनेन निस्सन्देहत्वं विवक्षितमित्याहदुष्प्राप एवेति।उपायतस्तु वश्यात्मनेति व्याख्येयान्वयप्रदर्शनम्। तद्व्याख्यानंपूर्वेत्यादि। उक्तलक्षणं कर्ममात्रं मनोनिग्रहोपायः अभ्यासवैराग्ये तु तस्यैवाङ्गतयोक्ते इति भावः यतमानेन योगमभ्यस्यतेत्यर्थः।
।।6.35।।एवमर्जुनोक्तचञ्चलत्वादिकमङ्गीकृत्य तन्निग्रहसाधनमाह भगवान् श्रीभगवानुवाच असंशयमिति। हे महाबाहो क्रियाशक्तिसमर्थ मनो दुर्निग्रहं चञ्चलं यद्वदसि तदसंशयं निस्सन्दिग्धं तादृशमेवास्तु। तु पुनस्तथापि कौन्तेय मदुक्तिविश्वसनैकयोग्य भक्तपुत्र अभ्यासेनयतो यतो निश्चलति 26 इति पूर्वोक्तप्रकारेणाऽन्यत्र हीनत्वज्ञानपूर्वकमप्युत्तमज्ञानेन चाञ्चल्यानुसरणप्रकारेण गृह्यते। च पुनः। तथा ज्ञानेन मत्सम्बन्धातिरिक्तेषु वैराग्येण गृह्यते वशीक्रियत इत्यर्थः।
।।6.35।।मनसो दुर्ग्रहत्वमभ्युपेत्य भगवानुवाच। यद्यप्येवं तथाप्यभ्यासवैराग्याभ्यां समुच्चिताभ्यां दुर्निग्रहमपि मनो निगृह्यते। तत्राभ्यासो नाम कस्यांचिच्चित्तभूमौ समानप्रत्ययावृत्तिः। वैराग्यं तु दृष्टादृष्टेष्टभोगेषु ससाधनेषु दोषदर्शनेन वैतृष्ण्यम्। तत्र यथा कैदारिकः केदारेषु कुल्याजलं संचारयन्नेकस्य द्वारं पिधायारपरस्योद्धाटयति तद्वद्वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते अभ्यासेन कल्याणस्रोत उद्घाट्यत इति द्वयोरप्यावश्यकत्वम्। तथा च सूत्रम् अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः इति।
।।6.35।।प्रश्नमभिनन्दन् श्रीभगवानुवाच। असंशयं मनश्चलं दुर्निग्रहं चेत्यस्मिन्नर्थे संशयो नास्ति। यद्यपि दुर्निग्रहं तथापि तु अभ्यासेन चित्तभूमौ कस्यांचिद्विजातीयप्रत्ययानन्तरितसमानप्रत्ययावृत्तिलक्षणेन वैराग्यं नाम दष्टादृष्टेषु भोगेषु दोषदर्शनाभ्यासा द्वैतृष्ण्यं तेन च गृह्यते। विक्षिप्तत्वादिकं त्यक्त्वा निरुध्यत इत्यर्थः। पूर्वोर्धे महाबाहो इति संबोधयन्महाबाहुनातिबलेन जितनिवातकवचादिना त्वयापि यद्येवमुच्यते तर्हि मनसो दुर्निग्रहत्वे संशयो नास्तीति सूचयति। बाह्वदिबलसाध्यो मनसो निग्रहो न भवति किंत्वभ्यासवैराग्यसाध्यः। यथातिप्रबलै राजभिः स्वग्रहे वासयितुं दुर्घटो दुर्वासा अपि तव मात्राऽबलया कुन्त्या विषयेषुवैराग्येण तत्सेवनपरत्वं परित्यज्य तच्छुश्रुषाभ्यासेन च स्वग्रहे निवासितः प्रसादितश्च तथा त्वं तत्पुत्रो मदुक्तेनोपायेन दुर्निग्रहमपि मनो निग्रहीतुं योग्योऽसीति सूचयन्नाह हे कौन्तेयेति।
6.35 असंशयम् undoubtedly? महाबाहो O mightyarmed? मनः the mind? दुर्निग्रहम् difficult to control? चलम् restless? अभ्यासेन by practice? तु but? कौन्तेय O Kaunteya? वैराग्येण by dispassion? च and? गृह्यते is restrained. Commentary The constant or repeated effort to keep the wandering mind steady by constant meditation on the Lakshya (centre? ideal? goal or object of meditation) is Abhyasa or practice. The same idea or thought of the Self or God is constantly repeated. This constant repetition destroys Vikshepa or the vacillation of the mind and desires? and makes it steady and onepointed.Vairagya is dispassion or indifference to senseobjects in this world or in the other? here or hereafter? seen or unseen? heard or unheard? achieved through constantly looking into the evil in them (DoshaDrishti). You will have to train the mind by constant reflection on the immortal? allblissful Self. You must make the mind realise the transitory nature of the wordly enjoyments. You must suggest to the mind to look for its enjoyment not in the perishable and changing external objects but in the immortal? changeless Self within. Gradually the mind will be withdrawn from the external objects.
6.35 The Blessed Lord said Undoubtedly, O mighty-armed Arjuna, the mind is difficult to control and restless; but by practice and by dispassion it may be restrained.
6.35 Lord Shri Krishna replied: Doubtless, O Mighty One, the mind is fickle and exceedingly difficult to restrain, but, O Son of Kunti, with practice and renunciation it can be done.
6.35 The Blessed Lord said O mighty-armed one, undoubtedly the mind is untractable and restless. But, O son of Kunti, it is brought under control through practice and detachment.
6.35 Mahabaho, O mighty-armed one; asamsayam, undoubtedly-there is no doubt with regard to this; that the manah, mind; is durnigraham, untractable; and calm, restless. Tu, but; it-the modifications of the mind in the form of distractions-grhyate, is brought under control; abhyasena, through practice- abhyasa means repetition of some idea or thought of the mind one some mental plane ['Some mental plane' suggests some object of concentration.]-; and vairagyena, through detachment-vairagya means absence of hankering for enjoyment of desirable things, seen or unseen, as a result of the practice of discerning their defect. That mind is thus brought undr control, restrained, i.e. completely subdued. By him, however, who has not controlled his mind-
6.35. The Bhagavat said O mighty-armed ! No doubt, the mind is unsteady and is hard to control. But it is controlled by practice and through an attitude of desirelessness, O son of Kunti !
6.35 Asamsayam etc. Through an attitude of desirelessness, the craving for sense objects is destroyed. Through practice, stage after stage, the side of emancipation is occupied [by the mind]. Hence both are included. Regarding this, it has been said by the revered author of the Bhasya as : The restraint of mental modifications depends on both [the attitude of desirelessness and practice]. Hence is this solemn declaration :
6.35 The Lord said No doubt, the mind is hard to subdue on account of its fickle nature. However, it can be subdued with difficulty by cultivating favourable attitude in the direction of the self by repeated contemplation of Its being a mind of auspicious attributes (these being eternality, self-luminosity, bliss, freedom from Karma, purity etc.), and by the absence of hankering produced by seeing the host of evil alities in objects other than the self hankered for.
6.35 The Lord said The mind is hard to subdue and fickle, no doubt, O mighty-armed one, but , O son of Kunti, by practice and by the exercise of dispassion it can be brought under control.
।।6.35।।श्रीभगवान् बोले कि जैसे तू कहता है यह ठीक ऐसा ही है हे महाबाहो मन चञ्चल और कठिनतासे वशमें होनेवाला है इसमें ( कोई ) संदेह नहीं। किंतु अभ्याससे अर्थात् किसी चित्तभूमिमें एक समान वृत्तिकी बारंबार आवृत्ति करनेसे और दृष्ट तथा अदृष्ट प्रिय भोगोंमें बारंबार दोषदर्शनके अभ्यासद्वारा उत्पन्न हुए अनिच्छारूप वैराग्यसे चित्तके विक्षेपरूप प्रचार ( चञ्चलता ) को रोका जा सकता है। अर्थात् इस प्रकार उस मनका निग्रह निरोध किया जा सकता है।
।।6.35।। असंशयं नास्ति संशयः मनो दुर्निग्रहं चलम् इत्यत्र हे महाबाहो। किंतु अभ्यासेन तु अभ्यासो नाम चित्तभूमौ कस्यांचित् समानप्रत्ययावृत्तिः चित्तस्य। वैराग्येण वैराग्यं नाम दृष्टादृष्टेष्टभोगेषु दोषदर्शनाभ्यासात् वैतृष्ण्यम्। तेन च वैराग्येण गृह्यते विक्षेपरूपः प्रचारः चित्तस्य। एवं तत् मनः गृह्यते निगृह्यते निरुध्यते इत्यर्थः।।यः पुनः असंयतात्मा तेन
।।6.35 6.36।।संयतेति श्लोको व्यर्थ इव प्रतीयते तन्निवर्त्यामाशङ्कां सूचयन् तात्पर्यमाह न चेति। यथा मत्तमातङ्गः स्वयमेव श्रान्तः शान्तो भवति तथा विषयैस्तुष्टं मनः कदाचित्स्वयमेव नियतं भवति किमभ्यासादिना इत्येतन्नैवेत्यर्थः। कुतः इत्यत आह शुभेति। सदेति पूर्वेण सम्बन्धः। अनेनात्र शुभेच्छादिकमप्युलक्षितमिति सूचितम्। मुक्तिबीजत्वान्मनोनियमनस्य मुक्तिरित्युक्तम्।
null
श्री भगवानुवाच असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।
শ্রী ভগবানুবাচ অসংশযং মহাবাহো মনো দুর্নিগ্রহং চলং৷ অভ্যাসেন তু কৌন্তেয বৈরাগ্যেণ চ গৃহ্যতে৷৷6.35৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ অসংশযং মহাবাহো মনো দুর্নিগ্রহং চলং৷ অভ্যাসেন তু কৌন্তেয বৈরাগ্যেণ চ গৃহ্যতে৷৷6.35৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ અસંશયં મહાબાહો મનો દુર્નિગ્રહં ચલં। અભ્યાસેન તુ કૌન્તેય વૈરાગ્યેણ ચ ગૃહ્યતે।।6.35।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਅਸਂਸ਼ਯਂ ਮਹਾਬਾਹੋ ਮਨੋ ਦੁਰ੍ਨਿਗ੍ਰਹਂ ਚਲਂ। ਅਭ੍ਯਾਸੇਨ ਤੁ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਵੈਰਾਗ੍ਯੇਣ ਚ ਗਰਿਹ੍ਯਤੇ।।6.35।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಅಸಂಶಯಂ ಮಹಾಬಾಹೋ ಮನೋ ದುರ್ನಿಗ್ರಹಂ ಚಲಂ. ಅಭ್ಯಾಸೇನ ತು ಕೌನ್ತೇಯ ವೈರಾಗ್ಯೇಣ ಚ ಗೃಹ್ಯತೇ৷৷6.35৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച അസംശയം മഹാബാഹോ മനോ ദുര്നിഗ്രഹം ചലം. അഭ്യാസേന തു കൌന്തേയ വൈരാഗ്യേണ ച ഗൃഹ്യതേ৷৷6.35৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ଅସଂଶଯଂ ମହାବାହୋ ମନୋ ଦୁର୍ନିଗ୍ରହଂ ଚଲଂ| ଅଭ୍ଯାସେନ ତୁ କୌନ୍ତେଯ ବୈରାଗ୍ଯେଣ ଚ ଗୃହ୍ଯତେ||6.35||
śrī bhagavānuvāca asaṅśayaṅ mahābāhō manō durnigrahaṅ calaṅ. abhyāsēna tu kauntēya vairāgyēṇa ca gṛhyatē৷৷6.35৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச அஸஂஷயஂ மஹாபாஹோ மநோ துர்நிக்ரஹஂ சலஂ. அப்யாஸேந து கௌந்தேய வைராக்யேண ச கரிஹ்யதே৷৷6.35৷৷
శ్రీ భగవానువాచ అసంశయం మహాబాహో మనో దుర్నిగ్రహం చలం. అభ్యాసేన తు కౌన్తేయ వైరాగ్యేణ చ గృహ్యతే৷৷6.35৷৷
6.36
6
36
।।6.36।। जिसका मन पूरा वशमें नहीं है, उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपायपूर्वक यत्न करनेवाले वश्यात्माको योग प्राप्त हो सकता है, ऐसा मेरा मत है।
।।6.36।। असंयत मन के पुरुष द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है, परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा उपाय से योग प्राप्त होना संभव है, यह मेरा मत है।।
।।6.36।। पूर्व श्लोक के अभ्यास में अत्याधिक बल दिया गया था परन्तु अभ्यास क्या है इसका निर्देश नहीं किया गया। किसी शब्द की परिभाषा तर्क या युक्ति के अभाव में कोई भी शास्त्रीय ग्रन्थ पूर्ण नहीं माना जा सकता। विचाराधीन श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अभ्यास का अर्थ स्पष्ट करते हैं।असंयत मन का अर्थात् विघटित व्यक्तित्व का पुरुष अध्यात्म साधना के लिए आवश्यक सजगता उत्साह और सार्मथ्य से रहित होता है और इस कारण वह आत्मसाक्षात्कार के शिखर तक नहीं पहुँच पाता।जो व्यक्ति शारीरिक सुखों में आसक्त होकर विषयों का दास बन जाता है अथवा कामुक मन के गाये मृत्युगीत की शोकधुन पर नृत्य करता है अथवा मदोन्मत्त बुद्धि की विकृत दुष्ट और अन्तहीन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु इतस्तत भ्रमण करता रहता है उस पुरुष में न वह शान्ति होती है और न स्फूर्ति जो उसे अन्तरात्मा के मन्दिर तक पहुँचाने के लिए उद्यत कर सके।जब तक इन्द्रियां वश में नहीं होतीं तब तक मन के विक्षेप शान्त नहीं हो सकते। विक्षेपयुक्त मन के द्वारा न श्रवण हो सकता है न मनन और न निदिध्यासन ही। इन तीनों के बिना आवरण शक्ति की निवृत्ति नहीं हो सकती। आवरण और विक्षेप ये क्रमश तमोगुण और रजोगुण के कार्य हैं। हम देख चुके हैं कि इन दो गुणों को वश में किये बिना सत्वगुण का प्रभाव साधक में दृष्टिगोचर नहीं होता।वादविवाद की सामान्य पद्धति के अनुसार अपना मत प्रस्तुत करते समय प्रतियोगी के तर्कों का खण्डन इस प्रकार करना होता है कि वह दोनों मतों के अन्तर को देखकर हमारे दृष्टिकोण की युक्तियुक्तता एवं स्वीकार्यता को समझ सके। इसी पद्धति का उपयोग करते हुए दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं परन्तु स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा किये गये उपाय से योग प्राप्त होना संभव है। इन्द्रियों को उनके विषयों से पराङमुख करना आध्यात्मिक जीवन का प्रथम सोपान है जो मन को सत्याभिमुख किये बिना संभव नहीं हो सकता।लौकिक जीवन में भी त्याग और तप के बिना कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं होता । चुनाव के समय एक प्रत्याशी का और परीक्षा के पूर्व एक विद्यार्थी का जीवन अथवा एक अभिनेता या नर्तकी का रंगमंच पर प्रथम कार्यक्रम प्रस्तुत करने के पूर्व का जीवनये कुछ उदाहरण हैं जिनमें हम देखते हैं कि अपनेअपने कार्य क्षेत्रों में सफलता पाने के लिए ये सभी लोग सामान्य भोगमय जीवन को त्यागकर कठिन परिश्रम करते हैं। यदि केवल सामान्य और अनित्य लौकिक वस्तु या कीर्ति प्राप्त करने के लिए भी इतने बड़े त्याग तप और संयम की आवश्यकता होती है तब नित्य अनन्त अखण्ड आत्मानन्द की प्राप्ति के लिए कितने अधिक आत्मसंयम की आवश्यकता होगी इसकी कोई भी व्यक्ति सहज ही कल्पना कर सकता है।इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि साधक को सभी विषयों को पूर्णतया त्याग देना चाहिए। परन्तु प्राय साधकों की यही धारणा बन जाती है।धर्म या साधना के नाम पर अनेक साधक कुछ काल तक अत्यन्त कठोर तप का जीवन जीते हैं जिसमें शरीर को क्लेश देना शारीरिक आवश्यकताओं एवं प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग और दमन करना सम्मिलित है। इस प्रकार स्वयं पर आसुरी और आत्मघातक अत्याचार करने पर निश्चय ही एक समय यही दमित प्रवृत्तियां भयंकर रूप में फूटकर बाहर निकल पड़ती हैं।कहीं ऐसा न हो कि गीता का अध्येतावर्ग भी इसी भ्रामक विचार की बलि बन जाये भगवान् कहते हैं कि इस योग को प्रयत्नशील साधक उचित उपाय के द्वारा प्राप्त कर सकता है। केवल चित्रपट देखने न जाने अथवा खेलकूद को त्यागने से ही कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता क्योंकि उसके साथ ही अध्ययन में समय का सदुपयोग करना नितान्त आवश्यक होता है। एक बात और भी है कि गणित की परीक्षा हो और विद्यार्थी भूगोल का अध्ययन कर रहा हो तो उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकती। उचित प्रयत्न के द्वारा ही सफलता प्राप्त की जा सकती है।इसी प्रकार वैषयिक भोग के त्यागरूप तप के द्वारा संचित शक्ति का उपयोग साधक को निदिध्यासन में करना चाहिए जिसका फल आत्मसाक्षात्कार अर्थात् स्वस्वरूप की पहचान है। ऐसा साधनसम्पन्न व्यक्ति इस योग को प्राप्त कर सकता है आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्ण का यह आशावादी तत्त्वज्ञान है।इन दो श्लोकों के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं और आगे के प्रकरण से यह सिद्ध होता है कि अर्जुन उनके उत्तर से सन्तुष्ट हो जाता है।एक प्रश्न फिर भी रह जाता है कि उस पुरुष की गति क्या होती है जो संयमित होकर योगाभ्यास करता है परन्तु योगफल प्राप्त करने के पूर्व ही योग से विचलित हो जाता है
।।6.36।। व्याख्या--असंयतात्मना योगो दुष्प्रापः--मेरे मतमें तो जिसका मन वशमें नहीं है उसके द्वारा योग सिद्ध होना कठिन है। कारण कि योगकी सिद्धिमें मनका वशमें न होना जितना बाधक है उतनी मनकी चञ्चलता बाधक नहीं है। जैसे पतिव्रता स्त्री मनको वशमें तो रखती है पर उसे एकाग्र नहीं करती। अतः ध्यानयोगीको अपना मन वशमें करना चाहिये। मन वशमें होनेपर वह मनको जहाँ लगाना चाहे वहाँ लगा सकता है जितनी देर लगाना चाहे उतनी देर लगा सकता है और जहाँसे हटाना चाहे वहीँसे हटा सकता है।प्रायः साधकोंकी यह प्रवृत्ति होती है कि वे साधन तो श्रद्धापूर्वक करते हैं पर उनके प्रयत्नमें शिथिलता रहती है जिससे साधकमें संयम नहीं रहता अर्थात् मन इन्द्रियाँ अन्तःकरणका पूर्णतया संयम नहीं होता। इसलिये योगकी प्राप्तिमें कठिनता होती है अर्थात् परमात्मा सदासर्वत्र विद्यमान रहते हुए भी जल्दी प्राप्त नहीं होते।भगवान्की तरफ चलनेवाले वैष्णव संस्कारवाले साधकोंकी मांस आदिमें जैसी अरुचि होती है वैसी अरुचि साधककी विषयभोगोंमें नहीं होती अर्थात् विषयभोग उतने निषिद्ध और पतन करनेवाले नहीं दीखते। कारण कि विषयभोगोंका ज्यादा अभ्यास होनेसे उनमें मांस आदिकी तरह ग्लानि नहीं होती। मांस आदि सर्वथा निषिद्ध वस्तु खानेसे पतन तो होता ही है पर उससे भी ज्यादा पतन होता है रागपूर्वक विषयभोगोंको भोगनेसे। कारण कि मांस आदिमें तो यह निषिद्ध वस्तु है ऐसी भावना रहती है पर भोगोंको भोगनेसे यह निषिद्ध है ऐसी भावना नहीं रहती। इसलिये भोगोंके जो संस्कार भीतर बैठ जाते हैं वे बड़े भयंकर होते हैं। तात्पर्य है कि मांस आदि खानेसे जो पाप लगता है वह दण्ड भोगकर नष्ट हो जायगा। वह पाप आगे नये पापोंमें नहीं लगायेगा। परन्तु रागपूर्वक विषयभोगोंका सेवन करनेसे जो संस्कार पड़ते हैं वे जन्मजन्मान्तरतक विषयभोगोंमें और उनकी रुचिके परिणामस्वरूप पापोंमें लगाते रहेंगे।तात्पर्य है कि साधकके अन्तःकरणमें विषयभोगोंकी रुचि रहनेके कारण ही वह संयतात्मा नहीं हो पातामनइन्द्रियोंको अपने वशमें नहीं कर पाता। इसलिये उसको योगकी प्राप्तिमें अर्थात् ध्यानयोगकी सिद्धिमें कठिनता होती है।
।।6.36।।अत एषा प्रतिज्ञा असंयतेति। असंयतात्मनः अविरक्तस्य न कथंचिद्योगावाप्तिः। वश्यात्मनेति वैराग्यवता। यतमानेनेति साभ्यासेन। उपायतः उपायान् अनेकसिद्धान्तादिशास्त्रविहितान् संश्रित्य।
।।6.36।।असंयतात्मना अजितमनसा महता अपि बलेन योगो दुष्प्राप एव। उपायतः तु वश्यात्मना पूर्वोक्तेन मदाराधनरूपेण अन्तर्गतज्ञानेन कर्मणा जितमनसा यतमानेन अयम् एव समदर्शनरूपो योगः अवाप्तुं शक्यः।अथनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति (गीता 2।40) इत्यादौ एव श्रुतं योगमाहात्म्यं यथावत् श्रोतुम् अर्जुनः पृच्छति। अन्तर्गतात्मज्ञानतया योगशिरस्कतया च हि कर्मयोगस्य माहात्म्यं तत्रोदितं तच्च योगमाहात्म्यम् एव
।।6.36।।संयतात्मनो योगप्राप्तिः सुलभेत्युक्त्वा व्यतिरेकं दर्शयति यः पुनरिति। व्यतिरेकोपन्यासपरं पूर्वार्धमनूद्य व्याकरोति असंयतेति। पूर्वोक्तान्वयव्याख्यानपरमुत्तरार्धं व्याचष्टे यस्त्वित्यादिना। अन्तःकरणस्य स्ववशत्वे सिद्धेऽपि वैराग्यादावास्थावता भवितव्यमित्याह यततेति। उपायो वैराग्यादिपूर्वको मनोनिरोधः।
।।6.36।।एवं मनसो निरोधे साम्येन स योगो घटते नान्यथेत्याह असंयतात्मन इति। स्पष्टमेतत्।
।।6.36।।यत्तु त्वमवोचः प्रारब्धभोगेन कर्मणा तत्त्वज्ञानादपि प्रबलेन स्वफलदानाय मनसो वृत्तिषूत्पद्यमानासु कथं तासां निरोधः कर्तुं शक्य इति तत्रोच्यते उत्पन्नेऽपि तत्त्वसाक्षात्कारे वेदान्तव्याख्यानादिव्यासङ्गादालस्यादिदोषाद्वाऽभ्यासवैराग्याभ्यां न संयतो निरुद्ध आत्मान्तःकरणं येन तेनासंयतात्मना तत्त्वसाक्षात्कारवतापि योगो मनोवृत्तिनिरोधः दुष्प्रापः दुःखेनापि प्राप्तुं न शक्यते। प्रारब्धकर्मकृताच्चित्तचाञ्चल्यादिति चेत्त्वं वदसि तत्र मे मतिर्मम संमतिस्तत्तथैवेत्यर्थः। केन तर्हि प्राप्यते। उच्यते वश्यात्मना तु वैराग्यपरिपाकेन वासनाक्षये सति वश्यः स्वाधीनो विषयपारतन्त्र्यशून्य आत्मान्तःकरणं यस्य तेन। तुशब्दोऽसंयतात्मनो वैलक्षण्यद्योतनार्थोऽवधारणार्थो वा। एतादृशेनापि यतता यतमानेन वैराग्येण विषयस्रोतःखिलीकरणेऽप्यात्मस्रोतउद्धाटनार्थमभ्यासं प्रागुक्तं कुर्वता योगः सर्वचित्तवृत्तिनिरोधः शक्योऽवाप्तुम् चित्तचाञ्चल्यनिमित्तानि प्रारब्धकर्माण्यप्यभिमूय प्राप्तुं शक्यः। कथमतिबलवतामारब्धभोगानां कर्मणामभिभवः। उच्यते उपायतः उपायात्। उपायः पुरुषकारस्तस्य लौकिकस्य वैदिकस्य वा प्रारब्धकर्मापेक्षया प्राबल्यात्। अन्यथा लौकिकस्य कृष्यादिप्रयत्नस्य वैदिकानां ज्योतिष्टोमादिप्रयत्नस्य च वैयर्थ्यापत्तेः। सर्वत्र प्रारब्धकर्मसदसत्त्वविकल्पग्रासात्प्रारब्धकर्मसत्त्वे तत एव फलप्राप्तेः किं पौरुषेण प्रयत्नेन तदसत्त्वे तु सर्वथा फलासंभवात्किं तेनेति। अथ कर्मणः स्वयमदृष्टरूपस्य दृष्टसाधनसंपत्तिव्यतिरेकेण फलजननासमर्थत्वादपेक्षितः कृष्यादौ पुरुषप्रयत्न इति चेत्। योगाभ्यासेऽपि समं समाधानं तत्साध्याया जीवन्मुक्तेरपि सुखातिशयरूपत्वेन प्रारब्धकर्मफलान्तर्भावात्। अथवा यथा प्रारब्धकर्मफलं तत्त्वज्ञानात्प्रबलमिति कल्प्यते दृष्टत्वात्तथा तस्मादपि कर्मणो योगाभ्यासः प्रबलोऽस्तु शास्त्रीयस्य प्रयत्नस्य सर्वत्र ततः प्राबल्यदर्शनात्। तथाचाह भगवान्वसिष्ठःसर्वमेवेह हि सदा संसारे रघुनन्दन। सम्यक्प्रयुक्तात्सर्वेण पौरुषात्समवाप्यते।।उच्छास्त्रं शास्त्रितं चेति पौरुषं द्विविधं स्मृतम् तत्रोच्छास्त्रमनर्थाय परमार्थाय शास्त्रितम्।। उच्छास्त्रं शास्त्रप्रतिषिद्धमनर्थाय नरकाय। शास्त्रितं शास्त्रविहितमन्तःकरणशुद्धिद्वारा परमार्थाय चतुर्ष्वर्थेषु परमाय मोक्षाय।शुभाशुभाभ्यां मार्गाभ्यां वहन्ती वासनासरित्। पौरुषेण प्रयत्नेन योजनीया शुभे पथि।।अशुभेषु समाविष्टं शुभेष्वेवावतारय। स्वमनः पुरुषार्थेन बलेन बलिनां वर।।द्रागभ्यासवशाद्याति यदा ते वासनोदयम्। तदाभ्यासस्य साफल्यं विद्धि त्वमरिमर्दन।। इति। वासना शुभेति शेषः।संदिग्धायामपि भृशं शुभामेव समाहर। शुभायां वासनावृद्धौ तात दोषो न कश्चन।।अव्युत्पन्नमना यावद्भवानज्ञाततत्पदः। गुरुशास्त्रप्रमाणैस्त्वं निर्णीतं तावदाचर।।ततः पक्वकषायेण नूनं विज्ञातवस्तुना। शुभोऽप्यसौ त्वया त्याज्यो वासनौघो निराधिना।। इति। तस्मात्साक्षिगतस्य संसारस्याविवेकनिबन्धनस्य विवेकसाक्षात्कारादपनयेऽपि प्रारब्धकर्मपर्यवस्थापितस्य चित्तस्य स्वाभाविकीनामपि वृत्तीनां योगाभ्यासप्रयत्नेनापनये सति जीवन्मुक्तः परमो योगी। चित्तवृत्तिनिरोधाभावे तु तत्त्वज्ञानवानप्यपरमो योगीति सिद्धम्। अवशिष्टं जीवन्मुक्तिविवेके सविस्तरमनुसंधेयम्।
।।6.36।।एतावांस्त्विह निश्चय इत्याह असंयतात्मनेति। असंयतात्मा उक्तप्रकारेणाभ्यासवैराग्याभ्यामसंयत आत्मा चित्तं यस्य तेन पुरुषेणायं योगो दुष्प्रापः प्राप्तुमशक्यः। अभ्यासवैराग्याभ्यां वश्यो वशवर्ती आत्मा चित्तं यस्य तेन पुरुषेण पुनश्चानेनैवोपायेन प्रयत्नं कुर्वता योगः प्राप्तुं शक्यः।
।। 6.36 अथार्जुनेन कण्ठोक्तमनुवदन् बुभुत्सितमुपायं श्लोकद्वयेनाह भगवान्। तत्रदुर्निग्रहंचलम् इति पदद्वयमर्जुनोक्तप्रतिज्ञाहेत्वनुवादरूपमाहचलस्वभावतयेति।असंशयं इत्येतत्सत्यमितिवदर्धाङ्गीकारपरम्। तुशब्दाभिप्रेतं विशेषं दर्शयतितथापीति। अनुकूलतयाऽभ्यासो हि तत्र प्रावण्यहेतुः स्यादित्यभ्यासविशेषं तत्फलं च व्यनक्तिआत्मन इति। नित्यत्वज्ञानत्वानन्दत्वाकर्मवश्यत्वामलत्वादयोऽत्र गुणाः। कथञ्चिदित्यवधानार्थम्। एवं मनसो ग्रहणोपाय उक्तः ततश्चएतस्याहं न पश्यामि 6।33 इत्युक्तमर्थं विषयविशेषे व्यवस्थापयति असंयत इति श्लोकेन। मनोनिग्रहप्रकरणत्वात् असंयतवश्यशब्दसमभिव्याहारसामर्थ्याच्चात्र आत्मशब्दो मनोविषयः। महाबाहुशब्दसम्बुद्धिसूचितमाहमहतापि बलेनेति।उपायेन तु यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः पं.तं. इति भावः।मे मतिः इत्यनेन निस्सन्देहत्वं विवक्षितमित्याहदुष्प्राप एवेति।उपायतस्तु वश्यात्मनेति व्याख्येयान्वयप्रदर्शनम्। तद्व्याख्यानंपूर्वेत्यादि। उक्तलक्षणं कर्ममात्रं मनोनिग्रहोपायः अभ्यासवैराग्ये तु तस्यैवाङ्गतयोक्ते इति भावः यतमानेन योगमभ्यस्यतेत्यर्थः।
।।6.36।।अथ यो मनश्चञ्चलमिति ज्ञात्वाऽभ्यासवैराग्ययोर्यत्ननिरपेक्षः स नाप्नोतीत्याह असंयतात्मनेति। असंयतात्मना उक्तप्रकारेणाभ्यासवैराग्याभ्यामसंयतः अवशीकृत आत्माऽन्तःकरणं यस्य तेन योगो मत्संयोगात्मको दुष्प्रापः दुःखेनापि प्राप्तुमशक्यः। वश्यात्मना तु अभ्यासवैराग्यवशीकृतयत्नेन यतता मत्संयोगार्थं यत्नं कुर्वता उपायतोऽवाप्तुं शक्य इति मे मतिः। अत्र स्वमतित्वकथनेन मदुक्तिविश्वासपूर्वकं यो यतेत तस्याऽवश्यं मया संयोगः फलदानं कर्तुं मनोनिग्रहः करणीय इति व्यञ्जितम्।
।।6.36।।असंयतात्मनाऽजितचित्तेन। वश्यात्मना जितचित्तेन। उपायतोऽभ्यासवैराग्यरूपात्।
।।6.36।।असंयतं अभ्यासवैराग्याभ्यामनायत्तं चित्तं यस्य तेन आत्मौपम्येनेत्यनेनोक्तो योगो दुष्प्रापः प्राप्तुमशक्यः। वशीकृतचित्तेन तूपायतः अभ्यासवैराग्यरुपोपायात् भूयोऽपि यतता प्रयत्नं कुर्वता योगोऽवापुतुं प्राप्तुं शक्यः।
6.36 असंयतात्मना by a man of uncontrolled self? योगः Yoga? दुष्प्रापः hard to attain? इति thus? मे My? मतिः opinion? वश्यात्मना by the selfcontrolled one? तु but? यतता by the striving one? शक्यः possible? अवाप्तुम् to obtain? उपायतः by (proper) means.Commentary Uncontrolled self he who has not controlled the senses and the mind by the constant practice of dispassion and meditation. Selfcontrolled he who has controlled the mind by the constant practice of dispassion and meditation. He can attain Selfrealisation by the right means and constant endeavour.
6.36 I think Yoga is hard to be attained by one of uncontrolled self, but the self-controlled and striving one can attain to it by the (proper) means.
6.36 It is not possible to attain Self-Realisation if a man does not know how to control himself; but for him who, striving by proper means, learns such control, it is possible.
6.36 My conviction is that Yoga is difficult to be attained by one of uncontrolled mind. But it is possible to be attained through the (above) means by one who strives and has a controlled mind.
6.36 Me, My; matih, conviction; is iti, that; Yoga is dusprapah, difficult to be attained; asamyata-atmana, by one of uncontrolled mind, by one who has not controlled his mind, the internal organ, by practice and detachment. Tu, but, on the other hand; sakyah, Yoga is possible; avaptum, to be attained; yatata, by one who strives, who repeatedly makes effort; upayatah, through the means described above; and vasyatmany, by one of controlled mind, by him whose mind has been brought under control through practice and detachment. As to that, by accepting the practice of Yoga, actions leading to the attainment of this or the next world may be renounced by a yogi, and yet he may not attain the result of perfection in Yoga, i.e. full Illumination, which is the means to Liberation. Conseently, at the time of death his mind may waver from the path of Yoga. Apprehending that he may be thery ruined.
6.36. My belief is that attaining Yoga is difficult for a man of uncontrolled self (mind); but it is possible to attain by [proper] means by a person who exerts with his subdued self.
6.36 Asamyata - etc. In do way whatsoever, is the Yoga attainable for a man with uncontrolled self i.e., for a man without desirelessness. One, with subdued self : one, with an attitude of desirelessness. By him who exerts : by him who has practice. By means : by undertaking the means enjoined in many scriptures of the Siddanta and the rest.
6.36 Yoga is hard to attain even in spite of great efforts by one of unrestrained self, i.e., of unrestrained mind. But the same Yoga which is of the form of sameness of vision can be attained by proper means by one who is striving, whose 'mind is subdued,' i.e., by one whose mind is conered by works (Karma Yoga) taught before, which is of the nature of My worship and which includes within itself knowledge (Jnana). Then Arjuna puts estions in order to hear the greatness of Yoga, as it really is, which he has already heard about at the beginning of the teaching, 'Here there is no loss of effort' (2.40). There the greatness of Karma Yoga as inclusive of knowledge of the self with Yoga as its culmination was taught. This alone is the real greatness of Yoga.
6.36 In my opinion Yoga is hard to attain by a person of unrestrained mind. However, it can be attained through right means by him, who strives for it and has a subdued mind.
।।6.36।।परंतु जिसका अन्तःकरण वशमें किया हुआ नहीं है उस मनको वशमें न करनेवाले पुरुषद्वारा अर्थात् जिसका अन्तःकरण अभ्यास और वैराग्यद्वारा संयत किया हुआ नहीं है ऐसे पुरुषद्वारा योग प्राप्त किया जाना कठिन है अर्थात् उसको योग कठिनतासे प्राप्त हो सकता है यह मेरा निश्चय है। परंतु जो स्वाधीन मनवाला है जिसका मन अभ्यासवैराग्यद्वारा वशमें किया हुआ है और जो फिर भी बारंबार यत्न करता ही जाता है ऐसे पुरुषद्वारा पूर्वोक्त उपायोंसे यह योग प्राप्त किया जा सकता है।
।।6.36।। असंयतात्मना अभ्यासवैराग्याभ्यामसंयतः आत्मा अन्तःकरणं यस्य सोऽयम् असंयतात्मा तेन असंयतात्मना योगो दुष्प्रापः दुःखेन प्राप्यत इति मे मतिः। यस्तु पुनः वश्यात्मा अभ्यासवैराग्याभ्यां वश्यत्वमापादितः आत्मा मनः यस्य सोऽयं वश्यात्मा तेन वश्यात्मना तु यतता भूयोऽपि प्रयत्नं कुर्वता शक्यः अवाप्तुं योगः उपायतः यथोक्तादुपायात्।।तत्र योगाभ्यासाङ्गीकरणेन इहलोकपरलोकप्राप्तिनिमित्तानि कर्माणि संन्यस्तानि योगसिद्धिफलं च मोक्षसाधनं सम्यग्दर्शनं न प्राप्तमिति योगी योगमार्गात् मरणकाले चलितचित्तः इति तस्य नाशमाशङ्क्य अर्जुन उवाच अर्जुन उवाच
।।6.35 6.36।।संयतेति श्लोको व्यर्थ इव प्रतीयते तन्निवर्त्यामाशङ्कां सूचयन् तात्पर्यमाह न चेति। यथा मत्तमातङ्गः स्वयमेव श्रान्तः शान्तो भवति तथा विषयैस्तुष्टं मनः कदाचित्स्वयमेव नियतं भवति किमभ्यासादिना इत्येतन्नैवेत्यर्थः। कुतः इत्यत आह शुभेति। सदेति पूर्वेण सम्बन्धः। अनेनात्र शुभेच्छादिकमप्युलक्षितमिति सूचितम्। मुक्तिबीजत्वान्मनोनियमनस्य मुक्तिरित्युक्तम्।
।।6.36।।न च कदाचित्स्वयमेव मनो नियम्यते।शुभेच्छारहितानां च द्वेषिणां च रमापतौ। नास्तिकानां च वै पुंसां तदा मुक्तिर्न युज्यते इति निषेधाद्ब्राह्मे।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः। वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।6.36।।
অসংযতাত্মনা যোগো দুষ্প্রাপ ইতি মে মতিঃ৷ বশ্যাত্মনা তু যততা শক্যোবাপ্তুমুপাযতঃ৷৷6.36৷৷
অসংযতাত্মনা যোগো দুষ্প্রাপ ইতি মে মতিঃ৷ বশ্যাত্মনা তু যততা শক্যোবাপ্তুমুপাযতঃ৷৷6.36৷৷
અસંયતાત્મના યોગો દુષ્પ્રાપ ઇતિ મે મતિઃ। વશ્યાત્મના તુ યતતા શક્યોવાપ્તુમુપાયતઃ।।6.36।।
ਅਸਂਯਤਾਤ੍ਮਨਾ ਯੋਗੋ ਦੁਸ਼੍ਪ੍ਰਾਪ ਇਤਿ ਮੇ ਮਤਿ। ਵਸ਼੍ਯਾਤ੍ਮਨਾ ਤੁ ਯਤਤਾ ਸ਼ਕ੍ਯੋਵਾਪ੍ਤੁਮੁਪਾਯਤ।।6.36।।
ಅಸಂಯತಾತ್ಮನಾ ಯೋಗೋ ದುಷ್ಪ್ರಾಪ ಇತಿ ಮೇ ಮತಿಃ. ವಶ್ಯಾತ್ಮನಾ ತು ಯತತಾ ಶಕ್ಯೋವಾಪ್ತುಮುಪಾಯತಃ৷৷6.36৷৷
അസംയതാത്മനാ യോഗോ ദുഷ്പ്രാപ ഇതി മേ മതിഃ. വശ്യാത്മനാ തു യതതാ ശക്യോവാപ്തുമുപായതഃ৷৷6.36৷৷
ଅସଂଯତାତ୍ମନା ଯୋଗୋ ଦୁଷ୍ପ୍ରାପ ଇତି ମେ ମତିଃ| ବଶ୍ଯାତ୍ମନା ତୁ ଯତତା ଶକ୍ଯୋବାପ୍ତୁମୁପାଯତଃ||6.36||
asaṅyatātmanā yōgō duṣprāpa iti mē matiḥ. vaśyātmanā tu yatatā śakyō.vāptumupāyataḥ৷৷6.36৷৷
அஸஂயதாத்மநா யோகோ துஷ்ப்ராப இதி மே மதிஃ. வஷ்யாத்மநா து யததா ஷக்யோவாப்துமுபாயதஃ৷৷6.36৷৷
అసంయతాత్మనా యోగో దుష్ప్రాప ఇతి మే మతిః. వశ్యాత్మనా తు యతతా శక్యోవాప్తుముపాయతః৷৷6.36৷৷
6.37
6
37
।।6.37।। अर्जुन बोले - हे कृष्ण ! जिसकी साधनमें श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह अन्तसमयमें अगर योगसे विचलितमना हो जाय, तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है?
।।6.37।। अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! जिसका मन योग से चलायमान हो गया है, ऐसा अपूर्ण प्रयत्न वाला (अयति) श्रद्धायुक्त पुरुष योग की सिद्धि को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है?
।।6.37।। इस स्थान पर वेद व्यासजी अर्जुन के मुख से एक अत्यन्त उपयुक्त प्रश्न उठाते है जिससे भगवान् को वेदान्त के महान् आशावादी तत्त्वज्ञान को प्रकाश में लाने का पुन एक अवसर प्राप्त होता है। योग के दिव्य मार्ग पर चलने वाला कोई भी साधक कदापि नष्ट नहीं होता जो कोई उपलब्धि या सफलता वह प्राप्त कर चुकता है वह धरोहर के रूप में उसके साथ इहलोक और परलोक में भी उपलब्ध रहती है। असंख्य व्यतीत हुए कल की दीर्घश्रंखला में प्रत्येक आज एक कड़ी के रूप मे जुड़ जाता है। इस प्रकार यह श्रंखला निरन्तर बढ़ती ही जाती है। जीव के अस्तित्वकाल की असंख्य घटनाओं में मृत्यु भी मात्र एक घटना है और आने वाला कल न कोई आकस्मिक घटना हाेगी और न कोई अनिर्धारित प्रारम्भ। वर्तमान के विचारों तथा प्रयत्नों से प्रभावित एवं परिवर्तित भूतकाल ही भविष्य के रूप में प्रकट होता है।अर्जुन का भगवान् से सावधानी पूर्वक पूछा गया कुछ अस्पष्ट सा प्रश्न यह है कि जो पुरुष पूर्ण श्रद्धा से योग साधना करता है परन्तु अपने जीवन काल में पूर्ण आत्मसंयम को प्राप्त नहीं होता अथवा पर्याप्त प्रयत्न के अभाव में योग से उसका मन चलायमान हो जाता है उसकी गति क्या होगी तात्पर्य यह है कि योगाभ्यास में भोग का त्याग करने से उसे विषयों का सुख नहीं मिलेगा तथा उसी प्रकार योग में सफलता न मिलने के कारण योग का अनन्त आनन्द भी प्राप्त नहीं होगा। यद्यपि वेदान्ती केवल विषय भोग के जीवन की निन्दा करते हैं तथापि वे इस तथ्य को कभी नहीं नकारते कि विषयों में क्षणिक सुख तो होता ही है। परन्तु उनके मतानुसार विषयानन्द भी वस्तुत ब्रह्मानन्द का ही अंश है या आभास है। अर्जुन को भय है कि सम्भवत श्रीकृष्ण द्वारा उपदिष्ट योग के पालन में मनुष्य अल्प विषयानन्द और अनन्त ब्रह्मानन्द दोनों से ही वंचित रह जायेगा।ऐसा योगी प्रयत्नपूर्वक स्वयं को लौकिक विषयों के प्रलोभनों से सुरक्षित रखेगा। परन्तु यदि साधना में रत उस योगी के जीवनसूत्र को अनिश्चित काल की कैंची द्वारा काट दिया जाय तो वह ब्रह्मानन्द को पाने का अवसर खो देगा जिसे गीता में जीवन के लक्ष्य के रूप में निर्देशित किया गया है। अथवा हो सकता है कि योगी का मन किसी कारण से विचलित हो जाये। योग में सफलता पाना निसन्देह ही महान् विजय है सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। परन्तु यदि अदृश्य कामुक वृत्ति रूपी गदा के द्वारा साधक धराशायी हो जाये तो उसे इहलोक और परलोक का भी सुख नहीं मिलेगा। अत अर्जुन ऐसे साधक की गति जानना चाहता है।इस श्लोक में कथित श्रद्धा को अन्धविश्वास नहीं समझना चाहिए। बुद्धि की उस क्षमता को श्रद्धा कहते हैं जिसके द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशों के तात्पर्य को समझ कर तत्त्व को पहचाना जा सकता है। बुद्धि के निश्चय से हृदय में उमड़ने वाली भक्ति की उस प्रबल शक्ति को श्रद्धा कहते हैं जो पर्वतों को हिला सकती है और स्वर्ग को पृथ्वी पर उतार सकती है।योगभ्रष्ट पुरुष के चित्र को और अधिक स्पष्ट करने के लिए अर्जुन आगे कहता है
।।6.37।। व्याख्या--'अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः'--जिसकी साधनमें अर्थात् जप, ध्यान, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदिमें रुचि है, श्रद्धा है और उनको करता भी है, पर अन्तःकरण और बहिःकरण वशमें न होनेसे साधनमें शिथिलता है, तत्परता नहीं है। ऐसा साधक अन्तसमयमें संसारेमें राग रहनेसे, विषयोंका चिन्तन होनेसे अपने साधनसे विचलित हो जाय, अपने ध्येयपर स्थिर न रहे तो फिर उसकी क्या गति होती है?
।।6.37 6.39।।अयतः इत्यादि नह्युपपद्यते इत्यन्तम्। प्राप्ताद्योगात् यदि ( N यस्य instead यदि) चलितेऽपि चित्ते श्रद्धा न हीयते। विनष्टश्रद्धौ हि सिद्धयोगोऽपि सर्वं निष्फलं कुरुते। उक्तं हि यदा प्राप्यापि विज्ञानं दूषितं चित्तविभ्रमात्।तदैव ( तदैवम्) ध्वंसते शीघ्र तूलराशिवानलात्।।योगस्य सम्यक् सिद्धौ अजातायां किं लोकान्निष्क्रान्तः सम्यक् च ब्रह्मणि न निलीन (K न लीन इति) इति नश्येत् अथवा ब्रह्मणि अप्रतिष्ठितत्वात् विनश्यति परलोकबाधाय इति प्रश्नः।
।।6.37।।अर्जुन उवाच श्रद्धया योगे प्रवृत्तो दृढतराभ्यासरूपयत्नवैकल्येन योगसंसिद्धिम् अप्राप्य योगात् चलितमानसः कां गतिं गच्छति।
।।6.37।।प्रश्नान्तरमुत्थापयति तत्रेत्यादिना। मनोनिरोधस्य दुःखसाध्यत्वमाशङ्क्य परिहृते सति प्रष्टा पुनरवकाशं प्रतिलभ्योवाचेति संबन्धः। लोकद्वयप्रापककर्मसंभवे कुतो योगिनो नाशाशङ्केत्याशङ्क्याह योगाभ्यासेति। तथापि योगानुष्ठानपरिपाकपरिप्रापितसम्यग्दर्शनसामर्थ्यान्मोक्षोपपत्तौ कुतस्तस्य नाशाशङ्केति चेन्मैवमनेकान्तरायवत्त्वाद्योगस्येह जन्मनि प्रायेण संसिद्धेरसिद्धिरित्यभिसंधायाह योगसिद्धीति। अभ्युदयनिःश्रेयसबहिर्भावो नाशो योगमार्गे तत्फलस्य सम्यग्दर्शनस्यादर्शनादिति शेषः। तर्हि ततो बहिर्मुखत्वमेवात्यन्तिकं संवृत्तमित्याशङ्क्याह श्रद्धयेति। तर्हि योगमार्गमाश्रयते नेत्याह योगादिति। मरणकाले व्याकुलेन्द्रियस्य ज्ञानसाधनानुष्ठानावकाशाभावाद् युक्तं ततश्चलितमानसत्वमित्याशङ्क्याह भ्रष्टेति। गम्यत इति गतिः पुरुषार्थः सामान्यप्रश्नमन्तर्भाव्य विशेषप्रश्नो द्रष्टव्यः।
।।6.37।।उभयरहितो योगशीलश्च किं फलमाप्नोति इति सन्दिहानोऽर्जुन उवाच अयतिरिति। न यतिरसन्न्यासी अभ्यासयत्नरहितो वा कां गतिं फलं प्राप्नोति हे कृष्ण कर्षकेत्यन्वर्थसम्बोधनं साभिप्रायम्।
।।6.37।।एवं प्राक्तनेन ग्रन्थेनोत्पन्नतत्त्वज्ञानोऽनुत्पन्नजीवन्मुक्तिरपरमो योगी मतः। उत्पन्नतत्त्वज्ञान उत्पन्नजीवन्मुक्तिस्तु परमोयोगी मत इत्युक्तम्। तयोरुभयोरपि ज्ञानादज्ञाननाशेऽपि यावत्प्रारब्धभोगं कर्म देहेन्द्रियसंघातावस्थानात्प्रारब्धभोगकर्मापाये च वर्तमानदेहेन्द्रियसंघातापायात्पुनरुत्पादकाभावाद्विदेहकैवल्यं प्रति कापि नास्त्याशङ्का। यस्तु प्राक्कृतकर्मभिर्लब्धविविदिषापर्यन्तचित्तशुद्धिः कृतकार्यत्वात्सर्वाणि कर्माणि परित्यज्य प्राप्तपरमहंसपरिव्राजकभावः परमहंसपरिव्राजकमात्मसाक्षात्कारेण जीवन्मुक्तं परप्रबोधनदक्षं गुरुमुपसृत्य ततो वेदान्तमहावाक्योपदेशं प्राप्य तत्रासंभावनाविपरीतभावनाख्यप्रतिबन्धनिरासायअथातो ब्रह्मजिज्ञासा इत्यादिअनावृत्तिः शब्दात् इत्यन्तया चतुर्लक्षणमीमांसया श्रवणमनननिदिध्यासनानि गुरुप्रसादात्कर्तुमारभते स श्रद्दधानोऽपि सन्नायुषोऽल्पत्वेनाल्पप्रयत्नत्वादलब्धज्ञानपरिपाकः श्रवणमनननिदिध्यासनेषु क्रियमाणेष्वेव मध्ये व्यापद्यते। स ज्ञानपरिपाकशून्यत्वेनानष्टाज्ञानो न मुच्यते नाप्युपासनासहितकर्मफलं देवलोकमनुभवत्यर्चिरादिमार्गेण नापि केवलकर्मफलं पितृलोकमनुभवति धूमादिमार्गेण कर्मणामुपासनानां च त्यक्तत्वात्। अत एतादृशो योगभ्रष्टः कीटादिभावेन कष्टां गतिमियादज्ञत्वे सति देवयानपितृयानमार्गासंबन्धित्वात् वर्णाश्रमाचारभ्रष्टवत् अथवा कष्टां गतिं नेयात् शास्त्रनिन्दितकर्मशून्यत्वाद्वामदेववदिति संशयपर्याकुलमनाः अर्जुन उवाच यतिर्यत्नशीलः। अल्पार्थे नञ्। अलवणा यवागूरित्यादिवदयतिरल्पयत्नः श्रद्धया गुरुवेदान्तवाक्येषु विश्वासबुद्धिरूपयोपेतो युक्तः। श्रद्धा च स्वसहचरितानां शमादीनामुपलक्षणम्।शान्तो दान्त उपरस्तितिक्षुः श्रद्धावित्तो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्यति इति श्रुतेः। तेन नित्यानित्यवस्तुविवेक इहामुत्रफलभोगविरागः शमदमोपरतितितिक्षाश्रद्धादिसंपन्मुमुक्षुता चेति साधनचतुष्टयसंपन्नः गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यश्रवणादि कुर्वन्नपि परमायुषोऽल्पत्वेन मरणकाले चेन्द्रियाणां व्याकुलत्वेन साधनानुष्ठानासंभवात् योगाच्चलितमानसः योगाच्छ्रवणादिपरिपाकलब्धजन्मनस्तत्त्वसाक्षात्काराच्चलितं तत्फलमप्राप्तं मानसं यस्य सः योगनिष्पत्त्यैवाप्राप्य योगसंसिद्धिं तत्त्वज्ञाननिमित्तामज्ञानतत्कार्यनिवृत्तिमपुनरावृत्तिसहितामप्राप्यातत्त्वज्ञ एव मृतः सन् कां गतिं हे कृष्ण गच्छति सुगतिं दुर्गतिं वा। कर्मणां परित्यागाज्ज्ञानस्य चानुत्पत्तेः शास्त्रोक्तमोक्षसाधनानुष्ठायित्वाच्छास्त्रगर्हितकर्मशून्यत्वाच्च।
।।6.37।।अभ्यासवैराग्याभावेन कथंचिदप्राप्तसम्यग्ज्ञानः किं फलमाप्नोतीत्यर्जुन उवाच अयतिरिति। प्रथमं श्रद्धोपेत एव योगे प्रवृत्तः नतु मिथ्याचारतया। ततः परंतु अयतिर्न सम्यग्यतते। शिथिलाभ्यास इत्यर्थः। तथा योगाच्चलितं मानसं विषयप्रवणं चित्तं यस्य। मन्दवैराग्य इत्यर्थः। एवमभ्यासवैराग्यशैथिल्याद्योगस्य संसिद्धिं फलं ज्ञानमप्राप्य कां गतिं प्राप्नोति।
।।6.37।।एवं प्रागुक्तमेव योगसाधनं यथावच्छ्रुतम् अथ प्रागुक्तमेव योगमाहात्म्यं श्रोतव्यं सर्वप्रकारान्वितं प्रपञ्चेन श्रोतुं पृच्छतीत्याह अथेति। योगमाहात्म्यशब्देन सङ्ग्रहश्लोकस्थयोगसिद्धिशब्दो व्याख्यातः। सिद्धिकारणं हि माहात्म्यम् सिद्धिश्चात्र शिथिलस्यापि योगस्य चिरतरमनेकपुण्यलोकावाप्तिः पुनर्योगयोग्ययोगिकुलसम्भवः तद्द्वारा पुनर्योगपौष्कल्यं ततश्चापवर्ग इत्येवंरूपा। एषा च सिद्धिः अनितरसाधारणेन माहात्म्येन। ननुनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति 2।40 इत्यादौ कर्मयोगस्य माहात्म्यमुक्तम् अत्र तु तत्फलभूतस्यात्मावलोकनरूपयोगस्य अतः कथं श्रुतमित्युक्तम् तत्राहअन्तर्गतेति। ततः किमित्यत्राहतच्चेति। योगाङ्कुरभूतात्मज्ञानगर्भतया पुष्कलयोगस्वरूपसाधनतया च हि कर्मयोगस्य माहात्स्यं तत्रोदितम् ततश्च योगोपाधिके तदङ्गभूतकर्मयोगमाहात्म्येऽभिहिते अङ्गीभूतयोगमाहात्म्यमेवोक्तं भवतीति भावः।अयतिः इत्यादिपदानामर्थौचित्यात् क्रमभेदेन अन्वयो दर्शितः। तत्र प्रवृत्तस्य हि ततश्चलितत्वं वाच्यम् नतु तत्र श्रद्धोपेतमात्रस्येति अतः श्रद्धया तत्कार्यलक्षणेत्यभिप्रायेणयोगे प्रवृत्त इत्युक्तम्। उपेतशब्द एव वाऽत्र श्रद्धाकृतयोगाधिगमपर इत्यभिप्रायः।योगसंसिद्धिमप्राप्य योगसिद्धेः पूर्वमेवेत्यर्थः।योगाच्चलितमानसः पुष्कलयोगं कर्तुमननुगुणचित्त इत्यर्थः। कामभोगमोक्षनिरयेषु कतमामित्यर्थः।कां गतिं गच्छति इति सामान्यनिर्दिष्टमेवकच्चित् इत्यादिना विवृतम्।दृष्टान्तेऽप्युभयभ्रष्टत्वप्रकारं दर्शयतियथेति। उभयभ्रष्टताविवरणरूपत्वात्विमूढो ब्रह्मणः पथि इत्येकस्याभिधानाच्च पारिशेष्यादप्रतिष्ठपदं सांसारिकफलसाधनकर्मभ्रंशाभिप्रायमित्याहयथावस्थितमिति। कर्मस्वरूपानुष्ठानप्रयासादौ न किञ्चिन्न्यूनम् अभिसन्धिवैषम्यात्तु निष्फलं संवृत्तमित्यभिप्रायः।विमूढो ब्रह्मणः पथि इति ब्रह्मपथे अज्ञानं न विवक्षितम् ज्ञात्वोपक्रम्य निवृत्तं प्रति पृच्छ्यमानत्वात्। अतो विमोहकार्ययोगनिवृत्तिरत्र विमूढशब्देन लक्ष्यत इत्यभिप्रायेणप्रक्रान्त इत्यादिप्रच्युत इत्यन्तमुक्तम्।ब्रह्मणः पथि ब्रह्मप्राप्त्युपायभूते योग इत्यर्थः।एतं मे संशयम् इति निर्दिश्यमानस्य संशयस्यार्थसिद्धं शिरोन्तरमाहकिमयं नश्यत्येवेति। अर्हसि सर्वज्ञत्वकारुणिकत्वप्रियसखत्वादियुक्तस्त्वं योग्योऽसीत्यर्थः।कृष्णशब्देन त्वच्छब्देन चाभिप्रेतमाह स्वत इति। करणाधीनम् अविशदानुमानादिप्रायं क्रमभावि कतिपयविषयं कादाचित्कमपि हि त्वदन्येषां ज्ञानमिति भावः। एतेनयो वेत्ति युगपत्सर्वं प्रत्यक्षेण सदा स्वतः। तं प्रणम्य हरिं शास्त्रं न्यायतत्त्वं प्रचक्ष्महे न्या.त. इति तु भगवन्नाथमुनिमिश्राणां वचनमनुसंहितम्।न ह्युपपद्यत इति युक्तिविरोधोऽभिप्रेतः।
।।6.37।।अथ भवदुक्तिविश्वासेन केवलं श्रद्धया अभ्यासवैराग्यरहितो यत्नं कुर्वन् पश्चात्सिद्धिं प्राप्नोति न वा इति प्रभुं विज्ञापयत्यर्जुनः अर्जुन उवाच अयतिरिति। श्रद्धया भवदुक्तिश्रद्धामात्रत उपेतो भगवत्संयोगात्मकयोगार्थे प्रवृत्तः अयतिः अभ्यासवैराग्ययोः शिथिलप्रयत्नः स्वरूपज्ञानाभावाद्योगाच्चलितमानसो भवति। ततो योगसिद्धिमपि न प्राप्नुयात् तदाह योगसंसिद्धिमप्राप्य कृष्ण सदानन्द त्वदुक्तिविश्वासप्रवृत्तस्य सिद्धिरेवोचितेति विज्ञाप्य कां गतिं गच्छतीति पृष्टवान्।
।।6.37।।मनसो दुर्निग्रहत्वाद्योगसिद्धौ विघ्नं पश्यन्नर्जुन उवाच हे कृष्ण योगात्कर्मयोगाच्चलितमानसस्त्यक्तकर्मा संन्यासीत्यर्थः। श्रद्धया उपेतो योगमार्गं प्रविष्टोऽपि अयतिः आयुषोल्पत्वाद्वा वैराग्यदौर्बल्याद्वाल्पप्रयत्नः। अलवणा यवागूरितिवदत्राल्पार्थे नञ्। स कदाचित् योगसंसिद्धिं योगफलं सम्यग्दर्शनमप्राप्य मृतश्चेत् कां गतिं गच्छति।
।।6.37।।योगभ्रष्टस्य स्वर्गमोक्षयोरभावमाशङ्कार्जुन उवाच। अयतियत्नशीलो योगमार्गे श्रद्धया आस्तिक्य बुद्य्धा चोपेतः युक्तोऽन्तकाले योगाच्चलितं मानसं मनो यस्य सोऽभ्रष्टस्मृतिः योगसंसिद्धिं योगफलं सम्यग्दर्शनमप्राप्य कां गतिं गच्छति। अयमाशयः योगाभ्यासाङ्गीकरणेन समस्तकर्मणां संन्यासात्कर्मफलस्य गन्तव्यस्य स्वर्गादेरभावः योगाच्चलितचित्तत्वात् योगफलस्य सभ्यग्ज्ञानस्यालाभात्पृच्छति कां गतिं गच्छतीति। यत्त्वत्रार्जुनोऽगृहीतसंन्यासानामापाततः शास्त्रोत्थात्मानात्मविवेकानां उभयविधवैराग्यवतां ईश्वरार्पणबुद्य्धैवावश्यकं कर्म कुर्वतां मोक्षमार्गप्रवृत्तानां यदि मध्ये मरणादिनाऽप्राप्य संन्यासं मोचकज्ञाने विघ्नवतां गतिं पृच्छति अयतिरिति। अयतिः संन्यासमोचकज्ञानपंपन्नः हे कृष्ण कां गतिं गच्छतीति संबन्धः। ननु किमत्र प्रष्टव्यं तत्तत्कर्मानुगुणां गतिं गमिष्यतीत्याशङ्क्याह श्रद्धयोपेत इति। श्रद्धा मोक्षे ईश्वरे चास्तिक्यबुद्धिः तयोपेतः। मोक्षार्थ सत्त्वशुद्धये ईश्वरार्पणबुद्य्धा आवश्यकं कर्म कुर्वन्निति भावः तर्हि मोक्षमेव प्राप्स्यतीत्याशङ्कयाह अप्राप्येति। योगो ज्ञानयोगः सएव संसिद्धिः संसिद्धशब्दवाच्यमोक्षसाधनत्वादुपचारात् तामप्राप्य। अनुत्पन्ने मोचकज्ञान इत्यर्थः। ज्ञानाभावेकुतो मोक्षप्राप्तिरिति भावः। कुतो वोक्तश्रद्धोपेतस्य योगसंसिद्य्धप्राप्तिस्तत्राह योगा़च्चलितमानस इति। अत्र केचिद्यागाच्चिलितमानस इत्यस्य मृत इति व्याचक्षते। केचित्तु विषयेष्वासक्त इति वदन्ति। अन्येतु किं मम मोक्षेण काम्यान्यागादीनेव तत्तल्लोकप्राप्तये करिध्यामीति चेष्टितमानस इति व्याख्यां वर्णयन्तीति भाष्यविरुद्धमितरैः कल्पितं तच्चिन्तयम्। एवमुक्तप्रकारेणादौ मोक्षार्थं सत्त्वशुद्धये ईश्वरार्पणबुद्य्धावश्यकं कर्म कुर्वतः किं मम मोक्षेण काम्यान्यागादीनेव करिष्यामीति योगाच्चलितमानसस्य काम्याग्निष्टोमाद्यनुष्ठानसंभवेन गतेरुक्तत्वात् प्रश्नविवरणरुपस्योत्तरश्लोकस्योत्तरस्य चासंगत्यापत्तेः। एतेनायतिरित्यादिपरास्तम्। त्यक्तसर्वकर्मणः अप्राप्तसम्यग्दर्शनस्यैवोभयभ्रष्टत्वात्। यदपि योगो ज्ञानयोग इत्यादि तदपि न। मुख्यार्थसंभवे उपचारायोगात्। यदपि व्याख्यानान्तरप्रदर्शनं तदपि न। प्रथमव्याख्यानस्यापदार्थत्वात् द्वितीयस्य तृतीयन्तर्भावादिति दिक्।
6.37 अयतिः uncontrolled? श्रद्धया by faith? उपेतः possessed? योगात् from Yoga? चलितमानसः one whose mind wanders away? अप्राप्य not having attained? योगसंसिद्धिम् perfection in Yoga? काम् which? गतिम् end? कृष्ण O Krishna? गच्छति meets.Commentary He has faith in the efficacy of Yoga but he is not able to control the senses and the mind. He has no concentration of mind. His mind wanders away when the last breath departs from his body and he loses the memory also. Having failed to achieve perfection in Yoga? i.e.? Selfrealisation or the knowledge of the Self? what path will he tread? and what end will such a man,meet
6.37 Arjuna said He who is unable to control himself though he has the faith, and whose mind wanders away from Yoga, what end does he, having failed to attain perfection in Yoga, mee,t O Krishna?
6.37 Arjuna asked: He who fails to control himself, whose mind falls from spiritual contemplation, who attains not perfection but retains his faith, what of him, my Lord?
6.37 Arjuna said O krsna, failing to achieve perfection in Yoga, what goal does one attain who, though possessed of faith, is not diligent and whose mind becomes deflected from Yoga?
6.37 O krsna, aprapya, failing to achieve; yoga-sam-siddhim, perfection in Yoga, the result of Yoga, i.e. full Illumination; kam gatim, what goal; gacchati, does one attain; who, though upetah sraddhaya, possessed of faith, belief in God and in the other world; is ayatih, not diligent, devoid of effort on the path of Yoga; and, at the time of death, too, calita-manasah, whose mind becomes deflected; yogat, from Yoga, (i.e.) whose memory has been lost?
6.37. Arjuna said A person who has faith and is desirous of reaching the path (goal) of the good; [but] whose mind has severed from the Yoga; to which goal does he go, having failed to attain the success in Yoga ? O Krsna !
6.37 See Comment under 6.39
6.37 - 6.39 Arjuna said What way does he go, who has embarked on Yoga endowed with faith, but who by inadeacy of exertion in practice, does not gain success in Yoga and has his mind wandering from Yoga? Does he not perish like a small piece of cloud torn from a large mass of cloud - perish without reaching another large mass of cloud? Now does he not fall away from both (sides)? He has no support and is confused on the path leading to the Brahman. He is without any support in the sense that Karma or rituals which constitutes the means of heaven etc., does not give support for a person who is devoid of attachment to fruits; for Karma is the means for generating its own fruits. He is also confused in the path leading to the Brahman on which he has just begun to traverse; He has lost his way. Does he then get lost by falling down from both sides, these being attainment of heaven on the one hand and liberation on the other. Does he not thus perish? You should remove this doubt altogether from my mind; for there is no other remover of this doubt than You, who always perceive directly all matters simultaneously.
6.37 Arjuna said If a person, who is possessed of faith but has put in only inadeate effort, finds his mind wandering away from Yoga, and then fails to attain perfection - what way does he go, O Krsna?
।।6.37।।योगाभ्यासको स्वीकार करके जिसने इस लोक और परलोककी प्राप्तिके साधनरूप कर्मोंका तो त्याग कर दिया और योगसिद्धिका फल मोक्षप्राप्तिका साधन पूर्ण ज्ञान जिसको मिला नहीं ऐसे जिस योगीका चित्त अन्तकालमें योगमार्गसे विचलित हो गया हो उस योगीके नाशकी आशङ्का करके अर्जुन पूछने लगा हे कृष्ण जो साधक योगमार्गमें यत्न करनेवाला नहीं है परंतु श्रद्धासे अर्थात् आस्तिकबुद्धिसे युक्त है और अन्तकालमें जिसका मन योगसे चलायमान हो गया है वह चञ्चलचित्त भ्रष्ट स्मृतिवाला योगी योगकी सिद्धिको अर्थात् योगफलरूप पूर्ण ज्ञानको न पाकर किस गतिको प्राप्त होता है ।
।।6.37।। अयतिः अप्रयत्नवान् योगमार्गे श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या च उपेतः योगात् अन्तकाले च चलितं मानसं मनो यस्य सः चलितमानसः भ्रष्टस्मृतिः सः अप्राप्य योगसंसिद्धिं योगफलं सम्यग्दर्शनं कां गतिं हे कृष्ण गच्छति।।
।।6.37 6.39।।अचतुर्थाश्रमीति प्रतीतिनिरासायाह अयतिरिति।
।।6.37 6.39।।अयतिरप्रयत्नः।
अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः। अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।6.37।।
অর্জুন উবাচ অযতিঃ শ্রদ্ধযোপেতো যোগাচ্চলিতমানসঃ৷ অপ্রাপ্য যোগসংসিদ্ধিং কাং গতিং কৃষ্ণ গচ্ছতি৷৷6.37৷৷
অর্জুন উবাচ অযতিঃ শ্রদ্ধযোপেতো যোগাচ্চলিতমানসঃ৷ অপ্রাপ্য যোগসংসিদ্ধিং কাং গতিং কৃষ্ণ গচ্ছতি৷৷6.37৷৷
અર્જુન ઉવાચ અયતિઃ શ્રદ્ધયોપેતો યોગાચ્ચલિતમાનસઃ। અપ્રાપ્ય યોગસંસિદ્ધિં કાં ગતિં કૃષ્ણ ગચ્છતિ।।6.37।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਅਯਤਿ ਸ਼੍ਰਦ੍ਧਯੋਪੇਤੋ ਯੋਗਾਚ੍ਚਲਿਤਮਾਨਸ। ਅਪ੍ਰਾਪ੍ਯ ਯੋਗਸਂਸਿਦ੍ਧਿਂ ਕਾਂ ਗਤਿਂ ਕਰਿਸ਼੍ਣ ਗਚ੍ਛਤਿ।।6.37।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಅಯತಿಃ ಶ್ರದ್ಧಯೋಪೇತೋ ಯೋಗಾಚ್ಚಲಿತಮಾನಸಃ. ಅಪ್ರಾಪ್ಯ ಯೋಗಸಂಸಿದ್ಧಿಂ ಕಾಂ ಗತಿಂ ಕೃಷ್ಣ ಗಚ್ಛತಿ৷৷6.37৷৷
അര്ജുന ഉവാച അയതിഃ ശ്രദ്ധയോപേതോ യോഗാച്ചലിതമാനസഃ. അപ്രാപ്യ യോഗസംസിദ്ധിം കാം ഗതിം കൃഷ്ണ ഗച്ഛതി৷৷6.37৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ଅଯତିଃ ଶ୍ରଦ୍ଧଯୋପେତୋ ଯୋଗାଚ୍ଚଲିତମାନସଃ| ଅପ୍ରାପ୍ଯ ଯୋଗସଂସିଦ୍ଧିଂ କାଂ ଗତିଂ କୃଷ୍ଣ ଗଚ୍ଛତି||6.37||
arjuna uvāca ayatiḥ śraddhayōpētō yōgāccalitamānasaḥ. aprāpya yōgasaṅsiddhiṅ kāṅ gatiṅ kṛṣṇa gacchati৷৷6.37৷৷
அர்ஜுந உவாச அயதிஃ ஷ்ரத்தயோபேதோ யோகாச்சலிதமாநஸஃ. அப்ராப்ய யோகஸஂஸித்திஂ காஂ கதிஂ கரிஷ்ண கச்சதி৷৷6.37৷৷
అర్జున ఉవాచ అయతిః శ్రద్ధయోపేతో యోగాచ్చలితమానసః. అప్రాప్య యోగసంసిద్ధిం కాం గతిం కృష్ణ గచ్ఛతి৷৷6.37৷৷
6.38
6
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।।6.38।। हे महाबाहो ! संसारके आश्रयसे रहित और परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित -- इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता ?
।।6.38।। हे महबाहो ! क्या वह ब्रह्म के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न मेघ के समान दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ नष्ट तो नहीं हो जाता है?
।।6.38।। सम्भव है कि ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग पर चलता हुआ कोई श्रद्धावान् साधक मृत्यु का ग्रास बन जाए अथवा पर्याप्त संयम के अभाव में योग से पतित हो जाए। उसके पतन को दर्शाने के लिए जो अत्यन्त उपयुक्त और प्रभावोत्पादक दृष्टान्त अर्जुन के मुख से महर्षि व्यासजी ने दिया है उसे प्राय साहित्यिक क्षेत्र में उद्धृत किया जाता है।कभीकभी ग्रीष्म ऋतु में पर्वतों के पार्श्व भाग से कोई छत्रवत् मेघमालिका ऊर्ध्वदिशा में उठती हुई दृष्टिगोचर होती है। परन्तु तीव्र वेग से प्रवाहित वायु के स्पर्श से वह मेघ खण्ड अनेक छोटेछोटे मेघखण्डों में विभक्त हो जाता है। ये मेघखण्ड पूर्णतया प्रबल वायु की दया पर आश्रित इतस्तत लक्ष्यहीन भ्रमण करते रहते हैं। ग्रीष्म ऋतु के ये मेघ न कृषकों की अपेक्षाएं पूर्ण कर सकते हैं और न तृषितों की पिपासा को ही शान्त कर सकते हैं। किसी सुरक्षित स्थान को न प्राप्त कर अन्त में वे स्वयं भी नष्ट हो जाते है। अर्जुन का प्रश्न है कि क्या योगभ्रष्ट पुरुष की गति भी उस मेघ के समान ही नहीं होगीअर्जुन यह प्रश्न क्यों पूछता है वह स्वयं ही इसका कारण बताता है
।।6.38।। व्याख्या--[अर्जुनने पूर्वोक्त श्लोकमें कां गतिं कृष्ण गच्छति कहकर जो बात पूछी थी, उसीका इस श्लोकमें खुलासा पूछते हैं।]
।।6.37 6.39।।अयतः इत्यादि नह्युपपद्यते इत्यन्तम्। प्राप्ताद्योगात् यदि ( N यस्य instead यदि) चलितेऽपि चित्ते श्रद्धा न हीयते। विनष्टश्रद्धौ हि सिद्धयोगोऽपि सर्वं निष्फलं कुरुते। उक्तं हि यदा प्राप्यापि विज्ञानं दूषितं चित्तविभ्रमात्।तदैव ( तदैवम्) ध्वंसते शीघ्र तूलराशिवानलात्।।योगस्य सम्यक् सिद्धौ अजातायां किं लोकान्निष्क्रान्तः सम्यक् च ब्रह्मणि न निलीन (K न लीन इति) इति नश्येत् अथवा ब्रह्मणि अप्रतिष्ठितत्वात् विनश्यति परलोकबाधाय इति प्रश्नः।
।।6.38।।उभयविभ्रष्टः अयं छिन्नाभ्रम् इव कच्चित् न नश्यति यथा मेघशकलः पूर्वस्मात् महतो मेघात् छिन्नः परं महान्तं मेघम् अप्राप्य मध्ये विनष्टो भवति तथा एव कच्चित् न नश्यति कथम् उभयविभ्रष्टता अप्रतिष्ठो विमूढो ब्रह्मणः पथि इति यथावस्थितं स्वर्गादिसाधनभूतं कर्म फलाभिसन्धिरहितस्य अस्य पुरुषस्य स्वफलसाधनत्वेन प्रतिष्ठा न भवति इति अप्रतिष्ठः। प्रक्रान्ते ब्रह्मणः पथि विमूढः तस्मात् पथः प्रच्युतः अतउभयभ्रष्टतया किम् अयं नश्यति एव उत न नश्यति।
।।6.38।।प्रश्नमेव विवृणोति कच्चिदिति। प्रशस्तप्रश्नार्थत्वं कच्चिदित्यस्याङ्गीकृत्य व्याचष्टे किमिति। उभयविभ्रष्टत्वं स्पष्टयति कर्मेत्यादिना। वायुना छिन्नं विशकलितमभ्रं यथा नश्यति तद्वदित्याह छिन्नेति। नाशाशङ्कानिमित्तमाह निराश्रय इति। कर्ममार्गरूपावष्टम्भाभावेऽपि ज्ञानमार्गावष्टम्भस्तस्य भविष्यतीत्याशङ्क्याह विमूढः सन्निति। नहि कर्मिणं प्रतीयमाशङ्का युक्ताभिलाषं त्यक्त्वेश्वरे समर्प्या समर्प्य वा कर्मानुतिष्ठतो निरुपचारेण तद्भ्रंशवचनासंभवात्सर्वकर्मसंन्यासिनस्तु विहितानां त्यागाज्ज्ञानोपायाच्चविच्युतेरनर्थप्राप्तिशङ्का युक्तेति भावः।
।।6.38।।स्वाभिप्रायं निवेदयति कच्चिदिति। उभाभ्यामैहिकपारलौकिकसुखभोगाभ्यां विभ्रष्टस्तु न भवति कच्चित् इति प्रश्नः। ब्रह्ममार्गभूते योगे अप्रतिष्ठो यतः।
।।6.38।।एतदेव संशयबीजं विवृणोति कच्चिदिति साभिलाषप्रश्ने। हे महाबाहो महान्तः सर्वेषां भक्तानां सर्वोपद्रवनिवारणसमर्थाः पुरुषार्थचतुष्टयदानसमर्था वा चत्वारो बाहवो यस्येति प्रश्ननिमित्तक्रोधाभावस्तदुत्तरदानसहिष्णुत्वं च सूचितम्। ब्रह्मणः पथि ब्रह्मप्राप्तिमार्गे ज्ञाने विमूढो विक्षिप्तः। अनुत्पन्नब्रह्मात्म्यैक्यसाक्षात्कार इति यावत्। अप्रतिष्ठो देवयानपितृयानमार्गगमनहेतुभ्यामुपासनाकर्मभ्यां प्रतिष्ठाभ्यां साधनाभ्यां रहितः सोपासनानां सर्वेषां कर्मणां परित्यागात्। एतादृश उभयविभ्रष्टः कर्ममार्गाज्ज्ञानमार्गाच्च विभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव वायुना छिन्नं विशकलितं पूर्वस्मान्मेघाद्भ्रष्टमुत्तरं मेघं चाप्राप्तमभ्रं यथा वृष्ट्ययोग्यं सदन्तराल एव नश्यति तथा योगभ्रष्टोऽपि पूर्वस्मात्कर्ममार्गाद्विच्छिन्न उत्तरं च ज्ञानमागमप्राप्तोऽन्तराल एव नश्यति कर्मफलं ज्ञानफलं च लब्धुमयोग्यो न किमिति प्रश्नार्थः। एतेन ज्ञानकर्मसमुच्चयो निराकृतः। एतस्मिन्हि पक्षे ज्ञानफलालाभेऽपि कर्मफललाभसंभवेनोभयविभ्रष्टत्वासंभवात्। नच तस्य कर्मसंभवेऽपि फलकामनात्यागात्तत्फलभ्रंशवचनमवकल्पत इति वाच्यम्। निष्कामानामपि कर्मणां फलसद्भावस्यापस्तम्बवचनाद्युदाहरणेन बहुशः प्रतिपादितत्वात्। तस्मात्सर्वकर्मत्यागिनं प्रत्येवायं प्रश्नः। अनर्थप्राप्तिशङ्कायास्तत्रैव संभवात्।
।।6.38।।प्रश्नाभिप्रायं विवृणोति कच्चिदिति। कर्मणामीश्वरार्पितत्वादननुष्ठानाच्च न तावत्कर्मफलं स्वर्गादिकं प्राप्नोति योगानिष्पत्तेश्च न मोक्षं प्राप्नोति एवमुभयस्माद्भ्रष्टोऽप्रतिष्ठो निराश्रयः अतएव ब्रह्मणः प्राप्त्युपाये पथि मार्गे विमूढः सन्कच्चित्किं न नश्यति किंवा नश्यतीत्यर्थः। नाशे दृष्टान्तःयथा छिन्नमभ्रं पूर्वस्मादभ्राद्विश्लिष्टमभ्रान्तरं चाप्राप्तं सन्मध्य एव विलीयते तद्वदित्यर्थः।
।। 6.38 एवं प्रागुक्तमेव योगसाधनं यथावच्छ्रुतम् अथ प्रागुक्तमेव योगमाहात्म्यं श्रोतव्यं सर्वप्रकारान्वितं प्रपञ्चेन श्रोतुं पृच्छतीत्याह अथेति। योगमाहात्म्यशब्देन सङ्ग्रहश्लोकस्थयोगसिद्धिशब्दो व्याख्यातः। सिद्धिकारणं हि माहात्म्यम् सिद्धिश्चात्र शिथिलस्यापि योगस्य चिरतरमनेकपुण्यलोकावाप्तिः पुनर्योगयोग्ययोगिकुलसम्भवः तद्द्वारा पुनर्योगपौष्कल्यं ततश्चापवर्ग इत्येवंरूपा। एषा च सिद्धिः अनितरसाधारणेन माहात्म्येन। ननुनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति 2।40 इत्यादौ कर्मयोगस्य माहात्म्यमुक्तम् अत्र तु तत्फलभूतस्यात्मावलोकनरूपयोगस्य अतः कथं श्रुतमित्युक्तम् तत्राहअन्तर्गतेति। ततः किमित्यत्राहतच्चेति। योगाङ्कुरभूतात्मज्ञानगर्भतया पुष्कलयोगस्वरूपसाधनतया च हि कर्मयोगस्य माहात्स्यं तत्रोदितम् ततश्च योगोपाधिके तदङ्गभूतकर्मयोगमाहात्म्येऽभिहिते अङ्गीभूतयोगमाहात्म्यमेवोक्तं भवतीति भावः।अयतिः इत्यादिपदानामर्थौचित्यात् क्रमभेदेन अन्वयो दर्शितः। तत्र प्रवृत्तस्य हि ततश्चलितत्वं वाच्यम् नतु तत्र श्रद्धोपेतमात्रस्येति अतः श्रद्धया तत्कार्यलक्षणेत्यभिप्रायेणयोगे प्रवृत्त इत्युक्तम्। उपेतशब्द एव वाऽत्र श्रद्धाकृतयोगाधिगमपर इत्यभिप्रायः।योगसंसिद्धिमप्राप्य योगसिद्धेः पूर्वमेवेत्यर्थः।योगाच्चलितमानसः पुष्कलयोगं कर्तुमननुगुणचित्त इत्यर्थः। कामभोगमोक्षनिरयेषु कतमामित्यर्थः।कां गतिं गच्छति इति सामान्यनिर्दिष्टमेवकच्चित् इत्यादिना विवृतम्।दृष्टान्तेऽप्युभयभ्रष्टत्वप्रकारं दर्शयतियथेति। उभयभ्रष्टताविवरणरूपत्वात्विमूढो ब्रह्मणः पथि इत्येकस्याभिधानाच्च पारिशेष्यादप्रतिष्ठपदं सांसारिकफलसाधनकर्मभ्रंशाभिप्रायमित्याहयथावस्थितमिति। कर्मस्वरूपानुष्ठानप्रयासादौ न किञ्चिन्न्यूनम् अभिसन्धिवैषम्यात्तु निष्फलं संवृत्तमित्यभिप्रायः।विमूढो ब्रह्मणः पथि इति ब्रह्मपथे अज्ञानं न विवक्षितम् ज्ञात्वोपक्रम्य निवृत्तं प्रति पृच्छ्यमानत्वात्। अतो विमोहकार्ययोगनिवृत्तिरत्र विमूढशब्देन लक्ष्यत इत्यभिप्रायेणप्रक्रान्त इत्यादिप्रच्युत इत्यन्तमुक्तम्।ब्रह्मणः पथि ब्रह्मप्राप्त्युपायभूते योग इत्यर्थः।एतं मे संशयम् इति निर्दिश्यमानस्य संशयस्यार्थसिद्धं शिरोन्तरमाहकिमयं नश्यत्येवेति। अर्हसि सर्वज्ञत्वकारुणिकत्वप्रियसखत्वादियुक्तस्त्वं योग्योऽसीत्यर्थः।कृष्णशब्देन त्वच्छब्देन चाभिप्रेतमाह स्वत इति। करणाधीनम् अविशदानुमानादिप्रायं क्रमभावि कतिपयविषयं कादाचित्कमपि हि त्वदन्येषां ज्ञानमिति भावः। एतेनयो वेत्ति युगपत्सर्वं प्रत्यक्षेण सदा स्वतः। तं प्रणम्य हरिं शास्त्रं न्यायतत्त्वं प्रचक्ष्महे न्या.त. इति तु भगवन्नाथमुनिमिश्राणां वचनमनुसंहितम्।न ह्युपपद्यत इति युक्तिविरोधोऽभिप्रेतः।
।।6.38।।स्वबुद्धिपरिकल्पितसंदेहविनिवृत्त्यर्थं स्वबुद्धिसन्देहमेव वितृणोति कच्चिदिति। पूर्वप्रवृत्तकर्मादित्यागेन योगमार्गे अप्रतिष्ठो निराश्रयः। अभ्यासाभावेन स्वरूपाज्ञानात् ब्रह्मणः पथि भगवत्प्राप्त्येकयत्नमार्गे विमूढो वैराग्याभावात्। हे महाबाहो सर्वकृपाकरणसमर्थ एवमुभयविभ्रष्टः सन् छिन्नाभ्रमिव यथा छिन्नमभ्रं पूर्वाभ्राद्वियुक्तमभ्रान्तरामिलितं सन्मध्य एव विनश्यति तथा पूर्वधर्मत्यागेन स्वधर्मोपार्जितमोक्षफलरहितो भगवन्मार्गस्वरूपाज्ञानात् स्वरूपसंयोगरहितो जीवस्वरूपाप्तिभावरहितः कच्चिन्नो नश्यति।
।।6.38।।कच्चिदिति। कच्चिन्नोभयविभ्रष्टः कर्ममार्गाद्योगमार्गाच्च विभ्रष्टः छिन्नाभ्रमिव पूर्वमपरं वा मेघसंघमप्राप्य मध्ये एव नश्यति तद्वत्। अप्रतिष्ठो निराश्रयः। हे महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ब्रह्मप्राप्तिमार्गे।
।।6.38।।स्वाशयं स्फटयति कच्चिदिति प्रश्ने। उभयविभ्रष्टः सर्वकर्मणां त्यागात् कर्ममार्गात् सभ्यग्दर्शनालाभाद्योगाच्च विभ्रष्टः स किं नश्यत्युत न नश्यति।थ उभयविभ्रष्टत्वमेव दर्शयति द्वाभ्यां विशेषणाभ्याम्। अप्रतिष्ठो निराश्रयः कर्ममार्गरुपाश्रयरहितः। ब्रह्मणः पथि ब्रह्मप्राप्तिमार्गे विमूढः ज्ञानमार्गावष्टम्भशून्यः। उभयविभ्रष्टस्य नाशे दृष्टान्तमाह। छिन्नभ्रमिव यथा पूर्वस्मादभ्राद्विच्छिनोऽभ्रैकदेशः परमप्तिमार्गे विमूढः ज्ञानमार्गावष्टम्भशून्यः। उभयविभ्रष्टस्य नाशे दृष्टान्माह। छिन्नाभ्रमिव यथा पूर्वस्मादभ्राद्विच्छिनोऽभ्रैकदेशः परमभ्रमप्राप्य मध्य एवनश्यति तद्वत्। महाबाहो इतिसंबोधयन् भक्तोद्धारणसमर्थैरति प्रबलैर्बाहुभिर्युक्ते त्वयि सति तस्य नाशो न युक्त इति द्योतयति। यत्तु प्रश्नमेव विवृणोति। कश्चिदितिकिमित्यस्मिन्नर्थे। नश्यति नरकं प्राप्नोति। किंवा तस्य गत्यन्तरमस्तीति किमापेक्षितं पक्षान्तरं पूरणीयम्। ननु नरकपातान्तस्तस्य को वापराध इत्याशङ्क्याह ब्रह्मणः पथि विमूढ इति। ननु कृतानां काम्यकर्मणां तथा चित्तशुद्य्धर्थमनुष्ठितानामावश्यककर्मणां फलं प्राप्स्यति कुतोऽस्य नरकप्राप्तिरित्याशङ्क्याहउयविभ्रष्ट इति। कृतौरावश्यककर्मबिश्चित्तशुद्धौ जातायामपि तदुपेयमोचकज्ञानपरिभिश्चित्तशुद्धौ जातायामपि तदुपेयमोचकज्ञानपरिभ्रष्टः किमन्यतेषामावश्यकर्कणां फलं प्राप्नुयात् तथा स्वात्मानं कर्तृत्वादिरहितं कर्मण्यनधिकारिणं निश्चित्य ब्रह्मार्पणं ब्रह्मविरित्याद्युक्तमार्गेण शुद्य्धार्थ कर्माचरणात् कथं वा कर्मण्यधिकारी स्यादित्युभयविभ्रष्टपदस्यार्थः। ननु किमित्येवं ब्रह्मणः पथि तस्य विमूढतेत्यत उक्तमप्रतिष्ठ इति। प्रतिष्ठा क्षुद्र पुरुषार्थपरित्यागेन परमार्थशक्तिलक्षणा तद्रहित इत्यर्थ इतीतरैःस कल्पितं तदसत्। काम्यकर्मणां फलस्यावश्यंभावेनोभयभ्रष्टत्वाभावात् तथा स्वात्मानमित्यादेः किं मम मोक्षेण काम्यादीनेव तत्तल्लोकप्राप्तये करिष्यामीति स्वपूर्वग्रन्थविरुद्धत्वात्। नहि काम्यकर्ममार्गे प्रवृत्तस्ततो भ्रष्ट इति शङ्कितुं शक्यते अतः संन्यातीति भाष्यटीकायामुक्त्त्वाच्च। एतेनाप्रतिष्ठशब्दार्थो.़पि प्रत्युक्तः। विमूढो ब्रह्मणः पथीत्यनेनैव परमपुरुषार्थाशक्तेरुक्तत्वात्।
6.38 कच्चित् is it that न not? उभयविभ्रष्टः fallen from both? छिन्नाभ्रम् rent cloud? इव like? नश्यति perishes? अप्रतिष्ठः supportless? महाबाहो O mightyarmed? विमूढः deluded? ब्रह्मणः of Brahman? पथि in the path.Commentary Both the path of Karma or the path of ritualistic activity in accordance with the Karma Kanda of the Vedas on the one hand and the path of Yoga on the other.Path of Brahman the path by which Brahman can be reached or the way that leads to Brahman.The Yoga taught by the Lord here demands onepointed devotion to its practice. The aspirant turns away from the world and spurns heaven? too. Some people held that if he failed to attain the goal? he would have lost everything for nothing. Hence the estion.
6.38 Fallen from both, does he not perish like a rent cloud, supportless, O mighty-armed (Krishna), deluded on the path of Brahman?
6.38 Having failed in both, my Lord, is he without hope, like a riven cloud having no support, lost on the spiritual road?
6.38 O Mighty-armed one, fallen from both, without support, deluded on the path to Brahman, does he not get ruined like a scattered cloud?
6.38 Mahabaho, O Mighty-armed one; ubhaya-vibhrastah, fallen from both, having fallen from the Path of Action and the Path of Yoga; apratisthah, without support; vimudhah, deluded-having become deluded; brahmanah pathi, on the path of Brahman, on the path leading to Brahman; kaccit na, does he not; nasyati, get ruined; iva, like; a chinna-abhram, scattered cloud? Or is it that he does not?
6.38. Does he, fallen from both, get lost like a broken cloud ? Or, O mighty-armed ! having no support, does he meet total destruction ?
6.38 See Comment under 6.39
6.37 - 6.39 Arjuna said What way does he go, who has embarked on Yoga endowed with faith, but who by inadeacy of exertion in practice, does not gain success in Yoga and has his mind wandering from Yoga? Does he not perish like a small piece of cloud torn from a large mass of cloud - perish without reaching another large mass of cloud? Now does he not fall away from both (sides)? He has no support and is confused on the path leading to the Brahman. He is without any support in the sense that Karma or rituals which constitutes the means of heaven etc., does not give support for a person who is devoid of attachment to fruits; for Karma is the means for generating its own fruits. He is also confused in the path leading to the Brahman on which he has just begun to traverse; He has lost his way. Does he then get lost by falling down from both sides, these being attainment of heaven on the one hand and liberation on the other. Does he not thus perish? You should remove this doubt altogether from my mind; for there is no other remover of this doubt than You, who always perceive directly all matters simultaneously.
6.38 Without any support, confused in the path leading to the Brahman, and thus fallen from both, does he not perish, O mighty armed, like a riven cloud?
।।6.38।।हे महाबाहो वह आश्रयरहित और ब्रह्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित हुआ पुरुष कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों ओरसे भ्रष्ट होकर क्या छिन्नभिन्न हुए बादलकी भाँति नष्ट हो जाता है अथवा नष्ट नहीं होता।
।।6.38।। कच्चित् किं न उभयविभ्रष्टः कर्ममार्गात् योगमार्गाच्च विभ्रष्टः सन् छिन्नाभ्रमिव नश्यति किं वा न नश्यति अप्रतिष्ठो निराश्रयः हे महाबाहो विमूढः सन् ब्रह्मणः पथि ब्रह्मप्राप्तिमार्गे।।
।।6.37 6.39।।अचतुर्थाश्रमीति प्रतीतिनिरासायाह अयतिरिति।
।।6.37 6.39।।अयतिरप्रयत्नः।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति। अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।6.38।।
কচ্চিন্নোভযবিভ্রষ্টশ্ছিন্নাভ্রমিব নশ্যতি৷ অপ্রতিষ্ঠো মহাবাহো বিমূঢো ব্রহ্মণঃ পথি৷৷6.38৷৷
কচ্চিন্নোভযবিভ্রষ্টশ্ছিন্নাভ্রমিব নশ্যতি৷ অপ্রতিষ্ঠো মহাবাহো বিমূঢো ব্রহ্মণঃ পথি৷৷6.38৷৷
કચ્ચિન્નોભયવિભ્રષ્ટશ્છિન્નાભ્રમિવ નશ્યતિ। અપ્રતિષ્ઠો મહાબાહો વિમૂઢો બ્રહ્મણઃ પથિ।।6.38।।
ਕਚ੍ਚਿਨ੍ਨੋਭਯਵਿਭ੍ਰਸ਼੍ਟਸ਼੍ਛਿਨ੍ਨਾਭ੍ਰਮਿਵ ਨਸ਼੍ਯਤਿ। ਅਪ੍ਰਤਿਸ਼੍ਠੋ ਮਹਾਬਾਹੋ ਵਿਮੂਢੋ ਬ੍ਰਹ੍ਮਣ ਪਥਿ।।6.38।।
ಕಚ್ಚಿನ್ನೋಭಯವಿಭ್ರಷ್ಟಶ್ಛಿನ್ನಾಭ್ರಮಿವ ನಶ್ಯತಿ. ಅಪ್ರತಿಷ್ಠೋ ಮಹಾಬಾಹೋ ವಿಮೂಢೋ ಬ್ರಹ್ಮಣಃ ಪಥಿ৷৷6.38৷৷
കച്ചിന്നോഭയവിഭ്രഷ്ടശ്ഛിന്നാഭ്രമിവ നശ്യതി. അപ്രതിഷ്ഠോ മഹാബാഹോ വിമൂഢോ ബ്രഹ്മണഃ പഥി৷৷6.38৷৷
କଚ୍ଚିନ୍ନୋଭଯବିଭ୍ରଷ୍ଟଶ୍ଛିନ୍ନାଭ୍ରମିବ ନଶ୍ଯତି| ଅପ୍ରତିଷ୍ଠୋ ମହାବାହୋ ବିମୂଢୋ ବ୍ରହ୍ମଣଃ ପଥି||6.38||
kaccinnōbhayavibhraṣṭaśchinnābhramiva naśyati. apratiṣṭhō mahābāhō vimūḍhō brahmaṇaḥ pathi৷৷6.38৷৷
கச்சிந்நோபயவிப்ரஷ்டஷ்சிந்நாப்ரமிவ நஷ்யதி. அப்ரதிஷ்டோ மஹாபாஹோ விமூடோ ப்ரஹ்மணஃ பதி৷৷6.38৷৷
కచ్చిన్నోభయవిభ్రష్టశ్ఛిన్నాభ్రమివ నశ్యతి. అప్రతిష్ఠో మహాబాహో విమూఢో బ్రహ్మణః పథి৷৷6.38৷৷
6.39
6
39
।।6.39।। हे कृष्ण! मेरे इस सन्देहका सर्वथा छेदन करनेके लिये आप ही योग्य हैं; क्योंकि इस संशयका छेदन करनेवाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता।
।।6.39।। हे कृष्ण ! मेरे इस संशय को नि:शेष रूप से छेदन (निराकरण) करने के लिए आप ही योग्य है; क्योंकि आपके अतिरिक्त अन्य कोई इस संशय का छेदन करन वाला (छेत्ता) मिलना संभव नहीं है।।
।।6.39।। इस प्रकरण के अन्तिम श्लोक में अर्जुन स्पष्ट कहता है कि हे कृष्ण आप मेरे इस संशय को दूर कीजिए।केवल भगवान् कृष्ण ही अर्जुन के इस संशय का निराकरण करके उसके मन के विक्षेपों को शान्त कर सकते थे। इस प्रश्न से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसकी पूर्व की शंका पूर्णत निवृत्त हो चुकी थी। उसकी पूर्व शंका समत्वयोग की अशक्यता के सम्बन्ध में थी जिसका मुख्य कारण था मन का चंचल स्वभाव।जो कोई भी जिज्ञासु साधक सम्पूर्ण हृदय से साधना करता है उसके मन में एक शंका के निवृत्त होने पर अन्य शंकाएं और प्रश्न उठते रहते हैं। संशयनिवृत्ति का उपाय है मनन। सत्संगत से भी विचार प्राप्त होकर संशय दूर हो जाते हैं।प्रत्येक साधक की साधना एवं भावना के आधार पर उसे देहत्याग के पश्चात् श्रेष्ठ जीवन का आश्वासन भगवान् देते हैं।अगले पाँच श्लोकों में भगवान् उन योगियों की गति को बताते हैं जिनकी साधना मृत्यु के कारण अपूर्ण रह जाती है अथवा मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण वे योग से पतित हो जाते हैं।
।।6.39।। व्याख्या--एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे साधक पापकर्मोंसे तो सर्वथा रहित हो गया, इसलिये वह नरकोंमें तो जा ही नहीं सकता और स्वर्गका ध्येय न रहनेसे स्वर्गमें भी जा नहीं सकता। मनुष्ययोनिमें आनेका उसका उद्देश्य नहीं है, इसलिये वह उसमें भी नहीं आ सकता और परमात्मप्राप्तिके साधनसे भी विचलित हो गया। ऐसा साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता? यह मेरा संशय है। 'त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते' इस संशयका सर्वथा छेदन करनेवाला अन्य कोई हो नहीं सकता। इसका तात्पर्य है कि शास्त्रकी कोई गुत्थी हो, शास्त्रका कोई गहन विषय हो, कोई ऐसा कठिन पंक्ति हो, जिसका अर्थ न लगता हो, तो उसको शास्त्रोंका ज्ञाता कोई विद्वान् भी समझा सकता है। परन्तु योगभ्रष्टकी क्या गति होती है? इसका उत्तर वह नहीं दे सकता। हाँ, योगी कुछ हदतक इसको जान सकता है, पर वह सम्पूर्ण प्राणियोंकी गति-आगतिको अर्थात् जाने और आनेको नहीं जान सकता क्योंकि वह 'युञ्जान योगी' है अर्थात् अभ्यास करके योगी बना है। अतः वह वहींतक जान सकता है, जहाँतक उसकी जाननेकी हद है। परन्तु आप तो 'युक्त योगी' हैं अर्थात् आप बिना अभ्यास, परिश्रमके सर्वत्र सब कुछ जाननेवाले हैं। आपके समान जानकार कोई हो सकता ही नहीं। आप साक्षात् भगवान् हैं और सम्पूर्ण प्राणियोंकी गति-आगतिको जाननेवाले हैं (टिप्पणी प0 375)। अतः इस योगभ्रष्टके गतिविषयक प्रश्नका उत्तर आप ही दे सकते हैं। आप ही मेरे इस संशयको दूर कर सकते हैं।  सम्बन्ध--अड़तीसवें श्लोकमें अर्जुनने शङ्का की थी कि संसारसे और साधनसे च्युत हुए साधकका कहीं पतन तो नहीं हो जाता? उसका समाधान करनेके लिये भगवान् आगेका श्लोक कहते हैं।
।।6.37 6.39।।अयतः इत्यादि नह्युपपद्यते इत्यन्तम्। प्राप्ताद्योगात् यदि ( N यस्य instead यदि) चलितेऽपि चित्ते श्रद्धा न हीयते। विनष्टश्रद्धौ हि सिद्धयोगोऽपि सर्वं निष्फलं कुरुते। उक्तं हि यदा प्राप्यापि विज्ञानं दूषितं चित्तविभ्रमात्।तदैव ( तदैवम्) ध्वंसते शीघ्र तूलराशिवानलात्।।योगस्य सम्यक् सिद्धौ अजातायां किं लोकान्निष्क्रान्तः सम्यक् च ब्रह्मणि न निलीन (K न लीन इति) इति नश्येत् अथवा ब्रह्मणि अप्रतिष्ठितत्वात् विनश्यति परलोकबाधाय इति प्रश्नः।
।।6.39।।तम् एनं संशयम् अशेषतः छेत्तुम् अर्हसि स्वतः प्रत्यक्षेण युगपत् सर्वं सर्वदा स्वत एव पश्यतः त्वत्तः अन्यः संशयस्य अस्य छेत्ता न हि उपपद्यते।
।।6.39।।यथोपदर्शितसंशयापाकरणार्थमर्जुनो भगवन्तं प्रेरयन्नाह एतदिति। मत्तोऽन्यः कश्चिदृषिर्वा देवो वा त्वदीयं संशयं छेत्स्यतीत्याशङ्क्याह त्वदन्य इति। अन्यस्य संशयच्छेत्तुरभावे फलितमाह अत इति।
।।6.39।।अत एतत्सन्देहनिवारकोऽपि त्वमेवति कथमन्नाह एनमिति। स्पष्टम्।
।।6.39।।यथोपदर्शितसंशयापाकरणाय भगवन्तमन्तर्यामिणमर्थयते पार्थः एतत् एतं पूर्वोपदर्शितं मे मम संशयं हे कृष्ण छेत्तुमपनेतुमर्हस्यशेषतः संशयमूलाधर्माद्युच्छेदेन। मदन्यः कश्चिदृषिर्वा देवो वा त्वदीयमिमंसंशयमुच्छेत्स्यतीत्याशङ्क्याह त्वदन्यः त्वत् परमेश्वरात्सर्वज्ञाच्छास्त्रकृतः परमगुरोः कारुणिकादन्योऽनीश्वरत्वेनासर्वज्ञः कश्चिदृषिर्वा देवो वाऽस्य योगभ्रष्टपरलोकगतिविषयस्य संशयस्य छेत्ता सम्यगुत्तरदानेन नाशयिता हि यस्मान्नोपपद्यते न संभवति तस्मात्त्वमेव प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य परमगुरुः संशयमेतं मम छेत्तुमर्हसीत्यर्थः।
।।6.39।। त्वयैव सर्वज्ञेनायं मम संदेहो निरसनीयः त्वत्तोऽन्यस्त्वेतत्संदेहनिवर्तको नास्तीत्याह एतन्म इति। एतत् एनम्। छेत्ता निवर्तकः। स्पष्टमन्यत्।
।। 6.39 एवं प्रागुक्तमेव योगसाधनं यथावच्छ्रुतम् अथ प्रागुक्तमेव योगमाहात्म्यं श्रोतव्यं सर्वप्रकारान्वितं प्रपञ्चेन श्रोतुं पृच्छतीत्याह अथेति। योगमाहात्म्यशब्देन सङ्ग्रहश्लोकस्थयोगसिद्धिशब्दो व्याख्यातः। सिद्धिकारणं हि माहात्म्यम् सिद्धिश्चात्र शिथिलस्यापि योगस्य चिरतरमनेकपुण्यलोकावाप्तिः पुनर्योगयोग्ययोगिकुलसम्भवः तद्द्वारा पुनर्योगपौष्कल्यं ततश्चापवर्ग इत्येवंरूपा। एषा च सिद्धिः अनितरसाधारणेन माहात्म्येन। ननुनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति 2।40 इत्यादौ कर्मयोगस्य माहात्म्यमुक्तम् अत्र तु तत्फलभूतस्यात्मावलोकनरूपयोगस्य अतः कथं श्रुतमित्युक्तम् तत्राहअन्तर्गतेति। ततः किमित्यत्राहतच्चेति। योगाङ्कुरभूतात्मज्ञानगर्भतया पुष्कलयोगस्वरूपसाधनतया च हि कर्मयोगस्य माहात्स्यं तत्रोदितम् ततश्च योगोपाधिके तदङ्गभूतकर्मयोगमाहात्म्येऽभिहिते अङ्गीभूतयोगमाहात्म्यमेवोक्तं भवतीति भावः।अयतिः इत्यादिपदानामर्थौचित्यात् क्रमभेदेन अन्वयो दर्शितः। तत्र प्रवृत्तस्य हि ततश्चलितत्वं वाच्यम् नतु तत्र श्रद्धोपेतमात्रस्येति अतः श्रद्धया तत्कार्यलक्षणेत्यभिप्रायेणयोगे प्रवृत्त इत्युक्तम्। उपेतशब्द एव वाऽत्र श्रद्धाकृतयोगाधिगमपर इत्यभिप्रायः।योगसंसिद्धिमप्राप्य योगसिद्धेः पूर्वमेवेत्यर्थः।योगाच्चलितमानसः पुष्कलयोगं कर्तुमननुगुणचित्त इत्यर्थः। कामभोगमोक्षनिरयेषु कतमामित्यर्थः।कां गतिं गच्छति इति सामान्यनिर्दिष्टमेवकच्चित् इत्यादिना विवृतम्।दृष्टान्तेऽप्युभयभ्रष्टत्वप्रकारं दर्शयतियथेति। उभयभ्रष्टताविवरणरूपत्वात्विमूढो ब्रह्मणः पथि इत्येकस्याभिधानाच्च पारिशेष्यादप्रतिष्ठपदं सांसारिकफलसाधनकर्मभ्रंशाभिप्रायमित्याहयथावस्थितमिति। कर्मस्वरूपानुष्ठानप्रयासादौ न किञ्चिन्न्यूनम् अभिसन्धिवैषम्यात्तु निष्फलं संवृत्तमित्यभिप्रायः।विमूढो ब्रह्मणः पथि इति ब्रह्मपथे अज्ञानं न विवक्षितम् ज्ञात्वोपक्रम्य निवृत्तं प्रति पृच्छ्यमानत्वात्। अतो विमोहकार्ययोगनिवृत्तिरत्र विमूढशब्देन लक्ष्यत इत्यभिप्रायेणप्रक्रान्त इत्यादिप्रच्युत इत्यन्तमुक्तम्।ब्रह्मणः पथि ब्रह्मप्राप्त्युपायभूते योग इत्यर्थः।एतं मे संशयम् इति निर्दिश्यमानस्य संशयस्यार्थसिद्धं शिरोन्तरमाहकिमयं नश्यत्येवेति। अर्हसि सर्वज्ञत्वकारुणिकत्वप्रियसखत्वादियुक्तस्त्वं योग्योऽसीत्यर्थः।कृष्णशब्देन त्वच्छब्देन चाभिप्रेतमाह स्वत इति। करणाधीनम् अविशदानुमानादिप्रायं क्रमभावि कतिपयविषयं कादाचित्कमपि हि त्वदन्येषां ज्ञानमिति भावः। एतेनयो वेत्ति युगपत्सर्वं प्रत्यक्षेण सदा स्वतः। तं प्रणम्य हरिं शास्त्रं न्यायतत्त्वं प्रचक्ष्महे न्या.त. इति तु भगवन्नाथमुनिमिश्राणां वचनमनुसंहितम्।न ह्युपपद्यत इति युक्तिविरोधोऽभिप्रेतः।
।।6.39।।हे कृष्ण दास्येन सदानन्ददानसमर्थ एतन्मे संशयं मन्मनोगतसंशयम्। स तु न नश्यत्येवत्वदुक्तिविश्वासात् परं मत्संशयमशेषतः सोपपत्तिकाज्ञारूपवाक्यैश्छेत्तुं दूरीकर्तुमर्हसि। नन्वन्यत्र गुर्वादिषु भक्तेषु च विज्ञाप्य संशयं दूरीकुर्वित्यत आह त्वदन्य इति। अस्य मद्गतस्य त्वदेकवाक्यैकनिष्ठस्य मम संशयस्य छेत्ता त्वदन्यः त्वां विना हि निश्चयेन अन्यो नोपपद्यते।
।।6.39।।एतत् एतम्। स्पष्टमन्यत्।
।।6.39।।संशयमुक्त्वा तच्छेदनं प्रार्थयते एतदिति। एतं मे मम संशयं हे कृष्ण छेत्तुमपनेतुमर्हस्यशेषतः। उक्तएव कृष्णपदाभिप्रायोऽत्रापि द्रष्टव्यः। नन्वन्यः कश्चिद्देवो वा ऋषिर्वा छेत्स्यति किमेवंप्रार्थनयेत्यत आह। त्वत्तः कृष्णादधिकारिणमाकृष्य तत्तस्थानप्रापकात्तत्तत्कर्मफलप्रदातुः सर्वेश्वरात्सर्वज्ञादन्योऽनीश्वरोऽसर्वज्ञ कश्चिदृषिर्वा देवो वास्य संशयस्य छेत्ताऽपनेता हि यस्मान्न संभवत्यतः त्वमेव छेत्तुमर्हसीत्यर्थः। यत्तु एतन्मे पृष्टं हे कृष्ण असंशयं यथा भवति तथाऽशेषतः सर्वात्मना छेत्तुं निराकर्तुमर्हसीति तन्न। संशयस्यास्येत्यननुरोधप्रसङ्गात्।
6.39 एतत् this? मे my? संशयम् doubt? कृष्ण O Krishna? छेत्तुम् to dispel? अर्हसि oughtest? अशेषतः completely? त्वत् than Thou? अन्यः another? संशयस्य of doubt? अस्य of this? छेत्ता dispeller? न not? हि verily? उपपद्यते is fit.Commentary There can be no better teacher than Thee for Thou art the omniscient Lord. Thou alone canst dispel this doubt. A Rishi (seer)? a Deva (god)? or a Muni (sage) will not be able to destroy this doubt.
6.39 This doubt of mine, O Krishna, do Thou dispel completely; because it is not possible for any but Thee to dispel this doubt.
6.39 My Lord! Thou art worthy to solve this doubt once and for all; save Thyself there is no one competent to do so.
6.39 O Krsna, You should totally eradicate this doubt of mine. For, none other than Yourself can be the dispeller of this doubt!
6.39 O krsna, arhasi, You should; asesatah, totally; chettum, eradicate, remove; etat, this; samsayam, doubt; me, of mine. Hi, for; na tvad anyah, none other than You, be he a sage or a god; upapadyate, can be; chetta, the despeller, the destroyer; asya, of this; samsayasya, doubt. Therefore you Yourself should dispel (the doubt). This is the meaning.
6.39. Please dispel this doubt of mine completely. But for Yourself, O Krsna, no eradicator of this doubt is possible.
6.37-39 Ayatah etc. upto na hyupapadyate. Even if his mind has moved away from the Yoga, he had reached, the faith in [his] mind is not lost. for, a person - even if he has achieved the Yoga - makes all [achievements] useless, if his faith is completely lost. That has been said :- 'Even after attaining the perfect knowledge, if it gets vitiated due to the caprices of mind, that very moment it perishes soon, just as a heap of cotton does due to fire'. If a complete success in the Yoga has not been achieved, then having come out of this [material] world, and having not yet got himself absorbed in the Brahman, would he get lost ? Or, because he has not yet got established in the Brahman, does he permanently get destroyed as the other world (heaven) is [also] ruined for him ? This is the estion. On this [estion], the conclusion -
6.37 - 6.39 Arjuna said What way does he go, who has embarked on Yoga endowed with faith, but who by inadeacy of exertion in practice, does not gain success in Yoga and has his mind wandering from Yoga? Does he not perish like a small piece of cloud torn from a large mass of cloud - perish without reaching another large mass of cloud? Now does he not fall away from both (sides)? He has no support and is confused on the path leading to the Brahman. He is without any support in the sense that Karma or rituals which constitutes the means of heaven etc., does not give support for a person who is devoid of attachment to fruits; for Karma is the means for generating its own fruits. He is also confused in the path leading to the Brahman on which he has just begun to traverse; He has lost his way. Does he then get lost by falling down from both sides, these being attainment of heaven on the one hand and liberation on the other. Does he not thus perish? You should remove this doubt altogether from my mind; for there is no other remover of this doubt than You, who always perceive directly all matters simultaneously.
6.39 You should altogether remove this doubt of mine, O Krsna, for there is no other remover of this doubt thanYou.
।।6.39।।हे कृष्ण मेरे इस संशयको निःशेषतासे काटनेके लिये अर्थात् नष्ट करनेके लिये आप हीसमर्थ हैं क्योंकि आपको छोड़कर दूसरा कोई ऋषि या देवता इस संशयका नाश करनेवाला सम्भव नहीं है। अतः आपको ही इसका नाश करना चाहिये यह अभिप्राय है।
।।6.39।। एतत् मे मम संशयं कृष्ण छेत्तुम् अपनेतुम् अर्हसि अशेषतः। त्वदन्यः त्वत्तः अन्यः ऋषिः देवो वा च्छेत्ता नाशयिता संशयस्य अस्य न हि यस्मात् उपपद्यते न संभवति। अतः त्वमेव छेत्तुमर्हसि इत्यर्थः।।श्रीभगवानुवाच
।।6.37 6.39।।अचतुर्थाश्रमीति प्रतीतिनिरासायाह अयतिरिति।
।।6.37 6.39।।अयतिरप्रयत्नः।
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः। त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।।6.39।।
এতন্মে সংশযং কৃষ্ণ ছেত্তুমর্হস্যশেষতঃ৷ ত্বদন্যঃ সংশযস্যাস্য ছেত্তা ন হ্যুপপদ্যতে৷৷6.39৷৷
এতন্মে সংশযং কৃষ্ণ ছেত্তুমর্হস্যশেষতঃ৷ ত্বদন্যঃ সংশযস্যাস্য ছেত্তা ন হ্যুপপদ্যতে৷৷6.39৷৷
એતન્મે સંશયં કૃષ્ણ છેત્તુમર્હસ્યશેષતઃ। ત્વદન્યઃ સંશયસ્યાસ્ય છેત્તા ન હ્યુપપદ્યતે।।6.39।।
ਏਤਨ੍ਮੇ ਸਂਸ਼ਯਂ ਕਰਿਸ਼੍ਣ ਛੇਤ੍ਤੁਮਰ੍ਹਸ੍ਯਸ਼ੇਸ਼ਤ। ਤ੍ਵਦਨ੍ਯ ਸਂਸ਼ਯਸ੍ਯਾਸ੍ਯ ਛੇਤ੍ਤਾ ਨ ਹ੍ਯੁਪਪਦ੍ਯਤੇ।।6.39।।
ಏತನ್ಮೇ ಸಂಶಯಂ ಕೃಷ್ಣ ಛೇತ್ತುಮರ್ಹಸ್ಯಶೇಷತಃ. ತ್ವದನ್ಯಃ ಸಂಶಯಸ್ಯಾಸ್ಯ ಛೇತ್ತಾ ನ ಹ್ಯುಪಪದ್ಯತೇ৷৷6.39৷৷
ഏതന്മേ സംശയം കൃഷ്ണ ഛേത്തുമര്ഹസ്യശേഷതഃ. ത്വദന്യഃ സംശയസ്യാസ്യ ഛേത്താ ന ഹ്യുപപദ്യതേ৷৷6.39৷৷
ଏତନ୍ମେ ସଂଶଯଂ କୃଷ୍ଣ ଛେତ୍ତୁମର୍ହସ୍ଯଶେଷତଃ| ତ୍ବଦନ୍ଯଃ ସଂଶଯସ୍ଯାସ୍ଯ ଛେତ୍ତା ନ ହ୍ଯୁପପଦ୍ଯତେ||6.39||
ētanmē saṅśayaṅ kṛṣṇa chēttumarhasyaśēṣataḥ. tvadanyaḥ saṅśayasyāsya chēttā na hyupapadyatē৷৷6.39৷৷
ஏதந்மே ஸஂஷயஂ கரிஷ்ண சேத்துமர்ஹஸ்யஷேஷதஃ. த்வதந்யஃ ஸஂஷயஸ்யாஸ்ய சேத்தா ந ஹ்யுபபத்யதே৷৷6.39৷৷
ఏతన్మే సంశయం కృష్ణ ఛేత్తుమర్హస్యశేషతః. త్వదన్యః సంశయస్యాస్య ఛేత్తా న హ్యుపపద్యతే৷৷6.39৷৷
6.40
6
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।।6.40।। श्रीभगवान् बोले -- हे पृथानन्दन ! उसका न तो इस लोकमें और न परलोकमें ही विनाश होता है; क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी काम करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं जाता।
।।6.40।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे पार्थ ! उस पुरुष का, न तो इस लोक में और न ही परलोक में ही नाश होता है; हे तात ! कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।।
।।6.40।। अपने उत्तर के प्रारम्भ में ही भगवान् स्पष्ट आश्वासन देते हैं कि कोई भी शुभ कर्म करने वाला न इहलोक में और न परलोक में दुर्गति को प्राप्त होता है।भगवान् का यह कथन किसी अन्धविश्वास पर आधारित मात्र भावुक आश्वासन नहीं है अथवा न किसी देवदूत के माध्यम से दिया गया दैवी आदेश है जिसे धर्मपारायण लोगों को स्वीकार ही करना है। मनुष्य की बुद्धि एवं तर्क के विरुद्ध किसी भी मत को हिन्दू स्वीकार नहीं करते चाहे वह मत किसी देवता का ही क्यों न हो। धर्म जीवन का विज्ञान है और इसलिये उसमें प्रतिपादित सिद्धान्तों एवं साधनाओं का युक्तियुक्त विवेचन भी होना आवश्यक है।हमारी संस्कृति की इस विशिष्टता के अनुरूप ही भगवान् अपने कथन को स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि हे तात कोई भी शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। वर्तमान में पुण्य कर्म करने वाला भविष्य में कभी दुख नहीं पायेगा क्योंकि भूत और वर्तमान का परिणत रूप ही भविष्य है।अर्जुन को योगभ्रष्ट के नाश की आशंका होने का कारण यह था कि जीवन की निरन्तरता और नियमबद्धता को वह ठीक से समझ नहीं पाया था। जन्म और मृत्यु के साथ ही जीव के अस्तित्व का प्रारम्भ और नाश हुआ समझना दर्शनशास्त्र की प्रारम्भिक अवस्था में ही संभव है। वस्तुत ऐसे सिद्धांत को दर्शन भी नहीं कहा जा सकता।साहसिक बुद्धि के जो जिज्ञासु साधक जीवन के नियम एवं अर्थ तथा विश्व के प्रयोजन को जानना चाहते हैं उन्हें यह स्वीकारना पड़ेगा कि मनुष्य का वर्तमान जीवन सत्य के वक्षस्थल को सुशोभित करने वाले अनन्त सौन्दर्य के कण्ठाभरण का एक मुक्ता है। भूत का परिणाम है वर्तमान और प्रत्येक विचार ज्ञान एवं कर्म के द्वारा हम भविष्य की रूपरेखा खींच रहे होते हैं। हिन्दुओं में देहधारी जीव के पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म में विश्वास किया जाता है। इसी को पुनर्जन्म का सिद्धांत कहते हैं।इसी सिद्धांत के आधार पर श्रीकृष्ण यहाँ योगी के विनाश अथवा दुर्गति की संभावना को नकारते हैं। हो सकता है कि कभीकभी साधक का पतन होते हुए या मृत्यु होती हुई दिखाई दे किन्तु उनका विनाश नहीं होता। आज का परिणत रूप भविष्य है।पुत्र को संस्कृत में तात कहते हैं। उपनिषदों में भी शिष्य को पुत्र रूप में संबोधित किया गया है। उसी परम्परा के अनुसार अर्जुन को तात कहकर संबोधित करने में उसके प्रति भगवान् का पुत्रवत् भाव स्पष्ट हो जाता है। कोई व्यक्ति अन्य लोगों के प्रति कितनी ही दुष्टता एवं वंचना का भाव क्यों न रखता हो परन्तु अपने ही पुत्र को हानि पहुँचाने का विचार उसके मन में कभी नहीं आता। इसी पितृप्रेम से श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि साधक का कभी वास्तविक पतन नहीं होता। आत्मिक विकास की सीढ़ी पर एक भी सोपान चढ़ने का अर्थ है पूर्णत्व की ओर बढ़ना।योगसिद्धि को जो प्राप्त नहीं हुआ उसकी निश्चित रूप से क्या गति होती है भगवान् कहते हैं
।।6.40।। व्याख्या--[जिसको अन्तकालमें परमात्माका स्मरण नहीं होता उसका कहीं पतन तो नहीं हो जाता--इस बातको लेकर अर्जुनके हृदयमें बहुत व्याकुलता है। यह व्याकुलता भगवान्से छिपी नहीं है। अतः भगवान् अर्जुनके कां गतिं कृष्ण गच्छति इस प्रश्नका उत्तर देनेसे पहले ही अर्जुनके हृदयकी व्याकुलता दूर करते हैं।] 'पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते'--हे पृथानन्दन! जो साधक अन्तसमयमें किसी कारणवश योगसे, साधनसे विचलित हो गया है, वह योगभ्रष्ट साधक मरनेके बाद चाहे इस लोकमें जन्म ले, चाहे परलोकमें जन्म ले, उसका पतन नहीं होता (गीता 6। 41 45)। तात्पर्य है कि उसकी योगमें जितनी स्थिति बन चुकी है, उससे नीचे वह नहीं गिरता। उसकी साधन-सामग्री नष्ट नहीं होती। उसका पारमार्थिक उद्देश्य नहीं बदलता। जैसे अनादिकालसे वह जन्मता-मरता रहा है, ऐसे ही आगे भी जन्मता-मरता रहे--उसका यह पतन नहीं होता। जैसे भरत मुनि भारतवर्षका राज्य छोड़कर एकान्तमें तप करते थे। वहाँ दयापरवश होकर वे हरिणके बच्चेमें आसक्त हो गये, जिससे दूसरे जन्ममें उनको हरिण बनना पड़ा। परन्तु उन्होंने जितना त्याग, तप किया था, उनकी जितनी साधनकी पूँजी इकट्ठी हुई थी, वह उस हरिणके जन्ममें भी नष्ट नहीं हुई। उनको हरिणके जन्ममें भी पूर्वजन्मकी बात याद थी, जो कि मनुष्यजन्ममें भी नहीं रहती। अतः वे (हरिण-जन्ममें) बचपनसे ही अपनी माँके साथ नहीं रहे। वे हरे पत्ते न खाकर सूखे पत्ते खाते थे। तात्पर्य यह है कि अपनी स्थितिसे न गिरनेके कारण हरिणके जन्ममें भी उनका पतन नहीं हुआ (श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 5, अध्याय 7 8)। इसी तरहसे पहले मनुष्यजन्ममें जिनका स्वभाव सेवा करनेका, जप-ध्यान करनेका रहा है, और विचार अपना उद्धार करनेका रहा है वे किसी कारणवश अन्तसमयमें योगभ्रष्ट हो जायँ तथा इस लोकमें पशु-पक्षी भी बन जायँ, तो भी उनका वह अच्छा स्वभाव और सत्संस्कार नष्ट नहीं होते। ऐसे बहुत-से उदाहरण आते हैं कि कोई दूसरे जन्ममें हाथी, ऊँट आदि बन गये, पर उन योनियोंमें भी वे भगवान्की कथा सुनते थे। एक जगह कथा होती थी, तो एक काला कुत्ता आकर वहाँ बैठता और कथा सुनता। जब कीर्तन करते हुए कीर्तन-मण्डली घूमती, तो उस मण्डलीके साथ वह कुत्ता भी घूमता था। यह हमारी देखी हुई बात है।
।।6.40।।अत्र निर्णयम् (S निर्णयः)पार्थेति। न तस्य योगभ्रष्टस्य इह लोके परलोके (S परत्र) वा नाशोऽस्ति अनष्टश्रद्धत्वात् इति भावः(K adds तस्य लोकद्वयाविनाशिनः after भावः)। स हि कल्याणं भगवन्मार्गलक्षणम् कृतवान्। न च तत् अग्निष्टोमादिवत् क्षयि।
।।6.40।।श्रीभगवानुवाच श्रद्धया योगे प्रक्रान्तस्य तस्मात् प्रच्युतस्य इह च अमुत्र च विनाशः न विद्यते प्राकृतस्वर्गादिभोगानुभवे ब्रह्मानुभवे च अभिलषितानवाप्तिरूपः प्रत्यवायाख्यः अनिष्टावाप्तिरूपश्च विनाशो न विद्यते इत्यर्थः। न हि निरतिशयकल्याणरूपयोगकृत् कश्चित् कालत्रये अपि दुर्गतिं गच्छति।कथम् अयं भविष्यति इत्यत्राह
।।6.40।।योगिनो नाशाशङ्कां परिहरन्नुत्तरमाह श्री भगवानिति। यदुक्तमुभयभ्रष्टो योगी नश्यतीति तत्राह पार्थेति। तत्र हेतुमाह नैवेहीति। योगिनो मार्गद्वयाद्विभ्रष्टस्यैहिको नाशः शिष्टगर्हालक्षणो न भवतीति श्रद्धादेः सद्भावात्तथापि कथमामुष्मिकनाशशून्यत्वमित्याशङ्क्य तद्रूपनिरूपणपूर्वकं तदभावं प्रतिजानीते नाशो नामेति। तत्र हेतुभागं विभजते न हीत्यादिना। उभयभ्रष्टस्यापि श्रद्धेन्द्रियसंयमादेः सामिकृतश्रवणादेश्च भावादुपपन्नं शुभकृत्त्वम्। तातेति कथं पुत्रस्थानीयःशिष्यः संबोध्यते पितुरेव तातशब्दत्वादित्याशङ्क्याह तनोतीति। तेन पुत्रस्थानीयस्य शिष्यस्य तातेति संबोधनमविरुद्धमित्यर्थः। न गच्छति कुत्सितां गतिं कल्याणकारित्वादिति नाशाभावः।
।।6.40।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच पार्थेति सार्द्धैश्चतुर्भिः। इहामुत्र च तस्य न विनाशः। अत्रोपपत्तिमाह न हीति। कल्याणकृदयं न त्वकल्याणकर्मकृत्। अन्यथाऽनिष्टफलं स्यादेव।
।।6.40।।एवमर्जुनस्य योगिनं प्रति नाशाशङ्कां परिहरन्नुत्तरम् श्रीभगवानुवाच उभयविभ्रष्टो योगी नश्यतीति कोऽर्थः। किमिह लोके शिष्टविगर्हणीयो भवति वेदविहितकर्मत्यागात् यथा कश्चिदुच्छृङ्खलः किंवा परत्र निष्कृष्टां गतिं प्राप्नोति। यथोक्तं श्रुत्याअथैतयोः पथोर्न कतरेणचन ते कीटाः पतङ्गा यति दन्दशूकम् इति। तथाचोक्तं मनुनावान्ताश्युल्कामुखः प्रेतो विप्रो धर्मात्स्वकाञ्च्युतः इत्यादि तदुभयमपि नेत्याह हे पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य यथाशास्त्रं कृतसर्वकर्मसंन्यासस्य सर्वतो विरक्तस्य गुरुमुपसृत्य वेदान्तश्रवणादिकुर्वतोऽन्तराले मृतस्य योगभ्रष्टस्य विद्यते। उभयत्रापि तस्य विनाशो नास्तीत्यत्र हेतुमाह हि यस्मात्कल्याणकृच्छास्त्रविहितकारी कश्चिदपि दुर्गतिमिहाकीर्ति परत्र च कीटादिरूपतां न गच्छति। अयं तु सर्वोत्कृष्ट एव सन् दुर्गतिं न गच्छतीति किमु वक्तव्यमित्यर्थ। तनोत्यात्मानं पुत्ररूपेणेति पिता तत उच्यते। स्वार्थेकेऽणि तत एव तातः राक्षसवायसादिवत्। पितैव च पुत्ररूपेण भवतीति पुत्रस्थानीयस्य शिष्यस्यतातेति संबोधनं कृपातिशयसूचनार्थम्। यदुक्तं योगभ्रष्टः कष्टां गतिं गच्छति अज्ञत्वे सति देवयानपितृयानमार्गान्यरासंबन्धित्वात्स्वधर्मभ्रष्टवदिति तदयुक्तम्। एतस्य देवयानमार्गासंबन्धित्वेन हेतोरसिद्धत्वात्। पञ्चाग्निविद्यायांय इत्थं विदुर्ये चामीऽरण्ये श्रद्धां सत्यमुपासते तेऽर्चिरभिसंभवन्ति इत्यविशेषेण पञ्चाग्निविदामिवातत्क्रतूनां श्रद्धासत्यवतां मुमुक्षूणामपि देवयानमार्गेण ब्रह्मलोकप्राप्तिकथनात् श्रवणादिपरायणस्य च योगभ्रष्टस्य श्रद्धावित्तो भूत्वेत्यनेन श्रद्धायाः प्राप्तत्वात् शान्तो दान्त इत्यनेन चानृतभाषणरूपवाग्व्यापारनिरोधरूपस्य सत्यस्य लब्धत्वात् बहिरिन्द्रियाणामुच्छृङ्खलव्यापारनिरोधो हि दमः। योगशास्त्रे चअहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः इति योगाङ्गत्वेनोक्तत्वात् यदि तु सत्यशब्देन ब्रह्मैवोच्यते तदापि न क्षतिः वेदान्तश्रवणादेरपि सत्यब्रह्मचिन्तनरूपत्वात् अतत्क्रतुत्वेऽपि च पञ्चाग्निविदामिव ब्रह्मलोकप्राप्तिसंभवात्। तथाच स्मृतिःसंन्यासाद्ब्रह्मणः स्थानम् इति। तथा प्राप्तैहिकवेदान्तवाक्यविचारस्यापि कृच्छ्राशीतिफलतुल्यफलत्वं स्मर्यते। एवंच संन्यासश्रद्धासत्यब्रह्मविचाराणामन्यतमस्यापि ब्रह्मलोकप्राप्तिसाधनत्वात्समुदितानां तेषां तत्साधनत्वं किं चित्रम्। अतएव सर्वक्रतुरूपत्वं योगिचरितस्य तैत्तिरीया आमनन्तितस्यैवं विदुषो यज्ञस्य इत्यादिना। स्मर्यते चस्नातं तेन समस्ततीर्थसलिले सर्वापि दत्तावनिर्यज्ञानां च कृतं सहस्त्रमखिला देवाश्च संपूजिताः। संसाराच्च समुद्धृताः स्वपितरस्त्रैलोक्यपूज्योऽप्यसौ यस्य ब्रह्मविचारणे क्षणमपि स्थैर्यं मनः प्राप्नुयात् इति।
।।6.40।। अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच पार्थेति सार्धैश्चतुर्भिः। इह लोके नाश उभयभ्रंशात्पातित्यम् अमुत्र परलोके नाशो नरकप्राप्तिः तदुभयं तस्य नास्त्येव। यतः कल्याणकृच्छुभकारी कश्चिदपि दुर्गतिं न गच्छति। अयं च शुभकारी श्रद्धया योगे प्रवृत्तत्वात्। तातेति लोकरीत्योपलालयन्संबोधयति।
।।6.40।।अथोभयपुरुषार्थान्वयमुखेन उभयविभ्रष्टतां परिहरति पार्थेति।तस्य इत्यनेन परामृष्टमाकारद्वयमाह श्रद्धयेति। इहामुत्रशब्दयोर्भूलोकस्वर्गलोकादिपरत्वं परिहृत्यात्र विवक्षितमाह प्राकृतेति। यथा मुमुक्षोः पुण्यमपि पापकोटौ निक्षिप्यते तथा तस्य स्वर्गादिकमपीहशब्दनिर्देशार्हं प्रकरणसङ्गतं चेति भावः। विनाशशब्दःप्रत्यवायो न विद्यते 2।40 इति प्रागुक्तमप्यत्र सर्वं सङ्गृह्णातीत्याहप्रत्यवायाख्येति। कल्याणशब्दस्यात्र प्रस्तुतविशेषपर्यवसानव्यञ्जनायाहनिरतिशयेति।गच्छति इत्यनवच्छिन्नवर्तमाननिर्देशात्कालत्रयेऽपीत्युक्तम्। अनेककालोपचितानन्तपुण्यसाध्यत्वेन प्रागपि दुष्कृताभावः इदानीं च निरतिशयकल्याणरूपयोगप्रवृत्तिः परस्तादपि पुण्यलोकावाप्तियोगसिद्ध्यपवर्गप्रभृतिरिति कालत्रयेऽपि दुर्गत्यसम्भवः। दुर्गतिर्निरयोऽनिष्टमात्रं वा हिर्हेतौ प्रसिद्धौ वा। नहि योगे प्रक्रान्तस्य कस्यचित् कस्मिंश्चित्काले दुर्गतिप्राप्तिः कुतश्चित्प्रमाणात्सिद्धेति भावः।
।।6.40।।एवं निश्चयात्मकमर्जुनस्य संशयवाक्यं श्रुत्वा भगवांस्तमाह श्रीभगवानुवाच पार्थेति। हे पार्थ तथासंशयानर्ह इह लोके पूर्वत्यक्तकर्मानुकरणविहितधर्मभक्त्यादौ अमुत्र लोके परदास्यादिरूपे तस्य मदुक्तिविश्वासप्रवृत्तस्य विनाशः विशेषेण नाशो मददर्शनं न विद्यते। श्रद्धया मदुक्तिविश्वासप्रवृत्तौ कथं नाशः स्यात् यतोऽसाधारण्येनोत्तमकृतिप्रवृत्तस्य नाशो न भवतीत्याह नहीति। भक्तत्वात्स्वबालकत्वेन तातेति सम्बोध्योपदिष्टम्। कल्याणकृत् धर्मादिबुद्ध्या फलेच्छासाधारण्येन शुभकृत् हीति निश्चयेन दुर्गतिं न गच्छति। तत्र श्रद्धयाऽत्र प्रवृत्तः कथं नश्येदित्यर्थः।
।।6.40।।अत्रोत्तरं भगवानुवाच पार्थेति। हे तातेति वात्सल्यात्संबोधयति। तस्येह विनाशो नीचयोनिप्राप्तिः अमुत्रविनाशो नरकप्राप्तिस्तदुभयमपि न जायते। हि यतः कल्याणकृच्छुभकृत् दुर्गतिं नैव प्राप्नोति।
।।6.40।।एवमर्जुनेन संशयच्छेदनाय प्रार्थितः तं छेत्तुं श्रीभगवानुवाच पार्थेति। तस्य योगभ्रष्टस्येहास्मिँल्लोकेऽमुत्र परलोके वा विनाशः पूर्वस्माद्धीनजन्मलाभो नरकप्राप्तिर्वा न विद्यते। हि यस्मात्कल्याणकृत्छुभकृत्कश्चिदपि दुर्गतिं न गच्छति न प्राप्नोति। तनोत्यात्मनां पुत्ररुपेणेति पिता ताता उच्यते। पितैव पुत्ररुपेणोत्पद्यति इति पुत्रोऽपि तात इत्युच्यते। शिष्यस्यापि पुत्रसमत्वादाह हे तातेति।नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् इति मदुक्तं दिक्प्रदर्शकं अल्पबुद्धित्वात् स्त्रीस्वभावेन त्वया विस्मृत्य पृष्टमिति पार्थेति संबोधनेन ध्वनितम्। तथापि शिष्यत्वेन पुत्रतुल्यत्वात्पुनः पुनर्विस्तरेण मया बोधनीयोऽसीति सूचनायोक्तं तातेति। यत्तु इहामुत्र प्रवत्तस्येति शेषः। ततश्च इह यत्फलं मोचकज्ञानलक्षणं अमुत्रफलं स्वर्गादिलक्षणं तत्साधनं प्रवत्तस्येत्यर्थ इति तन्न। भाष्योक्तप्रकारेण सम्यग्वाक्यर्थोपपत्तौ लक्षणाया अध्याहारस्य च व्यर्थत्वात्।
6.40 पार्थ O Partha, न not, एव verily, इह here, न not, अमुत्र in the next world, विनाशः destruction, तस्य of him, विद्यते is, न not, हि verily, कल्याणकृत् he who does good, कश्चित् anyone, दुर्गतिम् bad state or grief, तात O My son, गच्छति goes.Commentary He who has not succeeded in attaining to perfection in Yoga in this birth will not be destroyed in this world or in the next world. Surely he will not take a birth lower than the present one. What will he attain, then? This is described by the Lord in verses 41, 42, 43 and 44. Tata: son. A disciple is regarded as a son.
6.40 The Blessed Lord said O Arjuna, neither in this world, nor in the next world is there destruction for him; none, verily, who does good, O My son, ever comes to grief.
6.40 Lord Shri Krishna replied: My beloved child! There is no destruction for him, either in this world or in the next. No evil fate awaits him who treads the path of righteousness.
6.40 The Blessed Lord said O Partha, there is certainly no ruin for him here or hereafter. For, no one engaged in good meets with a deplorable end, My son!
6.40 O Partha, eva vidyate, there is certainly; na vinasah, no ruin; tasya, for him; iha, here, in this world; or amutra, hereafter, in the other world. Ruin means a birth inferior to the previous one; that is not there for one who has fallen from Yoga. Hi, for; na kascit, no one; kalyana-krt, engaged in good; gacchati, meets with; durgatim, a deplorable end; tata, My son! A father is called tata because he perpetuates himself (tanoti) through the son. Since the father himself becomes the son, therefore the son also is called tata. A disciple is called putra (son). [Sri krsna addressed Arjuna thus because the latter was his disciple.] But what happens to him?
6.40. The Bhagavat said O dear Partha ! Neither in this [world], nor in the other is there a destruction for him. Certainly, no performer of an auspicious act does ever come to a grievous state.
6.40 Partha etc. The idea [here] is : There is no [estion of] destruction for the fallen-from-Yoga, either is this world or in the other; because his faith is not lost. He has indeed performed as auspicious act of seeking the Bhagavat, and that act is not of perishing nature as the Agnistoma sacrifice etc., are.
6.40 The Lord said Neither here nor there is destruction for him who has begun Yoga with faith and has then fallen away from it. The meaning is that there is no destruction either in the form of failure of attainment of desires or in the form of Pratyavaya, which means the attainment of what is undesirable because of defects in the performance of works. Therefore no one who practises this incomparably auspicious Yoga ever comes to an evil end in the present, past or future. Sri Krsna explains how this is so:
6.40 The Lord said Neither here (in this world) nor there (in the next), Arjuna, is there destruction for him. For, no one who does good ever comes to an evil end.
।।6.40।।श्रीभगवान् बोले हे पार्थ उस योगभ्रष्ट पुरुषका इस लोकमें या परलोकमें कहीं भी नाश नहीं होता है। पहलेकी अपेक्षा हीनजन्मकी प्राप्तिका नाम नाश है सो ऐसी अवस्था योगभ्रष्टकी नहीं होती। क्योंकि हे तात शुभ कार्य करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको अर्थात् नीच गतिको नहीं पाता। पिता पुत्ररूपसे आत्माका विस्तार करता है अतः उसको तात कहते हैं तथा पिता ही पुत्ररूपसे उत्पन्न होता है अतः पुत्रको भी तात कहते हैं। शिष्य भी पुत्रके तुल्य है इसलिये उसको भी तात कहते हैं।
।।6.40।। हे पार्थ नैव इह लोके नामुत्र परस्मिन् वा लोके विनाशः तस्य विद्यते नास्ति। नाशो नाम पूर्वस्मात् हीनजन्मप्राप्तिः स योगभ्रष्टस्य नास्ति। न हि यस्मात् कल्याणकृत् शुभकृत् कश्चित् दुर्गतिं कुत्सितां गतिं हे तात तनोति आत्मानं पुत्ररूपेणेति पिता तात उच्यते। पितैव पुत्र इति पुत्रोऽपि तात उच्यते। शिष्योऽपि पुत्र उच्यते। यतो न गच्छति।।किं तु अस्य भवति
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श्री भगवानुवाच पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते। नहि कल्याणकृत्कश्िचद्दुर्गतिं तात गच्छति।।6.40।।
শ্রী ভগবানুবাচ পার্থ নৈবেহ নামুত্র বিনাশস্তস্য বিদ্যতে৷ নহি কল্যাণকৃত্কশ্িচদ্দুর্গতিং তাত গচ্ছতি৷৷6.40৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ পার্থ নৈবেহ নামুত্র বিনাশস্তস্য বিদ্যতে৷ নহি কল্যাণকৃত্কশ্িচদ্দুর্গতিং তাত গচ্ছতি৷৷6.40৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ પાર્થ નૈવેહ નામુત્ર વિનાશસ્તસ્ય વિદ્યતે। નહિ કલ્યાણકૃત્કશ્િચદ્દુર્ગતિં તાત ગચ્છતિ।।6.40।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਪਾਰ੍ਥ ਨੈਵੇਹ ਨਾਮੁਤ੍ਰ ਵਿਨਾਸ਼ਸ੍ਤਸ੍ਯ ਵਿਦ੍ਯਤੇ। ਨਹਿ ਕਲ੍ਯਾਣਕਰਿਤ੍ਕਸ਼੍ਿਚਦ੍ਦੁਰ੍ਗਤਿਂ ਤਾਤ ਗਚ੍ਛਤਿ।।6.40।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಪಾರ್ಥ ನೈವೇಹ ನಾಮುತ್ರ ವಿನಾಶಸ್ತಸ್ಯ ವಿದ್ಯತೇ. ನಹಿ ಕಲ್ಯಾಣಕೃತ್ಕಶ್ಿಚದ್ದುರ್ಗತಿಂ ತಾತ ಗಚ್ಛತಿ৷৷6.40৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച പാര്ഥ നൈവേഹ നാമുത്ര വിനാശസ്തസ്യ വിദ്യതേ. നഹി കല്യാണകൃത്കശ്ിചദ്ദുര്ഗതിം താത ഗച്ഛതി৷৷6.40৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ପାର୍ଥ ନୈବେହ ନାମୁତ୍ର ବିନାଶସ୍ତସ୍ଯ ବିଦ୍ଯତେ| ନହି କଲ୍ଯାଣକୃତ୍କଶ୍ିଚଦ୍ଦୁର୍ଗତିଂ ତାତ ଗଚ୍ଛତି||6.40||
śrī bhagavānuvāca pārtha naivēha nāmutra vināśastasya vidyatē. nahi kalyāṇakṛtkaśicaddurgatiṅ tāta gacchati৷৷6.40৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச பார்த நைவேஹ நாமுத்ர விநாஷஸ்தஸ்ய வித்யதே. நஹி கல்யாணகரித்கஷ்ிசத்துர்கதிஂ தாத கச்சதி৷৷6.40৷৷
శ్రీ భగవానువాచ పార్థ నైవేహ నాముత్ర వినాశస్తస్య విద్యతే. నహి కల్యాణకృత్కశ్ిచద్దుర్గతిం తాత గచ్ఛతి৷৷6.40৷৷
6.41
6
41
।।6.41।। वह योगभ्रष्ट पुण्यकर्म करनेवालोंके लोकोंको प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षोंतक रहकर फिर यहाँ शुद्ध  श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है।
।।6.41।। योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को प्राप्त होकर वहाँ दीर्घकाल तक वास करके शुद्ध आचरण वाले श्रीमन्त (धनवान) पुरुषों के घर में जन्म लेता है।।
।।6.41।। परलोक की गति इहलोक में किये गये कर्मों तथा उनके प्रेरक उद्देश्यों पर निर्भर करती है। कर्म मुख्यत दो प्रकार के होते हैं पाप और पुण्य। पापकर्म का आचरण करने वालों की अधोगति होती है केवल पुण्यकर्म का आश्रय लेने वाले ही आध्यात्मिक उन्नति करते हैं। हमारे शास्त्रों में इन पुण्यकर्मों को भी दो वर्गों में विभाजित किया गया है (क) सकाम कर्म अर्थात् इच्छा से प्रेरित कर्म और (ख) निष्काम कर्म अर्थात् समर्पण की भावना से ईश्वर की पूजा समझकर किया गया कर्म। कर्म का फल कर्ता के उद्देश्य के अनुरूप ही होता है इसलिए सकाम और निष्काम कर्मों के फल निश्चय ही भिन्न होते हैं। स्वाभाविक है पूर्णत्व के चरम लक्ष्य तक पहुँचने के इन पुण्यकर्मियों के मार्ग भी भिन्नभिन्न होगें। इस प्रकरण में उन्हीं मार्गों को दर्शाया गया है।जो लोग स्वर्गादि लोकों को प्राप्त करने की इच्छा से ईश्वर की आराधना यज्ञयागादि तथा अन्य पुण्य कर्म करते हैं उन्हें देहत्याग के पश्चात ऐसे ही लोकों की प्राप्ति होती है जो उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अनुकूल हों। उस लोक में वास करके वे पुन इस लोक में शुद्ध आचरण करने वाले धनवान पुरुषों के घर जन्म लेते हैं। संक्षेप में यदि दृढ़ इच्छा तथा समुचित प्रयत्न किये गये हों तो मनुष्य की कोई भी इच्छा हो वह यथासमय पूर्ण होती ही है।परन्तु निष्काम भाव से पुण्य कर्म करने वालों की क्या गति होती है भगवान् कहते हैं
।।6.41।। व्याख्या--'प्राप्य पुण्यकृतां लोकान्'--जो लोग शास्त्रीय विधि-विधानसे यज्ञ आदि कर्मोंको साङ्गोपाङ्ग करते हैं, उन लोगोंका स्वर्गादि लोकोंपर अधिकार है, इसलिये उन लोगोंको यहाँ 'पुण्यकर्म करनेवालोंके लोक' कहा गया है। तात्पर्य है कि उन लोकोंमें पुण्यकर्म करनेवाले ही जाते हैं, पापकर्म करनेवाले नहीं। परन्तु जिन साधकोंको पुण्य-कर्मोंके फलरूप सुख भोगनेकी इच्छा नहीं है, उनको वे स्वर्गादि लोक विघ्नरूपमें और मुफ्तमें मिलते हैं! तात्पर्य है कि यज्ञादि शुभ कर्म करनेवालोंको परिश्रम करना पड़ता है, उन लोकोंकी याचना--प्रार्थना करनी पड़ती है, यज्ञादि कर्मोंको विधि-विधानसे और साङ्गोपाङ्ग करना पड़ता है, तब कहीं उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति होती है। वहाँ भी उनकी भोगोंकी वासना बनी रहती है; क्योंकि उनका उद्देश्य ही भोग भोगनेका था। परन्तु जो किसी कारणवश अन्तसमयमें साधनसे विचलितमना हो जाते हैं, उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके लिये न तो परिश्रम करना पड़ता है, न उनकी याचना करनी पड़ती है और न उनकी प्राप्तिके लिये यज्ञादि शुभ कर्म ही करने पड़ते हैं। फिर भी उनको स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति हो जाती है। वहाँ रहनेपर भी उनकी वहाँके भोगोंसे अरुचि हो जाती है; क्योंकि उनका उद्देश्य भोग भोगनेका था ही नहीं। वे तो केवल सांसारिक सूक्ष्म वासनाके कारण उन लोकोंमें जाते हैं। परन्तु उनकी वह वासना भोगी पुरुषोंकी वासनाके समान नहीं होती।जो केवल भोग भोगनेके लिये स्वर्गमें जाते हैं, वे जैसे भोगोंमें तल्लीन होते हैं, वैसे योगभ्रष्ट तल्लीन नहीं हो सकता। कारण कि भोगोंकी इच्छावाले पुरुष भोगबुद्धिसे भोगोंको स्वीकार करते हैं और योगभ्रष्टको विघ्नरूपसे भोगोंमें जाना पड़ता है।
।।6.41।।प्राप्येति। शाश्वतस्य विष्णोः समाः वैष्णवानि त्रीणि वर्षाणि। शुचीनामिति येषां भगवदंशस्पर्शि चित्तम्।
।।6.41।।यज्जातीयभोगाभिकाङ्क्षया योगात् प्रच्युतः अयम् अतिपुण्यकृतां प्राप्यान् लोकान् प्राप्य तज्जातीयान् अतिकल्याणभोगान् ज्ञानोपाययोगमाहात्म्याद् एव भुञ्जानो यावत् तद्भोगतृष्णावसानं शाश्वतीः समाः तत्र उषित्वा तस्मिन् भोगे वितृष्णः शुचीनां श्रीमतां योगोपक्रमयोग्यानां कुले योगोपक्रमे भ्रष्टो योगमाहात्म्याद् जायते।
।।6.41।।योगभ्रष्टस्य लोकद्वयेऽपि नाशाभावे किं भवतीति पृच्छति किंत्विति। तत्र श्लोकेनोत्तरमाह प्राप्येति। कथं संन्यासीति विशेष्यते तत्राह सामर्थ्यादिति। कर्मणि व्यापृतस्य कर्मिणो योगमार्गप्रवृत्त्यनुपपत्तेस्तत्प्रवृत्तावपि फलाभिलाषविकलस्येश्वरे समर्पितसर्वकर्मणस्तद्भ्रंशाशङ्कानवकाशादित्यर्थः। समानां नित्यत्वं मानुषसमाविलक्षणत्वम्। वैराग्यभावविवक्षया विभूतिमतां गृहे जन्मेति विशेष्यते।
।।6.41।।किन्तु पुण्यकृताँल्लोकान् प्राप्य यावत् कल्याणकर्मफलभोगेन शाश्वतीः समा वर्षानुषित्वा मध्ये भ्रंशात्पूर्वकृतादेव हेतोरिह योगभ्रष्टोऽभिजायते परं श्रीमतां शुचीनां सदाचाराणां गेहे जन्मवान् भवति अशुभस्याकृतत्वात्तत्फलभाक् न भवति इति भावः।
।।6.41।।तदेवं योगभ्रष्टस्य शुभकृत्त्वेन लोकद्वयेऽपि नाशाभावे किं भवतीत्युच्यते योगमार्गप्रवृत्तः सर्वकर्मसंन्यासी वेदान्तश्रवणादि कुर्वन्नन्तराले म्रियमाणः कश्चित्पूर्वोपचितभोगवासनाप्रादुर्भावाद्विषयेभ्यः स्पृहयति। कश्चित्तु वैराग्यभावानादार्ढ्यान्न स्पृहयति। तयोः प्रथमः प्राप्य पुण्यकृतामश्वमेधयाजिनां लोकानर्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकान्। एकस्मिन्नपि भोगभूमिभेदापेक्षया बहुवचनम्। तत्र चोषित्वा वासमनुभूय शाश्वतीर्ब्रह्मपरिमाणेनाक्षयाः समाः संवत्सरान् तदन्ते शुचीनां शुद्धानां श्रीमतां विभूतिमतां महाराजचक्रवर्तिनां गेहे कुले भोगवासनाशेषसद्भावादजातशत्रुजनकादिवद्योगभ्रष्टोऽभिजायते। भोगवासनाप्राबल्याद्ब्रह्मलोकान्ते सर्वकर्मसंन्यासायोग्यो महाराजो भवतीत्यर्थः।
।।6.41।। तर्हि किमसा प्राप्नोतीत्यपेक्षायामाह प्राप्येति। पुण्यकारिणामश्वमेधादियाजिनां लोकान्प्राप्य तत्र शाश्वतीः समाः बहून्संवत्सरानुषित्वा वाससुखमनुभूय शुचीनां सदाचाराणां श्रीमतां धनिनां गेहे स योगभ्रष्टो जन्म प्राप्नोति।
।।6.41।।अथवेति। उभयभ्रष्टतापरिहारायोक्तमुभयान्वयं प्रपञ्चयति प्राप्य इत्यादिनापरां गतिम् 6।45 इत्यन्तेन। योगभ्रंशहेतुं पुण्यकृल्लोकप्राप्तिकृतातिशयितप्राकृतपुरुषार्थयोगे कर्माख्यसाधनरहितत्वेऽपि योगमाहात्म्यस्यैव साधनत्वं भोगावसानहेतुं वैतृष्ण्यमुत्पाद्य पुनर्योगमाहात्म्यस्यैव योगारम्भयोग्यकुलोद्भवहेतुत्वं च प्रदर्शयति येज्जातीयेति। सर्वेषां मात्रया पुण्यकृत्त्वसद्भावेऽपि केषुचित्पुण्यकृच्छब्दप्रयोगस्तेषां अतिशयितपुण्यकृत्त्वनिबन्धन इत्याह अतिपुण्यकृतामिति। तज्जातीयत्वेऽपि ततोऽतिशयितत्वायअतिकल्याणानित्युक्तम्। दृश्यते ह्येकजातीयेष्वपि रूपरसगन्धादिषु भूलोकेऽपि तारतम्यम्। एवं दिव्यादिव्यभेदः। यदि पुराकृतैः पुण्यैः पुण्यलोकावाप्तिः पापैरपि पुराकृतैः पापलोकप्राप्तिः स्यादित्यत्राह योगमाहात्म्यादेवेति। धर्मार्थसम्पादितद्रव्यस्य भोगार्थविनियोगवदिति भावः। नह्यसौ पुण्यक्षयादिव योगमाहात्म्यक्षयान्निवर्तते तस्याक्षयत्वादिति दर्शयितुंयावदित्यादिकमुक्तम्। विषमविपाकसमयकर्ममूलसत्त्वोन्मेषकृतविवेकोदयवशात् निरन्तरभोगप्रकर्षादिवशाच्च वैतृष्ण्यसम्भवः सौभरिप्रभृतिवृत्तान्तेषु भाव्यः। शुचित्वं श्रीमत्त्वं च अदृष्टद्वारा दृष्टद्वारा च योगोपकारकमित्याह योगोपक्रमयोग्यानामिति। योगभ्रष्टस्य स्वान्वयाद्योगोपक्रमानुगुणस्वभावानामित्यर्थः।अथवा योगिनामेव कुले
।।6.41।।एवं नाशाभावमुक्त्वा तस्य गतिस्वरूपमाह प्राप्येति। स योगभ्रष्टः स्वरूपाज्ञानादभ्यासवैराग्याभावादभ्यस्यमानमार्गाद्भ्रष्टः पुण्यकृतां यज्ञादिकारिणां लोकान् श्रद्धामात्रप्रवृत्तिसाधनेन तत्फलभोगविचिकित्साजनितपूर्वप्रवृत्तमार्गस्वरूपज्ञानार्थं प्राप्य तत्र शाश्वतीः समाः बहून् संवत्सरान् उषित्वा स्थित्वा तत्फलभोगं कृत्वा तत्र विचिकित्सयाऽभावकेन मनसा पूर्वश्रद्धासाधनेनैव भवति। जन्मप्रार्थनया शुचीनां कापट्यादिदोषरहितानां श्रीमतां भगवच्छोभायुक्तानां भक्तानां गृहेऽभिजायते जन्म प्राप्नोति। उपसर्गेण स৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷.रतिपूर्वकं प्राप्तिर्ज्ञापिता।
।।6.41।।इहामुत्र च तस्य महत्त्वमेवास्तीत्याह प्राप्येति। उषित्वा वासं कृत्वा। शाश्वतीः समाः नित्यान्वत्सरान्योगभ्रष्टो रागी चेदल्पकालाभ्यस्तयोगश्चेत् श्रीमतां गेहे जायते। तत्रापि श्रीमानधो गच्छतीत्याशङ्क्य शुचीनामित्युक्तम्। शुचयो हि सत्कार्येष्वेव श्रियमुपयुञ्जानाः पूर्वापेक्षया महत्तरं स्थानमासादयन्तीत्यर्थः।
।।6.41।।दुर्गत्यभावमुक्त्वा सुगतिमाह प्राप्येति। योगभ्रष्टो योगमार्गे प्रवृत्तस्यत्यक्तसर्वकर्मा तत्त्वज्ञानमलब्ध्वैव मृतः पुण्यकृतामश्वमैधादिया जिनां लोकांस्तैः प्राप्यान्ब्रह्मलोकादीन्प्राप्य तत्र च शास्वती समाः असंख्यातान्तसंवत्सरानुषित्वा वासमनुभूय तद्भोगक्षये श्रीमतान्। धनदुर्मदान्धरां तेषां वारयति। शुचीनां यथोक्तेन स्वधर्माचरणएन पवित्राणआं गेहे कुले जायत उत्पद्यते।
6.41 प्राप्य having attained? पुण्यकृताम् of the righteous? लोकान् worlds? उषित्वा having dwelt? शाश्वतीः everlasting? समाः years? शुचीनाम् of the pure? श्रीमताम् of the wealty? गेहे in the house? योगभ्रष्टः one fallen from Yoga? अभिजायते is born.Commentary Yogabhrashta one who has fallen from Yoga? i.e.? one who was not able to attain perfection in Yoga? or one who climbed a certain height on the ladder of Yoga but fell down on account of lack of dispassion or slackness in the practice (by becoming a victim to Maya or his turbulent senses).The righteous Those who tread the path of truth? who do virtuous actions such as charity? Yajna? rituals? worship of the Lord? and who act in accordance with the prescribed rules of the scriptures.Everlasting years means only a considerably long period but not absolutely everlasting.The pure those who lead a pure? moral life those who have a pure heart (free from jealousy? hatred? pride? greed? etc.). (Cf.IX.20?21)
6.41 Having attained to the worlds of the righteous and having dwelt there for everlasting years, he who fell from Yoga is rorn in a house of the pure and wealthy.
6.41 Having reached the worlds where the righteous dwell, and having remained there for many years, he who has slipped from the path of spirituality will be born again in the family of the pure, benevolent and prosperous.
6.41 Attaining the worlds of the righteous, and residing there for eternal years, the man fallen from Yoga is born in the house of the pious and the properous.
6.41 Prapya, attaining, reaching, lokan, the worlds; punya-krtam, of the righteous, of the performers of the Horse-sacrifice, etc.; and usitva, residing there, enjoying the stay; for sasvatih, eternal; samah, years; (then,) when the period of enjoyment is over, the yoga-bhrastah, man fallen from Yoga, the one who had set out on the path Yoga, i.e. a monk-as understood from the force of the context [From Arjuna's estion it minght appear that he was asking about the fate of people who fall from both the paths, viz that of Karma and of Meditation. But the possibility of getting ruined by performing actios (rites and duties) according to Vedic instructions does not arise, since their results are inevitable. However, the estion of ruin is relevant in the case of a monk, for on the one hand he has renounced actions, and on the other he may fail to attain perfection in Yoga in the present life. Hence, the Lord's answer relates to the fall and ruin of a monk alone.]; abhijayate, is born; gehe, in the house; sucinam, of the pious, who perform actions according to scriptural instructions; and srimatam, who are prosperous.
6.41. Having attained the worlds of performers of pious acts, [and] having resided there for years of Sasvata, the fallen-from-Yoga is born [again] in the house of the pure persons, who are rich.
6.41 Prapya etc. Of Sasvata of Visnu (personal god). [His] years : three years of Visnu. Of the pure persons : of those whose mind is prone to touch (to meditate upon) the body (amsa) of the Lord.
6.41 This person, who had wandered away from Yoga because of desire for whatever kind of enjoyments, he will gain those very enjoyments through the excellence of Yoga alone. Having attained to the worlds of those who do meritorious acts, he will dwell there for a long time, i.e., till his desire for such enjoyments gets exhausted. Then, devoid of desire for these enjoyment, this person who has swerved from Yoga at the very beginning of Yoga, is born, by virtue of the excellence of Yoga, in a family of those who are competent to practise Yoga.
6.41 He who has fallen away from Yoga is born again in the house of the pure and prosperous after having attained to the worlds of doers of good deeds and dwelt there for many long years.
।।6.41।।तो फिर इस योगभ्रष्टका क्या होता है योगमार्गमें लगा हुआ योगभ्रष्ट संन्यासी पुण्यकर्म करनेवालोंके अर्थात् अश्वमेध आदि यज्ञ करनेवालोंके लोकोंमें जाकर वहाँ बहुत कालतक अर्थात् अनन्त वर्षोंतक वास करके उनके भोगका क्षय होनेपर शास्त्रोक्त कर्म करनेवाले शुद्ध और श्रीमान् पुरुषोंके घरमें जन्म लेता है। प्रकरणकी सामर्थ्यसे यहाँ योगभ्रष्टका अर्थ संन्यासी लिया गया है।
।।6.41।। योगमार्गे प्रवृत्तः संन्यासी सामर्थ्यात् प्राप्य गत्वा पुण्यकृताम् अश्वमेधादियाजिनां लोकान् तत्र च उषित्वा वासमनुभूय शाश्वतीः नित्याः समाः संवत्सरान् तद्भोगक्षये शुचीनां यथोक्तकारिणां श्रीमतां विभूतिमतां गेहे गृहे योगभ्रष्टः अभिजायते।।
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प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः। शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41।।
প্রাপ্য পুণ্যকৃতাং লোকানুষিত্বা শাশ্বতীঃ সমাঃ৷ শুচীনাং শ্রীমতাং গেহে যোগভ্রষ্টোভিজাযতে৷৷6.41৷৷
প্রাপ্য পুণ্যকৃতাং লোকানুষিত্বা শাশ্বতীঃ সমাঃ৷ শুচীনাং শ্রীমতাং গেহে যোগভ্রষ্টোভিজাযতে৷৷6.41৷৷
પ્રાપ્ય પુણ્યકૃતાં લોકાનુષિત્વા શાશ્વતીઃ સમાઃ। શુચીનાં શ્રીમતાં ગેહે યોગભ્રષ્ટોભિજાયતે।।6.41।।
ਪ੍ਰਾਪ੍ਯ ਪੁਣ੍ਯਕਰਿਤਾਂ ਲੋਕਾਨੁਸ਼ਿਤ੍ਵਾ ਸ਼ਾਸ਼੍ਵਤੀ ਸਮਾ। ਸ਼ੁਚੀਨਾਂ ਸ਼੍ਰੀਮਤਾਂ ਗੇਹੇ ਯੋਗਭ੍ਰਸ਼੍ਟੋਭਿਜਾਯਤੇ।।6.41।।
ಪ್ರಾಪ್ಯ ಪುಣ್ಯಕೃತಾಂ ಲೋಕಾನುಷಿತ್ವಾ ಶಾಶ್ವತೀಃ ಸಮಾಃ. ಶುಚೀನಾಂ ಶ್ರೀಮತಾಂ ಗೇಹೇ ಯೋಗಭ್ರಷ್ಟೋಭಿಜಾಯತೇ৷৷6.41৷৷
പ്രാപ്യ പുണ്യകൃതാം ലോകാനുഷിത്വാ ശാശ്വതീഃ സമാഃ. ശുചീനാം ശ്രീമതാം ഗേഹേ യോഗഭ്രഷ്ടോഭിജായതേ৷৷6.41৷৷
ପ୍ରାପ୍ଯ ପୁଣ୍ଯକୃତାଂ ଲୋକାନୁଷିତ୍ବା ଶାଶ୍ବତୀଃ ସମାଃ| ଶୁଚୀନାଂ ଶ୍ରୀମତାଂ ଗେହେ ଯୋଗଭ୍ରଷ୍ଟୋଭିଜାଯତେ||6.41||
prāpya puṇyakṛtāṅ lōkānuṣitvā śāśvatīḥ samāḥ. śucīnāṅ śrīmatāṅ gēhē yōgabhraṣṭō.bhijāyatē৷৷6.41৷৷
ப்ராப்ய புண்யகரிதாஂ லோகாநுஷித்வா ஷாஷ்வதீஃ ஸமாஃ. ஷுசீநாஂ ஷ்ரீமதாஂ கேஹே யோகப்ரஷ்டோபிஜாயதே৷৷6.41৷৷
ప్రాప్య పుణ్యకృతాం లోకానుషిత్వా శాశ్వతీః సమాః. శుచీనాం శ్రీమతాం గేహే యోగభ్రష్టోభిజాయతే৷৷6.41৷৷
6.42
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।।6.42।। अथवा (वैराग्यवान्) योगभ्रष्ट ज्ञानवान् योगियोंके कुलमें ही जन्म लेता है। इस प्रकारका जो यह जन्म है, यह संसारमें बहुत ही दुर्लभ है।
।।6.42।। अथवा, (साधक) ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जन्म इस लोक में नि:संदेह अति दुर्लभ है।।
।।6.42।। इस श्लोक में ऐसे निष्काम साधक की गति दर्शायी गयी है जिसे स्वर्गादि लोकों की कोई आवश्यकता नहीं रहती। निष्कामभाव से की गई उपासना के फलस्वरूप योगी को शुद्धान्तकरण तथा एकाग्रता प्राप्त होती है जिसके द्वारा वह ध्यान की उच्च साधना करने योग्य बन जाता है। इस प्रकार के श्रेष्ठ साधक को ऐसा अवसर प्रदान करना चाहिए कि वह देहत्याग के पश्चात् सीधे ही पुन इस लोक में जन्म लेकर अपने मार्ग पर अग्रसर हो सके। उसे स्वर्ग जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह वैराग्यवान् है जबकि स्वर्ग भोग भूमि है। भगवान् कहते हैं कि ऐसा निष्काम साधक मृत्यु के पश्चात् तत्काल ही ज्ञानवान् योगियों के कुल में जन्म लेता है जहां वह अप्ानी साधना को निर्विघ्न पूर्ण कर सकता है।आजकल मनुष्य के दुराचरण के लिए बाह्य वातावरण एवं परिस्थितियों को ही दोषी बताकर सबको अपने आसपास के वातावरण के विरुद्ध उत्तेजित किया जाता है परन्तु उपर्युक्त श्लोकों में कथित सिद्धांत इस प्रचलित मान्यता का खण्डन करता है। निसन्देह ही मनुष्य एक सीमा तक बाह्य परिस्थितियों से प्रभावित होता है परन्तु दर्शनशास्त्र की दृष्टि से देखने पर ज्ञात होगा कि सभी मनुष्य वर्तमान में जिन वातावरण एवं परिस्थितियों में रह रहे हैं उनका कारण भूतकाल में किये गये उन्हीं के अपने कर्म ही हैं। बाह्य परिस्थितियों के परिवर्तन मात्र से व्यक्ति में वास्तविक सुधार नहीं हो सकता। यदि मदिरापान के अभ्यस्त व्यक्ति को किसी ऐसे नगर में ले जाये जहाँ सुरापान वर्जित है तो वह व्यक्ति वहां भी छिपकर मदिरापान करता ही रहेगा।श्रीशंकराचार्य ईसामसीह गौतम बुद्ध तथा अनेक अन्य महापुरुषों के उदाहरण विचाराधीन श्लोक में कथित सिद्धांत की पुष्टि करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे मेधावी पुरुष विरले ही होते हैं जिनमें कुमार अवस्था में ही अलौकिक बुद्धिमत्ता एवं ईश्वरीय ज्ञान के दर्शन होते हैं। भगवान् स्वयं कहते हैं कि इस प्रकार का जन्म लोक में अति दुर्लभ है। पूर्व श्लोक में कहा गया है कि रागयुक्त योगी स्वर्ग प्राप्ति के पश्चात् जन्म लेता है जबकि यहाँ वैराग्यवान् योगभ्रष्ट के विषय में कहते हैं कि वह सीधे ही ज्ञानी योगी के घर में जन्म लेकर पूर्णत्व प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होता है।योगाभ्यास के लिए अनुकूल वातावरण में जन्मे हुए योगभ्रष्ट पुरुष की स्थिति क्या होती है भगवान् कहते हैं
।।6.42।। व्याख्या--[साधन करनेवाले दो तरहके होते हैं वासनासहित और वासनारहित। जिसको साधन अच्छा लगता है, जिसकी साधनमें रुचि हो जाती है और जो परमात्माकी प्राप्तिका उद्देश्य बनाकर साधनमें लग भी जाता है, पर अभी उसकी भोगोंमें वासना सर्वथा नहीं मिटी है, वह अन्तसमयमें साधनसे विचलित होनेपर योगभ्रष्ट हो जाता है, तो वह स्वर्गादि लोकोंमें बहुत वर्षोंतक रहकर शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है। (इस योगभ्रष्टकी बात पूर्वश्लोकमें बता दी)। दूसरा साधक ,जिसके भीतर वासना नहीं है, तीव्र वैराग्य है और जो परमात्माका उद्देश्य रखकर तेजीसे साधनमें लगा है, पर अभी पूर्णता प्राप्त नहीं हुई है, वह किसी विशेष कारणसे योगभ्रष्ट हो जाता है तो उसको स्वर्ग आदिमें नहीं जाना पड़ता, प्रत्युत वह सीधे ही योगियोंके कुलमें जन्म लेता है (इस योगभ्रष्टकी बात इस श्लोकमें बता रहे हैं)।]
।।6.42।।अथ वे ति। यदि तु तारतम्येन अस्य अपवर्गेण भवितव्यं तदा योगिकुले एव जायते। अत एवाह एतद्धि दुर्लभतरम् इति। श्रीमतां गेहे किलावश्यमेव विघ्नाः सन्ति।
।।6.42।।परिपक्वयोगः चलितः चेद् योगिनां धीमतां योगं कुर्वतां स्वयम् एव योगोपदेष्ट्ऋणां कुले भवति।तद् एतद् उभयविधं योगयोग्यानां योगिनां च कुले जन्म लोके प्राकृतानां दुर्लभतरम् एतत् तु योगमाहात्म्यकृतम्।
।।6.42।।श्रद्धावैराग्यादिकल्याणाधिक्ये पक्षान्तरमाह अथवेति। योगिनामिति कर्मिणां ग्रहणं माभूदिति विशिनष्टि धीमतामिति। ब्रह्मविद्यावतां शुचीनां दरिद्राणां कुले जन्म दुर्लभादपि दुर्लभं प्रमादकारणाभावादित्याह एतद्धीति। किमपेक्ष्यास्य जन्मनो दुःखलभ्यादपि दुःखलभ्यतरत्वं तदाह पूर्वमिति। यद्यपि विभूतिमतामपि शुचीनां गृहे जन्म दुःखलभ्यं तथापि तदपेक्षयेदं जन्म दुःखलभ्यतरं यदीदृशं शुचीनां दरिद्राणां विद्यावतामिति विशेषणोपेते कुले लोके जन्म वक्ष्यमाणमित्यर्थः।
।।6.42।।अथवाऽऽरब्धच्युतस्य जन्म पुनः साधनार्थं संस्कारतो योगिनामेव कुले भवति। किम्भूतानां योगबुद्धिमतां यदीदृशं जन्म तदेतल्लोके दुर्लभतरम्। अत्र च पूर्वंशुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते 6।41 इति भरतस्य इव जन्मोक्तम् तस्य पूर्वसंस्कारानुगतयोगं साधयितुमित्युक्तं तत्र प्रयत्नाद्यतमानस्यैव भूयो योगसिद्धेः।अथवा इत्यत्र तु प्रयत्नव्यतिरेकेण रूढयोगानां गृहे जन्मिनोऽस्य जडभरतस्य ब्रह्मसुतस्येव योगसिद्ध्या कृतार्थत्वमित्यवसेयम्।
।।6.42।।द्वितीयं प्रति पक्षान्तरमाह श्रद्धावैराग्यादिकल्याणगुणाधिक्ये तु भोगवासनाविरहात्पुण्यकृतां लोकानप्राप्यैव योगिनामेव दरिद्राणां ब्राह्मणानां नतु श्रीमतां राज्ञां कुले भवति धीमतां ब्रह्मविद्यावताम्। एतेन योगिनामिति न कर्मिग्रहणम्। यच्छुचीनां श्रीमतां राज्ञां गृहे योगभ्रष्टजन्म तदपि दुर्लभमनेकसुकृतसाध्यत्वान्मोक्षपर्यवसायित्वाच्च। यत्तु शुचीनां दरिद्राणां ब्राह्मणानां ब्रह्मविद्यावतां कुले जन्म एतद्धि प्रसिद्धं शुकादिवद्दुर्लभतरं दुर्लभं लोके यदीदृशं लोके सर्वप्रमादकारणशून्यं जन्मेति द्वितीयः स्तूयते। भोगवासनाशून्यत्वेन सर्वकर्मसंन्यासार्हत्वात्।
।।6.42।।अल्पकालाभ्यस्तयोगभ्रंशे गतिरियमुक्ता चिराभ्यस्तयोगभ्रंशे तु पक्षान्तरमाह अथेति। योगनिष्ठानां धीमतां ज्ञानिनामेव कुले जायते नतु पूर्वोक्तानामनारूढयोगानां कुले जायते एतज्जन्म स्तौति। ईदृशं यज्जन्म एतद्धि लोके दुर्लभतरम् मोक्षहेतुत्वात्।
6.42 इति इतोऽप्यतिशयितजन्मनो वक्ष्यमाणत्वात्शुचीनाम् इत्यादिविशेषणविशेषसामर्थ्याच्चयोगोपक्रमे भ्रष्ट इत्युक्तम्।।।6.42।।अथवा इति व्यवस्थितविकल्पार्थम्। अतिशयितजन्मनिर्देशोऽतिशयितहेतुसाकाङ्क्ष इति दर्शयितुंपरिपक्वयोगश्चलितश्चेदित्युक्तम्।योगिनां कुले इति कस्यचिद्योगिनः सन्ताने प्रसूतिर्नोच्यते तावन्मात्रस्यात्यन्तयोगोपकारकत्वाभावात् किन्तूपदेशार्हत्वाय योगिनां सतामेव पुत्रादित्वेन जायत इति दर्शयितुंयोगं कुर्वतामिति वर्तमाननिर्देशः।शुचीनां श्रीमताम् इत्यन्यस्मादुपदेष्टुर्योगाधिगमं प्रत्यानुगुण्यमात्रमुक्तम् इह तुधीमताम् इति वचनात्तेषामेवोपदेष्ट्टत्वयोग्यतोच्यत इत्याह स्वयमेवेति।पशुर्मनुष्यः पक्षी वा ये च वैष्णवसंश्रयाः। तेनैव ते प्रयास्यन्ति तद्विष्णोः परमं पदम्।।तव दास्यसुखैकसङ्गिनां भवनेष्वस्त्वपि कीटजन्म मे। इतरावसथेषु मा स्मभूदपि मे जन्म चतुर्मुखात्मना स्तो.र.55 इत्यादिप्रतिपादितवैभवयुक्ते महत्त्वम्। पूर्वश्लोकस्थगेहशब्दतुल्यार्थत्वादत्रापि कुलशब्दो गृहवाची।एतदुभयविधमिति साधारणस्येदृशमित्यनुवादस्य उभयान्वयित्वमेव ह्युचितमिति भावः। प्रकृतिमात्रदर्शिजनविषयेण लोकशब्देन मुमुक्षुव्यतिरिक्तविवक्षामाह प्राकृतानामिति। दुर्लभतरं कथं लभ्येतेत्यत्र ईदृशशब्दाभिप्रेतमाह एतत्त्विति।
।।6.42।।पक्षान्तरमाह अथवा धीमतां स्वरूपज्ञानवतां कुले भवति जन्म प्राप्नोति। धीमत्त्वोक्त्या तत्कुलप्रसूतिमात्रेण ज्ञानोत्पत्तिर्व्यञ्जिता। जन्म विशिनष्टि एतदिति। हीति निश्चयेनैतद्दुर्लभतरं यल्लोके ईदृशं भगवत्स्वरूपज्ञानात्मकं जन्म।
।।6.42।।स योगी विरक्तश्चिराभ्यस्तयोगो वा चेत्तस्य गतिमाह अथवेति।
।।6.42।।वैराग्याधिक्ये पक्षान्तरमाह अथवेति। योगिनामेवेश्वराराधनलक्षणयोगवताम्। धनादिरक्षणविषयभोगादिव्यग्रत्वे योगित्वं न संभवतीत्यतः पूर्वपक्षे श्रीमतामित्युक्तत्वाच्च भाष्ये दरिद्राणामित्युक्तम्। अतएव तत्त्वविचारयोग्यबुद्धिमतां कुले भवति जायते। यदीदृशं जन्म तदेतल्लोके दुर्लभतरमतिदुर्लभं पुनः प्रतिबन्धकाभावात्। श्रीमतां कुलापेक्षया दरिद्राणां कुले जन्म श्रेष्ठतरमित्यर्थः।
6.42 अथवा or? योगिनाम् of Yogis? एव even? कुले in the family? भवति is born? धीमताम् of the wise? एतत् this?,हि verily? दुर्लभतरम् very difficult? लोके in the world? जन्म birth? यत् which? ईदृशम् like this.Commentary A birth in a family of wise Yogis is more difficult to obtain than the one mentioned in the preceding verse.
6.42 Or he is born in a family of even the wise Yogis; verily a birth like this is very difficult to obtain in this world.
6.42 Or, he may be born in the family of the wise sages, though a birth like this is, indeed, very difficult to obtain.
6.42 Or he is born in the family of wise yogis [Persons possessing knowledge of Brahman. (S. concedes that some rare householders also can have this knowledge, and he cites the instances of Vasistha, Agastya, Janaka and Asvapati of olden days, and Vacaspati and the author of Khanada of recent times.)] only. Such a birth as is of this kind is surely more difficult to get in the world.
6.42 Athava, or; bhavati, he is born; kule, in the family; dhimatam, of wise; yoginam, yogis; eva, only, who are poor-which is different from the family of the prosperous. Etat janma, such a birth; yat idrsam, as is of this kind-a birth that is in the family of poor yogis, in a family as described; is hi, surely; durlabha-taram, more difficult to get, as compared with the earlier one; loke, in the world. Becuase,
6.42. Or, he is born (rorn) nowhere other than in the family of the intelligent men of Yoga; for, this birth is more difficult to get in the world.
6.42 Atha va etc. If emancipation is destined to come to him by way of difference (or in grades), then he is rorn nowhere but in a family of the men of Yoga. That is why (the Lord) says : 'For, this birth is more difficult ot get'. Indeed in the house of the rich there are necessarily many obstacles.
6.42 If one swerves from the right path at an advanced stage of Yoga, he will be born in a family of wise Yogins who practise Yoga and are themselves capable of teaching Yoga. Thus, these two types of birth - one in the family of those who are fit to practise Yoga and the other in that of accomplished Yogins - are hardly met with among common people in this world. But Yoga is of such great potentiality that even this rare blessing is achieved through it.
6.42 Or he is born in a family of wise Yogins. But such a birth in this world is rarer to get.
।।6.42।।अथवा श्रीमानोंके कुलसे अन्य जो बुद्धिमान् दरिद्र योगियोंका कुल है उसीमें जन्म ले लेता है। परंतु ऐसा जन्म अर्थात् जो उपर्युक्त दरिद्र आदि विशेषणोंसे युक्त योगियोंके कुलमें उत्पन्न होना है वह इस लोकमें पहले बतलाये हुए श्रीमानोंके कुलमें उत्पन्न होनेकी अपेक्षा अत्यन्त दुर्लभ है।
।।6.42।। अथवा श्रीमतां कुलात् अन्यस्मिन् योगिनामेव दरिद्राणां कुले भवति जायते धीमतां बुद्धिमताम्। एतत् हि जन्म यत् दरिद्राणां योगिनां कुले दुर्लभतरं दुःखलभ्यतरं पूर्वमपेक्ष्य लोके जन्म यत् ईदृशं यथोक्तविशेषणे कुले।।यस्मात्
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अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्। एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्।।6.42।।
অথবা যোগিনামেব কুলে ভবতি ধীমতাম্৷ এতদ্ধি দুর্লভতরং লোকে জন্ম যদীদৃশম্৷৷6.42৷৷
অথবা যোগিনামেব কুলে ভবতি ধীমতাম্৷ এতদ্ধি দুর্লভতরং লোকে জন্ম যদীদৃশম্৷৷6.42৷৷
અથવા યોગિનામેવ કુલે ભવતિ ધીમતામ્। એતદ્ધિ દુર્લભતરં લોકે જન્મ યદીદૃશમ્।।6.42।।
ਅਥਵਾ ਯੋਗਿਨਾਮੇਵ ਕੁਲੇ ਭਵਤਿ ਧੀਮਤਾਮ੍। ਏਤਦ੍ਧਿ ਦੁਰ੍ਲਭਤਰਂ ਲੋਕੇ ਜਨ੍ਮ ਯਦੀਦਰਿਸ਼ਮ੍।।6.42।।
ಅಥವಾ ಯೋಗಿನಾಮೇವ ಕುಲೇ ಭವತಿ ಧೀಮತಾಮ್. ಏತದ್ಧಿ ದುರ್ಲಭತರಂ ಲೋಕೇ ಜನ್ಮ ಯದೀದೃಶಮ್৷৷6.42৷৷
അഥവാ യോഗിനാമേവ കുലേ ഭവതി ധീമതാമ്. ഏതദ്ധി ദുര്ലഭതരം ലോകേ ജന്മ യദീദൃശമ്৷৷6.42৷৷
ଅଥବା ଯୋଗିନାମେବ କୁଲେ ଭବତି ଧୀମତାମ୍| ଏତଦ୍ଧି ଦୁର୍ଲଭତରଂ ଲୋକେ ଜନ୍ମ ଯଦୀଦୃଶମ୍||6.42||
athavā yōgināmēva kulē bhavati dhīmatām. ētaddhi durlabhataraṅ lōkē janma yadīdṛśam৷৷6.42৷৷
அதவா யோகிநாமேவ குலே பவதி தீமதாம். ஏதத்தி துர்லபதரஂ லோகே ஜந்ம யதீதரிஷம்৷৷6.42৷৷
అథవా యోగినామేవ కులే భవతి ధీమతామ్. ఏతద్ధి దుర్లభతరం లోకే జన్మ యదీదృశమ్৷৷6.42৷৷
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।।6.43।। हे कुरुनन्दन ! वहाँपर उसको पूर्वजन्मकृत साधन-सम्पत्ति अनायास ही प्राप्त हो जाती है। फिर उससे वह साधनकी सिद्धिके विषयमें पुनः विशेषतासे यत्न करता है।
।।6.43।। हे कुरुनन्दन ! वह पुरुष वहाँ पूर्व देह में प्राप्त किये गये ज्ञान से सम्पन्न होकर योगसंसिद्धि के लिए उससे भी अधिक प्रयत्न करता है।।
।।6.43।। किसी को यह आशंका हो सकती है कि पुनर्जन्म लेने पर उस साधक को पुन प्रारम्भ से साधना का अभ्यास करना पड़ेगा। यह आशंका निर्मूल है। भगवान् कहते हैं कि योग के अनुकूल वातावरण में जन्म लेने के पश्चात् वह पुरुष पूर्व देह में अर्जित ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है जिनके कारण अन्य लोगों की अपेक्षा वह अपनी शिक्षा अधिक सरलता से पूर्ण कर लेता है। कारण यह है कि उसके लिए यह कोई नवीन अध्ययन नहीं वरन् पूर्वार्जित ज्ञान की मात्र पुनरावृत्ति या सिंहावलोकन ही होता है। अल्पकाल में ही वह अपने हृदय में ही ज्ञान को सिद्ध होते हुए देखता है जो अव्यक्त रूप में पूर्व से ही निहित था।इतना ही नहीं कि वह पौर्वदेहिक ज्ञान से युक्त होता है किन्तु वह फिर संसिद्धि के लिए पूर्व से भी अधिक प्रयत्न करता है। उसमें उत्साह क्षमता तथा प्रयत्न की कमी नहीं होती। प्रयत्न रहित ज्ञान साधक के लिए दुखदायी भार ही बनता है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे कुरुनन्दन योगभ्रष्ट पुरुष संसिद्धि के लिए और भी अधिक प्रयत्न करता है।पौर्वदेहिक बुद्धि संयोग का प्रभाव बताते हुये कहते हैं
।।6.43।। व्याख्या--'तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्'--तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंके कुलमें जन्म होनेके बाद उस वैराग्यवान् साधककी क्या दशा होती है? इस बातको बतानेके लिये यहाँ 'तत्र' पद आया है।
।।6.43 6.45।।तत्रेत्यादि परां गतिमित्यन्तम्। संसिद्धौ मोक्षात्मिकायाम्। अवशः परतन्त्र एव किल तेन पूर्वाभ्यासेन बलादेव योगाभ्यासं प्रति नीयते। न चैतत् सामान्यम्। योगजिज्ञासामात्रेणैव हि शब्दब्रह्मातिवृत्तिः मन्त्रस्वाध्यायादिरूपं च शब्दब्रह्म अतिवर्तते न स्वीकुरुते।ततः जिज्ञासानन्तरम् यत्नवान् अभ्यासक्रमेण देहान्ते वासुदेवत्वं प्राप्नोति। न चासौ तेनैव देहेन सिद्ध इति मन्तव्यम्। अपि तु बहूनि जन्मानि तेन तदभ्यस्तमिति मन्तव्यम्। अत एव यस्य अनन्यव्यापारतया भगद्व्यापारानुरागित्वं स योगभ्रष्ट इति निश्चेयम् ( N निश्चेयः)।
।।6.43।।तत्र जन्मनि तम् एव पौर्वदैहिकं योगविषयं बुद्धिसंयोगं लभते। ततः सुप्तप्रबुद्धवद् भूयः संसिद्धौ यतते। यथा न अन्तरायहतो भवति तथा यतते।
।।6.43।।यदुत्तमतरं जन्मोक्तं तस्योत्तमत्वे हेत्वन्तरमाह यस्मादिति। बुद्ध्येत्यात्मविषययेति शेषः। पूर्वस्मिन्देहे भवं तत्रानुष्ठितसाधनविशेषयुक्तमित्यर्थः। तर्हि यथोक्तजन्मनि साधनानुष्ठानमन्तरेणैव बुद्धिसंबन्धः स्यादित्याशङ्क्याह यतते चेति। प्रयत्नः श्रवणाद्यनुष्ठानविषयः।
।।6.43।।ततः किं तत्राह तत्र तमिति। यतत इति प्रयत्न उक्तः।
।।6.43।।एतादृशजन्मद्वयस्य दुर्लभत्वं कस्मात् यस्मात् तत्र द्विप्रकारेऽपि जन्मनि पूर्वदेहे भवं पौर्वदेहिकं सर्वकर्मसंन्यासगुरूपसदनश्रवणमनननिदिध्यासनानां मध्ये यावत्पर्यन्तमनुष्ठितं तावत्पर्यन्तमेव तं ब्रह्मात्मैक्यविषयया बुद्ध्या संयोगम्। तत्साधनकलापमिति यावत्। लभते प्राप्नोति। न केवलं लभत एव किंतु ततस्तल्लाभानन्तरं भूयोऽधिकं लब्धाया भूमेरग्रिमां भूमिं संपादयितुं संसिद्धौ संसिद्धिर्मोक्षस्तमन्निमित्तं यतते च प्रयत्नं करोति च। यावन्मोक्षं भूमिकाः संपादयतीत्यर्थः। हे कुरुनन्दन तवापि शुचीनां श्रीमतां कुले योगभ्रष्टजन्म जातमिति पूर्ववासनावशादनायासेनैव ज्ञानलाभो भविष्यतीति सूचयितुं महाप्रभावस्य कुरोः कीर्तनम्। अयमर्थो भगवद्वसिष्ठवचने व्यक्तः। यथा श्रीरामःएकामथ द्वितीयां वा तृतीयां भूमिकामुत। आरूढस्य मृतस्याथ कीदृशी भगवन्गतिः।। पूर्वं हि सप्त भूमयो व्याख्याताः। तत्र नित्यानित्यवस्तुविवेकपूर्वकादिहामुत्रार्थभोगवैराग्याच्छमदमश्रद्वातितिक्षावसर्वकर्मसंन्यासादिपुरःसरा मुमुक्षा शुभेच्छाख्या प्रथमा भूमिका साधनचतुष्टयसंपदिति यावत्। ततो गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यविचारणात्मिका द्वितीया भूमिका श्रवणमननसंपदिति यावत्। ततः श्रवणमननपरिनिष्पन्नस्य तत्त्वज्ञानस्य निर्विचिकित्सतारूपा तनुमानसा नाम तृतीया भूमिका निदिध्यासनासंपदिति यावत्। चतुर्थी भूमिका तु तत्त्वसाक्षात्कार एव। पञ्चमषष्ठसप्तमभूमयस्तु जीवन्मुक्तेरवान्तरभेदा इति तृतीये प्राग्व्याख्यातम्। तत्र चतुर्थी भूमिं प्राप्तस्य मृतस्य जीवन्मुक्त्यभावेऽपि विदेहकैवल्यं प्रति नास्त्येव संशयः। तदुत्तरभूमित्रयं प्राप्तस्तु जीवन्नपि मुक्तः किमु विदेह इति नास्त्येव भूमिकाचतुष्टये शङ्का। साधनभूतभूमिकात्रये तु कर्मत्यागाज्ज्ञानालाभाच्च भवति शङ्केति तत्रैव प्रश्नः। श्रीवसिष्ठःयोगभूमिकयोत्क्रान्तजीवितस्य शरीरिणः। भूमिकांशानुसारेण क्षीयते पूर्वदुष्कृतम्।।ततः सुरविमानेषु लोकपालपुरेषु च। मेरूपवनकुञ्जेषु रमते रमणीसखः।।ततः सुकृतसंभारे दुष्कृते च पुराकृते। भोगक्षयात्परिक्षीणे जायन्ते योगिनो भुवि। शुचीनां श्रीमतां गेहे गुप्ते गुणवतां सताम्। जनित्वा योगमेवैते सेवन्ते योगवासिताः।।तत्र प्राग्भावनाभ्यस्तं योगभूमिक्रमं बुधाः। दृष्ट्वा परिपतन्त्युच्चैरुत्तरं भूमिकाक्रमम्।।इति। अत्र प्रागुपचितभोगवासनाप्राबल्यादल्पकालाभ्यस्तवैराग्यवासनादौर्बल्येन प्राणोत्क्रान्तिसमयेप्रादुर्भूतभोगस्पृहः सर्वकर्मसंन्यासी यः स एवोक्तः। यस्तु वैराग्यवासनाप्राबल्यात्प्रकृष्टपुण्यप्रकटितपरमेश्वरप्रसादवशेन प्राणोत्क्रान्तिसमयेऽनुद्भूतभोगस्पृहः संन्यासी भोगव्यवधानं विनैव ब्राह्मणानामेव ब्रह्मविदां सर्वप्रमादकारणशून्ये कुले समुत्पन्नस्तस्य प्राक्तनसंस्काराभिव्यक्तेरनायासेनैव संभवान्नास्ति पूर्वस्यैव मोक्षं प्रत्याशङ्केति स वसिष्ठेन नोक्तो भगवता तु परमकारुणिकेनाथवेति पक्षान्तरं कृत्वोक्त एव। स्पष्टमन्यत्।
।।6.43।। ततः किमत आह तत्रेति सार्धेन। तत्र द्विःप्रकारेऽपि जन्मनि पूर्वदेहे भवं पौर्वदेहिकं तमेव ब्रह्मविषयया बुद्ध्या संयोगं लभते। ततश्च भूयोऽधिकं संसिद्धौ मोक्षे प्रयत्नं करोति।
।।6.43।।ततः किमायातमपवर्गस्य पूर्वदेहारब्धस्य योगस्य शिथिलत्वात् योगिकुलजन्ममात्रस्य च मोक्षहेतुत्वाभावादित्यत्रोत्तरंतत्र तमिति। तत्रशब्दस्य सप्तमीसाम्याद्गेहविषयत्वभ्रमव्युदासाय पूर्वोक्तवाक्यार्थेन अन्वयमाह तत्र जन्मनीत्यादि। पूर्वदेहे संस्कारहेतुबुद्धेरपि सद्भावात्तद्व्यवच्छेदायतम् इत्युक्तमित्याह योगविषयमिति।ततः बुद्धिसंयोगादित्यर्थः। जन्मान्तरे समस्तसंस्कारतिरोधानस्य दृश्यमानत्वात् कथमिदमुपपद्यते इति शङ्कायां पुण्यकृतां तथाविधः संस्कारभ्रंशो नास्तीति प्रदर्शनायसुप्तप्रबुद्धवदिति दृष्टान्त उक्तः।संसिद्धौ इत्यत्रोपसर्गाभिप्रेतमाह यथेति।
।।6.43।।तादृशजन्मानन्तरं किं स्यात् इत्यत आह तत्र तमिति। तत्र तस्मिन् जन्मद्वयेऽपि तं पौर्वदेहिकं भगवत्कृपालब्धजीवभावानन्तरप्राप्तं प्रथमदेहसम्बन्धिनं बुद्धिसंयोगं भगवत्सेवार्थप्रकटितज्ञानरूपं भगवदीयकुलजन्ममात्रेण लभते। च पुनः तं लब्ध्वा भूयः सिद्धौ सम्यक् सिद्ध्यर्थं तथा भगवत्प्राप्त्यर्थं यतते यत्नं करोति। कुरुनन्दनेतिसम्बोधनं विश्वासार्थम्।
।।6.43।।तत्र द्विविधेऽपि जन्मनि पौर्वदेहिकं पूर्वदेहप्राप्तं बुद्धिसंयोगम्। यावती च योगभूमिः पूर्वजन्मनि जिता तत्र च यावान्बुद्धिलाभो जातस्तावन्तं बुद्धिसंयोगं पूर्वाभ्यासादल्पेनैवाभ्यासेन लभते। तस्मादपि भूयस्यां बह्व्यां संसिद्धौ ऊर्ध्वभूमिलाभार्थमित्यर्थः। यतते यत्नं करोति।
।।6.43।।एतादृशजन्मनो दुर्लभतरत्वं कस्मात् यस्मात्तत्र योगिनां कुले तं पौर्वदेहिकं पूर्वदेहे भवं बुद्धिसंयोगं बुद्य्धा निष्कामकर्मणा शुद्धया श्रवणादिसंपन्नया संयोगं लभते प्राप्नोति। ततस्तस्मात्पूर्वदेहाभ्याससंस्कारद्भूयो बहुतरं संसिद्धौ मोक्षार्थ यतते तत्त्वसाक्षात्कारं यत्नेन संपादयतीत्यर्थः। यत्त्वेतादृशजन्मद्वयदुर्लभत्वं कस्माद्यस्मात् तत्र द्विःप्रकारेऽपि जन्मनीति तदुपेक्ष्यम्। अथवेत्यादिनोक्तपक्षस्य श्रेष्ठ्यप्रतिज्ञाया हेतोरावश्यकत्वात्। अन्यथोभयोरपि साभ्यप्रसङ्गे पतिज्ञाघातापत्तेः। योगिनां श्रीमता कुले जातस्य यथा योगित्वं बुद्धिमर्त्त्व च भवति तथा क्षात्रधर्मेऽतिकुशलस्य कुरोर्वंशे जातस्य तवापि स्वकुलोचितधर्मसंबन्ध आवश्यक इति सूचयन्नाह हे कुरुनन्दनेति।
6.43 तत्र there? तम् that? बुद्धिसंयोगम् union with knowledge? लभते obtains? पौर्वदेहिकम् acired in his fomer body? यतते strives? च and? ततः than that? भूयः more? संसिद्धौ for perfection? कुरुनन्दन O son of the Kurus.Commentary When he takes a human body again in this world his previous exertions and practice in the path of Yoga are not wasted. They bear full fruit now? and hasten his moral and spiritual evolution.Our thoughts and actions are left in our subconscious minds in the form of subtle Samskaras or impressions. Our experiences in the shape of Samskaras? habits and tendencies are also stored up in our subconscious mind. These Samskaras of the past birth are revivified and reenergised in the next birth. The Samskaras of Yogic practices and meditation and the Yogic tendencies will compel the spiritual aspirant to strive with greater vigour than that with which he attempted in the former birth. He will endeavour more strenuously to get more spiritual experiences and to attain to higher planes of realisation than those acired in his previous birth.
6.43 Thee he comes in touch with the knowledge acired in his former body and strives more than before for perfection, O Arjuna.
6.43 Then the experience acquired in his former life will revive, and with its help he will strive for perfection more eagerly than before.
6.43 There he becomes endowed with that wisdom acired in the previous body. and he strives more than before for perfection, O scion of the Kuru dynasty.
6.43 Tatra, there, in the family of yogis; labhate, tam buddhisamyogam, he becomes endowed with that wisdom; paurva-dehikam, acired in the previous body. And yatate, he strives; bhuyah, more intensely; tatah, than before, more intensely than that tendency acired in the previous birth; samsiddau, for, for the sake of, perfection; kuru-nandana, O scion of the Kuru dynasty. How does he become endowed with the wisdom acired in the previous body? That is being answered:
6.43. There in that life, he gains (regains) that link of mentality transmitted from his former body. Conseently once again he strives for a full success, O rejoicer of the Kurus !
6.43 See Comment under 6.45
6.43 - 6.44 There, in that existence, he regains the mental disposition for Yoga that he had in the previous birth. Like one awakened from sleep, he strives again from where he had left before attaining complete success. He strives so as not to be defeated by impediments. This person who has fallen away from Yoga is borne on towards Yoga alone by his previous practice, i.e., by the older practice with regard to Yoga. This power of Yoga is well known. Even a person, who has not engaged in Yoga but has only been desirous of knowing Yoga, i.e., has failed to follow it up, acries once again the same desire to practise Yoga. He then practises Yoga, of which the first stage is Karma Yoga, and transcends Sabda-brahman (or Brahman which is denotable by words). The Sabda-brahman is the Brahman capable of manifesting as gods, men, earth, sky, heaven etc., namely, Prakrti. The meaning is that having been liberated from the bonds of Prakrti, he attains the self which is incapable of being named by such words as gods, men etc., and which comprises solely of knowledge and beatitude. After thus describing the glory of Yoga the verse says:
6.43 There he regains the disposition of mind which he had in his former body, O Arjuna, and from there he strives much more for success inYoga.
।।6.43।।क्योंकि वहाँ योगियोंके कुलमें पहले शरीरमें होनेवाले उस बुद्धिके संयोगको पाता है अर्थात् योगीकुलमें जन्म लेते ही उसका पूर्वजन्ममें प्राप्त हुई बुद्धिसे सम्बन्ध हो जाता है और हे कुरुनन्दन वह उस पूर्वकृत संस्कारके बलसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त करनेके लिये फिर और भी अधिक प्रयत्न करता है।
।।6.43।। तत्र योगिनां कुले तं बुद्धिसंयोगं बुद्ध्या संयोगं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकं पूर्वस्मिन् देहे भवं पौर्वदेहिकम्। यतते च प्रयत्नं च करोति ततः तस्मात् पूर्वकृतात् संस्कारात् भूयः बहुतरं संसिद्धौ संसिद्धिनिमित्तं हे कुरुनन्दन।।कथं पूर्वदेहबुद्धिसंयोग इति तदुच्यते
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तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्। यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।6.43।।
তত্র তং বুদ্ধিসংযোগং লভতে পৌর্বদেহিকম্৷ যততে চ ততো ভূযঃ সংসিদ্ধৌ কুরুনন্দন৷৷6.43৷৷
তত্র তং বুদ্ধিসংযোগং লভতে পৌর্বদেহিকম্৷ যততে চ ততো ভূযঃ সংসিদ্ধৌ কুরুনন্দন৷৷6.43৷৷
તત્ર તં બુદ્ધિસંયોગં લભતે પૌર્વદેહિકમ્। યતતે ચ તતો ભૂયઃ સંસિદ્ધૌ કુરુનન્દન।।6.43।।
ਤਤ੍ਰ ਤਂ ਬੁਦ੍ਧਿਸਂਯੋਗਂ ਲਭਤੇ ਪੌਰ੍ਵਦੇਹਿਕਮ੍। ਯਤਤੇ ਚ ਤਤੋ ਭੂਯ ਸਂਸਿਦ੍ਧੌ ਕੁਰੁਨਨ੍ਦਨ।।6.43।।
ತತ್ರ ತಂ ಬುದ್ಧಿಸಂಯೋಗಂ ಲಭತೇ ಪೌರ್ವದೇಹಿಕಮ್. ಯತತೇ ಚ ತತೋ ಭೂಯಃ ಸಂಸಿದ್ಧೌ ಕುರುನನ್ದನ৷৷6.43৷৷
തത്ര തം ബുദ്ധിസംയോഗം ലഭതേ പൌര്വദേഹികമ്. യതതേ ച തതോ ഭൂയഃ സംസിദ്ധൌ കുരുനന്ദന৷৷6.43৷৷
ତତ୍ର ତଂ ବୁଦ୍ଧିସଂଯୋଗଂ ଲଭତେ ପୌର୍ବଦେହିକମ୍| ଯତତେ ଚ ତତୋ ଭୂଯଃ ସଂସିଦ୍ଧୌ କୁରୁନନ୍ଦନ||6.43||
tatra taṅ buddhisaṅyōgaṅ labhatē paurvadēhikam. yatatē ca tatō bhūyaḥ saṅsiddhau kurunandana৷৷6.43৷৷
தத்ர தஂ புத்திஸஂயோகஂ லபதே பௌர்வதேஹிகம். யததே ச ததோ பூயஃ ஸஂஸித்தௌ குருநந்தந৷৷6.43৷৷
తత్ర తం బుద్ధిసంయోగం లభతే పౌర్వదేహికమ్. యతతే చ తతో భూయః సంసిద్ధౌ కురునన్దన৷৷6.43৷৷
6.44
6
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।।6.44।। वह (श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट मनुष्य) भोगोंके परवश होता हुआ भी पूर्वजन्ममें किये हुए अभ्यास-(साधन-) के कारण ही परमात्माकी तरफ खिंच जाता है; क्योंकि योग-(समता-) का जिज्ञासु भी वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है।
।।6.44।। उसी पूर्वाभ्यास के कारण वह अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होता है। योग का जो केवल जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण करता है।।
।।6.44।। बैंक में हमारे खाते में जमा राशि वही होगी जो पासबुक में दर्शायी गयी होती है। बैंक से हमे उस राशि से अधिक धन नहीं प्राप्त हो सकता और न ही कम राशि दिखाकर हमें धोखा दिया जा सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति के हृदय के विकास में भी कोई भी देवता उस व्यक्ति को उसके प्रयत्नों से अधिक न दे सकता है और न कुछ अपहरण कर सकता है। प्रतिदिन के जीवन में अनुभूत अखण्डता के समान ही प्रत्येक जन्म पूर्व जीवन की अगली कड़ी है। जैसे आज का दिन बीते हुए कल का विस्तार है। इस तथ्य को सम्यक् प्रकार से ध्यान में रखकर इस श्लोक का मनन करने पर इसका तात्पर्य सरलता से समझ में आ जायेगा।जिस व्यक्ति ने अपने पूर्व जन्म में योग साधना की होगी वह उस पूर्वभ्यास के कारण अपने आप अवश हुआ योग की ओर आकर्षित होगा। हमारे इस लोक के जीवन में भी इस तथ्य की सत्यता प्रमाणित होती है। एक शिक्षित तथा सुसंस्कृत व्यक्ति के व्यवहार और संभाषण में उसकी शिक्षा का प्रभाव सहज ही व्यक्त होता है जिसके लिए उसे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। कोई भी सुसंस्कृत व्यक्ति दीर्घकाल तक सफलतापूर्वक मूढ़ पुरुष का अभिनय नहीं कर सकता और उसी प्रकार न हीं एक दुष्ट व्यक्ति सभ्य पुरुष जैसा व्यवहार कर सकता है। कभीनकभी वे दोनों अनजाने ही अपने वास्तविक स्वभाव का परिचय सम्भाषण विचार और कर्म द्वारा व्यक्त कर देंगे।इसी प्रकार योगभ्रष्ट पुरुष भी जन्म लेने पर अवशसा हुआ स्वत ही योग की ओर खिंचा चला जायेगा। यदि जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं तब भी उन सभी में जिस सम और शान्त भाव में वह रहता है वह स्वयं उसके लिए भी एक आश्चर्य ही होता है।यह मात्र सिद्धांत नहीं है। समाज के सभी स्तरों के जीवन में इसका सत्यत्व प्रमाणित होता है। पूर्व संस्कारों की शक्ति अत्यन्त प्रबल होती है। एक लुटेरा भी दृढ़ निश्चयपूर्वक की गई साधना के फलस्वरूप आदि कवि बाल्मीकि बन गया। ऐसे अनेक उदाहरण हमें इतिहास में देखने को मिलते हैं। इन सबका सन्तोषजनक स्पष्टीकरण यही हो सकता है कि जीव का अस्तित्व देह से भिन्न है जो अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न शरीर धारण करता है। इसलिए उसके अर्जित संस्कारों का प्रभाव किसी देह विशेष में भी दृष्टिगोचर होता है।योगभ्रष्ट पुरुष पुन साधना मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। उसे चाहे राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया जाय अथवा बाजार के कोलाहल या किसी गली के असम्मान पूर्ण स्थान पर बैठा दिया जाय सभी स्थानों पर उसकी सहृदयता और उसका दार्शनिक स्वभाव छिपा नहीं रह सकता। चाहे वह संसार की समस्त सम्पत्ति का स्वामी हो जाये चाहे राजसत्ता की असीम शक्ति उसे प्राप्त हो जाये चाहे अपार आदर और स्नेह उसे मिले किन्तु इन समस्त प्रलोभनों के द्वारा उसे योगमार्ग से विचलित नहीं किया जा सकता। यदि सम्पूर्ण जगत् उसके विचित्र व्यवहार एवं असामान्य आचरण को विस्मय से देखता हो तो वह स्वयं भी अपनी ओर सबसे अधिक आश्चर्य से देख रहा होता है इस ध्यानयोग की महत्ता को दर्शाते हुए भगवान् कहते हैं कि जो केवल योग का जिज्ञासु है वह शब्दब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है। श्रीशंकराचार्य के अनुसार शब्दब्रह्म से तात्पर्य वेदों के कर्मकाण्ड से है जहाँ विभिन्न प्रकार के फल प्राप्त करने के लिए यज्ञयागादि साधन बताये गये है। अर्थ यह हुआ कि जो केवल जिज्ञासु है वह इन सब फलों की कामना से मुक्त हो जाता है तब फिर ज्ञानी के विषय में क्या कहनाकिस कारण से योगी श्रेष्ठ है इस पर कहते हैं
।।6.44।। व्याख्या--पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः--योगियोंके कुलमें जन्म लेनेवाले योगभ्रष्टको जैसी साधनकी सुविधा मिलती है, जैसा वायुमण्डल मिलता है, जैसा सङ्ग मिलता है, जैसी शिक्षा मिलती है, वैसी साधनकी सुविधा, वायुमण्डल, सङ्ग, शिक्षा आदि श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवालोंकोनहीं मिलती। परन्तु स्वर्गादि लोकोंमें जानेसे पहले मनुष्यजन्ममें जितना योगका साधन किया है, सांसारिक भोगोंका त्याग किया है, उसके अन्तःकरणमें जितने अच्छे संस्कार पड़े हैं, उस मनुष्य-जन्ममें किये हुए अभ्यासके कारण ही भोगोंमें आसक्त होता हुआ भी वह परमात्माकी तरफ जबर्दस्ती खिंच जाता है।
।।6.43 6.45।।तत्रेत्यादि परां गतिमित्यन्तम्। संसिद्धौ मोक्षात्मिकायाम्। अवशः परतन्त्र एव किल तेन पूर्वाभ्यासेन बलादेव योगाभ्यासं प्रति नीयते। न चैतत् सामान्यम्। योगजिज्ञासामात्रेणैव हि शब्दब्रह्मातिवृत्तिः मन्त्रस्वाध्यायादिरूपं च शब्दब्रह्म अतिवर्तते न स्वीकुरुते।ततः जिज्ञासानन्तरम् यत्नवान् अभ्यासक्रमेण देहान्ते वासुदेवत्वं प्राप्नोति। न चासौ तेनैव देहेन सिद्ध इति मन्तव्यम्। अपि तु बहूनि जन्मानि तेन तदभ्यस्तमिति मन्तव्यम्। अत एव यस्य अनन्यव्यापारतया भगद्व्यापारानुरागित्वं स योगभ्रष्ट इति निश्चेयम् ( N निश्चेयः)।
।।6.44।।तेन पूर्वाभ्यासेन पूर्वेण योगविषयेण अभ्यासेन सः योगभ्रष्टो हि अवशः अपि योगे एव ह्रियते प्रसिद्धं हि एतद् योगमाहात्म्यम् इत्यर्थः। अप्रवृत्तयोगोयोगजिज्ञासुः अपि ततः चलितमानसः पुनरपि ताम् एव जिज्ञासां प्राप्य कर्मयोगादिकं योगम् अनुष्ठाय शब्दब्रह्म अतिवर्तते।शब्दब्रह्म देवमनुष्यपृथिव्यन्तरिक्षस्वर्गादिशब्दाभिलापयोग्यं ब्रह्म प्रकृतिः प्रकृतिसम्बन्धाद् विमुक्तो देवमनुष्यादिशब्दाभिलापानर्हं ज्ञानानन्दैकतानम् आत्मानं प्राप्नोति इत्यर्थः।यत एवं योगमाहात्म्यम् ततः
।।6.44।।यदि पूर्वसंस्कारोऽस्येच्छामुपनयन्न प्रवर्तयति तथाच प्रवृत्तिरनिच्छया स्यादित्याशङ्क्याह पूर्वेति। स हि योगभ्रष्टः समनन्तरजन्मकृतसंस्कारवशादुत्तरस्मिञ्जन्मनि अनिच्छन्नपि योगं प्रत्येवाकृष्टो भवतीत्यर्थः। तत्र कैमुतिकन्यायं सूचयति जिज्ञासुरिति। पूर्वार्धं विभजते यः पूर्वेति। तस्मान्नेच्छया तस्य प्रवृत्तिरिति शेषः। योगभ्रष्टस्याधर्मादिप्रतिबन्धेऽपि तर्हि पूर्वाभ्यासवशाद्बुद्धिसंबन्धः स्यादित्याशङ्क्याह नेत्यादिना। यदि योगभ्रष्टेन योगाभ्यासजनितसंस्कारप्राबल्यात्प्रबलमरधर्मप्रभेदरूपं कर्म न कृतं स्यात्तदा तेन संस्कारेण वशीकृतः सन्निच्छादिरहितोऽपि बुद्धिसंबन्धभाग्भवतीत्यर्थः। विपक्षे योगसंस्कारस्याभिभूतत्वान्न कार्यारम्भकत्वमित्याह अधर्मश्चेदिति। योगजसंस्कारस्याधर्माभिभूतस्य कार्यमकृत्वैवाभिभावकप्राबल्ये प्रणाशः स्यादित्याशङ्क्याह तत्क्षये त्विति। कालव्यवधानान्निवृत्तिं शङ्कित्वोक्तं नेति। तृणजलायुकादृष्टान्तश्रुत्या संस्कारस्य दीर्घतायाः समधिगतत्वादिति भावः। कैमुतिकन्यायोक्तिपरमुत्तरार्धं विभजते जिज्ञासुरपीत्यादिना। अत्रापि संन्यासीति विशेषणं पूर्ववदवधेयमित्याह सामर्थ्यादिति। नहि कर्मी कर्ममार्गे प्रवृत्तस्ततो भ्रष्टः शङ्कितुं शक्यते अतः संन्यासी पूर्वोक्तैर्विशेषणैर्विशिष्टो योगभ्रष्टोऽभीष्टः सोऽपि वैदिकं कर्म तत्फलं चातिवर्तते किमुत योगं बुद्ध्वा तन्निष्ठः सदाभ्यासं कुर्वन्कर्म तत्फलं चातिवर्तत इति वक्तव्यमिति योजना। योगनिष्ठस्य कर्मतत्फलातिवर्तनं ततोऽधिकफलावाप्तिर्विवक्ष्यते।
।।6.44।।पूर्वदेहकृताभ्यासेनावशोऽपि कुतश्चिदन्तरायादनिच्छन्नपि ह्रियते विषयेभ्यः परावृत्त्य योगनिष्ठः क्रियते। किञ्च कैमुत्येन दृढयति जिज्ञासुरपीति। यः कश्चिद्योगस्य जिज्ञासावानपि भवति सोऽपि शब्दब्रह्मातिवर्त्तते शब्दब्रह्मातिक्राम्यति परमहंस इव सम्पूजितो भवति। किमुत तन्निष्ठः शब्दब्रह्मातिलङ्घनो भवतीति वक्तव्यम् यद्वा शब्दब्रह्मातिवर्त्ततेऽर्थात्परं ब्रह्म शब्दब्रह्मतात्पर्यभूतं पारोक्ष्येण जानाति तत्प्रभावेणेत्यर्थः।
।।6.44।।ननु यो ब्रह्मविदां ब्राह्मणानां सर्वप्रमादकारणशून्ये कुले समुत्पन्नस्तस्य मध्ये विषयभोगव्यवधानाभावादव्यवहितप्राग्भवीयसंस्कारोद्वोधात्पुनरपि सर्वकर्मसंन्यासपूर्वको ज्ञानसाधनलाभो भवतु नाम। यस्तु श्रीमतां महाराजचक्रवर्तिनां कुले बहुविधविषयभोगव्यवधानेनोत्पन्नस्तस्य विषयभोगवासनाप्राबल्यात्प्रमादकारणसंभवाच्च कथमतिव्यवहितज्ञानसंस्कारोद्बोधः क्षत्रियत्वेन सर्वकर्मसंन्यासानर्हस्य कथं वा ज्ञानसाधनलाभ इति। तत्रोच्यते अतिचिरव्यवहितजन्मोपचितेनापि तेनैव पूर्वाभ्यासेन प्रागर्जितज्ञानसंस्कारेणावशोऽपि मोक्षसाधनायाप्रयतमानोऽपि ह्रियते स्ववशीक्रियते अकस्मादेव भोगवासनाभ्यो व्युत्थाप्य मोक्षसाधनोन्मुखः क्रियते ज्ञानवासनाया एवाल्पकालाभ्यस्ताया अपि वस्तुविषयत्वेनावस्तुविषयाभ्यो भोगवासनाभ्यः प्राबल्यात्। पश्य यथा त्वमेव युद्धे प्रवृत्तो ज्ञानायाप्रयतमानोऽपि पूर्वसंस्कारप्राबल्यादकस्मादेव रणभूमौ ज्ञानोन्मुखोऽभूरिति। अतएव प्रागुक्तं नेहाभिक्रमनाशोऽस्तीति। अनेकजन्मसहस्रव्यवहितोऽपि ज्ञानसंस्कारः स्वकार्यं करोत्येव सर्वविरोध्युपमर्देनेत्यभिप्रायः। सर्वकर्मसंन्यासाभावेऽपि हि क्षत्रियस्य ज्ञानाधिकारः स्थित एव। यथा पाटच्चरेण बहूनां रक्षिणां मध्ये विद्यमानमप्यश्वादिद्रव्यं स्वयमनिच्छदपि तान्सर्वानभिभूय स्वसामर्थ्यविशेषादेवापह्रियते पश्चात्तु कदापहृतमिति विमर्शो भवति एवं बहूनां ज्ञानप्रतिबन्धकानां मध्ये विद्यमानोऽपि योगभ्रष्टः स्वयमनिच्छन्नपि ज्ञानसंस्कारेण बलवता स्वसामर्थ्यविशेषादेव सर्वान्प्रतिबन्धकानभिभूयात्मवशीक्रियत इति हृञः प्रयोगेण सूचितम्। अतएव संस्कारप्राबल्याज्जिज्ञासुर्ज्ञातुमिच्छुरपि योगस्य मोक्षसाधनज्ञानस्य विषयं ब्रह्मज्ञानं प्रथमभूमिकायां स्थितः संन्यासीति यावत्। सोऽपि तस्यामेव भूमिकायां मृतोऽन्तराले बहून्विषयान्भुक्त्वा महाराजचक्रवर्तिनां कुले समुत्पन्नोऽपि योगभ्रष्टः प्रागुपचितज्ञानसंस्कारप्राबल्यात्तस्मिञ्जन्मनि शब्दब्रह्म वेदं कर्मप्रतिपादकमतिवर्ततेऽतिक्रम्य तिष्ठति। कर्माधिकारातिक्रमेण ज्ञानाधिकारी भवतीत्यर्थः। एतेनापि ज्ञानकर्मसमुच्चयो निराकृत इति द्रष्टव्यम्। समुच्चये हि ज्ञानिनोऽपि कर्मकाण्डातिक्रमाभावात्।
।।6.44।।तत्र हेतुः पूर्वेति। तेनैव पूर्वदेहकृताभ्यासेनावशोऽपि कुतश्चिदन्तरायादनिच्छन्नपि संह्रियते। विषयेभ्यः परावर्त्य ब्रह्मनिष्ठः क्रियते। तदेवं पूर्वाभ्यासवशेन प्रयत्नं कुर्वञ्शनैर्मुच्यत इतीममर्थं कैमुत्यन्यायेन स्फुटयति जिज्ञासुरिति सार्धेन। योगस्य स्वरूपं जिज्ञासुरेव केवलं नतु प्राप्तयोगः। एवंभूतो योगे प्रविष्टमात्रोऽपि पापवशाद्योगभ्रष्टोऽपि शब्दब्रह्म वेदमतिवर्तते वेदोक्तकर्मफलान्यतिक्रामति। तेभ्योऽधिकं फलं प्राप्य मुच्यत इत्यर्थः।
।।6.44।।तेनेत्यस्यार्थोयोगविषयेणेति।तेनैव इत्यवधारणफलितमाह योग एव ह्रियत इति। हिशब्दार्थमाहप्रसिद्धमिति। प्रसिद्धिश्चादिभरतविदुरभीष्मादिवृत्तान्तेषु द्रष्टव्या। पार्थकुरुनन्दनशब्दाभ्यामुभयकुलशुद्ध्यादिसूचकाभ्यामर्जुनस्यापि शुचीनां श्रीमतामित्याद्यन्वयः सूचितः।जिज्ञासुः इत्यादिप्रकरणवशाद्वासनया विच्छिन्नघटकत्वप्रदर्शनार्थमित्याह अप्रवृत्तेति।जिज्ञासुरपि इति सन्नन्तापिशब्दयोः सामर्थ्यात् अप्रवृत्तयोग इत्युक्तम्। यद्यपिन लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम् अष्टा.2।3।69 इति कर्मणि षष्ठीनिषेधः तथाप्यत्र सम्बन्धसामान्यविवक्षयायोगस्य इति षष्ठी। योगिनश्चलितस्य योगः प्रक्रान्तयोगस्य चलितस्थ तत्प्रक्रमः योगमारुरुक्षोश्चलितस्यारुरुक्षेति तत्तदवस्थानुरूपं प्रति समाधानमिति भावः।कर्मयोगादिकं कर्मयोगज्ञानयोगावित्यर्थः। यद्वा कर्मयोग उपक्रमो यस्यात्मसाक्षात्काररूपस्य योगस्य स तथोक्तः। ब्रह्मशब्दोऽत्र न परब्रह्मविषयः तस्यातिवर्तनीयत्वानुपपत्तेःशब्दब्रह्म इति विशेषणायोगाच्च। अत एव न जीवविषयः नापि वेदविषयः तस्याप्यनिवर्तनीयत्वानिरूपणात्। नापि लक्षणया वेदप्रतिपाद्यकर्मविषयः तत्फलविषयो वा तत्रापि वेदे ब्रह्मशब्दस्य गौणः प्रयोगः तदस्य परस्ताल्लक्षणा उपनिषदंशात्सङ्कोच इति बहुदोषप्रसङ्गात्। नापि शब्दजन्यं ज्ञानमात्रं शब्दब्रह्म योगं जिज्ञासोस्तदतिवृत्तेर्विरुद्धत्वात्।स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत् वि.पु.6।62 इत्यादिप्रकोपप्रसङ्गाच्च। योगमारुरुक्षुः पुरुषः शब्दश्रवणजनितज्ञानमात्रवतः पुरुषादधिकःब्राह्मणेषु च विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुद्धयः। कृतबुद्धिषु कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवादिनः मनुः1।97 इतिवदिति चेत् तदपि न अध्याहाराद्यापातात् अप्रस्तुताभिधानप्रसङ्गात् पूर्वोत्तरवाक्यानन्वयाच्च। अतः प्रकृतावपि ब्रह्मशब्दप्रयोगस्यात्रापि प्राचुर्यादतिवर्तनीयत्वौचित्याच्च ब्रह्मशब्दोऽत्र प्रकृतिविषयः। तस्या एव भोग्यभोगोपकरणभोगस्थानाख्यपरिणामप्रदर्शनायशब्दब्रह्म इति व्यपदेशः। सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरः। नामानि कृत्वा तै.आ.3।12।7 इत्यादिश्रुतेः। विभक्तरूपा हि प्रकृतिर्देवादिशब्दाभिलप्या तदेतदखिलमभिप्रेत्यदेवमनुष्येत्यादिकमुक्तम्। प्रकृत्यतिवर्तनशब्दार्थं फलितं च दर्शयतिप्रकृतिसम्बन्धादिति।देवमनुष्येत्यादिनापुमान्न देवो न नरः वि.पु.2।13।98 इत्यादिकं स्मारितम्।ज्ञानानन्दैकतानमित्यनेन चनाहं देवो न मर्त्यो वा न तिर्यक् स्थावरोऽपि वा। ज्ञानानन्दमयस्त्वात्मा शेषो हि परमात्मनः पां.रा. इत्यादिकम्।
।।6.44।।ननु भूयोऽपि यत्ने पूर्ववदेव चेत्स्यात्तदा किं जन्मना यत्नेन चेत्याशङ्क्याह पूर्वाभ्यासेनेति। तेनैव पूर्वाभ्यासेन श्रद्धामयेन अवशोऽपि तादृक्कुलजन्मप्राप्त्या कुलरीत्यापि अन्यभावेभ्यो हीयते परावर्त्तते भगवत्संयोगरसनिष्ठः क्रियत इति भावः। ननु पूर्वप्रवृत्त्या श्रद्धायुक्तया चेन्न सिद्धिरभूत् तदा कथमिदानीं तेनैव साधनेन सिद्धिर्भविष्यति इत्याशङ्क्याह जिज्ञासुरपीति। योगस्य स्वरूपजिज्ञासुरेव शब्दब्रह्म नामरूपात्मकं विप्रयोगसामयिकजीवनहेतुरूपमतिवर्त्तते अतिक्रामति। परमक्लेशाविर्भावेन गुणगानादित्यागेन लौकिकदेहत्यागेनालौकिकदेहमाप्नोतीति भावः। तथा चायमर्थः पूर्वश्रद्धया प्रवृत्तस्तु योगजिज्ञासया न प्रवृत्तः किन्तु साधारण्येन वाक्यश्रद्धयैव प्रवृत्तौ तेन सिद्धिरभूत्। अधुना तूत्तमकुलजन्माप्त्या तत्स्वरूपं कुरुते अतः प्राप्स्यतीति।
।।6.44।।कुतो यतते शिक्षितोऽपीत्यत आह पूर्वेति। अवशोऽपि प्रह्नादादिवत्पित्रादिभिरन्यथा नीयमानोऽपि तेनैव पूर्वाभ्यासेन बलवता ह्रियते योगप्रवणः क्रियते। यतो योगस्य जिज्ञासुर्ज्ञानमात्रमिच्छन्यो भवति सोऽपि शब्दब्रह्म कर्मकाण्डं वेदमप्यतिक्रम्य वर्तते किं पुनः पित्राद्याज्ञाम्। इत्थं पूर्वाभ्यासबलं यन्महान्तमपि पित्रादियत्नं वृथा करोतीत्यर्थः।
।।6.44।।कथंभूतं बुद्धिसंयोगं लभत इत्यपेक्षायां तेनैव पूर्वाभ्यासेनावशस्यापि योगभ्रष्टस्य बुद्धिंप्रत्येवाहरणरुपमित्याह पूर्वेति। यः पूर्व जन्मानि कृतोऽभ्यासः तेनैव बलवता हि यसमादवशः पित्राद्यधीनोऽपि सः योगभ्रष्टो ह्नियते स्ववशीक्रियते योगाभ्याससंस्कारात् बलवत्तरस्याधर्मस्य प्रतिबन्धकस्याभावात् प्रतिबन्धे सत्यपि पूर्वाभ्यासस्तत्क्षयः प्रतीक्षते। ननु तस्य नाशोऽस्ति। एतदेव कैमुत्येन द्रढयति। योगस्य जिज्ञासुर्नतु यतमानो योगी सोऽपि शब्दब्रह्म वेदोक्तकर्मानुष्ठानफलमतिवर्तते मुञ्चति किमुत यो योगं ज्ञात्वा तन्निष्ठोभ्यासं कुर्यात्। एतेन ननु योगिनां दरिद्राणां कुले जातस्य बुद्धिसंयोगोऽस्तु नाम शुचीनां श्रीमतां कुले उत्पन्नस्य द्रव्यजनितभोगादिप्रतिबन्धवशाद्धुद्धिसंयोगो न भविष्यतीत्याङ्कापि परास्ता।
6.44 पूर्वाभ्यासेन former practice? तेन by that? एव verily? ह्रियते is borne? हि indeed? अवशः helpless? अपि even? सः he? जिज्ञासुः he who wishes to know Yoga? अपि even? योगस्य of Yoga? शब्दब्रह्म wordBrahman? अतिवर्तते goes beyond.Commentary The man who fell from Yoga is carried to the goal which he intended to reach in his previous birth? by the force of the Samskaras of the practice of Yoga though he may not be conscious of them and even if he may not be willing to adopt the course of Yogic discipline on account of the force of some evil Karma. If he had not done any great evil action which could overwhelm his Yogic tendencies he will certainly continue his Yogic practices in this birth very vigorously through the force of the Yogic Samskaras created by his Yogic practices in his previous birth. If the force of the evil action is stronger? the Yogic tendencies will be overpowered or suppressed for some time. As soon as the fruits of the evil actions are exhausted? the force of the Yogic Samskaras will begin to manifest itself. He will start his Yogic practices vigorously and attain the final beatitude of life.Even an enirer in whom a desire for information about Yoga is kindled goes beyond the Brahmic word? i.e.? the Vedas. He rises superior to the performer of the Vedic rituals and ceremonies. He is beyond the entanglement of forms and ceremonies. He is not satisfied with mere ritualism. He thirsts for a satisfaction higher than that given by the sensual objects. He who simply wishes to know the nature of the principles of Yoga frees himself from the SabdaBrahma? i.e.? from the effects of the Vedic rituals and ceremonies. If this be the case of a simple enirer? how much more exalted should be the condition of a real practitioner or knower of Yoga or of one who is established in Nirvikalpa Samadhi He will be absolutely free from the effects of the Vedic rituals and ceremonies. He will enjoy the eternal bliss and the everlasting peace of the Eternal.An aspirant who is desirous of obtaining Moksha alone is not affected by the sin of nonperformance of action even if he renounces all the obligatory and optional or occasional duties. He goes beyond the word of Brahman (the scripture or the Vedas).When such is the case of an aspirant who is without any spiritual inclinations or Samskaras of the previous birth? how much more exalted will be the state of that student who has done Yogic practices in his previous birth? who has fallen from Yoga in his previous birth? and who has taken up Yoga in this birth? renouncing all the worldly activitiesImpelled by the strong desire for liberation he practises rigorous Sadhana in this birth. He is constrained? as it were? by the force of the good Samskaras of his previous birth to take to Yogic practices in spite of himself.In this verse the Lord lays stress on the fact that no effort in the practice of Yoga goes in vain. Even the smallest effor will have its effect sooner or later in this birth or another. Therefore there is no cause for disappointment even for the dullest type of spiritual aspirant.
6.44 By that very former practice he is borne on in spite of himself. Even he who merely wishes to know Yoga goes beyond the Brahmic word.
6.44 Unconsciously he will return to the practices of his old life; so that he who tries to realise spiritual consciousness is certainly superior to one who only talks of it.
6.44 For, by that very past practice, he is carried forward even in spite of himself! Even a seeker of Yoga transcends the result of the performance of Vedic rituals!
6.44 Hi, for; tena eva, by that very; purva-abhyasena, past practice-the powerful habit formed in the past life; hiryate, he, the yogi who had fallen from Yoga, is carried forward; avasah api, even inspite of himself. If he had not committed any act which could be characterized as unrigtheous etc. and more powerful than the tendency created by the practice of Yoga, then he is carried forward by the tendency created by the practice of Yoga. If he had committed any unrighteous act which was more powerful, then, even the tendency born of Yoga gets surely overpowered. But when that is exhausted, the tendency born of Yoga begins to take effect by itself. The idea is that it does not get destroyed, even though it may lie in abeyance over a long period. Jijnasuh api, even a seeker; yogasya, of Yoga from the force of the context, the person implied is a monk who had engaged in the path of Yoga with a desire to known his true nature, but had falled from Yoga-; ;even he, ativartate, trascends-will free himself from; sabda-brahma, the result of the performance of Vedic ritual. What to speak of him who after understanding Yoga, may undertake it with steadfastness! And why is the state of Yoga higher?
6.44. Being not a master of himself, he is dragged only by that former practice (its mental impression); only a seeker of the knowledge of the Yoga passes over what strengthens the [sacred] text.
6.44 See Comment under 6.45
6.43 - 6.44 There, in that existence, he regains the mental disposition for Yoga that he had in the previous birth. Like one awakened from sleep, he strives again from where he had left before attaining complete success. He strives so as not to be defeated by impediments. This person who has fallen away from Yoga is borne on towards Yoga alone by his previous practice, i.e., by the older practice with regard to Yoga. This power of Yoga is well known. Even a person, who has not engaged in Yoga but has only been desirous of knowing Yoga, i.e., has failed to follow it up, acries once again the same desire to practise Yoga. He then practises Yoga, of which the first stage is Karma Yoga, and transcends Sabda-brahman (or Brahman which is denotable by words). The Sabda-brahman is the Brahman capable of manifesting as gods, men, earth, sky, heaven etc., namely, Prakrti. The meaning is that having been liberated from the bonds of Prakrti, he attains the self which is incapable of being named by such words as gods, men etc., and which comprises solely of knowledge and beatitude. After thus describing the glory of Yoga the verse says:
6.44 By the power of his earlier practice, he is carried forward even against his will. Even though he is an enirer about Yoga, he transcends the Sabda-brahman i.e., Prakrti or matter.
।।6.44।।पहले शरीरकी बुद्धिसे उसका संयोग कैसे होता है सो कहते हैं क्योंकि वह योगभ्रष्ट पुरुष परवश हुआ भी पूर्वाभ्यासके द्वारा अर्थात् जो पहले जन्ममें किया हुआ अभ्यास है उस अति बलवान् पूर्वाभ्यासके द्वारा योगकी ओर खींच लिया जाता है। यदि योगाभ्यासके संस्कारोंकी अपेक्षा अधिक बलवान् अधर्मादि कर्म न किये हों तो वह योगाभ्यासजनित संस्कारोंसे खिंच जाता है और यदि अधिक बलवान् अधर्म किया हुआ होता है तो उससे योगजन्य संस्कार भी दब ही जाते हैं। परंतु उस पापकर्मका क्षय होनेपर योगजन्य संस्कार स्वयं ही अपना कार्य आरम्भ कर देता है। बहुत बालतक दबे रहनेपर भी उसका नाश नहीं होता। जो योगका जिज्ञासु भी है अर्थात् जो योगके स्वरूपको जाननेकी इच्छा करके योगमार्गमें लगा हुआ योगभ्रष्ट संन्यासी है वह भी शब्दब्रह्मको अर्थात् वेदमें कहे हुए कर्मफलको अतिक्रम कर जाता है फिर जो योगको जानकर उसमें स्थित हुआ अभ्यास करता है उसका तो कहना ही क्या है। यहाँ प्रसंगकी शक्तिसे जिज्ञासुका अर्थ संन्यासी किया गया है।
।।6.44।। यः पूर्वजन्मनि कृतः अभ्यासः सः पूर्वाभ्यासः तेनैव बलवता ह्रियते संसिद्धौ हि यस्मात् अवशोऽपि सः योगभ्रष्टः न कृतं चेत् योगाभ्यासजात् संस्कारात् बलवत्तरमधर्मादिलक्षणं कर्म तदा योगाभ्यासजनितेन संस्कारेण ह्रियते अधर्मश्चेत् बलवत्तरः कृतः तेन योगजोऽपि संस्कारः अभिभूयत एव तत्क्षये तु योगजः संस्कारः स्वयमेव कार्यमारभते न दीर्घकालस्थस्यापि विनाशः तस्य अस्ति इत्यर्थः। अतः जिज्ञासुरपि योगस्य स्वरूपं ज्ञातुमिच्छन् अपि योगमार्गे प्रवृत्तः संन्यासी योगभ्रष्टः सामर्थ्यात् सोऽपि शब्दब्रह्म वेदोक्तकर्मानुष्ठानफलम् अतिवर्तते अतिक्रामति अपाकरिष्यति किमुत बुद्ध्वा यः योगं तन्निष्ठः अभ्यासं कुर्यात्।।कुतश्च योगित्वं श्रेयः इति
।।6.44।।उप्रत्यययोगेन लोकाव्यय अष्टा.2।3।69 इति षष्ठीनिषेधात् योगस्य स्वरूपमित्यध्याहृत्य कश्चिद्व्याख्यातवान्। श्रमो वृथैवनञा निर्दिष्टमनित्यम् इत्यस्यानित्यत्वात्। अतः कात्यायनोद्विषः शतुर्वा वचनं अष्टा.2।3।69 वार्तिकं इत्याद्यवोचदित्यभिप्रेत्याह योगस्येति।ब्रह्मजिज्ञासा ब्र.सू.1।1।1 इत्यादाविव विचारार्थताशङ्कानिरासाय व्याचष्टे ज्ञातव्य इति। अतीवेत्युप्रत्ययस्यार्थः।सनाशंसभिक्षउः अष्टा.3।3।168 इति तच्छीलादौ तस्य विहितत्वात् इच्छार्थे बाधकाभावादिति भावः।शब्दब्रह्मातिवर्तते इत्येतद्वेदोक्तकर्मकारिभ्योऽतिरिच्यत इति कश्चिद्व्याचष्टे तदसत्।ततो याति परां गतिम् 16।22 इत्यस्यार्थस्य परामर्शादिति भावेनाह शब्देति। शब्दब्रह्मशब्देन वैदिकविधिनिषेधावत्रोच्येते। तदतिवर्तनं परंब्रह्मप्राप्तस्यैवेत्यत एवमुक्तम्।
।।6.44।।योगस्य जिज्ञासुरपि। ज्ञातव्यो मया योग इति यस्यातीवेच्छा सोऽपि शब्दब्रह्मातिवर्तते। परं ब्रह्म प्राप्नोतीत्यर्थः।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः। जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।6.44।।
পূর্বাভ্যাসেন তেনৈব হ্রিযতে হ্যবশোপি সঃ৷ জিজ্ঞাসুরপি যোগস্য শব্দব্রহ্মাতিবর্ততে৷৷6.44৷৷
পূর্বাভ্যাসেন তেনৈব হ্রিযতে হ্যবশোপি সঃ৷ জিজ্ঞাসুরপি যোগস্য শব্দব্রহ্মাতিবর্ততে৷৷6.44৷৷
પૂર્વાભ્યાસેન તેનૈવ હ્રિયતે હ્યવશોપિ સઃ। જિજ્ઞાસુરપિ યોગસ્ય શબ્દબ્રહ્માતિવર્તતે।।6.44।।
ਪੂਰ੍ਵਾਭ੍ਯਾਸੇਨ ਤੇਨੈਵ ਹ੍ਰਿਯਤੇ ਹ੍ਯਵਸ਼ੋਪਿ ਸ। ਜਿਜ੍ਞਾਸੁਰਪਿ ਯੋਗਸ੍ਯ ਸ਼ਬ੍ਦਬ੍ਰਹ੍ਮਾਤਿਵਰ੍ਤਤੇ।।6.44।।
ಪೂರ್ವಾಭ್ಯಾಸೇನ ತೇನೈವ ಹ್ರಿಯತೇ ಹ್ಯವಶೋಪಿ ಸಃ. ಜಿಜ್ಞಾಸುರಪಿ ಯೋಗಸ್ಯ ಶಬ್ದಬ್ರಹ್ಮಾತಿವರ್ತತೇ৷৷6.44৷৷
പൂര്വാഭ്യാസേന തേനൈവ ഹ്രിയതേ ഹ്യവശോപി സഃ. ജിജ്ഞാസുരപി യോഗസ്യ ശബ്ദബ്രഹ്മാതിവര്തതേ৷৷6.44৷৷
ପୂର୍ବାଭ୍ଯାସେନ ତେନୈବ ହ୍ରିଯତେ ହ୍ଯବଶୋପି ସଃ| ଜିଜ୍ଞାସୁରପି ଯୋଗସ୍ଯ ଶବ୍ଦବ୍ରହ୍ମାତିବର୍ତତେ||6.44||
pūrvābhyāsēna tēnaiva hriyatē hyavaśō.pi saḥ. jijñāsurapi yōgasya śabdabrahmātivartatē৷৷6.44৷৷
பூர்வாப்யாஸேந தேநைவ ஹ்ரியதே ஹ்யவஷோபி ஸஃ. ஜிஜ்ஞாஸுரபி யோகஸ்ய ஷப்தப்ரஹ்மாதிவர்ததே৷৷6.44৷৷
పూర్వాభ్యాసేన తేనైవ హ్రియతే హ్యవశోపి సః. జిజ్ఞాసురపి యోగస్య శబ్దబ్రహ్మాతివర్తతే৷৷6.44৷৷
6.45
6
45
।।6.45।। परन्तु जो योगी प्रयत्नपूर्वक यत्न करता है और जिसके पाप नष्ट हो गये हैं तथा जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है, वह योगी फिर परमगतिको प्राप्त हो जाता है।
।।6.45।। परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर अनेक जन्मों से (शनै: शनै:) सिद्ध होता हुआ, तब परम गति को प्राप्त होता है।।
।।6.45।। मनुष्य अपने पूर्व जन्म में संचित संस्कारों के अनुसार स्थूल शरीर के द्वारा जगत् में कर्म करता है। ये वासनाएं ही उसके विचारों को दिशा प्रदान करती हैं और उन्हीं के अनुसार वर्तमान में कर्मों की योग्यता निश्चित होती है। मन और बुद्धिरूप अन्तकरण में स्थित इन वासनाओं को पाप अथवा चित्त की अशुद्धि कहते हैं। इनके क्षय का उपाय हैं कर्मयोग।सर्वप्रथम पाप वासनाओं का त्याग करते हुए पुण्यमय रचनात्मक संस्कारों का संचय करना चाहिए। ध्यानाभ्यास में ये पुण्य संस्कार भी विघ्नकारक सिद्ध हो सकते हैं। तथापि अभ्यास को निरन्तर बनाये रखने से जब मन अलौकिक आन्तरिक शान्ति में स्थिर हो जाता है तब पुण्य वासनाएं भी समाप्त हो जाती हैं। वासनाक्षय के साथ मन और अहंकार दोनों ही नष्ट हो जाते हैं और यही परम गति अथवा आत्म साक्षात्कार की स्थिति है।यद्यपि इस सिद्धांत का वर्णन पुस्तक के अर्ध पृष्ठ में ही किया जा सकता है परन्तु इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त करना अनेक जन्मों के सतत प्रयत्नों का फल है। यहाँ अनेकजन्मसंसिद्ध शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया गया है जो अत्यन्त उपयुक्त है क्योंकि मनुष्य का विकास कोई रंगमंच पर खेला गया संन्धयाकालीन नाटक नहीं वरन् अनेक युगों में की गई उन्नति का इतिहास है। तत्त्वदर्शी ऋषियों का यह सही विचार है।जिस पुरुष में जीवन को समझने की प्रवृत्ति आत्मसाक्षात्कार के लिए व्याकुलता विषय सुख की व्यर्थता को जानने की क्षमता ऋषियों के पदचिन्हों पर चलने का साहस परम शान्ति की इच्छा नैतिक जीवन जीने की सार्मथ्य और परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने की तत्परता होती है वही वास्तव में मनुष्य कहलाने योग्य होता है। ऐसा ही श्रेष्ठ साधक पुरुष सत्य के मन्दिर में प्रवेश पाने का अधिकारी होता है।यदि ध्यानाभ्यास में हमारी रुचि है तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा है और दिव्य जीवन जीने का हममें साहस है तो इसी क्षण यही वर्तमान जन्म हमारा अन्तिम जन्म हो सकता है।गीता के अध्येता जानते हैं कि यह कोई नवीन मौलिक अर्थ नहीं बताया गया है। जो पवित्र शास्त्र ग्रन्थ पुन पुन सत्य की घोषणा करता हुआ मनुष्य में आशा और उत्साह का संचार करता चल आ रहा है जिसमें कहीं भी नरक में जाने का भय नहीं दिखाया गया है उसके सम्बन्ध में ऐसा नहीं माना जा सकता कि अकस्मात् उसने उपदेश में परिवर्तन करके मनुष्य को अनेक जन्मों के पश्चात् ही मुक्ति का आश्वासन दिया है। यद्यपि अनेक धर्म प्रवंचक इस प्रकार का विपरीत अर्थ करते हैं तथापि बुद्धिमान पुरुष को धोखा नहीं दिया जा सकता। यहाँ बताये हुए अनेक जन्म ज्ञान प्राप्ति के पूर्व के हैं और न कि भावी।इसलिए
।।6.45।। व्याख्या--[वैराग्यवान् योगभ्रष्ट तो तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त योगियोंके कुलमें जन्म लेने और वहाँ विशेषतासे यत्न करनेके कारण सुगमतासे परमात्माको प्राप्त हो जाता है। परन्तु श्रीमानोंके घरमें जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट परमात्माको कैसे प्राप्त होता है? इसका वर्णन इस श्लोकमें करते हैं।]
।।6.43 6.45।।तत्रेत्यादि परां गतिमित्यन्तम्। संसिद्धौ मोक्षात्मिकायाम्। अवशः परतन्त्र एव किल तेन पूर्वाभ्यासेन बलादेव योगाभ्यासं प्रति नीयते। न चैतत् सामान्यम्। योगजिज्ञासामात्रेणैव हि शब्दब्रह्मातिवृत्तिः मन्त्रस्वाध्यायादिरूपं च शब्दब्रह्म अतिवर्तते न स्वीकुरुते।ततः जिज्ञासानन्तरम् यत्नवान् अभ्यासक्रमेण देहान्ते वासुदेवत्वं प्राप्नोति। न चासौ तेनैव देहेन सिद्ध इति मन्तव्यम्। अपि तु बहूनि जन्मानि तेन तदभ्यस्तमिति मन्तव्यम्। अत एव यस्य अनन्यव्यापारतया भगद्व्यापारानुरागित्वं स योगभ्रष्ट इति निश्चेयम् ( N निश्चेयः)।
।।6.45।।अनेकजन्मार्जितपुण्यसञ्चयैः संशुद्धकिल्बिषः संसिद्धः संजातः प्रयत्नाद् यतमानः तु योगी चलितः अपि पुनः परां गतिं याति एव।अतिशयितपुरुषार्थनिष्ठतया योगिनः सर्वस्माद् आधिक्यम् आह
।।6.45।।योगनिष्ठस्य श्रेष्ठत्वे हेत्वन्तरं वक्तुमुत्तरश्लोकमवतारयति कुतश्चेति। मृदुप्रयत्नोऽपि क्रमेण मोक्ष्यते चेदधिकप्रयत्नस्य क्लेशहेतोरकिञ्चित्करत्वमित्याशङ्क्य हेत्वन्तरमेव प्रकटयति प्रयत्नादिति। तत्र योगविषये प्रयत्नातिरेके सतीत्यर्थः। ततः संचितसंस्कारसमुदायादिति यावत्। समुत्पन्नसम्यग्दर्शनवशात्प्रकृष्टा गतिः संन्यासिना लभ्यते तेन शीघ्रं मुक्तिमिच्छन्नधिकप्रयत्नो भवेदल्पप्रयत्नस्तु चिरेणैव मुक्तिभागित्यर्थः।
।।6.45।।अयं चायतिरेव निर्दिष्टः। प्रयत्नान्मानसव्यापाराद्यतमानस्तु योगी भ्रंशाभावात् संशुद्धकिल्विषोऽनेकजन्मसंसिद्धः अनेकजन्मसु तत्त्वज्ञानवान् सन् ततोऽन्तिमजन्मनि सिद्धज्ञानतः परांगतिमक्षरं मत्स्वरूपं याति। यद्वाऽनेकजन्मविपाकेन भक्तिमान् भवति। ततो भक्तितः परां गतिं भगवद्धाम वैकुण्ठाख्यं याति। एवमेवोक्तं निबन्धेईश्वरालम्बनं योगो जनयित्वा तु तादृशम्। बहुजन्मविपाकेन भक्तिं जनयति ध्रुवम् इति।
।।6.45।।यदा चैवं प्रथमभूमिकायां मृतोऽपि अनेकभोगवासनाव्यवहितमपि विविधप्रमादकारणवति महाराजकुलेऽपि जन्म लब्ध्वापि योगभ्रष्टः पूर्वोपचितज्ञानसंस्कारप्राबल्येन कर्माधिकारमतिक्रम्य ज्ञानाधिकारी भवति तदा किमु वक्तव्यं द्वितीयायां तृतीयायां वा भूमिकायां मृतो विषयभोगान्ते लब्धमहाराजकुलजन्मा यदि वा भोगमकृत्वैव लब्धब्रह्मविद्ब्राह्मणकुलजन्मा योगभ्रष्टः कर्माधिकारातिक्रमेण ज्ञानाधिकारी भूत्वा तत्साधनानि संपाद्य तत्फललाभेन संसारबन्धनान्मुच्यत इति तदेतदाह प्रयत्नात्पूर्वकृतादप्यधिकधिकं यतमानः प्रयत्नातिरेकं कुर्वन् योगी पूर्वोपचितसंस्कारवांस्तेनैव योगप्रयत्नपुण्येन संशुद्धकिल्बिषो धौतज्ञानप्रतिबन्धकपापमलः अतएव संस्कारोपचयात्पुण्योपचयाच्चानेकैर्जन्मभिः संसिद्धः संस्कारातिरेकेण पुण्यातिरेकेण च प्राप्तचरमजन्मा ततः साधनपरिपाकाद्याति परां प्रकृष्टां गतिं मुक्तिम्। नास्त्येवात्र कश्चित्संशय इत्यर्थः।
।।6.45।।यदैवं मन्दप्रयत्नोऽपि योगी परां गतिं याति तदा यस्तु योगी प्रयत्नादुत्तरोत्तरमधिकं योगे यतमानो यत्नंकुर्वन्योगेनैव संशुद्धकिल्बिषो विधूतपापः सोऽनेकेषु जन्मसूपचितेन योगेन संसिद्धः सम्यग्ज्ञानी भूत्वा ततः श्रेष्ठां गतिं यातीति किं वक्तव्यमित्यर्थः।
।।6.45।।तदेवं योगभ्रष्टस्य पुनः संसिद्धौ यत्नपर्यन्तमुक्तम् अथ तत एव तस्यात्मप्राप्तिलक्षणपरमपुरुषार्थयोगोऽभिधीयते प्रयत्नात् इति।ततः इति पदं यथास्थानान्वये प्रयोजनाभावात्प्रकृतहेतुपरमाहयत इति। अनेकजन्मसंसिद्धः अनेकैर्जन्मभिः सम्यग्योगयोग्यो जात इत्यर्थः। तत्र हेतुः संशुद्धकिल्बिषत्वम्।प्रयत्नाद्यतमानस्तुइन्द्रियनियमनादिप्रयत्नेन योगे यतमानः इत्यपुनरुक्तिः। अथवाऽधिकं यतमान इत्यर्थः। तुशब्दद्योतितं पूर्वोक्तं व्यञ्जयितुंचलितोऽपीत्युक्तम्। चलितोऽपि पुनरिति वा ततः शब्दव्याख्या।परागतिम् इति योग एव वा तत्साध्यात्मप्राप्त्यादिर्वोच्यते।
।।6.45।।एतादृशकुलजन्मभावेऽपि यत्नवा प्राप्नुयात् तत्र तादृक्कुलोत्पन्नप्राप्तौ किं वक्तव्यं इत्याह प्रयत्नादिति। यः सामान्यो न तु तादृशजन्मवानेव प्रयत्नाद्यतमानः संशुद्धकिल्बिषः तद्भावज्ञानप्रतिबन्धपापरहितो योगी योगस्वरूपज्ञानवान् भवति। तु पुनः। अनेकजन्मसंसिद्धः अनेकजन्मभिर्यतमानः सन् सिद्धः प्राप्तयोगरूपो भवति। ततः परां गतिं दास्यरूपां याति प्राप्नोतीत्यर्थः। यतो मत्संयोगात्मको योग उत्तमस्तस्मात्त्वं योगी भवेति।
।।6.45।।एवं योगभ्रष्टगतिमुक्त्वा यो विषयैर्ह्रियमाणोऽपि प्रयत्नेन योगमेवाभ्यसितुं प्रवर्तते तस्य गतिमाह प्रयत्नादिति। प्रयत्नात्प्रकृष्टाद्धठाद्वायुनिरोधाद्विरूपात्खेचर्यादिमुद्राविशेषाभ्यासाद्यो यतमानः संशुद्धकिल्बिषो निष्पापो भवति। यदाह मनुःप्राणायामैर्दहेदेनः इति। हठयोगानां सर्वेषां पापनिवृत्त्युपयोगित्वं न तत्त्वसाक्षात्कारे साक्षात्साधनत्वमित्यर्थः। अतएव सः अनेकैर्जन्मनि संसिद्धः प्राप्तयोगो भूत्वा ततः परां गतिं मोक्षं याति। एतेनचक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः इति पञ्चमान्ते यत्सूत्रितं तद्व्याख्यातम्।
।।6.45।।इतश्च योगित्वं श्रेय इत्याह प्रयत्नादिति। प्रयत्नादधिकयत्नात्प्रकर्षेण यत्नेन यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः संशुद्धपापाोऽनेकेषु जन्मसु किंचित्कंचित्संस्कारजातमुपचित्य तेनोपचितेनानेकजन्मकृतेन संसिद्धोऽनेकजन्मसंसिद्धस्ततः प्राप्ततत्त्वसाक्षात्कारः सन् परां मोक्षाख्यां गतिं याति। यत्तु तत इति तच्छब्देन प्रकृतं चलितमानसत्वं परामृशति। ततश्चलितमानसत्वाद्धेतोः। अयंभावः चलितत्वदशायां काम्यानि कर्माणि यानि कृतानि तेषां प्रत्येकं फलदातृत्वात् युगपत्सर्वकर्मफलसंयोगासंभवात् एकैकस्य फलमनुभूय शुचीनां श्रीमतां योगिनां वा गेहे जन्मानुभूय पुनः कर्मयोगे यतमानः तत्तत्काम्यकर्मसंख्याकजन्मान्यनुभूय ज्ञानसंपन्नः सन् मोक्षं प्रतिपद्यत इति। प्रयत्नादिति कर्मणि ल्यब्लोपे पञ्चमी। प्रयत्नं प्राप्येत्यर्थः। कर्मयोगी कर्मानुष्ठाता। योगिनं विशिनष्टि यतमान इति। उज्क्षितदर्प इत्यर्थः। शुचीनां श्रीमतां योगिनां वा कुलेऽहमुत्पन्न इत्यभिमानवर्जति इति भाव इति तच्चिन्त्यम्। निरर्थकाया ल्यब्लोपकल्पनायाः प्रकृष्टपरामर्शकल्पनाया उत्तरश्लोकेन सर्वतः श्रैष्ठ्येन वर्ण्यमानस्य योगिनः क्रमयोगिपरत्वेन वर्णनस्य जिज्ञासुरपीत्यननुरोधेन यतमानपदव्याख्यानस्य चायुक्तत्वादिति दिक्।
6.45 प्रयत्नात् with assiduity? यतमानः striving? तु but? योगी the Yogi? संशुद्धकिल्बिषः purified from sins? अनेकजन्मसंसिद्धः perfected through many births? ततः then? याति reaches? पराम् the highest? गतिम् path.Commentary He gains experiences little by little in the course of many births and eventually attains to perfection. Then he gets the knowledge of the Self and attains to the final beatitude of life.
6.45 But the Yogi who strives with assiduity, purified of sins and perfected gradually through many births, reaches the highest goal.
6.45 Then after many lives, the student of spirituality, who earnestly strives, and whose sins are absolved, attains perfection and reaches the Supreme.
6.45 However, the yogi, applying himself assiduously, becoming purified from sin and attaining perfection through many births, thery acheives the highest Goal.
6.45 The yogi, the man of Knowledge; yatamanah, applying himself; prayatnat, assiduously, i.e. striving more intensely; and as a result, samsuddha-kilbisah, becoming purified from sin; and aneka-janma-samsiddhah, attaining perfection through many births- gathering together tendencies little by little in many births, and attaining perfection through that totality of impressions acired in many births; tatah, thery coming to have full Illumination; yati, achieves; the param, highest, most perfect; ;gatim, Goal. Since this is so, therefore.
6.45. After that, the assiduously striving man of Yoga, having his sins completely cleansed and being perfected through many briths, reaches the Supreme Goal.
6.43-45 Tatra etc. upto param gatim. For a full success : for emancipation. Being not a master of himself : Indeed being exclusively under the control of other [force], he is forcibly driven towards the practice of Yoga by that [mental impression of his] former practice. This is not an ordinary thing. For, his act of passing over what strengthens the [sacred texual] sound is only due to his desire for knowing the Yoga. He passes over, i.e., he does not undertake, what strengthens the sound i.e., that which is of the nature of hymn-recitation etc. After that : after [the rise of] desire for knowing [Yoga]. Striving by method of practice, he attains the Vasudevahood (identity with the Surpeme) at the time of destruction of his body. It should not be regarded that he has achieved success by [his pratice in] that single body gone. Instead, it should be regarded that he had practised during the course of many a life-period. Therefore, it may be conclude that the fallen-from-Yoga is he who craves continously for activities of [attaining] the Bhagavat by abandoning all other activities. The superiority (or importance) of the Yoga, [the Lord] describes:
6.45 Because of such excellence of Yoga, through accumulation of merit collected in many births the Yogin striving earnestly, becomes cleansed from stains. Having become perfected, he reaches the supreme state, even though he had once gone astray. Sri Krsna now speaks of the superiority of the Yogin above all others because of his being devoted to the supreme goal of human existence.
6.45 But the Yogin striving earnestly, cleansed of all his stains, and perfected through many births, reaches the supreme state.
।।6.45।।योगित्व श्रेष्ठ किस कारणसे है जो प्रयत्नपूर्वक अधिक साधनमें लगा हुआ है वह विद्वान् योगी विशुद्धकिल्बिष अर्थात् अनेक जन्मोंमें थोड़ेथोड़े संस्कारोंको एकत्रितकर उन अनेक जन्मोंके सञ्चित संस्कारोंसे पापरहित होकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हुआ सम्यक् ज्ञानको प्राप्त करके परमगति मोक्षको प्राप्त होता है।
।।6.45।। प्रयत्नात् यतमानः अधिकं यतमान इत्यर्थः। तत्र योगी विद्वान् संशुद्धकिल्बिषः विशुद्धकिल्बिषः संशुद्धपापः अनेकजन्मसंसिद्धः अनेकेषु जन्मसु किञ्चित्किञ्चित् संस्कारजातम् उपचित्य तेन उपचितेन अनेकजन्मकृतेन संसिद्धः अनेकजन्मसंसिद्धः ततः लब्धसम्यग्दर्शनः सन् याति परां प्रकृष्टां गतिम्।।यस्मादेवं तस्मात्
।।6.45।।योगजिज्ञासामात्रेण परब्रह्मप्राप्तिश्चेत् योगानुष्ठानवैयर्थ्यं स्यादित्यत एतदेवाशङ्क्य भगवतैवोत्तरं दत्तमित्याह नैकेति। न योगजिज्ञासामात्रेणेत्यभिप्रायः। अत्र योगजिज्ञासोरपरामर्शात् कथं तद्विषयमेतदित्यतोऽध्याहारेण व्याचष्टे जिज्ञासुरिति। ज्ञात्वा योगमिति शेषः। यतनानन्तरमनेकजन्मसंसिद्ध इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह एवमिति। योगे सम्पूर्णे संसिद्धेर्विलम्बे कारणाभावादिति भावः। व्याख्यातार्थे पुराणसम्मतिमाह आह चेति।
।।6.45।।नैकजन्मनीत्याह प्रयत्नादिति। जिज्ञासुर्ज्ञात्वा प्रयत्न करोति। एवमनेकजन्मभिः संसिद्धोऽपरोक्षज्ञानी भूत्वा परां गतिं याति। आह च अतीव श्रद्धया युक्तो जिज्ञासुर्विष्णुतत्परः। ज्ञात्वा ध्यात्वा तथा दृष्ट्वा जन्मभिर्बहुभिः पुमान्। विशेन्नारायणं देवं नान्यथा तु कथञ्चन इति नारदीये।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः। अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।6.45।।
প্রযত্নাদ্যতমানস্তু যোগী সংশুদ্ধকিল্বিষঃ৷ অনেকজন্মসংসিদ্ধস্ততো যাতি পরাং গতিম্৷৷6.45৷৷
প্রযত্নাদ্যতমানস্তু যোগী সংশুদ্ধকিল্বিষঃ৷ অনেকজন্মসংসিদ্ধস্ততো যাতি পরাং গতিম্৷৷6.45৷৷
પ્રયત્નાદ્યતમાનસ્તુ યોગી સંશુદ્ધકિલ્બિષઃ। અનેકજન્મસંસિદ્ધસ્તતો યાતિ પરાં ગતિમ્।।6.45।।
ਪ੍ਰਯਤ੍ਨਾਦ੍ਯਤਮਾਨਸ੍ਤੁ ਯੋਗੀ ਸਂਸ਼ੁਦ੍ਧਕਿਲ੍ਬਿਸ਼। ਅਨੇਕਜਨ੍ਮਸਂਸਿਦ੍ਧਸ੍ਤਤੋ ਯਾਤਿ ਪਰਾਂ ਗਤਿਮ੍।।6.45।।
ಪ್ರಯತ್ನಾದ್ಯತಮಾನಸ್ತು ಯೋಗೀ ಸಂಶುದ್ಧಕಿಲ್ಬಿಷಃ. ಅನೇಕಜನ್ಮಸಂಸಿದ್ಧಸ್ತತೋ ಯಾತಿ ಪರಾಂ ಗತಿಮ್৷৷6.45৷৷
പ്രയത്നാദ്യതമാനസ്തു യോഗീ സംശുദ്ധകില്ബിഷഃ. അനേകജന്മസംസിദ്ധസ്തതോ യാതി പരാം ഗതിമ്৷৷6.45৷৷
ପ୍ରଯତ୍ନାଦ୍ଯତମାନସ୍ତୁ ଯୋଗୀ ସଂଶୁଦ୍ଧକିଲ୍ବିଷଃ| ଅନେକଜନ୍ମସଂସିଦ୍ଧସ୍ତତୋ ଯାତି ପରାଂ ଗତିମ୍||6.45||
prayatnādyatamānastu yōgī saṅśuddhakilbiṣaḥ. anēkajanmasaṅsiddhastatō yāti parāṅ gatim৷৷6.45৷৷
ப்ரயத்நாத்யதமாநஸ்து யோகீ ஸஂஷுத்தகில்பிஷஃ. அநேகஜந்மஸஂஸித்தஸ்ததோ யாதி பராஂ கதிம்৷৷6.45৷৷
ప్రయత్నాద్యతమానస్తు యోగీ సంశుద్ధకిల్బిషః. అనేకజన్మసంసిద్ధస్తతో యాతి పరాం గతిమ్৷৷6.45৷৷
6.46
6
46
।।6.46।। (सकामभाववाले) तपस्वियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है और कर्मियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है -- ऐसा मेरा मत है। अतः हे अर्जुन ! तू योगी हो जा।
।।6.46।। क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो।।
।।6.46।।आत्मिक उन्नति के अनेक साधनों में ध्यान की महत्ता को दर्शाने के लिए भगवान् यहां विभिन्न प्रकार के साधकों का निर्देश करके उनमें योगी को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं। मन्दबुद्धि के वे लोग जो विचाररहित केवल शारीरिक तप करते हैं उन तपस्वियों से निश्चित ही योगी श्रेष्ठ हैं।ज्ञानियों से भी योगी श्रेष्ठ माना गया है। यहां ज्ञानी से तात्पर्य शास्त्रपांडित्य रखने वाले पुरुष से है।सकाम अथवा निष्काम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है। निष्काम भाव से कर्म तथा उपासना करने वाले अनेक साधकों की यह धारणा होती है कि इनके द्वारा ही परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी।भगवान् कहते हैं कि जो योगी अपने शरीर मन और बुद्धि के साथ के मिथ्या तादात्म्य को दूर करके आत्मानुसंधान करता है वह तपस्वी ज्ञानी और कर्मी से श्रेष्ठ है क्योंकि वह सत्य के अत्यंत समीप होता है। इसलिये हे अर्जुन तुम योगी बनो।योगी भी अनेक प्रकार के होते हैं जिनमें प्रत्येक का ध्येय भिन्न हो सकता है। अत उन सब में श्रेष्ठ योगी कौन है भगवान् कहते हैं
।।6.46।। व्याख्या--'तपस्विभ्योऽधिको योगी'--ऋद्धि-सिद्धि आदिको पानेके लिये जो भूख-प्यास, सरदी-गरमी, आदिका कष्ट सहते हैं, वे तपस्वी हैं। इन सकाम तपस्वियोंसे पारमार्थिक रुचिवाला, ध्येयवाला योगी श्रेष्ठ है।
।।6.46।।योगस्य प्राधान्यमाह तपस्विभ्य इति। तपस्विभ्यः अधिकत्वं पूर्वमेव सूचितम्। ज्ञानिभ्यः अधिकत्वं ज्ञानस्य योगफलत्वात्। कर्मिभ्य उत्कर्षः स एव कर्माणि कर्तुं वेत्ति।
।।6.46।।केवलतपोभिः यः पुरुषार्थः साध्यते आत्मज्ञानव्यतिरिक्तैः ज्ञानैः च यः यः च केवलैः अश्वमेधादिभिः कर्मभिः तेभ्यः सर्वेभ्यः अधिकपुरुषार्थसाधनत्वात् योगस्य तपस्विभ्यः ज्ञानिभ्यः कर्मिभ्यश्च अधिको योगी तस्माद् योगी भव अर्जुन।तद् एवं परविद्याङ्गभूतं प्रजापतिवाक्योदितं प्रत्यगात्मदर्शनम् उक्तम्। अथ परविद्यां प्रस्तौति
।।6.46।।सम्यग्ज्ञानद्वारा मोक्षहेतुत्वं योगस्योक्तमनूद्य योगिनः सर्वाधिकत्वमाह यस्मादिति। योगस्य सर्वस्मादुत्कर्षादवश्यकर्तव्यत्वाय योगिनः सर्वाधिक्यं साधयति तपस्विभ्य इति। योगिनो ज्ञानिनश्च पर्यायत्वात्कथं तस्य ज्ञानिभ्योऽधिकत्वमित्याशङ्क्याह ज्ञानमिति। योगिनः सर्वाधिकत्वे फलितमाह तस्मादिति।
।।6.46।।यस्मादेवं तस्मात् तपस्विभ्य इति कायक्लेशतपस्विभ्यः साङ्ख्यज्ञानिभ्यश्च केवलकर्मकारिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्धतोरर्जुन त्वं योगी भव मनोरोधयोगवान्भव। तत्रापि न तुभ्य योगोऽयं बाह्य उच्यते किन्त्वनिषिद्धः श्रीवासुदेवे स्वचित्तनिरोधनादिति भक्तिरूप उच्यत इत्याह।
।।6.46।।इदानीं योगी स्तूयतेऽर्जुनं प्रति श्रद्धातिशयोत्पादनपूर्वकं योगं विधातुं तपस्विभ्यः कृच्छ्रचान्द्रायणादितपःपरायणेभ्योऽप्यधिक उत्कृष्टो योगी तत्त्वज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं मनोनाशवासनाक्षयकारीविद्यया तदारोहन्ति यत्र कामाः परागताः। न तत्र दक्षिणा यन्ति नाविद्वांसस्तपस्विनः इति श्रुतेः। अतएव कर्मिभ्यो दक्षिणासहितज्योतिष्टोमादिकर्मानुष्ठायिभ्यश्चाधिको योगी। कर्मिणां तपस्विनां चाज्ञत्वेन मोक्षानर्हत्वात्। ज्ञानिभ्योऽपि परोक्षज्ञानवद्भ्योऽप्यपरोक्षज्ञानवानधिको मतो योगी। एवमपरोक्षज्ञानवद्भ्योऽपि मनोनाशवासनाक्षयाभावादजीवन्मुक्तेभ्यो मनोनाशवासनाक्षयवत्त्वेन जीवन्मुक्तो योग्यधिको मतः मन संमतः। यस्मादेवं तस्मादधिकाधिकप्रयत्नबलात्त्वं योगभ्रष्ट इदानीं तत्त्वज्ञानमनोनाशवासनाक्षयैर्युगपत्संपादितैर्योगी जीवन्मुक्तो यः स योगी परमो मत इति प्रागुक्तः स तादृशो भव साधनपरिपाकात्। हे अर्जुनेति शुद्धेति संबोधनार्थः।
।।6.46।।यस्मादेवं तस्मात् तपस्विभ्य इति। कृच्छृचान्द्रायणादितपोनिष्ठेभ्योऽपि ज्ञानिभ्यः शास्त्रज्ञानवद्भ्योऽपि कर्मिभ्य इष्टापूर्तादिकर्मकारिभ्योऽपि योगी श्रेष्ठोऽभिमतः तस्मात्त्वं योगी भव।
।।6.46।।एवंविधं योगस्य माहात्म्यं तपःप्रभृतिषु न कस्यचिदप्यस्ति अतस्तपस्विप्रभृतिभ्यो योगी समधिक इति योगं योगिनं च प्रशंसन् जीवात्मयोगोपदेशमुपसंहरतीत्यभिप्रायेणाह अतिशयितेति। योगिनोऽपि तपोज्ञानकर्मणां सद्भावात्तद्व्यवच्छेदाय केवलादिशब्दः।आत्मज्ञानव्यतिरिक्तैर्ज्ञानैरिति सन्ति हि तत्तद्योगशास्त्रोक्तानि औपनिषदानि च देवतान्तरचन्द्रसूर्यादिग्रहप्राणेन्द्रियविषयाणि ज्ञानानि। तपश्शब्दार्थात् कर्मशब्दार्थस्य वैषम्यं दर्शयितुं अश्वमेधाद्युपादानम्। तपः प्रभृतीनां योगस्य च फलद्वारा तारतम्यमिह विवक्षितमिति दर्शयितुं पुरुषार्थाभिधानम्।
।।6.46।।योगस्य सर्वाधिकत्वं प्रतिपादयन्नेवाह तपस्विभ्य इति। तपस्विभ्यः योगस्वरूपाज्ञानेतदभिलाषाभावेन केवलक्लेशसहनशीलेभ्यो योगी अधिकः। किञ्च ज्ञानिभ्यः ज्ञानेन सन्न्यासादिधर्मयुक्तेभ्योऽपि योगी अधिको मतः मेऽभिमतः। ज्ञानी च पुनः कर्मिभ्यो यज्ञनित्यादिनिष्ठेभ्यो योगी अधिको मतः। तस्मात् हे अर्जुन मत्स्नेहैकयोग्य त्वं योगी भव युक्तो योगनिष्ठो भवेत्यर्थः।
।।6.46।।एवं योगिनं स्तौति तपस्विभ्य इति। तपस्विनोऽत्र कृच्छ्रचान्द्रायणमासोपवासादिकर्तारः। ज्ञानिनश्च शास्त्रीयपाण्डित्यवन्तः। कर्मिणोऽग्निहोत्राद्यनुष्ठातारः। तेभ्यः सर्वेभ्यो योगी यतोऽधिको मतस्तस्माद्योगी भवार्जुन।
।।6.46।।योगस्यावश्यसंपादनार्थं सर्वाधिक्यं साधयति। तपस्विभ्यः शरीरादिकार्श्यकारिव्रतादिपरेभ्योऽप्यधिको योगी पूर्वोक्तः ज्ञानिभ्यः शास्त्रीयपरोक्षज्ञानवद्य्भऽप्यधिको मतोऽभिमतः। कर्मिभ्योऽग्निहोत्रादिकर्मवद्य्भोऽप्यधिक उत्कृष्टः। तस्माद्योगी भव। स्वधर्माचरणेन शुद्धचितस्य तव योगिभावः सुगम इति सूचयन्नाह हे अर्जुनेति। योगेन शुद्धब्रह्मसाक्षात्कारं लब्धैव त्वमन्वर्थसंज्ञो भविष्यसीति सूचनार्थ वा संबोधनम्। योगी अत्र ध्यानयोगी विवक्षितः पूर्वोत्तग्रन्थानुरोधात्। ध्यानयोगस्यैवोपसंहार्यत्वाच्च। एतेन ज्ञानिभ्योऽपि परोक्षज्ञानवद्य्भोऽप्यपरोक्षज्ञानवानधिको मतः। योगी एवमपोक्षज्ञानवद्य्भोऽपि मनोनाशवासनाक्षयाभावादजीवन्मुक्तेभ्यो मनोवासनाक्षयवत्त्वेन जीवन्मुक्तो योग्यधिको मत इत्यादि प्रत्युक्तम्। योगी कर्मयोगीति व्याख्यानमपि प्रकरणविरोधादुपेक्ष्यम्।
6.46 तपस्विभ्यः than ascetics? अधिकः superior? योगी the Yogi? ज्ञानिभ्यः than the wise? अपि even? मतः thought? अधिकः superior? कर्मिभ्यः than the men of action? च and? अधिकः superior? योगी the Yogi? तस्मात् therefore? योगी a Yogi? भव be? अर्जुन O Arjuna.Commentary Tapasvi One who observes the austerities of speech? mind and body prescribed in chapter XVII. 14? 15 and 16.Jnani One who has a knowledge of the scriptures (an indirect knowledge or theoretical knowledge of the Self).Karmi He who performs the Vedic rituals.To all these the Yogi is superior? for he has the direct knowledge of the Self through intuition or direct cognition through Nirvikalpa Samadhi. (Cf.V.2XII.12XIII.24)
6.46 The Yogi is thought to be superior to the ascetics and even superior to men of knowledge (obtained through the study of scriptures); he is also superior to men of action; therefore be thou a Yogi, O Arjuna.
6.46 The wise man is superior to the ascetic and to the scholar and to the man of action; therefore be thou a wise man, O Arjuna!
6.46 A yogi is higher than men of austerity; he is considered higher even than men of knowledge. The yogi is also higher than men of action. Therefore, O Arjuna, do you become a yogi.
6.46 A yogi is adhikah, higher; tapasvibhyah, than men of austerity; he is matah, considered; adhikah, higher than, superior to; api, even; jnanibhyah, men of knowledge. Jnana here means scriptural learning. (A yogi is superior) to even those who possess that (learning). The yogi is adhikah, higher, greater; karmibhyah, than men of action-karma means Agnihotra etc.; (greater) than those who adhere to them. Since this is so, tasmat, therefore; O Arjuna, bhava, do you become a yogi.
6.46. The man of Yoga is superior to the men of austerities and is considered superior even to the men of knowledge; and the man of Yoga is superior to the men of action. Therefore, O Arjuna ! you shall become a man of Yoga.
6.46 Tapasvibhyah etc. The superiority [of Yogin] over the men of austerities has already been indicated. The knowledge is the fruit of Yoga. Hence Yogin's superiority over the men of knowledge. He is superior to men of action, because he alone knows how to perform action. The God-discarding difficult Yoga, does not itself yield success. This is stated [as]-
6.46 Whatever end of human endeavour is attained by mere austerity, by knowledge of different subjects (i.e., different from experience of the self) and by mere rituals like the horse-sacrifice etc., greater than all these is the end achieved through Yoga. Conseently the Yogin is superior to those who practise austerity, to those who possess learning and to those who perform rituals. Therefore, O Arjuna, become a Yogin. Thus, so far the vision of the self, which has been expounded in the teaching of Prajapati as forming a part of supreme Vidya, has been taught; then Sri Krsna extols that supreme Vidya:
6.46 Greater than the austere, greater than those who possess knowledge, greater than the ritualists is the Yogin. Therefore, O Arjuna, become a Yogin.
।।6.46।।ऐसा होनेके कारण तपस्वियों और ज्ञानियोंसे भी योगी अधिक है। यहाँ ज्ञान शास्त्रविषयक पाण्डित्यका नाम है उससे युक्त जो ज्ञानवान् हैं उनकी अपेक्षा योगी अधिक श्रेष्ठ है। तथा अग्निहोत्रादि कर्म करनेवालोंसे भी योगी अधिक श्रेष्ठ है इसलिये हे अर्जुन तू योगी है।
।।6.46।। तपस्विभ्यः अधिकः योगी ज्ञानिभ्योऽपि ज्ञानमत्र शास्त्रार्थपाण्डित्यम् तद्वद्भ्योऽपि मतः ज्ञातः अधिकः श्रेष्ठः इति। कर्मिभ्यः अग्निहोत्रादि कर्म तद्वद्भ्यः अधिकः योगी विशिष्टः यस्मात् तस्मात् योगी भव अर्जुन।।
।।6.46।।ननु ज्ञानं योगस्य फलं तत्कथं ज्ञानिभ्योऽप्यधिको मतः इत्यत आह ज्ञानिभ्य इति। यद्यपिज्ञानतपसा पूताः 4।10 इति ज्ञानमपि तपस्तथापि तदतिरिक्तमेवात्र विवक्षितमित्याह तपस्विभ्य इति। ब्रह्मज्ञानादाधिक्यस्यासम्भवाद्योगज्ञानाधिक्यस्य पृथगुक्तत्वादिति भावः। अतएव पूर्वं तद्व्याख्यातम्। उक्तार्थमुपपादयन् श्लोकद्वयार्थं पुराणवाक्येनाह उक्तं चेति। मुमुक्षूणां एतेन सर्वेषामपि योगिनां मध्ये यो मां भजते स युक्ततरो मतः। तत्रापि मद्गतेनान्तरात्मना यो भजते स युक्ततमो मत इति व्याख्यात भवति।ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः इत्येतद्योगज्ञानविषयमेव न तद्ब्रह्मज्ञानविषयमित्येतत्पुराणवाक्येन स्थापयति अज्ञात्वेति। योगमिति शेषः। साधनाधिकं साधनेष्वधिकम्।
।।6.46।।ज्ञानिभ्यो योगज्ञानिभ्यः। तपस्विभ्यः कृच्छ्रादिचारिभ्यः। उक्तं च कृच्छ्रादेरपि यज्ञादेर्ध्यानयोगो विशिष्यते। तत्रापि शेषश्रीब्रह्मशिवादिध्यानतो हरेः। ध्यानं कोटिगुणं प्रोक्तमधिकं वा मुमुक्षुणाम् इति गारुडे।अज्ञात्वा ध्यायिनो ध्यानाज्ज्ञानमेव विशिष्यते। ज्ञात्वा ध्यानं ज्ञानमात्राद्ध्यानादपि तु दर्शनम्। दर्शनादपि भक्तेश्च न किञ्चित्साधनाधिकम् इति च नारदीये।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।6.46।।
তপস্বিভ্যোধিকো যোগী জ্ঞানিভ্যোপি মতোধিকঃ৷ কর্মিভ্যশ্চাধিকো যোগী তস্মাদ্যোগী ভবার্জুন৷৷6.46৷৷
তপস্বিভ্যোধিকো যোগী জ্ঞানিভ্যোপি মতোধিকঃ৷ কর্মিভ্যশ্চাধিকো যোগী তস্মাদ্যোগী ভবার্জুন৷৷6.46৷৷
તપસ્વિભ્યોધિકો યોગી જ્ઞાનિભ્યોપિ મતોધિકઃ। કર્મિભ્યશ્ચાધિકો યોગી તસ્માદ્યોગી ભવાર્જુન।।6.46।।
ਤਪਸ੍ਵਿਭ੍ਯੋਧਿਕੋ ਯੋਗੀ ਜ੍ਞਾਨਿਭ੍ਯੋਪਿ ਮਤੋਧਿਕ। ਕਰ੍ਮਿਭ੍ਯਸ਼੍ਚਾਧਿਕੋ ਯੋਗੀ ਤਸ੍ਮਾਦ੍ਯੋਗੀ ਭਵਾਰ੍ਜੁਨ।।6.46।।
ತಪಸ್ವಿಭ್ಯೋಧಿಕೋ ಯೋಗೀ ಜ್ಞಾನಿಭ್ಯೋಪಿ ಮತೋಧಿಕಃ. ಕರ್ಮಿಭ್ಯಶ್ಚಾಧಿಕೋ ಯೋಗೀ ತಸ್ಮಾದ್ಯೋಗೀ ಭವಾರ್ಜುನ৷৷6.46৷৷
തപസ്വിഭ്യോധികോ യോഗീ ജ്ഞാനിഭ്യോപി മതോധികഃ. കര്മിഭ്യശ്ചാധികോ യോഗീ തസ്മാദ്യോഗീ ഭവാര്ജുന৷৷6.46৷৷
ତପସ୍ବିଭ୍ଯୋଧିକୋ ଯୋଗୀ ଜ୍ଞାନିଭ୍ଯୋପି ମତୋଧିକଃ| କର୍ମିଭ୍ଯଶ୍ଚାଧିକୋ ଯୋଗୀ ତସ୍ମାଦ୍ଯୋଗୀ ଭବାର୍ଜୁନ||6.46||
tapasvibhyō.dhikō yōgī jñānibhyō.pi matō.dhikaḥ. karmibhyaścādhikō yōgī tasmādyōgī bhavārjuna৷৷6.46৷৷
தபஸ்விப்யோதிகோ யோகீ ஜ்ஞாநிப்யோபி மதோதிகஃ. கர்மிப்யஷ்சாதிகோ யோகீ தஸ்மாத்யோகீ பவார்ஜுந৷৷6.46৷৷
తపస్విభ్యోధికో యోగీ జ్ఞానిభ్యోపి మతోధికః. కర్మిభ్యశ్చాధికో యోగీ తస్మాద్యోగీ భవార్జున৷৷6.46৷৷
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।।6.47।। सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।
।।6.47।। समस्त योगियों में जो भी श्रद्धावान् योगी मुझ में युक्त हुये अन्तरात्मा से (अर्थात् एकत्व भाव से मुझे भजता है, वह मुझे युक्ततम (सर्वश्रेष्ठ) मान्य है।।
।।6.47।। पूर्व श्लोक में आध्यात्मिक साधनाओं का तुलनात्मक मूल्यांकन करके ध्यानयोग को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया गया है। अब इस श्लोक में समस्त योगियों में भी सर्वश्रेष्ठ योगी कौन है इसे स्पष्ट किया गया है। ध्यानाभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में साधक को प्रयत्नपूर्वक ध्येय विषयक वृत्ति बनाये रखनी पड़ती है और मन को बारम्बार विजातीय वृत्ति से परावृत्त करना पड़ता है। स्वाभाविक ही है कि प्रारम्भ में ध्यान प्रयत्नपूर्वक ही होगा सहज नहीं। ध्येय (ध्यान का विषय) के स्वरूप तथा मन को स्थिर करने की विधि के आधार पर ध्यान साधना का विभिन्न प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है।इस दृष्टि से हमारी परम्परा में प्रतीकोपासना ईश्वर के सगुण साकार रूप का ध्यान गुरु की उपासना कुण्डलिनी पर ध्यान अथवा मन्त्र के जपरूप ध्यान आदि का उपदेश दिया गया है। इसी आधार पर कहा जाता है कि योगी भी अनेक प्रकार के होते हैं। यहाँ भगवान् स्पष्ट करते हैं कि उपर्युक्त योगियों में श्रेष्ठ और सफल योगी कौन है।जो श्रद्धावान् योगी मुझ से एकरूप हो गया है तथा मुझे भजता है वह युक्ततम है। यह श्लोक सम्पूर्ण योगशास्त्र का सार है और इस कारण इसके गूढ़ अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की जा सकती है। यही कारण है कि भगवान् आगामी सम्पूर्ण अध्याय में इस मन्त्र रूप श्लोक की व्याख्या करते हैं।इस अध्याय को समझने की दृष्टि से इस स्थान पर इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि ध्यानाभ्यास का प्रयोजन मन को संगठित करने में उतना नहीं है जितना कि अन्तकरण को आत्मस्वरूप में लीन करके शुद्ध स्वरूप की अनुभूति करने में है। यह कार्य वही पुरुष सफलतापूर्वक कर सकता है जो श्रद्धायुक्त होकर मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप का ही भजन करता है।भजन शब्द के साथ अनेक अनावश्यक अर्थ जुड़ गये हैं और आजकल इसका अर्थ होता है कर्मकाण्ड अथवा पौराणिक पूजा का विशाल आडम्बर। ऐसी पूजा का न पुजारी के लिए विशेष अर्थ होता है और न उन भक्तों को जो पूजा कर्म को देखते हुए खड़े रहते हैं। कभीकभी भजन का अर्थ होता है वाद्यों के साथ उच्च स्वर में कीर्तन करना जिसमें भावुक प्रवृति के लोगों को बड़ा रस आता है और वे भावावेश में उत्तेजित होकर अन्त में थक जाते हैं। यदा कदा ही उन्हें आत्मानन्द का अस्पष्टसा भान होता होगा। वेदान्त शास्त्र में भजन का अर्थ है जीव का समर्पण भाव से किया गया सेवा कर्म। भक्तिपूर्ण समर्पण से उस साधक को मन से परे आत्मतत्त्व का साक्षात् अनुभव होता है। इस प्रकार जो योगी आत्मानुसंधान रूप भजन करता है वह परमात्मस्वरूप में एक हो जाता है। ऐसे ही योगी को यहां सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।वेदान्त की भाषा में कहा जायेगा कि जिस योगी ने अनात्म जड़उपाधियों से तादात्म्य दूर करके आत्मस्वरूप को पहचान लिया है वह श्रेष्ठतम योगी है।Conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का ध्यानयोग नामक छठवां अध्याय समाप्त होता है।
।।6.47।। व्याख्या--'योगिनामपि सर्वेषाम्'--जिनमें जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी मुख्यता है, जो कर्मयोग, सांख्ययोग, हठयोग, मन्त्रयोग, लययोग आदि साधनोंके द्वारा अपने स्वरूपकी प्राप्ति-(अनुभव-) में ही लगे हुए हैं, वे योगी सकाम तपस्वियों, ज्ञानियों और कर्मियोंसे श्रेष्ठ हैं। परन्तु उन सम्पूर्ण योगियोंमें भी केवल मेरे साथ सम्बन्ध जोड़नेवाला भक्तियोगी सर्वश्रेष्ठ है।
।।6.47।।न च निरीश्वरं कष्टयोगमात्रं संसिद्धिदं इति उच्यते योगिनामपीति। सर्वयोगिमध्ये य एवं मामन्तःकरणे निवेश्य भक्तिश्रद्धातत्परो गुरुचरणसेवालब्धसंप्रदायक्रमेण मामेव नान्यत् (N नान्यम्) भजते विमृशति (SN omit विमृशति K substitutes विमृश्यते) स मे युक्ततमः परमेश्वरसमाविष्टः (S omits परमेश्वरसमाविष्टः)। इति सेश्वरस्य ज्ञानस्य सर्वप्राधान्यमुक्तम् इति।
।।6.47।। योगिनाम् इति पञ्चम्यर्थे षष्ठी। सर्वभूतस्थम् इत्यादिना चतुर्विधायोगिनः प्रतिपादिताः तेषुअनन्तर्गतत्वाद् वक्ष्यमाणस्य योगिनः न निर्धारणे षष्ठी संभवति।अपि सर्वेषाम् इति सर्वशब्दनिर्दिष्टाः तपस्विप्रभृतयः तत्र अपि उक्तेन न्यायेन पञ्चम्यर्थो ग्रहीतव्यः योगिभ्यः अपि सर्वेभ्यो वक्ष्यमाणो योगी युक्ततमः तदपेक्षया अवरत्वे तपस्विप्रभृतीनां योगिनां च न कश्चिद् विशेष इत्यर्थः। मेर्वपेक्षया सर्षपाणाम् इव यद्यपि सर्षपेषु अन्योन्यन्यूनाधिकभावो विद्यते तथापि मेर्वपेक्षया अवरत्वनिर्देशः समानः।मत्प्रियत्वातिरेकेण अनन्यसाधारणस्वभावतया मद्गतेन अन्तरात्मना मनसा बाह्याभ्यन्तरसकलवृत्तिविशेषाश्रयभूतं मनो हि अन्तरात्मा अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मया विना स्वधारणालाभात् मद्गतेन मनसा श्रद्धावान् अत्यर्थमत्प्रियत्वेन क्षणमात्रवियोगासहतयामप्राप्तिप्रवृत्तौ त्वरावान् यो मां भजतेमां विचित्रानन्तभोग्यभोक्तृवर्गभोगोपकरणभोगस्थानपरिपूर्णनिखिलजगदुदयविभवलयलीलम् अस्पृष्टाशेषदोषानवधिकातिशयज्ञानबलैश्वर्यवीर्यशक्तितेजःप्रभृत्यसंख्येयकल्याणगुणगणनिधिं स्वाभिमतानुरूपैकरूपाचिन्त्यदिव्याद्भुतनित्यनिरवद्यनिरतिशयौज्ज्वल्यसौन्दर्यसौगन्ध्यसौकुमार्यलावण्ययौवनाद्यनन्तगुण निधिदिव्यरूपं वाङ्मनसापरिच्छेद्यस्वरूपस्वभावम् अपारकारुण्यसौशील्यवात्सल्यौदार्यैश्वर्यमहोदधिम् अनालोचितविशेषाशेषलोकशरण्यं प्रणतार्तिहरम् आश्रितवात्सल्यैकजलधिम् अखिलमनुजनयनविषयतां गतम् अजहत्स्वस्वभावं वसुदेवगृहे अवतीर्णम् अनवधिकातिशयतेजसा निखिलं जगद् भासयन्तम् आत्मकान्त्या विश्वम् आप्यायन्तं भजते सेवते उपासते इत्यर्थः। स मे युक्ततमो मतः स सर्वेभ्यः श्रेष्ठतम इति सर्वं सर्वदा यथावस्थितं स्वत एव साक्षात्कुर्वन् अहं मन्ये।
।।6.47।।नन्वादित्यो विराडात्मा सूत्रं कारणमक्षरमित्येतेषामुपासका भूयांसो योगिनो गम्यन्ते तेषां कतमः श्रेयानिष्यते तत्राह योगिनामिति। यो भगवन्तं सगुणं निर्गुणं वा यथोक्तेन चेतसा श्रद्दधानः सन्ननवरतमनुसंधत्ते स युक्तानां मध्येऽतिशयेन युक्तः श्रेयानीश्वरस्याभिप्रेतो नहि तदीयोऽभिप्रायोऽन्यथा भवितुमर्हतीत्यर्थः। तदनेनाध्यायेन कर्मयोगस्य संन्यासहेतोर्मर्यादां दर्शयता साङ्गं च योगं विवृण्वता मनोनिग्रहोपायोपदेशेन योगभ्रष्टस्यात्यन्तिकनाशशङ्कावकाशं शिथिलयता त्वंपदार्थाभिज्ञस्य ज्ञाननिष्ठत्वोक्त्या वाक्यार्थज्ञानान्मुक्तिरिति साधितम्।इत्यानन्दगिरिकृतगीताभाष्यटीकायां षष्ठोऽध्यायः।।6।।
।।6.47।।योगिनामपि सर्वेषां मध्ये मत्पुष्टिभक्तिपरायणः श्रेष्ठः। यन्निरुद्धं मय्येव चित्तं फलादौ च समं योगेऽपेक्षितं युक्तं तथाभूतेनान्तरात्मा श्रद्धावान् श्रीमदाचार्यवर्योपदेशवाक्येष्वास्तिक्यबुद्धिमान् सन् मां वासुदेवं भजते सेवते यः स मे युक्ततमो मतः। अतो योगफलितशरणभक्तिमान् भवेति गूढाभिसन्धिः। अतएवोक्तमाचार्यरत्नैः साङ्ख्ययोगौ निरूप्यादौ मोहमुत्सार्य फाल्गुने। भक्तिपीयूषपातारं कृतवानिति संग्रहः। उक्तमध्यायषट्केऽपि स्वधर्मकरणं मतम्। विवेकेन च धैर्येण साङ्ख्ये योगे च भक्तितः। सूत्रवदिदमुक्तम्।
।।6.47।।इदानीं सर्वयोगिश्रेष्ठं योगिनं वदन्नध्यायमुपसंहरति योगिनां वसुरुद्रादित्यादिक्षुद्रदेवताभक्तानां सर्वेषामपि मध्ये मयि भगवति वासुदेवे पुण्यपरिपाकविशेषाद्गतेन प्रीतिवशान्निविष्टेन मद्गतेनान्तरात्मनान्तःकरणेन प्राग्भवीयसंस्कारपाटवात्साधुसङ्गाच्च मद्भजन एव श्रद्धावानतिशयेन श्रद्दधानः सन् भजते सेवते सततं चिन्तयति यो मां नारायणमीश्वरेश्वरं सगुणं निर्गुणं वा मनुष्योऽयमीश्वरान्तरसाधारणोऽयमित्यादिभ्रमं हित्वा स एव मद्भक्तो योगी युक्ततमः सर्वेभ्यः समाहितचित्तेभ्यो युक्तेभ्यः श्रेष्ठो मे मम परमेश्वरस्य सर्वज्ञस्य मतो निश्चितः। समानेऽपि योगाभ्यासक्लेशे समानेऽपिभजनायासे मद्भक्तिशून्येभ्यो मद्भक्तस्यैव श्रेष्ठत्वात्त्वं मद्भक्तः परमो युक्ततमोऽनायासेन भवितुं शक्ष्यसीति भावः। तदनेनाध्यायेन कर्मयोगस्य बुद्धिशुद्धिहेतोर्मर्यादां दर्शयता ततश्च कृतसर्वकर्मसंन्यासस्य साङ्गं योगं विवृण्वता मनोनिग्रहोपायं चाक्षेपनिरासपूर्वकमुपदिशता योगभ्रष्टस्य पुरुषार्थशून्यताशङ्कां च शिथिलयता कर्मकाण्डं त्वंपदार्थनिरूपणं च समापितम्। अतःपरं श्रद्धावान्भजते यो मामिति सूत्रितं भक्तियोगं भजनीयं च भगवन्तं वासुदेवं तत्पदार्थं निरूपयितुमग्रिममध्यायषट्कमारभ्यत इति शिवम्।
।।6.47।।योगिनामपि यमनियमादिपराणां मध्ये मद्भक्तः श्रेष्ठ इत्याह योगिनामिति। मद्गतेन मय्यासक्तेनान्तरात्मना मनसा यो मां परमेश्वरं वासुदेवं श्रद्धायुक्तः सन्भजते स योगयुक्तेषु श्रेष्ठो मम संमतः। अतो मद्भक्तो भवेति भावः।
।।6.47।।एवं सर्वस्मादाधिक्ये जीवात्मयोगिनः प्रतिपादिते ततः परमपुरुषार्थो नास्तीति श्रोता चरितार्थबुद्धिः स्यादिति शङ्कमानो भूमविद्यायामिव स्वयमेव ततोऽप्यतिशयितपुरुषार्थसाधकं तदङ्गिनः स्वविषयभक्तियोगं मध्यमषट्केन प्रतिपादयितुं स्वयमेव प्रस्तौतीत्याह तदेवमिति। उक्तैः प्रमाणतकरुपपादितप्रकारेणेत्यर्थः। सङ्गत्यर्थं प्रथमषट्कस्य मध्यमषट्कशेषत्वमाह परविद्याङ्गभूतमिति। तत्र प्रमाणद्योतनं प्रजापतिवाक्योदितमिति। प्रागेवेदं प्रपञ्चितम्। एतेन परिशुद्धप्रत्यगात्मदर्शनमात्रस्य परमयोगत्वादिकं वदन्तोऽन्तिमयुगवेदान्तिप्रभृतयो निरस्ताः।परविद्यां परां विद्यामित्यर्थः। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते मुं.उ.1।1।5 इत्यादिवत्। यद्वा परमात्मनो विद्यामित्यर्थः।प्रस्तौति प्रस्तावमात्रमिदं प्रपञ्चो ह्यनन्तरं भविष्यतीति भावः।तपस्विभ्योऽधिकः 6।46 इत्यादिप्रकरणादत्रापियोगिभ्यः इत्यर्थोऽभिप्रेत इति मन्वान आह योगिनामिति।पञ्चम्यर्थे षष्ठीति सम्बन्धसामान्यषष्ठ्याः सम्बन्धविशेषे विवक्षावशात्पर्यवसानमिति भावः। नन्वेवं किमर्थं परिक्लिश्यते निर्धारणे षष्ठ्यत्र सम्भवति। तथाहि प्रागुक्तेषु चतुर्षु योगेषुसर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः 6।31 इति योगी कश्चिदुक्तः अत्रापिश्रद्धावान् भजते यो माम् इति स एव प्रत्यभिज्ञायते अतस्तन्निर्धारणेनयुक्ततमः इति प्रशंसाऽत्र क्रियते।युक्ततमः इत्यत्र प्रत्ययश्च निर्धारणार्थत्वसूचकः तस्मान्नासौ पञ्चम्यर्थे षष्ठीति तत्राह सर्वभूतस्थमिति। एतेन पूर्वश्लोकेयोगी इत्येकवचननिर्देशेऽप्यत्र बहुवचनेन नानुवादस्य विषयोऽपि दर्शितः ततः किमित्यत्राह तेष्विति।अयमभिप्रायः परमात्मोपासको हि योगी मध्यमषट्केन वक्ष्यते तस्य च प्रस्तावोऽत्र क्रियते नचासौ प्रागुक्तःसर्वभूतस्थितं यो माम् 6।31 इत्यादेश्च साम्यानुसन्धानविषयत्वं प्रागेव प्रतिपादितं ततो न तस्यात्र प्रत्यभिज्ञा किञ्चआत्मौपम्येन 6।32 इति श्लोकेसर्वभूतस्थितम् इत्याद्युक्तयोगिनोऽपि परतरो योगी प्रागुक्तः ततश्चसर्वभूतस्थितम् इत्यादिनोक्तयोगिनोऽत्र सर्वस्मादाधिक्यप्रतिपादने पूर्वेण विरोधः स्यात् अतोऽस्य योगिनस्तेष्वन्यतमत्वायोगान्न निर्धारणे षष्ठीयम् तदिदमुक्तंतेष्वनन्तर्गतत्वादिति। ननु पूर्वोक्तान्वक्ष्यमाणं च योगिनं सामान्येन संगृह्य तेष्वन्यतमस्य वक्ष्यमाणस्य निर्धारणं किं न स्यात् मैवं प्रतिपन्नेषु केषुचित्प्रतिपन्न एव हि कश्चिन्निर्धार्यः अन्यथाऽतिशयविधानार्थमनुवादायोगात्। नच वक्ष्यमाणो योगीश्रोतुरर्जुनस्य इतः पूर्वं प्रतिपन्नः इदमपिवक्ष्यमाणस्येतिपदेन सूचितम्। अतः प्रागुक्तेभ्यो योगिभ्योऽधिकस्य वक्ष्यमाणस्य योगिनः प्रस्ताव एवायं भवितुमर्हति ततश्च पञ्चम्यर्थत्वे विवक्षणीये न निर्धारणे षष्ठी सम्भवतीतियोगिनामपि सर्वेषाम् इति सामानाधिकरण्येन योजनायामपिशब्दस्य मन्दप्रयोजनत्वं स्यात् योगिनां हि प्रशंसा तदा सूचिता स्यात् सा च प्रागेव प्रतिपन्नत्वादत्र न सूचनमपेक्षते। समुद्रादपि विपुलोऽयमित्यादिव्यवहारेष्विव विपरीतप्रतीतिश्च स्यात् अपिशब्दस्य समुच्चयार्थत्वं प्रसिद्धिप्रकर्षवदत्रापि सम्भवदपरित्याज्यम्योगिनामपि इत्यनेनैव गतार्थत्वेन सर्वशब्दश्चनात्यन्तापेक्षितः यदि चापेः समुच्चयार्थत्वं सर्वशब्दस्य च समुच्चेतव्यार्थान्तरपरत्वं सम्भवति अतस्तदेवोपादातुमुचितम्। सम्भवन्ति चात्र सर्वशब्दार्थतया तपस्विप्रभृतयः प्रसक्ताः ते च न योगिशब्देन संगृहीताः मुख्ये सम्भवति च तेन तल्लक्षणा न युक्ता। योगिभ्यो न्यूनानामपि तेषामुपादानं दृष्टान्तार्थतयाऽत्यन्तोचितमेव। योगिनां तपस्विप्रभृतीनां च समुच्चयोऽवरत्वसाम्यप्रतिपादनौपयिकत्वादत्यन्तापेक्षितः। तदेतत्सर्वमभिप्रयन्नाह अपि सर्वेषामिति।उक्तेन न्यायेनेति। प्रकरणवशात्तेष्वनन्तर्गतत्वादन्तर्भावयितुमशक्यत्वाच्चेति भावः।तपस्व्यादिसङ्ग्रहाभिप्रायं वक्तुं फलितमन्वयमाह योगिभ्य इति।युक्ततम इति अधिक इत्यर्थः। यद्वा योगिनां तपस्विप्रभृतीनां च यथास्वमुपाययुक्तत्वात्तेभ्यः सर्वेभ्योऽयमतिशयितोपाययुक्त इत्यर्थः। अथवा योग्यतम इत्यर्थः। एतदखिलमभिप्रेत्यश्रेष्ठतमः इति वक्ष्यति। योगिभ्योऽपि न्यूनतमास्तपस्विप्रभृतयः किमर्थमत्र संगृह्यन्त इत्यत्र दृष्टान्तार्थतां विशदयतितदपेक्षयेति। लौकिकोदाहरणेन द्रढयतिमेर्वपेक्षयेति। नन्ववरत्वे न कश्चिद्विशेष इत्ययुक्तम् तथासति तपस्विप्रभृतीनां योगिनां चात्यन्तसमत्वप्रसङ्गात् अस्ति च विशेषो मेर्वपेक्षयापि सर्षपाणां मात्रया न्यूनाधिकभावेनावरत्वावरतरत्वरूपः तत्राह यद्यपीति। नेदानीं मिथस्तारतम्यं निषिध्यते किन्तु मिथस्तारतम्यवतामप्यत्यन्तातिशयितापेक्षया न्यूनत्वमात्रमविशिष्टं तावतैव चावरत्वव्यवहारोऽप्यविशिष्टो जायत इति भावः।मत्प्रियत्वातिरेकेणेति अहं प्रियः प्रीतिविषयो यस्य स मत्प्रियः तस्य भावस्तत्त्वं भक्त्यतिरेकेणेत्यर्थः।अनन्यसाधारणस्वभावतयेति स्वाभिमतभोग्यमेव हि धारकमिति भावः। बाह्येन्द्रियशरीराद्यपेक्षयाऽत्र मनसोऽन्तरात्मशब्दवाच्यत्वम्। भक्तिकाष्ठादशायां श्रद्धाशब्दस्येच्छादिमात्रविषयत्वमनुचितम् अत इच्छाकार्यत्वराविषयतामिच्छायाश्च त्वराहेतुं तीव्रदशापत्तिं दर्शयति अत्यर्थेत्यादिना। भजनीयतया निर्दिष्टस्य श्रुतिस्मृत्यादिशतैः वक्ष्यमाणषट्कद्वयेन चोक्तानुपासनोपयुक्ताकारान्मामित्यनेन विवक्षितान् दर्शयतिविचित्रेत्यादिना आप्याययन्तमित्यन्तेन। तत्रापिवाङ्मनसापरिच्छेद्यस्वरूपस्वभावम् इत्यन्तानि विशेषणानि परत्वौपयिकानि। ततः पराणि तु सौलभ्यौपयिकानीति विवेकः। तदुभयाभिधानं च अतिसुलभस्य तृणादेः अतिदुर्लभस्य मेर्वादेश्चान्यतरवैकल्येनानुपादेयत्वात्। कारणवाक्यस्थानां सद्ब्रह्मात्मादिसामान्यशब्दानामनन्यथासिद्धविशेषोपस्थापकनारायणपदार्थपर्यवसानमभिप्रयन्जन्माद्यस्य यतः ब्र.सू.1।1।2 इति सूत्रनिरूपितार्थेन यतो वा इमानि तै.उ.3।1 इत्यादिवाक्येन प्रतिपादितं जिज्ञास्यस्य ब्रह्मणो लक्षणं दर्शयित्यमाणजगत्कारणत्ववैश्वरूप्यादिवैभवे धनञ्जयसारथौ दर्शयति विचित्रेति। कारणत्वमुखेन लीलाविभूतियोगः प्रतिपादितः अथ कारणत्वशङ्कितदोषवत्त्वगुणवैकल्यशङ्कानिवृत्त्यर्थं शोधकवाक्यादिसिद्धमुभयलिङ्गत्वं दर्शयति अस्पृष्टेति।अस्पृष्टाशेषदोषेत्यस्य गुणविशेषणत्वे दोषसामानाधिकरण्याभावो विवक्षितः गुणिविशेषणत्वे दोषात्यन्ताभावः।अथ शुभाश्रयाप्राकृतविग्रहविशिष्टत्वप्रतिपादनमुखेन दिव्याभरणायुधमहिषीपरिजनस्थानादियोगमुपलक्षयन् नित्यविभूतियोगं सूचयति स्वाभिमतेति। एवमुभयविभूतियोगादुभयलिङ्गत्वाच्च फलितं केवलपरत्वे वाङ्मनसापरिच्छेद्यतयोपासनायोग्यत्वमपि सूचयितुं परत्वातिशयमाह वाङ्मनसेति। स्वरूपमीश्वरत्वादिकम् आनन्दत्वादिकं वा। स्वभावस्तु निरूपितस्वरूपविशेषका धर्माः। उक्तं परत्वमेव स्वरूपम् वक्ष्यमाणं सौलभ्यं तु स्वभाव इत्येके। अवतारसौलभ्यहेतूनाह अपारेत्यादिना। प्रत्येकमेषां महोदधिंस्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः 9।32सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्ब्रह्मतं मम वा.रा.6।18।33सर्वलोकशरण्याय वा.रा.6।17।17यदि वा रावणः स्वयम् वा.रा.6।18।34 इत्यादिभिः सिद्धं दर्शयति अनालोचितेति। विशेषाः जातिगुणवृत्तविद्यादिरूपाः। उक्ताः कारुण्यादिगुणाः एवंविधशरण्यत्वे हेतवः। शरण्यशब्देनाभिगमनीयत्वमुक्तम् तत्फलभूतविरोधिनिरसनशीलतामाह प्रणतार्तिहरमिति। सर्वसाधारणतया गुणान्तरैः सह निर्दिष्टमपि वात्सल्यगुणं भूयोऽपि विशेषसम्बन्धानुसन्धानाय विशेषतोऽवतारेषु कार्यकरत्वज्ञापनाय सापराधानामभीतये ज्ञानादिरहितदशायामपि स्वयमेव रक्षक इति प्रदर्शनाय तत्प्रतिबन्धकभूतपरमात्मवैमुख्यनिवृत्तिये च पृथगनुसन्धत्तेआश्रितवात्सल्यैकजलधिमिति। उक्तकारुण्यादिगुणगणफलितं प्रकृतावतारस्यावतारान्तराद्वैलक्षण्यमाह अखिलेति।अजोऽपि सन्नव्ययात्मा 4।6 इत्यादिना पूर्वोक्तं स्मारयतिअजहदिति। अवतारविशेषमाश्रितो हि मामित्याहेत्यभिप्रायेणाह वसुदेवेति। तेजःकान्तिरूपावतारविग्रहगुणविशेषाभ्यां अवतारदशायामेव परत्वसौलभ्यव्यञ्जकाभ्यां उपासकचित्ताकर्षणमभिप्रेत्याहअनवधिकेति। अत्रापि भास्वरत्वं तेजः तत एवानभिभवनीयत्वमपि सिद्धम्। कान्तिस्तु रामणीयकं लावण्यापरपर्यायचन्द्रिकाकल्पा प्रभा वा। अतएव हिआप्याययन्तमित्यक्तम्। एतेनविश्वमाप्याययन् कान्त्या सा.सं.2।70 स्मारितम्। भजते इत्यस्य विवक्षितं वक्तुं धातुपाठपठितमर्थं तावत् दर्शयतिसेवत इति।सेवा भक्तिरुपास्तिः इति नैघण्टुकप्रसिद्धिमाश्रित्य विवक्षिते श्रुतिप्रसिद्धे स्थापयतिउपास्त इत्यर्थ इति।योगिनामपि सर्वेषाम् इत्युक्तं वर्गद्वयं सङ्कलय्य सर्वेभ्य इत्युक्तम्।मे मतः इत्यत्रास्मच्छब्दाभिप्रेतमाह सर्वमित्यादिना। अत्रापियो वेत्ति युगपत् न्या.तं. इत्यादिकमनुसंहितम्।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु भगवद्रामानुजविरचितश्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां षष्ठोऽध्यायः।।6।।
।।6.47।।योगिनोऽपि बहुविधा इति तन्मध्ये दास्यधर्मेण भजनवानुत्तम इत्याह योगिनामपीति। सर्वेषामपि योगिनां मध्ये योगिनस्त्रिविधाः योगाभ्यासेन भगवद्ध्याननिष्ठाः भक्तियोगेन साधनसेवनपराः रसात्मकस्वसंयोगभावनिष्ठाः तन्मध्ये मद्गतेन अन्तरात्मना भावात्मकस्वरूपेण मम स्वशक्तिसंयोगेच्छारूपयोगेन मदर्थं श्रद्धावान् प्रेमयुक्तो यो मां भजते स मे मम युक्ततमः अत्यन्तं युक्तः प्रियो मतोऽभिमत इत्यर्थः। अतस्तथाभावेन त्वं योगी भवेति भावः।दास्यात्मकस्वयोगेन भक्तिमार्गभ्रमं हि यः। नाशयामास पार्थस्य स मे कृष्णः प्रसीदतु।।1।।
।।6.47।।समाप्तः कर्मप्रधानस्त्वंपदार्थविवेकः। अतःपरमुपासनाप्राधान्येन तत्पदार्थं निरूपयितुकामस्तदुपासनां महाफलत्वेन स्तौति योगिनामिति। दैवमेवापरे यज्ञमित्यादिना चतुर्थाध्यायप्रोक्ता द्वादशयोगास्तद्वतां योगिनां सर्वेषां मध्ये यो मद्गतेन मयि वासुदेवे समर्पितेनान्तरात्मना चित्तेन श्रद्धावान्सन् मां भजते स मे मम युक्ततमोऽतिशयेन युक्तः श्लाघ्यो मतोऽभिप्रेतः। तस्मान्मद्भक्तो भवेति भावः।
।।6.47।।योगिनामन्यदेवताध्यानयुक्तानामपि सर्वेषां मध्ये मद्गतेन मयि वासुदेवे समाहितेनान्तरात्मनान्तःकरणेन श्रद्धावान्वासुदेवान्न परं किंचिदिति श्रद्दधानः सन् यो मां भजते सेवते स मेऽतिशयेन यक्तो युक्ततमः सर्वोत्तमो ध्यानयोगी मतोऽभिप्रेतः। अतस्त्वमेतादृशो ध्यानयोगी भवेत्याशयः। तदनेने षष्ठाध्यायेन कर्मयोगस्य संन्यासहेतोर्मर्यादारुपं साङ्ग ध्यानयोगं मनोनिग्रहोपायं योगभ्रष्टस्य दुर्गत्यभावेन सुगत्या मोक्षाप्तिं वासुदेवभजनस्य श्रैष्ठ्यं च दर्शयताऽनेन साधनेन शुद्धत्वंपदार्थोभिज्ञस्य वाक्यार्थज्ञानान्मोक्ष िति प्रसाधितम्।।ईशाराधनतत्परेण मनसा कर्मादिसंतन्वता कर्तृत्वादिविवर्जितेन निगमैर्लब्धा विशुद्धात्मता। येनाप्तं परमैकतां सुखधनां स्वं नौमि तं शाश्वतं प्रत्यञ्चं परमार्थतो भ्रमवशाज्जीवं स्वरुपाच्च्युतम्।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसुनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां षष्ठोऽध्यायः समाप्तः।।6।।
6.47 योगिनाम् of Yogis? अपि even? सर्वेषाम् of all? मद्गतेन merged in Me? अन्तरात्मना with inner Self? श्रद्धावान् endowed with faith? भजते worships? यः who? माम् Me? सः he? मे to Me? युक्ततमः most devout? मतः is deemed.Commentary Among all Yogis He who worships Me? the Absolute? is superior to those who worship the lesser gods such as the Vasus? Rudra? Aditya? etc.The inner self merged in Me The mind absorbed in Me? (Cf.VI.32)?(This chapter is known by the names Atmasamyama Yoga and Adhyatma Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the sixth discourse entitledThe Yoga of Meditation.
6.47 And among all the Yogis he who, full of faith and with his inner self merged in Me, worships Me is deemed by Me to be the most devout.
6.47 I look upon him as the best of mystics who, full of faith, worshippeth Me and abideth in Me."
6.47 Even among all the yogis, he who adores Me with his mind fixed on Me and with faith,he is considered by Me to be the best of the yogis.
6.47 Api, even; sarvesam yoginam, among all the yogis, among those who are immersed in meditation on Rudra, Aditya, and others; yah, he who; bhajate, adores; mam, Me; antaratmana,with his mind; madgatena, fixed on Me, concentrated on Me who am Vasudeva; and sraddhavan, with faith, becoming filled with faith; sah, he; is matah, considered; me, by Me; to be yukta-tamah, the best of the yogis, engaged in Yoga most intensely. [It has been shown thus far that Karma-yoga has monasticism as its ultimate culmination. And in the course of expounding Dhyana-yoga together with its ausxiliaries, and instructing about the means to control the mind, the Lord rules out the possibility of absolute ruin for a person fallen from Yoga. He has also stated that steadfastness in Knowledge is for a man who knows the meaning of the word tvam (thou) (in 'Thou are That'). All these instructions amount to declaring that Liberation comes from the knowledge of the great Upanisadic saying, 'Thou art That.']
6.47. He, who has faith and serves Me with his inner self gone to Me, he is considered by Me as the best master of Yoga, among all the men of Yoga.
6.47 Yoginam etc. He, who establishes Me in his internal organ; who is totally addicted to devotion and faith and who serves i.e., internally experiences Me alone, and not anything else, following the method of tradition, learnt by rendering service to the revered teachers-he alone among all the Yogins, is the best master of the Yoga i.e., one who is fully absorbed in the Supreme Lord. Thus the superiority of the Yoga with Godly knowledge over all [other means] has been explained.
6.47 'Yoginam', which is the genitive case, has to be taken in the sense of the ablative. In the verses beginning with, 'He sees the self as abiding in all beings' (6.29), Yogins at four degrees of attainment have been mentioned. Since the Yogin who is now mentioned in this passage cannot be included in the four types mentioned earlier, the genitive case specifying one out of many will be inappropriate here. In 'api sarvesam,' those who practise austerities etc., are referred to by the word 'sarva' (all). According to the principle set forth, here also the case ending has to be taken as ablative. The meaning therefore is that the Yogin who is now referred to, is the most integrated compared with those mentioned earlier and all other types. Compared to this Yogin, the differences in point of superiority and inferiority among the other Yogins such as the performers of austerities etc., are of no significance like mustard-seeds compared to Mount Meru. Even though there exists smallness and bigness in relation to one another among mustard-seeds, still when compared to Meru, such distinctions among them have no significance, as they are all small compared to Meru. I consider him the most integrated who, with his innermost self, has his mind fixed on Me, on account of My being the only object of his overflowing love and also on account of his having a nature which cannot be supported by anything other than Myself; who has 'faith,' i.e., who strives rapidly to attain Me because of his being unable to bear a moment's separation from Me on account of My being very dear to him; and who 'worships Me,' i.e., serves Me with devotion and meditates on Me - Me whose sportive delight brings about the origination, sustentation and dissolution of the entire cosmos filled with multifarious and innumerable objects of enjoyment, enjoyers, means and places of enjoyment; who is untouched by any evil without exception; whose divine figure is the treasue-house of innumerable multitudes of auspicious, unlimited and unsurpassed attributes such as knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour; whose divine figure is the treasure-house of infinite, unsurpassed attributes agreeable and highly worthy, such as radiance, beauty, fragrance, tenderness, pervading sweetness and youthfulness which are uniform, inconceivable and divine, wondrous, eternal and flawless; whose essential nature and alities transcend all thought and words; who is the great ocean of compassion, condescension, paternal love and beauty; who is the impartial refuge of all beings without exception and without considerations of any difference; who is the reliever of the distress of supplicants; who is the great, unfathomable ocean of affection for supplicants; who has become visible to the eyes of all men without abandoning His essential nature; who has incarnated in the house of Vasudeva; who has made the entire would illumined with His limitless and excellent glory; and who has satisfied the entire universe with the impeccable glory of beauty. The idea is that I, who by Myself alone see all things directly as they are, look upon him, the last mentioned type of Yogi here, as superior to all other types mentioned earlier.
6.47 He who with faith worships Me, whose inmost self is fixed in Me, I consider him as the greatest of the Yogins.
।।6.47।।रुद्र आदित्य आदि देवोंके ध्यानमें लगे हुए समस्त योगियोंसे भी जो योगी श्रद्धायुक्त हुआ मुझ वासुदेवमें अच्छी प्रकार स्थित किये हुए अन्तःकरणसे मुझे ही भजता है उसे मैं युक्ततम अर्थात् अतिशय श्रेष्ठ योगी मानता हूँ।
।।6.47।। योगिनामपि सर्वेषां रुद्रादित्यादिध्यानपराणां मध्ये मद्गतेन मयि वासुदेवे समाहितेन अन्तरात्मना अन्तःकरणेन श्रद्धावान् श्रद्दधानः सन् भजते सेवते यो माम् स मे मम युक्ततमः अतिशयेन युक्तः मतः अभिप्रेतः इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येषष्ठोऽध्यायः।।
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योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।6.47।।
যোগিনামপি সর্বেষাং মদ্গতেনান্তরাত্মনা৷ শ্রদ্ধাবান্ভজতে যো মাং স মে যুক্ততমো মতঃ৷৷6.47৷৷
যোগিনামপি সর্বেষাং মদ্গতেনান্তরাত্মনা৷ শ্রদ্ধাবান্ভজতে যো মাং স মে যুক্ততমো মতঃ৷৷6.47৷৷
યોગિનામપિ સર્વેષાં મદ્ગતેનાન્તરાત્મના। શ્રદ્ધાવાન્ભજતે યો માં સ મે યુક્તતમો મતઃ।।6.47।।
ਯੋਗਿਨਾਮਪਿ ਸਰ੍ਵੇਸ਼ਾਂ ਮਦ੍ਗਤੇਨਾਨ੍ਤਰਾਤ੍ਮਨਾ। ਸ਼੍ਰਦ੍ਧਾਵਾਨ੍ਭਜਤੇ ਯੋ ਮਾਂ ਸ ਮੇ ਯੁਕ੍ਤਤਮੋ ਮਤ।।6.47।।
ಯೋಗಿನಾಮಪಿ ಸರ್ವೇಷಾಂ ಮದ್ಗತೇನಾನ್ತರಾತ್ಮನಾ. ಶ್ರದ್ಧಾವಾನ್ಭಜತೇ ಯೋ ಮಾಂ ಸ ಮೇ ಯುಕ್ತತಮೋ ಮತಃ৷৷6.47৷৷
യോഗിനാമപി സര്വേഷാം മദ്ഗതേനാന്തരാത്മനാ. ശ്രദ്ധാവാന്ഭജതേ യോ മാം സ മേ യുക്തതമോ മതഃ৷৷6.47৷৷
ଯୋଗିନାମପି ସର୍ବେଷାଂ ମଦ୍ଗତେନାନ୍ତରାତ୍ମନା| ଶ୍ରଦ୍ଧାବାନ୍ଭଜତେ ଯୋ ମାଂ ସ ମେ ଯୁକ୍ତତମୋ ମତଃ||6.47||
yōgināmapi sarvēṣāṅ madgatēnāntarātmanā. śraddhāvānbhajatē yō māṅ sa mē yuktatamō mataḥ৷৷6.47৷৷
யோகிநாமபி ஸர்வேஷாஂ மத்கதேநாந்தராத்மநா. ஷ்ரத்தாவாந்பஜதே யோ மாஂ ஸ மே யுக்ததமோ மதஃ৷৷6.47৷৷
యోగినామపి సర్వేషాం మద్గతేనాన్తరాత్మనా. శ్రద్ధావాన్భజతే యో మాం స మే యుక్తతమో మతః৷৷6.47৷৷
7.1
7
1
।।7.1।। श्रीभगवान् बोले -- हे पृथानन्दन ! मुझमें आसक्त मनवाला, मेरे आश्रित होकर योगका अभ्यास करता हुआ तू मेरे समग्ररूपको निःसन्देह जैसा जानेगा, उसको सुन।
।।7.1।। हे पार्थ ! मुझमें असक्त हुए मन वाले तथा मदाश्रित होकर योग का अभ्यास करते हुए जिस प्रकार तुम मुझे समग्ररूप से, बिना किसी संशय के, जानोगे वह सुनो।।
।।7.1।। ध्यानाभ्यास का आरम्भ करने के पूर्व साधक जब तक केवल बौद्धिक स्तर पर ही वेदान्त का विचार करता है जैसा कि प्रारम्भ में होना स्वाभाविक है तब तक उसके मन में प्रश्न उठता रहता है कि परिच्छिन्न मन के द्वारा अनन्तस्वरूप सत्य का साक्षात्कार किस प्रकार किया जा सकता है यह प्रश्न सभी जिज्ञासुओं के मन में आता है और इसीलिए वेदान्तशास्त्र इस विषय का विस्तार से वर्णन करता है कि किस प्रकार ध्यान की प्रक्रिया से मन अपनी ही परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठकर अपने अनन्तस्वरूप का अनुभव करता है।इस षडाध्यायी के विवेच्य विषय की प्रस्तावना करते हुए श्रीकृष्ण अर्जुन को वचन देते हैं कि वे आत्मसाक्षात्कार के सिद्धान्त एवं उपायों का समग्रत वर्णन करेंगे जिससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि किस प्रकार सुसंगठित मन के द्वारा आत्मस्वरूप का ध्यान करने से आत्मा की अपरोक्षानुभूति होती है। ध्यान के सन्दर्भ में मन शब्द का प्रयोग होने पर उससे शुद्ध एवं एकाग्र मन का ही अभिप्राय है न कि अशक्त तथा विखण्डित मन। अनुशासित और असंगठित मन जब अपने स्वरूप में समाहित होता है तब साधक का विकास तीव्र गति से होता है। इस प्रकरण कै विषय है आन्तरिक विकास का युक्तियुक्त विवेचन।श्रीभगवान् कहते हैं
।।7.1।। व्याख्या--'मय्यासक्तमनाः'--मेरेमें ही जिसका मन आसक्त हो गया है अर्थात् अधिक स्नेहके कारण जिसका मन स्वाभाविक ही मेरेमें लग गया है, चिपक गया है, उसको मेरी याद करनी नहीं पड़ती, प्रत्युत स्वाभाविक मेरी याद आती है और विस्मृति कभी होती ही नहीं--ऐसा तू मेरेमें मनवाला हो।जिसका उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका और शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्धका आकर्षण मिट गया है, जिसका इस लोकमें शरीरके आराम, आदर-सत्कार और नामकी ब़ड़ाईमें तथा स्वर्गादि परलोकके भोगोंमें किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव, आसक्ति या प्रियता नहीं है, प्रत्युत केवल मेरी तरफ ही खिंचाव है, ऐसे पुरुषका नाम 'मय्यासक्तमनाः' है।
।।7.1 7.2।।मय्यासक्तेति ज्ञानमिति। ज्ञानविज्ञाने ज्ञानक्रिये एव। ततो न किञ्चिदवशिष्यते सर्वस्य ज्ञेयजातस्य ज्ञानक्रियानिष्ठत्वात्।
।।7.1।।श्रीभगवानुवाच मयि आभिमुख्येन आसक्तमनाः मत्प्रियत्वातिरेकेण मत्स्वरूपेण गुणैः च चेष्टितेन मद्विभूत्या विश्लेषे सति तत्क्षणाद् एव विशीर्यमाणस्वभावतया मयि सुगाढं बद्धमनाः मदाश्रयः तथा स्वयं च मया विना विशीर्य्यमाणतया मदाश्रयः मदेकाधारः मद्योगं युञ्जन् योक्तुं प्रवृत्तो योगविषयभूतं माम् असंशयं निःसंशयं समग्रं सकलं यथा ज्ञास्यसि येन ज्ञानेन उक्तेन ज्ञास्यसि तद् ज्ञानम् अवस्थितमनाः श्रृणु।
।।7.1।।कर्मसंन्यासात्मकसाधनप्रधानं त्वंपदार्थप्रधानं च प्रथमषट्कं व्याख्याय मध्यमषट्कमुपास्यनिष्ठं तत्पदार्थनिष्ठं च व्याख्यातुमारभमाणः समनन्तराध्यायमवतारयति योगिनामिति। अतीताध्यायान्ते मद्गतेनान्तरात्मा यो भजते मामिति प्रश्नबीजं प्रदर्श्य कीदृशं भगवतस्तत्त्वं कथं वा मद्गतान्तरात्मा स्यादित्यर्जुनस्य प्रश्नद्वये जाते स्वयमेव भगवानपृष्टमेतद्वक्तुमिच्छन्नुक्तवानित्यर्थः। परमेश्वरस्य वक्ष्यमाणविशेषणत्वं सकलजगदायतनत्वादिनानाविधविभूतिभागित्वं तत्रासक्तिर्मनसो विषयान्तरपरिहारेण तन्निष्ठत्वम्। मनसो भगवत्येवासक्तौ हेतुमाह योगमिति। विषयान्तरपरिहारे हि गोचरमालोच्यमाने भगवत्येव प्रतिष्ठितं भवतीत्यर्थः। तथापि स्वाश्रये पुरुषो मनः स्थापयति नान्यत्रेत्याशङ्क्याह मदाश्रय इति। योगिनो यदीश्वराश्रयत्वेन तस्मिन्नेवासक्तमनस्त्वमुपन्यस्तं तदुपपादयति यो हीति। ईश्वराख्याश्रयस्य प्रतिपत्तिमेव प्रकटयति हित्वेति। अस्तु योगिनस्त्वदाश्रयप्रतिपत्त्या मनसस्त्वय्येवासक्तिस्तथापि मम किमायातमित्याशङ्क्य द्वितीयार्धं व्याचष्टे यस्त्वमेवमिति। एवंभूतो यथोक्तध्याननिष्ठपुरुषवदेव मय्यासक्तमना यस्त्वं स त्वं तथाविधः सन्नसंशयमविद्यमानः संशयो यत्र ज्ञाने तद्यथा स्यात्तथा मां समग्रं ज्ञास्यसीति संबन्धः। समग्रमित्यस्यार्थमाह समस्तमिति। विभूतिर्नानाविधैश्वर्योपायसंपत्तिः। बलं शरीरगतं सामर्थ्यम्। शक्तिर्मनोगतं प्रागल्भ्यम्। ऐश्वर्यमीशितव्यविषयमीशनसामर्थ्यम्। आदिशब्देन ज्ञानेच्छादयो गृह्यन्ते। असंशयमितिपदस्य क्रियाविशेषणत्वं विशदयन् क्रियापदेन संबन्धं कथयति संशयमिति। विना संशयं भगवत्तत्त्वपरिज्ञानमेव स्फोरयति एवमेवेति। भगवत्तत्त्वे ज्ञातव्ये कथं मम ज्ञानमुपदेक्ष्यति नहि त्वामृते तदुपदेष्टा कश्चिदस्तीत्याशङ्क्याह तच्छृण्विति।
।।7.1।।पूर्वत्रात्माधिगमनं साङ्ख्ययोगकृतेः फलम्। अथातो महिमज्ञानपूर्वकं भक्तिरुच्यते।।1।।माहात्म्यज्ञानपूर्वस्तु सुदृढः सर्वतोऽधिकः। स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तस्तया मुक्तिर्न चान्यथा।।2।।धात्वर्थ उत्तमा सेवा स्नेहोऽर्थो प्रत्ययस्य च। प्रकृतिप्रत्ययार्थात्मा निबन्धे भक्तिरुच्यते।।3।।माहात्म्यविज्ञानमत्र वासुदेवस्य योगिनाम्। अन्ते सिद्धिकरं नान्यदिति तस्योद्यमः पुनः।।4।।पुरुषोत्तममाहात्म्यविज्ञानं साङ्गमुत्तमम्। प्रयाणकाले सर्वस्य भक्तस्य स्मरतः फलम्।।5।।प्रथमं योगधर्मेण महिमज्ञानमुत्तमम्। ततः प्रपत्तिर्ज्ञानं च ज्ञानिनः श्रेष्ठता यतः।।6।।ईश्वरज्ञानवान् श्रेष्ठो नात्मविज्ञानवान् परम्। यतः स्वात्मज्ञानवद्भिरीश्वरः सेव्यतेऽनिशम्।।7।।तत्र कीदृशमाहात्म्योऽहं यस्य सेवा कर्त्तव्या इत्यपराधनिवृत्त्यर्थं स्वमहिमानं निरूपयिष्यन् स्वयं श्रीभगवानुवाच मय्यासक्तमना इति। हे पार्थ मयि परमात्मनि भगवति सर्वधर्माश्रये निरतिशयालौकिकलीले परमनियन्तरि करुणाशीले आसक्तचित्तः योगमुक्तलक्षणं समभ्यसन् मदाश्रयो मत्प्रपन्नः सन् निस्संशयं समग्रं निरतिशयालौकिकगुणपूर्णं निरुपधिमहिमानं यथा येन प्रकारेण ज्ञास्यसि तच्छृणु। सूत्रवृत्तिवदिदम्।
।।7.1।।यद्भक्तिं न विना मुक्तिर्यः सेव्यः सर्वयोगिनाम्। तं वन्दे परमानन्दघनं श्रीनन्दनन्दनम्।।1।।एवं कर्मसंन्यासात्मकसाधनप्रधानेन प्रथमषट्केन ज्ञेयं त्वंपदलक्ष्यं सयोगं व्याख्यायाधुना ध्येयब्रह्मप्रतिपादनप्रधानेन मध्यमेन षट्केन तत्पदार्थों व्याख्यातव्यः। तत्रापियोगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः इति प्रागुक्तस्य भगवद्भजनस्य व्याख्यानाय सप्तमोऽध्याय आरभ्यते। तत्र कीदृशं भगवतो रूपं भजनीयं कथं वा तद्गतोऽन्तरात्मा स्यादित्येतद्वयं प्रष्टव्यमर्जुनेनापृष्टमपि परमकारुणिकतया स्वयमेव विवक्षुः श्रीभगवानुवाच मयि परमेश्वरे सकलजगदायतनत्वादिविविधविभूतिभागिन्यासक्तं विषयान्तरपरिहारेण सर्वदा निविष्टं मनो यस्य तव स त्वं अतएव मदाश्रयो मदेकशरणः राजाश्रयो भार्याद्यासक्तमनाश्च राजभृत्यः प्रसिद्धः मुमुक्षुस्तु मदाश्रयो मदासक्तमनाश्च त्वं त्वद्विधो वा योगं युञ्जन्मनःसमाधानं षष्ठोक्तप्रकारेण कुर्वन् असंशयं यथा भवत्येवं समग्रं सर्वविभूतिबलशक्त्यैश्वर्यादिसंपन्नं मां यथा येन प्रकारेण ज्ञास्यसि तच्छृणूच्यमानं मया।
।।7.1।।विज्ञेयमात्मनस्तत्त्वं सयोगं समुदाहृतम्। भजनीयमथेदानीमैश्वरं रूपमीर्यते।।1।।पूर्वाध्यायान्ते मद्गतेनान्तरात्मना यो मां भजते स मे युक्ततमो मत इत्युक्तं तत्र कीदृशस्त्वं यस्य भक्तिः कर्तव्येत्यपेक्षायां स्वस्वरूपं निरूपयिष्यञ्श्रीभगवानुवाच मय्यासक्तमना इति। मयि परमेश्वरे आसक्तमभिनिविष्टं मनो यस्य सः। मदाश्रयोऽहमेवाश्रयो यस्यानन्यशरणः सन्योगं युञ्जन्नभ्यसन् असंशयं यता भवत्येवं मां समग्रं विभूतिबलैश्वर्यादिसहितं यथा ज्ञास्यसि तदिदं मया वक्ष्यमाणं शृणु।
।।7.1।।षट्कसङ्गतिमाह प्रथमेनेति।परमेत्यादिना वक्तुमित्यन्तेन द्वितीयषट्कार्थ उक्तः। ततः परं प्रथमषट्कार्थः। प्रथमेनाध्यायषट्केनोक्तमित्यन्वयः।मामुपेत्य 8।16 इत्यादीनामर्थं दर्शयति परमप्राप्यभूतस्येति। तेन परिशुद्धजीवमात्रव्यावर्तनम्। परमप्राप्यत्वे हेतुः परब्रह्मत्वादिकम्।परं ब्रह्म परं धाम 10।12 इत्यादिकं वक्ष्यति। पुरुषोत्तमत्वप्रकरणादीनामर्थो निरवद्यत्वम्। एतेनाचिद्गता विकारादयः चिद्गताः क्लेशादयश्च परिहृताः।अहं सर्वस्य प्रभवः 10।8़ इत्यादेरर्थमाह निखिलेति। चिदचिदात्मकं सर्वं जगत्प्रतिनिमित्तोपादानभूतस्येत्यर्थः। एवं परमप्राप्यस्यैव कारणत्वप्रतिपादनाद्व्योमातीतमतन्निरस्तम्। निमित्तोपादानत्वोपयुक्तंमत्तः परतरम् 7।7 इत्याद्यभिप्रेतं सर्वज्ञत्वादिकम्।सर्वभूतस्य सर्वान्तर्यामितया सर्वशरीरकस्येत्यर्थः।सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः 11।40 इति हि वक्ष्यति।भूमिरापः 7।4 इत्यादिना विभूत्यध्यायादिना (10) च वक्ष्यमाणं महाविभूतित्वं नारायणशब्दनिर्वचनमपिपरमप्राप्यभूतस्य महाविभूतेरित्यादिना सूचितम्। एतदुक्तं भवति परत्वान्निरवद्यत्वात्पितृत्वाद्धितवेदनात्। अन्तरात्मतया दोषप्रतिक्षेपक्षमत्वतः। भोगलीलार्थनिस्सीमविभूतिद्वययोगतः। श्रीमत्वादप्युपास्योऽयं प्राप्यो नारायणः परः।। इति।प्राप्त्युपायभूतं तदुपासनमिति परमात्मोपासनमेव तत्क्रतुन्यायात्तत्प्राप्त्युपायः जीवज्ञानं कर्मानुष्ठानं च तन्निवर्तकत्वेन परम्परयोपाय इति भावः। अङ्गप्राप्त्रोर्वचनानन्तरमङ्गिप्राप्ययोः प्रतिपादनमिति सङ्गत्यभिप्रायेणाह इदानीमिति। पूर्वोक्तात्परिशुद्धात्मनो व्यावृत्तिं वक्ष्यमाणवैभवसङ्ग्रहं चाभिप्रेत्याह परब्रह्मभूतपरमपुरुषस्वरूपमिति एतेन तत्त्वपरेषु सामान्यब्रह्मशब्दस्य विशेषे स्थितिर्दर्शिता अथ मोक्षोपायपरेषु वेदान्तवाक्येषु वेदनोपासनादिशब्दानां विशेषपर्यवसानमाह तदुपासनं च भक्तिशब्दवाच्यमिति। एवं वाक्यद्वयेन षटुद्वयसङ्ग्रश्लोकावप्यर्थाद्व्याख्यातौ। तथाहिज्ञानकर्मात्मिके निष्ठे योगलक्षे सुसंस्कृते। आत्मानुभूतिसिद्ध्यर्थे पूर्वषट्केन चोदिते। मध्यमे भगवत्तत्त्वयाथात्म्यावाप्तिसिद्धये। ज्ञानकर्माभिनिर्वर्त्यो भक्तियोगः प्रकीर्तितः गी.सं.2।3 इति।आत्मज्ञानपूर्वकेत्यनेन सुसंस्कृतशब्दो व्याख्यातः। बुद्धिविशेषसंस्कृतत्वं हि प्रागेवोपपादितम्।योगलक्षे आत्मानुभूतिसिद्ध्यर्थे इत्यत्र योगो विषयान्तरेभ्यश्चित्तवृत्तिनिरोधः तज्जन्यसाक्षात्कारस्त्विहात्मानुभूतिशब्देनोच्यत इत्यपौनरुक्त्यमित्यभिप्रायेणयाथात्म्यदर्शनमित्युक्तम्। तत्त्वयाथात्म्यशब्दविवरणंपरब्रह्मभूतेत्यादि। तत्त्वशब्दोऽत्र स्वरूपपरः। याथात्म्यं यथावस्थितः प्रकारः। भक्तेः कर्मानुष्टानसाध्यात्मदर्शनहेतुकत्वं अष्टादशे वक्ष्यत इत्याहतदेतदिति। ननु तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति श्वे.उ.3।86।15 इत्यादिबलाद्वेदनमात्रेण मोक्षः प्रतीयते अस्तु वाउपासीत इति बलादुपासनरूपेण वेदनेन मोक्षः तथापि न भक्त्या मोक्ष इति क्वचिदपि श्रुतम्।कर्मसमुच्चयश्च श्रुतिसिद्धो दुस्त्यजः परमपुरुषविषयस्यैवोपासनस्य मोक्षसाधनत्वमित्यपि दुर्वचम् रुद्रेन्द्राद्युपासनस्यापि मोक्षसाधनत्वेनाथर्वशिरःप्रतर्दनविद्यादिषु श्रुतेरित्याद्याशङ्क्याऽऽह उपासनं त्विति। उपासनमेव न तु ज्ञानमात्रमित्येका प्रतिज्ञा तत्रापि भक्तिरूपापन्नं नोपासनमात्रमिति द्वितीया एवंविधमुपासनमेव न तु कर्मसमुच्चितमिति तृतीया तच्च परविषयमेवेति चतुर्थी। एषा तुपरमप्राप्त्युपायभूतमित्यनेन तत्क्रतुन्यायात्सूचिता।वेदान्तवाक्यसिद्धमिति एतच्चतुष्टयमपि वेदान्तवाक्यैरेव सिद्धम् न तु कल्प्यम् नाप्युपबृंहणसापेक्षमिति भावः। तत्र प्रथमां प्रतिज्ञां समर्थयते तमेवेत्यादिना अवगम्यत इत्यन्तेन। श्रोतव्यो मन्तव्यः बृ.उ.2।4।5 इत्येतयोस्तु रागप्राप्तश्रवणमननानुवादरूपत्वात्तत्परित्यागेन द्रष्टव्यः ৷৷. निदिध्यासितव्यः इति विध्यंश उपात्तः। ध्यानोपासनशब्दयोरत्रैकार्थ्यं दर्शयितुमुभयविशिष्टवाक्योपादानम्। द्रष्टव्यः ৷৷. निदिध्यासितव्यः इत्यनयोर्भिन्नार्थत्वप्रसिद्धेरेकवाक्यस्थयोरेकार्थत्वं पौनरुक्त्यादिदोषाच्च दर्शनं ध्यानं च पृथगेव विहितमिति शङ्कायां तयोरपि सामान्यविशेषन्यायविशेषेणैकार्थ्यमेवेति दर्शयितुं स्मृतिमात्रं दर्शनमात्रं च पृथक्सर्वग्रन्थिमोक्षहेतुतया वदतोरत एवैकार्थविषययोर्वाक्ययोरुपादानम्। एतदुक्तं भवति समानप्रकरणपठितविशेषे सामान्यशब्दानां पर्यवसानं न्यायसिद्धम् अतोऽत्र वेदनादिसामान्यशब्दानां ध्यानोपासनशब्दवाच्ये विशेषे पर्यवसानमभ्युपेयम् ध्यानं च तैलधारावदविच्छिन्नस्मृतिसन्ततिरूपमिति ध्रुवा स्मृतिः छ
।।7.1।।भगवद्योगयुक्तात्मा युक्तो रूपप्रबोधने। अतः पार्थाय श्रीकृष्णः स्वरूपज्ञानमुक्तवान्।।1।।पूर्वाध्यायान्तेश्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः 6।47 इति योगसहितस्वभजनकर्त्तुरुत्तमत्वं स्वाभिमतत्वमुक्तं तत्र स्वरूपाज्ञाने भजनं न भवेत् तज्ज्ञानं च योगज्ञानोत्तरभावीति योगस्वरूपमुक्त्वा अथ भजनार्थं स्वरूपज्ञानमाह श्रीभगवानुवाच मय्यासक्तमना इति। हे पार्थ एतच्छ्रवणयोग्य मदाश्रयः मदर्थमेवाऽनन्यशरणः सन् मत्क्रीडार्थं संयोगार्थमाश्रयं कृत्वा योगं युञ्जन् दास्याभ्यासं कुर्वन् असंशयं संशयरहितं यथा स्यात्तथा समग्रं संयोगात्मकं सर्वरससहितं मां यथा ज्ञास्यसि तदिदमग्रे वक्ष्यमाणं ज्ञानस्वरूपं मय्यासक्तमनाः मयि आसक्तं स्वापेक्षारहितं मत्सुखाभिलाषिमनाः शृणु।
।।7.1।।पूर्वाध्यायान्ते यो मां भजते स मे युक्ततमो मत इत्युक्तम् तत्र कीदृशं पूर्वोक्तनिष्कामकर्मयोगापेक्षया विलक्षणं तव भजनं केन वा गुणेन पूर्वयोगापेक्षया तस्य युक्ततमत्वमित्येतामर्जुनस्याशङ्कां स्वयमेव परिहरन् भगवानुवाच मयीति। कश्चिद्राजाश्रयो धनमानासक्तमना भवति। अयं तु मदाश्रयेण मामेव परमपुरुषार्थभूतं प्राप्तुमिच्छन्नित्यर्थः। ईदृशो योगं युञ्जन्समाधिमनुतिष्ठन् त्वंपदार्थविवेककाले यद्यपि सार्वज्ञ्यमस्तिसर्वभूतस्थमात्मानम् इत्यादिवचनात्तथापि स्वस्मादन्य ईश्वरोऽस्ति नवेति पातञ्जलकापिलयोस्तार्किकमीमांसकयोर्वा सेश्वरानीश्वरयोर्मतभेदात्संशयः कारणाज्ञानाच्चासमग्रं तत्सार्वज्ञ्यमिति मत्वा आह असंशयं समग्रमिति। मां तत्पदार्थमीश्वरं यथा ज्ञास्यसि तत् तं प्रकारं शृणु। अत्र वक्ष्यमाणरीत्या सर्वं ब्रह्म वासुदेवात्मकमिति भजने वैलक्षण्यं कारणज्ञातृत्वमस्य योगिनः पूर्वयोग्यपेक्षयाधिक्यमिति भावः।
।।7.1।। यतो जातं येन स्थितमिदमशेषं प्रविलयं प्रयात्याद्ये यस्मिञ्श्रुतिभिरुदिते जन्तव इमे। भवत्येकं ब्रह्मामलममृतामाराध्य यमहं शिवं रासं कृष्णं तमजमजरं नौम्यखिलगम्।।1।।एवं त्वंपदार्थ निरुप्य तत्पदार्थ निरुपयितुं पूर्वाध्यायान्तेयोगिनामपि सर्वेषां मद्भतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्तातमो मतः इत्युक्तं तत्रेदृशं मदीयं तत्त्वमनेन प्रकारेण मद्भतान्तरात्मा स्यादित्येतद्वक्तुमिच्छुः श्रीमगवानुवाच। मयि वक्ष्यमाणविशेषणे परमेश्वरे आसक्तं मनो यस्य सः। मयि मनआसक्तिसंपादनं तव सुलभमिति सूचयन्नाह पार्थेति। योगं युञ्चन्मःसमाधानं कुर्वन्मदाश्रयः अहमेव परमेश्वर आश्रयो यस्य तु नतु कस्मैचित्पुरुषार्थायेहामुत्रभ्याय राज्यादिर्यज्ञदानादिर्वा आश्रयो यस्य सः त्वमप्यासक्तमना मदाश्रयः सन् असंशयं यथा स्यात्तथा मां यथा येन प्रकारेण ज्ञास्यसि तं वक्ष्यमाणप्रकारं श्रृणु। ननु मदग्ने भवान् स्थितोऽसंशयं मया ज्ञायत एवातः किमिदमुच्यत इत्याशङ्क्याह समग्मिति। समस्तविभतिबलशक्त्यैश्वर्यादिगुणसंपन्नं सगुणं निर्गुणं च मामसंशयं यथा ज्ञास्यसि तच्छृण्वित्यर्थः।
7.1 मयि on Me? आसक्तमनाः with mind intent? पार्थ O Partha? योगम् Yoga? युञ्जन् practising? मदाश्रयः taking refuge in Me? असंशयम् without doubt? समग्रम् wholly? माम् Me? यथा how? ज्ञास्यसि shall know? तत् that? श्रृणु hear.Commentary He who wishes to attain some result or reward performs the ritual known as Agnihotra or does charity? sinks wells? builds hospitals? resting places? etc.? with Sakama Bhavana (with an inner profit motive) and attains them. But the Yogi on the contrary practises Yoga with a steadfast mind and takes refuge in the Lord alone? with the mind wholly fixed on Him? on His lofty attributes such as omnipotence? omniscience? omnipresence? infinite love? beauty? grace? strength? mercy? inexhaustible wealth? ineffable splendour? pristine glory and purity.The servant of a king? though he constantly serves the king? has not got his mind fixed on him. The mind is ever fixed on his wife and children. Unlike the servant? fix your mind on Me? (the allpervading One)? and take refuge in Me alone. Practise control of the mind in accordance with the instructions given in chapter VI. Then you will know Me and My infinite attributes in full.If you sing the glory and the attributes of the Lord? you will develop love for Him and then your mind will be fixed on Him. Intense love for the Lord is real devotion. You must get full knowledge of the Self without any doubt.He who has taken refuge in the Lord? and he who is trying to fix or has fixed his mind on the Lord cannot bear the separation from the Lord even for a second.
7.1 The Blessed Lord said O Arjuna, hear how you shall without doubt know Me fully, with the mind intent on Me, practising Yoga and taking refuge in Me.
7.1 "Lord Shri Krishna said: Listen, O Arjuna! And I will tell thee how thou shalt know Me in my Full perfection, practising meditation with thy mind devoted to Me, and having Me for thy refuge.
7.1 The Blessed Lord said O Partha, hear how you, having the mind fixed on Me, practising the Yoga of Meditation and taking refuge in Me, will know Me with certainly and in fulness.
7.1 O Partha, mayi asaktamanah, having the mind fixed on Me- one whose mind (manah) is fixed (asakta) on Me (mayi) who am the supreme God possessed on the alification going to be spoken of-. Yogam yunjan, practising the Yoga of Meditation, concentrating the mind-. Madasrayah, taking refuge in Me-one to whom I Myself, the supreme Lord, am the refuge (asraya) is madasrayah-. Anyone who hankers after some human objective resorts to some rite such as the Agnihotra etc., austerity or charity, which is the means to its attainment. This yogi, however, accepts only Me as his refuge; rejecting any other means, he keeps his mind fixed on Me alone. Srnu, hear; tat, that, which is being spoken of by Me; as to yatha, how, the process by which; you who, having become thus, jnasyasi, will know; mam, Me; asamsayam, with certainty, without doubt, that the Lord is such indeed; and samagram, in fullness, possessed of such alities as greatness, strength, power, majesty, etc. [Strength-physical; power-mental; etc. refers to omniscience and will.] in their fullness.
7.1. The Bhagavat said O son of Prtha, hear [from Me] how, having your mind attached to Me, practising Yoga and taking refuge in Me, you shall understand Me fully, without any doubt.
7.1 See comment under 7.2
7.1 The Lord said Listen attentively to My words imparting knowledge to you, by which you will understand Me indubitably and fully - Me, the object of the Yogic contemplation in which you are engaged with a mind so deeply bound to Me by virtue of overwhelming love that it would disintegrate instantaneously the moment it is out of touch with My essential nature, attributes, deeds and glories, and with your very self resting so completely on Me that it would break up when bereft of Me.
7.1 The Lord said With your mind focussed on Me, having Me for your support and practising Yoga - how you can without doubt know Me fully, hear, O Arjuna.
।।7.1।।इस श्लोकद्वारा छठे अध्यायके अन्तमें प्रश्नके बीजकी स्थापना करके फिर स्वयं ही ऐसा मेरा तत्त्व हे इस प्रकार मुझमें स्थित अन्तरात्मावाला हो जाना चाहिये इत्यादि बातोंका वर्णन करनेकी इच्छावाले भगवान् बोले आगे कहे जानेवाले विशेषणोंसे युक्त मुझ परमेश्वरमें ही जिसका मन आसक्त हो वह मय्यासक्तमना है और मैं परमेश्वर ही जिसका ( एकमात्र ) अवलम्बन हूँ वह मदाश्रय है हे पार्थ ऐसा मय्यासक्तमना और मदाश्रय होकर तू योगका साधन करताहुआ अर्थात् मनको ध्यानमें स्थित करता हुआ ( जिस प्रकार मुझको संशयरहित समग्ररूपसे जानेगा सो सुन ) जो कोई ( धर्मादि पुरुषार्थोंमेंसे ) किसी पुरुषार्थका चाहनेवाला होता है वह उसके साधनरूप अग्निहोत्रादि कर्म तप या दानरूप किसी एक आश्रयको ग्रहण किया करता है परंतु यह योगी तो अन्य साधनोंको छोड़कर केवल मुझको ही आश्रयरूपसे ग्रहण करता है और मुझमें ही आसक्तचित्त होता है। इसलिये तू उपर्युक्त गुणोंसे सम्पन्न होकर विभूति बल ऐश्वर्य आदि गुणोंसे सम्पन्न मुझ समग्र परमेश्वरको जिस प्रकार संशयरहित जानेगा कि भगवान् निस्सन्देह ठीक ऐसा ही है वह प्रकार मैं तुझसे कहता हूँ सुन।
।।7.1।। मयि वक्ष्यमाणविशेषणे परमेश्वरे आसक्तं मनः यस्य सः मय्यासक्तमनाः हे पार्थ योगं युञ्जन् मनःसमाधानं कुर्वन् मदाश्रयः अहमेव परमेश्वरः आश्रयो यस्य सः मदाश्रयः। यो हि कश्चित् पुरुषार्थेन केनचित् अर्थी भवति स तत्साधनं कर्म अग्निहोत्रादि तपः दानं वा किञ्चित् आश्रयं प्रतिपद्यते अयं तु योगी मामेव आश्रयं प्रतिपद्यते हित्वा अन्यत् साधनान्तरं मय्येव आसक्तमनाः भवति। यः त्वं एवंभूतः सन् असंशयं समग्रं समस्तं विभूतिबलशक्त्यैश्वर्यादिगुणसंपन्नं मां यथा येन प्रकारेण ज्ञास्यसि संशयमन्तरेण एवमेव भगवान् इति तत् श्रृणु उच्यमानं मया।।तच्च मद्विषयम्
।।7.1।।ज्ञानसाधनादन्यदुत्तराध्यायप्रतिपाद्यं वक्तुंयोगे त्विमां शृणु 2।39 इति प्रतिज्ञातमसमाप्य कथमर्थान्तरमुच्यते। इत्याशङ्कां तावत्परिहरति साधनमिति। ज्ञानस्येति शेषः। तत्र तत्र भगवन्महिम्नोऽपि वर्णितत्वेन प्राधान्येनेत्युक्तम्। प्राचुर्येणेत्यर्थः।उक्तं इत्यनेन प्रतिज्ञातसमाप्तिं सूचयति। तच्च प्रतिज्ञान्तरकरणादवगम्यते। इदानीमुत्तरग्रन्थप्रतिपाद्यमाह उत्तरैस्त्विति। अध्यायैरिति वर्तते। अनेन ज्ञानविज्ञानशब्दौ ज्ञेयभगवन्माहात्म्यपराविति सूचितम्। अत्रापि क्वचित्साधनस्योक्तत्वात्प्राधान्येन इत्युक्तम्। सङ्गतिस्तु प्रथमश्लोक एवोक्ता अनेन द्विविधेन योगेन यज्ज्ञातव्यं तच्छृण्वित्युक्तत्वात्।आसक्तमनाः सम्बद्धमनाः इति प्रतीतिनिरासायाह आसक्तेति।अतीव इत्याङोऽर्थः सम्बन्धमात्रस्य योगानङ्गत्वादिति भावः। भगवदाश्रयत्वं सर्वसाधारणं कथं योगिनो विशेषणम्। इत्यत आह मदाश्रय इति। शरणं रक्षकः। इति स्थित इति जानन्निति यावत्।असंशयं समग्रं इत्युभयं भगवद्विशेषणत्वेन भास्करो व्याख्यातवान् संशयरहितं समग्रं कृत्स्नं मां इति। अपरस्तु (शां.) समग्रमित्येवसमग्रं समस्तं विभूतिबलशक्त्यैश्वर्यादिगुणसम्पन्नं मां ৷৷. संशयमन्तरेण इति तन्निरासार्थमाह असंशयमिति तच्च समग्रं यथा भवति तथेत्यर्थः। न हि भगवतः संशयराहित्यमिदानीं वक्तव्यम्। न च भगवान्समग्रोऽन्येन केनचिच्छक्यो ज्ञातुम्स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं वेत्थ त्वं 10।15 इति वक्ष्यमाणत्वादिति भावः।
।।7.1।।श्रीमद्वरदराजाय नमः। ँ़। साधनं प्राधान्येनोक्तमतीतैरध्यायैः उत्तरैरस्तु षड्भिर्भगवन्माहात्म्यं प्राधान्येनाह मयीति। आसक्तमना अतीव स्नेहयुक्तमनाः। मदाश्रयः भगवानेव सर्वं मया कारयति स एव मे शरणम् तस्मिन्नेवाहं स्थित इति स्थितः। असंशयं समग्रमिति क्रियाविशेषणम्।
श्री भगवानुवाच मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः। असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।7.1।।
শ্রী ভগবানুবাচ ময্যাসক্তমনাঃ পার্থ যোগং যুঞ্জন্মদাশ্রযঃ৷ অসংশযং সমগ্রং মাং যথা জ্ঞাস্যসি তচ্ছৃণু৷৷7.1৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ ময্যাসক্তমনাঃ পার্থ যোগং যুঞ্জন্মদাশ্রযঃ৷ অসংশযং সমগ্রং মাং যথা জ্ঞাস্যসি তচ্ছৃণু৷৷7.1৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ મય્યાસક્તમનાઃ પાર્થ યોગં યુઞ્જન્મદાશ્રયઃ। અસંશયં સમગ્રં માં યથા જ્ઞાસ્યસિ તચ્છૃણુ।।7.1।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਮਯ੍ਯਾਸਕ੍ਤਮਨਾ ਪਾਰ੍ਥ ਯੋਗਂ ਯੁਞ੍ਜਨ੍ਮਦਾਸ਼੍ਰਯ। ਅਸਂਸ਼ਯਂ ਸਮਗ੍ਰਂ ਮਾਂ ਯਥਾ ਜ੍ਞਾਸ੍ਯਸਿ ਤਚ੍ਛਰਿਣੁ।।7.1।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಮಯ್ಯಾಸಕ್ತಮನಾಃ ಪಾರ್ಥ ಯೋಗಂ ಯುಞ್ಜನ್ಮದಾಶ್ರಯಃ. ಅಸಂಶಯಂ ಸಮಗ್ರಂ ಮಾಂ ಯಥಾ ಜ್ಞಾಸ್ಯಸಿ ತಚ್ಛೃಣು৷৷7.1৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച മയ്യാസക്തമനാഃ പാര്ഥ യോഗം യുഞ്ജന്മദാശ്രയഃ. അസംശയം സമഗ്രം മാം യഥാ ജ്ഞാസ്യസി തച്ഛൃണു৷৷7.1৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ମଯ୍ଯାସକ୍ତମନାଃ ପାର୍ଥ ଯୋଗଂ ଯୁଞ୍ଜନ୍ମଦାଶ୍ରଯଃ| ଅସଂଶଯଂ ସମଗ୍ରଂ ମାଂ ଯଥା ଜ୍ଞାସ୍ଯସି ତଚ୍ଛୃଣୁ||7.1||
śrī bhagavānuvāca mayyāsaktamanāḥ pārtha yōgaṅ yuñjanmadāśrayaḥ. asaṅśayaṅ samagraṅ māṅ yathā jñāsyasi tacchṛṇu৷৷7.1৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச மய்யாஸக்தமநாஃ பார்த யோகஂ யுஞ்ஜந்மதாஷ்ரயஃ. அஸஂஷயஂ ஸமக்ரஂ மாஂ யதா ஜ்ஞாஸ்யஸி தச்சரிணு৷৷7.1৷৷
శ్రీ భగవానువాచ మయ్యాసక్తమనాః పార్థ యోగం యుఞ్జన్మదాశ్రయః. అసంశయం సమగ్రం మాం యథా జ్ఞాస్యసి తచ్ఛృణు৷৷7.1৷৷
7.2
7
2
।।7.2।। तेरे लिये मैं विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्णतासे कहूँगा, जिसको जाननेके बाद फिर यहाँ कुछ भी जानना बाकी नहीं रहेगा।
।।7.2।। मैं तुम्हारे लिए विज्ञान सहित इस ज्ञान को अशेष रूप से कहूँगा जिसको जानकर यहाँ (जगत् में) फिर और कुछ जानने योग्य (ज्ञातव्य) शेष नहीं रह जाता है।।
।।7.2।। श्री शंकराचार्य के अनुसार शास्योक्त पदार्थों का परिज्ञान ज्ञान है तथा शास्त्र से ज्ञात तत्त्व का यथार्थ रूप में स्वानुभव होना विज्ञान है। जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को वचन देते हैं कि वे न केवल शास्त्रीय सिद्धांतों का वर्णन करेंगे वरन् प्रवचनकाल में ही वे उसे आत्मानुभव के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचा भी देंगे। उनका यह कथन कुछ अविश्वसनीय प्रतीत हो सकता है क्योंकि योग साधना तथा भारतीय दर्शन की अन्य शाखाओं में साधक को लक्ष्य का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् उसकी प्राप्ति के लिये विशेष साधना करनी होती है। परन्तु वेदान्त शास्त्र इनसे भिन्न है क्योंकि इसमें साधक को उसके नित्यसिद्ध स्वरूप का ही बोध कराया गया है न कि स्व्ायं से भिन्न किसी वस्तु का। अत एक सुयोग्य विद्यार्थी को उपदेश ग्रहण के पश्चात् आत्मानुभव के लिये कहीं किसी वन प्रान्त में जाने की आवश्यकता नहीं होती है।यदि शिष्य ज्ञान के लिये आवश्यक गुणों से सम्पन्न है और गुरु के बताये हुए तर्कों को समझने में समर्थ है तो उसे अध्ययन काल में ही आत्मानुभव हो सकता है। यही कारण है कि वेदान्त केवल सुयोग्य विद्यार्थियों को ही पढ़ाया जाता है। उत्तम शिष्य के लिये आत्मानुभूति तत्काल प्राप्य है। उसे कालान्तर अथवा देशान्तर की अपेक्षा नहीं होती।यदि वेदान्त एक पूर्ण शास्त्र है और उपदेश काल में ही आत्मानुभव सिद्ध हो सकता है तो फिर क्या कारण है कि विश्वभर में ऐसे ज्ञानी पुरुष विरले ही होते हैं भगवान् कहते हैं
।।7.2।। व्याख्या--'ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः'--भगवान् कहते हैं कि भैया अर्जुन! अब मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा (टिप्पणी प0 392.1), तुम्हें कहूँगा और मैं खुद कहूँगा तथा सम्पूर्णतासे कहूँगा। ऐसे तो हरेक आदमी हरेक गुरुसे मेरे स्वरूपके बारेमें सुनता है और उससे लाभ भी होता है; परन्तु तुम्हें मैं स्वयं कह रहा हूँ। स्वयं कौन? जो समग्र परमात्मा है, वह मैं स्वयं! मैं स्वयं मेरे स्वरूपका जैसा वर्णन कर सकता हूँ, वैसा दूसरे नहीं कर सकते; क्योंकि वे तो सुनकर और अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करके ही कहते हैं (टिप्पणी प0 392.2)। उनकी बुद्धि समष्टि बुद्धिका एक छोटा-सा अंश है, वह कितना जान सकती है !वे तो पहले अनजान होकर फिर जानकार बनते हैं, पर मैं सदा अलुप्तज्ञान हूँ। मेरेमें अनजानपना न है, न कभी था, न होगा और न होना सम्भव ही है। इसलिये मैं तेरे लिये उस तत्त्वका वर्णन करूँगा, जिसको जाननेके बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा। दसवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें अर्जुन कहते हैं कि आप अपनी सब-की-सब विभूतियोंको कहनेमें समर्थ हैं--'वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः' तो उसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं कि मेरे विस्तारका अन्त नहीं है इसलिये प्रधानतासे कहूँगा--'प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे'(10। 19)। फिर अन्तमें कहते हैं कि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है--'नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप' (10। 40)। यहाँ (7। 2 में) भगवान् कहते हैं कि मैं विज्ञानसहित ज्ञानको सम्पूर्णतासे कहूँगा, शेष नहीं रखूँगा--'अशेषतः।' इसका तात्पर्य यह समझना चाहिये कि मैं तत्त्वसे कहूँगा। तत्त्वसे कहनेके बाद कहना, जानना कुछ भी बाकी नहीं रहेगा।दसवें अध्यायमें विभूति और योगकी बात आयी कि भगवान्की विभूतियोंका और योगका अन्त नहीं है। अभिप्राय है कि विभूतियोंका अर्थात् भगवान्की जो अलग-अलग शक्तियाँ हैं, उनका और भगवान्के योगका अर्थात् सामर्थ्य, ऐश्वर्यका अन्त नहीं आता। रामचरितमानसमें कहा है--
।।7.1 7.2।।मय्यासक्तेति ज्ञानमिति। ज्ञानविज्ञाने ज्ञानक्रिये एव। ततो न किञ्चिदवशिष्यते सर्वस्य ज्ञेयजातस्य ज्ञानक्रियानिष्ठत्वात्।
।।7.2।।अहं ते मद्विषयम् इदं ज्ञानं विज्ञानेन सह अशेषतो वक्ष्यामि। विज्ञानं हि विविक्ताकारविषयं ज्ञानम् यथा अहं मद्व्यतिरिक्तात् समस्तचिदचिद्वस्तुजातात् निखिलहेयप्रत्यनीकतया अनवधिकातिशयासख्येकल्याणगुणगणानन्तमहाविभूतितया च विविक्त तेन विविक्तविषयज्ञानेन सह मत्स्वरूपविषयज्ञानं वक्ष्यामि। किं बहुना यद् ज्ञानं ज्ञात्वा मयि पुनः अन्यद् ज्ञातव्यं न अवशिष्यते।वक्ष्यमाणस्य ज्ञानस्य दुष्प्रापताम् आह
।।7.2।।ज्ञास्यसीत्युक्त्या परोक्षज्ञानशङ्कायां तन्निवृत्त्यर्थं तदुक्तिप्रकारमेव विवृणोति तच्चेति। इदमपरोक्षं ज्ञानं चैतन्यम्। तस्य सविज्ञानस्य प्रतिलम्भे किं स्यादित्याशङ्क्याह यज्ज्ञात्वेति। इदमा चैतन्यस्य परोक्षत्वं व्यावर्त्यते। तदेव सविज्ञानमिति विशेषणेन स्फुटयति। अनवशेषेण तद्वेदनफलोपन्यासेन श्रोतारं तच्छवणप्रवणं करोति तज्ज्ञानमिति। एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानश्रुतिमाश्रित्योत्तरार्धतात्पर्यमाह यज्ज्ञात्वेति। भगवत्तत्त्वज्ञानस्य विशिष्टफलत्वमुक्त्वा फलितमाह अत इति।
।।7.2।।वक्ष्यमाणं स्तौति ज्ञानमिति। माहात्म्यविषयकं ज्ञानं विज्ञानं विविधतया चिदचिद्रूपतया च तत्तद्विभूतिधर्मरूपतयाऽवान्तरविशेषैश्च यथार्थज्ञानं तेन सहितं अशेषतो वक्ष्यामि। यद्याथात्म्यं ज्ञात्वा भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमविशष्टं न भवति।
।।7.2।।ज्ञास्यसीत्युक्ते परोक्षमेव तज्ज्ञानं स्यादिति शङ्कां व्यावर्तयन्स्तौति श्रोतुराभिमुख्याय इदं मद्विषयं स्वतोऽपरोक्षज्ञानम् असंभावनादिप्रतिबन्धेन फलमजनयत्परोक्षमित्युपचर्यते। असंभावानादिनिरासे तु विचारपरिपाकान्ते तेनैव प्रमाणेन जनितं ज्ञानं प्रतिबन्धाभावात्फलं जनयदपरोक्षमित्युच्यते। विचारपरिपाकनिष्पन्नत्वाच्च तदेव विज्ञानं तेन विज्ञानेन सहितमिदमपरोक्षमेव ज्ञानं शास्त्रजन्यं ते तुभ्यमहं परमाप्तो वक्ष्याम्यशेषतः साधनफलादिसहितत्वेन निरवशेषं कथयिष्यामि। श्रौतीमेकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञामनुसरन्नाह यज्ज्ञानं नित्यचैतन्यरूपं ज्ञात्वा वेदान्तजन्यमनोवृत्तिविषयीकृत्येह व्यवहारभूमौ भूयः पुनरपि अन्यत्किंचिदपि ज्ञातव्यं नावशिष्यते। सर्वाधिष्ठानसन्मात्रज्ञानेन कल्पितानां सर्वेषां बाधे सन्मात्रपरिशेषात्तन्मात्रज्ञानेनैव त्वं कृतार्थो भविष्यसीत्यभिप्रायः।
।।7.2।।वक्ष्यमाणं स्तौति ज्ञानमिति। ज्ञानं शास्त्रीयं विज्ञानमनुभवस्तत्सहितम्। इदं मद्विषयम्। अशेषतः साकल्येन वक्ष्यामि। यज्ज्ञात्वेह श्रेयोमार्गे वर्तमानस्य पुनरन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्टं न भवति। तेनैव कृतार्थो भवतीत्यर्थः।
ां.उ.7.26।2 इत्यादिसिद्धम् सा च ध्रुवा स्मृतिः सर्वग्रन्थिविप्रमोक्षहेतुतया विहिता दर्शनं च तद्धेतुतया विहितम् न चेदमुपायद्वयं गुरुलघुतारतम्यात् फलस्य चाविशिष्टत्वाल्लघौ सति नियमेन गुरोरपरिग्रहेणानुपायत्वप्रसङ्गात् न च द्वारद्वारिभावः एकस्मिन्वाक्ये विशिष्टैकविधिसम्भवे पृथग्विधेः परिग्रहायोगात् न च दर्शने स्मृतिशब्देनोपचारे कश्चिद्गुणः अतो ध्रुवा स्मृतिरेव दर्शनशब्देन विशेषिता स्मृतेश्च दर्शनसमानत्वं नाम विशदतमतया दर्शनसमानाकारत्वमेव। भवति च स्मृतेर्भावनाप्रकर्षाद्दर्शनसमानाकारता भीरुकामुकादिषु। यथावृक्षे वृक्षे च पश्यामि चीरकृष्णाजिनाम्बरम्। गृहीतधनुषं रामं पाशहस्तमिवान्तकम् वा.रा.3।14।15 इत्यादि। तथालीनेव प्रतिबिम्बितेव मा.मा.अं.5 इत्यादि। एवं च स्मृतिदर्शनशब्दयोरैकार्थ्ये सिद्धे द्रष्टव्यः ৷৷. निदिध्यासितव्यः इत्यनयोरेकवाक्यस्थयोरपि सामान्यविशेषरूपेणैकार्थ्यमेवेति।अथ द्वितीयां प्रतिज्ञामुपपादयितुमाह पुनश्चेति। एतदुक्तं भवतिनायमात्मा इत्यादिना केवलश्रवणमनननिदिध्यासननिषेधः अत्यन्तनिषेधे त्वनेकप्रमाणविरोधात्। यमेवैषः इत्यादिनापि वरणीयत्वहेतुभूतस्वक्रियासाध्यो गुणविशेषो विधीयते ईश्वरस्वाच्छन्द्यमात्राभिधाने वैषम्यनैर्घृण्यादिदोषप्रसङ्गाच्छास्त्रानर्थक्याच्च। तथा सिद्धगुणाभिधानेऽपि शास्त्रानर्थक्यमेव विधेयान्तराभावात्। स च वरणीयताहेतुः साध्यो गुणो भक्तिरेव। प्रियतम एव हि वरणीयो भवति। परमात्मविषयप्रीतिमानेव च परमात्मना वरणीयः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः 7।17 इति स्ववचनादिभिस्तथावगतेः इति। तस्याश्च प्रीतेः स्वयमपि स्वावृतमत्वमुपायान्तरेष्वदृष्टपूर्वं दर्शयतिस्मर्यमाणेत्यादिना।तेषु तेष्वच्युता भक्तिरच्युताऽस्तु सदा त्वयि वि.पु.1।20।18 इत्यारभ्यया प्रीतिरविवेकानाम् वि.पु.1।20।19क्व नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम्। क्व जपो वासुदेवेति मुक्तिबीजमनुत्तमम् वि.पु.2।6।44 इत्यादिभिर्भगवद्भक्ते स्वादुतमत्वं सिद्धम्। स्मृतिः सन्तन्यते यत्रेति वा स्मृतेः सन्तानो यत्रेति वा स्मृतिसन्तानशब्देन प्रकृतं वेदनं विशेष्यते इति नपुंसकत्वोपपत्तिः। पुँल्लिङ्गतया वा पठितव्यम्। अस्त्वेवं तथापि भक्तेर्मोक्षोपायत्वं कथमित्यत्राह तदेव हीति। महनीयविषये प्रीतिरेव हि भक्तिरिति भावः। तत्र प्रमाणमाह स्नेहेति। महनीयविषये स्नेहपूर्वमनुध्यानमिति भाव्यम् अन्यथा स्नेहपूर्वस्वप्रियतमानुध्यानस्यापि भक्तित्वप्रसङ्गात्। एवं भक्तिरूपत्वानभ्युपगमे श्रुतिस्मृत्योः परस्परविरोधः।अभ्युपगमे तदुपबृंहणीयत्वोपबृंहणत्वाभ्यां परस्परानुकूल्यमित्यभिप्रायेणाह अत इति। वेदनशब्दनिर्दिष्टस्य मुक्त्युपायस्य भक्तिरूपत्वादित्यर्थः। परमपुरुषव्यतिरिक्तोपायनिषेधमुखेन तज्ज्ञानव्यतिरिक्तोपायनिषेधः श्रुतौ सिद्धः। तद्भक्तिव्यतिरिक्तोपायनिषेधः स्मृतौ। तदेतद्भक्तिवेदनशब्दयोरैकार्थ्ये हि घटते। अन्यथा तु मिथो व्याघात इति। एवं प्रतिज्ञाद्वयं कण्ठोक्त्योपपादितम् अन्यत्प्रतिज्ञाद्वयं त्वर्थतः स्थापितम्। तथा हि वेदनव्यतिरिक्तनिषेधात्समुच्चयपक्षो निरस्तः। कर्मापेक्षणं त्वङ्गतयेति तत्तद्वाक्यार्थनिरूपणेन सिद्धं भवति। श्वेताश्वतरपुरुषसूक्तवाक्यविषययोरेकविषयतयोपादानात्सर्वशाखागतपुरुषसूक्तवाक्यैकार्थ्यं सर्वोपनिषदां दर्शितम्। तत्रच महान् प्रभुर्वै पुरुषः सत्त्वस्यैष प्रवर्तकः श्वे.उ.3।12 इत्यादिबलात्पुरुषविषयत्वमेव व्यक्तम्। शिवादिशब्दास्तु शुद्धिगुणयोगादिना परमपुरुष एव मुख्याः। अथर्वशिरःप्रतर्दनविद्यादिष्वपि रुद्रेन्द्राद्यन्तर्यामिपरमपुरुषोपासनमेव विधेयमिति स्थापितं शारीरके।तत्रेति मध्यमषट्क इत्यर्थः।उपास्यभूतेत्यनेन प्रकृतसङ्गतिः सूचिता। उपास्यभूतः परमपुरुषो हि षष्ठाध्यायान्तिमश्लोकेमाम् 6।47 इति प्रसक्तः। एतेनस्वयाथात्म्यं प्रकृत्यास्य तिरोधिः शरणागतिः। भक्तभेदः प्रबुद्धस्य श्रैष्ठ्यं सप्तम उच्यते गी.सं.11 इति सङ्ग्रहश्लोकोऽपि व्याख्यातः।।अथ भजनीयतयामाम् 6।47 इति प्रस्तुतं स्वात्मानं भजननिर्वृत्तये यथावस्थितमुपदिशामीति भगवानुवाचमय्यासक्तमना इति।आसक्तः इत्यत्रोपासनार्थमाभिमुख्यमुपसर्गविवक्षितमित्याह आभिमुख्येनेति। तदेव सहेतुकं प्रपञ्चयति मत्प्रियत्वेत्यादिना। अहं प्रियः प्रीतिविषयो यस्य स मत्प्रियस्तस्य भावस्तत्त्वम्। यद्वा मम प्रियत्वातिरेकेण मत्प्रियत्वातिरेकेणेत्यर्थः।मद्विभूतिशब्देनात्र भगवदसाधारणपरिजनपरिबर्हभूषणादीनिगृह्यन्ते नतु विभूतिमात्रम् कदाचिदपि तद्विश्लेषायोगात्। यद्वा विभूतित्वेनाननुभवो विभूत्या विश्लेषः। स्वरूपादिभिरपि हि विश्लेषो यथाभिलषितानुभवाभाव एव।विशीर्यमाणस्वरूपतयेति कार्याक्षमत्वलक्षणशैथिल्येनेत्यर्थः। तेन चाप मनो विशेष्यते। पौनरुक्त्यप्रसङ्गं परिहर्तुंस्वयं चेत्युक्तम्।मदाश्रयः इत्यत्रअब्भक्षः इत्यादाविवावधारणं विवक्षितमिति दर्शयतिमदेकाधार इति मदनुभवैकधारक इत्यर्थः। योगोपकारकं भजनीयविषयतत्त्वज्ञानमिहोच्यते न तु योगस्य साक्षादनुष्ठानमित्यभिप्रायेणयुञ्जन् इति शत्रभिप्रेतमाहयोक्तुं प्रवृत्त इति। प्रारब्धापरिसमाप्तिरूपवर्तमाने प्रारम्भोऽत्र विवक्षित इति भावः। योगात्पूर्वमेव तत्त्वतो ज्ञातव्यत्वार्थंयोगविषयभूतमित्युक्तम्।असंशयं समग्रम् इत्युभयं क्रियाविशेषणम्। समग्रशब्दो निस्संशयत्वाय सर्वप्रकारविशिष्टत्वपर इति दर्शयितुंसकलपदम् विशेषदर्शनेन हि संशयनिवृत्तिः।तच्छृणु इति प्रतिनिर्देशवशादुत्तरश्लोकालोचनया उक्तिश्रवणयोरेकविषयत्वसिद्धेश्चात्रयथा इतिशब्दो ज्ञानपर इत्यभिप्रायेणयेन ज्ञानेनोक्तेन ज्ञास्यसीत्युक्तम्। उक्तेन वक्ष्यमाणवाक्यप्रतिपाद्येनेत्यर्थः। श्रूयमाणविषयस्यादृष्टचरत्वाच्छ्रोतुरवधानकरणं प्रथमश्लोकप्रयोजनमिति दर्शयति अवहितमना इति।।।7.2।।तच्छृणु इत्युक्तमर्थं पुनः सावधानत्वातिशयसम्पादनायाहमपि सर्वज्ञः सर्वशक्तिर्वक्ष्यामीति वदन्असंशयं समग्रं माम् 7।1 इत्युक्तमर्थं किञ्चिद्विशदयति ज्ञानं तेऽहम् इति श्लोकेन। ज्ञानविज्ञानशब्दयोः पौनरुक्त्यव्युदासाय उपसर्गसिद्धं विशेषं दर्शयति विज्ञानं विविक्ताकारविषयं ज्ञानमिति। अत्र ज्ञानविज्ञानशब्दाभ्यां तज्जनकवाक्यलक्षणा। श्रोतव्यत्ववक्तव्यत्वे वा तज्जनकवाक्यद्वारा तत्रोपचरिते।ज्ञानं ज्ञात्वेति ओदनपाकं पचतीतिवत्। एतेन विज्ञानशब्दस्यात्र निदिध्यासनविषयत्वं परोक्तं प्रत्युक्तम्। अर्थस्थितिपरिज्ञानं ह्यत्रयज्ज्ञात्वा इत्यादिनाऽपि व्यज्यते। अतः स्वरूपनिरूपकनिरूपितस्वरूपविशेषकधर्मविषयतया ज्ञानविज्ञानशब्दयोरपुनरुक्तिः। उभयलिङ्गतयोभयविभूतिविशिष्टतया च वक्ष्यमाणं विविक्तत्वं दर्शयति यथाऽहमिति। अनवधिकातिशयासङ्ख्येयकल्याणगुणगणश्चानन्तमहाविभूतिश्चेति पृथग्बहुव्रीहिभ्याम्ज्ञानं तु विज्ञानगुणोपपन्नं कर्माशुभं पश्यति वर्जनीयम् इत्यत्रापि विज्ञानशब्देनैतदेव विवक्षितम् अतिशयित विषयज्ञानस्यान्यानादरहेतुत्वात्।अशेषतः इत्येतस्यैव विवरणे ज्ञानप्रशंसारूपं चोत्तरार्धं व्याख्याति किं बहुनेति।इह भूयः इत्यस्यार्थोमयि पुनरिति। अवश्यज्ञातव्यसमस्ताकारविशिष्टमिहोपदिशामीत्युक्तं भवति।
।।7.2।।ननु योगस्वरूपनिरूपणे पूर्वमपि स्वरूपज्ञानमुक्तमेव पुनरेतज्ज्ञानं किंरूपं इत्याशङ्क्याह ज्ञानं तेऽहमिति। अहं पुरुषोत्तमः ते तव त्वदर्थं ज्ञानं शास्त्रोक्तप्रकारेण मत्स्वरूपविषयं अशेषतः सम्पूर्णं लीलादिसहितं वक्ष्यामि। कीदृशं तत् सविज्ञानं स्वरूपानुभवसहितम्। अनुभवस्वरूपमेवाह इदमिति अनुभूयमानस्वस्वस्पात्मकम्। एतज्ज्ञानान्तरं पुनरन्यज्ज्ञेयं नास्तीत्याह यदिति। यत् स्वस्वरूपानुभवसहितं स्वस्वरूपं ज्ञात्वा इह अस्मिन् मद्भक्तिमार्गे भरतखण्डे अस्मिन्मनुष्यजन्मनि वा ज्ञातव्यं न अवशिष्यते। एतज्ज्ञानेनैव दास्यानुभवो भवतीत्यर्थः।
।।7.2।।एतदेवाह ज्ञानमिति। ज्ञानं शुद्धप्रज्ञानघनं ब्रह्मसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मविज्ञानमानन्दं ब्रह्म इति श्रुतेः। ते तुभ्यमहं वक्ष्यामि। अशेषतः साधनकलापसहितम्। किं वचनमात्रजेन परोक्षज्ञानेन शब्दस्य स्वविषये परोक्षज्ञानजनकत्वनियमादित्याशङ्क्याह सविज्ञानमनुभवसहितम्। दशमस्त्वमसीत्यादौ शब्दादप्यपरोक्षज्ञानोत्पत्तिदर्शनात्कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातम् इत्येकविज्ञानात्सर्वविज्ञानप्रतिज्ञां श्रौतीमेव वर्णयति यज्ज्ञात्वेति। जगत्कारणाधिष्ठानस्य ज्ञानरूपस्य ब्रह्मणो ज्ञाने संशयोच्छेदात्सर्वस्यात्ममात्रत्वेन ज्ञातव्यानवशेषो युक्त इत्यर्थः।
।।7.2।।ज्ञास्यसीत्युक्तं तत्र ज्ञां स्तौति ज्ञानमिति। अत्र भाष्ये तच्च मद्विषयं ज्ञानं ते तुभ्यमहं सविज्ञानं विज्ञानसहितं स्वानुभवेन संयुक्तमिदं वक्ष्यामि कथयिष्याम्यशेषतः कात्स्त्रर्येन। तज्ज्ञानं विवक्षितं स्तोति श्रोतुरभिमुखीकरणाय। यज्ज्ञात्वा यज्ज्ञानं ज्ञात्वा नेह भूयः पुनर्ज्ञातव्यं पुरुषार्थसाधनमवशिष्यते नावशेषो भवतीति मत्तत्त्वशो यः स सर्वज्ञो भवतीत्यर्थ इति। अस्मिन्भाष्ये ज्ञास्यसीत्युक्त्या परोक्षज्ञानशङ्क्यां तन्निवृत्त्यर्थं तदुक्तिप्रकारमेव विवृणोति तच्चेति। इदमपरोक्षज्ञानं चैतन्यम्। तस्य सविज्ञानस्य प्रतिलम्मे किं स्यादित्याशङ्क्याह यज्ज्ञातक्वेति। इदमा चैतन्यस्य परोक्षत्वं व्यावर्त्यते तदेव सविज्ञानमिति विशेषणेन स्फुटयत इति तद्दीकाकृतः। तदेवाह ज्ञाममति। ज्ञानं शुद्धप्रधानंशुद्धप्रज्ञानघनं ब्रह्मसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मविज्ञानमानन्दं ब्रह्म इति श्रुतं ते तुभ्यमहं वक्ष्यामि। अशेषतः साधनकलापसहितं किं वचनमात्रजेन परोक्षज्ञानेन शब्दस्य स्वविषये परोक्षज्ञानजनकत्वानियमादित्याशङ्क्याह। सविज्ञानमनुभवसहितं दशमस्त्वमसीत्यादौ शब्दादप्यपरोक्षज्ञानोत्पत्तिदर्शनादित्यन्ये। वस्तुस्तु तच्च मद्विषयं ज्ञानमिति भाष्याद्भाष्यकृतामयमर्थो नाभिप्रेतोः। सविज्ञानमिति मूलान्मूलानुगुणोऽपि न भवति। त्मान्मूलतद्भाष्यानुरोधेन ज्ञानं शास्त्रजन्यं विज्ञानमनुभव इति व्याख्येयम्। यज्ज्ञोत्वेत्यस्य तुयज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव इति श्लोकस्थभाष्यानुसारेण मद्विषयं ज्ञानं शास्त्रजन्यं सविज्ञानं लब्ध्वेत्यर्थं इत्यविरोधः। मद्विषयस्य ज्ञानस्य सकलाधिष्ठानविषयत्वात्। अन्यज्ज्ञातव्यं नावशिष्यतेयेनाश्रुतं श्रुतं भवति इत्यादिश्रुतिरिति भावः। यत्त्विदं मद्विषयं विज्ञानेन सहितमपरोक्षमेव ज्ञानं शास्त्रजन्यं ते तुम्यमहं वक्ष्यामि जज्ज्ञानं नित्यचैतन्यरुपं ज्ञात्वा वेदान्तजन्यमनोवृत्तिविषयीकृत्येति। तत्र यजज्ञानमित्याद्युपेक्ष्यं यच्छब्दस्य प्रस्तुतपरामर्शकत्वेन सविज्ञानस्य ज्ञानस्य यदा परामृष्टस्य चैतन्यरुपार्थकत्वायोगात्।
7.2 ज्ञानम् indirect knowledge of Sastras? ते to thee? अहम् I? सविज्ञानम् combined with realisation (direct knowledge of the Atman through experience)? इदम् this? वक्ष्यामि will declare? अशेषतः in full? यत् which? ज्ञात्वा having known? न not? इह here? भूयः more? अन्यत् anything else? ज्ञातव्यम् what ought to be known? अवशिष्यते remains.Commentary Jnanam is Paroksha Jnanam or indirect knowledge of Brahman obtained through the study of the Upanishads. Vijnanam is Visesha Jnanam? i.e.? Aparoksha Jnanam obtained through direct Selfrealisation (intuitional wisdom).In this verse the Lord praises knowledge in order to make Arjuna follow His instruction closely with rapt attention? faith and interest. The Lord says I shall teach thee in full. You will attain to omniscience or perfect knowledge of the Self? after knowing which nothing more remains to be known here. If anyone attains the knowledge of the Self? he will know everything. That is the reason why Saunaka? the great householder? approacehd Angirasa respectfully and asked What is that? O Lord? which being known all this becomes known (Cf.XIII.11)
7.2 I shall declare to thee in full this knowledge combined with realisation, after knowing which nothing more here remains to be known.
7.2 I will reveal to this knowledge unto thee, and how it may be realised; which, once accomplished, there remains nothing else worth having in this life.
7.2 I shall tell you in detail of this Knowledge which is combined with realization, [From the statement, 'jnasyasi, you will know', in the earlier verse, one may conclude that the Lord is speaking of indirect or theoretical knowledge. The word 'idam, this' rules out such a conclusion; and it has also been said that this Knowledge is 'savijnanam, combined with direct experienece, realization'; it is Consciousness.] after experience which there remains nothing else here to be known again.
7.2 Aham, I; vaksyami, shall tell; te, you; asesatah, in detail, fully; of that (Knowledge) about Myself, which is idam, this; jnanam, Knowlege; which is savijnanam, combined with realization, associated with personal enlightenment; yat jnatva, after experiencing which Knowledge; avasisyate, there remains; na anyat, nothing else, anything that can be a means to human ends; jnatavyam, to be known; bhuyah, again; iha, here. (In this way) the Lord praises that Knowledge which is intended to be spoken, in order ot draw the attention of the hearer. Thus, 'he who knows Me in reality becomes omniscient.' This is the idea. Therefore Knowledge is difficult to attain because of its superexcellent result. How so? This is being answered:
7.2. I Shall teach you this knowledge in full together with action; for a person who has known this there remains in this world nothing else to be known.
7.1-2 Mayi etc. Jnanam etc. The words jnana and vijnana mean [respectively] 'knowledge' and 'action'. There remains nothing apart from these [two]. For, all the knowables are rooted in the knowledge and action.
7.2 I will declare to you in full this knowledge having Me for its object, along with Vijnana or distinguishing knowledge. Vijnana is that knowledge of God in which His nature is distinguished form all things. I am distinguished from all things, animate and inanimate, as the only Being opposed to all that is evil and endowed with infinitely great manifestation of countless multiples of attributes of all kinds which are auspicious, unsurpassed and without limit. I will declare to you that knowledge which has My essence as its object. Why say much? I shall declare to you that knowledge knowing which nothing else remains to be known again in relation to Myself. Sri Krsna declares that this knowledge, which will now be taught, is difficult to attain:
7.2 I will declare to you in full, this knowledge (of God) along with the knowledge which makes it distinguished (Vijnana), knowing which nothing else remains to be known.
।।7.2।।वहीं यह अपने स्वरूपका ज्ञान मैं तुझे विज्ञानके सहित अर्थात् अपने अनुभवके सहित निःशेषतःसम्पूर्णतासे कहूँगा। श्रोताको सम्मुख अर्थात् सावधान करनेके लिये जिसका वर्णन करना है उस ज्ञानकी स्तुति करते हैं। जिस ज्ञानको जान लेनेपर फिर इस जगत्में पुरुषार्थका कोई साधन जानना शेष नहीं रहता अर्थात् जो मेरे तत्त्वको जाननेवाला है वह सर्वज्ञ हो जाता है। अतः यह ज्ञान अति उत्तम फलवाला होनेके कारण दुर्लभ है।
।।7.2।। ज्ञानं ते तुभ्यम् अहं सविज्ञानं विज्ञानसहितं स्वानुभवयुक्तम् इदं वक्ष्यामि कथयिष्यामि अशेषतः कात्स्न्र्येन। तत् ज्ञानं विवक्षितं स्तौति श्रोतुः अभिमुखीकरणाय यत् ज्ञात्वा यत् ज्ञानं ज्ञात्वा न इह भूयः पुनः अन्यत् ज्ञातव्यं पुरुषार्थसाधनम् अवशिष्यते नावशिष्टं भवति। इति मत्तत्त्वज्ञो यः सः सर्वज्ञो भवतीत्यर्थः। अतो विशिष्टफलत्वात् दुर्लभं ज्ञानम्।।कथमित्युच्यते
।।7.2।।ननु ज्ञानं वक्ष्यते न तूक्तं तत्कथमिदं इति परामर्श इत्यत आह इदमिति। मामिति स्वस्य प्रकृतत्वात् तत्सम्बन्धित्वेन ज्ञानमपि प्रकृतमिति भावः। सविज्ञानं स्वानुभवसंयुक्तं (शां.भा.) इत्येतदपाकर्तुं विज्ञानपदार्थमाह विज्ञानमिति। अस्यैव वक्ष्यमाणत्वादपरस्य तदभावादिति भावः।
।।7.2।।इदं मद्विषयं ज्ञानम्। विज्ञानं विशेषज्ञानम्।
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।।7.2।।
জ্ঞানং তেহং সবিজ্ঞানমিদং বক্ষ্যাম্যশেষতঃ৷ যজ্জ্ঞাত্বা নেহ ভূযোন্যজ্জ্ঞাতব্যমবশিষ্যতে৷৷7.2৷৷
জ্ঞানং তেহং সবিজ্ঞানমিদং বক্ষ্যাম্যশেষতঃ৷ যজ্জ্ঞাত্বা নেহ ভূযোন্যজ্জ্ঞাতব্যমবশিষ্যতে৷৷7.2৷৷
જ્ઞાનં તેહં સવિજ્ઞાનમિદં વક્ષ્યામ્યશેષતઃ। યજ્જ્ઞાત્વા નેહ ભૂયોન્યજ્જ્ઞાતવ્યમવશિષ્યતે।।7.2।।
ਜ੍ਞਾਨਂ ਤੇਹਂ ਸਵਿਜ੍ਞਾਨਮਿਦਂ ਵਕ੍ਸ਼੍ਯਾਮ੍ਯਸ਼ੇਸ਼ਤ। ਯਜ੍ਜ੍ਞਾਤ੍ਵਾ ਨੇਹ ਭੂਯੋਨ੍ਯਜ੍ਜ੍ਞਾਤਵ੍ਯਮਵਸ਼ਿਸ਼੍ਯਤੇ।।7.2।।
ಜ್ಞಾನಂ ತೇಹಂ ಸವಿಜ್ಞಾನಮಿದಂ ವಕ್ಷ್ಯಾಮ್ಯಶೇಷತಃ. ಯಜ್ಜ್ಞಾತ್ವಾ ನೇಹ ಭೂಯೋನ್ಯಜ್ಜ್ಞಾತವ್ಯಮವಶಿಷ್ಯತೇ৷৷7.2৷৷
ജ്ഞാനം തേഹം സവിജ്ഞാനമിദം വക്ഷ്യാമ്യശേഷതഃ. യജ്ജ്ഞാത്വാ നേഹ ഭൂയോന്യജ്ജ്ഞാതവ്യമവശിഷ്യതേ৷৷7.2৷৷
ଜ୍ଞାନଂ ତେହଂ ସବିଜ୍ଞାନମିଦଂ ବକ୍ଷ୍ଯାମ୍ଯଶେଷତଃ| ଯଜ୍ଜ୍ଞାତ୍ବା ନେହ ଭୂଯୋନ୍ଯଜ୍ଜ୍ଞାତବ୍ଯମବଶିଷ୍ଯତେ||7.2||
jñānaṅ tē.haṅ savijñānamidaṅ vakṣyāmyaśēṣataḥ. yajjñātvā nēha bhūyō.nyajjñātavyamavaśiṣyatē৷৷7.2৷৷
ஜ்ஞாநஂ தேஹஂ ஸவிஜ்ஞாநமிதஂ வக்ஷ்யாம்யஷேஷதஃ. யஜ்ஜ்ஞாத்வா நேஹ பூயோந்யஜ்ஜ்ஞாதவ்யமவஷிஷ்யதே৷৷7.2৷৷
జ్ఞానం తేహం సవిజ్ఞానమిదం వక్ష్యామ్యశేషతః. యజ్జ్ఞాత్వా నేహ భూయోన్యజ్జ్ఞాతవ్యమవశిష్యతే৷৷7.2৷৷
7.3
7
3
।।7.3।। हजारों मनुष्योंमें कोई एक वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धोंमें कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है।
।।7.3।। सहस्रों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य पूर्णत्व की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई ही पुरुष मुझे तत्त्व से जानता है।।
।।7.3।। भारतीय आध्यात्मिक साहित्य में भिन्नभिन्न आचार्यों ने विभिन्न प्रकार से बारम्बार इस विचार को दोहराया है कि आत्मज्ञान तथा उसका अपरोक्ष अनुभव प्राप्त करने वाले साधक विरले ही होते हैं। इसके पूर्व भी हमें यह बताया गया था कि वेदान्त के सिद्धांतों को भी एक आश्चर्य के समान सुना तथा समझा जाता है। उपनिषदों में भी इसीतथ्य का ऋषियों ने वर्णन किया है।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण के अनुसार आत्मज्ञान की प्राप्ति का उत्तरदायितत्व साधक पर ही निर्भर है। यदि कोई साधक इस अनुभव को प्राप्त नहीं कर पाता है तो उसका एकमात्र कारण आवश्यक पुरुषार्थ का अभाव है। वेदान्त अध्यात्म विषयक विज्ञान होने के कारण हमारे लिए अपने अवगुणों का ज्ञानमात्र पर्याप्त नहीं है वरन् उसकी निवृत्ति के लिए और आत्मबल की वृद्धि के लिए आवश्यक है कि हम वेदान्त ज्ञान को अपने जीवन में उतारने का भी सदैव प्रयत्न करें। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि किसी विरले पुरुष में ही आत्मोन्नति की तीव्र अभिलाषा होती है जिसके लिए वह अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर रहता है।सहस्रों मनुष्यों में से जो लोग वेदान्त का श्रवण करते हैं तथा सम्भवत बौद्धिक स्तर पर तत्प्रतिपादित समस्त सिद्धांतों को समझते भी हैं उनमें भी कोईकोई पुरुष ऐसे ही होते हैं जो आध्यात्मिक जीवन पद्धति को पूर्णतया अपनाते हैं ऐसे प्रयत्नशील साधकों में से कोई एक साधक मुझे तत्त्व से जानता है।इसके अनेक कारण हैं। जब शिष्य उत्साहपूर्वक एकाग्रचित्त होकर सद्गुरु के उपदेश का श्रवण करता है तब वह स्वयं किसी सीमा तक ऊँचा उठ भी सकता है। परन्तु हो सकता है कि सत्य के द्वार तक पहुँचकर भी वह किसी सूक्ष्म एवं अज्ञात अभिलाषा अथवा अनजाने गर्व के कारण अपनी प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध कर ले और इस प्रकार सत्य के दर्शन से वंचित ही रह जाय। इस दृष्टि से ईसामसीह की यह घोषणा अर्थपूर्ण है कि एक धनवान् व्यक्ति के स्वर्ग द्वार में प्रवेख करने की अपेक्षा एक ऊँट सुई के छिद्र से सरलता से प्रवेश करके बाहर निकल सकता है। यहाँ धन शब्द से अभिप्राय मन में संचित वासनाओं से है न कि लौकिक सम्पत्ति से। जब तक मन पूर्णत्ाया वासनारहित होकर शुद्ध नहीं हो जाता तब तक वह सत्य के आनन्द का अनुभव नहीं कर सकता है।भगवान् श्रीकृष्ण की दृष्टि को ध्यान में रखकर इस श्लोक पर विचार करने से उसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि विरले लोग ही वेदान्त का श्रवण करके उसके सिद्धांत को यथार्थ रूप में समझ पाते हैं। उनमें भी ऐसे साधकों की संख्या बहुत कम ही होती है जिनमें सत्य एवं शुद्धि का जीवन जीने के लिए लक्ष्य का आवश्यक ज्ञान मन की दृढ़ता शारीरिक सहनशक्ति तथा प्रयत्न की सम्पन्नता हो। अर्जुन तथा गीता के जिज्ञासु लोग ऐसे ही विरले पुरुष हैं जो आत्मज्ञान के अधिकारी हैं। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण विज्ञान के सहित ज्ञान के उपदेश का वचन देते हैं जिससे आत्मा का साक्षात् अनुभव हो सकता है।इस प्रकार श्रोता में इस ज्ञान के प्रति रुचि उत्पन्न कराकर भगवान् आगे कहते हैं
।।7.3।। व्याख्या--'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये'--(टिप्पणी प0 395.1) 'हजारों मनुष्योंमें' कोई एक ही मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है। तात्पर्य है कि जिनमें मनुष्यपना है अर्थात् जिनमें पशुओंकी तरह खाना-पीना और ऐश-आराम करना नहीं है, वे ही वास्तवमें मनुष्य हैं। उन मनुष्योंमें भी जो नीति और धर्मपर चलनेवाले हैं, ऐसे मनुष्य हजारों हैं। उन हजारों मनुष्योंमें भी कोई एक ही सिद्धिके लिये (टिप्पणी प0 395.2) यत्न करता है अर्थात् जिससे बढ़कर कोई लाभ नहीं, जिसमें दुःखका लेश भी नहीं और आनन्दकी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं, कमीकी सम्भावना ही नहीं--ऐसे स्वतःसिद्ध नित्यतत्त्वकी प्राप्तिके लिये यत्न करता है।जो परलोकमें स्वर्ग आदिकी प्राप्ति नहीं चाहता और इस लोकमें धन, मान, भोग, कीर्ति आदि नहीं चाहता अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंमें नहीं अटकता और भोगे हुए भोगोंके तथा मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिके संस्कार रहनेसे उन विषयोंका सङ्ग होनेपर, उन विषयोंमें रुचि होते रहनेपर भी जो अपनी मान्यता, उद्देश्य, विचार, सिद्धान्त आदिसे विचलित नहीं होता--ऐसा कोई एक पुरुष ही सिद्धिके लिये यत्न करता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धिके लिये यत्न करनेवाले अर्थात् दृढ़तासे उधर लगनेवाले बहुत कम मनुष्य होते हैं।परमात्मप्राप्तिकी तरफ न लगनेमें कारण है--भोग और संग्रहमें लगना। सांसारिक भोग-पदार्थोंमें केवल आरम्भमें ही सुख दीखता है। मनुष्य प्रायः तत्काल सुख देनेवाले साधनोंमें ही लगते हैं। उनका परिणाम क्या होगा--इसपर वे विचार करते ही नहीं। अगर वे भोग और ऐश्वर्यके परिणामपर विचार करने लग जायँ कि 'भोग और संग्रहके अन्तमें कुछ नहीं मिलेगा, रीते रह जायँगे और उनकी प्राप्तिके लिये किये हुए पाप-कर्मोंके फलस्वरूप चौरासी लाख योनियों तथा नरकोंके रूपमें दुःख-ही-दुख मिलेगा', तो वे परमात्माके साधनमें लग जायँगे। दूसरा कारण यह है कि प्रायः लोग सांसारिक भोगोंमें ही लगे रहते हैं। उनमेंसे कुछ लोग संसारके भोगोंसे ऊँचे उठते भी हैं तो वे परलोकके स्वर्ग आदि भोग-भूमियोंकी प्राप्तिमें लग जाते हैं। परन्तु अपना कल्याण हो जाय, परमात्माकी प्राप्ति हो जाय--ऐसा दृढ़तासे विचार करके परमात्माकी तरफ लगनेवाले लोग बहुत कम होते हैं। इतिहासमें भी देखते हैं तो सकामभावसे तपस्या आदि साधन करनेवालोंके ही चरित्र विशेष आते हैं। कल्याणके लिये तत्परतासे साधन करनेवालोंके चरित्र बहुत ही कम आते हैं।वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत इधर सच्ची लगनसे तत्परतापूर्वक लगनेवाले बहुत कम हैं। इधर दृढ़तासे न लगनेमें संयोगजन्य सुखकी तरफ आकृष्ट होना और परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये भविष्यकी आशा (टिप्पणी प0 395.3) रखना ही खास कारण है। 'यततामपि सिद्धानाम्' (टिप्पणी प0 395.4)--यहाँ 'सिद्ध' शब्दसे उनको लेना चाहिये, जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है और जो केवल एक भगवान्में ही लग गये हैं। उन्हींको गीतामें 'महात्मा' कहा गया है। यद्यपि 'सब कुछ परमात्मा ही है' ऐसा जाननेवाले तत्त्वज्ञ पुरुषको भी (7। 19में) महात्मा कहा गया है, तथापि यहाँ तो वे ही महात्मा साधक लेने चाहिये, जो आसुरी सम्पत्तिसे रहित होकर केवल दैवी सम्पत्तिका आश्रय लेकर अनन्यभावसे भगवान्का भजन करते हैं (गीता 9। 13)। इसका कारण यह है कि वे यत्न करते हैं--'यतताम्।'इसलिये यहाँ (7। 19 में वर्णित) तत्त्वज्ञ महात्माको नहीं लेना चाहिये।यहाँ 'यतताम्'पदका तात्पर्य मात्र बाह्य चेष्टाओंसे नहीं है। इसका तात्पर्य है--भीतरमें केवल परमात्मप्राप्तिकी उत्कट उत्कण्ठा लगना, स्वाभाविक ही लगन होना और स्वाभाविक ही आदरपूर्वक उन परमात्माका चिन्तन होना। 'कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः'--ऐसे यत्न करनेवालोंमें कोई एक ही मेरेको तत्त्वसे जानता है। यहाँ 'कोई एक ही जानता है' ऐसा कहनेका यह बिलकुल तात्पर्य नहीं है कि यत्न करनेवाले सब नहीं जानेंगे, प्रत्युत यहाँ इसका तात्पर्य है कि प्रयत्नशील साधकोंमें वर्तमान समयमें कोई एक ही तत्त्वको जाननेवाला मिलता है। कारण कि कोई एक ही उस तत्त्वको जानता है और वैसे ही दूसरा कोई एक ही उस तत्त्वका विवेचन करता है--'आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः'(गीता 2। 29)। यहाँ 'तथैव चान्यः'(वैसे ही दूसरा कोई) कहनेका तात्पर्य न जाननेवाला नहीं है; क्योंकि जो नहीं जानता है, वह क्या कहेगा और कैसे कहेगा? अतः 'दूसरा कोई' कहनेका तात्पर्य है कि जाननेवालोंमेंसे कोई एक उसका विवेचन करनेवाला होता है। दूसरे जितने भी जानकार हैं, वे स्वयं तो जानते हैं, पर विवेचन करनेमें, दूसरोंको समझानेमें वे सब-के-सब समर्थ नहीं होते।प्रायः लोग इस (तीसरे) श्लोकको तत्त्वकी कठिनता बतानेवाला मानते हैं। परन्तु वास्तवमें यह श्लोक तत्त्वकी कठिनताके विषयमें नहीं है; क्योंकि परमात्म-तत्त्वकी प्राप्ति कठिन नहीं है, प्रत्युत तत्त्वप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा होना और अभिलाषाकी पूर्तिके लिये तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंका मिलना दुर्लभ है, कठिन है। यहाँ भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि 'मैं कहूँगा और तू जानेगा,' तो अर्जुन-जैसा अपने श्रेयका प्रश्न करनेवाला और भगवान-जैसा सर्वज्ञ कहनेका मिलना दुर्लभ है। वास्तवमें देखा जाय तो केवल उत्कट अभिलाषा होना ही दुर्लभ है। कारण कि अभिलाषा होनेपर उसको जाननेकी जिम्मेवारी भगवान्पर आ जाती है।यहाँ तत्त्वतः कहनेका तात्पर्य है कि वह मेरे सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य, विष्णु आदि रूपोंमें प्रकट होनेवाले और समय-समयपर तरह-तरहके अवतार लेनेवाले मुझको तत्त्वसे जान लेता है अर्थात् उसके जाननेमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता और उसके अनुभवमें एक परमात्मतत्त्वके सिवाय संसारकी किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती।  सम्बन्ध-- दूसरे श्लोकमें भगवान्ने ज्ञान-विज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा की थी। उस प्रतिज्ञाके अनुसार अब भगवान् ज्ञान-विज्ञान कहनेका उपक्रम करते हैं।
।।7.3।।मनुष्याणामिति। अस्य च वस्तुनः सर्वो न योग्यः इत्यनेन दुर्लभत्वात् यत्नसेव्यतामाह(N यत्नः सेव्यतामित्याह)।
।।7.3।।मनुष्याः शास्त्राधिकारयोग्याः तेषां सहस्रेषु कश्चिद् एव सिद्धिपर्यन्तं यतते। सिद्धिपर्यन्तं यतमानानां सहस्रेषु कश्चिद् एव मां विदित्वा मत्तः सिद्धये यतते। मद्विदां सहस्रेषु तत्त्वतो यथावत्स्थितं मां वेत्ति न कश्चिद् इति अभिप्रायः।स महात्मा सुदुर्लभः (गीता 7।19)मां तु वेद न कश्चन (गीता 7।26) इति हि वक्ष्यते।
।।7.3।।ज्ञानस्य दुर्लभत्वं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति कथमित्यादिना। सहस्रशब्दस्य बहुवाचकत्वमुपेत्य व्याकरोति अनेकेष्विति। सिद्धये सत्त्वशुद्धिद्वारा ज्ञानोत्पत्त्यर्थमित्यर्थः। सिद्ध्यर्थं यतमानानां कथं सिद्धत्वमित्याशङ्क्याह सिद्धा एवेति। सर्वेषामेव तेषां ज्ञानोदयात्तस्य सुलभत्वमित्याशङ्क्याह तेषामिति।
।।7.3।।यतः मनुष्याणामिति। आत्मतत्त्वज्ञानाय कश्चिद्यतति। तादृशानामपि मध्ये मां भगवन्तं परमात्मानं सर्वधर्माश्रयमीश्वरं तत्त्वतः निरतिशयमहिमत्वतः कश्चिदेव व्यासवामदेवशुकादिर्वेत्ति न सर्वः। अतस्तन्मदीयं ज्ञानं ते वक्ष्यामीत्यर्थः।
।।7.3।।अतिदुर्लभं चैतन्मदनुग्रहमन्तरेण महाफलं ज्ञानम् यतः मनुष्याणां शास्त्रीयज्ञानकर्मयोग्यानां सहस्रेषु मध्ये कश्चिदेकोऽनेकजन्मकृतसुकृतसमासादितनित्यानित्यवस्तुविवेकः सन् यतति यतते सिद्धये सत्त्वशुद्धिद्वारा ज्ञानोत्पत्तये। यततां यतमानानां ज्ञानाय सिद्धानां प्रागर्जितसुकृतानां साधकानामपि मध्ये कश्चिदेकः श्रवणमनननिदिध्यासनपरिपाकान्ते मामीश्वरं वेत्ति साक्षात्करोति तत्त्वतः प्रत्यगभेदेन तत्त्वमसीत्यादिगुरूपदिष्टमहावाक्येभ्यः। अनेकेषु मनुष्येष्वात्मज्ञानसाधनानुष्ठायी परमदुर्लभः। साधनानुष्ठायिष्वपि मध्ये फलभागी परमदुर्लभ इति किं वक्तव्यमस्य ज्ञानस्य माहात्म्यमित्यभिप्रायः।
।।7.3।।मद्भक्तिं विना तु मज्ज्ञानं दुर्लभमित्याह मनुष्याणामिति। असंख्यातानां जीवानां मध्ये मनुष्यव्यतिरिक्तानां श्रेयसि प्रवृत्तिरेव नास्ति मनुष्याणां तु सहस्रेषु मध्ये कश्चिदेव प्रकृष्टपुण्यवशात्सिद्धये आत्मज्ञानाय प्रयतते प्रयत्नं कुर्वतामपि सहस्रेषु कश्चिदेव प्रकृष्टपुण्यवशादात्मानं वेत्ति तादृशानां चात्मज्ञानसिद्धानां सहस्रेषु कश्चिदेव मां परमात्मानं मत्प्रसादेन तत्त्वतो वेत्ति तदेवमतिदुर्लभमपि मज्ज्ञानं तुभ्यमहं वक्ष्यामीत्यर्थः।
।।7.3।।पुनरपि प्रकारान्तरेण प्रशंसा क्रियत इत्यभिप्रायेणाह वक्ष्यमाणस्येति। मनुष्यशब्दोऽत्र न जातिविशेषाभिप्रायः देवादीनामप्यधिकारस्य शारीरके समर्थितत्वात्। अतः सिद्ध्यर्थयतनयोग्यमात्राभिप्राय इति दर्शयतिशास्त्राधिकारयोग्या इति। सिद्ध्यर्थयतनमात्रं प्रायेण सर्वसाधारणम् अतःसिद्धये इत्यस्यकश्चित् इत्युक्तविशेषान्वयायसिद्धिपर्यन्तमित्युक्तम्।मां वेत्ति इत्युक्तवेदनस्य तदधीनसिद्धिपर्यन्तयतनार्थत्वंयततामपि सिद्धानाम् इत्यनुवादेनाभिप्रेतमित्याहमां विदित्वा मत्तः सिद्धये यतत इति। प्राप्यस्यैव प्रापकत्वादिकमिह तत्त्वम्।तत्त्वतः इति विशिष्टं वेदनं सामान्यतोऽपि वेदनमात्रे सत्येव हि भवति अतोयततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्तिमद्विधेषु कश्चिन्मां तत्त्वतो वेत्ति इति वाक्यद्वयं विवक्षितमित्यभिप्रायेणसिद्धिपर्यन्तं यतमानानामित्यादिवाक्यभेदः।कश्चिन्मां वेत्ति इत्यत्र कश्चिदेव वेत्ति न द्वाविति विवक्षा व्यासभीष्माद्यनेकदर्शनादयुक्ता। कश्चिद्वेत्त्येवेति विवक्षा चात्र निरर्थका दौर्लभ्यवचनविरुद्धा च अतोऽर्थस्वभावाद्वक्ष्यमाणसंवादाच्च फलितं दुर्लभत्वाभिप्रायं दर्शयति न कश्चिदिति।
।।7.3।।ज्ञातव्यं कुतो नावशिष्यते इत्यत आह मनुष्याणामिति। पूर्वं तु भगवत्सन्निधानान्निस्सृतानां जीवानां मध्ये मनुष्यत्वं प्राप्तानामेव भजनाधिकारस्तत्प्राप्तिश्च दास्यदानानुग्रहैकसाध्या तत्प्राप्त्यनन्तरं च भावार्थं समर्पितस्य देहस्य तदाप्त्यर्थं लीलया प्राकट्यमतिदुर्लभं तत्रापि भावसेवया प्रीतेन भगवदुक्तस्वस्वरूपज्ञानमतिदुर्लभम्। एतत्सर्वसिद्धिर्यज्ज्ञानेन भवति तज्ज्ञाने न किञ्चिदवशिष्यते तदाह मनुष्याणां सहस्रेषु भजनौपयिकप्राप्तदेहानां सहस्रेषु असङ्ख्यातेषु कश्चित् दुर्लभो मदनुग्रहैकरूपः सिद्धये मत्सिद्धिस्वरूपनिमित्तं यासिद्धिर्द्वितीयस्कन्धे अ.1 उक्ता तदर्थं यतति यत्नवान् भवति। यततामपि यत्नं कुर्वतामपि सिद्धानां मध्ये कश्चित् स्वरमणेच्छादिभावरहितस्तत्स्वरूपात्मकधामरममाणं मां तत्त्वतस्तदनुग्रहैकलभ्यत्वेन वेत्ति जानाति। यत एतज्ज्ञानमतिदुर्लभम्। यज्ज्ञानान्तरं न किञ्चिदवशिष्यते तन्मया त्वदर्थमुच्यत इति भावः।
।।7.3।।एतदेव ज्ञानं दौर्लभ्यप्रदर्शनेन स्तौति मनुष्याणामिति। यततां यतमानानाम्।
।।7.3।।अतो मद्विषयं तत्त्वज्ञानं सार्वज्ञ्यसंपादकत्वादतिदुर्लभमित्याह मनुष्याणामिति। मनुष्याणामनेकयोनिषु पुण्यवशाल्लब्धदेहानां सहस्त्रेषु असंख्यातेषुशतं सहस्त्रं लक्षं च सर्वमक्षय्यवाचकम् इत्युक्तेः। अक्षय्यमित्यस्यासंख्यातमित्यर्थः। कश्चिदनेकजन्मार्जितपुण्यपुञ्जवशाल्लब्धविवेकादिसाधनो यतते यत्नं श्रवणादिरुपं करोति। यततामपि यतमानानामपि सिद्धानां मुमुक्षणाम्। साधकत्वेऽपि सिद्धत्वकथनं तेषामुत्कर्षद्योतनार्थम्। अपरे तु सिद्धये आत्मज्ञानाय यतते। यततामपि सहस्त्रेषु कश्चिदेव प्रकृष्टपुण्यवशादात्मानं वेत्ति तादृशानामप्यात्मज्ञानसिद्धानां सहस्त्रेषु कश्चिदेव मां परमात्मानं मत्प्रसादेन तत्त्वतो वेत्तीति वर्णयन्ति। अस्मिन्पक्षे मुख्यसिद्धशब्दार्थालाभस्त्वस्त्येवात्मपदाध्याहारस्य कश्चिदत्यस्य वेत्तीत्यस्य चावृत्तेरध्याहारस्य वा क्लेशोऽतिरिच्यते इत्ययं षक्षश्चिन्त्यः। तेषां मध्ये कश्चितेव मां परमेश्वरं तत्त्वतो यथावतस्वाभिन्नत्वेन वेत्ति जानाति।
7.3 मनुष्याणाम् of men? सहस्रेषु among thousands? कश्चित् some one? यतति strives? सिद्धये for perfection? यतताम् of the striving ones? अपि even? सिद्धानाम् of the successful ones? कश्चित् some one? माम् Me? वेत्ति knows? तत्त्वतः in essence.Commentary Mark how difficult it is to attain to the knowledge of the Self or to how Brahman in essence. Siddhanam literally means those who have attained to perfection (the perfected ones) but here it means only those who strive to attain perfection.Those who purchase diamonds? rubies or pearls are few. Those who study the postgraduate course are few. Even so those who attempt for Selfrealisation and who actually know the Truth in essence are few only. The liberated ones (Jivanmuktas) are rare. Real Sadhakas are also rare. The,knowledge of the Self bestows incalculable fruits on man? viz.? immortality? eternal bliss? perennial joy and everlasting peace. It is very difficult to attain to this knowledge of the Self. But a good and earnest spiritual aspirant (Sadhaka) who is endowed with a strong determination and iron resolve? and who is eipped with the four means to salvation can easily obtain the knowledge of the Self.
7.3 Among thousands of men, one perchance strives for perfection; even among those successful strivers, only one perchance knows Me in essence.
7.3 Among thousands of men scarcely one strives for perfection, and even amongst those who gain occult powers, perchance but one knows me in truth.
7.3 Among thousands of men a rare one endeavours for perfection. Even of the perfected ones who are diligent, one perchance knows Me in truth.
7.3 Sahasresu manusyanam, among thousands, among a multitude of men; kascit, a rare one; yatati, endeavours; siddhaye, for perfection. [For perfection: for the rise of Knowledge through the purification of the mind.] Siddhanam api, even of the perfected one; yatatam, who are diligent-they (those diligent ones themselves) being (considered to be) verily perfect because they are striving for Liberation; of them-; kascit, one perchance, indeed; vetti, knows; mam, Me; tattvatah, in truth. Having drawn the attention of the hearer by arousing interest, the Lord says:
7.3. Among thousands of men, perchance, one makes effort for the determined knowledge. Among those, having the determined knowledge-even though they make effort-perchance one realises Me correctly.
7.3 Manusyanam etc. All [persons] are not fit for this subject. By this statement, [the Bhagavat] has declared that, as the subject is difficult to grasp, it is to be learnt with effort.
7.3 'Men', i.e., those who are alified for observing the ?nds of the Sastras - among thousands of such men, only some one strives till the attainment of perfection. Among thousands who strive till the attainment of perfection, some one only, understanding Me, strives to attain success through Me (i.e., through My grace). Among thousands of those who might know Me, some one only knows Me in reality, as I am. In other words, there is no one who is capable of knowing Me as I am, i.e., as distinguished from all other entities, as implied in the expression Vijnana. Sri Krsna will declare later on: 'It is very hard to find such a great-souled person' (7.19), and 'But no one knows Me' (7.26).
7.3 Among thousands of men, some one strives for perfection; even among those who strive for perfection, some one only knows Me; and among those who know Me, some one only knows Me in reality.
।।7.3।।यह ( दुलर्भ ) कैसे है सो कहते हैं हजारों मनुष्योंमें कोई एक ही ( मोक्षरूप ) सिद्धिके लिये प्रयत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धोंमें भी जो मोक्षके लिये यत्न करते हैं वे ( एक तरहसे ) सिद्ध ही हैं उनमें भी कोई एक ही मुझे तत्त्वसे यथार्थ जान पाता है।
।।7.3।। मनुष्याणां मध्ये सहस्रेषु अनेकेषु कश्चित् यतति प्रयत्नं करोति सिद्धये सिद्ध्यर्थम्। तेषां यततामपि सिद्धानाम् सिद्धा एव हि ते ये मोक्षाय यतन्ते तेषां कश्चित् एव हि मां वेत्ति तत्त्वतः यथावत्।।श्रोतारं प्ररोचनेन अभिमुखीकृत्याह
।।7.3।।ननु ज्ञानादिवचनं प्रतिज्ञाय यत्किञ्चित्कथमुच्यते इत्यत आह दौर्लभ्यमिति। श्रोतुरादरजननार्थमिति शेषः। ज्ञानस्य दौर्लभ्ये विज्ञानस्य तत्सुतराम्।
।।7.3।।दौर्लभ्यं ज्ञानस्याह मनुष्याणामिति।
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्िचद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्िचन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।7.3।।
মনুষ্যাণাং সহস্রেষু কশ্িচদ্যততি সিদ্ধযে৷ যততামপি সিদ্ধানাং কশ্িচন্মাং বেত্তি তত্ত্বতঃ৷৷7.3৷৷
মনুষ্যাণাং সহস্রেষু কশ্িচদ্যততি সিদ্ধযে৷ যততামপি সিদ্ধানাং কশ্িচন্মাং বেত্তি তত্ত্বতঃ৷৷7.3৷৷
મનુષ્યાણાં સહસ્રેષુ કશ્િચદ્યતતિ સિદ્ધયે। યતતામપિ સિદ્ધાનાં કશ્િચન્માં વેત્તિ તત્ત્વતઃ।।7.3।।
ਮਨੁਸ਼੍ਯਾਣਾਂ ਸਹਸ੍ਰੇਸ਼ੁ ਕਸ਼੍ਿਚਦ੍ਯਤਤਿ ਸਿਦ੍ਧਯੇ। ਯਤਤਾਮਪਿ ਸਿਦ੍ਧਾਨਾਂ ਕਸ਼੍ਿਚਨ੍ਮਾਂ ਵੇਤ੍ਤਿ ਤਤ੍ਤ੍ਵਤ।।7.3।।
ಮನುಷ್ಯಾಣಾಂ ಸಹಸ್ರೇಷು ಕಶ್ಿಚದ್ಯತತಿ ಸಿದ್ಧಯೇ. ಯತತಾಮಪಿ ಸಿದ್ಧಾನಾಂ ಕಶ್ಿಚನ್ಮಾಂ ವೇತ್ತಿ ತತ್ತ್ವತಃ৷৷7.3৷৷
മനുഷ്യാണാം സഹസ്രേഷു കശ്ിചദ്യതതി സിദ്ധയേ. യതതാമപി സിദ്ധാനാം കശ്ിചന്മാം വേത്തി തത്ത്വതഃ৷৷7.3৷৷
ମନୁଷ୍ଯାଣାଂ ସହସ୍ରେଷୁ କଶ୍ିଚଦ୍ଯତତି ସିଦ୍ଧଯେ| ଯତତାମପି ସିଦ୍ଧାନାଂ କଶ୍ିଚନ୍ମାଂ ବେତ୍ତି ତତ୍ତ୍ବତଃ||7.3||
manuṣyāṇāṅ sahasrēṣu kaśicadyatati siddhayē. yatatāmapi siddhānāṅ kaśicanmāṅ vētti tattvataḥ৷৷7.3৷৷
மநுஷ்யாணாஂ ஸஹஸ்ரேஷு கஷ்ிசத்யததி ஸித்தயே. யததாமபி ஸித்தாநாஂ கஷ்ிசந்மாஂ வேத்தி தத்த்வதஃ৷৷7.3৷৷
మనుష్యాణాం సహస్రేషు కశ్ిచద్యతతి సిద్ధయే. యతతామపి సిద్ధానాం కశ్ిచన్మాం వేత్తి తత్త్వతః৷৷7.3৷৷
7.4
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।।7.4 -- 7.5।।  पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी 'अपरा' प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी 'परा' प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
।।7.4।। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - यह आठ प्रकार से विभक्त हुई मेरी प्रकृति है।।
।।7.4।। वैदिक काल के महान् मनीषियों ने जगत् की उत्पत्ति पर सूक्ष्म विचार करके यह बताया है कि जगत् जड़ पदार्थ (प्रकृति) और चेतनतत्त्व (पुरुष) के संयोग से उत्पन्न होता है। उनके अनुसार पुरुष की अध्यक्षता में जड़ प्रकृति से बनी शरीरादि उपाधियाँ चैतन्ययुक्त होकर समस्त व्यवहार करने में सक्षम होती हैं। एक आधुनिक दृष्टान्त से इस सिद्धांत को स्पष्ट किया जा सकता है।लोहे के बने वाष्प इंजिन में स्वत कोई गति नहीं होती। परन्तु जब उसका सम्बन्ध उच्च दबाब की वाष्प से होता है तब वह इंजिन गतिमान हो जाता है। केवल वाष्प भी किसी यन्त्र की सहायता के बिना अपनी शक्ति को व्यक्त नहीं कर सकती दोनों के सम्बन्ध से ही यह कार्य सम्पादित किया जाता है।भारत के तत्त्वचिन्तक ऋषियों ने वैज्ञानिक विचार पद्धति से इसका वर्णन किया है कि किस प्रकार सनातन पूर्ण पुरुष प्रकृति की जड़ उपाधियों के संयोग से इस नानाविध सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है।भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में प्रकृति का वर्णन करते हैं तथा अगले श्लोक में चेतन तत्त्व का। यदि एक बार मनुष्य प्रकृति और पुरुष जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट रूप से समझ ले तो वह यह भी सरलता से समझ सकेगा कि जड़ उपाधियों के साथ आत्मा का तादात्म्य ही उसके सब दुखों का कारण है। स्वाभाविक ही इस मिथ्या तादात्म्य की निवृत्ति होने पर वह स्वयं अपने स्वरूप को पहचान सकता है जो पूर्ण आनन्दस्वरूप है। आत्मा और अनात्मा के परस्पर तादात्म्य से जीव उत्पन्न होता है। यही संसारी दुखी जीव आत्मानात्मविवेक से यह समझ पाता है कि वह तो वास्तव में जड़ प्रकृति का अधिष्ठान चैतन्य पुरुष है जीव नहीं।अर्जुन को जड़ और चेतन का भेद स्पष्ट करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण प्रथम प्रकृति के आठ भागों को बताते हैं जिसे यहाँ अष्टधा प्रकृति कहा गया है। इस विवेक से प्रत्येक व्यक्ति अपने शुद्ध और दिव्य स्वरूप को पहचान सकता है।आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी वे पंचमहाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार यह है अष्टधा प्रकृति जो परम सत्य के अज्ञान के कारण उस पर अध्यस्त (कल्पित) है। व्यष्टि (एक जीव) में स्थूल पंचमहाभूत का रूप है स्थूल शरीर तथा उनके सूक्ष्म भाव का रूप पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जिनके द्वारा मनुष्य बाह्य जगत् का अनुभव करता है। ज्ञानेन्द्रियाँ ही वे कारण हैं जिनके द्वारा विषयों की संवेदनाएं मन तक पहुँचती हैं। इन प्राप्त संवेदनाओं का वर्गीकरण तथा उनका ज्ञान और निश्चय करना बुद्धि का कार्य है। इन्द्रियों द्वारा विषय ग्रहण मन के द्वारा उनका एकत्रीकरण तथा बुद्धि के द्वारा उनका निश्चय इन तीनों स्तरों पर एक अहं वृत्ति सदा बनी रहती है जिसे अहंकार कहते हैं। ये जड़ उपाधियाँ हैं जो चैतन्य का स्पर्श पाकर चेतनवत् व्यवहार करने में समर्थ होती हैं।इसके पश्चात् अपनी पराप्रकृति बताने के लिए भगवान् कहते हैं
।।7.4।। व्याख्या--'भूमिरापोऽनलो वायुः ৷৷. विद्धि मे पराम्'--परमात्मा सबके कारण हैं। वे प्रकृतिको लेकर सृष्टिकी रचना करते हैं(टिप्पणी प0 397.1)। जिस प्रकृतिको लेकर रचना करते हैं, उसका नाम 'अपरा प्रकृति' है और अपना अंश जो जीव है, उसको भगवान् 'परा प्रकृति' कहते हैं। अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड और परिवर्तनशील है तथा परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और परिवर्तनशील है।प्रत्येक मनुष्यका भिन्न-भिन्न स्वभाव होता है। जैसे स्वभावको मनुष्यसे अलग सिद्ध नहीं कर सकते, ऐसे ही परमात्माकी प्रकृतिको परमात्मासे अलग (स्वतन्त्र) सिद्ध नहीं कर सकते। यह प्रकृति प्रभुका ही एक स्वभाव है; इसलिये इसका नाम 'प्रकृति' है। इसी प्रकार परमात्माका अंश होनेसे जीवको परमात्मासे भिन्न सिद्ध नहीं कर सकते; क्योंकि यह परमात्माका स्वरूप है। परमात्माका स्वरूप होनेपर भी केवल अपरा प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेके कारण इस जीवात्माको प्रकृति कहा गया है। अपरा प्रकृतिके सम्बन्धसे अपनेमें कृति (करना) माननेके कारण ही यह जीवरूप है। अगर यह अपनेमें कृति न माने तो यह परमात्मस्वरूप ही है; फिर इसकी जीव या प्रकृति संज्ञा नहीं रहती अर्थात् इसमें बन्धनकारक कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं रहता (गीता 18। 17)।यहाँ अपरा प्रकृतिमें पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार--ये आठ शब्द लिये गये हैं। इनमेंसे अगर पाँच स्थूल भूतोंसे स्थूल सृष्टि मानी जाय तथा मन, बुद्धि और अहंकार--इन तीनोंसे सूक्ष्म सृष्टि मानी जाय तो इस वर्णनमें स्थूल और सूक्ष्म सृष्टि तो आ जाती है, पर कारणरूप प्रकृति इसमें नहीं आती। कारणरूप प्रकृतिके बिना प्रकृतिका वर्णन अधूरा रह जाता है। अतः आदरणीय टीकाकारोंने पाँच स्थूल भूतोंसे सूक्ष्म पञ्चतन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) को लिया है जो कि पाँच स्थूल भूतोंकी कारण हैं। 'मन' शब्दसे अहंकार लिया है, जो कि मनका कारण है। 'बुद्धि' शब्दसे महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) और 'अहंकार' शब्दसे प्रकृति ली गयी है। इस प्रकार इन आठ शब्दोंका ऐसा अर्थ लेनसे ही समष्टि अपरा प्रकृतिका पूरा वर्णन होता है; क्योंकि इसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण--ये तीनों समष्टि शरीर आ जाते हैं। शास्त्रोंमें इसी समष्टि प्रकृतिका 'प्रकृति-विकृति' के नामसे वर्णन किया गया है (टिप्पणी प0 397.2)। परन्तु यहाँ एक बात ध्यान देनेकी है कि भगवान्ने यहाँ अपरा और परा प्रकृतिका वर्णन 'प्रकृति-विकृति' की दृष्टिसे नहीं किया है। यदि भगवान् 'प्रकृति-विकृति' की दृष्टिसे वर्णन करते तो चेतनको प्रकृतिके नामसे कहते ही नहीं; क्योंकि चेतन न तो प्रकृति है और न विकृति है। इससे सिद्ध होता है कि भगवान्ने यहाँ जड और चेतनका विभाग बतानेके लिये ही अपरा प्रकृतिके नामसे जडका और परा प्रकृतिके नामसे चेतनका वर्णन किया है।यहाँ यह आशय मालूम देता है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--इन पाँच तत्त्वोंके स्थूलरूपसे स्थूल सृष्टि ली गयी है और इनका सूक्ष्मरूप जो पञ्चतन्मात्राएँ कही जाती हैं, उनसे सूक्ष्मसृष्टि ली गयी है। सूक्ष्मसृष्टिके अङ्ग मन, बुद्धि और अहंकार हैं।अहंकार दो प्रकारका होता है--(1) 'अहं-अहं' करके अन्तःकरणकी वृत्तिका नाम भी अहंकार है जो कि करणरूप है। यह हुई 'अपरा प्रकृति', जिसका वर्णन यहाँ चौथे श्लोकमें हुआ है और (2) 'अहम्रूपसे व्यक्तित्व, एकदेशीयताका नाम भी अहंकार है, जो कि कर्तारूप है अर्थात् अपनेको क्रियाओंका करनेवाला मानता है। यह हुई 'परा प्रकृति', जिसका वर्णन यहाँ पाँचवें श्लोकमें हुआ है। यह अहंकार कारणशरीरमें तादात्म्यरूपसे रहता है। इस तादात्म्यमें एक जड-अंश है और एक चेतन-अंश है। इसमें जो जड-अंश है, वह कारण-शरीर है और उसमें जो अभिमान करता है, वह चेतन-अंश है। जबतक बोध नहीं होता, तबतक यह जड-चेतनके तादात्म्यवाला कारण-शरीरका 'अहम्' कर्तारूपसे निरन्तर बना रहता है। सुषुप्तिके समय यह सुप्तरूपसे रहता है अर्थात् प्रकट नहीं होता। नींदसे जगनेपर 'मैं सोया था, अब जाग्रत् हुआ हूँ' इस प्रकार 'अहम्' की जागृति होती है। इसके बाद मन और बुद्धि जाग्रत् होते हैं; जैसे--मैं कहाँ हूँ, कैसे हूँ--यह मनकी जागृति हुई और मैं इस देशमें, इस समयमें हूँ--ऐसा निश्चय होना बुद्धिकी जागृति हुई। इस प्रकार नींदसे जगनेपर जिसका अनुभव होता है, वह 'अहम्' परा प्रकृति है और वृत्तिरूप जो अहंकार है, वह अपरा प्रकृति है। इस अपरा प्रकृतिको प्रकाशित करनेवाला और आश्रय देनेवाला चेतन जब अपरा प्रकृतिको अपनी मान लेता है, तब वह जीवरूप परा प्रकृति होती है--'ययेदं धार्यते जगत्।' अगर यह परा प्रकृति अपरा प्रकतिसे विमुख होकर परमात्माके ही सम्मुख हो जाय, परमात्माको ही अपना माने और अपरा प्रकृतिको कभी भी अपना न माने अर्थात् अपरा प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्धरहित होकर निर्लिप्तताका अनुभव कर ले तो इसको अपने स्वरूपका बोध हो जाता है। स्वरूपका बोध हो जानेपर परमात्माका प्रेम प्रकट हो जाता है (टिप्पणी प0 398), जो कि पहले अपरा प्रकृतिसे सम्बन्ध रखनेसे आसक्ति और कामनाके रूपमें था। वह प्रेम अनन्त, अगाध, असीम, आनन्दरूप और प्रतिक्षण वर्धमान है। उसकी प्राप्ति होनेसे यह परा प्रकृति प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाती है, अपने असङ्गरूपका अनुभव होनेसे ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाती है और अपरा प्रकृतिको संसारमात्रकी सेवामें लगाकर संसारसे सर्वथा विमुख होनेसे कृतकृत्य हो जाती है। यही मानव-जीवनकी पूर्णता है, सफलता है।
।।7.4 7.5।।भूमिरिति। अपरेति। इयमिति प्रत्यक्षेण या संसारावस्थायां। सर्वजनपरिदृश्यमाना सा चैकैव सती प्रकाराष्टकेन भिद्यते इति एकप्रकृत्यारब्धत्वादेकमेव विश्वमिति प्रकृतिवादेऽपि अद्वैतं प्रदर्शितम्। सैव जीवत्वं पुरुषत्वं प्राप्ता परा ममैव नान्यस्य च। सा (S omits सा) उभयरूपा वेद्यवेदकात्मकप्रपञ्चोपरचनविचित्रा तत एव स्वात्मविमलमुकुरतलकलितसकलभावभूमिः स्वस्वभावात्मिका सततमव्यभिचारिणी प्रकृतिः। इदं जगत् भूम्यादि।
।।7.4।।अस्य विचित्रानन्दभोग्यभोगोपकरणभोगस्थानरूपेण अवस्थितस्य जगतः प्रकृतिः इयं गन्धादिगुणकपृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशादिरूपेण मनःप्रभृतीन्द्रियरूपेण च महदंकाररूपेण च अष्टधा भिन्ना मदीया इति विद्धि।
।।7.4।।ज्ञानार्थं प्रयत्नस्य तद्द्वारा ज्ञानलाभस्य तदुभयद्वारेण मुक्तेश्च दुर्लभत्वाभिधानस्य श्रोतृप्ररोचनं फलमिति मत्वाह श्रोतारमिति। आत्मनः सर्वात्मकत्वेन परिपूर्णत्वमवतारयन्नादावपरां प्रकृतिमुपन्यस्यति आहेति। भूमिशब्दस्य व्यवहारयोग्यस्थूलपृथिवीविषयत्वं व्यावर्तयति भूमिरितीति। तत्र हेतुमाह भिन्नेति। प्रकृतिसमभिव्याहाराद्गन्धतन्मात्रं स्थूलपृथिवीप्रकृतिरुत्तरविकारो भूमिरित्युच्यते न विशेष इत्यर्थः। भूमिशब्दवदबादिशब्दानामपि सूक्ष्मभूतविषयत्वमाह तथेति। तेषामपि प्रकृतिसमानाधिकृतत्वाविशेषात्तन्मात्राणां पूर्वपूर्वप्रकृतीनामुत्तरोत्तरविकाराणां न विशेषत्वसिद्धिरित्यर्थः। मनःशब्दस्य संकल्पविकल्पात्मककरणविषयत्वमाशङ्क्याह मन इतीति। न खल्वहंकाराभावे संकल्पविकल्पयोरसंभवात्तदात्मकं मनः संभवतीत्यर्थः। निश्चयलक्षणा बुद्धिरित्यभ्युपगमाद्बुद्धिशब्दस्य निश्चयात्मककरणाविषयत्वमाशङ्क्याह बुद्धिरितीति। नहि हिरण्यगर्भसमष्टिबुद्धिरूपमन्तरेण व्यष्टिबुद्धिः सिध्यतीत्यर्थः। अहंकारस्याभिमानविशेषात्मकत्वेनान्तःकरणप्रभेदत्वं व्यावर्तयति अहंकार इतीति। अविद्यासंयुक्तमित्यविद्यात्मकमित्यर्थः। कथं मूलकारणस्याहंकारशब्दत्वमित्याशङ्क्योक्तमर्थं दृष्टान्तेन स्पष्टयति यथेत्यादिना। मूलकारणस्याहंकारशब्दत्वे हेतुमाह प्रवर्तकत्वादिति। तस्य प्रवर्तकत्वं प्रपञ्चयति अहंकार एवेति। सत्येवाहंकारे ममकारो भवति तयोश्च भावे सर्वाप्रवृत्तिरिति प्रसिद्धमित्यर्थः। उक्तां प्रकृतिमुपसंहरति इतीयमिति। इयमित्यपरोक्षा साक्षिदृश्येति यावत्। ऐश्वरी तदाश्रया तदैश्वर्योपाधिभूता। प्रक्रियते महदाद्याकारेणेति प्रकृतिः। त्रिगुणं जगदुपादानं प्रधानमिति मतं व्युदस्यति मायेति। तस्यास्तत्कार्याकारेण परिणामयोग्यत्वं द्योतयति शक्तिरिति। अष्टधेति। अष्टभिः प्रकारैरिति यावत्।
।।7.4।।तथाविधं स्वमहिमज्ञानं ब्रह्मवादानुसारेण स्वयमेवोपदिशति भूमिरित्यादिना। तत्रादौ सर्वधर्माश्रयं पुरुषोत्तमापरपर्यायं ब्रह्मैव परं स्वेच्छया सर्वं भवतीति श्रूयते भूमिवत् दुग्धवच्च अतएवक्षीरवद्धि इति सूत्रे व्यवस्थापितम्आत्मकृतेः परिणामात् ब्र.सू.1।4।26 इत्येवं श्रुत्यर्थं व्याख्यायाभिन्ननिमित्तोपादानकारणं तद्ब्रह्मेति भाष्ये निगदितं च। भागवतेऽपि 10।10।3031त्वमेव कालो भगवान्विष्णुपुरव्यय ईश्वरः। त्वं महान् प्रकृतिः सूक्ष्मा रजस्सत्त्वतमोमयी।। इति। परापरप्रकृतिरूपेण स्वात्मनाऽसाधारणसृष्ट्यादिकार्यकरणमाहात्म्यं ज्ञापयितुं स्वस्य प्रकृतिद्वयं तावदाह द्वाभ्यां भूमिराप इति। मे निरतिशयानन्तमहिम्नः सम्बन्धिनी संदशभूताऽप्यजा प्रकृतिरित्यष्टधा भिन्ना भूम्यादिरूपेण परिणताऽष्टविधा तत्र पञ्चधा स्थूलभावमिता पञ्चमहाभूतानि स्पष्टान्येव। मनो बुद्धिरहङ्कारश्चेत्यनिरुद्धप्रद्युम्नसङ्कर्षणाधिष्ठानभूता सूक्ष्मा। चित्तं च स्वाभेदाभिप्रायेण नोक्तं दृश्यमानत्वात् स्वस्य भागवतं वा तन्न प्राकृतमिति नोक्तम्। इयं च प्रकृतिः सदंशभूताऽचिदित्युच्यते चित्सम्बन्धे सर्वकार्यकरणक्षमा नान्यथेत्यपरा इयम्।
।।7.4।।एवं प्ररोचनेन श्रोतारमभिमुखीकृत्यात्मनः सर्वात्मकत्वेन परिपूर्णत्वमवतारयन्नादावपरां प्रकृतिमुपन्यस्यति सांख्यैर्हि पञ्चतन्मात्राण्यहंकारो महानव्यक्तमित्यष्टौ प्रकृतयः पञ्च महाभूतानि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि उभयसाधारणं मनश्चेति षोडशविकारा उच्यन्ते। एतान्येव चतुर्विशतितत्त्वानि। तत्र भूमिरापोऽनलो वायुः खमिति पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशाख्यपञ्चमहाभूतसूक्ष्मावस्थारूपाणि गन्धरसरूपस्पर्शशब्दात्मकानि पञ्चतन्मात्राणि लक्ष्यन्ते।बुद्ध्यहंकारशब्दौ तु स्वार्थावेव। मनःशब्देन च परिशिष्टमव्यक्तं लक्ष्यते प्रकृतिशब्दसामानाधिकरण्येन स्वार्थहानेरावश्यकत्वात्। मनःशब्देन वा स्वकारणमहंकारो लक्ष्यते पञ्चतन्मात्रसंनिकर्षात्। बुद्धिशब्दस्त्वहंकारकारणे महत्तत्त्वे मुख्यवृत्तिरेव। अहंकारशब्देन च सर्ववासनावासितमविद्यात्मकमव्यक्तं लक्ष्यते प्रवर्तकत्वाद्यसाधारणधर्मयोगाच्च। इत्युक्तकारेणेयमपरोक्षा साक्षिभास्यत्वात्प्रकृतिर्मायाख्या पारमेश्वरी शक्तिरनिर्वचनीयस्वभावा त्रिगुणात्मिकाऽष्टधा भिन्नाऽष्टभिः प्रकारैर्भेदमागता। सर्वोऽपि जडवर्गोऽत्रैवान्तर्भवतीत्यर्थः। स्वसिद्धान्ते चेक्षणसंकल्पात्मकौ मायापरिणामावेव बुद्ध्यहंकारौ। पञ्चतन्मात्राणि चापञ्चीकृतपञ्चमहाभूतानीत्यसकृदवोचाम।
।।7.4।।एवं श्रोतारमभिमुखीकृत्येदानीं प्रकृतिद्वारा सृष्ट्यादिकर्तृत्वेनेश्वरतत्त्वं प्रतिज्ञातं निरूपयिष्यन्परापरभेदेन प्रकृतिद्वयमाह भूमिरिति द्वाभ्याम्। भूम्यादिशब्दैः पञ्चगन्धादितन्मात्राण्युच्यन्ते मनःशब्देन तत्कारणभूतोऽहंकारः बुद्धिशब्देन तत्कारणभूतं महत्तत्त्वं अहंकारशब्देन तत्कारणमविद्येत्येवमष्टधा भिन्ना। यद्वा भूम्यादिशब्दैः पञ्चमहाभूतानि सूक्ष्मैः सहैकीकृत्य गृह्यन्ते अहंकारशब्देनैवाहंकारस्तेनैव तत्कार्याणीन्द्रियाण्यपि गृह्यन्ते बुद्धिरिति महत्तत्त्वं मनःशब्देन मनसैवोन्नेयमव्यक्तरूपं प्रधानमित्यनेन प्रकारेण मे प्रकृतिर्मायाख्या शक्तिरब्टधा भिन्ना विभागं प्राप्ता। चतुर्विंशतिभेदभिन्नाप्यष्टस्वेवान्तर्भावविवक्षयाष्टधा भिन्नेत्युक्तम्। तथाच वक्ष्यमाणक्षेत्राध्याये इमामेव प्रकृतिं चतुर्विंशतितत्त्वात्मना प्रपञ्चयिष्यतिमहाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः इति।
।।7.4।।अथभूमिः इत्यादिनानत्वहं तेषु ते मयि 7।12 इत्यन्तेन स्वयाथात्म्यमुपदिश्यते। तत्र प्रथमं कार्यकारणरूपाचिद्विलक्षणत्वं तच्छेषत्वादिमुखेन दर्शयति। भूम्यादीनां प्रकृतिकार्याणामत्र प्रकृतित्वेन उच्यमानत्वाद्व्यष्टिसृष्ट्यपेक्षया प्रकृतित्वमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह अस्येति। केचिदाहुः अष्टौ प्रकृतयः गर्भो.3 इति श्रुतेरिह भूम्यादिशब्दैस्तन्मात्राणि गृह्यन्ते मनश्शब्देन मनसः कारणभूतोऽहङ्कारः अहङ्कारशब्देन त्वहङ्कारवासनास्पदं अव्यक्तं मूलकारणमिति। एवं समस्तपदमुख्यार्थभङ्गक्लेशाद्व्यष्ट्यपेक्षया प्रकृतित्वं वरमिति भावः। यद्वा प्रकृतिशब्देन मूलप्रकृतिरेवोच्यते द्रव्यैक्यात्सैवाष्टधाऽवस्थितेत्युच्यते एषा हि पूर्वमेका पश्चादष्टधा परिणता। अत्र स्वोपदेश प्रवृत्तस्यप्रकृतेरष्टविधत्वोपदेशो न सङ्गतः नच स्वकीयत्वात् तत्सङ्गतिः तथात्वेनेतः प्रागनुपदिष्टत्वात्। अतः प्रत्यक्षादिसिद्धपृथिव्याद्याकारपरिणता प्रकृतिरिहानूद्यते स्वस्य तद्विलक्षणत्वतच्छेषित्वतन्नियामकत्वादिसिद्ध्यर्थंमे इति तस्याः स्वकीयत्वं विधीयत इत्यभिप्रायेणोक्तं मदीयेति।विद्धि इति पृथिव्यादीनामितरेतरवैषम्यार्थं भोग्यत्वसिद्ध्यर्थमनुक्तानां तन्मात्राणां कार्यविशेषप्रदर्शनार्थं चगन्धादिगुणकेत्युक्तम्। एतेन भूतोक्तिस्तन्मात्रोपलक्षणार्थेत्यपि दर्शितम्। तदभिप्रायेणआकाशादीत्यादिशब्दोऽपि पठ्यते। तन्मात्राणां भूतानामप्यनतिविप्रकर्षात्सङ्ख्यानिवेशः। मनश्शब्दः करणभूतेन्द्रियवर्गोपलक्षणार्थ इति दर्शयितुंमनःप्रभृतीन्द्रियरूपेणेत्युक्तम्। बुद्ध्यहङ्कारशब्दयोरत्र ज्ञानगर्वाद्यर्थान्तरभ्रमव्युदासाय तत्त्वविशेषविषयत्वं ज्ञापयतिमहदहङ्काररूपेणेति। एवं समष्टिव्यष्टितत्त्वमखिलमुक्तं भवति। अत्र सम्बन्धसामान्यविहितापि षष्ठी स्वस्वामिलक्षणसम्बन्धविशेषपर्यवसिता।
।।7.4।।एवं सावधानतया श्रोतव्यत्वेनार्जुनं बोधयित्वा पूर्वप्रतिज्ञातस्वस्वरूपज्ञानार्थं स्वस्य सर्वकर्त्तृत्वं सर्वस्वरूपत्वं चाह भूमिराप इत्यादिभिः। भूमिः आपः अनलः वायुः खम् एवं पञ्च महाभूतानि। मनः सङ्कल्पादिसाधनम् बुद्धिर्ज्ञानात्मिका अहङ्कारोऽभिमानादिरूपः इति। अनेन प्रकारेण इयं मे अष्टधा प्रकृतिर्माया भिन्ना विभागं प्राप्ता। लौकिककार्यार्थमिति भावः।
।।7.4।।एवमेकविज्ञानात्सर्वविज्ञानं प्रतिज्ञाय तदुपपत्तये सर्वस्य जडाजडप्रपञ्चस्य ज्ञानात्मकब्रह्मप्रभवत्वमाह त्रिभिः भूमिरिति। अत्र भूम्यादिपदैस्तत्तत्कारणान्येव गृह्यन्ते प्रकृतिरित्यधिकारात् स्थूलभूम्यादेश्च विकृतिमात्रत्वात्। तथा च भूमिरिति गन्धतन्मात्रं आप इति रसतन्मात्रं अनल इति रूपतन्मात्रं वायुरिति स्पर्शतन्मात्रं खमिति शब्दतन्मात्रं मन इति तत्कारणमहंकारः बुद्धिरिति समष्टिबुद्धिर्महत्तत्त्वं अहंकरोत्यनयेत्यहंकारो मूलप्रकृतिः। करणे घञो दुर्लभत्वेऽप्यगत्या बाहुलकात्तद्बोध्यम्। इयं मे मत्तोऽभिन्नाऽपृथक्सिद्धा शुक्तिशकलादिव रजतं अष्टधा अष्टप्रकारा प्रकृतिर्जडप्रपञ्चोपादानभूता। यद्वा नात्राव्यक्तमहदहंकारपञ्चतन्मात्राण्येवाष्टौ सांख्याभिमता एव प्रकृतयो ग्राह्या इति नियमोऽस्ति।मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति इति मनस इन्द्रियान्तरप्रकृतित्वश्रवणेन सन्तु नवापि प्रकृतयः। तथा चैवं योज्यम्। इयं मे मदभिन्ना प्रकृतिरव्याकृताख्या भूम्यादिभेदेनाष्टधेति मूलप्रकृतेरत्र भूम्यादिभिः सह पाठाज्जन्यत्वमवगम्यते न सांख्यानामिवाजन्यत्वम्।तस्मादव्यक्तमुत्पन्नं त्रिगुणं द्विजसत्तम इतिअव्यक्तं पुरुषे ब्रह्मन्निष्कले प्रविलीयते इति च तस्या अपि प्रभवप्रलययोः स्मरणात्।
।।7.4।।यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यत इत्युक्तेन श्रोतारममिमुखीकृत्य तदुपपत्तये चेतनातेतनप्रपञ्चस्य स्वस्मिन्परमात्मन्यध्यस्तत्वहबोधनायाह भूमिरिति। आकाशादिभिः शब्दस्पर्शरुपरगन्धाख्यानि तन्मात्राणि लक्ष्यन्ते। इत्तीयं मे भिन्न प्रकृतिरष्टधेति वाक्यशेषात्। मनःशब्देन तत्कारणमहंकारो लक्ष्यते। बुद्धिरित्यहंकारकारणं महत्तत्त्वं गृह्यते। अहंकार इत्यविद्यासंमिश्रमव्यक्तं लक्ष्यते। यथा विषसंमिश्रमन्नं विषमित्युच्यते तथाहंकारवासनावदव्यक्तं मूलकारणमहंकार इत्युच्यते। यत्तु बुद्य्धाहंकारशब्दौ तु स्वार्थावेन मनःशब्देनावशिष्टमव्यक्तं लक्ष्यते इति यत्पक्षान्तरं कैश्चित्प्रदर्शितं कैश्चत्प्रदर्शितं तदरुचिग्रस्तम्। तद्वीजं तु क्रमत्यागप्रसङ्गादि। यत्तु भूम्यादिशब्दैः पञ्चमहाभूतानि सूक्ष्मैः सैकीकृत्य गृह्यन्तेऽहंकारशब्देनैवाहंकारस्तेनैव तत्कार्याणीन्द्रियाण्यपि गृह्यन्ते बुद्धिरिति महत्तत्त्वं मनः शब्देन तु मनसवोन्नेयमव्यक्तरुपं प्रधानमिति। अनेन रुपेण प्रकृतिर्मायाख्या शक्तिरष्टधा भिन्ना विभागं प्राप्ता। चतुर्विशतिभेदभिन्नैवेत्यष्टास्वेवान्तर्भावविवक्ष्याष्टधा भिन्नेत्युक्तम्। तथाच वक्ष्यमाणक्षेत्राध्याये इमामेव प्रकृतिं चतुर्विशतितत्त्वात्मना प्रपञ्चयिष्यतिमहाभून्यहांकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः इत्यपरेवर्णयन्ति। तत्रेदमवधेयम्मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त। षोडशकस्तु विकारः इति सांख्योक्तप्रकारेणष्टस्वेव प्रकृतित्वव्यवहारो न विकारेषु। अत्रापि इतीयं से भिन्ना प्रकृतिरष्टघेति बचनादष्टौ प्रकृतय एव गृह्यन्ते। विकारस्य तु एतद्योनीनि भूतानिति भूतपदाभिधेयस्य सर्वस्याप्युपादानं क्षेत्राध्याये तु क्षेत्रनिरुपणावसरे इदमुक्तं तत्क्षेत्रमित्यारम्भइच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघाश्चेतना धृतिः। एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् इत्यन्तम्। यत्त्वन्ये नात्राव्यक्तमहदहंकारपञ्चतन्मात्राण्येवाष्टौ सांख्याभिमता एव प्रकृतयो ग्राह्या इति नियमोऽस्ति।मनसा ह्येव पश्यति मनसा श्रृणेति इति मनस इन्द्रियान्तरप्रकृतित्वश्रवणेन नवापि प्रकृतयः। तथाचैवं योज्यम्। इयं मे मम मदभिन्ना प्रकृतिरव्याकृताख्या द्विजसत्तम इतिअव्यक्तं पुरुषे ब्रह्मन्निष्कले संप्रसीयते इति तस्या अपि प्रभवप्रलययोः स्मरणादिति व्याचख्युस्तत्प्रकृताननुगुणम्। निर्देशानुसरणे तु मनःशब्देनोक्तश्रुत्या तस्य प्रकृतित्वात्तस्यैव ग्रहस्ततग्रहे मूलप्रकृतिग्रहे चोभयोरुपादाने वाष्टघेति विरोधापत्तेः मनसः प्रकृतित्ववर्णनमप्यसंगतम्। उदाहृतश्रुत्या तदलाभात्। मसा करणेनेन्द्रियद्वारकेण पश्यतीति श्रुत्यर्थाभ्युपगमात्। करणं विना द्वारस्याकिंचित्कतत्वात्। किंच विद्यारण्यादिभिराचार्यैर्मनसः श्रोत्राद्युत्पन्नमिति न प्रदर्शितं किंतुवियत्पवनतेजोऽम्बुभुवो भूतानि जज्ञिरे। सत्त्वांशैः पञ्चभिस्तेषां क्रमाद्धीन्द्रियपञ्चकम्। रजौशैः पञ्चभिस्तेषां क्रमात्कर्मेन्द्रियाणि तु।। इति भूतेभ्य इन्द्रियाणामुत्पत्तिर्दर्शिता। पुराणेषु तु अहंकारदेव सात्त्विकादिरुपेण त्रिविधात्समनस्कानामिन्द्रियदेवतानां त्वगादीन्द्रियाणां भूतानां च क्रमात्सेति सर्वथापि मनस इन्द्रियंप्रति प्रकृतित्वं नास्ति। यत्र क्वापि मनसस्तत्कल्पकत्वं श्रुयते तत्रापि मनउपाधिकस्यात्मन उपाधिप्रधानस्येति द्रष्टव्यम्।वदन्वाक्पश्यंश्चक्षुः श्रृण्वञश्रोत्रम् इत्यादिश्रुतेः। यदपि प्रकृतेः सादित्वं साधितं तदपि सिद्धान्तविरुद्धम्। मायाविद्यारूपेण द्विविधाया अपि मूलप्रकृतेः सर्वैरपि वेदान्तिभिरनादित्वेन सिद्धान्तित्वात्। तदुत्पत्तिलयवचनानि त्वाविर्भावतिरोभावपराणि। अन्यथा तत्कारणभूतायाः प्रकृतेरावश्यकत्वेनानवस्थापातादिति दिक्। इदीयं यथोक्ता प्रकृतिर्मे मम माया पारमेश्वरी अष्टधा अष्टभिः प्रकारैर्भिन्ना भेदमागता।
7.4 भूमिः earth? आपः water? अनलः fire? वायुः air? खम् ether? मनः mind? बुद्धिः intellect? एव even? च and? अहङ्कारः egoism? इति thus? इयम् this? मे My? भिन्ना divided? प्रकृतिः Nature? अष्टधा eightfold.Commentary This eightfold Nature constitutes the inferior Nature or Apara Prakriti. The five gross elements are formed out of the Tanmatras or rootelements through the process of Pancikarana or fivefold mixing. Tanmatras are the subtle rootelements. In this verse? earth? water? etc.? represent the subtle or rudimentary elements out of which the five gross elements are formed.Mind stands here for its cause Ahamkara intellect for its cause the Mahat Ahamkara for the Avyaktam or the unmanifested (MulaPrakriti) united with Avidya which is conjoined with all kinds of Vasanas or latent tendencies. As Ahamkara (Iness) is the cause for all the actions of every individual and as Ahamkara is the most vital principle in man on which all the other Tattvas or principles depend? the Avyaktam combined with the Ahamkara is itself called here Ahamkara? just as food which is mixed with poison is itself called poison.
7.4 Earth, water, fire, air, ether, mind, intellect and egoism thus is My Nature divided eightfold.
7.4 Earth, water, fire, air, ether, mind, intellect and personality; this is the eightfold division of My Manifested Nature.
7.4 This Prakrti of Mine is divided eight-fold thus: earth, water, fire, air, space, mind, intellect and also egoism.
7.4 Iyam, this; prakrtih, Prakrti, [Prakrti here does not mean the Pradhana of the Sankhyas.] the divine power called Maya; me, of Mine, as described; bhinna, is divided; astadha, eight-forl; iti, thus: bhumih, earth-not the gross earth but the subtle element called earth, this being understood from the statement, 'Prakrti (of Mine) is divided eight-fold'. Similarly, the subtle elements alone are referred to even by the words water etc. Apah, water; analah, fire; vayuh, air; kham, space; manah, mind. By 'mind' is meant its source, egoism. By buddhih, intellect, is meant the principle called mahat [Mahat means Hiranyagarbha, or Cosmic Intelligence.] which is the source of egoism. By ahankarah, egoism, is meant the Unmanifest, associated [Associated, i.e. of the nature of.] with (Cosmic) ignorance. As food mixed with position is called poison, similarly the Unmainfest, which is the primordial Cause, is called egoism since it is imbued with the impressions resulting from egoism; and egoism is the impelling force (of all). It is indeed seen in the world that egoism is the impelling cause behind all endeavour.
7.4. My nature is divided eightfold, such as the Earth, the Water, the Fire, the Wind, the Ether, the Mind, and also the Intellect and the Ego;
7.4 See Comment under 7.5
7.4 Know that Prakrti, the material cause of this universe, which consists of endless varieties of objects and means of enjoyment and places of enjoyment, is divided into eightfold substances - earth, water, fire, air and ether, having smell, taste etc., as their attributes, and Manas along with kindred sense organs and the categories Mahat and ego-sense - all belonging to Me.
7.4 Earth, water, fire, air, ether, Manas, Buddhi and ego-sense - thus My Prakrti is divided eightfold.
।।7.4।।इस प्रकार रुचि बढ़ाकर श्रोताको सम्मुख करके कहते हैं भिन्ना प्रकृतिरष्टधा वह कथन होनेके कारण यहाँ भूमिशब्दसे पृथिवीतन्मात्रा कही जाती है स्थूल पृथ्वी नहीं वैसे ही जल आदि तत्त्व भी तन्मात्रारूपसे कहे जाते हैं। ( इस प्रकार पृथ्वी ) जल अग्नि वायु और आकाश एवं मन यहाँ मनसे उसके कारणभूत अहंकारकाग्रहण किया गया है तथा बुद्धि अर्थात् अहंकारका कारण महत्तत्त्व और अहंकार अर्थात् अविद्यायुक्त अव्यक्त मूलप्रकृति। जैसे विषयुक्त अन्न भी विष ही कहा जाता है वैसे ही अहंकार और वासनासे युक्त अव्यक्त मूलप्रकृति भी अहंकार नामसे कही जाती है क्योंकि अहंकार सबका प्रवर्तक है संसारमें अहंकार ही सबकी प्रवृत्तिका बीज देखा गया है। इस प्रकार यह उपर्युक्त प्रकृति अर्थात् मुझ ईश्वरकी मायाशक्ति आठ प्रकारसे भिन्न है विभागको प्राप्त हुई है।
।।7.4।। भूमिः इति पृथिवीतन्मात्रमुच्यते न स्थूला भिन्ना प्रकृतिरष्टधा इति वचनात्। तथा अबादयोऽपि तन्मात्राण्येव उच्यन्ते आपः अनलः वायुः खम्। मनः इति मनसः कारणमहंकारो गृह्यते। बुद्धिः इति अहंकारकारणं महत्तत्त्वम्। अहंकारः इति अविद्यासंयुक्तमव्यक्तम्। यथा विषसंयुक्तमन्नं विषमित्युच्यते एवमहंकारवासनावत् अव्यक्तं मूलकारणमहंकार इत्युच्यते प्रवर्तकत्वात् अहंकारस्य। अहंकार एव हि सर्वस्य प्रवृत्तिबीजं दृष्टं लोके। इतीयं यथोक्ता प्रकृतिः मे मम ऐश्वरी मायाशक्तिः अष्टधा भिन्ना भेदमागता।।
।।7.4।।मनुष्याणामितिवदुत्तरमप्यन्यार्थमिति प्रतीतिनिरासार्थं प्रतिज्ञातयोरुभयोः किमादावुच्यते इत्यपेक्षायां चाह प्रतिज्ञातमिति। असङ्गतिपरिहारायानन्यार्थताज्ञापनाय च ज्ञानस्य प्राथम्ये हेतुसूचनाय च प्रतिज्ञातमित्युक्तम्। प्रतिज्ञातत्वेन सङ्गतं प्रतिज्ञातमेव। न तु तदर्थं प्राथम्येन प्रतिज्ञातम्।रसोऽहं इत्यतः प्राक्तनग्रन्थसङ्ग्रहायादिपदम्। महत्तत्त्वमत्र नोपात्तं तत्किं नास्त्येव इत्यत आह महत इति। अहङ्कारेऽहङ्कारशब्दार्थेऽन्तर्भावः। कार्यवाचिनाऽहङ्कारशब्देन कारणस्य महतोऽप्युलक्षणमेव न त्वभाव इत्यर्थः।
।।7.4।।प्रतिज्ञातं ज्ञानमाह महतोऽहङ्कार एवान्तर्भावः।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।
ভূমিরাপোনলো বাযুঃ খং মনো বুদ্ধিরেব চ৷ অহঙ্কার ইতীযং মে ভিন্না প্রকৃতিরষ্টধা৷৷7.4৷৷
ভূমিরাপোনলো বাযুঃ খং মনো বুদ্ধিরেব চ৷ অহঙ্কার ইতীযং মে ভিন্না প্রকৃতিরষ্টধা৷৷7.4৷৷
ભૂમિરાપોનલો વાયુઃ ખં મનો બુદ્ધિરેવ ચ। અહઙ્કાર ઇતીયં મે ભિન્ના પ્રકૃતિરષ્ટધા।।7.4।।
ਭੂਮਿਰਾਪੋਨਲੋ ਵਾਯੁ ਖਂ ਮਨੋ ਬੁਦ੍ਧਿਰੇਵ ਚ। ਅਹਙ੍ਕਾਰ ਇਤੀਯਂ ਮੇ ਭਿਨ੍ਨਾ ਪ੍ਰਕਰਿਤਿਰਸ਼੍ਟਧਾ।।7.4।।
ಭೂಮಿರಾಪೋನಲೋ ವಾಯುಃ ಖಂ ಮನೋ ಬುದ್ಧಿರೇವ ಚ. ಅಹಙ್ಕಾರ ಇತೀಯಂ ಮೇ ಭಿನ್ನಾ ಪ್ರಕೃತಿರಷ್ಟಧಾ৷৷7.4৷৷
ഭൂമിരാപോനലോ വായുഃ ഖം മനോ ബുദ്ധിരേവ ച. അഹങ്കാര ഇതീയം മേ ഭിന്നാ പ്രകൃതിരഷ്ടധാ৷৷7.4৷৷
ଭୂମିରାପୋନଲୋ ବାଯୁଃ ଖଂ ମନୋ ବୁଦ୍ଧିରେବ ଚ| ଅହଙ୍କାର ଇତୀଯଂ ମେ ଭିନ୍ନା ପ୍ରକୃତିରଷ୍ଟଧା||7.4||
bhūmirāpō.nalō vāyuḥ khaṅ manō buddhirēva ca. ahaṅkāra itīyaṅ mē bhinnā prakṛtiraṣṭadhā৷৷7.4৷৷
பூமிராபோநலோ வாயுஃ கஂ மநோ புத்திரேவ ச. அஹங்கார இதீயஂ மே பிந்நா ப்ரகரிதிரஷ்டதா৷৷7.4৷৷
భూమిరాపోనలో వాయుః ఖం మనో బుద్ధిరేవ చ. అహఙ్కార ఇతీయం మే భిన్నా ప్రకృతిరష్టధా৷৷7.4৷৷
7.5
7
5
।।7.4 -- 7.5।।  पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है। हे महाबाहो ! इस 'अपरा' प्रकृतिसे भिन्न मेरी जीवरूपा बनी हुुई मेरी 'परा' प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
।।7.5।। हे महाबाहो ! यह अपरा प्रकृति है। इससे भिन्न मेरी जीवरूपी पराप्रकृति को जानो, जिससे यह जगत् धारण किया जाता है।।
।।7.5।। अष्टधा प्रकृति अपरा जड़ है। उसे बताने के पश्चात् उससे भिन्न अपनी परा प्रकृति को भगवान् बताते हैं। वह परा प्रकृति जीवरूप अर्थात् चेतन रूप है जिसके कारण ही शरीर मन और बुद्धि अपनेअपने कार्य इस प्रकार करते हैं मानो वे स्वयं ही चेतन हों।इस चेतन की विद्यमानता में ही उपाधियाँ अपना व्यापार कर सकती हैं अन्यथा नहीं। चैतन्य के बिना हमें न बाह्य स्थूल जगत् का और न आन्तरिक सूक्ष्म विचार रूप जगत् का ही अनुभव और ज्ञान हो सकता है। वही जगत् को धारण किये हुए है। उसके अभाव में हमारी दशा एक पाषाण के समान हो जायेगी जिसमें न चेननता है और न बुद्धिमत्ता।भगवान् के इस कथन को कि परा प्रकृति जगत् का आधार है भौतिक विज्ञान की दृष्टि से विचार करके भी सिद्ध किया जा सकता है। हम अपने घर में रहते हैं जिसका आधार है भूमि। उस भूमिभाग का आधार है शहर शहर का राष्ट्र और राष्ट्र का आधार विश्व है विश्व घिरा हुआ है समुद्र के जल से जिसकी स्थिति वायुमण्डल पर निर्भर करती है। यह वायुमण्डल तो सौरमण्डल अथवा ग्रहमण्डल का एक भाग है। सम्पूर्ण विश्व आकाश में स्थित है और आकाश स्थित है मन में स्थित आकाश की कल्पना पर। मन का आधार है बुद्धि का निर्णय। और क्योंकि बुद्धिवृत्तियों का ज्ञान चैतन्य के कारण ही संभव है इसलिए यह चैतन्य ही सम्पूर्ण जगत् का आधार सिद्ध होता है। व्ाही जगत् का अधिष्ठान है।दर्शनशास्त्र में जगत् का अर्थ केवल इन्द्रियगोचर जगत् ही नहीं वरन् मन तथा बुद्धि के द्वारा अनुभूयमान जगत् भी उस शब्द की परिभाषा मे समाविष्ट है। इस प्रकार बाह्य विषय भावनाएं और विचार ये सब जगत् ही हैं। यह सम्पूर्ण जगत् चेतनस्वरूप परा प्रकृति के द्वारा धारण किया जाता है।
।।7.5।। व्याख्या--'भूमिरापोऽनलो वायुः ৷৷. विद्धि मे पराम्'--परमात्मा सबके कारण हैं। वे प्रकृतिको लेकर सृष्टिकी रचना करते हैं (टिप्पणी प0 397.1)।   जिस प्रकृतिको लेकर रचना करते हैं, उसका नाम 'अपरा प्रकृति' है और अपना अंश जो जीव है, उसको भगवान् 'परा प्रकृति' कहते हैं। अपरा प्रकृति निकृष्ट, जड और परिवर्तनशील है तथा परा प्रकृति श्रेष्ठ, चेतन और परिवर्तनशील है।प्रत्येक मनुष्यका भिन्न-भिन्न स्वभाव होता है। जैसे स्वभावको मनुष्यसे अलग सिद्ध नहीं कर सकते, ऐसे ही परमात्माकी प्रकृतिको परमात्मासे अलग (स्वतन्त्र) सिद्ध नहीं कर सकते। यह प्रकृति प्रभुका ही एक स्वभाव है; इसलिये इसका नाम 'प्रकृति' है। इसी प्रकार परमात्माका अंश होनेसे जीवको परमात्मासे भिन्न सिद्ध नहीं कर सकते; क्योंकि यह परमात्माका स्वरूप है। परमात्माका स्वरूप होनेपर भी केवल अपरा प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेके कारण इस जीवात्माको प्रकृति कहा गया है। अपरा प्रकृतिके सम्बन्धसे अपनेमें कृति (करना) माननेके कारण ही यह जीवरूप है। अगर यह अपनेमें कृति न माने तो यह परमात्मस्वरूप ही है; फिर इसकी जीव या प्रकृति संज्ञा नहीं रहती अर्थात् इसमें बन्धनकारक कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं रहता (गीता 18। 17)।
।।7.4 7.5।।भूमिरिति। अपरेति। इयमिति प्रत्यक्षेण या संसारावस्थायां। सर्वजनपरिदृश्यमाना सा चैकैव सती प्रकाराष्टकेन भिद्यते इति एकप्रकृत्यारब्धत्वादेकमेव विश्वमिति प्रकृतिवादेऽपि अद्वैतं प्रदर्शितम्। सैव जीवत्वं पुरुषत्वं प्राप्ता परा ममैव नान्यस्य च। सा (S omits सा) उभयरूपा वेद्यवेदकात्मकप्रपञ्चोपरचनविचित्रा तत एव स्वात्मविमलमुकुरतलकलितसकलभावभूमिः स्वस्वभावात्मिका सततमव्यभिचारिणी प्रकृतिः। इदं जगत् भूम्यादि।
।।7.5।।इयं मम अपरा प्रकृतिः इतः तु अन्याम् इतः अचेतनायाः चेतनभोग्यभूतायाः प्रकृतेः विसजातीयाकारां जीवभूतां परं तस्याः भोक्तृत्वेन प्रधानभूतां चेतनरूपां मदीयां प्रकृतिं विद्धि यया इदम् अचेतनं कृत्स्नं जगद् धार्यते।
।।7.5।।अचेतनवर्गमेकीकर्तुं प्रकृतेरष्टधा परिणाममभिधाय विकारावच्छिन्नकार्यकल्पं चेतनवर्गमेकीकर्तुं पुरुषस्य चैतन्यस्याविद्याशक्त्यवच्छिन्नस्यापि प्रकृतित्वमुक्तां प्रकृतिमनूद्य दर्शयति अपरेति। निकृष्टत्वं स्पष्टयति अनर्थकरीति। अनर्थकरत्वमेव स्फोरयति संसारेति। कथंचिदप्यनन्यत्वव्यावृत्त्यर्थस्तुशब्दः। अन्यामत्यन्तविलक्षणामिति यावत्। अन्यत्वमेव स्पष्टयति विशुद्धामिति। प्रकृतिशब्दस्यान्यप्रयुक्तस्यार्थान्तरमाह ममेति। प्रकृष्टत्वमेव भोक्तृत्वेन स्पष्टयति जीवभूतामिति। प्रकृत्यन्तरादस्याः प्रकृतेरवान्तरविशेषमाह ययेति। नहि जीवरहितं जगद्धारयितुं शक्यमित्याशयेनाह अन्तरिति।
।।7.5।।अपरेति इतस्त्वन्यामजडां चित्स्वरूपां परां भोक्तृत्वेन प्रधानभूतां पुरुषत्वेन निर्दिष्टामत्र जीवभूतां मे प्रकृतिं चिदंशभूतां विद्धि। अत्र जीवः पूर्वमविद्यया क्रियत इत्ययुक्तम्। तथा सति जीवीभूतामिति स्यात्पुत्रीभूतइतिवत्। जीवत्वं च नाविद्याकृतं किन्तु भगवता सहजेच्छया कृतं विभागस्याविद्याकृतत्वे मानाभावात्।सच्चिदानन्दरूपो हि भगवान्पुरुषोत्तमः। एककोटिनिविष्टश्चिद्रूपश्चाक्षरतः परः।। तस्य माया द्विविधेति पूर्वं निरूपितम्। तत्र चिद्रूपस्य या माया सा व्यामोहिका स्वपुरुषं व्यामोहियत्वा जीवतामापादयति। जीवतीति जीवः केवलप्राणधारणप्रयत्नवान् तृतीयस्कन्धे अ.30 मायया जीवतापन्नतया तथानिरूपणात्। स हि मायया व्यामोहितः व्याकुलः सन् सदानन्दकृतसृष्टौ यः सूत्रात्मक आसन्यो दशविधप्राणरूपस्तमवलम्ब्य तिष्ठति तदा जीव इत्युच्यते।जीव प्राणधारणे इति धातोः कर्त्तरि अन्प्रत्ययः। बोधरूपोऽप्ययं आनन्दरूपस्य पृथग्भूतत्वादानन्दार्थं तया व्यामोहितस्तत्सम्बन्धादानन्दो भविष्यतीति बुद्ध्या तया सम्पद्यते।अयं च विभागः बहु स्यां प्रजायेय छां.उ.6।2।3 इतीच्छया। इच्छाऽपि तस्य सर्वभवनसमर्था स्वरूपमेवधर्मरूपेणाभवत् इच्छारूपेणापि भवति। तत्र सदंशस्य क्रियारूपा शक्तिः चिदंशस्य व्यामोहिका माया आनन्दरूपस्य जगत्कारणभूता एतत्ित्रतयरूपा शक्तिः सच्चिदानन्दरूपस्य भावः नत्वतलादिवाच्यः तथा भगवतो भावस्वरूपादेव निर्मितत्वात्। न च सर्वदा भवतीति शङ्कनीयम् आपादकहेतुभूतकालस्य अभावात्। जाते पुनः काले तस्यैव नियामकत्वात्। न सर्वदा भविष्यति पूर्वमेव जातत्वात्। तत्सङ्गे इच्छादीनामपि जातत्वादिच्छादयस्तदंशभूतांस्तान्सदैकरूपान् स्थापयन्ति। तथा च तस्या अंशं प्रतिगृह्णाति स भगवान्। इच्छारूपः स एव कामः सोऽकामयत बृ.उ.1।2।467 इत्युक्तः। तया कृत्वा भेदरूपया सच्चिदानन्दधर्माः स्वयं भिद्यमानाः स्वाश्रयमपि भिन्दन्ति तदा स भगवान् सर्वतः पाणिपादान्तो भवति साकारतां चापद्यते भिन्नोऽपि तथामिलितोऽभिन्न इवाखण्डो भवति तदपेक्षया कार्यरूपस्याल्पत्वात्। तानि त्रीण्यपि रूपाणि पूर्णशब्देनोच्यन्ते। अत एव सद्रूपस्य कार्ये प्रत्येकपर्यवसायित्वम्।प्रजायेय इतीच्छयोत्कर्षापकर्षरूपेण जातः तत्र आनन्द उत्कृष्टः तदेतरौ तं सेवमानौ जातौ ततश्च तयोर्धर्मौ ज्ञानक्रिये भगवच्छक्तिरूपे ज्ञाते तदा स आनन्दज्ञानक्रियाशक्तिमान् जातः तदा चिदंशस्य शक्तिः आनन्दे गतत्वात् ज्ञानधर्मस्य तं व्यामोहयति तदा तस्य जीवत्वम्। सदंशस्तु क्रियाशक्तेर्गतत्वादव्यक्ततामापद्यते। पश्चान्मूलभूतिक्रियांशाभिर्यथायथं अभिव्यज्यते। पश्चात्तस्यां तत्कृतधर्मे वा तिरोहिते स्वयमपि तिरोभवति तदा तस्यां मूलेच्छया जातः शब्दोऽभिव्यक्तस्तिष्ठति जीवभगवद्बुद्धिषु जीवे भगवति च। एवं चिद्रूपोऽपि ज्ञानशक्त्यंशभूतैर्ज्ञानैरभिव्यज्यते तिरोभवति च। प्रयत्नस्तु तस्यापराधीन इति स जीवग्रहणार्थं सर्वदा तिष्ठति। स चेद्भगवांस्तस्मै तां पूर्णां ज्ञानशक्तिं प्रयच्छेत् तदा तां व्यामोहिकां मायां त्यजति प्रयत्नं च स्वरूपे चावतिष्ठति अपराधीनश्च भवति। जगत्कर्तृत्वं तु न भवति तस्य सा मायाशक्तिर्न भवति यतः आनन्दस्यैवोत्कृष्टत्वात्। हीनता तु आपाततो वर्तते आनन्देन सह मिलितस्त्वानन्दोऽपि भवति। स चेत्स्वधर्मेण संगृह्णीयात्। यथोक्तं विष्णुपुराणे 6।7।61विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञाख्या तथाऽपरा। अविद्या कर्मसंज्ञाऽन्या तृतीया शक्तिरिष्यते। इति। इयं प्रक्रिया सर्वश्रुतिवाक्यानुरोधेन श्रुतार्थापत्तिसिद्धा सर्वत्रैवोपयुज्यते अन्यथा प्रक्रियावाक्यानि बाधते इति श्रीमदाचार्योक्तपदव्याख्या। जीवभूतो भगवदंशः ययेदं जगत् शरीरं जडं सदसन्मिश्रितं विराड्रूपं धार्यते तां मे परां प्रकृतिं विद्धि।
।।7.5।।एवं क्षेत्रलक्षणायाः प्रकृतेरपरत्वं वदन्क्षेत्रज्ञलक्षणां परां प्रकृतिमाह या प्रागष्टधोक्ता प्रकृतिः सर्वाचेतनवर्गरूपा सेयमपरा निकृष्टा जडत्वात्परार्थत्वात्संसारबन्धरूपत्वाच्च। इतस्त्वचेतनवर्गरूपायाः क्षेत्रलक्षणायाः प्रकृतेरन्यां विलक्षणां तुशब्दाद्यथाकथंचिदप्यभेदायोग्यां जीवभूतां चेतनात्मिकां क्षेत्रलक्षणां मे ममात्मभूतां विशुद्धां परां प्रकृष्टां प्रकृतिं। हे महाबाहो यया क्षेत्रज्ञलक्षणया जीवभूतयाऽन्तरनुप्रविष्टया प्रकृत्येदं जगदचेतनजातं भाव्यते स्वतो विशीर्य उत्तभ्यतेअनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि इति श्रुतेः। नहि जीवरहितं धारयितुं शक्यमित्यभिप्रायः।
।।7.5।।अपरामिमां प्रकृतिमुपसंहरन्परां प्रकृतिमाह अपरेति। अष्टधोक्ता या प्रकृतिरियमपरा निकृष्टा जडत्वात्परार्थत्वाच्च इतः सकाशात्परां प्रकृष्टामन्यां जीवस्वरूपां मे प्रकृतिं विद्धि जानीहि। परत्वे हेतुः यया चेतनया क्षेत्रज्ञरूपया स्वकर्मद्वारेणेदं जगद्धार्यते।
।।7.5।।एवमचिद्विलक्षणत्वं प्रतिपादितम् अतथाभूताज्जीवादपि विलक्षणत्वं प्रतिपाद्यतेअपरेयम् इति श्लोकेन। अपरा अनुत्कृष्टा अप्रधानभूतेत्यर्थः। तुशब्दोऽत्यन्तवैलक्षण्यपरः।इतः पराम् इत्येतावतैव स्वरूपभेदे सुवचेऽप्यन्यशब्दो वैजात्यद़ृढीकरणार्थ इत्यभिप्रायेणअचेतनाया इत्यादिकमुक्तम्। भोक्ता भोग्यम् श्वे.उ.1।12 इत्यादिश्रुत्यनुसारेण भोक्तृत्वभोग्यत्वाभ्यां परत्वापरत्वे दर्शिते।इदं जगत् इति प्रमाणसिद्धनिर्देशासङ्कोचात् कृत्स्नमित्युक्तम्। तत्रइदम् इति पराक्त्वनिर्देशेन सूचितमचेतनत्वम्। इदं च धारणं जागरादिषु सङ्कल्पत इति प्रत्यक्षादिसिद्धम् अन्यदाऽपि स्वरूपतो धारणमिति।
।।7.5।।तदेवाह अपरेति। इयं अपरा नीचेत्यर्थः। तु पुनः। हे महाबाहो क्रियासमर्थ एतज्ज्ञानयोग्य इतः सकाशादन्यां परामुत्कृष्टां जीवभूतां में प्रकृतिं विद्धि जानीहि। परत्वमेवाह ययेदमिति। यया इदं परिदृश्यमानं जगद्धार्यते ध्रियते पोष्यते च।अत्रायं भावः भगवान् स्वक्रीडार्थं जगत् सृजति तत्र प्रकृत्या स्वशक्त्या क्रीडाधिकरणभूतजगत्सृष्टिं विधाय तद्भोगार्थं क्रीडार्थकया स्वशक्त्या तद्रूपजीवसृष्टिं कृतवान् तया इदं पूर्वकृतं भोगादिरूपेण धार्यते। तस्माल्लौकिकसृष्टौ जीवरूपेण भगवान् भोगं कुर्वन् क्रीडतीति ज्ञानेन तस्यां बन्धो न स्यात्। एतत्स्वरूपज्ञानाद्रसानुकरणज्ञानं स्यादिति भावः। यद्वा या पूर्वमष्टधोक्ता सा अपरा प्रकृतिः शक्तिः क्रीडार्थं शक्त्यंशभूतेति भावः। संयोगविलासे अनेकधा रसोत्पत्त्यर्थमाविर्भूतेत्यर्थः। अतएव भिन्नातद्विलासेच्छया जाता। इतः सकाशादन्या विप्रयोगे तदन्वेषणार्थ पुनर्दास्यरससिद्ध्यर्थमाविर्भूता जीवभूता दास्यरूपा सा मच्छक्तिस्तां परां केवलमदंशामुत्कृष्टां जानीहि। उत्कृष्टरूपतामेवाह यया इदं जडात्मकं जगद्धार्यते जीवप्राकट्यानन्तरं तद्भावेन सर्वं क्रीडौपयिकत्वेन पोष्यत इति भावः।
।।7.5।।एवं क्षेत्रात्मिकां प्रकृतिमुक्त्वा क्षेत्रज्ञात्मिकां तामाह अपरेयमिति। इयं प्रागुक्ता सा अपरा अश्रेष्ठा जडत्वात्। इतस्तु विलक्षणामन्यां परां चेतनत्वेन मदनन्यत्वादुत्कृष्टां मे मत्संबन्धिनीं प्रकृतिं जीवभूतां प्राणधारणनिमित्तभूतां क्षेत्रज्ञाख्यां विद्धि जानीहि। हे महाबाहो यया प्रकृत्या अन्तःप्रविष्टया इदं जगत्स्थावरजंगमशरीरात्मकं धार्यते।
।।7.5।।अचेतनवर्गस्य स्वस्मिन्कल्पितत्वं वक्तुं प्रकृतेरष्टधा परिणाममभिधाय विकारावच्छिन्नस्य कार्यकल्पस्य तथात्वं वक्तुं चैतन्यस्याविद्यावच्छिन्नस्य प्रकृतित्वमुक्तां प्रकृतिमनूद्य दर्शयति अपरेति। अपरा निकृष्टाऽशुद्धत्वात् अनर्थकत्वात् संसारस्वरुपत्वात् बन्धनात्मकत्वात् इयमष्टप्रकारा इतोऽस्या अन्याम्। कथमप्यनन्यत्वव्यावृत्त्यर्थस्तुशब्दः। विशुद्धत्वात् प्रकृतिं परामुत्कृष्टां जीवभूतां क्षेत्रलक्षणां प्राणधारणनिमित्तभूतां ममात्मभूतां विद्धि जानिहि। नहि जीवरहितं जगद्धारयितुं शक्यमित्याशयेन प्रकृत्यन्तरादस्याः प्रकृतेरवान्तविशेषमाह। यया जगदन्तप्रविष्टयाअनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य नामरुपे व्याकरवाणि इति श्रुतेर्धार्यते स्वतो विशीर्यज्जगदचेतनवर्गो विष्टभ्यते यथा महाबाहुना त्वया स्वतो विनश्यत् राज्यं क्षेत्रधर्मं च धारयितुं शक्यते तथेति भूतानां यथा मृन्मयो घटो भृत्प्रकृतिक इति कार्यलिङ्गकमनुमानं प्रमाणयन् तद्द्वारा स्वस्य तत्पदार्थस्याभिन्ननिमित्तोपादानकारणत्वं द्रर्शयति एतदिति। एते परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे प्रकृती योनी कारणभूते येषां सर्वेषां भूतानां कारणभूते तस्मात्स्वप्रकृतिद्वयद्वाराहं सर्वज्ञ ईश्वरो वेदान्तप्रतिपाद्यः कृत्स्त्रस्य समग्रस्य जगतः प्रभवः उत्पत्तिः प्रलयो विनाशः। उत्पत्तिविनाशकारणमित्यर्थः। तथाच भगवतो व्यासस्य सूत्राणिजन्माद्यस्य यतःप्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुरोधात्अभिध्योपदेशाच्च साक्षाच्चोभयाम्रानात्आत्मकृतेः परिणामात्योनिश्च हि गीयते इति पूर्वाधिकरण ब्रह्म जिज्ञास्यमित्युक्तं किलक्षणं पुनस्तद्ब्रह्येत्यत आह भगवान्सूत्रकारः। जन्मोत्पत्तिरादिर्यस्य तदिदं जन्मास्थितिभङ्गं जन्मादि अस्य प्रत्यक्षादिसंनिधापितस्य वित्रित्रस्य जगतो यतो जन्मादि यस्मात्सर्वज्ञात्सर्वशक्तेः कारणद्भवति तद्ब्रह्म। तथाच श्रुतिःयतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्तित्यभिसंविशन्ति। तद्ब्रह्म तद्विजिज्ञासस्व इति। तथाच जगज्जन्मादिकारणत्वं ब्रह्मणो लक्षणमुक्तम्। तच्च घटादीनां मृदातिवत्प्रकृतित्वे कुलालादिवन्निमित्वे समानमित्यतो भवति विमर्शः किमात्मकं पुनर्ब्रह्मणः कारणत्वं स्यादिति। तत्र निमित्तकारणत्वमेव केवलं स्यादिति प्रतिभाति। कस्मात् ईक्षापूर्वककर्तृत्वश्रवणात्स ईक्षांचक्रेस प्राणमसृजत् इत्यादिश्रुतिभ्यः। ईक्षापूर्वकं च कर्तृत्वं निमित्तकारणेष्वेव समानमित्यतो भवति विमर्शः किमात्मकं पुनर्ब्रह्मणः कारणत्वं स्यादिति। तत्र निमित्तकारणत्वमेव केवलं स्यादिति प्रतिभाति। कस्मात् ईक्षापूर्वककर्तृत्वश्रवणात्स ईक्षांचक्रेस प्राणमसृजत् इत्यादि श्रुतिभ्यः। ईक्षापूर्वकं च कर्तृत्वं निमित्तकारणेष्वेव कुलालादिषु दृष्टम्। अनेककारकपूर्विका च क्रियाफलसिद्धिर्लोके दृष्टा। सच न्याय आदिकर्तर्यापि युक्तः संक्रामयितुं ईश्वरत्वप्रसिद्धेश्च। ईश्वराणां हि राजवैवस्तवतादीनां निमित्तकारणत्वमेव केवलं प्रतीयते तद्वत्परमेश्वरस्यापि निमित्तकारणत्वमेव प्रतिपत्तुं युक्तम्। कार्य चेदं जगत्सावयममचेतनमशुद्धं च दृश्यते तस्य कारणेनापि तत्सदृशेनैव भाव्यम्। कार्यकारणयोर्मृद्धटादिरुपयोः सादृशयदर्शनात्। ब्रह्म चनिष्करं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् इत्यादिश्रुतिभ्यो नैवंविधमवगभ्यते पारिशेष्यात्ततोऽन्यदुपादानकारणमशुद्य्धादिगुणकं स्मृतिप्रसिद्धमभ्युपेयम्। ब्रह्मकारणत्वश्रुतेर्निमित्तमात्रे पर्यवसानादित्येवंप्राप्ते आह। प्रकृतिश्चोपादानकारणं ब्रह्माभ्युपेयं निमित्तकारणं च। न केवलं निमित्तकारणमेव तत्र हेतुमाह प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात्। एवं प्रतिज्ञादृष्टान्तौ श्रौतौ नोपरुध्येते। प्रतिज्ञा तावत्उततमादेशमप्राक्षो येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातम् इत्येकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं प्रतिज्ञातम्। तत्रोपादानकारणे विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति। कार्यस्योपादातकारणाव्यतिरेकात्। तक्षादिनिमित्तकारणात्प्रासादादेः कार्यस्य लोकेऽव्यतिरेकानुपलब्धेर्नास्ति निमित्तकारणाव्यतिरेकः। कार्यस्य दृष्टान्तोऽपियता सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृतिकेत्येव सत्त्यम् इत्युपादानकारणगोचर एव आम्रायते। एवं यथासंभवं प्रतिवेदान्तं प्रतिज्ञादृष्टान्तौ प्रकृतित्वप्रसाधनौ प्रत्येतव्यौयतो वा इमानि भूतानि जायन्ते इत्यत्र यत इतीयमपि पञ्चमी प्रकृतिलक्षणे एवापादाने द्रष्टव्या।जनिकर्तुः प्रकृतिः इति विशेषस्मरणात्। निमित्तत्वं तु अधिष्ठात्रन्तराभावादधिगन्तव्यम्। प्रागुत्पत्तेरेकमेवाद्वितीयमित्यवधारणात्। अधिष्ठात्रन्तराभावादधिन्तव्यम्। प्रागुत्पत्तेरेकमेवाद्वितीयमित्यवधारणात्। अधिष्टात्रन्तरत्वे एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानस्यासंभवेन प्रतिज्ञादृष्टान्तोपरोधस्यात्रापि प्रसङ्गाच्च तस्याधिष्ठात्रन्तराभावाद्ब्रह्मणः कर्तुत्वं उपादानान्तराभावात्प्रकृतित्वम्। ब्रह्मणः कर्तृत्वप्रकृतित्वे हेत्वन्तरमाह अभिध्येति।सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेतेतितदैक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति चाभिध्यापूर्विकायाः स्वातन्त्रयप्रवत्तेः कर्तेति गम्यते। बहु स्यामिति प्रत्यगात्मविषयत्वात्। बहुभवनाभिध्यानस्य प्रकृतिरिति ब्रह्मणः प्रकृतित्वे हेत्वन्तरमाह साक्षादिति।सर्वाणि ह वा इमानि भूतानि आकाशदेव समुत्पद्यन्ते आकाशे प्रत्यस्तं यान्ति इति श्रुत्या साक्षाद्ब्रह्मैव कारणमुपादायोभयोः प्रभवप्रलययोराम्रानात्। यद्धि यस्मादुत्पद्यते यस्मिंश्च प्रलीयते तत्तस्योपादानं प्रसिद्धम्। यथा घटरुचकादेः मृत्सुवर्णादि। तत्रैव हेत्वन्तरमाह आत्मकृतेरिति।तदात्मानं स्वयमकुरुत इत्यामनः आत्मानमिति कर्मत्वस्य स्वयमकुरुतेति कर्तृत्वस्य च दर्शनात्। ननु पूर्वसिद्धस्य सतः कर्तृत्वेन व्यवस्थितस्य क्रियमाणत्वं कथमिति चेतत्राह परिणामादिति। घटादिरुपेण मृदातिवत्पूर्वसिद्धिस्यापि सत आत्मनो विशेषेणात्मना परिणआमात्स्वमिति विशेषणाच्च निमित्तान्तरानपेक्षत्वं च प्रतीयते परिणामादिति पृथक्सूत्रं वा। इतश्च ब्रह्म प्रकृतिःसच्च त्यच्चाभवन्निरुक्तं चानिरुक्तं च इत्यादिना ब्रह्मणएव विकारात्मना परिणामाभ्रानात्। तत्र हेत्वन्तरमाह योनिरिति।कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् इतियद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः इति च वेदान्तरेषु हि यस्माद्योनिश्च ब्रह्म गीयते योनिशब्दश्च प्रकृतिवचनो लोके समधिगतःपृथिवी योनिरोषधिनस्पतीनाम् इति। यत्पुरुक्तं ईक्षापूर्वकं कर्तृत्वं निमित्तकारणेष्वेव कुलालादिषु लोके दृष्टं नोपादानेषु इत्यादि तत्प्रत्युत्यते। न लोकवदिह भवितव्यम्। नह्ययमनुमान गम्योऽर्थः शब्दगम्यता चास्यार्थस्यातो यथाशब्दमिह भवितव्यं शब्देश्चेक्षितुरीश्वरस्य प्रकृतित्वं प्रतिपादयतीत्यवोचाम। तथायेन्शचरकारणत्ववादिश्रुत्यनुसारिणीनांअहं कृत्स्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयसतथायत्तत्सुक्षममविज्ञेयंस ह्यन्तरात्मा भूतानां क्षेत्रज्ञश्चेति कथ्यते। तस्मादव्यक्तमुत्पन्नं त्रिगुणं द्विजसत्तम्। अव्यक्तं पुरुषे ब्रह्मन्निर्गुणे संप्रलीयते।। अतश्च संक्षेपमिदं श्रृणुध्वं नारायणः सर्वमिदं पुराणः। स सर्गकाले च करोति सर्वं सैहारकाले च तदत्ति भूयः।।तस्मात्काद्याः प्रवन्ति सर्वे स मूलं शाश्वतिकः स नित्यः इत्याद्यनेकासामीश्वरस्याभिन्ननिमित्तोपादानकारणतायाः प्रतिपादकानां स्मृतीनामेवार्थ उपादेयो नत्वचेतनं प्रधानं स्वतन्त्रं जगतः कारणम्। अण्वादयो जगत उपादानकारणमीश्वरस्तु निमित्तकारणमिति प्रतिपादकानां सांख्यादिस्मृतीनां गीतादिस्मृतीनां वेदानुरोधिनीनामुपादेयत्वावश्यकत्वेन तद्विरोधिनीनामेव हेयत्वौचित्यात्। ननु जगत उपादानं ब्रह्म नोपपद्यते चेतनाादनन्दघनाच्छुद्धाद्ब्रह्मणोऽचोतनस्य सुखदुःखमोहात्मक्सय प्रीतिपरितापविषादादिहेतोः स्वर्गनरकाद्युच्चावचरुपस्याशुद्धस्यात्यन्तविलक्षणत्वाद्विलक्षणानां चोपादानोपादेयभावो लोके नैव दृश्यते। नहि घटादिकार्यं सुवर्णोपादानकं भवति न वा मुकुटादिकार्यं मृदुपादानकं तस्माज्जगत्सदृशमचेतनं प्रधानादिकमेव जगदुपादानमप्युपेयम्।तदैक्षत बहु स्याम् इत्यादिचेतनकारणवादास्तु युक्तिविरोधादचेतनप्रधानपरतया उपचारदीश्वरस्य निमित्त्वमात्रपरतया वा नेया अचेतनेतपि चेतनवदुपचारदर्शनात्। यथामृदब्रवीदापोऽब्रुवन् इतितत्तेज ऐक्षत ता आपः ऐक्षन्त ते हेमे प्राणा अहंश्रेयसे विवदमाना ब्रह्म जग्मुः इतिते ह वाचमूचुस्त्वन्न उद्गाय इत्यादिषु श्रुतिषु लोकेऽपि प्रत्यासन्नपतनतां कूलस्यालक्ष्य कूलं पिपतिषतीत्यचेतनेपि चेतनवदुपचारो दृष्ट इति चेदुच्यते। किं यत्किंचिद्वैलक्षण्याज्जगदीश्वरोपादानकं नोपपद्यते उत बहुवैलक्षण्यात्। नाद्यः। चैतनायतनाच्छरीरात्तदनायतनाद्रोमयाच्चतद्विधस्य केशादेः वृश्चिक्य चोत्पत्तिदर्शनात्। न द्वितीयः। उदाहृतप्रकृतिविकारयो रुपादिभेदेन बहुवैलक्षण्यस्योपलभ्यमानत्वात्। किंच ययोः प्रकृतिविकारभावस्तयोः सादृश्यं किमात्यन्तिकं उत यत्कंचिदाद्ये प्रकृतिविकारभाव एव प्रलीयते। द्वितीयेतु शरीरादीनां पार्थिकत्वादिस्वभावस्य केशादिष्वनुवृत्तिरिव ब्रह्मणोऽपि सत्तालक्षणस्य स्वभावस्याकाशादावनुवृप्रलीयते। द्वितीयतु शरीरादीनां पार्थिवत्वादिस्वभावस्य केशादिष्वनुवृत्तिरिव ब्रह्मणोऽपि सत्तालक्षणस्य स्वभावस्याकाशादावनुवृत्तिर्दृश्यत इति नानुपपत्तिः। किं चेश्वरकारणत्वनिषेधकं वैलक्षण्यं किमशेषस्येश्वरस्वभावस्याननुवर्तनं उत यस्य कस्यचित् उत चैतन्यस्य आद्यपक्षद्वये उक्तमेव हेतुद्वयमनुसंधेयम्। न तृतीयः। समस्तस्य वस्तुजातस्येश्वरप्रकृतिकत्वादिनंप्रति यच्चैतन्येनानन्वितं नामीश्वर प्रकृतिकं दृष्टमिति वक्तुमशक्यत्वेन दृष्टान्ताभावात्। ननु यदि चेतनं शुद्धं शब्दादिहीनं ब्रह्म तद्विपरीतस्याचेतनस्याशुस्थूलत्वसावयवत्वपरिच्छिन्नत्वादिधर्मकस्य शब्दादिमतश्च कार्यस्य कारणमिष्टते तर्हि प्रागुत्पत्तेः कार्यासत्त्वप्रसङ्गस्य सत्कायवादिनस्तवानिष्टस्यापत्तिः। किंच प्रलये ईश्वरेणाविभागमापद्यमानं कार्यं स्वीयेन धर्मेण कारणमिति दूषयेदिति ब्रह्मणोऽप्यशुद्य्धादिमत्त्वप्रसङ्गः।अपिचास्मिन्नीश्वरकारणवादेऽपरमप्यसमंजसम्। सर्वस्य विभागस्याविभागगतस्य पुनरुद्भवे नियमकारणाभावाद्भोक्तृभोग्यादिविभागेनोत्पत्तिर्न प्राप्तोतीति। किंच सर्वेषां भोक्तृ़णां ब्रह्मणैक्यप्राप्तानां कर्मादिनिमित्तप्रलयेऽपि पुनरुत्पत्तिस्वीकारे मुक्तानामपि पुनरुत्पत्तिप्रसङ्गः। यदीदं जगत्प्रलये विभक्तमेव तिष्ठतीतिचेत्प्रलयस्यैवासंभवापत्तिरिति चेदुच्यते। यथेदानीं कार्यं कारणात्मना सत्तथा प्रागुत्पत्तेरपीति गम्यते। यत्तूक्तं प्रलय ईश्वरेणाविभागमापन्नमित्यादि तन्न। न दूषयतीत्यत्र दृष्टान्तस्य सत्त्वात्तद्यथा घटादयो मृदादिप्रकृतिका विकारा विभागावस्थायामु़च्चावचमध्यमप्रमेदाः सन्तः पुनः कारणाविभागमापन्ना न कारणं स्वधर्मेण दूषयन्ति कारणे कार्यस्य स्वधर्मेण स्थित्यभ्युपगमप्रसङ्गाच्च। किंच कार्यस्य कारणानन्यत्वं न प्रलये एवापितु त्रिष्वपि कालेषुआत्मैवेदं सर्वब्रह्मैवेदं सर्वं पुरस्तात्सर्वं खल्विदं ब्रह्म इत्येवमादिश्रुतिष्वविशेषेण कार्यस्य कारणानन्यत्वश्रवणात्। कार्यस्य कारणानन्यत्वेऽपि यथा स्वयं प्रसारितया मायया मायावी त्रिष्वपि कालेषु न संस्पृश्यते तस्या अवस्तुत्वात् तथा परमात्मापि संसारमायया न संस्पृश्यत इति कल्पितस्य गुणेन दोषेण वाधिष्टानस्यान्यथात्वायोगात्। यदपि सर्वस्य विभागस्येत्यादि तदपि न। यथा सुषुप्तिसमाध्यादावपि स्वाभाविक्यामविभागप्राप्तौ सत्यां मिथ्याज्ञानपोदितत्वात्। यदपि सर्वस्य पूर्ववद्विभागो भवत्येवमिहापि भविष्यतीत्यदोषात्। एतेन मुक्तानां पुनरुत्पत्तिप्रसङ्गः प्रत्युक्तः सम्यग्ज्ञानेन मिथ्याज्ञानस्यापोदितत्वात्। किंच शब्दादिहीनात्प्रधानादेः शब्दादिमतो जगतो वैलक्षण्यान्न जगत्प्रधादिप्रकृतिकमिति विलक्षणत्वान्नेदं जगत् ब्रह्मप्रकृतिकमित्याद्युक्तदोषाणां प्रधानादिकारणवादेऽपि तुल्यत्वादस्मिन्पक्षे न शङ्कितव्याः। तस्मादीश्वरकारणवाद एव यक्तियुक्तः श्रुतिस्मृतीकमित्याद्युक्तदोषाणां प्रधानादिकारणवादेऽपि तुल्यत्वादस्मिन्पक्षे न शङ्कितव्याः। तस्मादीश्वरकारणवाद एव युक्तयुक्तः श्रुतिस्मृतीहासपुराणतात्पर्यसिद्धः सर्वैर्मुमुक्षुभिरभ्युपेयः। एतेन चेतनकर्तृकमपीक्षणं प्रधानादावौपचारिकंमृदब्रवीत् इत्यादिवदिति प्रत्युक्तम्। मुख्यसंभवे औपचारिकाश्रयणानौचित्यात्।सेयं तैवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्त्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरुपे व्याकरवाणि इति ईक्षितुर्जीवात्मभावेन प्रवेशश्रवणाच्च। मृतब्रवीदित्येवंजातीयकया श्रुत्यापि मृदाद्यभिमानिन्यो वागाद्यभिमानिन्यश्च चेतना देवता वदनसंवदनादिषु चेतनोचितव्यवहारेषु व्यपदिश्यन्ते। कूलं पिपतिषतीत्यत्रापि कूलस्य पतनेच्छाचेतनरुपाधिष्ठानापेक्षाप्रकृतित्वं चेश्वरस्यप्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात् इति सूत्रे साधितमेवेति स्पष्टं चेदमाकरे।
7.5 अपरा lower? इयम् this? इतः from this? तु but? अन्याम् different? प्रकृतिम् nature? विद्धि know? मे My? पराम् higher? जीवभूताम् the very lifeelement? महाबाहो O mightyarmed? यया by which? इदम् this? धार्यते is upheld? जगत् world.Commentary The eightfold Nature described in the previous verse is the inferior Nature. It constitutes the Kshetra or the field or matter. It is impure. It generates evil and causes bondage. But the superior Nature is pure. It is My very Self? Kshetrajna (knower of the field or Spirit) by which life is sustained? and that which enters within the whole world and upholds it. It is the very lifeelement or the principle of Selfconsciousness? by which this universe is sustained.
7.5 This is the inferior Prakriti, O mighty-armed (Arjuna); know thou as different from it My higher Prakriti (Nature), the very life-element, by which this world is upheld.
7.5 This is My inferior Nature; but distinct from this, O Valiant One, know thou that my Superior Nature is the very Life which sustains the universe.
7.5 O mighty-armed one, this is the inferior (Prakrti). Know the other Prakrti of Mine which, however, is higher than this, which has taken the from of individual souls, and by which this world is uphelp.
7.5 O mighty-armed one, iyam, this; is apara, the inferior (Prakrti)-not the higher, (but)-the impure, the source of evil and having the nature of worldly bondage. Viddhi, know; anyam, the other, pure; prakrtim, Prakrti; me, of Mine, which is essentially Myself; which, tu, however;is param, higher, more exalted; itah, than this (Prakrti) already spoken of; Jiva-bhutam, which has taken the form of the individual souls, which is characterized as 'the Knower of the body (field)', and which is the cause of sustenance of life; and yaya, by which Prakriti; idam, this; jagat, world; dharyate, is upheld, by permeating it.
7.5. This is the lower [nature of Mine]. Not different from this is My superior nature which has become the individual Soul and by which this world is maintained. O mighty armed (Arjuna), you must know this.
7.4-5 Bhumih etc. Apard etc. [The demonstrative] 'this' denotes what is being perceived [as objects] through sense-organs by all men at the stage of mundane life. This is only one and at the same time is divided eigth-fold. Therefore the universe is one and unitary, because it is made of one single material cause. By this statement, monism is demonstrated even while following the Prakrti theory. The selfsame Prakrti has become the living one i.e., the personal Soul. Hence it is superior [to what has become eight-fold]. It also belongs to Me alone and not to anybody else. This Prakrti is [thus] two-fold and varied in the form of the universe consisting of the knowables and the knower. That is why this Prakrti (the basic material nature), being the substratum of all beings reflected on the surface of the clean mirror, viz., the Self , is nothing but Self's own nature and [hence] never leaves Him. This world : the Earth etc. [mentioned in the 4th verse].
7.5 This is My lower Prakrti. But know My higher Prakrti which is different from this, i.e., whose nature is different from this inanimate Prakrti constituting the objects of enjoyment to animate beings. It is 'higher', i.e., is more pre-eminent compared to the lower Prakrti which is constituted only of inanimate substances. This higher Nature of Mine is the individual self. Know this as My higher Prakrti through which the whole inanimate universe is sustained.
7.5 This is My lower Prakrti. But, O mighty-armed One, know that My higher nature is another. It is the life-principle (Jiva-bhuta), by which this universe is sustained.
।।7.5।।यह ( उपर्युक्त ) मेरी अपरा प्रकृति है अर्थात् परा नहीं किंतु निकृष्ट है अशुद्ध है और अनर्थ करनेवाली है एवं संसारबन्धनरूपा है। और हे महाबाहो इस उपर्युक्त प्रकृतिमें दूसरी जीवरूपा अर्थात् प्राणधारणकी निमित्त बनी हुई जो क्षेत्रज्ञरूपा प्रकृति है अन्तरमें प्रवृष्ट हुई जिस प्रकृतिद्वारा यह समस्त जगत् धारण किया जाता है उसको तू मेरी परा प्रकृति जान अर्थात् उसे मेरी आत्मरूपा उत्तम और शुद्ध प्रकृति जान।
।।7.5।। अपरा न परा निकृष्टा अशुद्धा अनर्थकरी संसारबन्धनात्मिका इयम्। इतः अस्याः यथोक्तायाः तु अन्यां विशुद्धां प्रकृतिं मम आत्मभूतां विद्धि मे परां प्रकृष्टां जीवभूतां क्षेत्रज्ञलक्षणां प्राणधारणनिमित्तभूतां हे महाबाहो यया प्रकृत्या इदं धार्यते जगत् अन्तः प्रविष्टया।।
।।7.5।।अपरशब्दस्यानेकार्थत्वात् विवक्षितमर्थमाह अपरेति। अनुत्तमत्वस्य सापेक्षत्वात् किमपेक्षयेत्यत आह वक्ष्यमाणामिति। सन्निधानादिति भावः। जीवलक्षणां जीवत्वं प्राप्तमिति व्याख्याननिरासार्थमाह जीवभूतेति। कथं सा जीवभूता इत्यत आह जीवानामिति। प्राणधारिणीत्येवोक्ते स्वप्राणधारिणीतिप्रतीतिः स्यात् तन्निरासार्थमुक्तं जीवानामिति। सर्वजीवदेहेषु स्थित्वा तदीयान्प्राणांस्तत्र धारयतीत्यर्थः। स्वप्राणधारिणी कुतो न स्यात् इत्यत आह चिद्रूपेति। ज्ञानात्मकविग्रहवती। यद्वाजीव प्राणधारणे इत्यतो जीवशब्दस्य यौगिकार्थमुक्त्वा गौणीं वृत्तिमाश्रित्यार्थान्तरमनेनोक्तम्। भूतशब्दस्य सर्वदासत्त्ववाचित्वे प्रयोगं दर्शयति एतदिति। प्रकृतिमपेक्ष्य श्रियः परत्वोपपादनार्थमेतत्भूमिः इत्यादेरभिमतमर्थं पुराणवाक्येन स्थापयति जगाद चेति। देवस्यैव। सृज्यत इति सृष्टिः कार्यं कार्यरूपेणेत्यर्थः। अनेन भूम्यादिशब्दैः पञ्चतन्मात्राण्येवोच्यन्ते न स्थूलानि भूतानि। मन इति तत्कारणमहङ्कारः बुद्धिरिति महत्तत्त्वम् अहङ्कार इत्यविद्यासंयुक्तमव्यक्तंभिन्ना प्रकृतिरष्टधा इति वचनादिति व्याख्यानं निरस्तम्। कार्यरूपेणाष्टधा भिन्नेति व्याख्यानसम्भवेन प्रसिद्धार्थपरित्यागायोगान्महत्यहङ्कारस्यान्तर्भाव इत्येवेति सम्बन्धः। जडेत्यवरत्वोपपादनम्।श्रीः परा इत्यस्योपपादनमियं धार्यते तयेत्यादि। अनन्ता देशतः गुणतश्च। परा मुख्या। अनादिनिधना नत्वव्यक्तवद्विक्रियावती।
।।7.5।।अपराऽनुत्तमा। वक्ष्यमाणामपेक्ष्य जीवभूता श्रीः जीवानां प्राणधारिणी चिद्रूपभूता सर्वदा सती एतन्महइदं महद्भूतम् बृ.उ.2।4।12 इति श्रुतेः। जगाद चप्रकृती द्वे तु देवस्य जडा चैवाजडा तथा। अव्यक्ताख्या जडा सा च सृष्ट्या भिन्नाष्टधा पुनः। महान्बुद्धिर्मनश्चैव पञ्चभूतानि चेति ह। अवरा सा जडा श्रीश्च परेयं धार्यते तथा। चिद्रूपा सा त्वनन्ता च अनादिनिधना परा। यत्समं तु प्रियं किञ्चिन्नास्ति विष्णोर्महात्मनः। नारायणस्य महिषी माता सा ब्रह्मणोऽपि हि। ताभ्यामिदं जगत्सर्वं हरिः सुज्ञति भूतराड्। इति नारदीये।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।7.5।।
অপরেযমিতস্ত্বন্যাং প্রকৃতিং বিদ্ধি মে পরাম্৷ জীবভূতাং মহাবাহো যযেদং ধার্যতে জগত্৷৷7.5৷৷
অপরেযমিতস্ত্বন্যাং প্রকৃতিং বিদ্ধি মে পরাম্৷ জীবভূতাং মহাবাহো যযেদং ধার্যতে জগত্৷৷7.5৷৷
અપરેયમિતસ્ત્વન્યાં પ્રકૃતિં વિદ્ધિ મે પરામ્। જીવભૂતાં મહાબાહો યયેદં ધાર્યતે જગત્।।7.5।।
ਅਪਰੇਯਮਿਤਸ੍ਤ੍ਵਨ੍ਯਾਂ ਪ੍ਰਕਰਿਤਿਂ ਵਿਦ੍ਧਿ ਮੇ ਪਰਾਮ੍। ਜੀਵਭੂਤਾਂ ਮਹਾਬਾਹੋ ਯਯੇਦਂ ਧਾਰ੍ਯਤੇ ਜਗਤ੍।।7.5।।
ಅಪರೇಯಮಿತಸ್ತ್ವನ್ಯಾಂ ಪ್ರಕೃತಿಂ ವಿದ್ಧಿ ಮೇ ಪರಾಮ್. ಜೀವಭೂತಾಂ ಮಹಾಬಾಹೋ ಯಯೇದಂ ಧಾರ್ಯತೇ ಜಗತ್৷৷7.5৷৷
അപരേയമിതസ്ത്വന്യാം പ്രകൃതിം വിദ്ധി മേ പരാമ്. ജീവഭൂതാം മഹാബാഹോ യയേദം ധാര്യതേ ജഗത്৷৷7.5৷৷
ଅପରେଯମିତସ୍ତ୍ବନ୍ଯାଂ ପ୍ରକୃତିଂ ବିଦ୍ଧି ମେ ପରାମ୍| ଜୀବଭୂତାଂ ମହାବାହୋ ଯଯେଦଂ ଧାର୍ଯତେ ଜଗତ୍||7.5||
aparēyamitastvanyāṅ prakṛtiṅ viddhi mē parām. jīvabhūtāṅ mahābāhō yayēdaṅ dhāryatē jagat৷৷7.5৷৷
அபரேயமிதஸ்த்வந்யாஂ ப்ரகரிதிஂ வித்தி மே பராம். ஜீவபூதாஂ மஹாபாஹோ யயேதஂ தார்யதே ஜகத்৷৷7.5৷৷
అపరేయమితస్త్వన్యాం ప్రకృతిం విద్ధి మే పరామ్. జీవభూతాం మహాబాహో యయేదం ధార్యతే జగత్৷৷7.5৷৷
7.6
7
6
।।7.6।। अपरा और परा -- इन दोनों प्रकृतियोंके संयोगसे ही सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ।
।।7.6।। यह जानो कि समम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से उत्पत्ति वाले हैं। (अत:) मैं सम्पूर्ण जगत् का उत्पत्ति तथा प्रलय स्थान हूँ।।
।।7.6।। उपर्युक्त अपरा एवं परा प्रकृतियों के परस्पर संबंध से यह नानाविध वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि व्यक्त होती है। जड़ प्रकृति के बिना चैतन्य की सार्मथ्य व्यक्त नहीं हो सकती और न ही उसके बिना जड़ उपाधियों में चेनवत् व्यवहार की संभावना ही रहती है। बल्ब में स्थित तार में स्वयं विद्युत् ही प्रकाश के रूप मे व्यक्त होती है। प्रकाश की अभिव्यक्ति के लिए विद्युत् और बल्ब दोनों का संबंध होना आवश्यक है। इसी प्रकार सृष्टि के लिए परा और अपरा जड़ और चेतन के संबंध की अपेक्षा होती है।इसी दृष्टि से भगवान् कहते हैं ये दोनों प्रकृतियां भूतमात्र की कारण हैं। एक मेधावी विद्यार्थी को इस कथन का अभिप्राय समझना कठिन नहीं है। बाह्य विषय भावनाएं तथा विचारों के जगत् की न केवल उत्पत्ति और स्थिति बल्कि लय भी चेतन पुरुष में ही होता है। इस प्रकार अपरा प्रकृति पारमार्थिक स्वरूप में पराप्रकृति से भिन्न नहीं है। आत्मा मानो अपने स्वरूप को भूलकर अपरा प्रकृति के साथ तादात्म्य करके जीवभाव के दुखों को प्राप्त होता है। परन्तु उसका यह दुख मिथ्या है वास्तविक नहीं। स्वस्वरूप की पहचान ही अनात्मबन्धन से मुक्ति का एकमात्र उपाय है। परा से अपरा की उत्पत्ति उसी प्रकार होती है जैसे मिट्टी के बने घटों की मिट्टी से। स्ाभी घटों में एक मिट्टी ही सत्य है उसी प्रकार विषय इन्द्रियां मन तथा बुद्धि इन अपरा प्रकृति के कार्यों का वास्तविक स्वरूप चेतन तत्त्व ही है।इसलिये
।।7.6।। व्याख्या--'एतद्योनीनि भूतानि' (टिप्पणी प0 401.1) जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष, लता, घास आदि स्थावर प्राणी हैं, वे सब-के-सब मेरी अपरा और परा प्रकृतिके सम्बन्धसे ही उत्पन्न होते हैं। तेरहवें अध्यायके छब्बीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके सम्बन्धसे सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम प्राणियोंकी उत्पत्ति बतायी है। यही बात सामान्य रीतिसे चौदहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भी बतायी है कि स्थावर, जङ्गम योनियोंमें उत्पन्न होनेवाले जितने शरीर हैं, वे सब प्रकृतिके हैं, और उन शरीरोंमें जो बीज अर्थात् जीवात्मा है, वह मेरा अंश है। उसी बीज अर्थात् जीवात्माको भगवान्ने 'परा प्रकृति' (7। 5) और 'अपना अंश' (15। 7) कहा है। 'सर्वाणीत्युपधारय'--स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताललोक आदि सम्पूर्ण लोकोंके जितने भी स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं, वे सब-के-सब अपरा और परा प्रकृतिके संयोगसे ही उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य है कि परा प्रकृतिने अपराको अपना मान लिया है, (टिप्पणी प0 401.2) उसका सङ्ग कर लिया है, इसीसे सब प्राणी पैदा होते हैं--इसको तुम धारण करो अर्थात् ठीक तरहसे समझ लो अथवा मान लो।'अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा'--मात्र वस्तुओंको सत्ता-स्फूर्ति परमात्मासे ही मिलती है, इसलिये भगवान् कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव (उत्पन्न करनेवाला) और प्रलय (लीन करनेवाला) हूँ। 'प्रभवः'का तात्पर्य है कि मैं ही इस जगत्का निमित्तकारण हूँ; क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे संकल्पसे (टिप्पणी प0 401.3) पैदा हुई है--'सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति' (छान्दोग्य0 6। 2। 3)।जैसे घड़ा बनानेमें कुम्हार और सोनेके आभूषण बनानेमें सुनार ही निमित्तकारण है ऐसे ही संसारमात्रकी उत्पत्तिमें भगवान् ही निमित्तकारण हैं।
।।7.6 7.7।।एतद्योनीनि इति। मत्तः इति। उपधारय अभ्यासाहितानुभवक्रमेण ( अभ्यासानुभव ) आत्मसमीपे कुरु। एवं च त्वमेवोपधारय यत् अहं वासुदेवो भूतः (S K वासुदेवीभूतः) सर्वस्य प्रभवः प्रलयश्च। अहम् ( N omit the sentence अहं प्रदर्शितम्) इत्यनेन प्रकृतिपुरुषपुरुषोत्तमेभ्यो व्यतिरिक्तोऽपि ईश्वरः सर्वथा सर्वानुगतत्वेन स्थित इति सांख्ययोगयोर्नास्ति भेदवादः इति प्रदर्शितम्। सूत्रे मणिगणा इव यथा तन्तुरनवध्रियमाणरूपोऽपि अन्तर्लीनतया स्थितः एवमहं सर्वत्र।
।।7.6।।एतच्चेतनाचेतनसमष्टिरूपमदीयप्रकृतिद्वययोनीनि ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानि उच्चावचभावेन अवस्थितानि चिदचिन्मिश्राणि सर्वाणि भूतानि मदीयानि इति उपधारय मदीयप्रकृतिद्वययोनीनि हि तानि मदीयानि एव। तथा प्रकृतिद्वययोनित्वेन कृत्स्नस्य जगतः तयोः द्वयोः अपि मद्योनित्वेन मदीयत्वेन च कृत्स्नस्य जगतः अहम् एव प्रभवः अहम् एव प्रलयः अहम् एव च शेषी इति उपधारय।तयोः चिदचित्समष्टिभूतयोः प्रकृतिपुरुषयोः अपि परमपुरुषयोनित्वं श्रुतिस्मृतिसिद्धम्।महानव्यक्ते लीयते अव्यक्तमक्षरे अक्षरं तमसि लीयते तमः परे देवे एकीभवति (सु0 उ0 2)विष्णोः स्वरूपात्परतोदिते द्वे रूपे प्रधानं पुरुषश्च (वि0 पु0 1।2।24)प्रकृतिर्या मया ख्याता व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी। पुरुषश्चाप्युभावेतौ लीयेते परमात्मनि।।परमात्मा च सर्वेषामाधारः परमेश्वरः। विष्णुनामा स वेदेषु वेदान्तेषु च गीयते।। (वि0 पु0 6।4।38 39) इत्यादिका हि श्रुतिस्मृतयः।
।।7.6।।उक्तप्रकृतिद्वये कार्यलिङ्गकमनुमानं प्रमाणयति एतद्योनीनीति। प्रकृतिद्वयस्य जगत्कारणत्वे कथमीश्वस्य जगत्कारणत्वं तदुपगतमित्याशङ्क्याह अहमिति। एतद्योनीनीत्युक्ते समनन्तरप्रकृतजीवभूतप्रकृतावेतच्छब्दस्याव्यवधानात्प्रवृत्तिमाशङ्क्य व्याकरोति एतदिति। सर्वाणि चेतनाचेतनानि जनिमन्तीत्यर्थः। सर्वभूतकारणत्वेन प्रकृतिद्वयमङ्गीकृतं चेत्कथमहमित्याद्युक्तमित्याशङ्क्याह यस्मादिति। मम प्रकृती परमेश्वरस्योपाधितया स्थिते इत्यर्थः। तर्हि प्रकृतिद्वयं कारणमीश्वरश्चेति जगतोऽनेकविधकारणाङ्गीकरणं स्यादित्याशङ्क्याह प्रकृतीति। अपरप्रकृतेरचेतनत्वात्परप्रकृतेश्चेतनत्वेऽपि किंचिज्ज्ञत्वादीश्वरस्यैव सर्वकारणत्वं युक्तमित्याह सर्वज्ञ इति।
।।7.6।।अनयोरेव प्रकृतित्वं निर्वचनेन ज्ञापयन् स्वस्य तद्वाराऽसाधारणकार्यकारणत्वमाह एतद्योनीनीति। यत एव प्रकृष्टा कृतिरित्यत एतद्योनी एते एव जनिके येषां तानि स्थावरजङ्गमातमकान्युपधारय बुदध्यस्व। तत्र जडा प्रकृतिर्देहादिरूपेण परिणमते चेतना तु मदंशभूता भोक्तृत्वेन क्षेत्रज्ञरूपेण तत्राविश्य व्यामोहिकया तां धारयति इति ते यतो मत्तः कारणभूतात् प्रयोजकाद्वा सम्भूते मद्रूपे अतोऽहमेव जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा घटपटादेर्भूरिव। प्रकृतिपुरुषद्वारा कारणमित्यर्थः।
।।7.6।।उक्तप्रकृतिद्वये कार्यलिङ्गकमनुमानं प्रमाणयन्स्वस्य तद्द्वारा जगत्सृष्ट्यादिकारणत्वं दर्शयति एते अपरत्वेन परत्वेन च प्रागुक्ते क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे प्रकृती योनिर्येषां तान्येतद्योनीनि भूतानि भवनधर्मकाणि सर्वाणि चेतनाचेतनात्मकानिजनिमन्ति निखिलानीत्येवमुपधारय जानीहि। कार्याणां चिदचिद्ग्रन्थिरूपत्वात्तकारणमपि चिदचिद्ग्रन्थिरूपमनुमिन्वित्यर्थः। एवं क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे ममोपाधिभूते यतः प्रकृती भवतस्ततस्तद्द्वाराहं सर्वज्ञः सर्वेश्वरोऽनन्तशक्तिर्मायोपाधिः कृत्स्नस्य चराचरात्मकस्य जगतः सर्वस्य कार्यवर्गस्य प्रभव उत्पत्तिकारणं प्रलयस्तथा विनाशकारणम् स्वाप्निकस्येव प्रपञ्चस्य मायिकस्य मायाश्रयत्वविषयत्वाभ्यां मायाव्यहमेवोपादानं द्रष्टा चेत्यर्थः।
।।7.6।।अनयोः प्रकृतित्वं दर्शयन्स्वस्य तद्द्वारा सृष्ट्यादिकारणत्वमाह एतदिति। एते क्षेत्रक्षेत्रज्ञरूपे प्रकृती योनी कारणभूते येषां तान्येतद्योनीनि स्थावरजंगमात्मकानि सर्वाणि भूतानीत्युपधारय बुध्यस्व। तत्र जडा प्रकृतिर्देहरूपेण परिणमते। चेतना तु मदंशभूता भोक्तृत्वेन देहेषु प्रविश्य स्वकर्मणा तानि धारयति। ते च मदीये प्रकृती मत्तः संभूते। अतोऽहमेव कृत्स्नस्य सप्रकृतिकस्य जगतः प्रभवः प्रकर्षेण भवत्यस्मादिति प्रभवः। परं कारणमहमित्यर्थः। तथा प्रलीयतेऽनेनेति प्रलयः संहर्ताप्यहमेवेति भावः।
।।7.6।।एवं समष्टिदशोक्ताएतद्योनीनि इत्यर्धेन तु व्यष्टिरुच्यते।अहं कृत्स्नस्य इति तु समष्टिव्यष्ट्योः सङ्कलितयोः कार्यत्वादिकथनम्सर्वाणि भूतानि इति चिदचिन्मयकार्यनिर्देशात्। एतच्छब्दः प्रस्तुतप्रकारप्रकृतिपुरुषपरामर्शी न तु प्रकृतिमात्रपर इति दर्शयति एतच्चेतनेत्यादिना। एतेन स्वरूपतो निर्विकारस्यापि चेतनस्य देवादिशरीरेन्द्रियतदधीनज्ञानक्रियाभोगादिविशिष्टवेषापेक्षया तत्पूर्वाचित्कल्पावस्थस्य प्रकृतित्वमुपपन्नमिति सूचितम्। व्याख्येये मदीयानीत्येतन्न दृश्यते तत्कथमत्र निर्दिश्यते इत्यत्राह मदीयप्रकृतिद्वययोनीनीति। शब्दाप्रयोगेऽपि वाक्यार्थसिद्धावितिशब्दः स्वकीयत्वपरामर्शार्थ इति भावः। भगवदभिप्रायस्थवचनरूपत्वादत्र मदीयशब्दोक्तिः।तथेत्यस्य तथासतीत्यर्थः। तस्यैव विवरणंप्रकृतिद्वयेत्यादि। पूर्वोक्तशेषित्वादिसमुच्चयार्थो वा तथाशब्दः। प्रभवप्रलयशब्दावत्रोत्पत्तिलयस्थानपरौ। ननु अजामेकां श्वे.उ.4।5 नित्यो नित्यानां श्वे.उ.6।13प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि 13।19 इत्यादिषु सत्सु कार्यविषये कृत्स्नशब्देन प्रकृतिद्वयस्यापि सङ्ग्रहः कथमवगम्यते इत्यत्राह चिदचित्समष्टीति। प्रकृतिपुरुषयोः परमात्मनि प्रलयश्रुतिबलात्तयोस्तस्मादुत्पत्तिरपि श्रुतिसिद्धैव स्यादित्यभिप्रायेणोपादत्ते महानिति। प्रकृतिपुरुषयोः परमात्मनि लयो नाम क्षीरे नीरस्येव विभागानर्हः संश्लेषविशेषः। तेन द्रव्यस्वरूपस्य नित्यत्वात्अजां इत्यादेरविरोधः। उक्तार्थे स्मृतिमुदाहरति विष्णोरिति। परतोदिते परत उदित इत्यर्थः। आर्षः सन्धिभेदः यद्वा स्मृतिरपीयं प्रलयपरैव तत्प्रकरणस्थत्वात्।दो अवखण्डने इत्यत्र दिते इति निष्ठान्तं पदम् पृथग्भूते इत्यर्थः। तेन प्रलयदशायामपि प्रधानपुरुषेश्वराणां मिथः स्वरूपभेदोऽस्त्येवेत्युक्तं भवति। अदिते वा इति पदच्छेदः अपृथग्भूते इत्यर्थः। तेन विभागानर्हः संश्लेष उक्तो भवति प्रलयप्रकरणस्थत्वादत्रापि पूर्वोत्तरोपादीयमानस्मृतिसमानार्थत्वाभिप्रायाच्च। स्वाभिमतार्थे स्फुटार्थं वचनमुदाहरति प्रकृतिरिति।
।।7.6।।एतज्ज्ञानेन किं स्यादित्यत आह एतदिति। सर्वाणि भूतानि स्थावरजङ्गमात्मकानि एतद्योनीनि एते प्रकृती योनी कारणरूपे येषां तथा तदुपधारय उप समीपे हृदये पोषय। एतद्योनिज्ञानेन मत्क्रीडौपयिकत्वं सर्वेषु भविष्यतीति भावः। यतस्तद्योनीनि सर्वाणि ते च मदंशे अतः कृत्स्नस्य सम्पूर्णस्य जगतोऽहं प्रभवः प्रकर्षेण भवत्यस्मादिति प्रभव उत्पत्तिस्थानं मूलकारणमित्यर्थः। तथा प्रकर्षेण लीयते अनेनेति लयस्थानं प्रलयकर्ताऽप्यहमेवेत्यर्थः।
।।7.6।।एतदिति। एते परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञरूपे प्रकृती योनिरुत्पत्तिलयस्थानं येषां भूतानां तानि एतद्योनीनि भूतानि चतुर्विधानि इत्येतदुपधारय सम्यग्जानीहि। किं पातञ्जलानामिव एते प्रकृती ईश्वरादन्ये इत्याशङ्क्याह अहमिति। कृत्स्नस्य स्वस्वप्रकृतिसहितस्य जगतो जडाजडरूपस्य प्रभवः प्रभवत्यस्मादिति प्रभव उत्पत्तिकारणं तथा प्रलीयतेऽस्मिन्निति प्रलयो लयस्थानं च। अतस्ते उभे अपि प्रकृती मत्तो नातिरिच्येते।
।।7.6।।न केवलं ते जगत्प्रकृती मद्वशे इत्येतावन्मदैश्वर्यमित्याह अहमिति। प्रभवादेः सत्ताप्रतीत्यादेः कारणत्वात्तद्भोक्तृत्वाच्च प्रभव इत्यादि। तथा च श्रुतिः सर्वकामः सर्वकर्मा सर्वगन्धो सर्वरसः सर्वमिदमभ्यात्तोऽवाक्यनादरः छां.उ.3।14।2 इति। आह च स्रष्टा पाता च संहर्ता नियन्ता च प्रकाशिता। यतः सर्वस्य तेनाहं सर्वोऽस्मीत्यषिभिः स्तुतः। सुखरूपस्य भोक्तृत्वान्न तु सर्वस्वरूपतः। आगमिष्यत्सुखं चापि तच्चास्त्येव सदाऽपि तु। तथाप्यचिन्त्यशक्तित्वाज्जातं सुखमतीव च। इति नारदीये।
7.6 एतद्योनीनि those of which these two (Prakritis) are the womb? भूतानि beings? सर्वाणि all? इति thus? उपधारय know? अहम् I? कृत्स्नस्य of the whole? जगतः of the world? प्रभवः source? प्रलयः dissolution? तथा also.Commentary These two Natures? the inferior and the superior? are the womb of all beings. As I am the source of these two Prakritis or Natures also? I am the cause of this universe. The whole universe originates from Me and dissolves in Me.In the Brahma Sutras (chapter 1? section 1? aphorism 2) it is said? Janmadyasya yatah meaning that Brahman is that omniscient and omnipotent cause from which proceed the origin? subsistence and dissolution of this world.Just as the mind is the material cause and also the seer (Drashta) for the objects seen in a dream? so also Isvara is the material cause of this world (UpadanaKarana) and also the seer (Drashta). He is also the efficient or the instrumental cause (NimittaKarana). (Cf.XIV.3)
7.6 Know that these two (Natures) are the womb of all beings. So I am the source and dissolution of the whole universe.
7.6 It is the womb of all being; for I am He by Whom the worlds were created and shall be dissolved.
7.6 Understand thus that all things (sentient and insentient) have these as their source. I am the origin as also the end of the whole Universe.
7.6 Upadharaya, understand; iti, thus; that sarvani, all; bhutani, things; etat-yonini, have these (etat) as their source (yoni)-things that have these lower and higher Prakrtis, charcterized as the 'field' and the 'Knower of the field (body)', as their source are etat-yonini. Since My two Prakrtis are the source, the cause of all things, therefore, aham, I; am the prabhavah, origin; tatha, as also; the pralayah, end, the termination; krtsnasya, of the whole; jagatah, Universe. The maning is this: I, who am the ominscient God, am the source of the Univese through My two Prakrtis. Since this is so, therefore-
7.6. All beings are born of this womb. Hence keep [them] nearby. I am the origin as well as the dissolution of the entire world.
7.6 See Comment under 7.7
7.6 Know that all beings from Brahma down to a tuft of grass, who have their origin in these two Prakrtis of Mine, are aggregated forms of the self and of inanimate matter. Irrespective of whether they are existing in a superior or inferior form, the selves and inanimate matter are mixed together in them. On account of their origination in My two Prakrtis, they are Mine. So, know that because the entire universe has its origination in these two Prakrtis which have their origination in Me, I am myself the origin and dissolution of the entire universe. For the same reason, I am its Lord (Sesin). It is proved on the basis of the Srutis and Smrtis that these two, Prakrti and Purusa (matter and the self), which form the aggregate of all animate and inanimate beings, have the Supreme Person as their cause. This is evident from Sruti and Smrti texts like the following: 'The Mahat resolves into Avyakta, Avyakta into Aksara, Aksara into Tamas, and Tamas becomes one with the Supreme Lord' (Su. U., 2); 'O sage, distinct from the form of Visnu, the Supreme Lord, the two forms, Prakrti and Purusa, arise' (V. P., 1.2.24); and 'What was described by Me as Prakrti in its dual form of the manifest and the unmanifest, and the Purusa do merge in the Supreme Self, and the Supreme Self is the support of all. He is the Supreme Lord named Visnu, exalted in the Vedas and Vedanta' (V. P., 6.4.38-39).
7.6 Know that all beings have these two for the source of their birth. Therefore, I am the origin and the dissolution of the whole universe.
।।7.6।।यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञरूप दोनों परा और अपरा प्रकृति ही जिनकी योनि कारण है ऐसे ये समस्त भूतप्राणी प्रकृतिरूप कारणसे ही उत्पन्न हुए हैं ऐसा जान। क्योंकि मेरी दोनों प्रकृतियाँ ही समस्त भूतोंकी योनि यानी कारण हैं इसलिये समस्त जगत्का प्रभव उत्पत्ति और प्रलय विनाश मैं ही हूँ अर्थात् इन दोनों प्रकृतियोंद्वारा मैं सर्वज्ञ ईश्वर ही समस्त जगत्का कारण हूँ।
।।7.6) एतद्योनीनि एते परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे प्रकृती योनिः येषां भूतानां तानि एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणि इति एवम् उपधारय जानीहि। यस्मात् मम प्रकृती योनिः कारणं सर्वभूतानाम् अतः अहं कृत्स्नस्य समस्तस्य जगतः प्रभवः उत्पत्तिः प्रलयः विनाशः तथा। प्रकृतिद्वयद्वारेण अहं सर्वज्ञः ईश्वरः जगतः कारणमित्यर्थः।।यतः तस्मात्
।।7.6।।नन्वत्रापरपरनिरूपणपूर्वकं भगवतो यत्परतरत्वं वक्तुमभिप्रेतं तत्र शरीरेन्द्रियविषयलक्षणाख्यकार्यस्य जीवानां च तयोरेवान्तर्भाव इति दर्शयितुंएतद्योनीनि इत्युक्तम् इदानीमहं परतर इति वक्तव्यं इदं तुकिमर्थमुच्यते इत्यत आह न केवलमिति। पूर्वं वाक्यभेदेन प्रकृत्योरवरत्वं परत्वंमे इति स्ववशत्वं चोक्त्वाययेदं धार्यते जगत्एतद्योनीनि इति जगदाधारत्वकारणत्वे कथिते तत्रप्रकृती एव भगवद्वशे जगज्जन्मस्थितिलयास्तु प्रकृत्यधीना एव न भगवदधीनाः इति प्रतीतं तन्निरासार्थमेतदित्यर्थः।जगत्प्रतिममैश्वर्यं इत्येतावत् प्रकृतिद्वारकमुपचरितमिति यावत्। प्रकृत्योः कारणत्वादिकं मदायत्तमिति भावः। जगद्धर्मयोः प्रभवप्रलययोः साक्षाद्भगवदैक्यमुच्यत इति प्रतीतिनिरासार्थमाह प्रभवादेरिति। यथा पुत्रादिप्रभवो रिपुप्रलयश्चोपलब्धः सुखहेतुरित्युपलब्धः पित्रादेस्तद्भोक्तृत्वं तथा तद्भोक्तृत्वात्।भगवतः सर्वभोक्तृत्वं कुतः इत्यत आह तथा चेति।सर्वकामः इत्यादेर्द्विरुक्तत्वात् एकं भोगविषयमिति ज्ञायते। काम्यन्त इति कामा द्रव्याणि। गन्धरसशब्दौ गुणान्तरस्याप्युपलक्षकौ। सर्वमिदमभि अभितः आत्तो धृतः स्थित इत्यर्थः। न विद्यते वाक्यमनुग्रहमन्तरेण यस्यासाववाक्यः। न विद्यते आदरः आश्चर्यबुद्धिर्यस्यासौ नादरः अवाक्यश्चासौ नादरश्चेत्यवाक्यनादरः। कारणत्वादिनैवैक्यव्यपदेश इत्येतत्कुतः इत्यत आह आह चेति। सुखरूपस्य सुखकारणस्य। ननुस्रष्टा पाता इत्यादिकमयुक्तं कादाचित्कक्रियावेशे विकारित्वप्रसङ्गात्। भोगेन यद्भाव्यं सुखं तस्य पूर्वमभावेनापूर्णत्वप्रसङ्गाच्चेत्यत आह आगमिष्यदिति। यद्भोगेनागमिष्यत्सुखं तच्च सदाऽप्यस्त्येव। क्रियाश्च शक्तिरूपेण चेति चार्थः। तर्हि कथं भोगेन जातमित्युच्यते इति भावेन पृच्छति अपि त्विति। उत्तरमाह तथापीति। सदा सद्भावेऽपि यद्यपिप्रभवत्यस्मादिति प्रभवः प्रलीयतेऽस्मिन्निति प्रलयः इति शक्यते व्याख्यातुं तथापि महिमातिशयलाभायैवं व्याख्यातम्। एतेनयस्मान्मम प्रकृती योनी सर्वभूतानां ततोऽहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा शां. इति व्याख्यानमपहसितं भवति।
।।7.6।।न केवलं ते जगत्प्रकृती मद्वशे इत्येतावन्मदैश्वर्यमित्याह अहमिति। प्रभवादेः सत्ताप्रतीत्यादेः कारणत्वात्तद्भोक्तृत्वाच्च प्रभव इत्यादि। तथा च श्रुतिः सर्वकामः सर्वकर्मा सर्वगन्धो सर्वरसः सर्वमिदमभ्यात्तोऽवाक्यनादरः छां.उ.3।14।2 इति। आह च स्रष्टा पाता च संहर्ता नियन्ता च प्रकाशिता। यतः सर्वस्य तेनाहं सर्वोऽस्मीत्यषिभिः स्तुतः। सुखरूपस्य भोक्तृत्वान्न तु सर्वस्वरूपतः। आगमिष्यत्सुखं चापि तच्चास्त्येव सदाऽपि तु। तथाप्यचिन्त्यशक्तित्वाज्जातं सुखमतीव च। इति नारदीये।
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।7.6।।
এতদ্যোনীনি ভূতানি সর্বাণীত্যুপধারয৷ অহং কৃত্স্নস্য জগতঃ প্রভবঃ প্রলযস্তথা৷৷7.6৷৷
এতদ্যোনীনি ভূতানি সর্বাণীত্যুপধারয৷ অহং কৃত্স্নস্য জগতঃ প্রভবঃ প্রলযস্তথা৷৷7.6৷৷
એતદ્યોનીનિ ભૂતાનિ સર્વાણીત્યુપધારય। અહં કૃત્સ્નસ્ય જગતઃ પ્રભવઃ પ્રલયસ્તથા।।7.6।।
ਏਤਦ੍ਯੋਨੀਨਿ ਭੂਤਾਨਿ ਸਰ੍ਵਾਣੀਤ੍ਯੁਪਧਾਰਯ। ਅਹਂ ਕਰਿਤ੍ਸ੍ਨਸ੍ਯ ਜਗਤ ਪ੍ਰਭਵ ਪ੍ਰਲਯਸ੍ਤਥਾ।।7.6।।
ಏತದ್ಯೋನೀನಿ ಭೂತಾನಿ ಸರ್ವಾಣೀತ್ಯುಪಧಾರಯ. ಅಹಂ ಕೃತ್ಸ್ನಸ್ಯ ಜಗತಃ ಪ್ರಭವಃ ಪ್ರಲಯಸ್ತಥಾ৷৷7.6৷৷
ഏതദ്യോനീനി ഭൂതാനി സര്വാണീത്യുപധാരയ. അഹം കൃത്സ്നസ്യ ജഗതഃ പ്രഭവഃ പ്രലയസ്തഥാ৷৷7.6৷৷
ଏତଦ୍ଯୋନୀନି ଭୂତାନି ସର୍ବାଣୀତ୍ଯୁପଧାରଯ| ଅହଂ କୃତ୍ସ୍ନସ୍ଯ ଜଗତଃ ପ୍ରଭବଃ ପ୍ରଲଯସ୍ତଥା||7.6||
ētadyōnīni bhūtāni sarvāṇītyupadhāraya. ahaṅ kṛtsnasya jagataḥ prabhavaḥ pralayastathā৷৷7.6৷৷
ஏதத்யோநீநி பூதாநி ஸர்வாணீத்யுபதாரய. அஹஂ கரித்ஸ்நஸ்ய ஜகதஃ ப்ரபவஃ ப்ரலயஸ்ததா৷৷7.6৷৷
ఏతద్యోనీని భూతాని సర్వాణీత్యుపధారయ. అహం కృత్స్నస్య జగతః ప్రభవః ప్రలయస్తథా৷৷7.6৷৷
7.7
7
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।।7.7।। हे धनञ्जय ! मेरे बढ़कर (इस जगत् का) दूसरा कोई किञ्चिन्मात्र भी कारण नहीं है। जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मेरेमें ही ओत-प्रोत है।
।।7.7।। हे धनंजय ! मुझसे श्रेष्ठ (परे) अन्य किचिन्मात्र वस्तु नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें पिरोया हुआ है।।
।।7.7।। इसके पूर्व के श्लोकों में कथित सिद्धान्त को स्वीकार करने पर हमें जगत् की ओर देखने के दो दृष्टिकोण मिलते हैं। एक है अपर अर्थात् कार्यरूप जगत् की दृष्टि से तथा दूसरा इससे भिन्न है पर अर्थात् कारण की दृष्टि से। जैसे मिट्टी की दृष्टि से उसमें विभिन्न रूप रंग वाले घटों का सर्वथा अभाव होता है वैसे ही चैतन्यस्वरूप पुरुष में न विषयों का स्थूल जगत् है और न विचारों का सूक्ष्म जगत्। मुझसे अन्य किञ्चिन्मात्र वस्तु नहीं है।स्वप्न से जागने पर जाग्रत् पुरुष के लिये स्वप्न जगत् की कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। समुद्र में असंख्य लहरें उठती हुई दिखाई देती हैं परन्तु वास्तव में वहाँ समुद्र के अतिरिक्त किसी का कोई अस्तित्व नहीं होता। उनकी उत्पत्ति स्थिति और लय स्थान समुद्र ही होता है। संक्षेप में कोई भी वस्तु अपने मूल स्वरूप का त्याग करके कदापि नहीं रह सकती है।पहले हमें बताया गया है कि प्रत्येक प्राणी में एक भाग अपरा प्रकृतिरूप है जिसका संयोग आत्मतत्त्व से हुआ है। यहाँ जिज्ञासु मन में शंका उठ सकती है कि क्या मुझमें स्थित आत्मा अन्य प्राणी की आत्मा से भिन्न है यह विचार हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचायेगा कि विभिन्न शरीरों में भिन्नभिन्न आत्मायें हैं अर्थात् आत्मा की अनेकता के सिद्धान्त पर हम पहुँच जायेंगे। .समस्त नामरूपों में आत्मा के एकत्व को दर्शाने के लिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि वे ही इस जगत् के अधिष्ठान हैं। वे सभी रूपों को इस प्रकार धारण करते हैं जैसे कण्ठाभरण में एक ही सूत्र सभी मणियों को पिरोये रहता है। यह दृष्टांत अत्यन्त सारगर्भित है। काव्य के सौन्दर्य के साथसाथ उसमें दर्शनशास्त्र का गम्भीर लाक्षणिक अर्थ भी निहित है। कण्ठाभरण में समस्त मणियाँ एक समान होते हुये दर्शनीय भी होती हैं परन्तु वे समस्त छोटीबड़ी मणियाँ जिस एक सूत्र में पिरोयी होती हैं वह सूत्र हमें दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि उसके कारण ही वह माला शोभायमान होती है।इसी प्रकार मणिमोती जिस पदार्थ से बने होते हैं वह उससे भिन्न होता है जिस पदार्थ से सूत्र बना होता है। वैसे ही यह जगत् असंख्य नामरूपों की एक वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि है जिसे इस पूर्णरूप में एक पारमार्थिक सत्य आत्मतत्त्व धारण किये रहता है। एक व्यक्ति विशेष में भी शरीर मन और बुद्धि परस्पर भिन्न होते हुये भी एक साथ कार्य करते हैं और समवेत रूप में जीवन का संगीत निसृत करते हैं। केवल यह आत्मतत्त्व ही इसका मूल कारण है।यह श्लोक ऐसा उदाहरण है जिसमें हमें महर्षि व्यास की काव्य एवं दर्शन की अपूर्व प्रतिभा के दर्शन होते हैं। यहाँ काव्य एवं दर्शन का सुन्दर समन्वय हुआ है।किस प्रकार मुझ में यह जगत् पिरोया हुआ है वह सुनो
।।7.7।। व्याख्या--'मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय'--हे अर्जुन ! मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है, मैं ही सब संसारका महाकारण हूँ। जैसे वायु आकाशसे ही उत्पन्न होती है, आकाशमें ही रहती है और आकाशमें ही लीन होती है अर्थात् आकाशके सिवाय वायुकी कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ऐसे ही संसार भगवान्से उत्पन्न होता है भगवान्में स्थित रहता है और भगवान्में ही लीन हो जाता है अर्थात् भगवान्के सिवाय संसारकी कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।यहाँ 'परतरम्' कहकर सबका मूल कारण बताया गया है। मूल कारणके आगे कोई कारण नहीं है अर्थात् मूल कारणका कोई उत्पादक नहीं है। भगवान् ही सबके मूल कारण हैं। यह संसार अर्थात् देश, काल, व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति आदि सभी परिवर्तनशील हैं। परन्तु जिसके होनेपनसे इन सबका होनापन दीखता है अर्थात् जिसकी सत्तासे ये सभी 'है' दीखते हैं, वह परमात्मा ही इन सबमें परिपूर्ण हैं। भगवान्ने इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें कहा कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा, जिसको जाननेके बाद कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा--'यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते' और यहाँ कहते हैं कि मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है--'मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति।' दोनों ही जगह 'न अन्यत्'कहनेका तात्पर्य है कि जब मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं, तब मेरेको जाननेके बाद जानना कैसे बाकी रहेगा? अतः भगवान्ने यहाँ 'मयि सर्वमिदं प्रोतम्'और आगे 'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19) तथा 'सदसच्चाहम्'(9। 19) कहा है।जो कार्य होता है, वह कारणके सिवाय अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखता। वास्तवमें कारण ही कार्यरूपसे दीखता है। इस प्रकर जब कारणका ज्ञान हो जायगा, तब कार्य कारणमें लीन हो जायगा अर्थात् कार्यकी अलग सत्ता प्रतीत नहीं होगी और 'एक परमात्माके सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है'--ऐसा अनुभव स्वतः हो जायगा। 'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव'--यह सारा संसार सूतमें सूतकी ही मणियोंकी तरह मेरेमें पिरोया हुआ है अर्थात् मैं ही सारे संसारमें अनुस्यूत (व्याप्त) हूँ। जैसे सूतसे बनी मणियोंमें और सूतमें सूतके सिवाय अन्य कुछ नहीं है; ऐसे ही संसारमें मेरे सिवाय अन्य कोई तत्त्व नहीं है। तात्पर्य है कि जैसे सूतमें सूतकी मणियाँ पिरोयी गयी हों तो दीखनेमें मणियाँ और सूत अलग-अलग दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें सूत एक ही होता है। ऐसे ही संसारमें जितने प्राणी हैं, वे सभी नाम, रूप, आकृति आदिसे अलग-अलग दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें व्याप्त रहनेवाला चेतन-तत्त्व एक ही है। वह चेतन-तत्त्व मैं ही हूँ--'क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत'(गीता 13। 2) अर्थात् मणिरूप अपरा प्रकृति भी मेरा स्वरूप है और धागारूप परा प्रकृति भी मैं ही हूँ। दोनोंमें मैं ही परिपूर्ण हूँ, व्याप्त हूँ। साधक जब संसारको संसारबुद्धिसे देखता है, तब उसको संसारमें परिपूर्णरूपसे व्याप्त परमात्मा नहीं दीखते। जब उसको परमात्मतत्त्वका वास्तविक बोध हो जाता है, तब व्याप्य-व्यापक भाव मिटकर एक परमात्मतत्त्व ही दीखता है। इस तत्त्वको बतानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ कारणरूपसे अपनी व्यापकताका वर्णन किया है।  सम्बन्ध--जो कुछ कार्य दीखता है, उसके मूलमें परमात्मा ही हैं--यह ज्ञान करानेके लिये अब भगवान् आठवेंसे बारहवें श्लोकतकका प्रकरण आरम्भ करते हैं।
।।7.6 7.7।।एतद्योनीनि इति। मत्तः इति। उपधारय अभ्यासाहितानुभवक्रमेण ( अभ्यासानुभव ) आत्मसमीपे कुरु। एवं च त्वमेवोपधारय यत् अहं वासुदेवो भूतः (S K वासुदेवीभूतः) सर्वस्य प्रभवः प्रलयश्च। अहम् ( N omit the sentence अहं प्रदर्शितम्) इत्यनेन प्रकृतिपुरुषपुरुषोत्तमेभ्यो व्यतिरिक्तोऽपि ईश्वरः सर्वथा सर्वानुगतत्वेन स्थित इति सांख्ययोगयोर्नास्ति भेदवादः इति प्रदर्शितम्। सूत्रे मणिगणा इव यथा तन्तुरनवध्रियमाणरूपोऽपि अन्तर्लीनतया स्थितः एवमहं सर्वत्र।
।।7.7।।यथा सर्वकारणस्य अपि प्रकृतिद्वयस्य कारणत्वेन सर्वाचेतनवस्तुशेषिणः चेतनस्य अपि शेषित्वेन कारणतया शेषितया च अहं परतरः तथा ज्ञानशक्तिबलादिगुणयोगेन च अहम् एव परतरः मत्तः अन्यत् मद्व्यतिरिक्तं किञ्चिद् ज्ञानबलादिगुणान्तरयोगि परतरं न अस्ति।सर्वम् इदं चिदचिद्वस्तुजातं कार्यावस्थं कारणावस्थं च मच्छरीरभूतं सूत्रे मणिगणवदात्मतया अवस्थिते मयि प्रोतम् आश्रितम्।यस्य पृथिवी शरीरम् (बृ0 उ0 3।7।3)यस्यात्मा शरीरम् (बृ उ 3।7।22)एष सर्वभूतान्तरात्मापहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः (सु0 उ0 7) इति आत्मशरीरभावेन अवस्थानम् च जगद्ब्रह्मणोः अन्तर्यामिब्राह्मणादिषु सिद्धम्।अतः सर्वस्य परमपुरुषशरीरत्वेन आत्मभूतपरमपुरुषप्रकारत्वात् सर्वप्रकारः परमपुरुष एव अवस्थित इति सर्वैः शब्दैः तस्य एव अभिधानम् इति तत्तत्सामानाधिकरण्येन आह रसः अहम् इति चतुर्भिः
।।7.7।।प्रधानात्परतोऽक्षरात्पुरुषवत्परमात्मनोऽपि परादन्यत्परं स्यादित्याशङ्क्य प्रकृतिद्वयद्वारा सर्वकारणत्वमीश्वरस्योक्तमुपजीव्य परिहरति यतस्तस्मादिति। नान्यदस्ति परमित्यत्र हेतुमाह मयीति। परतरशब्दार्थमाह अन्यदिति। स्वातन्त्र्यव्यावृत्त्यर्थमन्तरशब्दः। निषेधफलं कथयति अहमेवेति। सर्वजगत्कारणत्वेन सिद्धमर्थं द्वितीयार्धव्याख्यानेन विशदयति यस्मादिति। अतो (यथा) दीर्घेषु तिर्यक्षु च पटघटितेषु तन्तुषु पटस्यावगतिरवगम्यते तद्वन्मय्येवानुगतं जगदित्याह दीर्घेति। यथा च मणयः सूत्रेऽनुस्यूतास्तेनैव ध्रियन्ते तदभावे विप्रकीर्यन्ते यथा मयैवात्मभूतेन सर्वं व्याप्तं ततो निकृष्टं विनष्टमेव स्यादिति श्लोकोक्तं दृष्टान्तमाह सूत्र इति।
।।7.7।।यस्मादेवं तस्मादेव माहात्म्यं पूर्वं ज्ञातव्यं मत्तः परतरं नान्यदिति। अहमेव पर इत्यर्थः। किञ्चेदं सर्वं प्रोतमाश्रितं मयि तत्र यद्यत्स्वरूपमान्तरं बहिरिदं युष्मदाद्युपलभ्यमानत्वात्सत्त्वं जगत् मत्स्वरूपेणेदं नत्वविद्याकल्पितम्। तत्र दृष्टान्तः सूत्रे मणिगणा इव इत्यात्मशरीरभावेनावस्थानमुक्तं यस्य पृथिवी शरीरं बृ.उ.3।7।3 यस्मात्मा शरीरं श.प.ब्रा.14।5।6।5।30 य एषः ह्येषः सर्वभूतान्तरात्मा मुं.उ.2।1।4 इत्यादौ प्रसिद्धं विज्ञेयम्।
।।7.7।।यस्मादहमेव मायया सर्वस्य जगतो जन्मस्थितिभङ्गहेतुस्तस्मात्परमार्थतः निखिलदृश्याकारपरिणतमायाधिष्ठानात्सर्वभासकान्मत्तः सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वानुस्यूतात्स्वत्प्रकाशपरमानन्दचैतन्यघनात्परमार्थसत्यात्स्वप्नदृश इव स्वाप्निकं मायाविन इव मायिकं शुक्तिशकलावच्छिन्नचैतन्यादिवत्तदज्ञानकल्पितं रजतं परतरं परमार्थसत्यमन्यात्किंचिदपि नास्ति। हे धनंजय मयि कल्पितं परमार्थतो न मत्तो भिद्यत इत्यर्थः।तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः इति न्यायात्। व्यवहारदृष्ट्या तु मयि सद्रूपे स्फुरणरूपे च सर्वमिदं जडजातं प्रोतं ग्रथितं मत्सत्तया सदिव मत्स्फुरणेन च स्फुरदिव व्यवहाराय मायामयाय कल्प्यते। सर्वस्य चैतन्यग्रथितत्वमात्रे दृष्टान्तः सूत्रे मणिगणा इवेति। अथवा सूत्रै तैजसात्मनि हिरण्यगर्भे स्वप्नदृशि स्वप्नप्रोता मणिगणा इवेति सर्वांशे दृष्टान्तो व्याख्येयः। अन्ये तुपरमतः सेतून्मानसंबन्धभेदव्यपदेशेभ्यः इति सूत्रोक्तस्य पूर्वपक्षस्योत्तरत्वेन श्लोकमिमं व्याचक्षते। मत्तः सर्वज्ञात्सर्वशक्तेः सर्वकारणात्परतरं प्रशस्यतरं सर्वस्य जगतः सृष्टिसंहारयोः स्वतन्त्रं कारणमन्यन्नास्ति। हे धनंजय यस्मादेवं तस्मान्मयि सर्वकारणे सर्वमिदं कार्यजातं प्रोतं ग्रथितं नान्यत्र। सूत्रे मणिगणा इवेति दृष्टान्तस्तु ग्रथितत्वमात्रे नतु कारणत्वे। कनककुण्डलादिवदिति तु योग्यो दृष्टान्तः।
।।7.7।। यस्मादेवं तस्मात् मत्त इति। मत्तः सकाशात्परतरं श्रेष्ठं जगतः सृष्टिसंहारयोः स्वतन्त्रं कारणं किंचिदपि नास्ति। स्थितिहेतुरप्यहमेवेत्याह मयीति। मयि सर्वमिदं जगत्प्रोतं ग्रथितं आश्रितमित्यर्थः। दृष्टान्तः स्पष्टः।
।।7.7।।मत्तः परतरम् इत्यत्र पूर्वोक्तस्यैवार्थस्य व्यतिरेकेण दृढीकरणमात्रपरत्वे मन्दप्रयोजनत्वम् अहं परतर इत्येवंरूपेण पूर्वमनुक्तेश्च तद्व्यतिरेकनिषेधोऽपि नातीवोचितः। अतोऽनुपदिष्टापूर्वार्थपरत्वमेव शब्दस्य सम्भवदपरित्याज्यमित्यभिप्रायेणाह यथेति। पूर्वश्लोकस्थतथाशब्दोऽत्रानुषक्तः ततश्चानन्तमहाविभूतियोगोऽनन्तगुणयोगे दृष्टान्तित इत्यभिप्रायेणाह तथा ज्ञानशक्तीति।शेषित्वेनेत्यन्तमर्थस्थितिप्रदर्शनम्कारणतया शेषितया चेति परतरत्वप्रकारकथनमित्यपुनरुक्तिः। नन्वहमेवेत्यवधारणमशक्यम् स्वस्मात्परतरनिषेधेऽपि समनिषेधाप्रतीतेरित्यत्राह मत्तोऽन्यदिति। मद्व्यतिरिक्तमिति। अयमभिप्रायः मत्तः इति पञ्चमीन परतरं इत्यनेनान्विता तथा सत्यन्यशब्दानन्वयप्रसङ्गात् अतोमत्तोऽन्यत्परतरं नास्ति इत्यन्वये अहमेव परतर इति फलितम् ततश्च समाभ्यधिकदरिद्रत्वमुक्तं भवति इति।ज्ञानबलादिगुणान्तरयोगि किञ्चिदपीत्यनेन ब्रह्मेशानादयोऽधिकारिणः परिशुद्धात्मानश्च क्रोडीकृताः। एवंभूमिरापः 7।4 इत्यादिना निरपेक्षप्रकृतिपरिणामवादः केवलचेतनसन्निधिमात्र परिणामित्वं प्रकृतिपुरुषयोरीश्वरं प्रत्यशेषत्ववादश्च निरस्तः।मत्तः परतरम् इत्यनेन तु त्रिमूर्त्यैक्यसाम्योत्तीर्णव्यक्त्यन्तरप्रवाहेश्वरपक्षाः प्रतिक्षिप्ताः।अथ पूर्वोक्तसर्वोपादानत्वप्रसक्तसविकारत्वपरिहारार्थं पृथक्सिद्धप्रकृतिपुरुषादिवादनिरासार्थं च सर्वाधारत्वमुखेन सर्वशरीरित्वमुच्यतेमयि इत्यर्धेन।सर्वमिदम् इत्यनेन सर्वावस्थसमस्तचिदचिद्वस्तुसंग्रह इत्यभिप्रायेणोक्तं चिदचिद्वस्तुजातमित्यादि। सूत्रमणिगणदृष्टान्तसामर्थ्यात्प्रोतम् इत्यनेन चानुप्रवेशाश्रयाश्रयि भावप्रतीतेः। शरीरलक्षणमपि सूचितमित्यभिप्रायेण मच्छरीरभूतमित्यादिकमुक्तम्। एकस्यैव सर्वाधारत्वमनुप्रविष्टस्य गूढत्वमाधेयभूतप्रकृत्याद्यधीनस्थितिविरहश्च सूत्रदृष्टान्तसिद्धः। प्रोतशब्देन सूत्रवद्बहिर्व्याप्त्यभावप्रतीतिव्युदासायाह आश्रितमिति। अत्र सुबालोपनिषद्वाक्योपादानमन्तर्यामिणो नारायणत्वव्यक्त्यर्थमन्तर्यामिब्राह्मणानुक्ततत्त्वान्तरसङ्ग्रहार्थं च।
।।7.7।।यत उत्पत्तिप्रलयकारणमहमेवातो हे धनञ्जय मद्विभूतिरूप एतज्ज्ञानयोग्य मत्तः परतरं श्रेष्ठं जगत् जगति वा किञ्चित् अहं स इति भेदेनापि अन्यन्नास्ति एवमुत्पत्तिप्रलयकारणेन स्वत उत्तमत्वाभावमन्यस्योक्त्वा स्थितिहेतुत्वेनाऽपि तथा त्वमेवेति स्वस्य स्थितिहेतुत्वमाह मयीति। इदं सर्वं जगत् मयि प्रोतं ग्रथितं मदाश्रयत्वेन तिष्ठतीत्यर्थः। अत्र दृष्टान्तमाह सूत्रे प्रोता मणिगणा इव। अत्रायं भावः मणिगणाः क्रीडास्थजीवाधिदैविकरूपा यथा मयि तिष्ठन्ति तथेदं जगदप्याधिदैविकं मयि तिष्ठतीति भावः।
।।7.7।।एवमेकविज्ञानात्सर्वविज्ञानं प्रकृतमात्मनो जगदुपादानत्वेनोपपाद्य तत एवात्मनो निर्विकारत्वहाने प्राप्ते आह मत्त इति। कारणान्मृदादेः परं पृथग्भूतं घटादि व्यवहारे तयोर्भेदानुभवात्। परतरं तु गवाश्वादिमृदनुपादानकत्वात्। एवं ब्रह्मणः परतरं तदनुपादानकं किञ्चिदपि नास्ति। हे धनंजय एवं प्रपञ्चे ब्रह्माव्यतिरेकं प्रदर्श्य ब्रह्मणि प्रपञ्चव्यतिरेकं सदृष्टान्तमाह मयीति। मयि सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सूत्रवत्सर्वत्रानुस्यूते यदिदं सर्वं मणिगणवत्परस्परव्यावृत्तं तत्प्रोतं तेन व्यावृत्तेभ्योऽनुवृत्तं भिन्नमिति न्यायेन प्रपञ्चातीतोऽहमतो न मम विकारित्वमित्यर्थः।
।।7.7।।यस्मादेवं तस्मान्मत्तः परमेस्वरात्परतरमन्यत्कारणान्तरं किंचिन्नास्ति न विद्यते अहमेव सर्वस्मात्परः जगत्कारणमित्यर्थः। परतराभावप्रदर्शनेन परम्। अतःसेतून्मानसंबन्धभेदव्यपदेशेभ्यः इति सूत्रोक्ताशङ्कापि परिहृता। परमेश्वरात्परमन्यदस्ति। कुतःअयमात्मा स सेतुः इति सेतोश्चतुष्पादित्याद्युन्मानस्यसता सोभ्य तदा संपन्नो भवति इति संबन्धस्यअथ य एोऽन्तरादित्येय एषोऽन्तरक्षिणि इति भदस्य व्यपदेशेभ्य इति तदर्थः। तथाच सिद्धान्तसूत्राणिसामान्यात्तु बुद्य्धर्थः पादवत्स्थानविशेषात्प्रकाशादिवत्उपपत्तेश्च तथान्यप्रतिषेधात्अनेन सर्वगतत्वमायामशब्दीदिभ्यः इति। तुशब्दः पूर्वपक्षव्यावृत्त्यर्थः। न ब्राह्मणोऽन्यात्किंचिद्भवितुमर्हति प्रमाणाभावात्। नह्यन्यस्यास्तित्वे किंचित्प्रमाणमुपलभामहे। सर्वस्य हि जनिमतो वस्तुजातस्य जन्मादि ब्रह्मणो भवतीति निर्धारितमनन्यत्वं च कारणात्कार्यस्य। नच ब्रह्मव्यतिरिक्तं किंचिदजं संभवतिसदेव सोभ्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् इत्यवधारणादेकविज्ञानेन च सर्वविज्ञानप्रतिज्ञानान्न ब्रह्मव्यतिरिक्तवस्त्वस्तित्वमवकल्पते। नतु सेत्वादिव्यपदेशो ब्रह्मव्यतिरिक्तत्वं सूचयतीत्युक्तं तत्प्रत्युच्यते। सेतुसामान्यात्सेतुशब्द आत्मनि प्रयुक्त इति श्लिष्यते जगतस्तन्मर्यादानां च विधारकत्वं सेतुसामान्यमात्मनोऽतः सेतुरिव सेतुरिति प्रकृत आत्मा स्तूयते। सेतुं तीर्त्वेत्यपि तरतेरतिक्रमासंभवात्प्राप्नोत्यर्थे एव वर्तते यथा व्याकरणं तीर्ण इति प्राप्त उच्यते नातिक्रान्तस्तद्वत् उन्मादव्यपदेशोऽपि न ब्रह्मव्यरिरिक्तवस्त्वस्तित्वप्रतिपत्त्यर्थः किंतु बुद्य्धर्थ उपासनार्थः पादवत्। यथा मनआकाशयोरध्यात्ममधितैवतं च ब्रह्मप्रतीकयोराम्रातयोश्चत्वारो वाक्प्राणचक्षुःश्रोत्राणीति सनःसंबन्धिनः पादाः कल्पिताः चत्वारश्चाग्निवायुसूर्यदिशः आकाशसंबन्धिनः आध्यानाय तद्वत्। यद्वा व्यवहाराय कार्षापणपादविभागकल्पनावत्। यदप्युक्तं संबन्धव्यपदेशाद्भेदव्यपदेशाच्च परमेश्वरात्परमिति तदप्यसत्। यत एकस्यापि स्थानविशेषापेक्षयैतौ य उपशमः स परमात्मना संबन्ध इत्युपाध्यपेक्षयोपचर्यते न मितत्वापेक्षया तथा भेदव्यपदेशोऽपि ब्रह्मण उपाधिभेदापेक्षयैव न स्वरुपभेदा पेक्षया। तत्र दृष्टान्तमाह प्रकाशवत्। यथैकस्यैव सौर्यादिप्रकाशस्य सूचीपाशादिषूपाध्यपेक्षस्यैव संबन्धभदव्यपदेशो तद्वत् मुख्यएव संबन्धादिः किं न स्यादित्याशङ्क्याह। उपपत्तेश्च उपचारस्यैवोपपत्तेश्च। एवं सेत्वादिव्यपदेशान्तपरपक्षे हेतूनुन्मथ्य संप्रति स्वपक्षं हेत्वन्तरेणोपसंहरति। तथान्यपर्तिषेधादपि न ब्रह्मणः परं बस्त्वन्तरमस्तीति गम्यते। तथाहिस एवाधस्तादहमेवाधस्तादात्मैवाधस्तात्स एवोपरिष्टात्सर्वं तं पदादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेद ब्रह्मैवेदं सर्वमात्मैवेदं सर्वं नेह नानास्ति किंचनयस्मात्परं नापरमस्ति किंचित्तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्मम् इत्येवमादीनि स्वप्रकरणस्थानि अन्यार्थत्वेन परिणेतुम शक्यानि ब्रह्मव्यतिरिक्तं वस्त्वन्तरं वारयन्ति। सर्वान्तरश्रुतेश्च न परमात्मनोऽन्तरोऽन्य आत्मास्तीत्यवधार्यते। अनेन सेत्वादिव्यपदेशनिराकरणेनान्यप्रतिषेधसमाश्रयणेन च सर्वगतत्वमप्यात्मनः सिद्धं भवति।सर्वगतत्वं चास्यायामशब्दादिभ्यो विज्ञायते। आयामशब्दो व्यापिवचनः।यावान्वायमाकाशस्तावानेषोऽन्तर्हृदय आकाशःआकाशवत्सर्वगतश्च नित्यःज्यायान्दिवो ज्यायानन्तरिक्षात्नित्यः सर्वगतः स्थाणुः इत्येवमादयो हि श्रुतिस्मृतिन्यायाः सर्वगतत्वमात्मनो बोधयन्तीति दिग्विजये उत्तरगोग्रहे च राज्ञो भीष्मादींश्च विजित्य धनमाहृतवतस्त्वत्तः परतर एतादृशकर्मकर्ताऽन्यो यथा नास्ति तथा मत्तः परमन्यज्जगत्कारणं नास्तीति ध्वनयन्संबोधयति धनंजयेति। यत एवं तस्मान्मयि परमेश्वरे सर्वमिदं कार्यकारणात्मकं जगत्प्रोतं ग्रथितं यथा सूत्रे मणिगणा ग्रथितास्तद्वत्। अनेन स्थितिहेतुस्वमपि स्वस्यैव दर्शितम्। केचित्तु यस्मादहमेव मायया सर्वस्य जगतो जन्मस्थितिभङ्गहेतुस्तस्मात्परमार्थतो निखिलदृश्याकारपरिणतमायाधिष्ठानात्परमार्थसत्यात्परतरं परमार्थ सत्यं अन्यात्किंचिन्नास्ति। मयि कल्पितं परमार्थतो मत्तो न भिद्यत इत्यर्थः।तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः इति न्यायात्। व्यवहारदृष्ट्या तु मयि सद्रूपे स्फरणरुपे च सर्वमिदं जटजातं प्रोतं ग्रथितं मत्सत्तया सदिव मत्सफुरणेन स्फुरदिव व्यवहाराय मायामयाय कल्पते। सर्वस्य चैतन्यगथितत्वमात्रे दृष्टान्तः सूत्रे मणिगणा इव। अथवा सूत्रे तैजसात्मनि हिरण्यगर्भे स्वप्रदृशि स्वप्नप्राप्ता मणिगणा इव इति सर्वांशेऽपि दृष्टान्तो व्याख्यायेय इति वर्णयन्ति। अस्मिन्पक्षेनेह नानास्ति किंचन इतिवन्मत्तोऽन्यत्किंचिन्नास्तीत्येतावतैव मत्तः परमार्थसतोऽन्यद्भिन्नं किंचिद्वस्तु परमार्थसन्नास्तीत्यर्थस्य निर्वाहे मयि सर्वमिदं कल्पितं मनसि स्वप्नपदार्था इवेति वक्तव्ये परतरपदस्य प्रयोजनं प्रोतमित्यादेः स्वारस्यं च चिन्त्यम्।
7.7 मत्तः than Me? परतरम् higher? न not? अन्यत् other? किञ्चित् anyone? अस्ति is? धनञ्जय O Dhananjaya? मयि in Me? सर्वम् all? इदम् this? प्रोतम् is strung? सूत्रे on a string? मणिगणाः clusters of gems? इव like.Commentary There is no other cause of the universe but Me. I alone am the the cause of the universe. This illustration of gems and thread illustrates only the idea that all beings and the whole world are threaded on the Lord. The thread is not the cause of the gems. As Brahman is all in all there is nothing whatever higher than It.
7.7 There is nothing whatsoever higher than Me, O Arjuna. All this is strung on Me, as clusters of gems on a string.
7.7 O Arjuna! There is nothing higher than Me; all is strung upon Me as rows of pearls upon a thread.
7.7 O Dhananjaya, there is nothing else whatsoever higher than Myself. All this is strung on Me like pearls on a string.
7.7 O Dhananjaya, asti, there is; na anyat kincit, nothing else whatsoever, no other cause; parataram, higher; mattah, than Me, the supreme God; i.e. I Myself am the source of the world. Since this is so, therefore, sarvam, all; idam, this, all things, the Universe; protam,is strung, woven, connected, i.e. transfixed; mayi, on Me, the supreme God; like cloth in the warp, [Like cloth formed by threads constituting its warp and woof.] and iva, like; maniganah, peals; sutre,on a string. 'What alities are You endowed with, by virtue of which all this is strung on You? This is being answered:
7.7. There exists nothing beyond Me, O Dhananjaya; all this is strung on Me just as the groups of pearls on a string.
7.6-7 Etadyonini etc. Mattah etc. Keep them nearby : You should place them in your neihbourhood following the method of experience augmented by practice. Or [it may mean that] You should bear in mind that I, the Vasudeva, am both the origin and destruction of all beings. What is indicated by 'I' is this : Even though [it is viewed that] the Absolute (Isvara) is distinct from the Prakrti, Soul and Supreme Soul, It remains by all means immanent in all; hence there is no room for the theory of dualism of the Sankhya and the Yoga schools. Just as the pearls on the string. Just as the string does exist unobserved in the interior [in a necklace] though its form remains undetected, in the same fashion I remain in all.
7.7 I am absolutely superior to all in two ways: 1) I am the cause of both the Prakrtis and I am also their controlling master (Sesin). This controllership over inanimate nature is exercised through the animate Prakrti (the Jivas) who form the inner controller (Sesin) of their bodies which are constituted of inanimate nature. 2) I am supreme to all in another sense also - as the possessor of knowledge, power, strength etc., in an infinite degree. There is no entity other than Me with such attributes of an eal or superior nature. The aggregate of all the animate and inanimate things, whether in their causal state or in the state of effect, is strung on Me who abides as their Self, as a row of gems on a thread. They depend on Me. And it is proved that the universe of inanimate and animate beings exists as the body with Brahman (i.e. the Supreme Person) as their Self as declared by the Antaryami-brahmana and other texts: 'He whose body is the earth' (Br. U., 3.7-3), 'He whose body is the self' (Br. U. Madh., 3.7.22), and 'He is the inner self of all beings, without evil, He is the Lord in the supreme heaven, He is the one Narayana' (Su. U., 7). Thus, as everything constitutes the body of the Supreme Person forming only a mode of His who is their Self, the Supreme Person alone exists, and all things (which we speak of as diversity) are only His modes. Therefore all terms used in common parlance for different things, denote Him only. Sri Krsna shows this by coordinating some important ones among these entities with Himself.
7.7 There is nothing higher than Myself, O Arjuna. All this is strung on Me, as rows of gems on a thread.
।।7.7।।ऐसा होनेके कारण मुझ परमेश्वरसे परतर ( अतिरिक्त ) जगत्का कारण अन्य कुछ भी नहीं है अर्थात् मैं ही जगत्का एकमात्र कारण हूँ। हे धनंजय क्योंकि ऐसा है इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् और समस्त प्राणी मुझ परमेश्वरमें दीर्घ तन्तुओंमें वस्त्रकी भाँति तथा सूत्रमें मणियोंकी भाँति पिरोया हुआ अनुस्यूत अनुगत बिंधा हुआ गूँथा हुआ है।
।।7.7।। मत्तः परमेश्वरात् परतरम् अन्यत् कारणान्तरं किञ्चित् नास्ति न विद्यते अहमेव जगत्कारणमित्यर्थः हे धनञ्जय। यस्मादेवं तस्मात् मयि परमेश्वरे सर्वाणि भूतानि सर्वमिदं जगत् प्रोतं अनुस्यूतम् अनुगतम् अनुविद्धं ग्रथितमित्यर्थ दीर्घतन्तुषु पटवत् सूत्रे च मणिगणा इव।।केन केन धर्मेण विशिष्टे त्वयि सर्वमिदं प्रोतमित्युच्यते
।।7.7।।नन्वपरं परं च तत्त्वमुक्त्वा परतरोऽहमिति वक्तव्यंमत्तः इति किमुच्यते इत्यतस्तात्पर्यमाह अहमेवेति। परापरप्रकृत्योः स्वाधीनत्वोक्त्यैव स्वस्य परतरत्वमुक्तप्रायम्। किं त्वपरतत्त्वं यथाऽनेकं भूम्यादिभेदेन तथा च परतत्त्वंमुक्तस्तु स्यात्पराभासः इति वचनात्। तथा परतरमपि किमनेकमुत त्वमेक एव इति जिज्ञासायामहमेव परतर इत्यनेनोच्यत इत्यर्थः। कथमनेनेदं लभ्यते भगवत्प्रतियोगिकाधिक्यवन्निषेधस्यात्र प्रतीतेरित्यतो योजयति मत्त इति। अन्यथा तरपोऽन्यशब्दस्य च वैयर्थ्यादिति भावः।
।।7.7।।अहमेव परतरः मत्तोऽन्यत्परतरं न किञ्चिदपि।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।7.7।।
মত্তঃ পরতরং নান্যত্কিঞ্চিদস্তি ধনঞ্জয৷ মযি সর্বমিদং প্রোতং সূত্রে মণিগণা ইব৷৷7.7৷৷
মত্তঃ পরতরং নান্যত্কিঞ্চিদস্তি ধনঞ্জয৷ মযি সর্বমিদং প্রোতং সূত্রে মণিগণা ইব৷৷7.7৷৷
મત્તઃ પરતરં નાન્યત્કિઞ્ચિદસ્તિ ધનઞ્જય। મયિ સર્વમિદં પ્રોતં સૂત્રે મણિગણા ઇવ।।7.7।।
ਮਤ੍ਤ ਪਰਤਰਂ ਨਾਨ੍ਯਤ੍ਕਿਞ੍ਚਿਦਸ੍ਤਿ ਧਨਞ੍ਜਯ। ਮਯਿ ਸਰ੍ਵਮਿਦਂ ਪ੍ਰੋਤਂ ਸੂਤ੍ਰੇ ਮਣਿਗਣਾ ਇਵ।।7.7।।
ಮತ್ತಃ ಪರತರಂ ನಾನ್ಯತ್ಕಿಞ್ಚಿದಸ್ತಿ ಧನಞ್ಜಯ. ಮಯಿ ಸರ್ವಮಿದಂ ಪ್ರೋತಂ ಸೂತ್ರೇ ಮಣಿಗಣಾ ಇವ৷৷7.7৷৷
മത്തഃ പരതരം നാന്യത്കിഞ്ചിദസ്തി ധനഞ്ജയ. മയി സര്വമിദം പ്രോതം സൂത്രേ മണിഗണാ ഇവ৷৷7.7৷৷
ମତ୍ତଃ ପରତରଂ ନାନ୍ଯତ୍କିଞ୍ଚିଦସ୍ତି ଧନଞ୍ଜଯ| ମଯି ସର୍ବମିଦଂ ପ୍ରୋତଂ ସୂତ୍ରେ ମଣିଗଣା ଇବ||7.7||
mattaḥ parataraṅ nānyatkiñcidasti dhanañjaya. mayi sarvamidaṅ prōtaṅ sūtrē maṇigaṇā iva৷৷7.7৷৷
மத்தஃ பரதரஂ நாந்யத்கிஞ்சிதஸ்தி தநஞ்ஜய. மயி ஸர்வமிதஂ ப்ரோதஂ ஸூத்ரே மணிகணா இவ৷৷7.7৷৷
మత్తః పరతరం నాన్యత్కిఞ్చిదస్తి ధనఞ్జయ. మయి సర్వమిదం ప్రోతం సూత్రే మణిగణా ఇవ৷৷7.7৷৷
7.8
7
8
।।7.8।। हे कुन्तीनन्दन ! जलोंमें रस मैं हूँ, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ, सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार) मैं हूँ, आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषार्थ मैं हूँ।
।।7.8।। हे कौन्तेय ! जल में मैं रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सब वेदों में प्रणव (ँ़कार) हूँ तथा आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।।
।।7.8।। See commentary under 7.9.
।।7.8।। व्याख्या--[जैसे साधारण दृष्टिसे लोगोंने रुपयोंको ही सर्वश्रेष्ठ मान रखा है तो रुपये पैदा करने और उनका संग्रह करनेमें लोभी आदमीकी स्वाभाविक रुचि हो जाती है। ऐसे ही देखने, सुनने, मानने और समझनेमें जो कुछ जगत् आता है उसका कारण भगवान् हैं (7। 6); भगवान्के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं-- ऐसा माननेसे भगवान्में स्वाभाविक रुचि हो जाती है। फिर स्वाभाविक ही उनका भजन होता है। यही बात दसवें अध्यायके आठवें श्लोकमें कही है कि 'मैं सम्पूर्ण संसारका कारण हूँ, मेरेसे ही संसारकी उत्पत्ति होती है,--ऐसा समझकर बुद्धिमान् मनुष्य मेरा भजन करते हैं। ऐसे ही अठारहवें अध्यायके छियालीसवें श्लोकमें कहा है कि 'जिस परमात्मासे सम्पूर्ण जगत्की प्रवृत्ति होती है और जिससे सारा संसार व्याप्त है, उस परमात्माका अपने कर्मोंके द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त कर लेता है।' इसी सिद्धान्तको बतानेके लिये यह प्रकरण आया है।] 'रसोऽहमप्सु कौन्तेय'--हे कुन्तीनन्दन ! जलोंमें मैं 'रस' हूँ। जल रस-तन्मात्रासे (टिप्पणी प0 403) पैदा होता है; रस-तन्मात्रामें रहता है और रस-तन्मात्रामें ही लीन होता है। जलमेंसे अगर 'रस' निकाल दिया जाय तो जलतत्त्व कुछ नहीं रहेगा। अतः रस ही जलरूपसे है। वह रस मैं हूँ। 'प्रभास्मि शशिसूर्ययोः'--चन्द्रमा और सूर्यमें प्रकाश करनेकी जो एक विलक्षण शक्ति 'प्रभा' है (टिप्पणी प0 404), वह मेरा स्वरूप है। प्रभा रूप-तन्मात्रासे उत्पन्न होती है रूपतन्मात्रामें रहती है और अन्तमेंरूपतन्मात्रामें ही लीन हो जाती है। अगर चन्द्रमा और सूर्यमेंसे प्रभा निकाल दी जाय तो चन्द्रमा और सूर्य निस्तत्त्व हो जायँगे। तात्पर्य है कि केवल प्रभा ही चन्द्र और सूर्यरूपसे प्रकट हो रही है। भगवान् कहते हैं कि वह प्रभा भी मैं ही हूँ।
।।7.8।।रसोऽहमप्स्विति। सर्वत्रास्वाद्यमानो योऽनुद्भिन्न (N मानयोरनुद्भिन्न ) मधुरादिविभागः सामान्यः सोऽहम्। एवं प्रकाशः मृदुत्वचण्डत्वादिरहितः। खे आकाशे। यः शब्द इति सर्वस्यैव शब्दस्य नभोगुणत्वात् अत्रावधारणम्। अथवा यः केवलं ( SN केवलगगन ) गगनगुणया ध्वनिसंयोगविभागादिसामग्र्यन्तररहितः अवहितहृदयैः ब्रह्मगुहागगनगामी योगिगणैः संवेद्यः अनाहताख्यः सकलश्रुतिग्रामानुगामी ( श्रुतिमार्गानुगामी) तत् भगवतस्तत्त्वम्। पौरुषम् येन तेजसा पुरुषोऽह(य)मिति सार्वभौमं प्रतिपद्यते (N प्रतिपाद्यते)।
।।7.8।।एते सर्वे विलक्षणा भावा मत्त एव उत्पन्नाः मच्छेषभूता मच्छरीरतया मयि एव अवस्थिताः अतः तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थितः।
।।7.8।।अबादीनां रसादिषु प्रोतत्वप्रतीतेस्त्वय्येव सर्वं प्रोतमित्ययुक्तमिति मत्वा पृच्छति केनेति। तत्रोत्तरमुत्तरग्रन्थेन दर्शयति उच्यत इति। सारो मधुरो हेतुरिति यावत्। रसोऽहमिति कथं तत्राह तस्मिन्निति। अप्सु यो रसः सारस्तस्मिन्मयि मधुररसे कारणभूते प्रोता आप इतिवदुत्तरत्र सर्वत्र व्याख्यानं कर्तव्यमित्याह एवमिति। उक्तमर्थं दृष्टान्तं कृत्वा प्रभास्मीत्यादि व्याचष्टे यथेति। चन्द्रादित्ययोर्या प्रभा तद्भूते मयि तौ प्रोतावित्यर्थः। तत्र वाक्यार्थं। कथयति तस्मिन्निति। प्रणवभूते तस्मिन्वेदानां प्रोतत्ववदाकाशे यः सारभूतः शब्दस्तद्रूपे परमेश्वरे प्रोतमाकाशमित्याह तथेति। पौरुषं नृष्विति भागं पूर्ववद्विभजते तथेत्यादिना। पुरुषत्वमेव विशदयति यत इति। पुंस्त्वसामान्यात्मके परस्मिन्नीश्वरे प्रोतास्तद्विशेषास्तदुपादानत्वेन तत्स्वभावत्वादित्यर्थः।
।।7.8।।नन्वेकस्य भगवतः कारणत्वमुपादानत्वेन निमित्तत्वादिना वा तत्रापि तन्मुख्यं गौणं वा इति चेत् उच्यते तस्य मुख्यमेव सर्वकारणत्वं सर्वरूपत्वात्सर्वशक्तित्वात्सहकारिनिरपेक्षत्वाच्च कामधेन्वादिवत्। उक्तं हि श्रीभागवते 6।4।30यस्मिन्यतो येन च यस्य यस्मै यद्यो यथा कुरुते कार्यते वा (च)। परावरेषां परमं प्राक्प्रसिद्धं तद्धीश (तद्ब्रह्म) तद्धेतुरनन्यदेकम् इत्यादि। एकोऽहं बहु स्याम् स आत्मानं स्वयमकुरुत सहैतावानाससर्वनामा स च विश्वरूपः इत्यादिश्रुतिस्मृतिषु मुख्यमेवास्य कारणत्वं सर्वमुक्तम्। तथैव स्वविभूतिमहिमविज्ञानं स्पष्टयति सङ्क्षेपेण चतुर्भिःरसोऽहमप्सु इत्यारभ्यकामोऽस्मि 7।11 इत्यन्तम्। तत्र सप्तविधोऽहं सन् प्रकृतिकार्ये गुणरूपनामात्मना स्थितः चित्प्रकृतिकार्येऽपि तथैवेत्याशयेनाह रसोऽहमिति। अप्सु रसत्वेन स्थितोऽस्मि। प्रभेति रूपभेदः। प्रणवो नामात्मा कः शब्दो गुणाः खे। नृषु मानुषेषु पौरुषं वीर्यम्।यतः सर्वगुणानां सम्मिश्रं रूपं सप्तमोऽप्येको भेदो मध्ये निरूपितः मिश्रितत्वात्।
।।7.8।।अबादीनां रसादिषु प्रोतत्वप्रतीतेः कथं त्वयि सर्वमिदं प्रोतमिति च न शङ्क्यम् रसादिरूपेण ममैव स्थितत्वादित्याह पञ्चभिः रसः पुण्यो मधुरस्तन्मात्ररूपः सर्वासामपां सारः कारणभूतो योऽप्सु सर्वास्वनुगतः सोऽहं हे कौन्तेय तद्रूपे मयि सर्वा आपः प्रोता इत्यर्थः। एवं सर्वेषु पर्यायेषु व्याख्यातव्यम्। इयं विभूतिराध्यानायोपदिश्यत इति नातीवाभिनिवेष्टव्यम्। तथा प्रभा प्रकाशः शशिसूर्ययोरहमस्मि। प्रकाशसामान्यरूपे मयि शशिसूर्यौ प्रोतावित्यर्थः। तथा प्रणव ओंकारः सर्ववेदेष्वनुस्यूतोऽहंतद्यथा शङ्कुना सर्वाणि पर्णानि संतृण्णान्येवमोंकारेण सर्वा वाक् इति श्रुतेः। संतृण्णानि ग्रथितानि। सर्वा वाक् सर्वो वेद इत्यर्थः। शब्दः पुण्यस्तन्मात्ररूपः खे आकाशेऽनुस्यूतोऽहम्। पौरुषं पुरुषत्वसामान्यं नृषु पुरुषेषु यदनुस्यूतं तदहम्। सामान्यरूपे मयि सर्वे विशेषाः प्रोताः श्रौतैर्दुन्दुभ्यादिदृष्टान्तैरिति सर्वत्र द्रष्टव्यम्।
।।7.8।। जगतः स्थितिहेतुत्वं प्रपञ्चयति रसोऽहमिति पञ्चभिः। अप्सु रसोऽहम्। रसतन्मात्ररूपया विभूत्या तदाश्रयत्वेनाप्सु स्थितोऽहमित्यर्थः। तथा शशिसूर्ययोः प्रभास्मि। चन्द्रेऽर्के च प्रकाशरूपया विभूत्या तदाश्रयत्वेन स्थितोऽहमित्यर्थः। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्। सर्वेषु वेदेषु वैखरीरूपेषु तन्मूलभूतः प्रणव ओंकारोऽस्मि। खे आकाशे शब्दतन्मात्ररूपोऽस्मि। नृषु पुरुषेषु पौरुषमुद्यमोऽस्मि। उद्यमे हि पुरुषास्तिष्ठन्ति।
।।7.8।। एवंभूमिरापः 7।4 इत्यादिना भेदश्रुत्यर्थ उपबृंहितःमयि सर्वम् 7।7 इति तु घटकश्रुत्यर्थः अथ तदुभयनिर्वाहिताभेदश्रुत्यर्थोपबृंहणं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह अत इति। केचित्मयि सर्वमिदम् इत्यस्य रसादिधर्मविशिष्टे मयि प्रोतमित्यर्थः तद्विवरणंरसोऽहम् इत्यादि इति व्याचख्युः तत्परिहारायाह सर्वस्य परमपुरुषशरीरत्वेनेति। परोक्ते त्वाधाराधेयभाववैपरीत्यादिदोष इति भावः। प्रकारवाचिशब्दानां प्रकारिणि पर्यवसानस्वाभाव्यं जातिगुणादिशब्देष्वपि सामान्यतः सिद्धमिति दर्शयितुं प्रकारत्वोपादानम्।अभिधानं मुख्यवृत्त्या बोधनम्। यद्यपि रसादिशब्दा लोके निष्कर्षकाः प्रयुज्यन्ते व्यधिकरणतया चात्रावादिद्रव्योपादानम् तथापि रसादीनां परमात्मशरीरभूतद्रव्यप्रकारत्वेन परमात्मनः प्रकारित्वाद्रसादिशब्दानां चात्र तत्समानाधिकरणतया प्रयोगात्तत्र निष्कर्षकत्वं नास्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्। द्रव्योपादानं तु तत्रतत्र द्रव्ये प्रधानभूतरसगन्धादिप्रकारीभूतोऽहमिति ज्ञापनार्थम्। द्रव्यप्रकाराणां च तत्प्रकारत्वं काठिन्यवान् (न्येन)यो बिभर्ति वि.पु.1।14।28 इत्यादिषु प्रयुक्तमिति भावः। रसस्य पृथिव्यां वृत्तौ सत्यामप्यपां रूपादिगुणान्तरसद्भावेऽपिरसोऽहमप्सु इति विशिष्योपादानं तेजस्तत्त्वादब्रूपपरिणामस्य पूर्वतत्त्वानुत्पन्नरसप्रधानत्वात्। अन्यत्र चआत्तगन्धा तदा (ततो) भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते वि.पु.6।4।14 इत्यादिना च पृथिव्यादीनां गन्धरसाद्यधीनत्वमुक्तम्। एवमुत्तरत्रापि प्राधान्यतो विशेषनिर्देशे यथोचितं भाव्यम्।प्रभा स्वाश्रयातिरिक्तप्रसारितेजोद्रव्यविशेषः। प्रभयैव चन्द्रसूर्यौ जगदुपकारहेतुभूताविति तौ तत्प्रधानौ। सर्वेषां वेदानां बीजत्वादिना तेषुप्रणवः प्रधानभूतः।पौरुषं पुरुषस्य भावः यतः पुरुषबुद्धिरित्येके सन्तानपरम्पराहेतुभूतं रेत इत्यपरे यद्वा पौरुषं सामर्थ्यं कर्तृत्वशक्तिरित्यर्थः तयैव हि कर्तुरात्मनः कारकान्तरेभ्यः प्राधान्यम्। नृषु जीवेष्वित्यर्थः। यद्वा पौरुषं पुंस्त्वम् स्त्रीनपुंसकव्यावृत्तः सत्त्वादिस्वभावविशेषः। नृशब्दश्च पुरुषपर्यायः। पुण्यो गन्धः तुलस्यादिगन्धः सुरभिगन्धमात्रं वा तद्योगेन हि पृथिवी सत्त्वोन्मेषस्य सुखस्य वा हेतुर्भवति। विभावसुरत्राग्निः। तत्र च तेजो दाहकत्वशक्तिः। भूतशब्देनात्र शरीरिणो गृह्यन्ते। सर्वशब्देनात्र ब्रह्मशर्वादीनामपि सङ्ग्रहः। तेषु जीवनं प्राणनम् प्राणस्थितिहेतुर्वा। येन सर्वाणि भूतानि जीवन्ति भूतेषूपजीवनीयं वा रूपम्।सर्वभूतानां सनातनं बीजं प्रकृतितत्त्वम्। अथवा प्रधानधर्मनिर्देशप्रकरणत्वाद्बीजशब्दोऽत्रोपादानत्वाख्यस्वभावपरः। सर्वेषां परिणामिद्रव्याणां स्वकार्यपरिणामसामर्थ्यमित्यर्थः। अथवा बीजं प्ररोहकारणं जङ्गमस्थावरभूतानां तत्तदुपादानद्रव्यम्। बुद्धिः अध्यवसायः ज्ञानमात्रं वा। तेजस्विनः प्रतापशीलाः तेषां तेजः अनभिभवनीयत्वं पराभिभवसामर्थ्यं वा। तेजोऽभिमान इति केचित् प्रागल्भ्यमित्यपरे। बलं धारणादिशक्तिः। कामरागवशात् स्वकार्ये प्रवृत्तस्य बलस्य परपीडादिहेतुत्वाद्धर्मोपयुक्तशरीरादिधारणमात्रादिविषयत्वायकामरागविवर्जितम् इत्युक्तम्। काम इच्छायाःकाष्ठा प्राप्तदशा। राग इच्छा। यद्वा कामशब्दः काम्यपरः तद्विषयो रागः कामरागः भूतेषु देवमनुष्यादिरूपेणावस्थितेषु जन्तुषु। धर्माविरुद्धः कामः स्वदारप्रीत्यादिः।अथरसोऽहम् इत्यादिसामानाधिकरण्यं सहेतुकमुपपादयति एत इति। न चायं तदधीनसामर्थ्यप्रदर्शनार्थोराजा राष्ट्रम् इत्यादिवदारोपः मुख्यसम्भवे वृत्त्यन्तरायोगादिति भावः।एत इत्यनेनेश्वरव्यतिरिक्तैरशक्यक्रियत्वमभिप्रेतम्।सर्व इत्यनेन ब्रह्मरुद्रादिभिरन्यैश्च क्रियमाणानामपि ब्रह्मादिशरीरपरमात्माधीनसृष्टत्वम्अहं कृत्स्नस्य 7।6 इति पूर्वोक्तं स्मारितम्। वक्ष्यमाणराजसतामसेभ्यो वैलक्षण्यार्थमुक्तंविलक्षणा इति।मत्त एव पृथग्विधाः 10।5 इति च वक्ष्यते। एतेनन विलक्षणत्वादस्य ब्र.सू.2।1।4 इत्यधिकरणार्थोऽपि स्मारितः।मत्त एवोत्पन्ना इत्यादि तत्तद्वस्त्वनुरूपं यथासम्भवं सामानाधिकरण्यहेतुः। गुणजातिशरीरेष्वनुगतः सामानाधिकरण्यहेतुरपृथक्सिद्धिरिति प्रदर्शनायोक्तंमय्येवावस्थिता इति।
।।7.8।।आधिदैविकरूपेण जगतः स्थितिं स्वस्मिन्नाह रसोऽहमिति पञ्चभिः। हे कौन्तेय मद्भक्त एतज्ज्ञानयोग्य अहमप्सु जलेषु रसरूपः। जले शैत्याद्याह्लादकानन्दादिगुणो मद्रूपस्थरसांशसम्बन्धादाविर्भवतीत्यर्थः। तथा शशिसूर्ययोः प्रभा प्रकाशकतेजोरूपोऽस्मि मद्रूपस्थसंयोगविप्रयोगानन्दरूपतेजस्सम्बन्धेनोभयोस्तद्रूपानन्दप्रकाशकत्वं भवतीति भावः। सर्ववेदेषु शब्दरसात्मके प्रणवे च ओङ्कारत्रिरूपाक्षररूपोऽस्मि शक्तिद्वयसहितपुरुषरूपोऽस्मि तत्सम्बन्धेनैव वेदशब्देषु रसरूपता अत एव श्रुतीनां भावोत्पत्तिः। खे आकाशे शब्दरूपोऽस्मि।अत्रायं भावः आकाशस्वरूपात्मकभगवद्वेणुसम्बन्धेन शब्देष्वानन्दरूपत्वं भवति। नृषु मनुष्येषु पौरुषांशत्वम् पुरुषांशानामेव भजनयोग्यतेति तत्सम्बन्धेनैव सर्वमनुष्याणामुत्तमत्वमुच्यत इति भावः।
।।7.8।।नन्वेवं प्रपञ्चपरमात्मनोर्मणिसूत्रवदुपादानोपादेयभावोऽपि न स्यात्। नहि उपादानं चाननुवृत्तं चेति घटते मृद्धटादावदर्शनादित्याशङ्क्य स्वप्नमायेन्द्रजालरज्जूरगतुल्यत्वं प्रपञ्चस्योपपाद्योभयमप्यविरुद्धमित्युपदिष्टं चेदयमकस्मादुद्विग्नो भविष्यतीति मत्वा दृष्टान्तान्तरैरेवानुवृत्तिं व्यावृत्तिं चिज्जडयोर्दर्शयति रस इति। यथा रसोऽप्सु एकमप्यप्परमाणुमपरित्यज्यानुस्यूतो दृश्यतेऽतो रसरूपे मयि आपः प्रोताः एवं प्रभायां चन्द्रादयः प्रोताः प्रणवे सर्वे वेदाः प्रोताःतद्यथा शङ्कुना सर्वाणि पर्णानि संतृण्णान्येवमोंकारेण सर्वा वाक् संतृण्णा इति वाङ्मात्रे प्रणवानुस्यूतिश्रवणात्। संतृण्णानि संग्रथितानि। एवमाकाशे शब्दः सारभूतस्तस्मिन्मयि खं प्रोतम्। सर्वपुरुषेषु सारं पौरुषं शौर्यर्धैर्यादिरूपं तत्र पुरुषाः प्रोताः। एवमग्रेऽपि द्रष्टव्यम्।
।।7.8।।नन्वबादीनां रसादिषु प्रोतत्वप्रतीतेस्त्वय्येव सर्वं कथं प्रोतमित्याशङ्क्य रसादिरुपे मय्येवाबादिकं प्रोतमित्याह रस इति।अपां यः सारो रसः पुण्यो गन्धः इति गन्धस्य पुण्यत्वप्रदर्शनं पुण्यत्वप्रदर्शनं रसादेरपि पुण्यत्वोपलक्षणार्थम्। रसः पुण्यो मधुरस्तस्मिन् रसरुपे मयि आपः प्रोताः। कौन्तेयेति संबोधयन् अस्मन्मातुलेये त्वयि कथं सर्वं प्रोतमित्यसंभावनां माकुर्विति ध्वनयति। तथा प्रभा प्रखाशस्तस्मिन्प्रखाशरुपे मयि शशिसूर्यो प्रोतौ तदा सर्ववेदसारभूते प्रणवे ओंकाररुपे मयि सर्वे वेदाः प्रोताः। तथा आकाशानुस्यूते पुण्ये शब्दे शब्दतन्मात्ररुपे मयि आकाशः प्रोतस्तथा पौरुषं पुरुषस्य भावः पुंबुद्धिः पुरुषसारभूता तस्मिन्पौरुषरुपे मयि पुरुषाः प्रोताः।
7.8 रसः sapidity? अहम् I? अप्सु in water? कौन्तेय O Kaunteya (son of Kunti)? प्रभा light? अस्मि am (I)? शशिसूर्ययोः in the moon and the sun? प्रणवः the syllable Om? सर्ववेदेषु in all the Vedas? शब्दः sound? खे in ether? पौरुषम् virility? नृषु in men.Commentary In Me all beings and the whole world are woven as a cloth in the warp. In Me as sapidity the water is woven in Me as light? the sun and the moon are woven in Me as the sacred syllable Om all the Vedas are woven in Me as virility all men are woven.The manifestations of the Lord are described in the verses 8? 9? 10 and 11. (Cf.XV.12)
7.8 I am the sapidity in water, O Arjuna; I am the light in the moon and the sun; I am the syllable Om in all the Vedas, sound in ether and virility in men.
7.8 O Arjuna! I am the Fluidity in water, the Light in the sun and in the moon. I am the mystic syllable Om in the Vedic scriptures, the Sound in ether, the Virility in man.
7.8 O son of Kunti, I am the taste of water, I am the effulgence of the moon and the sun; (the letter) Om in all the Vedas, the sound in space, and manhood in men.
7.8 Kaunteya, O son of Kunti, aham, I; am rasah, the taste, which is the essence of water. The idea is that water is depedent on Me who am its essence. This is how it is to be understood in every case. Just as I am the essence of water, similarly, asmi, I am; the prabha, effulgence; sasi-suryayoh, of the moon and the sun; pranavah, (the letter) Om; sarva-vedesu, in all the Vedas. All the Vedas are established on Me who am that Om. So also (I am) sabdah, the sound; khe, in space, as the essence. Space is established on Me who am that (sound). In the same way, nrsu, in men; (I am) paurusam, manhood- the ality of being man, from which arises the idea of manhood. Men are established on Me who am such.
7.8. O son of Kunti ! I am the taste in waters; the light in the moon and the sun; the best hymn (OM) in the entire Vedas; the sound that exists in the ether (or the mystic hymnal sound in the entire Vedas-a sound that is in the ether); and the manly vigour in men.
7.8 Raso 'ham apsu etc. I am that [basic] taste which has not yet devolped as to have the classification of sweetness and so on, and which is being tasted in all waters. Similarly, the light : That [light] which is devoid of gentleness and fierceness etc. (The sound that exist] in the ether in the sky. The sound that etc. Here the emphasis is on all sounds, as they are attributes of the ether. Or, the passage denotes that empty basic sound which, being exclusively an attribute of th ether; which does not depend on any other external cuases like union and partition [of some objects]; which exists in the ether within the cave of the Brahman; which is ite intelligible to the groups of Yogins with attentive heart (mind); which bears the name Anahata; and which pervades the entire groups of the Vedas - that sound represents the Absolute. Manly vigour ; that lusture by means of which one is identified as a man throughout the earth.
7.8 - 7.11 All these entities with their peculiar characteristic are born from Me alone. They depend on Me; inasmuch as they constitute My body, they exist in Me alone. Thus I alone exist while all of them are only My modes.
7.8 I am the taste in the waters, O Arjuna! I am the light in the sun and the moon; the sacred syllable Om in all the Vedas; sound in the ether; and manhood in men am I.
।।7.8।।यह समस्त जगत् किसकिस धर्मसे युक्त आपमें पिरोया हुआ है इसपर कहते हैं जलमें मैं रस हूँ अर्थात् जलका जो सार है उसका नाम रस है उस रसरूप मुझ परमात्मामें समस्त जल पिरोया हुआ है। ऐसे ही और सबमें भी समझना चाहिये। जैसे जलमें मैं रस हूँ वैसे ही चन्द्रमा और सूर्यमें मैं प्रकाश हूँ। समस्त वेदोंमें मैं ओंकार हूँ अर्थात् उस ओंकाररूप मुझ परमात्मामें सब वेद पिरोये हुए हैं। आकाशमें उसका सारभूत शब्द हूँ अर्थात् उस शब्दरूप मुझ ईश्वरमें आकाश पिरोया हुआ है। तथा पुरुषोंमें मैं पौरुष हूँ अर्थात् पुरुषोंमें जो पुरुषत्व है जिससे उनको पुरुष समझा जाता है वह मैं हूँ उस पौरूषरूप मुझ ईश्वरमें पुरुष पिरोये हुए हैं।
।।7.8।। रसः अहम् अपां यः सारः स रसः तस्मिन् रसभूते मयि आपः प्रोता इत्यर्थः। एवं सर्वत्र। यथा अहम् अप्सु रसः एवं प्रभा अस्मि शशिसूर्ययोः। प्रणवः ओंकारः सर्ववेदेषु तस्मिन् प्रणवभूते मयि सर्वे वेदाः प्रोताः। तथा खे आकाशे शब्दः सारभूतः तस्मिन् मयि खं प्रोतम्। तथा पौरुषं पुरुषस्य भावः पौरुषं यतः पुंबुद्धिः नृषु तस्मिन् मयि पुरुषाः प्रोताः।।
।।7.8 7.12।।भूमिः 7।4 इत्यादिनेत्यत्रावधेरनुक्तेःरसोऽहं इत्याद्यपि ज्ञानप्रकरणमिति प्रतीतिः स्यात् तन्निरासाय तत्समाप्तिमाह इदमिति। एतावता ग्रन्थेन ज्ञानं निरूपितमित्यर्थ। कुतोऽत्र ज्ञानप्रकरणस्य समाप्तिः इत्यत आह रसोऽहमिति। इतिशब्दाद्यभावेऽपि प्रकरणान्तरारम्भ एव समाप्तिं गमयिष्यति। अलौकिकमाहात्म्यप्रतिपादनादस्य विज्ञानप्रकरणत्वं ज्ञायत इति भावः।प्रभवादेः इत्युक्तन्यायेनैवरसोऽहं इत्यादेरपि व्याख्यानं सिद्धम्। रसादीनां सत्तादिकारणत्वाद्भोक्तृत्वाच्च भगवान् रसादिरिति। नन्वबादयो धर्मिणो भगवदधीनास्तद्भोग्याश्चेत्यङ्गीक्रियते न वा। नेति पक्षेअहं कृत्स्नस्य 7।6 इत्युक्तविरोधः। आद्ये तुअप्सु रसः इत्यादेर्धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणां ग्रहणस्यानुपपत्तिरित्यतः प्रथमं पक्षं तावदङ्गीकरोति अबादयोऽपीति। धर्मिणोऽपि तदधीना एव तद्भोग्याश्चैव। ननु तत्रोक्तो दोष इत्यतः कारणत्वे तावद्विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह तथापीति। यद्यपि धर्मिणोऽपि भगवदधीना एव तथापि धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानं युज्यत इति शेषः। कथं इत्यत आह रसादीति। रसादयश्च ते स्वभावा अबादीनामनागन्तुकधर्माश्चेति रसादिस्वभावास्तेषां साराणामबादिधर्मेषु सङ्ख्यादिषु श्रेष्ठानां च तेषामेवाबादिस्वभावभूतानां तद्धर्मेषु श्रेष्ठानां च रसादीनामिति यावत्। स्वभावत्वेऽबादीनामिति शेषः। सारत्वेऽबादिधर्मेष्विति शेषः। रसादित्वे चेति चार्थः। स भगवानेव। विशेषतोऽपीत्यस्य व्यावर्त्यं न त्विति। अनुबद्धोऽनुषङ्गसिद्धः। तत्सारत्वादिश्चेति। तस्य रसादेरबादिधर्मेषु सारत्वमबादिस्वभावत्वं रसत्वादिकं चेत्यर्थः। यथा लोके कुविन्दादिः पटादिद्रव्येष्वेव व्यापारवाननुभूयते न तु तदीयेषु गन्धरसादिषु गुणेषु तद्धर्मेषु च गन्धत्वादिषु पृथग्व्यापारवान् किन्तु ते पटादिजन्मानुषङ्गिजन्मान एव। न तथा भगवान्। अपित्वबादेधर्मेषु रसादिषु तद्धर्मेषु च स्वभावत्वादिषु पृथक् प्रयत्नवान् नत्वबादिनियमानुषङ्गिसत्तादिकास्त इति दर्शयितुं विशेषशब्दा उपात्ता इत्यर्थः। भोगपक्षेऽपि प्रयोजनमाह भोगश्चेति। अबादिभोगादप्यतिशयेन रसादेर्भोगः परमेश्वरस्येति दर्शयति विशेषशब्दैरिति सम्बन्धः।रसोऽहं इत्याद्यभेदोक्तेरर्थान्तरं सूचयन् तत्रापिविशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह उपासनार्थं चेति। विशेषतः रसादेरिति वर्तते। अर्थवशाद्रसादेरिति सप्तमीत्वेन विपरिणम्यते। रसादयः परमेश्वरोपासने प्रतिमात्वेनात्र विवक्षिताः। प्रतिमायां चाभेदोक्तिः प्रसिद्धा। प्रतिमात्ममबादीनां समानम्। योऽप्सु तिष्ठन् बृ.उ.7।3।4 इत्यादेः। अतः किं विशेषशब्दग्रहणेनेति चेत् अबादिभ्यो विशेषतः रसादिषु भगवदुपासनार्थं तदुपपत्तिरिति।उक्तेऽर्थत्रये प्रमाणमाह उक्तं चेति। तथा चशब्दः अन्योन्यसमुच्चये। एवशब्दस्येश्वर इत्यनेन सम्बन्धः। सर्वत्राबादिषु। ईश्वरो रसादिकं जगदित्युच्यत इत्यर्थः। अबादयोऽबाद्यभिमानिनः। ज्ञानिनां ज्ञानार्थिनां सम्पत्त्यै प्राप्त्यै अन्येषां रसार्थिनाम्। अबादय इति रसादीति च पादयोः सप्तनवाक्षरत्वेऽपि न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति ऐ.ब्रा.1।6 इति वचनाददोषः। स्वभावस्य भगवदधीनत्वमलौकिकमित्यतस्तत्रान्यान्यपि वाक्यानि पठति स्वभाव इति। अस्त्वेवं धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानम् धर्माणां विशेषणोपादानं तु किमर्थमित्यत आह धर्मेति। आदिपदेनपुण्यो गन्धः इत्यस्य ग्रहणम्। कामादिषु विशिष्टंष्वेव भगवानुपास्यः न धर्मविरुद्धेष्वशुचिष्विति ज्ञापनाय कामादीनां धर्माणां धर्माविरुद्धत्वादिविशेषणोपादानमित्यर्थः। अत्र प्रमाणमाह उक्तं वेति। कामं पुरुषार्थम्। कामरागादेः कामरागादिना। अनिञ्छद्भिः कामादिकम्। गन्धस्य विशेषणोपादाने प्रयोजनान्तरमाह पुण्य इति। पुण्यगन्धस्यैव भगवतो भोगो न दुर्गन्धस्येति ज्ञापयितुमत्र विशेषणोपादानमित्यर्थः। ननु दुर्गन्धं भगवाननुभवति न वा नेति पक्षे सार्वज्ञाभावः आद्ये कथं भोगाभावः उच्यते अनुभूयमाना अपि दुर्गन्धादयो न फलहेतव इत्यभिप्रायः। सुगन्धस्तु सुखहेतुरित्युपपादितम्।शुचिवस्त्वेव भगवतो भोग्यमित्यत्र प्रमाणमाह तथा हीति। अमुमुपासकम्। कुतः तस्य देवत्वात्। तथापि कुतः न ह वै देवमात्रस्य पुण्यभोगनियमे देवोत्तमस्य सुतरां तत्सिद्धि।ऋतं कठो.3।1 इति श्रुतिः कथं प्रकृतोपयोगिनी इत्यत आह ऋतं चेति। कुतः इत्यतः सामान्यविशेषाभिधानादित्याह ऋतमिति। प्रयोगगः शब्दजन्यः। तथा च श्रुतावृतशब्दः पुण्यफलस्योपलक्षक इति भावः। स्यादिदं व्याख्यानं यदि भगवतो विषयभोगो युक्तः स्यात् न चैवम् तदङ्गीकारे श्रुत्यादिविरोधात्। ऋतं पिबन्तौ इति चात एव छत्रिन्यायेनोपचरितमित्यत आह न चेति। कुतो नेत्यत आह स्थूलेति। श्रुत्यादिषु स्थूलस्य जीवभोग्यस्य विषयस्याभोगोक्तेः सूक्ष्मभोगस्य चाङ्गीकारादिति भावः। सूक्ष्माशने प्रमिते भवेदियं व्यवस्था। तदेव कुतः इत्यत आह आह चेति। गन्धादिषु यो जीवेन्द्रियागोचरः सारभागस्तस्य भोगम्। परमेश्वरोऽस्माच्छारीरादात्मनो जीवादतिशयेन विलक्षणभोग एव भवति। अवतारेषु स्थूलमपि भुङक्ते इतीवशब्दः।ननु प्रविविक्ताहारतरोऽयं जीव एवेत्यत आह न चेति। न हि जीवो जीवादेव विलक्षणाहार इति युज्यत इत्यर्थः। ननु शारीराज्जागरावस्थाज्जीवात्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थः स एव प्रविविक्ताहार इत्यवस्थाभेदोपाधिकं जीवस्य भेदमङ्गीकृत्य व्याख्यास्यामीत्यत आह स्वप्नादिश्चेति।स्वपो नन् अष्टा.3।3।91 इति स्वप्नशब्दः कर्तरि। स्वप्नः सुषुप्तश्च शारीर एव न केवलं जाग्रत् तथाच त्र्यवस्थस्यापि शारीरशब्देन गृहीतत्वात् न ततो भेदः स्वप्नसुषुप्तयोरित्यर्थः। अवस्थात्रयवतोऽपि शारीरत्वं कुतः इत्यत आह शारीर स्त्विति। जाग्रदादिष्वंवस्थासु। अस्तु त्र्यवस्थोऽपि शारीरः तथाप्यस्मादिति विशेषणेनात्र शारीरादिति जाग्रदवस्थो गृह्यते। तस्माच्च स्वप्नाद्यवस्थस्य भेदोक्तिरुक्तविधया सम्भवति। भवत्पक्षेऽपि शारीरादिति जीवे सिद्धेऽस्मादिति विशेषणं व्यर्थं स्यादिति तत्राह अस्मादिति। नैतद्विशेषणसार्थक्यायेश्वरं परित्यज्य जीवोऽत्र ग्राह्यः शारीरादित्येवोक्तावीश्वरस्यापि प्राप्तावीश्वरादेवेश्वरस्य भेदानुपपत्तेः। तद्व्यावृत्त्यर्थं जीवमात्रपरिग्रहाय विशेषणमिति सार्थक्योपपत्तेरित्यर्थः। भवेदेवं यदि शारीरत्वमीश्वरस्यापि स्यात् तदेव कुतः इत्यत आह शारीराविति। नन्वेवं पक्षद्वयेऽप्युपपत्तावीश्वर एवात्रोच्यते न जीवः इति कुतः विनिगमनमित्यत आह भेदेति। चो हेतौ। भेदश्रुतेः स्वाभाविकभेदरूपे गत्यन्तरे सम्भवति पुरुषभेद एवार्थतया ग्राह्यः न त्ववस्थोपाधिको भेदः।मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययात् अतो युक्तं विनिगमनम्। न केवलमुक्तव्यवस्था न्यायप्राप्ता किन्त्वागमसिद्धा चेत्याह आह चेति। अभोक्ता च भोक्ता चेत्येतयोर्व्युत्क्रमेणान्धयः।सर्वभूतस्थमात्मानं 6।29 इत्युक्तत्वात्।न त्वहं तेषु 7।12 इति कथमुच्यते इत्यत आह न त्वहमिति।तदनाधारत्वं तदुपजीवनेन स्थित्यभावः। कुत एतत् इत्यत आह उक्तं चेति। न केवलं मुक्तविरोधादिति चार्थः।
।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौजीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः। प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8।।
রসোহমপ্সু কৌন্তেয প্রভাস্মি শশিসূর্যযোঃ৷ প্রণবঃ সর্ববেদেষু শব্দঃ খে পৌরুষং নৃষু৷৷7.8৷৷
রসোহমপ্সু কৌন্তেয প্রভাস্মি শশিসূর্যযোঃ৷ প্রণবঃ সর্ববেদেষু শব্দঃ খে পৌরুষং নৃষু৷৷7.8৷৷
રસોહમપ્સુ કૌન્તેય પ્રભાસ્મિ શશિસૂર્યયોઃ। પ્રણવઃ સર્વવેદેષુ શબ્દઃ ખે પૌરુષં નૃષુ।।7.8।।
ਰਸੋਹਮਪ੍ਸੁ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਪ੍ਰਭਾਸ੍ਮਿ ਸ਼ਸ਼ਿਸੂਰ੍ਯਯੋ। ਪ੍ਰਣਵ ਸਰ੍ਵਵੇਦੇਸ਼ੁ ਸ਼ਬ੍ਦ ਖੇ ਪੌਰੁਸ਼ਂ ਨਰਿਸ਼ੁ।।7.8।।
ರಸೋಹಮಪ್ಸು ಕೌನ್ತೇಯ ಪ್ರಭಾಸ್ಮಿ ಶಶಿಸೂರ್ಯಯೋಃ. ಪ್ರಣವಃ ಸರ್ವವೇದೇಷು ಶಬ್ದಃ ಖೇ ಪೌರುಷಂ ನೃಷು৷৷7.8৷৷
രസോഹമപ്സു കൌന്തേയ പ്രഭാസ്മി ശശിസൂര്യയോഃ. പ്രണവഃ സര്വവേദേഷു ശബ്ദഃ ഖേ പൌരുഷം നൃഷു৷৷7.8৷৷
ରସୋହମପ୍ସୁ କୌନ୍ତେଯ ପ୍ରଭାସ୍ମି ଶଶିସୂର୍ଯଯୋଃ| ପ୍ରଣବଃ ସର୍ବବେଦେଷୁ ଶବ୍ଦଃ ଖେ ପୌରୁଷଂ ନୃଷୁ||7.8||
rasō.hamapsu kauntēya prabhāsmi śaśisūryayōḥ. praṇavaḥ sarvavēdēṣu śabdaḥ khē pauruṣaṅ nṛṣu৷৷7.8৷৷
ரஸோஹமப்ஸு கௌந்தேய ப்ரபாஸ்மி ஷஷிஸூர்யயோஃ. ப்ரணவஃ ஸர்வவேதேஷு ஷப்தஃ கே பௌருஷஂ நரிஷு৷৷7.8৷৷
రసోహమప్సు కౌన్తేయ ప్రభాస్మి శశిసూర్యయోః. ప్రణవః సర్వవేదేషు శబ్దః ఖే పౌరుషం నృషు৷৷7.8৷৷
7.9
7
9
।।7.9।। पृथ्वीमें पवित्र गन्ध मैं हूँ, और अग्निमें तेज मैं हूँ, तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें जीवनीशक्ति मैं हूँ और तपस्वियोंमें तपस्या मैं हूँ।
।।7.9।। पृथ्वी में पवित्र गन्ध हूँ और अग्नि में तेज हूँ; सम्पूर्ण भूतों में जीवन हूँ और तपस्वियों में मैं तप हूँ।।
।।7.9।। किस प्रकार परमात्मरूपी सूत्र में नामरूपमय मणि पिरोकर सुन्दर सृष्टिरूप कण्ठाभरण की निर्मिति हुई है इसका वर्णन इन दो श्लोकों में किया गया है। इसके पूर्व भगवान् ने यह कहा था कि परा और अपरा प्रकृतियों के द्वारा मैं ही जगत् का कारण हूँ और मुझसे भिन्न किञ्चिन्मात्र कोई वस्तु नहीं है। वह सनातन तत्त्व क्या है जो सर्वत्र व्याप्त होते हुये भी दृष्टिगोचर नहीं होता इस प्रश्न का उत्तर यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने दिया है।किसी वस्तु का धर्म या स्वरूप वह है जो सदा एक समान बना रहता है और जिसके बिना उस वस्तु का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता। यहाँ दिये दृष्टान्त जल में रस सूर्य चन्द्र में प्रकाश समस्त वेदों में प्रणव आकाश में शब्द पृथ्वी में पवित्र गन्ध पुरुषों में पुरुषत्व एवं तपस्वियों में तप आदि ये सब दर्शाते हैं कि आत्मा ही वह तत्त्व है जिसके कारण इन वस्तुओं का अपना विशेष अस्तित्व होता है। संक्षेपत आत्मा समस्त भूतों का जीवन है।भगवान् श्रीकृष्ण कुछ और उदाहरण देते हुये कहते हैं
।।7.9।। व्याख्या--'पुण्यो गन्धः पृथिव्याम्'--पृथ्वी गन्ध-तन्मात्रासे उत्पन्न होती है, गन्ध-तन्मात्रारूपसे रहती है और गन्ध-तन्मात्रामें ही लीन होती है। तात्पर्य है कि गन्धके बिना पृथ्वी कुछ नहीं है। भगवान् कहते हैं कि पृथ्वीमें वह पवित्र गन्ध मैं हूँ।यहाँ गन्धके साथ पुण्यः'विशेषण देनेका तात्पर्य है कि गन्धमात्र पृथ्वीमें रहती है। उसमें पुण्य अर्थात् पवित्र गन्ध तो पृथ्वीमें स्वाभाविक रहती है, पर दुर्गन्ध किसी विकृतिसे प्रकट होती है।
।।7.9।।पुण्य इति। यो धरायां (S धरायाः) केवलधर्मतया गन्धगुणः स स्वभावपुण्यः। पूत्युत्कटादीनि(SN प्रत्युत्कटत्वादीनि) तु भूतान्तरसंबन्धात्। उक्तं च दृढं भूमिगुणाधिक्याद् दुर्गन्ध्यग्निगुणोदयात्।जडमम्बुगुणौदार्यात् इत्यादि।
।।7.9।।एते सर्वे विलक्षणा भावा मत्त एव उत्पन्नाः मच्छेषभूता मच्छरीरतया मयि एव अवस्थिताः अतः तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थितः।
।।7.9।।मयि सर्वमिदं प्रोतमित्यस्यैव परिमाणार्थं प्रकारान्तरमाह पुण्य इति। पृथिव्यां पुण्यशब्दितो यः सुरभिगन्धः सोऽहमस्मीत्यत्र वाक्यार्थं कथयति तस्मिन्निति। कथं पृथिव्यां गन्धस्य पुण्यत्वं तत्राह पुण्यत्वमिति। यत्तु पृथिव्यां गन्धस्य स्वाभाविकं पुण्यत्वं दर्शितं तदबादिषु रसादेरपि स्वाभाविकपुण्यत्वस्योपलक्षणार्थमित्याह पृथिव्यामिति। प्रथमोत्पन्नाः पञ्चापि गुणाः पुण्या एव सिद्धादिभिरेव भोग्यत्वादिति भावः। कथं तर्हि गन्धादीनामपुण्यत्वप्रतिभानं तत्राह अपुण्यत्वं त्विति। तदेव स्फुटयति संसारिणामिति। गन्धादयः स्वकार्यैर्भूतैः सह परिणममानाः प्राणिनां पापादिवशादपुण्याः संपद्यन्त इत्यर्थः।यच्चाग्नेस्तेजस्तद्भूते मयि श्रोतोऽग्निरित्याह तेज इति। जीवनभूते च मयि सर्वाणि भूतानि प्रोतानीत्याह तथेति। जीवनशब्दार्थमाह येनेति। अन्नरसेनामृताख्येनेत्यर्थः। तपश्चास्मीत्यादेस्तात्पर्यार्थमाह तस्मिन्निति। चित्तैकाग्र्यमनाशकादि वा तपस्तदात्मनीश्वरे प्रोतास्तपस्विनो विशेषणाभावे विशिष्टस्य वस्तुनोऽभावादित्यर्थः।
।।7.9।।पुण्य इति। सुरभिर्गन्धः पृथिव्यां तेजश्चास्मि विभावसौ। स्पष्टमेव। सर्वभूतेषु जीवनं प्राणनं तपः कायशोधनम्।
।।7.9।।पुण्यः सुरभिरविकृतो गन्धः सर्वपृथिवीसामान्यरूपस्तन्मात्राख्यः पृथिव्यामनुस्यूतोऽहम्। चकारो रसादीनामपि पुण्यत्वसमुच्चयार्थः। शब्दस्पर्शरूपरसगन्धानां हि स्वभावत एव पुण्यत्वमविकृतत्वं प्राणिनामधर्मविशेषात्तु तेषामपुण्यत्वं नतु स्वभावत इति द्रष्टव्यम्। तथा विभावसावग्नौ यत्तेजः सर्वदहनप्रकाशनसामर्थ्यरूपमुष्णस्पर्शसहितं सितभास्वरं रूपं पुण्यं तदहमस्मि। चकाराद्यो वायौ पुण्य उष्णस्पर्शात्तुराणामाप्यायकः शीतस्पर्शः सोऽप्यहमिति द्रष्टव्यम्। सर्वभूतेषु सर्वेषु प्राणिषु जीवनं प्राणधारणमायुरहमस्मि। तद्रूपे मयि सर्वे प्राणिनः प्रोता इत्यर्थः। तपस्विषु नित्यं तपोयुक्तेषु वानप्रस्थादिषु यत्तपः शीतोष्णक्षुत्पिपासादिद्वन्द्वसहनसामर्थ्यरूपं तदहमस्मि। तद्रूपे मयि तपस्विनः प्रोताः विशेषणाभावे विशिष्टाभावात्। तपश्चेति चकारेण चित्तैकाग्र्यमान्तरं जिह्वोपस्थादिनिग्रहलक्षणं बाह्यं च सर्वं तपः समुच्चीयते।
।।7.9।।किंच पुण्य इति। पुण्योऽविकृतो गन्धः। गन्धतन्मात्रं पृथिव्या आश्रयभूतमहमित्यर्थः। यद्वा विभूतिरूपेणाश्रयधत्वस्य विवक्षितत्वात्सुरभिगन्धस्यैवोत्कृष्टतया विभूतित्वात्पुण्यो गन्ध इत्युक्तम्। तथा विभावसावग्नौ यत्तेजः सहजा दीप्तिस्तदहम्। सर्वभूतेषु जीवनं प्राणधारणमायुरहमित्यर्थः। तपस्विषु वानप्रस्थादिषु द्वन्द्वसहनरूपं तपोऽस्मि।
।। 7.9  एवंभूमिरापः 7।4 इत्यादिना भेदश्रुत्यर्थ उपबृंहितःमयि सर्वम् 7।7 इति तु घटकश्रुत्यर्थः अथ तदुभयनिर्वाहिताभेदश्रुत्यर्थोपबृंहणं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह अत इति। केचित्मयि सर्वमिदम् इत्यस्य रसादिधर्मविशिष्टे मयि प्रोतमित्यर्थः तद्विवरणंरसोऽहम् इत्यादि इति व्याचख्युः तत्परिहारायाह सर्वस्य परमपुरुषशरीरत्वेनेति। परोक्ते त्वाधाराधेयभाववैपरीत्यादिदोष इति भावः। प्रकारवाचिशब्दानां प्रकारिणि पर्यवसानस्वाभाव्यं जातिगुणादिशब्देष्वपि सामान्यतः सिद्धमिति दर्शयितुं प्रकारत्वोपादानम्।अभिधानं मुख्यवृत्त्या बोधनम्। यद्यपि रसादिशब्दा लोके निष्कर्षकाः प्रयुज्यन्ते व्यधिकरणतया चात्रावादिद्रव्योपादानम् तथापि रसादीनां परमात्मशरीरभूतद्रव्यप्रकारत्वेन परमात्मनः प्रकारित्वाद्रसादिशब्दानां चात्र तत्समानाधिकरणतया प्रयोगात्तत्र निष्कर्षकत्वं नास्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्। द्रव्योपादानं तु तत्रतत्र द्रव्ये प्रधानभूतरसगन्धादिप्रकारीभूतोऽहमिति ज्ञापनार्थम्। द्रव्यप्रकाराणां च तत्प्रकारत्वं काठिन्यवान् (न्येन)यो बिभर्ति वि.पु.1।14।28 इत्यादिषु प्रयुक्तमिति भावः। रसस्य पृथिव्यां वृत्तौ सत्यामप्यपां रूपादिगुणान्तरसद्भावेऽपिरसोऽहमप्सु इति विशिष्योपादानं तेजस्तत्त्वादब्रूपपरिणामस्य पूर्वतत्त्वानुत्पन्नरसप्रधानत्वात्। अन्यत्र चआत्तगन्धा तदा (ततो) भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते वि.पु.6।4।14 इत्यादिना च पृथिव्यादीनां गन्धरसाद्यधीनत्वमुक्तम्। एवमुत्तरत्रापि प्राधान्यतो विशेषनिर्देशे यथोचितं भाव्यम्।प्रभा स्वाश्रयातिरिक्तप्रसारितेजोद्रव्यविशेषः। प्रभयैव चन्द्रसूर्यौ जगदुपकारहेतुभूताविति तौ तत्प्रधानौ। सर्वेषां वेदानां बीजत्वादिना तेषुप्रणवः प्रधानभूतः।पौरुषं पुरुषस्य भावः यतः पुरुषबुद्धिरित्येके सन्तानपरम्पराहेतुभूतं रेत इत्यपरे यद्वा पौरुषं सामर्थ्यं कर्तृत्वशक्तिरित्यर्थः तयैव हि कर्तुरात्मनः कारकान्तरेभ्यः प्राधान्यम्। नृषु जीवेष्वित्यर्थः। यद्वा पौरुषं पुंस्त्वम् स्त्रीनपुंसकव्यावृत्तः सत्त्वादिस्वभावविशेषः। नृशब्दश्च पुरुषपर्यायः। पुण्यो गन्धः तुलस्यादिगन्धः सुरभिगन्धमात्रं वा तद्योगेन हि पृथिवी सत्त्वोन्मेषस्य सुखस्य वा हेतुर्भवति। विभावसुरत्राग्निः। तत्र च तेजो दाहकत्वशक्तिः। भूतशब्देनात्र शरीरिणो गृह्यन्ते। सर्वशब्देनात्र ब्रह्मशर्वादीनामपि सङ्ग्रहः। तेषु जीवनं प्राणनम् प्राणस्थितिहेतुर्वा। येन सर्वाणि भूतानि जीवन्ति भूतेषूपजीवनीयं वा रूपम्।सर्वभूतानां सनातनं बीजं प्रकृतितत्त्वम्। अथवा प्रधानधर्मनिर्देशप्रकरणत्वाद्बीजशब्दोऽत्रोपादानत्वाख्यस्वभावपरः। सर्वेषां परिणामिद्रव्याणां स्वकार्यपरिणामसामर्थ्यमित्यर्थः। अथवा बीजं प्ररोहकारणं जङ्गमस्थावरभूतानां तत्तदुपादानद्रव्यम्। बुद्धिः अध्यवसायः ज्ञानमात्रं वा। तेजस्विनः प्रतापशीलाः तेषां तेजः अनभिभवनीयत्वं पराभिभवसामर्थ्यं वा। तेजोऽभिमान इति केचित् प्रागल्भ्यमित्यपरे। बलं धारणादिशक्तिः। कामरागवशात् स्वकार्ये प्रवृत्तस्य बलस्य परपीडादिहेतुत्वाद्धर्मोपयुक्तशरीरादिधारणमात्रादिविषयत्वायकामरागविवर्जितम् इत्युक्तम्। काम इच्छायाः काष्ठा प्राप्तदशा। राग इच्छा। यद्वा कामशब्दः काम्यपरः तद्विषयो रागः कामरागः भूतेषु देवमनुष्यादिरूपेणावस्थितेषु जन्तुषु। धर्माविरुद्धः कामः स्वदारप्रीत्यादिः।अथरसोऽहम् इत्यादिसामानाधिकरण्यं सहेतुकमुपपादयति एत इति। न चायं तदधीनसामर्थ्यप्रदर्शनार्थोराजा राष्ट्रम् इत्यादिवदारोपः मुख्यसम्भवे वृत्त्यन्तरायोगादिति भावः।एत इत्यनेनेश्वरव्यतिरिक्तैरशक्यक्रियत्वमभिप्रेतम्।सर्व इत्यनेन ब्रह्मरुद्रादिभिरन्यैश्च क्रियमाणानामपि ब्रह्मादिशरीरपरमात्माधीनसृष्टत्वम्अहं कृत्स्नस्य 7।6 इति पूर्वोक्तं स्मारितम्। वक्ष्यमाणराजसतामसेभ्यो वैलक्षण्यार्थमुक्तंविलक्षणा इति।मत्त एव पृथग्विधाः 10।5 इति च वक्ष्यते। एतेनन विलक्षणत्वादस्य ब्र.सू.2।1।4 इत्यधिकरणार्थोऽपि स्मारितः।मत्त एवोत्पन्ना इत्यादि तत्तद्वस्त्वनुरूपं यथासम्भवं सामानाधिकरण्यहेतुः। गुणजातिशरीरेष्वनुगतः सामानाधिकरण्यहेतुरपृथक्सिद्धिरिति प्रदर्शनायोक्तंमय्येवावस्थिता इति।
।।7.9।।च पुनः पृथिव्यां पुण्यो गन्धोऽस्मि येन गन्धेन पुलिन्द्यादिषु भगवद्रसोत्पत्तिः स्यात् स पुण्यरूपो गन्धस्तत्सम्बन्धेन पृथिव्या गन्धवत्त्वं तद्वत्त्वेनात्रत्यामोदेनाऽऽह्लादकवृन्दावनाधारत्वादिकं चेति भावः। तथा विभावसौ अग्नौ यत्तेजस्तापकत्वं कान्तिस्तदहमस्मि।अत्रायं भावः विप्रयोगतापरूपाग्नेर्ममांशसम्बन्धेनाग्नौ तापस्तेन सर्वपरिपाकं कृत्वा सर्वस्यान्नादेर्मद्भोग्यतासम्पादकत्वं भवतीति भावः। सर्वभूतेषु जीवनं प्राणधारणम् अन्यथा भगवद्वियुक्तानां तेषां तदाधारतां विना कथं स्थितिः स्यात्। तपस्विषु तापप्रयत्नवत्सु तपःक्लेशानन्दरूपोऽस्मि। अन्यथा तदभावे सुखादित्यागेन दुःखे को वा प्रवर्तते।
।।7.9।।पुण्य इति। रसादिष्वपि द्रष्टव्यम्। अपुण्यस्य सर्वस्याविद्यामात्रविलसितत्वात्। विभावसौ वह्नौ तेजः दहनशक्तिः। जीवन्त्यनेनेति जीवनमन्नं विराजम्। तत्र हि सर्वाणि भूतानि प्रोतानि। अन्ये तु जीवनं आयुरिति व्याचक्षते तपश्चेति। तपो धर्मस्तद्रूपे मयि तपस्विनः प्रोताः।
।।7.9।।पृथ्वीसारभूते सुरभिगन्धे गन्धतन्मात्रभूते मयि पृथिवी प्रोता। रसादेः पुण्यत्वं स्वभावादेवापुण्यत्वं त्वविद्याधर्माद्यपेक्षं संसारिणां भूतविशेषनिमित्तजं भवति। अग्निसारभूते तेजसि तेजोरुपे मयि विभावसुरग्निः प्रोतः।तथा जीवने सर्वमूतसारभूते आयरुपे अन्नरुपे वा तस्मिंस्तद्रूपे मयि सर्वे भूताः प्रोताः। तपस्विसारभूते तपोरुपे मयि तपस्विनः प्रोताः।
7.9 पुण्यः sweet? गन्धः fragrance? पृथिव्याम् in earth? च and? तेजः brilliance? च and? अस्मि am (I)? विभावसौ in fire? जीवनम् life? सर्वभूतेषु in all beings? तपः austerity? च and? अस्मि am (I)? तपस्विषु in ascetics.Commentary In Me as odour in the earth woven in Me as brilliance is the fire woven in Me as life all beings are woven in Me as austerity all ascetics are woven. I am the support (Adhishthanam or Asraya) for everything.I am the power or Sakti which helps the ascetics to control the mind and the senses.Krishna says? I am the agreeable odour. If Arjuna had asked Him? Then who is the disagreeable odour? He would have replied? It is also I.
7.9 I am the sweet fragrance in the earth and the brilliance in the fire, the life in all beings, and I am the austerity in ascetics.
7.9 I am the Fragrance of earth, the Brilliance of fire. I am the Life Force in all beings, and I am the Austerity of the ascetics.
7.9 I am also the sweet fragrance in the earth; I am the brillinace in the fire, and the life in all beings; and I am the austerity of the ascetics.
7.9 I am also the punyah, sweet; gandhah, fragrance; prthivyam, in the earth. The earth is dependent on Me who am its fragrance. The natural sweetness of smell in the earth is cited by way of suggesting sweetness of taste of water etc. as well. But foulness of smell etc. is due to contact with particular things, resulting from nescience, unholiness, etc. of worldly people. Ca, and ; asmi, I am; the tejah, brilliance; vibhavasau, in fire; so also (I am) the jivanam, life-that by which all creatures live; sarva-bhutesu, in all beings. And I am the tapah, austerity; tapasvisu, of ascetics. Ascetics are established in Me who am that austerity.
7.9. I am the pure smell in the earth; I am also the brilliance in the sun; I am the life in al beings and austerity in the ascetics.
7.9 Punyah etc. By its own nature pure is that smell which exists in the earth as its exclusive property. The foulness, the excessiveness [of th smell] are due to contamination of other elements. That has been stated [elsewhere] as : '[A particular thing] becomes hard because of the excess of the properties of the earth; foul-smelling on account of the rise of the fire-properties; and stiff due to liberality (excess) of the properties of water' and so on.
7.8 - 7.11 All these entities with their peculiar characteristic are born from Me alone. They depend on Me; inasmuch as they constitute My body, they exist in Me alone. Thus I alone exist while all of them are only My modes.
7.9 I am the pure smell in the earth; I am the brilliance in the fire; I am the life-principle in all beings, and austerity in ascetics.
।।7.9।।पृथिवीमें मैं पवित्र गन्ध सुगन्ध हूँ अर्थात् उस सुगन्धरूप मुझ ईश्वरमें पृथिवी पिरोयी हुई है। जल आदिमें रस आदिकी पवित्रताका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ गन्धकी स्वाभाविक पवित्रता ही पृथिवीमें दिखलायी गयी है। गन्धरस आदिमें जो अपवित्रता आ जाती है वह तो सांसारिक पुरुषोंके अज्ञान और अधर्म आदिकी अपेक्षासे एवं भूतविशेषोंके संसर्गसे है ( वह स्वाभाविक नहीं है )। मैं अग्निमें प्रकाश हूँ तथा सब प्राणियोंमें जीवन हूँ अर्थात् जिससे सब प्राणी जीते हैं वह जीवन मैं हूँ और तपस्वियोंमें तप मैं हूँ अर्थात् उस तपरूप मुझ परमात्मामें ( सब ) तपस्वी पिरोये हुए हैं।
।।7.9।। पुण्यः सुरभिः गन्धः पृथिव्यां च अहम् तस्मिन् मयि गन्धभूते पृथिवी प्रोता। पुण्यत्वं गन्धस्य स्वभावत एव पृथिव्यां दर्शितम् अबादिषु रसादेः पुण्यत्वोपलक्षणार्थम्। अपुण्यत्वं तु गन्धादीनाम् अविद्याधर्माद्यपेक्षं संसारिणां भूतविशेषसंसर्गनिमित्तं भवति। तेजश्च दीप्तिश्च अस्मि विभावसौ अग्नौ। तथा जीवनं सर्वभूतेषु येन जीवन्ति सर्वाणि भूतानि तत् जीवनम्। तपश्च अस्मि तपस्विषु तस्मिन् तपसि मयि तपस्विनः प्रोताः।।
।।7.8 7.12।।भूमिः 7।4 इत्यादिनेत्यत्रावधेरनुक्तेःरसोऽहं इत्याद्यपि ज्ञानप्रकरणमिति प्रतीतिः स्यात् तन्निरासाय तत्समाप्तिमाह इदमिति। एतावता ग्रन्थेन ज्ञानं निरूपितमित्यर्थ। कुतोऽत्र ज्ञानप्रकरणस्य समाप्तिः इत्यत आह रसोऽहमिति। इतिशब्दाद्यभावेऽपि प्रकरणान्तरारम्भ एव समाप्तिं गमयिष्यति। अलौकिकमाहात्म्यप्रतिपादनादस्य विज्ञानप्रकरणत्वं ज्ञायत इति भावः।प्रभवादेः इत्युक्तन्यायेनैवरसोऽहं इत्यादेरपि व्याख्यानं सिद्धम्। रसादीनां सत्तादिकारणत्वाद्भोक्तृत्वाच्च भगवान् रसादिरिति। नन्वबादयो धर्मिणो भगवदधीनास्तद्भोग्याश्चेत्यङ्गीक्रियते न वा। नेति पक्षेअहं कृत्स्नस्य 7।6 इत्युक्तविरोधः। आद्ये तुअप्सु रसः इत्यादेर्धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणां ग्रहणस्यानुपपत्तिरित्यतः प्रथमं पक्षं तावदङ्गीकरोति अबादयोऽपीति। धर्मिणोऽपि तदधीना एव तद्भोग्याश्चैव। ननु तत्रोक्तो दोष इत्यतः कारणत्वे तावद्विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह तथापीति। यद्यपि धर्मिणोऽपि भगवदधीना एव तथापि धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानं युज्यत इति शेषः। कथं इत्यत आह रसादीति। रसादयश्च ते स्वभावा अबादीनामनागन्तुकधर्माश्चेति रसादिस्वभावास्तेषां साराणामबादिधर्मेषु सङ्ख्यादिषु श्रेष्ठानां च तेषामेवाबादिस्वभावभूतानां तद्धर्मेषु श्रेष्ठानां च रसादीनामिति यावत्। स्वभावत्वेऽबादीनामिति शेषः। सारत्वेऽबादिधर्मेष्विति शेषः। रसादित्वे चेति चार्थः। स भगवानेव। विशेषतोऽपीत्यस्य व्यावर्त्यं न त्विति। अनुबद्धोऽनुषङ्गसिद्धः। तत्सारत्वादिश्चेति। तस्य रसादेरबादिधर्मेषु सारत्वमबादिस्वभावत्वं रसत्वादिकंचेत्यर्थः। यथा लोके कुविन्दादिः पटादिद्रव्येष्वेव व्यापारवाननुभूयते न तु तदीयेषु गन्धरसादिषु गुणेषु तद्धर्मेषु च गन्धत्वादिषु पृथग्व्यापारवान् किन्तु ते पटादिजन्मानुषङ्गिजन्मान एव। न तथा भगवान्। अपित्वबादेधर्मेषु रसादिषु तद्धर्मेषु च स्वभावत्वादिषु पृथक् प्रयत्नवान् नत्वबादिनियमानुषङ्गिसत्तादिकास्त इति दर्शयितुं विशेषशब्दा उपात्ता इत्यर्थः। भोगपक्षेऽपि प्रयोजनमाह भोगश्चेति। अबादिभोगादप्यतिशयेन रसादेर्भोगः परमेश्वरस्येति दर्शयति विशेषशब्दैरिति सम्बन्धः।रसोऽहं इत्याद्यभेदोक्तेरर्थान्तरं सूचयन् तत्रापि विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह उपासनार्थं चेति। विशेषतः रसादेरिति वर्तते। अर्थवशाद्रसादेरिति सप्तमीत्वेन विपरिणम्यते। रसादयः परमेश्वरोपासने प्रतिमात्वेनात्र विवक्षिताः। प्रतिमायां चाभेदोक्तिः प्रसिद्धा। प्रतिमात्ममबादीनां समानम्। योऽप्सु तिष्ठन् बृ.उ.7।3।4 इत्यादेः। अतः किं विशेषशब्दग्रहणेनेति चेत् अबादिभ्यो विशेषतः रसादिषु भगवदुपासनार्थं तदुपपत्तिरिति।उक्तेऽर्थत्रये प्रमाणमाह उक्तं चेति। तथा चशब्दः अन्योन्यसमुच्चये। एवशब्दस्येश्वर इत्यनेन सम्बन्धः। सर्वत्राबादिषु। ईश्वरो रसादिकं जगदित्युच्यत इत्यर्थः। अबादयोऽबाद्यभिमानिनः। ज्ञानिनां ज्ञानार्थिनां सम्पत्त्यै प्राप्त्यै अन्येषां रसार्थिनाम्। अबादय इति रसादीति च पादयोः सप्तनवाक्षरत्वेऽपि न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति ऐ.ब्रा.1।6 इति वचनाददोषः। स्वभावस्य भगवदधीनत्वमलौकिकमित्यतस्तत्रान्यान्यपि वाक्यानि पठति स्वभाव इति। अस्त्वेवं धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानम् धर्माणां विशेषणोपादानं तु किमर्थमित्यत आह धर्मेति। आदिपदेनपुण्यो गन्धः इत्यस्य ग्रहणम्। कामादिषु विशिष्टंष्वेव भगवानुपास्यः न धर्मविरुद्धेष्वशुचिष्विति ज्ञापनाय कामादीनां धर्माणां धर्माविरुद्धत्वादिविशेषणोपादानमित्यर्थः। अत्र प्रमाणमाह उक्तं वेति। कामं पुरुषार्थम्। कामरागादेः कामरागादिना। अनिञ्छद्भिः कामादिकम्। गन्धस्य विशेषणोपादाने प्रयोजनान्तरमाह पुण्य इति। पुण्यगन्धस्यैव भगवतो भोगो न दुर्गन्धस्येति ज्ञापयितुमत्र विशेषणोपादानमित्यर्थः। ननु दुर्गन्धं भगवाननुभवति न वा नेति पक्षे सार्वज्ञाभावः आद्ये कथं भोगाभावः उच्यते अनुभूयमाना अपि दुर्गन्धादयो न फलहेतव इत्यभिप्रायः। सुगन्धस्तु सुखहेतुरित्युपपादितम्।शुचिवस्त्वेव भगवतो भोग्यमित्यत्र प्रमाणमाह तथा हीति। अमुमुपासकम्। कुतः तस्य देवत्वात्। तथापि कुतः न ह वै देवमात्रस्य पुण्यभोगनियमे देवोत्तमस्य सुतरां तत्सिद्धि।ऋतं कठो.3।1 इति श्रुतिः कथं प्रकृतोपयोगिनी इत्यत आह ऋतं चेति। कुतः इत्यतः सामान्यविशेषाभिधानादित्याह ऋतमिति। प्रयोगगः शब्दजन्यः। तथा च श्रुतावृतशब्दः पुण्यफलस्योपलक्षक इति भावः। स्यादिदं व्याख्यानं यदि भगवतोविषयभोगो युक्तः स्यात् न चैवम् तदङ्गीकारे श्रुत्यादिविरोधात्। ऋतं पिबन्तौ इति चात एव छत्रिन्यायेनोपचरितमित्यत आह न चेति। कुतो नेत्यत आह स्थूलेति। श्रुत्यादिषु स्थूलस्य जीवभोग्यस्य विषयस्याभोगोक्तेः सूक्ष्मभोगस्य चाङ्गीकारादिति भावः। सूक्ष्माशने प्रमिते भवेदियं व्यवस्था। तदेव कुतः इत्यत आह आह चेति। गन्धादिषु यो जीवेन्द्रियागोचरः सारभागस्तस्य भोगम्। परमेश्वरोऽस्माच्छारीरादात्मनो जीवादतिशयेन विलक्षणभोग एव भवति। अवतारेषु स्थूलमपि भुङक्ते इतीवशब्दः।ननु प्रविविक्ताहारतरोऽयं जीव एवेत्यत आह न चेति। न हि जीवो जीवादेव विलक्षणाहार इति युज्यत इत्यर्थः। ननु शारीराज्जागरावस्थाज्जीवात्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थः स एव प्रविविक्ताहार इत्यवस्थाभेदोपाधिकं जीवस्य भेदमङ्गीकृत्य व्याख्यास्यामीत्यत आह स्वप्नादिश्चेति।स्वपो नन् अष्टा.3।3।91 इति स्वप्नशब्दः कर्तरि। स्वप्नः सुषुप्तश्च शारीर एव न केवलं जाग्रत् तथाच त्र्यवस्थस्यापि शारीरशब्देन गृहीतत्वात् न ततो भेदः स्वप्नसुषुप्तयोरित्यर्थः। अवस्थात्रयवतोऽपि शारीरत्वं कुतः इत्यत आह शारीर स्त्विति। जाग्रदादिष्वंवस्थासु। अस्तु त्र्यवस्थोऽपि शारीरः तथाप्यस्मादिति विशेषणेनात्र शारीरादिति जाग्रदवस्थो गृह्यते। तस्माच्च स्वप्नाद्यवस्थस्य भेदोक्तिरुक्तविधया सम्भवति। भवत्पक्षेऽपि शारीरादिति जीवे सिद्धेऽस्मादिति विशेषणं व्यर्थं स्यादिति तत्राह अस्मादिति। नैतद्विशेषणसार्थक्यायेश्वरं परित्यज्य जीवोऽत्र ग्राह्यः शारीरादित्येवोक्तावीश्वरस्यापि प्राप्तावीश्वरादेवेश्वरस्य भेदानुपपत्तेः। तद्व्यावृत्त्यर्थं जीवमात्रपरिग्रहाय विशेषणमिति सार्थक्योपपत्तेरित्यर्थः। भवेदेवं यदि शारीरत्वमीश्वरस्यापि स्यात् तदेव कुतः इत्यत आह शारीराविति। नन्वेवं पक्षद्वयेऽप्युपपत्तावीश्वर एवात्रोच्यते न जीवः इति कुतः विनिगमनमित्यत आह भेदेति। चो हेतौ। भेदश्रुतेः स्वाभाविकभेदरूपे गत्यन्तरे सम्भवति पुरुषभेद एवार्थतया ग्राह्यः न त्ववस्थोपाधिको भेदः।मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययात् अतो युक्तं विनिगमनम्। न केवलमुक्तव्यवस्था न्यायप्राप्ता किन्त्वागमसिद्धा चेत्याह आह चेति। अभोक्ता च भोक्ता चेत्येतयोर्व्युत्क्रमेणान्धयः।सर्वभूतस्थमात्मानं 6।29 इत्युक्तत्वात्।न त्वहं तेषु 7।12 इति कथमुच्यते इत्यत आह न त्वहमिति। तदनाधारत्वं तदुपजीवनेन स्थित्यभावः। कुत एतत् इत्यत आह उक्तं चेति। न केवलं मुक्तविरोधादिति चार्थः।
।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौ जीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ। जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।7.9।।
পুণ্যো গন্ধঃ পৃথিব্যাং চ তেজশ্চাস্মি বিভাবসৌ৷ জীবনং সর্বভূতেষু তপশ্চাস্মি তপস্বিষু৷৷7.9৷৷
পুণ্যো গন্ধঃ পৃথিব্যাং চ তেজশ্চাস্মি বিভাবসৌ৷ জীবনং সর্বভূতেষু তপশ্চাস্মি তপস্বিষু৷৷7.9৷৷
પુણ્યો ગન્ધઃ પૃથિવ્યાં ચ તેજશ્ચાસ્મિ વિભાવસૌ। જીવનં સર્વભૂતેષુ તપશ્ચાસ્મિ તપસ્વિષુ।।7.9।।
ਪੁਣ੍ਯੋ ਗਨ੍ਧ ਪਰਿਥਿਵ੍ਯਾਂ ਚ ਤੇਜਸ਼੍ਚਾਸ੍ਮਿ ਵਿਭਾਵਸੌ। ਜੀਵਨਂ ਸਰ੍ਵਭੂਤੇਸ਼ੁ ਤਪਸ਼੍ਚਾਸ੍ਮਿ ਤਪਸ੍ਵਿਸ਼ੁ।।7.9।।
ಪುಣ್ಯೋ ಗನ್ಧಃ ಪೃಥಿವ್ಯಾಂ ಚ ತೇಜಶ್ಚಾಸ್ಮಿ ವಿಭಾವಸೌ. ಜೀವನಂ ಸರ್ವಭೂತೇಷು ತಪಶ್ಚಾಸ್ಮಿ ತಪಸ್ವಿಷು৷৷7.9৷৷
പുണ്യോ ഗന്ധഃ പൃഥിവ്യാം ച തേജശ്ചാസ്മി വിഭാവസൌ. ജീവനം സര്വഭൂതേഷു തപശ്ചാസ്മി തപസ്വിഷു৷৷7.9৷৷
ପୁଣ୍ଯୋ ଗନ୍ଧଃ ପୃଥିବ୍ଯାଂ ଚ ତେଜଶ୍ଚାସ୍ମି ବିଭାବସୌ| ଜୀବନଂ ସର୍ବଭୂତେଷୁ ତପଶ୍ଚାସ୍ମି ତପସ୍ବିଷୁ||7.9||
puṇyō gandhaḥ pṛthivyāṅ ca tējaścāsmi vibhāvasau. jīvanaṅ sarvabhūtēṣu tapaścāsmi tapasviṣu৷৷7.9৷৷
புண்யோ கந்தஃ பரிதிவ்யாஂ ச தேஜஷ்சாஸ்மி விபாவஸௌ. ஜீவநஂ ஸர்வபூதேஷு தபஷ்சாஸ்மி தபஸ்விஷு৷৷7.9৷৷
పుణ్యో గన్ధః పృథివ్యాం చ తేజశ్చాస్మి విభావసౌ. జీవనం సర్వభూతేషు తపశ్చాస్మి తపస్విషు৷৷7.9৷৷
7.10
7
10
।।7.10।। हे पृथानन्दन ! सम्पूर्ण प्राणियोंका अनादि बीज मुझे जान। बुद्धिमानोंमें बुद्धि और तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ।
।।7.10।। हे पार्थ ! सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज (कारण) मुझे ही जानो; मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।।
।।7.10।। परिपक्व बुद्धि के जिज्ञासुओं के लिये पूर्व के दो श्लोकों में दिये गये उदाहरण तत्त्व को समझने के लिए पर्याप्त हैं किन्तु मन्द बुद्धि के पुरुषों के लिए नहीं। अत यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कुछ और उदाहरण देते हैं। समस्त भूतों का सनातन कारण मैं हूँ। जैसे एक चित्रकार अपने चित्र को और अधिक स्पष्ट और सुन्दर बनाने के लिये नयेनये रंगों का प्रयोग करता है वैसे ही मानो अपने संक्षिप्त कथन से संतुष्ट न होकर भगवान् श्रीकृष्ण और भी अनेक दृष्टान्त देते हैं जिनके द्वारा हम दृश्य जड़ जगत् तथा अदृश्य चेतन आत्मतत्त्व के सम्बन्ध को समझ सकें।बुद्धिमानों की बुद्धि मैं हूँ एक बुद्धिमान व्यक्ति अपने आदर्शों तथा विचारों के माध्यम से अपने दिव्य स्वरूप को व्यक्त कर पाता है। उस बुद्धिमान् पुरुष के बुद्धि की वास्तविक सार्मथ्य आत्मा के कारण ही संभव है। उसी प्रकार तेजस्वियों का तेज भी आत्मा ही है।दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्मा ही बुद्धि उपाधि के द्वारा बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में प्रकट होता है। जैसे विद्युत ही बल्ब में प्रकाश हीटर में उष्णता और रेडियो में संगीत के रूप में व्यक्त होती है।आगे कहते हैं
।।7.10।। व्याख्या--'बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि (टिप्पणी प0 405) पार्थ सनातनम्'--हे पार्थ ! सम्पूर्ण प्राणियोंका सनातन (अविनाशी) बीज मैं हूँ अर्थात् सबका कारण मैं ही हूँ। सम्पूर्ण प्राणी बीजरूप मेरेसे उत्पन्न होते हैं, मेरेमें ही रहते हैं और अन्तमें मेरेमें ही लीन होते हैं। मेरे बिना प्राणीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।जितने बीज होते हैं, वे सब वृक्षसे उत्पन्न होते हैं और वृक्ष पैदा करके नष्ट हो जाते हैं। परन्तु यहाँ जिस बीजका वर्णन है, वह बीज 'सनातन' है अर्थात् आदि-अन्तसे रहित (अनादि एवं अनन्त) है। इसीको नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें 'अव्यय बीज' कहा गया है। यह चेतन-तत्त्व अव्यय अर्थात् अविनाशी है। यह स्वयं विकार-रहित रहते हुए ही सम्पूर्ण जगत्का उत्पादक, आश्रय और प्रकाशक है तथा जगत्का कारण है।गीतामें 'बीज' शब्द कहीं भगवान् और कहीं जीवात्मा--दोनोंके लिये आया है। यहाँ जो 'बीज' शब्द आया है, वह भगवान्का वाचक है; क्योंकि यहाँ कारणरूपसे विभूतियोंका वर्णन है। दसवें अध्यायके उन्तालसीवें श्लोकमें विभूतिरूपसे आया बीज शब्द भी भगवान्का ही वाचक है; क्योंकि वहाँ उनको सम्पूर्ण प्राणियोंका कारण कहा गया है। नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें 'बीज' शब्द भगवान्के लिये आया है; क्योंकि उसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें 'सदसच्चाहमर्जुन' पदमें कहा गया है कि कार्य और कारण सब मैं ही हूँ। सब कुछ भगवान् ही होनेसे 'बीज' शब्द भगवान्का वाचक है। चौदहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें 'अहं बीजप्रदः पिता' 'मैं बीज प्रदान करनेवाला पिता हूँ'--ऐसा होनेसे वहाँ 'बीज' शब्द जीवात्माका वाचक है। 'बीज' शब्द जीवात्माका वाचक तभी होता है, जब यह जडके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, नहीं तो यह भगवान्का स्वरूप ही है।
।।7.10 7.11।।बीजमिति। बलमिति। बीजं सूक्ष्ममादिकारणम् ( सूक्ष्मादिकारणम्)। कामरागविवर्जितं बलं सकलवस्तुधारणसमर्थम् ऊर्जोरूपम् ( omits रूपम्)। कामः ( S omits कामः) इच्छा संविन्मात्ररूपा यस्या घटपटादिभिर्धर्मरूपैर्नास्ति विरोधः। इच्छा हि सर्वज्ञ भगवच्छक्तितया अनुयायिनी न क्वचिद्विरुध्यते धर्मैस्तु आगन्तुकैर्घटपटादिभिर्भिद्यते ( S घटादिभिर्भि ) इति तदुपासकतया शुद्धसंवित्स्वभावत्वं ज्ञानिनः। उक्तं च शिवोपनिषदि इच्छायामथ वा ज्ञाने जाते चित्तं निवेशयेत् (V 98 ) इतिजाते एव न तु बाह्यप्रसृते इत्यर्थ। एवं व्याख्यानं त्यक्त्वा ये परस्परानुपघातकं त्रिवर्गं सेवेत इत्याशयेन व्याचक्षते ते संप्रदायक्रममजानानाः भगवद्रहस्यं च व्याचक्षणा नमस्कार्या एव।
।।7.10।।एते सर्वे विलक्षणा भावा मत्त एव उत्पन्नाः मच्छेषभूता मच्छरीरतया मयि एव अवस्थिताः अतः तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थितः।
।।7.10।।ननु सर्वाणि भूतानि स्वकारणे प्रोतानि कथं तेषां त्वयि प्रोतत्वं तत्राह बीजमिति। बीजान्तरापेक्षयानवस्थां वारयति सनातनमिति। चैतन्यस्याभिव्यञ्जकं तत्त्वनिश्चयसामर्थ्यं बुद्धिस्तद्वतां या बुद्धिस्तद्भूते मयि सर्वे बुद्धिमन्तः प्रोता भवन्तीत्याह कि़ञ्चेति। प्रागल्भ्यवतां यत्प्रागल्भ्यं तद्भूते मयि तद्वन्तः प्रोता इत्याह तेज इति। तद्धि प्रागल्भ्यं यत्पराभिभवसामर्थ्यं परैश्चाप्रधृष्यत्वम्।
।।7.10।।सर्वभूतानां जीवानां सनातनं यद्बीजं कारणभूतं चैतन्यं तन्मां विद्धि सम्मिश्ररूपमेकं निरूपितम्। बुद्धिमतां तेषां मध्ये या बुद्धिश्चिदात्मिका साऽहमस्मि। तेजस्विनां च तेषां मध्ये तेजोऽस्मि अहमात्मकमित्यर्थः।
।।7.10।।सर्वाणि भूतानि स्वस्वबीजेषु प्रोतानि नतु त्वयीति चेन्नेत्याह यत्सर्वभूतानां स्थावरजङ्गमानामेकं बीजं कारणं सनातनं नित्यं बीजान्तरानपेक्षं नतु प्रतिव्यक्तिभिन्नमनित्यं वा तदव्याकृताख्यं सर्वबीजं मामेव विद्धि नतु मद्भिन्नं हे पार्थ अतो युक्तमेकस्मिन्नेव मयि सर्वबीजे प्रोतत्वं सर्वेषामित्यर्थः। किंच बुद्धिस्तत्त्वातत्त्वविवेकसामर्थ्यं तादृशबुद्धिमतामहमस्मि। बुद्धिरूपे मयि बुद्धिमन्तः प्रोताः। विशेषणाभावे विशिष्टाभावस्योक्तत्वात्। तथा तेजः प्रागल्भ्यं पराभिभवसामर्थ्यं परैश्चानभिभाव्यत्वं तेजस्विनां तथाविधप्रागल्भ्ययुक्तानां यत्तदहमस्मि। तेजोरूपे मयि तेजस्विनः प्रोता इत्यर्थः।
।।7.10।। किंच बीजमिति। सर्वेषां चराचराणां भूतानां बीजं सजातीयकार्योत्पादनसामर्थ्यं सनातनं नित्यमुत्तरोत्तरसर्वकार्येष्वनुस्यूतं तदेव बीजं मद्विभूतिं विद्धि नतु प्रतिव्यक्ति विनश्यत्। तथा बुद्धिमतां बुद्धिः प्रज्ञाहमस्मि। तेजस्विनां तेजः प्रागल्भ्यमहम्।
।। 7.10  एवंभूमिरापः 7।4 इत्यादिना भेदश्रुत्यर्थ उपबृंहितःमयि सर्वम् 7।7 इति तु घटकश्रुत्यर्थः अथ तदुभयनिर्वाहिताभेदश्रुत्यर्थोपबृंहणं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह अत इति। केचित्मयि सर्वमिदम् इत्यस्य रसादिधर्मविशिष्टे मयि प्रोतमित्यर्थः तद्विवरणंरसोऽहम् इत्यादि इति व्याचख्युः तत्परिहारायाह सर्वस्य परमपुरुषशरीरत्वेनेति। परोक्ते त्वाधाराधेयभाववैपरीत्यादिदोष इति भावः। प्रकारवाचिशब्दानां प्रकारिणि पर्यवसानस्वाभाव्यं जातिगुणादिशब्देष्वपि सामान्यतः सिद्धमिति दर्शयितुं प्रकारत्वोपादानम्।अभिधानं मुख्यवृत्त्या बोधनम्। यद्यपि रसादिशब्दा लोके निष्कर्षकाः प्रयुज्यन्ते व्यधिकरणतया चात्रावादिद्रव्योपादानम् तथापि रसादीनां परमात्मशरीरभूतद्रव्यप्रकारत्वेन परमात्मनः प्रकारित्वाद्रसादिशब्दानां चात्र तत्समानाधिकरणतया प्रयोगात्तत्र निष्कर्षकत्वं नास्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्। द्रव्योपादानं तु तत्रतत्र द्रव्ये प्रधानभूतरसगन्धादिप्रकारीभूतोऽहमिति ज्ञापनार्थम्। द्रव्यप्रकाराणां च तत्प्रकारत्वं काठिन्यवान् (न्येन)यो बिभर्ति वि.पु.1।14।28 इत्यादिषु प्रयुक्तमिति भावः। रसस्य पृथिव्यां वृत्तौ सत्यामप्यपां रूपादिगुणान्तरसद्भावेऽपिरसोऽहमप्सु इति विशिष्योपादानं तेजस्तत्त्वादब्रूपपरिणामस्य पूर्वतत्त्वानुत्पन्नरसप्रधानत्वात्। अन्यत्र चआत्तगन्धा तदा (ततो) भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते वि.पु.6।4।14 इत्यादिना च पृथिव्यादीनां गन्धरसाद्यधीनत्वमुक्तम्। एवमुत्तरत्रापि प्राधान्यतो विशेषनिर्देशे यथोचितं भाव्यम्।प्रभा स्वाश्रयातिरिक्तप्रसारितेजोद्रव्यविशेषः। प्रभयैव चन्द्रसूर्यौ जगदुपकारहेतुभूताविति तौ तत्प्रधानौ। सर्वेषां वेदानां बीजत्वादिना तेषुप्रणवः प्रधानभूतः।पौरुषं पुरुषस्य भावः यतः पुरुषबुद्धिरित्येके सन्तानपरम्पराहेतुभूतं रेत इत्यपरे यद्वा पौरुषं सामर्थ्यं कर्तृत्वशक्तिरित्यर्थः तयैव हि कर्तुरात्मनः कारकान्तरेभ्यः प्राधान्यम्। नृषु जीवेष्वित्यर्थः। यद्वा पौरुषं पुंस्त्वम् स्त्रीनपुंसकव्यावृत्तः सत्त्वादिस्वभावविशेषः। नृशब्दश्च पुरुषपर्यायः। पुण्यो गन्धः तुलस्यादिगन्धः सुरभिगन्धमात्रं वा तद्योगेन हि पृथिवी सत्त्वोन्मेषस्य सुखस्य वा हेतुर्भवति। विभावसुरत्राग्निः। तत्र च तेजो दाहकत्वशक्तिः। भूतशब्देनात्र शरीरिणो गृह्यन्ते। सर्वशब्देनात्र ब्रह्मशर्वादीनामपि सङ्ग्रहः। तेषु जीवनं प्राणनम् प्राणस्थितिहेतुर्वा। येन सर्वाणि भूतानि जीवन्ति भूतेषूपजीवनीयं वा रूपम्।सर्वभूतानां सनातनं बीजं प्रकृतितत्त्वम्। अथवा प्रधानधर्मनिर्देशप्रकरणत्वाद्बीजशब्दोऽत्रोपादानत्वाख्यस्वभावपरः। सर्वेषां परिणामिद्रव्याणां स्वकार्यपरिणामसामर्थ्यमित्यर्थः। अथवा बीजं प्ररोहकारणं जङ्गमस्थावरभूतानां तत्तदुपादानद्रव्यम्। बुद्धिः अध्यवसायः ज्ञानमात्रं वा। तेजस्विनः प्रतापशीलाः तेषां तेजः अनभिभवनीयत्वं पराभिभवसामर्थ्यं वा। तेजोऽभिमान इति केचित् प्रागल्भ्यमित्यपरे। बलं धारणादिशक्तिः। कामरागवशात् स्वकार्ये प्रवृत्तस्य बलस्य परपीडादिहेतुत्वाद्धर्मोपयुक्तशरीरादिधारणमात्रादिविषयत्वायकामरागविवर्जितम् इत्युक्तम्। काम इच्छायाः काष्ठा प्राप्तदशा। राग इच्छा। यद्वा कामशब्दः काम्यपरः तद्विषयो रागः कामरागः भूतेषु देवमनुष्यादिरूपेणावस्थितेषु जन्तुषु। धर्माविरुद्धः कामः स्वदारप्रीत्यादिः।अथरसोऽहम् इत्यादिसामानाधिकरण्यं सहेतुकमुपपादयति एत इति। न चायं तदधीनसामर्थ्यप्रदर्शनार्थोराजा राष्ट्रम् इत्यादिवदारोपः मुख्यसम्भवे वृत्त्यन्तरायोगादिति भावः।एत इत्यनेनेश्वरव्यतिरिक्तैरशक्यक्रियत्वमभिप्रेतम्।सर्व इत्यनेन ब्रह्मरुद्रादिभिरन्यैश्च क्रियमाणानामपि ब्रह्मादिशरीरपरमात्माधीनसृष्टत्वम्अहं कृत्स्नस्य 7।6 इति पूर्वोक्तं स्मारितम्। वक्ष्यमाणराजसतामसेभ्यो वैलक्षण्यार्थमुक्तंविलक्षणा इति।मत्त एव पृथग्विधाः 10।5 इति च वक्ष्यते। एतेनन विलक्षणत्वादस्य ब्र.सू.2।1।4 इत्यधिकरणार्थोऽपि स्मारितः।मत्त एवोत्पन्ना इत्यादि तत्तद्वस्त्वनुरूपं यथासम्भवं सामानाधिकरण्यहेतुः। गुणजातिशरीरेष्वनुगतः सामानाधिकरण्यहेतुरपृथक्सिद्धिरिति प्रदर्शनायोक्तंमय्येवावस्थिता इति।
।।7.10।।किञ्चबीजमिति। हे पार्थ मत्कृपाश्रय सर्वभूतानां सनातनं नित्यं बीजं मां विद्धि।अत्रायं भावः पुरुषोत्तमलीलास्थजीवास्तदात्मका एव तदंशा एवात्र प्रकटीकृताः अन्यथा लीलोपयोगिनो न भवेयुः तेन तद्बीजजाता एतेऽपि सेवायोग्या इति सर्वेषां बीजं मां विद्धि तज्ज्ञानं स्वरूपज्ञानप्रयोजकमिति भावः। तथैव बुद्धिमतां मत्स्वरूपज्ञानकुशलप्रयत्नवतां बुद्धिः कौशलमस्मि। तेजस्विनां दुराधर्षिणां तेजो दुराधर्षता अहमस्मि।
।।7.10।।बीजं कारणम्। सर्वभूतानां पिण्डब्रह्माण्डात्मकानां बीजे मयि पिण्डादिकं प्रोतम्। कनके कुण्डलादिवत्। सनातनं नित्यं बीजान्तरादनुत्पन्नम्। बुद्धिरूपे मयि बुद्धिमन्तः प्रोताः। तेजः प्रागल्भ्यं तद्रूपे मयि प्रगल्भाः प्रोताः।
।।7.10।।ननु सर्वाणि भूतानि स्वस्वकारणे प्रोतानि खतं तेषां त्वयि प्रोतत्वमित्याशङ्क्याह। बीजं जन्मादिकरणं सर्वभूतानां मां विद्धि जानीहि। यथा सर्वेषां पाण्डवानां युष्माकं साक्षान्माद्या मन्त्रदानेन परम्परया च पृथैव बीजं तथेति द्योतयन्नाह हे पार्थेति। बीजान्तरापेक्षयानवस्थां वारयति। सनातनं चिरन्तरनम्। बुद्धिरन्तःकरणस्य विवेकशक्तिर्बह्य सत्यं जगन्मिथ्येति विवेचनसामर्थ्यं तद्रूपे मयि बुद्धिमन्तः प्रोताः। तथा तेजसि प्रागल्म्यभूते मयि तेजस्विनः प्रोताः।
7.10 बीजम् seed? माम् Me? सर्वभूतानाम् of all beings? विद्धि know? पार्थ O Partha? सनातनम् eternal? बुद्धिः intelligence? बुद्धिमताम् of the intelligent? अस्मि am (I)? तेजः splendour? तेजस्विनाम् of the splendid? अहम् I.Commentary Seed means cause.Tejas also means heroism or bravery.Had Arjuna asked? Who is the seed for Thee? the Lord would have replied? There is no seed for Me. There is no cause for Me. I am the source of everything. I am the causeless Cause. I am the primeval Being.
7.10 Know Me, O Arjuna, as the eternal seed of all beings; I am the intelligence of the intelligent; the splendour of the splendid objects am I.
7.10 Know, O Arjuna, that I am the eternal Seed of being; I am the Intelligence of the intelligent, the Splendour of the resplendent.
7.10 O Partha, know Me to be the eternal Seed of all beings. I am the intellect of the intelligent, I am the courage of the courageous.
7.10 O Partha, viddhi, know, mam, Me; to be the sanatanam, eternal; bijam, seed, the source of growth; sarva-bhutanam, of all beings. Besides, I am the buddhih, intellect, the power of discrimination of the mind; buddhimatam, of the intelligent, of people having the power of discrimination. I am the tejah, courage; tejasvinam, of the courageous, of those possessed of that.
7.10. O son of Prtha ! Know Me as the eternal seed of all beings; I am the intellect of the intellectuals and the brillinace of the brilliant.
7.10 See Comment under 7.11
7.8 - 7.11 All these entities with their peculiar characteristic are born from Me alone. They depend on Me; inasmuch as they constitute My body, they exist in Me alone. Thus I alone exist while all of them are only My modes.
7.10 Know Me to be, O Arjuna, the primeval seed of all beings. I am the intelligence of the discerning, and the brilliance of the brilliant.
।।7.10।।हे पार्थ मुझे तू सब भूतोंका सनातन पुरातन बीज अर्थात् उनकी उत्पत्तिका मूल कारण जान। तथा मैं ही बुद्धिमानोंकी बुद्धि अर्थात् विवेकशक्ति और तेजस्वियों अर्थात् प्रभावशाली पुरुषोंका तेज प्रभाव हूँ।
।।7.10।। बीजं प्ररोहकारणं मां विद्धि सर्वभूतानां हे पार्थ सनातनं चिरन्तनम्। किञ्च बुद्धिः विवेकशक्तिः अन्तःकरणस्य बुद्धिमतां विवेकशक्तिमताम् अस्मि तेजः प्रागल्भ्यं तद्वतां तेजस्विनाम् अहम्।।
।।7.8 7.12।।भूमिः 7।4 इत्यादिनेत्यत्रावधेरनुक्तेःरसोऽहं इत्याद्यपि ज्ञानप्रकरणमिति प्रतीतिः स्यात् तन्निरासाय तत्समाप्तिमाह इदमिति। एतावता ग्रन्थेन ज्ञानं निरूपितमित्यर्थ। कुतोऽत्र ज्ञानप्रकरणस्य समाप्तिः इत्यत आह रसोऽहमिति। इतिशब्दाद्यभावेऽपि प्रकरणान्तरारम्भ एव समाप्तिं गमयिष्यति। अलौकिकमाहात्म्यप्रतिपादनादस्य विज्ञानप्रकरणत्वं ज्ञायत इति भावः।प्रभवादेः इत्युक्तन्यायेनैवरसोऽहं इत्यादेरपि व्याख्यानं सिद्धम्। रसादीनां सत्तादिकारणत्वाद्भोक्तृत्वाच्च भगवान् रसादिरिति। नन्वबादयो धर्मिणो भगवदधीनास्तद्भोग्याश्चेत्यङ्गीक्रियते न वा। नेति पक्षेअहं कृत्स्नस्य 7।6 इत्युक्तविरोधः। आद्ये तुअप्सु रसः इत्यादेर्धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणां ग्रहणस्यानुपपत्तिरित्यतः प्रथमं पक्षं तावदङ्गीकरोति अबादयोऽपीति। धर्मिणोऽपि तदधीना एव तद्भोग्याश्चैव। ननु तत्रोक्तो दोष इत्यतः कारणत्वे तावद्विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह तथापीति। यद्यपि धर्मिणोऽपि भगवदधीना एव तथापि धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानं युज्यत इति शेषः। कथं इत्यत आह रसादीति। रसादयश्च ते स्वभावा अबादीनामनागन्तुकधर्माश्चेति रसादिस्वभावास्तेषां साराणामबादिधर्मेषु सङ्ख्यादिषु श्रेष्ठानां च तेषामेवाबादिस्वभावभूतानां तद्धर्मेषु श्रेष्ठानां च रसादीनामिति यावत्। स्वभावत्वेऽबादीनामिति शेषः। सारत्वेऽबादिधर्मेष्विति शेषः। रसादित्वे चेति चार्थः। स भगवानेव। विशेषतोऽपीत्यस्य व्यावर्त्यं न त्विति। अनुबद्धोऽनुषङ्गसिद्धः। तत्सारत्वादिश्चेति। तस्य रसादेरबादिधर्मेषु सारत्वमबादिस्वभावत्वं रसत्वादिकंचेत्यर्थः। यथा लोके कुविन्दादिः पटादिद्रव्येष्वेव व्यापारवाननुभूयते न तु तदीयेषु गन्धरसादिषु गुणेषु तद्धर्मेषु च गन्धत्वादिषु पृथग्व्यापारवान् किन्तु ते पटादिजन्मानुषङ्गिजन्मान एव। न तथा भगवान्। अपित्वबादेधर्मेषु रसादिषु तद्धर्मेषु च स्वभावत्वादिषु पृथक् प्रयत्नवान् नत्वबादिनियमानुषङ्गिसत्तादिकास्त इति दर्शयितुं विशेषशब्दा उपात्ता इत्यर्थः। भोगपक्षेऽपि प्रयोजनमाह भोगश्चेति। अबादिभोगादप्यतिशयेन रसादेर्भोगःपरमेश्वरस्येति दर्शयति विशेषशब्दैरिति सम्बन्धः।रसोऽहं इत्याद्यभेदोक्तेरर्थान्तरं सूचयन् तत्रापि विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह उपासनार्थं चेति। विशेषतः रसादेरिति वर्तते। अर्थवशाद्रसादेरिति सप्तमीत्वेन विपरिणम्यते। रसादयः परमेश्वरोपासने प्रतिमात्वेनात्र विवक्षिताः। प्रतिमायां चाभेदोक्तिः प्रसिद्धा। प्रतिमात्ममबादीनां समानम्। योऽप्सु तिष्ठन् बृ.उ.7।3।4 इत्यादेः। अतः किं विशेषशब्दग्रहणेनेति चेत् अबादिभ्यो विशेषतः रसादिषु भगवदुपासनार्थं तदुपपत्तिरिति।उक्तेऽर्थत्रये प्रमाणमाह उक्तं चेति। तथा चशब्दः अन्योन्यसमुच्चये। एवशब्दस्येश्वर इत्यनेन सम्बन्धः। सर्वत्राबादिषु। ईश्वरो रसादिकं जगदित्युच्यत इत्यर्थः। अबादयोऽबाद्यभिमानिनः। ज्ञानिनां ज्ञानार्थिनां सम्पत्त्यै प्राप्त्यै अन्येषां रसार्थिनाम्। अबादय इति रसादीति च पादयोः सप्तनवाक्षरत्वेऽपि न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति ऐ.ब्रा.1।6 इति वचनाददोषः। स्वभावस्य भगवदधीनत्वमलौकिकमित्यतस्तत्रान्यान्यपि वाक्यानि पठति स्वभाव इति। अस्त्वेवं धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानम् धर्माणां विशेषणोपादानं तु किमर्थमित्यत आह धर्मेति। आदिपदेनपुण्यो गन्धः इत्यस्य ग्रहणम्। कामादिषु विशिष्टंष्वेव भगवानुपास्यः न धर्मविरुद्धेष्वशुचिष्विति ज्ञापनाय कामादीनां धर्माणां धर्माविरुद्धत्वादिविशेषणोपादानमित्यर्थः। अत्र प्रमाणमाह उक्तं वेति। कामं पुरुषार्थम्। कामरागादेः कामरागादिना। अनिञ्छद्भिः कामादिकम्। गन्धस्य विशेषणोपादाने प्रयोजनान्तरमाह पुण्य इति। पुण्यगन्धस्यैव भगवतो भोगो न दुर्गन्धस्येति ज्ञापयितुमत्र विशेषणोपादानमित्यर्थः। ननु दुर्गन्धं भगवाननुभवति न वा नेति पक्षे सार्वज्ञाभावः आद्ये कथं भोगाभावः उच्यते अनुभूयमाना अपि दुर्गन्धादयो न फलहेतव इत्यभिप्रायः। सुगन्धस्तु सुखहेतुरित्युपपादितम्।शुचिवस्त्वेव भगवतो भोग्यमित्यत्र प्रमाणमाह तथा हीति। अमुमुपासकम्। कुतः तस्य देवत्वात्। तथापि कुतः न ह वै देवमात्रस्य पुण्यभोगनियमे देवोत्तमस्य सुतरां तत्सिद्धि।ऋतं कठो.3।1 इति श्रुतिः कथं प्रकृतोपयोगिनी इत्यत आह ऋतं चेति। कुतः इत्यतः सामान्यविशेषाभिधानादित्याह ऋतमिति। प्रयोगगः शब्दजन्यः। तथा च श्रुतावृतशब्दः पुण्यफलस्योपलक्षक इति भावः। स्यादिदं व्याख्यानं यदि भगवतो विषयभोगो युक्तः स्यात् न चैवम् तदङ्गीकारे श्रुत्यादिविरोधात्। ऋतं पिबन्तौ इति चात एव छत्रिन्यायेनोपचरितमित्यत आह न चेति। कुतो नेत्यत आह स्थूलेति। श्रुत्यादिषु स्थूलस्य जीवभोग्यस्य विषयस्याभोगोक्तेः सूक्ष्मभोगस्य चाङ्गीकारादिति भावः। सूक्ष्माशने प्रमिते भवेदियं व्यवस्था। तदेव कुतः इत्यत आह आह चेति। गन्धादिषु यो जीवेन्द्रियागोचरः सारभागस्तस्य भोगम्। परमेश्वरोऽस्माच्छारीरादात्मनो जीवादतिशयेन विलक्षणभोग एव भवति। अवतारेषु स्थूलमपि भुङक्ते इतीवशब्दः।ननु प्रविविक्ताहारतरोऽयं जीव एवेत्यत आह न चेति। न हि जीवो जीवादेव विलक्षणाहार इति युज्यत इत्यर्थः। ननु शारीराज्जागरावस्थाज्जीवात्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थः स एव प्रविविक्ताहार इत्यवस्थाभेदोपाधिकं जीवस्य भेदमङ्गीकृत्य व्याख्यास्यामीत्यत आह स्वप्नादिश्चेति।स्वपो नन् अष्टा.3।3।91 इति स्वप्नशब्दः कर्तरि। स्वप्नः सुषुप्तश्च शारीर एव न केवलं जाग्रत् तथाच त्र्यवस्थस्यापि शारीरशब्देन गृहीतत्वात् न ततो भेदः स्वप्नसुषुप्तयोरित्यर्थः। अवस्थात्रयवतोऽपि शारीरत्वं कुतः इत्यत आह शारीर स्त्विति। जाग्रदादिष्वंवस्थासु। अस्तु त्र्यवस्थोऽपि शारीरः तथाप्यस्मादिति विशेषणेनात्र शारीरादिति जाग्रदवस्थो गृह्यते। तस्माच्च स्वप्नाद्यवस्थस्य भेदोक्तिरुक्तविधया सम्भवति। भवत्पक्षेऽपि शारीरादिति जीवे सिद्धेऽस्मादिति विशेषणं व्यर्थं स्यादिति तत्राह अस्मादिति। नैतद्विशेषणसार्थक्यायेश्वरं परित्यज्य जीवोऽत्र ग्राह्यः शारीरादित्येवोक्तावीश्वरस्यापि प्राप्तावीश्वरादेवेश्वरस्य भेदानुपपत्तेः। तद्व्यावृत्त्यर्थं जीवमात्रपरिग्रहाय विशेषणमिति सार्थक्योपपत्तेरित्यर्थः। भवेदेवं यदि शारीरत्वमीश्वरस्यापि स्यात् तदेव कुतः इत्यत आह शारीराविति। नन्वेवं पक्षद्वयेऽप्युपपत्तावीश्वर एवात्रोच्यते न जीवः इति कुतः विनिगमनमित्यत आह भेदेति। चो हेतौ। भेदश्रुतेः स्वाभाविकभेदरूपे गत्यन्तरे सम्भवति पुरुषभेद एवार्थतया ग्राह्यः न त्ववस्थोपाधिको भेदः।मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययात् अतो युक्तं विनिगमनम्। न केवलमुक्तव्यवस्था न्यायप्राप्ता किन्त्वागमसिद्धा चेत्याह आह चेति। अभोक्ता च भोक्ता चेत्येतयोर्व्युत्क्रमेणान्धयः।सर्वभूतस्थमात्मानं 6।29 इत्युक्तत्वात्।न त्वहं तेषु 7।12 इति कथमुच्यते इत्यत आह न त्वहमिति। तदनाधारत्वं तदुपजीवनेन स्थित्यभावः। कुत एतत् इत्यत आह उक्तं चेति। न केवलं मुक्तविरोधादिति चार्थः।
।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौ जीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्। बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।।7.10।।
বীজং মাং সর্বভূতানাং বিদ্ধি পার্থ সনাতনম্৷ বুদ্ধির্বুদ্ধিমতামস্মি তেজস্তেজস্বিনামহম্৷৷7.10৷৷
বীজং মাং সর্বভূতানাং বিদ্ধি পার্থ সনাতনম্৷ বুদ্ধির্বুদ্ধিমতামস্মি তেজস্তেজস্বিনামহম্৷৷7.10৷৷
બીજં માં સર્વભૂતાનાં વિદ્ધિ પાર્થ સનાતનમ્। બુદ્ધિર્બુદ્ધિમતામસ્મિ તેજસ્તેજસ્વિનામહમ્।।7.10।।
ਬੀਜਂ ਮਾਂ ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਨਾਂ ਵਿਦ੍ਧਿ ਪਾਰ੍ਥ ਸਨਾਤਨਮ੍। ਬੁਦ੍ਧਿਰ੍ਬੁਦ੍ਧਿਮਤਾਮਸ੍ਮਿ ਤੇਜਸ੍ਤੇਜਸ੍ਵਿਨਾਮਹਮ੍।।7.10।।
ಬೀಜಂ ಮಾಂ ಸರ್ವಭೂತಾನಾಂ ವಿದ್ಧಿ ಪಾರ್ಥ ಸನಾತನಮ್. ಬುದ್ಧಿರ್ಬುದ್ಧಿಮತಾಮಸ್ಮಿ ತೇಜಸ್ತೇಜಸ್ವಿನಾಮಹಮ್৷৷7.10৷৷
ബീജം മാം സര്വഭൂതാനാം വിദ്ധി പാര്ഥ സനാതനമ്. ബുദ്ധിര്ബുദ്ധിമതാമസ്മി തേജസ്തേജസ്വിനാമഹമ്৷৷7.10৷৷
ବୀଜଂ ମାଂ ସର୍ବଭୂତାନାଂ ବିଦ୍ଧି ପାର୍ଥ ସନାତନମ୍| ବୁଦ୍ଧିର୍ବୁଦ୍ଧିମତାମସ୍ମି ତେଜସ୍ତେଜସ୍ବିନାମହମ୍||7.10||
bījaṅ māṅ sarvabhūtānāṅ viddhi pārtha sanātanam. buddhirbuddhimatāmasmi tējastējasvināmaham৷৷7.10৷৷
பீஜஂ மாஂ ஸர்வபூதாநாஂ வித்தி பார்த ஸநாதநம். புத்திர்புத்திமதாமஸ்மி தேஜஸ்தேஜஸ்விநாமஹம்৷৷7.10৷৷
బీజం మాం సర్వభూతానాం విద్ధి పార్థ సనాతనమ్. బుద్ధిర్బుద్ధిమతామస్మి తేజస్తేజస్వినామహమ్৷৷7.10৷৷
7.11
7
11
।।7.11।। हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! बलवालोंमें काम और रागसे रहित बल मैं हूँ। मनुषयोंमें धर्मसे अविरुद्ध (धर्मयुक्त) काम मैं हूँ।
।।7.11।। हे भरत श्रेष्ठ ! मैं बलवानों का कामना तथा आसक्ति से रहित बल हूँ और सब भूतों में धर्म के अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल काम हूँ।।
।।7.11।। सामान्य बुद्धिमत्ता के और मन्दबुद्धि के लोगों को अनेक उदाहरण देने के पश्चात् यहाँ इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण उस अत्यन्त मेधावी पुरुष के लिये तत्त्व का निर्देश करते हैं जिसमें यह क्षमता हो कि वह इस दिये हुये निर्देश पर सूक्ष्म विचार कर सके।बलवानों का बल मैं हूँ केवल इतने ही कथन में पूर्व कथित दृष्टान्तों की अपेक्षा कोई अधिक विशेषता नहीं दिखाई पड़ती। परन्तु बल शब्द को दिये गये विशेषण से इसको विशेष महत्त्व प्राप्त हो जाता है। सामान्यत मनुष्य में जब कामना व आसक्ति होती है तब वह अथक परिश्रम करते हुये दिखाई देता है और अपनी इच्छित वस्तु को पाने के लिये सम्पूर्ण शक्ति लगा देता है।कामना और आसक्ति इन दो प्रेरक वृत्तियों के बिना किसी बल की हम कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। यद्यपि सतही दृष्टि से काम और राग में हमें भेद नहीं दिखाई देता है तथापि शंकराचार्य अपने भाष्य में उसे स्पष्ट करते हुये कहते हैं. अप्राप्त वस्तु की इच्छा काम है और प्राप्त वस्तु में आसक्ति राग कहलाती है। मन की इन्हीं दो वृत्तियों के कारण व्यक्ति या परिवार समाज या राष्ट्र अपनी सार्मथ्य को प्रकट करते हैं। हड़ताल और दंगे उपद्रव और युद्ध इन सबके पीछे प्रेरक वृत्तियां हैं काम और राग। श्रीकृष्ण कहते हैं मैं बलवानों का काम और राग से वर्जित बल हूँ। स्पष्ट है कि यहाँ सामान्य बल की बात नहीं कही गयी है।इस कथन से मानों उन्हें सन्तोष नहीं होता है और इसलिये वे आगे और कहते हैं प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूँ। जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व होता है वह उसका धर्म कहलाता है। मनुष्य का अस्तित्व चैतन्य आत्मा के बिना नहीं हो सकता अत वह उसका वास्तविक धर्म या स्वरूप है। व्यवहार में जो विचार भावना और कर्म उसके दिव्य स्वरूप के विरुद्ध नहीं है वे धर्म के अन्तर्गत आते हैं। जिन विचारों एवं कर्मों से अपने आत्मस्वरूप को पहचानने में सहायता मिलती है उन्हें धर्म कहा जाता है और इसके विपरीत कर्म अधर्म कहलाते हैं क्योंकि वे उसकी आत्मविस्मृति को दृढ़ करते हैं। उनके वशीभूत होकर मनुष्य पतित होकर पशुवत् व्यवहार करने लगता है।धर्म की परिभाषा को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। धर्म के अविरुद्ध कामना से तात्पर्य साधक की उस इच्छा तथा क्षमता से है जिसके द्वारा वह अपनी दुर्बलताओं को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है और आत्मोन्नति की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता जाता है। भगवान् के कथन को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मैं साधक नहीं वरन् उसमें स्थित आत्मज्ञान की प्रखर जिज्ञासा हूँ।अब तक के उपदेश तथा दृष्टान्तों का क्या यह अर्थ हुआ कि आत्मा वास्तव में अनात्म जड़ उपाधियों के बन्धन में आ गया है परिच्छिन्न उपाधि अपरिच्छिन्न आत्मा को कैसे सीमित कर सकती है इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं
।।7.11।। व्याख्या--'बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्'--कठिन-से-कठिन काम करते हुए भी अपने भीतर एक कामना-आसक्तिरहित शुद्ध, निर्मल उत्साह रहता है। काम पूरा होनेपर भी 'मेरा कार्य शास्त्र और धर्मके अनुकूल है तथा लोकमर्यादाके अनुसार सन्तजनानुमोदित है'--ऐसे विचारसे मनमें एक उत्साह रहता है। इसका नाम 'बल' है। यह बल भगवान्का ही स्वरूप है। अतः यह 'बल' ग्राह्य है। गीतामें भगवान्ने खुद ही बलकी व्याख्या कर दी है। सत्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'कामरागबलान्विताः' पदमें आया बल कामना और आसक्तिसे युक्त होनेसे दुराग्रह और हठका वाचक है। अतः यह बल भगवान्का स्वरूप नहीं है, प्रत्युत आसुरी सम्पत्ति होनेसे त्याज्य है। ऐसे ही 'सिद्धोऽहं बलवान्सुखी' (गीता 16। 14) और 'अहंकारं बलं दर्पम्' (गीता 16। 18 18। 53) पदोंमें आया बल भी त्याज्य है। छठे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें 'बलवद्दृढम्' पदमें आया बल शब्द मनका विशेषण है। वह बल भी आसुरी सम्पत्तिका ही है; क्योंकि उसमें कामना और आसक्ति है। परन्तु यहाँ (7। 11 में) जो बल आया है, वह कामना और आसक्तिसे रहित है, इसलिये यह सात्त्विक उत्साहका वाचक है और ग्राह्य है। सत्रहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें 'आयुःसत्त्वबलारोग्य ৷৷.' पदमें आया बल शब्द भी इसी सात्त्विक बलका वाचक है। 'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ'--हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! मनुष्योंमें (टिप्पणी प0 407.1) धर्मसे अविरुद्ध अर्थात् धर्मयुक्त 'काम' (टिप्पणी प0 407.2) मेरा स्वरूप है। कारण कि शास्त्र और लोक-मर्यादाके अनुसार शुभ-भावसे केवल सन्तान-उत्पत्तिके लिये जो काम होता है, वह काम मनुष्यके अधीन होता है। परंतु आसक्ति कामना सुखभोग आदिके लिये जो काम होता है उस काममें मनुष्य पराधीन हो जाता है और उसके वशमें होकर वह न करनेलायक शास्त्रविरुद्ध काममें प्रवृत्त हो जाता है। शास्त्रविरुद्ध काम पतनका तथा सम्पूर्ण पापों और दुःखोंका हेतु होता है। कृत्रिम उपायोंसे सन्तति-निरोध कराकर केवल भोग-बुद्धिसे काममें प्रवृत्त होना महान् नरकोंका दरवाजा है। जो सन्तानकी उत्पत्ति कर सके, वह 'पुरुष' कहलाता है और जो गर्भ धारण कर सके, वह 'स्त्री' कहलाती है (टिप्पणी प0 407.3)। अगर पुरुष और स्त्री आपरेशनके द्वारा अपनी सन्तानोत्पत्ति करनेकी योग्यता-(पुरुषत्व और स्त्रीत्व-) को नष्ट कर देते हैं, वे दोनों ही हिजड़े कहलानेयोग्य हैं। नपुंसक होनेके कारण देवकार्य (हवन-पूजन आदि) और पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) में उनका अधिकार नहीं रहता (टिप्पणी प0 407.4)। स्त्रीमें मातृशक्ति नष्ट हो जानेके कारण उसके लिये परम आदरणीय एवं प्रिय 'माँ' सम्बोधनका प्रयोग भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह या तो शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुसार केवल सन्तानोत्पत्तिके लिये कामका सेवन करे अथवा ब्रह्मचर्यका पालन करे।
।।7.10 7.11।।बीजमिति। बलमिति। बीजं सूक्ष्ममादिकारणम् ( सूक्ष्मादिकारणम्)। कामरागविवर्जितं बलं सकलवस्तुधारणसमर्थम् ऊर्जोरूपम् ( omits रूपम्)। कामः ( S omits कामः) इच्छा संविन्मात्ररूपा यस्या घटपटादिभिर्धर्मरूपैर्नास्ति विरोधः। इच्छा हि सर्वज्ञ भगवच्छक्तितया अनुयायिनी न क्वचिद्विरुध्यते धर्मैस्तु आगन्तुकैर्घटपटादिभिर्भिद्यते ( S घटादिभिर्भि ) इति तदुपासकतया शुद्धसंवित्स्वभावत्वं ज्ञानिनः। उक्तं च शिवोपनिषदि इच्छायामथ वा ज्ञाने जाते चित्तं निवेशयेत् (V 98 ) इतिजाते एव न तु बाह्यप्रसृते इत्यर्थ। एवं व्याख्यानं त्यक्त्वा ये परस्परानुपघातकं त्रिवर्गं सेवेत इत्याशयेन व्याचक्षते ते संप्रदायक्रममजानानाः भगवद्रहस्यं च व्याचक्षणा नमस्कार्या एव।
।।7.11।।एते सर्वे विलक्षणा भावा मत्त एव उत्पन्नाः मच्छेषभूता मच्छरीरतया मयि एव अवस्थिताः अतः तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थितः।
।।7.11।।यच्च बलवतां बलं तद्भूते मयि तेषां प्रोतत्वमित्याह बलमिति। कामक्रोधादिपूर्वकस्यापि बलस्यानुमतिं वारयति तच्चेति। कामरागयोरेकार्थत्वमाशङ्क्यार्थभेदमावेदयति कामस्तृष्णेत्यादिना। विशेषणसामर्थ्यसिद्धं व्यावर्त्य दर्शयति नत्विति। शास्त्रार्थाविरुद्धकामभूते मयि तथाविधकामवतां भूतानां प्रोतत्वं विवक्षित्वाह कि़ञ्चेति। धर्माविरुद्धं काममुदाहरति यथेति।
।।7.11।।बलमिति। क्रियाशक्तिरूपं तदपि न प्रवृत्त्यात्मकमित्याह कामरागाविवर्जितमिति। तथैव कामोऽस्मि स च लोके धर्मविरोधीति तद्व्यावृत्त्यर्थमाह धर्माविरुद्ध इति। एते सप्तसप्त तत्तद्वयभेदा निरूपिताः।
।।7.11।।अप्राप्तो विषयः प्राप्तिकारणाभावेऽपि प्राप्यतामित्याकारश्चित्तवृत्तिविशेषः कामः प्राप्तो विषयः क्षयकारणे सत्यपि न क्षीयतामित्येवमाकारश्चित्तवृत्तिविशेषो रञ्जनात्मा रागस्ताभ्यां विशेषेण वर्जितं सर्वथा तदाकाररजस्तमोविरहितं यत्स्वधर्मानुष्ठानाय देहेन्द्रियादिधारणसामर्थ्यं सात्त्विकं बलं बलवतां तादृशसात्त्विकबलयुक्तानां संसारपराङ्मुखानां तदहमस्मि। तद्रूपे मयि बलवन्तः प्रोता इत्यर्थः। चशब्दस्तुशब्दार्थे भिन्नक्रमः। कामरागविवर्जितमेव बलं मद्रूपत्वेन ध्येयं नतु संसारिणां कामरागकारणं बलमित्यर्थः। क्रोधार्थो वा रागशब्दो व्याख्येयः। धर्मो धर्मशास्त्रं तेनाविरुद्धोऽप्रतिषिद्धो धर्मानुकूलो वा यो भूतेषु प्राणिषु कामः शास्त्रानुमतजायापुत्रवित्तादिविषयोऽभिलाषः सोऽहमस्मि। हे भरतर्षभ शास्त्राविरुद्धकामभूते मयितथाविधकामयुक्तानां भूतानां प्रोतत्वमित्यर्थः।
।।7.11।।किंच बलमिति। कामोऽप्राप्ते वस्तुन्यभिलाषो राजसः रागः पुनरभिलषितेऽर्थे प्राप्तेऽपि पुनरधिकेऽर्थे चित्तरञ्जनात्मकस्तृष्णापरपर्यायस्तामसः ताभ्यां विवर्जितं बलवतां बलमस्मि। सात्त्विकं स्वधर्मानुष्ठानसामर्थ्यमहमित्यर्थः। स्वधर्मेणाविरुद्धः स्वदारेषु पुत्रोत्पत्तिमात्रोपयोगी कामोऽहम्।
।। 7.11  एवंभूमिरापः 7।4 इत्यादिना भेदश्रुत्यर्थ उपबृंहितःमयि सर्वम् 7।7 इति तु घटकश्रुत्यर्थः अथ तदुभयनिर्वाहिताभेदश्रुत्यर्थोपबृंहणं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह अत इति। केचित्मयि सर्वमिदम् इत्यस्य रसादिधर्मविशिष्टे मयि प्रोतमित्यर्थः तद्विवरणंरसोऽहम् इत्यादि इति व्याचख्युः तत्परिहारायाह सर्वस्य परमपुरुषशरीरत्वेनेति। परोक्ते त्वाधाराधेयभाववैपरीत्यादिदोष इति भावः। प्रकारवाचिशब्दानां प्रकारिणि पर्यवसानस्वाभाव्यं जातिगुणादिशब्देष्वपि सामान्यतः सिद्धमिति दर्शयितुं प्रकारत्वोपादानम्।अभिधानं मुख्यवृत्त्या बोधनम्। यद्यपि रसादिशब्दा लोके निष्कर्षकाः प्रयुज्यन्ते व्यधिकरणतया चात्रावादिद्रव्योपादानम् तथापि रसादीनां परमात्मशरीरभूतद्रव्यप्रकारत्वेन परमात्मनः प्रकारित्वाद्रसादिशब्दानां चात्र तत्समानाधिकरणतया प्रयोगात्तत्र निष्कर्षकत्वं नास्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्। द्रव्योपादानं तु तत्रतत्र द्रव्ये प्रधानभूतरसगन्धादिप्रकारीभूतोऽहमिति ज्ञापनार्थम्। द्रव्यप्रकाराणां च तत्प्रकारत्वं काठिन्यवान् (न्येन)यो बिभर्ति वि.पु.1।14।28 इत्यादिषु प्रयुक्तमिति भावः। रसस्य पृथिव्यां वृत्तौ सत्यामप्यपां रूपादिगुणान्तरसद्भावेऽपिरसोऽहमप्सु इति विशिष्योपादानं तेजस्तत्त्वादब्रूपपरिणामस्य पूर्वतत्त्वानुत्पन्नरसप्रधानत्वात्। अन्यत्र चआत्तगन्धा तदा (ततो) भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते वि.पु.6।4।14 इत्यादिना च पृथिव्यादीनां गन्धरसाद्यधीनत्वमुक्तम्। एवमुत्तरत्रापि प्राधान्यतो विशेषनिर्देशे यथोचितं भाव्यम्।प्रभा स्वाश्रयातिरिक्तप्रसारितेजोद्रव्यविशेषः। प्रभयैव चन्द्रसूर्यौ जगदुपकारहेतुभूताविति तौ तत्प्रधानौ। सर्वेषां वेदानां बीजत्वादिना तेषुप्रणवः प्रधानभूतः।पौरुषं पुरुषस्य भावः यतः पुरुषबुद्धिरित्येके सन्तानपरम्पराहेतुभूतं रेत इत्यपरे यद्वा पौरुषं सामर्थ्यं कर्तृत्वशक्तिरित्यर्थः तयैव हि कर्तुरात्मनः कारकान्तरेभ्यः प्राधान्यम्। नृषु जीवेष्वित्यर्थः। यद्वा पौरुषं पुंस्त्वम् स्त्रीनपुंसकव्यावृत्तः सत्त्वादिस्वभावविशेषः। नृशब्दश्च पुरुषपर्यायः। पुण्यो गन्धः तुलस्यादिगन्धः सुरभिगन्धमात्रं वा तद्योगेन हि पृथिवी सत्त्वोन्मेषस्य सुखस्य वा हेतुर्भवति। विभावसुरत्राग्निः। तत्र च तेजो दाहकत्वशक्तिः। भूतशब्देनात्र शरीरिणो गृह्यन्ते। सर्वशब्देनात्र ब्रह्मशर्वादीनामपि सङ्ग्रहः। तेषु जीवनं प्राणनम् प्राणस्थितिहेतुर्वा। येन सर्वाणि भूतानि जीवन्ति भूतेषूपजीवनीयं वा रूपम्।सर्वभूतानां सनातनं बीजं प्रकृतितत्त्वम्। अथवा प्रधानधर्मनिर्देशप्रकरणत्वाद्बीजशब्दोऽत्रोपादानत्वाख्यस्वभावपरः। सर्वेषां परिणामिद्रव्याणां स्वकार्यपरिणामसामर्थ्यमित्यर्थः। अथवा बीजं प्ररोहकारणं जङ्गमस्थावरभूतानां तत्तदुपादानद्रव्यम्। बुद्धिः अध्यवसायः ज्ञानमात्रं वा। तेजस्विनः प्रतापशीलाः तेषां तेजः अनभिभवनीयत्वं पराभिभवसामर्थ्यं वा। तेजोऽभिमान इति केचित् प्रागल्भ्यमित्यपरे। बलं धारणादिशक्तिः। कामरागवशात् स्वकार्ये प्रवृत्तस्य बलस्य परपीडादिहेतुत्वाद्धर्मोपयुक्तशरीरादिधारणमात्रादिविषयत्वायकामरागविवर्जितम् इत्युक्तम्। काम इच्छायाः काष्ठा प्राप्तदशा। राग इच्छा। यद्वा कामशब्दः काम्यपरः तद्विषयो रागः कामरागः भूतेषु देवमनुष्यादिरूपेणावस्थितेषु जन्तुषु। धर्माविरुद्धः कामः स्वदारप्रीत्यादिः।अथरसोऽहम् इत्यादिसामानाधिकरण्यं सहेतुकमुपपादयति एत इति। न चायं तदधीनसामर्थ्यप्रदर्शनार्थोराजा राष्ट्रम् इत्यादिवदारोपः मुख्यसम्भवे वृत्त्यन्तरायोगादिति भावः।एत इत्यनेनेश्वरव्यतिरिक्तैरशक्यक्रियत्वमभिप्रेतम्।सर्व इत्यनेन ब्रह्मरुद्रादिभिरन्यैश्च क्रियमाणानामपि ब्रह्मादिशरीरपरमात्माधीनसृष्टत्वम्अहं कृत्स्नस्य 7।6 इति पूर्वोक्तं स्मारितम्। वक्ष्यमाणराजसतामसेभ्यो वैलक्षण्यार्थमुक्तंविलक्षणा इति।मत्त एव पृथग्विधाः 10।5 इति च वक्ष्यते। एतेनन विलक्षणत्वादस्य ब्र.सू.2।1।4 इत्यधिकरणार्थोऽपि स्मारितः।मत्त एवोत्पन्ना इत्यादि तत्तद्वस्त्वनुरूपं यथासम्भवं सामानाधिकरण्यहेतुः। गुणजातिशरीरेष्वनुगतः सामानाधिकरण्यहेतुरपृथक्सिद्धिरिति प्रदर्शनायोक्तंमय्येवावस्थिता इति।
।।7.11।।किञ्च बलवतां मद्वशीकरणलक्षणवतां बलं वशीकरणलक्षणमहम्। चकारेण तद्रूपोऽपि। कीदृशं बलं कामरागविवर्जितं वशीकृते मयि स्वाभिलाषत्वं स्वरञ्जनादिवर्जनम् किन्तु मदभिलाषादिभावः। तथा हे भरतर्षभ सत्कुलोत्पन्न तथा कामभावयोग्य धर्माविरुद्धः धर्मेण अविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि। अत्रायं भावः लौकिककामस्तु धर्मविरुद्धोऽस्ति यतोऽयं रसः स्वाऽविवाहितायामेव भवति प्रकटः सर्वधर्मविरुद्ध एव। अलौकिकस्तु रसात्मको धर्मरूप इति भावः।
।।7.11।।बलरूपे मयि बलवन्तः प्रोताः। कामरागविवर्जितं कामस्तृष्णा रागो रञ्जना। तौ हि आविद्यकौ। अतो निरवद्यस्य बलं तद्वर्जितम्। एवं धर्माविरुद्धकामरूपे मयि ईदृशाः कामवन्तः प्रोताः।
।।7.11।।बलं सामर्थ्यमोजस्तस्मिन्कामरागविवर्जिते कामोऽप्राप्तेषु विषयेषु प्राप्त्यभिलाषः रागः प्राप्तेषु तेषु रज्जनात्मकः प्रेम्णोऽतिशयः। क्रोधार्थो वा रागशब्दो व्याख्येयः। अस्मिन्पक्षे लक्षणादोष इति बोध्यम्। तद्रहिते देहधारणमात्रप्रयोजने बलभूते मयि बलवन्तः प्रोताः। तथा धर्मेण शास्त्रविहितेनाविरुद्धे देहधारणार्थेऽशनपानादिविषये कामे तद्रूपे मयि कामवतां भूतानां प्रोतत्वम्। भरतर्षमेति संबोधयन् भरतैः क्षत्रियवरैः सेवितं युद्धात्मकधर्मस्य साधकं कामरागविवर्जितं क्षत्रधर्मेण युद्धेन देहधारणमात्रप्रयोजनकं मद्विभूत्यात्मकं बलं स्वधर्मेण शत्रून्विजित्य धर्माविरुद्धं अन्नपानादिविषयं कामं च मद्विभूतिरुपं भरतानां मध्ये श्रेष्टत्वं त्युक्तुं नार्हसीति सूचयति।
7.11 बलम् strength? बलवताम् of the strong? अस्मि am (I)? कामरागविवर्जितम् devoid of desire and attachment? धर्माविरुद्धः unopposed to Dharma? भूतेषु in beings? कामः desire? अस्मि am (I)? भरतर्षभ O Lord of the Bharatas.Commentary Kama Desire for those objects that come in contact with the senses.Raga attachment for those objects that come in contact with the senses.I am that strength which is necessary for the bare sustenance of the body. I am not the strength which generates desire and attachment for sensual objects as in the case of worldlyminded persons. I am the desire which is in accordance with the teachings of the scriptures or the code prescribing the duties of life. I am the desire for moderate eating and drinking? etc.? which are,necessary for the sustenance of the body and which help one in the practice of Yoga.
7.11 Of the strong, I am the strength devoid of desire and attachment, and in (all) beings, I am the desire unopposed to Dharma, O Arjuna.
7.11 I am the Strength of the strong, of them who are free from attachment and desire; and, O Arjuna, I am the Desire for righteousness.
7.11 And of the strong I am the strength which is devoid of passion and attachment. Among creatures I am desire which is not contrary to righteousness, O scion of the Bharata dyansty.
7.11 I am the balam, strength, ability, virility; balavatam, of the strong. That strength, again, is kama-raga-vivarjitam, devoid of passion and attachment. Kamah is passion, hankering for things not at hand. Ragah is attachment, fondness for things acired. I am the strength that is devoid of them and is necessary merely for the maintenance of the body etc., but not that strength of the worldly which causes hankering and attachment. Further, bhutesu, among creatures; I am that kamah, desire-such desires as for eating, drinking, etc. which are for the mere maintenance of the body and so on; which is dharma-aviruddhah, not contrary to righteousness, not opposed to scriptural injunctions; bharatarsabha, O scion of the Bharata dynasty. Moreover,
7.11. Of the strong, I am the strength that is free from desire and attachment. O best of the Bharatas, in [all] beings I am the desire which is not opposed to attributes.
7.10-11 Bijam etc. Balam etc. The seed : the subtle prime cause. The strength, free from desire and attachment : It is of the nature of vigour and is capable of supporting all that exist. Deire : the Will, which is nothing but Pure Consciousness and which is not opposed to any of the attributes (its objects) like pot, cloth etc. For, the Will, because it is the [conscious] energy of the Bhagavat, is immanent in all and nowhere is it opposed, eventhough it is being differentiated (i.e. the wills or desires are classified) on account of its attributes like pot, cloth etc., which are [only] accidental. Thus the wise, because they are devoted to this Will, are of the nature of Pure Consciousness. That has been said also in the Sivopanisad as - '[A man of wisdom] would concentrate his mind on the Will or [Self] Consciousness that arises'. (VB, 98) [Here in this otation] that arises means 'that has just risen but has not yet spread outside.' Ignoring this way of interpretation [of the Gita passage] some interpret it so as to bring out the idea 'He would enjoy the group of the three, not hindering mutually'. These (commentators) are ignorant of the customs (karma) sanctioned by the traditions; yet they interpret the secret about the Absolute ! No doubt they deserve [our] salutation.
7.8 - 7.11 All these entities with their peculiar characteristic are born from Me alone. They depend on Me; inasmuch as they constitute My body, they exist in Me alone. Thus I alone exist while all of them are only My modes.
7.11 In the strong, I am strength, devoid of desire and passion. In all beings, I am the desire which is not forbidden by law (Dharma), O Arjuna.
।।7.11।।बलवानोंका जो कामना और आसक्तिसे रहित बल ओज सामर्थ्य है वह मैं हूँ। ( अभिप्राय यह कि ) अप्राप्त विषयोंकी जो तृष्णा है उसका नाम काम है और प्राप्त विषयोंमें जो प्रीतितन्मयता है उसका नाम राग है उन दोनोंसे रहित केवल देह आदिको धारण करनेके लिये जो बल है वह मैं हूँ। जो संसारी जीवोंका बल कामना और आसक्तिका कारण है वह मैं नहीं हूँ। तथा हे भरतश्रेष्ठ प्राणियोंमें जो धर्मसे अविरुद्ध शास्त्रानुकूल कामना है जैसे देहधारणमात्रके लिये खानेपीनेकी इच्छा आदि वह ( इच्छारूप) काम भी मैं ही हूँ।
।।7.11।। बलं सामर्थ्यम् ओजो बलवताम् अहम् तच्च बलं कामरागविवर्जितम् कामश्च रागश्च कामरागौ कामः तृष्णा असंनिकृष्टेषु विषयेषु रागो रञ्जना प्राप्तेषु विषयेषु ताभ्यां कामरागाभ्यां विवर्जितं देहादिधारणमात्रार्थं बलं सत्त्वमहमस्मि न तु यत्संसारिणां तृष्णारागकारणम्। किञ्च धर्माविरुद्धः धर्मेण शास्त्रार्थेन अविरुद्धो यः प्राणिषु भूतेषु कामः यथा देहधारणमात्राद्यर्थः अशनपानादिविषयः स कामः अस्मि हे भरतर्षभ।।किञ्च
।।7.8 7.12।।भूमिः 7।4 इत्यादिनेत्यत्रावधेरनुक्तेःरसोऽहं इत्याद्यपि ज्ञानप्रकरणमिति प्रतीतिः स्यात् तन्निरासाय तत्समाप्तिमाह इदमिति। एतावता ग्रन्थेन ज्ञानं निरूपितमित्यर्थ। कुतोऽत्र ज्ञानप्रकरणस्य समाप्तिः इत्यत आह रसोऽहमिति। इतिशब्दाद्यभावेऽपि प्रकरणान्तरारम्भ एव समाप्तिं गमयिष्यति। अलौकिकमाहात्म्यप्रतिपादनादस्य विज्ञानप्रकरणत्वं ज्ञायत इति भावः।प्रभवादेः इत्युक्तन्यायेनैवरसोऽहं इत्यादेरपि व्याख्यानं सिद्धम्। रसादीनां सत्तादिकारणत्वाद्भोक्तृत्वाच्च भगवान् रसादिरिति। नन्वबादयो धर्मिणो भगवदधीनास्तद्भोग्याश्चेत्यङ्गीक्रियते न वा। नेति पक्षेअहं कृत्स्नस्य 7।6 इत्युक्तविरोधः। आद्ये तुअप्सु रसः इत्यादेर्धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणां ग्रहणस्यानुपपत्तिरित्यतः प्रथमं पक्षं तावदङ्गीकरोति अबादयोऽपीति। धर्मिणोऽपि तदधीना एव तद्भोग्याश्चैव। ननु तत्रोक्तो दोष इत्यतः कारणत्वे तावद्विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह तथापीति। यद्यपि धर्मिणोऽपि भगवदधीना एव तथापि धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानं युज्यत इति शेषः। कथं इत्यत आह रसादीति। रसादयश्च ते स्वभावा अबादीनामनागन्तुकधर्माश्चेति रसादिस्वभावास्तेषां साराणामबादिधर्मेषु सङ्ख्यादिषु श्रेष्ठानां च तेषामेवाबादिस्वभावभूतानां तद्धर्मेषु श्रेष्ठानां च रसादीनामिति यावत्। स्वभावत्वेऽबादीनामिति शेषः। सारत्वेऽबादिधर्मेष्विति शेषः। रसादित्वे चेति चार्थः। स भगवानेव। विशेषतोऽपीत्यस्य व्यावर्त्यं न त्विति। अनुबद्धोऽनुषङ्गसिद्धः। तत्सारत्वादिश्चेति। तस्य रसादेरबादिधर्मेषु सारत्वमबादिस्वभावत्वं रसत्वादिकंचेत्यर्थः। यथा लोके कुविन्दादिः पटादिद्रव्येष्वेव व्यापारवाननुभूयते न तु तदीयेषु गन्धरसादिषु गुणेषु तद्धर्मेषु च गन्धत्वादिषु पृथग्व्यापारवान् किन्तु ते पटादिजन्मानुषङ्गिजन्मान एव। न तथा भगवान्। अपित्वबादेधर्मेषु रसादिषु तद्धर्मेषु च स्वभावत्वादिषु पृथक् प्रयत्नवान् नत्वबादिनियमानुषङ्गिसत्तादिकास्त इति दर्शयितुं विशेषशब्दा उपात्ता इत्यर्थः। भोगपक्षेऽपि प्रयोजनमाह भोगश्चेति। अबादिभोगादप्यतिशयेन रसादेर्भोगः परमेश्वरस्येति दर्शयति विशेषशब्दैरिति सम्बन्धः।रसोऽहं इत्याद्यभेदोक्तेरर्थान्तरं सूचयन् तत्रापि विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह उपासनार्थं चेति। विशेषतः रसादेरिति वर्तते। अर्थवशाद्रसादेरिति सप्तमीत्वेन विपरिणम्यते। रसादयः परमेश्वरोपासने प्रतिमात्वेनात्र विवक्षिताः। प्रतिमायां चाभेदोक्तिः प्रसिद्धा। प्रतिमात्ममबादीनां समानम्। योऽप्सु तिष्ठन् बृ.उ.7।3।4 इत्यादेः। अतः किं विशेषशब्दग्रहणेनेति चेत् अबादिभ्यो विशेषतः रसादिषु भगवदुपासनार्थं तदुपपत्तिरिति।उक्तेऽर्थत्रये प्रमाणमाह उक्तं चेति। तथा चशब्दः अन्योन्यसमुच्चये। एवशब्दस्येश्वर इत्यनेन सम्बन्धः। सर्वत्राबादिषु। ईश्वरो रसादिकं जगदित्युच्यत इत्यर्थः। अबादयोऽबाद्यभिमानिनः। ज्ञानिनां ज्ञानार्थिनां सम्पत्त्यै प्राप्त्यै अन्येषां रसार्थिनाम्। अबादय इति रसादीति च पादयोः सप्तनवाक्षरत्वेऽपि न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति ऐ.ब्रा.1।6 इति वचनाददोषः। स्वभावस्य भगवदधीनत्वमलौकिकमित्यतस्तत्रान्यान्यपि वाक्यानि पठति स्वभाव इति। अस्त्वेवं धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानम् धर्माणां विशेषणोपादानं तु किमर्थमित्यत आह धर्मेति। आदिपदेनपुण्यो गन्धः इत्यस्य ग्रहणम्। कामादिषु विशिष्टंष्वेव भगवानुपास्यः न धर्मविरुद्धेष्वशुचिष्विति ज्ञापनाय कामादीनां धर्माणां धर्माविरुद्धत्वादिविशेषणोपादानमित्यर्थः। अत्र प्रमाणमाह उक्तं वेति। कामं पुरुषार्थम्। कामरागादेः कामरागादिना। अनिञ्छद्भिः कामादिकम्। गन्धस्य विशेषणोपादाने प्रयोजनान्तरमाह पुण्य इति। पुण्यगन्धस्यैव भगवतो भोगो न दुर्गन्धस्येति ज्ञापयितुमत्र विशेषणोपादानमित्यर्थः। ननु दुर्गन्धं भगवाननुभवति न वा नेति पक्षे सार्वज्ञाभावः आद्ये कथं भोगाभावः उच्यते अनुभूयमाना अपि दुर्गन्धादयो न फलहेतव इत्यभिप्रायः। सुगन्धस्तु सुखहेतुरित्युपपादितम्।शुचिवस्त्वेव भगवतो भोग्यमित्यत्र प्रमाणमाह तथा हीति। अमुमुपासकम्। कुतः तस्य देवत्वात्। तथापि कुतः न ह वै देवमात्रस्य पुण्यभोगनियमे देवोत्तमस्य सुतरां तत्सिद्धि।ऋतं कठो.3।1 इति श्रुतिः कथं प्रकृतोपयोगिनी इत्यत आह ऋतं चेति। कुतः इत्यतः सामान्यविशेषाभिधानादित्याह ऋतमिति।प्रयोगगः शब्दजन्यः। तथा च श्रुतावृतशब्दः पुण्यफलस्योपलक्षक इति भावः। स्यादिदं व्याख्यानं यदि भगवतो विषयभोगो युक्तः स्यात् न चैवम् तदङ्गीकारे श्रुत्यादिविरोधात्। ऋतं पिबन्तौ इति चात एव छत्रिन्यायेनोपचरितमित्यत आह न चेति। कुतो नेत्यत आह स्थूलेति। श्रुत्यादिषु स्थूलस्य जीवभोग्यस्य विषयस्याभोगोक्तेः सूक्ष्मभोगस्य चाङ्गीकारादिति भावः। सूक्ष्माशने प्रमिते भवेदियं व्यवस्था। तदेव कुतः इत्यत आह आह चेति। गन्धादिषु यो जीवेन्द्रियागोचरः सारभागस्तस्य भोगम्। परमेश्वरोऽस्माच्छारीरादात्मनो जीवादतिशयेन विलक्षणभोग एव भवति। अवतारेषु स्थूलमपि भुङक्ते इतीवशब्दः।ननु प्रविविक्ताहारतरोऽयं जीव एवेत्यत आह न चेति। न हि जीवो जीवादेव विलक्षणाहार इति युज्यत इत्यर्थः। ननु शारीराज्जागरावस्थाज्जीवात्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थः स एव प्रविविक्ताहार इत्यवस्थाभेदोपाधिकं जीवस्य भेदमङ्गीकृत्य व्याख्यास्यामीत्यत आह स्वप्नादिश्चेति।स्वपो नन् अष्टा.3।3।91 इति स्वप्नशब्दः कर्तरि। स्वप्नः सुषुप्तश्च शारीर एव न केवलं जाग्रत् तथाच त्र्यवस्थस्यापि शारीरशब्देन गृहीतत्वात् न ततो भेदः स्वप्नसुषुप्तयोरित्यर्थः। अवस्थात्रयवतोऽपि शारीरत्वं कुतः इत्यत आह शारीर स्त्विति। जाग्रदादिष्वंवस्थासु। अस्तु त्र्यवस्थोऽपि शारीरः तथाप्यस्मादिति विशेषणेनात्र शारीरादिति जाग्रदवस्थो गृह्यते। तस्माच्च स्वप्नाद्यवस्थस्य भेदोक्तिरुक्तविधया सम्भवति। भवत्पक्षेऽपि शारीरादिति जीवे सिद्धेऽस्मादिति विशेषणं व्यर्थं स्यादिति तत्राह अस्मादिति। नैतद्विशेषणसार्थक्यायेश्वरं परित्यज्य जीवोऽत्र ग्राह्यः शारीरादित्येवोक्तावीश्वरस्यापि प्राप्तावीश्वरादेवेश्वरस्य भेदानुपपत्तेः। तद्व्यावृत्त्यर्थं जीवमात्रपरिग्रहाय विशेषणमिति सार्थक्योपपत्तेरित्यर्थः। भवेदेवं यदि शारीरत्वमीश्वरस्यापि स्यात् तदेव कुतः इत्यत आह शारीराविति। नन्वेवं पक्षद्वयेऽप्युपपत्तावीश्वर एवात्रोच्यते न जीवः इति कुतः विनिगमनमित्यत आह भेदेति। चो हेतौ। भेदश्रुतेः स्वाभाविकभेदरूपे गत्यन्तरे सम्भवति पुरुषभेद एवार्थतया ग्राह्यः न त्ववस्थोपाधिको भेदः।मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययात् अतो युक्तं विनिगमनम्। न केवलमुक्तव्यवस्था न्यायप्राप्ता किन्त्वागमसिद्धा चेत्याह आह चेति। अभोक्ता च भोक्ता चेत्येतयोर्व्युत्क्रमेणान्धयः।सर्वभूतस्थमात्मानं 6।29 इत्युक्तत्वात्।न त्वहं तेषु 7।12 इति कथमुच्यते इत्यत आह न त्वहमिति। तदनाधारत्वं तदुपजीवनेन स्थित्यभावः। कुत एतत् इत्यत आह उक्तं चेति। न केवलं मुक्तविरोधादिति चार्थः।
।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौ जीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्। धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।
বলং বলবতামস্মি কামরাগবিবর্জিতম্৷ ধর্মাবিরুদ্ধো ভূতেষু কামোস্মি ভরতর্ষভ৷৷7.11৷৷
বলং বলবতামস্মি কামরাগবিবর্জিতম্৷ ধর্মাবিরুদ্ধো ভূতেষু কামোস্মি ভরতর্ষভ৷৷7.11৷৷
બલં બલવતામસ્મિ કામરાગવિવર્જિતમ્। ધર્માવિરુદ્ધો ભૂતેષુ કામોસ્મિ ભરતર્ષભ।।7.11।।
ਬਲਂ ਬਲਵਤਾਮਸ੍ਮਿ ਕਾਮਰਾਗਵਿਵਰ੍ਜਿਤਮ੍। ਧਰ੍ਮਾਵਿਰੁਦ੍ਧੋ ਭੂਤੇਸ਼ੁ ਕਾਮੋਸ੍ਮਿ ਭਰਤਰ੍ਸ਼ਭ।।7.11।।
ಬಲಂ ಬಲವತಾಮಸ್ಮಿ ಕಾಮರಾಗವಿವರ್ಜಿತಮ್. ಧರ್ಮಾವಿರುದ್ಧೋ ಭೂತೇಷು ಕಾಮೋಸ್ಮಿ ಭರತರ್ಷಭ৷৷7.11৷৷
ബലം ബലവതാമസ്മി കാമരാഗവിവര്ജിതമ്. ധര്മാവിരുദ്ധോ ഭൂതേഷു കാമോസ്മി ഭരതര്ഷഭ৷৷7.11৷৷
ବଲଂ ବଲବତାମସ୍ମି କାମରାଗବିବର୍ଜିତମ୍| ଧର୍ମାବିରୁଦ୍ଧୋ ଭୂତେଷୁ କାମୋସ୍ମି ଭରତର୍ଷଭ||7.11||
balaṅ balavatāmasmi kāmarāgavivarjitam. dharmāviruddhō bhūtēṣu kāmō.smi bharatarṣabha৷৷7.11৷৷
பலஂ பலவதாமஸ்மி காமராகவிவர்ஜிதம். தர்மாவிருத்தோ பூதேஷு காமோஸ்மி பரதர்ஷப৷৷7.11৷৷
బలం బలవతామస్మి కామరాగవివర్జితమ్. ధర్మావిరుద్ధో భూతేషు కామోస్మి భరతర్షభ৷৷7.11৷৷
7.12
7
12
।।7.12।। (और तो क्या कहूँ)  जितने भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव हैं, वे सब मुझ से ही होते हैं -- ऐसा समझो। पर मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं।
।।7.12।। जो भी सात्त्विक (शुद्ध), राजसिक (क्रियाशील) और तामसिक (जड़) भाव हैं, उन सबको तुम मेरे से उत्पन्न हुए जानो; तथापि मैं उनमें नहीं हूँ, वे मुझमें हैं।।
।।7.12।। मुझमें सम्पूर्ण जगत् पिरोया हुआ है जैसे सूत्र में मणियाँ अपने इस कथन के साथ प्रारम्भ किये गये प्रकरण का उपसंहार भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक में करते हैं।हमें जगत् में ज्ञान क्रिया और जड़त्व इन तीनों का अनुभव होता है। इन्हें ही क्रमश सत्त्व रज और तमोगुण का कार्य कहा जाता है। वेदान्त में जिसे माया कहा गया है वह इन तीनों गुणों का संयुक्त रूप है जिसके अधीन प्राणियों की प्रवृत्तियाँ भिन्नभिन्न प्रकार की दिखाई देती हैं। मनुष्य की भावनाएं और विचार इन गुणों से प्रभावित होते हैं जिनके अनुसार ही मनुष्य अपने शरीर मन और बुद्धि से कार्य करता है।उपर्युक्त विवेचन को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से यह अर्थ स्पष्ट होता है कि इन तीन गुणों से उत्पन्न जो कोई भी वस्तु प्राणी या स्थिति है वह सब आत्मा से (मुझ से) उत्पन्न होती है। पूर्व वर्णित सिद्धांत को ही यहाँ शास्त्रीय भाषा में दोहराया गया है। पारमार्थिक सत्यस्वरूप चैतन्य आत्मा पर अपरा प्रकृति का अध्यास हुआ है यह कोई वास्तविकता नहीं। त्रिगुणजनित भावों की सत्य से उत्पत्ति उसी प्रकार की है जैसे मिट्टी से घट समुद्र से तरंग और स्वर्ण से आभूषण की।इस श्लोक का सुन्दर अन्तिम वाक्य एक पहेली के समान है। इस प्रकार का लेखन हिन्दू दार्शनिकों की विशेषता है जो अध्ययनकर्ता को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करती है। ऐसे कथन विद्यार्थी को और अधिक सूक्ष्म और गहन विचार करने के लिए और उसका वास्तविक अभिप्राय समझने के लिए आमन्त्रित करते हैं। मैं उनमें नहीं हूँ वे मुझमें हैं।केवल वाच्यार्थ की दृष्टि से उपर्युक्त कथन त्रुटिपूर्ण ही समझा जायेगा क्योंकि यदि क ख में नहीं है तो ख क में कैसे हो सकता है यदि मैं उनमें नहीं हूँ तो वे भी मुझमें नहीं हो सकते। परन्तु भगवान का कथन है मैं उनमें नहीं हूँ वे मुझमें हैं। इस सुन्दर एवं मधुर विरोधाभास से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरुष और प्रकृति का संबंध कारण और कार्य का नहीं बल्कि अधिष्ठान और अध्यस्त का है। पुरुष पर प्रकृति का आभास अध्यास के कारण होता है। खंभे में यदि प्रेत का आभास हो तो यही कहा जायेगा कि प्रेत खंभे में है परन्तु खंभा प्रेत में नहीं।श्री शंकराचार्य इस वाक्य का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं मैं उनमें नहीं हूँ का अर्थ है मैं उन पर आश्रित नहीं हूँ जब कि उनका अस्तित्व मुझ पर आश्रित है। जैसे जल का अस्तित्व तरंग पर आश्रित नहीं है किन्तु तरंग जल पर आश्रित होती है। तरंग के होने से जल को किसी प्रकार का दोष या बन्धन नहीं प्राप्त होता। उसी प्रकार जड़ प्रकृति का अस्तित्व चेतन पुरुष के कारण सिद्ध होता है परन्तु पुरुष सब परिच्छेदों से सदा मुक्त ही रहता है।अगले श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जगत् के लोग उनके वास्तविक नित्यमुक्त स्वरूप को नहीं जानते हैं। लोगों के इस अज्ञान का क्या कारण है सुनो
।।7.12।। व्याख्या--'ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये'--ये जो सात्त्विक, राजस और तामस भाव (गुण, पदार्थ क्रिया) हैं, वे भी मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टिमात्रमें जो कुछ हो रहा है, मूलमें सबका आश्रय, आधार और प्रकाशक भगवान् ही हैं अर्थात् सब भगवान्से ही सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं।सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवान्से ही होते हैं, इसलिये इनमें जो कुछ विलक्षणता दीखती है, वह सब भगवान्की ही है; अतः मनुष्यकी दृष्टि भगवान्की तरफ ही जानी चाहिये, सात्त्विक आदि भावोंकी तरफ नहीं। यदि उसकी दृष्टि भगवान्की तरफ जायगी तो वह मुक्त हो जायगा और यदि उसकी दृष्टि सात्त्विक आदि भावोंकी तरफ जायगी तो वह बँध जायगा।सात्त्विक, राजस और तामस--इन भावोंके (गुण, पदार्थ और क्रियामात्रके) अतिरिक्त कोई भाव है ही नहीं। ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं। यहाँ शङ्का होती है कि अगर ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं तो हमलोग जो कुछ करें, वह सब भगवत्स्वरूप ही होगा, फिर ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये--यह विधि-निषेध कहाँ रहा? इसका समाधान यह है कि मनुष्यमात्र सुख चाहता है, दुःख नहीं चाहता। अनुकूल परिस्थिति विहित-कर्मोंका फल है और प्रतिकूल परिस्थिति निषिद्ध-कर्मोंका फल है। इसलिये कहा जाता है कि विहित-कर्म करो और निषिद्ध-कर्म मत करो। अगर निषिद्धको भगवत्स्वरूप मानकर करोगे तो भगवान् दुःखों और नरकोंके रूपमें प्रकट होंगे। जो अशुभ कर्मोंकी उपासना करता है, उसके सामने भगवान् अशुभ-रूपसे ही प्रकट होते हैं; क्योंकि दुःख और नरक भी तो भगवान्के ही स्वरूप हैं।जहाँ करने और न करनेकी बात होती है, वहीं विधि और निषेध लागू होता है। अतः वहाँ विहित ही करना चाहिये, निषिद्ध नहीं करना चाहिये। परंतु जहाँ मानने और जाननेकी बात होती है, वहाँ परमात्माको ही 'मानना' चाहिये और अपनेको अथवा संसारको 'जानना' चाहिये।जहाँ माननेकी बात है, वहाँ परमात्माको ही मानकर उनके मिलनेकी उत्कण्ठा बढ़ानी चाहिये। उनको प्राप्त और प्रसन्न करनेके लिये उनकी आज्ञाका पालन करना चाहिये तथा उनकी आज्ञा और सिद्धान्तोंके विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिये। भगवान्की आज्ञाके विरुद्ध कार्य करेंगे तो उनको प्रसन्नता कैसे होगी? और विरुद्ध कार्य करनेवालेको उनकी प्राप्ति कैसे होगी? जैसे, किसी मनुष्यके मनके विरुद्ध काम करनेसे वह राजी कैसेहोगा और प्रेमसे कैसे मिलेगा? जहाँ जाननेकी बात है, वहाँ संसारको जानना चाहिये। जो उत्पत्ति-विनाशशील है, सदा साथ रहनेवाला नहीं है, वह अपना नहीं है और अपने लिये भी नहीं है--ऐसा जानकर उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहिये। उसमें कामना, ममता, आसक्ति नहीं करनी चाहिये। उसका महत्त्व हृदयसे उठा देना चाहिये। इससे सत्त-त्त्व प्रत्यक्ष हो जायगा और जानना पूर्ण हो जायगा। असत् (नाशवान्) वस्तु हमारे साथ रहनेवाली नहीं है--ऐसा समझनेपर भी अगर समय-समयपर उसको महत्त्व देते रहेंगे तो वास्तविकता (सत्-वस्तु) की प्राप्ति नहीं होगी।
।।7.12 7.13।।ये चेति। त्रिभिरिति। सत्त्वादीनि मन्मयानि न त्वहं तन्मयः। अत एव च भगवन्मयः सर्वं भगवद्भावेन संवेदयते न तु नानाविधपदार्थविज्ञाननिष्ठो भगवत्तत्त्वं प्रतिपद्यते इति सकलमानसावर्जक एष क्रमः। अनेनैव चाशयेन वक्ष्यते वासुदेवः सर्वम् इति (K adds another इति) ज्ञानेन यो बहुजन्मोपभोगजनितकर्मसमतासमनन्तरसमुत्पन्नपरशक्तिपातानुगृहीतान्तःकरण असौ प्रतिपद्यते भगवत्तत्त्वं(S omits भगवत्तत्त्वम्) ननु (K omits ननु) सर्वं वासुदेवः इति बुद्ध्या स महात्मा स च दुर्लभ इति। एवं ह्यबुद्ध्यमानं ( N हि बुद्ध्यमानम्) प्रत्युत सत्त्वादिभिर्गुणैः मोहितमिदं जगत् गुणातीतं वासुदेवतत्त्वं नैवोपलभते।
।।7.12।।किं विशिष्य अभिधीयते सात्त्विकाः राजसाः तामसाः च जगति भोग्यत्वेन देहत्वेन इन्द्रियत्वेन तत्तद्धेतुत्वेन च अवस्थिता ये भावाः तान् सर्वान् मत्त एव उत्पन्नान् विद्धि ते मच्छरीरतया मयि एव अवस्थिता इति च। न तु अहं तेषु न अहं कदाचिद् अपि तदायत्तस्थितिः अन्यत्र आत्मायत्तस्थितित्वे अपि शरीरस्य शरीरेण आत्मनः स्थितौ अपि उपकारो विद्यते मम तु तैः न कश्चित् तथाविध उपकारः केवलं लीला एव प्रयोजनम् इत्यर्थः।
।।7.12।।चिदानन्दयोरभिव्यञ्जकानां भावानामीश्वरात्मत्वाभिधानादन्येषामतदात्मत्वप्राप्तावुक्तं कि़ञ्चेति। प्राणिनां त्रैविध्ये हेतुं दर्शयन्वाक्यार्थमाह ये केचिदिति। तर्हि पितुरिव पुत्राधीनत्वं त्वत्तो जायमानात्तदधीनत्वं तवापि स्यादिति विक्रियावत्त्वदूष्यत्वप्रसक्तिरित्याशङ्क्याह यद्यपीति। मम परमार्थत्वात्तेषां कल्पितत्वान्न तद्गुणदोषौ मयि स्यातामित्यर्थः। तेषामपि तद्वदेव स्वतन्त्रतासंभवात्किमिति कल्पितत्वमित्याशङ्क्याह ते पुनरिति। त्रिविधानां भावानां न स्वातन्त्र्यमीश्वरकार्यत्वेन तदधीनत्वात्तथा न कल्पितस्याधिष्ठानसत्ताप्रतीतिभ्यामेव तद्वत्त्वात्तन्मात्रत्वसिद्धिरित्यर्थः।
।।7.12।।मत्तः परतरं नान्यदिति प्रागुक्तं स्पष्टयति भगवानेकेन ये चैविति। प्राकृता अप्येते मत्त एव मत्सत्प्रकृतिगुणकार्यत्वात् मम च प्रकृत्यादिकारणत्वेन मुख्यकर्तृत्वं उपादानगोचरापरोक्षाज्ञानचिकीर्षाकृतिमत्वात्। एवमपि तेष्वहं न वर्ते जीववत्तदायत्तो न भवामीत्यर्थः। नशब्दोऽत्रापि सम्बध्यते। तेऽपि मयि न किन्तु मदुपादेयप्रकृतावेव ते वर्तन्ते। अहं तु मूलरूपेण तत्कर्त्तैवेत्यर्थः। अथवा ते मयि इति परम्परया तेषां मदाश्रितत्वात्।
।।7.12।।किमेवं परिगणनेन ये चान्येऽपि भावाश्चित्तपरिणामाः सात्त्विकाः शमदमादयः ये च राजसा हर्षदर्पादयः ये च तामसाः शोकमोहादयः प्राणिनामविद्याकर्मादिवशाज्जायन्ते तान्मत्त एव जायमानानितिअहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभव इत्याद्युक्तप्रकारेण विद्धि समस्तानेव। अथवा सात्त्विका राजसास्तामसाश्च भावाः सर्वेऽपि जडवर्गा व्याख्येयाः विशेषहेत्वभावात्। एवकारश्च समस्तावधारणार्थः। एवमपि न त्वहं तेषु मत्तो जातत्वेऽपि तद्वशस्तद्विकाररूषितो रज्जुखण्ड इव कल्पितसर्पविकाररूषितोऽहं न भवामि संसारीव। ते तु भावा मयि रज्ज्वामिव सर्पादयः कल्पिता मदधीनसत्तास्फूर्तिका मदधीना इत्यर्थः।
।।7.12।। किंच ये चेति। ये चान्येऽपि सात्त्विका भावाः शमदमादयः राजसाश्च द्वेषदर्पादयः तामसाश्च शोकमोहादयः प्राणिनां स्वकर्मवशाज्जायन्ते तान्सर्वान्मत्त एव जातानिति विद्धि। मदीयप्रकृतिगुणत्रयकार्यत्वात्। एवमपि तेष्वहं न वर्ते। जीववत्तदधीनोऽहं न भवामीत्यर्थः। ते तु मदधीनाः सन्तो मयि वर्तन्त इत्यर्थ।
।।7.12।।रसोऽहम् 7।8 इत्यादेः प्रदर्शनार्थत्वंये च इत्यस्योपसंहारतां च दर्शयति किं विशिष्येति।तत्तद्धेतुत्वेनेति समष्टिदशाया अपि सङ्ग्रहः। अयं च देहत्वादिविभागोऽनुभूयमानप्रकारानुवादियच्छब्दाभिप्रेतः। सात्त्विकतादिकं देहादिषु प्रत्येकमन्वितम्। अपि चप्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता इत्यादयः सात्त्विका भावाः।अतुविष्टिः परितापश्च क्रोधो मोहस्तथा क्षमा इत्यादयो राजसाः।अविक्तस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता इत्यादयस्तामसाः। एते चान्यत्र प्रपञ्चिता इहाभिप्रेताः।मत्त एव इत्यवधारणेन निमित्तोपादानैक्यं सात्त्विकत्वादिना वैचित्र्यशक्तितत्तदुचितानेकनिमित्तत्वादिप्रतिक्षेपश्च कृतः। कारणत्वेन सह सामानाधिकरण्यनिबन्धननियमनगर्भं शरीरत्वेन तादधीन्यमपि सप्तम्या विवक्षितमिति दर्शयितुंमच्छरीरतया मय्येवावस्थिता इत्युक्तम्।नत्वहं तेषु इत्यत्र व्याप्तिप्रतिक्षेपभ्रमनिरासायाहनाहमिति। किमर्थमिदमप्रसक्तं प्रतिषिध्यत इत्याशङ्क्याहअन्यत्रेति। तुशब्दोऽत्र शङ्कानिवृत्त्यर्थः। सर्वोपकारनिषेधे तदुत्पादनादिवैयर्थ्यपरिहारायतथाविध इत्युक्तम्। अभिप्रेतमुपकारान्तरमहंशब्दाभिप्रेतपरिपूर्णत्वमुखेन दर्शयतिकेवलेति।
।।7.12।।किञ्च ये चैवेति। ये च पुनः सात्त्विका एव भावा मत्सम्बन्धिदर्शनेन रोमाञ्चादयः राजसात्मकविक्षेपादयः न पुनस्तामसा विप्रयोगस्वरूपस्मरणे मूर्छाभ्रमादयस्ते सर्व एव। इति अमुना प्रकारेण तान् मत्त एव विद्धि जानीहि। तेषु तत्सामर्थ्येन अहं तत्प्रकारेण न प्रकटो भवामि किन्तु ते मयि प्रकटीभवन्तीत्यर्थः। अत्रायं भावः एते गुणा रसार्थं मया प्रकटिताः स्वरसात्मकगुणसाफल्याय मत्सम्बन्धेन स्वयमुद्बुद्धरसाः सन्तः सेवां कुर्वन्तीति ते मयि सन्ति नत्वहं जीववत्तेषूत्पन्नेषु रसयुक्तो भवामीति भावः।
।।7.12।।सात्विकाः धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यादयः राजसाः लोभप्रवृत्त्यादयः तामसाः निद्रालस्यादयः तान्सर्वान्मत्त एव रसतन्मात्रादिरूपात्सूत्रात्मनो निर्गता इति विद्धि। नन्वेवं तव सर्वजगदात्मनो विकारित्वापत्त्या कौटस्थ्यहानिरित्याशङ्क्याह नत्वहं तेषु ते मयीति। येष्वबादयः प्रोतास्तेषु सूत्रावयवभूतेषु रसादिष्वनृतजडरूपेष्वबाधितात्मचिन्मात्ररूपो घटशरावोदञ्चनादाविव मृत् नास्मि। अनृतस्यास्य सत्तास्फुरणे एव स्वकीये प्रयच्छामि नत्वनृतात्मा भवामीत्यर्थः। ते तु मय्येवाध्यस्ता मदनन्याः यथा रज्ज्वामध्यस्ताः सर्पादयो रज्ज्वनन्याः।तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः इतिन्यायात्। अनन्यत्वं व्यतिरेकेणाभावः। नखल्वनन्यत्वमित्यभेदं ब्रूमः किंतु भेदं निषेधामः। कुतः आरम्भणशब्दात्वाचारम्भणं विकारो नामधेयम् इतिविकारस्य वागालम्बनत्वेन स्वप्नमायेन्द्रजालिकविषयसाम्यश्रुतेः। नह्यात्मनो विचित्रप्रपञ्चात्मत्वे ते मयीत्यंशाविरोधेऽपि नत्वहं तेष्वित्यंशे विरोधपरिहारो युज्यते। कार्यस्य कारणात्मकत्वावश्यंभावात्। तस्माद्विवर्तवादाश्रयेणैव ब्रह्मणो जगदुपादानत्वकूटस्थत्वे निर्वहत इति साधूक्तं नत्वहं तेषु ते मयीति।
।।7.12।।किंच थे सात्त्विकाः सत्त्वोद्भूताः भावाः पदार्थाः राजसाः रजउद्भूताःस तामसास्तमउद्भूताश्च ये किचित्प्राणिनां स्वकर्मवशाज्जयन्ते तान्सर्वान्मत्तएव जातानिति विद्धि जानीहि। तर्हि संसारिणा मिव तवापि तदधीनत्वं स्यात्तथाच् त्वय्यपि विक्रियावत्त्वाद्दूष्यत्वप्रसक्तिरित्याशङ्क्याह नत्वहं तेषु। यद्यपि मत्तस्ते जायन्ते तथाप्यहं संसारिण इव तदधीनो न भवामि। ननु तेऽपि किं स्वतन्त्राः नेत्याह ते मयि मद्वशाः। मयि कल्पितत्वान्वान्मदधीनसत्तास्फूर्तिका इत्यर्थः। तथाचाधिष्ठानस्य मम कल्पितगुणदोषासंस्पर्शित्वं कल्पितस्य च मदधीनसत्तास्फूर्तिकत्वमिति भावः।
7.12 ये whatever? च and? एव even? सात्त्विकाः pure? भावाः natures? राजसाः active? तामसाः inert? च and? ये whatever? मत्तः from Me? एव even? इति thus? तान् them? विद्धि know? न not? तु indeed? अहम् I? तेषु in them? ते they? मयि in Me.Commentary This is a world of the three Gunas? viz.? Sattva (purity)? Rajas (passion) and Tamas (inertia). All sentient and insentient objects are the aggregate of these three alities of Nature. One ality predominates in them and the predominant ality imparts to the object its distinctive character or definite properties.In the gods? sages milk and green gram? Sattva is predominant. In Gandharvas (a class of celestials)? kings? warriors and chillies? Rajas is predominant. In demons? Sudras? garlic? onion and meat? Tamas is predominant.Though these beings and objects proceed from Me? I am not in them they are in Me. I am independent. I am the support for them they depend on Me just as the superimposed snake depends on the rope. The snake is in the rope? but the rope is never in the snake. The waves belong to the ocean but the ocean does not belong to the waves. (Cf.IX.4and6)
7.12 Whatever beings (and objects) that are pure, active and inert, know that they proceed from Me. They are in Me, yet I am not in them.
7.12 Whatever be the nature of their life, whether it be pure or passionate or ignorant, they are all derived from Me. They are in Me, but I am not in them.
7.12 Those things that indeed are made of (the ality of ) sattva, and those things that are made of (the ality of) rajas and tamas, know them to have sprung from Me alone. However, I am not in them; they are in Me!
7.12 Ye bhavah, those things; sattvikah eva, that indeed are made of (the ality of) sattva; and ye rajasah, those that are made (of the ality) of rajas; and tamasah, those that are made of (the ality of) tamas-whatever things are made (of sattva, rajas and tamas) according to the creatures's own actions: viddhi, know; tan, them, all without exception; mattah eva iti, to have sprung from Me alone when they come into being. Although they originate from Me, still, tu, however; aham, I; am na tesu, not in them-I am not subject to them, not under their control, as are the transmigrating bengs. Te, they, again; mayi, are in Me, subject to Me, under My control. [For sattva, rajas, and tamas see note under 2.45 as also Chapters 14, 17 and 18.-Tr.] 'The world does not know Me, the supreme Lord, even though I am of this kind, and am eternal, pure, intelligent and free by nature, [See note on p.4.-Tr.] the Self of all beings, free from all alities, the cause of burning away the seed of the evil of transmigration!'-in this way the Lord expresses regret. And what is the source of that ignorance in the world? That is being stated:
7.12. Whatever beings are there [in the universe]-whether they are of the Sattva or of Rajas or of Tamas (Strands)- be sure that they are from Me; I am not in them, but they are in Me.
7.12 See Comment under 7.13
7.12 Why should this be declared with particular illustrations? The reason is as follows: Whatever entities exist in the world partaking of the alities of Sattva, Rajas and Tamas in the forms of bodies, senses, objects of enjoyment and their causes - know them all to have originated from Me alone, and they abide in Me alone, as they constitute My body. 'But I am not in them.' That is, I do not depend for My existence on them at any time. In the case of other beings, though the body depends for its existence on the self, the body serves some purpose of the self in the matter of Its sustenance. To Me, however, there is no purpose at all of that kind served by them constituting My body. The meaning is that they merely serve the purpose of My sport.
7.12 Know that all those states of Sattva, Rajas and Tamas are from Me alone. But I am not in them; they are in Me.
।।7.12।।तथा जो सात्त्विक सत्त्वगुणसे उत्पन्न हुए भाव पदार्थ हैं और जो राजस रजोगुणसे उत्पन्न हुए एवं तामस तमोगुणसे उत्पन्न हुए भाव पदार्थ हैं उन सबको अर्थात् प्राणियोंके अपने कर्मानुसार ये जो कुछ भी भाव उत्पन्न होते हैं उन सबको तू मुझसे ही उत्पन्न हुए जान। यद्यपि वे मुझसे उत्पन्न होते हैं तथापि मैं उनमें नहीं हूँ अर्थात् संसारी मनुष्योंकी भाँति मैं उनके वशमें नहीं हूँ परंतु वे मुझमें हैं यानी मेरे वशमें हैं मेरे अधीन हैं।
।।7.12।। ये चैव सात्त्विकाः सत्त्वनिर्वृत्ताः भावाः पदार्थाः राजसाः रजोनिर्वृत्ताः तामसाः तमोनिर्वृत्ताश्च ये केचित् प्राणिनां स्वकर्मवशात् जायन्ते भावाः तान् मत्त एव जायमानान् इति एवं विद्धि सर्वान् समस्तानेव। यद्यपि ते मत्तः जायन्ते तथापि न तु अहं तेषु तदधीनः तद्वशः यथा संसारिणः। ते पुनः मयि मद्वशाः मदधीनाः।।एवंभूतमपि परमेश्वरं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वभूतात्मानं निर्गुणं संसारदोषबीजप्रदाहकारणं मां नाभिजानाति जगत् इति अनुक्रोशं दर्शयति भगवान्। त़च्च किंनिमित्तं जगतः अज्ञानमित्युच्यते
।।7.8 7.12।।भूमिः 7।4 इत्यादिनेत्यत्रावधेरनुक्तेःरसोऽहं इत्याद्यपि ज्ञानप्रकरणमिति प्रतीतिः स्यात् तन्निरासाय तत्समाप्तिमाह इदमिति। एतावता ग्रन्थेन ज्ञानं निरूपितमित्यर्थ। कुतोऽत्र ज्ञानप्रकरणस्य समाप्तिः इत्यत आह रसोऽहमिति। इतिशब्दाद्यभावेऽपि प्रकरणान्तरारम्भ एव समाप्तिं गमयिष्यति। अलौकिकमाहात्म्यप्रतिपादनादस्य विज्ञानप्रकरणत्वं ज्ञायत इति भावः।प्रभवादेः इत्युक्तन्यायेनैवरसोऽहं इत्यादेरपि व्याख्यानं सिद्धम्। रसादीनां सत्तादिकारणत्वाद्भोक्तृत्वाच्च भगवान् रसादिरिति। नन्वबादयो धर्मिणो भगवदधीनास्तद्भोग्याश्चेत्यङ्गीक्रियते न वा। नेति पक्षेअहं कृत्स्नस्य 7।6 इत्युक्तविरोधः। आद्ये तुअप्सु रसः इत्यादेर्धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणां ग्रहणस्यानुपपत्तिरित्यतः प्रथमं पक्षं तावदङ्गीकरोति अबादयोऽपीति। धर्मिणोऽपि तदधीना एव तद्भोग्याश्चैव। ननु तत्रोक्तो दोष इत्यतः कारणत्वे तावद्विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह तथापीति। यद्यपि धर्मिणोऽपि भगवदधीना एव तथापि धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानं युज्यत इति शेषः। कथं इत्यत आह रसादीति। रसादयश्च ते स्वभावा अबादीनामनागन्तुकधर्माश्चेति रसादिस्वभावास्तेषां साराणामबादिधर्मेषु सङ्ख्यादिषु श्रेष्ठानां च तेषामेवाबादिस्वभावभूतानां तद्धर्मेषु श्रेष्ठानां च रसादीनामिति यावत्। स्वभावत्वेऽबादीनामिति शेषः। सारत्वेऽबादिधर्मेष्विति शेषः। रसादित्वे चेति चार्थः। स भगवानेव। विशेषतोऽपीत्यस्य व्यावर्त्यं न त्विति। अनुबद्धोऽनुषङ्गसिद्धः। तत्सारत्वादिश्चेति। तस्य रसादेरबादिधर्मेषु सारत्वमबादिस्वभावत्वं रसत्वादिकंचेत्यर्थः। यथा लोके कुविन्दादिः पटादिद्रव्येष्वेव व्यापारवाननुभूयते न तु तदीयेषु गन्धरसादिषु गुणेषु तद्धर्मेषु च गन्धत्वादिषु पृथग्व्यापारवान् किन्तु ते पटादिजन्मानुषङ्गिजन्मान एव। न तथा भगवान्। अपित्वबादेधर्मेषु रसादिषु तद्धर्मेषु च स्वभावत्वादिषु पृथक् प्रयत्नवान् नत्वबादिनियमानुषङ्गिसत्तादिकास्त इति दर्शयितुंविशेषशब्दा उपात्ता इत्यर्थः। भोगपक्षेऽपि प्रयोजनमाह भोगश्चेति। अबादिभोगादप्यतिशयेन रसादेर्भोगः परमेश्वरस्येति दर्शयति विशेषशब्दैरिति सम्बन्धः।रसोऽहं इत्याद्यभेदोक्तेरर्थान्तरं सूचयन् तत्रापि विशेषशब्दोपादाने प्रयोजनमाह उपासनार्थं चेति। विशेषतः रसादेरिति वर्तते। अर्थवशाद्रसादेरिति सप्तमीत्वेन विपरिणम्यते। रसादयः परमेश्वरोपासने प्रतिमात्वेनात्र विवक्षिताः। प्रतिमायां चाभेदोक्तिः प्रसिद्धा। प्रतिमात्ममबादीनां समानम्। योऽप्सु तिष्ठन् बृ.उ.7।3।4 इत्यादेः। अतः किं विशेषशब्दग्रहणेनेति चेत् अबादिभ्यो विशेषतः रसादिषु भगवदुपासनार्थं तदुपपत्तिरिति।उक्तेऽर्थत्रये प्रमाणमाह उक्तं चेति। तथा चशब्दः अन्योन्यसमुच्चये। एवशब्दस्येश्वर इत्यनेन सम्बन्धः। सर्वत्राबादिषु। ईश्वरो रसादिकं जगदित्युच्यत इत्यर्थः। अबादयोऽबाद्यभिमानिनः। ज्ञानिनां ज्ञानार्थिनां सम्पत्त्यै प्राप्त्यै अन्येषां रसार्थिनाम्। अबादय इति रसादीति च पादयोः सप्तनवाक्षरत्वेऽपि न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति ऐ.ब्रा.1।6 इति वचनाददोषः। स्वभावस्य भगवदधीनत्वमलौकिकमित्यतस्तत्रान्यान्यपि वाक्यानि पठति स्वभाव इति। अस्त्वेवं धर्मिभ्यो निष्कृष्य धर्माणामुपादानम् धर्माणां विशेषणोपादानं तु किमर्थमित्यत आह धर्मेति। आदिपदेनपुण्यो गन्धः इत्यस्य ग्रहणम्। कामादिषु विशिष्टंष्वेव भगवानुपास्यः न धर्मविरुद्धेष्वशुचिष्विति ज्ञापनाय कामादीनां धर्माणां धर्माविरुद्धत्वादिविशेषणोपादानमित्यर्थः। अत्र प्रमाणमाह उक्तं वेति। कामं पुरुषार्थम्। कामरागादेः कामरागादिना। अनिञ्छद्भिः कामादिकम्। गन्धस्य विशेषणोपादाने प्रयोजनान्तरमाह पुण्य इति। पुण्यगन्धस्यैव भगवतो भोगो न दुर्गन्धस्येति ज्ञापयितुमत्र विशेषणोपादानमित्यर्थः। ननु दुर्गन्धं भगवाननुभवति न वा नेति पक्षे सार्वज्ञाभावः आद्ये कथं भोगाभावः उच्यते अनुभूयमाना अपि दुर्गन्धादयो न फलहेतव इत्यभिप्रायः। सुगन्धस्तु सुखहेतुरित्युपपादितम्।शुचिवस्त्वेव भगवतो भोग्यमित्यत्र प्रमाणमाह तथा हीति। अमुमुपासकम्। कुतः तस्य देवत्वात्। तथापि कुतः न ह वै देवमात्रस्य पुण्यभोगनियमे देवोत्तमस्य सुतरां तत्सिद्धि।ऋतं कठो.3।1 इति श्रुतिः कथं प्रकृतोपयोगिनी इत्यत आह ऋतं चेति। कुतः इत्यतः सामान्यविशेषाभिधानादित्याह ऋतमिति। प्रयोगगः शब्दजन्यः। तथा च श्रुतावृतशब्दः पुण्यफलस्योपलक्षक इति भावः। स्यादिदं व्याख्यानं यदि भगवतो विषयभोगो युक्तः स्यात् न चैवम् तदङ्गीकारे श्रुत्यादिविरोधात्। ऋतं पिबन्तौ इति चात एव छत्रिन्यायेनोपचरितमित्यत आह न चेति। कुतो नेत्यत आह स्थूलेति। श्रुत्यादिषु स्थूलस्य जीवभोग्यस्य विषयस्याभोगोक्तेः सूक्ष्मभोगस्य चाङ्गीकारादिति भावः। सूक्ष्माशने प्रमिते भवेदियं व्यवस्था। तदेव कुतः इत्यत आह आह चेति। गन्धादिषु यो जीवेन्द्रियागोचरः सारभागस्तस्य भोगम्। परमेश्वरोऽस्माच्छारीरादात्मनो जीवादतिशयेन विलक्षणभोग एव भवति। अवतारेषु स्थूलमपि भुङक्ते इतीवशब्दः।ननु प्रविविक्ताहारतरोऽयं जीव एवेत्यत आह न चेति। न हि जीवो जीवादेव विलक्षणाहार इति युज्यत इत्यर्थः। ननु शारीराज्जागरावस्थाज्जीवात्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थः स एव प्रविविक्ताहार इत्यवस्थाभेदोपाधिकं जीवस्य भेदमङ्गीकृत्य व्याख्यास्यामीत्यत आह स्वप्नादिश्चेति।स्वपो नन् अष्टा.3।3।91 इति स्वप्नशब्दः कर्तरि। स्वप्नः सुषुप्तश्च शारीर एव न केवलं जाग्रत् तथाच त्र्यवस्थस्यापि शारीरशब्देन गृहीतत्वात् न ततो भेदः स्वप्नसुषुप्तयोरित्यर्थः। अवस्थात्रयवतोऽपि शारीरत्वं कुतः इत्यत आह शारीर स्त्विति। जाग्रदादिष्वंवस्थासु। अस्तु त्र्यवस्थोऽपि शारीरः तथाप्यस्मादिति विशेषणेनात्र शारीरादिति जाग्रदवस्थो गृह्यते। तस्माच्च स्वप्नाद्यवस्थस्य भेदोक्तिरुक्तविधया सम्भवति। भवत्पक्षेऽपि शारीरादिति जीवे सिद्धेऽस्मादिति विशेषणं व्यर्थं स्यादिति तत्राह अस्मादिति। नैतद्विशेषणसार्थक्यायेश्वरं परित्यज्य जीवोऽत्र ग्राह्यः शारीरादित्येवोक्तावीश्वरस्यापि प्राप्तावीश्वरादेवेश्वरस्य भेदानुपपत्तेः। तद्व्यावृत्त्यर्थं जीवमात्रपरिग्रहाय विशेषणमिति सार्थक्योपपत्तेरित्यर्थः। भवेदेवं यदि शारीरत्वमीश्वरस्यापि स्यात् तदेव कुतः इत्यत आह शारीराविति। नन्वेवं पक्षद्वयेऽप्युपपत्तावीश्वर एवात्रोच्यते न जीवः इति कुतः विनिगमनमित्यत आह भेदेति। चो हेतौ। भेदश्रुतेः स्वाभाविकभेदरूपे गत्यन्तरे सम्भवति पुरुषभेद एवार्थतया ग्राह्यः न त्ववस्थोपाधिको भेदः।मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययात् अतो युक्तं विनिगमनम्। न केवलमुक्तव्यवस्थान्यायप्राप्ता किन्त्वागमसिद्धा चेत्याह आह चेति। अभोक्ता च भोक्ता चेत्येतयोर्व्युत्क्रमेणान्धयः।सर्वभूतस्थमात्मानं 6।29 इत्युक्तत्वात्।न त्वहं तेषु 7।12 इति कथमुच्यते इत्यत आह न त्वहमिति। तदनाधारत्वं तदुपजीवनेन स्थित्यभावः। कुत एतत् इत्यत आह उक्तं चेति। न केवलं मुक्तविरोधादिति चार्थः।
।।7.8 7.12।।इदं ज्ञानम्। रसोऽहमित्यादिविज्ञानम्। अबादयोऽपि तत एव। तथापि रसादिस्वभावाना सागणां च स्वभावत्वे सारत्वे च विशेषतोऽपि स एव नियमाकः न त्वबादिनियमानुबद्धो रसादिस्तत्सारत्वादिश्चेति दर्शयति अप्सु रस इत्यादिविशेषशब्दैः। भोगश्च विशेषतो रसादेरिति च उपासनार्थं च।उक्तं च गीताकल्पेरसादीनां रसादित्वे स्वभावत्वे तथैव च। सारत्वे सर्वधर्मेषु विशेषेणापि कारणम्। सारभोक्ता च सर्वत्र यतोऽतो जगदीश्वरः। रसादिमानिनां देहे स सर्वत्र व्यवस्थितः। अबादयः पार्षदाश्च ध्येयः स ज्ञानिनां हरिः। रसादिसम्पत्त्या अन्येषां वासुदेवो जगत्पतिः इति।स्वभावो जीव एव च।सर्वस्वभावो नियतस्तेनैव किमुतापरम्।न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् इति च।धर्माविरुद्धःकामरागबिवर्जितम्इत्याद्युपासनार्थम्। उक्तं च गीताकल्पेधर्मारुविद्धकामेऽसावुपास्यः काममिच्छता। विहीने कामरागादेर्बले च बलमिच्छता। ध्यातस्तत्र त्वनिच्छद्भिर्ज्ञानमेव ददाति च इत्यादि पुण्यो गन्ध इति भोगापेक्षया। तथा हि श्रुतिः पुण्यमेवामुं गच्छति न ह वै देवान् पापं गच्छति बृ.उ.1।5।20 ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके कठो.3।1 इत्यादिका। ऋतं च पुण्यम्।ऋतं सत्यं तथा धर्मः सुकृतं चाभिधीयते इत्यभिधानात्।ऋतं तु मानसो धर्मः सत्यं स्यात्सम्प्रयोगगः इति च। नच अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति श्वे.उ.4।6 मुं.3।1।1ऋक्2।3।17।5अन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान् इत्यादिविरोधि स्थूलानशनोक्तेः। आह च सूक्ष्माशनम्। प्रविविक्ताहारतर इवैव भवत्यस्माच्छारीरारादात्मनः।न चात्र जीव उच्यते शारीरादात्मन इति भेदाभिधानात्। स्वप्नादिश्च शारीर एवशारीरस्तु त्रिधा भिन्नो जाग्रदादिष्ववस्थितेः इति वचनाद्गारुडे। अस्मादिति त्वीश्वरव्यावृत्त्यर्थम्।शारीरौ तावुभौ ज्ञेयौ जीवश्चेश्वरसंज्ञितः। अनादिबन्धनस्त्वेको नित्यमुक्तस्तथाऽपरः इति वचनान्नारदीये भेदश्रुतेश्च। सति गत्यन्तरे पुरुषभेद एव कल्प्यो नत्ववस्थाभेदः। आह च प्रविविक्तभुग्यतो ह्यस्माच्छारीरात्पुरुषोत्तमः। अतोऽभोक्ता च भोक्ता च स्थूलाभोगात्स एव तु इति गीताकल्पे। न त्वहं तेष्विति तदनाधारत्वमुच्यते। उक्तं च तदाश्रितं जगत्सर्वं नासौ कुत्रचिदाश्रितः इति गीताकल्पे।
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये। मत्त एवेति तान्विद्धि नत्वहं तेषु ते मयि।।7.12।।
যে চৈব সাত্ত্বিকা ভাবা রাজসাস্তামসাশ্চ যে৷ মত্ত এবেতি তান্বিদ্ধি নত্বহং তেষু তে মযি৷৷7.12৷৷
যে চৈব সাত্ত্বিকা ভাবা রাজসাস্তামসাশ্চ যে৷ মত্ত এবেতি তান্বিদ্ধি নত্বহং তেষু তে মযি৷৷7.12৷৷
યે ચૈવ સાત્ત્વિકા ભાવા રાજસાસ્તામસાશ્ચ યે। મત્ત એવેતિ તાન્વિદ્ધિ નત્વહં તેષુ તે મયિ।।7.12।।
ਯੇ ਚੈਵ ਸਾਤ੍ਤ੍ਵਿਕਾ ਭਾਵਾ ਰਾਜਸਾਸ੍ਤਾਮਸਾਸ਼੍ਚ ਯੇ। ਮਤ੍ਤ ਏਵੇਤਿ ਤਾਨ੍ਵਿਦ੍ਧਿ ਨਤ੍ਵਹਂ ਤੇਸ਼ੁ ਤੇ ਮਯਿ।।7.12।।
ಯೇ ಚೈವ ಸಾತ್ತ್ವಿಕಾ ಭಾವಾ ರಾಜಸಾಸ್ತಾಮಸಾಶ್ಚ ಯೇ. ಮತ್ತ ಏವೇತಿ ತಾನ್ವಿದ್ಧಿ ನತ್ವಹಂ ತೇಷು ತೇ ಮಯಿ৷৷7.12৷৷
യേ ചൈവ സാത്ത്വികാ ഭാവാ രാജസാസ്താമസാശ്ച യേ. മത്ത ഏവേതി താന്വിദ്ധി നത്വഹം തേഷു തേ മയി৷৷7.12৷৷
ଯେ ଚୈବ ସାତ୍ତ୍ବିକା ଭାବା ରାଜସାସ୍ତାମସାଶ୍ଚ ଯେ| ମତ୍ତ ଏବେତି ତାନ୍ବିଦ୍ଧି ନତ୍ବହଂ ତେଷୁ ତେ ମଯି||7.12||
yē caiva sāttvikā bhāvā rājasāstāmasāśca yē. matta ēvēti tānviddhi natvahaṅ tēṣu tē mayi৷৷7.12৷৷
யே சைவ ஸாத்த்விகா பாவா ராஜஸாஸ்தாமஸாஷ்ச யே. மத்த ஏவேதி தாந்வித்தி நத்வஹஂ தேஷு தே மயி৷৷7.12৷৷
యే చైవ సాత్త్వికా భావా రాజసాస్తామసాశ్చ యే. మత్త ఏవేతి తాన్విద్ధి నత్వహం తేషు తే మయి৷৷7.12৷৷
7.13
7
13
।।7.13।। किन्तु - इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सब जगत् इन गुणोंसे अतीत अविनाशी मुझे नहीं जानता।
।।7.13।। त्रिगुणों से उत्पन्न इन भावों (विकारों) से सम्पूर्ण जगत् (लोग) मोहित हुआ इन (गुणों) से परे अव्यय स्वरूप मुझे नहीं जानता है।।
।।7.13।। प्रश्न यह है कि यदि त्रिगुणों से परे कोई परम अव्यय तत्त्व है तो सामान्य मनुष्य उसे क्यों नहीं जान पाता है पूर्ण साक्षात्कार न भी सहज हो तब भी कम से कम उसके अस्तित्व के विषय में तो उसे शंका नहीं होनी चाहिए इसका उत्तर इस श्लोक में दिया गया है।त्रिगुणों से उत्पन्न राग द्वेषादि विकारों के कारण मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को भूलकर उपाधियों के साथ तादात्म्य स्थापित करके केवल विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। स्वाभाविक है कि इस आसक्ति के कारण स्वस्वरूप की ओर इनका ध्यान तक नहीं जाता। एक बार स्तम्भ में प्रेत का आभास होने पर वह स्तम्भ उससे आच्छादित हो जाता है। यह एक तथ्य है कि जब तक यह आभास बना रहता है तब तक स्तम्भ का एक इञ्च भाग भी मोहित व्यक्ति को नहीं दिखाई देता इसी प्रकार माया से उत्पन्न उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण आत्मा को मानो जीवभाव प्राप्त हो जाता है। यह जीव बाह्य जगत् में व्यस्त और आसक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने में स्वयं को असमर्थ पाता है। स्वयं में स्वयं के साथ स्वयं का चल रहा लुकाछिपी का यह खेल विचित्र एवं रहस्यमय है जिसके कारण यह अपने लिए और जगत् के लिए अनन्त दुख और विक्षेप उत्पन्न करता रहता है।अगले श्लोक में इस आवरण शक्ति की परिभाषा का वर्णन किया गया है
।।7.13।। व्याख्या--'त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः ৷৷. परमव्ययम्'--सत्त्व रज और तम--तीनों गुणोंकी वृत्तियाँ उत्पन्न और लीन होती रहती हैं। उनके साथ तादात्म्य करके मनुष्य अपनेको सात्त्विक, राजस और तामस मान लेता है अर्थात् उनका अपनेमें आरोप कर लेता है कि 'मैं सात्त्विक, राजस और तामस हो गया हूँ।' इस प्रकार तीनों गुणोंसे मोहित मनुष्य ऐसा मान ही नहीं सकता कि मैं परमात्माका अंश हूँ। वह अपने अंशी परमात्माकी तरफ न देखकर उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वृत्तियोंके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है--यही उसका मोहित होना है। इस प्रकार मोहित होनेके कारण वह 'मेरा परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्ध है'--इसको समझ ही नहीं सकता।
।।7.12 7.13।।ये चेति। त्रिभिरिति। सत्त्वादीनि मन्मयानि न त्वहं तन्मयः। अत एव च भगवन्मयः सर्वं भगवद्भावेन संवेदयते न तु नानाविधपदार्थविज्ञाननिष्ठो भगवत्तत्त्वं प्रतिपद्यते इति सकलमानसावर्जक एष क्रमः। अनेनैव चाशयेन वक्ष्यते वासुदेवः सर्वम् इति (K adds another इति) ज्ञानेन यो बहुजन्मोपभोगजनितकर्मसमतासमनन्तरसमुत्पन्नपरशक्तिपातानुगृहीतान्तःकरण असौ प्रतिपद्यते भगवत्तत्त्वं(S omits भगवत्तत्त्वम्) ननु (K omits ननु) सर्वं वासुदेवः इति बुद्ध्या स महात्मा स च दुर्लभ इति। एवं ह्यबुद्ध्यमानं ( N हि बुद्ध्यमानम्) प्रत्युत सत्त्वादिभिर्गुणैः मोहितमिदं जगत् गुणातीतं वासुदेवतत्त्वंनैवोपलभते।
।।7.13।।तदेवं चेतनाचेतनात्मकं कृत्स्नं जगत् मदीयं काले काले मत्त एव उत्पद्यते मयि च प्रलीयते मयि एव अवस्थितं मच्छरीरभूतं मदात्मकं च इति अहम् एव कार्यावस्थायां कारणावस्थायां च सर्वशरीरतया सर्वप्रकारः अवस्थितः। अतः कारणत्वेन शेषित्वेन च ज्ञानाद्यसंख्येयकल्याणगुणगणैः च अहम् एव सर्वैः प्रकारैः परतरः। मत्तः अन्यत् केन अपि कल्याणगुणगणेन परतरं न विद्यते। एवंभूतं मां त्रिभ्यः सात्त्विकराजसतामसगुणमयेभ्यः भावेभ्यः परं मदसाधारणैः कल्याणगुणगणैः तत्तद्भोग्यताप्रकारैः च परम् उत्कृष्टतमम् अव्ययं सदा एकरूपम् अपि तैः एव त्रिभिः गुणमयैः निहीनतरैः क्षणविध्वंसिभिः पूर्वकर्मानुगुणदेहेन्द्रियभोग्यत्वेन अवस्थितैः पदार्थैः मोहितं देवतिर्यङ्मनुष्यस्थावरात्मना अवस्थितम् इदं जगत् न अभिजानाति।कथं स्वत एव अनवधिकातिशयानन्दे नित्ये सदा एकरूपे लौकिकवस्तुभोग्यताप्रकारैः च उत्कृष्टतमे त्वयि स्थिते अपि अत्यन्तनिहीनेषु गुणमयेषु अस्थिरेषु भावेषु सर्वस्य भोक्तृवर्गस्य भोग्यत्वबुद्धिः उपजायते इत्यत्र आह
।।7.13।।सतीश्वरस्य स्वातन्त्र्ये नित्यशुद्धत्वादौ च कुतो जगतस्तदात्मकस्य संसारित्वमित्याशङ्क्य तदज्ञानादित्याह एवंभूतमपीति। यद्यप्रपञ्चोऽविक्रियश्च त्वं कस्मात्त्वामात्मभूतं स्वयंप्रकाशं सर्वो जनस्तथा न जानातीति मत्वा शङ्कते तच्चेति। श्लोकेनोत्तरमाह उच्यत इति। एभ्यः परमित्यप्रपञ्चकत्वमुच्यते। अव्ययमिति सर्वविक्रियाराहित्यम्।
।।7.13 7.14।।परमेतदसंस्पष्टं मां वेदान्तवेद्यं न जगद्वेदेह गुणतन्त्रत्वादित्याह त्रिभिरिति। भावैस्त्रिभिः पदार्थैः। त्रित्व गुणमयत्वाभिप्रायेण। मोहितं जगदिदमावृतं एभ्यस्त्रिगुणात्मकेभ्यो भावेभ्यो मूलभूतगुणेभ्यो वा परमव्ययं विनाशरहितं मां न जानाति। प्रकृतेर्गुणा एव बन्धकाः। सत्त्वरजस्तमोमयैः भावैः सर्वं जगन्मोहितं मम मायागुणा एव हि परिणता अपि स्वरूपावरणे विक्षेपे च हेत्वन्तरभूताः भगवज्ज्ञानसाधनप्रतिकूलाः प्रत्युत बन्धरूपाः जीवेऽविद्याकृताध्यासदार्ढ्यकारणभूताश्चसर्वाध्यासनिवृत्तौ हि सर्वथा न भवेद्यथा। सा च विद्योदये सा च न शब्दात्सुविचारितात्। मर्यादाभङ्ग एव स्यात्प्रमाणानां तथा सति। गजानुमानं नैव स्यात्साङ्कर्यं वा तथा भवेत्। दशमस्त्वमसीत्यादौ देहादिविषयत्वतः। शब्दस्य साहचर्येण चक्षुषैव भवेन्मतिः। स्मारकत्वमतो वाक्ये सङ्ख्याज्ञानं पुराः यतः। अध्यासस्यानिवृत्तत्वान्न विविक्तात्मदर्शनम्। मनसा शक्यते कर्त्तुं नान्यथा सर्वदा भवेत्। प्रत्यक्षेणापि विज्ञानं मायया ज्ञानकाशया। स्वप्नबोधरीत्या हि किमु शब्दं निवारयेत्। सर्वज्ञस्वं सर्वभावज्ञानं चापाततः फलम्। सर्वो न ब्रह्म सर्वं तु वामदेवस्तथा जगौ। अवयुज्यागर्भवासात्सूर्याद्यनुवदन्मुहुः। ज्ञानदुर्बलवाक्यत्वात्पाषण्डवचनं मतम्। सत्ये युगेऽतिमहतां भवत्येतन्न चान्यथा। स्वप्नो जागरणं चैव यथा ह्यन्योन्यवैरिणौ। विद्याविद्ये तथा स्यातां न तु सर्वात्मना लयः। इदमेव विनिश्चित्य श्रीकृष्णोऽर्जुनमाह वै। मामेवेति। एवकारेण सर्वेषामनुपायत्वमाह ज्ञानादीनां सर्वेषां भगवदधीनत्वात्।विश्वासं सर्वतस्त्यक्त्वा कृष्णमेव भजेद्बुधः इति श्रीमदाचार्योक्तानुसारेण प्रपत्तिमार्गरीत्या ये भजन्ते मां पुरुषोत्तममेव ते मायां तरन्ति। इयं च दैवी माया प्रकृते नासुरी अन्यस्याज्ञानविशेषेण स्वकृतिसाध्येन च बाधितत्वनियमात् अतएव दुरत्यया। यद्वा धात्वन्वर्था दैवी गुणमयी च। ममेति मदधीनभक्तहितकारिण्येषा भवतीति एतां मायां त एव जगति स्थिता मदीया निर्गुणात्मकास्तीर्णा इत्यर्थः।
।।7.13।।तव परमेश्वरस्य स्वातन्त्र्ये नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावत्वे च सति कुतो जगतस्त्वदात्मकस्य संसारित्वं एवंविधमत्स्वरूपापरिज्ञानादिति चेत् तदेव कुत इत्यत आह एभिः प्रागुक्तैस्त्रिभिस्त्रिविधैर्गुणमयैः सत्त्वरजस्तमोगुणविकारैर्भावैः सर्वैरपि भवनधर्मभिः सर्वमिदं जगत्प्राणिजातं मोहितं विवेकायोग्यत्वमापादितं सदेभ्यो गुणमयेभ्यो भावेभ्यः परं एषां कल्पनाधिष्ठानमत्यन्तविलक्षणमव्ययं सर्वविक्रियाशून्यमप्रपञ्चमानन्दघनमात्मप्रकाशमव्यवहितमपि मां नाभिजानाति। ततश्च स्वरूपापरिचयात्संसरतीवेत्यहो दौर्भाग्यमविवेकिजनस्येत्यनुक्रोशं दर्शयति भगवान्।
।।7.13।।एवंभूतं त्वां परमेश्वरमयं जनः किमिति न जानातीत्यत आह त्रिभिरिति। त्रिभिस्त्रिविधैरेभिः पूर्वोक्तैः गुणमयैः कामलोभादिभिर्गुणविकारैः भावै स्वभावैर्मोहितमिदं जगत् अतो मां नाभिजानाति। कथंभूतम्। एभ्यो भावेभ्यः परं एभिरसंस्पृष्टम्। एतेषां नियन्तारमत एवाव्ययम्। निर्विकारमित्यर्थः।
।।7.13।।एवं स्वयाथात्म्यमुपदिष्टम् अथत्रिभिः इत्यादिना प्रकृत्यास्य तिरोधिमुपदिशतिअत्र माम् इत्यनेन।भूमिरापोऽनलः 7।4 इत्यारभ्योक्तं यथावस्थितस्वरूपं गुणमयभावेभ्यः परत्वप्रदर्शनायानूदितमिति दर्शयितुमाहतदेवमिति। उत्पत्तिप्रलययोरविरोधं सर्वेषु कल्पेषु तस्यैव कारणत्वं चाभिप्रेत्योक्तंकाले काल इति।त्रिभिर्गुणमयैरेभिः इति पदत्रयेण दुःखमिश्रत्वनश्वरत्वसातिशयत्वादीनि विवक्षितानि। रजस्तमोमिश्रत्वाद्दुःखमिश्रत्वम्। सुखदुःखमोहात्मका हि त्रयो गुणाः। कार्यत्वादनित्यत्वमिन्द्रियपरिच्छिन्नत्वात्क्षुद्रत्वमिति भावः।मामेभ्यः परमव्ययम् इति तु त्रिभिर्निखिलदुःखप्रत्यनीकस्वरूपत्वनिरतिशयानन्दत्वनित्यत्वान्यभिप्रेतानीति दर्शयतिएवम्भूतमिति। कारणत्वेन पितृत्वाद्धितैषिणं शेषित्वेन शेषभूतानामुज्जीवनमप्यात्मलाभं मन्वानं सर्वज्ञत्वसर्वशक्तित्वादिभिरनिष्टनिवर्तनेष्टप्रापणयोरन्यनिरपेक्षं चेतिएवम्भूतशब्दाभिप्रायः। दुःखमिश्रत्वादिविशिष्टतया प्रस्तुता एव भावाःएभ्यः इत्यवधित्वेन परामृश्यन्त इति प्रदर्शनायत्रिभ्य इत्यादिकमुक्तम्।एभ्यः परम् इत्यत्र तमसः परस्तात् य.सं.31।18 इत्यादिष्विव देशादिविवक्षाव्युदासायोत्कृष्टत्वोक्तिः।तत्तद्भोग्यताप्रकारैश्चेति समुद्रे गोष्पदमस्तीतिवत्। श्रूयते हि यच्चास्येहास्ति यच्च नास्ति सर्वं तदस्मिन्समाहितम् छां.उ.8।1।3 इति। शब्दस्पर्शादिरूपेण प्राकृता भावा भोग्याः। परमात्मा तु ज्ञानशक्त्यादिगुणगणैः स्वरूपसमवेतैः शब्दादिविसजातीयानुकूल्यप्रकारैरप्राकृतैश्च शब्दादिभिः प्राकृतैश्च तैरेव स्वपर्यन्तताबोधादप्राकृतकल्पैः प्रत्येकं भोग्यतायामनवधिकातिशयपरत्वविशिष्ट इति भावः। एवं निर्दिष्टभोग्यतमस्वरूपस्याविकारित्वेन कालावच्छेदव्युदासपरोऽव्ययशब्द इत्यभिप्रायेणाहसदैकरूपमिति।तैरेवेति उक्तदोषत्रययुक्तैरेवेत्यर्थः।त्रिभिरिति गुणाः परस्परन्यूनाधिकाभावेन अवस्थिता अप्यविनाभूताः। ततश्च गुणत्रयमयानां भावानां दुःखमिश्रत्वमवर्जनीयमिति भावः।निहीनतरैरिति कर्मानुरूपगुणत्रयमयभोगास्तत्कर्मानुरूप्येण क्षुद्रा इति भावः।क्षणध्वंसिभिरिति कर्मावसाने क्षणान्तरं स्थातुं न प्रभवन्तीति भावः। ननु सत्त्वेन कथं मोहः इत्थं यथा विषसम्पृक्तेऽप्यन्ने मधुनिषेको मन्दस्य भोजनाभिलाषमुत्पादयति तथा तत्तत्कर्मानुरूपानर्थपर्यवसितसुखलवहेतुत्वेन युक्तं सत्त्वस्यैव मोहहेतुत्वमिति। सर्वशब्दोऽत्र देवजात्यनुप्रविष्टब्रह्मरुद्रादेः सङ्ग्रहपरः। इदंशब्दोऽनुभूयमानभोक्तृवर्गवैचित्र्याभिप्रायः। जगच्छब्दश्चाचिद्विशिष्टचेतनवाचीत्यभिप्रायेणदेवेत्यादिकमुक्तम्।ब्रह्माद्याः सकला देवा मनुष्याः पशवस्तथा। विष्णुमायामहावर्तमोहान्धतमसावृताः वि.पु.5।30।17 इत्यादिकमत्रानुन्धेयम्।
।।7.13।।एवं लीलया रसार्थं प्रकटितान् गुणान् मयि दृष्ट्वा सर्वे मोहं प्राप्य मां न जानन्तीत्याह त्रिभिरिति। एभिः परिदृश्यमानैर्मत्सम्बन्धेन स्नेहलीलारसतः प्रकटभूतैस्त्रिभिः सात्त्विकादिभिर्गुणमयैर्मद्गुणात्मकैर्भावैर्भावनात्मकैरिदं परिदृश्यमानमधिकरणात्मकमाध्यात्मिकं जगत् मामेभ्यः पूर्वोक्तभावेभ्यः परमुत्कृष्टं केवलं रसात्मकमत एवाव्ययं विप्रयोगादिभावेषु न्यूनतादिरहितं नाभिजानाति।
।।7.13।।कथं तर्हि स्थूलसूक्ष्मप्रपञ्चबाधेन जना आत्मानं नावगच्छन्तीत्याशङ्क्याह त्रिभिरिति। एभिः पूर्वोक्तैस्त्रिभिस्त्रिविधैर्भावैः प्रकाशप्रवृत्तिनियमाद्यैर्गुणमयैः सत्वरजस्तमोगुणविकारैः इदं चराचरं प्राणिजातं जगच्छब्दवाच्यं मोहितं सत् एभ्यो गुणेभ्यः परं मां न जानाति। यथा रज्ज्वां सर्पभ्रमेण व्याकुलः सर्पात्परां रज्जुं न जानाति तद्वत्। परत्वे हेतुः अव्ययम्। एते भावाः परिणामित्वाद्व्ययवन्तः अहं तु तद्विपरीतः साक्षीत्यव्ययः।
।।7.13।।एवंभूतमपि मामीश्वरं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वात्मानं निर्गुणं संसारमूलोच्छेदाय जगन्नाभिजानातीत्याकोशं दर्शयन्स्वाज्ञाने निमित्तमाह त्रिभिरिति। त्रिभिस्त्रविधैः गुणमयैर्गुणविकारैः भावैः पदार्थे रागद्वेषमोहादिभिः सर्वमिदं जगत्चराचरात्मकं मोहितं विवेकाच्छादकमोहं प्रापितं सन्मामेभ्यो गुणतद्विकारेभ्यः परमतिरिक्तमत एवाव्ययं व्ययरहितम्। जन्मादिसर्वभाविकारविवर्जितमित्यर्थः। नाभिजानाति। स्वाभिन्नत्वेन न साक्षात्करोतीत्यर्थः।
7.13 त्रिभिः by three? गुणमयैः composed of Gunas? भावैः by natures? एभिः by these? सर्वम् all? इदम् this? जगत् world? मोहितम् deluded? न not? अभिजानाति knows? माम् Me? एभ्यः from them? परम् higher? अव्ययम् immutable.Commentary Persons of this world are deluded by the three alities of Nature or Maya. Affection? attachment and infatuated love are all modifications of these alities. On account of delusion created by these three alities they are not able to break the worldly ties and to turn the mind towards the Supreme Soul? the Lord of the three alities.Avyayam Immutable or unchangeable or inexhaustible or imperishable. The Self is of one homogeneous essence. It has not got the six changes or modifications (Shad Bhava Vikaras) which the body has? viz.? existence? birth? growth? modification? decay and death. (Cf.VII.25)
7.13 Deluded by these Natures (states or things) composed of the three alities of Nature all this world does not know Me as distinct from them and immutable.
7.13 The inhabitants of the world, misled by those natures which the Qualities have engendered, know not that I am higher than them all, and that I do not change.
7.13 All this world, deluded as it is by these three things made of the gunas (alities), does not know Me who am transcendental to these and undecaying.
7.13 Sarvam, all; idam, this; jagat, world, the aggregate of creatures; mohitam, deluded as it is-made to have indiscrimination; hih, by these; aforesaid tribhih, three; bhavaih, things, in the forms of attachment, repulsion, delusion, etc; and gunamayaih, made of the gunas, of the transformations of the gunas; na abhijanati, does not know; mam, Me; who am param, transcendental to, distinct, different; hyah, from these gunas as referred to above; and am avyayam, undecaying, i.e. free from all (the six kinds of) changes in things, viz birth etc. [See note on p.38.-Tr.] How, again, do they cross over this divine Maya of Visnu, constituted by the three gunas? That is being stated:
7.13. Being duluded by these three beings of the Strands, this entire world does not recognise Me Who am eternal and transcending these [Strands].
7.12-13 Ye ca etc. Tribhih etc. The [Strands] Sattva etc., are derived from Me, and not I from them. That is why he who has achieved his identity with the Bhagavat (the Absolute), properly realises all [objects] as being the Bhagavat [Himself]. On the other hand, the person who is established in the knowledge of objects of umpteen varieties does not understand the reality of the Bhagavat. This krama (traditional order) pleases the mind of all. With this idea only the Lord is going to declare presently 'Vasudeva is all'. There the meaning is this : He, whose internal organ is favoured by the descent of the Supreme Energy or grace (Sakti-pata) that arises after [teaching the stage of] eableness of effects of actions (karma-samata) that is brought about by the enjoyment [of effects] through many births; and who realises the reality of Bhagavat, with conviction 'verily all is Vasudeva' - that person is the great Soul and he is difficult to find. But, not knowing in this manner and, on the contrary, being duluded by the Strands, Sattva etc., this world, fails to perceive the reality of Vasudeva, transcending the Strands. [The Lord] declares why the persons established exclusively in the Sattva etc. (Strands), are not conscious of the real nature of the Bhagavat :
7.13 Now, in this way, the whole universe, consisting of animate and inanimate entities belonging to Me, evolves from time to time from Me only, is absorbed in Me, and abides in Me alone. It constitutes My body and has Me for its self. Whether in the causal state or in the state of effect, it is I who have all these entities as My modes, because all entities form My body. Thus, in regard to all these modes, I am superior to them, as I am their cause, principal, and as I possess a complex of countless auspicious attributes like knowledge, strength etc. In every way I remain as the highest being. There exists none higher than Myself. Such being the case, I am superior to these entities composed of the alities of Sattva, Rajas and Tamas - superior to them by My extraordinary attributes and by having these various modes for My enjoyment. I am the highest and immutable, i.e., I form a unity in Myself. This world constituted of gods, men, animals and immovables, and deluded by the three Gunas of Prakrti and its evolutes are inferior and transient. The forms of bodies, senses and objects of enjoyment comprising the world are there in accordance with their past Karmas. No one in the world knows Me. How is it possible that all experiencing beings think as enjoyable objects which are inferior, constituted of the Gunas and are transient, while You exist - You who are of the nature of unbounded and abundant bliss, who has an eternal unchanging form and who is the source of the enjoyableness of even the objects of the world? Sri Krsna replies:
7.13 The entire universe is deluded by these three states originating from the Gunas (of Prakrti), and fails to recognise Me, who am beyond them and immutable.
।।7.13।।ऐसा जो साक्षात् परमेश्वर नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव एवं सब भूतोंका आत्मा गुणोंसे अतीत और संसाररूप दोषके बीजको भस्म करनेवाला मैं हूँ उसको जगत् नहीं पहचानता इस प्रकार भगवान् खेद प्रकट करते हैं और जगत्का यह अज्ञान किस कारणसे है सो बतलाते हैं गुणोंमें विकाररूप सात्त्विक राजस और तामस इन तीनों भावोंसे अर्थात् उपर्युक्त राग द्वेष और मोह आदि पदार्थोंसे यह समस्त जगत् प्राणिसमूह मोहित हो रहा है अर्थात् विवेकशून्य कर दिया गया है अतः इन उपर्युक्त गुणोंसे अतीत विलक्षण अविनाशी विनाशरहित तथा जन्मादि सम्पूर्ण भावविकारोंसे रहित मुझ परमात्माको नहीं जान पाता।
।।7.13।। त्रिभिः गुणमयैः गुणविकारैः रागद्वेषमोहादिप्रकारैः भावैः पदार्थैः एभिः यथोक्तैः सर्वम् इदं प्राणिजातं जगत् मोहितम् अविवेकितामापादितं सत् न अभिजानाति माम् एभ्यः यथोक्तेभ्यः गुणेभ्यः परं व्यतिरिक्तं विलक्षणं च अव्ययं व्ययरहितं जन्मादिसर्वभावविकारवर्जितम् इत्यर्थः।।कथं पुनः दैवीम् एतां त्रिगुणात्मिकां वैष्णवीं मायामतिक्रामति इत्युच्यते
।।7.13।।ननु विज्ञाननिरूपणं प्रारभ्यत्रिभिः इत्यादिकं किमर्थमुच्यते इत्यत आह तर्हीति।ये चैव 7।12 इति। विज्ञाननिरूपणोपसंहारवाक्ये सत्त्वादिगुणनिर्वृतानां भगवान्कारणमाश्रयश्च तदनाश्रयश्चेत्युक्तम्। पृ.371 तेनैव गुणातीत इति चोक्तप्रायम्। तस्यायमाक्षेपः। एवं गुणातीततया सगुणश्च ज्ञायस इति शेषः। एवमनुपलम्भविपरीतोपलम्भाभ्यामुक्तमसदिति भावः। विकारार्थतानिरासार्थमाह तादात्म्येति। मयटस्तादात्म्यार्थत्वं कुतः इत्यत आह तच्चेति। तादात्म्ये प्रयोगं दर्शयितुमुपोद्धातमाह न हीति। कार्यभूतेत्युपलक्षणम्। गुणप्राचुर्यादिकमपि तस्यां न सम्भवति। ततः किं इत्यत आह गुणेति।दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया 7।14 इति मायाया गुणमयीत्वमुच्यते। न च तत्र विकाराद्यर्थता सम्भवति ततः परिशेषतः तादात्म्यार्थता ग्राह्येत्यर्थः। अस्तु मयटस्तादातम्ये शक्तिः। अत्र विकारार्थतां परित्यज्य तद्ग्रहणे को हेतुः इति चेत् उच्यते विकारार्थताग्रहणेमामेभ्यः परं इत्यत्र गुणकार्येभ्य एव भगवतः परत्वमुक्तं स्यात् न तु गुणेभ्यः। अतस्तत्सङ्ग्रहाय तादात्म्यार्थताग्रहणम्। एवं तर्हि गुणेभ्य एव परत्वमुक्तं स्यात् न तु गुणकार्येभ्योऽपीति समानमित्यत आह सिद्धं चेति। सिद्धं प्रमितम्। ततश्चगुणात्मकैः इत्युक्ते गुणानां तत्कार्याणां चोपादाने सति उभयपरत्वमुक्तं भवति कार्यधर्मादेरिति। कार्यद्रव्यस्योपादानेन गुणक्रियाजातिपूर्वाणां धर्माणां गुण्यादिभिरित्यर्थः। भावशब्दस्यानेकार्थत्वात्तस्य विवक्षितमर्थमाह भावैरिति। एवं सति सर्वपरत्वलाभादिति भावः। नन्वेवमप्येभिरिति पुरोवर्तिनामेव ग्रहणात् न सर्वपरत्वसिद्धिरित्यत आह सर्व इति। प्रमितपरामर्शोऽयं न पुरोवर्तिमात्रस्येति भावः। जगन्मोहितमित्यलं किमिदमित्यनेनेत्यत आह ज्ञानीति। व्यवहारपतितमित्यर्थः। ननु भगवद्विषयस्य सगुणत्वमोहस्य कथं गुणात्मकाः पदार्थाः कारणं इत्यत आह गुणमयेति। देहत्वादिहेतुनेति शेषः। मायेति गुणमयानां ग्रहणम्। मोहितो जनः। अत्र प्रमाणमाह जगाद चेति। आदिपदेनेन्द्रियादिग्रहणम्। यदर्थं तादात्म्यार्थग्रहणं कृतं तदाह एभ्य इति। ननु भगवतो गुणातीतत्वे प्रमिते तदर्थोऽयं श्रमः सफलः स्यात्। तदेव कुतः इत्यत आह गुणेभ्यश्चेति।
।।7.13।।तर्हि कथमेवं न ज्ञायते इत्यत आह त्रिभिरिति। तादात्म्यार्थे मयट्। तच्चोक्तम्तादात्म्यार्थे विकारार्थे प्राचुर्यार्थे मयट् त्रिधा इति। न हि गुणकार्यभूता माया।गुणमयी 7।14 इति च वक्ष्यति। सिद्धं च कार्यस्यापि तादात्म्यम्तादात्म्यं कार्यधर्मादेः संयोगो भिन्नवस्तुनोः इत्यादि व्यासयोगे। भावैः पदार्थैः। सर्वे भावा दृश्यमाना गुणमया एत एवेति दर्शयति एभिरिति। ज्ञानिव्यावृत्त्यर्थंइदं इति। गुणमयदेहादिकं दृष्ट्वेश्वरदेहेऽपि तादृश इति मायामोहित इत्यर्थः। जगाद च व्यासयोगेगौणान्ब्रह्मादिदेहादीन्दृष्ट्वा विष्णोरपीदृशः। देहादिरिति मन्वानो मोहितोऽज्ञो जनो भृशम् इति। एभ्यो गुणमयेभ्यःगुणेभ्यश्च परं 14।19 इति वक्ष्यमाणत्वात्। केवलो निर्गुणश्च श्वे.उ.6।11 इत्यादिश्रुतिभ्यश्च त्रैगुण्यवर्जितमिति चोक्तम्।
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्। मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्।।7.13।।
ত্রিভির্গুণমযৈর্ভাবৈরেভিঃ সর্বমিদং জগত্৷ মোহিতং নাভিজানাতি মামেভ্যঃ পরমব্যযম্৷৷7.13৷৷
ত্রিভির্গুণমযৈর্ভাবৈরেভিঃ সর্বমিদং জগত্৷ মোহিতং নাভিজানাতি মামেভ্যঃ পরমব্যযম্৷৷7.13৷৷
ત્રિભિર્ગુણમયૈર્ભાવૈરેભિઃ સર્વમિદં જગત્। મોહિતં નાભિજાનાતિ મામેભ્યઃ પરમવ્યયમ્।।7.13।।
ਤ੍ਰਿਭਿਰ੍ਗੁਣਮਯੈਰ੍ਭਾਵੈਰੇਭਿ ਸਰ੍ਵਮਿਦਂ ਜਗਤ੍। ਮੋਹਿਤਂ ਨਾਭਿਜਾਨਾਤਿ ਮਾਮੇਭ੍ਯ ਪਰਮਵ੍ਯਯਮ੍।।7.13।।
ತ್ರಿಭಿರ್ಗುಣಮಯೈರ್ಭಾವೈರೇಭಿಃ ಸರ್ವಮಿದಂ ಜಗತ್. ಮೋಹಿತಂ ನಾಭಿಜಾನಾತಿ ಮಾಮೇಭ್ಯಃ ಪರಮವ್ಯಯಮ್৷৷7.13৷৷
ത്രിഭിര്ഗുണമയൈര്ഭാവൈരേഭിഃ സര്വമിദം ജഗത്. മോഹിതം നാഭിജാനാതി മാമേഭ്യഃ പരമവ്യയമ്৷৷7.13৷৷
ତ୍ରିଭିର୍ଗୁଣମଯୈର୍ଭାବୈରେଭିଃ ସର୍ବମିଦଂ ଜଗତ୍| ମୋହିତଂ ନାଭିଜାନାତି ମାମେଭ୍ଯଃ ପରମବ୍ଯଯମ୍||7.13||
tribhirguṇamayairbhāvairēbhiḥ sarvamidaṅ jagat. mōhitaṅ nābhijānāti māmēbhyaḥ paramavyayam৷৷7.13৷৷
த்ரிபிர்குணமயைர்பாவைரேபிஃ ஸர்வமிதஂ ஜகத். மோஹிதஂ நாபிஜாநாதி மாமேப்யஃ பரமவ்யயம்৷৷7.13৷৷
త్రిభిర్గుణమయైర్భావైరేభిః సర్వమిదం జగత్. మోహితం నాభిజానాతి మామేభ్యః పరమవ్యయమ్৷৷7.13৷৷
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।।7.14।। क्योंकि मेरी यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस मायाको तर जाते हैं।
।।7.14।। यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।।
।।7.14।। भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि अहंकार से युक्त आत्मकेन्द्रित पुरुष के लिए मेरी माया से उत्पन्न मोह को पार कर पाना दुस्तर है। यदि कोई चिकित्सक रोगी के रोग को पहचान कर कहे कि इस रोग के निवारण के लिए कोई औषधि नहीं है तो कोई भी रोगी सावधानी उत्साह तथा श्रद्धा के साथ चिकित्सक की सलाह के अनुसार उपचार नहीं करेगा। इसी प्रकार यदि भवरोगियों के चिकित्सक भगवान् श्रीकृष्ण रोग का कारण माया को बताकर उसे दुस्तर घोषित करें तो कौन व्यक्ति श्रद्धा के साथ उनके निराशावादी उपदेश का अनुकरण करेगा भगवान् श्रीकृष्ण इस कठिनाई अथवा दोष को जानते हैं और इसलिए तत्काल ही साधक के मन की शंका को दूर करते हैं। यदा कदा रोगी को उसके रोग की गम्भीरता का भान कराने के लिए चिकित्सक को कठोर भाषा का प्रयोग करना पड़ता है ठीक उसी प्रकार यहाँ श्रीकृष्ण अनेक विशेषणों के द्वारा हमें इस रोग की वह भयंकरता बताने का प्रयत्न करते हैं जिसके कारण हम अपने परमात्म स्वरूप को भूलकर संसारी जीवभाव को प्राप्त हो गये हैं रोग तथा उपचार को बताकर भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण स्वास्थ्य का आश्वासन भी देते हैं।जो साधक मेरी शरण में आते हैं वे माया को तर जाते हैं। शरण से तात्पर्य भगवान् के स्वरूप को पहचान कर तत्स्वरूप बन जाना है। इसका सम्पादन कैसे किया जा सकता है इसका विवेचन पूर्व के ध्यानयोग नामक अध्याय में किया जा चुका है। एकाग्र चित्त होकर आत्मस्वरूप का ध्यान करना यह साक्षात् साधन है और ध्यान के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त करने के उपाय भी पहले बताये गये हैं।यदि आपकी शरण में आने से माया को पार किया जा सकता है तो फिर सब लोग आपकी शरण में क्यों नहीं आते हैं इस पर कहते हैं
।।7.14।। व्याख्या--'दैवी ह्येषा गुणमयी (टिप्पणी प0 411) मम माया दुरत्यया'--सत्त्व, रज और तम--इन तीन गुणोंवाली दैवी (देव अर्थात् परमात्माकी) माया बड़ी ही दुरत्यय है। भोग और संग्रहकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य इस मायासे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर सकते।
।।7.14।।कथं खलु सत्त्वादिमात्रस्थिता भगवतस्तत्त्वं न विदुः इत्याह दैवीति। देवः क्रीडाकरः तत्र भवा दैवी क्रीडा ममेयमित्यर्थः। तेन सत्त्वादीनां वस्तुतः संविन्मात्रपरब्रह्मानतिरिक्ततायामपि यत् तदरिक्ततावगमनं ( N तदतिरिक्तभावगमनम्) तदेव गुणत्वं भोक्तृतत्त्वपारतन्त्र्यं भोग्यत्वम्। तच्च भेदात्मकं रूपं संसारिभिरनिर्वाच्यतया तान् प्रति मायारूपम्। अतो ये परमार्थब्रह्मप्रकाशविदः ते तदनतिरिक्तं विश्वं पश्यन्तो गुणाना सत्त्वादीनां गुणतालक्षणां भेदावभासस्वभावां मायाम् अतितरन्ति इति मामेव इत्येवकारस्याशयः। ये तु यथास्थित ( यथास्थितभेद ) भेदावभासमात्रं विदुः ते मायां नातिक्रामन्ति (S नातिवर्तन्ते) । तद्युक्तमुक्तम् न त्वहं तेषु इति।
।।7.14।।मम एषा गुणमयी सत्त्वरजस्तमोमयी माया यस्माद् दैवी देवेन क्रीडाप्रवृत्तेन मया एव निर्मिता तस्मात्सर्वैः दुरत्यया दुरतिक्रमा।अस्याः मायाशब्दवाच्यत्वम् आसुरराक्षसास्त्रादीनाम् इव विचित्रकार्यकरत्वेन यथा चततो भगवता तस्य रक्षार्थं चक्रमुत्तमम्। आजगाम समाज्ञप्तं ज्वालामालि सुदर्शनम्।।तेन मायासहस्रं तच्छम्बरस्याशुगामिना। बालस्य रक्षता देहमेकैकांशेन सूदितम्।। (वि0 पु0 1।19।1920) इत्यादौ।अतो मायाशब्दो न मिथ्यार्थवाची। ऐन्द्रजालिकादिषु अपि केनचिद् मन्त्रौषधादिना मिथ्यार्थविषयायाः पारमार्थिक्या एव बुद्धेः उत्पादकत्वेन मायावी इति प्रयोगः। तथा मन्त्रौषधादिः एव च तत्र माया सर्वप्रयोगेषु अनुगतस्य एकस्य एव शब्दार्थत्वात्। तत्र मिथ्यार्थेषु मायाशब्दप्रयोगो मायाकार्यबुद्धिविषयत्वेन औपचारिकःमञ्चाः क्रोशन्ति इतिवत्।एषा गुणमयी पारमार्थिकी भगवन्माया एवमायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् (श्वेता0 4।10) इत्यादिषु अभिधीयते।अस्याः कार्यं भगवत्स्वरूपतिरोधानं स्वस्वरूपभोग्यत्वबुद्धिः च अतो भगवन्मायया मोहितं सर्वं जगद् भगवन्तम् अनवधिकातिशयानन्दस्वरूपं न अभिजानाति।मायाविमोचनोपायाम् आह माम् एव सत्यसंकल्पं परमकारुणिकम् अनालोचितविशेषाशेषलोकशरण्यं ये शरणं प्रपद्यन्ते ते एतां मदीयां गुणमयीं मायां तरन्ति। मायाम् उत्सृज्य माम् एव उपासत इत्यर्थः।किमिति भगवदुपासनापादिनीं भगवत्प्रपत्तिं सर्वे न कुर्वन्ति इत्यत्र आह
।।7.14।।यथोक्तानादिसिद्धमायापारवश्यपरिवर्जनायोगाज्जगतो न कदाचिदपि तत्त्वबोधसमुदयसंभावनेत्याशङ्कते कथं पुनरिति। भगवदेकशरणतया तत्त्वज्ञानद्वारेण मायातिक्रमः संभवतीति परिहरति उच्यत इति। कथं दुरत्ययत्वेन तदत्ययः स्यादिति तत्राह मामेवेति। प्रधानस्येव स्वातन्त्र्यं मायाया व्युदस्यति देवस्येति। अस्वातन्त्र्ये मायात्वानुपपत्तिं हिशब्दद्योतितां हेतूकरोति यस्मादिति। अनुभवसिद्धा सा नाकस्मादपलापमर्हतीत्याह एषेति। जगतस्तत्त्वप्रतिपत्तिप्रतिबन्धभूता गुणाः सत्त्वादयः। ममेति प्रागुक्तमेव मायायाः संबन्धमनूद्य विधित्सितं दुरत्ययत्वं विभजते दुःखेनेति। मामेवेत्यादि व्याचष्टे तत्रेति। तस्मिन्मायारूपे यथोक्तरीत्या दुरत्यये सतीति यावत्। मामेवेत्येवकारेण मायया वेद्यकोटिनिवेशाभावो विवक्ष्यते सर्वात्मना कर्मानुष्ठानादिव्यग्रतामन्तरेणेत्यर्थः। मायातिक्रमे मोहातिक्रमो भवतीति मत्वा विशिनष्टि सर्वेति। मायातत्प्रयुक्तमोहयोरतिक्रमेऽपि कथं पुरुषस्य पुरुषार्थसिद्धिरित्याशङ्क्याह संसारेति।
।।7.13 7.14।।परमेतदसंस्पष्टं मां वेदान्तवेद्यं न जगद्वेदेह गुणतन्त्रत्वादित्याह त्रिभिरिति। भावैस्त्रिभिः पदार्थैः। त्रित्व गुणमयत्वाभिप्रायेण। मोहितं जगदिदमावृतं एभ्यस्त्रिगुणात्मकेभ्यो भावेभ्यो मूलभूतगुणेभ्यो वा परमव्ययं विनाशरहितं मां न जानाति। प्रकृतेर्गुणा एव बन्धकाः। सत्त्वरजस्तमोमयैः भावैः सर्वं जगन्मोहितं मम मायागुणा एव हि परिणता अपि स्वरूपावरणे विक्षेपे च हेत्वन्तरभूताः भगवज्ज्ञानसाधनप्रतिकूलाः प्रत्युत बन्धरूपाः जीवेऽविद्याकृताध्यासदार्ढ्यकारणभूताश्चसर्वाध्यासनिवृत्तौ हि सर्वथा न भवेद्यथा। सा च विद्योदये सा च न शब्दात्सुविचारितात्। मर्यादाभङ्ग एव स्यात्प्रमाणानां तथा सति। गजानुमानं नैव स्यात्साङ्कर्यं वा तथा भवेत्। दशमस्त्वमसीत्यादौ देहादिविषयत्वतः। शब्दस्य साहचर्येणचक्षुषैव भवेन्मतिः। स्मारकत्वमतो वाक्ये सङ्ख्याज्ञानं पुराः यतः। अध्यासस्यानिवृत्तत्वान्न विविक्तात्मदर्शनम्। मनसा शक्यते कर्त्तुं नान्यथा सर्वदा भवेत्। प्रत्यक्षेणापि विज्ञानं मायया ज्ञानकाशया। स्वप्नबोधरीत्या हि किमु शब्दं निवारयेत्। सर्वज्ञस्वं सर्वभावज्ञानं चापाततः फलम्। सर्वो न ब्रह्म सर्वं तु वामदेवस्तथा जगौ। अवयुज्यागर्भवासात्सूर्याद्यनुवदन्मुहुः। ज्ञानदुर्बलवाक्यत्वात्पाषण्डवचनं मतम्। सत्ये युगेऽतिमहतां भवत्येतन्न चान्यथा। स्वप्नो जागरणं चैव यथा ह्यन्योन्यवैरिणौ। विद्याविद्ये तथा स्यातां न तु सर्वात्मना लयः। इदमेव विनिश्चित्य श्रीकृष्णोऽर्जुनमाह वै। मामेवेति। एवकारेण सर्वेषामनुपायत्वमाह ज्ञानादीनां सर्वेषां भगवदधीनत्वात्।विश्वासं सर्वतस्त्यक्त्वा कृष्णमेव भजेद्बुधः इति श्रीमदाचार्योक्तानुसारेण प्रपत्तिमार्गरीत्या ये भजन्ते मां पुरुषोत्तममेव ते मायां तरन्ति। इयं च दैवी माया प्रकृते नासुरी अन्यस्याज्ञानविशेषेण स्वकृतिसाध्येन च बाधितत्वनियमात् अतएव दुरत्यया। यद्वा धात्वन्वर्था दैवी गुणमयी च। ममेति मदधीनभक्तहितकारिण्येषा भवतीति एतां मायां त एव जगति स्थिता मदीया निर्गुणात्मकास्तीर्णा इत्यर्थः।
।।7.14।।ननु यथोक्तानादिसिद्धमायागुणत्रयबद्धस्य जगतः स्वातन्त्र्याभावेन तत्परिवर्जनासामर्थ्यान्न कदाचिदपि मायातिक्रमः स्याद्वस्तुविवेकासामर्थ्यहेतोः सदातनत्वादित्याशङ्क्य भगवदेकशरणतया तत्त्वज्ञानद्वारेण मायातिक्रमः संभवतीत्याह दैवीएको देवः सर्वभूतेषु गूढः इत्यादिश्रुतिप्रतिपादिते स्वतोद्योतनवति देवे स्वप्रकाशचैतन्यानन्दे निर्विभागे तदाश्रयतया तद्विषयतया च कल्पिताआश्रयत्वविषयत्वभागिनी निर्विभागचितिरेव केवला इत्युक्तेः। एषा साक्षिप्रत्यक्षत्वेनापलापानर्हा। हिशब्दाद्भ्रमोपादात्वादर्थापत्तिसिद्धा च। गुणमयी सत्त्व रजस्तमोगुणत्रयात्मिका। त्रिगुणरज्जुरिवातिदृढत्वेन बन्धनहेतुः मम मायाविनः परमेश्वरस्य सर्वजगत्कारणस्य सर्वज्ञस्य सर्वशक्तेः स्वभूता स्वाधीनत्वेन जगत्सृष्ट्यादिनिर्वाहिका माया तत्त्वप्रतिभासप्रतिबन्धेनातत्त्वप्रतिभासहेतुरावरणविक्षेपशक्तिद्वयवत्यविद्या सर्वप्रपञ्चप्रकृतिः।मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् इति श्रुतेः। अत्रैवं प्रक्रिया जीवेश्वरजगद्विभागशून्ये शुद्धे चैतन्येऽध्यस्तानादिरविद्या सत्त्वप्राधान्येन स्वच्छदर्पण इव मुखाभासं चिदाभासमागृह्णाति। ततश्च बिम्बस्थानीयः परमेश्वर उपाधिदोषानास्कन्दितः प्रतिबिम्बस्थानीयश्च जीव उपाधिदोषास्कन्दिकतः। ईश्वराच्च जीवभोगायाकाशादिक्रमेण शरीरेन्द्रियसंघातस्तद्भोग्यश्च कृत्स्नः प्रपञ्चो जायत इति कल्पना भवति। बिम्बप्रतिबिम्बमुखानुगतमुखवच्चेशजीवानुगतं मायोपाधि चैतन्यं साक्षीति कल्प्यते। तेनैव च स्वाध्यस्ता माया तत्कार्यं च कृत्स्नं प्रकाश्यते। अतः साक्ष्यभिप्रायेण दैवीति बिम्बेश्वराभिप्रायेण तु ममेति भगवतोक्तम्। यद्यप्यविद्याप्रतिबिम्ब एक एव जीवस्तथाप्यविद्यागतानामन्तःकरणसंस्काराणां भिन्नत्वात्तद्भेदेनान्तःकरणोपाधेस्तस्यात्र भेदव्यपदेशोमामेव ये प्रपद्यन्तेदुष्कृतिनो मूढा न प्रपद्यन्तेचतुर्विधा भजन्ते माम् इत्यादिः। श्रुतौ चतद्यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत्तथर्षीणां तथा मनुष्याणाम् इत्यादिः। अन्तःकरणोपाधिभेदापर्यालोचने तु जीवत्वप्रयोजकोपाधेरेकत्वादेकत्वेनैवात्र व्यपदेशः।क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषुप्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपिममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः इत्यादिः। श्रुतौ चब्रह्म वा इदमग्र आसीत्तदात्मानमेवावेदहं ब्रह्मास्मीति तस्मात्तत्सर्वमभवत्एको देवः सर्वभूतेषु गूढःअनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्यवालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च। भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्प्यते।। इत्यादिः। यद्यपि दर्पणगतश्चैत्रप्रतिबिम्बः स्वं परं च न जानात्यचेतनांशस्यैव तत्र प्रतिबिम्बितत्वात्तथापि चित्प्रतिबिम्बश्चित्त्वादेव स्वं परं च जानाति। प्रतिबिम्बपक्षे बिम्बचैतन्य एवोपाधिस्थत्वमात्रस्य कल्पित्वात् आभासपक्षे तस्यानिर्वचनीयत्वेऽपि जडविलक्षणत्वात्। स च यावत्स्वबिम्बैक्यमात्मनो न जानाति तावज्जलसूर्य इव जलगतम्पादिकमुपाधिगतं विकारसहस्रमनुभवति। तदेतदाह दुरत्ययेति। बिम्बभूतेश्वरैक्यसाक्षात्कारमन्तरेणात्येतुं तरितुमशक्येति दुरत्यया। अतएव जीवोऽन्तःकरणावच्छिन्नत्वात्तत्संबन्धमेवाक्ष्यादिद्वारा भासयन् किंचिज्ज्ञो भवति। ततश्च जानामि करोमि भुञ्जे चेत्यनर्थशतभाजनं भवति। स चेद्बिम्बभूतं भगवन्तमनन्तशक्तिं मायानियन्तारं सर्वविदं सर्वफलदातारमनिशमानन्दघनमूर्तिमनेकानवतारान्भक्तानुग्रहाय विदधतमाराधयति परमगुरुमशेषकर्मसमर्पणेन तदा बिम्बसमर्पितस्य प्रतिबिम्बे प्रतिफलनात्सर्वानपि पुरुषार्थानासादयति। एतदेवाभिप्रेत्य प्रह्नादेनोक्तंनैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते। यद्यज्जनो भगवते विदधीत मानं तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः।। इति। दर्पणप्रतिबिम्बितस्य मुखस्य तिलकादिश्रीरपेक्षिता चेद्बिम्बभूते मुखे समर्पणीया। सा स्वयमेव तत्र प्रतिफलति नान्यः कश्चित्तत्प्राप्तावुपायोऽस्ति यथा तथा बिम्बभूतेश्वरे समर्पितमेव तत्प्रतिबिम्बभूतो जीवो लभते नान्यः कश्चित्तस्य पुरुषार्थलाभेऽस्त्युपाय इति दृष्टान्तार्थः। तस्य यदा भगवन्तमनन्तमनवरतमाराधयतोऽन्तःकरणं ज्ञानप्रतिबन्धकपापेन रहितंज्ञानानुकूलपुण्येन चोपचितं भवति तदातिनिर्मले मुकुरमण्डल इव मुखमतिस्वच्छेऽन्तःकरणे सर्वकर्मत्यागशमदमादिपूर्वकगुरूपसदनवेदान्तवाक्यश्रवणमनननिदिध्यासनैः संस्कृते तत्त्वमसीति गुरूपदिष्टवेदान्तवाक्यकरणिकाहंब्रह्मास्मीत्यनात्माकारशून्या निरुपाधिचैतन्याकारा साक्षात्कारात्मिका वृत्तिरुदेति। तस्यां च प्रतिफलितं चैतन्यं सद्य एव स्वविषयाश्रयामविद्यामुन्मूलयति दीप इव तमः। ततस्तस्या नाशात्तया वृत्त्या सहाखिलस्य कार्यप्रपञ्चस्य नाशः। उपादाननाशादुपादेयनाशस्य सर्वतन्त्रसिद्धत्वात्। तदेतदाह भगवान्मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते इति।आत्मेत्येवोपासीत तदात्मानमेवावेत्तमेव धीरो विज्ञायतमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति इत्यादिश्रुतिष्विवेहापि मामेवेत्येवकारोऽन्यानुपरक्तप्रतिपत्त्यर्थः। मामेव सर्वोपाधिविरहितं चिदानन्दसदात्मानमखण्डं ये प्रपद्यन्ते वेदान्तवाक्यजन्यया निर्विकल्पसाक्षात्काररूपया निर्वचनानर्हशुद्धचिदाकारत्वधर्मविशिष्टया सर्वसुकृतफलभूतया निदिध्यासनपरिपाकप्रसूतया चेतोवृत्त्या सर्वाज्ञानतत्कार्यविरोधिन्या विषयीकुर्वन्ति ये ते केचिदेतां दुरतिक्रमणीयामपि मायामखिलानर्थजन्मभुवमनायासेनैव तरन्ति अतिक्रामन्ति।तस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशत आत्मा ह्येषां स भवति इति श्रुतेः। सर्वोपाधिनिवृत्त्या सच्चिदानन्दघनरूपेणैव तिष्ठन्तीत्यर्थः। बहुवचनप्रयोगो देहेन्द्रियादिसंघातभेदनिबन्धनात्मभेदभ्रान्त्यनुवादार्थः। प्रपश्यन्तीति वक्तव्ये प्रपद्यन्त इत्युक्तेऽर्थे मदेकशरणाः सन्तो मामेव भगवन्तं वासुदेवमीदृशमनन्तसौन्दर्यसारसर्वस्वमखिलकलाकलापनिलयमभिनवपङ्कजशोभाधिकचरणकमलयुगुलप्रभमनवरतवेणुवादननिरतवृन्दावनक्रीडासक्तमानसहेलोद्धृतगोवर्धनाख्यमहीधरं गोपालं निषूदितशिशुपालकंसादिदुष्टसंघमभिनवजलदशोभासर्वस्वहरणचरणपरमानन्दघनमयमूर्तिमतिवैरिञ्चमनवरतमनुचिन्तयन्तो दिवसानतिवाहयन्ति ते मत्प्रेममहानन्दसमुद्रमग्नमनस्तया समस्तमायागुणविकारैर्नाभिभूयन्ते किंतु मद्विलासविनोदकुशला एते मदुन्मूलनसमर्था इति शङ्कमानेव माया तेभ्योऽपसरति वारविलासिनीव क्रोधनेभ्यस्तपोधनेभ्यः। तस्मान्मायातरणार्थी मामीदृशमेव सन्ततमनुचिन्तयेदित्यप्यभिप्रेतं भगवतः। श्रुतयः स्मृतयश्चात्रार्थे प्रमाणीकर्तव्याः।
।।7.14।।के तर्हि त्वां जानन्तीत्यत आह दैवी हीति। दैवी अलौकिकी अत्यद्भुतेत्यर्थः। गुणमयी सत्त्वादिगुणविकारात्मिका मम परमेश्वरस्य शक्तिर्माया दुरत्यया दुस्तरा। हि प्रसिद्धमेतत्। तथापि ये मामेवेत्येवकारेणाव्यभिचारिण्या भक्त्या प्रपद्यन्ते भजन्ति ते मायामेतां दुस्तरामपि तरन्ति। ततो मां जानन्तीति भावः।
।।7.14।।उक्तायामर्थस्थितौ मोह एवायं न घटत इति शङ्कायांदैवी इत्यादिकमवतारयति कथमिति।सर्वस्येति सत्त्वोत्तरतया तत्त्वज्ञानप्रच्युतिरहिताया देवजातेरिति भावः। उत्कृष्टापकृष्टसन्निधावुत्कृष्टग्रहणशीलताभोक्तृवर्गस्येत्यनेन सूचिता। हिशब्दोऽत्र दुरतिक्रमत्वहेत्वर्थः। देवेन निर्मिता दैवीति तद्धितार्थः।दिवु क्रीडा इत्यादिधातौ देवशब्दनिष्पतिः एतेनदेवात्मशक्तिम् श्वे.उ.1।3 इति श्रुतिसूचनम्।दैवी मम इति शब्दाभ्यां मायाप्रवर्तकस्य देवस्य मायिनश्च कृष्णस्य भेदभ्रमव्युदासायमयैवेत्युक्तम्। नहि स्वच्छन्देनाघटितघटनासमर्थेनेश्वरेण लीलार्थं प्रवर्तिता माया अनीश्वरैः सर्वभूतैरपि लङ्घितुं शक्यत इतिसर्वैरित्यस्य भावः। अत्ययशब्दस्यात्र नाशार्थत्वव्युदासायाह दुरतिक्रमेति। दुःखेनातिक्रमणीया भगवत्प्रपत्तिरहितैर्लङ्घयितुमशक्यैव। मायाशब्दस्य पराभिमतमर्थं दूषयिष्यन् स्वाभिमतमर्थं तावदाहअस्या इति। सत्येष्वेवासुरराक्षसास्त्रादिषु मायाशब्दप्रयोगो न मिथ्यात्वनिबन्धन इति भावः।यथा चेतितेन मायासहस्रम् इत्यत्र न मिथ्यार्थविषयत्वमुत्प्रेक्षितुमपि शक्यम् मिथ्याभूतस्य शस्त्रनिषूदनीयत्वाभावादिति भावः। आदिशब्देनमायया सततं वेत्ति प्राणिनां च शुभाशुभम्देवमायेव निर्मिता इत्यादिप्रयोगसङ्ग्रहः। अपिच दण्डनीतौ सामाद्युपायचतुष्टयादन्ये मायोपेक्षेन्द्रजालरूपा अमुख्यास्त्रय उपाया उपदिष्टाः तत्र माया अन्यथाभूतस्य वस्तुनोऽन्यथाकरणशक्तिः। इन्द्रजालं तु तथाप्रतिभासनशक्तिरिति विभागः। तस्मात्सत्यविषय एव मायाशब्द इत्यभिप्रायेणाह अत इति। मायाशब्दप्रयोगस्य सत्यविषयत्वादित्यर्थः। ननु मिथ्याभूतार्थप्रदर्शकेषु तत्सम्बन्धान्मायाविशब्दः प्रयुज्यते अतो मायाशब्दो मिथ्यार्थेऽपि प्रयुक्त इत्यत्राहऐन्द्रजालिकेति। असत्यत्ववदसत्योत्पादकत्वमपि न मायाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तमिति दर्शयितुंपारमार्थिक्या एवेत्युक्तम्। भ्रान्तिज्ञानमपि स्वरूपतः सत्यम् आरोपितस्तु विषयो मिथ्येत्युच्यते। तथाप्यन्ततो मिथ्यार्थसम्बन्धो निमित्तमित्यत्राहतथेति। मन्त्रौषधादेर्मिथ्यार्थस्य च सन्निधाने किं विशेषनियामकं इत्यत्राहसर्वेति। न ह्येकशक्त्यैव निर्वाहे सम्भवत्यनेकशक्तिकल्पना युक्तेति भावः। मिथ्याभूतेष्वेवार्थेषु मायेयमिति प्रयोगो भवति तत्र च विचित्रकार्यकरत्वाभावान्मिथ्यात्वमेव निमित्तमाश्रयणीयमित्यत्राहतत्रेति। अयं भावः यत्र सम्बन्धाद्गुणयोगाद्वा प्रयोगो दुर्निर्वहः तत्र हि शक्त्यन्तरकल्पनागौरवं सह्यम् सम्भवति चात्र परम्परया सम्बन्धः मायाकार्यज्ञानविषयत्वात्। न मिथ्यात्वे प्रवृत्तिनिमित्ततया स्वीकृतेऽस्त्रादिषु तत्सम्बन्धगन्धः। मिथ्यार्थस्य च गुणाभावादेव तद्गुणयोगो दूरनिरस्तः। अपिच मिथ्याभूतेषु शुक्तिकारजतादिषु तत्प्रयोगाभावान्मिथ्यात्वविशेषे निष्कृष्यमाणे अस्मदुक्त एव विशेषेऽन्तर्भवतीति।त्वं हि लोकगतिर्देव न त्वां केचित्प्रजानते। ऋते मायां विशालाक्षीं तव पूर्वपरिग्रहाम्योगनिद्रा महामाया इत्यादिष्वपि भगवतो विचित्रकार्यविशेषोपयोगितया वा प्रकृतितत्त्वाभिमानिदेवतात्वादिरूपेण वा मायेत्युक्तम्। अतो युक्तं विचित्रकार्यकरत्वमेव मायाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तमिति। श्रुतावपि विचित्रसृष्ट्युपादाने प्रकृतौ सत्यायामेव मायाशब्दः प्रयुक्त इत्याह एषेति। महेश्वरशब्दस्यात्र रुद्रविषयत्वभ्रमव्युदासाय भगवच्छब्दः। श्वेताश्वतरोपनिषदपि पुरुषसूक्तप्रत्यभिज्ञानमहापुरुषशब्दसत्त्वप्रवर्तकत्वादिभिर्भगवद्विषयतयैव प्रतीयते। महेश्वरशिवादिशब्दास्तु तस्मिन्नवयवशक्त्या गुणयोगेन वा प्रवृत्ताः रुद्रस्यान्यत्र कार्यत्वकर्मवश्यत्वसम्प्रतिपत्तेरिति भावः। मायां तु प्रकृतिं विद्यात् श्वे.उ.4।10 इति न तत्र प्रकृत्यनुवादेन मायात्वं विधीयते किन्तु मायाशब्दार्थानुवादेन प्रकृतित्वमिति वाक्यस्वारस्यावगतम्। पूर्वत्र अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः श्वे.उ.4।9 इत्यभिहिते केयं मायत्याकाङ्क्षायां प्रवृत्तत्त्वादिति भावः। अस्मिन्प्रकरणे मायाशब्दप्रयोगनिदानमत्रोपयुक्तं विचित्रकार्यं दर्शयतिअस्या इति। तदेतदखिलमभिप्रेत्य भगवद्यामुनमुनिभिरुक्तंस्वयाथात्म्यं प्रकृत्याऽस्य तिरोधिः शरणागतिः गी.सं.11 इति। चोद्यपरिहारतां दर्शयन्नुपसंहरति अत इति।प्रकृत्यास्य तिरोधिः शरणागतिः इति संग्रहश्लोके तन्निवृत्त्यर्थमित्यध्याहर्तव्यमिति दर्शयन्ननन्तरग्रन्थमवतारयति मायाविमोचनेति। यच्छासनादलङ्घनीयं निगलनं तन्निवृत्तिरपि तेनैव कार्या नत्वन्येनेतिमामेव इत्यवधारणाभिप्रायं व्यञ्जयतिसत्यसङ्कल्पमिति। नहि बन्धविषय एव हि सङ्कल्पः सत्यः अपितु मोक्षविषयोऽपीति स एव प्रपदनीय इति भावः। शक्तस्यापि निर्घृणस्य प्रपत्त्या न किञ्चित्प्रयोजनमित्यत उक्तंपरमकारुणिकमिति। कारुणिकस्यापि लोकवत्परिग्राह्यापरिग्राह्यविभागे किमस्यासह्यापराधशालिनो जनस्य तत्प्रपत्त्या इत्यत्रोक्तम्अनालोचितेत्यादि। वायसशाखामृगविभीषणद्रौपदीप्रभृतिषु चैतत्स्पष्टम्।यदि वा रावणः स्वयम् वा.रा.6।18।34 इति च तदुक्तिः।एताम् इत्यस्याभिप्रेतमाह मदीयां गुणमयीमिति। अपीति शेषः। उपासनप्रकरणत्वाद्वक्ष्यमाणार्तादिचतुष्टयसाधारणत्वाच्चोपासनाङ्गभूता प्रपत्तिरत्रोच्यत इत्यभिप्रायेणाहमायामुत्सृज्येति।
।।7.14।।नन्वेवं चेदस्माभिः कथं ज्ञातव्य इत्याकाङ्क्षायामाह दैवीति। एषा मम गुणमयी मद्गुणात्मिका दैवी केषुचिद्भाग्यवत्सु रसदानेच्छया प्रकटीकृतक्रीडात्मिका माया अलौकिकसामर्थ्येनान्यथाभावोत्पादनसमर्था। अतएव दुरत्यया दुःखेनापि जेतुमशक्या। एतादृशीमपि ये मामेव केवलमनन्यभावेन पुरुषोत्तमं प्रपद्यन्ते प्रपन्ना भवन्ति ते एतां मायां मोहनात्मिकां तरन्ति। मां जानन्तीत्यर्थः।मामेव ये इत्यत्रैवकारेणमाम् इत्येकवचनेन च भावात्मकतया केवलं पुरुषोत्तमत्वेन स्वभजनं दास्यभावेनोक्तं न तु लीलादिसहितदर्शनेन स्वरमणेच्छादिकतया। एतेन त्वमपि तथा प्रपन्नो भवेत्युक्तम्।
।।7.14।।देवस्य जीवरूपेण लीलया क्रोडतो मम संबन्धिनीयं दैवी हि प्रसिद्धा पिण्डब्रह्माण्डरूपेण वितता एषा मम चिन्मात्रस्य माया मामहं न जानामीति साक्षिप्रत्यक्षत्वेनापलापानर्हा अनृतस्य प्रपञ्चस्येन्द्रजालादेरिवप्रकाशिका गुणमयी सत्वरजस्तमोगुणमयी दुरत्यया दुरतिक्रमा। ये मामेव सर्वभूतस्थं भगवन्तं वासुदेवं प्रपद्यन्ते विषयीकुर्वन्ति त एवैतां मायां तरन्ति। अधिष्ठानज्ञानेनैव समूलस्य भ्रमस्योच्छेदो भवति नतु ज्ञानान्तरेण वा वृत्तिनिरोधेन वेत्यर्थः। अयमर्थः जीवेश्वरविभागशून्ये शुद्धचिन्मात्रे कल्पितो मायादर्पणश्चित्प्रतिबिम्बरूपं जीवं वशीकृत्य बिम्बचैतन्यमनुरुध्य प्रचलति। अयस्कान्तमनुरुध्येव लोहशलाका। इदमेव ईश्वराधीनत्वं मायायाः। ईश्वरस्य च मायाद्वारा सर्वस्रष्टृत्वमपि। तथा च श्रुतिःतस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः इति। तथाचैकैव माया जीवेश्वरयोरुपाधिर्दर्पण इव बिम्बप्रतिबिम्बयोर्बिम्बप्रतिबिम्बभावानाक्रान्तमुभयानुस्यूतं शुद्धचिन्मात्रमन्यत्तृतीयं मुक्तप्राप्यम्। जीवेश्वरौ च उपाधिपक्षपातदशायामल्पज्ञत्वसर्वज्ञत्वशास्यत्वशासितृत्वादिभावं भजेते। तावेव तदभावे उपाधिप्रचारदर्शिनौ उदासीनबोधरूपतया जीवसाक्षीश्वरसाक्षीतिशब्दाभ्यां व्यवह्रियेते। एवं च जीव ईश्वराराधनावाप्तप्रत्यक्तत्वज्ञानेन मायायां नष्टायां तत्कार्यस्यापि नाशेन साक्ष्याभावात्साक्षित्वमपि परित्यज्य बिम्बप्रतिबिम्बानुस्यूतं शुद्धं तृतीयं चैतन्यं प्राप्नोतीति तदिदमुक्तं दैवी मायेति। मम मायेति चैकस्या एव जीवेश्वरसंबन्धित्वं जीवस्येश्वरभजनेन मायातरणमिति च।
।।7.14।।तर्ह्यनादिसिद्धां त्रिगुणात्मिका दैवीं मायां जीवमोहिनीं केनोपायेनातिक्रामन्तीत्यपैक्षायामाह दैवी हीति। देवस्य ममेश्वरस्य स्वभूता त्रिगुणमयी त्रिगुणात्मिका माया प्रकृतिःमायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्। सा प्रकृतिर्मायाविद्यारुपेण द्विधामाया चाविद्या च स्वयमेव भवति इति श्रुतेः। तदुक्तंतमोरजःसत्त्वगुणा प्रकृतिर्दिविधा मता। सत्त्वशुद्य्धविशुद्धिभ्यां मायाविद्ये च ते मते।।मायाबिम्बो वशीकृत्य तां स्यात्सर्वज्ञ ईश्वरः। अविद्यावशगस्त्वन्यस्तद्वैचित्र्यादनेकधा।। इति। तथाच माया प्रकृतिरविद्या मायामयी ईश्वरमधिष्ठानत्वेनाश्रित्य जीवान्मोहयति। तथाच शारीरकं भाष्यंअविद्यात्मिका हि बीजशक्तिरव्यक्तशब्दनिर्देश्या परमेश्वराश्रया मायामयी महासुषुप्तिर्यस्यां स्वरुपबोधरहिताः वस्तु न जानामीत्यत्र तथैवानुभवात्। नचाविद्यायां सत्यां जीवपरमात्मविभागः। सति चैतस्मिन्जीवाश्रया परमात्मविषया विद्येतीतरेताश्रय इति वाच्यम्। जीवाविद्ययोर्बीजाङ्कुरवदनादित्वात्। नन्वेतद्दृष्टान्तेन जीवानित्यत्वमिति चेन्न। उत्तरोत्तरजीवाभिव्यक्तीनां पूर्वपूर्वभ्रमनिमित्तत्वाश्रयणात्। नन्वविद्याया जीवाश्रितत्वे स्वस्य च तदाश्रितत्वे आत्माश्रय इति चेन्न। अनादित्वेनोत्पत्त्यभावात्। जीवस्य स्तवःप्रतीत्य तद्दलादविद्याया अपि प्रतीतिसंभवात्। नन्वेवमपि स्वस्कन्धारुढारोहणवत्स्वाश्रिताश्रितत्वं विरुद्धमितिचेन्न। जीवाविद्ययोरमूर्तत्वेन कुण्डबदरवदधरोत्तरीभावायोग्यत्वेनावच्छेद्यावच्छेदकत्वाश्रयणात्। अविद्यावच्छेदकोपाधिकं जीवत्वमिति जीवोविद्ययावच्छिद्यते। नन्विदमपीतरेतराश्रयग्रस्तमिति चेन्न। एवंविधस्थरेऽयोन्याश्रयस्यादोषात्। प्रमेयत्वावगाहि प्रमाणं निरुपकप्रमेयावच्छेद्यं प्रमेयं च स्वविशेषणीभूतप्रमाणावच्छेद्यमित्येवमादिप्ववच्छेद्यावच्छेदकत्वस्यान्योन्याश्रयतन्त्रस्य दृष्ट्वात्। जीवाविद्ययोरधिष्टानं तु ब्रह्म तस्यैव सर्वप्रपञ्चविवर्ताधिष्टनत्वात्। तदुक्तम् अधिष्ठानं विवर्तानामाश्रयो ब्रह्मशुक्तिवत्। जीवाविद्यादिकानां स्यादिति सर्वमनाकुलम्।। इति। अतएव भगवताप्युक्तंदैवी ह्येषा गुणमयी मम मायेति। शुक्तिरेव यथा रजतरुपेणावभासते तथा पर एवात्मा अनाद्यविद्यावच्चेदलब्धजीवभावभेदेनावभासते। सएव च देहेन्द्रियादिभिरवच्छिद्यमानो बालैः शारीर इत्युपचर्यते। तादृशां च जीवानामविद्या नतु सर्वोपाधिविहीनस्य परमात्मनः। नन्वस्वतन्त्रोऽन्येन कारग्रहे प्रवेश्यते। परमात्मा तु सर्वज्ञः सर्वशक्तिश्च कस्मादकस्मात्संसारी संपद्यत इतिचेन्न। शुद्धबुद्धमुक्तस्वभावस्य निर्मृष्टनिखिलाविद्यातद्वासनस्येति हि यस्मादेषानुभवसिद्धा अकस्मादपलापानर्हा गुणमयी सत्त्वरजस्तमोमयी। प्रधानस्येव मायायाः स्वातन्त्रयनिरासार्थं दैवीत्युक्तम्। देवस्येयं स्वभूता दैवी। कल्य देवस्येयं च केत्यपेक्षायां मम माया इत्युक्तम्। दुरत्ययां दुःखेनात्ययोऽतिक्रमणं यस्याः सा। अतिक्रमणे तर्हि क उपाय इत्यपेक्षायामाह मामिति। मामेव स्वात्मभूतम्। एवकारेण मायाया व्यावृत्तिविंवक्ष्यते। ये प्रपद्यन्ते सर्वात्मना प्रपन्ना भवन्ति ते मत्प्रसादाल्लब्धबुद्धियोगा मायामेतां दुरत्ययां सर्वभूतमोहिनीं तरन्ति अतिक्रामन्ति। संसारबन्धनान्मुच्यन्त इत्यर्थः। ते मत्प्रसादाल्लब्धबुद्धियोगा मायामेतां दुरत्ययां सर्वभूतमोहिनीं तरन्ति अतिक्रामन्ति। संसारबन्धनान्मुच्यन्त इत्यर्थः। अत्रेदमवधेयम् अनादिरनिर्वाच्या भूतप्रकृतिश्चिन्मात्रसंबन्धिनी माया। तस्यां चित्प्रतिबिम्ब ईश्वरः। तस्या एवावरणविक्षेपशक्तिमदविद्याभिधानेषु परिच्छिन्नानन्तप्रदेशेषु चित्प्रतिबिम्बो जीव इति केचित्।जीवेशावाभासेन करोतिमायाय चाविद्या च स्वयमेव भवति इति श्रुतिसिद्धौ मूलप्रकृतेस्त्रिगुणात्मिकाया द्वौ रुपभेदौ रजस्तमोनभिभूतशुद्धसत्त्वप्रधाना माया तदभिभूतमलिनसत्त्वप्रधानाऽविद्येति मायाविद्याभेदं परिकल्पयित्वा मायाप्रतिबिम्ब ईश्वरोऽविद्याप्रतिबिम्बो जीव इति केचिद्वर्णयन्ति। एकैव मूलप्रकृतिर्विक्षेपप्रधानान्येन मायाशब्दितेश्वरोपाधिः। आवरणप्रधान्येनाविद्याऽज्ञानशब्दिता जीवोपाधिरिति केचित्।कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः इति श्रुतिमनुसृत्यविद्यायां चित्प्रतिबिम्ब ईश्वरः अन्तःकरणे चित्प्रतिबिम्बो जीव इति केचित्। एवमुक्तेष्वेतेष जीवेश्वरयोः प्रतिबिम्बविशेषत्वपक्षेषु यद्विम्बस्थानीयं ब्रह्म तन्मुक्तप्राप्यम्। अन्येतु जीव ईश्वरः शुद्धा चिदिति त्रैविध्यप्रक्रियां विहाय वस्तुत एकस्यैवाकाशस्य घटाकाशजलाशमहाकाशमेघाकशभेदाच्चातुर्विध्यमिवैकस्यैव चैतन्यस्य कूटस्थजीवब्रह्मेश्वरभेदेन चातुर्विध्यं परिकल्प्य धीवासनोपरक्ताज्ञानोपाधिरीश्वरः अन्तःकरणोपाधिर्जीव इति दर्शयन्ति। अन्येतुविभेदजनकेऽज्ञाने नाशमान्त्यतिकं गते। आत्मनो ब्रह्मणो भेदमसन्तं कः करिष्यति।। इति समृत्या एकस्यैवाज्ञानस्य जीवेश्वरविभागोपाधिध्वप्रतिपादनाद्विम्बप्रतिबिम्बभावेन जीवेश्वरयोर्विभागो नोभयोरपि प्रतिबिम्बभावेनोपाधिद्वयमन्तरेणोभयोः प्रतिबिम्बत्वायोगात्। तत्रापि प्रतिबिम्बो जीवः बिम्बस्थानीय ईश्वर इति। सच प्रतिबिम्बभूतो जीव एवाविद्योपाधिक एकमेव तदज्ञानं तदज्ञानकल्पितं च सर्वं जगत्तस्य स्वप्रदर्शनवद्यावदविद्यं सर्वो व्यवहारः। बुद्धमुक्तव्यवस्थापि नास्ति जीवस्यैकत्वात्। शुकमुक्त्यादिकमपि स्वाप्नपुरुषान्तरमुक्त्यादिकमिव कल्पितमिति वर्णयन्ति। परेतु रुपानुपहितप्रतिबिम्बो न युक्तः। सुतरां नीरुपे। ननु नीरुपस्य गगनस्य जलादौ प्रतिबिम्बानुभवान्नीरुपस्य न प्रतिबिम्ब इति नास्ति नियम इति चेन्न। आलोकप्रतिबिम्बे गगनप्रतिबिम्बत्वव्यवहारस्य भ्रममात्रमूलकत्वात्। ध्वनिधर्माणामुदात्तादिस्वराणां संनिधिमात्रेण व्यञ्जकतया वुर्णेष्वारोपोपपत्त्या वर्णप्रतिबिम्बोपाधिकत्वपल्पनााय निष्प्रमाणकत्वेन ध्ववौ वर्णप्रतिबिम्बत्ववादोऽप्ययुक्तः। तस्माच्चाक्षुषस्यैव चाक्षुष एव प्रतिबिम्बइति नियमस्य न क्वापि भङ्गोऽस्ति। चन्दनखण्डादिप्रतिबिम्बे चाक्षुषगुणानामेवानुभवात्। तदाग्राणेऽपि सौरभाननुभवाच्च। मुखादिप्रतिबिम्बेऽपि चाक्षुषगुणानामेवोपलम्भो नतु मुकोच्चारितशब्दस्य। ननु गुहादिषु प्रतिध्वनिरुपस्य ध्वनिप्रतिबिम्बस्योपलम्भ इति चेन्न। पञ्चीकरणप्रक्रियायां दुन्दुभिसमुद्रतवावानलझंझामारुदादिध्वनीनां पृथिव्यादिशब्दत्वेन प्रतिध्वनेरेवाकाशगुणत्वात्तस्यान्यशब्दप्रतिबिम्त्वानुपपत्तेः। नच वर्णात्मकप्रतिशब्दस्य पूर्ववर्णप्रतिबिम्बत्वमिति वाच्यम्। मूलध्वनिवदेव प्रतिध्वनेरपि वर्णाभिव्यञ्चकत्वोपपत्तेः। तस्मात् घटाकाशवदन्तःकरणाद्यवच्छिन्नं चैतन्यं जीवः। तदनवच्छिन्न ईश्वर इति। नचैवंयो विज्ञाने तिष्ठन्विज्ञानमन्तरो यमयति इत्यादिश्रुत्या ईश्वरस्यान्तर्यामिभावेन विकारान्तरावस्थानबोधकया विरोधः। ब्रह्माण्डान्तर्वर्तितत्तदन्तःकरणोपाधिभिस्तदन्तर्वर्तिचैतन्यस्य सर्वात्मना जीवभावेनावच्छेदात् तदवच्छेदरहितचैतन्यात्मकस्येश्वरस्य ब्रह्माण्डान्तः सत्त्वानापत्तेः। प्रतिबिम्बपक्षे तु जलगतस्वाभाविकाकाशे सत्येव प्रतिबिम्बाकाशदर्शनादेकत्र द्विगुणीकृत्य वृत्तिरुपपद्यत इति वाच्यम्। अविद्याश्रयत्वान्तःकरणसंवलितत्वाद्युपाधिकाज्जीवादविद्याविषयत्वान्तःकरणासंवलितत्वाद्युपाधिकस्यान्तर्यामिणो भेदेनावस्थानस्योपपत्त्या श्रुतिविरोधाभावात्। प्रतिबिम्बपक्षे तु अन्तर्यामिब्राह्मणस्यासामञ्जस्यं बहिस्थपाषाणादिवत् जलान्तर्वर्तिपाषाणादेः जले प्रतिबिम्बादर्शनादुपाध्यनन्तर्गतस्यैव चैतन्यस्य प्रतिबिम्ब इत्यवश्याङ्गीकर्तव्यत्वेन बिम्बभूतस्य विकारान्तरावस्थानायोगात्। एकत्र द्विगुणीकृत्यवृत्तिरित्यपि न।षडस्माकमनादयः इति सिद्धान्ते जीवेश्वरभिन्नत्वेनाभ्युपगतस्य जीवादिसर्वप्रपञ्चविवर्ताधिष्ठात्वेन सर्वगतस्य शुद्धचैतन्यस्याप्यन्तःकरणे सत्त्वस्यावर्जनीयत्वेन जीवोऽन्तर्यामी शुद्धतैतन्यं चेति एकत्र त्रिगुणीकृत्य वृत्तेरुपपादनीयत्वापत्तेः। नचावच्छेदपक्षेयथा स्वयंज्योतिरात्मा विवस्वानपो भिन्ना बहुधैकोऽनुगच्छन्। उपाधिना क्रियते भेदरुपो देवः क्षेत्रेष्वेवमजोऽध्यमात्माअतएव चोपमा सूर्यकादिवत् इति श्रुतिसूत्रविरोध इति वाच्यम्। भाष्यकारैरेवअतएवेति सूत्रं व्याख्याय सूर्यादिवदात्मनः प्रतिबिम्बो न युज्यते इति तदाक्षेपकत्वेनअम्बुवदग्रहणात्तु न तथात्तवम् इति सूत्रं व्याख्यातततो वृद्धिह्नासभाक्त्वमन्तर्भावादुभयसामञ्जस्यादेवम् इति सूत्रेणोक्तानुपपत्त्या आत्मनः प्रतिबिम्बनमनुपपन्नमित्यङ्गीकृत्यैव श्रुतिषु सूर्यादि प्रतिबिम्बोपादानस्य तात्पर्यान्तरवर्णनपरताया उक्तत्वात्। तथाच भाष्यंयत एव चायमात्मा चैतन्यस्वरुपो निर्विशेषो वाङ्यनसातीतः परप्रतिषेधोपदेश्योऽत एव चास्योपाधिनिमित्तामपारमार्थिकीं विशेषवत्तामभिप्रेत्य जलसूर्यकादिवदित्युपमा दीयते शास्त्रेषुयथा ह्ययं ज्योतिः इत्यादि।एक एव तु भूतात्मा भूतेभूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्।। इतिचैवमादिषु। अत्र प्रत्यवस्थीयते न जलसूर्यकादितुल्यत्वमिहोपपद्यते तद्वदग्रहणात् सूर्यादिभ्यो मूर्तेभ्यः पृथग्भूतं विप्रकृष्ठं देशम्। मूर्तं च जलं गृह्यते। तत्र युक्तः सूर्यादिप्रतिबिम्बोदय न त्वात्मा मूर्तो न चास्मात्पृथग्भूता विप्रकृष्टेशाश्चोपाधयः सर्वगतत्वात्सर्वानन्यत्वाच्च। तस्मादयुक्त उक्तोऽयं दृष्टान्त इति। अत्र प्रतिविधीयते युक्त एव त्वयं दृष्टान्तो विवक्षितांशसंभवात्। नहि दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोः किंचित्क्वचिद्विवक्षितमंशं मुक्त्वा सर्वसारुप्यं केनचिद्दर्शयितुं शक्यते सर्वसारुप्ये हि दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकभावोच्छेद एव स्यात्। नचेदं स्वमनीषया जलसूर्यकादिदृष्टान्तप्रणयनं शास्त्रप्रणीतस्य त्वस्य प्रयोजकमात्रमुपन्यस्यते किं पुनरत्र विवक्षितं सारुप्यमिति। तदुच्यते वृद्धिह्रासभाक्त्वमिति। जलगतं हि सूर्यप्रतिबिम्ब जलवृद्धौ वर्धते जलह्रासे ह्रसति जलचलने चलति जलभेदे भिद्यते इत्येवं जलधर्मानुविधायि भवति नतु परमार्थतः सूर्यस्य तथात्वमस्त्येवं परमार्थतोऽविकृतमेकरुपमपि सद्ब्रह्म देहाद्युपाध्यन्तर्भावाद्भजत इवोपाधिधर्मान्वृद्धिह्रासादीनेवमुभयोर्दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोः सामञ्जस्यादविरोध इति। बृहदारण्यकभाष्येऽपि प्रवेशपदार्थस्यान्यथोपपादनेन प्रतिबिम्बपक्षदूषणं स्थरीकृतम्। तैत्तिरीयकभाष्येऽपितत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् इति वाक्ये प्रवेशविचारावसरे जलसूर्यकादिप्रतिबिम्बवत्प्रवेशः स्यादितिचेन्न। अपरिच्छिन्नत्वादमर्तूत्वाच्च परिच्छिन्नस्य मूर्तस्यान्यस्यान्यत्र प्रसादास्वाभाविके जलादौ सूर्यकादिप्रतिबिम्बवत्प्रवेशः स्यादितिचेन्न। अपरिच्छिन्नत्वादमूर्तत्वातच्च परिच्छिन्नस्य मूर्तस्यान्यस्यान्यत्र प्रसादस्वाभाविके जलादौ सूर्यकदिप्रतिबिम्बोदयः स्यात्। नत्वात्मनोऽमूर्त्वादाकाशादिकारणस्यात्मनो व्यापकत्वात्तद्विप्रकृष्टदेशप्रतिबिम्बाधारवक्त्वभावाच्च प्रतिबिम्बवत्प्रेवेशो न युक्त इति प्रतिबिम्बभावेन प्रवेशनिराकरणं भाष्यकृद्भिः कृतम्। एवंच प्रतिबिम्बपक्षे श्रुतिसूत्रभाष्यविरोधोऽवच्चेदपक्षे तु तदभाव इति। अस्मिन्पक्षे श्रुतिसूत्रभाष्यानुग्रहोऽप्यस्ति। तथाहिघटसंवृतमाकाशं नीयमाने यथा घटे। घटो नीयेत नाकाशं तद्वज्जीवो नभोपमः इति जीवस्य नभोपमशब्देन घटसंवृताकाशतुल्यत्वमभिधायिन्या श्रुत्यावच्छिन्नचैतन्यस्यैव जीवरुपत्वमुक्तम्।अंशो नानाव्यपदेशात् इति सूत्रेण जीव ईश्वरस्यांशो भवितुमर्हति। यथाग्नेर्विस्फुलिङ्गोऽश इवांशः। नहि निरवयवस्य मुख्योऽशः संभवति कस्मात्पुनर्निरवयवत्वात्स एव न भवतिनानाव्यपदेशात्।य आत्मनि तिष्टन्नात्मानमन्तरो यमयति इतिचैवमादिको भेदनिर्देशो नासति भेदे संभवतीति भाष्येण च जीवचैतन्यस्य घटाकाशवदन्तःकरणावच्छिन्नत्वरुपमंशत्वं विवक्षितम्। यद्यपिआभास एव च इतिसूत्रेण आभास एवएष जीवः परस्यात्मनो जलसूर्यकादिवत्प्रतिपत्तव्यः इति तद्भाष्येण च तन्निराकरणं च न संभवतीति किंचिदनुरोधेन कस्मिंश्चिद्य्धाख्यातव्ये प्रतिबिम्बत्वनिराकरणस्ययुक्तियुक्त्त्वे न आभास इति सूत्रे भाष्यकृद्भिरपि भुत्योपपत्त्या प्रतिबिम्बत्वस्यासमर्थितत्वात्। तदेव सूत्रं तद्भाष्यं च वृद्धिह्रासभाक्त्वमिति सूत्रोक्तन्यायात्।अतश्च यथा नैकस्मिञ्जलसूर्यके कम्पमाने जलसूर्यकान्तरं कम्पते एवं नैकस्मिञ्जीवे कर्मफलसंबन्धिनि जीवान्तरस्य तत्संबन्ध इति तदधिकरणभाष्ये प्रतिबिम्बस्य दृष्टान्तत्वेनोक्तत्वाच्च प्रतिबिम्बसादृश्यप्रतिपादनपरं व्याख्येयम्। तस्मात्प्रतिबिम्बासंभवादिवच्छेदपक्षे विरोधाभावत्साधकस्य सत्त्वाच्च अवच्छेद्यचैतन्यस्य प्रतिबिम्बपक्षेऽपि संमतत्वेनोभयसंप्रतिपन्नत्वेन लाघवात्तस्यैव जीवत्वकल्पनौचित्यात्। सर्वगतस्य चैतन्यस्यान्तःकरणादिनावच्छेदोऽवश्यंभावीत्यावश्यकत्वाद्वच्छेदो जीव इति। स चानेकः अन्तःकरणादीनां नानाभूतानां जीवोपाधित्वाभ्युपगमात्। तद्यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत्।यथाग्रेः क्षुद्रा विस्फलिघङ्ग व्युच्चरन्त्येवमेवास्मादात्मनः सर्व एत आत्मानो व्युच्चरन्ति इत्यादिश्रुतेः प्रतिषेधादिति चेन्न। शारीरादित्याधिकरणे बद्धमुक्त्वप्रतिपादकभाष्यस्य नैकस्मिञ्जीवे कर्मफलसंबन्धिनि जीवान्तरस्य तत्संबन्ध इतिआभास इति सूत्रस्थस्य सच स्वात्मभूतानिव घटाकाशस्थानीयानविद्योपस्थापितनामरुपकृकार्यकरणसंघातानुरोधिनो जीवाख्यान्विज्ञानात्मनः प्रतीष्टे इति।तदनन्यत्वं इत्यधिकरणस्थस्य जीवात्मापि पुण्यापुण्यकर्मा सुखदुःखभुक् प्रतिशरीरं प्रविभक्त इति जीवात्मनामुत्पत्तिप्रलयाबुच्येते। इति नात्मेत्यधिकरणस्थस्य च भाष्यस्यमामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते इत्यादिस्मृतेः।एवं जीवाश्चितो भावा भवभावनयोहिताः। ब्रह्मणः कलिताकारल्लक्षशोऽप्यथ कोटिशः।।असंख्याताः पुरा जाता जायन्ते चापि चाद्य भोः। उत्पतिष्यन्ति चैवाम्बुकणौघा इव निर्झरात्।।स्ववासनावशावेशादाशाविवशतां गताः। दशास्वतिविचित्रासु स्वयं निगडिताशयाः।।भविष्यञ्जातयः केचित्केचिद्भूतभवोद्भवाः। वर्तमानभवाः केचित्केचित्त्वभवतां गताः।।(अभवतां विदेहमुक्तिमिति टीकाकाराः)। जीवन्मुक्ता भ्रमन्तीह केचित्कल्याणभाजनाः। चिरमुक्ताः स्थिताः केचिन्नूनं परिणताः परे।।(परेपरमात्मनि परिणतास्तद्भावं प्राप्ता विदेहमुक्ता इति व्याख्यातारः)। केचिच्चिरेण कालेन भविष्यन्मुक्ततः शिवाः। केचिद्विशन्ति चिद्भावाः केवली भावमात्मनः।। केवलीभावं केवल्यमित्यादीतिहासस्य चास्मिन्पक्षे एवाञ्जस्यं नत्वेकजीववादे। नच नानाजीववादेऽपि ब्रह्मैव स्वाविद्यया नानान्तःकरणभावेन परिणतया नानाजीवभावं प्राप्य संसरति स्वविद्यया मुच्यत इत्यभिप्रायकत्वेपपत्तेः। नच जीवत्वोपाधिभूताया अविद्याया एकत्वाज्जीवैक्यसिद्धिरिति वाच्यम्। रूपं रुपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रुपं प्रतिचक्षणाय।इन्द्रो मायाभिः पुरुरुप ईयते ित्यादिश्रुत्या अविद्याया नानात्वाभ्युपगमात्। तदेकत्वश्रुत्यादीनां जात्यभिप्रायकत्वेपपत्तेः। अविद्याया एकत्वेऽपिकार्योपाधिरयं जीवः इतिश्रुत्यनुसारेणान्तःकरणानामेव जीवत्वोपाधित्वोपगमसंभवाच्च। अविद्याया नानात्वपक्षे विनिगमकाभावादनेकतन्त्वारब्धपटतुल्यः सर्वाविद्याकृतः प्रपञ्च इत्येके तत्ततज्ञानकृतप्रातिभासिकरजतवत्तत्तदविद्यकृतो वियदादिप्रपञ्चः प्रतिपुरुषं भिन्नः एक्यप्रत्ययस्तु शुक्तिरुप्यैक्यप्रत्ययवदित्यन्ये जीवाश्रितादविद्यानिचयाद्भिन्नाः परमेस्वराश्रिता मायैव प्रपञ्चकारणं जीवानामविद्यास्तु आवरणमात्रे प्रातिभासिकसृष्टौ चोपयुज्यन्ते।नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः इत्यादिवचने मायापदं सर्वे वयमतःपरंकामात्मानः स्वर्गपराःभोगैश्वर्यप्रसक्तानांकृपणाः फलहेतवःकर्मजं बुद्धियुक्ता हि या निसा सर्वभातानांज्ञानयोगगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनांकर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयःये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहंएवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिःयत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यतेज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनःतद्धुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः। गच्छन्त्यपुररावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाःपण्डिताः समदर्शिनःइहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनःलभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति तेन मां दुष्कृतिनो मूढाः चतुर्विधा भजन्ते मांजरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्त्रंतत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाःमत्स्थानि सर्वभूतानिमहात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताःएवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासतेअन्ये त्वेवमजानन्तःयज्ज्ञात्व मुनयः सर्वेनिर्मानमोहा जितसङ्गदोषाःविमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषःयतन्तो योगिनश्चैनंनष्टात्मानोऽल्पबुद्धयःत्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनाम् इत्यादिभगवद्वचनेभ्योऽपि जीवानामनेकत्वमध्यवसीयते।क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारतप्रकृतिं पुरुषं चैव विद्य्धनादी उभावपिममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः इत्यादिवचनेष्वेकवचनं तु जात्यभिप्रायम्।एवमनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्यवालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च। भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते इत्यादिश्रुतिष्वपि।एको देवः सर्वभूतेषु गूढः इत्यादिश्रुतिस्तु परमात्मैकत्वप्रतिपादिका नतु जीवैकत्वप्रतिपादिका।केवलो निर्गुणश्च इत्यादिविशेषणेभ्यस्तथा च भाष्यंभेदस्तुपाधिनिमित्तो मिथ्याज्ञानकल्पितो न पारमार्थिकः।एको देवः सर्वभूतेषु गूढः इत्यादिश्रुतिभ्य इत्यलं प्रासङ्गिकेन।
7.14 दैवी divine? हि verily? एषा this? गुणमयी made of Gunas? मम My? माया illusion? दुरत्यया difficult to cross over? माम् to Me? एव even? ये who? प्रपद्यन्ते take refuge? मायाम् illusion? एताम् this? तरन्ति cross over? ते they.Commentary Maya is the Upadhi or the causal body (Karana Sarira) of Isvara. It is the material cause of this universe. It is inherent in the Lord. It is constituted of the three alities? viz.? Sattva? Rajas and Tamas. Those who completely devote themselves to the Lord alone after renouncing all formal religion (Dharma) cross over this illusion which deludes all beings. They attain liberation or Moksha.Isvara is the Lord of Maya (illusion). He has perfect control over it. Avidya is the Upadhi (limiting adjunct) of the Jiva (individual soul). The Jiva is a slave of this ignorance. Ignorance is the veil that has screened the Jiva from Satchidananda Brahman or the ExistenceKnowledgeBliss Absolute. When the veil is removed by the dawn of knowledge of the Self the Jiva loses his characteras a Jiva or an individual soul and becomes identical with Brahman. (Cf.XV.3and4)
7.14 Verily, this divine illusion of Mine, made up of the (three) alities (of Nature) is difficult to cross over; those who take refuge in Me alone, cross over this illusion.
7.14 Verily, this Divine Illusion of Phenomenon manifesting itself in the Qualities is difficult to surmount. Only they who devote themselves to Me and to Me alone can accomplish it.
7.14 Since this divine Maya of Mine which is constituted by the gunas is difficult to cross over, (therefore) those who take refuge in Me alone cross over this Maya.
7.14 Hi, since; esa, this, aforesaid; daivi, divine; Maya mama, of Mine, of God, of Visnu, which (Maya) is My own; and which is guna-mayi, constituted by the gunas; is duratyaya, difficult to cross over; therefore, this being so, ye, those who; wholeheartedly prapadyante, take refuge; mam eva, in Me alone, in Me who am the Master of Maya and who am their own Self, by giving up all forms of rites and duties; te, they; taranti, cross over; etam, this; mayam, Maya, which deludes all beings. That is to say, they become freed from the bondage of the world. 'If it is that those who resort to You cross over this Maya, why then do not all take refuge in You alone?' This is being answered:
7.14. This is My play (daivi), trick-of-Illusion composed of the Strands and is hard to cross over. Those, who resort to Me alone-they cross over the trick-of-Illusion.
7.14 Daivi etc. Deva means 'one who plays'. What is born of (or exists in) him is daivi 'play'. Hence, the meaning is : 'This is My play'. Due to this [play-trick], the [Strands] Sattva etc., even though they are not really different from the Supreme Brahman, the Pure Consciousness, manifest as different from That. This [differentiation] itself accounts for their secondary nature i.e., the nature of being an object of enjoyment i.e., being dependent on the existence of the enjoyer. This peculiarity of dual-nature is inexplicable for the persons of mundane life. Hence to them it is a trick-of-Illusion. Therefore, those who have realised the light of the Brahman, the Supreme Reality, and find the universe as not distinct from that [Brahman], they [alone] cross over the trick-off-Illusion which is of the nature of manifesting in duality and is in the form of the dependent status of the Strands, Sattva etc. This is the idea indicated by 'alone' in 'Me alone'. On the other hand those who would find just the manifestation of duality as they [appear to] exist - they do not across over the trick-of-Illusion. Thus it is rightly said 'I am not in them (in the beings of the Sattva etc.) etc.'
7.14 (a) This Maya of Mine consists of the three Gunas, Sattva, Rajas and Tamas. Because it is created by Me, the Divine, for purpose of sport, it is divine in its power and therefore difficult to overcome. The word Maya is used for the effects of the three Gunas, because it has got the power of generating wonderful effects as in the case of the magic of Asuras and Raksasas. See the passages: 'Then the excellent discus, the flaming Sudarsana, was despatched by the Lord to defend the boy. The thousand Mayas or wonderfully created weapons of the evil-designed Sambara were foiled one after another, by that ickly moving discus, for protecting the body of the boy' (V. P., 1.19. 19-20). Here the term Maya does not signify the sense of 'false'. Even with regard to magicians, when the term, Mayavin (one who possesses Maya) is used, there is origination of real impressions with the aid of certain incantations, herbs etc., though the objects created are illusory things. Accordingly the term Maya denotes the incantations, herbs etc., which have got the power of creating real impressions. Inasmuch as the sense of the term should be invariable, following the usage in all cases, the term Maya can be applied to the illusory objects, only in a secondary sense, while its primary sense in regard to the real impressions generated in the mind. It is just like in the statement 'The cots cry.' The Maya of the Lord, which is absolutely real and which consists of the Gunas, is alone taught in the texts like, 'Know then Maya to be the Prakrti and the possessor of the Maya to be the great Lord' (Sve. U., 4.10). It not only obscures the essential nature of the Lord but also creates the condition of the mind that sees its objects as enjoyable. Therefore, the entire universe, deluded by the Lord's Maya, does not know the Lord who is of the nature of boundless beatitude. (On the other hand they feel objects set forth by Maya as enjoyable). Sri Krsna teaches the way of deliverance from Maya: (b) But those who take refuge in Me alone - Me whose resolves are always true, who has supreme compassion, and who is the refuge of all beings without exception and without consideration of their particular status - such persons shall pass beyond this Maya of Mine consisting of the three Gunas. The meaning is that they worship Me alone, renouncing the Maya. Why, then do all not take recourse to refuge in the Lord which is conducive to the worship of the Lord?
7.14 (a) For this divine Maya or Mine consisting of the three Gunas (assumed for purposes of sport) is hard to overcome৷৷. (b) ৷৷. But those who take refuge in Me (Prapadyante) alone shall pass beyond the Maya.
।।7.14।।तो फिर इस देवसम्बन्धिनी त्रिगुणात्मिका वैष्णवी मायाको मनुष्य कैसे तरते हैं इसपर कहते हैं क्योंकि यह उपर्युक्त दैवी माया अर्थात् मुझ व्यापक ईश्वरकी निज शक्ति मेरी त्रिगुणमयी माया दुस्तर हैअर्थात् जिससे पार होना बड़ा कठिन है ऐसी है। इसलिये जो सब धर्मोंको छोड़कर अपने ही आत्मा मुझ मायापति परमेश्वरकी ही सर्वात्मभावसे शरण ग्रहण कर लेते हैं वे सब भूतोंको मोहित करनेवाली इस मायासे तर जाते हैं वे इसके पार हो जाते हैं अर्थात् संसारबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं।
।।7.14।। दैवी देवस्य मम ईश्वरस्य विष्णोः स्वभावभूता हि यस्मात् एषा यथोक्ता गुणमयी मम माया दुरत्यया दुःखेन अत्ययः अतिक्रमणं यस्याः सा दुरत्यया। तत्र एवं सति सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेव मायाविनं स्वात्मभूतं सर्वात्मना ये प्रपद्यन्ते ते मायाम् एतां सर्वभूतमोहिनीं तरन्ति अतिक्रामन्ति ते संसारबन्धनात् मुच्यन्ते इत्यर्थः।।यदि त्वां प्रपन्नाः मायामेतां तरन्ति कस्मात् त्वामेव सर्वे न प्रपद्यन्ते इत्युच्यते
।।7.14।।उपायाभावानुमानाभासाभ्यामनुपलम्भो विपरीतोपलम्भश्चेत्युक्तम् अतः किमुत्तरेण वाक्येनेत्यत आह कथमिति। भगवान्गुणमयविग्रह इत्ययं न मोहः बाधकप्रत्ययाभावात्। ज्ञानिनां सम्यक्प्रत्ययो बाधक इत्युक्तमिति चेत् न बहुतरज्ञानविरोधेन कतिपयज्ञानानामेव यथार्थत्वापत्तेः। ननूत्तरकाले बाधकप्रत्ययो भविष्यति चेत् न अनादौ काले जातस्योत्तरत्राप्यसम्भवादिति भावः। ननु बाधकप्रत्ययाभावाद्यथार्थ एवायं प्रत्यय इति शङ्कायां किमेतदसङ्गतमुच्यते इत्यत आह अयमिति।एषा इत्यनुवादेनमोहिका इति व्याख्यातं मोहितमिति धात्वर्थमात्रं परामृश्य योग्यप्रत्ययसम्बन्धेन व्याख्यानात्। गुणमयी तदभिमानिनी दुर्गा या हि तमोगुणेनैवंविधं मोहं जनयति। अनुमानं तु निमित्तमात्रम्। ततः किम् इत्यत आह सा चेति। सा च दुरत्यया तत्कृतमोहं कोऽपि नात्येतुं शक्नोति न कस्यापि बाधकप्रत्ययो भवति। कुतो दुरत्यया इत्यतोऽतिशक्तेरिति हेतुरध्याहृत्योक्तः। कुतोऽतिशक्तित्वम् इत्यतोदैवी इत्येतद्धेतुगर्भमिति व्याख्यातम् देवसम्बन्धित्वादिति। सम्बन्धित्वं परमप्रियत्वम्। स च देवस्यातिशक्तित्वे तत्सम्बन्धिन्यास्तत्स्यात् तदेव कुतः इत्यतो देवशब्दार्थो निरुक्तः। सृष्ट्यादीति। सृष्ट्यादिश्च सा क्रीडा च प्रथमादिपदेन स्थित्यादेः सङ्ग्रहः द्वितीयेन विजिगीषादेः। क्रीडादिमत्वेनातिशक्तिर्न सिध्यतीति क्रीडा व्याख्याता। देवशब्दस्य क्रीडादिमत्त्वमर्थः। कुतः इत्यत आह तथा हीति। देवशब्दे या प्रकृतिस्तदर्थमित्यर्थः। प्रत्ययंस्तु इगुपधलक्षणस्य कस्य बाधकः पचाद्यच्।दैवी इत्यनेन निराकाङ्क्षत्वान्ममेति व्यर्थमित्यत आह कथमिति। तस्यैव व्याख्यार्थमेतदिति भावः। त्वदीयत्वेऽपि कथं दैवीत्यतः शेषं पूरयति अहं हीति। आशयवर्णनसमाप्ताविति शब्दः। अत्र प्रमाणमाह अब्रवीच्चेति। उत्तरस्य प्रकृतोपयोगितया सङ्गतिमाह तर्हीति। यदि न केवलमनुमानं किन्तु भगवतोपोद्बोलिता माया मोहहेतुस्तर्हीत्यर्थः। ततश्च ज्ञानिव्यावृत्त्यर्थं यदिदमित्युक्तं तदसदिति भावः। ननु मायात्ययोपायस्यासम्भावनाशङ्कायां तदुपाय एव वक्तव्यः न तूपायान्तरप्रतिषेधः। अतोऽनुपपन्नमव धारणमित्यतआह अन्यदिति। स्वप्रतिपत्तावित्थम्भावसूचक एवैवशब्दो नोपायान्तरप्रतिषेधपर इत्यर्थः। एवं तर्हि गुर्वादिवन्दनाभावः प्राप्त इत्यतोऽभिप्रायमाह गुर्वादीति। भागवता एत इत्यादिबुद्ध्या वन्दनादि कुर्वन्तीति यावत्। एतन्मध्यमभक्तानां चरित्रमुक्तम् उत्तमानां त्वाह स एवेति। भगवानेव तत्र गुर्वादिषु। द्वयं प्रमाणेनोपपादयति आह चेति। अहं च सा सम्पत्तिश्च मदुपाधितया मत्प्रतिमात्वेन। चैत्यं चित्स्थम्। स्वगतिं स्वज्ञानम्। व्यनङ्क्षि व्यञ्जयसि।
।।7.14।।कथमनादिकाले मोहानत्ययो बहूनामित्यत आह दैवीति। अयमाशयः माया ह्येषा मोहिका सा च सृष्ट्यादिक्रीडादिमद्देवसम्बन्धित्वादतिशक्तेर्दुरत्यया। तथा हि देवताशब्दार्थं पठन्तिदिवु क्रीडाविजिगीषावव्यवहारद्युतिस्तुतिमदमोदस्वप्नकान्तिगतिषु धा.पा.दि.1 इति। कथं दैवी मदीयत्वात्। अहं हि देव इति। अब्रवीच्चश्रीभूदुर्गेति या भिन्ना महामाया तु वैष्णवी। तच्छक्त्यनन्तांशहीनाऽथापि तस्याश्रयात्प्रभोः। अनन्तब्रह्मरुद्रादेर्नास्याः शक्तिकलाऽपि हि। तेषां दुरत्ययाऽप्येषा विना विष्णुप्रसादतः इति च व्यासयोगे। तर्हि न कथञ्चिदत्येतुं शक्यते इत्यात आह मामेवेति। अन्यत्सर्वं परित्यज्य मामेव ये प्रपद्यन्ते गुर्वादिवन्दनं च मय्येव समर्पयन्ति स एव च तत्र स्थित्वा गुर्वादिर्भवतीत्यादि पश्यन्ति। आह च नारदीये मत्सम्पत्त्या तु गुर्वादीन् भजन्ते मध्यमा नराः। मदुपाधितया तांश्च सर्वभूतानि चोत्तमाः इति।आचार्यचैत्यवपुषा स्वगतिं व्यनङ्क्षि इति च।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14।।
দৈবী হ্যেষা গুণমযী মম মাযা দুরত্যযা৷ মামেব যে প্রপদ্যন্তে মাযামেতাং তরন্তি তে৷৷7.14৷৷
দৈবী হ্যেষা গুণমযী মম মাযা দুরত্যযা৷ মামেব যে প্রপদ্যন্তে মাযামেতাং তরন্তি তে৷৷7.14৷৷
દૈવી હ્યેષા ગુણમયી મમ માયા દુરત્યયા। મામેવ યે પ્રપદ્યન્તે માયામેતાં તરન્તિ તે।।7.14।।
ਦੈਵੀ ਹ੍ਯੇਸ਼ਾ ਗੁਣਮਯੀ ਮਮ ਮਾਯਾ ਦੁਰਤ੍ਯਯਾ। ਮਾਮੇਵ ਯੇ ਪ੍ਰਪਦ੍ਯਨ੍ਤੇ ਮਾਯਾਮੇਤਾਂ ਤਰਨ੍ਤਿ ਤੇ।।7.14।।
ದೈವೀ ಹ್ಯೇಷಾ ಗುಣಮಯೀ ಮಮ ಮಾಯಾ ದುರತ್ಯಯಾ. ಮಾಮೇವ ಯೇ ಪ್ರಪದ್ಯನ್ತೇ ಮಾಯಾಮೇತಾಂ ತರನ್ತಿ ತೇ৷৷7.14৷৷
ദൈവീ ഹ്യേഷാ ഗുണമയീ മമ മായാ ദുരത്യയാ. മാമേവ യേ പ്രപദ്യന്തേ മായാമേതാം തരന്തി തേ৷৷7.14৷৷
ଦୈବୀ ହ୍ଯେଷା ଗୁଣମଯୀ ମମ ମାଯା ଦୁରତ୍ଯଯା| ମାମେବ ଯେ ପ୍ରପଦ୍ଯନ୍ତେ ମାଯାମେତାଂ ତରନ୍ତି ତେ||7.14||
daivī hyēṣā guṇamayī mama māyā duratyayā. māmēva yē prapadyantē māyāmētāṅ taranti tē৷৷7.14৷৷
தைவீ ஹ்யேஷா குணமயீ மம மாயா துரத்யயா. மாமேவ யே ப்ரபத்யந்தே மாயாமேதாஂ தரந்தி தே৷৷7.14৷৷
దైవీ హ్యేషా గుణమయీ మమ మాయా దురత్యయా. మామేవ యే ప్రపద్యన్తే మాయామేతాం తరన్తి తే৷৷7.14৷৷
7.15
7
15
।।7.15।।   मायाके द्वारा अपहृत ज्ञानवाले, आसुर भावका आश्रय लेनेवाले और मनुष्योंमें महान् नीच तथा पाप-कर्म करनेवाले मूढ़ मनुष्य मेरे शरण नहीं होते।९
।।7.15।। दुष्कृत्य करने वाले, मूढ, नराधम पुरुष मुझे नहीं भजते हैं; माया के द्वारा जिनका ज्ञान हर लिया गया है, वे आसुरी भाव को धारण किये रहते हैं।।
।।7.15।। पूर्व श्लोक में कहा गया है कि मेरे भक्त माया को तर जाते हैं तो इस श्लोक में बता रहे हैं कि कौन से लोग हैं जो मेरी भक्ति नहीं करते हैं। इन दो प्रकार के लोगों का भेद स्पष्ट किये बिना जिज्ञासु साधक सम्यक् प्रकार से यह नहीं जान सकता कि मन की कौन सी प्रवृत्तियां मोह के लक्षण हैं।दुष्कृत्य करने वाले मूढ नराधम लोग ईश्वर की भक्ति नहीं करते हैं जिसका कारण यह है कि उनके विवेक का माया द्वारा हरण कर लिया जाता है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मनुष्य के उच्च विकास का लक्षण उसकी विवेकवती बुद्धि है। इस बुद्धि के द्वारा वह अच्छाबुरा उच्चनीच नैतिकअनैतिक का विवेक कर पाता है। बुद्धि ही वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अज्ञानजनित जीवभाव के स्वप्न से जागकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है।विषयों के द्वारा जो व्यक्ति क्षुब्ध नहीं होता उसमें ही यह विवेकशक्ति प्रभावशाली ढंग से कार्य कर पाती है। मनुष्य में देहात्मभाव जितना अधिक दृढ़ होगा उतनी ही अधिक विषयाभिमुखी उसकी प्रवृत्ति होगी। अत विषयभोग की कामना को पूर्ण करने हेतु वह निंद्य कर्म में भी प्रवृत्त होगा। इस दृष्टि से पाप कर्म का अर्थ है मनुष्यत्व की उच्च स्थिति को पाकर भी स्वस्वरूप के प्रतिकूल किये गये कर्म। स्थूल देह को अपना स्वरूप समझकर मोहित हुए पुरुष ही पापकर्म करते हैं। ऐसे लोगों को यहाँ मूढ़ और आसुरी भाव का मनुष्य कहा गया है। गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी और आसुरीभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।परन्तु जो पुण्यकर्मी लोग हैं वे चार प्रकार से मेरी भक्ति करते हैं। भगवान् कहते हैं
।।7.15।। व्याख्या--'न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः'--जो दुष्कृती और मूढ़ होते हैं, वे भगवान्के शरण नहीं होते। दुष्कृती वे ही होते हैं, जो नाशवान् परिवर्तनशील प्राप्त पदार्थोंमें 'ममता' रखते हैं और अप्राप्त पदार्थोंकी 'कामना' रखते हैं। कामना पूरी होनेपर 'लोभ' और कामनाकी पूर्तिमें बाधा लगनेपर 'क्रोध' पैदा होता है। इस तरह जो 'कामना' में फँसकर व्यभिचार आदि शास्त्र-निषिद्ध विषयोंका सेवन करते हैं, 'लोभ' में फँसकर झूठ, कपट, विश्वासघात, बेईमानी आदि पाप करते हैं और 'क्रोध' के वशीभूत होकर द्वेष, वैर आदि दुर्भावपूर्वक हिंसा आदि पाप करते, हैं वे 'दुष्कृती' हैं।जब मनुष्य भगवान्के सिवाय दूसरी सत्ता मानकर उसको महत्त्व देते हैं, तभी कामना पैदा होती है। कामनापैदा होनेसे मनुष्य मायासे मोहित हो जाते हैं और 'हम जीते रहें तथा भोग भोगते रहें'--यह बात उनको जँच जाती है। इसलिये वे भगवान्के शरण नहीं होते, प्रत्युत विनाशी वस्तु, पदार्थ आदिके शरण हो जाते हैं।तमोगुणकी अधिकता होनेसे सार-असार, नित्य-अनित्य, सत्-असत् ,ग्राह्य-त्याज्य, कर्तव्य-अकर्तव्य आदिकी तरफ ध्यान न देनेवाले भगवद्विमुख मनुष्य 'मूढ़' हैं। दुष्कृती और मूढ़ पुरुष परमात्माकी तरफ चलनेका निश्चय ही नहीं कर सकते, फिर वे परमात्माकी शरण तो हो ही कैसे सकते हैं? 'नराधमाः'कहनेका मतलब है कि वे दुष्कृती और मूढ़ मनुष्य पशुओंसे भी नीचे हैं। पशु तो फिर भी अपनी मर्यादामें रहते हैं, पर ये मनुष्य होकर भी अपनी मर्यादामें नहीं रहते हैं। पशु तो अपनी योनि भोगकर मनुष्ययोनिकी तरफ आ रहे हैं और ये मनुष्य होकर (जिनको कि परमात्माकी प्राप्ति करनेके लिये मनुष्यशरीर दिया), पाप, अन्याय आदि करके नरकों और पशुयोनियोंकी तरफ जा रहे हैं। ऐसे मूढ़तापूर्वक पाप करनेवाले प्राणी नरकोंके अधिकारी होते हैं। ऐसे प्राणियोंके लिये भगवान्ने (गीता 16। 19 20 में) कहा है कि द्वेष रखनेवाले, मूढ़, क्रूर और संसारमें नराधम पुरुषोंको मैं बार-बार आसुरी योनियोंमें गिराता हूँ।' वे आसुरी योनियोंको प्राप्त होकर फिर घोर नरकोंमें जाते हैं।
।।7.15।।न मामिति। ये च मां सत्यपि ( S omits अपि) अधिकारिणि काये नाद्रियन्ते ते दुष्कृतिनः नराधमाः मूढाः आसुराः तामसाः इति मायामहिमैवायम्।
।।7.15।।मां दुष्कृतिनः पापकर्माणो दुष्कृततारतम्यात् चतुर्विधा न प्रपद्यन्ते मूढा नराधमाः मायया अपहृतज्ञाना आसुरं भावम् आश्रिताः इति। मूढाः विपरीतज्ञाना पूर्वोक्तप्रकारेण मत्स्वरूपापरिज्ञानात् प्राकृतेषु एव विषयेषु सक्ताः पूर्वोक्तप्रकारेण भगवच्छेषतैकरसम् आत्मानं भोग्यजातं च स्वशेषतया मन्यमानाः।नराधमाः सामान्येन ज्ञाते अपि मत्स्वरूपे मदौन्मुख्यानर्हाः।मायया अपहृतज्ञानाः तु मद्विषयं मदैश्वर्यविषयं च ज्ञानं प्रस्तुतम् येषां तदसंभावनापादिनीभिः कूटयुक्तिभिःअपहृतं ते तथोक्ताः।आसुरं भावम् आश्रिताः तु मद्विषयं मदैश्वर्यविषयं च ज्ञानं सुदृढम् उपपन्नं येषां द्वेषाय एव भवति ते आसुरं भावम् आश्रिताः। उत्तरोत्तराः पापिष्ठतमाः।
।।7.15।।भगवन्निष्ठाया मायातिक्रमहेतुत्वे तदेकनिष्ठत्वमेव सर्वेषामुचितमिति पृच्छति यदीति। पापकारित्वेनाविवेकभूयस्तया हिंसानृतादिभूयस्त्वाद्भूयसां जन्तूनां न भगवन्निष्ठत्वसिद्धिरित्याह उच्यत इति। मौढ्यं पापकारित्वे हेतुरतएव निकर्षः। संमुषितमिव तिरस्कृतं ज्ञानं स्वरूपचैतन्यमेषामिति ते तथा।
।।7.15।।किमिति तर्हि सर्वे त्वामेव न प्रपद्यन्ते मायातारकत्वादित्याह न मां दुष्कृतिन इति। सत्यं तेषां दुष्कृतिरेव प्रतिबन्धिका। आसुरं भावमाश्रिता इति कायमनोदोषा उक्ताः। मायावादमार्गेऽभिनिवेशाद्वा आसुरं भावं वक्ष्यमाणमाश्रिताः अतएव माययाऽपहृतो विवेकस्तत्त्वनिश्चयो येषां ते तथातत्त्वतो विमुखो भवेत् इति मोहवाक्यात्। अतएव च नराधमा मां न प्रपद्यन्ते भगवन्मूर्त्तिद्वेषिणः प्रत्युत भवन्तीत्यग्रे वक्ष्यति भगवान्।
।।7.15।।यद्येवं तर्हि किमिति निखिलानर्थमूलमायोन्मूलनाय भगवन्तं भवन्तमेव सर्वे न प्रतिपद्यन्ते चिरसंचितदुरितप्रतिबन्धादित्याह भगवान् दुष्कृतिनो दुष्कृतेन पापेन सह नित्ययोगिनः। अतएव नरेषु मध्येऽधमा इह साधुभिर्गर्हणीयाः परत्र चानर्थसहस्रभाजः कुतो दुष्कृतमनर्थहेतुमेव सदा कुर्वन्ति यतो मूढा इदमर्थसाधनमिदमनर्थसाधनमिति विवेकशून्याः। सति प्रमाणे कुतो न विविञ्चन्ति यतो माययाऽपहृतज्ञानाः शरीरेन्द्रियसंघाततादात्म्यभ्रान्तिरूपेण परिणतया मायया पूर्वोक्तयापहृतं प्रतिबद्धं ज्ञानं विवेकसामर्थ्यं येषां ते तथा। अतएव तेदम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च इत्यादिनाग्रे वक्ष्यमाणमासुरं भावं हिंसानृतादिस्वभावमाश्रिता मत्प्रतिपत्त्ययोग्याः सन्तो न मां सर्वेश्वरं प्रपद्यन्ते न भजन्ते। अहो दौर्भाग्यं तेषामित्यभिप्रायः।
।।7.15।।किमिति तर्हि सर्वे त्वामेव न भजन्ति तत्राह न मामिति। नरेषु येऽधमास्ते मां न प्रपद्यन्ते न भजन्ति। अधमत्वे हेतुः मूढा विवेकशून्याः। तत्कुतः दुष्कृर्तिनः पापशीलाः। अतो माययापहृतं निरस्तं शास्त्राचार्योपदेशाभ्यां जातमपि ज्ञानं येषां ते तथा अतएवदम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च इत्यादिना वक्ष्यमाणमासुरं भावं स्वभावं प्राप्ताः सन्तो न मां भजन्ति।
।।7.15।।ये प्रपद्यन्ते 7।14 इतिविशेषनिर्देशप्रतिक्षेपाभिप्रायेणाशङ्कते किमितीति। सुकृतित्वदुष्कृतित्वभेदः साक्षाच्छङ्कोत्तरम् तत्तारतम्यकथनं त्वत्यन्तहेयात्यन्तोपादेयाकारभेदज्ञापनार्थमित्यभिप्रायेणाहदुष्कृतिन इति। उत्तरश्लोकस्थचतुर्विधपदमत्रापि चतुर्विधपुरुषनिर्देशवशादाकृष्य दर्शितम्। मूढत्वादिविशेषणानामेकस्मिन्नेव समुच्चयः किं न स्यात् इति शङ्काव्युदासाय पदचतुष्टयव्याख्या मूढत्वापहृतज्ञानत्वयोर्मध्ये काचिदवस्था नराधमशब्देन विवक्षितेत्यभिप्रायेणाह सामान्येनेति। उपनिषदर्थनिश्चयाभावेऽपि सर्वलोकप्रसिद्धीतिहासपुराणादिभिः सामान्यज्ञानम्। सुमेरुप्रभृतिष्विव सुलभत्वापरिज्ञानादौन्मुख्यानर्हत्वम्। उत्पन्नस्यैव हि ज्ञानस्यापहारः स हि विचित्रमोहजनकतया मायाशब्दवाच्याभिः कुदृष्टिबाह्यप्रसूतकूटयुक्तिभिरेवेत्यभिप्रायेणाहमद्विषयमिति।आसुरं भावमाश्रिताः इत्येतदनपहृतज्ञानविषयमित्याहसुदृढमुपपन्नमिति। निपुणतमप्रतिपादितप्रक्रियया प्रमाणतर्कैरबाध्यत्वेन निश्चितमित्यर्थः। असुरसम्बन्धी भाव आसुरो भावः असुरा हि भगवन्तमतिशयितशक्तिं जानन्त एव द्वेषमाचरन्ति। वक्ष्यते चासुरप्रकृतीनां भावः षोडशे।द्विविधो भूतसर्गोऽयं दैव आसुर एव च। विष्णुभक्तिपरो देवो विपरीतस्तथाऽऽसुरध।।वि.ध.109।74 इति न्यायाच्चायमासुरो भावो भगवति द्वेष एवेत्यभिप्रायेणद्वेषायैव भवतीत्युक्तम्। एषामुत्तरोत्तरेषां ज्ञानांशेनातिशयादुत्कृष्टतमत्वभ्रमः स्यादिति तन्निरासायाह उत्तरोत्तरा इति।विदुषोऽतिक्रमे दण्डभूयस्त्वम् गौ.ध.2।12।6 इति न्यायेन ज्ञानप्रकर्ष एवात्र पापिष्ठतमत्वे हेतुः ज्ञानातिशयेऽपि वैमुख्यं च प्राचीनपापातिशयादेवेति भावः।
।।7.15।।नन्वेवं सति कथं न सर्वे प्रपन्ना भवन्ति इत्याह न मामिति। मां दुष्कृतिनो दुष्टकर्मकर्त्तारः पापाः मूढाः पशुवद्विवेकरहिताः नराधमाः नरेषु अधमाः केवलं वैचित्र्यार्थं जगत्पूरणार्थं सृष्टाः मां न प्रपद्यन्ते। ननूपदेशादिना कथं न पापकर्मादित्यागेन प्रपद्यन्ते इत्यत आह माययेति। मायया अपहृतं गुरूपदेशादिजनितं ज्ञानं येषाम्। मायेतिपदेन ज्ञाननाशनसामर्थ्यमुक्तम्। अत एव देवीपुराणेज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति मा.पु.78।42सप्तश.1।55 इत्युक्तम्। ननु भगवत्प्रपत्तीच्छूनां कथं न भगवान् रक्षतीत्यत आह आसुरं भावमाश्रिताः मद्विरोध्यासुरसङ्गेन तद्भावं प्राप्ताः अतो मया न रक्ष्यन्त इति भावः। एतेन दुस्सङ्गराहित्येन प्रपत्तिः कार्येत्युपदिष्टम्। अतएव दुस्सङ्गनिषधः श्रीभागवतेन तथाऽस्य भवेन्मोहः 3।31।35सङ्गस्तेव्वपि ते प्रार्थ्यः 3।25।24 इत्यादिभिरुक्तः।
।।7.15।।कुतस्तर्हि सर्वे त्वां प्रपद्य मायां न तरन्तीत्याशङ्क्याह न मामिति। यतो दुष्कृतिनोऽतश्चित्तशुद्ध्यभावान्मूढाः आत्मानात्मविवेकहीनाः। अतएव नराधमा मां न प्रपद्यन्ते। कुतो दुष्कृतिनः। यतो माययाऽपहृतं तिरस्कृतं ज्ञानमखण्डसंविद्रूपं ब्रह्म येषां ते अपहृतज्ञानाः। एतेन मायाया आवरणशक्तिरुक्ता। किंच आसुरमसुराणां विरोचनादीनां भावं चित्ताभिप्रायंआत्मैवेह महय्यः इत्यादिना श्रुतं देहेन्द्रियसंघात एव सम्यक्संतर्पणीय इत्येवंविधमाश्रिताः। एतेन मायाया विक्षेपशक्तिरुक्ता। तदेवं मायया स्वरूपानन्दमावृत्य देहात्मभ्रमे जनिते सति तदभिमानाद्देहादिपुष्ट्यर्थं दुष्कृतं कुर्वन्ति तेन च मूढाः सन्तो नराधमा मां न प्रपद्यन्ते। सर्वानर्थमूलं मायैवेत्यर्थः।
।।7.15।।यदि त्वां प्रपन्ना एतां मायां तरन्ति तर्हि कस्मात्त्वामेव परमेश्वरं सर्वे न प्रपद्यन्त इत्याकाङ्क्षायामाह नेति। दुष्कृतिनः पापकरिणोऽतएव विमूढाः संमोहं अतएव नराणां स्वधर्मपराणां मध्येऽधमा निकृष्टाः यतो माययापहृतं मुषितं विवेकज्ञानं येषां ते आसुरं भावं हिंसानृतादिलक्षणमाश्रिता मां परमेश्वरं न प्रतिपद्यन्तं।
7.15 न not? माम् to Me? दुष्कृतिनः evildoers? मूढाः the deluded? प्रपद्यन्ते seek? नराधमाः the lowest of men?,मायया by Maya? अपहृतज्ञानाः deprived of knowledge? आसुरम् belonging to demons? भावम् nature? आश्रिताः having taken to.Commentary These three kinds of people have no discrimination between right and wrong? the Real and the unreal. They commit murder? robbery? theft and other kinds of atrocious actions. They speak untruth and injure others in a variety of ways. Those who follow the ways of the demons take the body as the Self like Vivochana and worship it with flowers? scents? unguents? nice clothes and palatable foods of various sorts. They are deluded souls. They try to nourish their body and do various sorts of evil actions to attain this end. Therefore they do not worship Me. Ignorance is the root cause of all these evils. (Cf.XVI.16and20)
7.15 The evil-doers and the deluded who are the lowest of men do not seek Me; they whose knowledge is destroyed by illusion follow the ways of demons.
7.15 The sinner, the ignorant, the vile, deprived of spiritual perception by the glamour of Illusion, and he who pursues a godless life - none of them shall find Me.
7.15 The foolish evildoers, who are the most depraved among men, who are deprived of (their) wisdom by Maya, and who resort to demoniacal ways, do not take refuge in Me.
7.15 Mudhah, the foolish; duskrtinah, evildoers, sinners; who are nara-adhamah, the most depraved among men; who are also apa-hrta-jnanah, deprived of, despoiled of (their) wisdom; mayaya, by Maya; and asritah, who resort to; asuram bhavam, demoniacal, ways, such as cruelty, untruthfulness, etc.; na, do not; prapadyante, take refuge; man, in Me, the supreme God.
7.15. The deluded evil-doers, the vilest men, who are robbed of knowledge by the trick-of-Illusion and have taken refuge in the demoniac nature-they do not resort to Me.
7.15 Na mam etc. Those who do not take refuge with attention in Me, even while their body remains fit for the purpose, they are evil-doers and the basest of men, deluded, demoniac, i.e. given to darkness (ignorance). Hence, this is only the power of the trick-of-illusion.
7.15 'Evil-doers', those who commit evil deeds, do not resort to Me. They are of four types, according to the degree of their evil deeds: (i) the foolish, (ii) the lowest of men, (iii) those persons deprived of knowledge by Maya, and (iv) those given to demoniac nature. 'The foolish' are those who have misconceived knowledge. True knowledge consists in understanding that the self is dependent on the Lord and exists for Him. But 'the foolish' think they are independent and also that all enjoyable things of the world are their own and for their enjoyment. 'The lowest of men' are those who are incapable of turning towards Me, even though My essential nature is known to them generally. 'Persons who are deprived of knowledge by Maya' are those who, though possessing knowledge about Me and My manifestations, are moved by deceitful reasonings to contend that such knowledge is inconsistent and impossible. 'Those of demoniac nature' are those who have positive knowledge about Myself and My manifestation but hate Me. The intensity of sinfulness in these types in the order in which they are successively placed.
7.15 The evil-doers, the foolish, the lowest of men, those persons deprived of knowledge by delusion (Maya) and those who are dominated by demoniac nature - they do not seek refuge in Me.
।।7.15।।यदि आपके शरण हुए मनुष्य इस मायासे तर जाते हैं तो फिर सभी आपकी शरण क्यों नहीं लेते इसपर कहते हैं जो कोई पापकर्म करनेवाले मूढ़ और नराधम हैं अर्थात् मनुष्योंमें अधम नीच हैं एवं मायाद्वारा जिनका ज्ञान छीन लिया गया है वे हिंसा मिथ्याभाषण आदि आसुरी भावोंके आश्रित हुए मनुष्य मुझ परमेश्वरकी शरणमें नहीं आते।
।।7.15।। न मां परमेश्वरं नारायणं दुष्कृतिनः पापकारिणः मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः नराणां मध्ये अधमाः निकृष्टाः। ते च मायया अपहृतज्ञानाः संमुषितज्ञानाः आसुरं भावं हिंसानृतादिलक्षणम् आश्रिताः।।ये पुनर्नरोत्तमाः पुण्यकर्माणः
।।7.15 7.16।।उत्तरवाक्यं प्रकृतानुपयुक्तमित्यत आह तर्हीति। यदि त्वत्प्रतिपत्तिर्मायातरणोपायस्तर्हीत्यर्थः। त्वां प्रपद्येति शेषः। तथा चमामेव 7।14 इत्युक्तमसदिति भावः। दुष्कृतित्वादीनां प्रयोजनान्तराभावात् हेतुत्वेनान्वये स्थिते किं ते पञ्चापि साक्षाद्भगवदप्रतिपत्तिहेतवः किं वा हेतुहेतुमद्भावेन इत्यपेक्षायामाह दुष्कृतित्वादिति। मूढाः मिथ्याज्ञानिनः विपर्ययस्याधर्मकार्यत्वप्रसिद्धेः। अत एव मूढत्वादेव। देवानामुत्तममध्यममनुष्याणां च केवलमिथ्याज्ञानित्वाभावात्। अधिष्ठानयाथात्म्याज्ञानस्य विपर्ययहेतुत्वप्रसिद्धेरपहृतज्ञानत्वाच्च मूढाः। अत एव नराधमत्वादेव। जीवत्रैविध्यविवक्षायां नराधमानामसुरेष्वन्तर्भावस्य प्रसिद्धत्वात् आसुरभावाश्रयणान्न मां प्रपद्यन्त इत्यर्थः। नन्वासुरो भावो हि हिंसानृतादिलक्षणोऽन्यैर्व्याख्यातः (शं.) तद्रहिताश्च क्षपणकादयो न भगवन्तं प्रपद्यन्ते तत्कथमस्य हेतुत्वमित्यत आह स चेति। एतेषामन्यतमः सर्वेवप्यस्तीति भावः। ननु मुक्तौ योग्यानामयोग्यानां च भगवन्तमप्रतिपद्यमानानां एते धर्मा वक्तव्याः तत्र मुक्तियोग्यानां सम्यग्ज्ञानस्वभावात् तत्कथमपहृतज्ञानत्वं इत्यत आह अपहार इति। आगमवाक्यमपि सज्जीवविषयं मुक्तियोग्यानामसुर भावाश्रयणप्रवृत्त्याद्यज्ञानेनोक्तम्। प्रकारान्तरेण घटयितुमाह असुष्विति। इन्द्रियेषु तत्प्रीणन् एव रताः। असौ इति जातावेकवचनम्। पदसन्धेर्विवक्षाधीनत्वादसन्धिर्न दोषः। त्रिभिरित्यत्र भगवतो गौणविग्रहत्वज्ञानस्य कारणमुक्तम्। अत्र तु स्वदोषादेव न मां प्रपद्यन्ते। न तु मत्प्रपत्तेर्मायातरणोपायत्वाभावादित्यतो महान्भेदः।
।।7.15 7.16।।तर्हि सर्वेऽपि किमिति नात्याययन्नित्यत आह न मामिति। दुष्कृतित्वान्मूढाः अत एव नराधमाः। अपहृतज्ञानत्वाच्च मूढाः अत एवासुरं भावमाश्रिताः। स च वक्ष्यतेप्रवृत्तिं निवृत्तिं च 16।7 इत्यादिना। अपहारोऽभिभवः। उक्तं चैतद्व्यासयोगेज्ञानं स्वभावो जीवानां मायया ह्यधिभूयते इति। असुषु रता असुराः तच्चोक्तं नारदीये ज्ञानप्रधाना देवास्तु असुरास्तु रता असौ इति।
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।7.15।।
ন মাং দুষ্কৃতিনো মূঢাঃ প্রপদ্যন্তে নরাধমাঃ৷ মাযযাপহৃতজ্ঞানা আসুরং ভাবমাশ্রিতাঃ৷৷7.15৷৷
ন মাং দুষ্কৃতিনো মূঢাঃ প্রপদ্যন্তে নরাধমাঃ৷ মাযযাপহৃতজ্ঞানা আসুরং ভাবমাশ্রিতাঃ৷৷7.15৷৷
ન માં દુષ્કૃતિનો મૂઢાઃ પ્રપદ્યન્તે નરાધમાઃ। માયયાપહૃતજ્ઞાના આસુરં ભાવમાશ્રિતાઃ।।7.15।।
ਨ ਮਾਂ ਦੁਸ਼੍ਕਰਿਤਿਨੋ ਮੂਢਾ ਪ੍ਰਪਦ੍ਯਨ੍ਤੇ ਨਰਾਧਮਾ। ਮਾਯਯਾਪਹਰਿਤਜ੍ਞਾਨਾ ਆਸੁਰਂ ਭਾਵਮਾਸ਼੍ਰਿਤਾ।।7.15।।
ನ ಮಾಂ ದುಷ್ಕೃತಿನೋ ಮೂಢಾಃ ಪ್ರಪದ್ಯನ್ತೇ ನರಾಧಮಾಃ. ಮಾಯಯಾಪಹೃತಜ್ಞಾನಾ ಆಸುರಂ ಭಾವಮಾಶ್ರಿತಾಃ৷৷7.15৷৷
ന മാം ദുഷ്കൃതിനോ മൂഢാഃ പ്രപദ്യന്തേ നരാധമാഃ. മായയാപഹൃതജ്ഞാനാ ആസുരം ഭാവമാശ്രിതാഃ৷৷7.15৷৷
ନ ମାଂ ଦୁଷ୍କୃତିନୋ ମୂଢାଃ ପ୍ରପଦ୍ଯନ୍ତେ ନରାଧମାଃ| ମାଯଯାପହୃତଜ୍ଞାନା ଆସୁରଂ ଭାବମାଶ୍ରିତାଃ||7.15||
na māṅ duṣkṛtinō mūḍhāḥ prapadyantē narādhamāḥ. māyayāpahṛtajñānā āsuraṅ bhāvamāśritāḥ৷৷7.15৷৷
ந மாஂ துஷ்கரிதிநோ மூடாஃ ப்ரபத்யந்தே நராதமாஃ. மாயயாபஹரிதஜ்ஞாநா ஆஸுரஂ பாவமாஷ்ரிதாஃ৷৷7.15৷৷
న మాం దుష్కృతినో మూఢాః ప్రపద్యన్తే నరాధమాః. మాయయాపహృతజ్ఞానా ఆసురం భావమాశ్రితాః৷৷7.15৷৷
7.16
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।।7.16।। हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनव ! पवित्र कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी -- ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।
।।7.16।। हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करने वाले (सुकृतिन:) आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं।।
।।7.16।। समस्त पदार्थ एवं ऊर्जा का स्रोत आत्मा ही होने के कारण जड़ पदार्थों में यदि क्रिया होते दिखाई दे तो उसका प्रेरक स्रोत भी आत्मा ही होना चाहिए। वाष्प इंजन का प्रत्येक भाग लोहे का बना होता है और फिर भी यदि उसमें रेल के डिब्बों को खींचने की सार्मथ्य होती है तो निश्चय ही उस सार्मथ्य का स्रोत लोहे से भिन्न होना चाहिए। ठीक इसी प्रकार समस्त मनुष्य शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से जो सार्मथ्य प्रकट करते हैं वह आत्मचैतन्य के कारण ही संभव होता है। योगी हो या भोगी दोनों को कार्य करने के लिए आत्मचैतन्य का ही आह्वान करना पड़ता है। चाहे वे पीड़ा और कष्ट के समय सान्त्वना की कामना करें या विषय उपभोगों की इच्छा करें इन सबके लिए आत्मा की चेतनता आवश्यक होती है।एक विशेष दशा मे कार्य करने के लिए आत्मा का आह्वान करना ही भजन या प्रार्थना है। प्रार्थना विधि में भक्त स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित करके ईश्वर के अनुग्रह की कामना करता है। इसको समझने के लिए हम विद्युत् का दृष्टान्त ले सकते हैं। विद्युत् पंखा हीटर रेडियो आदि स्वयं कुछ कार्य नहीं कर सकते। विद्युत् शक्ति के इनमें प्रवाहित होने पर ये अपनेअपने कार्य के द्वारा समाज की सेवा कर पाते हैं। यही विद्युत् शक्ति का आह्वान है।स्पष्ट है कि सभी यन्त्रों के लिए विद्युत् आवश्यक है लेकिन उसका उपयोग किस यन्त्र के लिए करना है वह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है। शीत ऋतु के दिनों में पंखा चलाकर हमें और अधिक कष्ट उठाना पड़े तो उसका दोष विद्युत् को नहीं दिया जा सकता और न ही उसे क्रूर कहा जा सकता है। विखण्डित मन में जब चैतन्य व्यक्त होता है तो मन के अवगुणों के लिए आत्मा को दोष नहीं दिया जा सकता।इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि एक मात्र आत्मा ही चैतन्य स्वरूप है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापी हो या पुण्यात्मा मूढ़ हो या बुद्धिमान आलसी हो या क्रियाशील भीरु हो या साहसी सब मुझे ही भजते हैं और मैं उन सबके हृदय में व्यक्त होता हूँ। शरीर मन या बुद्धि से कार्य करने के लिए सभी मनुष्यों को जाने या अनजाने मेरा आह्वान करना पड़ता है।इस श्लोक में पुण्यकर्मी भक्तों का चार प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। वे हैं (क) आर्त आर्त का सामान्य अर्थ है दुख से पीड़ित व्यक्ति। दुखार्त भक्त अपने कष्ट के निवारण के लिए भक्ति करता है। यह सामान्य दुख के विषय में हुआ किन्तु ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिन्हें जीवन में सब प्रकार की सुखसुविधाएं उपलब्ध होने पर भी वे एक प्रकार की आन्तरिक अशान्ति का अनुभव करते हैं। इस अशान्ति की निवृत्ति भगवत्स्वरूप की प्राप्ति से ही होती है। ऐसे आर्त भक्त भी मेरा भजन करते हैं।(ख) जिज्ञासु जो साधक शास्त्राध्ययन के द्वारा मुझे जानना चाहते हैं वे जिज्ञासु भक्त हैं।(ग) अर्थार्थी किसीनकिसी कार्यक्षेत्र में इष्ट फल को प्राप्त करने के लिए जो लोग कर्म करते हुए मेरे अनुग्रह की कामना करते हैं उन्हें अर्थार्थी कहते हैं। कामना की पूर्ति इनका लक्ष्य होता है।(घ) ज्ञानी उपर्युक्त तीनों से भिन्न ज्ञानी भक्त विरला ही होता है जो न किसी फल की इच्छा रखता है और न मुझसे कोई अपेक्षा। वह स्वयं को ही मुझे अर्पित कर देता है। वह मेरे स्वरूप को पहचान कर मेरे साथ एकत्व को प्राप्त हो जाता है।इन चर्तुविध भक्तों में सर्वश्रेष्ठ कौन है
।।7.16।। व्याख्या--'चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन'--सुकृती पवित्रात्मा मनुष्य अर्थात् भगवत्सम्बन्धी काम करनेवाले मनुष्य चार प्रकारके होते हैं। ये चारों मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् स्वयं मेरे शरण होते हैं।पूर्वश्लोकमें 'दुष्कृतिनः' पदसे भगवान्में न लगने-वाले मनुष्योंकी बात आयी थी। अब यहाँ 'सुकृतिनः' पदसे भगवान्में लगनेवाले मनुष्योंकी बात कहते हैं। ये सुकृती मनुष्य शास्त्रीय सकाम पुण्य-कर्म करनेवाले नहीं हैं, प्रत्युत भगवान्से अपना सम्बन्ध जोड़कर भगवत्सम्बन्धी कर्म करनेवाले हैं। सुकृती मनुष्य दो प्रकारके होते हैं--एक तो यज्ञ, दान, तप आदि और वर्ण-आश्रमके शास्त्रीय कर्म भगवान्के लिये करते हैं अथवा उनको भगवान्के अर्पण करते हैं और दूसरे भगवन्नामका जप तथा कीर्तन करना, भगवान्की लीला सुनना तथा कहना आदि केवल भगवत्सम्बन्धी कर्म करते हैं।जिनकी भगवान्में रुचि हो गयी है, वे ही भाग्यशाली हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं और वे ही मनुष्य कहलाने-योग्य हैं। वह रुचि चाहे किसी पूर्व पुण्यसे हो गयी हो, चाहे आफतके समय दूसरोंका सहारा छूट जानेसे हो गयी हो, चाहे किसी विश्वसनीय मनुष्यके द्वारा समयपर धोखा देनेसे हो गयी हो, चाहे, सत्सङ्ग स्वाध्याय अथवा विचार आदिसे हो गयी हो, किसी भी कारणसे भगवान्में रुचि होनेसे वे सभी सुकृती मनुष्य हैं।जब भगवान्की तरफ रुचि हो जाय, वही पवित्र दिन है, वही निर्मल समय है और वही सम्पत्ति है। जब भगवान्की तरफ रुचि नहीं होती, वही काला दिन है, वही विपत्ति है-- 'कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।।'(मानस 5। 32। 2)भगवान्ने कृपा करके भगवत्प्राप्तिरूप जिस उद्देश्यको लेकर जिन्हें मानव-शरीर दिया है, वे 'जनाः' (जन) कहलाते हैं। भगवान्का संकल्प मनुष्यमात्रके उद्धारके लिये बना है; अतः मनुष्यमात्र भगवान्की प्राप्तिका अधिकारी है। तात्पर्य है कि उस संकल्पमें भगवान्ने मनुष्यको अपने उद्धारकी स्वतन्त्रता दी है, जो कि अन्य प्राणियोंको नहीं मिलती; क्योंकि वे भोगयोनियाँ हैं और यह मानवशरीर कर्मयोनि है। वास्तवमें केवल भगवत्प्राप्तिके लिये ही होनेके कारण मानव-शरीरको साधनयोनि ही मानना चाहिये। इसलिये इस स्वतन्त्रताका सदुपयोग करके मनुष्य शास्त्र-निषिद्ध कर्मोंको छोड़कर अगर भगवत्प्राप्तिके लिये ही लग जाय तो उसको भगवत्कृपासे अनायास ही भगवत्प्राप्ति हो सकती है। परन्तु जो मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके विपरीत मार्गपर चलते हैं, वे नरकों और चौरासी लाख योनियोंमें जाते हैं। इस तरह सबके उद्धारके भावको लेकर भगवान्ने कृपा करके जो मानव-शरीर दिया है, उस शरीरको पाकर भगवान्का भजन करनेवाले सुकृती मनुष्य ही जनाः अर्थात् मनुष्य कहलानेयोग्य हैं।
।।7.16 7.19।।चतुर्विधा इत्यादि सुदुर्लभ इत्यन्तम्। ये तु मां भजन्ते ते सुकृतिनः। ते च चत्वारः। सर्वे चैते उदाराः। यतः अन्ये कृपणबुद्धयः आर्त्तिनिवारणम् अर्थादि च तुल्यपाणिपादोदरशरीरसत्त्वेभ्योऽधिकतरं वा आत्मन्यूनेभ्यो मार्गयन्ते। ज्ञान्यपेक्षया तु ते न्यूनसत्त्वाः यतः तेषां तावत्यपि भेदोऽस्ति भगवतः इदमहमभिलष्यामि इति भेदस्य स्फुटप्रतिभासात्। ज्ञानी तु मामेवाभेदतया अवलम्बते इति (S omits इति) ततोऽहमभिन्न एव। तस्य च अहमेव प्रियः न तु फलम्। अत एव स वासुदेव एव सर्वम् इत्येव (S वासुदेवः सर्वमेवम्) दृढप्रतिपत्तिपवित्रीकृतहृदयः।
।।7.16।।सुकृतिनः पुण्यकर्माणो मां शरणम् उपगम्य माम् एव भजन्ते। ते चे सुकृततारतम्येन चतुर्विधाः सुकृतगरीयस्त्वेन प्रतिपत्तिवैशेष्याद् उत्तरोत्तराधिकतमाः भवन्ति।आर्त्तः प्रतिष्ठाहीनो भ्रष्टैश्वर्यः पुनस्तत्प्राप्तिकामः। अर्थार्थी अप्राप्तैश्वर्यतया ऐश्वर्यकामः तयोः मुखभेदमात्रम् ऐश्वर्यविषयतया ऐक्याद् एक एव अधिकारः।जिज्ञासुः प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपावाप्तीच्छुः ज्ञानम् एव अस्य स्वरूपम् इति जिज्ञासुः इति उक्तम्।ज्ञानी चइतस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् (गीता 7।5) इत्यादिना अभिहितभगवच्छेषतैकरसात्मस्वरूपवित् प्रकृतिवियुक्तकेवलात्मनि अपर्यवस्यन् भगवन्तं प्रेप्सुः भगवन्तम् परमप्राप्यं मन्वानः।
।।7.16।।केषां तर्हि तन्निष्ठता सुकरेति तत्राह ये पुनरिति। ते भजन्ते भगवन्तमिति शेषः। ये त्वां भजन्ते ते किं सर्वे मायां तरन्ति नैव प्रार्थनावैचित्र्यादित्याह चतुर्विधा इति। आपन्नस्तन्निवृत्तिमिच्छन्निति शेषः।तत्त्वविदिति। शब्दज्ञानवानात्मतत्त्वसाक्षात्कारमात्रार्थी मुमुक्षुरित्यर्थः।
।।7.16।।सुकृतिनस्तु भजन्त्येवेत्याह चतुर्विधा इति। सुकृतिरेव तत्र प्रवर्तिकेति सुकृतिन इत्युक्तम्। ते च सेवकाः सुकृतिनस्त एव तारतम्येन चतुर्विधाः स्थूलरीत्येति। तदाह आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चेति। यदार्त्यादिनाऽपि भगवत्सम्बन्धित्वं ते सुकृतिनो ज्ञेयाः यथा गजेन्द्रशौनकध्रुवशुकादयः एतेन तेषामर्त्यादिना भजने पूर्वसुकृतिरेव हेतुरिति गम्यते। यत्र च भजनं दृश्यते सुकृतिश्च हेतुर्न भवति ते च गोप्यादयः पुष्टिमार्गीया भक्ताः। यद्यपि ते कामाद्युपाधिकाः स्नेहवन्तस्तथापि तत्रालौकिकभगवत्स्वरूपात्मकतद्वत्वान्न स्नेहस्य प्राकृतत्वं न च जन्मान्तरीयसुकृतिसाध्यः स इति वाच्यम् तथागमकवाक्याभावात् प्रत्युत सर्वकृतिनिषेधवाक्यसत्त्वाच्च। तथाहिते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः। अव्रतातप्ततपसो मत्सङ्गात् (सत्सङ्गात्) मामुपागाताः भाग.11।12।7 इत्यादि पूर्वजन्मन्यपि स्नेहार्थं साधनकरणाभावादित्याशयः। किञ्च स्वस्य साक्षात्कृतस्य सर्वफलभूतस्य प्रमेयबलेन स्वसङ्गस्य प्राशस्त्यमप्युक्तं साधकतमत्वं चव्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यः भाग.11।12।6 इत्यत्र इत्थं च स्वरूपानुग्रहेतरसाधनासाध्यस्वप्राप्तिरुक्ताकेवलेनैव भावेन गोप्यो गावः खगा नगाः भाग.11।12।8 इत्यादिना दृढीकृता च। तद्विषयास्ते उभयदृष्टादृष्टसाधनरहिताः साधनफलात्मकभगवत्स्वरूपानुग्रहबलेनैवालौकिककामस्नेहवन्त इति तेषामेतेषु चतुर्विधेषु चकारेण समावेशः परप्रतिपादितः (मधुसूदनसरस्वतीभिः प्रतिपादितः) न घटत इति वयं अवोचाम। इदं तुभक्त्या ह्यनन्यया शक्यः 11।54 इत्यादौ सिद्धमिति न प्रतन्यते।
।।7.16।।ये त्वासुरभावहिताः पुण्यकर्माणो विवेकिनस्ते पुण्यकर्मतारतम्येन चतुर्विधाः सन्तो मामेव भजन्ते क्रमेण च कामनाराहित्येन मत्प्रसादान्मायां तरन्तीत्याह ये सुकृतिनः पूर्वजन्मकृतपुण्यसंचया जनाः सफलजन्मानस्त एव नान्ये ते मां भजन्ते सेवन्ते। हे अर्जुन ते च त्रयः सकामा एकोऽकाम इत्येवं चतुर्विधाः। आर्तः आर्त्या शत्रुव्याध्याद्यापदाग्रस्तस्तन्निवृत्तिमिच्छन् यथा मखभङ्गेन कुपित इन्द्रे वर्षति व्रजवासी जनः यथा वा जरासन्धकारागारवर्ती राजनिचयः द्यूतसभायां वस्त्राकर्षणे द्रौपदी च ग्राहग्रस्तो गजेन्द्रश्च। जिज्ञासुरात्मज्ञानार्थी मुमुक्षुः यथा मुचुकुन्दः यथा वा मैथिलो जनकः श्रुतदेवश्च निवृत्ते मौसले यथा चोद्धवः। अर्थार्थी इह वा परत्र वा यद्भोगोपकरणं तल्लिप्सुः। तत्रेह यथा सुग्रीवो बिभीषणश्च यथा चोपमन्युः परत्र यथा ध्रुवः। एते त्रयोऽपि भगवद्भजनेन मायां तरन्ति। तत्र जिज्ञासुर्ज्ञानोत्पत्त्या साक्षादेव मायां तरति आर्तोऽर्थार्थी च जिज्ञासुत्वं प्राप्येति विशेषः। आर्तस्यार्थार्थिनश्च जिज्ञासुत्वसंभवाज्जिज्ञासोश्चार्तत्वज्ञानोपकरणार्थार्थित्वसंभवादुभयोर्मध्ये जिज्ञासुरुद्दिष्टः। तदेते त्रयः सकामा व्याख्याताः। निष्कामश्चतुर्थ इदानीमुच्यते ज्ञानी च ज्ञानं भगवत्तत्त्वसाक्षात्कारस्तेन नित्ययुक्तो ज्ञानी तीर्णमायो निवृत्तसर्वकामः। चकारो यस्य कस्यापि निष्कामप्रेमभक्तस्य ज्ञानिन्यन्तर्भावार्थः। हे भरतर्षभ त्वमपि जिज्ञासुर्वा ज्ञानी वेति कतमोऽहं भक्त इति माशङ्किष्ठा इत्यर्थः। तत्र निष्कामभक्तो ज्ञानी यथा सनकादिर्यथा नारदो यथा प्रह्लादो यथा पृथुर्यथा वा शुकः। निष्कामः शुद्धप्रेमभक्तो यथा गोपिकादिर्यथा वाऽक्रूरयुधिष्ठिरादिः। कंसशिशुपालादयस्तु भयाद्द्वेषाच्च संततभगवच्चिन्तापरा अपि न भक्ताः भगवदनुरक्तेरभावात्। भगवदनुरक्तिरूपायास्तु भक्तेः स्वरूपं साधनं भेदास्तथाऽभक्तानामपि भगवद्भक्तिरसायनेऽस्माभिः सविशेषं प्रपञ्चिता इतीहोपरम्यते।
।।7.16।।सुकृतिनस्तु मां भजन्ति ते च सुकृततारतम्येन चतुर्विधा इत्याह चतुर्विधा इति। पूर्वजन्मसु ये कृतपुण्या जनास्ते मां भजन्ति। ते तु चतुर्विधाःआर्तो रोगाद्यभिभूतः। स यदि पूर्वं कृतपुण्यस्तर्हि मां भजति अन्यथा क्षुद्रदेवताभजनेन संसरति। एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम्। जिज्ञासुरात्मज्ञानेच्छुः अर्थार्थी अत्र वा परत्र वा भोगसाधनभूतार्थलिप्सुः ज्ञानी च आत्मवित्।
।।7.16।।चतुर्विधा भजन्ते इत्यत्र भजनपर्यवसिता प्रपत्तिर्विधित्सिता पूर्वश्लोके तन्निषेधादत्र तद्विधानस्यैवोचितत्वादित्यभिप्रायेणशरणमुपगम्येत्युक्तम्। सुकृतित्वाविशेषे कथमधिकारिभेद इत्यत्रोक्तंसुकृततारतम्येनेति। तारतम्यं विवृणोतिसुकृतगरीयस्त्वेनेति। विश्वासादेः साधारणत्वेऽपि प्रपत्तेर्वैशिष्ट्यं फलेच्छाभेदात्। आर्तशब्दोऽत्रार्तिमूलपूर्वस्थितिशैथिल्यपर इत्यभिप्रायेणाहप्रतिष्ठाहीन इति। आर्तस्य हि परभजनमार्तिनिवृत्त्यर्थमेवेत्यभिप्रायेणाहभ्रष्टैश्वर्यः पुनस्तत्प्राप्तिकाम इति। पाठक्रमादप्यर्थक्रमस्य प्रबलत्वाज्जिज्ञासोः प्रागेवार्थार्थिन उपादानम्। आर्तात्तस्य विशेषं दर्शयतिअप्राप्तेति। अर्थशब्दोऽत्रार्थनीयभोगविशेषपरः। फलद्वारा ह्यधिकारिभेदोऽभिधीयते फलं चार्तस्यार्थार्थिनश्चैश्वर्यमेकमेव। यदा पुनस्तदवान्तरभेदेन भेदक्लृप्तिः तदा भेदान्तरमपि वक्तुं शक्यमित्यत्राहतयोरिति। प्रसिद्धेनावान्तरभेदेन विशेषव्यपदेशमात्रमिति भावः। जिज्ञासुशब्देन ज्ञानार्थिमात्रं किं न गृह्यते। भगवन्तमेव वा जिज्ञासुः भक्तिश्रद्धारहितः कुतूहलमात्रेण भगवन्तं जिज्ञासमानो वा यथैकतमे द्विततादयःयूयं जिज्ञासवो भक्ताः इति।आरोग्यं भास्करादिच्छेच्छ्रियमिच्छेद्धुताशनात्। ईश्वराज्ज्ञानमन्विच्छेन्मोक्षमिच्छेज्जनार्दनात्।।म.पु.77।49 इत्युक्ताधिकारिचतुष्टये चात्र प्रत्यभिज्ञायमाने जिज्ञासुरपि स एव भवितुमर्हति तत्राहप्रकृतीति। भगवन्तं जिज्ञासोरन्ततो भगवानेव प्राप्यतयाऽभिमत इति न पुरुषार्थभेदः तद्भेदाच्चात्राधिकारिभेदः प्रतिपाद्यते।आर्तः अर्थार्थी इति बाह्यपुरुषार्थाभिलाषिणो निर्दिष्टाः। भगवदर्थी चज्ञानी इति जीवात्मस्वरूपं चाधिकानन्दस्वरूपं प्राप्यं चान्यत्र प्रसिद्धम् अत्रापि परस्तादधिकारिभेदः समर्थयिष्यते अतः परिशेषादात्मार्थिविषयोऽयं जिज्ञासुशब्द इति भावः। ज्ञानार्थिवाचके जिज्ञासुशब्दे कथमात्मार्थित्वं व्याक्रियते इत्यत्राह ज्ञानमेवेति। ज्ञानमिह शुद्धात्मानुभवरूपं विवक्षितमिति भावः। ज्ञानिनोऽधिकार्यन्तरत्वानुगुणान्वक्ष्यमाणान् विशेषाननुसन्धाय विशिष्टज्ञानत्वं दर्शयतिइतस्त्वन्यामित्यादिना।केवलात्मन्यपर्यवस्यन्निति नगरं प्रविविक्षोरध्वगस्य च्छायातरुमूलस्वापवदात्मानुभवविलम्ब इति भावः। अत्र जिज्ञासोर्वक्तव्यं सर्वमष्टमे प्रपञ्चयिष्यामः। विशिष्टज्ञानफलभूतं पुरुषार्थान्तरपरिग्रहमाहभगवन्तं प्रेप्सुरिति। तत्र हेतुमाह भगन्वतमिति।भगवन्तमेवेत्यात्मानुभवविलम्बाक्षमत्वमभिप्रेतम्।
।।7.16।।एवं दुष्टकर्मकर्त्तारो न भजन्तीत्युक्तं तर्हि के भजन्ति इत्याकाङ्क्षायामाह चतुर्विधा इति। हे अर्जुन सावधानतया श्रोतव्यत्वेन सम्बोध्य सुकृतिनः पूर्वजन्मसञ्चितपुण्यराशयो जनाः मां भजन्ति। अन्यथा भजने प्रवृत्तिरेव न स्यात्। अतएवनराणां क्षीणपापानां कृष्णे भक्तिः प्रजायते इति श्रीभागवते उक्तम्। ते च चतुर्विधाः। चतुर्विधत्वं प्रकटयति आर्त इति। आर्तः संसारक्लेशादियुक्तः तन्निवृत्त्यर्थं धर्मरूपेण मां भजति। जिज्ञासुः कामात्मकमत्स्वरूपज्ञानेच्छुः कामरूपेण मां भजति। अर्थार्थी मत्सेवौपयिकसाधनसम्पत्त्यर्थरूपेण मां भजति। च पुनः। ज्ञानी शास्त्रार्थज्ञानवान्न मोक्षरूपेण मां भजति। भरतर्षभ इति सम्बोधनं सत्कुलोत्पन्नानामेव भजनप्रवृत्तिर्भवतीति ज्ञापनार्थम्।
।।7.16।।येतु सत्यपि देहाद्यध्यासे मत्तो बिभ्यति मत्प्रीत्यर्थं सुकृतमेवाचरन्ति तेऽपि चतुर्विधा न केवलं सर्वे मदेककामा इत्याशयेनाह चतुर्विधा इति। आर्तः पीडितः पीडापरिहारार्थी। जिज्ञासुः स्वाज्ञाननाशार्थी। अर्थार्थी धनाद्यर्थी। ज्ञानी चेति चतुर्विधा मां भजन्ते।
।।7.16।।के पुनस्त्वां प्रतिपद्यन्ते इत्यपेक्षायामाह चतुर्विधा इति। सुकृतिनः पुण्यकर्माणो जना नरोत्तमा मां भजन्ति। तेज पुण्यतारम्येन चतुर्विधाः। आर्तो रोगादिजनितपीडापरिगृहीतः जिज्ञासुः भगवत्तत्त्वं ज्ञातुमिच्छुः अर्थार्थी धनादिकामः ज्ञानी विष्णुतत्त्ववित्। चकारज्ज्ञानिनो निष्कामत्वं सूचयति। अर्जुनेति संबोधयन् सुकृततर्मणा स्वच्छतामापन्नस्यैव मद्भजनभाजनतेति ध्वनयति। सुकृतं च स्ववर्णाश्रमाविरोधि स्वकुलपरंपरागतं तथाच मद्भजनाधिकारकारकं क्षत्रियस्य विहितं स्वकुलपरंपरागतं युद्ध कर्तुमर्हसीति द्योतयन्नाह भरतर्षभेति।
7.16 चतुर्विधाः four kinds? भजन्ते worship? माम् Me? जनाः people? सुकृतिनः virtuous? अर्जुन O Arjuna? आर्तः the distressed? जिज्ञासुः the seeker of knowledge? अर्थार्थी the seeker of wealth? ज्ञानी the wise? च and? भरतर्षभ O lord of the Bharatas.Commentary The distressed is he who is suffering from a chronic and incurable disease? he whose life is in jeopardy on account of earthake? volcanic eruption? thunder? attack by a dacoit or enemy or tiger? etc. When Draupadi and Gajendra were in great distress they worshipped the Lord. These are the instances of Aarta Bhakti.Jijnasu is the enirer. He is dissatisfied with this world. There is a void in his life. He always feels that sensual pleasure is not the highest form of happiness and there is yet pure eternal bliss unmixed with grief and pain? which is to be found within. Janaka and Uddhava were devotees of this type.Seeker of wealth is he who craves for money? wife? children? position? name and fame. Sugriva? Vibhishana? Upamanyu and Dhruva were all devotees of this type.The wise are the men of knowledge who have attained to Selfillumination. Sukadeva was a JnaniBhakta.Kamsa? Sishupala and Ravana thought of the Lord constantly on account of fear and hatred (VairaBhakti). Hence they are also regarded as devotees.Be devoted to God? whatever be your motive. Devotion will purify the motive in due course.
7.16 Four kinds of virtuous men worship Me, O Arjuna, and they are the distressed, the seekr of knowledge, the seekr of wealth and the wise, O lord of the Bharatas.
7.16 O Arjuna! The righteous who worship Me are grouped by stages: first, they who suffer, next they who desire knowledge, then they who thirst after truth, and lastly they who attain wisdom.
7.16 O Arjuna, foremost of the Bharata dynasty, four classes of people of virtuous deeds adore Me: the afflicted, the seeker of Knowledge, the seeker of wealth and the man of Knowledge.
7.16 Again, O Arjuna, foremost of the Bharata dynasty, caturvidhah, four classes; of janah, people; who are eminent among human beings and are pious in actions, and are sukrtinah, of virtuous deeds; bhajante, adore; mam, Me; artah, the afflicted-one who is overcome by sorrow, who is in distress, ['One who, being in distress and seeking to be saved from it, takes refuge (in Me).'] being over-whelmed by thieves, tigers, disease, etc.; jijnasuh, the seeker of Knowledge, who wants to know the reality of the Lord; artharthi, the seeker of wealth; and jnani, the man of Knowledge, [i.e. one who, already having intellectual knowledge, aspires for Liberation.] who knows the reality of Visnu.
7.16. Men of good action who worship Me always are of four types: the afflicted, the seeker of knowledge, the seeker of wealth and the man of wisdom, O best among the Bharatas !
7.16 See Comment under 7.19
7.16 'Men of good deeds,' i.e., those who have meritorious Karmas to their credit, and who resort to Me and worship Me alone - they too are divided into four types according to the degrees of their good deeds, each subseent type being better than the preceding, because of the greatness of their good deeds and gradation in respect of their knowledge. (i) The 'distressed' is one who has lost his position in life and his wealth, and who wishes to regain them (ii) He who 'aspires for wealth' is one who desires for wealth which he has not till then attained. Between them the difference is very little, as both of them seek wealth. (iii) He 'who seeks after knowledge' is one who wishes to realise the real nature of the self (in Its pure state) as an entity different from the Prakrti. He is called 'one who seeks to secure knowledge,' because knowledge alone is the essential nature of the self. (iv) And the 'man of knowledge' is he who knows that, it is the essential nature of the self to find happiness only as the Sesa (subsidiary or liege) of the Lord, as taught in the text beginning with, 'But know that which is other than this (lower nature) to be the higher Prakrti' (7.5). Without stopping with the knowledge of the self as different from the Prakrti, he desires to attain the Lord. He thinks that the Lord alone is the highest aim to reach.
7.16 Four types of men of good deeds worship Me, O Arjuna, These are the distressed, the seekers after knowledge, the wealth-seekers, and the men of knowledge.
।।7.16।।परंतु जो पुण्यकर्म करनेवाले नरश्रेष्ठ हैं ( वे क्या करते हैं सो बतलाते हैं ) हे भारत आर्त अर्थात् चोर व्याघ्र रोग आदिके वशमें होकर किसी आपत्तिसे युक्त हुआ जिज्ञासु अर्थात् भगवान्का तत्त्व जाननेकी इच्छावाला अर्थार्थी यानी धनकी कामनावाला और ज्ञानी अर्थात् विष्णुके तत्त्वको जाननेवाला हे अर्जुन ये चार प्रकारके पुण्यकर्मकारी मनुष्य मेरा भजनसेवन करते हैं।
।।7.16।। चतुर्विधाः चतुःप्रकाराः भजन्ते सेवन्ते मां जनाः सुकृतिनः पुण्यकर्माणः हे अर्जुन। आर्तः आर्तिपरिगृहीतः तस्करव्याघ्ररोगादिना अभिभूतः आपन्नः जिज्ञासुः भगवत्तत्त्वं ज्ञातुमिच्छति यः अर्थार्थी धनकामः ज्ञानी विष्णोः तत्त्वविच्च हे भरतर्षभ।।
।।7.15 7.16।।उत्तरवाक्यं प्रकृतानुपयुक्तमित्यत आह तर्हीति। यदि त्वत्प्रतिपत्तिर्मायातरणोपायस्तर्हीत्यर्थः। त्वां प्रपद्येति शेषः। तथा चमामेव 7।14 इत्युक्तमसदिति भावः। दुष्कृतित्वादीनां प्रयोजनान्तराभावात् हेतुत्वेनान्वये स्थिते किं ते पञ्चापि साक्षाद्भगवदप्रतिपत्तिहेतवः किं वा हेतुहेतुमद्भावेन इत्यपेक्षायामाह दुष्कृतित्वादिति। मूढाः मिथ्याज्ञानिनः विपर्ययस्याधर्मकार्यत्वप्रसिद्धेः। अत एव मूढत्वादेव। देवानामुत्तममध्यममनुष्याणां च केवलमिथ्याज्ञानित्वाभावात्। अधिष्ठानयाथात्म्याज्ञानस्य विपर्ययहेतुत्वप्रसिद्धेरपहृतज्ञानत्वाच्च मूढाः। अत एव नराधमत्वादेव। जीवत्रैविध्यविवक्षायां नराधमानामसुरेष्वन्तर्भावस्य प्रसिद्धत्वात् आसुरभावाश्रयणान्न मां प्रपद्यन्त इत्यर्थः। नन्वासुरो भावो हि हिंसानृतादिलक्षणोऽन्यैर्व्याख्यातः (शं.) तद्रहिताश्च क्षपणकादयो न भगवन्तं प्रपद्यन्ते तत्कथमस्य हेतुत्वमित्यत आह स चेति। एतेषामन्यतमः सर्वेवप्यस्तीति भावः। ननु मुक्तौ योग्यानामयोग्यानां च भगवन्तमप्रतिपद्यमानानां एते धर्मा वक्तव्याः तत्र मुक्तियोग्यानां सम्यग्ज्ञानस्वभावात् तत्कथमपहृतज्ञानत्वं इत्यत आह अपहार इति। आगमवाक्यमपि सज्जीवविषयं मुक्तियोग्यानामसुर भावाश्रयणप्रवृत्त्याद्यज्ञानेनोक्तम्। प्रकारान्तरेण घटयितुमाह असुष्विति। इन्द्रियेषु तत्प्रीणन् एव रताः। असौ इति जातावेकवचनम्। पदसन्धेर्विवक्षाधीनत्वादसन्धिर्न दोषः। त्रिभिरित्यत्र भगवतो गौणविग्रहत्वज्ञानस्य कारणमुक्तम्। अत्र तु स्वदोषादेव न मां प्रपद्यन्ते। न तु मत्प्रपत्तेर्मायातरणोपायत्वाभावादित्यतो महान्भेदः।
।।7.15 7.16।।तर्हि सर्वेऽपि किमिति नात्याययन्नित्यत आह न मामिति। दुष्कृतित्वान्मूढाः अत एव नराधमाः। अपहृतज्ञानत्वाच्च मूढाः अत एवासुरं भावमाश्रिताः। स च वक्ष्यतेप्रवृत्तिं निवृत्तिं च 16।7 इत्यादिना। अपहारोऽभिभवः। उक्तं चैतद्व्यासयोगेज्ञानं स्वभावो जीवानां मायया ह्यधिभूयते इति। असुषु रता असुराः तच्चोक्तं नारदीये ज्ञानप्रधाना देवास्तु असुरास्तु रता असौ इति।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।
চতুর্বিধা ভজন্তে মাং জনাঃ সুকৃতিনোর্জুন৷ আর্তো জিজ্ঞাসুরর্থার্থী জ্ঞানী চ ভরতর্ষভ৷৷7.16৷৷
চতুর্বিধা ভজন্তে মাং জনাঃ সুকৃতিনোর্জুন৷ আর্তো জিজ্ঞাসুরর্থার্থী জ্ঞানী চ ভরতর্ষভ৷৷7.16৷৷
ચતુર્વિધા ભજન્તે માં જનાઃ સુકૃતિનોર્જુન। આર્તો જિજ્ઞાસુરર્થાર્થી જ્ઞાની ચ ભરતર્ષભ।।7.16।।
ਚਤੁਰ੍ਵਿਧਾ ਭਜਨ੍ਤੇ ਮਾਂ ਜਨਾ ਸੁਕਰਿਤਿਨੋਰ੍ਜੁਨ। ਆਰ੍ਤੋ ਜਿਜ੍ਞਾਸੁਰਰ੍ਥਾਰ੍ਥੀ ਜ੍ਞਾਨੀ ਚ ਭਰਤਰ੍ਸ਼ਭ।।7.16।।
ಚತುರ್ವಿಧಾ ಭಜನ್ತೇ ಮಾಂ ಜನಾಃ ಸುಕೃತಿನೋರ್ಜುನ. ಆರ್ತೋ ಜಿಜ್ಞಾಸುರರ್ಥಾರ್ಥೀ ಜ್ಞಾನೀ ಚ ಭರತರ್ಷಭ৷৷7.16৷৷
ചതുര്വിധാ ഭജന്തേ മാം ജനാഃ സുകൃതിനോര്ജുന. ആര്തോ ജിജ്ഞാസുരര്ഥാര്ഥീ ജ്ഞാനീ ച ഭരതര്ഷഭ৷৷7.16৷৷
ଚତୁର୍ବିଧା ଭଜନ୍ତେ ମାଂ ଜନାଃ ସୁକୃତିନୋର୍ଜୁନ| ଆର୍ତୋ ଜିଜ୍ଞାସୁରର୍ଥାର୍ଥୀ ଜ୍ଞାନୀ ଚ ଭରତର୍ଷଭ||7.16||
caturvidhā bhajantē māṅ janāḥ sukṛtinō.rjuna. ārtō jijñāsurarthārthī jñānī ca bharatarṣabha৷৷7.16৷৷
சதுர்விதா பஜந்தே மாஂ ஜநாஃ ஸுகரிதிநோர்ஜுந. ஆர்தோ ஜிஜ்ஞாஸுரர்தார்தீ ஜ்ஞாநீ ச பரதர்ஷப৷৷7.16৷৷
చతుర్విధా భజన్తే మాం జనాః సుకృతినోర్జున. ఆర్తో జిజ్ఞాసురర్థార్థీ జ్ఞానీ చ భరతర్షభ৷৷7.16৷৷
7.17
7
17
।।7.17।। उन चार भक्तोंमें मेरेमें निरन्तर लगा हुआ, अनन्यभक्तिवाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानी भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह भी मेरेको अत्यन्त प्रिय है।
।।7.17।। उनमें भी मुझ से नित्ययुक्त, अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।।
।।7.17।। चतुर्विध भक्तों की परस्पर तुलना करके भगवान् कहते हैं कि जो ज्ञानी भक्त मुझसे नित्ययुक्त है और आत्मस्वरूप के साथ जिसकी अनन्य भक्ति है वह सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि आत्मतत्त्व से भिन्न किसी अन्य विषय में उसका मन विचरण नहीं करता है। जब तक साधक को अपने ध्येय का स्वरूप निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता है तब तक मन की एकाग्रता भी प्राप्त नहीं की जा सकती है। एक भक्ति का अर्थ है साधक के मन में आत्मसाक्षात्कार की ही एक वृत्ति बनी रहना।एक भक्ति को पाने के लिए साधक को अपने मन की विषयाभिमुखी प्रवृत्तियों को विषय से निवृत्त करना आवश्यक होता है। ज्ञानी व्यक्ति किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए नहीं वरन् अपने मन की उन प्रवृत्तियों को नष्ट करने के लिए ईश्वर का आह्वान करता है जिसके कारण उसके मन की शक्ति का जगत् के मिथ्या आकर्षणों में व्यर्थ अपव्यय होता है। अत स्वाभाविक है कि आत्मस्वरूप में स्थित भगवान् श्रीकृष्ण ऐसे ज्ञानी पुरुष को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं जिसके मन में आत्मानुभूति के अतिरिक्त अन्य कोई कामना ही नहीं रहती।ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ। प्रेम का मापदण्ड है प्रियतम के साथ हुआ तादात्म्य। वास्तव में आत्मसमर्पण की धुन पर ही प्रेम का गीत गाया जाता है। निस्वार्थता प्रेम का आधार है। प्रेम की मांग है समस्त कालों एवं परिस्थितियों में बिना किसी प्रतिदान की आशा के सर्वस्व दान। प्रेम के इस स्वरूप को समझने पर ही ज्ञात होगा कि ज्ञानी भक्त का प्रेम ही वास्तविक शुद्ध और पूर्ण प्रेम होता है।एकपक्षीय प्रेम की परिसमाप्ति कभी पूर्णत्व में नहीं हो सकती। यहाँ भगवान् स्पष्ट कहते हैं ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और मुझे वह अत्यन्त प्रिय है। इस कथन में एक मनोवैज्ञानिक सत्य छिपा हुआ है। प्रेम का यह सनातन नियम है कि वह निष्काम होने पर न केवल पूर्णता को प्राप्त होता है वरन् उसमें एक दुष्ट को भी आदर्श बनाने की विचित्र सार्मथ्य होती है।यह एक सुविचारित एवं सुविदित तथ्य है कि यदि किसी व्यक्ति का मन किसी एक विशेष भावना जैसे दुख द्वेष मत्सर करुणा से भर जाता है तो उसके समीपस्थ लोगों के मन पर भी उस तीव्र भावना का प्रभाव पड़ता है। अत यदि हम किसी को निस्वार्थ शुद्ध प्रेम दे सकें तो हमारे दुष्ट शत्रु का भी हृदय परिवर्तित हो सकता है। यह नियम है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य भगवान् के इस कथन में स्पष्ट होता है कि ज्ञानी को मैं और मुझे ज्ञानी अत्यन्त प्रिय है।तब क्या आर्तादि भक्त भगवान् वासुदेव को प्रिय नहीं है ऐसी बात नहीं फिर क्या कहते हैं
।।7.17।। व्याख्या--'तेषां ज्ञानी नित्ययुक्तः' उन (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) भक्तोंमें ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है; क्योंकि वह नित्ययुक्त है अर्थात् वह सदा-सर्वदा केवल भगवान्में ही लगा रहता है। भगवान्के सिवाय दूसरे किसीमें वह किञ्चिन्मात्र भी नहीं लगता। जैसे गोपियाँ गाय दुहते, दही बिलोते, धान कूटते आदि सभी लौकिक कार्य करते हुए भी भगवान् श्रीकृष्णमें चित्तवाली रहती हैं (टिप्पणी प0 420.2), ऐसे ही वह ज्ञानी भक्त लौकिक और पारमार्थिक सब क्रियाएँ करते समय सदा-सर्वदा भगवान्से जुड़ा रहता है। भगवान्का सम्बन्ध रखते हुए ही उसकी सब क्रियाएँ होती हैं।
।।7.16 7.19।।चतुर्विधा इत्यादि सुदुर्लभ इत्यन्तम्। ये तु मां भजन्ते ते सुकृतिनः। ते च चत्वारः। सर्वे चैते उदाराः। यतः अन्ये कृपणबुद्धयः आर्त्तिनिवारणम् अर्थादि च तुल्यपाणिपादोदरशरीरसत्त्वेभ्योऽधिकतरं वा आत्मन्यूनेभ्यो मार्गयन्ते। ज्ञान्यपेक्षया तु ते न्यूनसत्त्वाः यतः तेषां तावत्यपि भेदोऽस्ति भगवतः इदमहमभिलष्यामि इति भेदस्य स्फुटप्रतिभासात्। ज्ञानी तु मामेवाभेदतया अवलम्बते इति (S omits इति) ततोऽहमभिन्न एव। तस्य च अहमेव प्रियः न तु फलम्। अत एव स वासुदेव एव सर्वम् इत्येव (S वासुदेवः सर्वमेवम्) दृढप्रतिपत्तिपवित्रीकृतहृदयः।
।।7.17।।तेषां ज्ञानी विशिष्यते कुतः नित्ययुक्त एकभक्तिः इति च। तस्य हि मदेकप्राप्यस्य मया योगो नित्यः। इतरयोस्तु यावत्स्वाभिलषितप्राप्ति मया योगः। तथा ज्ञानिनो मयि एकस्मिन् एव भक्तिः इतरयोः तु स्वाभिलषिते तत्साधनत्वेन मयि च। अतः स एव विशिष्यते।किं च प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् अहम् अत्र अत्यर्थशब्दो अभिधेयवचनः ज्ञानिनः अहं यथा प्रियः तथा मया सर्वज्ञेन सर्वशक्तिना अपि अभिधातुं न शक्यते इत्यर्थः प्रियत्वस्य इयत्तारहितत्वात्। यथा ज्ञानिनाम् अग्रेसरस्य प्रह्लादस्य स त्वासक्तमतिः कृष्णे देश्यमानो महोरगैः। न विवेदात्मनो गात्रं तत्स्मृत्याह्लादसंस्थितः (वि0 पु0 1।17।39) इति सः अपि तथा एव मम प्रियः।
।।7.17।।चतुर्विधानां तेषां सुकृतिनां भगवदभिमुखानां तुल्यत्वमाशङ्क्याह तेषामिति। तस्य विशिष्यमाणत्वे हेतुमाह प्रियो हीति। नित्ययुक्तत्वं भगवत्यात्मनि सदा समाहितचेतस्त्वम् असारे संसारे भगवानेव सारः सोऽहमस्मीत्येकस्मिन्नद्वितीये स्वस्मादत्यन्तमभिन्ने भगवति भक्तिः स्नेहविशेषोऽस्येत्येकभक्तिः। तस्याधिक्ये हेतुं विवृणोति प्रियो हीत्यादिना। भगवतो ज्ञानिनश्च परस्परं प्रेमास्पदत्वे प्रसिद्धिं प्रमाणयति प्रसिद्धं हीति। आत्मनो ज्ञानिनं प्रति प्रियत्वेऽपि भगवतो वासुदेवस्य कथं तं प्रति प्रियत्वमित्याशङ्क्याह तस्मादिति। अहं ज्ञानिनो निरुपाधिकप्रेमास्पदं परमपुरुषार्थत्वेनात्मत्वेन च गृहीतत्वादित्यर्थः। ज्ञानिनोऽपि भगवन्तं प्रति प्रियत्वं प्रकटयति स चेति।
।।7.17।।एतेषां मध्ये मुमुक्षुः मम ज्ञानी श्रेष्ठो मत इत्याह तेषां ज्ञानीति। नित्यं योग उक्तलक्षणस्तद्वान् नित्ययुक्तः। तादृशश्च मदीयमहिमज्ञानवान् तथा मय्येव पुरुषोत्तमे परमात्मनि विभावेकस्मिन् एका निरपेक्षा भक्तिर्यस्य। इतरेषां तु स्वाभिलषिते तत्साधकत्वेन वा मयि वेत्यत एव स विशिष्टो भवति। न केवलं स विशिष्टः किन्तु प्रियः परस्परमित्याह प्रियो हीति। अहं ज्ञानिनोऽत्यर्थं प्रियः प्रेमविषयः स च ममेति भजनात्ज्ञानी चेद्भजते कृष्णं तस्मान्नास्त्यधिकः परः इति निबन्धवाक्यात्। सर्वेषां ममताविषयाणां मध्ये स्वात्मा प्रियः आनन्दरूपत्वात् स आत्मा परमानन्दपरमात्मांशत्वादित्यर्थः। परमात्मनि प्रियत्वम्।
।।7.17।।चतुर्विधानामपि सुकृतित्वे नियतेऽपि सुकृताधिक्येन निष्कामतया प्रेमाधिक्यात् चतुर्विधानां तेषां मध्ये ज्ञानीतत्त्वज्ञानवान्निवृत्तसर्वकामो विशिष्यते सर्वतोऽतिरिच्यते। सर्वोत्कृष्ट इत्यर्थः। यतो नित्ययुक्तो भगवति प्रत्यगभिन्ने सदा समाहितचेता विक्षेपकाभावात्। अतएवैकभक्तिरेकस्मिन्भगवत्येव भक्तिरनुरक्तिर्यस्य स तथा तस्यानुरक्तिविषयान्तराभावात्। हि यस्मात् प्रियो निरुपाधिप्रेमास्पदमत्यर्थमत्यन्तमतिशयेन ज्ञानिनोऽहं प्रत्यगभिन्नः परमात्मा सच तस्मादत्यर्थं मम परमेश्ववरस्य प्रियः। आत्मा प्रियोऽतिशयेन भवतीति श्रुतिलोकयोः प्रसिद्धमेवेत्यर्थः।
।।7.17।।एतेषां मध्ये ज्ञानी श्रेष्ठ इत्याह तेषामिति। तेषां मध्ये ज्ञानी विशिष्टः। तत्र हेतवः नित्ययुक्तः। सदा मन्निष्ठः एकस्मिन्मय्येव भक्तिर्यस्य सः। ज्ञानिनो देहाद्यभिमानाभावेन चित्तविक्षेपाभावान्नित्ययुक्तत्वमेकान्तभक्तित्वं च संभवति नान्यस्य। अतएव हि तस्याहमत्यन्तं प्रियः स च मम। तस्मादेतैर्नित्ययुक्तत्वादिभिश्चतुर्भिर्हेतुभिः स उत्तम इत्यर्थः।
।।7.17।।एवं भक्तभेद उक्तः तत्र प्रबुद्धस्य श्रैष्ठ्यं दर्शयति तेषामिति। इममेवार्थं परस्तादपि वक्ष्यति चतुर्विधा मम जना भक्ता एव हि ते श्रुताः। तेषामेकान्तिनः श्रेष्ठास्ते चैवानन्यदेवताः।।अहमेव गतिस्तेषां निराशीः कर्मकारिणाम्। ये तु शिष्टास्त्रयो भक्ताः फलकामा हि ते मताः।।सर्वे च्यवनधर्माणः प्रतिबुद्धस्तु मोक्षभाक् म.भा.12।341।33.35 इति। तेषामिति निर्धारणे षष्ठी। विशिष्यते श्रेष्ठतम इत्यर्थः। किं प्रशंसामात्रार्थमिदं इति शङ्कतेकुत इति। वैशिष्ट्यहेतुपरं विशेषणद्वयमित्याहनित्ययुक्तः एकभक्तिरिति चेति।ज्ञानिनो हीत्यादि प्रापकस्य तस्यैव प्राप्यत्वात्फलदशायामपि। योगोऽनुवृत्त इत्यर्थः। आर्तस्यार्थार्थिनश्चैकाधिकारित्वनिर्णयादितरयोरिति द्विवचनम्। एतेनात्मार्थिनः फलदशायां परमात्मनो भोग्यतयाऽनुसन्धानं नास्तीति सिद्धम्। एकस्मिन् भक्तिर्यस्य स एकभक्तिरिति व्यधिकरणबहुव्रीहिः। एकशब्दाभिप्रेतमुपास्यफलयोरभेदं दर्शयितुंएकस्मिन्नेवेत्यवधारणम्।प्रियो हि इत्यादिना हेत्वन्तरमुच्यत इत्यभिप्रायेणाह किञ्चेति। अतिशयितकाष्ठां वक्तुमाह अर्थशब्दोऽभिधेयवचन इति।अत्यर्थमत्यभिधेयम् अभिधेयातिक्रमणं चात्राभिधेयान्तराद्द्वैलक्षण्यम् तच्चाभिधातुमशक्यतेत्यभिप्रायेणाहज्ञानिनोऽहमिति।अभिधातुमशक्यं इत्यस्येश्वरवचनत्वात्तेनाप्यशक्यमिति फलितमित्यभिप्रायेणोक्तंमयेत्यादिना। ननु सर्वज्ञेन यदज्ञातं तदसदेव स्यात् यत्र चासावशक्तः तत्र चास्यानीश्वरत्वं स्यादित्यत्राह प्रियत्वस्येति गगनकुसुमादिवदसत्त्वनिबन्धनमज्ञानं न दोषाय अन्यथा भ्रान्तत्वप्रसङ्गात्। इयत्ताया अभावादेव तद्वाचकः शब्दोऽपि नास्तीति तदप्रयोगोऽपि नाशक्तिहेतुरिति भावः। हिशब्दद्योतितां प्रसिद्धिमुदाहरति यथेति।ज्ञानिनामग्रेसरस्येत्यनेन जन्मसिद्धनिरतिशयज्ञानवत्त्वं बाधकवचनादिभिर्बिभीषिकासहस्रैश्चाकम्पितत्वं विवक्षितम्।कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्च निर्वृतिवाचकः म.भा.5।70।5 इति कृष्णशब्देनात्र निर्वृतिहेतुत्वादिकं विवक्षितम्। प्रवाहानादिकृष्णावतारकृतकालियमर्दनसूचनं वा भक्तदुःखानां कर्षणाद्वा कृष्णः तीव्रदुःखहेतुसद्भावेऽपि दुःखानुभवाभावो निरतिशयप्रीत्यन्तरमत्ततयेति भावः। आत्मज्ञानमपि तदानीं मृग्यं किं पुनर्गृहादिकल्पशरीरज्ञानमित्यात्मनो गात्रमित्यस्य भावः।स च मम प्रियः इत्यत्राप्यत्यर्थशब्दः समुच्चयसामर्थ्यादर्थस्वभावाच्चानुषक्त इत्यभिप्रायेणाह तथैवेति। यथाऽहं त्रिविधपरिच्छेदरहित निरतिशयानन्दस्वरूपोऽनन्तगुणविभूतिर्ज्ञानिनः प्रियस्तथाऽयमेक एव ज्ञानी मम निरतिशयप्रीतिविषय इत्युक्तं भवति।स च मम प्रियः इत्यत्र निरतिशयप्रीतिं कुर्वतोऽपि महोदारस्येश्वरस्यापि तत्प्रीत्युपाधिकप्रीतिकरणादतृप्तिः सूचितेति केचिदाचार्याः।
।।7.17।।एवं चतुर्विधानुक्चैतेषु ज्ञानी मोक्षार्थं भजनकर्त्ता उत्तम इत्याह तेषामिति। तेषां पूर्वोक्तचतुर्विधानां मध्ये ज्ञानी नित्ययुक्तः नित्यं मया युक्त इत्यर्थः। एतेभ्यश्चतुर्विधेभ्योऽपि एकभक्तिरनन्यत्वेनैकान्तभजनकृत् दासवत् स विशिष्यते उत्तमत्वेनेत्यर्थः। तस्य विशेष्यधर्ममाह प्रिय इति। हीति निश्चयेन ज्ञानिनः सकाशात् अत्यर्थं सर्वभावे अहमेव तस्य प्रियः। अतएव श्रीभागवते भगवद्वाक्यंमदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि इति।
।।7.17।।किं सर्वेऽपि समा एते सुकृतिन इति साधारण्येन विशेषणादत आह तेषामिति। तेषां मध्ये ज्ञानी विशिष्यते। यतो नित्ययुक्तः। आर्तादयो हि कामिनः कामपूर्तौ न मद्भजने युक्ता भवन्ति अयंतु नित्ययुक्त एकभक्तिश्चैकभावेन भजनं करोति। तथाहि आर्ता रोगिणः सूर्यं भजन्ते जिज्ञासवः सरस्वतीं अर्थार्थिनः कुबेरादीनिति तेषां तत्तत्कामार्थित्वेनानेकभक्तित्वं दृश्यते। तस्य नित्ययुक्तत्वे एकभक्तित्वे च हेतुः हि यतः ज्ञानिनोऽहमत्यर्थं प्रियः आत्मत्वादेव। आत्मा च प्रियः निरुपाधिप्रेमगोचरत्वात्तदेतत्प्रेयः पुत्रात्प्रेयो वित्तात्प्रेयोऽन्यस्मात्सर्वस्मादान्तरो यदयमात्मा इति श्रुतेश्च। सच ज्ञानी मम प्रियो भक्तानां दुर्लभत्वादिति भावः।
।।7.17।।तेभ्यो ज्ञानिनः श्रैष्ठ्यमाह। तेषां चतुर्णा मध्ये ज्ञानी विशिष्यते आधिक्यं प्राप्नोति। यतस्तत्त्ववित्त्वान्नित्ययुक्तः कदापि मद्भजनं न त्यजति। यतएकमेवाद्वितीयं ब्रह्मतत्त्वमसि इत्यादि श्रुत्या निर्णीते प्रत्यगभिन्ने मयि भगवति वासुदेवे भक्तिर्वृत्तिसंततिरुपा यस्य सः। प्रेमास्पदे वस्तुनि भक्तिर्भवति प्रेमास्पदश्च श्रुत्या लोकप्रसिद्य्धा चात्मा। हि यस्मादहं ज्ञानिन आत्मस्वादत्यर्थं अत्यन्तं प्रियः। स च ज्ञानी मम वासुदेवस्यात्मैवातो ममात्यन्तं प्रियः।
7.17 तेषाम् of them? ज्ञानी the wise? नित्ययुक्तः ever steadfast? एकभक्तिः whose devotion is to the One? विशिष्यते excels? प्रियः dear? हि verily? ज्ञानिनः of the wise? अत्यर्थम् exceedingly? अहम् I? सः he? च and? मम of Me? प्रियः dear.Commentary Ekabhaktih means unswerving? singleminded devotion to the Supreme Being.The JnaniBhakta is beyond all cults or creeds or formal religion or rules of society. As the wise man is constantly harmonised and as he is devoted to the One? he is regarded as superior to all the other devotees. As I am his very Self or Antaratma? I am extremely dear to him. Everybody loves his own Self most. The Self is very dear to everybody. The wise man is My very Self and he is ear to Me also. (Cf.II.49IX.29XII.14?17and19)
7.17 Of them the wise, ever steadfast and devoted to the One, excels (is the best); for I am exceedingly dear to the wise and he is dear to Me.
7.17 Of all of these, he who has gained wisdom, who meditates on Me without ceasing, devoting himself only to Me, he is the best; for by the wise man I am exceedingly beloved and the wise man, too, is beloved by Me.
7.17 Of them, the man of Knowledge, endowed with constant steadfastness and one-pointed devotion, excels. For I am very much dear to the man of Knowledge, and he too is dear to Me.
7.17 Tesam, of them, among the four; jnani, the man of Knowledge, the knower of Reality, is nitya-yuktah, endowed with constant steadfastness as a result of being a knower of Reality; and he also becomes eka-bhaktih, endowed with one-pointed devotion, because he finds no one else whom he can adore. Conseently, that person of one-pointed devotion visisyate, excels, becomes superior, i.e. he surpasses (the others). Hi, since; I, the Self, am priyah, dear; jnaninah, to the man of Knowledge; therefore aham, I; am atyartham, very much; priyah, dear to him. It is indeed a well known fact in the world that the Self is dear. The meaning, therefore, is that Vasudeva, being the Self of the man of Knowledge, is dear to him. And sah, he, the man of Knowledge, being the very Self of Me who am Vasudeva; is very much priyah, dear; mama, to Me. 'If that be so, then the other three-the afflicted and the others-are not dear to Vasudeva?' 'This is not so!' 'What then?'
7.17. Of them, the man of wisdom, being always attached [to Me] with single-pointed devotion excels [others]. For, I am dear to the man of wisdom above all personal gains and he is dear to Me.
7.17 See Comment under 7.19
7.17 Of these four, 'the man of knowledge' is the foremost. Why? Because of being ever with Me in Yoga and devoted to the One only. To the man of knowledge the attainment of Myself being the only end in view, he is ever with Me. As for the others, they contemplate on Me only until the fulfilment of their desires. But to the man of knowledge, there is single-minded devotion to Me only. Unlike him, the others, want only the objects of their desire and they are devoted to Me only as a means for gaining them. Hence he, the man of knowledge, alone is the foremost. Further I am very dear to the man of knowledge. Here the term 'artha' in relation to the expression 'athyartham' denotes 'what cannot be expressed adeately.' That is, even I, the omniscient and omnipotent, is unable to express how much I am dear to the Jnanin, since there is no such limit as 'this much' for this love. Such is the meaning. As in the case of Prahlada, the foremost among men of knowledge, it is said: 'But he with his thoughts firmly fixed on Krsna while being bitten by the great serpents, felt no pain from the wounds, being immersed in rapturous recollections of Him' (V. P., 1.17.39). I reciprocate this love infinitely.
7.17 Of these, the man of knowledge, being ever with Me in Yoga and devoted to the One only, is the foremost; for I am very dear to the man of knowledge and he too is dear to Me.
।।7.17।।उन चार प्रकारके भक्तोंमें जो ज्ञानी है अर्थात् यथार्थ तत्त्वको जाननेवाला है वह तत्त्ववेत्ता होनेके कारण सदा मुझमें स्थित है और उसकी दृष्टिमें अन्य किसी भजनेयोग्य वस्तुका अस्तित्व न रहनेके कारण वह केवल एक मुझ परमात्मामें ही अनन्य भक्तिवाला होता है। इसलिये वह अनन्य प्रेमी ( ज्ञानी भक्त ) श्रेष्ठ माना जाता है। ( अन्य तीनोंकी अपेक्षा ) अधिक उच्च कोटिका समझा जाता है। क्योंकि मैं ज्ञानीका आत्मा हूँ इसलिये उसको अत्यन्त प्रिय हूँ। संसारमें यह प्रसिद्ध ही है कि आत्मा ही प्रिय होता है। इसलिये ज्ञानीका आत्मा होनेके कारण भगवान् वासुदेव उसे अत्यन्त प्रिय होता है। यह अभिप्राय है। तथा वह ज्ञानी भी मुझ वासुदेवका आत्मा ही है अतः वह मेरा अत्यन्त प्रिय है।
।।7.17।। तेषां चतुर्णां मध्ये ज्ञानी तत्त्ववित् तत्त्ववित्त्वात् नित्ययुक्तः भवति एकभक्तिश्च अन्यस्य भजनीयस्य अदर्शनात् अतः स एकभक्तिः विशिष्यते विशेषम् आधिक्यम् आपद्यते अतिरिच्यते इत्यर्थः। प्रियो हि यस्मात् अहम् आत्मा ज्ञानिनः अतः तस्य अहम् अत्यर्थं प्रियः प्रसिद्धं हि लोके आत्मा प्रियो भवति इति। तस्मात् ज्ञानिनः आत्मत्वात् वासुदेवः प्रियो भवतीत्यर्थः। स च ज्ञानी मम वासुदेवस्य आत्मैवेति मम अत्यर्थं प्रियः।। न तर्हि आर्तादयः त्रयः वासुदेवस्य प्रियाः न किं तर्हि
।।7.17।।एका भक्तिर्यस्येति विग्रहे भक्तिशब्दस्य प्रियादित्वात्तस्मिन्परतः पूर्वपदस्य पुंवद्भावो न सिध्यतीत्यालोच्याह एकस्मिन्नेवेति।अस्य इत्यध्याहार्यम्। तथापि वैयधिकरण्यात् बहुव्रीहिर्न सिद्ध्यतीति चेत् न आगमसिद्धत्वाच्चेत्याह तच्चेति। यस्येत्युपस्कर्तव्यम्।
।।7.17।।एकस्मिन्नेव भक्तिरित्येकभक्तिः। तच्चोक्तं गारुडे मय्येव भक्तिर्नान्यत्र एकभक्तिः स उच्यते इति।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्ितर्विशिष्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।7.17।।
তেষাং জ্ঞানী নিত্যযুক্ত একভক্িতর্বিশিষ্যতে৷ প্রিযো হি জ্ঞানিনোত্যর্থমহং স চ মম প্রিযঃ৷৷7.17৷৷
তেষাং জ্ঞানী নিত্যযুক্ত একভক্িতর্বিশিষ্যতে৷ প্রিযো হি জ্ঞানিনোত্যর্থমহং স চ মম প্রিযঃ৷৷7.17৷৷
તેષાં જ્ઞાની નિત્યયુક્ત એકભક્િતર્વિશિષ્યતે। પ્રિયો હિ જ્ઞાનિનોત્યર્થમહં સ ચ મમ પ્રિયઃ।।7.17।।
ਤੇਸ਼ਾਂ ਜ੍ਞਾਨੀ ਨਿਤ੍ਯਯੁਕ੍ਤ ਏਕਭਕ੍ਿਤਰ੍ਵਿਸ਼ਿਸ਼੍ਯਤੇ। ਪ੍ਰਿਯੋ ਹਿ ਜ੍ਞਾਨਿਨੋਤ੍ਯਰ੍ਥਮਹਂ ਸ ਚ ਮਮ ਪ੍ਰਿਯ।।7.17।।
ತೇಷಾಂ ಜ್ಞಾನೀ ನಿತ್ಯಯುಕ್ತ ಏಕಭಕ್ಿತರ್ವಿಶಿಷ್ಯತೇ. ಪ್ರಿಯೋ ಹಿ ಜ್ಞಾನಿನೋತ್ಯರ್ಥಮಹಂ ಸ ಚ ಮಮ ಪ್ರಿಯಃ৷৷7.17৷৷
തേഷാം ജ്ഞാനീ നിത്യയുക്ത ഏകഭക്ിതര്വിശിഷ്യതേ. പ്രിയോ ഹി ജ്ഞാനിനോത്യര്ഥമഹം സ ച മമ പ്രിയഃ৷৷7.17৷৷
ତେଷାଂ ଜ୍ଞାନୀ ନିତ୍ଯଯୁକ୍ତ ଏକଭକ୍ିତର୍ବିଶିଷ୍ଯତେ| ପ୍ରିଯୋ ହି ଜ୍ଞାନିନୋତ୍ଯର୍ଥମହଂ ସ ଚ ମମ ପ୍ରିଯଃ||7.17||
tēṣāṅ jñānī nityayukta ēkabhakitarviśiṣyatē. priyō hi jñāninō.tyarthamahaṅ sa ca mama priyaḥ৷৷7.17৷৷
தேஷாஂ ஜ்ஞாநீ நித்யயுக்த ஏகபக்ிதர்விஷிஷ்யதே. ப்ரியோ ஹி ஜ்ஞாநிநோத்யர்தமஹஂ ஸ ச மம ப்ரியஃ৷৷7.17৷৷
తేషాం జ్ఞానీ నిత్యయుక్త ఏకభక్ితర్విశిష్యతే. ప్రియో హి జ్ఞానినోత్యర్థమహం స చ మమ ప్రియః৷৷7.17৷৷
7.18
7
18
।।7.18।। पहले कहे हुए सब-के-सब भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाववाले) हैं। परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है -- ऐसा मेरा मत है। कारण कि वह युक्तात्मा है और जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है, ऐसे मेरेमें ही दृढ़ आस्थावाला है।
।।7.18।। (यद्यपि) ये सब उत्कृष्ट हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें अच्छी प्रकार स्थित है।।
।।7.18।। विशाल हृदय के भक्तानुग्रहकारक भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जो कोई भी भक्त मेरी भक्ति करता है वह अन्य जनों की अपेक्षा उत्कृष्ट ही है फिर चाहे वह अपने कष्ट निवारणार्थ मेरा भक्त हो अथवा वह अर्थार्थी हो। किसानकिसी प्रकार से वह मुझ अनन्तस्वरूप की ओर ही अग्रसर हो रहा होता है। अत वह उत्कृष्ट है। तथापि इन चतुर्विध भक्तों में ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है।हम सब जानते हैं कि किसी मन्त्री का मित्र होना और स्वयं ही मन्त्री बनना इन दोनों में बहुत अन्तर है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन्त्री की मित्रता प्राप्त होने मात्र से भी मनुष्य को समाज में एक विशेष प्रभावपूर्ण स्थान प्राप्त होता है परन्तु मन्त्री पद की समस्त गरिमा एवं अधिकार तो स्वयं मन्त्री बनने पर ही प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार किसी फल विशेष के लिए ईश्वर की आराधना करना उसका आह्वान करना निश्चय ही एक दैवी गुण है किन्तु ज्ञानी पुरुष निष्काम होकर मन और बुद्धि के अतीत अपने परमात्मस्वरूप को पहचान कर परिच्छिन्न अहंकार को ही समाप्त कर देता है और परमात्मा के साथ वह एकत्वभाव को प्राप्त हो जाता है।तत्पश्चात् ऐसा ज्ञानी पुरुष सदा आत्मस्वरूप में ही स्थित होता है। इसलिए अन्य भक्तों की तुलना में ज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ है यह श्रीकृष्ण का मत है।
।।7.18।। व्याख्या--उदाराः सर्व एवैते ये सब-के-सब भक्त उदार हैं, श्रेष्ठ भाववाले हैं। भगवान्ने यहाँ जो 'उदाराः'शब्दका प्रयोग किया है, उसमें कई विचित्र भाव हैं; जैसे-- (1) चौथे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि 'भक्त जिस प्रकार मेरे शरण होते हैं, उसी प्रकार मैं उनका भजन करता हूँ।' भक्त भगवान्को चाहते हैं और भगवान् भक्तको चाहते हैं। परन्तु इन दोनोंमें पहले भक्तने ही सम्बन्ध जोड़ा है और जो पहले सम्बन्ध जोड़ता है, वह उदार होता है। तात्पर्य यह है कि भगवान् सम्बन्ध जोड़ें या न जोड़ें, इसकी भक्त परवाह नहीं करता। वह तो अपनी तरफसे पहले सम्बन्ध जोड़ता है और अपनेको समर्पित करता है। इसलिये वह उदार है। (2) देवताओंके भक्त सकामभावसे विधिपूर्वक यज्ञ दान, तप आदि कर्म करते हैं तो देवताओंको उनकी कामनाके अनुसार वह चीज देनी ही पड़ती है; क्योंकि देवतालोग उनका हित-अहित नहीं देखते। परन्तु भगवान्का भक्त अगर भगवान्से कोई चीज माँगता है तो भगवान् अगर उचित समझें तो वह चीज दे देते हैं अर्थात् देनेसे उसकी भक्ति बढ़ती हो, तो दे देते हैं और भक्ति न बढ़ती हो संसारमें फँसावट होती हो तो नहीं देते। कारण कि भगवान् परम पिता हैं और परम हितैषी हैं। तात्पर्य यह हुआ कि अपनी कामनाकी पूर्ति हो अथवा न हो, तो भी वे भगवान्का ही भजन करते हैं, भगवान्के भजनको नहीं छोड़ते--यह उनकी उदारता ही है। (3) संसारके भोग और रुपये-पैसे प्रत्यक्ष सुखदायी दीखते हैं और भगवान्के भजनमें प्रत्यक्ष जल्दी सुख नहीं दीखता, फिर भी संसारके प्रत्यक्ष सुखको छोड़कर अर्थात् भोग भोगने और संग्रह करनेकी लालसाको छोड़कर भगवान्का भजन करते हैं, यह उनकी उदारता ही है। (4) भगवान्के दरबारमें माँगनेवालोंको भी उदार कहा जाता है--यहि दरबार दीनको आदर रीति सदा चलि आई। (विनयपत्रिका 165। 5) अर्थात् कोई कुछ माँगता है, कोई धन चाहता है, कोई दुःख दूर करना चाहता है--ऐसे माँगनेवाले भक्तोंको भी भगवान् उदार कहते हैं, यह भगवान्की विशेष उदारता ही है। (5) भक्तोंका लौकिक-पारलौकिक कामनापूर्तिके लिये अन्यकी तरफ किञ्चिन्मात्र भी भाव नहीं जाता। वे केवल भगवान्से ही कामनापूर्ति चाहते हैं। भक्तोंका यह अनन्यभाव ही उनकी उदारता है।'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्' यहाँ 'तु'पदसे ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तकी विलक्षणता बतायी है कि दूसरे भक्त तो उदार हैं ही, पर ज्ञानीको उदार क्या कहें, वह तो मेरा स्वरूप ही है। स्वरूपमें किसी निमित्तसे, किसी कारणविशेषसे प्रियता नहीं होती, प्रत्युत अपना स्वरूप होनेसे स्वतः-स्वाभाविक प्रियता होती है।प्रेममें प्रेमी अपने-आपको प्रेमास्पदपर न्योछावर कर देता है अर्थात् प्रेमी अपनी सत्ता अलग नहीं मानता। ऐसे ही प्रेमास्पद भी स्वयं प्रेमीपर न्योछावर हो जाते हैं। उनको इस प्रेमाद्वैतकी विलक्षण अनुभूति होती है। ज्ञानमार्गका जो अद्वैतभाव है, वह नित्य-निरन्तर अखण्डरूपसे शान्त, सम रहता है। परन्तु प्रेमका जो अद्वैतभाव है, वह एक-दूसरेकी अभिन्नताका अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है। प्रेमका अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो हैं और दो होते हुए भी एक है। इसलिये प्रेम-तत्त्व अनिर्वचनीय है। शरीरके साथ सर्वथाअभिन्नता (एकता) मानते हुए भी निरन्तर भिन्नता बनी रहती है और भिन्नताका अनुभव होनेपर भी भिन्नता बनी रहती है। इसी तरह प्रेमतत्त्वमें भिन्नता रहते हुए भी अभिन्नता बनी रहती है और अभिन्नताका अनुभव होनेपर भी अभिन्नता बनी रहती है।जैसे, नदी समुद्रमें प्रविष्ट होती है तो प्रविष्ट होते ही नदी और समद्रके जलकी एकता हो जाती है। एकता होनेपर भी दोनों तरफसे जलका एक प्रवाह चलता रहता है अर्थात् कभी नदीका समुद्रकी तरफ और कभी समुद्रका नदीकी तरफ एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है। ऐसे ही प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है। उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोग--इस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है। उसमें कौन प्रेमास्पद है और कौन प्रेमी है--इसका खयाल नहीं रहता। वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं। यही 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्'पदोंका तात्पर्य है।'आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्' क्योंकि जिससे उत्तम गति कोई हो ही नहीं सकती, ऐसे सर्वोपरि मेरेमें ही उसकी श्रद्धा, विश्वास और दृढ़ आस्था है। तात्पर्य है कि उसकी वृत्ति किसी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर मेरेसे हटती नहीं, प्रत्युत एक मेरेमें ही लगी रहती है।'केवल भगवान् ही मेरे हैं'--इस प्रकार मेरेमें उसका जो अपनापन है, उसमें अनुकूलता-प्रतिकूलताको लेकर किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं पड़ता, प्रत्युत वह अपनापन दृढ़ होता और बढ़ता ही चला जाता है।वह युक्तात्मा है अर्थात् वह किसी भी अवस्थामें मेरेसे अलग नहीं होता, प्रत्युत सदा मेरेसे अभिन्न रहता है।  सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें कहे हुए ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तकी वास्तविकता और उसके भजनका प्रकार आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।7.16 7.19।।चतुर्विधा इत्यादि सुदुर्लभ इत्यन्तम्। ये तु मां भजन्ते ते सुकृतिनः। ते च चत्वारः। सर्वे चैते उदाराः। यतः अन्ये कृपणबुद्धयः आर्त्तिनिवारणम् अर्थादि च तुल्यपाणिपादोदरशरीरसत्त्वेभ्योऽधिकतरं वा आत्मन्यूनेभ्यो मार्गयन्ते। ज्ञान्यपेक्षया तु ते न्यूनसत्त्वाः यतः तेषां तावत्यपि भेदोऽस्ति भगवतः इदमहमभिलष्यामि इति भेदस्य स्फुटप्रतिभासात्। ज्ञानी तु मामेवाभेदतया अवलम्बते इति (S omits इति) ततोऽहमभिन्न एव। तस्य च अहमेव प्रियः न तु फलम्। अत एव स वासुदेव एव सर्वम् इत्येव (S वासुदेवः सर्वमेवम्) दृढप्रतिपत्तिपवित्रीकृतहृदयः।
।।7.18।।सर्वे एव एते माम् एव उपासते इति उदाराः वदान्याः ये मत्तो यत् किञ्चिद् अपि गृह्णन्ति ते हि मम सर्वस्वदायिनः। ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतं तदायत्तात्मधारणः अहम् इति मन्ये।कस्माद् एवं यस्माद् अयं मया विना आत्मधारणासंभावनया माम् एव अनुत्तमं प्राप्यम् आस्थितः अतः तेन विना मम अपि आत्मधारणं न संभवति ततो मम अपि आत्मा हि सः।न अल्पसंख्यासंख्यातानां पुण्यजन्मनां फलम् इदं यन्मच्छेषतैकरसात्मयाथात्म्यज्ञानपूर्वकं मत्प्रपदनम् अपि तु
।।7.18।।ज्ञानी चेदत्यर्थमीश्वरस्य प्रियो भवति तर्हि विशेषणसामर्थ्यादितरेषामप्रियत्वं प्राप्तमिति शङ्कते न तर्हीति। तेषां भगवन्तं प्रति प्रियत्वमत्र विवक्षितमित्याह नेति। अत्यर्थमिति विशेषणस्य तर्हि किं प्रयोजनमिति पृच्छति किं तर्हीति। सर्वेषां भगवदभिमुखत्वादुत्कर्षेऽपि ज्ञानिनि तदतिरेकमङ्गीकृत्य विशेषणमित्याह उदारा इति। किं तत्र प्रमाणमित्याशङ्क्येश्वरज्ञानमित्याह मे मतमिति। ज्ञानी त्वात्मैवेत्यत्र हेतुमाह आस्थित इति। सर्वशब्दस्य ज्ञानिव्यतिरिक्तविषयत्वमाह त्रयोऽपीति। ज्ञानिव्यतिरिक्तानां भगवदभिमुखत्वेऽपि ज्ञानाभावापराधान्न भगवत्प्रीतिविषयतेत्याशङ्क्याह नहीति। कस्तर्हि ज्ञानवति विशेषस्तत्राह ज्ञानी त्विति। तमेव विशेषं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति तत्कस्मादित्यादिना। सर्वमात्मानं पश्यतोऽपि तस्य तव कथं यथोक्तो निश्चयः स्यादित्याशङ्क्यास्थित इत्येतद्व्याकरोति आरोढुमिति। आरोहे हेतुं सूचयति स ज्ञानीति। आरोढुं प्रवृत्तत्वमेव स्फुटयति मामेवेति।
।।7.18।।तर्हि किमितरे त्वद्भक्तास्त्रिविधाः संसृताः इति नहि नहीत्याह उदाराः सर्व इति। एते मद्भक्ताः सर्व एवोदारा देवान्तरोपासकेभ्यो महान्तो वदान्याश्च मत्तो यत्किञ्चित् गृह्णन्ति मम सर्वसमर्पकाः प्रथमं अन्यथा फलसिद्धिर्न स्यात्। परं व्यावहारिकरीत्या तद्भजनं प्राकृतमिति न तत्र प्रियत्वमुक्तम्। संसृतिरपि प्राकृतानामिव न भविष्यति यथा कथञ्चिद्भजनात्। उक्तं च भागवते 1।5।17त्यक्त्वा स्वधम चरणाम्बुजं इत्युपक्रम्ययत्र क्व वाऽभद्रमभूदमुष्य किं को वाऽर्थ आप्तो भजतां स्वधर्मतः इत्यादिनाकामं क्रोधं भयंस्नेहमैक्यं सौहृदमेव च। नित्यं हरौ विदधते यान्ति तन्मयतां हि ते भाग.10।29।15 इति चान्ते तन्मयत्वफलमननादुदारास्ते। यथाकथञ्चित्कार्यापेक्षयापि भगवत्सम्बन्धिभावे प्रवृत्तिरुचिततरेति सङ्क्षेपः। मम महिमतत्त्वज्ञानी पुनरात्मैवेति मे मतम्। ब्रह्मवादानुरोधि भगवन्मतं वा आस्थितः आश्रितः मामेवानुत्तमां गतिं मुक्तिं फलभूतामास्थितश्च मे मतः। तत्रात्मत्वं मन्ये। तदधीन इत्यर्थसिद्धम्। तत उत्तमः।
।।7.18।।तत्किमार्तादयस्तव न प्रियाः न अत्यर्थमिति विशेषणादित्याह एते आर्तादयः सकामा अपि मद्भक्ताः सर्वे त्रयोऽप्युदारा एव उत्कृष्टा एव पूर्वजन्मार्जितानेकसुकृतराशित्वात्। अन्यथा हि मां न भजेयुरेव। आर्तस्य जिज्ञासोरर्थार्थिनश्च मद्विमुखस्य क्षुद्रदेवताभक्तस्यापि बहुलमुपलम्भात्। अतो मम प्रिया एव ते। नहि ज्ञानवानज्ञो वा कश्चिदपि भक्तो ममाप्रियो भवति किंतु यस्य यादृशी मयि प्रीतिर्ममापि तत्र तादृशी प्रीतिरिति स्वभावसिद्धमेवैतत्। तत्र सकामानां त्रयाणां काम्यमानमपि प्रियमहमपि प्रियः। ज्ञानिनस्तु प्रियान्तरशून्यस्याहमेव निरतिशयप्रीतिविषयः। अतः सोऽपि मम निरतिशयप्रीतिविषय इति विशेषः। अन्यथा हि मम कृतज्ञता न स्यात् कृतघ्नता च स्यात्। अतएवात्यर्थमिति विशेषणमुपात्तं प्राक्। तथा हियदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवति इत्यत्र तरबर्थस्य विवक्षितत्वाद्विद्यादिव्यतिरेकेण कृतमपि कर्म वीर्यवद्भवत्येव तथात्यर्थं ज्ञानी भक्तो मम प्रिय इत्युक्तेर्योज्ञानव्यतिरेकेण भक्तः सोऽपि प्रिय इति पर्यवस्यत्येव अत्यर्थमिति विशेषणस्य विवक्षितत्वात्। उक्तंहिये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् इति। अतो मामात्मत्वेन ज्ञानवाञ्ज्ञानी आत्मैव न मत्तो भिन्नः किं त्वहमेव स इति मम मतं निश्चयः। तुशब्दः सकामभेददर्शित्रितयापेक्षया निष्कामत्वभेदादर्शित्वविशेषद्योतनार्थः। हि यस्मात्स ज्ञानी युक्तात्मा सदा मयि समाहितचित्तः सन् मां भगवन्तमनन्तमानन्दघनमात्मानमेवानुत्तमां सर्वोत्कृष्टां गतिं गन्तव्यं परमं फलमास्थितोऽङ्गीकृतवान् नतु मद्भिन्नं किमपि फलं स मन्यत इत्यर्थः।
।।7.18।। तर्हि किमितरे त्रयस्त्वद्भक्ताः संसरन्ति नहि नहीत्याह उदारा इति। सर्वेऽप्येत उदारा महान्तः। मोक्षभाज एवेत्यर्थः। ज्ञानी पुरात्मैवेति मे मतं निश्चयः। हि यस्मात् स ज्ञानी युक्तात्मा मदेकचित्तः सन् न विद्यत उत्तमा यस्यास्तामनुत्तमां सर्वोत्तमां गतिं मामेवास्थित आश्रितवान्। मद्व्यतिरिक्तमन्यत्फलं न मन्यत इत्यर्थः।
।।7.18।।तेषाम् 7।17 इति श्लोकस्यार्थ एवउदाराः इत्यनेनापि दृढीक्रियते। ज्ञानिनोऽत्यर्थप्रियत्ववचनादन्येषामपि किञ्चित्प्रियत्वं फलितम् तदेवउदाराः सर्वे इति पादेन विशदीकृतम्। तदेकोपायत्वस्य साधारण्यंमामेवोपासत इत्यनेन दर्शितम्। उदारशब्दस्यात्र मन्दप्रयोजनोत्कर्षमात्रपरत्वव्युदासाय प्रसिद्ध्यनुरोधेनाह वदान्या इति। अर्थित्वेनावस्थितानां कथं वदान्यत्वं इत्यत्राह ये मत्त इति। सकलफलप्रदत्वलक्षणं परमौदार्यमेव हि मम सर्वस्वम् तच्च प्रतिग्रहीतृसापेक्षं तदभावे कथं स्यादित्युक्तं भवति।मतम् इति नपुंसकत्वान्न ज्ञानीत्यनेनान्वयःमतः इति परोक्तपाठस्त्वप्रसिद्धः तस्मादितिशब्दोऽध्याहृतः। अयमर्थः त्रय्यन्तसिद्धान्तो भवतु वा मा वा कृष्णसिद्धान्तस्त्वयमिति भावः। आत्मशब्दस्यात्र बहुप्रमाणविरुद्धत्वान्न तादात्म्यादिविषयत्वम् तथा सति व्यतिरेकनिर्देशबाधश्च। अतस्तदभिप्रेतमाह तदायत्तेति। शरीरं प्रति धारको ह्यात्मा। प्रियत्वातिशयप्रतिपादनाय सावधारणोऽयमात्मत्वारोपः। अस्मिन्नभिमानमात्रसारे भवत्सिद्धान्ते किं प्रमाणमभिमतं इत्याकाङ्क्षायाम्आस्थितः इत्यादिकमुच्यत इत्याह कस्मादेवमिति। हिर्हेतौ।युक्तात्मा इत्याशंसायां क्तः परमात्मयोगाशंसाविशिष्ट एव आत्मा यस्य सोऽत्र युक्तात्मा तदेतदभिप्रेत्योक्तं मया विनाऽऽत्मधारणासम्भावनयेति। मदनुसन्धानाभावे सति अर्थान्तरानुसन्धानप्रवृत्तेरसमर्थस्वभावतयेत्यर्थः।मामेवेति अयुक्तदशायामसत्त्वमेव हि स्यादिति भावः।मामेव उपायभूतमेव न तु फलान्तरलवमित्यर्थः।प्राप्यमिति गतिशब्दोऽत्र गन्तव्यपरः। अस्त्वेवं तदायत्तधारणो यथाप्रमाणं ज्ञानी ततः किमायातं भगवतस्तदायत्तधारणत्वस्य इत्यत्राहअतस्तेन विनेति। सहृदयानां मदभिप्रायविदां चैतद्व्यक्तमित्यभिप्रायः। तथा हिन तस्यान्यः प्रियतरः प्रतिबुद्धैर्महात्मभिः। विद्यते त्रिषु लोकेषु ततोऽस्म्येकान्तितां गतः। नारदैतद्धि ते सत्यं वचनं समुदाहृतम्। नास्य भक्तैः प्रियतरो लोके कश्चन विद्यते इति।ततो ममात्मा हि स इति आधारत्वादिविशेषो ह्यात्मलक्षणमिति भावः। ऐश्वर्यादिकामाः सर्व एव मत्स्वरूपस्यातिशयहेतवः। ज्ञानी तु मम स्वरूपसत्ताहेतुरिति स्वभक्तस्तुतिपरः श्लोकः।
।।7.18।।नन्वेषु चतुर्विधेषु ज्ञानी उत्तम उक्तस्ततोऽपि भक्तस्तदा पूर्वोक्तानां किं फलं इत्यपेक्षायामाह उदारा इति। एते सर्व एव स्वार्थपरित्यागेन मदर्थधर्मादित्रयभजनकर्त्तारः उदाराः मोक्षाधिकारिणः। तु पुनः ज्ञानी आत्मैव मदात्मक एव मुक्त एवेत्यर्थ इति मे मतम्। हीति निश्चयेन। अनन्यमनसा सर्वत्यागेन अनुत्तमां न विद्यते उत्तमा यस्यास्तादृशीं गतिं प्राप्य स्थानं ज्ञात्वा मामेवास्थितः स युक्तात्मा मत्संयोगयुक्तो दास्यादिभावेनेत्यर्थः। स उत्तम इति भावः।
।।7.18।।उदारा इति। सर्वेऽप्येते उदारा उत्कृष्टा एव। ज्ञानी तु ममात्मैवेति मम मतं निश्चितम्। हि यतः स युक्तात्मा अहमेव भगवान्वासुदेव इत्यभेदेन मयि समाहितचित्तो मामेवानुत्तमां श्रेष्ठां गतिमास्थितो नतु मत्तोऽन्यदारोग्यादिकं कामयमानो मद्भक्तिं करोति। किंतर्हि मत्प्राप्त्यर्थमेव मां भजत इत्यर्थः।
।।7.18।। तर्हि किमार्तादयस्तवाप्रियाः न आत्मत्वेनात्यर्थमिति विशेषणादित्याह उदारा इति। उदाराः सर्व एते त्रयोऽप्यन्यभ्य आर्तादिभ्यः। आर्त्यादिनिवृत्त्यर्थमितरदेवतादिभक्तेभ्य उत्कृष्टाः मम प्रिया एवेत्यर्थः। नहि कश्चिदार्तो वा जिज्ञासुर्वाऽर्थार्थी आर्तादिभ्यः। आर्त्यादिनिवृत्त्यर्थमितरदेवतादिभक्तेभ्य उत्कृष्टाः मम प्रिया एवेत्यर्थः। नहि कश्चिदार्थो वा जिज्ञासुर्वाऽर्थार्थी वा मद्भक्तो मम वासुदेवस्याप्रियो भवति। परंतुये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाभ्यहम् इत्युक्तत्वात् यो यदर्थ मां भजति तमहमपि तत्फलदानेन भजामि। यस्तु निष्कामी प्रेमातिशयेन मां भजति तमहमपि तथैव भजाम्यतो ज्ञानी इत्यर्थं प्रियो भवतीति विशेषः। तत्कुत इति तत्राह। ज्ञानी तु ममात्मैव नान्यो यत इति मे मतं निश्चयः।ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इति श्रुतेः। तुशब्दस्तेभ्यो विशेषद्योतनार्थः। ज्ञानी त्वात्मैवेत्यत्र हेतुमाह आस्थित इति। हि यस्मात्स ज्ञानी अहमेव भगवान्वासुदेवो नान्योऽहमस्मीत्येवं युक्तः समाहित आत्मा चित्तं यस्य सः मामेव परं ब्रह्मानुत्तमां गतिं निरतिशयं गन्तव्यं गन्तुं प्रवृत्त इत्यर्थः।
7.18 उदाराः noble? सर्वे all? एव surely? एते these? ज्ञानी the wise? तु but? आत्मा Self? एव very? मे My? मतम् opinion? आस्थितः is established? सः he? हि verily? युक्तात्मा steadfastminded? माम् Me? एव verily? अनुत्तमाम्,the supreme? गतिम् goal.Commentary Are not the other three kinds of devotees dear to the Lord They are. They are all noble souls. But the wise man is exceedingly dear because he has a steady mind he has fixed his mind on Brahman. He does not want any worldly object? but only the Supreme Being. He seeks Brahman alone as the supreme goal. He practises Ahamgraha Upasana (meditation on the Self as the all). He tries to realise that he is identical with the Supreme Self. Therefore I regard a wise man as My very Self. (Cf.II.49)
7.18 Noble indeed are all these; but I deem the wise man as My very Self; for, steadfast in mind he is established in Me alone as the supreme goal.
7.18 Noble-minded are they all, but the wise man I hold as my own Self; for he, remaining always at peace with Me, makes me his final goal.
7.18 All of these, indeed, are noble, but the man of Knowledge is the very Self. (This is) My opinion. For, with a steadfast mind, he is set on the path leading to Me alone who am the super-excellent Goal.
7.18 Sarve, ete, all of these three, without exception; are eva, indeed, udarah, noble, i.e.; they are verily dear to Me. For, no devotee of Mine can become disagreeable to Me who am Vasudeva. But the man of Knowledge becomes very much dear. This is the difference. Why is this so? In answer the Lord says: Tu but; jnani, the man of Knowledge; is atma eva, the very Self, not different from Me. This is me, My; matam, opinion, conviction. Hi, for; yuktatma, with a steadfast mind-having his mind absorbed in the idea, 'I am verily Vasudeva, the Lord, and none else', that man of Knowledge asthitah, is set on the path leading to, he is engaged in ascending to, going to; mam eva, Me alone, to the supreme Brahman; who am the anuttamam gatim, super-excellent Goal to be reached. The man of Knowledge is being eulogized again:
7.18. All these are noble persons, indeed. But the man of wisdom is considered as the very Soul of [Mine]. For, with his self (mind) that has mastered the Yoga, he has resorted to nothing but Me as his most supreme goal.
7.18 See Comment under 7.19
7.18 Because they worship Me alone, all these are generous i.e., benefactors. For, those who receive from Me anything, however small they are, I consider them as contributing everything to Me (and thus as benefactors). But I deem the man of knowledge to be My very self. I consider Myself as depending on him for My support. Why is it so? Because this person considers Me to be the highest and finds it impossible to support himself without Me; I also find it impossible to be without him. Thus, verily, he is My self. The attainment of this state of mind reires innumerable auspicious births. It is attained after gaining the knowledge of the real nature of the self and the self feels that Its happiness consists in being a dependant (Sesa) of Myself.
7.18 All these are indeed generous (udarah), but I deem the man of knowledge to be My very self; for he, integrated, is devoted to Me alone as the highest end.
।।7.18।।तो फिर क्या आर्त आदि तीन प्रकारके भक्त आप वासुदेवके प्रिय नहीं हैं यह बात नहीं तो क्या बात है ये सभी भक्त उदार हैं श्रेष्ठ हैं। अर्थात् वे तीनों भी मेरे प्रिय ही हैं। क्योंकि मुझ वासुदेवको अपना कोई भी भक्त अप्रिय नहीं होता परंतु ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय होता है इतनी विशेषता है। ऐसा क्यों है सो कहते हैं ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है वह मुझसे अन्य नहीं है यह मेरा निश्चय है क्योंकि वह योगारूढ़ होनेके लिये प्रवृत्त हुआ ज्ञानी स्वयं मैं ही भगवान् वासुदेव हूँ दूसरा नहीं ऐसा युक्तात्मा समाहितचित्त होकर मुझ परम प्राप्तव्य गतिस्वरूप परब्रह्ममें ही आनेके लिये प्रवृत्त है।
।।7.18।। उदाराः उत्कृष्टाः सर्व एव एते त्रयोऽपि मम प्रिया एवेत्यर्थः। न हि कश्चित् मद्भक्तः मम वासुदेवस्य अप्रियः भवति। ज्ञानी तु अत्यर्थं प्रियो भवतीति विशेषः। तत् कस्मात् इत्यत आह ज्ञानी तु आत्मैव न अन्यो मत्तः इति मे मम मतं निश्चयः। आस्थितः आरोढुं प्रवृत्तः सः ज्ञानी हि यस्मात् अहमेव भगवान् वासुदेवः न अन्योऽस्मि इत्येवं युक्तात्मा समाहितचित्तः सन् मामेव परं ब्रह्म गन्तव्यम् अनुत्तमां गतिं गन्तुं प्रवृत्त इत्यर्थः।।ज्ञानी पुनरपि स्तूयते
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उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।7.18।।
উদারাঃ সর্ব এবৈতে জ্ঞানী ত্বাত্মৈব মে মতম্৷ আস্থিতঃ স হি যুক্তাত্মা মামেবানুত্তমাং গতিম্৷৷7.18৷৷
উদারাঃ সর্ব এবৈতে জ্ঞানী ত্বাত্মৈব মে মতম্৷ আস্থিতঃ স হি যুক্তাত্মা মামেবানুত্তমাং গতিম্৷৷7.18৷৷
ઉદારાઃ સર્વ એવૈતે જ્ઞાની ત્વાત્મૈવ મે મતમ્। આસ્થિતઃ સ હિ યુક્તાત્મા મામેવાનુત્તમાં ગતિમ્।।7.18।।
ਉਦਾਰਾ ਸਰ੍ਵ ਏਵੈਤੇ ਜ੍ਞਾਨੀ ਤ੍ਵਾਤ੍ਮੈਵ ਮੇ ਮਤਮ੍। ਆਸ੍ਥਿਤ ਸ ਹਿ ਯੁਕ੍ਤਾਤ੍ਮਾ ਮਾਮੇਵਾਨੁਤ੍ਤਮਾਂ ਗਤਿਮ੍।।7.18।।
ಉದಾರಾಃ ಸರ್ವ ಏವೈತೇ ಜ್ಞಾನೀ ತ್ವಾತ್ಮೈವ ಮೇ ಮತಮ್. ಆಸ್ಥಿತಃ ಸ ಹಿ ಯುಕ್ತಾತ್ಮಾ ಮಾಮೇವಾನುತ್ತಮಾಂ ಗತಿಮ್৷৷7.18৷৷
ഉദാരാഃ സര്വ ഏവൈതേ ജ്ഞാനീ ത്വാത്മൈവ മേ മതമ്. ആസ്ഥിതഃ സ ഹി യുക്താത്മാ മാമേവാനുത്തമാം ഗതിമ്৷৷7.18৷৷
ଉଦାରାଃ ସର୍ବ ଏବୈତେ ଜ୍ଞାନୀ ତ୍ବାତ୍ମୈବ ମେ ମତମ୍| ଆସ୍ଥିତଃ ସ ହି ଯୁକ୍ତାତ୍ମା ମାମେବାନୁତ୍ତମାଂ ଗତିମ୍||7.18||
udārāḥ sarva ēvaitē jñānī tvātmaiva mē matam. āsthitaḥ sa hi yuktātmā māmēvānuttamāṅ gatim৷৷7.18৷৷
உதாராஃ ஸர்வ ஏவைதே ஜ்ஞாநீ த்வாத்மைவ மே மதம். ஆஸ்திதஃ ஸ ஹி யுக்தாத்மா மாமேவாநுத்தமாஂ கதிம்৷৷7.18৷৷
ఉదారాః సర్వ ఏవైతే జ్ఞానీ త్వాత్మైవ మే మతమ్. ఆస్థితః స హి యుక్తాత్మా మామేవానుత్తమాం గతిమ్৷৷7.18৷৷
7.19
7
19
।।7.19।। बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात् मनुष्यजन्ममें 'सब कुछ परमात्मा ही है', ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।
।।7.19।। बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।।
।।7.19।। सर्वोच्च ज्ञान को प्राप्त हुए श्रेष्ठ महात्मा पुरुष जगत् में विरले ही होते हैं यह भगवान् श्रीकृष्ण का कथन है। हिन्दू धर्म के पतन काल में इस प्रकार के कथन को अत्यन्त निराशावादी माना जाने लगा। परन्तु थोड़े विचार से ही इस प्रकार के निष्कर्ष का दोष स्पष्ट हो जायेगा। सृष्टि में समस्त चेतन जीवों की तुलना में मानव की संख्या अत्यन्त कम अनुपात में है। मनुष्यजाति में भी सभी परिपक्व बुद्धि एवं उच्च भावनाओं से सम्पन्न नहीं होते हैं।अन्तकरण के श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न होने पर भी बहुत कम लोग हैं जो गम्भीरतापूर्वक शास्त्राध्ययन करते हैं और शास्त्रों से प्राप्त ज्ञान को अपने जीवन में जीने वालों की संख्या तो नगण्य ही होती है। अनेक लोगों को केवल बौद्धिक ज्ञान से ही सन्तोष हो जाता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विकास के चरम लक्ष्य आत्मानुभूति तक पहुँचने वाले ज्ञानी पुरुष विरले ही होंगे।डार्विन के समान प्राचीन काल में ऋषियों ने सभी प्राणियों का निरीक्षण करके यह पाया कि प्राणी का अपने निम्न स्तर से उच्च स्तर तक का विकास होने के लिए दीर्घकालावधि की अपेक्षा होती है जिसमें विभिन्न परिस्थितियों एवं जन्मों से गुजरते हुए वह विकास के श्रेष्ठतर रूप को प्राप्त करता है। यह कालावधि करोड़ों वर्ष की हो सकती है। इससे हम कल्पना कर सकते हैं कि अहंकार को हटाकर अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा प्राप्त हो सकने वाले विकास के सर्वोच्च लक्ष्य सम्पूर्ण आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए कितने जन्मों की तपस्या होनी चाहिए। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम इसी वर्तमान जन्म में ही जीवन के इस सर्वोच्च लक्ष्य ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते। गीता का कथन निराशाजनक नहीं वरन् उत्साहवर्धक है। यहाँ बताये गये असंख्य जन्म ज्ञान प्राप्ति के पूर्व के हैं पश्चात् के नहीं। यदि मनुष्य अपने जीवन की अनेक उपलब्धियों से भी असन्तुष्ट होकर जीवन का वास्तविक लक्ष्य जानने का प्रयत्न करता है तो यह स्वयं ही विकास की एक अवस्था है। तत्पश्चात् शास्त्रों के अध्ययन में उसकी प्रवृत्ति हो और तत्प्रतिपादित सिद्धांतों को ग्रहण करने की सार्मथ्य हो तो स्पष्ट है कि वह आत्मदेव के मन्दिर के द्वार तक पहुँच गया है। अत और अधिक लगन से प्रयत्न करने पर इसी जन्म में वह मानव जन्म के परम पुरुषार्थ आत्मसंस्थिति को प्राप्त हो सकता है। साधक को साधना में अग्रसर होने के लिए उत्साहित करना ही भगवान् के उक्त कथन का एक मात्र प्रयोजन है।यह सब आत्मा या वासुदेव ही है इस ज्ञान को प्राप्त न करने का कारण वे अगले श्लोक में बताते हैं
।।7.19।। व्याख्या  बहूनां जन्मनामन्ते मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मोंका अन्तिम जन्म है। भगवान्ने जीवको मनुष्यशरीर देकर उसे जन्ममरणके प्रवाहसे अलग होकर अपनी प्राप्तिका पूरा अधिकार दिया है। परन्तु यह मनुष्य भगवान्को प्राप्त न करके रागके कारण फिर पुराने प्रवाहमें अर्थात् जन्ममरणके चक्करमें चला जाता है। इसलिये भगवान् कहते हैं अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि (गीता 9। 3)। जहाँ भगवान् आसुरी योनियों और नरकोंके अधिकारियोंका वर्णन करते हैं वहाँ दुर्गुणदुराचारोंके कारण भगवत्प्राप्तिकी सम्भावना न दीखनेपर भी भगवान् कहते हैं मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् (गीता 16। 20) अर्थात् मेरेको प्राप्त किये बिना ही ये प्राणी अधम गतिको चले गये अर्थात् वे मरनेके बाद मनुष्ययोनिमें भी चले जाते तो कमसेकम मनुष्य तो रह जाते पर वे मेरी प्राप्तिका पूरा अधिकार प्राप्त करके भी अधम गतिको चले गयेसंतोंकी वाणीमें और शास्त्रोंमें आता है कि मनुष्यजन्म केवल अपना कल्याण करनेके लिये मिला है विषयोंका सुख भोगनेके लिये तथा स्वर्गकी प्राप्तिके लिये नहीं (टिप्पणी प0 422)। इसलिये गीतानें स्वर्गकी प्राप्ति चाहनेवालोंको मूढ़ और तुच्छ बुद्धिवाले कहा है अविपश्चितः (2। 42) और अल्पमेधसाम् (7। 23)।यह मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मोंका आदि जन्म भी है और अन्तिम जन्म भी है। सम्पूर्ण जन्मोंका आरम्भ मनुष्यजन्मसे ही होता है अर्थात् मनुष्यजन्ममें किये हुए पाप चौरासी लाख योनियों और नरकोंमें भोगनेपर भी समाप्त नहीं होते बाकी ही रहते हैं इसलिये यह सम्पूर्ण जन्मोंका आदि जन्म है। मनुष्यजन्ममें सम्पूर्ण पापोंका नाश करके सम्पूर्ण वासनाओंका नाश करके अपना कल्याण कर सकते हैं भगवान्को प्राप्त कर सकते हैं इसलिये यह सम्पूर्ण जन्मोंका अन्तिम जन्म है।भगवान्ने आठवें अध्यायके छठे श्लोकमें कहा है कि जो मनुष्य अन्तसमयमें जिसजिस भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है उसउस भावको ही वह प्राप्त होता है। इस तरह मनुष्यको जिस किसी भावका स्मरण करनेमें जो स्वतन्त्रता दी गयी है इससे मालूम होता है कि भगवान्ने मनुष्यको पूरा अधिकार दिया है अर्थात् मनुष्यके उद्धारके लिये भगवान्ने अपनी तरफसे यह अन्तिम जन्म दिया है। अब इसके आगे यह नये जन्मकी तैयारी कर ले अथवा अपना उद्धार कर ले इसमें यह सर्वथा स्वतन्त्र है (टिप्पणी प0 423)। इस बातको लेकर गीता मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी मानती है और डंकेकी चोटके साथ खुले शब्दोंमें कहती है कि वर्तमानका दुराचारीसेदुराचारी पूर्वजन्मके पापोंके कारण नीच योनिमें जन्मा हुआ पापयोनि और चारों वर्णवाले स्त्रीपुरुष ये सभी भगवान्का आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त हो सकते हैं (गीता 9। 30 33)। गीताने (9। 32 में) ऐसा विचित्र पापयोनि शब्द कहा है जिसमें शूद्रसे भी नीचे कहे और माने जानेवाले चाण्डाल यवन आदि तथा पशुपक्षी कीटपतंग वृक्षलता आदि सभी लिये जा सकते हैं। हाँ यह बात अलग है कि पशुपक्षी आदि मनुष्येतर प्राणियोंमें परमात्माकी तरफ चलनेकी योग्यता नहीं है परन्तु परमात्माके अंश होनेसे उनके लिये परमात्माकी तरफसे मना नहीं है। उनमेंसे बहुतसे प्राणी भगवान् और संतमहापुरुषोंकी कृपासे तथा तीर्थ और भगवद्धामके प्रभावसे परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं। देवता भोगयोनि हैं वे भोगोंमें ही लगे रहते हैं इसलिये उनको अपना उद्धार करना है ऐसा विचार नहीं होता। परन्तु वे अगर किसी कारणसे भगवान्की तरफ लग जायँ तो उनका भी उद्धार हो जाता है। इन्द्रको भी ज्ञान प्राप्त हुआ था ऐसा शास्त्रोंमें आता है।भगवान्की तरफसे मनुष्यमात्रका जन्म अन्तिम जन्म है। कारण कि भगवान्का यह संकल्प है कि मेरे दिये हुए इस शरीरसे यह अपना कल्याण कर ले। अतः यह अपना कोई संकल्प न रखकर केवल निमित्तमात्र बन जाय तो भगवान्के संकल्पसे इसका कल्याण हो जाय। जैसे ग्यारहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कहा है मेरे द्वारा मारे हुएको ही तू मार दे मया हतांस्त्वं जहि। तू चिन्ता मत कर मा व्यथिष्ठाः। तू युद्ध कर तेरी विजय होगी युध्यस्व जेतासि। इसी तरहसे भगवान्ने कृपा करके मनुष्यशरीर दिया है। अगर मनुष्य भगवान्से विमुख होकर संसारके रागमें न फँसे तो भगवान्के उस संकल्पसे अनायास ही मुक्त हो जाय।भगवान्का संकल्प ऐसा नहीं है कि साधककी इच्छाके बिना उसका कल्याण हो जाय अर्थात् जैसे शाप या वरदान दिया जाता है वैसा यह संकल्प नहीं है। तो फिर कैसा है यह संकल्प भगवान्ने मनुष्यको अपना कल्याण करनेकी स्वतन्त्रता इन मनुष्यजन्ममें दी है। अगर यह प्राणी उस स्वतन्त्रताका दुरुपयोग न करे अर्थात् भगवान् और शास्त्रोंसे विपरीत न चले कमसेकम अपने विवेकके विरुद्ध न चले तो उससे भगवान् और शास्त्रोंके अनुकूल चलना स्वाभाविक होगा। कारण कि भगवान् और शास्त्रोंसे विपरीत न चलनेपर दो अवस्थाओंमेंसे एक अवस्था स्वाभाविक होगी या तो वह शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिसे कुछ नहीं करेगा या केवल भगवान् और शास्त्रके अनुकूल ही करेगा।कुछ नहीं करनेकी अवस्थामें अर्थात् कुछ करनेकी रुचि न रहनेकी अवस्थामें मन बुद्धि इन्द्रियों आदिके साथ सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। कारण कि कुछनकुछ करनेकी इच्छासे ही कर्तृत्वाभिमान उत्पन्न होकर अन्तःकरण और इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध जुड़ता है और अपने लिये करनेसे फलके साथ सम्बन्ध जुड़ता है। कुछ भी न करनेसे न कर्तृत्वअभिमान होगा और न फलेच्छा होगी प्रत्युत स्वरूपमें स्वतः स्थिति होगी।शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार निष्कामभावपूर्वक कर्म करनेकी अवस्थामें करनेका प्रवाह मिट जाता है और क्रिया तथा पदार्थसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। क्रिया और पदार्थसे सम्बन्धविच्छेद होनेसे नयी कामना होगी नहीं और पुराना राग मिट जायगा तो स्वतः बोध हो जायगा तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति (गीता 4। 32)।गीतामें आया है निष्कामभावसे विधिपूर्वक अपने कर्तव्यकर्मका पालन किया जाय तो अनादिकालसे बने हुए सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं (4। 23)। ज्ञानयोगसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे तर जाता है (4। 36)। भगवान् भक्तको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं (18। 66)। जो भगवान्को अजअनादि जानता है वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है (10। 3)। इस प्रकार कर्मयोग ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों योगोंसे पाप नष्ट हो जाते हैं। तात्पर्य यह निकला कि अन्तिम मनुष्यजन्म केवल कल्याणके लिये ही मिला है।मनुष्यजन्ममें सत्सङ्ग मिल जाय गीताजैसे ग्रन्थसे परिचय हो जाय भगवन्नामसे परिचय हो जाय तो साधकको यह समझना चाहिये कि भगवान्ने बहुत विशेषतासे कृपा कर दी है अतः अब तो हमारा उद्धार होगा ही अब आगे हमारा जन्ममरण नहीं होगा। कारण कि अगर हमारा उद्धार नहीं होना होता तो ऐसा मौका नहीं मिलता। परन्तु भगवान्की कृपासे उद्धार होगा ही इसके भरोसे साधन नहीं छोड़ना चाहिये प्रत्युत तत्परता और उत्साहपूर्वक साधनमें लगे रहना चाहिये। समय सार्थक बने कोई समय खाली न जाय ऐसी सावधानी हरदम रखनी चाहिये। परन्तु अपने कल्याणकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकि अबतक जिसने इतना प्रबन्ध किया है वही आगे भी करेगा। जैसे किसीने भोजनके लिये निमन्त्रण दे दिया आसन बिछा दिया आसनपर बैठा दिया पत्तल दे दी लोटेमें जल भरकर पासमें रख दिया। अब कोई चिन्ता करे कि यह व्यक्ति भोजन देगा कि नहीं देगा तो यह बिलकुल गलतीकी बात है। कारण कि अगर भोजन नहीं देना होता तो वह निमन्त्रण क्यों देता भोजनकी तैयारी क्यों करता परन्तु जब उसने निमन्त्रण दिया है बुलाया है तैयारी की है तब उसको भोजन देना ही पड़ेगा। हम भोजनकी चिन्ता क्यों करें अब तो बस ज्योंज्यों भोजनके पदार्थ आयें त्योंत्यों उनको पाते जायँ। ऐसे ही भगवान्ने हमको मनुष्यशरीर दिया है और उद्धारकी सब सामग्री (सत्सङ्ग भगवन्नाम आदि) जुटा दी है तो हमारा उद्धार होगा ही अब तो हम संसारसमुद्रके किनारे आ गये हैं ऐसा दृढ़ विश्वास करके निमित्तमात्र बनकर साधन करना चाहिये।जिसके पूर्वजन्मोंके पुण्य होते हैं वही भगवान्की तरफ चल सकता है अगर ऐसा माना जाय तो पूर्वजन्मोंके पापपुण्योंका फल तो पशुपक्षीकीटपतंग आदि योनिवाले प्राणी भोगते ही हैं फिर मनुष्यमें और उन प्राणियोंमें क्या फरक रहेगा भगवान्का कृपा करके मनुष्यशरीर देना कहाँ सार्थक होगा तथा मनुष्यजन्मकी विलक्षणता महिमा क्या होगी मनुष्यजन्मकी महिमा तो इसीमें है कि मनुष्य भगवान्का आश्रय लेकर अपने कल्याणके मार्गमें लग जाय (टिप्पणी प0 424.1)।वासुदेवः सर्वम् (टिप्पणी प0 424.2) महासर्गके आदिमें एक भगवान् ही अनेक रूपोंमें हो जाते हैं सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति (छान्दोग्य0 6। 2। 3) और अन्तमें अर्थात् महाप्रलयमें एक भगवान् ही शेष रह जाते हैं शिष्यते शेषसंज्ञः (श्रीमद्भा0 10। 3। 25)। इस प्रकार जब आदि और अन्तमें एक भगवान् ही रहते हैं तब बीचमें दूसरा कहाँसे आया क्योंकि संसारकी रचना करनेमें भगवान्के पास अपने सिवाय कोई सामग्री नहीं थी वे तो स्वयं संसारके रूपसे प्रकट हुए हैं। इसलिये यह सब वासुदेव ही है।जो चीज आदि और अन्तमें होती है वही चीज मध्यमें भी होती है। जैसे सोनेके गहने आदिमें सोना थे और अन्तमें सोना रहेंगे तो गहनोंमें दूसरी चीज कहाँसे आयेगी केवल सोनाहीसोना है। मिट्टीसे बननेवाले बर्तन पहले मिट्टी थे और अन्तमें मिट्टी हो जायँगे तो बीचमें मिट्टीके सिवाय क्या है केवल मिट्टीहीमिट्टी है। खाँड़से बने हुए खिलौने पहले खाँड़ थे और अन्तमें खाँड़ ही हो जायँगे तो बीचमें खाँड़के सिवाय क्या है केवल खाँड़हीखाँड़ है। इसी तरह सृष्टिके पहले भगवान् थे और अन्तमें भगवान् ही रहेंगे तो बीचमें भगवान्के सिवाय क्या है केवल भगवान्हीभगवान् हैं। जैसे सोनेको चाहे गहनोंके रूपमें देखें चाहे पासेके रूपमें देखें चाहे वर्कके रूपमें देखें है वह सोना ही। ऐसे ही संसारमें अनेक रूपोंमें अनेक आकृतियोंमें एक भगवान् ही हैं।जबतक मनुष्यकी दृष्टि गहनोंकी तरफ उसकी आकृतियोंकी तरफ रहती है उसीको महत्त्व देती है तबतक यह सोना ही है इस तरफ उसकी दृष्टि नहीं जाती। ऐसे ही जबतक मनुष्यकी दृष्टि संसारकी तरफ रहती है उसीको महत्त्व देती है तबतक सब कुछ भगवान् ही हैं इस तरफ उसकी दृष्टि नहीं जाती। परन्तु जब गहनोंकी तरफ दृष्टि नहीं रहती तब गहनोंमें सोनेकी भावना नहीं होती प्रत्युत यह सोना ही है ऐसी भावना होती है। ऐसे ही जब संसारकी तरफ दृष्टि नहीं रहती तब संसारमें भगवान्की भावना नहीं होती प्रत्युत सब कुछ भगवान् ही हैं भगवान्के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं ऐसी भावना होती है। कारण कि संसारमें भगवान्की भावना करनेसे संसारकी सत्ता साथमें रहती है अर्थात् संसारकी भावना रखते हुए उसकी सत्ता मानते हुए उसमें भगवान्की भावना करते हैं। अतः जबतक संसारकी सत्ता मानते हैं संसारको महत्त्व देते हैं तबतक संसारमें भगवान्की भावना करते रहनेपर भी वासुदेवः सर्वम् का अनुभव नहीं होता।ब्रह्मभूत मनुष्य निर्वाण ब्रह्मको प्राप्त होता है (5। 24) ब्रह्मभूत योगीको उत्तम सुख मिलता है (6। 27) ब्रह्मभूत भगवान्की पराभक्तिको प्राप्त होता है और उस भक्तिसे तत्त्वको जानकर उसमें प्रवेश करता है (18। 54 55) गीताकी दृष्टिसे ये तीनों ही अवस्थाएँ हैं। अवस्थाओंमें परिवर्तन होता है। परन्तु वासुदेवः सर्वम् यह अवस्था नहीं है प्रत्युत वास्तविक तत्त्व है। इसमें कभी परिवर्तन नहीं होता।यह जो कुछ संसार दीखता है सब भगवान्का ही स्वरूप है। भगवान्के सिवाय इस संसारकी स्वतन्त्र सत्ता थी नहीं है नहीं और कभी होगी भी नहीं। अतः देखने सुनने और समझनेमें जो कुछ संसार आता है वह सबकासब भगवत्स्वरूप ही है। भगवान्की आज्ञा है मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः।अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा।।(श्रीमद्भा0 11। 13। 24)मनसे वाणीसे दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है वह सब मैं ही हूँ। मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आपलोग विचारपूर्वक समझ लीजिये।इस आज्ञाके अनुसार ही उस ज्ञानी अर्थात् प्रेमीका जीवन हो जाता है। वह सब जगह भगवान्को ही देखता है यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति (गीता 6। 30)। वह सब कुछ करता हुआ भी भगवान्में ही रहता है सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते (गीता 6। 31)।किसीको एक जगह भी अपनी प्रिय वस्तु मिल जाती है तो उसको बड़ी प्रसन्नता होती है फिर जिसको सब जगह ही अपने प्यारे इष्टदेवका अनुभव होता है (टिप्पणी प0 425) उसकी प्रसन्नताका आनन्दका क्या ठिकाना उस आनन्दमें विभोर होकर भगवान्का प्रेमी भक्त कभी हँसता है कभी रोता है कभी नाचता है और कभी चुप होकर शान्त हो जाता है (टिप्पणी प0 426)। इस तरह उसका जीवन अलौकिक आनन्दसे परिपूर्ण हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी करना जानना और पाना बाकी नहीं रहता। वह सर्वथा पूर्ण हो जाता है अर्थात् उसके लिये किसी भी अवस्थामें किसी भी परिस्थितिमें कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता।जो भक्तिमार्गपर चलता है वह यह सत् है और यह असत् है इस विवेकको लेकर नहीं चलता। उसमें विवेकज्ञानकी प्रधानता नहीं रहती। उसमें केवल भगवद्भावकी ही प्रधानता रहती है। केवल भगवद्भावकी प्रधानता रहनेके कारण उसके लिये यह सब संसार चिन्मय हो जाता है। उसकी दृष्टिमें जडता रहती हीनहीं। भगवान्में तल्लीनता होनेसे भक्तका शरीर भी जड नहीं रहता प्रत्युत चिन्मय हो जाता है जैसे मीराबाईका शरीर (चिन्मय होनेसे) भगवान्के विग्रहमें लीन हो गया था।ज्ञानमार्गमें जहाँ सत्असत्का विवेक होता है वहाँ परिणाममें सत्असत् दोकी सत्ता नहीं रहती केवल सत्स्वरूप ही रह जाता है। परन्तु भक्तिमार्गमें सत्असत् सब कुछ भगवत्स्वरूप ही हो जाता है। फिर भक्त भगवत्स्वरूप संसारकी सेवा करता है। सेवामें पहले तो सेवा सेवक और सेव्य ये तीन होते हैं। परन्तु जब भगवद्भावकी अत्यधिक गाढ़ता हो जाती है तब सेवकभावकी विस्मृति हो जाती है। फिर भक्त स्वयं सेवारूप होकर सेव्यमें लीन हो जाता है। केवल एक भगवत्तत्त्व ही शेष रह जाता है। इस तरह भगवद्भावमें तल्लीन हुए भगवान्के प्रेमी भक्त जहाँकहीं भी विचरते हैं वहाँ उनके दर्शन स्पर्श भाषण आदिका प्राणियोंपर बड़ा असर पड़ता है।जबतक मनुष्योंकी पदार्थोंमें भोगबुद्धि रहती है तबतक उनको उन पदार्थोंका वास्तविक स्वरूप समझमें नहीं आता। परन्तु जब भोगबुद्धि सर्वथा हट जाती है तब केवल भगवत्स्वरूप ही देखनेमें आ जाता है।मार्मिक बातवासुदेवः सर्वम् इस तत्त्वको समझनेके दो प्रकार हैं (1) संसारका अभाव करके परमात्माको रखना अर्थात् संसार नहीं है और परमात्मा है (2) सब कुछ भगवान्हीभगवान् हैं। इसमें जो परिवर्तन दीखता है वह भी भगवान्का ही स्वरूप है क्योंकि भगवान्के सिवाय उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।उपर्युक्त दोनों ही प्रकार साधकोंके लिये हैं। जिस साधकका पदार्थोंको लेकर संसारमें आकर्षण (राग) है उसको यह सब कुछ नहीं है केवल परमात्मा ही है इस प्रणालीको अपनाना चाहिये। जिस साधकका पदार्थोंको लेकर संसारमें किञ्चिन्मात्र भी आकर्षण नहीं है और जो केवल भगवान्के स्मरण चिन्तन जप कीर्तन आदिमें लगा रहता है उसको संसाररूपसे सब कुछ भगवान् ही हैं इस प्रणालीको अपनाना चाहिये। वास्तवमें देखा जाय तो ये दोनों प्रणालियाँ तत्त्वसे एक ही हैं। इन दोनोंमें फरक इतना ही है कि जैसे सोनेमें गहने और गहनोंके नाम रूप आकृति आदि अलगअलग होते हुए भी सब कुछ सोनाहीसोना जानना। जहाँपर संसारका अभाव करके परमात्माको तत्त्वसे जानना है वहाँ विवेक की प्रधानता है और जहाँ संसारको भगवत्स्वरूप मानना है वहाँ भाव की प्रधानता है। निर्गुणके उपासकोंमें विवेककी प्रधानता होती है और सगुणके उपासकोंमें भावकी प्रधानता होती है।संसारका अभाव करके परमात्मतत्त्वको जानना भी तत्त्वसे जानना है और संसारको भगवत्स्वरूप मानना भी तत्त्वसे जानना है। कारण कि वास्तवमें तत्त्व एक ही है। फरक इतना ही है कि ज्ञानमार्गमें जाननेकी प्रधानता रहती है और भक्तिमार्गमें माननेकी प्रधानता रहती है। इसलिये भगवान्ने ज्ञानमार्गमें माननेको भी जाननेके अर्थमें लिया है इति मत्वा न सज्जते (गीता 3। 28) और भक्तिमार्गमें जाननेको भी माननेके अर्थमें लिया है (5। 29 9। 13 10। 3 7 24 27 41)। इसमें एक खास बात समझनेकी है कि परमात्माको जानना और मानना दोनों ही ज्ञान हैं तथा संसारको सत्ता देकर संसारको जानना और मानना दोनों ही अज्ञान हैं।संसारको तत्त्वसे जाननेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है और परमात्माको तत्त्वसे जाननेपर परमात्माका अनुभव हो जाता है। ऐसे ही संसार भगवत्स्वरूप है ऐसा दृढ़तासे माननेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है और फिर संसाररूपसे न दीखकर भगवत्स्वरूप दीखने लग जाता है। तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेपर जानना और मानना दोनों एक हो जाते हैं।इति ज्ञानवान्मां प्रपद्यते जो प्रतिक्षण बदलनेवाले संसारकी सत्ताको मानते हैं वे अज्ञानी हैं मूढ़ हैं परन्तु जिनकी दृष्टि कभी न बदलनेवाले भगवत्तत्त्वकी तरफ रहती है वे ज्ञानवान् हैं असम्मूढ़ हैं।ज्ञानवान् कहनेका तात्पर्य है कि वह तत्त्वसे समझता है कि सब जगह सबमें और सबके रूपमें वस्तुतः एक भगवान् ही हैं। ऐसे ज्ञानवान्को ही आगे पन्द्रहवें अध्यायके उन्नसीवें श्लोकमें सर्ववित् कहा गया है।ज्ञानवान्की शरणागति अर्थार्थी आर्त और जिज्ञासु भक्तोंकी तरह नहीं है। भगवान्ने ज्ञानीको अपनी आत्मा बताया है ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् (गीता 7। 18)। जब ज्ञानी भगवान्की आत्मा हुआ तो ज्ञानीकी आत्मा भगवान् हुए। अतः एक भगवत्तत्त्वके सिवाय दूसरी सत्ता ही नहीं रही। इसलिये ज्ञानीकी शरणागति उन तीनों भक्तोंसे विलक्षण होती है। उसके अनुभवमें एक भगवत्तत्त्वके सिवाय कोई दूसरी सत्ता होती ही नहीं यही उसकी शरणागति है।भगवान्की दृष्टिमें अपने सिवाय कोई अन्य तत्त्व है ही नहीं मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव (गीता 7। 7)। जैसे सूतकी मालामें मणियोंकी जगह सूतकी गाँठ लगा दी तो मालामें सूतके सिवाय अन्य क्या रहा केवल सूत ही रहा। हाँ दीखनेमें गाँठ अलग दीखती हैं और धागा अलग दीखता है परन्तु तत्त्वसे एक ही चीज (सूत) है। ऐसे ही परमात्मा संसारमें व्यापक दीखते हैं परन्तु तत्त्वसे परमात्मा और संसार एक ही है। उनमें व्याप्यव्यापकका भाव नहीं है। अतः सब कुछ एक वासुदेव ही है ऐसा जिसको अनुभव होता है वह भी भगवत्स्वरूप ही हुआ। भगवत्स्वरूप हो जाना ही उसकी शरणागति है।स महात्मा सुदुर्लभः बहुतसे मनुष्य तो हमें परमात्माकी प्राप्ति करनी है इस तरफ दृष्टि ही नहीं डालते और ऐसा चाहते ही नहीं। जो इस तरफ दृष्टि डालते हैं वे भी उत्कण्ठापूर्वक अनन्यभावसे अपने जीवनको सफल करनेमें नहीं लगते। जो अपना कल्याण करनेमें लगते हैं वे भी मूर्खताके कारण परमात्मप्राप्तिसे निराश होकर अपने असली अवसरको खो देते हैं जिससे वे परम लाभसे वञ्चित रह जाते हैं।इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मनुष्योंमें हजारों और हजारोंमें कोई एक मनुष्य वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न करता है। यत्न करनेवाले उन सिद्धोंमें भी कोई एक मनुष्य सब कुछ वासुदेव ही है ऐसा तत्त्वसे जानता है। ऐसा तत्त्वसे जाननेवाला महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि परमात्मा दुर्लभ हैं प्रत्युत सच्चे हृदयसे परमात्मप्राप्तिके लिये लगनेवाले दुर्लभ हैं। सच्चे हृदयसे परमात्मप्राप्तिके लिये लगनेपर मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्ति हो सकती है क्योंकि उसकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्यशरीर मिला है।संसारमें सबकेसब मनुष्य धनी नहीं हो सकते। सांसारिक भोगसामग्री सबको समान रीतिसे नहीं मिल सकती। परन्तु जो परमात्मतत्त्व भगवान् शंकरको प्राप्त है सनकादिकोंको प्राप्त है नारद वसिष्ठ आदि देवर्षिमहर्षियोंको प्राप्त है वही तत्त्व सब मनुष्योंको समानरूपसे अवश्य प्राप्त हो सकता है। इसलिये मनुष्यको ऐसा दुर्लभ अवसर कभी नहीं खोना चाहिये।भगवान्की यह एक अलौकिक विलक्षणता है कि वे भूखेके लिये अन्नरूपसे प्यासेके लिये जलरूपसे और विषयीके लिये शब्द स्पर्श रूप रस और गन्धरूपसे बनकर आते हैं। वे ही मनबुद्धिइन्द्रियाँ बनकर आते हैं। वे ही संकल्पविकल्प बनकर आते हैं। वे ही व्यक्ति बनकर आते हैं। परन्तु साथहीसाथ दुःखरूपसे आकर मनुष्यको चेताते हैं कि अगर तुम इन वस्तुओंको भोग्य मानकर इनके भोक्ता बनोगे तो इसके फलस्वरूप तुमको दुःखहीदुःख भोगना पड़ेगा। इसलिये मनुष्यको शर्म आनी चाहिये कि मैं भगवान्को भोगसामग्री बनाता हूँ मेरे सुखके लिये भगवान्को सुखकी सामग्री बनना पड़ता है भगवान् कितने विचित्रदयालु हैं कि यह प्राणी जो चाहता है भगवान् वैसे ही बन जाते हैंदेखने सुनने और समझनेमें जो कुछ आ रहा है और जो मनबुद्धिइन्द्रियोंका विषय नहीं है वह सब भगवान् ही हैं और भगवान्का ही है ऐसा मान ले वास्तविकतासे अनुभव कर ले तो मनुष्य विलक्षण हो जाता है स महात्मा सुदुर्लभः हो जाता है।एक वैरागी बाबाजी थे। वे गणेशजीका पूजन किया करते थे। उनके पास सोनेकी बनी हुई एक गणेशजीकी और एक चूहेकी मूर्ति थी। वे दोनों मूर्तियाँ तौलमें बराबर थीं। एक बार बाबाजीने तीर्थोंमें जानेका विचार किया और वे उन मूर्तियोंकी बिक्री करनेके लिये सुनारके पास गये। सुनारने उन दोनों मूर्तियोंको तौलकर दोनोंके बराबर दाम बता दिये तो बाबाजी सुनारपर बिगड़ गये कि तू क्या कह रहा है गणेशजी तो देवता हैं और चूहा उनका वाहन है पर तू दोनोंका बराबर मूल्य बता रहा है यह कैसे हो सकता है सुनार बोला कि बाबाजी मैं गणेश और चूहेको नहीं खरीदता हूँ मैं तो सोना खरीदता हूँ सोनेका जितना वजन होगा उसके अनुसार ही उसका मूल्य होगा। अगर सुनार गणेश और चूहेको देखेगा तो उसको सोना नहीं दीखेगा और अगर सोनेको देखेगा तो उसको गणेश और चूहा नहीं दीखेगा। इसलिये सुनार न गणेशको देखता है न चूहेको वह तो केवल सोनेको ही देखता है। ऐसे ही भगवान्के साथ अभिन्न हुआ महात्मा संसारको नहीं देखता वह तो केवल भगवान्को ही देखता है।कोई एक सन्त रास्तेमें चलतेचलते किसी खेतमें लघुशङ्का करनेको बैठे। उस खेतके मालिकने उनको देखा तो मतीरा (तरबूजा) चुरानेवाला यही आदमी है ऐसा समझकर पीछेसे आकर उनके सिरपर लाठी मार दी। फिर देखा कि ये तो कोई बाबाजी हैं अतः हाथ जोड़कर बोला महाराज मैंने आपको जाना नहीं और चोर समझकर लाठी मार दी इसलिये महाराज मुझे माफ करो। सन्तने कहा माफ क्या करना तूने मेरेको तो मारा नहीं तूने तो चोरको मारा है। उसने कहा अब क्या करूँ महाराज सन्तने कहा तेरी जैसी मरजी हो वैसे कर। उसने सन्तको बैलगाड़ीमें ले जाकर अस्पतालमें भरती कर दिया। वहाँ मलहमपट्टी करनेके बाद कोई आदमी दूध लेकर आया और बोला महाराज दूध पी लो। सन्तने कहा तू ब़ड़ा चालाकहोशियार है। तेरे विचित्रविचित्र रूप हैं। तू विचित्रविचित्र लीलाएँ करता है। पहले तो तूने लाठीसे मारा और अब कहता है दूध पी लो वह आदमी डर गया और कहने लगा बाबाजी मैंने नहीं मारा है। सन्त बोले बिलकुल झूठी बात है। मैं पहचानता हूँ तू ही था। तूने ही मारा है। तेरे सिवाय और कौन आये कहाँसे आये और कैसे आये पहले तो मारा लाठीसे और अब आया दूध पिलाने मैं दूध पी लूँगा पर था तू ही। इस तरह बाबाजी तो अपनी वासुदेवः सर्वम् वाली भाषामें बोल रहे थे और वह सोच रहा था कि बाबाजी कहीं फँसा न दें तात्पर्य यह है कि सन्त केवल भगवान्को ही देखते हैं कि लाठी मारनेवाला मरहमपट्टी करनेवाला दूध पिलानेवाला सब वह ही है।महात्माओंकी महिमाजहाँ सन्तमहात्माओंका वर्णन आता है वहाँ कहा गया है (1) जो उँचे दर्जेके तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं वे अभिन्नभाव और अखण्डरूपसे केवल अपने स्वरूपमें अथवा भगवत्तत्त्वमें स्थित रहते हैं। उनके जीवनसे उनके दर्शनसे उनके चिन्तनसे उनके शरीरका स्पर्श की हुई वायुके स्पर्शसे जीवोंका कल्याण होता रहता है।(2) जो मनुष्य उन महापुरुषोंकी महिमाको नहीं जानते उनके सामने वे महापुरुष अपने भावोंसे नीचे उतरते हैं तो कुछ कह देते हैं जैसे सन्तमहात्माओंने ऐसा किया है उनके किये हुए आचरणों और कहे हुए वचनोंके अनुसार ही शास्त्र बनते हैं आदि।(3) जब वे इससे भी नीचे उतरते हैं तो कह देते हैं कि सन्तमहात्माओंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये।(4) जिनसे उपर्युक्त बातका पालन नहीं होता उन साधकोंके सामने वे स्वयं ऐसा विधान कर देते हैं कि ऐसा करना चाहिये ऐसा नहीं करना चाहिये।(5) जब वे इससे भी नीचे उतरते हैं तो ऐसा करो और ऐसा मत करो ऐसी आज्ञा दे देते हैं।सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है परन्तु वे महात्मा आज्ञाके रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।(6) जो उनकी आज्ञाका पालन नहीं करते ऐसे नीच दर्जेके साधकोंको वे कहींकहीं कभीकभी शाप या वरदान दे देते हैं।इस परम्परामें देखा जाय तो (1) जो कुछ नहीं करते निरन्तर अपने स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं यह उन सन्तमहापुरुषोंका ऊँचा दर्जा हो गया (2) शास्त्रोंने ऐसा कहा सन्तमहात्माओंने ऐसा किया इस तरह संकेत करनेसे उन सन्तोंका दूसरा दर्जा हो गया (3) सन्तमहात्माओंकी आज्ञा पालन करना चाहिये ऐसा कहनेसे सन्तोंका तीसरा दर्जा हो गया (4) ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये इस तरहका विधान करनेसे उन सन्तोंका चौथा दर्जा हो गया (5) तुम ऐसा करो और ऐसा मत करो ऐसा कहना उन सन्तोंके पाँचवें दर्जेकी बात हो गयी (6) शाप और वरदान देना उन सन्तोंके छठे दर्जेकी बात हो गयी। इन सब दर्जोंमें सन्तमहापुरुषोंका जो नीचे उतरना है उसमें उनकी क्रमशः अधिकाधिक दयालुता है। वे शाप और वरदान दे दें ताड़ना कर दें इसमें उन सन्तोंका दर्जा तो नीचे हुआ पर इसमें उनका अत्यधिक त्याग है। कारण कि उन्होंने जीवोंके उद्धारके लिये ही नीचा दर्जा स्वीकार कर लिया है। इसमें उनका लेशमात्र भी अपना स्वार्थ नहीं है।ऐसे ही भगवान् भी अपने स्वरूपमें नित्यनिरन्तर स्थित रहते हैं यह उनके ऊँचे दर्जेकी बात है परन्तु वे ही भगवान् अत्यधिक कृपालुताके कारण कृपाके परवश होकर जीवोंका उद्धार करनेके लिये अवतार लेकर आदर्श लीला करते हैं। उनकी लीलाओंको देखनेसुननेसे लोगोंका उद्धार होता है। भगवान् और भी नीचे उतरते हैं तो उपदेश देते हैं। उससे भी नीचे उतरते हैं तो आज्ञा दे देते हैं। और भी नीचे उतरते हैं तो शासन करके लोगोंको सही रास्तेपर लाते हैं। उससे भी नीचे उतरते हैं तो शाप और वरदान दे देते हैं अथवा उसके और संसारके हितके लिये उसका शरीरसे वियोग भी करा देते हैं। सम्बन्ध  जो भगवान्की महत्ताको समझकर भगवान्की शरण होते हैं ऐसे भक्तोंका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक करनेके बाद अब भगवान् आगेके तीन श्लोकोंमें देवताओंके शरण होनेवाले मनुष्योंका वर्णन करते हैं।
।।7.16 7.19।।चतुर्विधा इत्यादि सुदुर्लभ इत्यन्तम्। ये तु मां भजन्ते ते सुकृतिनः। ते च चत्वारः। सर्वे चैते उदाराः। यतः अन्ये कृपणबुद्धयः आर्त्तिनिवारणम् अर्थादि च तुल्यपाणिपादोदरशरीरसत्त्वेभ्योऽधिकतरं वा आत्मन्यूनेभ्यो मार्गयन्ते। ज्ञान्यपेक्षया तु ते न्यूनसत्त्वाः यतः तेषां तावत्यपि भेदोऽस्ति भगवतः इदमहमभिलष्यामि इति भेदस्य स्फुटप्रतिभासात्। ज्ञानी तु मामेवाभेदतया अवलम्बते इति (S omits इति) ततोऽहमभिन्न एव। तस्य च अहमेव प्रियः न तु फलम्। अत एव स वासुदेव एव सर्वम् इत्येव (S वासुदेवः सर्वमेवम्) दृढप्रतिपत्तिपवित्रीकृतहृदयः।
।।7.19।।बहूनां जन्मनां पुण्यजन्मनाम् अन्ते अवसाने वासुदेवशेषतैकरसः अहं तदायत्तस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिः च स च असंख्येयैः कल्याणगुणैः परतरः इति ज्ञानवान् भूत्वा वासुदेव एव मम परमप्राप्यं प्रापकं च अन्यदपि यन्मनोरथवर्ति स एव मम् तत् सर्वम् इति मां यो प्रपद्यते माम् उपास्ते स महात्मा महामनाः सुदुर्लभः दुर्लभतरः लोके।वासुदेवः सर्वम् इत्यस्य अयम् एव अर्थः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहम् (गीता 7।17)आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् (गीता 7।18) इति प्रकमात्।ज्ञानवान् च अयम् उक्तलक्षण एव अस्य एव पूर्वोक्तज्ञानित्वात्।भूमिरापः इति आरभ्य अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा। अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।।
।।7.19।।उत्तरश्लोकस्य गतार्थत्वं परिहरति ज्ञानीति। ज्ञानार्थसंस्कारो वासना तत्तज्जन्मनि पुण्यकर्मानुष्ठानजनिता बुद्धिशुद्धिस्तदाश्रयाणां तद्वतामनन्तानां जन्मनामिति यावत्। ज्ञानवत्त्वं प्राक्तनेष्वपि जन्मसु संभावितमित्याशङ्क्याह प्राप्तेति। ज्ञानवतो भगवत्प्रतिपत्तिं प्रश्नद्वारा विवृणोति कथमिति। यथोक्तज्ञानस्य तद्वतश्च दुर्लभत्वं सूचयति य एवमिति। महत्सर्वोत्कृष्टमात्मशब्दितं वैभवमस्येति महात्मा। महात्मत्वे फलितमाह अत इति। तत्र वाक्योपक्रमानुकूल्यं कथयति मनुष्याणामिति।
।।7.19।।एवम्भूतोऽतिदुर्लभ इत्याह बहूनामिति। आत्मज्ञानं तु कदाचिदेकजन्मन्यपि सिद्धं भवति भगवज्ज्ञानं तु न तथेति ततोऽपि प्रपत्तिभक्तिरतिदुर्लभा सा चेद्भवति स महादुर्लभः। यो बहूनां जन्मनामन्ते चरमजन्मनि पूर्वसुकतसञ्चयेन यत्सन्तुष्टभगवता दत्तं स्वज्ञानं तद्वान् भवति स दुर्लभः। तादृशोऽपि मां पुरुषोत्तमं परमात्मानं प्रपन्नो विज्ञानवानतिदुर्लभः यतो ज्ञानमपि तस्य नात्मैकविषयकं किन्तु भगवत्सर्वविषयकं तदाह वासुदेवः सर्वमिति।कृष्ण एवाखण्डं(ण्डः)सर्वं इत्यभेदज्ञानवान्। तथैतदुक्तं निबन्धे अखण्डाद्वैतभाने तु सर्वं ब्रह्मैव नान्यथा। ज्ञानाद्विकल्पबुद्धिस्तु बाध्यते न स्वरूपतः। भिन्नत्वं नैव युज्येत ब्रह्मोपादानतः क्वचित्। वाचारम्भणमात्रत्वाद्भेदः केनोपजायते इति। अतएव महात्माऽपरिच्छिन्नात्मा एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानवान् स सुदुर्लभःसुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने इति श्रीभागवते षष्ठस्कन्धे () रुद्रोक्तेः।
।।7.19।।यस्मादेवं तस्मात् बहूनां जन्मनां किंचित्किंचित्पुण्योपचयहेतूनामन्ते चरमे जन्मनि सर्वसुकृतविपाकरूपे वासुदेवः सर्वमिति ज्ञानवान्सन्मां निरुपाधिप्रेमास्पदं प्रपद्यते सर्वदा समस्तप्रेमविषयत्वेन भजते। सकलमिदमहं च वासुदेव इति दृष्ट्या सर्वप्रेम्णां मय्येव पर्यवसायित्वात्। अतः स एव ज्ञानपूर्वकमद्भक्तिमान्महात्मात्यन्तशुद्धान्तःकरणत्वाज्जीवन्मुक्तः सर्वोत्कृष्टो न तत्समोऽन्योऽस्ति अधिकस्तु नास्त्येव अतः सुदुर्लभो मनुष्याणां सहस्रेषु दुःखेनापि लब्धुमशक्यः अतः स निरतिशयमत्प्रीतिविषय इति युक्तमेवेत्यर्थः।
।।7.19।।एवंभूतो मद्भक्तोऽतिदुर्लभ इत्याह बहूनामिति। बहूनां जन्मनां किंचित्किंचित्पुण्योपचयेनान्ते चरमे जन्मनि ज्ञानवान्सन्सर्वमिदं चराचरं वासुदेव एवेति सर्वात्मदृष्ट्या मां प्रपद्यते भजति अतः स महात्माऽपरिच्छिन्नदृष्टिः सुदुर्लभः।
।।7.19।।पुनरप्युक्तज्ञानवत्त्वस्यानेकजन्मसाध्यपुण्यफलत्वेन दुर्लभतरतया ज्ञानिनः श्रैष्ठ्यं दर्शयति बहूनाम् इति श्लोकेन।ये जन्मकोटिभिः सिद्धास्तेषामन्तेऽत्र संस्थितिः इति भगवच्छास्त्रंजन्मान्तरसहस्रेषु पां.गी.4 इत्यादिकां स्मृतिं चानुसन्दधान आह नाल्पेति।बहूनां जन्मनाम् इत्यत्र न तावद्बहुजन्मसद्भावमात्रं विवक्षितम् तस्यात्रानुपयुक्तत्वात्। न च बहुजन्ममात्रस्य ज्ञानहेतुत्वमुच्यते सर्वेषामयत्नतो ज्ञानित्वप्रसङ्गात् अतःपुण्यजन्मनां इति विशेषितम्। ईदृशज्ञानवत्त्वमेवम्भूतविशिष्टप्रपत्तौ हेतुरिति दर्शयितुं ज्ञानवतोऽनेकजन्मभ्रमव्युदासाय चज्ञानवान् भूत्वेत्युक्तम्।वासुदेवः सर्वम् ति सामानाधिकरण्यस्य बाधाध्यासतादात्म्यादिविषयत्वायोगाच्छरीरशरीरिभावादिनिर्वाहादपि प्रकरणविशेषसिद्धस्यार्थस्य ग्राह्यतरत्वात्परमप्राप्यमित्यादिकमुक्तम्। लौकिकं धारकादिकमभिप्रेत्याहअन्यदपीत्यादि।त्वमेव माता च पिता त्वमेव ना.हृ.10माता पिता भ्राता निवासः शरणं सुहृद्गतिर्नारायणः इत्यादिकमपीहाभिप्रेतम्। प्रपत्तेरत्रोपासनाङ्गत्वादाहमामुपास्त इति। ज्ञानिनोऽपि स्वरूपमहत्त्वं प्रमाणविरुद्धम् पङ्क्तिपावनत्वादिमाहात्म्यं सदपि प्रकृतेऽनपेक्षितम् तस्माज्ज्ञानविशेषाधीनमाहात्म्यमिह विवक्षितमित्याहमहामना इति। फलान्तरपरस्यापि भगवदुपासकस्य दुर्लभत्वात्तद्व्यवच्छेदाय सुशब्द इति दर्शयितुंदुर्लभतर इत्युक्तम्।वासुदेवः सर्वम् इति सामानाधिकरण्यस्य पराभिमतमर्थं प्रतिक्षिपन् स्वोक्तं द्रढयतिवासुदेव इति। अत्र ह्युपक्रमः प्राप्यभेदनिबन्धनाधिकारिभेदपरः। प्रकरणविरुद्धप्रकरणानुपयुक्तो वाऽर्थः प्रकरणविशेषसिद्धोपयुक्ततमार्थे जागरूकेऽनादरणीय इति भावः।ज्ञानवान् इत्यत्रापि निर्विशेषादिज्ञानजीवमात्रज्ञानादिव्युदासायाहनिवांश्चायमिति। उक्तलक्षणः वासुदेवशेषतैकरसस्वात्मवेदीत्यर्थः। उक्तलक्षणत्वे हेतुमाह अस्यैव पूर्वोक्तज्ञानित्वादितिज्ञानी च भरतर्षभ 7।16 इति पूर्वोक्ते ज्ञानिनि कथमुक्तलक्षणत्वं इत्यत्राहभूमिराप इत्यारभ्येति। यद्वा पूर्वोक्तज्ञानित्वादित्येकभक्तित्वादिकं विवक्षितम्भूमिरापः इत्यादिना हेत्वन्तरोक्तिः।कार्यकारणोभयावस्थस्येति कार्यत्वकारणत्वरूपोभयावस्थाविशिष्टस्येत्यर्थः। स्वरूपस्थित्यादितादधीन्यंमयि सर्वं 7।7रसोऽहम् 7।8 इत्यादिषु व्यक्तम्। उक्तलक्षणत्वं निगमयति अत इति।स एवेति वासुदेवशेषतैकरसोऽहम् इत्यादिनोक्तलक्षण एवेत्यर्थः।
।।7.19।।ये पूर्वोक्तास्ते कथं मोक्षमनुभवन्ति इत्याकाङ्क्षायामाह बहूनामिति। बहूनां जन्मनां धर्मादित्रययुक्तानामन्ते अन्तिमजन्मनि ज्ञानवान् भवति। ततो मां प्रपद्यते मुक्तो भवतीत्यर्थः। यस्तु भक्त उक्तः स तु दुर्लभ इत्याह वासुदेव इति। सर्वमैहिकं पारलौकिकं च वासुदेवः स महात्मा महान् मदर्थमेव अहमेव वा आत्मा तादृशः स दुर्लभोऽप्राप्य इत्यर्थः। यद्वा दुःखेन क्लेशेन भगवानिव लभ्य इति भावः।
।।7.19।।किंच वासुदेवः सर्वमिति ज्ञानवान् यो बहूनां जन्मनामन्ते चरमजन्मनि मां प्रपद्यते सम्यग्दर्शनेनापरोक्षीकरोति स महात्मा ब्रह्मभूतः सुदुर्लभ इति योजना।
।।7.19।।ज्ञानी अतिदुर्लभ इति पुनरपि तं स्तौति। बहूनां ज्ञानार्थ पुण्यसंस्काराश्रयणामन्ते सर्वपुण्यसंस्कारपरिपाकरुपे चरमजन्मनि लब्धपरिपाकज्ञानो मां वासुदेवं प्रत्यगात्मनं प्रपद्यते। कथं प्रपद्यत आह। वासुदेवः सर्वमिति। यदिदं सर्वं चराचरात्मकं भ्रान्त्या भाति तत्सर्वं किमपि वासुदेवातिरिक्तं न भवतिवाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यंतदनन्त्वमारम्भणशब्दादिभ्यः इत्यादिश्रुतिसूत्रेभ्यः सर्वाधिष्टानं मां ज्ञात्वा मामेव परमात्मानं निरतिशयनिरुपाधिप्रेमविषयत्वेन भजति स महात्मा न तत्समोऽभ्यधिको वान्योऽस्तीत्यर्थः। अतः सुदुर्लभः अतिशयेन दुर्लभः। तदुक्तंमनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः इति।
7.19 बहूनाम् of many? जन्मनाम् of births? अन्ते in the end? ज्ञानवान् the wise? माम् to Me? प्रपद्यते approaches? वासुदेवः Vaasudeva? सर्वम् all? इति thus? सः he? महात्मा the great soul? सुदुर्लभः (is) very hard to find.Commentary Vaasudeva is a name of Lord Krishna as He is the son of Vasudeva. He is the allpervading Brahman.The aspirant gradually evolves through Yogic practices? selfless service? devotion and constant meditation in many births and ultimately attains the inner Self. He realises that all is Vaasudeva. It is very difficult to find such a great soul? who has attained to perfection. No one is eal to him. That is the reason why the Lord has said? One in a thousand perchance strives for perfection even among those successful strivers? only one perchance knows Me in essence. (Cf.VII.3.)
7.19 At the end of many births the wise man comes to Me, realising that all this is Vaasudeva (the innermost Self); such a great soul (Mahatma) is very hard to find.
7.19 After many lives, at last the wise man realises Me as I am. A man so enlightened that he sees God everywhere is very difficult to find.
7.19 At the end of many births the man of Knowledge attains Me, (realizing) that Vasudeva is all. Such a high-souled one is very rare.
7.19 Ante, at the end, after the completion; bahunam, of many; janmanam, births, which becme the repository for accumulating [Ast. omits this word.-Tr.] the tendencies leading to Knowledge; jnanavan, the man of Knowledge, who has got hiis Knowledge matured; directly prapadyate, attains; mam, Me, Vasudeva, who am the inmost Self; (realizing)-in what way?-iti, that; Vasudeva is sarvam, all. Sah, such a one, who realizes Me [Here Ast. adds the word Narayana.-Tr.] thus as the Self of all; is mahatma, a high-souled one. There is none else who can eal or excel him. Therefore he is su-durlabhah, very rare among thousands of men, as it has been said (in verse 3). The reason why one does not realize that all this is verily Vasudeva, the Self, is being stated:
7.19. At the end of many births, one attains Me with the conviction that 'All is Vasudeva' - that noble Soul is very difficult to get.
7.16-19 Caturvidhah etc., upto sudurlabhah. Those who worship Me are men of good action. They are of four types. All these are noble ones. For, other persons, mean-minded as they are, beg a cure of their affliction, and money etc., from persons who have hands, feet, stomach, body and intelligence (or bodily strength) that are eal to their (the beggers) own, or even from those who are very much inferior. But, by comparison with the man of wisdom, [the other three under estion] are of inferior intelligence. For, they entertain, at that sage too, a sense of duality. Becuase, a sense of duality 'I seek this from the Bhagavat' is clearly discernible in them. On the other hand, the man of wisdom hangs on Me alone with a sense of identity [of him with Me]. Hence, I am verily indentical with him. It is I alone, and not [any other] gain, that is dear to him. That is why he is having a mind purified by the firm conviction 'All is nothing but Vasudeva'.
7.19 Further after passing through innumerable auspicious births, one gets the knowledge: 'I find my sole joy as a Sesa of Vasudeva. I find my essence, existence and activities to be dependent on Him. He is superior over all others on account of His innumerable auspicious attributes.' Conseent to this knowledge he resorts to Me, i.e., meditates on Me, realising, 'Vasudeva alone is my highest end and also the means for attaining it, and whatever other desire remains in the mind, He alone is all that too for me'. Such a great-souled person, i.e., great-minded man is hard to find. It is very hard to find such persons in this world. This is the only meaning of the statement that 'Vasudeva is all,' because of the topic having been begun with the statements: 'For I am very dear to the man of knowledge' (7.17) and 'For he, integrated, is devoted to Me alone as the highest end' (7.18). It is so, also because that Jnanin whose traits are given here, possesses the same alities as the man of knowledge described earlier. For, it has been said that the two Prakrtis, the animate and the inanimate, have their sole essence in being the Sesa (dependants) of the Supreme Person in the verses beginning with 'Earth, water' (7.4) and ending with, 'Ego-sense, thus My Prakrti is divided eightfold. This is my lower (Prakrti). But know that which is other than this (lower nature) and forms the life-principle to be the higher Prakrti' (7.4-5). Then take the beginning from 'I am the origin and dissolution of the whole universe. There is nothing higher than Myself, O Arjuna' (7.6-7), and ending with, 'Know that all the states of Sattva, Rajas and Tamas are from Me alone. But I am not in them. They are in Me' (7.12). It has been declared in these texts that the two Prakrtis, both in their states of cause and effect, depend upon Him for their essence, existence and activities and that the Supreme Person is superior to everything in all respects. Therefore the knower of this truth alone is here spoken of as a man of knowledge or as one knowing 'All this is Vasudeva.' [The purpose of this explanation is to eliminate any pure monistic slant to this passage.] Sri Krsna now explains the rarity of finding such a person of knowledge.
7.19 At the end of many births, the man of knowledge finds refuge in Me, realising that 'Vasudeva is all.' It is very hard to find such a great-souled person.
।।7.19।।फिर भी ज्ञानीकी स्तुति करते हैं ज्ञानप्राप्तिके लिये जिनमें संस्कारोंका संग्रह किया जाय ऐसे बहुतसे जन्मोंका अन्तसमाप्ति होनेपर ( अन्तिम जन्ममें ) परिपक्व ज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी अन्तरात्मारूप मुझ वासुदेवको सब कुछ वासुदेव ही है इस प्रकार प्रत्यक्षरूपसे प्राप्त होता है। जो इस प्रकार सर्वात्मरूप मुझ परमात्माको प्रत्यक्षरूपसे प्राप्त हो जाता है वह महात्मा है उसके समान याउससे अधिक और कोई नहीं है अतः कहा है कि हजारों मनुष्योंमें भी ऐसा पुरुष अत्यन्त दुर्लभ है।
।।7.19।। बहूनां जन्मनां ज्ञानार्थसंस्काराश्रयाणाम् अन्ते समाप्तौ ज्ञानवान् प्राप्तपरिपाकज्ञानः मां वासुदेवं प्रत्यगात्मानं प्रत्यक्षतः प्रपद्यते। कथम् वासुदेवः सर्वम् इति। यः एवं सर्वात्मानं मां नारायणं प्रतिपद्यते सः महात्मा न तत्समः अन्यः अस्ति अधिको वा। अतः सुदुर्लभः मनुष्याणां सहस्रेषु इति हि उक्तम्।।आत्मैव सर्वो वासुदेव इत्येवमप्रतिपत्तौ कारणमुच्यते
।।7.19।।बहूनां जन्मनां इत्यत्र ज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं भगवत्प्रतिपत्तौ बहुजन्मव्यवधानमुच्यत इति निरासार्थमाह बहूनामिति। प्रतीतमेव किं न स्यात् इत्यत आह तच्चेति। ततस्तदैव।
।।7.19।।बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्भवति। तच्चोक्तं ब्राह्म बहुभिर्जन्मभिर्ज्ञात्वा ततो मां प्रतिपद्यते इति।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।7.19।।
বহূনাং জন্মনামন্তে জ্ঞানবান্মাং প্রপদ্যতে৷ বাসুদেবঃ সর্বমিতি স মহাত্মা সুদুর্লভঃ৷৷7.19৷৷
বহূনাং জন্মনামন্তে জ্ঞানবান্মাং প্রপদ্যতে৷ বাসুদেবঃ সর্বমিতি স মহাত্মা সুদুর্লভঃ৷৷7.19৷৷
બહૂનાં જન્મનામન્તે જ્ઞાનવાન્માં પ્રપદ્યતે। વાસુદેવઃ સર્વમિતિ સ મહાત્મા સુદુર્લભઃ।।7.19।।
ਬਹੂਨਾਂ ਜਨ੍ਮਨਾਮਨ੍ਤੇ ਜ੍ਞਾਨਵਾਨ੍ਮਾਂ ਪ੍ਰਪਦ੍ਯਤੇ। ਵਾਸੁਦੇਵ ਸਰ੍ਵਮਿਤਿ ਸ ਮਹਾਤ੍ਮਾ ਸੁਦੁਰ੍ਲਭ।।7.19।।
ಬಹೂನಾಂ ಜನ್ಮನಾಮನ್ತೇ ಜ್ಞಾನವಾನ್ಮಾಂ ಪ್ರಪದ್ಯತೇ. ವಾಸುದೇವಃ ಸರ್ವಮಿತಿ ಸ ಮಹಾತ್ಮಾ ಸುದುರ್ಲಭಃ৷৷7.19৷৷
ബഹൂനാം ജന്മനാമന്തേ ജ്ഞാനവാന്മാം പ്രപദ്യതേ. വാസുദേവഃ സര്വമിതി സ മഹാത്മാ സുദുര്ലഭഃ৷৷7.19৷৷
ବହୂନାଂ ଜନ୍ମନାମନ୍ତେ ଜ୍ଞାନବାନ୍ମାଂ ପ୍ରପଦ୍ଯତେ| ବାସୁଦେବଃ ସର୍ବମିତି ସ ମହାତ୍ମା ସୁଦୁର୍ଲଭଃ||7.19||
bahūnāṅ janmanāmantē jñānavānmāṅ prapadyatē. vāsudēvaḥ sarvamiti sa mahātmā sudurlabhaḥ৷৷7.19৷৷
பஹூநாஂ ஜந்மநாமந்தே ஜ்ஞாநவாந்மாஂ ப்ரபத்யதே. வாஸுதேவஃ ஸர்வமிதி ஸ மஹாத்மா ஸுதுர்லபஃ৷৷7.19৷৷
బహూనాం జన్మనామన్తే జ్ఞానవాన్మాం ప్రపద్యతే. వాసుదేవః సర్వమితి స మహాత్మా సుదుర్లభః৷৷7.19৷৷
7.20
7
20
।।7.20।। उन-उन कामनाओंसे जिनका ज्ञान अपहृत हो गया है, ऐसे वे मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृतिसे नियन्त्रित होकर (देवताओंके) उन-उन नियमोंको धारण करते हुए उन-उन देवताओंके शरण हो जाते हैं।
।।7.20।। भोगविशेष की कामना से जिनका ज्ञान हर लिया गया है, ऐसे पुरुष अपने स्वभाव से प्रेरित हुए अन्य देवताओं को विशिष्ट नियम का पालन करते हुए भजते हैं।।
।।7.20।। विवेक सार्मथ्य मानव जन्म की विशेषता है और यह सर्वथा असंभव है कि विवेक के प्रखर और सजग होने पर मनुष्य को आत्मज्ञान न हो सके। परन्तु मन की बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और विषयभोग की कामनायें उसके विवेक को आच्छादित कर देती हैं।देवता शब्द के अनेक अर्थ हैं जैसे प्रकृति के नियमों के अधिष्ठाता देवता इन्द्र वरुण आदि इन्द्रियां किसी कार्य क्षेत्र में निहित उत्पादन क्षमता आदि। यहाँ इनमें से कोई भी अर्थ लेकर इस श्लोक का अध्ययन करने पर यही ज्ञात होता है कि भोगी पुरुष इनकी आराधना केवल वैषयिक सुख को प्राप्त करने के लिए ही करता है। वह कामना से प्रेरित होकर तत्पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्न करता रहता है।शान्त मन में आत्मा का प्रतिबिम्ब स्पष्ट और स्थिर दिखाई देता है परन्तु कामनाओं के स्रोतों से प्रवाहित होने वाली विचारों की धारायें उसमें विक्षेप उत्पन्न करके प्रतिबिम्ब को भी विचलित कर देती हैं। मन के क्षुब्ध होने पर बुद्धि की विवेक सार्मथ्य लुप्त हो जाती है और स्वभावत फिर मनुष्य सत्य असत्य का विवेक नहीं कर पाता है। जब मनुष्य की बुद्धि का आलोक कामना के मेघों से आवृत हो जाता है तब आसक्तियों और अवगुणों के उलूक मन के जंगल में शोर मचाने लगते हैं।मन में इच्छा के उदय मात्र से मनुष्य का पतन नहीं होता बल्कि पतन का कारण है उत्पन्न इच्छा के साथ उसका तादात्म्य। इस तादात्म्य के द्वारा मनुष्य अनजाने में अपनी इच्छाओं को बढ़ावा देकर असंख्य विक्षेपों को जन्म देता हुआ स्वयं उनका शिकार बन जाता है।अन्न के सूक्ष्म तत्त्व का ही रूप वृत्ति (विचार) है और इसलिए वह स्वयं जड़ है। वृत्तिरूप मन आत्मा से चेतनता प्राप्त करता है और कामी व्यक्ति से सार्मथ्य। विचारों के अनुसार कर्म होता है। एक बार मनुष्य के मन में कोई कामना दृढ़ हो जाये तो वह यह विवेक खो देता है कि उस कामनापूर्ति से उसे नित्य शाश्वत सुख मिलेगा या नहीं। क्षणिक सुख की आसक्ति के कारण वह अन्यान्य देवताओं को सन्तुष्ट करने में व्यस्त रहता है।अब यह भी सर्वविदित तथ्य है कि प्रत्येक देवता को सन्तुष्ट करने के विशेष नियम होते हैं। इन्द्रादि देवताओं को यज्ञयागादि के द्वारा इन्द्रियों के शब्दादि विषयों के द्वारा तथा कार्यक्षेत्र की उत्पादन क्षमता को व्यक्त करने के लिए उचित उपकरणों और उनके योग्य उपयोग के द्वारा सन्तुष्ट करके इष्ट फल प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि वे अन्यान्य देवताओं को विशिष्ट नियमों का पालन करके भजते हैं।एक वासुदेव को त्यागकर लोग अन्य देवताओं को क्यों भजते हैं इसका कारण श्लोक की दूसरी पंक्ति में बताया गया है कि प्रकृत्या नियत स्वया। प्रत्येक मनुष्य अपनी पूर्व संचित वासनाओं के अनुसार भिन्नभिन्न विषयों की ओर आकर्षित होकर तदनुसार कर्म करता है। यह धारणा कि स्वर्ग में बैठा कोई ईश्वर हमारे मन में इच्छाओं को उत्पन्न कराकर हमें पाप और पुण्य के कर्मों में प्रवृत्त करता है केवल निराशावादी निर्बल और आलसी लोगों की ही हो सकती है। बुद्धिमान साहसी और उत्साही पुरुष जानते हैं कि मनुष्य स्वयं ही अपने विचारों के अनुसार अपने वातावरण कार्यक्षेत्र आदि का निर्माण करता है।संक्षेप में एक मूढ़ पुरुष शाश्वत सुख की आशा में वैषयिक क्षणिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ता रहता है जबकि विवेकी पुरुष उसकी व्यर्थता पहचान कर पारमार्थिक सत्य के मार्ग पर अग्रसर होता है।भगवान् आगे कहते हैं
।।7.20।। व्याख्या--'कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः'--उनउन अर्थात् इस लोकके और परलोकके भोगोंकी कामनाओंसे जिनका ज्ञान ढक गया है, आच्छादित हो गया है। तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये जो विवेकयुक्त मनुष्यशरीर मिला है, उस शरीरमें आकर परमात्माकी प्राप्ति न करके वे अपनी कामनाओंकी पूर्ति करनेमें ही लगे रहते हैं।संयोगजन्य सुखकी इच्छाको कामना कहते हैं। कामना दो तरहकी होती है--यहाँके भोग भोगनेके लिये धन-संग्रहकी कामना और स्वर्गादि परलोकके भोग भोगनेके लिये पुण्य-संग्रहकी कामना।धन-संग्रहकी कामना दो तरहकी होती है--पहली, यहाँ चाहे जैसे भोग भोगें; चाहे जब, चाहे जहाँ और चाहे जितना धन खर्च करें, सुख-आरामसे दिन बीतें आदिके लिये अर्थात् संयोगजन्य सुखके लिये धन-संग्रहकी कामना होती है और दूसरी, मैं धनी हो जाऊँ, धनसे मैं बड़ा बन जाऊँ आदिके लिये अर्थात् अभिमानजन्य सुखके लिये धन-संग्रहकी कामना होती है। ऐसे ही पुण्य-संग्रहकी कामना भी दो तरहकी होती है--पहली, यहाँ मैं पुण्यात्मा कहलाऊँ और दूसरी, परलोकमें मेरेको भोग मिलें। इन सभी कामनाओंसे सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सार-असार, बन्ध-मोक्ष आदिका विवेक आच्छादित हो जाता है। विवेक आच्छादित होनेसे वे यह समझ नहीं पाते कि जिन पदार्थोंकी हम कामना कर रहे हैं, वे पदार्थ हमारे साथ कबतक रहेंगे और हम उन पदार्थोंके साथ कबतक रहेंगे?
।।7.20 7.23।।कामैरित्यादि मामपीत्यन्तम्। ये पुनः स्वेन स्वेनोत्तमादिकामनास्वभावेन विचित्रेणपरिच्छिन्नमनसस्ते कामनापहृतचेतनाः (N चेतस)) तत्समुचितामेव ममैवावान्तरतनुं देवताविशेषमुपासते। अतो मत एव कामफलमुपाददते (S पासते)। किं तु तस्यान्तोऽस्ति निजयैव वासनया परिमितीकृतत्त्वात्। अत एवेन्द्रादिभावनातात्पर्येण यागादि कुर्वन्तस्तथाविधमेव फलमुपाददते। मत्प्राप्तिपरास्तु मामेव।
।।7.20।।सर्वे एव हि लौकिकाः पुरुषाः स्वया प्रकृत्या पापवासनया गुणमयभावविषयया नियता नित्यान्विताः तैः तैः स्ववासनानुरूपैः गुणमयैः एव कामैः इच्छाविषयभूतैः हृतमत्स्वरूपविषयज्ञानाः तत्तत्कामसिद्ध्यर्थम् अन्यदेवताः मद्व्यक्तिरिक्ताः केवलेन्द्रादिदेवताः तं तं नियमम् आस्थाय तत्तद्देवताविशेषमात्रप्रीणनाय असाधारणं नियमम् आस्थाय प्रपद्यन्ते ता एव आश्रित्य अर्चयन्ते।
।।7.20।।किमिति तर्हि सर्वेषां प्रत्यग्भूते भगवति यथोक्तज्ञानं नोदेतीत्याशङ्क्य न मामित्यत्रोक्तं हृदि निधाय ज्ञानानुदये हेत्वन्तरमाह आत्मैवेति। कामैर्नानाविधैरपहृतविवेकविज्ञानस्य देवतान्तरनिष्ठत्वमेव प्रत्यग्भूतपरदेवताप्रतिपत्त्यभावे कारणमित्याह कामैरिति। देवतान्तरनिष्ठत्वे हेतुमाह तं तमिति। प्रसिद्धो नियमो जपोपवासप्रदक्षिणानमस्कारादिः। नियमविशेषाश्रयणे कारणमाह प्रकृत्येति।
।।7.20।।तदेवमलौकिकमहिमानं मां यथाकथञ्चिदपि ये प्रपद्यन्ते ते सिद्धिं प्राप्यान्ते तरन्ति अनावृतवस्तुमहिम्नस्तथात्वादित्युक्तम्। ये तु मां न प्रपद्यन्ते ते आसुरमार्गीया अन्यदेवता एव प्रपद्यन्ते। प्राकृतकामाद्यर्थं ते मायामोहिताः संसरन्तीत्याह कामैरिति सार्धैस्त्रिभिः। स्वया प्रकृत्या राजसतामसस्वभावेन नियता बद्धा मदीयया (स्वनिष्ठया मायया) वा बद्धाः।
।।7.20।।तदेवमार्तादिभक्तत्रयापेक्षया ज्ञानिनो भक्तस्योत्कर्षःतेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते इत्यत्र प्रतिज्ञातो व्याख्यातः। अधुना तु सकामत्वे भेददर्शित्वे च समेऽपि देवतान्तरभक्तापेक्षयार्तादीनां त्रयाणां स्वभक्तानामुत्कर्ष उदाराः सर्व एवैत इत्यत्र प्रतिज्ञातो भगवता व्याख्यायते यावदध्यायसमाप्ति। समानेऽप्यायासे सकामत्वे भेददर्शित्वे च मद्भक्ता भूमिकाक्रमेण सर्वोत्कृष्टं मोक्षाख्यं फलं लभन्ते। क्षुद्रदेवताभक्तास्तु क्षुद्रमेव पुनः पुनः संसरणरूपं फलम्। अतः सर्वेऽप्यार्ता जिज्ञासवोऽर्थार्थिनश्च मामेव प्रपन्नाः सन्तोऽनायासेन सर्वोत्कृष्टं मोक्षाख्यं फलं लभन्तामित्यभिप्रायः परमकारुणिकस्य भगवतः। तत्र परमपुरुषार्थफलमपि भगवद्भजनमुपेक्ष्य क्षुद्रफले क्षुद्रदेवताभजने पूर्ववासनाविशेष एवासाधारणो हेतुरित्याह मोहनस्तम्भनाकर्षणवशीकरणमारणोच्चाटनादिविषयैर्भगवत्सेवया लब्धुमशक्यत्वेनाभिमतैस्तैस्तैः क्षुद्रैः कामैरभिलाषैर्हृतमपहृतं भगवतो वासुदेवाद्विमुखीकृत्य तत्तत्फलदातृत्वाभिमतक्षुद्रदेवताभिमुख्यं नीतं ज्ञानमन्तःकरणं येषां तेऽन्यदेवत भगवतो वासुदेवादन्याः क्षुद्रदेवतास्तं तं नियमं जपोपवासप्रदक्षिणानमस्कारादिरूपं तत्तद्देवताराधने प्रसिद्धं नियममास्थायाश्रित्य प्रपद्यन्ते भजन्ते तत्तत्क्षुद्रफलप्राप्तीच्छया क्षुद्रदेवतामध्येऽपि केचित्कांचिदेव भजन्ते स्वया प्रकृत्या नियता असाधारणया पूर्वाभ्यासवासनया वशीकृताः सन्तः।
।।7.20।।तदेवं कामिनोऽपि सन्तः कामप्राप्तये परमेश्वरं मामेव भजन्ति ते कामान्प्राप्य शनैर्मुच्यन्त इत्युक्तम्। ये त्वत्यन्तं राजसास्तामसाश्च कामाभिभूताः क्षुद्रदेवताः सेवन्ते ते संसरन्तीत्याह कामैरिति चतुर्भिः। ये तु तैस्तैः पुत्रकीर्तिशत्रुजयादिविषयैः कामैरपहृतविवेकाः सन्तः अन्याः क्षुद्राः भूतप्रेतयक्षादिदेवता भजन्ति। किं कृत्वा तत्तद्देवताराधने यो यो नियम उपवासादिलक्षणस्तं तं नियमं स्वीकृत्य तत्रापि स्वकीयया प्रकृत्या पूर्वाभ्यासवासनया नियताः सन्तो देवताविशेषं भजन्ति।
।।7.20।।कामैस्तैस्तैः इत्यादेःसर्गे यान्ति परन्तप 7।27 इत्यन्तस्य प्रकृतसङ्गतिमाह तस्येति। देवतान्तरफलान्तरसङ्गादिकं प्रतिबन्धकमिति भावः। बहुवचनासङ्कोचंसर्वभूतानि सम्मोहम् 7।27 इति वक्ष्यमाणं चानुसन्धायोक्तंसर्व एव हीति। स्वयेति प्राचीनस्वकीयानुभवजनितया प्रत्यात्मनियतया तदेकनिष्ठफलप्रसाधिकयेत्यर्थः। वासनाया नियतविषयेच्छाजनकत्वायोक्तंगुणमयभावविषययेति। एतेन स्वभावपर्यायः प्रकृतिशब्दोऽत्रकामैस्तैस्तैः इत्यादिसमभिव्याहारात् तत्तदिच्छाहेतुभूतसहजवासनाविषय इत्यपि निर्व्यूढम्। नियतत्वं नामादृष्टव्यभिचारः सम्बन्ध इत्यभिप्रायेणोक्तंनित्यान्विता इति। वीप्साभिप्रेतमाहस्ववासनानुरूपैरिति।लभते च ततः कामान् 7।22 इत्यनन्तराभिधीयमानैकार्थ्यात् कामशब्दोऽत्र कर्मणि व्युत्पन्नः।हृतज्ञानाः इत्यत्र ज्ञानशब्देन पूर्वप्रसक्तमेव ज्ञानं विवक्षितमिति प्रदर्शयितुंहृतमत्स्वरूपविषयज्ञाना इत्युक्तम्। तदेव चान्यदेवताभजनकारणम्। फलकारणयोः स्वरूपेण निर्दिष्टयोरपि साद्ध्यसाधनभावोऽर्थसिद्ध इति दर्शयितुंतत्तत्कामसिद्ध्यर्थमित्युक्तम्। तैस्तैस्तत्तद्देवताभिर्दातुं शक्यैरित्यर्थः। इन्द्रादिदेवतानामपि भगवत्पर्यन्तानुसन्धाने तत्तद्विशेषणविशिष्टस्य भगवत एव तत्तद्देवतात्वादन्यदेवतात्वं तथाविधानुसन्धानराहित्यनिबन्धनमिति ज्ञापनायोक्तंमद्व्यतिरिक्ताः केवलेन्द्रादिदेवता इति। एतेनकामैस्तैस्तैः इत्यादिकमितरभक्तत्रयविषयमिति परोक्तं निरस्तम्। तत्तत्कामार्थमपि निपुणैर्भगवानेव प्रपदनीयः अत एव हि सङ्गृहीतंऐकान्त्यं भगवत्येषां समानमधिकारिणाम् गी.सं.28 इति। अन्यथातृषितो जाह्नवीतीरे कूपं खनति दुर्मतिः इति भावः।तं तं नियममिति नियमोऽत्र सङ्कल्पविशेषादिः।श्रद्धयाऽर्चितुमिच्छति
।।7.20।।स कथं दुर्लभः इत्यत आह कामैरिति। तैस्तैः कामैः पूर्वोक्तैःआर्तः 7।16 इत्यादित्रिरूपैर्हृतज्ञानाः सन्तोऽन्यदेवताः क्षुद्राः शिवादयो भूतप्रेतादयश्च स्वया प्रकृत्या कृत्वा तं तं नियमं देवताराधने उपवासादिलक्षणमास्थाय प्रपद्यन्ते। अत्रायमर्थः कामनार्थं मत्सेवायां प्रवृत्ताः न तु मोक्षार्थं भक्त्यर्थं वा अहं तु मोक्षभक्त्यननुरूपं कामितफलं न ददामि तत्फलमननुभूय तैः कामैः हृतं मत्स्वरूपज्ञानं येषां तादृशाः सन्तः स्वया प्रकृत्या नियताः प्रकृत्यंशत्वाच्छीघ्रं तत्फलदा अन्यदेवता भजन्ति। अतएवयो यदंशः स तं भजेत् इत्युक्तम्।
।।7.20।।अन्ये तु तैस्तैः कामैः पुत्रपश्वादिविषयैर्हृतज्ञानाः हृतं दूरीकृतं ज्ञानं विवेको येषां ते। अन्यदेवताः अहमेतस्या आराधनेनेदं फलमवाप्नवानीति भेदबुद्ध्या प्रपद्यन्ते इन्द्रादीन् तं तं नियमं चतुर्दश्युपवासादिकमास्थाय स्वया प्रकृत्या वक्ष्यमाणविधया दैव्या आसुर्या वा नियता निगृहीताः।
।।7.20।।चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन इति चतुर्धात्वं सुकृतिनामुक्त्वा तेषां मध्ये ज्ञानिन उत्कर्षं निरुप्येतरेषामपि तेषां स्वभक्तानां परंपरया मोक्षभाक्त्वादुदाराः सर्व एवैते इत्युक्तम्। तत्र वासुदेवः सर्वमिति आत्मैव सर्वमित्येवं साक्षात्परंपरया वाऽप्रतिपत्तौ कारणमाह। यथाकथंचिदपि स्वाभिमुखानामुदारतासूचनाय। कामैस्तैस्तैः पुत्रपशुस्वर्गादिविषयैरिति भा्ये। आदिपदात्कीर्तिशत्रुयमोहनस्तम्भनापकर्षणवशीकरणमारणोच्चाटनादयो गृह्यन्ते। तैस्तैः कामैः हृतमपहृतं विवेकज्ञानं येषां ते हृतं भगवतो वासुदेवाद्विमुखीकृत्य तत्तत्फलदातृत्वाभिमतक्षुद्रदेवताभिमुख्यं नीतं ज्ञानमन्तःकरणं येषामिति वा। अस्मिन्पक्षे उक्तार्थस्यान्यदेवता वासुदेवान्मत्तः प्रत्यगभिन्नादन्या देवता अन्यदेवता इति तेषां प्रतीतेरनुवादः। तं तं नियमं जपोपवासादिरुपं तत्तद्देवतारधने प्रसिद्धमास्थाय आश्रित्य इन्द्रादीन्प्रपद्यन्ते। तत्तन्नियमविशेषाश्रयणे हेतुमाह। प्रकृत्या स्वया स्वकीयया प्रकृतिः स्वभावः सच जन्मान्तरार्जितानेकदुष्कृतजिन्यः संस्कारस्तया नियताः नियमिताः।
7.20 कामैः by desires? तैः तैः by this or that? हृतज्ञानाः those whose wisdom has been rent away? प्रपद्यन्ते approach? अन्यदेवताः other gods? तम् तम् this or that? नियमम् rite? आस्थाय having followed? प्रकृत्या by nature? नियताः led? स्वया by ones own.Commentary Those who desire wealth? children? the (small) Siddhis? etc.? are deprived of discrimination. They devote themselves to other minor gods such as Indra? Mitra? Varuna? etc.? impelled or driven by their own nature or Samskaras acired in their previous births. They perform some kinds of rites to propitiate these lower deities. (Cf.IX.23)
7.20 Those whose wisdom has been rent away by this or that desire, go to other gods, following this or that rite, led by their own nature.
7.20 They in whom wisdom is obscured by one desire or the other, worship the lesser Powers, practising many rites which vary according to their temperaments.
7.20 People, deprived of their wisdom by desires for various objects and guided by their own nature, resort to other deities following the relevant methods.
7.20 People, hrta-jnanah, deprived of their wisdom, deprived of their discriminating knowledge; taih taih kamaih, by desires for various objects, such as progeny, cattle, heaven, etc.; and niyatah, guided, compelled; svaya prakrtya, by their own nature, by particular tendencies gathered in the past lives; prapadyante, resort; anya-devatah, to other deities, who are different from Vasudeva, the Self; asthaya, following taking the help of; tam tam niyamam,the relevant methods-those processes that are well known for the adoration of the concerned deities.
7.20. Being robbed of their wisdom by innumerable desires [and] being controlled by their own nature, persons take refuge in other deities by following one or the other religious regulations.
7.20 See Comment under 7.23
7.20 All men of this world are 'controlled', i.e., constantly accompanied by their own nature consisting in the Vasanas (subtle impressions) resulting from relation with the objects formed of the Gunas. Their knowledge about My essential nature is robbed by various Karmas, i.e., by objects of desire corresponding to their Vasanas (subtle impressions) born of their Karmas and constituted of Gunas. In order to fulfil these various kinds of desires they take refuge in, i.e., seek and worship, other divinities who are regarded as different from Me, such as Indra and others, observing various disciplines, i.e., practising rituals which are specially meant to propitiate only these divinities.
7.20 Controlled by their inherent nature, and deprived of knowledge by various desires, worldly-minded men resort to other gods, observing various disciplines.
।।7.20।।यह सर्व जगत् आत्मस्वरूप वासुदेव ही है इस प्रकार न समझमें आनेका कारण बतलाते हैं पुत्र पशु स्वर्ग आदि भोगोंकी प्राप्तिविषयक नाना कामनाओंद्वारा जिनका विवेकविज्ञान नष्ट हो चुका है वे लोग अपनी प्रकृतिसे अर्थात् जन्मजन्मान्तरमें इकट्ठे किये हुए संस्कारोंके समुदायरूप स्वभावसे प्रेरित हुए अन्य देवताओंको अर्थात् आत्मस्वरूप मुझ वासुदेवसे भिन्न जो देवता हैं उनको उन्हींकी आराधनाके लिये जोजो नियम प्रसिद्ध हैं उनका अवलम्बन करके भजते हैं अर्थात् उनकी शरण लेते हैं।
।।7.20।। कामैः तैस्तैः पुत्रपशुस्वर्गादिविषयैः हृतज्ञानाः अपहृतविवेकविज्ञानाः प्रपद्यन्ते अन्यदेवताः प्राप्नुवन्ति वासुदेवात् आत्मनः अन्याः देवताः तं तं नियमं देवताराधने प्रसिद्धो यो यो नियमः तं तम् आस्थाय आश्रित्य प्रकृत्या स्वभावेन जन्मान्तरार्जितसंस्कारविशेषेण नियताः नियमिताः स्वया आत्मीयया।।तेषां च कामिनाम्
।।7.20।।ननु मूलप्रकृतेः सर्वत्रैकत्वात्कथं स्वयेति प्रातिस्विकत्वमुच्यते इत्यत आह प्रकृत्येति। स्वभाव एवेत्येवशब्दसम्बन्धः।
।।7.20।।प्रकृत्या स्वभावेन।स्वभावः प्रकृतिश्चैव संस्कारो वासनेति च इत्यभिधानात्।
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः। तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।7.20।।
কামৈস্তৈস্তৈর্হৃতজ্ঞানাঃ প্রপদ্যন্তেন্যদেবতাঃ৷ তং তং নিযমমাস্থায প্রকৃত্যা নিযতাঃ স্বযা৷৷7.20৷৷
কামৈস্তৈস্তৈর্হৃতজ্ঞানাঃ প্রপদ্যন্তেন্যদেবতাঃ৷ তং তং নিযমমাস্থায প্রকৃত্যা নিযতাঃ স্বযা৷৷7.20৷৷
કામૈસ્તૈસ્તૈર્હૃતજ્ઞાનાઃ પ્રપદ્યન્તેન્યદેવતાઃ। તં તં નિયમમાસ્થાય પ્રકૃત્યા નિયતાઃ સ્વયા।।7.20।।
ਕਾਮੈਸ੍ਤੈਸ੍ਤੈਰ੍ਹਰਿਤਜ੍ਞਾਨਾ ਪ੍ਰਪਦ੍ਯਨ੍ਤੇਨ੍ਯਦੇਵਤਾ। ਤਂ ਤਂ ਨਿਯਮਮਾਸ੍ਥਾਯ ਪ੍ਰਕਰਿਤ੍ਯਾ ਨਿਯਤਾ ਸ੍ਵਯਾ।।7.20।।
ಕಾಮೈಸ್ತೈಸ್ತೈರ್ಹೃತಜ್ಞಾನಾಃ ಪ್ರಪದ್ಯನ್ತೇನ್ಯದೇವತಾಃ. ತಂ ತಂ ನಿಯಮಮಾಸ್ಥಾಯ ಪ್ರಕೃತ್ಯಾ ನಿಯತಾಃ ಸ್ವಯಾ৷৷7.20৷৷
കാമൈസ്തൈസ്തൈര്ഹൃതജ്ഞാനാഃ പ്രപദ്യന്തേന്യദേവതാഃ. തം തം നിയമമാസ്ഥായ പ്രകൃത്യാ നിയതാഃ സ്വയാ৷৷7.20৷৷
କାମୈସ୍ତୈସ୍ତୈର୍ହୃତଜ୍ଞାନାଃ ପ୍ରପଦ୍ଯନ୍ତେନ୍ଯଦେବତାଃ| ତଂ ତଂ ନିଯମମାସ୍ଥାଯ ପ୍ରକୃତ୍ଯା ନିଯତାଃ ସ୍ବଯା||7.20||
kāmaistaistairhṛtajñānāḥ prapadyantē.nyadēvatāḥ. taṅ taṅ niyamamāsthāya prakṛtyā niyatāḥ svayā৷৷7.20৷৷
காமைஸ்தைஸ்தைர்ஹரிதஜ்ஞாநாஃ ப்ரபத்யந்தேந்யதேவதாஃ. தஂ தஂ நியமமாஸ்தாய ப்ரகரித்யா நியதாஃ ஸ்வயா৷৷7.20৷৷
కామైస్తైస్తైర్హృతజ్ఞానాః ప్రపద్యన్తేన్యదేవతాః. తం తం నియమమాస్థాయ ప్రకృత్యా నియతాః స్వయా৷৷7.20৷৷