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।।1.1।। धृतराष्ट्र बोले (टिप्पणी प0 1.2) - हे संजय! (टिप्पणी प0 1.3) धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरेे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया?
।।1.1।।धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक (युयुत्सव:) मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
।।1.1।। सम्पूर्ण गीता में यही एक मात्र श्लोक अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र ने कहा है। शेष सभी श्लोक संजय के कहे हुए हैं जो धृतराष्ट्र को युद्ध के पूर्व की घटनाओं का वृत्तान्त सुना रहा था। निश्चय ही अन्ध वृद्ध राजा धृतराष्ट्र को अपने भतीजे पाण्डवों के साथ किये गये घोर अन्याय का पूर्ण भान था। वह दोनों सेनाओं की तुलनात्मक शक्तियों से परिचित था। उसे अपने पुत्र की विशाल सेना की सार्मथ्य पर पूर्ण विश्वास था। यह सब कुछ होते हुये भी मन ही मन उसे अपने दुष्कर्मों के अपराध बोध से हृदय पर भार अनुभव हो रहा था और युद्ध के अन्तिम परिणाम के सम्बन्ध में भी उसे संदेह था। कुरुक्षेत्र में क्या हुआ इसके विषय में वह संजय से प्रश्न पूछता है। महर्षि वेदव्यास जी ने संजय को ऐसी दिव्य दृष्टि प्रदान की थी जिसके द्वारा वह सम्पूर्ण युद्धभूमि में हो रही घटनाओं को देख और सुन सकता था।
1।।व्याख्या-- 'धर्मक्षेत्रे' 'कुरुक्षेत्रे'-- कुरुक्षेत्र में देवताओं ने यज्ञ किया था। राजा कुरु ने भी यहाँ तपस्या की थी। यज्ञादि धर्ममय कार्य होने से तथा राजा कुरु की तपस्याभूमि होने से इसको धर्मभूमि कुरुक्षेत्र कहा गया है।     यहाँ ॓'धर्मक्षेत्रे' और 'कुरुक्षेत्रे' पदों में 'क्षेत्र' शब्द देने में धृतराष्ट्र का अभिप्राय है कि यह अपनी कुरुवंशियों की भूमि है। यह केवल लड़ाई की भूमि ही नहीं है, प्रत्युत तीर्थभूमि भी है, जिसमें प्राणी जीते-जी पवित्र कर्म करके अपना कल्याण कर सकते हैं। इस तरह लौकिक और पारलौकिक सब तरह का लाभ हो जाय-- ऐसा विचार करके एवं श्रेष्ठ पुरुषों की सम्मति लेकर ही युद्ध के लिये यह भूमि चुनी गयी है।     संसार में प्रायः तीन बातों को लेकर लड़ाई होती है-- भूमि, धन और स्त्री। इस तीनों में भी राजाओं का आपस में लड़ना मुख्यतः जमीन को लेकर होता है। यहाँ 'कुरुक्षेत्रे' पद देने का तात्पर्य भी जमीन को लेकर ल़ड़ने में है। कुरुवंश में धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्र सब एक हो जाते हैं। कुरुवंशी होने से दोनों का कुरुक्षेत्र में अर्थात् राजा कुरु की जमीन पर समान हक लगता है। इसलिये (कौरवों द्वारा पाण्डवों को उनकी जमीन न देने के कारण) दोनों जमीन के लिये लड़ाई करने आये हुए हैं।     यद्यपि अपनी भूमि होने के कारण दोनों के लिये 'कुरुक्षेत्रे' पद देना युक्तिसंगत, न्यायसंगत है, तथापि हमारी सनातन वैदिक संस्कृति ऐसी विलक्षण है कि कोई भी कार्य करना होता है, तो वह धर्म को सामने रखकर ही होता है। युद्ध-जैसा कार्य भी धर्मभूमि-- तीर्थभूमि में ही करते हैं, जिससे युद्ध में मरने वालों का उद्धार हो जाय, कल्याण हो जाय। अतः यहाँ कुरुक्षेत्र के साथ 'धर्मक्षेत्रे' पद आया है।     यहाँ आरम्भ में 'धर्म' पद से एक और बात भी मालूम होती है। अगर आरम्भ के 'धर्म' पद में से 'धर्' लिया जाय और अठारहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक के 'मम' पदों से 'म' लिया जाय, तो 'धर्म' शब्द बन जाता है। अतः सम्पूर्ण गीता धर्म के अन्तर्गत है अर्थात् धर्म का पालन करने से गीता के सिद्धान्तों का पालन हो जाता है और गीता के सिद्धान्तों के अनुसार कर्तव्य कर्म करने से धर्म का अनुष्ठान हो जाता है।     इन 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' पदों से सभी मनुष्यों को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि कोई भी काम करना हो तो वह धर्म को सामने रखकर ही करना चाहिये। प्रत्येक कार्य सबके हित की दृष्टि से ही करना चाहिये, केवल अपने सुख-आराम-की दृष्टि से नहीं; और कर्तव्य-अकर्तव्य के विषय में शास्त्र को सामने रखना चाहिये (गीता 16। 24)।     'समवेता युयुत्सवः'-- राजाओं के द्वारा बारबार सन्धि का प्रस्ताव रखने पर भी दुर्योधन ने सन्धि करना स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण के कहने पर भी मेरे पुत्र दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के मैं तीखी सूई की नोक-जितनी जमीन भी पाण्डवों को नहीं दूँगा। (टिप्पणी प0 2.1) तब मजबूर होकर पाण्डवों ने भी युद्ध करना स्वीकार किया है। इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र-- दोनों ही सेनाओं के सहित युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए हैं।     दोनों सेनाओं में युद्ध की इच्छा रहने पर भी दुर्योधन में युद्ध की इच्छा विशेषरूप से थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्य-प्राप्ति का ही था। वह राज्य-प्राप्ति धर्म से हो चाहे अधर्म से, न्याय से हो चाहे अन्याय से, विहित रीति से हो चाहे निषिद्ध रीति से, किसी भी तरह से हमें राज्य मिलना चाहिये-- ऐसा उसका भाव था। इसलिये विशेषरूप से दुर्योधन का पक्ष ही युयुत्सु अर्थात् युद्ध की इच्छावाला था।     पाण्डवों में धर्म की मुख्यता थी। उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे जैसा जीवन-निर्वाह कर लेंगे, पर अपने धर्म में बाधा नहीं आने देंगे, धर्म के विरुद्ध नहीं चलेंगे। इस बात को लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्ध नहीं करना चाहते थे। परन्तु जिस माँ की आज्ञा से युधिष्ठिर ने चारों भाइयों सहित द्रौपदी से विवाह किया था, उस माँ की आज्ञा होने के कारण ही महाराज युधिष्ठिर की युद्ध में प्रवृत्ति हुई थी (टिप्पणी प0 2.2) अर्थात् केवल माँ के आज्ञा-पालनरूप धर्म से ही युधिष्ठिर युद्ध की इच्छावाले हुये हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन आदि तो राज्य को लेकर ही युयुत्सु थे, पर पाण्डव धर्म को लेकर ही युयुत्सु बने थे।     'मामकाः पाण्डवाश्चैव'-- पाण्डव धृतराष्ट्र को (अपने पिता के बड़े भाई होने से) पिता के समान समझते थे और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। धृतराष्ट्र के द्वारा अनुचित आज्ञा देने पर भी पाण्डव उचित-अनुचित का विचार न करके उनकी आज्ञा का पालन करते थे। अतः यहाँ 'मामकाः' पद के अन्तर्गत कौरव (टिप्पणी प0 3.1) और पाण्डव दोनों आ जाते हैं। फिर भी 'पाण्डवाः' पद अलग देने का तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों में तथा पाण्डुपुत्रों में समान भाव नहीं था। उनमें पक्षपात था,अपने पुत्रों के प्रति मोह था। वे दुर्योधन आदि को तो अपना मानते थे, पर पाण्डवों को अपना नहीं मानते थे। (टिप्पणी प0 3.2) इस कारण उन्होंने अपने पुत्रों के लिये 'मामकाः' और पाण्डुपुत्रों के लिये 'पाण्डवा' पद का प्रयोग किया है; क्योंकि जो भाव भीतर होते हैं, वे ही प्रायः वाणी से बाहर निकलते हैं। इस द्वैधीभाव के कारण ही धृतराष्ट्र को अपने कुल के संहार का दुःख भोगना पड़ा। इससे मनुष्यमात्र को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि वह अपने घरों में, मुहल्लों में, गाँवों में, प्रान्तों में, देशों में, सम्प्रदायों में द्वैधीभाव अर्थात् ये अपने हैं, ये दूसरे हैं-- ऐसा भाव न रखे। कारण कि द्वैधीभाव से आपस में प्रेम, स्नेह नहीं होता, प्रत्युत कलह होती है।     यहाँ 'पाण्डवाः' पद के साथ 'एव' पद देने का तात्पर्य है कि पाण्डव तो बड़े धर्मात्मा हैं; अतः उन्हें युद्ध नहीं करना चाहिये था। परन्तु वे भी युद्ध के लिये रणभूमि में आ गये तो वहाँ आकर उन्होंने क्या किया?     'मामकाः' और 'पाण्डवाः' (टिप्पणी प0 3.3) इनमें से पहले 'मामकाः' पद का उत्तर सञ्जय आगे के (दूसरे) श्लोक से तेरहवें श्लोक तक देंगे कि आपके पुत्र दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को देखकर द्रोणाचार्य के मन में पाण्डवों के प्रति द्वेष पैदा करने के लिये उनके पास जाकर पाण्डवों के मुख्य-मुख्य सेनापतियों के नाम लिये। उसके बाद दुर्योधन ने अपनी सेना के मुख्य-मुख्य योद्धाओं के नाम लेकर उनके रण-कौशल आदि की प्रशंसा की। दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिये भीष्मजी ने जोर से शंख बजाया। उसको सुनकर कौरव-सेना में शंख आदि बाजे बज उठे। फिर चौदहवें श्लोक से उन्नीसवें श्लोक तक 'पाण्डवाः' पद का उत्तर देंगे कि रथ में बैठे हुए पाण्डवपक्षीय श्रीकृष्ण ने शंख बजाया। उसके बाद अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव आदि ने अपने-अपने शंख बजाये, जिससे दुर्योधन की सेना का हृदय दहल गया। उसके बाद भी सञ्जय पाण्डवों की बात कहते-कहते बीसवें श्लोक से श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का प्रसङ्ग आरम्भ कर देंगे।     'किमकुर्वत'-- 'किम्' शब्द के तीन अर्थ होते हैं-- विकल्प, निन्दा (आक्षेप) और प्रश्न।     युद्ध हुआ कि नहीं? इस तरह का विकल्प तो यहाँ लिया नहीं जा सकता; क्योंकि दस दिन तक युद्ध हो चुका है और भीष्म जी को रथ से गिरा देने के बाद सञ्जय हस्तिनापुर आकर धृतराष्ट्र को वहाँ की घटना सुना रहे हैं।     'मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने यह क्या किया, जो कि युद्ध कर बैठे! उनको युद्ध नहीं करना चाहिये था'-- ऐसी निन्दा या आक्षेप भी यहाँ नहीं लिया जा सकता; क्योंकि युद्ध तो चल ही रहा था और धृतराष्ट्र के भीतर भी आक्षेपपूर्वक पूछने का भाव नहीं था।     यहाँ 'किम्' शब्द का अर्थ प्रश्न लेना ही ठीक बैठता है। धृतराष्ट्र सञ्जय से भिन्न-भिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी सब घटनाओं को अनुक्रम से विस्तारपूर्वक ठीक-ठीक जानने के लिये ही प्रश्न कर रहे हैं।     सम्बन्ध-- धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर सञ्जय आगे के श्लोक से देना आरम्भ करते हैं।
।।1.1।।धर्मक्षेत्र इति। अत्र केचित् व्याख्याविकल्पमाहुः कुरूणां करणानां यत् क्षेत्रमनुग्राहकं अतएव सांसारिकधर्माणां (S सांसारिकत्वधर्माणां) सर्वेषां क्षेत्रम् उत्पत्तिनिमित्तत्वात्। अयं स परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् (या. स्मृ. I 8) इत्यस्य च धर्मस्य क्षेत्रम् समस्तधर्माणां क्षयात् अपवर्गप्राप्त्या त्राणभूतं तदधिकारिशरीरम्। सर्वक्षत्राणां क्षदेः हिंसार्थत्वात् परस्परं वध्यघातकभावेन (S परस्परवध्य ) वर्तमानानां रागवैराग्यक्रोधक्षमाप्रभृतीनां समागमो यत्र तस्मिन् स्थिता ये मामका अविद्यापुरुषोचिता अविद्यामयाः संकल्पाः पाण्डवाः शुद्धविद्यापुरुषोचिता विद्यात्मानः ते किमकुर्वत कैः खलु के जिताः इति। मामकः अविद्यापुरुषः पाण्डुः शुद्धः।
।।1.1।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.1।।एवं गीताशास्त्रस्य साध्यसाधनभूतनिष्ठाद्वयविषयस्य परापराभिधेयप्रयोजनवतो व्याख्येयत्वं प्रतिपाद्य व्याख्यातुकामः शास्त्रं तदेकदेशस्य प्रथमाध्यायस्य द्वितीयाध्यायैकदेशसहितस्य तात्पर्यमाह अत्र चेति। गीताशास्त्रे प्रथमाध्याये प्रथमश्लोके कथासंबन्धप्रदर्शनपरे स्थिते सतीति यावत्। तत्रैवमक्षरयोजना धृतराष्ट्र उवाचेति। धृतराष्ट्रो हि प्रज्ञाचक्षुर्बाह्यचक्षुरभावाद्बाह्यमर्थं प्रत्यक्षयितुमनीशः सन्नभ्याशवर्तिनं संजयमात्मनो हितोपदेष्टारं पृच्छति धर्मक्षेत्र इति। धर्मस्य तद्वृद्धेश्च क्षेत्रमभिवृद्धिकारणं यदुच्यते कुरुक्षेत्रमिति तत्र समवेताः संगता युयुत्सवो योद्धुकामास्ते च केचिन्मदीया दुर्योधनप्रभृतयः पाण्डवाश्चापरे युधिष्ठिरादयस्ते च सर्वे युद्धभूमौ संगता भूत्वा किमकुर्वत कृतवन्तः।
।।1.1।।धर्मक्षेत्रे इत्यारभ्यस घोषो धार्तराष्ट्राणां 1।19 इत्यन्तं सम्बन्धः। अत्रैतदध्यायव्याख्या श्रीविठ्ठलेशप्रभुकृता बोध्या।
।।1.1।।तत्रअशोच्यान्वशोचस्त्वम् इत्यादिना शोकमोहादिसर्वासुरपाप्मनिवृत्त्युपायोपदेशेन स्वधर्मानुष्ठानात्पुरुषार्थः प्राप्यतामिति भगवदुपदेशः सर्वसाधारणः। भगवदर्जुनसंवादरूपा चाख्यायिका विद्यास्तुत्यर्थाजनकयाज्ञवल्क्यसंवादादिवदुपनिषत्सु। कथं प्रसिद्धमहानुभावोऽप्यर्जुनो राज्यगुरुपुत्रमित्रादिष्वहमेषां ममैत इत्येवंप्रत्ययनिमित्तस्नेहनिमित्ताभ्यां शोकमोहाभ्यामभिभूतविवेकविज्ञानः स्वतएव क्षत्रधर्मे युद्धे प्रवृत्तोऽपि तस्माद्युद्धादुपरराम। परधर्मं च भिक्षाजीवनादि क्षत्रियंप्रति प्रतिषिद्धं कर्तुं प्रववृते। तथाच महत्यनर्थे मग्नोऽभूत् भगवदुपदेशाच्चेमां विद्यां लब्धवा शोकमोहावपनीय पुनः स्वधर्मे प्रवृत्तः कृतकृत्यो बभूवेति प्रशस्ततरेयं महाप्रयोजना विद्येति स्तूयते। अर्जुनापदेशेन चोपदेशाधिकारी दर्शितः। तथाच व्याख्यास्यते। स्वधर्मप्रवृत्तौ जातायामपि तत्प्रच्युतिहेतुभूतौ शोकमोहौकथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादिनार्जुनेन दर्शितौ। अर्जुनस्य युद्धाख्ये स्वधर्में विनापि विवेकं किंनिमित्ता प्रवृत्तिरितिदृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् इत्यादिना परसैन्यचेष्टितं तन्निमित्तमुक्तम्। तदुपोद्धातत्वेन धृतराष्ट्रप्रश्नः संजयं प्रति धर्मक्षेत्रे इत्यादिना श्लोकेन। तत्र धृतराष्ट्र उवाचेति वैशम्पायनवाक्यं जनमेजयं प्रति। पाण्डवानां जयकारणं बहुविधं पूर्वमाकर्ण्य स्वपुत्रराज्यभ्रंशाद्भीतो धृतराष्ट्रः पप्रच्छ स्वपुत्रजयकारणमाशंसन्। पूर्वं युयुत्सवो योद्धुमिच्छवोऽपि सन्तः कुरुक्षेत्रे समवेताः संगताः मामका मदीया दुर्योधनादयः पाण्डवाश्च युधिष्ठिरादयः किमकुर्वत किं कृतवन्तः। किं पुर्वोद्भूतयुयुत्सानुसारेण युद्धमेव कृतवन्त उत केनचिन्निमित्तेन युयुत्सानिवृत्त्यान्यदेव किंचित्कृतवन्तः भीष्मार्जुनादिवीरपुरुषनिमित्तं दृष्टभयं युयुत्सानिवृत्तिकारणं प्रसिद्धमेव अदृष्टभयमपि दर्शयितुमाह धर्मक्षेत्र इति। धर्मस्य पूर्वमविद्यमानस्योत्पत्तेर्विद्यमानस्य च वृद्धेर्निमित्तं सस्यस्येव क्षेत्रं यत्कुरुक्षेत्रं सर्वश्रुतिस्मृतिप्रसिद्धम्।बृहस्पतिरुवाच याज्ञवल्क्यं यदनु कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् इति जाबालश्रुतेःकुरुक्षेत्रं वै देवयजनम् इति शतपथश्रुतेश्च। तस्मिन् गताः पाण्डवाः पूर्वमेव धार्मिकाः यदि पक्षद्वयहिंसानिमित्तादधर्माद्गीता निवर्तेरंस्ततः प्राप्तराज्या एव मत्पुत्राः अथवा धर्मक्षेत्रमाहात्म्येन पापानामपि मत्पुत्राणां कदाचिच्चित्तप्रसादः स्यात्तदा च तेऽनुतप्ताः प्राक्कपटोपात्तं राज्यं पाण्डवेभ्यो यदि दद्युस्तर्हि विनापि युद्धं हता एवेति स्वपुत्रराज्यलाभे पाण्डवराज्यलाभे च दृढतरमुपायमपश्यतो महानुद्वेग एव प्रश्नबीजम्। संजयेति च संबोधनं रागद्वेषादिदोषान्सम्यग्जितवानसीति कृत्वा निर्व्याजमेव कथनीयं त्वयेति सूचनार्थम्। मामकाः किमकुर्वतेत्येतावतैव प्रश्ननिर्वाहे पाण्डवाश्चेति पृथङ्निर्दिशन्पाण्डवेषु ममकाराभावप्रदर्शनेन तद्द्रोहमभिव्यनक्ति।
।।1.1।। इह खलु सकललोकहितावतारः सकलवन्दितचरणः परमकारुणिको भगवान् देवकीनन्दनस्तत्त्वाज्ञानविजृम्भितशोकमोहविभ्रंशितविवेकतया निजधर्मत्यागपरधर्माभिसंधिपरमर्जुनं धर्मज्ञानरहस्योपदेशप्लवेन तस्माच्छोकमोहसागरादुद्दधार। तमेव भगवदुपदिष्टमर्थं कृष्णद्वैपायनः सप्तभिः श्लोकशतैरुपनिबबन्ध। तत्र च प्रायशः श्रीकृष्णमुखनिःसृतानेव श्लोकानलिखत् कांश्चित्तत्संगतये स्वयं व्यरचयत्। यथोक्तं गीतामाहात्म्ये गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता।। इति। तत्र तावद्धर्मक्षेत्र इत्यादिना विषीदन्निदमब्रवीदित्यन्तेन ग्रन्थेन श्रीकृष्णार्जुनसंवादप्रस्तावाय कथा निरूप्यते धर्मक्षेत्र इति। भो संजय धर्मभूमौ कुरुक्षेत्रे मत्पुत्राः पाण्डुपुत्राश्च युयुत्सवो योद्धुमिच्छन्तः समवेता मिलिताः सन्तः किं कृतवन्तः।
।।1.1।।धर्मक्षेत्रे धर्मस्य स्थानभूते समराध्वरसमुचिते इति भावः।कुरुक्षेत्रे पाण्डवधार्तराष्ट्राणां स्वकूटस्थनामोपलक्षितत्वेन बहुमानविषय इति भावः।युयुत्सवः समवेताः मिथः प्रत्यनीकरूपेण व्यूढा इत्यर्थः।च एव इत्यव्ययद्व्यमनतिरिक्तार्थम् यद्वा समस्तभूमण्डलवर्तिनां राज्ञां तत्र समाहारेऽपि तादर्थ्याद्वर्गद्वयमेव तथाऽभूदित्येवकाराभिप्रायः।अकुर्वत इत्यात्मनेपदेन कर्त्रभिप्रायक्रियाफलविषयेण स्वार्थतोक्ता।
।।1.1।।वैशम्पायनस्तु जनमेजयाय कथासङ्गतिं वक्तुं प्रथमतो धृतराष्ट्रसंवादमाह। तत्र धृतराष्ट्रो बहुधा पाण्डवान् धर्मपरानेवावगत्य बन्धलक्षणमधर्मं कथं कृतवन्त इत्यभिप्रेत्य पृच्छति। अत्र ह्येवं कथाप्रकारः सञ्जय आगत्य पूर्वं सेनापतिमरणं वक्ति ततो धृतराष्ट्रेण तत्परिदेवने कृते पश्चात्तन्निवृत्तौ सर्वा कथां विस्तारेण वदतीति। तत्र पाण्डवानां स्वल्पं सैन्यं स्वस्य तु महत् स्वस्य शूराश्च भूयांसः तेषां सर्वेषामेव पश्यतां तैरुपेक्षितो भीष्मो रणे पतितः उत पाण्डवैः प्रसह्य मारितः पाण्डवाश्च तादृशे क्षेत्रे पितामहावज्ञालक्षणमधर्मं कथं कृतवन्तः इति ज्ञातुं हे सञ्जय धर्मक्षेत्रे धर्मोत्पत्तिभूमौ कुरुक्षेत्रे मामकाः मत्पुत्राः पाण्डवाः पाण्डुपुत्राश्च युयुत्सवो योद्धुकामाः समवेताः मिलिताः किमकुर्वत किं कृतवन्तः। स्वपुत्राणामधर्मपरायणत्वाद्धर्मक्षेत्रेऽप्यधर्ममेव कृतवन्तः किंवा धर्ममिति स्वीयानां प्रश्नः पाण्डवाश्च धर्मपरायणास्तत्र धर्मक्षेत्रे द्रोणादीन् गुरून् कथं मारितवन्तः इति तेषां प्रश्नः। इदमेव चकारेण द्योतितम्यत्तेषां धर्मपरायणत्वम्। तथा चैकमरणेनैवान्यस्य राज्यप्राप्तिरिति निश्चित्यापि किं कृतवन्त इत्यर्थः। सञ्जयस्य वरप्राप्तसर्वज्ञत्वमालक्ष्य सम्बोधनम्।
।।1.1।।तत्र युद्धोद्यमं श्रुत्वौत्सुक्यादग्रिमं वृत्तान्तं बुभुत्सुर्धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्र इति। तत्र वेदेतेषां कुरुक्षेत्रं देवयजनमास इति कर्मकाण्डप्रसिद्धं कुरुक्षेत्रमन्यत्अविमुक्तं वै कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम् इत्यविमुक्ताख्यं ब्रह्मप्राप्तिस्थानभूतं कुरुक्षेत्रमन्यत्। ब्रह्मसदनत्वं चास्य अत्र हि जन्तोः प्राणेषूत्क्रममाणेषु रुद्रस्तारकं ब्रह्म व्याचष्टे येनासावमृतीभूत्वा मोक्षी भवतीति वाक्यशेषेण व्युत्पादितम्। एतद्व्यावृत्त्यर्थं धर्मक्षेत्रे इति विशेषणम्। कुरुदेशान्तर्गतं हि कुरुक्षेत्रं धर्मक्षेत्रमेव नतु तद्ब्रह्मसदनम्। प्रवर्ग्यकाण्डे तस्य धर्मक्षेत्रत्वमात्रश्रवणात्। तत्र समवेता मिलिताः युयुत्सवो योद्धुमिच्छवः। पाण्डवानां पृथग्ग्रहणं तेषु ममत्वाभावसूचनार्थम्।
।।1.1।। इह खलु परमकारुणिकः परिपूर्णानन्दस्वभावः सकलैश्वर्यसंपन्नस्त्रिगुणात्मिकया स्ववशीकृतया निजमाययोपात्तकायो भगवान् वासुदेवः शोकमोहाभिभूतं जीवनिकायमुद्दिधीर्षुर्यद्गीताशास्त्रं सर्ववेदसारभूतं काण्डत्रयात्मकं तत्त्वम्पदाखण्डार्थप्रतिपादकं निजविग्रहायार्जुनाय ग्राहयामास। तदेव क्रमप्राप्तं दयानिधिर्वेदव्यासो महाभारते निबध्नाति धृतराष्ट्र उवाचेत्यादि। तत्र धृतराष्ट्र उवाच केषां प्रहृष्टास्तत्राग्रे योधा युध्यन्ति संजय। उदग्रमनसः केऽत्र के वा दीना विचेतसः।।के पूर्वं प्राहरंस्तत्र युद्धे हृदयकम्पिनि। मामकाः पाण्डवानां वा तन्ममाचक्ष्व संजय।। इत्यादिना कृतं प्रश्नं वैशंपायनो जनमेजयंप्रति संक्षिप्योपोद्धातायानुवदति धृतराष्ट्र उवाचेति। मामकाः मदीयाः दुर्योधनादयः पाण्डवाः पाण्डुपुत्राः युधिष्ठिरादयः युयुत्सवः योद्धुमिच्छवः। धर्मस्योपचयस्थानत्वात् धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे श्रुतिस्मृतिलोकप्रसिद्धे समवेता मिलिताः सन्तः किमकुर्वत किं कृतवन्तः। स्वधर्मभूतं धर्मयुद्धं कृतवन्त उताधर्मयुद्धमिति धर्मक्षेत्रपदेन बोधितम्। युयुत्सया समवेता इति मया विस्तरेण श्रुतं तदनन्तरं यथा यत्कृतवन्तः तथा तद्विस्तरेण वदेत्याशयः। भीष्मपतनेन कलहस्यानर्थबोधकानां भवदादिवाक्यानां सम्यग्जयो जात इति ध्वनयन्संबोधयति संजयेति। रागद्वेषादिदोषान्सभ्यग्जितवानसीति कृत्वा निर्व्याजेन त्वया कथनीयमिति सूचनार्थं संजयेति संबोधनमिति केचित्। किमा आक्षेपोऽपि ध्वनितः। अयोग्यं कृतवन्त इत्यर्थः। धर्मक्षेत्रे हिंसाप्रधानस्य युद्धस्यानुचितत्वात्। मामकानामधार्मिकत्वेन तत्संभवेऽपि परमधार्मिकत्वेन प्रसिद्धाः पाण्डवाः युधिष्ठिरादयो भीष्मादिपातनं किं कृतवन्त इति द्योतयन्नाह पाण्डवाश्चेति। पाण्डवेषु ममकाराभावप्रदर्शनेन तेषु द्रोहमभिव्यनक्तीति केचित्। यत्तु पाण्डवानां जयकारणं बहुविधं पूर्वमाकर्ण्य स्वपुत्रराज्यभ्रंशाद्भीतो धृतराष्ट्रः पप्रच्छ स्वपुत्रजयकारणमाशंसन् धृतराष्ट्र इत्यादिना। किं कृतवन्तः किं पूर्वोक्तयुयुत्सानुसारेण युद्धमेव कृतवन्तः उत केनचिन्निमित्तेन युयुत्सानिवृत्त्याऽन्यदेव किंचित्कृतवन्तः। भीमार्जुनादिवीरपुरुषनिमित्तं दृष्टभयं युयुत्सानिवृत्तिकारणं प्रसिद्धमेव। अदृष्टभयमपि दर्शयितुमाह धर्मक्षेत्र इति। तस्मिन् गताः पाण्डवाः पूर्वमेव धार्मिकाः। यदि पक्षद्वयहिंसानिमित्तादधर्माद्भीता निवर्तेन् ततः प्राप्तराज्या एव मत्पुत्राः। अथवा धर्मक्षेत्रमाहात्म्येन पापिनामपि मत्पुत्राणां कदाचिच्चित्तप्रसादाः स्यात्तदा च तेऽनुतप्ताः कपटोपात्तं राज्यं पाण्डवेभ्यो यदि दद्युः तर्हि विनापि युद्धं हता एवेति स्वपुत्रराज्यलाभे पाण्डवराज्यालाभे च दृढतरमुपायमपश्यतो महानुद्वेग एव प्रश्नबीजमिति केचिद्वर्णयन्ति तदुपेक्ष्यम्।अथ गावल्गणिर्धीमान्समरादेत्य संजयः। प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य भूतभव्यभविष्यतः।।ध्यायतो धृतराष्ट्रस्य सहसोपेत्य दुःखितः। आचष्ट निहतं भीष्म भारतानां पितामहम्। संजयोऽहं महाराज नमस्ते भरतर्षभ।।हतो भीष्मः शान्तनवो भारतानां पितामहः। यो ररक्ष समेतानां दशरात्रमनीकहा।।जगामास्तमिवादित्यः कृत्वा कर्म सुदुष्करम्। यः स शक्र इवाक्षोभ्यो वर्षन्बाणन्सहस्त्रशः।।जघान युधि योधानामर्बुदं दशभिर्दिनैः। स शेते निहतो भूमौ वातरुग्ण इव द्रुमः।। इत्यादिसंक्षेपोक्तिपरपूर्वग्रन्थविरोधात्। ननु संक्षेपेण श्रुतमपि मोहाद्विस्मृत्य धृतराष्ट्रेण प्रश्नः कृत इतिचेन्न। प्रश्नस्य पूर्वग्रन्थानुरोधेनास्मदीयोक्तरीत्या सभ्यगुपपत्तेः। पूर्वोक्तविरुद्धप्रश्नव्याख्यानकर्तृ़णामेव मोहादिति दिक्। यत्त्वन्ये धर्मक्षेत्रपदं कुरुक्षेत्रपदादविमुक्तक्षेत्रप्रतिपत्तिर्माभूदित्येतदर्थमिति। तन्न। कुरुक्षेत्रादागतं संजयं किमविमुक्तक्षेत्रे समवेता इति संशयरहितंप्रति विशेषणानर्थक्यात्। अन्येषामपि लोकप्रसिद्य्धा पूर्वग्रन्थेन च निर्णयस्य सत्त्वात्।
1.1 धर्मक्षेत्रे on the holy plain? कुरुक्षेत्रे in Kurukshetra? समवेताः assembled together? युयुत्सवः desirous to fight? मामकाः my people? पाण्डवाः the sons of Pandu? च and? एव also? किम् what? अकुर्वत did do? सञ्जय O Sanjaya.Commentary Dharmakshetra -- that place which protects Dharma is Dharmakshetra. Because it was in the land of the Kurus? it was called Kurukshetra.Sanjaya is one who has conered likes and dislikes and who is impartial.
1.1 Dhritarashtra said What did my people and the sons of Pandu do when they had assembled together eager for battle on the holy plain of Kurukshetra, O Sanjaya.
1.1 The King Dhritarashtra asked: "O Sanjaya! What happened on the sacred battlefield of Kurukshetra, when my people gathered against the Pandavas?"
1.1. Dhṛtarāṣṭrra said: O Sañjaya, what did my sons (and others) and Pāṇḍu's sons (and others) actually do when, eager for battle, they assembled on the sacred field, the Kurukṣetra (Field of the Kurus)?
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1.1. Dhrtarastra said O Sanjaya ! What did my men and the sons of Pandu do in the Kuruksetra, the field of righteousness, where the entire warring class has assembled ? or O Sanjaya ! What did the selfish intentions and the intentions born of wisdom do in the human body which is the field-of-duties, the repository of the senseorgans and in which all the murderous ones (passions and asceticism etc.) are confronting [each other]. test by demo
1.1 Dharmaksetre etc. Here some [authors] offer a different explanation as1 :-Kuruksetra : the man's body is the ksetra i.e., the facilitator, of the kurus, i.e., the sense-organs. 2 The same is the field of all wordly duties, since it is the cuse of their birth; which is also the field of the righteous act that has been described as : 'This is the highest righteous act viz., to realise the Self by means of the Yogas'; and which is the protector4 [of the embodied Self] by achieving emancipation [by means of this], through the destruction of all duties. It is the location where there is the confrontation among all ksatras, the murderous ones-because the root ksad means 'to kill' - viz, passion and asceticism, wrath and forbearance, and others that stand in the mutual relationship of the slayer and the slain. Those that exist in it are the mamakas,-i.e., the intentions that are worthy of man of ignorance and are the products of ignorance-and those that are born of Pandu: i.e., the intentions, of which the soul is the very knowledge itself5 and which are worthy of persons of pure knowledge. What did they do? In other words, which were vanished by what? Mamaka : a man of ignorance as he utters [always] 'mine'6. Pandu : the pure one.7 test by demo
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.1 Dhṛtarāstra said On the holy field of Kuruksetra, gathered together eager for battle, what did my people and the Pandavas do, O Sanjaya?
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धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
ধৃতরাষ্ট্র উবাচ ধর্মক্ষেত্রে কুরুক্ষেত্রে সমবেতা যুযুত্সবঃ৷ মামকাঃ পাণ্ডবাশ্চৈব কিমকুর্বত সঞ্জয৷৷1.1৷৷
ধৃতরাষ্ট্র উবাচ ধর্মক্ষেত্রে কুরুক্ষেত্রে সমবেতা যুযুত্সবঃ৷ মামকাঃ পাণ্ডবাশ্চৈব কিমকুর্বত সঞ্জয৷৷1.1৷৷
ધૃતરાષ્ટ્ર ઉવાચ ધર્મક્ષેત્રે કુરુક્ષેત્રે સમવેતા યુયુત્સવઃ। મામકાઃ પાણ્ડવાશ્ચૈવ કિમકુર્વત સઞ્જય।।1.1।।
ਧਰਿਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰ ਉਵਾਚ ਧਰ੍ਮਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰੇ ਕੁਰੁਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰੇ ਸਮਵੇਤਾ ਯੁਯੁਤ੍ਸਵ। ਮਾਮਕਾ ਪਾਣ੍ਡਵਾਸ਼੍ਚੈਵ ਕਿਮਕੁਰ੍ਵਤ ਸਞ੍ਜਯ।।1.1।।
ಧೃತರಾಷ್ಟ್ರ ಉವಾಚ ಧರ್ಮಕ್ಷೇತ್ರೇ ಕುರುಕ್ಷೇತ್ರೇ ಸಮವೇತಾ ಯುಯುತ್ಸವಃ. ಮಾಮಕಾಃ ಪಾಣ್ಡವಾಶ್ಚೈವ ಕಿಮಕುರ್ವತ ಸಞ್ಜಯ৷৷1.1৷৷
ധൃതരാഷ്ട്ര ഉവാച ധര്മക്ഷേത്രേ കുരുക്ഷേത്രേ സമവേതാ യുയുത്സവഃ. മാമകാഃ പാണ്ഡവാശ്ചൈവ കിമകുര്വത സഞ്ജയ৷৷1.1৷৷
ଧୃତରାଷ୍ଟ୍ର ଉବାଚ ଧର୍ମକ୍ଷେତ୍ରେ କୁରୁକ୍ଷେତ୍ରେ ସମବେତା ଯୁଯୁତ୍ସବଃ| ମାମକାଃ ପାଣ୍ଡବାଶ୍ଚୈବ କିମକୁର୍ବତ ସଞ୍ଜଯ||1.1||
dhṛtarāṣṭra uvāca dharmakṣētrē kurukṣētrē samavētā yuyutsavaḥ. māmakāḥ pāṇḍavāścaiva kimakurvata sañjaya৷৷1.1৷৷
தரிதராஷ்ட்ர உவாச தர்மக்ஷேத்ரே குருக்ஷேத்ரே ஸமவேதா யுயுத்ஸவஃ. மாமகாஃ பாண்டவாஷ்சைவ கிமகுர்வத ஸஞ்ஜய৷৷1.1৷৷
ధృతరాష్ట్ర ఉవాచ ధర్మక్షేత్రే కురుక్షేత్రే సమవేతా యుయుత్సవః. మామకాః పాణ్డవాశ్చైవ కిమకుర్వత సఞ్జయ৷৷1.1৷৷
1.2
1
2
।।1.2।। संजय बोले - उस समय वज्रव्यूह-से खड़ी हुई पाण्डव-सेना को देखकर राजा दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन बोला।
।।1.2।।संजय ने कहा -- पाण्डव-सैन्य की व्यूह रचना देखकर राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोण के पास जाकर ये वचन कहे।
।।1.2।। इस श्लोक से आगे संजय ने कुरुक्षेत्र में जो कुछ देखा और सुना उसका वर्णन है। अपनी सेना की अपेक्षा पाण्डवों की सेना संख्या में अत्यन्त न्यून होने पर भी जब दुर्योधन ने उसे देखा तब उस अत्याचारी का आत्मविश्वास कुछ टूटने लगा। जैसे कोई छोटा बालक भयभीत होकर अपने मातापिता के पास दौड़ता है ठीक उसी प्रकार विचलित दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुँचता है। कोई कर्म करते हुये यदि हमारा उद्देश्य पाप और अन्याय से पूर्ण होता है तो अनेक साधनों से सुसम्पन्न होते हुए भी हमारे मन में निश्चय ही चिन्ता अशान्ति और विक्षेप उत्पन्न होते हैं। सभी अत्याचारी और तानाशाही प्रवृत्ति के लोगों की यही मनस्थिति होती है।
।।1.2।। व्याख्या-- 'तदा'-- जिस समय दोनों सेनाएँ युद्धके लिये खड़ी हुई थीं, उस समयकी बात सञ्जय यहाँ 'तदा' पदसे कहते हैं। कारण कि धृतराष्ट्रका प्रश्न 'युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया'-- इस विषयको सुननेके लिये ही है।  'तु'--धृतराष्ट्रने अपने और पाण्डुके पुत्रोंके विषयमें पूछा है। अतः सञ्जय भी पहले धृतराष्ट्रके पुत्रों की बात बतानेके लिये यहाँ  'तु'  पदका प्रयोग करते हैं।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.2।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.2।।किमस्मदीयं प्रबलं बलं प्रतिलभ्य धीरपुरुषैर्भीष्मादिभिरधिष्ठितं परेषां भयमाविरभूत् यद्वा पक्षद्वयहिंसानिमित्ताधर्मभयमासीद्येनैते युद्धादुपरमेरन्नित्येवं पुत्रपरवशस्य पुत्रस्नेहाभिनिविष्टस्य धृतराष्ट्रस्य प्रश्ने संजयस्य प्रतिवचनं  दृष्ट्वेत्यादि।  पाण्डवानां भयप्रसङ्गो नास्तीत्येतत्तुशब्देन द्योत्यते प्रत्युत दुर्योधनस्यैव राज्ञो भयं प्रभूतं प्रादुर्बभूव। पाण्डवानां पाण्डुसुतानां युधिष्ठिरादीनामनीकं सैन्यं धृष्टद्युम्नादिभिरतिधृष्टैर्व्यूहाधिष्ठितं दृष्ट्वा प्रत्यक्षेण प्रतीत्य त्रस्तहृदयो दुर्योधनो राजा तदा तस्यां संग्रामोद्योगावस्थायामाचार्यं द्रोणनामानमात्मनः शिक्षितारं रक्षितारं च श्लाघयन्नुपसंगम्य तदीयं समीपं विनयेन प्राप्य भयोद्विग्नहृदयत्वेऽपि तेजस्वित्वादेव वचनमर्थसहितं वाक्यमुक्तवानित्यर्थः।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।।1.2।।एवं कृपालोकव्यवहारनेत्राभ्यामपि हीनतया महतोऽन्धस्य पुत्रस्नेहमात्राभिनिविष्टस्य धृतराष्ट्रस्य प्रश्ने विदिताभिप्रायस्य संजयस्यातिधार्मिकस्य प्रतिवचनमवतारयति वैशम्पायनः। तत्र पाण्डवानां दृष्टभयसंभावनापि नास्ति अदृष्टभयं तु भ्रान्त्यार्जुनस्योत्पन्नं भगवतोपशमितमिति पाण्डवानामुत्कर्षस्तुशब्देन द्योत्यते। स्वपुत्रकृतराज्यप्रत्यर्पणशङ्कया तु माग्लासीरिति राजानं तोषयितुं दुर्योधनदौष्ट्यमेव प्रथमतो वर्णयति दृष्ट्वेति। पाण्डुसुतानामनीकं सैन्यं व्यूढं व्यूहरचनया धृष्टद्युम्नादिभिः स्थापितं दृष्ट्वा चाक्षुषज्ञानेन विषयीकृत्य तदा संग्रामोद्यमकाले आचार्यं द्रोणनामानं धनुर्विद्यासंप्रदायप्रवर्तयितारमुपसंगम्य स्वयमेव तत्समीपं गत्वा नतु स्वसमीपमाहूय। एतेन पाण्डवसैन्यदर्शनजनितं भयं सूच्यते। भयेन स्वरक्षार्थं तत्समीपगमनेऽप्याचार्यगौरवव्याजेन भयसंगोपनं राजनीतिकुशलत्वा दित्याह राजेति। आचार्यं दुर्योधनोऽब्रवीदित्येतावतैव निर्वाहे वचनपदं संक्षिप्तबह्वर्थत्वादिबहुगुणविशिष्टे वाक्यविशेषे संक्रमितुं वचनमात्रमेवाब्रवीन्नतु कंचिदर्थमिति वा।
।।1.2।।   दृष्ट्वेति।  पाण्डवानामनीकं सैन्यं व्यूढं व्यूहरचनया व्यवस्थितं दृष्ट्वा द्रोणाचार्यसमीपं गत्वा राजा दुर्योधनो वक्ष्यमाणं वाक्यमुवाच।
।।1.2।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.2।।सञ्जयस्तु नायमधर्मो भगवता कर्त्तव्यत्वेन बोधनादिति वक्तुं तदर्थं सङ्गतिमाह दृष्ट्वेत्याद्यष्टादशश्लोकैः। तत्रैवं धृतराष्ट्रवाक्यं श्रुत्वा सञ्जयः पूर्वपृष्टत्वात्तत्पुत्रकथामेवाह पूर्व दृष्ट्वा त्विति। राजा दुर्योधनः व्यूढं व्यूहरचनया स्थितं पाण्डवसैन्यं दृष्ट्वा द्रोणाचार्यमुपसङ्गम्य निकटे गत्वाग्रे वक्ष्यमाणं वचनमब्रवीदुवाच। तदा धर्मयुद्धोपस्थितावित्यर्थः। एतेनापराधित्वेऽपि धार्तराष्ट्र एव युद्धे प्रथमं प्रवृत्त इति दशभिस्तत्कथाकथनेन बोधितम्।
।।1.2।।व्यूढं व्यूहरचनया स्थितम्। आचार्यं द्रोणम्। राजा दुर्योधनः। राजाब्रवीदित्येव सिद्धे वचनपदेन संक्षिप्तबह्वर्थत्वादिगुणवत्त्वं वाक्यस्य सूच्यते।
।।1.2।।एवं पृष्टः संजयःअर्जुनो वीरशिरोमणिरतिकारुणिको युद्धाद्धिंसाप्रधानान्निवृत्तः पुनर्भूभारसंजिहीर्षुणा श्रीकृष्णेनोपदिष्टो युद्धं कृतवान्। युद्धिष्ठिरादयस्तुआततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् इत्यादिक्षात्रधर्मविदस्तत्कृतवन्तः। त्वदीयास्तु क्रूरस्वभावादेवेत्याशयेनाक्षेपं प्रतिक्षिपन् प्रश्नस्योत्तरमाह  दृष्ट्वेत्यादि।  तुशब्द आक्षेपनिरासार्थः। पाण्डवानां सैन्यं व्यूहरचनया व्यवस्थितमवलोक्य दुर्योधनो द्रोणाचार्यसमीपं प्रणिपातादिपुरःसरं गत्वा राजनीतिगर्भं वाक्यमब्रवीत्। नन्वाचार्यं स्वसमीप आहूय कुतो नोक्तवानित्यत आह  राजेति। वीरपुरुषा अत्यादरेण युद्धे प्रवर्त्याः इति राजनीतिकुशल इत्यर्थः। आचार्यमुपसंगम्येत्यनेन दुर्योधनस्य भयोद्विग्नता सूचिता। भयोद्विग्रहृदयत्वेऽपि वचनमर्थसहितं वाक्यमुक्तवानिति सूचनार्थं राजेत्येके। यत्तु तत्र पाण्डवानां दृष्टभयसंभावना नास्ति अदृष्टभयं तु भ्रान्त्या अर्जुनस्योत्पन्नं भगवतोपशमितमिति पाण्डवानामुत्कर्षस्तुशब्देन द्योत्यते। स्वपुत्रकृतराज्यसमर्पणशङ्क्या तु माग्लासीरिति राजानं तोषयितुं दुर्योधनदौष्ट्यमेव प्रथमतो वर्णयति दृष्ट्वेतीति केचित्। तत्तु पूर्वोक्तग्रन्थविरोधादुपेक्ष्यम्।
1.2 दृष्ट्वा having seen? तु indeed? पाण्डवानीकम् the army of the Pandavas? व्यूढम् drawn up in battlearray? दुर्योधनः Duryodhana? तदा then? आचार्यम् the teacher? उपसङ्गम्य having approached? राजा the king? वचनम् speech? अब्रवीत् said.No Commentary.
1.2. Sanjaya said Having seen the army of the Pandavas drawn up in battle-array, King Duryodhana then approached his teacher (Drona) and spoke these words.
1.2 Sanjaya replied: "The Prince Duryodhana, when he saw the army of the Pandavas paraded, approached his preceptor Guru Drona and spoke as follows:
1.2 Sanjaya said But then, seeing the army of the Pandavas in battle array, King Duryodhana approached the teacher (Drona) and uttered a speech:
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1.2. Sanjaya said Seeing the army of the sons of Pandu, marshalled in the military array, the prince Duryodhana approached the teacher (Drona) and spoke at that time, these words:
1.2 – 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.2 Sanjaya said King Duryodhana, on seeing the Pandava army in battle array, approached his teacher Drona and said these words:
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सञ्जय उवाच दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।।1.2।।
সঞ্জয উবাচ দৃষ্ট্বা তু পাণ্ডবানীকং ব্যূঢং দুর্যোধনস্তদা৷ আচার্যমুপসঙ্গম্য রাজা বচনমব্রবীত্৷৷1.2৷৷
সঞ্জয উবাচ দৃষ্ট্বা তু পাণ্ডবানীকং ব্যূঢং দুর্যোধনস্তদা৷ আচার্যমুপসঙ্গম্য রাজা বচনমব্রবীত্৷৷1.2৷৷
સઞ્જય ઉવાચ દૃષ્ટ્વા તુ પાણ્ડવાનીકં વ્યૂઢં દુર્યોધનસ્તદા। આચાર્યમુપસઙ્ગમ્ય રાજા વચનમબ્રવીત્।।1.2।।
ਸਞ੍ਜਯ ਉਵਾਚ ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵਾ ਤੁ ਪਾਣ੍ਡਵਾਨੀਕਂ ਵ੍ਯੂਢਂ ਦੁਰ੍ਯੋਧਨਸ੍ਤਦਾ। ਆਚਾਰ੍ਯਮੁਪਸਙ੍ਗਮ੍ਯ ਰਾਜਾ ਵਚਨਮਬ੍ਰਵੀਤ੍।।1.2।।
ಸಞ್ಜಯ ಉವಾಚ ದೃಷ್ಟ್ವಾ ತು ಪಾಣ್ಡವಾನೀಕಂ ವ್ಯೂಢಂ ದುರ್ಯೋಧನಸ್ತದಾ. ಆಚಾರ್ಯಮುಪಸಙ್ಗಮ್ಯ ರಾಜಾ ವಚನಮಬ್ರವೀತ್৷৷1.2৷৷
സഞ്ജയ ഉവാച ദൃഷ്ട്വാ തു പാണ്ഡവാനീകം വ്യൂഢം ദുര്യോധനസ്തദാ. ആചാര്യമുപസങ്ഗമ്യ രാജാ വചനമബ്രവീത്৷৷1.2৷৷
ସଞ୍ଜଯ ଉବାଚ ଦୃଷ୍ଟ୍ବା ତୁ ପାଣ୍ଡବାନୀକଂ ବ୍ଯୂଢଂ ଦୁର୍ଯୋଧନସ୍ତଦା| ଆଚାର୍ଯମୁପସଙ୍ଗମ୍ଯ ରାଜା ବଚନମବ୍ରବୀତ୍||1.2||
sañjaya uvāca dṛṣṭvā tu pāṇḍavānīkaṅ vyūḍhaṅ duryōdhanastadā. ācāryamupasaṅgamya rājā vacanamabravīt৷৷1.2৷৷
ஸஞ்ஜய உவாச தரிஷ்ட்வா து பாண்டவாநீகஂ வ்யூடஂ துர்யோதநஸ்ததா. ஆசார்யமுபஸங்கம்ய ராஜா வசநமப்ரவீத்৷৷1.2৷৷
సఞ్జయ ఉవాచ దృష్ట్వా తు పాణ్డవానీకం వ్యూఢం దుర్యోధనస్తదా. ఆచార్యముపసఙ్గమ్య రాజా వచనమబ్రవీత్৷৷1.2৷৷
1.3
1
3
।।1.3।। हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूहरचना से खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये
।।1.3।।हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र (धृष्टद्द्युम्न) द्वारा व्यूहाकार खड़ी की गयी पाण्डु पुत्रों की इस महती सेना को देखिये।
।।1.3।। वास्तव में दुर्योधन की यह मूर्खता है कि वह द्रोणाचार्य को पाण्डवों की सैन्य रचना के विषय में विस्तार से बताये। आगे हम देखेंगे कि वह आवश्यकता से अधिक बातें करता है जो युद्ध के परिणाम के विषय में उसके संदेह का स्पष्ट लक्षण है।
1.3।। व्याख्या--'आचार्य' द्रोणके लिये 'आचार्य' सम्बोधन देनेमें दुर्योधनका यह भाव मालूम देता है कि आप हम सबके--कौरवों और पाण्डवों के आचार्य हैं। शस्त्रविद्या सिखानेवाले होनेसे आप सबके गुरु हैं। इसलिये आपके मनमें किसीका पक्ष या आग्रह नहीं होना चाहिये।  'तव शिष्येण धीमता'--इन पदोंका प्रयोग करनेमें दुर्योधनका भाव यह है कि आप इतने सरल हैं कि अपने मारनेके लिये पैदा होनेवाले धृष्टद्युम्नको भी आपने अस्त्र-शस्त्रकी विद्या सिखायी है; और वह आपका शिष्य धृष्टद्युम्न इतना बुद्धिमान है कि उसने आपको मारनेके लिये आपसे ही अस्त्र-शस्त्रकी विद्या सीखी है।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.3।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.3।।तदेव वचनमुदाहरति  पश्येति।  एतामस्मदभ्याशे महापुरुषानपि भवत्प्रमुखानपरिगणय्य भयलेशशून्यामवस्थितां चमूमिमां सेनां पाण्डुपुत्रैर्युधिष्ठिरादिभिरानीतां महतीमनेकाक्षौहिणीसहितामक्षोभ्यां पश्येत्याचार्यं दुर्योधनो नियुङ्क्ते नियोगद्वारा च तस्मिन्परेषामवज्ञां विज्ञापयन्क्रोधातिरेकमुत्पादयितुमुत्सहते। परकीयसेनाया वैशिष्ट्याभिधानद्वारा परापरपक्षेऽपि त्वदीयमेव बलमिति सूचयन्नाचार्यस्य तन्निरसनं सुकरमिति मन्वानः सन्नाह  व्यूढामिति।  राज्ञो द्रुपदस्य पुत्रस्तव शिष्यो धृष्टद्युम्नो लोके ख्यातिमुपगतः स्वयं च शस्त्रास्त्रविद्यासंपन्नो महामहिमा तेन व्यूहमापाद्याधिष्ठितामिमां चमूं किमिति न प्रतिपद्यसे किमिति वा मृष्यसीत्यर्थः।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।।1.3।।तदेव वाक्यविशेषरूपं वचनमुदाहरति पश्यैतामित्यादिना।तस्य संजनयन्हर्षम् इत्यतः प्राक्तनेन पाण्डवेषु प्रियशिष्येष्वतिस्निग्धहृदयत्वादाचार्यो युद्धं न करिष्यतीति संभाव्य तस्मिन्परेषामवज्ञां विज्ञापयन् तस्य क्रोधातिशयमुत्पादयितुमाह। एतामत्यासन्नत्वेन भवद्विधानपि महानुभावानवगणय्य भयशून्यत्वेन स्थितां पाण्डुपुत्राणां चमूं महतीमनेकाक्षौहिणीसहितत्वेन दुर्निवारां पश्यापरोक्षीकुरु। प्रार्थनायां लोट्। अहं शिष्यत्वात्त्वामाचार्यं प्रार्थय इत्याह आचार्येति। दृष्ट्वा च तत्कृतामवज्ञां स्वयमेव ज्ञास्यसीति भावः। ननु तदीयावज्ञा सोढव्यैवास्माभिः प्रतिकर्तुशक्यत्वादित्याशङ्क्य तन्निरसनं तव सुकरमेवेत्याह व्यूढां तव शिष्येणेति। शिष्यापेक्षया गुरोराधिक्यं सर्वसिद्धमेव। व्यूढां तु धृष्टद्युम्नेनेत्यनुक्त्वा द्रुपदपुत्रेणेति कथनं द्रुपदपूर्ववैरसूचनेन क्रोधोद्दीपनार्थम्। धीमतेति पदमनुपेक्षणीयत्वसूचनार्थम्। व्यासङ्गान्तरनिराकरणेन त्वरातिशयार्थं पश्येति प्रार्थनम्। अन्यच्च हे पाण्डुपुत्राणामाचार्य नतु मम। तेषु स्नेहातिशयात्। द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येणेति त्वद्वधार्थमुत्पन्नोऽपि त्वयाध्यापित इति तव मौढ्यमेव ममानर्थकारणमिति सूचयति। शत्रोस्तव सकाशात्त्वद्वधोपायभूता विद्या गृहीतेति तस्य धीमत्त्वम्। अतएव तच्चमूदर्शनेनानन्दस्तवैव भविष्यति भ्रान्तत्वान्नान्यस्य कस्यचिदपि। यंप्रतीयं प्रदर्शनीयेति त्वमेवैतां पश्येत्याचार्यंप्रति तत्सैन्यं प्रदर्शयन्निगूढं द्वेषं द्योतयति। एवंच यस्य धर्मक्षेत्रं प्राप्याचार्येऽपीदृशी दृष्टबुद्धिस्तस्य काऽनुतापशङ्का सर्वाभिशङ्कित्वेनातिदुष्टाशयत्वादिति भावः।
।।1.3।।  तदेव वाक्यमाह  पश्यैतामित्यादिनवभिः श्लोकैः।  भो आचार्य पाण्डवानां विततां चमूं सेनां पश्य। द्रुपदपुत्रेण धृष्टद्युम्नेन व्यूढां व्यूहरचनया अधिष्ठिताम्।
।। 1.3।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.3।।तद्वाक्यमेवाह पश्येत्यादिनवभिः। तत्र भीष्मस्याभिषिक्तत्वात्स्वत एवोत्साहः द्रोणस्यौदासीन्यमालक्ष्य प्रोत्साहयति परोत्कर्षवर्णनैः एतां निकटस्थाम्। युधिष्ठिरस्य राजत्वाभावादविशेषेण पाण्डुपुत्राणामित्युक्तम्। हे आचार्य यद्यपि त्वमुभयोः समस्तथापि तेषां सेनायाः प्रबलत्वादस्मत्पक्षपातं कुर्वित्यतः सम्बोधनम्। पाण्डुपुत्राणां महतीं स्वभयजनिकां चमूं धीमता व्यूहरचनाकृतिना द्रुपदपुत्रेण धृष्टद्युम्नेन व्यूढां व्यूहरचनया सम्मार्जितां पश्य। तव शिष्येणेति विशेषणेन स्वस्य भयजनकत्वसामर्थ्यं द्योतितम्। तस्य भयाभावः।
।।1.3।।द्रुपदपुत्रेणेति पूर्ववैरसूचनेन क्रोधोद्दीपनार्थं विशेषणम्।
।।1.3।।तदेवोदाहरति  पश्येत्यादिना।  एतां भवदादीनतिरथानपरिगणय्य संमुखे स्थितां पाण्डुपुत्राणां युधिष्ठिरादीनां चमूं सेनां महतीमनेकाक्षौहिणीयुक्तामक्षोभ्यां द्रुपदस्य पुत्रेण धृष्टद्युम्नेन तव शिष्येण बुद्धिमतां व्यूढां व्यूहरचनया स्थापितां पश्य। हे आचार्य उभयेषामाचार्यस्यापि तव पाण्डवेषु प्रीतिर्न युक्ता यतस्त्वामपरिगणय्य तव संमुखे महती सेना तैः स्थापितेत्याशयः। द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येणेति पदद्वयेन द्रुपदपुत्रस्य स्वमृत्योरपि त्वया शिक्षणं कृतमिति मृत्योरपि तव भयं नास्तीति सूचितम्। एतेन स्वमृत्युना सह मया कथं योद्धव्यमिति शङ्कापि परिहृता। शिक्षितमपि मूर्खेण विस्मर्यते इति शङ्कानिरासाय धीमतेत्युक्तम्। परपक्षेऽपि त्वदीयमेव बलमिति सूचयन्नाचार्यस्य तन्निरसनभतिसुकरमिति मन्वानः सन्नाह  व्यूढामित्यादिनेत्येके।  द्रुपदपुत्रेणेति कथनं द्रुपदपूर्ववैरसूचनेन क्रोधाद्दीपनार्थम्। धीमतेत्यनुपेक्षणीयत्वसूचनार्थम्। पश्येति व्यासङ्गान्तरनिराकरणेन त्वरातिशयार्थम्। अन्यच्च राजा अवचनमब्रवीत्। हे पाण्डुपुत्राणामाचार्य नतु मम। तेषु स्नेहाधिक्यात्। द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येणेति त्वद्वधार्थमुत्पन्नोऽपि त्वयाध्यापित इति तव मौढ्यमेव ममानर्थकारणमिति सूचयति। शत्रोरपि सकाशात्तद्वधोपायभूता विद्या गृहीतेति तस्य धीमत्त्वमतएव तच्चमूदर्शनेनानन्दस्तवैव भविष्यति भ्रान्तत्वान्नान्यस्य कस्यचिदपि। यं प्रतीयं प्रदर्शनीयेति त्वमेवैतां पश्येत्याचार्यं प्रति निगूढं द्वेषं द्योतयति। एवंच यस्य धर्मक्षेत्रेऽपीदृक् दुष्टबुद्धिस्तस्य काऽनुतापशङ्केति भाव इति केचित्। अन्येच्चेत्यारभ्य युद्धार्थं प्रार्थनां कुर्वतो दुर्योधनस्य प्रणिपातादिपुरःसरं आचार्यसमीपं गतस्यात्मनः शिक्षितारं रक्षितारं च प्रत्येवमभिप्रायवर्णनं प्रकृतासंगतं नवेति विद्वद्भिर्निर्मत्सरैः पक्षपातवर्जितौर्विचार्यम्। अनुतापशङ्का मूलविरुद्धेति तु पूर्वमुक्तमेव। नन्वनेन कृतं प्रतारणं बुद्ध्वैवाचार्येणोत्तरं न दत्तमिति चेत्। न। आचार्याभाषणस्य प्रकृतविरुद्धार्थकल्पनांविनैव वक्ष्यमाणरीत्योपपत्तौ तत्कल्पनाया अन्याय्यत्वात्।
1.3 पश्य behold? एताम् this? पाण्डुपुत्राणाम् of the sons of Pandu? आचार्य O Teacher? महतीम् great? चमूम् army? व्यूढाम् arrayed? द्रुपदपुत्रेण son of Drupada? तव शिष्येण by your disciple? धीमता wise.No Commentary.
1.3. "Behold, O Teacher! this mighty army of the sons of Pandu, arrayed by the son of Drupada, thy wise disciple.
1.3 Revered Father! Behold this mighty host of the Pandavas, paraded by the son of King Drupada, thy wise disciple.
1.3 O teacher, (please) see this vast army of the sons of Pandu, arrayed for battle by the son of Drupada, your intelligent disciple.
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1.3. O teacher ! Behold this mighty army of the sons of Pandu, marshalled in a military array by Drupada's son, your intelligent pupil.
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.3 Behold, O teacher, this mighty army of the Pandavas, arrayed by the son of Drupada, your intelligent disciple.
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पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।1.3।।
পশ্যৈতাং পাণ্ডুপুত্রাণামাচার্য মহতীং চমূম্৷ ব্যূঢাং দ্রুপদপুত্রেণ তব শিষ্যেণ ধীমতা৷৷1.3৷৷
পশ্যৈতাং পাণ্ডুপুত্রাণামাচার্য মহতীং চমূম্৷ ব্যূঢাং দ্রুপদপুত্রেণ তব শিষ্যেণ ধীমতা৷৷1.3৷৷
પશ્યૈતાં પાણ્ડુપુત્રાણામાચાર્ય મહતીં ચમૂમ્। વ્યૂઢાં દ્રુપદપુત્રેણ તવ શિષ્યેણ ધીમતા।।1.3।।
ਪਸ਼੍ਯੈਤਾਂ ਪਾਣ੍ਡੁਪੁਤ੍ਰਾਣਾਮਾਚਾਰ੍ਯ ਮਹਤੀਂ ਚਮੂਮ੍। ਵ੍ਯੂਢਾਂ ਦ੍ਰੁਪਦਪੁਤ੍ਰੇਣ ਤਵ ਸ਼ਿਸ਼੍ਯੇਣ ਧੀਮਤਾ।।1.3।।
ಪಶ್ಯೈತಾಂ ಪಾಣ್ಡುಪುತ್ರಾಣಾಮಾಚಾರ್ಯ ಮಹತೀಂ ಚಮೂಮ್. ವ್ಯೂಢಾಂ ದ್ರುಪದಪುತ್ರೇಣ ತವ ಶಿಷ್ಯೇಣ ಧೀಮತಾ৷৷1.3৷৷
പശ്യൈതാം പാണ്ഡുപുത്രാണാമാചാര്യ മഹതീം ചമൂമ്. വ്യൂഢാം ദ്രുപദപുത്രേണ തവ ശിഷ്യേണ ധീമതാ৷৷1.3৷৷
ପଶ୍ଯୈତାଂ ପାଣ୍ଡୁପୁତ୍ରାଣାମାଚାର୍ଯ ମହତୀଂ ଚମୂମ୍| ବ୍ଯୂଢାଂ ଦ୍ରୁପଦପୁତ୍ରେଣ ତବ ଶିଷ୍ଯେଣ ଧୀମତା||1.3||
paśyaitāṅ pāṇḍuputrāṇāmācārya mahatīṅ camūm. vyūḍhāṅ drupadaputrēṇa tava śiṣyēṇa dhīmatā৷৷1.3৷৷
பஷ்யைதாஂ பாண்டுபுத்ராணாமாசார்ய மஹதீஂ சமூம். வ்யூடாஂ த்ருபதபுத்ரேண தவ ஷிஷ்யேண தீமதா৷৷1.3৷৷
పశ్యైతాం పాణ్డుపుత్రాణామాచార్య మహతీం చమూమ్. వ్యూఢాం ద్రుపదపుత్రేణ తవ శిష్యేణ ధీమతా৷৷1.3৷৷
1.4
1
4
।।1.4 -- 1.6।। यहाँ (पाण्डवों की सेना में) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्ध में भीम और अर्जुनके समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और कुन्तिभोज--ये दोनों भाई तथा मनुष्योंमें श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं।
।।1.4।।इस सेना में महान् धनुर्धारी शूर योद्धा है ,  जो युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं , जैसे --  युयुधान, विराट तथा महारथी राजा द्रुपद।
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।।1.4 --1.6।। व्याख्या--'अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि'--जिनसे बाण चलाये जाते हैं, फेंके जाते हैं, उनका नाम 'इष्वास' अर्थात् धनुष है। ऐसे बड़े-बड़े इष्वास (धनुष) जिनसे पास हैं, वे सभी 'महेष्वास' हैं। तात्पर्य है कि बड़े धनुषोंपर बाण चढ़ाने एवं प्रत्यञ्चा खींचनेमें बहुत बल लगता है। जोरसे खींचकर छोड़ा गया बाण विशेष मार करता है। ऐसे बड़े-बड़े धनुष पासमें होनेके कारण ये सभी बहुत बलवान् और शूरवीर हैं। ये मामूली योद्धा नहीं हैं। युद्धमें ये भीम और अर्जुनके समान हैं अर्थात् बलमें ये भीमके समान और अस्त्र-शस्त्रकी कलामें ये अर्जुनके समान हैं।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.4।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.4।।अन्येऽपि प्रतिपक्षे पराक्रमभाजो बहवः सन्तीत्यनुपेक्षणीयत्वं परपक्षस्य विवक्षयन्नाह  अत्रेति।  अस्यां हि प्रतिपक्षभूतायां सेनायां शूराः स्वयमभीरवः शस्त्रास्त्रकुशलाः भीमार्जुनाभ्यां सर्वसंप्रतिपन्नवीर्याभ्यां तुल्या युद्धभूमावुपलभ्यन्ते। तेषां युद्धशौण्डीर्यं विशदीकर्तुं विशिनष्टि  महेष्वासा इति।  इषुरस्यतेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या धनुस्तदुच्यते तच्च महदन्यैरप्रधृष्यं तद्येषां ते राजानस्तथा विवक्ष्यन्ते। तानेव परसेनामध्यमध्यासीनान्परपक्षानुरागिणो राज्ञो विज्ञापयति  युयुधान  इत्यादिना  सौभद्रो द्रौपदेयाश्चे त्यन्तेन।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।।1.4।।नन्वेकेन द्रुपदपुत्रेणाप्रसिद्धेनाधिष्ठितां चमूमेतामस्मदीयो यः कश्चिदपि जेष्यति किमिति त्वमुत्ताम्यसीत्यत आह अत्र शूरा इत्यादिभिस्त्रिभिः। न केवलमत्र धृष्टद्युम्न एव शूरो येनोपेक्षणीयता स्यात्। किंत्वस्यां चम्वामन्येऽपि बहवः शूरा सन्तीत्यवश्यमेव तज्जये यतनीयमित्यभिप्रायः। शूरानेव विशिनष्टि महेष्वासा इति। महान्तोऽन्यैरप्रधृष्या इष्वासा धनूंषि येषा ते तथा। दूरतएव परसैन्यविद्रावणकुशला इति भावः। महाधनुरादिमत्त्वेऽपि युद्धकौशलाभावमाशङ्क्याह युधि युद्धे भीमार्जुनाभ्यां सर्वसंप्रतिन्नपराक्रमाभ्यां समास्तुल्याः। तानेवाह युयुधान इत्यादिनामहारथा इत्यन्तेन। युयुधानः सात्यकिः। द्रुपदश्च महारथ इत्येकः। अथवा युयुधानविराटद्रुपदानां विशेषणं महारथ इति। धृष्टकेतुचेकितानकाशिराजानां विशेषणं वीर्यवानिति। पुरुजित्कुन्तिभोजशैब्यानां विशेषणं नरपुंगव इति। विक्रान्तो युधामन्युः वीर्यवांश्चोत्तमौजा इति द्वौ। अथवा सर्वाणि विशेषणानि समुच्चित्य सर्वत्र योजनीयानि। सौभद्रोऽभिमन्युः। द्रौपदेयाश्च द्रौपदीपुत्राः प्रतिविन्ध्यादयः पञ्च। चकारादन्येऽपि पाण्ड्यराजघटोत्कचप्रभृतयः। पञ्च पाण्डवास्त्वतिप्रसिद्धा एवेति न गणिताः। ये गणिताः सप्तदशान्येऽपि तदीयाः सर्वएव महारथाः सर्वेऽपि महारथाएव नैकोऽपि रथोऽर्धरथो वा। महारथा इत्यतिरथत्वस्याप्युपलक्षणम्। तल्लक्षणं चएको दशसहस्त्राणि योधयेद्यस्तु धन्विनाम्। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च महारथ इति स्मृतः।।अमितान्योधयेद्यस्तु संप्रोक्तोऽतिरथस्थु सः। रथस्त्वेकेन यो योद्धा तन्नयूनोऽर्धरथः स्मृतः।। इति
।।1.4।।   अत्र शूरा इति।  अत्रास्यां चम्वां इषवो बाणा अस्यन्ते क्षिप्यन्ते एभिरितीष्वासाः धनूंषि। महान्त इष्वासा येषां ते तथा। भीमार्जुनौ तावदत्रातिप्रसिद्धौ योद्धारौ ताभ्यां समाः शूराः शौर्येण क्षात्रधर्मेणोपेताः सन्ति। तानेव नामाभिर्निर्दिशति। युयुधानः सात्यकिः।
।। 1.4।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.4।।एवं सेनां दर्शयित्वा तस्याः प्रबलत्वसूचनाय तत्स्थितान् शूरान् वर्णयति अत्रेति। अत्र अस्यां सेनायां इषवो अस्यन्ते एभिरितीष्वासाश्चापाः। महान्त इष्वासा येषां ते महेष्वासाः।शूरा महेष्वासा इति पदद्वयेन स्वतः शिक्षातश्च सामर्थ्यं दर्शितम्। युधि संग्रामे भीमार्जुनसमाः शूराः सन्ति। भीमार्जुनावतिबलाविति तत्समत्वेन वर्णिताः।युधीति पदेनान्यत्र न तत्समा दानादिष्वित्यर्थः। तानेव गणयतियुयुधान इत्यादिभिः। युयुधानः सात्यकिः। विराटद्रुपदौ राजानौ धृष्टकेतुप्रभृतयो राजानोऽसंबद्धा अस्मच्छत्रवश्च। वीर्यवानिति प्रत्येकं सर्वेषां विशेषणम्।
।।1.4।।महेष्वासा महान्त इष्वासाः धनूंषि येषां ते। युयुधानः सात्यकिः। द्रुपदश्च महारथ इत्येकः।
।।1.4 1.5।।शत्रुसैन्ये प्रसिद्धाञ्शूरान्दर्शयन्नुपेक्षणीयत्वं वारयति  अत्रेति।  महान्त इष्वासा धनूंषि येषां ते। तेषां युद्धाकुशलतां निरस्याति  युधीति।  युद्धे भीमार्जुनसमा इति। भीमार्जुनाभ्यां तुल्याः। युयुधानः सात्यकिः। महारथ इति संनिहितस्य द्रुपदस्यैव विशेषणम् एकवचनस्वारस्यात्। एवमग्रेऽपि बोध्यम्। एतेन युयुधानादीनां महारथ इति विशेषणं धृष्टकेत्वादीनां वीर्यवानिति पुरुजिदादीनां नरपुंगव इति पक्षान्तरं प्रत्युक्तम्। आवृत्तेश्च प्रयोजनशून्यगौरवग्रस्तत्वेनाङ्गीकारायोगात्। यदपि अथवा सर्वाणि विशेषणानि समुच्चित्य सर्वत्र योजनीयानीति। तदपि न। महारथ इत्यस्य वीर्यवानित्यस्य च पौनरुक्त्यापत्तेः।
1.4 अत्र here? शूराः heroes? महेष्वासाः mighty archers? भीमार्जुनसमाः eal to Bhima and Arjuna? युधि in battle? युयुधानः Yuyudhana? विराटः Virata? च and? द्रुपदः Drupada? च and? महारथः of the great car.Commentary Technically? maharatha means a warrior who is proficient in the science of war and who is able to fight alone with ten thousand archers.
1.4. Here are heroes, mighty archers, eal in battle to Bhima and Arjuna, Yoyudhana (Satyaki), Virata and Drupada, of the great car (mighty warriors).
1.4 In it are heroes and great bowmen; the equals in battle of Arjuna and Bheema, Yuyudhana, Virata and Drupada, great soldiers all;
1.4 Here are the heroes wielding great bows, who in battle are compeers of Bhima and Arjuna: Yuyudhana (Satyaki) and Virata, and the maharatha (great chariot-rider) Drupada;
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1.4. The heroes and mighty archers, comparable in war to Bhima and Arjuna, here are: Yuyudhana, the king of the Virata country, and Drupada, the mighty warrior;
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.4 There (in that army) are heroes, great bowmen, like Bhima and Arjuna; Yuyudhana,Virata and Drupada a mighty warrior;
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अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि। युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।1.4।।
অত্র শূরা মহেষ্বাসা ভীমার্জুনসমা যুধি৷ যুযুধানো বিরাটশ্চ দ্রুপদশ্চ মহারথঃ৷৷1.4৷৷
অত্র শূরা মহেষ্বাসা ভীমার্জুনসমা যুধি৷ যুযুধানো বিরাটশ্চ দ্রুপদশ্চ মহারথঃ৷৷1.4৷৷
અત્ર શૂરા મહેષ્વાસા ભીમાર્જુનસમા યુધિ। યુયુધાનો વિરાટશ્ચ દ્રુપદશ્ચ મહારથઃ।।1.4।।
ਅਤ੍ਰ ਸ਼ੂਰਾ ਮਹੇਸ਼੍ਵਾਸਾ ਭੀਮਾਰ੍ਜੁਨਸਮਾ ਯੁਧਿ। ਯੁਯੁਧਾਨੋ ਵਿਰਾਟਸ਼੍ਚ ਦ੍ਰੁਪਦਸ਼੍ਚ ਮਹਾਰਥ।।1.4।।
ಅತ್ರ ಶೂರಾ ಮಹೇಷ್ವಾಸಾ ಭೀಮಾರ್ಜುನಸಮಾ ಯುಧಿ. ಯುಯುಧಾನೋ ವಿರಾಟಶ್ಚ ದ್ರುಪದಶ್ಚ ಮಹಾರಥಃ৷৷1.4৷৷
അത്ര ശൂരാ മഹേഷ്വാസാ ഭീമാര്ജുനസമാ യുധി. യുയുധാനോ വിരാടശ്ച ദ്രുപദശ്ച മഹാരഥഃ৷৷1.4৷৷
ଅତ୍ର ଶୂରା ମହେଷ୍ବାସା ଭୀମାର୍ଜୁନସମା ଯୁଧି| ଯୁଯୁଧାନୋ ବିରାଟଶ୍ଚ ଦ୍ରୁପଦଶ୍ଚ ମହାରଥଃ||1.4||
atra śūrā mahēṣvāsā bhīmārjunasamā yudhi. yuyudhānō virāṭaśca drupadaśca mahārathaḥ৷৷1.4৷৷
அத்ர ஷூரா மஹேஷ்வாஸா பீமார்ஜுநஸமா யுதி. யுயுதாநோ விராடஷ்ச த்ருபதஷ்ச மஹாரதஃ৷৷1.4৷৷
అత్ర శూరా మహేష్వాసా భీమార్జునసమా యుధి. యుయుధానో విరాటశ్చ ద్రుపదశ్చ మహారథః৷৷1.4৷৷
1.5
1
5
।।1.4 -- 1.6।। यहाँ (पाण्डवों की सेना में) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्ध में भीम और अर्जुनके समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और कुन्तिभोज--ये दोनों भाई तथा मनुष्योंमें श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं।
।।1.5।।धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान काशिराज,  पुरुजित्, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य।
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।।1.4 --1.6।। व्याख्या--'अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि'-- जिनसे बाण चलाये जाते हैं, फेंके जाते हैं, उनका नाम 'इष्वास' अर्थात् धनुष है। ऐसे बड़े-बड़े इष्वास (धनुष) जिनसे पास हैं, वे सभी 'महेष्वास' हैं। तात्पर्य है कि बड़े धनुषोंपर बाण चढ़ाने एवं प्रत्यञ्चा खींचनेमें बहुत बल लगता है। जोरसे खींचकर छोड़ा गया बाण विशेष मार करता है। ऐसे बड़े-बड़े धनुष पासमें होनेके कारण ये सभी बहुत बलवान् और शूरवीर हैं। ये मामूली योद्धा नहीं हैं। युद्धमें ये भीम और अर्जुनके समान हैं अर्थात् बलमें ये भीमके समान और अस्त्र-शस्त्रकी कलामें ये अर्जुनके समान हैं।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.5।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्। अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.5।।किञ्च  धृष्टकेतुरिति।  स्पष्टम्।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।। 1.5नन्वेकेन द्रुपदपुत्रेणाप्रसिद्धेनाधिष्ठितां चमूमेतामस्मदीयो यः कश्चिदपि जेष्यति किमिति त्वमुत्ताम्यसीत्यत आह अत्र शूरा इत्यादिभिस्त्रिभिः। न केवलमत्र धृष्टद्युम्न एव शूरो येनोपेक्षणीयता स्यात्। किंत्वस्यां चम्वामन्येऽपि बहवः शूरा सन्तीत्यवश्यमेव तज्जये यतनीयमित्यभिप्रायः। शूरानेव विशिनष्टि महेष्वासा इति। महान्तोऽन्यैरप्रधृष्या इष्वासा धनूंषि येषा ते तथा। दूरतएव परसैन्यविद्रावणकुशला इति भावः। महाधनुरादिमत्त्वेऽपि युद्धकौशलाभावमाशङ्क्याह युधि युद्धे भीमार्जुनाभ्यां सर्वसंप्रतिन्नपराक्रमाभ्यां समास्तुल्याः। तानेवाह युयुधान इत्यादिनामहारथा इत्यन्तेन। युयुधानः सात्यकिः। द्रुपदश्च महारथ इत्येकः। अथवा युयुधानविराटद्रुपदानां विशेषणं महारथ इति। धृष्टकेतुचेकितानकाशिराजानां विशेषणं वीर्यवानिति। पुरुजित्कुन्तिभोजशैब्यानां विशेषणं नरपुंगव इति। विक्रान्तो युधामन्युः वीर्यवांश्चोत्तमौजा इति द्वौ। अथवा सर्वाणि विशेषणानि समुच्चित्य सर्वत्र योजनीयानि। सौभद्रोऽभिमन्युः। द्रौपदेयाश्च द्रौपदीपुत्राः प्रतिविन्ध्यादयः पञ्च। चकारादन्येऽपि पाण्ड्यराजघटोत्कचप्रभृतयः। पञ्च पाण्डवास्त्वतिप्रसिद्धा एवेति न गणिताः। ये गणिताः सप्तदशान्येऽपि तदीयाः सर्वएव महारथाः सर्वेऽपि महारथाएव नैकोऽपि रथोऽर्धरथो वा। महारथा इत्यतिरथत्वस्याप्युपलक्षणम्। तल्लक्षणं चएको दशसहस्त्राणि योधयेद्यस्तु धन्विनाम्। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च महारथ इति स्मृतः।।अमितान्योधयेद्यस्तु संप्रोक्तोऽतिरथस्थु सः। रथस्त्वेकेन यो योद्धा तन्नयूनोऽर्धरथः स्मृतः।। इति
।।1.5।।  किंच  धृष्टकेतुरिति।  चेकितानो नाम एको राजा। नरपुङ्गवो नरश्रेष्ठः शैब्यः।
।। 1.5।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते। वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।। 1.5एवं सेनां दर्शयित्वा तस्याः प्रबलत्वसूचनाय तत्स्थितान् शूरान् वर्णयति अत्रेति। अत्र अस्यां सेनायां इषवो अस्यन्ते एभिरितीष्वासाश्चापाः। महान्त इष्वासा येषां ते महेष्वासाः।शूरा महेष्वासा इति पदद्वयेन स्वतः शिक्षातश्च सामर्थ्यं दर्शितम्। युधि संग्रामे भीमार्जुनसमाः शूराः सन्ति। भीमार्जुनावतिबलाविति तत्समत्वेन वर्णिताः।युधीति पदेनान्यत्र न तत्समा दानादिष्वित्यर्थः। तानेव गणयतियुयुधान इत्यादिभिः। युयुधानः सात्यकिः। विराटद्रुपदौ राजानौ धृष्टकेतुप्रभृतयो राजानोऽसंबद्धा अस्मच्छत्रवश्च। वीर्यवानिति प्रत्येकं सर्वेषां विशेषणम्।
।।1.5।।धृष्टकेत्वादयः षट्।
।।1.4 1.5।।शत्रुसैन्ये प्रसिद्धाञ्शूरान्दर्शयन्नुपेक्षणीयत्वं वारयति  अत्रेति।  महान्त इष्वासा धनूंषि येषां ते। तेषां युद्धाकुशलतां निरस्याति  युधीति।  युद्धे भीमार्जुनसमा इति। भीमार्जुनाभ्यां तुल्याः। युयुधानः सात्यकिः। महारथ इति संनिहितस्य द्रुपदस्यैव विशेषणम् एकवचनस्वारस्यात्। एवमग्रेऽपि बोध्यम्। एतेन युयुधानादीनां महारथ इति विशेषणं धृष्टकेत्वादीनां वीर्यवानिति पुरुजिदादीनां नरपुंगव इति पक्षान्तरं प्रत्युक्तम्। आवृत्तेश्च प्रयोजनशून्यगौरवग्रस्तत्वेनाङ्गीकारायोगात्। यदपि अथवा सर्वाणि विशेषणानि समुच्चित्य सर्वत्र योजनीयानीति। तदपि न। महारथ इत्यस्य वीर्यवानित्यस्य च पौनरुक्त्यापत्तेः।
1.5 धृष्टकेतुः Dhrishtaketu? चेकितानः Chekitana? काशिराजः king of Kasi? च and? वीर्यवान् valiant? पुरुजित् Purujit? कुन्तिभोजः Kuntibhoja? च and? शैब्यः son of Sibi? च and? नरपुङ्गवः the best of men.No Commentary.
1.5. "Dhrishtaketu, chekitana and the valiant king of Kasi, Purujit and Kuntibhoja and Saibya, the best men.
1.5 Dhrishtaketu, Chekitan, the valiant King of Benares, Purujit, Kuntibhoja, Shaibya - a master over many;
1.5 Dhrstaketu, Cekitana, and the valiant king of Kasi (Varanasi); Purujit and Kuntibhoja, and Saibya, the choicest among men;
null
1.5. Dhrstaketu, Cekitana and the valourous king of Kasi, and Kuntibhoja, the coneror of many, and the Sibi king, the best among men;
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.5 Dhrstaketu, Cekitana, and the valiant king of Kasi; Purujit and Kuntibhoja, and Saibya the best among men;
null
null
null
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धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्। पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।1.5।।
ধৃষ্টকেতুশ্চেকিতানঃ কাশিরাজশ্চ বীর্যবান্৷ পুরুজিত্কুন্তিভোজশ্চ শৈব্যশ্চ নরপুঙ্গবঃ৷৷1.5৷৷
ধৃষ্টকেতুশ্চেকিতানঃ কাশিরাজশ্চ বীর্যবান্৷ পুরুজিত্কুন্তিভোজশ্চ শৈব্যশ্চ নরপুঙ্গবঃ৷৷1.5৷৷
ધૃષ્ટકેતુશ્ચેકિતાનઃ કાશિરાજશ્ચ વીર્યવાન્। પુરુજિત્કુન્તિભોજશ્ચ શૈબ્યશ્ચ નરપુઙ્ગવઃ।।1.5।।
ਧਰਿਸ਼੍ਟਕੇਤੁਸ਼੍ਚੇਕਿਤਾਨ ਕਾਸ਼ਿਰਾਜਸ਼੍ਚ ਵੀਰ੍ਯਵਾਨ੍। ਪੁਰੁਜਿਤ੍ਕੁਨ੍ਤਿਭੋਜਸ਼੍ਚ ਸ਼ੈਬ੍ਯਸ਼੍ਚ ਨਰਪੁਙ੍ਗਵ।।1.5।।
ಧೃಷ್ಟಕೇತುಶ್ಚೇಕಿತಾನಃ ಕಾಶಿರಾಜಶ್ಚ ವೀರ್ಯವಾನ್. ಪುರುಜಿತ್ಕುನ್ತಿಭೋಜಶ್ಚ ಶೈಬ್ಯಶ್ಚ ನರಪುಙ್ಗವಃ৷৷1.5৷৷
ധൃഷ്ടകേതുശ്ചേകിതാനഃ കാശിരാജശ്ച വീര്യവാന്. പുരുജിത്കുന്തിഭോജശ്ച ശൈബ്യശ്ച നരപുങ്ഗവഃ৷৷1.5৷৷
ଧୃଷ୍ଟକେତୁଶ୍ଚେକିତାନଃ କାଶିରାଜଶ୍ଚ ବୀର୍ଯବାନ୍| ପୁରୁଜିତ୍କୁନ୍ତିଭୋଜଶ୍ଚ ଶୈବ୍ଯଶ୍ଚ ନରପୁଙ୍ଗବଃ||1.5||
dhṛṣṭakētuścēkitānaḥ kāśirājaśca vīryavān. purujitkuntibhōjaśca śaibyaśca narapuṅgavaḥ৷৷1.5৷৷
தரிஷ்டகேதுஷ்சேகிதாநஃ காஷிராஜஷ்ச வீர்யவாந். புருஜித்குந்திபோஜஷ்ச ஷைப்யஷ்ச நரபுங்கவஃ৷৷1.5৷৷
ధృష్టకేతుశ్చేకితానః కాశిరాజశ్చ వీర్యవాన్. పురుజిత్కున్తిభోజశ్చ శైబ్యశ్చ నరపుఙ్గవః৷৷1.5৷৷
1.6
1
6
।।1.4 -- 1.6।। यहाँ (पाण्डवों की सेना में) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्ध में भीम और अर्जुनके समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और कुन्तिभोज--ये दोनों भाई तथा मनुष्योंमें श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं।
।।1.6।।पराक्रमी युधामन्यु,  बलवान् उत्तमौजा,  सुभद्रापुत्र (अभिमन्यु) और द्रोपदी के पुत्र -- ये सब महारथी हैं।
।।1.6।। इन तीन श्लोकों में पाण्डवसैन्य के प्रमुख एवं प्रसिद्ध योद्धाओं की नामावली है। पाण्डवों की सेना का निरीक्षण करते समय दुर्योधन उनमें अनेक महारथियों को पहचानता है। प्राचीन हिन्दू सेनाओं में 11000 धनुर्धारी सैनिकों के समूह के नायक को महारथी कहा जाता था।अर्जुन और भीम अपने समय के धनुर्विद्या और शक्ति के लिये प्रसिद्ध योद्धा थे। दुर्योधन कहता है कि सभी महारथी अर्जुन और भीम के समान हैं जिसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि पाण्डवों की सेना संख्या में कम थी परन्तु सार्मथ्य में वह कौरवों की सुसज्जित और विशाल सेना से अधिक थी।
।।1.4 -- 1.6।। व्याख्या-- 'अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि'-- जिनसे बाण चलाये जाते हैं, फेंके जाते हैं, उनका नाम 'इष्वास' अर्थात् धनुष है। ऐसे बड़े-बड़े इष्वास (धनुष) जिनसे पास हैं, वे सभी 'महेष्वास' हैं। तात्पर्य है कि बड़े धनुषोंपर बाण चढ़ाने एवं प्रत्यञ्चा खींचनेमें बहुत बल लगता है। जोरसे खींचकर छोड़ा गया बाण विशेष मार करता है। ऐसे बड़े-बड़े धनुष पासमें होनेके कारण ये सभी बहुत बलवान् और शूरवीर हैं। ये मामूली योद्धा नहीं हैं। युद्धमें ये भीम और अर्जुनके समान हैं अर्थात् बलमें ये भीमके समान और अस्त्र-शस्त्रकी कलामें ये अर्जुनके समान हैं।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.6।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.6।।तेषां सर्वेषामपि महाबलपराक्रमभाक्त्वादनुपेक्ष्यत्वं पुनर्विवक्षति  सर्व एवेति ।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।। 1.6नन्वेकेन द्रुपदपुत्रेणाप्रसिद्धेनाधिष्ठितां चमूमेतामस्मदीयो यः कश्चिदपि जेष्यति किमिति त्वमुत्ताम्यसीत्यत आह अत्र शूरा इत्यादिभिस्त्रिभिः। न केवलमत्र धृष्टद्युम्न एव शूरो येनोपेक्षणीयता स्यात्। किंत्वस्यां चम्वामन्येऽपि बहवः शूरा सन्तीत्यवश्यमेव तज्जये यतनीयमित्यभिप्रायः। शूरानेव विशिनष्टि महेष्वासा इति। महान्तोऽन्यैरप्रधृष्या इष्वासा धनूंषि येषा ते तथा। दूरतएव परसैन्यविद्रावणकुशला इति भावः। महाधनुरादिमत्त्वेऽपि युद्धकौशलाभावमाशङ्क्याह युधि युद्धे भीमार्जुनाभ्यां सर्वसंप्रतिन्नपराक्रमाभ्यां समास्तुल्याः। तानेवाह युयुधान इत्यादिनामहारथा इत्यन्तेन। युयुधानः सात्यकिः। द्रुपदश्च महारथ इत्येकः। अथवा युयुधानविराटद्रुपदानां विशेषणं महारथ इति। धृष्टकेतुचेकितानकाशिराजानां विशेषणं वीर्यवानिति। पुरुजित्कुन्तिभोजशैब्यानां विशेषणं नरपुंगव इति। विक्रान्तो युधामन्युः वीर्यवांश्चोत्तमौजा इति द्वौ। अथवा सर्वाणि विशेषणानि समुच्चित्य सर्वत्र योजनीयानि। सौभद्रोऽभिमन्युः। द्रौपदेयाश्च द्रौपदीपुत्राः प्रतिविन्ध्यादयः पञ्च। चकारादन्येऽपि पाण्ड्यराजघटोत्कचप्रभृतयः। पञ्च पाण्डवास्त्वतिप्रसिद्धा एवेति न गणिताः। ये गणिताः सप्तदशान्येऽपि तदीयाः सर्वएव महारथाः सर्वेऽपि महारथाएव नैकोऽपि रथोऽर्धरथो वा। महारथा इत्यतिरथत्वस्याप्युपलक्षणम्। तल्लक्षणं चएको दशसहस्त्राणि योधयेद्यस्तु धन्विनाम्। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च महारथ इति स्मृतः।।अमितान्योधयेद्यस्तु संप्रोक्तोऽतिरथस्थु सः। रथस्त्वेकेन यो योद्धा तन्नयूनोऽर्धरथः स्मृतः।। इति
।।1.6।।   युधामन्युश्चेति।  विक्रान्तो युधामन्युर्नामैकः। सौभद्रोऽभिमन्युः। द्रौपदेयाः द्रोपद्यां पञ्चभ्यो युधिष्ठिरादिभ्यो जाताः प्रतिविन्ध्यादयः पञ्च। महारथादीनां लक्षणम् एको दशसहस्त्राणि योधयेद्यस्तु धन्विनाम्। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च महारथ इति स्मृतः।।अमितान्यो धयेद्यस्तु संप्रोक्तोऽतिरथस्तु सः। रथी त्वेकेन यो युद्ध्येत्तन्न्यूनोऽर्धरथी मतः।। इति।
।। 1.6।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.6।।विक्रान्तः अतिपराक्रमी। वीर्यवानिति सौभद्रविशेषणम्। द्रौपदेयाः पञ्च प्रतिविन्ध्यादयः। सर्व एव महारथाः। महारथलक्षणं च एको दशसहस्राणि योधयेद्यस्तु धन्विनाम्। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च महारथ इति स्मृतः।।अमितान्योधयेद्यस्तु सम्प्रोक्तोऽतिरथस्तु सः। रथी चैकेन यो योद्धा तन्न्यूनोऽर्द्धरथः स्मृतः इत्यादि।
।।1.6।।युधामन्यूत्तमौजसौ सौभद्रोऽभिमन्युः पञ्च द्रौपदेयाः प्रतिविन्ध्यादयश्चेत्यष्टौ। चकारात् पाण्डवा घटोत्कचादयश्चातिप्रसिद्धा ग्राह्याः। सर्वेऽपि महारथा एव। तल्लक्षणं तुएको दशसहस्राणि योधयेद्यस्तु धन्विनाम्। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च स वै प्रोक्तो महारथः। अमितान्योधयेद्यस्तु संप्रोक्तोऽतिरथस्तु सः। रथस्त्वेकेन योद्धा स्यात्तन्न्यूनोऽर्धरथः स्मृतः। इति।
।।1.6।।सौभद्राः सुभद्रापुत्रोऽभिमन्युः। द्रौपदेयाः द्रोपदीपुत्राः प्रतिविन्ध्यादयः पञ्च। द्रुपदश्च महारथ इत्युक्तमयुक्तं यतोऽन्येऽपि महारथा भीष्मप्रोक्ताः सन्तीत्याशङ्क्य तदङ्गीकरोति  सर्व एवेति।  निर्दिष्टाश्चकारपरिगृहीताश्च महारथाः। एतल्लक्षणं तुएको दशसहस्त्राणि योधयेद्यस्तु धन्विनाम्। शस्त्रशास्त्रप्रवीणश्च स वै प्रोक्तो महारथः। अमितान्योधयेद्यस्तु संप्रोक्तोऽतिरथस्तु सः। रथस्त्वेकेन यो युध्येत्तन्न्यूनोऽर्धरथः स्मृतः।। इति। यद्यपि परपक्षेऽतिरथादयोऽपि सन्ति तथापि तत्तिरोधानं तवातिरथस्य महारथानां निवारणे सामर्थ्यम्। नत्वन्येषामतिरथादीनामित्याचार्यस्योत्साहजननार्थम्। सर्वेऽपि महारथा एव नत्वेकोऽपि रथोऽर्धरथो वा। महारथा इत्यतिरथस्याप्युपलक्षणमिति केचित्।
1.6 युधामन्युः Yudhamanyu? च and? विक्रान्तः the strong? उत्तमौजाः Uttamaujas? च and? वीर्यवान् the brave? सौभद्रः the son of Subhadra? द्रौपदेयाः the sons of Draupadi? च and? सर्वे all? एव even? महारथाः great carwarriors.No Commentary.
1.6. "The strong Yodhamanyu and the brave Uttamaujas, the son of Subhadra (Abhimanyu, the son of Subhadra and Arjuna), and the sons of Draupadi, all of great chariots (great heroes).
1.6 Yudhamanyu, Uttamouja, Soubhadra and the sons of Droupadi, famous men.
1.6 And the chivalrous Yudhamanyu, and the valiant Uttamaujas; son of Subhadra (Abhimanyu) and the sons of Draupadi all (of whom) are, verily, maharathas.
null
1.6. And Yudhamanyu, the heroic, and Uttamaujas, the valourous, the son of Subhadra and the sons of Draupadiall are indeed mighty warriors.
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.6 Yudhamanyu the valiant, and Uttamaujas the strong; and also the son of Subhadra and the sons of Draupadi, all mighty warriors.
null
null
null
null
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्। सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।1.6।।
যুধামন্যুশ্চ বিক্রান্ত উত্তমৌজাশ্চ বীর্যবান্৷ সৌভদ্রো দ্রৌপদেযাশ্চ সর্ব এব মহারথাঃ৷৷1.6৷৷
যুধামন্যুশ্চ বিক্রান্ত উত্তমৌজাশ্চ বীর্যবান্৷ সৌভদ্রো দ্রৌপদেযাশ্চ সর্ব এব মহারথাঃ৷৷1.6৷৷
યુધામન્યુશ્ચ વિક્રાન્ત ઉત્તમૌજાશ્ચ વીર્યવાન્। સૌભદ્રો દ્રૌપદેયાશ્ચ સર્વ એવ મહારથાઃ।।1.6।।
ਯੁਧਾਮਨ੍ਯੁਸ਼੍ਚ ਵਿਕ੍ਰਾਨ੍ਤ ਉਤ੍ਤਮੌਜਾਸ਼੍ਚ ਵੀਰ੍ਯਵਾਨ੍। ਸੌਭਦ੍ਰੋ ਦ੍ਰੌਪਦੇਯਾਸ਼੍ਚ ਸਰ੍ਵ ਏਵ ਮਹਾਰਥਾ।।1.6।।
ಯುಧಾಮನ್ಯುಶ್ಚ ವಿಕ್ರಾನ್ತ ಉತ್ತಮೌಜಾಶ್ಚ ವೀರ್ಯವಾನ್. ಸೌಭದ್ರೋ ದ್ರೌಪದೇಯಾಶ್ಚ ಸರ್ವ ಏವ ಮಹಾರಥಾಃ৷৷1.6৷৷
യുധാമന്യുശ്ച വിക്രാന്ത ഉത്തമൌജാശ്ച വീര്യവാന്. സൌഭദ്രോ ദ്രൌപദേയാശ്ച സര്വ ഏവ മഹാരഥാഃ৷৷1.6৷৷
ଯୁଧାମନ୍ଯୁଶ୍ଚ ବିକ୍ରାନ୍ତ ଉତ୍ତମୌଜାଶ୍ଚ ବୀର୍ଯବାନ୍| ସୌଭଦ୍ରୋ ଦ୍ରୌପଦେଯାଶ୍ଚ ସର୍ବ ଏବ ମହାରଥାଃ||1.6||
yudhāmanyuśca vikrānta uttamaujāśca vīryavān. saubhadrō draupadēyāśca sarva ēva mahārathāḥ৷৷1.6৷৷
யுதாமந்யுஷ்ச விக்ராந்த உத்தமௌஜாஷ்ச வீர்யவாந். ஸௌபத்ரோ த்ரௌபதேயாஷ்ச ஸர்வ ஏவ மஹாரதாஃ৷৷1.6৷৷
యుధామన్యుశ్చ విక్రాన్త ఉత్తమౌజాశ్చ వీర్యవాన్. సౌభద్రో ద్రౌపదేయాశ్చ సర్వ ఏవ మహారథాః৷৷1.6৷৷
1.7
1
7
।।1.7।। हे द्विजोत्तम! हमारे पक्ष में भी जो मुख्य हैं, उनपर भी आप ध्यान दीजिये। आपको याद दिलाने के लिये मेरी सेना के जो नायक हैं, उनको मैं कहता हूँ।
।।1.7।।हे द्विजोत्तम ! हमारे पक्ष में भी जो विशिष्ट योद्धागण हैं , उनको आप जान लीजिये; आपकी जानकारी के लिये अपनी सेना के नायकों के नाम मैं आपको बताता हूँ।
।।1.7।। द्रोणाचार्य को द्विजोत्तम कहकर सम्बोधित करते हुये दुर्योधन अपनी सेना के प्रमुख वीर योद्धाओं के नाम सुनाता है। एक कायर मनुष्य अंधेरे में अनुभव होने वाले भय को दूर करने के लिये सीटी बजाता है अथवा कुछ गुनगुनाने लगता है। दुर्योधन की स्थिति भी कुछ इसी प्रकार की थी। अपराधबोध से पीड़ित अत्याचारी दुर्योधन की मनस्थिति बिखर रही थी। यद्यपि उसकी सेना सक्षम शूरवीरों से सुसज्जित थी तथापि शत्रुपक्ष के वीरों को देखकर उसे भय लग रहा था। अत द्रोणाचार्य के मुख से स्वयं को प्रोत्साहित करने वाले शब्दों को वह सुनना चाहता था। परन्तु जब वह आचार्य के पास पहुँचा तब वे शान्त और मौन रहे। इसलिये टूटत्ो उत्साह को फिर से जुटाने के लिये वह अपनी सेना के प्रमुख योद्धाओं के नाम गिनाने लगता है।यह स्वाभाविक है कि अपराधबोध के भार से दबा हुआ व्यक्ति नैतिक बल के अभाव में सम्भाषणादि की मर्यादा को भूलकर अत्यधिक बोलने लगता है। ऐसे मानसिक तनाव के समय व्यक्ति के वास्तविक संस्कार उजागर होते हैं। यहाँ दुर्योधन अपने गुरु को द्विजोत्तम कहकर सम्बोधित करता है। आन्तरिक ज्ञान के विकास के कारण ब्राह्मण को द्विज (दो बार जन्मा हुआ) कहा जाता है। माता के गर्भ से जन्म लेने पर मनुष्य संस्कारहीन होने के कारण पशुतुल्य ही होता है। संस्कार एवं अध्ययन के द्वारा वह एक शिक्षित व सुसंस्कृत पुरुष बनता है। यह उसका दूसरा जन्म माना जाता है। यह द्विज शब्द का अर्थ है। द्रोणाचार्य ब्राह्मण कुल में जन्में थे और स्वभावत उनमें हृदय की कोमलता आदि श्रेष्ठ गुण थे। पाण्डव सैन्य में उनके प्रिय शिष्य ही उपस्थित थे। यह सब जानकर चतुर किन्तु निर्लज्ज दुर्योधन को अपने गुरु की निष्पक्षता पर भी संदेह होने लगा था। जब हमारे उद्देश्य पापपूर्ण और कुटिलता से भरे होते हैं तब हम अपने समीपस्थ और अधीनस्थ लोगों में भी उन्हीं अवगुणों की कल्पना करने लगते हैं।
।।1.7।। व्याख्या-- 'अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम'-- दुर्योधन द्रोणाचार्यसे कहता है कि हे द्विजश्रेष्ठ! जैसे पाण्डवोंकी सेनामें श्रेष्ठ महारथी हैं, ऐसे ही हमारी सेनामें भी उनसे कम विशेषतावाले महारथी नहीं हैं प्रत्युत उनकी सेनाके महारथियोंकी अपेक्षा ज्यादा ही विशेषता रखनेवाले हैं। उनको भी आप समझ लीजिये। तीसरे श्लोकमें 'पश्य' और यहाँ  'निबोध'  क्रिया देनेका तात्पर्य है कि पाण्डवोंकी सेना तो सामने खड़ी है, इसलिये उसको देखनेके लिये दुर्योधन  'पश्य'  (देखिये) क्रियाका प्रयोग करता है। परन्तु अपनी सेना सामने नहीं है अर्थात् अपनी सेनाकी तरफ द्रोणाचार्यकी पीठ है, इसलिये उसको देखनेकी बात न कहकर उसपर ध्यान देनेके लिये दुर्योधन 'निबोध' (ध्यान दीजिये) क्रियाका प्रयोग करता है।  'नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते'-- मेरी सेनामें भी जो विशिष्टविशिष्ट सेनापति हैं सेनानायक हैं महारथी हैं, मैं उनके नाम केवल आपको याद दिलानेके लिये, आपकी दृष्टि उधर खींचनेके लिये ही कह रहा हूँ।  संज्ञार्थम् पदका तात्पर्य है कि हमारे बहुत-से सेनानायक हैं उनके नाम मैं कहाँतक कहूँ; इसलिये मैं उनका केवल संकेतमात्र करता हूँ; क्योंकि आप तो सबको जानते ही हैं। इस श्लोकमें दुर्योधनका ऐसा भाव प्रतीत होता है कि हमारा पक्ष किसी भी तरह कमजोर नहीं है। परन्तु राजनीतिके अनुसार शत्रुपक्ष चाहे कितना ही कमजोर हो और अपना पक्ष चाहे कितना ही सबल हो, ऐसी अवस्थामें भी शत्रुपक्षको कमजोर नहीं समझना चाहिये और अपनेमें उपेक्षा, उदासीनता आदिकी भावना किञ्चिन्मात्र भी नहीं आने देनी चाहिये। इसलिये सावधानीके लिये मैंने उनकी सेनाकी बात कही और अब अपनी सेनाकी बात कहता हूँ। दूसरा भाव यह है कि पाण्डवोंकी सेनाको देखकर दुर्योधनपर बड़ा प्रभाव पड़ा और उसके मनमें कुछ भय भी हुआ। कारण कि संख्यामें कम होते हुए भी पाण्डव-सेनाके पक्षमें बहुत-से धर्मात्मा पुरुष थे और स्वयं भगवान् थे। जिस पक्षमें धर्म और भगवान् रहते हैं, उसका सबपर बड़ा प्रभाव पड़ता है। पापी-से-पापी, दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्तिपर भी उसका प्रभाव पड़ता है। इतना ही नहीं, पशु-पक्षी वृक्ष-लता आदिपर भी उसका प्रभाव पड़ता है। कारण कि धर्म और भगवान् नित्य हैं। कितनी ही ऊँची-से-ऊँची भौतिक शक्तियाँ क्यों न हों, हैं वे सभी अनित्य ही। इसलिये दुर्योधनपर पाण्डव-सेनाका बड़ा असर पड़ा। परन्तु उसके भीतर भौतिक बलका विश्वास मुख्य होनेसे वह द्रोणाचार्यको विश्वास दिलानेके लिये कहता है कि हमारे पक्षमें जितनी विशेषता है, उतनी पाण्डवोंकी सेनामें नहीं है। अतः हम उनपर सहज ही विजय कर सकते हैं।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.7।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.7।।यद्येवं परकीयं बलमतिप्रभूतं प्रतीत्यातिभीतवदभिदधासि हन्त संधिरेव परैरिष्यतामलं विग्रहाग्रहेणेत्याचार्याभिप्रायमाशङ्क्य ब्रवीति  अस्माकमिति।  तुशब्देनान्तरुत्पन्नमपि स्वकीयं भयं तिरोदधानो धृष्टतामात्मनो द्योतयति। ये खल्वस्मत्पक्षे व्यवस्थिताः सर्वेभ्यः समुत्कर्षजुषस्तान्मयोच्यमानान्निबोध। निश्चयेन मद्वचनादवधारयेत्यर्थः। यद्यपि त्वमेव त्रैवर्णिकेषु त्रैविद्यवृद्धेषु प्रधानत्वात्प्रतिपत्तुं प्रभवसि तथापि मदीयसैन्यस्य ये मुख्यास्तानहं ते तुभ्यं संज्ञार्थमसंख्येषु तेषु मध्ये कतिचिन्नामभिर्गृहीत्वा परिशिष्टानुपलक्षयितुं विज्ञापनं करोमि न त्वज्ञातं किञ्चित्तव ज्ञापयामीति मत्वाह  द्विजोत्तमेति ।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।।1.7।।यद्येवं परबलमितप्रभूतं दृष्ट्वा भीतोऽसि हन्त तर्हि संधिरेव परैरिष्यतां किं विग्रहाग्रहेणेत्याचार्याभिप्रायमाशङ्क्याह। तुशब्देनान्तरूत्पन्नमपि भयं तिरोद्धानो धृष्टतामात्मनो द्योतयति। अस्माकं सर्वेषां मध्ये ये विशिष्टाः सर्वेभ्यः समुत्कर्षजुषस्तान्मयोच्यमानान्निबोध निश्चयेन मद्वचनादवधारयेति भौवादिकस्य परस्मैपदिनो बुधे रूपम्। ये च मम सैन्यस्य नायका मुख्या नेतारस्तानसंज्ञार्थं असंख्येषु तेषु मध्ये कतिचिन्नामभिर्गृहीत्वा परिशिष्टानुपलक्षयितुं ते तुभ्यं ब्रवीमि न त्वज्ञातं किंचिदपि तव ज्ञापयामीति। द्विजोत्तमेति विशेषणेनाचार्यं स्तुवन्स्वकार्ये तदाभिमुख्यं संपादयति। दौष्ट्यपक्षे द्विजोत्तमेति ब्राह्मणत्वात्तावद्युद्धाकुशलस्त्वं तेन त्वयि विमुखेऽपि भीष्मप्रभृतीनां क्षत्रियप्रवराणां सत्त्वान्नास्माकं महती क्षतिरित्यर्थः। संज्ञार्थमिति प्रियशिष्याणां पाण्डवानां चमूं दृष्टवा हर्षेण व्याकुलमनसस्तव स्वीयवीरविस्मृतिर्माभूदिति ममेयमुक्तिरिति भावः। तत्र विशिष्टान् गणयति भवान् द्रोणः भीष्मः कर्णः कृपश्च। समितिं संग्रामं जयतीति समितिंजय इति कृपविशेषणं कर्णादनन्तरं गण्यमानत्वेन तस्य कोपमाशङ्क्य तन्निरासार्थम्। एते चत्वारः सर्वतो विशिष्टाः। नायकान् गणयति अश्वत्थामा द्रोणपुत्रः। भीष्मापेक्षयाचार्यस्य प्रथमगणनवद्विकर्णाद्यपेक्षया तत्पुत्रस्य प्रथमगणनमाचार्यपरितोषार्थम्। विकर्णः स्वभ्राता कनीयान्। सौमदत्तिः सोमदत्तस्य पुत्रः श्रेष्टत्वाद्भूरिश्रवाः। जयद्रथः सिन्धुराजः।सिन्धुराजस्तथैव चइति क्वचित्पाठः। किमेतावन्त एव नायका नेत्याह अन्ये च शल्यकृतवर्मप्रभृतयो मदर्थे मत्प्रयोजनाय जीवितमपि त्यक्तुमध्यवसिता इत्यर्थेन त्यक्तजीविता इत्यनेन स्वस्मिन्ननुरागातिशयस्तेषां कथ्यते। एंव स्वसैन्यबाहुल्यं तस्य स्वस्मिन्भक्तिः शौर्यं युद्धोद्योगो युद्धकौशलं च दर्शितं शूरा इत्यादिविशेषणैः।
।।1.7।।अस्माकमिति।  निबोध बुध्यस्व। नायका नेतारः। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थमित्यर्थः।
।। 1.7।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.7।।एवं तत्सैनिकानुक्त्वा स्वीयानाह प्रोत्साहनार्थं अस्माकमित्यादिभिः। अस्माकं ये विशिष्टाः महान्तस्तान्निबोध बुध्यस्व।द्विजोत्तमेति विस्मृतिसम्भावनया सम्बोधनम्। मम सैन्यस्य नायकाः नेतारः तान्संज्ञानार्थं मया विशेषेण स्वरूपतो ज्ञायन्ते न वेति ते ब्रवीमि।
।।1.7।।विशिष्टाः श्रेष्ठाः। निबोध बुध्यस्व। भौवादिकस्य परस्मैपदिनो बुधेरिदं रूपम्। संज्ञार्थं अस्मत्पक्षेऽपि शूराः सन्तीति ज्ञापनार्थम्। परेषु प्राबल्यं दृष्ट्वा तवोत्साहभङ्गो माभूदित्यर्थः।
।।1.7।।ननु ते बहवो महारथा मयैकेनातिरथेनापि कथं निवार्या इत्याशङ्क्यान्येऽपि तव सहकारिणोऽस्मत्सैन्ये महाशूराः सन्तीत्याह  अस्माकमिति।  यद्येवं परकीयबलमतिप्रभूतं प्रतीत्य भीतोऽसि तर्हि संधिरेव तैरिष्यतामलं विग्रहाग्रहेणेत्याशङ्क्याह अस्माकमित्येके। अस्माकं सर्वेषां मध्ये विशिष्टा उत्कृष्टा मम सैन्यस्य च मुख्यास्तान्निबोध जानीहि। असंख्येषु मध्ये कतिचिन्नामभिरुक्त्वावशिष्टानुपलक्षयितुं ते तुभ्यं ब्रवीमि विज्ञापनं करोमि नतु किंचिदज्ञातं ज्ञापयामि अत्युत्तमत्वात्तवेत्याशयेनाह  द्विजोत्तमेति।  द्विजोत्तमेति ब्राह्मणत्वाद्युद्धाकुशलस्त्वं तेन त्वयि विमुखेऽपि भीष्मप्रमुखाणां क्षत्रियप्रवराणां सत्त्वान्नास्माकं महती क्षतिरिति दुर्योधनदौष्ट्यमिति केचित्।
1.7 अस्माकम् ours? तु also? विशिष्टाः the best? ये who (those)? तान् those? निबोध know (thou)? द्विजोत्तम (O) best among the twicorn ones? नायकाः the leaders? मम my? सैन्यस्य of the army? संज्ञार्थम् for information? तान् them? ब्रवीमि speak? ते to thee.No Commentary.
1.7. "Know also, O best among the twice-born! the names of those who are the most distinguished amongst ourselves, the leaders of my army; these I name to thee for thy information.
1.7 Further, take note of all those captains who have ranged themselves on our side, O best of Spiritual Guides! The leaders of my army. I will name them for you.
1.7 But, O best among the Brahmanas, please be appraised of those who are foremost among us, the ?nders of my army. I speak of them to you by way of example.
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1.7. O best among the twice-born ! However, please also take note of the most distinguished amongst us, who are the generals of my army and who are accepted as leaders by the heroes in the mighty army [of mine]; I shall name them to you.
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.7 Know, O best of Brahmanas, those who are important on our side - those who are the commanders of my army. I shall name them to refresh your memory.
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अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम। नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।1.7।।
অস্মাকং তু বিশিষ্টা যে তান্নিবোধ দ্বিজোত্তম৷ নাযকা মম সৈন্যস্য সংজ্ঞার্থং তান্ব্রবীমি তে৷৷1.7৷৷
অস্মাকং তু বিশিষ্টা যে তান্নিবোধ দ্বিজোত্তম৷ নাযকা মম সৈন্যস্য সংজ্ঞার্থং তান্ব্রবীমি তে৷৷1.7৷৷
અસ્માકં તુ વિશિષ્ટા યે તાન્નિબોધ દ્વિજોત્તમ। નાયકા મમ સૈન્યસ્ય સંજ્ઞાર્થં તાન્બ્રવીમિ તે।।1.7।।
ਅਸ੍ਮਾਕਂ ਤੁ ਵਿਸ਼ਿਸ਼੍ਟਾ ਯੇ ਤਾਨ੍ਨਿਬੋਧ ਦ੍ਵਿਜੋਤ੍ਤਮ। ਨਾਯਕਾ ਮਮ ਸੈਨ੍ਯਸ੍ਯ ਸਂਜ੍ਞਾਰ੍ਥਂ ਤਾਨ੍ਬ੍ਰਵੀਮਿ ਤੇ।।1.7।।
ಅಸ್ಮಾಕಂ ತು ವಿಶಿಷ್ಟಾ ಯೇ ತಾನ್ನಿಬೋಧ ದ್ವಿಜೋತ್ತಮ. ನಾಯಕಾ ಮಮ ಸೈನ್ಯಸ್ಯ ಸಂಜ್ಞಾರ್ಥಂ ತಾನ್ಬ್ರವೀಮಿ ತೇ৷৷1.7৷৷
അസ്മാകം തു വിശിഷ്ടാ യേ താന്നിബോധ ദ്വിജോത്തമ. നായകാ മമ സൈന്യസ്യ സംജ്ഞാര്ഥം താന്ബ്രവീമി തേ৷৷1.7৷৷
ଅସ୍ମାକଂ ତୁ ବିଶିଷ୍ଟା ଯେ ତାନ୍ନିବୋଧ ଦ୍ବିଜୋତ୍ତମ| ନାଯକା ମମ ସୈନ୍ଯସ୍ଯ ସଂଜ୍ଞାର୍ଥଂ ତାନ୍ବ୍ରବୀମି ତେ||1.7||
asmākaṅ tu viśiṣṭā yē tānnibōdha dvijōttama. nāyakā mama sainyasya saṅjñārthaṅ tānbravīmi tē৷৷1.7৷৷
அஸ்மாகஂ து விஷிஷ்டா யே தாந்நிபோத த்விஜோத்தம. நாயகா மம ஸைந்யஸ்ய ஸஂஜ்ஞார்தஂ தாந்ப்ரவீமி தே৷৷1.7৷৷
అస్మాకం తు విశిష్టా యే తాన్నిబోధ ద్విజోత్తమ. నాయకా మమ సైన్యస్య సంజ్ఞార్థం తాన్బ్రవీమి తే৷৷1.7৷৷
1.8
1
8
।।1.8।। आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा।
।।1.8।।एक तो स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, और युद्ध विजयी कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र है।
।।1.8।। यद्यपि कुछ क्षणों के लिये अपराध की भावना एवं मानसिक उतेंजना के कारण दुर्योधन का विवेक लुप्त हो गया था किन्तु एक तानाशाह की भाँति उसने शीघ्र ही अपने आप को संयमित कर लिया। सम्भवत द्रोणाचार्य के उत्साहरहित मौन से वह समझ गया कि उन्हें द्विज कहकर सम्बोधित करके वह शील की मर्यादा का उल्लंघन कर रहा था।
।।1.8।। व्याख्या-- 'भवान् भीष्मश्च'-- आप और पितामह भीष्म--दोनों ही बहुत विशेष पुरुष हैं। आप दोनोंके समकक्ष संसारमें तीसरा कोई भी नहीं है। अगर आप दोनोंमेंसे कोई एक भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध करे, तो देवता, यक्ष, राक्षस, मनुष्य आदिमें ऐसा कोई भी नहीं है जो कि आपके सामने टिक सके। आप दोनोंके पराक्रमकी बात जगत्में प्रसिद्ध ही है। पितामह भीष्म तो आबाल ब्रह्मचारी हैं, और इच्छामृत्यु हैं अर्थात् उनकी इच्छाके बिना उन्हें कोई मार ही नहीं सकता। [महाभारत-युद्धमें द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्नके द्वारा मारे गये और पितामह भीष्मने अपनी इच्छासे ही सूर्यके उत्तरायण होनेपर अपने प्राणोंका त्याग कर दिया।]  'कर्णश्च;--  कर्ण तो बहुत ही शूरवीर है। मुझे तो ऐसा विश्वास है कि वह अकेला ही पाण्डव-सेनापर विजय प्राप्त कर सकता है। उसके सामने अर्जुन भी कुछ नहीं कर सकता। ऐसा वह कर्ण भी हमारे पक्षमें है। [कर्ण महाभारत-युद्धमें अर्जुनके द्वारा मारे गये।]
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.8।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.8।।तानेव स्वसेनानिविष्टान्पुरुषधौरेयानात्मीयभयपरिहारार्थं परिगणयति  भवानित्यादिना।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।। 1.8यद्येवं परबलमितप्रभूतं दृष्ट्वा भीतोऽसि हन्त तर्हि संधिरेव परैरिष्यतां किं विग्रहाग्रहेणेत्याचार्याभिप्रायमाशङ्क्याह। तुशब्देनान्तरूत्पन्नमपि भयं तिरोद्धानो धृष्टतामात्मनो द्योतयति। अस्माकं सर्वेषां मध्ये ये विशिष्टाः सर्वेभ्यः समुत्कर्षजुषस्तान्मयोच्यमानान्निबोध निश्चयेन मद्वचनादवधारयेति भौवादिकस्य परस्मैपदिनो बुधे रूपम्। ये च मम सैन्यस्य नायका मुख्या नेतारस्तानसंज्ञार्थं असंख्येषु तेषु मध्ये कतिचिन्नामभिर्गृहीत्वा परिशिष्टानुपलक्षयितुं ते तुभ्यं ब्रवीमि न त्वज्ञातं किंचिदपि तव ज्ञापयामीति। द्विजोत्तमेति विशेषणेनाचार्यं स्तुवन्स्वकार्ये तदाभिमुख्यं संपादयति। दौष्ट्यपक्षे द्विजोत्तमेति ब्राह्मणत्वात्तावद्युद्धाकुशलस्त्वं तेन त्वयि विमुखेऽपि भीष्मप्रभृतीनां क्षत्रियप्रवराणां सत्त्वान्नास्माकं महती क्षतिरित्यर्थः। संज्ञार्थमिति प्रियशिष्याणां पाण्डवानां चमूं दृष्टवा हर्षेण व्याकुलमनसस्तव स्वीयवीरविस्मृतिर्माभूदिति ममेयमुक्तिरिति भावः। तत्र विशिष्टान् गणयति भवान् द्रोणः भीष्मः कर्णः कृपश्च। समितिं संग्रामं जयतीति समितिंजय इति कृपविशेषणं कर्णादनन्तरं गण्यमानत्वेन तस्य कोपमाशङ्क्य तन्निरासार्थम्। एते चत्वारः सर्वतो विशिष्टाः। नायकान् गणयति अश्वत्थामा द्रोणपुत्रः। भीष्मापेक्षयाचार्यस्य प्रथमगणनवद्विकर्णाद्यपेक्षया तत्पुत्रस्य प्रथमगणनमाचार्यपरितोषार्थम्। विकर्णः स्वभ्राता कनीयान्। सौमदत्तिः सोमदत्तस्य पुत्रः श्रेष्टत्वाद्भूरिश्रवाः। जयद्रथः सिन्धुराजः।सिन्धुराजस्तथैव चइति क्वचित्पाठः। किमेतावन्त एव नायका नेत्याह अन्ये च शल्यकृतवर्मप्रभृतयो मदर्थे मत्प्रयोजनाय जीवितमपि त्यक्तुमध्यवसिता इत्यर्थेन त्यक्तजीविता इत्यनेन स्वस्मिन्ननुरागातिशयस्तेषां कथ्यते। एंव स्वसैन्यबाहुल्यं तस्य स्वस्मिन्भक्तिः शौर्यं युद्धोद्योगो युद्धकौशलं च दर्शितं शूरा इत्यादिविशेषणैः।
।।1.8।।  तानेवाह  भवानिति द्वाभ्याम्।  भवान्द्रोणः। समितिं संग्रामं जयतीति तथा। सौमदत्तिः सोमदत्तस्य पुत्रो भूरिश्रवाः।
।। 1.8।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते। वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.8।।एवं विज्ञाप्य तन्नामान्याह भवानिति द्वाभ्याम्। भवान्द्रोणः सर्वेषामाचार्योऽस्माकं मुख्यः। त्वया कार्यार्थ मन्ये प्रेयाः।उभयोर्द्रोणसामर्थ्यं इति वाक्यात् परमबलीति पूर्वं गणितः। भीष्मश्च तथैव मुख्यः। चकारेण क्षत्रियत्वात् शापसामर्थ्याभावमाशङ्क्य पितामहत्वात् शापसामर्थ्यं ज्ञाप्यते। कर्णस्याप्यग्रेऽर्द्धरथिषु गणनात्स दुःखितो भविष्यतीति सोऽपि मुख्यत्वेन गणितः। इदमेव चकारेण द्यृह्यते। कृपाचार्योऽपि तथा। एते सर्वेऽपि समिंतिञ्जयाः सङ्ग्रामजेतारः भिन्नतया सर्वेषां विशेषणम्। अश्वत्थामा त्वत्पुत्रः विकर्णश्च सौमदत्तिः भूरिश्रवाः।तथेति यथा भवदादयस्तुल्या अप्यस्मत्पक्षपातिनस्तथैव सौमदत्तिरित्यर्थः।  यद्वा (यथा)৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷  तथैवेत्युत्तरत्र योज्यम्।
।।1.8।।विकर्णः स्वभ्राता। सौमदत्तिर्भूरिश्रवाः। जयद्रथपदस्थानेतथैव च इति क्वचित्पाठः।
।।1.8।।तानेव विशिष्टान् स्वसेनानायकान् परिगणयति  भवानित्यादिना।  समितिं संग्रामं जयतीति तथा। समितिंजयपदं मध्यमणिन्यायेनोभयत्र संबध्यते। कर्णात्मश्चात्परिगणनेन कृपाश्वत्थाम्नोः कोपो माभूदिति तयोर्विशेषणत्वेन समितिंजयपदोपादानम्। विकर्णः स्वभ्राता। सौमदत्तिर्भूरिश्रवाः।
1.8 भवान् yourself? भीष्मः Bhishma? च and? कर्णः Karna? च and? कृपः Kripa? च and? समितिञ्जयः victorious in war? अश्वत्थामा Asvatthama? the son of Dronacharya? विकर्णः Vikarna? च and? सौमदत्तिः the son of Somadatta? तथा thus? एव even? च and.No Commentary.
1.8. "Thyself and Bhishma, and Karna and also Kripa, the victorious in war, Asvatthama, Vikarna, and also Bhurisrava, the son of Somadatta.
1.8 You come first; then Bheeshma, Karna, Kripa, great soldiers; Ashwaththama, Vikarna and the son of Somadhatta;
1.8 (They are:) Your venerable self, Bhisma and Karna, and Krpa who is ever victorious in battle; Asvatthama, Vikarna, Saumadatti and Jayadratha.
null
1.8. Your goodself, and Bhisma, and Karna, krpa, Salya, Jayadratha, Asvatthaman, and Vikarna, and Somadatta's son, the valourous;
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.8 Yourself, Bhisma and Karna, the victorious Krpa, Asvatthama, Vikarna and Jayadratha the son of Somadatta;
null
null
null
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भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः। अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।1.8।।
ভবান্ভীষ্মশ্চ কর্ণশ্চ কৃপশ্চ সমিতিঞ্জযঃ৷ অশ্বত্থাত্মা বিকর্ণশ্চ সৌমদত্তিস্তথৈব চ৷৷1.8৷৷
ভবান্ভীষ্মশ্চ কর্ণশ্চ কৃপশ্চ সমিতিঞ্জযঃ৷ অশ্বত্থাত্মা বিকর্ণশ্চ সৌমদত্তিস্তথৈব চ৷৷1.8৷৷
ભવાન્ભીષ્મશ્ચ કર્ણશ્ચ કૃપશ્ચ સમિતિઞ્જયઃ। અશ્વત્થાત્મા વિકર્ણશ્ચ સૌમદત્તિસ્તથૈવ ચ।।1.8।।
ਭਵਾਨ੍ਭੀਸ਼੍ਮਸ਼੍ਚ ਕਰ੍ਣਸ਼੍ਚ ਕਰਿਪਸ਼੍ਚ ਸਮਿਤਿਞ੍ਜਯ। ਅਸ਼੍ਵਤ੍ਥਾਤ੍ਮਾ ਵਿਕਰ੍ਣਸ਼੍ਚ ਸੌਮਦਤ੍ਤਿਸ੍ਤਥੈਵ ਚ।।1.8।।
ಭವಾನ್ಭೀಷ್ಮಶ್ಚ ಕರ್ಣಶ್ಚ ಕೃಪಶ್ಚ ಸಮಿತಿಞ್ಜಯಃ. ಅಶ್ವತ್ಥಾತ್ಮಾ ವಿಕರ್ಣಶ್ಚ ಸೌಮದತ್ತಿಸ್ತಥೈವ ಚ৷৷1.8৷৷
ഭവാന്ഭീഷ്മശ്ച കര്ണശ്ച കൃപശ്ച സമിതിഞ്ജയഃ. അശ്വത്ഥാത്മാ വികര്ണശ്ച സൌമദത്തിസ്തഥൈവ ച৷৷1.8৷৷
ଭବାନ୍ଭୀଷ୍ମଶ୍ଚ କର୍ଣଶ୍ଚ କୃପଶ୍ଚ ସମିତିଞ୍ଜଯଃ| ଅଶ୍ବତ୍ଥାତ୍ମା ବିକର୍ଣଶ୍ଚ ସୌମଦତ୍ତିସ୍ତଥୈବ ଚ||1.8||
bhavānbhīṣmaśca karṇaśca kṛpaśca samitiñjayaḥ. aśvatthātmā vikarṇaśca saumadattistathaiva ca৷৷1.8৷৷
பவாந்பீஷ்மஷ்ச கர்ணஷ்ச கரிபஷ்ச ஸமிதிஞ்ஜயஃ. அஷ்வத்தாத்மா விகர்ணஷ்ச ஸௌமதத்திஸ்ததைவ ச৷৷1.8৷৷
భవాన్భీష్మశ్చ కర్ణశ్చ కృపశ్చ సమితిఞ్జయః. అశ్వత్థాత్మా వికర్ణశ్చ సౌమదత్తిస్తథైవ చ৷৷1.8৷৷
1.9
1
9
।।1.9।। इनके अतिरिक्त बहुत-से शूरवीर हैं, जिन्होंने मेरे लिये अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है और जो अनेक प्रकार के शस्त्र-अस्त्रों को चलानेवाले हैं तथा जो सब-के-सब युद्धकला में अत्यन्त चतुर हैं।
।।1.9।।मेरे लिए प्राण त्याग करने के लिए तैयार, अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित तथा युद्ध में कुशल और भी अनेक शूर वीर हैं।
।।1.9।। एक अत्याचारी तानाशाह का गर्व और दम्भ देखो कितना है कि वह कहता है कि इतनी विशाल सेना और उसके प्रमुख वीर मेरे लिये प्राणोत्सर्ग करने के लिये तैयार हैं। महाभारत के सजग अध्येता जानते हैं कि यदि भीष्म पितामह कौरवों की ओर से युद्ध न करते तो कितने लोग वास्तव में दुर्योधन के लिये प्राणदान के लिये तैयार होते भीष्म के द्वारा हमारी रक्षित सेना अपर्याप्त है किन्तु भीम द्वारा रक्षित उनकी सेना पर्याप्त है अथवा
1.9।। व्याख्या-- 'अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्त-जीविताः'-- मैंने अभीतक अपनी सेनाके जितने शूरवीरोंके नाम लिये हैं, उनके अतिरिक्त भी हमारी सेनामें बाह्लीक, शल्य, भगदत्त, जयद्रथ आदि बहुत-से शूरवीर महारथी हैं, जो मेरी भलाईके लिये, मेरी ओरसे लड़नेके लिये अपने जीनेकी इच्छाका त्याग करके यहाँ आये हैं। वे मेरी विजयके लिये मर भले ही जायँ, पर युद्धसे हटेंगे नहीं। उनकी मैं आपके सामने क्या कृतज्ञता प्रकट करूँ?  'नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः'-- ये सभी लोग हाथमें रखकर प्रहार करनेवाले तलवार, गदा, त्रिशूल आदि नाना प्रकारके शस्त्रोंकी कलामें निपुण हैं और हाथसे फेंककर प्रहार करनेवाले बाण, तोमर, शक्ति आदि अस्त्रोंकी कलामें भी निपुण हैं। युद्ध कैसे करना चाहिये; किस तरहसे, किस पैंतरेसे और किस युक्तिसे युद्ध करना चाहिये; सेनाको किस तरह खड़ी करनी चाहिये आदि युद्धकी कलाओंमें भी ये बड़े निपुण हैं, कुशल हैं।
।।1.2 1.9।।किं वा अनेन बहुपरिगणनेन (K omits बहु )। इदं तावद्वस्तुतत्त्वम् इत्याह ।
।।1.9।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.9।।द्रोणादिपरिगणनस्य परिशिष्टपरिसंख्यार्थत्वं व्यावर्तयति  अन्ये चेति।  सर्वेऽपि भवन्तमारभ्य मदीयपृतनायां प्रविष्टाः स्वजीवितादपि मह्यं स्पृहयन्तीत्याह  मदर्थ इति।  यत्तु तेषां शूरत्वमुक्तं तदिदानीं विशदयति  नानेति।  नानाविधान्यनेकप्रकाराणि शस्त्राण्यायुधानि प्रहरणानि प्रहरणसाधनानि येषां ते तथा। बहुविधायुसंपत्तावपि तत्प्रयोगे नैपुण्याभावे तद्वैफल्यमिति चेन्नेत्याह  सर्व इति।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।। 1.9यद्येवं परबलमितप्रभूतं दृष्ट्वा भीतोऽसि हन्त तर्हि संधिरेव परैरिष्यतां किं विग्रहाग्रहेणेत्याचार्याभिप्रायमाशङ्क्याह। तुशब्देनान्तरूत्पन्नमपि भयं तिरोद्धानो धृष्टतामात्मनो द्योतयति। अस्माकं सर्वेषां मध्ये ये विशिष्टाः सर्वेभ्यः समुत्कर्षजुषस्तान्मयोच्यमानान्निबोध निश्चयेन मद्वचनादवधारयेति भौवादिकस्य परस्मैपदिनो बुधे रूपम्। ये च मम सैन्यस्य नायका मुख्या नेतारस्तानसंज्ञार्थं असंख्येषु तेषु मध्ये कतिचिन्नामभिर्गृहीत्वा परिशिष्टानुपलक्षयितुं ते तुभ्यं ब्रवीमि न त्वज्ञातं किंचिदपि तव ज्ञापयामीति। द्विजोत्तमेति विशेषणेनाचार्यं स्तुवन्स्वकार्ये तदाभिमुख्यं संपादयति। दौष्ट्यपक्षे द्विजोत्तमेति ब्राह्मणत्वात्तावद्युद्धाकुशलस्त्वं तेन त्वयि विमुखेऽपि भीष्मप्रभृतीनां क्षत्रियप्रवराणां सत्त्वान्नास्माकं महती क्षतिरित्यर्थः। संज्ञार्थमिति प्रियशिष्याणां पाण्डवानां चमूं दृष्टवा हर्षेण व्याकुलमनसस्तव स्वीयवीरविस्मृतिर्माभूदिति ममेयमुक्तिरिति भावः। तत्र विशिष्टान् गणयति भवान् द्रोणः भीष्मः कर्णः कृपश्च। समितिं संग्रामं जयतीति समितिंजय इति कृपविशेषणं कर्णादनन्तरं गण्यमानत्वेन तस्य कोपमाशङ्क्य तन्निरासार्थम्। एते चत्वारः सर्वतो विशिष्टाः। नायकान् गणयति अश्वत्थामा द्रोणपुत्रः। भीष्मापेक्षयाचार्यस्य प्रथमगणनवद्विकर्णाद्यपेक्षया तत्पुत्रस्य प्रथमगणनमाचार्यपरितोषार्थम्। विकर्णः स्वभ्राता कनीयान्। सौमदत्तिः सोमदत्तस्य पुत्रः श्रेष्टत्वाद्भूरिश्रवाः। जयद्रथः सिन्धुराजः।सिन्धुराजस्तथैव चइति क्वचित्पाठः। किमेतावन्त एव नायका नेत्याह अन्ये च शल्यकृतवर्मप्रभृतयो मदर्थे मत्प्रयोजनाय जीवितमपि त्यक्तुमध्यवसिता इत्यर्थेन त्यक्तजीविता इत्यनेन स्वस्मिन्ननुरागातिशयस्तेषां कथ्यते। एंव स्वसैन्यबाहुल्यं तस्य स्वस्मिन्भक्तिः शौर्यं युद्धोद्योगो युद्धकौशलं च दर्शितं शूरा इत्यादिविशेषणैः।
।।1.9।।   अन्ये चेति।  मदर्थे मत्प्रयोजनार्थं जीवितं त्यक्तुमध्यवसिता इत्यर्थः। नाना अनेकानि शस्त्राणि प्रहरणसाधनानि येषां ते। युद्धे विशारदाः। निपुणा इत्यर्थः।
।। 1.9।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.9।।अन्ये चैतादृशा बहवः शूरा मदर्थे मत्कार्यार्थं त्यक्तं जीवितं यैः तादृशाः जीविताशां परित्यज्य मत्कार्यं कर्तुं कृतनिश्चया इत्यर्थः। यद्वा आदिकर्मणि क्तः। त्यक्ष्यमाणजीविता इत्यर्थः। नानाशस्त्राणि प्रहरणसाधनानि येषां ते युद्धे विशारदाः अतिनिपुणाः।
।।1.9।।अन्ये शल्यकृतवर्मप्रभृतयः। शस्त्राणि विदारकाणि खङ्गादीनि प्रहरणानि केवलं प्रहारार्थानि गदादीनि नानाविधानि येषां ते नानाशस्त्रप्रहरणाः।
।।1.9।।गणयितुमसंख्यान्सर्वानपि संगृह्णाति  अन्ये चेति।  बहवोऽपरिमिताः स्वजीवितादप्यधिका मयि सर्वेषां भवदादीनां प्रीतिरस्तीत्याह  मदर्थ   इति।  त्यक्तं जीवितं यैस्ते मदर्थे जीवितमपि गच्छति चेत्तर्हि सर्वैस्त्यज्यत इति भावः। परे महेष्वासा अस्मदीयास्तु नानाशस्त्रप्रहरणा इति स्वकीयानामुत्कर्षं द्योतयन्नाह नानाविधानि शस्त्राणि खङ्गादीनि प्रहरणानि गदादीनि च येषां ते। युद्धाकुशलतानिरासार्थमाह  सर्वे इति।  युद्धे विशारदा विचक्षणाः।
1.9 अन्ये others? च and? बहवः many? शूराः heroes? मदर्थे for my sake? त्यक्तजीविताः who are ready to give up their lives? नानाशस्त्रप्रहरणाः armed with various weapons and missiles? सर्वे all? युद्धविशारदाः wellskilled in battle.No Commentary.
1.9. "And also many other heroes who are ready to give up their lives for my sake, armed with various weapons and missiles, all well-skilled in battle.
1.9 And many others, all ready to die for my sake; all armed, all skilled in war.
1.9 There are many heroes who have dedicated their lives for my sake, who possess various kinds of weapons and missiles, (and) all of whom are skilled in battle.
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1.9. And many other heroes, giving up their lives for my sake; fighting with various weapons, all very much skilled in different warfares.
1.2 1.9 Why this exhaustive counting? The reality of things is this:
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.9 And there are many other heroes who are determined to give up their lives for my sake. They all are experts in using manifold missiles and are dexterous in battle.
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अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः। नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।1.9।।
অন্যে চ বহবঃ শূরা মদর্থে ত্যক্তজীবিতাঃ৷ নানাশস্ত্রপ্রহরণাঃ সর্বে যুদ্ধবিশারদাঃ৷৷1.9৷৷
অন্যে চ বহবঃ শূরা মদর্থে ত্যক্তজীবিতাঃ৷ নানাশস্ত্রপ্রহরণাঃ সর্বে যুদ্ধবিশারদাঃ৷৷1.9৷৷
અન્યે ચ બહવઃ શૂરા મદર્થે ત્યક્તજીવિતાઃ। નાનાશસ્ત્રપ્રહરણાઃ સર્વે યુદ્ધવિશારદાઃ।।1.9।।
ਅਨ੍ਯੇ ਚ ਬਹਵ ਸ਼ੂਰਾ ਮਦਰ੍ਥੇ ਤ੍ਯਕ੍ਤਜੀਵਿਤਾ। ਨਾਨਾਸ਼ਸ੍ਤ੍ਰਪ੍ਰਹਰਣਾ ਸਰ੍ਵੇ ਯੁਦ੍ਧਵਿਸ਼ਾਰਦਾ।।1.9।।
ಅನ್ಯೇ ಚ ಬಹವಃ ಶೂರಾ ಮದರ್ಥೇ ತ್ಯಕ್ತಜೀವಿತಾಃ. ನಾನಾಶಸ್ತ್ರಪ್ರಹರಣಾಃ ಸರ್ವೇ ಯುದ್ಧವಿಶಾರದಾಃ৷৷1.9৷৷
അന്യേ ച ബഹവഃ ശൂരാ മദര്ഥേ ത്യക്തജീവിതാഃ. നാനാശസ്ത്രപ്രഹരണാഃ സര്വേ യുദ്ധവിശാരദാഃ৷৷1.9৷৷
ଅନ୍ଯେ ଚ ବହବଃ ଶୂରା ମଦର୍ଥେ ତ୍ଯକ୍ତଜୀବିତାଃ| ନାନାଶସ୍ତ୍ରପ୍ରହରଣାଃ ସର୍ବେ ଯୁଦ୍ଧବିଶାରଦାଃ||1.9||
anyē ca bahavaḥ śūrā madarthē tyaktajīvitāḥ. nānāśastrapraharaṇāḥ sarvē yuddhaviśāradāḥ৷৷1.9৷৷
அந்யே ச பஹவஃ ஷூரா மதர்தே த்யக்தஜீவிதாஃ. நாநாஷஸ்த்ரப்ரஹரணாஃ ஸர்வே யுத்தவிஷாரதாஃ৷৷1.9৷৷
అన్యే చ బహవః శూరా మదర్థే త్యక్తజీవితాః. నానాశస్త్రప్రహరణాః సర్వే యుద్ధవిశారదాః৷৷1.9৷৷
1.10
1
10
।।1.10।। वह हमारी सेना पाण्डवों पर विजय करने में अपर्याप्त है, असमर्थ है; क्योंकि उसके संरक्षक (उभयपक्षपाती) भीष्म हैं। परन्तु इन पाण्डवों की सेना हमारे पर विजय करने में पर्याप्त है, समर्थ है; क्योंकि इसके संरक्षक (निजसेनापक्षपाती) भीमसेन हैं।
।।1.10।।भीष्म के द्वारा हमारी रक्षित सेना अपर्याप्त है; किन्तु भीम द्वारा रक्षित उनकी सेना पर्याप्त है अथवा, भीष्म के द्वारा रक्षित हमारी सेना अपरिमित है किन्तु भीम के द्वारा रक्षित उनकी सेना परिमित ही है।
।।1.10।। हिन्दुओं की प्राचीन युद्ध पद्धति में किसी सेना के सेनापति के साथसाथ कोई योद्धा सेना का रक्षक भी होता था जिसमें शौर्य साहस और बुद्धिमत्ता जैसे गुण आवश्यक होते थे। कौरव और पाण्डव पक्षों में क्रमश भीष्म और भीम रक्षक थे।
।।1.10।। व्याख्या-- 'अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्'-- अधर्म--अन्यायके कारण दुर्योधनके मनमें भय होनेसे वह अपनी सेनाके विषयमें सोचता है कि हमारी सेना बड़ी होनेपर भी अर्थात् पाण्डवोंकी अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक होनेपर भी पाण्डवोंपर विजय प्राप्त करनेमें है तो असमर्थ ही! कारण कि हमारी सेनामें मतभेद है। उसमें इतनी एकता (संगठन), निर्भयता, निःसंकोचता नहीं है, जितनी कि पाण्डवोंकी सेनामें है। हमारी सेनाके मुख्य संरक्षक पितामह भीष्म उभयपक्षपाती हैं अर्थात् उनके भीतर कौरव और पाण्डव--दोनों सेनाओंका पक्ष है। वे कृष्णके बड़े भक्त हैं। उनके हृदयमें युधिष्ठिरका बड़ा आदर है। अर्जुनपर भी उनका बड़ा स्नेह है। इसलिये वे हमारे पक्षमें रहते हुए भी भीतरसे पाण्डवोंका भला चाहते हैं। वे ही भीष्म हमारी सेनाके मुख्य सेनापति हैं। ऐसी दशामें हमारी सेना पाण्डवोंके मुकाबलेमें कैसे समर्थ हो सकती है? नहीं हो सकती।  'पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्'-- परन्तु यह जो पाण्डवोंकी सेना है, यह हमारेपर विजय करनेमें समर्थ है। कारण कि इनकी सेनामें मतभेद नहीं है, प्रत्युत सभी एकमत होकर संगठित हैं। इनकी सेनाका संरक्षक बलवान् भीमसेन है, जो कि बचपनसे ही मेरेको हराता आया है। यह अकेला ही मेरेसहित सौ भाइयोंको मारनेकी प्रतिज्ञा कर चुका है अर्थात् यह हमारा नाश करनेपर तुला हुआ है! इसका शरीर वज्रके समान मजबूत है। इसको मैंने जहर पिलाया था, तो भी यह मरा नहीं। ऐसा यह भीमसेन पाण्डवोंकी सेनाका संरक्षक है, इसलिये यह सेना वास्तवमें समर्थ है, पूर्ण है। यहाँ एक शङ्का हो सकती है कि दुर्योधनने अपनी सेनाके संरक्षकके लिये भीष्मजीका नाम लिया, जो कि सेनापतिके पदपर नियुक्त हैं। परन्तु पाण्डव-सेनाके संरक्षकके लिये भीमसेनका नाम लिया, जो कि सेनापति नहीं हैं। इसका समाधान यह है कि दुर्योधन इस समय सेनापतियोंकी बात नहीं सोच रहा है; किन्तु दोनों सेनाओंकी शक्तिके विषयमें सोच रहा है कि किस सेनाकी शक्ति अधिक है? दुर्योधनपर आरम्भसे ही भीमसेनकी शक्तिका, बलवत्ताका अधिक प्रभाव पड़ा हुआ है। अतः वह पाण्डव-सेनाके संरक्षकके लिये भीमसेनका ही नाम लेता है।  विशेष बात   अर्जुन कौरव-सेनाको देखकर किसीके पास न जाकर हाथमें धनुष उठाते हैं (गीता 1। 20), पर दुर्योधन पाण्डवसेनाको देखकर द्रोणाचार्यके पास जाता है और उनसे पाण्डवोंकी व्यूहरचनायुक्त सेनाको देखनेके लिये कहता है। इससे सिद्ध होता है कि दुर्योधनके हृदयमें भय बैठा हुआ है ( टिप्पणी प0 10 )। भीतरमें भय होनेपर भी वह चालाकीसे द्रोणाचार्यको प्रसन्न करना चाहता है, उनको पाण्डवोंके विरुद्ध उकसाना चाहता है। कारण कि दुर्योधनके हृदयमें अधर्म है, अन्याय है पाप है। अन्यायी, पापी व्यक्ति कभी निर्भय और सुख-शान्तिसे नहीं रह सकता--यह नियम है। परन्तु अर्जुनके भीतर धर्म है, न्याय है। इसलिये अर्जुनके भीतर अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये चालाकी नहीं है, भय नहीं है; किन्तु उत्साह है, वीरता है। तभी तो वे वीरतामें आकर सेना-निरीक्षण करनेके लिये भगवान्को आज्ञा देते हैं कि हे अच्युत! दोनों सेनाओंके मध्यमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये' (1। 21)। इसका तात्पर्य है कि जिसके भीतर नाश्वान् धन-सम्पति आदिका आश्रय है, आदर है और जिसके भीतर अधर्म है, अन्याय है, दुर्भाव है, उसके भीतर वास्तविक बल नहीं होता। वह भीतरसे खोखला होता है और वह कभी निर्भय नहीं होता। परन्तु जिसके भीतर अपने धर्मका पालन है और भगवान्का आश्रय है, वह कभी भयभीत नहीं होता। उसका बल सच्चा होता है। वह सदा निश्चिन्त और निर्भय रहता है। अतः अपना कल्याण चाहनेवाले साधकोंको अधर्म, अन्याय आदिका सर्वथा त्याग करके और एकमात्र भगवान्का आश्रय लेकर भगवत्प्रीत्यर्थ अपने धर्मका अनुष्ठान करना चाहिये। भौतिक सम्पत्तिको महत्त्व देकर और संयोगजन्य सुखके प्रलोभनमें फँसकर कभी अधर्मका आश्रय नहीं लेना चाहिये; क्योंकि इन दोनोंसे मनुष्यका कभी हित नहीं होता,प्रत्युत अहित ही होता है।  सम्बन्ध-- अब दुर्योधन पितामह भीष्मको प्रसन्न करनेके लिये अपनी सेनाके सभी महारथियोंसे कहता है
।।1.10।।अपर्याप्तमिति। भीमसेनाभिरक्षितं पाण्डवीयं बलम् अस्माकमपर्याप्तं जेतुमशक्यम् (S N जेतुमसमर्थम्)। यदि वा (K अथवा) अपर्याप्तम् कियत्तदस्मद्बलस्येत्येवार्थः (K omits एव)। इदं तु भीष्माभिरक्षितं बलमस्माकं सम्बन्धि एतेषां पाण्डवानां पर्याप्तम् (S पाण्वानां बलं पर्याप्तम् N omit पर्याप्तम्) जेतुं शक्यम् (S शक्तम्) यदि वा पर्याप्तं बहु न समरे जय्यमेतैरिति।
।।1.10।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.10।।राजा पुनरपि स्वकीयभयाभावे हेत्वन्तरमाचार्यं प्रत्यावेदयति  अपर्याप्तमिति।  अस्माकं खल्विदमेकादशसंख्याकाक्षौहिणीपरिगणितमपरिमितं बलं भीष्मेण च प्रथितमहामहिम्ना सूक्ष्मबुद्धिना सर्वतो रक्षितं पर्याप्तं परेषां परिभवे समर्थम्। एतेषां पुनस्तदल्पं सप्तसंख्याकाश्रौहिणीपरिमितं बलं भीमेन च चपलबुद्धिना कुशलताविकलेन परिपालितमपर्याप्तम्। अस्मानभिभवितुमसमर्थमित्यर्थः। अथवा तदिदमस्माकं बलं भीष्माधिष्ठितमपर्याप्तमपरिमितमधृष्यमक्षोभ्यम् एतेषां तु पाण्डवानां बलं भीमेनाभिरक्षितं पर्याप्तं परिमितम्। सोढुं शक्यमित्यर्थः। अथवा तत्पाण्डवानां बलमपर्याप्तं नालमस्माकमस्मभ्यं भीष्माभिरक्षितं भीष्मोऽभिरक्षितोऽस्मै परबलनिवृत्त्यर्थमिति तदेव तथोच्यते इदं पुनरस्मदीयं बलमेतेषां पाण्डवानां पर्याप्तं परिभवे समर्थं भीमाभिरक्षितं भीमो दुर्बलहृदयो यस्मादस्मै परबलनिवृत्त्यर्थमभिरक्षितस्तस्मादस्माकं न किञ्चिदपि भयकारणमस्तीत्यर्थः।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।।1.10।।राजा पुनरपि सैन्यद्वयसाम्यमाशङ्क्य स्वसैन्याधिक्यमावेदयति अपर्याप्तमनन्तमेकादशाक्षौहिणीपरिमितं भीष्मेण च प्रथितमहिम्ना सूक्ष्मबुद्धिनाभितः सर्वतो रक्षितं तत्तादृशगुणवत्पुरुषाधिष्ठितमस्माकं बलम्। एतेषां पाण्डवानां बलं तु पर्याप्तं परिमितं सप्ताक्षौहिणीमात्रात्मकत्कत्वान्नयूनं भीमेन चातिचपलबुद्धिना रक्षितम् तस्मादस्माकमेव विजयो भविष्यतीत्यभिप्रायः। अथवा तत्पाण्डवानां बलमपर्याप्तं नालमस्माकभस्मभ्यम्। क्रीदृशं तत्। भीष्मोऽभिरक्षितोऽस्माभिर्यस्मै यन्निवृत्त्यर्थमित्यर्थः। तत्पाण्डवबलं भीष्माभिरक्षितं इदं पुनरस्मदीयं बलमेतेषां पाण्डवानां पर्याप्तं परिभवे समर्थं भीमोऽतिदुर्बलहृदयोऽभिरक्षितो यस्मै तदस्माकं बलं भीमाभिरक्षितं यस्माद्भीमोऽत्ययोग्य एवैतन्निवृत्त्यर्थं तै रक्षितस्तस्मादस्माकं न किंचिदपि भयकारणमस्तीत्यभिप्रायः। एवंचेन्निर्भयोऽसि तर्हि किमिति बहु जल्पसीत्यत आह। कर्तव्यविशेषद्योती तुशब्दः।
।।1.10।।  ततः किमित्यत आह  अपर्याप्तमिति।  तत् तथाभूतैर्वीरैयुक्तमपि भीष्मेणाभिरक्षितमप्यस्माकं बलं सैन्यमपर्याप्तं तैः सह योद्धुमसमर्थं भाति। इदं तु एतेषां पाण्डवानां बलं भीमेनाभिरक्षितं सत् पर्याप्तं समर्थं भाति। भीष्मस्योभयपक्षपातित्वात्। अस्मद्बलं पाण्डवसैन्यं प्रत्यसमर्थम्। भीमस्यैकपक्षपातित्वात्।
।। 1.10।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः
।।1.10।।एवं सर्वाननूद्यैतद्रक्षितमप्यस्मद्बलं तद्बलयुद्धासमर्थं मम भातीत्याह अपर्याप्तमिति। भीष्माभिरक्षितमप्यस्माकं बलं अपर्याप्तं तैः सह योद्धुमसमर्थं भाति। द्रोणः कदाचित्कुप्येदिति भीष्माभिरक्षितमेवोक्तम्। पाण्डवानां च बलमस्मामिर्योद्धुं समर्थं भातीत्याह पर्याप्तमिति। इदं तेषां पाण्डवानां बलं भीमेनाभितः सर्वतो रक्षितं सत् पर्याप्तं समर्थं प्रतिभाति। तुशब्देनापर्याप्तपक्षो निराकृतः। यद्वा तत्प्रसिद्धमस्माकं बलं अपर्याप्तं अत्यधिकम्। किञ्च भीष्मेणाभितो रक्षितम्। तेषां तु बलं शूरभूयिष्ठमपि पर्याप्तम् अक्षौहिणीसप्तकमितत्वात्। किञ्च भीमेनाभिरक्षितम्।
।।1.10।।पर्याप्तं परित आप्तं परिवेष्टितम्। पाण्डवसैन्यं हि सप्ताक्षौहिणीमितत्वादल्पं बहुनैकादशाक्षौहिणीमितेनास्मत्सैन्येन वेष्टयितुं शक्यं नतु तदीयेनास्मदीयमित्यर्थः। एवं च पर्याप्तमित्यस्य पारणीयमित्यर्थः।
।।1.10।।स्वोत्कर्षे हेत्वन्तरमाह  अपर्याप्तमिति।  तत्परेषां बलमस्माकं बलं सैन्यमभिभवितुमपर्याप्तसमर्थं यतोऽस्माकं बलं भीष्मेण प्रथितमहिम्नातिशूरेण रक्षितमिदभस्मदीयं तु बलमेतेषां सैन्यमभिभवितुं पर्याप्तं समर्थम्। यतः परेषां बलं भीमेन बालेनाभिरक्षितमित्यर्थः। यद्वा तत्परोक्षं सर्वं विषयीकर्तुमशक्यमस्माकं बलं भीष्मेण चाभिरक्षितमतोऽपर्याप्तं पर्याप्तुमभिभवितुं क्षोभयितुमशक्यम्। एतेषां त्विदं परिदृश्यमानं परिमितमितियावत्। भीमेन चाभिरक्षितभतः पर्याप्तं पर्याप्तुमभिभवितुं क्षोभयितुं सोढुं च शक्यमित्यर्थः। यद्वा तत्तस्मात् अस्माकमिदं बलमपर्याप्तं परि समन्तादितस्ततः सर्वं प्राप्तं न भवति किंतु स्वकीयमेव बहु एतेषां तु बलं परि समन्तादितस्ततः प्राप्तं पर्याप्तमतोऽस्मत्सैन्यं मनो दत्त्वा युद्धं करिष्यतीति कृत्वास्माकं प्राबल्यमिति भावः। अस्माकं किलेदमेकादशाक्षौहिणीपरिमितं बलं भीष्मेण चाभिरक्षितं पर्याप्तं परेषां परिभवे समर्थं एतेषां पुनस्तदल्पं सप्ताक्षौहिणीपरिमितं बलं भीमेन चपलबुद्धिना कुशलताविकलेन परिपालितमपर्याप्तम्। अस्मानभिभवितुमसमर्थमित्यर्थः।।अथवा तदिदमस्माकं बलमपर्याप्तमनल्पं भीष्मेण चाधिष्ठितं तेषां तु बलं पर्याप्तमल्पं भीमेन चाधिष्ठितमतोऽस्माकमेव जयो भविष्यतीति भावः। अथवा तत्पाण्डवानां बलमस्माकमस्मभ्यं अपर्याप्तं नालम् यत एतेषां बलं भीष्माभिरक्षितं भीष्मोऽभिरक्षितो निवृत्त्यर्थमस्मै। ततः इदं पुनरस्मदीयं बलं तेषां परिभवे पर्याप्तं समर्थम्। यतो भीमोऽभिरक्षितोऽस्मै तत् अस्मत्सैन्यनिवृत्त्यर्थं दुर्बलहृदयो भीमः परैरभिरक्षित इत्यर्थइत्येके। यत्तु तथाभूतैर्युक्तमपि भीष्मेणाभिरक्षितमपि अस्माकं बलं सैन्यमपर्याप्तं तैः सह योद्धुमसमर्थं भाति इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं सत् पर्याप्तं समर्थं भाति। भीष्मस्योभयपक्षपातित्वादिति भाव इति तदुपेक्ष्यम्। प्रकरणविरोधात्। तदेवं बहुमानयुक्तं राजवाक्यं श्रुत्वा भीष्मः किं कृतवानिति स्वग्रन्थविरोधाच्च।
1.10 अपर्याप्तम् insufficient? तत् that? अस्माकम् ours? बलम् army? भीष्माभिरक्षितम् marshalled by Bhishma? पर्याप्तम् sufficient? तु while? इदम् this? एतेषाम् their? बलम् army? भीमाभिरक्षितम् marshalled by Bhima.Commentary The verse is differently interpreted by different commentators. Sridhara Swami takes the word aparyaptam to mean insufficient. Ananda Giri takes it to mean unlimited.
1.10. "This army of ours marshalled by Bhishma is insufficient, whereas that army of theirs marshelled by Bhima is sufficient.
1.10 Yet our army seems the weaker, though commanded by Bheeshma; their army seems the stronger, though commanded by Bheema.
1.10 Therefore, our army under the complete protection of Bhisma and others is unlimited. But this army of these (enemies), under the protection of Bhima and others is limited.
null
1.10. Thus the army guarded by Bhima is unlimited (or insufficient) for us; on the other hand, the army guarded by Bhisma is limited (or sufficient) for them (the Pandavas).
1.10 Aparyaptam etc. For us, for Pandava army grauded by Bhimasena is unlimited, i.e., it is not possible to vanish; or it is not sufficient, i.e., very insignificant when compared with our army. This is the meaning. On the other hand, for these Pandavas, this army guarded by Bhisma, belonging to us, is limited i.e., it is possible to vanish; or it is sufficient i.e., too much; in other words it is not possible to be vanished in the war by these (Pandavas).
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.10 Inadequate is this force of ours, which is guarded by Bhisma, while adequate is that force of theirs, which is guarded by Bhima.
null
null
null
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अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।1.10।।
অপর্যাপ্তং তদস্মাকং বলং ভীষ্মাভিরক্ষিতম্৷ পর্যাপ্তং ত্বিদমেতেষাং বলং ভীমাভিরক্ষিতম্৷৷1.10৷৷
অপর্যাপ্তং তদস্মাকং বলং ভীষ্মাভিরক্ষিতম্৷ পর্যাপ্তং ত্বিদমেতেষাং বলং ভীমাভিরক্ষিতম্৷৷1.10৷৷
અપર્યાપ્તં તદસ્માકં બલં ભીષ્માભિરક્ષિતમ્। પર્યાપ્તં ત્વિદમેતેષાં બલં ભીમાભિરક્ષિતમ્।।1.10।।
ਅਪਰ੍ਯਾਪ੍ਤਂ ਤਦਸ੍ਮਾਕਂ ਬਲਂ ਭੀਸ਼੍ਮਾਭਿਰਕ੍ਸ਼ਿਤਮ੍। ਪਰ੍ਯਾਪ੍ਤਂ ਤ੍ਵਿਦਮੇਤੇਸ਼ਾਂ ਬਲਂ ਭੀਮਾਭਿਰਕ੍ਸ਼ਿਤਮ੍।।1.10।।
ಅಪರ್ಯಾಪ್ತಂ ತದಸ್ಮಾಕಂ ಬಲಂ ಭೀಷ್ಮಾಭಿರಕ್ಷಿತಮ್. ಪರ್ಯಾಪ್ತಂ ತ್ವಿದಮೇತೇಷಾಂ ಬಲಂ ಭೀಮಾಭಿರಕ್ಷಿತಮ್৷৷1.10৷৷
അപര്യാപ്തം തദസ്മാകം ബലം ഭീഷ്മാഭിരക്ഷിതമ്. പര്യാപ്തം ത്വിദമേതേഷാം ബലം ഭീമാഭിരക്ഷിതമ്৷৷1.10৷৷
ଅପର୍ଯାପ୍ତଂ ତଦସ୍ମାକଂ ବଲଂ ଭୀଷ୍ମାଭିରକ୍ଷିତମ୍| ପର୍ଯାପ୍ତଂ ତ୍ବିଦମେତେଷାଂ ବଲଂ ଭୀମାଭିରକ୍ଷିତମ୍||1.10||
aparyāptaṅ tadasmākaṅ balaṅ bhīṣmābhirakṣitam. paryāptaṅ tvidamētēṣāṅ balaṅ bhīmābhirakṣitam৷৷1.10৷৷
அபர்யாப்தஂ ததஸ்மாகஂ பலஂ பீஷ்மாபிரக்ஷிதம். பர்யாப்தஂ த்விதமேதேஷாஂ பலஂ பீமாபிரக்ஷிதம்৷৷1.10৷৷
అపర్యాప్తం తదస్మాకం బలం భీష్మాభిరక్షితమ్. పర్యాప్తం త్విదమేతేషాం బలం భీమాభిరక్షితమ్৷৷1.10৷৷
1.11
1
11
।।1.11।। आप सब-के-सब लोग सभी मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह दृढ़ता से स्थित रहते हुए ही पितामह भीष्म की चारों ओर से रक्षा करें।
।।1.11।।विभिन्न मोर्चों पर अपने-अपने स्थान पर स्थित रहते हुए आप सब लोग भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।
।।1.11।। इतने समय निरन्तर अकेले ही बोलने और उभय पक्ष की सार्मथ्य को तौलने के पश्चात युद्धतत्पर दुर्योधन में स्थित राजा अपने मन की सघन निराशा के मेघखण्डों को भेदकर सेना को आदेश देना प्रारम्भ करता है। उसका आदेश है कि सभी योद्धा एवं नायक स्वस्थान पर रहकर अनुशासनपूर्वक युद्ध करें और साथ ही भीष्म पितामह को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करें। उसे इस बात की आशंका है कि सुदूर राज्यों से आये हुये राजा एवं जनजातियों के नायक यदि इधरउधर बिखर गये तो विजय मिलना कठिन है। संगठित रूप से सब मोर्चों पर एक ही समय आक्रमण करना किसी भी सेना की सफलता का मेरुदण्ड है। इसलिये एक सही प्रकार की रणनीति अपनाते हुये वह सबको आदेश देता है कि विभिन्न स्थानों पर रहते हुये भी सब भीष्माचार्य का रक्षण करें।
1.11।। व्याख्या--'अयनेषु च सर्वेषु ৷৷. भवन्तः सर्व एव हि'--जिन-जिन मोर्चोंपर आपकी नियुक्ति कर दी गयी है, आप सभी योद्धालोग उन्हीं मोर्चोंपर दृढ़तासे स्थित रहते हुए सब तरफसे, सब प्रकारसे भीष्मजीकी रक्षा करें। भीष्मजीकी सब ओरसे रक्षा करें--यह कहकर दुर्योधन भीष्मजीको भीतरसे अपने पक्षमें लाना चाहता है। ऐसा कहनेका दूसरा भाव यह है कि जब भीष्मजी युद्ध करें, तब किसी भी व्यूहद्वारसे शिखण्डी उनके सामने न आ जाय--इसका आपलोग खयाल रखें। अगर शिखण्डी उनके सामने आ जायगा, तो भीष्मजी उसपर शस्त्रास्त्र नहीं चलायेंगे। कारण कि शिखण्डी पहले जन्ममें भी स्त्री था, और इस जन्ममें भी पहले स्त्री था पीछे पुरुष बना है। इसलिये भीष्मजी इसको स्त्री ही समझते हैं और उन्होंने शिखण्डीसे युद्ध न करनेकी प्रतिज्ञा कर रखी है। यह शिखण्डी शङ्करके वरदानसे भीष्मजीको मारनेके लिये ही पैदा हुआ है। अतः जब शिखण्डीसे भीष्मजीकी रक्षा हो जायगी, तो फिर वे सबको मार देंगे, जिससे निश्चित ही हमारी विजय होगी। इस बातको लेकर दुर्योधन सभी महारथियोंसे भीष्मजीकी रक्षा करनेके लिये कह रहा है।
।।1.11।।अयनेषु इति अयनानि वीययः।
।।1.11।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.11।।स्वकीयबलस्य भीष्माधिष्ठितत्वेन बलिष्ठत्वमुक्त्वा भीष्मशेषत्वेन तदनुगुणत्वं द्रोणादीनां प्रार्थयते  अयनेष्विति।  कर्तव्यविशेषद्योती चशब्दः। समरसमारम्भसमये योधानां यथाप्रधानं युद्धभूमौ पूर्वापरादिदिग्विभागेनावस्थितिस्थानानि नियम्यन्ते तान्यत्रायनान्युच्यन्ते सेनापतिश्च सर्वसैन्यमधिष्ठाय मध्ये तिष्ठति तेषु सर्वेषु प्रक्लृप्तं प्रविभागमप्रत्याख्याय भवानश्वत्थामा कर्णश्चेत्येवमादयो भवन्तः सर्वेऽवस्थिताः सन्तो भीष्ममेव सेनापतिं सर्वतो रक्षन्तु तस्य हि रक्षणे सर्वमस्मदीयं बलं रक्षितं स्यात् परबलनिवृत्त्यर्थत्वेन तस्यास्माभी रक्षितत्वादित्यर्थः।
।।1.2 1.11।।दुर्योधनोऽपि वृकोदरादिभी रक्षितं पाण्डवानां बलं भीष्माभिरक्षितं स्वीयं च बलं विलोक्य आत्मजविजये तद्बलस्य पर्याप्ततां आत्मबलस्य तद्बिजयेऽपर्याप्ततां च आचार्ये निवेद्यान्तरेव विष्ण्णोऽभूत्।
।।1.11।।समरसभारम्भसमये योधानां यथाप्रधानं युद्धभूमौ पूर्वापरादिदिग्विभागेनावस्थितिस्थानानि यानि नियम्यन्ते तान्यत्रायनान्युच्यन्ते। सेनापतिश्च सर्वसैन्यमधिष्ठाय मध्ये तिष्ठति। तत्रैवंसति यथाभागं विभक्तां स्वां स्वां रणभूमिमपरित्यज्यावस्थिताः सन्तो भवन्तः सर्वेऽपि युद्धाभिनिवेशात्पुरतः पृष्ठतः पार्श्वतश्चानिरीक्षमाणं भीष्मं सेनापतिमेव रक्षन्तु। भीष्मे हि सेनापतौ रक्षिते तत्प्रसादादेव सर्वं सुरक्षितं भविष्यतीत्यभिप्रायः।
।।1.11।।  तस्माद्भवद्भिरेवं वर्तितव्यमित्याह  अयनेष्विति।  अयनेषु व्यूहप्रवेशमार्गेषु यथाभागं विभक्तां स्वां स्वां रणभूमिमपरित्यज्यावस्थिताः सन्तः सर्वे भीष्ममेवाभितो रक्षन्तु यथाऽन्यैर्युध्यमानः पृष्ठतः कैश्चिन्न हन्येत तथा रक्षन्तु। भीष्मबलेनैवास्माकं जीवितमिति भावः।
।। 1.11।।एवं सुयोधनविजयबुभुत्सया कृतस्य प्रश्नस्ययत्र योगेश्वरः 18।78 इति साक्षादुत्तरं वक्ष्यन् तत्प्रत्यायनार्थमखिलमवान्तरवृत्तमपि सञ्जय उवाच दृष्ट्वेति। पाण्डवानीकं व्यूढं दृष्ट्वा इति सुयोधनस्य धैर्यभ्रंशहेतुः। तदधीनो धैर्यभ्रंशरूपोऽवस्थाविशेषःतुशब्देन सूच्यते। दृष्ट्वेत्यादेरनुनादयन्नित्यन्तस्याव्यक्तांशं व्यञ्जयति दुर्योधन इत्यादिनाअकथयत् रा.भा.1।19 इत्यन्तेन। संज्ञार्थं सम्यग्ज्ञानार्थम् संज्ञया परिसंख्यानार्थं वा। तत्रअन्तर्विषण्णोऽभवत् इत्यन्तेनभीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि 1।11 इत्येतदन्तं व्याख्यातम्।अपर्याप्तं 1।10 इति श्लोकस्यायमर्थः तत् तस्मात् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितमपर्याप्तं परबलविजयाय नालम् इदं त्वेतेषां पाण्डवानां बलं भीमाभिरक्षितं पर्याप्तमस्मद्बलविजयायालम् इति। नन्विदमनुपपन्नं तद्बलमिति सामानाधिकरण्यप्रतीतिभङ्गायोगात् पूर्वत्र च परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतूपन्यासाभावात्। न च भीष्मद्रोणादिरक्षितं स्वबलमयमसमर्थं मन्यते। प्रबलानामेव हि भीष्मद्रोणादीनां वधः सोपाधिकः।न भेतव्यं महाराज म.भा.उ.प.55।1 इत्यादिषु च बहुशः स्वबलस्यैव सामर्थ्यं दुर्योधनेनोपन्यस्तम्। न चेदानीं तद्विपरीतप्रतीतौ कारणमस्ति। द्वितीयदिवसारम्भे च दुर्योधन एवं वक्ष्यति अपर्याप्तं तदस्माकं बलं पार्थाभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं पार्थिवसत्तमाः म.भा.उ.प. इति। तत्र चास्माकमपर्याप्तमित्येवान्वयः न पुनरस्माकं बलमिति। ततोऽत्रापि तथैव वचनव्यक्तिरुचिता। तस्मात् पाठभेदेन व्यवहितान्वयेन वाक्यभेदेन पदार्थभेदेन वा योजना स्यात्। तत्र भीमभीष्मशब्दयोर्विपर्यासात्पाठभेदः। तथा च भीमाभिरक्षितं तद्बलमस्माकं अपर्याप्तमित्यन्वये सामानाधिकरण्यम् तदिति विप्रकृष्टनिर्देशस्वारस्यम् दुर्योधनाभिप्रायाविरोधश्च सिद्ध्यति। व्यवहितान्वयेऽप्ययमेवार्थः। द्विधा च व्यवहितान्वयोऽत्र शक्यः। भीमाभिरक्षितभीष्माभिरक्षितयोर्विपर्यासादेकःअपर्याप्तं तत् ৷৷. पर्याप्तं त्विदम् इत्यनयोर्विपर्यासाद्द्वितीयः। अर्थौचित्याय तु व्यवधानमात्रं सह्यते।वाक्यभेदेऽप्येवं योजना अपर्याप्तं तदित्येका प्रतिज्ञा पर्याप्तं त्विदमिति द्वितीया। अत्र को हेतुरिति शङ्कायां हेतुपरं वाक्यद्वयम् अस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् एतेषां बलं भीमाभिरक्षितमिति। अस्मद्बलस्य प्रबलाधिष्ठितत्वात् परबलस्य च दुर्बलाधिष्ठितत्वादित्यर्थः। पदार्थभेदे त्वेवं योजना पर्याप्तं पर्यापनं समापनम् पर्याप्तमिति कर्तरि क्तः नाशनसमर्थमित्यर्थः। अपर्याप्तं नाशनासमर्थमित्यर्थः। भीष्माभिरक्षितमस्माद्बलं तत् अपर्याप्तं नाशयितुं न शक्नोति।तत् इत्य पाण्डवबलं कर्तृतया निर्दिश्यतेइदम् इति च स्वबल परबलपर्यापनकर्तृतया। निष्ठायोगाच्च न कर्मणि षष्ठीप्राप्तिः यद्वा अपर्याप्तमपरिमितमित्यर्थः पर्याप्तं परिमितमित्यर्थः स्वबलस्यैकादशाक्षौहिणीयुक्तत्वात् परबलस्य सप्ताक्षौहिणी युक्तत्वाच्च। सर्वथा तावन्न स्वबलदौर्बल्यं परबलप्राबल्यं च युद्धारम्भे दुर्योधनः प्रसञ्जयेदिति सोऽयं घण्टापथात्पाटच्चर कुटीरप्रवेशः। तथाहि इह तावद्भीष्माभिरक्षितमित्येतत्प्रति शिरस्तया भीमाभिरक्षितमिति केनाभिप्रायेण निर्दिश्यते न तावद्भीष्मवद्भीमस्यापि सेनापतित्वेन धृष्टद्युम्नस्य तत्पतित्वेनोक्तत्वात्। नापि भीष्मसमपौरुषत्वेन अत्यन्तविषमतया प्रसिद्धेः। यथोक्तं भीष्मेणैव शक्तोऽहं धनुषैकेन निहन्तुं सर्वपाण्डवान्। यद्येषां न भवेद्गोप्ता विष्णुः कारणपूरुषः म.भा. इति। नापि प्रतिबलाधीश्वरत्वेन धर्मसूनोस्तथात्वात्। नापि परबलभटप्रधानत्वेन अर्जुनस्यैव तथा प्रसिद्धेः। अतो भीमस्य समस्तधार्तराष्ट्रवधदीक्षितत्वात्तदुचितसाहसबलसहायादियुक्तत्वाच्च तस्य विशेषतो निर्देशः। एवं सति तत्प्रतिशिरस्त्वेन भीष्मस्य निर्देशोऽपि समस्तपाण्डुतनयसंरक्षणप्रवणत्वेन प्रतिपन्नत्वात्। अतः शत्रुभयसहायातिशङ्के पदद्वयसूचिते इत्युक्तं भवति। यत्तूक्तं पूर्वत्र परबलस्वबलयोः सामर्थ्यासामर्थ्यहेतुः कश्चिन्नोक्त इति तदप्यसमीक्षितवचनम्। उपक्रमे हि प्रथममेव स्वबलाच्चतुरक्षौहिणीन्यूनापिमहतीं चमूम् 1।3 इति प्रतिचमूर्वर्णिता। अनन्तरंधीमता 1।3 इत्यन्तेन प्रतिसेनापतिर्वर्णितः। तदनन्तरं चअत्र शूरा महेष्वासाः 1।4 इत्यारभ्यसर्व एव महारथाः 1।6 इत्यन्तेन दृष्टान्तीकृतभीमार्जुनाभ्यां सहासन्नविंशतिसङ्ख्याः पुरुषा निरतिशयपौरुषतया वर्णिताः स्वपक्षे तु न चमूर्वर्णिता नापि सेनापतिः। स्वबलप्रधानपरिसंख्याने च सप्त पुरुषा उपात्ताः व्यतिरिक्तास्त्वाकृतिगणत्वेनअन्ये च बहवः शूराः इत्युक्ताःमदर्थे त्यक्तजीविताः 1।9 इति चोक्तम् न तुमदर्थे जिगीषवः इति साभिसन्धिकत्वमेव तेनापि प्रतिपाद्यत इति चेत् सत्यम्। तथापि वचनव्यक्तिप्रकार एवंविधः अभिसन्धिद्योतनायापि हि त्यक्तजीवितत्ववचनं प्रतिभटानां बलीयस्त्वबुद्ध्यैव भवति। अनन्तरं चतस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः
।।1.11।।एवं सति किं कर्त्तव्यमित्याकाङ्क्षायामाह अयनेषु चेति। व्यूहप्रवेशमार्गेषु यथाभागं विभक्ताः स्वस्वस्थाने स्थिता भवन्तः सर्व एव भीष्ममेवाभितः सर्वतः रक्षन्तु। यतोऽस्माकं बलं भीष्मरक्षितमेव। चकारेण व्यूहप्रवेशमार्गात् परस्थानेऽपि स्थितैरिदमपि ज्ञापितम्। एवकारेणास्मदादिरक्षा कार्येति ज्ञापितम्। हीति युक्तत्वम्।
।।1.11।।अयनेषु व्यूहरचनया स्थिते सैन्ये प्रवेशमार्गेषु स्वे स्वे स्थाने स्थिता यूयं मध्यस्थं भीष्ममेवाभिरक्षन्तु। अस्य सेनापतेश्चाञ्चल्ये सर्वापि सेना आकुलीभवेत्। तत्स्थैर्ये स्थिरा च भवेदतः स एव रक्ष्य इत्यर्थः।
।।1.11।।तस्माद्भीष्ममेव सेनापतिं गुणभूता भवन्तो रक्षन्त्विति प्रार्थयते  अयनेष्विति।  संग्रामप्रारम्भे योधानां यथाप्रधानं संख्ये पूर्वपरादिविभागेन नियतेष्ववस्थितिस्थानेष्वयनेषु। तुना कर्तव्यविशेषो द्योत्यते। यथाभागं विभागेन प्राप्तं स्वस्थानमवस्थिताः सावधानतया स्थिताः सर्व एव भवन्तः सर्वसैन्यमधिष्ठाय मध्ये स्थितं युद्धे व्यग्रं सेनापतिं भीष्ममेवाभि समन्ताद्रक्षन्तु परबलनिवृत्त्यर्थमस्माभिस्तस्मिन्नक्षिते सर्वमस्मदीयं रक्षितं स्यादित्यर्थः।
1.11 अयनेषु in the arrays (of the army)? च and? सर्वेषु in all? यथाभागम् according to division? अवस्थिताः being stationed? भीष्मम् Bhishma? एव alone? अभिरक्षन्तु protect? भवन्तः ye? सर्वे all? एव even? हि indeed.No Commentary.
1.11. "Therefore do ye all, stationed in your respective positions, in the several divisions of the army, protect Bhishma alone."
1.11 Therefore in the rank and file, let stand firm in their posts, according to battalions; and all you generals about Bheeshma.
1.11 However, venerable sirs, all of you without exception, while occupying all the positions in the different directions as alloted (to you respectively), please fully protect Bhisma in particular.
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1.11. Stationed firmly in all [your] respective paths, every one of you without exception should guard Bhisma, above all.
1.11 Ayanesu etc. Paths : rows.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.11 Therefore all of you taking your places firmly in your respective divisions, guard Bhisma at all cost.
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अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः। भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।1.11।।
অযনেষু চ সর্বেষু যথাভাগমবস্থিতাঃ৷ ভীষ্মমেবাভিরক্ষন্তু ভবন্তঃ সর্ব এব হি৷৷1.11৷৷
অযনেষু চ সর্বেষু যথাভাগমবস্থিতাঃ৷ ভীষ্মমেবাভিরক্ষন্তু ভবন্তঃ সর্ব এব হি৷৷1.11৷৷
અયનેષુ ચ સર્વેષુ યથાભાગમવસ્થિતાઃ। ભીષ્મમેવાભિરક્ષન્તુ ભવન્તઃ સર્વ એવ હિ।।1.11।।
ਅਯਨੇਸ਼ੁ ਚ ਸਰ੍ਵੇਸ਼ੁ ਯਥਾਭਾਗਮਵਸ੍ਥਿਤਾ। ਭੀਸ਼੍ਮਮੇਵਾਭਿਰਕ੍ਸ਼ਨ੍ਤੁ ਭਵਨ੍ਤ ਸਰ੍ਵ ਏਵ ਹਿ।।1.11।।
ಅಯನೇಷು ಚ ಸರ್ವೇಷು ಯಥಾಭಾಗಮವಸ್ಥಿತಾಃ. ಭೀಷ್ಮಮೇವಾಭಿರಕ್ಷನ್ತು ಭವನ್ತಃ ಸರ್ವ ಏವ ಹಿ৷৷1.11৷৷
അയനേഷു ച സര്വേഷു യഥാഭാഗമവസ്ഥിതാഃ. ഭീഷ്മമേവാഭിരക്ഷന്തു ഭവന്തഃ സര്വ ഏവ ഹി৷৷1.11৷৷
ଅଯନେଷୁ ଚ ସର୍ବେଷୁ ଯଥାଭାଗମବସ୍ଥିତାଃ| ଭୀଷ୍ମମେବାଭିରକ୍ଷନ୍ତୁ ଭବନ୍ତଃ ସର୍ବ ଏବ ହି||1.11||
ayanēṣu ca sarvēṣu yathābhāgamavasthitāḥ. bhīṣmamēvābhirakṣantu bhavantaḥ sarva ēva hi৷৷1.11৷৷
அயநேஷு ச ஸர்வேஷு யதாபாகமவஸ்திதாஃ. பீஷ்மமேவாபிரக்ஷந்து பவந்தஃ ஸர்வ ஏவ ஹி৷৷1.11৷৷
అయనేషు చ సర్వేషు యథాభాగమవస్థితాః. భీష్మమేవాభిరక్షన్తు భవన్తః సర్వ ఏవ హి৷৷1.11৷৷
1.12
1
12
।।1.12।। दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए कुरुवृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्म ने सिंह के समान गरज कर जोर से शंख बजाया।
।।1.12।।उस समय कौरवों में वृद्ध, प्रतापी पितामह भीष्म ने उस (दुर्योधन) के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च स्वर में गरज कर शंखध्वनि की।
।।1.12।। दुर्योधन की मूर्खतापूर्ण वाचालता के कारण उसकी सेना के योद्धाओं की स्थिति बड़ी विचित्र सी हो रही थी। उन पर भी उदासी का प्रभाव प्रकट होने लगा जिसे भीष्म वहीं निकट खड़े देख रहे थे। भीष्म पितामह ने कर्मशील द्रोणाचार्य के मौन में छिपे क्रोध को समझ लिया। उन्होंने यह जाना कि इन सबको इस मनस्थिति से बाहर निकालने की आवश्यकता है अन्यथा स्थिति को इसी प्रकार छोड़ देने पर आसन्न युद्ध के समय योद्धागण प्रभावहीन हो जायेंगे। योद्धाओं के इस मनोभाव को समझते हुये सेनापति भीष्म पितामह ने दुर्योधन के साथ सभी सैनिकों के मन में हर्ष और विश्वास की तरंगें उत्पन्न करने के लिये पूरी शक्ति से शंखनाद किया।यद्यपि भीष्माचार्य का यह शंखनाद दुर्योधन के प्रति करुणा से प्रेरित था तथापि उसका अर्थ युद्धारम्भ की घोषणा करने वाला सिद्ध हुआ जैसे कि आधुनिक युद्धों में पहली गोली चलाकर युद्ध प्ररम्भ होता है। शंख के इस सिंहनाद के साथ महाभारत के युद्ध का प्रारम्भ हुआ और इतिहास की दृष्टि से कौरव ही आक्रमणकारी सिद्ध होते हैं।
।।1.12।। व्याख्या--'तस्य संजनयन् हर्षम्'-- यद्यपि दुर्योधनके हृदयमें हर्ष होना शंखध्वनिका कार्य है और शंखध्वनि कारण है, इसलिये यहाँ शंखध्वनिका वर्णन पहले और हर्ष होनेका वर्णन पीछे होना चाहिये अर्थात् यहाँ 'शंख बजाते हुए दुर्योधनको हर्षित किया'--ऐसा कहा जाना चाहिये। परन्तु यहाँ ऐसा न कहकर यही कहा है कि 'दुर्योधनको हर्षित करते हुये भीष्मजीने शंख बजाया'। कारण कि ऐसा कहकर सञ्जय यह भाव प्रकट कर रहे हैं कि पितामह भीष्मकी शंखवादन क्रियामात्रसे दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न हो ही जायगा। भीष्मजीके इस प्रभावको द्योतन करनेके लिये ही सञ्जय आगे  'प्रतापवान्'  विशेषण देते हैं।  'कुरुवृद्धः'-- यद्यपि कुरुवंशियोंमें आयुकी दृष्टिसे भीष्मजीसे भी अधिक वृद्ध बाह्लीक थे (जो कि भीष्मजीके पिता शान्तनुके छोटे भाई थे), तथापि कुरुवंशियोंमें जितने बड़े-बूढ़े थे, उन सबमें भीष्मजी धर्म और ईश्वरको विशेषतासे जाननेवाले थे। अतः ज्ञानवृद्ध होनेके कारण सञ्जय भीष्मजीके लिये 'कुरुवृद्धः' विशेषण देते हैं।  'प्रतापवान्'-- भीष्मजीके त्यागका बड़ा प्रभाव था। वे कनक-कामिनीके त्यागी थे अर्थात् उन्होंने राज्य भी स्वीकार नहीं किया और विवाह भी नहीं किया। भीष्मजी अस्त्र-शस्त्रको चलानेमें बड़े निपुण थे और शास्त्रके भी बड़े जानकार थे। उनके इन दोनों गुणोंका भी लोगोंपर बड़ा प्रभाव था। जब अकेले भीष्म अपने भाई विचित्रवीर्यके लिये काशिराजकी कन्याओंको स्वयंवरसे हरकर ला रहे थे तब वहाँ स्वयंवरके लिये इकट्ठे हुए सब क्षत्रिय उनपर टूट पड़े। परन्तु अकेले भीष्मजीने उन सबको हरा दिया। जिनसे भीष्म अस्त्र-शस्त्रकी विद्या पढ़े थे, उन गुरु परशुरामजीके सामने भी उन्होंने अपनी हार स्वीकार नहीं की। इस प्रकार शस्त्रके विषयमें उनका क्षत्रियोंपर बड़ा प्रभाव था। जब भीष्म शरशय्यापर सोये थे, तब भगवान् श्रीकृष्णने धर्मराजसे कहा कि 'आपको धर्मके विषयमें कोई शंका हो तो भीष्मजीसे पूछ लें; क्योंकि शास्त्रज्ञानका सूर्य अस्ताचलको जा रहा है अर्थात् भीष्मजी इस लोकसे जा रहे हैं  (टिप्पणी प0 11) ।'   इस प्रकार शास्त्रके विषयमें उनका दूसरोंपर बड़ा प्रभाव था।  'पितामहः' इस पदका आशय यह मालूम देता है कि दुर्योधनके द्वारा चालाकीसे कही गयी बातोंका द्रोणाचार्यने कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने यही समझा कि दुर्योधन चालाकीसे मेरेको ठगना चाहता है इसलिये वे चुप ही रहे। परन्तु पितामह (दादा) होनेके नाते भीष्मजीको दुर्योधनकी चालाकीमें उसका बचपना दीखता है। अतः पितामह भीष्म द्रोणाचार्यके समान चुप न रहकर वात्सल्यभावके कारण दुर्योधनको हर्षित करते हुए शंख बजाते हैं।  'सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ'-- जैसे सिंहके गर्जना करनेपर हाथी आदि बड़े-बड़े पशु भी भयभीत हो जाते हैं ऐसे ही गर्जना करनेमात्रसे सभी भयभीत हो जायँ और दुर्योधन प्रसन्न हो जाय--इसी भावसे भीष्मजीने सिंहके समान गरजकर जोरसे शंख बजाया।  सम्बन्ध-- पितामह भीष्मके द्वारा शंख बजानेका परिणाम क्या हुआ इसको सञ्जय आगेके श्लोकमें कहते हैं।
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।।1.12।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.12।।तमेवमाचार्यंप्रति संवादं कुर्वन्तं भयाविष्टं राजानं दृष्ट्वा तदभ्याशवर्ती पितामहस्तद्बुद्ध्यनुरोधार्थमित्थं कृतवानित्याह  तस्येति।  राज्ञो दुर्योधनस्य हर्षं बुद्धिगतमुल्लासविशेषं परपरिभवद्वारा स्वकीयविजयद्वारकं सम्यगुत्पादयन् भयं तदीयमपनिनीपुरुच्चैः सिंहनादं कृत्वा शङ्खमापूरितवान्। किमिति दुर्योधनस्य हर्षमुत्पादयितुं पितामहो यतते कुरुवृद्धत्वात्तस्य कुरुराजत्वात् पितामहत्वाच्चास्य दुर्योधनभयापनयनार्था प्रवृत्तिरुचिता तदुपजीवितया तद्वशत्वाच्च तस्य च सिंहनादे शङ्खशब्दे च परेषां हृदयव्यथा संभाव्यते दूरादेवारिनिवहंप्रति भयजननलक्षणप्रतापत्वादित्यर्थः।
।।1.12 1.13।।ततस्तद्विषादमवलोक्य भीष्मस्तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खनादं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैर्विजयाभिशंसकं घोषं चाकारयत्।
।।1.12।।स्तौतु वा निन्दतु वा एतदर्थे देहः पतिष्यत्येवेत्याशयेन तं हर्षयन्नेव सिंहनादं विनद्य शङ्खवाद्यं च कारितवानित्याह। एवं पाण्डवसैन्यदर्शनादतिभितस्य भयनिवृत्त्यर्थमाचार्यं कपटेन शरणं गतस्य इदानीमप्ययं मां प्रतारयतीत्यसंतोषवशादाचार्येण वाङ्यात्रेणाप्यनादृतस्याचार्योपेक्षां बुद्धा अयनेष्वित्यादिना भीष्मेव स्तुवतस्तस्य राज्ञो भयनिवर्तकं हर्षं बुद्धिगतमुल्लासविशेषं स्वविजयसूचकं जनयन्नुच्चैर्महान्तं सिंहनादं विनद्य कृत्वा। यद्वा सिंहनादमिति णमुलन्तम्। अतो रैपोषं पुष्यतीतिवत्तस्यैव धातोः पुनः प्रयोगः। शङ्ख दध्मौ वादितवान्। कुरुवृद्धत्वादाचार्यदुर्योधनयोरभिप्रायपरिज्ञानं पितामहत्वादनुपेक्षणं नत्वाचार्यवदुपेक्षणं प्रतापवत्त्वादुच्चैः सिंहनादपूर्वकशङ्खवादनं परेषां भयोत्पादनाय। अत्र सिंहनादशङ्खवाद्ययोर्हर्षजनकत्वेन पूर्वापरकालत्वेऽप्यभिचरन्यजेतेतिवज्जनयन्निति शताऽवश्यंभावित्वरूपवर्तमानत्वे व्याख्यातव्यः।
।।1.12।।  तदेवं बहुमानयुक्तं राज्ञो दुर्योधनस्य वाक्यं श्रुत्वा भीष्मः किं कृतवांस्तदाह  तस्येति।  तस्य राज्ञः हर्षं संजनयन् कुर्वन् पितामहो भीष्म उच्चैर्महान्तं सिंहनादं कृत्वा शङ्खं दध्मौ वादितवान्।
1.12 इति दुर्योधनस्य जनयितव्यहर्षत्वेन पूर्वं विषादः स्वरसतया प्रतीयते। एतदभिप्रायेणोक्तंअन्तर्विषण्णोऽभवत् इति। परस्ताच्चस घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यादारयत् 1।19 इति धार्तराष्ट्रहृदयसंक्षोभ एवोच्यते। अत उपक्रमे प्रतिचमूतत्सेनापतिसमग्रभटवर्णनात् उपसंहारेऽपि शङ्खशब्दमात्रेण हृदयसंक्षोभवचनात् मध्ये जनयितव्यहर्षत्वेन विषादोत्पत्तितदपनयनसूचनात् एतच्छ्लोकस्वारस्याच्च उक्तार्थ एव तात्पर्यम्। अतस्तच्छब्दस्य तस्मादिति हेत्वर्थत्वमुपपन्नम्। अत एव विप्रकृष्टनिर्देशचोद्यं च परिहृतम्। न च परबलमिदानीं दुर्योधनस्य परोक्षम्दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् 1।2पश्यैताम् 1।3एतेषाम् 1।10 इत्यादिप्रत्यक्षनिर्देशात्।यत्तु भीष्मद्रोणादिरक्षितस्य स्वबलस्य दौर्बल्यप्रतीतिर्न युक्तेति तदप्यसत् सोपाधिकस्यापि भीष्मद्रोणादिवधस्य ज्ञातोपाधिना दुर्योधनेन शङ्कितत्वोपपत्तेः। यत्तुन भेतव्यम् इत्यादौ बहुशः स्वबलसामर्थ्यमुपन्यस्तम् इदानीं च तद्विपरीतप्रतीतौ हेतुर्नास्तीति तदपि न। यथाऽर्जुनो जिघांसया शरचापोद्यमनपर्यन्तं प्रवृत्तोऽपि हन्तव्यबन्धुसमुदायसन्निधिसन्दर्शनेनोल्बणैः स्नेहकारुण्यधर्माधर्मभयैराकुलीकृतः पुनर्भगवता पर्यवस्थाप्यते तथाऽत्रापि दृढघटितव्यूहबहुमहाभटनिबिडप्रतिभटबलसाक्षात्कारादुल्बणभयविषादो दुर्योधनो भीष्मेण पर्यवस्थाप्यत इति किमनुपपन्नम्। प्रत्यक्षितं च दुर्योधनेन गोग्रहणस्वग्रहणादिवृत्तान्तेषु सर्वेभ्यः स्वबलभटेभ्यः परेषां सामर्थ्यम्। न चेदानीं तन्न स्मरति वदति हि स्वयमेवअकारादीनि नामानि अर्जुनत्रस्तचेतसः म.भा. इति। यत्तु द्वितीयदिवसारम्भोक्तवचनव्यक्तिवदत्रापि वचनव्यक्तिः कार्येति। तदपि मन्दम्। न ह्यवश्यमेकदेशसादृश्यात् सर्वथासादृश्येन भवितव्यमिति नियमः। प्रथमद्वितीयदिवसयोरभिप्रायभेदोऽनुपपन्न इति चेत् न युद्धसिद्धेश्चञ्चलत्वाद्यनुसन्धानेन विषमत्वादभिप्रायपद्धतेः। किंचात्राचार्यभीष्माभ्यां सह व्यूहान्तरमार्गेषु यथाभागमवस्थापनसेनासंरक्षणादिहितनिरूपणे प्रवृत्तत्वादेवमभिप्राय उपपन्नः। तदेतद्दर्शितंआचार्याय निवेद्यान्तर्विषण्णोऽभवदिति।द्वितीयदिवस तु स्वसहायभूतेभ्यः सर्वेभ्यः पार्थिवेभ्यः स्वधैर्यप्रकाशने बलसान्त्वनादौ च प्रवृत्तत्वात् तथा व्यवहार इति न कश्चिद्दोषः। तदेतदखिलमभिप्रेत्यदृष्ट्वा तु इति तुशब्दः प्रयुक्तः। इदं च प्रारम्भे दैवोपहतस्य दुर्योधनस्यातर्कितागतविषादमूलं स्वबलस्यापर्याप्तत्ववचनमागामिनमपजयं सूचयति। अतः सर्वजनपठितपाठस्वरससिद्धार्थस्य निर्दोषत्वात् पाठभेदादिपक्षाः परिक्षीणाः पाठभेदव्यवहितान्वयवाक्यंभेदाप्रसिद्धार्थकल्पनादीनामेव च प्रबलदूषणत्वात्। वाक्यभेदयोजनायां तु प्रतिज्ञाद्वये हेतुद्वयस्य यथाक्रमं तावदन्वयो न घटते। यो हि प्रबलो दुर्बलो वा यद्बलं रक्षति स तस्य पर्याप्तावपर्याप्तौ वा हेतुः स्यात् न तु तत्प्रतिबलस्य फलतस्तथानिर्देश इति चेत् तथाप्यस्वारस्यम्। प्रातिलोम्येन हेत्वोरन्वय इति चेत् तर्हि व्यवहितान्वयोऽप्यागतः। हेतुद्वयं समुच्चित्य प्रत्येकं प्रतिज्ञायां योज्यत इति चेत् तथापि व्यवहितान्वयास्वारस्ययोर्न परिहारः समुच्चायकशब्दाभावश्चाधिको दोषः। एवं दूषणान्तराण्यपि भाव्यानि। अतो यथाभाष्यमेवार्थ इति।।।1.12।।तस्य सञ्जनयन् इत्यादेःतुमुलोऽभवत् इत्यन्तस्यार्थमाह तस्येति। जनयन्निति शतुःलक्षणहेत्वोः क्रियायाः अष्टा.3।2।126 इति हेत्वर्थत्वसूचनायजनयितुं इत्युक्तम्।सिंहनादं विनद्य इत्येतत्ओदनपाकं पचति इतिवदिति सूचयितुंकृत्वा इति पदम्।कृभ्वस्तयः क्रियासामान्यवचनाः इत्येतद्व्यञ्जनायोदाहरणतयाशङ्खाध्मानं च कृत्वा इत्युक्तम्।ततः शङ्खाः इत्यत्र ततःशब्देन विजिगीषासूचनाय भीष्मेण सेनापतिना कारितत्वं ज्ञापितमित्यभिप्रायेणोक्तंअकारयदिति।शङ्खभेरीति पणवाद्युपलक्षणम् ततः श्लोकेऽपि कतिपयवाद्यविशेषनिर्देश उपलक्षणार्थ इति सूचितम्। सिंहनादशङ्खध्मानाभ्यां शङ्खभेर्यादिनादसमुच्चयार्थो द्वितीयश्चकारः। कृत्वेत्यनेन अकारयदित्यस्य समुच्चयार्थस्तृतीयः।
।।1.12।।सेनापतिरेव रक्षणीय इत्येवं स्वबहुमानप्रतिपादकं राजवाक्यं श्रुत्वा राज्ञो हर्षमुपजनयन् भीष्मः स्वबलख्यापकं शङ्खनादं कृतवानित्याह तस्येति। तस्य राज्ञः हर्षं सम्यक् प्रकारेण योत्स्यामि इत्यादिरूपेण जनयन्। भीष्मस्य भक्तत्वात्स्वपराजयज्ञानेन स्वतो हर्षेण न शङ्खादिवादनं किन्तु दुर्योधनस्य वाक्यं श्रुत्वा भगवदिच्छां ज्ञात्वा तस्य राज्ञः हर्षजननार्थं तथा कृतवानिति बोधयितुमेवमुक्तम्। कुरुवृद्धः कुरूणां कुरुषु वा वृद्धः देशकालोचितज्ञानः पितामह इति हर्षजनने हेतुरुक्तः भीष्मः उच्चैरूर्ध्वमुखं यथा स्यात्तथा महान्तं वा सिंहनादं विनद्य स्वप्रौढिज्ञापकं गर्जनं कृत्वा प्रतिभटः कोऽपि नास्तीति ज्ञापयन् शंखं दध्मौ वादितवान्। ननु राज्ञा बहुमाने कृतेऽपि राज्ञोऽग्रे तथा विनादं शङ्खादिवादनं च न कर्त्तव्यं तत्कथं कृतवानित्याशङ्क्याह प्रतापवानिति। नादेनैव शत्रुजयः सूच्यते।
।।1.12।।तस्य एवं वदतो दुर्योधनस्य संजयवाक्यमिदम्। सिंहनादमिति णमुलन्तम्। तेन विनद्येत्यस्यानुप्रयोगः कषादित्वात्समूलकाषं कषतिस्म दैत्यान् इत्यादिवत्। कुरुवृद्धो भीष्मः। प्राग्विराटनगरादौ दृष्टप्रभावान्पाण्डवान्दृष्ट्वा राज्ञो भयं मा भूदिति शङ्खं दध्मौ। हर्षं युद्धोत्साहं जनयन्। हेत्वर्थे शतृप्रत्ययः। हर्षजननार्थमित्यर्थः।
।।1.12।।एवं स्वस्याप्राधान्यं श्रुत्वा तूष्णीं स्थितभाचार्यं तं दृष्ट्वा खिन्नं स्वस्मिन्नतिभक्तिमन्तं दुर्योधनं चालक्ष्य भीष्मस्तस्य हर्षोत्पादने प्रवृत्त इत्याह  तस्येति।  दुर्योधनस्य हर्षं बुद्धिगतमुल्लासविशेषं सिंहनादशङ्खशब्दकरणद्वारकं सभ्यगुत्पादयंस्तदीयखेदापनयार्थमुच्चैः सिंहनादं विनद्य कृत्वा शङ्खं दध्मौ आपूरितवान्। कुरुवृद्धः पितामहः कुरुवृद्धत्वात् पितामहत्वात् तदुपजीवितया तद्वशत्वाच्च भीष्मस्योक्तार्थे प्रवृत्तिरुचितैवेति भावः। असामर्थ्यं वारयति  प्रतापवानिति।  कुरुवृद्धत्वादाचार्यदुर्योधनयोरभिप्रायपरिज्ञातं पितामहत्वादनुपेक्षणं नत्वाचार्यवदुपेक्षणमिति केचित्।
1.12 तस्य his (Duryodhanas)? संजयन् causing? हर्षम् joy? कुरुवृद्धः oldest of the Kurus? पितामहः grandfather? सिंहनादम् lions roar? विनद्य having sounded? उच्चैः loudly? शङ्खम् conch? दध्मौ blew? प्रतापवान् the glorious.No Commentary.
1.12. His glorious grandsire (Bhishma), the oldest of the Kauravas, in order to cheer Duryodhana, now roared like a lion, and blew his conch.
1.12 Then to enliven his spirits, the brave Grandfather Bheeshma, eldest of the Kuru-clan, blew his conch, till it sounded like a lion's roar.
1.12 The valiant grandfather, the eldest of the Kurus, loudly sounding a lion-roar, blew the conch to raise his (Duryodhana's) spirits.
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1.12. Generating joy in him, the powerful paternal grandfather (Bhisma), the seniormost among the Kurus, roared highly a lion-roar and blew his conchshell.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.12 Then the valiant grandsire Bhisma, seniormost of the Kuru clan, roaring like a lion, blew his conch with a view to cheer up Duryodhana.
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तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः। सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।।1.12।।
তস্য সংজনযন্হর্ষং কুরুবৃদ্ধঃ পিতামহঃ৷ সিংহনাদং বিনদ্যোচ্চৈঃ শঙ্খং দধ্মৌ প্রতাপবান্৷৷1.12৷৷
তস্য সংজনযন্হর্ষং কুরুবৃদ্ধঃ পিতামহঃ৷ সিংহনাদং বিনদ্যোচ্চৈঃ শঙ্খং দধ্মৌ প্রতাপবান্৷৷1.12৷৷
તસ્ય સંજનયન્હર્ષં કુરુવૃદ્ધઃ પિતામહઃ। સિંહનાદં વિનદ્યોચ્ચૈઃ શઙ્ખં દધ્મૌ પ્રતાપવાન્।।1.12।।
ਤਸ੍ਯ ਸਂਜਨਯਨ੍ਹਰ੍ਸ਼ਂ ਕੁਰੁਵਰਿਦ੍ਧ ਪਿਤਾਮਹ। ਸਿਂਹਨਾਦਂ ਵਿਨਦ੍ਯੋਚ੍ਚੈ ਸ਼ਙ੍ਖਂ ਦਧ੍ਮੌ ਪ੍ਰਤਾਪਵਾਨ੍।।1.12।।
ತಸ್ಯ ಸಂಜನಯನ್ಹರ್ಷಂ ಕುರುವೃದ್ಧಃ ಪಿತಾಮಹಃ. ಸಿಂಹನಾದಂ ವಿನದ್ಯೋಚ್ಚೈಃ ಶಙ್ಖಂ ದಧ್ಮೌ ಪ್ರತಾಪವಾನ್৷৷1.12৷৷
തസ്യ സംജനയന്ഹര്ഷം കുരുവൃദ്ധഃ പിതാമഹഃ. സിംഹനാദം വിനദ്യോച്ചൈഃ ശങ്ഖം ദധ്മൌ പ്രതാപവാന്৷৷1.12৷৷
ତସ୍ଯ ସଂଜନଯନ୍ହର୍ଷଂ କୁରୁବୃଦ୍ଧଃ ପିତାମହଃ| ସିଂହନାଦଂ ବିନଦ୍ଯୋଚ୍ଚୈଃ ଶଙ୍ଖଂ ଦଧ୍ମୌ ପ୍ରତାପବାନ୍||1.12||
tasya saṅjanayanharṣaṅ kuruvṛddhaḥ pitāmahaḥ. siṅhanādaṅ vinadyōccaiḥ śaṅkhaṅ dadhmau pratāpavān৷৷1.12৷৷
தஸ்ய ஸஂஜநயந்ஹர்ஷஂ குருவரித்தஃ பிதாமஹஃ. ஸிஂஹநாதஂ விநத்யோச்சைஃ ஷங்கஂ தத்மௌ ப்ரதாபவாந்৷৷1.12৷৷
తస్య సంజనయన్హర్షం కురువృద్ధః పితామహః. సింహనాదం వినద్యోచ్చైః శఙ్ఖం దధ్మౌ ప్రతాపవాన్৷৷1.12৷৷
1.13
1
13
।।1.13।। उसके बाद शंख, भेरी (नगाड़े), ढोल, मृदङ्ग और नरसिंघे बाजे एक साथ बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
।।1.13।।तत्पश्चात् शंख, नगारे, ढोल व शृंगी आदि वाद्य एक साथ ही बज उठे, जिनका बड़ा भयंकर शब्द हुआ।
।।1.13।। निसंदेह सभी योद्धागण अत्यधिक तनाव में थे परन्तु जैसे ही उन्होंने शंखनाद सुना सबने अपनाअपना शंख उठाकर शंखध्वनि की। उसके बाद युद्ध के वाद्य शंख भेरी नगाड़े आदि युद्ध की घोषणा के रूप में बजने लगे। संजय इस कोलाहल का वर्णन तुमुलध्वनि हुई इस प्रकार करता है। परन्तु आगे प्रत्युत्तर में हुई पाण्डवों की शंखध्वनि का वर्णन करते हुए कहता है कि वह शब्द इतना भयंकर था कि आकाश और पृथ्वी उससे गूँजने लगे और कौरवों के हृदय विदीर्ण होने लगे। इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि संजय दुर्योधन के इस कार्य का विरोधी था। अत हम पूर्ण विश्वास के साथ उसके द्वारा वर्णित युद्धभूमि में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेश को स्वीकार कर सकते हैं।
1.13।। व्याख्या--'ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानक-गोमुखाः'-- यद्यपि भीष्मजीने युद्धारम्भकी घोषणा करनेके लिये शंख नहीं बजाया था, प्रत्युत दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया था,तथापि कौरवसेनाने भीष्मजीके शंखवादनको युद्धकी घोषणा ही समझा। अतः भीष्मजीके शंख बजानेपर कौरवसेनाके शंख आदि सब बाजे एक साथ बज उठे।  'शंख' समुद्रसे उत्पन्न होते हैं। ये ठाकुरजीकी सेवापूजामें रखे जाते हैं और आरती उतारने आदिके काममें आते हैं। माङ्गलिक कार्योंमें तथा युद्धके आरम्भमें ये मुखसे फूँक देकर बजाये जाते हैं। 'भेरी' नाम नगाड़ोंका है (जो बड़े नगाड़े होते हैं उनको नौबत कहते हैं)। ये नगाड़े लोहेके बने हुए और भैंसेके चमड़ेसे मढ़े हुए होते हैं तथा लकड़ीके डंडेसे बजाये जाते हैं। ये मन्दिरोंमें एवं राजाओंके किलोंमें रखे जाते हैं। उत्सव और माङ्गलिक कार्योंमें ये विशेषतासे बजाये जाते हैं। राजाओंके यहाँ ये रोज बजाये जाते हैं।'पणव' नाम ढोलका है। ये लोहेके अथवा लकड़ीके बने हुए और बकरेके चमड़ेसे मढ़े हुए होते हैं तथा हाथसे या लकड़ीके डंडेसे बजाये जाते हैं। ये आकारमें ढोलकीकी तरह होनेपर भी ढोलकीसे बड़े होते हैं। कार्यके आरम्भमें पणवोंको बजाना गणेशजीके पूजनके समान माङ्गलिक माना जाता है। 'आनक'  नाम मृदङ्गका है। इनको पखावज भी कहते हैं। आकारमें ये लकड़ीकी बनायी हुई ढोलकीके समान होते हैं। ये मिट्टीके बने हुए और चमड़ेसे मढ़े हुए होते हैं तथा हाथसे बजाये जाते हैं। 'गोमुख' नाम नरसिंघेका है। ये आकारमें साँपकी तरह टेढ़े होते हैं और इनका मुख गायकी तरह होता है। ये मुखकी फूँकसे बजाये जाते हैं।
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।।1.13।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.13।।राजाभिप्रायं प्रतीत्य भीष्मप्रवृत्त्यनन्तरं तत्पक्षैस्तैस्तै राजभिः शङ्खादयो वाद्यविशेषा झटिति शब्दवन्तः संपादिताः। स च शङ्खादिप्रयुक्तशब्दस्तुमुलो बहुलं भयं परेषां परिद्योतयन्नासीदित्याह  तत इति।
।।1.12 1.13।।ततस्तद्विषादमवलोक्य भीष्मस्तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खनादं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैर्विजयाभिशंसकं घोषं चाकारयत्।
।।1.13।।ततो भीष्मस्य सेनापतेः प्रवृत्त्यनन्तरं पणवा आनका गोमुखाश्च वाद्यविशेषाः सहसा तत्क्षणमेवाभ्यहन्यन्त वादिताः। कर्मकर्तरि प्रयोगः। स शब्दस्तुमुलो महानासीत्तथापि न पाण्डवानां क्षोभो जात इत्यभिप्रायः।
।।1.13।।  तदेवं सेनापतेर्भीष्मस्य युद्धोत्सवमालक्ष्य सर्वतो युद्धोत्सवः प्रवृत्त इत्याह  तत इति।  पणवा आनकाः गोमुखाश्च वाद्यविशेषाः। सहसैव तत्क्षणमेवाभ्यहन्यन्त वादिताः। स च शङ्खादिशब्दस्तुमुलो महानभवत्।
।।1.13।।तस्य सञ्जनयन् इत्यादेःतुमुलोऽभवत् इत्यन्तस्यार्थमाह तस्येति। जनयन्निति शतुःलक्षणहेत्वोः क्रियायाः अष्टा.3।2।126 इति हेत्वर्थत्वसूचनायजनयितुं इत्युक्तम्।सिंहनादं विनद्य इत्येतत्ओदनपाकं पचति इतिवदिति सूचयितुंकृत्वा इति पदम्।कृभ्वस्तयः क्रियासामान्यवचनाः इत्येतद्व्यञ्जनायोदाहरणतयाशङ्खाध्मानं च कृत्वा इत्युक्तम्।ततः शङ्खाः इत्यत्र ततःशब्देन विजिगीषासूचनाय भीष्मेण सेनापतिना कारितत्वं ज्ञापितमित्यभिप्रायेणोक्तंअकारयदिति।शङ्खभेरीति पणवाद्युपलक्षणम् ततः श्लोकेऽपि कतिपयवाद्यविशेषनिर्देश उपलक्षणार्थ इति सूचितम्। सिंहनादशङ्खध्मानाभ्यां शङ्खभेर्यादिनादसमुच्चयार्थो द्वितीयश्चकारः। कृत्वेत्यनेन अकारयदित्यस्य समुच्चयार्थस्तृतीयः।
।।1.13।।एवं सेनापतेर्युद्धोत्सवप्रवर्त्तकं शङ्खध्वनिमाकर्ण्य सर्वसावधानकरणार्थं वादका दुन्दुभ्यादिवादनं कृतवन्त इत्याह तत इति। सहसा तच्छ्रवण एव शङ्खा भेर्यश्च पणवा आनकाः गोमुखाः अभ्यहन्यन्त वादिता इत्यर्थः। एवकारेण तच्छ्रवणादेव वादितवन्तः नतु युद्धोपस्थित्या स्वशौर्याविर्भावनेति व्यज्यते। स शङ्खादिशब्दस्तुमुलो महानासीत्।
।।1.13।।अभ्यहन्यन्त अभिहताः। कर्मकर्तरि प्रयोगः।
।।1.13।। तत इति।  दुर्योधनाभिप्रायानुरोधिभीष्मप्रवृत्त्यनन्तरं शङ्खादयो वाद्यविशेषा भीष्मानुसारिभिः सहसैव झटित्यभ्यहन्यन्ताभिहता वादिताः। स शब्दस्तुमुलो महाञ्जातः।
1.13 ततः then शङ्खाः conches? च and? भेर्यः kettledrums? च and? पणवानकगोमुखाः tabors? drums and cowhorns? सहसा एव ite suddenly? अभ्यहन्यन्त blared forth? सः that? शब्दः sound? तुमुलः tremendous? अभवत् was.No Commentary.
1.13. Then (following Bhishma), conches and kettledrums, tabors, drums and cow horns blared forth ite suddenly (from the Kaurava side) and the sound was tremendous.
1.13 And immediately all the conches and drums, the trumpets and horns, blared forth in tumultuous uproar.
1.13 Just immediately after that conchs and kettledrums, and tabors, trumpets and cow-horns blared forth. That sound became tumultuous.
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1.13. Then all on a sudden, the conch-shells, drums, tabors, trumpets, and cow-horns were sounded; that sound was tumultuous.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.13 Then suddenly conchs and kettle drums, trumpets, tabors and blow horns blared forth; and the sound was terrific.
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ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।1.13।।
ততঃ শঙ্খাশ্চ ভের্যশ্চ পণবানকগোমুখাঃ৷ সহসৈবাভ্যহন্যন্ত স শব্দস্তুমুলোভবত্৷৷1.13৷৷
ততঃ শঙ্খাশ্চ ভের্যশ্চ পণবানকগোমুখাঃ৷ সহসৈবাভ্যহন্যন্ত স শব্দস্তুমুলোভবত্৷৷1.13৷৷
તતઃ શઙ્ખાશ્ચ ભેર્યશ્ચ પણવાનકગોમુખાઃ। સહસૈવાભ્યહન્યન્ત સ શબ્દસ્તુમુલોભવત્।।1.13।।
ਤਤ ਸ਼ਙ੍ਖਾਸ਼੍ਚ ਭੇਰ੍ਯਸ਼੍ਚ ਪਣਵਾਨਕਗੋਮੁਖਾ। ਸਹਸੈਵਾਭ੍ਯਹਨ੍ਯਨ੍ਤ ਸ ਸ਼ਬ੍ਦਸ੍ਤੁਮੁਲੋਭਵਤ੍।।1.13।।
ತತಃ ಶಙ್ಖಾಶ್ಚ ಭೇರ್ಯಶ್ಚ ಪಣವಾನಕಗೋಮುಖಾಃ. ಸಹಸೈವಾಭ್ಯಹನ್ಯನ್ತ ಸ ಶಬ್ದಸ್ತುಮುಲೋಭವತ್৷৷1.13৷৷
തതഃ ശങ്ഖാശ്ച ഭേര്യശ്ച പണവാനകഗോമുഖാഃ. സഹസൈവാഭ്യഹന്യന്ത സ ശബ്ദസ്തുമുലോഭവത്৷৷1.13৷৷
ତତଃ ଶଙ୍ଖାଶ୍ଚ ଭେର୍ଯଶ୍ଚ ପଣବାନକଗୋମୁଖାଃ| ସହସୈବାଭ୍ଯହନ୍ଯନ୍ତ ସ ଶବ୍ଦସ୍ତୁମୁଲୋଭବତ୍||1.13||
tataḥ śaṅkhāśca bhēryaśca paṇavānakagōmukhāḥ. sahasaivābhyahanyanta sa śabdastumulō.bhavat৷৷1.13৷৷
ததஃ ஷங்காஷ்ச பேர்யஷ்ச பணவாநககோமுகாஃ. ஸஹஸைவாப்யஹந்யந்த ஸ ஷப்தஸ்துமுலோபவத்৷৷1.13৷৷
తతః శఙ్ఖాశ్చ భేర్యశ్చ పణవానకగోముఖాః. సహసైవాభ్యహన్యన్త స శబ్దస్తుములోభవత్৷৷1.13৷৷
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1
14
।।1.14।। उसके बाद सफेद घोड़ों से युक्त महान् रथ पर बैठे हुए लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुन ने दिव्य शंखों को बड़े जोर से बजाया।
।।1.14।।इसके उपरान्त श्वेत अश्वों से युक्त भव्य रथ में बैठे हुये माधव (श्रीकृष्ण) और पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी अपने दिव्य शंख बजाये।
।।1.14।। तथ्य अत्यन्त साधारण है कि कौरवों की शंखध्वनि का उत्तर भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने शंखनाद करके दिया परन्तु संजय ने जिस सुन्दरता और उदारता के साथ इसका वर्णन किया है वह इस बात का स्पष्ट सूचक है कि उसकी सहानुभूति किस पक्ष के साथ थी। वह कहता है श्वेत अश्वों से युक्त भव्य रथ में बैठे माधव और अर्जुन ने अपने दिव्य शंख बजाये। इस वर्णन से ज्ञात होता है कि संजय के मन में कहीं कोई आशा अटकी है कि संभवत दोनों पक्षों के शंखनाद के वर्णनों में विरोध देखकर इस समय भी धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को युद्ध से विरत कर लें।
।।1.14।। व्याख्या--'ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते'-- चित्ररथ गन्धर्वने अर्जुनको सौ दिव्य घोड़े दिये थे। इन घोड़ोंमें यह विशेषता थी कि इनमेंसे युद्धमें कितने ही घोड़े क्यों न मारे जायँ, पर ये संख्यामें सौ-के-सौ ही बने रहते थे, कम नहीं होते थे। ये पृथ्वी, स्वर्ग आदि सभी स्थानोंमें जा सकते थे। इन्हीं सौ घोड़ोंमेंसे सुन्दर और सुशिक्षित चार सफेद घोड़े अर्जुनके रथमें जुते हुए थे।  'महति स्यन्दने स्थितौ'--यज्ञोंमें आहुतिरूपसे दिये गये घीको खाते-खाते अग्निको अजीर्ण हो गया था। इसीलिये अग्निदेव खाण्डववनकी विलक्षण-विलक्षण जड़ी0-बूटियाँ खाकर (जलाकर) अपना अजीर्ण दूर करना चाहते थे। परन्तु देवताओंके द्वारा खाण्डववनकी रक्षा की जानेके कारण अग्निदेव अपने कार्यमें सफल नहीं हो पाते थे। वे जब-जब खाण्डववनको जलाते, तब-तब इन्द्र वर्षा करके उसको (अग्निको) बुझा देते। अन्तमें अर्जुनकी सहायतासे अग्निने उस पूरे वनको जलाकर अपना अजीर्ण दूर किया और प्रसन्न होकर अर्जुनको यह बहुत बड़ा रथ दिया। नौ बैलगाड़ियोंमें जितने अस्त्र-शस्त्र आ सकते हैं, उतने अस्त्र-शस्त्र इस रथमें पड़े रहते थे। यह सोनेसे मढ़ा हुआ और तेजोमय था। इसके पहिये बड़े ही दृढ़ एवं विशाल थे। इसकी ध्वजा बिजलीके समान चमकती थी। यह ध्वजा एक योजन (चारकोस) तक फहराया करती थी। इतनी लम्बी होनेपर भी इसमें न तो बोझ था, न यह कहीं रुकती थी और न कहीं वृक्ष आदिमें अटकती ही थी। इस ध्वजापर हनुमान्जी विराजमान थे।  'स्थितौ'-- कहनेका तात्पर्य है कि उस सुन्दर और तेजोमय रथपर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण और उनके प्यारे भक्त अर्जुनके विराजमान होनेसे उस रथकी शोभा और तेज बहुत ज्यादा बढ़ गया था।
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।।1.14।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.14।।एवं दुर्योधनपक्षे प्रवृत्तिमालक्ष्य परिसरवर्तिनौ केशवार्जुनौ श्वेतैर्हयैरतिबलपराक्रमैर्युक्ते महत्यप्रधृष्ये रथे व्यवस्थितावप्राकृतौ शङ्खौ पूरितवन्तावित्याह  ततः श्वेतैर्हयैरिति।
।।1.14।।ततस्तद्धोषं निशम्य भगवान् पार्थसारथिरर्जुनश्च त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते मध्ये रणे महति रथे स्थितौ विश्वं कम्पयन्तौ स्वशङ्खौ प्रदध्मतुः।
।।1.14।।अन्येषमापि रथस्थत्वे स्थितएवासाधारण्येन रथोत्कर्षकथनार्थं ततः श्वेतैर्हयैर्युक्त इत्यादिना रथस्थत्वकथनम्। तेनाग्निदत्ते दुष्प्रधृष्ये रथे स्थितौ। सर्वथा जेतुमशक्यावित्यर्थः। पाञ्चजन्यो देवदत्तः पौण्ड्रोऽनन्तविजयः सुधोषो मणिपुष्पकश्चेति शङ्खनामकथनम् परसैन्ये स्वस्वनामभिः प्रसिद्धा एतावन्तः शङ्खाः भवत्सैन्ये तु नैकोऽपि स्वनामप्रसिद्धः शङ्खोऽस्तीति परेषामुत्कर्षातिशयकथनार्थम्। सर्वेन्द्रियप्रेरकत्वेन सर्वान्तर्यामी सहायः पाण्डवानामिति कथयितुं हृषिकेशपदम्। दिग्विजये सर्वान्राज्ञो जित्वा धनमाहृतवानिति सर्वथैवायमजेय इति कथयितुं धनंजयपदम्। भीष्मं हिडिम्बवधादिरूपं कर्म यस्य तादृशः वृकोदरत्वेन बह्वन्नपाकादतिबलिष्ठो भीमसेन इति कथितम्। कुन्तीपुत्र इति कुन्त्या महता तपसा धर्ममाराध्य लब्धः स्वयं च राजसूययाजित्वेन मुख्यो राजा युधि चायमेव जयभागित्वेन स्थिरो नत्वेतद्विपक्षाः स्थिरा भविष्यन्तीति युधिष्ठिरपदेन सूचितम्। नकुलः सुघोषं सहदेवो मणिपुष्पकं दध्मावित्यनुषज्यते। परमेष्वासः काश्यो महाधनुर्धरः काशिराजः। न पराजितः पारिजातहरणबाणयुद्धादिमहासंग्रामेषु एतादृशः सात्यकिः। हे पृथिवीपते धृतराष्ट्र स्थिरो भूत्वा शृण्वित्यभिप्रायः। सुगममन्यत्।
।।1.14।।  ततः पाण्डवसैन्ये प्रवृत्तं युद्धोत्सवमाह  तत इति पञ्चभिः।  ततः कौरवसैन्यवाद्यकोलाहलानन्तरं स्यन्दने रथे स्थितौ सन्तौ कृष्णार्जुनौ दिव्यौ शङ्खौ प्रकर्षेण दध्मतुर्वादयामासतुः।
।।1.14।।ततः श्वेतैः इत्यादिकंधनञ्जयः इत्यन्तं व्याचष्टे ततस्तमिति। तत इति व्याख्येयपदम्।तं घोषमाकर्ण्य इति तद्विवक्षितकथनम्।सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथिरिति सर्वोत्कृष्टेभ्य उत्कृष्टः परमपुरुषो निकृष्टमानुषमात्रादपि निकृष्टतामाश्रितवात्सल्येन नीत इति भावः। पाण्डवविजयसूचनाय सञ्जयेनोपात्तोमाधवशब्दोऽत्र श्रियःपतित्ववाची सर्वेश्वरेश्वरत्वपर एव।स्यन्दने स्थितौ इत्यविशेषेण स्थितिव्यवच्छेदाय सारथित्वरथित्वविभागः।श्वेतैः इत्यादिना प्रतिपादितमहत्त्वव्यक्त्यर्थमुक्तंत्रैलोक्येति नात्र परिमाणादिमहत्त्वमात्रं विवक्षितमिति भावः।त्रैलोक्यं कम्पयन्ताविति तयोः स्यन्दने स्थितिमात्रमपि त्रैलोक्यकम्पनहेतुरिति भावः। यद्वादिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः इत्याद्युक्तप्रकृष्टाध्मानमूलकशङ्खघोषातिशयेननभश्च पृथिवीं चैव 1।19 इति वक्ष्यमाणेन च फलितमिदम्।
।।1.14।।एवं युद्धोत्सवज्ञापकशंखध्वनिश्रवणानन्तरं पाण्डवसैन्येऽपि युद्धोत्सवोऽभूदित्याह तत इति पञ्चभिः। ततः कौरवप्रवृत्त्यनन्तरं श्वेतैर्हयैः शुभसूचकैरश्वैर्युक्ते। परमेश्वरस्य सारथित्वप्रतिपादनाय भगवतोऽश्वानां च वर्णनं नायं भगवद्रथ इति ज्ञापनाय च भगवतोऽश्वानां चित्रवर्णत्वादत्र श्वेतैरिति हयविशेषणम्। युद्धप्रवृत्तिज्ञापनार्थं हयैर्युक्त इति। महति अग्निदत्ते भगवत्स्थितियोग्ये गरुडसमे स्यन्दने नन्दिघोषाख्ये रथे स्थितौ श्रीकृष्णार्जुनौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः वादितवन्तौ। माधवदपेन तेषां शीघ्रमेव लक्ष्मीप्राप्तिर्भविष्यति इति व्यञ्जितम्। पाण्डवत्वोक्त्या तेषां न्यायत्वमुक्तम्। भगवतः शङ्खध्वनिः सर्वेषां यथा दर्पघ्नस्तथैवार्जुनस्यापीति चकारेणैवकारेणापि व्यज्यते।
।। 1.14अभ्यहन्यन्त अभिहताः। कर्मकर्तरि प्रयोगः।
।।1.14।।   स शब्दः परेषां वीरसोद्भावको जातो नतु भयजनक इत्याशयेन तेषां शङ्खपूरणे प्रवृत्तिमाह  तत इति।  तुमुलशब्दानन्तरं श्वेतैर्हयैः शुक्लवर्णैरश्वैरतिबलपराक्रमैर्युक्तैऽग्निना दत्ते महात्युत्तमे रथे स्थितौ नतु भयप्रचलितौ माधवो लक्ष्मीपतिः पाण्डवोऽर्जुनश्चैव दिव्यावप्राकृतौ शङ्खौ प्रदध्मतुः पुरितवन्तौ। माधव इति शङ्खशब्देनैव तव पुत्रेभ्यो राज्यलक्ष्मीमाहृतवानिति सूचनार्थम्। पाण्डव इत तदीयराज्यं तस्यैव भविष्यतीति।
1.14 ततः then? श्वेतैः (with) white? हयैः horses? युक्ते yoked? महति magnificent? स्यन्दने in the chariot? स्थितौ seated? माधवः Madhava? पाण्डवः Pandava? the son of Pandu? च and? एव also? दिव्यौ divine? शङ्खौ conches? प्रदध्मतुः blew.No Commentary.
1.14. Then, also, Madhava (Krishna) and the son of Pandu (Arjuna), seated in the magnificent chariot, yoked with white horses, blew divine conches.
1.14 Then seated in their spacious war chariot, yoked with white horses, Lord Shri Krishna and Arjuna sounded their divine shells.
1.14 Then, Madhava (Krsna) and the son of Pandu (Arjuna), stationed in their magnificent chariot with white horses yoked to it, loudly blew their divine conchs.
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1.14. Then, mounted on mighty chariot, yoked with white horses, Madhava (Krsna) and the son of Pandu (Arjuna) blew their heavenly conch-shells;
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.14 Then Sri Krsna and Arjuna, stationed in their great chariot yoked with white horses, blew their divine conchs.
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ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ। माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।।1.14।।
ততঃ শ্বেতৈর্হযৈর্যুক্তে মহতি স্যন্দনে স্থিতৌ৷ মাধবঃ পাণ্ডবশ্চৈব দিব্যৌ শঙ্খৌ প্রদধ্মতুঃ৷৷1.14৷৷
ততঃ শ্বেতৈর্হযৈর্যুক্তে মহতি স্যন্দনে স্থিতৌ৷ মাধবঃ পাণ্ডবশ্চৈব দিব্যৌ শঙ্খৌ প্রদধ্মতুঃ৷৷1.14৷৷
તતઃ શ્વેતૈર્હયૈર્યુક્તે મહતિ સ્યન્દને સ્થિતૌ। માધવઃ પાણ્ડવશ્ચૈવ દિવ્યૌ શઙ્ખૌ પ્રદધ્મતુઃ।।1.14।।
ਤਤ ਸ਼੍ਵੇਤੈਰ੍ਹਯੈਰ੍ਯੁਕ੍ਤੇ ਮਹਤਿ ਸ੍ਯਨ੍ਦਨੇ ਸ੍ਥਿਤੌ। ਮਾਧਵ ਪਾਣ੍ਡਵਸ਼੍ਚੈਵ ਦਿਵ੍ਯੌ ਸ਼ਙ੍ਖੌ ਪ੍ਰਦਧ੍ਮਤੁ।।1.14।।
ತತಃ ಶ್ವೇತೈರ್ಹಯೈರ್ಯುಕ್ತೇ ಮಹತಿ ಸ್ಯನ್ದನೇ ಸ್ಥಿತೌ. ಮಾಧವಃ ಪಾಣ್ಡವಶ್ಚೈವ ದಿವ್ಯೌ ಶಙ್ಖೌ ಪ್ರದಧ್ಮತುಃ৷৷1.14৷৷
തതഃ ശ്വേതൈര്ഹയൈര്യുക്തേ മഹതി സ്യന്ദനേ സ്ഥിതൌ. മാധവഃ പാണ്ഡവശ്ചൈവ ദിവ്യൌ ശങ്ഖൌ പ്രദധ്മതുഃ৷৷1.14৷৷
ତତଃ ଶ୍ବେତୈର୍ହଯୈର୍ଯୁକ୍ତେ ମହତି ସ୍ଯନ୍ଦନେ ସ୍ଥିତୌ| ମାଧବଃ ପାଣ୍ଡବଶ୍ଚୈବ ଦିବ୍ଯୌ ଶଙ୍ଖୌ ପ୍ରଦଧ୍ମତୁଃ||1.14||
tataḥ śvētairhayairyuktē mahati syandanē sthitau. mādhavaḥ pāṇḍavaścaiva divyau śaṅkhau pradadhmatuḥ৷৷1.14৷৷
ததஃ ஷ்வேதைர்ஹயைர்யுக்தே மஹதி ஸ்யந்தநே ஸ்திதௌ. மாதவஃ பாண்டவஷ்சைவ திவ்யௌ ஷங்கௌ ப்ரதத்மதுஃ৷৷1.14৷৷
తతః శ్వేతైర్హయైర్యుక్తే మహతి స్యన్దనే స్థితౌ. మాధవః పాణ్డవశ్చైవ దివ్యౌ శఙ్ఖౌ ప్రదధ్మతుః৷৷1.14৷৷
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।।1.15।। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक तथा धनञ्जय अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया; और भयानक कर्म करनेवाले वृकोदर भीम ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।
।।1.15।।भगवान् हृषीकेश ने पांचजन्य, धनंजय (अर्जुन) ने देवदत्त तथा भयंकर कर्म करने वाले भीम ने पौण्डू नामक महाशंख बजाया।
।।1.15।। पाण्डवसैन्य का वर्णन करते हुये संजय विशेष रूप से प्रत्येक योद्धा के शंख का नाम भी बताता है। भगवान् श्रीकृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य था। हृषीकेश यह भगवान् का एक नाम है जिसका अर्थ हैइन्द्रियों का स्वामी। हृषीक (इन्द्रिय) अ ईश उ हृषीकेष।
।।1.15।। व्याख्या--'पाञ्चजन्यं हृषीकेशः'-- सबके अन्तर्यामी अर्थात् सबके भीतरकी बात जाननेवाले साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंके पक्षमें खड़े होकर 'पाञ्चजन्य' नामक शंख बजाया। भगवान्ने पञ्चजन नामक शंखरूपधारी दैत्यको मारकर उसको शंखरूपसे ग्रहण किया था, इसलिये इस शंखका नाम 'पाञ्चजन्य' हो गया। 'देवदत्तं धनञ्जयः'-- राजसूय यज्ञके समय अर्जुनने बहुतसे राजाओंको जीतकर बहुत धन इकट्ठा किया था। इस कारण अर्जुनका नाम 'धनञ्जय' पड़ गया  (टिप्पणी प0 14) । निवातकवचादि दैत्योंके साथ युद्ध करते समय इन्द्रने अर्जुनको 'देवदत्त' नामक शंख दिया था। इस शंखकी ध्वनि बड़े जोरसे होती थी, जिससे शत्रुओंकी सेना घबरा जाती थी। इस शंखको अर्जुनने बजाया।  'पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः'-- हिडिम्बासुर, बकासुर, जटासुर आदि असुरों तथा कीचक जरासन्ध आदि बलवान् वीरोंको मारनेके कारण 'भीससेनका' नाम भीमकर्मा पड़ गया। उनके पेटमें जठराग्निके सिवाय 'वृक' नामकी एक विशेष अग्नि थी, जिससे बहुत अधिक भोजन पचता था। इस कारण उनका नाम 'वृकोदर' पड़ गया। ऐसे भीमकर्मा वृकोदर भीमसेनने बहुत ब़ड़े आकारवाला 'पौण्ड्र' नामक शंख बजाया।
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।।1.15।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.15।।तयोः शङ्खयोर्दिव्यत्वमेवावेदयति  पाञ्चजन्यमिति।  केशवार्जुनयोर्युद्धाभिमुख्यं दृष्ट्वा संहृष्टः सारस्येन समररसिको भीमसेनोऽपि युद्धाभिमुखोऽभूदित्याह  पौण्ड्रमिति।
।।1.15 1.19।।ततो युधिष्ठिरभीमादयश्च पृथक्पृथक् शङ्खान् दध्मुः। स घोषः दुर्योधनादिहृदयानि बिभेद।
।। 1.15अन्येषमापि रथस्थत्वे स्थितएवासाधारण्येन रथोत्कर्षकथनार्थं ततः श्वेतैर्हयैर्युक्त इत्यादिना रथस्थत्वकथनम्। तेनाग्निदत्ते दुष्प्रधृष्ये रथे स्थितौ। सर्वथा जेतुमशक्यावित्यर्थः। पाञ्चजन्यो देवदत्तः पौण्ड्रोऽनन्तविजयः सुधोषो मणिपुष्पकश्चेति शङ्खनामकथनम् परसैन्ये स्वस्वनामभिः प्रसिद्धा एतावन्तः शङ्खाः भवत्सैन्ये तु नैकोऽपि स्वनामप्रसिद्धः शङ्खोऽस्तीति परेषामुत्कर्षातिशयकथनार्थम्। सर्वेन्द्रियप्रेरकत्वेन सर्वान्तर्यामी सहायः पाण्डवानामिति कथयितुं हृषिकेशपदम्। दिग्विजये सर्वान्राज्ञो जित्वा धनमाहृतवानिति सर्वथैवायमजेय इति कथयितुं धनंजयपदम्। भीष्मं हिडिम्बवधादिरूपं कर्म यस्य तादृशः वृकोदरत्वेन बह्वन्नपाकादतिबलिष्ठो भीमसेन इति कथितम्। कुन्तीपुत्र इति कुन्त्या महता तपसा धर्ममाराध्य लब्धः स्वयं च राजसूययाजित्वेन मुख्यो राजा युधि चायमेव जयभागित्वेन स्थिरो नत्वेतद्विपक्षाः स्थिरा भविष्यन्तीति युधिष्ठिरपदेन सूचितम्। नकुलः सुघोषं सहदेवो मणिपुष्पकं दध्मावित्यनुषज्यते। परमेष्वासः काश्यो महाधनुर्धरः काशिराजः। न पराजितः पारिजातहरणबाणयुद्धादिमहासंग्रामेषु एतादृशः सात्यकिः। हे पृथिवीपते धृतराष्ट्र स्थिरो भूत्वा शृण्वित्यभिप्रायः। सुगममन्यत्।
।।1.15।।  तदेव विभागेन दर्शयन्नाह  पाञ्चजन्यमिति।  पाञ्चजन्यादीनि श्रीकृष्णादिशङ्खानां नामानि। भीमं घोरं कर्म यस्य सः वृकवदुदरं यस्य स वृकोदरो महाशङ्खं पौण्ड्रं दध्माविति।
।।1.15।।दिव्यत्वोक्तिदर्शितशङ्खातिशयवैशद्याय पाञ्चजन्यदेवदत्तसंज्ञोक्तिः। एवं भीमसेनादिशङ्खचतुष्टयविशेषे नामनिर्देशोऽपि।पृथक् पृथक् प्रदध्मुरिति यथैकैकशङ्खध्वनिरेव धार्तराष्ट्रहृदयभेदाय स्यात् तथा प्रदध्मुरिति भावः। यद्वा यथास्वं प्रहर्षद्योतनाय क्रमात्प्रदध्मुरिति।स घोषः इति श्लोके नभश्च पृथिवीं चानुनादयन्नपि धार्तराष्ट्राणामेव हृदयानि बिभेदेत्यन्वयः अन्येषां तु हर्षहेतुरिति भावः।सर्वेषामेव भवत्पुत्राणामित्यनेन तेषु दृढचित्तः कश्चिदपि नास्तीति द्योतनाय धार्तराष्ट्रशब्दतद्गतबहुवचनयोरर्थ उक्तः।व्यदारथत् इत्यस्य वक्ष्यमाणाभिप्रायद्योतकं प्रतिपदंबिभेद इति। घोषस्य शस्त्रादिवत् हृदयविदारणत्वं कथमित्यत्राह अद्यैवेति। स्वबलस्य विजयित्वमध्यवस्यतां तन्नाशबुद्धिरेव हि हृदयभेद इति भावः। धार्तराष्ट्रविजयबुभुत्सया पृच्छते धृतराष्ट्राय प्रागुक्तप्रकारेण तदपजयसूचकमेव सञ्जयोऽकथयदित्याह एवमिति।
।।1.15।।श्रीकृष्णादिशङ्खानां महत्त्वज्ञापनार्थं नामान्याह पाञ्चजन्यमित्यादिद्वयेन। पाञ्चजन्यं हृषीकेशो वादितवान्। पाञ्चजन्यादीनि तत्तच्छङ्खानां नामानि शङ्खमाहात्म्यज्ञापनार्थमुक्तानि। पञ्चजनदैत्यप्रभावत्वात्पाञ्चजन्यः। देवदत्तमग्निदत्तम्।पौण्ड्रादयोऽपितत्तद्गुणविशिष्टास्तत्तदुपाख्यानैरवगन्तव्याः। सर्वेषामिन्द्रियप्रवर्त्तकस्य युद्धप्रवृत्तौ सर्वेन्द्रियाणि स्वत एव प्रवर्त्तेरन्निति हृषीकेश इत्युक्तम्। धनञ्जयः देवदत्तं वादितवान्। धनं जयोऽस्य जये यस्येति वा। पौण्ड्रं महाशङ्खं स्वरूपतो गुरुतरं भीमकर्मा भयानककर्मकर्ता वृकोदरो भीमसेनो दध्मौ वादितवान्।भक्तिर्ज्ञानं सवैराग्यं प्रज्ञा मेधा धृतिः स्थितिः। योगः प्राणो बलं चैव वृकोदर इति स्मृतः। एतद्दशात्मको वायुस्तस्माद्भीमस्तदात्मकः। इति।
।। 1.15अभ्यहन्यन्त अभिहताः। कर्मकर्तरि प्रयोगः।
।।1.15।।हृषीकेश इन्द्रियेश इति पदं पाण्डवानां पाण्यादीन्द्रियेभ्यो बलप्रदः परेषां तु तेभ्यस्तदप्रदः प्रत्युत हारक इति सूचनार्थम्। दिग्विजये गोग्रहे च राज्ञो भीष्मादींश्च जित्वा धनं गोधनं चाहृतवानतः सर्वैरप्ययमजेय इति कथयितुं धनंजयपदम्। माधवार्जुनयोः शङ्खशब्दं श्रुत्वा संहृष्टो युद्धरसिको भीमसेनोऽपि शङ्खं वादितवानित्याह  पौण्ड्रमिति।  अतिरौद्रे दुःशासनरक्तपानादिकर्मणि समर्थस्तेन पीतं च रक्तमपि तदुदरस्थवृकाग्निना जीर्णं भविष्यतीति भीमकर्मा वृकोदर इति पदाभ्यां सचितम्। भीमं हिडिम्बवधादिरुपं कर्म यस्य तादृशो वृकोदरत्वेन बह्वन्नपाकादतिबलिष्ठ इति कथितमितिकेचित्।
1.15 पाञ्चजन्यम् (the conch named) Panchajanya? हृषीकेशः (the Lord of the senses) Krishna? देवदत्तम् (the conch named) Devadatta? धनञ्जयः (the victor of wealth) Arjuna? पौण्ड्रम् (the conch named) Poundra? दध्मौ blew? महाशङ्खम् great conch? भीमकर्मा doer of terrible dees? वृकोदरः (having the belly of a wolf) Bhima.No Commentary.
1.15. Hrishikesha blew the Panchajanya and Arjuna blew the Devadatta and Bhima (the wolf-bellied), the doer of terrible deeds, blew the great conch Paundra.
1.15 Lord Shri Krishna blew his Panchajanya and Arjuna his Devadatta, brave Bheema his renowned shell, Poundra.
1.15 Hrsikesa (Krsna) (blew the conch) Pancajanya; Dhananjaya (Arjuna) (the conch) Devadatta; and Vrkodara (Bhima) of terrible deeds blew the great conch Paundra;
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1.15. Hrsikesa (Krsna) blew the Pancajanya; Dhananjaya (Arjuna) blew the Devadatta; and the Wolf-bellied (Bhimi), of the terrible deeds, blew the mighty conchshell, Paundra;
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.15 Sri Krsna blew his conch, Pancajanya, Arjuna his Devadatta and Bhima of terrible deeds his great conch Paundra.
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पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः। पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः।।1.15।।
পাঞ্চজন্যং হৃষীকেশো দেবদত্তং ধনংজযঃ৷ পৌণ্ড্রং দধ্মৌ মহাশঙ্খং ভীমকর্মা বৃকোদরঃ৷৷1.15৷৷
পাঞ্চজন্যং হৃষীকেশো দেবদত্তং ধনংজযঃ৷ পৌণ্ড্রং দধ্মৌ মহাশঙ্খং ভীমকর্মা বৃকোদরঃ৷৷1.15৷৷
પાઞ્ચજન્યં હૃષીકેશો દેવદત્તં ધનંજયઃ। પૌણ્ડ્રં દધ્મૌ મહાશઙ્ખં ભીમકર્મા વૃકોદરઃ।।1.15।।
ਪਾਞ੍ਚਜਨ੍ਯਂ ਹਰਿਸ਼ੀਕੇਸ਼ੋ ਦੇਵਦਤ੍ਤਂ ਧਨਂਜਯ। ਪੌਣ੍ਡ੍ਰਂ ਦਧ੍ਮੌ ਮਹਾਸ਼ਙ੍ਖਂ ਭੀਮਕਰ੍ਮਾ ਵਰਿਕੋਦਰ।।1.15।।
ಪಾಞ್ಚಜನ್ಯಂ ಹೃಷೀಕೇಶೋ ದೇವದತ್ತಂ ಧನಂಜಯಃ. ಪೌಣ್ಡ್ರಂ ದಧ್ಮೌ ಮಹಾಶಙ್ಖಂ ಭೀಮಕರ್ಮಾ ವೃಕೋದರಃ৷৷1.15৷৷
പാഞ്ചജന്യം ഹൃഷീകേശോ ദേവദത്തം ധനംജയഃ. പൌണ്ഡ്രം ദധ്മൌ മഹാശങ്ഖം ഭീമകര്മാ വൃകോദരഃ৷৷1.15৷৷
ପାଞ୍ଚଜନ୍ଯଂ ହୃଷୀକେଶୋ ଦେବଦତ୍ତଂ ଧନଂଜଯଃ| ପୌଣ୍ଡ୍ରଂ ଦଧ୍ମୌ ମହାଶଙ୍ଖଂ ଭୀମକର୍ମା ବୃକୋଦରଃ||1.15||
pāñcajanyaṅ hṛṣīkēśō dēvadattaṅ dhanaṅjayaḥ. pauṇḍraṅ dadhmau mahāśaṅkhaṅ bhīmakarmā vṛkōdaraḥ৷৷1.15৷৷
பாஞ்சஜந்யஂ ஹரிஷீகேஷோ தேவதத்தஂ தநஂஜயஃ. பௌண்ட்ரஂ தத்மௌ மஹாஷங்கஂ பீமகர்மா வரிகோதரஃ৷৷1.15৷৷
పాఞ్చజన్యం హృషీకేశో దేవదత్తం ధనంజయః. పౌణ్డ్రం దధ్మౌ మహాశఙ్ఖం భీమకర్మా వృకోదరః৷৷1.15৷৷
1.16
1
16
।।1.16।। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये।
।।1.16।।कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्त विजय नामक शंख और नकुल व सहदेव ने क्रमश:  सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये।
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।।1.16।। व्याख्या--'अनन्तविजयं राजा ৷৷. सुघोषमणिपुष्पकौ'-- अर्जुन, भीम और युधिष्ठिर--ये तीनों कुन्तीके पुत्र हैं तथा नकुल और सहदेव--ये दोनों माद्रीके पुत्र हैं, यह विभाग दिखानेके लिये ही यहाँ युधिष्ठिरके लिये 'कुन्तीपुत्र' विशेषण दिया गया है। युधिष्ठिरको 'राजा' कहनेका तात्पर्य है कि युधिष्ठिरजी वनवासके पहले अपने आधे राज्य-(इन्द्रप्रस्थ-) के राजा थे, और नियमके अनुसार बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवासके बाद वे राजा होने चाहिये थे। 'राजा' विशेषण देकर सञ्जय यह भी संकेत करना चाहते हैं कि आगे चलकर धर्मराज युधिष्ठिर ही सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डलके राजा होंगे।
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।।1.16।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.16।।एतेषामीदृशीं प्रवृत्तिं प्रतीत्य परिपालनावकाशमासाद्य राज्ञो युद्धिष्ठिरस्यापि प्रवृत्तिं दर्शयति  अनन्तेति।  ज्यायसां भ्रातृ़णामनुसरणमावश्यकमिति मत्वा तयोर्यवीयसोर्भ्रात्रोरपि प्रवृत्तिमाह  नकुल इति।
।।1.15 1.19।।ततो युधिष्ठिरभीमादयश्च पृथक्पृथक् शङ्खान् दध्मुः। स घोषः दुर्योधनादिहृदयानि बिभेद।
।। 1.16अन्येषमापि रथस्थत्वे स्थितएवासाधारण्येन रथोत्कर्षकथनार्थं ततः श्वेतैर्हयैर्युक्त इत्यादिना रथस्थत्वकथनम्। तेनाग्निदत्ते दुष्प्रधृष्ये रथे स्थितौ। सर्वथा जेतुमशक्यावित्यर्थः। पाञ्चजन्यो देवदत्तः पौण्ड्रोऽनन्तविजयः सुधोषो मणिपुष्पकश्चेति शङ्खनामकथनम् परसैन्ये स्वस्वनामभिः प्रसिद्धा एतावन्तः शङ्खाः भवत्सैन्ये तु नैकोऽपि स्वनामप्रसिद्धः शङ्खोऽस्तीति परेषामुत्कर्षातिशयकथनार्थम्। सर्वेन्द्रियप्रेरकत्वेन सर्वान्तर्यामी सहायः पाण्डवानामिति कथयितुं हृषिकेशपदम्। दिग्विजये सर्वान्राज्ञो जित्वा धनमाहृतवानिति सर्वथैवायमजेय इति कथयितुं धनंजयपदम्। भीष्मं हिडिम्बवधादिरूपं कर्म यस्य तादृशः वृकोदरत्वेन बह्वन्नपाकादतिबलिष्ठो भीमसेन इति कथितम्। कुन्तीपुत्र इति कुन्त्या महता तपसा धर्ममाराध्य लब्धः स्वयं च राजसूययाजित्वेन मुख्यो राजा युधि चायमेव जयभागित्वेन स्थिरो नत्वेतद्विपक्षाः स्थिरा भविष्यन्तीति युधिष्ठिरपदेन सूचितम्। नकुलः सुघोषं सहदेवो मणिपुष्पकं दध्मावित्यनुषज्यते। परमेष्वासः काश्यो महाधनुर्धरः काशिराजः। न पराजितः पारिजातहरणबाणयुद्धादिमहासंग्रामेषु एतादृशः सात्यकिः। हे पृथिवीपते धृतराष्ट्र स्थिरो भूत्वा शृण्वित्यभिप्रायः। सुगममन्यत्।
।।1.16।।अनन्तजयमिति।  नकुलः सुघोषं नाम शङ्खं दध्मौ। सहदेवो मणिपुष्पकं नाम।
।। 1.16।।दिव्यत्वोक्तिदर्शितशङ्खातिशयवैशद्याय पाञ्चजन्यदेवदत्तसंज्ञोक्तिः। एवं भीमसेनादिशङ्खचतुष्टयविशेषे नामनिर्देशोऽपि।पृथक् पृथक् प्रदध्मुरिति यथैकैकशङ्खध्वनिरेव धार्तराष्ट्रहृदयभेदाय स्यात् तथा प्रदध्मुरिति भावः। यद्वा यथास्वं प्रहर्षद्योतनाय क्रमात्प्रदध्मुरिति।स घोषः इति श्लोके नभश्च पृथिवीं चानुनादयन्नपि धार्तराष्ट्राणामेव हृदयानि बिभेदेत्यन्वयः अन्येषां तु हर्षहेतुरिति भावः।सर्वेषामेव भवत्पुत्राणामित्यनेन तेषु दृढचित्तः कश्चिदपि नास्तीति द्योतनाय धार्तराष्ट्रशब्दतद्गतबहुवचनयोरर्थ उक्तः।व्यदारथत् इत्यस्य वक्ष्यमाणाभिप्रायद्योतकं प्रतिपदंबिभेद इति। घोषस्य शस्त्रादिवत् हृदयविदारणत्वं कथमित्यत्राह अद्यैवेति। स्वबलस्य विजयित्वमध्यवस्यतां तन्नाशबुद्धिरेव हि हृदयभेद इति भावः। धार्तराष्ट्रविजयबुभुत्सया पृच्छते धृतराष्ट्राय प्रागुक्तप्रकारेण तदपजयसूचकमेव सञ्जयोऽकथयदित्याह एवमिति।
।।1.16।।अनन्तानां विजयो येन तादृशं वादितवान्। राजेति प्रवृत्तावावश्यकता। कीदृशो राजा कुन्तीपुत्रः। कुन्तीपुत्र इति तत्प्रेरितत्वं भगवत्कृपाधिकारित्वं च ज्ञापितम्। युधिष्ठिर इति सार्थकनाम्ना सामर्थ्यम्। नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ वादयामासतुः।
।। 1.16अभ्यहन्यन्त अभिहताः। कर्मकर्तरि प्रयोगः।
।।1.16।।एतेषां प्रवृत्तिमनुमोदयन् युधिष्ठोरोऽपि शङ्खपूरणे प्रवृत्त इत्याह  अनन्तविजयमिति।  शत्रूञ्जित्वा निष्कण्टकराज्यलाभस्तस्यैव भविष्यतीति द्योतनार्थं राजेति पदम्। कुन्त्या दुःखं राज्यलाभेनापाकरिष्यतीति कुन्तीपुत्रत्वेन ध्वनितम्। युद्धे सर्वाञ्जित्वायमेव स्थिरो भविष्यतीति सूचनाय युधिष्ठिर इति। कुन्तीपुत्रः कुन्त्या महता तपसा धर्ममाराध्य लब्धः। स्वयं राजसूययाजित्वेन मुख्यो राजेति भाव इति केचित्। ज्येष्ठभ्रातृ़णां मार्गं नकुलसहदेवावनुसृतवन्तावित्याह नकुल   इति।  नकुलः सुघोषं सहदेवो मणिपुष्पकं दध्मावित्यनुषज्यते। शङ्खतच्छब्दकर्तृनामकीर्तनेन परेषामुत्कर्षः सूचितः।
1.16 अनन्तविजयम् (the conch named) Anantavijayam? राजा the king? कुन्तीपुत्रः son of Kunti? युधिष्ठिरः Yudhishthira? नकुलः Nakula? सहदेवः Sahadeva? च and? सुघोषमणिपुष्पकौ (the conches named) Sughosha and Manipushpaka.No Commentary.
1.16. The king Yodhishthira, the son of Kunti, blew the Anantavijaya; Nakula and Sahadeva blew the Sughosha and the Manipushpaka.
1.16 The King Dharmaraja, the son of Kunti, blew the Anantavijaya, Nakalu and Sahadeo, the Sugosh and Manipushpaka, respectively.
1.16 King Yudhisthira, son of Kunti, (blew) the Anantavijaya; Nakula and Sahadeva, the Sughosa and the Manipuspaka (respectively).
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1.16. Kunti's son, the king Yudhisthira blew the Anantavijaya; Nakula and Sahadeva blew [respectively] the Sughosa and the Manipuspaka.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.16 King Yudhisthira the son of Kunti blew his conch Anantavijaya and Nakula and Sahadeva blew their conchs Sughosa and Manipuspaka.
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अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।1.16।।
অনন্তবিজযং রাজা কুন্তীপুত্রো যুধিষ্ঠিরঃ৷ নকুলঃ সহদেবশ্চ সুঘোষমণিপুষ্পকৌ৷৷1.16৷৷
অনন্তবিজযং রাজা কুন্তীপুত্রো যুধিষ্ঠিরঃ৷ নকুলঃ সহদেবশ্চ সুঘোষমণিপুষ্পকৌ৷৷1.16৷৷
અનન્તવિજયં રાજા કુન્તીપુત્રો યુધિષ્ઠિરઃ। નકુલઃ સહદેવશ્ચ સુઘોષમણિપુષ્પકૌ।।1.16।।
ਅਨਨ੍ਤਵਿਜਯਂ ਰਾਜਾ ਕੁਨ੍ਤੀਪੁਤ੍ਰੋ ਯੁਧਿਸ਼੍ਠਿਰ। ਨਕੁਲ ਸਹਦੇਵਸ਼੍ਚ ਸੁਘੋਸ਼ਮਣਿਪੁਸ਼੍ਪਕੌ।।1.16।।
ಅನನ್ತವಿಜಯಂ ರಾಜಾ ಕುನ್ತೀಪುತ್ರೋ ಯುಧಿಷ್ಠಿರಃ. ನಕುಲಃ ಸಹದೇವಶ್ಚ ಸುಘೋಷಮಣಿಪುಷ್ಪಕೌ৷৷1.16৷৷
അനന്തവിജയം രാജാ കുന്തീപുത്രോ യുധിഷ്ഠിരഃ. നകുലഃ സഹദേവശ്ച സുഘോഷമണിപുഷ്പകൌ৷৷1.16৷৷
ଅନନ୍ତବିଜଯଂ ରାଜା କୁନ୍ତୀପୁତ୍ରୋ ଯୁଧିଷ୍ଠିରଃ| ନକୁଲଃ ସହଦେବଶ୍ଚ ସୁଘୋଷମଣିପୁଷ୍ପକୌ||1.16||
anantavijayaṅ rājā kuntīputrō yudhiṣṭhiraḥ. nakulaḥ sahadēvaśca sughōṣamaṇipuṣpakau৷৷1.16৷৷
அநந்தவிஜயஂ ராஜா குந்தீபுத்ரோ யுதிஷ்டிரஃ. நகுலஃ ஸஹதேவஷ்ச ஸுகோஷமணிபுஷ்பகௌ৷৷1.16৷৷
అనన్తవిజయం రాజా కున్తీపుత్రో యుధిష్ఠిరః. నకులః సహదేవశ్చ సుఘోషమణిపుష్పకౌ৷৷1.16৷৷
1.17
1
17
।।1.17 -- 1.18।। हे राजन्! श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा लम्बी-लम्बी भुजाओंवाले सुभद्रा-पुत्र अभिमन्यु - इन सभी ने सब ओर से अलग-अलग (अपने-अपने) शंख बजाये।
।।1.17।।श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न,  राजा विराट और अजेय सात्यकि।
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।।1.17।। व्याख्या--'काश्यश्च परमेष्वासः ৷৷. शङ्खान् दध्मुः पृथक्पृथक्'--महारथी शिखण्डी बहुत शूरवीर था। यह पहले जन्ममें स्त्री (काशिराजकी कन्या अम्बा) था और इस जन्ममें भी राजा द्रुपदको पुत्रीरूपसे प्राप्त हुआ था। आगे चलकर यही शिखण्डी स्थूणाकर्ण नामक यक्षसे पुरुषत्व प्राप्त करके पुरुष बना। भीष्मजी इन सब बातोंको जानते थे और शिखण्डीको स्त्री ही समझते थे। इस कारण वे इसपर बाण नहीं चलाते थे। अर्जुनने युद्धके समय इसीको आगे करके भीष्मजीपर बाण चलाये और उनको रथसे नीचे गिरा दिया। अर्जुनका पुत्र अभिमन्यु बहुत शूरवीर था। युद्धके समय इसने द्रोणनिर्मित चक्रव्यूहमें घुसकर अपने पराक्रमसे बहुतसे वीरोंका संहार किया। अन्तमें कौरवसेनाके छः महारथियोंने इसको अन्यायपूर्वक घेरकर इसपर शस्त्रअस्त्र चलाये। दुःशासनपुत्रके द्वारा सिरपर गदाका प्रहार होनेसे इसकी मृत्यु हो गयी। सञ्जयने शंखवादनके वर्णनमें कौरवसेनाके शूरवीरोंमेंसे केवल भीष्मजीका ही नाम लिया और पाण्डवसेनाके शूरवीरोंमेंसे भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम आदि अठारह वीरोंके नाम लिये। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सञ्जयके मनमें अधर्मके पक्ष-(कौरवसेना-) का आदर नहीं है। इसलिये वे अधर्मके पक्षका अधिक वर्णन करना उचित नहीं समझते। परन्तु उनके मनमें धर्मके पक्ष-(पाण्डवसेना-) का आदर होनेसे और भगवान् श्रीकृष्ण तथा पाण्डवोंके प्रति आदरभाव होनेसे वे उनके पक्षका ही अधिक वर्णन करना उचित समझते हैं और उनके पक्षका वर्णन करनेमें ही उनको आनन्द आ रहा है।
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।।1.17।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.17।।अन्येषामपि तत्पक्षीयाणां राज्ञामैकमत्यं विज्ञापयन् धृतराष्ट्रस्य दुराशां संजयो व्युदस्यति  काश्यश्चेत्यादिना।
।।1.15 1.19।।ततो युधिष्ठिरभीमादयश्च पृथक्पृथक् शङ्खान् दध्मुः। स घोषः दुर्योधनादिहृदयानि बिभेद।
।। 1.17अन्येषमापि रथस्थत्वे स्थितएवासाधारण्येन रथोत्कर्षकथनार्थं ततः श्वेतैर्हयैर्युक्त इत्यादिना रथस्थत्वकथनम्। तेनाग्निदत्ते दुष्प्रधृष्ये रथे स्थितौ। सर्वथा जेतुमशक्यावित्यर्थः। पाञ्चजन्यो देवदत्तः पौण्ड्रोऽनन्तविजयः सुधोषो मणिपुष्पकश्चेति शङ्खनामकथनम् परसैन्ये स्वस्वनामभिः प्रसिद्धा एतावन्तः शङ्खाः भवत्सैन्ये तु नैकोऽपि स्वनामप्रसिद्धः शङ्खोऽस्तीति परेषामुत्कर्षातिशयकथनार्थम्। सर्वेन्द्रियप्रेरकत्वेन सर्वान्तर्यामी सहायः पाण्डवानामिति कथयितुं हृषिकेशपदम्। दिग्विजये सर्वान्राज्ञो जित्वा धनमाहृतवानिति सर्वथैवायमजेय इति कथयितुं धनंजयपदम्। भीष्मं हिडिम्बवधादिरूपं कर्म यस्य तादृशः वृकोदरत्वेन बह्वन्नपाकादतिबलिष्ठो भीमसेन इति कथितम्। कुन्तीपुत्र इति कुन्त्या महता तपसा धर्ममाराध्य लब्धः स्वयं च राजसूययाजित्वेन मुख्यो राजा युधि चायमेव जयभागित्वेन स्थिरो नत्वेतद्विपक्षाः स्थिरा भविष्यन्तीति युधिष्ठिरपदेन सूचितम्। नकुलः सुघोषं सहदेवो मणिपुष्पकं दध्मावित्यनुषज्यते। परमेष्वासः काश्यो महाधनुर्धरः काशिराजः। न पराजितः पारिजातहरणबाणयुद्धादिमहासंग्रामेषु एतादृशः सात्यकिः। हे पृथिवीपते धृतराष्ट्र स्थिरो भूत्वा शृण्वित्यभिप्रायः। सुगममन्यत्।
।।1.17।।   काश्यश्चेति।  काश्यः काशिराजः। कथंभूतः। परमः श्रेष्ठ इष्वासो धनुर्यस्य सः।
।। 1.17।।दिव्यत्वोक्तिदर्शितशङ्खातिशयवैशद्याय पाञ्चजन्यदेवदत्तसंज्ञोक्तिः। एवं भीमसेनादिशङ्खचतुष्टयविशेषे नामनिर्देशोऽपि।पृथक् पृथक् प्रदध्मुरिति यथैकैकशङ्खध्वनिरेव धार्तराष्ट्रहृदयभेदाय स्यात् तथा प्रदध्मुरिति भावः। यद्वा यथास्वं प्रहर्षद्योतनाय क्रमात्प्रदध्मुरिति।स घोषः इति श्लोके नभश्च पृथिवीं चानुनादयन्नपि धार्तराष्ट्राणामेव हृदयानि बिभेदेत्यन्वयः अन्येषां तु हर्षहेतुरिति भावः।सर्वेषामेव भवत्पुत्राणामित्यनेन तेषु दृढचित्तः कश्चिदपि नास्तीति द्योतनाय धार्तराष्ट्रशब्दतद्गतबहुवचनयोरर्थ उक्तः।व्यदारथत् इत्यस्य वक्ष्यमाणाभिप्रायद्योतकं प्रतिपदंबिभेद इति। घोषस्य शस्त्रादिवत् हृदयविदारणत्वं कथमित्यत्राह अद्यैवेति। स्वबलस्य विजयित्वमध्यवस्यतां तन्नाशबुद्धिरेव हि हृदयभेद इति भावः। धार्तराष्ट्रविजयबुभुत्सया पृच्छते धृतराष्ट्राय प्रागुक्तप्रकारेण तदपजयसूचकमेव सञ्जयोऽकथयदित्याह एवमिति।
।।1.17।।एवं मुख्यानां नामानि तच्छङ्खानां चोक्त्वा तत्सैनिकानां महतां सर्वेषां नामान्याह काश्यश्चेति द्वयेन। काश्यः काशिराजः परमेष्वासः परमः श्रेष्ठ इष्वासो धनुर्यस्य। शिखण्डी च महारथः शस्त्रशास्त्रप्रवीणः। चकारेण परमेष्वासोऽपि। धृष्टद्युम्नादयो गणिताः सर्वे तथा। सौभद्रोऽभिमन्युः महाबाहुः परमयुद्धसमर्थः। पृथक् पृथक् भिन्नस्थाने स्थिताः शङ्खान्दध्मुः। पृथिवीपत इति सम्बोधनं धृतराष्ट्रस्य सर्वेषां स्वरूपज्ञानार्थम्।
।। 1.17अभ्यहन्यन्त अभिहताः। कर्मकर्तरि प्रयोगः।
।।1.17।।   अन्येषामपि तत्पक्षीयाणां सर्वेषामैकमत्यं बोधयंस्तेषां प्रवृत्तिमाह  काश्यश्चेत्यादिना।  काश्यः काशिराजः परमेष्वासः परमधनुर्धुरः। सात्यकिश्चापराजितः पराजयमप्राप्तः। शिखण्डी च महारथः।
1.17 काश्यः Kasya? the king of Kasi? च and? परमेष्वासः an excellent archer? शिखण्डी Sikhandi? च and? महारथः mighty carwarrior? धृष्टद्युम्नः Dhrishtadyumna? विराटः Virata? च and? सात्यकिः Satyaki? च and? अपराजितः unconered.No Commentary.
1.17. The king of Kasi, an exellent archer, Sikhandi, the mighty car-warrior, Dhrishtadyumna and Virata and Satyaki, the unconered.
1.17 And the Maharaja of Benares, the great archer, Shikhandi, the great soldier, Dhrishtayumna, Virata and Satyaki, the invincible,
1.17 And the King of Kasi, wielding a great bow, and the great chariot-rider Sikhandi, Dhrstadyumna and Virata, and Satyaki the unconered;
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1.17. And the king of Kasi, a great archer, and Sikhandin, a mighty warrior; Dhrstadyumna and the king of Virata, and the unconered Satyaki;
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.17 And the King of Kasi the supreme bowman, Sikandi the mighty warrior, Dhrstadyumna and Virata; and Satyaki the invincible;
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काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।1.17।।
কাশ্যশ্চ পরমেষ্বাসঃ শিখণ্ডী চ মহারথঃ৷ ধৃষ্টদ্যুম্নো বিরাটশ্চ সাত্যকিশ্চাপরাজিতঃ৷৷1.17৷৷
কাশ্যশ্চ পরমেষ্বাসঃ শিখণ্ডী চ মহারথঃ৷ ধৃষ্টদ্যুম্নো বিরাটশ্চ সাত্যকিশ্চাপরাজিতঃ৷৷1.17৷৷
કાશ્યશ્ચ પરમેષ્વાસઃ શિખણ્ડી ચ મહારથઃ। ધૃષ્ટદ્યુમ્નો વિરાટશ્ચ સાત્યકિશ્ચાપરાજિતઃ।।1.17।।
ਕਾਸ਼੍ਯਸ਼੍ਚ ਪਰਮੇਸ਼੍ਵਾਸ ਸ਼ਿਖਣ੍ਡੀ ਚ ਮਹਾਰਥ। ਧਰਿਸ਼੍ਟਦ੍ਯੁਮ੍ਨੋ ਵਿਰਾਟਸ਼੍ਚ ਸਾਤ੍ਯਕਿਸ਼੍ਚਾਪਰਾਜਿਤ।।1.17।।
ಕಾಶ್ಯಶ್ಚ ಪರಮೇಷ್ವಾಸಃ ಶಿಖಣ್ಡೀ ಚ ಮಹಾರಥಃ. ಧೃಷ್ಟದ್ಯುಮ್ನೋ ವಿರಾಟಶ್ಚ ಸಾತ್ಯಕಿಶ್ಚಾಪರಾಜಿತಃ৷৷1.17৷৷
കാശ്യശ്ച പരമേഷ്വാസഃ ശിഖണ്ഡീ ച മഹാരഥഃ. ധൃഷ്ടദ്യുമ്നോ വിരാടശ്ച സാത്യകിശ്ചാപരാജിതഃ৷৷1.17৷৷
କାଶ୍ଯଶ୍ଚ ପରମେଷ୍ବାସଃ ଶିଖଣ୍ଡୀ ଚ ମହାରଥଃ| ଧୃଷ୍ଟଦ୍ଯୁମ୍ନୋ ବିରାଟଶ୍ଚ ସାତ୍ଯକିଶ୍ଚାପରାଜିତଃ||1.17||
kāśyaśca paramēṣvāsaḥ śikhaṇḍī ca mahārathaḥ. dhṛṣṭadyumnō virāṭaśca sātyakiścāparājitaḥ৷৷1.17৷৷
காஷ்யஷ்ச பரமேஷ்வாஸஃ ஷிகண்டீ ச மஹாரதஃ. தரிஷ்டத்யும்நோ விராடஷ்ச ஸாத்யகிஷ்சாபராஜிதஃ৷৷1.17৷৷
కాశ్యశ్చ పరమేష్వాసః శిఖణ్డీ చ మహారథః. ధృష్టద్యుమ్నో విరాటశ్చ సాత్యకిశ్చాపరాజితః৷৷1.17৷৷
1.18
1
18
।।1.17 -- 1.18।। हे राजन्! श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा लम्बी-लम्बी भुजाओंवाले सुभद्रा-पुत्र अभिमन्यु - इन सभी ने सब ओर से अलग-अलग (अपने-अपने) शंख बजाये।
।।1.18।।हे राजन् ! राजा द्रुपद,  द्रौपदी के पुत्र और महाबाहु सौभद्र (अभिमन्यु) इन सब ने अलग-अलग शंख बजाये।
।।1.18।। इन श्लोकों में उन महारथियों के नाम हैं जिन्होंने अत्यन्त उत्साह के साथ बारंबार प्रचण्ड ध्वनि से शंखनाद किया। भीष्म पितामह के धराशायी होने में शिखण्डी कारण था। सात्यकि भी पाण्डव सेना में एक महारथी था। यहाँ पृथिवीपते यह संबोधन धृतराष्ट्र के लिए प्रयुक्त है।
।।1.118।। व्याख्या--'काश्यश्च परमेष्वासः৷৷.शङ्खान् दध्मुः पृथक्पृथक्'--महारथी शिखण्डी बहुत शूरवीर था। यह पहले जन्ममें स्त्री (काशिराजकी कन्या अम्बा) था और इस जन्ममें भी राजा द्रुपदको पुत्रीरूपसे प्राप्त हुआ था। आगे चलकर यही शिखण्डी स्थूणाकर्ण नामक यक्षसे पुरुषत्व प्राप्त करके पुरुष बना। भीष्मजी इन सब बातोंको जानते थे और शिखण्डीको स्त्री ही समझते थे। इस कारण वे इसपर बाण नहीं चलाते थे। अर्जुनने युद्धके समय इसीको आगे करके भीष्मजीपर बाण चलाये और उनको रथसे नीचे गिरा दिया। अर्जुनका पुत्र अभिमन्यु बहुत शूरवीर था। युद्धके समय इसने द्रोणनिर्मित चक्रव्यूहमें घुसकर अपने पराक्रमसे बहुत-से वीरोंका संहार किया। अन्तमें कौरवसेनाके छः महारथियोंने इसको अन्यायपूर्वक घेरकर इसपर शस्त्रअस्त्र चलाये। दुःशासनपुत्रके द्वारा सिरपर गदाका प्रहार होनेसे इसकी मृत्यु हो गयी। सञ्जयने शंखवादनके वर्णनमें कौरवसेनाके शूरवीरोंमेंसे केवल भीष्मजीका ही नाम लिया और पाण्डवसेनाके शूरवीरोंमेंसे भगवान् श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम आदि अठारह वीरोंके नाम लिये। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि सञ्जयके मनमें अधर्मके पक्ष-(कौरवसेना-) का आदर नहीं है। इसलिये वे अधर्मके पक्षका अधिक वर्णन करना उचित नहीं समझते। परन्तु उनके मनमें धर्मके पक्ष-(पाण्डवसेना-) का आदर होनेसे और भगवान् श्रीकृष्ण तथा पाण्डवोंके प्रति आदरभाव होनेसे वे उनके पक्षका ही अधिक वर्णन करना उचित समझते हैं और उनके पक्षका वर्णन करनेमें ही उनको आनन्द आ रहा है।  सम्बन्ध--पाण्डवसेनाके शंखवादनका कौरवसेनापर क्या असर हुआ--इसको आगेके श्लोकमें कहते हैं।
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।।1.18।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.18।। द्रुपद इति।  परमेष्वासादिविशेषणचतुष्टयं प्रत्येकं संबध्यते।
।।1.15 1.19।।ततो युधिष्ठिरभीमादयश्च पृथक्पृथक् शङ्खान् दध्मुः। स घोषः दुर्योधनादिहृदयानि बिभेद।
।। 1.18अन्येषमापि रथस्थत्वे स्थितएवासाधारण्येन रथोत्कर्षकथनार्थं ततः श्वेतैर्हयैर्युक्त इत्यादिना रथस्थत्वकथनम्। तेनाग्निदत्ते दुष्प्रधृष्ये रथे स्थितौ। सर्वथा जेतुमशक्यावित्यर्थः। पाञ्चजन्यो देवदत्तः पौण्ड्रोऽनन्तविजयः सुधोषो मणिपुष्पकश्चेति शङ्खनामकथनम् परसैन्ये स्वस्वनामभिः प्रसिद्धा एतावन्तः शङ्खाः भवत्सैन्ये तु नैकोऽपि स्वनामप्रसिद्धः शङ्खोऽस्तीति परेषामुत्कर्षातिशयकथनार्थम्। सर्वेन्द्रियप्रेरकत्वेन सर्वान्तर्यामी सहायः पाण्डवानामिति कथयितुं हृषिकेशपदम्। दिग्विजये सर्वान्राज्ञो जित्वा धनमाहृतवानिति सर्वथैवायमजेय इति कथयितुं धनंजयपदम्। भीष्मं हिडिम्बवधादिरूपं कर्म यस्य तादृशः वृकोदरत्वेन बह्वन्नपाकादतिबलिष्ठो भीमसेन इति कथितम्। कुन्तीपुत्र इति कुन्त्या महता तपसा धर्ममाराध्य लब्धः स्वयं च राजसूययाजित्वेन मुख्यो राजा युधि चायमेव जयभागित्वेन स्थिरो नत्वेतद्विपक्षाः स्थिरा भविष्यन्तीति युधिष्ठिरपदेन सूचितम्। नकुलः सुघोषं सहदेवो मणिपुष्पकं दध्मावित्यनुषज्यते। परमेष्वासः काश्यो महाधनुर्धरः काशिराजः। न पराजितः पारिजातहरणबाणयुद्धादिमहासंग्रामेषु एतादृशः सात्यकिः। हे पृथिवीपते धृतराष्ट्र स्थिरो भूत्वा शृण्वित्यभिप्रायः। सुगममन्यत्।
।।1.18।।द्रुपद इति।  हे पृथिवीपते हे धृतराष्ट्र।
।। 1.18।।दिव्यत्वोक्तिदर्शितशङ्खातिशयवैशद्याय पाञ्चजन्यदेवदत्तसंज्ञोक्तिः। एवं भीमसेनादिशङ्खचतुष्टयविशेषे नामनिर्देशोऽपि।पृथक् पृथक् प्रदध्मुरिति यथैकैकशङ्खध्वनिरेव धार्तराष्ट्रहृदयभेदाय स्यात् तथा प्रदध्मुरिति भावः। यद्वा यथास्वं प्रहर्षद्योतनाय क्रमात्प्रदध्मुरिति।स घोषः इति श्लोके नभश्च पृथिवीं चानुनादयन्नपि धार्तराष्ट्राणामेव हृदयानि बिभेदेत्यन्वयः अन्येषां तु हर्षहेतुरिति भावः।सर्वेषामेव भवत्पुत्राणामित्यनेन तेषु दृढचित्तः कश्चिदपि नास्तीति द्योतनाय धार्तराष्ट्रशब्दतद्गतबहुवचनयोरर्थ उक्तः।व्यदारथत् इत्यस्य वक्ष्यमाणाभिप्रायद्योतकं प्रतिपदंबिभेद इति। घोषस्य शस्त्रादिवत् हृदयविदारणत्वं कथमित्यत्राह अद्यैवेति। स्वबलस्य विजयित्वमध्यवस्यतां तन्नाशबुद्धिरेव हि हृदयभेद इति भावः। धार्तराष्ट्रविजयबुभुत्सया पृच्छते धृतराष्ट्राय प्रागुक्तप्रकारेण तदपजयसूचकमेव सञ्जयोऽकथयदित्याह एवमिति।
।। 1.18एवं मुख्यानां नामानि तच्छङ्खानां चोक्त्वा तत्सैनिकानां महतां सर्वेषां नामान्याह काश्यश्चेति द्वयेन। काश्यः काशिराजः परमेष्वासः परमः श्रेष्ठ इष्वासो धनुर्यस्य। शिखण्डी च महारथः शस्त्रशास्त्रप्रवीणः। चकारेण परमेष्वासोऽपि। धृष्टद्युम्नादयो गणिताः सर्वे तथा। सौभद्रोऽभिमन्युः महाबाहुः परमयुद्धसमर्थः। पृथक् पृथक् भिन्नस्थाने स्थिताः शङ्खान्दध्मुः। पृथिवीपत इति सम्बोधनं धृतराष्ट्रस्य सर्वेषां स्वरूपज्ञानार्थम्।
।। 1.18अभ्यहन्यन्त अभिहताः। कर्मकर्तरि प्रयोगः।
।।1.18।।सौभद्रोऽभिमन्युश्च महाबाहुः। परमेष्वासादिविशेषणचतुष्टयं प्रत्येकं संबध्यत इत्येके। पृथिवीपतित्वेन पृथिवीवद्दुःखं सोढुं योग्योऽसीति सूचितम्। पृथिवीपते धृतराष्ट्र स्थिरो भूत्वा शृण्वित्यभिप्राय इति केचित्।
1.18 द्रुपदः Drupada? द्रौपदेयाः the sons of Draupadi? च and? सर्वशः all? पृथिवीपते O Lord of the earth? सौभद्रः the son of Subhadra (Abhimanyu)? च and महाबाहुः the mightyarmed? शङ्खान् conches? दध्मुः blew? पृथक् पृथक् separately.Commentary This blowing of conches announced the commencement of the battle.
1.18. Drupada and the sons of Draupadi, O Lord of the earth, and the son of Subhadra, the mighty-armed, blew their conches separately.
1.18 And O King! Drupada, the sons of Droupadi and Soubhadra, the great soldier, blew their conches.
1.18 Drupada and the sons of Draupadi, and the son of Subhadra, (Abhimanyu) the mighty-armed all (of them) together, O king, blew their respective conchs.
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1.18. The Pancala king, a mighty archer; and Draupad's sons, who are five in number; and the mighty-armed son of Subhadra blew their own conch-shells individually.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.18 Drupada and the sons of Draupadi, and the strong-armed son of Subhadra - all, O King, blew their several conchs again and again.
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द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते। सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।1.18।।
দ্রুপদো দ্রৌপদেযাশ্চ সর্বশঃ পৃথিবীপতে৷ সৌভদ্রশ্চ মহাবাহুঃ শঙ্খান্দধ্মুঃ পৃথক্পৃথক্৷৷1.18৷৷
দ্রুপদো দ্রৌপদেযাশ্চ সর্বশঃ পৃথিবীপতে৷ সৌভদ্রশ্চ মহাবাহুঃ শঙ্খান্দধ্মুঃ পৃথক্পৃথক্৷৷1.18৷৷
દ્રુપદો દ્રૌપદેયાશ્ચ સર્વશઃ પૃથિવીપતે। સૌભદ્રશ્ચ મહાબાહુઃ શઙ્ખાન્દધ્મુઃ પૃથક્પૃથક્।।1.18।।
ਦ੍ਰੁਪਦੋ ਦ੍ਰੌਪਦੇਯਾਸ਼੍ਚ ਸਰ੍ਵਸ਼ ਪਰਿਥਿਵੀਪਤੇ। ਸੌਭਦ੍ਰਸ਼੍ਚ ਮਹਾਬਾਹੁ ਸ਼ਙ੍ਖਾਨ੍ਦਧ੍ਮੁ ਪਰਿਥਕ੍ਪਰਿਥਕ੍।।1.18।।
ದ್ರುಪದೋ ದ್ರೌಪದೇಯಾಶ್ಚ ಸರ್ವಶಃ ಪೃಥಿವೀಪತೇ. ಸೌಭದ್ರಶ್ಚ ಮಹಾಬಾಹುಃ ಶಙ್ಖಾನ್ದಧ್ಮುಃ ಪೃಥಕ್ಪೃಥಕ್৷৷1.18৷৷
ദ്രുപദോ ദ്രൌപദേയാശ്ച സര്വശഃ പൃഥിവീപതേ. സൌഭദ്രശ്ച മഹാബാഹുഃ ശങ്ഖാന്ദധ്മുഃ പൃഥക്പൃഥക്৷৷1.18৷৷
ଦ୍ରୁପଦୋ ଦ୍ରୌପଦେଯାଶ୍ଚ ସର୍ବଶଃ ପୃଥିବୀପତେ| ସୌଭଦ୍ରଶ୍ଚ ମହାବାହୁଃ ଶଙ୍ଖାନ୍ଦଧ୍ମୁଃ ପୃଥକ୍ପୃଥକ୍||1.18||
drupadō draupadēyāśca sarvaśaḥ pṛthivīpatē. saubhadraśca mahābāhuḥ śaṅkhāndadhmuḥ pṛthakpṛthak৷৷1.18৷৷
த்ருபதோ த்ரௌபதேயாஷ்ச ஸர்வஷஃ பரிதிவீபதே. ஸௌபத்ரஷ்ச மஹாபாஹுஃ ஷங்காந்தத்முஃ பரிதக்பரிதக்৷৷1.18৷৷
ద్రుపదో ద్రౌపదేయాశ్చ సర్వశః పృథివీపతే. సౌభద్రశ్చ మహాబాహుః శఙ్ఖాన్దధ్ముః పృథక్పృథక్৷৷1.18৷৷
1.19
1
19
।।1.19।। पाण्डव-सेना के शंखों के उस भयंकर शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए अन्यायपूर्वक राज्य हड़पनेवाले दुर्योधन आदि के हृदय विदीर्ण कर दिये।
।।1.19।।वह भयंकर घोष आकाश और पृथ्वी पर गूँजने लगा और उसने धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय विदीर्ण कर दिये।
।।1.19।। 14वें श्लोक से संजय पाण्डवों की सेना का विस्तृत वर्णन करता है। उसका यह विशेष प्रयास है कि किसी प्रकार धृतराष्ट्र पाण्डव सेना की श्रेष्ठता समझ सकें और युद्ध के विनाशकारी परिणामों को समझ कर इस भ्रातृहन्ता युद्ध को रोकने का आदेश भेजें।
1.19।। व्याख्या --'स घोषो धार्तराष्ट्राणां ৷৷. तुमुलो व्यनुनादयन्'-- पाण्डव-सेनाकी वह शंखध्वनि इतनी विशाल, गहरी, ऊँची और भयंकर हुई कि उस (ध्वनि-प्रतिध्वनि-) से पृथ्वी और आकाशके बीचका भाग गूँज उठा। उस शब्दसे अन्यायपूर्वक राज्यको हड़पनेवालोंके और उनकी सहायताके लिये (उनके पक्षमें) खड़े हुए राजाओंके हृदय विदीर्ण हो गये। तात्पर्य है कि हृदयको किसी अस्त्र-शस्त्रसे विदीर्ण करनेसे जैसी पीड़ा होती है वैसी ही पीड़ा उनके हृदयमें शंखध्वनिसे हो गयी। उस शंखध्वनिने कौरवसेनाके हृदयमें युद्धका जो उत्साह था बल था, उसको कमजोर बना दिया जिससे उनके हृदयमें पाण्डव-सेनाका भय उत्पन्न हो गया। सञ्जय ये बातें धृतराष्ट्रको सुना रहे हैं। 'धृतराष्ट्रके सामने ही सञ्जयका धृतराष्ट्र के पुत्रों अथवा सम्बन्धियोंके हृदय विदीर्ण कर दिये' ऐसा कहना सभ्यतापूर्ण और युक्तिसंगत नहीं मालूम देता। इसलिये सञ्जयको 'धार्तराष्ट्राणाम्' न कहकर 'तावकीनानाम्'(आपके पुत्रों अथवा सम्बन्धियोंके--ऐसा) कहना चाहिये था; क्योंकि ऐसा कहना ही सभ्यता है। इस दृष्टिसे यहाँ 'धार्तराष्ट्राणाम्' पदका अर्थ जिन्होंने अन्यायपूर्वक राज्यको धारण किया  (टिप्पणी प0 15.1)--ऐसा लेना ही युक्तिसंगत तथा सभ्यतापूर्ण मालूम देता है। अन्यायका पक्ष लेनेसे ही उनके हृदय विदीर्ण हो गये--इस दृष्टिसे भी यह अर्थ लेना ही युक्तिसंगत मालूम देता है। यहाँ शङ्का होती है कि कौरवोंकी ग्यारह अक्षौहिणी (टिप्पणी प0 15.2) सेनाके शंख आदि बाजे तो उनके शब्दका पाण्डव-सेनापर कुछ भी असर नहीं हुआ, पर पाण्डवोंकी सात अक्षौहिणी सेनाके शंख बजे तो उनके शब्दसे कौरवसेनाके हृदय विदीर्ण क्यों हो गये? इसका समाधान यह है कि जिनके हृदयमें अधर्म, पाप, अन्याय नहीं है अर्थात् जो धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करते हैं, उनका हृदय मजबूत होता है, उनके हृदयमें भय नहीं होता। न्यायका पक्ष होनेसे उनमें उत्साह होता है ,शूरवीरता होती है। पाण्डवोँने वनवासके पहले भी न्याय और धर्मपूर्वक राज्य किया था और वनवासके बाद भी नियमके अनुसार कौरवोंसे न्यायपूर्वक राज्य माँगा था। अतः उनके हृदयमें भय नहीं था, प्रत्युत उत्साह था, शूरवीरता थी। तात्पर्य है कि पाण्डवोंका पक्ष धर्मका था। इस कारण कौरवोंकी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाके बाजोंके शब्दका पाण्डव-सेनापर कोई असर नहीं हुआ। परन्तु जो अधर्म, पाप, अन्याय आदि करते हैं, उनके हृदय स्वाभाविक ही कमजोर होते हैं। उनके हृदयमें निर्भयता निःशङ्कता नहीं रहती। उनकी खुदका किया पाप, अन्याय ही उनके हृदयको निर्बल बना देता है। अधर्म अधर्मीको खा जाता है। दुर्योधन आदिने पाण्डवोंको अन्यायपूर्वक मारनेका बहुत प्रयास किया था। उन्होंने छलकपटसे अन्यायपूर्वक पाण्डवोंका राज्य छीना था और उनको बहुत कष्ट दिये थे। इस कारण उनके हृदय कमजोर, निर्बल हो चुके थे। तात्पर्य है कि कौरवोंका पक्ष अधर्मका था। इसलिये पाण्डवोंकी सात अक्षौहिणी सेनाकी शंख-ध्वनिसे उनके हृदय विदीर्ण हो गये, उनमें बड़े जोरकी पीड़ा हो गयी। इस प्रसंगसे साधकको सावधान हो जाना चाहिये कि उसके द्वारा अपने शरीर, वाणी, मनसे कभी भी कोई अन्याय और अधर्मका आचरण न हो। अन्याय और अधर्मयुक्त आचरणसे मनुष्यका हृदय कमजोर, निर्बल हो जाता है। उसके हृदयमें भय पैदा हो जाता है। उदाहरणार्थ, लंकाधिपति रावणसे त्रिलोकी डरती थी। वही रावण जब सीताजीका हरण करने जाता है तब भयभीत होकर इधर-उधर देखता है  (टिप्पणी प0 16) । इसलिये साधककोचाहिये कि वह अन्याय--अधर्मयुक्त आचरण कभी न करे।
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।।1.19।।धृतराष्ट्र उवाच सञ्जय उवाच दुर्योधनः स्वयमेव भीमाभिरक्षितं पाण्डवानां बलम् आत्मीयं च भीष्माभिरक्षितं बलम् अवलोक्य आत्मविजये तस्य बलस्य पर्याप्तताम् आत्मीयस्य बलस्य तद्विजये चापर्याप्तताम् आचार्याय निवेद्य अन्तरे विषण्णः अभवत्। तस्य विषादम् आलोक्य भीष्मः तस्य हर्षं जनयितुं सिंहनादं शङ्खाध्मानं च कृत्वा शङ्खभेरीनिनादैः च विजयाभिशंसिनं घोषं च अकारयत्। ततः तं घोषम् आकर्ण्य सर्वेश्वरेश्वरः पार्थसारथी रथी च पाण्डुतनयः त्रैलोक्यविजयोपकरणभूते महति स्यन्दने स्थितौ त्रैलोक्यं कम्पयन्तौ श्रीमत्पाञ्चजन्यदेवदत्तौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। ततो युधिष्ठिरवृकोदरादयः च स्वकीयान् शङ्खान् पृथक् पृथक् प्रदध्मुः। स घोषो दुर्योधनप्रमुखानां सर्वेषाम् एव भवत्पुत्राणां हृदयानि बिभेद। अद्य एव नष्टं कुरूणां बलम् इति धार्त्तराष्ट्रा मेनिरे। एवं तद्विजयाभिकाङ्क्षिणे धृतराष्ट्राय संजयः अकथयत्।अथ युयुत्सून् अवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् भीष्मद्रोणप्रमुखान् दृष्ट्वा लङ्कादहनवानरध्वजः पाण्डुतनयो ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधिं स्वसंकल्पकृतजगदुदयविभवलयलीलं हृषीकेशं परावरनिखिलजनान्तर्बाह्यसर्वकरणानां सर्वप्रकारकनियमने अवस्थितं समाश्रितवात्सल्यविवशतया स्वसारथ्ये अवस्थितं युयुत्सून् यथावत् अवेक्षितुं तदीक्षणक्षमे स्थाने रथं स्थापय इति अचोदयत्।
।।1.19।।तैस्तै राजभिः शङ्खानापूरयद्भिरापादितो महान्घोषस्तुमुलोऽतिभैरवो नभश्चान्तरिक्षं पृथिवीं च भुवनं लोकत्रयं सर्वमेव विशेषेणानुक्रमेण नादयन्नादयुक्तं कुर्वन् धार्तराष्ट्राणां दुर्योधनादीनां हृदयान्यन्तःकरणानि व्यदारयद्विदारितवान्। युज्यते हि तत्प्रेरितशङ्खघोषश्रवणान्त्रैलोक्याक्रोशे तमुपशृण्वतां तेषां हृदयेषु दोधूयमानत्वम्। तदाह  स घोष इति।
।।1.15 1.19।।ततो युधिष्ठिरभीमादयश्च पृथक्पृथक् शङ्खान् दध्मुः। स घोषः दुर्योधनादिहृदयानि बिभेद।
।।1.19।।धार्तराष्ट्राणां सैन्ये शङ्खादिध्वनिरतितुमुलोऽपि न पाण्डावानां क्षोभकोऽभूत् पाण्डवानां सैन्ये जातस्तु स शङ्खघोषो धार्तराष्ट्राणां धृतराष्ट्रस्य तव संबन्धिनां सर्वेषां भीष्मद्रोणादीनामपि हृदयानि व्यदारयत्। हृदयविदारणतुल्यां व्यथां जनितवानित्यर्थः। यतस्तुमुलस्तीव्रः। नभश्च पृथिवीं च प्रतिध्वनिभिरापूरयन्।
।।1.19।।  स च शङ्खानां नादस्त्वदीयानां महाभयं जनयामासेत्याह  स घोष इति।  धार्तराष्ट्राणां त्वदीयानां हृदयानि विदारितवान्। किं कुर्वन्। नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।
।। 1.19।।दिव्यत्वोक्तिदर्शितशङ्खातिशयवैशद्याय पाञ्चजन्यदेवदत्तसंज्ञोक्तिः। एवं भीमसेनादिशङ्खचतुष्टयविशेषे नामनिर्देशोऽपि।पृथक् पृथक् प्रदध्मुरिति यथैकैकशङ्खध्वनिरेव धार्तराष्ट्रहृदयभेदाय स्यात् तथा प्रदध्मुरिति भावः। यद्वा यथास्वं प्रहर्षद्योतनाय क्रमात्प्रदध्मुरिति।स घोषः इति श्लोके नभश्च पृथिवीं चानुनादयन्नपि धार्तराष्ट्राणामेव हृदयानि बिभेदेत्यन्वयः अन्येषां तु हर्षहेतुरिति भावः।सर्वेषामेव भवत्पुत्राणामित्यनेन तेषु दृढचित्तः कश्चिदपि नास्तीति द्योतनाय धार्तराष्ट्रशब्दतद्गतबहुवचनयोरर्थ उक्तः।व्यदारथत् इत्यस्य वक्ष्यमाणाभिप्रायद्योतकं प्रतिपदंबिभेद इति। घोषस्य शस्त्रादिवत् हृदयविदारणत्वं कथमित्यत्राह अद्यैवेति। स्वबलस्य विजयित्वमध्यवस्यतां तन्नाशबुद्धिरेव हि हृदयभेद इति भावः। धार्तराष्ट्रविजयबुभुत्सया पृच्छते धृतराष्ट्राय प्रागुक्तप्रकारेण तदपजयसूचकमेव सञ्जयोऽकथयदित्याह एवमिति।
।।1.19।।स शङ्खध्वनिस्तावकानां भयमुत्पादयामासेत्याह स इति। स पूर्वोक्तपाञ्चजन्यादिजन्मा घोषः शब्दः धार्तराष्ट्राणां हृदयानि विशेषेण दारितवान्। नभः आकाशं पृथिवीं विशेषेण अनुनादयन् प्रतिध्वनयन् तथा कृतवान्। चकारद्वयेन नभः पृथिवीं व्यदारयदिति ज्ञापितम्। नभोविदारणं लोकोक्तिः। पृथिवीविदारणं तु स्पष्टम् विद्युन्महाशब्देन कूपादिविदारणस्य दर्शनात्। कीदृशः सः तुमुलो महान्। नभश्च पृथिवीं च अनुनादयन् तुमुलो भूत्वा स घोषः धार्तराष्ट्रानां हृदयानि व्यदारयदिति वा। उत्साहभङ्गेन हदये भयं जनयामासेत्यर्थः। एवं पाण्डवानां धर्मिष्ठत्वभक्तत्वयोर्बोधनार्थमष्टादशभिः सङ्गतिरुक्ता।
।। 1.19अभ्यहन्यन्त अभिहताः। कर्मकर्तरि प्रयोगः।
।।1.19।।दुर्योधनादीनां त्वदीयानां शङ्खादिशब्दैः परेषां भयं नोत्पन्नं तेषां तु तैस्त्वदीयानां अत्यन्तं तदुत्पन्नमित्याशयेनाह  स   घोष इति।  तुमुलः तीव्रः शब्दः धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयद्विदारणतुल्यां व्यथामजनयत्। युक्तं चैतदित्याशयेनाह  नभ इति।  नभश्च पृथिवीं चैव व्यनुनादयन्प्रतिशब्देनापूरयन्।
1.19 सः that? घोषः uproar? धार्तराष्ट्राणाम् of Dhritarashtras party? हृदयानि hearts? व्यदारयत् rent? नभः sky? च and? पृथिवीम् earth? च and? एव also? तुमुलः tumultuous? व्यनुनादयन् resounding.No Commentary.
1.19. That tumultuous sound rent the hearts of (the members of) Dhritarashtra's party, making both the heaven and the earth resound.
1.19 The tumult rent the hearts of the sons of Dhritarashtra, and violently shook heaven and earth with its echo.
1.19 That tremendous sound pierced the hearts of the sons of Dhrtarastra as it reverberated through the sky and the earth.
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1.19. Revibrating in both the sky and the earth, the tumultuous sound shattered the hearts of Dhrtarastra's men.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.1 - 1.19 Dhrtarastra said - Sanjaya said Duryodhana, after viewing the forces of Pandavas protected by Bhima, and his own forces protected by Bhisma conveyed his views thus to Drona, his teacher, about the adeacy of Bhima's forces for conering the Kaurava forces and the inadeacy of his own forces for victory against the Pandava forces. He was grief-stricken within. Observing his (Duryodhana's) despondecny, Bhisma, in order to cheer him, roared like a lion, and then blowing his conch, made his side sound their conchs and kettle-drums, which made an uproar as a sign of victory. Then, having heard that great tumult, Arjuna and Sri Krsna the Lord of all lords, who was acting as the charioteer of Arjuna, sitting in their great chariot which was powerful enough to coner the three worlds; blew their divine conchs Srimad Pancajanya and Devadatta. Then, both Yudhisthira and Bhima blew their respective conchs separately. That tumult rent asunder the hearts of your sons, led by Duryodhana. The sons of Dhrtarastra then thought, 'Our cause is almost lost now itself.' So said Sanjaya to Dhrtarastra who was longing for their victory. Sanjaya said to Dhrtarastra: Then, seeing the Kauravas, who were ready for battle, Arjuna, who had Hanuman, noted for his exploit of burning Lanka, as the emblem on his flag on his chariot, directed his charioteer Sri Krsna, the Supreme Lord-who is overcome by parental love for those who take shelter in Him who is the treasure-house of knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour, whose sportive delight brings about the origin, sustentation and dissolution of the entire cosmos at His will, who is the Lord of the senses, who controls in all ways the senses inner and outer of all, superior and inferior - by saying, 'Station my chariot in an appropriate place in order that I may see exactly my enemies who are eager for battle.'
1.19 And that tumultuous uproar, resounding through heaven and earth, rent the hearts of Dhrtarastra's sons.
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स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।1.19।।
স ঘোষো ধার্তরাষ্ট্রাণাং হৃদযানি ব্যদারযত্৷ নভশ্চ পৃথিবীং চৈব তুমুলো ব্যনুনাদযন্৷৷1.19৷৷
স ঘোষো ধার্তরাষ্ট্রাণাং হৃদযানি ব্যদারযত্৷ নভশ্চ পৃথিবীং চৈব তুমুলো ব্যনুনাদযন্৷৷1.19৷৷
સ ઘોષો ધાર્તરાષ્ટ્રાણાં હૃદયાનિ વ્યદારયત્। નભશ્ચ પૃથિવીં ચૈવ તુમુલો વ્યનુનાદયન્।।1.19।।
ਸ ਘੋਸ਼ੋ ਧਾਰ੍ਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰਾਣਾਂ ਹਰਿਦਯਾਨਿ ਵ੍ਯਦਾਰਯਤ੍। ਨਭਸ਼੍ਚ ਪਰਿਥਿਵੀਂ ਚੈਵ ਤੁਮੁਲੋ ਵ੍ਯਨੁਨਾਦਯਨ੍।।1.19।।
ಸ ಘೋಷೋ ಧಾರ್ತರಾಷ್ಟ್ರಾಣಾಂ ಹೃದಯಾನಿ ವ್ಯದಾರಯತ್. ನಭಶ್ಚ ಪೃಥಿವೀಂ ಚೈವ ತುಮುಲೋ ವ್ಯನುನಾದಯನ್৷৷1.19৷৷
സ ഘോഷോ ധാര്തരാഷ്ട്രാണാം ഹൃദയാനി വ്യദാരയത്. നഭശ്ച പൃഥിവീം ചൈവ തുമുലോ വ്യനുനാദയന്৷৷1.19৷৷
ସ ଘୋଷୋ ଧାର୍ତରାଷ୍ଟ୍ରାଣାଂ ହୃଦଯାନି ବ୍ଯଦାରଯତ୍| ନଭଶ୍ଚ ପୃଥିବୀଂ ଚୈବ ତୁମୁଲୋ ବ୍ଯନୁନାଦଯନ୍||1.19||
sa ghōṣō dhārtarāṣṭrāṇāṅ hṛdayāni vyadārayat. nabhaśca pṛthivīṅ caiva tumulō vyanunādayan৷৷1.19৷৷
ஸ கோஷோ தார்தராஷ்ட்ராணாஂ ஹரிதயாநி வ்யதாரயத். நபஷ்ச பரிதிவீஂ சைவ துமுலோ வ்யநுநாதயந்৷৷1.19৷৷
స ఘోషో ధార్తరాష్ట్రాణాం హృదయాని వ్యదారయత్. నభశ్చ పృథివీం చైవ తుములో వ్యనునాదయన్৷৷1.19৷৷
1.20
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।।1.20।। हे महीपते! धृतराष्ट्र! अब शस्त्रों के चलने की तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्य को धारण करनेवाले राजाओं और उनके साथियों को व्यवस्थितरूप से सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुन ने अपना गाण्डीव धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण से ये वचन बोले।
।।1.20।।हे महीपते ! इस प्रकार जब युद्ध प्रारम्भ होने वाला ही था कि कपिध्वज अर्जुन ने धृतराष्ट्र के पुत्रों को स्थित देखकर धनुष उठाकर भगवान् हृषीकेश से ये शब्द कहे।
।।1.20।। इन डेढ़ श्लोकों में महाभारत युद्ध के नायक अर्जुन का युद्धक्षेत्र में प्रवेशवर्णन मिलता है। उसके प्रवेश का ठीक समय और ढंग भी इसमें अंकित किया गया है। अभी बाण युद्ध प्रारम्भ नहीं हुआ था किन्तु वह क्षण दूर भी नहीं था। युद्ध का वह सर्वाधिक तनावपूर्ण क्षण था। संकट अपने चरम बिन्दु पर पहुँच गया था। ऐसे समय कपिध्वज अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण से अपने रथ को उभय पक्ष के मध्य ले चलने का अनुरोध किया।प्राचीनकाल में युद्धभूमि पर प्रत्येक श्रेष्ठ योद्धा का अपना एक विशेष सुप्रसिद्ध चिह्नांकित ध्वज होता था। पताका को पहराते समय रथ में बैठेे रथी को शत्रु की पहचान होती थी। उस समय के नियमानुसार एक साधारण सैनिक सेनानायक पर बाण नहीं चला सकता था। प्रत्येक योद्धा अपने समकक्ष योद्धा के साथ ही युद्ध करता था। विशिष्ट चिह्न द्वारा किसी व्यक्ति को पहचानने की प्रथा आज भी युद्ध क्षेत्र में प्रचलित है। किसी उच्च अधिकारी के वाहन और गणवेश पर उसके परिचायक विशेष चिह्न अंकित होते हैं। अर्जुन के ध्वज का प्रतीक चिह्न कपि था।संजय द्वारा किये गये वर्णन से प्रतीत होता है कि अर्जुन धर्मयुद्ध को प्रारम्भ करने के लिये अधीर हो रहा था। उसने अपना धनुष उठा लिया था जिससे उसकी युद्धतत्परता का संकेत मिलता है।
।।1.20।। व्याख्या--'अथ'-- इस पदका तात्पर्य है कि अब सञ्जय भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादरूप 'भगवद्गीता' का आरम्भ करते हैं। अठारहवें अध्यायके चौहत्तरवें श्लोकमें आये  'इति'  पदसे यह संवाद समाप्त होता है। ऐसे ही भगवद्गीताके उपदेशका आरम्भ उसके दूसरे अध्यायके ग्यारहवें श्लोकसे होता है और अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्लोकमें यह उपदेश समाप्त होता है।  'प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते'-- यद्यपि पितामह भीष्मने युद्धारम्भकी घोषणाके लिये शंख नहीं बजाया था, प्रत्युत केवल दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया था, तथापि कौरव और पाण्डव-सेनाने उसको युद्धारम्भकी घोषणा ही मान लिया और अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र हाथमें उठाकर तैयार हो गये। इस तरह सेनाको शस्त्र उठाये देखकर वीरतामें भरकर अर्जुनने भी अपना गाण्डीव धनुष हाथमें उठा लिया।  'व्यवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् दृष्ट्वा'-- इन पदोंसे सञ्जय-का तात्पर्य है कि जब आपके पुत्र दुर्योधनने पाण्डवोंकी सेनाको देखा, तब वह भागा-भागा द्रोणाचार्यके पास गया। परन्तु जब अर्जुनने कौरवोंकी सेनाको देखा, तब उनका हाथ सीधे गाण्डीव धनुषपर ही गया-- 'धनुरुद्यम्य'।  इससे मालूम होता है दुर्योधनके भीतर भय है और अर्जुनके भीतर निर्भयता है, उत्साह है, वीरता है। 'कपिध्वजः'--  अर्जुनके लिये 'कपिध्वज' विशेषण देकर सञ्जय धृतराष्ट्रको अर्जुनके रथकी ध्वजापर विराजमान हनुमान्जीका स्मरण कराते हैं। जब पाण्डव वनमें रहते थे, तब एक दिन अकस्मात् वायुने एक दिव्य सहस्रदल कमल लाकर द्रौपदीके सामने डाल दिया। उसे देखकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हो गयी और उसने भीमसेनसे कहा कि 'वीरवर! आप ऐसे बहुत-से कमल ला दीजिये।' द्रौपदीकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये भीमसेन वहाँसे चल पड़े। जब वे कदलीवनमें पहुँचे, तब वहाँ उनकी हनुमान्जीसे भेंट हो गयी। उन दोनोंकी आपसमें कई बातें हुईँ। अन्तमें हनुमान्जीने भीमसेनसे वरदान माँगनेके लिये आग्रह किया तो भीमसेनने कहा कि 'मेरे पर आपकी कृपा बनी रहे।' इसपर हनुमान्जीने कहा 'हे वायुपुत्र! जिस समय तुम बाण और शक्तिके आघातसे व्याकुल शत्रुओंकी सेनामें घुसकर सिंहनाद करोगे, उस समय मैं अपनी गर्जनासे उस सिंहनादको और बढ़ा दूँगा। इसके सिवाय अर्जुनके रथकी ध्वजापर बैठकर मैं ऐसी भयंकर गर्जना किया करूँगा, जो शत्रुओंके प्राणोंको हरनेवाली होगी, जिससे तुमलोग अपने शत्रुओंको सुगमतासे मार सकोगे'  (टिप्पणी प0 17) । इस प्रकार जिनके रथकी ध्वजापर हनुमान्जी विराजमान हैं उनकी विजय निश्चित है। 'पाण्डवः'--  धृतराष्ट्रने अपने प्रश्नमें  'पाण्डवाः' पदका प्रयोग किया था। अतः धृतराष्ट्रको बार-बार पाण्डवोंकी याद दिलानेके लिये सञ्जय (1। 14 में और यहाँ)  'पाण्डवः'  शब्दका प्रयोग करते हैं। 'हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते'--  पाण्डव-सेनाको देखकर दुर्योधन तो गुरु द्रोणाचार्यके पास जाकर चालाकीसे भरे हुए वचन बोलता है परन्तु अर्जुन कौरवसेनाको देखकर जो जगदगुरु हैं अन्तर्यामी हैं मन-बुद्धि आदिके प्रेरक हैं--ऐसे भगवान् श्रीकृष्णसे शूरवीरता, उत्साह और अपने कर्तव्यसे भरे हुए (आगे कहे जानेवाले) वचन बोलते हैं।
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।।1.20।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स च तेन चोदितः तत्क्षणाद् एव भीष्मद्रोणादीनां सर्वेषाम् एव महीक्षितां पश्यतां यथाचोदितम् अकरोत्। ईदृशी भवदीयानां विजयस्थितिः इति च अवोचत्।
।।1.20।।दुर्योधनादीनां धार्तराष्ट्राणामेवं भयप्राप्तिं प्रदर्श्य पार्थादीनां पाण्डवानां तद्वैपरीत्यमिदानीमुदाहरति  अथेत्यादिना।  भीतिप्रत्युपस्थितेरनन्तरं पलायने प्राप्तेऽपि वैपरीत्याद्व्यवस्थितानप्रचलितानेव परान्प्रत्यक्षेणोपलभ्य हनूमन्तं वानरवरं ध्वजलक्षणत्वेनादायावस्थितोऽर्जुनो भगवन्तमाहेति संबन्धः। किमाहेत्यपेक्षायामिदं वक्ष्यमाणं हेतुमद्वचनमित्याह वाक्यमिदमिति। कस्यामवस्थायामिदमुक्तवानिति तत्राह  प्रवृत्त इति।  शस्त्राणामिषुप्रासप्रभृतीनां संपातः समुदायस्तस्मिन्प्रवृत्ते। प्रयोगाभिमुखे सतीति यावत्। किं कृत्वा भगवन्तं प्रत्युक्तवानिति तदाह  धनुरिति।  महीपतिशब्देन राजा प्रज्ञाचक्षुः संजयेन संबोध्यते।
।।1.20 1.23।।अथ व्यवस्थितान् इत्यारभ्यभीष्मद्रोणप्रमुखतः 125 इत्यन्तम्। अथ युयुत्सूनवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् वीक्ष्य कपिध्वजः स्वाश्रितजनपोषकं स्वसारथ्ये स्थितं हृषीकेशं जगाद यावदेतान् निरीक्षेऽहं तावत् उभयोः सेनयोर्मध्ये मम रथं स्थापयेति।
।।1.20।।धार्तराष्ट्राणां भयप्राप्तिं प्रदर्श्य पाण्डवानां तद्वैपरीत्यमुदाहरति अथेत्यादिना। भीतिप्रत्युपस्थितेरनन्तरं पलायने प्राप्तेऽपि तद्विरुद्धतया युद्धोद्योगेनावस्थितानेव परान्प्रत्यक्षेणोपलभ्य तदा शस्त्रसंपाते प्रवर्तमाने सति। वर्तमाने क्तः। कपिध्वजः पाण्डवो हनूमता महावीरेण ध्वजरूपतयानुगृहीतोऽर्जुनः सर्वथा भयशून्यत्वेन युद्धाय गाण्डीवं धनुरुद्यम्य हृषीकेशमिन्द्रियप्रवर्तकत्वेन सर्वान्तःकरणवृत्तिज्ञं श्रीकृष्णमिदं वक्ष्यमाणं वाक्यमाहोक्तवान् नत्वविमृश्यकारितया स्वयमेव यत्किंचित्कृतवानीति परेषां विमृश्यकारित्वेन नीतिधर्मयोः कौशलं वदन्नविमृश्यकारितया परेषां राज्यं गृहीतवानसीति नीतिधर्मयोरभावत्तव जयो नास्तीति महीपते इति संबोधनेन सूचयति। तदेवार्जुनवाक्यमवतारयति सेनयोरुभयोः स्वपक्षप्रतिपक्षभूतयोः संनिहितयोर्मध्ये मम रथं स्थापय स्थिरीकुर्विति सर्वेश्वरो नियुज्यतेऽर्जुनेन। किं हि भक्तानामशक्यं यद्भगवानपि तन्नियोगमनुतिष्ठतीति ध्रुवो जयः पाण्डवानामिति। नन्वेवं रथं स्थापयन्तं मामेते शत्रवो रथाञ्च्यावयिष्यन्तीति भगवदाशङ्कामाशङ्क्याह अच्युतेति। देशकालवस्तुष्वच्युतं त्वां को वा च्यावयितुमर्हतीति भावः। एतेन सर्वदा निर्विकारत्वेन नियोगनिमित्तः कोपोऽपि परिहृतः।
।।1.20।।  तस्मिन्समये श्रीकृष्णमर्जुनो विज्ञापयामासेत्याह  अथेति  चतुर्भिः। व्यवस्थितान्युद्धोद्योगेन स्थितान्। कपिध्वजोऽर्जुनः।
।।1.20।।अथ व्यवस्थितान् इत्यादेःकुरून् 1।25 इत्यन्तस्यार्थमाह अथेत्यादिना इति चावोचदित्यन्तेन। तत्र वाक्यत्रये प्रथमेन वाक्येनप्रियचिकीर्षवः इत्यन्तस्यार्थ उच्यते।व्यवस्थितान् इत्यत्र विशब्दसूचितविशेषव्यक्तयेयुयुत्सूनित्युक्तम्योद्धुकामानवस्थितान् इति ह्यनन्तरमप्युच्यते।कपिध्वजः इत्यत्र कपित्वमात्रप्रतिपन्नलाघवं निवारयितुं सौगन्धिकयात्रायां हनुमद्दत्तं वरम् स्वरूपसन्दर्शनमात्रेण रक्षसामिव परेषां संक्षोभं च सूचयितुंलङ्कादहनवानरध्वज इत्युक्तम्। अप्रच्युतस्वभावत्वप्रतिपादकाच्युतपदाभिप्रेतव्यञ्जनायज्ञानेत्यादिकम्। हृषीकेशपदव्याख्यापरावरेत्यादि। यद्वा सृष्ट्यादिकं वीर्यादिकं तदुपलक्षितं ज्ञानादिकमपि हृषीकेशशब्दार्थ एव। यथोक्तमहिर्बुध्न्यसंहितायाम् क्रीडया हृष्यति व्यक्तमीशः सन् सृष्टिरूपया। हृषीकेशत्वमीशत्वं देवत्वं चास्य तत्स्फुटम्।।अविकारितया जुष्टो हृषीको वीर्यरूपया। ईशः स्वातन्त्र्ययोगेन नित्यं सृष्ट्यादिकर्मणि।।ऐश्वर्यवीर्यरूपत्वं हृषीकेशत्वमुच्यते इति। आश्रितान् न च्यावयति अतश्च च्युतोऽस्य नास्तीत्यच्युतशब्दस्य काचिन्निरुक्तिः तां दर्शयति आश्रितवात्सल्येत्यादिना।स्वसारथ्येऽवस्थितमिति हृषीकेशतया सर्वेषां करणानां सर्वप्रकारनियमने स्थितस्य रथयुग्यमात्रनियमनं कियदिति भावः।निरीक्षे इत्यत्रोपसर्गार्थः यथावदिति दर्शितः।यावच्छब्दोऽत्र साकल्यवाची निरीक्षणकालावधिवाची वायावत्पुरानिपातयोर्लट् अष्टा.3।3।4 इति निरीक्षणस्य भविष्यत्वद्योतको वा।यैः सह मया योद्धव्यं तान्निरीक्षे इत्यत्र मया सह यैर्योद्धव्यं तानवेक्ष इति नोक्तम् अतःयोत्स्यमानान् इति श्लोकस्योत्थानम्धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः इति दुर्योधनादिदोष प्रख्यापनतात्पर्याच्च न पौनरुक्त्यम्। यद्वासेनयोरुभयोर्मध्ये इति पूर्वोक्तत्वात्सेनयोरुभयोरपि स्थितानपश्यत् 1।26 इति वक्ष्यमाणत्वाच्च स्वसेनास्थितस्वसहायविषयः पूर्वश्लोकः तत्र कैर्मया सह स्थित्वा परैर्योद्धव्यमित्यर्थः। उत्तरस्तु श्लोकः प्रतिसैन्यस्थितधार्तराष्ट्रसहायविषय इति व्यक्त एव। प्रागेव तेषां विदितत्वेऽपि
।।1.20।।एवं कृष्णार्जुनसमागमनार्थं सेनाद्वयेऽपि युद्धोत्सवमुक्त्वा प्रेरितकृष्णार्जुनयन्त्रणेन युद्धमध्ये प्रवृत्तस्य बन्धुनाशदर्शनेन वैराग्यं वक्तुमर्जुनस्य सहेतुकं कृष्णप्रेरणमाह अथेति चतुर्भिः। तत्र प्रेरणे प्रथमं हेतुदर्शनमाह। अथ भिन्नक्रमेण भयाभावेन धार्तराष्ट्रान् व्यवस्थितान् विशेषेण अवगता स्थितिर्येषां तादृशान् दृष्ट्वा कपिध्वजोऽर्जुनः कपिध्वज इति शस्त्रलाघवं सूचितम् शस्त्रसम्पाते प्रवृत्ते सति धनुरुद्यम्य पाण्डवः पाण्डोः पुत्रः स्वराज्याप्तिकाम्यया हृषीकेशं तथैवेन्द्रियप्रेरकं तदा तत्समये इदं वाक्यं वक्ष्यमाणमाह। महीपत इति सम्बोधनं राज्ञां तथैव धर्म इति ज्ञापनार्थम्। तद्वाक्यान्येवाह सेनयोरित्यादिना। हे अच्युत उभयोः सेनयोर्मध्ये रथं स्थापय।
।।1.20।।व्यवस्थितान् भयोद्विग्नतया वैषम्येणावस्थितान्। कपिध्वजपाण्डवपदाभ्यां भीषणध्वजत्वं शौर्यं च प्रदृश्यते।
।।1.20।।अथ तुमुलशब्देन व्यथाप्राप्त्यनन्तरमपि व्यवस्थितान्नतु पलायितान्धृतराष्ट्रसंबन्धिनो दृष्ट्वा प्रत्यक्षेणोपलभ्य प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते शस्त्राणां संपातः समुदायः तस्मिन्प्रवृत्ते प्रयोगाभिमुखे सति पाण्डवो धनुरुद्यम्य गाणडीवं धनुरुद्यतं कृत्वा हृषीकेशमुवाचेत्यन्वयः। पाण्डोरतिवीरस्य महीपतेः पुत्रत्वात्स्वयमतिशूरः कपिर्वानरो हनूमान सीतात्मिकां लक्ष्मीं भगवते रामचन्द्राय प्रापयिता। शत्रुपराजयं संपाद्य पाण्डवेभ्यो राज्यलक्ष्मीप्रदानाय यस्य ध्वजे स्थित इति भावः।
1.20 अथ now? व्यवस्थितान् standing arrayed? दृष्ट्वा seeing? धार्तराष्ट्रान् Dhritarashtras party? कपिध्वजः monkeyensigned? प्रवृत्ते about to begin? शस्त्रसंपाते discharge of weapons? धनुः bow? उद्यम्य having taken up? पाण्डवः the son of Pandu? हृषीकेशम् to Hrishikesha? तदा then? वाक्यम् word? इदम् this? आह said? महीपते O Lord of the earth.No Commentary.
1.20. Then, seeing the people of Dhritarashtra’s party standing arrayed and the discharge of weapons about to begin, Arjuna, the son of Pandu, whose ensign was a monkey, took up his bow and said the following to Krishna, O Lord of the earth.
1.20 Then beholding the sons of Dhritarashtra, drawn up on the battle- field, ready to fight, Arjuna, whose flag bore the Hanuman,
1.20 O king, thereafter, seeing Dhrtarastra's men standing in their positions, when all the weapons were ready for action, the son of Pandu (Arjuna) who had the insignia of Hanuman of his chariot-flag, raising up his bow, said the following to Hrsikesa.
null
1.20. O king! Then observing Dhrtarastra's men, arrayed when the armed clash had [virtually] begun, at that time, Pandu's son, the monkey-bannered one (Arjuna) raising his bow spoke these sentences.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.20 - 1.25 Arjuna said - Sanjaya said Thus, directed by him, Sri Krsna did immediately as He had been directed, while Bhisma, Drona and others and all the kings were looking on. Such is the prospect of victory for your men.
1.20 Then Arjuna, who had Hanuman as his banner crest, on beholding the sons of Dhrtarastra in array, took up his bow, while missiles were beginning to fly.
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अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः। प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।1.20।।
অথ ব্যবস্থিতান্ দৃষ্ট্বা ধার্তরাষ্ট্রান্কপিধ্বজঃ৷ প্রবৃত্তে শস্ত্রসংপাতে ধনুরুদ্যম্য পাণ্ডবঃ৷৷1.20৷৷
অথ ব্যবস্থিতান্ দৃষ্ট্বা ধার্তরাষ্ট্রান্কপিধ্বজঃ৷ প্রবৃত্তে শস্ত্রসংপাতে ধনুরুদ্যম্য পাণ্ডবঃ৷৷1.20৷৷
અથ વ્યવસ્થિતાન્ દૃષ્ટ્વા ધાર્તરાષ્ટ્રાન્કપિધ્વજઃ। પ્રવૃત્તે શસ્ત્રસંપાતે ધનુરુદ્યમ્ય પાણ્ડવઃ।।1.20।।
ਅਥ ਵ੍ਯਵਸ੍ਥਿਤਾਨ੍ ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵਾ ਧਾਰ੍ਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰਾਨ੍ਕਪਿਧ੍ਵਜ। ਪ੍ਰਵਰਿਤ੍ਤੇ ਸ਼ਸ੍ਤ੍ਰਸਂਪਾਤੇ ਧਨੁਰੁਦ੍ਯਮ੍ਯ ਪਾਣ੍ਡਵ।।1.20।।
ಅಥ ವ್ಯವಸ್ಥಿತಾನ್ ದೃಷ್ಟ್ವಾ ಧಾರ್ತರಾಷ್ಟ್ರಾನ್ಕಪಿಧ್ವಜಃ. ಪ್ರವೃತ್ತೇ ಶಸ್ತ್ರಸಂಪಾತೇ ಧನುರುದ್ಯಮ್ಯ ಪಾಣ್ಡವಃ৷৷1.20৷৷
അഥ വ്യവസ്ഥിതാന് ദൃഷ്ട്വാ ധാര്തരാഷ്ട്രാന്കപിധ്വജഃ. പ്രവൃത്തേ ശസ്ത്രസംപാതേ ധനുരുദ്യമ്യ പാണ്ഡവഃ৷৷1.20৷৷
ଅଥ ବ୍ଯବସ୍ଥିତାନ୍ ଦୃଷ୍ଟ୍ବା ଧାର୍ତରାଷ୍ଟ୍ରାନ୍କପିଧ୍ବଜଃ| ପ୍ରବୃତ୍ତେ ଶସ୍ତ୍ରସଂପାତେ ଧନୁରୁଦ୍ଯମ୍ଯ ପାଣ୍ଡବଃ||1.20||
atha vyavasthitān dṛṣṭvā dhārtarāṣṭrānkapidhvajaḥ. pravṛttē śastrasaṅpātē dhanurudyamya pāṇḍavaḥ৷৷1.20৷৷
அத வ்யவஸ்திதாந் தரிஷ்ட்வா தார்தராஷ்ட்ராந்கபித்வஜஃ. ப்ரவரித்தே ஷஸ்த்ரஸஂபாதே தநுருத்யம்ய பாண்டவஃ৷৷1.20৷৷
అథ వ్యవస్థితాన్ దృష్ట్వా ధార్తరాష్ట్రాన్కపిధ్వజః. ప్రవృత్తే శస్త్రసంపాతే ధనురుద్యమ్య పాణ్డవః৷৷1.20৷৷
1.21
1
21
।।1.21 -- 1.22।। अर्जुन बोले - हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को आप तब तक खड़ा कीजिये, जब तक मैं युद्धक्षेत्र में खड़े हुए इन युद्ध की इच्छावालों को देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है।
।।1.21।।अर्जुन ने कहा -- हे! अच्युत मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कीजिये।
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1.21।। व्याख्या--'अच्युत सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय'-- दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करनेके लिये एक-दूसरेके सामने खड़ी थीं, वहाँ उन दोनों सेनाओंमें इतनी दूरी थी कि एक सेना दूसरी सेनापर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं-का मध्यभाग दो तरफसे मध्य था--(1) सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं, उस चौड़ाईका मध्यभाग और (2) दोनों सेनाओंका मध्यभाग, जहाँसे कौरव-सेना जितनी दूरीपर खड़ी थी उतनी ही दूरीपर पाण्डवसेना खड़ी थी। ऐसे मध्यभागमें रथ खड़ा करनेके लिये अर्जुन भगवान्से कहते हैं, जिससे दोनों सेनाओंको आसानीसे देखा जा सके।
null
।।1.21।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स च तेन चोदितः तत्क्षणाद् एव भीष्मद्रोणादीनां सर्वेषाम् एव महीक्षितां पश्यतां यथाचोदितम् अकरोत्। ईदृशी भवदीयानां विजयस्थितिः इति च अवोचत्।
।।1.21।।तदेव गाण्डीवधन्वनो वाक्यमनुक्रामति  सेनयोरिति।  उभयोरपि सेनयोः संनिहितयोर्मध्ये मदीयं रथं स्थापयेत्यर्जुनेन सारथ्ये सर्वेश्वरो नियुज्यते। किं हि भक्तानामशक्यं यद्भगवानपि तन्नियोगमनुतिष्ठति। युक्तं हि भगवतो भक्तपारवश्यम्। अच्युतेतिसंबोधनतया भगवतः स्वरूपं न कदाचिदपि प्रच्युतिं प्राप्नोतीत्युच्यते।
।।1.20 1.23।।अथ व्यवस्थितान् इत्यारभ्यभीष्मद्रोणप्रमुखतः 125 इत्यन्तम्। अथ युयुत्सूनवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् वीक्ष्य कपिध्वजः स्वाश्रितजनपोषकं स्वसारथ्ये स्थितं हृषीकेशं जगाद यावदेतान् निरीक्षेऽहं तावत् उभयोः सेनयोर्मध्ये मम रथं स्थापयेति।
।। 1.21धार्तराष्ट्राणां भयप्राप्तिं प्रदर्श्य पाण्डवानां तद्वैपरीत्यमुदाहरति अथेत्यादिना। भीतिप्रत्युपस्थितेरनन्तरं पलायने प्राप्तेऽपि तद्विरुद्धतया युद्धोद्योगेनावस्थितानेव परान्प्रत्यक्षेणोपलभ्य तदा शस्त्रसंपाते प्रवर्तमाने सति। वर्तमाने क्तः। कपिध्वजः पाण्डवो हनूमता महावीरेण ध्वजरूपतयानुगृहीतोऽर्जुनः सर्वथा भयशून्यत्वेन युद्धाय गाण्डीवं धनुरुद्यम्य हृषीकेशमिन्द्रियप्रवर्तकत्वेन सर्वान्तःकरणवृत्तिज्ञं श्रीकृष्णमिदं वक्ष्यमाणं वाक्यमाहोक्तवान् नत्वविमृश्यकारितया स्वयमेव यत्किंचित्कृतवानीति परेषां विमृश्यकारित्वेन नीतिधर्मयोः कौशलं वदन्नविमृश्यकारितया परेषां राज्यं गृहीतवानसीति नीतिधर्मयोरभावत्तव जयो नास्तीति महीपते इति संबोधनेन सूचयति। तदेवार्जुनवाक्यमवतारयति सेनयोरुभयोः स्वपक्षप्रतिपक्षभूतयोः संनिहितयोर्मध्ये मम रथं स्थापय स्थिरीकुर्विति सर्वेश्वरो नियुज्यतेऽर्जुनेन। किं हि भक्तानामशक्यं यद्भगवानपि तन्नियोगमनुतिष्ठतीति ध्रुवो जयः पाण्डवानामिति। नन्वेवं रथं स्थापयन्तं मामेते शत्रवो रथाञ्च्यावयिष्यन्तीति भगवदाशङ्कामाशङ्क्याह अच्युतेति। देशकालवस्तुष्वच्युतं त्वां को वा च्यावयितुमर्हतीति भावः। एतेन सर्वदा निर्विकारत्वेन नियोगनिमित्तः कोपोऽपि परिहृतः।
।।1.21।।   हृषीकेशमिति।  तदेव वाक्यमाह  सेनयोरिति।
।। 1.21।।अथ व्यवस्थितान् इत्यादेःकुरून् 1।25 इत्यन्तस्यार्थमाह अथेत्यादिना इति चावोचदित्यन्तेन। तत्र वाक्यत्रये प्रथमेन वाक्येनप्रियचिकीर्षवः इत्यन्तस्यार्थ उच्यते।व्यवस्थितान् इत्यत्र विशब्दसूचितविशेषव्यक्तयेयुयुत्सूनित्युक्तम्योद्धुकामानवस्थितान् इति ह्यनन्तरमप्युच्यते।कपिध्वजः इत्यत्र कपित्वमात्रप्रतिपन्नलाघवं निवारयितुं सौगन्धिकयात्रायां हनुमद्दत्तं वरम् स्वरूपसन्दर्शनमात्रेण रक्षसामिव परेषां संक्षोभं च सूचयितुंलङ्कादहनवानरध्वज इत्युक्तम्। अप्रच्युतस्वभावत्वप्रतिपादकाच्युतपदाभिप्रेतव्यञ्जनायज्ञानेत्यादिकम्। हृषीकेशपदव्याख्यापरावरेत्यादि। यद्वा सृष्ट्यादिकं वीर्यादिकं तदुपलक्षितं ज्ञानादिकमपि हृषीकेशशब्दार्थ एव। यथोक्तमहिर्बुध्न्यसंहितायाम् क्रीडया हृष्यति व्यक्तमीशः सन् सृष्टिरूपया। हृषीकेशत्वमीशत्वं देवत्वं चास्य तत्स्फुटम्।।अविकारितया जुष्टो हृषीको वीर्यरूपया। ईशः स्वातन्त्र्ययोगेन नित्यं सृष्ट्यादिकर्मणि।।ऐश्वर्यवीर्यरूपत्वं हृषीकेशत्वमुच्यते इति। आश्रितान् न च्यावयति अतश्च च्युतोऽस्य नास्तीत्यच्युतशब्दस्य काचिन्निरुक्तिः तां दर्शयति आश्रितवात्सल्येत्यादिना।स्वसारथ्येऽवस्थितमिति हृषीकेशतया सर्वेषां करणानां सर्वप्रकारनियमने स्थितस्य रथयुग्यमात्रनियमनं कियदिति भावः।निरीक्षे इत्यत्रोपसर्गार्थः यथावदिति दर्शितः।यावच्छब्दोऽत्र साकल्यवाची निरीक्षणकालावधिवाची वायावत्पुरानिपातयोर्लट् अष्टा.3।3।4 इति निरीक्षणस्य भविष्यत्वद्योतको वा।यैः सह मया योद्धव्यं तान्निरीक्षे इत्यत्र मया सह यैर्योद्धव्यं तानवेक्ष इति नोक्तम् अतःयोत्स्यमानान् इति श्लोकस्योत्थानम्धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः इति दुर्योधनादिदोष प्रख्यापनतात्पर्याच्च न पौनरुक्त्यम्। यद्वासेनयोरुभयोर्मध्ये इति पूर्वोक्तत्वात्सेनयोरुभयोरपि स्थितानपश्यत् 1।26 इति वक्ष्यमाणत्वाच्च स्वसेनास्थितस्वसहायविषयः पूर्वश्लोकः तत्र कैर्मया सह स्थित्वा परैर्योद्धव्यमित्यर्थः। उत्तरस्तु श्लोकः प्रतिसैन्यस्थितधार्तराष्ट्रसहायविषय इति व्यक्त एव। प्रागेव तेषां विदितत्वेऽपि
।। 1.21एवं कृष्णार्जुनसमागमनार्थं सेनाद्वयेऽपि युद्धोत्सवमुक्त्वा प्रेरितकृष्णार्जुनयन्त्रणेन युद्धमध्ये प्रवृत्तस्य बन्धुनाशदर्शनेन वैराग्यं वक्तुमर्जुनस्य सहेतुकं कृष्णप्रेरणमाह अथेति चतुर्भिः। तत्र प्रेरणे प्रथमं हेतुदर्शनमाह। अथ भिन्नक्रमेण भयाभावेन धार्तराष्ट्रान् व्यवस्थितान् विशेषेण अवगता स्थितिर्येषां तादृशान् दृष्ट्वा कपिध्वजोऽर्जुनः कपिध्वज इति शस्त्रलाघवं सूचितम् शस्त्रसम्पाते प्रवृत्ते सति धनुरुद्यम्य पाण्डवः पाण्डोः पुत्रः स्वराज्याप्तिकाम्यया हृषीकेशं तथैवेन्द्रियप्रेरकं तदा तत्समये इदं वाक्यं वक्ष्यमाणमाह। महीपत इति सम्बोधनं राज्ञां तथैव धर्म इति ज्ञापनार्थम्। तद्वाक्यान्येवाह सेनयोरित्यादिना। हे अच्युत उभयोः सेनयोर्मध्ये रथं स्थापय।
।।1.21।।हृषीकेशं सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तकत्वेन परचित्ताभिज्ञम्। वाक्यमेवाह न तु कञ्चिदर्थमिति द्योतनार्थं वाक्यपदम्। वाक्यमेवाह  सेनयोरिति।
।।1.21।।वाचःप्रवर्तकेन तेनैव प्रेरित आहेति हृषीकेशपदेन सूचितम्। हृषीकेशं इन्द्रियप्रवर्तकत्वेन सर्वान्तःकरणवृत्तिज्ञमितिकेचित्। तथाच निर्बलैर्बुद्धिहीनैर्भवद्भिः कपटेन गृहीतं महीपतित्वं पाण्डवानामतिशूराणां भगवता हनूमता चानुगृहीतानां बुद्धिमतामेव भविष्यतीति भवता तत्प्राप्तिदुराशा त्याज्येति ध्वनयन् संबोधयति  महीपते इति।  वाक्यमेवोदाहरति  सेनयोरिति।  उभयोः सेनयोर्मध्ये मे मम रथं स्थापय। ननु मत्स्थापितं रथं ते चालयिष्यन्तीत्यत आह  अच्युतेति।  रथमप्यचलं कर्तुं समर्थोऽसीत्यभिप्रायः। तथाच परमेश्वरोऽपि यस्य सारय्ये स्थितः प्राकृतसारथिवन्नियुज्यते तस्य विजये को विस्मय इति भावः। युक्तं च भगवतो भक्तपारवश्यं कोपश्च न युक्तः। यतो भगवतः स्वरुपं न कदाचिदपि प्रज्युतिं प्राप्नोतीत्यच्युतेति संबोधनाशय इत्येके। नन्वेवं रथं स्थापयन्तं मामेते शत्रवो रथाच्च्यावयिष्यन्तीति भगवदाशङ्कामाशङ्काह  अच्युतेति।  देशकालवस्तुष्वच्युतं त्वां को वा च्यावयितुमर्हतीति भाव इति केचित्।
1.21 -- 1.22 सेनयोः of the armies? उभयोः of both? मध्ये in the middle? रथम् car? स्थापय place? मे my? अच्युत O Achyuta (O changeless? Krishna)? यावत् while? एतान् these? निरीक्षे behold? अहम् I? योद्धुकामान् desirous to fight? अवस्थितान् standing? कैः with whom? मया by me? सह together? योद्धव्यम् must be fought? अस्मिन् in this? रणसमुद्यमे eve of battle.No Commentary.
1.21 Arjuna said In the middle between the two armies, place my chariot, O krishna, so that I may behold those who stand here desirous to fight, and know with whom I must fight, when the battle is about to commence.
1.21 Raising his bow, spoke this to the Lord Shri Krishna: O Infallible! Lord of the earth! Please draw up my chariot betwixt the two armies,
1.21 Arjuna said O Acyuta, please place my chariot between both the armies .
null
1.21. Arjuna said O Acyuta! Please halt my chariot at a centre place between the two armies, so that I may scrutinize these men who are standing with desire to fight and with whom I have to fight in this great war-effort.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.20 - 1.25 Arjuna said - Sanjaya said Thus, directed by him, Sri Krsna did immediately as He had been directed, while Bhisma, Drona and others and all the kings were looking on. Such is the prospect of victory for your men.
1.21 And he spoke, O lord of earth, these words to Sri Krsna... Arjuna said: ...Draw up my chariot, O Krsna, between the two armies,
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अर्जुन उवाच हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते। सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।1.21।।
অর্জুন উবাচ হৃষীকেশং তদা বাক্যমিদমাহ মহীপতে৷ সেনযোরুভযোর্মধ্যে রথং স্থাপয মেচ্যুত৷৷1.21৷৷
অর্জুন উবাচ হৃষীকেশং তদা বাক্যমিদমাহ মহীপতে৷ সেনযোরুভযোর্মধ্যে রথং স্থাপয মেচ্যুত৷৷1.21৷৷
અર્જુન ઉવાચ હૃષીકેશં તદા વાક્યમિદમાહ મહીપતે। સેનયોરુભયોર્મધ્યે રથં સ્થાપય મેચ્યુત।।1.21।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਹਰਿਸ਼ੀਕੇਸ਼ਂ ਤਦਾ ਵਾਕ੍ਯਮਿਦਮਾਹ ਮਹੀਪਤੇ। ਸੇਨਯੋਰੁਭਯੋਰ੍ਮਧ੍ਯੇ ਰਥਂ ਸ੍ਥਾਪਯ ਮੇਚ੍ਯੁਤ।।1.21।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಹೃಷೀಕೇಶಂ ತದಾ ವಾಕ್ಯಮಿದಮಾಹ ಮಹೀಪತೇ. ಸೇನಯೋರುಭಯೋರ್ಮಧ್ಯೇ ರಥಂ ಸ್ಥಾಪಯ ಮೇಚ್ಯುತ৷৷1.21৷৷
അര്ജുന ഉവാച ഹൃഷീകേശം തദാ വാക്യമിദമാഹ മഹീപതേ. സേനയോരുഭയോര്മധ്യേ രഥം സ്ഥാപയ മേച്യുത৷৷1.21৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ହୃଷୀକେଶଂ ତଦା ବାକ୍ଯମିଦମାହ ମହୀପତେ| ସେନଯୋରୁଭଯୋର୍ମଧ୍ଯେ ରଥଂ ସ୍ଥାପଯ ମେଚ୍ଯୁତ||1.21||
arjuna uvāca hṛṣīkēśaṅ tadā vākyamidamāha mahīpatē. sēnayōrubhayōrmadhyē rathaṅ sthāpaya mē.cyuta৷৷1.21৷৷
அர்ஜுந உவாச ஹரிஷீகேஷஂ ததா வாக்யமிதமாஹ மஹீபதே. ஸேநயோருபயோர்மத்யே ரதஂ ஸ்தாபய மேச்யுத৷৷1.21৷৷
అర్జున ఉవాచ హృషీకేశం తదా వాక్యమిదమాహ మహీపతే. సేనయోరుభయోర్మధ్యే రథం స్థాపయ మేచ్యుత৷৷1.21৷৷
1.22
1
22
।।1.21 -- 1.22।। अर्जुन बोले - हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को आप तब तक खड़ा कीजिये, जब तक मैं युद्धक्षेत्र में खड़े हुए इन युद्ध की इच्छावालों को देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योग में मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना योग्य है।
।।1.22।।जिससे मैं युद्ध की इच्छा से खड़े इन लोगों का निरीक्षण कर सकूँ कि इस युद्ध में मुझे किनके साथ युद्ध करना है।
।।1.22।। यहाँ हम अर्जुन को एक सेना नायक के समान रथसारथि को आदेश देते हुए देखते हैं कि उसका रथ दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कर दिया जाय जिससे वह विभिन्न योद्धाओं को देख और पहचान सके जिनके साथ उसे इस महायुद्ध में लड़ना होगा।इस प्रकार शत्रु सैन्य के निरीक्षण की इच्छा व्यक्त करते हुये वीर अर्जुन अपने साहस शौर्य तत्परता दृढ़ निश्चय और अदम्य शक्ति का प्रदर्शन कर रहा है। कथा के इस बिन्दु तक महाभारत का अजेय योद्धा अर्जुन अपने मूल स्वभाव के अनुसार व्यवहार कर रहा था। उसमें किसी प्रकार की मानसिक उद्विग्नता के कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे।
1.22।। व्याख्या--'अच्युत सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय'-- दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करनेके लिये एक-दूसरेके सामने खड़ी थीं, वहाँ उन दोनों सेनाओंमें इतनी दूरी थी कि एक सेना दूसरी सेनापर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं-का मध्यभाग दो तरफसे मध्य था-- (1) सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं, उस चौड़ाईका मध्यभाग और (2) दोनों सेनाओंका मध्यभाग, जहाँसे कौरव-सेना जितनी दूरीपर खड़ी थी, उतनी ही दूरीपर पाण्डव-सेना खड़ी थी। ऐसे मध्यभागमें रथ खड़ा करनेके लिये अर्जुन भगवान्से कहते हैं, जिससे दोनों सेनाओंको आसानीसे देखा जा सके।  'सेनयोरुभयोर्मध्ये' पद गीतामें तीन बार आया है यहाँ (1। 21 में), इसी अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें और दूसरे अध्यायके दसवें श्लोकमें। तीन बार आनेका तात्पर्य है कि पहले अर्जुन शूरवीरताके साथ अपने रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा करनेकी आज्ञा देते हैं (1। 21), फिर भगवान् दोनों सेनाओंके बीचमें रथको खड़ा करके कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहते हैं (1। 24) और अन्तमें दोनों सेनाओंके बीचमें ही विषादमग्न अर्जुनको गीताका उपदेश देते हैं (2। 10)। इस प्रकार पहले अर्जुनमें शूरवीरता थी, बीचमें कुटुम्बियोंको देखनेसे मोहके कारण उनकी युद्धसे उपरति हो गयी और अन्तमें उनको भगवान्से गीताका महान् उपदेश प्राप्त हुआ, जिससे उनका मोह दूर हो गया। इससे यह भाव निकलता है कि मनुष्य जहाँ-कहीं और जिस-किसी परिस्थितिमें स्थित है, वहीं रहकर वह प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके निष्काम हो सकता है और वहीं उसको परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। कारण कि परमात्मा सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें सदा एकरूपसे रहते हैं।  'यावदेतान्निरीक्षेऽहं ৷৷. रणसमुद्यमे'-- दोनों सेनाओंके बीचमें रथ कबतक खड़ा करें? इसपर अर्जुन कहते हैं कि युद्धकी इच्छाको लेकर कौरव-सेनामें आये हुए सेनासहित जितने भी राजालोग खड़े हैं, उन सबको जबतक मैं देख न लूँ, तबतक आप रथको वहीं खड़ा रखिये। इस युद्धके उद्योगमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना है? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं? कौन मेरे से कम बलवाले हैं? और कौन मेरेसे अधिक बलवाले हैं? उन सबको मैं जरा देख लूँ। यहाँ  'योद्धुकामान्'  पदसे अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो सन्धिकी बात ही सोची थी, पर उन्होंने सन्धिकी बात स्वीकार नहीं की; क्योंकि उनके मनमें युद्ध करनेकी ज्यादा इच्छा है। अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बलको लेकर वे युद्ध करनेकी इच्छा रखते हैं।
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।।1.22।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स च तेन चोदितः तत्क्षणाद् एव भीष्मद्रोणादीनां सर्वेषाम् एव महीक्षितां पश्यतां यथाचोदितम् अकरोत्। ईदृशी भवदीयानां विजयस्थितिः इति च अवोचत्।
।।1.22।।मध्ये रथं स्थापयेत्युक्तं तदेव रथस्थापनस्थानं निर्धारयति  यावदिति।  एतान्प्रतिपक्षे प्रतिष्ठितान्भीष्मद्रोणादीनस्माभिः सार्धं योद्धुमपेक्षावतो यावद्गत्वा निरीक्षितुमहं क्षमः स्यां तावति प्रदेशे रथस्य स्थापनं कर्तव्यमित्यर्थः। किञ्च प्रवृत्ते युद्धप्रारम्भे बहवो राजानोऽमुष्यां युद्धभूमावुपलभ्यन्ते तेषां मध्ये कैः सह मया योद्धव्यं नहि क्वचिदपि मम गतिप्रतिहतिरस्तीत्याह  कैर्मयेति।
।।1.20 1.23।।अथ व्यवस्थितान् इत्यारभ्यभीष्मद्रोणप्रमुखतः 125 इत्यन्तम्। अथ युयुत्सूनवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् वीक्ष्य कपिध्वजः स्वाश्रितजनपोषकं स्वसारथ्ये स्थितं हृषीकेशं जगाद यावदेतान् निरीक्षेऽहं तावत् उभयोः सेनयोर्मध्ये मम रथं स्थापयेति।
।।1.22।।मध्ये रथस्थापनप्रयोजनमाह योद्धुकामान नत्वस्माभिः सह संधिकामान्। अवस्थितान् नतु भयात्प्रचलितानेतान्भीष्मद्रोणादीन्यावद्गत्वाहं निरीक्षितुं क्षमः स्यां तावत्प्रदेशे रथं स्थापयेत्यर्थः। यावदिति कालपरं वा। ननु त्वं योद्धा नतु युद्धप्रेक्षकोऽतस्तव किमेषां दर्शनेनेत्यत्राह कैरिति। अस्मिन्नणसमुद्यमे बन्धूनामेव परस्परं युद्धोद्योगे मया कैः सह योद्धव्यं मत्कर्तृकयुद्धप्रतियोगिनः के कैर्मया सह योद्धव्यं किंकर्तृकयुद्धप्रतियोग्यहमिति च महदिदं कौतुकमेतज्ज्ञानमेव मध्ये रथस्थापनप्रयोजनमित्यर्थः।
।।1.22।।   यावदेतानिति।  ननु त्वं योद्धा न तु युद्धप्रेक्षकस्तत्राह। कैः सह मया योद्धव्यम्।
।। 1.22।।अथ व्यवस्थितान् इत्यादेःकुरून् 1।25 इत्यन्तस्यार्थमाह अथेत्यादिना इति चावोचदित्यन्तेन। तत्र वाक्यत्रये प्रथमेन वाक्येनप्रियचिकीर्षवः इत्यन्तस्यार्थ उच्यते।व्यवस्थितान् इत्यत्र विशब्दसूचितविशेषव्यक्तयेयुयुत्सूनित्युक्तम्योद्धुकामानवस्थितान् इति ह्यनन्तरमप्युच्यते।कपिध्वजः इत्यत्र कपित्वमात्रप्रतिपन्नलाघवं निवारयितुं सौगन्धिकयात्रायां हनुमद्दत्तं वरम् स्वरूपसन्दर्शनमात्रेण रक्षसामिव परेषां संक्षोभं च सूचयितुंलङ्कादहनवानरध्वज इत्युक्तम्। अप्रच्युतस्वभावत्वप्रतिपादकाच्युतपदाभिप्रेतव्यञ्जनायज्ञानेत्यादिकम्। हृषीकेशपदव्याख्यापरावरेत्यादि। यद्वा सृष्ट्यादिकं वीर्यादिकं तदुपलक्षितं ज्ञानादिकमपि हृषीकेशशब्दार्थ एव। यथोक्तमहिर्बुध्न्यसंहितायाम् क्रीडया हृष्यति व्यक्तमीशः सन् सृष्टिरूपया। हृषीकेशत्वमीशत्वं देवत्वं चास्य तत्स्फुटम्।।अविकारितया जुष्टो हृषीको वीर्यरूपया। ईशः स्वातन्त्र्ययोगेन नित्यं सृष्ट्यादिकर्मणि।।ऐश्वर्यवीर्यरूपत्वं हृषीकेशत्वमुच्यते इति। आश्रितान् न च्यावयति अतश्च च्युतोऽस्य नास्तीत्यच्युतशब्दस्य काचिन्निरुक्तिः तां दर्शयति आश्रितवात्सल्येत्यादिना।स्वसारथ्येऽवस्थितमिति हृषीकेशतया सर्वेषां करणानां सर्वप्रकारनियमने स्थितस्य रथयुग्यमात्रनियमनं कियदिति भावः।निरीक्षे इत्यत्रोपसर्गार्थः यथावदिति दर्शितः।यावच्छब्दोऽत्र साकल्यवाची निरीक्षणकालावधिवाची वायावत्पुरानिपातयोर्लट् अष्टा.3।3।4 इति निरीक्षणस्य भविष्यत्वद्योतको वा।यैः सह मया योद्धव्यं तान्निरीक्षे इत्यत्र मया सह यैर्योद्धव्यं तानवेक्ष इति नोक्तम् अतःयोत्स्यमानान् इति श्लोकस्योत्थानम्धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः इति दुर्योधनादिदोष प्रख्यापनतात्पर्याच्च न पौनरुक्त्यम्। यद्वासेनयोरुभयोर्मध्ये इति पूर्वोक्तत्वात्सेनयोरुभयोरपि स्थितानपश्यत् 1।26 इति वक्ष्यमाणत्वाच्च स्वसेनास्थितस्वसहायविषयः पूर्वश्लोकः तत्र कैर्मया सह स्थित्वा परैर्योद्धव्यमित्यर्थः। उत्तरस्तु श्लोकः प्रतिसैन्यस्थितधार्तराष्ट्रसहायविषय इति व्यक्त एव। प्रागेव तेषां विदितत्वेऽपि
।।1.22।।यावदेतान् योद्धुकामान् अवस्थितान् अवाङ्मुखस्थित्या स्थितान् पलायनपरानहं निरीक्षे। ननु निरीक्षणेन किं स्यादित्यत आह कैर्मयेति। अस्मिन् रणसमुद्यमे यत्र रणप्रवृत्तिं विनैव शङ्खध्वनिनैव विदारितहृदयाः शुष्कवदनाः प्रतिभटास्तत्र कैः सह मया योद्धव्यम् इत्याह।
।।1.22।।रथस्थापनप्रयोजनमाह  यावदिति।  कैः सह मया योद्धव्यं मया सह वा कैर्योद्धव्यमित्युभयत्र सहशब्दसंबन्धः। के वा मां जेतुं यतन्ते मया वा के जेतव्या इत्यालोचनार्थमित्यर्थः।
।।1.22।।सेनयोरुभयोर्मध्येऽपि क्व स्थापनीय इत्यपेक्षायामाह  यावदिति।  एतान्योद्धुकामानवस्थितान्यावद्यस्मिन्स्थाने स्थित्वाहं निरीक्षे द्रष्टुं समर्थः स्यां तस्मिन्स्थाने रथं स्थापयेत्यर्थः। यावदिति कालपरं वा। निरीक्षणप्रयोजनमाह  कैरिति।  अस्मिभ्रणसमुद्यमे युद्धोद्योगे बहूनां शूराणां मध्ये कैः सह मया योद्धव्यम्। मया सह च कैर्योद्धव्यमित्यालोचनार्थमित्यर्थः।
1.21 -- 1.22 सेनयोः of the armies? उभयोः of both? मध्ये in the middle? रथम् car? स्थापय place? मे my? अच्युत O Achyuta (O changeless? Krishna)? यावत् while? एतान् these? निरीक्षे behold? अहम् I? योद्धुकामान् desirous to fight? अवस्थितान् standing? कैः with whom? मया by me? सह together? योद्धव्यम् must be fought? अस्मिन् in this? रणसमुद्यमे eve of battle.No Commentary.
1.22. Arjuna said In the middle between the two armies, place my chariot, O krishna, so that I may behold those who stand here desirous to fight, and know with whom I must fight, when the battle is about to commence.
1.22 So that I may observe those who must fight on my side, those who must fight against me;
1.22 until I survey these who stand intent on fighting, and those who are going to engage in battle with me in this impending war.
null
1.22. I may scrutinize those who are ready to fight, who have assled here and are eager to achieve in the battle, what is dear to the evil-minded son of Dhrtarastra.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.20 - 1.25 Arjuna said - Sanjaya said Thus, directed by him, Sri Krsna did immediately as He had been directed, while Bhisma, Drona and others and all the kings were looking on. Such is the prospect of victory for your men.
1.22 So that I may have a good look at those who are standing eager to fight and know with whom I have to fight in this enterprise of war.
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यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्। कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे।।1.22।।
যাবদেতান্নিরীক্ষেহং যোদ্ধুকামানবস্থিতান্৷ কৈর্মযা সহ যোদ্ধব্যমস্মিন্রণসমুদ্যমে৷৷1.22৷৷
যাবদেতান্নিরীক্ষেহং যোদ্ধুকামানবস্থিতান্৷ কৈর্মযা সহ যোদ্ধব্যমস্মিন্রণসমুদ্যমে৷৷1.22৷৷
યાવદેતાન્નિરીક્ષેહં યોદ્ધુકામાનવસ્થિતાન્। કૈર્મયા સહ યોદ્ધવ્યમસ્મિન્રણસમુદ્યમે।।1.22।।
ਯਾਵਦੇਤਾਨ੍ਨਿਰੀਕ੍ਸ਼ੇਹਂ ਯੋਦ੍ਧੁਕਾਮਾਨਵਸ੍ਥਿਤਾਨ੍। ਕੈਰ੍ਮਯਾ ਸਹ ਯੋਦ੍ਧਵ੍ਯਮਸ੍ਮਿਨ੍ਰਣਸਮੁਦ੍ਯਮੇ।।1.22।।
ಯಾವದೇತಾನ್ನಿರೀಕ್ಷೇಹಂ ಯೋದ್ಧುಕಾಮಾನವಸ್ಥಿತಾನ್. ಕೈರ್ಮಯಾ ಸಹ ಯೋದ್ಧವ್ಯಮಸ್ಮಿನ್ರಣಸಮುದ್ಯಮೇ৷৷1.22৷৷
യാവദേതാന്നിരീക്ഷേഹം യോദ്ധുകാമാനവസ്ഥിതാന്. കൈര്മയാ സഹ യോദ്ധവ്യമസ്മിന്രണസമുദ്യമേ৷৷1.22৷৷
ଯାବଦେତାନ୍ନିରୀକ୍ଷେହଂ ଯୋଦ୍ଧୁକାମାନବସ୍ଥିତାନ୍| କୈର୍ମଯା ସହ ଯୋଦ୍ଧବ୍ଯମସ୍ମିନ୍ରଣସମୁଦ୍ଯମେ||1.22||
yāvadētānnirīkṣē.haṅ yōddhukāmānavasthitān. kairmayā saha yōddhavyamasminraṇasamudyamē৷৷1.22৷৷
யாவதேதாந்நிரீக்ஷேஹஂ யோத்துகாமாநவஸ்திதாந். கைர்மயா ஸஹ யோத்தவ்யமஸ்மிந்ரணஸமுத்யமே৷৷1.22৷৷
యావదేతాన్నిరీక్షేహం యోద్ధుకామానవస్థితాన్. కైర్మయా సహ యోద్ధవ్యమస్మిన్రణసముద్యమే৷৷1.22৷৷
1.23
1
23
।।1.23।। दुष्टबुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय करने की इच्छावाले जो ये राजालोग इस सेना में आये हुए हैं, युद्ध करने को उतावले हुए इन सबको मैं देख लूँ।
।।1.23।।दुर्बुद्धि धार्तराष्ट्र (दुर्योधन) का युद्ध में प्रिय चाहने वाले जो ये राजा लोग यहाँ एकत्र हुए हैं, उन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा।
।।1.23।। पूर्व श्लोक में कही गयी बात को ही अर्जुन इस श्लोक में बल देकर कह रहा है। शत्रु सैन्य के निरीक्षण के कारण को भी वह यहाँ स्पष्ट करता है। एक कर्मशील व्यक्ति होने के कारण वह कोई अनावश्यक संकट मोल नहीं लेना चाहता। इसलिये वह देखना चाहता है कि वे कौन से दुर्मति सत्तामदोन्मत्त और प्रलोभन से प्रताड़ित लोग हैं जो कौरव सेनाओं में सम्मिलित होकर सर्वथा अन्यायी तानाशाह दुर्योधन का समर्थन कर रहे हैं।
।।1.23।। व्याख्या--'धार्तराष्ट्र (टिप्पणी प0 18) दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः'--यहाँ दुर्योधनको दुष्टबुद्धि कहकर अर्जुन यह बताना चाहते हैं कि इस दुर्योधनने हमारा नाश करनेके लिये आजतक कई तरहके षड्यन्त्र रचे हैं। हमें अपमानित करनेके लिये कई तरहके उद्योग किये हैं। नियमके अनुसार और न्यायपूर्वक हम आधे राज्यके अधिकारी हैं, पर उसको भी यह हड़पना चाहता है, देना नहीं चाहता। ऐसी तो इसकी दुष्टबुद्धि है; और यहाँ आये हुए राजालोग युद्धमें इसका प्रिय करना चाहते हैं! वास्तवमें तो मित्रोंका यह कर्तव्य होता है कि वे ऐसा काम करें, ऐसी बात बतायें, जिससे अपने मित्रका लोकपरलोकमें हित हो। परन्तु ये राजालोग दुर्योधनकी दुष्टबुद्धिको शुद्ध न करके उलटे उसको बढ़ाना चाहते हैं और दुर्योधनसे युद्ध कराकर, युद्धमें उसकी सहायता करके उसका पतन ही करना चाहते हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधनका हित किस बातमें है; उसको राज्य भी किस बातसे मिलेगा और उसका परलोक भी किस बातसे सुधरेगा--इन बातोंका वे विचार ही नहीं कर रहे हैं। अगर ये राजालोग उसको यह सलाह देते कि भाई, कम-से-कम आधा राज्य तुम रखो और पाण्डवोंका आधा राज्य पाण्डवोंको दे दो तो इससे दुर्योधनका आधा राज्य भी रहता और उसका परलोक भी सुधरता।  'योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः'--इन युद्धके लिये उतावले होनेवालोंको जरा देख तो लूँ! इन्होंने अधर्मका, अन्यायका पक्ष लिया है, इसलिये ये हमारे सामने टिक नहीं सकेंगे, नष्ट हो जायँगे।  'योत्स्यमानान्' कहनेका तात्पर्य है कि इनके मनमें युद्धकी ज्यादा आ रही है अतः देखूँ तो सही कि ये हैं कौन?  सम्बन्ध   अर्जुनके ऐसा कहनेपर भगवान्ने क्या किया इसको सञ्जय आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।
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।।1.23।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स च तेन चोदितः तत्क्षणाद् एव भीष्मद्रोणादीनां सर्वेषाम् एव महीक्षितां पश्यतां यथाचोदितम् अकरोत्। ईदृशी भवदीयानां विजयस्थितिः इति च अवोचत्।
।।1.23।।प्रतियोगिनामभावे कथं तव युद्धौत्सुक्यं फलवद्भवेदिति तत्राह  योत्स्यमानानिति।  ये केचिदेते राजानो नानादेशेभ्योऽत्र कुरुक्षेत्रे समवेतास्तानहं योत्स्यमानान्परिगृहीतप्रहरणोपायानतितरां संग्रामसमुत्सुकानुपलभे। तेन प्रतियोगिनां बाहुल्यमित्यर्थः। तेषामस्माभिः सह पूर्ववैराभावे कथं प्रतियोगित्वं प्रकल्प्यते तत्राह  धार्तराष्ट्रस्येति।  धृतराष्ट्रपुत्रस्य दुर्योधनस्य दुर्बुद्धेः स्वरक्षणोपायमप्रतिपद्यमानस्य युद्धाय संरम्भं कुर्वतो युद्धे युद्धभूमौ स्थित्वा प्रियं कर्तुमिच्छवो राजानः समागता दृश्यन्ते तेन तेषामौपाधिकमस्मत्प्रतियोगित्वमुपपन्नमित्यर्थः।
।।1.20 1.23।।अथ व्यवस्थितान् इत्यारभ्यभीष्मद्रोणप्रमुखतः 125 इत्यन्तम्। अथ युयुत्सूनवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् वीक्ष्य कपिध्वजः स्वाश्रितजनपोषकं स्वसारथ्ये स्थितं हृषीकेशं जगाद यावदेतान् निरीक्षेऽहं तावत् उभयोः सेनयोर्मध्ये मम रथं स्थापयेति।
।।1.23।।ननु बन्धव एव एते परस्परं संधिं कारयिष्यन्तीति कुतो युद्धमित्याशङ्क्याह य एते भीष्मद्रोणादयो धार्तराष्ट्रस्य दुर्योधनस्य दुर्बुद्धेः स्वरक्षणोपायमजानतः प्रियचिकीर्षवो युद्धे नतु दुर्बुद्ध्यपनयनादौ तान् योत्स्यमानानहमवेक्षे उपलभे नतु सन्धिकामान्। अतो युद्धाय तत्प्रतियोग्यवलोकनमुचितमेवेति भावः।
।।1.23।।   योत्स्यमानानिति।  धार्तराष्ट्रस्य दुर्योधनस्य प्रियं कर्तुमिच्छन्तो य इह समागताः तान्यावद्द्रक्ष्यामि तावदुभयोः सेनयोर्मध्ये मे रथं स्थापयेत्यन्वयः।
।। 1.23।।अथ व्यवस्थितान् इत्यादेःकुरून् 1।25 इत्यन्तस्यार्थमाह अथेत्यादिना इति चावोचदित्यन्तेन। तत्र वाक्यत्रये प्रथमेन वाक्येनप्रियचिकीर्षवः इत्यन्तस्यार्थ उच्यते।व्यवस्थितान् इत्यत्र विशब्दसूचितविशेषव्यक्तयेयुयुत्सूनित्युक्तम्योद्धुकामानवस्थितान् इति ह्यनन्तरमप्युच्यते।कपिध्वजः इत्यत्र कपित्वमात्रप्रतिपन्नलाघवं निवारयितुं सौगन्धिकयात्रायां हनुमद्दत्तं वरम् स्वरूपसन्दर्शनमात्रेण रक्षसामिव परेषां संक्षोभं च सूचयितुंलङ्कादहनवानरध्वज इत्युक्तम्। अप्रच्युतस्वभावत्वप्रतिपादकाच्युतपदाभिप्रेतव्यञ्जनायज्ञानेत्यादिकम्। हृषीकेशपदव्याख्यापरावरेत्यादि। यद्वा सृष्ट्यादिकं वीर्यादिकं तदुपलक्षितं ज्ञानादिकमपि हृषीकेशशब्दार्थ एव। यथोक्तमहिर्बुध्न्यसंहितायाम् क्रीडया हृष्यति व्यक्तमीशः सन् सृष्टिरूपया। हृषीकेशत्वमीशत्वं देवत्वं चास्य तत्स्फुटम्।।अविकारितया जुष्टो हृषीको वीर्यरूपया। ईशः स्वातन्त्र्ययोगेन नित्यं सृष्ट्यादिकर्मणि।।ऐश्वर्यवीर्यरूपत्वं हृषीकेशत्वमुच्यते इति। आश्रितान् न च्यावयति अतश्च च्युतोऽस्य नास्तीत्यच्युतशब्दस्य काचिन्निरुक्तिः तां दर्शयति आश्रितवात्सल्येत्यादिना।स्वसारथ्येऽवस्थितमिति हृषीकेशतया सर्वेषां करणानां सर्वप्रकारनियमने स्थितस्य रथयुग्यमात्रनियमनं कियदिति भावः।निरीक्षे इत्यत्रोपसर्गार्थः यथावदिति दर्शितः।यावच्छब्दोऽत्र साकल्यवाची निरीक्षणकालावधिवाची वायावत्पुरानिपातयोर्लट् अष्टा.3।3।4 इति निरीक्षणस्य भविष्यत्वद्योतको वा।यैः सह मया योद्धव्यं तान्निरीक्षे इत्यत्र मया सह यैर्योद्धव्यं तानवेक्ष इति नोक्तम् अतःयोत्स्यमानान् इति श्लोकस्योत्थानम्धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः इति दुर्योधनादिदोष प्रख्यापनतात्पर्याच्च न पौनरुक्त्यम्। यद्वासेनयोरुभयोर्मध्ये इति पूर्वोक्तत्वात्सेनयोरुभयोरपि स्थितानपश्यत् 1।26 इति वक्ष्यमाणत्वाच्च स्वसेनास्थितस्वसहायविषयः पूर्वश्लोकः तत्र कैर्मया सह स्थित्वा परैर्योद्धव्यमित्यर्थः। उत्तरस्तु श्लोकः प्रतिसैन्यस्थितधार्तराष्ट्रसहायविषय इति व्यक्त एव। प्रागेव तेषां विदितत्वेऽपि इदानीन्तनसंरम्भादिविशेषदर्शनेन तत्तदुचितसाम्परायिकव्यापारसौकर्याय यथावद्दर्शनमिहार्जुनेनाकाङ्क्षितम्।सेनयोरुभर्योर्मध्ये
।।1.23।।अवेक्ष इति। किञ्चदुर्बुद्धेः धार्तराष्ट्रस्येति भगवत्प्रतिपक्षत्वेन स्वपराजयमननुसन्दधानस्यान्धस्य पुत्रस्तस्य प्रियं चिकीर्षवस्तेप्यन्धा एव तथाभूता येऽत्र समागताः सम्यक्प्रकारेण युद्धार्थमागतास्तान् योत्स्यमानान् युद्ध्यमानानहं अवेक्षे तावन्मे रथं सेनयोर्मध्ये स्थापयेति पूर्वेणैव सम्बन्धः। तत्र मध्ये रथस्थापने मम भयं तु नास्त्येव यतस्त्वमच्युतोऽसि। एवं चतुर्भिर्युद्धोपमोऽप्युक्तः।
।।1.23।।योत्स्यमानान् न तु शान्तिकामान्। यतो दुर्बुद्धेः प्रियं चिकीर्षन्ति तेन तेषामपि तत्तुल्यत्वं सूचितम्।
।।1.23।।योद्धुकामानवस्थितानित्युक्तं विवृणोति  योत्स्यमानानिति।  योत्स्यमानानहमवेक्षे उपलभे नतु संधिकामान् नापि धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्बुद्धिनिवृत्त्यर्थमवस्थितान् प्रत्युत तस्य प्रियचिकीर्षूनित्याह। य एते योधा अत्र समरभूमौ समागताः दुर्योधनस्य दुष्टबुद्धेः प्रियं कर्तुमिच्छवो नतु समर्था इत्यर्थः। धार्तराष्ट्रस्येत्यनेन धृतराष्ट्रास्यापि दुर्बुद्धित्वं सूचयति।
1.23 योत्स्यमानान् with the object of fighting? अवेक्षे observe? अहम् I? ये who? एते those? अत्र here (in this Kurukshetra)? समागताः assembled? धार्तराष्ट्रस्य of the son of Dhritarashtra? दुर्बुद्धेः of the evilminded? युद्धे in battle? प्रियचिकीर्षवः wishing to please.No Commentary.
1.23. For I desire to observe those who are assembled here to fight, wishing to please in battle the evil-minded Duryodhana (the son of Dhritarashtra).
1.23 And gaze over this array of soldiers, eager to please the sinful sons of Dhritarashtra."
1.23 These who have assembled here and want to accomplish in the war what is dear to the perverted son of Dhrtarastra, I find them to be intent on fighting.
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1.23. - 1.24. Sanjaya said O descendant of Bharata (Dhrtarastra) ! Thus instructed by Gudakesa (Arjuna), Hrsikesa halted the best chariot at a place in between the two armies, in front of Bhisma and Drona and of all the rulers of the earth; and the said: O son of Prtha! Behold these Kurus, assembled.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.20 - 1.25 Arjuna said - Sanjaya said Thus, directed by him, Sri Krsna did immediately as He had been directed, while Bhisma, Drona and others and all the kings were looking on. Such is the prospect of victory for your men.
1.23 I wish to see those gathered here ready to fight in this battle in order to please the evil-minded son of Dhrtarastra.
null
null
null
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योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः। धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।1.23।।
যোত্স্যমানানবেক্ষেহং য এতেত্র সমাগতাঃ৷ ধার্তরাষ্ট্রস্য দুর্বুদ্ধের্যুদ্ধে প্রিযচিকীর্ষবঃ৷৷1.23৷৷
যোত্স্যমানানবেক্ষেহং য এতেত্র সমাগতাঃ৷ ধার্তরাষ্ট্রস্য দুর্বুদ্ধের্যুদ্ধে প্রিযচিকীর্ষবঃ৷৷1.23৷৷
યોત્સ્યમાનાનવેક્ષેહં ય એતેત્ર સમાગતાઃ। ધાર્તરાષ્ટ્રસ્ય દુર્બુદ્ધેર્યુદ્ધે પ્રિયચિકીર્ષવઃ।।1.23।।
ਯੋਤ੍ਸ੍ਯਮਾਨਾਨਵੇਕ੍ਸ਼ੇਹਂ ਯ ਏਤੇਤ੍ਰ ਸਮਾਗਤਾ। ਧਾਰ੍ਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰਸ੍ਯ ਦੁਰ੍ਬੁਦ੍ਧੇਰ੍ਯੁਦ੍ਧੇ ਪ੍ਰਿਯਚਿਕੀਰ੍ਸ਼ਵ।।1.23।।
ಯೋತ್ಸ್ಯಮಾನಾನವೇಕ್ಷೇಹಂ ಯ ಏತೇತ್ರ ಸಮಾಗತಾಃ. ಧಾರ್ತರಾಷ್ಟ್ರಸ್ಯ ದುರ್ಬುದ್ಧೇರ್ಯುದ್ಧೇ ಪ್ರಿಯಚಿಕೀರ್ಷವಃ৷৷1.23৷৷
യോത്സ്യമാനാനവേക്ഷേഹം യ ഏതേത്ര സമാഗതാഃ. ധാര്തരാഷ്ട്രസ്യ ദുര്ബുദ്ധേര്യുദ്ധേ പ്രിയചികീര്ഷവഃ৷৷1.23৷৷
ଯୋତ୍ସ୍ଯମାନାନବେକ୍ଷେହଂ ଯ ଏତେତ୍ର ସମାଗତାଃ| ଧାର୍ତରାଷ୍ଟ୍ରସ୍ଯ ଦୁର୍ବୁଦ୍ଧେର୍ଯୁଦ୍ଧେ ପ୍ରିଯଚିକୀର୍ଷବଃ||1.23||
yōtsyamānānavēkṣē.haṅ ya ētē.tra samāgatāḥ. dhārtarāṣṭrasya durbuddhēryuddhē priyacikīrṣavaḥ৷৷1.23৷৷
யோத்ஸ்யமாநாநவேக்ஷேஹஂ ய ஏதேத்ர ஸமாகதாஃ. தார்தராஷ்ட்ரஸ்ய துர்புத்தேர்யுத்தே ப்ரியசிகீர்ஷவஃ৷৷1.23৷৷
యోత్స్యమానానవేక్షేహం య ఏతేత్ర సమాగతాః. ధార్తరాష్ట్రస్య దుర్బుద్ధేర్యుద్ధే ప్రియచికీర్షవః৷৷1.23৷৷
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।।1.24 -- 1.25।। संजय बोले - हे भरतवंशी राजन्! निद्राविजयी अर्जुन के द्वारा इस तरह कहने पर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथ को खड़ा करके इस तरह कहा कि 'हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख'।
।।1.24।।संजय ने कहा -- हे भारत (धृतराष्ट्र) ! अर्जुन के इस प्रकार कहने पर भगवान् हृषीकेश ने दोनों सेनाओं के मध्य उत्तम रथ को खड़ा करके।
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1.24।। व्याख्या--'गुडाकेशेन'--'गुडाकेश' शब्दके दो अर्थ होते हैं (1)  'गुडा'  नाम मुड़े हुएका है और  'केश'  नाम बालोंका है। जिसके सिरके बाल मुड़े हुए अर्थात् घुँघराले हैं उसका नाम  'गुडाकेश'  है। (2)  'गुडाका'  नाम निद्राका है और  'ईश'  नाम स्वामीका है। जो निद्राका स्वामी है अर्थात् निद्रा ले चाहे न ले--ऐसा जिसका निद्रापर अधिकार है, उसका नाम  'गुडाकेश' है। अर्जुनके केश घुँघराले थे और उनका निद्रापर आधिपत्य था; अतः उनको  'गुडाकेश'  कहा गया है।  'एवमुक्तः'-- जो निद्रा-आलस्यके सुखका गुलाम नहीं होता और जो विषय-भोगोंका दास नहीं होता, केवल भगवान्का ही दास (भक्त) होता है, उस भक्तकी बात भगवान् सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञाका पालन भी करते हैं। इसलिये अपने सखा भक्त अर्जुनके द्वारा आज्ञा देनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुनका रथ खड़ा कर दिया।  'हृषीकेशः'-- इन्द्रियोंका नाम 'हृषीक' है। जो इन्द्रियोंके ईश अर्थात् स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोकमें और यहाँ  'हृषीकेश'  कहनेका तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं सबको आज्ञा देनेवाले हैं, वे ही अन्तर्यामी भगवान् यहाँ अर्जुनकी आज्ञाका पालन करनेवाले बन गये हैं! यह उनकी अर्जुनपर कितनी अधिक कृपा है!  'सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्'-- दोनों सेनाओंके बीचमें जहाँ खाली जगह थी, वहाँ भगवान्ने अर्जुनके श्रेष्ठ रथको खड़ा कर दिया।  'भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्'--उस रथको भी भगवान्ने विलक्षण चतुराईसे ऐसी जगह खड़ा किया, जहाँसे अर्जुनको कौटुम्बिक सम्बन्धवाले पितामह भीष्म, विद्याके सम्बन्धवाले आचार्य द्रोण एवं कौरवसेनाके मुख्य-मुख्य राजालोग सामने दिखायी दे सकें।  'उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति'--'कुरु' पदमें धृतराष्ट्रके पुत्र और पाण्डुके पुत्र--ये दोनों आ जाते हैं क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। युद्धके लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियोंको देख-- ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियोंको देखकर अर्जुनके भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्षके हों, चाहे उस पक्षके हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों, चाहे दुराचारी हों पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। इस कारण अर्जुनमें छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुनको निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवोंके कल्याणके लिये गीताका महान् उपदेश किया जा सके-- इसी भावसे भगवान्ने यहाँ  पश्यैतान् समवेतान् कुरुन्'  कहा है। नहीं तो भगवान्  'पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति'--  ऐसा भी कर सकते थे; परन्तु ऐसा कहनेसे अर्जुनके भीतर युद्ध करनेका जोश आता; जिससे गीताके प्राकट्यका अवसर ही नहीं आता! और अर्जुनके भीतरका प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान् अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकानेकी चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है, तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान् भक्तके भीतर छिपे हुए मोहको पहले जाग्रत् करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान् अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहको  'कुरुन् पश्य'  कहकर जाग्रत् कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे। अर्जुनने कहा था कि 'इनको मैं देख लूँ'  'निरीक्षे' (1। 22)  'अवेक्षे'  (1। 23); अतः यहाँ भगवान्को  'पश्य'  (तू देख ले)--ऐसा कहनेकी जरूरत ही नहीं थी। भगवान्को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिये था। परन्तु भगवान्ने रथ खड़ा करके अर्जुनके मोहको जाग्रत् करनेके लिये ही  'कुरुन् पश्य'  (इन कुरुवंशियोंको देख)--ऐसा कहा है।
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।।1.24।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स च तेन चोदितः तत्क्षणाद् एव भीष्मद्रोणादीनां सर्वेषाम् एव महीक्षितां पश्यतां यथाचोदितम् अकरोत्। ईदृशी भवदीयानां विजयस्थितिः इति च अवोचत्।
।।1.24।।एवमर्जुनेन प्रेरितो भगवानहिंसारूपं धर्ममाश्रित्य प्रायशो युद्धात्तं निवर्तयिष्यतीति धृतराष्ट्रस्य मनीषां दुदूषयिषुः संजयो राजानं प्रत्युक्तवानित्याह  संजय इति।  भगवतोऽपि भूभारापहारार्थं प्रवृत्तस्यार्जुनाभिप्रायप्रतिपत्तिद्वारेण स्वाभिसन्धिं प्रतिलभमानस्य परोक्तिमनुसृत्य स्वाभिप्रायानुकूलमनुष्ठानमादर्शयति  एवमिति।
।।1.24 1.25।।एवमुक्तः स भगवान् वासुदेवः सर्वेषां भीष्मादीनां प्रमुखतश्च यथोक्तं दर्शयन् चकार।
।।1.24।।एवमर्जुनेन प्रेरितो भगवानहिंसारूपं धर्ममाश्रित्य प्रायशो युद्धात्तं व्यावर्तयिष्यतीति धृतराष्ट्राभिप्रायमालक्ष्य तन्निराचिकीर्षुः संजयो धृतराष्ट्रं प्रत्युक्तवानित्याह वैशम्पायनः। हे भारत धृतराष्ट्र भरतवंशमर्यादामनुसंधायापि द्रोहं परित्यज ज्ञातीनामिति संबोधनाभिप्रायः। गुडाकाया निद्राया ईशेन जितनिद्रतया सर्वत्र सावधानेनार्जुनेनैवमुक्तो भगवान् अयं मद्भृत्योऽपि सारथ्ये मां नियोजयतीति दोषमासज्य नाकुप्यत् नवा तं युद्धान्न्यवर्तयत् किंतु सेनयोरुभयोर्मध्ये भीष्मद्रोणप्रमुखतः तयोः प्रमुखे संमुखे सर्वेषां महीक्षितां च संमुखे। आद्यादित्वात्सार्वविभक्तिकस्तसिः। चकारेण समासनिविष्टोऽपि प्रमुखतःशब्द आकृष्यते। भीष्मद्रोणयोः पृथक्कीर्तनमतिप्राधान्यसूचनाय। रथोत्तममग्निना दत्तं दिव्यं रथं भगवता स्वयमेव सारथ्येनाधिष्ठिततया च सर्वोत्तमं स्थापयित्वा हृषीकेशः सर्वेषां निगूढाभिप्रायज्ञो भगवानार्जुनस्य शोकमोहावुपस्थिताविति विज्ञाय सोपहासमर्जुनमुवाच। हे पार्थ पृथायाः स्त्रीस्वभावेन शोकमोहग्रस्ततया तत्संबन्धिनस्तवापि तद्वत्ता समुपस्थितेति सूचयन् हृषीकेशत्वमात्मनो दर्शयति। पृथा मम पितुः स्वसा तस्याः पुत्रोऽसीति संबन्धोल्लेखेन चाश्वासयति। मम सारथ्ये निश्चितो भूत्वा सर्वानपि समवेतान्कुरुन्युयुत्सून्पश्य निःशङ्कतयेति दर्शनविध्यभिप्रायः। अहं सारथ्येऽतिसावधानस्त्वं तु सांप्रतमेव रथित्वं लक्ष्यसीति किं तव परसेनादर्शनेनेत्यर्जुनस्य धैर्यमापादयितुं पश्येत्येतावत्पर्यन्तं भगवतो वाक्यम् अन्यथा रथं सेनयोर्मध्ये स्थापयामासेत्येतावन्मात्रं ब्रूयात्।
।।1.24।।  ततः किं प्रवृत्तमित्यपेक्षायां संजय उवाच  एवमिति।  गुडाका निद्रा तस्या ईशेन जितनिद्रेणार्जुनेनैवमुक्तः सन् हे भारत धृतराष्ट्र सेनयोर्मध्ये रथानामुत्तमम् रथं हृषीकेशः स्थापितवान्।
1.24 इत्यस्याभिप्रेतकथनंतदीक्षणक्षमे स्थाने इति।अचोदयदित्यनेनस्थापय इत्यत्र प्रत्ययस्य नियोगार्थत्वं दर्शितम्। सर्व प्रशासिता नियोज्योऽभवदित्याश्चर्यमिति भावः।।।1.24।।एवमुक्तः इत्यादेःमहीक्षिताम् इत्यन्तस्यार्थमाह स चेति। अर्जुनवचनरथस्थापनयोर्व्यवधायकाभावफलितमुक्तंतत्क्षणादेवेति।भीष्मद्रोणप्रमुखतः इत्यत्र प्रमुखशब्दः आदिशब्दसमानार्थः तद्गतस्तसिप्रत्ययश्च सार्वविभक्तिकत्वात् षष्ठीबहुवचनार्थ इत्यभिप्रायेणोक्तंभीष्मद्रोणादीनामिति। तथाचकारोऽवधारणार्थ इति दर्शयितुंसर्वेषामेवेत्युक्तम्। अनादरे षष्ठीति व्यञ्जनायपश्यतामिति पदाध्याहारः। यद्वा प्रमुखतः अग्रत इत्यर्थः। तदेवमहीक्षिताम् इत्यत्रापि बुद्ध्या निष्कृष्य योजनीयम् तदा चकारः समुच्चयार्थः। भाष्ये त्वेवकारोऽपि तदर्थ एव पश्यतामिति फलितार्थोक्तिः।उवाच पार्थ इत्यस्य तात्पर्यमाह ईदृशीति।एतान्समवेतान् इति जेतव्यसमुदायप्रदर्शनेन विजयस्थितिरभिप्रेतेति भावः। यद्वा धार्तराष्ट्रकर्मकविजयस्थितिरित्यर्थः। धृतराष्ट्रं प्रति सञ्जयवाक्याभिप्रायेणभवदीयानामित्युक्तम्। अथवा धार्तराष्ट्रकर्तृकविजयस्थितिरित्यमित्युपालम्भगर्भमवोचदित्यर्थः। अयमेवार्थ उचितः अर्जुनं प्रति कृष्णेन भवतामित्येतावन्मात्रस्य वक्तव्यत्वात्। धृतराष्ट्रं प्रति तुभवत्पुत्राणाम् पृ.40रा.भा. इति पूर्वोक्तवत्भवदीयान्विलोक्य पृ.46रा.भा. इति वक्ष्यमाणवच्चात्रापि भवदीयनिर्देशोपपत्तेः।किमकुर्वत 1।1 इति गूढाभिसन्धेः पृच्छतो धृतराष्ट्रस्य गूढाभिसन्धिः सञ्जयो धार्तराष्ट्रहृदयविदारणादिकमेवमकथयत्।
।।1.24।।एवमर्जुनवाक्यं श्रुत्वोभयोः सेनयोर्मध्ये रथमास्थाप्यार्जुनं प्रत्युवाच भगवान् इत्याह सञ्जयो द्वाभ्यां एवमुक्त इति। एवं गुडाकेशेन जितनिद्रेणार्जुनेन उक्तो हृषीकेशः उभयोः सेनयोर्मध्ये रथोत्तमं स्थापयित्वाऽर्जुनं प्रत्युवाच। हृषीकेशत्वात्तत्प्रेरकः स्वयमेवेति न विमनस्कत्वम्।
।।1.24।।रथोत्तमं स्थापयित्वा उवाचेति द्वयोः संबन्धः।
।।1.24 1.25।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायां संजय उवाच  एवमित्यादि।  यत्तु एवमर्जुनेन प्रेरितो भगवानहिंसारुपं धर्ममाश्रित्य प्रायशस्तं युद्धाह्यावर्तयिष्यतीति धृतराष्ट्राभिप्रायमालक्ष्य संजय उवाचेति तदुपेक्ष्यम्। युद्धमेव जातमिति श्रुतवत एवमभिप्रायवर्णनस्यानुचितत्वात्। एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण गुडाकेशेनार्जुनेनोक्तो हृषीकेशो भगवान्वासुदेवः सेनयोरुभयोर्मध्ये भीष्मद्रोणयोः सर्वोत्तमयोः सर्वेषां च महीक्षितां महीपतीनां प्रमुखतः संमुखे रथोत्तमं दिव्यं रथं स्थापयित्वोवाचोक्तवान्। पार्थ एतान्कुरुन्भीष्मादीन्समवेतान्युद्धार्थं मिलितान्पश्येति द्वयोरर्थः। तथाच यस्याज्ञामीश्वरोऽप्यङगीकरोति तस्यार्जुनस्य माहात्म्यं किं वक्तव्यमिति भावः। हे भारत भरतवंशोद्भवत्वाच्छोकं मा कुर्वित्याशयः। भरतवंशमर्यादामनुसंधायापि द्रोहं परित्यज ज्ञातीनामिति संबोधनाशय इति केचित्। गुडाकेशेन जिताज्ञाननिद्रेणैवमुक्तो हृषीकेशः सर्वेन्द्रियनियन्ता लोकोद्धाराय स्वस्वरुपभूतस्यार्जुनस्यान्तःकरणे शोकमोहयोराविर्भावयिता सेनयोरुभयोंर्मध्ये भीष्मद्रोणयोः सर्वेषां च राज्ञां प्रमुखतः रथोत्तमं स्थापयित्वोवाच। हे पार्थ लोकोद्धाराय स्त्रीस्वभावौ शोकमोहावङ्गीकुरु। कथमित्यपेक्षायामाह। एतान्मिलितान्कुरुन्सर्वान्स्वबान्धवान्पश्य दृष्ट्वा चैते मदीया एतानहं न हन्मीति निर्विण्णो भवेति हृषीकेशादिपदैस्तात्पर्यार्थः सूचितः। हृषीकेशः सर्वेषां निगूढाभिप्रायज्ञो भगवान् अर्जुनस्य शोकमोहावुपस्थिताविति विज्ञाय सोपहासमर्जुनमुवाच हे पार्थ पृथायाः स्त्रीस्वभावत्वेन शोकमोहग्रस्ततया तत्संबन्धिनस्तवापि तद्वित्तोपस्थितेति सूचयन् हृषीकेशत्वमात्मनो दर्शयति। पृथा मम पितुः स्वसा तस्या पुत्रोऽसीति। तत्संबन्धोल्लेखेनवाश्वासयति। मम सारथ्ये निश्चितो भूत्वा सर्वानपि समवेतान्कुरुन्युयुत्सून्पश्य निःशङ्कतयेति दर्शनविध्यभिप्रायः। अहं सारथ्येऽतिसावधानस्त्वं तु सांप्रतमेव रथित्वं त्यक्षयसीति किं तव परसेनादर्शनेनेत्यर्जुनस्य धैर्यमापादयितुं पश्येत्येतावत्पर्यन्तं भगवतो वाक्यम्। अन्यथा रथं सेनयोर्मध्ये स्थापयामासेत्येतावदेव ब्रूयादिति केचित्।
1.24 एवम् thus? उक्तः addressed? हृषीकेशः Hrishikesha? गुडाकेशेन by Gudakesha (the coneror of sleep? Arjuna)? भारत O Bharata (descendant of king Bharata? Dhritarashtra)? सेनयोः of the armies? उभयोः of both? मध्ये in the middle? स्थापयित्वा having stationed? रथोत्तमम् best of chariots.No Commentary.
1.24. Sanjaya said Thus addressed by Arjuna, Krishna, having stationed that best of chariots, O Dhritarashtra, in the midst of the two armies.
1.24 Sanjaya said: "Having listened to the request of Arjuna, Lord Shri Krishna drew up His bright chariot exactly in the midst between the two armies,
1.24 1.25 Sanjay said O scion of the line of Bharata (Dhrtararastra), Hrsikesa, being told so by Gudakesa (Arjuna), placed the excellent chariot between the two armies, in front of Bhisma and Drona as also all the rulers of the earth, and said, 'O Partha (Arjuna), see these assempled people of the Kuru dynasty.'
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1.23. - 1.24. Sanjaya said O descendant of Bharata (Dhrtarastra) ! Thus instructed by Gudakesa (Arjuna), Hrsikesa halted the best chariot at a place in between the two armies, in front of Bhisma and Drona and of all the rulers of the earth; and the said: O son of Prtha! Behold these Kurus, assembled.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.20 - 1.25 Arjuna said - Sanjaya said Thus, directed by him, Sri Krsna did immediately as He had been directed, while Bhisma, Drona and others and all the kings were looking on. Such is the prospect of victory for your men.
1.24 - 1.25 Sanjaya said: Thus addressed by Arjuna, Sri Krsna drew up that best of chariots between the two armies before the view of Bhisma and Drona and all the other kings, O Dhrtarastra, and said, 'O Arjuna, behold these assembled Kauravas.'
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संजय उवाच एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।1.24।।
সঞ্জয উবাচ এবমুক্তো হৃষীকেশো গুডাকেশেন ভারত৷ সেনযোরুভযোর্মধ্যে স্থাপযিত্বা রথোত্তমম্৷৷1.24৷৷
সঞ্জয উবাচ এবমুক্তো হৃষীকেশো গুডাকেশেন ভারত৷ সেনযোরুভযোর্মধ্যে স্থাপযিত্বা রথোত্তমম্৷৷1.24৷৷
સઞ્જય ઉવાચ એવમુક્તો હૃષીકેશો ગુડાકેશેન ભારત। સેનયોરુભયોર્મધ્યે સ્થાપયિત્વા રથોત્તમમ્।।1.24।।
ਸਞ੍ਜਯ ਉਵਾਚ ਏਵਮੁਕ੍ਤੋ ਹਰਿਸ਼ੀਕੇਸ਼ੋ ਗੁਡਾਕੇਸ਼ੇਨ ਭਾਰਤ। ਸੇਨਯੋਰੁਭਯੋਰ੍ਮਧ੍ਯੇ ਸ੍ਥਾਪਯਿਤ੍ਵਾ ਰਥੋਤ੍ਤਮਮ੍।।1.24।।
ಸಞ್ಜಯ ಉವಾಚ ಏವಮುಕ್ತೋ ಹೃಷೀಕೇಶೋ ಗುಡಾಕೇಶೇನ ಭಾರತ. ಸೇನಯೋರುಭಯೋರ್ಮಧ್ಯೇ ಸ್ಥಾಪಯಿತ್ವಾ ರಥೋತ್ತಮಮ್৷৷1.24৷৷
സഞ്ജയ ഉവാച ഏവമുക്തോ ഹൃഷീകേശോ ഗുഡാകേശേന ഭാരത. സേനയോരുഭയോര്മധ്യേ സ്ഥാപയിത്വാ രഥോത്തമമ്৷৷1.24৷৷
ସଞ୍ଜଯ ଉବାଚ ଏବମୁକ୍ତୋ ହୃଷୀକେଶୋ ଗୁଡାକେଶେନ ଭାରତ| ସେନଯୋରୁଭଯୋର୍ମଧ୍ଯେ ସ୍ଥାପଯିତ୍ବା ରଥୋତ୍ତମମ୍||1.24||
sañjaya uvāca ēvamuktō hṛṣīkēśō guḍākēśēna bhārata. sēnayōrubhayōrmadhyē sthāpayitvā rathōttamam৷৷1.24৷৷
ஸஞ்ஜய உவாச ஏவமுக்தோ ஹரிஷீகேஷோ குடாகேஷேந பாரத. ஸேநயோருபயோர்மத்யே ஸ்தாபயித்வா ரதோத்தமம்৷৷1.24৷৷
సఞ్జయ ఉవాచ ఏవముక్తో హృషీకేశో గుడాకేశేన భారత. సేనయోరుభయోర్మధ్యే స్థాపయిత్వా రథోత్తమమ్৷৷1.24৷৷
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।।1.24 -- 1.25।। संजय बोले - हे भरतवंशी राजन्! निद्राविजयी अर्जुन के द्वारा इस तरह कहने पर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्यभाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथको खड़ा करके इस तरह कहा कि 'हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख'।
।।1.25।। भीष्म, द्रोण तथा पृथ्वी के समस्त शासकों के समक्ष उन्होंने कहा, "हे पार्थ यहाँ एकत्र हुये कौरवों को देखो"।
।।1.25।। भगवान् श्रीकृष्ण ने उस भव्य रथ को भीष्म और द्रोण दोनों के सम्मुख एक स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया। एक कर्तव्यनिष्ठ सारथि के समान वे अर्जुन से कहते हैं हे पार्थ यहाँ एकत्र हुए इन कौरवों को देखो। सम्पूर्ण प्रथम अध्याय में केवल ये ही शब्द हैं जिन्हें भगवान ने कहा है। उन शब्दों ने उस चिनगारी का काम किया जिसने अर्जुन के अहंकार पर आधारित झूठे मूल्यों एवं धारणाओं के महल को जलाकर राख कर दिया। इसके पश्चात् हम देखेंगे कि इन शब्दों की अर्जुन पर क्या प्रतिक्रिया हुई और किस प्रकार उसका मन टूटकर बिखर गया।पार्थ का अर्थ है पृथापुत्र अर्जुन। पृथा कुन्ती का दूसरा नाम है। इस संस्कृत शब्द पार्थ में पार्थिव की गन्ध मिलती है जिसका अर्थ हैमृत्तिका निर्मित। यह सम्बोधन अत्यन्त अर्थपूर्ण है। इसका तात्पर्य यह है कि गीता सत्य का संदेश है जिसे अमृत स्वरूप भगवान् ने मनुष्य के सार्वकालिक प्रतिनिधि र्मत्य पुरुष अर्जुन को सुनाया है।
1.25।। व्याख्या--   'गुडाकेशेन'--'गुडाकेश'  शब्दके दो अर्थ होते हैं (1)  'गुडा'  नाम मुड़े हुएका है और  'केश'  नाम बालोंका है। जिसके सिरके बाल मुड़े हुए अर्थात् घुँघराले हैं, उसका नाम  'गुडाकेश'  है। (2)  'गुडाका'  नाम निद्राका है और  'ईश'  नाम स्वामीका है। जो निद्राका स्वामी है अर्थात् निद्रा ले चाहे न ले--ऐसा जिसका निद्रापर अधिकार है, उसका नाम  'गुडाकेश' है। अर्जुनके केश घुँघराले थे और उनका निद्रापर आधिपत्य था; अतः उनको  'गुडाकेश'  कहा गया है।  'एवमुक्तः'--  जो निद्रा-आलस्यके सुखका गुलाम नहीं होता और जो विषय-भोगोंका दास नहीं होता, केवल भगवान्का ही दास (भक्त) होता है, उस भक्तकी बात भगवान् सुनते हैं; केवल सुनते ही नहीं, उसकी आज्ञाका पालन भी करते हैं। इसलिये अपने सखा भक्त अर्जुनके द्वारा आज्ञा देनेपर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुनका रथ खड़ा कर दिया।  'हृषीकेशः'--  इन्द्रियोंका नाम  'हृषीक'  है। जो इन्द्रियोंके ईश अर्थात् स्वामी हैं, उनको हृषीकेश कहते हैं। पहले इक्कीसवें श्लोकमें और यहाँ  'हृषीकेश'  कहनेका तात्पर्य है कि जो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि सबके प्रेरक हैं, सबको आज्ञा देनेवाले हैं, वे ही अन्तर्यामी भगवान् यहाँ अर्जुनकी आज्ञाका पालन करनेवाले बन गये हैं! यह उनकी अर्जुनपर कितनी अधिक कृपा है!  'सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्'--  दोनों सेनाओंके बीचमें जहाँ खाली जगह थी, वहाँ भगवान्ने अर्जुनके श्रेष्ठ रथको खड़ा कर दिया।  'भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्'--  उस रथको भी भगवान्ने विलक्षण चतुराईसे ऐसी जगह खड़ा किया, जहाँसे अर्जुनको कौटुम्बिक सम्बन्धवाले पितामह भीष्म, विद्याके सम्बन्धवाले आचार्य द्रोण एवं कौरवसेनाके मुख्यमुख्य राजालोग सामने दिखायी दे सकें।  'उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिति कुरु'--  पदमें धृतराष्ट्रके पुत्र और पाण्डुके पुत्र--ये दोनों आ जाते हैं; क्योंकि ये दोनों ही कुरुवंशी हैं। युद्धके लिये एकत्र हुए इन कुरुवंशियोंको देख--ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि इन कुरुवंशियोंको देखकर अर्जुनके भीतर यह भाव पैदा हो जाय कि हम सब एक ही तो हैं! इस पक्षके हों, चाहे उस पक्षके हों; भले हों, चाहे बुरे हों; सदाचारी हों; चाहे दुराचारी हों; पर हैं सब अपने ही कुटुम्बी। इस कारण अर्जुनमें छिपा हुआ कौटुम्बिक ममतायुक्त मोह जाग्रत् हो जाय और मोह जाग्रत् होनेसे अर्जुन जिज्ञासु बन जाय, जिससे अर्जुनको निमित्त बनाकर भावी कलियुगी जीवोंके कल्याणके लिये गीताका महान् उपदेश किया जा सके --इसी भावसे भगवान्ने यहाँ  'पश्यैतान् समवेतान् कुरुन्'  कहा है। नहीं तो भगवान्  'पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान् समानिति'--  ऐसा भी कर सकते थे; परन्तु ऐसा कहनेसे अर्जुनके भीतर युद्ध करनेका जोश आता; जिससे गीताके प्राकट्यका अवसर ही नहीं आता और अर्जुनके भीतरका प्रसुप्त कौटुम्बिक मोह भी दूर नहीं होता, जिसको दूर करना भगवान् अपनी जिम्मेवारी मानते हैं। जैसे कोई फोड़ा हो जाता है तो वैद्यलोग पहले उसको पकानेकी चेष्टा करते हैं और जब वह पक जाता है तब उसको चीरा देकर साफ कर देते हैं; ऐसे ही भगवान् भक्तके भीतर छिपे हुए मोहको पहले जाग्रत् करके फिर उसको मिटाते हैं। यहाँ भी भगवान् अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहको  'कुरुन् पश्य'  कहकर जाग्रत् कर रहे हैं, जिसको आगे उपदेश देकर नष्ट कर देंगे। अर्जुनने कहा था कि 'इनको मैं देख लूँ'-- 'निरीक्षे'  (1। 22)  'अवेक्षे'  (1। 23); अतः यहाँ भगवान्को  'पश्य'  (तू देख ले)--ऐसा कहनेकी जरूरत ही नहीं थी। भगवान्को तो केवल रथ खड़ा कर देना चाहिये था। परन्तु भगवान्ने रथ खड़ा करके अर्जुनके मोहको जाग्रत् करनेके लिये ही  'कुरुन् पश्य'  (इन कुरुवंशियोंको देख)--ऐसा कहा है। कौटुम्बिक स्नेह और भगवत्प्रेम--इन दोनोंमें बहुत अन्तर है। कुटुम्बमें ममतायुक्त स्नेह हो जाता है तो कुटुम्बके अवगुणोंकी तरफ खयाल जाता ही नहीं; किन्तु 'ये मेरे हैं'--ऐसा भाव रहता है। ऐसे ही भगवान्का भक्तमें विशेष स्नेह हो जाता है तो भक्तके अवगुणोंकी तरफ भगवान्का खयाल जाता ही नहीं; किन्तु 'यह मेरा ही है'--ऐसा ही भाव रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें क्रिया तथा पदार्थ-(शरीरादि-) की और भगवत्प्रेममें भावकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें मूढ़ता-(मोह-) की और भगवत्प्रेममें आत्मीयताकी मुख्यता रहती है। कौटुम्बिक स्नेहमें अँधेरा और भगवत्प्रेममें प्रकाश रहता है। कौटुम्बिक स्नेहमें मनुष्य कर्तव्यच्युत हो जाता है और भगवत्प्रेममें तल्लीनताके कारण कर्तव्यपालनमें विस्मृति तो हो सकती है पर भक्त कभी कर्तव्यच्युत नहीं होता। कौटुम्बिक स्नेहमें कुटुम्बियोंकी और भगवत्प्रेममें भगवान्की प्रधानता होती है।  सम्बन्ध   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अर्जुनसे कुरूवंशियोंको देखनेके लिये कहा। उसके बाद क्या हुया इसका वर्णन सञ्जय आगेके श्लोकोंमें करते हैं।
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।।1.25।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स च तेन चोदितः तत्क्षणाद् एव भीष्मद्रोणादीनां सर्वेषाम् एव महीक्षितां पश्यतां यथाचोदितम् अकरोत्। ईदृशी भवदीयानां विजयस्थितिः इति च अवोचत्।
।।1.25।।भीष्मद्रोणादीनामन्येषां च राज्ञामन्तिके रथं स्थापयित्वा भगवान्किं कृतवानिति तदाह  उवाचेति। एतानभ्याशे वर्तमानान्कुरून्कुरुवंशप्रसूतान्भवद्भिः सार्धं युद्धार्थं संगतान्पश्य। दृष्ट्वा च यैः सहात्र युयुत्सा तवोपावर्तते तैः साकं युद्धं कुरु। नो खल्वेतेषां शस्त्रास्त्रशिक्षावतां महीक्षितामुपेक्षोपपद्यते सारथ्ये तु न मनः खेदनीयमित्यर्थः।
।।1.24 1.25।।एवमुक्तः स भगवान् वासुदेवः सर्वेषां भीष्मादीनां प्रमुखतश्च यथोक्तं दर्शयन् चकार।
।। 1.25एवमर्जुनेन प्रेरितो भगवानहिंसारूपं धर्ममाश्रित्य प्रायशो युद्धात्तं व्यावर्तयिष्यतीति धृतराष्ट्राभिप्रायमालक्ष्य तन्निराचिकीर्षुः संजयो धृतराष्ट्रं प्रत्युक्तवानित्याह वैशम्पायनः। हे भारत धृतराष्ट्र भरतवंशमर्यादामनुसंधायापि द्रोहं परित्यज ज्ञातीनामिति संबोधनाभिप्रायः। गुडाकाया निद्राया ईशेन जितनिद्रतया सर्वत्र सावधानेनार्जुनेनैवमुक्तो भगवान् अयं मद्भृत्योऽपि सारथ्ये मां नियोजयतीति दोषमासज्य नाकुप्यत् नवा तं युद्धान्न्यवर्तयत् किंतु सेनयोरुभयोर्मध्ये भीष्मद्रोणप्रमुखतः तयोः प्रमुखे संमुखे सर्वेषां महीक्षितां च संमुखे। आद्यादित्वात्सार्वविभक्तिकस्तसिः। चकारेण समासनिविष्टोऽपि प्रमुखतःशब्द आकृष्यते। भीष्मद्रोणयोः पृथक्कीर्तनमतिप्राधान्यसूचनाय। रथोत्तममग्निना दत्तं दिव्यं रथं भगवता स्वयमेव सारथ्येनाधिष्ठिततया च सर्वोत्तमं स्थापयित्वा हृषीकेशः सर्वेषां निगूढाभिप्रायज्ञो भगवानार्जुनस्य शोकमोहावुपस्थिताविति विज्ञाय सोपहासमर्जुनमुवाच। हे पार्थ पृथायाः स्त्रीस्वभावेन शोकमोहग्रस्ततया तत्संबन्धिनस्तवापि तद्वत्ता समुपस्थितेति सूचयन् हृषीकेशत्वमात्मनो दर्शयति। पृथा मम पितुः स्वसा तस्याः पुत्रोऽसीति संबन्धोल्लेखेन चाश्वासयति। मम सारथ्ये निश्चितो भूत्वा सर्वानपि समवेतान्कुरुन्युयुत्सून्पश्य निःशङ्कतयेति दर्शनविध्यभिप्रायः। अहं सारथ्येऽतिसावधानस्त्वं तु सांप्रतमेव रथित्वं लक्ष्यसीति किं तव परसेनादर्शनेनेत्यर्जुनस्य धैर्यमापादयितुं पश्येत्येतावत्पर्यन्तं भगवतो वाक्यम् अन्यथा रथं सेनयोर्मध्ये स्थापयामासेत्येतावन्मात्रं ब्रूयात्।
।।1.25।।भीष्मद्रोणेति।  महीक्षितां पितामहद्रोणराज्ञां च प्रमुखतः संमुखे रथं स्थापयित्वा हे पार्थ एतान्कुरून्पश्येत्युवाच।
।।1.25।।एवमुक्तः इत्यादेःमहीक्षिताम् इत्यन्तस्यार्थमाह स चेति। अर्जुनवचनरथस्थापनयोर्व्यवधायकाभावफलितमुक्तंतत्क्षणादेवेति।भीष्मद्रोणप्रमुखतः इत्यत्र प्रमुखशब्दः आदिशब्दसमानार्थः तद्गतस्तसिप्रत्ययश्च सार्वविभक्तिकत्वात् षष्ठीबहुवचनार्थ इत्यभिप्रायेणोक्तंभीष्मद्रोणादीनामिति। तथाचकारोऽवधारणार्थ इति दर्शयितुंसर्वेषामेवेत्युक्तम्। अनादरे षष्ठीति व्यञ्जनायपश्यतामिति पदाध्याहारः। यद्वा प्रमुखतः अग्रत इत्यर्थः। तदेवमहीक्षिताम् इत्यत्रापि बुद्ध्या निष्कृष्य योजनीयम् तदा चकारः समुच्चयार्थः। भाष्ये त्वेवकारोऽपि तदर्थ एव पश्यतामिति फलितार्थोक्तिः।उवाच पार्थ इत्यस्य तात्पर्यमाह ईदृशीति।एतान्समवेतान् इति जेतव्यसमुदायप्रदर्शनेन विजयस्थितिरभिप्रेतेति भावः। यद्वा धार्तराष्ट्रकर्मकविजयस्थितिरित्यर्थः। धृतराष्ट्रं प्रति सञ्जयवाक्याभिप्रायेणभवदीयानामित्युक्तम्। अथवा धार्तराष्ट्रकर्तृकविजयस्थितिरित्यमित्युपालम्भगर्भमवोचदित्यर्थः। अयमेवार्थ उचितः अर्जुनं प्रति कृष्णेन भवतामित्येतावन्मात्रस्य वक्तव्यत्वात्। धृतराष्ट्रं प्रति तुभवत्पुत्राणाम् पृ.40रा.भा. इति पूर्वोक्तवत्भवदीयान्विलोक्य पृ.46रा.भा. इति वक्ष्यमाणवच्चात्रापि भवदीयनिर्देशोपपत्तेः।किमकुर्वत 1।1 इति गूढाभिसन्धेः पृच्छतो धृतराष्ट्रस्य गूढाभिसन्धिः सञ्जयो धार्तराष्ट्रहृदयविदारणादिकमेवमकथयत्।
।।1.25।।भीष्मद्रोणौ च परमयुद्धविशारदाविति तत्प्रमुखतः रथं स्थापयित्वा सर्वेषां महीक्षितां राज्ञां च हे पार्थ समवेतान् मिलितान् कुरूनेतान् पश्येत्युवाच।
।।1.25।।महीक्षितां पृथिवीश्वराणाम्।
।।1.24 1.25।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायां संजय उवाच  एवमित्यादि।  यत्तु एवमर्जुनेन प्रेरितो भगवानहिंसारुपं धर्ममाश्रित्य प्रायशस्तं युद्धाह्यावर्तयिष्यतीति धृतराष्ट्राभिप्रायमालक्ष्य संजय उवाचेति तदुपेक्ष्यम्। युद्धमेव जातमिति श्रुतवत एवमभिप्रायवर्णनस्यानुचितत्वात्। एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण गुडाकेशेनार्जुनेनोक्तो हृषीकेशो भगवान्वासुदेवः सेनयोरुभयोर्मध्ये भीष्मद्रोणयोः सर्वोत्तमयोः सर्वेषां च महीक्षितां महीपतीनां प्रमुखतः संमुखे रथोत्तमं दिव्यं रथं स्थापयित्वोवाचोक्तवान्। पार्थ एतान्कुरुन्भीष्मादीन्समवेतान्युद्धार्थं मिलितान्पश्येति द्वयोरर्थः। तथाच यस्याज्ञामीश्वरोऽप्यङगीकरोति तस्यार्जुनस्य माहात्म्यं किं वक्तव्यमिति भावः। हे भारत भरतवंशोद्भवत्वाच्छोकं मा कुर्वित्याशयः। भरतवंशमर्यादामनुसंधायापि द्रोहं परित्यज ज्ञातीनामिति संबोधनाशय इति केचित्। गुडाकेशेन जिताज्ञाननिद्रेणैवमुक्तो हृषीकेशः सर्वेन्द्रियनियन्ता लोकोद्धाराय स्वस्वरुपभूतस्यार्जुनस्यान्तःकरणे शोकमोहयोराविर्भावयिता सेनयोरुभयोंर्मध्ये भीष्मद्रोणयोः सर्वेषां च राज्ञां प्रमुखतः रथोत्तमं स्थापयित्वोवाच। हे पार्थ लोकोद्धाराय स्त्रीस्वभावौ शोकमोहावङ्गीकुरु। कथमित्यपेक्षायामाह। एतान्मिलितान्कुरुन्सर्वान्स्वबान्धवान्पश्य दृष्ट्वा चैते मदीया एतानहं न हन्मीति निर्विण्णो भवेति हृषीकेशादिपदैस्तात्पर्यार्थः सूचितः। हृषीकेशः सर्वेषां निगूढाभिप्रायज्ञो भगवान् अर्जुनस्य शोकमोहावुपस्थिताविति विज्ञाय सोपहासमर्जुनमुवाच हे पार्थ पृथायाः स्त्रीस्वभावत्वेन शोकमोहग्रस्ततया तत्संबन्धिनस्तवापि तद्वित्तोपस्थितेति सूचयन् हृषीकेशत्वमात्मनो दर्शयति। पृथा मम पितुः स्वसा तस्या पुत्रोऽसीति। तत्संबन्धोल्लेखेनवाश्वासयति। मम सारथ्ये निश्चितो भूत्वा सर्वानपि समवेतान्कुरुन्युयुत्सून्पश्य निःशङ्कतयेति दर्शनविध्यभिप्रायः। अहं सारथ्येऽतिसावधानस्त्वं तु सांप्रतमेव रथित्वं त्यक्षयसीति किं तव परसेनादर्शनेनेत्यर्जुनस्य धैर्यमापादयितुं पश्येत्येतावत्पर्यन्तं भगवतो वाक्यम्। अन्यथा रथं सेनयोर्मध्ये स्थापयामासेत्येतावदेव ब्रूयादिति केचित्।
1.25 भीष्मद्रोणप्रमुखतः in front of Bhishma and Drona? सर्वेषाम् of all? च and? महीक्षिताम् rulers of the earth? उवाच said? पार्थ O Partha? पश्य behold? एतान् these? समवेतान् gathered? कुरून् Kurus? इति thus.No Commentary.
1.25. In front of Bhishma and Drona, and all the rulers of the earth, said: "O Arjuna (son of Pritha), behold these Kurus gathered together."
1.25 Whither Bheeshma and Drona had led all the rulers of the earth, and spoke thus: O Arjuna! Behold these members of the family of Kuru assembled.
1.24 1.25 Sanjay said O scion of the line of Bharata (Dhrtararastra), Hrsikesa, being told so by Gudakesa (Arjuna), placed the excellent chariot between the two armies, in front of Bhisma and Drona as also all the rulers of the earth, and said, 'O Partha (Arjuna), see these assempled people of the Kuru dynasty.'
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1.25. There in both the armies, the son of Prtha observed his fathers, and paternal grandfathers, teachers, maternal uncles, brothers, sons, sons' sons and comrades, fathers-in-law, and also friends.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.20 - 1.25 Arjuna said - Sanjaya said Thus, directed by him, Sri Krsna did immediately as He had been directed, while Bhisma, Drona and others and all the kings were looking on. Such is the prospect of victory for your men.
1.24 - 1.25 Sanjaya said: Thus addressed by Arjuna, Sri Krsna drew up that best of chariots between the two armies before the view of Bhisma and Drona and all the other kings, O Dhrtarastra, and said, 'O Arjuna, behold these assembled Kauravas.'
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भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्। उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।1.25।।
ভীষ্মদ্রোণপ্রমুখতঃ সর্বেষাং চ মহীক্ষিতাম্৷ উবাচ পার্থ পশ্যৈতান্সমবেতান্কুরূনিতি৷৷1.25৷৷
ভীষ্মদ্রোণপ্রমুখতঃ সর্বেষাং চ মহীক্ষিতাম্৷ উবাচ পার্থ পশ্যৈতান্সমবেতান্কুরূনিতি৷৷1.25৷৷
ભીષ્મદ્રોણપ્રમુખતઃ સર્વેષાં ચ મહીક્ષિતામ્। ઉવાચ પાર્થ પશ્યૈતાન્સમવેતાન્કુરૂનિતિ।।1.25।।
ਭੀਸ਼੍ਮਦ੍ਰੋਣਪ੍ਰਮੁਖਤ ਸਰ੍ਵੇਸ਼ਾਂ ਚ ਮਹੀਕ੍ਸ਼ਿਤਾਮ੍। ਉਵਾਚ ਪਾਰ੍ਥ ਪਸ਼੍ਯੈਤਾਨ੍ਸਮਵੇਤਾਨ੍ਕੁਰੂਨਿਤਿ।।1.25।।
ಭೀಷ್ಮದ್ರೋಣಪ್ರಮುಖತಃ ಸರ್ವೇಷಾಂ ಚ ಮಹೀಕ್ಷಿತಾಮ್. ಉವಾಚ ಪಾರ್ಥ ಪಶ್ಯೈತಾನ್ಸಮವೇತಾನ್ಕುರೂನಿತಿ৷৷1.25৷৷
ഭീഷ്മദ്രോണപ്രമുഖതഃ സര്വേഷാം ച മഹീക്ഷിതാമ്. ഉവാച പാര്ഥ പശ്യൈതാന്സമവേതാന്കുരൂനിതി৷৷1.25৷৷
ଭୀଷ୍ମଦ୍ରୋଣପ୍ରମୁଖତଃ ସର୍ବେଷାଂ ଚ ମହୀକ୍ଷିତାମ୍| ଉବାଚ ପାର୍ଥ ପଶ୍ଯୈତାନ୍ସମବେତାନ୍କୁରୂନିତି||1.25||
bhīṣmadrōṇapramukhataḥ sarvēṣāṅ ca mahīkṣitām. uvāca pārtha paśyaitānsamavētānkurūniti৷৷1.25৷৷
பீஷ்மத்ரோணப்ரமுகதஃ ஸர்வேஷாஂ ச மஹீக்ஷிதாம். உவாச பார்த பஷ்யைதாந்ஸமவேதாந்குரூநிதி৷৷1.25৷৷
భీష్మద్రోణప్రముఖతః సర్వేషాం చ మహీక్షితామ్. ఉవాచ పార్థ పశ్యైతాన్సమవేతాన్కురూనితి৷৷1.25৷৷
1.26
1
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।।1.26।। उसके बाद पृथानन्दन अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित पिताओंको, पितामहोंको, आचार्योंको, मामाओंको, भाइयोंको, पुत्रोंको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको और सुहृदोंको भी देखा।
।।1.26।।वहाँ अर्जुन ने उन दोनों सेनाओं में खड़े पिता के भाइयों,  पितामहों,  आचार्यों,  मामों, भाइयों, पुत्रों,  पौत्रों,  मित्रों,  श्वसुरों और सुहृदों को भी देखा।
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1.26।। व्याख्या--'तत्रापश्यत् ৷৷. सेनयोरूभयोरपि'-- जब भगवान्ने अर्जुनसे कहा कि इस रणभूमिमें इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख, तब अर्जुनकी दृष्टि दोनों सेनाओंमें स्थित अपने कुटुम्बियोंपर गयी। उन्होंने देखा कि उन सेनाओंमें युद्धके लिये अपने-अपने स्थानपर भूरिश्रवा आदि पिताके भाई खड़े हैं, जो कि मेरे लिये पिताके समान हैं। भीष्म, सोमदत्त आदि पितामह खड़े हैं। द्रोण, कृप आदि आचार्य (विद्या पढ़ानेवाले और कुलगुरु) खड़े हैं। पुरुजित, कुन्तिभोज, शल्य, शकुनि आदि मामा खड़े हैं। भीम, दुर्योधन आदि भाई खड़े हैं। अभिमन्यु, घटोत्कच, लक्ष्मण (दुर्योधनका पुत्र) आदि मेरे और मेरे भाइयोंके पुत्र खड़े हैं। लक्ष्मण आदिके पुत्र खड़े हैं जो कि मेरे पौत्र हैं। दुर्योंधनके अश्वत्थामा आदि मित्र खड़े हैं और ऐसे ही अपने पक्षके मित्र भी खड़े हैं। द्रुपद, शैब्य आदि ससुर खड़े हैं। बिना किसी हेतुके अपने-अपने पक्षका हित चाहनेवाले सात्यकि, कृतवर्मा आदि सुहृद् भी खड़े हैं।
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।।1.26।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.26।।एवं स्थिते महानधर्मो हिंसेति विपरीतबुद्ध्या युद्धादुपरिरंसा पार्थस्य संप्रवृत्तेति कथयति  तत्रेत्यादिना।  सप्तम्या भगवदभ्यनुज्ञाने समरसमारम्भाय संप्रवृत्ते सतीत्येतदुच्यते। सेनयोरुभयोरपि स्थितान्पार्थोऽपश्यदिति संबन्धः। अथशब्दस्तथाशब्दपर्यायः। श्वशुरा भार्याणां जनयितारः। सुहृदो मित्राणि कृतवर्मप्रभृतयः।
।।1.26 1.27।।तत्रापश्यत् स्थितान् पार्थः 126 इत्यारभ्यएवमुक्त्वाऽर्जुनः 1।46 इत्यन्तं लोकसम्बन्धाभिमानेन अर्जुनः कातर्यतः स्वावस्थां निवेदयति।
।।1.26।।तत्र समरसभारम्भार्थं सैन्यदर्शने भगवताभ्यनुज्ञाते सति सेनयोरूभयोरपि स्थितान्पार्थोऽपश्यदित्यन्वयः। अथशब्दस्तथाशब्दपर्यायः। परसेनायां पितृ़न्पितृव्यान्भूरिश्रवःप्रभृतीन् पितामहान्भीष्मसोमदत्तप्रभृतीन् आचार्यान्द्रोणकृपप्रभृतीन मातुलाञ्शल्यशकुनिप्रभृतीन् भ्रातृ़न्दुर्योधनप्रभृतीन् पुत्रान्लक्ष्मणप्रभृतीन् पौत्रान्लक्ष्मणादिपुत्रान् सखीन् अश्वत्थामजयद्रथप्रभृतीन्वयस्यान् श्वशुरान्भार्याणां जनयितृ़न् सुहृदो मित्राणि कृतवर्मभगदत्तप्रभृतीन्। सुहृद इत्यनेन यावन्तः कृतोपकारा मातामहादयश्च ते द्रष्टव्याः। एंव स्वसेनायामप्युलक्षणीयम्। एवं स्थिते महानधर्मों हिंसेति विपरीतबुद्ध्या मोहाख्यया शास्त्रविहितत्वेन धर्मत्वमिति ज्ञानप्रतिबन्धकेन च ममकारनिबन्धनेन चित्तवैकल्व्येन शोकमोहाख्येनाभिभूतविवेकस्यार्जुनस्य पूर्वमारब्धाद्युद्धाख्यात्स्वधर्मादुपरिरंसा महानर्थपर्यवसायिनी प्रवृत्तेति दर्शयति कौन्तेय इति स्त्रीप्रभत्वकीर्तनं पार्थवत्तादात्विकमूढतामपेक्ष्य कर्त्र्या स्वव्यापारेणैवाविष्टो व्याप्तः नतु कृपां केनचिद्व्यापारेणाविष्ट इति स्वतःसिद्धैवास्य कृपेति सूच्यते। एतत्प्रकटीकरणाय परयेति विशेषणम्। अपरयेति वा छेदः। स्वसैन्ये पुरापि कृपाभूदेव तस्मिन्समये तु कौरवसैन्येऽप्यपरा कृपाभूदित्यर्थः। विषीदन्विषादमुपतापं प्राप्नुवन्नब्रवीदित्युक्तिविषादयोः समकालतां वदन् सगद्गदकण्ठताश्रुपातादि विषादकार्यमुक्तिकाले द्योतयति।
।।1.26।।  ततः किं प्रवृत्तमित्यत आह। पितृ़न्। पितृव्यादीनित्यर्थः। पुत्रान्पौत्रानिति। दुर्योधनादीनां ये पुत्राः पौत्राश्च तानित्यर्थः। सखीन्मित्राणि। सुहृदः कृतोपकारांश्चापश्यत्।
।।1.26।।अथाध्यायशेषस्य सङ्कलितार्थमाह स त्विति। तुशब्देन पूर्वोक्तप्रकाराद्दुर्योधनात् वक्ष्यमाणप्रकारविशिष्टस्य पार्थस्य विशेषंस कौन्तेयः इत्यनेनाभिप्रेतं द्योतयति। बन्धुव्यपदेशमात्रयोग्यशत्रुवधानिच्छया विजयादिकं त्रैलोक्यराज्यावधिकमपि तृणाय मन्यत इतिमहामना इत्युक्तम्।न काङ्क्षे विजयम् 1।31 इत्यादिकं हि वदति। शत्रूणामप्यसौ दुःखं न सहत इतिपरमकारुणिकत्वोक्तिःकृपया परयाऽऽविष्टः इति ह्युक्तम्।पितृ़नथ पितामहान्आचार्याः पितरः पुत्राः 1।34 इत्याद्युक्तस्नेहविषयप्राचुर्यंदीर्घबन्धुशब्देनोक्तम् यद्वा बन्धुना महापकारे कृतेऽपि स्वयं न शिथिलबन्धो भवतीति भावः।सर्वान्बन्धून्स्वजनं हि 1।37 इत्यादिकमिह भाव्यम्। आततायिपक्षस्थानामप्याचार्यादीनां अहन्तव्यत्वानुसन्धानात् कुलक्षयादिजनिताधर्मपारम्पर्यदर्शनाच्चपरमधार्मिक इत्युक्तिः। आततायिवधानुज्ञानमाचार्यादिव्यतिरिक्तविषयम् इत्यर्जुनस्य भावः।सभ्रातृक इति नायमेक एवैवंविधः किन्तु सर्वेऽपि पाण्डवा इति भावः। एतेनअस्मान्नःवयम्अस्माभिः इत्यादिभिरुक्तं संगृहीतम्। यद्वा न केवलं स्वापकारमात्रानादरादेष बन्धुवधादिकमुपेक्षते अपितु आसन्नतराचार्यादिस्थानीयबहुमतिस्नेहदयादिविषयधर्मराजद्रौपद्याद्यपकारेऽपीति भावः। आचार्यादिवधदोषो भ्रातृ़णामपि मा भूदित्यर्जुनाभिप्रायः। हन्तव्यत्वसूचनायघ्नतोऽपि 1।35 इत्युक्तम्। तद्विवृणोति भवद्भिरित्यादिना।जतुगृहदाहादिभिरित्यादिना आततायिशब्दोऽपि व्याख्यातः।अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।। मनुः 8।350.क्षे.23आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन मनुः8।351 इति हि स्मरन्ति। आदिशब्देनासकृच्छब्देन चाततायित्वहेतवः प्रत्येकं बहुशः कृताः न चेदानीमप्युपरतमिति दर्शितम्। अनुपरतिश्चघ्नतोऽपि 1।1।14 इति वर्तमाननिर्देशेन सूचिता।भवद्भिरित्यनेन धृतराष्ट्रमपिमुह्यन्तमनुमुह्यामि दुर्योधनममर्षणम् म.भा.1।1।145 इति पुत्रस्नेहवशादनुमन्तारं तत्तुल्यं व्यपदिशति। एवं च दुर्योधनादीनां सर्वेषामप्यतिलोभोपहतचेतस्त्वादिना महामना इत्युक्तविपरीतत्वमुक्तं भवति। शकुनिकर्णादिसहायानां धार्तराष्ट्रादीनां हनिष्यमाणानामपि हतत्वनिश्चयेन शोकोत्पत्त्यर्थमुक्तंपरमपुरुषेति। परमपुरुषः सहायो यस्येति विग्रहः परमपुरुषस्य सहायो निमित्तमात्रमिति वा। वक्ष्यति हि मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् 11।33 इति अर्जुनश्च पूर्वं महाबलसहस्रेभ्योऽपि निरायुधस्य परमपुरुषस्य सन्निधिमात्रमेव विजयहेतुतया निश्चित्य तमेव वव्रे। स्नेहाद्यस्थानत्वसूचनायभवदीयान्विलोक्येत्युक्तम्।बन्धुस्नेहेनेत्यादि न ह्यसौ दुर्योधनवत् बन्धुद्वेषनृशंसत्वप्रतिभटभयादिना विषण्णः नापि परेषां गुणान्निवर्तते न च परमपुरुषसचिवस्य स्वस्य दौर्बल्यादिति भावः।सीदन्ति 1।28 इत्यादेःमनः 1।30 इत्यन्तस्यार्थः अतिमात्रेत्यादिना संगृहीतः। सखीन् वयस्यान्। सुहृदः वयोविशेषानपेक्षया हितैषिणः।सेनयोरुभयोरपि एकै स्यां सेनायामेते सर्वे प्रायशो विद्यन्त इति भावः। समीक्ष्य शास्त्रलोकयात्रायुक्तमवलोक्येत्यर्थः।सर्वान्बन्धून् न ह्यत्रानागतः कश्चिद्बन्धुरवशिष्यत इति भावः।
।।1.26।।एवं भगवदुक्तोऽर्जुनस्तान्दृष्टवानित्याह सार्धेन तत्रेति। तत्र सङ्ग्रामाजिरे उभयोः सेनयोरपि मध्ये स्थितानेतानपश्यत्। पितृ़न् पितृव्यादीन् इत्यर्थः। सखीन् बाल्ये क्रीडायां सम्मतान् सुहृदो मित्राणि।
।।1.26।।पितृ़न् पितृव्यादीन् भूरिश्रवःप्रभृतीन्। पितामहान् भीष्मादीन्। मातुलान् शल्यादीन्। भ्रातृ़न् दुर्योधनादीन्। पुत्रान् लक्ष्मणादीन्। पौत्रान् लक्ष्मणादिपुत्रान्। सखीन् अश्वत्थामादीन्।
।।1.26।।एवं स्वसारथ्ये दृढतया स्थितेन स्वोक्तकारिणा भगवतोक्तोऽर्जुनस्तथैव कृतवानित्याह  तत्रेति।  तत्र समवेतान्कुरुन्पश्येति भगवदभ्यनुज्ञाने संवृत्ते सति तत्र सेनयोरुभयोरपि स्थितान्पार्थोऽपश्यदिति वा तत्रपदान्वयः। एतान्समवेतान्कुरुन्दृष्ट्वा स्त्रीस्वभावौ शोकमोहावङ्गीकुर्विति भगवदभिप्रायमर्जुनो ज्ञात्वा तानपश्यदिति सूचयितुं पार्थ इत्युक्तम्। पितृ़न्पितृव्यान्भूरिश्रवआदीन। अथशब्दस्तथाशब्दार्थे। तथा पितामहान्भीष्मप्रमुखान् आचार्यान्द्रोणादीन् मातुलान् शल्यप्रभृतीन् भ्रातृ़न्भीमदुर्योधनाद्यान् पुत्रानभिमन्युलक्ष्मणप्रभृतीन् पौत्रान् लक्ष्मणादिपुत्रान् सखीनश्वत्थामादिकान्।
1.26 तत्र there? अपश्यत् saw? स्थितान् stationed? पार्थः Partha? पितृ़न् fathers? अथ also? पितामहान्grandfathers? आचार्यान् teachers? मातुलान् maternal uncles? भ्रातृ़न् brothers? पुत्रान् sons? पौत्रान् grandsons? सखीन् friends? तथा too.No Commentary.
1.26. Then, Arjuna (son of Pritha) saw there (in the armies) stationed, fathers and grandfathers, teachers, maternal uncles, brothers, sons, grandsons and friends too.
1.26 There Arjuna noticed fathers, grandfathers, uncles, cousins, sons, grandsons, teachers, friends;
1.26 Then Partha (Arjuna) saw, marshalled among both the armies, (his) uncles as also grandfathers, teachers, maternal uncles, brothers (and (cousins), sons, grandsons, as well as comrades and fathers-in-law and friends.
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1.26. Noticing all those kinsmen arrayed [in the army], the son of Kunti was overpowered by unmost compassion; and being despondent, he uttered this:
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.26 Then as Arjuna looked on, he saw standing there fathers and grand-fathers, teachers, uncles, brothers, sons, grandsons and comrades;
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तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृ़नथ पितामहान्। आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ़न्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।1.26।।
তত্রাপশ্যত্স্থিতান্পার্থঃ পিতৃ়নথ পিতামহান্৷ আচার্যান্মাতুলান্ভ্রাতৃ়ন্পুত্রান্পৌত্রান্সখীংস্তথা৷৷1.26৷৷
তত্রাপশ্যত্স্থিতান্পার্থঃ পিতৃ়নথ পিতামহান্৷ আচার্যান্মাতুলান্ভ্রাতৃ়ন্পুত্রান্পৌত্রান্সখীংস্তথা৷৷1.26৷৷
તત્રાપશ્યત્સ્થિતાન્પાર્થઃ પિતૃ઼નથ પિતામહાન્। આચાર્યાન્માતુલાન્ભ્રાતૃ઼ન્પુત્રાન્પૌત્રાન્સખીંસ્તથા।।1.26।।
ਤਤ੍ਰਾਪਸ਼੍ਯਤ੍ਸ੍ਥਿਤਾਨ੍ਪਾਰ੍ਥ ਪਿਤਰਿ਼ਨਥ ਪਿਤਾਮਹਾਨ੍। ਆਚਾਰ੍ਯਾਨ੍ਮਾਤੁਲਾਨ੍ਭ੍ਰਾਤਰਿ਼ਨ੍ਪੁਤ੍ਰਾਨ੍ਪੌਤ੍ਰਾਨ੍ਸਖੀਂਸ੍ਤਥਾ।।1.26।।
ತತ್ರಾಪಶ್ಯತ್ಸ್ಥಿತಾನ್ಪಾರ್ಥಃ ಪಿತೃನಥ ಪಿತಾಮಹಾನ್. ಆಚಾರ್ಯಾನ್ಮಾತುಲಾನ್ಭ್ರಾತೃ್ಪುತ್ರಾನ್ಪೌತ್ರಾನ್ಸಖೀಂಸ್ತಥಾ৷৷1.26৷৷
തത്രാപശ്യത്സ്ഥിതാന്പാര്ഥഃ പിതൃഥ പിതാമഹാന്. ആചാര്യാന്മാതുലാന്ഭ്രാതൃ്പുത്രാന്പൌത്രാന്സഖീംസ്തഥാ৷৷1.26৷৷
ତତ୍ରାପଶ୍ଯତ୍ସ୍ଥିତାନ୍ପାର୍ଥଃ ପିତୃ଼ନଥ ପିତାମହାନ୍| ଆଚାର୍ଯାନ୍ମାତୁଲାନ୍ଭ୍ରାତୃ଼ନ୍ପୁତ୍ରାନ୍ପୌତ୍ରାନ୍ସଖୀଂସ୍ତଥା||1.26||
tatrāpaśyatsthitānpārthaḥ pitṛnatha pitāmahān. ācāryānmātulānbhrātṛnputrānpautrānsakhīṅstathā৷৷1.26৷৷
தத்ராபஷ்யத்ஸ்திதாந்பார்தஃ பிதரி஀நத பிதாமஹாந். ஆசார்யாந்மாதுலாந்ப்ராதரி஀ந்புத்ராந்பௌத்ராந்ஸகீஂஸ்ததா৷৷1.26৷৷
తత్రాపశ్యత్స్థితాన్పార్థః పితృథ పితామహాన్. ఆచార్యాన్మాతులాన్భ్రాతృ్పుత్రాన్పౌత్రాన్సఖీంస్తథా৷৷1.26৷৷
1.27
1
27
।।1.27।। अपनी-अपनी जगह पर स्थित उन सम्पूर्ण बान्धवों को देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरता से युक्त होकर विषाद करते हुए ये वचन बोले।
।।1.27।।इस प्रकार उन सब बन्धु-बान्धवों को खड़े देखकर कुन्ती पुत्र अर्जुन का मन करुणा से भर गया और विषादयुक्त होकर उसने यह कहा।
।।1.27।। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा सेना के दिखाये जाने पर अर्जुन ने शत्रुपक्ष में खड़े अपने सगेसम्बन्धियों को देखा परिवार के ही प्रिय सदस्यों को पहचाना जिनमें भाईभतीजे गुरुजन पितामह और अन्य सभी परिचित एवं सुहृद जन थे। शत्रुपक्ष में ही नहीं वरन् उसने अपनी सेना में भी इसी प्रकार सुपरचित और घनिष्ठ संबंधियों को देखा। संभवत इस दृश्य को देखकर पहली बार एक पारिवारिक कलह के भयंकर दुखदायी परिणाम का अनुमान वह कर सका जिससे उसका अन्तरतम तक हिल गया। एक कर्मशील योद्धा होने के कारण संभवत अब तक उसने यह सोचा भी नहीं था कि अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरी करने और दुर्योधन के अन्यायों का बदला लेने में सम्पूर्ण समाज को किस सीमा तक अपना बलिदान देना होगा।कारण जो कुछ भी रहा हो लेकिन यह स्पष्ट है कि इस दृश्य को देखकर उसका हृदय करुणा और विषाद से भर गया। परन्तु इस समय की उसकी करुणा स्वाभाविक नहीं थी। यदि उसमें करुणा और विषाद की भावनायें गौतम बुद्ध के समान वास्तविक और स्वाभाविक होतीं तो युद्ध के बहुत पूर्व ही वह भिन्न प्रकार का व्यवहार करता। संजय का अर्जुन की इस भावना को करुणा नाम देना उपयुक्त नहीं है। साधारणत मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह अपनी दुर्बलताओं को कोई दैवी गुण बताकर महानता प्राप्त करना चाहता है जैसे कोई धनी व्यक्ति स्वयं के नाम पर मन्दिर निर्माण करता है तोे भी उसको दानी कहते हैं जबकि उसके मन में अपना नाम अमर करने की प्रच्छन्न इच्छा होती है। इसी प्रकार यहाँ भी अर्जुन के मन में विषाद की भावना का उदय उसके मनसंयम के पूर्णतया बिखर जाने के कारण हुआ जिसका गलती से करुणा नाम दिया गया।अर्जुन के मन में असंख्य दमित भावनाओं का एक लम्बा सिलसिला था जो सक्रिय रूप से शक्तिशाली बनकर व्यक्त होने के लिये अवसर की खोज कर रहा था। इस समय अर्जुन के मन तथा बुद्धि परस्पर वियुक्त हो चुके थे क्योंकि स्वयं को सर्वश्रेष्ठ वीर समझने के कारण उसके मन में युद्ध में विजयी होने की प्रबल आतुरता थी। पूर्व की दमित भावनायें और वर्तमान की विजय की व्याकुलता के कारण उसकी विवेक बुद्धि विचलित हो गयी।इस अध्याय में आगे वर्णन है कि अर्जुन एक असंतुलित मानसिक रोगी के समान व्यवहार करने लगता है। गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुनरोग से पीड़ित व्यक्ति के रोग का इतिहास बताने का प्रयत्न किया गया है। जैसा कि मैंने पहले कहा है इस आत्मघातक अर्जुनरोग का रामबाण उपाय श्रीकृष्णोपचार है।
।।1.27।। व्याख्या--'तान् सर्वान्बन्धूनवस्थितान् समीक्ष्य'-- पूर्वश्लोकके अनुसार अर्जुन जिनको देख चुके हैं, उनके अतिरिक्त अर्जुनने बाह्लीक आदि प्रपितामह; धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, सुरथ आदि साले; जयद्रथ आदि बहनोई तथा अन्य कई सम्बन्धियोंको दोनों सेनाओंमें स्थित देखा।  स कौन्तेयः कृपया परयाविष्टः  इन पदोंमें  'स कौन्तेयः कृपया परयाविष्ट:'-- कहनेका तात्पर्य है कि माता कुन्तीने जिनको युद्ध करनेके लिये सन्देश भेजा था और जिन्होंने शूरवीरतामें आकर मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं?'--ऐसे मुख्य-मुख्य योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णको दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेकी आज्ञा दी थी, वे ही कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरतासे युक्त हो जाते हैं! दोनों ही सेनाओंमें जन्मके और विद्याके सम्बन्धी-ही-सम्बन्धी देखनेसे अर्जुनके मनमें यह विचार आया कि युद्धमें चाहे इस पक्षके लोग मरें, चाहे उस पक्षके लोग मरें, नुकसान हमारा ही होगा, कुल तो हमारा ही नष्ट होगा, सम्बन्धी तो हमारे ही मारे जायँगे! ऐसा विचार आनेसे अर्जुनकी युद्धकी इच्छा तो मिट गयी और भीतरमें कायरता आ गयी। इस कायरताको भगवान्ने आगे (2। 23 में) 'कश्मलम्' तथा 'हृदयदौर्बल्यम्' कहा है, और अर्जुनने (2। 7 में) 'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः' कहकर इसको स्वीकार भी किया है। अर्जुन कायरतासे आविष्ट हुए हैं--'कृपयाविष्टः' इससे सिद्ध होता है कि यह कायरता पहले नहीं थी, प्रत्युत अभी आयी है। अतः यह आगन्तुक दोष है। आगन्तुक होनेसे यह ठहरेगी नहीं। परन्तु शूरवीरता अर्जुनमें स्वाभाविक है; अतः वह तो रहेगी ही। अत्यन्त कायरता क्या है? बिना किसी कारण निन्दा, तिरस्कार, अपमान करनेवाले, दुःख देनेवाले, वैरभाव रखनेवाले, नाश करनेकी चेष्टा करनेवाले दुर्योधन ,दुःशासन, शकुनि आदिको अपने सामने युद्ध करनेके लिये खड़े देखकर भी उनको मारनेका विचार न होना, उनका नाश करनेका उद्योग न करना--यह अत्यन्त कायरतारूप दोष है। यहाँ अर्जुनको कायरतारूप दोषने ऐसा घेर लिया है कि जो अर्जुन आदिका अनिष्ट चाहनेवाले और समय-समयपर अनिष्ट करनेका उद्योग करनेवाले हैं, उन अधर्मियों--पापियोंपर भी अर्जुनको करुणा आ रही है (गीता 1। 35 46) और वे क्षत्रियके कर्तव्यरूप अपने धर्मसे च्युत हो रहे हैं।  'विषीदन्निदमब्रवीत्'-- युद्धके परिणाममें कुटुम्बकी, कुलकी, देशकी क्या दशा होगी--इसको लेकर अर्जुन बहुत दुःखी हो रहे हैं और उस अवस्थामें वे ये वचन बोलते हैं, जिसका वर्णन आगेके श्लोकोंमें किया गया है।
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।।1.27।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.27।।सेनाद्वये व्यवस्थितान्यथोक्तान्पितृपितामहादीनालोच्य परमकृपापरवशः सन्नर्जुनो भगवन्तमुक्तवानित्याह  तानिति।  विषीदन्। यथोक्तानां पित्रादीनां हिंसासंरम्भनिबन्धनं विषादमुपतापं कुर्वन्नित्यर्थः।
।।1.26 1.27।।तत्रापश्यत् स्थितान् पार्थः 126 इत्यारभ्यएवमुक्त्वाऽर्जुनः 1।46 इत्यन्तं लोकसम्बन्धाभिमानेन अर्जुनः कातर्यतः स्वावस्थां निवेदयति।
।। 1.27तत्र समरसभारम्भार्थं सैन्यदर्शने भगवताभ्यनुज्ञाते सति सेनयोरूभयोरपि स्थितान्पार्थोऽपश्यदित्यन्वयः। अथशब्दस्तथाशब्दपर्यायः। परसेनायां पितृ़न्पितृव्यान्भूरिश्रवःप्रभृतीन् पितामहान्भीष्मसोमदत्तप्रभृतीन् आचार्यान्द्रोणकृपप्रभृतीन मातुलाञ्शल्यशकुनिप्रभृतीन् भ्रातृ़न्दुर्योधनप्रभृतीन् पुत्रान्लक्ष्मणप्रभृतीन् पौत्रान्लक्ष्मणादिपुत्रान् सखीन् अश्वत्थामजयद्रथप्रभृतीन्वयस्यान् श्वशुरान्भार्याणां जनयितृ़न् सुहृदो मित्राणि कृतवर्मभगदत्तप्रभृतीन्। सुहृद इत्यनेन यावन्तः कृतोपकारा मातामहादयश्च ते द्रष्टव्याः। एंव स्वसेनायामप्युलक्षणीयम्। एवं स्थिते महानधर्मों हिंसेति विपरीतबुद्ध्या मोहाख्यया शास्त्रविहितत्वेन धर्मत्वमिति ज्ञानप्रतिबन्धकेन च ममकारनिबन्धनेन चित्तवैकल्व्येन शोकमोहाख्येनाभिभूतविवेकस्यार्जुनस्य पूर्वमारब्धाद्युद्धाख्यात्स्वधर्मादुपरिरंसा महानर्थपर्यवसायिनी प्रवृत्तेति दर्शयति कौन्तेय इति स्त्रीप्रभत्वकीर्तनं पार्थवत्तादात्विकमूढतामपेक्ष्य कर्त्र्या स्वव्यापारेणैवाविष्टो व्याप्तः नतु कृपां केनचिद्व्यापारेणाविष्ट इति स्वतःसिद्धैवास्य कृपेति सूच्यते। एतत्प्रकटीकरणाय परयेति विशेषणम्। अपरयेति वा छेदः। स्वसैन्ये पुरापि कृपाभूदेव तस्मिन्समये तु कौरवसैन्येऽप्यपरा कृपाभूदित्यर्थः। विषीदन्विषादमुपतापं प्राप्नुवन्नब्रवीदित्युक्तिविषादयोः समकालतां वदन् सगद्गदकण्ठताश्रुपातादि विषादकार्यमुक्तिकाले द्योतयति।
।।1.27।। ततः किं कृतवानित्यत आह  तानिति।  आविष्टो व्याप्तः युक्तः। विषीदन्विशेषेण सीदन्नवसादं ग्लानिं लभमानः।
।। 1.27।।अथाध्यायशेषस्य सङ्कलितार्थमाह स त्विति। तुशब्देन पूर्वोक्तप्रकाराद्दुर्योधनात् वक्ष्यमाणप्रकारविशिष्टस्य पार्थस्य विशेषंस कौन्तेयः इत्यनेनाभिप्रेतं द्योतयति। बन्धुव्यपदेशमात्रयोग्यशत्रुवधानिच्छया विजयादिकं त्रैलोक्यराज्यावधिकमपि तृणाय मन्यत इतिमहामना इत्युक्तम्।न काङ्क्षे विजयम् 1।31 इत्यादिकं हि वदति। शत्रूणामप्यसौ दुःखं न सहत इतिपरमकारुणिकत्वोक्तिःकृपया परयाऽऽविष्टः इति ह्युक्तम्।पितृ़नथ पितामहान्आचार्याः पितरः पुत्राः 1।34 इत्याद्युक्तस्नेहविषयप्राचुर्यंदीर्घबन्धुशब्देनोक्तम् यद्वा बन्धुना महापकारे कृतेऽपि स्वयं न शिथिलबन्धो भवतीति भावः।सर्वान्बन्धून्स्वजनं हि 1।37 इत्यादिकमिह भाव्यम्। आततायिपक्षस्थानामप्याचार्यादीनां अहन्तव्यत्वानुसन्धानात् कुलक्षयादिजनिताधर्मपारम्पर्यदर्शनाच्चपरमधार्मिक इत्युक्तिः। आततायिवधानुज्ञानमाचार्यादिव्यतिरिक्तविषयम् इत्यर्जुनस्य भावः।सभ्रातृक इति नायमेक एवैवंविधः किन्तु सर्वेऽपि पाण्डवा इति भावः। एतेनअस्मान्नःवयम्अस्माभिः इत्यादिभिरुक्तं संगृहीतम्। यद्वा न केवलं स्वापकारमात्रानादरादेष बन्धुवधादिकमुपेक्षते अपितु आसन्नतराचार्यादिस्थानीयबहुमतिस्नेहदयादिविषयधर्मराजद्रौपद्याद्यपकारेऽपीति भावः। आचार्यादिवधदोषो भ्रातृ़णामपि मा भूदित्यर्जुनाभिप्रायः। हन्तव्यत्वसूचनायघ्नतोऽपि 1।35 इत्युक्तम्। तद्विवृणोति भवद्भिरित्यादिना।जतुगृहदाहादिभिरित्यादिना आततायिशब्दोऽपि व्याख्यातः।अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।। मनुः 8।350.क्षे.23आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन मनुः8।351 इति हि स्मरन्ति। आदिशब्देनासकृच्छब्देन चाततायित्वहेतवः प्रत्येकं बहुशः कृताः न चेदानीमप्युपरतमिति दर्शितम्। अनुपरतिश्चघ्नतोऽपि 1।1।14 इति वर्तमाननिर्देशेन सूचिता।भवद्भिरित्यनेन धृतराष्ट्रमपिमुह्यन्तमनुमुह्यामि दुर्योधनममर्षणम् म.भा.1।1।145 इति पुत्रस्नेहवशादनुमन्तारं तत्तुल्यं व्यपदिशति। एवं च दुर्योधनादीनां सर्वेषामप्यतिलोभोपहतचेतस्त्वादिना महामना इत्युक्तविपरीतत्वमुक्तं भवति। शकुनिकर्णादिसहायानां धार्तराष्ट्रादीनां हनिष्यमाणानामपि हतत्वनिश्चयेन शोकोत्पत्त्यर्थमुक्तंपरमपुरुषेति। परमपुरुषः सहायो यस्येति विग्रहः परमपुरुषस्य सहायो निमित्तमात्रमिति वा। वक्ष्यति हि मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् 11।33 इति अर्जुनश्च पूर्वं महाबलसहस्रेभ्योऽपि निरायुधस्य परमपुरुषस्य सन्निधिमात्रमेव विजयहेतुतया निश्चित्य तमेव वव्रे। स्नेहाद्यस्थानत्वसूचनायभवदीयान्विलोक्येत्युक्तम्।बन्धुस्नेहेनेत्यादि न ह्यसौ दुर्योधनवत् बन्धुद्वेषनृशंसत्वप्रतिभटभयादिना विषण्णः नापि परेषां गुणान्निवर्तते न च परमपुरुषसचिवस्य स्वस्य दौर्बल्यादिति भावः।सीदन्ति 1।28 इत्यादेःमनः 1।30 इत्यन्तस्यार्थः अतिमात्रेत्यादिना संगृहीतः। सखीन् वयस्यान्। सुहृदः वयोविशेषानपेक्षया हितैषिणः।सेनयोरुभयोरपि एकै स्यां सेनायामेते सर्वे प्रायशो विद्यन्त इति भावः। समीक्ष्य शास्त्रलोकयात्रायुक्तमवलोक्येत्यर्थः।सर्वान्बन्धून् न ह्यत्रानागतः कश्चिद्बन्धुरवशिष्यत इति भावः।
।।1.27।।तत्पाश्र्वेऽपि स्थित्वा स्वश्रेयो विचारकांस्तान्दृष्ट्वा किं कृतवान् इत्यत आह तानिति। तान् समीक्ष्य कौन्तेयः विषीदन् इदमग्रे वक्ष्यमाणमब्रवीत्। ननु क्षत्ित्रयाणां युद्धोत्सवं दृष्ट्वोत्साह एवोचितः अर्जुनस्य कथं विषादो जायते इत्यत आह कृपया परयाऽऽविष्ट इति। परया भक्तिरूपया कृपया आविष्टःसर्वभूतेषु यः पश्येत् भाग.11।2।45 इत्यादिरूपया। ननु तथासति राज्यापगमे लोकरक्षा न भविष्यतीति तत्रापि सा मे कथमाविर्भूतेत्यत आह बन्धून् इति। तेऽपि स्वबान्धवा राज्यरक्षणसमर्थाः स्वयं तु भगवच्चरणैकतत्पर इति।
।।1.27।।सुहृदः कृतवर्मादीन्।
।।1.27।।श्वशुरान्द्रुपदादीन् सुहृदः सात्यकिकृतवर्मप्रभृतीन्। ततः किं कृतवानित्यपेक्षायामाह  तानिति।  तान्पितृपितामहादीन्बन्धून्सेनयोरुभयोर्मध्ये युयुत्सूनवस्थितान्समीक्ष्य सम्यग्दृष्ट्वेदमब्रवीदित्यन्वयः। भगवदाज्ञया बन्धून्दृष्ट्वा शोकमोहावर्जुनेन गृहीताविति कौन्तेयपदेन सूचितम्।
1.27 श्वशुरान् fathersinlaw? सुहृदः friends? च and? एव also? सेनयोः in armies? उभयोः (in) both? अपि also? तान् those? समीक्ष्य having seen? सः he? कौन्तेयः Kaunteya? सर्वान् all? बन्धून् relatives? अवस्थितान् standing (arrayed)? कृपया by pity? परया deep? आविष्टः filled? विषीदन् sorrowfully? इदम् this? अब्रवीत् said.No Commentary.
1.27. (He saw) fathers-in-law and friends also in both the armies. The son of Kunti, Arjuna, seeing all those kinsmen thus standing arrayed, spoke this, sorrowfully filled with deep pity.
1.27 Fathers-in-law and benefactors, arrayed on both sides. Arjuna then gazed at all those kinsmen before him.
1.27 The son of Kunti (Ajuna), seeing all those rlatives arrayed (there), became overwhelmed by supreme compassion and said this sorrowfully:
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1.27. Arjuna Said O krsna! On seeing these war-mongering kinsfolks of my own, arrayed [in the armies], my limbs fail and my mouth goes dry;
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.27 Fathers-in-law and dear friends in both armies. When Arjuna saw all these kinsmen in array,
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श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि। तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।1.27।।
শ্বশুরান্সুহৃদশ্চৈব সেনযোরুভযোরপি৷ তান্সমীক্ষ্য স কৌন্তেযঃ সর্বান্বন্ধূনবস্থিতান্৷৷1.27৷৷
শ্বশুরান্সুহৃদশ্চৈব সেনযোরুভযোরপি৷ তান্সমীক্ষ্য স কৌন্তেযঃ সর্বান্বন্ধূনবস্থিতান্৷৷1.27৷৷
શ્વશુરાન્સુહૃદશ્ચૈવ સેનયોરુભયોરપિ। તાન્સમીક્ષ્ય સ કૌન્તેયઃ સર્વાન્બન્ધૂનવસ્થિતાન્।।1.27।।
ਸ਼੍ਵਸ਼ੁਰਾਨ੍ਸੁਹਰਿਦਸ਼੍ਚੈਵ ਸੇਨਯੋਰੁਭਯੋਰਪਿ। ਤਾਨ੍ਸਮੀਕ੍ਸ਼੍ਯ ਸ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਸਰ੍ਵਾਨ੍ਬਨ੍ਧੂਨਵਸ੍ਥਿਤਾਨ੍।।1.27।।
ಶ್ವಶುರಾನ್ಸುಹೃದಶ್ಚೈವ ಸೇನಯೋರುಭಯೋರಪಿ. ತಾನ್ಸಮೀಕ್ಷ್ಯ ಸ ಕೌನ್ತೇಯಃ ಸರ್ವಾನ್ಬನ್ಧೂನವಸ್ಥಿತಾನ್৷৷1.27৷৷
ശ്വശുരാന്സുഹൃദശ്ചൈവ സേനയോരുഭയോരപി. താന്സമീക്ഷ്യ സ കൌന്തേയഃ സര്വാന്ബന്ധൂനവസ്ഥിതാന്৷৷1.27৷৷
ଶ୍ବଶୁରାନ୍ସୁହୃଦଶ୍ଚୈବ ସେନଯୋରୁଭଯୋରପି| ତାନ୍ସମୀକ୍ଷ୍ଯ ସ କୌନ୍ତେଯଃ ସର୍ବାନ୍ବନ୍ଧୂନବସ୍ଥିତାନ୍||1.27||
śvaśurānsuhṛdaścaiva sēnayōrubhayōrapi. tānsamīkṣya sa kauntēyaḥ sarvānbandhūnavasthitān৷৷1.27৷৷
ஷ்வஷுராந்ஸுஹரிதஷ்சைவ ஸேநயோருபயோரபி. தாந்ஸமீக்ஷ்ய ஸ கௌந்தேயஃ ஸர்வாந்பந்தூநவஸ்திதாந்৷৷1.27৷৷
శ్వశురాన్సుహృదశ్చైవ సేనయోరుభయోరపి. తాన్సమీక్ష్య స కౌన్తేయః సర్వాన్బన్ధూనవస్థితాన్৷৷1.27৷৷
1.28
1
28
।।1.28 -- 1.30।। अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ।
।।1.28 1.29।।अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं, मुख भी सूख रहा है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच हो रहा है।।
।।1.28।। मनसंभ्रम के कारण मानसिक रोगी के शरीर में उत्पन्न होने वाले लक्षणों को यहाँ विस्तार से बताया गया है। जिसे संजय ने करुणा कहा थाउसकी वास्तविकता स्वयं अर्जुन के शब्दों से स्पष्ट ज्ञात होती है। वह कहता है इन स्वजनों को देखकर . मेरे अंग कांपते हैं. इत्यादि।आधुनिक मनोविज्ञान में एक व्याकुल असन्तुलित रोगी व्यक्ति के उपर्युक्त लक्षणों वाले रोग का नाम चिन्ताजनित नैराश्य की स्थिति दिया गया है।
।।1.28।। व्याख्या--'दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्'--अर्जुनको  'कृष्ण' नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन गीतामें नौ बार आया है। भगवान् श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान्को अर्जुनका  'पार्थ'  नाम बहुत प्यारा था। इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टिसे सञ्जयने गीताके अन्तमें  'कृष्ण' और 'पार्थ'  नामका उल्लेख किया है  'यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः'  (18। 78)। धृतराष्ट्रने पहले 'समवेता युयुत्सवः'  कहा था और यहाँ अर्जुनने भी  'युयुत्सुं समुपस्थितम्' कहा है; परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा अन्तर है। धृतराष्ट्रकी दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं--ऐसा भेद है; अतः धृतराष्ट्रने वहाँ  'मामकाः' और  'पाण्डवाः'  कहा है। परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह भेद नहीं है, अतः अर्जुनने यहाँ 'स्वजनम्' कहा है, जिसमें दोनों पक्षके लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है, शोक है; परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी। अबतक 'दृष्ट्वा' पद तीन बार आया है  'दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्' (1। 2) 'व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्' (1। 20) और यहाँ 'दृष्ट्वेमं स्वजनम्' (1। 28)। इन तीनोंका तात्पर्य है कि दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक भाव रहा; परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनोंको देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं, युद्धसे उपरत हो रहे हैं और उनके हाथसे धनुष गिर रहा है।  'सीदन्ति मम गात्राणि ৷৷. भ्रमतीव च मे मनः'--  अर्जुनके मनमें युद्धके भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःखका असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है। उसी असरको अर्जुन स्पष्ट शब्दोंमें कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुषकी प्रत्यञ्चाकी टङ्कारसे शत्रु भयभीत हो जाते हैं वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है! त्वचामें--सारे शरीरमें जलन हो रही है  (टिप्पणी प0 22.1) । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये--यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।  सम्बन्ध--  पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं।
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।।1.28।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.28।।तदेवेदंशब्दवाच्यं वचनमुदाहरति  दृष्ट्वेति।  आत्मीयं बन्धुवर्गं युद्धेच्छया युद्धभूमावुपस्थितमुपलभ्य शोकप्रवृत्तिं दर्शयति  सीदन्तीति।  देवांशस्यैवार्जुनस्यानात्मविदः स्वपरदेहेष्वात्मानात्मीयाभिमानवतस्तत्प्रियस्य युद्धारम्भे तन्मृत्युप्रसङ्गदर्शिनः शोको महानासीदित्यर्थः।
।।1.28 1.30।।सीदन्ति इत्युपक्रम्यभ्रमतीव च मे मनः इत्यन्तं देहधर्माभिमानेन विषयदर्शनपूर्वकं स्वस्याश्रयो निवेदयतिनिमित्तानि इत्यादिना।
।।1.28।।तदेव भगवन्तं प्रत्यर्जुनवाक्यमवतारयति संजयःअर्जुन उवाचेत्यादिनाएवमुक्त्वार्जुनः संख्ये इत्यतः प्राक्तनेन ग्रन्थेन। तत्र स्वधर्मप्रवृक्तिकारणीभूततत्त्वज्ञानप्रतिबन्धकः स्वपरदेहे आत्मात्मीयाभिभानवतोऽनात्मविदोऽर्जुनस्य युद्धेन स्वपरदेहविनाशप्रसङ्गदर्शिनः शोको महानासीदति तल्लिङ्गकथनेन दर्शयति त्रिभिः श्लोकैः। इमं स्वजनमात्मीयं बन्धुवर्गं युद्धेच्छुं युद्धभूमौ चोपस्थितं दृष्ट्वा स्थितस्य मम। पश्यतो ममेत्यर्थः। अङ्गानि व्यथन्ते मुखं च परिशुष्यतीति श्रमादिनिमित्तशोकापेक्षयातिशयकथनाय सर्वतोभाववाचिपरिशब्दप्रयोगः।
।।1.28।।  किमब्रवीदित्यपेक्षायामाह  दृष्ट्वेममित्यादि  यावदध्यायसमाप्ति। हे कृष्ण योद्धुमिच्छन्तं पुरतः सम्यगवस्थितमिमं बन्धुजनं दृष्ट्वा मदीयानि गात्राणि करचरणादीनि सीदन्ति विशीर्यन्ते। किंच मुखं परि समंताच्छुष्यति निर्द्रवीभवति।
।। 1.28।।अथाध्यायशेषस्य सङ्कलितार्थमाह स त्विति। तुशब्देन पूर्वोक्तप्रकाराद्दुर्योधनात् वक्ष्यमाणप्रकारविशिष्टस्य पार्थस्य विशेषंस कौन्तेयः इत्यनेनाभिप्रेतं द्योतयति। बन्धुव्यपदेशमात्रयोग्यशत्रुवधानिच्छया विजयादिकं त्रैलोक्यराज्यावधिकमपि तृणाय मन्यत इतिमहामना इत्युक्तम्।न काङ्क्षे विजयम् 1।31 इत्यादिकं हि वदति। शत्रूणामप्यसौ दुःखं न सहत इतिपरमकारुणिकत्वोक्तिःकृपया परयाऽऽविष्टः इति ह्युक्तम्।पितृ़नथ पितामहान्आचार्याः पितरः पुत्राः 1।34 इत्याद्युक्तस्नेहविषयप्राचुर्यंदीर्घबन्धुशब्देनोक्तम् यद्वा बन्धुना महापकारे कृतेऽपि स्वयं न शिथिलबन्धो भवतीति भावः।सर्वान्बन्धून्स्वजनं हि 1।37 इत्यादिकमिह भाव्यम्। आततायिपक्षस्थानामप्याचार्यादीनां अहन्तव्यत्वानुसन्धानात् कुलक्षयादिजनिताधर्मपारम्पर्यदर्शनाच्चपरमधार्मिक इत्युक्तिः। आततायिवधानुज्ञानमाचार्यादिव्यतिरिक्तविषयम् इत्यर्जुनस्य भावः।सभ्रातृक इति नायमेक एवैवंविधः किन्तु सर्वेऽपि पाण्डवा इति भावः। एतेनअस्मान्नःवयम्अस्माभिः इत्यादिभिरुक्तं संगृहीतम्। यद्वा न केवलं स्वापकारमात्रानादरादेष बन्धुवधादिकमुपेक्षते अपितु आसन्नतराचार्यादिस्थानीयबहुमतिस्नेहदयादिविषयधर्मराजद्रौपद्याद्यपकारेऽपीति भावः। आचार्यादिवधदोषो भ्रातृ़णामपि मा भूदित्यर्जुनाभिप्रायः। हन्तव्यत्वसूचनायघ्नतोऽपि 1।35 इत्युक्तम्। तद्विवृणोति भवद्भिरित्यादिना।जतुगृहदाहादिभिरित्यादिना आततायिशब्दोऽपि व्याख्यातः।अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।। मनुः 8।350.क्षे.23आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन मनुः8।351 इति हि स्मरन्ति। आदिशब्देनासकृच्छब्देन चाततायित्वहेतवः प्रत्येकं बहुशः कृताः न चेदानीमप्युपरतमिति दर्शितम्। अनुपरतिश्चघ्नतोऽपि 1।1।14 इति वर्तमाननिर्देशेन सूचिता।भवद्भिरित्यनेन धृतराष्ट्रमपिमुह्यन्तमनुमुह्यामि दुर्योधनममर्षणम् म.भा.1।1।145 इति पुत्रस्नेहवशादनुमन्तारं तत्तुल्यं व्यपदिशति। एवं च दुर्योधनादीनां सर्वेषामप्यतिलोभोपहतचेतस्त्वादिना महामना इत्युक्तविपरीतत्वमुक्तं भवति। शकुनिकर्णादिसहायानां धार्तराष्ट्रादीनां हनिष्यमाणानामपि हतत्वनिश्चयेन शोकोत्पत्त्यर्थमुक्तंपरमपुरुषेति। परमपुरुषः सहायो यस्येति विग्रहः परमपुरुषस्य सहायो निमित्तमात्रमिति वा। वक्ष्यति हि मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् 11।33 इति अर्जुनश्च पूर्वं महाबलसहस्रेभ्योऽपि निरायुधस्य परमपुरुषस्य सन्निधिमात्रमेव विजयहेतुतया निश्चित्य तमेव वव्रे। स्नेहाद्यस्थानत्वसूचनायभवदीयान्विलोक्येत्युक्तम्।बन्धुस्नेहेनेत्यादि न ह्यसौ दुर्योधनवत् बन्धुद्वेषनृशंसत्वप्रतिभटभयादिना विषण्णः नापि परेषां गुणान्निवर्तते न च परमपुरुषसचिवस्य स्वस्य दौर्बल्यादिति भावः।सीदन्ति 1।28 इत्यादेःमनः 1।30 इत्यन्तस्यार्थः अतिमात्रेत्यादिना संगृहीतः। सखीन् वयस्यान्। सुहृदः वयोविशेषानपेक्षया हितैषिणः।सेनयोरुभयोरपि एकै स्यां सेनायामेते सर्वे प्रायशो विद्यन्त इति भावः। समीक्ष्य शास्त्रलोकयात्रायुक्तमवलोक्येत्यर्थः।सर्वान्बन्धून् न ह्यत्रानागतः कश्चिद्बन्धुरवशिष्यत इति भावः।
।।1.28।।तथाभूतोऽर्जुनो वाक्यान्याह दृष्ट्वेममिति। हे कृष्ण इमं युयुत्सुं योद्धुकामं समुपस्थितं सम्यक्प्रकारेणोपस्थितमनिवर्तिनं स्वजनं दृष्ट्वा मम गात्राणि सर्वाङ्गानि सीदन्ति विशीर्यन्ते मुखं च परितः बाह्याभ्यन्तरभेदेनेत्यर्थः।
।।1.28।।कृपया स्नेहेन। स च स्वजनमिति विशेषणेन प्रदर्श्यते।
।।1.28।।परया कृपया स्नेहजन्यकरुणयाविष्टो व्याप्तः सन्नहो एते पित्रादयो बन्धवों मरिष्यन्तीति विषादमुपतापं कूर्वन्निदं वक्ष्यमाणमब्रवीदुक्तवानित्यर्थः। तदेवेदंशब्दवाच्यं वचनमुदाहरति  दृष्ट्वेति।  इमं प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानं स्वजनं स्वसंबन्धिवर्गं युयुत्सुं युद्धेच्छुं समुपस्थितं सभ्यग्युद्धभूमावुपस्थितं नतु साधारणयुयुत्सया साधारणमागतं दृष्ट्वोपलभ्य सीदन्तीति परेणान्वयः।
1.28 दृष्ट्वा having seen? इमम् these? स्वजनम् kinsmen? कृष्ण O Krishna (the dark one? He who attracts)? युयुत्सुम् eager to fight? समुपस्थितम् arrayed.No Commentary.
1.28. Arjuna said Seeing these, my kinsmen, O krishna, arrayed, eager to fight.
1.28 And his heart melted with pity and sadly he spoke: O my Lord! When I see all these, my own people, thirsting for battle,
1.28 Arjuna said O Krsna, seeing these relatives and friends who have assembled here with the intention of fighting, my limbs become languid and my mouth becomes completely dry.
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1.28. Shivering and horripilation arise in my body; the Gandiva (the bow) slips from my hand and my skin also burns all over.
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.28 He was filled with deep compassion and said these words in despair :...
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अर्जुन उवाच कृपया परयाऽऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्। दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।।1.28।।
অর্জুন উবাচ কৃপযা পরযাবিষ্টো বিষীদন্নিদমব্রবীত্৷ দৃষ্ট্বেমং স্বজনং কৃষ্ণ যুযুত্সুং সমুপস্থিতম্৷৷1.28৷৷
অর্জুন উবাচ কৃপযা পরযাবিষ্টো বিষীদন্নিদমব্রবীত্৷ দৃষ্ট্বেমং স্বজনং কৃষ্ণ যুযুত্সুং সমুপস্থিতম্৷৷1.28৷৷
અર્જુન ઉવાચ કૃપયા પરયાવિષ્ટો વિષીદન્નિદમબ્રવીત્। દૃષ્ટ્વેમં સ્વજનં કૃષ્ણ યુયુત્સું સમુપસ્થિતમ્।।1.28।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਕਰਿਪਯਾ ਪਰਯਾਵਿਸ਼੍ਟੋ ਵਿਸ਼ੀਦਨ੍ਨਿਦਮਬ੍ਰਵੀਤ੍। ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵੇਮਂ ਸ੍ਵਜਨਂ ਕਰਿਸ਼੍ਣ ਯੁਯੁਤ੍ਸੁਂ ਸਮੁਪਸ੍ਥਿਤਮ੍।।1.28।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಕೃಪಯಾ ಪರಯಾವಿಷ್ಟೋ ವಿಷೀದನ್ನಿದಮಬ್ರವೀತ್. ದೃಷ್ಟ್ವೇಮಂ ಸ್ವಜನಂ ಕೃಷ್ಣ ಯುಯುತ್ಸುಂ ಸಮುಪಸ್ಥಿತಮ್৷৷1.28৷৷
അര്ജുന ഉവാച കൃപയാ പരയാവിഷ്ടോ വിഷീദന്നിദമബ്രവീത്. ദൃഷ്ട്വേമം സ്വജനം കൃഷ്ണ യുയുത്സും സമുപസ്ഥിതമ്৷৷1.28৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ କୃପଯା ପରଯାବିଷ୍ଟୋ ବିଷୀଦନ୍ନିଦମବ୍ରବୀତ୍| ଦୃଷ୍ଟ୍ବେମଂ ସ୍ବଜନଂ କୃଷ୍ଣ ଯୁଯୁତ୍ସୁଂ ସମୁପସ୍ଥିତମ୍||1.28||
arjuna uvāca kṛpayā parayā৷৷viṣṭō viṣīdannidamabravīt. dṛṣṭvēmaṅ svajanaṅ kṛṣṇa yuyutsuṅ samupasthitam৷৷1.28৷৷
அர்ஜுந உவாச கரிபயா பரயாவிஷ்டோ விஷீதந்நிதமப்ரவீத். தரிஷ்ட்வேமஂ ஸ்வஜநஂ கரிஷ்ண யுயுத்ஸுஂ ஸமுபஸ்திதம்৷৷1.28৷৷
అర్జున ఉవాచ కృపయా పరయావిష్టో విషీదన్నిదమబ్రవీత్. దృష్ట్వేమం స్వజనం కృష్ణ యుయుత్సుం సముపస్థితమ్৷৷1.28৷৷
1.29
1
29
।।1.28 -- 1.30।। अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ।
।।1.28 1.29।।अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण !  युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं,  मुख भी सूख रहा है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच हो रहा है।
।।1.29।। मनसंभ्रम के कारण मानसिक रोगी के शरीर में उत्पन्न होने वाले लक्षणों को यहाँ विस्तार से बताया गया है। जिसे संजय ने करुणा कहा थाउसकी वास्तविकता स्वयं अर्जुन के शब्दों से स्पष्ट ज्ञात होती है। वह कहता है इन स्वजनों को देखकर ৷৷৷৷৷৷.मेरे अंग कांपते हैं৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. इत्यादि।आधुनिक मनोविज्ञान में एक व्याकुल असन्तुलित रोगी व्यक्ति के उपर्युक्त लक्षणों वाले रोग का नाम चिन्ताजनित नैराश्य की स्थिति दिया गया है।
।।1.29।। व्याख्या--'दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्'--अर्जुनको 'कृष्ण' नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन गीतामें नौ बार आया है। भगवान् श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान्को अर्जुनका  पार्थ'  नाम बहुत प्यारा था। इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टिसे सञ्जयने गीताके अन्तमें 'कृष्ण' और 'पार्थ' नामका उल्लेख किया है 'यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः' (18। 78)। धृतराष्ट्रने पहले  'समवेता युयुत्सवः' कहा था और यहाँ अर्जुनने भी 'युयुत्सुं समुपस्थितम्' कहा है; परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा अन्तर है। धृतराष्ट्रकी दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं--ऐसा भेद है; अतः धृतराष्ट्रने वहाँ  'मामकाः' और  'पाण्डवाः'  कहा है। परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह भेद नहीं है; अतः अर्जुनने यहाँ  'स्वजनम्'  कहा है, जिसमें दोनों पक्षके लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है, शोक है; परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी। अबतक 'दृष्ट्वा' पद तीन बार आया है  'दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्' (1। 2), 'व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्' (1। 20) और यहाँ 'दृष्ट्वेमं स्वजनम्' (1। 28)। इन तीनोंका तात्पर्य है कि दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक भाव रहा; परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनोंको देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं युद्धसे उपरत हो रहे हैं और उनके हाथसे धनुष गिर रहा है।  'सीदन्ति मम गात्राणि ৷৷. भ्रमतीव च मे मनः'-- अर्जुनके मनमें युद्धके भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःखका असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है। उसी असरको अर्जुन स्पष्ट शब्दोंमें कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुषकी प्रत्यञ्चाकी टङ्कारसे शत्रु भयभीत हो जाते हैं, वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है त्वचामें सारे शरीरमें जलन हो रही है  (टिप्पणी प0 22.1) । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये--यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।  सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं।
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।।1.29।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.29।।अङ्गेषु व्यथा मुखे परिशोषश्चेत्युभयं शोकलिङ्गमुक्तम् संप्रति वेपथुप्रभृतीनि भीतिलिङ्गान्युपन्यस्यति  वेपथुश्चेति।  रोमहर्षो रोम्णां गात्रेषु पुलकितत्वम्।
।।1.28 1.30।।सीदन्ति इत्युपक्रम्यभ्रमतीव च मे मनः इत्यन्तं देहधर्माभिमानेन विषयदर्शनपूर्वकं स्वस्याश्रयो निवेदयतिनिमित्तानि इत्यादिना।
।।1.29।।वेपथुः कम्पः। रोमहर्षः पुलकितत्वम्। गाण्डीवभ्रंशेनाधैर्यलक्षणं दौर्बल्यम्। त्वक्परिदाहेन चान्तःसन्तापो दर्शितः।
।।1.29।।  किंच  वेपथुश्चेति।  वेपथुः कम्पः। रोमहर्षो रोमाञ्चः। स्रंसते निपतति। परिदह्यते सर्वतः संतप्यते।
।। 1.29।।अथाध्यायशेषस्य सङ्कलितार्थमाह स त्विति। तुशब्देन पूर्वोक्तप्रकाराद्दुर्योधनात् वक्ष्यमाणप्रकारविशिष्टस्य पार्थस्य विशेषंस कौन्तेयः इत्यनेनाभिप्रेतं द्योतयति। बन्धुव्यपदेशमात्रयोग्यशत्रुवधानिच्छया विजयादिकं त्रैलोक्यराज्यावधिकमपि तृणाय मन्यत इतिमहामना इत्युक्तम्।न काङ्क्षे विजयम् 1।31 इत्यादिकं हि वदति। शत्रूणामप्यसौ दुःखं न सहत इतिपरमकारुणिकत्वोक्तिःकृपया परयाऽऽविष्टः इति ह्युक्तम्।पितृ़नथ पितामहान्आचार्याः पितरः पुत्राः 1।34 इत्याद्युक्तस्नेहविषयप्राचुर्यंदीर्घबन्धुशब्देनोक्तम् यद्वा बन्धुना महापकारे कृतेऽपि स्वयं न शिथिलबन्धो भवतीति भावः।सर्वान्बन्धून्स्वजनं हि 1।37 इत्यादिकमिह भाव्यम्। आततायिपक्षस्थानामप्याचार्यादीनां अहन्तव्यत्वानुसन्धानात् कुलक्षयादिजनिताधर्मपारम्पर्यदर्शनाच्चपरमधार्मिक इत्युक्तिः। आततायिवधानुज्ञानमाचार्यादिव्यतिरिक्तविषयम् इत्यर्जुनस्य भावः।सभ्रातृक इति नायमेक एवैवंविधः किन्तु सर्वेऽपि पाण्डवा इति भावः। एतेनअस्मान्नःवयम्अस्माभिः इत्यादिभिरुक्तं संगृहीतम्। यद्वा न केवलं स्वापकारमात्रानादरादेष बन्धुवधादिकमुपेक्षते अपितु आसन्नतराचार्यादिस्थानीयबहुमतिस्नेहदयादिविषयधर्मराजद्रौपद्याद्यपकारेऽपीति भावः। आचार्यादिवधदोषो भ्रातृ़णामपि मा भूदित्यर्जुनाभिप्रायः। हन्तव्यत्वसूचनायघ्नतोऽपि 1।35 इत्युक्तम्। तद्विवृणोति भवद्भिरित्यादिना।जतुगृहदाहादिभिरित्यादिना आततायिशब्दोऽपि व्याख्यातः।अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।। मनुः 8।350.क्षे.23आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन मनुः8।351 इति हि स्मरन्ति। आदिशब्देनासकृच्छब्देन चाततायित्वहेतवः प्रत्येकं बहुशः कृताः न चेदानीमप्युपरतमिति दर्शितम्। अनुपरतिश्चघ्नतोऽपि 1।1।14 इति वर्तमाननिर्देशेन सूचिता।भवद्भिरित्यनेन धृतराष्ट्रमपिमुह्यन्तमनुमुह्यामि दुर्योधनममर्षणम् म.भा.1।1।145 इति पुत्रस्नेहवशादनुमन्तारं तत्तुल्यं व्यपदिशति। एवं च दुर्योधनादीनां सर्वेषामप्यतिलोभोपहतचेतस्त्वादिना महामना इत्युक्तविपरीतत्वमुक्तं भवति। शकुनिकर्णादिसहायानां धार्तराष्ट्रादीनां हनिष्यमाणानामपि हतत्वनिश्चयेन शोकोत्पत्त्यर्थमुक्तंपरमपुरुषेति। परमपुरुषः सहायो यस्येति विग्रहः परमपुरुषस्य सहायो निमित्तमात्रमिति वा। वक्ष्यति हि मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् 11।33 इति अर्जुनश्च पूर्वं महाबलसहस्रेभ्योऽपि निरायुधस्य परमपुरुषस्य सन्निधिमात्रमेव विजयहेतुतया निश्चित्य तमेव वव्रे। स्नेहाद्यस्थानत्वसूचनायभवदीयान्विलोक्येत्युक्तम्।बन्धुस्नेहेनेत्यादि न ह्यसौ दुर्योधनवत् बन्धुद्वेषनृशंसत्वप्रतिभटभयादिना विषण्णः नापि परेषां गुणान्निवर्तते न च परमपुरुषसचिवस्य स्वस्य दौर्बल्यादिति भावः।सीदन्ति 1।28 इत्यादेःमनः 1।30 इत्यन्तस्यार्थः अतिमात्रेत्यादिना संगृहीतः। सखीन् वयस्यान्। सुहृदः वयोविशेषानपेक्षया हितैषिणः।सेनयोरुभयोरपि एकै स्यां सेनायामेते सर्वे प्रायशो विद्यन्त इति भावः। समीक्ष्य शास्त्रलोकयात्रायुक्तमवलोक्येत्यर्थः।सर्वान्बन्धून् न ह्यत्रानागतः कश्चिद्बन्धुरवशिष्यत इति भावः।
।।1.29।।वेपथुश्चेति एतत्सर्वं भवति।
।।1.29।।सीदन्ति निश्चेष्टानि भवन्ति। रोमहर्षो रोमाञ्चः।
।।1.29।।हे कृष्णेति संबोधयन् यल्लोकोपकाराय मदीयज्ञानापकर्षणं त्वयां तन्मया बुद्धमिति गूढाभिसंधि सूचयति। आत्मतत्त्वापरिज्ञानकृताहंकारममकारोत्थयोः शोकमोहयोः लिङ्गानि स्वस्मिन्दर्शयति  सीदन्तीत्यादिना।  मम युयुत्सुं स्वजनं दृष्ट्वा एते मरिष्यन्तीति शोकेनाविष्टस्य व्याकुलचित्तस्य गात्राण्यङ्गानि सीदन्ति शिथिलानि भवन्ति। वेपुथः कम्पः। रोमहर्षो रोमाञ्चः।
1.29 सीदन्ति fail? मम my? गात्राणि limbs? मुखम् mouth? च and? परिशुष्यति is parching? वेपथुः shivering? च and? शरीरे in body? मे my? रोमहर्षः horripilation? च and? जायते arises.No Commentary.
1.29. My limbs fail and my mouth is parched, my body ivers and my hair stands on end.
1.29 My limbs fail me and my throat is parched, my body trembles and my hair stands on end.
1.29 And there is trembling in my body, and there is horripillation; the Gandiva (bow) slips from the hand and even the skin burns intensely.
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1.29. I am unable even to stand steady; and my mind seems to be confused; and I see adverse omens, O Kesava!
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.29 My limbs are weakened, my mouth gets parched, my body trembles and my hairs stand erect.
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सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति। वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।1.29।।
সীদন্তি মম গাত্রাণি মুখং চ পরিশুষ্যতি৷ বেপথুশ্চ শরীরে মে রোমহর্ষশ্চ জাযতে৷৷1.29৷৷
সীদন্তি মম গাত্রাণি মুখং চ পরিশুষ্যতি৷ বেপথুশ্চ শরীরে মে রোমহর্ষশ্চ জাযতে৷৷1.29৷৷
સીદન્તિ મમ ગાત્રાણિ મુખં ચ પરિશુષ્યતિ। વેપથુશ્ચ શરીરે મે રોમહર્ષશ્ચ જાયતે।।1.29।।
ਸੀਦਨ੍ਤਿ ਮਮ ਗਾਤ੍ਰਾਣਿ ਮੁਖਂ ਚ ਪਰਿਸ਼ੁਸ਼੍ਯਤਿ। ਵੇਪਥੁਸ਼੍ਚ ਸ਼ਰੀਰੇ ਮੇ ਰੋਮਹਰ੍ਸ਼ਸ਼੍ਚ ਜਾਯਤੇ।।1.29।।
ಸೀದನ್ತಿ ಮಮ ಗಾತ್ರಾಣಿ ಮುಖಂ ಚ ಪರಿಶುಷ್ಯತಿ. ವೇಪಥುಶ್ಚ ಶರೀರೇ ಮೇ ರೋಮಹರ್ಷಶ್ಚ ಜಾಯತೇ৷৷1.29৷৷
സീദന്തി മമ ഗാത്രാണി മുഖം ച പരിശുഷ്യതി. വേപഥുശ്ച ശരീരേ മേ രോമഹര്ഷശ്ച ജായതേ৷৷1.29৷৷
ସୀଦନ୍ତି ମମ ଗାତ୍ରାଣି ମୁଖଂ ଚ ପରିଶୁଷ୍ଯତି| ବେପଥୁଶ୍ଚ ଶରୀରେ ମେ ରୋମହର୍ଷଶ୍ଚ ଜାଯତେ||1.29||
sīdanti mama gātrāṇi mukhaṅ ca pariśuṣyati. vēpathuśca śarīrē mē rōmaharṣaśca jāyatē৷৷1.29৷৷
ஸீதந்தி மம காத்ராணி முகஂ ச பரிஷுஷ்யதி. வேபதுஷ்ச ஷரீரே மே ரோமஹர்ஷஷ்ச ஜாயதே৷৷1.29৷৷
సీదన్తి మమ గాత్రాణి ముఖం చ పరిశుష్యతి. వేపథుశ్చ శరీరే మే రోమహర్షశ్చ జాయతే৷৷1.29৷৷
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।।1.28 -- 1.30।। अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ।
।।1.30।।मेरे हाथ से गाण्डीव (धनुष) गिर रहा है और त्वचा जल रही है। मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है,  और मैं खड़े रहने में असमर्थ हूँ।
।।1.30।। यहाँ अर्जुन अपने रोग के कुछ और लक्षण बताता है। इसके पहले उसने अपने स्थूल शरीर में व्यक्त होने वाले लक्षण बताये थे और अब वह अपनी मन की असंतुलित स्थिति का भी वर्णन करता है।उसका मन अस्थिर क्षुब्ध और भ्रमित होने के साथसाथ समस्त धैर्य भी खो बैठा है। वह इस सीमा तक नीचे गिर गया है कि सब विवेक खोकर वह अंधविश्वास जनित उन अनेक अपशकुनों को देखने लग जाता है जो युद्ध में पराजय और नाश के सूचक समझे जाते हैं।अगले श्लोक न केवल उसके मनसंभ्रम को बताते हैं अपितु यह भी स्पष्ट करते हैं कि किस सीमा तक उसका विवेक और नैतिक साहस विनष्ट हो चुका था।
।।1.30।। व्याख्या--'दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्'--अर्जुनको  कृष्ण' नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन गीतामें नौ बार आया है। भगवान् श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान्को अर्जुनका  'पार्थ'  नाम बहुत प्यारा था। इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टिसे सञ्जयने गीताके अन्तमें 'कृष्ण' और 'पार्थ' नामका उल्लेख किया है 'यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः'  (18। 78)। धृतराष्ट्रने पहले 'समवेता युयुत्सवः' कहा था और यहाँ अर्जुनने भी 'युयुत्सुं समुपस्थितम्' कहा है; परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा अन्तर है। धृतराष्ट्रकी दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं--ऐसा भेद है; अतः धृतराष्ट्रने वहाँ  'मामकाः' और  'पाण्डवाः'  कहा है। परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह भेद नहीं है; अतः अर्जुनने यहाँ  'स्वजनम्'  कहा है, जिसमें दोनों पक्षके लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है, शोक है; परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे, पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी। अबतक 'दृष्ट्वा' पद तीन बार आया है 'दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम्' (1। 2) 'व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्' (1। 20) और यहाँ दृष्ट्वेमं स्वजनम् (1। 28)। इन तीनोंका तात्पर्य है कि दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक भाव रहा; परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनोंको देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं, युद्धसे उपरत हो रहे हैं और उनके हाथसे धनुष गिर रहा है।  'सीदन्ति मम गात्राणि ৷৷. भ्रमतीव च मे मनः'-- अर्जुनके मनमें युद्धके भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःखका असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है। उसी असरको अर्जुन स्पष्ट शब्दोंमें कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर थर-थर काँप रहा है! शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुषकी प्रत्यञ्चाकी टङ्कारसे शत्रु भयभीत हो जाते हैं, वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है! त्वचामें--सारे शरीरमें जलन हो रही है  (टिप्पणी प0 22.1) । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये--यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है।  सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं।
।।1.30 1.34।।न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या ( N शेषबुद्ध्या) बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे (S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य ) वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।
।।1.30।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.30।।किं चाधैर्यमपि संवृत्तमित्याह  न चेति।  मोहोऽपि महान्भवतीत्याह  भ्रमतीवेति।  विपरीतनिमित्तप्रतीतेरपि मोहो भवतीत्याह  निमित्तानीति।  तानि विपरीतानि निमित्तानि यानि वामनेत्रस्फुरणादीनि।
।।1.28 1.30।।सीदन्ति इत्युपक्रम्यभ्रमतीव च मे मनः इत्यन्तं देहधर्माभिमानेन विषयदर्शनपूर्वकं स्वस्याश्रयो निवेदयतिनिमित्तानि इत्यादिना।
।।1.30।।अवस्थातुं शरीरं धारयितुं च न शक्रोमीत्यनेन मूर्च्छा सूच्यते। तत्र हेतुः मम मनो भ्रमतीवेति भ्रमणकर्तृसादृश्यं नाम मनसः कश्चिद्विकारविशेषो मूर्च्छायाः पूर्वावस्था। चौ हेतौ। यतएवमतो नावस्थातुं शक्नोमीत्यर्थः। पुनरप्यवस्थानासामर्थ्ये कारणमाह निमित्तानि च सूचकतया आसन्नदुःखस्य विपरीतानि वामनेत्रस्फुरणादीनि पश्याम्यनुभवामि। अतोऽपि नावस्थातुं शक्नोमीत्यर्थः। अहमनात्मवित्त्वेन दुःखित्वाच्छोकनिबन्धनं क्लेशमनुभवामि त्वंतु सदानन्दरूपत्वाच्छोकासंसर्गीति कृष्णपदेन सूचितम्। अतः स्वजनदर्शने तुल्येऽपि शोकासंसर्गित्वलक्षणाद्विशेषात्त्वं मामशोकं कुर्विति भावः। केशवपदेन च तत्करणसामथ्र्यम्। को ब्रह्मा सृष्टिकर्ता ईशो रूद्रः संहर्ता तौ वात्यनुकम्प्यतया गच्छतीति तद्व्युत्पत्तेः। भक्तदुःखकर्षित्वं वा कृष्णापदेनोक्तम्।।
।।1.30।।   अन्यच्च न चेति।  विपरीतानि निमित्तान्यनिष्टसूचकानि शकुनानि पश्यामि।
।। 1.30।।अथाध्यायशेषस्य सङ्कलितार्थमाह स त्विति। तुशब्देन पूर्वोक्तप्रकाराद्दुर्योधनात् वक्ष्यमाणप्रकारविशिष्टस्य पार्थस्य विशेषंस कौन्तेयः इत्यनेनाभिप्रेतं द्योतयति। बन्धुव्यपदेशमात्रयोग्यशत्रुवधानिच्छया विजयादिकं त्रैलोक्यराज्यावधिकमपि तृणाय मन्यत इतिमहामना इत्युक्तम्।न काङ्क्षे विजयम् 1।31 इत्यादिकं हि वदति। शत्रूणामप्यसौ दुःखं न सहत इतिपरमकारुणिकत्वोक्तिःकृपया परयाऽऽविष्टः इति ह्युक्तम्।पितृ़नथ पितामहान्आचार्याः पितरः पुत्राः 1।34 इत्याद्युक्तस्नेहविषयप्राचुर्यंदीर्घबन्धुशब्देनोक्तम् यद्वा बन्धुना महापकारे कृतेऽपि स्वयं न शिथिलबन्धो भवतीति भावः।सर्वान्बन्धून्स्वजनं हि 1।37 इत्यादिकमिह भाव्यम्। आततायिपक्षस्थानामप्याचार्यादीनां अहन्तव्यत्वानुसन्धानात् कुलक्षयादिजनिताधर्मपारम्पर्यदर्शनाच्चपरमधार्मिक इत्युक्तिः। आततायिवधानुज्ञानमाचार्यादिव्यतिरिक्तविषयम् इत्यर्जुनस्य भावः।सभ्रातृक इति नायमेक एवैवंविधः किन्तु सर्वेऽपि पाण्डवा इति भावः। एतेनअस्मान्नःवयम्अस्माभिः इत्यादिभिरुक्तं संगृहीतम्। यद्वा न केवलं स्वापकारमात्रानादरादेष बन्धुवधादिकमुपेक्षते अपितु आसन्नतराचार्यादिस्थानीयबहुमतिस्नेहदयादिविषयधर्मराजद्रौपद्याद्यपकारेऽपीति भावः। आचार्यादिवधदोषो भ्रातृ़णामपि मा भूदित्यर्जुनाभिप्रायः। हन्तव्यत्वसूचनायघ्नतोऽपि 1।35 इत्युक्तम्। तद्विवृणोति भवद्भिरित्यादिना।जतुगृहदाहादिभिरित्यादिना आततायिशब्दोऽपि व्याख्यातः।अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।। मनुः 8।350.क्षे.23आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन मनुः8।351 इति हि स्मरन्ति। आदिशब्देनासकृच्छब्देन चाततायित्वहेतवः प्रत्येकं बहुशः कृताः न चेदानीमप्युपरतमिति दर्शितम्। अनुपरतिश्चघ्नतोऽपि 1।1।14 इति वर्तमाननिर्देशेन सूचिता।भवद्भिरित्यनेन धृतराष्ट्रमपिमुह्यन्तमनुमुह्यामि दुर्योधनममर्षणम् म.भा.1।1।145 इति पुत्रस्नेहवशादनुमन्तारं तत्तुल्यं व्यपदिशति। एवं च दुर्योधनादीनां सर्वेषामप्यतिलोभोपहतचेतस्त्वादिना महामना इत्युक्तविपरीतत्वमुक्तं भवति। शकुनिकर्णादिसहायानां धार्तराष्ट्रादीनां हनिष्यमाणानामपि हतत्वनिश्चयेन शोकोत्पत्त्यर्थमुक्तंपरमपुरुषेति। परमपुरुषः सहायो यस्येति विग्रहः परमपुरुषस्य सहायो निमित्तमात्रमिति वा। वक्ष्यति हि मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् 11।33 इति अर्जुनश्च पूर्वं महाबलसहस्रेभ्योऽपि निरायुधस्य परमपुरुषस्य सन्निधिमात्रमेव विजयहेतुतया निश्चित्य तमेव वव्रे। स्नेहाद्यस्थानत्वसूचनायभवदीयान्विलोक्येत्युक्तम्।बन्धुस्नेहेनेत्यादि न ह्यसौ दुर्योधनवत् बन्धुद्वेषनृशंसत्वप्रतिभटभयादिना विषण्णः नापि परेषां गुणान्निवर्तते न च परमपुरुषसचिवस्य स्वस्य दौर्बल्यादिति भावः।सीदन्ति 1।28 इत्यादेःमनः 1।30 इत्यन्तस्यार्थः अतिमात्रेत्यादिना संगृहीतः। सखीन् वयस्यान्। सुहृदः वयोविशेषानपेक्षया हितैषिणः।सेनयोरुभयोरपि एकै स्यां सेनायामेते सर्वे प्रायशो विद्यन्त इति भावः। समीक्ष्य शास्त्रलोकयात्रायुक्तमवलोक्येत्यर्थः।सर्वान्बन्धून् न ह्यत्रानागतः कश्चिद्बन्धुरवशिष्यत इति भावः।
।।1.30।।शक्नोमीति। अवस्थातुं न च समर्थोऽस्मीति भावः। किञ्च हे केशव दुष्टगुणव्याप्तयोरपि मोक्षदायक विपरीतानि निमित्तानि पश्यामि। असमर्थः युद्धं कृत्वा राज्यादिकरणरूपाणि तानि तथाभूतानि सर्वाणि पश्यामि। भगवदीयस्य तथात्वमनुचितमिति भावः।
।। 1.30सीदन्ति निश्चेष्टानि भवन्ति। रोमहर्षो रोमाञ्चः।
।।1.30।।हस्ताद्गाण्डीवं स्त्रंसते पतति। स्वक्चैव परि समन्ताद्दह्यते। धैर्याभावादवस्थातुं च न शक्नोमि। मे मनो भ्रमतीव च। मम मनो मोहं प्राप्नोतीवेत्यर्थः।
1.30 गाण्डीवम् Gandiva? स्रंसते slips? हस्तात् from (my) hand? त्वक् (my) skin? च and? एव also? परिदह्यते burns all over? न not? च and? शक्नोमि (I) am able? अवस्थातुम्? to stand? भ्रमति इव seems whirling? च and? मे my? मनः mind.No Commentary.
1.30. The (bow) Gandiva slips from my hand, and also my skins burns all over; I am unable even to stand and my mind is reeling, as it were.
1.30 The bow Gandeeva slips from my hand, and my skin burns. I cannot keep quiet, for my mind is in tumult.
1.30 Moreover, O Kesava (Krsna), I am not able to stand firmly, and my mind seems to be whirling. And I notice the omens to be adverse.
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1.30. I also do not foresee any good by killing my own kinsmen in the battle. O Krsna! I wish niether victory, nor kingdom, nor the pleasures [thereof].
1.30 – 1.34 Na ca sreyah, etc., upto mahikrte. Those who are wrongly conceived as object of slaying, with the individualizing idea that 'these are my teachers etc.'8 would necessarily generate sin. Similarly, the act of slaying even of those deserving to be slain in the battle-if undertaken with the idea that 'This battle is to be fought for the apparent results like pleasures, happiness etc.'- then it generates sin necessarily. This idea lurks in the objection [of Arjuna]. That is why a reply is going to be given [by Bhagavat] as 'You must undertake actions simply as your own duty, and not with an individualizing idea'.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.30 The bow Gandiva slips from my hand and my skin is burning. I can stand no longer. My mind seems to reel.
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गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते। न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।1.30।।
গাণ্ডীবং স্রংসতে হস্তাত্ত্বক্চৈব পরিদহ্যতে৷ ন চ শক্নোম্যবস্থাতুং ভ্রমতীব চ মে মনঃ৷৷1.30৷৷
গাণ্ডীবং স্রংসতে হস্তাত্ত্বক্চৈব পরিদহ্যতে৷ ন চ শক্নোম্যবস্থাতুং ভ্রমতীব চ মে মনঃ৷৷1.30৷৷
ગાણ્ડીવં સ્રંસતે હસ્તાત્ત્વક્ચૈવ પરિદહ્યતે। ન ચ શક્નોમ્યવસ્થાતું ભ્રમતીવ ચ મે મનઃ।।1.30।।
ਗਾਣ੍ਡੀਵਂ ਸ੍ਰਂਸਤੇ ਹਸ੍ਤਾਤ੍ਤ੍ਵਕ੍ਚੈਵ ਪਰਿਦਹ੍ਯਤੇ। ਨ ਚ ਸ਼ਕ੍ਨੋਮ੍ਯਵਸ੍ਥਾਤੁਂ ਭ੍ਰਮਤੀਵ ਚ ਮੇ ਮਨ।।1.30।।
ಗಾಣ್ಡೀವಂ ಸ್ರಂಸತೇ ಹಸ್ತಾತ್ತ್ವಕ್ಚೈವ ಪರಿದಹ್ಯತೇ. ನ ಚ ಶಕ್ನೋಮ್ಯವಸ್ಥಾತುಂ ಭ್ರಮತೀವ ಚ ಮೇ ಮನಃ৷৷1.30৷৷
ഗാണ്ഡീവം സ്രംസതേ ഹസ്താത്ത്വക്ചൈവ പരിദഹ്യതേ. ന ച ശക്നോമ്യവസ്ഥാതും ഭ്രമതീവ ച മേ മനഃ৷৷1.30৷৷
ଗାଣ୍ଡୀବଂ ସ୍ରଂସତେ ହସ୍ତାତ୍ତ୍ବକ୍ଚୈବ ପରିଦହ୍ଯତେ| ନ ଚ ଶକ୍ନୋମ୍ଯବସ୍ଥାତୁଂ ଭ୍ରମତୀବ ଚ ମେ ମନଃ||1.30||
gāṇḍīvaṅ sraṅsatē hastāttvakcaiva paridahyatē. na ca śaknōmyavasthātuṅ bhramatīva ca mē manaḥ৷৷1.30৷৷
காண்டீவஂ ஸ்ரஂஸதே ஹஸ்தாத்த்வக்சைவ பரிதஹ்யதே. ந ச ஷக்நோம்யவஸ்தாதுஂ ப்ரமதீவ ச மே மநஃ৷৷1.30৷৷
గాణ్డీవం స్రంసతే హస్తాత్త్వక్చైవ పరిదహ్యతే. న చ శక్నోమ్యవస్థాతుం భ్రమతీవ చ మే మనః৷৷1.30৷৷
1.31
1
31
।।1.31।। हे केशव! मैं लक्षणों  - (शकुनों) को भी विपरीत देख रहा हूँ और युद्ध में स्वजनोंको मारकर श्रेय (लाभ) भी नहीं देख रहा हूँ।
।।1.31।।हे केशव ! मैं शकुनों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ और युद्ध में (आहवे) अपने स्वजनों को मारकर कोई कल्याण भी नहीं देखता हूँ।
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।।1.31।। व्याख्या--'निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव'--हे केशव! मैं शकुनोंको  (टिप्पणी प0 22.2)  भी विपरीत ही देख रहा हूँ। तात्पर्य है कि किसी भी कार्यके आरम्भमें मनमें जितना अधिक उत्साह (हर्ष) होता है, वह उत्साह उस कार्यको उतना ही सिद्ध करनेवाला होता है। परन्तु अगर कार्यके आरम्भमें ही उत्साह भङ्ग हो जाता है, मनमें संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते, तो उस कार्यका परिणाम अच्छा नहीं होता। इसी भावसे अर्जुन कह रहे हैं कि अभी मेरे शरीरमें अवयवोंका शिथिल होना, कम्प होना, मुखका सूखना आदि जो लक्षण हो रहे हैं, ये व्यक्तिगत शकुन भी ठीक नहीं हो रहे हैं  (टिप्पणी प0 22.3)  इसके सिवाय आकाशसे उल्कापात होना, असमयमें ग्रहण लगना, भूकम्प होना, पशु-पक्षियोंका भयंकर बोली बोलना, चन्द्रमाके काले चिह्नका मिट-सा जाना, बादलोंसे रक्तकी वर्षा होना आदि जो पहले शकुन हुए हैं, वे भी ठीक नहीं हुए हैं। इस तरह अभीके और पहलेके--इन दोनों शकुनोंकी ओर देखता हूँ, तो मेरेको ये दोनों ही शकुन विपरीत अर्थात् भावी अनिष्टके सूचक दीखते हैं।  'न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे'--युद्धमें अपने कुटुम्बियोंको मारनेसे हमें कोई लाभ होगा--ऐसी बात भी नहीं है। इस युद्धके परिणाममें हमारे लिये लोक और परलोक--दोनों ही हितकारक नहीं दीखते। कारण कि जो अपने कुलका नाश करता है, वह अत्यन्त पापी होता है। अतः कुलका नाश करनेसे हमें पाप ही लगेगा ,जिससे नरकोंकी प्राप्ति होगी। इस श्लोकमें 'निमित्तानि पश्यामि' और 'श्रेयः अनुपश्यामि'--(टिप्पणी प0 23) इन दोनों वाक्योंसे अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि मैं शुकुनोंको देखूँ अथवा स्वयं विचार करूँ, दोनों ही रीतिसे युद्धका आरम्भ और उसका परिणाम हमारे लिये और संसारमात्रके लिये हितकारक नहीं दीखता।  सम्बन्ध-- जिसमें न तो शुभ शकुन दीखते हैं और न श्रेय ही दीखता है, ऐसी अनिष्टकारक विजयको प्राप्त करनेकी अनिच्छा अर्जुन आगेके श्लोकमें प्रकट करते हैं।
।।1.30 1.34।।न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या ( N शेषबुद्ध्या) बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे (S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य ) वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।
।।1.31।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.31।।युद्धे स्वजनहिंसया फलानुपलम्भादपि तस्मादुपरिरंसा जायत इत्याह  न चेति।
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।।1.31।।केशवपदेन च केश्यादिदुष्टदैत्यनिबर्हणेन सर्वदा भक्तान्पालयसीत्यतो मामपि शोकनिवारणेन पालयिष्यसीति सूचितम्। एंव लिङ्गद्वारेण समीचीनप्रवृत्तिहेतुभूतत्त्वज्ञानप्रतिबन्धकीभूतं शोकमुक्त्वा संप्रति तत्कारितां विपरीतप्रवृत्तिहेतुभूतां विपरीतबुद्धिं दर्शयति श्रेयः पुरूषार्थं दृष्टमदृष्टं वा बहुविचारणादनु पश्चादपि न पश्यामि। अस्वजनमपि युद्धे हत्वा श्रेयो न पश्यामि।द्वाविमौ पुरूषौ लोके सूर्यमण्डलमेदिनौ। परिव्राड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः।। इत्यादिना हतस्यैव श्रेयोविशेषाभिधानाद्धन्तुस्तु न किंचित्सुकृतम्। एवमस्वजनवधेऽपि श्रेयसोऽभावे स्वजनवधे सुतरां तदभाव इति ज्ञापयितुं स्वजनमित्युक्तम्। एवमनाहववधे श्रेयो नास्तीति सिद्धसाधनवारणायाहव इत्युक्तम्।
।।1.31।।  किंच  न चेति।  स्वजनं आहवे युद्धे हत्वा श्रेयः फलं न पश्यामि।
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।।1.31।।तदेवाह न चेति। स्वजनमाहवे सङ्ग्रामे हत्वा अनु पश्चात् श्रेयो न पश्यामि। श्रेयो भगवत्कृपात्मिकां भक्तिमित्यर्थः। अत  एवं भगवतोक्तम्.   तस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः। न  ज्ञानं.   न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह भाग.11।20।31 इति।
।।1.31।।निमित्तानि लोकक्षयकराणि भूमिकम्पादीनि।
।।1.31।।विपरीतनिमित्तप्रवृत्तेरपि मोहो भवतीत्याह  निमित्तानीति।  निमित्तानि च विपरीतानि वामनेत्रस्फुरणादीनि पश्यामि। तथाचास्मन्निमित्तः स्वजननाशो भविष्यति नतु केश्यादिमारणेन भवता यथा स्वजनः पालितः तथा स्वजनरक्षणमिति सूचयन्संबोधयति  हे केशवेति।  अहमनात्मवित्त्वेन दुःखित्वाच्छोकनिबन्धनं क्लेशमनुभवामि त्वं तु सदानन्दरुपत्वाच्छोकासंसर्गीति कृष्णपदेन सूचितम्। अतः स्वजनदर्शने तुल्येऽपि शोकासंसर्गित्वलक्षणाद्विशेषात्त्वं मामशोकं कुर्विति भावः। केवपदेन च तत्करणसामर्थ्यं केशौ ब्रह्मरुद्रौ वात्यनुकम्प्यतया गच्छतीति तद्य्वत्पत्तेः। भक्तदुःखकर्षित्वं वा कृष्णपदेनोक्तम्। केशवपदेन च केश्यादिदुष्टनिबर्हणेन सर्वदा भक्तान्पालयसीत्यतो मामपि शोकनिवारणेन पालयिष्यसीति सूचितमिति केचित्। इदानीं शोकमोहाविष्टचित्तः स्वधर्मेऽधर्मतां निष्प्रयोजनतां चोरोपयन्नाह  नचेति।  आहवे युद्धभूमौ स्वजनं स्वबन्धुवर्गं हत्वा अनु पश्चाच्छ्रेयो न पश्यामि। अतो निष्फलाया बन्धुहिंसाया अधर्मनिमित्ताया निवृत्तिरेव युक्तेति भावः।
1.31 निमित्तानि omens? च and? पश्यामि I see? विपरीतानि adverse? केशव O Kesava? न not? च and? श्रेयः good? अनुपश्यामि (I) see? हत्वा killing? स्वजनम् our peope? आहवे in battle.Commentary Kesava means he who has fine or luxuriant hair.
1.31. And I see adverse omens, O Kesava. I do not see any good in killing my kinsmen in battle.
1.31 The omens are adverse; what good can come from the slaughter of my people on this battlefield?
1.31 Besides, I do not see any good (to be derived) from killing my own people in battle. O Krsna, I do not hanker after victory, nor even a kingdom nor pleasures.
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1.31. O Govinda! Of what use in the kingdom to us? Of what use are the pleasures [thereof] and the life even?
1.30 1.34 Na ca sreyah, etc., upto mahikrte. Those who are wrongly conceived as object of slaying, with the individualizing idea that 'these are my teachers etc.'8 would necessarily generate sin. Similarly, the act of slaying even of those deserving to be slain in the battle-if undertaken with the idea that 'This battle is to be fought for the apparent results like pleasures, happiness etc.'- then it generates sin necessarily. This idea lurks in the objection [of Arjuna]. That is why a reply is going to be given [by Bhagavat] as 'You must undertake actions simply as your own duty, and not with an individualizing idea'.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.31 I see, Krsna, inauspicious omens. I foresee no good in killing my kinsmen in the fight.
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निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव। न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।1.31।।
নিমিত্তানি চ পশ্যামি বিপরীতানি কেশব৷ ন চ শ্রেযোনুপশ্যামি হত্বা স্বজনমাহবে৷৷1.31৷৷
নিমিত্তানি চ পশ্যামি বিপরীতানি কেশব৷ ন চ শ্রেযোনুপশ্যামি হত্বা স্বজনমাহবে৷৷1.31৷৷
નિમિત્તાનિ ચ પશ્યામિ વિપરીતાનિ કેશવ। ન ચ શ્રેયોનુપશ્યામિ હત્વા સ્વજનમાહવે।।1.31।।
ਨਿਮਿਤ੍ਤਾਨਿ ਚ ਪਸ਼੍ਯਾਮਿ ਵਿਪਰੀਤਾਨਿ ਕੇਸ਼ਵ। ਨ ਚ ਸ਼੍ਰੇਯੋਨੁਪਸ਼੍ਯਾਮਿ ਹਤ੍ਵਾ ਸ੍ਵਜਨਮਾਹਵੇ।।1.31।।
ನಿಮಿತ್ತಾನಿ ಚ ಪಶ್ಯಾಮಿ ವಿಪರೀತಾನಿ ಕೇಶವ. ನ ಚ ಶ್ರೇಯೋನುಪಶ್ಯಾಮಿ ಹತ್ವಾ ಸ್ವಜನಮಾಹವೇ৷৷1.31৷৷
നിമിത്താനി ച പശ്യാമി വിപരീതാനി കേശവ. ന ച ശ്രേയോനുപശ്യാമി ഹത്വാ സ്വജനമാഹവേ৷৷1.31৷৷
ନିମିତ୍ତାନି ଚ ପଶ୍ଯାମି ବିପରୀତାନି କେଶବ| ନ ଚ ଶ୍ରେଯୋନୁପଶ୍ଯାମି ହତ୍ବା ସ୍ବଜନମାହବେ||1.31||
nimittāni ca paśyāmi viparītāni kēśava. na ca śrēyō.nupaśyāmi hatvā svajanamāhavē৷৷1.31৷৷
நிமித்தாநி ச பஷ்யாமி விபரீதாநி கேஷவ. ந ச ஷ்ரேயோநுபஷ்யாமி ஹத்வா ஸ்வஜநமாஹவே৷৷1.31৷৷
నిమిత్తాని చ పశ్యామి విపరీతాని కేశవ. న చ శ్రేయోనుపశ్యామి హత్వా స్వజనమాహవే৷৷1.31৷৷
1.32
1
32
।।1.32।। हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुखों को ही चाहता हूँ। हे गोविन्द! हमलोगों को राज्य से क्या लाभ? भोगों से क्या लाभ? अथवा जीने से भी क्या लाभ?
।।1.32।।हे कृष्ण ! मैं न विजय चाहता हूँ, न राज्य और न सुखों को ही चाहता हूँ। हे गोविन्द ! हमें राज्य से अथवा भोगों से और जीने से भी क्या प्रयोजन है?।
।।1.32।। बुद्धि से पूर्णतया विलग होकर उसका भ्रमित मन एक पागल के समान इधरउधर दौड़ता है और मूर्खतापूर्ण निष्कर्षों पर पहुँचता है। वह कहता है मैं न विजय चाहता हूँ न राज्य और न सुख। यह सुविदित तथ्य है कि यदि उन्माद (हिस्टीरिया) के रोगी को बोलने दिया जाय तो वह निषेध भाषा में ही रोग का कारण बताने लगता है। उदाहरणार्थ किसी स्त्री पर उन्माद का दौरा पड़ने पर वह प्रलाप में कहती है कि वह अपने पति से अभी भी प्रेम करती है पति का वह आदर करती है और उनमें कोई आपसी मतभेद नहीं है इत्यादि तो इन वाक्यों द्वारा वह स्वयं ही अपने रोग का वास्तविक कारण बता रही होती है।इसी प्रकार अर्जुन यह जो सब वस्तुओं की अनिच्छा प्रकट कर रहा है उसी से हम उसकी मनस्थिति का स्पष्ट कारण जान सकते हैं कि वह विजय चाहता था। वह शीघ्र ही अपने एवं स्वजनों के लिये राज्य व सुख प्राप्त करने के लिये आतुर था। परन्तु कौरवों की विशाल सेना और उनमें जानेमाने शूर वीर योद्धाओं को देखकर उसकी आशा भंग हो गयी महत्त्वाकांक्षा ध्वस्त हो गयी और वह आत्मविश्वास भी खोने लगा। इस प्रकार वह धीरेधीरे अर्जुनरोग रूपी विषाद की स्थिति में पहुँच गया जिसके निवारण का विषय ही गीता का प्रतिपाद्य विषय है।
।।1.32।। व्याख्या--'न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च'-- मान लें युद्धमें हमारी विजय हो जाय, तो विजय होनेसे पूरी पृथ्वीपर हमारा राज्य हो जायगा, अधिकार हो जायगा। पृथ्वीका राज्य मिलनेसे हमें अनेक प्रकारके सुख मिलेंगे। परन्तु इनमेंसे मैं कुछ भी नहीं चाहता अर्थात् मेरे मनमें विजय, राज्य एवं सुखोंकी कामना नहीं है।  'किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा'-- जब हमारे मनमें किसी प्रकारकी (विजय, राज्य और सुखकी) कामना ही नहीं है, तो फिर कितना ही बड़ा राज्य क्यों न मिल जाय, पर उससे हमें क्या लाभ? कितने ही सुन्दर-सुन्दर भोग मिल जायँ, पर उनसे हमें क्या लाभ? अथवा कुटुम्बियोंको मारकर हम राज्यके सुख भोगते हुए कितने ही वर्ष जीते रहें, पर उससे भी हमें क्या लाभ? तात्पर्य है कि ये विजय, राज्य और भोग तभी सुख दे सकते हैं, जब भीतरमें इनकी कामना हो, प्रियता हो, महत्त्व हो। परन्तु हमारे भीतर तो इनकी कामना ही नहीं है। अतः ये हमें क्या सुख दे सकते हैं? इन कुटुम्बियोंको मारकर हमारी जीनेकी इच्छा नहीं है; क्योंकि जब हमारे कुटुम्बी मर जायँगे, तब ये राज्य और भोग किसके काम आयेंगे? राज्य, भोग आदि तो कुटुम्बके लिये होते हैं, पर जब ये ही मर जायँगे, तब इनको कौन भोगेगा? भोगनेकी बात तो दूर रही, उलटे हमें और अधिक चिन्ता, शोक होंगे!
।।1.30 1.34।।न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या ( N शेषबुद्ध्या) बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे (S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य ) वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।
।।1.32।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.32।।प्राप्तानां युयुत्सूनां हिंसया विजयो राज्यं सुखानि च लब्धुं शक्यानीति कुतो युद्धादुपरतिरित्याशङ्क्याह  न काङ्क्ष इति।  किमिति राज्यादिकं सर्वाकाङ्क्षितत्वान्न काङ्क्ष्यते तेन हि पुत्रभ्रात्रादीनां स्वास्थ्यमाधातुं शक्यमित्याशङ्क्याह  किमिति।  राज्यादीनामाक्षेपे हेतुमाह  येषामिति।
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।।1.32।।ननु माभूददृष्टं प्रयोजनं दृष्टप्रयोजनानि तु विजयो राज्यं सुखानि च निर्विवादानीत्यत आह पूर्वत्र सुखं परतः फलाकाङ्क्षा ह्युपायप्रवृत्तौ कारणम्। अतस्तदाकाङ्क्षाया अभावात्तदुपाये युद्धे भोजनेच्छाविरहिण इव पाकादौ मम प्रवृत्तिरनुपपन्नेत्यर्थः। कुतः पुनरितरपुरुषैरिष्यमाणेषु तेषु तवानिच्छेत्यत आह किं न इति। भोगैः सुखैर्जीवितेन जीवितसाधनेन विजयेनेत्यर्थः। विना राज्यं भोगान् कौरवविजयं च वने निवसतामस्माकं तेनैव जगति श्लाघनीयजीवितानां किमेभिराकाङ्क्षितैरिति भावः। गोशब्दवाच्यानीन्द्रियाण्यधिष्ठानतया नित्यं प्राप्तस्त्वमेव ममैहिकफलविरागं जानासीति सूचयन्संबोधयति गोविन्देति। राज्यादीनामाक्षेपे हेतुमाह एतेन स्वस्य वैराग्येऽपि स्वीयानामर्थे यतनीयमित्यपास्तम्। एकाकिनो हि राज्याद्यनपेक्षितमेव। येषां तु बन्धूनामर्थे तदपेक्षितं त एते प्राणान्प्राणाशां धनानि धनाशां च त्यक्त्वा युद्धेऽवस्थिता इति न स्वार्थः स्वीयार्थो वायं प्रयत्न इति भावः। भोगशब्दः पूर्वत्र सुखपरतया निर्दिष्टोऽप्यत्र पृथक्सुखग्रहणात्सुखसाधनविषयपरः।
।।1.32।।  विजयादिकं फलं किं न पश्यसीति चेत्तत्राह  न काङ्क्ष इति।  एतदेव प्रपञ्चयति  किं न इति  सार्धाभ्याम्। यदर्थमस्माकं राज्यादिकमपेक्षितं त एते प्राणधनानि त्यक्त्वा त्यागमङ्गीकृत्य युद्धार्थमवस्थिताः। अतः किमस्माकं राज्यादिभिः कृत्यमित्यर्थः।
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।।1.32।।तद्विनाऽहं विजयं राज्यं च न काङ्क्षे तज्जनितानि सुखान्यपि। चकारेण भक्तावपि सुखानि न काङ्क्षे यतो भगवत्तोषहेतुस्ताप एवेति भावः। पुनर्विस्तरेण तदाकाङ्क्षित्वाभावः प्रपञ्चयति किं नो राज्येनेति। नः राज्येन किं भोगैर्वा किं जीवितेन वा किं हे गोविन्द त्वां विना एतैर्न किञ्चित्प्रयोजनमस्माकमिति भावः। गोविन्देति सम्बोधनेन यथा व्रजवासिनां त्वमिन्द्रो भूत्वा सुखभोगं कारितवान् तथैव भक्तानामुचितमिति भावो ज्ञाप्यते।
।। 1.32निमित्तानि लोकक्षयकराणि भूमिकम्पादीनि।
।।1.32।।ननु युद्धेन शत्रूञ्जित्वा विजयराज्यादिश्रेयसो लाभस्यावश्यंभावात्किमिति नच श्रेयोऽनु पश्यामीत्युच्यते त्वयेति तत्राह  न काङ्क्षे इति।  हे कृष्णेति संबोधयन्वासुदेवे मनो यस्य जपहोमार्चनादिषु। तस्यान्तरायो मैत्रेयदेवेन्द्रत्वादिकं फलम्।। इति वचनात्स्वभक्त्यन्तरायात्मकस्य विजयराज्यादेः कर्षित्वमेव भक्तस्योपरि तवानुग्रहःयस्यानुग्रहमिच्छामि तस्य वित्तं हराभ्यहम् इति भगवद्वचनात्। तस्माद्विजयादेर्भवद्भक्त्यन्तरायत्वमालोच्यापि। तन्न काङ्क्ष इति ध्वनयति। ननु भवतां भागवतानां स्वार्थे विषये विरक्तानां मास्तु स्वार्थे विजयाद्याकाङ्क्षा स्वसंबन्धिनामर्थे तु तदाकाङ्क्षा युक्तेत्याशङ्क्य येषामर्थे विजयादिकमपेक्षितं ते त्वत्र मरिष्यन्तीति किमस्माकं पाण्डवानां तेनेत्याह  किमित्यादि सार्धद्वयेन। नोऽस्माकं राज्येन किम्। तज्जन्य भोगैर्जीवितेन वा किम्। न किमपीत्यर्थः। राज्याद्यपेक्षया वने निवसतामस्माकं कन्दमूलादिना जीवनं स्वजनरक्षणं वरम्। यतः सर्वप्रकारेण स्वबन्धुरक्षणं कर्तव्यमिति स्वजनरक्षणेन लब्धगोविन्दनामा जगद्गुरुस्त्वमेव गोविन्दनाम्ना शंससीति ध्वनयन्संबोधयति  हे गोविन्देति।  गोशब्दावाच्यानीन्द्रियाण्यधिष्ठानतया नित्यं प्राप्तस्त्वमेव ममैहिकफलविरागं जानासीति संबोधनाशय इति केचित्।
1.32 न not? काङ्क्षे (I) desire? विजयम् victory? कृष्ण O Krishna? न not? च and? राज्यम् kingdom? सुखानि pleasures? च and? किम् what? नः to us? राज्येन by kindom? गोविन्द O Govinda? किम् what? भोगैः by pleasures? जीवितेन life? वा or.No Commentary.
1.32. I desire not victory, O Krishna, nor kingdom, nor pleasures. Of what avail is dominion to us, O Krishna, or pleasures or even life?
1.32 Ah my Lord! I crave not for victory, nor for the kingdom, nor for any pleasure. What were a kingdom or happiness or life to me,
1.32 1.34 O Govinda! What need do we have of a kingdom, or what (need) of enjoyments and livelihood? Those for whom kingdom, enjoyments and pleasures ae desired by us, viz teachers, uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law as also relatives-those very ones stand arrayed for battle risking their lives and wealth.
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1.32. For whose sake we seek kingdom, [its] pleasures and happiness, the very same persons stand arrayed to fight, giving up their life and wealth.
1.30 1.34 Na ca sreyah, etc., upto mahikrte. Those who are wrongly conceived as object of slaying, with the individualizing idea that 'these are my teachers etc.'8 would necessarily generate sin. Similarly, the act of slaying even of those deserving to be slain in the battle-if undertaken with the idea that 'This battle is to be fought for the apparent results like pleasures, happiness etc.'- then it generates sin necessarily. This idea lurks in the objection [of Arjuna]. That is why a reply is going to be given [by Bhagavat] as 'You must undertake actions simply as your own duty, and not with an individualizing idea'.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.32 I desire no victory, nor empire, nor pleasures. What have we to do with empire, O Krsna, or enjoyment or even life ?
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न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।1.32।।
ন কাঙ্ক্ষে বিজযং কৃষ্ণ ন চ রাজ্যং সুখানি চ৷ কিং নো রাজ্যেন গোবিন্দ কিং ভোগৈর্জীবিতেন বা৷৷1.32৷৷
ন কাঙ্ক্ষে বিজযং কৃষ্ণ ন চ রাজ্যং সুখানি চ৷ কিং নো রাজ্যেন গোবিন্দ কিং ভোগৈর্জীবিতেন বা৷৷1.32৷৷
ન કાઙ્ક્ષે વિજયં કૃષ્ણ ન ચ રાજ્યં સુખાનિ ચ। કિં નો રાજ્યેન ગોવિન્દ કિં ભોગૈર્જીવિતેન વા।।1.32।।
ਨ ਕਾਙ੍ਕ੍ਸ਼ੇ ਵਿਜਯਂ ਕਰਿਸ਼੍ਣ ਨ ਚ ਰਾਜ੍ਯਂ ਸੁਖਾਨਿ ਚ। ਕਿਂ ਨੋ ਰਾਜ੍ਯੇਨ ਗੋਵਿਨ੍ਦ ਕਿਂ ਭੋਗੈਰ੍ਜੀਵਿਤੇਨ ਵਾ।।1.32।।
ನ ಕಾಙ್ಕ್ಷೇ ವಿಜಯಂ ಕೃಷ್ಣ ನ ಚ ರಾಜ್ಯಂ ಸುಖಾನಿ ಚ. ಕಿಂ ನೋ ರಾಜ್ಯೇನ ಗೋವಿನ್ದ ಕಿಂ ಭೋಗೈರ್ಜೀವಿತೇನ ವಾ৷৷1.32৷৷
ന കാങ്ക്ഷേ വിജയം കൃഷ്ണ ന ച രാജ്യം സുഖാനി ച. കിം നോ രാജ്യേന ഗോവിന്ദ കിം ഭോഗൈര്ജീവിതേന വാ৷৷1.32৷৷
ନ କାଙ୍କ୍ଷେ ବିଜଯଂ କୃଷ୍ଣ ନ ଚ ରାଜ୍ଯଂ ସୁଖାନି ଚ| କିଂ ନୋ ରାଜ୍ଯେନ ଗୋବିନ୍ଦ କିଂ ଭୋଗୈର୍ଜୀବିତେନ ବା||1.32||
na kāṅkṣē vijayaṅ kṛṣṇa na ca rājyaṅ sukhāni ca. kiṅ nō rājyēna gōvinda kiṅ bhōgairjīvitēna vā৷৷1.32৷৷
ந காங்க்ஷே விஜயஂ கரிஷ்ண ந ச ராஜ்யஂ ஸுகாநி ச. கிஂ நோ ராஜ்யேந கோவிந்த கிஂ போகைர்ஜீவிதேந வா৷৷1.32৷৷
న కాఙ్క్షే విజయం కృష్ణ న చ రాజ్యం సుఖాని చ. కిం నో రాజ్యేన గోవిన్ద కిం భోగైర్జీవితేన వా৷৷1.32৷৷
1.33
1
33
।।1.33।। जिनके लिये हमारी राज्य, भोग और सुखकी इच्छा है, वे ही ये सब अपने प्राणों की और धन की आशा का त्याग करके युद्ध में खड़े हैं।
।।1.33।।हमें जिनके लिये राज्य,  भोग और सुखादि की इच्छा है,  वे ही लोग धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।
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।।1.33।। व्याख्या--'येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च'--हम राज्य, सुख, भोग आदि जो कुछ चाहते हैं, उनको अपने व्यक्तिगत सुखके लिये नहीं चाहते, प्रत्युत इन कुटुम्बियों, प्रेमियों, मित्रों आदिके लिये ही चाहते हैं। आचार्यों, पिताओं, पितामहों, पुत्रों आदिको सुख-आराम पहुँचे, इनकी सेवा हो जाय, ये प्रसन्न रहें--इसके लिये ही हम युद्ध करके राज्य लेना चाहते हैं, भोग-सामग्री इकट्ठी करना चाहते हैं।  'त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च'--पर वे ही ये सब-के-सब अपने प्राणोंकी और धनकी आशाको छोड़कर युद्ध करनेके लिये हमारे सामने इस रणभूमिमें खड़े हैं। इन्होंने ऐसा विचार कर लिया है कि हमें न प्राणोंका मोह है और न धनकी तृष्णा है; हम मर बेशक जायँ, पर युद्धसे नहीं हटेंगे। अगर ये सब मर ही जायँगे, हमें राज्य किसके लिये चाहिये? सुख किसके लिये चाहिये धन किसके लिये चाहिये? अर्थात् इन सबकी इच्छा हम किसके लिये करें?  'प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च' का तात्पर्य है कि वे प्राणोंकी और धनकी आशाका त्याग करके खड़े हैं अर्थात् हम जीवित रहेंगे और हमें धन मिलेगा--इस इच्छाको छोड़कर वे खड़े हैं। अगर उनमें प्राणोंकी और धनकी इच्छा होती, तो वे मरनेके लिये युद्धमें क्यों खड़े होते? अतः यहाँ प्राण और धनका त्याग करनेका तात्पर्य उनकी आशाका त्याग करनेमें ही है।
।।1.30 1.34।।न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या ( N शेषबुद्ध्या) बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे (S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य ) वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।
।।1.33।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.33।।तानेव विशिनष्टि  आचार्या इति।
null
।।1.33।।प्राणधनशब्दौ तु तदाशालक्षकौ। स्वप्राणत्यागेऽपि स्वबन्धूनामुपभोगाय धनाशा संभवेदिति तद्वारणाय पृथग्धनग्रहणम्।
।। 1.33  विजयादिकं फलं किं न पश्यसीति चेत्तत्राह  न काङ्क्ष इति।  एतदेव प्रपञ्चयति  किं न इति  सार्धाभ्याम्। यदर्थमस्माकं राज्यादिकमपेक्षितं त एते प्राणधनानि त्यक्त्वा त्यागमङ्गीकृत्य युद्धार्थमवस्थिताः। अतः किमस्माकं राज्यादिभिः कृत्यमित्यर्थः।
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।।1.33।।ननु तवैकस्य नाकांक्षा तथापि स्वकीयसम्बन्धिनां सर्वेषामर्थे शत्रून्मारयित्वा राज्यं स्वकीयं कुर्वित्याशङ्कायामाह येषामर्थ इति। येषामर्थे नः राज्यमाकाङ्क्षितं भोगाः सुखानि च कांक्षितानि ते सर्व इमे प्राणान् धनानि च त्यक्त्वा युद्धे सङ्ग्रामे  मर() णार्थमवस्थिता इत्यर्थः। तस्मादेतन्मारणेन लौकिकसिद्धिरपि नास्माकमिति भावः।
।। 1.33निमित्तानि लोकक्षयकराणि भूमिकम्पादीनि।
।।1.33।।येषां स्वीयानामर्थे नो राज्यं भोगसाधनमाकाङ्क्षितमभिलषितं भोगाः सुखसाधनानि सुखानि य येषामर्थे आकाङ्क्षितानि त इमे प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानाः प्राणान्धनानि च त्यक्त्वा युद्धेऽवस्थिताः। त्यक्तुमिति वक्तव्ये त्यक्त्वेति क्त्वाप्रत्ययेन प्राणादित्यागसाधने समरे प्रवृत्ते तत्त्यक्तुमवस्थिता अपि तत्प्रेमातिशयात्पलाय्य गमिष्यन्तीति शङ्का न कर्तव्येति सूचयति।
1.33 येषाम् of whose? अर्थे sake? काङ्क्षितम् (is) desired? नः by us? राज्यम् kingdom? भोगाः enjoyment? सुखानि pleasures? च and? ते they? इमे these? अवस्थिताः stand? युद्धे in battle? प्राणान् life? त्यक्त्वा having abandoned? धनानि wealth? च and.No Commentary.
1.33. Those for whose sake we desire kingdom, enjoyments and pleasures, stand here in battle, having renounced life and wealth.
1.33 When those for whose sake I desire these things stand here about to sacrifice their property and their lives:
1.32 1.34 O Govinda! What need do we have of a kingdom, or what (need) of enjoyments and livelihood? Those for whom kingdom, enjoyments and pleasures ae desired by us, viz teachers, uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law as also relatives-those very ones stand arrayed for battle risking their lives and wealth.
null
1.33. [These are our] teachers, fathers, sons and also paternal grandfathers, maternal uncles, fathers-in-law, son's sons, wives' brothers, and (other) relatives.
1.30 1.34 Na ca sreyah, etc., upto mahikrte. Those who are wrongly conceived as object of slaying, with the individualizing idea that 'these are my teachers etc.'8 would necessarily generate sin. Similarly, the act of slaying even of those deserving to be slain in the battle-if undertaken with the idea that 'This battle is to be fought for the apparent results like pleasures, happiness etc.'- then it generates sin necessarily. This idea lurks in the objection [of Arjuna]. That is why a reply is going to be given [by Bhagavat] as 'You must undertake actions simply as your own duty, and not with an individualizing idea'.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.33 Those for whose sake we do desire empire, enjoyment and pleasures, stand here in war renouncing life and wealth----
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null
null
null
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च। त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।।1.33।।
যেষামর্থে কাঙ্ক্ষিতং নো রাজ্যং ভোগাঃ সুখানি চ৷ ত ইমেবস্থিতা যুদ্ধে প্রাণাংস্ত্যক্ত্বা ধনানি চ৷৷1.33৷৷
যেষামর্থে কাঙ্ক্ষিতং নো রাজ্যং ভোগাঃ সুখানি চ৷ ত ইমেবস্থিতা যুদ্ধে প্রাণাংস্ত্যক্ত্বা ধনানি চ৷৷1.33৷৷
યેષામર્થે કાઙ્ક્ષિતં નો રાજ્યં ભોગાઃ સુખાનિ ચ। ત ઇમેવસ્થિતા યુદ્ધે પ્રાણાંસ્ત્યક્ત્વા ધનાનિ ચ।।1.33।।
ਯੇਸ਼ਾਮਰ੍ਥੇ ਕਾਙ੍ਕ੍ਸ਼ਿਤਂ ਨੋ ਰਾਜ੍ਯਂ ਭੋਗਾ ਸੁਖਾਨਿ ਚ। ਤ ਇਮੇਵਸ੍ਥਿਤਾ ਯੁਦ੍ਧੇ ਪ੍ਰਾਣਾਂਸ੍ਤ੍ਯਕ੍ਤ੍ਵਾ ਧਨਾਨਿ ਚ।।1.33।।
ಯೇಷಾಮರ್ಥೇ ಕಾಙ್ಕ್ಷಿತಂ ನೋ ರಾಜ್ಯಂ ಭೋಗಾಃ ಸುಖಾನಿ ಚ. ತ ಇಮೇವಸ್ಥಿತಾ ಯುದ್ಧೇ ಪ್ರಾಣಾಂಸ್ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ ಧನಾನಿ ಚ৷৷1.33৷৷
യേഷാമര്ഥേ കാങ്ക്ഷിതം നോ രാജ്യം ഭോഗാഃ സുഖാനി ച. ത ഇമേവസ്ഥിതാ യുദ്ധേ പ്രാണാംസ്ത്യക്ത്വാ ധനാനി ച৷৷1.33৷৷
ଯେଷାମର୍ଥେ କାଙ୍କ୍ଷିତଂ ନୋ ରାଜ୍ଯଂ ଭୋଗାଃ ସୁଖାନି ଚ| ତ ଇମେବସ୍ଥିତା ଯୁଦ୍ଧେ ପ୍ରାଣାଂସ୍ତ୍ଯକ୍ତ୍ବା ଧନାନି ଚ||1.33||
yēṣāmarthē kāṅkṣitaṅ nō rājyaṅ bhōgāḥ sukhāni ca. ta imē.vasthitā yuddhē prāṇāṅstyaktvā dhanāni ca৷৷1.33৷৷
யேஷாமர்தே காங்க்ஷிதஂ நோ ராஜ்யஂ போகாஃ ஸுகாநி ச. த இமேவஸ்திதா யுத்தே ப்ராணாஂஸ்த்யக்த்வா தநாநி ச৷৷1.33৷৷
యేషామర్థే కాఙ్క్షితం నో రాజ్యం భోగాః సుఖాని చ. త ఇమేవస్థితా యుద్ధే ప్రాణాంస్త్యక్త్వా ధనాని చ৷৷1.33৷৷
1.34
1
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।।1.34 -- 1.35।। (टिप्पणी प0 24.1) आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, मुझ पर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो, तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो (मैं इनको मारूँ ही) क्या?
।।1.34।।वे लोग गुरुजन,  ताऊ,  चाचा,  पुत्र,  पितामह,   श्वसुर,  पोते,  श्यालक तथा अन्य सम्बन्धी हैं।
।।1.34।। एक ही क्षत्रिय परिवार के लोगों के बीच होने जा रहे इस गृहयुद्ध के विरुद्ध अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण को अन्य तर्क भी देता है। भावाविष्ट अर्जुन अपने कायरतापूर्ण पलायन के लिये अनेक तर्क देकर अपने विचार को उचित सिद्ध करना चाहता है जबकि भाग्य से प्राप्त कर्तव्य करने से वास्तव में वह दूर भाग रहा है। उसने जो कुछ पहले कहा था उसी को वह दोहराता रहता है क्योंकि श्रीकृष्ण अपने गूढ़ मौन द्वारा उसके तर्क स्वीकार नहीं कर रहे थे। भगवान् के अधरों की तीक्ष्ण मुस्कान अर्जुन को लज्जित कर रही थी। वह अपने मित्र एवं सारथि श्रीकृष्ण की अपने विचारों के प्रति स्वीकृति और सहमति चाहता था परन्तु न तो उनकी दृष्टि के भाव से और न ही उनके शब्दों से उसे इच्छित सहमति मिल रही थी।
।।1.34।। व्याख्या --[भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ--ये तीनों ही नरकके द्वार हैं। वास्तवमें एक कामके ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामनाकी दो तरहकी क्रियाएँ होती हैं--इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति। इनमेंसे इष्टकी प्राप्ति भी दो तरहकी होती है --संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रहकी इच्छाका नाम 'लोभ' है और सुखभोगकी इच्छाका नाम 'काम' है। अनिष्टकी निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर 'क्रोध' आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंपर अथवा हमारा अनिष्ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है, जिससे अनिष्ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती है --अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने 'क्रोध' को सफल बनानेके लिये और इष्टकी प्राप्तिके लिये अर्थात् 'लोभ' की पूर्तिके लिये। परन्तु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं]  'आचार्याः पितरः৷৷. किं नु महीकृते'-- अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्तिके लिये राज्यके लोभमें आकर मेरेको मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्ट-प्राप्तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका दरवाजा मोल नहीं लेना है। यहाँ दो बार 'अपि' पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों? पर मान लो कि 'पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी है' ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश करनेमें प्रवृत्त हो जायँ, तो भी  (घ्नतोऽपि)  मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात, इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिल जाय, यह तो सम्भावना ही नहीं है, पर मान लो कि इनको मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो तो भी  (अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः)  मैं इनको मारना नहीं चाहता।
।।1.30 1.34।।न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या ( N शेषबुद्ध्या) बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे (S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य ) वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।
।।1.34।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.34।। मातुला इति।  श्याला भार्याणां भ्रातरो धृष्टद्युम्नप्रभृतयः। वध्येष्वपि स्वराज्यपरिपन्थिष्वाततायिषु कृपाबुद्ध्या स्वधर्माद्युद्धात्पूर्वोक्तमोहादिवशात्प्रच्युतिं प्रदर्शयति  एतानिति। जिघांसन्तं जिघांसीयात् इति न्यायादेतेषां हिंसा न दोषायेत्याशङ्क्याह  घ्नतोऽपीति।
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।।1.34।।येषामर्थे राज्याद्यपेक्षितं तेऽत्र नागता इत्याशङ्क्य तान्विशिनष्टि स्पष्टम्। ननु यदि कृपया त्वमेतान्न हंसि तर्हि त्वामेते राज्यलोभेन हनिष्यन्त्येव अतस्त्वमेवैतान्हत्वा राज्यं भुङ्क्ष्वेत्यत आह त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोः तत्प्राप्त्यर्थमपि अस्मान्घ्नतोऽप्येतान्न हन्तुमिच्छामि इच्छामपि न कुर्यामहं किं पुनर्हन्याम् महीमात्रप्राप्तये तु न हन्यामिति किमु वक्तव्यमित्यर्थः। मधुसूदनेति संबोधयन्वैदिकमार्गप्रवर्तकत्वं भगवतः सूचयति।
।।1.34।।  ननु यदि कृपया त्वमेतान्न हंसि त्वामेते राज्यलोभेन हनिष्यन्त्येव। अतस्त्वमेवैतान्हत्वा राज्यं भुङ्क्ष्व तत्राह  एतान्नेति  सार्धेन। घ्नतोऽप्यस्मान्घातयतोऽप्येतांस्त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोस्तत्प्राप्त्यर्थमप्यहं हन्तुं नेच्छामि। किं पुनर्महीमात्रप्राप्त्यर्थमित्यर्थः।
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।।1.34।।तान् सर्वान्नामभिर्गणयति आचार्या इति। एते राज्यभोगे नियुक्तास्ते त्वत्र मरणार्थमुपस्थितास्तन्मारणानन्तरं स्वस्यानपेक्षितत्वात् राज्यभोगसुखादिभिर्न किञ्चित्कार्यमित्यर्थः।
।।1.34।।स्याला इति स्यालशब्दो दन्त्यादिः।वि जामातुरुत वाघा स्यालात् इति मन्त्रवर्णात्।स्याल्लाजानावपतीति वा लाजा लाजतेः स्यं शूर्पं स्यतेः इति यास्कः।
।।1.34।।तान्विशिनष्टि  आचार्या इति।  मातुला जननीभ्रातरः। भार्याभ्रातारः स्यालाः। स्पष्टमन्यत्।
1.34 आचार्याः teachers? पितरः fathers? पुत्राः sons? तथा thus? एव also? च and? पितामहाः grandfathers? मातुलाः maternal uncles? श्वशुराः fathersinlaw? पौत्राः grandsons? श्यालाः brothersinlaw? सम्बन्धिनः relatives? तथा as well as.No Commentary.
1.34. Teachers, fathers, sons and also grandfathers, maternal uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law and other relatives,-
1.34 Teachers, fathers and grandfathers, sons and grandsons, uncles, father-in-law, brothers-in-law and other relatives.
1.32 1.34 O Govinda! What need do we have of a kingdom, or what (need) of enjoyments and livelihood? Those for whom kingdom, enjoyments and pleasures ae desired by us, viz teachers, uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law as also relatives-those very ones stand arrayed for battle risking their lives and wealth.
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1.34. O slayer-of-Mandhu (Krsna)! I do not desire to slay these men-even though they slay me-even for the sake of the kingdom of the three worlds-what to speak for the sake of the [mere] earth.
1.30 1.34 Na ca sreyah, etc., upto mahikrte. Those who are wrongly conceived as object of slaying, with the individualizing idea that 'these are my teachers etc.'8 would necessarily generate sin. Similarly, the act of slaying even of those deserving to be slain in the battle-if undertaken with the idea that 'This battle is to be fought for the apparent results like pleasures, happiness etc.'- then it generates sin necessarily. This idea lurks in the objection [of Arjuna]. That is why a reply is going to be given [by Bhagavat] as 'You must undertake actions simply as your own duty, and not with an individualizing idea'.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.34 Teachers, fathers, sons and also grandfathers, uncles, fathers-in-law and grandsons, brothers-in-law and other kinsmen---
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आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः। मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।1.34।।
আচার্যাঃ পিতরঃ পুত্রাস্তথৈব চ পিতামহাঃ৷ মাতুলাঃ শ্চশুরাঃ পৌত্রাঃ শ্যালাঃ সম্বন্ধিনস্তথা৷৷1.34৷৷
আচার্যাঃ পিতরঃ পুত্রাস্তথৈব চ পিতামহাঃ৷ মাতুলাঃ শ্চশুরাঃ পৌত্রাঃ শ্যালাঃ সম্বন্ধিনস্তথা৷৷1.34৷৷
આચાર્યાઃ પિતરઃ પુત્રાસ્તથૈવ ચ પિતામહાઃ। માતુલાઃ શ્ચશુરાઃ પૌત્રાઃ શ્યાલાઃ સમ્બન્ધિનસ્તથા।।1.34।।
ਆਚਾਰ੍ਯਾ ਪਿਤਰ ਪੁਤ੍ਰਾਸ੍ਤਥੈਵ ਚ ਪਿਤਾਮਹਾ। ਮਾਤੁਲਾ ਸ਼੍ਚਸ਼ੁਰਾ ਪੌਤ੍ਰਾ ਸ਼੍ਯਾਲਾ ਸਮ੍ਬਨ੍ਧਿਨਸ੍ਤਥਾ।।1.34।।
ಆಚಾರ್ಯಾಃ ಪಿತರಃ ಪುತ್ರಾಸ್ತಥೈವ ಚ ಪಿತಾಮಹಾಃ. ಮಾತುಲಾಃ ಶ್ಚಶುರಾಃ ಪೌತ್ರಾಃ ಶ್ಯಾಲಾಃ ಸಮ್ಬನ್ಧಿನಸ್ತಥಾ৷৷1.34৷৷
ആചാര്യാഃ പിതരഃ പുത്രാസ്തഥൈവ ച പിതാമഹാഃ. മാതുലാഃ ശ്ചശുരാഃ പൌത്രാഃ ശ്യാലാഃ സമ്ബന്ധിനസ്തഥാ৷৷1.34৷৷
ଆଚାର୍ଯାଃ ପିତରଃ ପୁତ୍ରାସ୍ତଥୈବ ଚ ପିତାମହାଃ| ମାତୁଲାଃ ଶ୍ଚଶୁରାଃ ପୌତ୍ରାଃ ଶ୍ଯାଲାଃ ସମ୍ବନ୍ଧିନସ୍ତଥା||1.34||
ācāryāḥ pitaraḥ putrāstathaiva ca pitāmahāḥ. mātulāḥ ścaśurāḥ pautrāḥ śyālāḥ sambandhinastathā৷৷1.34৷৷
ஆசார்யாஃ பிதரஃ புத்ராஸ்ததைவ ச பிதாமஹாஃ. மாதுலாஃ ஷ்சஷுராஃ பௌத்ராஃ ஷ்யாலாஃ ஸம்பந்திநஸ்ததா৷৷1.34৷৷
ఆచార్యాః పితరః పుత్రాస్తథైవ చ పితామహాః. మాతులాః శ్చశురాః పౌత్రాః శ్యాలాః సమ్బన్ధినస్తథా৷৷1.34৷৷
1.35
1
35
।।1.34 -- 1.35।। (टिप्पणी प0 24.1) आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, मुझपर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो, तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वीके लिये तो (मैं इनको मारूँ ही) क्या?
।।1.35।।हे मधुसूदन !  इनके मुझे मारने पर अथवा त्रैलोक्य के राज्य के लिये भी मैं इनको मारना नहीं चाहता,  फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है।
।।1.35।। यह विचार कर कि संभवत उसने अपने पक्ष को श्रीकृष्ण के समक्ष अच्छी प्रकार दृढ़ता से प्रस्तुत नहीं किया है जिससे कि भगवान् उसके मत की पुष्टि करें अर्जुन व्यर्थ में त्याग की बातें करता है। वह यह दर्शाना चाहता है कि वह इतना उदार हृदय है कि उसके चचेरे भाई उसको मार भी डालें तो भी वह उन्हें मारने को तैयार नहीं होगा। अतिशयोक्ति की चरम सीमा पर वह तब पहुँचता है जब वह घोषणा करता है कि त्रैलोक्य का राज्य मिलता हो तब भी वह युद्ध नहीं करेगा फिर केवल हस्तिनापुर के राज्य की बात ही क्या है।
।।1.35।। व्याख्या--[भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ--ये तीनों ही नरकके द्वार हैं। वास्तवमें एक कामके ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामनाकी दो तरहकी क्रियाएँ होती हैं--इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति। इनमेंसे इष्टकी प्राप्ति भी दो तरहकी होती है--संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रहकी इच्छाका नाम 'लोभ' है और सुखभोगकी इच्छाका नाम 'काम' है। अनिष्टकी निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर 'क्रोध' आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंपर अथवा हमारा अनिष्ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है जिससे अनिष्ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती है --अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने 'क्रोध' को सफल बनानेके लिये और इष्टकी प्राप्तिके लिये अर्थात् 'लोभ' की पूर्तिके लिये। परन्तु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं]  'आचार्याः पितरः৷৷. किं नु महीकृते'----अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्तिके लिये राज्यके लोभमें आकर मेरेको मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्टप्राप्तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका दरवाजा मोल नहीं लेना है। यहाँ दो बार  अपि  पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों? पर मान लो कि पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी' है ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश करनेमें प्रवृत्त हो जायँ तो भी  (घ्नतोऽपि)  मैं इनको मारना नहीं चाहता। दूसरी बात इनको मारनेसे मुझे
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.35।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.35।।पृथिवीप्राप्त्यर्थं हि हननमेतेषामिष्यते न च तत्प्राप्तिः समीहितेति कैमुतिकन्यायेन दर्शयति  अपीति।  नहि महदपि त्रैलोक्यलक्षणं राज्यं लब्धुं स्वजनहिंसायै मनो मदीयं स्पृहयति पृथिवीप्राप्त्यर्थं पुनर्बन्धुवधं न श्रद्दधामीति किं वक्तव्यमित्यर्थः। दुर्योधनादीनां शत्रूणां निग्रहे प्रीतिप्राप्तिसंभवाद्युद्धं कर्तव्यमित्याशङ्क्याह  निहत्येति।
null
।।1.35।।नन्वंन्यान्विहाय धार्तराष्ट्रा एव हन्तव्यास्तेषामत्यन्तक्रूरतरतत्तद्दुःखदातृणां वधे प्रीतिसंभवादित्यत आह धार्तराष्ट्रान्दुर्योधनादीन्भ्रातृ़न्निहत्य स्थितनामस्माकं का प्रीतिः स्यात्। न कापीत्यर्थः। नहि मूढजनोचितक्षणमात्रवर्तिसुखाभासलोभेन चिरतरनरकयातनाहेतुर्बन्धुवधोऽस्माकं युक्त इति भावः। जनार्दनेति संबोधनेन यदि वध्या एते तर्हि त्वमेवैताञ्जहि प्रलये सर्वजनहिंसकत्वेऽपि सर्वपापासंसर्गित्वादिति सूचयति। ननुअग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।। इति स्मृतेरेतेषां च सर्वप्रकारैराततायित्वात्आतताययिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।। इति वचनेन दोषाभावप्रतीतेर्हन्तव्या एव दुर्योधनादय आततायिन इत्याशङ्क्याह पापमेवेति। एतानाततायिनोऽपि हत्वा स्थितानस्मान्पापमाश्रयेदेवेति संबन्धः। अथवा पापमेवाश्रयेन्न किंचिदन्यद्दृष्टदृष्टं वा प्रयोजनमित्यर्थः।न हिंस्यात् इति धर्मशास्त्रात्आततायिनं हन्यात् इत्यर्थशास्त्रस्य दुर्बलत्वात्। तदुक्तं याज्ञवल्क्येन स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः। अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः।। इति।अपरा व्याख्या। ननु धार्ताराष्ट्रान्घ्नतां भवतां प्रीत्यभावेऽपि युष्मान्घ्नतां धार्तराष्ट्राणां प्रीतिरस्त्येवातस्ते युष्मान्हन्युरित्यत आह पापमेवेति। अस्मान्हत्वा स्थितानेतानाततायिनो धार्ताराष्ट्रान्पूर्वमपि पापिनः सांप्रतमपि पापमेवाश्रयेन्नान्यत्किंचित्सुखमित्यर्थः। तथा चायुध्यतोऽस्मान्हत्वैत एव पापिनो भविष्यन्ति नास्माकं कापि क्षतिः पापासंबन्धादित्यभिप्रायः।
।। 1.35  ननु यदि कृपया त्वमेतान्न हंसि त्वामेते राज्यलोभेन हनिष्यन्त्येव। अतस्त्वमेवैतान्हत्वा राज्यं भुङ्क्ष्व तत्राह  एतान्नेति  सार्धेन। घ्नतोऽप्यस्मान्घातयतोऽप्येतांस्त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोस्तत्प्राप्त्यर्थमप्यहं हन्तुं नेच्छामि। किं पुनर्महीमात्रप्राप्त्यर्थमित्यर्थः।
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।।1.35।।ननु त्वत्सम्बन्धिनोऽपि ये युद्धार्थमुपस्थितास्तांश्चेत् त्वं न मारयिष्यसि तदा त एव त्वां मारयिष्यन्तीति चेत्तत्राह एतानिति। हे मधुसूदन मां घ्नतोऽपि एतानहं हन्तुं नेच्छामि। मधुसूदनेति सम्बोधनेन त्वत्सहायवन्तं मामेते मारयितुमेव न समर्था इति ज्ञाप्यते। त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोस्तथाकर्तुं नेच्छामि किं पुनः महीकृते तथा करिष्यामि
।।1.35।।हन्तुं इच्छापि मम न भवति किमुत हन्तृत्वमित्यर्थः। महीकृते पृथिव्यर्थे।
।।1.35।।   ननु स्वराज्यपरिपन्थिनामाततायिनां हननमेव युक्तंजिघांसन्तं जिघांसीयात् इति न्यायेनैतेषां हनने दोषाभावादित्याशङ्क्याह  एतानिति।  अपि त्रेलोक्यराज्यस्य हेतोर्घ्नातोऽप्येतानित्यन्वयः। पृथिवीप्राप्तयर्थं हि हननमेतेषामिष्यते नच तत्प्राप्तिः समीहितेति कैमुत्यन्यायेन दर्शयति  अपीति।  नहि महदपि त्रेलोक्यराज्यं लब्धुं स्वजनहिंसायै मनो मदीयं स्पृहयति पृथिवीप्राप्त्यर्थं पुनर्बन्धुवधं न श्रद्दध्यामिति किं वक्तव्यमित्यर्थ इति प्राञ्चः। मधोः सूदनेन त्वयापि स्वपुत्ररक्षणं कृतमिति कथमस्माभिः संबन्धिनाशः कर्तव्य इति ध्वनयन्संबोधयति  मधुसूदनेति।  यद्वा मधुरित्युपलक्षणं कैटभस्यापि। मधुकैटभयो रजस्तमसोः सूजनस्त्वं स्वभक्तं मां तदुभयात्मकेऽस्मिन्घोरे कर्मणि नियोजयितुं नार्हसीति सूचयन्नाह  मधुसूदनेति।  मधुसूदनेति संबोधयन् वैदिकमार्गप्रवर्तक्रत्वं भगवतः सूचयतीति केचित्।
1.35 एतान् these? न not? हन्तुम् to kill? इच्छामि (I) wish? घ्नतःअपि even if they kill me? मधुसूदन O Madhusudana (the slayer of Madhu? a demon)? अपि even? त्रैलोक्यराज्यस्य dominion over the three worlds? हेतोः for the sake of? किम् how? नु then? महीकृते for the sake of the earth.No Commentary.
1.35. These I do not wish to kill, though they kill me, O Krishna, even for the sake of dominion over the three worlds; leave alone killing them for the sake of the earth.
1.35 I would not kill them, even for three worlds; why then for this poor earth? It matters not if I myself am killed.
1.35 O Madhusudana, even if I am killed, I do not want to kill these even for the sake of a kingdom extending over the three worlds; what to speak of doing so for the earth!
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1.35. By slaying Dhrtarastra's sons what joy would be to go us, O Janardana?
1.35 – 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.35 These I would not slay, though they might slay me, even for the sovereignty of the three worlds - how much less for this earth O Krsna?
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एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।1.35।।
এতান্ন হন্তুমিচ্ছামি ঘ্নতোপি মধুসূদন৷ অপি ত্রৈলোক্যরাজ্যস্য হেতোঃ কিং নু মহীকৃতে৷৷1.35৷৷
এতান্ন হন্তুমিচ্ছামি ঘ্নতোপি মধুসূদন৷ অপি ত্রৈলোক্যরাজ্যস্য হেতোঃ কিং নু মহীকৃতে৷৷1.35৷৷
એતાન્ન હન્તુમિચ્છામિ ઘ્નતોપિ મધુસૂદન। અપિ ત્રૈલોક્યરાજ્યસ્ય હેતોઃ કિં નુ મહીકૃતે।।1.35।।
ਏਤਾਨ੍ਨ ਹਨ੍ਤੁਮਿਚ੍ਛਾਮਿ ਘ੍ਨਤੋਪਿ ਮਧੁਸੂਦਨ। ਅਪਿ ਤ੍ਰੈਲੋਕ੍ਯਰਾਜ੍ਯਸ੍ਯ ਹੇਤੋ ਕਿਂ ਨੁ ਮਹੀਕਰਿਤੇ।।1.35।।
ಏತಾನ್ನ ಹನ್ತುಮಿಚ್ಛಾಮಿ ಘ್ನತೋಪಿ ಮಧುಸೂದನ. ಅಪಿ ತ್ರೈಲೋಕ್ಯರಾಜ್ಯಸ್ಯ ಹೇತೋಃ ಕಿಂ ನು ಮಹೀಕೃತೇ৷৷1.35৷৷
ഏതാന്ന ഹന്തുമിച്ഛാമി ഘ്നതോപി മധുസൂദന. അപി ത്രൈലോക്യരാജ്യസ്യ ഹേതോഃ കിം നു മഹീകൃതേ৷৷1.35৷৷
ଏତାନ୍ନ ହନ୍ତୁମିଚ୍ଛାମି ଘ୍ନତୋପି ମଧୁସୂଦନ| ଅପି ତ୍ରୈଲୋକ୍ଯରାଜ୍ଯସ୍ଯ ହେତୋଃ କିଂ ନୁ ମହୀକୃତେ||1.35||
ētānna hantumicchāmi ghnatō.pi madhusūdana. api trailōkyarājyasya hētōḥ kiṅ nu mahīkṛtē৷৷1.35৷৷
ஏதாந்ந ஹந்துமிச்சாமி க்நதோபி மதுஸூதந. அபி த்ரைலோக்யராஜ்யஸ்ய ஹேதோஃ கிஂ நு மஹீகரிதே৷৷1.35৷৷
ఏతాన్న హన్తుమిచ్ఛామి ఘ్నతోపి మధుసూదన. అపి త్రైలోక్యరాజ్యస్య హేతోః కిం ను మహీకృతే৷৷1.35৷৷
1.36
1
36
।।1.36।। हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारकर हमलोगों को क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा।
।।1.36।।हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों की हत्या करके हमें क्या प्रसन्नता होगी?  इन आततायियों को मारकर तो हमें केवल पाप ही लगेगा।
।।1.36।। अर्जुन के इतना कुछ कहने पर भी भगवान् श्रीकृष्ण मूर्तिवत् मौन ही रहते हैं। इसलिये वह पहले की भाषा छोड़कर मृदुभाव से किसी मन्द बुद्धि मित्र को कोई बात समझाने की शैली में भावुक तर्क देने लगता है। भगवान् के निरन्तर मौन धारण किये रहने से अर्जुन की यह परिवर्तित नीति अत्यन्त हास्यास्पद प्रतीत होती है।इस श्लोक में प्रथम वह कहता है कि दुर्योधनादि को मारने से किसी प्रकार का कल्याण होने वाला नहीं है। इस पर भी काष्ठवत् मौन खड़े श्रीकृष्ण को देखकर उसको इस मौन भाव का कारण समझ में नहीं आता। शीघ्र ही उसे स्मरण हो आता है कि कौरव परिवार आततायी है और धर्मशास्त्र के नियमानुसार आततायी को तत्काल मार डालना चाहिये चाहे वह शिक्षक वृद्ध पुरुष या वेदज्ञ ब्राह्मण ही क्यों न हो। आततायी को मारने में किसी प्रकार का पाप नहीं है। अन्यायपूर्वक किसी पर आक्रमण करने वाला पुरुष आततायी कहलाता है।अपने शुद्ध दिव्य स्वरूप के विपरीत हम जो गलत काम करते हैं वे पाप कहलाते हैं। शरीर मन और बुद्धि को ही अपना स्वरूप समझकर कोई कर्म करना श्रेष्ठ मनुष्य का लक्षण नहीं है। अहंकारपूर्वक स्वार्थ के लिये किये गये कर्म हमारे और शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा के बीच वासना की सुदृढ़ दीवार खड़ी कर देते हैं। इन्हें ही पाप कहा जाता है।शत्रुओं की हत्या करने में अर्जुन का अविवेकपूर्ण विरोध शास्त्र को न समझने का परिणाम है और फिर अपनी समझ के अनुसार कर्म करना अपनी संस्कृति को ही नष्ट करना है।इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के तर्कों की न स्तुति करते हैं और न ही आलोचना। वे जानते हैं कि अर्जुन को अपने मन की बात कह लेने देनी चाहिए। किसी मानसिक रोगी के लिए यह उत्तम निदान है। इस प्रकार उसका चित्त शांत हो जाता है।
।।1.36।। व्याख्या--'निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः ৷৷. हत्वैतानाततायिनः'-- धृतराष्ट्रके पुत्र और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं, उनको मारकर विजय प्राप्त करनेसे हमें क्या प्रसन्नता होगी? अगर हम क्रोध अथवा लोभके वेगमें आकर इनको मार भी दें, तो उनका वेग शान्त होनेपर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात् क्रोध और लोभमें आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे--ऐसा पश्चत्ताप ही करना पड़ेगा। कुटुम्बियोंकी याद आनेपर उनका अभाव बार-बार खटकेगा। चित्तमें उनकी मृत्युका शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थितिमें हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या ?तात्पर्य है कि इनको मारनेसे हम इस लोकमें जबतक जीते रहेंगे, तबतक हमारे चित्तमें कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारनेसे हमें जो पाप लगेगा, वह परलोकमें हमें भयंकर दुःख देनेवाला होगा।
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.36।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.36।।यदि पुनरमी दुर्योधनादयो न निगृह्येरन् भवन्तस्तर्हि तैर्निगृहीता दुःखिताः स्युरित्याशङ्क्याह  पापमेवेति।  यदीमे दुर्योधनादयो निर्दोषानेवास्मानकस्माद्युद्धभूमौ हन्युः तदैतान्अग्निदो गरदश्च इत्यादिलक्षणोपेतानाततायिनो निर्दोषस्वजनहिंसाप्रयुक्तं पापं पूर्वमेव पापिनः समाश्रयेदित्यर्थः। अथवा यद्यप्येते भवन्त्यातयायिनस्तथाप्येतानतिशोच्यान्दुर्योधनादीन्हिंसित्वा तत्कृतं पापमस्मानेवाश्रयेदतो नास्माभिरेते हन्तव्या इत्यर्थः। अथवा गुरुभ्रातृसुहृत्प्रभृतीनेतान्हत्वा वयमाततायिनः स्याम ततश्चैतान्हत्वा हिंसाकृतं पापमाततायिनोऽस्मानेव समाश्रयेदिति युद्धादुपरमणमस्माकं श्रेयस्करमित्यर्थः। फलाभावादनर्थसंभवाच्च परहिंसा न कर्तव्येत्युपसंहरति  तस्मादिति।  किञ्च राज्यसुखमुद्दिश्य युद्धमुपक्रम्य तेन च स्वजनपरिक्षये न सुखमुपपद्यते तेन न कर्तव्यं युद्धमित्याह  स्वजनं हीति।
null
।।1.36।।फलाभावदनर्थसंभवाच्च परहिंसा न कर्तव्येतिनच श्रेयोऽनुपश्यामि इत्यारभ्योक्तं तदुपसंहरति। अदृष्टफलाभावोऽनर्थसंभवश्च तच्छब्देन परामृश्यते। दृष्टसुखाभावमाह स्वजनं हीति। माधवेति लक्ष्मीपतित्वान्नालक्ष्मीके कर्मणि प्रवर्तयितुमर्हसीति भावः।
।।1.36।।  ननु च अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारापहर्ता च षडेते ह्याततायिनः।। इति स्मरणात्। अग्निद इत्यादिभिः षड्भिरपि हेतुभिरेते तावदाततायिनः। आततायिनां च वधो युक्त एव।आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।। इति वचनात्तत्राह सार्धेन  पापमिति। अततायिनमायान्तम् इत्यादिकमर्थशास्त्रं धर्मशास्त्राद्दुर्बलम्। यथोक्तं याज्ञवल्क्येन स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः। अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः।। तस्मादाततायिनामप्येतेषामार्यादीनां वधेऽस्माकं पापमेव भवेदन्याय्यत्वादधर्मत्वाच्चैतद्वधस्य न चेह सुखं स्यादित्याह  स्वजनं   हीति।
null
।।1.36।।हे जनार्दन सर्वाविद्यानाशक धार्तराष्ट्रान् ज्ञानदृष्टिरहितानेतान् निहत्य नः का प्रीतिः स्यात् न कापीत्यर्थः। जनार्दनेति सम्बोधनेन त्वेदीयानां अस्माकं तथाकरणमनुचितमिति भावो व्यञ्जितः। ते तु धृतराष्ट्रात्मजा इति त्वां न पश्यन्ति तेन तेषां तथाकरणमुचितमिति धार्तराष्ट्रेति पदेन व्यञ्जितम्। यद्वा अस्मदीयान् धार्त्तराष्ट्रान्निहत्य तव का प्रीतिः स्यात्। अत्रायं भावः लौकिकभावेन ते त्वस्मदीया एव तन्मारणे नास्माकं तु प्रीतिः स्यात्तदा त्वत्प्रीत्यर्थं हन्तव्याः अस्माकं यथाकथञ्चित् त्वं प्रीणनीय इति भावः। ननु ते आततायिन इतिअग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारापहर्त्ता च षडेते ह्याततायिनः।। मनुः.8।350क्षे.23आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन मनुः.8।350।51 इत्यादिवाक्यैः प्रीतिर्भवतु मा वा सर्वथैते ह्युक्तसर्वदोषसहिता इति हन्तव्या एव ते तु स्वपापेनैव हन्तव्याः त्वं निमित्तमात्रं भवेति चेत्तत्राह पापमेवाश्रयेदिति। आततायिन एतान् हत्वा पापमस्मानेवाश्रयेत्। किञ्च आततायिमारणे दोषाभावस्तु धर्मशास्त्रविचारेणार्थशास्त्रविचारेण वा निरूपितः न तु भक्तिविचारेण भक्तिमार्गात्तु तयोर्दुर्बलत्वात्तन्मारणेनास्माकं पापमेव भवेत् पापाच्च भगवत्सम्बन्धो न स्यात् अतएवनराणां क्षीणपापानाम् पां.गी.श्लो.40 इति निरूपितम्।
।।1.36।।आततायिनःअग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन। इति। यद्यप्येवं तथापि एतान्हत्वा अस्मान्पापमेव आश्रयेत्। आततायिवधो हि अर्थशास्त्रविहितः।न हिंस्यात्सर्वा भूतानि इति तु धर्मशास्त्रम्। तच्च पूर्वस्मात्प्रबलम्। यथोक्तं याज्ञवल्क्येनस्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः। अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः। इति। अस्मान्हत्वा एतान् आततायिनः पापमेवाश्रयेदित्यपरा योजना। तथा च एत एवास्मद्वधेन नश्यन्तु न तु वयमेतेषां वधेन नङ्क्ष्याम इति भावः।
।।1.36।।ननु बह्वपकर्तुर्धृतराष्ट्रस्य पुत्रान्दुःखदातृ़न्निहत्य स्थितानां युष्माकां प्रीतिर्भविष्यतीति चेत्तत्राह  निहत्येति।  धार्तराष्ट्रान्निहत्य नोऽस्माकं का प्रीतिः स्यातः। न कापीत्यर्थः। अपकर्तर्यपि वृद्धेऽपकारो न कार्य इति धृतराष्ट्रसंबन्धप्रदर्शनाशयः। तव तु दुष्टजनघातेन स्वसंबन्धिप्रसन्नता संपद्यते अस्माकं तु सापि नास्ति अस्मत्संबन्धिनामवश्यंभाविनाशदर्शनादिति सूचयन्नाह  जनार्दनेति।  जनार्दनेति संबोधनेन यद्येते वध्यास्तर्हि त्वमेवैताञ्जहि प्रलये सर्वजनहिंसकत्वेऽपि सर्वेपापासंसर्गित्वादिति सूचयतीति केचित्। ननुअग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।। इति वचनादाततायिन एतान्हत्वानाततायिवधे दोषः इति वचनाद्युष्मान्पापं नाश्रयिष्यति अपित्वाततायिन एतानेवेत्यत आह  पापमिति।  एतानाततायिनो हत्वाऽस्मानेव पापमाश्रयेत्।द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ। परिव्राड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः।। इत्यादिना हतस्य पापापगमाच्छ्रेयोविशेषाभिधानात् हननकर्तृभूतानस्मानेव हिंसानिबन्धनं पापमाश्रयेदितिआततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।। इति वचनं त्वर्थशास्त्रत्वेन दुर्बलत्वात्न हिंस्यात्सर्वा भूतानि इति प्रबलेन धर्मशास्त्रेण बाध्यते। तदुक्तं याज्ञवलक्येनस्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यहारतः। अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः। इत्यभिप्रायः। युद्धायानुद्यतानस्मान्हत्वैतानाततायिनः। पापमेवाश्रयेदिति वा एतान्हत्वाततायिनोऽस्मानेवेति वेति पक्षत्रयेऽपि एतदादेर्हननक्रियांप्रति कर्तृत्वे क्त्वाप्रत्ययः स्थित्यादिक्रियामध्याहृत्योपपद्यते।
1.36 निहत्य having slain? धार्तराष्ट्रान् sons of Dhritarashtra? नः to us? का what? प्रीतिः pleasure? स्यात् may be? जनार्दन O Janardana? पापम् sin? एव only? आश्रयेत् would take hold? अस्मान् to us? हत्वा having killed? एतान् these? आततायिनः felons.Commentary Janardana means one who is worshipped by all for prosperity and salvation -- Krishna.He who sets fire to the house of another? who gives poision? who runs with sword to kill? who has plundered wealth and lands? and who has taken hold of the wife of somody else is an atatayi. Duryodhana had done all these evil actions.
1.36. By killing these sons of Dhritarashtra, what pleasure can be ours, O Janardana? Only sin will accrue to us from killing these felons.
1.36 My Lord! What happiness can come from the death of these sons of Dhritarashtra? We shall sin if we kill these desperate men.
1.36 O Janardana, what happiness shall we derive by killing the sons of Dhrtarastra? Sin alone will accrue to us by killing these felons.
null
1.36. Nothing but sin would slay these desperadoes and take hold of us. Therefore we should not slay Dhrtarastra's sons, our own relatives.
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.36 If we kill the sons of Dhrtarastra, what joy will be ours, O Krsna? Sin alone will accrue to us if we kill these murderous felons.
null
null
null
null
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन। पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।1.36।।
নিহত্য ধার্তরাষ্ট্রান্নঃ কা প্রীতিঃ স্যাজ্জনার্দন৷ পাপমেবাশ্রযেদস্মান্হত্বৈতানাততাযিনঃ৷৷1.36৷৷
নিহত্য ধার্তরাষ্ট্রান্নঃ কা প্রীতিঃ স্যাজ্জনার্দন৷ পাপমেবাশ্রযেদস্মান্হত্বৈতানাততাযিনঃ৷৷1.36৷৷
નિહત્ય ધાર્તરાષ્ટ્રાન્નઃ કા પ્રીતિઃ સ્યાજ્જનાર્દન। પાપમેવાશ્રયેદસ્માન્હત્વૈતાનાતતાયિનઃ।।1.36।।
ਨਿਹਤ੍ਯ ਧਾਰ੍ਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰਾਨ੍ਨ ਕਾ ਪ੍ਰੀਤਿ ਸ੍ਯਾਜ੍ਜਨਾਰ੍ਦਨ। ਪਾਪਮੇਵਾਸ਼੍ਰਯੇਦਸ੍ਮਾਨ੍ਹਤ੍ਵੈਤਾਨਾਤਤਾਯਿਨ।।1.36।।
ನಿಹತ್ಯ ಧಾರ್ತರಾಷ್ಟ್ರಾನ್ನಃ ಕಾ ಪ್ರೀತಿಃ ಸ್ಯಾಜ್ಜನಾರ್ದನ. ಪಾಪಮೇವಾಶ್ರಯೇದಸ್ಮಾನ್ಹತ್ವೈತಾನಾತತಾಯಿನಃ৷৷1.36৷৷
നിഹത്യ ധാര്തരാഷ്ട്രാന്നഃ കാ പ്രീതിഃ സ്യാജ്ജനാര്ദന. പാപമേവാശ്രയേദസ്മാന്ഹത്വൈതാനാതതായിനഃ৷৷1.36৷৷
ନିହତ୍ଯ ଧାର୍ତରାଷ୍ଟ୍ରାନ୍ନଃ କା ପ୍ରୀତିଃ ସ୍ଯାଜ୍ଜନାର୍ଦନ| ପାପମେବାଶ୍ରଯେଦସ୍ମାନ୍ହତ୍ବୈତାନାତତାଯିନଃ||1.36||
nihatya dhārtarāṣṭrānnaḥ kā prītiḥ syājjanārdana. pāpamēvāśrayēdasmānhatvaitānātatāyinaḥ৷৷1.36৷৷
நிஹத்ய தார்தராஷ்ட்ராந்நஃ கா ப்ரீதிஃ ஸ்யாஜ்ஜநார்தந. பாபமேவாஷ்ரயேதஸ்மாந்ஹத்வைதாநாததாயிநஃ৷৷1.36৷৷
నిహత్య ధార్తరాష్ట్రాన్నః కా ప్రీతిః స్యాజ్జనార్దన. పాపమేవాశ్రయేదస్మాన్హత్వైతానాతతాయినః৷৷1.36৷৷
1.37
1
37
।।1.37।। इसलिये अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि हे माधव! अपने कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?
।।1.37।।हे माधव  !  इसलिये अपने बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारना हमारे लिए योग्य नहीं है,  क्योंकि स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।
।।1.37।। ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुन के तर्क शास्त्रसम्मत हैं। जाने या अनजाने शास्त्रों का विपरीत अर्थ करने वाले लोगों के कारण दर्शनशास्त्र की अत्यधिक हानि होती है। अर्जुन अपने दिये हुये तर्कों को ही सही समझकर उनसे सन्तुष्ट हुआ इस खतरनाक निर्णय पर पहुँचता है कि उसको इन आक्रमणकारियों को नहीं मारना चाहिये भगवान् फिर भी शान्त रहते हैं।श्रीकृष्ण के मौन से वह और भी अधिक विचलित होकर उनसे दयनीय भाव से प्रार्थना करते हुए अपने मूर्खतापूर्ण निर्णय की पुष्टि चाहता है। दीर्घकाल तक साथ में रहने से दोनों में स्नेहभाव बढ़ गया था और इसी कारण अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण को माधव नाम से सम्बोधित करके पूछता है कि स्वबान्धवों की ही हत्या करके कोई व्यक्ति कैसे सुखी रह सकता है। भगवान् फिर भी मौन रहते हैं।
1.37।। व्याख्या-- 'तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्'-- अभीतक (1। 28 से लेकर यहाँतक) मैंने कुटुम्बियोंको न मारनेमें जितनी युक्तियाँ, दलीलें दी हैं, जितने विचार प्रकट किये हैं, उनके रहते हुए हम ऐसे अनर्थकारी कार्यमें कैसे प्रवृत्त हो सकते हैं? अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको मारनेका कार्य हमारे लिये सर्वथा ही अयोग्य है, अनुचित है। हम-जैसे अच्छे पुरुष ऐसा अनुचित कार्य कर ही कैसे सकते हैं?  'स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव'-- हे माधव! इन कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे ही बड़ा दुःख हो रहा है, संताप हो रहा है, तो फिर क्रोध तथा लोभके वशीभूत होकर हम उनको मार दें तो कितना दुःख होगा! उनको मारकर हम कैसे सुखी होंगे? यहाँ 'ये हमारे घनिष्ठ सम्बन्धी हैं'--इस ममताजनित मोहके कारण अपने क्षत्रियोचित कर्तव्यकी तरफ अर्जुनकी दृष्टि ही नहीं जा रही है। कारण कि जहाँ मोह होता है, वहाँ मनुष्यका विवेक दब जाता है। विवेक दबनेसे मोहकी प्रबलता हो जाती है। मोहके प्रबल होनेसे अपने कर्तव्यका स्पष्ट भान नहीं होता।
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.37।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.37।।कथं तर्हि परेषां कुलक्षये स्वजनहिंसायां च प्रवृत्तिस्तत्राह  यद्यपीति।  लोभोपहतबुद्धित्वात्तेषां कुलक्षयादिप्रयुक्तदोषप्रतीत्यभावात्प्रवृत्तिविस्रम्भः संभवतीत्यर्थः।
null
।।1.37।।कथं तर्हि परेषां कुलक्षये स्वजनहिंसायां च प्रवृत्तिस्तत्राह लोभोपहतबुद्धित्वात्तेषां कुलक्षयादिनिमित्तदोषप्रतिसंधानाभावात्प्रवृत्तिः संभवतीत्यर्थः। अतएव भीष्मादीनां शिष्टानां बन्धुवधे प्रवृत्तत्वाच्छिष्टाचारत्वेन वेदमूलत्वादितरेषामपि तत्प्रवृत्तिरुचितेत्यपास्तम।हेतुदर्शनाच्च इति न्यायात्। तत्रहि लोभादिहेतुदर्शने वेदमूलत्वं न कल्प्यत इति स्थापितं यद्यप्येते न पश्यन्ति तथापि कथमस्माभिर्न ज्ञेयमित्युत्तरश्लोकेन संबन्धः।
।।1.37।।  ननु तवैतेषामपि बन्धुवधदोषे समाने सति यथैवैते बन्धुवधदोषमङ्गीकृत्य युद्धे प्रवर्तन्ते तथैव भवानपि प्रवर्ततां किमनेन विषादेनेत्यत आह  यद्यपीति  द्वाभ्याम्। राज्यलोभेनोपहतं भ्रष्टविवेकं चेतो येषां त एते दुर्योधनादयो यद्यपि दोषं न पश्यन्ति तथाप्यस्माभिर्दोषं प्रपश्यद्भिरस्मात्पापान्निवर्तितुं कथं न ज्ञेयम्। निवृत्तावेव बुद्धिः कर्तव्येत्यर्थः।
null
।।1.37।।तस्माद्वयं त्वदीयत्वादेतन्मारणानर्हा इत्याह तस्मादिति। तस्माद्वयं स्वबान्धवान्धार्त्तराष्ट्रान् हन्तुं नार्हा न योग्या इत्यर्थः। हे माधव स्वजनं हत्वा कथं सुखिनः स्याम सुखिनो भविष्यामः इत्यर्थः। वयमित्युक्त्या भगवतः स्वमध्यपातित्वमुक्तम् तेनास्माकं त्वत्सङ्ग एव सुखरूपः त्वमेवास्माकं स्वजन इति ज्ञापितम्। तस्मात्स्वजनापराधात् स्वजननाशः स्यादस्माकं च त्वमेव स्वजन इति त्वत्सम्बन्धाभावे वयं कथं सुखिनो भविष्यामः इति व्यञ्जितम्। माधवेति सम्बोधनेनास्माकं न लक्ष्म्याद्यपेक्षितेति ज्ञापितम्।
।। 1.37आततायिनःअग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन। इति। यद्यप्येवं तथापि एतान्हत्वा अस्मान्पापमेव आश्रयेत्। आततायिवधो हि अर्थशास्त्रविहितः।न हिंस्यात्सर्वा भूतानि इति तु धर्मशास्त्रम्। तच्च पूर्वस्मात्प्रबलम्। यथोक्तं याज्ञवल्क्येनस्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः। अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः। इति। अस्मान्हत्वा एतान् आततायिनः पापमेवाश्रयेदित्यपरा योजना। तथा च एत एवास्मद्वधेन नश्यन्तु न तु वयमेतेषां वधेन नङ्क्ष्याम इति भावः।
।।1.37।।एवं युद्धस्य निष्फलतामनर्थहेतुतां चोपपाद्योपसंहरति  तस्मादिति।  ब्रह्मविद्यापतित्वात्तत्साधने प्रवर्तयितुमर्हसि नत्वस्मिन्क्लेशदे कर्मणीति सूचयन्नाह  माधवेति।  स्वजनसुखेन सुखार्थस्य राज्यलक्ष्मीपतित्वस्य स्वजननाशेन सुखाजनकत्वात्स्वजनं हत्वा कथं सुखिनः स्याम यतस्तवापि लक्ष्मीपतित्वं स्वजनार्थमेवेति वा माधवेति संबोधनेन सूचयति। लक्ष्मीपतित्वान्नालक्ष्मीके कर्मणि प्रवर्तयितुमर्हसीति भाव इति केचित्।
1.37 तस्मात् therefore? न (are) not? अर्हाः justified? वयम् we? हन्तुम् to kill? धार्तराष्ट्रान् the sons of Dhritarashtra? स्वबान्धवान् our relatives? स्वजनम् kinsmen? हि indeed? कथम् how? हत्वा having killed? सुखिनः happy? स्याम may (we) be? माधव O Madhava.No Commentary.
1.37. Therefore, we should not kill the sons of Dhritarashtra, our relatives; for how can we be happy by killing our own people, O Madhava (Krishna)?
1.37 We are worthy of a nobler feat than to slaughter our relatives - the sons of Dhritarashtra; for, my Lord, how can we be happy of we kill our kinsmen?
1.37 Therefore, it is not proper for us to kill the sons of Dhrtarastra who are our own relatives. For, O Madhava, how can we be happy by killing our kinsmen?
null
1.37. How could we be happy indeed, O Madhava, after slaying our own kinsmen ?
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.37 Therefore, it is not befitting that we slay our kin, the sons of Dhrtarastra. For if we kill our kinsmen, O Krsna, how indeed can we be happy?
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तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्। स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।1.37।।
তস্মান্নার্হা বযং হন্তুং ধার্তরাষ্ট্রান্স্ববান্ধবান্৷ স্বজনং হি কথং হত্বা সুখিনঃ স্যাম মাধব৷৷1.37৷৷
তস্মান্নার্হা বযং হন্তুং ধার্তরাষ্ট্রান্স্ববান্ধবান্৷ স্বজনং হি কথং হত্বা সুখিনঃ স্যাম মাধব৷৷1.37৷৷
તસ્માન્નાર્હા વયં હન્તું ધાર્તરાષ્ટ્રાન્સ્વબાન્ધવાન્। સ્વજનં હિ કથં હત્વા સુખિનઃ સ્યામ માધવ।।1.37।।
ਤਸ੍ਮਾਨ੍ਨਾਰ੍ਹਾ ਵਯਂ ਹਨ੍ਤੁਂ ਧਾਰ੍ਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰਾਨ੍ਸ੍ਵਬਾਨ੍ਧਵਾਨ੍। ਸ੍ਵਜਨਂ ਹਿ ਕਥਂ ਹਤ੍ਵਾ ਸੁਖਿਨ ਸ੍ਯਾਮ ਮਾਧਵ।।1.37।।
ತಸ್ಮಾನ್ನಾರ್ಹಾ ವಯಂ ಹನ್ತುಂ ಧಾರ್ತರಾಷ್ಟ್ರಾನ್ಸ್ವಬಾನ್ಧವಾನ್. ಸ್ವಜನಂ ಹಿ ಕಥಂ ಹತ್ವಾ ಸುಖಿನಃ ಸ್ಯಾಮ ಮಾಧವ৷৷1.37৷৷
തസ്മാന്നാര്ഹാ വയം ഹന്തും ധാര്തരാഷ്ട്രാന്സ്വബാന്ധവാന്. സ്വജനം ഹി കഥം ഹത്വാ സുഖിനഃ സ്യാമ മാധവ৷৷1.37৷৷
ତସ୍ମାନ୍ନାର୍ହା ବଯଂ ହନ୍ତୁଂ ଧାର୍ତରାଷ୍ଟ୍ରାନ୍ସ୍ବବାନ୍ଧବାନ୍| ସ୍ବଜନଂ ହି କଥଂ ହତ୍ବା ସୁଖିନଃ ସ୍ଯାମ ମାଧବ||1.37||
tasmānnārhā vayaṅ hantuṅ dhārtarāṣṭrānsvabāndhavān. svajanaṅ hi kathaṅ hatvā sukhinaḥ syāma mādhava৷৷1.37৷৷
தஸ்மாந்நார்ஹா வயஂ ஹந்துஂ தார்தராஷ்ட்ராந்ஸ்வபாந்தவாந். ஸ்வஜநஂ ஹி கதஂ ஹத்வா ஸுகிநஃ ஸ்யாம மாதவ৷৷1.37৷৷
తస్మాన్నార్హా వయం హన్తుం ధార్తరాష్ట్రాన్స్వబాన్ధవాన్. స్వజనం హి కథం హత్వా సుఖినః స్యామ మాధవ৷৷1.37৷৷
1.38
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।।1.38 -- 1.39।। यद्यपि लोभ के कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये (दुर्योधन आदि) कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को और मित्रों के साथ द्वेष करने से होनेवाले पाप को नहीं देखते, (तो भी) हे जनार्दन! कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को ठीक-ठीक जाननेवाले हमलोग इस पाप से निवृत्त होने का विचार क्यों न करें?
।।1.38।।यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुये ये लोग कुलनाशकृत दोष और मित्र द्रोह में पाप नहीं देखते हैं।
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।।1.38।। व्याख्या--'यद्यप्येते न पश्यन्ति ৷৷. मित्रद्रोहे च पातकम्'--इतना मिल गया, इतना और मिल जाय; फिर ऐसा मिलता ही रहे--ऐसे धन, जमीन, मकान, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदिकी तरफ बढ़ती हुई वृत्तिका नाम 'लोभ' है। इस लोभ-वृत्तिके कारण इन दुर्योधनादिकी विवेक-शक्ति लुप्त हो गयी है, जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्यके लिये हम इतना बड़ा पाप करने जा रहे हैं, कुटुम्बियोंका नाश करने जा रहे हैं, वह राज्य हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम उसके साथ कितने दिन रहेंगे? हमारे रहते हुए यह राज्य चला जायगा तो हमारी क्या दशा होगी? और राज्यके रहते हुए हमारे शरीर चले जायेंगे तो क्या दशा होगी क्योंकि मनुष्य संयोगका जितना सुख लेता है, उसके वियोगका उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोगमें इतना सुख नहीं होता जितना वियोगमें दुःख होता है। तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें लोभ छा जानेके कारण इनको राज्य-ही-राज्य दीख रहा है। कुलका नाश करनेसे कितना भयंकर पाप होगा, वह इनको दीख ही नहीं रहा है। जहाँ लड़ाई होती है, वहाँ समय, सम्पत्ति, शक्तिका नाश हो जाता है। तरह-तरह की चिन्ताएँ और आपत्तियाँ आ जाती हैं। दो मित्रोंमें भी आपसमें खटपट मच जाती है, मनोमालिन्य हो जाता है। कई तरहका मतभेद हो जाता है। मतभेद होनेसे वैरभाव हो जाता है। जैसे द्रुपद और द्रोण--दोनों बचपनके मित्र थे। परन्तु राज्य मिलनेसे द्रुपदने एक दिन द्रोणका अपमान करके उस मित्रताको ठुकरा दिया। इससे राजा द्रुपद और द्रोणाचार्यके बीच वैरभाव हो गया। अपने अपमानका बदला लेनेके लिये द्रोणाचार्यने मेरेद्वारा राजा द्रुपदको परास्त कराकर उसका आधा राज्य ले लिया। इसपर द्रुपदने द्रोणाचार्यका नाश करनेके लिये एक यज्ञ कराया, जिससे धृष्टद्युम्न और द्रौपदी--दोनों पैदा हुए। इस तरह मित्रोंके साथ वैरभाव होनेसे कितना भयंकर पाप होगा, इस तरफ ये देख ही नहीं रहे हैं!  विशेष बात  अभी हमारे पास जिन वस्तुओंका अभाव है, उन वस्तुओंके बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरहसे जी रहे हैं। परन्तु जब वे वस्तुएं हमें मिलनेके बाद फिर बिछुड़ जाती हैं, तब उनके अभावका बड़ा दुःख होता है। तात्पर्य है कि पहले वस्तुओंका जो निरन्तर अभाव था, वह इतना दुःखदायी नहीं था, जितना वस्तुओंका संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होनेपर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओंका अभाव मानता है, उन वस्तुओंको वह लोभके कारण पानेकी चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाय तो जिन वस्तुओंका अभी अभाव है, बीचमें प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होनेपर भी अन्तमें उनकी अभाव ही रहेगा। अतः हमारी तो वही अवस्था रही, जो कि वस्तुओंके मिलनेसे पहले थी। बीचमें लोभके कारण उन वस्तुओंको पानेके लिये केवल परिश्रम-ही-परिश्रम पल्ले पड़ा, दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ा। बीचमें वस्तुओंके संयोगसे जो थोड़ा-सा सुख हुआ है, वह तो केवल लोभके कारण ही हुआ है। अगर भीतरमें लोभ-रूपी दोष न हो, तो वस्तुओंके संयोगसे सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो, तो कुटुम्बियोंसे सुख हो ही नहीं सकता। लालचरूपी दोष न हो, तो संग्रहका सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसारका सुख किसी-न-किसी दोषसे ही होता है। कोई भी दोष न होनेपर संसारसे सुख हो ही नहीं सकता। परन्तु लोभके कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेकविचारको लुप्त कर देता है।  'कथं न ज्ञेयमस्माभिः ৷৷৷৷ प्रपश्यद्भिर्जनार्दन'--अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षयसे होनेवाले दोषको और मित्रद्रोहसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हमलोगोंको कुलक्षयसे होनेवाली अनर्थ-परम्पराको देखना ही चाहिये [जिसका वर्णन अर्जुन आगे चालीसवें श्लोकसे चौवालीसवें श्लोकतक करेंगे़]; क्योंकि हम कुलक्षयसे होनेवाले दोषोंको भी अच्छी तरहसे जानते हैं और मित्रोंके साथ द्रोह-(वैर, द्वैष-) से होनेवाली पापको भी अच्छी तरहसे जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें, तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःखसे तो हमारे पूर्वपापोंका ही नाश होगा, हमारी शुद्धि ही होगी। परन्तु हमारे मनमें अगर द्रोह--वैरभाव होगा, तो वह मरनेके बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म-जन्मान्तर-तक हमें पाप करनेमें प्रेरित करता रहेगा, जिससे हमारा पतन-ही-पतन होगा। ऐसे अनर्थ करनेवाले और मित्रोंके साथ द्रोह पैदा करनेवाले इस युद्धरूपी पापसे बचनेका विचार क्यों नहीं करना चाहिये? अर्थात् विचार करके हमें इस पापसे जरूर ही बचना चाहिये।यहाँ अर्जुनकी दृष्टि दुर्योधन आदिके लोभकी तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह-(मोह-) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं--इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्यकी दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तबतक उसको अपना दोष नहीं दीखता ,उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारेमें यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारेमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरोंका दोष देखना-- यह दोष तो है ही। दूसरोंका दोष देखना एवं अपनेमें अच्छाईका अभिमान करना--ये दोनों दोष साथमें ही रहते हैं। अर्जुनको भी दुर्योधन आदिमें दोष दीख रहे हैं और अपनेमें अच्छाईका अभिमान हो रहा है (अच्छाईके अभिमानकी छायामें मात्र दोष रहते हैं), इसलिये उनको अपनेमें मोहरूपी दोष नहीं दीख रहा है। सम्बन्ध--कुलका क्षय करनेसे होनेवाले जिन दोषोंको हम जानते हैं, वे दोष कौन-से हैं? उन दोषोंकी परम्परा आगेके पाँच श्लोकोंमें बताते हैं।
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.38।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.38।।परेषामिवास्माकमपि प्रवृत्तिविस्रम्भः संभवेदिति चेन्नेत्याह  कथमिति।   कुलक्षयेति।  कुलक्षये मित्रद्रोहे च दोषं प्रपश्यद्भिरस्माभिस्तद्दोषशब्दितं पापं कथं न ज्ञातव्यं तदज्ञाने तत्परिहारासंभवादतोऽस्मात्पापान्निवृत्त्यर्थं तज्ज्ञानमपेक्षितमिति पापपरिहारार्थिनामस्माकं न युक्ता युद्धे प्रवृत्तिरित्यर्थः।
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।।1.38।।ननु यद्यप्येते लोभात्प्रवृत्तास्तथापिआहूतो न निवर्तेत द्यूतादपि रणदपि इतिविजितं क्षत्रियस्य इत्यादिभिः क्षत्रियस्य युद्धं धर्मो युद्धार्जितं च धर्म्यं धनमिति शास्त्रे निश्चयाद्भवतां च तैराहूतत्वाद्युद्धे प्रवृत्तिरूचितैवेत्याशङ्क्याह अस्मात्पापाद्वन्धुवधफलकयुद्धरूपात्। अयमर्थः श्रेयःसाधनताज्ञानं हि प्रवर्तकं श्रेयश्च तद्यदश्रेयोऽननुबन्धि। अन्यथा श्येनादीनामपि धर्मत्वापत्तेः। तथाचोक्तम्फलतोऽपि च यत्कर्म नानर्थेनानुबध्यते। केवलप्रीतिहेतुत्वात्तद्धर्म इति कथ्यते।। इति ततश्चाश्रेयोनुबन्धितया शास्त्रप्रतिपादितेऽपि श्येनादाविवास्मिन्युद्धेऽपि नास्माकं प्रवृत्तिरुचितेति।
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।।1.38।।ननु ये स्वजनत्वादिवधदोषमविचार्य प्रवृत्तास्ते निवृत्तमपि त्वां हनिष्यन्त्यतस्त्वमप्यविचार्यैवैतान्मारयेत्याशङ्क्याह यद्यप्येत इति द्वाभ्याम्। लोभेन उपहतं विभ्रंशितं चेतो मनो येषां ते एते धार्त्तराष्ट्राः कुलक्षयकृतं कुलक्षयकरणं दोषं यद्यपि न पश्यन्ति मित्रद्रोहे च यत्पातकं तन्न पश्यन्ति तथापि पातकं तु भविष्यत्येवेत्यर्थः।
।।1.38।।ननुआहूतो न निवर्तेत द्यूतादपि रणादपि इतिविजितं क्षत्रियस्य इति च युद्धादनिवृत्तिर्हिंसया च वृत्तिः क्षत्रियस्येष्टा तत्कथं युद्धान्निवृत्तिमिच्छसीत्याशङ्क्याह  कथमिति।  सा हि लोभमूलिका स्मृतिः कुलक्षयदोषविधिना बाध्यते। यथाऔदुम्बरीं स्पृष्ट्वोद्गायेत् इति स्पर्शनविधिना विरुद्धा सतीऔदुम्बरी सर्वा वेष्टयितव्या इति सर्ववेष्टनस्मृतिर्बाध्यते लोभमूलकत्वात्तद्वत्। नहि विधिमात्राद्यत्किंचित्कर्तव्यम्। श्येनादीनामधर्मरूपाणामप्यवश्यानुष्ठेयत्वापत्तेः। तस्माद्यत्फलतो न दुष्यति तदेव विहितं धर्मरूपमनुष्ठेयम्। यथोक्तम्फलतोऽपि च यत्कर्म नानर्थेनानुबध्यते। केवलं प्रीतिहेतुत्वात्तद्धर्म इति कथ्यते। इति। श्येनादिवत्पापानुबन्धित्वात् युद्धं त्याज्यमेवेत्यर्थः।
।।1.38।।ननु स्वजनहिंसाकृतस्य दोषस्योभयेषां समानत्वाद्यथा ते पापं न पश्यन्ति तथा भवद्भिरपि न ज्ञेयमिति चेत्तग्राह  यद्यपीति।  लोभेनोपहतं चेतो येषां ते लोभोपहतचेतस्त्वादेते कुलक्षयकृतं दोषं मित्राणां द्रोहे च पातकं यद्यपि न पश्यन्ति तथाप्यस्माभिः कथं न ज्ञेयमिति परेणान्वयः।
1.38 यद्यपि though? एते these? न not? पश्यन्ति see? लोभोपहतचेतसः with intelligence overpowered by greed? कुलक्षयकृतम् in the destruction of families? दोषम् evil? मित्रद्रोहे in hostility to friends? च and? पातकम् sin.No Commentary.
1.38. Though they, with intelligence overpowered by greed, see no evil in the destruction of families, and no sin in hostility to friends,
1.38 Although these men, blinded by greed, see no guilt in destroying their kin, or fighting against their friends,
1.38 1.39 O Janardana, although these people, whose hearts have become perverted by greed, do not see the evil arising from destroying the family and sin in hostility towards, friends, yet how can we who clearly see the evil arising from destroying the family remain unaware of (the need of) abstaining from this sin?
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1.38. Of course, these (Dhrtarastra's sons), with their intellect overpowered by greed, do not see the evil conseences ensuing from the ruin of the family and the sin in cheating friends.
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.38 Though these people, whose minds are overpowered by greed, see no evil in the destruction of a clan and no sin in treachery to friends,
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यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः। कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38।।
যদ্যপ্যেতে ন পশ্যন্তি লোভোপহতচেতসঃ৷ কুলক্ষযকৃতং দোষং মিত্রদ্রোহে চ পাতকম্৷৷1.38৷৷
যদ্যপ্যেতে ন পশ্যন্তি লোভোপহতচেতসঃ৷ কুলক্ষযকৃতং দোষং মিত্রদ্রোহে চ পাতকম্৷৷1.38৷৷
યદ્યપ્યેતે ન પશ્યન્તિ લોભોપહતચેતસઃ। કુલક્ષયકૃતં દોષં મિત્રદ્રોહે ચ પાતકમ્।।1.38।।
ਯਦ੍ਯਪ੍ਯੇਤੇ ਨ ਪਸ਼੍ਯਨ੍ਤਿ ਲੋਭੋਪਹਤਚੇਤਸ। ਕੁਲਕ੍ਸ਼ਯਕਰਿਤਂ ਦੋਸ਼ਂ ਮਿਤ੍ਰਦ੍ਰੋਹੇ ਚ ਪਾਤਕਮ੍।।1.38।।
ಯದ್ಯಪ್ಯೇತೇ ನ ಪಶ್ಯನ್ತಿ ಲೋಭೋಪಹತಚೇತಸಃ. ಕುಲಕ್ಷಯಕೃತಂ ದೋಷಂ ಮಿತ್ರದ್ರೋಹೇ ಚ ಪಾತಕಮ್৷৷1.38৷৷
യദ്യപ്യേതേ ന പശ്യന്തി ലോഭോപഹതചേതസഃ. കുലക്ഷയകൃതം ദോഷം മിത്രദ്രോഹേ ച പാതകമ്৷৷1.38৷৷
ଯଦ୍ଯପ୍ଯେତେ ନ ପଶ୍ଯନ୍ତି ଲୋଭୋପହତଚେତସଃ| କୁଲକ୍ଷଯକୃତଂ ଦୋଷଂ ମିତ୍ରଦ୍ରୋହେ ଚ ପାତକମ୍||1.38||
yadyapyētē na paśyanti lōbhōpahatacētasaḥ. kulakṣayakṛtaṅ dōṣaṅ mitradrōhē ca pātakam৷৷1.38৷৷
யத்யப்யேதே ந பஷ்யந்தி லோபோபஹதசேதஸஃ. குலக்ஷயகரிதஂ தோஷஂ மித்ரத்ரோஹே ச பாதகம்৷৷1.38৷৷
యద్యప్యేతే న పశ్యన్తి లోభోపహతచేతసః. కులక్షయకృతం దోషం మిత్రద్రోహే చ పాతకమ్৷৷1.38৷৷
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।।1.38 -- 1.39।। यद्यपि लोभ के कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये (दुर्योधन आदि) कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को और मित्रों के साथ द्वेष करने से होनेवाले पाप को नहीं देखते, (तो भी) हे जनार्दन! कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को ठीक-ठीक जाननेवाले हमलोग इस पाप से निवृत्त होनेका विचार क्यों न करें?
।।1.39।।परन्तु,  हेे जनार्दन !  कुलक्षय से होने वाले दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से विरत होने के लिए क्यों नहीं सोचना चाहिये।
।।1.39।। निसंदेह सत्ता और धन के लालच से अन्धे हुए कौरव यह देखने में असमर्थ थे कि इस युद्ध के कारण सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचे का कितना विनाश होने वाला है। उनकी महत्त्वाकांक्षा ने उनके विवेक और भावना को इस प्रकार आच्छादित कर दिया था कि युद्ध में अपने ही बान्धवों की हत्याओं की क्रूरता को भी वे नहीं समझ पा रहे थे।अर्जुन के कथन से लगता है कि उसने अपना विवेक खोया नहीं था और इस भ्रातृहन्ता युद्ध के द्वारा होने वाले भावी सामाजिक विनाश को वह स्पष्ट देख रहा था। उसका प्रस्तुत तर्क कुछ इस प्रकार का है। यदि हमारा कोई मित्र मद्यपान के कारण स्वयं को भूलकर अभद्र व्यवहार करता है तो उस समय उसका प्रतिकार करना और भी अधिक विचित्र बात होगी। हमको समझना चाहिये कि उस मित्र ने अपना विवेक खो दिया है और वह स्वयं ही नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है। ऐसे समय हमारे लिये उचित है कि उसकी अशिष्टता पर ध्यान न देकर उसे क्षमा कर दें।इसी प्रकार अर्जुन का तर्क है कि यदि दुर्योधन और उसके मित्र अन्धे होकर अन्यायपूर्ण आक्रमण करते हैं तो क्या पाण्डवों को शान्ति की वेदी पर स्वयं का बलिदान करते हुये युद्ध से विरत हो जाना उचित नहीं है यह धारणा स्वयं में कितनी खतरनाक है इसको हम तब समझेंगे जब गीता के आगामी परिच्छेदों में तत्त्वज्ञान के महत्त्वपूर्ण अंश को देखेंगे जो भारतीय जीवन का सारतत्त्व है। अधर्म का सक्रिय प्रतिकार ही एक मुख्य सिद्धांत है जिसका भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में प्रतिपादन किया है।
।।1.39।। व्याख्या-- 'यद्यप्येते न पश्यन्ति ৷৷. मित्रद्रोहे च पातकम्'--  इतना मिल गया, इतना और मिल जाय; फिर ऐसा मिलता ही रहे--ऐसे धन, जमीन, मकान, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदिकी तरफ बढ़ती हुई वृत्तिका नाम 'लोभ' है। इस लोभ-वृत्तिके कारण इन दुर्योधनादिकी विवेक-शक्ति लुप्त हो गयी है, जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्यके लिये हम इतना बड़ा पाप करने जा रहे हैं, कुटुम्बियोंका नाश करने जा रहे हैं, वह राज्य हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम उसके साथ कितने दिन रहेंगे? हमारे रहते हुए यह राज्य चला जायगा तो हमारी क्या दशा होगी? और राज्यके रहते हुए हमारे शरीर चले जायेंगे तो क्या दशा होगी क्योंकि मनुष्य संयोगका जितना सुख लेता है, उसके वियोगका उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोगमें इतना सुख नहीं होता, जितना वियोगमें दुःख होता है। तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें लोभ छा जानेके कारण इनको राज्य-ही-राज्य दीख रहा है। कुलका नाश करनेसे कितना भयंकर पाप होगा, वह इनको दीख ही नहीं रहा है। जहाँ लड़ाई होती है, वहाँ समय, सम्पत्ति, शक्तिका नाश हो जाता है। तरह-तरह की चिन्ताएँ और आपत्तियाँ आ जाती हैं। दो मित्रोंमें भी आपसमें खटपट मच जाती है, मनोमालिन्य हो जाता है। कई तरहका मतभेद हो जाता है। मतभेद होनेसे वैरभाव हो जाता है। जैसे द्रुपद और द्रोण--दोनों बचपनके मित्र थे। परन्तु राज्य मिलनेसे द्रुपदने एक दिन द्रोणका अपमान करके उस मित्रताको ठुकरा दिया। इससे राजा द्रुपद और द्रोणाचार्यके बीच वैरभाव हो गया। अपने अपमानका बदला लेनेके लिये द्रोणाचार्यने मेरेद्वारा राजा द्रुपदको परास्त कराकर उसका आधा राज्य ले लिया। इसपर द्रुपदने द्रोणाचार्यका नाश करनेके लिये एक यज्ञ कराया, जिससे धृष्टद्युम्न और द्रौपदी--दोनों पैदा हुए। इस तरह मित्रोंके साथ वैरभाव होनेसे कितना भयंकर पाप होगा, इस तरफ ये देख ही नहीं रहे हैं!  विशेष बात   अभी हमारे पास जिन वस्तुओंका अभाव है, उन वस्तुओंके बिना भी हमारा काम चल रहा है, हम अच्छी तरहसे जी रहे हैं। परन्तु जब वे वस्तुएं हमें मिलनेके बाद फिर बिछुड़ जाती हैं, तब उनके अभावका बड़ा दुःख होता है। तात्पर्य है कि पहले वस्तुओंका जो निरन्तर अभाव था, वह इतना दुःखदायी नहीं था, जितना वस्तुओंका संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होनेपर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओंका अभाव मानता है उन वस्तुओंको वह लोभके कारण पानेकी चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाय तो जिन वस्तुओंका अभी अभाव है, बीचमें प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होनेपर भी अन्तमें उनकी अभाव ही रहेगा। अतः हमारी तो वही अवस्था रही, जो कि वस्तुओंके मिलनेसे पहले थी। बीचमें लोभके कारण उन वस्तुओंको पानेके लिये केवल परिश्रम-ही-परिश्रम पल्ले पड़ा, दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ा। बीचमें वस्तुओंके संयोगसे जो थोड़ा-सा सुख हुआ है, वह तो केवल लोभके कारण ही हुआ है। अगर भीतरमें लोभ-रूपी दोष न हो, तो वस्तुओंके संयोगसे सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो, तो कुटुम्बियोंसे सुख हो ही नहीं सकता। लालचरूपी दोष न हो तो संग्रहका सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसारका सुख किसी-न-किसी दोषसे ही होता है। कोई भी दोष न होनेपर संसारसे सुख हो ही नहीं सकता। परन्तु लोभके कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक-विचारको लुप्त कर देता है।  'कथं न ज्ञेयमस्माभिः ৷৷৷৷ प्रपश्यद्भिर्जनार्दन'--अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षयसे होनेवाले दोषको और मित्रद्रोहसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हमलोगोंको कुलक्षयसे होनेवाली अनर्थपरम्पराको देखना ही चाहिये [जिसका वर्णन अर्जुन आगे चालीसवें श्लोकसे चौवालीसवें श्लोकतक करेंगे़]; क्योंकि हम कुलक्षयसे होनेवाले दोषोंको भी अच्छी तरहसे जानते हैं और मित्रोंके साथ द्रोह-(वैर, द्वैष-) से होनेवाली पापको भी अच्छी तरहसे जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें, तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःखसे तो हमारे पूर्वपापोंका ही नाश होगा हमारी शुद्धि ही होगी। परन्तु हमारे मनमें अगर द्रोह--वैरभाव होगा, तो वह मरनेके बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म-जन्मान्तर-तक हमें पाप करनेमें प्रेरित करता रहेगा जिससे हमारा पतन-ही-पतन होगा। ऐसे अनर्थ करनेवाले और मित्रोंके साथ द्रोह पैदा करनेवाले इस युद्धरूपी पापसे बचनेका विचार क्यों नहीं करना चाहिये? अर्थात् विचार करके हमें इस पापसे जरूर ही बचना चाहिये। यहाँ अर्जुनकी दृष्टि दुर्योधन आदिके लोभकी तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह-(मोह-) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं--इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्यकी दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तबतक उसको अपना दोष नहीं दीखता ,उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारेमें यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारेमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरोंका दोष देखना--यह दोष तो है ही। दूसरोंका दोष देखना एवं अपनेमें अच्छाईका अभिमान करना-- ये दोनों दोष साथमें ही रहते हैं। अर्जुनको भी दुर्योधन आदिमें दोष दीख रहे हैं और अपनेमें अच्छाईका अभिमान हो रहा है (अच्छाईके अभिमानकी छायामें मात्र दोष रहते हैं), इसलिये उनको अपनेमें मोहरूपी दोष नहीं दीख रहा है। सम्बन्ध   कुलका क्षय करनेसे होनेवाले जिन दोषोंको हम जानते हैं, वे दोष कौन-से हैं? उन दोषोंकी परम्परा आगेके पाँच श्लोकोंमें बताते हैं।
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.39।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.39।।कोऽसौ कुलक्षये दोषो यद्दर्शनाद्युष्माकं युद्धादुपरतिरपेक्ष्यते तत्राह  कुलेति।  कुलस्य हि क्षये कुलसंबन्धिनश्चिरन्तना धर्मास्तत्तदग्निहोत्रादिक्रियासाध्यानाशमुपयान्ति। कर्तुरभावादित्यर्थः। धर्मनाशेऽपि किं स्यादिति चेत्तत्राह  धर्म इति।  कुलप्रयुक्ते धर्मे कुलनाशादेव नष्टे कुलक्षयकरस्य कुलं परिशिष्टमखिलमपि तदीयोऽधर्मोऽभिभवति। अधर्मभूयिष्ठं तस्य कुलं भवतीत्यर्थः।
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।।1.39।।एवंच विजयादीनामश्रेयस्त्वेनानाकाङ्क्षितत्वान्न तदर्थं प्रवृर्तितव्यमिति द्रढयितुमनर्थानुबन्धित्वेनाश्रेयस्त्वमेव प्रपञ्चयन्नाह सनातनाः परम्पराप्राप्ताः कुलधर्माः कुलोचिता धर्माः कुलक्षये प्रणश्यन्ति कर्तुरभावात्। उत अपि अग्निहोत्राद्यनुष्ठातृपुरुषनाशेन धर्मे नष्टे। जात्यभिप्रायमेकवचनम्। अवशिष्टं बालादिरूपं कृत्स्नमपि कुलधर्मोऽभिभवति स्वाधीनतया व्याप्नोति। उतशब्दः कृत्स्नपदेन संबध्यते।
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।।1.39।।हे जनार्दन अविद्यानाशक त्वत्स्वरूपविद्भिः कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिरस्माभिर्लोभानुपहतचित्तैरस्मात्पापान्निवर्तितुं कथं न ज्ञेयम् ज्ञेयमेवेत्यर्थः।
।।1.39।।प्रणश्यन्ति अनुष्ठातृ़णां वृद्धानामभावात्। अवशिष्टं बालादिरूपं वंशं धर्मलोपादधर्मोऽभिभवति।
।।1.39।।अस्मात्पापान्निवर्तितुं निवृत्त्यर्थ कुलक्षयकृतं दोषं प्रकर्षेण पश्यद्भिरस्माभिस्तद्दोषशब्दितं पापं कथं न ज्ञातव्यं तस्मात्पापपरिज्ञानं विना तत्र प्रवृत्तिपरिहारसंभवात्तज्ज्ञानमेवेचितं पापान्निवर्तितुं नतु पापसाधके युद्धे प्रवर्तितुं तदज्ञानमिति भावः। सदैव निर्लिप्तस्य तवैव परमेश्वरस्य प्रलयादौ जनानामर्दनेन पापसंश्लेषो नत्वन्यस्येति सूचयन्संबोधयति  हे जनार्दनेति।
1.39 कथम् why? न not? ज्ञेयम् should be learnt? अस्माभिः by us? पापात् from sin? अस्मात् this? निवर्तितुम् to turn away? कुलक्षयकृतम् in the destruction of families? दोषम् evil? प्रपश्यद्भिः clearly seeing? जनार्दन O Janardana.Commentary Ignorance of law is no excuse but wanton sinful conduct is a grave crime? unworthy of us? who are wiser.
1.39. Why should not we who clearly see evil in the destruction of families, learn to turn away from this sin, O Janardana (Krishna)?
1.39 Should not we, whose eyes are open, who consider it to be wrong to annihilate our house, turn away from so great a crime?
1.38 1.39 O Janardana, although these people, whose hearts have become perverted by greed, do not see the evil arising from destroying the family and sin in hostility towards, friends, yet how can we who clearly see the evil arising from destroying the family remain unaware of (the need of) abstaining from this sin?
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1.39. But, perceiving clearly the evil conseences ensuing from the ruin of the family, should we not have a sense to refrain from this sinful act [of fighting the war], O Janardana ?
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.39 Why should we not learn to shun this crime - we who see the evil of ruining a clan, O Krsna?
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कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्। कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।1.39।।
কথং ন জ্ঞেযমস্মাভিঃ পাপাদস্মান্নিবর্তিতুম্৷ কুলক্ষযকৃতং দোষং প্রপশ্যদ্ভির্জনার্দন৷৷1.39৷৷
কথং ন জ্ঞেযমস্মাভিঃ পাপাদস্মান্নিবর্তিতুম্৷ কুলক্ষযকৃতং দোষং প্রপশ্যদ্ভির্জনার্দন৷৷1.39৷৷
કથં ન જ્ઞેયમસ્માભિઃ પાપાદસ્માન્નિવર્તિતુમ્। કુલક્ષયકૃતં દોષં પ્રપશ્યદ્ભિર્જનાર્દન।।1.39।।
ਕਥਂ ਨ ਜ੍ਞੇਯਮਸ੍ਮਾਭਿ ਪਾਪਾਦਸ੍ਮਾਨ੍ਨਿਵਰ੍ਤਿਤੁਮ੍। ਕੁਲਕ੍ਸ਼ਯਕਰਿਤਂ ਦੋਸ਼ਂ ਪ੍ਰਪਸ਼੍ਯਦ੍ਭਿਰ੍ਜਨਾਰ੍ਦਨ।।1.39।।
ಕಥಂ ನ ಜ್ಞೇಯಮಸ್ಮಾಭಿಃ ಪಾಪಾದಸ್ಮಾನ್ನಿವರ್ತಿತುಮ್. ಕುಲಕ್ಷಯಕೃತಂ ದೋಷಂ ಪ್ರಪಶ್ಯದ್ಭಿರ್ಜನಾರ್ದನ৷৷1.39৷৷
കഥം ന ജ്ഞേയമസ്മാഭിഃ പാപാദസ്മാന്നിവര്തിതുമ്. കുലക്ഷയകൃതം ദോഷം പ്രപശ്യദ്ഭിര്ജനാര്ദന৷৷1.39৷৷
କଥଂ ନ ଜ୍ଞେଯମସ୍ମାଭିଃ ପାପାଦସ୍ମାନ୍ନିବର୍ତିତୁମ୍| କୁଲକ୍ଷଯକୃତଂ ଦୋଷଂ ପ୍ରପଶ୍ଯଦ୍ଭିର୍ଜନାର୍ଦନ||1.39||
kathaṅ na jñēyamasmābhiḥ pāpādasmānnivartitum. kulakṣayakṛtaṅ dōṣaṅ prapaśyadbhirjanārdana৷৷1.39৷৷
கதஂ ந ஜ்ஞேயமஸ்மாபிஃ பாபாதஸ்மாந்நிவர்திதும். குலக்ஷயகரிதஂ தோஷஂ ப்ரபஷ்யத்பிர்ஜநார்தந৷৷1.39৷৷
కథం న జ్ఞేయమస్మాభిః పాపాదస్మాన్నివర్తితుమ్. కులక్షయకృతం దోషం ప్రపశ్యద్భిర్జనార్దన৷৷1.39৷৷
1.40
1
40
।।1.40।। कुल का क्षय होने पर सदा से चलते आये कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश होनेपर (बचे हुए) सम्पूर्ण कुल को अधर्म दबा लेता है।
।।1.40।।कुल के नष्ट होने से सनातन धर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्म नष्ट होने पर सम्पूर्ण कुल को अधर्म (पाप) दबा लेता है।
।।1.40।। जिस प्रकार कोई कथावाचक हर बार पुरानी कथा सुनाते हुए कुछ नई बातें उसमें जोड़ता जाता है इसी प्रकार अर्जुन की सर्जक बुद्धि अपनी गलत धारणा को पुष्ट करने के लिए नएनए तर्क निकाल रही है। वह जैसे ही एक तर्क समाप्त करता है वैसे ही उसको एक और नया तर्क सूझता है जिसकी आड़ में वह अपनी दुर्बलता को छिपाना चाहता है। अब उसका तर्क यह है कि युद्ध में अनेक परिवारों के नष्ट हो जाने पर सब प्रकार की सामाजिक एवं धार्मिक परम्परायें समाप्त हो जायेंगी और शीघ्र ही सब ओर अधर्म फैल जायेगा।सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में नएनए प्रयोग करने में हमारे पूर्वजों की सदैव विशेष रुचि रही है। वे जानते थे कि राष्ट्र की संस्कृति की इकाई कुल की संस्कृति होती है। इसलिये यहाँ अर्जुन विशेष रूप से कुल धर्म के नाश का उल्लेख करता है क्योंकि उसके नाश के गम्भीर परिणाम हो सकते हैं।
।।1.40।। व्याख्या --'कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः'-- जब युद्ध होता है तब उसमें कुल-(वंश-) का क्षय (ह्रास) होता है। जबसे कुल आरम्भ हुआ है, तभीसे कुलके धर्म अर्थात् कुलकी पवित्र परम्पराएँ, पवित्र रीतियाँ, मर्यादाएँ भी परम्परासे चलती आयी हैं। परन्तु जब कुलका क्षय हो जाता है, तब सदासे कुलके साथ रहनेवाले धर्म भी नष्ट हो जाते हैं अर्थात् जन्मके समय द्वजातिसंस्कारके समय, विवाहके समय, मृत्युके समय और मृत्युके बाद किये जानेवाले जो-जो शास्त्रीय पवित्र रीति-रिवाज हैं, जो कि जीवित और मृतात्मा मनुष्योंके लिये इस लोकमें और परलोकमें कल्याण करनेवाले हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। कारण कि जब कुलका ही नाश हो जाता है तब कुलके आश्रित रहनेवाले धर्म किसके आश्रित रहेंगे?
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.40।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.40।।कुलक्षयकृतेऽवशिष्टकुलस्याधर्मप्रवणत्वे को दोषः स्यादिति तत्राह  अधर्मेति।  पापप्रचुरे कुले प्रसूतानां स्त्रीणां प्रदुष्टत्वे किं दुष्यति तत्राह  स्त्रीष्विति।
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।।1.40।।अस्मदीयैः पतिभिर्धर्मतिक्रम्य कुलक्षयः कृतश्चेदस्माभिरपि व्यभिचारे कृते को दोषः स्यादित्येवं कुतर्कहताः कुलस्त्रियः प्रदुष्येयुरित्यर्थः। अथवा कुलक्षयकारिपतितपतिसंबन्धादेव स्त्रीणां दुष्टत्वम्आशुद्धेः संप्रतीक्ष्यो हि महापातकदूषितः इत्यादिस्मृतेः।
।।1.40।।अधर्मोऽभिभवति इति मानसदोषोक्तिः।
।।1.40।।अधर्मोऽभिभवति इति मानसदोषोक्तिः।
।।1.40।।एवमुक्त्वा कदाचिल्लौकिकस्नेहवशादेव निवृत्तः न तु पापस्वरूपज्ञानादधर्मबुद्ध्या इत्याशङ्क्य कुलक्षयकृतं दोषमनुवदति कुलक्षय इति पञ्चभिः। सनातनाः प्राचीनाः परस्पराप्राप्ताः कुलधर्माः कुलक्षये कृते जाते वा प्रणश्यन्ति प्रकर्षेण नश्यन्ति। पुनरुदयाभावः प्रकर्षः। तस्माद्वयं पार्थाः पृथासम्बन्धेन त्वयाऽङ्गीकृत्वा इत्यस्माकं परम्परागतो धर्मस्त्वद्भक्तिः तन्नाशकपापादस्माकं विनिवृत्तिरेवोचितेति भावः। नन्विदानीं धर्मनाशेऽप्यग्रे प्रह्लादादिवत्कुले कोऽपि भक्तो भवेच्चेत्तदा धर्मः पुनरुद्भविष्यति तस्माच्छौर्यक्षात्रधर्मानाशकत्वेन युद्धकरणमेवोचितमित्यत आह धर्मे नष्ट इति। उत कृत्स्नमवशिष्टमपि कुलं धर्मे नष्टे सति अधर्मोऽभिभवति व्याप्नोतीत्यर्थः।
।।1.40।।दुष्टासु पुत्रार्थं वर्णान्तरमुपासीनासु।
।।1.40।।कोऽसौ कुलक्षयकृतो दोष इत्यपेक्षायामाह  कुलक्षय इति।  कुलस्य हि क्षये कुलकर्तृकाः कुलोचिता धर्माः सनातनाश्चिरंतनास्तत्कर्तृ़णामभावात्प्रकर्षेण नश्यन्ति। धर्मे नष्टे च यत्स्यात्तदाह  धर्म इति।  धर्मे नष्टे तत्कर्तृकुलनाशाद्धर्मे नष्टे सति कुलक्षयकर्तुरवशिष्टं कृत्स्त्रं सर्वमपि कुलमधर्मोऽभिभवति। अधर्मभूयिष्ठं तस्य कुलं भवतीत्यर्थः।
1.40 कुलक्षये in the destruction of a family? प्रणश्यन्ति perish? कुलधर्माः family religious rites? सनातनाः immemorial? धर्मे spirituality? नष्टे being destroyed? कुलम् कृत्स्नम् the whole family? अधर्मः impiety? अभिभवति overcomes? उत indeed.Commentary Dharma -- the duties and ceremonies practised by the family in accordance with the injunctions of the scriptures.
1.40. In the destruction of a family, the immemorial religious rites of that family perish; on the destruction of spirituality, impiety, indeed, overcomes the whole family.
1.40 The destruction of our kindred means the destruction of the traditions of our ancient lineage, and when these are lost, irreligion will overrun our homes.
1.40 From the ruin of the family are totally destroyed the traditional rites and duties of the family. When rites and duties are destroyed, vice overpowers the entire family also.
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1.40. When a family ruins, the etnernal duties of the family perish; when the duties perish, impiety inevitably dominates the entire family.
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.40 With the ruin of a clan, perish its ancient traditions, and when traditions perish, lawlessness overtakes the whole clan
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कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः। धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।1.40।।
কুলক্ষযে প্রণশ্যন্তি কুলধর্মাঃ সনাতনাঃ৷ ধর্মে নষ্টে কুলং কৃত্স্নমধর্মোভিভবত্যুত৷৷1.40৷৷
কুলক্ষযে প্রণশ্যন্তি কুলধর্মাঃ সনাতনাঃ৷ ধর্মে নষ্টে কুলং কৃত্স্নমধর্মোভিভবত্যুত৷৷1.40৷৷
કુલક્ષયે પ્રણશ્યન્તિ કુલધર્માઃ સનાતનાઃ। ધર્મે નષ્ટે કુલં કૃત્સ્નમધર્મોભિભવત્યુત।।1.40।।
ਕੁਲਕ੍ਸ਼ਯੇ ਪ੍ਰਣਸ਼੍ਯਨ੍ਤਿ ਕੁਲਧਰ੍ਮਾ ਸਨਾਤਨਾ। ਧਰ੍ਮੇ ਨਸ਼੍ਟੇ ਕੁਲਂ ਕਰਿਤ੍ਸ੍ਨਮਧਰ੍ਮੋਭਿਭਵਤ੍ਯੁਤ।।1.40।।
ಕುಲಕ್ಷಯೇ ಪ್ರಣಶ್ಯನ್ತಿ ಕುಲಧರ್ಮಾಃ ಸನಾತನಾಃ. ಧರ್ಮೇ ನಷ್ಟೇ ಕುಲಂ ಕೃತ್ಸ್ನಮಧರ್ಮೋಭಿಭವತ್ಯುತ৷৷1.40৷৷
കുലക്ഷയേ പ്രണശ്യന്തി കുലധര്മാഃ സനാതനാഃ. ധര്മേ നഷ്ടേ കുലം കൃത്സ്നമധര്മോഭിഭവത്യുത৷৷1.40৷৷
କୁଲକ୍ଷଯେ ପ୍ରଣଶ୍ଯନ୍ତି କୁଲଧର୍ମାଃ ସନାତନାଃ| ଧର୍ମେ ନଷ୍ଟେ କୁଲଂ କୃତ୍ସ୍ନମଧର୍ମୋଭିଭବତ୍ଯୁତ||1.40||
kulakṣayē praṇaśyanti kuladharmāḥ sanātanāḥ. dharmē naṣṭē kulaṅ kṛtsnamadharmō.bhibhavatyuta৷৷1.40৷৷
குலக்ஷயே ப்ரணஷ்யந்தி குலதர்மாஃ ஸநாதநாஃ. தர்மே நஷ்டே குலஂ கரித்ஸ்நமதர்மோபிபவத்யுத৷৷1.40৷৷
కులక్షయే ప్రణశ్యన్తి కులధర్మాః సనాతనాః. ధర్మే నష్టే కులం కృత్స్నమధర్మోభిభవత్యుత৷৷1.40৷৷
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।।1.41।। हे कृष्ण! अधर्म के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं; (और) हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं।
।।1.41।।हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं,  और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है।
।।1.41।। अर्जुन अपने पूर्वकथित तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहता है कि अधर्म के बढ़ने पर समाज में धीरधीरे नैतिकता का पतन हो जायेगा और वर्णसंकर जातियाँ उत्पन्न होंगी।वर्ण एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ विकृत हो जाने से वह आज के शिक्षित लोगों की तीखी आलोचना का विषय बन गया है। उनकी आलोचना उचित है यदि उसका विकृत अर्थ स्वीकृत हो। परन्तु आज वर्ण के नाम पर देश में जो कुछ होते हुये हम देख रहे हैं वह हिन्दू जीवन पद्धति का पतित रूप है। प्राचीन काल में वर्ण विभाग का आधार समाज के व्यक्तियों की मानसिक व बौद्धिक क्षमता और पक्वता होती थी।बुद्धिमान तथा अध्ययन अध्यापन एवं अनुसंधान में रुचि रखने वाले लोग ब्राह्मण कहलाते थे क्षत्रिय वे थे जिनमें राजनीति द्वारा राष्ट्र का नेतृत्व करने की सार्मथ्य थी और जो अपने ऊपर इस कार्य का उत्तरदायित्व लेते थे कि राष्ट्र को आन्तरिक और बाह्य आक्रमणों से बचाकर राष्ट्र में शांति और समृद्धि लायें। कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज सेवा करने वालों को वैश्य कहते थे। वे लोग जो उपयुक्त कर्मों में से कोई भी कर्म नहीं कर सकते थे शूद्र कहे जाते थे। उनका कर्तव्य सेवा और श्रम करना था। हमारे आज के समाजसेवक और अधिकारी वर्ग कृषक और औद्योगिक कार्यकर्त्ता आदि सभी उपर्युक्त वर्ण व्यवस्था में आ जाते हैं।वर्णव्यवस्था को जब हम उसके व्यापक अर्थ में समझते हैं तब हमें आज भी वह अनेक संगठनों के रूप में दिखाई देती है। अत वर्णसंकर के विरोध का अर्थ इतना ही है कि एक विद्युत अभियन्ता शल्यकक्ष में चिकित्सक का काम करता हुआ समाज को खतरा सिद्ध होगा तो किसी चिकित्सक को जल विद्युत योजना का प्रशासनिक एवं योजना अधिकारी नियुक्त करने पर समाज की हानि होगीसमाज में नैतिक पतन होने पर अनियन्त्रित वासनाओं में डूबे युवक और युवतियाँ स्वच्छन्दता से परस्पर मिलते हैं। कामना के वश में वे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का किंचित भी विचार नहीं करते। इसलिये अर्जुन को भय है कि वर्णसंकर के कारण समाज और संस्कृति का पतन होगा।
।।1.41।। व्याख्या--'अधर्माभिभवात्कृष्ण ৷৷. प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः'-- धर्मका पालन करनेसे अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण शुद्ध होनेसे बुद्धि सात्त्विकी बन जाती है। सात्त्विकी बुद्धिमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इसका विवेक जाग्रत् रहता है। परन्तु जब कुलमें अधर्म बढ़ जाता है तब आचरण अशुद्ध होने लगते हैं जिससे अन्तःकरण अशुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण अशुद्ध होनेसे बुद्धि तामसी बन जाती है। बुद्धि तामसी होनेसे मनुष्य अकर्तव्यको कर्तव्य और कर्तव्यको अकर्तव्य मानने लग जाता है अर्थात् उसमें शास्त्रमर्यादासे उलटी बातें पैदा होने लग जाती हैं। इस विपरीत बुद्धिसे कुलकी स्त्रियाँ दूषित अर्थात् व्यभिचारिणी हो जाती हैं।
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.41।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.41।।वर्णसंकरस्य दोषपर्यवसायितामादर्शयति  संकर इति।  कुलक्षयकराणां दोषान्तरं समुच्चिनोति  पतन्तीति।  कुलक्षयकृतां पितरो निरयगामिनः संभवन्तीत्यत्र हेतुमाह  लुप्तेति।  पुत्रादीनां कर्तृ़णामभावाल्लुप्ता पिण्डस्योदकस्य च क्रिया येषां ते तथा। ततश्च प्रेतत्वपरावृत्तिकारणाभावान्नरकपतनमेवावश्यकमापतेदित्यर्थः।
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।।1.41।।कुलस्य संकरश्च कुलघ्नानां नरकायैव भवतीत्यन्वयः। न केवलं कुलघ्नानामेव नरकपातः किंतु तत्पितृ़णामपीत्याह पतन्तीति। हिशब्दोऽप्यर्थे हेतौ वा। पुत्रादीनां कर्तृ़णामभावाल्लुप्ता पिण्डस्योदकस्य च क्रिया येषां ते तथा कुलघ्नानां पितरः पतन्ति नरकायैवेत्यनुषङ्गः।
।।1.41।।प्रदुष्यन्ति इति कायिकदोषोक्तिः।
।।1.41।।प्रदुष्यन्ति इति कायिकदोषोक्तिः।
।।1.41।।तेनाग्रेऽपि कोऽपि तथा न भवतीत्याह अधर्माभिभवादिति। अधर्माभिभवादधर्मव्याप्ताः कुलस्त्रियः प्रदुष्यन्ति व्यभिचारादिदोषयुक्ता भवन्तीत्यर्थः। स्त्रीषु दुष्टासु जातासु वर्णसङ्करो जायते। वार्ष्णेयेति सम्बोधनेन सत्कुलोत्पन्नानां तथात्वं कुलेऽनुचितमिति ज्ञापितम्।
।।1.41।।कथं तर्हि जामदग्न्येन रामेण क्षत्रियेषु हतेषु तत्स्त्रियः पुनःपुनर्ब्राह्मणेभ्यः पुत्रान् जनयामासुरित्युपाख्यायते कथं वा धृतराष्ट्रादीनामसंकरजत्वमित्याशङ्क्याह  पतन्तीति।  हि शब्दो वैदिकीं प्रसिद्धिं द्योतयति। सा हिन शेषो अग्ने अन्यजातमस्ति इति श्रुतिः। अन्यस्माज्जातं शेषोऽपत्यं नास्तीति तदर्थः।अन्योदर्यो मनसापि न मन्तव्यो ममायं पुत्रः इति यास्कवचनाच्च।ये यजामहे इति शास्त्रात् ये वयं स्मस्ते वयं यजामह इत्यर्थकाद्दृश्यमानस्य पित्रादेः संशयग्रस्तत्वादयं मम पितैवेति निश्चयस्य दुःसाध्यत्वात्। मन्त्रश्चयोऽहमस्मि स सन्यजे। ब्राह्मणेऽर्थवादश्चनचैतद्विद्मो ब्राह्मणाः स्मो वयमब्राह्मणा वा इति। तस्माद्बीजपतेरेव पिण्डादिप्राप्तिर्नतु क्षेत्रपतेरिति लुप्तपिण्डोदकक्रियत्वादवश्यं पितृ़णां पातो भवति। क्षेत्रजपुत्रस्मृतिस्तु इह लोके वंशस्थापनमात्रपरा नतु तेन क्षेत्रपतेः कश्चिदामुष्मिक उपकारोऽस्ति। उदाहृतश्रुतिविरोधात्। अयं च संकरोऽस्माभिः स्वयं कृतश्चेदवश्यमस्मान्बाधिष्यत एवेति भावः।
।।1.41।।ततश्च किं स्यादत आह  अधर्मेति।  अधर्मेणाभिभवादधर्मबाहुल्यात्कुलस्त्रियः प्रकर्षेण दुष्यन्ति दुष्टा व्यभिचारिण्यो भवन्ति। कुलक्षयकारिपतितपतिसंबन्धादेव स्त्रीणां दुष्टत्वम्आ शुद्धेःसंप्रतीक्ष्यो हि महापातकदूषितः इत्यादिस्मृतेरित्यपि केचत्। तासु च दुष्टासु यत्स्यात्तदाह  स्त्रीष्विति।  स्त्रीषु दुष्टासु वर्णसंकारो जायते। सर्वानर्थमूलभूताधर्मसाधनाद्युद्धादस्मदपकर्षणमेव कर्तुमर्हसि नतु तत्र प्रवर्तनमिति सूचयन्नाह कृष्णेति। हे वृष्णिकुलोद्भव कुलमर्यादाभिज्ञस्त्वमेतकथं न जानासि ज्ञात्वा च किमर्थमुपेक्षस इति ध्वनयन्संबोधयति  वार्ष्णेयेति।
1.41 अधर्माभिभवात् from the prevalence of impiety? कृष्ण O Krishna? प्रदुष्यन्ति become corrupt? कुलस्त्रियः the women of the family? स्त्रीषु in women? दुष्टासु (being) corrupt? वार्ष्णेय O Varshneya? जायते arises? वर्णसङ्करः casteadmixture.No Commentary.
1.41. By the prevalence of impiety, O Krishna, the women of the family become corrupt; and , women being corrupted, O Varshenya (descendant of Vrishni), there arises intermingling of castes.
1.41 When irreligion spreads, the women of the house begin to stray; when they lose their purity, adulteration of the stock follows.
1.41 O Krsna, when vice predominates, the women of the family become corrupt. O descendent of the Vrsnis, when women become corrupted, it results in the intermingling of castes.
null
1.41. Because of the domination of impiety, O Krsna, the women of the family become corrupt; when the women become corrupt, O member of the Vrsni-clan, there arises the intermixture of castes;
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.41 When lawlessness prevails, O Krsna, the women of the clan become corrupt; when women become corrupt, there arises intermixture of classes.
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अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः।।1.41।।
অধর্মাভিভবাত্কৃষ্ণ প্রদুষ্যন্তি কুলস্ত্রিযঃ৷ স্ত্রীষু দুষ্টাসু বার্ষ্ণেয জাযতে বর্ণসঙ্করঃ৷৷1.41৷৷
অধর্মাভিভবাত্কৃষ্ণ প্রদুষ্যন্তি কুলস্ত্রিযঃ৷ স্ত্রীষু দুষ্টাসু বার্ষ্ণেয জাযতে বর্ণসঙ্করঃ৷৷1.41৷৷
અધર્માભિભવાત્કૃષ્ણ પ્રદુષ્યન્તિ કુલસ્ત્રિયઃ। સ્ત્રીષુ દુષ્ટાસુ વાર્ષ્ણેય જાયતે વર્ણસઙ્કરઃ।।1.41।।
ਅਧਰ੍ਮਾਭਿਭਵਾਤ੍ਕਰਿਸ਼੍ਣ ਪ੍ਰਦੁਸ਼੍ਯਨ੍ਤਿ ਕੁਲਸ੍ਤ੍ਰਿਯ। ਸ੍ਤ੍ਰੀਸ਼ੁ ਦੁਸ਼੍ਟਾਸੁ ਵਾਰ੍ਸ਼੍ਣੇਯ ਜਾਯਤੇ ਵਰ੍ਣਸਙ੍ਕਰ।।1.41।।
ಅಧರ್ಮಾಭಿಭವಾತ್ಕೃಷ್ಣ ಪ್ರದುಷ್ಯನ್ತಿ ಕುಲಸ್ತ್ರಿಯಃ. ಸ್ತ್ರೀಷು ದುಷ್ಟಾಸು ವಾರ್ಷ್ಣೇಯ ಜಾಯತೇ ವರ್ಣಸಙ್ಕರಃ৷৷1.41৷৷
അധര്മാഭിഭവാത്കൃഷ്ണ പ്രദുഷ്യന്തി കുലസ്ത്രിയഃ. സ്ത്രീഷു ദുഷ്ടാസു വാര്ഷ്ണേയ ജായതേ വര്ണസങ്കരഃ৷৷1.41৷৷
ଅଧର୍ମାଭିଭବାତ୍କୃଷ୍ଣ ପ୍ରଦୁଷ୍ଯନ୍ତି କୁଲସ୍ତ୍ରିଯଃ| ସ୍ତ୍ରୀଷୁ ଦୁଷ୍ଟାସୁ ବାର୍ଷ୍ଣେଯ ଜାଯତେ ବର୍ଣସଙ୍କରଃ||1.41||
adharmābhibhavātkṛṣṇa praduṣyanti kulastriyaḥ. strīṣu duṣṭāsu vārṣṇēya jāyatē varṇasaṅkaraḥ৷৷1.41৷৷
அதர்மாபிபவாத்கரிஷ்ண ப்ரதுஷ்யந்தி குலஸ்த்ரியஃ. ஸ்த்ரீஷு துஷ்டாஸு வார்ஷ்ணேய ஜாயதே வர்ணஸங்கரஃ৷৷1.41৷৷
అధర్మాభిభవాత్కృష్ణ ప్రదుష్యన్తి కులస్త్రియః. స్త్రీషు దుష్టాసు వార్ష్ణేయ జాయతే వర్ణసఙ్కరః৷৷1.41৷৷
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।।1.42।। वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जानेवाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन- (कुलघातियों-) के पितर भी अपने स्थान से गिर जाते हैं।
।।1.42।।वह वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने का कारण बनता है। पिण्ड और जलदान की क्रिया से वंचित इनके पितर भी नरक में गिर जाते हैं।
।।1.42।। अब अर्जुन वर्णसंकर के दुष्परिणामों को बताता है। जातियों के वर्णसंकर होने से अन्तर्बाह्य जीवन में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता है और फलत परिवारिक व धार्मिक परम्परायें नष्ट हो जाती हैं।हिन्दू धर्म के अनुसार मृत पितरों को पिण्ड और जल अर्पित किया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि पितर यह देखना चाहते हैं कि उनके द्वारा अत्यन्त परिश्रम से विकसित की गई और अपने पुत्रों आदि को सौपी गई सांस्कृतिक शुद्धता को वे किस सीमा तक बनाये रखते हैं और उसकी सुरक्षा किस प्रकार करते हैं। हमारे पूर्वजों द्वारा अथक परिश्रम से निर्मित उच्च संस्कृति को यदि हम नष्ट कर देते हैं तो वास्तव में हम उनका घोर अपमान करते हैं। यह कितनी आकर्षक और काव्यात्मक कल्पना है कि पितरगण अपने स्वर्ग के वातायन से देखते हैं कि उनके पुत्रादि अपनी संस्कृति की रक्षा करते हुये किस प्रकार का जीवन जीते हैं यदि वे यह देखेंगे क उनके द्वारा अत्यन्त श्रम से लगाये हुये उद्यानों को उनके स्वजनों ने उजाड़कर जंगल बना दिया है तो निश्चय ही उन्हें भूखप्यास के कष्ट के समान पीड़ा होगी। इस दृष्टि से अध्ययन करने पर यह श्लोक अत्यन्त उपयुक्त प्रतीत होता है। प्रत्येक पीढ़ी अपनी संस्कृति की आलोकित ज्योति भावी पीढ़ी के हाथों में सौंप देती है। नई पीढ़ी का यह कर्तव्य है कि वह इसे सावधानीपूर्वक आलोकित अवस्था में ही अपने आगे आने वाली पीढ़ी को भी सौंपे। संस्कृति की रक्षा एवं विकास करना हमारा पुनीत कर्तव्य है।ऋषि मुनियों द्वारा निर्मित भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक है जिसकी सुरक्षा धार्मिक विधियों पर आश्रित होती है। इसलिये हिन्दुओं के लिए संस्कृति और धर्म एक ही वस्तु है। हमारे प्राचीन साहित्य में संस्कृति शब्द का स्वतन्त्र उल्लेख कम ही मिलता है। उसमें अधिकतर धार्मिक विधियों के अनुष्ठान पर ही बल दिया गया है।वास्तव में हिन्दू धर्म सामाजिक जीवन में आध्यात्मिक संस्कृति संरक्षण की एक विशेष विधि है। धर्म का अर्थ है उन दिव्य गुणों को अपने जीवन में अपनाना जिनके द्वारा हमारा शुद्ध आत्मस्वरूप स्पष्ट प्रकट हो। अत कुलधर्म का अर्थ परिवार के सदस्यों द्वारा मिलजुलकर अनुशासन और ज्ञान के साथ रहने के नियमों से है। परिवार में नियमपूर्वक रहने से देश के एक योग्य नागरिक के रूप में भी हम आर्य संस्कृति को जी सकते हैं।
।।1.42।। व्याख्या--'सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च'-- वर्ण-मिश्रणसे पैदा हुए वर्णसंकर-(सन्तान-) में धार्मिक बुद्धि नहीं होती। वह मर्यादाओंका पालन नहीं करता; क्योंकि वह खुद बिना मर्यादासे पैदा हुआ है। इसलिये उसके खुदके कुलधर्म न होनेसे वह उनका पालन नहीं करता, प्रत्युत कुलधर्म अर्थात् कुलमर्यादासे विरुद्ध आचरण करता है। जिन्होंने युद्धमें अपने कुलका संहार कर दिया है, उनको 'कुलघाती' कहते हैं। वर्णसंकर ऐसे कुलघातियोंको नरकोंमें ले जाता है। केवल कुलघातियोंको ही नहीं, प्रत्युत कुल-परम्परा नष्ट होनेसे सम्पूर्ण कुलको भी वह नरकोंमें ले जाता है।
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.42।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.42।।कुलक्षयकृतामेतैरुदाहृतैर्दोषैर्वर्णसंकरहेतुभिर्जातिप्रयुक्ता वंशप्रयुक्ताश्च धर्माः सर्वे समुत्साद्यन्ते तेन कुलक्षयकारणाद्युद्धादुपरतिरेव श्रेयसीत्याह  दोषैरिति।
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।।1.42।।जातिधर्माः क्षत्रियत्वादिनिबन्धनाः कुलधर्मा असाधारणाश्च एतैर्दोषैरुत्साद्यन्ते उत्सन्नाः क्रियन्ते। विनाश्यन्त इत्यर्थः।
।। 1.42।।प्रदुष्यन्ति इति कायिकदोषोक्तिः।
।। 1.42।।प्रदुष्यन्ति इति कायिकदोषोक्तिः।
।।1.42।।सङ्कराच्च नरक एव स्यादित्याह सङ्कर इति। सङ्करः कुलस्य नरकायैव भवति। एवकारेण पापभोगानन्तरं नरकोद्धरणाद्यभावो ज्ञापितः। कुलघ्नामेषां पितरश्च पतन्ति स्वधर्मोपार्जिताजादिलोकेम्यः। हीति युक्तश्चायमर्थः। यतो लुप्तपिण्डोदकक्रियाः लुप्ताः पिण्डोदकः क्रिया येषाम्।
।।1.42।।एतदेव विवृणोति द्वाभ्याम्  दोषैरिति।
।।1.42।।वर्णसंकरस्य दोषपर्यवसायितां दर्शयति  संकर इति।  वर्णसंकरः कुलघ्नानां कुलहननकर्तृ़णां कुलस्य चाधर्माभिभूतस्य नरकायैव नरकप्रदानायैव जायत इत्यनुषङ्गः। कुलस्य संकरश्च कुलघ्नानां नरकायैव भवतीत्यन्वय इति केचित्। न केवलं तेषामेव नरकायापितु तत्पितृ़णामपीत्याह  पतन्तीति।  एषां कुलघ्नानां कुलस्य च पितरः पतन्ति निरयगामिनो भवन्ति। हि यस्माल्लुप्ता पिण्डोदकयोः क्रिया येषां ते। तत्कर्तृ़णां पुत्रपौत्रादीनामभावात्। ततश्च प्रेतत्वादिनिवृत्तिकारणाभावात्तेषां निरयपतनमेवावश्यमायातमित्यर्थः।
1.42 सङ्करः confusion of castes? नरकाय for the hell? एव also? कुलघ्नानाम् of the slayers of the family?कुलस्य of the family? च and? पतन्ति fall? पितरः the forefathers? हि verily? एषां their? लुप्तपिण्डोदकक्रियाः deprived of the offerings of ricall and water.No Commentary.
1.42. Confusion of castes leads to hell the slayers of the family, for their forefathers fall, deprived of the offerings of rice-ball and water (libations).
1.42 Promiscuity ruins both the family and those who defile it; while the souls of our ancestors droop, through lack of the funeral cakes and ablutions.
1.42 And the intermingling in the family leads the ruiners of the family verily into hell. The forefathers of these fall down (into hell) because of being deprived of the offerings of rice-balls and water.
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1.42. The intermixture leads the family-ruiners and the family to nothing but the hell; for, their ancestors (their individual souls) fall down [in hell], being deprived of the rites of offering rice-balls and water [intended to them].
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.42 This mixing of classes leads to hell the clan itself and its destroyers; for the spirits of their ancestors fall degraded, deprived of the ritual offerings of food and water.
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सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।1.42।।
সঙ্করো নরকাযৈব কুলঘ্নানাং কুলস্য চ৷ পতন্তি পিতরো হ্যেষাং লুপ্তপিণ্ডোদকক্রিযাঃ৷৷1.42৷৷
সঙ্করো নরকাযৈব কুলঘ্নানাং কুলস্য চ৷ পতন্তি পিতরো হ্যেষাং লুপ্তপিণ্ডোদকক্রিযাঃ৷৷1.42৷৷
સઙ્કરો નરકાયૈવ કુલઘ્નાનાં કુલસ્ય ચ। પતન્તિ પિતરો હ્યેષાં લુપ્તપિણ્ડોદકક્રિયાઃ।।1.42।।
ਸਙ੍ਕਰੋ ਨਰਕਾਯੈਵ ਕੁਲਘ੍ਨਾਨਾਂ ਕੁਲਸ੍ਯ ਚ। ਪਤਨ੍ਤਿ ਪਿਤਰੋ ਹ੍ਯੇਸ਼ਾਂ ਲੁਪ੍ਤਪਿਣ੍ਡੋਦਕਕ੍ਰਿਯਾ।।1.42।।
ಸಙ್ಕರೋ ನರಕಾಯೈವ ಕುಲಘ್ನಾನಾಂ ಕುಲಸ್ಯ ಚ. ಪತನ್ತಿ ಪಿತರೋ ಹ್ಯೇಷಾಂ ಲುಪ್ತಪಿಣ್ಡೋದಕಕ್ರಿಯಾಃ৷৷1.42৷৷
സങ്കരോ നരകായൈവ കുലഘ്നാനാം കുലസ്യ ച. പതന്തി പിതരോ ഹ്യേഷാം ലുപ്തപിണ്ഡോദകക്രിയാഃ৷৷1.42৷৷
ସଙ୍କରୋ ନରକାଯୈବ କୁଲଘ୍ନାନାଂ କୁଲସ୍ଯ ଚ| ପତନ୍ତି ପିତରୋ ହ୍ଯେଷାଂ ଲୁପ୍ତପିଣ୍ଡୋଦକକ୍ରିଯାଃ||1.42||
saṅkarō narakāyaiva kulaghnānāṅ kulasya ca. patanti pitarō hyēṣāṅ luptapiṇḍōdakakriyāḥ৷৷1.42৷৷
ஸங்கரோ நரகாயைவ குலக்நாநாஂ குலஸ்ய ச. பதந்தி பிதரோ ஹ்யேஷாஂ லுப்தபிண்டோதகக்ரியாஃ৷৷1.42৷৷
సఙ్కరో నరకాయైవ కులఘ్నానాం కులస్య చ. పతన్తి పితరో హ్యేషాం లుప్తపిణ్డోదకక్రియాః৷৷1.42৷৷
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।।1.43।। इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषोंसे कुलघातियों के सदा से चलते आये कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।
।।1.43।।इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघाती दोषों से सनातन कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।
।।1.43।। पूर्व श्लोक की टीका का अर्थ अर्जुन के इस वाक्य से और अधिक स्पष्ट हो जाता है। जैसा कि हमने देखा धर्म का अर्थ है भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति जिसका प्रशिक्षण प्रत्येक घर में ही प्रारम्भ से मिलता था। अर्जुन का यह भय कि इस गृहयुद्ध से जातिधर्म व कुलधर्म नष्ट हो जायेंगे सामान्य ज्ञान की बात है। यह सुविदित है कि प्रत्येक युद्ध के बाद समाज में नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों का सहसा कितना पतन होने लगता है। अनैतिकता और छलकपट की प्रवृत्तियों के नीचे दबा हाँफ रहा आज का युग उपरोक्त तथ्य का ज्वलंत उदाहरण है। युद्ध के बाद न केवल लंगड़े लूलों की संख्या बढ़ती है वरन् उससे भी भयंकर परिणाम मन की गंभीर विकृतियों के रूप में सामने आते हैं।इन श्लोकों में हम अर्जुन को संसार के सर्वप्रथम युद्धविरोधी व्यक्ति के रूप में पाते हैं। इन अनुच्छेदों में वह शान्ति प्रिय लोगों के लिये सार्वकालिक तर्कों की एक सुन्दर शृंखला भेंट करता है।
।।1.43।। व्याख्या--'दोषैरेतैः कुलघ्नानाम् ৷৷. कुलधर्माश्च शाश्वताः'--युद्धमें कुलका क्षय होनेसे कुलके साथ चलते आये कुलधर्मोंका भी नाश हो जाता है। कुलधर्मोंके नाशके कुलमें अधर्मकी वृद्धि हो जाती है। अधर्मकी वृद्धिसे स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। स्त्रियोंके दूषित होनेसे वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं। इस तरह इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषोंसे कुलका नाश करनेवालोंके जातिधर्म (वर्णधर्म) नष्ट हो जाते हैं।
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.43।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.43।।किञ्च जातिधर्मेषु कुलधर्मेषु चोत्सन्नेषु तत्तद्धर्मवर्जितानां मनुष्याणामनधिकृतानां नरकपतनध्रौव्यादनर्थकरमिदमेव हेयमित्याह  उत्सन्नेति।  यथोक्तानां मनुष्याणां नरकपातस्यावश्यकत्वे प्रमाणमाह  इत्यनुशुश्रुमेति।
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।।1.43।।ततश्च प्रेतत्वपरावृत्तिकारणाभावान्नरके एव केवलं निरन्तरं वासो भवति ध्रुवमित्यनुशुश्रुमेत्याचार्याणां मुखाद्वयं श्रुतवन्तो न स्वाभ्यूहेन कल्पयाम इति पूर्वोक्तस्यैव दृढीकरणम्।
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।।1.43।।किञ्च कुलघ्नानां तु नरको भवत्येवान्न किं वाच्यम् यतस्तत्सम्बन्धात्सर्वत्रैव भूमौ धर्मनासो भवतीत्याह दोषैरेतैरिति। दोषैरेतैर्वर्णसङ्करकारकैरेतैः कुलघ्नानां दोषैर्जातिधर्माः शाश्वताः कुलधर्माश्च उत्साद्यन्ते लुप्यन्त इत्यर्थः। चकारेणाश्रमादिधर्माश्च परिगृह्यन्ते।
।। 1.43एतदेव विवृणोति द्वाभ्याम्  दोषैरिति।
।।1.43।।कुलघ्नानामेतैरुक्तैर्दोषैर्वर्णसंकरस्य कारकैर्हेतुभिः जातिप्रयुक्ता धर्माः कुलप्रयुक्ताश्च धर्माः सर्वे शाश्वताश्चिरन्तनाः समुत्साद्यन्ते उत्सन्ना विनष्टाः क्रियन्ते।
1.43 दोषैः by evil deeds? एतैः (by) these? कुलघ्नानाम् of the family destroyers? वर्णसङ्करकारकैः causing intermingling of castes? उत्साद्यन्ते are destroyed? जातिधर्माः religious rites of the caste? कुलधर्माः family religious rites? च and? शाश्वताः eternal.No Commentary.
1.43. By these evil deeds of the destroyers of the family, which cause confusion of castes, the eternal religious rites of the caste and the family are destroyed.
1.43 By the destruction of our lineage and the pollution of blood, ancient class traditions and family purity alike perish.
1.43 Due to these misdeeds of the ruiners of the family, which cause intermingling of castes, the traditional rites and duties of the castes and families become destroyed.
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1.43. On account of these evils of the family-ruiners that cause the intermixture of castes, the eternal caste-duties and family-duties fall into disuse.
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.43 By the sins of the clan-destroyers who bring about inter-mixture of classes, the ancient traditions of the clan and class are destroyed.
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दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः। उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।1.43।।
দোষৈরেতৈঃ কুলঘ্নানাং বর্ণসঙ্করকারকৈঃ৷ উত্সাদ্যন্তে জাতিধর্মাঃ কুলধর্মাশ্চ শাশ্বতাঃ৷৷1.43৷৷
দোষৈরেতৈঃ কুলঘ্নানাং বর্ণসঙ্করকারকৈঃ৷ উত্সাদ্যন্তে জাতিধর্মাঃ কুলধর্মাশ্চ শাশ্বতাঃ৷৷1.43৷৷
દોષૈરેતૈઃ કુલઘ્નાનાં વર્ણસઙ્કરકારકૈઃ। ઉત્સાદ્યન્તે જાતિધર્માઃ કુલધર્માશ્ચ શાશ્વતાઃ।।1.43।।
ਦੋਸ਼ੈਰੇਤੈ ਕੁਲਘ੍ਨਾਨਾਂ ਵਰ੍ਣਸਙ੍ਕਰਕਾਰਕੈ। ਉਤ੍ਸਾਦ੍ਯਨ੍ਤੇ ਜਾਤਿਧਰ੍ਮਾ ਕੁਲਧਰ੍ਮਾਸ਼੍ਚ ਸ਼ਾਸ਼੍ਵਤਾ।।1.43।।
ದೋಷೈರೇತೈಃ ಕುಲಘ್ನಾನಾಂ ವರ್ಣಸಙ್ಕರಕಾರಕೈಃ. ಉತ್ಸಾದ್ಯನ್ತೇ ಜಾತಿಧರ್ಮಾಃ ಕುಲಧರ್ಮಾಶ್ಚ ಶಾಶ್ವತಾಃ৷৷1.43৷৷
ദോഷൈരേതൈഃ കുലഘ്നാനാം വര്ണസങ്കരകാരകൈഃ. ഉത്സാദ്യന്തേ ജാതിധര്മാഃ കുലധര്മാശ്ച ശാശ്വതാഃ৷৷1.43৷৷
ଦୋଷୈରେତୈଃ କୁଲଘ୍ନାନାଂ ବର୍ଣସଙ୍କରକାରକୈଃ| ଉତ୍ସାଦ୍ଯନ୍ତେ ଜାତିଧର୍ମାଃ କୁଲଧର୍ମାଶ୍ଚ ଶାଶ୍ବତାଃ||1.43||
dōṣairētaiḥ kulaghnānāṅ varṇasaṅkarakārakaiḥ. utsādyantē jātidharmāḥ kuladharmāśca śāśvatāḥ৷৷1.43৷৷
தோஷைரேதைஃ குலக்நாநாஂ வர்ணஸங்கரகாரகைஃ. உத்ஸாத்யந்தே ஜாதிதர்மாஃ குலதர்மாஷ்ச ஷாஷ்வதாஃ৷৷1.43৷৷
దోషైరేతైః కులఘ్నానాం వర్ణసఙ్కరకారకైః. ఉత్సాద్యన్తే జాతిధర్మాః కులధర్మాశ్చ శాశ్వతాః৷৷1.43৷৷
1.44
1
44
।।1.44।। हे जनार्दन! जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्यों का बहुत काल तक नरकों में वापस होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं।
।।1.44।।हे जनार्दन !  हमने सुना है कि जिनके यहां कुल धर्म नष्ट हो जाता है,  उन मनुष्यों का अनियत काल तक नरक में वास होता है।
।।1.44।। इसके उपरान्त भी भगवान् कुछ नहीं बोले। अब अर्जुन की स्थिति ऐसी हो गयी थी कि वह न तो चुप रह सकता था और न उसको नये तर्क ही सूझ रहे थे। परन्तु भगवान् के मौन का प्रभाव भी अनूठा ही था। इस श्लोक में अर्जुन पारम्परिक कथन ही उद्धृत करता है।हिन्दुओं के लिये धर्म ही संस्कृति है। इसलिये कुलधर्म के महत्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है। इसी कारण अर्जुन यहाँ एक बार फिर कुलधर्म नाश के दुष्परिणामों की ओर ध्यान आकर्षित करता है।
1.44।। व्याख्या--'उत्सन्नकुलधर्माणाम् ৷৷. अनुशुश्रुम'--(टिप्पणी प0 30) भगवान्ने मनुष्यको विवेक दिया है, नया कर्म करनेका अधिकार दिया है। अतः यह कर्म करनेमें अथवा न करनेमें, अच्छा करनेमें अथवा मन्दा करनेमें स्वतन्त्र है। इसलिये इसको सदा विवेक-विचारपूर्वक कर्तव्य-कर्म करने चाहिये। परन्तु मनुष्य सुखभोग आदिके लोभमें आकर अपने विवेकका निरादर कर देते हैं और राग-द्वेषके वशीभूत हो जाते हैं, जिससे उनके आचरण शास्त्र और कुलमर्यादाके विरुद्ध होने लगते हैं। परिणामस्वरूप इस लोकमें उनकी निन्दा, अपमान, तिरस्कार होता है और परलोकमें दुर्गति, नरकोंकी प्राप्ति होती है। अपने पापोंके कारण उनको बहुत समयतक नरकोंका कष्ट भोगना पड़ता है। ऐसा हम परम्परासे बड़े-बूढ़े गुरुजनोंसे सुनते आये हैं।  'मनुष्याणाम्'--पदमें कुलघाती और उनके कुलके सभी मनुष्योंका समावेश किया गया है अर्थात् कुलघातियोंके पहले जो हो चुके हैं--उन (पितरों) का, अपना और आगे होनेवाले-(वंश-) का समावेश किया गया है।
।।1.35 1.44।।निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् (S omits पापम्)। पापमत्र लोभादिवशात् (S लोभवशात्) कुलक्षयादिदोषादर्शनम् (S दोषदर्शनम्)। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं (K कुलक्षयादि N क्षेपकम्) करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
।।1.44।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.44।।राज्यप्राप्तिप्रयुक्तसुखोपभोगलब्धतया स्वजनहिंसायां प्रवृत्तिरस्माकं गुणदोषविभागविज्ञानवतामतिकष्टेति परिभ्रष्टहृदयः सन्नाह  अहो बतेति।
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।।1.44।।बन्धुवधपर्यवसायी युद्धाध्यवसायोऽपि सर्वथा पापिष्ठतरः किं पुनर्युद्धमिति वक्तुं तदध्यवसायेनात्मानं शोचन्नाह यदीदृशी ते बुद्धिः कुतस्तर्हि युद्धभिनिवेशेनागतोऽसीति न वक्तव्यम्। अविमृश्यकारितया मयौद्धत्यस्य कृतत्वादिति भावः।
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।।1.44।।एवं सर्वधर्मलोपात्सर्वेषां नरकलोको भवतीत्याह उत्सन्नकुलधर्माणामिति। हे जनार्दन उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां नियतं नरके वासो भवतीति वयमनुशुश्रुम श्रुतवन्त इत्यर्थः। जनार्दनेति सम्बोधनेन त्वत्सम्बन्धरहितास्तथा भवन्ति अविद्यासम्बन्धादिति ज्ञापितम्।
।। 1.44एतदेव विवृणोति द्वाभ्याम्  दोषैरिति।
।।1.44।।ततो यद्भवति तदाह  उत्सन्नेति।  उत्सन्ना विनष्टाः कुलधर्मा जातिधर्माश्च येषां तेषां मनुष्याणां नरके नियतं नियमेन वासो भवतीत्यनुशुश्रुम शास्त्रादाचार्याच्च श्रुतवन्तः कुलक्षयहेतुभूतयुद्धकर्तृ़णामस्माकं नरकपतनध्रौव्यात्तस्मान्निवृत्तिरेव श्रेयसीति नरकान्त्राणार्थिभिर्जनैः प्रार्थ्यमानं त्वामहमपि तन्त्राणाय प्रार्थायामीति ध्वनयन्नाह  हे जनार्दनेति।
1.44 उत्सन्नकुलधर्माणाम् whose family religious practices are destroyed? मनुष्याणाम् of the men? जनार्दन O Janardana? नरके in hell? अनियतं for unknown period? वासः dwelling? भवति is? इति thus? अनुशुश्रुम we have heard.No Commentary.
1.44. We have heard, O Janardana, that inevitable is the dwelling for an unknown period in hell for those men in whose families the religious practices have been destroyed.
1.44 The wise say, my Lord, that they are forever lost, whose ancient traditions are lost.
1.44 O Janardana, we have heard that living in hell becomes inevitable for those persons whose family duties get destroyed.
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1.44. O Janardana! Dwelling in the hell is ite certain for men with their family-duties fallen into disuse: this we have heard.
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage 'How by slaying my own kinsmen etc'. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.44 For those whose clan-laws are destroyed, dwelling in hell is ordained, O Krsna; thus have we heard.
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उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन। नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।1.44।।
উত্সন্নকুলধর্মাণাং মনুষ্যাণাং জনার্দন৷ নরকেনিযতং বাসো ভবতীত্যনুশুশ্রুম৷৷1.44৷৷
উত্সন্নকুলধর্মাণাং মনুষ্যাণাং জনার্দন৷ নরকেনিযতং বাসো ভবতীত্যনুশুশ্রুম৷৷1.44৷৷
ઉત્સન્નકુલધર્માણાં મનુષ્યાણાં જનાર્દન। નરકેનિયતં વાસો ભવતીત્યનુશુશ્રુમ।।1.44।।
ਉਤ੍ਸਨ੍ਨਕੁਲਧਰ੍ਮਾਣਾਂ ਮਨੁਸ਼੍ਯਾਣਾਂ ਜਨਾਰ੍ਦਨ। ਨਰਕੇਨਿਯਤਂ ਵਾਸੋ ਭਵਤੀਤ੍ਯਨੁਸ਼ੁਸ਼੍ਰੁਮ।।1.44।।
ಉತ್ಸನ್ನಕುಲಧರ್ಮಾಣಾಂ ಮನುಷ್ಯಾಣಾಂ ಜನಾರ್ದನ. ನರಕೇನಿಯತಂ ವಾಸೋ ಭವತೀತ್ಯನುಶುಶ್ರುಮ৷৷1.44৷৷
ഉത്സന്നകുലധര്മാണാം മനുഷ്യാണാം ജനാര്ദന. നരകേനിയതം വാസോ ഭവതീത്യനുശുശ്രുമ৷৷1.44৷৷
ଉତ୍ସନ୍ନକୁଲଧର୍ମାଣାଂ ମନୁଷ୍ଯାଣାଂ ଜନାର୍ଦନ| ନରକେନିଯତଂ ବାସୋ ଭବତୀତ୍ଯନୁଶୁଶ୍ରୁମ||1.44||
utsannakuladharmāṇāṅ manuṣyāṇāṅ janārdana. narakē.niyataṅ vāsō bhavatītyanuśuśruma৷৷1.44৷৷
உத்ஸந்நகுலதர்மாணாஂ மநுஷ்யாணாஂ ஜநார்தந. நரகேநியதஂ வாஸோ பவதீத்யநுஷுஷ்ரும৷৷1.44৷৷
ఉత్సన్నకులధర్మాణాం మనుష్యాణాం జనార్దన. నరకేనియతం వాసో భవతీత్యనుశుశ్రుమ৷৷1.44৷৷
1.45
1
45
।।1.45।। यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने स्वजनों को मारने के लिये तैयार हो गये हैं!
।।1.45।।अहो  !  शोक है कि हम लोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं,  जो कि इस राज्यसुख के लोभ से अपने कुटुम्ब का नाश करने के लिये तैयार हो गये हैं।
।।1.45।। इस श्लोक में अर्जुन की बौद्धिक निराशा और मन की थकान स्पष्ट दिखाई पड़ती है जो वास्तव में बड़ी दयनीय है। आत्मविश्वास को खोकर वह कहता है अहो हम पाप करने को प्रवृत्त हो रहे हैं . इत्यादि। इस वाक्य से स्पष्ट ज्ञात होता है कि परिस्थिति पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के स्थान पर अर्जुन स्वयं उसका शिकार बन गया है। आत्मविश्वास के अभाव में एक कायर के समान वह स्वयं को असहाय अनुभव कर रहा है।मन की यह दुर्बलता उसके शौर्य को क्षीण कर देती है और वह उसे छिपाने के लिये महान प्रतीत होने वाली युक्तियों का आश्रय लेता है। युद्ध के लक्ष्य को ही उसने गलत समझा है और फिर धर्म के पक्ष पर स्वार्थ का झूठा आरोप वह केवल अपनी कायरता के कारण करता है। शान्तिप्रियता का उसका यह तर्क अपनी सार्मथ्य को पहचान कर नहीं वरन् मन की दुर्बलता के कारण है।
1.45।। व्याख्या-- 'अहो बत ৷৷. स्वजनमुद्यताः'--ये दुर्योधन आदि   दुष्ट हैं। इनकी धर्मपर दृष्टि नहीं है। इनपर लोभ सवार हो गया है। इसलिये ये युद्धके लिये तैयार हो जायँ तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। परन्तु हमलोग तो धर्म-अधर्मको, कर्तव्य-अकर्तव्यको, पुण्य-पापको जाननेवाले हैं। ऐसे जानकार होते हुए भी अनजान मनुष्योंकी तरह हमलोगोंने बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय--विचार कर लिया है। इतना ही नहीं, युद्धमें अपने स्वजनोंको मारनेके लिये अस्त्र-शस्त्र लेकर तैयार हो गये हैं ! यह हमलोगेंके लिये बड़े भारी आश्चर्यकी और खेद-(दुःख-) की बात है अर्थात् सर्वथा अनुचित बात है। हमारी जो जानकारी है, हमने जो शास्त्रोंसे सुना है, गुरुजनोंसे शिक्षा पायी है, अपने जीवनको सुधारनेका विचार किया है, उन सबका अनादर करके आज हमने युद्धरूपी पाप करनेके लिये विचार कर लिया है--यह बड़ा भारी पाप है --'महत्पापम्' । इस श्लोकमें 'अहो' और 'बत'--ये दो पद आये हैं। इनमेंसे 'अहो' पद आश्चर्यका वाचक है। आश्चर्य यही है कि युद्धसे होनेवाली अनर्थ-परम्पराको जानते हुए भी हमलोगोंने युद्धरूपी बड़ा भारी पाप करनेका पक्का निश्चय कर लिया है! दूसरा 'बत' पद खेदका, दुःखका वाचक है। दुःख यही है कि थोड़े दिन रहेनेवाले राज्य और सुखके लोभमें आकर हम अपने कुटुम्बियोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं! पाप करनेका निश्चय करनेमें और स्वजनोंको मारनेके तैयार होनेमें केवल राज्यका और सुखका लोभ ही कारण है। तात्पर्य है कि अगर युद्धमें हमारी विजय हो जायगी तो हमें राज्य, वैभव मिल मिल जायगा, हमारा आदर-सत्कार होगा, हमारी महत्ता बढ़ जायगी, पूरे राज्यपर हमारा प्रभाव रहेगा, सब जगह हमारा हुक्म चलेगा, हमारे पास धन होनेसे हम मनचाही भोग-सामग्री जुटा लेंगे, फिर खूब आराम करेंगे, सुख भोगेंगे--इस तरह हमारेपर राज्य और सुखका लोभ छा गया है, जो हमारे-जैसे मनुष्योंके लिये सर्वथा अनुचित है। इस श्लोकमें अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि अपने सद्विचारोंका, अपनी जानकारीका आदर करनेसे ही शास्त्र, गुरुजन आदिकी आज्ञा मानी जा सकती है। परन्तु जो मनुष्य अपने सद्विचारोंका निरादर करता है, वह शास्त्रोंकी, गुरुजनोंकी और सिद्धान्तोंकी अच्छी-अच्छी बातोंको सुनकर भी उन्हें धारण नहीं कर सकता। अपने सद्विचारोंका बार-बार निरादर, तिरस्कार करनेसे सद्विचारोंकी सृष्टि बंद हो जाती है। फिर मनुष्यको दुर्गुण-दुराचारसे रोकनेवाला है ही कौन? ऐसे ही हम भी अपनी जानकारीका आदर नहीं करेंगे, तो फिर हमें अनर्थ-परम्परासे कौन रोक सकता है? अर्थात् कोई नहीं रोक सकता। यहाँ अर्जुनकी दृष्टि युद्धरूपी क्रियाकी तरफ है। वे युद्धरूपी क्रियाको दोषी मानकर उससे हटना चाहते हैं; परन्तु वास्तवमें दोष क्या है--इस तरफ अर्जुनकी दृष्टि नहीं है। युद्धमें कौटुम्बिक मोह, स्वार्थभाव, कामना ही दोष है, पर इधर दृष्टि न जानेके कारण अर्जुन यहाँ आश्चर्य और खेद प्रकट कर रहे हैं, जो कि वास्तवमें किसी भी विचारशील, धर्मात्मा, शूरवीर क्षत्रियके लिये उचित नहीं है। [अर्जुनने पहले अड़तीसवें श्लोकमें दुर्योधनादिके युद्धमें प्रवृत्त होनेमें, कुलक्षयके दोषमें और मित्रद्रोहके पापमें लोभको कारण बताया; और यहाँ भी अपनेको राज्य और सुखके लोभके कारण महान् पाप करनेको उद्यत बता रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन पापके होनेमें 'लोभ' को हेतु मानते हैं। फिर भी आगे तीसरे अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें अर्जुनने 'मनुष्य न चाहता हुआ भी पापका आचरण क्यों कर बैठता है'--ऐसा प्रश्न क्यों किया? इसका समाधान है कि यहाँ तो कौटुम्बिक मोहके कारण अर्जुन युद्धसे निवृत्त होनेको धर्म और युद्धमें प्रवृत्त होनेको अधर्म मान रहे हैं अर्थात् उनकी शरीर आदिको लेकर केवल लौकिक दृष्टि है, इसलिये वे युद्धमें स्वजनोंको मारनेमें लोभको हेतु मान रहे हैं। परन्तु आगे गीताका उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने श्रेय--कल्याणकी इच्छा जाग्रत् हो गयी (गीता 3। 2)। इसलिये वे कर्तव्यको छोड़कर न करनेयोग्य काममें प्रवृत्त होनेमें कौन कारण है--ऐसा पूछते हैं अर्थात् वहाँ (3। 36 में) अर्जुन कर्तव्यकी दृष्टिसे, साधककी दृष्टिसे पूछते हैं।]
।।1.45।।विशेषफलबुद्ध्या हन्तव्यादिविशेषबुद्ध्या च हनने महापातकमित्येतदेव संक्षिप्याभिधातुं परितापातिशयसूचनायात्मगतमेवार्जुनो वचनमाह अहो बतेति। वयमिति कौरवपाण्डवभेदभिन्नाः सर्व एवेत्यर्थः।एवं सर्वेष्वविवेकिषु मम विवेकिनः किमुचितं उचितं तावद्युद्धान्निवर्तनम् एतत्तूचिततरमित्याह
।।1.45।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.45।।यद्येवं युद्धे विमुखः सन्परपरिभवप्रतीकाररहितो वर्तेथास्तर्हि त्वां शस्त्रपरिग्रहरहितं शत्रुं शस्त्रपाणयो धार्तराष्ट्रा निगृह्णीयुरित्याशङ्क्याह  यदीति।  प्राणत्राणादपि प्रकृष्टो धर्मः प्राणभृतामहिंसेति भावः।
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।।1.45।।ननु तव वैराग्येऽपि भीमसेनादीनां युद्धोत्सुकत्वाद्बन्धुवधो भविष्यत्येव त्वया पुनः किं विधेयमित्यत आह प्राणादपि प्रकृष्टो धर्मः प्राणभृतामहिंसा पापानिष्पतेः तस्माज्जीवनापेक्षया मरणमेव मम क्षेमतरमत्यन्तं हितं भवेत्।प्रियतरम् इति पाठेऽपि सएवार्थः। अप्रतीकारं स्वप्राणत्राणाय व्यापारमकुर्वाणं बन्धुवधाध्यवसायमात्रेणापि प्रायश्चित्तान्तरहितं वा। तथाच प्राणान्तप्रायश्चित्तेनैव शुद्धिर्भविष्यतीत्यर्थः।
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।।1.45।।नन्वेतादृशी बुद्धिश्चेत्तदा पूर्वं कथं युद्धव्यवसायः कृतः इत्याशङ्क्य पूर्वमज्ञानात्कृतमिति पश्चात्तापं करोति अहो बतेति। बतेति खेदे। वयं महत्पापं कर्तुं व्यवसिताः अध्यवसायं कृतवन्त इत्यर्थः। पापस्वरूपमेवाह यद्राज्येति। यद्यस्मात्कारणाद्राज्यसुखलोभेन स्वजनं हन्तुमुद्यताः उद्यमं कृतवन्त इत्यर्थः। अहो इत्याश्चर्यम्। यतो राज्यसुखं तु स्वजनैः सहैव स्वजनार्थं वा तानेव हन्तुमुद्यता इत्याश्चर्यम्।
।। 1.45एतदेव विवृणोति द्वाभ्याम्  दोषैरिति।
।।1.45।।राज्यप्राप्तिसुखोपभोगलोभेन युद्धार्थमत्रागमनमपि शोचनीयमित्याह  अहो इति।  अहो बतेत्यत्यन्तखेदे। वयं महत्पापं कर्तुं व्यवसिता निश्चिताः। यद्राज्यसुखलोभेन स्वजनं हन्तुमुद्यताः युद्धोद्योगेनात्रागताः।
1.45 अहो बत alas? महत् great? पापम् sin? कर्तुम् to do? व्यवसिताः prepared? वयम् we? यत् that? राज्यसुखलोभेन by the greed of pleasure of kingdom? हन्तुम् to kill? स्वजनम् kinsmen? उद्यताः prepared.No Commentary.
1.45. Alas! We are involved in a great sin, in that we are prepared to kill our kinsmen, through greed for the pleasures of a kingdom.
1.45 Alas, it is strange that we should be willing to kill our own countrymen and commit a great sin, in order to enjoy the pleasures of a kingdom.
1.45 What a pity that we have resolved to commit a great sin by being eager to kill our own kith and kin, out of greed for the pleasures of a kingdom!
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1.45. Alas! What a great sinful act have we resolved to undertake ! For, out of greed for the joy of kingdom, we are striving to slay our own kinsfolk !
1.45 Aho bata etc. We denotes one and all who were divided [into the opposite campus] by the division among the Kauravas and the Pandavas. When every one is indiscriminate, what act is proper for me, while I am endowed with the faculty to discriminate? Of course, it is proper to turn back from the battle. Yet, says [Arjuna], what is much more proper is this [see next sloka]:
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.45 Alas! We have resolved to commit a great sin in that we are ready to slay our kith and kin out of desire for sovereignty and enjoyments.
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अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।1.45।।
অহো বত মহত্পাপং কর্তুং ব্যবসিতা বযম্৷ যদ্রাজ্যসুখলোভেন হন্তুং স্বজনমুদ্যতাঃ৷৷1.45৷৷
অহো বত মহত্পাপং কর্তুং ব্যবসিতা বযম্৷ যদ্রাজ্যসুখলোভেন হন্তুং স্বজনমুদ্যতাঃ৷৷1.45৷৷
અહો બત મહત્પાપં કર્તું વ્યવસિતા વયમ્। યદ્રાજ્યસુખલોભેન હન્તું સ્વજનમુદ્યતાઃ।।1.45।।
ਅਹੋ ਬਤ ਮਹਤ੍ਪਾਪਂ ਕਰ੍ਤੁਂ ਵ੍ਯਵਸਿਤਾ ਵਯਮ੍। ਯਦ੍ਰਾਜ੍ਯਸੁਖਲੋਭੇਨ ਹਨ੍ਤੁਂ ਸ੍ਵਜਨਮੁਦ੍ਯਤਾ।।1.45।।
ಅಹೋ ಬತ ಮಹತ್ಪಾಪಂ ಕರ್ತುಂ ವ್ಯವಸಿತಾ ವಯಮ್. ಯದ್ರಾಜ್ಯಸುಖಲೋಭೇನ ಹನ್ತುಂ ಸ್ವಜನಮುದ್ಯತಾಃ৷৷1.45৷৷
അഹോ ബത മഹത്പാപം കര്തും വ്യവസിതാ വയമ്. യദ്രാജ്യസുഖലോഭേന ഹന്തും സ്വജനമുദ്യതാഃ৷৷1.45৷৷
ଅହୋ ବତ ମହତ୍ପାପଂ କର୍ତୁଂ ବ୍ଯବସିତା ବଯମ୍| ଯଦ୍ରାଜ୍ଯସୁଖଲୋଭେନ ହନ୍ତୁଂ ସ୍ବଜନମୁଦ୍ଯତାଃ||1.45||
ahō bata mahatpāpaṅ kartuṅ vyavasitā vayam. yadrājyasukhalōbhēna hantuṅ svajanamudyatāḥ৷৷1.45৷৷
அஹோ பத மஹத்பாபஂ கர்துஂ வ்யவஸிதா வயம். யத்ராஜ்யஸுகலோபேந ஹந்துஂ ஸ்வஜநமுத்யதாஃ৷৷1.45৷৷
అహో బత మహత్పాపం కర్తుం వ్యవసితా వయమ్. యద్రాజ్యసుఖలోభేన హన్తుం స్వజనముద్యతాః৷৷1.45৷৷
1.46
1
46
।।1.46।। अगर ये हाथों में शस्त्र-अस्त्र लिये हुए धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग युद्धभूमि में सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मुझ को मार भी दें, तो वह मेरे लिये बड़ा ही हितकारक होगा।
।।1.46।।यदि मुझ शस्त्ररहित और प्रतिकार न करने वाले को ये शस्त्रधारी कौरव रण में मारें,  तो भी वह मेरे लिये कल्याणकारक होगा।
।।1.46।। यहाँ अर्जुन अपने अन्तिम निर्णय की घोषणा करता है। सब प्रकार से परिस्थिति पर विचार करने पर उसे यही उचित जान पड़ता है कि रणभूमि में वह किसी प्रकार का प्रतिकार न करे चाहें कौरव उसे शस्त्ररहित जानकर सैकड़ों बाणों से उसके सुन्दर शरीर को हरिण की तरह विद्ध कर दें।यहाँ अर्जुन द्वारा प्रयुक्त क्षेम शब्द विचारणीय है क्योंकि वह शब्द ही उसकी वास्तविक मनस्थिति का परिचायक है। क्षेम और मोक्ष शब्द के अर्थ क्रमश भौतिक उन्नति और आध्यात्मिक उन्नति हैं। यद्यपि अर्जुन ने अब तक जो भी तर्क प्रस्तुत किये उनमें आध्यात्मिक संस्कृति के पतन के भय को बड़े परिश्रम से सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया था परन्तु क्षेम शब्द से स्पष्ट हो जाता है कि वह वास्तव में शारीरिक सुरक्षा चाहता था जो युद्ध पलायन में संभव थी।संक्षेप में हम कह सकते हैं कि युद्ध में विजयरूपी फल में अत्यन्त आसक्ति और उसकी चिन्ता के कारण अर्जुन आत्मशक्ति खोकर एक उन्माद के मानसिक रोगी के समान विचित्र व्यवहार करने लगता है।
1.46।। व्याख्या--'यदि माम् ৷৷. क्षेमतरं भवेत्'--अर्जुन करते हैं कि अगर मैं युद्धसे सर्वथा निवृत्त हो जाऊँगा, तो शायद ये दुर्योधन आदि भी युद्धसे निवृत्त हो जायँगे। कारण कि हम कुछ चाहेंगे ही नहीं, लड़ेंगे भी नहीं, तो फिर ये लोग युद्ध करेंगे ही क्यों? परन्तु कदाचित जोशमें भरे हुए तथा हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए ये धृतराष्ट्रके पक्षपाती लोग 'सदाके लिये हमारे रास्तेका काँटा निकल जाय, वैरी समाप्त जो जाय'--ऐसा विचार करके सामना न करनेवाले तथा शस्त्ररहित मेरेको मार भी दें, तो उनका वह मारना मेरे लिये हितकारक ही होगा। कारण कि मैंने युद्धमें गुरुजनोंको मारकर बड़ा भारी पाप करनेका जो निश्चय किया था, उस निश्चयरूप पापका प्रायश्चित्त हो जायेगा, उस पापसे मैं शुद्ध हो जाऊँगा। तात्पर्य है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तो मैं भी पापसे बचूँगा और मेरे कुलका भी नाश नहीं होगा। [जो मनुष्य अपने लिये जिस किसी विषयका वर्णन करता है, उस विषयका उसके स्वयंपर असर पड़ता है। अर्जुनने भी जब शोकाविष्ट होकर अट्ठाईसवें श्लोकसे बोलना आरम्भ किया, तब वे उतने शोकाविष्ट नहीं थे, जितने वे अब शोकाविष्ट हैं। पहले अर्जुन युद्धसे उपरत नहीं हुए, पर शोकविष्ट होकर बोलते-बोलते अन्तमें वे युद्धसे उपरत हो जाते हैं और बाणसहित धनुषका त्याग करके बैठ जाते हैं। भगवान्ने यह सोचा कि अर्जुनके बोलनेका वेग निकल जाय तो मैं बोलूँ अर्थात् बोलनेसे अर्जुनका शोक बाहर आ जाय, भीतरमें कोई शोक बाकी न रहे, तभी मेरे वचनोंका उसपर असर होगा। अतः भगवान् बीचमें कुछ नहीं बोले।]  विशेष बात  अबतक अर्जुनने अपनेको धर्मात्मा मानकर युद्धसे निवृत्त होनेमें जितनी दलीलें, युक्तियाँ दी हैं, संसारमें रचे-पचे लोग अर्जुनकी उन दलीलोंको ही ठीक समझेंगे और आगे भगवान् अर्जुनको जो बातें समझायेंगे, उनको ठीक नहीं समझेंगे ! इसका कारण यह है कि जो मनुष्य जिस स्थितिमें हैं, उस स्थितिकी, उस श्रेणीकी बातको ही वे ठीक समझते हैं; उससे ऊँची श्रेणीकी बात वे समझ ही नहीं सकते। अर्जुनके भीतर कौटुम्बिक मोह है और उस मोहसे आविष्ट होकर ही वे धर्मकी, साधुताकी बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कह रहे हैं। अतः जिन लोगोंके भीतर कौटुम्बिक मोह है, उन लोगोंको ही अर्जुनकी बातें ठीक लगेंगी। परन्तु भगवान्की दृष्टि जीवके कल्याणकी तरफ है कि उसका कल्याण कैसे हो? भगवान्की इस ऊँची श्रेणीकी दृष्टिको वे (लौकिक दृष्टिवाले) लोग समझ ही नहीं सकते। अतः वे भगवान्की बातोंको ठीक नहीं मानेंगे, प्रत्युत ऐसा मानेंगे कि अर्जुनके लिये युद्धरूपी पापसे बचना बहुत ठीक था, पर भगवान्ने उनको युद्धमें लगाकर ठीक नहीं किया ! वास्तवमें भगवान्ने अर्जुनसे युद्ध नहीं कराया है, प्रत्युत उनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है। युद्ध तो अर्जुनको कर्तव्यरूपसे स्वतः प्राप्त हुआ था। अतः युद्धका विचार तो अर्जुनका खुदका ही था; वे स्वयं ही युद्धमें प्रवृत्त हुए थे, तभी वे भगवान्को निमन्त्रण देकर लाये थे। परन्तु उस विचारको अपनी बुद्धिसे अनिष्टकारक समझकर वे युद्धसे विमुख हो रहे थे अर्थात् अपने कर्तव्यके पालनसे हट रहे थे। इसपर भगवान्ने कहा कि यह जो तू युद्ध नहीं करना चाहता, यह तेरा मोह है। अतः समयपर जो कर्तव्य स्वतः प्राप्त हुआ है, उसका त्याग करना उचित नहीं है। कोई बद्रीनारायण जा रहा था; परन्तु रास्तेमें उसे दिशाभ्रम हो गया अर्थात् उसने दक्षिणको उत्तर और उत्तरको दक्षिण समझ लिया। अतः वह बद्रीनारायणकी तरफ न चलकर उलटा चलने लग गया। सामनेसे उसको एक आदमी मिल गया। उस आदमीने पूछा कि 'भाई! कहाँ जा रहे हो?' वह बोला--'बद्रीनारायण'। वह आदमी बोला कि 'भाई! बद्रीनारायण इधर नहीं है, उधर है। आप तो उलटे जा रहे हैं!' अतः वह आदमी उसको बद्रीनारायण भेजनेवाला नहीं है; किन्तु उसको दिशाका ज्ञान कराकर ठीक रास्ता बतानेवाला है। ऐसे ही भगवान्ने अर्जुनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है, युद्ध नहीं कराया है। स्वजनोंको देखनेसे अर्जुनके मनमें यह बात आयी थी कि मैं युद्ध नहीं करूँगा--'न योत्स्ये'  (2। 9), पर भगवान्का उपदेश सुननेपर अर्जुनने ऐसा नहीं कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, किन्तु ऐसा कहा कि मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा;-- 'करिष्ये वचनं तव'  (18। 73) अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करूँगा। अर्जुनके इन वचनोंसे यही सिद्ध होता है कि भगवान्ने अर्जुनको अपने कर्तव्यका ज्ञान कराया है। वास्तवमें युद्ध होना अवश्यम्भावी था; क्योंकि सबकी आयु समाप्त हो चुकी थी। इसको कोई भी टाल नहीं सकता था। स्वयं भगवान्ने विश्वरूपदर्शनके समय अर्जुनसे कहा है कि 'मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सबका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। अतः तेरे युद्ध किये बिना भी ये विपक्षमें खड़े योद्धालोग बचेंगे नहीं' (11। 32)। इसलिये यह नरसंहार अवश्यम्भावी होनहार ही था। यह नरसंहार अर्जुन युद्ध न करते तो भी होता। अगर अर्जुन युद्ध नहीं करते, तो जिन्होंने माँकी आज्ञासे द्रौपदीके साथ अपने सहित पाँचों भाइयोंका विवाह करना स्वीकार कर लिया था, वे युधिष्ठिर तो माँकी युद्ध करनेकी आज्ञासे युद्ध अवश्य करते ही। भीमसेन भी युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते; क्योंकि उन्होंने कौरवोंको मारनेकी प्रतिज्ञा कर रखी थी। द्रौपदीने तो यहाँतक कह दिया था कि अगर मेरे पति (पाण्डव) कौरवोंसे युद्ध नहीं करेंगे तो, मेरे पिता (द्रुपद), भाई (धृष्टद्युम्न) और मेरे पाँचों पुत्र तथा अभिमन्यु कौरवोंसे युद्ध करेंगे  (टिप्पणी प0 33) । इस तरह ऐसे कई कारण थे, जिससे युद्धको टालना सम्भव नहीं था। होनहारको रोकना मनुष्यके हाथकी बात नहीं है; परन्तु अपने कर्तव्यका पालन करके मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है और कर्तव्यच्युत होकर अपना पतन कर सकता है। तात्पर्य है कि मनुष्य अपना इष्ट-अनिष्ट करनेमें स्वतन्त्र है। इसलिये भगवान्ने अर्जुनको कर्तव्यका ज्ञान कराकर मनुष्यमात्रको उपदेश दिया है कि उसे शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार अपने कर्तव्यके पालनमें तत्पर रहना चाहिये, उससे कभी च्युत नहीं होना चाहिये।  सम्बन्ध--  पूर्वश्लोकमें अर्जुनने अपनी दलीलोंका निर्णय सुना दिया। उसके बाद अर्जुनने क्या किया--इसको सञ्जय आगे के श्लोकमें बताते हैं।
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।।1.46।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.46।।यथोक्तमर्जुनस्य वृत्तान्तं संजयो धृतराष्ट्रं राजानं प्रति प्रवेदितवांस्तमेव प्रवेदनप्रकारं दर्शयति  एवमिति।  प्रदर्शितेन प्रकारेण भगवन्तं प्रति विज्ञापनं कृत्वा शोकमोहाभ्यां परिभूतमानसः सन्नर्जुनः संख्ये युद्धमध्ये शरेण सहितं गाण्डीवं त्यक्त्वा न योत्स्येऽहमिति ब्रुवन्मध्ये रथस्य संन्यासमेव श्रेयस्करं मत्वोपविष्टवानित्यर्थः।इति परमहंसश्रीमदानन्दगिरिकृतटीकायां प्रथमोऽध्यायः।।1।।
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।।1.46।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायां संख्ये संग्रामे रथोपस्थे रथस्योपर्युपविशेश। पूर्वं युद्धार्थमवलोकनार्थं चोत्थितः सन् शोकेन संविग्नं पीडितं मानसं यस्य सः।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यविश्वेश्वरसरस्वतीपादशिष्यसूनुमधुसूदनसरस्वतीविरचितायांश्रीमद्भगवद्गीतागूढार्थदीपिकायां प्रथमोऽध्यायः।।1।।
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।।1.46।।ननु त्वं चेन्न हनिष्यसि तदैते त्वां हनिष्यन्त्येवेति चेत्तत्राह यदि मामिति। धार्त्तराष्ट्रा अन्धापत्यानि यदि वा अप्रतीकारमकृतप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्ररहितं मां शस्त्रपाणयः सन्तो हन्युः हनिष्यन्ति तन्मे क्षेमतरं भवेत् कल्याणरूपं भवेदित्यर्थः। पूर्वकृतव्यवसायप्रायश्चित्तरूपं भवेदित्यर्थः। अजिघांसन्तं मां हनिष्यन्ति चेत्तदा क्षेमरूपं भवेत् तव सन्निधौ मरणे च क्षेमतरं भवेदिति भावः।
।।1.46।।संख्ये संग्रामे।।।इति श्रीनैलकण्ठीये भगवद्गीतासु प्रथमोऽध्यायः।।1।।
।।1.46।।ननु स्वरक्षणाय व्यापारमकुर्वाणं शस्त्रपरिग्रहरहितं त्वां धार्तराष्ट्रा रणे निहन्युरितिचेत्तत्राह  यदीति।  यत्तु ननु तव वैराग्येऽपि भीमसेनादीनां युद्धोत्सुकत्वात्तत्कृतो बन्धुवधो भविष्यत्येव त्वया पुनः किं कार्यमित्यत आह यदीति तदुपेक्ष्यम्। मूले शङ्कानुगुणस्योत्तरस्याभावात्। क्षेमतरं हिततरं पापानिष्पत्तेः।
1.46 यदि if? माम् me? अप्रतीकारम् unresisting? अशस्त्रम् unarmed? शस्त्रपाणयः with weapons in hand? धार्तराष्ट्राः the sons of Dhritarashtra? रणे in the battle हन्युः should slay? तत् that? मे of me? क्षेमतरम् better? भवेत् would be.No Commentary.
1.46. If the sons of Dhritarashtra with weapons in hand should slay me in battle, unresisting and unarmed, that would be better for me.
1.46 If, on the contrary, the sons of Dhritarashtra, with weapons in their hand, should slay me, unarmed and unresisting, surely that would be better for my welfare!"
1.46 If, in this battle, the sons of Dhrtarastra armed with weapons kill me who am non-resistant and unarmed, that will be more beneficial to me.
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1.46. It would be more beneficial for me if Dhrtarastra's men with weapons in their hands, should slay me, unresisting and unarmed.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.46 If the well-armed sons of Dhrtarastra should slay me in battle, unresisting and unarmed, that will be better for me.
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यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।1.46।।
যদি মামপ্রতীকারমশস্ত্রং শস্ত্রপাণযঃ৷ ধার্তরাষ্ট্রা রণে হন্যুস্তন্মে ক্ষেমতরং ভবেত্৷৷1.46৷৷
যদি মামপ্রতীকারমশস্ত্রং শস্ত্রপাণযঃ৷ ধার্তরাষ্ট্রা রণে হন্যুস্তন্মে ক্ষেমতরং ভবেত্৷৷1.46৷৷
યદિ મામપ્રતીકારમશસ્ત્રં શસ્ત્રપાણયઃ। ધાર્તરાષ્ટ્રા રણે હન્યુસ્તન્મે ક્ષેમતરં ભવેત્।।1.46।।
ਯਦਿ ਮਾਮਪ੍ਰਤੀਕਾਰਮਸ਼ਸ੍ਤ੍ਰਂ ਸ਼ਸ੍ਤ੍ਰਪਾਣਯ। ਧਾਰ੍ਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰਾ ਰਣੇ ਹਨ੍ਯੁਸ੍ਤਨ੍ਮੇ ਕ੍ਸ਼ੇਮਤਰਂ ਭਵੇਤ੍।।1.46।।
ಯದಿ ಮಾಮಪ್ರತೀಕಾರಮಶಸ್ತ್ರಂ ಶಸ್ತ್ರಪಾಣಯಃ. ಧಾರ್ತರಾಷ್ಟ್ರಾ ರಣೇ ಹನ್ಯುಸ್ತನ್ಮೇ ಕ್ಷೇಮತರಂ ಭವೇತ್৷৷1.46৷৷
യദി മാമപ്രതീകാരമശസ്ത്രം ശസ്ത്രപാണയഃ. ധാര്തരാഷ്ട്രാ രണേ ഹന്യുസ്തന്മേ ക്ഷേമതരം ഭവേത്৷৷1.46৷৷
ଯଦି ମାମପ୍ରତୀକାରମଶସ୍ତ୍ରଂ ଶସ୍ତ୍ରପାଣଯଃ| ଧାର୍ତରାଷ୍ଟ୍ରା ରଣେ ହନ୍ଯୁସ୍ତନ୍ମେ କ୍ଷେମତରଂ ଭବେତ୍||1.46||
yadi māmapratīkāramaśastraṅ śastrapāṇayaḥ. dhārtarāṣṭrā raṇē hanyustanmē kṣēmataraṅ bhavēt৷৷1.46৷৷
யதி மாமப்ரதீகாரமஷஸ்த்ரஂ ஷஸ்த்ரபாணயஃ. தார்தராஷ்ட்ரா ரணே ஹந்யுஸ்தந்மே க்ஷேமதரஂ பவேத்৷৷1.46৷৷
యది మామప్రతీకారమశస్త్రం శస్త్రపాణయః. ధార్తరాష్ట్రా రణే హన్యుస్తన్మే క్షేమతరం భవేత్৷৷1.46৷৷
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।।1.47।। संजय बोले - ऐसा कहकर शोकाकुल मनवाले अर्जुन बाणसहित धनुष का त्याग करके युद्धभूमि में रथके मध्यभाग में बैठ गये।
।।1.47।।संजय ने कहा  --  रणभूमि (संख्ये) में शोक से उद्विग्न मनवाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाणसहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया।
।।1.47।। रणभूमि में संजय ने जो कुछ भी देखा उसका वह वर्णन करता है। अपने ही तर्कों से थका और शोक में डूबा हुआ अर्जुन अपने शस्त्रास्त्रों को फेंककर रथ में बैठ जाता है। गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन को हम इसी स्थिति में छोड़ देते हैं। conclusion ँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्याय।। इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवदगीतोपनिषद् का अर्जुनविषादयोग नामक प्रथम अध्याय समाप्त होता है। प्राचीन काल में शास्त्रीय ग्रन्थों की समाप्ति किसी चिन्ह अथवा विशिष्ट संकेत द्वारा सूचित की जाती थी। आधुनिक काल की मुद्रित पुस्तकों में इसकी आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि हम पुस्तक में एक अध्याय की समाप्ति और नये अध्याय को प्रारम्भ किया हुआ देख सकते हैं। मुद्रित पुस्तकों में भी इसे अध्यायों के विभिन्न शीर्षकों के द्वारा अंकित किया जाता है। प्राचीन काल में पुस्तकों के अभाव में विद्यार्थियों को मौखिक उपदेश दिया जाता था। इस प्रकार ग्रन्थों के नवीन संस्करण उनके मस्तिष्क के स्मृति पटल पर ही अंकित होते थे। उस समय मौखिक उपदेश होने के कारण विद्यार्थीगण उसे कण्ठस्थ कर लेते थे। इसलिए यह आवश्यक था कि एक अध्याय की समाप्ति और दूसरे अध्याय का प्रारम्भ बताने वाला कोई सूचक चिह्न हो। उपनिषदों में इसे सूचित करने के लिए अध्याय के अन्तिम मन्त्र अथवा मन्त्र के अन्तिम अंश को दो बार दोहराया जाता है। परन्तु गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में केवल एक संकल्प वाक्य पाया जाता है। प्रत्येक अध्याय के संकल्प वाक्य में अन्तर केवल अध्याय की संख्या और उसके विशेष नाम का ही है। गीता का संकल्प वाक्य अत्यन्त सुन्दर एवं सारगर्भित शब्दों से पूर्ण है। यह स्वयं ही इस ग्रन्थ की विषय वस्तु के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी देता है। यहाँ सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता को ही नहीं अपितु उसके प्रत्येक अध्याय को भी उपनिषद् की संज्ञा दी गयी है। अठारह अध्यायी गीतोपनिषद् के प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। इन अध्यायों को उपनिषद् कहने का कारण यह है कि इनमें उपनिषद् के विषय का ही प्रतिपादन किया गया है। इनके लक्ष्यार्थ को ऐसे पाठक गण नहीं समझ सकेंगे जो बिना किसी पूर्व तैयारी के इनका अध्ययन करेंगे। सरल प्रतीत होने वाले श्लोकों में छिपे गूढ़ार्थ को समझने के लिये मनन की अत्यन्त आवश्यकता होती है। उपनिषद् विद्या के समान यहाँ भी गीता के श्लोकों में निहित परमार्थ निधि को पाने के लिये एक कृपालु एवं योग्य गुरु की आवश्यकता है। उपनिषद् शब्द का अर्थ है वह विद्या जिसका अध्ययन गुरु के समीप (उप) पहुँचकर उसके चरणों के पास अत्यन्त नम्र भाव से और निश्चयपूर्वक (नि) बैठकर (षद्) किया जाता है। विश्व के सभी धार्मिक शास्त्र ग्रन्थों का विषय एक ही है। वे सभी हमको यह शिक्षा देते हैं कि इस नित्य परिवर्तनशील जगत् के पीछे एक अविनाशी पारमार्थिक सत्य है जो इस जगत् का मूल स्वरूप है। इस अद्वैत सत्य को हिन्दू धर्म ग्रन्थों में ब्रह्म कहा गया है। इसलिये ब्रह्म का ज्ञान तथा उसके अनुभव के लिये साधनों का उपदेश देने वाली विद्या ब्रह्मविद्या कहलाती है। पाश्चात्य दर्शन के विपरीत आर्य लोगों को कोई भी दर्शन तभी स्वीकार होता था जब कोई दार्शनिक ऐसे साधनों का भी निरूपण करता था जिनके द्वारा प्रत्येक साधक उस दर्शन के लक्ष्य तक पहुँच सकता है। इस प्रकार हिन्दू दर्शनशास्त्र के दो भाग हैं तत्त्वज्ञान और योगशास्त्र। इस दूसरे भाग में अभ्यसनीय साधनों का वर्णन किया गया है। योग शब्द युज धातु से बना है जिसका अर्थ है जोड़ना । स्वयं को वर्तमान की स्थिति से ऊँचा उठाकर किसी श्रेष्ठ एवं पूर्ण आदर्श को प्राप्त करने के लिये साधक जो प्रयत्न करता है उसे योग कहते हैं और इस विज्ञान को योगशास्त्र। संकल्प वाक्य में गीता को योगशास्त्र कहा जाता गया है। इसलिये इससे हम उन साधनों के ज्ञान की अपेक्षा रखते हैं जिनके अभ्यास द्वारा परमार्थ सत्य का साक्षात् अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। अत्यन्त सूक्ष्म एवं शास्त्रीय विषय होने के कारण तत्त्वज्ञान और योगशास्त्र में संसार के सामान्य जनों का विशेष आकर्षण और रुचि नहीं होती है। इसमें प्रतिपादित ज्ञान किसी दृश्य पदार्थ का नहीं है। एक गणितज्ञ के अतिरिक्त अन्य सामान्य जनों को गणित विषय शुष्क और नीरस प्रतीत होता है। गणित के ज्ञान की व्यावहारिक जीवन में अत्यधिक आवश्यकता भी नहीं होती। परन्तु धर्म का प्रयोजन संसार दुख की निवृत्ति होने के कारण सभी लोगों को इसकी आवश्यकता है। अत तत्त्वज्ञान के कठिन विषय को सरल और आकर्षक ढंग से सामान्य जनों के सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रयत्न सभी आचार्यों ने किया है। गुरु के मुख से उपदेश प्राप्त करने की विधि का उन्होंने सफल उपयोग किया। एक सुपरिचित गुरु के शब्द भी हमें सुपरिचित मालूम पड़ने लगते हैं। तत्त्वज्ञान का प्राथमिक शिक्षण देने वाले ग्रन्थ स्मृति ग्रन्थ हैं जैसे मनुस्मृति गौतमस्मृति आदि। ये ग्रन्थ सरलतापूर्वक समझ में आ सकते हैं। उपनिषदों में हमें गुरु और शिष्य का वर्णन मिलता है किन्तु वह अधिक विस्तार में नहीं है। गीता में हमें इसका सम्पूर्ण चित्र मिलता है। गीता की पार्श्वभूमि में युद्ध की उत्तेजक स्थिति के बीच औपनिषदीय पुरातन सत्य की एक बार पुन उद्घोषणा की गयी है। यहाँ इस ज्ञान का उपदेश स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण अपने परम मित्र अर्जुन को ऐसी संघर्षपूर्ण स्थिति के संदर्भ में दे रहे हैं जहाँ वह पूर्णतया मानसिक सन्तुलन को खोकर विषाद की अवस्था को प्राप्त होता है। इसलिये गीता से हम ऐसे उपदेश और मार्गदर्शन की अपेक्षा रख सकते हैं जो अत्यन्त सहानुभूतिपूर्वक किया गया हो। उपनिषद् के ऋषियों का सम्बन्ध सामान्य जनों से इतना अधिक नहीं था कि वे उनकी दुर्बलताओं को पूर्णतया समझ सकें। गीता की यह विशेषता संकल्पवाक्य में यह कहकर बतायी गयी है कि यह स्वयं भगवान् द्वारा एक र्मत्य पुरुष को दिया गया उपदेश है श्रीकृष्णार्जुनसंवादे। इस अध्याय का शीर्षक अर्जुनविषादयोग है जो कि वास्तव में परस्पर विरोधी शब्दों से बना है। यदि विषाद ही योग हो तो हम सब बिना किसी इच्छा या प्रयत्न के योगी ही हैं। इस अध्याय की व्याख्या में मैंने पहले ही सूचित किया है कि अर्जुन की विषाद की यह स्थिति इष्ट है क्योंकि इसमें गीतोपदेश के बीज बोकर श्रीकृष्ण के पूर्णत्व के पुष्प प्राप्त किये जा सकते हैं। किसी एक व्यक्ति समाज या राष्ट्र में धर्म और तत्त्वज्ञान की माँग तभी होगी जब उनके हृदय में अर्जुन के विषाद का अनुभव होगा। आज का जगत् जितनी अधिक मात्रा में यह अनुभव करेगा कि वह जीवन संग्राम का सामना करने में असहाय है और उसमें यह साहस नहीं कि स्वयं के द्वारा निर्मित अपने प्रिय आर्थिक मूल्यों एवं औद्योगिक लोभ का वह संहार कर सके उतनी ही अधिक मात्रा में वह गीतोपदेश का पात्र है। केवल पाकशास्त्र की क्रिया स्वयं में पूर्णता नहीं रखती। उसकी पूर्णता भोजन करने में है। उसी प्रकार जीवन में उच्च आराम और अनेक सुख सुविधाओं के साधन जुटा लेने पर भी पूर्णता अथवा कृतकृत्यता का अनुभव नहीं होता है। ऐसे समय में ही मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा होती है। विषाद की स्थिति प्राप्त किये बिना अकेले शास्त्र हमारी सहायता नहीं कर सकते। आत्मयोग के पूर्व विषाद की स्थिति अनिवार्य होने के कारण उसे यहाँ योग कहा गया है। गीता में वर्णित योग को सीखने एवं जीने के लिए अर्जुनविषाद की स्थिति प्राथमिक साधना है।
।।1.47।। व्याख्या--'एवमुक्त्वार्जुनः ৷৷. शोकसंविग्नमानसः'--युद्ध करना सम्पूर्ण अनर्थोंका मूल है, युद्ध करनेसे यहाँ कुटुम्बियोंका नाश होगा, परलोकमें नरकोंकी प्राप्ति होगी आदि बातोंको युक्ति और प्रमाणसे कहकर शोकसे अत्यन्त व्याकुल मनवाले अर्जुनने युद्ध न करनेका पक्का निर्णय कर लिया। जिस रणभूमिमें वे हाथमें धनुष लेकर उत्साहके साथ आये थे, उसी रणभूमिमें उन्होंने अपने बायें हाथसे गाण्डीव धनुषको और दायें हाथसे बाणको नीचे रख दिया और स्वयं रथके मध्यभागमें अर्थात् दोनों सेनाओंको देखनेके लिये जहाँपर खड़े थे, वहींपर शोकमुद्रामें बैठ गये। अर्जुनकी ऐसी शोकाकुल अवस्था होनेमें मुख्य कारण है--भगवान्का भीष्म और द्रोणके सामने रथ खड़ा करके अर्जुनसे कुरुवंशियोंको देखनेके लिये कहना और उनको देखकर अर्जुनके भीतर छिपे हुए मोहका जाग्रत् होना। मोहके जाग्रत् होनेपर अर्जुन कहते हैं कि युद्धमें हमारे कुटुम्बी मारे जायँगे। कुटुम्बियोंका मरना ही बड़े नुकसानकी बात है। दुर्योधन आदि तो लोभके कारण इस नुकसानकी तरफ नहीं देख रहे हैं। परन्तु युद्धसे कितनी अनर्थ परम्परा चल पड़ेगी--इस तरफ ध्यान देकर हमलोगोंको ऐसे पापसे निवृत्त हो ही जाना चाहिये। हमलोग राज्य और सुखके लोभसे कुलका संहार करनेके लिये रणभूमिमें खड़े हो गये हैं--यह हमने बड़ी भारी गलती की! अतः युद्ध न करते हुए शस्त्ररहित मेरेको यदि सामने खड़े हुए योद्धालोग मार भी दें तो उससे मेरा हित ही होगा। इस तरह अन्तःकरणमें मोह छा जानेके कारण अर्जुन युद्धसे उपरत होनेमें एवं अपने मर जाननेमें भी हित देखते हैं और अन्तमें उसी मोहके कारण बाणसहित धनुषका त्याग करके विषादमग्न होकर बैठ जाते हैं। यह मोहकी ही महिमा है कि जो अर्जुन धनुष उठाकर युद्धके लिये तैयार हो रहे थे, वही अर्जुन धनुषको नीचे रखकर शोकसे अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं!  इस प्रकार ऊँ, तत्, सत्--इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें 'अर्जुनविषादयोग' नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ।।1।।
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।।1.47।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.47।।एतद्वृ़त्तान्तं संजयो धृतराष्ट्रं प्रत्यावेदितवानित्याह  संजय इति।  एवमुक्त्वा उक्तेन प्रकारेण श्रीकृष्णं प्रति विज्ञापनं कृत्वा पूर्वं शूराणामवलोकनायोत्थितोऽर्जुनः परया कृपयाविष्टः। शोकग्रहणं मोहस्याप्युपलक्षणार्थम्। शोकमोहाभ्यां सभ्यगुद्विग्नं मनो यस्य स एतादृशः सन् संख्ये संग्रामभूमिमध्ये शरेण सहितं चापं कार्मुकं विसृज्य त्यक्त्वा रथोपस्थे रथस्योपरि उपाविशत् उपविष्टवानित्यर्थः। इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां गीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां प्रथमोऽध्यायः।।1।।
।।1.47।।एवं तु पार्थो महाकरुणो लोकवेदधर्मपण्डितमानी कोमलमना वासुदेवसहायो निहनिष्यमाणान् विलोक्य बन्धुस्नेहेनाधमभयेन च प्रस्विन्नाङ्गः सर्वथा न योत्स्यामीत्युक्त्वा मोहशोकाविष्टः सशरं चापं उत्सृज्य रथोपस्थ उपाविशत् सर्वतो दुःखेन निर्विण्ण उपविष्टः इत्यार्तवत्वं तस्य सूचितम्।
।।1.47।।ततः किं कृतवानित्यपेक्षायां सञ्जय आह। एवमुक्त्वा अर्जुनः सङ्ख्ये सङ्ग्रामे रथोपस्थे रथोपरि स्थितः भक्त्यन्तरायत्वेन युद्धोपक्रान्तिराज्यानाकाङ्क्षणेऽपि भगवदनुत्तरे भक्तिज्ञानार्थं शोकसंविग्नमानसो भूत्वा सशरं चापं विसृज्य उप समीपे भगवत आविशत् स्थित इत्यर्थः। एवमस्मिन्नध्यायेऽर्जुनस्य विषादे लोकशास्त्रातिक्रमो हेतुत्वेनोक्तः। न चार्त्ताधिकारस्याग्रिमाध्यायारम्भ एव सिद्धेरस्याध्यायस्य किं प्रयोजनमिति शङ्क्यम् कृपावेशबोधनार्थत्वेन सप्रयोजनत्वात्। अत एव पाद्मे गीतामाहात्म्ये तस्मादध्यायमाद्यं यः पठेद्यः संस्मरेत्तथा। अभ्यासादस्य न भवेद्भवाम्भोधिः सुदुस्तरः श्लो.53 इति फलमुक्तं तस्मादुपोद्धातसङ्गतिः।।
।।1.47।।एतान्न हन्तुमिच्छामि 1।35यदि मामप्रतीकारम् 1।46 इत्यादेरभिप्रेतमाह सर्वथाहमिति। सर्वथा बहुप्रकारम्। एषामाततायित्वेऽपि इदानीं हन्तुमुद्यतत्वेऽपि युद्धान्निवृत्तेरधर्माकीत्यादिहेतुत्वेऽपि युद्धस्य त्रैलोक्यराज्याद्युपायत्वेऽपि किं बहुना सर्वेश्वरेश्वरेण मम हिततमोपदेशिना भवतोक्तत्वेऽपीति भावः। बन्धुविनाशस्य सिद्धत्वाध्यवसायः शोकहेतुः विषादमात्रपरो वाऽत्रशोकशब्दः। स शोकः शरचापपरित्यागे हेतुरिति व्युत्क्रमपाठेन दर्शितम्।संविग्नमानसः इति अत्यर्थचलितयुद्धाध्यवसाय इत्यर्थः।ओ विजी भयचलनयोः इति धातुः। एवं चलितयुद्धाध्यवसायत्वात् समराध्वरस्रुक्स्रुवादिस्थानीयं सशरं चापं विसृज्य प्रायोपवेशादिपर इव रथोपस्थे रथिस्थानाद्विनिवृत्य रथोत्सङ्ग उपाविशदिति भावः। इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतंत्रस्वतंत्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु
।।1.47।।एतान्न हन्तुमिच्छामि 1।35यदि मामप्रतीकारम् 1।46 इत्यादेरभिप्रेतमाह सर्वथाहमिति। सर्वथा बहुप्रकारम्। एषामाततायित्वेऽपि इदानीं हन्तुमुद्यतत्वेऽपि युद्धान्निवृत्तेरधर्माकीत्यादिहेतुत्वेऽपि युद्धस्य त्रैलोक्यराज्याद्युपायत्वेऽपि किं बहुना सर्वेश्वरेश्वरेण मम हिततमोपदेशिना भवतोक्तत्वेऽपीति भावः। बन्धुविनाशस्य सिद्धत्वाध्यवसायः शोकहेतुः विषादमात्रपरो वाऽत्रशोकशब्दः। स शोकः शरचापपरित्यागे हेतुरिति व्युत्क्रमपाठेन दर्शितम्।संविग्नमानसः इति अत्यर्थचलितयुद्धाध्यवसाय इत्यर्थः।ओ विजी भयचलनयोः इति धातुः। एवं चलितयुद्धाध्यवसायत्वात् समराध्वरस्रुक्स्रुवादिस्थानीयं सशरं चापं विसृज्य प्रायोपवेशादिपर इव रथोपस्थे रथिस्थानाद्विनिवृत्य रथोत्सङ्ग उपाविशदिति भावः। इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतंत्रस्वतंत्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु
।।1.47।।ततः किं कृतवानित्यपेक्षायां सञ्जय आह। एवमुक्त्वा अर्जुनः सङ्ख्ये सङ्ग्रामे रथोपस्थे रथोपरि स्थितः भक्त्यन्तरायत्वेन युद्धोपक्रान्तिराज्यानाकाङ्क्षणेऽपि भगवदनुत्तरे भक्तिज्ञानार्थं शोकसंविग्नमानसो भूत्वा सशरं चापं विसृज्य उप समीपे भगवत आविशत् स्थित इत्यर्थः। एवमस्मिन्नध्यायेऽर्जुनस्य विषादे लोकशास्त्रातिक्रमो हेतुत्वेनोक्तः। न चार्त्ताधिकारस्याग्रिमाध्यायारम्भ एव सिद्धेरस्याध्यायस्य किं प्रयोजनमिति शङ्क्यम् कृपावेशबोधनार्थत्वेन सप्रयोजनत्वात्। अत एव पाद्मे गीतामाहात्म्ये तस्मादध्यायमाद्यं यः पठेद्यः संस्मरेत्तथा। अभ्यासादस्य न भवेद्भवाम्भोधिः सुदुस्तरः श्लो.53 इति फलमुक्तं तस्मादुपोद्धातसङ्गतिः।।
।।1.47।।अर्जुन उवाच संजय उवाच स तु पार्थो महामनाः परमकारुणिको दीर्घबन्धुः परमधार्मिकः सभ्रातृको भवद्भिः अतिघोरैः मारणैः जतुगृहादिभिः असकृद् वञ्चितः अपि परमपुरुषसहायः अपि हनिष्यमाणान् भवदीयान् विलोक्य बन्धुस्नेहेन परमया च कृपया धर्माधर्मभयेन च अतिमात्रस्विन्नसर्वगात्रः सर्वथा अहं न योत्स्यामि इति उक्त्वा बन्धुविश्लेषजनितशोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य रथोपस्थे उपाविशत्।
।।1.47।।एतद्वृ़त्तान्तं संजयो धृतराष्ट्रं प्रत्यावेदितवानित्याह  संजय इति।  एवमुक्त्वा उक्तेन प्रकारेण श्रीकृष्णं प्रति विज्ञापनं कृत्वा पूर्वं शूराणामवलोकनायोत्थितोऽर्जुनः परया कृपयाविष्टः। शोकग्रहणं मोहस्याप्युपलक्षणार्थम्। शोकमोहाभ्यां सभ्यगुद्विग्नं मनो यस्य स एतादृशः सन् संख्ये संग्रामभूमिमध्ये शरेण सहितं चापं कार्मुकं विसृज्य त्यक्त्वा रथोपस्थे रथस्योपरि उपाविशत् उपविष्टवानित्यर्थः। इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां गीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां प्रथमोऽध्यायः।।1।।
1.47 एवम् thus? उक्त्वा having said? अर्जुनः Arjuna? संख्ये in the battle? रथोपस्थे on the seat of the chariot? उपाविशत् sat down? विसृज्य having cast away? सशरम् with arrow? चापम् bow? शोकसंविग्नमानसः with a mind distressed with sorrow.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the first discourse entitledThe Yoga of the Despondency of Arjuna.
1.47. Sanjaya said Having thus spoken in the midst of the battlefield, Arjuna, casting away his bow and arrow, sat down on the seat of the chariot with his mind overwhelmed with sorrow.
1.47 Sanjaya said: "Having spoken thus, in the midst of the armies, Arjuna sank on the seat of the chariot, casting away his bow and arrow; heartbroken with grief."
1.47 Sanjaya narrated: Having said so, Arjuna, with a mind afflicted with sorrow, sat down on the chariot in the midst of the battle, casting aside the bow along with the arrows.
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1.47. Sanjaya said Having said this much about the battle, and letting his bow fall with arrows, Arjuna sat down on the back of the chariot, with his mind agitated with grief.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, 'I will not fight.' He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
1.47 Sanjaya said : Having spoken thus on the battle-field, Arjuna threw aside his how and arrows and sat down on the seat of the chariot, his heart overwhelmed with grief.
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सञ्जय उवाच एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्। विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।1.47।।
সঞ্জয উবাচ এবমুক্ত্বার্জুনঃ সংখ্যে রথোপস্থ উপাবিশত্৷ বিসৃজ্য সশরং চাপং শোকসংবিগ্নমানসঃ৷৷1.47৷৷
সঞ্জয উবাচ এবমুক্ত্বার্জুনঃ সংখ্যে রথোপস্থ উপাবিশত্৷ বিসৃজ্য সশরং চাপং শোকসংবিগ্নমানসঃ৷৷1.47৷৷
સઞ્જય ઉવાચ એવમુક્ત્વાર્જુનઃ સંખ્યે રથોપસ્થ ઉપાવિશત્। વિસૃજ્ય સશરં ચાપં શોકસંવિગ્નમાનસઃ।।1.47।।
ਸਞ੍ਜਯ ਉਵਾਚ ਏਵਮੁਕ੍ਤ੍ਵਾਰ੍ਜੁਨ ਸਂਖ੍ਯੇ ਰਥੋਪਸ੍ਥ ਉਪਾਵਿਸ਼ਤ੍। ਵਿਸਰਿਜ੍ਯ ਸਸ਼ਰਂ ਚਾਪਂ ਸ਼ੋਕਸਂਵਿਗ੍ਨਮਾਨਸ।।1.47।।
ಸಞ್ಜಯ ಉವಾಚ ಏವಮುಕ್ತ್ವಾರ್ಜುನಃ ಸಂಖ್ಯೇ ರಥೋಪಸ್ಥ ಉಪಾವಿಶತ್. ವಿಸೃಜ್ಯ ಸಶರಂ ಚಾಪಂ ಶೋಕಸಂವಿಗ್ನಮಾನಸಃ৷৷1.47৷৷
സഞ്ജയ ഉവാച ഏവമുക്ത്വാര്ജുനഃ സംഖ്യേ രഥോപസ്ഥ ഉപാവിശത്. വിസൃജ്യ സശരം ചാപം ശോകസംവിഗ്നമാനസഃ৷৷1.47৷৷
ସଞ୍ଜଯ ଉବାଚ ଏବମୁକ୍ତ୍ବାର୍ଜୁନଃ ସଂଖ୍ଯେ ରଥୋପସ୍ଥ ଉପାବିଶତ୍| ବିସୃଜ୍ଯ ସଶରଂ ଚାପଂ ଶୋକସଂବିଗ୍ନମାନସଃ||1.47||
sañjaya uvāca ēvamuktvā.rjunaḥ saṅkhyē rathōpastha upāviśat. visṛjya saśaraṅ cāpaṅ śōkasaṅvignamānasaḥ৷৷1.47৷৷
ஸஞ்ஜய உவாச ஏவமுக்த்வார்ஜுநஃ ஸஂக்யே ரதோபஸ்த உபாவிஷத். விஸரிஜ்ய ஸஷரஂ சாபஂ ஷோகஸஂவிக்நமாநஸஃ৷৷1.47৷৷
సఞ్జయ ఉవాచ ఏవముక్త్వార్జునః సంఖ్యే రథోపస్థ ఉపావిశత్. విసృజ్య సశరం చాపం శోకసంవిగ్నమానసః৷৷1.47৷৷
2.1
2
1
।।2.1।। संजय बोले - वैसी कायरता से आविष्ट उन अर्जुन के प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं और आँसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है, भगवान् मधुसूदन ये (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
।।2.1।। संजय ने कहा -- इस प्रकार करुणा और विषाद से अभिभूत,  अश्रुपूरित नेत्रों वाले आकुल अर्जुन से मधुसूदन ने यह वाक्य कहा।।
।।2.1।। द्वितीय अध्याय का प्रारम्भ संजय के कथन से होता है जिसमें वह चुने हुये शब्दों से अर्जुन की विषादमयी मानसिक स्थिति का स्पष्ट चित्रण करता है। अर्जुन का मन करुणा और विषाद से भर गया है। इस युक्ति से स्पष्ट होता है कि अर्जुन परिस्थितियों का स्वामी न होकर स्वयं उनका शिकार हो गया था। इस प्रकार एक दुर्बल व्यक्ति ही परिस्थितियों का शिकार बनकर जीवन संघर्ष के प्रत्येक अवसर पर असफल होता है। अर्जुन अपनी नैराश्यपूर्ण अवस्था में इस समय ऐसी ही बाह्य परिस्थितियों का शिकार हो गया था। अर्जुन की विषादावस्था का वर्णन करने के साथ ही संजय हमें यह भी संकेत करता है कि उसका आन्तरिक व्यक्तित्व भग्न हो गया था और उसके चरित्र में गहरी दरार पड़ गयी थी। अपने समय का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी होकर भी वह किसी सामान्य युवती के समान रुदन कर रहा थाइस प्रकार करुणा और शोक से अभिभूत एवं अश्रुरहित रोदन करते हुये अर्जुन से मधुसूदन (मधु नामक असुर का वध करने वाले) भगवान् श्रीकृष्ण ने निम्नलिखित वाक्य कहा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अश्रुरहित रोदन को आधुनिक मनोविज्ञान मानसिक उद्विग्नता की चरम स्थिति मानता है।
2.1।। व्याख्या--'तं तथा कृपयाविष्टम्'--अर्जुन रथमें सारथिरूपसे बैठे हुए भगवान्को यह आज्ञा देते हैं कि हे अच्युत! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कीजिये ,जिससे मैं यह देख लूँ कि इस युद्धमें मेरे साथ दो हाथ करनेवाले कौन हैं? अर्थात् मेरे-जैसे शूरवीरके साथ कौन-कौन-से योद्धा साहस करके लड़ने आये हैं? अपनी मौत सामने दीखते हुए भी मेरे साथ लड़नेकी उनकी हिम्मत कैसे हुई? इस प्रकार जिस अर्जुनमें युद्धके लिये इतना उत्साह था, वीरता थी, वे ही अर्जुन दोनों सेनाओंमें अपने कुटुम्बियोंको देखकर उनके मरनेकी आशंकासे मोहग्रस्त होकर इतने शोकाकुल हो गये हैं कि उनका शरीर शिथिल हो रहा है, मुख सूख रहा है, शरीरमें कँपकँपी आ रही है, रोंगटे खड़े हो रहे हैं, हाथसे धनुष गिर रहा है, त्वचा जल रही है, खड़े रहनेकी भी शक्ति नहीं रही है और मन भी भ्रमित हो रहा है। कहाँ तो अर्जुनका यह स्वभाव कि 'न दैन्यं न पलायनम्' और कहाँ अर्जुनका कायरताके दोषसे शोकाविष्ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ जाना! बड़े आश्चर्यके साथ सञ्जय यही भाव उपर्युक्त पदोंसे प्रकट कर रहे हैं। पहले अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें भी सञ्जयने अर्जुनके लिये 'कृपया परयाविष्टः' पदोंका प्रयोग किया है।  'अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्'--अर्जुन-जैसे महान् शूरवीरके भीतर भी कौटुम्बिक मोह छा गया और नेत्रोंमें आँसू भर आये! आँसू भी इतने ज्यादा भर आये कि नेत्रोंसे पूरी तरह देख भी नहीं सकते।  'विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः'--इस प्रकार कायरताके कारण विषाद करते हुए अर्जुनसे भगवान् मधुसूदनने ये (आगे दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें कहे जाने-वाले) वचन कहे। यहाँ  'विषीदन्तमुवाच'  कहनेसे ही काम चल सकता था, 'इदं वाक्यम्' कहनेकी जरूरत ही नहीं थी; क्योंकि 'उवाच' क्रियाके अन्तर्गत ही 'वाक्यम्' पद आ जाता है। फिर भी 'वाक्यम्' पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्का यह वचन, यह वाणी बड़ी विलक्षण है। अर्जुनमें धर्मका बाना पहनकर जो कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आ गयी थी ,उसपर यह भगवद्वाणी सीधा आघात पहुँचानेवाली है। अर्जुनका युद्धसे उपराम होनेका जो निर्णय था उसमें खलबली मचा देनेवाली है। अर्जुनको अपने दोषका ज्ञान कराकर अपने कल्याणकी जिज्ञासा जाग्रत् करा देनेवाली है। इस गम्भीर अर्थवाली वाणीके प्रभावसे ही अर्जुन भगवान्का शिष्यत्व ग्रहण करके उनके शरण हो जाते हैं (2। 7)। सञ्जयके द्वारा 'मधुसूदनः' पद कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण मधु नामक दैत्यको मारनेवाले अर्थात् दुष्ट स्वभाववालोंका संहार करनेवाले हैं। इसलिये वे दुष्ट स्वभाववाले दुर्योधनादिका नाश करवाये बिना रहेंगे नहीं। सम्बन्ध--भगवान्ने अर्जुनके प्रति कौनसे वचन कहे--इसे आगेके दो श्लोकोंमें कहते हैं।
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।।2.1।।संजय उवाच श्रीभगवानुवाच एवम् उपविष्टे पार्थे कुतः अयम् अस्थाने समुत्थितः शोक इति आक्षिप्य तम् इमं विषमस्थं शोकम् अविद्वत्सेवितं परलोकविरोधिनम् अकीर्तिकरम् अतिक्षुद्रं हृदयदौर्बल्यकृतं परित्यज्य युद्धाय उत्तिष्ठ इति श्रीभगवान् उवाच।
।।2.1।।अहिंसा परमो धर्मो भिक्षाशनं चेत्येवंलक्षणया बुद्ध्या युद्धवैमुख्यमर्जुनस्य श्रुत्वा स्वपुत्राणां राज्यैश्वर्यमप्रचलितमवधार्य स्वस्थहृदयं धृतराष्ट्रं दृष्ट्वा तस्य दुराशामपनेष्यामीति मनीषया संजयस्तं प्रत्युक्तवानित्याह  संजय इति।  परमेश्वरेण स्मार्यमाणोऽपि कृत्याकृत्ये सहसा नार्जुनः सस्मार विपर्ययप्रयुक्तस्य शोकस्य दृढतरमोहहेतुत्वात्तथापि तं भगवान्नोपेक्षितवानित्याह  तं तथेति।  तं प्रकृतं पार्थं तथा स्वजनमरणप्रसङ्गदर्शनेन कृपया करुणयाविष्टमधिष्ठितमश्रुभिः पूर्णे समाकुले चेक्षणे यस्य तमश्रुव्याप्ततरलाक्षं विषीदन्तं शोचन्तमिदं वक्ष्यमाणं वाक्यं सोपपत्तिकं वचनं मधुनामानमसुरं सूदितवानिति मधुसूदनो भोगवानुक्तवान्नतु यथोक्तमर्जुनमुपेक्षितवानित्यर्थः।
।।2.1।।वैराग्यं प्रथमेऽध्याये पार्थदुःखमुदीरितम्। अधिकारी त्वतः सिद्धः साङ्ख्ययोगनिरूपणे।।1।।तौ विद्यापर्वरूपत्त्वाद्धरिवेशानुकारिणौ। आत्मस्वरूपविज्ञानस्थिरबुद्धिप्रयोजनौ।।2।।ततोंऽशत्वपरिस्फूर्त्या भवेदाश्रयणादरः। तदाश्रयवतः कार्यं तदाज्ञाधर्मपालनम्।।3।।अतस्तदाज्ञारूपेण युद्धादिकरणं मतम्। न पुष्टिमिश्रभक्तो हि साङ्ख्यमात्ररुचिर्भवेत्।।4।।मध्ये स्वधर्मवचनं यदुक्तं साङ्ख्ययोगयोः। तेन तद्धृदि पुष्टिस्थः प्रकारः सम्भविष्यति।।5।।द्वितीये पूर्वमध्याये विषादः साङ्ख्यमुच्यते। तत्र स्वधर्मो योगान्ते स्थिरबुद्धिप्रयोजनः।।6।।ततः किं कृतमित्यपेक्षायां पुनः सञ्जय उवाच तं तथेति।
।।2.1।।अहिंसा परमो धर्मो भिक्षाशनं चेत्येवंलक्षणया बुद्ध्या युद्धवैमुख्यमर्जनस्य श्रुत्वा स्वपुत्राणां राज्यमप्रचलितमवधार्य स्वस्थहृदयस्य धृतराष्ट्रस्य हर्षनिमित्तां ततः किंवृत्तमित्याकाङ्क्षामपनिनीषुः संजयस्तं प्रत्युक्तवानित्याह वैशम्पायनः। कृपा ममैत इति व्यामोहनिमित्तः स्नेहविशेषः। तया स्वभावसिद्धया आविष्टं व्याप्तम्। अर्जुनस्य कर्मत्वं कृपायाश्च कर्तृत्वं वदता तस्या आगन्तुकत्वं व्युदस्तम्। अतएव विषीदन्तं स्नेहविषयीभूतस्वजनविच्छेदाशङ्कानिमित्तः शोकापरपर्यायश्चित्तव्याकुलीभावो विषादस्तं प्राप्नुवन्तम्। अत्र विषादस्य कर्मत्वेनार्जुनस्य कर्तृत्वेन च तस्यागन्तुकत्वं सूचितम्। अतएव कृपाविषादवशादश्रुभिः पूर्णे आकुले दर्शनाक्षमे चेक्षणे यस्य तम्। एवमश्रुपातव्याकुलीभावाख्यकार्यद्वयजनकतया परिपोषं गताभ्यां कृपाविषादाभ्यामुद्विग्नं तमर्जुनमिदं सोपपत्तिकं वक्ष्यमाणं वाक्यमुवाच नतूपेक्षितवान्। मधुसूदन इति स्वयं दुष्टनिग्रहकर्ताऽर्जुनं प्रत्यपि तथैव वक्ष्यतीति भावः।
।।2.1।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायां संजय उवाच     तं तथेति।  अश्रुभिः पूर्णे आकुले ईक्षणे यस्य तम्। तथोक्तप्रकारेण विषीदन्तमर्जुनं प्रति मधुसूदन इदं वाक्यमुवाच।
।।2.1।।अथ शोकापनोदनविषयो द्वितीयोऽध्याय आरभ्यते। सञ्जयवाक्याविच्छेदेऽपिसञ्जय उवाच इति निर्देशोऽध्यायान्तरारम्भरूपतयाऽन्योक्तिशङ्कापरिहाराय।तं तथा इत्यादि श्लोकत्रयं व्याख्याति एवमिति।विषीदन्तम् इत्यन्तस्य पूर्वाध्यायोक्तानुवादत्वं सूचयितुंएवमुपविष्टे पार्थे इत्युक्तम्।तथा इति अस्थान इत्यर्थः। कृपा च आन्तरो विषादः ततः अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं बाह्यशोकेनाप्याविष्टमित्यर्थः। विषीदन्तं पूर्वाध्यायोक्तरीत्या विषादं प्राप्योविष्टम्। मधुसूदनशब्देन शोकमूलरजस्तमोनिबर्हणत्वं सूचितम्।अस्थाने इति विषमशब्दोपचरितार्थः। कश्मलमिह मूर्च्छाकल्पः शोकःशोकसंविग्नमानसः 1।47 इति प्रकृतत्वात्। प्रख्यातवंशवीर्यश्रुतादिसूचकाः अर्जुनपार्थपरन्तपेति शब्दाः कौन्तेयत्वात्त्वयि आक्षेपकाकुगर्भा इत्यभिप्रायेणआक्षिप्य इत्युक्तम्।कुतः शब्दश्च हेत्वाभासस्य हेतुतां प्रक्षिपन् धिक्कारगर्भः। परान् तापयतीति परन्तपः। क्लैब्यमिह कातर्यम् तत्हृदयदौर्बल्यशब्देन विवृतम्। पूर्वश्लोकस्थविशेषणानामप्यत्र कातर्यत्याज्यताहेतुत्वादर्थतस्तान्यप्यत्र सङ्गमयति तमिमं विषमस्थमित्यादिना। अतत्त्वेभ्यः आरात् दूरात् याता बुद्धिर्येषां ते आर्याः विद्वांसः तदन्ये तु अनार्याः।अस्वर्ग्यम् इत्यत्राविशेषात् स्वर्गशब्दः परलोकमात्रोपलक्षकः। नञश्चात्र विरोधिपरतया स्वर्ग्यशब्दनिर्दिष्टस्वर्गहेतुविरोधित्वेऽर्थतस्तत्फलविरोधात्परलोकविरोधिनमित्युक्तम्। क्षुद्रशब्दस्यान्न सङ्कोचकाभावेनापेक्षिकक्षुद्रविषयत्वायोगात् महत्तरस्यार्जुनस्य तथाविधावस्थापर्यालोचनाच्च काष्ठाप्राप्तं क्षुद्रत्वं विवक्षितमिति दर्शयितुंअतिक्षुद्रम् इत्युक्तम्। कार्ये कारणोपचार इति वा कारणत्यागस्य कार्यत्यागार्थतया पूर्वोत्तरश्लोकफलितार्थविवक्षया वाहृदयदौर्बल्यकृतम् इत्युक्तम् अदृढहृदयत्वकृतमित्यर्थः।परन्तप इत्यनेन ज्ञापितं प्राकरणिकमर्थमध्याहृत्योक्तंयुद्धायोत्तिष्ठेति।
।।2.1।।श्रीकृष्णाय नमः।।शोकसागरसम्मग्नं पार्थं स्वीयत्वभावतः। कृष्णः स्वसाङ्ख्ययोगाभ्यामुज्जहार दयापरः।।पूर्वाध्याये शोकसंविग्नमानसोऽर्जुनः सशरं चापमुत्सृज्योपाविशदित्युक्तम् ततः किं जातमित्याकांक्षायां सञ्जय आह तथेति। तमर्जुनमाविष्टं स्वस्मिन् अश्रुभिः पूर्णे आकुले ईक्षणे यस्य तं तथा विषीदन्तं पूर्वोक्तप्रकारेण खिद्यन्तं मधुसूदनः सर्वमारणसमर्थः कृपया इदं वाक्यमग्रे उच्यमानमुवाच।
।।2.1।।अर्जुने युद्धादुपरते मत्पुत्रा निष्कण्टकं राज्यं प्राप्स्यन्तीत्याशावन्तं राजानं प्रति संजय उवाच  तं तथेति।  तमर्जुनम्। तथास्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव इत्युक्तप्रकारेण कृपया स्नेहेन न तु दयया परदुःखप्रहाणेच्छारूपया। तस्याः परदौर्बल्यनिश्चयोत्तरभाविन्याः अर्जुनेयदि वा नो जयेयुः इति स्वपराजयमाशङ्कमाने दुर्भणत्वात्यानेव हत्वा न जिजीविषामः इति स्नेहातिशयसूचकवाक्यशेषविरोधाच्च। आविष्टं व्याप्तम्। विषीदन्तंसीदन्ति मम गात्राणि इत्यादिना उक्तरूपं विषादं प्राप्नुवन्तम्। इदं वक्ष्यमाणं वाक्यं वचनीयं उवाच। मधुसूदन इति दुष्टहन्तृत्वादेवार्जुनं निमित्तीकृत्य त्वत्पुत्रानपि हनिष्यत्येवेति त्वया जयाशा न कार्येति भावः।
।।2.1।।एवं रथोपस्थ उपविष्टमर्जुनं भगवान्किमुक्तवानित्याकाङ्क्षायां संजय उवाच  तमिति।  यत्त्वहिंसा परमो धर्मो भिक्षाशनं चेत्येवं लक्षणया बुद्य्धा युद्धवैमुख्यामर्जुनस्य श्रुत्वा स्वपुत्राणां राज्यमप्रचलितमित्यवधार्य स्वस्थहृदयस्य धृतराष्ट्रस्य हर्षनिमित्तां ततः किं वृत्तिमित्याकाङ्क्षमपनिनीषुः संजय उवाचेति तत्तु पूर्वग्रन्थविरोधादुपेक्ष्यम्। तमर्जुनं तथा पूर्वोक्तेन प्रकारेण कृपया स्नेहजन्ययाऽऽविष्टं व्याप्तम्। अश्रुभिः पूर्णे आकुले दर्शनाक्षमे ईक्षणे नेत्रे यस्य तम्। विषादं बन्धुवियोगाशङ्कानिमित्तं शोकं प्राप्नुवन्तमिदं वक्ष्यमाणं वाक्यं वक्तुं योग्यं वचनामुवाच नतूपेक्षितवानित्यर्थः। मध्वादिदुष्टसूदनो भीमादिद्वारा दुर्योधनादिदुष्टसूदनायोवाचेति सूचयन्नाह  मधुसूदन इति।
null
2.1 Sanjaya said To him who was thus overcome with pity and who was despondent, with eyes full of tears and agitated, Madhusudana (the destroyer of Madhu) or Krishna spoke these words.
2.1 Sanjaya then told how the Lord Shri Krishna, seeing Arjuna overwhelmed with compassion, his eyes dimmed with flowing tears and full of despondency, consoled him:
2.1 Sanjaya said To him who had been thus filled with pity, whose eyes were filled with tears and showed distress, and who was sorrowing, Madhusudana uttered these words:
null
2.1. Sanjaya said To him (Arjuna) who was thus possessed by compassion, whose eyes were confused and filled with tears and who was sinking in despondency, Madhusudana told this [following] sentence.
2.1 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
2.1 - 2.3 Sanjaya said - Lord said When Arjuna thus sat, the Lord, opposing his action, said: 'What is the reason for your misplaced grief? Arise for battle, abandoning this grief, which has arisen in a critical situation, which can come only in men of wrong understanding, which is an obstacle for reaching heaven, which does not confer fame on you, which is very mean, and which is caused by faint-heartedness.
2.1 Sanjaya said To him, who was thus overcome with pity, whose eyes were wet with tears, who was sorrow-stricken and who bore a bewildered look Sri Krsna spoke as follows:
।।2.1।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
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सञ्जय उवाच तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्। विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।2.1।।
সঞ্জয উবাচ তং তথা কৃপযাবিষ্টমশ্রুপূর্ণাকুলেক্ষণম্৷ বিষীদন্তমিদং বাক্যমুবাচ মধুসূদনঃ৷৷2.1৷৷
সঞ্জয উবাচ তং তথা কৃপযাবিষ্টমশ্রুপূর্ণাকুলেক্ষণম্৷ বিষীদন্তমিদং বাক্যমুবাচ মধুসূদনঃ৷৷2.1৷৷
સઞ્જય ઉવાચ તં તથા કૃપયાવિષ્ટમશ્રુપૂર્ણાકુલેક્ષણમ્। વિષીદન્તમિદં વાક્યમુવાચ મધુસૂદનઃ।।2.1।।
ਸਞ੍ਜਯ ਉਵਾਚ ਤਂ ਤਥਾ ਕਰਿਪਯਾਵਿਸ਼੍ਟਮਸ਼੍ਰੁਪੂਰ੍ਣਾਕੁਲੇਕ੍ਸ਼ਣਮ੍। ਵਿਸ਼ੀਦਨ੍ਤਮਿਦਂ ਵਾਕ੍ਯਮੁਵਾਚ ਮਧੁਸੂਦਨ।।2.1।।
ಸಞ್ಜಯ ಉವಾಚ ತಂ ತಥಾ ಕೃಪಯಾವಿಷ್ಟಮಶ್ರುಪೂರ್ಣಾಕುಲೇಕ್ಷಣಮ್. ವಿಷೀದನ್ತಮಿದಂ ವಾಕ್ಯಮುವಾಚ ಮಧುಸೂದನಃ৷৷2.1৷৷
സഞ്ജയ ഉവാച തം തഥാ കൃപയാവിഷ്ടമശ്രുപൂര്ണാകുലേക്ഷണമ്. വിഷീദന്തമിദം വാക്യമുവാച മധുസൂദനഃ৷৷2.1৷৷
ସଞ୍ଜଯ ଉବାଚ ତଂ ତଥା କୃପଯାବିଷ୍ଟମଶ୍ରୁପୂର୍ଣାକୁଲେକ୍ଷଣମ୍| ବିଷୀଦନ୍ତମିଦଂ ବାକ୍ଯମୁବାଚ ମଧୁସୂଦନଃ||2.1||
sañjaya uvāca taṅ tathā kṛpayā.viṣṭamaśrupūrṇākulēkṣaṇam. viṣīdantamidaṅ vākyamuvāca madhusūdanaḥ৷৷2.1৷৷
ஸஞ்ஜய உவாச தஂ ததா கரிபயாவிஷ்டமஷ்ருபூர்ணாகுலேக்ஷணம். விஷீதந்தமிதஂ வாக்யமுவாச மதுஸூதநஃ৷৷2.1৷৷
సఞ్జయ ఉవాచ తం తథా కృపయావిష్టమశ్రుపూర్ణాకులేక్షణమ్. విషీదన్తమిదం వాక్యమువాచ మధుసూదనః৷৷2.1৷৷
2.2
2
2
।।2.2।। श्रीभगवान् बोले (टिप्पणी प0 38.1) - हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं है।
।।2.2।। श्री भगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह मोह कहाँ से उत्पन्न हुआ?  यह आर्य आचरण के विपरीत न तो स्वर्ग प्राप्ति का साधन ही है और न कीर्ति कराने वाला ही है।।
।।2.2।। अपने आप को आर्य कहलाने वाले एक राजा को युद्धभूमि में इस प्रकार हतबुद्धि देखकर भगवान् को आश्चर्य हो रहा था। एक सच्चे आर्य अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष का स्वभाव तो यह होता है कि जीवन में आने वाली किसी भी परिस्थिति में अपने मनसंयम से विचलित न होकर उन परिस्थितियों का कुशलता से सामना करता है और उनको अपने अनुकूल बना लेता है। समुचित शैली में जीवन यापन करके अत्यन्त प्रतिकूल और विषम परिस्थितियों को भी आनन्ददायक सफलता में परिवर्तित किया जा सकता है। यह सब मनुष्य की बुद्धिमत्ता पर निर्भर है कि वह अपने आप को जीवन के उत्थानपतन में सही दिशा में किस प्रकार ले जाता है। यहाँ भगवान् अर्जुन के आचरण को अनार्य कहते हैं। आर्य पुरुष जीवन के उच्च आदर्शों पवित्रता और गरिमा के आह्वान के प्रति सदैव जागरूक और प्रयत्नशील रहते हैं ।अर्जुन की इस शोकाकुल अवस्था को देखकर श्रीकृष्ण को आश्चर्य इसलिये हो रहा था कि वे दीर्घ काल से अच्छी प्रकार जानते थे और इस प्रकार का शोकमोह अर्जुन के स्वभाव के सर्वथा विपरीत था। इसीलिये वे यहाँ कहते हैं तुमको इस विषमस्थल में৷৷.आदि।हिन्दुओं का यह विश्वास है कि क्षत्रिय कुल में जन्मे हुये व्यक्ति का कर्तव्य है धर्म के लिये युद्ध करना और इस प्रकार यदि उसे रणभूमि में प्राण त्यागना पड़े तो उस वीर को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
2.2।। व्याख्या--'अर्जुन'-- यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि तुम स्वच्छ, निर्मल अन्तःकरणवाले हो। अतः तुम्हारे स्वभावमें कालुष्य--कायरताका आना बिलकुल विरुद्ध बात है। फिर यह तुम्हारेमें कैसे आ गयी?  'कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्'-- भगवान् आश्चर्य प्रकट करते हुए अर्जुनसे कहते हैं कि ऐसे युद्धके मौकेपर तो तुम्हारेमें शूरवीरता, उत्साह आना चाहिये था, पर इस बेमौकेपर तुम्हारेमें यह कायरता कहाँसे आ गयी! आश्चर्य दो तरहसे होता है--अपने न जाननेके कारण और दूसरेको चेतानेके लिए। भगवान्का यहाँ जो
।।2.2।।कुत इति। आदो लोकव्यवहाराश्रयेणैव भगवान् अर्जुनं प्रतिबोधयति। क्रमात्तु ज्ञानं करिष्यति इत्यतः अनार्यजुष्टमित्याह।
।।2.2।।संजय उवाच श्रीभगवानुवाच एवम् उपविष्टे पार्थे कुतः अयम् अस्थाने समुत्थितः शोक इति आक्षिप्य तम् इमं विषमस्थं शोकम् अविद्वत्सेवितं परलोकविरोधिनम् अकीर्तिकरम् अतिक्षुद्रं हृदयदौर्बल्यकृतं परित्यज्य युद्धाय उत्तिष्ठ इति श्रीभगवान् उवाच।
।।2.2।।किं तद्वाक्यमित्यपेक्षायामाह  श्रीभगवानिति।  कुतो हेतोस्त्वा त्वां सर्वक्षत्रियप्रवरं कश्मलं मलिनं शिष्टगर्हितं युद्धात्पराङ्मुखत्वं विषमे समयस्थाने समुपस्थितं प्राप्तं अनार्यैः शास्त्रार्थमविद्वद्भिर्जुष्टं सेवितमस्वर्ग्यं स्वर्गानर्हं प्रत्यवायकारणमिह चाकीर्तिकरमयशस्करमर्जुननाम्ना प्रख्यातस्य तव नैतद्युक्तमित्यर्थः।
।।2.2 2.3।।मोहमधुहन्ता वाक्यं वक्ष्यमाणमुवाच कुतस्त्वेति। विषमे सङ्कटे हे अर्जुन शुद्धस्वरूप कुत इदं च कश्मलं समुपस्थितम्।
।।2.2।।तदेव भगवतो वाक्यमवतारयति श्रीभगवानुवाचेति।ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भग इतीङ्गना।। समग्रस्येति प्रत्येकं संबन्धः। मोक्षस्येति तत्साधनस्य ज्ञानस्य। इङ्गना संज्ञा। एतादृशं समग्रमैश्वर्यादिकं नित्यमप्रतिबन्धेन यत्र वर्तते स भगवान्। नित्ययोगे मतुप्। तथा उत्पत्तिं च विनाशं च भूतानामागतिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति।। अत्र भूतानामिति प्रत्येकं संबध्यते। उत्पत्तिविनाशशब्दौ तत्कारणस्याप्युपलक्षकौ। आगतिगती आगामिन्यौ संपदापदौ। एतादृशो भगवच्छब्दार्थः श्रीवासुदेव एव पर्यवसित इति तथोच्यते इदं स्वधर्मात्पराङ्मुखत्वं कृपाव्यामोहाश्रुपातादिपुरःसरं कश्मलं शिष्टगर्हितत्वेन मलिनं विषमे सभये स्थाने त्वा त्वां सर्वक्षत्रियप्रवरं कुतो हेतोः समुपस्थितं प्राप्तं किं मोक्षेच्छातः किंवा स्वर्गेच्छातः अथवा कीर्तीच्छात इति किंशब्देनाक्षिप्यते। हेतुत्रयमपि निषेधति त्रिभिर्विशेषणैरुत्तरार्धेन। आर्यैर्मुमुक्षुभिर्न जुष्टमसेवितम्।स्वधर्मैराशयशुद्धिद्वारा मोक्षमिच्छद्भिरपक्वकषायैर्मुमुक्षुभिः कथं स्वधर्मस्त्याज्य इत्यर्थः। संन्यासाधिकारी तु पक्वकषायोऽग्रे वक्ष्यते। अस्वर्ग्यं स्वर्गहेतुधर्मविरोधित्वान्न स्वर्गेच्छया सेव्यम्। अकीर्तिकरं कीर्त्यभावकरमपकीर्तिकरं वा न कीर्तीच्छया सेव्यम्। तथाच मोक्षकामैः स्वर्गकामैः कीर्तिकामैश्च वर्जनीयम्। तत्काम एव त्वं सेवस इत्यहो अनुचितचेष्टितं तवेति भावः।
।।2.2।।   तदेव वाक्यमाह। श्रीभगवानुवाच  कुत इति।  कुतो हेतोः त्वा इति त्वाम्। विषमे संकटे इदं कश्मलं समुपस्थितमयं मोहः प्राप्तः। यत आर्यैरसेवितम्। अस्वर्ग्यमधर्म्यमयशस्करं च।
।। 2.2अथ शोकापनोदनविषयो द्वितीयोऽध्याय आरभ्यते। सञ्जयवाक्याविच्छेदेऽपिसञ्जय उवाच इति निर्देशोऽध्यायान्तरारम्भरूपतयाऽन्योक्तिशङ्कापरिहाराय।तं तथा इत्यादि श्लोकत्रयं व्याख्याति एवमिति।विषीदन्तम् इत्यन्तस्य पूर्वाध्यायोक्तानुवादत्वं सूचयितुंएवमुपविष्टे पार्थे इत्युक्तम्।तथा इति अस्थान इत्यर्थः। कृपा च आन्तरो विषादः ततः अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं बाह्यशोकेनाप्याविष्टमित्यर्थः। विषीदन्तं पूर्वाध्यायोक्तरीत्या विषादं प्राप्योविष्टम्। मधुसूदनशब्देन शोकमूलरजस्तमोनिबर्हणत्वं सूचितम्।अस्थाने इति विषमशब्दोपचरितार्थः। कश्मलमिह मूर्च्छाकल्पः शोकःशोकसंविग्नमानसः 1।47 इति प्रकृतत्वात्। प्रख्यातवंशवीर्यश्रुतादिसूचकाः अर्जुनपार्थपरन्तपेति शब्दाः कौन्तेयत्वात्त्वयि आक्षेपकाकुगर्भा इत्यभिप्रायेणआक्षिप्य इत्युक्तम्।कुतः शब्दश्च हेत्वाभासस्य हेतुतां प्रक्षिपन् धिक्कारगर्भः। परान् तापयतीति परन्तपः। क्लैब्यमिह कातर्यम् तत्हृदयदौर्बल्यशब्देन विवृतम्। पूर्वश्लोकस्थविशेषणानामप्यत्र कातर्यत्याज्यताहेतुत्वादर्थतस्तान्यप्यत्र सङ्गमयति तमिमं विषमस्थमित्यादिना। अतत्त्वेभ्यः आरात् दूरात् याता बुद्धिर्येषां ते आर्याः विद्वांसः तदन्ये तु अनार्याः।अस्वर्ग्यम् इत्यत्राविशेषात् स्वर्गशब्दः परलोकमात्रोपलक्षकः। नञश्चात्र विरोधिपरतया स्वर्ग्यशब्दनिर्दिष्टस्वर्गहेतुविरोधित्वेऽर्थतस्तत्फलविरोधात्परलोकविरोधिनमित्युक्तम्। क्षुद्रशब्दस्यान्न सङ्कोचकाभावेनापेक्षिकक्षुद्रविषयत्वायोगात् महत्तरस्यार्जुनस्य तथाविधावस्थापर्यालोचनाच्च काष्ठाप्राप्तं क्षुद्रत्वं विवक्षितमिति दर्शयितुंअतिक्षुद्रम् इत्युक्तम्। कार्ये कारणोपचार इति वा कारणत्यागस्य कार्यत्यागार्थतया पूर्वोत्तरश्लोकफलितार्थविवक्षया वाहृदयदौर्बल्यकृतम् इत्युक्तम् अदृढहृदयत्वकृतमित्यर्थः।परन्तप इत्यनेन ज्ञापितं प्राकरणिकमर्थमध्याहृत्योक्तंयुद्धायोत्तिष्ठेति।
।।2.2।।भगवद्वाक्यमेवाह कुतस्त्वोमिति। विषमे असमयेअयं युद्धोत्साहसमयः नतु दयायाः इत्यस्मिन्समये हे अर्जुन त्वामिदं कश्मलं कुतः समुपस्थितं अयं तव मोहः कुतः प्राप्तः। स्वेच्छाज्ञानादस्य कश्मलत्वमुक्त भगवता। कश्मलं विशिनष्टि विशेषणत्रयेण अनार्यजुष्टं न विद्यते आर्यत्वं येषु तैः सेवितम् अस्वर्ग्यं न विद्यते स्वर्गो यस्मात् तेन धर्मप्रतिपक्षतोक्ता। अकीर्त्तिकरं कीर्तिनाशकं तेन क्षात्त्रधर्मनाशकत्वेन कुलधर्मप्रतिपक्षकत्वमुक्तम्।
।।2.2।।अर्जुनमुद्योजयन् श्रीभगवानुवाच  कुत इति।  कश्मलं वैक्लव्यम्। विषमे युद्धसंकटे। अनार्यैर्भीरुभिर्जुष्टं सेवितं न तु त्वादृशैः शूरैः न आर्यैर्जुष्टमिति वा। यत्तु आर्यैरजुष्टमिति विग्रहो दर्शितस्तदर्थैक्येऽपि पदव्युत्क्रमदोषादुपेक्ष्यम्। अतएवास्वर्ग्यमकीर्तिकरं च। हे अर्जुन स्वच्छस्वभाव तव नैतद्युक्तमिति भावः।
।।2.2।।   किं तद्वाक्यमित्यत आह श्रीभगवानिति। कुतो हेतोः त्वा त्वां शूरशिरोमणिमिदं स्वधर्मभूताद्युद्धात्पराङभुखत्वं कश्मलं मलिनं विषमेऽसमये समुपस्थितं संप्राप्तम्। यतोऽनार्यैर्दुष्टैर्जुष्टं सेवितमतएव दृष्टादृष्टफलरहितमित्याह। अस्वर्ग्यमकीर्तिकरमिति विशेषणद्वयेन स्वर्गानर्हं प्रत्यवायजनकत्वात्। अकीर्तिकरमयशस्यं किं मोक्षेच्छातः किंवा स्वर्गेच्छातः अथवा कीर्तिच्छातः इति किंशब्देनाक्षिप्यते। हेतुत्रयमपि निषेधयति। त्रिभिर्विशेषणैरुत्तरार्धेन। आर्यैर्मुमुक्षुभिर्न जुष्टमसेवितमिति केचित् न आर्यैर्जुष्टम्। यत्त्वार्यैरजुष्टमिति विग्रहो दर्शितस्तत्त्वर्थैक्येऽपि पदव्युत्क्रमदोषादुपेक्ष्यमित्यन्ये स्वधर्मयुद्धं कुर्वन्मलात्मकं पापं न प्राप्स्यसीति द्योतयन्नाह  अर्जुनेति।  अर्जुननाम्ना प्रख्यातस्य तव नैतद्युक्तमित्येके। हे अर्जुन स्वच्छस्वभाव तव नैतद्युक्तमिति भाव इत्यन्ये।
null
2.2 The Blessed Lord said Whence is this perilous strait come upon thee, this dejection which is unworthy of you, disgraceful, and which will close the gates of heaven upon you, O Arjuna?
2.2 "The Lord said: My beloved friend! Why yield, just on the eve of battle, to this weakness which does no credit to those who call themselves Aryans, and only brings them infamy and bars against them the gates of heaven?
2.2 The Blessed Lord said O Arjuna, in this perilous place, whence has come to you this impurity entertained by unenlightened persons, which does not lead to heaven and which brings infamy?
null
2.2. The Bhagavat said O Arjuna ! At a critical moment, whence did this sinful act come to you which is practised by men of ignoble (low) birth and which is leading to the hell and is inglorious ?
2.2 Kutah etc. To commence with, the Bhagavat exhorts Arjuna just by following the worldly (common) practice; but, in due course, He will impart knowledge. Hence He says 'practised by men of low birth'. Uttering words of ruke such as 'unmanliness' etc., the Bhagavat causes [Arjuna] to know that he misconceives demerit as meritorious :
2.1 - 2.3 Sanjaya said - Lord said When Arjuna thus sat, the Lord, opposing his action, said: 'What is the reason for your misplaced grief? Arise for battle, abandoning this grief, which has arisen in a critical situation, which can come only in men of wrong understanding, which is an obstacle for reaching heaven, which does not confer fame on you, which is very mean, and which is caused by faint-heartedness.
2.2 The Lord said Whence comes on you this despondency, O Arjuna, in this crisis? It is unift for a noble person. It is disgraceful and it obstructs one's attainment of heaven.
।।2.2।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
null
null
null
श्री भगवानुवाच कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2.2।।
শ্রী ভগবানুবাচ কুতস্ত্বা কশ্মলমিদং বিষমে সমুপস্থিতম্৷ অনার্যজুষ্টমস্বর্গ্যমকীর্তিকরমর্জুন৷৷2.2৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ কুতস্ত্বা কশ্মলমিদং বিষমে সমুপস্থিতম্৷ অনার্যজুষ্টমস্বর্গ্যমকীর্তিকরমর্জুন৷৷2.2৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ કુતસ્ત્વા કશ્મલમિદં વિષમે સમુપસ્થિતમ્। અનાર્યજુષ્ટમસ્વર્ગ્યમકીર્તિકરમર્જુન।।2.2।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਕੁਤਸ੍ਤ੍ਵਾ ਕਸ਼੍ਮਲਮਿਦਂ ਵਿਸ਼ਮੇ ਸਮੁਪਸ੍ਥਿਤਮ੍। ਅਨਾਰ੍ਯਜੁਸ਼੍ਟਮਸ੍ਵਰ੍ਗ੍ਯਮਕੀਰ੍ਤਿਕਰਮਰ੍ਜੁਨ।।2.2।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಕುತಸ್ತ್ವಾ ಕಶ್ಮಲಮಿದಂ ವಿಷಮೇ ಸಮುಪಸ್ಥಿತಮ್. ಅನಾರ್ಯಜುಷ್ಟಮಸ್ವರ್ಗ್ಯಮಕೀರ್ತಿಕರಮರ್ಜುನ৷৷2.2৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച കുതസ്ത്വാ കശ്മലമിദം വിഷമേ സമുപസ്ഥിതമ്. അനാര്യജുഷ്ടമസ്വര്ഗ്യമകീര്തികരമര്ജുന৷৷2.2৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ କୁତସ୍ତ୍ବା କଶ୍ମଲମିଦଂ ବିଷମେ ସମୁପସ୍ଥିତମ୍| ଅନାର୍ଯଜୁଷ୍ଟମସ୍ବର୍ଗ୍ଯମକୀର୍ତିକରମର୍ଜୁନ||2.2||
śrī bhagavānuvāca kutastvā kaśmalamidaṅ viṣamē samupasthitam. anāryajuṣṭamasvargyamakīrtikaramarjuna৷৷2.2৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச குதஸ்த்வா கஷ்மலமிதஂ விஷமே ஸமுபஸ்திதம். அநார்யஜுஷ்டமஸ்வர்க்யமகீர்திகரமர்ஜுந৷৷2.2৷৷
శ్రీ భగవానువాచ కుతస్త్వా కశ్మలమిదం విషమే సముపస్థితమ్. అనార్యజుష్టమస్వర్గ్యమకీర్తికరమర్జున৷৷2.2৷৷
2.3
2
3
।।2.3।। हे पृथानन्दन अर्जुन ! इस नपुंसकताको मत प्राप्त हो; क्योंकि तुम्हारेमें यह उचित नहीं है। हे परंतप ! हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताका त्याग करके युद्धके लिये खड़े हो जाओ।
।।2.3।। हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है, हे ! परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ।।
।।2.3।। भगवान् श्रीकृष्ण जो अब तक मौन खड़े थे अब प्रभावशाली शब्दों द्वारा शोकाकुल अर्जुन की कटु र्भत्सना करते हैं। उनके प्रत्येक शब्द का आघात कृपाण के समान तीक्ष्ण है जो किसी भी व्यक्ति को परास्त करने के लिये पर्याप्त है। क्लैब्य का अर्थ है नपुंसकता। यहाँ इस शब्द से तात्पर्य मन की उस स्थिति से है जिसमें व्यक्ति न तो एक पुरुष के समान परिस्थिति का सामना करने का साहस अपने में कर पाता है और न ही एक कोमल भावों वाली लज्जालु स्त्री के समान निराश होकर बैठा रह सकता है। आजकल की भाषा में किसी व्यक्ति के इस प्रकार के व्यवहार में उसके मित्र आश्चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि यह आदमी स्त्री है या पुरुष अर्जुन की भी स्थित राजदरबार के उन नपुंसक व्यक्तियों के समान हो रही थी जो देखने में पुरुष जैसे होकर स्त्री वेष धारण करते थे। पुरुष के समान बोलते लेकिन मन में स्त्री जैसे भावुक होते शरीर से समर्थ किन्तु मन से दुर्बल रहते थे।अब तक श्रीकृष्ण मौन थे उनका गम्भीर मौन अर्थपूर्ण था। अर्जुन मोहावस्था में युद्ध न करने का निर्णय लेकर अपने पक्ष में अनेक तर्क भी प्रस्तुत कर रहा था। श्रीकृष्ण जानते थे कि पहले ऐसी स्थिति में अर्जुन का विरोध करना व्यर्थ था। परन्तु अब उसके नेत्रों में अश्रु देखकर वे समझ गये कि उसका संभ्रम अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया है।भक्ति परम्परा में यह सही ही विश्वास किया जाता है कि जब तक हम अपने को बुद्धिमान समझकर तर्क करते रहते हैं तब तक भगवान् पूर्णतया मौन धारण किये हुए अनसुना करते रहते हैं किन्तु ज्ञान के अहंकार को त्यागकर और भक्ति भाव से विह्वल होकर अश्रुपूरित नेत्रों से उनकी शरण में चले जाने पर करुणासागर भगवान् अपने भक्त को अज्ञान के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर मार्गदर्शन करने के लिये उसके पास बिना बुलाये तुरन्त पहुँचते हैं। इस भावनापूर्ण स्थिति में जीव को ईश्वर के मार्गदर्शन और सहायता की आवश्यकता होती है।ईश्वर की कृपा को प्राप्त कर भक्त का अन्तकरण निर्मल होकर आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है जो स्वप्रकाशस्वरूप चैतन्य के साक्षात् अनुभव के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इस स्वीकृत तथ्य के अनुसार तथा जो भक्तों का भी अनुभव है गीता में हम देखते हैं कि जैसे ही भगवान ने बोलना प्रारम्भ किया वैसे ही विद्युत के समान उनके प्रज्ज्वलित शब्द अर्जुन के मन पर पड़े जिससे वह अपनी गलत धारणाओं के कारण अत्यन्त लज्जित हुआ।सहानुभूति के कोमल शब्द अर्जुन के निराश मन को उत्साहित नहीं कर सकते थे। अत व्यंग्य के अम्ल में डुबोये हुये तीक्ष्ण बाण के समान वचनों से अर्जुन को उत्तेजित करते हुये अंत में भगवान् कहते हैं उठो और कर्म करो।
2.3।। व्याख्या --'पार्थ'-- (टिप्पणी प0 39.1)  माता पृथा-(कुन्ती-) के सन्देशकी याद दिलाकर अर्जुनके अन्तःकरणमें क्षत्रियोचित वीरताका भाव जाग्रत् करनेके लिये भगवान् अर्जुनको  पार्थ  नामसे सम्बोधित करते हैं   (टिप्पणी प0 39.2) । तात्पर्य है कि अपनेमें कायरता लाकर तुम्हें माताकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये।   'क्लैब्यं मा स्म गमः'-- अर्जुन कायरताके कारण युद्ध करनेमें अधर्म और युद्ध न करनेमें धर्म मान रहे थे। अतः अर्जुनको चेतानेके लिये भगवान् कहते हैं कि युद्ध न करना धर्मकी बात नहीं है, यह तो नपुंसकता (हिजड़ापन) है। इसलिये तुम इस नपुंसकताको छोड़ दो।  'नैतत्त्वय्युपपद्यते'-- तुम्हारेमें यह हिजड़ापन नहीं आना चाहिये था; क्योंकि तुम कुन्ती-जैसी वीर क्षत्राणी माताके पुत्र हो और स्वयं भी शूरवीर हो। तात्पर्य है कि जन्मसे और अपनी प्रकृतिसे भी यह नपुंसकता तुम्हारेमें सर्वथा अनुचित है।  'परंतप'-- तुम स्वयं  'परंतप'  हो अर्थात् शत्रुओंको तपानेवाले, भगानेवाले हो, तो क्या तुम इस समय युद्धसे विमुख होकर अपने शत्रुओंको हर्षित करोगे?  'क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ'-- यहाँ  'क्षुद्रम्'  पदके दो अर्थ होते हैं--(1) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छताको प्राप्त करानेवाली है अर्थात् मुक्ति, स्वर्ग अथवा कीर्तिको देनेवाली नहीं है। अगर तुम इस तुच्छताका त्याग नहीं करोगे तो स्वयं तुच्छ हो जाओगे; और (2) यह हृदयकी दुर्बलता तुच्छ चीज है। तुम्हारे-जैसे शूरवीरके लिये ऐसी तुच्छ चीजका त्याग करना कोई कठिन काम नहीं है। तुम जो ऐसा मानते हो कि मैं धर्मात्मा हूँ और युद्धरूपी पाप नहीं करना चाहता, तो यह तुम्हारे हृदयकी दुर्बलता है कमजोरी है। इसका त्याग करके तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ अर्थात् अपने प्राप्त कर्तव्यका पालन करो। यहाँ अर्जुनके सामने युद्धरूप कर्तव्य-कर्म है। इसलिये भगवान् कहते हैं कि 'उठो, खड़े हो जाओ और युद्धरूप कर्तव्यका पालन करो'। भगवान्के मनमें अर्जुनके कर्तव्यके विषयमें जरा-सा भी सन्देह नहीं है। वे जानते हैं कि सभी दृष्टियोंसे अर्जुनके लिये युद्ध करना ही कर्तव्य है। अतः अर्जुनकी थोथी युक्तियोंकी परवाह न करके उनको अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये चट आज्ञा देते हैं कि पूरी तैयारीके साथ युद्ध करनेके लिये खड़े हो जाओ।  सम्बन्ध-- पहले अध्यायमें अर्जुनने युद्ध न करनेके विषयमें बहुतसी युक्तियाँ (दलीलें) दी थीं। उन युक्तियोंका कुछ भी आदर न करके भगवान्ने एकाएक अर्जुनको कायरतारूप दोषके लिये जोरसे फटकारा और युद्धके लिये खड़े हो जानेकी आज्ञा दे दी। इस बातको लेकर अर्जुन भी अपनी युक्तियोंका समाधान न पाकर एकाएक उत्तेजित होकर बोल उठे--
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।।2.3।।संजय उवाच श्रीभगवानुवाच एवम् उपविष्टे पार्थे कुतः अयम् अस्थाने समुत्थितः शोक इति आक्षिप्य तम् इमं विषमस्थं शोकम् अविद्वत्सेवितं परलोकविरोधिनम् अकीर्तिकरम् अतिक्षुद्रं हृदयदौर्बल्यकृतं परित्यज्य युद्धाय उत्तिष्ठ इति श्रीभगवान् उवाच।
।।2.3।।पुनरपि भगवार्जुनं प्रत्याह  क्लैब्यमिति।  क्लैब्यं क्लीबभावमधैर्यं मा स्म गमः मा गाः। हे पार्थ पृथातनय नहि त्वयि महेश्वरेणापि कृताहवे प्रख्यातपौरुषे महामहिमन्येतदुपपद्यते। क्षुद्रं क्षुद्रत्वकारणं हृदयदौर्बल्यं मनसो दुर्बलत्वमधैर्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ युद्धायोपक्रमं कुरु। हे परंतप परं शत्रुं तापयतीति तथा संबोध्यते।
।।2.2 2.3।।मोहमधुहन्ता वाक्यं वक्ष्यमाणमुवाच कुतस्त्वेति। विषमे सङ्कटे हे अर्जुन शुद्धस्वरूप कुत इदं च कश्मलं समुपस्थितम्।
।।2.3।।ननु बन्धुसेनावेक्षणजातेनाधैर्येण धनुरपि धारयितुमशक्नुवता मया किं कर्तुं शक्यमित्यत आह क्लैब्यं क्लीबभावमधैर्यमोजस्तेजआदिभङ्गरूपं मा स्म गमः मा गाः। हे पार्थ पृथातनय पृथया देवप्रसादलब्धे तत्तनयमात्रे वीर्यातिशयस्य प्रसिद्धत्वात्पृथातनयत्वेन क्लैब्यायोग्य इत्यर्थः। अर्जुनत्वेनापि तदयोग्यत्वमाह नैतदिति। त्वय्यर्जुने साक्षान्महेश्वरेणापि सह कृताहवे प्रख्यातमहाप्रभावे नोपपद्यते न युज्यते। एतत्क्लैब्यमित्यसाधारण्येन तदयोग्यत्वनिर्देशः। ननुनच शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः इति पूर्वमेव मयोक्तभित्याशङ्क्याह क्षुद्रमिति। हृदयदौर्बल्यं मनसो भ्रमणादिरूपमधैर्यं क्षुद्रत्वकारणत्वात्क्षुद्रं सुनिरसनं वा त्यक्त्वा विवेकेनापनीय उत्तिष्ठ युद्धाय सज्जो भव। हे परंतप परं शत्रुं तापयतीति तथा संबोध्यते। हेतुगर्भम्।
।।2.3।।तस्मात्  क्लैब्यमिति।  हे पार्थ क्लैब्यं कातर्यं मा स्म गमः न प्राप्नुहि। यतस्त्वय्येतन्नोपपद्यते योग्यं न भवति। क्षुद्रं तुच्छं हृदयदौर्बल्यं कातर्यं त्यक्त्वा युद्धायोत्तिष्ठ। हे परन्तप शत्रुतापन।
।। 2.3अथ शोकापनोदनविषयो द्वितीयोऽध्याय आरभ्यते। सञ्जयवाक्याविच्छेदेऽपिसञ्जय उवाच इति निर्देशोऽध्यायान्तरारम्भरूपतयाऽन्योक्तिशङ्कापरिहाराय।तं तथा इत्यादि श्लोकत्रयं व्याख्याति एवमिति।विषीदन्तम् इत्यन्तस्य पूर्वाध्यायोक्तानुवादत्वं सूचयितुंएवमुपविष्टे पार्थे इत्युक्तम्।तथा इति अस्थान इत्यर्थः। कृपा च आन्तरो विषादः ततः अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं बाह्यशोकेनाप्याविष्टमित्यर्थः। विषीदन्तं पूर्वाध्यायोक्तरीत्या विषादं प्राप्योविष्टम्। मधुसूदनशब्देन शोकमूलरजस्तमोनिबर्हणत्वं सूचितम्।अस्थाने इति विषमशब्दोपचरितार्थः। कश्मलमिह मूर्च्छाकल्पः शोकःशोकसंविग्नमानसः 1।47 इति प्रकृतत्वात्। प्रख्यातवंशवीर्यश्रुतादिसूचकाः अर्जुनपार्थपरन्तपेति शब्दाः कौन्तेयत्वात्त्वयि आक्षेपकाकुगर्भा इत्यभिप्रायेणआक्षिप्य इत्युक्तम्।कुतः शब्दश्च हेत्वाभासस्य हेतुतां प्रक्षिपन् धिक्कारगर्भः। परान् तापयतीति परन्तपः। क्लैब्यमिह कातर्यम् तत्हृदयदौर्बल्यशब्देन विवृतम्। पूर्वश्लोकस्थविशेषणानामप्यत्र कातर्यत्याज्यताहेतुत्वादर्थतस्तान्यप्यत्र सङ्गमयति तमिमं विषमस्थमित्यादिना। अतत्त्वेभ्यः आरात् दूरात् याता बुद्धिर्येषां ते आर्याः विद्वांसः तदन्ये तु अनार्याः।अस्वर्ग्यम् इत्यत्राविशेषात् स्वर्गशब्दः परलोकमात्रोपलक्षकः। नञश्चात्र विरोधिपरतया स्वर्ग्यशब्दनिर्दिष्टस्वर्गहेतुविरोधित्वेऽर्थतस्तत्फलविरोधात्परलोकविरोधिनमित्युक्तम्। क्षुद्रशब्दस्यान्न सङ्कोचकाभावेनापेक्षिकक्षुद्रविषयत्वायोगात् महत्तरस्यार्जुनस्य तथाविधावस्थापर्यालोचनाच्च काष्ठाप्राप्तं क्षुद्रत्वं विवक्षितमिति दर्शयितुंअतिक्षुद्रम् इत्युक्तम्। कार्ये कारणोपचार इति वा कारणत्यागस्य कार्यत्यागार्थतया पूर्वोत्तरश्लोकफलितार्थविवक्षया वाहृदयदौर्बल्यकृतम् इत्युक्तम् अदृढहृदयत्वकृतमित्यर्थः।परन्तप इत्यनेन ज्ञापितं प्राकरणिकमर्थमध्याहृत्योक्तंयुद्धायोत्तिष्ठेति।
।।2.3।।अयं धर्मस्तव नोचित इत्याह हे पार्थ क्षत्ित्रयकुलोद्भव क्लैब्यं नपुंसकधर्मकातर्यं मा स्म गमः मा प्राप्नुहि। एतत् त्वयि न उपपद्यते। क्षुद्रं तुच्छं अक्षुद्रे न स्यात्। हे परन्तप शत्रुतापन हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वा उत्तिष्ठ सावधानो भव युद्धायेति शेषः।
।।2.3।।तदेवाह  क्लैब्यमिति।  क्लैब्यं निर्वीर्यत्वंन च शक्नोम्यवस्थातुम् इत्युक्तरूपं मा गाः। नैतत् त्वयि महादेवप्रतिभटे युक्तम्। अतः क्षुद्रं तुच्छं हृदयकृतमेव तव दौर्बल्यं न तु शक्तिसहायाद्यभावकृतं तत्त्यक्त्वा उत्तिष्ठ युद्धाय। परंतप शत्रुतापन।
।।2.3।।एवं श्रुत्वापि क्लैब्यमत्यजन्तमर्जुनं पुनराह क्लैब्यमिति। क्लैब्यंदृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्णं इत्यादिना प्रदर्शितमधैर्यं मा स्म गमः मा गाः। नैवाङ्गीकुर्वित्यर्थः। यत एतत्क्लैब्यं त्वयि प्रथितप्रभावेऽर्जुने नोपपद्यते उपपन्नं न भवति। तस्मात्क्षुद्रं क्षुद्रताया लधुतायाः संपादकं हृदयस्य दौर्बल्यं दुर्बलभावं निर्वीर्यत्वं त्यक्त्वोत्तिष्ठ युद्धायोद्युक्तो भव। मत्पितृष्वसृपृथातनये त्वयि मत्स्वभाव उचित इति ध्वनयन्नाह  हे पार्थेति।  पृथया देवप्रसादलब्धे तत्तनयमात्रे त्वयि वीर्यातिशयस्य प्रसिद्धत्वात्। पृथातनयत्वेन त्वं क्लैब्यायोग्य इति केचित्। शत्रूंस्तापय न स्वजनान्स्वहितकर्तृ़निति कथयितुं परंतपेति।
null
2.3 Yield not to impotence, O Arjuna, son of Pritha. It does not befit thee. Cast off this mean weakness of the heart! Stand up, O scorcher of the foes!
2.3 O Arjuna! Why give way to unmanliness? O thou who art the terror of thine enemies! Shake off such shameful effeminacy, make ready to act!
2.3 O Partha, yield not to unmanliness. This does not befit you. O scorcher of foes, arise, giving up the petty weakness of the heart.
null
2.3. Stoop not to unmanliness, O son of Kunti ! It does not befit you. Shirking off the petty weakness of heart, arise, O scorcher of the foes !
2.3 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
2.1 - 2.3 Sanjaya said - Lord said When Arjuna thus sat, the Lord, opposing his action, said: 'What is the reason for your misplaced grief? Arise for battle, abandoning this grief, which has arisen in a critical situation, which can come only in men of wrong understanding, which is an obstacle for reaching heaven, which does not confer fame on you, which is very mean, and which is caused by faint-heartedness.
2.3 Yield not to unmanliness, O Arjuna, it does not become you. Shake off this base faint-heartedness and arise, O scorcher of foes!
।।2.3।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
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null
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क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2.3।।
ক্লৈব্যং মা স্ম গমঃ পার্থ নৈতত্ত্বয্যুপপদ্যতে৷ ক্ষুদ্রং হৃদযদৌর্বল্যং ত্যক্ত্বোত্তিষ্ঠ পরন্তপ৷৷2.3৷৷
ক্লৈব্যং মা স্ম গমঃ পার্থ নৈতত্ত্বয্যুপপদ্যতে৷ ক্ষুদ্রং হৃদযদৌর্বল্যং ত্যক্ত্বোত্তিষ্ঠ পরন্তপ৷৷2.3৷৷
ક્લૈબ્યં મા સ્મ ગમઃ પાર્થ નૈતત્ત્વય્યુપપદ્યતે। ક્ષુદ્રં હૃદયદૌર્બલ્યં ત્યક્ત્વોત્તિષ્ઠ પરન્તપ।।2.3।।
ਕ੍ਲੈਬ੍ਯਂ ਮਾ ਸ੍ਮ ਗਮ ਪਾਰ੍ਥ ਨੈਤਤ੍ਤ੍ਵਯ੍ਯੁਪਪਦ੍ਯਤੇ। ਕ੍ਸ਼ੁਦ੍ਰਂ ਹਰਿਦਯਦੌਰ੍ਬਲ੍ਯਂ ਤ੍ਯਕ੍ਤ੍ਵੋਤ੍ਤਿਸ਼੍ਠ ਪਰਨ੍ਤਪ।।2.3।।
ಕ್ಲೈಬ್ಯಂ ಮಾ ಸ್ಮ ಗಮಃ ಪಾರ್ಥ ನೈತತ್ತ್ವಯ್ಯುಪಪದ್ಯತೇ. ಕ್ಷುದ್ರಂ ಹೃದಯದೌರ್ಬಲ್ಯಂ ತ್ಯಕ್ತ್ವೋತ್ತಿಷ್ಠ ಪರನ್ತಪ৷৷2.3৷৷
ക്ലൈബ്യം മാ സ്മ ഗമഃ പാര്ഥ നൈതത്ത്വയ്യുപപദ്യതേ. ക്ഷുദ്രം ഹൃദയദൌര്ബല്യം ത്യക്ത്വോത്തിഷ്ഠ പരന്തപ৷৷2.3৷৷
କ୍ଲୈବ୍ଯଂ ମା ସ୍ମ ଗମଃ ପାର୍ଥ ନୈତତ୍ତ୍ବଯ୍ଯୁପପଦ୍ଯତେ| କ୍ଷୁଦ୍ରଂ ହୃଦଯଦୌର୍ବଲ୍ଯଂ ତ୍ଯକ୍ତ୍ବୋତ୍ତିଷ୍ଠ ପରନ୍ତପ||2.3||
klaibyaṅ mā sma gamaḥ pārtha naitattvayyupapadyatē. kṣudraṅ hṛdayadaurbalyaṅ tyaktvōttiṣṭha parantapa৷৷2.3৷৷
க்லைப்யஂ மா ஸ்ம கமஃ பார்த நைதத்த்வய்யுபபத்யதே. க்ஷுத்ரஂ ஹரிதயதௌர்பல்யஂ த்யக்த்வோத்திஷ்ட பரந்தப৷৷2.3৷৷
క్లైబ్యం మా స్మ గమః పార్థ నైతత్త్వయ్యుపపద్యతే. క్షుద్రం హృదయదౌర్బల్యం త్యక్త్వోత్తిష్ఠ పరన్తప৷৷2.3৷৷
2.4
2
4
।।2.4।। अर्जुन बोले - हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे युद्ध कैसे करूँ? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजाके योग्य हैं।
।।2.4।। अर्जुन ने कहा -- हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में किस प्रकार भीष्म और द्रोण के साथ बाणों से युद्ध करूँगा। हे अरिसूदन, वे दोनों ही पूजनीय हैं।।
।।2.4।। अर्जुन का लक्ष्य भ्रष्ट करने वाला कायरतापूर्ण तर्क किसी अविवेकी को ही उचित प्रतीत हो सकता है। अर्जुन के ये तर्क उस व्यक्ति के लिये अर्थशून्य हैं जो मन के संयम को न खोकर परिस्थिति को ठीक प्रकार से समझता है। उसके लिये ऐसी परिस्थितियाँ कोई समस्या नहीं उत्पन्न करतीं। वास्तव में देखा जाय तो यह युद्ध दो व्यक्तियों के मध्य वैयत्तिक वैमनस्य के कारण नहीं हो रहा है। इस समय पाण्डव सैन्य से पृथक् अर्जुन का कोई अस्तित्व नहीं है और न ही भीष्म और द्रोण पृथक् अस्तित्व रखते हैं। वे कौरवों की सेना के ही अंग हैं। किन्हीं सिद्धान्तों के कारण ही ये दोनों सेनायें परस्पर युद्ध के लिये खड़ी हुई हैं। कौरव अधर्म की नीति को अपनाकर युद्ध के लिये तत्पर हैं तो दूसरी ओर पाण्डव हिन्दूशास्त्रों में प्रतिपादित धर्म नीति के लिये युद्धेक्षु हैं।धर्म के श्रेष्ठ पक्ष होने तथा दोनों सेनाओं द्वारा लोकमत की अभिव्यक्ति के कारण अर्जुन को व्यक्तिगत आदर या अनादर अनुभव करने का कोई अधिकार नहीं था और न ही उसे यह अधिकार था कि अधर्म के पक्षधरों में से किसी व्यक्ति विशेष को सम्मान या असम्मान देने के लिये वह आग्रह करे। इस दृष्टिकोण से सम्पूर्ण परिस्थिति को न देखकर अर्जुन स्वयं को एक प्रथक् व्यक्ति समझता है और उसी अहंकारपूर्ण दृष्टिकोण से सम्पूर्ण परिस्थिति को देखता है। अर्जुन अपने आप को द्रोण के शिष्य और भीष्म के पौत्र के रूप में देखता है जबकि गुरु द्रोण और पितामह भीष्म भी अर्जुन को देख रहे थे परन्तु उनके मन में इस प्रकार का कोई भाव नहीं आता है क्याेंकि उन्हांेने अपने व्यक्तित्व को भूलकर अपना सम्पूर्ण तादात्म्य कौरव पक्ष के साथ स्थापित कर लिया था। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अर्जुन का अहंकार ही उसकी मिथ्या धारणाओं और संभ्रम का कारण था।गीता के इस भाग पर मैंने देश के कई प्रसिद्ध व्यक्तियों के साथ विचार विमर्श किया और यह पाया कि वे अर्जुन के तर्क को उचित और न्यायपूर्ण मानते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि यह अत्यन्त सूक्ष्म विषय है जिसका निर्णय होना परम आवश्यक है। संभवत व्यास जी ने यह विचार किया हो कि भावी पीढ़ियों के दिशा निर्देश के लिये इस गुत्थी को हिन्दू तत्त्वज्ञान के द्वारा सुलझाया जाये। जितना ही अधिक होगा तादात्म्य छोटेसे मैं परिच्छिन्न अहंकार के साथ हमारी उतनी ही अधिक समस्यायॆं और संभ्रम हमारे जीवन में आयेंगे। जब यह अहं व्यापक होकर किसी सेना आदर्श राष्ट्र अथवा युग के साथ तादात्म्य स्थापित करता है तो नैतिक दुर्बलता आदि का क्षय होने लगता है। पूर्ण नैतिक जीवन केवल वही व्यक्ति जी सकता है जिसने अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को पहचान लिया है जो एकमेव अद्वितीय सर्वव्यापी एवं समस्त नाम रूपों में व्याप्त है। आगे हम देखेंगे कि भगवान् श्रीकृष्ण इस सत्य का उपदेश अर्जुन के मानसिक रोग के निवारणार्थ उपचार के रूप में करते हैं।
।।2.4।। व्याख्या--'मधुसूदन' और 'अरिसूदन'--ये दो सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप दैत्योंको और शत्रुओंको मारनेवाले हैं अर्थात् जो दुष्ट स्वभाववाले, अधर्ममय आचरण करनेवाले और दुनियाको कष्ट देनेवाले मधु-कैटभ आदि दैत्य हैं, उनको भी आपने मारा है; और जो बिना कारण द्वेष रखते हैं, अनिष्ट करते हैं ,ऐसे शत्रुओंको भी आपने मारा है। परन्तु मेरे सामने तो पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण खड़े हैं, जो आचरणोंमें सर्वथा श्रेष्ठ हैं, मेरेपर अत्यधिक स्नेह रखनेवाले हैं और प्यारपूर्वक मेरेको शिक्षा देनेवाले हैं। ऐसे मेरे परम हितैषी दादाजी और विद्यागुरुको मैं कैसे मारूँ?
।।2.4 2.6।।क्लैव्यादिभिर्निर्भर्त्सनमभिदधत् अधर्मे तव धर्माभिमानोऽयम् (N K (n) omit अयम् S omits the entire sentence) इत्यादि दर्शयति कथमित्यादि। कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च इत्यादिना भुञ्जीय भोगान् इत्यनेन च कर्मविशेषानुसन्धानं फलविशेषानुसन्धानं च हेयतया पूर्वपक्षे ( N omit पूर्वपक्षे) सूचयति। नैतद्विद्मः इत्यनेन च कर्मविशेषानुसन्धानमाह। निरनुसन्धानं (S K निरभिसन्धानं) तावत् कर्म नोपपद्यते। न च पराजयमभिसन्धाय युद्धे प्रवर्तते। जयोऽपि नश्चायमनर्थ (S k omit नः) एव। तदाह अहत्वा गुरून् भैक्षमपि चर्तुं श्रेयः। एतच्च निश्चेतुमशक्यं किं जयं कांक्षामः किं वा पराजयम् जयेऽपि बन्धूनां विनाशात्।
।।2.4।।अर्जुन उवाच पुनरपि पार्थः स्नेहकारुण्यधर्माधर्मभयाकुलो भगवदुक्तं हिततमम् अजानन् इदम् उवाच। भीष्मद्रोणादिकान् बहुमन्तव्यान् गुरून् कथम् अहं हनिष्यामि कथन्तरां भोगेष्वतिमात्रसक्तान् तान् हत्वा तैः भुज्यमानान् तान् एव भोगान् तद्रुधिरेण उपसिच्य तेषु आसनेषु उपविश्य भुञ्जीय।
।।2.4।।एवं भगवता प्रतिबोध्यमानोऽपि शोकाभिभूतचेतस्त्वादप्रतिबुध्यमानः सन्नर्जुनः स्वाभिप्रायमेव प्रकृतं भगवन्तं प्रत्युक्तवान्  कथमित्यादिना।  भीष्मं पितामहं द्रोणं चाचार्यं संख्ये रणे हे मधुसूदन इषुभिर्यत्र वाचापि योत्स्यामीति वक्तुमनुचितं तत्र कथं बाणैर्योत्स्ये इति भावः। सायकैस्तौ कथं प्रतियोत्स्यामि प्रतियोत्स्ये तौ हि पूजार्हौ कुसुमादिभिरर्चनयोग्यौ हे अरिसूदन सर्वानेवारीनयत्नेन सूदितवानिति भगवानेवं संबोध्यते।
।।2.4।।इति श्रुत्वाऽर्जुनः स्नेहकारुण्यधर्माकुलो भगवद्वाक्यं सम्यगजानन्नाह कथमिति। अरिसूदनेति शत्रुमारणे त्वयाऽपि क्वचिन्नैवं कृतमिति सम्बोधयति।
।।2.4।।ननु नायं स्वधर्मस्य त्यागः शोकमोहादिवशात् किंतु धर्मत्वाभावादधर्मत्वाच्चास्य युद्धस्य त्यागो मया क्रियत इति भगवदभिप्रायमप्रतिपद्यमानस्यार्जुनस्याभिप्रायमवतारयति भीष्मं पितामहं द्रोणं चाचार्यं संख्ये रणे इषुभिः सायकैः प्रतियोत्स्यामि प्रहरिष्यामि कथम्। न कथंचिदपीत्यर्थः। यतस्तौ पूजार्हौ कुसुमादिभिरर्चनयोग्यौ। पूजार्हाभ्यां सह क्रीडास्थानेऽपि वाचापि हर्षफलकमपि लीलायुद्धमनुचितं किं पुनर्युद्धभूमौ शरैः प्राणत्यागफलकं प्रहरणमित्यर्थः। मधुसूदनारिसूदनेति संबोधनद्वयं शोकव्याकुलत्वेन पूर्वापरपरामर्शवैकल्यात्। अतो न मधुसूदनारिसूदनेत्यस्यार्थस्य पुनरुक्तत्वं दोषः। युद्धमात्रमपि यत्र नोचितं दूरे तत्र वध इति प्रतियोत्स्यामीत्यनेन सूचितम्। अथवा पूजार्हौ कथं प्रतियोत्स्यामि। पूजार्हयोरेव विवरणं भीष्मं द्रोणं चेति। द्वौ ब्राह्मणौ भोजय देवदत्तं यज्ञदत्तं चेतिवत्संबन्धः। अयं भावः दुर्योधनादयो नापुरस्कृत्य भीष्मद्रोणौ युद्धाय सज्जीभवन्ति। तत्र ताभ्यां सह युद्धं न तावद्धर्मः पूजादिवदविहितत्वात्। नचायमनिषिद्धत्वादधर्मोऽपि न भवतीति वाच्यम्।गुरुं हुंकृत्य त्वंकृत्य इत्यादिना शब्दमात्रेणापि गुरुद्रोहो यदानिष्टफलत्वप्रदर्शनेन निषिद्धस्तदा किं वाच्यं ताभ्यां सह संग्रामस्याधर्मत्वे निषिद्धत्वे चेति।
।।2.4।।नाहं कातर्येण शुद्धादुपरतोऽस्मि किंतु युद्धस्यान्याय्यत्वादित्यर्जुन उवाच  कथमिति।  भीष्मद्रोणौ पूजायामर्हौ योग्यौ तौ प्रति कथमहं योत्स्यामि। तत्रापीषुभिः। यत्र वाचापि योत्स्यामीति वक्तुमनुचितं तत्र बाणैः कथं योत्स्यामीत्यर्थः। हे अरिसूदन शत्रुसूदन।
।।2.4।।अथ भगवदुक्तयुद्धारम्भस्य परम्परया परमनिश्श्रेयसहेतुत्वरूपहिततमत्वाज्ञानात् तत्प्रतिक्षेपरूपस्यार्जुनवाक्यस्योत्थानं तथाविधाज्ञानस्य चास्थानस्नेहाद्याकुलतामूलत्वं वदन्नुत्तरमवतारयति पुनरपीति। उक्तार्थविषयतयापुनरपीदमुवाचेत्युक्तम्।कथम् इत्यादिश्लोके चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वप्रदर्शनायआदिशब्दः उपात्तस्यानुपात्तोपलक्षणतया वा। पूजार्हशब्दविवक्षितबहुमन्तव्यत्वहेतुतयोत्तरश्लोकस्थमत्राकृष्योक्तंगुरूनिति।बहुमन्तव्यानिति महानुभावान् इत्युत्तरश्लोकस्थानुसन्धानाद्वा ते स्वत एव बहुमन्तव्याः। पितामहत्वधनुर्वेदाचार्यत्वादिभिरत्यन्तबहुमन्तव्या इति भावः। पुष्पादिभिः पूजार्हाणां पूजादिनिवृत्तिरेव साहसम् हननं त्वतिसाहसम् गुरुभक्त्या च तद्विरोधिभिः सह योद्धव्यम् न पुनर्गुरुभिरितिकथं गुरूनिषुभिः प्रतियोत्स्यामि इत्यस्य भावः।अहंशब्देन प्रख्यातवंशत्वादिकमभिप्रेतम्।इषुभिः प्रतियोत्स्यामि इत्यस्य हननपर्यन्तप्रतियुद्धाभिप्रायत्वमुत्तरश्लोकेन विवृतमितिहनिष्यामीत्युक्तम्। मधुसूदनारिसूदनशब्दाभ्यां नहि त्वमपि सान्दीपिन्यादिसूदन इति सूचितम्।चर्तुम् इत्यत्र भावमात्रार्थस्तुमुन् न तु क्रियार्थोपपदिकः। यद्यपि या काचिज्जीविकाऽऽश्रयणीया तथापि गुरुवधलब्धभोगेभ्य इह लोके परधर्मरूपभैक्षाचरणमपि श्रेयः प्रशस्यतरम्। महाप्रभावगुरुवधसाध्यपारलौकिकदुःखस्यातिमहत्त्वादिति भावः। प्रकृतविरुद्धार्थत्वभ्रमव्युदासायपूर्वश्लोकस्थकथंशब्दानुषङ्गादतिनृशंसत्वसामर्थ्यात् तुशब्दद्योतितवैषम्याच्चकथन्तराम् इत्युक्तम्।गर्हायां ल़डपिजात्वोः अष्टा.3।3।142विभाषा कथमि लिङ् च अष्टा.3।3।143 इति गर्हार्थ इह लिङ्प्रत्ययः। अत्रअर्थकामान् इत्यत्र द्वन्द्वादिभ्रान्तिनिवर्तनाय समासतदंशद्वयार्थोभोगेष्वतिमात्रप्रसक्तान् इत्युक्तः। अर्थेषु कामो येषामिति विग्रहःअवर्ज्यो हि व्यधिकरणो बहुव्रीहिर्जन्माद्युत्तरपदः। अर्थ्यन्त इत्यर्था भोगाः कामश्चातिमात्रसङ्गो वक्ष्यते। यद्वा अर्थं कामयन्त इत्यर्थकामाः ते निष्कामाश्चेत् तद्भोगहरणमपि सह्येत इदं तु क्षुधितानामोदनहरणवदिति भावः। हननादप्यतिनृशंसत्वसूचनायभोगरुधिरादिशब्दैरर्थसिद्धिः।तुशब्देन च द्योतितो विशेषस्तैरित्यादिना उक्तः।इहैव इत्यनेन विवक्षितोनृशंसत्वातिशयस्तेषु इत्यादिना दर्शितः। गुरुवधसाध्यभोगा रुधिरप्रदिग्धगुरुस्मृतिहेतुत्वात् स्वयमपि तथाविधा इव दुर्भोजा भवन्तीत्यैहलौकिकसुखमपि नास्तीति रुधिरप्रदिग्धशब्दाभिप्राय इत्याह तद्रुधिरेणोपसिच्येति। उपसेचनं हि स्वयमद्यमानं सदन्यस्यादनहेतुः इह तदुभयमपि विपरीतमिति भावः।
।।2.4।।एवमुत्तोलकभगवद्वाक्यं श्रुत्वाअहं कातर्येण युद्धान्नापक्रान्तः किन्तु धर्मबुद्ध्या इत्यर्जुनो भगवन्तं विज्ञापयामास कथमित्यादिषड्भिः। हे मधुसूदन मधुदैत्यमारणेन मथुरास्थापनेन भक्तपरिपालक अहं सङ्ख्ये सङ्ग्रामे भीष्मं द्रोणं च इषुभिः शरैः कथं प्रतियोत्स्यामि प्रतिकूलतया योत्स्यामीत्यर्थः। भीष्मस्य भक्तत्वान्मरणमनुचितं द्रोणस्यापि गुरुत्वात्तथेति द्रोणं चेत्यनेन ज्ञापितम्। भीष्मद्रोणौ च पूजार्हौ पूर्वोक्तप्रकारेण। हे अरिसूदन शत्रुमारक अनेन सम्बोधनेनैतौ भक्तद्विजौ नतु शत्रू ततः कथं मारणार्थं मां प्रवर्त्तयसीति ज्ञापितम्।
।।2.4।।ननु शत्रवो वा स्वभावदुष्टा वा तापनीयाः न तु बान्धवाः साधवश्चेत्यर्जुन उवाच  कथमिति।  मधुसूदनारिसूदनेति संबोधयन् तवापि दुष्टानपि शत्रूनेव तापयतः पूजार्हौ अदुष्टौ गुरू च भीष्मद्रोणौ जहीति वक्तुमयुक्तमिति सूचयति। समानार्थकमिदं संबोधनद्वयं वक्तुः शोकेन विक्लवत्वान्न पौनरुक्त्यदोषावहमित्यन्ये। इषुभिरिति ताभ्यां सह वाचापि योद्धुमशक्यं किमुत बाणैरिति भावः।
।।2.4।।   ननु शत्रवस्तापनीया नतु गुरव इत्याशयेनाह  कथमिति।  भीष्मं पितामहं द्रोणं च धनुर्विद्याचार्यं गुरुं संख्ये संग्रामभूमौ इषुभिः सह कथं प्रतियोत्स्यामि प्रतीपो भूत्वा कथं करिष्यामि। यतः पूजार्हो पूजायोग्यौ भीष्मद्रोणौ। पुष्पादिभिः पूजार्हयोस्तयोरिषुभिर्हननं मया कथं कर्तव्यमित्यर्थः। मधुसूदनारिसूदनेति संबोधयंस्त्वमपि दुष्टानेव तापयसीत्यतो गुरु अदुष्टौ च भीष्मद्रोणौ जहीति प्रेरयितुं नार्हसीति सूचयति। मधुसूदनारिसूदनेति संबोधनद्वयं शोकव्याकुलत्वेन पूर्वापरपरामर्शवैकल्यात्। अतो न मधुसूदनेत्यस्यार्थस्य पुनरुक्तत्वदोष इति केचित्।
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2.4 Arjuna said How, O Madhusudana, shall I fight in battle with arrows against Bhishma and Drona, who are fit to be worshipped, O destroyer of enemies?
2.4 Arjuna argued: My Lord! How can I, when the battle rages, send an arrow through Bheeshma and Drona, who should receive my reverence?
2.4 Arjuna said O Madhusudana, O destroyer of enemies, how can I fight with arrows in battle against Bhisma and Drona who are worthy of adoration?
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2.4. Arjuna said How shall I with arrows fight in battle against Bhisma and Drona, both being worthy of reverence ? O slayer of Mandhu, O slayer of foes !
2.4 See Comment under 2.6
2.4 - 2.5 Arjuna said Again Arjuna, being moved by love, compassion and fear, mistaking unrighteousness for righteousness, and not understanding, i.e., not knowing the beneficial words of Sri Krsna, said as follows: 'How can I slay Bhisma, Drona and others worthy or reverence? After slaying those elders, though they are intensely attached to enjoyments, how can I enjoy those very pleasures which are now being enjoyed by them? For, it will be mixed with their blood.
2.4 Arjuna said How can I, O slayer of foes, aim arrows in battle against Bhisma and Drona who are worthy of reverence?
।।2.4।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
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अर्जुन उवाच कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।2.4।।
অর্জুন উবাচ কথং ভীষ্মমহং সংখ্যে দ্রোণং চ মধুসূদন৷ ইষুভিঃ প্রতিযোত্স্যামি পূজার্হাবরিসূদন৷৷2.4৷৷
অর্জুন উবাচ কথং ভীষ্মমহং সংখ্যে দ্রোণং চ মধুসূদন৷ ইষুভিঃ প্রতিযোত্স্যামি পূজার্হাবরিসূদন৷৷2.4৷৷
અર્જુન ઉવાચ કથં ભીષ્મમહં સંખ્યે દ્રોણં ચ મધુસૂદન। ઇષુભિઃ પ્રતિયોત્સ્યામિ પૂજાર્હાવરિસૂદન।।2.4।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਕਥਂ ਭੀਸ਼੍ਮਮਹਂ ਸਂਖ੍ਯੇ ਦ੍ਰੋਣਂ ਚ ਮਧੁਸੂਦਨ। ਇਸ਼ੁਭਿ ਪ੍ਰਤਿਯੋਤ੍ਸ੍ਯਾਮਿ ਪੂਜਾਰ੍ਹਾਵਰਿਸੂਦਨ।।2.4।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಕಥಂ ಭೀಷ್ಮಮಹಂ ಸಂಖ್ಯೇ ದ್ರೋಣಂ ಚ ಮಧುಸೂದನ. ಇಷುಭಿಃ ಪ್ರತಿಯೋತ್ಸ್ಯಾಮಿ ಪೂಜಾರ್ಹಾವರಿಸೂದನ৷৷2.4৷৷
അര്ജുന ഉവാച കഥം ഭീഷ്മമഹം സംഖ്യേ ദ്രോണം ച മധുസൂദന. ഇഷുഭിഃ പ്രതിയോത്സ്യാമി പൂജാര്ഹാവരിസൂദന৷৷2.4৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ କଥଂ ଭୀଷ୍ମମହଂ ସଂଖ୍ଯେ ଦ୍ରୋଣଂ ଚ ମଧୁସୂଦନ| ଇଷୁଭିଃ ପ୍ରତିଯୋତ୍ସ୍ଯାମି ପୂଜାର୍ହାବରିସୂଦନ||2.4||
arjuna uvāca kathaṅ bhīṣmamahaṅ saṅkhyē drōṇaṅ ca madhusūdana. iṣubhiḥ pratiyōtsyāmi pūjārhāvarisūdana৷৷2.4৷৷
அர்ஜுந உவாச கதஂ பீஷ்மமஹஂ ஸஂக்யே த்ரோணஂ ச மதுஸூதந. இஷுபிஃ ப்ரதியோத்ஸ்யாமி பூஜார்ஹாவரிஸூதந৷৷2.4৷৷
అర్జున ఉవాచ కథం భీష్మమహం సంఖ్యే ద్రోణం చ మధుసూదన. ఇషుభిః ప్రతియోత్స్యామి పూజార్హావరిసూదన৷৷2.4৷৷
2.5
2
5
।।2.5।। महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर इस लोकमें मैं भिक्षाका अन्न खाना भी श्रेष्ठ समझता हूँ।  क्योंकि गुरुजनोंको मारकर यहाँ रक्तसे सने हुए तथा धनकी कामनाकी मुख्यतावाले भोगोंको ही तो भोगूँगा!
।।2.5।। इन महानुभाव गुरुजनों को मारने से इस लोक में भिक्षा का अन्न भी ग्रहण करना अधिक कल्याण कारक है, क्योंकि गुरुजनों को मारकर मैं इस लोक में रक्तरंजित अर्थ और काम रूप भोगों को ही भोगूँगा।।
।।2.5।। अत्यन्त उच्च प्रतीत होने वाले परन्तु वास्तव में अर्थशून्य तर्क अर्जुन पुन प्रस्तुत करता है क्योंकि स्वयं को न समझने के कारण वह अपनी समस्या को भी नहीं समझ पाया है।यहाँ उसने अपने गुरुओं अर्थात् भीष्म और द्रोण को महानुभाव कहा है जिसका अर्थ है अपने युग के आदर्श पुरुष। अपनी संस्कृति में जो कुछ उच्च और श्रेष्ठ है उसके वे प्रतीक स्वरूप हैं जिन्होंने विशाल और उदार अन्तकरण से सनातन धर्म के लिये अनेक प्रकार के त्याग किये। अपनी संस्कृति के ऐसे श्रेष्ठ आदर्श युगपुरुषों का नाश केवल व्यक्तिगत शक्ति एवं पदलिप्सा के लिये करना किसी प्रकार उचित नहीं प्रतीत होता है। केवल वह युग विशेष ही नहीं बल्कि इन महापुरुषों के अमूल्य जीवनोच्छेद होने से भावी पीढ़ियाँ भी दरिद्र हो जायेंगी।अर्जुन कहता है कि संस्कृति के उपवन के सुन्दरतम् सुमनों को विनष्ट करने का विचार त्याग कर पाण्डवों के लिये भिक्षान्न पर जीवन यापन करना अधिक उचित होगा। इन गुरुजनों को मारकर प्राप्त किये गये राज्य का उपभोग भी वह नहीं कर सकेगा क्योंकि वे सब उनकी कटु स्मृतियों और मूल्यवान रक्त से सने होंगे जिनको विस्मृत कर पाना कठिन होगा।एक बार यदि हम परिस्थिति का त्रुटिपूर्ण आकलन कर लेते हैं तो भावनाओं के कारण हमारी बुद्धि पर आवरण पड़ जाता है और तब हम भी जीवन में अर्जुन के समान व्यवहार करने लगते हैं। इसका स्पष्ट संकेत व्यास जी द्वारा इस घटना में किये गये विस्तृत वर्णन में देखने को मिलता है।
।।2.5।। व्याख्या -- [इस श्लोकसे ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें भगवान्के कहे हुए वचन अब अर्जुनके भीतर असर कर रहे हैं। इससे अर्जुनके मनमें यह विचार आ रहा है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजनोंको मारना धर्मयुक्त नहीं है--ऐसा जानते हुए भी भगवान् मुझे बिना किसी सन्देहके युद्धके लिये आज्ञा दे रहे हैं, तो कहीं-न-कहीं मेरी समझमें ही गलती है! इसलिये अर्जुन अब पूर्वश्लोककी तरह उत्तेजित होकर नहीं बोलते, प्रत्युत कुछ ढिलाईसे बोलते हैं।]  'गुरुनहत्वा ৷৷. भैक्ष्यमपीह लोके'-- अब अर्जुन पहले अपने पक्षको सामने रखते हुए कहते हैं कि अगर मैं भीष्म, द्रोण आदि पूज्यजनोंके साथ युद्ध नहीं करूँगा, तो दुर्योधन भी अकेला मेरे साथ युद्ध नहीं करेगा। इस तरह युद्ध न होनेसे मेरेको राज्य नहीं मिलेगा, जिससे मेरेको दुःख पाना पड़ेगा। मेरा जीवननिर्वाह भी कठिनतासे होगा। यहाँतक कि क्षत्रियके लिये निषिद्ध जो भिक्षावृत्ति है, उसको ही जीवन-निर्वाहके लिये ग्रहण करना पड़ सकता है। परन्तु गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा मैं उस कष्टदायक भिक्षा-वृत्तिको भी ग्रहण करना श्रेष्ठ मानता हूँ।  'इह लोके'  कहनेका तात्पर्य है कि यद्यपि भिक्षा माँगकर खानेसे इस संसारमें मेरा अपमान-तिरस्कार होगा, लोग मेरी निन्दा करेंगे, तथापि गुरुजनोंको मारनेकी अपेक्षा भिक्षा माँगना श्रेष्ठ है।  'अपि' कहनेका तात्पर्य है कि मेरे लिये गुरुजनोंको मारना भी निषिद्ध है; और भिक्षा माँगना भी निषिद्ध है परन्तु इन दोनोंमें भी गुरुजनोंको मारना मुझे अधिक निषिद्ध दीखता है।  'हत्वार्थकामांस्तु ৷৷. रुधिरप्रदिग्धान्'-- अब अर्जुन भगवान्के वचनोंकी तरफ दृष्टि करते हुए कहते हैं कि अगर मैं आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध करूँ, तो युद्धमें गुरुजनोंकी हत्याके परिणाममें मैं उनके खूनसे सने हुए और जिनमें धन आदिकी कामना ही मुख्य है, ऐसे भोगोंको ही तो भोगूँगा। मेरेको भोग ही तो मिलेंगे। उन भोगोंके मिलनेसे मुक्ति थोड़े ही होगी! शान्ति थोड़े ही मिलेगी! यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि भीष्म, द्रोण आदि गुरुजन धनके द्वारा ही कौरवोंसे बँधे थे; अतः यहाँ  अर्थकामान्'  पदको  'गुरुन्' पदका विशेषण मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है? इसका उत्तर यह है कि 'अर्थकी कामनावाले गुरुजन'--ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है। कारण कि पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण आदि गुरुजन धनकी कामनावाले नहीं थे। वे तो दुर्योधनके वृत्तिभोगी थे उन्होंने दुर्योधनका अन्न खाया था। अतः युद्धके समय दुर्योधनका साथ छो़ड़ना कर्तव्य न समझकर ही वे कौरवोंके पक्षमें खड़े हुए थे। दूसरी बात अर्जुनने भीष्म द्रोण आदिके लिये  'महानुभावान' पदका प्रयोग किया है। अतः ऐसे श्रेष्ठ भाववालोंको अर्थकी कामनावाले कैसे कहा जा सकता है तात्पर्य है कि जो महानुभाव हैं, वे अर्थकी कामनावाले नहीं हो सकते; और जो अर्थकी कामनावाले हैं वे महानुभाव नहीं हो सकते। अतः यहाँ 'अर्थकामान्' पद  'भोगान्' पदका ही विशेषण हो सकता है।  विशेष बात  भगवान्ने दूसरे-तीसरे श्लोकोंमें अर्जुनके कल्याणकी दृष्टिसे ही उन्हें कायरताको छोड़कर युद्धके लिये खड़ा होनेकी आज्ञा दी थी। परन्तु अर्जुन उलटा ही समझे अर्थात् वे समझे कि भगवान् राज्यका भोग करनेकी दृष्टिसे ही युद्धकी आज्ञा देते हैं। (टिप्पणी प0 42) पहले तो अर्जुनका युद्ध न करनेका एक ही पक्ष था, जिससे वे धनुषबाण छोड़कर और शोकाविष्ट होकर रथके मध्यभागमें बैठ गये थे (1। 47)। परंतु युद्ध करनेका पक्ष तो भगवान्के कहनेसे ही हुआ है। तात्पर्य है कि अर्जुनका भाव था कि हमलोग तो धर्मको जानते हैं, पर दुर्योधन आदि धर्मको नहीं जानते, इसलिये वे धन, राज्य आदिके लोभसे युद्ध करनेके लिये तैयार खड़े हैं। अब वही बात अर्जुन यहाँ अपने लिये कहते हैं कि अगर मैं भी आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध करूँ, तो परिणाममें गुरुजनोंके रक्तसे सने हुए धन, राज्य आदिको ही तो प्राप्त करूँगा! इस तरह अर्जुनको युद्ध करनेमें बुराई-ही-बुराई दिखायी दे रही है। जो बुराई बुराईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा सुगम होता है। परन्तु जो बुराई अच्छाईके रूपमें आती है, उसको मिटाना बड़ा कठिन होता है; जैसे--सीताजीके सामने रावण और हनुमान्जीके सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान्जी पहचान नहीं सके; क्योंकि उन दोनोंका वेश साधुओंका था। अर्जुनकी मान्यतामें युद्धरूप कर्तव्य-कर्म करना बुराई है और युद्ध न करना भलाई है अर्थात् अर्जुनके मनमें धर्म (हिंसा-त्याग-) रूप भलाईके वेशमें कर्तव्य-त्यागरूप बुराई आयी है। उनको कर्तव्यत्यागरूप बुराई बुराईके रूपमें नहीं दीख रही है; क्योंकि उनके भीतर शरीरोंको लेकर मोह है। अतः इस बुराईको मिटानेमें भगवान्को भी बड़ा जोर पड़ रहा है और समय लग रहा है। आजकल समाजमें एकताके बहाने वर्ण-आश्रमकी मर्यादाको मिटानेकी कोशिश की जा रही है, तो यह बुराई एकतारूप अच्छाईके वेशमें आनेसे बुराईरूपसे नहीं दीख रही है। अतः वर्ण-आश्रमकी मर्यादा मिटनेसे परिणाममें लोगोंका कितना पतन होगा, लोगोंमें कितना आसुरभाव आयेगा--इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती। ऐसे ही धनके बहाने लोग झूठ, कपट, बेईमानी, ठगी, विश्वासघात आदि-आदि दोषोंको भी दोषरूपसे नहीं जानते। यहाँ अर्जुनमें धर्मके रूपमें बुराई आयी है कि हम भीष्म, द्रोण आदि महानुभावोंको कैसे मार सकते हैं? क्योंकि हम धर्मको जाननेवाले हैं। तात्पर्य है कि अर्जुनने जिसको अच्छाई माना है, वह वास्तवमें बुराई ही है; परन्तु उसमें मान्यता अच्छाईकी होनेसे वह बुराईरूपसे नहीं दीख रही है।  सम्बन्ध-- भगवान्के वचनोंमें ऐसी विलक्षणता है कि वे अर्जुनके भीतर अपना प्रभाव डालते जा रहे हैं जिससे अर्जुनको अपने युद्ध न करनेके निर्णयमें अधिक सन्देह होता जा रहा है। ऐसी अवस्थाको प्राप्त हुए अर्जुन कहते हैं--
।।2.4 2.6।।क्लैव्यादिभिर्निर्भर्त्सनमभिदधत् अधर्मे तव धर्माभिमानोऽयम् (N K (n) omit अयम् S omits the entire sentence) इत्यादि दर्शयति कथमित्यादि। कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च इत्यादिना भुञ्जीय भोगान् इत्यनेन च कर्मविशेषानुसन्धानं फलविशेषानुसन्धानं च हेयतया पूर्वपक्षे ( N omit पूर्वपक्षे) सूचयति। नैतद्विद्मः इत्यनेन च कर्मविशेषानुसन्धानमाह। निरनुसन्धानं (S K निरभिसन्धानं) तावत् कर्म नोपपद्यते। न च पराजयमभिसन्धाय युद्धे प्रवर्तते। जयोऽपि नश्चायमनर्थ (S k omit नः) एव। तदाह अहत्वा गुरून् भैक्षमपि चर्तुं श्रेयः। एतच्च निश्चेतुमशक्यं किं जयं कांक्षामः किं वा पराजयम् जयेऽपि बन्धूनां विनाशात्।
।।2.5।।अर्जुन उवाच पुनरपि पार्थः स्नेहकारुण्यधर्माधर्मभयाकुलो भगवदुक्तं हिततमम् अजानन् इदम् उवाच। भीष्मद्रोणादिकान् बहुमन्तव्यान् गुरून् कथम् अहं हनिष्यामि कथन्तरां भोगेष्वतिमात्रसक्तान् तान् हत्वा तैः भुज्यमानान् तान् एव भोगान् तद्रुधिरेण उपसिच्य तेषु आसनेषु उपविश्य भुञ्जीय।
।।2.5।।राज्ञां धर्मेऽपि युद्धे गुर्वादिवधे वृत्तिमात्रफलत्वं गृहीत्वा पापमारोप्य ब्रूते  गुरूनिति।  गुरून्भीष्मद्रोणादीन्भ्रात्रादींश्चात्र प्राप्तानहिंसित्वा महानुभावान्महामाहात्म्याञ्श्रुताध्ययनसंपन्नान् श्रेयः प्रशस्यतरं युक्तं भोक्तुमभ्यवहर्तुं भैक्षं भिक्षाणां समूहः भिक्षाशनं नृपादीनां निषिद्धमपीह लोके व्यवहारभूमौ। नहि गुर्वादिहिंसया राज्यभोगोऽपेक्ष्यते। किञ्च हत्वा गुर्वादीनर्थकामानेव भुञ्जीय न मोक्षमनुभवेयमिहैव भोगो न स्वर्गे। अर्थकामानेव विशिनष्टि  भोगानिति।  भुज्यन्त इति भोगास्तान्रुधिरप्रदिग्धांल्लोहितलिप्तानिवात्यन्तगर्हितान् अतोभोगान्गुरुवधादिसाध्यान्परित्यज्य भिक्षाशनमेव युक्तमित्यर्थः।
।।2.5।।अतो गुर्वादिहननं लोकवेदविरुद्धमित्याह गुरूनिति। महानुभावान्गुरूनहत्वा भैक्ष्यं भिक्षालब्धमन्नं भोक्तुं सन्न्यासिनेव लोके श्रेष्ठम्। तान् रुधिरप्रदिग्धान्भोगानहं भुञ्जीयेति हि काकुः। नैतद्युक्तमिति भावः।
।।2.5।।ननु भीष्मद्रोणयोः पूजार्हत्वं गुरुत्वेनैव एवमन्येषामपि कृपादीनां। नच तेषां गुरुत्वेन स्वीकारः सांप्रतमुचितःगुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः। उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते।। इति स्मृतेः। तस्मादेषां युद्धगर्वेणावलिप्तानामन्यायराज्यग्रहणेन शिष्यद्रोहेण च कार्याकार्यविवेकशून्यानामुत्पथनिष्ठानां वधएव श्रेयानित्याशङ्क्याह गुरूनहत्वा परलोकस्तावदस्त्येव अस्मिंस्तु लोके तैर्हृतराज्यानां नो नृपादीनां निषिद्धं भैक्षमपि भोक्तुं श्रेयः प्रशस्यतरमुचितं नतु तद्वधेन राज्यमपि श्रेय इति धर्मेऽपि युद्धे वृत्तिमात्रफलत्वं गृहीत्वा पापमारोप्य ब्रूते नत्ववलिप्तत्वादिना तेषां गुरुत्वाभाव उक्त इत्याशङ्क्याह महानुभावानिति। महाननुभावः श्रुताध्ययनतपआचारादिनिबन्धनः प्रभावो येषां तान्। तथाच कालकामादयोऽपि यैर्वशीकृतास्तेषां पुण्यातिशयशालिनां नावलिप्तत्वादिक्षुद्रपाप्मसंश्लेष इत्यर्थः। हिमहानुभावानित्येकं वा पदम्। हिमं जाड्यमप्नहन्तीति हिमहा आदित्योऽग्निर्वा तस्येवानुभावः सामर्थ्यं येषां तान्। तथाचातितेजस्वित्वात्तेषामवलिप्तत्वादिदोषो नास्त्येवधर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्। तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा।। इत्युक्तेः। ननु यदार्थलुब्धाः सन्तो युद्धे प्रवृत्तास्तदैषां विक्रीतात्मनां कुतस्त्यं पूर्वोक्तं माहात्म्यम्। तथाचोक्तं भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रतिअर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।। इत्याशड्क्याह हत्वेति। अर्थलुब्धा अपि ते मदपेक्षया गुरवो भवन्त्येवेति पुनर्गुरुग्रहणेनोक्तम्। तुशब्दोऽप्यर्थे। ईदृशानपि गुरून्हत्वा भोगानेव भुञ्जीय नतु मोक्षं लभेय। भुज्यन्त इति भोगा विषयाः। कर्मणि घञ्। ते च भोगा इहैव न परलोके। इहापि च रुधिरप्रदिग्धा इव अपयशोव्याप्तत्वेनात्यन्तजुगुप्सिता इत्यर्थः। यदेहाप्येवं तदा परलोकदुःखं कियद्वर्णनीयमिति भावः। अथवा गुरून्हत्वार्थकामात्मकान्भोगानेव भुञ्जीय नतु धर्ममोक्षावित्यर्थकामपदस्य भोगविशेषणतया व्याख्यानान्तरं द्रष्टव्यम्।
।।2.5।।तर्हि तव देहयात्रापि न स्यादिति चेत्तत्राह  गुरूनिति।  गुरून्द्रोणादीनहत्वा परलोकविरुद्धो गुरुवधस्तमकृत्वा इह लोके भिक्षान्नमपि भोक्तुं श्रेयः उचितम्। विपक्षे तु न केवलं परत्र दुःखं इहैव तु नरकदुःखमनुभवेयमित्याह  हत्वेति।  गुरून्हत्वा इहैव तु रुधिरेण प्रदिग्धान्प्रकर्षेण लिप्तानर्थकामात्मकान्भोगानहं भुञ्जीय अश्नीयाम्। यद्वा अर्थकामानिति गुरूणां विशेषणम्। अर्थतृष्णाकुलत्वादेते तावद्युद्धान्न निवर्तेरन्। तस्मादेतद्वधः प्रसज्येतैवेत्यर्थः। तथाच युधिष्ठिरं प्रति भीष्मेणोक्तम्अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।। इति।
।। 2.5अथ भगवदुक्तयुद्धारम्भस्य परम्परया परमनिश्श्रेयसहेतुत्वरूपहिततमत्वाज्ञानात् तत्प्रतिक्षेपरूपस्यार्जुनवाक्यस्योत्थानं तथाविधाज्ञानस्य चास्थानस्नेहाद्याकुलतामूलत्वं वदन्नुत्तरमवतारयति पुनरपीति। उक्तार्थविषयतयापुनरपीदमुवाचेत्युक्तम्।कथम् इत्यादिश्लोके चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वप्रदर्शनायआदिशब्दः उपात्तस्यानुपात्तोपलक्षणतया वा। पूजार्हशब्दविवक्षितबहुमन्तव्यत्वहेतुतयोत्तरश्लोकस्थमत्राकृष्योक्तंगुरूनिति।बहुमन्तव्यानिति महानुभावान् इत्युत्तरश्लोकस्थानुसन्धानाद्वा ते स्वत एव बहुमन्तव्याः। पितामहत्वधनुर्वेदाचार्यत्वादिभिरत्यन्तबहुमन्तव्या इति भावः। पुष्पादिभिः पूजार्हाणां पूजादिनिवृत्तिरेव साहसम् हननं त्वतिसाहसम् गुरुभक्त्या च तद्विरोधिभिः सह योद्धव्यम् न पुनर्गुरुभिरितिकथं गुरूनिषुभिः प्रतियोत्स्यामि इत्यस्य भावः।अहंशब्देन प्रख्यातवंशत्वादिकमभिप्रेतम्।इषुभिः प्रतियोत्स्यामि इत्यस्य हननपर्यन्तप्रतियुद्धाभिप्रायत्वमुत्तरश्लोकेन विवृतमितिहनिष्यामीत्युक्तम्। मधुसूदनारिसूदनशब्दाभ्यां नहि त्वमपि सान्दीपिन्यादिसूदन इति सूचितम्।चर्तुम् इत्यत्र भावमात्रार्थस्तुमुन् न तु क्रियार्थोपपदिकः। यद्यपि या काचिज्जीविकाऽऽश्रयणीया तथापि गुरुवधलब्धभोगेभ्य इह लोके परधर्मरूपभैक्षाचरणमपि श्रेयः प्रशस्यतरम्। महाप्रभावगुरुवधसाध्यपारलौकिकदुःखस्यातिमहत्त्वादिति भावः। प्रकृतविरुद्धार्थत्वभ्रमव्युदासायपूर्वश्लोकस्थकथंशब्दानुषङ्गादतिनृशंसत्वसामर्थ्यात् तुशब्दद्योतितवैषम्याच्चकथन्तराम् इत्युक्तम्।गर्हायां ल़डपिजात्वोः अष्टा.3।3।142विभाषा कथमि लिङ् च अष्टा.3।3।143 इति गर्हार्थ इह लिङ्प्रत्ययः। अत्रअर्थकामान् इत्यत्र द्वन्द्वादिभ्रान्तिनिवर्तनाय समासतदंशद्वयार्थोभोगेष्वतिमात्रप्रसक्तान् इत्युक्तः। अर्थेषु कामो येषामिति विग्रहःअवर्ज्यो हि व्यधिकरणो बहुव्रीहिर्जन्माद्युत्तरपदः। अर्थ्यन्त इत्यर्था भोगाः कामश्चातिमात्रसङ्गो वक्ष्यते। यद्वा अर्थं कामयन्त इत्यर्थकामाः ते निष्कामाश्चेत् तद्भोगहरणमपि सह्येत इदं तु क्षुधितानामोदनहरणवदिति भावः। हननादप्यतिनृशंसत्वसूचनायभोगरुधिरादिशब्दैरर्थसिद्धिः।तुशब्देन च द्योतितो विशेषस्तैरित्यादिना उक्तः।इहैव इत्यनेन विवक्षितोनृशंसत्वातिशयस्तेषु इत्यादिना दर्शितः। गुरुवधसाध्यभोगा रुधिरप्रदिग्धगुरुस्मृतिहेतुत्वात् स्वयमपि तथाविधा इव दुर्भोजा भवन्तीत्यैहलौकिकसुखमपि नास्तीति रुधिरप्रदिग्धशब्दाभिप्राय इत्याह तद्रुधिरेणोपसिच्येति। उपसेचनं हि स्वयमद्यमानं सदन्यस्यादनहेतुः इह तदुभयमपि विपरीतमिति भावः।
।।2.5।।गुरूणां मारणा द्रि৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷ क्षाटनं श्रेयः न तु तन्मारणेन राज्यभोग इत्याह गुरूनिति। गुरून्भीष्मद्रोणादीन् अहत्वा इह लोके भैक्षं भिक्षान्नमपि भोक्तुं श्रेयः श्रेयोरूपमित्यर्थः। यतस्ते महानुभावाः महतो भगवतोऽनुभावका इत्यर्थः। इह लोके तथा भोगेन परलोके सुखं स्यादितीह लोकपदेन ज्ञापितम्। एतेषां मारणेन तु परलोक एव दुःखं भविष्यतीति न किन्त्विह लोक एव नरकादिसमं दुःखं भविष्यतीत्याह हत्वेति। अर्थकामान् अर्थात्मकान् गुरून् हत्वा तु इहैव रुधिरप्रदिग्धान् रुधिरावलिप्तान् भोगान् भुञ्जीय अश्नीयाम्।
।।2.5।।ननु युद्धोद्यतानां गुरूणामपि वधः श्रेयानित्याशङ्क्याह  गुरूनिति।  यद्यपि त्वदुक्तं प्रशस्तमेव तथापि महानुभावान् गुरूनहत्वा भैक्षमेव भोक्तुं श्रेयः प्रशस्ततरम्। एवं तर्हि गुरूंस्त्यक्त्वा दुर्योधनादीनेव दुष्टान् जहीत्याशङ्क्याह  अर्थकामानिति।  धनार्थिनो गुरवोऽवश्यं दुर्योधनसाहाय्यं करिष्यन्ति तेन तद्वधोऽपि प्रसक्त एवेत्यर्थः। तुशब्दः पक्षान्तरोपन्यासार्थः। इहैव न तु परलोके। भुञ्जीयेति संप्रश्ने लिङ्। गुरूनहत्वा भैक्षं श्रेयः उत हत्वा भोगसंपादनं श्रेय इति संप्रश्ने स्वयमेवान्त्यपक्षे दूषणमाह  रुधिरप्रदिग्धानिति।
।।2.5।।एवं तर्हि राज्यालाभेन भोगाभावे भिक्षाटनं कर्तव्यं भविष्यतीत्याशङ्कामिष्टापत्त्या परिहरति  गुरुनिति।  गुरुन्भीष्मद्रोणादीन्महानुभावानहत्वाहिंसित्वा इहास्िमँल्लोके भैक्षमपि भिक्षया लब्धमन्नं क्षत्रियस्य निषिद्धमपि भोक्तुमशितुं श्रेयः प्रशस्यम्। गुरुहिंसावर्जनार्थस्य भिक्षाशनस्य प्रत्यवायाजनकत्वात्। गुर्वहननेन नरकाभावं महानतिप्रसिद्धोऽनुभावः प्रभावो येषामिति विशेषणेनापकीर्त्यभावं च गुणमुक्त्वा हनने दोषमाह  हत्वेति।  महानुभावानित्यस्यात्रापि संबन्धः। गुरुन्महानुभावान्हत्वा भोगानर्थकामानिहैव भुञ्जीय नतु परलोके इहापि रुधिरप्रदिग्धान्। अपकीर्तिव्याप्तत्वेनात्यन्तजुगुप्सितानित्यर्थः। अर्थकामानिति गुरुविशेषणम्। तथाचार्थतृष्णाकुलत्वेनैते तावद्युद्धान्न निवर्तेरन् तस्मादेतद्वधः प्रसज्येतैवेत्यर्थः। तथाचोक्तं भीष्मेणअर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।। इत्यपरे। केचित्तु ननुगुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः। उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधायते।। इति स्मृतेस्तेषां युद्धगर्वेणावलिप्तानामन्यायराज्यग्रहणेन शिष्यद्रोहेण च कार्याकार्यविवेकशून्यानामुत्पथनिष्ठानां च वधएव श्रेयानित्याशङ्क्याह  गुरुनिति।  महान् श्रुताध्ययनादिनिबन्धनः प्रभावो येषां तान्। तथाच कालकामादयोऽपि यैर्वशीकृतास्तेषां पुण्यातिशायिनां नावलिप्तत्वादिक्षुद्रपाप्मसंश्लेष इत्यर्थः। हिमहानुभावानित्येकं वा पदम्। हिमं जाड्यमपहन्तीति हिमहा आदित्योऽग्निर्वा तस्येवानुभावः सामर्थ्यं येषां तान्। तथाचातितेजस्वित्वात्तेषामवलिप्तत्वादिदोषो नास्त्येवधर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्। तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा।। इत्युक्तेरिति वर्णयन्ति तत्रैतदीयोत्थापनोक्तस्मृतौ अवलिप्तत्वादिदोषप्रयुक्तत्यागविधानेन वधानुत्त्या तच्छ्रेयस्त्वस्य दूरापास्तत्वमस्ति नवेति विद्वद्भिर्विचार्यम्। किंच यत्तु ननु पदार्थलुब्धाः सन्तो युद्धे प्रवृत्तास्तदैषां विक्रीतात्मनां कुतस्त्यं पूर्वोक्तं माहात्म्यम्। तथाचोक्तं भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रतिअर्थस्य पुरुषो दासः इत्यादीत्याशङ्क्याहहत्वेतीत्युत्तरार्धं तैरवतारितं तत्राप्येतन्मूलकावलिप्तत्वादिदोषाणां तैरेव तदीयातिप्रसिद्धमहानुभावत्वातितेजस्वित्ववर्णनेन समाहितत्वात्पुनरीदृक्शङ्काया उत्थानमस्ति नवेति विचारणीयम्।
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2.5 Better it is, indeed, in this world to accept alms than to slay the most noble teachers. But if I kill them, even in this world all my enjoyments of wealth and fulfilled desires will be stained with (their) blood.
2.5 Rather would I content myself with a beggar's crust that kill these teachers of mine, these precious noble souls! To slay these masters who are my benefactors would be to stain the sweetness of life's pleasures with their blood.
2.5 Rather than killing the noble-minded elders, it is better in this world to live even on alms. But by killing the elders we shall only be enjoying here the pleasures of wealth and desireable things drenched in blood.
null
2.5. It is good indeed even to go about begging in this world without killing the elders of great dignity; but with greed for wealth, I would not enjoy, by killing my elders, the blood-stained objects of pleasures.
2.5 See Comment under 2.6
2.4 - 2.5 Arjuna said Again Arjuna, being moved by love, compassion and fear, mistaking unrighteousness for righteousness, and not understanding, i.e., not knowing the beneficial words of Sri Krsna, said as follows: 'How can I slay Bhisma, Drona and others worthy or reverence? After slaying those elders, though they are intensely attached to enjoyments, how can I enjoy those very pleasures which are now being enjoyed by them? For, it will be mixed with their blood.
2.5 It is better even to live on a beggar's fare in this world than to slay these most venerable teachers. If I should slay my teachers, though degraded they be by desire for wealth, I would be enjoying only blood-stained pleasures here.
।।2.5।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
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गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके। हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।2.5।।
গুরূনহত্বা হি মহানুভাবান্ শ্রেযো ভোক্তুং ভৈক্ষ্যমপীহ লোকে৷ হত্বার্থকামাংস্তু গুরূনিহৈব ভুঞ্জীয ভোগান্ রুধিরপ্রদিগ্ধান্৷৷2.5৷৷
গুরূনহত্বা হি মহানুভাবান্ শ্রেযো ভোক্তুং ভৈক্ষ্যমপীহ লোকে৷ হত্বার্থকামাংস্তু গুরূনিহৈব ভুঞ্জীয ভোগান্ রুধিরপ্রদিগ্ধান্৷৷2.5৷৷
ગુરૂનહત્વા હિ મહાનુભાવાન્ શ્રેયો ભોક્તું ભૈક્ષ્યમપીહ લોકે। હત્વાર્થકામાંસ્તુ ગુરૂનિહૈવ ભુઞ્જીય ભોગાન્ રુધિરપ્રદિગ્ધાન્।।2.5।।
ਗੁਰੂਨਹਤ੍ਵਾ ਹਿ ਮਹਾਨੁਭਾਵਾਨ੍ ਸ਼੍ਰੇਯੋ ਭੋਕ੍ਤੁਂ ਭੈਕ੍ਸ਼੍ਯਮਪੀਹ ਲੋਕੇ। ਹਤ੍ਵਾਰ੍ਥਕਾਮਾਂਸ੍ਤੁ ਗੁਰੂਨਿਹੈਵ ਭੁਞ੍ਜੀਯ ਭੋਗਾਨ੍ ਰੁਧਿਰਪ੍ਰਦਿਗ੍ਧਾਨ੍।।2.5।।
ಗುರೂನಹತ್ವಾ ಹಿ ಮಹಾನುಭಾವಾನ್ ಶ್ರೇಯೋ ಭೋಕ್ತುಂ ಭೈಕ್ಷ್ಯಮಪೀಹ ಲೋಕೇ. ಹತ್ವಾರ್ಥಕಾಮಾಂಸ್ತು ಗುರೂನಿಹೈವ ಭುಞ್ಜೀಯ ಭೋಗಾನ್ ರುಧಿರಪ್ರದಿಗ್ಧಾನ್৷৷2.5৷৷
ഗുരൂനഹത്വാ ഹി മഹാനുഭാവാന് ശ്രേയോ ഭോക്തും ഭൈക്ഷ്യമപീഹ ലോകേ. ഹത്വാര്ഥകാമാംസ്തു ഗുരൂനിഹൈവ ഭുഞ്ജീയ ഭോഗാന് രുധിരപ്രദിഗ്ധാന്৷৷2.5৷৷
ଗୁରୂନହତ୍ବା ହି ମହାନୁଭାବାନ୍ ଶ୍ରେଯୋ ଭୋକ୍ତୁଂ ଭୈକ୍ଷ୍ଯମପୀହ ଲୋକେ| ହତ୍ବାର୍ଥକାମାଂସ୍ତୁ ଗୁରୂନିହୈବ ଭୁଞ୍ଜୀଯ ଭୋଗାନ୍ ରୁଧିରପ୍ରଦିଗ୍ଧାନ୍||2.5||
gurūnahatvā hi mahānubhāvān śrēyō bhōktuṅ bhaikṣyamapīha lōkē. hatvārthakāmāṅstu gurūnihaiva bhuñjīya bhōgān rudhirapradigdhān৷৷2.5৷৷
குரூநஹத்வா ஹி மஹாநுபாவாந் ஷ்ரேயோ போக்துஂ பைக்ஷ்யமபீஹ லோகே. ஹத்வார்தகாமாஂஸ்து குரூநிஹைவ புஞ்ஜீய போகாந் ருதிரப்ரதிக்தாந்৷৷2.5৷৷
గురూనహత్వా హి మహానుభావాన్ శ్రేయో భోక్తుం భైక్ష్యమపీహ లోకే. హత్వార్థకామాంస్తు గురూనిహైవ భుఞ్జీయ భోగాన్ రుధిరప్రదిగ్ధాన్৷৷2.5৷৷
2.6
2
6
।।2.6।। हम यह भी नहीं जानते कि हमलोगोंके लिये युद्ध करना और न करना - इन दोनोंमेंसे कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है; और हमें इसका भी पता नहीं है कि हम उन्हें जीतेंगे अथवा वे हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं।
।।2.6।। हम नहीं जानते कि हमें क्या करना उचित है। हम यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे, या वे हमको जीतेंगे, जिनको मारकर हम जीवित नहीं रहना चाहते वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र हमारे सामने युद्ध के लिए खड़े हैं।।
।।2.6।। इसके पूर्व के दो श्लोक निसन्देह अर्जुन के मन की व्याकुलता और भ्रमित स्थिति का संकेत करते हैं। इस श्लोक में बताया जा रहा है कि अर्जुन के मन के संभ्रम का प्रभाव उसकी विवेक बुद्धि पर भी पड़ा है। शत्रुओं की सेना को देखकर उसके मन में एक समस्या उत्पन्न हुई जिसके समाधान के लिये उसे बौद्धिक विवेक शक्ति के मार्गदर्शन की आवश्यकता थी परन्तु अहंकार और युद्ध के परिणाम के सम्बन्ध में अत्यधिक चिन्तातुर होने के कारण उसका मन बुद्धि से वियुक्त हो चुका था। इस कारण ही अर्जुन के मन और बुद्धि के बीच एक गहरी खाई उत्पन्न हो गयी थी।किसी कार्यालय के कुशल लिपिक की भांति हमारा मन ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा भिन्नभिन्न विषयों को ग्रहण कर उनको एक व्यवस्थित रूप में बुद्धि के समक्ष निर्णय के लिये प्रस्तुत करता है। बुद्धि अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर निर्णय देती है जिसे मन कमेन्द्रियों के द्वारा बाह्य जगत में व्यक्त करता है। हमारी जाग्रत अवस्था के प्रत्येक क्षण यह समस्त कार्यकलाप होता रहता है।जहाँ पर इन उपाधियों का कार्य सुचारु रूप से एक संगठित दल अथवा व्यक्तियों की भाँति नहीं होता वहाँ वह व्यक्ति अन्दर से अस्तव्यस्त हो जाता है और जीवन में आने वाली परिस्थितियों का सफलतापूर्वक सामना करने में सक्षम नहीं हो पाता। जब ज्ञान के द्वारा पुन मन और बुद्धि में संयोजन आ जाता है तब वही व्यक्ति कुशलतापूर्वक अपना कार्य करने में समर्थ हो जाता है।अर्जुन की निर्णयात्मिका शक्ति पर बाह्य परिस्थितियों का प्रभाव नहीं था बल्कि अपनी मानसिक विह्वलता के कारण वह अपने आप को कोई निर्णय देने में असमर्थ पा रहा था। वह यह नहीं निश्चय कर पा रहा था कि युद्ध में उसे विजयी होना चाहिये अथवा कौरवों को जिताना चाहिये। व्यास जी यहाँ दर्शाते हैं कि इस मोह का प्रभाव न केवल अर्जुन के मन पर बल्कि उसकी बुद्धि पर भी पड़ा था।
2.6।। व्याख्या-- 'न चैतद्विह्मः कतरन्नो गरीयः'-- मैं युद्ध करूँ अथवा न करूँ--इन दोनों बातोंका निर्णय मैं नहीं कर पा रहा हूँ। कारण कि आपकी दृष्टिमें तो युद्ध करना ही श्रेष्ठ है, पर मेरी दृष्टिमें गुरुजनोंको मारना पाप होनेके कारण युद्ध न करना ही श्रेष्ठ है। इन दोनों पक्षोंको सामने रखनेपर मेरे लिये कौन-सा पक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ है--यह मैं नहीं जान पा रहा हूँ। इस प्रकार उपर्युक्त पदोंमें अर्जुनके भीतर भगवान्का पक्ष और अपना पक्ष दोनों समकक्ष हो गये हैं।  'यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः'-- अगर आपकी आज्ञाके अनुसार युद्ध भी किया जाय, तो हम उनको जीतेंगे अथवा वे (दुर्योधनादि) हमारेको जीतेंगे--इसका भी हमें पता नहीं है। यहाँ अर्जुनको अपने बलपर अविश्वास नहीं है, प्रत्युत भविष्यपर अविश्वास है; क्योंकि भविष्यमें क्या होनहार है--इसका किसीको क्या पता?  'यानेव हत्वा न जिजीविषामः'-- हम तो कुटुम्बियोंको मारकर जीनेकी भी इच्छा नहीं रखते; भोग भोगनेकी, राज्य प्राप्त करके हुक्म चलानेकी बात तो बहुत दूर रही !कारण कि अगर हमारे कुटुम्बी मारे जायँगे, तो हम जीकर क्या करेंगे अपने हाथोंसे कुटुम्बको नष्ट करके बैठेबैठे चिन्ता-शोक ही तो करेंगे! चिन्ता-शोक करने और वियोगका दुःख भोगनेके लिये हम जीना नहीं चाहते।  'तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः'-- हम जिनको मारकर जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं। धृतराष्ट्रके सभी सम्बन्धी हमारे कुटुम्बी ही तो हैं। उन कुटुम्बियोंको मारकर हमारे जीनेको धिक्कार है! सम्बन्ध -- अपने कर्तव्यका निर्णय करनेमें अपनेको असमर्थ पाकर अब अर्जुन व्याकुलतापूर्वक भगवान्से प्रार्थना करते हैं।
।।2.4 2.6।।क्लैव्यादिभिर्निर्भर्त्सनमभिदधत् अधर्मे तव धर्माभिमानोऽयम् (N K (n) omit अयम् S omits the entire sentence) इत्यादि दर्शयति कथमित्यादि। कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च इत्यादिना भुञ्जीय भोगान् इत्यनेन च कर्मविशेषानुसन्धानं फलविशेषानुसन्धानं च हेयतया पूर्वपक्षे ( N omit पूर्वपक्षे) सूचयति। नैतद्विद्मः इत्यनेन च कर्मविशेषानुसन्धानमाह। निरनुसन्धानं (S K निरभिसन्धानं) तावत् कर्म नोपपद्यते। न च पराजयमभिसन्धाय युद्धे प्रवर्तते। जयोऽपि नश्चायमनर्थ (S k omit नः) एव। तदाह अहत्वा गुरून् भैक्षमपि चर्तुं श्रेयः। एतच्च निश्चेतुमशक्यं किं जयं कांक्षामः किं वा पराजयम् जयेऽपि बन्धूनां विनाशात्।
।।2.6।।एवं युद्धम् आरभ्य निवृत्तव्यापारान् भवतो धार्तराष्ट्राः प्रसह्य हन्युः इति चेत् अस्तु तद्वधलब्धविजयात् अधर्म्याद् अस्माकं धर्माधर्मौ अजानद्भिः तैः हननम् एव गरीयः इति मे प्रतिभाति इति उक्त्वा यत् मह्यं श्रेय इति निश्चितं तत् शरणागताय तव शिष्याय मे ब्रूहि इति अतिमात्रकृपणो भगवत्पादाम्बुजम् उपससार।
।।2.6।।क्षत्रियाणां स्वधर्मत्वाद्युद्धमेव श्रेयस्करमित्याशङ्क्याह  नचैतदिति।  एतदपि न जानीमो भैक्षयुद्धयोः कतरन्नोऽस्माकं गरीयः श्रेष्ठं कि भैक्षं हिंसाशून्यत्वादुत युद्धं स्ववृत्तित्वादिति। संदिग्धा च जयस्थितिः किं साम्यमेवोभयेषां यद्वा वयं जयेमातिशयीमहि यदि वा नोऽस्मान्धार्तराष्ट्रा दुर्योधनादयो जयेयुः। जातोऽपि जयो न फलवान्। यतो यान्बन्धून्हत्वा न जिजीविषामो जीवितुं नेच्छामस्ते एवावस्थिताः प्रमुखे संमुखे धार्तराष्ट्रा धृतराष्ट्रस्यापत्यानि। तस्माद्भैक्षाद्युद्धस्य श्रेष्ठत्वं न सिद्धमित्यर्थः।
।।2.6 2.8।।न चैतदिति प्रश्नस्त्रिभिः। स्पष्टार्थः।
।।2.6।।ननु भिक्षाशनस्य क्षत्रियं प्रति निषिद्धत्वाद्युद्धस्य च विहितत्वात्स्वधर्मत्वेन युद्धमेव तव श्रेयस्करमित्याशङ्क्याह एतदपि न जानीमो भैक्षयुद्धयोर्मध्ये कतरन्नोऽस्माकं गरीयः श्रेष्ठं किं भैक्षं हिंसाशून्यत्वात् उत युद्धं स्वधर्मत्वादिति इदं च न विद्मः। आरब्धेऽपि युद्धे यद्वा वयं जयेमातिशयीमहि यदि वा नोऽस्माञ्जयेयुर्धार्तराष्ट्राः। उभयोः साम्यपक्षोऽप्यर्थाद्बोद्धव्यः। किंच जातोऽपि जयो नः फलतः पराजय एव यतो यान्बन्धून्हत्वा जीवितुमपि वयं नेच्छामः किं पुनर्विषयानुपभोक्तुं त एवावस्थिताः संमुखे धार्तराष्ट्राः धृतराष्ट्रसंबन्धिनो भीष्मद्रोणादयः सर्वेऽपि। तस्माद्भैक्षाद्युद्धस्य श्रेष्ठत्वं न सिद्धमित्यर्थः। तदेवं प्राक्तनेन ग्रन्थेन संसारदोषनिरूपणादधिकारिविशेषणान्युक्तानि। तत्रनच श्रेयोऽनु पश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे इत्यत्र रणे हतस्य परिव्राट्समानयोगक्षेमत्वोक्तेःअन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेयः इत्यादिश्रुतिसिद्धं श्रेयो मोक्षाख्यमुपन्यस्तम्। अर्थाच्च तदितरदश्रेय इति नित्यानित्यवस्तुविवेको दर्शितःन काङ्क्षे विजयं कृष्ण इत्यत्रैहिकफलविरागःअपि त्रैलोक्यराजस्य हेतोः इत्यत्र पारलौकिकफलविरागःनरके नियतं वासः इत्यत्र स्थूलदेहातिरिक्त आत्माकिं नो राज्येन इति व्याख्यातवर्त्मना शमःकिं भोगैः इति दमःयद्यप्येते न पश्यन्ति इत्यत्र निर्लोभतातन्मे क्षेमतरं भवेत् इत्यत्र तितिक्षा इति प्रथमाध्यायस्यार्थः स संन्याससाधनसूचनम् अस्मिंस्त्वध्यायेश्रेयो भोक्तुं भैक्षमपि इत्यत्र भिक्षाचर्योपलक्षितः सन्यासः प्रतिपादितः।
।।2.6।।किंच यद्यप्यधर्ममङ्गीकरिष्यामस्तथाऽपि किमस्माकं जयः पराजयो वा भवेदिति न ज्ञायत इत्याह  नचेति।  एतद्द्वयोर्मध्ये नोऽस्माकं कतरत् किं नाम गरीयोऽधिकतरं भविष्यतीति न विद्मः। तदेव द्वयं दर्शयति। यद्वा एतान्वयं जयेम जेष्यामः यदि वा नोऽस्मानेते जयेयुर्जेष्यन्तीति। किं चास्माकं वा जयोऽपि फलतः पराजय एवेत्याह। यानेव हत्वा जीवितुं नेच्छामस्त एवैते संमुखेऽवस्थिताः।
।।2.6।।न चैतद्विद्मः इत्यादेश्चकारद्योतितशङ्कापूर्वकं तात्पर्यार्थमाह एवमिति। बन्धुविनाशाद्भीतेन त्वया धर्मसुतभीमनकुलाद्यासन्नतरबन्धुविनाश एव कारितः स्यादितिभवत इत्यनेन सूचितम्।विद्मः इत्यादिबहुवचनानुसारेणाह अस्माकमिति। अस्माकमित्यनेन हन्तव्यतया निर्दिष्टभीष्मद्रोणाद्यपेक्षया सर्वेषां शिष्यत्वादिकमभिप्रेतम्। पूर्वोत्तरार्धाभ्यां विमर्शस्वाभिमतपक्षौ व्यञ्जितौ।यद्वा इतियदि वा इति च तुल्यार्थम्। येषां वधेन जीवनमस्माकमनिष्टं त एवास्मान् जिघांसन्तः स्वहननानुरूपत्वेनावस्थिता इतियानेव इत्यादेरन्वयार्थः।न जिजीविषामः इत्यनेन सूचितां अनिर्णयपर्यवसितां अत एव प्रश्नहेतुभूतां प्रतिभामाह इति मे प्रतिभातीति।यच्छ्रेयः इत्यादेरन्वयफलितार्थमुपदेशयोग्यत्वायोक्तां शिष्यगुणसम्पत्तिं च स्फुटयति यन्मह्यमित्यादिना। निश्चेतव्याकारनिष्कर्षणाय इतिकरणम्। शासनीयो हि शिष्यः अतःशिष्यस्तेऽहं शाधि माम् इति वदति। स्वभावोऽत्र धैर्यम् कर्तव्यविशेषाज्ञानात् शोकापनोदनोपायराहित्यादिना वा अतिमात्रकार्पण्यम्। त्याज्यस्यापरित्यागोऽत्र कार्पण्यमित्येके दयाजनकदीनवृत्तिनिरतत्वमित्यपरे।भगवत्पादाम्बुजमुपससारेति शिष्यत्वप्रपन्नत्वाद्युक्तिफलमेव।
।।2.6।।किञ्च अधर्माङ्गीकारेणापि तथा कर्त्तव्यं यद्यस्मज्जय एवेत्यस्माकं हि तज्ज्ञानं निश्चितं स्यादित्याह न चैतदिति। वयमेतच्च न विद्मः यद्वयोर्मध्ये कतरत् नोऽस्माकं गरीयः श्रेष्ठमधिकं भवति यद्वयं तान् जयेम यदि वा एते नोऽस्मान् जयेयुः जेष्यन्ति। अस्मद्विचारेण त्वस्माकं जयादपि तेषामेव जयो गरीयस्त्वेन भातीत्याह यानेवेति। यान् हत्वा वयं न जिजीविषामो न तु जीवितुमिच्छामस्त एवैते धार्त्तराष्ट्राः पितृव्यजा भ्रातरः प्रमुखे युद्धार्थमवस्थिताः। अत एतान् हत्वा किं करिष्यामः इत्यर्थः।
।।2.6।।एवं तर्हि भैक्षमेव तव श्रेय इत्याशङ्क्याह  न चैतदिति।  यद्यप्यक्षत्रियस्य भैक्षमेवेष्टं तथापि नः अस्माकं क्षत्रियाणां भैक्षभोगयोर्मध्ये कतरत् गरीय इति वयं न विद्मः। ननूक्तं युद्धमेव गरीय इति तत्राह  यद्वेति।  यदि वा वयं जयेम शत्रून् यदि वा नोऽस्मान् शत्रव एव जयेयुः इदमपि न विद्मः। अन्त्यपक्षे पुनर्मरणमप्रार्थितं भैक्षमेव वापद्यत इति भावः। ननु मयि सहाये सति तव जय एव निश्चित इत्यत आह  यानेवेति।  इष्टनाशाज्जयोऽपि पराजयरूप एवेत्यर्थः। यत्तु निश्चितेऽपि भैक्षश्रेयस्त्वे पुनर्युद्धभैक्षयोः कतरत् श्रेय इति संशयो नोचितः अतो नः अस्माकं मध्ये कतरत् सैन्यं गरीय इति व्याख्येयमिति। तदसत्। धर्मसंमूढचेता इति वाक्यशेषादुक्तसंशयस्यैवोचितत्वात् सैन्यगरीयस्त्वसंशयेनैव जयसंशयेऽन्यथासिद्धेऽन्यतरसंशयस्य वैयर्थ्यात् विशेषाध्याहारदोषाच्च।
।।2.6।।   नन्वहननस्य श्रेयस्त्वे निश्चिते किमर्थं शोचसीति चेत्तत्राह  नेति।  नोऽस्माकं किं भैक्ष्यं गरीयः श्रेष्ठं हिंसाशून्यत्वादुत युद्धं स्वधर्मत्वादित्येतन्न विद्मः। इदमेव श्रेय इति न जानीमः। ननु पक्षद्वययोरपि समबलत्वे युद्धमेव कुतो नाङ्गीकरोषीत्याशङक्य स्वबुद्य्धा तु तत्र दोषं पश्यामीत्याह  यद्वेति।  यद्वा वयं जयेम यदि वा नोऽस्मांस्ते जयेयुरिति न विद्मः जये सत्यपि दोष इत्याह  यानिति।  यानेव हत्वा हिंसित्वा न जिजीविषामो जीवितुं नेच्छामस्ते धार्तराष्ट्राः धृतराष्ट्रसंबन्धिनः प्रमुखे संमुखेऽवस्थितः।
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2.6 I can hardly tell which will be better, that we should coner them or that they should coner us. Even the sons of Dhritarashtra, after slaying whom we do not wish to live, stand facing us.
2.6 Nor can I say whether it were better that they conquer me or for me to conquer them, since would no longer care to live if I killed these sons of Dhritarashtra, now preparing for fight.
2.6 We do not know this as well as to which is the better for us, (and) whether we shall win, or whether they shall coner us. Those very sons of Dhrtarastra, by killing whom we do not wish to live, stand in confrontation.
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2.6. Whether we should coner [in the battle], or they should coner us-we do not know this viz., 'which [of those two] is better for us'. [For], having killed whom, we would not wish to live at all, the same persons stand before us as Dhrtarastra's men.
2.4-6 Katham etc. upto Dhartarastrah. By the portion Bhisma and Drona in war' etc., and by the portion 'I would [not] enjoy the objects of pleasure', the Sage indicates that in Arjuna's objection, the intention for a particular act and the intention for a particular result are the points deserving rejection. By the portion 'We do not know this' etc., he speaks of the intention for a particular action. For, without intention no action is possible. Certainly one does not proceed on a war with an intention of getting defeated. '[In the present war] even our victory would be surely our misfortune.' This he says by the portion 'It is good even to go about begging without killing the elders'. It is also impossible to conclude 'Whether we desire victory or defeat'; for even in the case of our victory our relatives would perish totally.'
2.6 - 2.8 If you say, 'After beginning the war, if we withdraw from the battle, the sons of Dhrtarastra will slay us all forcibly', be it so. I think that even to be killed by them, who do not know the difference between righteousness and unrighteousness, is better for us than gaining unrighteous victory by killing them. After saying so, Arjuna surrendered himself at the feet of the Lord, overcome with dejection, saying. 'Teach me, your disciple, who has taken refuge in you, what is good for me.'
2.6 We do not know, which of the two is better for us - whether our vanishing them, or their vanishing us. The very sons of Dhrtarastra, whom, if we slay, we should not wish to live, even they are standing in array against us.
।।2.6।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
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न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।2.6।।
ন চৈতদ্বিদ্মঃ কতরন্নো গরীযো যদ্বা জযেম যদি বা নো জযেযুঃ৷ যানেব হত্বা ন জিজীবিষাম- স্তেবস্থিতাঃ প্রমুখে ধার্তরাষ্ট্রাঃ৷৷2.6৷৷
ন চৈতদ্বিদ্মঃ কতরন্নো গরীযো যদ্বা জযেম যদি বা নো জযেযুঃ৷ যানেব হত্বা ন জিজীবিষাম- স্তেবস্থিতাঃ প্রমুখে ধার্তরাষ্ট্রাঃ৷৷2.6৷৷
ન ચૈતદ્વિદ્મઃ કતરન્નો ગરીયો યદ્વા જયેમ યદિ વા નો જયેયુઃ। યાનેવ હત્વા ન જિજીવિષામ- સ્તેવસ્થિતાઃ પ્રમુખે ધાર્તરાષ્ટ્રાઃ।।2.6।।
ਨ ਚੈਤਦ੍ਵਿਦ੍ਮ ਕਤਰਨ੍ਨੋ ਗਰੀਯੋ ਯਦ੍ਵਾ ਜਯੇਮ ਯਦਿ ਵਾ ਨੋ ਜਯੇਯੁ। ਯਾਨੇਵ ਹਤ੍ਵਾ ਨ ਜਿਜੀਵਿਸ਼ਾਮ- ਸ੍ਤੇਵਸ੍ਥਿਤਾ ਪ੍ਰਮੁਖੇ ਧਾਰ੍ਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰਾ।।2.6।।
ನ ಚೈತದ್ವಿದ್ಮಃ ಕತರನ್ನೋ ಗರೀಯೋ ಯದ್ವಾ ಜಯೇಮ ಯದಿ ವಾ ನೋ ಜಯೇಯುಃ. ಯಾನೇವ ಹತ್ವಾ ನ ಜಿಜೀವಿಷಾಮ- ಸ್ತೇವಸ್ಥಿತಾಃ ಪ್ರಮುಖೇ ಧಾರ್ತರಾಷ್ಟ್ರಾಃ৷৷2.6৷৷
ന ചൈതദ്വിദ്മഃ കതരന്നോ ഗരീയോ യദ്വാ ജയേമ യദി വാ നോ ജയേയുഃ. യാനേവ ഹത്വാ ന ജിജീവിഷാമ- സ്തേവസ്ഥിതാഃ പ്രമുഖേ ധാര്തരാഷ്ട്രാഃ৷৷2.6৷৷
ନ ଚୈତଦ୍ବିଦ୍ମଃ କତରନ୍ନୋ ଗରୀଯୋ ଯଦ୍ବା ଜଯେମ ଯଦି ବା ନୋ ଜଯେଯୁଃ| ଯାନେବ ହତ୍ବା ନ ଜିଜୀବିଷାମ- ସ୍ତେବସ୍ଥିତାଃ ପ୍ରମୁଖେ ଧାର୍ତରାଷ୍ଟ୍ରାଃ||2.6||
na caitadvidmaḥ katarannō garīyō yadvā jayēma yadi vā nō jayēyuḥ. yānēva hatvā na jijīviṣāma- stē.vasthitāḥ pramukhē dhārtarāṣṭrāḥ৷৷2.6৷৷
ந சைதத்வித்மஃ கதரந்நோ கரீயோ யத்வா ஜயேம யதி வா நோ ஜயேயுஃ. யாநேவ ஹத்வா ந ஜிஜீவிஷாம- ஸ்தேவஸ்திதாஃ ப்ரமுகே தார்தராஷ்ட்ராஃ৷৷2.6৷৷
న చైతద్విద్మః కతరన్నో గరీయో యద్వా జయేమ యది వా నో జయేయుః. యానేవ హత్వా న జిజీవిషామ- స్తేవస్థితాః ప్రముఖే ధార్తరాష్ట్రాః৷৷2.6৷৷
2.7
2
7
।।2.7।। कायरतारूप दोषसे तिरस्कृत स्वभाववाला और धर्मके विषयमें मोहित अन्तःकरणवाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित कल्याण करनेवाली हो, वह मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।
।।2.7।। करुणा के कलुष से अभिभूत और कर्तव्यपथ पर संभ्रमित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ, कि मेरे लिये जो श्रेयष्कर हो, उसे आप निश्चय करके कहिये, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ; शरण में आये मुझको आप उपदेश दीजिये।।
।।2.7।। अपने आप को असहाय अवस्था तथा कोई निर्णय लेने से सर्वथा असमर्थ पाकर अर्जुन सम्पूर्ण रूप से स्वयं को भगवान् की शरण में समर्पित कर देता है। वह स्वीकार कर रहा है कि उसकी मानसिक स्थिति नष्टभ्रष्ट हो गयी है। वह स्वयं बताता है कि उसका मुख्य कारण करुणा की अत्यधिकता है। अज्ञान के कारण वह समझ नहीं पा रहा है कि उसकी वह करुणा निराधार है। वह स्वीकार करता है कि युद्ध करने या न करने के विषय में उसकी बुद्धि भ्रमाच्छादित होने के कारण वह धर्मअधर्म का निर्णय नहीं कर पा रहा है।हम पहले ही धर्म शब्द का अर्थ देख चुके हैं। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण उस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध होता है उस वस्तु का धर्म कहलाता है। हिन्दू दर्शन मानव धर्म पर बल देता है जिसका अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने शुद्ध दैवी स्वरूप के अनुरूप रहना चाहिये और उसका यह प्रयत्न होना चाहिये कि वह स्वस्वरूप की महत्ता बनाये रखे और पशुवत जीवन व्यतीत न करे।यहाँ अर्जुन शिष्यभाव से भगवान् की शरण में जाता है जो यह संकेत करता है कि अब वह उपदेश ग्रहण करने योग्य हो गया है और वह भगवान् के उपदेश का पालन करेगा। एक और बात का भी संकेत मिलता है कि यदि अज्ञानवश अर्जुन अनेक बार अपनी शंका प्रस्तुत करते हुए प्रश्न पूछता है तो उसका समाधान भगवान् को सहानुभूति और धैर्यपूर्वक करना होगा। सम्पूर्ण गीता में हम अनेक स्थानों पर अर्जुन को कृष्णोपदेश के मध्य शंकायें प्रकट करते हुये देखते हैं परन्तु कहीं पर भी श्रीकृष्ण को धैर्य खोते नहीं देखते। इतना ही नहीं अर्जुन द्वारा प्रत्येक प्रश्न पूछे जाने पर वे और अधिक उत्साहित होकर युद्धभूमि में उसका उत्तर देते हैं।
2.7।। व्याख्या--'कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः'(टिप्पणी प0 43.1)--यद्यपि अर्जुन अपने मनमें युद्धसे सर्वथा निवृत्त होनेको सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते थे, तथापि पापसे बचनेके लिये उनको युद्धसे उपराम होनेके सिवाय दूसरा कोई उपाय भी नहीं दीखता था। इसलिये वे युद्धसे उपराम होना चाहते थे, और उपराम होनेको गुण ही मानते थे, कायरतारूप दोष नहीं। परन्तु भगवान्ने अर्जुनकी इस उपरतिको कायरता और हृदयकी तुच्छ दुर्बलता कहा, तो भगवान्के उन निःसंदिग्ध वचनोंसे अर्जुनको ऐसा विचार हुआ कि युद्धसे निवृत्त होना मेरे लिये उचित नहीं है। यह तो एक तरहकी कायरता ही है, जो मेरे स्वभावके बिलकुल विरुद्ध है क्योंकि मेरे क्षात्र-स्वभावमें दीनता और पलायन (पीठ दिखाना)--ये दोनों ही नहीं हैं  (टिप्पणी प0 43.2) । इस तरह भगवान्के द्वारा कथित कायरतारूप दोषको अपनेमें स्वीकार करते हुए अर्जुन भगवान्से कहते हैं कि एक तो कायरतारूप दोषके कारण मेरा क्षात्र-स्वभाव एक तरहसे दब गया है; और दूसरी बात, मैं अपनी बुद्धिसे धर्मके विषयमें कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ। मेरी बुद्धिमें ऐसी मूढ़ता छा गयी है कि धर्मके विषयमें मेरी बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर रही है तीसरे श्लोकमें तो भगवान्ने अर्जुनको स्पष्टरूपसे आज्ञा दे दी थी कि 'हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको, कायरताको छोड़कर युद्धके लिये खड़े हो जाओ'। इससे अर्जुनको धर्म-(कर्तव्य-) के विषयमें कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये था। फिर भी सन्देह रहनेका कारण यह है कि एक तरफ तो युद्धमें कुटुम्बका नाश करना, पूज्यजनोंको मारना अधर्म (पाप) दीखता है, और दूसरी तरफ युद्ध करना क्षत्रियका धर्म दीखता है। इस प्रकार कुटुम्बियोंको देखते हुए युद्ध नहीं करना चाहिये और क्षात्र-धर्मकी दृष्टिसे युद्ध करना चाहिये-- इन दो बातोंको लेकर अर्जुन धर्म-संकटमें पड़ गये। उनकी बुद्धि धर्मका निर्णय करनेमें कुण्ठित हो गयी। ऐसा होनेपर 'अभी इस समय मेरे लिये खास कर्तव्य क्या है? मेरा धर्म क्या है?'इसका निर्णय करानेके लिये वे भगवान्से पूछते हैं।
।।2.7 2.10।।कार्पण्येत्यादि। सेनयोरुभयोर्मध्ये इत्यादिनेदं सूचयति संशयाविष्टोऽर्जुनो नैकपक्षेण ( नोऽनेक ) युद्धान्निवृत्तः यत एवमाह स्म शाधि मा त्वां (S omits त्वाम्) प्रपन्नम् इति। अतः उभयोरपि ज्ञानाज्ञानयोर्मध्यगः श्रीभगवतानुशिष्यते।
।।2.7।।एवं युद्धम् आरभ्य निवृत्तव्यापारान् भवतो धार्तराष्ट्राः प्रसह्य हन्युः इति चेत् अस्तु तद्वधलब्धविजयात् अधर्म्याद् अस्माकं धर्माधर्मौ अजानद्भिः तैः हननम् एव गरीयः इति मे प्रतिभाति इति उक्त्वा यत् मह्यं श्रेय इति निश्चितं तत् शरणागताय तव शिष्याय मे ब्रूहि इति अतिमात्रकृपणो भगवत्पादाम्बुजम् उपससार।
।।2.7।।समधिगतसंसारदोषजातस्यातितरां निर्विण्णस्य मुमुक्षोरुपसन्नस्यात्मोपदेशसंग्रहणेऽधिकारं सूचयति  कार्पण्येति।  योऽल्पां स्वल्पामपि स्वक्षतिं न क्षमते स कृपणस्तद्विधत्वादखिलोऽनात्मविदप्राप्तपरमपुरुषार्थतया कृपणो भवति।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः तस्य भावः कार्पण्यं दैन्यं तेन दोषेणोपहतो दूषितः स्वभावश्चित्तमस्येति विग्रहः। सोऽहं पृच्छाम्यनुयुञ्जे त्वा त्वां धर्मसंमूढचेताः धर्मो धारयतीति परं ब्रह्म तस्मिन्संमूढमविवेकतां गतं चेतो यस्य ममेति तथाहमुक्तः। किं पृच्छसि यन्निश्चितमैकान्तिकमनापेक्षिकं श्रेयः स्यान्न रोगनिवृत्तिवदनैकान्तिकमनात्यन्तिकं स्वर्गवदापेक्षिकं वा तन्निःश्रेयसं मे मह्यं ब्रूहिनापुत्रायाशिष्याय इति निषेधान्न प्रवक्तव्यमिति मा मंस्थाः। यतः शिष्यस्तेऽहं भवामि। शाध्यनुशाधि मां निःश्रेयसं। त्वामहं प्रपन्नोऽस्मि।
।।2.6 2.8।।न चैतदिति प्रश्नस्त्रिभिः। स्पष्टार्थः।
।।2.7।।गुरूपसदनमिदानीं प्रतिपाद्यते समधिगतसंसारदोषजातस्यातितरां निर्विण्णस्य विधिवद्गुरुमुपसन्नस्यैव विद्याग्रहणेऽधिकारात्। तदेवं भीष्मादिसंकटवशात्व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति इति श्रुतिसिद्धभिक्षाचर्येऽर्जुनस्याभिलाषं प्रदर्श्य विधिवदुपसत्तिमपि तत्संकटव्याजेनैव दर्शयति। यः स्वल्पामपि वित्तक्षतिं न क्षमते स कृपण इति लोके प्रसिद्धस्तद्विधत्वादखिलोऽनात्मविदप्राप्तपुरुषार्थतया कृपणो भवति।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः तस्य भावः कार्पण्यं अनात्माध्यासवत्त्वं तन्निमित्तोऽस्मिञ्जन्मन्येत एव मदीयास्तेषु हतेषु किं जीवितेनेत्यभिनिवेशरूपो ममतालक्षणो दोषस्तेनोपहतस्तिरस्कृतः स्वभावः क्षात्रो युद्धोद्योगलक्षणो यस्य सः। तथा धर्मविषये निर्णायकप्रमाणादर्शनात्संमूढं किमेतेषां वधो धर्मः किमेतत्परिपालनं धर्मः तथा किं पृथ्वीपरिपालनं धर्मः किंवा यथावस्थितोऽरण्यनिवासएव धर्मं इत्यादिसंशयैर्व्याप्तं चेतो यस्य स तथा।न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः इत्यत्र व्याख्यातमेतत्। एवंविधः सन्नहं त्वा त्वामिदानीं पृच्छामि। श्रेय इत्यनुषङ्गः। अतो यन्निश्चितमैकान्तिकमात्यन्तिकं च श्रेयः परमपुमर्थभूतं फलं स्यात्तन्मे मह्यं ब्रूहि। साधनानन्तरमवश्यंभावित्वमैकान्तिकत्वम् जातस्याविनाश आत्यन्तिकत्वम् यथा ह्यौषधे कृते कदाचिद्रोगानिवृत्तिर्न भवेदपि जातापि च रोगनिवृत्तिः पुनरपि रोगोत्पत्त्या विनाश्यते एवं कृतेऽपि यागे प्रतिबन्धवशात्स्वर्गो न भवेदपि जातोऽपि स्वर्गो दुःखाक्रान्तो नश्यति चेति नैकान्तिकत्वमात्यन्तिकत्वं वा तयोः। तदुक्तम्दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात्।। इतिदृष्टवदानुश्रविकः सह्यविंशुद्धिक्षयातिशययुक्तः। तद्विपरीतः श्रेयोन्व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात्।। इति च। ननु त्वं मम सखा नतु शिष्योऽत आह शिष्येस्तेऽमिति। त्वदनुशासनयोग्यत्वादहं तव शिष्य एव भवामि न सखा न्यूनज्ञानत्वात्। अतस्त्वां प्रपन्नं शरणागतं मां शाधि शिक्षय करुणया नत्वशिष्यत्वशङ्कयोपेक्षणीयोऽहमित्यर्थः। एतेनतद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठंभृगुर्वै वारुणिः। वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मेति इत्यादिगुरूसत्तिप्रतिपादकः श्रुत्यर्थो दर्शितः।
।।2.7।। कार्पण्येति।  तस्मात्कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः। एतान्हत्वा कथं जीविष्याम इति कार्पण्यं दोषश्च स्वकुलक्षयकृतः ताभ्यामुपहतोऽभिभूतः स्वभावः शौर्यादिलक्षणो यस्य सोऽहं त्वां पृच्छामि। तथा धर्मे संमूढं चेतो यस्य सः। युद्धं त्यक्त्वा भिक्षाटनमपि क्षत्रियस्य धर्मो वाऽधर्मो वेति संदिग्धचित्तः सन्नित्यर्थः। अतो मे यन्निश्चितं श्रेयो युक्तं स्यात्तद्ब्रूहि। किंच तेऽहं शिष्यः शासनार्हः। अतस्त्वां प्रपन्नं शरणागतं मां शाधि शिक्षय।
।। 2.7न चैतद्विद्मः इत्यादेश्चकारद्योतितशङ्कापूर्वकं तात्पर्यार्थमाह एवमिति। बन्धुविनाशाद्भीतेन त्वया धर्मसुतभीमनकुलाद्यासन्नतरबन्धुविनाश एव कारितः स्यादितिभवत इत्यनेन सूचितम्।विद्मः इत्यादिबहुवचनानुसारेणाह अस्माकमिति। अस्माकमित्यनेन हन्तव्यतया निर्दिष्टभीष्मद्रोणाद्यपेक्षया सर्वेषां शिष्यत्वादिकमभिप्रेतम्। पूर्वोत्तरार्धाभ्यां विमर्शस्वाभिमतपक्षौ व्यञ्जितौ।यद्वा इतियदि वा इति च तुल्यार्थम्। येषां वधेन जीवनमस्माकमनिष्टं त एवास्मान् जिघांसन्तः स्वहननानुरूपत्वेनावस्थिता इतियानेव इत्यादेरन्वयार्थः।न जिजीविषामः इत्यनेन सूचितां अनिर्णयपर्यवसितां अत एव प्रश्नहेतुभूतां प्रतिभामाह इति मे प्रतिभातीति।यच्छ्रेयः इत्यादेरन्वयफलितार्थमुपदेशयोग्यत्वायोक्तां शिष्यगुणसम्पत्तिं च स्फुटयति यन्मह्यमित्यादिना। निश्चेतव्याकारनिष्कर्षणाय इतिकरणम्। शासनीयो हि शिष्यः अतःशिष्यस्तेऽहं शाधि माम् इति वदति। स्वभावोऽत्र धैर्यम् कर्तव्यविशेषाज्ञानात् शोकापनोदनोपायराहित्यादिना वा अतिमात्रकार्पण्यम्। त्याज्यस्यापरित्यागोऽत्र कार्पण्यमित्येके दयाजनकदीनवृत्तिनिरतत्वमित्यपरे।भगवत्पादाम्बुजमुपससारेति शिष्यत्वप्रपन्नत्वाद्युक्तिफलमेव।
।।2.7।।एवं स्वविचारमुक्त्वा तस्य दोषरूपतां वदन् भगवदाज्ञां करिष्यमाण आह कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव इति। कार्पण्यं बन्धुमारणानुचितज्ञानरूपं तद्रूपो यो दोषस्तेन उपहतः स्वभावः क्षात्त्रः शौर्यादिरूपो यस्य तादृशस्त्वां पृच्छामि। ननु उपहतस्वभावस्य विकलस्य किं प्रश्नेनेत्यत आह धर्मसम्मूढचेता इति। धर्म धर्मज्ञानार्थं सम्मूढं चेतो यस्य सः। एतन्मारणे त्वं प्रसन्नः किं वा अमारणे एतन्मध्येऽन्यद्वा यच्छ्रेयः श्रेयोरूपं त्वत्प्रसादरूपं स्यात्तन्मे निश्चितं ब्रूहि। अहं ते शिष्यः न तु मित्रं अतस्त्वां प्रपन्नं शरणागतं धर्मजिज्ञासया मां त्वं शाधि शिक्षय।
।।2.7।।उक्तसंशयवानेव पृच्छति  कार्पण्येति।  कार्पण्यं दीनत्वम्। स्वभावःशौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यम् इत्यादिना वक्ष्यमाणलक्षणः। शेषं स्पष्टम्।
।।2.7।।   संसारासारतां ज्ञातवत इहामुत्रार्थे भोगेऽत्यन्तविरक्तस्य मुमुक्षोर्गुरुपसत्तिं सूचयन्नाह  कार्पण्येति।  अनात्मवित्त्वात्संबन्धिनां वियोगासहनं कार्पण्यम्।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः। तेन कार्पण्येन दैन्यरुपेण दोषेणोपहतो दूषितः स्वभावोऽन्तःकरणं यस्य सः। कार्पण्यदोषेणोपहतोऽभिभूतः स्वभावः शौर्यादिलक्षणो यस्य स इत्यपरे। स्वभावः क्षात्रो युद्धोद्योगलक्षण इति केचित्। यतो धर्मसंमूढचेताः धारयतीति धर्मः सर्वाधिष्ठानं परमात्मा तस्मिन्सम्यङ्मूढमविवेकितां प्राप्तं चेतो यस्य सोऽहं त्वा त्वां पृच्छामि। किमित्यत आह  यदिति।  यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणैर्यच्छ्रेयस्त्वेन नित्यनिरतिशयानन्दत्वेन निश्चितं स्यात्तन्मे ब्रूहि निश्चितमैकान्तिकमनपेक्षिकं श्रेयः स्यान्न रोगनिवृत्तिवदनैकान्तिकमनात्यन्तिकं स्वर्गवदापेक्षिकं चेत्येके। मे मह्यं ब्रूहि कथय। ननु नापुत्रशिष्यायेति निषेधान्न वक्तव्यमिति चेन्नाहमशिष्यः किंतु शिष्यस्तेऽमहतो मां शिष्यं शासनार्हं त्वां प्रपन्नं शरणागतं च शाधि शिक्षय। स्वबुद्य्धा भिक्षाशनं  प्रशस्यं  मन्यमानोऽपि कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः भिक्षाशनं धर्म उत युद्धमिति संशयापगमाभावात्। धर्मसंमूढचेता अहं त्वां पृच्छामि यद्भैक्षं युद्धं वा निश्चितमव्यभिचारि श्रेयः साधनं तन्मे ब्रूहीति धर्मतत्त्वविषयकोऽपि प्रश्नो बोध्यः। यत्तु केचित् धर्मविषये संमूढं किमतेषां वधो धर्मः किमेतत्परिपालनं धर्मः। तथा किं पृथ्वीपरिपालनं धर्मः किं वा यथावस्थितोऽरण्यनिवास एव धर्म इत्यादिसंशयैर्व्याप्तं चेतो यस्य स एवंविधोऽहं त्वामिदानीं पृच्छामि श्रेय इत्यनुषङ्गः। अतो यन्निश्चिमैकान्तिकमात्यन्तिकं च श्रेयः परमपुरुषार्थभूतं फलं स्यात्तन्मे ब्रूहि। साधनानन्तरमवश्यंभावित्वमैकान्तिकत्वम्। जातस्याविनाशित्वमात्यन्तिकत्वमिति वर्णयन्ति। तत्र धर्मविषयकसंदेहवान्परमपुमर्थभूतं फलं पृच्छाभ्यतस्तन्मे ब्रूहीत्यस्यान्यद्भुक्तमन्यद्वान्तमिति न्यायतुल्यस्य सामञ्जस्यमस्ति नवेति विद्वद्भिराकलनीयम्।
null
2.7 My heart is overpowered by the taint of pity; my mind is confused as to duty. I ask Thee: Tell me decisively what is good for me. I am Thy disciple. Instruct me who has taken refuge in Thee.
2.7 My heart is oppressed with pity; and my mind confused as to what my duty is. Therefore, my Lord, tell me what is best for my spiritual welfare, for I am Thy disciple. Please direct me, I pray.
2.7 With my nature overpowered by weak commiseration, with a mind bewildered about duty, I supplicate You. Telll me for certain that which is better; I am Your disciple. Instruct me who have taken refuge in You.
null
2.7. With my very nature, overpowered by the taint of pity, and with my mind, utterly confused as to the right action [at the present juncture], I ask you: Tell me definitely what would be good [to me]; I am your pupil; please teach me, who am taking refuge in You.
2.7 See Comment under 2.10
2.6 - 2.8 If you say, 'After beginning the war, if we withdraw from the battle, the sons of Dhrtarastra will slay us all forcibly', be it so. I think that even to be killed by them, who do not know the difference between righteousness and unrighteousness, is better for us than gaining unrighteous victory by killing them. After saying so, Arjuna surrendered himself at the feet of the Lord, overcome with dejection, saying. 'Teach me, your disciple, who has taken refuge in you, what is good for me.'
2.7 With my heart stricken by the fault of weak compassion, with my mind perplexed about my duty, I reest you to say for certain what is good for me. I am your disciple. Teach me who have taken refuge in you.
।।2.7।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
null
null
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कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यान्निश्िचतं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।2.7।।
কার্পণ্যদোষোপহতস্বভাবঃ পৃচ্ছামি ত্বাং ধর্মসংমূঢচেতাঃ৷ যচ্ছ্রেযঃ স্যান্নিশ্িচতং ব্রূহি তন্মে শিষ্যস্তেহং শাধি মাং ত্বাং প্রপন্নম্৷৷2.7৷৷
কার্পণ্যদোষোপহতস্বভাবঃ পৃচ্ছামি ত্বাং ধর্মসংমূঢচেতাঃ৷ যচ্ছ্রেযঃ স্যান্নিশ্িচতং ব্রূহি তন্মে শিষ্যস্তেহং শাধি মাং ত্বাং প্রপন্নম্৷৷2.7৷৷
કાર્પણ્યદોષોપહતસ્વભાવઃ પૃચ્છામિ ત્વાં ધર્મસંમૂઢચેતાઃ। યચ્છ્રેયઃ સ્યાન્નિશ્િચતં બ્રૂહિ તન્મે શિષ્યસ્તેહં શાધિ માં ત્વાં પ્રપન્નમ્।।2.7।।
ਕਾਰ੍ਪਣ੍ਯਦੋਸ਼ੋਪਹਤਸ੍ਵਭਾਵ ਪਰਿਚ੍ਛਾਮਿ ਤ੍ਵਾਂ ਧਰ੍ਮਸਂਮੂਢਚੇਤਾ। ਯਚ੍ਛ੍ਰੇਯ ਸ੍ਯਾਨ੍ਨਿਸ਼੍ਿਚਤਂ ਬ੍ਰੂਹਿ ਤਨ੍ਮੇ ਸ਼ਿਸ਼੍ਯਸ੍ਤੇਹਂ ਸ਼ਾਧਿ ਮਾਂ ਤ੍ਵਾਂ ਪ੍ਰਪਨ੍ਨਮ੍।।2.7।।
ಕಾರ್ಪಣ್ಯದೋಷೋಪಹತಸ್ವಭಾವಃ ಪೃಚ್ಛಾಮಿ ತ್ವಾಂ ಧರ್ಮಸಂಮೂಢಚೇತಾಃ. ಯಚ್ಛ್ರೇಯಃ ಸ್ಯಾನ್ನಿಶ್ಿಚತಂ ಬ್ರೂಹಿ ತನ್ಮೇ ಶಿಷ್ಯಸ್ತೇಹಂ ಶಾಧಿ ಮಾಂ ತ್ವಾಂ ಪ್ರಪನ್ನಮ್৷৷2.7৷৷
കാര്പണ്യദോഷോപഹതസ്വഭാവഃ പൃച്ഛാമി ത്വാം ധര്മസംമൂഢചേതാഃ. യച്ഛ്രേയഃ സ്യാന്നിശ്ിചതം ബ്രൂഹി തന്മേ ശിഷ്യസ്തേഹം ശാധി മാം ത്വാം പ്രപന്നമ്৷৷2.7৷৷
କାର୍ପଣ୍ଯଦୋଷୋପହତସ୍ବଭାବଃ ପୃଚ୍ଛାମି ତ୍ବାଂ ଧର୍ମସଂମୂଢଚେତାଃ| ଯଚ୍ଛ୍ରେଯଃ ସ୍ଯାନ୍ନିଶ୍ିଚତଂ ବ୍ରୂହି ତନ୍ମେ ଶିଷ୍ଯସ୍ତେହଂ ଶାଧି ମାଂ ତ୍ବାଂ ପ୍ରପନ୍ନମ୍||2.7||
kārpaṇyadōṣōpahatasvabhāvaḥ pṛcchāmi tvāṅ dharmasaṅmūḍhacētāḥ. yacchrēyaḥ syānniśicataṅ brūhi tanmē śiṣyastē.haṅ śādhi māṅ tvāṅ prapannam৷৷2.7৷৷
கார்பண்யதோஷோபஹதஸ்வபாவஃ பரிச்சாமி த்வாஂ தர்மஸஂமூடசேதாஃ. யச்ச்ரேயஃ ஸ்யாந்நிஷ்ிசதஂ ப்ரூஹி தந்மே ஷிஷ்யஸ்தேஹஂ ஷாதி மாஂ த்வாஂ ப்ரபந்நம்৷৷2.7৷৷
కార్పణ్యదోషోపహతస్వభావః పృచ్ఛామి త్వాం ధర్మసంమూఢచేతాః. యచ్ఛ్రేయః స్యాన్నిశ్ిచతం బ్రూహి తన్మే శిష్యస్తేహం శాధి మాం త్వాం ప్రపన్నమ్৷৷2.7৷৷
2.8
2
8
।।2.8।। पृथ्वीपर धन-धान्य-समृद्ध और शत्रुरहित राज्य तथा स्वर्गमें देवताओंका आधिपत्य मिल जाय तो भी इन्द्रियोंको सुखानेवाला मेरा जो शोक है, वह दूर हो जाय - ऐसा मैं नहीं देखता हूँ।
।।2.8।। पृथ्वी पर निष्कण्टक समृद्ध राज्य को और देवताओं के स्वामित्व को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके।।
।।2.8।। यहाँ अर्जुन संकेत करता है कि उसे तत्काल ही मार्गदर्शन की आवश्यकता है जिसके अभाव में उसे आन्तरिक पीड़ा को सहन करना पड़ रहा है। वह पीड़ा के कारण को व्यक्त करने में असमर्थ अनुभव कर रहा है। यह शोक उसकी ज्ञानेन्द्रियों पर भी प्रभाव डाल रहा है। वह न ठीक से देख सकता है और न सुन सकता है।किसी भी विचारशील व्यक्ति के लिये यह स्वाभाविक है कि किसी समस्या के आने पर उसको हल करने के लिये अधीर हो उठेे। वह समस्या को शीघ्र हल करके शांति प्राप्त करना चाहता है। बेचारे अर्जुन ने अपनी बुद्धि द्वारा समस्या हल करने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु वह सफल नहीं हो सका। जैसा कि उसके शब्दों से स्पष्ट है कि अब उसका दुख भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये नहीं है क्योंकि वह स्वयं कहता है कि समस्त पृथ्वी अथवा स्वर्ग का राज्य प्राप्त करने से भी उसका दुख निवृत्त नहीं हो सकता है।अब अर्जुन की स्थिति एक तीव्र मुमुक्ष के समान है जो र्मत्य जीवन की समस्त सीमाओं और बन्धनों से मुक्त हो जाने के लिये अधीर हो उठा है। अब आवश्यकता है केवल एक प्रामाणिक विचार की जो स्वयं भगवान हृषीकेश उसे गीता के दिव्य काव्य में देते हैं।
2.8।। व्याख्या-- [अर्जुन सोचते हैं कि भगवान् ऐसा समझते होंगे कि अर्जुन युद्ध करेगा तो उसकी विजय होगी, और विजय होनेपर उसको राज्य मिल जायगा, जिससे उसके चिन्ता-शोक मिट जायँगे और संतोष हो जायगा। परन्तु शोकके कारण मेरी ऐसी दशा हो गयी है कि विजय होनेपर भी मेरा शोक दूर हो जाय--ऐसी बात मैं नहीं देखता।]  'अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यम्'--  अगर मेरेको धनधान्यसे सम्पन्न और निष्कण्टक राज्य मिल जाय अर्थात् जिस राज्यमें प्रजा खूब सुखी हो, प्रजाके पास खूब धन-धान्य हो, किसी चीजकी कमी न हो और राज्यमें कोई वैरी भी न हो--ऐसा राज्य मिल जाय, तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता।
।।2.7 2.10।।कार्पण्येत्यादि। सेनयोरुभयोर्मध्ये इत्यादिनेदं सूचयति संशयाविष्टोऽर्जुनो नैकपक्षेण ( नोऽनेक ) युद्धान्निवृत्तः यत एवमाह स्म शाधि मा त्वां (S omits त्वाम्) प्रपन्नम् इति। अतः उभयोरपि ज्ञानाज्ञानयोर्मध्यगः श्रीभगवतानुशिष्यते।
।।2.8।।एवं युद्धम् आरभ्य निवृत्तव्यापारान् भवतो धार्तराष्ट्राः प्रसह्य हन्युः इति चेत् अस्तु तद्वधलब्धविजयात् अधर्म्याद् अस्माकं धर्माधर्मौ अजानद्भिः तैः हननम् एव गरीयः इति मे प्रतिभाति इति उक्त्वा यत् मह्यं श्रेय इति निश्चितं तत् शरणागताय तव शिष्याय मे ब्रूहि इति अतिमात्रकृपणो भगवत्पादाम्बुजम् उपससार।
।।2.8।।कुतो निःश्रेयसमेवेच्छसि तत्राह  नहीति।  यस्मान्न प्रपश्यामि। किं न पश्यसि। ममापनुद्यादपनयेद् यच्छोकमुच्छोषणं प्रतपनमिन्द्रियाणां तन्न पश्यामि। ननु शत्रून्निहत्य राज्ये प्राप्ते शोकनिवृत्तिस्ते भविष्यति नेत्याह  अवाप्येति।  अविद्यमानः सपत्नः शत्रुर्यस्य तद् दृढं राज्यं राज्ञः कर्म प्रजारक्षणप्रशासनादि तदिदमस्यां भूमाववाप्यापि शोकापनयकारणं न पश्यामीत्यर्थ। तर्हि देवेन्द्रत्वादिप्राप्त्या शोकापनयस्ते भविष्यति नेत्याह  सुराणामपीति।  तेषामाधिपत्यमधिपतित्वं स्वाम्यमिन्द्रत्वं ब्रह्मत्वं वा तदवाप्यापि मम शोको नापगच्छेदित्यर्थः।
।।2.6 2.8।।न चैतदिति प्रश्नस्त्रिभिः। स्पष्टार्थः।
।।2.8।।ननु स्वयमेव त्वं श्रेयो विचारय श्रुतसंपन्नोऽसि किं परशिष्यत्वेनेत्यत आह यच्छ्रेयः प्राप्तं सत् कर्तृ मम शोकमपनुद्यादपनुदेन्निवारयेत्तन्न पश्यामि। हि यस्मात्तस्मान्मां शाधीतिसोऽहं भगवः शोचामि तं मा भगवाष्शोकस्य पारं तारयतु इति श्रुत्यर्थो दर्शितः। शोकानपनोदे को दोष इत्याशङ्क्य तद्विशेषणमाह इन्द्रियाणामुच्छोषणमिति। सर्वदा संतापकरमित्यर्थः। ननु युद्धे प्रयतमानस्य तव शोकनिवृत्तिर्भविष्यति जेष्यसि चेत्तदा राज्यप्राप्त्या इतरथा च स्वर्गप्राप्त्या।द्वावेतौ पुरुषौ लोके इत्यादिधर्मशास्त्रादित्याशङ्क्याह अवाप्येत्यादिना। शत्रुवर्जितं सस्यादिसंपन्नं च राज्यं तथा सुराणामाधिपत्यं हिरण्यगर्भत्वपर्यन्तमैश्वर्यमवाप्य स्थितस्यापि मम यच्छोकमपनुद्यात्तन्न पश्यामीत्यन्वयः।तद्यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते इति श्रुतेः।यत्कृतकं तदनित्यम् इत्यनुमानात् प्रत्यक्षेणाप्यैहिकानां विनाशदर्शनाच्च। नैहिक आमुत्रिको वा भोगः शोकनिर्तकः किंतु स्वसत्ताकालेऽपि भोगपारतन्त्र्यादिना विनाशकालेऽपि विच्छेदाच्छोकजनक एवेति न युद्धं शोकनिवृत्तयेऽनुष्ठेयमित्यर्थः। एतेनेहामुत्रभोगविरागोऽधिकारिविशेषणत्वेन दर्शितः।
।।2.8।।त्वमेव विचार्य यद्युक्तं तत्कुर्विति चेत्तत्राह  नहीति।  इन्द्रियाणामुच्छोषणमतिशोषणकरं मदीयं शोकं यत्कर्मापनुद्यादपनयेत्तदहं न प्रपश्यामि। यद्यपि भूमौ निष्कण्टकं समृद्धं राज्यं प्राप्स्यामि। तथा सुरेन्द्रत्वमपि यदि प्राप्स्यामि। एवमभीष्टं तत्सर्वमवाप्यापि शोकापनोदनोपायं न प्रपश्यामीत्यन्वयः।
।। 2.8न चैतद्विद्मः इत्यादेश्चकारद्योतितशङ्कापूर्वकं तात्पर्यार्थमाह एवमिति। बन्धुविनाशाद्भीतेन त्वया धर्मसुतभीमनकुलाद्यासन्नतरबन्धुविनाश एव कारितः स्यादितिभवत इत्यनेन सूचितम्।विद्मः इत्यादिबहुवचनानुसारेणाह अस्माकमिति। अस्माकमित्यनेन हन्तव्यतया निर्दिष्टभीष्मद्रोणाद्यपेक्षया सर्वेषां शिष्यत्वादिकमभिप्रेतम्। पूर्वोत्तरार्धाभ्यां विमर्शस्वाभिमतपक्षौ व्यञ्जितौ।यद्वा इतियदि वा इति च तुल्यार्थम्। येषां वधेन जीवनमस्माकमनिष्टं त एवास्मान् जिघांसन्तः स्वहननानुरूपत्वेनावस्थिता इतियानेव इत्यादेरन्वयार्थः।न जिजीविषामः इत्यनेन सूचितां अनिर्णयपर्यवसितां अत एव प्रश्नहेतुभूतां प्रतिभामाह इति मे प्रतिभातीति।यच्छ्रेयः इत्यादेरन्वयफलितार्थमुपदेशयोग्यत्वायोक्तां शिष्यगुणसम्पत्तिं च स्फुटयति यन्मह्यमित्यादिना। निश्चेतव्याकारनिष्कर्षणाय इतिकरणम्। शासनीयो हि शिष्यः अतःशिष्यस्तेऽहं शाधि माम् इति वदति। स्वभावोऽत्र धैर्यम् कर्तव्यविशेषाज्ञानात् शोकापनोदनोपायराहित्यादिना वा अतिमात्रकार्पण्यम्। त्याज्यस्यापरित्यागोऽत्र कार्पण्यमित्येके दयाजनकदीनवृत्तिनिरतत्वमित्यपरे।भगवत्पादाम्बुजमुपससारेति शिष्यत्वप्रपन्नत्वाद्युक्तिफलमेव।
।।2.8।।ननु मित्रत्वाच्छरणागतत्वाच्च यथेच्छा तव भवति तथैव मया कर्त्तव्यमिति चेत्तत्राह नहीति। भूमौ असपत्नमद्वितीयं शुद्धं सर्वविभूतिमद्राज्यमवाप्य प्राप्य अपरत्र सुराणामाधिपत्यमिन्द्रैश्वर्यमपि प्राप्य इन्द्रियाणां उच्छोषणमतिशोषणकरमभिलाषपूरकं किमपि नास्ति अतो यन्मच्छोकमपनुद्यादपनयेत् तदहं न प्रपश्यामि। अतः किं विज्ञापयामीति भावः। हीति युक्तश्चायमर्थः। यतो दुरापूराणीन्द्रियाणि।
।।2.8 2.9।।ननु क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतपेति युद्धमेव श्रेय इत्युक्तं किं पुनः पृच्छसीत्यत आह  नहीति।  बन्धुनाशनिमित्तः शोको राज्यलाभेन स्वर्गाधिपत्यलाभेन वा न निवर्तयिष्यत इति युद्धादन्यं कंचित् निवृत्तिरूपं शमोपायं ब्रूहीत्याशयः। अत्रार्जुनविषादव्याजेन ब्रह्मविद्याधिकारिविशेषणं भैक्षचर्या इहामुत्रार्थफलभोगविरागश्च दर्शितः।
।।2.8।।   ननु विजयिनो लब्धभूमिराज्यस्य हतस्य स्वधर्मबलादिन्द्रपुत्रत्वाद्वा प्राप्तदेवाधिपत्यस्य वा तवाज्ञाननि बन्धनशोकापनोदकोऽपि यः कश्चित्सुलभो भविष्यतीति चेतत्राह  नहीति।  यदित्यव्ययम्। भूमौ राज्यमसपत्नं न विद्यते सपन्नः शत्रुर्यस्य तत्। निष्कण्टकमित्यर्थः। ऋद्धं सस्यादिसंपन्नं सुराणामाधिपत्यं वा प्राप्यामि तन्नहि प्रपश्यामि यः शोकमिन्द्रियाणामुच्छोषण्मत्यन्तशोषकरं ममापनुद्यादपनयेदित्यन्वयः। अतस्त्वमेवेदानीमेव शोकमपाकुर्वित्यभिप्रायः। कुतो निःश्रेयसमेवेच्छसीति तत्राह  नहीति।  यस्मान्ममापनुद्याद्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणां तन्न पश्यामि। ननु शत्रून्निहत्य राज्ये प्राप्ते शोकनिवृत्तिस्ते भविष्यति नेत्याह  अवाप्येति।  अविद्यमानः सपन्नः शत्रुर्यस्य तदृद्धं राज्यं राज्ञः कर्म प्रजारक्षणशासनादि तदिदमस्यां भूमाववाप्यापि शोकापनयनकारणं न पश्यामीत्यर्थः। तर्हि देवेन्द्रत्वादिप्राप्त्या शोकापनयस्ते भविष्यति नेत्याह  सुराणामपीति।  तेषामाधिपत्यमधिपतित्वं स्वाम्यमिन्द्रत्वं ब्रह्मत्वं वा तदवाप्यापि मम शोको नापगच्छतीत्यर्थ इत्येके।
null
2.8 I do not see that it would remove this sorrow that burns up my senses, even if I should attain prosperous and unrivalled dominion on earth or lordship over the gods.
2.8 For should I attain the monarchy of the visible world, or over the invisible world, it would not drive away the anguish which is now paralysing my senses."
2.8 Because, I do not see that which can, even after aciring on this earth a prosperous kingdom free from enemies and even sovereignty over the gods, remove my sorrow (which is) blasting the senses.
null
2.8. I do not clearly see what would drive out my grief, the scorcher of my sense-organs, even after achieving, a prosperous and unrivalled kingship in this earth and also the overlordship of the gods [in the heaven].
2.8 See Comment under 2.10
2.6 - 2.8 If you say, 'After beginning the war, if we withdraw from the battle, the sons of Dhrtarastra will slay us all forcibly', be it so. I think that even to be killed by them, who do not know the difference between righteousness and unrighteousness, is better for us than gaining unrighteous victory by killing them. After saying so, Arjuna surrendered himself at the feet of the Lord, overcome with dejection, saying. 'Teach me, your disciple, who has taken refuge in you, what is good for me.'
2.8 Even if I should win unchallenged sovereignty of a prosperous earth or even the kingdom on lordship over the Devas, I do not feel that it would dispel the grief than withers up my senses.
।।2.8।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
null
null
null
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्। अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धम् राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।2.8।।
ন হি প্রপশ্যামি মমাপনুদ্যা- দ্যচ্ছোকমুচ্ছোষণমিন্দ্রিযাণাম্৷ অবাপ্য ভূমাবসপত্নমৃদ্ধম্ রাজ্যং সুরাণামপি চাধিপত্যম্৷৷2.8৷৷
ন হি প্রপশ্যামি মমাপনুদ্যা- দ্যচ্ছোকমুচ্ছোষণমিন্দ্রিযাণাম্৷ অবাপ্য ভূমাবসপত্নমৃদ্ধম্ রাজ্যং সুরাণামপি চাধিপত্যম্৷৷2.8৷৷
ન હિ પ્રપશ્યામિ મમાપનુદ્યા- દ્યચ્છોકમુચ્છોષણમિન્દ્રિયાણામ્। અવાપ્ય ભૂમાવસપત્નમૃદ્ધમ્ રાજ્યં સુરાણામપિ ચાધિપત્યમ્।।2.8।।
ਨ ਹਿ ਪ੍ਰਪਸ਼੍ਯਾਮਿ ਮਮਾਪਨੁਦ੍ਯਾ- ਦ੍ਯਚ੍ਛੋਕਮੁਚ੍ਛੋਸ਼ਣਮਿਨ੍ਦ੍ਰਿਯਾਣਾਮ੍। ਅਵਾਪ੍ਯ ਭੂਮਾਵਸਪਤ੍ਨਮਰਿਦ੍ਧਮ੍ ਰਾਜ੍ਯਂ ਸੁਰਾਣਾਮਪਿ ਚਾਧਿਪਤ੍ਯਮ੍।।2.8।।
ನ ಹಿ ಪ್ರಪಶ್ಯಾಮಿ ಮಮಾಪನುದ್ಯಾ- ದ್ಯಚ್ಛೋಕಮುಚ್ಛೋಷಣಮಿನ್ದ್ರಿಯಾಣಾಮ್. ಅವಾಪ್ಯ ಭೂಮಾವಸಪತ್ನಮೃದ್ಧಮ್ ರಾಜ್ಯಂ ಸುರಾಣಾಮಪಿ ಚಾಧಿಪತ್ಯಮ್৷৷2.8৷৷
ന ഹി പ്രപശ്യാമി മമാപനുദ്യാ- ദ്യച്ഛോകമുച്ഛോഷണമിന്ദ്രിയാണാമ്. അവാപ്യ ഭൂമാവസപത്നമൃദ്ധമ് രാജ്യം സുരാണാമപി ചാധിപത്യമ്৷৷2.8৷৷
ନ ହି ପ୍ରପଶ୍ଯାମି ମମାପନୁଦ୍ଯା- ଦ୍ଯଚ୍ଛୋକମୁଚ୍ଛୋଷଣମିନ୍ଦ୍ରିଯାଣାମ୍| ଅବାପ୍ଯ ଭୂମାବସପତ୍ନମୃଦ୍ଧମ୍ ରାଜ୍ଯଂ ସୁରାଣାମପି ଚାଧିପତ୍ଯମ୍||2.8||
na hi prapaśyāmi mamāpanudyā- dyacchōkamucchōṣaṇamindriyāṇām. avāpya bhūmāvasapatnamṛddham rājyaṅ surāṇāmapi cādhipatyam৷৷2.8৷৷
ந ஹி ப்ரபஷ்யாமி மமாபநுத்யா- த்யச்சோகமுச்சோஷணமிந்த்ரியாணாம். அவாப்ய பூமாவஸபத்நமரித்தம் ராஜ்யஂ ஸுராணாமபி சாதிபத்யம்৷৷2.8৷৷
న హి ప్రపశ్యామి మమాపనుద్యా- ద్యచ్ఛోకముచ్ఛోషణమిన్ద్రియాణామ్. అవాప్య భూమావసపత్నమృద్ధమ్ రాజ్యం సురాణామపి చాధిపత్యమ్৷৷2.8৷৷
2.9
2
9
।।2.9।। संजय बोले - हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र! ऐसा कहकर निद्राको जीतनेवाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् गोविन्दसे 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये।
।।2.9।। संजय ने कहा -- इस प्रकार गुडाकेश परंतप अर्जुन भगवान् हृषीकेश से यह कहकर कि हे गोविन्द "मैं युद्ध नहीं करूँगा" चुप हो गया।।
।।2.9।। संजय आगे वर्णन करते हुये कहता है कि भगवान् की शरण में जाकर गुडाकेशनिद्राजित एवं शत्रु प्रपीड़क अर्जुन ने यह कहा कि वह युद्ध नहीं करेगा और फिर वह मौन हो गया।केवल एक अंध धृतराष्ट्र को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार या सार्मथ्य नहीं थी कि वह युद्ध को इन क्षणों में भी रोक सके। अवश्यंभावी और अपरिहार्य युद्ध को धृतराष्ट्र द्वारा रोकने की क्षीण आशा संजय के हृदय में थी। शत्रुपीड़क अर्जुन अब तीनों जगत् को जीतने वाले (गोविन्द) भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में पहुँच गया था इसलिये उसकी विजय अब निश्चित थी परन्तु जन्मान्ध धृतराष्ट्र ने किसी की भी श्रेष्ठ सलाह को अत्यधिक पुत्र प्रेम के कारण नहीं सुना।
।।2.9।। व्याख्या--'एवमुक्त्वा हृषीकेषम् ৷৷. बभूव ह'-- अर्जुनने अपना और भगवान् का--दोनोंका पक्ष सामने रखकर उनपर विचार किया, तो अन्तमें वे इसी निर्णयपर पहुँचे कि युद्ध करनेसे तो अधिक-से-अधिक राज्य प्राप्त हो जायगा, मान हो जायगा, संसारमें यश हो जायगा, परन्तु मेरे हृदयमें जो शोक है, चिन्ता है, दुःख है, वे दूर नहीं होंगे। अतः अर्जुनको युद्ध न करना ही ठीक मालूम दिया। यद्यपि अर्जुन भगवान्की बातका आदर करते हैं और उसको मानना भी चाहते हैं; परंतु उनके भीतर युद्ध करनेकी बात ठीक-ठीक जँच नहीं रही है। इसलिये अर्जुन अपने भीतर जँची हुई बातको ही यहाँ स्पष्टरूपसे, साफ-साफ कह देते हैं कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'। इस प्रकार जब अपनी बात, अपना निर्णय भगवान्से साफ-साफ कह दिया, तब भगवान्से कहनेके लिये और कोई बात बाकी नहीं रही; अतः वे चुप हो जाते हैं। सम्बन्ध-- जब अर्जुनने युद्ध करनेके लिये साफ मना कर दिया तब उसके बाद क्या हुआ--इसको सञ्जय आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।2.7 2.10।।कार्पण्येत्यादि। सेनयोरुभयोर्मध्ये इत्यादिनेदं सूचयति संशयाविष्टोऽर्जुनो नैकपक्षेण ( नोऽनेक ) युद्धान्निवृत्तः यत एवमाह स्म शाधि मा त्वां (S omits त्वाम्) प्रपन्नम् इति। अतः उभयोरपि ज्ञानाज्ञानयोर्मध्यगः श्रीभगवतानुशिष्यते।
।।2.9।।संजय उवाच एवं अस्थाने समुपस्थितस्नेहकारुण्याभ्याम् अप्रकृतिं गतं क्षत्रियाणां युद्धं परमं धर्मम् अपि अधर्मं मन्वानं धर्मबुभुत्सया च शरणागतं पार्थम् उद्दिश्य आत्मयाथात्म्यज्ञानेन युद्धस्य फलाभिसन्धिरहितस्य स्वधर्मस्य आत्मयाथार्थ्यप्राप्त्युपायताज्ञानेन च विना अस्य मोहो न शाम्यति इति मत्वा भगवता परमपुरुषेण अध्यात्मशास्त्रावतरणं कृतम्। तदुक्तम्अस्थाने स्नेहकारुण्यधर्माधर्मधियाकुलम्। पार्थं प्रपन्नमुद्दिश्य शास्त्रावतरणं कृतम्।। (गीतार्थसंग्रह 5) इति।।तम् एवं देहात्मनोः याथात्म्यज्ञाननिमित्तशोकाविष्टं देहातिरिक्तात्मज्ञाननिमित्तिं च धर्मं भाषमाणं परस्परं विरुद्धगुणान्वितम् उभयोः सेनयोः युद्धाय उद्युक्तयोः मध्ये अकस्मात् निरुद्योगं पार्थम् आलोक्य परमपुरुषः प्रहसन् इव इदम् उवाच। परिहासवाक्यं वदन् इव आत्मपरमात्मयाथात्म्यतत्प्राप्त्युपायभूतकर्मयोगज्ञानयोगभक्तियोगगोचरम्न त्वेवाहं जातु नासम् (गीता 2।12) इत्यारभ्यअहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। (गीता 18।66) इत्येतदन्तम् उवाच इत्यर्थः।
।।2.9।।एवमर्जुनेन स्वाभिप्रायं भगवन्तं प्रति प्रकाशितं संजयो राजानमावेदितवानित्याह  संजय इति।  एवं प्रागुक्तप्रकारेण भगवन्तं प्रत्युक्त्वा परंतपोऽर्जुनो न योत्स्ये न संप्रहरिष्येऽत्यन्तासह्यशोकप्रसङ्गादिति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीमब्रुवन्बभूव किलेत्यर्थः।
।।2.9।।एवमुक्त्वाऽर्जुनः किं कृतवानित्यपेक्षायां सञ्जय उवाच एवमिति। गुडाका निद्रा तस्या ईशः तन्द्रारहितोऽपि गुडाऽलको वा। सर्वेन्द्रियाध्यक्षं गोविन्दं शरणागतः व्रजेन्द्रमिति।न योत्स्ये इत्युक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।
।।2.9।।तदनन्तरमर्जुनः किं कृतवानिति धृतराष्ट्राकाङ्क्षायां गुडाकेशो जितालस्यः परंतपः शत्रुतापनोऽर्जुनः हृषीकेशं सर्वेन्द्रियप्रवर्तकत्वेनान्तर्यामिणं गोविन्दं गां वेदलक्षणां वाणीं विन्दतीति व्युत्पत्त्या सर्ववेदोपादानत्वेन सर्वज्ञम्। आदौ एवंकथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादिना युद्धस्वरूपायोग्यतामुक्त्वा तदनन्दरंन योत्स्ये इति युद्धफलाभावं चोक्त्वा तूष्णीं बभूव। बाह्येन्द्रियव्यापारस्य युद्धार्थं पूर्वं कृतस्य निवृत्त्या निर्व्यापारो जात इत्यर्थः। स्वभावतो जितालस्ये सर्वशत्रुतापने च तस्मिन्नागन्तुकमालस्यमतापकत्वं च नास्पदमादधातीति द्योतयितुं हशब्दः। गोविन्दहृषीकेशपदाभ्यांसर्वज्ञत्वसर्वशक्तित्वसूचकाभ्यां भगवतस्तन्मोहापनोदनमनायाससाध्यमिति सूचितम्।
।।2.9।।एवमुक्त्वाऽर्जुनः किं कृतवानित्यपेक्षायां संजय उवाच। एवमिति स्पष्टार्थः।
।।2.9।।एवमुक्त्वा इति श्लोके हृषीकेशपदेन सदर्थश्रवणायार्जुनहृषीकप्रेरकत्वम्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् इत्याद्युक्तेन्द्रियक्षोभशान्तिकरत्वं च व्यञ्जितम्। हृष्यन्ति हर्षयन्तीति वा हृषीकाणि इन्द्रियाणि। एवमुक्त्वा स्वावस्थाभावेद्येत्यर्थः।निद्रालस्ये गुडाका स्यात् इति गुडाका निद्रा तस्या ईशो गुडाकेशः प्रबुद्धस्वभाव इत्यर्थः। पिण्डितकेश इति वा। गोविन्दशब्देन शोकापनोदनयोग्यवाक्छालित्वम् गोशब्दनिर्दिष्टाया भुवो भारावतरणार्थं प्रवृत्तत्वं च अभिप्रेतम्।एवमनेनोपोद्धातेनोचितावसरे वक्ष्यमाणशास्त्रावतरणसङ्गतिं वदन् अर्थादुपोद्धातसङ्ग्रहश्लोकं च व्याकरोति एवमिति। अस्थानशब्दस्यविषमे समुपस्थितम् 2।2 इत्येतद्विषयत्वं व्यञ्जयन् तस्य स्नेहकारुण्याभ्यामेवान्वयाय तयोः पृथङ्निर्देशं कृतवान्।अप्रकृतिङ्गतम् इति आकुलशब्दार्थ उक्तः। तेन स्वभावतो धीरत्वं सूच्यते।उपहतस्वभावः 2।7 इति हि स्वेनैवोक्तम्। एतेन कार्पण्यदोषोपहतस्वभावत्वं धर्मसम्मूढचेतस्त्वे हेतुतयोक्तमित्यपि दर्शितम्।धर्मसम्मूढचेताः 2।7 इत्येतद्विवरणरूपस्यधर्माधर्मधिया इत्यस्य अर्थःक्षत्रियाणामित्यादिनोक्तः। धर्मे अधर्मधीः धर्माधर्मधीः शुक्तिकारजतधीरितिवत् तत्र यथार्थख्यातिपक्षे भेदाग्रहो विवक्षितः। तामसी चेयं धीःअधर्मं धर्ममिति या मन्यते 18।32 इत्यादि हि वक्ष्यते। अत्रास्थानस्नेहकारुण्याभ्यां जाता धर्माधर्मधीरिति विग्रहो द्रष्टव्यः। स्नेहकारुण्यधर्माधर्मभयाकुल इत्यादिप्राचीनभाष्यानुसारेण।धर्माधर्मभयाकुलम् इति पाठे तु त्रयाणां द्वन्द्वः।पृच्छामि त्वां 2।7 इत्यादिसमभिव्याहृतप्रपन्नशब्दार्थःधर्मबुभुत्सया च शरणागतमित्युक्तः। एवं योग्योद्देशेन प्रवृत्तिर्युज्यत इत्याह पार्थमुद्दिश्येति। व्याजलाभमात्रेण शास्त्रावतरणं कृतमिति भावः।आकुलं पार्थमुद्दिश्य गी.सं.5 इत्यस्य तात्पर्यंआत्मेत्यादिनामत्वेत्यन्तेनोक्तम्। आत्मनो याथात्म्यं नित्यत्वभगवदधीनत्वादिकम्नहि प्रपश्यामि 2।8 इत्यादिकं वदतोऽस्यायमेव शोकनिरासोपाय इति भावः।कृतम् इत्यस्य केनेत्याकाङ्क्षायां प्रबन्धकर्तृभूतव्यासादिशङ्काव्यावर्तनायोक्तंभगवता परमपुरुषेणेति। अनेन पदद्वयेन शास्त्रप्रामाण्याद्युपयुक्तमुभयलिङ्गत्वादिकमभिप्रेतम्। अन्यपरशास्त्रान्तरव्युदासायअध्यात्मेति विशेषितम्। अस्यार्थस्य साम्प्रदायिकत्वायाह तदुक्तमिति। प्रत्यध्यायं सङ्ग्रहश्लोकैरर्थभेदेऽभिधीयमानेऽपि इतः पूर्वस्य द्वितीयाध्यायैकदेशस्यापि शास्त्रोपोद्धातत्वम्। अतः परस्य शास्त्रावतरणरूपत्वं च विवेक्तुंअस्थान इत्यादिना संग्रहश्लोकेनानिर्दिष्टप्रथमाध्यायेनैतावत्सङ्गृहीतम्। महर्षिस्तु शोकतदपनोदनरूपकथावान्तरसङ्गत्यातं तथा 2।1 इत्यादिकं द्वितीयेऽध्याये न्यवीविशत् इदमपि सूचितम्तन्मोहशान्तये गी.सं.6 इति द्वितीयाध्यायफलं सङ्गृह्णद्भिः। ततश्चास्थानस्नेहाद्याकुलत्वं प्रथमाध्यायार्थः सविशेषः स एवात्र सङ्गत्यर्थमनूदित इत्यपि दर्शितं भवति। नन्वेवंविधमुद्दिश्य कथमपृष्टकर्मयोगज्ञानयोगभक्तियोगादिविषयं शास्त्रमुपदिश्यतेनापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयात् मनुः2।110 इति हि स्मरन्ति। विशेषतश्चायं गुह्यगुह्यतरगुह्यतमप्रकारोऽर्थः सहसोपदेष्टुमयुक्तः।तस्माद्युध्यस्व भारत 2।18युद्धाय कृतनिश्चयः 2।37 इत्यादिषु च प्राकरणिकयुद्धप्रोत्साहनपरत्वमेव प्रतीयते। अतो नास्य शास्त्रस्याध्यात्मपरत्वमिति। अत्रोच्यते यच्छ्रेयः स्यात् 2।7 इति प्रश्नवाक्येयच्छ्रेयः इत्यनिर्धारितविशेषं दृश्यते। न चार्जुनस्य युद्धमेव श्रेयस्त्वेन जिज्ञास्यमित्यस्ति नियमः परमास्तिकस्य तस्य भगवति सन्निहिते प्रस्तुतमुखेन परमनिश्श्रेयसपर्यन्तजिज्ञासोपपत्तेः। अस्तु वा तस्य युद्धमात्रविषया जिज्ञासा तथापि परमकारुणिकेन भगवतायच्छ्रेयः इति सामान्यवचनमालम्ब्य परमहितोपदेश उपपन्नः।युध्यस्व इत्यादिकमपि परमनिश्श्रेयसोपायतयेति तत्रतत्र व्यक्तम्। तस्माद्युक्तमिदंअध्यात्मशास्त्रावतरणमिति।
।।2.9।।एवमुक्त्वाऽर्जुनः किं कृतवानित्यत आह एवमुक्त्वेति। गुडाकेशोऽर्जुनः हृषीकेशं तथेन्द्रियप्रेरकमेवमुक्त्वा पूर्वोक्तप्रकारमुक्त्वा गोविन्दं भक्तपरिपालकंन योत्स्ये इत्युक्त्वा तूष्णीं बभूव। ह इत्याश्चर्ये। भगवदुक्तोऽपि न राज्यस्य स्पृहालुर्जातः। परन्तप उत्कृष्टं तपो यस्येति सम्बोधनम् त्वदीयाः श्रीकृष्णसम्मुखे जीवितं त्यक्त्वा कृतार्था भविष्यन्ति इत्यभिप्रायेण। अत एवपार्थास्त्रपूताः पदमापुरस्य भाग.3।2।20 इति वचनं गीयते।
।।2.8 2.9।।ननु क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतपेति युद्धमेव श्रेय इत्युक्तं किं पुनः पृच्छसीत्यत आह  नहीति।  बन्धुनाशनिमित्तः शोको राज्यलाभेन स्वर्गाधिपत्यलाभेन वा न निवर्तयिष्यत इति युद्धादन्यं कंचित् निवृत्तिरूपं शमोपायं ब्रूहीत्याशयः। अत्रार्जुनविषादव्याजेन ब्रह्मविद्याधिकारिविशेषणं भैक्षचर्या इहामुत्रार्थफलभोगविरागश्च दर्शितः।
।।2.9।।जिताज्ञाननिन्द्रोऽपि शत्रुतापनोऽपि हृषीकेशनियमितसर्वेन्द्रियोऽज्ञानं युद्धोपरतिं चाङ्गीकृत्य लोकोद्धारार्थ वेदार्थप्रकाशनाय वेदज्ञं परमात्मानं गोविन्दमेवमुक्त्वा तूष्णीं बभूवेति सूचयन्नाह  एवमिति।  एवं पूर्वोक्तप्रकारेण हृषीकेशं सर्वेन्द्रियनियन्तारमुक्त्वा गुडाकेशोऽर्जुनः परंतपः शत्रुतापनो न योत्स्ये युद्धं न करिष्यामीति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं वाग्व्यापारविनिर्मुक्तो बभूवेत्यर्थः। हेति वाक्यालंकारे। स्वभावतो जितालस्ये सर्वशत्रुतापने च तस्मिन्नागन्तुकमालस्यमतापकत्वं च नास्पदमध्यास्यतीति द्योतियितुं हशब्दः। गोविन्दहृषीकेशपदाभ्यां सर्वज्ञत्वसर्वशक्तित्वसूचकाभ्यां भगवतस्तन्मोहापनोदनमनायाससाध्यमिति सूचितमिति केचित्।
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2.9 Sanjaya said Having spoken thus to Hrishikesha (the Lord of the senses), Arjuna (the coneror of sleep), the destroyer of foes, said to Krishna, "I will not fight" and became silent.
2.9 Sanjaya continued: "Arjuna, the conqueror of all enemies, then told the Lord of All-Hearts that he would no fight, and became silent, O King!
2.9 Sanjaya said Having spoken thus to Hrsikesa (Krsna), Gudakesa (Arjuna), the afflictor of foes, verily became silent, telling Govinda, 'I shall not fight.' fight.'
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2.9. Sanjaya said O scorcher of foes (O Dhrtarastra) ! Having spoken to Hrsikesa (the master of sense-organs), Govinda (Krsna) in this manner, and having declared 'I will not fight', Gudakesa (Arjuna), became silent !
2.9 See Comment under 2.10
2.9 - 2.10 Sanjaya said Thus, the Lord, the Supreme Person, introduced the Sastra regarding the self for the sake of Arjuna - whose natural courage was lost due to love and compassion in a misplaced situation, who thought war to be unrighteous even though it was the highest duty for warriors (Ksatriyas), and who took refuge in Sri Krsna to know what his right duty was -, thinking that Arjuna's delusion would not come to an end except by the knowledge of the real nature of the self, and that war was an ordained duty here which, when freed from attachment to fruits, is a means for self-knowledge. Thus, has it been said by Sri Yamunacarya: 'The introduction to the Sastra was begun for the sake of Arjuna, whose mind was agitated by misplaced love and compassion and by the delusion that righteousness was unrighteousness, and who took refuge in Sri Krsna.' The Supreme Person spoke these words as if smiling, and looking at Arjuna, who was thus overcome by grief resulting from ignorance about the real nature of the body and the self, but was nevertheless speaking about duty as if he had an understanding that the self is distinct from the body, and while he (Arjuna), torn between contradictory ideas, had suddenly become inactive standing between the two armies that were getting ready to fight. Sri Krsna said, as if in ridicule, to Arjuna the words beginning with, 'There never was a time when I did not exist' (II. 12), and ending with 'I will release you from all sins; grieve not!' (XVIII. 66) - which have for their contents the real nature of the self, of the Supreme Self, and of the paths of work (Karma), knowledge (Jnana) and devotion (Bhakti) which constitute the means for attaining the highest spiritual fulfilment.
2.9 Sanjaya said Having spoken thus to Sri Krsna, Arjuna, the coneror of sleep and the scorcher of foes, said, 'I will not fight' and became silent.
।।2.9।।No such translation is available. Translation starts from 2.10
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सञ्जय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप। न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।2.9।।
সঞ্জয উবাচ এবমুক্ত্বা হৃষীকেশং গুডাকেশঃ পরন্তপ৷ ন যোত্স্য ইতি গোবিন্দমুক্ত্বা তূষ্ণীং বভূব হ৷৷2.9৷৷
সঞ্জয উবাচ এবমুক্ত্বা হৃষীকেশং গুডাকেশঃ পরন্তপ৷ ন যোত্স্য ইতি গোবিন্দমুক্ত্বা তূষ্ণীং বভূব হ৷৷2.9৷৷
સઞ્જય ઉવાચ એવમુક્ત્વા હૃષીકેશં ગુડાકેશઃ પરન્તપ। ન યોત્સ્ય ઇતિ ગોવિન્દમુક્ત્વા તૂષ્ણીં બભૂવ હ।।2.9।।
ਸਞ੍ਜਯ ਉਵਾਚ ਏਵਮੁਕ੍ਤ੍ਵਾ ਹਰਿਸ਼ੀਕੇਸ਼ਂ ਗੁਡਾਕੇਸ਼ ਪਰਨ੍ਤਪ। ਨ ਯੋਤ੍ਸ੍ਯ ਇਤਿ ਗੋਵਿਨ੍ਦਮੁਕ੍ਤ੍ਵਾ ਤੂਸ਼੍ਣੀਂ ਬਭੂਵ ਹ।।2.9।।
ಸಞ್ಜಯ ಉವಾಚ ಏವಮುಕ್ತ್ವಾ ಹೃಷೀಕೇಶಂ ಗುಡಾಕೇಶಃ ಪರನ್ತಪ. ನ ಯೋತ್ಸ್ಯ ಇತಿ ಗೋವಿನ್ದಮುಕ್ತ್ವಾ ತೂಷ್ಣೀಂ ಬಭೂವ ಹ৷৷2.9৷৷
സഞ്ജയ ഉവാച ഏവമുക്ത്വാ ഹൃഷീകേശം ഗുഡാകേശഃ പരന്തപ. ന യോത്സ്യ ഇതി ഗോവിന്ദമുക്ത്വാ തൂഷ്ണീം ബഭൂവ ഹ৷৷2.9৷৷
ସଞ୍ଜଯ ଉବାଚ ଏବମୁକ୍ତ୍ବା ହୃଷୀକେଶଂ ଗୁଡାକେଶଃ ପରନ୍ତପ| ନ ଯୋତ୍ସ୍ଯ ଇତି ଗୋବିନ୍ଦମୁକ୍ତ୍ବା ତୂଷ୍ଣୀଂ ବଭୂବ ହ||2.9||
sañjaya uvāca ēvamuktvā hṛṣīkēśaṅ guḍākēśaḥ parantapa. na yōtsya iti gōvindamuktvā tūṣṇīṅ babhūva ha৷৷2.9৷৷
ஸஞ்ஜய உவாச ஏவமுக்த்வா ஹரிஷீகேஷஂ குடாகேஷஃ பரந்தப. ந யோத்ஸ்ய இதி கோவிந்தமுக்த்வா தூஷ்ணீஂ பபூவ ஹ৷৷2.9৷৷
సఞ్జయ ఉవాచ ఏవముక్త్వా హృషీకేశం గుడాకేశః పరన్తప. న యోత్స్య ఇతి గోవిన్దముక్త్వా తూష్ణీం బభూవ హ৷৷2.9৷৷
2.10
2
10
।।2.10।। हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र! दोनों सेनाओंके मध्यभागमें विषाद करते हुए उस अर्जुनके प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
।।2.10।। हे भारत (धृतराष्ट्र) ! दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकमग्न अर्जुन को भगवान् हृषीकेश ने हँसते हुए से यह वचन कहे।।
।।2.10।। इस प्रकार धर्म और अधर्म शुभ और अशुभ इन दो सेनाओं के संव्यूहन के मध्य अर्जुन (जीव) पूर्ण रूप से अपने सारथी भगवान् श्रीकृष्ण (सूक्ष्म विवेकवती बुद्धि) की शरण में आत्मसमर्पण करता है जो पाँच अश्वों (पंच ज्ञानेन्द्रियों) द्वारा चालित रथ (देह) अपने पूर्ण नियन्त्रण में रखते हैं।ऐसे दुखी और भ्रमित व्यक्ति जीव अर्जुन को श्रीकृष्ण सहास्य उसकी अन्तिम विजय का आश्वासन देने के साथ ही गीता के आत्ममुक्ति का आध्यात्मिक उपदेश भी करते हैं जिसके ज्ञान से सदैव के लिये मनुष्य के शोक मोह की निवृत्ति हो जाती है।उपनिषद् के रूपक को ध्यान में रखकर यदि हम संजय द्वारा चित्रित दृश्य का वर्णन उपर्युक्त प्रकार से करें तो इसमें हमें सनातन पारमार्थिक सत्य के दर्शन होंगे। जब जीव (अर्जुन) विषादयुक्त होकर शरीर में (देह) स्थित हो जाता है और सभी स्वार्थ पूर्ण कर्मों के साधनों (गाण्डीव) को त्यागकर इन्द्रियों को (श्वेत अश्व) मन की लगाम के द्वारा संयमित करता है तब सारथि (शुद्ध बुद्धि) जीव को धर्म शक्ति की सहायता से वह दैवी सार्मथ्य और मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे अधर्म की बलवान सेना को भी परास्त कर जीव सम्पूर्ण विजय को प्राप्त करता है।
2.10।। व्याख्या-- तमुवाच हृषीकेषशः ৷৷. विषीदन्तमिदं वचः-- अर्जुनने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान्से दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेके लिये कहा था। अब वहींपर अर्थात् दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुन विषादमग्न हो गये! वास्तवमें होना यह चाहिये था कि वे जिस उद्देश्यसे आये थे, उस उद्देश्यके अनुसार युद्धके लिये खड़े हो जाते। परन्तु उस उद्देश्यको छोड़कर अर्जुन चिन्ता-शोकमें फँस गये। अतः अब दोनों सेनाओंके बीचमें ही भगवान् शोकमग्न अर्जुनको उपदेश देना आरम्भ करते हैं। 'प्रहसन्निव'-- (विशेषतासे हँसते हुएकी तरह-) का तात्पर्य है कि अर्जुनके भाव बदलनेको देखकर अर्थात् पहले जो युद्ध करनेका भाव था, वह अब विषादमें बदल गया--इसको देखकर भगवान्को हँसी आ गयी। दूसरी बात, अर्जुनने पहले (2। 7 में) कहा था कि मैं आपके शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये अर्थात् मैं युद्ध करूँ या न करूँ, मेरेको क्या करना चाहिये-- इसकी शिक्षा दीजिये; परन्तु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफसे ही निश्चय कर लिया कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'--यह देखकर भगवान्को हँसी आ गयी। कारण कि शरणागत होनेपर 'मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ' आदि कुछ भी सोचनेका अधिकार नहीं रहता। उसको तो इतना ही अधिकार रहता है कि शरण्य जो काम कहता है, वही काम करे। अर्जुन भगवान्के शरण होनेके बाद 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा कहकर एक तरहसे शरणागत होनेसे हट गये। इस बातको लेकर भगवान्को हँसी आ गयी। 'इव' का तात्पर्य है कि जोरसे हँसी आनेपर भी भगवान् मुस्कराते हुए ही बोले। जब अर्जुनने यह कह दिया कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' तब भगवान्को यहीं कह देना चाहिये था कि जैसी तेरी मर्जी आये, वैसा कर--'यथेच्छसि तथा कुरु'(18। 63)। परन्तु भगवान्ने यही समझा कि मनुष्य जब चिन्ता-शोकसे विकल हो जाता है, तब वह अपने कर्तव्यका निर्णय न कर सकनेके कारण कभी कुछ, तो कभी कुछ बोल उठता है। यही दशा अर्जुनकी हो रही है। अतः भगवान्के हृदयमें अर्जुनके प्रति अत्यधिक स्नेह होनेके कारण कृपालुता उमड़ पड़ी। कारण कि भगवान् साधकके वचनोंकी तरफ ध्यान न देकर उसके भावकी तरफ ही देखते हैं। इसलिये भगवान् अर्जुनके 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' इस वचनकी तरफ ध्यान न देकर (आगेके श्लोकसे) उपदेश आरम्भ कर देते हैं। जो वचनमात्रसे भी भगवान्के शरण हो जाता है भगवान् उसको स्वीकार कर लेते हैं। भगवान्के हृदयमें प्राणियोंके प्रति कितनी दयालुता है!  'हृषीकेश' कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं अर्थात् प्राणियोंके भीतरी भावोंको जाननेवाले हैं। भगवान् अर्जुनके भीतरी भावोंको जानते हैं कि अभी तो कौटुम्बिक मोहके वेगके कारण और राज्य मिलनेसे अपना शोक मिटता न दीखनेके कारण यह कह रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'; परन्तु जब इसको स्वयं चेत होगा ,तब यह बात ठहरेगी नहीं और मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही यह करेगा।  'इदं वचः उवाच' पदोंमें केवल 'उवाच' कहनेसे ही काम चल सकता था; क्योंकि 'उवाच' के अन्तर्गत ही 'वचः' पदका अर्थ आ जाता है। अतः 'वचः' पद देना पुनरूक्तिदोष दीखता है। परन्तु वास्तवमें यह पुनरुक्तिदोष नहीं है, प्रत्युत इसमें एक विशेष भाव भरा हुआ है। अभी आगेके श्लोकसे भगवान् जिस रहस्यमय ज्ञानको प्रकट करके उसे सरलतासे, सुबोध भाषामें समझाते हुए बोलेंगे, उसकी तरफ लक्ष्य करनेके लिये यहाँ  'वचः' दिया गया है। सम्बन्ध -- शोकाविष्ट अर्जुनको शोकनिवृत्तिका उपदेश देनेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण कहते हैं।
।।2.7 2.10।।कार्पण्येत्यादि। सेनयोरुभयोर्मध्ये इत्यादिनेदं सूचयति संशयाविष्टोऽर्जुनो नैकपक्षेण ( नोऽनेक ) युद्धान्निवृत्तः यत एवमाह स्म शाधि मा त्वां (S omits त्वाम्) प्रपन्नम् इति। अतः उभयोरपि ज्ञानाज्ञानयोर्मध्यगः श्रीभगवतानुशिष्यते।
।।2.10।।संजय उवाच एवं अस्थाने समुपस्थितस्नेहकारुण्याभ्याम् अप्रकृतिं गतं क्षत्रियाणां युद्धं परमं धर्मम् अपि अधर्मं मन्वानं धर्मबुभुत्सया च शरणागतं पार्थम् उद्दिश्य आत्मयाथात्म्यज्ञानेन युद्धस्य फलाभिसन्धिरहितस्य स्वधर्मस्य आत्मयाथार्थ्यप्राप्त्युपायताज्ञानेन च विना अस्य मोहो न शाम्यति इति मत्वा भगवता परमपुरुषेण अध्यात्मशास्त्रावतरणं कृतम्। तदुक्तम्अस्थाने स्नेहकारुण्यधर्माधर्मधियाकुलम्। पार्थं प्रपन्नमुद्दिश्य शास्त्रावतरणं कृतम्।। (गीतार्थसंग्रह 5) इति।।तम् एवं देहात्मनोः याथात्म्यज्ञाननिमित्तशोकाविष्टं देहातिरिक्तात्मज्ञाननिमित्तिं च धर्मं भाषमाणं परस्परं विरुद्धगुणान्वितम् उभयोः सेनयोः युद्धाय उद्युक्तयोः मध्ये अकस्मात् निरुद्योगं पार्थम् आलोक्य परमपुरुषः प्रहसन् इव इदम् उवाच। परिहासवाक्यं वदन् इव आत्मपरमात्मयाथात्म्यतत्प्राप्त्युपायभूतकर्मयोगज्ञानयोगभक्तियोगगोचरम्न त्वेवाहं जातु नासम् (गीता 2।12) इत्यारभ्यअहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। (गीता 18।66) इत्येतदन्तम् उवाच इत्यर्थः।
।।2.10।।तमर्जुनं सेनयोर्वाहिन्योरुभयोर्मध्ये विषीदन्तं विषादं कुर्वन्तमतिदुःखितं शोकमोहाभ्यामभिभूतं स्वधर्मात्प्रच्युतप्रायं प्रतीत्य प्रहसन्निवोपहासं कुर्वन्निव तदाश्वासार्थं हे भारत भरतान्वय इत्येवं संबोध्य भगवानिदं प्रश्नोत्तरं निःश्रेयसाधिगमसाधनं वचनमूचिवानित्याह  तमुवाचेति।
।।2.10।।ततः किं जातमिति तमुवाचेति। अहो अस्यात्मतत्त्वाज्ञानतः क्लैव्यं कीदृक् इति प्रहसन् धर्मिष्ठत्वादस्यैतदप्युचितमिति भावेनेत्युक्तम्।
।।2.10।।एवं युद्धमुपेक्षितवत्यप्यर्जुने भगवान्नोपेक्षितवानिति धृतराष्ट्रदुराशानिरासायाह सेनयोरुभयोर्मध्ये युद्धोद्यमेनागत्य तद्धिरोधिनं विषादं मोहं प्राप्नुवन्तं तमर्जुनं प्रहसन्निव अनुचिताचरणप्रकाशनेन लज्जाम्बुधौ मज्जयन्निव हृषीकेशः सर्वान्तर्यामी भगवानिदं वक्ष्यमाणमशोच्यानित्यादि वचः परमगम्भीरार्थमनुचिताचरणप्रकाशकमुक्तवान्नतूपेक्षितवानित्यर्थः। अनुचिताचरणप्रकाशनेन लज्जोत्पादनं प्रहासः। लज्जा च दुःखात्मिकेति द्वेषविषय एव मुख्यः। अर्जुनस्य तु भगवत्कृपाविषयत्वादनुचिताचरणप्रकाशनस्य च विवेकोत्पत्तिहेतुत्वादेकदलाभावेन गौण एवायं प्रहास इति कथयितुमिवशब्दः। लज्जामुत्पादयितुमिव विवेकमुत्पादयितुमर्जुनस्यानुचिताचरणं भगवता प्रकाश्यते लज्जोत्पत्तिस्तु नान्तरीयकतयास्तु मास्तु वेति न विवक्षितेति भावः। यदि युद्धारम्भात्प्रागेव गृहे स्थितो युद्धमुपेक्षेत तदा नानुचितं कुर्यात् महता संरम्भेण तु युद्धभूमावागत्य तदुपेक्षणमतीवानुचितमिति कथयितुं सेनयोरित्यादिविशेषणम्। एतच्चाशोच्यानित्यादौ स्पष्टं भविष्यति।
।।2.10।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायामाह  तमुवाचेति।  प्रहसन्निव प्रसन्नमुखः सन्नित्यर्थः।
।।2.10।।परिहासयोग्यत्वायतम् इति परामृष्टमाह एवमित्यादिना।उभयोः इत्यनेन सूचितमुक्तंयुद्धायोद्युक्तयोरिति। एतेनोपदेशावसरलाभो व्यञ्जितः।सीदमानम् इत्यनेन निरुद्योगत्वं फलितम्। युद्धविनिवृत्त्यनर्हावस्थाज्ञापकेनमध्ये इत्यनेनाभिप्रेतमाह अकस्मादिति। अधर्मादिः पराजयादिर्वा युद्धनिवृत्तेः सम्यग्घेतुरत्र नास्ति अहेतुकोपक्रान्तत्यागे तु परिहास्यत्वमिति भावः। अत्र हृषीकेशत्वोक्तिफलितं वक्ष्यमाणशास्त्रप्रामाण्याद्युपयुक्तं वक्तुः पुरुषस्य सर्ववैलक्षण्यंपरमपुरुष इति दर्शितम्। यद्यप्यसौ हृषीकेशत्वात्पार्थस्य हृषीकादिकं सर्वं सङ्कल्पमात्रेण नियम्य भूभारावतारणाय प्रेरयितुं शक्तः तथापि जगदुपकृतिमर्त्यतया पार्थतदितरात्मसाधारणपुरुषार्थोपायशास्त्रोपदेशद्वारा प्रवर्तयतीति भावः। यद्वा धीरमर्जुनं हृषीकेशतया स्वयं प्रक्षोभ्य प्रहसन्निव जगदुपकाराय शास्त्रमुवाचेति सम्बन्धविशेषात् समनन्तरवाक्यपर्यालोचनया च परिहासार्थत्वौचित्यात् प्रहासस्य पार्थकर्मकत्वमुक्तम्। यद्वा प्रपन्नस्य दोषनिरीक्षणेन परिहासासम्भवं शिष्यं प्रत्यध्यात्मोपदेशे प्रहासमात्रं दृष्टान्तानुपयोगं च अभिप्रेत्यपार्थशब्दः। अतःप्रहसन्निव इत्यनेन फलितं सरसत्वं सुग्रहत्वं निखिलनिगमान्तगह्वरनिलीनस्य महतोऽर्थजातस्यानायासभाषणम्इदंशब्दस्य वक्ष्यमाणसमस्तभगवद्वाक्यविषयत्वम् इङ्गितेनापि विवक्षितसूचनं च दर्शयति परिहासेत्यादिना।अशोच्यान् इतिश्लोकस्यापि उपदेशार्थावधानापादनार्थपरिहासच्छायतया शास्त्रावतरणमात्रत्वेन साक्षाच्छास्त्रत्वाभावात्न त्वेवाहम् इत्यारभ्य इत्युक्तम्। यद्वाऽत्रअशोच्यान् 2।11 इति श्लोकः प्रहसन्निवेत्यस्य विषयःन त्वेवाहम् 2।12इत्यादिकमिदंशब्दार्थः। अत्रमां शुचः 16।5 इत्येतदन्तंभक्तियोगगोचरमिति निर्देशः सर्वसाधकस्यापि चरमश्लोकोक्तप्रपदनस्य प्रकृतान्वयेन भक्तिविरोधिनिवर्तकतयोदाहरिष्यमाणत्वात्।
।।2.10।।ततो भगवान् किमुत्तरितवानित्याकाङ्क्षायामाह तमुवाचेति। हृषीकेशः विषीदन्तमर्जुनं प्रहसन्निव उभयोः सेनयोर्मध्ये इदं वचोऽग्रे वक्ष्यमाणमुवाच। स्वोक्ताकारिष्वपि स्वीयेषु भगवान् पुनर्वदति विश्वासार्थं सम्बोधने भारतेति।
।।2.10।। तमिति।  मूढोऽप्ययममूढवद्वदतीति प्रहसन्निव। इदं वक्ष्यमाणम्।
।।2.10।।   एतदनन्तरं भगवान्किं कृतवानित्यत आह  तमिति।  तं सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तं शोकमोहावङ्गीकुर्वन्तं अर्जुनं हृषीकेशो भगवान्वासुदेवः प्रहसन्निव मदाज्ञावशवर्तिनि त्वय्यहं प्रसन्नोऽस्मीति प्रकटयन्निवेदं वक्ष्यमाणं वचो वचनमुवाच। अनुचिताचरणप्रकाशनेन लज्जाम्बुधौ मज्जयन्निवेति केचित्। मूढोऽप्ययममूढवद्वदतीति प्रहसन्निवेत्यन्ये। त्वमपि भरतवंशोद्भवत्वाद्भगवद्वाक्यं सावधानतया श्रोतुमर्हसीति द्योतयन्संजयः प्रज्ञाचक्षुषं धृतराष्ट्रं संबोधयति भारतेति तदाश्वासार्थं भारतान्वयेत्येवं संबोध्य भगवांस्तमुवाचेत्येके।
null
2.10 To him who was despondent in the midst of the two armies, Krishna, as if smiling, O Bharata, spoke these words.
2.10 Thereupon the Lord, with a gracious smile, addressed him who was so much depressed in the midst of the two armies.
2.10 O descendant of Bharata, to him who was sorrowing between the two armies, Hrsikesa, mocking as it were, said these words:
2.10 And here, the text commencing from 'But seeing the army of the Pandavas' (1.2) and ending with '(he) verily became silent, telling Him (Govinda), "I shall not fight"' is to be explained as revealing the cause of the origin of the defect in the from of sorrow, delusion, etc. [Delusion means want of discrimination. Etc. stands for the secondary manifestations of sorrow and delusion, as also ignorance which is the root cause of all these.] which are the sources of the cycles of births and deaths of creatures. Thus indeed, Ajuna's own sorrow and delusion, cuased by the ideas of affection, parting, etc., originating from the erroneous belief, 'I belong to these; they belong to me', with regard to kingdom [See note under verse 8.-Tr.], elders, sons, comrades, well-wishers (1.26), kinsmen (1.37), relatives (1.34) and friends, have been shown by him with the words, 'How can I (fight)৷৷.in battle (against) Bhisma' (4), etc. It is verily because his discriminating insight was overwhelmed by sorrow and delusion that, even though he had become engaged in battle out of his own accord as a duty of the Ksatriyas, he desisted from that war and chose to undertake other's duties like living on alms etc. It is thus that in the case of all creatures whose minds come under the sway of the defects of sorrow, delusion, etc. there verily follows, as a matter of course, abandoning their own duties and resorting to prohibited ones. Even when they engage in their own duties their actions with speech, mind, body, etc., are certainly motivated by hankering for rewards, and are accompanied by egoism. [Egoism consists in thinking that one is the agent of some work and the enjoyer of its reward.] Such being the case, the cycle of births and deaths characterized by passing through desireable and undesirable births, and meeting with happiness, sorrow, etc. [From virtuous deeds follow attainment of heaven and happiness. From unvirtuous, sinful deeds follow births as beasts and other lowly beings, and sorrow. From the performance of both virtuous and sinful deeds follows birth as a human being, with a mixture of happiness and sorrow.] from the accumulation of virtue and vice, continues unendingly. Thus, sorrow and delusion are therefore the sources of the cycles of births and deaths. And their cessation comes from nothing other than the knowledge of the Self which is preceded by the renunciation of all duties. Hence, wishing to impart that (knowledge of the Self) for favouring the whole world, Lord Vasudeva, making Arjuna the medium, said, 'You grieve for those who are not to be grieved for,' etc. As to that some (opponents) [According to A.G. the opponent is the Vrttikara who, in the opinion of A. Mahadeva Sastri, is none other than Bodhayana referred to in Sankaracarya's commentary on B.S. 1.1.11-19.-Tr.] say: Certainly, Liberation cannot be attained merely from continuance in the knowledge of the Self which is preceded by renunciation of all duties and is independent of any other factor. What then? The well-ascertained conclusion of the whole of the Gita is that Liberation is attained through Knowledge associated with rites and duties like Agnihotra etc. prescribed in the Vedas and the Smrtis. And as an indication of this point of view they ote (the verses): 'On the other hand, if you will not fight this righteous (battle)' (33); 'Your right is for action (rites and duties) alone' (47); 'Therefore you undertake action (rites and duties) itself' (4.15), etc. Even this objection should not be raised that Vedic rites and duties lead to sin since they involve injury etc.'. Objection: How? Opponent: The duties of the Ksatriyas, charaterized by war, do not lead to sin when undertaken as one's duty, even though they are extremely cruel since they involve violence against elders, brothers, sons and others. And from the Lord's declaration that when they are not performed, 'then, forsaking your own duty and fame, you will incur sin' (33), it stands out as (His) clearly stated foregone conclusion that one's own duties prescribed in such texts as, '(One shall perform Agnihotra) as long as one lives' etc., and actions which involve crutely to animals etc. are not sinful. Vedantin: That is wrong because of the assertion of the distinction between firm adherence (nistha) to Knowledge and to action, which are based on two (different) convictions (buddhi). The nature of the Self, the supreme Reality, determined by the Lord in the text beginning with 'Those who are not to be grieved for' (11) and running to the end of the verse, 'Even considering your own duty' (31), is called Sankhya. Sankhya-buddhi [Sankhya is that correct (samyak) knowledge of the Vedas which reveals (khyayate) the reality of the Self, the supreme Goal. The Reality under discussion, which is related to this sankhya by way of having been revealed by it, is Sankhya.] (Conviction about the Reality) is the conviction with regard to That (supreme Reality) arising from the ascertainment of the meaning of the context [Ascertainment৷৷.of the context, i.e., of the meaning of the verses starting from, 'Never is this One born, and never does It die,' etc. (20).] that the Self is not an agent because of the absence in It of the six kinds of changes, viz birth etc. [Birth, continuance, growth, transformation, decay and death.] Sankhyas are those men of Knowledge to whom that (conviction) becomes natural. Prior to the rise of this Conviction (Sankhya-buddhi), the ascertained [Ast. and A.G. omit this word 'ascertainment, nirupana'-Tr.] of the performance of the disciplines leading to Liberation which is based on a discrimination between virtue and vice, [And adoration of God]. and which presupposes the Self's difference from the body etc. and Its agentship and enjoyership is called Yoga. The conviction with regard to that (Yoga) is Yoga-buddhi. The performers of rites and duties, for whom this (conviction) is appropriate, are called yogis. Accordingly, the two distinct Convictions have been pointed out by the Lord in the verse, 'This wisdom (buddhi) has been imparted to you from the standpoint of Self-realization (Sankhya). But listen to this (wisdom) from the standpoint of (Karma-) yoga' (39). And of these two, the Lord will separately speak, with reference to the Sankhyas, of the firm adherence to the Yoga of Knowledge. [Here Yoga and Knowledge are identical. Yoga is that through which one gets connected, identified. with Brahman.] which is based on Sankya-buddhi, in, 'Two kinds of adherences were spoken of by Me in the form of the Vedas, in the days of yore.' [This portion is ascending to G1.Pr. and A.A.; Ast. omits this and otes exactly the first line of 3.3. By saying, 'in the form of the Vedas', the Lord indicates that the Vedas, which are really the knowledge inherent in God and issue out of Him, are identical with Himself.-Tr.] similarly, in, 'through the Yoga of Action for the yogis' (3.3), He will separately speak of the firm adherence to the Yoga [Here also Karma and Yoga are identical, and lead to Liberation by bringing about purity of heart which is followed by steadfastness in Knowledge.] of Karma which is based on Yoga-buddhi (Conviction about Yoga). Thus, the two kinds of steadfastness that based on the conviction about the nature of the Self, and that based on the conviction about rites and duties have been distinctly spoken of by the Lord Himself, who saw that the coexistence of Knowledge and rites and duties is not possible in the same person, they being based on the convictions of non-agentship and agentship, unity and diversity (respectively). As is this teaching about the distinction (of the two adherences), just so has it been revealed in the Satapatha Brahmana: 'Desiring this world (the Self) alone monks and Brahmanas renounce their homes' (cf. Br. 4.4.22). After thus enjoining renunciation of all rites and duties, it is said in continuation, 'What shall we acheive through childeren, we who have attained this Self, this world (result).' [The earlier otation implies an injuction (vidhi) for renunciation, and the second is an arthavada, or an emphasis on that injunction. Arthavada: A sentence which usually recommends a vidhi, or precept, by stating the good arising from its proper observance, and the evils arising from its omission; and also by adducing historical instances in its support.-V.S.A] Again, there itself it is said that, before accepting a wife a man is in his natural state [The state of ignorance owing to non-realization of Reality. Such a person is a Brahmacarin, who goes to a teacher for studying the Vedas]. And (then) after his eniries into rites and duties, [The Brahmacarin first studies the Vedas and then enires into their meaning. Leaving his teacher's house after completing his course, he becomes a house holder.] 'he' for the attainment of the three worlds [This world, the world of manes and heaven.-Tr.] 'desired' (see Br. 1.4.17) as their means a son and the two kinds of wealth consists of rites and duties that lead to the world of manes, and the divine wealth of acisition of vidya (meditation) which leads to heaven. In this way it is shown that rites and duties enjoined by the Vedas etc. are meant only for one who is unenlightened and is passessed of desire. And in the text, 'After renouncing they take to mendicancy' (see Br. 4.4.22), the injunction to renounce is only for one who desires the world that is the Self, and who is devoid of hankering (for anything else). Now, if the intention of the Lord were the combination of Knowledge with Vedic rites and duties, then this utterance (of the Lord) (3.3) about the distinction would have been illogical. Nor would Arjuna's estion, 'If it be Your opinion that wisdom (Knowledge) is superior to action (rites and duties)৷৷.,' etc. (3.1) be proper. If the Lord had not spoken earlier of the impossibility of the pursuit of Knowledge and rites and duties by the same person (at the same time), then how could Arjuna falsely impute to the Lord by saying, 'If it be your opinion that wisdom is superior to action৷৷৷৷' (of having spoken) what was not heard by him, viz the higher status of Knolwedge over rites and duties? Morevoer, if it be that the combination of Knowledge with rites and duties was spoken of for all, then it stands enjoined, ipso facto, on Arjuna as well. Therefore, if instruction had been given for practising both, then how could the estion about 'either of the two' arise as in, 'Tell me for certain one of these (action and renunciation) by which I may attain the highest Good' (3.2)? Indeed, when a physician tells a patient who has come for a cure of his biliousness that he should take things which are sweet and soothing, there can arise no such reest as, 'Tell me which one of these two is to be taken as a means to cure biliousness'! Again, if it be imagined that Arjuna put the estion because of his noncomprehension of the distinct meaning of what the Lord had said, even then the Lord ought to have answered in accordance with the estion: 'The combination of Knowledge with rites and duties was spoken of by Me. Why are you confused thus?' On the other hand, it was not proper to have answered, 'Two kinds of steadfastness were spoken of by Me it the days of yore,' in a way that was inconsistent and at variance with the estion. Nor even do all the statements about distinction etc. become logical if it were intended that Knowledge was to be combined with rites and duties enjoined by the Smrtis only. Besides, the accusation in the sentence, 'Why then do you urge me to horrible action' (3.1) becomes illogical on the part of Arjuna who knew that fighting was a Ksatriya's natural duty enjoined by the Smrtis. Therefore, it is not possible for anyone to show that in the scripture called the Gita there is any combination, even in the least, of Knowledge of the Self with rites and duties enjoined by the Srutis or the Smrtis. But in the case of a man who had engaged himself in rites and duties because of ignorance and defects like the attachment, and then got his mind purified through sacrifices, charities or austerities (see Br. 4.4.22), there arises the knowledge about the supreme Reality that all this is but One, and Brahman is not an agent (of any action). With regard to him, although there is a cessation of rites and duties as also of the need for them, yet, what may, appear as his diligent continuance, just as before, in those rites and duties for setting an example before people that is no action in which case it could have stood combined with Knowledge. Just as the actions of Lord Vasudeva, in the form of performance of the duty of a Ksatriya, do not get combined with Knowledge for the sake of achieving the human goal (Liberation), similar is the case with the man of Knowledge because of the absence of hankering for results and agentship. Indeed, a man who has realized the Truth does not thingk 'I am doing (this)' nor does he hanker after its result. Again, as for instance, person hankering after such desirable things as heaven etc. may light up a fire for performing such rites as Agnihotra etc. which are the mans to attain desirable things; [The Ast. reading is: Agnihotradi-karma-laksana-dharma-anusthanaya, for the performance of duties in the form of acts like Agnihotra etc.-Tr.] then, while he is still engaged in the performance of Agnihotra etc. as the means for the desirable things, the desire may get destroyed when the rite is half-done. He may nevertheless continue the performance of those very Agnihotra etc.; but those performance of those very Agnihotra etc.; but those Agnihotra etc. cannot be held to be for this personal gain. Accordingly does the Lord also show in various places that, 'even while perfroming actions,' he does not act, 'he does not become tainted' (5.7). As for the texts, '৷৷.as was performed earlier by the ancient ones' (4.15), 'For Janaka and others strove to attain Liberation through action itself' (3.20), they are to be understood analytically. Objection: How so? Vedantin: As to that, if Janaka and others of old remained engaged in activity even though they were knowers of Reality, they did so for preventing people from going astray, while remaining established in realization verily through the knowledge that 'the organs rest (act) on the objects of the organs' (3.28). The idea is this that, though the occasion for renunciation of activity did arise, they remained established in realization along with actions; they did not give up their rites and duties. On the other hand, if they were not knowers of Reality, then the explanation should be this; Through the discipline of dedicating rites and duties to God, Janaka and others remained established in perfection (samsiddhi) either in the form of purification of mind or rise of Knowledge. This very idea [The idea that rites and duties become the cause of Knowledge through the purification of the mind.] will be expressed by the Lord in, '(the yogis) undertake action for the purification of oneself (i.e. of the heart, or the mind)' (5.11). After having said, 'A human being achieves success by adoring Him through his own duties' [By performing one's own duty as enjoined by scriptures and dedicating their results to God, one's mind becomes purified. Then, through Gods grace one becomes fit for steadfastness in Knowledge. From that steadfatness follows Liberation. Therefore rites and duites do not directly lead to Liberation. (See Common. under 5.12) (18.46), He will again speak of the steadfastness in Knowledge of a person who has attained success, in the text, '(Understand৷৷.from Me৷৷.that process by which) one who has achieved success attains Brahman' (18.50). So, the definite conclusion in the Gita is that Liberation is attained only from the knowledge of Reality, and not from its combination with action. And by pointing out in the relevant contexts the (aforesaid) distinction, we shall show how this conclusion stands. That being so, Lord Vasudeva found that for Arjuna, whose mind was thus confused about what ought to be done [The ast. and A.A., have an additional word mithyajnanavatah, meaning 'who had false ignorance'.-Tr.] and who was sunk in a great ocean of sorrow, there could be no rescue other than through the knowledge of the Self. And desiring to rescue Arjuna from that, He said, '(You grieve for) those who are not to be grieved for,' etc. by way of introducing the knowledge of the Self. [In this Gita there are three distinct parts, each part consisting of six chapters. These three parts deal with the three words of the great Upanisadic saying, 'Tattvamasi, thou art That', with a view to finding out their real meanings. The first six chapters are concerned with the word tvam (thou); the following six chapters determine the meaning of the word tat (that); and the last six reveal the essential identity of tvam and tat. The disciplines necessary for realization this identity are stated in the relevant places.]
2.10. O descendant of Bharata (O Dhrtarastra) ! Hrsikesa, as if [he was] smiling, spoke to him who was sinking in despondency in between two armies.
2.7-10 Karpanya-etc. upto vacah. By the portion 'in between the two armies' etc., [the Sage] indicates this : Beings possessed by doubt, Arjuna had not abstained from the war totally; for, he says thus : 'Please teach me, who am taking refuge in you'. Therefore while he still remains just in between both knowledge and ignorance, he is taught by the glorious Bhagavat.
2.9 - 2.10 Sanjaya said Thus, the Lord, the Supreme Person, introduced the Sastra regarding the self for the sake of Arjuna - whose natural courage was lost due to love and compassion in a misplaced situation, who thought war to be unrighteous even though it was the highest duty for warriors (Ksatriyas), and who took refuge in Sri Krsna to know what his right duty was -, thinking that Arjuna's delusion would not come to an end except by the knowledge of the real nature of the self, and that war was an ordained duty here which, when freed from attachment to fruits, is a means for self-knowledge. Thus, has it been said by Sri Yamunacarya: 'The introduction to the Sastra was begun for the sake of Arjuna, whose mind was agitated by misplaced love and compassion and by the delusion that righteousness was unrighteousness, and who took refuge in Sri Krsna.' The Supreme Person spoke these words as if smiling, and looking at Arjuna, who was thus overcome by grief resulting from ignorance about the real nature of the body and the self, but was nevertheless speaking about duty as if he had an understanding that the self is distinct from the body, and while he (Arjuna), torn between contradictory ideas, had suddenly become inactive standing between the two armies that were getting ready to fight. Sri Krsna said, as if in ridicule, to Arjuna the words beginning with, 'There never was a time when I did not exist' (II. 12), and ending with 'I will release you from all sins; grieve not!' (XVIII. 66) - which have for their contents the real nature of the self, of the Supreme Self, and of the paths of work (Karma), knowledge (Jnana) and devotion (Bhakti) which constitute the means for attaining the highest spiritual fulfilment.
2.10 O King, to him who was thus sorrowing between the two armies, Sri Krsna spoke the following words, as if smiling (by way of ridicule).
।।2.10।।यहाँ दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् इस श्लोकसे लेकर न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह इस श्लोकतकके ग्रन्थकी व्याख्या यों कर लेनी चाहिये कि यह प्रकरण प्राणियोंके शोक मोह आदि जो संसारके बीजभूत दोष है उनकी उत्पत्तिका कारण दिखलानेके लिये है। क्योंकि कथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादि श्लोकोंद्वारा अर्जुनने इसी तरह राज्य गुरु पुत्र मित्र सुहृद स्वजन सम्बन्धी और बान्धवोंके विषयमें यह मेरे हैं मैं इनका हूँ इस प्रकार अज्ञानजनित स्नेहविच्छेद आदि कारणोंसे होनेवाले अपने शोक और मोह दिखाये हैं। यद्यपि ( वह अर्जुन ) स्वयं ही पहले क्षात्रधर्मरूप युद्धमें प्रवृत्त हुआ था तो भी शोकमोहके द्वारा विवेकविज्ञानके दब जानेपर ( वह ) उस युद्धसे रुक गया और भिक्षाद्वारा जीवननिर्वाह करना आदि दूसरोंके धर्मका आचरण करनेके लिये प्रवृत्त हो गया। इसी तरह शोकमोह आदि दोषोंसे जिनका चित्त घिरा हुआ हो ऐसे सभी प्राणियोंसे स्वधर्मका त्याग और निषिद्ध धर्मका सेवन स्वाभाविक ही होता है। यदि वे स्वधर्मपालनमें लगे हुए हों तो भी उनके मन वाणी और शरीरादिकी प्रवृत्ति फलाकांक्षापूर्वक और अहंकारसहित ही होती है। ऐसा होनेसे पुण्यपाप दोनों बढ़ते रहनेके कारण अच्छेबुरे जन्म और सुखदुःखोंकी प्राप्तिरूप संसार निवृत्त नहीं हो पाता अतः शोक और मोह यह दोनों संसारके बीजरूप हैं। इन दोनोंकी निवृत्ति सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक आत्मज्ञानके अतिरिक्त अन्य उपायसे नहीं हो सकती। अतः उसका ( आत्मज्ञानका ) उपदेश करने की इच्छावाले भगवान् वासुदेव सब लोगोंपर अनुग्रह करने के लिये अर्जुनको निमित्त बनाकर कहने लगे अशोच्यान् इत्यादि। इसपर कितने ही टीकाकार कहते हैं कि केवल सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक आत्मज्ञाननिष्ठामात्रसे ही कैवल्यकी ( मोक्षकी ) प्राप्ति नहीं हो सकती किंतु अग्निहोत्रादि श्रौतस्मार्तकर्मोंसहित ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है यही सारी गीताका निश्चित अभिप्राय है। इस अर्थमें वे प्रमाण भी बतलाते हैं जैसे अथ चेत्त्वमिमं धम्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि कर्मण्येवाधिकारस्ते कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम् इत्यादि। ( वे यह भी कहते हैं कि ) हिंसा आदिसे युक्त होनेके कारण वैदिक कर्म अधर्मका कारण है ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि गुरु भ्राता और पुत्रादिकी हिंसा ही जिसका स्वरूप है ऐसा अत्यन्त क्रूर युद्धरूप क्षात्रकर्म भी स्वधर्म माना जानेके कारण अधर्मका हेतु नहीं है ऐसा कहनेवाले तथा उसके न करनेमें ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि इस प्रकार दोष बतलानेवाले भगवान्का यह कथन तो पहले ही सुनिश्चित हो जाता है कि जीवनपर्यन्त कर्म करें इत्यादि श्रुतिवाक्योंद्वारा वर्णित पशु आदिकी हिंसारूप कर्मोंको करना अधर्म नहीं है। परंतु वह ( उन लोगोंका कहना ) ठीक नहीं है क्योंकि भिन्नभिन्न दो बुद्धियोंके आश्रित रहनेवाली ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठाका अलगअलग वर्णन है। अशोच्यान् इस श्लोकसे लेकर स्वधर्ममपि चावेक्ष्य इस श्लोकके पहलेके प्रकरणसे भगवान्ने जिस परमार्थआत्मतत्त्वका निरूपण किया है वह सांख्य है तद्विषयक जो बुद्धि है अर्थात् आत्मामें जन्मादि छहों विकारोंका अभाव होनेके कारण आत्मा अकर्ता है इस प्रकारका जो निश्चय उक्त प्रकरणके अर्थका विवेचन करनेसे उत्पन्न होता है वह सांख्यबुद्धि है वह जिन ज्ञानियोंके लिये उचित होती है ( जो उसके अधिकारी हैं ) वे सांख्ययोगी हैं। इस ( उपर्युक्त ) बुद्धिके उत्पन्न होनेसे पहलेपहले आत्माका देहादिसे पृथक्पन कर्तापन और भोक्तापन माननेकी अपेक्षा रखनेवाला जो धर्मअधर्मके विवेकसे युक्त मार्ग है मोक्षसाधनोंका अनुष्ठान करनेके लिये चेष्टा करना ही जिसका स्वरूप है उसका नाम योग है और तद्विषयक जो बुद्धि है वह योगबुद्धि है वह जिन कर्मियोंके लिये उचित होती है ( जो उसके अधिकारी हैं ) वे योगी हैं। इसी प्रकार भगवान्ने एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु इस श्लोकसे अलगअलग दो बुद्धियाँ दिखलायी हैं। उन दोनों बुद्धियोंमेंसे सांख्यबुद्धिके आश्रित रहनेवाली सांख्ययोगियोंकी ज्ञानयोगसे ( होनेवाली ) निष्ठाको पुरा वेदात्मना मया प्रोक्ता इत्यादि वचनोंसे अलग कहेंगे। तथा योगबुद्धिके आश्रित रहनेवाली कर्मयोगसे ( होनेवाली ) निष्ठाको कर्मयोगेन योगिनाम् इत्यादि वचनोंसे अलग कहेंगे। कर्तापनअकर्तापन और एकताअनेकताजैसी भिन्नभिन्न बुद्धिके आश्रित रहनेवाले जो ज्ञान और कर्म हैं उन दोनोंका एक पुरुषमें होना असम्भव माननेवाले भगवान्ने ही स्वयं उपर्युक्त प्रकारसे सांख्यबुद्धि और योगबुद्धिका आश्रय लेकर अलगअलग दो निष्टाएँ कही हैं। जिस प्रकार ( गीताशास्त्रमें ) इन दोनों निष्ठाओंका अलगअलग वर्णन है वैसे ही शतपथ ब्राह्मणमें भी दिखलाया गया है। ( वहाँ ) इस आत्मलोकको ही चाहनेवाले वैराग्यशील ब्राह्मण संन्यास लेते हैं इस प्रकार सर्वकर्मसंन्यासका विधान करके उसी वाक्यके शेष वाक्यसे कहा है कि जिन हमलोगोंका यह आत्मा ही लोक है ( वे हम ) सन्ततिसे क्या ( सिद्ध ) करेंगे। वहीं यह भी कहा है कि प्राकृत आत्मा अर्थात् अज्ञानी मनुष्य धर्मजिज्ञासाके बाद और विवाहसे पहले तीनों लोकोंकी प्राप्तिके साधनरूप पुत्रकी तथा दैव और मानुष ऐसे दो प्रकारके धनकी इच्छा करने लगा। इनमें पितृलोककी प्राप्तिका साधनरूप कर्म तो मानुष धन है और देवलोककी प्राप्तिका साधनरूप विद्या देवधन है। इस तरह ( उपर्युक्त श्रुतिमें ) अविद्या और कामनावाले पुरुषके लिये ही श्रौतादि सम्पूर्ण कर्म बताये गये हैं।उन सब ( कर्मों ) से निवृत्त होकर संन्यास ग्रहण करते हैं इस कथनसे केवल आत्मलोकको चाहनेवाले निष्कामी पुरुषके लिये संन्यासका ही विधान किया है। यदि ( इसपर भी यह बात मानी जायगी कि ) भगवान्को श्रौतकर्म और ज्ञानका समुच्चय इष्ट है तो यह उपर्युक्त विभक्त विवेचन अयोग्य ठहरेगा। तथा ( ऐसा मान लेनेसे ) ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते इत्यादि जो अर्जुन का प्रश्न है वह भी नहीं बन सकता। यदि ज्ञान और कर्मका एक पुरुषद्वारा एक साथ किया जाना असम्भव और कर्मकी अपेक्षा ज्ञानका श्रेष्ठत्व भगवान्ने पहले न कहा होता तो इस तरह अर्जुन बिना सुनी हुई बातका झूठे ही भगवान्में अध्यारोप कैसे करता कि ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिः। यदि सभीके लिये ज्ञान और कर्मका समुच्चय कहा होता तो अर्जुनके लिये भी वह कहा ही गया था फिर दोनोंका समुचित उपदेश होते हुए यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् इस प्रकार दोनोंमेंसे एकके ही सम्बन्धमें प्रश्न कैसे होता क्योंकि पित्तकी शान्ति चाहनेवालेको वैद्यके द्वारा यह उपदेश दिया जानेपर कि मधुर और शीत पदार्थ सेवन करना चाहिये रोगोका यह प्रश्न नहीं बन सकता कि उन दोनोंमेंसे किसी एकको ही पित्तकी शान्तिका उपाय बतलाइये। यदि ऐसी कल्पना की जाय कि भगवान्द्वारा कहे हुए वचन न समझनेके कारण अर्जुनने प्रश्न किया है तो फिर भगवान्को प्रश्नके अनुरूप ही यह उत्तर देना चाहिये था कि मैंने तो ज्ञान और कर्मका समुच्चय बतलाया है तू ऐसा भ्रान्त क्यों हो रहा है परंतु प्रश्नसे विपरीत दूसरा ही उत्तर देना कि मैंने दो निष्ठाएँ पहले कही हैं ( उपर्युक्त कल्पनाके ) उपयुक्त नहीं है। इसके सिवा यदि केवल स्मार्तकर्मके साथ ही ज्ञानका समुच्चय माना जाय तो भी विभक्त वर्णन आदि सब उपयुक्त नहीं ठहरते। तथा ऐसा माननेसे युद्धरूप स्मार्तकर्म क्षत्रियका स्वधर्म है यह जाननेवाले अर्जुनका इस प्रकार उलाहना देना भी नहीं बन सकता कि तत् किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि गीताशास्त्रमें किञ्चिन्मात्र भी श्रौत या स्मार्त किसी भी कर्मके साथ आत्मज्ञानका समुच्चय कोई भी नहीं दिखा सकता। अज्ञानसे या आसक्ित आदि दोषोंसे कर्ममें लगे हुए जिस पुरुषको यज्ञसे दानसे या तपसे अन्तःकरण शुद्ध होकर परमार्थतत्त्वविषयक ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि यह सब एक ब्रह्म ही है और वह अकर्ता है। उसके कर्ममें कर्म और फल दोनों ही यद्यपि निवृत्त हो चुकते हैं तो भी लोकसंग्रहके लिये पहलेकी भाँति यत्नपूर्वक कर्मोंमें लगे रहनेवाले पुरुषका जो प्रवृत्तिरूप कर्म दिखलायी देता है वह वास्तवमें कर्म नहीं है जिससे कि ज्ञानके साथ उसका समुच्चय हो सके। जैसे भगवान् वासुदेवद्वारा किये हुए क्षात्रकर्मोंका मोक्षकी सिद्धिके लिये ज्ञानके साथ समुच्चय नहीं होता वैसे ही फलेच्छा और अहंकारके अभावकी समानता होनेके कारण ज्ञानीके कर्मोंका भी ( ज्ञानके साथ समुच्चय नहीं होता )। क्योंकि आत्मज्ञानी न तो ऐसा ही मानता है कि मैं करता हूँ और न उन कर्मोंका फल ही चाहता है। इसके सिवा जैसे कामसाधनरूप अग्निहोत्रादि कर्मोंका अनुष्ठान करने के लिये सकाम अग्निहोत्रादिमें लगे हुए स्वर्गादिकी कामनावाले अग्निहोत्रीकी कामना यदि आधा कर्म कर चुकनेपर नष्ट हो जाय और फिर भी उसके द्वारा वही अग्निहोत्रादि कर्म होता रहे तो भी वह काम्यकर्म नहीं होता ( वैसे ही ज्ञानीके कर्म भी कर्म नहीं हैं )। कुर्वन्नपि न लिप्यते न करोति न लिप्यते इत्यादि वचनोंसे भगवान् भी जगहजगह यही बात दिखलाते हैं। इसके सिवा जो पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः इत्यादि वचन हैं उनको विभागपूर्वक समझना चाहिये। पू0 वह किस प्रकार समझें उ0 यदि वे पूर्वमें होनेवाले जनकादि तत्त्ववेत्ता होकर भी लोकसंग्रहके लिये कर्मोंमें प्रवृत्त थे तब तो यह अर्थ समझना चाहिये कि गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं इस ज्ञानसे ही वे परम सिद्धिको प्राप्त हुए अर्थात् कर्मसंन्यासकी योग्यता प्राप्त होनेपर भी कर्मोंका त्याग नहीं किया कर्म करतेकरते ही परम सिद्धिको प्राप्त हो गये। यदि वे जनकादि तत्त्वज्ञानी नहीं थे तो ऐसी व्याख्या करनी चाहिये कि वे ईश्वरके समर्पण किये हुए साधनरूप कर्मोंद्वारा चित्तशुद्धिरूप सिद्धिको अथवा ज्ञानोत्पत्तिरूप सिद्धिको प्राप्त हुए। यही बात भगवान् कहेंगे कि ( योगी ) अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं। तथा स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ऐसा कहकर फिर उस सिद्धिप्राप्त पुरुषके लिये सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म इत्यादि वचनोंसे ज्ञाननिष्ठा कहेंगे। सुतरां गीताशास्त्रमें निश्चय किया हुआ अर्थ यही है कि केवल तत्त्वज्ञानसे ही मुक्ित होती है कर्मसहित ज्ञानसे नहीं। जैसा यह भगवान्का अभिप्राय है वैसा ही प्रकरणके अनुसार विभागपूर्वक उनउन स्थानोंपर हम आगे दिखलायेंगे।
।।2.10।। अत्र दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् (गीता 1.2) इत्यारभ्य यावत् न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह (गीता 2.9) इत्येतदन्तः प्राणिनां शोकमोहादिसंसारबीजभूतदोषोद्भवकारणप्रदर्शनार्थत्वेन व्याख्येयो ग्रन्थः। तथाहि अर्जुनेन राज्यगुरुपुत्रमित्रसुहृत्स्वजनसंबन्धिबान्धवेषु अहमेषाम् ममैते इत्येवंप्रत्ययनिमित्तस्नेहविच्छेदादिनिमित्तौ आत्मनः शोकमोहौ प्रदर्शितौ कथं भीष्ममहं संख्ये (गीता 2.4) इत्यादिना। शोकमोहाभ्यां ह्यभिभूतविवेकविज्ञानः स्वत एव क्षत्रधर्मे युद्धे प्रवृत्तोऽपि तस्माद्युद्धादुपरराम परधर्मं च भिक्षाजीवनादिकं कर्तुं प्रववृते। तथा च सर्वप्राणिनां शोकमोहादिदोषाविष्टचेतसां स्वभावत एव स्वधर्मपरित्यागः प्रतिषिद्धसेवा च स्यात्। स्वधर्मे प्रवृत्तानामपि तेषां वाङ्मनःकायादीनां प्रवृत्तिः फलाभिसंधिपूर्विकैव साहंकारा च भवति। तत्रैवं सति धर्माधर्मोपचयात् इष्टानिष्टजन्मसुखदुःखादिप्राप्तिलक्षणः संसारः अनुपरतो भवति। इत्यतः संसारबीजभूतौ शोकमोहौ। तयोश्च सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकादात्मज्ञानात् नान्यतो निवृत्तिरिति तदुपदिदिक्षुः सर्वलोकानुग्रहार्थम् अर्जुनं निमित्तीकृत्य आह भगवान्वासुदेवः अशोच्यान् (गीता 2.11) इत्यादि।। अत्र केचिदाहुः सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकादात्मज्ञाननिष्ठामात्रादेव केवलात् कैवल्यं न प्राप्यत एव। किं तर्हि अग्निहोत्रादिश्रौतस्मार्तकर्मसहितात् ज्ञानात् कैवल्यप्राप्तिरिति सर्वासु गीतासु निश्चितोऽर्थ इति। ज्ञापकं च आहुरस्यार्थस्य अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि (गीता 2.33) कर्मण्येवाधिकारस्ते (गीता 2.47) कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम् (गीता 4.15) इत्यादि। हिंसादियुक्तत्वात् वैदिकं कर्म अधर्माय इतीयमप्याशङ्का न कार्या। कथम् क्षात्रं कर्म युद्धलक्षणं गुरुभ्रातृपुत्रादिहिंसालक्षणमत्यन्तं क्रूरमपि स्वधर्म इति कृत्वा न अधर्माय तदकरणे च ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि (गीता 2.33) इति ब्रुवता यावज्जीवादिश्रुतिचोदितानां पश्वादिहिंसालक्षणानां च कर्मणां प्रागेव नाधर्मत्वमिति सुनिश्चितमुक्तं भवति इति।। तदसत् ज्ञानकर्मनिष्ठयोर्विभागवचनाद्बुद्धिद्वयाश्रययोः। अशोच्यान् (गीता 2.11) इत्यादिना भगवता यावत् स्वधर्ममपि चावेक्ष्य (गीता 2.31) इत्येतदन्तेन ग्रन्थेन यत्परमार्थात्मतत्त्वनिरूपणं कृतम् तत्सांख्यम्। तद्विषया बुद्धिः आत्मनो जन्मादिषड्विक्रियाभावादकर्ता आत्मेति प्रकरणार्थनिरूपणात् या जायते सा सांख्यबुद्धिः। सा येषां ज्ञानिनामुचिता भवति ते सांख्याः। एतस्या बुद्धेः जन्मनः प्राक् आत्मनो देहादिव्यतिरिक्तत्वकर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यपेक्षो धर्माधर्मविवेकपूर्वको मोक्षसाधनानुष्ठानलक्षणो योगः। तद्विषया बुद्धिः योगबुद्धिः। सा येषां कर्मिणामुचिता भवति ते योगिनः। तथा च भगवता विभक्ते द्वे बुद्धी निर्दिष्टे एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु (गीता 2.39) इति। तयोश्च सांख्यबुद्ध्याश्रयां ज्ञानयोगेन निष्ठां सांख्यानां विभक्तां वक्ष्यति पुरा वेदात्मना मया प्रोक्ता (गीता 3.3) इति। तथा च योगबुद्ध्याश्रयां कर्मयोगेन निष्ठां विभक्तां वक्ष्यति कर्मयोगेन योगिनाम् (गीता 3.3) इति। एवं सांख्यबुद्धिं योगबुद्धिं च आश्रित्य द्वे निष्ठे विभक्ते भगवतैव उक्ते ज्ञानकर्मणोः कर्तृत्वाकर्तृत्वैकत्वानेकत्वबुद्ध्याश्रययोः युगपदेकपुरुषाश्रयत्वासंभवं पश्यता। यथा एतद्विभागवचनम् तथैव दर्शितं शातपथीये ब्राह्मणे एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तो ब्राह्मणाः प्रव्रजन्ति (बृ0 4.4.22) इति सर्वकर्मसंन्यासं विधाय तच्छेषेण किं प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्मायं लोकः (बृ0 4.4.22) इति। तत्र एव च प्राक् दारपरिग्रहात् पुरुषः आत्मा प्राकृतो धर्मजिज्ञासोत्तरकालं लोकत्रयसाधनम् पुत्रम् द्विप्रकारं च वित्तं मानुषं दैवं च तत्र मानुषं कर्मरूपं पितृलोकप्राप्तिसाधनं विद्यां च दैवं वित्तं देवलोकप्राप्तिसाधनम् सोऽकामयत (बृ0 1.4.17) इति अविद्याकामवत एव सर्वाणि कर्माणि श्रौतादीनि दर्शितानि। तेभ्यः व्युत्थाय प्रव्रजन्ति (बृ0 4.4.22) इति व्युत्थानमात्मानमेव लोकमिच्छतोऽकामस्य विहितम्। तदेतद्विभागवचनमनुपपन्नं स्याद्यदि श्रौतकर्मज्ञानयोः समुच्चयोऽभिप्रेतः स्याद्भगवतः।। न च अर्जुनस्य प्रश्न उपपन्नो भवति ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते (गीता 3.1) इत्यादिः। एकपुरुषानुष्ठेयत्वासंभवं बुद्धिकर्मणोः भगवता पूर्वमनुक्तं कथमर्जुनः अश्रुतं बुद्धेश्च कर्मणो ज्यायस्त्वं भगवत्यध्यारोपयेन्मृषैव ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिः (गीता 3.1) इति।। किञ्च यदि बुद्धिकर्मणोः सर्वेषां समुच्चय उक्तः स्यात् अर्जुनस्यापि स उक्त एवेति यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् (गीता 5.1) इति कथमुभयोरुपदेशे सति अन्यतरविषय एव प्रश्नः स्यात् न हि पित्तप्रशमनार्थिनः वैद्येन मधुरं शीतलं च भोक्तव्यम् इत्युपदिष्टे तयोरन्यतत्पित्तप्रशमनकारणं ब्रूहि इति प्रश्नः संभवति।। अथ अर्जुनस्य भगवदुक्तवचनार्थविवेकानवधारणनिमित्तः प्रश्नः कल्प्येत तथापि भगवता प्रश्नानुरूपं प्रतिवचनं देयम् मया बुद्धिकर्मणोः समुच्चय उक्तः किमर्थमित्थं त्वं भ्रान्तोऽसि इति। न तु पुनः प्रतिवचनमननुरूपं पृष्टादन्यदेव द्वे निष्ठे मया पुरा प्रोक्ते इति वक्तुं युक्तम्।। नापि स्मार्तेनैव कर्मणा बुद्धेः समुच्चये अभिप्रेते विभागवचनादि सर्वमुपपन्नम्। किञ्च क्षत्रियस्य युद्धं स्मार्तं कर्म स्वधर्म इति जानतः तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि (गीता 3.1) इति उपालम्भोऽनुपपन्नः।। तस्माद्गीताशास्त्रे ईषन्मात्रेणापि श्रौतेन स्मार्तेन वा कर्मणा आत्मज्ञानस्य समुच्चयो न केनचिद्दर्शयितुं शक्यः। यस्य तु अज्ञानात् रागादिदोषतो वा कर्मणि प्रवृत्तस्य यज्ञेन दानेन तपसा वा विशुद्धसत्त्वस्य ज्ञानमुत्पन्नं परमार्थतत्त्वविषयम् एकमेवेदं सर्वं ब्रह्म अकर्तृ च इति तस्य कर्मणि कर्मप्रयोजने च निवृत्तेऽपि लोकसंग्रहार्थं यत्नपूर्वं यथा प्रवृत्तिः तथैव प्रवृत्तस्य यत्प्रवृत्तिरूपं दृश्यते न तत्कर्म येन बुद्धेः समुच्चयः स्यात् यथा भगवतो वासुदेवस्य क्षत्रधर्मचेष्टितं न ज्ञानेन समुच्चीयते पुरुषार्थसिद्धये तद्वत् तत्फलाभिसंध्यहंकाराभावस्य तुल्यत्वाद्विदुषः। तत्त्वविन्नाहं करोमीति मन्यते न च तत्फलमभिसंधत्ते। यथा च स्वर्गादिकामार्थिनः अग्निहोत्रादिकर्मलक्षणधर्मानुष्ठानाय आहिताग्नेः काम्ये एव अग्निहोत्रादौ प्रवृत्तस्य सामि कृते विनष्टेऽपि कामे तदेव अग्निहोत्राद्यनुतिष्ठतोऽपि न तत्काम्यमग्निहोत्रादि भवति। तथा च दर्शयति भगवान् कुर्वन्नपि न लिप्यते (गीता 5.1) न करोति न लिप्यते (गीता 13.31) इति तत्र तत्र।। यच्च पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् (गीता 4.15) कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः (गीता 3.20) इति तत्तु प्रविभज्य विज्ञेयम्। तत्कथम् यदि तावत् पूर्वे जनकादयः तत्त्वविदोऽपि प्रवृत्तकर्माणः स्युः ते लोकसंग्रहार्थम् गुणा गुणेषु वर्तन्ते (गीता 3.28) इति ज्ञानेनैव संसिद्धिमास्थिताः कर्मसंन्यासे प्राप्तेऽपि कर्मणा सहैव संसिद्धिमास्थिताः न कर्मसंन्यासं कृतवन्त इत्यर्थः। अथ न ते तत्त्वविदः ईश्वरसमर्पितेन कर्मणा साधनभूतेन संसिद्धिं सत्त्वशुद्धिम् ज्ञानोत्पत्तिलक्षणां वा संसिद्धिम् आस्थिता जनकादय इति व्याख्येयम्। एतमेवार्थं वक्ष्यति भगवान् सत्त्वशुद्धये कर्म कुर्वन्ति इति। (गीता 5.11) स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता (18.46) इत्युक्त्वा सिद्धिं प्राप्तस्य पुनर्ज्ञाननिष्ठां वक्ष्यति सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म (गीता 18.50) इत्यादिना।। तस्माद्गीताशास्त्रे केवलादेव तत्त्वज्ञानान्मोक्षप्राप्तिः न कर्मसमुच्चितात् इति निश्चितोऽर्थः। यथा चायमर्थः तथा प्रकरणशो विभज्य तत्र तत्र दर्शयिष्यामः।। तत्रैव धर्मसंमूढचेतसो मिथ्याज्ञानवतो महति शोकसागरे निमग्नस्य अर्जुनस्य अन्यत्रात्मज्ञानादुद्धरणमपश्यन् भगवान्वासुदेवः ततः कृपया अर्जुनमुद्दिधारयिषुः आत्मज्ञानायावतारयन्नाह श्रीभगवानुवाच
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तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।।2.10।।
তমুবাচ হৃষীকেশঃ প্রহসন্নিব ভারত৷ সেনযোরুভযোর্মধ্যে বিষীদন্তমিদং বচঃ৷৷2.10৷৷
তমুবাচ হৃষীকেশঃ প্রহসন্নিব ভারত৷ সেনযোরুভযোর্মধ্যে বিষীদন্তমিদং বচঃ৷৷2.10৷৷
તમુવાચ હૃષીકેશઃ પ્રહસન્નિવ ભારત। સેનયોરુભયોર્મધ્યે વિષીદન્તમિદં વચઃ।।2.10।।
ਤਮੁਵਾਚ ਹਰਿਸ਼ੀਕੇਸ਼ ਪ੍ਰਹਸਨ੍ਨਿਵ ਭਾਰਤ। ਸੇਨਯੋਰੁਭਯੋਰ੍ਮਧ੍ਯੇ ਵਿਸ਼ੀਦਨ੍ਤਮਿਦਂ ਵਚ।।2.10।।
ತಮುವಾಚ ಹೃಷೀಕೇಶಃ ಪ್ರಹಸನ್ನಿವ ಭಾರತ. ಸೇನಯೋರುಭಯೋರ್ಮಧ್ಯೇ ವಿಷೀದನ್ತಮಿದಂ ವಚಃ৷৷2.10৷৷
തമുവാച ഹൃഷീകേശഃ പ്രഹസന്നിവ ഭാരത. സേനയോരുഭയോര്മധ്യേ വിഷീദന്തമിദം വചഃ৷৷2.10৷৷
ତମୁବାଚ ହୃଷୀକେଶଃ ପ୍ରହସନ୍ନିବ ଭାରତ| ସେନଯୋରୁଭଯୋର୍ମଧ୍ଯେ ବିଷୀଦନ୍ତମିଦଂ ବଚଃ||2.10||
tamuvāca hṛṣīkēśaḥ prahasanniva bhārata. sēnayōrubhayōrmadhyē viṣīdantamidaṅ vacaḥ৷৷2.10৷৷
தமுவாச ஹரிஷீகேஷஃ ப்ரஹஸந்நிவ பாரத. ஸேநயோருபயோர்மத்யே விஷீதந்தமிதஂ வசஃ৷৷2.10৷৷
తమువాచ హృషీకేశః ప్రహసన్నివ భారత. సేనయోరుభయోర్మధ్యే విషీదన్తమిదం వచః৷৷2.10৷৷
2.11
2
11
।।2.11।। श्रीभगवान् बोले - तुमने शोक न करनेयोग्यका शोक किया है और  पण्डिताईकी बातें कह रहे हो; परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डितलोग शोक नहीं करते।
।।2.11।। श्री भगवान् ने कहा -- (अशोच्यान्) जिनके लिये शोक करना उचित नहीं है, उनके लिये तुम शोक करते हो और ज्ञानियों के से वचनों को कहते हो, परन्तु ज्ञानी पुरुष मृत (गतासून्) और जीवित (अगतासून्) दोनों के लिये शोक नहीं करते हैं।।
।।2.11।। जब हम अर्जुन के विषाद को ठीक से समझने का प्रयत्न करते हैं तब यह पहचानना कठिन नहीं होगा कि यद्यपि उसका तात्कालिक कारण युद्ध की चुनौती है परन्तु वास्तव में मानसिक संताप के यह लक्षण किसी अन्य गम्भीर कारण से हैं। जैसा कि एक श्रेष्ठ चिकित्सक रोग के लक्षणों का ही उपचार न करके उस रोग के मूल कारण को दूर करने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार यहाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के शोक मोह के मूल कारण (आत्मअज्ञान) को ही दूर करने का प्रयत्न करते हैं।शुद्ध आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण अहंकार उत्पन्न होता है। यह अज्ञान न केवल दिव्य स्वरूप को आच्छादित करता है वरन् उसके उस सत्य पर भ्रान्ति भी उत्पन्न कर देता है। अर्जुन की यह अहंकार बुद्धिया जीव बुद्धि कि वह शरीर मन और बुद्धि की उपाधियों से परिच्छिन्न या सीमित है वास्तव में मोह का कारण है जिससे स्वजनों के साथ स्नेहासक्ति होने से उनके प्रति मन में यह विषाद और करुणा का भाव उत्पन्न हो रहा है। वह अपने को असमर्थ और असहाय अनुभव करता है। मोहग्रस्त व्यक्ति को आसक्ति का मूल्य दुख और शोक के रूप में चुकाना पड़ता है। इन शरीरादि उपाधियों के साथ मिथ्या तादात्म्य के कारण हमें दुख प्राप्त होते रहते हैं। हमें अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का ज्ञान होने से उनका अन्त हो जाता है।नित्य चैतन्यस्वरूप आत्मा स्थूल शरीर के साथ मिथ्या तादात्म्य के कारण अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों के सम्बन्ध में अपने को बन्धन में अनुभव करती है। वही आत्मतत्त्व मन के साथ अनेक भावनाओं का अनुभव करता है मानो वह भावना जगत् उसी का है। फिर यही चैतन्य बुद्धिउपाधि से युक्त होकर आशा और इच्छा करता है महत्वाकांक्षा और आदर्श रखता है जिनके कारण उसे दुखी भी होना पड़ता है। इच्छा महत्वाकांक्षा आदि बुद्धि के ही धर्म हैं।इस प्रकार इन्द्रिय मन और बुद्धि से युक्त शुद्ध आत्मा जीवभाव को प्राप्त करके बाह्य विषयों भावनाओं और विचारों का दास और शिकार बन जाती है। जीवन के असंख्य दुख और क्षणिक सुख इस जीवभाव के कारण ही हैं। अर्जुन इसी जीवभाव के कारण पीड़ा का अनुभव कर रहा था। श्रीकृष्ण जानते थे कि शोकरूप भ्रांति या विक्षेप का मूल कारण आत्मस्वरूप का अज्ञान आवरण है और इसलिये अर्जुन के विषाद को जड़ से हटाने के लिये वे उसको उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मज्ञान का उपदेश करते हैं।मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक विधि के द्वारा मन को पुन शिक्षित करने का ज्ञान भारत ने हजारों वर्ष पूर्व विश्व को दिया था। यहाँ श्रीकृष्ण का गीतोपदेश के द्वारा यही प्रयत्न है। आत्मज्ञान की पारम्परिक उपदेश विधि के अनुसार जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण सीधे ही आत्मतत्त्व का उपदेश करते हैं।भीष्म और द्रोण के अन्तकरण शुद्ध होने के कारण उनमें चैतन्य प्रकाश स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था। वे दोनों ही महापुरुष अतुलनीय थे। इस युद्ध में मृत्यु हो जाने पर उनको अधोगति प्राप्त होगी यह विचार केवल एक अपरिपक्व बुद्धि वाला ही कर सकता है। इस श्लोक के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन का ध्यान जीव के उच्च स्वरूप की ओर आकर्षित करते हैं।हमारे व्यक्तित्व के अनेक पक्ष हैं और उनमें से प्रत्येक के साथ तादात्म्य कर उसी दृष्टिकोण से हम जीवन का अवलोकन करते हैं। शरीर के द्वारा हम बाह्य अथवा भौतिक जगत् को देखते हैं जो मन के द्वारा अनुभव किये भावनात्मक जगत् से भिन्न होता है और उसी प्रकार बुद्धि के साथ विचारात्मक जगत् का अनुभव हमें होता है।भौतिक दृष्टि से जिसे मैं केवल एक स्त्री समझता हूँ उसी को मन के द्वारा अपनी माँ के रूप में देखता हूँ। यदि बुद्धि से केवल वैज्ञानिक परीक्षण करें तो उसका शरीर जीव द्रव्य और केन्द्रक वाली अनेक कोशिकाओं आदि से बना हुआ एक पिण्ड विशेष ही है। भौतिक वस्तु के दोष अथवा अपूर्णता के कारण होने वाले दुखों को दूर किया जा सकता है यदि मेरी भावना उसके प्रति परिवर्तित हो जाये। इसी प्रकार भौतिक और भावनात्मक दृष्टि से जो वस्तु कुरूप और लज्जाजनक है उसी को यदि बुद्धि द्वारा तात्त्विक दृष्टि से देखें तो हमारे दृष्टिकोण में अन्तर आने से हमारा दुख दूर हो सकता है।इसी तथ्य को और आगे बढ़ाने पर ज्ञात होगा कि यदि मैं जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि से देख सकूँ तो शारीरिक मानसिक और बौद्धिक दृष्टिकोणों के कारण उत्पन्न विषाद को आनन्द और प्रेरणादायक स्फूर्ति में परिवर्तित किया जा सकता है। यहाँ भगवान् अर्जुन को यही शिक्षा देते हैं कि वह अपनी अज्ञान की दृष्टि का त्याग करके गुरुजन स्वजन युद्धभूमि इत्यादि को आध्यात्मिक दृष्टि से देखने और समझने का प्रयत्न करे।इस महान् पारमार्थिक सत्य का उपदेश यहाँ इतने अनपेक्षित ढंग से अचानक किया गया है कि अर्जुन की बुद्धि को एक आघातसा लगा। आगे के श्लोक पढ़ने पर हम समझेंगे कि भगवान् ने जो यह आघात अर्जुन की बुद्धि में पहुँचाया उसका कितना लाभकारी प्रभाव अर्जुन के मन पर पड़ा।इनके लिये शोक करना उचित क्यों नहीं है क्योंकि वे नित्य हैं। कैसे भगवान् कहते हैं
2.11।। व्याख्या-- [मनुष्यको शोक तब होता है, जब वह संसारके प्राणी-पदार्थोंमें दो विभाग कर लेता है कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं; ये मेरे निजी कुटुम्बी हैं और ये मेरे निजी कुटुम्बी नहीं हैं; ये हमारे वर्णके हैं और ये हमारे वर्णके नहीं हैं; ये हमारे आश्रमके हैं और ये हमारे आश्रमके नहीं हैं; ये हमारे पक्षके हैं और ये हमारे पक्षके नहीं हैं। जो हमारे होते हैं, उनमें ममता, कामना, प्रियता, आसक्ति हो जाती है। इन ममता, कामना आदिसे ही शोक, चिन्ता, भय, उद्वेग, हलचल, संताप आदि दोष, पैदा होते हैं। ऐसा कोई भी दोष, अनर्थ नहीं है, जो ममता, कामना आदिसे पैदा न होता हो--यह सिद्धान्त है। गीतामें सबसे पहले धृतराष्ट्रने कहा कि मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने युद्धभूमिमें क्या किया? यद्यपि पाण्डव धृतराष्ट्रको अपने पितासे भी अधिक आदर-दृष्टिसे देखते थे, तथापि धृतराष्ट्रके मनमें अपने पुत्रोंके प्रति ममता थी। अतः उनका अपने पुत्रोंमें और पाण्डवोंमें भेदभावपूर्वक पक्षपात था कि ये मेरे हैं और ये मेरे नहीं हैं। जो ममता धृतराष्ट्रमें थी, वही ममता अर्जुनमें भी पैदा हुई। परन्तु अर्जुनकी वह ममता धृतराष्ट्रकी ममताके समान नहीं थी। अर्जुनमें धृतराष्ट्रकी तरह पक्षपात नहीं था अतः वे सभीको स्वजन कहते हैं--  'दृष्ट्वेमं स्वजनम्' (1। 28) और दुर्योधन आदिको भी स्वजन कहते हैं--'स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव' (1। 37)। तात्पर्य है कि अर्जुनकी सम्पूर्ण कुरुवंशियोंमें ममता थी और उस ममताके कारण ही उनके मरनेकी आशंकासे अर्जुनको शोक हो रहा था। इस शोकको मिटानेके लिये भगवान्ने अर्जुनको गीताका उपदेश दिया है, जो इस ग्यारहवें श्लोकसे आरम्भ होता है। इसके अन्तमें भगवान् इसी शोकको अनुचित बताते हुए कहेंगे कि तू केवल मेरा ही आश्रय ले और शोक मत कर--'मा शुचः' (18। 66)। कारण कि संसारका आश्रय लेनेसे ही शोक होता है और अनन्यभावसे मेरा आश्रय लेनेसे तेरे शोक, चिन्ता आदि सब मिट जायँगे।]  'अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्'-- संसारमात्रमें दो चीजें हैं सत् और असत्, शरीरी और शरीर। इन दोनोंमें शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है। ये दोनों ही अशोच्य हैं। अविनाशीका कभी विनाश नहीं होता, इसलिये उसके लिये शोक करना बनता ही नहीं और विनाशीका विनाश होता ही है, वह एक क्षण भी स्थायीरूपसे नहीं रहता, इसलिये उसके लिये भी शोक करना नहीं बनता। तात्पर्य हुआ कि शोक करना न तो शरीरीको लेकर बन सकता है और न शरीरोंको लेकर ही बन सकता है। शोकके होनेमें तो केवल अविवेक (मूर्खता) ही कारण है। मनुष्यके सामने जन्मना-मरना, लाभ-हानि आदिके रूपमें जो कुछ परिस्थिति आती है, वह प्रारब्धका अर्थात् अपने किये हुए कर्मोंका ही फल है। उस अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता ही है। कारण कि परिस्थिति चाहे अनुकूल आये, चाहे प्रतिकूल आये, उसका आरम्भ और अन्त होता है अर्थात् वह परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अन्तमें भी नहीं रहेगी। जो परिस्थिति आदिमें और अन्तमें नहीं होती वह बीचमें एक क्षण भी स्थायी नहीं होती। अगर स्थायी होती तो मिटती कैसे और मिटती है तो स्थायी कैसे ऐसी प्रतिक्षण मिटनेवाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर हर्ष-शोक करना, सुखी-दुःखी होना केवल मूर्खता है।  'प्रज्ञावादांश्च भाषसे'-- एक तरफ तो तू पण्डिताईकी बातें बघार रहा है, और दूसरी तरफ शोक भी कर रहा है। अतः तू केवल बातें ही बनाता है। वास्तवमें तू पण्डित नहीं है; क्योंकि जो पण्डित होते हैं, वे किसीके लिये भी कभी शोक नहीं करते। कुलका नाश होनेसे कुल-धर्म नष्ट हो जायगा। धर्मके नष्ट होनेसे स्त्रियाँ दूषित हो जायँगी, जिससे वर्णसंकर पैदा होगा। वह वर्णसंकर कुलघातियोंको और उनके कुलको नरकोंमें ले जानेवाला होगा। पिण्ड और पानी न मिलनेसे उनके पितरोंका भी पतन हो जायगा--ऐसी तेरी पण्डिताईकी बातोंसे भी यही सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और शरीरी अविनाशी है। अगर शरीर स्वयं अविनाशी न होता, तो कुलघाती और कुलके नरकोंमें जानेका भय नहीं होता, पितरोंका पतन होनेकी चिन्ता नहीं होती। अगर तुझे कुलकी और पितरोंकी चिन्ता होती है, उनका पतन होनेका भय होता है तो इससे सिद्ध होता है कि शरीर नाशवान् है और उसमें रहनेवाला शरीरी नित्य है। अतः शरीरोंके नाशको लेकर तेरा शोक करना अनुचित है।  'गतासूनगतासूंश्च'-- सबके पिण्ड-प्राणका वियोग अवश्यम्भावी है। उनमेंसे किसीके पिण्ड-प्राणका वियोग हो गया है और किसीका होनेवाला है। अतः उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। तुमने जो शोक किया है, यह तुम्हारी गलती है। जो मर गये हैं, उनके लिये शोक करना तो महान् गलती है। कारण कि मरे हुए प्राणियोंके लिये शोक करनेसे उन प्राणियोंको दुःख भोगना पड़ता है। जैसे मृतात्माके लिये जो पिण्ड और जल दिया जाता है, वह उसको परलोकमें मिल जाता है, ऐसे ही मृतात्माके लिये जो कफ और आँसू बहाते हैं वे मृतात्माको परवश होकर खाने-पीने पड़ते हैं  (टिप्पणी प0 48) । जो अभी जी रहे हैं, उनके लिये भी शोक नहीं करना चाहिये। उनका तो पालन-पोषण करना चाहिये, प्रबन्ध करना चाहिये। उनकी क्या दशा होगी! उनका भरण-पोषण कैसे होगा! उनकी सहायता कौन करेगा! आदि चिन्ता-शोक कभी नहीं करने चाहिये; क्योंकि चिन्ता-शोक करनेसे कोई लाभ नहीं है। मेरे शरीरके अङ्ग शिथिल हो रहे हैं मुख सूख रहा है, आदि विकारोंके पैदा होनेमें मूल कारण है--शरीरके साथ एकता मानना। कारण कि शरीरके साथ एकता माननेसे ही शरीरका पालन-पोषण करनेवालोंके साथ अपनापन हो जाता है, और उस अपनेपनके कारण ही कुटुम्बियोंके मरने की आशंकासे अर्जुनके मनमें चिन्ता-शोक हो रहे हैं, तथा चिन्ता-शोकसे ही अर्जुनके शरीरमें उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैं इसमें भगवान्ने 'गतासून' और 'अगतासून्' के शोकको ही हेतु बताया है। जिनके प्राण चले गये हैं, वे  'गतासून्'  हैं और जिनके प्राण नहीं चले गये हैं, वे 'अगतासून्' हैं। पिण्ड और जल न मिलनेसे पितरोंका पतन हो जाता है' (1। 42) यह अर्जुनकी 'गतासून' की चिन्ता है। और 'जिनके लिये हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे ही प्राणोंकी और धनकी आशा छोड़कर युद्धमें खड़े हैं' (1। 33) यह अर्जुनकी  'अगतासून्'  की चिन्ता है। अतः ये दोनों चिन्ताएँ शरीरको लेकर ही हो रही है; अतः ये दोनों चिन्ताएँ धातुरूपसे एक ही हैं। कारण कि  'गतासून'  और  'अगतासून' दोनों ही नाशवान् हैं।  'गतासून्'  और 'अगतासून'-- इन दोनोंके लिये कर्तव्य-कर्म करना चिन्ताकी बात नहीं है। 'गतासून' के लिये पिण्ड-पानी देना, श्राद्ध-तर्पण करना--यह कर्तव्य है, और  'अगतासून' के लिये व्यवस्था कर देना, निर्वाहका प्रबन्ध कर देना--यह कर्तव्य है। कर्तव्य चिन्ताका विषय नहीं होता, प्रत्युत विचारका विषय होता है। विचारसे कर्तव्यकाबोध होता है, और चिन्तासे विचारनष्ट होता है।  'नानुशोचन्ति पण्डिताः'-- सत्-असत्-विवेकवती बुद्धिका नाम 'पण्डा' है। वह 'पण्डा' जिनकी विकसित हो गयी है अर्थात् जिनको सत्- असत्  स्पष्टतया विवेक हो गया है वे पण्डित हैं। ऐसे पण्डितोंमें सत्-असत् को लेकर शोक नहीं होता; क्योंकि सत्को सत् माननेसे भी शोक नहीं होता और असत्को असत् माननेसे भी शोक नहीं होता। स्वयं सत्-स्वरूप है, और बदलनेवाला शरीर असत्-स्वरुप है। असत्को सत् मान लेनेसे ही शोक होता है अर्थात् ये शरीर आदि ऐसे ही बने रहें, मरें नहीं--इस बातको लेकर ही शोक होता है। सत्को लेकर कभी चिन्ता-शोक होते ही नहीं। सम्बन्ध -- सत्-तत्तवको लेकर शोक करना अनुचित क्यों है--इस शंकाके समाधानके लिये आगेके दो श्लोक कहते हैं।
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।।2.11।।श्रीभगवानुवाच  अशोच्यान्  प्रति अनुशोचसिपतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः। (गीता 1।41) इत्यादिकान् देहात्मस्वभावप्रज्ञानिमित्तवादान्  च भाषसे।  देहात्मस्वभावज्ञानवतां न अत्र किञ्चित् शोकनिमित्तम् अस्ति।  गतासून्  देहान्  अगतासून्  आत्मनश्च प्रति तयोः स्वभावयाथात्म्यविदो  न शोचन्ति।  अतः त्वयि विप्रतिषिद्वम् इदम् उपलभ्यते यद्एतान् हनिष्यामि इति अनुशोचनं यच्च देहातिरिक्तात्मज्ञानकृतं धर्माधर्मभाषणम्। अतो देहस्वभावं च न जानासि तदतिरिक्तम् आत्मानं च नित्यम् तत्प्राप्त्युपायभूतं युद्धादिकं धर्मं च। इदं च युद्धं फलाभिसन्धिरहितम्। आत्मयाथात्म्यावाप्त्युपायभूतम्। आत्मा हि न जन्माधीनसद्भावो न मरणाधीनविनाशश्च तस्य जन्ममरणयोः अभावात् अतः स न शोकस्थानम्। देहः तु अचेतनः परिणामस्वभावः तस्य उत्पत्तिविनाशयोगः स्वाभाविकः इति सोऽपि न शोकस्थानम् इति अभिप्रायः।प्रथमं तावद् आत्मनां स्वभावं श्रृणु
।।2.11।।तदेव वचनमुदाहरति  श्रीभगवानिति।  अतीतसंदर्भस्येत्थमक्षरोत्थमर्थं विवक्षित्वा तस्मिन्नेव वाक्यविभागमवगमयति  दृष्ट्वा त्विति। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे इत्यादिराद्यश्लोकस्तावदेकं वाक्यम्। शास्त्रस्य कथासंबन्धपरत्वेन पर्यवसानात्। दृष्ट्वेत्यारभ्य यावत्तूष्णीं बभूव हेति तावच्चैकं वाक्यम्। इत आरभ्यइदं वचः इत्येतदन्तो ग्रन्थो भवत्यपरं वाक्यमिति विभागः। नन्वाद्यश्लोकस्य युक्तमेकवाक्यत्वं प्रकृतशास्त्रस्य महाभारतेऽवतारावद्योतित्वादन्तिमस्यापि संभवत्येकवाक्यत्वमर्जुनाश्वासार्थतया प्रवृत्तत्वात्तन्मध्यमस्य तु कथमेकवाक्यत्वमित्याशङ्क्यार्थैकत्वादित्याह  प्राणिनामिति।  शोको मानससंतापः मोहो विवेकाभावः। आदिशब्दस्तदवान्तरभेदार्थः स एव संसारस्य दुःखात्मनो बीजभूतो दोषस्तस्योद्भवे कारणमहंकारो ममकारस्तद्धेतुरविद्या च तत्प्रदर्शनार्थत्वेनेति योजना। संगृहीतमर्थं विवृणोति  तथाहीति।  राज्यं राज्ञः कर्म परिपालनादि। पूजार्हा गुरवो भीष्मद्रोणादयः। पुत्राः स्वयमुत्पादिताः सौभद्रादयः संबन्धान्तरमन्तरेण स्नेहगोचरा गुरुपुत्रप्रभृतयो मित्रशब्देनोच्यन्ते उपकारनिरपेक्षतया स्वयमुपकारिणो हृदयानुरागभाजो भगवत्प्रमुखाः सुहृदः स्वजना ज्ञातयो दुर्योधनादयः संबन्धिनः श्वशुरश्यालप्रभृतयो द्रुपदधृष्टद्युम्नादयः परंपरया पितृपितामहादिष्वनुरागभाजो राजानो बान्धवास्तेषु यथोक्तं प्रत्ययं निमित्तीकृत्य यः स्नेहो यश्च तैः सह विच्छेदो यच्चैतेषामुपघाते पातकं या च लोकगर्हा सर्वं तन्निमित्तं ययोरात्मनः शोकमोहयोस्तावेतौ संसारबीजभूतौ कथमित्यादिना दर्शितावित्यर्थः। कथं पुनरनयोः संसारबीजयोरर्जुने संभावनोपपद्यते नहि प्रथितमहामहिम्नो विवेकविज्ञानवतः स्वधर्मे प्रवृत्तस्य तस्य शोकमोहावनर्थहेतू संभावितावित्याशङ्क्य विवेकतिरस्कारेणतयोर्विहिताकरणप्रतिषिद्धाचरणकारणत्वादनर्थाधायकयोरस्ति तस्मिन्संभावनेत्याह  शोकमोहाभ्यामिति।  भिक्षया जीवनं प्राणधारणमादिशब्दादशेषकर्मन्यासलक्षणं पारिव्राज्यमात्माभिध्यानमित्यादि गृह्यते। किंचार्जुने दृश्यमानौ शोकमोहौ संसारबीजं शोकमोहत्वादस्मदादिनिष्ठशोकमोहवदित्युपलब्धौ शोकमोहौ प्रत्येकं पक्षीकृत्यानुमातव्यमित्याह  तथाचेति।  शोकमोहादीत्यादिशब्देन मिथ्याभिमानस्नेहगर्हादयो गृह्यन्ते स्वभावतश्चित्तदोषसामर्थ्यादित्यर्थः। अस्मदादीनामपि स्वधर्मे प्रवृत्तानां विहिताकरणत्वाद्यभावान्न शोकादेः संसारबीजतेति दृष्टान्तस्य साध्यविकलतेति चेत्तत्राह  स्वधर्म इति।  कायादीनामित्यादिशब्दादवशिष्टानीन्द्रियाण्यादीयन्ते। फलाभिसन्धिस्तद्विषयेऽभिलाषः कर्तृत्वभोक्तृत्वाभिमानोऽहंकारः। प्रागुक्तप्रकारेण वागादिव्यापारे सति किं सिध्यति तत्राह  तत्रेति।  शुभकर्मानुष्ठानेन धर्मोपचयादिष्टं देवादिजन्म ततः सुखप्राप्तिः अशुभकर्मानुष्ठानेनाधर्मोपचयादनिष्टं तिर्यगादिजन्म ततो दुःखप्राप्तिः व्यामिश्रकर्मानुष्ठानादुभाभ्यां धर्माधर्माभ्यां मनुष्यजन्म ततः सुखदुःखे भवतः एवमात्मकः संसारः संततो वर्तत इत्यर्थः। अर्जुनस्यान्येषां च शोकमोहयोः संसारबीजत्वमुपपादितमुपसंहरति  इत्यत इति।  तदेवं प्रथमाध्यायस्य द्वितीयाध्यायैकदेशसहितस्यात्माज्ञानोत्थनिवर्तनीयशोकमोहाख्यसंसारबीजप्रदर्शनपरत्वं दर्शयित्वा वक्ष्यमाणसंदर्भस्य सहेतुकसंसारनिवर्तकसम्यग्नोपदेशे तात्पर्यं दर्शयति   तयोश्चेति।  तद्यथोक्तं ज्ञानम्उपदिदिक्षुरुपदेष्टुमिच्छन् भगवानाहेति संबन्धः। सर्वलोकानुग्रहार्थं यथोक्तं ज्ञानं भगवानुपदिदिक्षतीत्ययुक्तमर्जुनं प्रत्येवोपदेशादित्याशङ्क्याह  अर्जुनमिति।  नहि तस्यामवस्थायामर्जुनस्य भगवता यथोक्तज्ञानमुपदेष्टुमिष्टं किंतु स्वधर्मानुष्ठानाद्बुद्धिशुद्ध्युत्तरकालमित्यभिप्रेत्योक्तंनिमित्तीकृत्येति। सर्वकर्मसंन्यासपूर्वकादात्मज्ञानादेव केवलात्कैवल्यप्राप्तिरिति गीताशास्त्रार्थः स्वाभिप्रेतो व्याख्यातः। संप्रति वृत्तिकृतामभिप्रेतं निरसितुमनुवदति  तत्रेति।  निर्धारितः शास्त्रार्थः सतिसप्तम्या परामृश्यते। तेषामुक्तिमेव विवृण्वन्नादौ सैद्धान्तिकमभ्युपगमं प्रत्यादिशति  सर्वकर्मेति।  वैदिकेन कर्मणा समुच्चयं व्युदसितुं मात्रपदम्। स्मार्तेन कर्मणा समुच्चयं निरसितुमवधारणम्। अभ्याससंबन्धं धुनीते  केवलादिति।  नैवेत्येवकारः संबध्यते। केन तर्हि प्रकारेण ज्ञानं कैवल्यप्राप्तिकारणमित्याशङ्क्याह  किं तर्हीति।  किं तत्र प्रमापकमित्याशङ्क्येदमेव शास्त्रमित्याह  इति सर्वास्विति।  यथा प्रयाजानुयाजाद्युपकृतमेव दर्शपौर्णमासादि स्वर्गसाधनं तथा श्रौतस्मार्तकर्मोपकृतमेव ब्रह्मज्ञानं कैवल्यं साधयति। विमतं सेतिकर्तव्यताकमेव स्वफलसाधकं करणत्वाद्दर्शपौर्णमासादिवत्। तदेवं ज्ञानकर्मसमुच्चयपरं शास्त्रमित्यर्थः। इतिपदमाहुरित्यनेन पूर्वेण संबध्यते। पौर्वापर्यपर्यालोचनायां शास्त्रस्य समुच्चयपरत्वं न निर्धारितमित्याशङ्क्याह  ज्ञापकं चेति।  न केवलं ज्ञानं मुक्तिहेतुरपितु समुच्चितमित्यस्यार्थस्य स्वधर्माननुष्ठाने पापप्राप्तिवचनसामर्थ्यलक्षणं लिङ्गं गमकमित्यर्थः। शास्त्रस्य समुच्चयपरत्वे लिङ्गवद्वाक्यमपि प्रमाणमित्याह  कर्मण्येवेति।  तत्रैव वाक्यान्तरमुदाहरति   कुरु   कर्मेति।  ननुन हिंस्यात्सर्वा भूतानि इत्यादिना प्रतिषिद्धत्वेन हिंसादेरनर्थहेतुत्वावगमात्तदुपेतं वैदिकं कर्माधर्मायेति नानुष्ठातुं शक्यते तथाच तस्य मोक्षे ज्ञानेन समुच्चयो न सिध्यतीति सांख्यमतमाशङ्क्य परिहरति  हिंसादीति।  आदिशब्दादुच्छिष्टभक्षणं गृह्यते। यथोक्तशङ्का न कर्तव्येत्यत्राकाङ्क्षापूर्वकं हेतुमाह  कथमित्यादिना।  स्वशब्देन क्षत्रियो विवक्ष्यते। युद्धाकरणे क्षत्रियस्य प्रत्यवायश्रवणात्तस्य तं प्रति नित्यत्वेनावश्यकर्तव्यत्वप्रतीतेर्गुर्वादिहिंसायुक्तमतिक्रूरमपि कर्म नाधर्मायेति हेत्वन्तरमाह  तदकरणे चेति।  आचार्यादिहिंसायुक्तमतिक्रूरमपि युद्धं नाधर्मायेति ब्रुवता भगवता श्रौतानां हिंसादियुक्तानामपि कर्मणां दूरतो नाधर्मत्वमिति स्पष्टमुपदिष्टं भवति सामान्यशास्त्रस्य व्यर्थहिंसानिषेधार्थत्वात्क्रतुविषये चोदितहिंसायास्तदविषयत्वात्कुतो वैदिककर्मानुष्ठानानुपपत्तिरित्यर्थः। ज्ञानकर्मसमुच्चयात्कैवल्यसिद्धिरित्युपसंहर्तुमितिशब्दः। यत्तावद्ब्रह्मज्ञानं सेतिकर्तव्यताकं स्वफलसाधकं कारणत्वादित्यनुमानं तद्दूषयति  तदसदिति।  नहि शुक्तिकादिज्ञानमज्ञाननिवृत्तौ स्वफले सहकारि किंचिदपेक्षते तथाच व्यभिचारादसाधकं करणत्वमित्यर्थः। यत्तु गीताशास्त्रे समुच्चयस्यैव प्रतिपाद्यतेति प्रतिज्ञानं तदपि विभागवचनविरुद्धमित्याह  ज्ञानेति।  सांख्यबुद्धिर्योगबुद्धिश्चेति बुद्धिद्वयं तत्र सांख्यबुद्ध्याश्रयां ज्ञाननिष्ठां व्याख्यातुं सांख्यशब्दार्थमाह  अशोच्यानित्यादिनेति। अशोच्यानित्यादि स्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्येतदन्तं वाक्यं यावद्भविष्यति तावता ग्रन्थेन यत्परमार्थभूतमात्मतत्त्वं भगवता निरूपितं तद्यथा सम्यक्ख्यायते प्रकाश्यते सा वैदिकी सम्यग्बुद्धिः संख्या तया प्रकाश्यत्वेन संबन्धि प्रकृतं तत्त्वं सांख्यमित्यर्थः। सांख्यशब्दार्थमुक्त्वा तत्प्रकाशिकां बुद्धिं तद्वतश्च सांख्यान्व्याकरोति  तद्विषयेति।  तद्विषया बुद्धिःसांख्यबुद्धिरिति संबन्धः। तामेव प्रकटयति  आत्मन इति। न जायते म्रियते वा इत्यादिप्रकरणार्थनिरूपणद्वारेणात्मनः षड्भावविक्रियासंभवात्कूटस्थोऽसाविति या बुद्धिरुत्पद्यते सा सांख्यबुद्धिः तत्पराः संन्यासिनः सांख्या इत्यर्थः। संप्रति योगबुद्ध्याश्रयां कर्मनिष्ठां व्याख्यातुकामो योगशब्दार्थमाह  एतस्या इति।  यथोक्तबुद्ध्युत्पत्तौ विरोधादेवानुष्ठानायोगात्तस्यास्तन्निवर्तकत्वात्पूर्वमेव तदुत्पत्तेरात्मनो देहादिव्यतिरिक्तत्वाद्यपेक्षया धर्माधर्मं निष्कृष्य तेनेश्वराराधनरूपेण कर्मणा पुरुषो मोक्षाय युज्यते योग्यः संपद्यते तेन मोक्षसिद्धये परंपरया साधनीभूतप्रागुक्तधर्मानुष्ठानात्मको योग इत्यर्थः। अथ योगबुद्धिं विभजन्योगिनो विभजते  तद्विषयेति।  उक्ते बुद्धिद्वये भगवतोऽभिमतिं दर्शयति  तथाचेति।  सांख्यबुद्ध्याश्रया ज्ञाननिष्ठेत्येतदपि भगवतोऽभिमतमित्याह  तयोश्चेति।  ज्ञानमेव योगो ज्ञानयोगस्तेन हि ब्रह्मणा युज्यते तादात्म्यमापद्यते तेन संन्यासिनां निष्ठा निश्चयेन स्थितिस्तात्पर्येण परिसमाप्तिस्तां कर्मनिष्ठातो व्यतिरिक्तां निष्ठयोर्मध्ये निष्कृष्य भगवान्वक्ष्यतीति योजना।लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् इत्येतद्वाक्यमुक्तार्थविषयमर्थतोऽनुवदति  पुरेति।  योगबुद्ध्याश्रया कर्मनिष्ठेत्यत्रापि भगवदनुमतिमादर्शयति  तथाचेति।  कर्मैव योगः कर्मयोगस्तेन हि बुद्धिशुद्धिद्वारा मोक्षहेतुज्ञानाय पुमान्युज्यते तेन निष्ठां कर्मिणां ज्ञाननिष्ठातो विलक्षणां कर्मयोगेनेत्यादिना वक्ष्यति भगवानिति योजना। निष्ठाद्वयं बुद्धिद्वयाश्रयं भगवता विभज्योक्तमुपसंहरति  एवमिति।  कया पुनरनुपपत्त्या भगवता निष्ठाद्वयं विभज्योक्तमित्याशङ्क्याह  ज्ञानकर्मणोरिति।  कर्म हि कर्तृत्वाद्यनेकत्वबुद्ध्याश्रयं ज्ञानं पुनरकर्तृत्वैकत्वबुद्ध्याश्रयं तदुभयमित्थं विरुद्धसाधनसाध्यत्वान्नैकावस्थस्यैव पुरुषस्य संभवति अतो युक्तमेव तयोर्विभागवचनमित्यर्थः। भगवदुक्तविभागवचनस्य मूलत्वेन श्रुतिमुदाहरति  यथेति।  तत्र ज्ञाननिष्ठाविषयं वाक्यं पठति  एतमेवेति।  प्रकृतमात्मानं नित्यविज्ञप्तिस्वभावं वेदितुमिच्छन्तस्त्रिविधेऽपि कर्मफले वैतृष्ण्यभाजः सर्वाणि कर्माणि परित्यज्य ज्ञाननिष्ठा भवन्तीति पञ्चमलकारस्वीकारेण संन्यासविधिं विवक्षित्वा तस्यैव विधेः शेषेणार्थवादेन किं प्रजयेत्यादिना मोक्षफलं ज्ञानमुक्तमित्यर्थः। ननु फलभावात्प्रजाक्षेपो नोपपद्यते पुत्रेणैतल्लोकजयस्य वाक्यान्तरसिद्धत्वादित्याशङ्क्य विदुषां प्रजासाध्यमनुष्यलोकस्यात्मव्यतिरेकेणाभावादात्मनश्चासाध्यत्वादाक्षेपो युक्तिमानिति विवक्षित्वाह  येषामिति।  इति ज्ञानं दर्शितमिति शेषः। तस्मिन्नेव ब्राह्मणे कर्मनिष्ठाविषयं वाक्यं दर्शयति  तत्रैवेति।  प्राकृतत्वमतत्त्वदर्शित्वेनाज्ञत्वं स च ब्रह्मचारी सन्गुरुसमीपे यथाविधि वेदमधीत्यार्थज्ञानार्थं धर्मजिज्ञासां कृत्वा तदुत्तरकालं लोकत्रयप्राप्तिसाधनं पुत्रादित्रयंसोऽकामयत जाया मे स्यात् इत्यादिना कामितवानिति श्रुतमित्यर्थः। वित्तं विभजते  द्विप्रकारमिति।  तदेव प्रकारद्वैरूप्यमाह   मानुषमिति।  मानुषं वित्तं व्याचष्टे  कर्मरूपमिति।  तस्य फलपर्यवसायित्वमाह   पितृलोकेति।  दैवं वित्तं विभजते  विद्यां चेति।  तस्यापि फलनिष्ठत्वमाह  देवेति।  कर्मनिष्ठाविषयत्वेनोदाहृतश्रुतेस्तात्पर्यमाह अविद्येति। अज्ञस्य कामनाविशिष्टस्यैव कर्माणिसोऽकामयत इत्यादिना दर्शितानीत्यर्थः। ज्ञाननिष्ठाविषयत्वेन दर्शितश्रुतेरपि तात्पर्यं दर्शयति  तेभ्य इति।  कर्मसु विरक्तस्यैव संन्यासपूर्विका ज्ञाननिष्ठा प्रागुदाहृतश्रुत्या दर्शितेत्यर्थः। अवस्थाभेदेन ज्ञानकर्मणोर्भिन्नाधिकारत्वस्य श्रुतत्वात्तन्मूलेन भगवतो विभागवचनेन शास्त्रस्य समुच्चयपरत्वं प्रतिज्ञातमपबाधितमिति साधितम् किञ्च समुच्चयो ज्ञानस्य श्रौतेन स्मार्तेन वा कर्मणा विवक्ष्यते यदि प्रथमस्तत्राह  तदेतदिति।  समुच्चयेऽभिप्रेते प्रश्नानुपपत्तिं दोषान्तरमाह  नचेति।  तामेवानुपपत्तिं प्रकटयति  एकपुरुषेति।  यदि समुच्चयः शास्त्रार्थो भगवता विवक्षितस्तदा ज्ञानकर्मणोरेकेन पुरुषेणानुष्ठेयत्वमेव तेनोक्तमर्जुनेन च श्रुतं तत् कथं तदसंभवमनुक्तमश्रुतं च मिथ्यैव श्रोता भगवत्यारोपयेत्। न च तदारोपादृते किमिति मां कर्मण्येवातिक्रूरे युद्धलक्षणे नियोजयसीति प्रश्नोऽवकल्पते। तथाच प्रश्नालोचनया प्रष्टृप्रवक्त्रोः शास्त्रार्थतया समुच्चयोऽभिप्रेतो न भवतीति प्रतिभातीत्यर्थः। किञ्च समुच्चयपक्षे कर्मापेक्षया बुद्धेर्ज्यायस्त्वं भगवता पूर्वमनुक्तमर्जुनेन चाश्रुतं कथमसौ तस्मिन्नारोपयितुमर्हति ततश्चानुवादवचनं श्रोतुरनुचितमित्याह  बुद्धेश्चेति।  इतश्च समुच्चयः शास्त्रार्थो न संभवत्यन्यथा पञ्चमादावर्जुनस्य प्रश्नानुपपत्तेरित्याह  किञ्चेति।  ननु सर्वान्प्रत्युक्तेऽपि समुच्चयेनार्जुनं प्रत्युक्तोऽसाविति तदीयप्रश्नोपपत्तिरित्याशङ्क्याह  यदीति। एतयोः कर्मतत्त्यागयोरिति यावत्। ननु कर्मापेक्षया कर्मत्यागपूर्वकस्य ज्ञानस्य प्राधान्यात्तस्य श्रेयस्त्वात्तद्विषयप्रश्नोपपत्तिरिति चेन्नेत्याह  नहीति।  तथैव समुच्चये पुरुषार्थसाधने भगवता दर्शिते सत्यन्यतरगोचरो न प्रश्नो भवतीति शेषः। समुच्चये भगवतोक्तेऽपि तदज्ञानादर्जुनस्य प्रश्नोपपत्तिरिति शङ्कते  अथेति।  अज्ञाननिमित्तं प्रश्नमङ्गीकृत्यापि प्रत्याचष्टे  तथापीति।  भगवतो भ्रान्त्यभावेन पूर्वापरानुसन्धानसंभवादित्यर्थः। प्रश्नानुरूपत्वमेव प्रतिवचनस्य प्रकटयति  मयेति।  व्यावर्त्यमंशमादर्शयति  नत्विति।  प्रतिवचनस्य प्रश्नाननुरूपत्वमेव स्पष्टयति  पृष्टादिति।  श्रौतेन कर्मणा समुच्चयो ज्ञानस्येति पक्षं प्रतिक्षिप्य पक्षान्तरं प्रतिक्षिपति  नापीति।  श्रुतिस्मृत्योर्ज्ञानकर्मणोर्विभागवचनमादिशब्दगृहीतं बुद्धेर्ज्यायस्त्वं पञ्चमादौ प्रश्नो भगवत्प्रतिवचनं सर्वमिदं श्रौतेनेव स्मार्तेनापि कर्मणा बुद्धेः समुच्चये विरुद्धं स्यादित्यर्थः। द्वितीयपक्षासंभवे हेत्वन्तरमाह  किञ्चेति।  समुच्चयपक्षे प्रश्नप्रतिवचनयोरसंभवान्नेदं गीताशास्त्रं तत्परमित्युपसंहरति  तस्मादिति।  विशुद्धब्रह्मात्मज्ञानं स्वफलसिद्धौ न सहकारिसापेक्षमज्ञाननिवृत्तिफलत्वाद्रज्ज्वादितत्त्वज्ञानवत् अथवा बन्धः सहायानपेक्षेण ज्ञानेन निवर्त्यते अज्ञानात्मकत्वाद्रज्जुसर्पादिवदिति भावः। ननुकुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् इति वक्ष्यमाणत्वात् कथं गीताशास्त्रे समुच्चयो नास्ति तत्राह  यस्य त्विति।  चोदनासूत्रानुसारेण विधितोऽनुष्ठेयस्य कर्मणो धर्मत्वाद्व्यापारमात्रस्य तथात्वाभावात्तत्त्वविदश्च वर्णाश्रमाभिमानशून्यस्याधिकारप्रतिप्रत्त्यभावाद्यागादिप्रवृत्तीनामविद्यालेशतो जायमानानां कर्माभासत्वात् कुर्याद्विद्वानित्यादि वाक्यं न समुच्चयप्रापकमिति भावः। वा शब्दश्चार्थे द्वितीयस्तु विविदिषावाक्यस्थसाधनान्तरसंग्रहार्थः। सांसारिकं ज्ञानं व्यावर्तयति  परमार्थेति।  तदेवाभिनयति  एकमिति।  प्रवृत्तिरूपमिति रूपग्रहणमाभासत्वप्रदर्शनार्थं कर्माभाससमुच्चयस्तु यादृच्छिकत्वान्न मोक्षं फलयतीति शेषः। किञ्च ज्ञानिनो यागादिप्रवृत्तिर्न ज्ञानेन तत्फलेन समुच्चीयते फलाभिसन्धिविकलप्रवृत्तित्वादहंकारविधुरप्रवृत्तित्वाद्वा भगवत्प्रवृत्तिवदित्याह  यथेति।  हेतुद्वयस्यासिद्धिमाशङ्क्य परिहरति  तत्त्वविदिति।  कूटस्थं ब्रह्मैवाहमिति मन्वानो विद्वान् प्रवृत्तिं तत्फलं वा नैव स्वगतत्वेन पश्यति रूपादिवद् दृश्यस्य द्रष्टृधर्मत्वायोगात् किंतु कार्यकरणसंघातगतत्वेनैव प्रवृत्त्यादि प्रतिपद्यते ततस्तत्त्वविदो व्याख्यानभिक्षाटनादावहंकारस्य तृप्त्यादिफलाभिसन्धेश्चाभासत्वान्नासिद्धं हेतुद्वयमित्यर्थः। ननु ज्ञानोदयात्प्रागवस्थायामिवोत्तरकालेऽपि प्रतिनियतप्रवृत्त्यादिदर्शनान्न तत्त्वदर्शिनिष्ठप्रवृत्त्यादेराभासत्वमिति तत्राह  यथाचेति।  स्वर्गादिरेव काम्यमानत्वात्कामस्तदर्थिनः स्वर्गादिकामस्याग्निहोत्रादेरपेक्षितस्वर्गादिसाधनस्यानुष्ठानार्थमग्निमाधाय व्यवस्थितस्य तस्मिन्नेव काम्ये कर्मणि प्रवृत्तस्यार्धकृते केनापि हेतुना कामे विनष्टे तदेवाग्निहोत्रादि निर्वर्तयतो न तत् काम्यं भवति नित्यकाम्यविभागस्य स्वाभाविकत्वाभावात् कामोपबन्धानुपबन्धकृतत्वात् तथा विदुषोऽपि विध्यधिकाराभावाद्यागादिप्रवृत्तीनां कर्माभासतेत्यर्थः। विद्वत्प्रवृत्तीनां कर्माभासत्वमित्यत्र भगवदनुमतिमुपन्यस्यति  तथाचेति।  ननु विद्वद्व्यापारेऽपि कर्मशब्दप्रयोगदर्शनात् तद्व्यापारस्य कर्माभासत्वानुपपत्तेः समुच्चयसिद्धिरिति तत्राह  यच्चेति।  ज्ञानकर्मणोः समुच्चित्यैव संसिद्धिहेतुत्वे प्रतिपन्ने कुतो विभज्यार्थज्ञानमिति पृच्छति  तत्कथमिति।  तत्र किं जनकादयोऽपि तत्त्वविदः प्रवृत्तकर्माणः स्युराहोस्विदतत्त्वविद इति विकल्प्य प्रथमं प्रत्याह  यदिति।  तत्त्ववित्त्वे कथं न प्रवृत्तकर्मत्वं कर्मणामकिंचित्करत्वादित्याशङ्क्याह   ते लोकेति।  तेषामुक्तप्रयोजनार्थमपि न प्रवृत्तिर्युक्ता सर्वत्राप्युदासीनत्वादित्याशङ्क्याह  गुणा इति।  इन्द्रियाणां विषयेषु प्रवृत्तिद्वारा तत्त्वविदां प्रवृत्तकर्मत्वेऽपि ज्ञानेनैव तेषां मुक्तिरित्याह  ज्ञानेनेति।  उक्तमेवार्थं संक्षिप्य दर्शयति  कर्मेति।  कर्मणेत्यादौ बाधितानुवृत्त्या प्रवृत्त्याभासो गृह्यते। द्वितीयमनुवदति  अथेति।  तत्र वाक्यार्थं कथयति  ईश्वरेति।  विभज्य विज्ञेयत्वं वाक्यार्थस्योक्तमुपसंहरति  इति व्याख्येयमिति।  कर्मणां चित्तशुद्धिद्वारा ज्ञानहेतुत्वमित्युक्तेऽर्थे वाक्यशेषं प्रमाणयति  एतमेवेति। योगिनः कर्म कुर्वन्ति इत्यादिवाक्यमर्थतोऽनुवदति  सत्त्वेति।  स्वकर्मणेत्यादौ साक्षादेव मोक्षहेतुत्वं कर्मणां वक्ष्यतीत्याशङ्क्याह   स्वकर्मणेति।  स्वकर्मानुष्ठानादीश्वरप्रसादद्वारा ज्ञाननिष्ठायोग्यता लभ्यते ततो ज्ञाननिष्ठया मुक्तिस्तेन न साक्षात्कर्मणां मुक्तिहेतुतेत्यग्रे स्फुटीभविष्यतीत्यर्थः। तत्त्वज्ञानोत्तरकालं कर्मासंभवे फलितमुपसंहरति  तस्मादिति।  ननु यद्यपि गीताशास्त्रं तत्त्वज्ञानप्रधानमेकं वाक्यं तथापि तन्मध्ये श्रूयमाणं कर्म तदङ्गमङ्गीकर्तव्यं प्रकरणप्रामाण्यादिति समुच्चयसिद्धिस्तत्राह  यथाचेति।  अर्थशब्देनात्मज्ञानमेव केवलं कैवल्यहेतुरिति गृह्यते। वृत्तिकृतामभिप्रायं प्रत्याख्याय स्वाभिप्रेतः शास्त्रार्थः समर्थितः। संप्रत्यशोच्यानित्यस्मात्प्राक्तनग्रन्थसंदर्भस्य प्रागुक्तं तात्पर्यमनूद्याशोच्यानित्यादेः स्वधर्ममपि चावेक्ष्येत्येतदन्तस्य समुदायस्य तात्पर्यमाह  तत्रेति।  अत्र हि शास्त्रे त्रीणि काण्डानि अष्टादशसंख्याकानामध्यायानां षट्कत्रितयमुपादाय त्रैविध्यात् तत्र पूर्वषट्कात्मकं पूर्वकाण्डं त्वंपदार्थं विषयीकरोति मध्यमषट्करूपं मध्यमकाण्डं तत्पदार्थं गोचरयति अन्तिमषट्कलक्षणमन्तिमं काण्डंपदार्थयोरैक्यं वाक्यार्थमधिकरोति तज्ज्ञानसाधनानि तत्र तत्र प्रसङ्गादुपन्यस्यन्ते तज्ज्ञानस्य तदधीनत्वात् तत्त्वज्ञानमेव केवलं कैवल्यसाधनमिति च सर्वत्र विगीतम्। एवं पूर्वोक्तरीत्या गीताशास्त्रार्थे परिनिश्चिते सतीति यावत्। धर्मे संमूढं कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकलं चेतो यस्य तस्य मिथ्याज्ञानवतोऽहंकारममकारवतः शोकाख्यसागरे दुरुत्तारे प्रविश्य क्लिश्यतो ब्रह्मात्मैक्यलक्षणवाक्यार्थज्ञानमात्मज्ञानं तदतिरेकेणोद्धरणासिद्धेस्तमतिभक्तमतिस्निग्धं शोकादुद्धर्तुमिच्छन्भगवान्यथोक्तज्ञानार्थं तमर्जुनमवतारयन् पदार्थपरिशोधने प्रवर्तयन्नादौ त्वंपदार्थं शोधयितुमशोच्यानित्यादिवाक्यमाहेति योजना। यस्याज्ञानं तस्य भ्रमो यस्य भ्रमस्तस्य पदार्थपरिशोधनपूर्वकं सम्यग्ज्ञानं वाक्यादुदेतीति ज्ञानाधिकारिणमभिप्रेत्याह  अशोच्यानित्यादीति।  यत्तु कैश्चित्आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः इत्याद्यात्मयाथात्म्यदर्शनविधिवाक्यार्थमनेन श्लोकेन व्याचष्टे स्वयं हरिरित्युक्तं तदयुक्तं कृतियोग्यतैकार्थसमवेतश्रेयःसाधनताया वा पराभिमतनियोगस्य वा विध्यर्थस्यात्राप्रतीयमानस्य कल्पनाहेत्वभावात्। न च दर्शने पुरुषतन्त्रत्वरहिते विधेययागादिविलक्षणे विधिरुपपद्यते कृत्यान्तर्भूतस्यार्हार्थत्वात् तव्यो न विधिमधिकरोतीत्यभिप्रेत्य व्याचष्टे  न शोच्या इति।  कथं तेषामशोच्यत्वमित्युक्ते भीष्मादिशब्दवाच्यानां वा शोच्यत्वं तत्पदलक्ष्याणां वेति विकल्प्याद्यं दूषयति  सद्वृत्तत्वादिति।  ये भीष्मादिशब्दैरुच्यन्ते ते श्रुतिस्मृत्युदीरिताविगीताचारवत्त्वान्न शोच्यतामश्नुवीरन्नित्यर्थः। द्वितीयं प्रत्याह  परमार्थेति।  अरजते रजतबुद्धिवदशोच्येषु शोच्यबुद्ध्या भ्रान्तोऽसीत्याह  तानिति।  अनुशोचनप्रकारमभिनयन्भ्रान्तिमेव प्रकटयति  ते म्रियन्त इति।  पुत्रभार्यादिप्रयुक्तं सुखमादिशब्देन गृह्यते। इत्यनुशोचितवानसीति संबन्धः। विरुद्धार्थाभिधायित्वेनापि भ्रान्तत्वमर्जुनस्य साधयति  त्वं प्रज्ञावतामिति। वचनानिउत्सन्नकुलधर्माणाम् इत्यादीनि। किमेतावता फलितमिति तदाह  तदेतदिति।  तन्मौढ्यमशोच्येषु शोच्यदृष्टित्वमेतत्पाण्डित्यं बुद्धिमतां वचनभाषित्वमिति यावत्। अर्जुनस्य पूर्वोक्तभ्रान्तिभाक्त्वे निमित्तमात्माज्ञानमित्याह  यस्मादिति।  ननु सूक्ष्मबुद्धिभाक्त्वमेव पाण्डित्यं न त्वात्मज्ञत्वं हेत्वभावादित्याशङ्क्याह  तेहीति।  पाण्डित्यं पण्डितभावमात्मज्ञानं निर्विद्य निश्चयेन लब्ध्वाबाल्ये न तिष्ठासेद् इति बृहदारण्यकश्रुतिमुक्तार्थामुदाहरति  पाण्डित्यमिति।  यथोक्तपाण्डित्यराहित्यं कथं ममावगतमित्याशङ्क्य कार्यदर्शनादित्याह  परमार्थतस्त्विति।  यस्मादित्यस्यापेक्षितं दर्शयति  अत इति।
।।2.11।।अथ नरस्य मोहशोकनिवृत्त्यर्थं साङ्ख्यबुद्धिमाह तत्र साङ्ख्यं बहुविधमत्रैकं सत्प्रमाणकम्। अष्टाविंशतितत्त्वानां स्वरूपं यत्र वै हरिः।।1।।अन्ये सूत्रे निषिध्यन्ते योगोऽप्येकः सदादृतः। यस्मिन्ध्यानं भगवतो निर्बीजेऽप्यात्मबोधकः।।2।।वैराग्यज्ञानयोगैश्च प्रेम्णा च तपसा तथा। एकेनापि दृढेनेशं भजन् सिद्धिमवाप्नुयात्।।3।।अतः कुमतिनाशार्थं साङ्ख्ययोगौ प्रकीर्तितौ। त्यागात्यागविभागेन साङ्ख्ये त्यागः प्रकीर्त्त्यते।।4।।अहन्ताममतानाशे सर्वथा निरहङ्कृतौ। स्वरूपस्थो यदा जीवः कृतार्थौ हरिमाश्रितः।।5।।अत्यागे योगमार्गो हि त्यागोऽपि मनसैव हि। यमादयस्तु कर्तव्याः सिद्धे योगे कृतार्थता।।6।।ईश्वरालम्बनो योगो जनयित्वा तु तादृशम्। बहुजन्मविपाकेन भक्तिं जनयति ध्रुवम्।।7।।साङ्ख्येऽपि भगवच्चित्ते फलमेतन्न चान्यथा। समर्पणात्कर्मणां च भक्तिर्भवति नैष्ठिकी।।8।।अतः पूर्वं साङ्ख्यधिया धर्मनिष्ठा निरूप्यते।।9।।तथाहि हृषीकेशो भगवान् वासुदेवस्तदा स्वमार्गे न स्वीकुर्वन्नात्मनस्तत्त्वाविवेकादस्यैवं शोको भवतीति तन्निवारणार्थं साङ्ख्यबुद्धिं प्रदर्शयन्नाह अशोच्यानिति। उभयथाऽपि न शोचितुं योग्यास्तान्प्रति अन्वशोचस्त्वम्।पतन्ति पितरो ह्येषां 1।42 इत्यादिना देहात्मस्वभावप्रज्ञानिमित्तवादांश्च भाषसे देहात्मस्वभावज्ञानवतां शोके निमित्ताभावात्। गतासून्मृतिं प्राप्तान् अगतासून् जीवतः तत्कलत्रादीन्।मृतानां परलोके का गतिर्जीवतामिह का भविता इति न शोचन्ति। यद्वा गतासून् जडान् अनात्मनो देहान् अगतासून् चेतनान् जीवात्मनश्च पण्डिता विवक्षितलक्षणा न शोचन्ति। त्वं च कीदृक् पण्डितो यच्छोचसीति भावः। आत्मनो वक्ष्यमाणचिदक्षरपुरुषत्वादेकविधत्वं देहस्य चानात्मप्रकृतिकार्यत्वादनित्यत्वं प्रसिद्धमिति हृदयम्।
।।2.11।।तत्रार्जुनस्य युद्धाख्ये स्वधर्मे स्वतो जातापि प्रवृत्तिर्द्विविधेन मोहेन तन्निमित्तेन च शोकेन प्रतिबद्धेति द्विविधो मोहस्तस्य निराकरणीयः। तत्रात्मनि स्वप्रकाशपरमानन्दरूपे सर्वसंसारधर्माऽसंसर्गिणि स्थूलसूक्ष्मशरीरद्वयतत्कारणाविद्याख्योपाधित्रयाविवेकेन मिथ्याभूतस्यापि संसारस्य सत्यत्वात्मधर्मत्वादिप्रतिभासरूप एकः सर्वप्राणिसाधारणः। अपरस्तु युद्धाख्ये स्वधर्मे हिंसादिबाहुल्येनाधर्मत्वप्रतिभासरूपोर्जुनस्यैव करुणादिदोषनिबन्धनोऽसाधारणः। एवमुपाधित्रयविवेकेन शुद्धात्मस्वरूपबोधः प्रथमस्य निवर्तकः सर्वसाधारणः द्वितीयस्य तु हिंसादिमत्त्वेऽपि युद्धस्य स्वधर्मत्वेनाधर्मत्वाभावबोधोऽसाधारणः शोकस्य तु कारणनिवृत्त्यैव निवृत्तेर्न पृथक् साधनान्तरापेक्षेत्यभिप्रेत्य क्रमेण भ्रमद्वयमनुवदन् श्रीभगवानुवाच अशोच्यान्शोचितुमयोग्यानेव भीष्मद्रोणादीनात्मसहितांस्त्वं पण्डितोऽपि सन् अन्वशोचोऽनुशोचितवानसि। ते म्रियन्ते मन्निमित्तमहं तैर्विनाभूतः किं करिष्यामि राज्यसुखादिनेत्येवमर्थकेनदृष्टेवमं स्वजनम् इत्यादिना। तथाचाशोच्ये शोच्यभ्रमः पश्वादिसाधारणस्तवात्यन्तपण्डितस्यानुचित इत्यर्थः। तथाकुतस्त्वा कश्मल मित्यादिना मद्वचनेनानुचित्तमिदमाचरितं मयेति विमर्शे प्राप्तेऽपि त्वं स्वयं प्रज्ञोऽपि सन् प्रज्ञानां अवादान्प्रज्ञैर्वक्तुमनुचिताञ्शब्दांश्चकथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादीन्भाषसे वदसि नतु लज्जया तूष्णींभवसि। अतःपरं किमनुचितमस्तीति सूचयितुं चकारः। तथाचाधर्मे धर्मत्वभ्रान्तिधर्मे चाधर्मत्वभ्रान्तिरसाधारणी तवातिपण्डितस्य नोचितेति भावः। प्रज्ञावतां पण्डितानां वादान्भाषसे परं नतु बुध्यस इति वा भाषणापेक्षयानुशोचनस्य प्राक्कालत्वादतीतत्वनिर्देशः। भाषणस्य तु तदुत्तरकालत्वेनाव्यवहितत्वाद्वर्तमानत्वनिर्देशः। छान्दसेन तिङ्व्यत्ययेनानुशोचसीति वर्तमानत्वं व्याख्येयम्। ननु बन्धुविच्छेदे शोको नानुचितः वसिष्ठादिभिर्महाभागैरपि कृतत्वादित्याशङ्क्याह गतासूनिति। ये पण्डिताः विचारजन्यात्मतत्त्वज्ञानवन्तस्ते गतप्राणानगतप्राणांश्च बन्धुत्वेन कल्पितान्देहान्नानुशोचन्ति। एते मृताः सर्वोपकरणपरित्यागेन गताः किं कुर्वन्ति क्व तिष्ठन्ति एते च जीवन्तो बन्धुविच्छेदेन कथं जीविष्यन्तीति न व्यामुह्यन्ति। समाधिसमये तत्प्रतिभासाभावात् व्युत्थानसमये तत्प्रतिभासेऽपि मृषात्वेन निश्चयात्। नहि रज्जुतत्त्वसाक्षात्कारेण सर्पभ्रमेऽपनीते तन्निमित्तभयकम्पादि संभवति नवा पित्तोपहतेन्द्रियस्य कदाचिद्गुडे तिक्तताप्रतिभासेऽपि तिक्तार्थितया तत्र प्रवृत्तिः संभवति मधुरत्वनिश्चयस्य बलबत्त्वात् एवमात्मस्वरूपाज्ञाननिबन्धनत्वाच्छोच्यभ्रमस्य तत्स्वरूपज्ञानेन तदज्ञानेऽपनीते तत्कार्यभूतः शोच्यभ्रमः कथमवतिष्ठेतेति भावः। वसिष्ठादीनां प्रारब्धकर्मप्राबल्यात्तथा तथानुकरणं न शिष्टाचारतयान्येषामनुष्ठेयतामापादयति शिष्टैर्धर्मबुद्ध्यानुष्ठीयमानस्यालौकिकव्यवहारस्यैव तदाचारत्वात् अन्यथा निष्ठीवनादेरप्यनुष्ठानप्रसङ्गादिति दृष्टव्यम्। यस्मादेवं तस्मात्त्वमपि पण्डितो भूत्वा शोकं माकार्षीरित्यभिप्रायः।
।।2.11।।देहात्मनोरविवेकादस्यैवं शोको भवतीति तद्विवेकप्रदर्शनार्थं श्रीभगवानुवाच  अशोच्यानिति।  शोकस्याविषयभूतानेव बन्धूंस्त्वमन्वशोचः अनुशोचितवानसिदृष्टवेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् इत्यादिना तत्रकुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् इत्यादिना मया बोधितोऽपि पुनश्च प्रज्ञावतां पण्डितानां वादान् शब्दान्कथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादीन्केवलं भाषसे नतु पण्डितोऽसि। यतो गतासून्गतप्राणान्बन्धूनगतासूंश्च जीवतोऽपि बन्धुहीना एते कथं जीविष्यन्तीति नानुशोचन्ति।
।।2.11।।अशोच्यानन्वशोचः इत्युक्ते केचिदशोच्याः शोचन्ति तदनन्तरमयमपि शोचतीति भ्रान्तिः स्यात् तन्निवृत्त्यर्थमुक्तंअशोच्यान्प्रति इति।अन्वशोचः इति लङ्प्रयोगोऽनुपपन्नः शोकस्याद्यतनत्वात्भाषसे इति वर्तमानार्थव्यपदेशवैरुप्याच्च इत्यत्राह अनुशोचसि इति। अद्यतन एव चिरानुवृत्तत्वविवक्षया सोपसर्गलङ्प्रयोगः यद्वा वर्तमानार्थ एवसुप्तिङुपग्रहः इत्यादिना लकारव्यत्ययः।प्रज्ञावादांश्च भाषसे इत्यत्रवर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा अष्टा.3।3।131 इत्यनुशासनाद्भूते लट्। तेनतूष्णीं बभूव ह 2।9 इत्यनेन न विरोधः। अत्र प्रकृष्टज्ञानवाचिना प्रज्ञाशब्देन देहात्मनोः स्वभावज्ञानमुच्यते। प्रज्ञया कृता व्यवहाराः प्रज्ञावादा इति समासार्थव्यञ्जनाय निमित्तशब्दः। देहात्मभेदज्ञाने सति हि पितृ़णां तदर्थपिण्डोदकक्रियायास्तल्लोपनिमित्तप्रत्यवायादेश्च विश्वासपूर्वको व्यवहार इत्येतत्सूचनायपतन्ति इत्याद्युपात्तम्। फलितमाह देहात्मेति।गतासून् इत्यादेर्विवक्षितं विशेष्यं निर्दिशन् पण्डितशब्दं प्रकृतोपयोगितया व्याकुर्वन्नन्वयमाह गतासूनिति। यद्यपि गतासूनगतासूनितिशब्दौ निष्प्राणसप्राणवाचकौ तथापि तस्यार्थस्य प्रकृतासङ्गतेः अविश्रान्तमनालम्बमपाथेयमदेशिकम्। तमः कान्तारमध्वानं कथमेको गमिष्यसिबद्धवैराणि भूतानि द्वेषं कुर्वन्ति चेत्ततः। शोच्यान्यहोऽतिमोहेन व्याप्तानीति मनीषिणा इत्यादिषु पण्डितानामेव सप्राणनिष्प्राणविषयशोकदर्शनात्अशोच्यानन्वशोचः इत्यस्य वक्ष्यमाणे विस्तरे चअव्यक्तोऽयम् 2।25 इत्यादिनाअथ चैनम् 2।26 इत्यादिना च नित्यस्यात्मनः अनित्यस्य शरीरस्य च अशोचनीयत्वेन वक्ष्यमाणत्वादत्रापि तद्विषयतैव युक्तेत्यभिप्रायः। देहास्तावन्न शोचनीयाः नश्वरत्वात् आत्मानोऽपि तथा अनश्वरत्वात् इत्यूहापोहक्षमबुद्धिरूपा पण्डा येषां तेऽत्र पण्डिताः। प्रज्ञावादविप्रतिषिद्धशोकेनोन्नींतांस्तदज्ञानविषयानाह अतो देहेत्यादिना। शोकस्तु सिद्धः प्रज्ञा तु वादमात्रस्थेति भावः।को देहस्वभावः कथमात्मा देहातिरिक्तो नित्यश्च कथं च अनयोरशोच्यत्वम् कथं वा घोरं युद्धादिकमात्मप्राप्त्युपायभूतं इत्याशङ्क्य तदज्ञानविषयतयोक्तं त्रयं बुद्धिस्थक्रमेण विवृणोति इदं चेत्यादिना। इदमेव युद्धं बुद्धिविशेषसंस्कृतत्वादात्मयाथात्म्यप्राप्तिकरमित्यर्थः।उपायभूतमित्यत्र च्विप्रत्ययाप्रयोगादयमेवास्य स्वभावः फलान्तराभिसन्धिना तु स प्रतिबद्ध्यत इति भावः।आत्मा हीति हिशब्देनन जायते कठोप.2।18 इत्यादिश्रुतिप्रसिद्धिं द्योतयति। आत्मनो देहसंयोगवियोगलक्षणजन्ममरणसद्भावेऽपि नोत्पत्तिविनाशरूपे जन्ममरणे इत्यभिप्रायेणाह तस्येति।देहस्त्विति तुशब्द आत्मापेक्षया वैलक्षण्यं प्रत्यक्षादिसिद्धं द्योतयति। देहत्वेनोपचयात्मकत्वादचेतनत्वाच्च घटादिवत्परिणामस्वभाव इत्यर्थः।
।।2.11।।पूर्वं शास्त्रार्थज्ञानेन स्थिरां बुद्धिं कृत्वा भक्त्युपदेशः कर्त्तव्य इति पूर्वं सर्वशास्त्रोक्तज्ञानमुक्त्वा भक्तिमुपदिशन्नात्मानात्मज्ञानार्थमात्मानात्मज्ञानमाह भगवान् अशोच्यानिति। त्वं अशोच्यान् शोकानर्हान् अन्वशोचः अनुशोचितवानसि यतस्तेऽसुरावेशिनो भूभारहरणार्थं मे मारणीया एव न तु ते  भक्ताः৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. । किञ्च तेषां शोकं कृत्वा प्रज्ञावादान् प्रज्ञावतां पण्डितानां वादान् भाषसे वदसि। तेषां वादानेव वदसि न तु त्वं प्रज्ञावान्। यतस्ते प्रज्ञावन्तः पण्डिता मदिच्छयैव सर्वं भवतीति ज्ञानवन्तः अतः गतासून् गतप्राणान्परलोके तेषां का गतिर्भविष्यति अगतासून् जीवतःजीवतां तेषां कथं योगक्षेमो भविष्यति इति नानुशोचन्ति। अत एव श्रुतिरप्याह एष एव तं साधु कर्म कारयति यमुन्निनीषति एष एव तमसाधु कर्म कारयति यमधोनिनीषति (৷৷.ह्येवैन৷৷.तं यमन्वानुनेषति৷৷.तं यमेभ्यो लोकेभ्यो नुनुत्सत) कौ.उ.3।9 इति। अतो मत्कृतेऽर्थे कथं शोकः कर्त्तव्य इति भावः।
।।2.11।।अर्जुनस्य देहनाशे आत्मनाशधीः स्वधर्मे युद्धे चाधर्मधीरिति मोहद्वयम्। तत्राद्यं ब्रह्मविद्यासूत्रभूतैर्विंशत्या श्लोकैरुपनिनीषन् श्रीभगवानुवाच  अशोच्यानन्वशोचस्त्वमिति। जीवापेतं वाव किलेदं म्रियते न जीवो म्रियते इति श्रुतेर्देहाद्युपाधिनाशेऽप्याकाशवन्नाशरहितत्वेन अशोचनीयान् भीष्मादीनन्वशोचः कथमेते गुरवो मया हन्तव्याः कथं वा तैर्विनाहं जीविष्यामिति शोकं कृतवानसि। एवं मूढोऽपि त्वं प्रज्ञावादान् प्रज्ञावतां देहादन्यमात्मानं जानतां वादान् शब्दान्नरके नियतं वासःपतन्ति पितरो ह्येषाम् इत्यादीन् भाषसे परं न तु प्रज्ञावानसि। तत्र हेतुः  गतासूनिति।  गतासून् गतप्राणान्देहान्नानुशोचन्ति प्रत्युत निर्हरन्त्येव। एतेन प्राण एवेष्टो न तु देहः। तथा च श्रुतिःप्राणो ह पिता प्राणो माता प्राण आचार्यः इत्यादिः। अतएव सप्राणानेतान् अवगणयन्तं नरं पित्रादिहन्ता त्वमसि धिक्त्वामिति वदन्ति उत्क्रान्तप्राणान् दहन्तमपि नैवं वदन्तीति लोकवेदप्रसिद्धिः। तस्मात् आत्मा देहादन्यः चेतनत्वात् व्यतिरेकेण घटवत्। देहो न चेतनः दृश्यत्वात् घटवत्। यदि देहश्चेतनः स्यात् मृतेऽपि तत्र चैतन्यमुपलभ्येत तस्माद्देहनाशेनात्मनाशं मन्वानो मूर्ख एवासीत्यर्थः। यत्तुप्रज्ञानां पण्डितानां अवादान् वक्तुमयोग्यान् भाषसे इति तार्किकव्याख्यानं तत् अर्हार्थे घञो दुर्लभत्वात् विशेषाध्याहारसापेक्षत्वाच्चोपेक्ष्यम्।
।।2.11।।   तदेवमर्जुनः कथं भीष्ममहमित्यादिना प्रदर्शिताभ्यां गुर्वादिष्वहमेतेषां ममैत इति भ्रान्तिप्रत्ययनिमित्तस्त्रेहाविच्छेदादिनिमित्ताभ्यां शोकमोहाभ्यां स्वतएव क्षत्रधर्मे युद्धे प्रवृत्तोऽप्यभिभूतविवेकविज्ञानस्तस्माद्युद्धादुपरराम परधर्मं च भिक्षाशनादिकं कर्तुं प्रववृते तथाच सर्वप्राणिनां शोकमोहाविष्टचेतसां स्वभावत एव स्वधर्मपरित्यागः प्रतिषिद्धाश्रयणं च स्यात्। स्वधर्मे प्रवृत्तानामपि तेषां कायिकादित्रिविधं कर्म फलाभिसंधिपूर्वकमेव साहंकारं भवति तत्रैवंसति धर्माधर्मोपचयादिष्टानिष्टजन्ममरणादिसंप्राप्तिलक्षणः संसारो नोपशाम्यत्यतो धर्मसंमूढचेतसं महति शोकसागरे निमग्नं लोकमुद्दिधीर्षुः संसारबीचभूतयोस्तयोश्चित्तशुद्धिजनकनिष्कामकर्मणो लब्धात्तत्वज्ञानात्केवलादन्यतो निवृत्तिमपश्यन् उपयोपेयभूतं निष्ठाद्वयमुपदिदिक्षुरर्जुनं निमित्तीकृत्य भगवान्वासुदेव आह  अशोच्याजित्यादिना।  एतेन तत्रार्जुनस्य द्विविधो मोहो निराकरणीयः। तत्रात्मन्युपाधित्रयाविवेकेन मिथ्याभूतस्यापि संसारस्य सत्यत्वात्मधर्मत्वादिप्रतिभासरुपः सर्वप्राणिसाधारण एकः अपरस्तु स्वधर्मेऽधर्मत्वप्रतिभासरुपोऽर्जुनस्यैवासाधारण इति प्रत्युक्तम्। सर्व प्राणिसाधारण्योर्मोहयोर्लोक उपलभ्यमानत्वात्। तथाच सर्वप्राणिनामिति भाष्यकारैस्तथैवोक्तत्वात् अर्जुनं निमित्तीकृत्य लोकार्थमेव भगवतोपदेशः कृत इति भाष्यकृद्धिः स्वेन च स्थापितत्वात् अशुद्धान्तःकरणानां तु योगनिष्ठोक्तान्तःकरणशुद्धिद्वारा ज्ञानभूमिकारोहणार्थंधर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते इत्यादिनेति लोकेऽस्मिन्निति श्लोकस्थस्वग्रन्थविरोधाच्चेति दिक्। अशोच्यान्शोकानर्हान्सद्भूतत्वात्परमार्थरुपेण नित्यत्वाच्च शोचितवानसि। प्रज्ञावतां बुद्धिमतां वादान्किं नो राज्येनकथं भीष्ममहम् इत्यादीनि वचनानि च भाषसे तदेतदुभयमुन्मत्तचेष्टितमित्यभिप्रायः। यतः पण्डिता आत्मज्ञाः गतासून्मृतानगतासूनमृतांश्च नानुशोचन्ति। अहो कष्टमेते मृता एते मरिष्यन्तीति चिन्तां न कुर्वन्तीत्यर्थः। यत्तु प्रज्ञानां पण्डितानामवादान्वक्तुमयोग्यान्भाषस इति तदुपेक्ष्यम् अर्हार्थे घञो दुर्लभत्वात् विशेष्याध्याहारसापेक्षत्वाच्चेति।
2.11 अशोच्यान् those who should not be grieved for? अन्वशोचः hast grieved? त्वम् thou? प्रज्ञावादान् words of wisdom? च and? भाषसे speakest? गतासून् the dead? अगतासून् the living? च and? न अनुशोचन्ति grieve not? पण्डिताः the wise.Commentary -- The philosophy of the Gita begins from this verse.Bhishma and Drona deserve no grief because they are eternal in their real nature and they are virtuous men who possess very good conduct. Though you speak words of wisdom? you are unwise because you grieve for those who are really eternal and who deserve no grief. They who are endowed with the knowledge of the Self are wise men. They will not grieve for the living or for the dead because they know well that the Self is immortal and that It is unborn. They also know that there is no such a thing as death? that it is a separation of the astral body from the physical? that death is nothing more than a disintegration of matter and that the five elements of which the body is composed return to their source. Arjuna had forgotten the eternal nature of the Soul and the changing nature of the body. Because of his ignorance? he began to act as if the temporary relations with kinsmen? teachers? etc.? were permanent. He forgot that his relations with this world in his present life were the results of past actions. These? when exhausted? end all relationship and new ones ones crop up when one takes on another body.The result of past actions is known as karm and that portion of the karma which gave rise to the present incarnation is known as prarabdha karma.
2.11 The Blessed Lord said Thou hast grieved for those that should not be grieved for, yet thou speakest words of wisdom. The wise grieve neither for the living nor for the dead.
2.11 Lord Shri Krishna said: Why grieve for those for whom no grief is due, and yet profess wisdom? The wise grieve neither for the dead nor the living.
2.11 The Blessed Lord said You grieve for whose who are not to be grieved for; and you speak words of wisdom! The learned do not grieve for the departed and those who have not departed.
2.11 Bhisma, Drona and others are not to be grieved for, because they are of noble character and are eternal in their real nature. With regard to them, asocyan, who are not to be grieved for; tvam, you; anvasocah, grieve, (thinking) 'They die because of me; without them what shall I do with dominion and enjoyment?'; ca, and; bhasase, you speak; prajnavadan, words of wisdom, words used by men of wisdom, of intelligence. The idea is, 'Like one mad, you show in yourself this foolishness and learning which are contradictory.' Because, panditah, the learned, the knowers of the Self panda means wisdon about the Self; those indeed who have this are panditah, one the authority of the Upanisadic text, '৷৷.the knowers of Brahman, having known all about scholarship,৷৷.' (Br. 3.5.1) ['Therefore the knowers of Brahman, having known all about scholorship, should try to live upon that strength which comes of Knowledge; having known all about this strength as well as scholorship, he becomes meditative; having known all about both meditativeness and its opposite, he becomes a knower of Brahman.'] ; na anusocanti, do not grieve for; gatasun, the departed, whose life has become extinct; agatasun ca, and for those who have not departed, whose life has not left, the living. The ideas is, 'Your are sorrowing for those who are eternal in the real sense, and who are not to be grieved for. Hence your are a fool!.'
2.11. While lamenting for those who cannot be lamented on and those who do not reire to be lamented on, you do not talk like a wise man ! The learned do not lament for those of departed life and those of non-departed life.
2.11 Asocyan etc. You lament for the body that cannot be lamented over, because it is of incessantly perishing nature; and also for the Soul that does not reire to be lamented. No one, either of departed life, i.e., the dead, or of non-departed life, i.e., the living, is to be mourned for. As for instance, the Soul is ever non-perishing. What sort of lamentability can be for It, as It is plessantly travelling in different bodies ? Nor is it right to say that Its lamentability is due only to Its travel in another body. For, in that case, It should be lamented for, even when the stage of youth etc., is attained. In this manner, the two ideas [the Lord] relates :
2.11 The Lord said You are grieving for those who do not deserve to be grieved for. You also speak words of wisdom about the nature of the body and the self as follows: 'The ancestors fall degraded, deprived of the ritual oblations of food and water' (I. 42). There is no reason for such grief for those who possess the knowledge of the nature of the body and the self. Those who know the exact truth will not grieve for those bodies from which life has departed and for those from whome the principle of life has not departed. They do not grieve for bodies or souls. Hence, in you this contradiction is visible - your grief at the thought 'I shall slay them?' and at the same time your talk about righteousness and unrighteousness, as if it were the result of knowledge of the self as distinct from the body. Therefore you do not know the nature of the body nor of the self which is distinct from the body and is eternal. Nor do you know of duties like war etc., which (as duty) constitute the means for the attainment of the self, nor of the fact that this war (which forms a duty in the present context), if fought without any selfish desire for results, is a means for the attainment of the knowledge of the true nature of the self. The implied meaning is this: This self, verily, is not dependent on the body for Its existence, nor is It subjected to destruction on the death of the body, as there is no birth or death for It. Therefore there is no cause for grief. But the body is insentient by nature, is subject to change, and its birth and death are natural; thus it (body) too is not to be grieved for. First listen about the nature of the self.
2.11 The Lord said You grieve for those who should not be grieved for; yet you speak words of wisdom. The wise grieve neither for the dead nor for the living.
।।2.11।।इस प्रकार धर्मके विषयमें जिसका चित्त मोहित हो रहा है और जो महान् शोकसागरमें डूब रहा है ऐसे अर्जुनका बिना आत्मज्ञानके उद्धार होना असम्भव समझकर उस शोकसमुद्रसे अर्जुनका उद्धार करनेकी इच्छावाले भगवान् वासुदेव आत्मज्ञानकी प्रस्तावना करते हुए बोले जो शोक करने योग्य नहीं होते उन्हें अशोच्य कहते हैं भीष्म द्रोण आदि सदाचारी और परमार्थरूपसे नित्य होनेके कारण अशोच्य हैं। उन न शोक करने योग्य भीष्मादिके निमित्त तू शोक करता है कि वे मेरे हाथों मारे जायँगे मैं उनसे रहित होकर राज्य और सुखादिका क्या करूँगा तथा तू प्रज्ञावानोंके अर्थात् बुद्धिमानोंके वचन भी बोलता है अभिप्राय यह है कि इस तरह तू उन्मतकी भाँति मूर्खता और बुद्धिमत्ता इन दोनों परस्परविरुद्ध भावोंको अपनेमें दिखलाता है। क्योंकि जिनके प्राण चले गये हैं जो मर गये हैं उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये जो जीते हैं उनके लिये भी पण्डित आत्मज्ञानी शोक नहीं करते। पाण्डित्यको सम्पादन करके इस श्रुतिवाक्यानुसार आत्मविषयक बुद्धिका नाम पण्डा है और वह बुद्धि जिनमें हो वे पण्डित हैं। परंतु परमार्थदृष्टिसे नित्य और अशोचनीय भीष्म आदि श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये तू शोक करता है अतः तू मढ है। यह अभिप्राय है।
।।2.11।।  अशोच्यान् इत्यादि । न शोच्या अशोच्याः भीष्मद्रोणादयः सद्वृत्तत्वात् परमार्थस्वरूपेण च नित्यत्वात् तान्  अशोच्यान् अन्वशोचः  अनुशोचितवानसि ते म्रियन्ते मन्निमित्तम् अहं तैर्विनाभूतः किं करिष्यामि राज्यसुखादिना इति।  त्वं प्रज्ञावादान्  प्रज्ञावतां बुद्धिमतां वादांश्च वचनानि च भाषसे। तदेतत् मौढ्यं पाण्डित्यं च विरुद्धम् आत्मनि दर्शयसि उन्मत्त इव इत्यभिप्रायः। यस्मात्  गतासून्  गतप्राणान् मृतान्  अगतासून्  अगतप्राणान् जीवतश्च  न अनुशोचन्ति पण्डिताः  आत्मज्ञाः। पण्डा आत्मविषया बुद्धिः येषां ते हि पण्डिताः पाण्डित्यं निर्विद्य इति श्रुतेः। परमार्थतस्तु तान् नित्यान् अशोच्यान् अनुशोचसि अतो मूढोऽसि इत्यभिप्रायः।।कुतस्ते अशोच्याः यतो नित्याः। कथम्
।।2.11।।इदानीं गीताव्याख्यानावसरे प्राप्तेधर्मक्षेत्रे 1।1 इत्यारभ्यअशोच्यानन्वशोचस्त्वं इत्यतः प्राक्तनस्य ग्रन्थस्यातिरोहितार्थत्वात्तात्पर्यमाह  तत्रे ति। तत्र गीतिकायां कैश्चन श्लोकैरिदमुच्यत इति शेषः। नन्वत्र न धर्मो नापि तत्त्वं प्रतिपाद्यते तत्कुतोऽस्य गीतायामनुप्रवेशः मैवम् भगवतोऽर्जुनबोधने प्रसक्तिं दर्शयतोऽस्य ग्रन्थस्य तादर्थ्यात्तत्र प्रवेशोपपत्तेः। बान्धवादिविषयो मोहोममैते अहमेतेषां एते च मन्निमित्तं नङ्क्ष्यन्ति कथमेतैर्विनाऽहं भवेयम् पापं च मे भविष्यति जयश्च सन्दिग्धः इत्यादिरूपो मिथ्याप्रत्ययो बान्धवादिमोहः तेषु स्नेहो वा। सजालमिव तेन संवृतं तत एव विषीदन्तम्। विषादो नाम मोहनिमित्ताच्छोकाद्यन्मनोदौर्बल्यम् यस्मिन्सति सर्वव्यापारोपरमो भवति। नन्विदानीमेव कुतोऽर्जुनस्य मोहसमुत्पत्तिः न ह्येते बान्धवादय इति प्राङ्नाज्ञासीत् येन युद्धाय महान्तमुद्योगमकार्षीदित्यत आह  सेनयोरि ति। महापकारस्मरणेनानुवर्तमानोऽपि कोपो मृदुमनसां बान्धवादिष्वन्तकाले निवर्तते स्नेह श्चोत्पद्यते ततो मोह इति प्रसिद्धमेवेति भावः। अर्जुनस्य ज्ञानित्वान्मोहजालसवृतत्वमीषदेवेति मन्तव्यम्।प्रज्ञावादान् इत्येतत्प्रज्ञावतां बुद्धिमतां वादान् वचनानि इति कश्चिद्व्याख्यातवान् (शं.चा.) तदसत्। न हिदृष्ट्वेमं स्वजनं 1।28 इत्याद्यर्जुनवाक्येषु कश्चिद्बुद्धिमद्वादो दृश्यते। न हि बुद्धिमन्तो नारायणद्विट्तदनुबन्धिनिग्रहमधर्मं वदन्ति। न च धर्माधर्मविषयत्वमात्रेण बुद्धिमद्वादो भवति। बौद्धादेरपि तत्त्वप्रसङ्गादित्याशयेनान्यथा व्याचष्टे  प्रज्ञावादानि ति। स्वस्या एव मनीषाया उत्थितानि न तु शास्त्राचार्योपदेशप्राप्तानि। कथमेतल्लभ्यते उच्यते प्रज्ञायाः वादाः प्रज्ञावादाः। कार्यकारणभावे षष्ठी। न हि स वादोऽस्ति यः प्रज्ञापूर्वो न भवतीति। सामर्थ्यात्स्वेति लभ्यते। सावधारणं चैतत्अब्भक्ष इति यथा। अन्यथा पुनर्वैयर्थ्यादिति। कथमशोच्या इत्यत आहेति शेषः। गतासूनित्यतः परमितिशब्दः। आसन्नविनाशाः कथमशोच्या इत्यर्थः। ननु प्रागशो च्यत्वानुवादेनान्वशोच इत्येवोक्तम् न त्वशोच्यत्वम् तत्कथमेवमाक्षेपः मैवम् न हि यथाश्रुतैवाऽत्र वाक्यवृत्तिः।असिद्धस्यानुवादः सिद्धस्य बोधनं इत्यापत्तेः। किन्तु यानन्वशोचस्त्वं तेऽशोच्यास्तस्मात्तान् प्रति न शोकः कार्यः। यांश्च भाषसे ते प्रज्ञावादाः अतो न भाषणीया इति। तथा चाशोच्याः कुतोऽवगन्तव्याः इति प्रश्नो वा आक्षेपो वा युज्यत एव।
।।2.11।।तत्र सेनयोर्मध्ये बान्धवादिमोहजालसंवृतं विषीदन्तमर्जुनं भगवानुवाच। प्रज्ञावादान् स्वमनीषोत्थवचनानि। कथमशोच्याः गतासून्।
श्री भगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।2.11।।
শ্রী ভগবানুবাচ অশোচ্যানন্বশোচস্ত্বং প্রজ্ঞাবাদাংশ্চ ভাষসে৷ গতাসূনগতাসূংশ্চ নানুশোচন্তি পণ্ডিতাঃ৷৷2.11৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ অশোচ্যানন্বশোচস্ত্বং প্রজ্ঞাবাদাংশ্চ ভাষসে৷ গতাসূনগতাসূংশ্চ নানুশোচন্তি পণ্ডিতাঃ৷৷2.11৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ અશોચ્યાનન્વશોચસ્ત્વં પ્રજ્ઞાવાદાંશ્ચ ભાષસે। ગતાસૂનગતાસૂંશ્ચ નાનુશોચન્તિ પણ્ડિતાઃ।।2.11।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਅਸ਼ੋਚ੍ਯਾਨਨ੍ਵਸ਼ੋਚਸ੍ਤ੍ਵਂ ਪ੍ਰਜ੍ਞਾਵਾਦਾਂਸ਼੍ਚ ਭਾਸ਼ਸੇ। ਗਤਾਸੂਨਗਤਾਸੂਂਸ਼੍ਚ ਨਾਨੁਸ਼ੋਚਨ੍ਤਿ ਪਣ੍ਡਿਤਾ।।2.11।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಅಶೋಚ್ಯಾನನ್ವಶೋಚಸ್ತ್ವಂ ಪ್ರಜ್ಞಾವಾದಾಂಶ್ಚ ಭಾಷಸೇ. ಗತಾಸೂನಗತಾಸೂಂಶ್ಚ ನಾನುಶೋಚನ್ತಿ ಪಣ್ಡಿತಾಃ৷৷2.11৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച അശോച്യാനന്വശോചസ്ത്വം പ്രജ്ഞാവാദാംശ്ച ഭാഷസേ. ഗതാസൂനഗതാസൂംശ്ച നാനുശോചന്തി പണ്ഡിതാഃ৷৷2.11৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ଅଶୋଚ୍ଯାନନ୍ବଶୋଚସ୍ତ୍ବଂ ପ୍ରଜ୍ଞାବାଦାଂଶ୍ଚ ଭାଷସେ| ଗତାସୂନଗତାସୂଂଶ୍ଚ ନାନୁଶୋଚନ୍ତି ପଣ୍ଡିତାଃ||2.11||
śrī bhagavānuvāca aśōcyānanvaśōcastvaṅ prajñāvādāṅśca bhāṣasē. gatāsūnagatāsūṅśca nānuśōcanti paṇḍitāḥ৷৷2.11৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச அஷோச்யாநந்வஷோசஸ்த்வஂ ப்ரஜ்ஞாவாதாஂஷ்ச பாஷஸே. கதாஸூநகதாஸூஂஷ்ச நாநுஷோசந்தி பண்டிதாஃ৷৷2.11৷৷
శ్రీ భగవానువాచ అశోచ్యానన్వశోచస్త్వం ప్రజ్ఞావాదాంశ్చ భాషసే. గతాసూనగతాసూంశ్చ నానుశోచన్తి పణ్డితాః৷৷2.11৷৷
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।।2.12।। किसी कालमें मैं नहीं था और तू नहीं था तथा ये राजालोग नहीं थे, यह बात भी नहीं है; और इसके बाद (भविष्य में) मैं, तू और राजलोग - हम सभी नहीं रहेंगे, यह बात भी नहीं है।
।।2.12।। वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तुम नहीं थे अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।
।।2.12।। यहाँ भगवान् स्पष्ट घोषणा करते हैं कि देह को धारण करने वाली आत्मा एक महान तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ी है जो इस यात्रा के मध्य कुछ काल के लिये विभिन्न शरीरों को ग्रहण करते हुये उनके साथ तादात्म्य कर विशेष अनुभवों को प्राप्त करती है। श्रीकृष्ण अर्जुन और अन्य राजाओं का उन विशेष शरीरों में होना कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। न वे शून्य से आये और न ही मृत्यु के बाद शून्य रूप हो जायेंगे। प्रामाणिक तात्त्विक विचार के द्वारा मनुष्य भूत वर्तमान और भविष्य की घटनाओं की सतत शृंखला समझ सकता है। आत्मा वहीं रहती हुई अनेक शरीरों को ग्रहण करके प्राप्त परिस्थितियों का अनुभव करती प्रतीत होती है।यही हिन्दू दर्शन का प्रसिद्ध पुनर्जन्म का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के सबसे बड़े विरोधियों ने अपने स्वयं के धर्मग्रन्थ का ही ठीक से अध्ययन नहीं किया प्रतीत होता है। स्वयं ईसा मसीह ने यदि प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है। जब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था कि जान ही एलिजा था। ओरिजेन नामक विद्वान ईसाई पादरी ने स्पष्ट रूप से कहा है प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्व जन्म के पुण्यों के फलस्वरूप यह शरीर प्राप्त हुआ है।कोईभी ऐसा महान विचारक नहीं है जिसने पूर्व जन्म के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार नहीं किया गया है। गौतम बुद्ध सदैव अपने पूर्व जन्मों का सन्दर्भ दिया करते थे। वर्जिल और ओविड दोनों ने इस सिद्धान्त को स्वत प्रमाणित स्वीकार किया है। जोसेफस ने कहा है कि उसके समय यहूदियों में पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर पर्याप्त विश्वास था। सालोमन ने बुक आफ विज्डम में कहा है एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ अंगों के साथ जन्म लेना पूर्व जीवन में किये गये पुण्य कर्मों का फल है। और इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के इस कथन को कौन नहीं जानता जिसमें उन्होंने कहा कि मैं पत्थर से मरकर पौधा बना पौधे से मरकर पशु बना पशु से मरकर मैं मनुष्य बना फिर मरने से मैं क्यों डरूँ मरने से मुझमें कमी कब आयी मनुष्य से मरकर मैं देवदूत बनूँगाइसके बाद के काल में जर्मनी के विद्वान दार्शनिक गोथे फिख्टे शेलिंग और लेसिंग ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया। बीसवीं शताब्दी के ही ह्यूम स्पेन्सर और मेक्समूलर जैसे दार्शनिकों ने इसे विवाद रहित सिद्धान्त माना है। पश्चिम के प्रसिद्ध कवियों को भी कल्पना के स्वच्छाकाश में विचरण करते हुये अन्त प्रेरणा से इसी सिद्धान्त का अनुभव हुआ जिनमें ब्राउनिंग रोसेटी टेनिसन वर्डस्वर्थ आदि प्रमुख नाम हैं।पुनर्जन्म का सिद्धान्त तत्त्वचिन्तकों की कोई कोरी कल्पना नहीं है। वह दिन दूर नहीं जब मनोविज्ञान के क्षेत्र में तेजी से हो रहे विकास के कारण जो तथ्य संग्रहीत किये जा रहें हैं उनके दबाव व प्रभाव से पश्चिमी राष्ट्रों को अपने धर्म ग्रन्थों का पुनर्लेखन करना पड़ेगा। बिना किसी दुराग्रह और दबाव के जीवन की यथार्थता को जो समझना चाहते हैं वे जगत् में दृष्टिगोचर विषमताओं के कारण चिन्तित होते हैं। इन सबको केवल संयोग कहकर टाला नहीं जा सकता। यदि हम तर्क को स्वीकार करते हैं तो देह से भिन्न जीव के अस्तित्व को मानना ही पड़ता है। मोझार्ट का एक दर्शनीय दृष्टान्त है। उसने 4 वर्ष की आयु में वाद्यवृन्द की रचना की और पांचवें वर्ष में लोगों के सामने कार्यक्रम प्रस्तुत किया और सात वर्ष की अवस्था में संगीत नाटक की रचना की। भारत के शंकराचार्य आदि का जीवन देखें तो ज्ञात होता है कि बाल्यावस्था में ही उनको कितना उच्च ज्ञान था। पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार न करने पर इन आश्चर्यजनक घटनाओं को संयोग मात्र कहकर कूड़ेदानी में फेंक देना पड़ेगापुनर्जन्म को सिद्ध करने वाली अनेक घटनायें देखी जाती हैं परन्तु उन्हें प्रमाण के रूप में संग्रहीत बहुत कम किया जाता है। जैसा कि मैंने कहा आधुनिक जगत् को इस महान स्वत प्रमाणित जीवन के नियम के सम्बन्ध में शोध करना अभी शेष है। अपरिपक्व विचार वाले व्यक्ति को प्रारम्भ में इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में संदेह हो सकता है। जब भगवान् ने कहा कि उन सबका नाश होने वाला नहीं है तब उनके कथन को जगत् का एक सामान्य व्यक्ति होने के नाते अर्जुन ठीक से ग्रहण नहीं कर पाया। उसने प्रश्नार्थक मुद्रा में श्रीकृष्ण की ओर देखकर अधिक स्पष्टीकरण की मांग की।इनका शोक क्यों नहीं करना चाहिये क्योंकि स्वरूप से ये सब नित्य हैं। कैसे ৷৷.भगवान् कहते हैं
।।2.12।। व्याख्या-- [मात्र संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं--शरीरी (सत्) और शरीर (असत्)। ये दोनों ही अशोच्य हैं अर्थात् शोक न शरीरी-(शरीरमें रहनेवाले-) को लेकर हो सकता है और न शरीरको लेकर ही हो सकता है। कारण कि शरीरीका कभी अभाव होता ही नहीं और शरीर कभी रह सकता ही नहीं। इन दोनोंके लिये पूर्वश्लोकमें जो 'अशोच्यान्' पद आया है, उसकी व्याख्या अब शरीरीकी नित्यता और शरीरकी अनित्यताके रूपमें करते हैं।]  'न त्वेहाहं जातु ৷৷. जनाधिपाः'-- लोगोंकी दृष्टिसे मैंने जबतक अवतार नहीं लिया था, तबतक मैं इस रूपसे (कृष्णरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था और तेरा जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक तू भी इस रूपसे (अर्जुनरूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं था तथा इन राजाओंका भी जबतक जन्म नहीं हुआ था, तबतक ये भी इस रूपसे (राजारूपसे) सबके सामने प्रकट नहीं थे। परन्तु मैं, तू और ये राजालोग इस रूपसे प्रकट न होनेपर भी पहले नहीं थे--ऐसी बात नहीं है। यहाँ 'मैं, तू और ये राजालोग पहले थे--ऐसा कहनेसे ही काम चल सकता था, पर ऐसा न कहकर 'मैं, तू और ये राजालोग पहले नहीं थे, ऐसी बात नहीं' ऐसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि 'पहले नहीं थे' ऐसी बात नहीं' ऐसा कहनेसे 'पहले हम सब जरूर थे'--यह बात दृढ़ हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि नित्य-तत्त्व सदा ही नित्य है। इसका कभी अभाव था ही नहीं। 'जातु' कहनेका तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमान-कालमें तथा किसी भी देश, परिस्थिति, अवस्था, घटना, वस्तु आदिमें नित्यतत्त्वका किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं हो सकता।
।।2.12।।अशोच्यानिति। शोचितुमशक्यं कलेबरं सदा नश्वरत्वात्। अशोचनार्हं च आत्मानं शोचसि। न कश्चित् गतासुः मृतः अगतासुः जीवन् वा शोच्योऽस्ति। तथाहि ( S omits हि) आत्मा तावदविनाशी। नानाशरीरेषु संचरतः का अस्य शोच्यता न च देहान्तरसंचारे एव शोच्यता। एवं हि (S omits हि) यौवनादावपि शोच्यता भवेत्।
।।2.12।। अहं  सर्वेश्वरः तावद् अतो वर्तमानात् पूर्वस्मिन् अनादौ काले  न नासम्  अपि तु आसम्। त्वन्मुखाः च एते ईशितव्याः क्षेत्रज्ञा न नासन् अपि त्वासन्। अहं च यूयं च  सर्वे वयमतः परम्  अस्माद् अनन्तरे काले  न चैव न भविष्यामः  अपि तु भविष्याम एव।यथा अहं सर्वेश्वरः परमात्मा नित्य इति न अत्र संशयः तथैव भवन्तः क्षेत्रज्ञा आत्मानः अपि नित्या एव इति मन्तव्याः।एवं भगवतः सर्वेश्वराद् आत्मनां परस्परं च भेदः पारमार्थिकः इति भगवता एव उक्तम् इति प्रतीयते। अज्ञानमोहितं प्रति तन्निवृत्तये पारमार्थिकनित्यत्वोपदेशसमयेअहम्त्वम्इमेसर्वेवयम् इति व्यपदेशात्।औपाधिकात्मभेदवादे हि आत्मभेदस्य अतात्त्विकत्वेन तत्त्वोपदेशसमये भेदनिर्देशो न संगच्छते।भगवदुक्तात्मभेदः स्वाभाविकः इति श्रुतिः अपि आह नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्। (श्वेता0 6।13) इति। नित्यानां बहूनां चेतनानां य एकः चेतनो नित्यः स कामान् विदधाति इत्यर्थः। अज्ञानकृतभेददृष्टिवादे तु परमपुरुषस्य परमार्थदृष्टेः निर्विशेषकूटस्थनित्यचैतन्यात्मयाथात्म्यसाक्षात्कारात् निवृत्ताज्ञानतत्कार्यतया अज्ञानकृतभेददर्शनं तन्मूलोपदेशादिव्यवहाराः च न संगच्छन्ते।अथ परमपुरुषस्य अधिगताद्वैतज्ञानस्य बाधितानुवृत्तिरूपम् इदं भेदज्ञानं दग्धपटादिवत् न बन्धकम् इति उच्येत न एतद् उपपद्यते मरीचिकाजलज्ञानादिकं हि बाधितम् अनुवर्तमानम् अपि न जलाहरणादिप्रवृत्तिहेतुः। एवम् अत्र अपि अद्वैतज्ञानेन बाधितं भेदज्ञानम् अनुवर्तमानम् अपि मिथ्यार्थविषयत्वनिश्चयात् न उपदेशादिप्रवृत्तिहेतुः भवति। न च ईश्वरस्य पूर्वम् अज्ञस्य शास्त्राधिगततत्त्वज्ञानतया बाधितानुवृत्तिः शक्यते वक्तुम्यः सर्वज्ञः सर्ववित् (मु0 उ0 2।1।9) परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च। (श्वेता0 6।8)वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।। (गीता 7।26) इति श्रुतिस्मृतिविरोधात्।किं च परमपुरुषश्च इदानीन्तनगुरुपरम्परा च अद्वितीयात्मस्वरूपनिश्चये सति अनुवर्तमाने अपि भेदज्ञाने स्वनिश्चयानुरूपम् अद्वितीयम् आत्मज्ञानं कस्मै उपदिशति इति वक्तव्यम्।प्रतिबिम्बवत्प्रतीयमानेभ्यः अर्जुनादिभ्यः इति चेत् न एतद् उपपद्यते न हि अनुन्मत्तः कोऽपि मणिकृपाणदर्पणादिषु प्रतीयमानेषु स्वात्मप्रतिबिम्बेषु तेषां स्वात्मनः अनन्यत्वं जानन् तेभ्यः कमपि अर्थम् उपदिशति।बाधितानुवृत्तिः अपि तैः न शक्यते वक्तुम् बाधकेन अद्वितीयात्मज्ञानेन आत्मव्यतिरिक्तभेदज्ञानकारणस्य अज्ञानादेः विनष्टत्वात्। द्विचन्द्रज्ञानादौ तु चन्द्रैकत्वज्ञानेन पारमार्थिकतिमिरादिदोषस्य द्विचन्द्रज्ञानहेतोः अविनष्टत्वाद् बाधितानुवृत्तिः युक्ता। अनुवर्तमानम् अपि प्रबलप्रमाणबाधितत्वेन अकिञ्चित्करम्। इह तु भेदज्ञानस्य सविषयस्य सकारणस्य अपारमार्थिकत्वेन वस्तुयाथात्म्यज्ञानविनष्टत्वात् न कथञ्चिद् अपि बाधितानुवुत्तिः संभवति। अतः सर्वेश्वरस्य इदानीन्तनगुरुपरम्परायाः च तत्त्वज्ञानम् अस्ति चेद् भेददर्शनतत्कार्योपदेशाद्यसंभवः। भेददर्शनमस्ति इति चेद् अज्ञानस्य तद्धेतोः स्थितत्वेन अज्ञत्वाद् एव सुतराम् उपदेशो न संभवति।किं च गुरोः अद्वितीयात्मविज्ञानाद् एव ब्रह्माज्ञानस्य सकार्यस्य विनष्टत्वात् शिष्यं प्रति उपदेशो निष्प्रयोजनः। गुरुः तज्ज्ञानं च कल्पितम् इति चेत् शिष्यतज्ज्ञानयोः अपि कल्पितत्वात् तदपि अनिवर्त्तकम्। कल्पितत्वेऽपि पूर्वविरोधित्वेन निवर्त्तकम् इति चेत् तदाचार्यज्ञानेऽपि समानम् इति तद् एव निवर्तकं भवति इति उपदेशानर्थक्यम् एव इति कृतम् असमीचीनवादैः निरस्तैः।
।।2.12।।नित्यत्वमशोच्यत्वे कारणमिति सूचितं विवेचयितुं प्रश्नपूर्वकं प्रतिजानीते  कुत इत्यादिना।  नित्यत्वमसिद्धं प्रमाणाभावादिति चोदयति  कथमिति।  आत्मा न जायते प्रागभावशून्यत्वान्नरविषाणवदिति परिहरति  नत्वेवेति।  किंचात्मा नित्यो भावत्वे सत्यजातत्वाद्व्यतिरेके घटवदित्यनुमानान्तरमाह  नचैवेति।  यत्तु कैश्चिदात्मयाथात्म्यं जिज्ञासितं भगवानुपदिशति नत्वित्यादिना श्लोकचतुष्टयेनेत्यादिष्टं तदसत् विशेषवचने हेत्वभावात् सर्वत्रैवात्मयाथात्म्यप्रतिपादनाविशेषादित्याशयेनपदच्छेदः पदार्थोक्तिर्विग्रहो वाक्ययोजना इति त्रितयमपि व्याख्यानाङ्गं प्रतिपादयति  नत्वित्यादिना।  नन्वात्मनो देहोत्पत्तिविनाशयोरुत्पत्तिर्विनाशप्रसिद्धेरुक्तमनुमानद्वयं प्रसिद्धिविरुद्धतया कालात्ययापदिष्टमिष्टमिति नेत्याह  अतीतेष्विति। चराचरव्यपाश्रयस्तु स्यात् इति न्यायेनात्मनो जन्मविनाशप्रसिद्धेरौपाधिकजन्माविनाशाविषयत्वान्निरुपाधिकस्य तस्य जन्मादिराहित्यमिति भावः। यद्यपि तवेश्वरस्य जन्मराहित्यं तथापि कथं ममेत्याशङ्क्याह  तथेति।  तथापि भीष्मादीनां कथं जन्माभावस्तत्राह  तथाच नेम इति।  द्वितीयमनुमानं प्रपञ्चयन्नुत्तरार्धं व्याचष्टे  तथेत्यादिना।  ननु देहोत्पत्तिविनाशयोरात्मनो जन्मनाशाभावेऽपि महास्वर्गमहाप्रलययोस्तस्याग्निविस्फुलिङ्गदृष्टान्तश्रुत्या जन्मविनाशावेष्टव्यावित्याशङ्क्यनात्मा श्रुतेः इति न्यायेन परिहरति  त्रिष्वपीति। यावद्विकारं तु विभागो लोकवत् इति न्यायेन भिन्नत्वाद्विकारित्वमात्मनामनुमीयते भिन्नत्वं च बहुवचनप्रयोगप्रमितमित्याशङ्क्याह  देहेति।
।।2.12।।कुत इत्यपेक्षायां शोच्यास्तु ते भवन्ति ये उत्पन्ना म्रियन्ते ते त्वात्मान इत्येषामुत्पत्तिरेव न सम्भवतीत्यात्मवादेनोत्पत्तिं निराकुर्वन्नशोच्यतामाह न त्वेवाहमिति।अहं यूयं सत्यवार्य इमे च द्वारकौकसः इतिवत्कालत्रयेऽपि देहस्येवात्मनो भवनं निवारयति भगवान्। नैव त्वमहं परमात्मोत्पन्नोऽस्मि जातु कदाचिन्नासं न तथाऽभूवं वा नोत्पन्नोऽसि वाऽभूश्च इमे पुरः स्थिता जनाधिपाश्च नोत्पन्नाः किन्तु सर्वदा नित्याः शुद्धाश्चेतना एवात्मान इत्यशोच्याः। नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् कठो.5।13श्वे.उ.6।13 इत्यादिश्रुतेरात्मनामुत्पत्तिरूपो विकारो निराकृतः।
।।2.12।।नत्वेवेत्याद्येकोनविंशतिश्लोकैःअशोच्यानन्वशोचस्त्वम् इत्यस्य विवरणं क्रियतेस्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्याद्यष्टभिः श्लोकैः।प्रज्ञावादांश्च भाषसे इत्यस्य मोहद्वयस्य पृथक्प्रयत्ननिराकर्तव्यत्वात्। तत्र स्थूलशरीरादात्मानं विवेक्तुं नित्यत्वं साधयति। तुशब्दो देहादिभ्यो व्यतिरेकं सूचयति। यथा अहमितः पूर्वं जातु कदाचिदपि नासमिति नैव अपितु आसमेव तथा त्वमप्यासीः इमे जनाधिपाश्चासन्नेव। एतेन प्रागभावाप्रतियोगित्वं दर्शितम्। तथा सर्वे वयं अहं त्वं इमे जनाधिपाश्चातःपरं नभविष्याम इति न अपितु भविष्याम एवेति ध्वंसाप्रतियोगित्वमुक्तम्। अतः कालत्रेयऽपि सत्तायोगित्वादात्मनो नित्यत्वेनानित्याद्देहाद्वैलक्षण्यं सिद्धमित्यर्थः।
।।2.12।।अशोच्यत्वे हेतुमाह  नत्वेवेति।  यथाऽहं परमेश्वरो जातु कदाचिल्लीलाविग्रहस्याविर्भावे तिरोभावेऽपि नासमिति नैव अपितु आसमेव अनादित्वात्। नच त्वं नासीः नाभूः अपित्वासीरेव। इमेच जनाधिपाः नृपाः नासन्निति न अपितु आसन्नेव मदंशत्वात् तथाऽतःपरं इतउपर्यपि नभविष्यामो न स्थास्याम इति च नैव अपितु स्थास्याम एव। जन्ममरणशून्यत्वादशोच्या इत्यर्थः।
।।2.12।।एवमुपायोपेयनिवर्त्यस्वभावानभिज्ञं प्रति त्रितयोपदेशाय बुभुत्सोत्पादिता अथ पारलौकिकफलोपायानुष्ठानाधिकारित्वाय देहातिरिक्तत्वेनावश्यं ज्ञातव्यं पुरुषार्थतयोपेयमात्मानं तत्प्राप्तीच्छामुखेन तदुपायेच्छाजननाय प्रथममेवोपदिशतीत्यभिप्रायेणाह प्रथममिति।शृण्वित्यनेन प्रकृतश्लोकस्य प्रतिवादिवाक्यवदुपालम्भमात्रार्थताव्युदासाय अवधानापादनार्थत्वं व्यञ्जितम्। जीवेश्वररूपेष्वात्मसु नित्यत्वे शीघ्रसम्प्रतिपत्तियोग्यांशं प्रथममाहेत्यभिप्रायेणाह अहमिति। ईश्वरस्याहङ्ग्रहः सर्वनियन्तृत्वगर्भ इति तद्व्यपदेशफलितमाह सर्वेश्वर इति।तावदिति सम्प्रतिपत्तिसूचनम्।अतः परम् इत्यत्र अतश्शब्दार्थं तस्य पूर्ववाक्येऽपि यथार्हमनुषङ्गं जातुशब्दाभिप्रेतं च आह अत इत्यादिना। अनभिमतपक्षनिषेधाय व्यतिरेकरूपेऽपि वाक्ये तुशब्दद्योतितमन्वयमाह अपित्वासमिति।न त्वं नेमे इति भेदनिर्देशेऽपि क्षेत्रज्ञत्वाकारेण समुदायीकुर्वन् ईश्वरापेक्षया युष्मदिदंशब्दार्थतया फलितमीशितव्यत्वाकारं च साधारणं दर्शयन् सन्निहितनिदर्शनपराया एकदेशोक्तेस्तात्पर्यतो ब्रह्मादिसकलक्षेत्रज्ञविषयत्वं चाह त्वन्मुखा इति। तुशब्दानुषङ्गं क्रियापदे विभक्तिविपरिणामं च दर्शयति अपित्वासन्निति।न त्वं नेमे जनाधिपाः इत्यत्रन त्वेव इत्येतदनुषज्य न त्वं नासीः नेमे जनाधिपा नासन् इत्यन्वयः।सर्वे वयम् इत्यस्य पूर्वोक्तजीवेश्वरसमुदाये सम्प्रतिपत्तव्यांशं विविनक्ति अहं चेति।त्यदादीनां मिथः सहोक्तौ यत्परं तच्छिष्यते वार्तिकं.अष्टा.1।2।72 इति युष्मदस्भदोरत्रैकशेषः। एवमुत्तरत्रभवन्तः इत्यत्रापि मन्तव्यम्। कालानन्त्यात् पर्वतादीनामिवातिस्थिराणामपिकदाचित् नाशः स्यादित्युत्प्रेक्षां निवारयति अपितु भविष्याम एवेति।अप्रस्तुतस्वनिर्देशस्य दृष्टान्तार्थतां तत्रअहमिति निर्देशाभिप्रेतसर्वेश्वरत्वसर्वात्मत्वरूपनित्यत्वोपपत्तिं दार्ष्टान्तिके च नित्यत्वसम्भावनामाह यथेति।सर्वेश्वरः कालत्रयवर्तिनः सर्वस्याधिपतिः कथं न कालत्रयवर्ती कथं च सर्वेषां नियन्ता केनचित्कदाचिन्निरुद्ध्येत इति भावः।परमात्मा देशकालस्वरूपानवच्छिन्नव्याप्तिः इति परमात्मपदनिरुक्तिः। तथा च व्याप्तत्वात् व्याप्यैरस्य न नाशः सर्वात्मत्वेन सर्वकालवर्तित्वं च सिद्धमिति भावः। ननु यः प्रत्यक्षयोग्ये देहातिरिक्ते जीवेऽपि संशेते स कथं ततो व्यतिरिक्तेऽत्यन्तागोचरे परमात्मनि निःसंशयः स्यात् उच्यते न ह्यसावर्जुनःपुरुषं शाश्वतं दिव्यम् 10।12 इत्यादेः स्वयं वक्ता नारदासितदेवलव्यासादिपरमर्षिशतवचनविदितपरब्रह्मभूतपरमपुरुषस्वभावः प्रत्यक्षीकृतपुरन्दरलोकसकलास्त्रमन्त्रतपःप्रभावादिः निरतिशयगुरुदेवताभक्तिः अस्खलितसकलवर्णाश्रमाचारः धर्मलोपभयविह्वलः देहातिरिक्तमात्मानमीश्वरं चात्यन्तानित्यतया वा नास्तीति भ्राम्यति संशेते वा। तत्प्रकारविशेषानभिज्ञतयैव हि तस्य शोकादिः। ततोऽयमीश्वरं तन्नित्यतां च सर्वेश्वरत्वादिसिद्धां सामान्यतो मन्यते लोकदृष्ट्या जन्मविनाशादिदर्शनात्। न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति बृ.उ.2।4।12 इत्यादिश्रुत्यर्थापातप्रतीत्या च जीवप्रकारविशेषांस्तत्त्वतो न जानातीति न कश्चिद्दोषः।क्षेत्रज्ञा आत्मान इति यथा जीवात् परमात्मनो वैलक्षण्येन जीवस्वभावास्तस्मिन्न भवन्ति तथा क्षेत्राद्विलक्षणत्वेन वक्ष्यमाणेन क्षेत्रगतमनित्यत्वादिकं तन्नियन्तरि जीवे न शङ्कनीयमिति भावः।अथ कुमतिसौचिकविनिर्मितानामामूलचूडमघटितविघटितजरत्कर्पटशकलकन्थासगन्धानां प्रबन्धानां दोषान् स्थालीपुलाकन्यायेन निदर्शयन् प्रथमं शास्त्रोपक्रमविरोधं शास्त्रप्रवृत्त्यनुपपत्तिं च वदति एवमित्यादिना। एवं तत्त्वोपदेशप्रवृत्तशास्त्रारम्भोक्तिप्रकारेणेत्यर्थः।भगवतः सर्वेश्वरादिति। उभयलिङ्गात् सर्वनियन्तुः अहमिति निर्दिष्टादित्यर्थः। यदीश्वराज्जीवानां भेदः पारमार्थिको न स्यात् उभयलिङ्गत्वदुःखित्वादिस्वभावसङ्करः स्यात् यदि चात्मनां मिथोभेदः सत्यो न स्यात् बद्धमुक्तशिष्याचार्यादिव्यवस्थानुपपत्तिः स्यादिति भावः।भगवतैव न तु रथ्यापुरुषकल्पेन केनचित्। यद्वात्वमेव त्वां वेत्थ योऽसि सोऽसि यजुःकाठके1प्र.6 सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ऋक्सं.8।7।11 इत्युक्तेर्भगवता स्वेनैव स्वस्य स्वशरीरभूतजीवानां च तत्त्वमुक्तमिति प्रतीयत इत्यभिप्रायः।अज्ञानमोहितमिति न हि स्वयं बम्भ्रम्यमाणस्याप्तेनापि भ्रान्तिरेवोत्पादनीयेति भावः। बुद्धाद्यवतारेणासुरादिभ्य इवायं उपदेशः किं न स्यादित्यत्रोक्तंतन्निवृत्तय इति। मोहनिवृत्त्यर्था गीतोपनिषदिति भवद्भिरपि स्वीकृत्य व्याख्यानादि च कृतमिति भावः।देहभेदाभिप्रायेण बहुवचनम् नात्मभेदाभिप्रायेण इतिशङ्करोक्तं दूषयति पारमार्थिकेति। न ह्यसौन त्वेवाहम् इत्यादिग्रन्थो भ्रान्तिनिवृत्त्यर्थो मन्त्रपाठः येन भेदनिर्देशस्यान्यपरतां मन्येमहि किन्त्वसौ तत्त्वार्थोपदेशरूप इति भावः।अहम् इति प्रत्यक्त्वेनत्वम् इति स्वाभिमुखचेतनान्तरत्वेनइमे इति स्वपराङ्मुखानेकचेतनत्वेनसर्वे इति एकोपाधिसङ्गृहीतानेकव्यक्तित्वेनवयम् इति स्वेन सहात्मतयैकवर्गीकृतानन्तव्यक्तित्वेन इति भावः।इति व्यपदेशादिति न ह्यत्र नाहमिति कश्चिदस्ति न च त्वमिति नाप्यन्य इति प्रत्यादेशः कृत इति भावः। भास्करमते भेदस्य सत्योपाधिप्रयुक्तत्वात् भेदनिर्देश उपपद्यत इति शङ्कायां तत्रापि सामान्यत उक्तं दूषणमपरिहार्यमित्याह औपाधिकेति।हिशब्द उपाधिभेदोपहितस्य परोक्तघटाकाशाद्युदाहरणेष्वपि भेदांशातात्त्विकत्वाभ्युपगमपरः। उपाधिसत्यत्वेऽपि यथैकस्यैव मुखचन्द्रादेर्मणिकृपाणसरित्समुद्रादिभिः सत्यैरप्युपाधिभिर्भेदोऽपारमार्थिकः यथा चैकस्यैवाकाशादेर्घटमणिकादिसत्योपाधिभिरपि संयोगभेदातिरिक्तो नोपाध्यधीनो भेदः एवमन्तःकरणादिभिः सत्यैरप्युपाधिभिर्निरवयवत्वेन छेदनभेदनाद्ययोग्यस्य सर्वत्र परिपूर्णस्य ब्रह्मणो भेदोऽपारमार्थिक इत्यभ्युपगन्तव्यम्। ततश्च तत्त्वोपदेशसमये तद्विपरीतोपदेशो हितोपदेशिनो न घटत इति भावः।द्वयोरपि पक्षयोः श्रुतिविरोधोऽपि दूषणम् स्वपक्षे च श्रुत्यैकार्थ्यान्न बुद्धागमादिवन्मोहनार्थत्वशङ्केत्यभिप्रायेणाह भगवदिति। यद्वा भास्करपक्षदूषणायैव श्रुतिरुपात्ता ततश्च कैमुत्येन शङ्करपक्षोऽपि दूषितः। अपिशब्दः प्रमाणद्वयसमुच्चये।भगवदुक्तात्मभेद इत्यनेन श्रौतवदेव प्रमाणान्तरनैरपेक्ष्यं सूच्यते। श्रुतिरपि नित्या तदाज्ञारूपतयैव हि प्रमाणम्। नित्यो नित्यानाम् श्वे.उ.6।13 इत्यत्रापिपवित्राणां पवित्रम् म.भा.13।149।10 इत्यादिवद्योजनया जीवानित्यत्वपर्यवसितमर्थान्तरभ्रमं निरस्यन् नित्यत्वबहुत्वचेतनत्वसामानाधिकरण्येन निरुपाधिकमेवात्मनां बहुत्वं चेतनत्वं चेति प्रदर्शयन् तत एवात्मानित्यत्ववादिनां सौगतादीनां अविद्यादिमूलभेदवादिनां शङ्करादीनां आगमापायिचैतन्यवादिनां वैशेषिकादीनां चिच्छक्तिमात्रनित्यत्ववादिनामन्येषामपि निरासमभिप्रयन् प्रथमान्तपदचतुष्टयसामानाधिकरण्यबलादीश्वरैक्यं तदैक्यस्य हिरण्यगर्भरुद्रेन्द्रादिवत्कालादिभेदाभेद्यत्वेन प्रवाहेश्वरपक्षप्रतिक्षेपं श्रुत्यन्तरादिप्रसिद्धनित्यचैतन्यं प्रसरादिकं च सूचयन्यदाग्नेयः यजुः3।9।17 इत्यादिवदनुवादलिङ्गसद्भावेऽप्यप्राप्तत्वबलेन विशिष्टविधित्वं च व्यञ्जयन् सर्वदा सर्वत्र सर्वेषां चेतनानामेक एवेश्वरस्तत्तत्कर्मसमाराधितस्तत्तदनुरूपाण्यपेक्षितानि करोतीति श्रुत्यर्थमाह नित्यानामिति।पुनः सिंहावलोकितेन शङ्करमतस्योपदेशानुपपत्तिरूपं शास्त्रारम्भमूलघातमाह अज्ञानेति। किमयं भगवान् स्वेन ज्ञातमर्थमुपदिशति अज्ञातं वा ज्ञातमपि साक्षात्कृतम् श्रुतमात्रं वा उभयत्रापि तदज्ञानं निवृत्तम् अनिवृत्तं वा तन्निवृत्तावपि तत्कार्यभेदभ्रमो निवर्तते न वा इति विकल्पमभिप्रेत्य साक्षात्कारादज्ञानतत्कार्यनिवृत्तिपक्षे दूषणमाह परमपुरुषस्येति। क्षेत्रज्ञस्य हि अपरमार्थदृष्टिः स्यादिति भाव।निर्विशेषेत्यादि निर्विशेषत्वं सजातीयविजातीयस्वगतभेदराहित्यम् कूटस्थत्वं मायानिष्ठत्वं साधारण्यं निर्विकारत्वं वा। स्वयमविक्रियमाणस्यापि कूटस्य यथा स्वसंसर्गिणामयःप्रभृतीनां विकारहेतुत्वं तद्वत् तत एव नित्यत्वं कालानवच्छिन्नत्वम्।याथात्म्यम् उक्तप्रकारम् अयथासाक्षात्कारोऽस्मदादीनामपि परैरभ्युपगत इति तद्व्युदासाययाथात्म्यसाक्षात्कारोक्तिः। अज्ञानं अविद्या तत्कार्यं भेदभ्रमः। आदिशब्देनानुष्ठापनादि गृह्यते। उपदेशादिव्यवहारो हि उपदेश्यार्थ तद्वाचकाधिकारिशिष्याचार्यप्रयोजनभेदादिनानाविधभेददर्शनमूलः। भेददर्शनं चाज्ञानेनैव कृतमिति त्वन्मतम्। ततश्चाज्ञान तत्कार्यनिवृत्तौ कथं तत्कार्यपरम्परानुवृत्तिरिति व्याघातापसिद्धान्तशास्त्रानारम्भोपदेशाभावनिष्फलपरिश्रमत्वश्रुतिविरोधादिदोषशतमुन्मिषेदिति भावः।अद्वैतज्ञानादज्ञाननिवृत्तावपि वासनादिवशाद्भेदभ्रमस्यानुवृत्तिं तस्य चाबन्धकत्वमाशङ्कते अथेति।दग्धपटादिवदिति यथा दग्धपटादेः पटादिप्रतिभासविषयत्वेऽपि न पटादिकार्यकरत्वम् तद्वदत्र भेदभ्रमस्यानुवृत्तस्यापि न संसारहेतुत्वमिति भावः।नैतदुपपद्यते इति दृष्टान्तमात्रमुक्तं नतूपपत्तिः प्रत्युतानुपपत्तिश्च विद्यत इति भावः। अनुपपत्तिं सोदाहरणामाह मरीचिकेति। एवमत्र प्रसङ्गः विप्रतिपन्नभेदज्ञानमद्वैतज्ञानबाधिततया मिथ्यार्थविषयमिति निश्चितं चेत् न स्वविषयानुरूपप्रवृत्तिहेतुः स्यात् यथा बाधितानुवृत्तं मरीचिकाजलज्ञानम् इति। एवं च बाधितानुवृत्तभेदज्ञानं दग्धपटादिवत् न स्वकार्यकरमिति बाधितानुवृत्तिफलाभावात् स्वेष्टव्याघात इति भावः। श्रुतमात्रपक्षेऽपि निर्विशेषविषयसाक्षात्कारश्रवणयोर्विषयानतिरेकेणाज्ञाननिवृत्तिरनुपपन्नेति कृत्वाऽथ सर्वेश्वरे बाधितानुवृत्तिस्वरूपं दूषयति न चेति। ईश्वरत्वादेव पूर्वमज्ञ इति वक्तुं न शक्यते अनीश्वरत्वप्रसङ्गात्। ईश्वरोऽपि चेत् पूर्वमज्ञः तस्य शास्त्राधिगमोऽपि न सम्भवति तदधिकज्ञानवतोऽन्यस्य शास्त्रोपदेष्टुरभावात्। भावेऽपि स एवेश्वरोऽनीश्वरो वा सन् कुतः सिद्धज्ञान इत्यनवस्थादिदोषात्। न च प्रवाहेश्वरपारम्पर्यमस्ति तस्य दूषितत्वात्। न चेश्वरः स्वकृतेन शास्त्रेण तत्त्वमवगच्छति वेदानित्यत्वान्योन्याश्रयादिप्रसङ्गात्। न चानादीनेव वेदान् स्मृत्वा तैरर्थमधिजगाम स्मृत्यादिहेतोः पूर्वोपलम्भस्याप्युपदेष्ट्रभावादिदुःस्थत्वात् इत्यादिदोषानभिप्रेत्योक्तंपूर्वमज्ञस्येत्यादि। ईश्वरस्य पूर्वमज्ञत्वे शास्त्राधीनज्ञानत्वे तदुपदेष्ट्रन्तरसद्भावे भ्रान्त्यनुवृत्तौ च श्रुतिस्मृतिविरोधमाह यः सर्वज्ञ इति। स्वरूपतः प्रकारतश्च सर्वं जानाति वेत्तीति विवक्षया सर्वज्ञसर्वविच्छब्दयोरपुनरुक्तिः सर्वं विन्दति प्राप्नोतीति वा सर्ववित्।एवमुपदेशस्य हेत्वनुपपत्तिरुक्ता। अथोपदेष्टृतापि नोपपद्यत इत्याह किञ्चेति।इदानीन्तनेति। न केवलमीश्वरकृतः प्रथम एवोपदेशोऽनुपपन्नः अपित्वद्यतनोऽपीति कुमतिमठपतिपरम्परायाः शिष्यान्नकुक्षिम्भरेः शिष्याद्यभावात्प्रायोपवेशनं प्रसज्यत इति भावः। अज्ञातोपदेशपक्षानुपपत्तिमभिप्रेत्याह स्वरूपनिश्चयेति। न ह्येतेऽनुपलब्धार्थाः नापि सन्दिग्धार्थाः नापि विप्रलम्भकाः न च परोक्तानुवादिनः नापि बालोन्मत्तादिवद्यथोपनतजल्पाकाः इति भावः।कस्मा इति। स्वस्मै परस्मै वा पूर्वत्र भिन्नतया निश्चिताय अन्यथा वा भिन्नतयेत्यत्रापि सत्यतया निर्णीताय असत्यतया वा परस्मा इत्यत्रापि तात्त्विकाय अतात्त्विकाय वा अतात्त्विकत्वेऽपि तथा प्रतीताय अन्यथा वा इति विकल्प्य प्रष्ट्रे तदुत्तरं वक्तव्यमित्यर्थः। तत्र स्वस्यैव भिन्नस्य सत्यत्वनिश्चयेऽपसिद्धान्ताज्ञत्वादिदोषप्रसङ्गः। असत्यत्वनिश्चये वन्ध्यातनयादिभ्य इवानुपदेशः। अभिन्नतया निश्चिताय स्वस्मै चेत् अर्जुनादिप्रतिभासमन्तरेण सर्वदोपदेशः स्यात् न च तत्रोपदेशस्य किञ्चित्प्रयोजनमस्ति परस्मै तात्त्विकायेति तु शरीरभेदेऽपि भवान्नाभ्युपगच्छति अतात्त्विकतयैव प्रतीताय परस्मै चेत् पूर्ववदेवानिर्वचनीयत्वेनासत्त्वेन वा निश्चितेभ्यः प्रतिबिम्बवन्ध्यासुतादिभ्योऽप्युपदेशप्रसङ्गः अतात्त्विकस्यैव परस्य तात्त्विकत्वबोधे तु तत्त्ववेदित्वमेव न स्यादिति न तत्त्वोपदेशित्वसिद्धिरिति स्थिते परमार्थत एकत्वेऽपि भ्रान्त्या भिन्नतया प्रतीयमानेभ्यो बाधकज्ञानबलेनाभिन्नतया निश्चितेभ्यश्चेति पक्षं शङ्कते प्रतिबिम्बवदिति। दूषयति नेति। अनुपपत्तिं विवृणोति न हीति।अनुन्मत्त इति ईश्वरादेरुन्माद एव भवता स्वीकृतः स्यादिति भावः।कोऽपीति किमुतेश्वर इति भावः।अनन्यत्वं जानन्निति अनन्यत्वमजानन्तो बालादयः काममुपदिशेयुः अत्रोपदेष्टुरन्यत्वाध्यवसाये भ्रान्तत्वादिप्रसङ्ग इति भावः।कमपीति लौकिकमलौकिकं वा दृष्टार्थमदृष्टार्थं वा किं पुनर्मोक्षार्थमित्यर्थः।बाधितानुवृत्तिस्वरूपमभ्युपगम्य पूर्वं दूषणान्तरमुक्तम् इदानीं तन्मते तदेव न सिध्यतीत्याह बाधितेति। उपपादयति बाधकेनेति। न हि कारणाभावे कार्यं घटेत न च दोषनिवृत्तौ भ्रान्तिनिवृत्तिर्न स्यादिति वक्तुं युक्तम्।अनादेरिति। स्वरूपतः प्रवाहतो वा अनादेरन्यानिवर्त्यतयैतावन्तं कालमनुवृत्तस्य भेदज्ञानकारणभूतस्य दोषस्य यदि अद्वैतज्ञानेनापि नाशो न स्यात् नित्यसंसारित्वं ब्रह्मणः स्यादिति भावः। अत्राज्ञानादेरिति कश्चित्पाठः तत्रादिशब्देन भेदभ्रमस्तद्विषयश्च गृह्यते। परैरुदाहृते दृष्टान्ते बाधितानुवृत्तेरुपपत्तिमाह द्विचन्द्रेति।पारमार्थिकेति न हि पारमार्थिकं बाध्येत तथासति बाधाबाधविप्लवप्रसङ्गादिति भावः।द्विचन्द्रज्ञानहेतोरिति न हि बाधकज्ञानेन पूर्वज्ञानस्य कारणं बाध्यते इन्द्रियादेरपि बाधप्रसङ्गात्। अतो विषय एवारोपितस्तदधिष्ठानविषयेण विरुद्धाकारग्राहिणा ज्ञानेन बाध्यः। न चात्र तिमिरादिद्विचन्द्रज्ञानस्य चन्द्रैकत्वज्ञानस्य वा विषयः। भवतस्तु समस्तभेदभ्रमोपादानस्याज्ञानवासनादेः साक्षिचैतन्यविषयत्वात् बाधकज्ञानस्य चाद्वितीयात्मव्यतिरिक्तसमस्तभावगोचरत्वात् कारणस्याप्यनादेर्बाध एवेति भावः।युक्तेति सामग्र्यनुवृत्तौ कार्यानुवृत्तिरुपपन्नेति भावः। यदि भ्रान्तिरनुवृत्ता कथं तर्हि तत्कार्यविस्मयभयादिनिवृत्तिरित्यत्राह अनुवर्तमानमपीति।प्रबलशब्देन परपक्षे भेदभ्रमतद्बाधकयोरविशेषः सूचितः। द्वयोरपि हि अज्ञानकारणत्वं तैराश्रितम् अन्यथा सत्यद्वयप्रसङ्गात्। तथाच सति किं कस्य बाधकं बाध्यं वा। न च दोषमूलत्वं बाधकज्ञानस्याज्ञातमिति वाच्यम् प्रथममेव श्रवणवेलायां ब्रह्मव्यतिरिक्तसमस्तमिथ्यात्वप्रत्ययात्। न चाज्ञातमिति तावता तत्त्वसिद्धिः सत्यरजतबाधकेन शुक्तिकाज्ञानेनाज्ञातदोषेणापि तत्त्वतो रजतस्वरूपबाधाभावात्। दोषमूलत्वाविशेषेऽपि पूर्वत्वपरत्वाभ्यां बाध्यबाधकव्यवस्थेति चेत् न दोषमूलत्वे ज्ञाते सति परत्वस्याकिञ्चित्करत्वात् भ्रान्ततयाऽवगतेनोक्तसर्वबाधकवाक्यवत्। अन्यथा शून्यमेव तत्त्वमिति माध्यमिकवाक्येन दोषमूलतया ज्ञातेनापि परत्वमात्रेण संविन्मात्रस्यापि बाधः स्यात्।अथ कारणस्यापि बाध्यतया विषयत्वापारमार्थिकत्वलक्षणं दृष्टान्ताद्वैषम्यं विवृण्वन् बाधितानुवृत्त्यसम्भवं निगमयति इह त्विति।न कथञ्चिदपि अनाद्यज्ञानेन वा भेदज्ञानवासनादिभिर्वेत्यर्थः। ज्ञातं वा अज्ञातं वेति विकल्पाभिप्रायेणोपक्रान्तामुपदेशकारणाद्यनुपपत्तिं विकल्पस्फोरणेनोपसंहरति अत इति।सुतरामिति जानतस्तु बाधितानुवृत्तौ दृष्टान्तमात्रमपि तावदस्ति अजानत उपदेशे सोऽपि नास्तीति भावः।उपदेशस्य कारणाद्यनुपपत्तिरुक्ता   अथानर्थक्यमाह किञ्चेति। प्रतिबिम्बवत्प्रतीयमानेभ्य इत्यादिना पूर्वमेव जीवाज्ञानपक्षस्यापि दूषितत्वाद्ब्रह्माज्ञानपक्षे अधिकदूषणमिदमुच्यते। ते खलुएकमेव ब्रह्माविद्याशबलमेक एव जीवः स्वप्नदृश इवैकस्यैव तस्य भ्रमात् स्वप्नदृष्टपुरुषादय इवान्ये जीवादयः प्रतिभान्ति तस्यैकस्यैवानिश्चितदेशविशेषस्थितेरनिर्णीतकालेन भविष्यता तत्त्वज्ञानजागरेण समस्तः प्रपञ्चो़ऽपि स्वप्नप्रपञ्चवद्बाध्यते इति वर्णयन्ति। तत्रायमुपदेष्टा वासुदेवादिर्गुरुः स एव तद्दृष्टो वा शिष्योऽप्यर्जुनादिः स एव तद्दृष्टो वा इति विकल्पमभिप्रेत्य गुरुः स एवेति पक्षे दूषणमाह गुरोरिति।सकार्यस्येति शिष्याचार्यत्वादेरपीति भावः तेनोपदेष्ट्रभावः प्रष्ट्रभाव उपदेशपरिकराभावश्चोक्तो भवति। गुरोस्तद्दृष्टत्वपक्षमनुवदति गुरुरिति। न हि स्वप्नदृशा कल्पितपुरुषविज्ञानेन स्वप्नो बाध्येत तद्वदत्रापि गुरोर्ज्ञानेन प्रपञ्चबाधाभावात्तद्बाधायोपदेशः सप्रयोजन इति भावः। दूषयति शिष्येति।अयं भावः न तावदत्रार्जुनादिः स एव जीव इति तृतीयकल्पे प्रमाणमुपलभामहे न चअयं मम शिष्यो जीवो मुक्तो भविष्यति अहं त्वनेन स्वप्नदृशेव कल्पितः इत्याचार्योऽपि मन्यते तथा सति स्वसंहारकारिणे महापकारिणे तस्मै नोपदिशेत् स्वयं हि स्वप्नस्वभावान्नियमेनैव निवृत्तः स्यादिति न मोक्षोपायमाचरेत् शिष्योऽपि यदि स्वप्नदृष्टवद्गुरुं मन्येत ततो न श्रुणुयात्। गुरुतज्ज्ञानविशेषयोः स्वभ्रान्तिकल्पिततया स्वयमेव तज्ज्ञानविषयविशेषं जानन् ततः किमर्थं श्रुणोति स्वकल्पितोपदेष्टृजनितोपदेशभ्रमात् स्वभ्रान्तिनिवृत्तिरिति च हास्यम् तमन्तरेणापि स्वप्रत्यक्षभ्रमादपि तन्निवृत्त्युपपत्तेः। न च ज्ञातार्थेऽप्यर्जुनेऽद्य यावत् भ्रमनिवृत्तिर्दृश्यते अतः शिष्योऽप्याचार्यवत्समस्तप्रपञ्चस्वप्नदृशान्येनैव दृष्ट इति चतुर्थः कल्पः परिशिष्यते। ततश्च शुकवामदेवादिज्ञानवदर्जुनादिज्ञानमपि नाज्ञाननिवर्तकमिति निष्फलः शिष्याचार्याणां कृष्णार्जुनादीनां त्रिवर्गपरित्यागेनापवर्गार्थ प्रयास इति शास्त्रारम्भोऽनुपपन्नः।अथ परिहासकाकुपूर्वमपच्छेदनयमाशङ्क्य परिहरति कल्पितत्वेऽपीत्यादिना। एवमुपदेशानुपपत्तौ तस्य सर्वद्रष्टुरेकस्यापि जीवस्य कदाचिदपि मोक्षायोगात् शास्त्रप्रयोजनमपि नास्तीति ततोऽपि शास्त्रारम्भानुपपत्तिरिति फलितम्। एवं शास्त्रोपदेशस्य तदुपदेष्टुस्तच्छ्रोतुस्तत्प्रयोजनस्य चानुपपत्तौ सामान्यतः सर्वस्मिन्नपि परमते दूषिते किमवान्तरदूषणैरित्यन्यपरतयोपसंहरति इति कृतमिति। कृतं अलमित्यर्थः।असमीचीनवादैरित्यनेन भास्करादिमतेऽप्येवंविधदूषणशतं शारीरकभाष्याद्युक्तं स्मारितम्।
।।2.12।।अशोच्यत्वे अभक्तत्वं हेतुमुक्त्वा पुनरशोच्यत्वे हेत्वन्तरमाह नत्विति। अहमेतादृशो यादृशं त्वं द्रक्ष्यसि तादृशो जातु कदाचिदपि नासमिति न किन्त्वेवम्भूतः सर्वदैवाऽऽसम् अस्मीत्यर्थः। एतेन स्वस्य नित्यत्वमुक्तम्। ननु त्वन्नित्यत्वे कथमेते शोकानर्हाः इत्यत आह न त्वमासीः। न च इमे जनाधिपा आसन्निति न किन्तु सर्वं मल्लीलारूपत्वान्नित्यमेवेत्यर्थः। तेनासुराणां मरणमपि नित्यमेवेत्यर्थः। तस्मादेते माया एवेति शोकानर्हा इति भावः ()। नन्वहं युद्धे मरिष्ये चेत्तदा भवच्चरणवियोगो भविष्यत्यधर्माचरणाद्वा तथा भविष्यतीति शोचामीति चेत्तत्राह न चैवति। अतःपरं वर्त्तमानकालानन्तरं सर्वे वयं न भविष्याम इति न किन्तु भविष्याम एव। एवं सर्वस्य नित्यत्वात्सर्वेऽशोच्या इति त्वं शोकं कर्तुं नार्हसीति भावः।
।।2.12।।ननु देहादन्योऽपि देहनाशेन नश्यतां कोशकार इव कोशनाशेनेति तत्राह  नत्वेवाहमिति।  त्वमहमिमे च सर्वे अनादयोऽनन्ताश्च स्म इत्यर्थः। जातु कदाचित् अहं न आसं इति न अपितु आसमेव। तथा त्वमपि नासीरिति न अपित्वासीरेव। इमे जनाधिपाः राजान इत्युपलक्षणं सर्वस्य जन्तुजातस्य। नासन्निति न अपित्वासन्नेवेति योजना। अनादित्वादनन्ताश्चेत्याह  न चेति।  न भविष्याम इति नैव किंतु सर्वे भविष्याम एव। ननु देहस्यानात्मत्वे कथं तत्पीडयायं पीड्यत इति चेद्यक्षवत्तदभिमानमात्रादिति ब्रूमः। यदा हि यक्षः परशरीरे विशति तदा तत्पीडया देहपतिर्न बाध्यते। तस्य तदानीं देहाभिमानाभावात्। यक्षस्तु बाध्यतेऽभिमानसत्वादिति लोके प्रसिद्धम्। किञ्च प्राचीनकर्मव्यतिरेकेण जीवनं नोपपद्यते। कृतहानाकृताभ्यागमप्रसङ्गात्। वृक्षादिष्वपि प्राक्कर्मास्तीत्यनुमेयम्। स्थावरजीविका प्राक्कर्मपूर्विका जीविकात्वात् पाकादिक्रियापूर्वकास्मदादिजीविकावत्। अपि च क्रियावैचित्र्यात्कार्यवैचित्र्यं दृष्टं घटशरावोदञ्चनादिषु तद्वदिहापि सुखदुःखादिवैचित्र्यं प्राक्कर्मवैचित्र्यादनुमेयम्। तथा सद्यो जातस्य गोवत्सस्य स्तनपानादौ प्रवृत्तिर्जन्तुमात्रस्य मरणात्त्रासश्च प्राग्भवीयानुभवजनितसंस्कारजन्यौ भोजनादिप्रवृत्तिश्चोच्छ्वासादिवदित्यतोऽस्ति प्राचीनं कर्म। अपि च कौलिकशास्त्रप्रसिद्धमेतत्। यथा देवदत्तः स्वशरीरे कण्टकवेधेन खिद्यते एवं शत्रुकृतायां देवदत्तप्रतिमायां कण्टकेन विद्धायां देवदत्तो व्यथते। तत्र व्यथाहेतुर्नान्तरं धातुवैषम्यं नापि बाह्यं कण्टकवेधादि किंतु केवलं प्राक्कर्ममात्रम्। एवंच बीजाङ्कुरन्यायेन कर्मतज्जन्यसंस्कारपरम्परयाऽनादिः संसार इति न देहनाशादात्मनाशोऽस्तीति न भीष्मादयः शोचनीयाः। अत्र पूर्वस्मिन् श्लोके आत्मनो देहादन्यत्वमुक्तं गतासून् देहानिति विशेषणेन। अत्र तु सूक्ष्मशरीरविशिष्टस्यात्मनो व्यवहारदृष्ट्या नित्यत्वं साधितमिति भेदः।
।।2.12।।   तेषां नित्यत्वाच्छोकानर्हतामाह  नेति।  जातु कदाचिदहं नासमिति न किंत्वासमेव। तथा त्वं नासीरिति न अपित्वासीरेव। तथेमे जनाधिपाः नासन्निति न किंत्वासन्नेव। तथा नच भविष्याम इति न किंतु भविष्याम एव। अतोऽस्माद्देहविनाशादुत्तरकालेऽपि त्रिष्वपि कालेषु नित्यः। आत्मस्वरुपेणेत्यर्थः। स्वस्य मध्ये गणनमात्मैक्याभिप्रायं बुहवचनं तु जीवमेदाभिप्रायेण देहभेदानुवृत्त्या तत्तद्देहाभिमानिनां जीवानामपि भेदान्नतु परमार्थत आत्मभेदाभिप्रायेणेति। तथाच शारीरकभाष्यंभेदस्तुपाधिनिमित्तकः मिथ्याज्ञानकल्पितो न पारमार्थिकः इति बोध्यम्।
2.12 न not? तु indeed? एव also? अहम् I? जातु at any time? न not? आसम् was? न not? त्वम् thou? न not? इमे these? जनाधिपाः rulers of men? न not? च and? एव also? न not? भविष्यामः shall be? सर्वे all? वयम् we? अतः from this time? परम् after.Commentary -- Lord Krishna speaks here of the immortality of the Soul or the imperishable nature of the Self (Atman). The Soul exists in the three periods of time (past? present and future). Man continues to exist even after the death of the physical body. There is life beyond.
2.12 Nor at any time indeed was I not, nor thou, nor these rulers of men, nor verily shall we ever cease to be hereafter.
2.12 There was never a time when I was not, nor thou, nor these princes were not; there will never be a time when we shall cease to be.
2.12 But certainly (it is) not (a fact) that I did not exist at any time; nor you, nor these rulers of men. And surely it is not that we all shall cease to exist after this.
2.12 Why are they not to be grieved for? Because they are eternal. How? Na tu eva, but certainly it is not (a fact); that jatu, at any time; aham, I ; na asam, did not exist; on the contrary, I did exist. The idea is that when the bodies were born or died in the past, I existed eternally. [Here Ast. adds ghatadisu viyadiva, like Space in pot etc.-Tr.] Similarly, na tvam, nor is it that you did not exist; but you surely existed. Ca, and so also; na ime, nor is it that these ; jana-adhipah, rulers of men, did not exist. On the other hand, they did exist. And similarly, na eva, it is surely not that; vayam, we; sarve, all; na bhavisyamah, shall cease to exist; atah param, after this, even after the destruction of this body. On the contrary, we shall exist. The meaning is that even in all the three times (past, present and future) we are eternal in our nature as the Self. The plural number (in we) is used following the diversity of the bodies, but not in the sense of the multiplicity of the Self.
2.12. Never indeed at any time [in the past] did I not exist, nor you, nor these kings; and never shall we all not exist hereafter.
2.12 See Comment under 2.13
2.12 Indeed, I, the Lord of all, who is eternal, was never non-existent, but existed always. It is not that these selves like you, who are subject to My Lordship, did not exist; you have always existed. It is not that 'all of us', I and you, shall cease to be 'in the future', i.e., beyond the present time; we shall always exist. Even as no doubt can be entertainted that I, the Supreme Self and Lord of all, am eternal, likewise, you (Arjuna and all others) who are embodied selves, also should be considered eternal. The foregoing implies that the difference between the Lord, the sovereign over all, and the individual selves, as also the differences among the individual selves themselves, are real. This has been declared by the Lord Himself. For, different terms like 'I', 'you', 'these', 'all' and 'we' have been used by the Lord while explaining the truth of eternality in order to remove the misunderstanding of Arjuna who is deluded by ignorance. [Now follows a refutation of the Upadhi theory of Bhaskara and the Ignorance theory of the Advaitins which deny any ultimate difference between the Lord and the Jivas.] If we examine (Bhaskara's) theory of Upadhis (adjuncts), which states that the apparent differences among Jivas are due to adjuncts, it will have to be admitted that mention about differences is out of place when explaining the ultimate truth, because the theory holds that there are no such differences in reality. But that the differences mentioned by the Lord are natural, is taught by the Sruti also: 'Eternal among eternals, sentient among sentients, the one, who fulfils the desires of the many' (Sve. U. VI. 13, Ka. U. V. 13). The meaning of the text is: Among the eternal sentient beings who are countless, He, who is the Supreme Spirit, fulfils the desires of all.' As regards the theory of the Advaitins that the perception of difference is brought about by ignorance only and is not really real, the Supreme Being - whose vision must be true and who, therefore must have an immediate cognition of the differencelss and immutable and eternal consciousness as constituting the nature of the Atman in all authenticity, and who must thery be always free from all ignorance and its effects - cannot possibly perceive the so-called difference arising from ignornace. It is, therefore, unimaginable that He engages himself in activities such as teaching, which can proceed only from such a perception of differences arising from ignorance. The argument that the Supreme Being, though possessed of the understanding of nom-duality, can still have the awareness of such difference persisting even after sublation, just as a piece of cloth may have been burnt up and yet continues to have the appearance of cloth, and that such a continuance of the subltated does not cause bondage - such an argument is invalid in the light of another analogy of a similar kind, namely, the perception of the mirage, which, when understood to be what it is, does not make one endeavour to fetch water therefrom. In the same way even if the impression of difference negated by the non-dualistic illumination persists, it cannot impel one to activities such as teaching; for the object to whom the instruction is to be imparted is discovered to be unreal. The idea is that just as the discovery of the non-existence of water in a mirage stops all effort to get water from it, so also when all duality is sublated by illumination, no activity like teaching disciples etc., can take place. Nor can the Lord be conceived as having been previously ignorant and as attaining knowledge of unity through the scirptures, and as still being subject to the continuation of the stultified experiences. Such a position would stand in contradiction to the Sruti and the Smrti: 'He, who is all-comprehender' (Mun. U., 1. 1. 9); all knower and supreme and natural power of varied types are spoken of in Srutis, such as knowledge, strength and action' (Sve. U. 6. 8); 'I know, Arjuna, all beings of the past, present and future but no one knows Me,' etc. (Gita 7. 26). And again, if the perception of difference and distinction are said to persist even after the unitary Self has been decisively understood, the estion will arise - to whom will the Lord and the succession of teachers of the tradition impart the knowledge in accordance with their understanding? The estion needs an answer. The idea is that knowledge of non-duality and perception of differences cannot co-exist. If it be replied by Advaitins holding the Bimba-Pratibimba (the original and reflections) theory that teachers give instructions to their own reflections in the form of disciples such as Arjuna, it would amount to an absurdity. For, no one who is not out of his senses would undertake to give any instruction to his own reflections in mediums such as a precious stone, the blade of a sword or a mirror, knowing, as he does, that they are non-different from himself. The theory of the persistence of the sublated is thus impossible to maintain, as the knowledge of the unitary self destroys the beginningless ignorance in which differences falling outside the self are supposed to be rooted. 'The persistence of the sublated' does occur in cases such as the vision of the two moons, where the cause of the vision is the result of some real defect in eyesight, nor removable by the right understanding of the singleness of the moon. Even though the perception of the two moons may continue, the sublated cognition is rendered inconseential on the strength of strong contrary evidence. For, it will not lead to any activity appropriate for a real experience. But in the present context (i.e. the Advaitic), the conception of difference, whose object and cause are admittedly unreal, is cancelled by the knowledge of reality. So the 'persistence of the sublated' can in no way happen. Thus, if the Supreme Lord and the present succession of preceptors have attained the understanding of (Non-dual) reality, their perception of difference and work such as teaching proceeding from that perception, are impossible. If, on the other hand, the perception of difference persists because of the continuance of ignorance and its cause, then these teachers are themselves ignorant of the truth, and they will be incapable of teaching the truth. Further, as the preceptor has attained the knowledge of the unitary self and thery the ignorance concerning Brahman and all the effects of such ignorance are thus annihilated, there is no purpose in instructing the disciple. It it is held that the preceptor and his knowledge are just in the imagination of the disciple, the disciple and his knowledge are similarly the product of the imagination of the preceptor, and as such can not put an end to the ignorance in estion. If it is maintained that the disciple's knowledge destroys ignorance etc., because it contradicts the antecedent state of non-enlightenment, the same can be asserted of the preceptor's knowledge. The futility of such teachings is obvious. Enough of these unsound doctrines which have all been refuted.
2.12 There never was a time when I did not exist, nor you, nor any of these kings of men. Nor will there be any time in future when all of us shall cease to be.
।।2.12।।वे भीष्मादि अशोच्य क्यों है इसलिये कि वे नित्य हैं। नित्य कैसे हैं किसी कालमें मैं नहीं था ऐसा नहीं किंतु अवश्य था अर्थात् भूतपूर्व शरीरोंकी उत्पत्ति और विनाश होते हुए भी मैं सदा ही था। वैसे ही तू नहीं था सो नहीं किंतु अवश्य था ये राजागण नहीं थे सो नहीं किंतु ये भी अवश्य थे। इसके बाद अर्थात् इन शरीरोंका नाश होनेके बाद भी हम सब नहीं रहेंगे सो नहीं किन्तु अवश्य रहेंगे। अभिप्राय यह है कि तीनों कालोंमें ही आत्मरूपसे सब नित्य हैं। यहाँ बहुवचनका प्रयोग देहभेदके विचारसे किया गया है आत्मभेदके अभिप्रायसे नहीं।
।।2.12।।  न तु एव जातु  कदाचिद्  अहं नासम्  किं तु आसमेव। अतीतेषु देहोत्पत्तिविनाशेषु घटादिषु वियदिव नित्य एव अहमासमित्यभिप्रायः। तथा न त्वं न आसीः किं तु आसीरेव। तथा  न इमे जनाधिपाः  न आसन् किं तु आसन्नेव। तथा  न च एव न भविष्यामः  किं तु भविष्याम एव सर्वे वयम् अतः अस्मात् देहविनाशात्  परम्  उत्तरकाले अपि। त्रिष्वपि कालेषु नित्या आत्मस्वरूपेण इत्यर्थः। देहेभेदानुवृत्त्या बहुवचनं नात्मभेदाभिप्रायेण।। तत्र कथमिव नित्य आत्मेति दृष्टान्तमाह
।।2.12।। किमिति  कस्मात्कारणात्पण्डिता अप्यगतासूनिव गतासूनासन्नविनाशान्नानुशोचन्तीति शेषः। अत्र नित्यत्वादित्युत्तरम्। कुतो नित्यत्वमित्यत आहेति वाक्यं चाध्याहार्थम्। न त्वेवाहमित्यतः परमिति शब्दश्च। अर्जुनं निमित्तीकृत्य प्राप्तलोकोपकारार्थं हि भगवतोपदेशः क्रियते। तत्र ये भगवतः कृष्णस्येश्वरत्वं नित्यत्वं च न जानन्ति तान् प्रति यथाश्रुतैव योजना। दृष्टान्तस्तूत्तरत्र भविष्यति। ये तु तज्ज्ञात्वा जीवनित्यत्वमेव न जानन्ति तान्प्रत्यन्यथा योज्यमित्याह  ईश्वरे ति। अप्रस्तुतत्वादनाशङ्कितत्वाद्दृष्टान्तत्वेनाह। जीवनित्यतायां साध्यायामीश्वरमिति शेषः। अत एव कृष्णेत्यनुक्त्वेश्वरेत्युक्तम्। नन्वीश्वरनित्यत्वं कुतः सिद्धं पूर्वार्द्धे वाक्यत्रयसद्भावात् कथञ्चिद्योजनासम्भवेऽपि उत्तरार्द्धस्यैकवाक्यत्वात्कथं योजना इत्यत आह  यथे ति। वेदान्ता उपनिषदः। सिद्धस्यार्थस्य साध्यत्वेन निर्देशो दोषायेति सामर्थ्याद्यथैवंशब्दाध्याहारेण वाक्यभेदेन च योज्यमिति भावः। ननु वेदान्तैरीश्वरनित्यत्वं जानन्तस्तत्रैवोक्तं जीवनित्यत्वं कथं न जानन्ति उच्यते नित्यो नित्यानां कठो.5।13श्वे.उ.6।13 इति निर्धारणसामर्थ्याज्जीवानां नित्यत्वमीश्वरस्य परमनित्यत्वमवगम्य मन्दाः प्रतिपद्यन्ते। नित्यत्वं हि विनाशाभावः। नचाभावस्तारतम्यवान्। अत ईश्वर एव नित्यः जीवेषु तूपचार इति। तान्प्रत्यनुमानेन जीवनित्यत्वं ईश्वरदृष्टान्तेन साध्यते। तत्रन त्वेवाहं जातु नासं इति दृष्टान्तेनानादित्वसाधनमनुवदति। न त्वमित्यादिना तस्य पक्षधर्मतामाह  नचैवे त्यादिना। दृष्टान्ते पक्षे च साध्याभिधानमिति। अत्र भगवता जीवानां परस्परमीश्वराच्च भेदे प्रतिपादितेऽपि बहुवचनं शरीरापेक्षया न त्वात्मापेक्षयेति वदतो शं.चा. भविष्यत्युत्तरम्।
।।2.12।।किमिति। न त्वेवाहम्। ईश्वरनित्यत्वस्याप्रस्तुतत्वाद्दृष्टान्तत्वेनाह न त्वेवेति। यथाऽहं नित्यः सर्ववेदान्तेषु प्रसिद्धः एवं त्वमेते जनाधिपाश्च नित्याः।
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।2.12।।
ন ত্বেবাহং জাতু নাসং ন ত্বং নেমে জনাধিপাঃ৷ ন চৈব ন ভবিষ্যামঃ সর্বে বযমতঃ পরম্৷৷2.12৷৷
ন ত্বেবাহং জাতু নাসং ন ত্বং নেমে জনাধিপাঃ৷ ন চৈব ন ভবিষ্যামঃ সর্বে বযমতঃ পরম্৷৷2.12৷৷
ન ત્વેવાહં જાતુ નાસં ન ત્વં નેમે જનાધિપાઃ। ન ચૈવ ન ભવિષ્યામઃ સર્વે વયમતઃ પરમ્।।2.12।।
ਨ ਤ੍ਵੇਵਾਹਂ ਜਾਤੁ ਨਾਸਂ ਨ ਤ੍ਵਂ ਨੇਮੇ ਜਨਾਧਿਪਾ। ਨ ਚੈਵ ਨ ਭਵਿਸ਼੍ਯਾਮ ਸਰ੍ਵੇ ਵਯਮਤ ਪਰਮ੍।।2.12।।
ನ ತ್ವೇವಾಹಂ ಜಾತು ನಾಸಂ ನ ತ್ವಂ ನೇಮೇ ಜನಾಧಿಪಾಃ. ನ ಚೈವ ನ ಭವಿಷ್ಯಾಮಃ ಸರ್ವೇ ವಯಮತಃ ಪರಮ್৷৷2.12৷৷
ന ത്വേവാഹം ജാതു നാസം ന ത്വം നേമേ ജനാധിപാഃ. ന ചൈവ ന ഭവിഷ്യാമഃ സര്വേ വയമതഃ പരമ്৷৷2.12৷৷
ନ ତ୍ବେବାହଂ ଜାତୁ ନାସଂ ନ ତ୍ବଂ ନେମେ ଜନାଧିପାଃ| ନ ଚୈବ ନ ଭବିଷ୍ଯାମଃ ସର୍ବେ ବଯମତଃ ପରମ୍||2.12||
na tvēvāhaṅ jātu nāsaṅ na tvaṅ nēmē janādhipāḥ. na caiva na bhaviṣyāmaḥ sarvē vayamataḥ param৷৷2.12৷৷
ந த்வேவாஹஂ ஜாது நாஸஂ ந த்வஂ நேமே ஜநாதிபாஃ. ந சைவ ந பவிஷ்யாமஃ ஸர்வே வயமதஃ பரம்৷৷2.12৷৷
న త్వేవాహం జాతు నాసం న త్వం నేమే జనాధిపాః. న చైవ న భవిష్యామః సర్వే వయమతః పరమ్৷৷2.12৷৷
2.13
2
13
।।2.13।। देहधारीके इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहान्तरकी प्राप्ति होती है। उस विषयमें धीर मनुष्य मोहित नहीं होता।
।।2.13।। जैसे इस देह में देही जीवात्मा की कुमार, युवा और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही उसको अन्य शरीर की प्राप्ति होती है;  धीर पुरुष इसमें मोहित नहीं होता है।।
।।2.13।। स्मृति का यह नियम है कि अनुभवकर्त्ता तथा स्मरणकर्त्ता एक ही व्यक्ति होना चाहिये तभी किसी वस्तु का स्मरण करना संभव है। मैं आपके अनुभवों का स्मरण नहीं कर सकता और न आप मेरे अनुभवों का परन्तु हम दोनों अपनेअपने अनुभवों का स्मरण कर सकते हैं।वृद्धावस्था में हम अपने बाल्यकाल और यौवन काल का स्मरण कर सकते हैं। कौमार्य अवस्था के समाप्त होने पर युवावस्था आती है और तत्पश्चात् वृद्धावस्था। अब यह तो स्पष्ट है कि वृद्धावस्था में व्यक्ति के साथ कौमार्य और युवा दोनों ही अवस्थायें नहीं हैं फिर भी वह उन अवस्थाओं में प्राप्त अनुभवों को स्मरण कर सकता है। स्मृति के नियम से यह सिद्ध हो जाता है कि व्यक्ति में कुछ है जो तीनों अवस्थाओं में अपरिवर्तनशील है जो बालक और युवा शरीर द्वारा अनुभवों को प्राप्त करता है तथा उनका स्मरण भी करता है।इस प्रकार देखने पर यह ज्ञात होता है कि कौमार्य अवस्था की मृत्यु युवावस्था का जन्म है और युवावस्था की मृत्यु ही वृद्धावस्था का जन्म है। और फिर भी निरन्तर होने वाले इन परिवर्तनों से हमें किसी प्रकार का शोक नहीं होता बल्कि इन अवस्थाओं से गुजरते हुये असंख्य अनुभवों को प्राप्त कर हम प्रसन्न ही होते हैं।जगत् में प्रत्येक व्यक्ति के इस निजी अनुभव का दृष्टान्त के रूप में उपयोग करके श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाना चाहते हैं कि बुद्धिमान पुरुष जीवात्मा के एक देह को छोड़कर अन्य शरीर में प्रवेश करने पर शोक नहीं करता।पुनर्जन्म के सिद्धान्त के पीछे छिपे इस सत्य को यह श्लोक और अधिक दृढ़ करता है। अत बुद्धिमान पुरुष के लिये मृत्यु का कोई भय नहीं रह जाता। बाल्यावस्था आदि की मृत्यु होने पर हम शोक नहीं करते क्योंकि हम जानते हैं कि हमारा अस्तित्व बना रहता है और हम पूर्व अवस्था से उच्च अवस्था को प्राप्त कर रहे हैं। उसी प्रकार एक देह विशेष को त्याग कर जीवात्मा अपनी पूर्व वासनाओं के अनुसार अन्य देह को धारण करता है। इस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता है।
2.13।।व्याख्या-- 'देहिनोऽस्मिन्यथा देहे (टिप्पणी प0 50) कौमारं यौवनं जरा'--  शरीरधारीके इस शरीरमें पहले बाल्यावस्था आती है, फिर युवावस्था आती है और फिर वृद्धावस्था आती है। तात्पर्य है कि शरीरमें कभी एक अवस्था नहीं रहती, उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। यहाँ 'शरीरधारीके इस शरीरमें' ऐसा कहनेसे सिद्ध होता है शरीरी अलग है और शरीर अलग है। शरीरी द्रष्टा है और शरीर दृश्य है। अतः शरीरमें बालकपन आदि अवस्थाओंका जो परिवर्तन है, वह परिवर्तन शरीरीमें नहीं है।  'तथा देहान्तरप्राप्तिः'-- जैसे शरीरकी कुमार, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं, ऐसे ही देहान्तरकी अर्थात् दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है। जैसे स्थूलशरीर बालकसे जवान एवं जवानसे बूढ़ा हो जाता है, तो इन अवस्थाओंके परिवर्तनको लेकर कोई शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरी एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाता है, तो इस विषयमें भी शोक नहीं होना चाहिये। जैसे स्थूलशरीरके रहते-रहते कुमार युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं ऐसे ही सूक्ष्म और कारणशरीरके रहतेरहते देहान्तरकी प्राप्ति होती है अर्थात् जैसे बालकपन, जवानी आदि स्थूल-शरीरकी अवस्थाएँ हैं, ऐसे देहान्तरकी प्राप्ति (मृत्युके बाद दूसरा शरीर धारण करना) सूक्ष्म और कारण-शरीरकी अवस्था है। स्थूलशरीरके रहते-रहते कुमार आदि अवस्थाओंका परिवर्तन होता है--यह तो स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो अवस्थाओंकी तरह स्थूलशरीरमें भी परिवर्तन होता रहता है। बाल्यावस्थामें जो शरीर था, वह युवावस्थामें नहीं है। वास्तवमें ऐसा कोई भी क्षण नहीं है, जिस क्षणमें स्थूलशरीरका परिवर्तन न होता हो। ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीरमें भी प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, जो देहान्तररूपसे स्पष्ट देखनेमें आता है  (टिप्पणी प0 51.1) । अब विचार यह करना है कि स्थूलशरीरका तो हमें ज्ञान होता है, पर सूक्ष्म और कारण-शरीरका हमें ज्ञान नहीं होता। अतः जब सूक्ष्म और कारण-शरीरका ज्ञान भी नहीं होता, तो उनके परिवर्तनका ज्ञान हमें कैसे हो सकता है? इसका उत्तर है कि जैसे स्थूलशरीरका ज्ञान उसकी अवस्थाओंको लेकर होता है, ऐसे ही सूक्ष्म और कारण-शरीरका ज्ञान भी उसकी अवस्थाओंको लेकर होता है। स्थूलशरीरकी 'जाग्रत्' सूक्ष्म-शरीरकी 'स्वप्न' और कारण-शरीरकी 'सुषुप्ति' अवस्था मानी जाती है। मनुष्य अपनी बाल्यावस्थामें अपनेको स्वप्नमें बालक देखता है, युवावस्थामें स्वप्नमें युवा देखता है और वृद्धावस्थामें स्वप्नमें वृद्ध देखता है। इससे सिद्ध हो गया कि स्थूलशरीरके साथ-साथ सूक्ष्मशरीरका भी परिवर्तन होता है। ऐसे ही सुषुप्ति-अवस्था बाल्यावस्थामें ज्यादा होती है, युवावस्थामें कम होती है और वृद्धावस्थामें वह बहुत कम हो जाती है; अतः इससे कारणशरीरका परिवर्तन भी सिद्ध हो गया। दूसरी बात, बाल्यावस्था और युवावस्थामें नींद लेनेपर शरीर और इन्द्रियोंमें जैसी ताजगी आती है, वैसी ताजगी वृद्धावस्थामें नींद लेनेपर नहीं आती अर्थात् वृद्धावस्थामें बाल्य और युवा-अवस्था-जैसा विश्राम नहीं मिलता। इस रीतिसे भी कारण-शरीरका परिवर्तन सिद्ध होता है। जिसको दूसरा-देवता, पशु, पक्षी आदिका शरीर मिलता है, उसको उस शरीरमें (देहाध्यासके कारण) 'मैं यही हूँ'--ऐसा अनुभव होता है, तो यह सूक्ष्मशरीरका परिवर्तन हो गया। ऐसे ही कारण-शरीरमें स्वभाव (प्रकृति) रहता है, जिसको स्थूल दृष्टिसे आदत कहते हैं। वह आदत देवताकी और होती है तथा पशु-पक्षी आदिकी और होती है, तो यह कारण-शरीरका परिवर्तन हो गया। अगर शरीरी-(देही-) का परिवर्तन होता, तो अवस्थाओंके बदलनेपर भी 'मैं वही हूँ'  (टिप्पणी प0 51.2)--ऐसा ज्ञान नहीं होता। परन्तु अवस्थाओंके बदलनेपर भी 'जो पहले बालक था, जवान था, वही मैं अब हूँ'--ऐसा ज्ञान होता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीरीमें अर्थात् स्वयंमें परिवर्तन नहीं हुआ है। यहाँ एक शंका हो सकती है कि स्थूलशरीरकी अवस्थाओंके बदलनेपर तो उनका ज्ञान होता है, पर शरीरान्तरकी प्राप्ति होनेपर पहलेके शरीरका ज्ञान क्यों नहीं होता ?पूर्वशरीरका ज्ञान न होनेमें कारण यह है कि मृत्यु और जन्मके समय बहुत ज्यादा कष्ट होता है। उस कष्टके कारण बुद्धिमें पूर्वजन्मकी स्मृति नहीं रहती। जैसे लकवा मार जानेपर, अधिक वृद्धावस्था होनेपर बुद्धिमें पहले जैसा ज्ञान नहीं रहता, ऐसे ही मृत्युकालमें तथा जन्मकालमें बहुत बड़ा धक्का लगनेपर पूर्वजन्मका ज्ञान नहीं रहता।  (टिप्पणी प0 51.3)  परन्तु जिसकी मृत्युमें ऐसा कष्ट नहीं होता अर्थात् शरीरकी अवस्थान्तरकी प्राप्तकी तरह अनायास ही देहान्तरकी प्राप्ति हो जाती है, उसकी बुद्धिमें पूर्वजन्मकी स्मृति रह सकती है  (टिप्पणी प0 51.4) । अब विचार करें कि जैसा ज्ञान अवस्थान्तरकी प्राप्तिमें होता है, वैसा ज्ञान देहान्तरकी प्राप्तिमें नहीं होता; परन्तु 'मैं हूँ' इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान तो सबको रहता है। जैसे, सुषुप्ति-(गाढ़-निद्रा-) में अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, पर जगनेपर मनुष्य कहता है कि ऐसी गाढ़ नींद आयी कि मेरेको कुछ पता नहीं रहा, तो 'कुछ पता नहीं रहा'--इसका ज्ञान तो है ही। सोनेसे पहले मैं जो था, वही मैं जगनेके बाद हूँ, तो सुषुप्तिके समय भी मैं वही था--इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान अखण्डरूपसे निरन्तर रहता है। अपनी सत्ताके अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता। शरीरधारीकी सत्ताका सद्भाव अखण्डरूपसे रहता है, तभी तो मुक्ति होती है और मुक्त-अवस्थामें वह रहता है। हाँ, जीवन्मुक्त-अवस्थामें उसको शरीरान्तरोंका ज्ञान भले ही न हो, पर मैं तीनों शरीरोंसे अलग हूँ--ऐसा अनुभव तो होता ही है।  'धीरस्तत्र न मुह्यति'-- धीर वही है, जिसको सत्असत्का बोध हो गया है। ऐसा धीर मनुष्य उस विषयमें कभी मोहित नहीं होता, उसको कभी सन्देह नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस धीर मनुष्यको देहान्तरकी प्राप्ति होती है। ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका कारण गुणोंका सङ्ग है, और गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर धीर मनुष्यको देहान्तरकी प्राप्ति हो ही नहीं सकती। यहाँ 'तत्र' पदका अर्थ 'देहान्तर-प्राप्तिके विषयमें' नहीं है, प्रत्युत देह-देहीके विषयमें' है। तात्पर्य है कि देह क्या है? देही क्या है? परिवर्तनशील क्या है? अपरिवर्तनशील क्या है? अनित्य क्या है?--नित्य क्या है असत् क्या है सत् क्या है विकारी क्या है विकारी क्या है--इस विषयमें वह मोहित नहीं होता। देह और देही सर्वथा अलग हैं इस विषयमें उसको कभी मोह नहीं होता। उसको अपनी असङ्गताका अखण्ड ज्ञान रहता है।  सम्बन्ध-- अनित्य वस्तु शरीर आदिको लेकर जो शोक होता है उसकी निवृत्तिके लिये कहते हैं
।।2.13 2.14।।एवमर्थद्वयमाह न हीत्यादि। अहं हि नैव नासम् अपि तु आसम् एवं त्वम् अमी च राजानः। आकारान्तरे च सति यदि शोच्यता तर्हि कौमारात् यौवनावाप्तौ किमिति न शोच्यते यो धीरः स न शोचति। धैर्यं च (N धैर्ये च) एतच्छरीरेऽपि यस्यास्था नास्ति तेन सुकरम्। अतस्त्वं धैर्यमन्विच्छ।
।।2.13।।एकस्मिन् देहे वर्तमानस्य  देहिनः  कौमारावस्थां विहाय यौवनाद्यवस्थाप्राप्तौ आत्मन स्थिरबुद्ध्या  यथा  आत्मा नष्ट इति न शोचति देहाद्  देहान्तर प्राप्तौ अपि  तथा  एव स्थिर आत्मा इति बुद्धिमान् न शोचति। अत आत्मनां नित्यत्वाद् आत्मानो न शोकस्थानम्।एतावद् अत्र कर्तव्यम् आत्मनां नित्यानाम् एव अनादिकर्मवश्यतया तत्तत्कर्मोचितदेहसंस्पृष्टानां तैरेव देहैः बन्धनिवृत्तये शास्त्रीयं स्ववर्णोचितं युद्धादिकम् अनभिसंहितफलं कर्म कुर्वताम् अवर्जनीयतया इन्द्रियैः इन्द्रियार्थस्पर्शाः शीतोष्णादिप्रयुक्तसुखदुःखदा भवन्ति ते तु यावच्छास्त्रीयकर्मसमाप्ति क्षन्तव्या इति।इमम् अर्थम् अनन्तरम् एव आह
।।2.13।।ननु पूर्वं देहं विहायापूर्वं देहमुपाददानस्य विक्रियावत्त्वेनोत्पत्तिविनाशवत्त्वविभ्रमः समुद्भवेदिति शङ्कते  तत्रेति।  अशोच्यत्वप्रतिज्ञायां नित्यत्वे हेतौ कृते सतीति यावत्। अवस्थाभेदे सत्यपि वस्तुतो विक्रियाभावादात्मनो नित्यत्वमुपपन्नमित्युत्तरश्लोकेन दृष्टान्तावष्टम्भेन प्रतिपादयतीत्याह  दृष्टान्तमिति।  न केवलमागमादेवात्मनो नित्यत्वं किंत्ववस्थान्तरवज्जन्मान्तरे पूर्वसंस्कारानुवृत्तेश्चेत्याह  देहिन इति।  देहवत्त्वं तस्मिन्नहंममाभिमानभाक्त्वम्। तासामिति निर्धारणे षष्ठी। आत्मनः श्रुतिस्मृत्युपपत्तिभिर्नित्यत्वज्ञानम्। धीमानित्यत्र धीर्विवक्ष्यते। एवं सतीति। तत्त्वतो विक्रियाभावान्नित्यत्वे समधिगते सतीत्यर्थः।
।।2.13।।एवमात्मनामशोच्यतामनुत्पत्त्योपपाद्य देहात्मादीनामशोच्यतामाह देहिन इति। लौकिकनिदर्शनेन यथाऽस्मिन्स्थूलदेहे कौमाराद्यवस्थाप्राप्तिस्तथा देहान्तरप्राप्तिरात्मनां नियतेति धीरो न मुह्यति न तत्र शोचति।
।।2.13।।ननुदेहमात्रं चैतन्यविशिष्टमात्मा इति लोकायतिकाः। तथाच स्थूलोऽहं गौरोऽहं गच्छामि चेत्यादिप्रत्यक्षप्रतीतानां प्रामाण्यमनपोहितं भविष्यति यतः कथं देहादात्मनो व्यतिरेकः व्यतिरेकेऽपि कथं वा जन्मविनाशशून्यत्वं जातो देवदत्तो मृतो देवदत्त इति प्रतीतेर्देहजन्मनाशाभ्यां सहात्मनोऽपि जन्मविनाशोपपत्तेरित्याशङ्क्याह देहाः सर्वे भूतभविष्यवर्तमाना जगन्मण्डलवर्तिनोऽस्य सन्तीति देही। एकस्यैव विभुत्वेन सर्वदेहयोगित्वात्सर्वत्र चेष्टोपपत्तेर्न प्रतिदेहमात्मभेदे प्रमाणमस्तीति सूचयितुमेकवचनम्। सर्वे वयमिति बहुवचनं तु पूर्वत्रदेहभेदानुवृत्त्या न त्वात्मभेदाभिप्रायेणेति न दोषः। तस्य देहिन एकस्यैव सतोऽस्मिन्वर्तमाने देहे यथा कौमारं यौवनं जरेत्यवस्थात्रयं परस्परविरुद्धं भवति नतु तद्भेदेनात्मभेदः यएवाहं बाल्ये पितरावन्वभूवं सएवाहं वार्धके प्रणप्तृ़ननुभवामीति दृढतरप्रत्यभिज्ञानात् अन्यनिष्ठसंस्कारस्य चान्यत्रानुसन्धानाजनकत्वात् तथा तेनैव प्रकारेणाविकृतस्यैव सत आत्मनो देहान्तरप्राप्तिरेतस्माद्देहादत्यन्तविलक्षणदेहप्राप्तिः स्वप्ने योगैश्वर्ये च तद्देहभेदानुसन्धानेऽपि स एवाहमिति प्रत्यभिज्ञानात्। तथाच यदि देह एवात्मा भवेत्तदा कौमारादिभेदेन देहे भिद्यमाने प्रतिसन्धानं न स्यात् अथतु कौमाराद्यवस्थानामत्यन्तवैलक्षण्येऽप्यवस्थावतो देहस्ययावत्प्रत्यभिज्ञं वस्तुस्थितिः इति न्यायेनैक्यं ब्रूयात्तदापि स्वप्नयोगैश्वर्ययोर्देहधर्मभेदे प्रतिसन्धानं न स्यादित्युभयोदाहरणम्। अतो मरुमरीचिकादावुदकादिबुद्धेरिव स्थूलोऽहमित्यादिबुद्धेरपि भ्रमत्वमवश्यमभ्युपेयम् बाधस्योभयत्रापि तुल्यत्वात्। एतच्चन जायते इत्यादौ प्रपञ्चयिष्यते। एतेन देहाद्व्यतिरिक्तो देहेन सहोत्पद्यते विनश्यति चेति पक्षोऽपि प्रत्युक्तः। तत्रावस्थाभेदे प्रत्यभिज्ञोपपत्तावपि धर्मिणो देहस्य भेदे प्रत्यभिज्ञानुपपत्तेः। अथवा यथा कौमाराद्यवस्थाप्राप्तिरविकृतस्यात्मन एकस्यैव तथा देहान्तर प्राप्तिरेतस्माद्देहादुत्क्रान्तौ। तत्र स एवाहमिति प्रत्यभिज्ञानाभावेऽपि जातमात्रस्य हर्षशोकभयादिसंप्रतिपत्तेः पूर्वसंस्कारजन्याया दर्शनात्। अन्यथा स्तनपानादौ प्रवृत्तिर्न स्यात्। तस्या इष्टसाधनतादिज्ञानजन्यत्वस्यादृष्टमात्रजन्यत्वस्य चाभ्युपगमात्। तथाच पूर्वापरदेहयोरात्मैक्यसिद्धिः। अन्यथा कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गादित्यन्यत्र विस्तरः। कृतयोः पुण्यपापयोर्भोगमन्तरेण नाशः कृतनाशः अकृतयोः पुण्यपापयोरकस्मात्फलदातृत्वमकृताभ्यागमः। अथवा देहिन एकस्यैव तव यथा क्रमेण देहावस्थोत्पत्तिविनाशयोर्न भेदः नित्यत्वात् तथा युगपत्सर्वदेहान्तरप्राप्तिरपि तवैकस्यैव विभुत्वात् मध्यमपरिमाणत्वे सावयवत्वेन नित्यत्वायोगात् अणुत्वे सकलदेहव्यापिसुखाद्यनुपलब्धिप्रसङ्गात् विभुत्वे निश्चिते सर्वत्र दृष्टकार्यत्वात्सर्वशरीरेष्वेक एवात्मा त्वमिति निश्चितोऽर्थः। तत्रैवंसति वध्यघातकभेदकल्पनया त्वमधीरत्वान्मुह्यसि धीरस्तु विद्वान्न मुह्यति अहमेषां हन्ता एते मम वध्या इति भेददर्शनाभावात्। तथाच विवादगोचरापन्नाः सर्वे देहा एकभोक्तृकाः देहत्वात्त्वद्देहवत् इति। श्रुतिरपिएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा इत्यादि। एतेन यदाहुःदेहमात्रमात्मा इति चार्वाकाःइन्द्रियाणि मनः प्राणश्च इति तदेकदेशिनःक्षणिकं विज्ञानम् इति सौगताःदेहातिरिक्तः स्थिरो देहपरिमाणः इति दिगम्बराःमध्यमपरिमाणस्य नित्यत्वानुपपत्तेः नित्योऽणुः इत्येकदेशिनः तत्सर्वमपाकृतं भवति नित्यत्वविभुत्वस्थापनात्।
।।2.13।।नन्वीश्वरस्य तव जन्मादिशून्यत्वं सत्यमेव जीवानां तु जन्ममरणे प्रसिद्धे तत्राह  देहिन इति।  देहिनो देहाभिमानिनो जीवस्य यथाऽस्मिन्स्थूलदेहे कौमाराद्यवस्था देहनिबन्धना एव नतु स्वतःपूर्वावस्थानाशेऽवस्थान्तरोत्पत्तावपि स एवाहमति प्रत्यभिज्ञानात्तथैवैतद्देहनाशे देहान्तरप्राप्तिरपि लिङ्गदेहनिबन्धना। नतु तावतात्मनो नाशः। जातमात्रस्य पूर्वसंस्कारेण स्तन्यपानादौ प्रवृत्तिदर्शनात्। अतो धीरः धीमांस्तत्र तयोर्देहनाशोत्पत्त्योर्न मुह्यति आत्मैव मृतो जातश्चेति न मन्यते।
।।2.13।।आत्मनामशोचनीयत्वाय नित्यत्वमुक्तम् तत्रात्मनित्यत्वे जन्ममरणादिप्रतीतिव्यवहारौ कथमिति शङ्कां दृष्टान्तेन परिहरति देहिन इति।अस्मिन् इति निर्देशाभिप्रेतमाह एकस्मिन्निति। देहस्यावस्थात्रयान्वयनिदर्शनादपि देहिन्येव तन्निदर्शनमुचितमित्यभिप्रायेणाह देहे वर्तमानस्येति। कौमारं यौवनं जरा इति क्रमनिर्देशसूचितार्थस्वभावफलितमुक्तंविहायेति। कौमारयौवनत्यागयोरपि शोकविशेषनिमित्तत्वात्तद्व्यवच्छेदार्थं यथाशब्दतात्पर्यव्यक्त्यर्थं चोक्तंआत्मन इत्यादि। बाल्यावस्थानिवृत्तावप्यात्मनः स्थिरत्वबुद्धिर्हि तद्विनाशनिमित्तशोकाभावहेतुः सोऽत्रापि समान इत्यर्थः।देहान्तरप्राप्तिः इत्यत्रान्तरशब्दसूचितं पूर्वदेहत्यागाख्यं शोकप्रसञ्जकं दर्शयति देहादिति। धीरशब्दस्य प्रकरणविशेषितोऽर्थःस्थिर आत्मेति बुद्धिमानिति।अशोच्यान् इत्यादिना प्रागुक्तेन सङ्गमयति अत इति।एवं श्लोकद्वयेन क्रमात् प्राप्यं निवर्त्यं च व्यञ्जितम् अथात्र हृद्गतं प्रापकविषयोत्तरश्लोकद्वयफलितं सङ्कलय्य सङ्गतमाह एतावदिति बन्धनिवृत्तय इत्यन्तःअमृतत्वाय कल्पते 2।15 इत्यस्यार्थः। शुद्धस्वभावानां संसारानुपपत्तिपरिहारायोक्तंअनादीति। कर्मवश्यतया न त्वनिर्वचनीयाज्ञानादिवश्यतयेति भावः। स्वतोऽत्यन्तसमानानामात्मनां देहभोगादिवैषम्यसिद्ध्यर्थमुक्तंतत्तत्कर्मेति।देहैर्बन्धनिवृत्तय इति देहैर्यो बन्धस्तस्य निवृत्तय इत्यर्थः। यद्वा देहः कर्म कुर्वतामित्यन्वयः। तदा तु बन्धका एव देहामोक्षसाधनौपयिकाः सम्भवन्तीति अवधारणाभिप्रायः।शास्त्रीयमिति। अन्यथेश्वरशासनातिलङ्घनाद्दण्ड एव स्यादिति भावः।स्ववर्णोचितमिति न तु त्वया युद्धादिकं परित्यज्य भैक्षं चर्तुं श्रेय इति भावः। अमृतत्वहेतुत्वायोक्तंअनभिसंहितेति। प्रतिकूलस्वभावस्य कथं कर्तव्यत्वमिति शङ्कानिवर्तकतुशब्दद्योतितमवर्जनीयत्वं तितिक्षितव्यत्वे हेतुः इत्येतावदत्र कर्तव्यमित्यन्वयः।
।।2.13।।ननु वयमेकत्रैव भविष्याम इति सत्यं परन्तु पुनरलौकिको देह एतादृश एव भविष्यति न वेति सन्देहात् शोचामीत्याकाङ्क्षायामाह देहिन इति। देहिनो जीवस्य यथाऽस्मिन्देहे कौमारं यौवनं जरा अवस्थात्रयं भवति कालेन तथा भगवदिच्छया भगवदीयस्य देहान्तरप्राप्तिरलौकिकद्वितीयदेहप्राप्तिर्भवतीत्यर्थः। धीरो भक्तस्तत्र देहप्राप्त्यर्थं न मुह्यति मोहं न प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।2.13।।यद्यप्येवं तथापीष्टदेहवियोगजः शोको भवत्येवेत्याशङ्क्याह  देहिन इति।  देहौ स्थूलसूक्ष्मौ विद्येते अस्य स देही चिदात्मा तस्य यथास्मिन् स्थूलशरीरे कौमाराद्यवस्थासु देहभेदेऽपि एक एवाहं बाल आसमिदानीं वृद्धोऽस्मीत्यभेदप्रत्यभिज्ञानादैक्यं बालादिशरीरेभ्योऽन्यत्वं च व्यावृत्तेभ्योऽनुवृत्तं भिन्नं कुसुमेभ्यः सूत्रमिवेति न्यायात्। एवं देहान्तरप्राप्तिरपि स्थूलाच्छरीरादन्येषां लिङ्गशरीराणां सूक्ष्माणां स्थूलशरीरानुकारिणां प्राप्तिः। अयमर्थः यथा एकमपि स्थूलं शरीरं कौमाराद्यवस्थाभेदादनेकरूपं एवं नित्यमपि लिङ्गशरीरं प्राणिकर्मभेदात्सुरनरतिर्यगाद्यवस्थाभेदादनेकं भवति। ततश्चोक्तन्यायेन स्थूलादिवत्सूक्ष्मादपि शरीरदात्मा विविक्त एव। एवं च शोकादिघर्मिणो लिङ्गादपि विभिन्नस्य तव इष्टवियोगजः शोकोऽपि न युक्तः। अतएव तत्र तस्मिन्विषये धीरो न मुह्यति। आभिमानिकौ शोकमोहौ देहद्वयाभिमानत्यागाद्धीरं न बाधेते। अतस्त्वमपि धीरो भवेति भावः। पूर्वश्लोकयोर्गतासूनिति वयमिति च बहुवचनं उपाधिभेदाभिप्रायम् अत्र तु देहिन इत्येकवचनमुपधेयचिदात्मैक्याभिप्रायमिति ज्ञेयम्। तथा च श्रुतिरेकस्यात्मन औपाधिकं भेदमाहयथा ह्ययं ज्योतिरात्मा विवस्वानपो भिन्ना बहुधैकोऽनुगच्छन्। उपाधिना क्रियते भेदरूपो देवः क्षेत्रेष्वेवमजोऽयमात्मा इति। क्षेत्रेषु वक्ष्यमाणलक्षणेषु स्थूलसूक्ष्मदेहद्वयात्मकेषु।एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा इति च। एकत्वाच्च विभुत्वमप्यस्य सिद्धम्। तेन देहादीनामनित्यानामविभूनां च पराभिमतमात्मत्वं प्रत्याख्यातं वेदितव्यम्।
।।2.13।।   तत्र दृष्टान्तमाह  देहिन इति।  देहोऽस्यास्तीति देही आत्मा तस्य यथास्मिन्देहेऽवस्थात्रयमेकस्यैव तथा देहान्तरप्राप्तिः तत्रैवं सति धीमानात्मनित्यत्वज्ञानवान्न मुह्यति न मोहं प्राप्नोति। नन्वेतेषां श्लोकानां वादिमतान्याशङ्क्यानवतारणं भाष्यकाराणां न्यूनतेति चेन्न।नानुशोचन्ति पण्डिताःधीरस्तत्र न मुह्यतितांस्तितिक्षस्व भारतयं हि न व्यथयन्त्येते इतिवाक्यशेषाणां सत्त्वात् शोकनिवारणायात्मनित्यत्वव्याख्यानस्य शब्दार्थत्वादात्मानित्यत्ववादी मूर्ख इत्येवमादीनां तेषामश्रवणात् आत्मनो नित्यत्वादिवर्णनेन वादिमतनिराकरणस्यार्थसिद्धत्वात् शारीरकभाष्ये कुमतानां स्वेनैव खण्डितत्वाच्च तथाऽनवतारणे न्यूनताया अभावात्।
2.13 देहिनः of the embodied (soul)? अस्मिन् in this? यथा as? देहे in body? कौमारम् childhood? यौवनम् youth? जरा old age? तथा so also? देहान्तरप्राप्तिः the attaining of another body? धीरः the firm? तत्र thereat? न not? मुह्यति grieves.Commentary -- Just as there is no interruption in the passing of childhood into youth and youth into old age in this body? so also there is no interruption by death in the continuity of the ego. The Self is not dead at the termination of the stage? viz.? childhood. It is certainly not born again at the beginning of the second stage? viz.? youth. Just as the Self passes unchanged from childhood to youth and from yourth to old age? so also the Self passes unchanged from one body into,another. Therefore? the wise man is not at all distressed about it.
2.13 Just as in this body the embodied (soul) passes into childhood, youth and old age, so also does it pass into another body; the firm man does not grieve thereat.
2.13 As the soul experiences in this body infancy, youth and old age, so finally it passes into another. The wise have no delusion about this.
2.13 As are boyhood, youth and decrepitude to an embodied being in this (present) body, similar is the acisition of another body. This being so, an intelligent person does not get deluded.
2.13 As to that, to show how the Self is eternal, the Lord cites an illustration by saying,'৷৷.of the embodied,' etc. Yatha, as are, the manner in which; kaumaram, boyhood; yauvanam, youth, middle age; and jara, decrepitude, advance of age; dehinah, to an embodied being, to one who possesses a body (deha), to the Self possessing a body; asmin, in this, present; dehe, body . These three states are mutually distinct. On these, when the first state gets destroyed the Self does not get destroyed; when the second state comes into being It is not born. What then? It is seen that the Self, which verily remains unchanged, acires the second and third states. Tatha, similar, indeed; is Its, the unchanging Self's dehantarapraptih, acisition of another body, a body different from the present one. This is the meaning. Tatra, this being so; dhirah, an intelligent person; na, does not; muhyati, get deluded.
2.13. Just as the boyhood, youth and old age come to the embodied Soul in this body, in the same manner is the attaining of another body; the wise man is not deluded at that.
2.12-13 Na hi etc. Dehinah etc Never indeed did I not exist, but I did exist [always]. Likewise are you and these kings. If there can be lamentability for one, on attaining change in physical form then why is one not lamented over when one attains the youth from the boyhood ? He, who is wise, does not lament. But, wisdom is easily attainable for him whose concern is not even for this [present] body. Therefore you must seek wisdom.
2.13 As the self is eternal, one does not grieve, thinking that the self is lost, when an embodied self living in a body gives up the state of childhood and attains youth and other states. Similarly, the wise men, knowing that the self is eternal, do not grieve, when the self attains a body different from the present body. Hence the selves, being eternal, are not fit objects for grief. This much has to be done here; the eternal selves because of Their being subject ot beginningless Karma become endowed with bodies suited to Their Karmas. To get rid of this bondage (of bodies), embodied beings perform duties like war appropriate to their stations in life with the help of the same bodies in an attitude of detachment from the fruits as prescribed by the scripture. Even to such aspirants, contacts with sense-objects give pleasure and pain, arising from cold, heat and such other things. But these experiences are to be endured till the acts enjoined in the scriptures come to an end. The Lord explains the significance immediately afterwards:
2.13 Just as the self associated with a body passes through childhood, youth and old age (pertaining to that body), so too (at death) It passes into another body. A wise man is not deluded by that.
।।2.13।।आत्मा किसके सदृश नित्य है इसपर दृष्टान्त कहते हैं जिसका देह है वह देही है उस देहीकी अर्थात् शरीरधारी आत्माकी इस वर्तमान शरीरमें जैसे कौमार बाल्यावस्था यौवनतरुणावस्था और जरा वृद्धावस्था ये परस्पर विलक्षण तीनों अवस्थाएँ होती हैं। इनमें पहली अवस्थाके नाशसे आत्मका नाश नहीं होता और दूसरी अवस्थाकी उत्पत्तिसे आत्माकी उत्पत्ति नहीं होती तो फिर क्या होता है कि निर्विकार आत्माको ही दूसरी और तीसरी अवस्थाकी प्राप्ति होती हुई देखी गयी है। वैसे ही निर्विकार आत्माको ही देहान्तरकी प्राप्ति अर्थात् इस शरीरसे दूसरे शरीरका नाम देहान्तर है उसकी प्राप्ति होती है ( होती हुईसी दीखती है )। ऐसा होनेसे अर्थात् आत्माको निर्विकार और नित्य समझ लेनेके कारण धीर बुद्धिमान् इस विषयमें मोहित नहीं होता मोहको प्राप्त नहीं होता।
।।2.13।। देहः अस्य अस्तीति देही तस्य  देहिनो  देहवतः आत्मनः  अस्मिन्  वर्तमाने देहे यथा येन प्रकारेण  कौमारं  कुमारभावो बाल्यावस्था  यौवनं  यूनो भावो मध्यमावस्था  जरा  वयोहानिः जीर्णावस्था इत्येताः तिस्रः अवस्थाः अन्योन्यविलक्षणाः। तासां प्रथमावस्थानाशे न नाशः द्वितीयावस्थोपजने न उपजननम् आत्मनः। किं तर्हि अविक्रियस्यैव द्वितीयतृतीयावस्थाप्राप्तिः आत्मनो दृष्टा।  तथा  तद्वदेव देहाद् अन्यो देहो देहान्तरं तस्य प्राप्तिः  देहान्तरप्राप्तिः  अविक्रियस्यैव आत्मन इत्यर्थः।  धीरो  धीमान्  तत्र  एवं सति  न मुह्यति  न मोहमापद्यते।। यद्यपि आत्मविनाशनिमित्तो मोहो न संभवति नित्य आत्मा इति विजानतः तथापि शीतोष्णसुखदुःखप्राप्तिनिमित्तो मोहो लौकिको दृश्यते सुखवियोगनिमित्तो मोहः दुःखसंयोगनिमित्तश्च शोकः। इत्येतदर्जुनस्य वचनमाशङ्क्य भगवानाह
।।2.13।।ननु चात्र किं परिदृश्यमानदेहपक्षीकारेणानुमीयते किंवा तदतिरिक्तदेहिपक्षीकारेण। नाद्यः देहोत्पत्तिनाशयोः प्रत्यक्षसिद्धत्वेन हेतोः स्वरूपासिद्धत्वात्कालात्ययापदिष्टत्वाच्चेति स्फुटत्वान्नोक्तम्। द्वितीये दोषमाह  देहिन  इति। देहिनो देहवतो देहातिरिक्तस्यात्मनो भावे सद्भावे एतन्नित्यत्वानुमानं सम्भवति देहपक्षोक्तदोषाभावात् किन्तु देहातिरिक्तात्मसत्त्वमेवासिद्धम् प्रमाणाभावात्। ततश्चाश्रयासिद्धिरिति। अस्तु वा देहातिरिक्तात्मसत्वं तथापि नानुमानं सम्भवतीत्याह  देहिन  इति। देहिन इत्येकवचनमतंत्रम्। पूर्वोत्तरदेहेष्वेक एवात्मेत्यस्यार्थस्य भावे एतदनुमानं सम्भवति स्वरूपसिद्ध्याद्यभावात्। किं नाम तत्पूर्वोत्तरदेहेष्वात्मैक्यमेवासिद्धं प्रमाणाभावात्। तथाच देहोत्पत्तावुत्पत्तिमतस्तद्विनाशे च विनाशवतः कथमनादित्वेन नित्यत्वं साध्यते इति। उभयस्यापि परिहारदर्शनादेवं योज्यम् अर्थद्वयानुगुण्यायैव बहुवचने प्रकृतेऽप्येकवचनम् तथा भाव इति पुँल्लिङ्गे प्रकृतेऽपि तदेवेति सामान्यग्रहणाय नपुंसकनिर्देशः। नेत्याहेति शेषः। देहिनोऽस्मिन्नित्यतःपरमितिशब्दश्च। आक्षेपद्वयपरिहाराय पादत्रयं व्याख्याति  यथे ति। अत्र देहीति तदीक्षिता सिद्ध इति देहातिरिक्तात्मसाधनं तदिति कौमारादिपरामर्शः। याजकादित्वात्समासः। द्वितीयान्तस्य तृन्नन्तेन वा समासः। अस्ति तावत्कौमारादिविषयमीक्षणम्। न चेक्षणमीक्षितारं विना सम्भवति। स च वक्ष्यमाणात् परिशेषप्रमाणाद्देही देहातिरिक्तः सिद्ध इति। अत्र कौमारादिग्रहणमतन्त्रम् ज्ञानमात्रेण ज्ञातुः सिद्धेः। देहशब्दश्चेन्द्रियादिसहितशरीरवृत्तिः श्लोके च कौमारं यौवनं जरेति विषयेण विषयीक्षणमुपलक्ष्यते तद्देहिनो देहातिरिक्तस्येत्युक्तं भवति। यथेत्यादि समस्तं वाक्यं श्लोके च पादत्रयं देहभेदेऽप्यात्मैकत्वे साधनम्। कौमारादिमच्छरीरभेद इत्यर्थः। देही एक एवेत्यर्थः।  तदीक्षिते ति। योऽहं कुमारशरीरवानभूवं स इदानीं युवशरीरवान्वर्त इत्यादिप्रत्यभिज्ञातेत्यर्थः। देहान्तरप्राप्तावपीति अनेकदेहप्राप्तावपीत्यर्थः। एक एव देही सिद्ध इति वर्तते। ईक्षितृत्वादिति प्रत्यग्रजातस्य शिशोः आहाराद्यभिलाषेण पूर्वदेहानुसन्धानसिद्धेरित्याशयः। एवमात्मनो देहातिरिक्तत्वं देहभेदेप्येकत्वं च प्रसाध्यधीरस्तत्र न मुह्यति इत्युच्यते तस्य वैयर्थ्यमित्याशङ्क्य येऽस्मिन्विषयेऽन्येऽपि मोहास्ते धीरेण स्वयं निराकार्या इत्येवमर्थत्वान्न वैयर्थ्यमित्याशयवान् तत्प्रदर्शनार्थमुत्तरं प्रकरणमारभते। तत्रेक्षणेन कथं देहातिरिक्तात्मसिद्धिः ईक्षिता हि तेन सिध्यति। स च शरीरप्राणजठरानलेन्द्रियमनोविषयसन्निधौ ईक्षणदर्शनात्तेषामन्यतमः किं न स्यात् इत्यतः शरीरस्य तावदीक्षणं निषेधति  न हीति । अत्रापि कौमारादीत्यतन्त्रम्। शरीरस्यानुभवो न सम्भवतीति प्रतिज्ञा।  जडस्य शरीर स्येति हेतुद्वयम्। मृतस्यादर्शनादिति दृष्टान्तोक्तिः। जडत्वं च भौतिकत्वं विवक्षितमिति न साध्याविशिष्टता। अप्रयोजकत्वाभिप्रायेण शङ्कते  मृतस्ये ति। जीवच्छरीरमृतशरीरयोर्भौतिकत्वे शरीरत्वे च समानेऽपि मा भून्मृतशरीरस्येक्षणम् प्राणादिवायूनां जाठरानलस्येन्द्रियाणां चापगमात्। जीवतस्तु प्राणादिसन्निधानाद्भविष्यतीति। को विरोधः मा हि भूदेकधर्मोपपन्नानामवान्तरकारणवैचित्र्यात् वैचित्र्याभावः। न केवलमिदमाशङ्कते किन्तु अहं मनुष्य इत्याद्यनुभवादेतद्देहस्येक्षितृत्वं सिद्धं प्रमितं चेत्यर्थः। दूषयति  ने ति। न प्राणादिसन्निधानं शरीरस्येक्षितृत्वे प्रयोजकं वाच्यम् सुप्तिमूर्छयोः शरीरे प्राणाद्यपगमलक्षणरहिते सत्येव ज्ञानादीनां धर्माणामदर्शनात्। ज्ञानग्रहणमुपलक्षणम्। सुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नैरप्यात्मा साध्य इति सूचयितुमादिपदम्। मृतादौ ज्ञानाद्यभावश्च तत्कार्यादर्शनात्सिद्ध इति दर्शयितुं  ज्ञानादिविशेषे त्युक्तम्। ज्ञानादीनां विशेषः कार्यमिति। एतेन सङ्घातचैतन्यपक्षः प्राणादिचैतन्यपक्षश्च पराकृतो वेदितव्यः।मनस ईक्षितृत्वमतिदेशेन निराचष्टे  समश्चे ति। मनोविषय ईक्षितृत्वाभिमानश्च पूर्वेण समः सुप्त्यादौ सत्यपि मनसि ज्ञानादर्शनात्। एवं तर्ह्यात्मापि ज्ञाता न स्यादिति चेत् न तदा तस्य मनसा सन्निकर्षाभावात्। मनसोऽपि तथाऽस्त्विति चेत् सिद्धस्तावदात्मा। मनसो ज्ञातृत्वे दोषान्तरमाह  काष्ठादिवच्चे ति। मनो न ज्ञातृ ज्ञानकरणत्वात्। यद्यस्यां क्रियायां करणं न तत्तत्र कर्तृः यथा पाके काष्ठानि छिदायां कुठारो वा। न चासिद्धो हेतुः मनसा जानामीत्यनुभवात्। एतेनात्मसन्निकर्षेण मनो ज्ञात्रिति निरस्तम्। ननु जन्यज्ञानं मनोनिष्ठमिति सिद्धान्तः तत्कथमेतत् मैवम् मनोनिष्ठस्यापि ज्ञानस्य न मनः कर्तृ किन्तु आत्मैव यथाऽवयवविक्लेदलक्षणस्य पाकस्य न तण्डुलाः कर्तारः किन्तु देवदत्त इति। एतेनेन्द्रियचैतन्यपक्षोऽपि निरस्तः चक्षुषा पश्यामीत्यादौ तेषामपि करणत्वप्रतीतेरिति। अतीतादिज्ञानदर्शनाद्विषयचैतन्यपक्षः स्फुटदूषण इति न निराकृतः। एवं परिशेषप्रमाणेन देहातिरिक्तात्मा सिद्धः तस्य स्वभावादेवाहाराद्यभिलाषोपपत्तेः प्रत्यभिज्ञानमसिद्धमिति वदन्तं प्रति आत्मनित्यत्वे प्रमाणान्तरं चाह  श्रुतेश्चे ति। अस्माच्छरीरभेदादूर्ध्वमुत्क्रम्यामुष्मिन् स्वर्गे लोके ऐ.उ.4।6 इत्यादिश्रुतेश्च देहातिरिक्तो नित्य आत्मा सिद्धः। अत एव न स्वभाववादानवकाश इति। ननु बौद्धचार्वाकादीन् प्रति देहातिरिक्तनित्यात्मसाधनमिदम् न च ते श्रुतेः प्रामाण्यमङ्गीकुर्वते तत्कथं श्रुत्युदाहरणमित्यत आह  प्रामाण्यं   चे ति। बौद्धेन तावत्प्रत्यक्षानुमानयोश्चार्वाकेण च प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यमङ्गीकृतम् तत्कुतः इति वक्तव्यम्। बोधकत्वेनेति चेत्तर्हि तद्वच्छ्रुतेरप्यङ्गीक्रियताम्। ननु वाक्यत्वे समेऽपि केषाञ्चिद्बौद्धादिवाक्यानामप्रामाण्यदर्शनाच्छ्रुतेरपि तदाशङ्क्यत इत्यत आह  नचे ति। बुद्धस्येदं बौद्धम् चार्वाको बौद्धमुदाहरति बौद्धस्त्वन्यदिति द्रष्टव्यम्। अप्रामाण्यं श्रुतेः शङ्कनीयमिति शेषः। तथा सति इन्द्रियलिङ्गयोरपि क्वचिदप्रामाण्यदर्शनात् सम्प्रतिपन्नयोरपि प्रत्यक्षानुमानयोस्तच्छङ्काप्रसङ्गादिति भावः। प्रसक्ताऽपि शङ्का तत्र निर्दोषत्वेनापनीयत इति चेत्समं प्रकृतेऽपीत्याह  अपौरुषेयत्वादि ति। अपौरुषेयत्वेऽपि दोषित्वं किं न स्यादित्यत आह  नही ति। सामान्योक्तित्वादपौरुषेये इति नपुंसकत्वोक्तिः। अन्यथा श्रुतेः प्रकृतत्वात्स्त्रीलिङ्गं स्यात्। शब्दे ह्यबोधकत्वादयो दोषाः ते च वक्तृपुरुषाश्रिताज्ञानादिमूलाः। यस्य तु वक्ता पुरुष एव नास्ति तत्र कथं वक्तृपुरुषाश्रिताज्ञानादयो दोषमूलत्वेन कल्पयितुं शक्याः व्याहतेरिति। अत्राज्ञानादीनां पौरुषेयत्वोक्तिरुपचारात् पुरुषशब्दात्तत्कृतवाक्यादिष्वेव ढञः स्मरणात्। ननु श्रुतेरपौरुषेयत्वमेव नास्ति वाक्यत्वात्। लौकिकवाक्यवदिति चेत् किमेवं वदतः किमपि वाक्यमपौरुषेयं नास्तीति मतम् उत किञ्चिदस्तीति। आद्ये दोषमाह   विने ति। कस्यचिद्वाक्यस्यापौरुषेयत्वाभावे धर्माधर्मयोरनिश्चयः प्रसज्येत निश्चायकप्रमाणाभावात्। नच तथाऽस्त्विति वक्तुं शक्यम् तत्सद्भावस्य सर्वैः समयिभिर्निश्चितत्वादिति।ननु प्रत्यक्षैकमप्रमाणवादी यश्चार्वाको धर्माधर्मौ नाङ्गीकुरुते तस्य नेदमनिष्टम् किमप्यपौरुषेयं वाक्यं अनङ्गीकृत्य वेदापौरुषेयत्वं प्रत्याचक्षाणान्सर्वान्प्रति चायं प्रसङ्ग इत्यतस्तेनापि धर्मादिकमङ्गीकार्यैतं प्रसङगं वक्ष्याम इत्याशयेनाह  यश्चे ति। तौ धर्माधर्मौ इति प्रसज्येत इति शेषः। धर्माद्यनङ्गीकारे कुतस्तच्छास्त्रस्याशास्त्रत्वप्रसङ्गो येनासौ शास्त्री न स्याक्ष्त्यित आह  अप्रयोजकत्वा दिति। प्रयुज्यते प्रवर्त्यते प्रणेता प्रणयने श्रोता च श्रवणे शास्त्रे याभ्यां ते प्रयोजके विषयप्रयोजने अविद्यमाने प्रयोजके यस्य शास्त्रस्य तत्तथा। अनन्यलभ्यं कमपि पुरुषार्थमधिकृत्य तत्साधनं तथाविधमर्थं प्रतिपादयन्वाक्यसमूहो हि शास्त्रम् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् न चातीन्द्रियस्याभावेऽन्यत्तथानुभूतं शक्यनिरूपणम्। अतः शास्त्रत्वसिद्धये विषयादित्वेन धर्मादिकं किमप्यङ्गीकार्यमिति भावः। शङ्कते  मा स्त्विति। मायं न माङ्। अस्त्वित्यव्ययम्। धर्म इत्युपलक्षणम् अनिरूप्यत्वात् तत्प्रमाणाभावेन प्रतिपादयितुमशक्यत्वात्। इदमुक्तं भवति विषयप्रयोजने हि ते भवतः ये प्रमाणेन प्रतिपादयितुं शक्येते वाङ्मात्रस्य श्रोतृभिरनादरणात्। नच धर्मादिकं प्रमाणेन प्रतिपादयितुं शक्यम् प्रत्यक्षागोचरत्वात् अनुमानादेश्च प्रामाण्याभावात्। अतो न शास्त्रस्य विषयत्वादिना धर्मादिकमङ्गीकर्तुमुचितम्। न चैतावता निर्विषयत्वाद्यापत्तिः यतो धर्माद्यभावो विषयो भविष्यति। प्रयोजनं च श्रोतृ़णां धर्माद्यनुष्ठानप्रसक्तक्लेशनिवृत्तिः धर्मादिसद्भावभ्रमोपरुद्धविषयसुखावाप्तिश्च प्रणेतुश्च लोकोपकारः उपकर्तारं च प्रत्युपकुर्वन्ति लोका इति निराकरोति  ने ति। एवं वदता धर्माद्यभावोऽपि न शास्त्रविषयत्वेन शक्यते वक्तुम् सर्वाभिमतस्य धर्मादेः प्रमाणं विना वाङ्मात्रेण निषेद्धुं नास्तीति प्रतिपादयितुमशक्यत्वात्। घटाद्यभाव इव प्रत्यक्षेणैव धर्माद्यभावो निश्चेष्यत इति चेत् स्यादेवम् यद्यत्र न काचिद्विप्रतिपत्तिः। यत्र त्वस्तित्वाभिमानस्तत्र पिशाचादाविव प्रत्यक्षानुपलम्भः सन्देहहेतुरेव भवति इति। तदिदमुक्तं  सर्वाभिमत स्येति। पुनः शङ्कते  नचे ति। मा भूद्धमार्द्यभावस्य विषयत्वं तत्साधकप्रमाणाभावात् तथापि धर्मादेर्विषयत्वादिकं न घटते अप्रामाणिकस्य प्रमित्यनुपपत्त्या साधयितुमशक्यत्वादिति निराकरोति  ने ति। अस्ति तावद्धर्मादिविषये सर्वेषामाविपालगोपालमस्तित्वाभिमानः। अभिमानो ज्ञानमेव। न च तस्य बाधकं किञ्चित् धर्माद्यभावप्रतिपादकप्रमाणाभावस्योक्तत्वात्। अतः सर्वाभिमतेरेव धर्मादौ प्रमाणत्वात् तत्करणस्य च प्रमाणत्वात् धर्मादेः प्रामाणिकत्वसिद्धौ किमनया व्यर्थचिन्तया। नच तत्र प्रमाणविशेषोऽशक्यनिरूपणः आगमस्य तत्सहकारिणोऽनुमानस्य च सत्वात्। अत एव नान्धपरम्पराऽपि। आगमादेः प्रामाण्यं नास्तीति उक्तमित्यत आह  अन्यथे ति। यदाऽऽगमस्यानुमानस्य च न प्रामाण्यं तदा सर्वस्य वाचा निर्वर्त्यस्य व्यवहारस्यासिद्धिः स्यात्। परप्रत्ययनार्थो हि वाग्व्यवहारः स यदि न परं प्रत्याययेत् व्यर्थो न क्रियेतैवेति। चशब्दः प्रमाणसामान्यसिद्ध्या तद्विशेषसिद्धेः समुच्चये।भवत्वागमप्रामाण्ये वाचनिकव्यवहारासिद्धिः अनुमानप्रामाण्ये तु कथमित्यत आह  नचे ति। त्वदीयं वाक्यं मया श्रूयते इति ज्ञात्वा मां प्रति त्वया वाग्व्यवहारः क्रियते अन्यथा वा। द्वितीये निष्फलो न कर्तव्यः स्यात्। नाद्यः परचित्तवृत्तीनां परस्याप्रत्यक्षत्वेन मया श्रुतमिति तव ज्ञातुमशक्यत्वात्। मदीयं प्रत्युत्तरमेव तज्ज्ञानोपाय इत्येव वक्तव्यमिति भावः। अस्त्वेवमित्यत आह  अन्यथा वे ति। वाशब्दोऽवधारणे। प्रत्युत्तरं हि लिङ्गतया ज्ञापकम् नच तव मतेऽनुमानं प्रमाणम्। अतः प्रत्युत्तरमन्यथैवाज्ञापकमेव स्यादिति। ननु लिङ्गशब्दयोः प्रामाण्मेव नाङ्गीक्रियते ज्ञापकत्वमात्रमङ्गीक्रियत एव। अतः कथं वाचनिकव्यवहारसिद्धिरित्यत आह  भ्रान्तिर्वे ति। ज्ञापकत्वमङ्गीकृत्य प्रामाण्यानङ्गीकारे शब्दलिङ्गाभ्यां जायमानः प्रत्ययस्तव मतेर्भ्रान्तिर्वा स्यात्संशयो वा गत्यन्तराभावात्। न च परस्य भ्रान्त्याद्यर्थं वचनप्रयोगः नापि प्रत्युत्तरेण भ्रान्तः सन्दिग्धो वा वाक्यं प्रयुङ्क्त इति युक्तम् अतो वाचनिकव्यवहारसिद्ध्यर्थमागमानुमानप्रामाण्यमङ्गीकार्यमिति। एवं चार्वाकशास्त्रस्य विषयं निराकृत्य प्रयोजनमपि निराकुर्वन श्रोतृप्रयोजनं तावन्निराचष्टे  सर्वे ति। यथा शास्त्रस्य सर्वेषां श्रोतृ़णां सुखकारणत्वम् यथा धर्माद्यभावज्ञाने सर्वमर्यादातिक्रमे परस्परहिंसादिना सर्वदुःखकारणत्वं च स्यात् तथा च समव्ययफलं निष्प्रयोजनमेवेति। इदानीं शास्त्रप्रणेतृप्रयोजनं निराकरोति  एको वे ति। धर्मादिज्ञानशून्याः पशुप्राया नोपकारिणमुपकुर्वन्ति अपितु सर्वेऽप्यपकर्तुमलम्। तदभावेऽप्येको वाऽन्यथाऽपकारकः स्यादिति भावः। तदेवं धर्माद्यनङ्गीकारे शास्त्रस्य विषयाद्यभावेनाशास्त्रत्वप्रसङ्गात्सर्वैर्धर्मादिकमङ्गीकार्यमिति। ननु स्वीकृतं धर्मादिकं पौरुषेयवाक्यात्तन्निंश्चय इत्यत आह  रचितत्वे  चेति। ततश्च न धर्मादिनिश्चय इति भावः। निर्दोषत्वेन प्रमितोऽसाविति चेत् तस्य निर्दोषत्वं किं तद्वाक्यात्सिद्धं प्रमाणान्तरेण वा। न द्वितीयः तदभावात्। आद्यं दूषयति  नचे ति अतिप्रसङ्गादिति भावः। न च प्रत्यक्षादिना धर्मादिसिद्धिः। अतः सर्वैः किमप्यपौरुषेयं वाक्यमङ्गीकार्यम्। अङ्गीकृतं च बौद्धादिभिः स्वसमयापौरुषेयत्वम् शौद्धोदनिप्रभृतयः सम्प्रदायप्रवर्तकाः इत्युक्तत्वात्। ततः किमिति चेद्वाक्यत्वहेतोस्तत्रानैकान्त्यमिति। अस्त्वेवमनुमानस्यान्यतरानैकान्त्याच्छ्रुतेरपौरुषेयत्वे बाधकाभावः। तत्साधकं तु किमिति चेत्कर्तुरप्रसिद्धिरपौरुषेयत्वप्रसिद्धिश्चेति ब्रूमः। एवं तर्हि गूढकर्तृकस्य कृतापौरुषेयत्वप्रसिद्धिकस्याप्यपौरुषेयत्वप्रसङ्ग इत्यत आह   न चे ति। केनचित्कृतमिति शेषः।  उक्तवाक्यसमं  वेदवदपौरुषेयमित्यर्थः। अनादिकाले यः परिग्रहः प्राक्तनमेवैतदिति ज्ञानं तेन विषयीकृतत्वाच्छ्रुतेः इतरस्य तदभावादपौरुषेयत्वप्रसिद्धिरेव तत्र भग्नेति भावः।अपौरुषेयत्वसिद्धौ सिद्धमर्थमुपसंहरति  अत  इति। एवं चतुर्थपादोपयुक्तं प्रमेयमुक्त्वा तमिदानीं निवेशयति  अत  इति। यत एवं नैरात्म्यवादिभिरुत्प्रेक्षिताः कुतर्काः अतस्तैः कुतर्कैर्धीरो धीमांस्तत्र देहातिरिक्तनित्यात्मसद्भावविषये न मोहमापद्यते।नरके नियतं वासः 1।44 इत्याद्यर्जुनवचनेन तस्य नित्यात्मप्रतिपत्तिसिद्धेः प्रथमपुरुषप्रयोगः। अनेकार्था गीतेति दर्शयितुं श्लोकद्वयं प्रकारान्तरेण व्याचष्टे  अथ वेति। न जीवनाशमपेक्ष्य शोकः कार्य इति शेषः। नित्यत्वाज्जीवस्य। अनेन योजनापूर्ववदेवेति ज्ञापयति। नापीत्यत्रापि पूर्ववच्छेषः। अत्र पूर्वयोजना न सङ्गच्छते अतोऽन्यथापादत्रयं व्याख्याति  यथे ति। जरादिप्राप्तौ देहान्तरप्राप्ताविति निमित्तसप्तम्यौ ततश्चायमर्थः। कौमाराद्यवस्थाविशिष्टदेहहाने तावन्नास्ति शोक इति प्रसिद्धम् तत्कस्य हेतोः इति वाच्यम् जरादिविशिष्टदेहान्तरलाभात्। समानलाभेन हानिर्हि समाधीयत इति चेत् तर्हि मरणेऽपि शोको न कार्यः देहान्तरस्य लाभादेव। यदा तु जीर्णलाभेन समीचीनहानेः प्रतिविधानं तदा तु सुतरां समीचीनलाभेन जीर्णहानेरिति। तत्रावस्थामात्रहानिः अत्र त्ववस्थावतोऽपीत्येतदनुपयुक्तं वैषम्यं निष्कप्रदानेन पटग्रहणदर्शनादिति भावनोक्तं  धीर  इति।
।।2.13।।देहिनो भावे एतद्भवति तदेवासिद्धमिति चेत् न देहिनोऽस्मिन्। यथा कौमारादिशरीरभेदेऽपि देही तदीक्षिता सिद्धः एवं देहान्तरप्राप्तावपि ईक्षितृत्वात्। न हि जडस्य शरीरस्य कौमाराद्यनुभवः सम्भवति मृतस्यादर्शनात्। मृतस्य वाय्वाद्यपगमादनुभवाभावः।अहं मनुष्यः इत्याद्यनुभवाच्चैतत्सिद्धमिति चेत् न सत्येवाविशेषे देहे सुप्त्यादौ ज्ञानादिविशेषादर्शनात्।समश्चाभिमानो मनसि काष्ठादिवच्च। श्रुतेश्च। प्रामाण्यं च प्रत्यक्षादिवत्। न च बौद्धादिवत् अपौरुषेयत्वात्। न ह्यपौरुषेये पौरुषेयाज्ञानादयः कल्पयितुं शक्याः। विना च कस्यचिद्वाक्यस्यापौरुषेयत्वं न सर्वसमयाभिमतधर्मादिसिद्धिः।यश्च तौ नाङ्गीकुरुते नासौ समयी अप्रयोजकत्वात्। मास्तु धर्मो निरूप्यत्वादिति चेत् न सर्वाभिमतस्य प्रमाणं विना निषेद्धुमशक्यत्वात्। न च सिद्धिरप्रमाणकस्येति चेत् न सर्वाभिमतेरेव प्रमाणत्वात् अन्यथा सर्ववाचनिकव्यवहारासिद्धेश्च।न च मया श्रुतमिति तव ज्ञातुं शक्यम् अन्यथा वा प्रत्युत्तरं स्यात् भ्रान्तिर्वा तव स्यात् सर्वदुःखकारणत्वं वा स्यात् एको वाऽन्यथा स्यात्। रचितत्वे च धर्मप्रमाणस्य कर्तुरज्ञानादिदोषशङ्का स्यात्। न चादोषत्वं स्ववाक्येनैव सिद्ध्यति। न च येनकेनचिदपौरुषेयमित्युक्तमुक्तवाक्यसमम् अनादिकालपरिग्रहसिद्धत्वात्।अतः प्रामाण्यं श्रुतेः। अतः कुतर्कैर्धीरस्तत्र न मुह्यति। अथवा जीवनाशं देहनाशं वा अपेक्ष्य शोकः। न जीवनाशं नित्यत्वादित्याह न त्वेवेति। नापि देहनाशमित्याहदेहिन इति। यथा कौमारादिदेहहानेन जरादिप्राप्तावशोकः एवं जीर्णादिदेहहानेन देहान्तरप्राप्तावपि।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।2.13।।
দেহিনোস্মিন্যথা দেহে কৌমারং যৌবনং জরা৷ তথা দেহান্তরপ্রাপ্তির্ধীরস্তত্র ন মুহ্যতি৷৷2.13৷৷
দেহিনোস্মিন্যথা দেহে কৌমারং যৌবনং জরা৷ তথা দেহান্তরপ্রাপ্তির্ধীরস্তত্র ন মুহ্যতি৷৷2.13৷৷
દેહિનોસ્મિન્યથા દેહે કૌમારં યૌવનં જરા। તથા દેહાન્તરપ્રાપ્તિર્ધીરસ્તત્ર ન મુહ્યતિ।।2.13।।
ਦੇਹਿਨੋਸ੍ਮਿਨ੍ਯਥਾ ਦੇਹੇ ਕੌਮਾਰਂ ਯੌਵਨਂ ਜਰਾ। ਤਥਾ ਦੇਹਾਨ੍ਤਰਪ੍ਰਾਪ੍ਤਿਰ੍ਧੀਰਸ੍ਤਤ੍ਰ ਨ ਮੁਹ੍ਯਤਿ।।2.13।।
ದೇಹಿನೋಸ್ಮಿನ್ಯಥಾ ದೇಹೇ ಕೌಮಾರಂ ಯೌವನಂ ಜರಾ. ತಥಾ ದೇಹಾನ್ತರಪ್ರಾಪ್ತಿರ್ಧೀರಸ್ತತ್ರ ನ ಮುಹ್ಯತಿ৷৷2.13৷৷
ദേഹിനോസ്മിന്യഥാ ദേഹേ കൌമാരം യൌവനം ജരാ. തഥാ ദേഹാന്തരപ്രാപ്തിര്ധീരസ്തത്ര ന മുഹ്യതി৷৷2.13৷৷
ଦେହିନୋସ୍ମିନ୍ଯଥା ଦେହେ କୌମାରଂ ଯୌବନଂ ଜରା| ତଥା ଦେହାନ୍ତରପ୍ରାପ୍ତିର୍ଧୀରସ୍ତତ୍ର ନ ମୁହ୍ଯତି||2.13||
dēhinō.sminyathā dēhē kaumāraṅ yauvanaṅ jarā. tathā dēhāntaraprāptirdhīrastatra na muhyati৷৷2.13৷৷
தேஹிநோஸ்மிந்யதா தேஹே கௌமாரஂ யௌவநஂ ஜரா. ததா தேஹாந்தரப்ராப்திர்தீரஸ்தத்ர ந முஹ்யதி৷৷2.13৷৷
దేహినోస్మిన్యథా దేహే కౌమారం యౌవనం జరా. తథా దేహాన్తరప్రాప్తిర్ధీరస్తత్ర న ముహ్యతి৷৷2.13৷৷
2.14
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।।2.14।। हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके जो विषय (जड पदार्थ) हैं, वो तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) - के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं तथा आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो।
।।2.14।। हे कुन्तीपुत्र ! शीत और उष्ण और सुख दुख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अन्त होता है;  वे अनित्य हैं,  इसलिए,  हे भारत ! उनको तुम सहन करो।।
।।2.14।। विषय ग्रहण की वेदान्त की प्रक्रिया के अनुसार बाह्य वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा होता है। इन्द्रियाँ तो केवल उपकरण हैं जिनके द्वारा जीव विषय ग्रहण करता है उनको जानता है। जीव के बिना केवल इन्द्रियाँ विषयों का ज्ञान नहीं करा सकतीं।यह तो सर्वविदित है कि एक ही वस्तु दो भिन्न व्यक्तियों को भिन्न प्रकार का अनुभव दे सकती है। एक ही वस्तु के द्वारा जो दो भिन्न अनुभव होते हैं उसका कारण उन दो व्यक्तियों की मानसिक संरचना का अन्तर है।यह भी देखा गया है कि व्यक्ति को एक समय जो वस्तु अत्यन्त प्रिय थी वही जीवन की दूसरी अवस्था में अप्रिय हो जाती है क्योंकि जैसेजैसे समय व्यतीत होता जाता है उसके मन में भी परिवर्तन होता जाता है। संक्षेप में यह स्पष्ट है कि जब हमारा इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों के साथ सम्पर्क होता है तभी किसी प्रकार का अनुभव भी संभव है।जो पुरुष यह समझ लेता है कि जगत् की वस्तुयें नित्य परिवर्तनशील हैं उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं वह पुरुष इन वस्तुओं के कारण स्वयं को कभी विचलित नहीं होने देगा। काल के प्रवाह में भविष्य की घटनायें वर्तमान का रूप लेती हैं और हमें विभिन्न अनुभवों को प्रदान करके निरन्तर भूतकाल में समाविष्ट हो जाती हैं। जगत् की कोई भी वस्तु एक क्षण के लिये भी विकृत हुये बिना नहीं रह सकती । यहाँ परिवर्तन ही एक अपरिवर्तनशील नियम है।इस नियम को समझ कर आदि और अन्त से युक्त वस्तुओं के होने या नहीं होने से बुद्धिमान पुरुष को शोक का कोई कारण नहीं रह जाता। शीत और उष्ण सफलता और असफलता सुख और दुख कोई भी नित्य नहीं हैं। जब वस्तुस्थिति ऐसी है तो प्रत्येक परिवर्तित परिस्थिति के कारण क्षुब्ध या चिन्तित होना अज्ञान का ही लक्षण है। जीवन में आने वाले कष्टों को चिन्तित हुये बिना शान्तिपूर्वक सहन करना चाहिये। सभी प्रकार की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में विवेकी पुरुष इस तथ्य को सदा ध्यान में रखता है कि यह भी बीत जायेगा।जगत् की वस्तुयें परिच्छिन्न हैं क्योंकि उनका आदि है और अन्त है। भगवान् कहते हैं कि ये वस्तुयें स्वभाव से ही अनित्य हैं। अनित्य शब्द से तात्पर्य यह है कि एक ही वस्तु किसी एक व्यक्ति के लिये ही कभी सुखदायक तो कभी दुखदायक हो सकती है।शीतउष्ण आदि को समान भाव से सहने वाले व्यक्ति को क्या लाभ मिलेगा सुनिये
2.14।। व्याख्या-- [यहाँ एक शंका होती है कि इन चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकोंसे पहले (11 से 13) और आगे (16 से 30 तक) देही और देह--इन दोनोंका ही प्रकरण है। फिर बीचमें 'मात्रास्पर्श' के ये दो श्लोक (प्रकरणसे अलग) कैसे आये? इसका समाधान यह है कि जैसे बारहवें श्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण जीवोंके नित्य-स्वरूपको बतानेके लिये 'किसी कालमें मैं नहीं था; ऐसी बात नहीं है'--ऐसा कहकर अपनेको उन्हींकी पंक्तिमें रख दिया, ऐसे ही शरीर आदि मात्र प्राकृत पदार्थोंको अनित्य, विनाशी, परिवर्तनशील बतानेके लिये भगवान्ने यहाँ 'मात्रास्पर्श' की बात कही है।]  'तु'--नित्य-त्तत्त्वसे देहादि अनित्य वस्तुओंको अलग बतानेके लिये यहाँ 'तु' पद आया है।  'मात्रास्पर्शाः'-- जिनसे माप-तौल होता है अर्थात् जिनसे ज्ञान होता है, उन (ज्ञानके साधन) इन्द्रियों और अन्तःकरणका नाम  मात्रा'  है। मात्रासे अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका संयोग होता है, उनका नाम  'स्पर्श'  है। अतः इन्द्रियों और अन्तःकरणसे जिनका ज्ञान होता है, ऐसे सृष्टिके मात्र पदार्थ  'मात्रास्पर्शाः'  हैं। यहाँ  'मात्रास्पर्शाः'  पदसे केवल पदार्थ ही क्यों लिये जायँ, पदार्थोंका सम्बन्ध क्यों न लिया जाय? अगर हम यहाँ  'मात्रास्पर्शाः'  पदसे केवल पदार्थोंका सम्बन्ध ही लें, तो उस सम्बन्धको  'आगमापायिनः'  (आने-जानेवाला) नहीं कह सकते; क्योंकि सम्बन्धकी स्वीकृति केवल अन्तःकरणमें न होकर स्वयंमें (अहम्में) होती है। स्वयं नित्य है, इसलिये उसमें जो स्वीकृति हो जाती है, वह भी नित्य-जैसी ही हो जाती है। स्वयं जबतक उस स्वीकृतिको नहीं छोड़ता, तबतक वह स्वीकृति ज्यों-की-त्यों बनी रहती है अर्थात् पदार्थोंका वियोग हो जानेपर भी, पदार्थोंके न रहनेपर भी, उन पदार्थोंका सम्बन्ध बना रहता है  (टिप्पणी प0 52) । जैसे, कोई स्त्री विधवा हो गयी है अर्थात् उसका पतिसे सदाके लिये वियोग हो गया है, पर पचास वर्षके बाद भी उसको कोई कहता है कि यह अमुककी स्त्री है, तो उसके कान खड़े हो जाते हैं! इससे सिद्ध हुआ कि सम्बन्धी-(पति-) के न रहनेपर भी उसके साथ माना हुआ सम्बन्ध सदा बना रहता है। इस दृष्टिसे उस सम्बन्धको आने-जानेवाला कहना बनता नहीं; अतः यहाँ  'मात्रास्पर्शाः'  पदसे पदार्थोंका सम्बन्ध न लेकर मात्र पदार्थ लिये गये हैं।  'शीतोष्णसुखदुःखदाः'-- यहाँ शीत और उष्ण शब्द अनुकूलता और प्रतिकूलताके वाचक हैं। अगर इनका अर्थ सरदी और गरमी लिया जाय तो ये केवल त्वगिन्द्रिय-(त्वचा-)के विषय हो जायँगे, जो कि एकदेशीय हैं। अतः शीतका अर्थ अनुकूलता और उष्णका अर्थ प्रतिकूलता लेना ही ठीक मालूम देता है। मात्र पदार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलताके द्वारा सुख-दुःख देनेवाले हैं अर्थात् जिसको हम चाहते हैं, ऐसी अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, देश, काल आदिके मिलनेसे सुख होता है और जिसको हम नहीं चाहते, ऐसी प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिके मिलनेसे दुःख होता है। यहाँ अनुकूलता-प्रतिकूलता कारण हैं और सुख-दुःख कार्य हैं। वास्तवमें देखा जाय तो इन पदार्थोंमें सुख-दुःख देनेकी सामर्थ्य नहीं है। मनुष्य इनके साथ सम्बन्ध जोड़कर इनमें अनुकूलता-प्रतिकूलताकी भावना कर लेता है, जिससे ये पदार्थ सुख-दुःख देनेवाले दीखते हैं। अतः भगवान्ने यहाँ  'सुखदुःखदाः'  कहा है।  'आगमापायिनः'  मात्र पदार्थ आदि-अन्तवाले, उत्पत्ति-विनाशशील और आने-जानेवाले हैं। वे ठहरनेवाले नहीं है; क्योंकि वे उत्पत्तिसे पहले नहीं थे और विनाशके बाद भी नहीं रहेंगे। इसलिये वे  'आगमापायी'  हैं।  'अनित्याः'   अगर कोई कहे कि वे उत्पत्तिसे पहले और विनाशके बाद भले ही न हों, पर मध्यमें तो रहते ही होंगे? तो भगवान् कहते हैं कि अनित्य होनेसे वे मध्यमें भी नहीं रहते। वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं। इतनी तेजीसे बदलते हैं कि उनको उसी रूपमें दुबारा कोई देख ही नहीं सकता; क्योंकि पहले क्षण वे जैसे थे, दूसरे क्षण वे वैसे रहते ही नहीं। इसलिये भगवान्ने उनको  'अनित्याः'  कहा है। केवल वे पदार्थ ही अनित्य, परिवर्तनशील नहीं हैं, प्रत्युत जिनसे उन पदार्थोंका ज्ञान होता है, वे इन्द्रियाँ और अन्तःकरण भी परिवर्तनशील हैं। उनके परिवर्तनको कैसे समझें? जैसे दिनमें काम करते-करते शामतक इन्द्रियों आदिमें थकावट आ जाती है, और सबेरे तृप्तिपूर्वक नींद लेनेपर उनमें जो ताजगी आयी थी, वह शामतक नहीं रहती। इसलिये पुनः नींद लेनी पड़ती है, जिससे इन्द्रियोंकी थकावट मिटती है और ताजगीका अनुभव होता है। जैसे जाग्रत्-अवस्थामें प्रतिक्षण थकावट आती रहती है ,ऐसे ही नींदमें प्रतिक्षण ताजगी आती रहती है। इससे सिद्ध हुआ कि इन्द्रियों आदिमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। यहाँ मात्र पदार्थोंको स्थूलरूपसे  'आगमापायिनः'  और सूक्ष्मरूपसे  'अनित्याः'  कहा गया है। इनको अनित्यसे भी सूक्ष्म बतानेके लिये आगे सोलहवें श्लोकमें इनको  'असत्'  कहेंगे; और पहले जिस नित्य-तत्त्वका वर्णन हुआ है, उसको  'सत्'  कहेंगे।]  'तांस्तितिक्षस्व'  ये जितने मात्रास्पर्श अर्थात् इन्द्रियोंके विषय हैं, उनके सामने आनेपर यह अनुकूल है और यह प्रतिकूल है--ऐसा ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उनको लेकर अन्तःकरणमें राग-द्वेष हर्षशोक आदि विकार पैदा होना ही दोषी है। अतः अनुकूलता-प्रतिकूलता-का ज्ञान होनेपर भी राग-द्वेषादि विकारोंको पैदा न होने देना अर्थात् मात्रास्पर्शोंमें निर्विकार रहना ही उनको सहना है। इस सहनेको ही भगवान्ने  'तितिक्षस्व' कहा है। दूसरा भाव यह है कि शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिकी क्रियाओँका, अवस्थाओंका आरम्भ और अन्त होता है तथा उनका भाव और अभाव होता है। वे क्रियाएँ, अवस्थाएँ तुम्हारेमें नहीं हैं; क्योंकि तुम उनको जाननेवाले हो, उनसे अलग हो। तुम स्वयं ज्यों-के-त्यों रहते हो। अतः उन क्रियाओंमें, अवस्थाओंमें तुम निर्विकार रहो। इनमें निर्विकार रहना ही तितिक्षा है।  सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें मात्रास्पर्शोंकी तितिक्षाकी बात कही। अब ऐसी तितिक्षासे क्या होगा इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।2.13 2.14।।एवमर्थद्वयमाह न हीत्यादि। अहं हि नैव नासम् अपि तु आसम् एवं त्वम् अमी च राजानः। आकारान्तरे च सति यदि शोच्यता तर्हि कौमारात् यौवनावाप्तौ किमिति न शोच्यते यो धीरः स न शोचति। धैर्यं च (N धैर्ये च) एतच्छरीरेऽपि यस्यास्था नास्ति तेन सुकरम्। अतस्त्वं धैर्यमन्विच्छ।
।।2.14।।शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः साश्रयाः तन्मात्राकार्यत्वात्  मात्रा  इति उच्यन्ते। श्रोत्रादिभिः तेषां  स्पर्शाः   शीतोष्ण मृदुपरुषादिरूपसुखदुःखदा भवन्ति। शीतोष्णशब्दः प्रदर्शनार्थः  तान्  धैर्येण यावद्युद्धादिशास्त्रीयकर्मसमाप्ति  तितिक्षस्व।  ते च  आगमापायि त्वाद् धैर्यवतां क्षन्तुं योग्याः।  अनित्याः  च एते बन्धहेतुभूतकर्मनाशे सति आगमापायित्वेन अपि निवर्तन्ते इत्यर्थः।तत्क्षान्तिः किमर्था इत्यत आह
।।2.14।।आत्मनः श्रुत्यादिप्रमिते नित्यत्वे तदुत्पत्तिविनाशप्रयुक्तशोकमोहाभावेऽपि प्रकारान्तरेण शोकमोहौ स्यातामित्याशङ्कामनूद्योत्तरत्वेन श्लोकमवतारयति  यद्यपीत्यादिना।  शीतोष्णयोस्ताभ्यां सुखदुःखयोश्च प्राप्तिं निमित्तीकृत्य यो मोहादिर्दृश्यते तस्यान्वयव्यतिरेकाभ्यां दृश्यमानत्वमाश्रित्य लौकिकविशेषणम्। अशोच्यानित्यत्र यो विद्याधिकारी सूचितस्तस्यतितिक्षुः समाहितो भूत्वा इति श्रुतेस्तितिक्षुत्वं विशेषणमिहोपदिश्यते। व्याख्येयं पदमुपादाय करणव्युत्पत्त्या तस्येन्द्रियविषयत्वं दर्शयति  मात्रा इत्यादिना।  षष्ठीसमासं दर्शयन् भावव्युत्पत्त्या स्पर्शशब्दार्थमाह  मात्राणामिति।  तेषामर्थक्रियामादर्शयति  ते शीतेति।  संप्रति शब्दद्वयस्य कर्मव्युत्पत्त्या शब्दादिविषयपरत्वमुपेत्य समासान्तरं दर्शयन् विषयाणां कार्यं कथयति  अथवेति।  ननु शीतोष्णप्रदत्वे सुखदुःखप्रदत्वस्य सिद्धत्वात्किमिति शीतोष्णयोः सुखदुःखाभ्यां पृथक्ग्रहणमिति तत्राह  शीतमिति।  विषयेभ्यस्तु पृथक्कथनं तदन्तर्भूतयोरेव तयोः सुखदुःखहेत्वोरानुकूल्यप्रातिकूल्ययोरुपलक्षणार्थम्। अध्यात्मं हि शीतमुष्णं वा आनुकूल्यं प्रातिकूल्यं वा संपाद्य बाह्या विषयाः सुखादि जनयन्ति। ननु विषयेन्द्रियसंयोगस्यात्मनि सदा सत्त्वात्तत्प्रयुक्तशीतादेरपि तथात्वात्तन्निमित्तौ हर्षविषादौ तस्मिन्नापन्नावित्याशङ्क्योत्तरार्धं व्याचष्टे  यस्मादित्यादिना।  अत्र च कौन्तेय भारतेति संबोधनाभ्यामुभयकुलशुद्धस्यैव विद्याधिकारित्वमित्येतदेव द्योत्यते।
।।2.14।।ननु धैर्यमेव तन्नायाति यतो न मूढः स्यामिति चेत्तत्प्राप्त्युपायमाह मात्रास्पर्शा इति। मात्रा रूपादयस्तासां स्पर्शा इन्द्रियाख्याः इन्द्रियैर्वा स्पर्शाः योगाः शीतादिद्वन्द्वाः तेचागमापायिनोऽनित्यास्तान्विशिष्टानेव सहस्व। सर्वसहनं हि साङ्ख्ये योगे चावश्यकं ततो धीरस्य न मोहः।
।।2.14।।नन्वात्मनो नित्यत्वे विभुत्वे च न विवदामः प्रतिदेहमेकत्वं तु न सहामहे। तथाहि बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनाख्यनवविशेषगुणवन्तः प्रतिदेहं भिन्नाः एवं नित्या विभवश्चात्मानः इति वैशेषिका मन्यन्ते। इममेवच पक्षं तार्किकमीमांसकादयोऽपि प्रतिपन्नाः। सांख्यास्तु विप्रतिपद्यमाना अप्यात्मनो गुणवत्त्वे प्रतिदेहं भेदे न विप्रतिपद्यन्ते। अन्यथा सुखदुःखादिसंकरप्रसङ्गात्। तथाच भीष्मादिभिन्नस्य मम नित्यत्वे विभुत्वेऽपि सुखदुःखादियोगित्वाद्भीष्मादिबन्धुदेहविच्छेदे सुखवियोगो दुःखसंयोगश्च स्यादिति कथं शोकमोहौ नानुचितावित्यर्जुनाभिप्रायमाशङ्क्य लिङ्गशरीरविवेकायाह मीयन्ते आभिर्विषया इति मात्रा इन्द्रियाणि तासां स्पर्शा विषयैः संबन्धास्तत्तद्विषयाकारान्तःकरणपरिणामा वा ते आगमापायिन उत्पत्तिविनाशवतोऽन्तःकरणस्यैव शीतोष्णादिद्वारा सुखदुःखदाः नतु नित्यस्य विभोरात्मनः। तस्य निर्गुणात्वान्निर्विकारत्वाच्च। नहि नित्यस्यानित्यधर्माश्रयत्वं संभवति धर्मधर्मिणोरभेदात्संबन्धान्तरानुपपत्तेः। साक्ष्यस्य साक्षिधर्मत्वानुपपत्तेश्च। तदुक्तम् नर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता का विकारिणः। धीविक्रियासहस्राणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः।। इति। तथाच सुखदुःखाद्याश्रयीभूतान्तःकरणभेदादेव सर्वव्यवस्थोपपत्तेर्न निर्विकारस्य सर्वभासकस्यात्मनो भेदे मानमस्ति सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वत्रानुगमात्। अन्तःकरणस्य तावत्सुखदुःखादौ जनकत्वमुभयवादिसिद्धम्। तत्र समवायिकारणत्वस्यैवाभ्यर्हितत्वात्तदेव कल्पयितुमुचितं नतु समवायिकारणान्तरानुपस्थितौ निमित्तत्वमात्रम्। तथाचकामः संकल्पः इत्यादिश्रुतिःएतत्सर्वं मन एव इति कामादिसर्वविकारोपादानत्वमभेदनिर्देशान्मनस आह। आत्मनश्च स्वप्रकाशज्ञानानन्दरूपत्वस्य श्रुतिभिर्बोधनान्न कामाद्याश्रयत्वम् अतो वैशेषिकादयो भ्रान्त्यैवात्मनो विकारित्वं भेदं चाङ्गीकृतवन्त इत्यर्थः। अन्तःकरणस्यागमापायित्वात् दृश्यत्वाच्च नित्यदृग्रूपात्त्वत्तो भिन्नस्य सुखादिजनका ये मात्रास्पर्शास्तेऽप्यनित्या अनियतरूपाः एकदा सुखजनकस्यैव शीतोष्णादेरन्यदा दुःखजनकत्वदर्शनात्। एवं कदचिद्दुःखजनकस्याप्यन्यदा सुखजनकत्वदर्शनात्। शीतोष्णग्रहणमाध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकसुखदुःखोपलक्षणार्थम्। शीतमुष्णं च कदाचित्सुखं कदाचिद्दुःखं सुखदुःखे तु न कदापि विपर्ययेते इति पृथङ्निर्देशः। तथा चात्यन्तास्थिरान् त्वद्भिन्नस्य विकारिणः सुखदुःखादिप्रदान्भीष्मादिसंयोगवियोगरूपान्मात्रास्पर्शांस्त्वं तितिक्षस्व नैते मम किंचित्करा इति विवेकेनोपेक्षस्व। दुःखितादात्माध्यासेनात्मानं दुःखिनं मा ज्ञासीरित्यर्थः। कौन्तेय भारतेति संबोधनद्वयेनोभयकुलविशुद्धस्य तवाज्ञानमनुचितमिति सूचयति।
।।2.14।।ननु गतानागतानहं न शोचामि किंतु दद्वियोगादिदुःखभाजमात्मानमेवेति चेत्तत्राह  मात्रास्पर्शा इति।  मीयन्ते ज्ञायन्ते विषया आभिरिति मात्रा इन्द्रियवृत्तयः तासां स्पर्शाः विषयैः संबन्धाः ते शीतोष्णादिप्रदा भवन्ति ते त्वागमापायित्वादनित्या अस्थिराः अतस्तांस्तितिक्षस्व सहस्व। यथा जलातपादिसंपर्कास्तत्तत्कालकृताः स्वभावतः शीतोष्णादि प्रयच्छन्ति एवमिष्टसंयोगवियोगा अपि सुखदुःखादि प्रयच्छन्ति तेषां चास्थिरत्वात्सहनं तव धीरस्योचितं नतु तन्निमित्तहर्षविषादपारवश्यमित्यर्थः।
।।2.14।।आत्मनित्यत्वप्रकरणपर्यवसाने वक्तव्योऽप्ययमर्थस्तात्पर्यातिशयात्सहसोच्यत इत्याह इममर्थमनन्तरमिति। आभिर्मीयन्ते शब्दादय इति श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि मात्रा इतिशङ्कराद्युक्ताप्रसिद्धयोजनाव्युदासाय मात्राशब्दार्थमाह शब्देति।साश्रया इति। गुणविशिष्टद्रव्यस्य हि तन्मात्राकार्यत्वमिति भावः।तन्मात्राकार्यत्वादिति। तन्मात्राणां मात्राशब्दवाच्यत्वे तावन्नास्ति विवादः।शब्दमात्रा स्पर्शमात्रा इत्यादिप्रयोगाश्च सन्ति। ततश्च तत्कार्यद्रव्यस्यापि तदेकद्रव्यत्वात्तच्छब्दगोचरत्वमुपपन्नमिति भावः। कर्मव्युत्पत्तेरपि भावव्युत्पत्तेः प्रसिद्धिप्रकर्षं विषयसम्बन्धस्यैव च साक्षात्सुखादिहेतुत्वं मत्वा स्पर्शस्य प्रतिसम्बन्ध्यन्तरं निर्दिशन् समासार्थमप्याह श्रोत्रादिभिस्तेषां स्पर्शा इति। शीतोष्णशब्दयोरुपलक्षणत्वं समासार्थं चाह शीतोष्णमृदुपरुषादिरूपेति। एवं हेतुफलभावं   विहाय शीतोष्णदाः सुखदुःखदाश्चेति योजनायां पृथग्व्यपदेशवैयर्थ्यमिति भावः। सङ्ग्रामे शीतोष्णयोरप्रसक्तत्वात्किमर्थमिदमुच्यत इत्यत्राह शीतोष्णशब्दः प्रदर्शनार्थ इति। शस्त्रपातादेरिति शेषः। शीतोष्णादिकं तु तेषु तेषु वर्णाश्रमधर्मेषु यथासम्भवं ग्राह्यम्।धीरम् इति वक्ष्यमाणम् 2।15धीरस्तत्र 2।13 इति पूर्वोक्तं चाकृष्याह तान् धैर्येणेति। यद्वाऽत्रैवकौन्तेय भारत शब्दाभ्यां क्षत्ित्रयायामुत्पन्नस्य विशिष्टक्षत्ित्रयसान्तानिकस्य ते धैर्यमेवोचितमिति सूचितम्। यथा तपश्चर्यायां यागादौ च वातातपक्षुत्पिपासापश्वालम्भादयो यावत्तत्कर्मसमाप्ति क्षन्तव्याः तथाऽत्रापि शस्त्रपातशत्रुवधादयः। तस्मादवर्जनीयेन्द्रियार्थस्पर्शनिमित्तदुःखानां शोकेन दुष्परिहरत्वान्निरर्थके शोके तितिक्षैव युक्तेति भावः। अत्र सुखांशस्य क्षमा नाम उपेक्षया अनुत्सेकः। तत्रापि हेतुरागमापायित्वमेव। अनित्यशब्दस्यापौनरुक्त्यायाह बन्धेति। अनित्यशब्दोऽत्र प्रवाहनित्यतानिषेधकः।नित्याः इति पदच्छेदेन नित्यानुबन्धितया तितिक्षितव्यत्वद्योतने तु मन्दम्। मुक्तौ तदभावाच्च प्रवाहतोऽपि नित्यत्वं नास्तीति भावः।
।।2.14।।नन्वग्रे देहाप्तिरपि भविष्यति परं किञ्चित्कालं भवति () भोगदुःखासहिष्णुत्वाच्छोचामीति चेत्तत्राह मात्रास्पर्शा इति। हे कौन्तेय परमस्निग्ध मात्रास्पर्शा इन्द्रियवृत्तिविषयसम्बन्धाः शीतोष्णसुखदुःखदा भवन्ति।अत्रायमर्थः इन्द्रियवृत्तिस्पृष्टा जलातपादयो शीतोष्णदा भवन्ति। तथा मित्रसंयोगविप्रयोगादयश्च सुखदुःखदा भवन्ति। संयोगे स्वस्य सुखं भवति विप्रयोगे च दुःखम् तत्रस्थसुखदुःखादिकं न विचारणीयम्। किन्तु मित्रसुखविचारेण स्वस्य तत्सहनमेवोत्तममुचितं यतस्ते न स्थिरा इत्याह आगमापायिन इति। आगमापायिन आगच्छन्त्यपयान्ति च अत एव अनित्याः अतस्तान् तितिक्षस्व सहस्व।भारत इति सम्बोधनात्तवैतदुचितमिति ज्ञापितम्।
।।2.14।।ननु आत्मनो लिङ्गशरीरादन्यत्वेऽप्यहं दुःखीत्याद्यनुभवाद्दुःखादिधर्माश्रयत्वं दुर्वारम्। ततश्च भीष्मादिबन्धुवर्गनाशे सति दुःखसंबन्धो भवत्येवेत्याशङ्क्याह  मात्रास्पर्शा इति।  मीयन्ते विषया आभिस्ता मात्रा इन्द्रियवृत्तयः। यद्वा दश प्रज्ञामात्राः वागादयः दश भूतमात्राः नामादयः कौषीतकिप्रसिद्धा इन्द्रियविषयरूपा ग्राह्याः। तासां स्पर्शाः परस्परं विषयविषयिभावेन संबन्धा इति व्याख्येयम्। यद्वा मात्रा प्रमात्रा सह स्पर्शाः विषयेन्द्रियसंबन्धाः। स्पर्शशब्दस्य तद्वाचित्वंस्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान् इत्यत्र दृष्टम्। तत्र स्पर्शपदेन तद्वतोर्विषयेन्द्रिययोरपि लाभः। तेन प्रमातुः प्रमाणद्वारा प्रमेयेण सह संबन्धाः सर्वे शीतोष्णादिवदागमापायिन उत्पत्तिविनाशशीला अतएवानित्याश्च तद्वदेव सुखदुःखदाश्च। अतस्तान् तितिक्षस्व सहस्व। हे कौन्तेय भारतेत्युत्तमवंश्यत्वेन धीरत्वमस्य सूचयति। प्रमातृत्वादिरनर्थो हि सुप्तिसमाधिग्रहावेशादिष्वभावाज्जाग्रत्स्वप्नादौ भावाच्च कादाचित्कतया आत्मनि प्रतीयमानोऽपि रज्जूरगादिवन्मिथ्याभूतः सन्न तद्धर्मत्वं भजते। यद्धि यत्राभेदेन कदाचिद्भाति तत्तत्राध्यस्तं रज्ज्वामिव सर्पः। प्रमात्रादिश्च प्रतीचि प्रत्यगभेदेन कदाचिद्भाति अतो मिथ्येति निश्चितम्। तेन प्रतीचि प्रमातृसंबन्ध एव नास्ति। सत्यमिथ्यावस्तुनोर्वास्तवसंबन्धायोगात्। प्रमातृधर्माणां दुःखादीनां तु प्रतीचि संबन्धो दूरापेत एव। कथं तर्ह्यात्मनि दुःखित्वप्रत्ययः। तत्तदुपाधितादात्म्याध्यासादिति ब्रूमः। अतएव जाग्रति दृष्टं दुःखं स्वप्ने नानुवर्तते स्वप्नदृष्टं वा जाग्रति न दृश्यते। तथा च श्रुतिःस यत्तत्र पश्यति पुण्यं च पापं चानन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गो ह्ययं पुरुषः इति।कामः संकल्पो विचिकित्सा इत्यादिश्रुतिरेतत्सर्वं मन एवेति अभेदनिर्देशात्मकामादिसर्वविकारोपादानत्वं मनस एवाह। तस्मात्स्वप्न इवात्मनि दुःखित्वप्रतीतिर्भ्रान्तिरेवेतीष्टवियोगजनितां तां तितिक्षस्वेति भावः।
।।2.14।।नन्वात्मनो नित्यत्वात्तन्नाशनिमित्तशोकमोहाभावेऽपि सुखवियोगदुःखसंयोगशीतादिप्राप्तिनिमित्तौ तौ दुर्वारावितिचेत्तत्राह  मात्रास्पर्शा इति।  भीयन्ते आभिर्विषया इति मात्राः इन्द्रियाणि तेषां विषयैः स्पर्शाः संयोगाः। यद्वा स्पृश्यन्त इति स्पर्शा विषयाः मात्राश्च स्पर्शाश्च ते शीतोष्णसुखदुःखदाः। त्वगिन्द्रियतद्विषयसंबन्धस्य तयोर्वाऽनियतसुखदुःखशीतोष्णदातृत्वमप्यस्तीत्यभिप्रेत्य नियतरुपाभ्यां सुखदुःखाभ्यां अनियतसुखदुःखप्रदयोः शीतोष्णयो पृथग्ग्रहणम्। यत उत्पत्तिविनाशशीला अतएवानित्याः। अतएव तान् सहस्व। तेषु हर्षं विषादं च मा कार्षीत्यर्थः। स्त्रीस्वभाववतः सुखादिदानेतान् भरतादिपुरुषधौरेयस्वभावमाश्रित्य सोढुं योग्योऽसीति संबोधनाशयः। अत्र संबोधनद्वयेनोभयकुलशुद्धस्यैव विद्याधिकारित्वं सूचयतीत्येके। उत्तमवंश्यत्वेन धीरत्वमस्येत्यन्ये। उभयकुलविशुद्धस्य तवात्माज्ञानमनुचितमिति केचित्। अय पक्ष उभयकुलशुद्धिमात्रादेवात्मज्ञानं यदि स्यात्तर्हि सभ्यक्। अथवा प्रथमपक्षानुरोधेन व्याख्येयः। भाष्यकृद्भिस्तु सुगमत्वात्संबोधनाभिप्रायवर्णनं न सर्वत्र क्रियत इति बोध्यम्।
2.14 मात्रास्पर्शाः contacts of senses with objects? तु indeed? कौन्तेय O Kaunteya (son of Kunti)? शीतोष्णसुखदुःखदाः producers of cold and heat? pleasure and pain? आगमापायिनः with beginning and end? अनित्याः impermanent? तान् them? तितिक्षस्व bear (thou)? भारत O Bharata.Commentary -- Cold is pleasant at one time and painful at another. Heat is pleasant in winter but painful in summer. The same object that gives pleasure at one time gives pain at another time. So the sensecontacts that give rise to the sensations of heat and cold? pleasure and pain come and go. Therefore? they are impermanent in nature. The objects come in contact with the senses or the Indriyas? viz.? skin? ear? eye? nose? etc.? and the sensations are carried by the nerves to the mind which has its seat in the brain. It is the mind that feels pleasure and pain. One should try to bear patiently heat and cold? pleasure and pain and develop a balanced state of mind. (Cf.V.22)
2.14 The contacts of the senses with the objects, O son of Kunti, which cause heat and cold, pleasure and pain, have a beginning and an end; they are impermanent; endure them bravely, O Arjuna.
2.14 Those external relations which bring cold and heat, pain and happiness, they come and go; they are not permanent. Endure them bravely, O Prince!
2.14 But the contacts of the organs with the objects are the producers of cold and heat, happiness and sorrow. They have a beginning and an end, (and) are transient. Bear them, O descendant of Bharata.
2.14 'In the case of a man who knows that the Self is eternal, although there is no possibility of delusion concerning the destruction of the Self, still delusion, as of ordinary people, caused by the experience of cold, heat, happiness and sorrow is noticed in him. Delusion arises from being deprived of happiness, and sorrow arises from contact with pain etc.' apprehending this kind of a talk from Arjuna, the Lord said, 'But the contacts of the organs,' etc. Matra-sparsah, the contacts of the organs with objects; are sita-usna-sukha-duhkha-dah, producers of cold, heat, happiness and sorrow. Matrah means those by which are marked off (measured up) sounds etc., i.e. the organs of hearing etc. The sparsah, contacts, of the organs with sound etc. are matra-sparsah. Or, sparsah means those which are contacted, i.e. objects, viz sound etc. Matra-sparsah, the organs and objects, are the producers of cold, heat, happiness and sorrow. Cold sometimes produces pleasure, and sometimes pain. Similarly the nature of heat, too, is unpredictable. On the other hand, happiness and sorrow have definite natures since they do not change. Hence they are mentioned separately from cold and heat. Since they, the organs, the contacts, etc., agamapayinah, have a beginning and an end, are by nature subject to origination and destruction; therefore, they are anityah, transient. Hence, titiksasva, bear; tan, them cold, heart, etc., i.e. do not be happy or sorry with regard to them.
2.14. O son of Kunti ! But the touches with the matras cause the [feelings of] cold and heat, pleasure and pain; they are of the nature of coming and going and are transient. Forbear them, O Descendent of Bharata !
2.14 Matra etc. But the unwise lament even over those passing situations of cold and heat, pleasure and pain that are created by those touches i.e., the contacts of the sense-objects-referable with the term matra - with the Soul through the door of the sense-organs; but the wise do not do so. Thus says [the Lord]. Or, the passage may be interpreted as : The touches (contacts) of these objects are with the matras, i.e., with the sense-organs, and not directly with the Supreme Self, Coming : birth. Going : destruction, Those situations that have these two you must forbear i.e., put up with.
2.14 As sound, touch, form, taste and smell with their bases, are the effects of subtle elements (Tanmatras), they are called Matras. The contact with these through the ear and other senses gives rise to feelings of pleasure and pain, in the form of heat and cold, softness and hardness. The words 'cold and heat' illustrate other sensations too. Endure these with courage till you have discharged your duties as prescribed by the scriptures. The brave must endure them patiently, as they 'come and go'. They are transient. When the Karmas, which cause bondage, are destroyed, this 'coming and going' will end. The Lord now explains the purpose of this endurance:
2.14 The contact of senses with their objects, O Arjuna, gives rise to feelings of cold and heat, pleasure and pain. They come and go, never lasing long. Endure them, O Arjuna.
।।2.14।।यद्यपि आत्मा नित्य है ऐसे जाननेवाले ज्ञानीको आत्मविनाशनिमित्तक मोह होना तो सम्भव नहीं तथापि शीतउष्ण और सुखदुःखप्राप्तिजनित लौकिक मोह तथा सुखवियोगजनित और दुःखसंयोगजनित शोक भी होता हुआ देखा जाता है ऐसे अर्जुनके वचनोंकी आशंका करके भगवान् कहते हैं मात्रा अर्थात् शब्दादि विषयोंको जिनसे जाना जाय ऐसी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंके स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषयोंके साथ उनके संयोग वे सब शीतउष्ण और सुखदुःख देने वाले हैं अर्थात् शीतउष्ण और सुखदुःख देते हैं। अथवा जिनका स्पर्श किया जाता है वे स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषय ( इस व्युत्पत्तिके अनुसार यह अर्थ होगा कि ) मात्रा और स्पर्श यानी श्रोत्रादि इन्द्रियाँ और शब्दादि विषय ( ये सब ) शीतउष्ण और सुखदुःख देनेवाले हैं। शीत कभी सुखरूप होता है कभी दुःखरूप इसी तरह उष्ण भी अनिश्चितरूप है परंतु सुख और दुःख निश्चितरूप हैं क्योंकि उनमें व्यभिचार ( फेरफार ) नहीं होता। इसलिये सुखदुःखसे अलग शीत और उष्णका ग्रहण किया गया है।जिससे कि वे मात्रास्पर्शादि ( इन्द्रियाँ उनके विषय और उनके संयोग ) उत्पत्तिविनाशशील हैं इससे अनित्य हैं अतः उन शीतोष्णादिको तू सहन कर अर्थात् उनमें हर्ष और विषाद मत कर।
।।2.14।।  मात्रा  आभिः मीयन्ते शब्दादय इति श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि। मात्राणां  स्पर्शाः  शब्दादिभिः संयोगाः। ते  शीतोष्णसुखदुःखदाः  शीतम् उष्णं सुखं दुःखं च प्रयच्छन्तीति। अथवा स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः विषयाः शब्दादयः। मात्राश्च स्पर्शाश्च शीतोष्णसुखदुःखदाः। शीतं कदाचित् सुखं कदाचित् दुःखम्। तथा उष्णमपि अनियतस्वरूपम्। सुखदुःखे पुनः नियतरूपे यतो न व्यभिचरतः। अतः ताभ्यां पृथक् शीतोष्णयोः ग्रहणम्। यस्मात् ते मात्रास्पर्शादयः  आगमापायिनः  आगमापायशीलाः तस्मात्  अनित्याः । अतः  तान्  शीतोष्णादीन् तितिक्षस्व प्रसहस्व। तेषु हर्षं विषादं वा मा कार्षीः इत्यर्थः।।शीतोष्णादीन् सहतः किं स्यादिति श्रृणु
।।2.14।।प्रकारान्तरेण शोकं शङ्कते  तथापी ति। यद्यपि बान्धवादीनां हानिर्भविष्यतीति धिया न शोको युक्तः उक्तविधयात्महानेरभावात्। देहहानावपि प्रतिनिधिलाभात्। तथापि तन्मरणे ममैव सुखहानिदुःखावाप्तिश्च भविष्यतीति धिया मे शोकः समुत्पतितः। कथम्  तद्दर्शनाभावा दिना। तदिति बान्धवादिपरामर्शः। आदिपदेन विकृततद्दर्शनं च गृह्यते। प्रेमास्पदानां हि दर्शनस्पर्शनालापादिकं सुखहेतुः। तेषु मृतेषु तद्दर्शनाद्यभावात्सुखहानिः। तथा तेषां छेदभेदादिदर्शनेन दुःखावाप्तिश्चेति एतन्निषेधपूर्वकं श्लोकमवतारयति  नेति ।मीयन्ते विषया यैरिति मात्रा इन्द्रियाणि इति व्याख्यानमसत्। पुराणादौ मात्राशब्दस्य विषये रूढत्वादित्याशयवान् व्याचष्टे  मीयन्त  इति। ननु गन्धरसरूपस्पर्शशब्दा विषयाः। अतो भिन्नपदत्वे द्वन्द्वे वा स्पर्शानां विषयान्तर्गतानां पुनरुक्तिर्व्यर्थेत्यत आह  तेषा मिति विषयाणाम्। तथाप्यनुपपत्तिः। विषयाणां स्पर्शाभावांदित्यत आह  सम्बन्धा  इति। एवं तर्हि किं षष्ठीसमासपरिग्रहणेन भिन्नपदत्त्वादावपि दोषाभावादित्यतो वाक्यं योजयति  त एवे ति। तुशब्दार्थ एवेति। नहि विषयाणां सम्बन्धानां च पृथगेतत्कार्यं सम्भवतीति भावः। ननु शीतोष्णशब्दौ विषयविशेषवचनौ तत्कथं विषयसम्बन्धा विषयविशेषं दद्युः कथं च साक्षात्सुखदुःखे कश्च प्रतिसम्बन्धी कस्मै ददतीत्यत आह  देहे  इति। देहशब्देनात्रेन्द्रियाणि लक्ष्यन्ते। अनेन शीतोष्णशब्दौ सकलविषयोपलक्षकौ। विषयोक्त्या च तत्साक्षात्कारो लक्ष्यते इति लक्षितलक्षणेयम्। अनुभवद्वारैव सुखदुःखादानम्। प्रतिसम्बन्धी देहः। दानं च आत्मन इत्युक्तं भवति। एतेन लौकिकी प्रतीतिरर्जुनेन शङ्किताऽनूद्यते। तत्तद्विषयाणां तैस्तैरिन्द्रियैर्ये ये सन्निकर्षास्तैस्तस्तत्तद्विषयसाक्षात्कारा भवन्ति तत्रेष्टविषयसाक्षात्कारात्सुखं भवति अनिष्टविषयसाक्षात्कारात् दुःखं भवतीति।भवेदेवं ततः किं प्रकृतशङ्काया इत्यतस्तुशब्दात्परया काक्वा सिद्धमर्थमाह  न ही ति।  स्वत  इति। विषयेन्द्रियेनन्निकर्षमात्रेण।  दुःखादि रिति विषयसाक्षात्कारः सुखदुःखे च। अनेन मात्रास्पर्शा एव केवलाः किं शीतोष्णसुखदुःखदाः नहि किन्नामाभिमानसहिताः इत्युक्तं भवति। अभिमानो नामात्र विषयेषु शोभनत्वाध्यासनिमित्तस्नेहः। अरित्वादिभ्रमनिमित्तो द्वेषश्च शरीरेन्द्रियान्तःकरणेषु ममतातिशयहेतुकोऽविवेक इत्यादि। विषयेन्द्रियसन्निकर्षा एव ज्ञानस्य सुखदुःखयोश्च कारणं कुतो न स्युः येनाभिमानोऽधिकः कारणसामग्र्यां निवेश्यत इति शङ्कापूर्वकमुत्तरपादं व्याचष्टे  कुत  इति। ननु कथमिदं लभ्यते यत इत्यध्याहारादिति ब्रूमः प्रयोजनान्तराभावाद्धेत्वर्थगर्भत्वेन वा।सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसङ्क्रामतः इति न्यायात्। शीतोष्णसुखदुःखदत्वविशिष्टानां मात्रास्पर्शानामिदं विशेषणं भवच्छीतोष्णसुखदुःखदत्वमुपसङ्क्रामति। मात्रास्पर्शानां शीतोष्णसुखदुःखदत्वं यत्तस्यागमापायित्वादित्यर्थः। अनेन कथमुक्तशङ्कापरिहार इत्यतोऽतिप्रसङ्गमुखेन व्याचष्टे  यदी ति। मात्रास्पर्शा यदि स्वतः स्वयमेवाभिमानमनपेक्ष्यात्मनः शीतोष्णसुखदुःखदाः स्युः तर्हि  सुप्तावपि स्युः । नहि कारणसामग्री कार्यं व्यभिचरतीत्यर्थः। नच वाच्यं सुप्तौ विषयेन्द्रियसम्बन्धा एव न सन्तीति स्पर्शत्वगिन्द्रियसम्बन्धस्यावर्जनीयत्वात्। अतएव शीतोष्णग्रहणं कृतम्। एतेनेन्द्रियमनस्सन्निकर्षाभावोऽपि प्रत्युक्तः। न चात्मनः सन्निकर्षाभावः मनसः कदाप्यात्मवियोगाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात्। अतिप्रसङ्गस्य विपर्यये पर्यवसानं वदन्साक्षादर्थं दर्शयति   अत  इति। अतो  मात्रास्पर्शा  नात्मनः स्वतः स्वयमेव केवलाः शीतोष्णसुखदुःखदा भवन्तीति सम्बन्धः।  अत  इत्युक्तस्य विवरणं  यतस्तन्निमित्ता  एवेति। तदित्यभिमानपरामर्शः। तेन निमित्तेन सहिता एव शीतोष्णसुखदुःखदा यत इत्यर्थः। तत्कुत इत्यत उक्तं  मात्रे ति। मात्रास्पर्शा जाग्रत्स्वप्नयोरभिमानवतोरेव ते तथाविधाः शीतोष्णसुखदुःखदाः सन्तः सम्भवन्ति। नान्यदा अभिमानरहिते सुप्त्यादाविति मात्रास्पर्शानां शीतोष्णसुखदुःखदत्वस्याभिमानान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वादित्यर्थः। न चाभिमानहीनेऽपि ज्ञानोत्पत्तिस्तृणादौ दृश्यते सत्यं सुखदुःखहेतुभूतज्ञानमत्राधिकृतमित्यदोष इति। इतश्चाभिमान एवात्मन उपप्लव इत्याह  आत्मनश्चे ति। अत्र तैरिति ज्ञानसुखदुःखपरामर्शः। आत्मनो ज्ञानादिभिः सम्बन्धो नास्ति तेषां मनोवृत्तित्वात्। तथा चान्यगतधर्माः कथमन्यस्य विक्रियाहेतवो विनाभिमानात्। प्रसिद्धं च स्वाभिमतगृहदाहो देवदत्तं दुःखीकरोतीति। ज्ञानादिभिरात्मनः सम्बन्धाभावे कथमुक्तं शीतोष्णाद्यनुभव आत्मन इत्यादीत्यत उक्तम्  विषये ति। मनोवृत्तिरूपाणि ज्ञानादीनि विषयभूतानि। आत्मा च विषयी साक्षिचैतन्यस्य तद्विषयत्वात्। एतमेव सम्बन्धमभिप्रेत्यात्मनो ज्ञानमित्यादिव्यवहारः। उपलक्षणं चैतत्। ईश्वराधीनं स्वामित्वमपि ग्राह्यं तादात्म्यसमवायिनिरासे तात्पर्यात्।नन्वभिमानसहितानामेव मात्रास्पर्शानां ज्ञानादिहेतुत्वं न केवलानामित्युपपादितमेतत् ततो नित्या इति व्यर्थमिति चेत् न आगमापायित्वस्यैवानेन व्याख्यानात् व्याख्यानेऽपि किं प्रयोजनमित्यत आह  नचे ति। आगमापायिशब्दो द्वयोः प्रयुज्यते यत्प्रवाहरूपेण नित्यं व्यक्तिरूपेणानित्यं यथा गङ्गोदकं तदेकमागमापायीत्युच्यते। यस्य तु प्रवाहोऽपि छिद्यते यथा किंशुककुसुमानां तदपरमिति। तत्रागमापायिशब्दादुभयप्रतीतौ आगमापायित्वेऽप्यागमापायिशब्दार्थोऽपि यत्प्रवाहरूपेण नित्यत्वं तदत्र विवक्षितं  नास्ति  न भवति। मात्रास्पर्शानां शीतोष्णसुखदुःखदत्वे सम्भवात् प्रकृतानुपयोगाच्च। किन्तु द्वितीयमेव सुप्त्यादावभावेन सम्भवादुक्तरीत्या प्रकृतोपयोगाच्च इत्येतदनित्या इत्यनेनाह भगवानित्यर्थः। प्रलयो मूर्छा। आदिपदेनासम्प्रज्ञातसमाधेर्ग्रहणम्। नन्वनित्यपदमनेकार्थमेव सत्यम् तथापि पुनः प्रयत्नाद्यालोचनादेतत्सिद्धिः। एतदपि विशेषणोपसङ्क्रान्तं विशेषणम्। आगामिव्याख्यानमपेक्ष्य भाष्यकृताऽयमर्थः प्रागुपन्यस्त इति ज्ञेयम्। उक्तमर्थं पिण्डीकृत्योपसंहरति  अत  इति। उक्तप्रकारेण देहादावात्मनो ममैत इत्यादिभ्रम एव भ्रमसहिता एव मात्रास्पर्शा इत्यर्थः। ततः किमित्यतश्चतुर्थपदं व्याख्यातुमुपोद्धातमाह  अत  इति। तद्विसुक्तस्य भ्रमविमुक्तस्य बन्धुमरणादिदुःखं यत्प्राक् शङ्कितं न हि सामग्रीकार्यमेकदेशेन भवतीति भावः। ततः किमित्यतश्चतुर्थपादं व्याख्यातिं  अत  इति। तितिक्षस्व विफलीकुर्विति भावः। ननु तानिति मात्रास्पर्शानां परामर्शो युक्तः तत्कथं शीतोष्णादीनित्युक्तम् मैवम्। शीतोष्णहेतूनां मात्रास्पर्शानामेव तच्छब्देनोपलक्षणात्।
।।2.14।।तथापि तद्दर्शनाभाविदना शोक इति चेत् न इत्याह मात्रास्पर्शा इति। मीयन्त इति मात्रा विषयाः तेषां स्पर्शाः सम्बन्धाः त एव शीतोष्णसुखदुःखदाः। देहे शीतोष्णादिसम्बन्धाद्धि शीतोष्णाद्यनुभव आत्मनः। ततश्च सुखदुःखे।न ह्यात्मनः स्वतो दुःखादिः सम्भवति। कुतः आगमापायित्वात्। यद्यात्मनः स्वतः स्युः सुप्तावपि स्युः। अतो यतो ते मात्रास्पर्शा जाग्रदादावेव सन्ति नान्यदेति तदन्वव्यतिरेकित्वात्तन्निमित्ता एव नात्मनः स्वतः। आत्मनश्च तैर्विषयविषयीभावादन्यः सम्बन्धो नास्ति। न चागमापायित्वेऽपि प्रवाहरूपेणाऽपि नित्यत्वमस्ति सुप्तिप्रलयादावभावादित्याह अनित्या इति। अत आत्मनो देहाद्यात्प्रभ्रम एव दुःखकारणम्। अतस्तद्विमुक्तस्य बन्धुमरणादौ दुःखं न भवति। अतोऽभिमानं परित्यज्य तान् शीतोष्णादींस्तितिक्षस्व।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।2.14।।
মাত্রাস্পর্শাস্তু কৌন্তেয শীতোষ্ণসুখদুঃখদাঃ৷ আগমাপাযিনোনিত্যাস্তাংস্তিতিক্ষস্ব ভারত৷৷2.14৷৷
মাত্রাস্পর্শাস্তু কৌন্তেয শীতোষ্ণসুখদুঃখদাঃ৷ আগমাপাযিনোনিত্যাস্তাংস্তিতিক্ষস্ব ভারত৷৷2.14৷৷
માત્રાસ્પર્શાસ્તુ કૌન્તેય શીતોષ્ણસુખદુઃખદાઃ। આગમાપાયિનોનિત્યાસ્તાંસ્તિતિક્ષસ્વ ભારત।।2.14।।
ਮਾਤ੍ਰਾਸ੍ਪਰ੍ਸ਼ਾਸ੍ਤੁ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਸ਼ੀਤੋਸ਼੍ਣਸੁਖਦੁਖਦਾ। ਆਗਮਾਪਾਯਿਨੋਨਿਤ੍ਯਾਸ੍ਤਾਂਸ੍ਤਿਤਿਕ੍ਸ਼ਸ੍ਵ ਭਾਰਤ।।2.14।।
ಮಾತ್ರಾಸ್ಪರ್ಶಾಸ್ತು ಕೌನ್ತೇಯ ಶೀತೋಷ್ಣಸುಖದುಃಖದಾಃ. ಆಗಮಾಪಾಯಿನೋನಿತ್ಯಾಸ್ತಾಂಸ್ತಿತಿಕ್ಷಸ್ವ ಭಾರತ৷৷2.14৷৷
മാത്രാസ്പര്ശാസ്തു കൌന്തേയ ശീതോഷ്ണസുഖദുഃഖദാഃ. ആഗമാപായിനോനിത്യാസ്താംസ്തിതിക്ഷസ്വ ഭാരത৷৷2.14৷৷
ମାତ୍ରାସ୍ପର୍ଶାସ୍ତୁ କୌନ୍ତେଯ ଶୀତୋଷ୍ଣସୁଖଦୁଃଖଦାଃ| ଆଗମାପାଯିନୋନିତ୍ଯାସ୍ତାଂସ୍ତିତିକ୍ଷସ୍ବ ଭାରତ||2.14||
mātrāsparśāstu kauntēya śītōṣṇasukhaduḥkhadāḥ. āgamāpāyinō.nityāstāṅstitikṣasva bhārata৷৷2.14৷৷
மாத்ராஸ்பர்ஷாஸ்து கௌந்தேய ஷீதோஷ்ணஸுகதுஃகதாஃ. ஆகமாபாயிநோநித்யாஸ்தாஂஸ்திதிக்ஷஸ்வ பாரத৷৷2.14৷৷
మాత్రాస్పర్శాస్తు కౌన్తేయ శీతోష్ణసుఖదుఃఖదాః. ఆగమాపాయినోనిత్యాస్తాంస్తితిక్షస్వ భారత৷৷2.14৷৷
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।।2.15।। कारण कि हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथित (सुखी-दुःखी) नहीं कर पाते, वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।
।।2.15।। हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुख और सुख में समान भाव से रहने वाले जिस धीर पुरुष को ये व्यथित नहीं कर सकते हैं वह अमृतत्व (मोक्ष) का अधिकारी होता है।।
।।2.15।। सुख और दुख को शान्त भाव से सहन करने का नाम तितिक्षा है जो उपनिषदों के अनुसार आत्मसाक्षात्कार के लिये एक आवश्यक गुण है। इसी को ध्यान में रखकर भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस प्रकार की तितिक्षा से सम्पन्न व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।यहाँ मोक्ष का तात्पर्य अमृतत्व शब्द से किया है। इस शब्द से स्थूल शरीर का मोक्ष नहीं समझना चाहिये। यहाँ इस शब्द का उपयोग उसके व्यापक अर्थ में किया गया है। शरीर मन और बुद्धि तथा इनके द्वारा प्राप्त सभी अनुभव र्मत्य और अनित्य ही हैं। इन उपाधियों के साथ हमारा तादात्म्य होने से इनके जन्ममरणादि धर्मों से हम प्रभावित होकर दुखी होते हैं। अमृतत्व का अर्थ है जो पुरुष अपने नित्य आत्मस्वरूप को पहचान लेता है वह इन सब अनुभवों को प्राप्त कर उनके मध्य रहता हुआ भी शोकमोह को प्राप्त नहीं होता। उसे अपने अमृतस्वरूप का विस्मरण नहीं होता।गीता के द्वारा महान् कवि व्यास जी भगवान् श्रीकृष्ण के माध्यम से हमें हमारे जीवन का लक्ष्य बताते हैं पूर्णत्व की प्राप्ति। अल्पकाल के लिये प्राप्त इस जीवन में हमको इस लक्ष्य प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। चिन्तित हुये बिना प्रसन्नतापूर्वक जीवन में आने वाले सुखदुखादि कष्टों को सहन करने की सर्वोच्च साधना करने का इन परिस्थितियों में हमें अवसर मिलता है।तितिक्षा का अर्थ निराश उदास भाव से जो हो रहा है उसको सहन करना ऐसा नहीं है। यहाँ विशेष रूप से कहा है कि शीतोष्णादि द्वन्द्वों में जिसका मन समभाव में स्थित रहता है वह धीर पुरुष मोक्ष का अधिकारी होता है। यहाँ प्रयोजन निराश व्यक्ति की सहनशक्ति से नहीं बल्कि जगत् के परिर्वतनशील स्वभाव को अच्छी प्रकार समझ लेने से है। विवेकी पुरुष में यह सार्मथ्य आ जाती है कि सुख में उसे हर्षातिरेक नहीं होता और न दुख में अत्यन्त विषाद।जब तक देह के साथ हमारी अत्यन्त आसक्ति रहती है तब तक उसमें होने वाली पीड़ाओं से हम विलग नहीं हो सकते और हम व्यथित हो जाते हैं। हृदय में प्रेम अथवा घृणा के भाव के प्रादुर्भाव से यदि शारीरिक कष्ट सहने की आवश्यकता पड़ती है तो वह क्षमता हममें आ जाती है। पुत्र के प्रति प्रेम के कारण उसको शिक्षा आदि देने के लिए आवश्यकता पड़ने पर हम बड़ी प्रसन्नता से अपनी शारीरिक सुख सुविधाओं का त्याग करने के लिए तैयार हो जाते हैं। वह असुविधा हमें कष्ट नहीं पहुँचाती। इसी प्रकार बुद्धिनिष्ठ आदर्शों की प्राप्ति के लिए शरीर और मन के आरामों को भी हम त्याग देते हैं। विश्व के अनेक देशभक्त क्रान्तिकारियों ने अपने देश की स्वतन्त्र्ाता के आदर्शों को प्राप्त करने के लिए अनेक कष्ट सहन करके अपने प्राणों की आहुति दी है।निम्नलिखित कारणों से भी तुम्हारे लिए उचित है कि शोक और मोह को छोड़ कर तुम शान्तिपूर्वक शीतादि को सहन करो। क्योंकि
।।2.15।। व्याख्या-- 'पुरुषर्षभ'-- मनुष्य प्रायः परिस्थितियोंको बदलनेका ही विचार करता है, जो कभी बदली नहीं जा सकतीं और जिनको बदलना सम्भव ही नहीं। युद्धरूपी परिस्थितिके प्राप्त होनेपर अर्जुनने उसको बदलनेका विचार न करके अपने कल्याणका विचार कर लिया है। यह कल्याणका विचार करना ही मनुष्योंमें उनकी श्रेष्ठता है। 'समदुःखसुखं धीरम्'-- धीर मनुष्य सुखदुःखमें सम होता है। अन्तःकरणकी वृत्तिसे ही सुख और दुःख ये दोनों अलगअलग दीखते हैं। सुख-दुःखके भोगनेमें पुरुष (चेतन) हेतु है और वह हेतु बनता है प्रकृतिमें स्थित होनेसे (गीता 13। 2021)। जब वह अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है तब सुख-दुःखको भोगनेवाला कोई नहीं रहता। अतः अपने-आपमें स्थित होनेसे वह सुख-दुःखमें स्वाभाविक ही सम हो जाता है।
।।2.15।।मात्रेति। अधीरास्तु मात्राशब्दवाच्यैरर्थैर्ये (S वाच्यैरर्था ये) कृताः स्पर्शा इन्द्रियद्वारेणात्मनः (K णात्मना) सम्बन्धाः तत्कृता याः शीतोष्णसुखदुःखाद्यवस्था अनित्याः तास्वपि शोचन्ति न त्वेवं धीरा इत्याह। अथवा मात्राभिरिन्द्रियैरेषां स्पर्शा न तु साक्षात् परमात्मना ( N परमात्मनः)। आगमः उत्पत्तिः अपायः विनाशः एतद्युक्तांस्तितिक्षस्व ( एतद्युक्तम्) सहस्व।
।।2.15।। यं पुरुषं  धैर्ययुक्तम् अवर्जनीयदुःखं सुखवन्मन्यमानम् अमृतत्वसाधनतया स्ववर्णोचितं युद्धादिकर्म अनभिसंहितफलं कुर्वाणं तदन्तर्गताः शस्त्रपातादिमृढुक्रूरस्पर्शा  न व्यथयन्ति  स एव अमृतत्वं साधयति न त्वादृशो दुःखासहिष्णुः इत्यर्थः। अतः आत्मनां नित्यत्वाद् एतावद् अत्र कर्तव्यम् इत्यर्थः।यत्तु आत्मनां नित्यत्वं देहानां स्वाभाविकं नाशित्वं च शोकानिमित्तिम् उक्तम्गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः (गीता 2।11) इति तद् उपपादयितुम् आरभते
।।2.15।।अधिकारिविशेषणं तितिक्षुत्वं नोपयुक्तं केवलस्य तस्य पुमर्थाहेतुत्वादिति शङ्कते  शीतेति।  विवेकवैराग्यादिसहितं तन्मोक्षहेतुज्ञानद्वारा तदर्थमिति परिहरति  श्रृण्विति।  तितिक्षमाणस्य विवक्षितं लाभमुपलम्भयति  यं हीति।  हर्षविषादरहितमित्यत्र शमादिसाधनसंपन्नत्वमुच्यते  धीमन्तमिति।  नित्यानित्यविवेकभागित्वमेतच्चोभयं वैराग्यादेरुपलक्षणम्। नित्यात्मदर्शनं त्वमर्थज्ञानं साधनचतुष्टयवन्तमधिकारिणमनूद्य त्वंपदार्थज्ञानवतस्तस्य मोक्षौपयिकवाक्यार्थज्ञानयोग्यतामाह  स नित्येति।
।।2.15।।सहनमेवाऽमृतत्वे हेतुरित्याह यं हीति। न व्यथयन्ति धीरं सोऽमृतत्वाय क्षमो भवति।
।।2.15।।नन्वन्तःकरणस्य सुखदुःखाद्याश्रयत्वे तस्यैव कर्तृत्वेन भोक्तृत्वेन च चेतनत्वमभ्युपेयम् तथाच तद्व्यतिरिक्ते तद्भासके भोक्तरि मानाभावान्नाममात्रे विवादः स्यात् तदभ्युपगमे च बन्धमोक्षयोर्वैयधिकरण्यापत्तिः अन्तःकरणस्य सुखदुःखाश्रयत्वेन बद्धत्वात् आत्मनश्च तद्व्यतिरिक्तस्य मुक्तत्वादित्याशङ्कामर्जुनस्यापनेतुमाह भगवान् यं स्वप्रकाशत्वेन स्वतएव प्रसिद्धंअत्रायं पुरुषः स्वयंज्योतिर्भवति इति श्रुतेः। पुरुषं पूर्णत्वेन पुरि शयानंस वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयो नैतेन किंचनानावृतं नैतेन किंचनासंवृतम् इति श्रुतेः। समदुःखसुखं समे दुःखसुखे अनात्मधर्मतया भास्यतया च यस्य निर्विकारस्य स्वयंज्योतिषस्तम्। सुखदुःखग्रहणमशेषान्तःकरणपरिणामोपलक्षणार्थम्।एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न कर्मणा वर्धते नो कनीयान् इति श्रुत्या वृद्धिकनीयस्तारूपयोः सुखदुःखयोः प्रतिषेधात्। धीरं धियमीरयतीति व्युत्पत्त्या चिदाभासद्वारा धीतादात्म्याध्यासेन धीप्रेरकम्। धीसाक्षिणमित्यर्थः।स धीरः स्वप्नो भूत्वेमं लोकमतिक्रामति इति श्रुतेः। एतेन बन्धप्रसक्तिर्दर्शिता। तदुक्तम्यतो मानानि सिध्यन्ति जाग्रदादित्रयं तथा। भावाभावविभागश्च स ब्रह्मास्मीति बोध्यते इति। एते सुखदुःखदा मात्रास्पर्शाः हि यस्मान्न व्यथयन्ति परमार्थतो न विकुर्वन्ति सर्वविकारभासकत्वेन विकारायोग्यत्वात्सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः इति श्रुतेः। अतः स पुरुषः स्वस्वरूपभूतब्रह्मात्मैक्यज्ञानेन सर्वदुःखोपादानतदज्ञाननिवृत्त्युपलक्षिताय निखिलद्वैतानुपरक्तस्वप्रकाशपरमानन्दरूपाय अमृतत्वाय मोक्षाय कल्पते। योग्यो भवतीत्यर्थः। यदि ह्यात्मा स्वाभाविकबन्धाश्रयः स्यात्तदा स्वाभाविकधर्माणां धर्मिनिवृत्तिमन्तरेणानिवृत्तेर्न कदापि मुच्येत। तथाचोक्तम्आत्मा कर्त्रादिरूपश्चेन्मा काङ्क्षीस्तर्हि मुक्तताम्। नहि स्वभावो भावानां व्यावर्तेतौष्ण्यवद्रवेः।। इति। प्रागभावासहवृत्तेर्युगपत्सर्वविशेषगुणनिवृत्तेर्धर्मिनिवृत्तेर्नान्तरीयकत्वदर्शनात्। अथात्मनि बन्धो न स्वाभाविकः किंतु बुद्ध्याद्युपाधिकृतःआत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः इति श्रुतेः। तथाच धर्मिसद्भावेऽपि तन्निवृत्त्या मुक्त्युपपत्तिरितिचेत् हन्त तर्हि यः स्वधर्ममन्यनिष्ठतया भासयति स उपाधिरित्यभ्युपगमाद्बुद्ध्यादिरुपाधिः स्वधर्ममात्मनिष्ठतया भासयतीत्यायातम्। तथाचायातं मार्गे बन्धस्यासत्यत्वाभ्युपगमात् नहि स्फटिकमणौ जपाकुसुमोपधाननिमित्तो लोहितिमा सत्यः अतः सर्वसंसारधर्मासंसर्गिणोऽप्यात्मन उपाधिवशात्तत्संसर्गित्वप्रतिभासो बन्धः। स्वस्वरूपज्ञानेन तु स्वरूपाज्ञानतत्कार्यबुद्ध्याद्युपाधिनिवृत्त्या तन्निमित्तनिखिलभ्रमनिवृत्तौ निर्मृष्टनिखिलभास्योपरागतया शुद्धस्य स्वप्रकाशपरमानन्दतया पूर्णस्यात्मनः स्वत एव कैवल्यं मोक्ष इति न बन्धमोक्षयोर्वैयधिकरण्यापत्तिः। अतएवनाममात्रे विवादः इत्यपास्तम् भास्यभासकयोरेकत्वानुपपत्तेः।दुःखी स्वव्यतिरिक्तभास्यः भास्यत्वात् घटवत् इत्यनुमानात् भास्यस्य भासकत्वादर्शनात् एकस्यैव भास्यत्वे भासकत्वे च कर्तृकर्मविरोधादात्मनः कथमिति चेत्। न। तस्य भासकत्वमात्राभ्युपगमात्। अहं दुःखीत्यादिवृत्तिसहिताहंकारभासकत्वेन तस्य कदापि भास्यकोटावप्रवेशात्। अतएवदुःखी न स्वातिरिक्तभासकापेक्षः भासकत्वात् दीपवत् इत्यनुमानमपि न। भास्यत्वेन स्वातिरिक्तभासकसाधकेन प्रतिरोधात्। भासकत्वं च भानकरणत्वं स्वप्रकाशभानरूपत्वं वा। आद्ये दीपस्येव करणान्तरानपेक्षत्वेऽपि स्वातिरिक्तभानसापेक्षत्वं दुःखिनो न व्याहन्यते। अन्यथा दृष्टान्तस्य साध्यवैकल्यापत्तेः। द्वितीये त्वसिद्धो हेतुरित्यधिकबलतया भास्यत्वहेतुरेव विजयते बुद्धिवृत्त्यतिरिक्तभानानभ्युपगमात्। बुद्धिरेव भानरूपेतिचेत्। न। भानस्य सर्वदेशकालानुस्यूततया भेदकधर्मशून्यतया च विभोर्नित्यस्यैकस्य चानित्यपरिच्छिन्नानेकरूपबुद्धिपरिणामात्मकत्वानुपपत्तेः उत्पत्तिविनाशादिप्रतीतेश्चावश्यकल्प्यविषयसंबन्धविषयतयाप्युपपत्तेः। अन्यथा तत्तज्ज्ञानोत्पत्तिविनाशभेदादिकल्पनायामतिगौरवापत्तेरित्याद्यन्यत्र विस्तरः। तथाच श्रुतिःनहि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात्आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यःमहद्भूतमनन्तमपारं विज्ञानघन एवतदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यभयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूः इत्याद्या विभुनित्यस्वप्रकाशज्ञानरूपतामात्मनो दर्शयति। एतेनाविद्यालक्षणादप्युपाधेर्व्यतिरेकः सिद्धः। अतोऽसत्योपाधिनिबन्धनबन्धभ्रमस्य सत्यात्मज्ञानान्निवृत्तौ मुक्तिरिति सर्वमवदातम्। पुरुषर्षभेति संबोधयन्स्वप्रकाशचैतन्यरूपत्वेन पुरुषत्वं परमानन्दरूपत्वेन चात्मन ऋषभत्वं सर्वद्वैतापेक्षया श्रेष्ठत्वमजानन्नेव शोचसि अतः स्वस्वरूपज्ञानादेव तव शोकनिवृत्तिः सुकरातरति शोकमात्मवित् इति श्रुतेरिति सूचयति। अत्र पुरुषमित्येकवचनेन सांख्यपक्षो निराकृतः। तैः पुरुषबहुत्वाभ्युपगमात्।
।।2.15।।   तत्प्रतीकारप्रयत्नादपि तत्सहनमेवोचितं महाफलत्वादित्याह  यमिति।  एते मात्रास्पर्शाः यं पुरुषं न व्यथयन्ति नाभिभवन्ति। समे सुख दुःखे यस्य तम्। स तैरविक्षिप्यमाणो धर्मज्ञानद्वारा अमृतत्वाय मोक्षाय कल्पते योग्यो भवति।
।।2.15।।तत्क्षमा किमर्थेति किं दृष्टार्थत्वात् उतादृष्टार्थत्वात् उत स्वरसवाहित्वेनावर्जनीयत्वात्। न प्रथमः दुःखरूपतयोपलम्भात् न द्वितीयः गुरुवधकुलक्षयादिरूपाधर्मबहुलत्वात् न तृतीयः युद्धान्निवृत्त्यैव शस्त्रपाताद्यभावादिति भावः। तितिक्षार्हत्वद्योतनायधीरम् इति पदम्। सुखदुःखवैषम्याज्ञत्वभ्रमं तयोः समपरिमाणत्वादिभ्रमं च व्युदस्यन् किमर्थेति शङ्कां च प्रतिवदति अवर्जनीयदुःखं सुखवन्मन्यमानमिति। यथा ह्यारोग्यताम औषधादिक्लेशं सुखसाधनत्वात्सुखवन्मत्वा प्रवर्तते यथा चार्थार्थी समुद्रतरणादिक्लेशम् तथा तापत्रयनिवृत्तिं निरतिशयानन्दं च लिप्सुः तदुपायनान्तरीयकदुःखं सुखवदेव मन्येतेति भावः। तस्करादिष्वपि सम्भावितस्य द्वन्द्वतितिक्षामात्रस्य मोक्षे हेतुत्वव्युदासायोक्तंअमृतत्वसाधनतयेत्यादि।एते इत्यस्य तात्पर्यमवर्जनीयत्वं च दर्शयितुमुक्तंतदन्तर्गता इति। व्यथयन्ति अप्राप्तत्वधिया परितापेन चालयन्तीत्यर्थः न तु पीडयन्तीति।मृदुक्रूरस्पर्शा इति। मृदुस्पर्शस्याप्युपाद्रानात्। यत्तच्छब्दरूपपरोक्षनिर्देशेनपुरुषर्षभ इति विपरीतकाक्वा च फलितमाह स एवेति।त्वादृशः अस्थानस्नेहाद्याकुलः। अनन्तरश्लोकार्थप्रसङ्गायात्मनाशप्रतीकारनैरपेक्ष्याय च निगमयति आत्मनां नित्यत्वादिति।एतावदिति तितिक्षामात्रं न तु शोकादि।अत्रेति आगमापायिनां तत्त्वज्ञानेन निवर्तिष्यमाणसन्तानानां अमृतत्वलक्षणपरमपुरुषार्थोपायानुष्ठानेऽवर्जनीयसन्निधीनां सन्नपातादिदुःखानामागतावित्यर्थः।कर्तव्यमिति अकरणे त्वपवर्गरूपफलाभावः स्वधर्मपरित्यागेन प्रत्यवायः धैर्याद्यभावनिमित्ताकीर्त्यादिप्रसङ्गश्च स्यादिति भावः।
।।2.15।।नन्वेतेषां सहनं किंफलकमित्याकाङ्क्षायामाह यं हि न व्यथयन्त्येत इति। हे पुरुषर्षभ पुरुषश्रेष्ठ स्वतन्त्रमोक्षसाधनकारणसमर्थ यं पुरुषं समदुःखसुखं समे दुःखसुखे वियोगसंयोगौ यस्य एतादृशं धीरं तत्सहनसमर्थमेते मात्रास्पर्शाः न व्यथयन्ति न पराभवन्ति स पुरुषः अमृतत्वाय मोक्षाय कल्पते। यद्वा मोक्षभावाय भक्त्यर्थं कल्पते योग्यो भवति। भक्तिप्राप्तियोग्यो भवतीत्यर्थः। समदुःखत्वेन तदिच्छया सर्वमानन्दरूपमेवाभाति इति व्यञ्जितम्।
।।2.15।।तितिक्षाफलं प्रत्यक्षमेवेत्याह  यं हीति।  एते मात्रास्पर्शाः प्राग्व्याख्यातरीत्या त्रिविधा अपि यं जाग्रति स्वप्नेऽसंप्रज्ञातसमाधौ वा न व्यथयन्ति स्वास्थ्यान्न प्रच्यावयन्ति। पुरुषं पूर्षु अष्टासु वसतीति पुरुषस्तम्। पुरश्चकर्मेन्द्रियाणि खलु पञ्च तथा पराणि ज्ञानेन्द्रियाणि मन आदि चतुष्टयं च। प्राणादिपञ्चकमथो वियदादिकं च कामश्च कर्म च तमः पुनरष्टमी पूः। इति प्रसिद्धाः। यद्वा स्थूलसूक्ष्मोपाधिमध्ये एव इतरासामन्तर्भावादत्र पूरिति तम एव ग्राह्यम्। तेन कारणोपाधेरप्यात्मनो विविक्तत्वं दर्शितम्। पुरुषर्षभेति त्वमप्येतदनुभवितुं योग्योऽसि सर्वपुरुषश्रेष्ठत्वादिति सूचयति। उपाधित्रयत्यागादेव समे दुःखसुखे यस्य तम्। नहि समाधिस्थस्य सुखाय दुःखाय वा शीतोष्णस्पर्शौ भवत इति युक्तमस्य समदुःखसुखत्वम्। धीरं ध्यायिनं योगिनं न व्यथयन्ति। सोऽमृतत्वाय मोक्षाय कल्पते योग्यो भवति।
।।2.15।।   तितिक्षायाः फलमाह  यमिति।  समे सुखदुःखे यस्य तं धीरं धीमन्तं नित्यात्मज्ञानवन्तं नित्यात्मज्ञानादेते शीतोष्णादयो न चालयन्ति यद्यप्येते मात्रास्पर्शा इति वक्तुमुचितं तथापि शीतादिकमदत्त्वा न व्यथयन्ति इत्यतो भाष्यकृद्भिरेतच्छब्देन शीतादीनामेव परामर्शः कृतः। स साधनचतुष्टसंपन्नो नित्यात्मदर्शननिष्ठोऽमृतत्वाय मोक्षाय समर्थो भवति। पुरुषं न व्यथयन्ति त्वं तु पुरुषर्षभ इति सूचयन्नाह  पुरुषर्षभेति।  अत्र केचिद्वर्णयन्ति। नन्वात्मनो नित्यत्वे विभुत्वे च न विवदामः। प्रतिदेहमेकत्वं तु न सहामहे। तथाहिबुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मभावनाख्यनवविशेषगुणवन्तः प्रतिदेहं भिन्ना एव नित्या विभवश्चात्मानः इति वैशेषिका मन्यन्ते। इममेव पक्षं तार्किकमीमांसकादयोऽपि प्रतिपन्नाः। सांख्यास्तु विप्रतिपद्यमाना अप्यात्मनो गुणवत्त्वे प्रतिदेहं भेदे न विप्रतिपद्यन्ते। अन्यथा सुखदुःखादिसंकरप्रसङ्गात्। तथाच भीष्मादिभिन्नस्य मम नित्यत्वे विभुत्वेऽपि सुखदुःखादियोगि त्वात् भीष्मादिबन्धुदेहविच्छेदे सुखवियोगो दुःखसंयोगश्च स्यादिति कथं शोकमोहौ नानुचितावित्यर्जुनाभिप्रायमाशङ्क्य लिङ्गशरीरविवेकमाह  मात्रेति।  मात्रास्पर्शा उत्पत्तिविनाशवतोऽन्तःकरणस्यैव शीतादिद्वारा सुखदुःखदा नतु नित्यस्य विभोरात्मनः। तथाचान्तःकरणभेदान्न सांख्योक्तः संकरप्रसङ्गः। वैशेषिकादयश्च भ्रान्त्यैवात्मनो विकारित्वं भेदं चाङ्गीकृतवन्त इत्यर्थः। अन्तःकरणस्यानित्यत्वाद्दृश्यत्वाञ्च नित्यदृग्रूपत्वात्त्वत्तो भिन्नस्य सुखादिजनका ये मात्रास्पर्शास्तेऽप्यनित्यास्तांस्तितिक्षस्व नैते मम किंचित्करा इति विवेकेनोपेक्षस्व। दुःखितादात्म्येनात्मानं दुःखिनं मा ज्ञासीरित्यर्थः। नन्वन्तःकरणस्य सुखाद्याश्रयत्वे तस्यैव कर्तृत्वादिना चेतनत्वमभ्युपेयम्। तथाच तद्य्वतिरिक्ते तद्भासके भोक्तरि मानाभावान्नाममात्रे विवादः स्यात्तदभ्युपगमे च बन्धमोक्षयोर्वैयधिकरण्यापत्तिः अन्तःकरणस्य सुखाद्याश्रयत्वेन बद्धत्वात् आत्मनश्च तद्य्वतिरिक्तस्य मुक्तत्वादित्याशङ्कामर्जुनस्यापनेतुमाह  यमिति।  यं स्वप्रकाशत्वेन स्वतएव प्रसिद्धं पुरुषं पूर्णत्वेन पुरि शयानं समे सुखदुःखे अनात्मधर्मतया भास्यतया च यस्य तं धीरं धियं प्रेरयतीति व्युत्पत्त्या चिदाभासद्वारा धीतादात्म्याध्यासेन धीप्रेरकं धीसाक्षिणमित्यर्थः। एतेन बन्धप्रसक्तिर्दर्शिता। एते सुखदुःखदा मात्रास्पर्शा यस्मान्न व्यथयन्ति परमार्थतो न विकुर्वन्ति स पुरुषोऽमृतत्वाय मोक्षाय योग्यो भवतीत्यर्थः। अतः सर्वधर्मासंसर्गिणोऽप्यात्मन उपाधिवशात्तत्संसर्गित्वप्रतिभासो बन्धः स्वरुपज्ञानेन स्वरुपाज्ञानतत्कार्यबुद्य्धाद्युपाधिनिवृत्त्या तन्निमित्तनिखिलभ्रमनिवृत्तौ निर्मृष्टनिखिलभास्योपरागतया शुद्धस्य स्वप्रकाशपरमानन्दतया पूर्णस्यात्मनः स्वतएव कैवल्यं मोक्ष इति न बन्धमोक्षयोर्वैयधिकरण्यापत्तिः। अतएव नाममात्रे विवाद इत्यपास्तम्। भास्यभासकयोरेकत्वानुपपत्तेः। पुरुषर्षभेति संबोधयन्स्वप्रकाशचैतन्यरुपत्वेन पुरुषत्वं परमानन्दरुपत्वेनात्मन ऋषभत्वं सर्वद्वैतापेक्षया श्रेष्ठत्वमजानन्नेव शोचसि। अतः स्वरुपज्ञानादेव तव शोकनिवृत्तिः सुकरातरति शोकमात्मवित् इति श्रुतेरिति सूचयतीति। अत्रेदमवधेयम् शोतोष्णद्वारा सुखदुःखदा इत्यसंगतम्। सर्वेषां मात्रास्पर्शानां सुखादिदातृत्वे शीतोष्णयोर्द्वारत्वाभावात्। शीतोष्णग्रहणं त्रिविधसुखदुःखोपलक्षणार्थं शीतमुष्णं च कदाचित्सुखं कदाचिद्दुःखं सुखदुःखे तु न कदाचिद्विपरीते इति तयोः पृथङ्निर्देश इति स्वपरग्रन्थविरोधाच्च। शीतोष्णद्वारा सुखदुःखदा इत्यस्य शीतोष्णद्वारा साक्षाच्च सुखदुःखदा इत्यर्थ इति यदि कश्चिद्ब्रूयात्तर्हि भाष्य एवास्यार्थस्यान्तर्भावः। तस्मात् शीतं चोष्णं च सुखं च दुखं च प्रयच्छन्तीति भाष्यकृध्वाख्यानमेवर्जु। एतेनागमापायिनोऽन्तःकरणस्येत्यपास्तम्। वाक्यार्थस्य सत्यपि सभ्यक्संभवे विशेष्याध्याहारानौचित्यात्। तितिक्षस्वेति वाक्यशेषस्य मुख्यार्थत्यागापत्तेश्च। एतेनोत्तरश्लोकव्याख्यानमप्यपास्तम्। यं पुरुषमित्येतावतैव निर्वाहे समे इत्यादिविशेषणद्वयस्यानर्थक्यापत्तेश्च। बन्धप्रसक्तिरपि पुरिषु तादात्म्याध्यासं कृत्वा शेत इत्यर्थकेन पुरुषशब्देनैव लभ्यते। एतेन सुखादेः क्षेत्रधर्मत्वस्य वक्ष्यमाणत्वाच्चास्य व्याख्यानस्याकरणे भाष्यकृतां न्यूनता न शङ्कनीया। एवमन्येषामपि मूलतद्भाष्यवहिर्भूताः कल्पनाः सभ्यग्विचार्य निराकर्तव्याः। अस्माभिस्तु विस्तरभयान्नोद्धाठ्य निराक्रियन्ते।
2.15 यम् whom? हि surely? न व्यथयन्ति afflict not? एते these? पुरुषम् man? पुरुषर्षभ chief among men? समदुःखसुखम् same in pleasure and pain? धीरम् firm man? सः he? अमृतत्वाय for immortality? कल्पते is fit.Commentary -- Dehadhyasa or identification of the Self with the body is the cause of pleasure and pain. The more you are able to identify yourself with the immortal? allpervading Self? the less will you be affected by the pairs of opposites (Dvandvas? pleasure and pain? etc.)Titiksha or the power of endurance develops the willpower. Calm endurance in pleasure and pain? and heat and cold is one of the alifications of an aspirant on the path of Jnana Yoga. It is one of the Shatsampat or sixfold virtues. It is a condition of right knowledge. Titiksha by itself cannot give you Moksha or liberation? but still? when coupled with discrimination and dispassion? it becomes a means to the attainment of Immortality or knowledge of the Self. (Cf.XVII.53)
2.15 That firm man whom, surely, these afflict not, O chief among men, to whom pleasure and pain are the same, is fit for attaining immortality.
2.15 The hero whose soul is unmoved by circumstance, who accepts pleasure and pain with equanimity, only he is fit for immortality.
2.15 O (Arjuna, who are) foremost among men, verily, the person whom these do not torment, the wise man to whom sorrow and happhiness are the same he is fit for Immortality.
2.15 What will happen to one who bears cold and heat? Listen: Verily, the person৷৷.,'etc. (O Arjuna) hi, verily; yam purusam, the person whom; ete, these, cold and heat mentioned above; na, do not; vyathayanti, torment, do not perturb; dhiram, the wise man; sama-duhkha-sukham, to whom sorrow and happiness are the same, who is free from happiness and sorrow when subjected to pleasure and pain, because of his realization of the enternal Self; sah, he, who is established in the realization of the enternal Self, who forbears the opposites; kalpate, becomes fit; amrtattvaya, for Immortality, for the state of Immortality, i.e. for Liberation.
2.15. O the best among persons ! That wise person becomes immortal whom these (situations) do not trouble and to whom the pleasure and pain are eal.
2.15 But, because all these different situations are of the nature of coming and going, on that account itself are they not to be lamented on ? It is not so. As for instance : What is this which is termed 'coming' ? If it is 'birth', what is that 'birth' itself ? It is wrong to say that is the same as gaining the self by what is non-existent. For, to be of the nature of non-existence, is indeed to be devoid of every inherent nature and to be devoid of the very self. If a thing is devoid of the self and devoid of every nature, how is it possible to convert it into what has an intrinsic nature ? Surely, it is impossible to convert the non-blue into blue. For, it is faulty and undesirable to covert the non-blue into blue. For, it is faulty and undesirable to conclude that a thing with certain in nature changes to be of a different nature. Hence the scritpure goes - 'The intrinsic nature of beings would not cease to exist, e.g., the heat of the sun'. On the other hand, if the 'birth' signifies the gaining of self just by what [really] exists, even then, why the lamentability on its coming ? For, what has gained a self, could never be non-existent and conseently it would be eternal. Likewise, is the act of 'going' also meant for the existent or the non-existent ? What is non-existent is just non-existent [for ever.] How can there be a non-existence-nature even in the case of that which is of the existence-nature ? If it is said that it is of the non-existence-nature in the second moment; [since its birth], then it should be so even in the first moment; and so nothing would be existent. For, the intrinsic nature [ever] remains unabandoned. But is it not that the destruction of it (i.e., of a given thing, like a pot) is brought about by the stroke of a hammer etc.? Yet, if that destruction is altogether different [from the existent one i.e. the pot], then what does it matter for what is existent ? But, it is not be seen [at that time] ? Yet, what is actually existent (pot) may not be seen just as when it is covered with a cloth; but it has not turned to be altogether different. In fact, it has been said [in the scriptures] that this is not different [from the existent]. Summarising all these, [the Lord] says -
2.15 That person endowed with courage, who considers pain as inevitable as pleasure, and who performs war and such other acts suited to his station in life without attachment to the results and only as a means of attaining immortality - one whom the impact of weapons in war etc., which involve soft or harsh contacts, do not trouble, that person only attains immortality, not a person like you, who cannnot bear grief. As the selves are immortal, what is to be done here, is this much only. This is the meaning. Because of the immortality of the selves and the natural destructibility of the bodies, there is no cause for grief. It was told (previously): 'The wise grieve neither for the dead nor for the living' (2. 11). Now the Lord elucidates the same view.
2.15 For, he whom these do not affect, O chief of men, and to whom pain and pleasure are the same - that steadfast man alone is worthy of immortality.
।।2.15।।शीतउष्णादि सहन करनेवालेको क्या ( लाभ ) होता है सो सुन सुखदुःखको समान समझनेवाले अर्थात् जिसकी दृष्टिमें सुखदुःख समान हैं सुखदुःखकी प्राप्तिमें जो हर्षविषादसे रहित रहता है ऐसे जिस धीर बुद्धिमान् पुरुषको ये उपर्युक्त शीतोष्णादि व्यथा नहीं पहँचा सकते अर्थात् नित्य आत्मदर्शनसे विचलित नहीं कर सकते। वह नित्य आत्मदर्शननिष्ठ और शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको सहन करनेवाला पुरुष मृत्युसे अतीत हो जानेके लिये यानी मोक्षके लिये समर्थ होता है।
।।2.15।।  यं हि पुरुषं  समे दुःखसुखे यस्य तं  समदुःखसुखं  सुखदुःखप्राप्तौ हर्षविषादरहितं धीरं धीमन्तं  न व्यथयन्ति  न चालयन्ति नित्यात्मदर्शनाद् एते यथोक्ताः शीतोष्णादयः  स  नित्यात्मस्वरूपदर्शननिष्ठो द्वन्द्वसहिष्णुः  अमृतत्वाय  अमृतभावाय मोक्षायेत्यर्थः  कल्पते  समर्थो भवति।। इतश्च शोकमोहौ अकृत्वा शीतोष्णादिसहनं युक्तं यस्मात्
।।2.15।।अतो मात्रास्पर्शानां विफलीकरणतो भवत्प्रयोजनमाह  अत  इति। दुःखाभावस्य युद्धाकरणेनैव सम्भवात्किं तत्कृत्वा प्रसक्तदुःखाभावायाभिमानत्यागेनेत्येतदाशङ्कापरिहारायेति शेषः। पूर्वश्लोके तितिक्षस्वेतिपदं सहस्वेति कैश्चिद्व्याख्यातम् तदसत्। तदनुवादे विफलीकरणस्यैव प्रतीतेरिति भावेनाद्यपादं व्याख्याति  यमि ति। न व्यथयन्ति न चालयन्ति न शीतोष्णसुखदुःखलक्षणवैषम्यवन्तं कुर्वन्तीत्यर्थः। स्त्रीणामप्येवंविधानां मैत्रेयीप्रमुखानाममृतत्वश्रवणात्पुरुषमिति विशेषणमयुक्तमित्यतोऽन्यथा व्याचष्टे  पुरी ति शरीरसबन्धिनमेव सन्तं शरीरदर्शनवन्तमित्यर्थः। एतदपि किमर्थं विशेषणमित्यत आह  शरीरे ति। सुप्त्यादौ सर्वेषां प्राकृतानामप्यभिमानाभावेन व्यथाभावादमृतत्वप्रसक्तिरित्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमित्यर्थः। ननु यस्य देहादावभिमानो नास्ति तस्य दुःखं सुखं च नास्तीत्युक्तं तस्य कथंसमदुःखसुखं धीरं इति विशेषणद्वयम् अस्य पूर्वकक्ष्यागतत्वादित्याशङ्क्य तदुपायप्रदर्शनार्थं पूर्वावस्थानुवादोऽयमिति क्रमेण पृच्छापूर्वकमाशयमाह  कथमि ति। येनाभिमानत्यागेन मात्रास्पर्शा न व्यथयन्ति स कथं केनोपायेन भवतीत्यर्थः। दुःखं यथानुपादेयमपुरुषार्थत्वात् तथा वैषयिकं सुखमप्यमृतत्वविरोधित्वादनुपादेयं यस्य स समदुःखसुखः। एवम्भावे च कथं सुखहेतुषु शोभनाध्यासलक्षणस्तद्विरोधिषु द्वेषलक्षणोऽभिमान स्यादिति भावः। तत्समदुःखसुखत्वमेव  कथं  केनोपायेन भवतीत्यर्थः  धैर्येणे ति सुखे दुःखे च प्राप्ते सति तत्कार्ययोरुत्सेकविषादयोः स्तम्भकेन प्रयत्नेनेत्यर्थः।
।।2.15।।अतः प्रयोजनमाह यं हीति। यमेते मात्रास्पर्शा न व्यथयन्ति। पुरिशयमेव सन्तं शरीरसम्बधाभावे सर्वेषां व्यथाभावात्पुरुषमिति विशेषणम्। कथं न व्यथयन्ति समदुःखसुखत्वात् तत्कथं धैर्येण।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2.15।।
যং হি ন ব্যথযন্ত্যেতে পুরুষং পুরুষর্ষভ৷ সমদুঃখসুখং ধীরং সোমৃতত্বায কল্পতে৷৷2.15৷৷
যং হি ন ব্যথযন্ত্যেতে পুরুষং পুরুষর্ষভ৷ সমদুঃখসুখং ধীরং সোমৃতত্বায কল্পতে৷৷2.15৷৷
યં હિ ન વ્યથયન્ત્યેતે પુરુષં પુરુષર્ષભ। સમદુઃખસુખં ધીરં સોમૃતત્વાય કલ્પતે।।2.15।।
ਯਂ ਹਿ ਨ ਵ੍ਯਥਯਨ੍ਤ੍ਯੇਤੇ ਪੁਰੁਸ਼ਂ ਪੁਰੁਸ਼ਰ੍ਸ਼ਭ। ਸਮਦੁਖਸੁਖਂ ਧੀਰਂ ਸੋਮਰਿਤਤ੍ਵਾਯ ਕਲ੍ਪਤੇ।।2.15।।
ಯಂ ಹಿ ನ ವ್ಯಥಯನ್ತ್ಯೇತೇ ಪುರುಷಂ ಪುರುಷರ್ಷಭ. ಸಮದುಃಖಸುಖಂ ಧೀರಂ ಸೋಮೃತತ್ವಾಯ ಕಲ್ಪತೇ৷৷2.15৷৷
യം ഹി ന വ്യഥയന്ത്യേതേ പുരുഷം പുരുഷര്ഷഭ. സമദുഃഖസുഖം ധീരം സോമൃതത്വായ കല്പതേ৷৷2.15৷৷
ଯଂ ହି ନ ବ୍ଯଥଯନ୍ତ୍ଯେତେ ପୁରୁଷଂ ପୁରୁଷର୍ଷଭ| ସମଦୁଃଖସୁଖଂ ଧୀରଂ ସୋମୃତତ୍ବାଯ କଲ୍ପତେ||2.15||
yaṅ hi na vyathayantyētē puruṣaṅ puruṣarṣabha. samaduḥkhasukhaṅ dhīraṅ sō.mṛtatvāya kalpatē৷৷2.15৷৷
யஂ ஹி ந வ்யதயந்த்யேதே புருஷஂ புருஷர்ஷப. ஸமதுஃகஸுகஂ தீரஂ ஸோமரிதத்வாய கல்பதே৷৷2.15৷৷
యం హి న వ్యథయన్త్యేతే పురుషం పురుషర్షభ. సమదుఃఖసుఖం ధీరం సోమృతత్వాయ కల్పతే৷৷2.15৷৷
2.16
2
16
।।2.16।। (टिप्पणी प0 55) असत् का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है, तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व देखा है।
।।2.16।। असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व,  तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।।
।।2.16।। वेदान्त शास्त्र में सत् असत् का विवेक अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है। हमारे दर्शनशास्त्र में इन दोनों की ही परिभाषायें दी हुई हैं। असत् वस्तु वह है जिसकी भूतकाल में सत्ता नहीं थी और भविष्य में भी वह नहीं होगी परन्तु वर्तमान में उसका अस्तित्व प्रतीतसा होता है। माण्डूक्य कारिका की भाषा में जिसका अस्तित्व प्रारम्भ और अन्त में नहीं है वह वर्तमान में भी असत् ही है हमें दिखाई देने वाली वस्तुयें मिथ्या होने पर भी उन्हें सत् माना जाता है।स्वाभाविक ही सत्य वस्तु वह है जो भूतवर्तमान भविष्य इन तीनों कालों में भी नित्य अविकारी रूप में रहती है। सामान्य व्यवहार में यदि कोई व्यक्ति किसी स्तम्भ को भूत समझ लेता है तो स्तम्भ की दृष्टि से भूत को असत् कहा जायेगा क्योंकि भूत अनित्य है और स्तम्भ का ज्ञान होने पर वहाँ रहता नहीं। इसी प्रकार स्वप्न से जागने पर स्वप्न के बच्चों के लिये हमें कोई चिन्ता नहीं होती क्योंकि जागने पर स्वप्न के मिथ्यात्व का हमें बोध होता है। प्रतीत होने पर भी स्वप्न मिथ्या है। अत तीनों काल में अबाधित वस्तु ही सत्य कहलाती है।शरीर मन और बुद्धि इन जड़ उपाधियों के साथ हमारा जीवन परिच्छिन्न है क्योंकि इनके द्वारा प्राप्त बाह्य विषय भावना और विचारों के अनुभव क्षणिक होते हैं। इन तीनों में ही नित्य परिवर्तन हो रहा है। एक अवस्था का नाश दूसरी अवस्था की उत्पत्ति है। परिभाषा के अनुसार ये सब असत् हैं।क्या इनके पीछे कोई सत्य वस्तु है इसमें कोई संदेह नहीं कि वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों के लिये किसी एक अविकारी अधिष्ठान आश्रय की आवश्यकता है। शरीर मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले असंख्य अनुभवों को एक सूत्र में धारण कर एक पूर्ण जीवन का अनुभव कराने के लिये निश्चय ही एक नित्य अपरिर्तनशील सत् वस्तु का अधिष्ठान आवश्यक है।मणियों को धारण करने वाले एक सूत्र के समान हममें कुछ है जो परिवर्तनों के मध्य रहते हुये विविध अनुभवों को एक साथ बांधकर रखता है। सूक्ष्म विचार करने पर यह ज्ञान होगा कि वह कुछ अपनी स्वयं की चैतन्य स्वरूप आत्मा है। असंख्य अनुभव जो प्रकाशित हुये उनमें से कोई अनुभव आत्मा नहीं है। जीवन जो कि अनुभवों की एक धारा है योग है इस चैतन्य के कारण ही सम्भव है। बाल्यावस्था युवावस्था और वृद्धावस्था में होने वाले अनुभवों को यह चैतन्य ही प्रकाशित करता है। अनुभव आते हैं और जाते हैं। जिस चैतन्य के कारण मैंने सबको जाना जिसके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है वह चैतन्य आत्मा जन्म और नाश से रहित नित्य सत्य वस्तु है।तत्त्वदर्शी पुरुष इन दोनों सत् और असत् आत्मा और अनात्मा के तत्त्व को पहचानते हैं। इन दोनों के रहस्यमय संयोग से यह विचित्र जगत् उत्पन्न होता है।फिर वह नित्य सद्वस्तु क्या है सुनो
2.16।। व्याख्या -- 'नासतो विद्यते भावः'-- शरीर उत्पत्तिके पहले भी नहीं था मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी इसका क्षणप्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालोंमें कभी भावरूपसे नहीं रहता। अतः यह असत् है। इसी तरहसे इस संसारका भी भाव नहीं है यह भी असत् है। यह शरीर तो संसारका एक छोटासानमूना है इसलिये शरीरके परिवर्तनसे संसारमात्रके परिवर्तनका अनुभव होता है कि इस संसारका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमानमें भी अभाव हो रहा है। संसारमात्र कालरूपी अग्निमें लकड़ीकी तरह निरन्तर जल रहा है। लकड़ीके जलनेपर तो कोयला और राख बची रहती है पर संसारको कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीतिसे जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसारका अभावहीअभाव कर देती है। इसलिये कहा गया है कि असत्की सत्ता नहीं है।  'नाभावो विद्यते सतः'-- जो सत् वस्तु है उसका अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था तब भी देही था देह नष्ट होनेपर भी देही रहेगा और वर्तमानमें देहके परिवर्तनशील होनेपर भी देही उसमें ज्योंकात्यों ही रहता है। इसी रीतिसे जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था उस समय भी परमात्मतत्त्व था संसारका अभाव होनेपर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमानमें संसारके परिवर्तनशील होनेपर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्योंकात्यों ही है।  मार्मिक बात   संसारको हम एक ही बार देख सकते हैं दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी दूसरे क्षणमें वह वैसी नहीं रहती जैसे सिनेमा देखते समय परदेपर दृश्य स्थिर दीखता है पर वास्तवमें उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीनपर फिल्म तेजीसे घूमनेके कारण वह परिवर्तन इतनी तेजीसे होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं  (टिप्पणी प0 56.1) । इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तवमें संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि जिन करणोंसे हम संसारको देखते हैं अनुभव करते हैं वे करण भी संसारके ही हैं। अतः वास्तवमें संसारसे ही संसार दीखता है। जो शरीरसंसारसे सर्वथा सम्बन्धरहित है उस स्वरूपसे संसार कभी दीखता ही नहीं तात्पर्य यह है कि स्वरूपमें संसारकी प्रतीति नहीं है। संसारके सम्बन्धसे ही संसारकी प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपका संसारसे कोई सम्बन्ध है ही नहीं। दूसरी बात संसार (शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि) की सहायताके बिना चेतनस्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसारमें ही है स्वरूपमें नहीं। स्वरूपका क्रियासे कोई सम्बन्ध है ही नहीं। संसारका स्वरूप है क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूपका न तो क्रियासे और न पदार्थसे ही कोई सम्बन्ध है तब यह सिद्ध हो गया कि शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिसहित सम्पूर्ण संसारका अभाव है। केवल परमात्मतत्त्वका ही भाव (सत्ता) है जो निर्लिप्तरूपसे सबका प्रकाशक और आधार है।  'उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः'-- इन दोनोंके अर्थात् सत्असत् देहीदेहके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंने इनका तत्त्व देखा है इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत्तत्त्व ही विद्यमान है। असत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है और सत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक सत् ही है दोनोंका तत्त्व भावरूपसे एक ही है। अतः सत् और असत् इन दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा जाननेमें आनेवाला एक सत्तत्त्व ही है। असत्की जो सत्ता प्रतीत होती है वह सत्ता भी वास्तवमें सत्की ही है। सत्की सत्तासे ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है। इसी सत्को  'परा प्रकृति'  (गीता 7। 5)  'क्षेत्रज्ञ'  (गीता 13। 12)  'पुरुष' (गीता 13। 19) और  'अक्ष'  (गीता 15। 16) कहा गया है तथा असत्को  'अपरा प्रकृति क्षेत्र प्रकृति'  और  'क्षर'  कहा गया है। अर्जुन भी शरीरोंको लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करनेसे ये सब मर जायँगे। इसपर भगवान् कहते हैं कि क्या युद्ध न करनेसे ये नहीं मरेंगे असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है। परन्तु इसमें जो सत्रूपसे है उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है। ग्यारहवें श्लोकमें आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं उन दोनोंके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते। बारहवेंतेरहवें श्लोकोंमें देहीकी नित्यताका वर्णन है उसमें 'धीर' शब्द आया है। चौदहवेंपंद्रहवें श्लोकोंमें संसारकी अनित्यताका वर्णन आया है तो उसमें भी 'धीर' शब्द आया है। ऐसे ही यहाँ (सोलहवें श्लोकमें) सत्असत्का विवेचन आया है तो इसमें 'तत्त्वदर्शी' (टिप्पणी प0 56.2)  शब्द आया है। इन श्लोकोंमें  'पण्डित धीर' और 'तत्त्वदर्शी' पद देनेका तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं समझदार होते हैं उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है तो वे विवेकी नहीं हैं समझदार नहीं हैं। सम्बन्ध-- सत् और असत् क्या है इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं।
।।2.16।।ननु यत एवागमापायिनः सर्वे दशाविशेषास्तत एव शोच्यन्ते मैवम्। तथाहि कोऽयमागमो नाम उत्पत्तिरिति चेत् (S नामेति चेत्)। सापि का असत आत्मलाभः सा इति त्वसत्। असत्स्वभावता हि निःस्वभावता निरात्मता ( N omit निरात्मता) निरात्मा निःस्वभावः कथं सस्वभावीकर्तुं शक्यः अनीलं हि न नीलीकर्तुं शक्यम् स्वभावान्तरापत्तेर्दुष्टत्वात्। तथा च शास्त्रम् न हि स्वभावो भावानां व्यावर्तेतौष्ण्यवद्रवेः इति।अथ सत एवात्मलाभ उत्पत्तिः तदा (S तदलब्ध जात्वप्यभावा ) लब्धात्मनोऽस्य जात्वप्यनभावान्नित्यतैव इति आगमे का शोच्यता एवमपायोऽति सतः असतो वा असत्तावदसदेव। सत्स्वभावस्यापि कथमसत्तास्वभावः द्वितीये क्षणेऽसौ असत्स्वभाव इति चेत् आद्येऽपि तथा स्यादिति न कश्चिद्भावः स्यात्। स्वभावस्यात्यागात्। अथ मुद्गरपातादिना (S K मुद्गरादिना) अस्य नाशः क्रियते। स यदि व्यतिरिक्तः भावस्य किं वृत्तम् न दृश्यते इति चेत्। मा नाम दर्शि भावः न त्वन्यथाभूतः पटावृत इव। अव्यतिरिक्तस्तु नासौ इत्युक्तम्।
।।2.16।। असतो  देहस्य सद् भावो न विद्यते सतः  च आत्मनो  न  असद् भावः।   उभयोः देहा त्मनोः उपलभ्यमानयोः यथोपलब्धि  तत्त्वदर्शिभिः अन्तो दृष्टः। निर्णयान्तत्वात् निरूपणस्य निर्णय इह अन्तशब्देन उच्यते। देहस्य अचिद्वस्तुनोः असत्त्वम् एव स्वरूपम् आत्मनः चेतनस्य सत्त्वम् एव स्वरूपम् इति निर्णयो दृष्टः इत्यर्थः।विनाशस्वभावो हि असत्त्वम् अविनाशस्वभावश्च सत्त्वम्। यथा उक्तं भगवता पराशरेणतस्मान्न विज्ञानमृतेऽस्ति किञ्चित् क्वचित्कदाचिद्द्विज वस्तुजातम्। (वि0 पु0 2।12।43)सद्भाव एवं भवतो मयोक्तो ज्ञानं यथा सत्यमसत्यमन्यत् (वि0 पु0 2।12।45)अनाशी परमार्थश्च प्राज्ञैरभ्युपगम्यते। तत्तु नाशि न संदेहो नाशिद्रव्योपपादितम्।। (वि0 पु0 2।14।24)यत्तु कालान्तरेणापि नान्यां संज्ञामुपैति वै। परिणामादिसंभूतां तद्वस्तु नृप तच्च किम्।। (वि0 पु0 2।13।100) इतिअत्रापिअन्तवन्त इमे देहाः (गीता 2।18)अविनाशि तु तद्विद्धि (गीता 2।17) इति उच्यते। तदेव सत्त्वासत्त्वव्यपदेशहेतुः इति गम्यते। अत्र तु सत्कार्यवादस्य असङ्गत्वात् न तत्परोऽयं श्लोकः। देहात्मस्वभावाज्ञानमोहितस्य तन्मोहशान्तये हि उभयोः नाशित्वानाशित्वरूपस्वभावविवेक एव वक्तव्यः।स एवगतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति (गीता 2।11) इति प्रस्तुतः। स एवअविनाशि तु तद्विद्धि (गीता 2।17)अन्तवन्त इमे देहाः (गीता 2।18) इत्यनन्तरम् उपपाद्यते अतो यथोक्त एव अर्थः।आत्मनः तु अविनाशित्वं कथम् उपपद्यते इति अत्र आह
।।2.16।।अधिकारिविशेषणे तितिक्षुत्वे हेत्वन्तरपरत्वेनोत्तरश्लोकमवतारयति  इतश्चेति।  इतःशब्दार्थमेव स्फुटयति  यस्मादिति।  यतः शीतादेः शोकादिहेतोरनात्मनो नास्ति वस्तुत्वं वस्तुनश्चात्मनो निर्विकारत्वेनैकरूपत्वमतो मुमुक्षोर्विशेषणं तितिक्षुत्वं युक्तमित्याह  नेत्यादिना।  कार्यस्यासत्त्वेऽपि कारणस्य सत्त्वे नात्यन्तासत्त्वासिद्धिरित्याशङ्क्य विशिनष्टि  सकारणस्येति।  नासत इत्युपादाय पुनर्नकारानुकर्षणमन्वयार्थम्। असतः शून्यस्यास्तित्वप्रसङ्गाभावादप्रसक्तप्रतिषेधप्रसक्तिरित्याशङ्क्याह  नहीति।  विमतमतात्त्विकमप्रामाणिकत्वाद्रज्जुसर्पवत् नहि धर्मिग्राहकस्य प्रत्यक्षादेस्तत्त्वावेदकं प्रामाण्यं कल्प्यते विषयस्य दुर्निरूपत्वादतोऽनिर्वाच्यं द्वैतमित्यर्थः। कथं पुनरध्यक्षादिविषयस्य शीतोष्णादिद्वैतस्य दुर्निरूपत्वेनानिर्वाच्यत्वं तत्राह  विकारो हीति।  ततश्च विमतं मिथ्या आगमापायित्वात्संप्रतिपन्नवदिति फलितमाह  विकारश्चेति।  वाचारम्भणश्रुतेर्द्वैतमिथ्यात्वेऽनुग्राहकत्वं दर्शयितुं चकारः। किञ्च कार्यं कारणाद्भिन्नमभिन्नं वेति विकल्प्याद्यं दूषयति  यथेति।  निरूप्यमाणमन्तर्बहिश्चेति शेषः। विमतं कारणान्न तत्त्वतो भिद्यते कार्यत्वाद्धटवदित्यर्थः। इतोऽपि कारणाद्भेदेन नास्ति कार्यम्आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायादित्याह  जन्मेति।  यदि कार्यं कारणादभिन्नं तदा तस्य भेदेनासत्त्वे पूर्वस्मादविषयः। तादात्म्येनावस्थानं तु न युक्तं तस्यापि कारणव्यतिरेकेणाभावात्। कार्यकारणविभागविधुरे वस्तुनि कार्यकारणपरम्पराया विभ्रमत्वादित्यभिप्रेत्याह  मृदादीति।  कार्यकारणविभागविहीनं वस्त्वेव नास्तीति मन्वानश्चोदयति  तदसत्त्व इति।  अनुवृत्तव्यावृत्तबुद्धिद्वयदर्शनादनुवृत्ते च व्यावृत्तानां कल्पितत्वादकल्पितं सर्वभेदकल्पनाधिष्ठानमकार्यकारणं वस्तु सिध्यतीति परिहरति  न सर्वत्रेति।  संप्रति सतो वस्तुत्वे प्रमाणमनुमानमुपन्यस्यति  यद्विषयेति।  यद्व्यावृत्तेष्वनुवृत्तं तत्सत् यथा सर्पधारादिष्वनुगतोरज्ज्वादेरिदमंशः। विमतं सत्यमव्यभिचारित्वात्संप्रतिपन्नवदित्यर्थः। व्यावृत्तस्य कल्पितत्वे प्रमाणमाह  यद्विषयेत्यादिना।  यद्व्यावृत्तं तन्मिथ्या यथा सर्पधारादि विमतं मिथ्या व्यभिचारित्वात्संप्रतिपन्नवदित्यर्थः इत्यनुमानद्वयमनुसृत्य सतोऽकल्पितत्वमसतश्च कल्पितत्वं स्थितमिति शेषः। ननु नेदमनुमानद्वयमुपपद्यते समस्तद्वैतवैतथ्यवादिनो विभागाभावादनुमानादिव्यवहारानुपपत्तेस्तत्राह  सदसदिति।  उक्ते विभागे बुद्धिद्वयाधीने स्थिते सत्यनुमानादिव्यवहारो निर्वहति प्रातिभासिकविभागेन वियोगात्परमार्थस्यैव तद्धेतुत्वे केवलव्यतिरेकाभावादित्यर्थः। कुतः सदसद्विभागस्य बुद्धिद्वयाधीनत्वं बुद्धिविभागस्यापि तत्राभावात्तत्राह  सर्वत्रेति।  व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। बुद्धिविभागस्यापि कल्पितस्यैव बोध्यविभागप्रतिभासहेतुतेति भावः। बुद्धिद्वयमनुरुध्य सदसद्विभागो सतः सामान्यरूपतया विशेषाकाङ्क्षायां सामान्यविशेषे द्वे वस्तुनी वस्तुभूते स्यातामिति चेत्तत्राह  समानाधिकरण इति।  पदयोः सामानाधिकरण्यं बुद्ध्योरुपचर्यते सोऽयमिति सामानाधिकरण्यवद्धटः सन्नित्यादि सामानाधिकरण्यमेकवस्तुनिष्ठं वस्तुभेदे घटपटयोरिव तदयोगादित्यर्थः। नीलमुत्पलमितिवद्धर्मधर्मिविषयतया सामानाधिकरण्यस्य सुवचत्वान्न वस्त्वैक्यविषयत्वमिति चेन्नेत्याह  न   नीलेति।  नहि सामान्यविशेषयोर्भेदेऽभेदे च तद्भावो भेदाभेदौ च विरुद्धावतो जातिव्यक्त्योः सामानाधिकरण्यं नीलोत्पलयोरिव न गौणं किंतु व्यावृत्तमनुवृत्ते कल्पितमित्येकनिष्ठमित्यर्थः। सामान्यविशेषयोरुक्तन्यायं गुणगुण्यादावतिदिशति  एवमिति।  तुल्यौ हि तत्रापि विकल्पदोषाविति भावः। सामानाधिकरण्यानुपपत्त्या द्वे वस्तुनी सामान्यविशेषाविति पक्षं प्रतिक्षिप्य विशेषाएव वस्तूनीति पक्षं प्रतिक्षिपति  तयोरिति।  बुद्धिव्यभिचाराद्बोध्यव्यभिचारोऽपि कथं व्यावृत्तानां विशेषाणामवस्तुत्वमित्याशङ्क्याह  तथाचेति।  विकारो हि स इत्यादाविति शेषः। न चैकं वस्तु सामान्यविशेषात्मकमेकस्य द्वैरूप्यविरोधादित्यभिप्रेत्य सामान्यमेकमेव वस्तु तद्बुद्धेरव्यभिचाराद् बोधस्यापि सतस्तथात्वादित्याह  नत्विति।  व्यभिचरतीति पूर्वेण संबन्धः। विशेषाणां व्यभिचारित्वे सतश्चाव्यभिचारित्वे फलितमुपसंहरति  तस्मादिति।  असत्त्वं कल्पितत्वम्। तच्छब्दार्थमेव स्फोरयति  व्यभिचारादिति।  सद्बुद्धिविषयस्य सतोऽकल्पितत्वे तच्छब्दोपात्तमेव हेतुमाह  अव्यभिचारादिति।  सद्बुद्धिव्यभिचारद्वारा बोध्यस्यापि व्यभिचारात्तदव्यभिचारित्वहेतोरसिद्धिरिति शङ्कते  घटे विनष्ट इति।  सद्बुद्धेर्घटमात्रबुद्धिवद्धटविषयत्वाभावान्न घटनाशे व्यभिचारोऽस्तीति परिहरति  न   पटादाविति।  सद्बुद्धेरघटविषयत्वे निरालम्बनत्वायोगाद् विषयान्तरं वक्तव्यमित्याशङ्क्याह  विशेषणेति।  सतोऽकल्पितत्वहेतोरव्यभिचारित्वस्यासिद्धिमुद्धृत्य विशेषाणां कल्पितत्वहेतोर्व्यभिचारित्वस्यासिद्धिं शङ्कते  सदिति।  यथा सद्बुद्धिर्घटे नष्टे पटादौ दृष्टत्वादव्यभिचारिणी अव्यभिचारः सतो दर्शितस्तथा घटबुद्धिरपि घटे नष्टे घटान्तरे दृष्टेत्यव्यभिचाराद्धटे व्यभिचारासिद्धौ विशेषान्तरेष्वपि कल्पितत्वहेतोर्व्यभिचारो न सिध्यतीत्यर्थः। घटबुद्धेर्घटान्तरे दृष्टत्वेऽपि पटादावदृष्टत्वेन व्यभिचारात् पटादिविशेषेष्वपि व्यभिचारित्वसिद्धिरित्युत्तरमाह  पटादाविति।  विशेषाणामेवं व्यभिचारित्वे सतोऽपि तदुपपत्तेरव्यभिचारित्वहेतुसिद्धितादवस्थ्यमिति शङ्कते  सद्बुद्धिरिति।  घटादिनाशदेशे तदुपरक्ताकारेण सत्त्वाभानेऽपि नासत्त्वं घटाद्यभावाधिष्ठानतया भानादित्याह  न विशेष्येति।  यथा सर्वगता जातिरित्यत्र खण्डमुण्डादिव्यक्त्यभावदेशे गोत्वं व्यञ्जकाभावान्न व्यज्यते न गोत्वाभावात् तथा सत्त्वमपि घटादिनाशे व्यञ्जकाभावान्न भाति न स्वरूपाभावादित्युक्तमेव प्रपञ्चयति  सदित्यादिना।  सप्रतियोगिकविशेषणत्वव्यभिचारेऽपि स्वरूपाव्यभिचाराद्युक्तं सतः सत्त्वमिति भावः। द्वयोः सतोरेव विशेषणविशेष्यत्वदर्शनाद्धटसतोरपि विशेषणविशेष्यत्वे द्वयोः सत्त्वध्रौव्याद्धटादिविकल्पितत्वानुमानं सामानाधिकरण्यधीबाधितमिति चोदयति  एकेति।  अनुभवमनुसृत्य बाधितविषयत्वमुक्तानुमानस्य निरस्यति  नेत्यादिना।  घटादेः सति कल्पितत्वानुमानस्य दोषराहित्ये फलितमुपसंहरति  तस्मादिति।  प्रथमपादव्याख्यानपरिसमाप्तावितिशब्दः। ननु नेदं व्याख्यानं भाष्यकाराभिप्रेतं सर्वद्वैतशून्यत्वविवक्षायां शास्त्रतद्भाष्यविरोधात्केनापि पुनर्दुर्विदग्धेन स्वमनीषिकयोत्प्रेक्षितमेतदिति चेत् मैवम् किमिदं द्वैतप्रपञ्चस्य शून्यत्वं किं तुच्छत्वं किं सद्विलक्षणत्वं नाद्योऽनभ्युपगमात् द्वितीयानभ्युपगमे तु तवैव शास्त्रविरोधो भाष्यविरोधश्च सर्वं हि शास्त्रं तद्भाष्यं च द्वैतस्य सत्यत्वानधिकरणत्वसाधनेनाद्वैतसत्यत्वे पर्यवसितमिति त्रैविद्यवृद्धैस्तत्र तत्र प्रतिष्ठापितं तथा च प्रक्षेपाशङ्कासंप्रदायपरिचयाभावादिति द्रष्टव्यम्। अनात्मजातस्य कल्पितत्वेनावस्तुत्वप्रतिपादनपरतया प्रथमपादं व्याख्याय द्वितीयपादमात्मनः सर्वकल्पनाधिष्ठानस्याकल्पितत्वेन वस्तुत्वप्रसाधनपरतया व्याकरोति   तथेति।  नन्वात्मनः सदात्मनो विशेषेषु विनाशिषु तदुपरक्तस्य विनाशः स्यादित्याशङ्क्य विशिष्टनाशेऽपि स्वरूपानाशस्योक्तत्वान्मैवमित्याह  सर्वत्रेति।  ननु कदाचिदसदेव पुनः सत्त्वमापद्यते प्रागसतो घटस्य जन्मना सत्त्वाभ्युपगमात् स च कदाचिदसत्त्वं प्रतिपद्यते स्थितिकाले सतो घटस्य पुनर्नाशेनासत्त्वाङ्गीकारादेवं सदसतोरव्यवस्थितत्वाविशेषादुभयोरपि हेयत्वमुपादेयत्वं वा तुल्यं स्यादिति तत्राह  एवमिति।  तुशब्दो दृष्टशब्देन संबध्यमानो दृष्टिमवधारयति। नहि प्रागसतो घटस्य सत्त्वमसत्त्वे स्थिते सत्त्वप्राप्तिविरोधादसत्त्वनिवृत्तिश्च सत्त्वप्राप्त्या चेत्प्राप्तमितरेतराश्रयत्वमन्तरेणैव सत्त्वापत्तिमसत्त्वनिवृत्तावसत्त्वमनवकाशि भवेत्। एतेन सतोऽसत्त्वापत्तिरपि प्रतिनीतेति भावः। कथं तर्हि सतोऽसत्त्वमसतश्च सत्त्वं प्रतिभातीत्याशङ्क्य तत्त्वदर्शनाभावादित्याह  तत्त्वेति।  तस्य भावस्तत्त्वं नच तच्छब्देन परामर्शयोग्यं किंचिदस्ति। प्रकृतं प्रतिनियतमित्याशङ्क्य व्याचष्टे  तदित्यादिना।  ननु सदसतोरन्यथात्वं केचित्प्रतिपद्यन्ते केचित्तु तयोरुक्तनिर्णयमनुसृत्य तथात्वमेवाभिगच्छन्ति तत्र केषां मतमेषितव्यमिति तत्राह  त्वमपीति।
।।2.16।।अस्तित्वरूपविकारं निराकुर्वन् अशोच्यतामाह नासत इति। उत्पत्यनन्तरभावित्वादस्तित्वविकारादिरिति भावः। यथा असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत तै.उ.2।7 इति श्रुतौ कथमसतः सज्जायेत छा.उ.6।2।2 इति तर्कविरोधादसद्वादो निराकृतस्तथाऽत्रापि भगवताऽसद्वादो निराक्रियते। असतः कालत्रयेऽप्यविद्यमानस्य खपुष्पादेर्भावः सत्ता न विद्यते। अथ च सतो विद्यमानस्य कालत्रयेऽपि सतोऽप्यात्मनः अभावो न। आत्मा नाऽभून्नास्ति न भविष्यतीत्यप्रतीतेः। असतो हि न सत्तेत्यतो देहादीनां सत्ताऽपि न वक्तुं शक्या विनाशित्वात्। असत्ताऽपि न वक्तुं शक्या उत्पत्तिमत्त्वात्। यतोऽसतो भावः उत्पत्तिर्नोपपद्यते इत्यतः सदसत्त्वं देहादिप्रपञ्चस्यास्य वाच्यं सदसद्भिन्नत्वे च सदसत्वानपायात्। अत एवोक्तम् छाया प्रत्याह्वयाभासा असन्तोऽप्यर्थकारिणः। एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम् इति विनाशिस्वरूपत्वेऽपि अर्थकारित्वात्सत्वम्यथासतोदानयनाद्यभावात् इति भागवतवाक्यात्। सदसत्स्वरूपमप्रकृतिकार्यत्वादपि तथात्वमिति वयमवोचाम। इदमेवानित्यत्वं प्रागभावप्रतियोगित्वेन ध्वंसप्रतियोगित्वात्। नित्यत्वं चास्य प्रकृतिकारणभूतसच्चिदानन्दात्मकब्रह्मानन्यत्वदृशेत्यवधेयम्। यथोक्तं श्रीविष्णुपुराणे तदेतदक्षयं नित्यं जगन्मुनिवराखिलम् इत्यादिअक्षरात्मकमेतद्धि इति च। न च वेदस्तुतावसत्त्वमेवास्योपपादितमिति वाच्यम् ततो भेदेन सत्त्वनिराकरणात्। मीमांसकादिमतस्य निराकरणीयत्वेन कटाक्षितत्वमिति तत्रैवोक्तंव्यवहृतये विकल्प ईषित इत्यादि। यद्वा नासत इति। अत्रायं विचारः। सद्विविधं शुद्धमशुद्धं च शुद्धमात्मगतं अशुद्धमनात्मगतमिति। तथा च असत आत्मापेक्षया शुद्धसत्त्वरहितस्य जनस्य देहादेर्भावः शुद्धं सत्वमस्तित्वं न विद्यते किन्तु विकृतमस्थिरं च तथा सतः शुद्धास्तित्ववत आत्मनः अक्षरात्मैकाभिप्रायेणैकवचनम् तस्याभावोऽसत्वं शुद्धास्तित्वाभावो विकृतमस्तित्वं न विद्यते इति उभयोरनयोर्निर्णयस्तत्त्वदर्शिभिर्दृष्टः। एतेन वृद्धिविपरिणामावपि निराकृतौ।
।।2.16।।ननु भवतु पुरुषैकत्वं तथापि तस्य सत्यस्य जडद्रष्टृत्वरूपः सत्य एव संसारः। तथाच शीतोष्णादिसुखदुःखकारणे सति तद्भोगस्यावश्यकत्वात्सत्यस्य च ज्ञानाद्विनाशानुपपत्तेः कथं तितिक्षा कथं वा सोऽमृतत्वाय कल्पत इति चेत्। न। कृत्स्नस्यापि द्वैतप्रपञ्चस्यात्मनि कल्पितत्वेन तज्ज्ञानाद्विनाशोपपत्तेः। शुक्तौ कल्पितस्य रजतस्य शुक्तिज्ञानेन विनाशवत्। कथं पुनरात्मानात्मनोः प्रतीत्यविशेषे आत्मवदनात्मापि सत्यो न भवेत् अनात्मवदात्मापि मिथ्या न भवेत् उभयोस्तुल्ययोगक्षेमत्वादित्याशङ्क्य विशेषमाह भगवान्। यत्कालतो देशतो वस्तुतो वा परिच्छिन्नं तदसत् यथा घटादि जन्मविनाशशीलं प्राक्कालेन परकालेन च परिच्छिद्यते ध्वंसप्रागभावप्रतियोगित्वात् कादाचित्कं कालपरिच्छिन्नमित्युच्यते। एंव देशपरिच्छिन्नमपि तदेव मूर्तत्वेन सर्वदेशावृत्तित्वात्। कालपरिच्छिन्नस्य देशपरिच्छेदनियमेऽपि देशपरिच्छिन्नत्वेनाभ्युपगतस्य परमाण्वादेस्तार्किकैः कालपरिच्छेदानभ्युपगमाद्देशपरिच्छेदोऽपि पृथगुक्तः। सच किंचिद्देशवृत्तिरत्यन्ताभावः। एंव सजातीयभेदो विजातीयभेदः स्वगतभेदश्चेति त्रिविधो भेदो वस्तुपरिच्छेदः। तथा वृक्षस्य वृक्षान्तराच्छिलादेः पत्रपुष्पादेश्च भेदः। अथवा जीवेश्वरभेदो जीवजगद्भेदो जीवपरस्परभेद ईश्वरजगद्भेदो जगत्परस्परभेद इति पञ्चविधो वस्तुपरिच्छेदः। कालदेशापरिच्छिन्नस्याप्याकाशादेस्तार्किकैर्वस्तुपरिच्छेदाभ्युपगमात्पृथङ्निर्देशः। एवं सांख्यमतेऽपि योजनीयम्। एतादृशस्यासतः शीतोष्णादेः कृत्स्नस्यापि प्रपञ्चस्य भावः सत्ता पारमार्थिकत्वं स्वान्यूनसत्ताकतादृशपरिच्छेदशून्यत्वं न विद्यते न संभवति घटत्वाघटत्वयोरिव परिच्छिन्नत्वापरिच्छिन्नत्वयोरेकत्र विरोधात्। नहि दृश्यं किंचित्क्वचित्काले देशे वस्तुनि वा न निषिध्यते सर्वत्राननुगमात् नवा सद्वस्तु क्वचिद्देशे काले वस्तुनि वा निषिध्यते सर्वत्रानुगमात् तथाच सर्वत्रानुगते सद्वस्तुन्यननुगतं व्यभिचारि वस्तु कल्पितं रज्जुखण्ड इवानुगते व्यभिचारि सर्पधारादिकमिति भावः। ननु व्यभिचारिणः कल्पितत्वे सद्वस्त्वपि कल्पितं स्यात्तस्यापि तुच्छव्यावृत्तत्वेन व्यभिचारित्वादित्यत आह नाभावो विद्यते सत इति। सदधिकरणकभेदप्रतियोगित्वं हि वस्तुपरिच्छिन्नत्वं तच्च न तुच्छव्यावृत्तत्वेन। तुच्छे शशविषाणादौ सत्त्वायोगात्सदसद्भ्यामभावो निरूप्यते इति न्यायात्। एकस्यैव स्वप्रकाशस्य नित्यस्य विभोः सतः सर्वानुस्यूतत्वेन सद्व्यक्तिभेदानभ्युपगमात् घटः सन्नित्यादिप्रतीतेः सार्वंलौकिकत्वेन सतो घटाद्यधिकरणकभेदप्रतियोगित्वायोगात् अभावः परिच्छिन्नत्वं देशतः कालतो वस्तुतो वा सतः सर्वानुस्यूतसन्मात्रस्य न विद्यते न संभवति पूर्ववद्विरोधादित्यर्थः। ननु सन्नाम किमपि वस्तु नास्त्येव यस्य देशकालवस्तुपरिच्छेदः प्रतिषिध्यते। किं तर्हि सत्त्वं नाम परं सामान्यं यदाश्रयत्वेन द्रव्यगुणकर्मसु सद्व्यवहारः। तदेकाश्रयसंबन्धेन सामान्यविशेषसमवायेषु। तथाचासतः प्रागभावप्रतियोगिनो घटादेः सत्त्वं कारणव्यापारात् सतोऽपि तस्याभावः कारणनाशाद्भवत्येवेति कथमुक्तंनासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः इति एवं प्राप्ते परिहरति उभयोरपीत्यर्धेन। उभयोरपि सदसतोः सतश्चासतश्चान्तो मर्यादा नियतरूपत्वं यत्सत्तत्सदेव यदसत्तदसदेवेति दृष्टो निश्चितः श्रुतिस्मृतियुक्तिभिर्विचारपूर्वकम्। कैः तत्त्वदर्शिभिर्वस्तुयाथात्म्यदर्शनशीलैर्ब्रह्मविद्भिः नतु कुतार्किकैः। अतः कुतार्किकाणां न विपर्ययानुपपत्तिः। तुशब्दोऽवधारणे। एकान्तरूपो नियम एव दृष्टो नत्वनेकान्तरूपोऽन्यथाभाव इति तत्त्वदर्शिभिरेव दृष्टो नातत्त्वदर्शिभिरिति वा। तथाच श्रुतिःसदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् इत्युपक्रम्यऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इत्युपसंहरन्ती सदेकं सजातीयविजातीयस्वगतभेदशून्यं सत्यं दर्शयतिवाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् इत्यादिश्रुतिस्तु विकारमात्रस्य व्यभिचारिणो वाचारम्भणत्वेनानृतत्वं दर्शयतिअन्नेन सोम्य शुङ्गेनापोमूलमन्विच्छाद्भिः सोम्य शुङ्गेन तेजोमूलमन्विच्छ तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः इति श्रुतिः सर्वेषामपि विकाराणां सति कल्पितत्वं दर्शयति। सत्त्वं च न सामान्यं तत्र मानाभावात्। पदार्थमात्रसाधारण्यात्सत्सदिति प्रतीत्या द्रव्यगुणकर्ममात्रवृत्तिसत्त्वस्य स्वानुपपादकस्याकल्पनात् वैपरीत्यस्यापि सुवचत्वात् एकरूपप्रतीतेकरूपविषयनिर्वाह्यत्वेन संबन्धभेदस्य स्वरूपस्य च कल्पयितुमनुचितत्वात् विषयस्याननुगमेऽपि प्रतीत्यनुगमे जातिमात्रोच्छेदप्रसङ्गात्। तस्मादेकमेव सद्वस्तु स्वतः स्फुरणरूपं ज्ञाताज्ञातावस्थाभासकं स्वतादात्म्याध्यासेन सर्वत्र सद्व्यवहारोपपादकं सन्घट इति प्रतीत्या तावत्सद्ध्यक्तिमात्राभिन्नत्वं घटे विषयीकृतम् नतु सत्तासमवायित्वम्। अभेदप्रतीतेर्भेदघटितसंबन्धानिर्वाह्यत्वात्। एवं द्रव्यं सद्गुणः सन्नित्यादिप्रतीत्या सर्वाभिन्नत्वं सतः सिद्धम्। द्रव्यगुणभेदासिद्ध्या च न तेषु धर्मिषु सत्त्वं नाम धर्मः कल्प्यते किंतु सति धर्मिणि द्रव्याद्यभिन्नत्वं लाघवात् तच्च वास्तवं न संभवतीत्याध्यासिकमित्यन्यत्। तदुक्तं वार्तिककारैःसत्तातोऽपि न भेदः स्याद्द्रव्यत्वादेः कुतोऽन्यतः। एकाकारा हि संवित्तिः सद्द्रव्यं सद्गुणस्तथा।। इत्यादि। सत्तापि नासतो भेदिका तस्याप्रसिद्धेः। द्रव्यत्वादिकं तु सद्धर्मत्वान्न सतो भेदकमित्यर्थः। अतएव घटाद्भिन्नः पट इत्यादिप्रतीतिरपि न भेदसाधिका घटपटतद्भेदानां सद्भेदेनैक्यात्। एवं यत्रैव न भेदग्रहस्तत्रैव लब्धपदा सती सदभेदप्रतीतिर्विजयते तार्किकैः कालपदार्थस्य सर्वात्मकस्याभ्युपगमात्तेनैव सर्वव्यवहारोपपत्तौ तदतिरिक्तपदार्थकल्पने मानाभावात्तस्यैव सर्वानुस्यूतस्य सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वतादात्म्येन प्रतीत्युपपत्तेः स्फुरणस्यापि सर्वानुस्यूतत्वेनैकत्वान्नित्यत्वं विस्तरेणाग्रिमश्लोके वक्ष्यते। तथाच यथा कस्मिंश्चिद्देशे काले वा घटस्य पटादेर्न देशान्तरे कालान्तरे वा घटत्वं एवं कस्मिंश्चिद्देशे काले वा घटस्यान्यत्राघटत्वं शक्रेणापि न शक्यते संपादयितुं पदार्थस्वभावभङ्गायोगात् एवं कस्मिंश्चिद्देशे काले वा सतो देशान्तरे कालान्तरे वा सत्त्वं कस्मिंश्चिद्देशे काले वा सतोऽन्यत्रासत्त्वं न शक्यते संपादयितुं युक्तिसामान्यात् अत उभयोर्नियतरूपत्वमेव द्रष्टव्यमित्यद्वैतसिद्धौ विस्तरः। अतः सदेव वस्तु मायाकल्पिताऽसन्निवृत्त्याऽमृतत्वाय कल्पते सन्मात्रदृष्ट्या च तितिक्षाप्युपपद्यत इति भावः।
।।2.16।।ननु तथापि शीतोष्णादिकमतिदुःसहं कथं सोढव्यम् अत्यन्तं तत्सहने च कदाचिद्देहनाशस्यापि संभवादित्याशङ्क्य तत्त्वविचारतः सर्वं सोढुं शक्यमित्याशयेनाह  नेति।  असतः अनात्मधर्मत्वादविद्यमानस्य शीतोष्णादेरात्मनि भावः सत्ता न विद्यते। तथा सतः सत्स्वभावस्यात्मनोऽभावो विनाशो न विद्यते एवमुभयोः सदसतोरन्तो निर्णयो दृष्टः। कैः तत्त्वदर्शिभिर्वस्तुयाथात्म्यविद्भिः। एवंभूतविवेकेन सहस्वेत्यर्थः।
।।2.16।।नासतः इति श्लोकं व्यवहितप्रकृतस्थापनोपक्रमतयाऽवतारयति यत्त्विति।स्वाभाविकं परिणामि स्वभावस्यावश्यम्भावि न तु हेतुनिरपेक्षं शोकानिमित्तं शोकनिमित्तविरोधि शोकाभावनिमित्तमित्यर्थः। इतःपूर्वं स्वभावकथनमात्रत्वात्उपपादयितुमित्युक्तम्। अस्यापि श्लोकस्योपपादनार्थं प्रतिज्ञामात्ररूपत्वात्आरभत इत्युक्तम्। सदसद्भावाभावादिशब्दानां प्रकरणोचितमर्थविशेषं विवृण्वन् व्याख्याति असत इति। असतः सतश्चेति व्याख्येयम्। तस्य प्रकरणादिविशेषितार्थप्रतिपादनं देहस्यात्मन इति।अनयोरिति निर्देशफलितमुक्तं उपलभ्यमानयोरिति। तत्त्वदर्शनस्यतुशब्दद्योतितामुपलम्भानतिवृत्तिमभिप्रेत्याह यथोपलब्धितत्त्वदर्शिभिरिति। एतेन तद्ब्रह्म तद्भावस्तत्त्वमितिशङ्करोक्तमपहसितम्। सच्छब्दनिर्दिष्टस्य नित्यस्य विनाशायोगादन्तशब्दस्य निर्णयार्थत्त्वम्। तत्र शब्दवृत्तिप्रकारम् इह देहात्मविवेकप्रकरणेतत्त्वदर्शिभिरित्यादिसन्निधौ च तस्यैवौचित्यं चाह निर्णयान्तत्वादिति। ननु देहस्य सद्भावो न विद्यत इत्ययुक्तं प्रत्यक्षादिविरोधात् आत्मनोऽसद्भावो न विद्यत इति चायुक्तम् असदेवेदमग्र आसीत् छां.उ.6।2।1 इत्यादिसकलनिषेधदशायां तस्याप्यसच्छब्दवाच्यत्वात्। अवस्थाविशेषापेक्षयाऽपि सत्त्वमसत्त्वं च देहात्मनोर्द्वयोरपि समानम्। अतो भाष्यान्तरवत् सत्कार्यवादादिविषयतया अयं श्लोको व्याख्येय इत्यत्राह देहस्येति।अचिद्वस्तुनः चेतनस्य इति पदाभ्यां सत्त्वासत्त्वयोः स्वभावत्वे हेतुः चिदचिद्विषयतया सदसच्छब्दयोः प्रयोगश्च सूचितः।नन्वेवमपि देहात्मनो सदसत्त्वचोद्यं न परिहृतमित्यत्राह विनाशेति। हिशब्देन प्रयोगप्रसिद्धिर्द्योतिता तामेव दर्शयति यथोक्तमिति। दशश्लोक्यां वस्त्ववस्त्वस्तिनास्तिसत्यासत्यशब्दानां शारीरकभाष्ये पुराणोपक्रमोपसंहारादिना तत्प्रकरणोपक्रमोपसंहारादिना मध्येमही घटत्वं घटतः कपालिका वि.पु.2।15।42 इत्यादिना च सविकारत्वेनैवावस्तुत्वोपपादनात् श्रुतिस्मृत्यन्तरप्रत्यक्षाद्यनुरोधाच्च निर्विकारसविकारतया नित्यानित्यचेतनाचेतनविषयत्वं स्थापितम्। व्यवहारार्हत्वानर्हत्वादिविषयौ सदसच्छब्दौ तयोः परमार्थापरमार्थविषयसत्यासत्यशब्दाभ्यां कथमैकार्थ्यमिति शङ्कायां नाशानाशयोरेव परमार्थापरमार्थादिशब्दप्रयोगहेतुत्वे महर्षिवचनमुपादत्ते अनाशीति। विनाशोपलक्षितपरिणामवृद्ध्यादिभिः पूर्वावस्थाप्रहाणेन संज्ञान्तरयोगादेव अवस्तुशब्दवाच्यत्वं तदभावाच्च वस्तुशब्दवाच्यत्वमित्यस्मिन्नर्थे स्पष्टोक्तिं दर्शयति यत्त्विति। अत्रोत्तरश्लोकद्वयैकार्थ्याच्चायमेवार्थ इत्याह अत्रापीति। एतेन क्वचिच्चेतनविषयासच्छब्दोऽपि देवादिनामरूपप्रहाणाद्यवस्थाविशेषापेक्षयेत्युक्तं भवति। स्वरूप तस्तु निर्विकारत्वात् सच्छब्दवाच्यत्वमेव श्लोकयोः व्युत्क्रमेणोपपादनंनासतः इति क्रमापेक्षया। ततः किमित्यत्राह तदेवेति। प्रतिज्ञातस्यार्थस्य हेतुर्ह्यनन्तरं वाच्यः। तद्धेतुत्वं चात्र स्वरसतोऽवगम्यमानं परित्यज्यार्थान्तरपरत्वं व्याख्यातुं न युक्तमिति भावः।कुदृष्टिकल्पितव्याख्यां दूषयति अत्रेति। न ह्यत्र वैशेषिकादिनिरासः एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञोपपादनं साङ्ख्यसिद्धान्तोपन्यासादिर्वा प्रक्रियते। न च सत्कार्यवादेन देहात्मविवेकोपपादनं शोकशान्तिर्वा सिद्ध्येत्। सर्वस्य नित्यत्वाच्चेतनानामपि नित्यत्ववर्णनमसिद्धस्यात्यन्तासिद्धेन साधनमिति भावः। उक्तार्थपरत्वे महाप्रकरणसङ्गतिमाह देहेति। यदज्ञानान्मोहः तस्यैव हि ज्ञापनं तन्निवृत्तये स्यादिति भावः। अत्रतन्मोहशान्तये इति द्वितीयाध्यायार्थसङ्ग्रहश्लोकः सूचितः। सत्कार्यवादे पूर्वोत्तरविरोधमभिप्रयन् स्वोक्तस्यावान्तरप्रकरणसङ्गतिमप्याह स एवेति वाक्यद्वयेन।अनन्तरमिति। नहि मात्रयाऽप्यन्यव्यवधानमस्तीति भावः।प्रस्तुत उपपाद्यत इतिशब्दाभ्यामपौनरुक्त्यं दर्शितम्। उपसंहरति अत इति।यथोक्तं एवेत्यवधारणेनान्येषामपि व्याख्यातृ़णामसत्प्रतिभासा निवर्त्यन्ते। यत्तूक्तं यज्ञस्वामिना असच्छब्देनाशुभं रजस्तमस्तकार्यं दुःखादिकं गृह्यते। सच्छब्देन तु सत्त्वतत्कार्यसुखादिकम्। भावाभावशब्दाभ्यां चाभ्युदयानभ्युदयपर्यायौ भूत्यभूती। उभयोरपि दृष्टोऽन्त इति च राशिद्वयस्य नश्वरत्वमुच्यते। ततश्च पूर्वोक्तद्वन्द्वतितिक्षाहेतुभूतदुःखात्मकत्वनश्वरत्वयोरेव प्रपञ्चनं कृतं भवति इति। तदयुक्तम् रजस्तमःप्रभृतीनामसदादिशब्दैरुपादाने प्रकरणाद्ययोगात् एतदभिप्रायेण चस एव प्रस्तुत इत्युक्तम्। ननुमात्रास्पर्शास्तु इति श्लोके मात्राशब्देन सत्त्वादिगुणा उच्यन्ते। तथा च कपिलासुरीयके गुणाः गुणमात्राः गुणलक्षणं गुणा अवयवं सत्वं रजस्तम इति गुणा इत्युच्यन्ते। सत्त्वादिगुणानां गुणाश्च तेषां मात्रा अपदिश्यन्ते। तत्र तत्त्वदर्शनताभयनाशस्वभावताप्रसन्नेन्द्रियतासुखस्वप्नबोधनतेति सत्त्वमात्रा इत्यादौ उपकरणेषु च मात्राशब्दः प्रयुज्यते।लघुमात्रः परिव्रजेत् इत्यादिषु मात्राशब्देन शब्दादिविषयग्रहणे तु शीतोष्णशब्दपौनरुक्त्यं च स्यात् इति। तदप्यसत् मात्राशब्दस्य सत्त्वादिषु मुख्यप्रयोगाभावादन्यत्रापि प्रसिद्ध्यभावादत्राप्रसिद्धार्थस्वीकारहेत्वभावाच्च। शीतोष्णशब्दपौनरुक्त्यं तु सामान्यविशेषपरत्वात् प्रदर्शनार्थत्वाच्च परिहृतम्। अस्तु तर्हि प्रस्तुतयोः सुखदुःखयोरेव सदसच्छब्दाभ्यां ग्रहणम्। मैवं तयोरेव अभ्युदयानभ्युदयरूपत्वविवक्षायां तद्धेतुतया व्यतिरेकनिर्देशायोगात्। सुखदुःखयोर्दुःखसुखकारणत्वनिर्देशश्च लोकवेदविरुद्धः। सुखादिनैश्वर्यनिवृत्त्यादिकथनं च प्रस्तुतानुपयुक्तम्। एवं योजनान्तरेष्वपि दूषणमूह्यम्। अतो महाप्रकरणपूर्वापरादिसङ्गतेर्यथोक्त एवार्थः।
।।2.16।।ननु दुःखादिसहनादेतद्देहनाश एव स्यात् देहनाशेन मोक्षस्तु नापेक्षित एव ततः किं दुःखसहनेनेत्याशङ्क्याह नासत इति। असतो लौकिकस्य भावोऽलौकिको न विद्यते सतः अलौकिकस्य भगवत्सत्तात्मकस्य नाभावो नाशो न विद्यते इत्यर्थः। अत्र निदर्शनं गोपिका एकास्त्वन्तर्गृहगताः द्वितीयास्तु भगवद्रासलीलागताः तदाहुः उभयोरपीति। तु शब्दः त्वद्दर्शननिवारणार्थः। अनयोरुभयोरपि तत्त्वदर्शिभिः भगवद्दर्शनयोग्यैर्भगवदीयैः अन्तो दृष्टः तत्फलं दृष्टमित्यर्थः। त्वमपि तथा चेदिच्छसि तदा सुखदुःखादि सहस्व नैतावता भगवद्योग्यदेहादिनाशो भविष्यतीति भावः।
।।2.16।।ननु सुप्तिसमाध्यादौ त्यक्तोपाधेरात्मनः समदुःखसुखत्वेऽपि सोपाधिकदशायां तप्तायःपिण्डस्य दग्धृत्वमिव तस्य दुःखित्वं दुर्वारम्। उपाधिश्च मूलप्रकृतेर्व्यापिकाया मात्रारूप इति तत्सत्त्वे तु न निर्मूलोच्छेदमर्हत्यतः सोऽमृतत्वाय कल्पत इत्यनुपपन्नमित्याशङ्क्याह  नासत इति।  प्रमात्रादेरागमापायित्वेन कादाचित्कत्वात् रज्जूरगादिवत् असतः भावः सत्ता कालत्रयेऽपि नास्ति। अयमर्थः प्रमात्रादिर्मूलाज्ञानेन चिदात्मनि कल्पितः। मूलाज्ञानस्य चात्मज्ञानेन निवृत्तौ कारणाभावान्न पुनः प्रमात्राद्युद्भवोऽस्तीति निष्प्रत्यूहममृतत्वं ज्ञानात्सिध्यतीति। नन्वप्रतीतिमात्रात्प्रमात्रादेर्मिथ्यात्वोपगमे आत्मनोऽपि सुप्त्यादावप्रतीयमानत्वाविशेषान्मिथ्यात्वमस्तु। उभयोर्वा सत्यत्वमस्तु इत्याशङ्क्याह  नाभावो विद्यते सत इति।  सद्वस्तुनः अभावोऽसत्त्वं कदाचिदपि न विद्यते। सुषुप्त्यादावपि अनुभूतयोः सुखाज्ञानयोः सुखमहमस्वाप्सं न किञ्चिदवेदिषमिति उत्थाने परामर्शदर्शनात्। तदनुभवमन्तरेण तयोः परमार्शासंभवात्। अतः सतोऽसत्त्वं नास्ति। श्रुतिरपि सुप्तिकैवल्ययोः प्रमात्राद्यभावं दृशो नित्यत्वं चाह।यद्वै तन्न पश्यति पश्यन्वै तन्न पश्यति न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान्नतु तद्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यत्पश्येत् इति। यदि प्रमात्रादिः सत्यस्तर्हि सतोऽर्थस्य सुषुप्त्यादावदर्शनं सान्निध्याभावाद्वा द्रष्टुर्दृग्लोपाद्वा वक्तव्यम्। नाद्यः। आत्मनि दृष्टनष्टस्वभावस्यान्यत्र सद्भावकल्पनायोगात्। नान्त्यः। उदाहृतया श्रुत्यैव तन्निषेधात्। तस्मादुभयोरपि सत्यत्वेन मिथ्यात्वेन वा साम्यं दुर्वचम्। ननु सत आकाशादेः क्वचिदपि देशे काले चाभावो यद्यपि नास्ति तथापि सत एव परमाणोर्देशान्तरेऽभावोऽस्ति प्रागसतोऽपि घटादेर्भावश्च दृष्टः तत्कथमुच्यतेनासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत इत्याशङ्क्य विद्वदनुभवेन निरस्यति  उभयोरपीति।  अन्तो याथात्म्यम्। यथा स्वप्ने नभःकुम्भरज्जूरगादयो नित्यत्वानित्यत्वसत्यत्वासत्यत्वादिधर्मोपेततया निश्चिता अपि प्रबोधेन बाध्यन्ते तद्वज्जाग्रद्दृष्टा अपि ते तत्त्वज्ञानेन बाध्यन्ते। ननु जाग्रद्वासनावशात् स्वप्नगतनभ आदौ नित्यत्वादिनिश्चयो भ्रम इति चेत् अनादिकालप्रवृत्तप्राग्भवीयसंस्कारवशात् जाग्रन्नभ आदावपि स भ्रम एवेति तुल्यम्। ननु स्वरूपसदेव रजतादिकं शुक्त्यादावध्यस्यते नत्वसत् शशशृङ्गादिकम्। गगनादिकं तु त्वद्रीत्या स्वरूपेण असदपि कथमात्मन्यध्यस्यत इति चेन्न। अध्यासे हि पूर्वानुभवमात्रमपेक्षते नत्वनुभूतस्य स्वरूपेण सत्त्वमपि। दर्पणप्रतिबिम्बिते गगनेऽपि नैल्याध्यासदर्शनात्। न च गगने नैल्यं स्वरूपेण सत्यमस्ति अथचान्यत्राध्यस्यते। तस्मात् भ्रमपरम्परायाः संभवात्। स्वप्नद्रष्टृभिरिवास्माभिरदृष्टमपि सदसतोर्याथात्म्यं प्रबुद्धैर्द्रष्टुं शक्यमेव। तथा च श्रुतयःनेह नानास्ति किंचनअस्तीत्येवोपलब्धव्यःअतोऽन्यदार्तम् इत्याद्याः अनात्मनोऽसत्त्वं आत्मनश्च सत्त्वं प्रतिपादयन्ति। एवं सतो ज्ञानेनासतो बाधात्कैवल्यं सिध्यतीति भावः।
।।2.16।।शीतोष्णादेः प्रतीयमानत्वेऽपि बाध्यत्वेन मिथ्यात्वात् तद्विपर्ययेणात्मनः सत्यत्वाच्च शोकमोहावकृत्वा शीतोष्णादिसहनं युक्तमित्याह  नेति।  असतो विचारेण बाध्यत्वात्पूर्वमप्यविद्यमानस्य शीतादेः सकारणस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्निरुप्यमाणस्यापि भावः परमार्थसत्ता न विद्यते। एतेनासतः शून्यस्य नरविषाणतुल्यस्यास्तित्वप्रसङ्गभावादप्रसक्तप्रतिषेध इति प्रयुक्तम्। विमतं शीतादि अतात्त्विकमप्रामाणिकत्वात् शुक्तिरुप्यवत्। धर्मिग्राहकस्य प्रत्यक्षादेस्तात्त्विकप्रामाण्याबोधकत्वदर्शनात् तद्विषयस्य शीतादेरनिर्वाच्यस्यासतो भ्रान्तैर्लोकैः प्रत्यक्षादिभिरुपलभ्यमानत्वात् सत्त्वेन गृहीतस्य भावस्तात्त्विकत्वं नास्तीत्यर्थः। ननु क्वचित्प्रत्यक्षादेस्तात्त्विकप्रामाण्यावेदकत्वदर्शनात्तद्विषयस्य शीतादिद्वैतस्य दुर्निरुपर्त्वेनानिर्वचनीयत्वं न शक्यते वक्तुम्। वेदैकदेशस्य क्रियार्थत्वे ब्रह्मबोधकवेदस्यापि क्रियार्थत्वं यथा। यथावा श्रोत्रादीन्द्रियै रुपानुपलब्ध्या चक्षुषापि तन्नोपलभ्यत इतिचेन्न। शीतादिद्वैतस्य विकारस्यागमापायित्वेनासत्त्वनिर्धारणात्। तथाचायं प्रयोगः विमतमसत् आगमापायित्वाद्रज्जूरगवदिति। तथाचवाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् इत्यादिश्रुत्यापि विकारस्य मिथ्यात्वं बोधितम्। किंच कार्यं कारणान्न भिद्यते कुण्डलादिसंस्थानस्य चक्षुरादिनिरुप्यमाणस्य कनकादिव्यतिरेकेणानुपलब्धेः। ततश्चायं प्रयोगः विमतं न कारणाद्वस्तुतो भिन्नं कार्यत्वात् कुण्डलादिवदिति।आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायात् कार्यस्य जन्मप्रध्वंसाभ्यां प्रागूर्ध्वं चानुपलब्धेः कारणादव्यतिरेकाच्च। सर्वः शीतादिविकारोऽसत् कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेः कुण्डलादिवदिति सर्वस्यापि   कारणस्य स्वस्वकारणाध्वतिरेकेणानुपलभ्यमानस्य कार्यकारणपरम्पराभ्रमाधिष्ठाने कल्पितत्वं सिध्यति। ननु कार्यकारणविभागविहीनस्य वस्तुनोऽभावात्कार्यकारणपरम्पराया असत्त्वे सर्वाभावप्रसङ्ग इतिचेन्न। सर्वत्रानुवृत्तव्यावृत्तसदनद्वुद्धिद्वयोपलब्ध्यानुवृत्ते च व्यावृत्तानां कल्पित्वात् अकल्पितस्य सर्वभेदविकल्पाधिष्ठानस्याकार्यकारणस्य वस्तुनः सिद्धेः। तथाच यद्यद्य्वावृत्तेष्वनुवृत्तं तत्तत्परमार्थसत् यथा रजतादिधारास्वनुगतः शुक्त्यादेरिदमंशः विमतं सत् अव्यभिचारित्वादिदमंशवत् यद्य्वावृत्तं तन्मिथ्या यथा रजतादिधारा विमतं मिथ्या व्याभिचारित्वात् रजतादिधारावत् इत्यनुमानद्वयेन सतोऽकल्पितत्वमसतः कल्पितत्वं च सिद्धम्। ननु नेदमनुमानद्वयमुपपद्यते सर्वमिथ्यात्ववादिनो विभागाभावादनुमानादिव्यवहारानुपपत्तेरिति चेन्न सदसद्विभागस्य बुद्य्धायत्तत्वात् बुद्धिद्वयाधीने विभागे स्थिते सत्यनुमानादिव्यवहारोपपत्तेः। नन्वद्वैतवादिनस्तव बुद्धिद्वयाभावात्तदधीनः सदसद्विभागः कथं सेत्स्यतीति श्वेत् सर्वत्र व्यवहारदशायां कल्पितस्य सदसद्विभागस्य हेतुभूतबुद्धिद्वयस्य सर्वैरुपलभ्यमानत्वात्। नन्वेवमपि सतः सामान्यरुपतया विशेषाकाङ्क्षायां सामान्यविशेषरुपे द्वे वस्तुनी स्यातामितिचेन्न। सोऽयमित्यादि सामानाधिकरण्यवद्धटः सन्नित्यादिसामानाधिकरण्यस्यैकवस्तुनिष्ठत्वाद्वस्तुभेदे घटपटयोरिव तदयोगात्। ननूक्तसामानाधिकरण्यस्यैकवस्तुनिष्ठत्वं न वाच्यं नीलमुत्पलमितिवद्धर्मधर्मिविषयतया तस्य सुवचत्वादितिचेन्न। नीलोत्पलमिति सामानाधिकरण्यस्य धर्मधर्मिविषयस्य गौणत्वात्। तदपेक्षयानुवृत्ते व्यावृत्तं कल्पितमिति ऐक्यनिष्ठस्यैव मुख्यस्यौचित्यात्। तथाच सन् घटः सन् पटः सन्हस्ती सन्नश्चः सन् गोरित्येवं बुद्धिद्वयमुपलभ्यते ततोश्च बुद्य्धोर्घटादिबुद्धिर्व्यभिचरति घटादेर्विकारस्य व्यभिचारित्वं पूर्वं दर्शितं नतु सद्बुद्धिर्व्यभिचरति घटे नष्टेऽपि पटादौ तद्दर्शनात्। एतेन घटे नष्टे घटबुद्धौ व्यभिचरन्त्यां सद्बुद्धिरपि व्यभिचरतीति प्रत्युक्तम्। तस्माद्धटादिबुद्धिविषयोऽसत् व्यभिचारात् रज्जूरगवत् सद्बुद्धिविषयस्तु नासत् अव्यभिचारादिदमंशवत्। ननु यथा घटे विनष्टे सद्बुद्धिः पटादौ दृश्टते तथा घटबुद्धिरपि घटान्तर इतिचेन्न। घटबुद्धेः पटादावदर्शनात्। ननु नष्टे घटे सद्बुद्धिरपि तत्र न दृश्यत इति चेन्न। यतो घटादिनाशे व्यक्तिनाशे जातेरिव विशेष्यस्य विशेषणीभूतसत्ताभिव्यञ्जकस्याभावात् सद्बुद्धेरप्यदर्शनं नतु तस्या विषयस्य सत्ताया अभावाददर्शनम्। ननु द्वयोः सतोरेव नीलोत्पलयोर्विशेषविशेष्यत्वदर्शनात् सद्धटयोरपि विशेषणविशेष्यत्वाभ्युपगमे द्वयोः सत्त्वावश्यंभावाद्धटादिकल्पितत्वानुमानं सामानाधिकरण्यबुद्धिबाधितं घटादेः कल्पित्वाभ्युपगमे तस्याभावेन समानाधिकरणत्वस्यायुक्तत्वादिति चेन्न। यतः सामानाधिकरण्यबुद्धिः पदार्थद्वयभानमपेक्षते न द्वयोः सत्त्वम्। मरीच्यादावन्यतरस्याभावेऽपि सदिदमुदकमिति सामानाधिकरण्यदर्शनात्। तस्माद्देहादेः शीतोष्णादेर्द्वन्द्वस्य च सकारणस्य सत्त्वेन कल्पितस्य वस्तुतोऽसतो भावः परमार्थसत्ता न विद्यते। जन्मध्वंसाभ्यां प्रागूर्ध्वं च वस्त्वन्तरे देशान्तरे चानुपलब्धेः। तथा परमार्थसतः अविनाशिनोऽबाध्यस्यात्मनोऽतत्त्वविद्भिरज्ञातत्वादविद्यमानकल्पस्याभावोऽविद्यमानत्वं परमार्थतोऽसत्ता न संभवति सर्वत्राव्यभिचारात् त्रिविधपरिच्छेदशून्यत्वात्। इत्थं भाष्यकृद्भिः सदसतोः साध्यत्वं परिच्छिन्नापरिच्छिन्नत्वयोर्हेतुत्वं च बोधितम्। कैश्चित्तु परिच्छिन्नस्यासतः शीतादेः प्रपञ्चस्य भावः सत्ता पारमार्थिकत्वं स्वान्यूनसत्ताकतादृशपरिच्छेदशून्यत्वं न विद्यते सतः सर्वत्रानुस्यूतसन्मात्रस्याभावः परिच्छिन्नत्वं न विद्यते इति व्याख्यातम्। परिच्छिन्नत्वं च त्रिविधं तत्रात्यन्ताभावप्रतियोगित्वलक्षणं देशतः परिच्छिन्नत्वं ध्वंसप्रतियोगित्वलक्षणं कालतः परिच्छिन्नत्वं अन्योन्याभावप्रतियोगित्वलक्षणं वस्तुतः परिच्छिन्नत्वम्। नन्वात्मनोऽप्याकाशवत्क्वाप्यसमवेतत्वात्समवायसंबन्धेनात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं तस्मिन्नतिव्याप्तं आकाशादेश्च यावन्मूर्तसंयोगित्वनियमात्संयोगसंबन्धेन तस्मिन्नव्याप्तं च अमूर्तनिष्ठेतिविशेषणदाने त्वात्मन्यतिव्याप्तिस्तदवस्था सर्वसंबन्धित्वाभावविवक्षायां सर्वसंबन्धशून्ये परमात्मन्यतिव्याप्तिः। सर्वसंबन्धिन्यज्ञानेऽव्याप्तिश्च। ध्वंसप्रतियोगित्वमप्याकाशादावव्याप्तं तेषां परैर्नित्यत्वाभ्युपगमात् अन्योन्याभावप्रतियोगित्वं चात्मनि व्यभितारि तस्य जडनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगित्वादन्यथास्य जडत्वापत्तेरितिचेन्न। अत्यन्तभावेऽन्योन्याभावे च प्रतियोगिसमसत्ताकत्वविशेषणेनात्मन्यतिव्याप्तिवारणात् अज्ञानाकाशादौ स्वस्वसमानसत्ताकान्योन्याभावात्यन्ताभावप्रतियोगित्वसत्त्नेनाव्यप्त्यभवात्। अविद्याकाशादेर्व्यावहारिकस्य पारमार्थिकाभावपक्षे स्वान्यूनसत्ताकेतिविशेषणं देयम्। अतएव प्रातिभासिकरजतादेर्व्यावहारिकाभावप्रतियोगित्वेऽपि न साधनवैकल्यम्। ध्वंसप्रतियोगित्वं च नाकाशादावव्याप्तम्तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश संभूतः इति श्रुतिसिद्धत्वेन तस्यानुमतत्वात्।आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यः इत्यत्रात्मनिदर्शनत्वं तु स्वसमानकालीनसर्वगतत्वेनाभूतसंपल्वस्थायित्वेन चेति द्रष्टव्यम् इति तत्रोदाहृतव्याख्यासत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इति श्रुतौ ब्रह्मणोऽपरिच्छिन्नत्वबोधकस्यानन्तपदस्य पृथङ्निर्देशात् ब्रह्म सत्यमपरिच्छिन्नत्वात् जगदसत्यं परिच्छिन्नत्वादित्यनुमानद्वये हेतुत्वेनोभयोर्निर्देशादप्रसिद्धार्थकल्पनात्मकेन हेतुसाध्ययोरैक्यापत्तिरुपेण च दोषेण ग्रस्ता यदि भाष्यानुरोधेन योजयितुं शक्या तर्हि निर्दुष्टेति दिक्। ननु सर्वेषामेव कुतो न निर्णय इत्याशङ्क्य सर्वेषां तत्त्वदर्शित्वाभावात्तत्त्वदर्शिनां त्वस्त्येन निर्णय इत्याह  उभयोरिति।  उभयोरात्मानात्मनोः सदसतोरपि दृष्टोन्तः सत्सदैवासदसदेवेति निर्णयस्तत्त्व दर्शिभिर्ब्रह्मविद्भिः। तस्मात्त्वमपि तेषां दृष्टिमवलम्ब्य शोकमोहौ हित्वा शीतादींस्तितिक्षस्वेत्याशयः।
2.16 न not? असतः of the unreal? विद्यते is? भावः being? न not? अभावः nonbeing? विद्यते is? सतः of the real? उभयोः of the two? अपि also? दृष्टः (has been) seen? अन्तः the final truth? तु indeed? अनयोः of these? तत्त्वदर्शिभिः by the knowers of the Truth.Commentary -- The changeless? homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition? he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope? after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms? viz.? AstiBhatiPriya or Satchidananda or ExistenceKnowledgeBliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real.
2.16 The unreal hath no being; there is non-being of the real; the truth about both has been seen by the knowers of the Truth (or the seers of the Essence).
2.16 That which is not, shall never be; that which is, shall never cease to be. To the wise, these truths are self-evident.
2.16 Of the unreal there is no being; the real has no nonexistence. But the nature of both these, indeed, has been realized by the seers of Truth.
2.16 Since 'the unreal has no being,' etc., for this reason also it is proper to bear cold, heat, etc. without becoming sorrowful or deluded. Asatah, of the unreal, of cold, heat, etc. together with their causes; na vidyate, there is no; bhavah, being, existence, reality; because heat, cold, etc. together with their causes are not substantially real when tested by means of proof. For they are changeful, and whatever is changeful is inconstant. As configurations like pot etc. are unreal since they are not perceived to be different from earth when tested by the eyes, so also are all changeful things unreal because they are not perceived to be different from their (material) causes, and also because they are not perceived before (their) origination and after destruction. Objection: If it be that [Here Ast. has the additional words 'karyasya ghatadeh, the effect, viz pot etc. (and)'.-Tr.] such (material) causes as earth etc. as also their causes are unreal since they are not perceived differently from their causes, in that case, may it not be urged that owing to the nonexistence of those (causes) there will arise the contingency of everything becoming unreal [An entity cannot be said to be unreal merely because it is non-different from its cause. Were it to be asserted as being unreal, then the cause also should be unreal, because there is no entity which is not subject to the law of cuase and effect.]? Vedantin: No, for in all cases there is the experience of two awarenesses, viz the awareness of reality, and the awareness of unreality. [In all cases of perception two awarenesses are involved: one is invariable, and the other is variable. Since the variable is imagined on the invariable, therefore it is proved that there is something which is the substratum of all imagination, and which is neither a cause nor an effect.] That in relation to which the awareness does not change is real; that in relation to which it changes is unreal. Thus, since the distinction between the real and the unreal is dependent on awareness, therefore in all cases (of empirical experiences) everyone has two kinds of awarenesses with regard to the same substratum: (As for instance, the experiences) 'The pot is real', 'The cloth is real', 'The elephant is real' (which experiences) are not like (that of) 'A blue lotus'. [In the empirical experience, 'A blue lotus', there are two awarenesses concerned with two entities, viz the substance (lotus) and the ality (blueness). In the case of the experience, 'The pot is real', etc. the awarenesses are not concerned with substratum and alities, but the awareness of pot,of cloth, etc. are superimposed on the awareness of 'reality', like that of 'water' in a mirage.] This is how it happens everywhere. [The coexistence of 'reality' and 'pot' etc. are valid only empirically according to the non-dualists; whereas the coexistence of 'blueness' and 'lotus' is real according to the dualists.] Of these two awareness, the awareness of pot etc. is inconstant; and thus has it been shown above. But the awareness of reality is not (inconstant). Therefore the object of the awareness of pot etc. is unreal because of inconstancy; but not so the object of the awareness of reality, because of its constancy. Objection: If it be argued that, since the awareness of pot also changes when the pot is destroyed, therefore the awareness of the pot's reality is also changeful? Vedantin: No, because in cloth etc. the awareness of reality is seen to persist. That awareness relates to the odjective (and not to the noun 'pot'). For this reason also it is not destroyed. [This last sentence has been cited in the f.n. of A.A.-Tr.] Objection: If it be argued that like the awareness of reality, the awareness of a pot also persists in other pots? Vedantin: No, because that (awareness of pot) is not present in (the awareness of) a cloth etc. Objection: May it not be that even the awareness of reality is not present in relation to a pot that has been destroyed? Vedantin: No, because the noun is absent (there). Since the awareness of reality corresponds to the adjective (i.e. it is used adjectivelly), therefore, when the noun is missing there is no possibility of its (that awareness) being an adjective. So, to what should it relate? But, again, the awareness of reality (does not cease) with the absence of an object৷৷ [Even when a pot is absent and the awareness of reality does not arise with regare to it, the awareness of reality persists in the region where the pot had existed. Some read nanu in place of na tu ('But, again'). In that case, the first portion (No,৷৷.since৷৷.adjective. So,৷৷.relate?) is a statement of the Vedantin, and the Objection starts from nanu punah sadbuddheh, etc. so, the next Objection will run thus: 'May it not be said that, when nouns like pot etc. are absent, the awareness of existence has no noun to alify, and therefore it becomes impossible for it (the awareness of existence) to exist in the same substratum?'-Tr.] Objection: May it not be said that, when nouns like pot etc. are absent, (the awareness of existence has no noun to alify and therefore) it becomes impossible for it to exist in the same substratum? [The relationship of an adjective and a noun is seen between two real entities. Therefore, if the relationship between 'pot' and 'reality' be the same as between a noun and an adjective, then both of them will be real entities. So, the coexistence of reality with a non-pot does not stand to reason.] Vedantin: No, because in such experiences as, 'This water exists', (which arises on seeing a mirage etc.) it is observed that there is a coexistence of two objects though one of them is non-existent. Therefore, asatah, of the unreal, viz body etc. and the dualities (heat, cold, etc.), together with their causes; na vidyate, there is no; bhavah, being. And similarly, satah, of the real, of the Self; na vidyate, there is no; abhavah, nonexistence, because It is constant everywhere. This is what we have said. Tu, but; antah, the nature, the conclusion (regarding the nature of the real and the unreal) that the Real is verily real, and the unreal is verily unreal; ubhayoh api, of both these indeed, of the Self and the non-Self, of the Real and the unreal, as explained above; drstah, has been realized thus; tattva-darsibhih, by the seers of Truth. Tat is a pronoun (Sarvanama, lit. name of all) which can be used with regard to all. And all is Brahman. And Its name is tat. The abstraction of tat is tattva, the true nature of Brahman. Those who are apt to realize this are tattva-darsinah, seers of Truth. Therefore, you too, by adopting the vision of the men of realization and giving up sorrow and delusion, forbear the dualities, heat, cold, etc. some of which are definite in their nature, and others inconstant , mentally being convinced that this (phenomenal world) is changeful, verily unreal and appears falsely like water in a mirage. This is the idea. What, again, is that reality which remains verily as the Real and surely for ever? This is being answered in, 'But know That', etc.
2.16. Birth (or existence) does not happen to what is non-existent, and destruction (or non-existence) to what is existent; the finality of these two has been seen by the seers of the reality.
2.16 Nasatah etc. And then, also following the common worldly practice [the Lord] says this : There is no [real] existence for what is non-existent i.e., the body [etc.], that is continuously perishing; for it is changing incessantly by stages. Again, never there is destruction for the ever existing Supreme Self, because of Its unchanging nature. So says the Veda too : 'Lo ! This Soul is of unchanging nature and [hence] is destructions' (the Br. U, IV, v. 14). Of These two : of what is existent and what is non-existent. Finality : the point of boundary where they come to an end. But is this permanent or transient which is perceived by persons who are prone to see the truth ? Having raised this doubt, [the Lord] says :
2.16 'The unreal,' that is, the body, can never come into being. 'The real,' that is, the self, can never cease to be. The finale about these, the body and the self, which can be experienced, has been realised correctly by the seers of the Truth. As analyis ends in conclusion, the term 'finale' is here used. The meaning is this: Non-existence (i.e., perishableness) is the real nature of the body which is in itself insentient. Existence (i.e., imperishableness) is the real nature of the self, which is sentient. [What follows is the justification of describing the body as 'unreal' and as having 'never come into being.'] Non-existence has, indeed, the nature of perishableness, and existence has the nature of imperishableness, as Bhagavan Parasara has said: 'O Brahmana, apart from conscious entity there does not exist any group of things anywhere and at any time. Thus have I taught you what is real existence - how conscious entity is real, and all else is unreal' (V. P., 2.12.43 - 45). 'The Supreme Reality is considered as imperishable by the wise. There is no doubt that what can be obtained from a perishable substance is also perishable' (Ibid., 2.14.24). 'That entity which even by a change in time cannot come to possess a difference through modification etc., is real. What is that entity, O King? (It is the self who retains Its knowledge)' (Ibid., 2.13.100). It is said here also: 'These bodies ৷৷. are said to have an end' (2.18) and 'Know That (the Atman) to be indestructible' (2.17). It is seen from this that this (i.e., perishableness of the body and imperishableness of the self) is the reason for the designating the Atman as 'existence' (Sattva) and body as 'non-existence' (Asvattva). This verse has no reference to the doctrine of Satkaryavada (i.e., the theory that effects are present in the cause), as such a theory has no relevance here. Arjuna is deluded about the true nature of the body and the self; so what ought to be taught to him in order to remove his delusion, is discrimination between these two - what is alified by perishablenss and what, by imperishableness. This (declaration) is introduced in the following way: 'For the dead, or for the living' (2.11). Again this poin is made clear immediately (by the words), 'Know that to be indestructible ৷৷.' (2.17) and 'These bodies ৷৷. are said to have an end' (2.18). How the imperishableness of the self is to be understood, Sri Krsna now teaches:
2.16 The unreal can never come into being, the real never ceases to be. The conclusion about these two is seen by the seers of truth.
।।2.16।।इसलिये भी शोक और मोह न करके शीतोष्णादिको सहन करना उचित है जिससे कि वास्तवमें अविद्यमान शीतोष्णादिका और उनके कारणोंका भावहोनापन अर्थात् अस्तित्व है ही नहीं क्योंकि प्रमाणोंद्वारा निरूपण किये जानेपर शीतोष्णादि और उनके कारण कोई पदार्थ ही नहीं ठहरते क्योंकि वे शीतोष्णादि सब विकार हैं और विकार सदा बदलता रहता है। जैसे चक्षुद्वारा निरूपण किया जानेपर घटादिका आकार मिट्टीको छोड़कर और कुछ भी उपलब्ध नहीं होता इसलिये असत् है वैसे ही सभी विकार कारणके सिवा उपलब्ध न होनेसे असत् हैं। क्योंकि उत्पत्तिसे पूर्व और नाशके पश्चात् उन सबकी उपलब्धि नहीं है। पू0 मिट्टी आदि कारणकी और उसके भी कारणकी अपने कारणसे पृथक् उपलब्धि नहीं होनेसे उनका अभाव सिद्ध हुआ फिर इसी तरह उसका भी अभाव सिद्ध होनेसे सबके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है। उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि सर्वत्र सत्बुद्धि और असत्बुद्धि ऐसी दो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। जिस पदार्थको विषय करनेवाली बुद्धि बदलती नहीं वह पदार्थ सत् है और जिसको विषय करनेवाली बुद्धि बदलती हो वह असत् है। इस प्रकार सत् और असत्का विभाग बुद्धिके अधीन है। सभी जगह समानाधिकरणमें ( एक ही अधिष्ठानमें ) सबको दो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। नील कमलके सदृश नहीं किन्तु घड़ा है कपड़ा है हाथी है इस तरह सब जगह दोदो बुद्धियाँ उपलब्ध होती हैं। उन दोनों बुद्धियोंसे घटादिको विषय करनेवाली बुद्धि बदलती है यह पहले दिखलाया जा चुका है परंतु सत्बुद्धि बदलती नहीं। अतः घटादि बुद्धिका विषय ( घटादि ) असत् है क्योंकि उसमें व्यभिचार ( परिवर्तन ) होता है। परंतु सत्बुद्धिका विषय ( अस्तित्व ) असत् नहीं है क्योंकि उसमें व्यभिचार ( परिवर्तन ) नहीं होता। पू0 घटका नाश हो जानेपर घटविषयक बुद्धिके नष्ट होते ही सत् बुद्धि भी तो नष्ट हो जाती है। उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि वस्त्रादि अन्य वस्तुओंमें भी सत्बुद्धि देखी जाती है। वह सत्बुद्धि केवल विशेषणको ही विषय करनेवाली है। पू0 सत्बुद्धिकी तरह घटबुद्धि भी तो दूसरे घटमें दीखती है। उ0 यह ठीक नहीं क्योंकि वस्त्रादिमें नहीं दीखती। पू0 घटका नाश हो जानेपर उसमें सत्बुद्धि भी तो नही दीखती। उ0 यह ठीक नहीं क्योंकि ( वहाँ ) घटरूप विशेष्यका अभाव है। सत्बुद्धि विशेषणको विषय करनेवाली है अतः जब घटरूप विशेष्यका अभाव हो गया तब बिना विशेष्यके विशेषणकी अनुपपत्ति होनसे वह ( सत्बुद्धि ) किसको विषय करे पर विषयका अभाव होनेसे सत्बुद्धिका अभाव नहीं होता। पू0 घटादि विशेष्यका अभाव होनेसे एकाधिकरणता ( दोनों बुद्धियोंका एक अधिष्ठानमें होना ) युक्तियुक्त नहीं होती। उ0 यह ठीक नहीं क्योंकि मृगतृष्णिकादिमें अधिष्ठानसे अतिरिक्त अन्य वस्तुका ( जलका ) अभाव है तो भी यह जल है ऐसी बुद्धि होनेसे समानाधिकरणता देखी जाती है। इसलिये असत् जो शरीरादि एवं शीतोष्णादि द्वन्द्व और उनके कारण हैं उनका किसीका भी भाव अस्तित्व नहीं है। वैसे ही सत् जो आत्मतत्व है उसका अभाव अर्थात् अविद्यमानता नहीं है क्योंकि वह सर्वत्र अटल है यह पहले कह आये हैं। इस प्रकार सत्आत्मा और असत्अनात्मा इन दोनोंका ही यह निर्णय तत्त्वदर्शियोंद्वारा देखा गया है अर्थात् प्रत्यक्ष किया जा चुका है कि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है। तत् यह सर्वनाम है और सर्व ब्रह्म ही है। अतः उसका नाम तत् है उसके भावको अर्थात् ब्रह्मके यथार्थ स्वरूपको तत्त्व कहते हैं उस तत्त्वको देखना जिनका स्वभाव है वै तत्त्वदर्शी हैं उनके द्वारा उपर्युक्त निर्णय देखा गया है। तू भी तत्त्वदर्शी पुरुषोंकी बुद्धिका आश्रय लेकर शोक और मोहको छोड़कर तथा नियत और अनियतरूप शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको इस प्रकार मनमें समझकर कि ये सब विकार है ये वास्तवमें न होते हुए ही मृगतृष्णाके जलकी भाँति मिथ्या प्रतीत हो रहे हैं ( इनको ) सहन कर। यह अभिप्राय है।
।।2.16।।  न असतः  अविद्यमानस्य शीतोष्णादेः सकारणस्य न  विद्यते  नास्ति  भावो  भवनम् अस्तिता।।न हि शीतोष्णादि सकारणं प्रमाणैर्निरूप्यमाणं वस्तु सम्भवति। विकारो हि सः विकारश्च व्यभिचरति। यथा घटादिसंस्थानं चक्षुषा निरूप्यमाणं मृद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरसत् तथा सर्वो विकारः कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेरसन्। जन्मप्रध्वंसाभ्यां प्रागूर्ध्वं च अनुपलब्धेः कार्यस्य घटादेः मृदादिकारणस्य च तत्कारणव्यतिरेकेणानुपलब्धेरसत्त्वम्।।तदसत्त्वे सर्वाभावप्रसङ्ग इति चेत् न सर्वत्र बुद्धिद्वयोपलब्धेः सद्बुद्धिरसद्बुद्धिरिति। यद्विषया बुद्धिर्न व्यभिचरति तत् सत् यद्विषया व्यभिचरति तदसत् इति सदसद्विभागे बुद्धितन्त्रे स्थिते सर्वत्र द्वे बुद्धी सर्वैरुपलभ्येते समानाधिकरणे न नीलोत्पलवत् सन् घटः सन् पटः सन् हस्ती इति। एवं सर्वत्र। तयोर्बुद्धयोः घटादिबुद्धिः व्यभिचरति। तथा च दर्शितम्। न तु सद्बुद्धिः। तस्मात् घटादिबुद्धिविषयः असन् व्यभिचारात् न तु सद्बुद्धिविषयः अव्यभिचारात्।।घटे विनष्टे घटबुद्धौ व्यभिचरन्त्यां सद्बुद्धिरपि व्यभिचरतीति चेत् न पटादावपि सद्बुद्धिदर्शनात्। विशेषणविषयैव सा सद्बुद्धिः।।सद्बुद्धिवत् घटबुद्धिरपि घटान्तरे दृश्यत इति चेत् न पटादौ अदर्शनात्।।सद्बुद्धिरपि नष्टे घटे न दृश्यत इति चेत् न विशेष्याभावात्। सद्बुद्धिः विशेषणविषया सती विशेष्याभावे विशेषणानुपपत्तौ किंविषया स्यात् न तु पुनः सद्बुद्धेः विषयाभावात्।।एकाधिकरणत्वं घटादिविशेष्याभावे न युक्तमिति चेत् न इदमुदकम् इति मरीच्यादौ अन्यतराभावेऽपि सामानाधिकरण्यदर्शनात्।।तस्माद्देहादेः द्वन्द्वस्य च सकारणस्य असतो न विद्यते भाव इति। तथा  सत श्च आत्मनः  अभावः  अविद्यमानता न  विद्यते  सर्वत्र अव्यभिचारात् इति अवोचाम।।एवम् आत्मानात्मनोः सदसतोः  उभयोरपि दृष्टः  उपलब्धः  अन्तो  निर्णयः सत् सदेव असत् असदेवेति  तु अनयोः  यथोक्तयोः  तत्त्वदर्शिभिः।  तदिति सर्वनाम् सर्वं च ब्रह्म तस्य नाम तदिति तद्भावः तत्त्वम् ब्रह्मणो याथात्म्यम्। तत् द्रष्टुं शीलं येषां ते तत्त्वदर्शिनः तैः तत्त्वदर्शिभिः। त्वमपि तत्त्वदर्शिनां दृष्टिमाश्रित्य शोकं मोहं च हित्वा शीतोष्णादीनि नियतानियतरूपाणि द्वन्द्वानि विकारोऽयमसन्नेव मरीचिजलवन्मिथ्यावभासते इति मनसि निश्चित्य तितिक्षस्व इत्यभिप्रायः।।किं पुनस्तत् यत् सदेव सर्वदा इति उच्यते
।।2.16।।न त्वेवाहं 2।12 इत्यत्र भगवान् कृष्णोऽपि यं प्रति पक्षे निक्षिप्तः स आक्षेप्तुं प्रसक्तिं दर्शयति  नित्य  इति। उक्तमनादित्वेन हेतुनाऽनुमितम्। ततः किमित्यत आह  कि मिति। अनादिश्चेत्यपि ग्राह्यम्। आद्ये दृष्टान्ताभावेन व्याप्तिग्रहासम्भवः। द्वितीयस्त्वप्रामाणिकत्वादशक्योपन्यास इति पूर्वपक्ष्यभिप्रायः। विदिताभिप्रायः सिद्धान्ती किमृजावन्वये सम्भवति वक्रेण व्यतिरेकेणेति मन्यमानो द्वितीयपक्षमुपादत्ते  अन्यदपी ति। उक्ताभिप्रायेण पृच्छति  तदि ति। इति शङ्कायामिति शेषः। दुर्गमार्थत्वात्पूर्वार्धं व्याचष्टे  असत  इति। कारणस्य प्रकृतेः। अभावः प्रागभावः प्रध्वंसश्च। कुत एतदित्यतो भाष्यकारस्तावत्प्रमाणमाह  प्रकृतिरि ति। पुरुषः परमात्मा ब्रह्मशब्दोक्तः। अनादित्वेऽप्येवमागमो ज्ञेयः। ननु असतः सतश्चाभावो न विद्यत इत्येकेनैव वाक्येन द्वयोरभावप्रतिषेधे कर्तुं शक्ये किमेवं पृथक्प्रतिषेधेनेत्यत आह  पृथगि ति।  विद्यत  इति वाक्यद्वयग्रहणम् असतो भावो न विद्यते सतश्चाभावो न विद्यते इति द्वयोः पृथगभावप्रतिषेध आदरार्थ इति योज्यम्। आदरश्चानुमानव्याप्तिसद्भावे। अतएवानेकदृष्टान्तप्रदर्शनम्। ननु सतो ब्रह्मण इत्यस्तु असतः कारणस्येति तु कथमिति अत आह  असत  इति। असच्छब्दार्थस्य कारणत्वं च भागवते प्रसिद्धमित्यर्थः। असतोऽसच्छब्दस्य कारणत्वं कारणार्थत्वमिति वा। सदसद्रूपया कार्यकारणरूपया। असत इति श्रुतेरनेकार्थत्वादत्रोदाहरणम्। कारणस्याव्यक्तेश्च असच्छब्दार्थत्वम्। गत्यर्थस्य सदेः कर्मणि क्विबन्तस्य हि सदिति रूपम्।असदव्यक्तरूपत्वात्कारणं चापि शब्दितम् इति वचनात्। अत्रार्थे भगवता प्रमाणमुच्यते  उभयोरपी ति। तदसत्। अन्यदर्शनस्यान्यान्प्रत्यप्रत्यायकत्वात् इत्याशङ्क्य दर्शनमूलकः सम्प्रदायः उपदेशपरम्परारूपो लक्षणयाऽत्र प्रमाणत्वेनोच्यत इत्याह  सम्प्रदायतश्चे ति। चशब्दो भाष्यकारोदितप्रमाणसमुच्चये। आगमो ग्रन्थनिबद्धं वाक्यं सम्प्रदायस्तु उपदेशपरम्परामात्रमिति भेदः। एतत्प्रकृतिपुरुषयोरनादिनित्यत्वम्। केचिदपिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वमङ्गीकृत्य तेन सूचितं प्रमाणं प्रागुदाहृतमिति वर्णयन्ति। नन्वन्तो विनाशादिः परिच्छेदो वाऽत्र तत्त्वदर्शिभिर्दृष्ट इत्युच्यते तत्कथं न विरोध इत्यत आह  अन्त  इति। निर्णयोऽनादिनित्यत्वावधारणम्। अपव्याख्यानं त्वन्यत्र निराकृतम्।
।।2.16।।नित्य आत्मेत्युक्तम् किमात्मैव नित्य आहोस्विदन्यदपि अन्यदपि तत्किमिति आह नास इति नासतः कारणस्य सतो ब्रह्मणश्चाभावा न विद्यते प्रकृतिः पुरुपश्चैव नित्यां कालश्च सत्तम इति वचनाच्छीविष्णुपुराणं। पृथग्विद्यत इत्यादरार्थः। असतः कारणत्वं च सदसद्रूपया चासों गुणमय्याऽगुणो विभुः इति भागवते असतः सदजायत इति च अव्यक्तेश्च। सम्प्रदायश्चैतत्सिद्धमित्याह उभयोरपीति। अन्तो निर्णयः।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।
নাসতো বিদ্যতে ভাবো নাভাবো বিদ্যতে সতঃ৷ উভযোরপি দৃষ্টোন্তস্ত্বনযোস্তত্ত্বদর্শিভিঃ৷৷2.16৷৷
নাসতো বিদ্যতে ভাবো নাভাবো বিদ্যতে সতঃ৷ উভযোরপি দৃষ্টোন্তস্ত্বনযোস্তত্ত্বদর্শিভিঃ৷৷2.16৷৷
નાસતો વિદ્યતે ભાવો નાભાવો વિદ્યતે સતઃ। ઉભયોરપિ દૃષ્ટોન્તસ્ત્વનયોસ્તત્ત્વદર્શિભિઃ।।2.16।।
ਨਾਸਤੋ ਵਿਦ੍ਯਤੇ ਭਾਵੋ ਨਾਭਾਵੋ ਵਿਦ੍ਯਤੇ ਸਤ। ਉਭਯੋਰਪਿ ਦਰਿਸ਼੍ਟੋਨ੍ਤਸ੍ਤ੍ਵਨਯੋਸ੍ਤਤ੍ਤ੍ਵਦਰ੍ਸ਼ਿਭਿ।।2.16।।
ನಾಸತೋ ವಿದ್ಯತೇ ಭಾವೋ ನಾಭಾವೋ ವಿದ್ಯತೇ ಸತಃ. ಉಭಯೋರಪಿ ದೃಷ್ಟೋನ್ತಸ್ತ್ವನಯೋಸ್ತತ್ತ್ವದರ್ಶಿಭಿಃ৷৷2.16৷৷
നാസതോ വിദ്യതേ ഭാവോ നാഭാവോ വിദ്യതേ സതഃ. ഉഭയോരപി ദൃഷ്ടോന്തസ്ത്വനയോസ്തത്ത്വദര്ശിഭിഃ৷৷2.16৷৷
ନାସତୋ ବିଦ୍ଯତେ ଭାବୋ ନାଭାବୋ ବିଦ୍ଯତେ ସତଃ| ଉଭଯୋରପି ଦୃଷ୍ଟୋନ୍ତସ୍ତ୍ବନଯୋସ୍ତତ୍ତ୍ବଦର୍ଶିଭିଃ||2.16||
nāsatō vidyatē bhāvō nābhāvō vidyatē sataḥ. ubhayōrapi dṛṣṭō.ntastvanayōstattvadarśibhiḥ৷৷2.16৷৷
நாஸதோ வித்யதே பாவோ நாபாவோ வித்யதே ஸதஃ. உபயோரபி தரிஷ்டோந்தஸ்த்வநயோஸ்தத்த்வதர்ஷிபிஃ৷৷2.16৷৷
నాసతో విద్యతే భావో నాభావో విద్యతే సతః. ఉభయోరపి దృష్టోన్తస్త్వనయోస్తత్త్వదర్శిభిః৷৷2.16৷৷
2.17
2
17
।।2.17।। अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता।
।।2.17।। उस वस्तु को तुम अविनाशी जानों,  जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इस अव्यय का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।।
।।2.17।। समस्त जगत् को जो व्याप्त किये हुये है और इस दृश्यमान अनुभव में आने वाले जगत् का जो अधिष्ठान है वह सत् है। मिट्टी के बने अनेक प्रकार के पात्र होते हैं जिनके विभिन्न उपयोगों के कारण अथवा उनमें रखी वस्तुओं के कारण उनके विभिन्न नाम होते हैं परंतु विविध आकारों के होने पर भी वे सब एक मिट्टी के ही बने होते हैं जो सब आकारों में व्याप्त होती है और जिसके बिना किसी भी पात्र का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। उन सब की उत्पत्ति स्थिति और लय मिट्टी में ही है। अत उनमें मिट्टी ही वास्तव में सत्य है। इसी प्रकार यह नित्य परिवर्तनशील जगत् नित्य अविनाशी तत्त्व से व्याप्त है और भगवान् कहते हैं कि इस तत्त्व का विनाश कदापि सम्भव नहीं है। तब फिर असत् क्या है जिसका अस्तित्व नित्य नहीं है सुनो
।।2.17।। व्याख्या-- 'अविनाशि तु तद्विद्धि'-- पूर्वश्लोकमें जो सत्-असत् की बात कही थी, उसमेंसे पहले 'सत्' की व्याख्या करनेके लिये यहाँ 'तु' पद आया है। 'उस अविनाशी तत्त्वको तू समझ'--ऐसा कहकर भगवान्ने उस तत्वको परोक्ष बताया है। परोक्ष बतानेमें तात्पर्य है कि इदंतासे दीखनेवाले इस सम्पूर्ण संसारमें वह परोक्ष तत्त्व ही व्याप्त है, परिपूर्ण है। वास्तवमें जो परिपूर्ण है, वही 'है' और जो सामने संसार दीख रहा है, यह 'नहीं' है। यहाँ 'तत्' पदसे सत्त-त्त्वको परोक्षरीतिसे कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि वह तत्त्व बहुत दूर है; किन्तु वह इन्द्रियों और अन्तःकरणका विषय नहीं है, इसलिये उसको परोक्षरीतिसे कहा गया है। 'येन सर्वमिदं ततम् (टिप्पणी प'0 57.1)--जिसको परोक्ष कहा है उसीका वर्णन करते हैं कि यह सब-का-सब संसार उस नित्य-तत्त्वसे व्याप्त है। जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंमें सोना, लोहेसे बने हुए अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा, मिट्टीसे बने हुए बर्तनोंमें मिट्टी और जलसे बनी हुई बर्फमें जल ही व्याप्त (परिपूर्ण) है, ऐसे ही संसारमें वह सत्त-त्त्व ही व्याप्त है। अतः वास्तवमें इस संसारमें वह सत्त-त्त्व ही जाननेयोग्य है। 'विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति'--यह शरीरी अव्यय  (टिप्पणी प0 57.2)  अर्थात् अविनाशी है। इस अविनाशीका कोई विनाश कर ही नहीं सकता। परन्तु शरीर विनाशी है-- क्योंकि वह नित्य-निरन्तर विनाशकी तरफ जा रहा है। अतः इस विनाशीके विनाशको कोई रोक ही नहीं सकता। तू सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो ये नहीं मरेंगे, पर वास्तवमें तेरे युद्ध करनेसे अथवा न करनेसे इस अविनाशी और विनाशी तत्त्वमें कुछ फरक नहीं पड़ेगा अर्थात् अविनाशी तो रहेगा ही और विनाशीका नाश होगा ही। यहाँ 'अस्य' पदसे सत्त-त्त्वको इदंतासे कहनेका तात्पर्य है कि प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरोंमें जो सत्ता दीखती है, वह इसी सत्त-त्त्वकी ही है। 'मेरा शरीर है और मैं शरीरधारी हूँ'--ऐसा जो अपनी सत्ताका ज्ञान है, उसीको लक्ष्य करके भगवान्ने यहाँ 'अस्य' पद दिया है।






।।2.17।।यस्याभावो नास्ति तस्य सतः सत्त्वे किं मानमित्याशङ्क्याह  अविनाशीति।  तच्छब्देन प्रकृतं सत् परामृश्यते। येन सता इदं सर्वं वियदादि ततं व्याप्तम्। घटः सन्पटः सन्निति सर्वस्य सदभेदानुभवात्। यथा घटो मृत् शरावो मृदिति घटादीनां मृदभेदानुभवान्मृदुपादानकत्वं तद्वत्सर्वस्यापि सदुपादानकत्वं बोध्यम्। ननु मृद्वत्सदपि किं विकारवद्भवतीत्याशङ्क्याह  अविनाशीति।  तत् सत् अविनाशि विद्धि। अयमर्थः पूर्वावस्थापरित्यागोऽत्र विनाशः। मृद्धि पिण्डाकारतां त्यक्त्वा घटीभवति अतः सा विनाशशीला। विकारधाराश्रयत्वात्। ब्रह्म तु न तथा किं तर्हि रज्जुवत्स्वयमविनश्यदेव कार्याकारं भवति। स्वकीये च सत्तास्फुरणे कार्येऽर्पयति। अतोऽविनाशि। तथा च श्रुतयःअजायमानो बहुधा विजायतेजात एव न जायते को न्वेनं जनयेत्पुनः। अजायमानः जन्माख्यं विकारमलभमानोऽपि विजायते वियदादिरूपेणाविर्भवति। तथा लोकदृष्ट्या जातो घटादिः परमार्थदृष्ट्या न जायते। परिणाम्युपादानस्याभावात्। मृदादेस्तु स्वाप्नमृदादिवत्तुच्छत्वात्। अत एनं घटादिं को नु जनयेन्न कोऽपि। कुतस्तर्हि भासत इति चेत् रज्जूरगादिवदिति दत्तोत्तरमेतत्। तथाप्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम्तस्य भासा सर्वमिदं विभाति इति सतः सत्यत्वेन प्राणोपलक्षितस्य प्रपञ्चस्य सत्यत्वं सतो भानमेव प्रपञ्चस्य भानमिति। तथा च प्रपञ्चगते सत्तास्फूर्ति सतः सत्त्वे प्रमाणमित्यर्थः। श्रुतिश्चअन्नेन सोम्य शुङ्गेनापोमूलमन्विच्छ अद्भिः सोम्य शुङ्गेन तेजोमूलमन्विच्छ तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ सन्मूलाः सोम्येमाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः इति सतो जगदुपादानत्वं कार्यलिङ्गेन द्रढयति। सतोऽविनाशित्वं च विनाशहेत्वभावादित्याह  विनाशमिति।  न व्येति नापक्षीयत इत्यव्ययम्। एतेन सर्वविकारशून्यस्य विनाशो नास्तीत्यर्थः। अपक्षयो हि जन्मादिविकारवत् एव भवतीति स एवात्र सर्वविकारोपलक्षणतया बोध्यः। न कश्चिदित्यनेन तदन्यस्य विनाशहेतोरभावो दर्शितः।द्वितीयाद्वै भयं भवति इति श्रुतेः।
।।2.17।।किं तत्सदित्याकाङ्क्षायामाह  अविनाशि त्विति।  न विनष्टुं शीलमस्येति तत् जानीहि। तुशब्दोऽसतो व्यावृत्त्यर्थः। किं येनेदं सर्वं व्याप्तं निरवयवत्वात् स्वरुपेण देहादिवत् आत्मीयाभावात् धनादिहान्या देवदत्तवच्च न व्येतीत्यव्ययं तस्यास्याव्ययस्य ब्रह्मणः स्वस्वरुपस्य विनाशमभावं बाधं न कश्चित् ईश्वरोऽपि कर्तुमर्हति शक्नोति। स्वात्मनि क्रियाविरोधात्। ननु नन्वेतादृशस्य सतो ज्ञानाद्भेदेपरिच्छिन्नत्वापत्तेर्ज्ञानात्मकत्वसभ्युपेयं तच्चानाध्यासिकं अन्यथा जडत्वापत्तेः। तथा चानाध्यासिकज्ञानरुपस्य सतो धात्वर्थत्वादुत्पत्तिविनाशवत्त्वं घटज्ञानमुत्पन्नं घटज्ञानं नष्टमिति प्रतीतेश्च। एवं चाहं घटं जानामीति प्रतीतेस्तस्य साश्रयत्वं सविषयत्वं चेति देशकालवस्तुपरिच्छिन्नत्वास्फुरणस्य कथं तद्रूपस्य सतो देशकालवस्तुपरिच्छिन्नशून्यत्वमित्याशङक्याह  अविनाशि।  त्रिविधपरिच्छेदशून्यं तु एव तत्सद्रूपं स्फुरणं विद्धि। किं तत्। येनेदं सर्वं ततं रज्जुशकलेनेव सर्पधारादि स्वस्मिन्समावेशितं यस्माद्विनाशं परिच्छेदमव्ययस्यापरिच्छिन्नस्यास्य कोऽप्याश्रयो वा विषयो वा इन्द्रियसंनिकर्षादिरुपो हेतुर्वा न कर्तुमर्हतीति। भाष्यकृद्भिः कुतो न व्याख्यातमितिचेन्मूलाक्षरैरुक्तशङ्कोत्तरस्य घटादिज्ञानस्य व्यावृत्त्यात्मकस्यात्मन्यध्यस्तत्वेऽपि तस्य स्वप्रकाशत्वान्न जडत्वं व्यावृत्त्योदेरुत्पत्त्यादिमत्त्वेऽपि तस्य न तत्त्वमित्येवमादिरुपस्याप्रतीतेः उत्तरत्रान्तवन्त इमे देहा इत्यस्य स्थानेऽन्तवत्य इमा वृत्तय इति वक्तव्यत्वापत्तेः। एतेषां नाशो भविष्यतीत्यर्जुनस्य भ्रमनिराकरणायात्मसंसृष्टदेहाद्यसत्यत्वप्रतिपादनस्यावश्यकत्वेनाश्रयत्वेत्यादेरार्थिकत्वाच्चेति गृहाण। किंच शुक्त्यध्यस्तरजतज्ञानस्य कल्पितत्वत्सदव्यस्तघटादिज्ञानस्याप्यध्यस्तत्वेन कल्पितत्वस्य सद्बुद्धिरसद्बुद्धिरित्यादिभाष्येण प्रदर्शितत्वादुक्तशङ्कानुत्थानमित्यभिप्रेत्याचार्यैरेवं न व्याख्यातमिति दिक्।

2.17 Know that to be indestructible, by Which all this is pervaded. None can cause the destruction of That, the Imperishable.
2.17 The Spirit, which pervades all that we see, is imperishable. Nothing can destroy the Spirit.
2.17 But know That to be indestructible by which all this is pervaded. None can bring about the destruction of this Immutable.
2.17 Tu, but this word is used for distinguishing (reality) from unreality; tat viddhi, know That; to be avinasi, indestructible, by nature not subject to destruction; what? (that) yena, by which, by which Brahman called Reality; sarvam, all; idam, this, the Universe together with space; is tatam, pervaded, as pot etc. are pervaded by space. Na kascit, none; arhati, can; kartum, bring about; vinasam, the destruction, disappearance, nonexistence; asya, of this avyayasya, of the Immutable, that which does not undergo growth and depletion. By Its very nature this Brahman called Reality does not suffer mutation, because, unlike bodies etc., It has no limbs; nor (does It suffer mutation) by (loss of something) belonging to It, because It has nothing that is Its own. Brahman surely does not suffer loss like Devadatta suffering from loss of wealth. Therefore no one can bring about the destruction of this immutable Brahman. No one, not even God Himself, can destroy his own Self, because the Self is Brahman. Besides, action with regard to one's Self is self-contradictory. Which, again, is that 'unreal' that is said to change its own nature? This is being answered:
2.17. And know That to be destructionsless, by Which all this (universe) is pervaded; no one is capable of causing destruction to this changeless One.
2.17 Avinasi etc [Here] tu is in the sense of ca 'and'. So, 'and' the Soul is not of perishing nature.
2.17 Know that the self in its essential nature is imperishable. The whole of insentient matter, which is different (from the self), is pervaded by the self. Because of pervasiveness and extreme subtlety, the self cannot be destroyed; for every entity other than the self is capable of being pervaded by the self, and hence they are grosser than It. Destructive agents like weapons, water, wind, fire etc., pervade the substances to be destroyed and disintegrate them. Even hammers and such other instruments rouse wind through violent contact with the objects and thery destroy their objects. So, the essential nature of the self being subtler than anything else, It is imperishable. (The Lord) now says that the bodies are perishable:
2.17 Know That to be indestructible by which all this is pervaded. None can cause the destruction of This Immutable.
।।2.17।।तो जो निस्सन्देह सत् है और सदैव रहता है वह क्या है इसपर कहा जाता है नष्ट न होना जिसका स्वभाव है वह अविनाशी है। तु शब्द असत्से सत्की विशेषता दिखानेके लिये है। उसको तू ( अविनाशी ) जान समझ किसको जिस सत् शब्दवाच्य ब्रह्मसे यह आकाशसहित सम्पूर्ण विश्व आकाशसे घटादिके सदृश व्याप्त है। इस अव्ययका अर्थात् जिसका व्यय नहीं होता जो घटताबढ़ता नहीं उसे अव्यय कहते हैं उसका विनाशअभाव ( करनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है )। क्योंकि यह सत् नामक ब्रह्म अवयवरहित होनेके कारण देहादिकी तरह अपने स्वरूपसे नष्ट नहीं होता अर्थात् इसका व्यय नहीं होता। तथा इसका कोई निजी पदार्थ नहीं होनेके कारण निजी पदार्थोंके नाशसे भी इसका नाश नहीं होता जैसे देवदत्त अपने धनकी हानिसे हानिवाला होता है ऐसे ब्रह्म नहीं होता। इसलिये कहते हैं कि इस अविनाशी ब्रह्मका विनाश करनेके लिये कोई भी समर्थ नहीं है। कोई भी अर्थात् ईश्वर भी अपने आपका नाश नहीं कर सकता। क्योंकि आत्मा ही स्वयं ब्रह्म है और अपने आपमें क्रियाका विरोध है।
।।2.17।।  अविनाशि  न विनष्टुं शीलं यस्येति। तु शब्दः असतो विशेषणार्थः।  तत् विद्धि  विजानीहि। किम्  येन सर्वम् इदं  जगत्  ततं  व्याप्तं सदाख्येन ब्रह्मणा साकाशम् आकाशेनेव घटादयः।  विनाशम्  अदर्शनम् अभावम्। अव्ययस्य न व्येति उपचयापचयौ न याति इति अव्ययं तस्य अव्ययस्य। नैतत् सदाख्यं ब्रह्म स्वेन रूपेण व्येति व्यभिचरति निरवयवत्वात् देहादिवत्। नाप्यात्मीयेन आत्मीयाभावात्। यथा देवदत्तो धनहान्या व्येति न तु एवं ब्रह्म व्येति। अतः अव्ययस्य  अस्य  ब्रह्मणः विनाशं  न कश्चित् कर्तुमर्हति  न कश्चित् अत्मानं विनाशयितुं शक्नोति ईश्वरोऽपि। आत्मा हि ब्रह्म स्वात्मनि च क्रियाविरोधात्।। किं पुनस्तदसत् यत्स्वात्मसत्तां व्यभिचरतीति उच्यते


अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।।2.17।।
অবিনাশি তু তদ্বিদ্ধি যেন সর্বমিদং ততম্৷ বিনাশমব্যযস্যাস্য ন কশ্িচত্ কর্তুমর্হতি৷৷2.17৷৷
অবিনাশি তু তদ্বিদ্ধি যেন সর্বমিদং ততম্৷ বিনাশমব্যযস্যাস্য ন কশ্িচত্ কর্তুমর্হতি৷৷2.17৷৷
અવિનાશિ તુ તદ્વિદ્ધિ યેન સર્વમિદં તતમ્। વિનાશમવ્યયસ્યાસ્ય ન કશ્િચત્ કર્તુમર્હતિ।।2.17।।
ਅਵਿਨਾਸ਼ਿ ਤੁ ਤਦ੍ਵਿਦ੍ਧਿ ਯੇਨ ਸਰ੍ਵਮਿਦਂ ਤਤਮ੍। ਵਿਨਾਸ਼ਮਵ੍ਯਯਸ੍ਯਾਸ੍ਯ ਨ ਕਸ਼੍ਿਚਤ੍ ਕਰ੍ਤੁਮਰ੍ਹਤਿ।।2.17।।
ಅವಿನಾಶಿ ತು ತದ್ವಿದ್ಧಿ ಯೇನ ಸರ್ವಮಿದಂ ತತಮ್. ವಿನಾಶಮವ್ಯಯಸ್ಯಾಸ್ಯ ನ ಕಶ್ಿಚತ್ ಕರ್ತುಮರ್ಹತಿ৷৷2.17৷৷
അവിനാശി തു തദ്വിദ്ധി യേന സര്വമിദം തതമ്. വിനാശമവ്യയസ്യാസ്യ ന കശ്ിചത് കര്തുമര്ഹതി৷৷2.17৷৷
ଅବିନାଶି ତୁ ତଦ୍ବିଦ୍ଧି ଯେନ ସର୍ବମିଦଂ ତତମ୍| ବିନାଶମବ୍ଯଯସ୍ଯାସ୍ଯ ନ କଶ୍ିଚତ୍ କର୍ତୁମର୍ହତି||2.17||
avināśi tu tadviddhi yēna sarvamidaṅ tatam. vināśamavyayasyāsya na kaśicat kartumarhati৷৷2.17৷৷
அவிநாஷி து தத்வித்தி யேந ஸர்வமிதஂ ததம். விநாஷமவ்யயஸ்யாஸ்ய ந கஷ்ிசத் கர்துமர்ஹதி৷৷2.17৷৷
అవినాశి తు తద్విద్ధి యేన సర్వమిదం తతమ్. వినాశమవ్యయస్యాస్య న కశ్ిచత్ కర్తుమర్హతి৷৷2.17৷৷
2.18
2
18
।।2.18।। अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहनेवाले इस शरीरी के ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम युद्ध करो।
।।2.18।। इस नाशरहित अप्रमेय नित्य देही आत्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भारत ! तुम युद्ध करो।।
।।2.18।। आत्मा द्वारा धारण किये हुये भौतिक शरीर नाशवान् हैं जबकि आत्मा नित्य अविनाशी और अप्रमेय अर्थात् बुद्धि के द्वारा जानी नहीं जा सकती। यहाँ आत्मा नित्य और अविनाशी है ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि आत्मा का न पूर्णत नाश होता है और न अंशत।नित्य आत्मतत्त्व को अज्ञेय कहा है जिसका अर्थ यह नहीं कि वह अज्ञात है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हम इन्द्रियों के द्वारा विषयों को जानते हैं उस प्रकार इस आत्मा को नहीं जाना जा सकता। इसका कारण यह है कि इन्द्रियाँ मन और बुद्धि आदि हमारे ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं वे स्वत जड़ हैं और चैतन्य आत्मा की उपस्थिति में ही वे अन्य वस्तुओं को प्रकाशित कर सकते हैं। अब जिस चैतन्य के कारण इन्द्रियाँ आदि उपकरण विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं तब उसी चैतन्य को वे प्रत्यक्ष विषय के रूप में किस प्रकार जान सकते हैं यह सर्वथा असम्भव है और इसी दृष्टि से यहाँ आत्मा को अज्ञेय कहा गया है। आत्मा स्वत सिद्ध है।इसलिये हे भारत तुम युद्ध करो वास्तव में इस वाक्य के द्वारा सबको युद्ध करने का आदेश नहीं दिया गया है। जिस धर्म की आधारशिला क्षमा और उदार सहिष्णुता है उसी धर्म के शास्त्रीय ग्रन्थों में इस प्रकार का युद्ध का नारा संभव नहीं हो सकता। कोई टीकाकार यदि ऐसा अर्थ करता है तो वह अनुचित है और वह गीता को महाभारत के सन्दर्भ में नहीं पढ़ रहा है। हे भारत तुम युद्ध करो ये शब्द धर्म का आह्वान है प्रत्येक व्यक्ति के लिये जिससे वह पराजय की प्रवृत्ति को छोड़कर जीवन में आने वाली प्रत्येक परिस्थिति का निष्ठापूर्वक और साहस के साथ सामना करे। अधर्म का सक्रिय प्रतिकार यह गीता में श्रीकृष्ण का मुख्य संदेश है।अब आगे भगवान् उपनिषदों के दो मन्त्र सिद्ध करने के लिये उद्धृत करते हैं कि शास्त्र का मुख्य प्रयोजन संसार के मूल कारण मोह अविद्या की निवृत्ति करना है। भगवान् कहते हैं यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है कि भीष्म और द्रोण मेरे द्वारा मारे जायेंगे और मैं उनका हत्यारा बनूँगा৷৷. कैसे
2.18।। व्याख्या -- 'अनाशिनः'-- किसी कालमें, किसी कारणसे कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम  'अनाशी'  अर्थात् अविनाशी है।  'अप्रमेयस्य'-- जो प्रमा-(प्रमाण-)का विषय नहीं है अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियोंका विषय नहीं है, उसको 'अप्रमेय' कहते हैं। जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और सन्त-महापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और सन्तमें श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और सन्तके वचनोंको मानता है। इसलिये यह तत्त्व केवल श्रद्धाका विषय है,  (टिप्पणी प0 58.1)  प्रमाणका विषय नहीं। शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। अगर वह शास्त्र और सन्तके वचनोंमें श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय नहीं है।  'नित्यस्य'--  यह नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। किसी कालमें यह न रहता हो--ऐसी बात नहीं है अर्थात् यह सब कालमें सदा ही रहता है।  'अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः'-- इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरीके सम्पूर्ण संसारमें जितने भी शरीर हैं, वे सभी अन्तवाले कहे गये हैं। अन्तवाले कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अन्त हो रहा है। इनमें अन्तके सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अन्त-ही-अन्त है। उपर्युक्त पदोंमें शरीरीके लिये तो एकवचन दिया है और शरीरोंके लिये बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणीके स्थूल, सूक्ष्म और कारण--ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसारके सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोकमें भी इसको  'सर्वगतः' पदसे सबमें व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जानेवाले सम्पूर्ण शरीर नाशवान् हैं। जैसे अविनाशीका कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान्को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान्का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात् उसका तो नाश ही होगा।  विशेष बात  यहाँ 'अन्तवन्त इमे देहाः' कहनेका तात्पर्य है कि ये जो देह देखनेमें आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान् हैं। पर ये देह किसके हैं?  'नित्यस्य', 'अनाशिनः'-- ये देह नित्यके हैं, अविनाशीके हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्वने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना माननेका अर्थ है कि अपनेको शरीरमें रख दिया और शरीरको अपनेमें रख लिया। अपनेको शरीरमें रखनेसे 'अहंता' अर्थात् 'मैं'-पन पैदा हो गया और शरीरको अपनेमें रखनेसे ममता अर्थात् मेरापन पैदा हो गया। यह स्वयं जिन-जिन चीजोंमें अपनेको रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें 'मैं'-पन होता ही चला जाता है; जैसे--अपनेको धनमें रख दिया तो 'मैं धनी हूँ'; अपनेको राज्यमें रख दिया तो 'मैं राजा हूँ'; अपनेको विद्यामें रख दिया तो 'मैं विद्वान् हूँ'; अपनेको बुद्धिमें रख दिया तो 'मैं बुद्धिमान् हूँ'; अपनेको सिद्धियों में ख दिया तो 'मैं सिद्ध हूँ'; अपनेको शरीरमें रख दिया तो 'मैं शरीर हूँ'; आदि-आदि। यह स्वयं जिन-जिन चीजोंको अपनेमें रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें 'मेरा'-पन होता ही चला जाता है; जैसे--कुटुम्बको अपनेमें रख लिया तो 'कुटुम्ब मेरा है'; धनको अपनेमें रख लिया तो 'धन मेरा है'; बुद्धिको अपनेमें रख लिया तो ;बुद्धि मेरी है'; शरीरको अपनेमें रख लिया तो 'शरीर मेरा है'; आदि-आदि। जडताके साथ 'मैं' और 'मेरा'-पन होनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं (स्वयं)--दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परन्तु जो इस विवेकको आदर देते हैं महत्व देते हैं वे पण्डित होते हैं। ऐसे पण्डितलोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है--इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है। 'तस्मात् (टिप्पणी प0 58.2) युध्यस्व'-- भगवान् अर्जुनके लिये आज्ञा देते हैं कि सत्-असत् को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात् प्राप्त कर्तव्यका पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अन्तवाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों--शरीर--शरीरीकी दृष्टिसे शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोकका त्याग करके युद्ध करो।  विशेष बात  यहाँ सत्रहवें और अठारहवें--इन दोनों श्लोकोंमें विशेषतासे सत्तत्त्वका ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरणमें भगवान्का लक्ष्य सत्का बोध करानेमें ही है। सत्का बोध हो जानेसे असत्की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकारका किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। इस प्रकार सत्का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्यका पालन करना चाहिये। इस विवेचनसे यह बात सिद्ध होती है कि सांख्ययोग एवं कर्मयोगमें किसी विशेष वर्ण और आश्रमकी आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याणके लिये चाहे सांख्ययोगका अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोगका अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्यकी पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु व्यावहारिक काम करनेमें वर्ण और आश्रमके अनुसार शास्त्रीय विधानकी परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोगके अनुसार सत्-असत् को विवेचन करते हुए भगवान् युद्ध करनेकी अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं। आगे तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया गया है, वहाँ भी  'असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु'-- (13। 9) कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदिकी आसक्तिका निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्य-योगके अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदिमें आसक्ति-रहित होनेके लिये कहनेकी आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासीके पुत्र-स्त्री आदि होते ही नहीं। इस तरह गीतापर विचार करनेसे सांख्ययोग एवं कर्मयोग--दोनों परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रमपर किञ्चिन्मात्र भी अवलम्बित नहीं हैं। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी बात कही। अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते उनकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं।
।।2.18।।यस्तत्त्वदर्शिभिर्दृष्टः स खलु नित्योऽनित्यो वा इत्याशङ्क्याह अविनाशि इति। तुश्चार्थे। आत्मा त्वविनाशी।
।।2.18।।दिह उपचये इति उपचयरूपा  इमे देहा अन्तवन्तः  विनाशस्वभावाः उपचयात्माका हि घटादयः अन्वन्तो दृष्टाः।  नित्यस्य शरीरिणः  कर्मफलभोगार्थतया भूतसंघातरूपा देहाःपुण्यः पुण्येन (बृ0 उ0 4।4।5) इत्यादिशास्त्रैः  उक्ताः  कर्मावसानविनाशिनः। आत्मा तु अविनाशी कुतः अप्रमेयत्वात्। न हि आत्मा प्रमेयतया उपलभ्यते अपि तु प्रमातृतया। तथा च वक्ष्यते एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।। (गीता 13।1) इति।न च अनेकोपचयात्मक आत्मा उपलभ्यते। सर्वत्र देहेअहम् इदं जानामि इति देहाद् अन्यस्य प्रमातृतया एकरूपेण उपलब्धेः। न च देहादेः इव प्रदेशभेदे प्रमातुः आकारभेद उपलभ्यते अत एकरूपत्वेन अनुपचयात्मकत्वात् प्रमातृत्वाद् व्यापकत्वात् च आत्मा नित्यः। देहः तु उपचयात्मकत्वात् शरीरिणः कर्मफलभोगार्थत्वाद् अनेकरूपत्वाद् व्याप्यत्वात् च विनाशी।  तस्माद्  देहस्य विनाशस्वभावत्वाद् आत्मनो नित्यस्वभावत्वात् च उभौ अपि न शोकस्थानम् इति शस्त्रपातादिपरुषस्पर्शान् अवर्जनीयान् स्वगतान् अन्यगतांश्च धैर्येण सोढ्वा अमृतत्वप्राप्तये अनभिसंहितफलं युद्धाख्यं कर्म आरभस्व।
।।2.18।।सदसतोरनन्तरप्रकृतयोः स्वरूपाव्यभिचारित्वेन परमार्थतया सन्निर्धारितम्। इदानीमसन्निर्दिधारयिषया पृच्छति  किं पुनरिति।  असदसदेवेति निर्धारितत्वात् प्रश्नस्य निरवकाशत्वमाशङ्क्य शून्यं व्यावर्त्य विवक्षितमसन्निर्धारयितुं तस्य सावकाशत्वमाह  यत्स्वात्मेति।  देहादेरनात्मवर्गस्य प्रकृतासच्छब्दविषयतेत्याह  उच्यत इति।  तेषां स्वातन्त्र्यं व्युदस्यति  नित्यस्येति।  आकाशादिव्यावृत्त्यर्थं विशिनष्टि  शरीरिण इति।  परिणामिनित्यत्वं व्यवच्छिनत्ति  अनाशिन इति।  तस्य प्रत्यक्षाद्यविषयत्वमाह  अप्रमेयस्येति।  देहादेरवस्तुत्वादात्मनश्चैकरूपत्वाद् युद्धे स्वधर्मे प्रवृत्तस्यापि तव न हिंसादिदोषसंभावनेत्याह  तस्मादिति।  ननु देहादिषु सद्बुद्धेरनुवृत्तेस्तस्या विच्छेदाभावात्कथमन्तवत्त्वं तेषामिष्यते तत्राह  यथेति।  तथेमे देहाः सद्बुद्धिभाजोऽपि प्रमाणतो निरूपणायामवसाने विच्छेदादन्तवन्तो भवन्तीति शेषः। देहत्वादिना च जाग्रद्देहादेरन्तवत्त्वं संप्रतिपन्नवदनुमातुं शक्यमित्याह   स्वप्नेति।  शरीरादेरन्तवत्त्वेऽपि प्रवाहरूपेणात्मनस्तत्संबन्धस्यानन्तवत्त्वमाशङ्क्याह  नित्यस्येति।  प्रवाहस्य प्रवाहिव्यतिरेकेणानिरूपणान्न तदात्मनः देहाद्यभावे संबन्धसिद्धिरित्यभिसंधायोक्तं  विवेकिभिरिति।  पदद्वयस्यैकार्थत्वमाशङ्क्य निरस्यति  नित्यस्येत्यादिना।  नित्यत्वस्य द्वैविध्यसिद्ध्यर्थं नाशद्वैविध्यं प्रतिज्ञातं प्रकटयति  यथेत्यादिना।  नाशस्य निरवशेषत्वेन सावशेषत्वेन च सिद्धे द्वैविध्ये फलितमाह  तत्रेति।  विशेषणाभ्यां कूटस्थनित्यत्वमात्मनोविवक्षितमित्यर्थः। अन्यतरविशेषणमात्रोपादाने परिणामिनित्यत्वमात्मनः शङ्क्येतेत्यनिष्टापत्तिमाशङ्क्याह  अन्यथेति।  औपनिषदत्वविशेषणमाश्रित्याप्रमेयत्वमाक्षिपति  नन्विति।  इतश्चात्मनो नाप्रमेयत्वमित्याह  प्रत्यक्षादिनेति।  तेन चागमप्रवृत्त्यपेक्षया पूर्वावस्थायामात्मैव परिच्छिद्यते तस्मिन्नेवाज्ञातत्वसंभवाद् अज्ञातज्ञापकं प्रमाणमिति च प्रमाणलक्षणादित्यर्थः। एतदप्रमेयमित्यादिश्रुतिमनुसृत्य परिहरति  नेत्यादिना।  कथं मानमनपेक्ष्यात्मनः सिद्धत्वमित्याशङ्क्योक्तं विवृणोति  सिद्धे हीति।  प्रमित्सोः प्रमेयमिति शेषः। तदेव व्यतिरेकमुखेन विशदयति  नहीति।  आत्मनः सर्वलोकप्रसिद्धत्वाच्च तस्मिन्न प्रमाणमन्वेषणीयमित्याह  नह्यात्मेति।  प्रत्यक्षादेरनात्मविषयत्वात्तत्र चाज्ञातताया व्यवहारे संभवात्तत्प्रामाण्यस्य च व्यावहारिकत्वाद्विशिष्टे तत्प्रवृत्तावपि केवले तदप्रवृत्तेः यद्यपि नात्मनि तत्प्रामाण्यं तथापि तद्धितश्रुत्या शास्त्रस्य तत्र प्रवृत्तिरवश्यंभाविनीत्याशङ्क्याह  शास्त्रं त्विति।  शास्त्रेण प्रत्यग्भूते ब्रह्मणि प्रतिपादिते प्रमात्रादिविभागस्यव्यावृत्तत्वाद्युक्तमस्यान्त्यत्वमपौरुषेयतया निर्दोषत्वाच्चास्य प्रामाण्यमित्यर्थः। तथापि कथमस्य प्रत्यगात्मनि प्रामाण्यं तस्य स्वतःसिद्धत्वेनाविषयत्वादज्ञातज्ञापनायोगादित्याशङक्य स्वतो भानेऽपि प्रतीचो मनुष्योऽहं कर्ताहमित्यादिना मनुष्यत्वकर्तृत्वादीनामतद्धर्माणामध्यारोपणेनात्मनि प्रतीयमानत्वात्तन्मात्रनिवर्तकत्वेनात्मनो विषयत्वमनापद्यैव शास्त्रं प्रामाण्यं प्रतिपद्यते सिद्धंतु निवर्तकत्वादिति न्यायादित्याह  अतद्धर्मेति।  घटादाविव स्फुरणातिशयजनकत्वेन किमित्यात्मनि शास्त्रप्रामाण्यं नेष्टमित्याशङ्क्य जडत्वाजडत्वाभ्यां विशेषादिति मत्वाह  नत्विति।  ब्रह्मात्मनो मानापेक्षामन्तरेण स्वतः स्फुरणे प्रमाणमाह  तथाचेति।  साक्षादन्यापेक्षामन्तरेणापरोक्षादपरोक्षस्फुरणात्मकं यद्ब्रह्म न च तस्यात्मनोऽर्थान्तरत्वं सर्वाभ्यन्तरत्वेन सर्ववस्तुसारत्वात्तमात्मानं व्याचक्ष्वेति योजना। अप्रमेयत्वेनाविनाशित्वं प्रतिपाद्य फलितं निगमयति  यस्मादिति।  स्वधर्मनिवृत्तिहेतुनिषेधे तात्पर्यं दर्शयति  युद्धादिति।  आत्मनो नित्यत्वादिस्वरूपमुपपाद्य युद्धकर्तव्यत्वविधानाज्ज्ञानकर्मसमुच्चयोऽत्र भातीत्याशङ्क्याह  नहीति।  युध्यस्वेति वचनात्तत्कर्तव्यत्वविधिरस्तीत्याशङ्क्याह  युद्ध इति।  कथं तर्हि कथं भीष्ममहमित्याद्यर्जुनस्य युद्धोपरमपरं वचनमिति तत्राह  शोकेति।  यदि स्वतो युद्धे प्रवृत्तिस्तर्हि भगवद्वचनस्य का गतिरित्याशङ्क्याह  तस्येति।  भगवद्वचनस्य प्रतिबन्धनिवर्तकत्वे सत्यर्जुनप्रवृत्तेः स्वाभाविकत्वे फलितमाह  तस्मादिति।
।।2.18।।उक्तं सर्वं निगमयति अन्तवन्त इति। इमे देहा नित्यस्य शरीरिणोऽस्यान्तवन्तः अनित्याः कृतेऽप्यकृते शोकेऽस्थिरा उक्ताः। शास्त्रे अन्तश्चिदात्मा तु अविनाशी अप्रमेयत्वादग्राह्यत्वा देति युद्ध्यस्व।
।।2.18।।ननुस्फुरणरूपस्य सतः कथमविनाशित्वं तस्य देहधर्मत्वात् देहस्य चानुक्षणविनाशात् इति भूतचैतन्यवादिनस्तान्निराकुर्वन्नासतो विद्यते भावः इत्येतद्विवृणोति। अन्तवन्तो विनाशिनः इमे परोक्षा देहाः उपचितापचितरूपत्वाच्छरीराणि। बहुवचनात्स्थूलसूक्ष्मकारणरूपाः विराट्सूत्राव्याकृताख्याः समष्टिव्यष्ट्यात्मानः सर्वे नित्यस्याविनाशिन एव शरीरिण आध्यासिकसंबन्धेन शरीरवत एकस्य आत्मनः स्वप्रकाशस्फुरणरूपस्य संबन्धिनः दृश्यत्वेन भोग्यत्वेन चोक्ताः श्रुतिभिर्ब्रह्मवादिभिश्च। तथाच तैत्तिरीय केऽन्नमयाद्यानन्दमयान्तान्पञ्च कोशान्कल्पयित्वा तदधिष्ठानमकल्पितंब्रह्मपुच्छं प्रतिष्ठा इति दर्शितम्। तत्र पञ्चीकृतपञ्चमहाभूततत्कार्यात्मको विराट् मूर्तराशिरन्नमयकोशः स्थूलसमष्टिः तत्कारणीभूतोऽपञ्चीकृतपञ्चमहाभूततत्कार्यात्मको हिरण्यगर्भः सूत्रममूर्तराशिः सूक्ष्मसमष्टिः त्रयं वा इदं नामरूपं कर्म इति बृहदारण्यकोक्तत्र्यन्नात्मकः सकर्मात्मकत्वेन क्रियाशक्तिमात्रमादाय प्राणमयकोश उक्तः। नामात्मकत्वेन ज्ञानशक्तिमात्रमादाय मनोमयकोश उक्तः। रूपात्मकत्वेन तदुभयाश्रयतया कर्तृत्वमादाय विज्ञानमयकोश उक्तः। ततः प्राणमयमनोमयविज्ञानमयात्मैक एव हिरण्यगर्भाख्यो लिङ्गशरीरकोशः। तत्कारणीभूतस्तु मायोपहितचैतन्यात्मा सर्वसंस्कारशेषोऽव्याकृताख्य आनन्दमयकोशः। तेच सर्वे एकस्यैवात्मनः शरीराणीत्युक्तम्तस्यैष एव शरीर आत्मा यः पूर्वस्य इति। तस्य प्राणमयस्यैष एव शरीरे भवः शारीर आत्मा यः सत्यज्ञानादिलक्षणो गुहानिहितत्वेनोक्तः पूर्वस्यान्नभयस्य। एवं प्राणमयमनोमयविज्ञानमयानन्दमयेषु योज्यम्। अथवा इमे सर्वे देहास्त्रैलोक्यवर्तिसर्वप्राणिसंबन्धिन एकस्यैवात्मन उक्ता इति योजना। तथाच श्रुतिःएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।। इति सर्वशरीरसंबन्धिनमेकमात्मानं नित्यं विभुं दर्शयति। ननु नित्यत्वं यावत्कालस्थायित्वं तथाचाविद्यादिवत्कालेन सह नाशेऽपि तदुपपन्नमित्यत आह अनाशिन इति। देशतः कालतो वस्तुतश्च परिच्छिन्नस्याविद्यादेः कल्पितत्वेनानित्यत्वेऽपि यावत्कालस्थायित्वरूपमौपचारिकं नित्यत्वं व्यवह्नियते।यावद्विकारं तु विभागो लोकवत् इति न्यायात्। आत्मनस्तु परिच्छेदत्रयशून्यस्याकल्पितस्य विनाशहेत्वभावान्मुख्यमेव कूटस्थनित्यत्वं नतु परिणामिनित्यत्वं यावत्कालस्थायित्वं चेत्यभिप्रायः। नन्वेतादृशे देहिनि किंचित्प्रमाणमवश्यं वाच्यम् अन्यथा निष्प्रमाणस्य तस्यालीकत्वापत्तेः शास्त्रारम्भवैयर्थ्यापत्तेश्च। तथाच वस्तुपरिच्छेदो दुष्परिहरःशास्त्रयोनित्वात् इति न्यायाच्चात आह अप्रमेयस्येति।एकधैवानुद्रष्टव्यमेतदप्रमयं ध्रुवम्। अप्रमयमप्रमेयम्।न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति इति च श्रुतेः स्वप्रकाशचैतन्यरूप एवात्मा अतस्तस्य सर्वभासकस्य स्वभानार्थं न स्वभास्यापेक्षा किंतु कल्पिताज्ञानतत्कार्यनिवृत्त्यर्थं कल्पितवृत्तिविशेषापेक्षा। कल्पितस्यैव कल्पितविरोधित्वात्यक्षानुरूपो बलिः इति न्यायात्। तथाच सर्वकल्पितनिवर्तकवृत्तिविशेषोत्पत्त्यर्थं शास्त्रारम्भः तस्य तत्त्वमस्यादिवाक्यमात्राधीनत्वात्स्वतः सर्वदा भासमानत्वात्सर्वकल्पनाधिष्ठानत्वाद्दृश्यमात्रभासकत्वाच्च न तस्य तुच्छत्वापत्तिः। तथाचएकमेवाद्वितीयंसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इत्यादिशास्त्रमेव स्वप्रमेयानुरोधेन स्वस्यापि कल्पितत्वमापादयति। अन्यथा स्वप्रामाण्यानुपपत्तेः। कल्पितस्य चाकल्पितपरिच्छेदकत्वं नास्तीति प्राक् प्रतिपादितम्। आत्मनः स्वप्रकाशत्वं च युक्तितोऽपि भगवत्पूज्यपादैरुपपादितम्। तथाहि यत्र जिज्ञासोः संशयविपर्ययव्यतिरेकप्रमाणानामन्यतममपि नास्ति तत्र तद्विरोधि ज्ञानमिति सर्वत्र दृष्टम्। अन्यथा त्रितयान्यतरापत्तेः आत्मनि चाहं वा नाहं वेति न कस्यचित्संशयः नापि नाहमिति विपर्यये व्यतिरेकः प्रमा वेति तत्स्वरूपप्रमा सर्वदास्तीति वाच्यम्। तस्य सर्वसंशयविपर्ययधर्मित्वात्धर्म्यंशे सर्वमभ्रान्तं प्रकारे तु विपर्ययः इति न्यायात्। अतएवोक्तम् प्रमाणमप्रमाणं च प्रमाभासस्तथैव च। कुर्वन्त्येव प्रमां यत्र तदसंभावना कुतः।। इति। प्रमाभासः संशयः स्वप्रकाशे सद्रूपे धर्मिणि प्रमाणाप्रमाणयोर्विशेषो नास्तीत्यर्थः। आत्मनो भासमानत्वे च घटज्ञानं मयि जातं नवेत्यादिसंशयः स्यात्। नचान्तरपदार्थे विषयस्यैव संशयादिप्रतिबन्धकत्वस्वभावः कल्प्यः बाह्यपदार्थे क्लृप्तेन विरोधिज्ञानेनैव संशयादिप्रतिबन्धसंभवे आन्तरपदार्थे स्वभावभेदकल्पनाया अनौचित्यात्। अन्यथा सर्वविप्लबापत्तेः। आत्ममनोयोगमात्रं चात्मसाक्षात्कारे हेतुः। तस्य च ज्ञानमात्रे हेतुत्वाद् घटादिभानेऽप्यात्मभानं समूहालम्बनन्यायेन तार्किकाणां प्रवरेणापि दुर्निवारम्। नच चाक्षुषत्वमानसत्वादिसङ्करः लौकिकत्वालौकिकत्ववदंशभेदेनोपपत्तेः सङ्करस्यादोषत्वाच्चाक्षुषत्वादेर्जातित्वानभ्युपगमाद्वा। व्यवसायमात्र एवात्मभानसामग्र्या विद्यमानत्वादनुव्यवसायोऽप्यपास्तः। नच व्यवसायभानार्थं सः। तस्य दीपवत्स्वव्यवहारे सजातीयानपेक्षत्वात्। नहि घटतज्ज्ञानयोरिव व्यवसायानुव्यवसाययोरपि विषयत्वविषयित्वव्यवस्थापकं वैजात्यमस्ति व्यक्तिभेदातिरिक्तवैधर्म्यानभ्युपगमात् विषयत्वावच्छेदकरूपेणैव विषयित्वाभ्युपगमे घटयोरपि तद्भावापत्तिरविशेषात्। ननु यथा घटव्यवहारार्थं घटज्ञानमभ्युपेयते तथा घटज्ञानव्यवहारार्थं घटज्ञानविषयं ज्ञानमभ्युपेयं व्यवहारस्य व्यवहर्तव्यज्ञानासाध्यत्वादिति चेत् कानुपपत्तिरुद्भाविता देवानांप्रियेण स्वप्रकाशवादिनः। नहि व्यवहर्तव्यभिन्नत्वमपि ज्ञानविशेषणं व्यवहारहेतुतावच्छेदकं गौरवात्। तथाचेश्वरज्ञानवद्योगिज्ञानवत्प्रेयमिति ज्ञानवच्च स्वेनैव स्वव्यवहारोपपत्तौ न ज्ञानान्तरकल्पनावकाशः। अनुव्यवसायस्यापि घटज्ञानव्यवहारहेतुत्वं किं घटज्ञानज्ञानत्वेन किंवा घटज्ञानत्वेनैवेति विवेचनीयम् उभयस्यापि तत्र सत्त्वात्। तत्र घटव्यवहारे घटज्ञानत्वेनैव हेतुतायाः क्लृप्तत्वात्तेनैव रूपेण घटज्ञानव्यवहारेऽपि हेतुतोपपत्तौ न घटज्ञानज्ञानत्वं हेतुतावच्छेदकं गौरवान्मानाभावाच्च। तथाच नानुव्यवसायसिद्धिरेकस्यैव व्यवसायस्य व्यवसातरि व्यवसेये व्यवसाये च व्यवहारजनकत्वोपपत्तेरिति त्रिपुटीप्रत्यक्षवादिनः प्राभाकराः। औपनिषदास्तु मन्यन्ते स्वप्रकाशज्ञानरूप एवात्मा न स्वप्रकाशज्ञानाश्रयः कर्तृकर्मविरोधेन तद्भानानुपपत्तेः ज्ञानभिन्नत्वे घटादिवज्जडत्वेन कल्पितत्वापत्तेश्च स्वप्रकाशज्ञानमात्रस्वरूपोऽप्यात्माऽविद्योपहितः सन्साक्षीत्युच्यते वृत्तिमदन्तःकरणोपहितः प्रमातेत्युच्यते। तस्य चक्षुरादीनि करणानि स चक्षुरादिद्वारान्तःकरणपरिणामेन घटादीन्व्याप्य तदाकारो भवति। एकस्मिंश्चान्तःकरणपरिणामे घटावच्छिन्नचैतन्यं अन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यं चैकलोलीभावापन्नं भवति। ततो घटावच्छिन्नचैतन्यं प्रमात्रभेदात्स्वाज्ञानं नाशयदपरोक्षं भवति घटंच स्वावच्छेदकं स्वतादात्म्याध्यासाद्भासयति अन्तःकरणपरिणामश्च वृत्त्याख्योऽतिस्वच्छः स्वावच्छिन्नेनैव चैतन्येन भास्यत इत्यन्तःकरणतद्वृत्तिघटानामपरोक्षता। तदेतदाकारत्रयमहं जानामि घटमिति भासकचैतन्यस्यैकरूपत्वेऽपि घंटप्रति वृत्त्यपेक्षत्वात्प्रमातृता अन्तःकरणतद्वृत्तीःप्रति तु वृत्त्यनपेक्षत्वात्साक्षितेति विवेकः। अद्वैतसिद्धौ सिद्धान्तबिन्दौ च विस्तरः। यस्मादेवं प्रागुक्तन्यायेन नित्यो विभुरसंसारी सर्वदैकरूपश्चात्मा तस्मात्तन्नाशशङ्क्या स्वधर्मे युद्धे प्राक्प्रवृत्तस्य तव तस्मादुपरतिर्न युक्तेति युद्धाभ्यनुज्ञया भगवानाह तस्माद्युध्यस्व भारतेति। अर्जुनस्य स्वधर्मे युद्धे प्रवृत्तस्य तत उपरतिकारणं शोकमोहौ तौ च विचारजनितेन विज्ञानेन बाधितावितिअपवादापवादे उत्सर्गस्य स्थितिः इति न्यायेन युध्यस्वेत्यनुवादो न विधिः। यथाकर्तृकर्मणोः कृति इत्युत्सर्गःउभयप्राप्तौ कर्मणि इत्यपवादःअकाकारयोः स्त्रीप्रत्यययोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम् इति तदपवादः। तथाच मुमुक्षोर्ब्रह्मणो जिज्ञासेत्यत्रापवादापवादे पुनरुत्सर्गस्थितेःकर्तृकर्मणोः कृति इन्यनेनैव षष्ठी। तथाचकर्मणिच इति निषेधाप्रसराद्बह्मजिज्ञासेति कर्मषष्ठीसमासः सिद्धो भवति। कश्चित्त्वेतस्मादेव विधेर्मोक्षे ज्ञानकर्मणोः समुच्चय इति प्रलपति। तन्न। युध्यस्वेत्यतो मोक्षस्य ज्ञानकर्मसमुच्चयसाध्यत्वाप्रतीतेः। विस्तरेण चैतदग्रे भगवद्गीतावचनविरोधेनैव निराकरिष्यामः।
।।2.18।।आगमापायधर्मकं संदर्शयति  अन्तवन्त इति।  अन्तो विनाशो विद्यते येषां तेऽन्तवन्तः। नित्यस्य सर्वदैकरुपस्य शरीरिणः शरीरवतः अतएव अनाशिनो विनाशरहितस्याप्रमेयस्यापरिच्छिन्नस्यात्मन इमे सुखदुःखादिधर्मका देहा उक्तास्तत्त्वदर्शिभिः। यस्मादेवमात्मनो न विनाशः नच सुखदुःखादिसंबन्धः तस्मान्मोहजं शोकं त्यक्त्वा युध्यस्व। स्वधर्मे मा त्याक्षीरित्यर्थः।
।।2.18।।नासतः इतिप्रतिज्ञांशस्योपपादकतयोत्तरश्लोकमवतारयति देहानामिति।अवधारणेन स्वभावशब्देन च असद्व्यपदेशैकान्त्यं सूचितम्।अन्तवन्तः इति साध्यस्य हेत्वाकाङ्क्षां शमयन् धर्मिप्रतिपादकमेव देहशब्दं निर्वक्ति दिह उपचय इति। उपचयरूपाः सावयवा इत्यर्थः। देहशब्दो रूढ्या धर्मिप्रतिपादकः योगेन हेतुप्रतिपादनपर इति भावः। साध्यनिर्देशे प्रकृतिप्रत्यययोरर्थमाह विनाशस्वभावा इति। नात्र निरूपणापेक्षया देशाद्यपेक्षया वा निर्णयपरिमाणादिरन्तो विवक्षितः। मतुप् च नित्ययोगादिविषय इत्यर्थः। व्याप्तिदृष्टान्तावाह उपचयेति। श्रुतितदर्थापत्तिभ्यामपि शरीरस्य विनाशस्वभावतामुपपादयतीत्याह नित्यस्येति।नित्यस्य शरीरिणः इति पदद्वयसूचिते श्रुतितदर्थापत्ती। कथं कैरुक्ता इत्याकाङ्क्षां शमयति कर्मेत्यादिना। शरीरिण इतीनिप्रत्ययेन षष्ठ्या च प्रतीतस्य सम्बन्धस्य कर्माख्यो हेतुः प्रकृतोपयोगाद्दर्शितः। ईश्वरादिशरीराणामकर्माधीनत्वात्तद्व्यवच्छेदार्थम्इमे इति निर्देशसूचितमुक्तम् भूतसङ्घातरूपा इति। अनेकभूतसङ्घातात्मकत्वमपि अनित्यत्वे हेतुः।कर्मावसानविनाशिन इति शरीरशब्द निर्वचनफलितम्। विशरणाद्धि शरीरम्। कैश्चिच्छास्त्रैस्तावद्देहानामुत्पत्तिविनाशौ द्वावप्यभिधीयेते। यैश्च कर्माधीनोत्पत्तिमात्रमुक्तम् तैरप्यर्थात्कर्मावसाने विनाशोऽप्युक्त एव स्यादिति भावः। एवं चइमे देहाः शरीरिणः इति पदत्रयेण सूचितं भूतसङ्घातरूपत्वसावयवत्वकर्मफलभोगार्थत्वरूपं शरीरानित्यत्वे हेतुत्रयमुक्तम्।अनाशिनोऽप्रमेयस्येति पदद्वयमात्मनित्यत्वाख्यसाध्यसम्भावनातद्धेतुपरतया व्याख्याति आत्मा त्विति। नित्यत्वस्य नाशानर्हत्वेन स्थिरीकरणात्नित्यस्यअनाशिनः इत्यनयोरपुनरुक्तिः स्थूलसूक्ष्मनाशविरहाभिप्रायाद्वा। असिद्धो हेतुः आत्मनोऽप्यस्मत्सिद्धान्ते प्रमाविषयत्वादित्यत्राह नह्यात्मेति। प्रमेयत्वपर्युदासः प्रमेयतैकस्वभावशरीरादिव्यावर्तनमुखेन प्रमातृत्वपर्यवसितः नञोऽत्र तदन्यवाचित्वात्। एवमेव हि क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्विवेको वक्ष्यत इत्याह तथा चेति। एतेन ज्ञानाविषयत्वमात्रं व्याकुर्वन्निरस्तः। प्रमेयत्वं चात्र भोग्यत्वपर्यवसितम्। तद्व्यतिरेकश्च पूर्वोक्तकर्मफलभोगार्थत्वरूपहेतुव्यतिरेकरूपेण भोक्तृत्वपर्यवसितः। ततश्चायं पूर्वोक्तहेत्वन्तरद्वयव्यतिरेकस्यापि प्रदर्शनार्थ इति मत्वा तयोरपि व्यतिरेकमाह न चेत्यादिना। सावयवत्वे योग्यानुपलब्धिमाह सर्वत्रेति। सर्वशब्दोऽत्र देहांशकात्स्न्र्यपरः। तेनाणोरप्यात्मनःपादे मे वेदना शिरसि मे सुखम् इत्यादिसुखदुःखनिमित्ततत्तदवयवावच्छिन्नव्यवहारदशायामपि निरवयवत्वोपलब्धिरुक्ता। यद्वा देवादिरूपेण विचित्रप्रकारष्वनन्तेषु देहेषु क्वचिदपि देहे देहिनः सावयवत्वं नोपलब्धमित्यर्थः। अहमित्येकवचनमेकस्मिन् देहैऽभिमन्तुरात्मन एकत्वं सूचयति। यद्यात्मा सावयवः स्यात् तदावयवीति कदाचिदुपलभ्येत प्रत्येकं तदवयवानामपि चैतन्यस्यावश्याभ्युपगमनीयत्वात्। सावयवत्वे ह्यवयवसङ्घातरूपोऽवयविरूपो वा स्यात् उभयथाप्यवयवगतविशेषगुणमन्तरेण न तत्र विशेषगुणसिद्धिः। किण्वादिष्वपि हि प्रत्येकमसिद्धापि मदशक्तिः पाकविशेषाद्रसविशेषादिवत्प्रत्येकं जायते। शक्तेश्चापर्यनुयोज्यत्वेऽपि विशेषगुणेष्वयं नियमो दुस्त्यजः। ज्ञानद्रव्यत्वपक्षेऽप्येवमेव निष्प्रभसमुदाये सप्रभत्वायोगवत्। एवं च सति समाजवदेकस्मिन् देहे मिथः कलहासूयेर्ष्यानिग्रहानुग्रहादयोऽप्युपलभ्येरन्। समुदायावयविनोश्चातिपीडायामवयवव्यतिरिक्तयोरभावादवयवानामेवानुभवितृत्वं स्यात्। तथा सति पाण्याद्यवच्छिन्नात्मावयवानुरूपं तदन्योऽवयवो न प्रतिसन्दधीतेतिदक्षिणहस्तेन मयैव स्पृष्टं वामहस्तेन पुनः स्पृशामि इत्यादिप्रतिसन्धानं न स्यात्। न चात्मावयवानामाशुतरसञ्चारात्तदुपपत्तिः आत्मनश्चूर्णपुञ्जकल्पत्वप्रसङ्गेन सङ्घातविशेषस्याप्यसिद्धिप्रसङ्गात्। न च वस्त्रादिषु मृगमदवासनेवान्यवासनासङ्क्रमः मात्रानुभूतस्य गर्भस्थेनापि स्मरणप्रसङ्गात्। न च भेदाभेदात्सर्वोपपत्तिः तस्यैव व्याघातादिदुस्थत्वस्य शारीरकभाष्यादिषु प्रपञ्चितत्वात्। तदेवम्अहम् इत्येकत्वेनोपलम्भो निरवयवत्वमन्तरेण नोपपद्यते। एतेनार्थाद्देहेन्द्रियप्राणानामप्यात्मत्वं निरस्तं वेदितव्यम्। तथाहि न हि पाण्याद्यारब्धोऽवयव्यस्ति सत्कार्यवादस्थापनात्। न च पाण्यादय एवात्मानः प्रत्येकमहन्त्वाद्यभावात् अविवादनियमासम्भवाच्च। न चात्र परस्परोपकार्योपकारकभावाभिमानः सुवचः। अत एव च न तत्समुदायः। एवमिन्द्रियग्रामे प्राणाख्यसङ्घातेऽपि इति।देहस्य चान्यस्य चेति। गृहक्षेत्रादितुल्योममेदम् इति देहस्येदङ्ग्रहः।स्थूलोऽहम् इत्यादिकं तु प्रबुद्धस्यापृथक्सिद्धेरप्रबुद्धस्य तु भ्रान्त्येति न कश्चिद्दोष इति भावः।प्रमातृतयेति। विमर्शदशायां प्रमेयस्याप्यात्मनः प्रमातृत्वे नैव हि सर्वदा विषयग्रहणवेलायां स्फुरणम्।अज्ञासिषम् इत्येवमादिरूपेण अन्यदापि प्रमातृत्वं परामृष्टम्। आत्मग्रहणेऽपिमां जानामि इति प्रमातृत्वमपि सुस्थितमेवेति भावः।एकरूपेणेति। सावयवत्वे कस्यचिदवयवस्य कदाचित्प्रमातृत्वेऽन्येषां चाप्रमातृत्वेन स्फुरणं स्यात्। न ह्यनेकेषां चेतनानामवयवानां प्रमाप्रसरयौगपद्यनियमोऽस्तीति भावः। अथ पूर्वोक्तमेव मुखभेदेन साधयन् विजातीयसङ्घातात्मकत्वे योग्यानुपलब्धिं चाह नचेति। पाञ्चभौतिकेषु देहादिषु तत्तद्भूतांशभूतत्वगसृङ्मांसादौ तत्तद्भूतप्रयुक्ताकारभेद उपलभ्यते नैवं प्रमातरि। तथा च श्रूयते कृत्स्नः प्रज्ञानघन एव बृ.उप.4।5।13 इत्यादि। यद्वाआकारभेद इति पाणिपादादिसन्निवेशभेदो विवक्षितः। तदेवमात्मनो नित्यत्वे देहस्य विनाशित्वे च प्रत्येकं हेतुचतुष्टयं श्लोकद्वयसिद्धं सुखग्रहणाय सङ्कलय्य दर्शयति अत इति।एकरूपत्वेन अभूतसङ्घातात्मकत्वादित्यर्थः।अनुपचयात्मकत्वात् निरवयवत्वादित्यर्थः। नन्विदमखिलमपि हेतुजातमनुपपन्नम् तथा हि तत्रासङ्घातरूपत्वस्य निरवयवत्वस्य च रूपरसादिभिर्महदादिभिश्चानैकान्त्यम् प्रमातृत्वं च यदि कर्मफलभोक्तृत्वं विवक्षितम् तदानीम् असाधारणानैकान्त्यम् सकलसपक्षविपक्षव्यावृत्तेः। तत्र चेश्वरादेरपि पक्षीकारे भागासिद्धिश्च। यदि प्रमाश्रयत्वमात्रं विवक्षितम् तदा सर्वप्रमातृपक्षीकरणे पूर्ववदसाधारण्यम्। जीवमात्रपक्षीकारे त्वीश्वरनित्यत्वस्यापि दृढाभ्युपगमाभावात्तस्मिन् दृष्टान्ते सन्दिग्धसाध्यवैकल्यादिदोषः। व्यापकत्वं च यदि सर्वव्यापकत्वम् तदा स्वरूपासिद्धिः प्रत्येकं क्षेत्रज्ञानामणूनां तदभावात् ईश्वरापेक्षया व्याप्यत्वाच्च। यदि कतिपयव्यापकत्वम् तदा शस्त्राकाशादिभिरेवानैकान्त्यम्। शरीरानित्यत्वसाधकं सावयवत्वमपीश्वरदिव्यविग्रहाभरणायुधादिविशेषैः एवं कर्मफलभोगार्थत्वं च। यदि तद्धेतुत्वं तदेश्वरजीवस्वरूपादिभिः पूर्ववदनैकान्त्यम्। यदि तदर्थमुत्पन्नत्वम् तदाव्यर्थविशेषणत्वम् उत्पन्नत्वमात्रेण व्याप्तिसिद्धेः। सङ्घातरूपत्वमपि सावयवत्ववदनैकान्तिकम्। व्याप्यत्वं च यदि सर्वापेक्षया तदा त्वसिद्धिदोषः। न हि शरीरादिकं पर्वतादिभिर्व्याप्यते। अप्रसिद्धत्वं च हेतोः कुत्रचिदपि तस्याभावात्। यदि कतिपयापेक्षया तदेश्वरव्याप्यैर्जीवदिव्यमङ्गलविग्रहादिभिरनैकान्त्यम्। यदि जीवव्याप्यत्वमिति विशेष्येत तदा नित्यसूरिविग्रहविशेषादिभिः प्रकृत्यादिभिश्च प्राग्वद्व्यभिचारः। एतेन क्षेत्रज्ञव्याप्यत्वमित्यपि निरस्तम्। यदि पुनरव्यापकत्वं विवक्षितम् तदाणिमाद्यैश्वर्यवद्योगिप्रभृतिशरीरेषु स्वरूपासिद्धिः तच्छरीराणां शिलाद्युन्मज्जननिमज्जनादेरपि योग्यत्वात् इति।अत्रोच्यते असङ्घातत्वनिरवयवत्वयोस्तावत् अर्जुनादिबुद्ध्याघातकतया प्रस्तुतशस्त्राग्न्याद्यधीनविनाशनिवृत्तेः। साध्यत्वान्न महदादिभिरनैकान्त्यम्। द्रव्यत्वेन विशेषणान्नाग्न्यादिनाश्यरूपादिभिरनैकान्त्यम्। एवं प्रत्यक्षादिसिद्धनाशकनिषेधे महदादिवत्केवलमीश्वरसङ्कल्पादिना नाशः शङ्क्येत तदपि श्रुत्यैव प्रतिषिध्येतेति भावः। प्रमातृत्वस्य भोक्तृत्वपर्यवसाने कर्मफलभोगार्थत्वरूपप्रमेयत्वनिषेधमुखेनानुत्पत्तिपर्यवसितत्वादनुत्पन्नत्वस्य च नित्यत्वेन व्याप्तिसिद्धेः आत्मस्वरूपानुत्पत्तेश्च शास्त्रसिद्धत्वान्न कश्चिद्दोषः। प्रमाश्रयत्वमात्रस्य हेतुत्वे त्वीश्वरो दृष्टान्तः। तत्र साध्यसन्देहोन त्वेवाहम् 2।12 इत्यस्य व्याख्यानदशायां निराकृतः। व्यापकत्वस्य प्रयोगस्तु पूर्वमस्मद्व्याख्यातप्रकारेण शस्त्रादिविषयतया पठितव्य इति न तत्रापि दोषः। शरीरानित्यत्वसाधनेषु च सावयवत्वभूतसङ्घातत्वयोः प्राकृतत्वे सतीति विशेषणान्न व्यभिचारः। एतदर्थं हिइमे देहाः इत्युक्तम्। कर्मफलभोगार्थत्वमपि तदर्थमुत्पन्नत्वमेव न च व्यर्थविशेषणम् मुक्तात्मज्ञानविकासस्य व्यवच्छेद्यत्वात्। न हि सोऽनुत्पन्नः प्रागभावात्। निवृत्ते प्रतिबन्धके करणनिरपेक्षस्वरूपाधीनोत्पत्तित्वमात्रेण हि स्वाभाविकमुच्यते न त्वनुत्पन्नत्वेन।दोषप्रहाणान्न ज्ञानमात्मनः क्रियते तथा। प्रकाश्यन्ते न जन्यन्ते नित्या एवात्मनो हि ते वि.ध.104।55 इत्यादिकं त्ववबोधादिस्वरूपस्यानुत्पन्नतामाह न तु तद्विकासस्य। अथवाऽवस्थारूपत्वेन तस्योत्पन्नत्वं नाम पृथक्चिन्त्यताम्। तदवस्थावस्थितव्यवच्छेदाय विशेषणं स्यात्। अस्तु वा विशेषणनैरपेक्ष्यम् तथाप्युत्पन्नत्वमात्रेणानित्यत्वं तावत्सिद्धम् अज्ञातोत्पत्तिषु केषुचिच्छरीरेषु हेत्वसिद्धिशङ्कापरिहारः कर्ममूलत्वप्रदर्शनेन क्रियते। कर्मावसानविनाशित्वस्य वा साध्यत्वात्तदौचित्याय चेदं विशेषणं सार्थम्। साध्यत्वं व्याप्यत्वं च शस्त्राद्यपेक्षया विवक्षितम्। साध्यं च तदधीनविनाशित्वमिति न कश्चिद्दोषः। ननो यो यद्व्याप्यः स तदधीनविनाश इति न व्याप्तिः ईश्वरव्याप्यैः प्रकृतिपुरुषकालादिभिरनैकान्त्यादिति चेत् न योण्यत्वस्य साध्यत्वात्तत्रापि तत्सम्भवात्। ईश्वरनित्येच्छापरिग्रहादेव हि तन्नित्यत्वम् अन्यथा यदीश्वरो जीवादिस्वरूपमपि सञ्जिहीर्षेत् कस्तस्य शासिता। तर्हि जीवाकाशादिव्याप्यैस्तदधीननाशरहितैः शरीरादिभिर्व्यभिचार इति चेत् न तेषामपि तन्नाश्यत्वयोग्यत्वात्। तन्नाशकर्तेश्वरस्तु न तत्र जीवादीन्युपकरणीकरोतीति विशेषः। ततश्चैवं प्रयोगः शरीरादि शस्त्राद्यधीनविनाशयोग्यं तद्व्याप्यत्वात्। यत् यद्व्याप्यं तत्तदधीनविनाशयोग्यम् इति। यद्वा तिष्ठतु सामान्यव्याप्तिः शस्त्रादिनाश्यत्वमेव साध्यम् शस्त्रादिव्याप्यत्वादित्येव च हेतुः। यच्छस्त्रादिव्याप्यं तच्छस्त्रादिनाश्यम् यथा कदलीकाण्डादीति। न चाकाशादि शस्त्रादिव्याप्यं सूक्ष्मत्वे सत्यनुप्रवेशस्य विवक्षित्वात् सूक्ष्मत्वस्य चात्र यत्र यत्प्रतिहन्यते तत्राप्रतिहतत्वं ततः सूक्ष्मत्वमिति निष्कर्षात्। योगिप्रभृतिशरीराणां तु शस्त्रादिव्याप्यत्वमेव परिणामविशेषादेर्निवृत्तम्। अतस्तदधीननाशाभावः। शस्त्राद्यपेक्षया व्यापकत्वमेव तेषामिति तैर्न व्यभिचारः। ततोऽपि सूक्ष्मतरैरीश्वरसङ्कल्पस्वसङ्कल्पादिभिस्तु तन्नाशः। एतेन शस्त्रास्त्रादिप्रतिबन्धकौषधाद्यनुगृहीतशरीरवृत्तान्तोऽपि व्याख्यातः औषधादिभिस्तत्र प्रवेशप्रतिबन्धात्। तस्मात्सिद्धमष्टावपि हेतवोऽष्टदिग्विजयिनः इति।ननु किमर्थमिह लोकसिद्धं शरीरानित्यत्वं प्रसाध्यते। केषुचिच्छरीरेषु प्रत्यक्षत एव नाशो दृष्टः। अविनष्टेषु भीष्मादिशरीरेष्वपि तत्तुल्यतया नाशित्वं निश्चितमेव। अन्यथा शत्रून् प्रति शस्त्रादिकमपि न प्रहीयेत। स्वयमपि शत्रुशस्त्रादिकं न निवारयेत्। अतः शरीरानित्यत्वस्य सम्प्रतिपन्नत्वात्सन्दिग्धे च न्यायापेक्षणान्निरर्थकमिह सावयवत्वाद्यनुमानचतुष्टयम् इति। अत्रोच्यते प्रथमं तावदात्मनित्यत्वानुमानानां यच्छस्त्राद्यधीनविनाशम् तत् सावयवं यथा शरीरमिति व्यतिरेकव्याप्तिप्रदर्शनमेकं प्रयोजनम्। तत एव देहात्मनोर्विरुद्धधर्मप्रपञ्चनेन भेदस्थापनं द्वितीयम्। शस्त्रादिनिवारणरसायनसेवादिभिर्नित्यत्वमपि किं सम्भवेदिति सन्देहापाकरणं तृतीयम्। एवं देहानां नाशतद्धेत्वोरवश्यम्भावित्वप्रतिपादनेन स्वदेहवैराग्यजननं चतुर्थम्। परदेहेषु च स्वस्यैकस्यैव नाशहेतुत्वभ्रमनिरसनेन वक्ष्यमाणप्रकारेण स्वतन्त्रकर्तृत्वाभिमानक्षालनं पञ्चमम्। नाशहेतौ सत्यवश्यं नश्यतीति प्रतिपादनात् फलाभिसन्धिरहितकर्मानुष्ठानादिनाऽत्यन्तनाशस्यापि सम्भावनाद्योतनं षष्ठम्। नश्वरस्वभावत्वादशोचनीयत्वं सप्तमम्। शीघ्रं मोक्षसाधने प्रवर्तितव्यमित्यष्टमम्। एवं यथोचितमन्यदपि भाव्यम् इति।तस्माद्युध्यस्व भारत 2।18 इत्यत्र तस्मादित्यस्य व्याख्यानंदेहस्येत्यादि न शोकस्थानमित्यन्तम्।मात्रास्पर्शास्तु 2।18 इत्यादिश्लोकद्वयप्रतिपादितेन द्वन्द्वतितिक्षारूपपरिकरेणामृतत्वरूपफलेन च पूरयन्नाह शस्त्रेति। अत्रपरगतान् प्रति शोचतः स्वगताभिधानं मर्मोद्धाटनेन मानजननार्थम्। शास्त्रीयत्वादेव हिस्वगतमपि दुःखं सह्यते। तथा यज्ञपशुशत्रुप्रभृतिगतमपि सोढव्यमिति प्रदर्शनार्थं च युद्धस्यानीप्सितराज्यादिक्षुद्रभोगान्तरप्रधानकत्वव्युदासाय प्रकरणारम्भोक्तमेव फलमुचितमितिअमृतत्वप्राप्तये इत्युक्तम्। धात्वर्थस्य पराभिमतं करणतयान्वयमपाकुर्वन्युध्यस्व इत्यत्र प्रकृतिप्रत्ययार्थौ विविच्याह युद्धाख्यं कर्मारभस्वेति। अयमर्थः सेश्वरमीमांसायां प्रपञ्चितोऽस्माभिः।
।।2.18।।ननु देहादिनाशः प्रत्यक्षमनुभूयमानः किंरूप इत्याशङ्क्यामाह अन्तवन्त इति। नित्यस्य जन्ममरणशून्यस्य शरीरिणो जीवस्य जीवभावनाभिलाषप्राप्तमायासम्बन्धिन इमे देहा लौकिकाः परिदृश्यमानाः भीष्मादीनां सर्वेषां चान्तवन्तः अन्तयुक्ता उक्ता इत्यर्थः। अनाशिनो विनाशहीनस्याप्रमेयस्योपायसहस्रैरपि प्रमातुमयोग्यस्य भगवतः सम्बन्धिनः शरीरिणो जीवस्य भगवदीयस्य देहास्तु नान्तवन्त इत्यर्थः। सर्वेषामेवान्तवत्त्वकथने तु पूर्वोक्तवचनैर्विरोधः स्यात्। अत एव तेषु भिन्नत्वज्ञानार्थमेवइमे इत्युक्तवान्प्रभुः। तस्मादेतेषां मारणेन पापसम्भावना नास्तीति युद्ध्यस्व युद्धं कुर्वित्यर्थः।भारतेति सम्बोधनमुक्तवचनविश्वासार्थं यतः सत्कुलोत्पन्नस्यैवम्भूतभगवद्वाक्ये विश्वासो भवति।
।।2.18।।एवं सत आत्मनो नित्यत्वं असतो देहादेरनित्यत्वं चोक्तमुपसंहरन् एनं युद्धाभिमुखं करोति  अन्तवन्त इति।  यद्यपिनासतो विद्यते भावः इति असतां देहानां कालत्रयेऽपि सत्त्वं नास्तीति परमार्थदृष्ट्या उक्तं तथापि तां दृष्टिमप्रतिपद्यमानस्य नरकादिभयमनुरुध्यमानस्य व्यवहाराभिप्रायेण नित्यानित्यविभागमभिप्रेत्य देहानामन्तवत्त्वमुच्यत इति न दोषः नित्यत्वं कालापरिच्छेद्यत्वं तच्च व्यवहारे नभसोऽप्यस्तीत्यत उक्तं अनाशिन इति। नाशः अदर्शनं तद्वान् हि आकाशःनभ आत्मनि लीयते इति स्मृतेः। अयं तु न तथेत्यनाशी। सर्वदैव प्रकाशमान इत्यर्थः। एतदपि न घटादिवद्दृश्यत्वेनेत्याह  अप्रमेयस्येति।  तथा च श्रुतिरात्मनोऽप्रमेयत्वमाहएतदप्रमयं ध्रुवम् इति। अप्रमयमित्यस्याप्रमेयमित्यर्थः। एतच्चात्मनि प्रमाणाप्रसराज्ज्ञेयम्। तथा च श्रुतिःयेनेदं सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे केन विजानीयात् इति। प्रसिद्धिस्त्वस्य प्रत्यगात्मत्वादेव।यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः इति श्रुतेः। उक्तं चप्रमाणमप्रमाणं च प्रमाभासस्तथैव च। यत्प्रसादात्प्रसिध्यन्ति तदसंभावना कुतः। इति। तस्माद्युध्यस्व भारत। भीष्मादिदेहानां मिथ्यात्वादनित्यत्वाच्च स्वयमेव नष्टप्रायतया हननान्निवृत्त्या त्वया स्वधर्मो न नाशनीय इति भावः।
।।2.18।।किंपुनस्तदसदित्याकाङ्क्षायामाह  अन्तवन्त इति।  ननु स्फुरणरुपस्य सतः कथमविनाशित्वं तस्य देहधर्मत्वाद्देहस्य चानुक्षणविनाशित्वादिति भूतचैतन्यवादिनस्तान्निराकुर्वन्नासतो विद्यते भावः इत्येतद्विवृणोति इति तु नत्वेत्यादिना देहात्मविवेकस्योक्तत्वमभिप्रेत्याचार्यैर्नावतारितम्। अन्तस्तत्त्वज्ञाने बाधो येषां विद्यते तेऽन्तवन्तः। यथा शुत्त्यादिज्ञानेन शुक्तिरुप्यादयो बाध्यास्तथा इमे भ्रान्त्या प्रतीयमाना देहाः स्थूलादयो नित्यस्याबाध्यस्याध्यासिकसंबन्धेन कारणादिशरीरवतः देहा इति सकारणस्य शीतादेरप्युपलक्षणम्। देहानेकत्वाद्बहुवचनम्। पृथिव्यादिवद्य्वाव हारिकनित्यत्वमाशङ्क्याह  अनाशिन इति।  परमार्थनित्यस्य विद्वद्भिरुक्ताः अप्रमेयस्य रुपादिरहितत्वात् व्याप्तिग्रहाभावात् सदृशस्यान्यस्यानिरुपणात्प्रवृत्तिनिमित्ताभावात् तेन विनानुपपद्यमानस्याभावात् अभावत्वाभावात् प्रत्यक्षादिभिरपरिच्छेद्यस्य अथवाऽज्ञाते हि वस्तुनि प्रमाणान्वेषणा भवति ज्ञातश्चात्मा देहाद्भिन्नः सर्वैः प्राणिभिः योऽहं बाल्ये पितरावन्वभूवं स एव नप्तृ़ननुभवामीत्यनुसंधानदर्शनात्। स्वप्ने देवादिशरीरमास्थाय तदुचितान्भोगान्भुक्त्वा प्रबुद्धो मनुष्यदेहं प्राप्य मनुष्य एवाहं नतु देव इति देवशरीरे बाध्यमानेऽप्यहमास्पदस्यात्मनोऽबाध्यमानत्वाच्च योगमाहात्म्येन सिंहादिशरीरमेदेऽप्यात्मनोऽभेदेन ज्ञातत्वाच्च। तथा इन्द्रियेभ्योऽपि भिन्न आत्मा सर्वैर्ज्ञायते योऽहमद्राक्षं स एवेदानीं श्रृणोमीत्यहमालम्बनस्य प्रत्यभिज्ञानात्। बुद्धिमनोभ्यामपि भिन्नः तयोः करणत्वेन कर्तृत्वाश्रयत्वायोगात्। अहं कृश इत्यादिप्रत्ययस्तु प्रेमास्पदे पुत्रादौ विकलेऽहमेव विकल इत्यादिप्रत्ययवदुपपद्यते। तस्मादात्मनोऽज्ञातत्वान्न प्रमाणपरिच्छेद्यता। ननु कथं शास्त्रस्य प्रत्यगात्मनि प्रामाण्यम्। तस्य स्वतःसिद्धस्य ज्ञातत्वेनाविषयत्वादितिचेत्सत्यम्। तथापि शास्त्रस्यात्माध्यस्तसमूलकर्तृत्वाद्यनात्मधर्मनिरासकत्वेन प्रामाण्यमुपपद्यते। तथाच भाष्यम्नहि पूर्वमित्थमहमित्यात्मानं प्रमाय पश्चात्प्रमेयपरिच्छेदाय प्रवर्तते। नह्यात्मा नाम कस्यचित्तदप्रसिद्धो भवति। शास्त्रं त्वन्त्यं प्रमाणम्। अतद्धर्माध्यारोपणमात्रनिवर्तकत्वेन प्राणाण्यमात्मनः प्रतिपद्यते नत्वज्ञातार्थज्ञापकत्वेन। तथाच श्रुतिःयस्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्य य आत्मा इति। यस्मादात्मा नित्यः केनापि क्वचिदपि कदापि न नश्यति देहाश्चनित्यत्वान्नश्यन्त्येव तस्माद्धे भारत भरतवंशोद्भव त्वं युध्यस्व स्वधर्मं युद्धं मा त्याक्षीरित्यर्थः।
2.18 अन्तवन्तः having an end? इमे these? देहाः bodies? नित्यस्य of the everlasting? उक्ताः are said? शरीरिणः of the embodied? अनाशिनः of the indestructible? अप्रमेयस्य of the immesaurable? तस्मात् therefore? युध्यस्व fight? भारत O Bharata.Commentary -- Lord Krishna explains to Arjuna the nature of the allpervading? immortal Self in a variety of ways and thus induces him to fight by removing his delusion? grief and despondency which are born of ignorance.
2.18 These bodies of the embodied Self, Which is eternal, indestructible and immeasurable, are said to have an end. Therefore fight, O Arjuna.
2.18 The material bodies which this Eternal, Indestructible, Immeasurable Spirit inhabits are all finite. Therefore fight, O Valiant Man!
2.18 These destructible bodies are said to belong to the everlasting, indestructible, indeterminable, embodied One. Therefore, O descendant of Bharata, join the battle.
2.18 Ime, these; antavantah, destructible; dehah, bodies as the idea of reality which continues with regard to water in a mirage, etc. gets eliminated when examined with the means of knowledge, and that is its end, so are these bodies and they have an end like bodies etc. in dream and magic ; uktah, are said, by discriminating people; to belong nityasya, to the everlasting; anasinah, the indestructible; aprameyasya, the indeterminable; sarirnah, embodied One, the Self. This is the meaning. The two words 'everlasting' and 'indestructible' are not repetitive, because in common usage everlastingness and destructibility are of two kinds. As for instance, a body which is reduced to ashes and has disappeared is said to have been destoryed. (And) even while existing, when it becomes transfigured by being afflicted with diseases etc. it is said to be 'destroyed'. [Here the A.A. adds 'tatha dhana-nase-apyevam, similar is the case even with regard to loss of wealth.'-Tr.] That being so, by the two words 'everlasting' and 'indestructible' it is meant that It is not subject to both kinds of distruction. Otherwise, the everlastingness of the Self would be like that of the earth etc. Therefore, in order that this contingency may not arise, it is said, 'Of the everlasting, indestructible'. Aprameyasya, of the indeterminable, means 'of that which cannot be determined by such means of knowledge as direct perception etc.' Objection: Is it not that the Self is determined by the scriptures, and before that through direct perception etc.? Vedantin: No, because the Self is self-evident. For, (only) when the Self stands predetermined as the knower, there is a search for a means of knolwedge by the knower. Indeed, it is not that without first determining oneself as, 'I am such', one takes up the task of determining an object of knowledge. For what is called the 'self' does not remain unknown to anyone. But the scripture is the final authority [when the Vedic text establishes Brahman as the innermost Self, all the distinctions such as knower, known and the means of knowledge become sublated. Thus it is reasonable that the Vedic text should be the final authority. Besides, its authority is derived from its being faultless in as much as it has not originated from any human being.]: By way of merely negating superimposition of alities that do not belong to the Self, it attains authoritativeness with regard to the Self, but not by virtue of making some unknown thing known. There is an Upanisadic text in support of this: '৷৷.the Brahman that is immediate and direct, the Self that is within all' (Br. 3.4.1). Since the Self is thus eternal and unchanging, tasmat, therefore; yudhyasva, you join the battle, i.e. do not desist from the war. Here there is no injunction to take up war as a duty, because be (Arjuna), though he was determined for war, remains silent as a result of being overpowered by sorrow and delusion. Therefore, all that is being done by the Lord is the removal of the obstruction to his duty. 'Therefore, join the battle' is only an approval, not an injunction. The scripture Gita is intended for eradicating sorrow, delusion, etc. which are the cases of the cycle of births and deaths; it is not intended to enjoin action. As evidences of this idea the Lord cites two Vedic verses: [Ka. 1.2.19-20. There are slight verbal differences.-Tr.]
2.18. These physical bodies that have an end and suffer the peculiar destruction, are declared to belong to the eternal embodied Soul, Which is destructionless and imcomprehensible. Therefore fight, O descendent of Bharata !
2.18 Antavantah etc. The bodies, at the time of their attaining the unobservable stage, meet their apparent destruction. This would be impossible if they do not suffer the peculiar destruction, that it to say they undergo changes every moment. For, it has been said- 'By observing the dilapidated condition of beings at their last moment, the loss of newness is very moment is inferred' The same has been said by the Sage (Vyasa) also as- 'In every being, in every moment, there is mutual difference between its tiny parts that have different purposes. But on account of its subtlity, it is not cleary comprehended (MB, Santi., Moksa. Ch. 308, verse 121). [In theabove passage] having different purposes amounts to say 'because they perform different acts having their own respective special purposes.; Now, the bodies have thier end and are ever changing. On the other hand, the Self is destructionless, because It is incomprehensible. Changing nature belongs only to the insentient thing which is comprehensible, but not to what is non-insentient and is exclusively consciousness in nature. Because, it is not possible [for one] to gain an altogether different nature. Thus, the bodies meet permanently their end and hence they cannot be lamented for; the Self ever remains without destruction (or without changing) and hence need not be lamented for. Thus a single krtya-suffix has been employed on both the senses simultaneously by the sage in the expression asocyan.
2.18 The root 'dih' means 'to grow.' Hence these bodies (Dehas) are characterised by complexity. They have an end - their nature is perishablity. For, jugs and such other things which are characterised by complexity are seen to have an end. The bodies of the embodied self, which are made of conglomerated elements, serve the purpose of experiencing the effects of Karmas, as stated in Brh. U. IV. 4.5, 'Auspicious embodiments are got through good actions.' Such bodies perish when Karmas are exhausted. Further the self is imperishable. Why? Because it is not measurable. Neither can It be conceived as the object of knowledge, but only as the subject (knower). It will be taught later on: 'He who knows It is called the knower of the Field by those who know this (13.1). Besides, the self is not seen to be made up of many (elements). Because in the perception 'I am the knower' throughout the body, only something other than the body is understood as possessing an invariable form as the knower. Further, this knower cannot be dismembered and seen in different places as is the case with the body. Therefore the self is eternal, for (1) It is not a complex being of a single form; (2) It is the knowing subject; and (3) It pervades all. On the contrary, the body is perishable, because (1) it is complex; (2) it serves the purpose of experiencing the fruits of Karma by the embodied self; (3) it has a plurality of parts and (4) it can be pervaded. Therefore, as the body is by nature perishable and the self by nature is eternal, both are not objects fit for grief. Hence, bearing with courage the inevitable strike of weapons, sharp or hard, liable to be received by you and others, begin the action called war without being attached to the fruits but for the sake of attaining immortality.
2.18 These bodiesof the Jiva (the embodied self) are said to have an end while the Jiva itself is eternal, indestructible and incomprehensibel. Therefore, fight O Bharata (Arjuna).
।।2.18।।तो फिर वह असत् पदार्थ क्या है जो अपनी सत्ताको छो़ड़ देता है ( जिसकी स्थिति बदल जाती है ) इसपर कहते हैं जिनका अन्त होता है विनाश होता है वे सब अन्तवाले हैं। जैसे मृगतृष्णादिमें रहनेवाली जलविषयक सत्बुद्धि प्रमाणद्वारा निरूपण की जानेके बाद विच्छिन्न हो जाती है वही उसका अन्त है वैसे ही ये सब शरीर अन्तवान् हैं तथा स्वप्न और मायाके शरीरादिकी भाँति भी ये सब शरीर अन्तवाले हैं। इसलिये इस अविनाशी अप्रमेय शरीरधारी नित्य आत्माके ये सब शरीर विवेकी पुरुषोंद्वारा अन्तवाले कहे गये हैं। यह अभिप्राय है। नित्य और अविनाशी यह कहना पुनरुक्ति नहीं है क्योंकि संसारमें नित्यत्वके और नाशके दोदो भेद प्रसिद्ध हैं। जैसे शरीर जलकर भस्मीभूत हुआ अदृश्य होकर भी नष्ट हो गया कहलाता है और रोगादिसे युक्त हुआ विपरीत परिणामको प्राप्त होकर विद्यमान रहता हुआ भी नष्ट हो गया कहलाता है। अतः अविनाशी और नित्य इन दो विशेषणोंका यह अभिप्राय है कि इस आत्माका दोनों प्रकारके ही नाशसे सम्बन्ध नहीं है। ऐसे नहीं कहा जाता तो आत्माका नित्यत्व भी पृथ्वी आदि भूतोंके सदृश होता। परंतु ऐसा नहीं होना चाहिये इसलिये इसको अविनाशी और नित्य कहा है। प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे जिसका स्वरूप निश्चित नहीं किया जा सके वह अप्रमेय है। पू0 जब कि शास्त्रद्वारा आत्माका स्वरूप निश्चित किया जाता है तब प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे उसका जान लेना तो पहले ही सिद्ध हो चुका ( फिर वह अप्रमेय कैसे है ) । उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा स्वतः सिद्ध है। प्रमातारूप आत्माके सिद्ध होनेके बाद ही जिज्ञासुकी प्रमाणविषयक खोज ( शुरू ) होती है। क्योंकि मै अमुक हूँ इस प्रकार पहले अपनेको बिना जाने ही अन्य जाननेयोग्य पदार्थको जाननेके लिये कोई प्रवृत्त नहीं होता। तथा अपना आपा किसीसे भी अप्रत्यक्ष ( अज्ञात ) नहीं होता है। शास्त्र जो कि अन्तिम प्रमाण है वह आत्मामें किये हुए अनात्मपदार्थोंके अध्यारोपको दूर करनेमात्रसे ही आत्माके विषयमें प्रमाणरूप होता है अज्ञात वस्तुका ज्ञान करवानेके निमित्तसे नहीं। ऐसे ही श्रुति भी कहती है कि जो साक्षात् अपरोक्ष है वही ब्रह्म है जो आत्मा सबके हृदयमें व्याप्त है इत्यादि। जिससे कि आत्मा इस प्रकार नित्य और निर्विकार सिद्ध हो चुका है इसलिये तू युद्ध कर अर्थात् युद्धसे उपराम न हो। यहाँ ( उपर्युक्त कथनसे ) युद्धकी कर्तव्यताका विधान नहीं है क्योंकि युद्धमें प्रवृत्त हुआ ही वह ( अर्जुन ) शोकमोहसे प्रतिबद्ध होकर चुप हो गया था उसके कर्तव्यके प्रतिबन्धमात्रको भगवान् हटाते हैं। इसलिये युद्ध कर यह कहना अनुमोदनमात्र है विधि ( आज्ञा ) नहीं है। गीताशास्त्र संसारके कारणरूप शोकमोह आदिको निवृत्त करनेवाला है प्रवर्तक नहीं है। इस अर्थकी साक्षिभूत दो ऋचाओंको भगवान् उद्धृत करते हैं।
।।2.18।। अन्तः विनाशः विद्यते येषां ते  अन्तवन्तः । यथा मृगतृष्णिकादौ सद्बुद्धिः अनुवृत्ता प्रमाणनिरूपणान्ते विच्छिद्यते स तस्य अन्तः तथा  इमे देहाः  स्वप्नमायादेहादिवच्च अन्तवन्तः  नित्यस्य शरीरिणः  शरीरवतः  अनाशिनः अप्रमेयस्य  आत्मनः अन्तवन्त इति  उक्ताः  विवेकिभिरित्यर्थः। नित्यस्य अनाशिनः इति न पुनरुक्तम् नित्यत्वस्य द्विविधत्वात् लोके नाशस्य च। यथा देहो भस्मीभूतः अदर्शनं गतो नष्ट उच्यते। विद्यमानोऽपि यथा अन्यथा परिणतो व्याध्यादियुक्तो जातो नष्ट उच्यते। तत्र नित्यस्य अनाशिनः इति द्विविधेनापि नाशेन असंबन्धः अस्येत्यर्थः। अन्यथा पृथिव्यादिवदपि नित्यत्वं स्यात् आत्मनः तत् मा भूदिति नित्यस्य अनाशिनः इत्याह। अप्रमेयस्य न प्रमेयस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणैः अपरिच्छेद्यस्येत्यर्थः।।ननु आगमेन आत्मा परिच्छिद्यते प्रत्यक्षादिना च पूर्वम्। न आत्मनः स्वतःसिद्धत्वात्। सिद्धे हि आत्मनि प्रमातरि प्रमित्सोः प्रमाणान्वेषणा भवति। न हि पूर्वम् इत्थमहम् इति आत्मानमप्रमाय पश्चात् प्रमेयपरिच्छेदाय प्रवर्तते। न हि आत्मा नाम कस्यचित् अप्रसिद्धो भवति। शास्त्रं तु अन्त्यं प्रमाणम् अतद्धर्माध्यारोपणमात्रनिवर्तकत्वेन प्रमाणत्वम् आत्मनः प्रतिपद्यते न तु अज्ञातार्थज्ञापकत्वेन। तथा च श्रुतिः यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः इति।।यस्मादेवं नित्यः अविक्रियश्च आत्मा तस्मात् युध्यस्व युद्धात् उपरमं मा कार्षीः इत्यर्थः।।न हि अत्र युद्धकर्तव्यता विधीयते युद्धे प्रवृत्त एव हि असौ शोकमोहप्रतिबद्धः तूष्णीमास्ते। अतः तस्य प्रतिबन्धापनयनमात्रं भगवता क्रियते। तस्मात् युध्यस्व इति अनुवादमात्रम् न विधिः।।शोकमोहादिसंसारकारणनिवृत्त्यर्थं गीताशास्त्रम् न प्रवर्तकम् इत्येतस्यार्थस्य साक्षिभूते ऋचौ आनिनाय भगवान्।यत्तु मन्यसे युद्धे भीष्मादयो मया हन्यन्ते अहमेव तेषां हन्ता इति एषा बुद्धिः मृषैव ते। कथम्
।।2.18।।देहानामन्तवत्त्वं प्रागुक्तं किमथमुच्यत इत्यत आह  भव त्विति। आत्मनित्यत्वानुमानस्य प्रतिपक्षं वक्तुं स्वाभिप्रेतस्य हेतोः सिद्धान्तिनाप्यभ्युपगतत्वं दृढीकुर्वता पूर्वपक्षिणा देहस्यापि कस्यचिन्नित्यत्वं भवतु किमिति पृष्टे (सति) नेत्याहेत्यर्थः। सिद्धार्थतापरिहाराय  कस्यचि दित्युक्तम्। नन्वतिप्रसङ्गोऽयं कस्मान्न भवतिकस्यचिदिति विशेषणवैयर्थ्यप्रसङ्गात्। नित्यस्येत्यात्मनित्यत्वं पुनः कस्मादुच्यत इत्यत आह  अस्त्वि ति। एवं देहानित्यत्वं सिद्धान्तिनोऽपि सिद्धं कृत्वा तर्हि प्रतिबिम्बस्यात्मन उपाधेर्देहस्य नाशान्नाशोऽस्तु दर्पणनाशान्मुखप्रतिबिम्बस्येवेति पूर्वपक्षिणा प्रतिपक्षेऽभिहिते तत्प्रतिषेधायेदमाहेत्यर्थः। अनेन तथाऽप्यात्मा नित्य इति वाक्यवृत्तिः सूचिता। अनुवादे प्रयोजनाभावात् ये देहा अनित्या न तेषामुपाधित्वम् यस्योपाधित्वं नासावनित्य इति भावः। तदिदमुक्तं इमे इति। व्यक्तीकरिष्यते चैतत्। ननु शरीरिणो देहा इति व्यर्थम् अशरीरस्य देहाभावादित्यत आह  शरीरिण  इति। नित्यस्य देहा अन्तवन्त इत्युच्यमाने ईश्वरदेहस्याप्यन्तवत्त्वं प्रसज्यते तद्व्यावृत्त्यर्थं  शरीरिणः  इति विशेषणम्।जन्तुजन्युशरीरिणः अमरे 1।4।30 इत्यभिधानाच्छरीरिशब्दस्य जीवे प्रसिद्धेः। तथापिअनाशिनः इति पुनरुक्तिरिति। अत्र केचित्तत्परिहारायविनाशिनः इति पाठान्तरं कुर्वन्ति तदसत्अन्तवन्तः इत्यनेन पुनरुक्तितादवस्थ्यात्। कथञ्चित्समाधानेऽन्यत्रापि तत्समम्। किमन्यथापाठेनेत्याशयवानाह  नचे ति। उपाधिनाशेन नाशाभावेऽपि उपाधिबिम्बसन्निधिनाशान्निमित्तात्प्रतिबिम्बस्यात्मनो नाशो भविष्यति। न चासिद्धिः शङ्क्या। परिच्छिन्नस्यैव प्रतिबिम्बसम्भवेन सन्निधिनाशध्रौव्यादिति पुनः प्रतिपक्षिते तत्प्रतिषेधायेदमिति भावः। अप्रमेयस्येत्येतदसम्भवि विशेषणम्। व्यर्थं चेत्यतस्तन्निवर्त्यामाशङ्कां दर्शयित्वा व्याचष्टे   कुत  इति। न हि प्रतिपक्षो वाङ्मात्रेण निषेद्धुं शक्यत इति भावः। अप्रमेयेत्यनेन प्रतिपक्षहेतोरसिद्धिमाचष्टे। नायमात्मा घटादेः कस्यचित्प्रतिबिम्बः किन्त्वीश्वरस्य। स चाप्रमेयः सर्वगत इति कथं तस्योपाधिसन्निधिनाश इति। ननु कथमिदं लभ्यते अतद्भावे सामानाधिकरण्यं सारूप्यं गमयतीति प्रसिद्धमेव न च सर्वगतस्य प्रतिबिम्बासम्भवः तदधीनसारूप्यस्य प्रतिबिम्बत्वात् तदिदमुक्तं सरूपत्वादिति।ननु वक्तव्यं सर्वमुक्त्वोपसंहारः क्रियते तत्किमात्मनित्यत्वविषये सर्वशङ्कोद्धारो जातो येनतस्माद्युद्ध्यस्व इत्युपसंह्रियत इत्यतो जात इत्याह  नही ति। उपाधिबिम्बसन्निध्यनाशे प्रदर्शके आदर्शे उपाधौ बिम्बे चाविनष्टे सति प्रतिबिम्बनाशो न ह्यस्ति उपपादितश्चात्र त्रयस्यानाश इति भावः। ननु विनाशिनां देहानामप्यनुपाधिकत्वात्कोऽत्रोपाधिरित्यत आह  स्वयमि ति। उपाध्युपाधिमद्भावो विशेषबलेनेति भावः। लोकेऽदृष्टमिदं कथमङ्गीकार्यमित्यत आह  चित्त्वादि ति। जडेष्वयावद्वस्तुभावित्वात्सर्वत्र भेदाभेदौ। चित्स्वरूपे तु यावद्वस्तुभावित्वादभेद एवेति भावः। स्वस्यैवोपाधित्वे मुक्तावात्मनिवृत्तिः स्यात्। उपाधिनिवृत्तिलक्षणत्वान्मुक्तेरित्यत आह  नित्य  इति। द्विविध उपाधिरात्मनः नित्योऽनित्यश्च तत्र नित्यस्यावस्थानं अन्यस्य निवृत्तिर्मुक्ताविति कुत एतदित्यत आह  प्रतिपत्ता विति। प्राप्तौ सत्यां कुतस्तिष्ठतीति शेषः। ननूपाध्येति कथं किप्रत्ययान्तस्य पुल्लिङ्गतानियमात्। तर्हि इषुधिर्द्वयोः कथम्। प्रयोगदर्शनादपवादः। यथाहलिङ्गशेषविधिर्व्यापी विशेषैर्यद्यबाधितः इति। समं प्रकृतेऽपि। स्व आत्मा रूपं यस्याः सा स्वरूपा। चिद्रूपत्वात् स्वरूपत्वं स्वरूपत्वान्नित्यत्वम्।
।।2.18।।भवतु देहस्यापि कस्यचिन्नित्यत्वमिति नेत्याह अन्तवन्त इति। अस्तु तर्हि दर्पणनाशात् प्रतिबिम्बनाशवदात्मनाश इत्यत आह नित्यस्य शरीरिण इति। ईश्वरव्यावृत्तये। न च नैमित्तिकनाश इत्याह अनाशिन इति। कुतः अप्रमेयेश्वरसरूपत्वात्। नह्युपाधिबिम्बसन्निध्यनासे प्रतिबिम्बनाशः सति च प्रदर्शके। स्वयमेवात्र प्रदर्शकः चित्त्वात् नित्यश्चोपाधिः कश्चिदस्ति।प्रतिपत्तौ विमोक्षस्य नित्योपाध्या स्वरूपया। चिद्रूपया युतो जीवः केशवप्रतिबिम्बकः इति भगवद्वचनात्।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।2.18।।
অন্তবন্ত ইমে দেহা নিত্যস্যোক্তাঃ শরীরিণঃ৷ অনাশিনোপ্রমেযস্য তস্মাদ্যুধ্যস্ব ভারত৷৷2.18৷৷
অন্তবন্ত ইমে দেহা নিত্যস্যোক্তাঃ শরীরিণঃ৷ অনাশিনোপ্রমেযস্য তস্মাদ্যুধ্যস্ব ভারত৷৷2.18৷৷
અન્તવન્ત ઇમે દેહા નિત્યસ્યોક્તાઃ શરીરિણઃ। અનાશિનોપ્રમેયસ્ય તસ્માદ્યુધ્યસ્વ ભારત।।2.18।।
ਅਨ੍ਤਵਨ੍ਤ ਇਮੇ ਦੇਹਾ ਨਿਤ੍ਯਸ੍ਯੋਕ੍ਤਾ ਸ਼ਰੀਰਿਣ। ਅਨਾਸ਼ਿਨੋਪ੍ਰਮੇਯਸ੍ਯ ਤਸ੍ਮਾਦ੍ਯੁਧ੍ਯਸ੍ਵ ਭਾਰਤ।।2.18।।
ಅನ್ತವನ್ತ ಇಮೇ ದೇಹಾ ನಿತ್ಯಸ್ಯೋಕ್ತಾಃ ಶರೀರಿಣಃ. ಅನಾಶಿನೋಪ್ರಮೇಯಸ್ಯ ತಸ್ಮಾದ್ಯುಧ್ಯಸ್ವ ಭಾರತ৷৷2.18৷৷
അന്തവന്ത ഇമേ ദേഹാ നിത്യസ്യോക്താഃ ശരീരിണഃ. അനാശിനോപ്രമേയസ്യ തസ്മാദ്യുധ്യസ്വ ഭാരത৷৷2.18৷৷
ଅନ୍ତବନ୍ତ ଇମେ ଦେହା ନିତ୍ଯସ୍ଯୋକ୍ତାଃ ଶରୀରିଣଃ| ଅନାଶିନୋପ୍ରମେଯସ୍ଯ ତସ୍ମାଦ୍ଯୁଧ୍ଯସ୍ବ ଭାରତ||2.18||
antavanta imē dēhā nityasyōktāḥ śarīriṇaḥ. anāśinō.pramēyasya tasmādyudhyasva bhārata৷৷2.18৷৷
அந்தவந்த இமே தேஹா நித்யஸ்யோக்தாஃ ஷரீரிணஃ. அநாஷிநோப்ரமேயஸ்ய தஸ்மாத்யுத்யஸ்வ பாரத৷৷2.18৷৷
అన్తవన్త ఇమే దేహా నిత్యస్యోక్తాః శరీరిణః. అనాశినోప్రమేయస్య తస్మాద్యుధ్యస్వ భారత৷৷2.18৷৷
2.19
2
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।।2.19।। जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है।
।।2.19।। जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है और जो इसको मरा समझता है वे दोनों ही नहीं जानते हैं,  क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।।
।।2.19।। आत्मा नित्य अविकारी होने से न मारी जाती है और न ही वह किसी को मारती है । शरीर के नाश होने से जो आत्मा को मरी मानने हैं या जो उसको मारने वाली समझते हैं वे दोनों ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते और व्यर्थ का विवाद करते हैं। जो मरता है वह शरीर है और मैं मारने वाला हूँ यह भाव अहंकारी जीव का है। शरीर और अहंकार को प्रकाशित करने वाली चैतन्य आत्मा दोनों से भिन्न है। संक्षेप में इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा न किसी क्रिया का कर्त्ता है और न किसी क्रिया का विषय अर्थात् उस पर किसी प्रकार की क्रिया नहीं की जा सकती।आत्मा किस प्रकार अविकारी है इसका उत्तर अगले श्लोक में दिया गया है।
2.19।। व्याख्या-- 'य एनं (टिप्पणी प0 59) वेत्ति हन्तारम्'-- जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है; वह ठीक नहीं जानता। कारण कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजारके बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शरीरी शरीरके बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अतः तेरहवें अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि सब प्रकारकी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं--ऐसा जो अनुभव करता है, वह शरीरीके अकर्तापनका अनुभव करता है (13। 29)। तात्पर्य यह हुआ है कि शरीरमें कर्तापन नहीं है, पर यह शरीरके साथ तादात्म्य करके, सम्बन्ध जोड़कर शरीरसे होनेवाले क्रियाओंमें अपनेको कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो यह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है।  'यश्चैनं मन्यते हतम्'-- जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता। जैसे यह शरीरी मारनेवाला नहीं है, ऐसे ही यह मरनेवाला भी नहीं है; क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती। जिसमें विकृति आती है, परिवर्तन होता है अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील होता है, वही मर सकता है।  'उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते'-- वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात् जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरनेवाला मानता है वह भी ठीक नहीं जानता। यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीरीको मारनेवाला और मरनेवाला दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता। कारण कि यह शरीरी वास्तवमें ऐसा नहीं है। यह नाश करनेवाला भी नहीं है और नष्ट होनेवाला भी नहीं है। यह निर्विकाररूपसे नित्यनिरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है। अतः इस शरीरीको लेकर शोक नहीं करना चाहिये। अर्जुनके सामने युद्धका प्रसंग होनेसे ही यहाँ शरीरीको मरने-मारनेकी क्रियासे रहित बताया गया है। वास्तवमें यह सम्पूर्ण क्रियाओंसे रहित है। सम्बन्ध -- यह शरीरी मरनेवाला क्यों नहीं है इसके उत्तरमें कहते हैं
।।2.19।।अन्तवन्त इति। देहाः निरुपाख्याताकले (S निरुपाख्यकाले) स्थूलविनाशयोगिनः तदन्यथानुपपत्तेरेव च विनाशिनः प्रतिक्षणमवस्थान्तरभागिनः। यदुक्तम् अन्ते पुराणतां (S पुराणं दृष्ट्वा) दृष्ट्वा प्रतिक्षणं नवत्वहानिरनुमीयते इति। मुनिनापि कलानां पृथगर्थानां प्रतिभेदः क्षणे क्षणे।वर्तते सर्वभावेषु सौक्ष्म्यात्तु न विभाव्यते।।(M Santi. Moksa. Ch. 308 verse 121 ) इति।पृथगर्थानामति पृथगर्थक्रियाकारित्वादिति यावत्। देहा अन्तवन्तः विनाशिनश्च। आत्मा तु नित्यः यतोऽप्रमेयः। प्रमेयस्य तु जडस्य परिणामित्वम् न तु अजडस्य चिदेकरूपस्य स्वभावान्तरायोगात्। एवं देहा नित्यमन्तवन्त इति शोचितुमशक्याः। आत्मा नित्यमविनाशी तेन न शोचनार्हः। तन्त्रेण अयमेकः कृत्यप्रत्ययो द्वयोरर्थयोर्मुनिना दर्शितः अशोच्यान् इति।
।।2.19।। एनम्  उक्तस्वभावम् आत्मानं प्रति हन्तारं  हननहेतुकम् अपि  यो  मन्यते  यः च एनं  केन अपि हेतुना  हतं मन्यते उभौ तौ न विजानीतः।  उक्तैः हेतुभिः अस्य नित्यत्वाद् एव  अयं  हननहेतुः न भवति अत एव च अयम् आत्मा  न हन्यते।  हन्तिधातुः अपि आत्मकर्मकःशरीरवियोगकरणवाची।न हिंस्यात् सर्वा भूतानिब्राह्मणो न हन्तव्यः (क0 स्मृ0 8।2) इत्यादीनि अपि शास्त्राणि अविहितशरीरवियोगकरणविषयाणि।
।।2.19।।अविनाशि तु तद्विद्धि इत्यत्र पूर्वार्धेन तत्पदार्थसमर्थनमुत्तरार्धेन निरीश्वरवादस्य परिणामवादस्य वा निराकरणमात्मनि जन्मादिप्रतिभानस्यौपचारिकत्वप्रदर्शनार्थमन्तवन्त इत्यादि वचनमिति केचित्। अस्तु नामायमपि पन्थाः। पूर्वोक्तस्य गीताशास्त्रार्थस्योत्प्रेक्षामात्रमूलत्वं निराकर्तुं मन्त्रद्वयं भगवानानीतवानिति श्लोकद्वयस्य संगतिं दर्शयति  शोकमोहादीति।  तत्र प्रथममन्त्रस्य संगतिमाह  यत्त्विति।  प्रत्यक्षनिबन्धनत्वादमुष्या बुद्धेर्मृषात्वमयुक्तमित्याक्षिपति  कथमिति।  प्रत्यक्षस्याज्ञानप्रसूतत्वेनाभासत्वात्तत्कृता बुद्धिर्न प्रमेति परिहरति  य एनमिति। हन्ता चेन्मन्यते हन्तुम् इत्याद्यामृचमर्थतो दर्शयित्वा व्याचष्टे  य   एनमिति।  हन्तारं हतं वात्मानं मन्यमानस्य कथमज्ञानमित्याशङ्क्याह  हन्ताहमिति।  हन्तृत्वादिज्ञानमज्ञानमित्यत्र हेतुमाह  यस्मादिति।  आत्मनो हननं प्रति कर्तृत्वकर्मत्वयोरभावे हेतुं दर्शयति  अविक्रियत्वादिति।
।।2.19।।आत्मनो हन्तिकर्तृकर्मत्वज्ञानिनं निन्दति। य एनमिति हन्तेः सावयवशरीरवियोगकरणवाचित्वान्नायमात्मा हन्ति न हन्यते।न हिंस्यात् सर्वाभूतानि इत्यादिरपि शरीरदृष्ट्यभिप्रायेणोपपद्यते।
।।2.19।।नन्वेयंअशोच्यानन्वशोचस्त्वम् इत्यादिना भीष्मादिबन्धुविच्छेदनिबन्धने शोकेऽपनीतेऽपि तद्वधकर्तृत्वनिबन्धनस्य पापस्य नास्ति प्रतीकारः। नहि यत्र शोको नास्ति तत्र पापं नास्तीति नियमः द्वेष्यब्राह्मणवधे शोकाविषये पापाभावप्रसङ्गात्। अतोऽहं कर्ता त्वं प्रेरक इति द्वयोरपि हिंसानिमित्तपातकापत्तेरयुक्तमिदं वचनंतस्माद्युध्यस्व भारत इत्याशङ्क्य काठकपठितयर्चा परिहरति भगवान् एनं प्रकृतं देहिनमदृश्यत्वादिगुणकं यो हन्तारं हननक्रियायाः कर्तारं वेत्ति अहमस्य हन्तेति विजानाति यश्चान्य एनं मन्यते हतं हननक्रियायाः कर्मभूतं देहहननेन हतोऽहमिति विजानाति तावुभौ देहाभिमानित्वादेनमविकारिणमकारकस्वभावमात्मानं न विजानीतो न विवेकेन जानीतः शास्त्रात्। कस्मात्। यस्मान्नायं हन्ति न हन्यते। कर्ता कर्म च न भवतीत्यर्थः। अत्र य एनं वेत्ति हन्तारं हतं चेत्येतावति वक्तव्ये पदानामावृत्तिर्वाक्यालंकारार्था। अथवा य एनं वेत्ति हन्तारं तार्किकादिरात्मनः कर्तृत्वाभ्युपगमात् तथा यश्चैनं मन्यते हतं चार्वाकादिरात्मनो विनाशित्वाभ्युपगमात् तावुभौ न विजानीत इति योज्यम्। वादिभेदख्यापनाय पृथगुपन्यासः। अतिशूरातिकातरविषयतया वा पृथगुपदेशः।हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम् इति पूर्वार्धे श्रौतः पाठः।
।।2.19।।तदेवं भीष्मादिमृत्युनिमित्तः शोको निवारितः। यच्चात्मनो हन्तृत्वनिमित्तं दुःखमुक्तंएतान्न हन्तुमिच्छामि इत्यादिना तदपि तद्वदेव निर्निमित्तमित्याह  य एनमिति।  एनमात्मानम्। आत्मनो हननक्रियायां कर्मत्वं कर्तृत्वमपि नास्तीत्यर्थः। तत्र हेतुर्नायमिति।
।।2.19।।अथअविनाशि तु 2।17 इति श्लोकेनोक्तंनैनं छिन्दन्ति 2।23 इति प्रपञ्चयिष्यमाणं शस्त्रादीनामात्मनश्च हन्तृत्वहन्तव्यत्वायोग्यत्वं तद्विपर्ययवेदिनिन्दया द्रढयति य एनमिति। सामानाधिकरण्यभ्रमनिरासायोक्तं प्रतीति।हन्तारम् इत्यस्य तृन्नन्तत्वात्एनम् इति द्वितीयान लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतृनाम् अष्टा.2।3।69 इति कृद्योगषष्ठीनिषेधात्।हननहेतुमिति। प्रत्ययस्यात्र हेतुमात्रविवक्षेति भावः।न कश्चित्कर्तुमर्हति 2।17 इति पूर्वोक्तवत्पदार्थविवक्षया पुल्लिङ्गत्वोपपत्तिरिति ज्ञापनायोक्तम् कमपीति। छेदनादिहेतुषु कञ्चिदपीत्यर्थः। ननु हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते 1।प्रतिज्ञान्तरभ्रमव्युदासायाह उक्तैरिति।अस्य नित्यत्वादिति। तत्कार्यशक्तमपि न हि तदयोग्ये प्रवर्तत इति भावः।एनम् इति पूर्ववाक्यादनुकृष्योक्तम्।अतएव चेति। अयोग्यतया हेत्वभावे तत्क्रियाविषयत्वरूपफलाभाव इति भावः।अयं हननहेतुः अयमात्मा इत्युभयत्र अयंशब्दप्रयोगात्तन्त्रेणोच्चारितोऽयं शब्दोहन्ति हन्यते इत्यनयोर्विवक्षाभेदात्कर्तृकर्मसमर्पक इति भावः। कथं तर्हिमनुष्यं हन्ति इत्यादिप्रयोगः। न ह्यसौ शरीरमात्रहननविषयः मृतशरीरघातकेषुपितृहा मातृहा इत्यादिप्रयोगोपक्रोशाद्यभावात्। मनुष्यादिशब्दाश्चात्मपर्यवसिता इति नः सिद्धान्तः।मां जिघांसति इत्यादिप्रयोगेषु व्यक्तमेव हन्तेरात्मकर्मकत्वम्। अतो हिंसायोगश्चेतन एव हन्तिधातोः कर्मभूतः। तथा सतिनायं हन्ति न हन्यते इत्युक्तमुभयमपि नोपपद्यते इत्याशङ्क्याह हन्तिधातुरिति।आत्मकर्मकः इत्यनेन शङ्कासूचनम् सत्यमात्मकर्मक एव स्वतो हन्तिधातुः न तु तत्स्वरूपप्रच्युतिप्रतिपादकः किन्तु मारणपरः। तथैव हि लोकवेदयोः प्रयोगः। मारणं च शरीरादिविश्लेषणात्मकम्।मृङ् प्राणत्यागे इति चानुशिष्यत इति भावः। एवं लोकप्रयोगो निर्व्यूढः। न हिंस्यात्सर्वा भूतानि इति शास्त्रप्रयोगस्य कोऽर्थः। स चास्तु यः कश्चित् स तावत् सामान्यतो विशेषतश्च निषिद्धत्वादकर्तव्य इत्याशङ्क्याह न हिंस्यादिति। पराभिमतप्रक्रिययोत्सर्गापवादन्यायाद्वा स्वमतेन विहितशरीरवियोगकरणस्य पशुशत्रुप्रभृतीनामपि हिततमत्वेन हिंसात्वस्यैवाभावाद्वेति भावः।
।।2.19।।ननु तथापि जीवस्य भगवदंशत्वे कथं हननमत आह य एनमिति। य एनं हन्तारं वेत्ति यश्च एनं हतं मन्यते तावुभावपि न विजानीतः। अयं न हन्ति न वा हन्यते। मदिच्छयैव सर्वं भवतीति भावः।
।।2.19।।ननुनासतो विद्यते भावः इति न्यायेनासतो मात्रादेर्मिथ्यात्वेन निःस्वरूपत्वात्कर्तृत्वं न संभवति। अतः सत एव कर्तृत्वं बन्धमोक्षभाक्त्वं च वाच्यम्। अन्यथाऽन्तःकरणे बन्ध आत्मनश्च मोक्ष इति तयोर्वैयधिकरण्यं स्यात्। तथा येन सर्वमिदं ततमिति सतो देहाद्युपादानत्वं चोक्तम्। तथा च हननक्रियां प्रत्येकस्यैव कर्तृत्वं कर्मत्वं चापतति तच्च विरुद्धम्। स्वात्मनि स्वव्यापारायोगात्। नहि वह्निर्वह्निं दहतीति युक्तमित्याशङ्क्याह  य एनमिति।  यश्च तार्किकादिरेनमात्मानं हन्तारं हननक्रियायाः कर्तारं मन्यते यश्च चार्वाकादिरेनं हतं हननक्रियायाः कर्मीभूतं मन्यते तावुभावपि न जानीतः। आत्मतत्त्वमिति शेषः। यस्मान्नायं हन्ति न हन्यते। नहि यः कर्ता स आत्मा नापि देह आत्मा तयोः प्रागेवानात्मत्वावधारणात्। अयं भावः यथायःपिण्डे वह्निसंबन्धादेव दग्धृत्वं न तु स्वतः एवं मात्राद्युदयसमनियतं कर्तृत्वं मात्रादिधर्म एव नात्मनः। आत्मनि तु कर्तृत्वप्रतीतिर्मात्रादिसंबन्धादेव। अतो मात्रादिविशिष्टस्यैव बन्धो न केवलस्य। मोक्षश्च मात्रादिवियोग एवेति न बन्धमोक्षयोर्वैयधिकरण्यम्। न च मात्रादेर्निःस्वरूपत्वमस्ति। सत्त्वासत्त्वाभ्यामनिर्वचनीयस्य व्यवहारयोग्यस्य ब्रह्मज्ञानैकबाध्यस्य स्वप्नमायागन्धर्वनगरादितुल्यस्य तत्स्वरूपस्याभ्युपगमात्। तस्मान्न कर्तृत्वमात्मधर्मः। यथोक्तम्आत्मा कर्त्रादिरूपश्चेन्मा काङ्क्षीस्तर्हि मुक्तताम्। नहि स्वभावो भावानां व्यावर्तेतौष्ण्यवद्रवेः। इति। किञ्च कर्तृत्वं रागद्वेषादिविकारवत् एव संभवति तद्वांश्च दुःखीत्यात्मनोऽनुभूयमानं साक्षित्वं बाध्येत। यथोक्तम्नर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता का विकारिणः। धीविक्रियासहस्राणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः। इति। न च सतो देहाद्युपादानत्वेन हननक्रियाकर्मत्वं संभवति। विवर्तवादाभ्युपगमात्। नह्यध्यस्तस्य धर्मैरधिष्ठाने विकारो दृश्यते। यथोक्तं भाष्येयत्र यदध्यस्तं सत्तत्कृतेन गुणेन दोषेण वाऽणुमात्रेणापि न संबध्यते इति। विवृतं चैतद्वृद्धैःनहि भूमिरूषरवती मृगतृट्जलवाहिनीं सरितमुद्वहति। मृगवारिपूरपरिपूरवती न नदी तथोषरभुवं स्पृशति। इति। एतेन कर्तृत्वकर्मत्वयोरनात्मधर्मत्वादनात्मनश्चानेकरूपत्वादेकत्रात्मनि तदुभयविरोधोद्भावनमपि निरस्तं वेदितव्यम्। एवं चार्वाकतार्किकाभिमतौ देहात्मकर्त्रात्मवादौ।हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति च हन्यते। इति काठकोक्तेन मन्त्रेण पूर्वार्धे पाठभेदात्पठितेन परिहृतौ वेदितव्यौ।
।।2.19।।   अहमेतेषां हन्ता मयैते हन्यन्त इत्यर्जुनबुद्धेर्मृषात्वबोधनाय ऋचावुदाहरति  य इति।  युत्तु नन्वेवमशोच्यानित्यादिना बन्धुविच्छेदनिबन्धने शोकेऽपनीतेऽपि तद्वधकर्तृत्वनिबन्धनपापस्य नास्ति प्रतीकारः शोकाविषयेऽपि द्वेष्यब्राह्मणवधे पापस्य सत्त्वात्। अतः कर्तुर्मम प्रेरकस्य तव च हिंसानिमित्तपापापत्तेरयुक्तमिदं वचनं तस्मादित्यादीत्याशङ्कां काठकपठितयर्चा परिहरति य इति तद्विचार्यम्। ऋषि हन्त्रादेः पापं न जायते इति परिहारस्यानुक्तेः वधनिबन्धनबन्धुविच्छेदस्यात्मनित्यवप्रतिपादकपूर्वग्रन्थेन नाशाभावोक्त्या प्रतिषिद्धत्वेन तन्निबन्धनपापस्यापि निवारितत्वाच्छङ्काया अनुत्थानात्। यस्मादेवं प्रागुक्तन्यायेन नित्यो विभुरसंसारी सर्वदैकरुपश्चात्मा तस्मात्तन्नाशशङ्क्या स्वधर्मे युद्धे प्राक्प्रवृत्तस्य तव तस्मादुपरतिर्न युक्तेति स्वपूर्वोक्तिविरोधात् द्वेष्यब्राह्मणवधे शोकाभावे द्वेष्यत्वस्य हेतोः पापासाधकत्वेन दृष्टान्तस्य वैषम्यात् संघातवधनिबन्धनपापाभावस्याग्रिमग्रन्थेन क्षत्रधर्मबोधकेन वक्ष्यमाणत्वाच्च। नत्वेवाद्येकोनविंशतिश्लोकैरशोच्यानन्वशोचस्त्वमित्यतस्य विवरणं क्रियतेस्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्यष्टभिः श्लोकैःप्रज्ञावादांश्च भाषस इत्यस्य मोहद्वयस्य पृथग्प्रयत्ननिराकर्तव्यत्वादिति स्वपूर्वग्रन्थविरोधाच्चेत्यास्तां तावत्। य एनमात्मानं हननक्रियायाः कर्तारं यश्च तस्याः कर्म जानाति तौ द्वौ देहात्मबुद्धिमत्त्वेन भ्रान्तौ न विजानीतः। यतोऽयमात्मा देहभिन्नोऽविक्रियत्वाद्धननक्रियायाः कर्ता ततएव कर्म च न भवतीत्यर्थः।
2.19 यः he who? एनम् this (Self)? वेत्ति knows? हन्तारम् slayer? यः he who? च and? एनम् this? मन्यते thinks? हतम् slain? उभौ both? तौ those? न not? विजानीतः know? न not? अयम् this? हन्ति slays? न not? हन्यते is slain.Commentary -- The Self is nondoer (Akarta) and as It is immutable? It is neither the agent nor the object of the act of slaying. He who thinks I slay or I am slain with the body or the Ahamkara (ego)? he does not really comprehend the true nature of the Self. The Self is indestructible. It exists in the three periods of time. It is Sat (Existence). When the body is destroyed? the Self is not destroyed. The body has to undergo change in any case. It is inevitable. But the Self is not at all affected by it. Verses 19? 20? 21? 23 and 24 speak of the immortality of the Self or Atman. (Cf.XVIII.17)
2.19 He who takes the Self to be the slayer and he who thinks It is slain, neither of them ï1knowsï1. It slays not, nor is It slain.
2.19 He who thinks that the Spirit kills, and he who thinks of It as killed, are both ignorant. The Spirit kills not, nor is It killed.
2.19 He who thinks of this One as the killer, and he who thinks of this One as the killed both of them do not know. This One does not kill, nor is It killed.
2.19 But the ideas that you have, 'Bhisma and others are neing killed by me in war; I am surely their killer' this idea of yours is false. How? Yah, he who; vetti, thinks; of enam, this One, the embodied One under consideration; as hantaram, the killer, the agent of the act of killing; ca, and; yah, he who, the other who; manyate, thinks; of enam, this One; as hatam, the killed (who thinks) 'When the body is killed, I am myself killed; I become the object of the act of killing'; ubhau tau, both of them; owing to non-discrimination, na, do not; vijanitah, know the Self which is the subject of the consciousness of 'I'. The meaning is: On the killing of the body, he who thinks of the Self ( the content of the consciousness of 'I' ) [The Ast. omits this phrase from the precedig sentence and includes it in this place. The A.A. has this phrase in both the places.-Tr.] as 'I am the killer', and he who thinks, 'I have been killed', both of them are ignorant of the nature of the Self. For, ayam, this Self; owing to Its changelessness, na hanti, does not kill, does not become the agent of the act of killing; na hanyate, nor is It killed, i.e. It does not become the object (of the act of killing). The second verse is to show how the Self is changeless:
2.19. Whosoever views This to be the slayer and whosoever believes This to be the slain, both these do not understand : This does not slay, nor is This slain.
2.19 Ya enam etc. Whosoever veiws This i.e., the Self and the body, to be the slayer and the slain, ignorance is in him. That is why he is in bondage. The same [point the Lord] clarifies -
2.19 With regard to "This" viz., the self, whose nature has been described above, he who thinks of It as the slayer, i.e., as the cause of slaying, and he who thinks 'This' (self) as slain by some cause or other - both of them do not know. As this self is eternal for the reasons mentioned above, no possible cause of destruction can slay It and for the same reason, It cannot be slain. Though the root 'han' (to slay) has the self for its object, it signifies causing the separation of the body from the self and not destruction of the self. Scriptural texts like 'You shall not cause injury to beings' and 'The Brahmana shall not be killed'? (K. Sm. 8.2) indicate unsanctioned actions, causing separation of the body from the self. [In the above otes, slaughter in an ethical sense is referred to, while the text refers to killing or separating the self from the body in a metaphsyical sense. This is made explicit in the following verse].
2.19 He who deems It (the self) a slayer, and he who thinks of It as slain - both are ignorant. For, the self neither slays nor is slain.
।।2.19।।जो तू मानता है कि मेरेद्वारा युद्धमें भीष्मादि मारे जायँगे मैं ही उनका मारनेवाला हूँ यह तेरी बुद्धि ( भावना ) सर्वथा मिथ्या है। कैसे जिसका वर्णन ऊपरसे आ रहा है इस आत्माको जो मारनेवाला समझता है अर्थात् हननक्रियाका कर्ता मानता है और जो दूसरा ( कोई ) इस आत्माको देहके नाशसे मैं नष्ट हो गया ऐसे नष्ट हुआ मानता है अर्थात् हननक्रियाका कर्म मानता है। वे दोनों ही अहंप्रत्ययके विषयभूत आत्माको अविवेकके कारण नहीं जानते। अभिप्राय यह कि जो शरीरके मरनेसे आत्माको मैं मारनेवाला हूँ मैं मारा गया हूँ इस प्रकार जानते हैं वे दोनों ही आत्मस्वरूपसे अनभिज्ञ हैं। क्योंकि यह आत्मा विकाररहित होनेके कारण न तो किसीको मारता है और न मारा जाता है अर्थात् न तो हननक्रियाका कर्ता होता है और न कर्म होता है।
।।2.19।।  य एनं  प्रकृतं देहिनं  वेत्ति  विजानाति  हन्तारं  हननक्रियायाः कर्तारं  यश्च एनम्  अन्यो  मन्यते हतं  देहहननेन हतः अहम् इति हननक्रियायाः कर्मभूतम्  तौ उभौ न विजानीतः  न ज्ञातवन्तौ अविवेकेन आत्मानम्। हन्ता अहम् हतः अस्मि अहम् इति देहहननेन आत्मानमहंप्रत्ययविषयं यौ विजानीतः तौ आत्मस्वरूपानभिज्ञौ इत्यर्थः। यस्मात् न  अयम्  आत्मा  हन्ति  न हननक्रियायाः कर्ता भवति  न  च  हन्यते  न च कर्म भवतीत्यर्थः अविक्रियत्वात्।।कथमविक्रय आत्मेति द्वितीयो मन्त्रः
।।2.19।। य एन मिति। पुनरात्मनित्यत्वं किमित्युच्यत इति अतो नास्य नित्यत्वप्रतिपादने तात्पर्यम् किन्तु निष्टङ्कितं चेदात्मनो नित्यत्वं तर्हि का गतिस्तद्धननव्यवहारस्येत्याशङ्क्य तस्य भ्रान्तत्वमनेनोच्यत इत्याह  व्यवहार स्त्विति। व्यवहारोऽत्र ज्ञानम्। तथापिनायं हन्ति न हन्यते इति पुनरुक्तिरेवेति चेत् न ज्ञानानां प्रामाण्यस्य बाधकैकापोद्यत्वात्। कुतो बाधकादस्य भ्रान्तत्वमित्याशङ्क्य स्वपक्षसाधकानामेवोक्तहेतूनामेतद्बाधनेऽपि व्यापारप्रदर्शनार्थत्वादस्येत्याह  कुत  इति। नन्वत्र हननमेकमेव तत्कथमुभाविति कथं चनायं हन्ति न हन्यते इति अथैकस्या अपि क्रियायाः कारकभेदादेव मुक्तिस्तर्हि करणाधिकरणोक्तिरपि प्रसज्यत इति उच्यते आत्मनो नित्यत्वमिवास्वातन्त्र्यमपि प्राक्प्रतिपादितम्। यथोक्तं  तात्पर्यनिर्णये  तत्र हननव्यवहारवत्स्वातन्त्र्यव्यवहारस्यापि भ्रान्तत्वमनेनोच्यते इति उभावित्याद्युपपद्यते। अतएव भाष्यकारो व्यवहारस्त्विति सामान्येनाह न तु हननव्यवहार इति निष्कृष्य। ननु नित्यत्वे बिम्बनित्यत्वादयो हेतव उक्ताः अस्वान्तत्र्ये तु न कोऽपि तत्कथमुक्तहेतुभ्य इत्युक्तं इति चेत् न प्रतिबिम्बत्वस्योक्तत्वात् तस्य कथमस्वातन्त्र्ये हेतुत्वमित्यत आह  नही ति। क्रियेति वदताहन्तारं हन्ति इति पदद्वयमुपलक्षणार्थमिति सूचितम्। ननु प्रतिबिम्बस्यापि लोके क्रिया दृश्यते जीवस्य च क्रियाभावेकर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् ब्र.सू.2।3।33 इत्यादिविरोध इत्यत आह   स ही ति। बिम्बक्रियया बिम्बाधीनक्रियया। तथा च पूर्वं स्वातन्त्र्याभावापेक्षया क्रियाप्रतिषेध इति ज्ञातव्यम्। ननूपाधिक्रिययापि प्रतिबिम्बे क्रिया भवति तत्कथमुच्यते बिम्बक्रिययैवेतिमैवम् स्वातन्त्र्यप्रतिषेधे तात्पर्यात् जीवस्य पृथगुपाध्यभावाच्च। जीवस्येश्वराधीनक्रियत्वे श्रुतिं चाह  ध्यायती वेति। ईश्वरो जीवं ध्यायतीत्यर्थः। इवशब्दोऽल्पार्थे।
।।2.19।।व्यवहारस्तु भ्रान्त इत्याह य एनमिति। कुतः उक्तहेतुभ्यो नायं हन्ति न हन्यते। न हि प्रतिबिम्बस्य क्रिया। स हि बिम्बक्रिययैव क्रियावान्। ध्यायतीव बृ.उ.4।3।7 इति श्रुतेश्च।
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।2.19।।
য এনং বেত্তি হন্তারং যশ্চৈনং মন্যতে হতম্৷ উভৌ তৌ ন বিজানীতো নাযং হন্তি ন হন্যতে৷৷2.19৷৷
য এনং বেত্তি হন্তারং যশ্চৈনং মন্যতে হতম্৷ উভৌ তৌ ন বিজানীতো নাযং হন্তি ন হন্যতে৷৷2.19৷৷
ય એનં વેત્તિ હન્તારં યશ્ચૈનં મન્યતે હતમ્। ઉભૌ તૌ ન વિજાનીતો નાયં હન્તિ ન હન્યતે।।2.19।।
ਯ ਏਨਂ ਵੇਤ੍ਤਿ ਹਨ੍ਤਾਰਂ ਯਸ਼੍ਚੈਨਂ ਮਨ੍ਯਤੇ ਹਤਮ੍। ਉਭੌ ਤੌ ਨ ਵਿਜਾਨੀਤੋ ਨਾਯਂ ਹਨ੍ਤਿ ਨ ਹਨ੍ਯਤੇ।।2.19।।
ಯ ಏನಂ ವೇತ್ತಿ ಹನ್ತಾರಂ ಯಶ್ಚೈನಂ ಮನ್ಯತೇ ಹತಮ್. ಉಭೌ ತೌ ನ ವಿಜಾನೀತೋ ನಾಯಂ ಹನ್ತಿ ನ ಹನ್ಯತೇ৷৷2.19৷৷
യ ഏനം വേത്തി ഹന്താരം യശ്ചൈനം മന്യതേ ഹതമ്. ഉഭൌ തൌ ന വിജാനീതോ നായം ഹന്തി ന ഹന്യതേ৷৷2.19৷৷
ଯ ଏନଂ ବେତ୍ତି ହନ୍ତାରଂ ଯଶ୍ଚୈନଂ ମନ୍ଯତେ ହତମ୍| ଉଭୌ ତୌ ନ ବିଜାନୀତୋ ନାଯଂ ହନ୍ତି ନ ହନ୍ଯତେ||2.19||
ya ēnaṅ vētti hantāraṅ yaścainaṅ manyatē hatam. ubhau tau na vijānītō nāyaṅ hanti na hanyatē৷৷2.19৷৷
ய ஏநஂ வேத்தி ஹந்தாரஂ யஷ்சைநஂ மந்யதே ஹதம். உபௌ தௌ ந விஜாநீதோ நாயஂ ஹந்தி ந ஹந்யதே৷৷2.19৷৷
య ఏనం వేత్తి హన్తారం యశ్చైనం మన్యతే హతమ్. ఉభౌ తౌ న విజానీతో నాయం హన్తి న హన్యతే৷৷2.19৷৷
2.20
2
20
।।2.20।। यह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।
।।2.20।। यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है,  शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।।
।।2.20।। इस श्लोक में बताया गया है कि शरीर में होने वाले समस्त विकारों से आत्मा परे है। जन्म अस्तित्व वृद्धि विकार क्षय और नाश ये छ प्रकार के परिर्वतन शरीर में होते हैं जिनके कारण जीव को कष्ट भोगना पड़ता है। एक र्मत्य शरीर के लिये इन समस्त दुख के कारणों का आत्मा के लिये निषेध किया गया है अर्थात् आत्मा इन विकारों से सर्वथा मुक्त है।शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगे ही मृत्यु की अन्तिम श्वांस लेती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और नाश का प्रश्न ही नहीं उठता। अत यहाँ कहा है कि आत्मा अज और नित्य है।आत्मा में क्रिया के कर्तृत्व और विषयत्व का निषेध तथा उसके बाद तर्क के द्वारा उसके अविकारत्व को सिद्ध करने के बाद भगवान् इस विषय का उपसंहार करते हुये कहते हैं
2.20।। व्याख्या --[शरीरमें छः विकार होते हैं--उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना  (टिप्पणी प0 60.1) । यह शरीरी इन छहों विकारोंसे रहित है--यही बात भगवान् इस श्लोकमें बता रहे हैं]  (टिप्पणी प0 60.2) ।  'न जायते म्रियते वा कदाचिन्न'-- जैसे शरीर उत्पन्न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समयमें उत्पन्न नहीं होता। यह तो सदासे ही है। भगवान्ने इस शरीरीको अपना अंश बताते हुए इसको 'सनातन' कहा है  'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः'  (15। 7)।
।।2.20।।य एनमिति। एनमात्मानं देहं च यो हन्तारं हतं च वेत्ति तस्याज्ञानम्। अत एव स बद्धः ( S सम्बन्धः)।
।।2.20।।उक्तैः एव हेतुभिः नित्यत्वाद् अपरिणामित्वाद् आत्मनो जन्ममरणादयः सर्व एव अचेतनदेहधर्मा न सन्ति इति उच्यते।तत्र  न जायते म्रियत  इति वर्तमानतया सर्वेषु देहेषु सर्वैः अनुभूयमाने जन्ममरणे  कदाचिद्  अपि आत्मानं न स्पृशतः।  नायं भूत्वा भवति वा न भूयः  अयं कल्पादौ भूत्वा भूयः कल्पान्ते च न भविता इति न। केषुचित् प्रजापतिप्रभृतिदेहेषु आगमेन उपलभ्यमानं कल्पादौ जननं कल्पान्ते च मरणम् आत्मानं न स्पृशति इत्यर्थः।अतः सर्व देहगत आत्मा  अजः  अत एव  नित्यः   शाश्वतः  प्रकृतिवदविशदसततपरिणामैः अपि न अन्वीयते। अतः पुराणः पुरातनः अपि नवः सर्वदा अपूर्ववद् अनुभाव्य इत्यर्थः। अतः  शरीरे हन्यमाने  अपि  न हन्यते अयम्  आत्मा।
।।2.20।।तदेव साधयितुं न जायते म्रियते वा विपश्चिदित्यादिमन्त्रान्तरमवतारयति  कथमिति।  सर्वविक्रियाराहित्यप्रदर्शनेन हेतुं विशदयन्मन्त्रमेव पठति  न जायत इति।  जन्ममरणविक्रियाद्वयप्रतिषेधं साधयति  नायमिति।  अयमात्मा भूत्वा नाभविता न वा भूत्वा भूयो भवितेति योजना। न केवलं विक्रियाद्वयमेवात्र निषिध्यते किंतु सर्वमेव विक्रियाजातमित्याह  अज इति।  वाच्यमर्थमुक्त्वा विवक्षितमर्थमाह  जनिलक्षणेति।  विकल्पार्थत्वं व्यावर्तयति  वेति।  निष्पन्नमर्थं निर्दिशति  नेत्यादिना।  संबन्धमेवाभिनयति  न   कदाचिदिति।  अन्त्यविक्रियाभावे हेतुत्वेन नायमित्यादि व्याचष्टे  यस्मादिति।  उक्तमेव व्यनक्ति  यो हीति।  आत्मनि तु भूत्वा पुनर्भवनाभावान्नास्ति मृत्युरित्यर्थः। आत्मनो जन्माभावेऽपि हेतुरिहैव विवक्षित इत्याह  वाशब्दादिति।  अभूत्वेति च्छेदः। देहवदिति व्यतिरेकोदाहरणम्। उक्तमेवार्थं साधयति  यो हीति।  जन्माभावे तत्पूर्विकास्तित्वविक्रियापि नात्मनोऽस्तीत्याह  यस्मादिति।  प्राणवियोगादात्मनो मृतेरभावे सावशेषनाशाभाववन्निरवशेषनाशाभावोऽपि सिध्यतीत्याह  यस्मादिति।  ननुजन्मनाशयोर्निषेधे तदन्तर्गतानां विक्रियान्तराणामपि निषेधसिद्धेस्तन्निषेधार्थं न पृथक्प्रयतितव्यमिति तत्राह  यद्यपीति।  स्वशब्दैः मध्यवर्तिविक्रियानिषेधवाचकैरिति यावत्। आर्थिकेऽपि निषेधे निषेधस्य सिद्धतया शाब्दो निषेधो न पृथगर्थवानित्याशङ्क्याह  अनुक्तानामिति।  नित्यशब्देन शाश्वतशब्दस्य पौनरुक्त्यं परिहरन्व्याकरोति  शाश्वत इत्यादिना।  अपक्षयो हि स्वरूपेण वा स्याद्गुणापचयतो वेति विकल्प्य क्रमेण दूषयति  नेत्यादिना।  पुराणपदस्यागतार्थत्वं कथयति  अपक्षयेति।  तदेव स्फुटयति  यो हीति।  न म्रियते वेत्यनेन चतुर्थपादस्य पौनरुक्त्यमाशङ्क्य व्याचष्टे  तथेत्यादिना।  ननु हिंसार्थो हन्तिः श्रूयते तत्कथं विपरिणामो निषिध्यते तत्राह  हन्तिरिति।  हिंसार्थत्वसंभवे किमित्यर्थान्तरं हन्तेरिष्यते तत्राह  अपुनरुक्तताया   इति।  हिंसार्थत्वे मृतिनिषेधेन पौनरुक्त्यं स्यात्तन्निषेधार्थं विपरिणामार्थत्वमेष्टव्यमित्यर्थः। पूर्वावस्थात्यागेनावस्थान्तरापत्तिर्विपरिणामस्तदर्थश्चेदत्र हन्तिरिष्यते तदा निष्पन्नमर्थमाह  नेति।  न जायत इत्यादिमन्त्रार्थमुपसंहरति  अस्मिन्निति।  षण्णां विकाराणामात्मनि प्रतिषेधे फलितमाह  सर्वेति।  आत्मनः सर्वविक्रियाराहित्येऽपि किमायातमित्याशङ्क्याह  यस्मादिति।
।।2.20।।उक्तेऽर्थे प्रमाणभूताः काटकश्रुतयो दर्शयन्ति।न जायते इत्यादिनोत्पत्त्यस्तित्वनाशरूपा विकारा अन्ये चात्मनिषिद्धाः। अज इत्यादिना निगमनम्।
।।2.20।।कस्मादयमात्मा हननक्रियायाः कर्ता कर्म च न भवति अविक्रियत्वादित्याह द्वितीयेन मन्त्रेण जायतेऽस्ति वर्धते विपरिणमतेऽपक्षीयते विनश्यति इति षड्भावविकारा इति वार्ष्यायणिरिति नैरुक्ताः। तत्राद्यन्तयोर्निषेधः। क्रियते न जायते म्रियते वेति। वाशब्दः समुच्चयार्थः। न जायते न म्रियते चेत्यर्थः। कस्मादयमात्मा नोत्पद्यते यस्मादयमात्मा कदाचित्कस्मिन्नपि काले न भूत्वा अभूत्वा प्राक् भूयः पुनरपि भविता न। यो ह्यभूत्वा भवति स उत्पत्तिलक्षणां विक्रियामनुभवति। अयं तु प्रागपि सत्त्वाद्यतो नोत्पद्यतेऽतोऽजः। तथायमात्मा भूत्वा प्राक् कदाचित् भूयः पुनः न भविता। न वा शब्दाद्वाक्यविपरिवृत्तिः। यो हि प्राग्भूत्वोत्तरकाले न भवति स मृतिलक्षणां विक्रियामनुभवति अयं तूत्तरकालेऽपि सत्त्वाद्यतो न म्रियतेऽतो नित्यः। विनाशायोग्य इत्यर्थः। अत्र न भूत्वेत्यत्र समासाभावेऽपि नानुपपत्तिर्नानुयाजेष्वितिवत्। भगवता पणिनिना महाविभाषाधिकारे नञ्समासपाठात्। यत्तु कात्यायनेनोक्तंसमासनित्यताभिप्रायेण वा वचनानर्थक्यं तु स्वभावसिद्धत्वात् इति तत् भगवत्पाणिनिवचनविरोधादनादेयम्। तदुक्तमाचार्यशबरस्वामिनाअसद्वादी हि कात्यायनः इति। अत्र न जायते म्रियते वेति प्रतिज्ञा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय इति तदुपपादनं अजो नित्य इति तदुपसंहार इति विभागः। आद्यन्तयोर्विकारयोर्निषेधेन मध्यवर्तिविकाराणां तद्व्याप्यानां निषेधे जातेऽपि गमनादिविकाराणामनुक्तानामप्युपलक्षणयापक्षयश्च वृद्धिश्च स्वशब्देनैव निराक्रियते। तत्र कूटस्थनित्यत्वादात्मनो निर्गुणत्वाच्च न स्वरूपतो गुणतो वापक्षयः संभवतीत्युक्तं शाश्वत इति। शश्वत्सर्वदा भवति नापक्षीयते नापचीयत इत्यर्थः। यदि नापक्षीयते तर्हि वर्धतामिति नेत्याह पुराण इति। पुरापि नव एकरूपो नत्वधुना नूतनां कांचिदवस्थामनुभवति। यो हि नूतनां कांचिदुपचयावस्थामनुभवति स वर्धत इत्युच्यते लोके। अयं तु सर्वदैकरूपत्वान्नापचीयते नोपचीयते चेत्यर्थः। अस्तित्वविपरिणामौ तु जन्मविनाशान्तर्भूतत्वात्पृथङ्निषिद्धौ। यस्मादेवं सर्वविकारशून्य आत्मा तस्माच्छरीरे हन्यमाने तत्संबद्धोऽपि केनाप्युपायेन न हन्यते न हन्तुं शक्यत इत्युपसंहारः।
।।2.20।।   न हन्यत इत्येतदेव षड्भावविकारशून्यत्वेन द्रढयति  नेति।  न जायत इति जन्मप्रतिषेधः। न म्रियते चेति विनाशप्रतिषेधः। वाशब्दौ चार्थे। नचायं भूत्वा उत्पद्य भविता भवति अस्तित्वं भजते। किंतु प्रागेव स्वतः सद्रूप इति जन्मानन्तरास्तित्वलक्षणद्वितीयविकारप्रतिषेधः। तत्र हेतुः यस्मादजः। यो हि जायते स जन्मानन्तरमस्तित्वं भजते नतु यः स्वयमेवास्ति स भूयोऽप्यन्यदस्तित्वं भजत इत्यर्थः। नित्यः सर्वदैकरुप इति वृद्धिप्रतिषेधः। शाश्वतः शश्वद्भव इत्यपक्षयप्रतिषेधः। पुराण इति विपरिणामप्रतिषेधः। पुरापि नव एव नतु परिणामतो रुपान्तरं प्राप्य नवो भवतीत्यर्थः। यद्वा न भवितेत्यस्यानुषङ्गं कृत्वा भूयोऽधिकं यथा भवति तथा न भवतीति वृद्धिप्रतिषेधः। अजो नित्य इति चोभयवृद्ध्यभावे हेतुरित्यपौनरुक्त्यम्। तदेवंजायते अस्ति वर्धते विपरिणमते अपक्षीयते नश्यतीत्येवं यास्कादिभिर्वेदवादिभिरुक्ताः षड्भावविकारा निरस्ताः। यदर्थमेते विकारा निरस्तास्तं प्रस्तुतं विनाशाभावमुपसंहरति न हन्यते हन्यमाने शरीर इति।
।।2.20।।अथविपश्चित् कठो.1।2।18 इत्यधीतस्य अत्रकदाचित् इत्येकपदमात्रविशेषितस्यन जायते इति कठवल्लीश्लोकस्य पौनरुक्त्यप्रत्यक्षविरोधादिदोषमाशङ्क्याह उक्तैरेवेति। एतेन प्रतिज्ञामात्रत्वशङ्का परास्ता।नित्यत्वेनापरिणामित्वादिति अविनाशत्वेन विकारमात्रस्यापि निरस्तत्वादित्यर्थः। तथाहि विनाशो नाम पूर्वावस्थाप्रहाणरूपनामान्तरभजनार्हावस्थान्तरापत्तिः। यथा घटादिद्रव्यस्य कपालाद्यवस्था तदवस्थौन्मुख्यं च तस्या अपक्षयः। सैव कपालाद्यवस्थस्य तस्यैव द्रव्यस्योत्पत्तिः। एवं परिणामवृद्ध्यादिकमुदाहरणीयम्। वक्ष्यति चेममर्थम् जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः 2।27 इत्यत्र। अतो विनाशित्वनिराकरणेन जननादिकमप्यर्थतो निरस्तम्।सर्व एवेत्यपौनरुक्त्यार्थमुक्तम्। एवकारोऽत्र अपिशब्दसमानार्थः। न केवलं हन्तव्यत्वमात्रमेव नास्ति अपितु जन्यत्वादिकमपीत्यपुनररुक्तिरिति भावः।देहधर्मा इति।हन्यमाने शरीरे इति सूचितजननमरणादिव्यवहारविषय उक्तः तत्र हेतुः अचेतनेति। जननादयो देहधर्मा आत्मनो न सन्तीत्युच्यत इति आत्मनि देहधर्मान् प्रत्यक्षादिनाभिमन्यमानायार्जुनायन जायते इत्युपनिषन्मन्त्रेणैव यथावस्थिताकारो विविच्याभिधीयते न तु देहसंयोगवियोगलक्षणजनितमरणप्रतिक्षेपः क्रियत इत्यर्थः। वाशब्दश्चार्थः। श्लोकस्थपदानां पौनरुक्त्यपरिहाराय वर्तमानादिनिर्देशसिद्धां व्यवस्थां व्यञ्जयन्नाह तत्रेति। ननु कदाचिदित्यनेन वर्तमानकालविवक्षायां वैयर्थ्यं लकारेणैव गतार्थत्वात्। भूतभविष्यतोः सङ्ग्रहे वर्तमाननिर्देशो न सङ्गच्छत इत्याशङ्क्योक्तम् वर्तमानतयेत्यादि। तत्तत्कालीनैः पुरुषैस्तेषु तेषु देहेषुजायतेम्रियते इति वर्तमानतयैव हि जननमरणयोरनुभवः अतस्तदपेक्षया वर्तमाननिर्देशोपपत्तिः तेन कल्पाद्यन्तव्यतिरिक्तः समस्तः कालःकदाचिदिति सङ्गृहीत इति भावः।भूत्वा इति पूर्वकालनिर्देशाभिप्रेतमाह कल्पादाविति। तत्र भूयश्शब्दः कल्पान्तपरः।भूत्वा भविता इत्यनयोः क्रिययोः प्रत्येकं नञन्वयभ्रमव्युदासायोक्तम् न न भवितेति। भूत्वा न भवितेति विशिष्टं नञन्तरेण प्रतिषिध्यते। ननुनायं भूत्वा इत्यादिकं किमर्थमुच्यतेन जायते इत्यादिनैव सङ्ग्रहीतुं शक्यत्वादित्याशङ्क्याह केषुचिदिति।अयं भावः कालविशेषेषु देहविशेषेषु सृष्टिप्रलयविशेषः श्रूयते। स च न देहसम्बन्धतद्वियोगमात्रम् तोयेन जीवान् विससर्ज भूम्याम् महाना.1।4 इति कण्ठोक्तेः प्राक्सृष्टेरेकत्वावधारणादेकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञोपपत्तेरेकस्यैव बहुभवनसङ्कल्पादेश्च इति। जीवस्वरूपोत्पत्तिनाशावेवाभ्युपगन्तव्याविति जीवानामाप्रलयावस्थायित्ववादशङ्कानिरासायनायं भूत्वा इत्याद्युक्तम्। तत्र चैवमुत्तरम् जीवानां विसृष्टिः सदेहीकरणेन विक्षेपः। प्राक्सृष्टेरेकत्वावधारणं नामरूपविभागाभावात् एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं च सूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरकस्य ब्रह्मणः स्थूलचिदचिद्वस्तुशरीरतया परिणामात्। अत एव बहुभवनसङ्कल्पाद्युपपत्तिश्च। अतः कल्पाद्यन्तयोरपि ज्ञानसङ्कोचविकासकरदेहविश्लेषसंश्लेषमात्रमेव न पुनः स्वरूपोत्पत्तिः इति।अजो नित्यः इत्यनयोः पूर्वोक्तार्थस्य सङ्कलय्य निगमनरूपतया तत्तत्कालेषु जन्मादिनिषेधेन सर्वदेहगतात्माजत्वादिविवक्षया चापौनरुक्त्यमित्यभिप्रायेणाह अतः सर्वदेहगत इति।अतएव नित्य इति उत्पत्तिरहितत्वान्नाशित्वरहित इत्यर्थः। सृष्ट्यवस्थागतस्थूलपरिणामानामात्मनि निरस्तत्वात् प्रलयाद्यवस्थागतसूक्ष्मपरिणामनिरसनपरः शाश्वतशब्द इत्यभिप्रायेणाह प्रकृतिवदिति। पुराणशब्दमपिअक्षरसाम्यान्निर्ब्रूयात् इत्युक्तन्यायेन निर्वक्ति पुरापि नव इति। किमिदं पुरापि नवत्वम् अनुत्पन्नस्य कदाचिदपि नवत्वायोगात्। उत्पन्नेऽपीदानीमपि नव इति वा परंस्तादपि नव इति वा वक्तव्यम्। पुरा नवत्वस्याविस्मयनीयत्वादित्याशङ्क्याह सर्वदेति। पुराशब्दस्य कालत्रयोपलक्षणतया वा वृत्त्यन्तर्गताभिप्रायकापिशब्दसमुच्चितकालान्तरतात्पर्येण वा पुरातनोऽपि नव इति विरोधाभिप्रायेण वा निर्वाहः। नवशब्दोऽप्यत्र नवत्वसहिताश्चर्यत्वपरः। वक्ष्यति च आश्चर्यवत् 2।29 इत्यादीति भावः। यद्वा सावयवानामवयवाप्यायनादिना नवीकरणं स्यात् अयं तु निरवयवत्वेनानवीकार्यतया पुरापि नव इत्युपपादितम्। इममर्थमर्जुनस्य शङ्क्यमानविषये निगमयतीत्यभिप्रायेणाह अत इति।
।।2.20।।मारणादिसम्भावना तु जन्मादिभावे सति भवति तदेव नास्तीत्याह न जायत इति। जन्माभावो निरूपितः।न वा कदाचिन्म्रियते अनेन मरणनिषेधो निरूपितः। अयं भूत्वा भूयः न भविता। अत्रायमर्थः मत्क्रीडनार्थं सृष्टौ येन भावेन पूर्वं यथा विभावितः तथा तेनैव भावेन पुनर्न भविष्यति। तस्माद्यदर्थं मयोत्पादितस्तदेव मत्प्रीत्यर्थं कुर्यादन्यथा जन्मवैयर्थ्यं स्यात्। भूत्वेत्युक्तत्वात् जन्मशङ्का स्यात्तदर्थमाह अजः न जायत इत्यर्थः मदंशत्वात्। एवम्भूत एवायमित्याह नित्य इति। किञ्च शाश्वतः। मयि स्थित एव निरन्तरमेकभावात्मकः। किञ्च पुराणः सर्वदैवमेव मत्सेवार्थं दासरूपः पुराणोऽपि नव एवेत्यर्थः। यदर्थमेतदुक्तं तदाह न हन्यत इति। हन्यमाने शरीरे गतोऽयं जीवस्तस्मिन्हते न हन्यते इत्यर्थः। अयमर्थः हन्यमाने अन्तयुक्ते लौकिके देहे प्रविष्ट इत्यर्थः।हन्यमाने इत्यनेन तदर्थसृष्टत्वं ज्ञापितम्। तस्माद्भगवदिच्छानुरूपकरणान्नातिभ्रमजन्योऽपि दोषः स्यादिति भावः।
।।2.20।।नायं हन्ति न हन्यत इत्युक्तं तत्र न हन्यत इत्येतदुपपादयति तत्रस्थेनैव द्वितीयेन मन्त्रेण  न जायत इति।  अयं आत्मा कदाचित् न जायते अभिनवो नोत्पद्यते। न वा म्रियते निरन्वयो न नश्यति। तार्किकाभिमतघटवत्। तत्र क्रमेण हेतुद्वयम्  अजो नित्य इति।  अजत्वान्न जायते। नित्यत्वाच्च न वा म्रियत इत्यर्थः। अस्तु तर्हि क्षणिकविज्ञानधारारूपः। तस्याविज्ञानवादिभिरजत्वनित्यत्वाभ्युपगमादित्याशङ्क्याह  भूत्वा भविता वा न भूय इति।  अयमित्यनुवर्तते। अयं भूत्वा भूयो भविता न। भूयोऽसकृत् भूत्वा भवितेति भवनक्रियाद्वयस्य क्त्वाप्रत्ययोक्तं समानकर्तृत्वं धारैक्याभिप्रायेण। भूत्वैव भविता न तु भूत्वा स्थित्वा विनश्यति। तार्किकाणां हि विज्ञानमुत्पत्तिस्थितिनाशक्षणव्यापित्वात्ित्रक्षणावस्थायि। विज्ञानवादिना तु पूर्वस्य नाशक्षण एवोत्तरस्योत्पत्तिक्षणः स एव तस्य स्थितिक्षणश्चेति क्षणिकत्वाद्विज्ञानानां भवनक्रियाद्वयस्याव्यवधानाद्भूत्वा भवितेत्युक्तम्। तादृशोऽप्ययं न यतः शाश्वतः शश्वदेकरूपः। योऽहं बाल्ये पितरावन्वभूवं सोऽहं स्थाविरे प्रणप्तृ़ननुभवामीति बाल्यस्थाविरयोरात्मैक्यप्रत्यभिज्ञानात्। न च सादृश्यात्प्रत्यभिज्ञानम्। सादृश्यग्रहीतुः स्थिरस्याभावात्। यद्वा जन्ममरणहीनोऽपि धर्मान्तरविशिष्टः पूर्वं भूत्वा पुनर्धर्मान्तरविशिष्टो भवति इत्यपि न। भूत्वैव भविता नत्वभूत्वेति योजना। अर्हता हि शरीरपरिमाणमात्मानमभ्युपगच्छन्तो नित्यस्यैवात्मनः क्रमेण व्युत्क्रमेण वा मशकमनुजमतंगजशरीरप्राप्तौ परिमाणभेदं मन्यमाना भूतस्यैवात्मनो विशेषणीभूतपरिमाणभवनादौपचारिकं भवनमभ्युपगच्छन्ति तदपि न। शाश्वतत्वादेव उपचयापचयवतो मध्यमपरिमाणस्य वस्तुनो नित्यत्वायोगात्। अनेनैव सुखदुःखादिधर्मान्तरोत्पत्त्यात्मनो भाक्तं भूत्वा भवनं प्रत्याख्येयम्। नहि दुःखादिधर्मिणः स्वनाशमन्तरेणात्यन्तिकदुःखोच्छेदः संभवति। घटादौ यावद्रूपनाशादर्शनात्। नन्वजत्वं नित्यत्वं शाश्वत्वं चाकाशेऽप्यस्ति अत आह  पुराण इति।  पुरा वियदादिसृष्टेः प्रागपि नव एव। एतेन अपक्षयादिधर्मराहित्यान्मुख्यमजत्वादिकं आत्मन एव वियदादेस्त्वमुख्यं तदिति दर्शितम्। अतएव शरीरे हन्यमाने न हन्यते। भाष्ये तु वाशब्दश्चार्थे। न जायते म्रियते चेत्यर्थः। तत्रोपपत्तिः अयं न भूत्वा अनुत्पद्य न भविता घटादिवदतो न जायते। अथवा नञः पूर्वान्वयित्वं न जायते न वा म्रियत इति। यतो भूत्वा अभविता घटवद्विनाशी न अतो न म्रियत इति। शाश्वतः पुराण इत्येताभ्यामुपचयापचयौ निषिध्येते इति न हन्यते न विपरिणम्यत इति च व्याख्यातम्। केचिदेवमाहुः। न जायते म्रियत इति प्रतिज्ञा। कदाचिदित्यादिना तस्या उपपादनम्। अज इत्यादिरुपसंहार इति।
।।2.20।।जायतेऽस्ति वर्धते विपरिणमतेऽपक्षीयते विनश्यति इति यास्कोक्तान्षड्भावविकारानात्मनि निराकुर्वंस्तस्याविक्रियत्वं साधयति  नेति।  कदाचित्पदं सर्वविक्रियाप्रतिषेधैः पदैः संबन्धनीयम्। न कदाचिज्जायते यतोऽयमात्मा न भूत्वा भूयः पुनर्भविता न यस्माच्च भूत्वा भवनक्रियामनुभूय भूयोऽभविताऽभावं गन्ता वा न तस्मान्न कदाचिन्म्रियते च। वाशब्दश्चार्थे। यद्वा अयं ना पुरुषो भूत्वा पुनर्भविता न अस्ति विक्रिययोग्यो नच भवतीत्यर्थः। अस्मिन्पक्षे द्वितीयोऽपि वाशब्दश्चार्थे। उक्तरीत्या ना अयमिति च्छेते पूर्वनकारस्य म्रियते इत्यनेन संबन्धः। न अयमिति च्छेदे त्वस्येति बोध्यम्। भाष्यकृद्भिस्तु सुगमत्वादयमर्थस्त्यक्तः। यतो न जायतेऽतोऽजः यतो न म्रियतेऽतो नित्यः। ये त्वन्ये अस्तु तर्हि क्षणिकविज्ञानधारारुपः तस्य विज्ञानवादिभिरजत्वनित्यत्वाभ्युपगमादित्याशङ्क्याह  भूत्वा भविता वा न भूय इति।  अयमित्यनुवर्तते। अयं भूत्वा भूयो भविता न भूयोऽसकृद्भूत्वा भवितेति भवनक्रियाद्वयस्य क्त्वाप्रत्ययोक्तसमानकर्तृत्वधारैव साभिप्रायेण भूत्वैव भविता नतु भूत्वा स्थित्वा विनश्यति तार्किकाणां हि विज्ञानं उत्पत्तिस्थितिनाशक्षणव्यापित्वात् त्रिक्षणावस्थायिविज्ञानवादिनां तु पूर्वस्य नाशक्षण एवोत्तरस्योत्पत्तिक्षणः सएव तस्य स्थितिक्षण श्चेति क्षणिकत्वाद्विज्ञानानां भवनक्रियाद्वयस्याव्यवधानाद्भूत्वा भवितेत्युक्तम्। तादृशोऽप्ययं नेत्यादिवर्णयन्ति तैर्विकारनिषेधोपक्रमादिविरोधस्य परिहारः प्रदर्शनीयः। एतेनाज्ञत्वान्न जायते नित्यत्वान्न म्रियते इत्यपि प्रत्युक्तम्। नायं भूत्वेत्यादेर्हेतुत्वस्य भाष्यकारैः प्रदर्शितत्वेन न जायत इत्यादेरेव हेतुत्वौचित्यात्। एवं जन्मनाशास्तित्वरुपविकारत्रयं निराकृत्यावशिष्टान्विकारान्निराकरोति  शाश्वत इत्यादिना।  शश्वद्भवः शाश्वत इत्यनेनापक्षयस्य निरवयवत्वान्निर्गुणत्वात्। पुराप्यभिनवः पुराण इत्यनेन वृद्धिरुपस्य हन्यमाने विपरिणम्यमाने शरीरे न हन्यते न विपरिणभ्यत इत्यनेन विपरिणाभस्य विकारस्य प्रतिषेधः। तथाच भाष्यम्हन्तिरत्र विपरिणामार्थो द्रष्टव्योऽपुनरुक्तातायै। अस्मिन्श्लोके षट्भावविकारा लौकिकवस्तुविक्रिया आत्मनि प्रतिषिध्यन्ते। सर्वप्रकारविक्रियारहित आत्मेति वाक्यार्थः। यस्मादेवं तस्मादुभौ तौ न विजानीत इति पूर्वेण संबन्ध इति। एतेनास्तित्वपरिणामौ जन्मविनाशान्तर्भूतत्वात्पृथङ्न निषिद्धौ यस्मादेतत्सर्वविकारशून्य आत्मा तस्माच्छरीरे हन्यमाने तत्संबद्धोऽपि केनाप्युपायेन न हन्यते न हन्तुं शक्यते इत्युपसंहार इति प्रत्युक्तम्। आद्यन्तविकारयोर्निषेधे मध्यतनानां निषेधे सिद्धेऽपि तेषामुपादानमवस्थान्तरक्रियान्तरोपलक्षणार्थम्।
2.20 न not? जायते is born? म्रियते dies? वा or? कदाचित् at any time? न not? अयम् this (Self)? भूत्वा having been? भविता will be? वा or? न not? भूयः (any) more? अजः unborn? नित्यः eternal? शाश्वतः changeless? अयम् this? पुराणः ancient? न not? हन्यते is killed? हन्यमाने being killed? शरीरे in body.Commentary This Self (Atman) is destitute of the six types of transformation or BhavaVikaras such as birth? existence? growth? transformation? decline and death. As It is indivisible (Akhanda). It does not diminish in size. It neither grows nor does It decline. It is ever the same. Birth and death are for the physical body only. Birth and death cannot touch the immortal? allpervading Self.
2.20 It is not born, nor does It ever die; after having been, It again ceases not to be; unborn, eternal, changeless and ancient, It is not killed when the body is killed.
2.20 It was not born; It will never die, nor once having been, can It cease to be. Unborn, Eternal, Ever-enduring, yet Most Ancient, the Spirit dies not when the body is dead.
2.20 Never is this One born, and never does It die; nor is it that having come to exist, It will again cease to be. This One is birthless, eternal, undecaying, ancient; It is not killed when the body is killed.
2.20 Na kadacit, neverl; is ayam, this One; jayate, born i.e. the Self has no change in the form of being born to which matter is subject ; va, and ( va is used in the sense of and); na mriyate, It never dies. By this is denied the final change in the form of destruction. The word (na) kadacit), never, is connected with the denial of all kinds of changes thus never, is It born never does It die, and so on. Since ayam, this Self; bhutva, having come to exist, having experienced the process of origination; na, will not; bhuyah, again; abhavita, cease to be thereafter, therefore It does not die. For, in common parlance, that which ceases to exist after coming into being is said to die. From the use of the word va, nor, and na, it is understood that, unlike the body, this Self does not again come into existence after having been non-existent. Therefore It is not born. For, the words, 'It is born', are used with regard to something which comes into existence after having been non-existent. The Self is not like this. Therfore It is not born. Since this is so, therefore It is ajah, birthless; and since It does not die, therefore It is nityah, eternal. Although all changes become negated by the denial of the first and the last kinds of changes, still changes occuring in the middle [For the six kinds of changes see note under verse 2.10.-Tr.] should be denied with their own respective terms by which they are implied. Therefore the text says sasvatah, undecaying,. so that all the changes, viz youth etc., which have not been mentioned may become negated. The change in the form of decay is denied by the word sasvata, that which lasts for ever. In Its own nature It does not decay because It is free from parts. And again, since it is without alities, there is no degeneration owing to the decay of any ality. Change in the form of growth, which is opposed to decay, is also denied by the word puranah, ancient. A thing that grows by the addition of some parts is said to increase and is also said to be new. But this Self was fresh even in the past due to Its partlessness. Thus It is puranah, i.e. It does not grow. So also, na hanyate, It is puranah, i.e. It does not grow. So also, na hanyate, It is not killed, It does not get transformed; even when sarire, the body; hanyamane, is killed, transformed. The verb 'to kill' has to be understood here in the sense of transformation, so that a tautology [This verse has already mentioned 'death' in the first line. If the verb han, to kill, is also taken in the sense of killing, then a tautology is unavoidable.-Tr.] may be avoided. In this mantra the six kinds of transformations, the material changes seen in the world, are denied in the Self. The meaning of the sentence is that the Self is devoid of all kinds of changes. Since this is so, therefore 'both of them do not know' this is how the present mantra is connected to the earlier mantra.
2.20. This is neither born; nor ever dies; nor, having not been at one time, will This come to be again. This is unborn, destructionless, eternal and ancient and is not slain [even] when the body is slain.
2.20 Na jayate etc. Having not been at one time, This etc. : this Self will come to be, having not been at any time non-existent, but only having been existent. Therefore This is not born, This does not die too. For, having been [at one time], This will never be non-existent [at another time]; but certainly This will be [always] existent.
2.20 As the self is eternal for the reasons mentioned (above), and hence free from modifications, it is said that all the attributes of the insentient (body) like birth, death etc., never touch the self. In this connection, as the statement, 'It is never born, It never dies' is in the present tense, it should be understood that the birth and death which are experienced by all in all bodies, do not touch the self. The statement 'Having come into being once, It never ceases to be' means that this self, having emerged at the beginning of a Kalpa (one aeon of manifestation) will not cease to be at the end of the Kalpa (i.e., will emerge again at the beginning of the next Kalpa unless It is liberated). This is the meaning - that birth at the beginning of a Kalpa in bodies such as those of Brahman and others, and death at the end of a Kalpa as stated in the scriptures, do not touch the self. Hence, the selves in all bodies, are unborn, and therefore eternal. It is abiding, not connected, like matter, with invisible modifications taking place. It is primeval; the meaning is that It existed from time immemorial; It is even new i.e., It is capable of being experienced always as fresh. Therefore, when the body is slain the self is not slain.
2.20 It (the self) is never born; It never dies; having come into being once, It never ceases to be. Unborn, eternal, abiding and primeval, It is not slain when the body is slain.
।।2.20।।आत्मा निर्विकार कैसे है इसपर दूसरा मन्त्र ( इस प्रकार है ) यह आत्मा उत्पन्न नहीं होता अर्थात् उत्पत्तिरूप वस्तुविकार आत्मामें नहीं होता और यह मरता भी नहीं। वा शब्द यहाँ च के अर्थमें है। मरता भी नहीं इस कथनसे विनाशरूप अन्तिम विकारका प्रतिषेध किया जाता है। कदाचित् शब्द सभी विकारोंके प्रतिषेधके साथ सम्बन्ध रखता है। जैसे यह आत्मा न कभी जन्मता है न कभी मरता है इत्यादि। जिससे कि यह आत्मा उत्पन्न होकर अर्थात् उत्पत्तिरूप विकारका अनुभव करके फिर अभावको प्राप्त होनेवाला नहीं है इसलिये मरता नहीं क्योंकि जो उत्पन्न होकर फिर नहीं रहता वह मरता है इस प्रकार लोकमें कहा जाता है। वा शब्दसे और न शब्दसे यह भी पाया जाता है कि यह आत्मा शरीरकी भाँति पहले न होकर फिर होनेवाला नहीं है इसलिये यह जन्मता नहीं क्योंकि जो न होकर फिर होता है वहीं जन्मता है यह कहा जाता है। आत्मा ऐसा नहीं है इसलिये नहीं जन्मता। ऐसा होनेके कारण आत्मा अज है और मरता नहीं इसलिये नित्य है। यद्यपि आदि और अन्तके दो विकारोंके प्रतिषेधसे ( बीचके ) सभी विकारोंका प्रतिषेध हो जाता है तो भी बीचमें होनेवाले विकारोंका भी उनउन विकारोंके प्रतिषेधार्थक खासखास शब्दोंद्वारा प्रतिषेध करना उचित है। इसलिये ऊपर न कहे हुए जो यौवनादि सब विकार हैं उनका भी जिस प्रकार प्रतिषेध हो ऐसे भावको शाश्वत इत्यादि शब्दोंसे कहते हैं सदा रहनेवालेका नाम शाश्वत है शाश्वत शब्दसे अपक्षय ( क्षय होना ) रूप विकारका प्रतिषेध किया जाता है क्योंकि आत्मा अवयवरहित है इस कारण स्वरूपसे उसका क्षय नहीं होता और निर्गुण होनेके कारण गुणोंके क्षयसे भी उसका क्षय नहीं होता। पुराण इस शब्दसे अपक्षयके विपरीत जो वृद्धिरूप विकार है उसका भी प्रतिषेध किया जाता है। जो पदार्थ किसी अवयवकी उत्पत्तिसे पुष्ट होता है। वह बढ़ता है नया हुआ है ऐसे कहा जाता है परंतु यह आत्मा तो अवयवरहित होनेके कारण पहले भी नया था अतः पुराण है अर्थात् बढ़ता नहीं। तथा शरीरका नाश होनेपर यानी विपरीत परिणामको प्राप्त हो जानेपर भी आत्मा नष्ट नहीं होता अर्थात् दुर्बलतादि अवस्थाको प्राप्त नहीं होता। यहाँ हन्ति क्रियाका अर्थ पुनरुक्तिदोषसे बचनेके लिये विपरीत परिणाम समझना चाहिये इसलिये यह अर्थ हुआ कि आत्मा अपने स्वरूपसे बदलता नहीं। इस मन्त्रमें लौकिक वस्तुओंमें होनेवाले छः भावविकारोंका आत्मामें अभाव दिखलाया जाता है। आत्मा सब प्रकारके विकारोंसे रहित है यह इस मन्त्रका वाक्यार्थ है। ऐसा होनेके कारण वे दोनों ही ( आत्मस्वरूपको ) नहीं जानते। इस प्रकार पूर्व मन्त्रसे इसका सम्बन्ध है।
।।2.20।।  न जायते  न उत्पद्यते जनिलक्षणा वस्तुविक्रिया न आत्मनो विद्यते इत्यर्थः। तथा  न म्रियते वा । वाशब्दः चार्थे। न म्रियते च इति अन्त्या विनाशलक्षणा विक्रिया प्रतिषिध्यते।  कदाचिच्छ ब्दः सर्वविक्रियाप्रतिषेधैः संबध्यते न कदाचित् जायते न कदाचित् म्रियते इत्येवम्। यस्मात्  अयम्  आत्मा  भूत्वा  भवनक्रियामनुभूय पश्चात्  अभविता  अभावं गन्ता  न भूयः  पुनः तस्मात् न म्रियते। यो हि भूत्वा न भविता स म्रियत इत्युच्यते लोके। वाशब्दात् न शब्दाच्च अयमात्मा अभूत्वा वा भविता देहवत् न भूयः। तस्मात् न जायते। यो हि अभूत्वा भविता स जायत इत्युच्यते। नैवमात्मा। अतो न जायते। यस्मादेवं तस्मात्  अजः  यस्मात् न म्रियते तस्मात्  नित्य श्च। यद्यपि आद्यन्तयोर्विक्रिययोः प्रतिषेधे सर्वा विक्रियाः प्रतिषिद्धा भवन्ति तथापि मध्यभाविनीनां विक्रियाणां स्वशब्दैरेव प्रतिषेधः कर्तव्यः अनुक्तानामपि यौवनादिसमस्तविक्रियाणां प्रतिषेधो यथा स्यात् इत्याह  शाश्वत  इत्यादिना। शाश्वत इति अपक्षयलक्षणा विक्रिया प्रतिषिध्यते। शश्वद्भवः शाश्वतः। न अपक्षीयते स्वरूपेण निरवयवत्वात्। नापि गुणक्षयेण अपक्षयः निर्गुणत्वात्। अपक्षयविपरीतापि वृद्धिलक्षणा विक्रिया प्रतिषिध्यते पुराण इति। यो हि अवयवागमेन उपचीयते स वर्धते अभिनव इति च उच्यते।  अयं  तु आत्मा निरवयवत्वात् पुरापि नव एवेति  पुराणः  न वर्धते इत्यर्थः। तथा  न हन्यते । हन्तिः अत्र विपरिणामार्थे द्रष्टव्यः अपुनरुक्ततायै। न विपरिणम्यते इत्यर्थः। हन्यमाने  विपरिणम्यमानेऽपि  शरीरे । अस्मिन् मन्त्रे षड् भावविकारा लौकिकवस्तुविक्रिया आत्मनि प्रतिषिध्यन्ते। सर्वप्रकारविक्रियारहित आत्मा इति वाक्यार्थः। यस्मादेवं तस्मात् उभौ तौ न विजानीतः इति पूर्वेण मन्त्रेण अस्य संबन्धः।।य एनं वेत्ति हन्तारम् इत्यनेन मन्त्रेण हननक्रियायाः कर्ता कर्म च न भवति इति प्रतिज्ञाय न जायते इत्यनेन अविक्रियत्वं हेतुमुक्त्वा प्रतिज्ञातार्थमुपसंहरति
।।2.20।।तथापिन जायते इति पुनरुक्तमित्याशङ्क्य नेदं भगवद्वाक्यं किन्तूक्तार्थे सम्मतित्वेन मन्त्रवर्णोऽयमुदाह्रियत इत्याह  अत्रे ति। ननु जीवः स्वरूपेण भूत्वा देहसम्बन्धेन भवितैव तत्कथमुच्यतेभूत्वा भविता न इतीत्यतोऽन्यथा व्याचष्टे  न चे ति। जीवो न जायते चेत्तर्हि यथेश्वरज्ञानं वृद्धिह्रासादिवर्जितं भूत्वैव कयाचिदचिन्त्यया शक्त्या भूतमिति व्यवहारालम्बनं तथा जीवेऽपि किं जननव्यवहारस्तन्निमित्त इति पृच्छायां नेत्यनेनोच्यत इत्यर्थः। नन्वीश्वरज्ञानस्योक्तप्रकारं भूत्वा भवनं कुतः सिद्धम् येन जीवस्य तथाभावासम्भावनायोदाह्रियते इत्यत आह  तद्धी ति। तदीश्वरज्ञानस्योक्तप्रकारेण भूत्वा भवनं श्रुतिस्मृतिसिद्धं हीति सम्बन्धः। तदैक्षत छां.उ.6।2।3 इति भवनमुच्यते देवदत्तोऽपश्यदितिवत्।  देशत  इति वृद्धिह्रासादिराहित्यम्। नन्वीश्वरवदित्येव कस्मान्नोक्तम् नैवं शङ्क्यं लोकदर्शनस्याधिकस्य तत्रोत्पादात्अजो नित्यः इति पुनरुक्तमित्याशङ्क्य तन्निवर्त्यामाशङ्कामुक्त्वाऽन्यथा व्याचष्टे  कुत  इति।न जायते म्रियते इत्येतत्कस्मात्कारणादित्यर्थः। अजादीत्यनेन्अजो नित्यः शाश्वतः इति व्याख्यातम्। शाश्वत इत्येतन्नित्य इत्यनेन गतार्थमित्यन्यथा व्याचष्टे  शाश्वत  इति। तथा चाजो नित्य इत्याभ्यां बिम्बोत्पत्तिनाशनिमित्तौ शाश्वत इत्यनेनोपाधिबिम्बसन्निधिजनननाशनिमित्तौ जन्मनाशौ न स्त इत्युक्तं भवति। तथाप्यज इत्युक्तत्वात्पुराणं इति पुनरुक्तिरिति चेत् न भूत्वा भविता वा नेत्युक्तम्। तत्कुतः किंनिमित्तश्च तर्हि जननव्यवहारः इत्याशङ्क्य देहान्तरप्राप्तिरस्यास्तीत्यनेनोच्यत इत्याह   पुर मिति। एवमपि न हन्यत इति पुनरुक्तिरिति चेत् न यदि पुराणस्तर्हि उपाधिभूतदेहनाशाद्दर्पणनाशात्प्रतिबिम्बनाशवदात्मनाशः स्यादित्याशङ्काऽत्र पूर्वाभिप्रायेण परिह्रियत इति भावेनाह  तथापी ति पुराणत्वेऽपि।
।।2.20।।अत्र मन्त्रवर्णोऽप्यस्तीत्याह न जायत इति। नचेश्वरज्ञानवद्भूत्वा भविता। तद्धि तदैक्षत छां.उ.6।2।3देशतः कालतो योऽसाववस्थातः स्वतोऽन्यतः। अविलुप्तावबोधात्मा इत्यादिश्रुतिस्मृतिसिद्धम्। कुतः अजादिलक्षणेश्वरसरूपत्वात्। शाश्वतः सदेकरूपः। पुरं देहमणतीति पुराणः। तथापि न हन्यते हन्यमानेऽपि देहे।
न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।
ন জাযতে ম্রিযতে বা কদাচি- ন্নাযং ভূত্বা ভবিতা বা ন ভূযঃ৷ অজো নিত্যঃ শাশ্বতোযং পুরাণো ন হন্যতে হন্যমানে শরীরে৷৷2.20৷৷
ন জাযতে ম্রিযতে বা কদাচি- ন্নাযং ভূত্বা ভবিতা বা ন ভূযঃ৷ অজো নিত্যঃ শাশ্বতোযং পুরাণো ন হন্যতে হন্যমানে শরীরে৷৷2.20৷৷
ન જાયતે મ્રિયતે વા કદાચિ- ન્નાયં ભૂત્વા ભવિતા વા ન ભૂયઃ। અજો નિત્યઃ શાશ્વતોયં પુરાણો ન હન્યતે હન્યમાને શરીરે।।2.20।।
ਨ ਜਾਯਤੇ ਮ੍ਰਿਯਤੇ ਵਾ ਕਦਾਚਿ- ਨ੍ਨਾਯਂ ਭੂਤ੍ਵਾ ਭਵਿਤਾ ਵਾ ਨ ਭੂਯ। ਅਜੋ ਨਿਤ੍ਯ ਸ਼ਾਸ਼੍ਵਤੋਯਂ ਪੁਰਾਣੋ ਨ ਹਨ੍ਯਤੇ ਹਨ੍ਯਮਾਨੇ ਸ਼ਰੀਰੇ।।2.20।।
ನ ಜಾಯತೇ ಮ್ರಿಯತೇ ವಾ ಕದಾಚಿ- ನ್ನಾಯಂ ಭೂತ್ವಾ ಭವಿತಾ ವಾ ನ ಭೂಯಃ. ಅಜೋ ನಿತ್ಯಃ ಶಾಶ್ವತೋಯಂ ಪುರಾಣೋ ನ ಹನ್ಯತೇ ಹನ್ಯಮಾನೇ ಶರೀರೇ৷৷2.20৷৷
ന ജായതേ മ്രിയതേ വാ കദാചി- ന്നായം ഭൂത്വാ ഭവിതാ വാ ന ഭൂയഃ. അജോ നിത്യഃ ശാശ്വതോയം പുരാണോ ന ഹന്യതേ ഹന്യമാനേ ശരീരേ৷৷2.20৷৷
ନ ଜାଯତେ ମ୍ରିଯତେ ବା କଦାଚି- ନ୍ନାଯଂ ଭୂତ୍ବା ଭବିତା ବା ନ ଭୂଯଃ| ଅଜୋ ନିତ୍ଯଃ ଶାଶ୍ବତୋଯଂ ପୁରାଣୋ ନ ହନ୍ଯତେ ହନ୍ଯମାନେ ଶରୀରେ||2.20||
na jāyatē mriyatē vā kadāci- nnāyaṅ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ. ajō nityaḥ śāśvatō.yaṅ purāṇō na hanyatē hanyamānē śarīrē৷৷2.20৷৷
ந ஜாயதே ம்ரியதே வா கதாசி- ந்நாயஂ பூத்வா பவிதா வா ந பூயஃ. அஜோ நித்யஃ ஷாஷ்வதோயஂ புராணோ ந ஹந்யதே ஹந்யமாநே ஷரீரே৷৷2.20৷৷
న జాయతే మ్రియతే వా కదాచి- న్నాయం భూత్వా భవితా వా న భూయః. అజో నిత్యః శాశ్వతోయం పురాణో న హన్యతే హన్యమానే శరీరే৷৷2.20৷৷
2.21
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।।2.21।। हे पृथानन्दन! जो मनुष्य इस शरीरीको अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये?
।।2.21।। हे पार्थ ! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी,  नित्य और अव्ययस्वरूप जानता है,  वह कैसे किसको मरवायेगा और कैसे किसको मारेगा?
।।2.21।। आत्मा की वर्णनात्मक परिभाषा नहीं दी जा सकती परन्तु उसका संकेत नित्य अविनाशी आदि शब्दों के द्वारा किया जा सकता है। यहाँ इस श्लोक में प्रश्नार्थक वाक्य के द्वारा पूर्व श्लोकों में प्रतिपादित सिद्धान्त की ही पुष्टि करते हैं कि जो पुरुष अविनाशी आत्मा को जानता है वह कभी जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने में शोकाकुल नहीं होता।आत्मा के अव्ययअविनाशी अजन्मा और शाश्वत स्वरूप को जान लेने पर कौन पुरुष स्वयं पर कर्तृत्व का आरोप कर लेगा भगवान् कहते हैं कि ऐसा पुरुष न किसी को मारता है और न किसी के मरने का कारण बनता है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि इस वाक्य का सम्बन्ध स्वयं भगवान् तथा अर्जुन दोनों से ही है। यदि अर्जुन इस तथ्य को स्वयं समझ लेता है तो उसे स्वयं को अजन्मा आत्मा का हत्यारा मानने का कोई प्रश्न नहीं रह जाता है।किस प्रकार आत्मा अविनाशी है अगले श्लोक में एक दृष्टांत के द्वारा इसे स्पष्ट करते हैं
2.21।। व्याख्या-- वेदाविनाशिनम् ৷৷. घातयति हन्ति कम्-- इस शरीरीका कभी नाश नहीं होता   इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरहकी कोई कमी नहीं आती ऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये अर्थात् दूसरोंको मारने और मरवानेमें उस पुरुषकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वह किसी क्रियाका न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है। यहाँ भगवान्ने शरीरीको अविनाशी नित्य अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारोंका निषेध किया है जैसे  अविनाशी  कहकर मृत्युरूप विकारका  नित्य  कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकारका  अज  कहकर जन्म होना और जन्मके बाद होनेवाली सत्तारूप विकारका तथा  अव्यय  कहकर क्षयरूप विकारका निषेध किया गया है। शरीरीमें किसी भी क्रियासे किञ्चिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता। अगर भगवान्को  न हन्यते हन्यमाने शरीरे  और  कं घातयति हन्ति कम्  इन पदोंमें शरीरीके कर्ता और कर्म बननेका ही निषेध करना था तो फिर यहाँ करनेनकरनेकी बात न कहकर मरनेमारनेकी बात क्यों कही इसका उत्तर है कि युद्धका प्रसङ्ग होनेसे यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्धमें मारनेवाला नहीं बनता क्योंकि इसमें
।।2.21।।एतदेव स्फुटयति न जायते इति। नायं भूत्वेति। अयमात्मा न न भूत्वा भाविता (S omits भविता) अपि तु भूत्वैव। अतो न जायते न च म्रियते यतो भूत्वा न न भविता अपि तु भवितैव।
।।2.21।।एवम् अविनाशित्वेन अजत्वेन व्ययानर्हत्वेन च  नित्यम् एनम्  आत्मानं  यः  पुरुषो  वेद स पुरुषो  देवमनुष्यतिर्यक्स्थावरशरीरावस्थितेषु आत्मसु  कम्  अपि आत्मानं  कथं घातयति   कं  वा कथं  हन्ति  कथं नाशयति कथं वा तत्प्रयोजको भवति इत्यर्थः। एतान् आत्मनो घातयामि हन्मि इति अनुशोचनम् आत्मस्वरूपयाथात्म्याज्ञानमूलम् एव इत्यभिप्रायः।यद्यपि नित्यानाम् आत्मनां शरीरविश्लेषमात्रं क्रियते तथापि रमणीयभोगसाधनेषु शरीरेषु नश्यत्सु तद्वियोगरूपं शोकनिमित्तिम् अस्ति एव इति अत आह।
।।2.21।।पूर्वश्लोकार्थस्यैवोत्तरत्रापि प्रतिभानात् पौनरुक्त्यमाशङक्य वृत्तानुवादपूर्वकमुत्तरश्लोकमवतारयति  य एनमित्यादिना।  कर्तृत्वाद्यभिमानविरोधादद्वैतकूटस्थात्मनिश्चयसामर्थ्यात्प्राप्तं विदुषः संन्यासं विद्यापरिपाकार्थमभ्यनुजानाति  वेदेति।  पदद्वयस्य पूर्वमेव पौनरुक्त्यपरिहारेऽपि प्रकारान्तरेणापौनरुक्त्यमाह  अविनाशिनमित्यादिना।  प्रश्नेऽपि संभवति किमिति नञुल्लेखेन व्याख्यायते तत्राह  उभयत्रेति।  उत्तरत्र प्रतिवचनादर्शनान्नात्र प्रश्नः संभवतीत्यर्थः। विवक्षितं प्रकरणार्थं निगमयति  हेत्वर्थस्येति।  अविक्रियत्वं हेत्वर्थस्तस्य विदुषः सर्वकर्मनिषेधे समानत्वादिति यावत्। यदि विदुषः सर्वकर्मनिषेधोऽभिमतस्तर्हि किमिति हन्त्यर्थ एवाक्षिप्यते तत्राह  हन्तेरिति।  उक्तं हेतुमाक्षेप्तुं पृच्छति  विदुष इति।  अभिप्रायमप्रतिपद्यमानो हेतुविशेषं पूर्वोक्तं स्मारयति  नन्विति।  उक्तमङ्गीकृत्याक्षिपति  सत्यमिति।  विदुषो विज्ञानात्मनो ब्रह्मणश्च वेद्यस्य विरुद्धधर्मत्वेन दहनतुहिनवद्भिन्नत्वाद्विदुषः सर्वकर्मत्यागेनासौ कारणविशेषः स्यादित्याह  अन्यत्वादिति।  अविक्रियत्वादिति च्छेदः। तथापि कूटस्थमविक्रियं ब्रह्म प्रतिपद्यमानस्य कुतो विक्रिया संभवेद्ब्रह्मप्रतिपत्तिविरोधादित्याशङ्क्याह  नहीति। अयमात्मा ब्रह्म इत्यादिश्रुत्या समाधत्ते  न विदुष   इति।  किञ्च विद्वत्ता विशिष्टस्य वा केवलस्य वा। नाद्यः। विशिष्टस्य विद्वत्तायां विशेषणस्यापि तत्प्रसङ्गान्न च विशेषणीभूतसंघातस्याचेतनत्वाद्विद्वत्ता युक्तेत्याह  न देहादीति।  द्वितीये तु जीवब्रह्मविभागासिद्धिरित्याह  असंहत इति।  किञ्च प्रामाणिकविरुद्धधर्मवत्त्वस्यासिद्धत्वात्प्रातिभासिकस्य च बिम्बप्रतिबिम्बयोरनैकान्त्याद्भेदानुमानायोगाज्जीवब्रह्मणोरभेदसिद्धिरित्यभिप्रेत्य फलितमाह  इति तस्येति।  नन्वविक्रियस्य ब्रह्मस्वरूपतया सर्वकर्मासंभवे विदुषो विद्वत्तापि कथं संभवति नहि ब्रह्मणोऽविक्रियस्य विद्यालक्षणा विक्रिया स्वक्रिया भवितुमर्हति तत्राह  यथेति।  अदृष्टेन्द्रियादिसहकृतमन्तःकरणं प्रदीपप्रभावद्विषयपर्यन्तं परिणतं बुद्धिवृत्तिरुच्यते। तत्र प्रतिबिम्बितं चैतन्यमभिव्यञ्जकबुद्धिवृत्त्यविवेकाद्विषयज्ञानमिति व्यवह्रियते। तेनात्मोपलब्धा कल्प्यते। तच्चाविद्याप्रयुक्तमिथ्यासंबन्धनिबन्धनं तथैवाध्यासिकसंबन्धेन ब्रह्मात्मैक्याभिव्यञ्जकवाक्योत्थबुद्धिवृत्तिद्वारा विद्वानात्मा व्यपदिश्यते नच मिथ्यासंबन्धेन पारमार्थिकाविक्रियत्वविहतिरस्तीत्यर्थः। अहं ब्रह्मेति बुद्धिवृत्तेर्मोक्षावस्थायामपि भावादात्मनः सविशेषत्वमाशङ्क्य तस्या यावदुपाधिसत्त्वमेवेत्याह  असत्येति।  ननु कूटस्थस्यात्मनो मिथ्याविद्यावत्त्वेऽपि तस्य कर्माधिकारनिवृत्तौ कस्य कर्माणि विधीयन्ते नहि निरधिकाराणां तेषां विधिरित्याशङ्क्याह  विदुष इति।  कर्माण्यविदुषो विहितानीति विशेषमाक्षिपति  नन्विति।  कर्मविधानमविदुषो विदुषश्च विद्याविधानमिति विभागे का हानिरित्याशङ्क्याह  विदितेति।  विद्याया विदितत्वं लब्धत्वम्। कर्मविधिरविदुषो विदुषो विद्याविधिरिति विभागासंभवे फलितमाह  तत्रेति।  धर्मज्ञानानन्तरमनुष्ठेयस्य भावात् ब्रह्मज्ञानोत्तरकालं च तदभावाद् ब्रह्मज्ञानहीनस्यैव कर्मविधिरिति समाधत्ते  नानुष्ठेयस्येति।  विशेषोपपत्तिमेव प्रपञ्चयति  अग्निहोत्रादीति।  ननु देहादिव्यतिरिक्तात्मज्ञानं विना पारलौकिकेषु कर्मसु प्रवृत्तेरनुपपत्तेस्तथाविधज्ञानवता कर्मानुष्ठेयमिति चेत्तत्राह  कर्ताहमिति।  आत्मनि कर्ता भोक्तेत्येवं विज्ञानवत्त्वेऽपि ब्रह्मज्ञानविहीनत्वेनाविदुषोऽनुष्ठेयं कर्मेत्यर्थः। देहादिव्यतिरेकज्ञानवद्ब्रह्मज्ञानमपि ज्ञानत्वाविशेषात् कर्मप्रवृत्तावुपकरिष्यतीत्याशङ्क्याह  नत्विति।  अनुष्ठेयविरोधित्वादविक्रियात्मज्ञानस्येति शेषः। ननु ब्रह्मात्मैकत्वज्ञानादुत्तरकालमपि कर्ताहमित्यादिज्ञानोत्पत्तौ कर्मविधिः सावकाशः स्यादिति नेत्याह  नाहमिति।  कारणाभावादिति शेषः। कर्तृत्वादिज्ञानमन्यदित्युक्तम्। अनुष्ठानाननुष्ठानयोरुक्तविशेषादविदुषोऽनुष्ठानं विदुषो नेत्युपसंहरति  इत्येष इति।  नन्वात्मविदो न चेदनुष्ठेयं किंचिदस्ति कथं तर्हि विद्वान्यजेतेत्यादिशास्त्रात्तं प्रति कर्माणि विधीयन्ते तत्राह  यः पुनरिति।  आत्मनि कर्तृत्वादिज्ञानापेक्षया कर्मस्वधिकृतत्वज्ञाने तथाविधं पुरुषं प्रति कर्माणि विधीयन्ते। स च प्राचीनवचनादविद्वानेवेति निश्चीयते। न खल्वकर्तृत्वादिज्ञानवतस्तद्विपरीतकर्तृत्वादिज्ञानद्वारा कर्मसु प्रवृत्तिरित्यर्थः। कर्मासंभवे ब्रह्मविदो हेत्वन्तरमाह  विशेषितस्येति। वेदाविनाशिनम् इत्यादिनेति शेषः। यद्यपि विदुषो नास्ति कर्म तथापि विविदिषोः स्यादित्याशङ्क्याह  तस्मादिति।  विद्यया विरुद्धत्वादिष्यमाणमोक्षप्रतिपक्षत्वाच्च कर्मणामित्यर्थः। यद्यपि मुमुक्षोराश्रमकर्माण्यपेक्षितानि तथापि विद्यातत्फलाभ्यामविरुद्धान्येव तान्यभ्युपगतान्यन्यथा विविदिषासंन्यासविधिविरोधादित्यभिप्रेत्योक्तेऽर्थे भगवतोऽनुमतिमाह  अतएवेति।  विदुषो विविदिषोश्च संन्यासेऽधिकारोऽविदुषस्तु कर्मणीति विभागस्येष्टत्वादित्यर्थः। अधिकारिभेदेन निष्ठाद्वयं भगवता वेदव्यासेनापि दर्शितमित्याह  तथाचेति।  अध्ययनविधिना स्वाध्यायपाठे त्रैवर्णिकस्य प्रवृत्त्यनन्तरं तत्र क्रियामार्गो ज्ञानमार्गश्चेति द्वौ मार्गावधिकारिभेदेनावेदितावित्यर्थः। आदिशब्दाद्यत्र वेदाः प्रतिष्ठिताः इत्यादि गृह्यते। उक्तयोर्मार्गयोस्तुल्यतां परिहर्तुमुदाहरणान्तरमाह  तथेति।  बुद्धिशुद्धिद्वारा कर्मतत्फलयोर्वैराग्योदयात्पूर्वं कर्ममार्गो विहितो विरक्तस्य पुनः संन्यासपूर्वको ज्ञानमार्गो दर्शितः। स चेतरस्मादतिशयशालीति श्रुतिमित्यर्थः। उक्ते विभागे पुनरपि वाक्यशेषानुकूल्यमादर्शयति  एवमेवेति।  अहंकारविमूढात्मेत्यस्य व्याख्यानं  अतत्त्वविदिति।  तत्त्ववित्त्विति श्लोकमवतार्य तात्पर्यार्थं संगृह्णाति  नाहमिति।  पूर्वेण क्रियापदेनेतिशब्दः संबध्यते। विरक्तमधिकृत्य वाक्यान्तरं पठति  तथाचेति।  आदिशब्दस्तस्यैव श्लोकस्य शेषसंग्रहार्थः। अविक्रियात्मज्ञानात्कर्मसंन्यासे दर्शिते मीमांसकमतमुत्थापयति  तत्रेति।  आत्मनो ज्ञानक्रियाशक्त्याधारत्वेनाविक्रियत्वाभावादविक्रियात्मज्ञानं संन्यासकारणीभूतं न संभवतीत्यर्थः। यथोक्तज्ञानाभावो विषयाभावाद्वा मानाभावाद्वेति विकल्प्याद्यं दूषयति  नेत्यादिना।  न तावदविक्रियात्माभावो न जायते म्रियते वेत्यादिशास्त्रस्याप्तवाक्यतया प्रमाणस्यान्तरेण कारणमानर्थक्यायोगादित्यर्थः। द्वितीयं प्रत्याह  यथाचेति।  पारलौकिककर्मविधिसामर्थ्यसिद्धं विज्ञानमुदाहरति  कर्तुश्चेति।  कर्मकाण्डादज्ञाते धर्मादौ विज्ञानोत्पत्तिवज्ज्ञानकाण्डादज्ञाते ब्रह्मात्मनि विज्ञानोत्पत्तिरविरुद्धा प्रमाणत्वाविशेषादित्यर्थः। ज्ञानस्य मनःसंयोगजन्यत्वादात्मनश्च श्रुत्या मनोगोचरत्वनिरासान्नात्मज्ञाने साधनमस्तीति शङ्कते  करणेति।  श्रुतिमाश्रित्य परिहरति  न। मनसेति।  तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थमनोवृत्त्यैव शास्त्राचार्योपदेशमनुसृत्य द्रष्टव्यं तत्त्वमिति श्रूयते स्वरूपेण स्वप्रकाशमपि ब्रह्मात्मवस्तु वाक्योत्थबुद्धिवृत्त्यभिव्यक्तं सविकल्पकव्यवहारालम्बनं भवतीति मनोगोचरत्वोपचारादसिद्धं करणागोचरत्वमित्यर्थः। कथं तर्हि ब्रह्मात्मनो मनोविषयत्वनिषेधश्रुतिरित्याशङ्क्यासंस्कृतमनोवृत्त्यविषयत्वविषया सेति मन्वानः सन्नाह  शास्त्रेति।  सत्यपि श्रुत्यादौ   तदनुग्राहकाभावान्नास्माकमविक्रियात्मकज्ञानमुत्पत्तुमर्हतीत्याशङ्क्याह  तथेति।  तस्याविक्रियस्यात्मनोऽधिगत्यर्थं विमतो विकारो नात्मधर्मो विकारत्वादुभयाभिमतविकारवदित्यनुमाने पूर्वोक्तश्रुतिस्मृतिरूपागमे च सत्येव तस्मिन्नोत्पद्यते ज्ञानमिति वचः साहसमात्रं सत्येव माने मेयं न भातीतिवदित्यर्थः। ननु यथोक्तं ज्ञानमुत्पन्नमपि हानायोपादानाय वा न भवतीति कुतोऽस्य फलवत्त्वं तत्राह  ज्ञानं चेति।   अवश्यमिति।  प्रकाशप्रवृत्तेस्तमोनिवृत्तिव्यतिरेकेणानुपपत्तिवदात्माज्ञाननिवृत्तिमन्तरेणात्मज्ञानोत्पत्तेरनुपपत्तेरित्यर्थः। नन्वज्ञानस्य ज्ञानप्रागभावत्वात्तन्निवृत्तिरेव ज्ञानं नतु तन्निवर्तकमिति तत्राह  तच्चेति।  कथं पुनर्भगवतापि ज्ञानाभावातिरिक्तमज्ञानं दर्शितमित्याशङ्क्याह  अत्रचेति।  विमतं ज्ञानाभावो न भवत्युपादानत्वान्मृदादिवदिति भावः। ननु हननक्रियाया न हिंस्यादिति निषिद्धत्वात् तत्कर्तृत्वादेरज्ञानकृतत्वेऽपि विहितक्रियाकर्तृत्वादेर्न तथात्वमिति नेत्याह  तच्चेति।  न तावदात्मनि कर्तृत्वादि नित्यम् अमुक्तिप्रसङ्गान्न चानित्यमपि निरुपादानं भावकार्यस्योपादाननियमान्न चानात्मा तदुपादानमात्मनि तत्प्रतिभानान्न चात्मैव तदुपादानं कूटस्थस्य तस्याविद्यां विना तदयोगादित्याह  अविक्रियत्वादिति।  कर्तृत्वाभावेऽपि कारयितृत्वं स्यादित्याशङ्क्याह  विक्रियावानिति।  आत्मनि कर्तृत्वादिप्रतिभानस्यानाद्यनिर्वाच्यमज्ञानमुपादानं तन्निवृत्तिश्च तत्त्वज्ञानादित्युक्तम् इदानीं कर्तृत्वकारयितृत्वयोरविद्याकृतत्वे भगवतोऽनुमतिं दर्शयति  तदेतदिति।  विदुषो यदि कर्माधिकाराभावो भगवतोऽभिमतस्तर्हि कुत्र तस्य जीवतोऽधिकारः स्यादिति पृच्छति  क्व पुनरिति।  ज्ञाननिष्ठायामित्युक्तं स्मारयति  उक्तमिति।  तदङ्गभूते सर्वकर्मसंन्यासे च तस्याधिकारोऽस्तीत्याह  तथेति।  वक्ष्यमाणे वाक्ये सर्वकर्मसंन्यासो न प्रतिभाति मानसानामेव कर्मणां विशेषणवशात्त्यागावगमादिति शङ्कते  नन्विति।  विशेषणान्तरमाश्रित्य दूषयति  न सर्वेति।  मनसेतिविशेषणान्मानसेष्वेव कर्मसु सर्वशब्दः संकुचितः स्यादिति शङ्कते  मानसानामिति।  सर्वात्मना मनोव्यापारत्यागे व्यापारान्तराणामनुपपत्तेः सर्वकर्मसंन्यासः सिध्यतीति परिहरति  नेत्यादिना।  मानसेष्वपि कर्मसु संन्यासे संकोचान्न वागादिव्यापारानुपपत्तिरिति शङ्कते  शास्त्रीयाणामिति।   अन्यानीति।  अशास्त्रीयवाक्कायकर्मकारणान्यशास्त्रीयाणि मानसानि तानि च सर्वाणि कर्माणीत्यर्थः। वाक्यशेषमादाय दूषयति  न। नैवेति।  नहि विवेकबुद्ध्या सर्वाणि कर्माण्यशास्त्रीयाणि संन्यस्य तिष्ठतीति युक्तं नैव कुर्वन्नित्यादिविशेषणस्य विवेकबुद्धेश्च त्यागहेतोस्तुल्यत्वादित्यर्थः। भगवदभिमतसर्वकर्मसंन्यासस्यावस्थाविशेषे संकोचं दर्शयन्नाशङ्कते  मरिष्यत इति।  संन्यासो जीवदवस्थायामेवात्र विवक्षित इत्यत्र लिङ्गं दर्शयन्नुत्तरमाह  न। नवेति।  अनुपपत्तिमेव स्फोरयति  नहीति।  अन्वयविशेषान्वाख्यानेन लिङ्गासिद्धिं चोदयति  अकुर्वत इति।  विवेकवशादशेषाण्यपि धर्माणि देहे यथोक्ते निक्षिप्याकुर्वन्नकारयंश्च विद्वानवतिष्ठते। तथाच देहे कर्माणि संन्यस्याकुर्वतोऽकारयतश्च सुखमासनमिति संबन्धसंभवाद् विशेषणस्य सति देहे कर्मत्यागविषयत्वाभावाज्जीवतः सर्वकर्मत्यागो नास्तीत्यर्थः। अथवा कुर्वत इत्यादि पूर्वत्रैव संबन्धनीयम् लिङ्गासिद्धिचोद्यं तु देहे संन्यस्येत्यारभ्योन्नेयम्। आत्मनः सर्वत्राविक्रियत्वनिर्धारणाद्देहसंबन्धमन्तरेण कर्तृत्वकारयितृत्वाप्राप्तेरप्राप्तप्रतिषेधप्रसङ्गपरिहारार्थमस्मदुक्त एव संबन्धः साधीयानिति समाधत्ते  न सर्वत्रेति।  श्रुतिषु स्मृतिषु चेत्यर्थः। किञ्च संबन्धस्याकाङ्क्षासंनिधियोग्यताधीनत्वादाकाङ्क्षावशादस्मदभिमतसंबन्धसिद्धिरित्याह  आसनेति।  भवदिष्टस्तु संबन्धो न सिध्यत्याकाङ्क्षाभावादित्याह  तदनपेक्षत्वाच्चेति।  संन्यासशब्दस्य निक्षेपार्थत्वात्तस्य चाधिकरणसापेक्षत्वादस्मदिष्टसंबन्धसिद्धिरित्याशङ्क्याह  संपूर्वस्त्विति।  अन्यथोपसर्गवैयर्थ्यादित्यर्थः। मनसा विवेकविज्ञानेन सर्वकर्माणि परित्यज्यास्ते देहे विद्वानित्यस्यैव संबन्धस्य साधुत्वं मत्वोपसंहरति  तस्मादिति।  सर्वव्यापारोपरमात्मनः संन्यासस्याविक्रियात्मज्ञानाविरोधित्वात् प्रयोजकज्ञानवतो वैधे संन्यासेऽधिकारः सम्यग्ज्ञानवतस्त्ववैधे स्वाभाविके फलात्मनीति विभागमभ्युपेत्योक्तेऽर्थे वाक्यशेषानुगुण्यं दर्शयति  इति तत्र   तत्रेति।
।।2.21।।निर्विकारात्मज्ञानोत्पन्नं फलमाह वेदाविनाशिनमिति। कथमिति प्रकारनिषेधः। कं हन्तीति कर्मकर्तृत्वम् घातयतीति प्रयोजकत्वं च निषिध्यते।
।।2.21।।नायं हन्ति न हन्यते इति प्रतिज्ञाय न हन्यत इत्युपपादितं इदानीं न हन्तीत्युपपादयन्नुपसंहरति न विनष्टुं शीलं यस्य तमविनाशिनमन्त्यविकाररहितम्। तत्र हेतुः अव्ययं न विद्यते व्ययोऽवयवापचयो गुणापचयो वा यस्य तमव्ययम्। अवयवापचयेन गुणापचयेन वा विनाशदर्शनात्तदुभयरहितस्य न विनाशः संभवतीत्यर्थः। ननु जन्यत्वेन विनाशित्वमनुमास्यामहे नेत्याह अजमिति। न जायत इत्यजमाद्यविकाररहितम्। तत्र हेतुः नित्यं सर्वदा विद्यमानम्। प्रागविद्यमानस्य हि जन्म दृष्टं नतु सर्वदा सत इत्यभिप्रायः। अथवा अविनाशिनमबाध्यं सत्यमिति यावत्। नित्यं सर्वव्यापकम्। तत्र हेतुः। अजमव्ययं जन्मविनाशशून्यं जायमानस्य विनश्यतश्च सर्वव्यापकत्वसत्यत्वयोरयोगात्। एवं सर्वविक्रियाशून्यं प्रकृतमेनं देहिनं स्वमात्मानं यो वेद विजानाति शास्त्राचार्योपदेशाभ्यां साक्षात्करोति अहं सर्वविक्रियाशून्यः सर्वभासकः सर्वद्वैतरहितः परमानन्दबोधरूप इति स एवं विद्वान्पुरुषः पूर्णरूपः कं हन्ति कथं हन्ति। किंशब्द आक्षेपे। न कमपि हन्ति न कथमपि हन्तीत्यर्थः। तथा कं घातयति। कथं घातयति। कमपि न घातयति कथमपि न घातयतीत्यर्थः। नहि सर्वविकारशून्यस्याकर्तुर्हननक्रियायां कर्तृत्वं संभवति। तथाच श्रुतिःआत्मानं चेद्विजानीयादयमस्मीति पूरुषः। किमिच्छन्कस्य कामाय शरीरमनुसंज्वरेत् इति। शुद्धमात्मानं विदुषस्तदज्ञाननिबन्धनाध्यासनिवृत्तौ तन्मूलरागद्वेषाद्यभावात्कर्तृत्वभोक्तृत्वाद्यभावं दर्शयति। अयमत्राभिप्रायो भगवतः वस्तुगत्या कोऽपि न करोति न कारयति च किंचित् सर्वविक्रियाशून्यस्वभावत्वात् परंतु स्वप्न इवाविद्यया कर्तृत्वादिकमात्मन्यभिमन्यते मूढः। तदुक्तंउभौ तौ न विजानीतः इति। श्रुतिश्चध्यायतीव लेलायतीव इत्यादि। अतएव सर्वाणि शास्त्राण्यविद्वदधिकारिकाणि। विद्वांस्तु समूलाध्यासबाधान्नात्मनि कर्तृत्वादिकमभिमन्यते स्थाणुस्वरूपं विद्वानिव चोरत्वम्। अतो विक्रियारहितत्वादद्वितीयत्वाच्च विद्वान्न करोति कारयति चेत्युच्यते। तथाच श्रुतिःविद्वान्न बिभेति कुतश्चन इति। अर्जुनो हि स्वस्मिन्कर्तृत्वं भगवति च कारयितृत्वमध्यस्य हिंसानिमित्तं दोषमुभयत्राप्याशशंङ्के। भगवानपि विदिताभिप्रायो हन्ति घातयतीति तदुभयमाचिक्षेप। आत्मनि कर्तृव्यं मयि च कारयितृत्वमारोप्य प्रत्यवायशङ्कां मा कार्षीरित्यभिप्रायः। अविक्रियत्वप्रदर्शनेनात्मनः कर्तृत्वप्रतिषेधात्सर्वकर्माक्षेपे भगवदभिप्रेते हन्तिरुपलक्षणार्थः। पुरःस्फूर्तिकत्वात् प्रतिषेधहेतोस्तुल्यत्वात्कर्मान्तराभ्यनुज्ञानुपपत्तेः। तथाच वक्ष्यतितस्य कार्यं न विद्यते इति। अतोऽत्र हननमात्राक्षेपेण कर्मान्तर भगवताभ्यनुज्ञायत इति मूढजनजल्पितमपास्तम्। तस्माद्युध्यस्वेत्यत्र हननस्य भगवताभ्यनुज्ञानात् वास्तवकर्तृत्वाद्यभावस्य कर्ममात्रे समत्वादिति दिक्।
।।2.21।।अतएव हन्तृत्वाभावोऽपि पूर्वोक्तः प्रसिद्ध इत्याह  वेदेति।  नित्यं वृद्धिशून्यम् अव्ययमपक्षयशून्यम् अजमविनाशिनं च यो वेद स पुरुषः कं हन्ति कथं वा हन्ति। एवंभूतस्य वधे साधनाभावात्। तथा स्वयं प्रयोजको भूत्वाऽन्येन कं घातयति। न कंचिदपि कथंचिदपीत्यर्थः। अनेन मय्यपि प्रयोजकत्वाद्दोषदृष्टिं मा कार्षीरित्युक्तं भवति।
।।2.21।।य एनम् 2।19 इत्युक्तविपर्ययपरेवेद इत्यादिश्लोकेनित्यम् इति परमसाध्यानुवादः।अविनाशिनम् इत्यादिकं तु तद्धेतुरित्यभिप्रायेणाह एवमिति। व्ययशब्देनात्र जन्मनाशव्यतिरिक्तविकारा विवक्षिताः। अपक्षय एव वा छेदनादियोग्यावयवविश्लेषादिर्वा।कमिति। निर्धारणस्यानिर्धारितानेकव्यक्तिसापेक्षत्वादाहदेवमनुष्येत्यादि। घातयतिहन्त्योः पौनरुक्त्यमाशङ्क्य बुद्धिस्थक्रमेणार्थमाह कथं नाशयतीत्यादि। वेदितुर्विशेषेण हन्तृत्वादिनिषेधो न युज्यते। आत्मनो नित्यत्वे तदवेदितुरपि तद्धननायोगादित्याशङ्कापरिहाराय फलितार्थं वदन् प्रकृतेन सङ्गमयति एतानिति। नात्र श्लोके हन्तृत्वादिमात्रं निषिध्यते किन्तु तत्प्रयुक्तं शोचनम् तदुत्पादकप्रकारप्रतिषेधयैव ह्यत्र कथंशब्द इति भावः।
।।2.21।।किञ्च अस्य मारणादिदोषबुद्धावज्ञानमेव कारणमित्याह वेदाविनाशिनमिति। अविनाशिनं विशेषविकाररहितं नित्यं सदैकरूपं अजं जन्मादिरहितं मयैव लीलार्थं तथाकृतम् अव्ययं नाशादिशून्यं य एवं वेद स पुरुषः कथं केन साधनेन कं स्वयं प्रेरको भूत्वाऽन्येन घातयति न कमपीत्यर्थः। स्वयं च कं हन्ति न कञ्चिदित्यर्थः।
।।2.21।।नायं हन्तीत्येतदुपपादयति  वेदेति।  विनष्टुं अदर्शनं गन्तुं शीलमस्येति विनाशि रज्जूरगतुल्यमुपाधित्रयं स्थूलसूक्ष्मकारणशरीराख्यं ततोऽन्यं अविनाशिनम्। अतएव नित्यं नाशहीनम्। तत्र हेतुः अजम्। जन्मवान् हि अनित्यः अयं तु अजत्वान्नित्यश्चेत्यर्थः। ननु विनाशिनः स्वकार्यापेक्षया नित्यत्वं च सांख्याभिमते प्रधाने तार्किकाभिमते नभसि चास्त्यत उक्तं अव्ययमिति। न व्येति पूर्वावस्थां त्यजतीत्यव्ययमपरिणामि। प्रधानं तुचलं गुणवृत्तम् इति न्यायेन गुणसाम्यावस्थायामपि परिणममाणमेव सर्वदास्तीति तेषामभ्युपगमात्। आकाशस्यापितस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः इति उत्पत्तिश्रवणादजत्वाभावादेव नाव्ययत्वम्। तादृशं आत्मानं यो वेद अपरोक्षीकरोति स पुमान् कथं केन प्रकारेण कमन्यं घातयति हननक्रियायां प्रवर्तयति। कं वा हन्ति। न केनचित्प्रकारेण कमपि घातयति न वा हन्तीत्यर्थः। द्वैताभावात्। तथाहि श्रुतिर्विद्यावस्थायां सर्वकारकव्यापारं निषेधति।यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत् इत्यादि। अविद्यावस्थायामेव च सर्वकारकव्यवहारं दर्शयति।यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति इत्यादि। एतेन सर्वकारकोपमर्दिन्या विद्यायाः सर्वकारकसापेक्षैः कर्मभिः सह समुच्चयो निरस्तः। परस्परविरुद्धस्वभावत्वेन शीतोष्णयोरिव द्वयोरेककार्यकारित्वस्य रथाश्वन्यायेनासंभवादित्यन्यत्र विस्तरः। मादृशानां ज्ञानिनां व्युत्थानकाले अविद्यालेशानुवृत्त्या घातयितृत्वादेः प्रसक्तावपि विद्यया तस्य बाधितत्वादागामिकर्मणामश्लेषाच्च न दोषः। तथा च वक्ष्यतेहत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते इति।
।।2.21।।   नायं हन्ति न हन्ति न हन्यते इति मन्त्रकृतां प्रतिज्ञां न जायत इति मन्त्रेणात्मनो विक्रियत्वकथनपरेणोपपाद्य स्वयमुपसंहरति  वेदेति।  एतेन न हन्ति न हन्यत इति प्रतिज्ञाय न हन्यत इत्युपपादितम्। इदानीं न हन्तीत्युपपादयतीति परास्तम्। कस्मादयमात्मा हननक्रियायाः कर्ता कर्म च न भवति अविक्रियत्वादित्याह द्वितीयेन मन्त्रेणेति स्वपूर्वग्रन्थविरोधादन्यथा मन्त्रे न्यूनतापत्तेश्च। एतेन नायं हन्ति न हन्यत इत्युक्तं तत्र न हन्यत इत्येतदुपपादयति न जायत इति न हन्तीत्येतदुपपादयति वेदेतीत्यपि परास्तम्। एनं पूर्वमन्त्रेणोक्तस्वरुपविनाशिनमन्त्यविकाररहितं नित्यमविपरिणामिनम्। अव्ययमपक्षयरहितं तत्र हेतुरजं जन्मरहितत्वात्सर्वविकारशून्यं यो वेद जानाति सोऽविक्रियः स्वात्मदर्शी विद्वान्कं कथं घातयति हन्तारं प्रयोजयति तथा कं हन्ति न कथंचित्कंचिदपीत्यर्थः। तथा त्वमपि विद्वान्भूत्वा स्वयं हननकर्ता शिखण्ड्यादिप्रयोजकश्चेति कर्तृत्वकारयितृत्वे स्वस्मिन्माऽध्यारोपयेत्याशयः। ननु न विनष्टुं शीलमस्य तमविनाशिनमन्त्यविकाररहितं तत्र हेतुरव्ययं न विद्यते व्ययोऽवयवापचयो गुणापचयो वा यस्य तमव्ययं अवयवापचयेन गुणापचयेन वा विनाशदर्शनात्तदुभयरहितस्य न विनाश संभवतीत्यर्थः। ननु जन्यत्वे विनाशित्वमनुमास्यामहे नेत्याह  अजमिति।  न जायत इत्यजमाद्यविकाररहितं तत्र हेतुर्नित्यं सर्वदा विद्यामानं प्रागविद्यमानस्य हि जन्म दृष्टं नतु सर्वदा रत इत्यभिप्रायः। अथवाऽविनाशिनमबाध्यं सत्यमिति यावत्। नित्यं सर्वव्यापकं तत्र हेतुरजमव्ययं जन्मविनाशशून्यं जायमानस्य विनश्यतश्च सर्वव्यापकत्वसत्यत्वयोरयोगात्। यद्वा विनष्टुमदर्शनं गन्तुं शीलमस्येति विनाशि रज्जूरगतुल्यमुपाधित्रयं स्थूलसूक्ष्मकारणशरीराख्यं ततोऽन्यमविनाशिनम्। अतएव नित्यं नाशहीनं। तत्र हेतुः अजं। जन्मवान्हि अनित्यः अयं त्वजत्वान्नित्यश्चेत्यर्थः। ननु विनाशिनः स्वकार्यापेक्षयान्यत्वमजत्वं नित्यत्वं च सांख्याभिमते प्रधाने तार्किकाभिमते नभसि चास्त्यत उक्तमव्ययमिति। न व्येति पूर्वावस्थां न त्यजतीत्यव्ययम्। परिणामि प्रधानं तुचलं गुणवृत्तम् इति न्यायेन गुणसाभ्यावस्थायामपि परिणममानमेव सर्वदास्तीति तेषामभ्युपगमात्। आकाशस्यापितस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः इत्युत्पत्तिश्रवणादन्तवत्त्वभावादेव नाव्ययत्वमित्येवमाचार्यैः कुतो न व्याख्यातमिति चेत् सर्वविक्रियाशून्यमेनं यो वेदेति प्रकृतानुसारिवाक्यार्थस्यर्जुमार्गेण सभ्यक्संभवे क्लिष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वमभिप्रत्येति गृहाण। तथाच एनं नित्यमविनाशिनं सदैव नाशरहितं नत्वाकाशादिवद्य्ववहारदशायां नाशरहितं अतएवाजं जन्मरहितं नित्यम्। अविनाशिनो जन्यत्वायोगात् एतएवाव्ययं सदैकरसं यो वेदेत्यर्थः। यद्वा एनं नित्यं तत्र हेतुविनाशिनम्। अविनाशित्वे हेतुरजमव्ययमपक्षयरहितम्। यद्वा एनमविनाशिनमजमव्ययं यो नित्यं सदैव वेदेत्यर्थः। अथवा वेद आ विनाशिनमिति छेदः। अज्ञानेंनावृतत्वादासमन्ताददर्शनं गतमेनं यो नित्यं सच्चिदानन्दात्मना सदैव सन्तं अज्ञानावृतत्वाद्रज्जुशकलवत्तस्यासत्त्वाभावात्। तथा ज्ञानेन जातः क्षीण इति प्रतीयमानमप्यजं अवययं यो वेदेत्यादि यत्किंचित्कल्पनस्य बालैप्यस्मदादिभिः सुकरत्वेन मार्गप्रदर्शकानां सर्वज्ञानां भाष्यकृतामुक्तकल्पनाकरणप्रयुक्ता न्यूनता न प्रदर्शनीयेति ध्येयम्। यत्त्वर्जुनो हि स्वस्मिन्कर्तृत्वं भगवति च कारयितृत्वमध्यस्य हिंसानिमित्तं दोषमुभयत्राप्याशशङ्के भगवानपि विदिताभिप्रायो हन्ति घातयतीति तदुभयमाचिक्षेप। आत्मनि कर्तृत्वं मयि च कारयितृत्वामारोप्य प्रत्यवायशङ्कां मा कार्षीरित्यभिप्राय इति कैश्चिदुक्तं तन्न। आत्मज्ञानरहितस्य हिंसानिबन्धनपापभयात् स्वधर्माद्युद्धान्निवृत्तस्यार्जुनस्यात्मस्वरुपतदुपायभूतधर्मबोधनपरेण गीताशास्त्रेण सर्वेणापि बोधनं भगवता क्रियत इति स्पष्टप्रतिपत्त्या आशशङ्के। शङ्का मा कार्षीरित्यस्य निरर्थकत्वात् य इति मन्त्रोत्थापकाया अस्याः शङ्काया असंभवस्य तत्रैवोक्तत्वाच्च। हननक्रियानिषेधः क्रियामात्रनिषेधस्योपलक्षणार्थः। असंहतस्यात्मस्वरुपस्य विदुषः कर्मासंभवात्प्रबलप्रारब्धवशाद्वाधितानुवृत्त्या। कर्मसंभवेऽपि तस्य कर्तृत्वाभिमानाभावेन कर्मणां फलाजनकत्वाद्वस्तुगत्या तेषासंभवस्य सुवचत्वात्। तस्मात्फलाभिसंधिकर्तृत्वाभिमानपूर्वको ज्ञस्य कर्मणि मुख्योऽधिकारः। ननु विद्यायामप्यविदुष एवाधिकारः। तथाच भाष्यंतमेतमविद्याख्यमात्मानात्मनोरितरेतराध्यासं पुरस्कृत्य सर्वे प्रमाणप्रेमयव्यवहारा लौकिका वैदिकाश्च प्रवृत्ताः सर्वाणि च शास्त्राणि विधिप्रतिषेधमोक्षपराणि कथं पुनरविद्यावद्विषयाणि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि शास्त्राणि चेति। उच्यते देहेन्द्रियादिष्वहंममाभिमानहीनस्य प्रमातृत्वानुपपत्तौ प्रमाणप्रवृत्त्यनुपपत्तेरित्यादि। अयमर्थः प्रमातृत्वं हि प्रमां प्रति कर्तृत्वं तच्च स्वातन्त्रयं स्वातन्त्रयं च इतरकारकाप्रयोज्यस्य प्रमातुः समस्तकारकप्रयोक्तृत्वं तदनेन प्रमाणं प्रयोजनीयं नच स्वव्यापारमन्तरेण करणं प्रयोक्तुं शक्यते इति। नहि कूटस्थनित्यश्चिदात्मा परिणामी स्वतो व्यापारवान्भवितुमर्हति तस्माद्य्वा पारवद्वुद्य्धादितादात्म्याध्यासाद्य्वापारवत्तया प्रमाणमधिष्कतुमर्हितीति भवत्यविद्यावत्पुरुषविषयत्वमविद्यावत्पुरुषाश्रयत्वं प्रमाणानामिति चेत्सत्यम्। तथापि कर्मनियोगार्थबोधानन्तरमहं कर्ता ममेदं कर्तव्यमित्येवंप्रकारज्ञानवतोऽनेकसाधनोपसंहारपूर्वकं यथाकर्मानुष्ठेयं न तथा न जायत इत्यादावात्मस्वरुपविध्यर्थज्ञानान्तरं किंचिदनुष्ठेयं भवति किंतु नाहं कर्ता न भोक्तेत्यादिज्ञानद्वयात्मैकत्वाकर्तृत्वाभोक्तृत्वज्ञानादन्यत्किंचिदनुष्ठेयं भवतीत्येष विशेष इति स्पष्टं चेदं भाष्ये।
2.21 वेद knows? अविनाशिनम् indestructible? नित्यम् eternal? यः who? एनम् this (Self)? अजम् unborn? अव्ययम् inexhaustible? कथम् how? सः he (that)? पुरुषः man? पार्थ O Partha (son of Pritha)? कम् whom? घातयति causes to be slain? हन्ति kills? कम् whom.Commentary The enlightened sage who knows the immutable and indestructible Self through direct cognition or spiritual Anubhava (experience) cannot do the act of slaying. He cannot cause another to slay also.
2.21 Whosoever knows It to be indestructible, eternal, unborn and inexhaustible, how can that man slay, O Arjuna, or cause to be slain?
2.21 He who knows the Spirit as Indestructible, Immortal, Unborn, Always-the-Same, how should he kill or cause to be killed?
2.21 O Partha, he who knows this One as indestructible, eternal, birthless and undecaying, how and whom does that person kill, or whom does he cause to be killed! [This is not a estion but only an emphatic denial.-Tr.]
2.21 In the mantra, 'He who thinks of this One as the killer,' having declared that (the Self) does not become the agent or the object of the actof killing, and then in the mantra, 'Never is this One born,' etc., having stated the reasons for (Its) changelessness, the Lord sums up the purport of what was declared above: He who knows this One as indestructible, etc. Yah, he who; veda, knows yah is to be thus connected with Veda ; enam, this One, possessing the characteristics stated in the earlier mantra; as avinasinam, indestructible, devoid of the final change of state; nityam, eternal, devoid of transformation; ajam, birthless; and avyayam, undecaying; katham, how, in what way; (and kam, whom;) does sah, that man of realization; purusah, the person who is himself an authority [i.e. above all injunctions and prohibitions. See 18.16.17.-Tr.]; hanti, kill, undertake the act of killing; or how ghatayati, does he cause (others) to be killed, (how does he) instigate a killer! The intention is to deny both (the acts) by saying, 'In no way does he kill any one, nor does he cause anyone to be killed', because an interrogative sense is absurd (here). Since the implication of the reason [The reason for the denial of killing etc. is the changelessness of the Self, and this reason holds good with regard to all actions of the man of realization.-Tr.], viz the immutability of the Self, [The A.A. omits 'viz the immutability of the Self'.-Tr.] is common (with regard to all actions), therefore the negation of all kinds of actions in the case of a man of realization is what the Lord conveys as the only purport of this context. But the denial of (the act of) killing has been cited by way of an example. Objection: By noticing what special reason for the impossibility of actions in the case of the man of realization does the Lord deny all actions (in his case) by saying, 'How can that person,' etc.? Vedantin: Has not the immutability of the Self been already stated as the reason [Some readings omit this word.-Tr.] , the specific ground for the impossibility of all actions? Objection: It is true that it has been stated; but that is not a specific ground, for the man of realization is different from the immutable Self. Indeed, may it not be argued that action does not become impossible for one who has known as unchanging stump of a tree?! Vedantin: No, because of man of Knowledge is one with the Self. Enlightenment does not belong to the aggregate of body and senses. Therefore, as the last laternative, the knower is the Immutable and is the Self which is not a part of the aggregate. Thus, action being impossible for that man of Knowledge, the denial in, 'How can that person৷৷.,' etc. is reasonable. As on account of the lack of knowledge of the distinction between the Self and the modifications of the intellect, the Self, though verily immutable, is imagined through ignorance to be the perceiver of objects like sound etc. presented by the intellect etc., in this very way, the Self, which in reality is immutable, is said to be the 'knower' because of Its association with the knowledge of the distinction between the Self and non-Self, which (knowledge) is a modification of the intellect [By buddhi-vrtti, modification of the intellect, is meant the transformation of the internal organ into the form of an extension upto an object, along with its past impressions, the senses concerned, etc., like the extension of the light of a lamp illuminating an object. Consciousness reflected on this transformation and remaining indistinguishable from that transformation revealing the object, is called objective knowledge. Thery, due to ignorance, the Self is imagined to be the perceiver because of Its connection with the vrtti, modification. (-A.G.) The process is elsewhere described as follows: The vrtti goes out through the sense-organ concerned, like the flash of a torchlight, and along with it goes the reflection of Consciousness. Both of them envelop the object, a pot for instance. The vrtti destroys the ignorance about the pot; and the reflection of Consciousness, becoming unified with only that portion of it which has been delimited by the pot, reveals the pot. In the case of knowledge of Brahman, it is admitted that the vrtti in the form, 'I am Brahman', does reach Brahman and destroys ignorance about Brahman, but it is not admitted that Brahman is revealed like a 'pot', for Brahman is self-effulgent.-Tr.] and is unreal by nature. From the statement that action is impossible for man of realization it is understood that the conclusion of the Lord is that, actions enjoined by the scriptures are prescribed for the unenlightened. Objection: Is not elightenment too enjoined for the ignorant? For, the injunction about enlightenment to one who has already achieved realization is useless, like grinding something that has already been ground! This being so, the distinction that rites and duties are enjoined for the unenlightened, and not for the enlightened one, does not stand to reason. Vedantin: No. There can reasonable be a distinction between the existence or nonexistence of a thing to be performed. As after the knowledge of the meaning of the injunction for rites like Agnihotra etc. their performance becomes bligatory on the unenlightened one who thinks, 'Agnihotra etc. has to be performed by collecting various accessories; I am the agent, and this is my duty', unlike this, nothing remains later on to be performed as a duty after knowing the meaning of the injunction about the nature of the Self from such texts as, 'Never is this One born,' etc. But apart from the rise of knowledge regarding the unity of the Self, his non-agency, etc., in the form, 'I am not the agent, I am not the enjoyer', etc., no other idea arises. Thus, this distinction can be maintained. Again, for anyone who knows himself as, 'I am the agent', there will necessarily arise the idea, 'This is my duty.' In relation to that he becomes eligible. In this way duties are (enjoined) [Ast. adds 'sambhavanti, become possible'.-Tr.] for him. And according to the text, 'both of them do not know' (19), he is an unenlightened man. And the text, 'How can that person,' etc. concerns the enlightened person distinguished above, becuase of the negation of action (in this text). Therefore, the enlightened person distinguished above, who has realized the immutable Self, and the seeker of Liberation are alified only for renunciation of all rites and duties. Therefore, indeed, the Lord Narayana, making a distinction between the enlightened man of Knowledge and the unenlightened man of rites and duties, makes them take up the two kinds of adherences in the text, 'through the Yoga of Knowledge for the men of realization; through the Yoga of Action for the yogis' (3.3). Similarly also, Vyasa said to his son, 'Now, there are these two paths,' etc. ['Now, there are these two paths on which the Vedas are based. They are thought of as the dharma characterized by engagement in duties, and that by renunciation of them' (Mbh. Sa. 241.6).-Tr.] So also (there is a Vedic text meaning): 'The path of rites and duties, indeed, is the earlier, and renunciation comes after that.' [Ast. says that this is not a otation, but only gives the purport of Tai, Ar. 10.62.12.-Tr.] The Lord will show again and again this very division: 'The unenlightened man who is deluded by egoism thinks thus: "I am the doer"; but the one who is a knower of the facts (about the varieties of the gunas) thinks, "I do not act"' (cf. 3.27,28). So also there is the text, '(The embodied man of selfcontrol,) having given up all actions mentally, continues (happily in the town of nine gates)' (5.13) etc. With regard to this some wiseacres say: In no person does arise the idea, 'I am the changeless, actionless Self, which is One and devoid of the six kinds of changes beginning with birth to which all things are subject', on the occurrence of which (idea alone) can renunciation of all actions be enjoined. That is not correct, because it will lead to the needlessness of such scriptural instructions as, 'Never is this One born,' etc. (20). They should be asked: As on the authority of scripural instructions there arises the knowledge of the existence of virtue and vice and the knowledge regarding an agent who gets associated with successive bodies, similarly, why should not there arise from the scriptures the knowledge of unchangeability, non-agentship, oneness, etc. of that very Self? Objection: If it be said that this is due to Its being beyond the scope of any means (of knowledge)? Vedantin: No, because the Sruti says, 'It is to be realized through the mind alone, (following the instruction of the teacher)' (Br. 4.4.19). The mind that is purified by the instructions of the scriptures and the teacher, control of the body and organs, etc. becomes the instrument for realizing the Self. Again, since there exist inference and scriptures for Its realization, it is mere bravado to say that Knowledge does not arise. And it has to be granted that when knowledge arises, it surely eliminates ignorance, its opposite. And that ignorance has been shown in, 'I am the killer', 'I am killed', and 'both of them do not know' (see 2.19). And here also it is shown that the idea of the Self being an agent, the object of an action, or an indirect agent, is the result of ignorance. Also, the Self being changeless, the fact that such agentship etc. are cuased by ignorance is a common factor in all actions without exception, because only that agent who is subject to change instigates someone else who is different from himself and can be acted on, saying, 'Do this.' Thus, with a view to pointing out the absence of fitness for rites and duties in the case of an enlightened person, the Lord [Ast, adds vasudeva after 'Lord'.-Tr.] says, 'He who knows this One as indestructible,' 'how can that person,' etc. thery denying this direct and indirect agentship of an enlightened person in respect of all actions without exception. As regards the estion, 'For what, again, is the man of enlightenment alified?', the answer has already been give earlier in, 'through the Yoga of Knowledge for the men of realization' (3.3). Similarly, the Lord will also speak of renunication of all actions in, 'having given up all actions mentally,' etc.(5.13). Objection: May it not be argued that from the expression, 'mentally', (it follows that) oral and bodily actions are not to be renounced? Vedantin: No, because of the categoric expression, 'all actions'. Objection: May it not be argued that 'all actions' relates only to those of the mind? Vedantin: No, because all oral and bodily actions are preceded by those of the mind, for those actions are impossible in the absence of mental activity. Objection: May it not be said that one has to mentally renounce all other activities except the mental functions which are the causes of scriptural rites and duties performed through speech and body? Vedantin: No, because it has been specifically expressed: 'without doing or causing (others) to do anything at all' (5.13). Objection: May it not be that this renunciation of all actions, as stated by the Lord, is with regard to a dying man, not one living? Vedantin: No, because (in that case) the specific statement, 'The embodied man৷৷.continues happily in the town of nine gates' (ibid.) will become illogical since it is not possible for a dead person, who neither acts nor makes others act, [The words 'akurvatah akarayatah, (of him) who neither acts nor makes others act', have been taken as a part of the Commentator's arguement. But A.G. points out that they can also form a part of the next Objection. In that, case, the translation of the Objection will be this: Can it not be that the construction of the sentence (under discussion) is Neither doing nor making others do, he rest by depositing (sannyasya, by renouncing) in the body', but not 'he rests in the body by renouncing৷৷.'?] to rest in that body after renouncing all actions. Objection: Can it not be that the construction of the sentence (under discussion) is, '(he rests) by depositing (sannyasya, by renouncing) in the body', (but) not 'he rests in the body by renouncing৷৷.'? Vedantin: No, because everywhere it is categorically asserted that the Self is changeless. Besides, the action of 'resting' reires a location, whereas renunciation is independent of this. The word nyasa preceded by sam here means 'renunciation', not 'depositing'. Therefore, according to this Scripture, viz the Gita, the man of realization is eligible for renunciation, alone, not for rites and duties. This we shall show in the relevant texts later on in the cotext of the knowledge of the Self. And now we shall speak of the matter on hand: As to that, the indestructibility [Indestructibility suggests unchangeability as well.] of the Self, has been postulated. What is it like? That is being said in, 'As after rejecting wornout clothes,' etc.
2.21. Whosever realises This to be changeless, destructionless, unborn and immutable, how can that person be slain; how can he either slay [any one] ? O son of Prtha !
2.21 Veda etc. Whosoever, because of his realisation, under-stands this Self as 'This neither slays [any one]. nor is This slain [by any one] - how could there be any bondage for him ?
2.21 He who knows the self to be eternal, as It is indestructible, unborn and changeless - how can that person be said to cause the death of the self, be it of the self existing in the bodies of gods or animals or immovables? Whom does he kill? The meaning is - how can he destroy any one or cause anyone to slay? How does he become an instrument for slaying? The meaning is this: the feeling of sorrow: 'I cause the slaying of these selves, I slay these,' has its basis solely in ignorance about the true nature of the self. Let it be granted that what is done is only separation of the bodies from the eternal selves. Even then, when the bodies, which are instruments for the experience of agreeable pleasures, perish, there still exists reason for sorrow in their separation from the bodies. To this (Sri Krsna) replies:
2.21 He who knows this (self) to be indestructible, unborn, unchanging and hence eternal - how and whom, O Arjuna, does he cause to be killed, and whom he kill?
।।2.21।।य एनं वेत्ति हन्तारम् इस मन्त्रसे आत्मा हननक्रियाका कर्ता और कर्म नहीं है यह प्रतिज्ञा करके तथा न जायते इस मन्त्रसे आत्माकी निर्विकारताके हेतुको बतलाकर अब प्रतिज्ञापूर्वक कहे हुए अर्थका उपसंहार करते हैं पूर्व मन्त्रमें कहे हुए लक्षणोंसे युक्त इस आत्माको जो अविनाशी अन्तिम भावविकाररूप मरणसे रहित नित्य रोगादिजनित दुर्बलता क्षीणता आदि विकारोंसे रहित अज जन्मरहित और अव्यय अपक्षयरूप विकारसे रहित जानता है। वह आत्मतत्त्वका ज्ञाताअधिकारी पुरुष कैसे ( किसको ) मारता है और कैसे ( किसको ) मरवाता है अर्थात् वह कैसे तो हननरूप क्रिया कर सकता और कैसे किसी मारनेवालेको नियुक्त कर सकता है अभिप्राय यह कि वह न किसीको किसी प्रकार भी मारता है और न किसीको किसी प्रकार भी मरवाता है। इन दोनों बातोंमे किम् और कथम् शब्द आक्षेपके बोधक हैं क्योंकि प्रश्नके अर्थमें यहाँ इनका प्रयोग सम्भव नहीं। निर्विकारतारूप हेतुका तात्पर्य सभी कर्मोंका प्रतिषेध करनेमें समान है इससे इस प्रकरणका अर्थ भगवान्को यही इष्ट है कि आत्मवेत्ता किसी भी कर्मका करने करवानेवाला नहीं होता। अकेली हननक्रियाके विषयमें आक्षेप करना उदाहरणके रूपमें है। पू0 कर्म न हो सकनेमें कौनसे खास हेतुको देखकर ज्ञानीके लिये भगवान् कथं स पुरुषः इस कथनसे कर्मविषयक आक्षेप करते हैं उ0 पहले ही कह आये हैं कि आत्माकी निर्विकारता ही ( ज्ञानीकर्तृक ) सम्पूर्ण कर्मोंके न होनेका खास हेतु है। पू0 कहा है सही परंतु अविक्रिय आत्मासे उसको जाननेवाला भिन्न है इसलिये ( यह ऊपर बतलाया हुआ ) खास कारण उपयुक्त नहीं है क्योंकि स्थाणुको अविक्रिय जाननेवालेसे कर्म नहीं होते ऐसा नहीं ऐसी शङ्का करें तो उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा स्वयं ही जाननेवाला है। देह आदि संघातमें ( जड होनेके कारण ) ज्ञातापन नहीं हो सकता इसलिये अन्तमें देहादि संघातसे भिन्न आत्मा ही अविक्रिय ठहरता है और वही जाननेवाला है। ऐसे उस ज्ञानीसे कर्म होना असम्भव है अतः कथं स पुरुष यह आक्षेप उचित ही है। जैसे ( वास्तवमें ) निर्विकार होनेपर भी आत्मा बुद्धिवृत्ति और आत्माका भेदज्ञान न रहनेके कारण अविद्याके सम्बन्धसे बुद्धि आदि इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण किये हुए शब्दादि विषयोंका ग्रहण करनेवाला मान लिया जाता है। ऐसे ही आत्मअनात्मविषयक विवेकज्ञानरूप जो बुद्धिवृत्ति है जिसे विद्या कहते हैं वह यद्यपि असत्रूप है तो भी उसके सम्बन्धसे वास्तव में जो अविकारी है ऐसा आत्मा ही विद्वान् कहा जाता है। ज्ञानीके लिये सभी कर्म असम्भव बतलाये हैं इस कारण भगवान्का यह निश्चय समझा जाता है कि शास्त्रद्वारा जिन कर्मोंका विधान किया गया है वे सब अज्ञानियोंके लिये ही विहित हैं। पू0 विद्या भी अज्ञानीके लिये ही विहित है क्योंकि जिसने विद्याको जान लिया उसके लिये पिसेको पीसनेकी भाँति विद्याका विधान व्यर्थ है। अतः अज्ञानीके लिये कर्म कहे गये हैं ज्ञानीके लिये नहीं इस प्रकार विभाग करना नहीं बन सकता। उ0 यह कहना ठीक नहीं क्योंकि कर्तव्यके भाव और अभावसे भिन्नता सिद्ध होती है अभिप्राय यह कि अग्निहोत्रादि कर्मोंका विधान करनेवाले विधिवाक्योंके अर्थको जान लेनेके बाद अनेक साधन और उपसंहारके सहित अमुक अग्निहोत्रादि कर्म अनुष्ठान करनेके योग्य है मैं कर्ता हूँ मेरा अमुक कर्तव्य है इस प्रकार जाननेवाले अज्ञानीके लिये जैसे कर्तव्य बना रहता है वैसे न जायते इत्यादि आत्मस्वरूपका विधान करनेवाले वाक्योंके अर्थको जान लेनेके बाद उस ज्ञानीके लिये कुछ कर्तव्य शेष नहीं रहता। क्योंकि ( ज्ञानीको ) मैं न कर्ता हूँ न भोक्ता हूँ इत्यादि जो आत्माके एकत्व और अकर्तृत्व आदिविषयक ज्ञान है इससे अतिरिक्त अन्य किसी प्रकारका भी ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार यह ( ज्ञानी और अज्ञानीके कर्तव्यका ) विभाग सिद्ध होता है। जो अपनेको ऐसा समझता है कि मैं कर्ता हूँ उसकी यह बुद्धि अवश्य ही होगी कि मेरा अमुक कर्तव्य है उस बुद्धिकी अपेक्षासे वह कर्मोंका अधिकारी होता है इसीसे उसके लिये कर्म हैं। और उभौ तौ न विजानीतः इस वचनके अनुसार वही अज्ञानी है। क्योंकि पूर्वोक्त विशेषणोंद्वारा वर्णित ज्ञानीके लिये तो कथं स पुरुषः इस प्रकार कर्मोंका निषेध करनेवाले वचन हैं। सुतरां ( यह सिद्ध हुआ कि ) आत्माको निर्विकार जाननेवाले विशिष्ट विद्वान्का और मुमुक्षुका भी सर्वकर्मसंन्यासमें ही अधिकार है। इसीलिये भगवान् नारायण ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् इस कथनसे सांख्ययोगी ज्ञानियों और कर्मी अज्ञानियोंका विभाग करके अलगअलग दो निष्ठा ग्रहण करवाते हैं। ऐसे ही अपने पुत्रसे भगवान् वेदव्यासजी कहते हैं कि ये दो मार्ग हैं इत्यादि तथा यह भी कहते हैं कि पहले क्रियामार्ग और पीछे संन्यास। इसी विभागको बारंबार भगवान् दिखलायेंगे। जैसे अहंकारसे मोहित हुआ अज्ञानी मैं कर्ता हूँ ऐसे मानता है तत्त्ववेत्ता मैं नहीं करता ऐसे मानता है तथा सब कर्मोंका मनसे त्यागकर रहता है इत्यादि। इस विषयमें कितने ही अपनेको पण्डित समझनेवाले कहते हैं कि जन्मादि छः भावविकारोंसे रहित निर्विकार अकर्ता एक आत्मा मैं ही हूँ ऐसा ज्ञान किसीको होता ही नहीं कि जिसके होनेसे सर्वकर्मोंके संन्यासका उपदेश किया जा सके। यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि ( ऐसा मान लेनेसे ) न जायते इत्यादि शास्त्रका उपदेश व्यर्थ होगा। उनसे यह पूछना चाहिये कि जैसे शास्त्रोपदेशकी सामर्थ्यसे कर्म करनेवाले मनुष्यको धर्मके अस्तित्वका ज्ञान और देहान्तरकी प्राप्तिका ज्ञान होता है उसी तरह उसी पुरुषको शास्त्रसे आत्माकी विर्विकारता अकर्तृत्व और एकत्व आदिका विज्ञान क्यों नहीं हो सकता यदि वे कहें कि ( मनबुद्धि आदि ) करणोंसे आत्मा अगोचर है इस कारण ( उसका ज्ञान नहीं हो सकता )। तो यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि मनके द्वारा उस आत्माको देखना चाहिये यह श्रुति है अतः शास्त्र और आचार्यके उपदेशद्वारा एवं शम दम आदि साधनोंद्वारा शुद्ध किया हुआ मन आत्मदर्शनमें करण ( साधन ) है। इस प्रकार उस ज्ञानप्राप्तिके विषयमें अनुमान और आगमप्रमाणोंके रहते हुए भी यह कहना कि ज्ञान नहीं होता साहसमात्र है। यह तो मान ही लेना चाहिये कि उत्पन्न हुआ ज्ञान अपनेसे विपरीत अज्ञानको अवश्य नष्ट कर देता है। वह अज्ञान मैं मारनेवाला हूँ मैं मारा गया हूँ ऐसे मारनेवाले दोनों नहीं जानते इन वचनोंद्वारा पहले दिखलाया ही था फिर यहाँ भी यह बात दिखायी गयी है कि आत्मामें हननक्रियाका कर्तृत्व कर्मत्व और हेतुकर्तृत्व अज्ञानजनति है। आत्मा निर्विकार होनेके कारण कर्तृत्व आदि भावोंका अविद्यामूलक होना सभी क्रियाओंमे समान है। क्योंकि विकारवान् ही ( स्वयं ) कर्ता ( बनकर ) अपने कर्मरूप दूसरेको कर्ममें नियुक्त करता है कि तू अमुक कर्म कर। सुतरां ज्ञानीका कर्मोंमें अधिकार नहीं है यह दिखानेके लिये भगवान् वेदाविनाशिनम् कथं स पुरुषः इत्यादि वाक्योंसे सभी क्रियाओंमें समान भावसे विद्वान्के कर्ता और प्रयोजक कर्ता होनेका प्रतिषेध करते हैं। ज्ञानीका अधिकार किसमें है यह तो ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् इत्यादि वचनोंद्वारा पहले ही बतलाया जा चुका है वैसे ही फिर भी सर्वकर्माणि मनसा इत्यादि वाक्योंसे सर्व कर्मोंका संन्यास ( भगवान् ) कहेंगे। पू0 ( उक्त श्लोकमें ) मनसा यह शब्द है इसलिये मानसिक कर्मोंका ही त्याग बतलाया है शरीर और वाणीसम्बन्धी कर्मोंका नहीं। उ0 यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि सर्व कर्मोंको छोड़कर इस प्रकार कर्मोंके साथ सर्व विशेषण है। पू0 यदि मनसम्बन्धी सर्व कर्मोंका त्याग मान लिया जाय तो उ0 ठीक नहीं। क्योंकि वाणी और शरीरकी क्रिया मनोव्यापारपूर्वक ही होती है। मनोव्यापारके अभावमें उनकी क्रिया बन नहीं सकती। पू0 शास्त्रविहित कायिकवाचिक कर्मोंके कारणरूप मानसिक कर्मोंके सिवा अन्य सब कर्मोंका मनसे संन्यास करना चाहिये यह मान लिया जाय तो उ0 ठीक नहीं। क्योंकि न करता हुआ और न करवाता हुआ यह विशेषण साथमें है ( इसलिये तीनों तरह कर्मोंका संन्यास सिद्ध होता है। ) पू0 यह भगवान्द्वारा कहा हुआ सर्व कर्मोंका संन्यास तो मुमूर्षु के लिये है जीते हुएके लिये नहीं यह माना जाय तो उ0 ठीक नहीं। क्योंकि ऐसा मान लेनेसे नौ द्वारवाले शरीररूप पुरमें आत्मा रहता है इस विशेषणकी उपयोगिता नहीं रहती। कारण जो सर्वकर्मसंन्यास करके मर चुका है उसका न करते हुए और न करवाते हुए उस शरीरमें रहना सम्भव नहीं। पू0 उक्त वाक्यमें शरीरमें कर्मोंको रखकर इस तरह सम्बन्ध है शरीरमें रहता है इस प्रकार सम्बन्ध नहीं है ऐसा मानें तो उ0 ठीक नहीं है। क्योंकि सभी जगह आत्माको निर्विकार माना गया है। तथा आसन क्रियाको आधारकी अपेक्षा है और संन्यास को उसकी अपेक्षा नहीं है एवं स पूर्वक न्यास शब्दका अर्थ यहाँ त्यागना। है निक्षेप ( रख देना ) नहीं। सुतरां गीताशास्त्रमें आत्मज्ञानीका संन्यासमें ही अधिकार है कर्मोंमें नहीं। यही बात आगे चलकर आत्मज्ञानके प्रकरणमें हम जगहजगह दिखलायेंगे।
।।2.21।। वेद विजानाति अविनाशिनम् अन्त्यभावविकाररहितं नित्यं विपरिणामरहितं यो वेद इति संबन्धः। एनं पूर्वेण मन्त्रेणोक्तलक्षणम् अजं जन्मरहितम् अव्ययम् अपक्षयरहितं कथं केन प्रकारेण सः विद्वान् पुरुषः अधिकृतः हन्ति हननक्रिया करोति कथं वा घातयति हन्तारं प्रयोजयति। न कथञ्चित् कञ्चित् हन्ति न कथञ्चित् कञ्चित् घातयति इति उभयत्र आक्षेप एवार्थः प्रश्नार्थासंभवात्। हेत्वर्थस्य च अविक्रियत्वस्य तुल्यत्वात् विदुषः सर्वकर्मप्रतिषेध एव प्रकरणार्थः अभिप्रेतो भगवता। हन्तेस्तु आक्षेपः उदाहरणार्थत्वेन कथितः।।विदुषः कं कर्मासंभवहेतुविशेषं पश्यन् कर्माण्याक्षिपति भगवान् कथं स पुरुषः इति। ननु उक्त एवात्मनः अविक्रियत्वं सर्वकर्मासंभवकारणविशेषः। सत्यमुक्तः। न तु सः कारणविशेषः अन्यत्वात् विदुषः अविक्रियादात्मनः। न हि अविक्रियं स्थाणुं विदितवतः कर्म न संभवति इति चेत् न विदुषः आत्मत्वात्। न देहादिसंघातस्य विद्वत्ता। अतः पारिशेष्यात् असंहतः आत्मा विद्वान् अविक्रियः इति तस्य विदुषः कर्मासंभवात् आक्षेपो युक्तः कथं स पुरुषः इति। यथा बुद्ध्याद्याहृतस्य शब्दाद्यर्थस्य अविक्रिय एव सन् बुद्धिवृत्त्यविवेकविज्ञानेन अविद्यया उपलब्धा आत्मा कल्प्यते एवमेव आत्मानात्मविवेकज्ञानेन बुद्धिवृत्त्या विद्यया असत्यरूपयैव परमार्थतः अविक्रिय एव आत्मा विद्वानुच्यते। विदुषः कर्मासंभववचनात् यानि कर्माणि शास्त्रेण विधीयन्ते तानि अविदुषो विहितानि इति भगवतो निश्चयोऽवगम्यते।।ननु विद्यापि अविदुष एव विधीयते विदितविद्यस्य पिष्टपेषणवत् विद्याविधानानर्थक्यात्। तत्र अविदुषः कर्माणि विधीयन्ते न विदुषः इति विशेषो नोपपद्यते इति चेत् न अनुष्ठेयस्य भावाभावविशेषोपपत्तेः। अग्निहोत्रादिविध्यर्थज्ञानोत्तरकालम् अग्निहोत्रादिकर्म अनेकसाधनोपसंहारपूर्वकमनुष्ठेयम् कर्ता अहम् मम कर्तव्यम् इत्येवंप्रकारविज्ञानवतः अविदुषः यथा अनुष्ठेयं भवति न तु तथा न जायते इत्याद्यात्मस्वरूपविध्यर्थज्ञानोत्तरकालभावि किञ्चिदनुष्ठेयं भवति किं तु नाहं कर्ता नाहं भोक्ता इत्याद्यात्मैकत्वाकर्तृत्वादिविषयज्ञानात् नान्यदुत्पद्यते इति एष विशेष उपपद्यते। यः पुनः कर्ता अहम् इति वेत्ति आत्मानम् तस्य मम इदं कर्तव्यम् इति अवश्यंभाविनी बुद्धिः स्यात् तदपेक्षया सः अधिक्रियते इति तं प्रति कर्माणि संभवन्ति। स च अविद्वान् उभौ तौ न विजानीतः इति वचनात् विशेषितस्य च विदुषः कर्माक्षेपवचनाच्च कथं स पुरुषः इति। तस्मात् विशेषितस्य अविक्रियात्मदर्शिनः विदुषः मुमुक्षोश्च सर्वकर्मसंन्यासे एव अधिकारः। अत एव भगवान् नारायणः सांख्यान् विदुषः अविदुषश्च कर्मिणः प्रविभज्य द्वे निष्ठे ग्राहयति ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् इति। तथा च पुत्राय आह भगवान् व्यासः द्वाविमावथ पन्थानौ इत्यादि। तथा च क्रियापथश्चैव पुरस्तात् पश्चात्संन्यासश्चेति। एतमेव विभागं पुनः पुनर्दर्शयिष्यति भगवान् अतत्त्ववित् अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते तत्त्ववित्तु नाहं करोमि इति। तथा च सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते इत्यादि।।तत्र केचित्पण्डितंमन्या वदन्ति जन्मादिषड्भावविक्रियारहितः अविक्रियः अकर्ता एकः अहमात्मा इति न कस्यचित् ज्ञानम् उत्पद्यते यस्मिन् सति सर्वकर्मसंन्यासः उपदिश्यते इति। तन्न न जायते इत्यादिशास्त्रोपदेशानर्थक्यप्रसङ्गात्। यथा च शास्त्रोपदेशसामर्थ्यात् धर्माधर्मास्तित्वविज्ञानं कर्तुश्च देहान्तरसंबन्धविज्ञानमुत्पद्यते तथा शास्त्रात् तस्यैव आत्मनः अविक्रियत्वाकर्तृत्वैकत्वादिविज्ञानं कस्मात् नोत्पद्यते इति प्रष्टव्याः ते। करणागोचरत्वात् इति चेत् न मनसैवानुद्रष्टव्यम् इति श्रुतेः। शास्त्राचार्योपदेशशमदमादिसंस्कृतं मनः आत्मदर्शने करणम्। तथा च तदधिगमाय अनुमाने आगमे च सति ज्ञानं नोत्पद्यत इति साहसमात्रमेतत्। ज्ञानं च उत्पद्यमानं तद्विपरीतमज्ञानम् अवश्यं बाधते इत्यभ्युपगन्तव्यम्। तच्च अज्ञानं दर्शितम् हन्ता अहम् हतः अस्मि इति उभौ तौ न विजानीतः इति। अत्र च आत्मनः हननक्रियायाः कर्तृत्वं कर्मत्वं हेतुकर्तृत्वं च अज्ञानकृतं दर्शितम्। तच्च सर्वक्रियास्वपि समानं कर्तृत्वादेः अविद्याकृतत्वम् अविक्रियत्वात् आत्मनः। विक्रियावान् हि कर्ता आत्मनः कर्मभूतमन्यं प्रयोजयति कुरु इति। तदेतत् अविशेषेण विदुषः सर्वक्रियासु कर्तृत्वं हेतुकर्तृत्वं च प्रतिषेधति भगवान्वासुदेवः विदुषः कर्माधिकाराभावप्रदर्शनार्थम् वेदाविनाशिनं৷৷. कथं स पुरुषः इत्यादिना। क्व पुनः विदुषः अधिकार इति एतदुक्तं पूर्वमेव ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् इति। तथा च सर्वकर्मसंन्यासं वक्ष्यति सर्वकर्माणि मनसा इत्यादिना।।ननु मनसा इति वचनात् न वाचिकानां कायिकाना च संन्यासः इति चेत् न सर्वकर्माणि इति विशेषितत्वात्। मानसानामेव सर्वकर्मणामिति चेत् न मनोव्यापारपूर्वकत्वाद्वाक्कायव्यापाराणां मनोव्यापाराभावे तदनुपपत्तेः। शास्त्रीयाणां वाक्कायकर्मणां कारणानि मानसानि कर्माणि वर्जयित्वा अन्यानि सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्येदिति चेत् न नैव कुर्वन्न कारयन् इति विशेषणात्। सर्वकर्मसंन्यासः अयं भगवता उक्तः मरिष्यतः न जीवतः इति चेत् न नवद्वारे पुरे देही आस्ते इति विशेणानुपपत्तेः। न हि सर्वकर्मसंन्यासेन मृतस्य तद्देहे आसनं संभवति। अकुर्वतः अकारयतश्च देहे संन्यस्य इति संबन्धः न देहे आस्ते इति चेत् न सर्वत्र आत्मनः अविक्रियत्वावधारणात् आसनक्रियायाश्च अधिकरणापेक्षत्वात् तदनपेक्षत्वाच्च संन्यासस्य। संपूर्वस्तु न्यासशब्दः अत्र त्यागार्थः न निक्षेपार्थः। तस्मात् गीताशास्त्रे आत्मज्ञानवतः संन्यासे एव अधिकारः न कर्मणि इति तत्र तत्र उपरिष्टात् आत्मज्ञानप्रकरणे दर्शयिष्यामः।।प्रकृतं तु वक्ष्यामः। तत्र आत्मनः अविनाशित्वं प्रतिज्ञातम्। तत्किमिवेति उच्यते
।।2.21।। वेदाविनाशिन मिति। पुनरात्मनोऽविनाशित्वादिकं किमर्थमुच्यते इत्यतोऽस्य तात्पर्यमाह  अत  इति। उक्तैः प्रमाणैरेवमविनाशित्वादिरूपं कं कथं घातयति हन्ति वेत्येवंभावं करोतीत्यर्थः। जीवस्यानित्यत्वादिकं मन्यमानो न जानातीत्युक्तम् इदानीं तु ज्ञानी नैवं मन्यत इत्युच्यत इति। अविनाशिनं नित्यमिति पुनरुक्तिमाशङ्क्य द्वेधार्थभेदमाह  अविनाशिन मिति।  नैमित्तिको  बिम्बनाशादिनिमित्तकः। स्वाभाविकः कालकृतः। दोषयोगरहितमित्यनेन मात्रास्पर्शा इत्यत्र यदुक्तमाभिमानिकमेवात्मनो दुःखादिकं न तु स्वगतमिति तस्यानुवादः क्रियते। एवं व्याख्यानप्रकारमन्यत्राप्यतिदिशति  इती ति। विवेकः शब्दार्थयोः। अविनाशिनं दोषयोगरहितमिति कुतो लभ्यमित्यत आह  दोषे ति। अनेकार्थत्वाद्धातूनामिति भावः।
।।2.21।।अतो य एवं वेद स कथं घातयति हन्ति वा अविनाशिनं नैमित्तिकविनाशरहितम्। नित्यं स्वाभाविकनाशरहितम्। अथवाऽविनाशिनं दोषयोगरहितम्। नित्यं सदाभाविनमिति सर्वत्र विवेकः दोषयुक्तपुरुषादिषु नष्टशब्दप्रयोगात्।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।2.21।।
বেদাবিনাশিনং নিত্যং য এনমজমব্যযম্৷ কথং স পুরুষঃ পার্থ কং ঘাতযতি হন্তি কম্৷৷2.21৷৷
বেদাবিনাশিনং নিত্যং য এনমজমব্যযম্৷ কথং স পুরুষঃ পার্থ কং ঘাতযতি হন্তি কম্৷৷2.21৷৷
વેદાવિનાશિનં નિત્યં ય એનમજમવ્યયમ્। કથં સ પુરુષઃ પાર્થ કં ઘાતયતિ હન્તિ કમ્।।2.21।।
ਵੇਦਾਵਿਨਾਸ਼ਿਨਂ ਨਿਤ੍ਯਂ ਯ ਏਨਮਜਮਵ੍ਯਯਮ੍। ਕਥਂ ਸ ਪੁਰੁਸ਼ ਪਾਰ੍ਥ ਕਂ ਘਾਤਯਤਿ ਹਨ੍ਤਿ ਕਮ੍।।2.21।।
ವೇದಾವಿನಾಶಿನಂ ನಿತ್ಯಂ ಯ ಏನಮಜಮವ್ಯಯಮ್. ಕಥಂ ಸ ಪುರುಷಃ ಪಾರ್ಥ ಕಂ ಘಾತಯತಿ ಹನ್ತಿ ಕಮ್৷৷2.21৷৷
വേദാവിനാശിനം നിത്യം യ ഏനമജമവ്യയമ്. കഥം സ പുരുഷഃ പാര്ഥ കം ഘാതയതി ഹന്തി കമ്৷৷2.21৷৷
ବେଦାବିନାଶିନଂ ନିତ୍ଯଂ ଯ ଏନମଜମବ୍ଯଯମ୍| କଥଂ ସ ପୁରୁଷଃ ପାର୍ଥ କଂ ଘାତଯତି ହନ୍ତି କମ୍||2.21||
vēdāvināśinaṅ nityaṅ ya ēnamajamavyayam. kathaṅ sa puruṣaḥ pārtha kaṅ ghātayati hanti kam৷৷2.21৷৷
வேதாவிநாஷிநஂ நித்யஂ ய ஏநமஜமவ்யயம். கதஂ ஸ புருஷஃ பார்த கஂ காதயதி ஹந்தி கம்৷৷2.21৷৷
వేదావినాశినం నిత్యం య ఏనమజమవ్యయమ్. కథం స పురుషః పార్థ కం ఘాతయతి హన్తి కమ్৷৷2.21৷৷
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।।2.22।। मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।
।।2.22।। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।।
।।2.22।। गीता के प्राय उद्धृत किये जाने वाले अनेक प्रसिद्ध श्लोकों में यह एक श्लोक है जिसमें एक अत्यन्त व्यावहारिक दृष्टांत के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार जीवात्मा एक देह को छोड़कर अन्य देह के साथ तादात्म्य करके नई परिस्थितियों में नए अनुभव प्राप्त करता है। व्यास जी द्वारा प्रयुक्त यह दृष्टान्त अत्यन्त सुपरिचित है।जैसे मनुष्य व्यावहारिक जीवन में भिन्नभिन्न अवसरों पर समयोचित वस्त्रों को धारण करता है वैसे ही जीवात्मा एक देह को त्यागकर अन्य प्रकार के अनुभव प्राप्त करने के लिये किसी अन्य देह को धारण करता है। कोई भी व्यक्ति रात्रिपरिधान (नाईट गाउन) पहने अपने कार्यालय नहीं जाता और न ही कार्यालय के वस्त्र पहनकर टेनिस खेलता है। वह अवसर और कार्य के अनुकूल वस्त्र पहनता है। यही बात मृत्यु के विषय में भी है।यह दृष्टांत इतना सरल और बुद्धिग्राह्य है कि इसके द्वारा न केवल अर्जुन वरन् दीर्घ कालावधि के पश्चात भी गीता का कोई भी अध्येता या श्रोता देह त्याग के विषय को स्पष्ट रूप से समझ सकता है।अनुपयोगी वस्त्रों को बदलना किसी के लिये भी पीड़ा की बात नहीं होती और विशेषकर जब पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करने हों तब तो कष्ट का कोई कारण ही नहीं होता। इसी प्रकार जब जीव यह पाता है कि उसका वर्तमान शरीर उसके लिये अब कोई प्रयोजन नहीं रखता तब वह उस जीर्ण शरीर का त्याग कर देता है। शरीर के इस जीर्णत्व का निश्चय इसको धारण करने वाला ही कर सकता है क्योंकि जीर्णत्व का सम्बन्ध न धारणकर्त्ता की आयु से है और न उसकी शारीरिक अवस्था से है।जीर्ण शब्द के तात्पर्य को न समझकर अनेक आलोचक इस श्लोक का विरोध करते हैं। उनकी मुख्य युक्ति यह है कि जगत् में अनेक बालक और युवक मरते देखे जाते हैं जिनका शरीर जीर्ण नहीं था। शारीरिक दृष्टि से यह कथन सही होने पर भी जीव की विकास की दृष्टि से देखें तो यदि जीव के लिये वह शरीर अनुपयोगी हुआ तो उस शरीर को जीर्ण ही माना जायेगा। कोई धनी व्यक्ति प्रतिवर्ष अपना भवन या वाहन बदलना चाहता है और हर बार उसे कोई न कोई क्रय करने वाला भी मिल जाता है। उस धनी व्यक्ति की दृष्टि से वह भवन या वाहन पुराना या अनुपयोगी हो चुका है परन्तु ग्राहक की दृष्टि से वही घर नये के समान उपयोगी है। इसी प्रकार शरीर जीर्ण हुआ या नहीं इसका निश्चय उसको धारण करने वाला जीव ही कर सकता है।यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धान्त को दृढ़ करता है जिसकी विवेचना हम 12वें श्लोक में पहले ही कर चुके हैं।इस दृष्टांत के द्वारा अर्जुन को यह बात निश्चय ही समझ में आ गयी होगी कि मृत्यु केवल उन्हीं को भयभीत करती है जिन्हें उसका ज्ञान नहीं होता है। परन्तु मृत्यु के रहस्य एवं संकेतार्थ को समझने वाले व्यक्ति को कोई पीड़ा या शोक नहीं होता जैसे वस्त्र बदलने से शरीर को कोई कष्ट नहीं होता और न ही एक वस्त्र के त्याग के बाद हम सदैव विवस्त्र अवस्था में ही रहते हैं। इसी प्रकार विकास की दृष्टि से जीव का भी देह का त्याग होता है और वह नये अनुभवों की प्राप्ति के लिये उपयुक्त नवीन देह को धारण करता है। उसमें कोई कष्ट नहीं है। यह विकास और परिवर्तन जीव के लिये है न कि चैतन्य स्वरूप आत्मा के लिये। आत्मा सदा परिपूर्ण है उसे विकास की आवश्यकता नहीं।आत्मा अविकारी अपरिवर्तनशील क्यों है भगवान् कहते हैं
2.22।। व्याख्या-- 'वासांसि जीर्णानि ৷৷. संयाति नवानि देही'-- इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकमें सूत्ररूपसे कहा गया था कि देहान्तरकी प्राप्तिके विषयमें धीर पुरुष शोक नहीं करते। अब उसी बातको उदाहरण देकर स्पष्टरूपसे कह रहे हैं कि जैसे पुराने कपड़ोंके परिवर्तनपर मनुष्यको शोक नहीं होता, ऐसे ही शरीरोंके परिवर्तनपर भी शोक नहीं होना चाहिये। कपड़े मनुष्य ही बदलते हैं, पशु-पक्षी नहीं; अतः यहाँ कपड़े बदलनेके उदाहरणमें  'नरः' पद दिया है। यह  'नरः'  पद मनुष्ययोनिका वाचक है और इसमें स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, जवान-बूढ़े आदि सभी आ जाते हैं। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़ोंको धारण करता है, ऐसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंको धारण करता है। पुराना शरीर छोड़नेको 'मरना' कह देते हैं, और नया शरीर धारण करनेको 'जन्मना' कह देते हैं। जबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रहता है, तबतक यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर कर्मोंके अनुसार या अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार नये-नये शरीरोंको प्राप्त होता रहता है। यहाँ  'शरीराणि'  पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जबतक शरीरीको अपने वास्तविक स्वरूपका यथार्थ बोध नहीं होता, तबतक यह शरीरी अनन्तकालतक शरीर धारण करता ही रहता है। आजतक इसने कितने शरीर धारण किये हैं, इसकी गिनती भी सम्भव नहीं है। इस बातको लक्ष्यमें रखकर  'शरीराणि'  पदमें बहुवचनका प्रयोग किया गया है तथा सम्पूर्ण जीवोंका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ  'देही'  पद आया है। यहाँ श्लोकके पूर्वार्धमें तो जीर्ण कपड़ोंकी बात कही है और उत्तरार्धमें जीर्ण शरीरोंकी। जीर्ण कपड़ोंका दृष्टान्त शरीरोंमें कैसे लागू होगा? कारण कि शरीर तो बच्चों और जवानोंके भी मर जाते हैं। केवल बूढ़ोंके जीर्ण शरीर मर जाते हों, यह बात तो है नहीं! इसका उत्तर यह है कि शरीर तो आयु समाप्त होनेपर ही मरता है और आयु समाप्त होना ही शरीरका जीर्ण होना है  (टिप्पणी प0 62) । शरीर चाहे बच्चोंका हो, चाहे जवानोंका हो, चाहे वृद्धोंका हो, आयु समाप्त होनेपर वे सभी जीर्ण ही कहलायेंगे। इस श्लोकमें भगवान्ने  'यथा'  और  'तथा'  पद देकर कहा है कि जैसे मनुष्य पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपड़े धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चला जाता है। यहाँ एक शंका होती है। जैसे कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएँ अपने-आप होती हैं, वैसे ही देहान्तरकी प्राप्ति अपने-आप होती है (2। 13) यहाँ तो  'यथा'  (जैसे) और  'तथा'  (वैसे) घट जाते हैं। परन्तु (इस श्लोकमें) पुराने कपड़ोंको छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो मनुष्यकी स्वतन्त्रता है, पर पुराने शरीरोंको छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें देहीकी स्वतन्त्रता नहीं है। इसलिये यहाँ  'यथा'  और  'तथा' कैसे घटेंगे? इसका समाधान है कि यहाँ भगवान्का तात्पर्य स्वतन्त्रता-परतन्त्रताकी बात कहनेमें नहीं हैं, प्रत्युत शरीरके वियोगसे होनेवाले शोकको मिटानेमें है। जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर नये कपडे धारण करनेपर भी धारण करनेवाला (मनुष्य) वही रहता है, वैसे ही पुराने शरीरोंको छोड़कर नये शरीरोंमें चले जानेपर भी देही ज्यों-का-त्यों निर्लिप्तरूपसे रहता है; अतः शोक करनेकी कोई बात है ही नहीं। इस दृष्टिसे यह दृष्टान्त ठीक ही है। दूसरी शंका यह होती है कि पुराने कपड़े छोड़नेमें और नये कपड़े धारण करनेमें तो सुख होता है, पर पुराने शरीर छोड़नेमें और नये शरीर धारण करनेमें दुःख होता है। अतः यहाँ  'यथा'  और  'तथा'  कैसे घटेंगे? इसका समाधान .यह है कि शरीरोंके मरनेका जो दुःख होता है, वह मरनेसे नहीं होता, प्रत्युत जीनेकी इच्छासे होता है। 'मैं जीता रहूँ'--ऐसी जीनेकी इच्छा भीतरमें रहती है और मरना पड़ता है तब दुःख होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य शरीरके साथ एकात्मता कर लेता है, तब वह शरीरके मरनेसे अपना मरना मान लेता है और दुःखी होता है। परन्तु जो शरीरके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, उसको मरनेमें दुःख नहीं होता, प्रत्युत आनन्द होता है! जैसे, मनुष्य कपड़ोंके साथ अपनी एकात्मता नहीं मानता, तो कपड़ोंको बदलनेमें उसको दुःख नहीं होता। कारण कि वहाँ उसका यह विवेक स्पष्टतया जाग्रत् रहता है कि कपड़े अलग है और मैं अलग हूँ। परन्तु वही कपड़ोंका बदलना अगर छोटे बच्चेका किया जाय, तो वह पुराने कपड़े उतारनेमें और नये कपड़े धारण करनेमें भी रोता है। उसका यह दुःख केवल मूर्खतासे, नासमझीसे होता है। इस मूर्खताको मिटानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ  'यथा'  और  'तथा'  पद देकर कपड़ोंका दृष्टान्त दिया है। यहाँ भगवान्ने कपड़ोंके धारण करनेमें तो  'गृह्णाति'  (धारण करता है) क्रिया दी, पर शरीरोंके धारण करनेमें संयाति (जाता है) क्रिया दी, ऐसा क्रियाभेद भगवान्ने क्यों किया? लौकिक दृष्टिसे बेसमझीके कारण ऐसा दीखता है कि मनुष्य अपनी जगह रहता हुआ ही कपड़ोंको धारण करता है और देहान्तरकी प्राप्तिमें देहीको उन-उन देहोंमें जाना पड़ता है। इस लौकिक दृष्टिको लेकर ही भगवान्ने क्रियाभेद किया है।  'विशेष बात'  गीतामें  'येन सर्वमिदं ततम्'  (2। 17),  'नित्यः सर्वगतः स्थाणुः'  (2। 24) आदि पदोंसे देहीको सर्वत्र व्याप्त, नित्य, सर्वगत और स्थिर स्वभाववाला बताया तथा  'संयाति नवानि देही'  (2। 22)  'शरीरं यदवाप्नोति' (15। 8) आदि पदोंसे देहीको दूसरे शरीरोंमें जानेकी बात कही गयी है। अतः जो सर्वगत है, सर्वत्र व्याप्त है, उसका जाना-आना कैसे? क्योंकि जो जिस देशमें न हो, उस देशमें चला जाय, तो इसको 'जाना' कहते हैं; और जो दूसरे देशमें है, वह इस देशमें आ जाय, तो इसको 'आना' कहते हैं। परन्तु देहीके विषयमें तो ये दोनों ही बातें नहीं घटतीं! इसका समाधान यह है कि जैसे किसीकी बाल्यावस्थासे युवावस्था हो जाती है तो वह कहता है कि 'मैं जवान हो गया हूँ'। परन्तु वास्तवमें वह स्वयं जवान नहीं हुआ है, प्रत्युत उसका शरीर जवान हुआ है। इसलिये बाल्यावस्थामें जो वह था, युवावस्थामें भी वह था ,युवावस्थामें भी वह वही है। परन्तु शरीरसे तादात्म्य माननेके कारण वह शरीरके परिवर्तनको अपनेमें आरोपित कर लेता है। ऐसे ही आना-जाना वास्तवमें शरीरका धर्म है, पर शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे वह अपनेमें आना-जाना मान लेता है। अतः वास्तवमें देहीका कहीं भी आना-जाना नहीं होता केवल शरीरोंके तादात्म्यके कारण उसका आना-जाना प्रतीत होता है। अब यह प्रश्न होता है कि अनादिकालसे जो जन्म-मरण चला आ रहा है, उसमें कारण क्या है? कर्मोंकी दृष्टिसे तो शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये जन्म-मरण होता है, ज्ञानकी दृष्टिसे अज्ञानके कारण जन्म-मरण होता है और भक्तिकी दृष्टिसे भगवान्की विमुखताके कारण जन्म-मरण होता है। इन तीनोंमें भी मुख्य कारण है कि भगवान्ने जीवको जो स्वतन्त्रता दी है, उसका दुरुपयोग करनेसे ही जन्म-मरण हो रहा है। अब वह जन्म-मरण मिटे कैसे? मिली हुई स्वतन्त्रताका सदुपयोग करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। तात्पर्य है कि अपने स्वार्थके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। अपनी जानकारीका अनादर करनेसे  (टिप्पणी प0 63)  जन्म-मरण हुआ है; अतः अपनी जानकारीका आदर करनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। भगवान्से विमुख होनेसे जन्म-मरण हुआ है; अतः भगवान्के सम्मुख होनेसे जन्म-मरण मिट जायगा। सम्बन्ध-- पहले दृष्टान्तरूपसे शरीरीकी निर्विकारताका वर्णन करके अब आगेके तीन श्लोकोंमें उसीका प्रकारान्तरसे वर्णन करते हैं।
।।2.22।।वेदेति। य एनमात्मानं प्रबुद्धत्वात् जानाति स न हन्ति न स हन्यते इति तस्य कथं बन्धः (N omits इति बन्धः)।
।।2.22।।धर्मयुद्धे शरीरं त्यजतां त्यक्तशरीराद् अधिकतरकल्याणशरीरग्रहणं शास्त्राद् अवगम्यते इति।  जीर्णानि वासांसि विहाय नवानि  कल्याणानि वासांसि गृह्णताम् इव हर्षनिमित्तिम् एव अत्र उपलभ्यते।पुनरपिअविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। (गीता 2।17) इति पूर्वोक्तम् अविनाशित्वं सुखग्रहणाय व्यञ्जयन् द्रढयति
।।2.22।।आत्मनोऽविक्रियत्वेन कर्मासंभवं प्रतिपाद्याविक्रियत्वहेतुसमर्थनार्थमेवोत्तरग्रन्थमवतारयति   प्रकृतं   त्विति।  किं तत्प्रकृतमिति शङ्कमानं प्रत्याह  तत्रेति।  अविनाशित्वमित्युपलक्षणमविक्रियत्वमित्यर्थः। तदेव दृष्टान्तेन स्पष्टयितुमुत्तरश्लोकमुत्थापयति  तदित्यादिना।  आत्मनः स्वतो विक्रियाभावेऽपि पुरातनदेहत्यागे नूतनदेहोपादाने च विक्रियावत्त्वध्रौव्यादविक्रियत्वमसिद्धमिति चेत्तत्राह  वासांसीति।  शरीराणि जीर्णानि वयोहानिं गतानि वलीपलितादिसंगतानीत्यर्थः। वाससां पुरातनानां परित्यागे नवानां चोपादाने त्यागोपादानकर्तृभूतलौकिकपुरुषस्याप्यविकारित्वेनैकरूपत्ववदात्मनो देहत्यागोपादानयोरविरुद्धमविक्रियत्वमिति वाक्यार्थमाह  पुरुषवदिति।
।।2.22।।नन्वात्मनोऽविनाशेऽपि तदीयभोगसाधनदेहानां विनाशं पर्यालोच्य शोचामीति चेत्तत्राह वासांसीति। यथेति दृष्टान्तः। नरो जीर्णानि वासांसि विहायापराणि नवानि गृह्णाति तथा देही जीव आत्मा जीर्णानि शरीराणि त्यक्त्वाऽन्यानि नवानि प्राप्नोति। कर्मनिबन्धनानां नूतनानां देहानामवश्यम्भावात् न जीर्णदेहनाशे शोकावकाश इति भावः।
।।2.22।।नन्वेवमात्मनो विनाशित्वाभावेऽपि देहानां विनाशित्वाद्युद्धस्य च तन्नाशकत्वात्कथं भीष्मादिदेहानामनेकसुकृतसाधनानां मया युद्धेन विनाशः कार्य इत्याशङ्काया उत्तरं जीर्णानि विहाय वस्त्राणि नवानि गृह्णाति विक्रियाशून्य एव नरो यथेत्येतावतैव निर्वाहे अपराणीति विशेषणमुत्कर्षातिशयख्यापनार्थम्। तेन तथा निकृष्टानि वस्त्राणि विहायोत्कृष्टानि जनो गृह्णातीत्यौचित्यायातम्। तथा जीर्णानि वयसा तपसा च कृशानि भीष्मादिशरीराणि विहाय अन्यानि देवादिशरीराणि सर्वोत्कृष्टानि चिरोपार्जितधर्मफलभोगाय संयाति सम्यक् गर्भवासादिक्लेशव्यतिरेकेण प्राप्नोति। देही प्रकृष्टधर्मानुष्ठातृदेहवान्भीष्मादिरित्यर्थः।अन्यन्नवतरं कल्याणतरं रूपं कुरुते पित्र्यं वा गान्धर्वं वा दैवं वा प्राजापत्यं वा ब्राह्मं वा इत्यादिश्रुतेः। एतदुक्तं भवति भीष्मादयो हि यावज्जीवं धर्मानुष्ठानक्लेशेनैव जर्जरशरीरा वर्तमानशरीरपातमन्तरेण तत्फलभोगायासमर्था यदि धर्मयुद्धेन स्वर्गप्रतिबन्धकानि जर्जरशरीराणि पातयित्वा दिव्यदेहसंपादनेन स्वर्गभोगयोग्याः क्रियन्ते त्वया तदात्यन्तमुपकृता एव ते। दुर्योधनादीनामपि स्वर्गभोगयोग्यदेहसंपादनान्महानुपकार एव। तथाचात्यन्तमुपकारके युद्धेऽपकारकत्वभ्रमं मा कार्षीरितिअपराणि अन्यानि संयाति इति पदत्रयवशाद्भगवदभिप्राय एवमभ्यूहितः। अनेन दृष्टान्तेनाविकृतत्वप्रतिपादनमात्मनः क्रियत इति तु प्राचां व्याख्यानमतिस्पष्टम्।
।।2.22।।   नन्वात्मनोऽविनाशित्वेऽपि तदीयशरीरनाशं पर्यालोच्य शोचामीति चेत्तत्राह  वासांसीति।  कर्मनिबन्धनभूतानां देहानामवश्यंभावित्वान्न जीर्णदेहनाशे शोकावकाश इत्यर्थः।
।।2.22।।शङ्कापूर्वकंवासांसि इति श्लोकमवतारयति यद्यपीति। ननु सार्वभौमादिशरीरपरित्यागे तत्तत्कर्मानुरूपनारकतिर्यक्स्थावरादिशरीरपरिग्रहसम्भावनया प्रलयवत् अपरिगृहीतशरीरतयाऽवस्थितसम्भावनया चास्त्येव शोकनिमित्तम् न च नूतनत्वमात्रं सुखाय चिरन्तननरपतिगृहपरित्यागेनापि नूतनकारागारप्रवेशादेः जीर्णोशुकप्रहाणेन नूतनगोणीग्रहणादेश्च दुःखरूपत्वात्। न च वयमिह मानुषादिशरीरविलयसमनन्तरं अभिनववसनपरिधानवत् अनिमिषदेहादिसङ्ग्रहमुपलभामह इत्याशङ्क्याह धर्मयुद्धे इति।अधिकतरेति कल्याणविशेषणम्। नवशब्दाभिप्रेतोक्तिः कल्याणानीति।हर्षनिमित्तमेवेति पुरा शोकाविषयमात्रे शोकः कृतः इदानीं तु तद्विपरीतहर्षविषये क्रियत इति भावः।
।।2.22।।ननु भगवत्क्रीडार्थं सृष्टदेहादीनां मारणमपि दोषरूपं अतः शोचामीति चेत्तत्राह वासांसीति। यथा जीर्णानि कार्यानुपयुक्तानि वासांसि विहाय नवानि कार्योपयोगीनि अपराणि पूर्वविलक्षणानि नरो गृह्णाति तथा जीर्णानि मत्क्रीडानुपयुक्तानि शरीराणि विहाय नवानि अन्यानि मत्क्रीडार्थं विलक्षणरसोत्पादकानि देही संयाति मदिच्छया प्राप्नोती त्यर्थः।
।।2.22।।ननुब्राह्मणो यजेतजातपुत्रः कृष्णकेशोऽग्नीनादधीत इति आत्मानं वयोवर्णादिविशेषणवन्तमेवाधिकृत्य कर्मविधयः प्रवर्तन्ते तेन नीलादुत्पलमिव देहादन्य आत्मावधारयितुं न शक्यत इत्याशङ्क्याह  वासांसीति।  दण्डी प्रैषानन्वाहेति दण्डस्य विशेषणत्वेऽपि न प्रैषानुवक्तृस्वरूपान्तर्गतत्वम् एवं ब्राह्मणत्वादेरपि न स्वर्गकामस्वरूपान्तर्गतत्वमिति वस्त्रदेवदत्तयोरिव जडाजडयोर्देहात्मनोरत्यन्तविलक्षणत्वमस्तीति वस्त्रनाशेन देवदत्तनाशं मन्वानस्येव तव देहनाशादात्मनाशं मन्वानस्यात्यन्तमौढ्यं स्पष्टमिति भावः। स्पष्टार्थश्च श्लोकः।
।।2.22।।नन्वात्मनः पुरातनदेहत्यागे नवीनदेहोपादाने च सति विक्रियावत्त्वध्रौव्यादविक्रियत्वमसिद्धमित्याशङ्कां दृष्टान्तेन परिहरति  वासांसीति।  यथा लोके जीर्णानि दुर्बलतां गतानि वस्त्राणि नरः पुरुषः परित्यज्यापराण्यन्यानि नवान्युपादत्ते तद्वदेव देह्यात्मा जीर्णानि शरीराणि विहायान्यानि नवानि संगच्छति। जीर्णानीत्यादिविशेषणत्रयेण वस्त्राणां शरीराणां च जीर्णत्वादिमत्त्वेऽपि तदुपादानत्यागकर्त्रोः पुरुषदेहिनोस्तत्त्वाभावबोधकेन तयोरविक्रियत्वं कथितम्। तथाच पुरुषवदविक्रिय एवात्मेत्यर्थः। यत्तु केचित् नन्वेवमात्मनोऽविनाशित्वेऽपि देहानां विनाशित्वाद्युद्धस्य तन्नाशकत्वात्कथं भीष्मादिदेहानामनेकसुकृतसाधकानां मया युद्धेन विनाशः कार्य इत्याशङ्कायां उत्तरं वासांसीति। यथा निकृष्टानि वस्त्राणि विहाय नवान्युत्कृष्टानि जनो गृह्णाति तथा वयसा तपसा च कृशानि भीष्मादिशरीराणि विहायान्यानि देवादिशरीराणि सर्वोत्कृष्टानि संयाति देही प्रकृष्टधर्मानुष्ठाता देहवान्भीष्मादिरित्यर्थः। तथाचात्यन्तमुपकारके युद्धेऽपकारकत्वभ्रमं मा कार्षीरिति। तच्चिन्त्यम्। प्रकरणविरोधस्य विशेष्याध्याहारदोषस्य च स्पष्टत्वात् जीर्णानिति विशेषणात् नवीनादिसाधारणशरीरनाशनिमित्तस्य युद्धस्यात्यन्तोपकारकताया मूलादसिद्धेश्च उक्तरीत्या पराणीति पदस्य सार्थकत्वेन जीर्णानि विहाय नवानि गृह्णाति विक्रियाशून्य एव नरो यथेत्येतावतैव निर्वाहे अपराणीति विशेषणमुत्कर्षातिशयख्यापनार्थमिति वर्णनं त्वयुक्तमिति दिक्। अतएवानेन दृष्टान्तेनाविकृत्वप्रतिपादनमात्मनः क्रियत इति प्राचां व्याख्यानमतिस्पष्टमिति कटाक्षोऽपि परास्तः। आत्माविक्रियत्वप्रतिपादकपूर्वोत्तरप्रकरणानुसारिमूलादतिस्पष्टतया प्रतीयमानस्य भाष्योक्तव्याख्यानस्यैव सभ्यक्त्वात्।
null
2.22 Just as a man casts off worn-out clothes and puts on new ones, so also the embodied Self casts off worn-out bodies and enters others which are new.
2.22 As a man discards his threadbare robes and puts on new, so the Spirit throws off Its worn-out bodies and takes fresh ones.
2.22 As after rejecting wornout clothes a man takes up other new ones, likewise after rejecting wornout bodies the embodied one unites with other new ones.
2.22 Yatha, as in the world; vihaya, after rejecting jirnani, wornout; vasamsi, clothes; narah, a man grhnati, takes up; aparani, other; navani, new ones; tatha, likewise, in that very manner; vihaya, after rejecting; jirnani, wornout; sarirani, bodies; dehi, the embodied one, the Self which is surely unchanging like the man (in the example); samyati, unites with; anyani, other; navani, new ones. This is meaning.
2.22. Just as rejecting the tattered garments, a man takes other new ones, in the same way, rejecting the decayed bodies, the embodied (Self) rightly proceeds to other new ones.
2.22 Vasamsi etc. just as a well - dressed person, on the destruction of his garment, gets himself dressed in another more suitable garment, and he does not perish on that account, in the same way the Self, dressed with different bodies [behaves].
2.22 That those who give up their bodies in a righteous war get more beauteous bodies than before, is known through the scriptures. Casting off worn-out garments and taking new and beautiful ones, can be only a cause of joy, as seen here in the world in the case of new garments. Once again Sri Krsna emphasises for easy understanding the indestructibility of the self, taught before: 'Know that to be indestructible by which all this is pervaded' (II.17) and confirms it thus:
2.22 As a man casts off worn-out garments and puts on others that are new, so does the embodied self cast off Its worn-out bodies and enter into others that are new.
।।2.22।।अब हम प्रकृत विषय वर्णन करेंगे। यहाँ ( प्रकरणमें ) आत्माके अविनाशित्वकी प्रतिज्ञा की गयी है वह किसके सदृश है सो कहा जाता है जैसे जगत्में मनुष्य पुरानेजीर्ण वस्त्रोंको त्याग कर अन्य नवीन वस्त्रोंको ग्रहण करते हैं वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरको छोड़कर अन्यान्य नवीन शरीरोंको प्राप्त करता है। अभिप्राय यह कि ( पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये धारण करनेवाले ) पुरुषकी भाँति जीवात्मा सदा निर्विकार ही रहता है।
।।2.22।। वासांसि वस्त्राणि जीर्णानि दुर्बलतां गतानि यथा लोके विहाय परित्यज्य नवानि अभिनवानि गृह्णाति उपादत्ते नरः पुरुषः अपराणि अन्यानि तथा तद्वदेव शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति संगच्छति नवानि देही आत्मा पुरुषवत् अविक्रिय एवेत्यर्थः।।कस्मात् अविक्रिय एवेति आह
।।2.22।।देहानामुपगमापगमयोरप्येक एवायमात्मेत्येतत्देहिनोऽस्मिन् 2।13 इत्यत्रैव सदृष्टान्तमुक्तं अतोवासांसि इति व्यर्थोऽयं श्लोक इत्यत आह  देहे ति। कौमारादिदेहानामनतिभिन्नत्वान्न तेन देहात्मनो र्विवेको  विनाशित्वाविनाशित्वलक्षणः स्पष्टमनुभवारूढो भवतीति भावः।  दृष्टान्तं  पूर्वोक्ताद्विलक्षणमिति शेषः। दृष्टान्तमित्युपलक्षणं दार्ष्टान्तिकस्यापि कथितत्वात्।
।।2.22।।देहात्मविवेकानुभवार्थं दृष्टान्तमाह वासांसीति।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।
বাসাংসি জীর্ণানি যথা বিহায নবানি গৃহ্ণাতি নরোপরাণি৷ তথা শরীরাণি বিহায জীর্ণা- ন্যন্যানি সংযাতি নবানি দেহী৷৷2.22৷৷
বাসাংসি জীর্ণানি যথা বিহায নবানি গৃহ্ণাতি নরোপরাণি৷ তথা শরীরাণি বিহায জীর্ণা- ন্যন্যানি সংযাতি নবানি দেহী৷৷2.22৷৷
વાસાંસિ જીર્ણાનિ યથા વિહાય નવાનિ ગૃહ્ણાતિ નરોપરાણિ। તથા શરીરાણિ વિહાય જીર્ણા- ન્યન્યાનિ સંયાતિ નવાનિ દેહી।।2.22।।
ਵਾਸਾਂਸਿ ਜੀਰ੍ਣਾਨਿ ਯਥਾ ਵਿਹਾਯ ਨਵਾਨਿ ਗਰਿਹ੍ਣਾਤਿ ਨਰੋਪਰਾਣਿ। ਤਥਾ ਸ਼ਰੀਰਾਣਿ ਵਿਹਾਯ ਜੀਰ੍ਣਾ- ਨ੍ਯਨ੍ਯਾਨਿ ਸਂਯਾਤਿ ਨਵਾਨਿ ਦੇਹੀ।।2.22।।
ವಾಸಾಂಸಿ ಜೀರ್ಣಾನಿ ಯಥಾ ವಿಹಾಯ ನವಾನಿ ಗೃಹ್ಣಾತಿ ನರೋಪರಾಣಿ. ತಥಾ ಶರೀರಾಣಿ ವಿಹಾಯ ಜೀರ್ಣಾ- ನ್ಯನ್ಯಾನಿ ಸಂಯಾತಿ ನವಾನಿ ದೇಹೀ৷৷2.22৷৷
വാസാംസി ജീര്ണാനി യഥാ വിഹായ നവാനി ഗൃഹ്ണാതി നരോപരാണി. തഥാ ശരീരാണി വിഹായ ജീര്ണാ- ന്യന്യാനി സംയാതി നവാനി ദേഹീ৷৷2.22৷৷
ବାସାଂସି ଜୀର୍ଣାନି ଯଥା ବିହାଯ ନବାନି ଗୃହ୍ଣାତି ନରୋପରାଣି| ତଥା ଶରୀରାଣି ବିହାଯ ଜୀର୍ଣା- ନ୍ଯନ୍ଯାନି ସଂଯାତି ନବାନି ଦେହୀ||2.22||
vāsāṅsi jīrṇāni yathā vihāya navāni gṛhṇāti narō.parāṇi. tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇā- nyanyāni saṅyāti navāni dēhī৷৷2.22৷৷
வாஸாஂஸி ஜீர்ணாநி யதா விஹாய நவாநி கரிஹ்ணாதி நரோபராணி. ததா ஷரீராணி விஹாய ஜீர்ணா- ந்யந்யாநி ஸஂயாதி நவாநி தேஹீ৷৷2.22৷৷
వాసాంసి జీర్ణాని యథా విహాయ నవాని గృహ్ణాతి నరోపరాణి. తథా శరీరాణి విహాయ జీర్ణా- న్యన్యాని సంయాతి నవాని దేహీ৷৷2.22৷৷
2.23
2
23
।।2.23।। शस्त्र इस शरीरीको काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती।
।।2.23।। इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।
।।2.23।। अदृष्ट वस्तु को सदैव दृष्ट वस्तुओं के द्वारा ही समझाया जा सकता है। परिभाषा मात्र से वह वस्तु अज्ञात ही रहेगी। यहाँ भी भगवान् श्रीकृष्ण अविकारी नित्य आत्मतत्त्व का वर्णन अर्जुन को और हमको परिचित विकारी नित्य परिवर्तनशील जगत् के द्वारा करते हैं। यह तो सर्वविदित है कि वस्तुओं का नाश शस्त्र आदि अथवा प्रकृति के नाश के साधनों अग्नि जल और वायु के द्वारा संभव है। इनमें से किसी भी साधन से आत्मा का नाश नहीं किया जा सकता।शस्त्र इसे काट नहीं सकते यह सर्वविदित है कि एक कुल्हाड़ी से वृक्ष आदि को काटा जा सकता है परन्तु उसके द्वारा जलअग्नि वायु या आकाश को किसी प्रकार की चोट नहीं पहुँचायी जा सकती। सिद्धांत यह है कि स्थूल साधन अपने से सूक्ष्म वस्तु का नाश नहीं कर सकता । इसलिये स्वाभाविक ही है कि आत्मा जो कि सूक्ष्मतम तत्त्व आकाश से भी सूक्ष्म है का नाश शस्त्रों से नहीं हो सकता।अग्नि जला नहीं सकती अग्नि अपने से भिन्न वस्तुओं को जला सकती है परन्तु वह स्वयं को ही कभी नहीं जला सकती। ज्वलन अग्नि का धर्म है और अपने धर्म का अपने सत्य स्वरूप का वह नाश नहीं कर सकती। विचारणीय बात यह है कि आकाश में रहती हुई अग्नि आकाश में स्थित वस्तुओं को तो जला पाती है परन्तु आकाश को कभी नहीं। फिर आकाश से सूक्ष्मतर आत्मा को जलाने में वह अपने आप को कितना निस्तेज पायेगी जल गीला नहीं कर सकता पूर्व वर्णित सिद्धांत के अनुसार ही हम यह भी समझ सकते हैं कि जल आत्मा को आर्द्र या गीला नहीं कर सकता और न उसे डुबो सकता है। ये दोनों ही किसी द्रव्य युक्त साकार वस्तु के लिये संभव हैं और न कि सर्वव्यापी निराकार आत्मतत्व के लिये।वायु सुखा नहीं सकती जो वस्तु गीली होती है उसी का शोषण करके उसे शुष्क बनाया जा सकता है। आजकल सब्जियाँ और खाद्य पदार्थों के जल सुखाकर सुरक्षित रखने के अनेक साधन उपलब्ध हैं। परन्तु आत्मतत्त्व में जल का कोई अंश ही नहीं है क्योंकि वह अद्वैत स्वरूप है तब वायु के द्वारा शोषित होकर उसके नाश की कोई संभावना नहीं रह जाती।इन शब्दों के सरल अर्थ के अलावा इस श्लोक का गम्भीर अर्थ भी है जिसे भगवान् श्रीकृष्ण अगले श्लोक में और अधिक स्पष्ट करते हैं कि आत्मतत्त्व क्यों और कैसे शाश्वत है।यह आत्मा सनातन किस प्रकार है इसे सनातन स्वरूप से क्यों और कैसे पहचाना जा सकता है।
।।2.23।। व्याख्या --'नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणि'-- इस शरीरीको शस्त्र नहीं काट सकते; क्योंकि ये प्राकृत शस्त्र वहाँतक पहुँच ही नहीं सकते। जितने भी शस्त्र हैं, वे सभी पृथ्वी-तत्त्वसे उत्पन्न होते हैं। यह पृथ्वी-तत्त्व इस शरीरीमें किसी तरहका कोई विकार नहीं पैदा कर सकता। इतना ही नहीं, पृथ्वी-तत्त्व इस शरीरीतक पहुँच ही नहीं सकता, फिर विकृति करनेकी बात तो दूर ही रही!  'नैनं दहति पावकः'-- अग्नि इस शरीरीको जला नहीं सकती; क्योंकि अग्नि वहाँतक पहुँच ही नहीं सकती। जब वहाँतक पहुँच ही नहीं सकती, तब उसके द्वारा जलाना कैसे सम्भव हो सकता है? तात्पर्य है कि अग्नि-तत्त्व इस शरीरीमें कभी किसी तरहका विकार उत्पन्न कर ही नहीं सकता।  'न चैनं क्लेदयन्त्यापः'-- जल इसको गीला नहीं कर सकता; क्योंकि जल वहाँतक पहुँच ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि जल-तत्त्व इस शरीरीमें किसी प्रकारका विकार पैदा नहीं कर सकता।  'न शोषयति मारुतः'-- वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात वायुमें इस शरीरीको सुखानेकी सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि वायु वहाँतक पहुँचती ही नहीं। तात्पर्य है कि वायु-तत्त्व इस शरीरीमें किसी तरहकी विकृति पैदा नहीं कर सकता। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--ये पाँच महाभूत कहलाते हैं। भगवान्ने इनमेंसे चार ही महाभूतोंकी बात कही है कि ये पृथ्वी, जल, तेज और वायु इस शरीरीमें किसी तरहकी विकृति नहीं कर सकते; परन्तु पाँचवें महाभूत आकाशकी कोई चर्चा ही नहीं की है। इसका कारण यह है कि आकाशमें कोई भी क्रिया करनेकी शक्ति नहीं है। क्रिया (विकृति) करनेकी शक्ति तो इन चार महाभूतोंमें ही है। आकाश तो इन सबको अवकाशमात्र देता है। पृथ्वी, जल, तेज और वायु--ये चारों तत्त्व आकाशसे ही उत्पन्न होते हैं, पर वे अपने कारणभूत आकाशमें भी किसी तरहका विकार पैदा नहीं कर सकते अर्थात् पृथ्वी आकाशका छेदन नहीं कर सकती, जल गीला नहीं कर सकता, अग्नि जला नहीं सकती और वायु सुखा नहीं सकती। जब ये चारों तत्त्व अपने कारणभूत आकाशको, आकाशके कारणभूत महत्तत्त्वको और महत्तत्त्वके कारणभूत प्रकृतिको भी कोई क्षति नहीं पहुँचा सकते, तब प्रकृतिसे सर्वथा अतीत शरीरीतक ये पहुँच ही कैसे सकते हैं? इन गुणयुक्त पदार्थोंकी उस निर्गुण-तत्त्वमें पहुँच ही कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती (गीता 13। 31)। शरीरी नित्य-तत्त्व है। पृथ्वी आदि चारों तत्त्वोंको इसीसे सत्ता-स्फूर्ति मिलती है। अतः जिससे इन तत्त्वोंको सत्ता-स्फूर्ति मिलती है, उसको ये कैसे विकृत कर सकते है यह शरीरी सर्वव्यापक है और पृथ्वी आदि चारों तत्त्व व्याप्य हैं अर्थात् शरीरीके अन्तर्गत हैं। अतः व्याप्य वस्तु व्यापकको कैसे नुकसान पहुँचा सकती है उसको नुकसान पहुँचाना सम्भव ही नहीं है। यहाँ युद्धका प्रसङ्ग है। 'ये सब सम्बन्धी मर जायँगे'--इस बातको लेकर अर्जुन शोक कर रहे हैं। अतः भगवान् कहते हैं कि ये कैसे मर जायँगे? क्योंकि वहाँतक अस्त्र-शस्त्रोंकी क्रिया पहुँचती ही नहीं अर्थात् शस्त्रके द्वारा शरीर कट जानेपर भी शरीरी नहीं कटता, अग्न्यस्त्रके द्वारा शरीर जल जानेपर शरीरी नहीं जलता, वरुणास्त्रके द्वारा शरीर गल जानेपर भी शरीरी नहीं गलता और वायव्यास्त्रके द्वारा शरीर सूख जानेपर भी शरीरी नहीं सूखता। तात्पर्य है कि अस्त्र-शस्त्रोंके द्वारा शरीर मर जानेपर भी शरीरी नहीं मरता, प्रत्युत ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है। अतः इसको लेकर शोक करना तेरी बिलकुल ही बेसमझी है।
।।2.23।।वासांसि इति। यथा वस्त्राच्छादितः तद्वस्त्रनाशे समुचितवस्त्रान्तरावृतो न विनश्यति (N omits यथा न विनश्यति) एवमात्मा देहान्तरावृतः।
।।2.23।।शस्त्राग्न्यम्बुवायवः छेदनदहनक्लेदनशोषणानि आत्मानं प्रति कर्तुं न शक्नुवन्ति। सर्वगतत्वाद् आत्मनः सर्वतत्त्वव्यापकस्वभावतया सर्वेभ्यः तत्त्वेभ्यः सूक्ष्मत्वात् अस्य तैः व्याप्त्यनर्हत्वाद् व्याप्यकर्तव्यत्वात् च छेदनदहनक्लेदनशोषणानाम्। अत आत्मा नित्यः स्थाणुः अचलः अयं सनातनः स्थिरस्वभावः अप्रकम्प्यः पुरातनः च।
।।2.23।।पृथिव्यादिभूतचतुष्टयप्रयुक्तविक्रियाभाक्त्वादात्मनोऽसिद्धमविक्रियत्वमिति शङ्कते  कस्मादिति।  यतो न भूतान्यात्मानं गोचरयितुमर्हन्त्यतो युक्तमाकाशवत्तस्याविक्रियत्वमित्याह  आहेत्यादिना।
।।2.23।।पुनरस्यात्मनोऽविनाशित्वमेव सुग्रहणाय श्रावयति सार्द्धाभ्यां नैनमित्यादिना। एतेन पृथिव्यप्तेजोवायुभिरविनाशित्वं निरूपितम्।
।।2.23।।ननु देहनाशे तदभ्यन्तरवर्तिन आत्मनः कुतो न विनाशो गृहदाहे तदन्तर्वर्तिपुरुषवदित्यत आह शस्त्राण्यस्यादीन्यतितीक्ष्णान्यप्येनं प्रकृतमात्मानं न छिन्दन्ति अवयवविभागेन द्विधाकर्तुं न शक्नुवन्ति। तथा पावकोऽग्निरतिप्रज्वलितोऽपि नैनं भस्मीकर्तुं शक्नोति। नचैनमापोऽत्यन्तं वेगवत्योऽप्यार्द्रीकरणेन विश्लिष्टावयवं कर्तुं शक्नुवन्ति। मारुतो वायुरतिप्रबलोऽपि नैनं नीरसं कर्तु शक्नोति। सर्वनाशकाक्षेपे प्रकृते युद्धसमये शस्त्रादीनां प्रकृतत्वादवयुत्यानुवादेनोपन्यासः पृथिव्यप्तेजोवायूनामेव नाशकत्वप्रसिद्धेस्तेषामेवोपन्यासो नाकाशस्य।
।।2.23।।कथं हन्तीत्यनेनोक्तं वधसाधनाभावं दर्शयन्नविनाशित्वमात्मनः स्फुटीकरोति नैनमिति। आपो नैनं क्लेदयन्ति मृदुकरणेन शिथिलं न कुर्वन्ति।
।।2.23।।पूर्वोक्तेन पुनरुक्तिं दार्ढ्यसुखग्रहणरूपप्रयोजनभेदेन परिहरन्नैनम् इति श्लोकद्वयमवतारयति पुनरपीति।नैनम् इत्यादौ सार्धश्लोके वैशद्याय पृथगुक्तं करणासामर्थ्यं विषयायोग्यत्वं च परस्परप्रतियोगितया अन्यत्र इतरदन्तर्भवतीति भाष्ये पृथगनुपात्तम्।अच्छेद्यः इत्यादौ प्रत्ययोऽर्हार्थः। तेननैनं छिन्दन्ति इत्यादिष्वपि तदर्हत्वं शस्त्रादेः प्रतिषिध्यत इति दर्शयति न शक्नुवन्तीति। सर्वगतपदं पूर्वोक्तहेत्वनुवादतया व्याचष्टे सर्वगतत्वादात्मन इति। अणोरात्मनः कथं सर्वगतत्वं इत्याशङ्क्याह सर्वतत्त्वेति। नात्र बहुश्रुत्यादिविरुद्धं जीवविभुत्वं सर्वगतशब्देनोच्यते किन्त्वनुप्रवेशविशेषयोग्यतेति स्वभावशब्दं प्रयुञ्जानस्य भावः। व्यापित्वस्य पूर्वोक्तं हेतुत्वप्रकार प्रपञ्चयतिसर्वेभ्य इति।अत आत्मा नित्य इति सूक्ष्मत्वेन छेदनाद्ययोग्यत्वादात्मा नाशरहित इत्यर्थः।स्थिरेत्यादि।स्थाणुरचल इति पदद्वयं नित्यत्वप्रपञ्चनरूपम् नाशायोग्यत्वनाशकाविषयत्वपरं वा स्वाभाविकौपाधिकाविशदपरिणामराहित्यपरं वेति भावः।पुरातन इति। अत्र नित्यशब्देनानन्तत्वस्योक्तत्वात् सनातनशब्दोऽनादित्वपरतया सङ्कोचनीय इति भावः।
।।2.23।।तस्मात्त्याज्यदेहस्य दूरीकरणेऽपि एनमविनाशादिधर्मयुक्तत्वात् शस्त्रादयो न च्छिन्दन्तीत्याह नैनं छिन्दन्तीति। एनं शस्त्राणि न च्छिन्दन्ति घनाभावात्। एनं पावकः न दहति शुष्कधर्माभावात्। आप एनं न क्लेदयन्ति मृदुत्वान्न शिथिलयन्ति काठिन्यादिराहित्यात्। मारुतः न शोषयति द्रवाभावादित्यर्थः। तस्मात् शस्त्रादिप्रक्षेपेऽप्यस्य न किमपि भविष्यति। इदमपि मत्क्री़डारूपमतो मत्सन्तोषार्थं युद्धादिकं कर्त्तव्यमिति भावः। एतेषां सर्वेषां तथाकरणे मदिच्छैव हेतुरिति भावः। यतो भगवदिच्छैव सर्वेषां स्वधर्मकरणे शक्तिः। अत एव श्रीभागवते 3।25।42 उक्तम् मद्भयाद्वाति वातोऽयम् इत्यादि।
।।2.23।।कीदृशोऽसौ देहीत्यत आह  नैनमिति।  एनं शस्त्राणि न छिन्दन्ति न द्वेधा कुर्वन्ति। अस्थूलत्वात्। तर्हि पार्थिवपरमाणुवत्पाकजरूपाद्याश्रयो भविष्यतीत्याशङ्क्याह  नैनं दहति पावक इति।  अनणुत्वात्। आपश्चैनं न क्लेदयन्ति अस्पर्शत्वात्। स्पर्शवद्धि द्रव्यमद्भिरार्द्रीकर्तव्यं न त्वस्पर्शम्। न शोषयति मारुतः अस्नेहत्वात्। एतेनअदीर्घमस्थूलमनणुअशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् इति श्रुतिप्रसिद्धानामदीर्घत्वाशब्दत्वादीनामपि संग्रहो ज्ञेयः।
।।2.23।।तस्याविक्रियत्वं प्रकारान्तरेण पुनराह  नैनमित्यादिना।  नच क्लेदयन्ति विश्लिष्टावयवं न कुर्वन्ति। निरवयवत्वं हेतुः।
2.23 न not? एनम् this (Self)? छिन्दन्ति cut? शस्त्राणि weapons? न not? एनम् this? दहति burns? पावकः fire? न not?,च and? एनम् this? क्लेदयन्ति wet? आपः waters? न not? शोषयति dries? मारुतः wind.Commentary The Self is indivisible. It has no parts. It is extremely subtle. It is infinite. Therefore? sword cannot cut It fire cannot burn It water cannot wet It wind cannot dry It.
2.23 Weapons cut It not, fire burns It not, water wets It not, wind dries It not.
2.23 Weapons cleave It not, fire burns It not, water drenches It not, and wind dries It not.
2.23 Weapons do not cut It, fire does not burn It, water does not moisten It, and air does not dry It.
2.23 Why does It verily remain unchanged? This is being answered in, 'Weapons do not cut It,' etc. Sastrani, weapons; na, do not; chindanti, cut; enam, It, the embodied one under discussion. It being partless, weapons like sword etc. do not cut off Its limbs. So also, even pavakah, fire; na dahati enam, does not burn, does not reduce It to ashes. Ca, and similarly; apah, water; na enam kledayanti, does not moisten It. For water has the power of disintegrating a substance that has parts, by the process of moistening it. That is not possible in the case of the partless Self. Similarly, air destroys an oil substance by drying up the oil. Even marutah, air; na sosayati, does not dry; (enam, It,) one's own Self. [Ast. reads 'enam tu atmanam, but this Self', in place of enam svatmanam.-Tr.]
2.23. Weapons do not cut This; fire does not burn This; water does not (make) This wet; and the wind does not make This dry.
2.23 See Comment under 2.25
2.23 - 2.24 Weapons, fire, water and air are incapable of cleaving, burning, wetting and drying the self; for, the nature of the self is to pervade all elements; It is present everywhere; for, It is subtler than all the elements; It is not capable of being pervaded by them; and cleaving, burning, wetting and drying are actions which can take place only by pervading a substance. Therefore the self is eternal. It is stable, immovable and primeval. The meaning is that It is unchanging, unshakable and ancient.
2.23 Weapons do not cleave It (the self), fire does not burn It, waters do not wet It, and wind does not dry It.
।।2.23।।आत्मा सदा निर्विकार किस कारणसे है सो कहते हैं इस उपर्युक्त आत्माको शस्त्र नहीं काटते अभिप्राय यह कि अवयवरहित होनेके कारण तलवार आदि शस्त्र इसके अङ्गोंके टुकड़े नहीं कर सकते। वैसे ही अग्नि इसको जला नहीं सकता अर्थात् अग्नि भी इसको भस्मीभूत नहीं कर सकता। जल इसको भिगो नहीं सकता क्योंकि सावयव वस्तुको ही भिगोकर उसके अङ्गोंको पृथक्पृथक् कर देनेमें जलकी सामर्थ्य है। निरवयव आत्मामें ऐसा होना सम्भव नहीं। उसी तरह वायु आर्द्र द्रव्यका गीलापन शोषण करके उसको नष्ट करता है अतः वह वायु भी इस स्वस्वरूप आत्माका शोषण नहीं कर सकता।
।।2.23।। एनं प्रकृतं देहिनं न च्छिन्दन्ति शस्त्राणि निरवयवत्वात् न अवयवविभागं कुर्वन्ति। शस्त्राणि अस्यादीनि। तथा न एनं दहति पावकः अग्निरपि न भस्मीकरोति। तथा न च एनं क्लेदयन्ति आपः। अपां हि सावयवस्य वस्तुनः आर्द्रीभावकरणेन अवयवविश्लेषापादने सामर्थ्यम्। तत् न निरवयवे आत्मनि संभवति। तथा स्नेहवत् द्रव्यं स्नेहशोषणेन नाशयति वायुः। एनं तु आत्मानं न शोषयति मारुतोऽपि।।यतः एवं तस्मात्
।।2.23।।नैमित्तिकनाशस्य प्राङ्निरस्तत्वात्किं नैनमिति श्लोकेनेत्यतस्तन्निवर्त्याशङ्काप्रदर्शनपूर्वकं तात्पर्यमाह  स्वत  इति। स्वतः कालतः। प्रायो बाहुल्येन शङ्क्यमाननिमित्तव्यावृत्त्यर्थमेतदव्ययम्। केनचिच्छस्त्रादिना स्याद्विनाश इति शेषः। असम्भावितशङ्क्या न पर्यवसानमित्यतो दृष्टान्तमाह  ककच्छेदादि वदिति। यथा दक्षस्य प्रजापतेः शिरश्छेदो न स्वतो जातः नापि वीरभद्रस्यायुधेन निमित्तेन किन्तु यज्ञपशुभावनाख्येन निमित्तविशेषेण तथेत्यर्थः। इत्यत एवं शङ्कितत्वात्। विशिष्यन्त इति विशेषाः। विशिष्टनिमित्तानि विनाशस्य।
।।2.23।।स्वतः प्रायो निमित्तैश्चाविनाशिनोऽपि केनचिन्निमित्तविशेषेण स्यात् ककच्छेदादिवत् इत्यतो विशेषनिमित्तानि निषेधति नैनमिति।वर्तमाननिषेधात्स्यादुत्तरत्रेत्यत आह अच्छेद्य इति। वर्तमानादर्शनाद्युक्तयोग्यत्वमिति सूचयति वर्तमानापदेशेन। कुतोऽयोग्यता नित्यसर्वगतादिविशेषणेश्वरसरूपत्वत्।शाश्वत इत्येकरूपत्वमात्रमुक्तम्। स्थाणुशब्देन नैमित्तिकमप्यन्यथात्वं निवारयति। नित्यत्वं सर्वगतत्वविशेषणम् अन्यथा पुनरुक्तेः।ऐक्योक्तावप्यनुक्तविशेषणोपादानान्नेश्वरैक्ये पुनरुक्तिः। युक्ताश्च बिम्बधर्माः प्रतिबिम्बेऽविरोधे। तत्ता च रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव बृ.उ.2।5।19कठो.5।2।10आभास एव च इत्यादिश्रुतिस्मृतिसिद्धा। न चांशत्वविरोधः तस्यैवांशत्वात्। न चैकरूपतैवांशता। प्रमाणं चोभयविधवचनमेव। न चांशस्य प्रतिबिम्बत्वं कल्प्यम् गाध्यादिष्वंशबाहुरूप्यदृष्टेरितरत्रादृष्टेः।स्थाणुत्वेऽपि तदैक्षत इत्याद्यविरुद्धमीश्वरस्य उभयविधवाक्यात् अचिन्त्यशक्तेश्च। न च माययैकम्त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुद्ध्यतेन योगित्वादीश्वरत्वात्चित्रं न चैतत् त्वयि कार्यकारणे इत्याद्यैश्वर्येणैव विरुद्धधर्माविरोधोक्तेः महातात्पर्याच्च। मोक्षो हि महापुरुषार्थः। तत्रापि मोक्ष एवार्थः।अन्तेषु रेमिरे धीरा न ते मध्येषु रेमिरे। अन्तप्राप्तिं सुखं प्राहुर्दुःखमन्तरमेतयोः शां.मो.ध.प.174।34 पुण्यचितो जितो लोकः क्षीयते छां.उ.8।1।6 इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः। स च विष्णुप्रसादादेव सिद्ध्यति।वासुदेवमनाराध्य को मोक्षं समवाप्नुयात्।तुष्टे तु तत्र किमलभ्यमनन्त ईशे (आद्ये) भाग.3।6।25तत्प्रसादादवाप्नोति परां सिद्धिं न संशयः।येषां स एव भगवान्दययेदनन्तः सर्वात्मनाश्रितपदो यदि निर्व्यलीकम्। ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायां नैषां समाहमिति धीः श्वशृगालभक्ष्ये भाग.2।7।42तस्मिन्प्रसन्ने किमिहात्स्त्यलभ्यं धम्र्मार्थकामैरलमल्पकास्तेऋते यदस्मिन्भव ईश जीवस्तापत्रयेणोपहता न शर्म आत्मँल्लभन्तेऋते भवत्प्रसादाद्धि कस्य मोक्षो भवेदिह तमेवं विद्वान् नृ.पू.उ.1।6 इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः। स चोत्कर्षज्ञानादेव भवति लोकप्रसिद्धेः।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।।
নৈনং ছিন্দন্তি শস্ত্রাণি নৈনং দহতি পাবকঃ৷ ন চৈনং ক্লেদযন্ত্যাপো ন শোষযতি মারুতঃ৷৷2.23৷৷
নৈনং ছিন্দন্তি শস্ত্রাণি নৈনং দহতি পাবকঃ৷ ন চৈনং ক্লেদযন্ত্যাপো ন শোষযতি মারুতঃ৷৷2.23৷৷
નૈનં છિન્દન્તિ શસ્ત્રાણિ નૈનં દહતિ પાવકઃ। ન ચૈનં ક્લેદયન્ત્યાપો ન શોષયતિ મારુતઃ।।2.23।।
ਨੈਨਂ ਛਿਨ੍ਦਨ੍ਤਿ ਸ਼ਸ੍ਤ੍ਰਾਣਿ ਨੈਨਂ ਦਹਤਿ ਪਾਵਕ। ਨ ਚੈਨਂ ਕ੍ਲੇਦਯਨ੍ਤ੍ਯਾਪੋ ਨ ਸ਼ੋਸ਼ਯਤਿ ਮਾਰੁਤ।।2.23।।
ನೈನಂ ಛಿನ್ದನ್ತಿ ಶಸ್ತ್ರಾಣಿ ನೈನಂ ದಹತಿ ಪಾವಕಃ. ನ ಚೈನಂ ಕ್ಲೇದಯನ್ತ್ಯಾಪೋ ನ ಶೋಷಯತಿ ಮಾರುತಃ৷৷2.23৷৷
നൈനം ഛിന്ദന്തി ശസ്ത്രാണി നൈനം ദഹതി പാവകഃ. ന ചൈനം ക്ലേദയന്ത്യാപോ ന ശോഷയതി മാരുതഃ৷৷2.23৷৷
ନୈନଂ ଛିନ୍ଦନ୍ତି ଶସ୍ତ୍ରାଣି ନୈନଂ ଦହତି ପାବକଃ| ନ ଚୈନଂ କ୍ଲେଦଯନ୍ତ୍ଯାପୋ ନ ଶୋଷଯତି ମାରୁତଃ||2.23||
nainaṅ chindanti śastrāṇi nainaṅ dahati pāvakaḥ. na cainaṅ klēdayantyāpō na śōṣayati mārutaḥ৷৷2.23৷৷
நைநஂ சிந்தந்தி ஷஸ்த்ராணி நைநஂ தஹதி பாவகஃ. ந சைநஂ க்லேதயந்த்யாபோ ந ஷோஷயதி மாருதஃ৷৷2.23৷৷
నైనం ఛిన్దన్తి శస్త్రాణి నైనం దహతి పావకః. న చైనం క్లేదయన్త్యాపో న శోషయతి మారుతః৷৷2.23৷৷
2.24
2
24
।।2.24।। यह शरीरी काटा नहीं जा सकता, यह जलाया नहीं जा सकता, यह गीला नहीं किया जा सकता और यह सुखाया भी नहीं जा सकता। कारण कि यह नित्य रहनेवाला सबमें परिपूर्ण, अचल, स्थिर स्वभाववाला और अनादि है।
।।2.24।। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती),  अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती),  अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है;  यह नित्य,  सर्वगत,  स्थाणु (स्थिर),  अचल और सनातन है।।
।।2.24।। यह तो स्पष्ट ही है कि जिस वस्तु का नाश प्रकृति की विनाशकारी शक्तियाँ अथवा मानव निर्मित साधनों एवं शस्त्रास्त्रों के द्वारा संभव नहीं है उसे नित्य होना चाहिये।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में आत्मा के अनेक विशेषण बताये गये हैं जो शीघ्रतावश चाहें जहां से उठाकर निष्प्रयोजन ही प्रयोग में नहीं लाये गये हैं। विचारों की एक शृंखला के रूप में प्रत्येक शब्द को चुनकर प्रयोग किया गया है। प्रथम पंक्ति में वर्णित जो अविनाशी तत्व हैं उसको नित्य होना चाहिये। जो नित्य वस्तु है वह निश्चित ही सर्वगत भी होगी।सर्वगत इस छोटे से शब्द का अर्थ व्यापक और तात्पर्य गम्भीर है। कोई भी वस्तु ऐसी शेष नहीं रह सकती जो सर्वगत तत्त्व के द्वारा व्याप्त न हो। नित्य आत्मा सर्वगत है तो उसका कोई आकार विशेष भी नहीं हो सकता क्योंकि आकार केवल परिच्छिन्न वस्तु का होता है जिसकी सीमा के बाहर उससे भिन्न अन्य कोई वस्तु रहती है। जैसे हाथ पैर इत्यादि अवयवों का आकार होता है क्योंकि इनके बाहर आसपास आकाश तत्त्व है। अत अपरिच्छिन्न सर्वगत आत्मा का कोई आकार नहीं है क्योंकि उसको परिच्छिन्न करने वाली कोई अन्य वस्तु है ही नहीं।इस प्रकार नित्य सर्वगत वस्तु का स्थिर और अचल होना स्वाभाविक है। उसमें चलनादि क्रिया संभव नहीं। गति केवल उस वस्तु के लिये है जो किसी काल और देश विशेष में रहती हो तब उसका स्थानान्तरण किया जा सकता है। आत्मा का किसी काल अथवा देश में अभाव नहीं है तो उसमें गति होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मैं अपने स्वयं में ही घूम फिर नहीं सकता।यहाँ स्थिर और अचल दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग व्यर्थ प्रतीत हो रहा है क्योंकि वे कुछ समानार्थी हैं। परन्तु स्थिर शब्द से अभिप्राय नीचे मूल की स्थिरता से है जैसे पेड़ एक जगह स्थिर होते हैं परन्तु उनकी वृद्धि ऊपर की ओर होती है। यहाँ अचल रहकर ऊर्ध्व गति का भी निषेध किया गया है। अनन्तस्वरूप आत्मा स्थिर और अचल है अर्थात् उसमें किसी भी प्रकार की चलन क्रिया नहीं है।प्राचीन पुरातन वस्तु को सनातन कहते हैं। इस सनातन शब्द के दो अर्थ हैं एक वाच्यार्थ (शाब्दिक) और दूसरा है लक्ष्यार्थ। उसका सरल वाच्यार्थ यह है कि आत्मा कोई नई बनी वस्तु नहीं है वह प्राचीन है। लक्ष्यार्थ के अनुसार इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा काल और देश से मर्यादित परिच्छिन्न नहीं है। किसी भी देश में किसी भी काल में कोई भी व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार से पूर्णत्व प्राप्त करता है तो वह साक्षात्कार एक ही होगा भिन्नभिन्न नहीं।आगे भगवान कहते हैं
।।2.24।। व्याख्या--  [शस्त्र आदि इस शरीरीमें विकार क्यों नहीं करते यह बात इस श्लोकमें कहते हैं।]  'अच्छेद्योऽयम्'-- शस्त्र इस शरीरीका छेदन नहीं कर सकते। इसका मतलब यह नहीं है कि शस्त्रोंका अभाव है या शस्त्र चलानेवाला अयोग्य है प्रत्युत छेदनरूपी क्रिया शरीरीमें प्रविष्ट ही नहीं हो सकती यह छेदन होनेके योग्य ही नहीं है। शस्त्रके सिवाय मन्त्र शाप आदिसे भी इस शरीरीका छेदन नहीं हो सकता। जैसे याज्ञवल्क्यके प्रश्नका उत्तर न दे सकनेके कारण उनके शापसे शाकल्यका मस्तक कटकर गिर गया (बृहदारण्यक0)। इस प्रकार देह तो मन्त्रोंसे वाणीसे कट सकता है पर देही सर्वथा अछेद्य है।  'अदाह्योऽयम्'-- यह शरीरी अदाह्य है क्योंकि इसमें जलनेकी योग्यता ही नहीं है। अग्निके सिवाय मन्त्र शाप आदिसे भी यह देही जल नहीं सकता। जैसे दमयन्तीके शाप देनेसे व्याध बिना अग्निके जलकर भस्म हो गया। इस प्रकार अग्नि शाप आदिसे वही जल सकता है जो जलनेयोग्य होता है। इस देहीमें तो दहनक्रियाका प्रवेश ही नहीं हो सकता।  'अक्लेद्यः'-- यह देही गीला होनेयोग्य नहीं है अर्थात् इसमें गीला होनेकी योग्यता ही नहीं है। जलसे एवं मन्त्र शाप ओषधि आदिसे यह गीला नहीं हो सकता। जैसे सुननेमें आता है कि मालकोश रागके गाये जानेसे पत्थर भी गीला हो जाता है चन्द्रमाको देखनेसे चन्द्रकान्तमणि गीली हो जाती है। परन्तु यह देही रागरागिनी आदिसे गीली होनेवाली वस्तु नहीं है।  'अशोष्यः'-- यह देही अशोष्य है। वायुसे इसका शोषण हो जाय यह ऐसी वस्तु नहीं है क्योंकि इसमें शोषणक्रियाका प्रवेश ही नहीं होता। वायुसे तथा मन्त्र शाप ओषधि आदिसे यह देही सूख नहीं सकता। जैसे अगस्त्य ऋषि समुद्रका शोषण कर गये ऐसे इस देहीका कोई अपनी शक्तिसे शोषण नहीं कर सकता।  'एव च'-- अर्जुन नाशकी सम्भावनाको लेकर शोक कर रहे थे। इसलिये शरीरीको अच्छेद्य अदाह्य अक्लेद्य और अशोष्य कहकर भगवान्  'एव च'  पदोंसे विशेष जोर देकर कहते हैं कि यह शरीरी तो ऐसा ही है। इसमें किसी भी क्रियाका प्रवेश नहीं होता। अतः यह शरीरी शोक करनेयोग्य है ही नहीं।  'नित्यः'-- यह देही नित्यनिरन्तर रहनेवाला है। यह किसी कालमें नहीं था और किसी कालमें नहीं रहेगा ऐसी बात नहीं है किन्तु यह सब कालमें नित्यनिरन्तर ज्योंकात्यों रहनेवाला है।  'सर्वगतः'-- यह देही सब कालमें ज्योंकात्यों ही रहता है तो यह किसी देशमें रहता होगा इसके उत्तरमें कहते हैं कि यह देही सम्पूर्ण व्यक्ति वस्तु शरीर आदिमें एकरूपसे विराजमान है।  'अचलः'-- यह सर्वगत है तो यह कहीं आताजाता भी होगा इसपर कहते हैं कि यह देही स्थिर स्वभाववाला है अर्थात् इसमें कभी यहाँ और कभी वहाँ इस प्रकार आनेजानेकी क्रिया नहीं है।  'स्थाणुः'-- यह स्थिर स्वभाववाला है कहीं आताजाता नहीं यह बात ठीक है पर इसमें कम्पन तो होता होगा जैसे वृक्ष एक जगह ही रहता है कहीं भी आताजाता नहीं पर वह एक जगह रहता हुआ ही हिलता है ऐसे ही इस देहीमें भी हिलनेकी क्रिया होती होगी इसके उत्तरमें कहते हैं कि यह देही स्थाणु है अर्थात् इसमें हिलनेकी क्रिया नहीं है।  'सनातनः'-- यह देही अचल है स्थाणु है यह बात तो ठीक है पर यह कभी पैदा भी होता होगा इसपर कहते हैं कि यह सनातन है अनादि है सदासे है। यह किसी समय नहीं था ऐसा सम्भव ही नहीं है।  'विशेष बात'  यह संसार अनित्य है एक क्षण भी स्थिर रहनेवाला नहीं है। परन्तु जो सदा रहनेवाला है जिसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता उस देहीकी तरफ लक्ष्य करानेमें  'नित्यः'पदका तात्पर्य है। देखने सुनने पढ़ने समझनेमें जो कुछ प्राकृत संसार आता है उसमें जो सब जगह परिपूर्ण तत्त्व है उसकी तरफ लक्ष्य करानेमें  'सर्वगतः'  पदका तात्पर्य है। संसारमात्रमें जो कुछ वस्तु व्यक्ति पदार्थ आदि हैं वे सबकेसब चलायमान हैं। उन चलायमान वस्तु व्यक्ति पदार्थ आदिमें जो अपने स्वरूपसे कभी चलायमान (विचलित) नहीं होता उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य करानेमें  'अचलः' पदका तात्पर्य है। प्रकृति और प्रकृतिके कार्य संसारमें प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है परिवर्तन होता रहता है। ऐसे परिवर्तनशील संसारमें जो क्रियारहित परिवर्तनरहित स्थायी स्वभाववाला तत्त्व है उसकी तरफ लक्ष्य करानेमें  'स्थाणुः'  पदका तात्पर्य है। मात्र प्राकृत पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं तथा ये पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे। परन्तु जो न उत्पन्न होता है और न नष्ट ही होता है तथा जो पहले भी था और पीछे भी हरदम रहेगा उस तत्त्व(देही)की तरफ लक्ष्य करानेमें  'सनातनः' पदका तात्पर्य है। उपर्युक्त पाँचों विशेषणोंका तात्पर्य है कि शरीरसंसारके साथ तादात्म्य होनेपर भी और शरीरशरीरीभावका अलगअलग अनुभव न होनेपर भी शरीरी नित्यनिरन्तर एकरस एकरूप रहता है।
।।2.24 2.26।।नैनमित्यादि। नास्य नाशकारणं शस्त्रादि किंचित्करम्। चिदेकस्वभावस्य अनाश्रितस्य ( N K add निरपेक्षस्य after अनाश्रितस्य) निरंशस्य (N omits निरंशस्य S adds निरवयवस्य after निरंशस्य) स्वतन्त्रस्य स्वभावान्तरापत्त्याश्रयविनाशावयवविभाग विरोधिप्रादुर्भावादिक्रमेण (S प्रक्रमेण) नाशयितुमशक्यत्वात्। न च देहान्तरगमनमस्य अपूर्वम् देहान्वितोऽपि (N अपूर्वदेहान्नित्योऽपि) सततं देहान्तरं गच्छति तेन संबध्यते इत्यर्थः। देहस्य क्षणमात्रमप्यनवस्थायित्वात्। एवंभूतं विदित्वा एनमात्मानं शोचितुं नार्हसि।
।।2.24।।शस्त्राग्न्यम्बुवायवः छेदनदहनक्लेदनशोषणानि आत्मानं प्रति कर्तुं न शक्नुवन्ति। सर्वगतत्वाद् आत्मनः सर्वतत्त्वव्यापकस्वभावतया सर्वेभ्यः तत्त्वेभ्यः सूक्ष्मत्वात् अस्य तैः व्याप्त्यनर्हत्वाद् व्याप्यकर्तव्यत्वात् च छेदनदहनक्लेदनशोषणानाम्। अत आत्मा नित्यः स्थाणुः अचलः अयं सनातनः स्थिरस्वभावः अप्रकम्प्यः पुरातनः च।
।।2.24।।पृथिव्यादिभूतप्रयुक्तच्छेदनाद्यर्थक्रियाभावे योग्यताभावं कारणमाह  यत इति।  पूर्वार्धमुत्तरार्धे हेतुत्वेन योजयति  यस्मादिति।  नित्यत्वादीनामन्योन्यं हेतुहेतुमद्भावं सूचयति  नित्यत्वादित्यादिना।  नच नित्यत्वं परमाणुषु व्यभिचारादसाधकं सर्वगतत्वस्येति वाच्यम्। तेषामेवाप्रामाणिकत्वेन व्यभिचारानवतारात्। न च सर्वगतत्वेऽपि विक्रियाशक्तिमत्त्वमात्मनोऽस्तीति युक्तं विभुत्वेनाभिमते नभसि तदनुपलम्भात्। न च विक्रियाशक्तिमत्त्वे स्थैर्यमास्थातुं शक्यं तथाविधस्य मृदादेरस्थिरत्वदर्शनादित्याशयेनाह  स्थिरत्वादिति।  स्वतो नित्यत्वेऽपि कारणान्नाशसंभवादुत्पत्तिरपि संभावितेति कुतश्चिरंतनत्वमित्याशङ्क्याह  न कारणादिति।  आत्मनोऽविक्रियत्वस्य न जायते म्रियते वेत्यादिना साधितत्वात्तस्यैव पुनःपुनरभिधाने पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याह  नैतेषामिति।  अनाशङ्कनीयस्य चोद्यस्य प्रसङ्गं दर्शयति  यत इति।  अतो वेदाविनाशिनमित्यादौ शङ्क्यते पौनरुक्त्यमिति विशेषः। कथं तत्र पौनरुक्त्याशङ्का समुन्मिषति तत्राह  तत्रेति।  वेदाविनाशिनमित्यादिश्लोकः सप्तम्या परामृश्यते श्लोकशब्देन न जायते म्रियते वेत्यादिरुच्यते। नन्विह श्लोके जन्ममरणाद्यभावोऽभिलक्ष्यते वेदेत्यादौ पुनरपक्षयाद्यभावो विवक्ष्यते तत्र कथमर्थातिरेकाभावमादाय पौनरुक्त्यं चोद्यते तत्राह  किञ्चिदिति।  कथं तर्हि पौनरुक्त्यं न चोदनीयमिति मन्यसे तत्राह  दुर्बोधत्वादिति।  पुनःपुनर्विधानभेदेन वस्तु निरूपयतो भगवतोऽभिप्रायमाह  कथं न्विति।
।।2.24।।अच्छेद्य इत्यर्द्धेन निगमनम्। कार्यत्वव्यावृत्त्यर्थं नित्य इति। सर्वगत इति व्यापकत्वम्। ब्रह्मभावाभिप्रायेण जीवस्तु व्यापकः न स्वरूपेण किन्तु स्वचैतन्यगुणेन भगवद्धर्मभूतत्वात् तदग्रे वक्ष्यते। स्थाणुरिति स्थिरत्वम्। अचल इति निष्क्रियत्वम्। नन्वेवं भूतमाकाशं प्रसिद्धं तदेव इति चेत् न इत्याह सनातन इति। तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः तै.उ.2।1 इति तत्सम्भवश्रवणादित्यर्थः।
।।2.24।।शस्त्रादीनां तन्नाशकत्वासामर्थ्ये तस्य तज्जनितनाशानर्हत्वे हेतुमाह यतोऽच्छेद्योऽयमतो नैनंच्छिन्दन्ति शस्त्राणि अदाह्योऽयं यतोऽतो नैनं दहति पावकः यतोऽक्लेद्योऽयमतो नैनं क्लेदयन्त्यापः यतोऽशोष्योऽयमतो नैनं शोषयति मारुत इति क्रमेण योजनीयम्। एवकारः प्रत्येकं संबध्यमानोऽच्छेद्यत्वाद्यवधारणार्थः। चः समुच्चये हेतौ वा। छेदाद्यनर्हत्वे हेतुमाहोत्तरार्धेन। नित्योऽयं पूर्वोपरकोटिरहितोऽतोऽनुत्पाद्यः। असर्वगतत्वे ह्यनित्यत्वं स्यात्यावद्विकारं तु विभागः इति न्यायात्पराभ्युपगतपरमाण्वादीनामनभ्युपगमात्। अयं तु सर्वगतो विभुरतो नित्य एव। एतेन प्राप्यत्वं पराकृतम्। यदि चायं विकारी स्यात्तदा सर्वगतो न स्यात् अयं तु स्थाणुरविकारी अतः सर्वगत एव। एतेन विकार्यत्वमपाकृतम्। यदि वायं चलः क्रियावान्स्यात्तदा विकारी स्याद्धटादिवत् अयं त्वचलोऽतो न विकारी। एतेन संस्कार्यत्वं निराकृतम्। पूर्वावस्थापरित्यागेनावस्थान्तरापत्तिर्विक्रिया। अवस्थैक्येऽपि चलनमात्रं क्रियति विशेषः। यस्मादेव तस्मात् सनातनोऽयं सर्वदैकरूपः। न कस्या अपि क्रियायाः कर्मेत्यर्थः। उत्पत्त्याप्तिविकृतिसंस्कृत्यन्यतरक्रियाफलयोगे हि कर्मत्वं स्यात्। अयं तु नित्यत्वान्नोत्पाद्यः अनित्यस्यैव घटादेरुत्पाद्यत्वात्। सर्वगतत्वान्न प्राप्यः परिच्छिन्नस्यैव घटादेः प्राप्यत्वात्। स्थाणुत्वादविकार्यः विक्रियावतो घृतादेरेव विकार्यत्वात्। अचलत्वादसंस्कार्यः सक्रियस्यैव दर्पणादेः संस्कार्यत्वात्। तथाच श्रुतयःआकाशवत्सर्वगतश्च नित्यःवृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकःनिष्कलं निष्क्रियं शान्तम् इत्यादयः।यः पृथिव्यां तिष्ठन्पृथिव्या अन्तरो योऽप्सु तिष्ठन्नद्भ्योऽन्तरो यस्तेजसि तिष्ठंस्तेजसोऽन्तरो यो वायौ तिष्ठन्वायोरन्तरः इत्याद्या च श्रुतिः सर्वगतस्य सर्वान्तर्यामितया तदविषयत्वं दर्शयति। यो हि शस्त्रादौ न तिष्ठति तं शस्त्रादयश्छिन्दन्ति अयंतु शस्त्रादीनां सत्तास्फूर्तिप्रदत्वेन तत्प्रेरकस्तदन्तर्यामी। अतः कथमेनं शस्त्रादीनि स्वव्यापारविषयीकुर्युरित्यभिप्रायः। अत्रयेन सूर्यस्तदपि तेजसेद्धः इत्यादिश्रुतयोऽनुसन्धेयाः। सप्तमाध्याये च प्रकटीकरिष्यति श्रीभगवानिति दिक्।
।।2.24।।तत्र हेतूनाह  अच्छेद्य इति  सार्धेन। निरवयवत्वादच्छेद्योऽयमक्लेद्यश्च। अमूर्तत्वात् अदाह्यो द्रवत्वाभावादशोष्य इति भावः। अतश्च छेदादियोग्यो न भवति। यतो नित्यः अविनाशी सर्वत्रगतः स्थाणुः स्थिरस्वभावः रूपान्तरापत्तिशून्यः अचलः पूर्वरूपापरित्यागी सनातनोऽनादिः।
।। 2.24पूर्वोक्तेन पुनरुक्तिं दार्ढ्यसुखग्रहणरूपप्रयोजनभेदेन परिहरन्नैनम् इति श्लोकद्वयमवतारयति पुनरपीति।नैनम् इत्यादौ सार्धश्लोके वैशद्याय पृथगुक्तं करणासामर्थ्यं विषयायोग्यत्वं च परस्परप्रतियोगितया अन्यत्र इतरदन्तर्भवतीति भाष्ये पृथगनुपात्तम्।अच्छेद्यः इत्यादौ प्रत्ययोऽर्हार्थः। तेननैनं छिन्दन्ति इत्यादिष्वपि तदर्हत्वं शस्त्रादेः प्रतिषिध्यत इति दर्शयति न शक्नुवन्तीति। सर्वगतपदं पूर्वोक्तहेत्वनुवादतया व्याचष्टे सर्वगतत्वादात्मन इति। अणोरात्मनः कथं सर्वगतत्वं इत्याशङ्क्याह सर्वतत्त्वेति। नात्र बहुश्रुत्यादिविरुद्धं जीवविभुत्वं सर्वगतशब्देनोच्यते किन्त्वनुप्रवेशविशेषयोग्यतेति स्वभावशब्दं प्रयुञ्जानस्य भावः। व्यापित्वस्य पूर्वोक्तं हेतुत्वप्रकार प्रपञ्चयतिसर्वेभ्य इति।अत आत्मा नित्य इति सूक्ष्मत्वेन छेदनाद्ययोग्यत्वादात्मा नाशरहित इत्यर्थः।स्थिरेत्यादि।स्थाणुरचल इति पदद्वयं नित्यत्वप्रपञ्चनरूपम् नाशायोग्यत्वनाशकाविषयत्वपरं वा स्वाभाविकौपाधिकाविशदपरिणामराहित्यपरं वेति भावः।पुरातन इति। अत्र नित्यशब्देनानन्तत्वस्योक्तत्वात् सनातनशब्दोऽनादित्वपरतया सङ्कोचनीय इति भावः।
।।2.24।।एते च्छेदनादिधर्मयुक्ता अपि मदिच्छां विना तन्न कुर्वन्ति मदिच्छयैव च त्याज्यदेहादिषु तथा कुर्वन्त्यतस्त्त्वमप्येतेष्वच्छेद्यादिधर्मान् ज्ञात्वा प्रवृत्तो भवेत्युक्त्वाऽच्छेद्यत्वादिधर्मानाह अच्छेद्य इति। अच्छेद्यादिधर्मवानयमित्यर्थः। अच्छेद्यादिधर्मवत्त्वे कारणमाह नित्यः अविनाशी सर्वगतः व्यापकः स्थाणुः स्थिरस्वभावः अचलः सर्वदैकरूपः सनातनः अनादिः।
।।2.24।।कुतो हेतोरस्य शस्त्रादीनि छेदादीन्न कुर्वन्तीत्याशङ्क्य तस्य छेदाद्ययोग्यत्वादित्याह  अच्छेद्योऽयमिति।  अत्राच्छेद्यत्वादौ पूर्वोक्तान्येवास्थूलत्वादीनि कारणानि ज्ञेयानि। एवमच्छेद्यत्वादिना स्थूलादीनभावरूपान् गुणानुक्त्वा भावरूपानपि गुणानाह  नित्य इति।  सर्वैर्विशेषणैरखण्डैकरसस्यैव वस्तुनो लक्ष्यत्वात् नित्यत्वादिभिरुत्पाद्यत्वादिकं निराक्रियते। यतो नित्यः अतो घटवदनुत्पाद्यः। यतः सर्वगतः अतो ग्रामवदप्राप्यः। यतः स्थाणुः पूर्वरूपापरित्यागेन स्थिरस्वभावः अतः क्षीरादिवदविकार्यः। अचलः यथा दर्पणः स्वतः स्वाच्छयादप्रच्युतोऽपि मलरूपेणावरणेन स्वाच्छयात्प्रच्याव्यते एवं स्वयं स्थाणुरपि अन्यसंयोगाच्चाञ्चल्यमश्नुवीत। स च दोषापकर्षणलक्षणं संस्कारमपेक्षते। अयं तु अचलत्वान्न तथा एवं च उत्पत्त्याप्तिविकृतिसंस्कृतिरूपं चतुर्विधं क्रियाफलमात्मनि न संभवतीत्युक्तम्। तत्र हेतुः  सनातन इति।  सना इत्यव्ययं नैरन्तर्ये। तच्च देशतः कालतो वस्तुतश्च परिच्छेदराहित्यम्। परमते परमाणूनां कालतः परिच्छेदाभावेऽपि देशतः परिच्छेदोऽस्ति। आकाशस्य तदुभयाभावेऽपि वस्तुतः परिच्छेदोऽस्ति। सोऽपि त्रिविधः सजातीयविजातीयस्वगतभेदरूपः। यथावृक्षस्य स्वगतो भेदः पत्रपुष्पफलादितः। वृक्षान्तरात्सजातीयो विजातीयः शिलादितः। ततश्च सना नैरन्तर्येण त्रिविधपरिच्छेदराहित्येन भवति अस्तीति सनातनोऽखण्डैकरसो यस्मात्तस्मात् नोत्पत्त्याद्याश्रय इत्यर्थः।
।।2.24।।   फलितमाह  अच्छेद्य इति।  एवकारस्य सर्वत्र संबन्धः। यस्मादन्योन्यनाशहेतूनि भूतान्यात्मानं नाशयितुं नोत्सहन्ते तस्मान्नित्यः परमाणुनित्यत्वे प्रमाणाभावान्न तन्नातिप्रसङ्गः। अतएव सर्वगतः तत एव सर्वगताकाशवत्स्थाणुरिव स्थिर इत्यर्थः। तत एवाचलः अतएवायमात्मा सनातनश्चिरंतनः न कुतश्चित्कारणान्निष्पन्न इतीदं भाष्यमुपलक्षणं यथेष्टहेतुहेतुमद्भावस्यापि। तथाचोत्पाद्याप्यविकार्यसंस्कार्यरुपाणां क्रियाफलामा क्रमेण नित्य इत्यादिविशेषचतुष्टयेन निराकरणं हेतुहेतुमद्भावविपर्ययश्च न कुतश्चित्कारणान्निष्पन्न इति भाष्यात् तस्योपलक्षणार्थत्वाच्च सिध्यत इति न कोऽपि विरोधः। यत्तु तथाच श्रुतयः आकाशवत्सर्वगतश्च नित्यःवृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकःनिष्कलं निष्क्रियं शान्तम् इत्याद्याः।यः पृथिव्यां तिष्ठन्पृथिव्या अन्तरो योऽप्सु तिष्ठन्नद्य्भोन्तरो यस्तेजसि तिष्ठंस्तेजसोन्तरो यो वायौ तिष्ठन्वायोरन्तरः इत्याद्याश्च श्रुतयः सर्वगतस्य सर्वान्तर्यामितया तदविषयत्वं दर्शयन्ति। यो हि शस्त्रादौ न तिष्ठति तं शस्त्रादयश्छिन्दन्ति अयंतु शस्त्रादीनां सत्तास्फूर्तिप्रदत्वेन तत्प्रेरकस्तदन्तर्यामी अतः कथमेनं शस्त्रादीनि स्वव्यापारविषयीकुर्युरित्यभिप्राय इति केचिद्वर्णयन्ति। तत्रेदं वक्तव्यम् त्वंपदशोधनप्रकरणे तत्पदवाच्यान्तर्यामिप्रतिपादकश्रुत्युदाहरणमयुक्तम्।गतासूनगतासून इत्युपक्रमःदेहिनोऽस्मिन्अन्तवन्त इमे देहावासांसि जीर्णानि इत्यादिर्मध्यनिर्देशःदेही नित्यम् इत्युपसंहारः इत्येवंरुपतात्पर्यलिङ्गैस्त्वंपदनिरुपणप्रतीतेः स्पष्टत्वात्। आद्यषट्कुं त्वंपदशोधनपरमिति सर्वैः स्वेन च तथैव स्थापितत्वाच्च। अभेदस्तु नियम्यनियामकभावाभावविनिर्मुक्तयोः शुद्धचैतन्ययोर्वास्तवः। औपाधिकस्तु भेद एव। तथाच भाष्यंअविद्याप्रत्युपस्थाषितकार्यकरणोपाधिनिमित्तोऽयं शारीरान्तर्यामिणोर्भेदव्यपदेशो न पारमार्थिकः इति। एवंच येन शुद्धेन शुद्धस्यास्याभेदः स्य नियामकत्वाभावात् नान्तर्यामिश्रुत्युदाहरणं प्रकृत उपयुक्तम्। तथाचौपापाधिकभेदप्रतिपादकनि भगवतो वादरायणस्य सूत्राणिअन्तर्याभ्यधिदैवादिषु तद्धर्मव्यपदेशात्नच स्मार्तमतद्धर्माभिलापात्शारीरश्चोभयेऽपि हि भेदेनैनमधीयते इतिय इमं च लोकं परं च लोकं सर्वाणि च भूतान्यन्तरो यमयति इत्युपक्रम्य श्रुयतेयः पृथिव्यां तिष्टन्पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति इत्यादि। अत्राधिदैवतमधिलोकमधिवेदमधियज्ञमधिभूतमध्यात्मं च कश्चिदन्तरवस्थितो यमयितान्तर्यामीति श्रुयते सोऽधिदैवाद्यभिमानी कश्चिद्देवतात्मा स्यात् प्राप्ताणिमार्यैश्वर्यः कश्चिद्योगी वा स्यात् अर्थान्तरं किंचिद्वा स्यादितिप्राप्ते राद्धान्तः। योऽन्तर्याभ्यधिदैवादिषु श्रुयते स परमात्मैव स्यान्नान्यः। कुतः। तद्धर्मव्यपदेशात्तस्य परमात्मनो धर्माणमस्यां श्रुतौ व्यपदेशात्। नच स्मार्तं प्रधानमन्तर्यामिशब्दप्रतिपाद्यं भवितुमर्हति। कस्मात् अतद्धर्माभिलापाद्रष्टत्वादीनामप्रधानधर्माणां कथनात्। ननु शारीरोऽस्त्वत्वत आह शारीर इति। पूर्वसूत्रान्नेत्यनुर्वर्तते। शारीरश्च नान्तर्यामी स्यात्। हि यस्मादुभयेऽपि काण्वा माध्यन्दिनाश्चान्तर्यामिणो भेदेनैनं शारीरं पृथिव्यादिवदधिष्ठाननत्वेन नियम्यत्वेन चाधीयते यो विज्ञाने तिष्ठन्नति काण्वाः आत्मनि तिष्ठन्निति माध्यन्दिनाः तस्माच्छारीरादन्य आत्मान्तर्यामीति सिद्धम्। यत्तुयो हि शस्त्रादौ तिष्ठति न तं शस्त्रादयश्िछन्दन्ति इति तदपि न शस्त्रादौ स्थितस्यापि लोहादेस्तैश्छेदस्योपलब्धेः। तस्मात्सर्वज्ञैर्भाष्यकारैरुक्तो निरवयवत्वहेतुरेव समीचीन इति दिक्। न जायत इति श्लोकेनोक्तस्याप्यात्मज्ञानस्य दृष्टफलस्य व्रीह्यवहननस्यावृत्तिवद्दृष्टफलत्वाद्दुर्बोधत्वाच्च पुनः पुनः प्रसङ्गमापाद्य शब्दान्तरेण तदेव वस्तु निरुप्यते भगवता करुणानिधीना श्रीकृष्णेन कथंचिदपि संसारनिमग्नानां मुमुक्षूणां बुद्धिगोचरतामापन्नं स्पष्टतत्त्वं सत् संसारनिवृत्तये स्यादित्यभिप्रायवता इति न पौनरुक्त्यम्। तथाच भगवतो व्यासस्य सूत्रंआवृत्तिरसकृदुपदेशात् इति। अस्यार्थःआत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यःतमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्णःसोऽन्वेष्टव्यः स विजज्ञासितव्यः इत्यादि श्रुयते तत्र संशयः किं सकृत्प्रत्ययः कर्तव्य आहोस्विदावृत्त्येति। किं तावत्प्राप्तं सकृत्प्रत्ययः स्यात्प्रयाजादिवत् तावता शास्त्रस्य कृतार्थत्वात् अश्रूयमाणायामप्यावृत्तौ क्रियमाणायामशास्त्राथः कृतो भवेत्। नन्वसकृदुपदेशा उदाहृताः श्रोतव्य इत्यादयः। एवमपि यावच्छब्दमावर्तयेत् सकृच्छ्रवणमित्यादिनातिरिक्तमित्येवं प्राप्ते ब्रूमः। प्रत्ययावृत्तिः कर्तव्या। कुतः असकृदुपदेशात्। श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य इत्येवंजातीयको ह्यसकृदुपदेशः प्रत्ययावृत्तिं सूचयति। ननूक्तं यावच्छब्दमेवावर्तयेन्नाधिकमिति न। दर्शनपर्यवसानत्वादेतेषाम्। दर्शनपर्यवसानानि हि श्रवणादीन्यावर्त्यमानानि दृष्टार्थानिं भवन्ति यथावघातादीनि तन्दुलनिष्पत्तिपर्यवसानानि तद्वदिति।
2.24 अच्छेद्यः cannot be cut? अयम् this (Self)? अदाह्यः cannot be burnt? अयम् this? अक्लेद्यः cannot be wetted? अशोष्यः cannot be died? एव also? च and? नित्यः eternal? सर्वगतः allpervading? स्थाणुः stable? अचलः immovable? अयम् this? सनातनः ancient.Commentary The Self is very subtle. It is beyond the reach of speech and mind. It is very difficult to understand this subtle Self. So Lord Krishna explains the nature of the immortal Self in a variety of ways with various illustrations and examples? so that It can be grasped by the people.Sword cannot cut this Self. It is eternal. Because It is eternal? It is allpervading. Because It is allpervading? It is stable like a stature. Because It is stable? It is immovable. It is everlasting. Therefore? It is not produced out of any cause. It is not new. It is ancient.
2.24 This Self cannot be cut, burnt, wetted, nor dried up. It is eternal, all-pervading, stable, immovable and ancient.
2.24 It is impenetrable; It can be neither drowned nor scorched nor dried. It is Eternal, All-pervading, Unchanging, Immovable and Most Ancient.
2.24 It cannot be cut, It cannot be burnt, cannot be moistened, and surely cannot be dried up. It is eternal, omnipresent, stationary, unmoving and changeless.
2.24 Since this is so, therefore ayam, It; acchedyah, cannot be cut. Since the other elements which are the causes of destruction of one ano ther are not capable of destroying this Self, therefore It is nityah, eternal. Being eternal, It is sarva-gatah, omnipresent. Being omnipresent, It is sthanuh, stationary, i.e. fixed like a stump. Being fixed, ayam, this Self; is acalah, unmoving. Therefore It is sanatanah, changeless, i.e. It is not produced from any cause, as a new thing. It is not to be argued that 'these verses are repetive since eternality and changelessness of the Self have been stated in a single verse itself, "Never is this One born, and never does It die," etc. (20). Whatever has been said there (in verse 19) about the Self does not go beyond the meaning of this verse. Something is repeated with those very words, and something ideologically.' Since the object, viz the Self, is inscrutable, therefore Lord Vasudeva raises the topic again and again, and explains that very object in other words so that, somehow, the unmanifest Self may come within the comprehension of the intellect of the transmigrating persons and bring about a cessation of their cycles of births and deaths.
2.24. This is not to be cut; This is not to be burnt; (This is) not to be made wet and not to be dried too; This is eternal, all-pervading, stable, immobile and eternal.
2.24 See Comment under 2.25
2.23 - 2.24 Weapons, fire, water and air are incapable of cleaving, burning, wetting and drying the self; for, the nature of the self is to pervade all elements; It is present everywhere; for, It is subtler than all the elements; It is not capable of being pervaded by them; and cleaving, burning, wetting and drying are actions which can take place only by pervading a substance. Therefore the self is eternal. It is stable, immovable and primeval. The meaning is that It is unchanging, unshakable and ancient.
2.24 It cannot be cleft; It cannot be burnt; It cannot be wetted and It cannot be dried, It is eternal, all-pervading, stable, immovable and primeval.
।।2.24।।ऐसा होनेके कारण ( यह आत्मा न कटनेवाला न जलनेवाला न गलनेवाला और न सूखनेवाला है )। आपसमें एक दूसरेका नाश कर देनेवाले पञ्चभूत इस आत्माका नाश करनेके लिये समर्थ नहीं है। इसलिये यह नित्य है। नित्य होनेसे सर्वगत है। सर्वव्यापी होनेसे स्थाणु है अर्थात् स्थाणु ( ठूँठ ) की भाँति स्थिर है। स्थिर होनेसे यह आत्मा अचल है और इसीलिये सनातन है अर्थात् किसी कारणसे नया उत्पन्न नहीं हुआ है। पुराना है। इन श्लोकोंमें पुनरुक्तिके दोषका आरोप नहीं करना चाहिये क्योकि न जायते म्रियते वा इस एक श्लोकके द्वारा ही आत्माकी नित्यता और निर्विकारता तो कही गयी फिर आत्माके विषयमें जो भी कुछ कहा जाय वह इस श्लोकके अर्थसे अतिरिक्त नहीं है। कोई शब्दसे पुनरुक्त है और कोई अर्थसे ( पुनरुक्त है )। परंतु आत्मतत्त्व बड़ा दुर्बोध है सहज ही समझमें आनेवाला नहीं है इसलिये बारंबार प्रसंग उपस्थित करके दूसरेदूसरे शब्दोंसे भगवान् वासुदेव उसी तत्त्वका निरूपण करते हैं यह सोचकर कि किसी भी तरह वह अव्यक्त तत्त्व इन संसारी पुरुषोंके बुद्धिगोचर होकर संसारकी निवृत्तिका कारण हो।
।।2.24।। यस्मात् अन्योन्यनाशहेतुभूतानि एनमात्मानं नाशयितुं नोत्सहन्ते अस्यादीनि तस्मात् नित्यः। नित्यत्वात् सर्वगतः। सर्वगतत्वात् स्थाणुः इव स्थिर इत्येतत्। स्थिरत्वात् अचलः अयम् आत्मा। अतः सनातनः चिरंतनः न कारणात्कुतश्चित् निष्पन्नः अभिनव इत्यर्थः।।नैतेषां श्लोकानां पौनरुक्त्यं चोदनीयम् यतः एकेनैव श्लोकेन आत्मनः नित्यत्वमविक्रियत्वं चोक्तम् न जायते म्रियते वा इत्यादिना। तत्र यदेव आत्मविषयं किञ्चिदुच्यते तत् एतस्मात् श्लोकार्थात् न अतिरिच्यते किञ्चिच्छब्दतः पुनरुक्तम् किञ्चिदर्थतः इति। दुबोर्धत्वात् आत्मवस्तुनः पुनः पुनः प्रसङ्गमापाद्य शब्दान्तरेण तदेव वस्तु निरूपयति भगवान् वासुदेवः कथं नु नाम संसारिणामसंसारित्वबुद्धिगोचरतामापन्नं सत् अव्यक्तं तत्त्वं संसारनिवृत्तये स्यात् इति।।किञ्च
।।2.24।।तर्ह्यच्छेद्योऽयमित्यादिपुनरुक्तमित्यत आह  वर्तमाने ति। लटः प्रयोगेन वर्तमानस्यैव च्छेदादेर्निषेधादिदानीं दृश्यमानत्वेनात्मनः प्राग्विनाशाभावेऽप्युत्तरत्र शस्त्रादिना विनाशः स्यात् इति शङ्कायां च्छेदादियोग्यतैवात्मनो नास्तीति। प्रतिपादनायेदमुदितम्।अर्हे कृत्यतृचश्च अष्टा.3।3।169 इति कृत्यस्यार्हार्थत्वस्मरणादिति भावः। तर्हि तेनैवालं किमाद्येन श्लोकेन इत्यत आह  वर्तमाने ति।प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते 1।20 इति वचनात्प्रसक्तौ सत्यामपि वर्तमानस्य च्छेदादेरदर्शनाच्छेदाद्ययोग्यत्वमात्मनो युक्तमिति दर्शयति प्रथमश्लोकेन। एवं तर्ह्यौत्तराधैर्यप्रसङ्ग इति चेत् न उपोद्धाताभिप्रायेण भगवतोक्तेऽभिप्रायमजानानस्य शङ्कामनूद्यावतारस्य कृतत्वात्। स्वाभिप्रायेण तूपोद्धातमुक्त्वा साध्यमाहेत्यवतारः कर्तव्यः।नित्यः सर्वगतः इत्यादिकं जीवेऽसम्भावितमित्याशङ्क्य तन्निवर्त्याशङ्काप्रदर्शनपूर्वकं व्याचष्टे  कुत  इति। वर्तमानच्छेदाद्यदर्शनमात्मनः च्छेदाद्ययोग्यतायां किं निश्चययुक्तिः उत सम्भावनायुक्तिः। नाद्यः कदाचिददृष्टस्यापि पश्चाद्दर्शनात्। द्वितीये तु कुतो योग्यतानिश्चयः इति शङ्कार्थः। नित्यसर्वगतेति भावप्रधानो निर्देशः। ईश्वरस्य तावच्छेदाद्ययोग्यत्वं सिद्धम् नित्यसर्वगतत्वादिविशेषणवत्त्वात्। नह्येवम्भूतस्य छेदादिकं सम्भवति अतस्तत्प्रतिबिम्बस्यापि जीवस्य तदयोग्यत्वमिति भावः। मन्त्रवर्णे कठो.1।2।18 शाश्वतः इतीश्वरविशेषणमुक्तम्। अत्र स्थाणुरिति तयोर्भेदमाह   शाश्वत  इति। एकरूपत्वमात्रं सामान्येनान्यथात्वाभावः तस्य सामान्यप्रकरणत्वात्।स्थाणुः इत्यस्य नैमित्तिकनिषेधप्रकरणत्वात्। अस्यार्थभेदकथनस्योत्तरत्रोपयोगं वक्ष्यामः। नित्य इतीश्वरविशेषणं प्रतिभाति तदन्यथा व्याचष्टे   नित्यत्व मिति। भिन्नपदोक्तमपि विशिष्टस्य विशेषणं विशेषणमुपसंक्रामति। सन्निधानाच्च सर्वगतत्वमिति भावः। द्वयं पृथगीश्वरविशेषणं किं न स्यात् इत्यत आह   अन्यथे ति।अजो नित्यः 2।20 इति नित्यत्वमीश्वरस्य प्रागुक्तं अप्रमेयस्येति सर्वगतत्वं च। अतस्ताभ्यां पुनरुक्तेरित्यर्थः। अस्याप्युत्तरत्रोपयोगः।ननु जीवस्येश्वरप्रतिबिम्बत्वमत्र बहुवारमुक्तम् अतः पुनरुक्तिरित्यत आह  ऐक्योक्ता विति। जीवस्येश्वरैक्यविषये न पुनरुक्तिदोषः। कुतः ऐक्यमात्रस्य पुनःपुनरुक्तावपि पूर्वपूर्वानुक्तानां तत्र तत्रोपयुक्तानां ईश्वरविशेषणानां उत्तरत्रोपादानादिति। ऐक्यमत्र गौणं विवक्षितम्। विशेषणभेदाद्विशिष्टभेद इति भावः। ननु एतदपि नास्तिशाश्वतः 2।20 इत्युक्तस्यैव स्थाणुशब्देन ग्रहणादित्यादिशङ्कानिरासायशाश्वतः इत्येकरूपत्वमात्रमित्यादिकः प्राचीनो ग्रन्थः। ननु प्रतिबिम्बत्वं तत्तत्साध्यसिद्धये हेतुत्वेनोक्तम् न चैकस्यैव हेतोरनेकसाध्यसिद्ध्यर्थं पुनः पुनरुपन्यासे दोषोऽस्ति तत्कस्य हेतोः प्रमेयभेदात् अतः कथमियं शङ्केति उच्यते एकत्रोक्तमीश्वरप्रतिबिम्बत्वमन्यत्रापि हेतुत्वेन शिष्यैरेव ज्ञायतां किं स्वयं वचनेनेति शङ्कितुरभिप्रायः ईश्वरप्रतिबिम्बत्वमात्रस्य तत्तद्विशिष्टशङ्कानिरासासामर्थ्यात् तत्तदौपयिकविशेषणप्रदर्शनार्थं स्वयमुपादानमिति परिहाराभिप्रायः। नन्वीश्वरस्य नित्यसर्वगतत्वादिविशेषणवत्त्वात् अस्त्वच्छेद्यत्वादिकं जीवस्य तु कुतः तथाविधेश्वरप्रतिबिम्बत्वादिति चेत् नयो यत्प्रतिबिम्बः स तद्धर्मा इति नियमाभावादित्यत आह  युक्ता  इति। बिम्बधर्मा बिम्बसमानधर्माः। यो यत्प्रतिबिम्बः सोऽसति विरोधे तद्धर्मेति व्याप्तिरभिप्रेतेति भावः। स्यादिदं व्याख्यानं यदि जीवस्येश्वरप्रतिबिम्बता स्यात् सैव कुतः सिद्धेत्यत आह  तत्ते ति। ननु जीवस्येश्वरप्रतिबिम्बत्वाङ्गीकारेअंशो नानाव्यपदेशात् ब्र.सू.2।3।43ममैवांशो जीवलोके 15।7 इत्यादिवाक्यसिद्धेन तदंशत्वेन विरोधः स्यात्। प्रतिबिम्बो हि बिम्बादत्यन्ताभिन्न इति केषाञ्चिन्मतं अत्यन्तभिन्न इत्यपरेषाम्। अंशस्तु तदेकदेशः तेन भिन्नाभिन्नः यथा पटांशस्तन्तुः पटेन। ततः पक्षद्वयेऽपि कथं न विरोध इत्यत आह  न चे ति। जीवस्येश्वरप्रतिबिम्बत्वाङ्गीकारेऽपि न तदंशत्वविरोधः। कुत इत्यत आह   तस्ये ति। प्रतिबिम्बत्वस्यैवांशशब्दप्रवृत्तिनिमित्तत्वात्।  अयं भावः   अत्यन्तभिन्नस्य जीवस्य यदीश्वराधीनतत्सादृश्योपेतत्वं तत्प्रतिबिम्बत्वमुच्यते अभेदमतस्य निराकरिष्यमाणत्वात्। तदेव तदंशत्वमिति कुतो विरोधः इति। नन्वंशत्वं तदेकदेशत्वं तत्कथमुच्यते प्रतिबिम्बत्वमेवांशत्वं इति तत्राह  न चेति । अंशता अंशशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम्। न केवलमेकदेशत्वमंशशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् अपितु प्रतिबिम्बताऽपीति भावः। अस्तु नामानेकार्थत्वमंशशब्दस्य तथापिअंशो नाना ब्र.सू.2।3।43 इत्यादौ प्रतिबिम्बत्वमेवांशत्वमित्यत्र किं प्रमाणं तदेकदेशत्वं किं न स्यात् इत्यत आह  प्रमाण मिति। जीवस्येश्वरप्रतिबिम्बत्वं तदंशत्वं च तावदुच्यते। नच परस्परविरुद्धः शास्त्रार्थो भवितुं युक्तः। तत्रानेकार्थस्यांशशब्दस्य विरुद्धार्थं परित्यज्यार्थान्तरं गृह्यत इत्यर्थापत्तिरेवात्र प्रमाणमिति भावः। स्यादेतत्। तथा प्रतिबिम्बत्वमेव तत्त्वं अंशशब्दस्यापि तदेव प्रवृत्तिनिमित्तमिति वचनद्वयविरोधशान्त्यर्थं कल्प्यते तथैकदेशत्वमेव तत्त्वं प्रतिबिम्बशब्दस्यापि तदेव प्रवृत्तिनिमित्तमिति कुतो न कल्प्यम् वचनद्वयविरोधस्यैवमपि शान्तेरित्यत आह   न चे ति। अंशस्यांशत्वस्यैकदेशत्वस्य प्रतिबिम्बत्वं प्रतिबिम्बशब्दप्रवृत्तिनिमित्तत्वं कुतो न कल्प्यम् कुत इत्यत आह   गाधी ति। गाध्यादिष्वंशशब्दाभिधेयेषु अंशत्वस्य बाहुरूप्यदृष्टेः। इतरत्र प्रतिबिम्बशब्दाभिधेयेषु सूर्यकादिषु प्रतिबिम्बत्वस्यानेकरूपत्वादृष्टेः। इदमुक्तं भवति इन्द्रांशो गाधीत्युच्यते। तत्र विशेष एवांशशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं भेदाभेदादेः प्रमाणबाधितत्वात्।पटांशस्तन्तुः इत्यत्रैकदेशत्वंसूर्यांशश्चक्षुः इत्यत्रात्यन्तभिन्नस्य तदधीनसादृश्यम्। एवमंशशब्दोऽनेकार्थः प्रयोगेषु दृश्यते। तथा चोक्तं द्विरूपावंशकौ तस्य इत्यादि। नचैवं प्रतिबिम्बशब्दस्यानेकं प्रवृत्तिनिमित्तं दृश्यते। तथाच सावकाशस्यांशशब्दस्य निरवकाशेन प्रतिबिम्बशब्देन बाधो युक्तः न तु वैपरीत्यमिति।नन्वीश्वरस्य स्थाणुत्वं न युज्यते तदैक्षत छां.उ.6।2।3 सोऽकामयत बृ.उ.1।2।47 इत्यादिकर्तृत्वविरोधादित्यत आह  स्थाणुत्वे ऽपीति। कुतः इति चेत् किं द्वयोः परस्परपरिहारेण वृत्तिदर्शनाद्विरोधश्चोद्यते उत सहादर्शनात्। नाद्यः कर्तृत्वरहितस्य कस्याप्यदर्शनात्। न द्वितीय इत्याह  उभये ति। अन्यत्र सहादृष्टं स्थाणुत्वं कर्तृत्वं च कुतो भगवतीत्यत आह  अचिन्त्ये ति। मायावादी तु कर्तृत्वं स्थाणुत्वयोरेकं कर्तृत्वं मायामयं स्थाणुत्वं तु पारमार्थिकम् काल्पनिकपारमार्थिकयोश्च गगने नीलत्वनीरूपत्वयोरिव न विरोध इति विरोधसमाधानं मन्यते तदसदित्याह  न चे ति। कुत इत्यत आह  त्वयी ति।  ब्रह्मणि ईश्वर  इति सम्पूर्णैश्वर्ये न योगित्वात् किन्तु ईश्वरत्वात्।  कार्यकारणे  सकलकार्योत्पादनसामर्थ्योपेते।  इत्यादी ति क्रियाविशेषणम्। विरुद्धानामन्यत्र सहानवस्थितानां धर्माणां भगवत्यविरोधस्य सहावस्थानस्योक्तेः। तथा च बादरायणीयं मतमवलम्बमानस्यैवं विरोधसमाधानं असाम्प्रदायिकमिति भावः। इतश्च तदयुक्तमित्याह  महातात्पर्याच्चे ति। सकलवेदानां परमेश्वरगुणोत्कर्षेमहातात्पर्यम्। तत्रेक्षितृत्वादीनां मिथ्यात्वकल्पने तद्विरोधः स्यादित्यर्थः। समस्तवेदानां भगवद्गुणोत्कर्षे तात्पर्यमित्येतदेव कुत इति चेत् उच्यते यस्य हि शास्त्रस्य यत्प्रयोजनं तत् यस्य ज्ञानाद्भवति स तस्य विषय इति नियमः। अन्यथा विषयप्रयोजनयोः सम्बन्धो न स्यात्। तथा च तत्र प्रेक्षावतां प्रवृत्तिर्न भवेत्। वेदस्य च मोक्षः प्रयोजनम्। स च गुणोत्कर्षज्ञानादेव भवतीति तत्रैव तस्य महातात्पर्यं युक्तमिति प्रतिपादयिष्यन् सर्ववेदानां मोक्षः प्रयोजनमित्येवासिद्धं न स्वर्गादेः फलान्तरमिति कैश्चिदङ्गीकृतत्वादित्यतस्तत्तावत्साधयति  मोक्ष  इति। वेदो हि महच्छास्त्रंवेदशास्त्रात्परं नास्ति इति वचनात्। तस्य च महापुरुषार्थेनैव प्रयोजनेन भवितुं युक्तम्। मोक्षश्च महापुरुषार्थः। अतः स एव तस्य प्रयोजनमिति भावः। मोक्षस्य महापुरुषार्थत्वं कुतः इत्यत आह  तत्रापी ति। पुरुषार्थेष्वपि अत्र निर्धारणेन महत्त्वं गम्यते। अन्तेषु धर्ममोक्षेषु मध्येषु अर्थकामेषु अन्तयोरन्तरं मध्यम्। नैतावता धर्मो मोक्षसमः क्षयिफलत्वादित्याह  पुण्ये ति। चितः प्राप्तः। अस्त्वेव ततः किं इत्यत आह  स चे ति। मोक्षस्य भगवत्प्रसादसाध्यत्वं अन्यसाध्यत्वाभावश्चेति द्वे एते प्रमेये। तत्र यथायोगं वाक्यान्येतानि ज्ञातव्यानि। यदि निर्व्यलीकं छद्मना विना सर्वात्मना सर्वेण प्रकारेण आश्रितपदो भगवान्येषां दययेद्दयां कुर्यात् तर्हि येषां श्वश्रृगालभक्ष्ये देहेममाहं इति धीर्न भवति ते देवमायां देवस्य महिमानं विदन्ति अतितरन्ति च संसारमित्यर्थ। ऋते सत्ये। यद्यस्मात्। ईशेति सम्बुद्धिः। अतस्तवाङ्घ्रेश्छायां आश्रयेमेति सम्बन्धः। ज्ञानं प्रसादसाधनमित्यनुपदं वक्ष्यते। अतःतमेवं इत्याद्युदाहरणम् ततोऽपि किं इत्यत आह  स चे ति। विष्णुप्रसादश्च लोके सत्पुरुषप्रसादो गुणोत्कर्षज्ञानसाध्यः प्रसिद्धः। तद्दृष्टान्तेनानुमानादित्यर्थः।नन्वीश्वरस्यानुमानाविषयत्वात्कथं तत्र लोकप्रसिद्धमङ्गीकार्यम् अन्यथाऽज्ञानादिकमङ्गीकार्यं स्यादिति अत आह   लोके ति। अन्यथा मीमांसारम्भानुपपत्तिरिति भावः। नन्विन्द्रप्रसादकामोऽहल्यायै जारेति तन्निन्दामेव करोति। ततो भग्नव्याप्तिकमिदमनुमानमित्यत आह  अहल्ये ति। अहल्याजारत्वादिप्रतिपादकं वाक्यमप्युत्कर्षमेव वक्ति। कथं दोषकृतोऽपि ते यस्तत्फलं बहुतरो लेपः स नासीदित्यस्यार्थस्य अनेन व्यञ्जनादित्यर्थः। कुत एतत् अत्यन्तालौकिककल्पनादेवं कल्पनस्य ज्यायस्त्वात् तत्फलं बहुतरो लेप इत्येतत्कुतः इत्यत आह  बह्वि ति। असौ परनारीधर्षणदोषः। हीति सकलधर्मशास्त्रप्रसिद्धिं द्योतयति। स लेपस्तस्य नासीदित्येतत्कुतः इत्यत आह  तस्ये ति। अहल्याधर्षणेन तस्येन्द्रस्य लोमापि न क्षीयते इत्यर्थः। भगवत्प्रसादस्तद्गुणोत्कर्षज्ञानसाध्य इत्येतन्न केवलमनुमानात्सिद्धं किं तर्हि तद्वचनाच्चेत्याह   य  इति। अत्रस सर्ववित् 15।19 इत्यादिस्तुत्या प्रसादोऽवगम्यते। तदेवं भगवद्गुणोत्कर्षे महातात्पर्यं सर्वागमानामिति प्रमितम्। ननु ब्रह्मरुद्रादीनां सर्वोत्कृष्टत्वप्रसिद्धेर्विष्णोः सर्वोत्कर्ष एव नास्ति कुतस्तत्र सर्वागमानां महातात्पर्यं इति चेत् न तत्प्रसिद्धेर्भ्रान्तित्वात्। तत्कुत इत्यत आह  सत्यमि ति। सत्यं वक्ष्यमाणम्। तस्य लेशस्येति सर्वत्र सम्बध्यते। ननु पुराणविरोधाल्लौकिकी प्रसिद्धिरस्तु भ्रान्तिः पुराणेष्वेवान्येषां सर्वोत्कर्षो भगवदैक्यं च उच्यते तत्कथम् नहि पुराणस्य पुराणं बाधकम् साम्यादित्यत आह  अन्ये ति। अन्योत्कर्ष ऐक्यं च पुराणेषु प्रतीतमपि महाभारतविरुद्धम् अतो न ग्राह्यमित्यर्थः। अत्रैक्यं प्रसङ्गादुक्तम्। महाभारतस्य पुराणबाधकत्वं कुत इत्यत उक्तं  तथैवे ति। इत्यादिना ग्रन्थान्तरेण सिद्धः प्रमित उत्कर्षः सर्वशास्त्रोत्तमत्वं यस्य तत्तथोक्तम्। कथं महाभारतविरुद्धत्वमित्यत आह  तत्र  हीति। तत्र महाभारते इत्यादिषु वाक्येषु वक्ति भगवान्व्यासः इतोऽपि महाभारतस्य पुराणबोधकत्वं युक्तमित्युक्तं  साधारणे ति।कः सर्वोत्कृष्टः इत्यादिसाधारणप्रश्नरूपेऽवसरे विष्णुप्रशंसामनुपक्रम्य स्वरूपकथनावसर इति यावत्। पुराणेऽप्येवमेवान्योत्कर्षाद्युक्तौ साम्यमेवेत्यत आह  अन्यत्रे ति। अन्यत्र पुराणे यत्किंञ्चिदुक्तावप्यन्योत्कर्षाद्युक्तावप्यसाधारण एवावसरे तत्स्तुतिप्रसङ्गे तदुक्तमिति शेषः। असाधारणावसरोक्तमपि रुद्रादेरुत्कृष्टत्वादि कुतो दुर्बलं इत्यत आह  तद्धी ति। यत्स्तुतिप्रस्तावोक्तं सर्वोत्कृष्टत्वं वेदादावग्न्यादेरप्यस्ति तस्यापि ग्राह्यत्वं स्यादित्यर्थः। इतश्च न पुराणोक्तं रुद्रादेरुत्कृष्टत्वं ग्राह्यमित्याह  तद्ग्रन्थेति । तद्ग्रन्थः शैवपुराणम्।तत्कथमित्यत आह  तथा ही ति। तद्ग्रन्थेत्युक्तप्रदर्शनाय शैव इत्युक्तम्।ङ्यापोः संज्ञाछन्दसोर्बहुलम् अष्टा.6।3।63 इति जाह्नवीति ह्रस्वः। तत्रैव स्कान्द एव। शिवान्मुक्तिं निषिध्य। इतश्च न पुराणोक्तं शिवादेरुत्कृष्टत्वे ग्राह्यमित्याह   समेति । समं शैववैष्णवपक्षयोःनाहं न च शिवोऽन्ये च इत्यादितद्वचनम्। अस्तु लौकिकीप्रसिद्धिर्भ्रान्तिः पुराणं च विप्रलम्भमूलं व्यामोहनार्थम् तथापिविश्वाधिको रुद्रः इत्यादिवेदविरोध इत्यत आह  वेदश्चे ति। सङ्कुचिताद्यर्थो व्याख्यातव्यः कुत इत्यत आह  यदी ति। इतिहासाद्यननुरुध्य यथाश्रुतवेदव्याख्यानेऽनिष्टमाह   अनिर्णयाच्चे ति। न केवलं विश्वाधिक इत्यादिवेदो विष्णोः सर्वोत्कर्षस्याविरोधी किन्तु प्रत्युत तत्र वेदेऽस्मदिष्टस्य विष्णोः सर्वोत्कर्षस्य सिद्धिरपीत्याह  तत्रापी ति। कुत इत्यत आह  नामे ति। विष्णोर्नामभिर्वैशेष्याद्विशिष्टत्वाद्रुद्रादिसर्वनामवत्त्वादित्यर्थः।महातात्पर्याच्च इत्यादिनोक्तमर्थमुपसंहरति  अत  इति। अप्रामाणिकत्वात् प्रमाणविरुद्धत्वाच्चेत्यर्थः। अस्त्वेवं तथापि ईक्षितृत्वादेर्न मायामयत्वे तद्विरोधः। गुणोत्कर्षस्य सत्त्वे हि स स्यात्। नच वेदतात्पर्यविषयत्वमात्रेण सत्यता मोक्षापेक्षयेश्वरं प्रसादयितुमुक्तस्य राजाद्युत्कर्षस्येवासत्त्वसम्भवात्। संवादाभावेन सत्यत्वनिश्चयायोगादित्यत आह  तथापी ति। फलापेक्षया प्रसादयितुं प्रतिपादितत्वेऽपि स्वतः प्रामाण्यात् संवादमनपेक्ष्य ज्ञानग्राहकेणैव प्रामाण्यस्य निश्चितत्वात्। नहि प्रामाण्यनिश्चये विषयासत्त्वशङ्का सम्भवति। एवं सति बौद्धाद्यागमविषयस्यापि सत्त्वं स्यादिति चेत् न प्रसक्तस्यापि तत्प्रामाण्यग्रहणस्य बलवद्विरोधेनापोदितत्वात्। नच तथाप्रकृतेऽपीत्याह  अविरोधा दिति।नन्वन्यत्र पुरुषे सर्वोत्कर्षस्यादर्शनात्तद्दृष्टान्तेनेश्वरेऽपितदभावस्य साधयितुं शक्यत्वात् अनुमानविरोधोऽस्तीत्यत आह  नचे ति। कालातीतमनुमानमिति भावः। प्रमाणविरुद्धस्याप्यनुमानत्वेऽतिप्रसङ्गं सूचयति  धर्मे ति। धर्मैर्वैचित्र्यं धर्मवैचित्र्यम्। एवमनुमानेऽर्थानां धर्मवैचित्र्यं न स्यादिति भावः। यद्वाऽनेन ग्रन्थेनासम्भावनाविरोधं परिहर्तुं सम्भावनां दर्शयति। भवेदेवं यदि स्वत एव प्रामाण्यग्रहः स्यात् तदनङ्गीकारे किमुत्तरमित्यत आह  स्वत  इति। संवादाधीनः प्रामाण्यग्रह इत्यङ्गीकारे तु प्रामाण्यनिश्चयाय संवादकमानोक्तौ तस्याप्यदोषत्वं प्रामाण्यमन्यसंवादेन साधयेदित्यनवस्थालक्षणातिप्रसङ्ग इत्यर्थः। इतोऽपि न वेदतात्पर्यगोचरस्य भगवद्गुणोत्कर्षस्यासत्त्वं शङ्कनीयमित्याह  अनन्ये ति। प्रयोजनापेक्षया चेत्यर्थः। तर्हि तत्परत्वमेव न सिद्ध्येत्। प्रयोजनपर्यालोचनया हि तत्प्राक्साधितमित्यत आह  सिद्ध मिति। कथमित्यत आह  नारायणे ति। प्रयोजनापेक्षया भगवद्गुणोत्कर्षपरत्वपक्षे प्रयोजनेन तत्साधनं कृतम् प्रयोजनानपेक्षापक्षे त्वागमैरेव तत्सिद्धम्। पक्षद्वयं चसर्वे वेदास्तु देवार्थाः इत्यादिवक्ष्यमाणप्रमाणसिद्धम्। एकस्यैव वाक्यस्य प्रयोजनसापेक्षत्वमनपेक्षत्वं च विरुद्धमित्यत आह  नचे ति। प्रतिपत्तृभेदादिति भावः। ननु जडस्य वेदस्यैतान्प्रति एवं प्रतिपादयिष्याम्येतान्प्रत्येवमिति कथं चेतनवत्प्रवृत्तिरित्यत आह  ईश्व रेति। अनादिर्वेद इत्युक्तम् तत्र कथमीश्वरस्य नियमनमित्यत आह  अनादौ चे ति। अनादिपदार्थविषये नियामकत्वमन्यत्रादृष्टं कथमीश्वरस्येत्यत आह  प्रयोजकत्वं त्वि ति। अनादेर्नियोजकत्वमीश्वरस्याचिन्त्यशक्त्या युक्तम्। अनन्यापेक्षया चेत्यादिनोक्तमुपसंहरति  अत  इति तथा च पक्षद्वयेऽपि महातात्पर्यविरोधान्नेश्वरस्येक्षितृत्वादिकं मायामयमिति भावः। अप्रामाणिकं च तन्मायामयत्वम्। तथा हि किं स्थाणुत्वे ईक्षितृत्वान्यथानुपपत्त्यैतत्कल्प्यते उत प्रमाणान्तरात्। नाद्यः अन्यथैवोपपत्तेरुक्तत्वादित्याह  तच्चे ति। स्थाणोरपीक्षितृत्वम् अनन्यापेक्षा स्वतन्त्रा। न द्वितीयः तददर्शनादिति भावेनोपसंहरति  अत  इति।प्रकृतमनुसरन्अचलः इत्येतत्पदं यदन्यैः परिस्पन्दरहित इति व्याख्यातम् तदसदिति भावेनाह  अचलत्व मिति। इत्यादिवद्व्याख्येयमिति शेषः। सत्यज्ञानानन्दस्वरूपं ब्रह्म अभ्युपगच्छता यथैतानि वाक्यानि व्याख्यायन्ते लौकिकसत्तादिरहितमिति तथाचल इत्येतदपि लौकिकक्रियाप्रतिषेधपरं व्याख्येयम्। सर्वथा परिस्पन्दाभावार्थत्वेऽप्रहर्षमित्यादेरपि सर्वथाऽनानन्दत्वादिकमर्थः स्यात्। अविशेषादिति भावः। ननु विषमोऽयमुपन्यासः विज्ञानमानन्दं ब्रह्म बृ.उ.3।9।28 सत्यं ज्ञानं तै.उ.2।1 इत्यादिभिरानन्दरूपत्वादेः प्रमितत्वेन तथाव्याख्यानोपपत्तेरिति चेत् समं प्रकृतेऽपीत्याह  क्रिये ति। कुतः क्रियादृष्टिः इत्यत आह  तप  इति। तप आलोचनम्। विज्ञानमानन्दं इत्यादीनि निरवकाशानि क्रियावाक्यानि सावकाशानि सर्वस्य ब्रह्मधर्मस्य मायामयत्वात्। अतः पुनर्वैषम्यमित्यत आह  अतश्चे ति। अतएव महातात्पर्यविरोधादेव। इतश्च नेश्वरधर्माणां मायामयत्वमित्याह  ऐश्वर्यादी ति। सम्बोधनादीश्वरस्य अर्शआद्यजन्तोऽयं शब्द इत्येवकारेण व्यवच्छिनत्ति। नियामकाभावेनाश्रुतप्रत्ययकल्पनायोगात्। एवं सम्बोधने तत्स्वरूपत्वमेवैश्वर्यादीनां स्यात् नत्वमायामयत्वमित्यत आह  स्वरूपत्वा दिति। अनन्तत्वस्वाभाविकत्वादिवचनाच्च नेश्वरशक्त्यादीनां मायामयत्वम्। मायामयस्यानन्तत्वाद्यनुपपत्तेरित्याह   विज्ञाने ति।
।।2.24।।लोकप्रसिद्धमविरुद्धमत्राप्यङ्गीकार्यम्। अहल्याजारत्वाद्यपि दोषकृतोऽपि ते न बहुतरो लेप आसीदित्युत्कर्षमेव वक्ति। बहुनरकफलो ह्यसौ। तस्य (मे तत्र) न लोम च (ना) मीयते कौ.उ.3।1 इति श्रुत्यन्तराच्च।यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् 15।19 इति तदुक्तेश्च।सत्यं सत्यं पुनः सत्यं शपथैश्चापि कोटिभिः। विष्णुमाहात्म्यलेशस्य विभक्तस्य च कोटिधा। पुनश्चानन्तधा तस्य पुनश्चापि ह्यनन्तधा। नैकांशसममाहात्म्याः श्रीशेषब्रह्मशङ्कराः। इति नारदीये। अन्योत्कर्ष ऐक्यं चतथैव सर्वशास्त्रेषु महाभारतमुत्तमम्। को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्षान्महाभारतकृद्भवेत् वि.पु.3।4।5 इत्यादिग्रन्थान्तरसिद्धोत्कर्षमहाभारतविरुद्धम्। तत्र हिनास्ति नारायणसमं न भूतं न भविष्यति। एतेन सत्यवाक्येन सर्वार्थान्साधयाम्यहम्यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रश्च क्रोधसम्भवः। न त्वत्समोऽस्ति इत्यादिषु साधारणप्रश्नावसर एव महान्तमुत्कर्षं विष्णोर्वक्ति। अन्यत्र यत्किञ्चिदुक्तावप्यसाधारण एवावसरे। तद्ध्यग्न्यादेरपि वेदादावस्ति। त्वमग्न इन्द्रो ऋषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः ऋक्सं.2।5।17।3 विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ऋक्सं.8।4।1।1 इत्यादिषु तद्ग्रन्थविरोधाच्च।तथाहि स्कान्दे शैवे यदन्तरं व्याघ्रहरीन्द्रयोर्वने यदन्तरं मेरुगिरीन्द्रविन्ध्ययोः। यदन्तरं सूर्यसुरेड्यबिम्बयोस्तदन्तरं रुद्रमहेन्द्रयोरपि। यदन्तरं सिंहगजेन्द्रयोर्वने यदन्तरं सूर्यशशाङ्कयोर्दिवि। यदन्तरं जाह्नविसूर्यकन्ययोस्तदन्तरं ब्रह्मगिरीशयोरपि। यदन्तरं प्रलयजवारिविप्रुषोर्यदन्तरं स्तम्बहिरण्यगर्भयोः। स्फुलिङ्गसंवर्त्तकयोर्यदन्तरं तदन्तरं विष्णुहिरण्यगर्भयोः। अनन्तत्वात्महाविष्णोस्तदन्तरमनन्तकम्। माहात्म्यसूचनार्थाय ह्युदाहरणमीरितम्। तत्समो ह्यधिको वापि नास्ति कश्चित्कदाचन। एतेन सत्यवाक्येन तमेव प्रविशाम्यहम् इत्याह। तत्रैव शिवं प्रति मार्कण्डेयवचनम् संसारार्णवनिर्मग्न इदानीं मुक्तिमेष्यसि इत्यादि। पाद्मे शैवे मार्कण्डेयकथाप्रबन्धे शिवान्निषिध्य विष्णोरेव मुक्तिमाह अहं भोगप्रदो वत्स मोक्षदस्तु जनार्दनः इत्यादि। समब्राह्मविरोधाच्च। वेदश्चेतिहासाद्यविरोधेन योज्यःयदि विद्यात् इति वचनात्। अनिर्णयाच्चेन्द्रादिशङ्कयाऽन्यथा तत्रापीष्टसिद्धिः नामवैशेष्यात्। अतो भगवदुत्कर्ष एव सर्वागमानां महातात्पर्यम्। तथापि स्वतः प्रामाण्यत्सन्नेवोच्यते अविरोधात्।नच प्रमाणसिद्धस्य अन्यत्रादृष्ट्यापह्नवो युक्तः धर्मवैचित्र्यादर्थानाम्। स्वतः प्रामाण्यानङ्गीकारे मानोक्तदावप्यदोषत्वं च साधयेदित्यतिप्रसङ्गः। अनन्यापेक्षया च तत्परत्वं सिद्धमागमानाम्।नारायणपरा वेदाः भाग.2।5।15 सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति कठो.1।2।15वासुदेवपरा वेदाः भाग.1।2।28 इति। न चैतद्विरुद्धम् ईश्वरनियमात्। अनादौ च तत्सिद्धम्द्रव्यं कर्म च कालश्च भाग.2।10।12 इत्यादौ। प्रयोजकत्वं तु पूर्वोक्तन्यायेन। अतः सिद्धमेतत्। तच्चानन्यापेक्षाचिन्त्यशक्तित्वादेव युक्तम्। अतो न मायामयमेकम्। अचलत्वं त्वप्रहर्षमनानन्दमदुःखमसुखमप्रज्ञमसद्वेत्यादिवत्। क्रियादृष्टेःतपो मे हृदयं साक्षात् ब्रह्मन् तनुर्विद्या क्रियाकृतिः भाग.6।4।46 इत्याद्युक्तम्। अतश्च न मायामयं सर्वम् ऐश्वर्यादिवाचिभगशब्देनैव सम्बोधनाच्च। तं त्वा भग ऋक्सं.5।4।8।5 इत्यादौ स्वरूपत्वान्न मायामयत्वं युक्तम्।विज्ञानशक्तिरहमासमननन्तशक्तेः भाग.3।9।24मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे भाग.6।4।48 पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च श्वे.उ.6।8 इत्यादिवचनात्।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।2.24।।
অচ্ছেদ্যোযমদাহ্যোযমক্লেদ্যোশোষ্য এব চ৷ নিত্যঃ সর্বগতঃ স্থাণুরচলোযং সনাতনঃ৷৷2.24৷৷
অচ্ছেদ্যোযমদাহ্যোযমক্লেদ্যোশোষ্য এব চ৷ নিত্যঃ সর্বগতঃ স্থাণুরচলোযং সনাতনঃ৷৷2.24৷৷
અચ્છેદ્યોયમદાહ્યોયમક્લેદ્યોશોષ્ય એવ ચ। નિત્યઃ સર્વગતઃ સ્થાણુરચલોયં સનાતનઃ।।2.24।।
ਅਚ੍ਛੇਦ੍ਯੋਯਮਦਾਹ੍ਯੋਯਮਕ੍ਲੇਦ੍ਯੋਸ਼ੋਸ਼੍ਯ ਏਵ ਚ। ਨਿਤ੍ਯ ਸਰ੍ਵਗਤ ਸ੍ਥਾਣੁਰਚਲੋਯਂ ਸਨਾਤਨ।।2.24।।
ಅಚ್ಛೇದ್ಯೋಯಮದಾಹ್ಯೋಯಮಕ್ಲೇದ್ಯೋಶೋಷ್ಯ ಏವ ಚ. ನಿತ್ಯಃ ಸರ್ವಗತಃ ಸ್ಥಾಣುರಚಲೋಯಂ ಸನಾತನಃ৷৷2.24৷৷
അച്ഛേദ്യോയമദാഹ്യോയമക്ലേദ്യോശോഷ്യ ഏവ ച. നിത്യഃ സര്വഗതഃ സ്ഥാണുരചലോയം സനാതനഃ৷৷2.24৷৷
ଅଚ୍ଛେଦ୍ଯୋଯମଦାହ୍ଯୋଯମକ୍ଲେଦ୍ଯୋଶୋଷ୍ଯ ଏବ ଚ| ନିତ୍ଯଃ ସର୍ବଗତଃ ସ୍ଥାଣୁରଚଲୋଯଂ ସନାତନଃ||2.24||
acchēdyō.yamadāhyō.yamaklēdyō.śōṣya ēva ca. nityaḥ sarvagataḥ sthāṇuracalō.yaṅ sanātanaḥ৷৷2.24৷৷
அச்சேத்யோயமதாஹ்யோயமக்லேத்யோஷோஷ்ய ஏவ ச. நித்யஃ ஸர்வகதஃ ஸ்தாணுரசலோயஂ ஸநாதநஃ৷৷2.24৷৷
అచ్ఛేద్యోయమదాహ్యోయమక్లేద్యోశోష్య ఏవ చ. నిత్యః సర్వగతః స్థాణురచలోయం సనాతనః৷৷2.24৷৷
2.25
2
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।।2.25।। यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तनका विषय नहीं है और यह निर्विकार कहा जाता है। अतः इस देहीको ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये।
।।2.25।। यह आत्मा अव्यक्त,  अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है;  इसलिए इसको इस प्रकार जानकर तुमको शोक करना उचित नहीं है।।
।।2.25।। आत्मा के स्वरूप को भगवान् यहाँ और अधिक स्पष्ट करते हैं। यहाँ प्रयुक्त शब्दों के द्वारा सत्य का निर्देश युक्तिपूर्वक किया गया है।अव्यक्त पंचमहाभूतों में जो सबसे अधिक स्थूल है जैसे पृथ्वी उसका ज्ञान पांचों ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा होता है। परन्तु जैसेजैसे सूक्ष्मतर तत्त्व तक हम पहुँचते हैं वैसे यह ज्ञात होता है कि उसका ज्ञान पांचों प्रकार से नहीं होता। जल में गंध नहीं है और अग्नि में रस नहीं है तो वायु में रूप भी नहीं है। इस प्रकार आकाश सूक्ष्मतम होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। स्वभावत जो आकाश का भी कारण है उसका ज्ञान किसी भी इन्द्रिय के द्वारा नहीं हो सकता। अत हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अव्यक्त है।इन्द्रियगोचर वस्तु व्यक्त कही जाती है। अत जो इन्द्रियों से परे है वह अव्यक्त है। यद्यपि मैं किसी वृक्ष के बीज में वृक्ष को देखसुन नहीं सकता हूँ और न उसका स्वाद स्पर्श या गंध ज्ञात कर सकता हूँ तथापि मैं जानता हूँ कि यही बीज वृक्ष का कारण है। इस स्थिति में कहा जायेगा कि बीज में वृक्ष अव्यक्त अवस्था में है। इस प्रकार आत्मा को अव्यक्त कहने का तात्पर्य यह है कि वह इन्द्रियों के द्वारा जानने योग्य विषय नहीं है। उपनिषदों में विस्तारपूर्वक बताया गया है कि आत्मा सबकी द्रष्टा होने से दृश्य विषय नहीं बन सकती।अचिन्त्य आत्मा इन्द्रियों का विषय नहीं है उसी प्रकार यहाँ वह अचिन्त्य है कहकर यह दर्शाते हैं कि मन और बुद्धि के द्वारा हम आत्मा का मनन और चिन्तन नहीं कर सकते जैसे अन्य विषयों का विचार सम्भव है। इसका कारण यह है कि मन और बुद्धि दोनों स्वयं जड़ हैं। परन्तु इस चैतन्य आत्मा के प्रकाश से चेतन होकर वे अन्य विषयों को ग्रहण करते हैं। अब अपने ही मूलस्वरूप द्रष्टा को वे किस प्रकार विषय रूप में जान सकेंगे दूरदर्शीय यन्त्र से देखने वाला व्यक्ति स्वयं को नहीं देख सकता क्योंकि एक ही व्यक्ति स्वयं द्रष्टा और दृश्य दोनों नहीं हो सकता। यह अचिन्त्य शब्द का तात्पर्य है। अत अव्यक्त और अचिन्त्य शब्द से आत्मा को अभाव रूप नहीं समझ लेना चाहिए।अविकारी अवयवों से युक्त साकार पदार्थ परिच्छिन्न और विकारी होता है। निरवयव आत्मा में किसी प्रकार का विकार संभव नहीं है।इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश करते हैं कि आत्मा को उसके शुद्ध रूप से पहचान कर शोक करना त्याग देना चाहिए। ज्ञानी पुरुष अपने को न मारने वाला समझता है और न ही मरने वाला मानता है।भौतिकवादी विचारकों के मत को स्वीकार करके यह मान भी लें कि आत्मा नित्य नहीं है तब भी भगवान् कहते हैं
2.25।। व्याख्या-- 'अव्यक्तोऽयम्'-- जैसे शरीर-संसार स्थूल-रूपसे देखनेमें आता है, वैसे यह शरीरी स्थूलरूपसे देखनेमें आनेवाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल सृष्टिसे रहित है।  'अचिन्त्योऽयम्'-- मन, बुद्धि आदि देखनेमें तो नहीं आते पर चिन्तनमें आते, ही हैं अर्थात् ये सभी चिन्तनके विषय हैं। परन्तु यह देही चिन्तनका भी विषय नहीं है; क्योंकि यह सूक्ष्म सृष्टिसे रहित है।  'अविकार्योऽयमुच्यते'-- यह देही विकार-रहित कहा जाता है अर्थात् इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता। सबका कारण प्रकृति है उस कारणभूत प्रकृतिमें भी विकृति होती है। परन्तु इस देहीमें किसी प्रकारकी विकृति नहीं होती; क्योंकि यह कारण सृष्टिसे रहित है। यहाँ चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोष्य, अचल, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य इन आठ विशेषणोंके द्वारा इस देहीका निषेधमुखसे और नित्य सर्वगत स्थाणु और सनातन--इन चार विशेषणोंकेद्वारा इस देहीका विधिमुखसे वर्णन किया गया है। परन्तु वास्तवमें इसका वर्णन हो नहीं सकता क्योंकि यह वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी आदि प्रकाशित होते हैं उस देहीको वे सब प्रकाशित कैसे कर सकते हैं अतः इस देहीका ऐसा अनुभव करना ही इसका वर्णन करना है।  'तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि'-- इसलिये इस देहीको अच्छेद्य, अशोष्य, नित्य, सनातन, अविकार्य आदि जान लें अर्थात् ऐसा अनुभव कर लें तो फिर शोक हो ही नहीं सकता।
।।2.24 2.26।।नैनमित्यादि। नास्य नाशकारणं शस्त्रादि किंचित्करम्। चिदेकस्वभावस्य अनाश्रितस्य ( N K add निरपेक्षस्य after अनाश्रितस्य) निरंशस्य (N omits निरंशस्य S adds निरवयवस्य after निरंशस्य) स्वतन्त्रस्य स्वभावान्तरापत्त्याश्रयविनाशावयवविभाग विरोधिप्रादुर्भावादिक्रमेण (S प्रक्रमेण) नाशयितुमशक्यत्वात्। न च देहान्तरगमनमस्य अपूर्वम् देहान्वितोऽपि (N अपूर्वदेहान्नित्योऽपि) सततं देहान्तरं गच्छति तेन संबध्यते इत्यर्थः। देहस्य क्षणमात्रमप्यनवस्थायित्वात्। एवंभूतं विदित्वा एनमात्मानं शोचितुं नार्हसि।
।।2.25।।छेदनादियोग्यानि वस्तूनि यैः प्रमाणैः व्यज्यन्ते तैः  अयम्  आत्मा न व्यज्यते इति  अव्यक्तः।  अतः छेद्यादिविजातीयः।  अचिन्त्यः  च सर्ववस्तुविजातीयत्वेन तत्तत्स्वभावयुक्ततया चिन्तयितुम् अपि न अर्हः। अतः च  अविकार्यः  विकारानर्हः।  तस्माद्  उक्तलक्षणम्  एनम् आत्मानं विदित्वा  तत्कृते  न अनुशोचितुम् अर्हसि।
।।2.25।।त्वंपदार्थपरिशोधनस्य प्रकृतत्वात्तत्रैव हेत्वन्तरमाह  किञ्चेति।  आत्मनो नित्यत्वादिलक्षणस्य तथैवं प्रथा किमिति न भवति तत्राह  अव्यक्त इति।  मा तर्हि प्रत्यक्षत्वं भूदनुमेयत्वं तु तस्य किं न स्यादित्याशङ्क्याह  अतएवेति।  तदेव प्रपञ्चयति  यद्धीति।  अतीन्द्रियत्वेऽपि सामान्यतो दृष्टविषयत्वं भविष्यतीत्याशङ्क्य कूटस्थेनात्मना व्याप्तिलिङ्गाभावान्मैवमित्याह  अविकार्य इति।  अविकार्यत्वे व्यतिरेकदृष्टान्तमाह  यथेति।  किं चात्मा न विक्रियते निरवयवद्रव्यत्वाद्धटादिवदिति व्यतिरेक्यनुमानमाह  निरवयवत्वाच्चेति।  निरवयवत्वेऽपि विक्रियावत्त्वे का क्षतिरित्याशङ्क्याह  नहीति।  सावयवस्यैव विक्रियावत्त्वदर्शनाद् विक्रियावत्त्वे निरवयवत्वानुपपत्तिरित्यर्थः। यद्धि सावयवं सक्रियं क्षीरादि तद्दध्यादिना विकारमापद्यते नचात्मनः श्रुतिप्रमितनिरवयवत्वस्य सावयवत्वमतोऽविक्रियत्वान्नायं विकार्यो भवितुमलमिति फलितमाह  अविक्रियत्वादिति।  आत्मयाथात्म्योपदेशमशोच्यानन्वशोचस्त्वमित्युपक्रम्य व्याख्यातमुपसंहरति  तस्मादिति।  अव्यक्तत्वाचिन्त्यत्वाविकार्यत्वनित्यत्वसर्वगतत्वादिरूपो यस्मादात्मा निर्धारितस्तस्मात्तथैव ज्ञातुमुचितस्तज्ज्ञानस्य फलवत्त्वादित्यर्थः। प्रतिषेध्यमनुशोकमेवाभिनयति  हन्ताहमिति।
।।2.25।।अव्यक्तोऽयमिति। अक्षरोऽयं वस्तुतोऽचिन्त्यश्च।प्रकृतिभ्यः परं यत्तु तदचिन्त्यस्य लक्षणम् इति वाक्यात्। नन्वेवम्भूतमव्यक्तं प्रधानं प्रसिद्धं तदेव किं निरूप्यत इति चेत्तत्राह अविकाऽर्योऽयमिति। प्रधानस्य विकार्यत्वादित्यर्थः। तस्मादेवम्भूतमेनमात्मानं ज्ञात्वा त्वं नानुशोचितमुर्हसि।
।।2.25।।छेद्यत्वादिग्राहकप्रमाणाभावादपि तदभाव इत्याह अव्यक्तोऽयमित्याद्यर्धेन। यो हीन्द्रियगोचरो भवति स प्रत्यक्षत्वाद्व्यक्त इत्युच्यते। अयं तु रूपादिहीनत्वान्न तथा। अतो न प्रत्यक्षं तत्र छेद्यत्वादिग्राहकमित्यर्थः। प्रत्यक्षाभावेऽप्यनुमानं स्यादित्यत आह अचिन्त्योऽयं चिन्त्योऽनुमेयस्तद्विलक्षणोऽयम् क्वचित्प्रत्यक्षो हि वह्न्यादिर्गृहीतव्याप्तिकस्य धूमादेर्दर्शनात्क्वचिदनुमेयो भवति अप्रत्यक्षे तु व्याप्तिग्रहणासंभवान्नानुमेयत्वमिति भावः। अप्रत्यक्षस्यापीन्द्रियादेः सामान्यतो दृष्टानुमानविषयत्वं दृष्टमत आह अविकार्योऽयं यद्विक्रियावच्चक्षुरादिकं तत्स्वकार्यान्यथानुपपत्त्या कल्प्यमानमर्थापत्तेः सामान्यतो दृष्टानुमानस्य च विषयो भवति। अयं तु न विकार्यो न विक्रियावानतो नार्थापत्तेः सामान्यतो दृष्टस्य वा विषय इत्यर्थः। लौकिकशब्दस्यापि प्रत्यक्षादिपूर्वकत्वात्तन्निषेधेनैव निषेधः। ननु वेदेनैव तत्र छेद्यत्वादि ग्रहीष्यत इत्यत आह उच्यते वेदेन सोपकरणेनाच्छेद्याव्यक्तादिरूप एवायमुच्यते तात्पर्येण प्रतिपाद्यते अतो न वेदस्य तत्प्रतिपादकस्यापि छेद्यत्वादिप्रतिपादकत्वमित्यर्थः। अत्रनैनं छिन्दन्ति इत्यत्र शस्त्रादीनां तन्नाशकसामर्थ्याभाव उक्त़ः।अच्छेद्योऽयम् इत्यादौ तस्य छेदादिकर्मत्वायोग्यत्वमुक्तम्। अव्यक्तोऽयम् इत्यत्र तच्छेदादिग्राहकमानाभाव उक्त इत्यपौनरुक्त्यं द्रष्टव्यम्। वेदाविनाशिनम् इत्यादिनां तु श्लोकानामर्थतः शब्दतश्च पौनरुक्त्यं भाष्यकृद्भिः परिहृतम्। दुर्बोधत्वादात्मवस्तुनः पुनः पुनः प्रसङ्गमापाद्य शब्दान्तरेण तदेव वस्तु निरूपयति भगवान्वासुदेवः। कथं नु नाम संसारिणां बुद्धिगोचरमापन्नं तत्त्वं संसारनिवृत्तये स्यादिति वदद्भिः। एंव पूर्वोक्तयुक्तिभिरात्मनो नित्यत्वे निर्विकारत्वे च सिद्धे तव शोको नोपपन्न इत्युपसंहरति तस्मादित्यर्धेन। एतादृशात्मस्वरूपवेदनस्य शोककारणनिवर्तकत्वात्तस्मिन्सति शोको नोचितः। कारणाभावे कार्याभावस्यावश्यकत्वात्। तेनात्मानमविदित्वा यदन्वशोचस्तद्युक्तमेव। आत्मानं विदित्वा तु नानुशोचितुमर्हसीत्यभिप्रायः।
।।2.25।।किंच अव्यक्तश्चक्षुराद्यविषयः अचिन्त्यो मनसोऽप्यविषयः अविकार्यः कर्मेन्द्रियाणामप्यगोचर इत्यर्थः। उच्यत इति नित्यत्वादावभियुक्तोक्तिं प्रमाणयति। उपसंहरति  तस्मादिति।
।।2.25।।पूर्वोक्तानुमानानामुपलम्भयुक्तिविरोधपरिहारमुखेन सर्वदूषणपरिहारपरं प्रकृतोपसंहारपरं चअव्यक्तः इति श्लोकं व्याख्याति छेदनेति। शरीरादीनि यैः प्रमाणैः च्छेदनादियोग्यतया प्रत्याय्यन्ते तैस्तथाऽसौ न प्रत्याय्यतेअहं जानामि इत्यादिरूपेणैव ह्यात्मन उपलम्भः। शाश्वतस्तु नित्यत्वादिविशिष्टरूपेणेति न पूर्वोक्तानुमानानां धर्मिग्राहकविरोध इति भावः। निरूपितश्च मोक्षधर्मे व्यक्ताव्यक्तशब्दः इन्द्रियैर्गृह्यते यद्यत्तत्तद्व्यक्तमिति स्थितिः। अव्यक्तमिति विज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम् म.भा.शां.प. इति। ननु कुसूलनिहितबीजस्याङ्कुरायोग्यत्वे साध्ये न तावद्व्यक्त्यपेक्षया धर्मिग्राहकविरोधः। तथाप्यन्वयव्यतिरेकविषयभूतबीजत्वजात्याक्रान्ततया सामान्यतो विरोध एव भवति। तद्वदत्रापि दृष्टसजातीयतया विरोधः स्यादित्याशङ्क्याह अतश्छेद्यादिविसजातीय इति। साजात्यग्राहकाभावाद्वैजात्यग्राहकाच्चेति भावः। सहेतुकं सप्रकारं चाचिन्त्यशब्दार्थमाह सर्वेति। एतेन सौगताद्यभिमतानामात्मानित्यत्वसाधनानां सत्त्वादीनां तदनुग्राहकतर्काणां चोपलम्भागमादिविरोधात् भूलशैथिल्यमुक्तं भवति।अतश्चेति पूर्वोक्तप्रमाणानां बाधकाभावादपीत्यर्थः। यद्वा अनुमानान्तरमुच्यते। तथाहि आत्मा विकारानर्हः विकारित्वग्राहकप्रमाणशून्यत्वात् यथेश्वरस्वरूपम् इत्यन्वयदृष्टान्तः यथा घटादिः इति व्यतिरेकः। यद्वा सामान्येन व्याप्तिः यद्यादृशाकारग्राहकप्रमाणशून्यं तत्तादृशाकारं न भवति यथानीलं न पीताकारम् इति। अविकार्य इत्येतावति निर्दिष्टे कादाचित्कविकाराभावमात्रेण सिद्धसाधनता स्यादिति तत्परिहारकं प्रत्ययार्थं विवृणोति विकारानर्ह इति। निषेधापेक्षया वेदनस्य पूर्वकालत्वात् क्त्वानिर्देशः न तु शोकापेक्षया। तेनात्मवेदनस्य शोकाभावहेतुत्वमुक्तं भवति।अर्हसि आत्मवेदिनस्ते शोकयोग्यतैव न स्यादिति भावः।
।।2.25।।अव्यक्तो लौकिकेन्द्रियाग्राह्यः। अचिन्त्यो मनसोऽप्यगम्यः। अविकार्यो विकाररहितः कर्मभिर्वाऽविकार्यः। अयं सर्वत्र व्यापकत्वेन प्रत्यक्षतयोक्तः। उच्यते वेदैस्तद्रूपश्चेत्यर्थः। यदर्थमेतदुक्तं तदाह तस्मादिति। तस्मादेनं पूर्वोक्तधर्मवन्तं विदित्वा अनुशोचितुं नार्हसि।
।।2.25।।एवं ज्ञेयं वस्तूक्तं तच्च तत्राध्यस्तदेहत्रयनिरासेनापरोक्षीकर्तव्यमित्याह  अव्यक्तोऽयमिति।  व्यक्तं स्थूलशरीरं प्रत्यक्षगम्यं तदन्योयं प्रत्यगात्मा। तथा अचिन्त्योऽयं चिन्त्यं चिन्तायोग्यं रूपादि प्रकाशकार्येणानुमेयं चक्षुरादिसमुदायात्मकं लिङ्गशरीरं अप्रत्यक्षं ततोऽप्यन्योऽयम्। तथा अविकार्योऽयं विकारं स्थूलसूक्ष्मकार्यभावेनावस्थानमर्हतीति विकार्यं त्रिगुणात्मकं मूलाज्ञानं कारणशरीरं सुप्तोत्थितस्य न किंचिदवेदिषमिति परामर्शदर्शनादहं न जानामीत्यनुभवाच्च साक्ष्येकगम्यं ततोऽप्यन्योऽयम्। उच्यते व्यक्तादिनिषेधमुखेन नतु शृङ्गग्राहिकयाऽयमेवंविध इति विधिमुखेनोच्यते। यस्मादेवमयमुच्यते तस्मादेनं विदित्वा नानुशोचितुमर्हसि।तरति शोकमात्मवित् इति श्रुतेरात्मविद् भूत्वा बन्धुवियोगजं शोकं मा कार्षीरित्यर्थः। उक्तं चात्मनोऽवस्थात्रयातीतत्वम्स्वप्ननिद्रायुतावाद्यौ प्राज्ञस्त्वस्वप्ननिद्रया। न निद्रां नैव च स्वप्नं तुर्ये पश्यन्ति निश्चिताः। इति।
।।2.25।।किंच सर्वकरणागोचरत्वान्न व्यज्यत इत्यव्यक्तः। अयं प्रत्यक्षातीतः प्रत्यक्षागोचरत्वात् अचिन्त्योऽनुमानागम्यः कार्यलिङ्गकानुमानगम्योऽपि न भवतीत्याह। अविकार्यः विकारं न प्राप्नोतीत्यर्थः। एतेन देहत्रयातिरिक्तोऽप्यर्थाद्बोधित इति ज्ञेयम्। यत्त्वविकार्यःकर्मेन्द्रियाणामप्यगोचर इति तच्चिन्त्यम्। अव्यक्त इत्यनेनैव तस्य संग्रहात्। अन्यथा सामान्यतो दृष्टानुमानागोचरत्वालाभापत्तेश्च। उच्यतेनावेदविन्मनुते तं बृहन्तम्यतो वाच निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इत्यादिश्रुतिभिः। तस्मादेवं यथोक्तप्रकारेण एनमात्मानं ज्ञात्वाऽहं हन्ता मयैवैते हन्यन्त इति शोचितुं नार्हसि।
2.25 अव्यक्तः unmanifested? अयम् this (Self)? अचिन्त्यः unthinkable? अयम् this? अविकार्यः unchangeable? अयम् this? उच्यते is said? तस्मात् therefore? एवम् thus? विदित्वा having known? एनम् this? न not? अनुशोचितुम् to grieve? अर्हसि (thou) oughtest.Commentary The Self is not an object of perception. It can hardly be seen by the physical eyes. Therefore? the Self is unmanifested. That which is seen by the eyes becomes an object of thought. As the Self cannot be perceived by the eyes? It is unthinkable. Milk when mixed with buttermilk changes its form. The Self cannot change Its form like milk. Hence? It is changeless and immutable. Therefore? thus understanding the Self? thou shouldst not mourn. Thou shouldst not think also that thou art their slayer and that they are killed by thee.
2.25 This (Self) is said to be unmanifested, unthinkable and unchangeable. Therefore, knowing This to be such, thou shouldst not grieve.
2.25 It is named the Unmanifest, the Unthinkable, the immutable. Wherefore, knowing the Spirit as such, thou hast no cause to grieve.
2.25 It is said that This is unmanifest; This is inconceivable; This is unchangeable. Therefore, having known This thus, you ougth not to grieve.
2.25 Moreover, ucyate, it is said that; ayam, This, the Self; is avyaktah, unmanifest, since, being beyond the ken of all the organs, It cannot be objectified. For this very reason, ayam, This; is acintyah, inconceivable. For anything that comes within the purview of the organs becomes the object of thought. But this Self is inconceivable becuase It is not an object of the organs. Hence, indeed, It is avikaryah, unchangeable. This Self does not change as milk does when mixed with curd, a curdling medium, etc. And It is chnageless owing to partlessness, for it is not seen that any non-composite thing is changeful. Not being subject to transformation, It is said to be changeless. Tasmat, therefore; vidivata, having known; enam, this one, the Self; evam, thus, as described; na arhasi, you ought not; anusocitum, to grieve, thinking, 'I am the slayer of these; these are killed by me.'
2.25. This is declared to be non-evident, imponderable, and unchangeable. Therefore understanding This as such you should not lament.
2.23-25 Nainam etc. upto arhasi. The weapons etc., that cause destruction, haldly do anything to This. For, being, by nature, exclusively pure Consciousness, remaining without support, having no component parts and being independent, this cannot be destroyed through the process of either assumption of an altogether different nature, or the destruction of the support, or the mutual separation of the component parts, or the rise of an opponent, and so on. Nor the act to going to another body is a new thing for This. For, even when This is [apparently] with a single body, This travels always to different body; for the body does not remain the same even for a moment. By understanding this Self to be as such, you should not lament This.
2.25 The self is not made manifest by those Pramanas (means of knowledge) by which objects susceptible of being cleft etc., are made manifest; hence It is unmanifest, being different in kind from objects susceptible to cleaving etc., It is inconceivable, being different in kind from all objects. As It does not possess the essential nature of any of them. It cannot even be conceived. Therefore, It is unchanging, incapable of modifications. So knowing this self to be possessed of the above mentioned alities, it does not become you to feel grief for Its sake.
2.25 This (self) is said to be unmanifest, inconceivable and unchanging. Therefore, knowing It thus, it does not befit you to grieve.
।।2.25।।तथा यह आत्मा बुद्धि आदि सब करणोंका विषय नहीं होनेके कारण व्यक्त नहीं होता ( जाना नहीं जा सकता ) इसलिये अव्यक्त है। इसीलिये यह अचिन्त्य है क्योंकि जो पदार्थ इन्द्रियगोचर होता है वही चिन्तनका विषय होता है। यह आत्मा इन्द्रियगोचर न होनेसे अचिन्त्य है। यह आत्मा अविकारी है अर्थात् जैसे दहीके जावन आदिसे दूध विकारी हो जाता है वैसे यह नहीं होता। तथा अवयवरहित ( निराकार ) होनेके कारण भी आत्मा अविक्रिय है क्योंकि कोई भी अवयवरहित ( निराकार ) पदार्थ विकारवान् नहीं देखा गया। अतः विकाररहित होनेके कारण यह आत्मा अविकारी कहा जाता है। सुतरां इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे समझकर तुझे यह शोक नहीं करना चाहिये कि मैं इनका मारनेवाला हूँ मुझसे ये मारे जाते हैं इत्यादि।
।।2.25।। सर्वकरणाविषयत्वात् न व्यज्यत इति अव्यक्तः अयम् आत्मा। अत एव अचिन्त्यः अयम्। यद्धि इन्द्रियगोचरः तत् चिन्ताविषयत्वमापद्यते। अयं त्वात्मा अनिन्द्रियगोचरत्वात् अचिन्त्यः। अत एव अविकार्यः यथा क्षीरं दध्यातञ्चनादिना विकारि न तथा अयमात्मा। निरवयवत्वाच्च अविक्रियः। न हि निरवयवं किञ्चित् विक्रियात्मकं दृष्टम्। अविक्रियत्वात् अविकार्यः अयम् आत्मा उच्यते। तस्मात् एवं यथोक्तप्रकारेण एनम् आत्मानं विदित्वा त्वं न अनुशोचितुमर्हसि हन्ताहमेषाम् मयैते हन्यन्त इति।।आत्मनः अनित्यत्वमभ्युपगम्य इदमुच्यते
।।2.25।।ननु ज्ञानिभिर्भगवान् दृश्यते चिन्त्यते च तत्कथमुच्यतेऽव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमिति तत्राऽऽह  अतएवे ति। अचिन्त्यशक्तित्वादेव। यथोक्तं अतोऽनन्ते न तथाहि लिङ्गम् इति।
।।2.25।।अत एवाव्यक्तादिरूपः।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।2.25।।
অব্যক্তোযমচিন্ত্যোযমবিকার্যোযমুচ্যতে৷ তস্মাদেবং বিদিত্বৈনং নানুশোচিতুমর্হসি৷৷2.25৷৷
অব্যক্তোযমচিন্ত্যোযমবিকার্যোযমুচ্যতে৷ তস্মাদেবং বিদিত্বৈনং নানুশোচিতুমর্হসি৷৷2.25৷৷
અવ્યક્તોયમચિન્ત્યોયમવિકાર્યોયમુચ્યતે। તસ્માદેવં વિદિત્વૈનં નાનુશોચિતુમર્હસિ।।2.25।।
ਅਵ੍ਯਕ੍ਤੋਯਮਚਿਨ੍ਤ੍ਯੋਯਮਵਿਕਾਰ੍ਯੋਯਮੁਚ੍ਯਤੇ। ਤਸ੍ਮਾਦੇਵਂ ਵਿਦਿਤ੍ਵੈਨਂ ਨਾਨੁਸ਼ੋਚਿਤੁਮਰ੍ਹਸਿ।।2.25।।
ಅವ್ಯಕ್ತೋಯಮಚಿನ್ತ್ಯೋಯಮವಿಕಾರ್ಯೋಯಮುಚ್ಯತೇ. ತಸ್ಮಾದೇವಂ ವಿದಿತ್ವೈನಂ ನಾನುಶೋಚಿತುಮರ್ಹಸಿ৷৷2.25৷৷
അവ്യക്തോയമചിന്ത്യോയമവികാര്യോയമുച്യതേ. തസ്മാദേവം വിദിത്വൈനം നാനുശോചിതുമര്ഹസി৷৷2.25৷৷
ଅବ୍ଯକ୍ତୋଯମଚିନ୍ତ୍ଯୋଯମବିକାର୍ଯୋଯମୁଚ୍ଯତେ| ତସ୍ମାଦେବଂ ବିଦିତ୍ବୈନଂ ନାନୁଶୋଚିତୁମର୍ହସି||2.25||
avyaktō.yamacintyō.yamavikāryō.yamucyatē. tasmādēvaṅ viditvainaṅ nānuśōcitumarhasi৷৷2.25৷৷
அவ்யக்தோயமசிந்த்யோயமவிகார்யோயமுச்யதே. தஸ்மாதேவஂ விதித்வைநஂ நாநுஷோசிதுமர்ஹஸி৷৷2.25৷৷
అవ్యక్తోయమచిన్త్యోయమవికార్యోయముచ్యతే. తస్మాదేవం విదిత్వైనం నానుశోచితుమర్హసి৷৷2.25৷৷
2.26
2
26
।।2.26।। हे महाबाहो ! अगर तुम इस देहीको नित्य पैदा होनेवाला अथवा नित्य मरनेवाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये।
।।2.26।। और यदि तुम आत्मा को नित्य जन्मने और नित्य मरने वाला मानो तो भी,  हे महाबाहो !  इस प्रकार शोक करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।।
।।2.26।। 26 और 27 इन दो श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण ने भौतिकवादी विचारकों का दृष्टिकोण केवल तर्क के लिए प्रस्तुत किया है। इस मत के अनुसार केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही ज्ञान का साधन है अर्थात् इन्द्रियों को जो ज्ञात है केवल वही सत्य है। इस प्रकार मानने पर उन्हें यह स्वीकार करना पड़ता है कि जीवन असंख्य जन्म और मृत्युओं की एक धारा या प्रवाह है। वस्तुयें निरन्तर उत्पन्न और नष्ट होती हैं और उनके मत के अनुसार यही जीवन है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि जन्ममृत्यु का यह निरन्तर प्रवाह ही जीवन हो तब भी हे शक्तिशाली अर्जुन तुमको शोक नहीं करना चाहिये। क्योंकि
।।2.26।। व्याख्या-- 'अथ चैनं ৷৷. शोचितुमर्हसि'-- भगवान् यहाँ पक्षान्तररमें  'अथ च'  और  'मन्यसे'  पद देकर कहते हैं कि यद्यपि सिद्धान्तकी और सच्ची बात यही है कि देही किसी भी कालमें जन्मने-मरनेवाला नहीं है (गीता 2। 20), तथापि अगर तुम सिद्धान्तसे बिलकुल विरुद्ध बात भी मान लो कि देही नित्य जन्मनेवाला और नित्य मरनेवाला है, तो भी तुम्हें शोक नहीं होना चाहिये। कारण कि जो जन्मेगा, वह मरेगा ही और जो मरेगा, वह जन्मेगा ही--इस नियमको कोई टाल नहीं सकता। अगर बीजको पृथ्वीमें बो दिया जाय, तो वह फूलकर अङ्कुर दे देता है और वही अङ्कुर क्रमशः बढ़कर वृक्षरूप हो जाता है। इसमें सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय कि क्या वह बीज एक क्षण भी एकरूपसे रहा? पृथ्वीमें वह पहले अपने कठोररूपको छोड़कर कोमलरूपमें हो गया, फिर कोमल-रूपको छोड़कर अङ्कुररूपमें हो गया, इसके बाद अङ्कुरूपको छोड़कर वृक्षरूपमें हो गया और अन्तमें आयु समाप्त होनेपर वह सूख गया। इस तरह बीज एक क्षण भी एकरूपसे नहीं रहा, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलता रहा। अगर बीज एक क्षण भी एकरूपसे रहता, तो वृक्षके सूखनेतककी क्रिया कैसे होती? उसने पहले रूपको छोड़ा--यह उसका मरना हुआ, और दूसरे रूपको धारण किया-- यह उसका जन्मना हुआ। इस तरह वह प्रतिक्षण ही जन्मता-मरता रहा। बीजकी ही तरह यह शरीर है। बहुत सूक्ष्मरूपसे वीर्यका जन्तु रजके साथ मिला। वह बढ़ते-बढ़ते बच्चेके रूपमें हो गया और फिर जन्म गया। जन्मके बाद वह बढ़ा, फिर घटा और अन्तमें मर गया। इस तरह शरीर एक क्षण भी एकरूपसे न रहकर बदलता रहा अर्थात् प्रतिक्षण जन्मता-मरता रहा। भगवान् कहते हैं कि अगर तुम शरीरकी तरह शरीरीको भी नित्य जन्मने-मरनेवाला मान लो, तो भी यह शोकका विषय नहीं हो सकता।
।।2.24 2.26।।नैनमित्यादि। नास्य नाशकारणं शस्त्रादि किंचित्करम्। चिदेकस्वभावस्य अनाश्रितस्य ( N K add निरपेक्षस्य after अनाश्रितस्य) निरंशस्य (N omits निरंशस्य S adds निरवयवस्य after निरंशस्य) स्वतन्त्रस्य स्वभावान्तरापत्त्याश्रयविनाशावयवविभाग विरोधिप्रादुर्भावादिक्रमेण (S प्रक्रमेण) नाशयितुमशक्यत्वात्। न च देहान्तरगमनमस्य अपूर्वम् देहान्वितोऽपि (N अपूर्वदेहान्नित्योऽपि) सततं देहान्तरं गच्छति तेन संबध्यते इत्यर्थः। देहस्य क्षणमात्रमप्यनवस्थायित्वात्। एवंभूतं विदित्वा एनमात्मानं शोचितुं नार्हसि।
।।2.26।। अथ नित्यजातं नित्यमृतं  देहम् एव  एनम्  आत्मानं  मनुषे  न देहातिरिक्तम् उक्तलक्षणं  तथापि  एवम् अतिमात्रं  शोचितुं न अर्हसि।  परिणामस्वभावस्य देहस्य उत्पत्तिविनाशयोः अवर्जनीयत्वात्।
।।2.26।।आत्मनो नित्यत्वस्य प्रागेव सिद्धत्वादुत्तरश्लोकानुपपत्तिरित्याशङ्क्याह  आत्मन इति।  अनित्यत्वमिति च्छेदः शाक्यानां लोकायतानां वा मतमिदमा परामृश्यते। श्रोतुरर्जुनस्य पूर्वोक्तमात्मयाथात्म्यं श्रुत्वापि तस्मिन्निर्धारणासिद्धेर्द्वयोर्मतयोरन्यतरमताभ्युपगमः शङ्कितस्तदर्थो निपातद्वयप्रयोग इत्याह  अथ   चेति।  प्रकृतस्यात्मनो नित्यत्वादिलक्षणस्य पुनःपुनर्जातत्वाभिमानो मानाभावादसंभवीत्याह  लोकेति।  नित्यजातत्वाभिनिवेशे पौनःपुन्येन मृतत्वाभिनिवेशो व्याहतः स्यादित्याशङ्क्याह  तथेति।  परकीयमतमनुभाषितमभ्युपेत्यअहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् इत्यादेस्तदीयशोकस्य निरवकाशत्वमित्याह  तथापीति।  एवमर्जुनस्य दृश्यमानमनुशोकप्रकारं दर्शयित्वा तस्य कर्तुमयोग्यत्वे हेतुमाह  जन्मवत इति।  जन्मवतो नाशो नाशवतश्च जन्मेत्येताववश्यंभाविनौ मिथो व्याप्ताविति योजना।
।।2.26।।अथेति पक्षान्तरे। लौकायतिकमते स्थित्वाऽऽत्मानं नित्यं सदा जातं मृतं मन्यसे तथापि न शोचितुमर्हसि।
।।2.26।।एवमात्मनो निर्विकारत्वेनाशोच्यत्वमुक्तम्। इदानीं विकारवत्त्वमभ्युपेत्यापि श्लोकद्वयेनाशोच्यत्वं प्रतिपादयति भगवान् तत्र आत्मा ज्ञानस्वरूपः प्रतिक्षणविनाशीत सौगताः देह एवात्मा स च स्थिरोऽप्यनुक्षणपरिणामी जायते नश्यति चेति प्रत्यक्षसिद्धमेवैतदिति लोकायतिकाः। देहातिरिक्तोऽपि देहेन सहैव जायते नश्यति चेत्यन्ये। सर्गाद्यकाल एवाकाशवज्जायते देहभेदेऽप्यनुवर्तमान एवाकल्पस्थायी नश्यति प्रलय इत्यपरे। नित्यएवात्मा जायते म्रियते चेति तार्किकाः। तथाहि प्रेत्यभावो जन्म सचापूर्वदेहेन्द्रियादिसंबन्धः। एवं मरणमपि पूर्वदेहेन्द्रियादिविच्छेदः। इदं चोभयं धर्माधर्मनिमित्तत्वात्तदाधारस्य नित्यस्यैव मुख्यम्। अनित्यस्य तु कृतहान्यकृताभ्यागमप्रसङ्गेन धर्माधर्माधारत्वानुपपत्तेर्न जन्ममरणे मुख्ये इति वदन्ति। नित्यस्याप्यात्मनः कर्णशष्कुलीजन्मनाप्याकाशस्येव देहजन्मना जन्म तन्नाशाच्च मरणं तदुभयमौपाधिकममुख्यमेवेत्यन्ये। तत्रानित्यत्वपक्षेऽपि शोच्यत्वमात्मनो निषेधति अथेति पक्षान्तरे। चोप्यर्थे। यदि दुर्बोधत्वादात्मवस्तुनोऽसकृच्छ्रवणेऽप्यवधारणासामर्थ्यान्मदुक्तपक्षानङ्गीकारेण पक्षान्तरमभ्युपैषि तत्राप्यनित्यत्वपक्षमेवाश्रित्य यद्येनमात्मानं नित्यजातं नित्यमृतं वा मन्यसे। वाशब्दाश्चार्थे। क्षणिकत्वपक्षे नित्यं प्रतिक्षणं पक्षान्तरे आवश्यकत्वान्नित्यं नियतं जातोऽयं मृतोऽयमिति लौकिकप्रत्ययवशेन यदि कल्पयसि तथापि हे महाबाहो पुरुषधौरेयेति सोपहासम्। कुमताभ्युपगमात्त्वय्येतादृशी कुदृष्टिर्न संभवतीति सानुकम्पं वा। एवंअहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् इत्यादि यथा शोचसि एवं प्रकारमनुशोकं कर्तुं स्वयमपि त्वं तादृश एव सन्नार्हसि योग्यो न भवसि क्षणिकत्वपक्षे देहात्मवादपक्षे देहेन सह जन्मविनाशपक्षे च जन्मान्तराभावेन पापभयासंभवात् पापभयेनैव खलु त्वमनुशोचसि तच्चैतादृशे दर्शने न संभवतीत्यर्थः। क्षणिकत्वपक्षे च दृष्टमपि दुःखं न संभवति बन्धुविनाशदर्शित्वाभावादित्यधिकम्। पक्षान्तरे दृष्टदुःखनिमित्तं शोकमभ्यनुज्ञातुमेवकारः। दृष्टदुःखनिमित्तशोकसंभवेऽप्यदृष्टदुःखनिमित्तः शोकः सर्वथा नोचित इत्यर्थः प्रथमश्लोकस्य।
।।2.26।।तदेवमात्मनो जन्मविनाशाभावान्न शोकः कार्य इत्युक्तम्। इदानीं देहेन सहात्मनो जन्म तद्विनाशेन च विनाशमङ्गीकृत्यापि शोको न कार्य इत्याह  अथ चेति।  अथ च यद्यप्येनमात्मानं नित्यं सर्वदा तत्तद्देहे जाते जातं मन्यसे तथा तद्देहे मृते मृतं मन्यसे पुण्यपापयोस्तत्फलभूतयोर्जन्ममरणयोरात्मगामित्वात् तथापि त्वं शोचितुं नार्हसि।
।।2.26।।एवं देहातिरिक्तात्माभ्युपगमे शोकनिमित्ताभाव उक्तः अथ नास्तिकदृष्ट्या देहात्मवादेऽपि शोकनिमित्तं नास्तीत्युच्यते अथ चेत्यादिना श्लोकत्रयेण।अथ इति पक्षान्तरारम्भार्थः प्रश्नार्थो वा अभ्युपगमार्थो वा। वाशब्दोऽपि विशेषणद्वयसमुच्चयार्थः।नित्यजातं नित्यमृतं नियतोत्पत्तिनाशमित्यर्थः। उत्तरश्लोके चेममर्थं प्रपञ्चयिष्यति। नहि नित्यस्य जातत्वमृतत्वसम्भवः। न च जन्ममरणक्रियास्वरूपं नित्यत्वेन विशेषयितुं शक्यम्। व्यस्तस्य नित्यशब्दस्यात्मविशेषणत्वभ्रमव्युदासायनित्यजातम् इतिवत्नित्यमृतम् इति समस्योक्तम्।देहमिति विशेषणादिसामर्थ्यफलितमुक्तम्।एवेति चशब्दार्थः। अवधारणफलितमाह न देहेति। पूर्वमात्मनो नाशाभावाच्छोकप्रसङ्ग एव नास्तीत्युक्तम् इदानीं देहतयाभिमतस्यात्मनो नाशे सत्यपि दुष्परिहरत्वान्महाबाहुस्त्वं नातीव शोचितुमर्हसीत्यभिप्रायेणएवं शब्दः। यद्वा पूर्वं देहातिरिक्तात्माभ्युपगमात्परलोकादिभयेनातिमात्रशोकोऽपि युज्यते। इदानीं तु संसारमोचकादिवन्महाबाहोस्तव अतिमात्रप्रीतिस्थाने कथमतिमात्रशोक इति भावः।त्वं महाबाहो इति शूरस्य ते स्वपरमरणोद्वेगो न युक्त इत्याकूतम्। प्रतिज्ञाया हेतुसाकाङ्क्षत्वादुत्तरश्लोकस्थं वा विशेषणद्वयसूचितं वा हेतुं निष्कृष्याह परिणामेति।
।।2.26।।एवं विद्वत्सिद्धान्तमुक्त्वाऽविद्वत्सि द्वा৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷ न्तेनापि शोकं कर्तुं नार्हसीत्याह अथ चेति। अथ च पक्षान्तरेण। एनं नित्यजातं तत्तद्देहेन सह जातं तस्मिन्मृते मृतं वा मन्यसे तथापि त्वं एनं शोचितुं नार्हसि। यतस्त्वं महाबाहुः।अत्रायमर्थः नित्यस्यास्य जन्ममरणज्ञानं तु देहाध्यासेनैव भवति। तथासति स्वबाहुबलादिनाशः क्व।
।।2.26।।एवं तत्त्वदृष्ट्या शोको नोचित इत्युक्तं इदानीं प्राकृतजनदृष्ट्यापि शोको नोचित इत्याह  अथचेति।  नित्यं नियमेन जातं नित्यजातमिति चार्वाकपक्षः। नित्यं सर्वदा जातमिति क्षणिकविज्ञानवादिपक्षः। नित्यश्चासौ अपूर्वदेहेन्द्रियसंबन्धाज्जातश्चेति तार्किकादिपक्षः। एवं नित्यं वा मन्यसे मृतमित्यपि योज्यम्। पक्षत्रयेऽपि शोको न युक्तः। महाबाहो इति युद्धार्थमुत्साहयति।
।।2.26।।प्रौढ्या आत्मनो नित्यत्वं वेदबाह्यवादिसिद्धान्तमभ्युपेत्यापि शोकमपाकरोति  अथेति।  अथशब्दः पक्षान्तराभ्युपगमार्थः। एनं लोकदृष्ट्या प्रत्यनेकशरीरोत्पत्तिं जातो जात इति मन्यसे तथातद्विनाशं नित्यं वा मन्यसे। उपलक्ष्णमेतद्भाष्यं नास्तिकोक्तपक्षान्तराणामपि। यद्वा इतरेषां मतानामत्रोपपादनमविवक्षितं प्रयोजनाभावात् अतस्थूलमताभ्युपगमेऽपि शोको न कार्यः किमुत वैदिकमताङ्गीकार इति फलितार्थस्य विवक्षित्वात्। महाबाहो इति संबोधयन् शोकमकृत्वा बाह्वोर्महत्त्वं सार्थकं कुर्विति सूचयति।
2.26 अथ now? च and? एनम् this (Self)? नित्यजातम् constantly born? नित्यम् constantly? वा or? मन्यसे thinkest? मृतम् dead? तथापि even then? त्वम् thou? महाबाहो mightyarmed? न not? एवम् thus? शोचितुम् to grieve? अर्हसि (thou) oughtest.Commentary Lord Krishna here? for the sake of argument? takes up the popular supposition. Granting that the Self is again and again born whenever a body comes into being? and again and again dies whenever the body dies? O mightyarmed (O Arjuna of great valour and strength)? thou shouldst not grieve thus? because birth is inevitable to want is dead and death is inevitable to what is born. This is the inexorable or unrelenting Law of Nature.
2.26 But even if thou thinkest of It as being constantly born and constantly dying, even then, O mighty-armed, thou shouldst not grieve.
2.26 Even if thou thinkest of It as constantly being born, constantly dying, even then, O Mighty Man, thou still hast no cause to grieve.
2.26 On the other hand, if you think this One is born continually or dies constantly, even then, O mighty-armed one, you ought not to grieve thus.
2.26 This (verse), 'On the other hand,' etc., is uttered assuming that the Self is transient. Atha ca, on the other hand, if ( conveys the sense of assumption ); following ordinary experience, manyase, you think; enam, this One, the Self under discussion; is nityajatam, born continually, becomes born with the birth of each of the numerous bodies; va, or; nityam, constantly; mrtam, dies, along with the death of each of these (bodies); tatha api, even then, even if the Self be of that nature; tvam, you; maha-baho, O mighty-armed one; na arhasi, ought not; socitum, to grieve; evam, thus, since that which is subject to birth will die, and that which is subject to death will be born; these two are inevitable.
2.26. On the other hand, if you deem This as being born constantly or as dying constantly, even then, O mighty-armed one, you should not lament This.
2.26 Atha va etc. On the other hand if you deam 'This' to be the body and to be born constantly,-because its stream does not stop-even then, there is no necessity to lament. Or, if, following the [Vainasika Buddhists' ?] doctrine of continuous decay of things, you deem This to be constantly dying, even then where is the need for lamenting ? If you, in the same manner, deem the Self to be constantly born or to be constantly dying on account of Its contacts and separations with bodies, even then it is unwarranted, on every account, on the part of the men of rational thinking, to lament. Otherwise this [division of] permanence and impermanence does not stand reasoning. For-
2.26 Besides, if you consider this self as identical with the body, which is constantly born and constantly dies - which is nothing other than these characteristics of the body mentioned above -, even then it does not become you to feel grief; because, birth and death are inevitable for the body, whose nature is modification.
2.26 Or if you hold this self as being constantly born and as constantly dying, even then, O mighty-armed one, it does not become you to feel grief.
।।2.26।।औपचारिक रूपसे आत्माकी अनित्यता स्वीकार करके यह कहते हैं अथ च ये दोनों अव्यय औपचारिक स्वीकृतिके बोधक हैं। यदि तू इस आत्माको सदा जन्मनेवाला अर्थात् लोकप्रसिद्धिके अनुसार अनेक शरीरोंकी प्रत्येक उत्पत्तिके साथसाथ उत्पन्न हुआ माने तथा उनके प्रत्येक विनाशके साथसाथ सदा नष्ट हुआ माने। तो भी अर्थात् ऐसे नित्य जन्मने और नित्य मरनेवाले आत्माके निमित्त भी हे महाबाहो तुझे इस प्रकार शोक करना उचित नहीं है क्योंकि जन्मनेवालेका मरण और मरनेवालेका जन्म यह दोनों अवश्य ही होनेवाले हैं।
।।2.26।। अथ च इति अभ्युपगमार्थः। एनं प्रकृतमात्मानं नित्यजातं लोकप्रसिद्ध्या प्रत्यनेकशरीरोत्पत्ति जातो जात इति मन्यसे तथा प्रतितत्तद्विनाशं नित्यं वा मन्यसे मृतं मृतो मृत इति तथापि तथाभावेऽपि आत्मनि त्वं महाबाहो न एवं शोचितुमर्हसि जन्मवतो नाशो नाशवतो जन्मश्चेत्येताववश्यंभाविनाविति।।तथा च सति
।।2.26।।ननु सर्वशङ्कोद्धारेणात्मनित्यत्वं प्रतिपाद्य तस्मादेवमित्युपसंहृतं तत्किंअथ च इति पुनरुच्यते इत्यतोऽङ्गीकृत्यात्मनित्यत्वं प्रकारान्तरेण शोकशङ्केयमित्याशयेनाह  अस्त्वेव मिति। युद्धे च मृतिर्नियता जनिमृतिनिमित्तं च दुःखं मदीयानां भविष्यतीति ममैव शोक इति शङ्काशेषः। अनेन पूर्वार्धोऽपि व्याख्यातः। अत एव  देह संयोगवियोगात्म कजनिमृती  इत्युक्तम्। अन्यथा देहसंयोगवियोगावित्येव वा जनिमृती इत्येव वा ब्रूयात्।स्त एव इत्यनेन नित्यशब्दोऽवधारणार्थ इत्युक्तं भवति। अस्त्वेवमात्मनो नित्यत्वमिति वदताआत्मनोऽनित्यत्वमभ्युपगम्येदमुच्यते इति मायावादिनो व्याख्यानं निरस्तं भवति।ध्रुवं जन्म मृतस्य च 2।27 इत्युत्तरवाक्यविरोधात्अव्यक्तादीनि 2।28 इत्यनेनापि विरोधात्।
।।2.26।।अस्त्वेवमात्मनो नित्यत्वम् तथापि देहसंयोगवियोगात्मकजनिमृती स्त एवेत्यत आह अथ चेति।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्। तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।2.26।।
অথ চৈনং নিত্যজাতং নিত্যং বা মন্যসে মৃতম্৷ তথাপি ত্বং মহাবাহো নৈবং শোচিতুমর্হসি৷৷2.26৷৷
অথ চৈনং নিত্যজাতং নিত্যং বা মন্যসে মৃতম্৷ তথাপি ত্বং মহাবাহো নৈবং শোচিতুমর্হসি৷৷2.26৷৷
અથ ચૈનં નિત્યજાતં નિત્યં વા મન્યસે મૃતમ્। તથાપિ ત્વં મહાબાહો નૈવં શોચિતુમર્હસિ।।2.26।।
ਅਥ ਚੈਨਂ ਨਿਤ੍ਯਜਾਤਂ ਨਿਤ੍ਯਂ ਵਾ ਮਨ੍ਯਸੇ ਮਰਿਤਮ੍। ਤਥਾਪਿ ਤ੍ਵਂ ਮਹਾਬਾਹੋ ਨੈਵਂ ਸ਼ੋਚਿਤੁਮਰ੍ਹਸਿ।।2.26।।
ಅಥ ಚೈನಂ ನಿತ್ಯಜಾತಂ ನಿತ್ಯಂ ವಾ ಮನ್ಯಸೇ ಮೃತಮ್. ತಥಾಪಿ ತ್ವಂ ಮಹಾಬಾಹೋ ನೈವಂ ಶೋಚಿತುಮರ್ಹಸಿ৷৷2.26৷৷
അഥ ചൈനം നിത്യജാതം നിത്യം വാ മന്യസേ മൃതമ്. തഥാപി ത്വം മഹാബാഹോ നൈവം ശോചിതുമര്ഹസി৷৷2.26৷৷
ଅଥ ଚୈନଂ ନିତ୍ଯଜାତଂ ନିତ୍ଯଂ ବା ମନ୍ଯସେ ମୃତମ୍| ତଥାପି ତ୍ବଂ ମହାବାହୋ ନୈବଂ ଶୋଚିତୁମର୍ହସି||2.26||
atha cainaṅ nityajātaṅ nityaṅ vā manyasē mṛtam. tathāpi tvaṅ mahābāhō naivaṅ śōcitumarhasi৷৷2.26৷৷
அத சைநஂ நித்யஜாதஂ நித்யஂ வா மந்யஸே மரிதம். ததாபி த்வஂ மஹாபாஹோ நைவஂ ஷோசிதுமர்ஹஸி৷৷2.26৷৷
అథ చైనం నిత్యజాతం నిత్యం వా మన్యసే మృతమ్. తథాపి త్వం మహాబాహో నైవం శోచితుమర్హసి৷৷2.26৷৷
2.27
2
27
।।2.27।। क्योंकि पैदा हुएकी जरूर मृत्यु होगी और मरे हुएका जरूर जन्म होगा। इस (जन्म-मरण-रूप परिवर्तन के प्रवाह) का परिहार अर्थात् निवारण नहीं हो सकता। अतः इस विषयमें तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
।।2.27।। जन्मने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है;  इसलिए जो अटल है अपरिहार्य - है उसके विषय में तुमको शोक नहीं करना चाहिये।।
।।2.27।। भौतिकवादी नास्तिक लोगों का मत है कि बिना किसी पूर्वापर कारण के वस्तुएँ उत्पन्न नहीं होती हैं। आस्तिक लोग देह से भिन्न जीव का अस्तित्व स्वीकार करते हुए कहते हैं कि एक ही जीव विकास की दृष्टि से अनेक शरीर धारण करता है जिससे वह इस दृश्य जगत् के पीछे जो परम सत्य है उनको पहचान सकें। दोनों ही प्रकार के विचारों में एक सामान्य बात यह है कि दोनों ही यह मानते हैं कि जीवन जीवनमृत्यु की एक शृंखला है।इस प्रकार जीवन के स्वरूप को समझ लेने पर निरन्तर होने वाले जन्म और मृत्यु पर किसी विवेकी पुरुष को शोक नहीं करना चाहिए। गर्मियों के दिनों में सूर्य के प्रखर ताप में बाहर खड़े होकर यदि कोई सूर्य के ताप और चमक की शिकायत करे तो वास्तव में यह मूढ़ता का लक्षण है। इसी प्रकार यदि जीवन को प्राप्त कर उसके परिवर्तनशील स्वभाव की कोई शिकायत करता है तो यह एक अक्षम्य मूढ़ता है।उपर्युक्त कारण से शोक करना अपने अज्ञान का ही परिचायक है। श्रीकृष्ण का जीवन तो आनन्द और उत्साह का संदेश देता है। उनका जीवनसंदेश है रुदन अज्ञान का लक्षण है और हँसना बुद्धिमत्ता का। हँसते रहो इन दो शब्दों में श्रीकृष्ण के उपदेश को बताया जा सकता है। इसी कारण जब वे अपने मित्र को शोकाकुल देखते है तो उसकी शोक और मोह से रक्षा करने के लिए और इस प्रकार उसके जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिए वे तत्पर हो जाते हैं।अब आगे के दस श्लोक सामान्य मनुष्य का दृष्टिकोण बताते हैं। भगवान् शंकराचार्य अपने भाष्य में कहते हैं कार्यकारण के सम्बन्ध से युक्त वस्तुओं के लिए शोक करना उचित नहीं क्योंकि
2.27।। व्याख्या-- 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च'-- पूर्वश्लोकके अनुसार अगर शरीरीको नित्य जन्मने और मरनेवाला भी मान लिया जाय, तो भी वह शोकका विषय नहीं हो सकता। कारण कि जिसका जन्म हो गया है, वह जरूर मरेगा और जो मर गया है, वह जरूर जन्मेगा।  'तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि'-- इसलिये कोई भी इस जन्म-मृत्युरूप प्रवाहका परिहार (निवारण) नहीं कर सकता; क्योंकि इसमें किसीका किञ्चिन्मात्र भी वश नहीं चलता। यह जन्म-मृत्युरूप प्रवाह तो अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकालतक चलता रहेगा। इस दृष्टिसे तुम्हारे लिये शोक करना उचित नहीं है। ये धृतराष्ट्रके पुत्र जन्में हैं, तो जरूर मरेंगे। तुम्हारे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे तुम उनको बचा सको। जो मर जायेंगे, वे जरूर जन्मेंगे। उनको भी तुम रोक नहीं सकते। फिर शोक किस बातका?
।।2.27।।अथ वैनमिति। अथाप्येनं देहं मन्यसे नित्यजातं प्रवाहस्याविनाशात् तथापि न शोच्यता। क्षणिकप्रक्रियया वा नित्यविनाशिनम् तथापि का शोच्यता एवं यद्यात्मनः तत्तद्देहयोगवियोगाभ्यां (S K तद्देहयोग (K संयोग) नित्यजातत्वं नित्यमृतत्वं वा मन्यसे तथापि सर्वथा शोचनं प्रामाणिकानामयुक्तम् ( N प्राकरणि )।
।।2.27।।उत्पन्नस्य विनाशो  ध्रुवः  अवर्जनीय उपलभ्यते। तथा विनष्टस्य अपि  जन्म  अवर्जनीयम्।कथम् इदम् उपलभ्यते विनष्टस्य उत्पत्तिः इति।सत एव उत्पत्त्युपलब्धेः असतः च अनुपलब्धेः। उत्पत्तिविनाशादयः सतो द्रव्यस्य अवस्थाविशेषाः। तन्तुप्रभृतीनि द्रव्याणि सन्ति एव रचनाविशेषयुक्तानि पटादीनि उच्यन्ते।असत्कार्यवादिना अपि एतावद् एव उपलभ्यते। न हि तत्र तन्तुसंस्थानविशेषातिरेकेण द्रव्यान्तरं प्रतीयते।कारकव्यापारनामान्तरभजनव्यवहारविशेषाणाम् एतावता एव उपपत्तेः न च द्रव्यान्तरकल्पना युक्ता। अत उत्पत्तिविनाशादयः सतो द्रव्यस्य अवस्थाविशेषाः।उत्पत्त्याख्याम् अवस्थाम् उपयातस्य द्रव्यस्य तद्विरोध्यवस्थान्तरप्राप्तिः विनाश इति उच्यते।मृद्द्रव्यस्य पिण्डत्वघटत्वकपालत्वचूर्णत्वादिवत् परिणामिद्रव्यस्य परिणामपरम्परा अवर्जनीया। तत्र पूर्वावस्थस्य द्रव्यस्य उत्तरावस्थाप्राप्तिः विनाशः सा एव तदवस्थस्य उत्पत्तिः। एवम् उत्पत्तिविनाशाख्यपरिणामपरम्परा परिणामिनो द्रव्यस्य अपरिहार्या इति  न  तत्र  शोचितुम् अर्हसि।सतो द्रव्यस्य पूर्वावस्थाविरोध्यवस्थान्तरप्राप्तिदर्शनेन यः अल्पीयान् शोकः सोऽपि मनुष्यादिभूतेषु न संभवति इत्याह।
।।2.27।।तयोरवश्यंभावित्वे सत्यनु शोकस्याकर्तव्यत्वे हेत्वन्तरमाह  तथाचेति।
।।2.27।।कुत इत्यत आह। हि यतः। जातस्येति। मृत्युर्ध्रुवो मृतस्य च ध्रुवमवर्जनीयं जन्म। एवमवर्जनीयेऽर्थे न शोचितुमर्हसि।
।।2.27।।युद्ध्यस्य नन्वात्मन आभूतसंप्लवस्थायित्वपक्षे नित्यत्वपक्षे दृष्टादृष्टदुःखसंभवात्तद्भयेन शोचामीत्यत आह द्वितीयश्लोकेन हि यस्मात् जातस्य स्वकृतधर्माधर्मादिवशाल्लब्धशरीरेन्द्रियसंबन्धनस्य स्थिरस्यात्मनो ध्रुव आवश्यको मृत्युस्तच्छरीरादिविच्छेदस्तदारम्भककर्मक्षयनिमित्तः। संयोगस्य वियोगावसानत्वात्। तथा ध्रुवं जन्म मृतस्य च प्राग्देहकृतकर्मफलोपभोगार्थं सानुशयस्यैव प्रस्तुतत्वान्न जीवन्मुक्तेर्व्यभिचारः। तस्मादेवमपरिहार्ये परिहर्तुमशक्येऽस्मिञ्जन्ममरणलक्षणेऽर्थे विषये त्वमेवं विद्वान्न शोचितुमर्हसि। तथाच वक्ष्यतिऋतेऽपि त्वां नभविष्यन्ति सर्वे इति। यदि हि त्वया युद्धेनाहन्यमाना एते जीवेयुरेव तदा युद्धाय शोकस्तवोचितः स्यात् एते तु कर्मक्षयात्स्वयमेव म्रियन्त इति तत्परिहारासमर्थस्य तव दृष्टदुःखनिमित्तः शोको नोचित इति भावः। एवमदृष्टदुःखनिमित्तेपि शोकेतस्मादपरिहार्येऽर्थे इत्येवोत्तरम्। युद्धाख्यं हि कर्म क्षत्रियस्य नियतमग्निहोत्रादिवत्। तच्चयुध संप्रहारे इत्यस्माद्धातोर्निष्पन्नं शत्रुप्राणवियोगानुकूलशस्त्रप्रहाररूपं विहितत्वादग्नीषोमीयादिहिंसावन्न प्रत्यवायजनकम्। तथाच गौतमः स्मरतिन दोषो हिंसायामाहवेऽन्यत्र व्यश्वासारथ्यनायुधकृताञ्जलिप्रकीर्णकेशपराङ्भुखोपविष्टस्थलवृक्षारूढदूतगोब्राह्मणवादिभ्यः इति। ब्राह्मणग्रहणं चात्रायोद्धृब्राह्मणविषयम्। गवादिप्रायपाठादिति स्थितम्। एतच्च सर्वंस्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्यत्र स्पष्टीकरिष्यते। तथाच युद्धलक्षणेऽर्थेऽग्निहोत्रादिवद्विहितत्वादपरिहार्ये परिहर्तुमशक्ये तदकरणे प्रत्यवायप्रसङ्गात् त्वमदृष्टदुःखभयेन शोचितुं नार्हसीति पूर्ववत्। यदि तु युद्धाख्यं कर्म काम्यमेवय आहवेषु युध्यन्ते भूम्यर्थमपराङ्मुखाः। अकूटैरायुधैर्यान्ति ते स्वर्गं योगिनो यथा।। इति याज्ञवल्क्यवचनात्हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् इति भगवद्वचनाच्च तदापि प्रारब्धस्य काम्यस्याप्यवश्यपरिसमापनीयत्यवे नित्यतुल्यत्वात् त्वयाच युद्धस्य प्रारब्धत्वादपरिहार्यत्वं तुल्यमेव। अथवा आत्मनित्यत्वपक्ष एव श्लोकद्वयं अर्जुनस्य परमास्तिकस्य वेदबाह्यमताभ्युपगमासंभवात्। अक्षरयोजना तु नित्यश्चासौ देहेन्द्रियादिसंबन्धवशाज्जातश्चेति। नित्यजातस्तमेनमात्मानं नित्यमपि सन्तं जातं चेन्मन्यसे तथा नित्यमपि सन्तं मृतं चेन्मन्यसे तथापि त्वं नानुशोचितुमर्हसीति प्रतिज्ञाय हेतुमाह जातस्य हीत्यादिना। नित्यस्य जातत्वं मृतत्वं च प्राग्व्याख्यातम्। स्पष्टमन्यम्। भाष्यमप्यस्मिन्पक्षे योजनीयम्।
।।2.27।।कुत इत्यत आह  जातस्येति।  हि यस्माज्जातस्य स्वारम्भककर्मक्षये मृत्युर्धुवो निश्चितः। मृतस्य तत्तद्देहकृतेन कर्मणा जन्मापि ध्रुवमेव। तत्तस्मादेवमपरिहार्येऽर्थेऽवश्यंभाविनि जन्ममरणलक्षणेऽर्थे त्वं विद्वाञ्शोचितुं नार्हसि। योग्यो न भवसीत्यर्थः।
।।2.27।।ध्रुवमृत्युमृतादिशब्दानां अर्थान्तरव्युदासाय प्रकृतोपपादकंजातस्य इत्यादिकं व्याख्याति उत्पन्नस्येत्यादि।उपलभ्यते इतिहिशब्दसूचितप्रमाणप्रसिद्धिरुच्यते। हेतुपरत्वेऽपि हिशब्दस्यार्थात्तत्सिद्धिः। मृतस्य जन्मव्याघाताभिप्रायेण चोदयति कथमिति। यदि केवलमौपदेशिकोऽयमर्थः स्यात् तथाऽभ्युपगम्येत। अत्र तुजातस्य हि इति लोकसिद्धानुवादेनोच्यते। लोके च प्रागसत एवोत्पत्तिर्दृष्टा। न तु कदाचिदुत्पद्य निरुद्धस्य। यदि च नष्टं पुनर्जायेत तदा दुःखात्यन्तनिवृत्तेरशक्यत्वादपवर्गशास्त्रमखिलमप्रमाणं स्यात् व्याधिशत्रुविजयादिप्रयासश्च निरर्थकः स्यात्। पुत्रादिमरणे च न शोचनीयम् अतो नेदमुपपत्तिमदिति भावः। परिहरति सत एवेति। नन्विदमुभयमप्ययुक्तम् सत उत्पत्तिनैरपेक्ष्यात् प्रागसतामेव च घटादीनामुत्पत्तिदर्शनादित्याशङ्क्याह उत्पत्तीति। निदर्शयति तन्तुप्रभृतीनि हीति। अन्त्यतन्तुसंयोगात्पूर्वं दीर्घैकतन्त्वारब्धे च त्वयाऽप्येवमिष्यत इति भावः। उक्तं च नारायणाचार्यैः एकस्माद्दीर्घतमात्तन्तोः पटादेरुत्पत्तिर्दृष्टा नी.मा. इति। असत्कार्यत्वादिनं प्रति किमवयवीति कश्चिदवयवसमुदायातिरिक्तः पदार्थो दृश्यते कल्प्यते वेति विकल्पमभिप्रेत्य प्रथमकल्पे दूषणमाह असदिति।एतावत् रचनाविशेषयुक्तत्वमात्रमित्यर्थः।वादिनोपलभ्यत इति पदाभ्यां वाङ्मनसविसंवादमभिप्रैति। एतावदेवेत्युक्तमर्थं प्रपञ्चयति नहीति। द्वितीयकल्पं दूषयति कारकेति। यदि साङ्ख्यवद्द्वयमपि सर्वस्याप्यनागन्तुकत्वं वदामः तदा भवेदेव कारकव्यापारादिनैरर्थक्यादिदोषः। वयं हि द्रव्याणां सर्वेषामनागन्तुकत्वं तदवस्थानां चागन्तुकत्वं ब्रूमः। घटादिवत् प्रदीपादिष्वपि अवस्थान्तरापत्तिरनुमीयते। चूर्णितविशीर्णघटस्येव तु सूक्ष्मावस्थाप्राप्त्यानुपलम्भः। अतो न कश्चिद्दोष इति भावः। व्यवहारविशेषोऽत्र उदकाहरणादिरभि मतः नामान्तरभजनस्य पृथगुक्तत्वात्। एतेन कारणसङ्ख्यापरिमाणादिबुद्धिसंस्थानादिभेदः पूर्वत्वोत्तरत्वनष्टत्वानष्टत्वादिरपि निर्व्यूढः। द्रव्यान्तरत्वकल्पनायां गुरुत्वान्तरकार्यादिप्रसङ्गस्य अवयवावयविगुरुत्वयोरन्यतरप्रतिबन्धादिना निर्वाहश्च अतिक्लिष्ट इत्यभइप्रायेणाह न च द्रव्यान्तरेति। आहुश्च यदि द्रव्यान्तरं कार्यं कारणेभ्यो भवेदिह। गुरुत्वमतिरिच्येत कार्ये तच्च न दृश्यते। द्विपलं घट इत्येतद्व्यपदेशो न युज्यते म.भा. इति। निगमयति अत इति। तावत एवोपलम्भादन्यस्यानुपलम्भात् कल्पकानां चान्यथैवोपपन्नत्वादित्यर्थः।ननु भवतु नामोत्पत्तिर्द्रव्यस्यावस्थाविशेषः विनाशस्त्वभावरूपः तद्विरुद्धश्च कथं तदवस्थेत्युच्यत इत्यत्राह उत्पत्त्याख्यामिति। अयमभिप्रायः न तावदभावाख्यं किञ्चित्पदार्थान्तरं विविच्योपलभामहे नापि नास्तिव्यवहारादिना कल्पयितुं युक्तम् उभयसम्प्रतिपन्नावस्थान्तरादिनैव निर्वाहात्। न च श्यामावस्थाप्रहाणेन रक्तावस्थापरिग्रहे घटनाशव्यवहारप्रसङ्गः कपालाद्यवस्थावत् रक्तावस्थाया घटावस्थाविरोधित्वस्य भवताप्यनभ्युपगमात्। न च भावत्वेनैकराश्यनुप्रविष्टानां विरोधो युज्यत इति वाच्यम् तेजस्तिमिरशीतोष्णतृणदहनादीनां भावानामेव सहानवस्थानवध्यघातुकत्वलक्षणविरोधदर्शनात् अभावाभावस्य च भावत्वस्वीकारात्। अन्यथा पदार्थत्वेनैकराशेरभावस्यापि भावविरोधो न कथञ्चिदुपपद्यते। तदेवं विरोध्युत्तरावस्था प्रध्वंसः। विरोधिपूर्वावस्था प्रागभावः। वस्त्वन्तरगतासाधारणविरोधिधर्म एव समानाधिकरणव्यधिकरणनिषेधभेदेनान्योन्याभावोऽत्यन्ताभावश्च। देशकालसम्भेदविशेषस्तत्कृतावस्थाविशेषो वा संसर्गाभावः। प्रतियोग्यादिभेदाच्च पितृत्वपुत्रत्वादिव्यहारवत् अस्तिनास्तीत्यादिव्यवहारवैचित्र्यमिति।ननु यदि कपालत्वाद्युत्तरावस्थाप्राप्तिर्विनाशः तर्हि कपालविनाशे घटविनाश एव विनष्टः स्यादिति चूर्णावस्थायां घटोन्मज्जनप्रसङ्गः यदि च पिण्डावस्था घटप्रागभावः तदा पिण्डीकारात्पूर्वं प्रागभावाभावाद्धटसिद्धिर्घटात्यन्ताभावो वा स्यादित्यत्राह मृद्द्रव्यस्येति। अयमभिप्रायः न तावदेकैव कपालत्वावस्था घटत्वावस्थाविरोधिनी। चूर्णत्वाद्यवस्थानामपि तद्विरोधित्वादभावरूपं प्रध्वंसमभ्युपगच्छतोऽपि विरोध्यवस्थापरम्परा अवर्जनीया। ततः कपालत्वचूर्णत्वादीनां विरोध्युत्तरावस्थात्वाविशेषात्तासु सर्वास्ववस्थासु घटविनाशाव्यवहारोपपत्तिः। एवं प्रागभावेऽपि विरोधिपूर्वावस्थापरम्परया निर्वाहः। एवमनभ्युपगमे व्यतिरिक्ताभावपक्षेऽप्युक्तदोषो दुर्वारः। तत्रापि हि यदि घटाख्यं द्रव्यं घटप्रागभावनिवृत्तिः तर्हि घटनिवृत्तौ घटप्रागभावनिवृत्तिरेव निवृत्तेति पुनः घटप्रागभावोन्मज्जनप्रसङ्गः। तथाच सति मध्ये प्रागभावस्य विच्छेदायोगाद्धट एव न स्यात्। प्रागभावस्य च सामग्रीसम्पत्तौ भावशिरस्कत्वान्नष्टाया एव घटव्यक्तेः पुनरुन्मज्जनं स्यात्। एवं यदि प्रध्वंसस्य घट एव प्रागभावस्तदा घटोत्पत्तेः पूर्वं प्रध्वंसप्रागभावाभावात्पिण्डावस्थायां घटप्रध्वंसः स्यात्। तथा च सति घट एव कदाचिदपि नोत्पद्येत स्वप्रध्वंसे वर्तमाने स्वोत्पत्त्ययोगात् अन्यथा कपालाद्यवस्थायामपि तदुन्मज्जनप्रसङ्गात्। एवं च पिण्डावस्थायां घटविनाशप्रसङ्गे विनाशस्य भावोत्तरकालीनत्वात्पिण्डात्प्रागेव घटसिद्धिः स्यात्। ततश्च तत्सिद्धिनाशकालयोर्द्वयोरपि कारकव्यापारानर्थक्यं स्यादित्यादि दूषणशतं देयम्। अतः सुष्ठूक्तंविरोध्यवस्थापरम्परैव प्रागभावप्रध्वंसौ इति।पिण्डत्वघटत्वेत्यादिनामही घटत्वं घटतः कपालिका कपालिकाचूर्णरजस्ततोऽणुः वि.पु.2।12।42 इति भगवत्पराशरवचनं स्मारयति। तत्र हि प्रकरणे नास्त्यवस्त्वसत्यादिशब्दानामवस्थान्तरापत्तिनिबन्धनत्वं स्पष्टम्। व्याख्यातं च शारीरकभाष्ये।नन्वेवमपिजातस्य हि ध्रुवो मृत्युः इत्येतावदुपद्यताम् उत्पन्नस्य घटादेर्नाशदर्शनात्।ध्रुवं जन्म मृतस्य च इति तु नोपपद्यते नष्टस्य घटादेः पुनरुत्पत्त्यदर्शनात् न च पुनरुत्पत्तिरस्य शोकनिमित्तं येन तस्यावर्जनीयत्वं प्रतिपाद्येतेत्यत्राह तत्रेति। अयमभिप्रायः यदवस्थस्य द्रव्यस्य विनाशः न तदवस्थस्यैव पुनरुत्पत्तिरुच्यते किन्तु तस्यैव द्रव्यस्यावस्थान्तरविशिष्टस्य। एकमेव हि द्रव्यं घटाकारेण नष्टं कापालाकारेणोत्पद्यते। एकैव हि कपालावस्था घटावस्थस्य द्रव्यस्य नाशः कपालावस्थस्य तस्यैवोत्पत्तिः। अत एवोपपन्नं नष्टस्यैवोत्पत्तिरिति।सैव उत्तरावस्थाप्राप्तिरित्यर्थः। अत्र प्राप्तिशब्देन प्रथमक्षणागमस्य विवक्षितत्वादुत्तरेषु क्षणेषूत्पत्तिशब्दप्रयोगाभाव उपपन्न इति सूचितम्। एवं सति पुनरुत्पत्तेरवर्जनीयत्वप्रतिपादनं च नाशावर्जनीयत्वप्रतिपादनमेव। तत एव शोकापनोदनार्थताऽपि युक्ता। यद्वा यदीदमचिद्द्रव्यं नष्टमिति शोचसि तर्हि तदेव हि द्रव्यं तदुत्तरावस्थं तथोत्पन्नमिति किं न प्रीयस इति भावः। एकस्यैव परिणामस्य निरूपणभेदादुत्पत्त्याख्या विनाशाख्या चेतिउत्पत्तिविनाशाख्यपरिणामेत्युक्तम्। एवं प्रलयापेक्षया सृष्टेर्विनाशत्वेऽपि पुरुषार्थयोगायोगादिविवक्षया व्यवहारव्यवस्था।परिणामिन इति अपरिहार्यत्वकारणं तत्स्वभावत्वमुक्तम्। इतिशब्देनापरिहार्यपदं हेत्वभिप्रायमिति व्यञ्जयति।
।।2.27।।ननु स्वसमानाभावान्निर्बले तु शोकः कर्तव्य एवेति चेत्तत्राह जातस्येति। जातस्य देहस्य मृत्युर्ध्रुवः मृतस्य ध्रुवं जन्म भवतीत्यर्थः।अत्रायमर्थः जातस्य गृहीतजन्मनो येन मृत्युर्निर्मितस्तस्य तेनैव मृत्युर्ध्रुवो निश्चितस्तस्माद्येषां मृत्युस्त्वयैव निर्मितः स च तथैव भविष्यति। तस्माद्यद्यथा ईश्वरनिर्मितं तत्तथैव भविष्यतीत्यपरिहार्ये सर्वथा भाव्येऽर्थे त्वं न शोचितुं योग्योऽसीत्यर्थः। हीति युक्तोऽयमर्थः। ईश्वरकृतं कोऽन्यथा कर्तुं समर्थः।
।।2.27।।शोचितुं नार्हसीत्युक्तं तत्र हेतुमाह  जातस्येति।  ध्रुवोऽपरिहार्यः मृत्युर्मरणम्। अपरिहार्ये अर्थे मरणाख्ये त्वदुद्योगं विनापि अवश्यंभाविनि विषये न त्वं शोचितुमर्हसि। वक्ष्यति चमयैवैते निहताः पूर्वमेव इति।
।।2.27।।अस्मिन्पक्षे शोकाभावं स्फुटयति  जातस्येति।  नन्वात्मन आभूतसंप्लवस्थायित्वपक्षेनित्यत्वपक्षे च दृष्टादृष्टदुःखसंभवात्तद्भयेन शोचामीत्यत आहेति तु यथाश्रुततमूलाननुगुणत्वादाचार्यैर्नावतरितं तस्मादपरिहार्येऽवश्यंभाविनि जन्ममरणलक्षणेऽर्थे यत्त्वेवं अदृष्टनिमित्तेऽपि शोके तस्मादपरिहार्येऽर्थे इत्येवोत्तरम्। युद्धाख्यं हि कर्मक्षत्रियस्यापरिहार्यमित्यादि तदुपेक्ष्यम् प्रकरणविरोधात् जन्ममरणलक्षणस्यार्थस्य ध्रुवताया एव पूर्वार्धे प्रस्तुतत्वात्। यत्तु अथवा आत्मनित्यत्वपक्ष एव श्लोकद्वयमर्जुनस्य परमास्तिकस्य वेदबाह्यमताभ्युपगमासंभवात्। अक्षरयोजना तु नित्यश्चासौ देहेन्द्रियसंबन्धवशाज्जातश्चेति नित्यजातस्तमेनमात्मानं नित्यमपि सन्तं जातं चेन्मन्यसे तथा नित्यमपि सन्तं मृतं चेन्मन्यसे तथापि त्वं नामुशोचितुमर्हसि इति प्रतिज्ञाय हेतुमाह जातस्य हीत्यादिना। मृत्युः शरीरादिविच्छेदः तत्संयोगो जन्म। भाष्यमप्यस्मिन्पक्षे योजनीयमिति तद्विचार्यम्। समासैकदेशस्य क्रियायामन्वयायोगात् प्रयोजनशून्यक्लिष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वाच्च। ननूक्तमेवार्जुनस्य परमास्तिकस्य वेदबाह्यताभ्युपगमासंभवरुपं प्रयोजनमितिचेन्न। भगवतैवाभ्युपगभ्य कैमुत्यन्यायः प्रदर्शित इत्युक्तत्वात्। तथाच परमास्तिकं श्रीरामचन्द्रं प्रति भगवतो वसिष्ठस्य वचनंत्वं चेदबभूविथ पुरा तथेदानीं भविष्यसि। अद्य चेह स्थितोऽसीति ज्ञातवानसि निश्चयम् तदानन्तरगानन्यान्प्राणादीन्निकटस्थितान्। बन्धूनतीतान्सुबहून्कस्मात्त्वं नानुशोचसि पूर्वमन्यस्तथेदानीं बभूविथ भविष्यसि। यदि राम तथापि त्वं सद्रूपः किं विमुह्यसि पुरा भूत्वाथ भूत्वा च भूयश्चेन्न भविष्यसि। तथापि क्षीणसंसारः किमर्थमनुशोचसि तस्मान्न दुःखिता युक्ता प्राकृते जागते भ्रमे। तथैव मुदिता युक्ता युक्तं कार्यानुवर्तनम् इति। विवृतं चेदं टीकाकारैः। एवमात्मनोऽसङ्गत्वाद्वितीयत्वदर्शने शोकसंभव उक्तः। इदानीमस्त्वासङगी तथापि स किं नित्य उत क्षणिक उत प्रागभाववद्धटादिवद्वा कालान्तरेण नश्वरः। सर्वेष्वपि पक्षेषु बन्धुशोको न युक्त इति प्रौढ्या समाधित्सुराद्ये कल्पे तावदाह त्वं चेदिति। इति यदि निश्चयं ज्ञातवानसि बन्धून्प्राणादीनिवेत्यध्याहारः विनिगमनाविरहात्सर्वशोकाशक्तेः क्वापि शोको न युक्त इति भावः द्वितीयेऽप्याह पूर्वमिति। इदानीमन्यः अग्रेऽप्यन्यः क्षणिकमात्मानं यदि जानासि तथापि किं सद्रूपमालम्ब्य विमुह्यसि द्वितीयक्षणे शोच्यस्य शोचितुश्चासत्त्वेन शोकावसराभावादित्यर्थः तृतीयेऽप्याह पुरेति। तथाप्यात्मनाशादेव क्षीणसंसारः यदात्मनो जन्मादिसङ्गित्वेन शोको न युक्तस्तदा किंवाच्यमसङ्गोदासीनकूटस्थस्वप्रकाशपूर्णानन्दैकरसत्वे स न युक्त इत्याशयेनोपसंहरति तस्मादिति। मुदिता सहजसंतोषवृत्तिः इति। यत्तु भाष्यमपीत्यादि तदपि न। आत्मनो नित्यत्वमभ्युपगम्येदमुच्यत इति भाष्यस्यास्मिन्पक्षे योजनाया अशक्यत्वात् नित्यत्वच्छेदेऽभ्युपगम्येति न संगच्छते नित्यत्वस्य स्वसिद्धान्तत्वात्। देहादिसंबन्धेनानित्यत्वमिति शेषपूरणे तु जातत्वादिकमभ्युपगम्येति वक्तव्यं स्यात्। अथचेत्यभ्युपगमार्थः। एनं प्रकृतमात्मानं नित्यजातं लोकप्रसिद्य्धा प्रत्येनकशरीरोत्पत्तिं जातो जात इति वा मन्यसे तथा प्रतिताद्विनाशं नित्यं वा मन्यसे मृतो मृत इति भाष्यस्य जातादौ नित्यशब्दान्वयप्रतिपादनपरस्योक्तपक्षे योजयितुमशक्यत्वाच्चेति दिक्।
2.27 जातस्य of the born? हि for? ध्रुवः certain? मृत्युः death? ध्रुवम् certain? जन्म birth? मृतस्य of the dead? च and? तस्मात् therefore? अपरिहार्ये inevritable? अर्थे in matter? न not? त्वम् thou? शोचितुम् to grieve? अर्हसि (thou) oughtest.Commentary Birth is sure to happen to that which is dead death is sure to happen to what which is born. Birth and death are certainly unavoidable. Therefore? you should not grieve over an inevitable matter.
2.27 For certain is death for the born, and certain is birth for the dead; therefore, over the inevitable thou shouldst not grieve.
2.27 For death is as sure for that which is born, as birth is for that which is dead. Therefore grieve not for what is inevitable.
2.27 For death of anyone born is certain, and of the dead (re-) birth is a certainly. Therefore you ought not to grieve over an inevitable fact.
2.27 This being so, 'death of anyone born', etc. Hi, for; mrtyuh, death; jatasya, of anyone born; dhruvah, is certain; is without exception; ca, and mrtasya, of the dead; janmah, (re-) birth; is dhruvam, a certainly. Tasmat, therefore, this fact, viz birth and death, is inevitable. With regard to that (fact), apariharye, over an enevitable; arthe, fact; tvam, you; na arhasi, ought not; socitum, to grieve.
2.27. Death is certain indeed for what is born; and birth is certain for what is dead. Therefore you should not lament over a thing that is unavoidable.
2.27 Jatasya etc. Destruction comes after birth, and after the destruction comes birth. Thus, this series of birth-and-death is like a circle. Hence to what extent is this to be lamented for ? Furthermore-
2.27 For what has originated, destruction is certain - it is seen to be inevitable. Similarly what has perished will inevitably originate. How should this be understood - that there is origination for that (entity)which has perished? It is seen that an existing entity only can originate and not a non-existent one. Origination, annihilation etc., are merely particular states of an existent entity. Now thread etc., do really exist. When arranged in a particular way, they are called clothes etc. It is seen that even those who uphold the doctrine that the effect is a new entity (Asatkarya-vadins) will admit this much that no new entity over and above the particular arrangement of threads is seen. It is not tenable to hold that this is the coming into being of a new entity, since, by the process of manufacture there is only attainment of a new name and special functions. No new entity emerges. Origination, annihilation etc., are thus particular stages of an existent entity. With regard to an entity which has entered into a stage known as origination, its entry into the opposite condition is called annihilation. Of an evolving entity, a seqence of evolutionary stages is inevitable. For instance, clay becomes a lump, jug, a potsherd, and (finally) powder. Here, what is called annihilation is the attainment of a succeeding stage by an entity which existed previously in a preceding stage. And this annihilation itself is called birth in that stage. Thus, the seence called birth and annihilation being inevitable for an evolving entity, it is not worthy of you to grieve. Now Sri Krsna says that not even the slightest grief arising from seeing an entity passing from a previous existing stage to an opposite stage, is justifiable in regard to human beings etc.
2.27 For, death is certain for the born, and re-birth is certain for the dead; therefore you should not feel grief for what is inevitable.
।।2.27।।ऐसा होनेसे जिसने जन्म लिया है उसका मरण ध्रुव निश्चित है और जो मर गया है उसका जन्म ध्रुव निश्चित है इसलिये यह जन्ममरणरूप भाव अपरिहार्य है अर्थात् किसी प्रकार भी इसका प्रतिकार नहीं किया जा सकता इस अपरिहार्य विषयके निमित्त तुझे शोक करना उचित नहीं।
।।2.27।। जातस्य हि लब्धजन्मनः ध्रुवः अव्यभिचारी मृत्युः मरणं ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्योऽयं जन्ममरणलक्षणोऽर्थः। तस्मिन्नपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।कार्यकरणसंघातात्मकान्यपि भूतान्युद्दिश्य शोको न युक्तः कर्तुम् यतः
।।2.27।।अनेनैव अभिप्रायेण एतदेकवाक्यतयोत्तरं श्लोकद्वयं क्रमेणावतारयति  कुत  इति। शङ्कामनूद्य तथापि न शोचितुमर्हसीत्युक्तम् तत्र को हेतुरित्यर्थः।
।।2.27।।कुतोऽशोकः नियतत्वदित्याह जातस्येति।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।।
জাতস্য হি ধ্রুবো মৃত্যুর্ধ্রুবং জন্ম মৃতস্য চ৷ তস্মাদপরিহার্যের্থে ন ত্বং শোচিতুমর্হসি৷৷2.27৷৷
জাতস্য হি ধ্রুবো মৃত্যুর্ধ্রুবং জন্ম মৃতস্য চ৷ তস্মাদপরিহার্যের্থে ন ত্বং শোচিতুমর্হসি৷৷2.27৷৷
જાતસ્ય હિ ધ્રુવો મૃત્યુર્ધ્રુવં જન્મ મૃતસ્ય ચ। તસ્માદપરિહાર્યેર્થે ન ત્વં શોચિતુમર્હસિ।।2.27।।
ਜਾਤਸ੍ਯ ਹਿ ਧ੍ਰੁਵੋ ਮਰਿਤ੍ਯੁਰ੍ਧ੍ਰੁਵਂ ਜਨ੍ਮ ਮਰਿਤਸ੍ਯ ਚ। ਤਸ੍ਮਾਦਪਰਿਹਾਰ੍ਯੇਰ੍ਥੇ ਨ ਤ੍ਵਂ ਸ਼ੋਚਿਤੁਮਰ੍ਹਸਿ।।2.27।।
ಜಾತಸ್ಯ ಹಿ ಧ್ರುವೋ ಮೃತ್ಯುರ್ಧ್ರುವಂ ಜನ್ಮ ಮೃತಸ್ಯ ಚ. ತಸ್ಮಾದಪರಿಹಾರ್ಯೇರ್ಥೇ ನ ತ್ವಂ ಶೋಚಿತುಮರ್ಹಸಿ৷৷2.27৷৷
ജാതസ്യ ഹി ധ്രുവോ മൃത്യുര്ധ്രുവം ജന്മ മൃതസ്യ ച. തസ്മാദപരിഹാര്യേര്ഥേ ന ത്വം ശോചിതുമര്ഹസി৷৷2.27৷৷
ଜାତସ୍ଯ ହି ଧ୍ରୁବୋ ମୃତ୍ଯୁର୍ଧ୍ରୁବଂ ଜନ୍ମ ମୃତସ୍ଯ ଚ| ତସ୍ମାଦପରିହାର୍ଯେର୍ଥେ ନ ତ୍ବଂ ଶୋଚିତୁମର୍ହସି||2.27||
jātasya hi dhruvō mṛtyurdhruvaṅ janma mṛtasya ca. tasmādaparihāryē.rthē na tvaṅ śōcitumarhasi৷৷2.27৷৷
ஜாதஸ்ய ஹி த்ருவோ மரித்யுர்த்ருவஂ ஜந்ம மரிதஸ்ய ச. தஸ்மாதபரிஹார்யேர்தே ந த்வஂ ஷோசிதுமர்ஹஸி৷৷2.27৷৷
జాతస్య హి ధ్రువో మృత్యుర్ధ్రువం జన్మ మృతస్య చ. తస్మాదపరిహార్యేర్థే న త్వం శోచితుమర్హసి৷৷2.27৷৷
2.28
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।।2.28।। हे भारत ! सभी प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीचमें ही प्रकट दीखते हैं। अतः इसमें शोक करनेकी बात ही क्या है?
।।2.28।। हे भारत ! समस्त प्राणी जन्म से पूर्व और मृत्यु के बाद अव्यक्त अवस्था में रहते हैं और बीच में व्यक्त होते हैं। फिर उसमें चिन्ता या शोक की क्या बात है ?
।।2.28।। इस श्लोक से लेकर आगे के कुछ श्लोकों में संसार के सामान्य मनुष्य के दृष्टिकोण से समस्या को अर्जुन के समक्ष बड़ी सुन्दरता से प्रस्तुत किया गया है। इन दस श्लोकों में श्रीकृष्ण समस्या का स्पष्टीकरण सामान्य व्यक्ति की दृष्टि एवं बुद्धि के अनुसार प्रस्तुत करते हैं।इस भौतिक जगत् में कार्यकरण का नियम अबाधरूप से कार्य करते हुए अनुभव में आता है। कार्य की उत्पत्ति कारण से होती है। सामान्यत कार्य व्यक्त रूप में दिखाई देता है और कारण अव्यक्त रहता है। अत सृष्टिका अर्थ है वस्तुओं का अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आ जाना। यही क्रम निरन्तर नियमपूर्वक चलता रहता है।इस प्रकार आज का व्यक्त इसके पूवर् कल अव्यक्त था वर्तमान में वह व्यक्त रूप में उपलब्ध है परन्तु भविष्य में फिर अव्यक्त अवस्था में विलीन हो जायेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान स्थिति अज्ञात से आयी और पुन अज्ञात में लीन हो जायेगी। ऐसा समझने पर दुख का कोई कारण नहीं रह जाता क्योंकि एक चक्र के आरे निरन्तर घूमते हुए नीचे भी आते हैं तो केवल बाद में ऊपर उठने के लिए ही।उदाहरणार्थ स्वप्न के पत्नी और शिशु पहले अव्यक्त थे और जागने पर फिर लुप्त हो जाते हैं तो एक ब्रह्मचारी को उस पत्नी और शिशु के लिए शोक करने का क्या कारण है जिसके साथ उसका विवाह कभी हुआ ही नहीं था और जिस शिशु का कभी जन्म ही नहीं हुआ था यदि जैसा कि भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा इस जगत् की उत्पत्ति और लय का चक्र निरन्तर एक पारमार्थिक नित्य अविकारी सत्य के रूप में ही चल रहा है तो क्या कारण है कि उस सत्य को बारम्बार बताने पर भी हम समझ नहीं पाते श्रीशंकराचार्य के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण यह विचार करते हैं कि इस सत्य को न समझने के लिए अर्जुन को दोष देना उचित नहीं है।श्री शंकराचार्य कहते हैं इस आत्मा का साक्षात् अनुभव करके उसे यथार्थ में जानना कठिन है। तुम्हें ही मैं दोष क्यों दूँ जबकि इसका कारण अज्ञान सबके लिए समान है कोई पूछ सकता है कि आत्मानुभव में इतनी कठिनाई क्या है भगवान् कहते हैं
2.28।। व्याख्या-- 'अव्यक्तादीनि भूतानि'-- देखने, सुनने और समझनेमें आनेवाले जितने भी प्राणी (शरीर आदि) हैं, वे सब-के-सब जन्मसे पहले अप्रकट थे अर्थात् दीखते नहीं थे।  'अव्यक्तनिधनान्येव'-- ये सभी प्राणी मरनेके बाद अप्रकट हो जायँगे अर्थात् इनका नाश होनेपर ये सभी 'नहीं' में चले जायँगे, दीखेंगे नहीं।  'व्यक्तमध्यानि'-- ये सभी प्राणी बीचमें अर्थात् जन्मके बाद और मृत्युके पहले प्रकट दिखायी देते हैं। जैसे सोनेसे पहले भी स्वप्न नहीं था और जगनेपर भी स्वप्न नहीं रहा, ऐसे ही इन प्राणियोंके शरीरोंका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव रहेगा। परन्तु बीचमें भावरूपसे दीखते हुए भी वास्तवमें इनका प्रतिक्षण अभाव हो रहा है।  'तत्र का परिदेवना'-- जो आदि और अन्तमें नहीं होता, वह बीचमें भी नहीं होता है--यह सिद्धान्त है  (टिप्पणी प0 68) । सभी प्राणियोंके शरीर पहले नहीं थे और पीछे नहीं रहेंगे; अतः वास्तवमें वे बीचमें भी नहीं हैं। परन्तु यह शरीरी पहले भी था और पीछे भी रहेगा; अतः वह बीच में भी रहेगा ही। निष्कर्ष यह निकला कि शरीरोंका सदा अभाव है और शरीरीका कभी भी अभाव नहीं है। इसलिये इन दोनोंके लिये शोक नहीं हो सकता।
।।2.28।।न चैतदन्यथा नित्यानित्यत्वमुपपत्तिमत् (NK नित्यत्वानित्यत्वम्)। यतः (S adds कुत इत्याह after यतः) जातस्येति। जन्मनः अनन्तरं नाशः नाशादनन्तरं जन्मेति चक्रवदयं जन्ममरणसन्तान इति किंपरिमाणं शोच्यताम् (N शोच्यतायाम) इति।
।।2.28।।मनुष्यादि भूतानि सन्ति एव द्रव्याणि अनुपलब्धपूर्वावस्थानि उपलब्धमनुष्यत्वादिमध्यमावस्थानि अनुपलब्धोत्तरावस्थानि स्वेषु स्वभावेषु वर्तन्ते इति न तत्र  परिदेवना निमित्तिम् अस्ति।एवं शरीरात्मवादे अपि नास्ति शोकनिमित्तम् इति उक्त्वा शरीरातिरिक्त आश्चर्यस्वरूप आत्मनि द्रष्टा वक्ता श्रोता श्रवणायत्तात्मनिश्चयः च दुर्लभ इत्याह
।।2.28।।आत्मानमुद्दिश्यानुशोकस्य कर्तुमयोग्यत्वेऽपि भूतसंघातात्मकानि भूतान्युद्दिश्य तस्य कर्तव्यत्वमाशङ्क्याह  कार्येति।  समनन्तरश्लोकस्तत्र हेतुरित्याह  यत इति।  चाक्षुषदर्शनमात्रवृत्तिं व्यावर्तयति  अनुपलब्धिरिति।  नहि यथोक्तसंघातरूपाणि भूतानि पूर्वमुत्पत्तेरुपलभ्यन्ते तेन तानि तथा व्यपदेशभाञ्जि भवन्तीत्यर्थः। किं तन्मध्यं यदेषां व्यक्तमिष्यते तदाह  उत्पन्नानीति।  उत्पत्तेरूर्ध्वं मरणाच्च पूर्वं व्यावहारिकं सत्त्वं मध्यमेषां व्यक्तमिति तथोच्यते जन्मानुसारित्वं विलयस्य युक्तमिति मत्वा तात्पर्यार्थमाह  मरणादिति।  उक्तेऽर्थे पौराणिकसंमतिमाह  तथाचेति।  तत्रेत्यस्यार्थमाह  अदृष्टेति।  पूर्वमदृष्टानि सन्ति पुनर्दृष्टानि तान्येव पुनर्नष्टानि तदेवं भ्रान्तिविषयतया घटिकायन्त्रवच्चक्रीभूतेषु शोकनिमित्तस्य प्रलापस्य नावकाशोऽस्तीत्यर्थः।
।।2.28।।पुनरपि साङ्ख्येनैवोपदिशति अव्यक्तादीनीति।भूतानि इत्यत्रैवं विवेचनीयम् भूतशब्देन यदि कार्यशरीराणि तदाऽव्यक्तं प्रधानं प्रकृतिस्तदादीनि तन्निधनान्येव। एतेन कारणात्मकत्वमुक्तम्। मध्ये व्यक्तता कार्यता तां दृष्ट्वा न शोकः कार्यः आद्यन्तयोरव्यक्तत्वात्। अन्यथा ध्वस्तघटादेरपि शोकः स्यात्। यदि वा भूतशब्देनात्मानः तदाऽव्यक्तस्याक्षरस्य महतो भूतस्य सकाशात् व्युच्चरितानि तन्निधनान्येवेति तदात्मकत्वं बोध्यम्। मध्ये व्यक्ततां देहात्मतां दृष्ट्वा न शोकः कार्यः आद्यन्तयोरव्यक्तस्य मध्येऽप्यक्ततैवाऽभ्युपगन्तव्या व्यक्तता तु दृश्यमाना मदिच्छया प्राकृतेति सिद्धान्तः। अतएव आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृष्टो बुद्धेर्गुणेनात्मगुणो न चैव श्वे.उ.5।8 इति श्रुतावात्मेच्छागुणकृतमणुत्वमात्मनां मायाबुद्धिगुणकृतमवरत्वं च व्यक्त्यभिमति सुखिदुःखित्वादीति निरूपितम्।
।।2.28।।तदेवं सर्वप्रकारेणात्मनोऽशोच्यत्वमुपपादितम्। अथेदानीमात्मनोऽशोच्यत्वेऽपि भूतसङ्घातात्मकानि शरीराण्युद्दिश्य शोचामीत्यर्जुनाशङ्कामपनुदति भगवान्आदौ जन्मनः प्राक् अव्यक्तान्यनुपलब्धानि पृथिव्यादिभूतमयानि शरीराणि मध्ये जन्मानन्तरं मरणात्प्राक् व्यक्तान्युपलब्धानि सन्ति निधने पुनरव्यक्तान्येव भवन्ति यथा स्वप्नेन्द्रजालादौ प्रतिभासमात्रजीवनानि शुक्तिरूप्यादिवन्नतु ज्ञानात्प्रागूर्ध्वं वा स्थितानि दृष्टिसृष्ट्यभ्युपगमात्। तथाचआदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायेन मध्येऽपि न सन्त्येवैतानिनासतो विद्यते भावः इति प्रागुक्तेश्च। एवंसति तत्र तेषु मिथ्याभूतेष्वत्यन्ततुच्छेषु भूतेषु का परिदेवना को वा दुःखप्रलापः। न कोऽप्युचित इत्यर्थः। नहि स्वप्ने विविधान्बन्धूनुपलभ्य प्रतिबुद्धस्तद्विच्छेदेन शोचति पृथग्जनोऽपि। एतदेवोक्तं पुराणेअदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। भूतसङ्ध इति शेषः। तथाच शरीराण्युद्दिश्य शोको नोचित इति भावः। आकाशादिमहाभूताभिप्रायेण वा श्लोको योज्यः। अव्यक्तमव्याकृतमविद्योपहितचैतन्यमादिः प्रागवस्था येषां तानि तथा व्यक्तं नामरूपाभ्यामेवाविद्यकाभ्यां प्रकटीभूतं नतु स्वेन परमार्थसदात्मना मध्यस्थित्यवस्था येषां तादृशानि भूतान्याकाशादीन्यव्यक्तनिधनान्येव अव्यक्ते स्वकारणे मृदीव घटादीनां निधनं प्रलयो येषां तेषु भूतेषु का परिदेवनेति पूर्ववत्। तथाच श्रुतिःतद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत्तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियत इत्यादिरव्यक्तोपादानतां सर्वस्य प्रपञ्चस्य दर्शयति। लयस्थानत्वं तु तस्यार्थसिद्धम्। कारण एव कार्यलयस्य दर्शनाद्ग्रन्थान्तरे तु विस्तरः। तथा चाज्ञानकल्पितत्वेन तुच्छान्याकाशादिभूतान्यप्युद्दिश्य शोको नोचितश्चेत्तत्कार्याण्युद्दिश्य नोचित इति किमु वक्तव्यमिति भावः। अथवा सर्वदा तेषामव्यक्तरूपेण विद्यमानत्वाद्विच्छेदाभावेन तन्निमित्तः प्रलापो नोचित इत्यर्थः। भारतेत्यनेन संबोधयन् शुद्धवंशोद्भवत्वेन शास्त्रीयमर्थं प्रतिपत्तुमर्होऽसि किमिति न प्रतिपद्यस इति सूचयति।
।।2.28।।किंच देहादीनां च स्वभावं पर्यालोच्य तदुपाधिके आत्मनो जन्ममरणे च शोको न कार्य इत्याह  अव्यक्तादीनीति।  अव्यक्तं प्रधानं तदेवादिः पूर्वरूपं येषां तान्यव्यक्तादीनि भूतानि शरीराणि कारणात्मनापि स्थितानामेवोत्पत्तेः। तथा व्यक्तमभिव्यक्तं मध्यं जन्ममरणान्तरालस्थितिलक्षणं येषाम्। अव्यक्ते निधनं लयो येषां तानीमान्येवंभूतान्येव तत्र तेषु का परिदेवना कः शोकनिमित्तो विलापः। प्रतिबुद्धस्य स्वप्नदृष्टवस्तुष्विव शोको न युज्यत इत्यर्थः।
।।2.28।।एवमपरिहार्यत्वेनाशोचनीयत्वमुक्तम् अथ तत्तद्वस्तूनां प्रतिनियतस्वभावत्वेन पूर्वोत्तरावस्थायां सुखरूपत्वदुःखरूपत्वयोः अन्यतरविवेकानर्हानुपलभ्यदशापत्त्या चाशोचनीयत्वमुच्यते अव्यक्तादीनीति। भूतशब्दस्यात्र देहपरत्वार्थमुक्तम् मनुष्यादीति। अव्यक्तव्यक्तादिशब्दानां प्रकृत्यवस्थाविशेषादिपरत्वभ्रमव्युदासाय यादवप्रकाशोक्तसद्ब्रह्मादिपरत्वस्य च प्रकृतानुपयोगज्ञापनायोक्तम् अनुपलब्धेत्यादि।अदर्शनादिहायातः पुनश्चादर्शनं गतः। नासौ तव न तस्य त्वं वृथा किमनुशोचसि म.भा.11।2।13 इति ह्यन्यत्राप्युच्यते।स्वेषु स्वभावेषु वर्तन्त इति। अयमभिप्रायः न तावदेषां द्रव्याणां मनुष्यत्वादिव्यक्तावस्था स्वभावः संहतिविशेषादिसाध्यत्वात्। नाप्यव्यक्तपूर्वोत्तरावस्था तस्या अपि विभागादिसाध्यत्वात्। अतः सामान्यतः परिणामित्वमात्रं स्वभावः। ततश्च यथा परिणामिनो द्रव्यस्याव्यक्तपूर्वावस्था व्यक्तमध्यावस्था च न शोकनिमित्तम् एवमुत्तरावस्थाऽपि। एवकारोऽत्रावर्जनीयत्वपरः स्वभावप्राप्तिपरो वा। यद्यव्यक्तावस्थैव स्वभाव इति मनुषे तदा स्वभावपरित्यागलक्षणमनुष्यत्वाद्यवस्थैव शोचनीया। यदि पुनर्मनुष्यत्वावस्थैव स्वभावः प्रतिबन्धकवशादव्यक्तावस्थेति मन्वीथाः तदा प्रतिबन्धकस्यावर्जनीयत्वादागन्तुकस्य तस्य कदाचिदपगमे पुनर्मनुष्यत्वादिसिद्धेश्च अवर्जनीयत्वान्न कथञ्चिदपि शोचनीयम्। यदि तु स्वभाव एव वस्तूनां सामान्यतः शोकनिमित्तम् तर्हि प्रतिनियतविचित्रस्वभावानन्तवस्तुसन्तते जगति सर्वस्य सर्वथा दुःखजलनिधावेव मज्जनमिति नेदानीं विशेषतः शोकनिमित्तमस्ति। अथौपाधिकस्यापि सुखहेतोर्वियोगाच्छोकः तदा दुःखहेतूनां शत्रुप्रभृतीनां भैक्षचर्यादेश्च परमार्थतः शोकनिमित्तत्वम् न तु सुखहेतोः शत्रुनिरसनस्य सार्वभौमत्वादेर्वा। अथ सुखहेतोः स्वशरीरादेर्नाशात् बिभेषि तर्हि महाबाहुना भारतेन त्वया जिघांसूनां सन्निधौ यथाशक्ति व्यापारेण शरीरादिरक्षणं कार्यम्। यदि च बन्धुवधादिनिमित्तलोकापवादादेर्भीतिः तदा समर्थस्य ते बन्धुसंरक्षणाद्यभावनिमित्तो महीयानपवादः स्यात् भीरुत्वादिनिमित्ता मरणातिरिक्ता चाकीर्तिः स्यात् न चायं दुस्त्यजः शीतातपादिसांस्पर्शिकदुःखवच्छोकः किन्त्वविचारितरमणीयाभिमानमूलतया तन्निवृत्त्या परिहार्यः अत एव देहात्ममोहमहाग्रहगृहीतस्त्वं लोकायतसमयरहस्यतत्त्वविचारेणापि न कथञ्चिदपि शोचितुमर्हसीति परिदेवना किन्निमित्तेत्यर्थः। तदिदमुक्तं न तत्र परिदेवनानिमित्तमस्ति इति।
।।2.28।।नन्वीश्वरोत्पादितानां देहानां स्वस्यनाशकरणमनुचितमित्याशङ्क्य देहानामुत्पत्तिस्थितिप्रलयविचारेणापि शोकाभावमाह अव्यक्तादीनीति। अव्यक्तं अक्षरमादिरुत्पत्तिर्येषां तानि अव्यक्तादीनि भूतानि शरीराणि। व्यक्तं जगत् तदेव मध्यं स्थितिरूपमुत्पत्तिलययोर्मध्यं येषां तानि। अव्यक्ते अक्षर एव निधनं लयो येषां तानि तथा। तत्र तेषु का परिदेवना का चिन्तेत्यर्थः।अत्रायमर्थः यत उत्पत्तिस्तत्रैव नाशे शोकः स्वस्याऽनुचित इत्यर्थः। स्वस्यापि तन्मारणानन्तरं न नरकादिसम्भावना यत उत्पत्तिस्थल एव स्वस्यापि नाशो भविष्यति।
।।2.28।।अस्त्वात्मनोऽशोच्यत्वं तथापि इष्टदेहविनाशजः शोको भवत्येवेत्याशङ्क्य सकारणस्य देहादेर्मिथ्यात्वं साधयति  अव्यक्तादीनीति।  भूतानि वियदादीनि तद्विकारभूतानि जरायुजादीनि च। न व्यक्तमव्यक्तमज्ञानं आदिर्येषां तथाविधानि। व्यक्तः स्पष्टः मध्यः उत्पत्तिमारभ्य मरणात्प्रागवस्था येषाम्। अव्यक्ते एव निधनं लयो येषामिति। अयमर्थः रज्जूरगादिकारणमज्ञानं न रज्जुवत् उरगवद्वा व्यक्तमस्ति। परीक्ष्यमाणं च न दृष्टिपथमवतरति। अतस्तदव्यक्तम्। तत उत्पन्नः सर्पस्तत्रैव लीयते न रज्ज्वाम्। एवं आत्मनि कल्पितानां भूतानां आदिरन्तश्चाव्यक्तमेव। तेनआदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा इति न्यायेन मध्ये भासमानान्यपि तानि रज्जुरगवत् असन्त्येव। एवंविधे तत्र तस्मिन्विषये का परिदेवना को वा विलापः। नहि मरुमरीचिकाह्रदो नष्ट इति कश्चित्तत्त्ववित् विलपति। अतएव भूतानां रज्जूरगादीनामिव प्रतीतिसमकालिकीं सृष्टिमभिप्रेत्य कौषीतकिब्राह्मणे स्वापप्रबोधयोर्जगल्लयोदयौ पठ्येते।स यदा स्वपिति तदैनं वाक्सर्वैर्नामभिः सहाप्येति चक्षुः सर्वै रूपैः सहाप्येति श्रोत्रं सर्वैः शब्दैः सहाप्येति मनः सर्वैर्ध्यानैः सहाप्येति स यदा प्रबुध्यतेऽथैतस्मादात्मनः सर्वे प्राणा यथायतनं विप्रतिष्ठन्ते प्राणेभ्यो देवा देवेभ्यो लोकाः इति। प्राणाश्चक्षुरादीन्द्रियाणि। देवास्तदनुग्राहकाः सूर्यादयः। लोकाः रूपादयः। नन्विहान्यत्र च आत्मैव सर्वभूतानां लयोदयस्थानमित्युच्यते नान्यत्। तत्कथमेषामव्यक्तं लयोदयस्थानमित्युच्यते। सत्यम्। अज्ञानाश्रयत्वाद्ब्रह्मणि तथात्वव्यपदेशो न वस्तुगत्या। नहि अपरिणामिनः कूटस्थस्य मृद्वत्कार्यप्रविलयोदयस्थानत्वं भवति। यथोक्तम्अस्य द्वैतेन्द्रजालस्य यदुपादानकारणम्। अज्ञानं तदुपाश्रित्य ब्रह्मकारणमुच्यते। इति।
।।2.28।।नन्वात्मनो नित्यत्वेऽपि कार्यकरणसंघातात्मकानि भूतानि शोचमीति चेत्तत्राह  अव्यक्तादीनीति।  प्रागुत्पत्तेरव्यक्तमदर्शनमादिर्येषां पुत्रमित्रादिकार्यकरणसंघातानां भूतानां तानि अव्यक्तं निधनं मरणं येषां तानि तत्र का परिदेवना कः शोकः। नहि शुक्तिरुप्यमुद्दिश्य कश्चिच्छोचतीति भावः। तथाचोक्तंअदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। नासौ तव न तस्य त्वं वृथा का परिदेवना।। इति। ननु अव्यक्तमव्याकृतं भूतान्याकाशादीनि नामरुपाभ्यां व्यज्यत इति व्यक्तमित्याकाशादिमहाभूताभिप्रायेणायं श्लोक आचार्यैः कुतो न व्याख्यात इति चेत् तत्र का परिदेवनेति वाक्यशेषविरोधात्। अदर्शनादापतित इत्यादिवचनेन तस्मात्सर्वाणि भूतानीत्युपसंहारस्थेन कार्यकरणसंघातबोधकभूतशब्देन चैकार्थत्वानापत्तेश्चेति गृहाण। यथा भरतादयोऽव्यक्ताद्भूत्वाऽव्यक्त एव लयं गतास्तथेति सूचयन्नाह भारतेति।
2.28 अव्यक्तादीनि unmanifested in the beginning? भूतानि beings? व्यक्तमध्यानि manifested in their middle state? भारत O Bharata? अव्यक्तनिधनानि unmanifested again in the end? एव also? तत्र there? का what? परिदेवना grief.Commentary The physical body is a combination of the five elements. It is seen by the physical eyes only after the five elements have entered into such combination. After death? the body disintegrates and the five elements go back to their source it cannot be seen. Therefore? the body can be seen only in the middle state. The relationship as son? friend? teacher? father? mother? wife? brother and sister is formed through the body on account of attachment and Moha (delusion). Just as planks unite and separate in a river? just as pilgrims unite and separate in a public inn? so also fathers? mothers? sons and brothers unite and separate in this world. This world is a very big public inn. People unite and separate.There is no pot in the beginning and in the end. Even if you see the pot in the middle? you should think and feel that it is illusory and does not really exist. So also there is no body in the beginning and in the end. That which does not exist in the beginning and in the end must be illusory in the middle also. You must think and feel that the body does not really exist in the middle as well.He who thus understands the nature of the body and all human relationships based on it? will not grieve.
2.28 Beings are unmanifested in their beginning, manifested in their middle state, O Arjuna, and unmanifested again in their end. What is there to grieve about?
2.28 The end and the beginning of beings are unknown. We see only the intervening formations. Then what cause is there for grief?
2.28 O descendant of Bharata, all beings remain unmanifest in the beginning;; they become manifest in the middle. After death they certainly become unmanifest. What lamentation can there be with regard to them?
2.28 It is not reasonable to grieve even for beings which are constituted by bodies and organs, since 'all beings remain unmanifest' etc. (Bharata, O descendant of Bharata;) bhutani, all beings, avyaktaduni, remain unmainfest in the beginning. Those beings, viz sons, friends, and others, constituted by bodies and organs, [Another reading is karya-karana-sanghata, aggregates formed by material elements acting as causes and effects.-Tr.] who before their origination have unmanifestedness (avyakta), invisibility, nonperception, as their beginning (adi) are avyaktaadini. Ca, and; after origination, before death, they become vyakta-madhyani, manifest in the middle. Again, they eva, certainly; become avyakta-nidhanani, unmanifest after death. Those which have unmanifestness (avyakta), invisibility, as their death (nidhana) are avyakta-nidhanani. The idea is that even after death they verily attain unmanifestedness. Accordingly has it been said: 'They emerged from invisibility, and have gone back to invisibility. They are not yours, nor are you theirs. What is this fruitless lamentation!' (Mbh. St. 2.13). Ka, what; paridevana, lamentation, or what prattle, can there be; tatra, with regard to them, i.e. with regard to beings which are objects of delusion, which are invisible, (become) visible, (and then) get destroyed!
2.28. O descendant of Bharata ! The beings have an unmanifest beginning, manifest middle and certainly the unmanifest end. On that account why mourning?
2.28 Avyaktadini etc. Whether beings are permanent or impermanent, this much is certain : The person, who laments over a given object - as far as that person is concerned, that object is at the beginning unmanifest and at the end also it is unmanifest. Its manifestation in between is therefore a deviation from its natural state, Rather, there may be need to lament over the deviation from natural state and nor over the natural state [itself]. Further, whatever has been approved as its root cause, that itself permanently exhibits, within itself, a variety of different and endless creation, sustenance and absorption as its own manifold nature, in a set pattern. Hence what is the necessity for lamenting over the same nature of this (its effect) ? And enowed with the above mentioned nature-
2.28 Human beings etc., (i.e., bodies) exist as entities; their previous stages are unknown, their middle stages in the form of man etc., are known, and their (final) and future stages are unknown. As they thus exist in their own natural stages, there is no cause for grief. After thus saying that there is no cause for grief even according to the view which identifies the body with the self, Sri Krsna proceeds to say that it is hard to find one who can be said to have truly perceived the Atman or spoken about It or heard about It or gained a true conception of It by hearing. For the Atman, which is actually different from the body, is of a wonderful nature.
2.28 O Arjuna, beings have an unknown beginning, a known middle and an unknown end. What is there to grieve over in all this?
।।2.28।।कार्यकरणके संघातरूप ही प्राणियोंको माने तो उनके उद्देश्यसे भी शोक करना उचित नहीं है क्योंकि अव्यक्त यानी न दीखना उपलब्ध न होना ही जिनकी आदि है ऐसे ये कार्यकरणके संघातरूप पुत्र मित्र आदि समस्त भूत अव्यक्तादि हैं अर्थात् जन्मसे पहले ये सब अदृश्य थे। उत्पन्न होकर मरणसे पहलेपहल बीचमें व्यक्त हैं दृश्य हैं। और पुनः अव्यक्तनिधन हैं अदृश्य होना ही जिनका निधन यानी मरण है उनको अव्यक्तनिधन कहते हैं अभिप्राय यह कि मरनेके बाद भी ये सब अदृश्य हो ही जाते हैं। ऐसे ही कहा भी है कि यह भूतसंघात अदर्शनसे आया और पुनः अदृश्य हो गया। न वह तेरा है और न तू उसका है व्यर्थ ही शोक किस लिये सुतरां इनके विषयमें अर्थात् बिना हुए ही दीखने और नष्ट होनेवाले भ्रान्तिरूप भूतोंके विषयमें चिन्ता ही क्या है रोनापीटना भी किस लिये है।
।।2.28।। अव्यक्तादीनि अव्यक्तम् अदर्शनम् अनुपलब्धिः आदिः येषां भूतानां पुत्रमित्रादिकार्यकरणसंघातात्मकानां तानि अव्यक्तादीनि भूतानि प्रागुत्पत्तेः उत्पन्नानि च प्राङ्मरणात् व्यक्तमध्यानि। अव्यक्तनिधनान्येव पुनः अव्यक्तम् अदर्शनं निधनं मरणं येषां तानि अव्यक्तनिधनानि। मरणादूर्ध्वमप्यव्यक्ततामेव प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः। तथा चोक्तम् अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। नासौ तव न तस्य त्वं वृथा का परिदेवना इति। तत्र का परिदेवना को वा प्रलापः अदृष्टदृष्टप्रनष्टभ्रान्तिभूतेषु भूतेष्वित्यर्थः।।दुर्विज्ञेयोऽयं प्रकृत आत्मा किं त्वामेवैकमुपालभे साधारणे भ्रान्तिनिमित्ते। कथं दुर्विज्ञेयोऽयमात्मा इत्यत आह
।।2.28।।स्पष्टनं न जन्ममरणस्वरूपनिरूपणेन।
।।2.28।।तदेव स्पष्टयति अव्यक्तादीनीति।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।2.28।।
অব্যক্তাদীনি ভূতানি ব্যক্তমধ্যানি ভারত৷ অব্যক্তনিধনান্যেব তত্র কা পরিদেবনা৷৷2.28৷৷
অব্যক্তাদীনি ভূতানি ব্যক্তমধ্যানি ভারত৷ অব্যক্তনিধনান্যেব তত্র কা পরিদেবনা৷৷2.28৷৷
અવ્યક્તાદીનિ ભૂતાનિ વ્યક્તમધ્યાનિ ભારત। અવ્યક્તનિધનાન્યેવ તત્ર કા પરિદેવના।।2.28।।
ਅਵ੍ਯਕ੍ਤਾਦੀਨਿ ਭੂਤਾਨਿ ਵ੍ਯਕ੍ਤਮਧ੍ਯਾਨਿ ਭਾਰਤ। ਅਵ੍ਯਕ੍ਤਨਿਧਨਾਨ੍ਯੇਵ ਤਤ੍ਰ ਕਾ ਪਰਿਦੇਵਨਾ।।2.28।।
ಅವ್ಯಕ್ತಾದೀನಿ ಭೂತಾನಿ ವ್ಯಕ್ತಮಧ್ಯಾನಿ ಭಾರತ. ಅವ್ಯಕ್ತನಿಧನಾನ್ಯೇವ ತತ್ರ ಕಾ ಪರಿದೇವನಾ৷৷2.28৷৷
അവ്യക്താദീനി ഭൂതാനി വ്യക്തമധ്യാനി ഭാരത. അവ്യക്തനിധനാന്യേവ തത്ര കാ പരിദേവനാ৷৷2.28৷৷
ଅବ୍ଯକ୍ତାଦୀନି ଭୂତାନି ବ୍ଯକ୍ତମଧ୍ଯାନି ଭାରତ| ଅବ୍ଯକ୍ତନିଧନାନ୍ଯେବ ତତ୍ର କା ପରିଦେବନା||2.28||
avyaktādīni bhūtāni vyaktamadhyāni bhārata. avyaktanidhanānyēva tatra kā paridēvanā৷৷2.28৷৷
அவ்யக்தாதீநி பூதாநி வ்யக்தமத்யாநி பாரத. அவ்யக்தநிதநாந்யேவ தத்ர கா பரிதேவநா৷৷2.28৷৷
అవ్యక్తాదీని భూతాని వ్యక్తమధ్యాని భారత. అవ్యక్తనిధనాన్యేవ తత్ర కా పరిదేవనా৷৷2.28৷৷
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।।2.29।। कोई इस शरीरीको आश्चर्यकी तरह देखता है और वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्यकी तरह सुनता है; और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता। अर्थात यह शरीरी दुर्विज्ञेय है।
।।2.29।। कोई इसे आश्चर्य के समान देखता है;  कोई इसके विषय में आश्चर्य के समान कहता है;  और कोई अन्य पुरुष इसे आश्चर्य के समान सुनता है;  और फिर कोई सुनकर भी नहीं जानता।।
।।2.29।। परमार्थ तत्त्व का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि वह अनन्त सर्वज्ञ और आनन्दस्वरूप है जबकि हमारा अपने ही विषय में अनुभव यह है कि हम परिच्छिन्न अज्ञानी और दुखी हैं। इस प्रकार जो हमारा वास्तविक आत्मस्वरूप है उससे सर्वथा भिन्न हमारा प्रत्यक्ष अनुभव है। पारमार्थिक स्वरूप और प्रत्यक्ष अनुभव इन दोनों का अन्तर शीत और उष्ण प्रकाश और अंधकार के अन्तर के समान प्रतीत हो रहा है। क्या कारण है कि हम अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव नहीं कर पाते हैं अज्ञान अवस्था में जब हम सत्य को जानना चाहते हैं तब हमारी यह धारणा होती है कि वह सत्य एक ऐसा लक्ष्य है जो कहीं दूर स्थान में स्थित है जिसकी प्राप्ति किसी काल विशेष में ही होगी। परन्तु यदि हम भगवान के उपदेश पर विश्वास करें तो यह ज्ञात होगा कि हम उस सत्य से कभी भी दूर नहीं हैं क्योंकि वह तो हमारा स्वरूप ही है। एक र्मत्य जीव अमरत्व से उतना ही दूर है जितना कि स्वप्नद्रष्टा जाग्रत पुरुष से।जो मनुष्य अपने आत्मस्वरूप के वैभव के प्रति जागरूक है वही ईश्वर है और स्वस्वरूप के वैभव से विस्मृत ईश्वर ही मोहित जीव हैप्रथम तो इस जीव को शरीर मन और बुद्धि के परे स्थित आत्मा के अस्तित्व के विचार को ही समझना कठिन होता है और जब वह आत्मविकास की साधना का अभ्यास करके अपने आनन्दस्वरूप को पहचानता है तब वह उस इन्द्रियातीत अनन्त आनन्दस्वरूप का अनुभव कर आश्चर्यचकित रह जाता है।आश्चर्य की भावना जब मन में उठती है तब उसमें यह सार्मथ्य होती है कि क्षण भर के लिए आश्चर्यचकित व्यक्ति को और कुछ सूझता ही नहीं और वह उस क्षण उस भावना के साथ तदाकार हो जाता है। प्रयोग के तौर पर आप किसी व्यक्ति को अचानक आश्चर्यचकित कर दें और फिर उसके मुख के भावों को देखें। मुँह खुला हुआ कुछ न देखती हुई बाहर निकली हुई आँखें प्रत्येक शिरा तनाव से खिंची हुई वह व्यक्ति पुतले के समान क्षण भर के लिए अपने ही स्थान पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ खड़ा रह जाता है।इसी प्रकार आत्मानुभव का भी वह आनन्द है जब आत्मा ही आत्मा के साथ आत्मा में ही रमण कर रही होती है। और इसीलिए महान ऋषियों ने इस अनुभव को आश्चर्य शब्द से सूचित किया जब अहंकार जीव समाप्त होकर शुद्ध अनन्तस्वरूप मात्र रह जाता है।अज्ञानी पुरुष समझता है कि मैं शरीर हूँ जिसमें आत्मा का वास है परन्तु ज्ञानी पुरुष जानता है कि मैं आत्मा हूँ जिसने शरीर धारण किया है । जो साधक सम्यक् प्रकार से इस उपदेश का श्रवण करते हैं उनको आगे उसी पर मनन करने को उत्साहित किया जाता है और तत्पश्चात् जब तक यथार्थ में आत्मसाक्षात्कार नहीं हो जाता तब तक उसके लिए ध्यान करने का उपदेश किया गया है। इस श्लोक से अज्ञानी पुरुष को भी श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा इस विरले प्रकार के श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त करने की प्रेरणा मिल सकती है। आत्मतत्त्व को विषय के रूप में नहीं जाना जा सकता। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि इसको सुनकर कोई भी व्यक्ति इसे नहीं जानता।अगले श्लोक में इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
2.29।। व्याख्या-- 'आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्'--   इस देहीको कोई आश्चर्यकी तरह जानता है। तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरी चीजें देखने सुनने पढ़ने और जाननेमें आती हैं वैसे इस देहीका जानना नहीं होता। कारण कि दूसरी वस्तुएँ इदंतासे ( यह करके) जानते हैं अर्थात् वे जाननेका विषय होती हैं पर यह देही इन्द्रिय मनबुद्धिका विषय नहीं है। इसको तो स्वयंसे अपनेआपसे ही जाना जाता है। अपनेआपसे जो जानना होता है वह जानना लौकिक ज्ञानकी तरह नहीं होता प्रत्युत बहुत विलक्षण होता है। 'पश्यति'  पदके दो अर्थ होते हैं नेत्रोंसे देखना और स्वयंके द्वारा स्वयंको जानना। यहाँ  'पश्यति'  पद स्वयंके द्वारा स्वयंको जाननेके विषयमें आया है (गीता 2। 55 6। 20 आदि)। जहाँ नेत्र आदि करणोंसे देखना (जानना) होता है वहाँ द्रष्टा (देखनेवाला) दृश्य (दीखनेवाली वस्तु) और दर्शन (देखनेकी शक्ति) यह त्रिपुटी होती है। इस त्रिपुटीसे ही सांसारिक देखनाजानना होता है। परन्तु स्वयंके ज्ञानमें यह त्रिपुटी नहीं होती है अर्थात् स्वयंका ज्ञान करणसापेक्ष नहीं है। स्वयंका ज्ञान तो स्वयंके द्वारा ही होता है अर्थात् वह ज्ञान करणनिरपेक्ष है। जैसे मैं हूँ ऐसा जो अपने होनेपन ज्ञान है इसमें किसी प्रमाणकी या किसी करणकी आवश्यकता नहीं है। इस अपने होनेपनको इदंता से अर्थात् दृश्यरूपसे नहीं देख सकते। इसका ज्ञान अपनेआपको ही होता है। यह ज्ञान इन्द्रियजन्य या बुद्धिजन्य नहीं है। इसलिये स्वयंको (अपनेआपको) जानना आश्चर्यकी तरह होता है। जैसे अँधेरे कमरेमें हम किसी चीजको लाने जाते हैं तो हमारे साथ प्रकाश भी चाहिये और नेत्र भी चाहिये अर्थात् उस अँधेरे कमरेमें प्रकाशकी सहायतासे हम उस चीजको नेत्रोंसे देखेंगे तब उसको लायेंगे। परन्तु कहीं दीपक जल रहा है और हम उस दीपकको देखने जायँगे तो उस दीपकको देखनेके लिये हमें दूसरे दीपककी आवश्यकता नहीं पड़ेगी क्योंकि दीपक स्वयंप्रकाश है। वह अपनेआपको स्वयं ही प्रकाशित करता है। ऐसे ही अपने स्वरूपको देखनेके लिये किसी दूसरे प्रकाशकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह देही (स्वरूप) स्वयंप्रकाश है। अतः यह अपनेआपसे ही अपनेआपको जानता है। स्थूल सूक्ष्म और कारण ये तीन शरीर हैं। अन्नजलसे बना हुआ स्थूलशरीर है। यह स्थूलशरीर इन्द्रियोंका विषय है। इस स्थूलशरीरके भीतर पाँच ज्ञानेन्द्रियों पाँच कर्मेन्द्रियाँ पाँच प्राण मन और बुद्धि इन सत्रह तत्त्वोंसे बना हुआ सूक्ष्मशरीर है। यह सूक्ष्मशरीर इन्द्रियोंका विषय नहीं है प्रत्युत बुद्धिका विषय हैं। जो बुद्धिका भी विषय नहीं है जिसमें प्रकृति स्वभाव रहता है वह कारणशरीर है। इन तीनों शरीरोंपर विचार किया जाय तो यह स्थूलशरीर मेरा स्वरूप नहीं है क्योंकि यह प्रतिक्षण बदलता है और जाननेमें आता है। सूक्ष्मशरीर भी बदलता है और जाननेमें आता है अतः यह भी मेरा स्वरूप नहीं है। कारणशरीर प्रकृतिस्वरूप है पर देही (स्वरूप) प्रकृतिसे भी अतीत है अतः कारणशरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है। यह देही जब प्रकृतिको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है तब यह अपनेआपसे अपनेआपको जान लेता है। यह जानना सांसारिक वस्तुओंको जाननेकी अपेक्षा सर्वथा विलक्षण होता है इसलिये इसको  'आश्चर्यवत् पश्यति'  कहा गया है। यहाँ भगवान्ने कहा है कि अपनेआपका अनुभव करनेवाला कोई एक ही होता है  'कश्चित्'  और आगे सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भी यही बात कही है कि कोई एक मनुष्य ही मेरेको तत्त्वसे जानता है  'कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः'।  इन पदोंसे ऐसा मालूम होता है कि इस अविनाशी तत्त्वको जानना बड़ा कठिन है दुर्लभ है। परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। इस तत्त्वको जानना कठिन नहीं है दुर्लभ नहीं है प्रत्युत इस तत्त्वको सच्चे हृदयसे जाननेवालेकी इस तरफ लगनेवालेकी कमी है। यह कमी जाननेकी जिज्ञासा कम होनेके कारण ही है।  'आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः'-- ऐसे ही दूसरा पुरुष इस देहीका आश्चर्यकी तरह वर्णन करता है क्योंकि यह तत्त्व वाणीका विषय नहीं है। जिससे वाणी भी प्रकाशित होती है वह वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है जो महापुरुष इस तत्त्वका वर्णन करता है वह तो शाखाचन्द्रन्यायकी तरह वाणीसे इसका केवल संकेत ही करता है जिससे सुननेवालेका इधर लक्ष्य हो जाय। अतः इसका वर्णन आश्चर्यकी तरह ही होता है। यहाँ जो  'अन्यः'  पद आया है उसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो जाननेवाला है उससे यह कहनेवाला अन्य है क्योंकि जो स्वयं जानेगा ही नहीं वह वर्णन क्या करेगा अतः इस पदका तात्पर्य यह है कि जितने जाननेवाले हैं उनमें वर्णन करनेवाला कोई एक ही होता है। कारण कि सबकेसब अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष उस तत्त्वका विवेचन करके सुननेवालेको उस तत्त्वतक नहीं पहुँचा सकते। उसकी शंकाओंका तर्कोंका पूरी तरह समाधान करनेकी क्षमता नहीं रखते। अतः वर्णन करनेवालेकी विलक्षण क्षमताका द्योतन करनेके लिये ही यह अन्यः पद दिया गया है।  'आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति'-- दूसरा कोई इस देहीको आश्चर्यकी तरह सुनता है। तात्पर्य है कि सुननेवाला शास्त्रोंकी लोकलोकान्तरोंकी जितनी बातें सुनता आया है उन सब बातोंसे इस देहीकी बात विलक्षण मालूम देती है। कारण कि दूसरा जो कुछ सुना है वह सबकासब इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदिका विषय है परन्तु यह देही इन्द्रियों आदिका विषय नहीं है प्रत्युत यह इन्द्रियों आदिके विषयको प्रकाशित करता है। अतः इस देहीकी विलक्षण बात वह आश्चर्यकी तरह सुनता है। यहाँ  'अन्यः'  पद देनेका तात्पर्य है कि जाननेवाला और कहनेवाला इन दोनोंसे सुननेवाला (तत्त्वका जिज्ञासु) अलग है।  'श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्'-- इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने सुन लिया तो अब वह जानेगा ही नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि केवल सुन करके (सुननेमात्रसे) इसको कोई भी नहीं जान सकता। सुननेके बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा तब वह अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा  (टिप्पणी प0 69) । यहाँ कोई कहे कि शास्त्रोँ और गुरुजनोंसे सुनकर ज्ञान तो होता ही है फिर यहाँ सुन करके भी कोई नहीं जानता ऐसा कैसे कहा गया है इस विषयपर थोड़ी गम्भीरतासे विचार करके देखें कि शास्त्रोंपर श्रद्धा स्वयं शास्त्र नहीं कराते और गुरुजनोंपर श्रद्धा स्वयं गुरुजन नहीं कराते किन्तु साधक स्वयं ही शास्त्र और गुरुपर श्रद्धाविश्वास करता है स्वयं ही उनके सम्मुख होता है। अगर स्वयंके सम्मुख हुए बिना ही ज्ञान हो जाता तो आजतक भगवान्के बहुत अवतार हुए हैं बड़ेबड़े जीवन्मुक्त महापुरुष हुए हैं उनके सामने कोई अज्ञानी रहना ही नहीं चाहिये था। अर्थात् सबको तत्त्वज्ञान हो जाना चाहिये था पर ऐसा देखनेमें नहीं आता। श्रद्धाविश्वासपूर्वक सुननेसे स्वरूपमें स्थित होनेमें सहायता तो जरूर मिलती है पर स्वरूपमें स्थित स्वयं ही होता है। अतः उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य तत्त्वज्ञानको असम्भव बतानेमें नहीं प्रत्युत उसे करणनिरपेक्ष बतानेमें है। मनुष्य किसी भी रीतिसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्न क्यों न करे पर अन्तमें अपनेआपसे ही अपनेआपको जानेगा। श्रवण मनन आदि साधन तत्त्वके ज्ञानमें परम्परागत साधन माने जा सकते हैं पर वास्तविक बोध करणनिरपेक्ष (अपनेआपसे) ही होता है। अपनेआपसे अपनेआपको जानना क्या होता है एक होता है करना एक होता है देखना और एक होता है जानना। करनेमें कर्मेन्द्रियोंकी देखनेमें ज्ञानेन्द्रियोंकी और जाननेमें स्वयंकी मुख्यता होती है। ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा जानना नहीं होता प्रत्युत देखना होता है जो कि व्यवहारमें उपयोगी है। स्वयंके द्वारा जो जानना होता है वह दो तरहका होता है एक तो शरीरसंसारके साथ मेरी सदा भिन्नता है और दूसरा परमात्माके साथ मेरी सदा अभिन्नता है। दूसरे शब्दोंमें परिवर्तनशील नाशवान् पदार्थोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है और अपरिवर्तनशील अविनाशी परमात्माके साथ मेरा नित्य सम्बन्ध है। ऐसा जाननेके बाद फिर स्वतः अनुभव होता है। उस अनुभवका वाणीसे वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ तो बुद्धि भी चुप हो जाती है।  सम्बन्ध -- अबतक देह और देहीका जो प्रकरण चल रहा था उसका आगेके श्लोकमें उपसंहार करते हैं।
।।2.29।।अपि च अव्यक्तादीनीति। नित्यः सन्तु अनित्या वा यस्तावदस्य शोचकस्तं प्रत्येष आदावव्यक्तः अन्ते चाव्यक्तः। मध्ये तस्य व्यक्तता विकारः ( N omit विकारः) इति। प्रत्युत विकारे शोचनीयं ( N शोचनीयस्वभावे) न स्वभावे। किं च यत् (N omits यत्) तन्मूलकारणं किञ्चिदभिमतं तदेव यथाक्रमं (S तथाक्रमविचित्र) विचित्रस्वभावतया स्वात्ममध्ये दर्शिततत्तदनन्तसृष्टिस्थितिसंहृतिवैचित्र्यं (S सृष्टिप्रतिसंहृति) नित्यमेव। तथास्वभावेऽपि कास्य (S स्वभावमिति कास्य) शोच्यता।
।।2.29।।एवम् उक्तस्वभावं स्वेतरसमस्तवस्तुविसजातीयतया  आश्चर्यवद्  अवस्थितम् अनन्तेषु जन्तुषु महता तपसा क्षीणपाप उपचितपुण्यः  कश्चित् पश्यति  तथाविधः कश्चित् परस्मै  वदति  एवं कश्चिद् एव  श्रृणोति श्रुत्वा   अपि एनं  यथावद् अवस्थितं तत्त्वतो  न कश्चिद् वेद।  चकाराद् द्रष्टृवक्तृश्रोतृषु अपि तत्त्वतो दर्शनं तत्त्वतो वचनं तत्त्वतः श्रवणं दुर्लभम् इति उक्तं भवति।
।।2.29।।अर्जुनं प्रत्युपालम्भं दर्शयित्वा प्रकृतस्यात्मनो दुर्विज्ञेयत्वात्तं प्रत्युपालम्भो न संभवतीति मन्वानः सन्नाह  दुर्विज्ञेय इति।  तथाचात्माज्ञाननिमित्तविप्रलम्भस्य साधारणत्वादसाधारणोपलम्भस्य निरवकाशतेत्याह  किं त्वामेवेति।  अहंप्रत्ययवेद्यत्वादात्मनो दुर्विज्ञेयत्वमसिद्धमिति शङ्कते  कथमिति।  विशिष्टस्यात्मनोऽहंप्रत्ययस्य दृष्टत्वेऽपि केवलस्य तदभावादस्ति दुर्विज्ञेयतेति श्लोकमवतारयति  आहेति।  आश्चर्यवदित्याद्येन पादेनात्मविषयदर्शनस्य दुर्लभत्वं दर्शयता द्रष्टुर्दौर्लभ्यमुच्यते द्वितीयेन च तद्विषयवेदनस्य दुर्लभत्वोक्तेस्तदुपदेष्टुस्तथात्वं कथ्यते तृतीयेन तदीयश्रवणस्य दुर्लभत्वद्वारा श्रोतुर्विरलता विवक्षिता श्रवणदर्शनोक्तीनां भावेऽपि तद्विषयसाक्षात्कारस्यात्यन्तायासलभ्यत्वं चतुर्थेनाभिप्रेतमिति विभागः। आत्मगोचरदर्शनादिदुर्लभत्वद्वारा दुर्बोधत्वमात्मनः साधयति  आश्चर्यवदिति।  संप्रत्यात्मनि दृष्टुर्वक्तुः श्रोतुः साक्षात्कर्तुश्च दुर्लभत्वाभिधानेन तदीयं दुर्बोधत्वं कथयति  अथवेति।  व्याख्यानद्वयेऽपि फलितमाह  अत   इति।
।।2.29।।सोऽयमात्माऽव्यक्तो यत आश्चर्यवदित्याह आश्चर्यवदिति। अवितर्क्यमिव पश्यतीत्यादि।
।।2.29।।ननु विद्वांसोऽपि बहवः शोचन्ति तत्किं मामेव पुनः पुनरेवमुपालभसे अन्यच्च इति न्यायात्त्वद्वचनार्थाप्रतिपत्तिरपि मम न दोषः। तत्रान्येषामपि तवेवात्मापरिज्ञानादेव शोकः आत्मप्रतिपादकशास्त्रार्थाप्रतिपत्तिश्च तवाप्यन्येषामिव स्वाशयदोषादिति नोक्तदोषद्वयमित्यभिप्रेत्यात्मनो दुर्विज्ञेयतामाह एनं प्रकृतं देहिनमाश्चर्येणाद्भुतेन तुल्यतया वर्तमानं आविद्यकनानाविधविरुद्धधर्मवत्तया सन्तमप्यसन्तमिव स्वप्रकाशचैतन्यरूपमपि जडमिव आनन्दघनमपि दुःखितमिव निर्विकारमपि सविकारमिव नित्यमप्यनित्यमिव प्रकाशमानमप्यप्रकाशमानमिव ब्रह्माभिन्नमपि तद्भिन्नमिव मुक्तमपि बद्धमिव अद्वितीयमपि सद्वितीयमिव संभावितविचित्रानेकाकारप्रतीतिविषयं पश्यति। शास्त्राचार्योपदेशाभ्यामाविद्यकसर्वद्वैतनिषेधेन परमात्मस्वरूपमात्राकारायां वेदान्तमहावाक्यजन्यायां सर्वसुकृतफलभूतायामन्तःकरणवृत्तौ प्रतिफलितं समाधिपरिपाकेन साक्षात्करोति कश्चिच्छमदमादिसाधनसंपन्नचरमशरीरः कश्चिदेव नतु सर्वः। तथा कश्चिदेनं यत्पश्यति तदाश्चर्यवदिति क्रियाविशेषणम्। आत्मदर्शनमप्याश्चर्यवदेव यत्स्वरूपतो मिथ्याभूतमपि सत्यस्य व्यञ्जकं आविद्यकमप्यविद्याया विघातकं अविद्यामुपघ्नतत्कार्यतया स्वात्मानमप्युपहन्तीति। यथा यः कश्चिदेनं पश्यति स आश्चर्यवदिति कर्तृविशेषणम्। यतोऽसौ निवृत्ताविद्यातत्कार्योऽपि प्रारब्धकर्मप्राबल्यात्तद्वानिव व्यवहरति सर्वदा समाधिनिष्ठोऽपि व्युत्तिष्ठति व्युत्थितोऽपि पुनः समाधिमनुभवतीति प्रारब्धकर्मवैचित्र्याद्विचित्रचरित्रः प्राप्तदुष्प्रापज्ञानत्वात्सकललोकस्पृहणीयोऽत आश्चर्यवदेव भवति। तदेतत्त्रयमाश्चर्यमात्मा तज्ज्ञानं तज्ज्ञाता चेति परमदुर्विज्ञेयमात्मानं त्वं कथमनायासेन जानीया इत्यभिप्रायः। एवमुपदेष्टुरभावादप्यात्मा दुर्विज्ञेयः। यो ह्यात्मानं जानाति स एव तमन्यस्मै ध्रुवं ब्रूयात् अज्ञस्योपदेष्टृत्वासंभवात्। जानंस्तु समाहितचित्तः प्रायेण कथं ब्रवीतु। व्युत्थितचित्तोऽपि परेण ज्ञातुमशक्यः। यथाकथंचिज्ज्ञातोऽपि लाभपूजाख्यात्यादिप्रयोजनानपेक्षत्वान्न ब्रवीत्येव कथंचित्कारुण्यमात्रेण ब्रुवंस्तु परमेश्वरवदत्यन्तदुर्लभएवेत्याह आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य इति। यथा जानाति तथैव वदति। एनमित्यनुकर्षणार्थश्चकारः। स चान्यः सर्वज्ञजनविलक्षणो नतु यः पश्यति ततोऽन्य इति व्याघातात्। तत्रापि कर्मणि क्रियायां कर्तरि चाश्चर्यवदिति योज्यम्। तत्र कर्मणः कर्तुश्च प्रागाश्चर्यत्वं व्याख्यातं क्रियायास्तु व्याख्यायते। सर्वशब्दावाच्यस्य शुद्धस्यात्मनो यद्वचनं तदाश्चर्यवत्। तथाच श्रुतिःयतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह इति। केनापि शब्देनावाच्यस्य शुद्धस्यात्मनो विशिष्टशक्तेन पदेन जहदजहत्स्वार्थलक्षणया कल्पितसंबन्धेन लक्ष्यतावच्छेदकमन्तरेणैव प्रतिपादनं तदपि निर्विकल्पकसाक्षात्काररूपमत्याश्चर्यमित्यर्थः। अथवा विना शक्तिं विना लक्षणां विना संबन्धान्तरं सुषुप्तोत्थापकवाक्यवत्तत्त्वमस्यादिवाक्येन यदात्मतत्त्वप्रतिपादनं तदाश्चर्यवत्। शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वात्। नच विना संबन्धं बोधनेऽतिप्रसङ्गः लक्षणापक्षेऽपि तुल्यत्वात् शक्यसंबन्धरूपानेकसाधारणत्वात्। तात्पर्यविशेषान्नियम इतिचेत् न। तस्यापि सर्वान्प्रत्यविशेषात्। कश्चिदेव तात्पर्यविशेषमवधारयति न सर्व इतिचेद्धन्त तर्हि पुरुषगत एव कश्चिद्विशेषो निर्दोषत्वरूपो नियामकः सचास्मिन्पक्षेऽपि न दण्डवारितः। तथाच यादृशस्य शुद्धान्तःकरणस्य तात्पर्यानुसन्धानपुरःसरं लक्षणया वाक्यार्थबोधो भवद्भिरङ्गीक्रियते तादृशस्यैव केवलः शब्दविशेषोऽखण्डसाक्षात्कारं विनापि संबन्धेन जनयतीति किमनुपपन्नम्। एतस्मिन्पक्षे शब्दवृत्त्याविषयत्वात्यतो वाचो निवर्तन्ते इति सुतरामुपपन्नम्। अयं च भगवदभिप्रायो वार्तिककारैः प्रपञ्चितःदुर्बलत्वादविद्याया आत्मत्वाद्बोधरूपिणः। शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वाद्विद्मस्तं मोहहानतः।।अगृहीत्वैव संबन्धमभिधानाभिधेययोः। हित्वा निद्रां प्रबुध्यन्ते सुषुप्तेर्बोधिताः परैः।।जाग्रद्वन्न यतः शब्दं सुषुप्तौ वेत्ति कश्चन। ध्वस्तेऽतो ज्ञानतोऽज्ञाने ब्रह्मास्मीति भवेत्फलम्।।अविद्याघातिनः शब्दाद्याहं ब्रह्मेति धीर्भवेत्। नश्यत्यविद्यया सार्धं हत्वा रोगमिवौष धम्।। इत्यादिना ग्रन्थेन। तदेवं वचनविषयस्य वक्तुर्वचनक्रियायाश्चात्याश्चर्यरूपत्वादात्मनो दुर्विज्ञानत्वमुक्त्वा श्रोतुर्दुर्मिलत्वादपि तदाह आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेदेति। अन्यो द्रष्टुर्वक्तुश्च मुक्ताद्विलक्षणो मुमुक्षुर्वक्तारं ब्रह्मविदं विधिवदुपसृत्य एनं शृणोति श्रवणाख्यविचारविषयीकरोति। वेदान्तवाक्यतात्पर्यनिश्चयेनावधारयतीति यावत्। श्रुत्वा चैनं मनननिदिध्यासनपरिपाकाद्वेदापि साक्षात्करोत्यपि आश्चर्यवत्। तथाचआश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम् इति व्याख्यातम्। अत्रापि कर्तुराश्चर्यरूपत्वमनेकजन्मानुष्ठितसुकृतक्षालितमनोमलतयादिदुर्लभत्वात्। तथाच वक्ष्यतिमनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। इति।श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युःआश्चर्योऽस्य वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः इति श्रुतेश्च। एवं श्रवणश्रोतव्ययोराश्चर्यत्वं प्राग्वद्व्याख्येयम्। ननु यः श्रवणमननादिकं करोति स आत्मानं वेदेति किमाश्चर्यमत आह नचैव कश्चिदिति। चकारः क्रियाकर्मपदयोरनुषङ्गार्थः। कश्चिदेनं नैव वेद श्रवणादिकं कुर्वन्नपि तदकुर्वंस्तु न वेदेति किमु वक्तव्यम्।ऐहिकमप्रस्तुतप्रतिबन्धे तद्दर्शनात् इति न्यायात्। उक्तंच वार्तिककारैःकुतस्तज्ज्ञानमिति चेत्तद्धि बन्धपरिक्षयात्। असावपि च भूतो वा भावी वा वर्ततेऽथवा।। इति। श्रवणादिकुर्वतामपि प्रतिबन्धपरिक्षयादेव ज्ञानं जायते अन्यथा तु न। सच प्रतिबन्धपरिक्षयः कस्यचिद्भूत एव यथा हिरण्यगर्भस्य। कस्यचिद्भावी यथा वामदेवस्य। कस्यचिद्वर्तते यथा श्वेतकेतोः। तथा च प्रतिबन्धक्षयस्यातिदुर्लभत्वात्ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात्पापस्य कर्मणः इति स्मृतेश्च दुर्विज्ञेयोऽयमात्मेति निर्गलितोऽर्थः। यदि तुश्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् इत्येव व्याख्यायेत तदाआश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः इति श्रुत्येकवाक्यता न स्यात्।यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः इति भगवद्वचनविरोधश्चेति विद्वद्भिरविनयः क्षन्तव्यः। अथवा न चैव कश्चिदित्यस्य सर्वत्र संबन्धः। कश्चिदेनं न पश्यति न वदति न शृणोति श्रुत्वापि न वेदेति पञ्चप्रकारा उक्ताः। कश्चित्पश्यत्येव न वदति कश्चित्पश्यति च वदति च कश्चित्तद्वचनं शृणोति च तदर्थं जानाति च कश्चिच्छ्रुत्वापि न जानाति च कश्चित्तु सर्वबहिर्भूत इति। अविद्वत्पक्षे त्वसंभावनाविपरीतभावनाभिभूतत्वादाश्चर्यतुल्यत्वं दर्शनवदनश्रवणेष्विति निगदव्याख्यातः श्लोकः। चतुर्थपादे तु दृष्ट्वोक्त्वा श्रुत्वापीति योजना।
।।2.29।।कुतस्तर्हि विद्वांसोऽपि लोके शोचन्ति आत्माज्ञानादेवेत्याशयेनात्मनो दुर्विज्ञेयतामाह  आश्चर्यवदिति।  कश्चिदेनमात्मानं शास्त्राचार्योपदेशाभ्यां पश्यन्नाश्चर्यवत्पश्यति। सर्वगतस्य नित्यज्ञानानन्दस्वभावस्यात्मनोऽलौकिकत्वादैन्द्रजालिकवदघटमानं पश्यन्निव विस्मयेन पश्यति असंभावनाभिभूतत्वात्। तथा आश्चर्यवदन्यो वदति च शृणोति च। अन्य कश्चित्पुनर्विपरीतभावनाभिभूतः श्रुत्वापि नैव वेद। चशब्दादुक्त्वापि न सम्यग्वेदेति द्रष्टव्यम्।
।।2.29।।एवमन्वारुह्यवादपरिसमापनेन पूर्वोक्तं स्वसिद्धान्तमेव देहात्ममोहमूलदुरितावलीमलीमसे जगति तदधिकारिदुर्लभत्वादिकथनेन प्रशंसतीत्याह एवमिति। कतिपयपदविशेषितोऽयममौपनिषद एवआश्चर्यवत् इत्यादिश्लोकः।एवमुक्तस्वभावं इतिएनम् इत्यस्यार्थः।अव्यक्तोऽयम् इत्यादिनोक्तं वैजात्यं आश्चर्यत्वहेतुत्वायाह स्वेतरेति। आश्चर्यवच्छब्दस्य पश्यत्यादिक्रियाविशेषणत्वभ्रमव्युदासायोक्तंआश्चर्यवदवस्थितमिति। आत्मनो वैलक्षण्यकथनमेवात्रोचितमिति भावः। एतेन कर्तृदृष्टान्ततयाशंकरोक्तं योजनान्तरमपि दूषितम्। कश्चिदिति निर्धारणार्थमाह अनन्तेष्विति। ज्ञानेन हीनानां नराणां पशुभिः समत्वप्रदर्शनायोक्तंजन्तुष्वति।कश्चित् इत्यस्य तात्पर्यार्थमाह महतेति। तथा चोच्यते कषाये कर्मभिः पक्वे ततो ज्ञानं प्रवर्तते म.भा.अनु.प. इति। अन्यशब्दोऽत्र पूर्वोत्तरवाक्यगतकश्चिच्छब्दसमानार्थः।परस्मै इत्यर्थलब्धोक्तिः।श्रुत्वापि न वेद इत्युक्ते व्याघातशास्त्रानारम्भादिदोषः स्यादित्याशङ्क्योक्तम् यथावदवस्थितं तत्त्वत इति। प्रामाणिकसमस्ताकारयुक्तमनारोपितेन प्रकारेणेत्यर्थः। तत्त्ववेदिनोऽत्र दुर्लभत्वमात्रे तात्पर्यं श्रुत्वाऽपीत्यादिवाक्यस्थचकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वं तत्समुच्चेतव्यानि चाह चकारादिति। देहातिरिक्तस्यात्मनो द्रष्टैव तावद्दुर्लभः किमुत यथावस्थितद्रष्टा तथाविधेषु सत्स्वपि वक्तैव दुर्लभः किमुत सकलरहस्यवक्ता। तादृशेषु सत्स्वपि श्रोतैव दुर्लभः किम्पुनर्बाह्यान्तरसकलशिष्यगुणसम्पन्नतया यथावस्थितश्रोता त्वादृशः इत्यभिप्रायः। प्रथमं श्रवणम् ततो मननाच्छ्रवणायत्तात्मनिश्चयः ततश्च वचनयोग्यता तत्रापि चिराभ्यासादिना यथावस्थितवचनयोग्यता ततश्च निदिध्यासनाद्दर्शनम् ततो रत्नतत्त्ववत् चिरनिरीक्षणसंस्कारात् सविशेषदर्शनमिति वा क्रमः। अत्र देहातिरिक्तश्चेदात्मा किं तथा नोपलभ्यते इति शङ्कापाकरणाय दुर्ज्ञानत्वकथनम्। सर्वैर्ज्ञातुमशक्ये वा वस्तुनि किं त्वामेकमुपालभे इति भावः।
।।2.29।।नन्वेवं चेत्तदा विद्वांसः पापकर्मणा नरकसम्भावनया कथं शोचन्तीत्याशङ्क्याह आश्चर्यवदिति। एनं कश्चिदाश्चर्यवत् पश्यति शास्त्रार्थज्ञानान्नित्यमव्यक्तादिरूपं जानन् जन्मादिभावदर्शनादाश्चर्यवन्मायाकृतैन्द्रजालवत्पश्यतीत्यर्थः। एतेषां जन्मादिभावास्तु मदिच्छया मत्क्रीडार्थका इति आश्चर्यवदित्युक्तम्। तथैव च मन्मायया मोहितः कश्चिदाश्चर्यवद्वदति अन्यान् बोधयतीत्यर्थः। अन्यश्च श्रोता स्वतो ज्ञानरहित आश्चर्यवत् शृणोति। श्रुत्वाऽप्येन यथार्थमिदमित्युक्त्वा न वेद। वै निश्चयेनैतत्ित्रतयेषु कोऽपि न वेद न ज्ञातवानतोऽज्ञानात्तेऽपि शोचन्तीति भावः।
।।2.29।।ननु वज्रपञ्जरतुल्यस्य सर्वप्रमाणसिद्धस्य वियदादिप्रपञ्चस्य कथं रज्जूरगादिवदज्ञानप्रभवत्वेनात्यन्ततुच्छत्वमुच्यते कथं वा कर्मज्ञानकाण्डापेक्षितमात्मनो यज्ञादिकर्तृत्वं श्रवणादिकर्तृत्वं चापह्नूयत इत्याशङ्क्याह  आश्चर्यवदिति।  कश्चित् ज्ञातात्मतत्त्व एनमतीतानन्तरश्लोकोक्तं भूतग्राममाश्चर्यवत् आश्चर्यमद्भुतं स्वप्नमायेन्द्रजालादिकं तेन तुल्यमाश्चर्यवत् तथाभूतं पश्यति। तथा कश्चिदेनं आश्चर्यवद्वदति सत्त्वेन असत्त्वेन वा निर्वक्तुमशक्यमपि अनिर्वचनीयेनैव लोकाप्रसिद्धेन रूपेणोपपादयति। तथाहि रज्जूरगवत्प्रपञ्चः संश्चेत्नेह नानास्ति किंचन इति श्रुत्या न बाध्येत असंश्चेन्न प्रतीयेत तस्मादनिर्वचनीयोऽयमिति। तदिदं सर्वव्यवहारास्पदस्यापि प्रपञ्चस्य मिथ्यात्वोपपादनमत्याश्चर्यमित्यर्थः। तथा एनं प्रपञ्चमन्य आश्चर्यवत् शृणोति।इमे लोका इमे देवा इमे वेदा इदं सर्वं यदयमात्मा इति प्रत्यक्षेणानात्मतया उपलभ्यमानस्यापि प्रपञ्चस्य यत् प्रत्यगभिन्नत्वेन श्रवणं तदत्यन्तमाश्चर्यम्। न हीयं श्रुतिःयजमानः प्रस्तरः इत्यादिवदुपचरितार्था। प्रपञ्चस्यात्मनः पृथक्त्वेआत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितं भवति इत्येकविज्ञानात्सर्वविज्ञानप्रतिज्ञोपरोधापत्तेः। न च प्रतिज्ञाप्यौपचारिकी। प्रदेशान्तरे श्रुतस्ययथा सौम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्यात् इति दृष्टान्तस्योपरोधापत्तेः। तस्मात्प्रतिज्ञादृष्टान्तनिगमनानामेकवाक्यत्वात् न प्रपञ्चस्यात्मान्यत्वम्। तच्च भेदग्राहिप्रत्यक्षविरोधादाश्चर्यमिव श्रृणोति। तथा कश्चिदेनं प्रपञ्चं प्रत्यगनन्यत्वेन श्रुत्वा अपिशब्दात् उक्त्वा स्वप्नादिदृष्टान्तैरुपपाद्य दृष्ट्वा ध्यानेन च साक्षात्कृत्वापि तत्त्वतो न वेद न जानाति। तथाहि प्राप्तापि प्रज्ञा तीव्रविक्षेपवतः परिहीयत इति वक्ष्यति। तस्मादात्मैक्यात्संभवत्येव प्रपञ्चस्य रज्जूरगादितुल्यत्वेन तुच्छत्वम्। यद्वा एनं आत्मानं कर्तृत्वभोक्तृत्वदुःखित्वानित्यत्वजडत्वसङ्गित्वपरिच्छिन्नत्वादिधर्मवत्तया प्रसिद्धमपि तत्त्वमसीत्यागमोत्थया ब्रह्माकारान्तःकरणवृत्त्या ब्रह्मविद्याख्यया अकर्तारमभोक्तारमानन्दघनं सत्यचिद्रूपमसङ्गमनन्तमपरोक्षीकरोतीति महदाश्चर्यम्। यत् पश्यति तदाश्चर्यवदिति क्रियाविशेषणं वा। आविद्यकमपि दर्शनमविद्यां स्वात्मानं च कतकरजोवन्निवर्तयतीति। यद्वा यः पश्यति स आश्चर्यवदिति कर्तृविशेषणम्। यत एक एव विद्वान् समाधिव्युत्थानयोः परस्परविरुद्धमात्मनो ब्रह्मभावं जीवभावं च यावदारब्धकर्मक्षयमनुभवतीति तथा वाङ्मनसातीतमप्यात्मानं यद्वाचा वदति तदप्याश्चर्यम्। अगृहीतसंगतिकेनापिशब्देन यथा सुप्तः प्रबोध्यते तद्वत्। यथोक्तं वार्तिकेअगृहीत्वैव संबन्धमभिधानाभिधेययोः। हित्वा निद्रां प्रबुध्यन्ते सुषुप्ते बोधिताः परैः। जाग्रद्वन्न यतः शब्दं सुषुप्ते वेत्ति कश्चन। ध्वस्तेऽतो ज्ञानतोऽज्ञाने ब्रह्मास्मीति भवेत्फलम्। अविद्याघातिनः शब्दाद्याहं ब्रह्मेति धीर्भवेत्। नश्यत्यविद्यया सार्धं हत्वा रोगमिवौषधम्। इति। तथा यः शृणोति सोऽपि आश्चर्यवत् अतिदुर्लभ इत्यर्थः।श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः इति श्रुतेः।शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विदुः इति श्रुतिद्वितीयपादार्थं संगृह्णाति  श्रुत्वाप्येनमिति। आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा आश्चर्यो ज्ञाता कुशलेनानुशिष्टः इति उत्तरार्धस्तु श्लोकपूर्वार्धेन संगृहीत इति ज्ञेयम्। दुर्विज्ञेयोऽयमात्मा अतस्त्वं तज्ज्ञानार्थं यतस्वेति भावः।
।।2.29।।   शुद्धात्मनो दुर्विज्ञेयत्वाद्रभान्तेश्च सर्वसाधारणत्वान्न त्वां प्रत्येवोपालम्भो युक्त इत्याह  आश्चर्यवदिति।  आश्चर्यमद्भुतभदृष्टपूर्वमकस्मादृष्यमानं तेन तुल्यमाश्चर्यवत्। कश्चिदेनमात्मानमाश्चर्यवत्पश्यति। तथैव चान्य एनमाश्चर्यवद्वदति। अन्यश्चैनमाश्चर्यवच्छ्रणोति। श्रुत्वोक्त्वा दृष्ट्वाप्येनं कश्चित्प्रतिबन्धवशान्न वेद साक्षान्न जानाति।ऐहिकमप्यप्रस्तुतप्रतिबन्धे तद्दर्शनात् इति व्याससूत्रात् फलोन्मुखं विद्याविरुद्धफलत्वं कर्म प्रस्तुतं तेन प्रतिबन्धः प्रस्तुतप्रतिबन्ध तदभावेऐहिकभस्मिन्नेव जन्मनि विद्या जायते सति तु तस्मिञ्जन्मान्तरेऽपि सा जायते कुतः तद्दर्शनात् प्रतिबन्धतदभावभ्यामुभयविधविद्याजन्मनः श्रुतौ दर्शनात्गर्भस्थ एव वामदेवः प्रतिपेदे ब्रह्मभावम् इति वदन्ती श्रुतिः सति प्रतिबन्धे जन्मान्तरसंचितसाधनाज्जन्मान्तरे विद्योत्पत्तिं दर्शयतीति तदर्थः। यद्वा योऽयमात्मानं पश्यति स आश्चर्यतुल्य एवमग्रेऽपि यो वदति यश्च श्रृणोति सोऽनेकशतसहस्त्रेषु कश्चिदेव यश्चोक्त्वा श्रुत्वा पश्यति परोक्षज्ञानवान् भवति स ततोऽपि दुर्लभः यस्तु साक्षात्करोति स तु ततोऽपि दर्लभ इत्याह  श्रुत्वापीति।  अतो दुर्बोध आत्मेत्यभिप्रायः। तथाच प्रथमपक्षे प्रथमपादेनात्मविषयकपरोक्षदर्शनस्य तथैव द्वितीयेन वदनस्य तृतीयने श्रवणस्य चच दुर्लभत्वं चतुर्थेन साक्षात्कारस्य चात्यन्तदौर्लभ्यं च दर्शयता द्रष्टुर्वक्तुः श्रोतुः साक्षात्कर्तुर्विरलतोच्यते। तद्द्वारा चात्मनो दुर्विज्ञेयत्वं कथ्यते। द्वितीयपक्षे त्वात्मनि चतुर्णां दुर्लभत्वकथनेन तदीयं दुर्बोधत्वमुच्यत इति विवेकः। इत्थं च श्रुत्यैकार्थत्वमस्याः स्मृतेः सभ्यगुपपद्यते। तथाच श्रुतिःश्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः श्रृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः। आश्चर्योऽस्य वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः इति। विवृता चेयं भगवत्पादैः प्रायेण ह्येवंविधएव लोकः यस्तु श्रेयोर्थी सोऽनेकशतसहस्त्रेषु कश्चिदेवात्मविद्भवति त्वद्विधः यस्मादित्याह। श्रवणायापि श्रवणार्थं श्रोतुमपि यो न लभ्यः आत्मा बहुभिरनेकैः शृणवन्तो बहवोऽनेकेऽन्ये यमात्मानं न विद्युर्न विन्दन्ति अभागिनोऽसंस्कृतात्मानो न विजानीयुः। किंचास्य वक्ताप्याश्चर्योऽश्रुतव देवानेकेषु कश्चिदेव भवति। तथा श्रुत्वाप्यस्यात्मनः कुशलो निपुण एवानेकेषु लब्धा कश्चिदेव भवति। तस्मादाश्चर्यो ज्ञाता कश्चिदेव कुशलानुशिष्टः कुशलेन निपुणेनाचार्येणानुशिष्टः सन्नित्यर्थ इति। तथाच श्रवणायापीत्यादेरर्थः आश्चर्यवत्कश्चिदेनं श्रृणोतीति श्रृण्वन्तोऽपीत्यादेः श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चिदिति आश्चर्यो वक्तेत्यस्य आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य इति कुशलोऽस्येत्यादेराश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमिति आश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट इत्येतत्तु कुशल इत्यादेर्व्याख्यानं तस्मादित्यादिभाष्यात्। यद्वा लब्धा परोक्षज्ञानवान् ज्ञाता साक्षात्कर्ता। आश्चर्यवत्पश्यतीत्यत्रापि द्विविधं दर्शनं वक्ष्यते श्रुत्येकवाक्यतार्थम्। अस्मिन्पक्षेपरोक्षेणापरोक्षेण वाऽस्य दर्शनं द्रष्टावात्यन्तदुर्लभः परोक्षेणास्य दर्शनं द्रष्टा वा कुतो दुर्लभ इत्यत आह  आश्चर्यवद्वदती त्यादि। तोऽस्य कथनं वक्ता वा श्रवणं श्रोता वा दुर्लभोऽत इत्यर्थः। अपरोक्षेणास्य दर्शनस्य द्रष्टुर्वात्यन्तदौर्लभ्ये हेतुमाह  श्रुत्वापीति।  श्रुत्वा उक्त्वा परोक्षेण दृष्ट्वाप्येनं कश्चिदभागी असंस्कृतात्मा लोको नचैव जानातीति। अतः साक्षादस्य दर्शनं द्रष्टा वात्यन्तदुर्लभ इत्यर्थः। एतेन यदि श्रुत्वाप्येनं न चैव कश्चिदित्येवं व्याख्यायेत तदाआश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः इति श्रुत्येकवाक्यता न स्यात्।यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः इति भगवद्वचनविरोधश्चेति प्रत्युक्तम्। य आत्मानं पश्यति स आश्चर्यतुल्यो यो वदति यश्च शृणोति सोऽनेकसहस्त्रेषु कश्चिदेवेति भाष्यात्स्मृतिविरोधानवकाशाच्च। अत्र केचिद्वर्णयन्ति। एनं प्रकृतं देहिनं आश्चर्येणाद्भुतेन तुल्यतया वर्तमानं आविद्यकनानाविरुद्धधर्मवत्तया सन्तमप्यसन्तमिव स्वप्रकाशचैतन्यरुपमपि जडमिवानन्दरुपमपि दुःखितमिवेत्याद्यसंभावितविचित्रानेकाकारप्रतीतिविषयं पश्यति शास्त्राचार्योपदेशाभ्यामाविद्यकसर्वद्वैतनिषेधेन परमात्मस्वरुपाकारायां वेदान्तमहावाक्यजन्यायां सर्वसुकृतफलभूतायामन्तःकरणवृत्तौ प्रतिफलितं समाधिपरिपाकेन साक्षात्करोति। कश्चिच्छमदमादिसाधनसंपन्नचरमशरीरः कश्चिदेव मर्त्यो नतु सर्वः। तथा कश्चिदेनं यत्पश्यति तदाश्चर्यवदिति क्रियाविशेषणम्। आविद्यकमपि दर्शनमविद्यां स्वात्मानं च निवर्तयतीति। तथा यः कश्चिदेनं पश्यति स आश्चर्यवदिति कर्तृविशेषणम्। यत एकएव विद्वान् समाधिव्युत्थानयोः परस्परविरुद्धमात्मनो ब्रह्मभावं जीवभावं च यावत्प्रारबधकर्मक्षयमनुभवतीति तदेतत्र्यमप्याश्चर्यमात्मा तज्ज्ञानं ज्ञाता चेति। एवमग्रेऽपि कर्मणि क्रियायां कर्तरि चाश्चर्यवदिति योज्यम्। सर्वशब्दावाच्यस्य शुद्धस्यात्मनो यद्वदनं तदाश्चर्यवत् श्रुत्वाप्येनं वेद श्रुत्वाचैनं मनननिदिध्यासनपरिपाकाद्वेदापि साक्षात्करोत्यपि आश्चर्यवत्। तथा चाश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमित्यत्र व्याख्यातम्। ननु यः श्रवणादिकं करोति स आत्मानं वेदेति किमाश्चर्यमत आह नचैव कश्चिदिति। चकारः क्रियाकर्मपदयोरनुषङ्गार्थः। कश्चिदेनं नैव वेद श्रवणादिकं कुर्वन्नपि तदकुर्वन्न वेदेति किमु वक्तव्यम्। अथवा नचैव कश्चिदित्यस्य सर्वत्र संबन्धः। कश्चिदेनं न पश्यति न वदति न श्रृणोति श्रुत्वापि न वेदेति पञ्च प्रकारा उक्ताः। कश्चित्पश्यत्येव न वदति कश्चित्पश्यति वदति च कश्चित्तद्वचनं श्रृणोति तदर्थ जानाति च कश्चित् श्रुत्वापि न जानाति कश्चित्तु सर्वबहिर्भूत इति तत्रेदमवधेयम्। आश्चर्यमद्भुतभदृष्टमकस्माद्दृश्यमानं तेन तुल्यमाश्चर्यवत् यो वदति यश्च श्रृणोति स सहस्त्रेषु कश्चिदेवेत्यादिवदद्भिराचार्यैः कर्तृक्रिययोराश्चर्यवत्त्वं दुर्लभत्वं प्रदर्शितम्।श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यते इति श्रुत्यनुरोधात् आत्मनस्तु कर्तृक्रियाविरलत्वद्वारैव दुर्ज्ञेयत्वं नतु साक्षात् आश्चर्यवत्पदविशेष्यत्वेन श्रुतौ तथात्वासंभवात्तदेकवाक्यतानापत्तेः। तस्मादाश्चर्यवत्पदस्य विरुद्धधर्माश्चर्यपरत्वं कर्मविशेषणत्वं चावदतामाचार्याणां न्यूनता न शङ्कनीया। यदपि वेदेत्यस्य पृथक्करणादि तदपि क्लेशमात्रं तद्विनापि श्रुत्येकवाक्यतायां निरुपितत्वात् यदपि नचैव कश्चिदित्यस्य सर्वत्र संबन्ध इत्यादि तदपि न आश्चर्यवदित्याद्युक्त्या बहव एनं न पश्यन्ति इत्यादेरर्थस्य स्पष्टप्रतीतेः क्लिष्टकल्पनया पक्षान्तरप्रदर्शनस्य वैयर्थ्यात् कश्चिदेनं पश्यतीत्यादिनोपपादिते सर्वबहिर्भूते श्रुत्वापि न वेदेत्यस्योक्तत्वेन चतुर्थप्रकारानर्थक्याच्चेति दिक्। एतेन कश्चिदेनमात्मानं शास्त्राचार्योपदेशाभ्यां पश्यन्नाश्चर्यवत्पश्यति सर्वगतस्य नित्यज्ञानानन्दस्वभावस्यात्मनोऽलौकिकत्वादैन्द्रजालिकवदघटमानं पश्यन्निव विस्मयेन पश्यति असंभावनाभिभूतत्वादित्यादिभाष्यकृद्भि कुतो न व्याख्यातमिति प्रत्युक्तम्। अत्रापि मूलश्रुत्येकवाक्यत्वाभावापत्तेस्तुल्यत्वात्। अन्ये तु वज्रपञ्जरतुल्यस्य सर्वप्रमाणसिद्धस्य वियदादिप्रपञ्चस्य कथं रज्जूरगादिवदज्ञानप्रभवत्वेनात्यन्ततुच्छत्वमुच्यते कथंवा कर्मज्ञानकाण्डापेक्षितमात्मनो यज्ञादिकर्तृत्वं चापह्नूयत इत्याशङ्क्याह  आश्चर्यवदिति।  कश्चिज्ज्ञातात्मतत्त्व एनं अतीतानन्तरश्लोकोक्तं भूतग्राममाश्चर्यं अद्भुतं स्वप्नमायेन्द्रजालादिकं तेन तुल्यमाश्चर्यवत्तथाभूतं पश्यति। तथा कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति सत्त्वेनासत्त्वेन वा निर्वक्तुमशक्यमप्यनिर्वचनीयत्वेनैव लोकाप्रसिद्धेन रुपेणोपपादयति। तथा एनं प्रपञ्चमन्य आश्चर्यबच्छृणोति।इमे लोका इमे देवा इमे वेदा इद्ँसर्वं यदयमात्मा इति। प्रत्यक्षेणानात्मतयोपलभ्यमानस्यापि प्रपञ्चस्य यत्प्रत्यगभिन्नत्वेन श्रवणं तदत्यन्तमाश्चर्यम्। तथा कश्चिदेनं प्रपञ्चं प्रत्यगनन्यत्वेन श्रुत्वापिशब्दादुक्त्वा दृष्ट्वापि तत्त्वतो न वेदेति वर्णयन्ति तदपि सर्वमुपेक्ष्यम्।देही नित्यम् इति श्लोकस्थभूतानीत्यनुरोधेनातीतानन्तरश्लोकस्थभूतानीत्यस्य कार्यकरणसंघातपरत्वेन व्याख्यातत्वात् प्रपञ्चस्यानुक्तेरेनदादेशानुपपत्तेः एनमित्यनेन बह्वभ्यस्तस्यात्मनस्त्यागेन प्रकरणविरोधात् बह्वध्याहारग्रस्तत्वादुपलभ्यमानमूलभूतश्रुतिविरोधात् एतद्य्वाख्यातृभिरप्यरुच्या यद्वेत्यादिपक्षान्तरस्वीकाराच्च पक्षान्तरं च केषांचिद्य्वाख्यानमनूदितमिति निर्मत्सरैर्विद्वद्भिराकलनीयम्।
2.29 आश्चर्यवत् as a wonder? पश्यति sees? कश्चित् sone one? एनम् this (Self)? आश्चर्यवत् as a wonder? वदति speaks of? तथा so? एव also? च and? अन्यः another? आश्चर्यवत् as a wonder? च and? एनम् this? अन्यः another? श्रृणोति hears? श्रुत्वा having heard? अपि even? एनम् this? वेद knows? न not? च and? एव also? कश्चित् any one.Commentary The verse may also be interpreted in this manner. He that sees? hears and speaks of the Self is a wonderful man. Such a man is very rare. He is one among many thousands. Thus the Self is very hard to understand.
2.29 One sees This (the Self) as a wonder; another speaks of It as a wonder; another hears of It as a wonder; yet having heard, none understands It at all.
2.29 One hears of the Spirit with surprise, another thinks It marvellous, the third listens without comprehending. Thus, though many are told about It, scarcely is there one who knows It.
2.29 Someone visualizes It as a wonder; and similarly indeed, someone else talks of It as a wonder; and someone else hears of It as a wonder. And some one else, indeed, does not realize It even after hearing about It.
2.29 'This Self under discussion is inscrutable. Why should I blame you alone regarding a thing that is a source of delusion to all!' How is this Self inscrutable? [It may be argued that the Self is the object of egoism. The answer is: Although the individualized Self is the object of egoism, the absolute Self is not.] This is being answered in, 'Someone visualizes It as a wonder,' etc. Kascit, someone; pasyati, visualizes; enam, It, the Self; ascaryavat, as a wonder, as though It were a wonder a wonder is something not seen before, something strange, something seen all on a sudden; what is comparable to that is ascarya-vat; ca, and; tatha, similarly; eva, indeed; kascit, someone; anyah, else; vadati, talks of It as a wonder. And someone else srnoti, hears of It as a wonder. And someone, indeed, na, does not; veda, realize It; api, even; srutva, after hearing, seeing and speaking about It. Or, (the meaning is) he who sees the Self is like a wonder. He who speaks of It and the who hears of It is indeed rare among many thousands. Therefore, the idea is that the Self is difficult to understand. Now, in the course of concluding the topic under discussion, [viz the needlessness of sorrow and delusion,from the point of view of the nature of things.] He says, 'O descendant of Bharata, this embodied Self', etc.
2.29. This someone observes as a wonder; similarly another speaks of This as a wonder; another hears This as a wonder; but even after hearing, not even one understands This.
2.39 Ascaryavat etc. But, if this Self is, in this manner, changeless (or destructionless), why is This not observed just as such by all ? It is so because, as if by a rare chance, only some one observes [This]. Even after listening, not even one understands This i.e., realises This.
2.29 Among innumerable beings, someone, who by great austerity has got rid of sins and has increased his merits, realises this self possessing the above mentioned nature, which is wonderful and distinct in kind from all things other than Itself. Such a one speaks of It to another. Thus, someone hears of It. And even after hearing of It, no one knows It exactly that It really exists. The term 'ca' (and) implies that even amongst the seers, the speakers and hearers, one with authentic percepetion, authentic speech and authentic hearing, is a rarity.
2.29 One looks upon This (self) as a wonder; likewise another speaks of It as a wonder; still another hears of It as a wonder; and even after hearing of It, one knows It not.
।।2.29।।जिसका प्रकरण चल रहा है यह आत्मतत्त्व दुर्विज्ञेय है। सर्वसाधारणको भ्रान्ति करा देनेवाले विषयमें केवल एक तुझे ही क्या उलाहना दूँ यह आत्मा दुर्विज्ञेय कैसे है सो कहते हैं पहले जो नहीं देखा गया हो अकस्माद् दृष्टिगोचर हुआ हो ऐसे अद्भुत पदार्थका नाम आश्चर्य है उसके सदृशका नाम आश्चर्यवत् है इस आत्माको कोई ( महापुरुष ) ही आश्चर्यमय वस्तुकी भाँति देखता है। वैसे ही दूसरा ( कोई एक ) इसको आश्चर्यवत् कहता है अन्य ( कोई ) इसको आश्चर्यवत् सुनता है एवं कोई इस आत्माको सुनकर देखकर और कहकर भी नहीं जानता। अथवा जो इस आत्माको देखता है वह आश्चर्यके तुल्य है जो कहता है और जो सुनता है वह भी ( आश्चर्यके तुल्य है )। अभिप्राय यह कि अनेक सहस्रोंमेंसे कोई एक ही ऐसा होता है। इसलिये आत्मा बड़ा दुर्बोध है।
।।2.29।। आश्चर्यवत् आश्चर्यम् अदृष्टपूर्वम् अद्भुतम् अकस्माद्दृश्यमानं तेन तुल्यं आश्चर्यवत् आश्चर्यमिव एनम् आत्मानं पश्यति कश्चित्। आश्चर्यवत् एनं वदति तथैव च अन्यः। आश्चर्यवच्च एनमन्यः श्रृणोति। श्रुत्वा दृष्ट्वा उक्त्वापि एनमात्मानं वेद न चैव कश्चित्। अथवा योऽयमात्मानं पश्यति स आश्चर्यतुल्यः यो वदति यश्च श्रृणोति सः अनेकसहस्रेषु कश्चिदेव भवति। अतो दुर्बोध आत्मा इत्यभिप्रायः।।अथेदानीं प्रकरणार्थमुपसंहरन्ब्रूते
।।2.29।।आश्चर्यवदिति श्लोकस्य न प्रकृतसङ्गतिर्दृश्यते तदुत्तरश्च पुनरुक्त इत्यत आह  देहयोगे ति। द्वन्द्वैकवद्भावोऽयम्। सर्वथेति बिम्बनाशाभावादिभिः सर्वैः प्रकारैरित्युपसंहर्तुमुत्तरेण श्लोकेन। ईश्वरसरूपत्वेऽपि कथमनाश इत्याशङ्कापरिहारहेतुत्वा दुपसंहर्तु मित्युक्तम्। अप्रमेयस्येस्यादिना प्रागुक्तत्वात्पुनरिति। एवं यः कश्चित्पश्यति स आश्चर्यवदित्याद्युक्त्वा चतुर्थपादेन तदुपपादनं क्रियते तं व्याचष्टे  दुर्लभत्वेने ति। दुर्लभत्वमाश्चर्यशब्दप्रवृत्तौ निमित्तमित्यर्थः। तत्कथमित्यत आह  तद्धी ति।आश्चर्यमनित्ये अष्टा.6।1।147 इत्यादिस्मतिं हिशब्देन सूचयति। सर्वेषामात्मद्रष्ट्वत्वात्कथमात्मद्रष्टा दुर्लभोऽपि येनाश्चर्यमुच्यते इत्यत आह  दुर्लभो ऽपीति। ईश्वरसरूपत्वादिनाऽऽत्मद्रष्टा दुर्लभ इति भावः। अनेन आश्चर्य एवाश्चर्यवदित्युच्त इत्युक्तं भवति। यत्प्रतिबिम्बस्य जीवस्य द्रष्टाऽपि दुर्लभः किं तत्सामर्थ्यं वर्णनीयम् इतीश्वरसामर्थ्यदर्शनम्। देहयोगवियोगस्येत्यादिनादेही नित्यं 2।30 इति (उत्तर) श्लोको (ऽपि) व्याख्यातः।स्वधर्मं 2।3138 इत्यादयः श्लोका अतिरोहितार्थत्वान्न व्याख्याताः। एवमुत्तरत्रापि।
।।2.29।।देहयोगवियोगस्य नियतत्वादात्मनश्चेश्वरसरूपत्वात् सर्वथानाशान्न शोकः कार्य इत्युपसंहर्तुमैश्वरं सामर्थ्यं पुनर्दर्शयति आश्चर्यवदिति। दुर्लभत्वेनेत्यर्थः। तद्ध्याश्चर्यं लोके। दुर्लभोऽपीश्वरसरूपत्वात्सूक्ष्मत्वाच्चात्मनस्तद्द्रष्टा।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः। आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।2.29।।
আশ্চর্যবত্পশ্যতি কশ্িচদেন- মাশ্চর্যবদ্বদতি তথৈব চান্যঃ৷ আশ্চর্যবচ্চৈনমন্যঃ শ্রৃণোতি শ্রুত্বাপ্যেনং বেদ ন চৈব কশ্িচত্৷৷2.29৷৷
আশ্চর্যবত্পশ্যতি কশ্িচদেন- মাশ্চর্যবদ্বদতি তথৈব চান্যঃ৷ আশ্চর্যবচ্চৈনমন্যঃ শ্রৃণোতি শ্রুত্বাপ্যেনং বেদ ন চৈব কশ্িচত্৷৷2.29৷৷
આશ્ચર્યવત્પશ્યતિ કશ્િચદેન- માશ્ચર્યવદ્વદતિ તથૈવ ચાન્યઃ। આશ્ચર્યવચ્ચૈનમન્યઃ શ્રૃણોતિ શ્રુત્વાપ્યેનં વેદ ન ચૈવ કશ્િચત્।।2.29।।
ਆਸ਼੍ਚਰ੍ਯਵਤ੍ਪਸ਼੍ਯਤਿ ਕਸ਼੍ਿਚਦੇਨ- ਮਾਸ਼੍ਚਰ੍ਯਵਦ੍ਵਦਤਿ ਤਥੈਵ ਚਾਨ੍ਯ। ਆਸ਼੍ਚਰ੍ਯਵਚ੍ਚੈਨਮਨ੍ਯ ਸ਼੍ਰਰਿਣੋਤਿ ਸ਼੍ਰੁਤ੍ਵਾਪ੍ਯੇਨਂ ਵੇਦ ਨ ਚੈਵ ਕਸ਼੍ਿਚਤ੍।।2.29।।
ಆಶ್ಚರ್ಯವತ್ಪಶ್ಯತಿ ಕಶ್ಿಚದೇನ- ಮಾಶ್ಚರ್ಯವದ್ವದತಿ ತಥೈವ ಚಾನ್ಯಃ. ಆಶ್ಚರ್ಯವಚ್ಚೈನಮನ್ಯಃ ಶ್ರೃಣೋತಿ ಶ್ರುತ್ವಾಪ್ಯೇನಂ ವೇದ ನ ಚೈವ ಕಶ್ಿಚತ್৷৷2.29৷৷
ആശ്ചര്യവത്പശ്യതി കശ്ിചദേന- മാശ്ചര്യവദ്വദതി തഥൈവ ചാന്യഃ. ആശ്ചര്യവച്ചൈനമന്യഃ ശ്രൃണോതി ശ്രുത്വാപ്യേനം വേദ ന ചൈവ കശ്ിചത്৷৷2.29৷৷
ଆଶ୍ଚର୍ଯବତ୍ପଶ୍ଯତି କଶ୍ିଚଦେନ- ମାଶ୍ଚର୍ଯବଦ୍ବଦତି ତଥୈବ ଚାନ୍ଯଃ| ଆଶ୍ଚର୍ଯବଚ୍ଚୈନମନ୍ଯଃ ଶ୍ରୃଣୋତି ଶ୍ରୁତ୍ବାପ୍ଯେନଂ ବେଦ ନ ଚୈବ କଶ୍ିଚତ୍||2.29||
āścaryavatpaśyati kaśicadēna- māścaryavadvadati tathaiva cānyaḥ. āścaryavaccainamanyaḥ śrṛṇōti śrutvāpyēnaṅ vēda na caiva kaśicat৷৷2.29৷৷
ஆஷ்சர்யவத்பஷ்யதி கஷ்ிசதேந- மாஷ்சர்யவத்வததி ததைவ சாந்யஃ. ஆஷ்சர்யவச்சைநமந்யஃ ஷ்ரரிணோதி ஷ்ருத்வாப்யேநஂ வேத ந சைவ கஷ்ிசத்৷৷2.29৷৷
ఆశ్చర్యవత్పశ్యతి కశ్ిచదేన- మాశ్చర్యవద్వదతి తథైవ చాన్యః. ఆశ్చర్యవచ్చైనమన్యః శ్రృణోతి శ్రుత్వాప్యేనం వేద న చైవ కశ్ిచత్৷৷2.29৷৷
2.30
2
30
।।2.30।। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सबके देहमें यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।
।।2.30।। हे भारत ! यह देही आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है, इसलिए समस्त प्राणियों के लिए तुम्हें शोक करना उचित नहीं।।
।।2.30।। सबके शरीर में स्थित सूक्ष्म आत्मतत्त्व अवध्य है अर्थात् इसका वध नहीं किया जा सकता। केवल देह का ही नाश होता है। इसलिए अर्जुन को उपदेश किया जाता है कि इस महा समर में युद्ध करने और शत्रु संहार करने में किसी भी प्राणी के लिए शोक करना सर्वथा अनुचित है। युद्ध में वह शत्रुओं का सामना करे। यह उपदेश देने के पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण ने अत्यन्त युक्तियुक्त शैली में आत्मा की अनश्वरता और शरीरों के नश्वर स्वभाव को सिद्ध किया है। श्रीशंकराचार्य सही कहते हैं कि 11वें श्लोक से प्रारम्भ किये गये प्रकरण का यहाँ उपसंहार किया गया है।अब तक यह बताया गया कि पारमार्थिक सत्य की दृष्टि से शोक करने का कोई कारण नहीं है। न केवल पारमार्थिक दृष्टि से बल्कि
2.30।। व्याख्या-- 'देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत'-- मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि स्थावर-जङ्गम् सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंमें यह देही नित्य अवध्य अर्थात् अविनाशी है।    'अवध्यः'--  शब्दके दो अर्थ होते हैं (1) इसका वध नहीं करना चाहिये और (2) इसका वध हो ही नहीं सकता। जैसे गाय अवध्य है अर्थात् कभी किसी भी अवस्थामें गायको नहीं मारना चाहिये; क्योंकि गायको मारनेमें बड़ा भारी दोष है, पाप है। परन्तु 'देहीके विषयमें देहीका वध नहीं करना चाहिये'--ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत इस देहीका वध (नाश) कभी किसी भी तरहसे हो ही नहीं सकता और कोई कर भी नहीं सकता--  'विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति'  (2। 17)।      'तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि'-- इसलिये तुम्हें किसी भी प्राणीके लिये शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस देहीका विनाश कभी हो ही नहीं सकता और विनाशी देह क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता। यहाँ  'सर्वाणि भूतानि' पदोंमें बहुवचन देनेका आशय है कि कोई भी प्राणी बाकी न रहे अर्थात् किसी भी प्राणीके लिये शोक नहीं करना चाहिये। शरीर विनाशी ही है; क्योंकि उसका स्वभाव ही नाशवान् है। वह प्रतिक्षण ही नष्ट हो रहा है। परन्तु जो अपना नित्य-स्वरूप है, उसका कभी नाश होता ही नहीं। अगर इस वास्तविकको जान लिया जाय तो फिर शोक होना सम्भव ही नहीं है।  प्रकरण सम्बन्धी विशेष बात  यहाँ ग्यारहवें श्लोकसे तीसवें श्लोकतकका जो प्रकरण है, यह विशेषरूपसे देही-देह, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, अविनाशी-विनाशी--इन दोनोंके विवेकके लिये अर्थात् इन दोनोंको अलग-अलग बतानेके लिये ही है। कारण कि जबतक देही अलग है और 'देह अलग है'--यह विवेक नहीं होगा, तबतक कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कोई-सा भी योग अनुष्ठानमें नहीं आयेगा। इतना ही नहीं, स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्तिके लिये भी देही-देहके भेदको समझना आवश्यक है। कारण कि देहसे अलग देही न हो, तो देहके मरनेपर स्वर्ग कौन जायगा? अतः जितने भी आस्तिक दार्शनिक हैं वे चाहे अद्वैतवादी हों, चाहे द्वैतवादी हों; किसी भी मतके क्यो न हों, सभी शरीरी-शरीरके भेदको मानते ही हैं। यहाँ भगवान् इसी भेदको स्पष्ट करना चाहते हैं। इस प्रकरणमें भगवान्ने जो बात कही है, वह प्रायः सम्पूर्ण मनुष्योंके अनुभवकी बात है। जैसे, देह बदलता है और देही नहीं बदलता। अगर यह देही बदलता तो देहके बदलनेको कौन जानता? पहले बाल्यावस्था थी, फिर जवानी आयी; कभी बीमारी आयी, कभी बीमारी चली गयी--इस तरह अवस्थाएँ तो बदलती रहती हैं पर इन सभी अवस्थाओंको जाननेवाला देही वही रहता है। अतः बदलनेवाला और न बदलनेवाला--ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते। इसका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है। इसलिये भगवान्ने इस प्रकरणमें आत्मा-अनात्मा, ब्रह्म-जीव, प्रकृति-पुरुष, जड-चेतन, माया-अविद्या आदि दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग नहीं किया है  (टिप्पणी प0 71.1) । कारण कि लोगोंने दार्शनिक बातें केवल सीखनेके लिये मान रखी हैं, उन बातोंको केवल पढ़ाईका विषय मान रखा है। इसको दृष्टिमें रखकर भगवान्ने इस प्रकरणमें दार्शनिक शब्दोंका प्रयोग न करके देह-देही शरीर-शरीरी, असत्-सत् विनाशी-अविनाशी शब्दोंका ही प्रयोग किया है। जो इन दोनोंके भेदको ठीक-ठीक जान लेता है ,उसको कभी किञ्चिन्मात्र भी शोक नहीं हो सकता। जो केवल दार्शनिक बातें सीख लेते हैं, उनका शोक दूर नहीं होता। एक छहों दर्शनोंकी पढ़ाई करना होता है और एक अनुभव करना होता है। ये दोनों बातें अलग-अलग हैं और इनमें बड़ा भारी अन्तर है। पढ़ाईमें ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति और संसार ये सभी ज्ञानके विषय होते हैं अर्थात् पढ़ाई करनेवाला तो ज्ञाता होता है और ब्रह्म, ईश्वर आदि इ न्द्रियों और अन्तःकरणके विषय होते हैं। पढ़ाई करनेवाला तो जानकारी बढ़ाना चाहता है, विद्याका संग्रह करना चाहता है, पर जो साधक मुमुक्षु जिज्ञासु और भक्त होता है, वह अनुभव करना चाहता है, अर्थात् प्रकृति और संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके और अपने-आपको जानकर ब्रह्मके साथ अभिन्नताका अनुभव करना चाहता है, ईश्वरके शरण होना चाहता है।  सम्बन्ध -- अर्जुनके मनमें कुटुम्बियोंके मरनेका शोक था और गुरुजनोंको मारनेके पापका भय था अर्थात् यहाँ कुटुम्बियोंका वियोग हो जायेगा तो उनके अभावमें दुःख पाना पड़ेगा यह शोक था और परलोकमें पापके कारण नरक आदिका दुःख भोगना पड़ेगा यह भय था। अतः भगवान्ने अर्जुनका शोक दूर करनेके लिये ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतकका प्रकरण कहा और अब अर्जुनका भय दूर करनेके लिये क्षात्रधर्मविषयक आगेका प्रकरण आरम्भ करते हैं।
।।2.30।।एवंविधं च आश्चर्यवदिति। ननु यद्येवमयमात्मा अविनाशी किमिति सर्वेण तथैव नोपलभ्यते यतः अद्भुतवत्कश्चिदेव पश्यति श्रुत्वापि एनं (N omit एनम्) न कश्चित् (S N न कश्चिदेव जा ( N कश्चिज्जा) नाति न वेत्ति) वेत्ति न (K omits न) जानाति।
।।2.30।। सर्वस्य  देवादिदेहिनो  देहे  वध्यमाने अपि  अयं देही नित्यम् अवध्य  इति मन्तव्यः। तस्मात्  सर्वाणि  देवादिस्थावरान्तानि  भूतानि  विषमाकाराणि अपि उक्तेन स्वभावेन स्वरूपतः समानानि नित्यानि च। देहगतं तु वैषम्यम् अनित्यत्वं च। ततो देवादीनि सर्वाणि भूतानि उद्दिश्य  न शोचितुम् अर्हसि  न केवलं भीष्मादीन् प्रति।
।।2.30।।श्लोकान्तरमुत्थापयति  अथेति।  आत्मनो दुर्ज्ञानत्वप्रदर्शनानन्तरमिति यावत्। वस्तुवृत्तापेक्षया शोकमोहयोरकर्तव्यत्वं प्रकरणार्थः। देहे वध्यमानेऽपि देहिनो वध्यत्वाभावे फलितमाह  यस्मादिति।  हेतुभागं विभजते  सर्वस्येति।  फलितप्रदर्शनपरं श्लोकार्धं व्याचष्टे  तस्माद्भीष्मादीनीति।
।।2.30।।यतो देही आत्मा जीवो नित्यमवध्यः सर्वस्यानेकविधस्य देहे तस्मात् सर्वाणि भूतानि न शोचितुमर्हसि।
।।2.30।।इदानीं सर्वप्राणिसाधारणभ्रमनिवृत्तिसाधनमुक्तमुपसंहरति सर्वस्य प्राणिजातस्य देहे वध्यमानेऽप्ययं देही लिङ्गदेहोपाधिरात्मा वध्यो न भवतीति। नित्यं नियतम्। यस्मात्तस्मात्सर्वाणि भूतानि स्थूलानि सूक्ष्माणि च भीष्मादिभावापन्नान्युद्दिश्य त्वं न शोचितुमर्हसि स्थूलदेहस्याशोच्यत्वमपरिहार्यत्वात् लिङ्गदेहस्याशोच्यत्वमात्मवदेवावध्यत्वादिति न स्थूलदेहस्य त्वं न शोचितुमर्हसि स्थूलदेहस्याशोच्यत्वमपरिहार्यत्वात् लिङ्गदेहस्याशोच्यत्वमात्मवदेवावध्यत्वादिति न स्थूलदेहस्य लिङ्गदेहस्यात्मनो वा शोच्यत्वं युक्तिमिति भावः।
।।2.30।।तदेवं दुर्बोधमात्मतत्त्वं संक्षेपेणोपदिशन्नशोच्यत्वमुपसंहरति  देहीति।
।।2.30।।अथ यथा देवादिस्थावरान्तेषु भूतेषु देहांशे जातिगुणदेशकालदुर्भेदत्वसुभेदत्ववैषम्यमुपलभ्यते तद्वत् देहिन्यपि सुखित्वदुःखित्वादिवैषम्यं दृश्यते। देवादिशब्दाश्च देवत्वादिविशिष्टात्मपर्यन्ताः। एवं नित्यानित्यत्वादिलक्षणवैषम्यमपि सम्भाव्येतेति शङ्कानिराकरणायोच्यते देहीति।वध्यमानेऽपीति सामर्थ्यानीतमुक्तंहन्यमाने शरीरे 2।20 इतिवत्। अन्यथादेहे सर्वस्य इत्यस्य नैरर्थक्यंदेही इत्येतावतैव देहवर्तित्वसिद्धेः। भूतशब्दोऽत्र क्षेत्रज्ञपर्यन्तः।सर्वाणि इत्यादिसूचितशङ्काहेतुःविषमाकाराण्यपि इत्यनूदितः। देवादिभेदात्तत्प्रयुक्तसुखादिभेदाच्चेति शेषः।उक्तेन स्वभावेनेति पूर्वोक्तसूक्ष्मत्वाच्छेद्यत्वादिनेत्यर्थः।नित्यानि चेति न तु नित्यत्वानित्यत्वलक्षणवैषम्यं शङ्कनीयमित्यर्थः।देहगतं तु वैषम्यमिति। देहगतमत्र देवादिसन्निवेशवैषम्यम्। सुखादिवैषम्यं त्वात्मगतमपि तत्तद्देहौपाधिकधर्मभूतज्ञानावस्थाविशेषतारतम्यात्मकम्। चेतनानां देहादिशब्दैर्व्यपदेशस्तु शरीरस्यापृथक्सिद्धिमात्रनिबन्धन इति भावः। प्रकृतसङ्गतिज्ञापनायसर्वाणि इत्यस्य व्यवच्छेद्यमाह न केवलं भीष्मादीन् प्रतीति। एवंअशोच्यानन्वशोचस्त्वम् 2।11 इत्यादिनान त्वं शोचितुमर्हसि
।।2.30।।पूर्वोक्तमुपसंहरन् शोकाभावमुपदिशति देहीति। देही सर्वस्य देहे अवध्यस्तस्मात्सर्वाणि भूतानि जातदेहानि नतु देही जायत इति त्वं शोचितुं ना र्ह৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷ सि। भारतेति सम्बोधनात्तथाज्ञानभवत्वं बोध्यते।
।।2.30।।प्रकृतमर्थमुपसंहरति देहीति। सर्वाणि भूतानि कथमेते दीना अल्पबला बलवत्तरेण मया हन्तव्याः कथमेषां पुत्रादय एतैर्विना जीविष्यन्ति कथं वाहं भीष्मादिभिर्गुरुभिर्विना जीविष्यामीति शोचितुं नार्हसीत्यर्थः।
।।2.30।।   उपसंहरति  देहीति।  देही आत्मा देहे वध्यमानेऽपि सर्वाणि भूतानि भीष्मादीनि देहाश्च भरतादिदेहवदनित्या एवेति। तानुद्दिश्यापि शोचितुं नार्हसीति भारतेतिसंबोधनेन ध्वनितम्।
2.30 देही indweller? नित्यम् always? अवध्यः indestructible? अयम् this? देहे in the body? सर्वस्य of all? भारत O Bharata? तस्मात् therefore? सर्वाणि (for) all? भूतानि creatures? न not? त्वम् thou? शोचितुम् to grieve? अर्हसि (thou) shouldst.Commentary The body of any creature may be destroyed but the Self cannot be killed. Therefore you should not grieve regarding any creature whatever? Bhishma or anybody else.
2.30 This, the Indweller in the body of everyone, is ever indestructible, O Arjuna; therefore, thou shouldst not grieve for any creature.
2.30 Be not anxious about these armies. The Spirit in man is imperishable.
2.30 O descendant of Bharata, this embodied Self existing in everyone's body can never be killed. Therefore you ought not to grieve for all (these) beings.
2.30 Because of being partless and eternal, ayam, this dehi, embodied Self; nityam avadhyah, can never be killed, under any condition. That being so, although existing sarvasya dehe, in all bodies, in trees etc., this One cannot be killed on account of Its being allpervasive. Since the indewelling One cannot be killed although the body of everyone of the living beings be killed, tasmat, therefore; tvam, you; na arhasi, ought not; socitum, to grieve; for sarvani bhutani, all (these) beings, for Bhisma and others. Here [i.e. in the earlier verse.] it has been said that, from the standpoint of the supreme Reality, there is no occasion for sorrow or delusion. (This is so) not merely from the standpoint of the supreme Reality, but
2.30. O descendant of Bharata ! This embodied One in the body of every one is for ever incapable of being slain. Therefore you should not lament over all beings.
2.30 Dehi etc. On these grounds, the permanent destruction-lessness of the Self [is established].
2.30 The self within the body of everyone such as gods etc., must be considered to be eternally imperishable, though the body can be killed. Therefore, all beings from gods to immovable beings, even though they possess different forms, are all uniform and eternal in their nature as described above. The ineality and the perishableness pertain only to the bodies. Therefore, it is not fit for you to feel grief for any of the beings beginning from gods etc., and not merely for Bhisma and such others.
2.30 The self in the body, O Arjuna, is eternal and indestructible. This is so in the case of the selves in all bodies. Therefore, it is not fit for you to feel grief for any being.
।।2.30।।अब यहाँ प्रकरणके विषयका उपसंहार करते हुए कहते हैं यह जीवात्मा सर्वव्यापी होनेके कारण सबके स्थावरजंगम आदि शरीरोंमें स्थित है तो भी अवयवरहित और नित्य होनेके कारण सदा सब अवस्थाओंमें अवश्य ही है। जिससे कि सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंका नाश किये जानेपर भी इस आत्माका नाश नहीं किया जा सकता इसलिये भीष्मादि सब प्राणियोंके उद्देश्यसे तुझे शोक करना उचित नहीं है।
।।2.30।। देही शरीरी नित्यं सर्वदा सर्वावस्थासु अवध्यः निरवयवत्वान्नित्यत्वाच्च तत्र अवध्योऽयं देहे शरीरे सर्वस्य सर्वगतत्वात्स्थावरादिषु स्थितोऽपि सर्वस्य प्राणिजातस्य देहे वध्यमानेऽपि अयं देही न वध्यः यस्मात् तस्मात् भीष्मादीनि सर्वाणि भूतानि उद्दिश्य न त्वं शोचितुमर्हसि।।इह परमार्थतत्त्वापेक्षायां शोको मोहो वा न संभवतीत्युक्तम्। न केवलं परमार्थतत्त्वापेक्षायामेव। किं तु
null
null
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।
দেহী নিত্যমবধ্যোযং দেহে সর্বস্য ভারত৷ তস্মাত্সর্বাণি ভূতানি ন ত্বং শোচিতুমর্হসি৷৷2.30৷৷
দেহী নিত্যমবধ্যোযং দেহে সর্বস্য ভারত৷ তস্মাত্সর্বাণি ভূতানি ন ত্বং শোচিতুমর্হসি৷৷2.30৷৷
દેહી નિત્યમવધ્યોયં દેહે સર્વસ્ય ભારત। તસ્માત્સર્વાણિ ભૂતાનિ ન ત્વં શોચિતુમર્હસિ।।2.30।।
ਦੇਹੀ ਨਿਤ੍ਯਮਵਧ੍ਯੋਯਂ ਦੇਹੇ ਸਰ੍ਵਸ੍ਯ ਭਾਰਤ। ਤਸ੍ਮਾਤ੍ਸਰ੍ਵਾਣਿ ਭੂਤਾਨਿ ਨ ਤ੍ਵਂ ਸ਼ੋਚਿਤੁਮਰ੍ਹਸਿ।।2.30।।
ದೇಹೀ ನಿತ್ಯಮವಧ್ಯೋಯಂ ದೇಹೇ ಸರ್ವಸ್ಯ ಭಾರತ. ತಸ್ಮಾತ್ಸರ್ವಾಣಿ ಭೂತಾನಿ ನ ತ್ವಂ ಶೋಚಿತುಮರ್ಹಸಿ৷৷2.30৷৷
ദേഹീ നിത്യമവധ്യോയം ദേഹേ സര്വസ്യ ഭാരത. തസ്മാത്സര്വാണി ഭൂതാനി ന ത്വം ശോചിതുമര്ഹസി৷৷2.30৷৷
ଦେହୀ ନିତ୍ଯମବଧ୍ଯୋଯଂ ଦେହେ ସର୍ବସ୍ଯ ଭାରତ| ତସ୍ମାତ୍ସର୍ବାଣି ଭୂତାନି ନ ତ୍ବଂ ଶୋଚିତୁମର୍ହସି||2.30||
dēhī nityamavadhyō.yaṅ dēhē sarvasya bhārata. tasmātsarvāṇi bhūtāni na tvaṅ śōcitumarhasi৷৷2.30৷৷
தேஹீ நித்யமவத்யோயஂ தேஹே ஸர்வஸ்ய பாரத. தஸ்மாத்ஸர்வாணி பூதாநி ந த்வஂ ஷோசிதுமர்ஹஸி৷৷2.30৷৷
దేహీ నిత్యమవధ్యోయం దేహే సర్వస్య భారత. తస్మాత్సర్వాణి భూతాని న త్వం శోచితుమర్హసి৷৷2.30৷৷
2.31
2
31
।।2.31।। अपने स्वधर्म (क्षात्रधर्म) को देखकर भी तुम्हें विकम्पित अर्थात् कर्तव्य-कर्मसे विचलित नहीं होना चाहिये; क्योंकि धर्ममय युद्धसे बढ़कर क्षत्रियके लिये दूसरा कोई कल्याणकारक कर्म नहीं है।
।।2.31।। और स्वधर्म को भी देखकर तुमको विचलित होना उचित नहीं है,  क्योंकि धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारक कर्त्तव्य क्षत्रिय के लिये नहीं है।।
।।2.31।। क्षत्रिय का कार्य समाज का राष्ट्र का नेतृत्व करना है और क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन का कर्तव्य हो जाता है कि समाज पर आये अधर्म के संकट से उसकी रक्षा करे। उसका कर्तव्य है कि समाज के आह्वान पर युद्ध भूमि में विचलित न होकर शत्रुओं से युद्ध करके राष्ट्र की संस्कृति का रक्षण करे।क्षत्रियों के लिए इससे बढ़कर कोई और श्रेयष्कर कार्य नहीं हो सकता कि उनको धर्मयुक्त युद्ध में अपना शौर्य दिखाने का स्वर्ण अवसर मिले। यहाँ अधर्मियों ने ही पहले आक्रमण किया है। अत अर्जुन का युद्ध से विरत होना उचित नहीं। महाभारत के उद्योग पर्व में स्पष्ट कहा है निरपराध व्यक्ति की हत्या का पाप उतना ही बड़ा है जितना कि नाश करने योग्य व्यक्ति का नाश न करने का है।युद्ध का औचित्य सिद्ध करते हुए भगवान् अन्य कारण बताते हैं
।।2.31।। व्याख्या -- [पहले दो श्लोकोंमें युद्धसे होनेवाले लाभका वर्णन करते हैं।]
।।2.31।।देहीति। अतो नित्यमात्मनोऽविनाशित्वम्।
।।2.31।।अपि च इदं प्रारब्धं युद्धं प्राणिमारणम् अपि अग्नीषोमीयादिवत्  स्वधर्मम् अवेक्ष्य न विकम्पितुम् अर्हसि धर्म्यात्  न्यायतः प्रवृत्तात्  युद्धाद् अन्यत् न हि क्षत्रियस्य श्रेयो विद्यते। शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।(गीता 18।43) इति हि वक्ष्यते।अग्नीषोमीयादिषु च न हिंसा पशोः निहीनतरच्छागादिदेहपरित्यागपूर्वककल्याणदेहस्वर्गादिप्रापकत्वश्रुतेः संज्ञपनस्य।न वा उ वेतन्म्रियसे न रिष्यसि देवाँ इदेषि पथिभिः सुगेभिः। यत्र यान्ति सुकृतो नापि दुष्कृतस्तत्र त्वा देवः सविता दधातु (यजुर्वेद 4।6।9।43) इति हि श्रूयते।इह च युद्धे मृतानां कल्याणतरदेहादिप्राप्तिः उक्ता वासांसि जीर्णानि (गीता 2।22) इत्यादिना। अतः चिकित्सककर्म आतुरस्थ इव अस्य रक्षणम् एव अग्नीषोमीयादिषु संज्ञपनम्।
।।2.31।।श्लोकान्तरमवतारयन्वृत्तं कीर्तयति  इहेति।  पूर्वश्लोकः सप्तम्यर्थः यत्पारमार्थिकं तत्त्वं तदपेक्षायामेव केवलं शोकमोहयोरसंभवो न भवति किंतु स्वधर्ममपि चावेक्ष्येति संबन्धः। स्वकीयं क्षात्रधर्ममनुसंधाय ततश्चलनं परिहर्तव्यमित्यर्थः। यद्धि क्षत्रियस्य धर्मादनपेतं श्रेयःसाधनं तदेव मयानुवर्तितव्यमित्याशङ्क्याह  धर्मादिति।  जातिप्रयुक्तं स्वाभाविकं स्वधर्ममेव विशिनष्टि   क्षत्रियस्येति।  पुनर्नकारोपादानमन्वयार्थम्। प्रचलितुमयोग्यत्वे प्रतियोगिनं दर्शयति  स्वाभाविकादिति।  स्वाभाविकत्वमशास्त्रीयत्वमिति शङ्कां वारयितुं तात्पर्यमाह  आत्मेति।  आत्मनः स्वस्यार्जुनस्य स्वाभाव्यं क्षत्रियस्वभावप्रयुक्तं वर्णाश्रमोचितं कर्म तस्मादित्यर्थः। धर्मार्थं प्रजापरिपालनार्थं च प्रयतमानस्य युद्धादुपरिरंसा श्रद्धातव्येत्याशङ्क्याह  तच्चेति।  ततोऽपि श्रेयस्करं किंचिदनुष्ठातुं युद्धादुपरतिरुचितेत्याशङ्क्याह  तस्मादिति।  तस्माद्युद्धात्प्रचलनमनुचितमिति शेषः।
।।2.31।।किञ्च यदुक्तंवेपथुश्च शरीर मे 1।29 इत्यादिधर्मविरुद्धमात्मलक्षमं तदप्ययुक्तमित्याह स्वधर्ममिति। धर्मनिष्ठस्य नैतदुचितमित्याह धर्म्यादिति।
।।2.31।।तदेवं स्थूलसूक्ष्मशरीरद्वयतत्कारणाविद्याख्योपाधित्रयाविवेकेन मिथ्याभूतस्यापि संसारस्य सत्यत्वात्मधर्मत्वादिप्रतिभासरूपं सर्वप्राणिसाधारणमर्जुनस्य भ्रमं निराकर्तुमुपाधित्रयविवेकेनात्मस्वरूपमभिहितवान्। संप्रति युद्धाख्ये स्वधर्मे हिंसादिबाहुल्येनाधर्मत्वप्रतिभासरूपमर्जुनस्यैव करुणादिदोषनिबन्धनमसाधारणं भ्रमं निराकर्तुं हिंसादिमत्त्वेऽपि युद्धस्य स्वधर्मत्वेनाधर्मत्वाभावं बोधयति भगवान् न केवलं परमार्थतत्त्वमेवावेक्ष्य किंतु स्वधर्ममपि क्षत्रियधर्ममपि युद्धापराङगमुखत्वरूपमवेक्ष्य शास्त्रतः पर्यालोच्य विकम्पितुं विचलितुं धर्मादावधर्मत्वभ्रान्त्या निवर्तितुं नार्हसि। तत्रैवं सतियद्यप्येते न पश्यन्ति इत्यादिनानरके नियतं वासो भवति इत्यन्तेन युद्धस्य पापहेतुत्वं त्वया यदुक्तंकथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादिना गुरुवधब्रह्मवधाद्यकरणं यदभिसंहितं तत्सर्वं धर्मशास्त्रापर्यालोचनादेवोक्तम्। कस्मात्। हि यस्मात् धर्म्यादपराङ्मुखत्वधर्मादनपेताद्युद्धादन्यत्क्षत्रियस्य श्रेयः श्रेयःसाधनं न विद्यते। युद्धमेव हि पृथिवीजयद्वारेण प्रजारक्षणब्राह्मणशुश्रूषादिक्षात्रधर्मनिर्वाहकमिति तदेव क्षत्रियस्य प्रशस्ततरमित्यभिप्रायः। तथाचोक्तं पराशरेण क्षत्रियो हि प्रजा रक्षञ्शस्त्रपाणिः प्रदण्डवान्। निर्जित्य परसैन्यानि क्षितिं धर्मेण पालयेत्।। मनुनापि समोत्तमाधमै राजा चाहूतः पालयन्प्रजाः। न निवर्तेत संग्रामात्क्षात्रं धर्ममनुस्मरन्।।संग्रामेष्वनिवर्तित्वं प्रजानां चैव पालनम्। शुश्रूषा ब्राह्मणानां च राज्ञः श्रेयस्करं परम्।। इत्यादिना। राजशब्दश्च क्षत्रियजातिमात्रवाचीति स्थितमवेष्ट्यधिकरणे। तेन भूमिपालस्यैवायं धर्म इति न भ्रमितव्यम्। उदाहृतवचनेऽपि क्षत्रियो हीति क्षात्रं धर्ममिति च स्पष्टं लिङ्गम्। तस्मात्क्षत्रियस्य युद्धं प्रशस्तो धर्म इति साधु भगवताभिहितम्अपशवोऽन्ये गोअश्वेभ्यः पशवो गोअश्वाः इतिवत्प्रशंसालक्षणया युद्धादन्यच्छ्रेयःसाधनं न विद्यत इत्युक्तमिति न दोषः। एतेन युद्धात्प्रशस्ततरं किंचिदनुष्ठातुं ततो निवृत्तिरुचितेति निरस्तम्न च श्रेयोऽनु पश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे इत्येतदपि।
।।2.31।।यच्चोक्तमर्जुनेनवेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते इति तदप्ययुक्तमित्याह  स्वधर्ममिति।  आत्मनो नाशाभावादेवैतेषां हननेऽपि विकम्पितुं नार्हसि। किंच स्वधर्ममप्यवेक्ष्य विकम्पितुं नार्हसीति संबन्धः। यच्चोक्तंन च श्रेयोऽनु पश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे इत्यादि तत्राह  धर्म्यादिति।  धर्मादनपेतान्न्याय्याद्युद्धादन्यत्।
।।2.31।।अथस्वधर्मम् इत्यादिनामरणादतिरिच्यते 2।34 इत्यन्तेन धर्माधर्मधीरपोद्यते।अपिचेति समुच्चेतव्यहेत्वन्तरपरप्रकरणभेदद्योतनार्थः।धर्म्याद्धि युद्धात् इति वाक्यशेषप्रदर्शितंस्वधर्मम् इत्यस्य विशेष्यमाह इदं युद्धमिति। स्वो धर्मः स्वस्य वा धर्मः स्वधर्मः।विकम्पितुं इत्येतत्सामर्थ्यसिद्धमुक्तंप्रारब्धमिति। अधर्मधीहेतुं सामान्यनिषेधमनुवदतिप्राणिमारणमपीति। प्रबलं विशेषशास्त्रं निषेधशास्त्रात् निषेधस्याप्रसक्तिं वा स्मारयति अग्नीषोमीयादिवदिति। धर्मयुद्धव्यतिरिक्तस्य कस्यचिदन्यस्य श्रेयसः क्षत्ित्रये स्वरूपनिषेधभ्रमं व्युदरयन् क्षत्ित्रयस्य प्रशस्यतरं धर्म्ययुद्धादन्यन्नास्तीत्येतदर्थमन्वयमाह धर्म्यादिति। धर्म्यत्वं धर्मादनपेतत्वम्। तद्धेतुर्न्यायतः प्रवृत्तत्वम्। तच्च निरायुधनिवृत्तशरणागतादिषु शस्त्रप्रयोगाद्यभावात्।हिशब्दसूचितं वक्ष्यमाणमाह शौर्यमिति। ननुअग्नीषोमीयादिवत् इत्येतदेव न सम्प्रतिपन्नं तस्यापि हिंसात्वेन अधर्मत्वस्यावर्जनीयत्वात् न च निषिद्धत्वमुपाधिःन हिंस्यात् मनुः4।162 इति सामान्यनिषेधेन तस्य साधनव्यापकत्वात्। नापि विहितेतरत्वमुपाधिः अविहिताप्रतिषिद्धेष्वपि तस्य विद्यमानत्वेन साध्यव्यभिचारात्। न च साध्यसमव्याप्तत्वाभिप्रायेण सामान्यनिषेधो विशेषविधिवाक्यविरोधात्सङ्कुचितविषयः सङ्कोचहेतोर्विरोधस्यैवाभावात् सामान्यविशेषवाक्ययोः प्रत्यवायक्रतुसाधनत्वपरत्वादेकस्यैव क्रतुप्रत्यवायसाधनत्वाविरोधात्। न च प्रत्यवायसाधनं न विधीयेत इति वाच्यम् हरीतकीभक्षणादिष्विव क्रत्वनुप्रविष्टप्रायश्चित्तार्हहिंसासाध्यदुःखस्याल्पतया क्रतुसाध्यसुखस्य च भूयस्तया तदुपपत्तेः। उक्तं च साङ्ख्यैः सा (हिंसा) हि पुरुषस्य दोषमावक्ष्यति क्रतोश्चोपकरिष्यति इत्यादि। आह च पञ्चशिखाचार्यः स्वल्पःसङ्करःसुपरिहरःसप्रत्यवमर्शः इति। अतोऽग्नीषोमीयवदित्यसिद्धस्यासिद्धमेव निदर्शनमुक्तमित्यत्राह अग्नीषोमीयादिषु चेति। अधर्मसाधको हिंसात्वहेतुरसिद्धः। उपाधिश्च न पक्षव्यापकः पक्षस्याहिंसारूपत्वात् तत एव निषेधाभावाच्चेति भावः। अहिंसात्वमेवोपपादयति निहीनतरेति। अनर्थप्रापकव्यापारत्वं हिंसालक्षणम्। अत्र तु तद्विपरीतत्वेन रक्षणत्वमेव युक्तमिति मन्त्रलिङ्गेन ज्ञापयति न वा इति। एतदिति क्रियाविशेषणम्। सुगेभिः सुगैरित्यर्थः। पिष्टपश्वादिविधिस्तु कार्तयुगधर्मनिष्ठाधिकारिविशेषनियतःपशुयज्ञैः कथं हिंस्त्रैर्मादृशो यष्टुमर्हति म.भा.12।175।33 इत्यादिवचनाच्चेति भावः।अस्त्वग्नीषोमीयादौ श्रुतिबलादहिंसात्वम् इह तु कथमित्यत्राह इह चेति। अयमप्यर्थः श्रुतिस्मृतिसिद्ध इति भावः। ननुअहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः इत्यादिनाऽग्नीषोमीयादेरन्यस्य हिंसात्वं प्रतीयते अन्यथाऽन्यत्रेति तद्व्यवच्छेदानुपपत्तेरित्यत्राह अत इति।अयमभिप्रायः न तावदिह दुःखजननमात्रं हिंसा रक्षणरूपेषु चिकित्सकशल्यप्रयोगादिष्वपि प्रसङ्गात् नापि प्राणवियोजनमात्रम् अतद्रूपेषु सर्वस्वहरणनरकपीडादिषु हिंसाशब्दप्रयोगदर्शनात्। न चायमुपचारः नियामकाभावात् विपरिवर्तस्यापि दुर्वारत्वात्। अतोऽनर्थपर्यवसितस्तादात्विकदुःखजनको व्यापारो हिंसेत्येव तत्त्वम् इति। ततश्चअन्यत्र तीर्थेभ्यः इत्येतत्पश्वादेर्भाविपुरुषार्थविशेषानभिज्ञपामरदृष्ट्योक्तम्। तस्मिन्नपि वाक्ये हिंसात्वं नास्तीत्येव तात्पर्यम्। उक्तं च मनुना तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः 5।39 इति। तत्रापिवधः इति पामरदृष्ट्याऽनुवादः।अवधः इति तत्त्वकथनम्। यद्यपि क्रत्वनुप्रविष्टानां सोमोच्छिष्टभक्षणप्रभृतीनां हिंसालक्षणवत्तल्लक्षणान्तरेण व्यवच्छेदः शक्यः तथापि तेषां प्रत्यवायानाधायकवचनबलादेव तथात्वमङ्गीकुर्मः न पुनः क्रत्वर्थतया विधानमात्रेण। नन्वेवमुत्सर्गापवादन्यायस्य कीदृशो विषयः तादृश एव यत्र निरवकाशविशेषवाक्यंविरोधादेव सावकाशसामान्यशब्दसङ्कोच इति निस्तरङ्गमेतत्।
।।2.31।।एवमात्मस्वरूपज्ञानेन शोको न कर्त्तव्य इत्युक्त्वा स्वधर्मादपि मा शुच इत्याह स्वधर्ममपीति। स्वधर्म क्षात्त्रमवेक्ष्य विकम्पितुं नार्हसि यतः क्षत्ित्रयाणामयमेवोत्तमो धर्म इत्याह धर्म्यादिति। धर्म्याद्युद्धादन्यत् क्षत्ित्रयस्य श्रेयो न विद्यते। क्षत्ित्रयाणां परलोकादिकं त्वनेनैव भवति।
।।2.31।।अर्जुनस्य अनात्मनि देहे आत्मधीरूपो मोहो निवारितः। इदानीं स्वधर्मे युद्धे अधर्मधीरूपं मोहं निवारयति  स्वधर्ममपीत्यादिना।  युद्धं क्षत्रियस्य स्वो धर्मः तमवेक्ष्यापि विकम्पितुं चलितुं नार्हसि। हि यस्मात् धर्म्यात् धर्मादनपेताद्युद्धादन्यत् क्षत्रियस्य श्रेयः प्रशस्ततरं नास्ति।
।।2.31।।   इत्थमात्मतत्त्वापेक्षायां शोकमोहौ न संभवत् इत्युक्तम्। न केवलमात्मतत्त्वापेक्षायामेव किंतु स्वधर्ममपि चावेक्ष्येत्याह  स्वधर्ममपीति।  यत्तु कैश्चित्सर्वप्राणिसाधारणं भ्रमं निराकृत्यार्जुनस्यैवासाधारणं भ्रमं निराकरोतीत्युक्तं तत्पूर्वोक्तयुक्त्या निरसनीयम्। स्वधर्मं क्षत्रियस्य धर्मयुद्धं धर्मशास्त्रादवेक्ष्य विचार्य शोकमोहाभिभूतः स्वधर्माच्चालितुं नार्हसि। यस्मात्पृथिवीजयद्वारा युद्धस्य यज्ञादिधर्मार्थत्वेन ब्राह्मणादिप्रजारक्षणार्थत्वेन च धर्मादनपेताद्युद्धादन्यच्छ्रेयःसाधनं युद्धसदृशं क्षत्रियस्य न भवतीत्यर्थः। अतो मोक्षरुपश्रेयोर्थिनो ते युद्धेन स्वधर्मेणं जयं लब्ध्वा यज्ञाद्यनुष्ठानप्रजापालनादिभ्योऽन्यत्तत्साधनं न भवतीत्याशयः।
2.31 स्वधर्मम् own duty? अपि also? च and? अवेक्ष्य looking at? न not? विकम्पितुम् to waver? अर्हसि (thou) oughtest? धर्म्यात् than righteous? हि indeed? युद्धात् than war? श्रेयः higher? अन्यत् other? क्षत्रियस्य of a Kshatriya? न not? विद्यते is.Commentary Lord Krishna now gives to Arjuna wordly reasons for fighting. Up to this time? He talked to Arjuna on the immortality of the Self and gave him philosophical reasons. Now He says to Arjuna? O Arjuna Fighting is a Kshatriyas own duty. You ought not to swerve from that duty. To a Kshatriyta (one born in the warrior or ruling class) nothing is more welcome than a righteous war. A warrior should fight.
2.31 Further, having regard to thy duty, shouldst not waver, for there is nothing higher for a Kshatriya than a righteous war.
2.31 Thou must look at thy duty. Nothing can be more welcome to a soldier than a righteous war. Therefore to waver in this resolve is unworthy, O Arjuna!
2.31 Even considering your own duty you should not waver, since there is nothing else better for a Ksatriya than a righteous battle.
2.31 Api, even; aveksya, considering; svadharmam, your own duty, the duty of a Ksatriya, viz battle considering even that ; na arhasi, you ought not; vikampitum, to waver, to deviate from the natural duty of the Ksatriya, i.e. from what is natural to yourself. And hi, since that battle is not devoid of righteousness, (but) is supremely righteous it being conducive to virtue and meant for protection of subjects through conest of the earth ; therefore, na vidyate, there is nothing; anyat, else; sreyah, better; ksatriyasya, for a ksatriya; than that dharmyat, righteous; yuddhat, battle.
2.31. Further, considering your own duty, you should not waver. Indeed, for a Ksatriya there exists no duty superior to fighting a righteous war.
2.31 Sva-Dharmam etc. Because one's duty cannot be avoided, wavering with regard to fighting the war is not proper [on the part of Arjuna].
2.31 Further, even though there is killing of life in this war which has begun, it is not fit for you to waver, considering your own duty, as in the Agnisomiya and other sacrifices involving slaughter. To a Ksatriya, there is no greater good than a righteous war, begun for a just cause. It will be declared in the Gita: 'Valour, non-defeat (by the enemies), fortitude, adroitness and also not fleeing from battle, generosity, lordliness - these are the duties of the Ksatriya born of his very nature.' (18.43). In Agnisomiya etc., no injury is caused to the animal to be immolated; for, according to the Vedic Text, the victim, a he-goat, after abandoning an inferior body, will attain heaven etc., with a beautiful body. The Text pertaining to immolation declares: 'O animal, by this (immolation) you will never die, you are not destroyed. You will pass through happy paths to the realm of the gods, where the virtuous only reach and not the sinful. May the god Savitr give you a proper place.' (Yaj. 4.6.9.46). Likewise the attainment of more beautiful bodies by those who die here in this war has been declared in the Gita, 'As a man casts off worn-out garments and takes others that are new ৷৷.' (2.22). Hence, just as lancing and such other operations of a surgeon are for curing a patient, the immolation of the sacrificial animal in the Agnisomiya etc., is only for its good.
2.31 Further, considering also your own duty, it does not befit you to waver. For, to a Ksatriya, there is no greater good than a righteous war.
।।2.31।।यहाँ यह कहा गया कि परमार्थतत्त्वकी अपेक्षासे शोक या मोह करना नहीं बन सकता। केवल इतना ही नहीं कि परमार्थतत्त्वकी अपेक्षासे शोक और मोह नहीं बन सकते किंतु क्षत्रियके लिये जो युद्धरूप स्वधर्म है उसे देखकर भी तुझे कम्पित होना उचित नहीं है अभिप्राय यह कि अपने स्वाभाविक धर्मसे विचलित होना ( हटना ) भी तुझे उचित नहीं है। क्योंकि वह युद्ध पृथ्वीविजयद्वारा धर्मपालन और प्रजारक्षणके लिये किया जाता है इसलिये धर्मसे ओतप्रोत परम धर्म्य है अतः उस धर्ममय युद्धके सिवा दूसरा कुछ क्षत्रियके लिये कल्याणप्रद नहीं है।
।।2.31।। स्वधर्ममपि स्वो धर्मः क्षत्रियस्य युद्धं तमपि अवेक्ष्य त्वं न विकम्पितुं प्रचलितुम् नार्हसि क्षत्रियस्य स्वाभाविकाद्धर्मात् आत्मस्वाभाव्यादित्यभिप्रायः। तच्च युद्धं पृथिवीजयद्वारेण धर्मार्थं प्रजारक्षणार्थं चेति धर्मादनपेतं परं धर्म्यम्। तस्मात् धर्म्यात् युद्धात् श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते हि यस्मात्।।कुतश्च तत् युद्धं कर्तव्यमिति उच्यते
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स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धाछ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।2.31।।
স্বধর্মমপি চাবেক্ষ্য ন বিকম্পিতুমর্হসি৷ ধর্ম্যাদ্ধি যুদ্ধাছ্রেযোন্যত্ক্ষত্রিযস্য ন বিদ্যতে৷৷2.31৷৷
স্বধর্মমপি চাবেক্ষ্য ন বিকম্পিতুমর্হসি৷ ধর্ম্যাদ্ধি যুদ্ধাছ্রেযোন্যত্ক্ষত্রিযস্য ন বিদ্যতে৷৷2.31৷৷
સ્વધર્મમપિ ચાવેક્ષ્ય ન વિકમ્પિતુમર્હસિ। ધર્મ્યાદ્ધિ યુદ્ધાછ્રેયોન્યત્ક્ષત્રિયસ્ય ન વિદ્યતે।।2.31।।
ਸ੍ਵਧਰ੍ਮਮਪਿ ਚਾਵੇਕ੍ਸ਼੍ਯ ਨ ਵਿਕਮ੍ਪਿਤੁਮਰ੍ਹਸਿ। ਧਰ੍ਮ੍ਯਾਦ੍ਧਿ ਯੁਦ੍ਧਾਛ੍ਰੇਯੋਨ੍ਯਤ੍ਕ੍ਸ਼ਤ੍ਰਿਯਸ੍ਯ ਨ ਵਿਦ੍ਯਤੇ।।2.31।।
ಸ್ವಧರ್ಮಮಪಿ ಚಾವೇಕ್ಷ್ಯ ನ ವಿಕಮ್ಪಿತುಮರ್ಹಸಿ. ಧರ್ಮ್ಯಾದ್ಧಿ ಯುದ್ಧಾಛ್ರೇಯೋನ್ಯತ್ಕ್ಷತ್ರಿಯಸ್ಯ ನ ವಿದ್ಯತೇ৷৷2.31৷৷
സ്വധര്മമപി ചാവേക്ഷ്യ ന വികമ്പിതുമര്ഹസി. ധര്മ്യാദ്ധി യുദ്ധാഛ്രേയോന്യത്ക്ഷത്രിയസ്യ ന വിദ്യതേ৷৷2.31৷৷
ସ୍ବଧର୍ମମପି ଚାବେକ୍ଷ୍ଯ ନ ବିକମ୍ପିତୁମର୍ହସି| ଧର୍ମ୍ଯାଦ୍ଧି ଯୁଦ୍ଧାଛ୍ରେଯୋନ୍ଯତ୍କ୍ଷତ୍ରିଯସ୍ଯ ନ ବିଦ୍ଯତେ||2.31||
svadharmamapi cāvēkṣya na vikampitumarhasi. dharmyāddhi yuddhāchrēyō.nyatkṣatriyasya na vidyatē৷৷2.31৷৷
ஸ்வதர்மமபி சாவேக்ஷ்ய ந விகம்பிதுமர்ஹஸி. தர்ம்யாத்தி யுத்தாச்ரேயோந்யத்க்ஷத்ரியஸ்ய ந வித்யதே৷৷2.31৷৷
స్వధర్మమపి చావేక్ష్య న వికమ్పితుమర్హసి. ధర్మ్యాద్ధి యుద్ధాఛ్రేయోన్యత్క్షత్రియస్య న విద్యతే৷৷2.31৷৷
2.32
2
32
।।2.32।। अपने-आप प्राप्त हुआ युद्ध खुला हुआ स्वर्गका दरवाजा भी है। हे पृथानन्दन ! वे क्षत्रिय बड़े सुखी (भाग्यशाली) हैं, जिनको ऐसा युद्ध प्राप्त होता है।
।।2.32।। और हे पार्थ ! अपने आप प्राप्त हुए और स्वर्ग के लिए खुले हुए द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं।।
।।2.32।। क्षत्रिय शब्द का तात्पर्य यहाँ जन्म से निश्चित की हुई क्षत्रिय जाति से नहीं है। यह व्यक्ति के मन की कतिपय विशिष्ट वासनाओं की ओर संकेत करता है। क्षत्रिय प्रवृति का व्यक्ति वह है जिसमें सार्मथ्य और उत्साह का ऐसा उफान हो कि वह दुर्बल और दरिद्र लोगों की रक्षा के साथ संस्कृति के शत्रुओं से राष्ट्र का रक्षण कर सके। हिन्दू नीतिशास्त्र के अनुसार ऐसे नेतृत्व के गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को स्वयं ही संस्कृति का विनाशक और आक्रमणकारी नहीं होना चाहिये। किन्तु अधर्म का प्रतिकार न करने की कायरतापूर्ण भावना भी हिन्दुओं की परम्परा नहीं है। जब भी कभी ऐसा सुअवसर प्राप्त हो तो क्षत्रियों का कर्तव्य है कि वे इसे स्वर्ण अवसर समझ कर राष्ट्र का रक्षण करें। इस प्रकार के धर्मयुद्ध स्वर्ग की प्राप्ति के लिए खुले हुए द्वार के समान होते हैं।यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने तर्क प्रस्तुत करते हुए वेदान्त के सर्वोच्च सिद्धांत से उतर कर भौतिकवादियों के स्तर पर आये और उससे भी नीचे के स्तर पर आकर वे जगत् के एक सामान्य व्यक्ति के दृष्टिकोण से भी परिस्थिति का परीक्षण करते हैं। इन विभिन्न दृष्टिकोणों से वे अर्जुन को यह सिद्ध कर दिखाते हैं कि उसका युद्ध करना उचित है।निश्चय ही युद्ध करना तुम्हारा कर्तव्य है और अब यदि इसे छोड़कर तुम भागते हो तब
2.32।। व्याख्या--  'यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्'-- पाण्डवोंसे जूआ खेलनेमें दुर्योधनने यह शर्त रखी थी कि अगर इसमें आप हार जायँगे,  तो आपको बारह वर्षका वनवास और एक वर्षका अज्ञातवास भोगना होगा। तेरहवें वर्षके बाद आपको अपना राज्य मिल जायगा। परन्तु अज्ञातवासमें अगर हमलोग आपलोगोंको खोज लेंगे, तो आप-लोगोंको दुबारा बारह वर्षका वनवास भोगना पड़ेगा। जूएमें हार जानेपर शर्तके अनुसार पाण्डवोंने बारह वर्षका वनवास और एक वर्षका अज्ञातवास भोग लिया। उसके बाद जब उन्होंने अपना राज्य माँगा, तब दुर्योधनने कहा कि मैं बिना युद्ध किये सुईकी तीखी नोक-जितनी जमीन भी नहीं दूँगा। दुर्योधनके ऐसा कहनेपर भी पाण्डवोंकी ओरसे बार-बार सन्धिका प्रस्ताव रखा गया, पर दुर्योधनने पाण्डवोंसे सन्धि स्वीकार नहीं की। इसलिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि यह युद्ध तुमलोगोंको अपने-आप प्राप्त हुआ है। अपने-आप प्राप्त हुए धर्ममय युद्ध में जो क्षत्रिय शूरवीरतासे लड़ते हुए मरता है, उसके लिये स्वर्गका दरवाजा खुला हुआ रहता है
।।2.32।।स्वधर्ममिति। स्वधर्मस्य च अनपहार्यत्वात् (S N अपरिहार्यत्त्वात्) युद्धविषयः कम्पो न युक्तः।
।।2.32।।अयत्नोपनतम् इदं निरतिशयसुखोपायभूतं निर्विघ्नम्  ईदृशं युद्धं सुखिनः  पुण्यवन्तः  क्षत्रिया लभन्ते।
।।2.32।।युद्धस्य गुर्वाद्यनेकप्राणिहिंसात्मकस्याहिंसाशास्त्रविरोधान्नास्ति कर्तव्यतेति शङ्कते  कुतश्चेति।  अग्नीषोमीयहिंसादिवद्युद्धमपि क्षत्रियस्य विहितत्वादनुष्ठेयं सामान्यशास्त्रतो विशेषशास्त्रस्य बलीयस्त्वादित्याह  उच्यत इति।  तथापि युद्धे प्रवृत्तानामैहिकामुष्मिकस्यापि सुखाभावादुपरतिरेव ततो युक्ता प्रतिभातीत्याशङ्क्याह  यदृच्छयेति।  चिरेण चिरतरेण कालेन च यागाद्यनुष्ठायिनः स्वर्गादिभाजो भवन्ति युध्यमानास्तु क्षत्रिया बहिर्मुखताविहीनाः सहसैव स्वर्गादिसुखभोक्तारस्तेन तव कर्तव्यमेव युद्धमिति व्याख्यानेन स्फुटयति  यदृच्छयेत्यादिना।  इहामुत्र च भाविसुखवतामेव क्षत्रियाणां स्वधर्मभूतयुद्धसिद्धेस्तादर्थ्येनोत्थानं शोकमोहौ हित्वा कर्तव्यमित्यर्थः।
।।2.32।।तदेतदुपपादयति यदृच्छयेति। सुखिनो भाग्यवन्तः युद्धं स्वर्गद्वारभूतम्।द्वौ सम्मताविह मृत्यू दुरापौ इति भागवतवाक्यात् 6।10।33।
।।2.32।।ननु युद्धस्य कर्तव्यत्वेऽपि न भीष्मद्रोणादिभिर्गुरुभिः सह तत्कर्तुमुचितमतिगर्हितत्वादित्याशङ्क्याह यदृच्छया स्वप्रयत्नव्यतिरेकेण। चोऽवधारणे। अप्रार्थनयैवोपस्थितमीदृशं भीष्मद्रोणादिवीरपुरुषप्रतियोगिकं कीर्तिराज्यलाभदृष्टफलसाधनं युद्धं ये क्षत्रियाः प्रतियोगिकत्वेन लभन्ते ते सुखभाज एव। जये सत्यनायासेनैव यशसो राज्यस्य च लाभात् पराजये वातिशीघ्रमेव स्वर्गस्य लाभादित्याह स्वर्गद्वारमपावृतमिति। अप्रतिबद्धं स्वर्गसाधनं युद्धमव्यवधानेनैव स्वर्गजनकम्। ज्योतिष्टोमादिकं तु चिरतरेण। देहपातस्य प्रतिबन्धाभावस्य चापेक्षणादित्यर्थः। स्वर्गद्वारमित्यनेन श्येनादिवत्प्रत्यवायशङ्का परिहृता। श्येनादयो हि विहिता अपि फलदोषेण दुष्टाः। तत्फलस्य शत्रुवधस्यन हिंस्यात्सर्वा भूतानिब्राह्मणं न हन्यात् इत्यादिशास्त्रनिषिद्धस्य प्रत्यवायजनकत्वात् फले विध्यभावाच्च नविधिस्पृष्टे निषेधानवकाशः इति न्यायावतारः। युद्धस्य हि फलं स्वर्गः स च न निषिद्धः। तथाच मनुःआहवेषु मिथोन्योन्यं जिघांसन्ते महीक्षितः। युध्यमानाः परं शक्त्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्मुखाः।। इति। युद्धं तु अग्नीषोभीयाद्यालम्भवद्विहित्वान्न निषेधेन स्प्रष्टुं शक्यते षोडशिग्रहणादिवद्ग्रहणाग्रहणयोस्तुल्यबलतया विकल्पवत्सामान्यशास्त्रस्य विशेषशास्त्रेण संकोचसंभवात्। तथाचविधिस्पृष्टे निषेधानवकाशः इति न्यायाद्युद्धं न प्रत्यवायजनकम्। नापि भीष्मद्रोणादिगुरुब्राह्मणादिवधनिमित्तो दोषस्तेषामाततायित्वात्। तदुक्तं मनुनागुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।आततायिनमायान्तमपि वेदान्तपारगम्। जिघांसन्तं जिघांसीयान्न तेन ब्रह्महा भवेत्।।नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।। इत्यादि। ननुस्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः। अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः।। इति याज्ञवल्क्यवचनादाततायिब्राह्मणवधेऽपि प्रत्यवायोऽस्त्येव।ब्राह्मणं न हन्यात् इति हि दृष्टप्रयोजनानपेक्षत्वाद्धर्मशास्त्रम्जिघांसन्तं जिघांसीयान्न तेन ब्रह्महा भवेत् इति च स्वजीवनार्थत्वादर्थशास्त्रम्। अत्रोच्यतेब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत इतिवद्युद्धविधायकमपि धर्मशास्त्रमेव।सुखदुःखे समे कृत्वा इत्यत्र दृष्टप्रयोजनानपेक्षत्वस्य वक्ष्यमाणत्वात्। याज्ञवल्क्यवचनं तु दृष्टप्रयोजनोद्देश्यककूटयुद्धादिकृतवधविषयमित्यदोषः। मिताक्षराकारस्तु धर्मार्थसंनिपातेऽर्थग्राहिण एतदेवेति द्वादशवार्षिकप्रायश्चित्तस्यैतच्छब्दपरामृष्टस्यापस्तम्बेन विधानान्मित्रलब्ध्याद्यर्थशास्त्रानुसारेण चतुष्पाद्व्यवहारे शत्रोरपि जये धर्मशास्त्रातिक्रमो न कर्तव्य इत्येतत्परं वचनमेतत् इत्याह। भवत्वेवं न नो हानिः। तदेवं युद्धकरणे सुखोक्तेःस्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव इत्यर्जुनोक्तमपाकृतम्।
।।2.32।।किंच महति श्रेयसि स्वयमेवोपगते सति कुतो विकम्पस इत्याह  यद्दच्छयेति।  यदृच्छयाऽप्रार्थितमेवोपपन्नं प्राप्तमीदृशं युद्धं सुखिनः सभाग्या एव लभन्ते। यतो निरावरणं स्वर्गद्वारमेवैतत्। यद्वा य एवंविधं युद्धं लभन्ते त एव सुखिन इत्यर्थः। एतेनस्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम इति यदुक्तं तन्निरस्तं भवति।
।।2.32।।पुनरपि प्राणिमारणस्यापि युद्धस्य प्रशंसामुखेनाधर्मभ्रममुन्मूलयति यदृच्छयेति।यदृच्छयोपपन्नं इत्यत्राहेतुत्वादिभ्रमव्युदासायाह अयत्नोपनतमिति। प्राक्तननिरतिशय पुण्यविपाकलभ्यत्वादिदानीमयत्नोपनतत्वम्।निरतिशयसुखोपायभूतमिति। स्वर्गशब्दो हियस्मिन्नोष्णं न शीतंयन्न दुःखेन सम्भिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम्। अभिलाषोपनीतं तत्सुखं स्वर्गपदास्पदम् इति निरतिशयसुखविशेषे व्युत्पन्नः। देशविशेषस्तु तादृशसुखभोगस्थानतया स्वर्गः। धर्माणां च स्वतो निरतिशयसुखसाधनत्वं स्वभावः। फलाभिसन्ध्यादिलक्षणप्रतिबन्धकवशादन्यथात्वमिति च्विप्रत्ययमप्रयुञ्जानस्य भावः। अपावृतशब्दाभिप्रेतं निर्विघ्नत्वम्।सुखिनः इत्यस्यपुण्यवन्त इति प्रतिपदम्। न हि सुखमेवेदृशयुद्धलाभहेतुः। अतोऽत्र सुखशब्देन सुखसाधनं लक्ष्यत इति भावः। यद्वाऽत्र सुखिशब्दः सुखयोग्यत्वलक्षणसम्बन्धपरः। तद्योग्यत्वं च पुण्यवत्त्वमेवेति भावः।
।।2.32।।तस्मादेतादृशं भाग्यवन्त एव लभन्ते इत्याह यदृच्छयेति। यदृच्छया भगवदिच्छया उपपन्नम्। अपावृतमुद्धाटितकपाटस्वर्गद्वारम्। ईदृशं युद्धं क्षत्ित्रयाः सुखिनो भाग्यवन्तो लभन्ते। प्राप्नुवन्ति एतादृशयुद्धाप्तौ भाग्यवत्त्वं भगवदिच्छयानुरूपत्वाद्भगवत्सन्निधित्वाच्चेति भावः।
।।2.32।।किञ्च यदृच्छया अप्रार्थितमप्युपपन्नमुपस्थितं स्वर्गद्वारं अपावृतमुद्धाटितं ये क्षत्रिया लभन्ते ते सुखिनो धन्या भवन्तीति संबन्धः।
।।2.32।।   स्वधर्मत्वाद्युद्धं प्रयत्नेनापि क्षत्रियैः संपाद्यते तव तु भाग्यवशाद्भवत्प्रयन्त्रींविनैवोपपन्नं अतः कर्तव्यमेवेत्याह  यदृच्छयेति।  अप्रार्थिततयागतं सद्यःस्वर्गप्रदं यतः उद्धाटितं स्वर्गद्वारं ये ईदृशं युद्धं क्षत्रिया लभन्ते त एव सुखिनः राज्य स्वर्गादिसुखभाजः। पार्थेति संबोधयन्स्वोत्साहसदृशे उत्साहे प्रेरयति।
2.32 यदृच्छया of itself? च and? उपपन्नम् come? स्वर्गद्वारम् the gate of heaven? अपावृतम् opened? सुखिनः happy? क्षत्रियाः Kshatriyas? पार्थ O Partha? लभन्ते obtain? युद्धम् battle? ईदृशम् such.Commentary The scriptures declare that if a Kshatriya dies for a righteous cause on the battlefield? he at once goes to heaven.
2.32 Happy are the Kshatriyas, O Arjuna! who are called upon to fight in such a battle that comes of itself as an open door to heaven.
2.32 Blessed are the soldiers who find their opportunity. This opportunity has opened for thee the gates of heaven.
2.32 O son of Partha, happy are the Ksatriyas who come across this kind of a battle, which presents itself unsought for and which is an open gate to heaven.
2.32 Why, again, does that battle become a duty? This is being answered (as follows) [A specific rule is more authoritative than a general rule. Non-violence is a general rule enjoined by the scriptures, but the duty of fighting is a specific rule for a Ksatriya.]: Partha, O son of Partha; are not those Ksatiryas sukhinah, happy [Happy in this world as also in the other.] who labhante, come across; a yuddham, battle; idrsam, of this kind; upapannam, which presents itself; yadrcchaya, unsought for; and which is an apavrtam, open; svarga-dvaram, gate to heaven? [Rites and duties like sacrifices etc. yield their results after the lapse of some time. But the Ksatriyas go to heaven immediatley after dying in battle, because, unlike the minds of others, their minds remaind fully engaged in their immediate duty.]
2.32. O son of Prtha ! By good fortune, Ksatriyas, desirous of happiness, get a war of this type [to fight], which has come on its own accord and which is an open door to the heaven.
2.32 Yadrcchaya etc. A war of this nature, because it is conducive to the heaven, should not be avoided even by other such Ksatriyas who are full of desires How much less [it is to be avoided] in the case of one to whom the science of knowledge of this nature has been taught ? This is what is intended to be conveyed [here] And the verse does not at all end with [determining how to attain] the heaven. The very thing (i.e. sin), fearing which you withdraw from the battle, will befall you branching off hundredfold. This [the Lord] says-
2.32 Only the fortunate Ksatriyas, i.e., the meritorious ones, gian such a war as this, which has come unsought, which is the means for the attainment of immeasurable bliss, and which gives an unobstructed pathway to heaven.
2.32 Happy are the Ksatriyas, O Arjuna, to whom a war like this comes of its own accord; it opens the gate to heaven.
।।2.32।।और भी वह युद्ध किसलिये कर्तव्य है सो कहते हैं हे पार्थ अनिच्छासे प्राप्त बिना माँगे मिले हुए ऐसे खुले हुए स्वर्गद्वाररूप युद्धको जो क्षत्रिय पाते हैं क्या वे सुखी नहीं हैं।
।।2.32।। यदृच्छया च अप्रार्थिततया उपपन्नम् आगतं स्वर्गद्वारम् अपावृतम् उद्धाटितं ये एतत् ईदृशं युद्धं लभन्ते क्षत्रियाः हे पार्थ किं न सुखिनः तेएवं कर्तव्यताप्राप्तमपि
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यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्। सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।2.32।।
যদৃচ্ছযা চোপপন্নং স্বর্গদ্বারমপাবৃতম্৷ সুখিনঃ ক্ষত্রিযাঃ পার্থ লভন্তে যুদ্ধমীদৃশম্৷৷2.32৷৷
যদৃচ্ছযা চোপপন্নং স্বর্গদ্বারমপাবৃতম্৷ সুখিনঃ ক্ষত্রিযাঃ পার্থ লভন্তে যুদ্ধমীদৃশম্৷৷2.32৷৷
યદૃચ્છયા ચોપપન્નં સ્વર્ગદ્વારમપાવૃતમ્। સુખિનઃ ક્ષત્રિયાઃ પાર્થ લભન્તે યુદ્ધમીદૃશમ્।।2.32।।
ਯਦਰਿਚ੍ਛਯਾ ਚੋਪਪਨ੍ਨਂ ਸ੍ਵਰ੍ਗਦ੍ਵਾਰਮਪਾਵਰਿਤਮ੍। ਸੁਖਿਨ ਕ੍ਸ਼ਤ੍ਰਿਯਾ ਪਾਰ੍ਥ ਲਭਨ੍ਤੇ ਯੁਦ੍ਧਮੀਦਰਿਸ਼ਮ੍।।2.32।।
ಯದೃಚ್ಛಯಾ ಚೋಪಪನ್ನಂ ಸ್ವರ್ಗದ್ವಾರಮಪಾವೃತಮ್. ಸುಖಿನಃ ಕ್ಷತ್ರಿಯಾಃ ಪಾರ್ಥ ಲಭನ್ತೇ ಯುದ್ಧಮೀದೃಶಮ್৷৷2.32৷৷
യദൃച്ഛയാ ചോപപന്നം സ്വര്ഗദ്വാരമപാവൃതമ്. സുഖിനഃ ക്ഷത്രിയാഃ പാര്ഥ ലഭന്തേ യുദ്ധമീദൃശമ്৷৷2.32৷৷
ଯଦୃଚ୍ଛଯା ଚୋପପନ୍ନଂ ସ୍ବର୍ଗଦ୍ବାରମପାବୃତମ୍| ସୁଖିନଃ କ୍ଷତ୍ରିଯାଃ ପାର୍ଥ ଲଭନ୍ତେ ଯୁଦ୍ଧମୀଦୃଶମ୍||2.32||
yadṛcchayā cōpapannaṅ svargadvāramapāvṛtam. sukhinaḥ kṣatriyāḥ pārtha labhantē yuddhamīdṛśam৷৷2.32৷৷
யதரிச்சயா சோபபந்நஂ ஸ்வர்கத்வாரமபாவரிதம். ஸுகிநஃ க்ஷத்ரியாஃ பார்த லபந்தே யுத்தமீதரிஷம்৷৷2.32৷৷
యదృచ్ఛయా చోపపన్నం స్వర్గద్వారమపావృతమ్. సుఖినః క్షత్రియాః పార్థ లభన్తే యుద్ధమీదృశమ్৷৷2.32৷৷
2.33
2
33
।।2.33।। अब अगर तू यह धर्ममय युद्ध नहीं करेगा,  तो अपने धर्म और कीर्तिका त्याग करके पापको प्राप्त होगा।
।।2.33।। और यदि तुम इस धर्मयुद्ध को स्वीकार नहीं करोगे,  तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त करोगे।।
।।2.33।। यदि तुम इस युद्ध से विरत हो जाओगे तो न केवल स्वधर्म और कीर्ति को ही खो दोगे वरन् निश्चय रूप से पाप के भागीदार भी बनोगे। अधर्मियों का प्रतिकार न करना निरपराध व्यक्ति की हत्या करने के समान ही घोर पाप है।धर्म शब्द का विवेचन पहले किया जा चुका है। प्रत्येक प्राणी पूर्वार्जित वासनाओं के साथ किसी देह विशेष में विशेष प्रयोजनार्थ इस जगत् में जन्म लेता है। वह विशेष प्रयोजन इन वासनाओं का क्षय करके स्वस्वरूप को पहचानना है। प्रत्येक व्यक्ति जिन वासनाओं के साथ जन्म लेता है वहीं उसका स्वधर्म स्वभाव कहलाता है। अर्जुन का स्वधर्म क्षत्रिय का है जिसका विशेष गुण आदर और यशपूर्ण शौर्य है।वासना क्षय के लिए जीवन में प्राप्त इन अवसरों को खो देना विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करना है। यदि इनका क्षय न हुआ तो मनुष्य के मन पर वासनाओं का दबाव बढ़ता जाता है क्योंकि पूर्वार्जित वासनाओं के साथ नएनए संस्कार भी एकत्र होते जाते हैं। प्राप्त क्षण में भले ही अर्जुन युद्ध भूमि से भाग जाये परन्तु बाद में इस अवसर को खो देने का पश्चात्ताप ही उसको होगा क्योंकि इस प्रकार का पलायन उसके उस क्षत्रिय स्वभाव के सर्वदा विपरीत है जिसे युद्ध में ही चिर शान्ति प्राप्त हो सकती है। जिस बालक में कला के प्रति स्वभाविक रुचि और प्रवृत्ति है वह कभी सफल व्यापारी नहीं बन सकता। पुत्र प्रेम के कारण यदि मातापिता अपनी इच्छाओं काे अपने पुत्र पर थोप देते हैं तो यह देखा जाता है कि ऐसे बालक का व्यक्तित्व बिखरा हुआ रहता है।इस तरह के उदाहरण विश्व में प्रत्येक क्षेत्र में पाये जाते हैं और विशेषकर आध्यात्मिक क्षेत्र में। बहुत से व्यक्ति थोड़े से दुख और कष्ट के आघात से क्षणिक वैराग्य के कारण ईश्वर की खोज में गृह त्यागकर जंगलों में चले जाते हैं किन्तु वहाँ जीवन भर वे अशान्ति और दुख ही पाते हैं। मन में विषयोपयोग की वासनाएँ होती है जो पारिवारिक जीवन में पूर्ण की जा सकती हैं। परन्तु गृह त्यागकर हिमालय की कन्दराओं में बैठने से न तो वे इन वासनाओं को ही पूर्ण कर पाते हैं और न ईश्वर का ध्यान उनके लिए सम्भव होता है। स्वभाविक है कि उनके मन में विक्षेप बढ़ते जाते हैं जिन्हें पाप कहते हैं।हिन्दू धर्म के अनुसार अपने आत्मस्वरूप को भूलकर मनुष्य जो गलतियाँ करता है उन्हें पाप कहते हैं। विषयोपभोग के लिए मनुष्य के द्वारा सुख प्राप्ति के प्रयत्नों के कारण मन में विक्षेप उत्पन्न होना स्वाभाविक है और यही पाप है क्योंकि इसमें आनन्दस्वरूप आत्मा का विस्मरण है।इतना ही नहीं कि तुम कर्तव्य और कीर्ति को खो दोगे बल्कि
2.33।। व्याख्या--'अथ चेत्त्वमिमं ৷৷. पापमवाप्स्यसि'-- यहाँ  'अथ' अव्यय पक्षान्तरमें आया है और  'चेत्'  अव्यय सम्भावनाके अर्थमें आया है। इनका तात्पर्य है कि यद्यपि तू युद्धके बिना रह नहीं सकेगा, अपने क्षात्र स्वभावके परवश हुआ तू युद्ध करेगा ही (गीता 18। 60), तथापि अगर ऐसा मान लें कि तू युद्ध नहीं करेगा, तो तेरे द्वारा क्षात्रधर्मका त्याग हो जायगा। क्षात्रधर्मका त्याग होनेसे तुझे पाप लगेगा और तेरी कीर्तिका भी नाश होगा।  आप-से-आप प्राप्त हुए धर्मरूप कर्तव्यका त्याग करके तू क्या करेगा? अपने धर्मका त्याग करनेसे तुझे परधर्म स्वीकार करना पड़ेगा, जिससे तुझे पाप लगेगा। युद्धका त्याग करनेसे दूसरे लोग ऐसा मानेंगे कि अर्जुन-जैसा शूरवीर भी मरनेसे भयभीत हो गया ! इससे तेरी कीर्तिका नाश होगा।
।।2.33।।यदृच्छयेति। अन्येऽपि ये (N omits ये) काममयाः क्षत्रियाः तैरपीदृशं युद्धं स्वर्गहेतुत्वात् न त्याज्यम्। किं पुनर्यस्य ईदृशं ज्ञानमुपदिष्टम् इति तात्पर्यम्। न पुनः स्वर्गपर्यवसायी श्लोकः ( N omit न पुनः श्लोकः)।
।।2.33।। अथ  क्षत्रियस्य स्वधर्मभूतम्  इमम्  आरब्धं  संग्रामं  मोहाद् अज्ञानात्  न करिष्यसि चेत् ततः  प्रारब्धस्यधर्मस्याकरणात् स्वधर्मफलं निरतिशयसुखं विजयेन निरतिशयां  कीर्तिं च हित्वा पापं  निरतिशयम्  अवाप्स्यसि।
।।2.33।।स्वधर्मस्य युद्धस्य श्रद्धया करणे स्वर्गादिमहाफलप्राप्तिं प्रदर्श्य तदकरणे प्रत्यवायप्राप्तिं प्रदर्शयन्नुत्तरश्लोकगताथशब्दार्थं कथयति   एवमिति।  विहितत्वं फलवत्त्वमित्यनेन प्रकारेणेत्यर्थः अन्वयार्थः पुनश्चेदित्यनूद्यते महादेवादीत्यादिशब्देन महेन्द्रादयो गृह्यन्ते।
।।2.33।।विपक्षे बाधकमाह अथ चेदिति। धर्म्यं धर्मादनपेतं युद्धं न करिष्यसि तर्हि लौकिकवैदिकहानिपूर्वकं प्रत्यवायमवाप्स्यसि।
।।2.33।।ननु नाहं युद्धफलकामःन काङ्क्षे विजयं कृष्णअपि त्रैलोक्यराज्यस्य इत्युक्तत्वात्तत्कथं मया कर्तव्यमित्याशङ्क्याकरणे दोषमाह अथेति पक्षान्तरे। इमं भीष्मद्रोणादिवीरपुरुषप्रतियोगिकं धर्म्यं हिंसादिदोषेणादुष्टं सतां धर्मादनपेतमिति वा। सच मनुना दर्शितःन कूटैरायुधैर्हन्याद्युध्यमानो रणे रिपून। न कर्णिभिर्नापि दिग्धैर्नाग्निज्वलिततेजनैः।।न च हन्यात्स्थलारूढं न क्लीबं न कृताञ्जलिम्। न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीतिवादिनम्।।न सुप्तं न विसन्नाहं न नग्नं न निरायुधम्। नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्।।नायुधव्यसनप्राप्तं नार्तं नातिपरिक्षतम्। न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्।। इति। सतां धर्ममुल्लङ्घ्य युध्यमानो हि पापीयान्स्यात् त्वं तु परैराहूतोऽपि सद्धर्मोपेतमपि संग्रामं युद्धं न करिष्यसि धर्मतो लोकतो वा भीतः परावृत्तो भविष्यसि चेत् ततोनिर्जित्य परसैन्यानि क्षितिं धर्मेण पालयेत् इत्यादिशास्त्रविहितस्य युद्धस्याकरणात्स्वधर्मं हित्वाऽननुष्ठाय कीर्तिं च महादेवादिसमागमनिमित्तां हित्वान निवर्तेत संग्रामात् इत्यादिशास्त्रनिषिद्धसंग्रामनिवृत्त्याचरणजन्यं पापमेव केवलमवाप्स्यसि नतु धर्मं कीर्तिं चेत्यभिप्रायः। अथवाऽनेकजन्मार्जितं धर्मं त्यक्त्वा राजकृतं पापमेवाप्स्यसीत्यर्थः। यस्मात्त्वां परावृत्तमेते दुष्टा अवश्यं हनिष्यन्ति अतः परावृत्तहतः सन् चिरोपार्जितनिजसुकृतपरित्यागेन परोपार्जितदुष्कृतमात्रभाङ्माभूरित्यभिप्रायः। तथाच मनुःयस्तु भीतः परावृत्तः संग्रामे हन्यते परैः। भर्तुर्यद्दुष्कृतं किंचित्तत्सर्वं प्रतिपद्यते।।यच्चास्य सृकुतं किंचिदमुत्रार्थमुपार्जितम्। भर्ता तत्सर्वमादत्ते परावृत्तहतस्य तु।। इति। यावज्ञवल्क्योऽपिराजा सुकृतमादत्ते हतानां विपलायिनाम् इति। तेन यदुक्तम्पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनःएतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन इति तन्निराकृतं भवति।
।।2.33।।विपक्षे दोषमाह  अथ चेत्त्वमिति।
।।2.33।।एवं युद्धस्य धर्म्यत्वेन निरतिशयसुखसाधनत्वमुक्तम् अथ तदकरणे प्रत्यवायमाह अथ चेदिति। युद्धाकरणस्य ब्राह्मणादीनां पापहेतुत्वाभावात् त्वंशब्दः क्षत्ित्रयत्वपर इत्यभिप्रायेणोक्तम् क्षत्ित्रयस्य स्वधर्मभूतमिति।इमम् इति निर्देशाभिप्रेतमुक्तम् आरब्धमिति।मोहात् धर्मेऽप्यधर्मत्वभ्रमादित्यर्थः। न हि युद्धस्याकरणमात्रं क्षत्ित्रयस्यापि प्रत्यवायहेतुः सर्वदा युद्धकरणप्रसङ्गादित्यत उक्तंप्रारब्धस्येति।स्वधर्मफलमिति। धर्मशब्दोऽत्र फलपरः अन्यथा पौनरुक्त्यात् अनुवादमात्रत्वेऽनिष्टप्रसङ्गपर्यवसानाभावाच्चेति भावः। आगामिकीर्तिविषयत्वायोक्तंविजयेनेति। न केवलं दृष्टादृष्टरूपनिरतिशयपुरुषार्थहानमात्रम् निरतिशयदुःखहेतुभूतं पापमवाप्स्यसीति वाक्यार्थः।
।।2.33।।एवं स्वधर्मावेक्षणेन मदुक्तसङ्ग्रामाकरणे तव बाधकं स्यादित्याह अथ चेदिति। अथ स्वधर्मावेक्षणानन्तरमपि इमं मदग्रे धर्म्यं मदाज्ञारूपं सङ्ग्रामं चेन्न करिष्यसि तदा स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसीत्यर्थः।
।।2.33।।युद्धत्यागे इष्टनाशोऽनिष्टप्राप्तिश्च भवतीत्याह  अथचेदिति।
।।2.33।।   विपक्षे दोषमाह  अथेति।
2.33 अथ चेत् but if? त्वम् thou? इमम् this? धर्म्यम् righteous? संग्रामम् warfare? न not? करिष्यसि will do? ततः,then? स्वधर्मम् own duty? कीर्तिम् fame? च and? हित्वा having abandoned? पापम् sin? अवाप्स्यसि shall incur.Commentary The Lord reminds Arjuna of the fame he had already earned and which he would now lose if he refused to fight. Arjuna had acired great fame by fighting with Lord Siva. Arjuna proceeded on a pilgrimage to the Himalayas. He fought with Siva Who appeared in the guise of a mountaineer (Kirata) and got from Him the Pasupatastra? a celestial weapon.
2.33 But if thou wilt not fight this righteous war, then having abandoned thine own duty and fame, thou shalt incur sin.
2.33 Refuse to fight in this righteous cause, and thou wilt be a traitor, lost to fame, incurring only sin.
2.33 On the other hand, if you will not fight this righteous battle, then, forsaking your own duty and fame, you will incur sin.
2.33 Atha, on the other hand; cet, if; tvam, you; na karisyasi, will not fight; even imam, this; dharmyam, righteous; samgramam, battle, which has presented itself as a duty, which is not opposed to righteousness, and which is enjoined (by the scriptures); tatah, then, because of not undertaking that; hitva, forsaking; sva-dharmam, your own duty; ca, and; kritim, fame, earned from encountering Mahadeva (Lord Siva) and others; avapsyasi, you will incur; only papam, sin.
2.33. On the other hand, if you will not fight this righteous war then you shall incur the sin by avoiding your own duty and fame.
2.33 See Comment under 2.37
2.33 If in delusion, you do not wage this war, which has started and which is the duty of a Ksatriya, then, owing to the non-performance of your immediate and incumbent duty, you will lose the immeasurable bliss which is the fruit of discharging your duty and the immeasurable fame which is the fruit of victory. In addition, you will incur extreme sin.
2.33 But if you do not fight this righteous war, you will be turning away from your duty and honoured position, and will be incurring sin.
।।2.33।।इस प्रकार कर्तव्यरूपसे प्राप्त होनेपर भी यदि तू यह धर्मयुक्त धर्मसे ओतप्रोत युद्ध नहीं करेगा तो उस युद्धके न करनेके कारण अपने धर्मको और महादेव आदिके साथ युद्ध करनेसे प्राप्त हुई कीर्तिको नष्ट करके केवल पापको ही प्राप्त होगा।
।।2.33।।  अथ चेत् त्वम् इमं धर्म्यं  धर्मादनपेतं विहितं  संग्रामं  युद्धं  न करिष्यसि  चेत्  ततः  तदकरणात्  स्वधर्मं कीर्तिं च  महादेवादिसमागमनिमित्तां  हित्वा  केवलं  पापम् अवाप्स्यसि।।न केवलं स्वधर्मकीर्तिपरित्यागः
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अथ चैत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि। ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।2.33।।
অথ চৈত্ত্বমিমং ধর্ম্যং সংগ্রামং ন করিষ্যসি৷ ততঃ স্বধর্মং কীর্তিং চ হিত্বা পাপমবাপ্স্যসি৷৷2.33৷৷
অথ চৈত্ত্বমিমং ধর্ম্যং সংগ্রামং ন করিষ্যসি৷ ততঃ স্বধর্মং কীর্তিং চ হিত্বা পাপমবাপ্স্যসি৷৷2.33৷৷
અથ ચૈત્ત્વમિમં ધર્મ્યં સંગ્રામં ન કરિષ્યસિ। તતઃ સ્વધર્મં કીર્તિં ચ હિત્વા પાપમવાપ્સ્યસિ।।2.33।।
ਅਥ ਚੈਤ੍ਤ੍ਵਮਿਮਂ ਧਰ੍ਮ੍ਯਂ ਸਂਗ੍ਰਾਮਂ ਨ ਕਰਿਸ਼੍ਯਸਿ। ਤਤ ਸ੍ਵਧਰ੍ਮਂ ਕੀਰ੍ਤਿਂ ਚ ਹਿਤ੍ਵਾ ਪਾਪਮਵਾਪ੍ਸ੍ਯਸਿ।।2.33।।
ಅಥ ಚೈತ್ತ್ವಮಿಮಂ ಧರ್ಮ್ಯಂ ಸಂಗ್ರಾಮಂ ನ ಕರಿಷ್ಯಸಿ. ತತಃ ಸ್ವಧರ್ಮಂ ಕೀರ್ತಿಂ ಚ ಹಿತ್ವಾ ಪಾಪಮವಾಪ್ಸ್ಯಸಿ৷৷2.33৷৷
അഥ ചൈത്ത്വമിമം ധര്മ്യം സംഗ്രാമം ന കരിഷ്യസി. തതഃ സ്വധര്മം കീര്തിം ച ഹിത്വാ പാപമവാപ്സ്യസി৷৷2.33৷৷
ଅଥ ଚୈତ୍ତ୍ବମିମଂ ଧର୍ମ୍ଯଂ ସଂଗ୍ରାମଂ ନ କରିଷ୍ଯସି| ତତଃ ସ୍ବଧର୍ମଂ କୀର୍ତିଂ ଚ ହିତ୍ବା ପାପମବାପ୍ସ୍ଯସି||2.33||
atha caittvamimaṅ dharmyaṅ saṅgrāmaṅ na kariṣyasi. tataḥ svadharmaṅ kīrtiṅ ca hitvā pāpamavāpsyasi৷৷2.33৷৷
அத சைத்த்வமிமஂ தர்ம்யஂ ஸஂக்ராமஂ ந கரிஷ்யஸி. ததஃ ஸ்வதர்மஂ கீர்திஂ ச ஹித்வா பாபமவாப்ஸ்யஸி৷৷2.33৷৷
అథ చైత్త్వమిమం ధర్మ్యం సంగ్రామం న కరిష్యసి. తతః స్వధర్మం కీర్తిం చ హిత్వా పాపమవాప్స్యసి৷৷2.33৷৷
2.34
2
34
।।2.34।। और सब प्राणी भी तेरी सदा रहनेवाली अपकीर्तिका कथन अर्थात निंदा करेंगे। वह अपकीर्ति सम्मानित मनुष्यके लिये मृत्युसे भी बढ़कर दुःखदायी होती है।
।।2.34।। और सब लोग तुम्हारी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कहते रहेंगे;  और सम्मानित पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी अधिक होती है।।
।।2.34।। एक प्रसिद्ध सम्मानित वीर के लिए अपकीर्ति मरण से भी अधिक होती है। श्रीकृष्ण अर्जुन को दुविधा त्याग कर युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए एक और तर्क प्रस्तुत करते हैं। अर्जुन का पक्ष धर्म और न्याय का होने पर भी उसका युद्ध से पलायन कायरता का लक्षण है। भगवान् के शब्दों में अर्जुन के प्रति सहानुभूति अन्तर्निहित है क्योंकि वे जानते हैं कि भावावेग में शूरवीर अर्जुन भी मन से दुर्बल होकर हतोत्साहित हो सकता है। आगे
2.34।। व्याख्या--'अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्' -- मनुष्य, देवता, यक्ष, राक्षस आदि जिन प्राणियोंका तेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् जिनकी तेरे साथ न मित्रता है और न शत्रुता, ऐसे साधारण प्राणी भी तेरी अपकीर्ति, अपयशका कथन करेंगे कि देखो ! अर्जुन कैसा भीरू था, जो कि अपने क्षात्र-धर्मसे विमुख हो गया। वह कितना शूरवीर था, पर युद्धके मौकेपर उसकी कायरता प्रकट हो गयी, जिसका कि दूसरोंको पता ही नहीं था; आदि-आदि।   'ते'  कहनेका भाव है कि स्वर्ग, मृत्यु और पाताल-लोकमें भी जिसकी धाक जमी हुई है, ऐसे तेरी अपकीर्ति होगी।  अव्ययाम्  कहनेका तात्पर्य है कि जो आदमी श्रेष्ठताको लेकर जितना अधिक प्रसिद्ध होता है, उसकी कीर्ति और अपकीर्ति भी उतनी ही अधिक स्थायी रहनेवाली होती है।   'सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते'-- इस श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने साधारण प्राणियोंद्वारा अर्जुनकी निन्दा किये जानेकी बात बतायी। अब श्लोकके उत्तार्धमें सबके लिये लागू होनेवाली सामान्य बात बताते हैं। संसारकी दृष्टिमें जो श्रेष्ठ माना जाता है, जिसको लोग बड़ी ऊँची दृष्टिसे देखते हैं, ऐसे मनुष्यकी जब अपकीर्ति होती है, तब वह अपकीर्ति उसके लिये मरणसे भी अधिक भयंकर दुःखदायी होती है। कारण कि मरनेमें तो आयु समाप्त हुई है, उसने कोई अपराध तो किया नहीं है, परन्तु अपकीर्ति होनेमें तो वह खुद धर्म-मर्यादासे ,कर्तव्यसे च्युत हुआ है। तात्पर्य है कि लोगोंमें श्रेष्ठ माना जानेवाला मनुष्य अगर अपने कर्तव्यसे च्युत होता है, तो उसका बड़ा भयंकर अपयश होता है।
।।2.34 2.38।।यद्भयाच्च भवान् युद्धात् निवर्तते (K निवर्तेत) तदेव शतशाखमुपनिपतिष्यति भवत इत्याह अथ चेत्यादि। श्लोकपञ्चकमिदम् अभ्युपगम्यवादरूपमुच्यते ( N उपगम्य) यदि लौकिकेन व्यवहारेणास्ते भवान् तथाप्यवश्यानुष्ठेयमेतत्।
।।2.34।।न केवलं निरतिशयसुखकीर्तिहानिमात्रं पार्थो युद्धे प्रारब्धे पलायित इति अव्ययां सर्व देशकालव्यापिनीम्  अकीर्तिं च  समर्थानि असमर्थानि सर्वाणि  भूतानि कथयिष्यन्ति  ततः किमिति चेत् शौर्यवीर्यपराक्रमादिभिः सर्व संभावितस्य  तद्विपर्ययजा हि  अकीर्तिः मरणाद् अतिरिच्यते।  एवंविधाया अकीर्तेः मरणम् एव तव श्रेयः इत्यर्थः।बन्धुस्नेहात् कारुण्याच्च युद्धात् निवृत्तस्य शूरस्य मम अकीर्तिः कथम् आगामिष्यति इति अत्राह
।।2.34।।युद्धाकरणे क्षत्रियस्य प्रत्यवायमामुष्मिकमापाद्य शिष्टगर्हालक्षणं दीर्घकालभाविनमैहिकमपि प्रत्यवायं प्रतिलम्भयति  न केवलमिति।  युद्धे स्वस्मरणसंदेहात्तत्परिहारार्थमकीर्तिरपि सोढव्या आत्मसंरक्षणस्य श्रेयस्करत्वादित्याशङ्क्याह   धर्मात्मेति।  मान्यानामकीर्तिर्भवति मरणादपि दुःसहेति तात्पर्यार्थमाह  संभावितस्येति।
।।2.34।।किञ्च अकीर्तिमिति। भूतानि प्राणिजातानि। विजयीति सम्भावितस्य।
।।2.34।।एवं कीर्तिधर्मयोरिष्टयोरप्राप्तिरनिष्टष्य च पापस्य प्राप्तिर्युद्धपरित्यागे दर्शिता। तत्र पापाख्यमनिष्टं व्यवधानेन दुःखफलमामुत्रिकत्वात् शिष्टगर्हालक्षणं त्वनिष्टमासन्नफलदमत्यसह्यमित्याह भूतानि देवर्षिमनुष्यादीनि ते तवाव्ययां दीर्घकालमकीर्तिं न धर्मात्मायं न शूरोऽयमित्येवंरूपां कथयिष्यन्त्यन्योन्यं कथाप्रसङगे। कीर्तिधर्मनाशसमुच्चयार्थौ निपातौ। न केवलं कीर्तिधर्मौ हित्वा पापं प्राप्स्यसि अपितु अकीर्तिं च प्राप्स्यसि। न केवलं त्वमेव तां प्राप्स्यसि अपितु भूतान्यपि कथयिष्यन्तीति वा निपातयोरर्थः। ननु युद्धे स्वमरणसंदेहात्तत्परिहारार्थमकीर्तिरपि सोढव्या आत्मरक्षणस्यात्यन्तापेक्षितत्वात्। तथाचोक्तं शान्तिपर्वणि साम्ना दानेन भेदेन समस्तैरुत वा पृथक्। विजेतुं प्रयतेतारीन्न युध्येत कदाचन।।अनित्यो विजयो यस्माद्दृश्यते युध्यमानयोः। पराजयश्च संग्रामे तस्माद्युद्धं विवर्जयेत्।।त्रयाणामप्युपायानां पूर्वोक्तानामसंभवे। तथा युध्येत संपत्तौ विजयेत रिपून्यथा।। इति। एवमेव मनुनाप्युक्तम्। तथाच मरणभीतस्य किमकीर्तिर्दुःखमिति शङ्कामपनुदति संभावितस्य धर्मात्मा शूर इत्येवमादिभिरनन्यलभ्यैर्गुणैर्बहुमतस्य जनस्याकीर्तिर्मरणादप्यतिरिच्यतेऽधिका भवति। चो हेतौ। एंव यस्मादतोऽकीर्तेर्मरणमेव वरं न्यूनत्वात्। त्वमप्यतिसंभावितोऽसि महादेवादिसमागमेन। अतो नाकीर्तिदुःखं सोढुं शक्ष्यसीत्यभिप्रायः। उदाहृतवचनं त्वर्थशास्त्रत्वात्न निवर्तेत संग्रामात् इत्यादिधर्मशास्त्राद्दुर्बलमिति भावः।
।।2.34।।किंच  अकीर्तिमिति।  अव्ययां शाश्वतीम्। संभावितस्य बहुमानितस्याकीर्तिर्मरणादतिरिच्यतेऽधिकतरा भवति।
।।2.34।।एवं दृष्टादृष्टरूपफलहानिरदृष्टप्रत्यवायश्चोक्तः अथ दृष्टप्रत्यवायमाह अकीर्तिं चेति। अकीर्तिरिह दुष्कीर्तिः।न ते केवलम् इत्यादावपि पारलौकिकनिरतिशयपापमात्रमित्यनुसन्धेयम्।प्रारब्धे पलायित इति कान्दिशीकतया प्रथमव्यापारमप्यकृत्वेति भावः। अव्ययशब्देनाविनाशित्वाभिधानात् सर्वकालव्यापित्वमुच्यताम् सर्वदेशव्यापित्वं तु कथमुच्यते इत्थं यद्यकीर्तिः सर्वदेशव्यापिनी न स्यात् सर्वकालव्यापिन्यपि न स्यात् कालक्रमेण सङ्कोचाद्विच्छेदोपपत्तेरिति। यद्वा देशतः कालतश्चान्यूनत्वमेवात्र अव्ययत्वं विवक्षितम्। भूतान्यपीतिअपिशब्दान्वयः। चापीत्यनतिरिक्तार्थत्वे निष्प्रयोजनत्वम्ततो भूतानि इति सामान्यनिर्देशात्। अपिशब्दान्वयबलाच्चोक्तंसमर्थान्यसमर्थान्यपीत्यादि। अकीर्तेरिष्टत्वमाशङ्क्योत्तरार्धमुच्यत इत्याह ततः किमिति। चश्शङ्कानिराकरणार्थः। अर्जुनस्य सम्भावितत्वहेतूनाह शौर्येति।सर्वसम्भावितस्येति। पूर्वनिर्दिष्टैः समर्थैरसमर्थैश्च भूतैः सम्भावितस्येत्यर्थः। ननु मरणादतिरेकः किं हेयतया उपादेयतया वा न प्रथमःजीवन् भद्राणि पश्यति म.भा.आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् इत्यादिवचनात्। न द्वितीयः प्रकरणविरोधादित्यत्राह एवंविधाया इति।जीवन् भद्राणि इत्यादिकं तु क्षत्ित्रयापुत्रस्य तेऽद्य नोपादेयम्। न चेयमकीर्तिर्लघीयसी येन मरणाच्छ्रेयसी स्यात्। किन्त्वेवंविधा सर्वकालदेशव्यापिनी इयं च नरकायापि स्यात् तथैव स्मृत्यादिसिद्धत्वात्। तथा चोत्तरस्मिन् रामायणे वि.7।45।12।13 रघुनाथवाक्यम् अकीर्तिर्यस्य गीयेत लोके भूतस्य कस्यचित्। पतत्येवाधमान् लोकान्यावच्छब्दः स कीर्त्यते इति। युद्धे मरणं तु तत एव स्वर्गाय स्यादिति भावः।
।।2.34।।किञ्च पापात्परलोकनाश एव भविष्यतीति न किन्त्विह लोकेऽप्यपकीर्तिर्भविष्यतीत्याह अकीर्तिं चापीति। भूतानि अपि ते अकी र्ति৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷ मव्ययां सदानुवर्त्तमानां कथयिष्यन्ति। भूतानीति नपुंसकलिङ्गकथनेन तथा कथनायोग्या अपि कथयिष्यन्तीति व्यञ्जितम्। नन्वकीर्तिकथनेन किं स्यादित्यत आह सम्भावितस्येति। सम्भावितस्य युद्धादौ अकीर्तिः मरणात् अतिरिच्यते अधिका भवतीत्यर्थः।
।।2.34।।अव्ययां दीर्घकालम्।
।।2.34।।किंच अकीर्तिमव्ययां दीर्घकालां धर्मात्मा शूर इत्येवमादिभिर्गुणैः संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते तस्याकीर्तेर्मरणं वरमित्यर्थः।
2.34 अकीर्तिम् dishonour? च and? अपि also? भूतानि beings? कथयिष्यन्ति will tell? ते thy? अव्ययाम् everlasting? संभावितस्य of the honoured? च and? अकीर्तिः dishonour? मरणात् than death? अतिरिच्यते exceeds.Commentary The world also will ever recount thy infamy which will survive thee for a long time. Death is really preferable to disgrace to one who has been honoured as a great hero and mighty warrior with noble alities.
2.34 People, too, will recount thy everlasting dishonour; and to one who has been honoured, dishonour is worse than death.
2.34 Men will talk forever of thy disgrace; and to the noble, dishonour is worse than death.
2.34 People also will speak of your unending infamy. And to an honoured person infamy is worse than death.
2.34 Not only will there be the giving up of your duty and fame, but bhutani, people; ca api, also; kathayisyanti, will speak; te, of your; avyayam, unending, perpetual; akrtim, infamy. Ca, and; sambhavitasya, to an honoured person, to a person honoured with such epithets as 'virtuous', 'heroic', etc.; akirtih, infamy; atiricyate, is worse than; maranat, death. The meaning is that, to an honoured person death is perferable to infamy.
2.34. The creatures will speak of your endless ill-fame; and for the one who has been highly esteemed the illfame is worse than death.
2.34 See Comment under 2.37
2.34 You will then incur not merely the loss of all happiness and honour but will be the object of disrespect by all people, the alifies and even the unalified, for all time. They will ridicule you saying, 'When the battle began, Arjuna ran away.' It it be asked, 'What if it be so?", the reply is: 'To one who is honoured by all for courage, prowess, valour, etc., this kind of dishonour arising from the reverse of these attributes, is worse than death? The meaning is that itself would be better for you than this kind of dishonour. If it is said, 'How could dishonour accrue to me, who am a hero, but have withdrawn from the battle only out of love and compassion for my relatives?' the reply is as follows:
2.34 Further, people will speak ill of you for all time, and for one accustomed to be honoured, dishonour is worse than death.
।।2.34।।केवल स्वधर्म और कीर्तिका त्याग होगा इतना ही नहीं सब लोग तेरी बहुत दिनोंतक स्थायी रहनेवाली अपकीर्ति ( निन्दा ) भी किया करेंगे। धर्मात्मा शूरवीर इत्यादि गुणोंसे प्रतिष्ठा पाये हुए पुरुषके लिये अपकीर्ति मरणसे भी अधिक होती है। अभिप्राय यह है कि संभावित ( इज्जतदार ) पुरुषके लिये अपकीर्तिकी अपेक्षा मरना अच्छा है।
।।2.34।।  अकीर्तिं चापि युद्धे भूतानि कथयिष्यन्ति ते  तव  अव्ययां  दीर्घकालाम्। धर्मात्मा शूर इत्येवमादिभिः गुणैः  संभावितस्य च अकीर्तिः मरणात् अतिरिच्यते  संभावितस्य च अकीर्तेः वरं मरणमित्यर्थः।।किञ्च
null
null
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्। संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते।।2.34।।
অকীর্তিং চাপি ভূতানি কথযিষ্যন্তি তেব্যযাম্৷ সংভাবিতস্য চাকীর্তির্মরণাদতিরিচ্যতে৷৷2.34৷৷
অকীর্তিং চাপি ভূতানি কথযিষ্যন্তি তেব্যযাম্৷ সংভাবিতস্য চাকীর্তির্মরণাদতিরিচ্যতে৷৷2.34৷৷
અકીર્તિં ચાપિ ભૂતાનિ કથયિષ્યન્તિ તેવ્યયામ્। સંભાવિતસ્ય ચાકીર્તિર્મરણાદતિરિચ્યતે।।2.34।।
ਅਕੀਰ੍ਤਿਂ ਚਾਪਿ ਭੂਤਾਨਿ ਕਥਯਿਸ਼੍ਯਨ੍ਤਿ ਤੇਵ੍ਯਯਾਮ੍। ਸਂਭਾਵਿਤਸ੍ਯ ਚਾਕੀਰ੍ਤਿਰ੍ਮਰਣਾਦਤਿਰਿਚ੍ਯਤੇ।।2.34।।
ಅಕೀರ್ತಿಂ ಚಾಪಿ ಭೂತಾನಿ ಕಥಯಿಷ್ಯನ್ತಿ ತೇವ್ಯಯಾಮ್. ಸಂಭಾವಿತಸ್ಯ ಚಾಕೀರ್ತಿರ್ಮರಣಾದತಿರಿಚ್ಯತೇ৷৷2.34৷৷
അകീര്തിം ചാപി ഭൂതാനി കഥയിഷ്യന്തി തേവ്യയാമ്. സംഭാവിതസ്യ ചാകീര്തിര്മരണാദതിരിച്യതേ৷৷2.34৷৷
ଅକୀର୍ତିଂ ଚାପି ଭୂତାନି କଥଯିଷ୍ଯନ୍ତି ତେବ୍ଯଯାମ୍| ସଂଭାବିତସ୍ଯ ଚାକୀର୍ତିର୍ମରଣାଦତିରିଚ୍ଯତେ||2.34||
akīrtiṅ cāpi bhūtāni kathayiṣyanti tē.vyayām. saṅbhāvitasya cākīrtirmaraṇādatiricyatē৷৷2.34৷৷
அகீர்திஂ சாபி பூதாநி கதயிஷ்யந்தி தேவ்யயாம். ஸஂபாவிதஸ்ய சாகீர்திர்மரணாததிரிச்யதே৷৷2.34৷৷
అకీర్తిం చాపి భూతాని కథయిష్యన్తి తేవ్యయామ్. సంభావితస్య చాకీర్తిర్మరణాదతిరిచ్యతే৷৷2.34৷৷
2.35
2
35
।।2.35।।  महारथीलोग तुझे भयके कारण युद्धसे उपरत (हटा) हुआ मानेंगे। जिनकी धारणामें तू बहुमान्य हो चुका है, उनकी दृष्टिमें तू लघुताको प्राप्त हो जायगा।
।।2.35।। और जिनके लिए तुम बहुत माननीय हो उनके लिए अब तुम तुच्छता को प्राप्त होओगे,  वे महारथी लोग तुम्हें भय के कारण युद्ध से निवृत्त हुआ मानेंगे।।
।।2.35।। भावी इतिहास में तो तुम्हारी अपकीर्ति बनी रहेगी ही परन्तु वर्तमान में भी शत्रु पक्ष के ये महारथी तुम्हारा उपहास करेंगे। इस भ्रातृहन्ता युद्ध से तुम्हें जो दुख है उसे न समझकर वे तो यही मानेंगे कि तुमने भय और कायरता के कारण युद्ध से पलायन किया है। इस प्रकार का अनादरपूर्ण कायरता का आरोप कोई भी वीर पुरुष सहन नहीं कर सकता विशेषरूप से जब अपने ही तुल्य बल के शत्रुओं द्वारा वह किया गया हो। और
2.35।। व्याख्या-- 'भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः'-- तू ऐसा समझता है कि मैं तो केवल अपना कल्याण करनेके लिये युद्धसे उपरत हुआ हूँ; परन्तु अगर ऐसी ही बात होती और युद्धको तू पाप समझता, तो पहले ही एकान्तमें रहकर भजन-स्मरण करता और तेरी युद्धके लिये प्रवृत्ति भी नहीं होती। परन्तु तू एकान्तमें न रहकर युद्धमें प्रवृत्त हुआ है। अब अगर तू युद्धसे निवृत्त होगा तो बड़े-बड़े महारथीलोग ऐसा ही मानेंगे कि युद्धमें मारे जानेके भयसे ही अर्जुन युद्धसे निवृत्त हुआ है। अगर वह धर्मका विचार करता तो युद्धसे निवृत्त नहीं होता; क्योंकि युद्ध करना क्षत्रियका धर्म है। अतः वह मरनेके भयसे ही युद्धसे निवृत्त हो रहा है।    'येषाँ च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्'-- भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, शल्य आदि जो बड़े-बड़े महारथी है, उनकी दृष्टिमें तू बहुमान्य हो चुका है अर्थात् उनके मनमें यह एक विश्वास है कि युद्ध करनेमें नामी शूरवीर तो अर्जुन ही है। वह युद्धमें अनेक दैत्यों, देवताओं, गन्धर्वों आदिको हरा चुका है। अगर अब तू युद्धसे निवृत्त हो जायगा, तो उन महारथियोंके सामने तू लधुता-(तुच्छता-) को प्राप्त हो जायगा अर्थात् उनकी दृष्टिमें तू गिर जायगा।
।।2.34 2.38।।यद्भयाच्च भवान् युद्धात् निवर्तते (K निवर्तेत) तदेव शतशाखमुपनिपतिष्यति भवत इत्याह अथ चेत्यादि। श्लोकपञ्चकमिदम् अभ्युपगम्यवादरूपमुच्यते ( N उपगम्य) यदि लौकिकेन व्यवहारेणास्ते भवान् तथाप्यवश्यानुष्ठेयमेतत्।
।।2.35।। येषां  कर्णदुर्योधनादीनां महारथानाम् इतः पूर्वं  त्वं  शूरो वैरी इति  बहुमतो भूत्वा  इदानीं युद्धे समुपस्थिते निवृत्तव्यापारतया  लाघवं  सुग्रहतां  यास्यसि।  ते  महारथाः त्वां भयाद्  युद्धाद्  उपरतं मंस्यन्ते।  शूराणां हि वैरिणां शत्रुभयाद् ऋते बन्धुस्नेहादिना युद्धाद् उपरतिः न उपपद्यते।किं च
।।2.35।।इतश्च त्वचा युद्धं कर्तव्यमित्याह  किञ्चेति।  प्राणिषु कृपया नाहं युद्धं करिष्यामीत्याशङ्क्याह  भयादिति।  महारथानेव विशिनष्टि  येषां चेति।  दुर्योधनादिभिस्तवोपहास्यतानिरसनाय संग्रामे प्रवृत्तिरवश्यंभाविनीत्यर्थः।
।।2.35।।यद्यपि त्वं स्वबन्धुहिंसादोषभिया न युद्धमङ्गीकरोषि तथाप्येते तु नैवं जानन्तीत्याह भयात् रणादुपरतमिति। महारथा एते एवमजानन्तस्त्वां मरणभयाद्रणादुपरतं मंस्यते एवं च लाघवं प्राप्स्यसि।
।।2.35।।ननूदासीना मां निन्दन्तु नाम भीष्मद्रोणादयस्तु महारथाः कारुणिकत्वेन स्तोष्यन्ति मामित्यत आह कर्णादिभ्यो भयाद्युद्धान्निवृत्तं न कृपयेति त्वां मंस्यन्ते भीष्मद्रोणदुर्योधनादयो महारथाः। ननु ते मां बहुमन्यमानाः कथं भीतं मंस्यन्त इत्यत आह येषामेव भीष्मादीनां त्वं बहुमतो बहुभिर्गुणैर्युक्तोऽयमर्जुन इत्येवं मतस्त एव त्वां महारथा भयादुपरतं मंस्यन्त इत्यन्वयः। अतो भूत्वा युद्धादुपरत इति शेषः। लाघवमनादरविषयत्वं यास्यसि प्राप्स्यसि। सर्वेषामिति शेषः। येषामेव त्वं प्राग्बहुमतोऽभूस्तेषामेव तादृशो भूत्वा लाघवं यास्यसीति वा।
।।2.35।।किंच  भयादिति।  येषां बहुगुणत्वेन त्वं पूर्वं संमतोऽभूस्त एव भयेन संग्रामात्त्वां निवृत्तं मन्येरन् ततश्च पूर्वं बहुमतो भूत्वा लाघवं यास्यसि।
।।2.35।।एवं धर्माधर्मभ्रमो निवारितः। अथास्थानस्नेहः क्षिप्यतेभयात् इत्यादिना।बन्धुस्नेहादित्यादि। शूरस्य सतः स्नेहकारुण्याभ्यां निवृत्तस्य मे कीर्तिरेव स्यादिति भावः। येषामित्यतिप्रसिद्धपरामर्शात् कर्णदुर्योधनादीनामित्युक्तम्। तेनापकारवर्गं स्मारयति। यद्यपि भीष्मादयो याथार्थ्यं जानीयुः तथापि कर्णादयो न तथेति भावः।भूत्वा इत्यस्य यास्यसीत्युत्तरक्रियैकरस्येनस्नात्वा होष्यामि इत्यादिष्विव क्रियापेक्षया पूर्वेणापि भविष्यता कालेन सम्बन्धभ्रमव्युदासायोक्तंपूर्वमिति। बहुभिर्गुणैर्बहुत्वेन मतो हि बहुमत इत्यभिप्रायेणाह शूरो वैरीति। यदि शूरस्त्वं प्रागपि निर्वैरः यदि च वैरी त्वं शौर्यरहितः तदा महारथा न त्वां गणयेयुरिति भावः। तत्क्षणावधि वैरानुवृत्तिसूचनायोक्तंइदानीमिति। लाघवफलं सुग्रहतालाघवशब्देनोपचरिता। सुग्रहत्वं चात्र सुग्रहत्वाभिमानविषयत्वम् बन्धुस्नेहादित्याद्युक्तां शङ्कां निराकरोतिशूराणां हीति। यदि शूरत्ववैरित्वयोरन्यतरन्न स्यात् तदो युज्येताप्यन्यथा सिद्धिरिति भावः।
।।2.35।।ननु पूर्वं ये दृष्टमत्पौरुषास्ते तु न तथा कथयिष्यन्ति किन्त्वज्ञा एव तेषां कथनेऽपि किं स्यादित्यत आह भयादिति। ये महारथास्ते त्वां रणाद्भयादुपरतं निवृत्तं मंस्यन्ते। ननु मम भयाभावात्तेषां माननेऽपि किं भविष्यतीत्यत आह येषां च त्वमिति सार्द्धेन। त्वं येषां बहुमतः सम्भावितगुण आसीस्तादृशो भूत्वा लाघवं यास्यसि।
।।2.35।।अकीर्तिमेवाह  भयादिति।  त्वं बहुमतो भूत्वा स्वत एव अतिश्लाघ्यवृत्तः सन् लाघवं लघुभावं कातर्याख्यं येषां पुरतो यास्यसि ते महारथास्त्वां भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्त इति योजना।
।।2.35।।न केवलमितरभूतान्येवाकीर्ति कथयिष्यन्ति किंतु महारथा अपीत्याह  भयादीति।  कर्णादिभयाद्युद्धान्निवृत्तं न कृपयेति चिन्तयिष्यन्ति। बहुमतो बहुभिर्गुणैर्मतो भूत्वा लघुतां यास्यसि।
2.35 भयात् from fear? रणात् from the battle? उपरतम् withdrawn? मंस्यन्ते will think? त्वाम् thee? महारथाः the great carwarriors? येषाम् of whom? च and? त्वम् thou? बहुमतः much thought of? भूत्वा having been? यास्यसि will receive? लाघवम् lightness.Commentary Duryodhana and others will certainly think that you have fled from the battle from fear of Karna and others? but not through compassion and reverence for elders and teachers. Duryodhana and others who have shown great esteem to you on account of your chivalry? bravery and other noble alities? will think very lightly of you and treat you with contempt.
2.35 The great car-warriors will think that thou hast withdrawn from the battle through fear; and thou wilt be lightly held by them who have thought much of thee.
2.35 Great generals will think that thou hast fled from the battlefield through cowardice; though once honoured thou wilt seem despicable.
2.35 The great chariot-riders will think of you as having desisted from the fight out of fear; and you will into disgrace before them to whom you had been estimable.
2.35 Moreover, maharathah, the great chariot-riders, Duryodhana and others; mamsyante, will think; tvam, of you; as uparatam, having desisted; ranat, from the fight; not out of compassion, but bhayat, out of fear of Karna and others; ca, and ; yasyasi laghavam, you will again fall into disgrace before them, before Duryodhana and others; yesam, to whom; tvam, you; bahumato bhutva, had been estimable as endowed with many alities.
2.35. The mighty charioteers will think of you as having withdrawn from the battle out of fear : having been highly regarded by these men, you shall be viewed lightly.
2.35 See Comment under 2.37
2.35 Great warriors like Karna, Duryodhana, etc., hitherto held you in high esteem as a heroic enemy. Now by refraining from battle when it has begun, you will appear to them as despicable and easily defeatable. These great warriors will think of you as withdrawing from battle out of fear. Because turning away from battle does not happen in the case of brave enemies through affection etc., for relatives. It can happen only through fear of enemies. Moreover
2.35 The great warriors will think that you have fled from battle in fear. These men who held you in high esteem will speak lightly of you now.
।।2.35।।तथा जिन दुर्योधनादिके मतमें तू पहले बहुमत अर्थात् बहुत गुणोंसे युक्त माना जाकर अब लघुताको प्राप्त होगा वे दुर्योधन आदि महारथीगण तुझे कर्णादिके भयसे ही युद्धसे निवृत्त हुआ मानेंगे दया करके हट गया है ऐसा नहीं।
।।2.35।।  भयात्  कर्णादिभ्यः  रणात्  युद्धात्  उपरतं  निवृत्तं  मंस्यन्ते  चिन्तयिष्यन्ति न कृपयेति  त्वां महारथाः  दुर्योधनप्रभृतयः।  येषां च त्वं  दुर्योधनादीनां  बहुमतो  बहुभिः गुणैः युक्तः इत्येवं मतः बहुमतः  भूत्वा  पुनः  यास्यसि लाघवं  लघुभावम्।।किञ्च
null
null
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः। येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।2.35।।
ভযাদ্রণাদুপরতং মংস্যন্তে ত্বাং মহারথাঃ৷ যেষাং চ ত্বং বহুমতো ভূত্বা যাস্যসি লাঘবম্৷৷2.35৷৷
ভযাদ্রণাদুপরতং মংস্যন্তে ত্বাং মহারথাঃ৷ যেষাং চ ত্বং বহুমতো ভূত্বা যাস্যসি লাঘবম্৷৷2.35৷৷
ભયાદ્રણાદુપરતં મંસ્યન્તે ત્વાં મહારથાઃ। યેષાં ચ ત્વં બહુમતો ભૂત્વા યાસ્યસિ લાઘવમ્।।2.35।।
ਭਯਾਦ੍ਰਣਾਦੁਪਰਤਂ ਮਂਸ੍ਯਨ੍ਤੇ ਤ੍ਵਾਂ ਮਹਾਰਥਾ। ਯੇਸ਼ਾਂ ਚ ਤ੍ਵਂ ਬਹੁਮਤੋ ਭੂਤ੍ਵਾ ਯਾਸ੍ਯਸਿ ਲਾਘਵਮ੍।।2.35।।
ಭಯಾದ್ರಣಾದುಪರತಂ ಮಂಸ್ಯನ್ತೇ ತ್ವಾಂ ಮಹಾರಥಾಃ. ಯೇಷಾಂ ಚ ತ್ವಂ ಬಹುಮತೋ ಭೂತ್ವಾ ಯಾಸ್ಯಸಿ ಲಾಘವಮ್৷৷2.35৷৷
ഭയാദ്രണാദുപരതം മംസ്യന്തേ ത്വാം മഹാരഥാഃ. യേഷാം ച ത്വം ബഹുമതോ ഭൂത്വാ യാസ്യസി ലാഘവമ്৷৷2.35৷৷
ଭଯାଦ୍ରଣାଦୁପରତଂ ମଂସ୍ଯନ୍ତେ ତ୍ବାଂ ମହାରଥାଃ| ଯେଷାଂ ଚ ତ୍ବଂ ବହୁମତୋ ଭୂତ୍ବା ଯାସ୍ଯସି ଲାଘବମ୍||2.35||
bhayādraṇāduparataṅ maṅsyantē tvāṅ mahārathāḥ. yēṣāṅ ca tvaṅ bahumatō bhūtvā yāsyasi lāghavam৷৷2.35৷৷
பயாத்ரணாதுபரதஂ மஂஸ்யந்தே த்வாஂ மஹாரதாஃ. யேஷாஂ ச த்வஂ பஹுமதோ பூத்வா யாஸ்யஸி லாகவம்৷৷2.35৷৷
భయాద్రణాదుపరతం మంస్యన్తే త్వాం మహారథాః. యేషాం చ త్వం బహుమతో భూత్వా యాస్యసి లాఘవమ్৷৷2.35৷৷
2.36
2
36
।।2.36।। तेरे शत्रुलोग तेरी सार्मथ्यकी निन्दा करते हुए न कहनेयोग्य बहुत-से वचन भी कहेंगे। उससे बढ़कर और दुःखकी बात क्या होगी?
।।2.36।। तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सार्मथ्य की निन्दा करते हुए बहुत से अकथनीय वचनों को कहेंगे,  फिर उससे अधिक दु:ख क्या होगा ?
।।2.36।। यह देखकर कि अर्जुन के मन में इन तर्कों का अनुकूल प्रभाव पड़ रहा है श्रीकृष्ण उसको युद्ध से पलायन करने में जो दोष हैं उन्हें और अधिक स्पष्ट करके दिखाते हैं। लोकनिन्दा युद्ध से पलायन का आरोप इतिहास में अपकीर्ति इनसे बढ़कर एक सम्मानित व्यक्ति के लिये और अधिक दुख क्या हो सकता है
2.36।। व्याख्या -- अवाच्यवादांश्च ৷৷. निन्दन्तस्तव सामर्थ्यम्  अहित नाम शत्रुका है, अहित करनेवालेका है। तेरे जो दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण आदि शत्रु हैं, तेरे वैर न रखनेपर भी वे स्वयं तेरे साथ वैर रखकर तेरा अहित करनेवाले हैं। वे तेरी सामर्थ्यको जानते हैं कि यह बड़ा भारी शूरवीर है। ऐसा जानते हुए भी वे तेरी सामर्थ्यकी निन्दा करेंगे कि यह तो हिजड़ा है। देखो! यह युद्धके मौकेपर हो गया न अलग! क्या यह हमारे सामने टिक सकता है? क्या यह हमारे साथ युद्ध कर सकता है? इस प्रकार तुझे दुःखी करनेके लिये तेरे भीतर जलन पैदा करनेके लिये न जाने कितने न कहनेलायक वचन कहेंगे। उनके वचनोंको तू कैसे सहेगा?
।।2.34 2.38।।यद्भयाच्च भवान् युद्धात् निवर्तते (K निवर्तेत) तदेव शतशाखमुपनिपतिष्यति भवत इत्याह अथ चेत्यादि। श्लोकपञ्चकमिदम् अभ्युपगम्यवादरूपमुच्यते ( N उपगम्य) यदि लौकिकेन व्यवहारेणास्ते भवान् तथाप्यवश्यानुष्ठेयमेतत्।
।।2.36।।शूराणाम् अस्माकं सन्निधौ कथम् अयं पार्थः क्षणम् अपि स्थातुं शक्नुयाद् अस्मत्संनिधानाद् अन्यत्र हि अस्य सामर्थ्यम् इति  तव सामर्थ्यं निन्दन्तः  शूराणाम् अग्रे  अवाच्यवादान् च बहून् वदिष्यन्ति  तव शत्रवो धार्तराष्ट्राः  ततः  अधिकतरं दुःखं  किं  तव एवंविधावाच्यश्रवणात् मरणम् एव श्रेयः इति त्वम् एव मन्यसे।अतः शूरस्य आत्मना परेषां हननम् आत्मनो वा परैः हननम् उभयम् अपि श्रेयसे भवति इति आह
।।2.36।।इतश्च मा त्वं युद्धादुपरमं कार्षीरित्याह  किञ्चेति।  ननु भीष्मद्रोणादिवधप्रयुक्तं कष्टतरं दुःखमसहमानो युद्धान्निवृत्तः स्वसामर्थ्यनिन्दनादि शत्रुकृतं सोढुं शक्ष्यामीत्याशङ्क्याह  तत इति।
।।2.36।।किञ्च अवाच्यवादानिति। स्पष्टम्।
।।2.36।।ननु भीष्मादयो महारथा न बहु मन्यन्तां दुर्योधनादयस्तु शत्रवो बहु मंस्यन्ते मां युद्धनिवृत्त्या तदुपकारित्वादित्यत आह तवासाधारणं यत्सामर्थ्यं लोकप्रसिद्धं तन्निन्दन्तस्तव शत्रवो दुर्योधनादयोऽवाच्यान्वादान्वचनानर्हान्षण्ढतिलादिरूपानेव शब्दान्बहूननेकप्रकारान्वदिष्यन्ति नतु बहु मंस्यन्त इत्यभिप्रायः। अथवा तव सामर्थ्यं स्तुतियोग्यत्वं तव निन्दन्तोऽहितो अवाच्यवादान्वदिष्यन्तीत्यन्वयः। ननु भीष्मद्रोणादिवधप्रयुक्तं कष्टतरं दुःखमसहमानो युद्धान्निवृतः शत्रुकृतसामर्थ्यनिन्दनादिदुःखं सोढुं शक्ष्यामीत्यत आह ततः तस्मान्निन्दाप्राप्तिदुःखात्किंनु दुःखतरम्। ततोऽधिकं किमपि दुःखं तास्तीत्यर्थः।
।।2.36।।किंच  अवाच्येति।  अवाच्यान्वादान्वचनानर्हाञ्शब्दांस्तवाहितास्त्वच्छत्रवो वदिष्यन्ति।
।।2.36।।एवं प्राचीनमपकारं भविष्यल्लाघवारोपंचाभिधाय पुनरागामिनाऽप्यपकारेणास्थानस्नेहत्वं द्रढयतीत्यभिप्रायेणाह किञ्चेति। प्रस्तुतोदन्तफलितं सामर्थ्यनिन्दाप्रकारमाह शूराणामस्माकमित्यादिना।शूराणामवाच्यवादांश्च बहूनिति शूरान् प्रति ये न वाच्याः किन्तु कान्दिशीकान् प्रति तान् पारुष्याश्लीलपरिहासादिवादा नित्यर्थः।अहितशब्दोऽत्र अवाच्यवादहेतुपर इत्यभिप्रायेणाह शत्रवो धार्तराष्ट्रा इति। यदि च भीष्मद्रोणकृपशल्यादयः किञ्चिद्वदेयुः तदा शौर्यगौरवादिना सह्येतापि कथं पुनरशूरैः शूराभिमानिभिर्महापकारिभिः कृतान् बहूनवाच्यवादान् सहेथाः इति भावः। ननु गुणविशिष्टवाचिशब्देषु हि तरबाद्यौचित्यम् न जात्यादिशब्देषु न हि घटतर इत्यादिकं प्रयुज्यत इत्यत्राह तत इति। ततोऽवाच्यवादात् तच्छ्रवणादिति फलितम्। दुःखशब्दः प्रातिकूल्यविशिष्टवाचि। प्रतिकूलतरमितिवद्दुःखतरमित्युक्तमित्यधिकतरशब्देन प्रत्ययार्थं निष्कृष्य वदतो भावः।तवेति नहि त्वं रथ्यापुरुषः न च समाध्यादिनिष्ठः येनात्र दुःखिता न स्यादिति भावः। किं शब्दः पूर्वश्लोकोक्तदुःखतरस्मरणतत्पर इत्याह एवमिति।त्वमेव मंस्यसे इति गाण्डीवसामर्थ्यादिनिन्दाप्रसङ्गे धर्मपुत्रमपि हि भवान् हन्तुमुद्योक्ष्यते किं पुनः कर्णादीन् अत इदानीं निवृत्तोऽपि तदा दुस्सहतरदुःखप्रेरितो युद्धं करिष्यसीति हृदयम्।
।।2.36।।किञ्च। तव सामर्थ्यं निन्दन्तस्तवाऽहिताः शत्रवः बहून् अवाच्यवादान् कथनायायोग्यानि वाक्यानि वदिष्यन्ति। नु इति निश्चयेन। ततो दुःखतरं किम् न किमपीत्यर्थः।
।।2.36।।किञ्च अवाच्यवादान् वक्तुमयोग्यान् शब्दान्षण्ढतिलोऽर्जुन इत्यादीन्। सामर्थ्यं निन्दन्तः धिगस्य शौर्यं यो भीष्मादिभयात् पलायित इति। इदं वचनं मरणादप्यधिकं दुःखम्। इतोऽन्यद्दुःखतरमधिकं दुःखं किं। न किमपीत्यर्थः।
।।2.36।।न केवलमेतावदेव मंस्यन्ते अपि तु षण्ढतिल इत्यादिरुपानवाच्यवादानपि वदिष्यन्ति यतोऽहितो इत्याह  अवाच्येति।  वक्तुमयोग्यान्वादान्वचनानि। अहिताः शत्रवः। ततो निन्दाप्राप्तेर्दुःखात्कष्टतरं दुःखं नास्तीत्यर्थः।
2.36 अवाच्यवादान् words that are improper to be spoken? च and? बहून् many? वदिष्यन्ति will say? तव thy? अहिताः enemies? निन्दन्तः cavilling? तव thy? सामर्थ्यम् power? ततः than this? दुःखतरम् more painful? नु indeed? किम् what.Commentary There is really no pain more unbearable and tormenting that that of slander thus incurred.
2.36 Thy enemies also, cavilling at thy power, will speak many abusive words. What is more painful than this?
2.36 Thine enemies will spread scandal and mock at thy courage. Can anything be more humiliating?
2.36 And your enemies will speak many indecent words while denigrating your might. What can be more painful than that?
2.36 Ca, and besieds; tava, your; ahitah, enemies; vadisyanti, will speak; bahun, many, various kinds of; avacya-vadan, indecent words, unutterable words; nindantah, while denigrating, scorning; tava, your; samarthyam, might earned from battles against Nivatakavaca and others. Therefore, kim nu, what can be; duhkhataram, more painful; tatah, than that, than the sorrow arising from being scorned? That is to say, there is no greater pain than it.
2.36. Slandering your ability, the enemies will talk of you many sayings that should not be talked of. Is there anything more painful than that ?
2.36 See Comment under 2.37
2.36 Moreover, your enemies, the sons of Dhrtarastra, will make many remarks unutterably slanderous and disparaging to heroes, saying, 'How can this Partha stand in the presence of us, who are heroes, even for a moment? His prowess is elsewhere than in our presence.' Can there be anything more painful to you than this? You yourself will understand that death is preferable to subjection to disparagement of this kind. Sri Krsna now says that for a hero, enemies being slain by oneself and oneself being slain by enemies are both conducive to supreme bliss.
2.36 Your enemies, slandering your prowess, will use words which should never be uttered. What could be more painful than that?
।।2.36।।तथा वे तेरे शत्रुगण निवातकवचादिके साथ युद्ध करनेमें दिखलाये हुए तेरे सामर्थ्यकी निन्दा करते हुए बहुतसे अनेक प्रकारके न कहने योग्य वाक्य भी तुझे कहेंगे। उस निन्दाजनित दुःखसे अधिक बड़ा दुःख क्या है अर्थात् उससे अधिक कष्टकर कोई भी दुःख नहीं है।
।।2.36।।  अवाच्यवादान्  अवक्तव्यवादां श्च बहून्  अनेकप्रकारान्  वदिष्यन्ति तव अहिताः  शत्रवः  निन्दन्तः  कुत्सयन्तः  तव  त्वदीयं  सामर्थ्यं  निवातकवचादियुद्धनिमित्तम्। ततः तस्मात् निन्दाप्राप्तेर्दुःखात्  दुःखतरं नु किम्  ततः कष्टतरं दुःखं नास्तीत्यर्थः।।युद्धे पुनः क्रियमाणे कर्णादिभिः
null
null
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः। निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।।2.36।।
অবাচ্যবাদাংশ্চ বহূন্ বদিষ্যন্তি তবাহিতাঃ৷ নিন্দন্তস্তব সামর্থ্যং ততো দুঃখতরং নু কিম্৷৷2.36৷৷
অবাচ্যবাদাংশ্চ বহূন্ বদিষ্যন্তি তবাহিতাঃ৷ নিন্দন্তস্তব সামর্থ্যং ততো দুঃখতরং নু কিম্৷৷2.36৷৷
અવાચ્યવાદાંશ્ચ બહૂન્ વદિષ્યન્તિ તવાહિતાઃ। નિન્દન્તસ્તવ સામર્થ્યં તતો દુઃખતરં નુ કિમ્।।2.36।।
ਅਵਾਚ੍ਯਵਾਦਾਂਸ਼੍ਚ ਬਹੂਨ੍ ਵਦਿਸ਼੍ਯਨ੍ਤਿ ਤਵਾਹਿਤਾ। ਨਿਨ੍ਦਨ੍ਤਸ੍ਤਵ ਸਾਮਰ੍ਥ੍ਯਂ ਤਤੋ ਦੁਖਤਰਂ ਨੁ ਕਿਮ੍।।2.36।।
ಅವಾಚ್ಯವಾದಾಂಶ್ಚ ಬಹೂನ್ ವದಿಷ್ಯನ್ತಿ ತವಾಹಿತಾಃ. ನಿನ್ದನ್ತಸ್ತವ ಸಾಮರ್ಥ್ಯಂ ತತೋ ದುಃಖತರಂ ನು ಕಿಮ್৷৷2.36৷৷
അവാച്യവാദാംശ്ച ബഹൂന് വദിഷ്യന്തി തവാഹിതാഃ. നിന്ദന്തസ്തവ സാമര്ഥ്യം തതോ ദുഃഖതരം നു കിമ്৷৷2.36৷৷
ଅବାଚ୍ଯବାଦାଂଶ୍ଚ ବହୂନ୍ ବଦିଷ୍ଯନ୍ତି ତବାହିତାଃ| ନିନ୍ଦନ୍ତସ୍ତବ ସାମର୍ଥ୍ଯଂ ତତୋ ଦୁଃଖତରଂ ନୁ କିମ୍||2.36||
avācyavādāṅśca bahūn vadiṣyanti tavāhitāḥ. nindantastava sāmarthyaṅ tatō duḥkhataraṅ nu kim৷৷2.36৷৷
அவாச்யவாதாஂஷ்ச பஹூந் வதிஷ்யந்தி தவாஹிதாஃ. நிந்தந்தஸ்தவ ஸாமர்த்யஂ ததோ துஃகதரஂ நு கிம்৷৷2.36৷৷
అవాచ్యవాదాంశ్చ బహూన్ వదిష్యన్తి తవాహితాః. నిన్దన్తస్తవ సామర్థ్యం తతో దుఃఖతరం ను కిమ్৷৷2.36৷৷
2.37
2
37
।।2.37।। अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अतः हे कुन्तीनन्दन! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा।
।।2.37।। युद्ध में मरकर तुम स्वर्ग प्राप्त करोगे या जीतकर पृथ्वी को भोगोगे;  इसलिय, हे कौन्तेय ! युद्ध का निश्चय कर तुम खड़े हो जाओ।।
।।2.37।। इस युद्ध में अर्जुन का पक्ष धर्म का होने से युद्ध करना उसके लिये सभी दृष्टियों से उचित था। युद्ध में मृत्यु होने पर उस वीर को स्वर्ग की प्राप्ति होगी और विजयी होने पर वह पृथ्वी का राज्य वैभव भोगेगा। मृत्योपरान्त धर्म के लिये युद्ध करने वाले पराक्रमी शूरवीर की भांति भी स्वर्ग का सुख भोगेगा। इसलिये अब तक जितने भी तर्क दिये गये हैं उन सबका निष्कर्ष इस वाक्य में है युद्ध का निश्चय कर तुम खड़े हो जाओ।जिस परिस्थिति विशेष में गीता का उपदेश दिया गया है उसके सन्दर्भ में युद्ध करने की सलाह न्यायोचित हैं परन्तु सामान्य परिस्थितियों में श्रीकृष्ण के इस दिव्य आह्वान का अर्थ होगा कि सभी प्रकार की मानसिक दुर्बलताओं को त्याग कर मनुष्य को अपने जीवन संघर्षों में आने वाली चुनौतियों का सामना साहस तथा दृढ़ता के साथ विजय के लिये करना चाहिये। इस प्रकार गीता का उपदेश किसी व्यक्ति विशेष के लिये न होकर सम्पूर्ण विश्व की मानव जाति के लिये उपयोगी और कल्याणकारी सिद्ध होगा।जिस भाव को हृदयस्थ करके युद्ध करना चाहिये उसे अब सुनो
2.37।। व्याख्या-- 'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्'-- इसी अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुनने कहा था कि हमलोगोंको इसका भी पता नहीं है कि युद्धमें हम उनको जीतेंगे यह वे हमको जीतेंगे। अर्जुनके इस सन्देहको लेकर भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि अगर युद्धमें तुम कर्ण आदिके द्वारा मारे भी जाओगे तो स्वर्गको चले जाओगे और अगर युद्धमें तुम्हारी जीत हो जायगी तो यहां पृथ्वीका राज्य भोगोगे। इस तरह तुम्हारे तो दोनों ही हाथोंमें लड्डू हैं। तात्पर्य है कि युद्ध करनेसे तो तुम्हारा दोनों तरफ से लाभ-ही-लाभ है और युद्ध न करनेसे दोनों तरफसे हानि-ही-हानि है। अतः तुम्हें युद्धमें प्रवृत्त हो जाना चाहिये।
।।2.34 2.38।।यद्भयाच्च भवान् युद्धात् निवर्तते (K निवर्तेत) तदेव शतशाखमुपनिपतिष्यति भवत इत्याह अथ चेत्यादि। श्लोकपञ्चकमिदम् अभ्युपगम्यवादरूपमुच्यते ( N उपगम्य) यदि लौकिकेन व्यवहारेणास्ते भवान् तथाप्यवश्यानुष्ठेयमेतत्।
।।2.37।।धर्मयुद्धे परैः हतः चेत् तत एव परमनिःश्रेयसं  प्राप्स्यसि  परान् वा हत्वा अकण्टकं राज्यं  भोक्ष्यसे।  अनभिसंहितफलस्य युद्धाख्यस्य धर्मस्य परमनिःश्रेयसोपायत्वात् तत् च परमनिःश्रेयसं प्राप्स्यसि।  तस्माद्   युद्धाय  उद्योगः परमपुरुषार्थलक्षणमोक्षसाधनम् इति निश्चित्य तदर्थम्  उत्तिष्ठ।  कुन्तीपुत्रस्य तव एतद् एव युक्तम् इत्यभिप्रायः।मुमुक्षोः युद्धानुष्ठानप्रकारम् आह
।।2.37।।तर्हि युद्धे गुर्वादिवधवशान्मध्यस्थनिन्दा ततो निवृत्तौ शत्रुनिन्देत्युभयतःपाशा रज्जुरित्याशङ्क्याह  युद्धे पुनरिति।  जये पराजये च लाभध्रौव्याद्युद्धार्थादुत्थानमावश्यकमित्याह  तस्मादिति।  नहि परिशुद्धकुलस्य श्रत्रियस्य युद्धायोद्युक्तस्य तस्मादुपरमः साधीयानित्याह  कौन्तेयेति।  जये पराजये चेत्येतदुभयथेत्युच्यते जयादिनियमाभावेऽपि लाभनियमे फलितमाह  यत इति।  कृतनिश्चयत्वमेव विशदयति  जेष्यामीति।
।।2.37।।यच्चोक्तंन चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः 2।6 इति तत्राह हतो वेति। स्वर्गं प्राप्स्यसि जित्वा वा महीं भोक्ष्यसे। पक्षद्वयेऽपि तव लाभ इति भावः।
।।2.37।।ननु तर्हि युद्धे गुर्वादिवधवशान्मध्यस्थकृता निन्दा ततो निवृत्तौ तु शत्रुकृता निन्देत्युभयतःपाशा रज्जुरित्याशङ्क्य जये पराजये च लाभध्रौव्याद्युद्धार्थमेवोत्थानमावश्यकमित्याह। स्पष्टं पूर्वार्धम्। यस्मादुभयथापि ते लाभस्तस्माज्जेष्यामि शत्रून्मरिष्यामि वेति कृतनिश्चयः सन्युद्धायोत्तिष्ठ अन्यतरफलसंदेहेऽपि युद्धकर्तव्यताया निश्चितत्वात्। एतेनन चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः इत्यादि परिहृतम्।
।।2.37।।यच्चोक्तंन चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः इति तत्राह  हतो वेति।  पक्षद्वयेऽपि तव लाभ एवेत्यर्थः।
।।2.37।।हतो वा इति श्लोकं पूर्वश्लोकवाक्यशेषतयाऽवतारयति अत इति। उभयथाऽपि तव लाभ इति भावः।प्राप्स्यसे भोक्ष्यसे इत्यर्जुनं प्रत्यभिधानेऽपिशूरस्येत्यादिसाधारणाभिधानं भीष्मादिहननस्य तच्छ्रेयोहेतुतया शोकहेतुत्वं नास्तीति ज्ञापनार्थम्। श्रेयस इत्यनेन यथेच्छं स्वर्गराज्यादिसुखापवर्गान् सङ्गृह्णाति। न हि हतत्वमात्रात्पुरुषार्थ इत्यत उक्तंधर्मयुद्ध इति।तत एवेति। श्रेयस्साधनतया शास्त्रसिद्धहननादेवेत्यर्थः।परमनिश्श्रेयसमिति। स्वर्गशब्दोऽत्रामृतत्वप्रकरणात्परमनिश्श्रेयसपरस्तत्स्थानपरो वा। यथा स एतेनैव प्राज्ञेनात्मनाऽस्माल्लोकादुत्क्रम्यामुष्मिन् स्वर्गे लोके सर्वान्कामानाप्त्वा अमृतस्समभवत् ऐ.उ.3।4 अनन्ते स्वर्गे लोकेऽज्येये प्रतितिष्ठति के.उ.4।34 स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्ते कठो.1।1।13 इतिराज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् 2।8 इति क्षुद्रस्वर्गोपेक्षकार्जुनोद्देशेन वचनाच्चायमेवार्थ इति भावः।परान्वा हत्वेति। महारथानां भीष्मद्रोणकर्णादीनां जयो हि हननमन्तरेण न युज्यत इति भावः।जित्वा भोक्ष्यसे इत्युभाभ्यां फलितमुक्तंअकण्टकमिति। प्रतिकूलेषु जाग्रत्सु राज्यं सिद्धमपि हि न भोगाय स्यादिति भावः। अर्जुनानादृतराज्यभोगमात्रपर्यवसानव्युदासायाह अनभिसंहितेति। मुमुक्षोर्हि राज्यभोगादिरानुषङ्गिकः। सम्बुद्धितात्पर्यमाह कुन्तीपुत्रस्येति।मृतं सूते क्षत्ित्रया राजपुत्री इति हि प्रसिद्धम्। नहि सिंहीसुतेन हरिणीकुमारचरितमनुसरणीयम् न च शुद्धक्षेत्रजन्मना त्वया महीयसो धर्मस्य विच्छेदः कार्य इति भावः।
।।2.37।।ननु युद्धे मरणसम्भावनायां दुःखसम्भावनायां च किमपकीर्त्यादिनेति चेत्तत्राह हतो वेति। वा विकल्पेन हननसम्भावनाभावात्। कदाचिद्धतश्चेत्तदा स्वर्गं प्राप्स्यसि। जित्वा वा दुःखादिसम्भवेऽपि महीं भोक्ष्यसे। तदा दुःखनिवृत्तिर्भविष्यतीति भावः। तस्माद्युद्धाय कृतनिश्चयः सन्नुत्तिष्ठ उपस्थितो भवेत्यर्थः।
।।2.37।।यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः इत्युक्तं तत्राह  हतो वेति।  रणे स्थितस्य स्वर्गो वा राज्यं वा सिद्धमस्तीति पक्षद्वयमपि हितावहमित्यर्थः।
।।2.37।।   विपक्षे दोषमुक्त्वा युद्धप्रवृत्तौ सर्वथा लाभ एवेत्याशयेनाह  हत इति।  हतः कर्णादिभिः जित्वा कर्णादीन् यत एवं तस्मात् शत्रूञ्जेष्यामि मरिष्यामिति निश्चयं कृत्वोत्तिष्ठ। कौन्तेयेति संबोधन्शत्रूञ्जित्वा राज्यलाभेनावश्यं त्वया कुन्तयै सुखं प्रदेयमिति द्योतयति।
2.37 हतः slain? वा or? प्राप्स्यसि (thou) wilt obtain? स्वर्गम् heaven? जित्वा having conered? वा or? भोक्ष्यसे (thou) wilt enjoy? महीम् the earth? तस्मात् therefore? उत्तिष्ठ stand up? कौन्तेय O son of Kunti? युद्धाय for fight? कृतनिश्चयः resolved.Commentary In either case you will be benefited. Therefore? stand up with the firm resolution I will coner the enemy or die.
2.37 Slain, thou wilt obtain heaven; victorious, thou wilt enjoy the earth; therefore, stand up, O son of Kunti, resolved to fight.
2.37 If killed, thou shalt attain Heaven; if victorious, enjoy the kingdom of earth. Therefore arise, O Son of Kunti, and fight!
2.37 Either by being killed you will attain heaven, or by winning you will enjoy the earth. Therefore, O Arjuna, rise up with determination for fighting.
2.37 Again, by undertaking the fight with Karna and others, va, either; hatah, by being killed; prapsyasi, you will attain; svargam, heaven; or jitva, by winning over Karna and other heroes; bhoksyase, you will enjoy; mahim, the earth. The purport is that in either case you surely stand to gain. Since this is so, Kaunteya, O son of Kunti; tasmat, therefore; uttistha, rise up; krta-niscayah, with determination; yuddhaya, for fighting, i.e. with the determination, 'I shall either defeat the enemies or shall die.'
2.37. If you are slain you shall attain heaven; or if you coner, you shall enjoy the earth. Therefore, O son of Kunti ! stand up with resolution made in favour of [fighting] the battle.
2.33-37 Atha ca etc., upto krta-niscavah. Accepting what the opponent has stated, this pentad of verses is narrated as an argument : 'If your goodself prefers to abide by the generally accepted practice, even then this [fighting] must be undertaken necessarily'.
2.37 If you are slain in a righteous war by enemies, you shall thery attain supreme bliss. Or, slaying the enemies, you shall enjoy this kingdom without obstacles. As the duty called war, when done without attachment to the fruits, becomes the means for winning supreme bliss, you will attain that supreme bliss. Therefore, arise, assured that engagement in war (here the duty) is the means for attaining release, which is known as man's supreme goal. This alone is suitable for you, the son of Kunti. This is the purport. Sri Krsna then explains to the aspirant for liberation how to conduct oneself in war.
2.37 If slain, you shall win heaven; or if victorious, you shall enjoy the earth. Therefore, arise, O Arjuna, resolved to fight.
।।2.37।।पक्षान्तरमें कर्ण आदि शूरवीरोंके साथ युद्ध करने पर या तो उनके द्वारा मारा जाकर ( तू ) स्वर्गको प्राप्त करेगा अथवा कर्णादि शूरवीरोंको जीतकर पृथिवीका राज्य भोगेगा। अभिप्राय यह कि दोनों तरहसे तेरा लाभ ही है। जब कि यह बात है इसलिये हे कौन्तेय युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा अर्थात् मैं या तो शत्रुओंको जीतूँगा या मर ही जाऊँगा ऐसा निश्चय करके खड़ा हो जा।
।।2.37।।  हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम्  हतः सन् स्वर्गं प्राप्स्यसि।  जित्वा वा  कर्णादीन् शूरान्  भोक्ष्यसे महीम् । उभयथापि तव लाभ एवेत्यभिप्रायः। यत एवं  तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः  जेष्यामि शत्रून् मरिष्यामि वा इति निश्चयं कृत्वेत्यर्थः।।तत्र युद्धं स्वधर्म इत्येवं युध्यमानस्योपदेशमिमं श्रृणु
null
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हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।2.37।।
হতো বা প্রাপ্স্যসি স্বর্গং জিত্বা বা ভোক্ষ্যসে মহীম্৷ তস্মাদুত্তিষ্ঠ কৌন্তেয যুদ্ধায কৃতনিশ্চযঃ৷৷2.37৷৷
হতো বা প্রাপ্স্যসি স্বর্গং জিত্বা বা ভোক্ষ্যসে মহীম্৷ তস্মাদুত্তিষ্ঠ কৌন্তেয যুদ্ধায কৃতনিশ্চযঃ৷৷2.37৷৷
હતો વા પ્રાપ્સ્યસિ સ્વર્ગં જિત્વા વા ભોક્ષ્યસે મહીમ્। તસ્માદુત્તિષ્ઠ કૌન્તેય યુદ્ધાય કૃતનિશ્ચયઃ।।2.37।।
ਹਤੋ ਵਾ ਪ੍ਰਾਪ੍ਸ੍ਯਸਿ ਸ੍ਵਰ੍ਗਂ ਜਿਤ੍ਵਾ ਵਾ ਭੋਕ੍ਸ਼੍ਯਸੇ ਮਹੀਮ੍। ਤਸ੍ਮਾਦੁਤ੍ਤਿਸ਼੍ਠ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਯੁਦ੍ਧਾਯ ਕਰਿਤਨਿਸ਼੍ਚਯ।।2.37।।
ಹತೋ ವಾ ಪ್ರಾಪ್ಸ್ಯಸಿ ಸ್ವರ್ಗಂ ಜಿತ್ವಾ ವಾ ಭೋಕ್ಷ್ಯಸೇ ಮಹೀಮ್. ತಸ್ಮಾದುತ್ತಿಷ್ಠ ಕೌನ್ತೇಯ ಯುದ್ಧಾಯ ಕೃತನಿಶ್ಚಯಃ৷৷2.37৷৷
ഹതോ വാ പ്രാപ്സ്യസി സ്വര്ഗം ജിത്വാ വാ ഭോക്ഷ്യസേ മഹീമ്. തസ്മാദുത്തിഷ്ഠ കൌന്തേയ യുദ്ധായ കൃതനിശ്ചയഃ৷৷2.37৷৷
ହତୋ ବା ପ୍ରାପ୍ସ୍ଯସି ସ୍ବର୍ଗଂ ଜିତ୍ବା ବା ଭୋକ୍ଷ୍ଯସେ ମହୀମ୍| ତସ୍ମାଦୁତ୍ତିଷ୍ଠ କୌନ୍ତେଯ ଯୁଦ୍ଧାଯ କୃତନିଶ୍ଚଯଃ||2.37||
hatō vā prāpsyasi svargaṅ jitvā vā bhōkṣyasē mahīm. tasmāduttiṣṭha kauntēya yuddhāya kṛtaniścayaḥ৷৷2.37৷৷
ஹதோ வா ப்ராப்ஸ்யஸி ஸ்வர்கஂ ஜித்வா வா போக்ஷ்யஸே மஹீம். தஸ்மாதுத்திஷ்ட கௌந்தேய யுத்தாய கரிதநிஷ்சயஃ৷৷2.37৷৷
హతో వా ప్రాప్స్యసి స్వర్గం జిత్వా వా భోక్ష్యసే మహీమ్. తస్మాదుత్తిష్ఠ కౌన్తేయ యుద్ధాయ కృతనిశ్చయః৷৷2.37৷৷
2.38
2
38
।।2.38।। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा।
।।2.38।। सुख-दु:ख,  लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ;  इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा।।
।।2.38।। सम्पूर्ण गीता के साररूप इस द्वितीय अध्याय में सांख्ययोग के पश्चात् इस श्लोक में कर्मयोग का दिशा निर्देश है। इसी अध्याय में आगे भक्तियोग का भी संक्षेप में संकेत किया गया है।यह प्रथम अवसर है जब श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्मोन्नति की साधना का स्पष्टरूप से वर्णन करते हैं। इसलिये इसका सावधानीपूर्वक अध्ययन गीता के समस्त साधकों के लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा।शरीर मन और बुद्धि इन तीन उपाधियों के माध्यम से ही हम जीवन में विभिन्न अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। इन तीन स्तरों पर प्राप्त होने वाले सभी अनुभवों का समावेश इस श्लोक में कथित तीन प्रकार के द्वन्द्वों में किया गया है। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों को सुख और दुख के रूप में अनुभव करना बुद्धि की प्रतिक्रिया है लाभ और हानि ये मन की कल्पनायें हैं जिस कारण वस्तु की प्राप्ति पर हर्ष और वियोग पर शोक होना स्वाभाविक है भौतिक जगत् की उपलब्धियों को यहाँ जयपराजय शब्द से सूचित किया है। श्रीकृष्ण का उपदेश यह है कि मनुष्य को इस प्रकार की विषम परिस्थितियों में सदैव मन के सन्तुलन को बनाये रखना चाहये। इसके लिये सतत जागरूकता की आवश्यकता है।समुद्र स्नान के इच्छुक व्यक्ति को समुद्र स्नान करने की कला ज्ञात होनी चाहिये अन्यथा समुद्र की उत्तुंग तरंगे उस व्यक्ति को व्यथित कर देंगी और उसे जल समाधि में खींच ले जायेंगी किन्तु बड़ी लहरों के नीचे झुकने और छोटी लहरों पर सवार होने की कला जो व्यक्ति जानता है वही समुद्र स्नान का आनन्द उठा सकता है। यह आशा करना कि समुद्र की लहरें शान्त हो जायें अथवा स्नान के समय कष्ट न पहुँचायंे अपनी सुविधा के लिये समुद्र को उसके स्वरूप का त्याग करने के आदेश देने के समान है किन्तु अज्ञानी पुरुष जीवन में यही चाहता है कि किसी प्रकार की समस्यायें उसके सामने न आयें जो सर्वथा असम्भव है। जीवन के समुद्र में सुख दुख लाभहानि और जयपराजय की लहरें उठना अनिवार्य है अन्यथा पूर्ण गतिहीनता ही मृत्यु है।यदि जीवन का स्वरूप ही एक उफनते तूफानी समुद्र के समान है तो उसमें उठती उत्तुंग तरंगों के आघातों अथवा गहन गह्वरों से विचलित हुये बिना जीवन जीने की कला हमको सीखनी चाहिये। इन उठती हुई तरंगों में किसी एक के साथ भी तादात्म्य स्थापित कर लेना मानो समुद्र की सतह पर उसके साथ इधरउधर बहते जाना है और न कि उस प्रकाश के स्तम्भ के समान स्थिर रहना है जो वहीं विक्षुब्ध लहरों के बीच निश्चल खड़ा रहता है और जिसकी नींव समुद्र तल की चट्टान पर निर्मित होती है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्रेरित करते हैं किन्तु साथ में इस समत्व भाव का उपदेश भी देते हैं अन्यथा कर्म में प्रवृत्त हुआ व्यक्ति अनेक अवसरों पर अपनी ही नकारात्मक प्रवृत्तियों का शिकार बन जाता है। मन के इस समभाव के होने पर ही मनुष्य वास्तविक स्फूर्ति और प्रेरणा का जीवन जी सकता है और ऐसे व्यक्ति की उपलब्धियां ही सच्ची सफलता की आभा से युक्त होती हैं।यह सुविदित तथ्य है कि सभी कार्य क्षेत्रों में जो कर्म स्फूर्ति और प्रेरणा युक्त होते हैं उनकी अपनी ही दैवी चमक होती है जिनकी न प्रतिकृति हो सकती है और न ही उसे बारम्बार दोहराया जा सकता है। किसी भी कार्य क्षेत्र का व्यक्ति चाहे वह कवि हो या कलाकार चिकित्सक हो या वक्ता जब अपनी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि या कृति प्रस्तुत करता है तब वह सर्वसम्मति से प्रेरणा का कार्य ही स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार हम जब दैवी प्रेरणा के आनन्द से अविभूत कोई कार्य कर रहे होते हैं तब हमारी कल्पनायें विचार और कर्म अपनी एक निराली ही सुन्दरता से ओतप्रोत होते हैं जिन्हें एक यन्त्र के समान पुन दोहराया नहीं जा सकता।प्रसिद्ध चित्रकार दा विन्सी अपनी श्रेष्ठ कृति मन्द स्मितवदना मोनालिसा का चित्र दोबारा चित्रित नहीं कर सका महाकवि कीट्स की लेखनी उड़ते हुये बुलबुल के गान को दूसरी बार नहीं लिख पायी बीथोवेन पियानों पर फिर एक बार वही मधुर स्वर झंकृत नहीं कर सका भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन के प्रार्थना करने पर युद्ध के पश्चात् दोबारा गीता सुनाने में अपनी असमर्थता स्वीकार की पाश्चात्य विचारकों के लिये प्रेरणा संयोग की कोई रहस्यमय घटना है जिस पर मानव का कोई नियन्त्रण नहीं रहता जबकि भारतीय मनीषियों के अनुसार दैवी प्रेरणा का जीवन मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य है जिसे वह अपने आत्मस्वरूप के साथ पूर्णतया तादात्म्य स्थापित करके जी सकता है। समत्व भाव का वह जीवन जहाँ हम जीवन में आने वाली परिस्थितियों से अप्रभावित अपने मन और बुद्धि के साक्षी बनकर रहते हैं अहंकार की विस्मृति के क्षण हैं और तब हमारे कर्म उषकाल की जगमगाती आभा से समृद्ध होते हैं। सामान्य मनुष्य की धारणा होती है कि अहंकार के अभाव में हम कार्य करने में अकुशल या असमर्थ बन जायेंगे परन्तु यह मिथ्या धारणा है। प्रेरणा की आभा ही सामान्य सफलता को भी महान् उपलब्धि की ऊँचाई तक पहुँचाती है।प्राचीन हिन्दू योगियों ने एक साधना का आविष्कार किया जिसके अभ्यास से मन और बुद्धि की युक्तता एवं समता सम्पादित की जा सकती है। इस साधना को योग कहते हैं। वैदिक काल के लोगों को इसका ज्ञान था तथा इसका अभ्यास करके वे योगी का जीवन जीते थे। उन्होंने असाधारण उपलब्धियों को अर्जित करके राष्ट्र के लिये स्वर्णयुग का निर्माण किया।भारत जैसे देश में वैदिक काल में निश्चित ही आस्तिक दर्शन प्रचलित होगा परन्तु उसकी उपयोगिता जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से है। यदि उसकी सार्वक्षेत्रीय उपयोगिता न हो तो वह वास्तविक अर्थ में दर्शन ही नहीं है। अधिक से अधिक उसे किसी श्रेष्ठ पुरुष का जीवन विषयक मत माना जा सकता है जिसका सीमित उपयोग हो किन्तु तत्त्वज्ञान के रूप में वह कभी स्वीकार नहीं हो सकता।अब तक के उपदेश में भगवान् ने वे सभी आवश्यक तर्क अर्जुन के समक्ष प्रस्तुत किये जिनको समझकर प्राप्त परिस्थितियों में स्वबुद्धि से उचित निर्णय लेने में वह समर्थ हो सके। सभी भौतिक परिस्थितियों के मूल्यांकन में केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण को ही अन्तिम प्रमाण नहीं माना जा सकता। जीवन की प्रत्येक परिस्थिति या चुनौती का मूल्यांकन आध्यात्मिक दृष्टि के साथसाथ बुद्धि के स्तर पर तर्क मन के स्तर पर नैतिकता और भौतिक स्तर पर परम्परा और सामाजिक रीति रिवाज की दृष्टि से भी करना आवश्यक है। इन सब के द्वारा बिना किसी विरोधाभास के यदि किसी एक सत्य का संकेत मिलता है तो निश्चय ही वह दिव्य मार्ग है जिस पर मनुष्य्ा को प्रत्येक मूल्य पर चलने का प्रयत्न करना चाहिये।केवल नैतिकता की भावना से युद्ध की ओर देखने से अर्जुन उस परिस्थिति को उचित रूप में समझ नहीं सका। शत्रुपक्ष में खड़े अपने ही बन्धुबान्धवों को विनष्ट करना नैतिकता के विरुद्ध था। किन्तु भावावेशजनित मन की भ्रमित अवस्था में उसने अन्य दृष्टिकोणों पर विचार नहीं किया जिससे वह पुन संयमित हो सकता था। ऐसे अवसर पर जो करने योग्य है वही करता हुआ अर्जुन भगवान् कृष्ण की शरण में जाता है। श्रीकृष्ण उसके मार्गदर्शन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर जीवन के सभी दृष्टिकोणों को उसके सामने प्रस्तुत करते हैं। सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण मनुष्य को प्राप्त विवेकशील बुद्धि की भूमिका निभाते हैं जो कठोपनिषद् की भाषा में देहरूपी रथ का योग्य सारथि है।इस प्रकार आध्यात्मिक बौद्धिक नैतिक और पारम्परिक दृष्टियों से विचार करने के पश्चात् पूर्व के श्लोक में भगवान अर्जुन को युद्ध करने की सम्मति देते हैं। जिस भावना से कर्म करना चाहिये उसका विवेचन इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने किया है। शरीरादि अनात्म उपाधियों के साथ तादात्म्य करने से जो चिन्तायें विक्षेप व्याकुलतायें होती हैं उनसे ऊपर उठकर सभी विषम परिस्थितियों में समभाव में स्थित होकर कर्म करना चाहिये।मन के समत्व भाव में रहने से जीवन की वास्तविक सफलता निश्चित होती है। इसके पूर्व हम देख चुके हैं कि जीवन में किस प्रकार पूर्व संचित वासनायें क्षीण हो सकती हैं। जगत् में सभी जीव अपनीअपनी वासनाओं का क्षय करने के लिये ही विभिन्न शरीर धारण किये हुये हैं। इस प्रकार वृक्ष पशु अथवा मनुष्य सभी वासनाओं के भण्डार हैं।सब परिस्थितियों में समभाव में स्थित हुआ मन वासनाओं के निस्सारण का मार्ग बनता है। यह द्वार जब अहंकार और स्वार्थ से अवरुद्ध होता है तब वासनाक्षय के स्थान पर असंख्य नयी वासनाएँ उत्पन्न होती जाती हैं। द्वन्द्वों के कारण हुआ विक्षेप अहंकार के जन्म और वृद्धि के कारण है। कर्मयोग की भावना से कर्म करते हुये जीवन जीने पर अन्तकरण की शुद्धि प्राप्त होती है। इस कर्मयोग का विस्तृत विवेचन गीता के तृतीय अध्याय में है।तत्त्वज्ञान और सामान्यजन की दृष्टि से विचार करने के पश्चात् भगवान् अर्जुन को कर्मयोग की भावना से युद्ध करने का उपदेश देते हैं। तत्त्वज्ञान को समझ कर उसे जीवन में जीना ही व्यावहारिक धर्म है।इसके पश्चात् इस अध्याय में वेदान्त ज्ञान का व्यवहार में उपयोग करने के उपायों एवं साधनों का निरूपण किया है। भगवान् कहते हैं
2.38।। व्याख्या-- [अर्जुनको यह आशंका थी कि युद्धमें कुटुम्बियोंको मारनेसे हमारेको पाप लग जायगा, पर भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापका हेतु युद्ध नहीं है, प्रत्युत अपनी कामना है। अतः कामनाका त्याग करके तू युद्धके लिये खड़ा हो जा।]     'सुखदुःखे समे ৷৷. ततो युद्धाय युज्यस्व'-- युद्धमें सबसे पहले जय और पराजय होती है, जय-पराजयका परिणाम होता है--लाभ और हानि तथा लाभ-हानिका परिणाम होता है सुख और दुःख। जयपराजयमें और लाभ-हानिमें सुखी-दुःखी होना तेरा उद्देश्य नहीं है। तेरा उद्देश्य तो इन तीनोंमें सम होकर अपने कर्तव्यका पालन करना है। युद्धमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख तो होंगे ही। अतः तू पहलेसे यह विचार कर ले कि मुझे तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करना है, जय-पराजय आदिसे कुछ भी मतलब नहीं रखना है। फिर युद्ध करनेसे पाप नहीं लगेगा अर्थात् संसारका बन्धन नहीं होगा। सकाम और निष्काम--दोनों ही भावोंसे अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करना आवश्यक है। जिसका सकाम भाव है, उसको तो कर्तव्यकर्मके करनेमें आलस्य, प्रमाद बिलकुल नहीं करने चाहिये, प्रत्युत तत्परतासे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। जिसका निष्काम भाव है, जो अपना कल्याण चाहता है, उसको भी तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। सुख आता हुआ अच्छा लगता है और जाता हुआ बुरा लगता हौ तथा दुःख आता हुआ बुरा लगता है और जाता हुआ अच्छा लगता है। अतः इनमें कौन अच्छा है, कौन बुरा? अर्थात् दोनोंही समान हैं, बराबर हैं। इस प्रकार सुख-दुःखमें समबुद्धि रखते हुए तुझे अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये। तेरी किसी भी कर्ममें सुखके लोभसे प्रवृत्ति न हो और दुःखके भयसे निवृत्ति न हो। कर्मोंमें तेरी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्रके अनुसार हो ही (गीता 16। 24)।  'नैवं पापमवाप्स्यसि'-- यहाँ 'पाप' शब्द पाप और पुण्य--दोनोंका वाचक है, जिसका फल है--स्वर्ग और नरककी प्राप्तिरूप बन्धन, जिससे मनुष्य अपने कल्याणसे वञ्चित रह जाता है और बार-बार जन्मता-मरता रहता है। भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! समतामें स्थित होकर युद्धरूपी कर्तव्य-कर्म करनेसे तुझे पाप और पुण्य --दोनों ही नहीं बाँधेंगे।        प्रकरण सम्बन्धी विशेष बात  भगवान्ने इकतीसवें श्लोकसे अड़तीसवें श्लोकतकके आठ श्लोकोंमें कई विचित्र भाव प्रकट किये हैं; जैसे--      (1) किसीको व्याख्यान देना हो और किसी विषयको समझाना हो तो भगवान् इन आठ श्लोकोंमें उसकी कला बताते हैं। जैसे, कर्तव्य-कर्म करना और अकर्तव्य न करना--ऐसे विधि-निषेधका व्याख्यान देना हो तो उसमें पहले विधिका, बीचमें निषेधका और अन्तमें फिर विधिका वर्णन करके व्याख्यान समाप्त करना चाहिये। भगवान्ने भी यहाँ पहले इकतीसवें-बत्तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभका वर्णन किया, फिर बीचमें तैंतीसवेंसे छत्तीसवेंतकके चार श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म न करनेसे हानिका वर्णन किया और अन्तमें सैंतीसवें-अड़तीसवें दो श्लोकोंमें कर्तव्य-कर्म करनेसे लाभका वर्णन करके कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा दी।      (2) पहले अध्यायमें अर्जुनने अपनी दृष्टिसे जो दलीलें दी थीं, उनका भगवान्ने इन आठ श्लोकोंमें समाधान किया है; जैसे अर्जुन कहते हैं-- मैं युद्ध करनेमें कल्याण नहीं देखता हूँ (1। 31), तो भगवान् कहते हैं--क्षत्रियके लिये धर्ममय युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणका साधन नहीं है (2। 31)। अर्जुन कहते हैं--युद्ध करके हम सुखी कैसे होंगे? (1। 37) तो भगवान् कहते हैं--जिन क्षत्रियोंको ऐसा युद्ध मिल जाता है वे ही क्षत्रिय सुखी है (2। 32)। अर्जुन कहते हैं--युद्धके परिणाममें नरककी प्राप्ति होगी (1। 44) तो भगवान् कहते हैं--युद्ध करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होगी (2। 32 37)। अर्जुन कहते हैं--युद्ध करनेसे पाप लगेगा (1। 36) तो भगवान् कहते हैं--युद्ध न करनेसे पाप लगेगा (2। 33)। अर्जुन कहते हैं--युद्ध करनेसे परिणाममें धर्मका नाश होगा (1। 40) तो भगवान् कहते हैं--युद्ध न करनसे धर्मका नाश होगा (2। 33)।      (3) अर्जुनका यह आग्रह था कि युद्धरूपी घोर कर्मको छोड़कर भिक्षासे निर्वाह करना मेरे लिये श्रेयस्कर है (2। 5), तो उनको भगवान्ने युद्ध करनेकी आज्ञा दी (2। 38); और उद्धवजीके मनमें भगवान्के साथ रहनेकी इच्छा थी तो उनको भगवान्ने उत्तराखण्डमें जाकर तप करनेकी आज्ञा दी (श्रीमद्भा0 11। 29। 41)। इसका तात्पर्य यह हुआ कि अपने मनका आग्रह छोड़े बिना कल्याण नहीं होता। वह आग्रह चाहे किसी रीतिका हो, पर वह उद्धार नहीं होने देता।
।।2.34 2.38।।यद्भयाच्च भवान् युद्धात् निवर्तते (K निवर्तेत) तदेव शतशाखमुपनिपतिष्यति भवत इत्याह अथ चेत्यादि। श्लोकपञ्चकमिदम् अभ्युपगम्यवादरूपमुच्यते ( N उपगम्य) यदि लौकिकेन व्यवहारेणास्ते भवान् तथाप्यवश्यानुष्ठेयमेतत्।
।।2.38।।एवं देहातिरिक्तम् अस्पृष्टसमस्तदेहस्वभावं नित्यम् आत्मानं ज्ञात्वा युद्धे च अवर्जनीयशस्त्रपातादिनिमित्तसुखदुःखार्थलाभालाभजयपराजयेषु अविकृतबुद्धिःस्वर्गादिफलाभिसन्धिरहितः केवलकार्यबुद्ध्या युद्धम् आरभस्व।  एवं  कुर्वाणो  न पापम् अवाप्स्यसि  पापं दुःखरूपं संसारं न अवाप्स्यसि। संसारबन्धात् मोक्ष्यसे इत्यर्थः।एवम् आत्मयाथात्म्यज्ञानम् उपदिश्य तत्पूर्वकं मोक्षसाधनभूतं कर्मयोगं वक्तुम् आरभते
।।2.38।।पापभीरुतया युद्धाय निश्चयं कृत्वा नोत्थातुं शक्नोमीत्याशङ्क्याह  तत्रेति।  युद्धस्य स्वधर्मतया कर्तव्यत्वे सतीति यावत्। सुहृज्जीवनमरणादिनिमित्तयोः सुखदुःखयोः समताकरणं कथमिति तत्राह  रागद्वेषाविति।  लाभः शत्रुकोषादिप्राप्तिलाभस्तद्विपर्ययः न्याय्येन युद्धेनापरिभूतेन परस्य परिभवो जयस्तद्विपर्यस्त्वजयस्तयोर्लाभालाभयोर्जयाजययोश्च समताकरणं समानमेव रागद्वेषावकृत्वेत्येतद्दर्शयितुं तथेत्युक्तम् यथोक्तोपदेशवशात्परमार्थदर्शनप्रकरणे युद्धकर्तव्यतोक्तेः समुच्चयपरत्वं शास्त्रस्य प्राप्तमित्याशङ्क्याह  एष इति।  क्षत्रियस्य तव शर्मभूतयुद्धकर्तव्यतानुवादप्रसङ्गागतत्वादस्योपदेशस्य नानेन मिषेण समुच्चयः सिध्यतीत्यर्थः।
।।2.38।।यच्चोक्तंपापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वा 1।36 इत्यादिना तत्रावधेहि सुखदुःखे समे कृत्वेति। योगमपि संस्मरन्नाह साङ्ख्यनैकीकृत्य। जगति फलभूते सुखदुःखे समे हेयोपादेयतया तुल्ये कृत्वा तत्साधनक्रियाभूतौ लाभालाभौ जयाजयौ च समौ कृत्वा युद्धाय युज्यस्व। एवं कृतेऽनुद्देशतस्त्वं पापं न प्राप्स्यसि।
।।2.38।।नन्वेवं स्वर्गमुद्दिश्य युद्धकरणे तस्य नित्यत्वव्याघातः राज्यमुद्दिश्य युद्धकरणे त्वर्थशास्त्रत्वाद्धर्मशास्त्रापेक्षया दौर्बल्यं स्यात् ततश्च काम्यस्याकरणे कुतः पापं दृष्टार्थस्य गुरुब्राह्मणादिवधस्य कुतो धर्मत्वं तथाचअथ चेत् इति श्लोकार्थो व्याहत इति चेत्तत्राह समताकरणं रागद्वेषराहित्यं सुखे तत्कारणे लाभे तत्कारणे जये च रागमकृत्वा एवं दुःखे तद्धेतावलाभे तद्धेतावपजये च द्वेषमकृत्वा ततो युद्धाय युज्यस्व संनद्धो भव। एवं सुखकामनां दुःखनिवृत्तिकामनां वा विहाय स्वधर्मबुद्ध्या युध्यमानो गुरुब्राह्मणादिवधनिमित्तं नित्याकर्माकरणनिमित्तं च पापं न प्राप्स्यसि। यस्तु फलकामनया करोति स गुरुब्राह्मणादिवधनिमित्तं पापं प्राप्नोति। यो वा न करोति स नित्यकर्माकरणनिमित्तम्। अतः फलकामनामन्तरेण कुर्वन्नुभयविधमपि पापं न प्राप्नोतीति प्रागेव व्याख्यातोऽभिप्रायः।हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् इति त्वानुषङ्गिफलकथनमिति न दोषः। तथाचापस्तम्बः स्मरतितद्याथाम्रे फलार्थं निमिते छायागन्धावनूत्पद्येते एवं धर्मंचर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते नो चेदनूत्पद्यन्ते न धर्महानिर्भवति इति। अतो युद्धशास्त्रस्यार्थशास्त्रत्वाभावात्पापमेवाश्रयेदस्मान् इत्यादि निराकृतं भवति।
।।2.38।।यदप्युक्तंपापमेवाश्रयेदस्मान् इति तत्राह  सुखदुःखे इति।  सुखदुःखे समे कृत्वा तथा तयोः कारणभूतौ यौ लाभालाभावपि तयोरपि कारणभूतौ जयाजयावपि समौ कृत्वा एतेषां समत्वे कारणं हर्षविषादराहित्यम्। युज्यस्व सन्नद्धो भव। सुखाद्यभिलाषं हित्वा स्वधर्मबुद्ध्या युध्यमानः पापं न प्राप्स्यसीत्यर्थः।
।।2.38।।एवमस्थानस्नेहकारुण्यधर्माधर्मधियाकुलत्वमुपशामितम् अथ धर्मत्वेन स्थापितस्य मुमुक्षुविषयानुष्ठानप्रकारं वदतीत्याह मुमुक्षोरिति। न हि राज्यादिकामिनामीदृशी बुद्धिरपेक्षिता अतोऽल्पास्थिरदुःखमिश्रयुद्धसाध्यफलेन कि ममेति नाशङ्कनीयमिति भावः। पूर्वोक्तमात्मतत्त्वज्ञानमनुष्ठानदशायामनुवर्तनीयतया दर्शयति एवमिति।देहातिरिक्तमिति। सति धर्मिणि हेयविरहादिधर्मचिन्तेति भावः। पौनरुक्त्यभ्रमपरिहाराय लाभालाभयोर्धनादिविषयत्वमुक्तम्। विषमयोः सुखदुःखप्रवाहयोः समीकरणं कथमित्यत्रोक्तंअविकृतबुद्धिरिति। विकारो हर्षशोकादिरूपः तदभावकथनेन विवेकादिसप्तकान्तर्गतानवसादानुद्धर्षयोर्ग्रहणम्।युद्धायेति। तादर्थ्यविभक्तिसूचितान्यार्थत्वनिवृत्तिरुच्यते स्वर्गादिति।मा फलेषु कदाचन 2।47एतान्यपि तु 18।6 इत्यादिवक्ष्यमाणमत्रानुहितम्। तत इत्यस्योपयुक्तहेतुविशेषपरत्वमेवोचितम् आनन्तर्यादिपरत्वं तु अनुपयुक्तमित्यभिप्रायेणाह केवलकार्यबुद्ध्येति। पापशब्दोऽत्र न गुरुवधादिशङ्कितपापपरः युद्धस्य स्वधर्मतामात्रेण तन्निवृत्तौ सुखदुःखसाम्यादिबुद्धिविशेषस्यैवमित्यनूदितस्य नैरर्थक्यप्रसङ्गात्। न च कृतपापपरः नावाप्स्यसीत्यनन्वयात्। करिष्यमाणे च न प्रायश्चित्तम्। न च विद्याव्यतिरिक्तेषूत्तराघाश्लेषः। अतोऽत्रामृतत्वप्रकरणान्मुमुक्ष्वपेक्षयाऽनिष्टफलत्वाविशेषेण पुण्यपापरूपसकलसांसारिककर्मपरः। ततश्च तत्फलभूतः संसारोऽत्र लक्ष्यत इत्यभिप्रायेणाह दुःखरूपं संसारमिति।नैवं पापमवाप्स्यसि इत्युक्ते पापहेतुत्वाभावमात्रं प्रतिभातीत्यत्राह संसारबन्धादिति। परम्परयेति शेषः।सोऽमृतत्वाय कल्पते 2।15 इति पूर्वोक्तमिह स्मारितम्।
।।2.38।।मया पूर्वं पापसम्भावना कृता तन्न का गतिरित्याशङ्क्याह सुखदुःखे इति। सुखदुःखे देहस्य लाभालाभौ राज्यस्य जयाजयौ यशसः समौ कृत्वा हर्षविषादरहितः सन् ततस्तदनन्तरं मदाज्ञाविचारेण युद्धाय युज्यस्व युक्तो भव। एवंकृते पापं नावाप्स्यसीत्यर्थः।
।।2.38।।स्वधर्मस्य युद्धस्याकरणे धर्मकीर्त्योर्नाशः पापावाप्तिश्चअथ चेत् इति श्लोकेन भगवता यद्यप्युक्ता तथापि युद्धस्य अर्जुनाभिमते काम्यत्वपक्षेअहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः। इति तत्करणे पापप्रसक्तिरस्ति तां निवारयितुं सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वलक्षणं योगमाह  सुखदुःखे इति।  समे कृत्वा सुखदुःखयोस्तद्धेत्वोः राज्यलाभालाभयोस्तद्धेत्वोश्च जयाजययोः रागद्वेषावकृत्वेत्यर्थः। केवलं स्वधर्मोऽयमिति मत्वा युद्धाय युज्यस्व घटस्व। एवं कुर्वंस्त्वं पापं नावाप्स्यसि। यस्तु राज्यलोभेन सुहृद्वधं करोति तस्यास्त्येव पापमिति भावः। कथं तर्हि स्वधर्मत्वेनानुष्ठितेऽपि युद्धे हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गमित्यादिफलस्मरणमानुषङ्गिकमिति ब्रूमः। तथाचापस्तम्बःतद्यथाम्रे फलार्थं निर्मिते च्छाया गन्धावनूत्पद्येते एवं धर्मं चर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते नो चेदनूत्पद्यन्ते न धर्महानिर्भवति इत्याम्रनिदर्शनेन प्रतिपादयति।
।।2.38।।ननु गुर्वादिवधार्थं प्रवृत्तस्य पापावाप्त्या कुतः स्वर्गप्राप्तिः जित्वा वा कुतो भोगसुखं निन्दया व्याप्तवात्तेषामित्याशङ्क्य निष्कामस्य समदृष्टेः स्वधर्मबुद्य्धा प्रवृत्तस्य ते पापादिप्राप्तिर्नास्तीत्याशयेनाह  सुखेति।  सुखदुःखे समे कृत्वा सुखे रागं दुःखे द्वेषं चाकृत्वा तथा तत्साधनीभूतौ लाभालाभौ तत्साधनीभूतौ जयाजयौ च समौ कृत्वा ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि। तथाचाग्नीषोमीयहिंसाविधायकवचनवद्युद्धहिंसाविधायकमपि धर्मशास्त्रविशेषवचनंन हिंस्यात्सर्वा भूतानि इत्यस्य सामान्यशास्त्रस्य बाधकमतः पापावाप्तेरभावाद्युद्धप्रवृत्तौ सर्वथापि लाभ एवेति।
2.38 सुखदुःखे pleasure and pain? समे same? कृत्वा having made? लाभालाभौ gain and loss? जयाजयौ victory and defeat? ततः then? युद्धाय for battle? युज्यस्व engage thou? न not? एवम् thus? पापम् sin? अवाप्स्यसि shalt incur.Commentary This is the Yoga of eanimity or the doctrine of poise in action. If anyone does any action with the above mental attitude or balanced state of mind he will not reap the fruits of his action. Such an action will lead to the purification of his heart and freedom from birth and death. One has to develop such a balanced state of mind through continous struggle and vigilant efforts.
2.38 Having made pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat the same, engage thou in battle for the sake of battle; thus thou shalt not incur sin.
2.38 Look upon pleasure and pain, victory and defeat, with an equal eye. Make ready for the combat, and thou shalt commit no sin.
2.38 Treating happiness and sorrow, gain and loss, and conest and defeat with eanimity, then engage in battle. Thus you will not incur sin.
2.38 As regards that, listen to this advice for you then you are engaged in battle considering it to be your duty: Krtva, treating; sukha-duhkhe, happiness and sorrow; same, with eanimity, i.e. without having likes and dislikes; so also treating labha-alabhau, gain and loss; jaya-ajayau, conest and defeat, as the same; tatah, then; yuddhaya yujyasva, engage in battle. Evam, thus by undertaking the fight; na avapsyasi, you will not incur; papam, sin. This advice is incidental. [The context here is that of the philosophy of the supreme Reality. If fighting is enjoined in that context, it will amount to accepting combination of Knowledge and actions. To avoid this contingency the Commentator says, 'incidental'. That is to say, although the context is of the supreme Reality, the advice to fight is incidental. It is not an injunction to combine Knowledge with actions, since fighting is here the natural duty of Arjuna as a Ksatriya.]. The generally accepted argument for the removal of sorrow and delusion has been stated in the verses beginning with, 'Even considering your own duty' (31), etc., but this has not been presented by accepting that as the real intention (of the Lord). The real context here (in 2.12 etc.), however, is of the realization of the supreme Reality. Now, in order to show the distinction between the (two) topics dealt with in this scripture, the Lord concludes that topic which has been presented above (in 2.20 etc.), by saying, 'This (wisdom) has been imparted,' etc. For, if the distinction between the topics of the scripute be shown here, then the instruction relating to the two kinds of adherences as stated later on in, 'through the Yoga of Knowledge for the men of realization; through the Yoga of Action for the yogis' (3.3) will proceed again smoothly, and the hearer also will easily comprehend it by keeping in view the distinction between the topics. Hence the Lord says:
2.38. Viewing alike, pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat, you should get then ready for the battle. Thus you will not incur sin.
2.38 Sukha-duhkhe etc. For you, performing actions as your own duty, never there is any connection with sin.
2.38 Thus, knowing the self to be eternal, different from the body and untouched by all corporeal alities, remaining unaffected by pleasure and pain resulting from the weapon-strokes etc., inevitable in a war, as also by gain and loss of wealth, victory and defeat, and keeping yourself free from attachment to heaven and such other frutis, begin the battle considering it merely as your own duty. Thus, you will incur no sin. Here sin means transmigratory existence which is misery. The purport is that you will be liberarted from the bondage of transmigratory existence. Thus, after teaching the knowledge of the real nature of the self, Sri Krsna begins to expound the Yoga of work, which, when preceded by it (i.e., knowledge of the self), constitutes the means for liberation.
2.38 Holding pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat as alike, gird yourself up for the battle. Thus, you shall not incur any sin.
।।2.38।।युद्ध स्वधर्म है यह मानकर युद्ध करनेवालेके लिये यह उपदेश है सुन सुखदुःखको समान तुल्य समझकर अर्थात् ( उनमें ) रागद्वेष न करके तथा लाभहानिको और जयपराजयको समान समझकर उसके बाद तू युद्धके लिये चेष्टा कर इस तरह युद्ध करता हुआ तू पापको प्राप्त नहीं होगा। यह प्रासङ्गिक उपदेश है। स्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्यादि श्लोकोंद्वारा शोक और मोहको दूर करनेके लिये लौकिक न्याय बतलाया गया है परंतु पारमार्थिक दृष्टिसे यह बात नहीं है। यहाँ प्रकरण परमार्थदर्शनका है जो कि पहले ( श्लोक 30 ) तक कहा गया है। अब शास्त्रके विषयका विभाग दिखलानेके लिये एषा तेऽभिहिता इस श्लोकद्वारा उस ( परमार्थदर्शन ) का उपसंहार करते हैं।
।।2.38।।  सुखदुःखे समे  तुल्ये  कृत्वा  रागद्वेषावप्यकृत्वेत्येतत्। तथा लाभालाभौ जयाजयौ च समौ कृत्वा  ततो युद्धाय युज्यस्व  घटस्व।  न एवं  युद्धं कुर्वन्  पापम् अवाप्स्यसि । इत्येष उपदेशः प्रासङ्गिकः।।शोकमोहापनयनाय लौकिको न्यायः स्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्याद्यैः श्लोकैरुक्तः न तु तात्पर्येण। परमार्थदर्शनमिह प्रकृतम्। तच्चोक्तमुपसंह्रियते एषा तेऽभिहिता (गीता 2.39) इति शास्त्रविषयविभागप्रदर्शनाय। इह हि प्रदर्शिते पुनः शास्त्रविषयविभागे उपरिष्टात् ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् इति निष्ठाद्वयविषयं शास्त्रं सुखं प्रवर्तिष्यते श्रोतारश्च विषयविभागेन सुखं ग्रहीष्यन्ति इत्यत आह
।।2.38।।Sri Jayatirtha did not comment on this sloka৷৷
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सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।
সুখদুঃখে সমে কৃত্বা লাভালাভৌ জযাজযৌ৷ ততো যুদ্ধায যুজ্যস্ব নৈবং পাপমবাপ্স্যসি৷৷2.38৷৷
সুখদুঃখে সমে কৃত্বা লাভালাভৌ জযাজযৌ৷ ততো যুদ্ধায যুজ্যস্ব নৈবং পাপমবাপ্স্যসি৷৷2.38৷৷
સુખદુઃખે સમે કૃત્વા લાભાલાભૌ જયાજયૌ। તતો યુદ્ધાય યુજ્યસ્વ નૈવં પાપમવાપ્સ્યસિ।।2.38।।
ਸੁਖਦੁਖੇ ਸਮੇ ਕਰਿਤ੍ਵਾ ਲਾਭਾਲਾਭੌ ਜਯਾਜਯੌ। ਤਤੋ ਯੁਦ੍ਧਾਯ ਯੁਜ੍ਯਸ੍ਵ ਨੈਵਂ ਪਾਪਮਵਾਪ੍ਸ੍ਯਸਿ।।2.38।।
ಸುಖದುಃಖೇ ಸಮೇ ಕೃತ್ವಾ ಲಾಭಾಲಾಭೌ ಜಯಾಜಯೌ. ತತೋ ಯುದ್ಧಾಯ ಯುಜ್ಯಸ್ವ ನೈವಂ ಪಾಪಮವಾಪ್ಸ್ಯಸಿ৷৷2.38৷৷
സുഖദുഃഖേ സമേ കൃത്വാ ലാഭാലാഭൌ ജയാജയൌ. തതോ യുദ്ധായ യുജ്യസ്വ നൈവം പാപമവാപ്സ്യസി৷৷2.38৷৷
ସୁଖଦୁଃଖେ ସମେ କୃତ୍ବା ଲାଭାଲାଭୌ ଜଯାଜଯୌ| ତତୋ ଯୁଦ୍ଧାଯ ଯୁଜ୍ଯସ୍ବ ନୈବଂ ପାପମବାପ୍ସ୍ଯସି||2.38||
sukhaduḥkhē samē kṛtvā lābhālābhau jayājayau. tatō yuddhāya yujyasva naivaṅ pāpamavāpsyasi৷৷2.38৷৷
ஸுகதுஃகே ஸமே கரித்வா லாபாலாபௌ ஜயாஜயௌ. ததோ யுத்தாய யுஜ்யஸ்வ நைவஂ பாபமவாப்ஸ்யஸி৷৷2.38৷৷
సుఖదుఃఖే సమే కృత్వా లాభాలాభౌ జయాజయౌ. తతో యుద్ధాయ యుజ్యస్వ నైవం పాపమవాప్స్యసి৷৷2.38৷৷
2.39
2
39
।।2.39।। हे पार्थ! यह समबुद्धि तेरे लिए पहले सांख्ययोगमें कही गयी, अब तू इसको कर्मयोगके विषयमें सुन; जिस समबुद्धिसे युक्त हुआ तू कर्मबन्धनका त्याग कर देगा।
।।2.39।। हे पार्थ ! तुम्हें सांख्य विषयक ज्ञान कहा गया और अब इस (कर्म) योग से सम्बन्धित ज्ञान को सुनो जिस ज्ञान से युक्त होकर तुम कर्मबन्ध का नाश कर सकोगे।।
।।2.39।। जिस प्रामाणिक विचार एवं युक्ति के द्वारा पारमार्थिक सत्य का ज्ञान होता है उसे सांख्य कहते हैं जिसका उपदेश भगवान् प्रारम्भ में ही कर चुके हैं। इस ज्ञान को प्राप्त करने से शोकमोह रूप संसार की पूर्ण निवृत्ति हो जाती है। अब श्रीकृष्ण कर्मयोग अथवा बुद्धियोग के विवेचन का आश्वासन अर्जुन को देते हैं।अनेक लोग कर्म के नियम को भूलवश भाग्यवाद समझ लेते हैं किन्तु कर्म का नियम हिन्दू धर्म का एक आधारभूत सिद्धान्त है और इसलिये हिन्दू जीवन पद्धति का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिये इस नियम का यथार्थ ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है। यदि एक वर्ष पूर्व मद्रास में श्री रमण राव के किये अपराध के लिये आज मुझे दिल्ली में न्यायिक दण्ड मिलता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उस अपराधी रमण राव और आज के सन्त चिन्मय में कुछ समानता होनी चाहिये कानून के लम्बे हाथ यह पहचान कर कि अपराधी रमण राव ही चिन्मय है दिल्ली पहुँचकर मुझे दण्ड देते हैं इसी प्रकार प्रकृति का न्याय अकाट्य है पूर्ण है। इसलिये हिन्दू मनीषियों ने यह स्वीकार किया कि वर्तमान में हम जो कष्ट भोगते हैं उनका कारण भूतकाल में किसी देश विशेष और देहविशेष में किये हुए अपराध ही हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि पूर्वकाल का पापी और वर्तमान का कष्ट भोगने वाला कोई एक ही होना चाहिये। इसी को शास्त्र में जीव (मन और बुद्धि) कहा है।इच्छापूर्वक किया गया प्रत्येक कर्म कर्त्ता के मन पर अपना संस्कार छोड़ता जाता है जो कर्त्ता के उद्देश्य के अनुरूप ही होता है। इन संस्कारों को ही वासना कहते हैं जिनकी निवृत्ति के लिये प्रत्येक जीव विशिष्ट देश काल और परिस्थिति में जन्म लेता है। पूर्व संचित कर्मों के अनुसार सभी जीवों को दुख कष्ट आदि भोगने पड़ते हैं। मन पर पापों के चिहनांकन पश्चात्ताप पूरित क्षणों में अश्रुजल से ही प्रच्छालित किये जा सकते हैं। परिस्थितियाँ मनुष्य को रुलाती नहीं वरन् उसकी स्वयं की पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ ही शोक का कारण होती हैं। शुद्धांन्तकरण वाले व्यक्ति के लिये फिर दुख का कोई निमित्त नहीं रह जाता।हमारे पास किसी संगीत का ध्वनिमुद्रित रेकार्ड होने मात्र से हम संगीत नहीं सुन सकते। जब रेकार्ड प्लेयर पर उसे रखकर सुई का स्पर्श होता है तभी संगीत सुनाई पड़ता है। इसी प्रकार मन में केवल वासनायें होने से ही दुख या सुख का अनुभव नहीं होता किन्तु अहंकार की सूई का स्पर्श पाकर बाह्य जगत् में जब वे कर्म के रूप में व्यक्त होती हैं तभी विविध प्रकार के फलों की प्राप्ति का अनुभव होता है।पूर्व श्लोक में वर्णित समभाव में स्थित हुआ पुरुष सुखदुख लाभहानि और जयपराजय रूपी द्वन्द्वों से ऊपर उठकर निजानन्द में रहता है। जिस मात्रा में शरीर मन और बुद्धि के साथ हमारा तादात्म्य निवृत्त होता जायेगा उसी मात्रा में यह कर्त्तृत्व का अहंकार भी नष्ट होता जायेगा और अन्त में अहंकार के अभाव में किसके लिये कर्मफल बाकी रहेंगे अर्थात् कर्म और कर्मफल सभी समाप्त हो जाते हैं।गीता में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा प्रतिपादित यह सिद्धान्त कोई नया और मौलिक नहीं था। उन्होंने ईसा के जन्म के पाँच हजार वर्ष पूर्व प्राचीन सिद्धांत का केवल नवीनीकरण करके मृतप्राय धर्म को पुनर्जीवित किया जो सहस्रों वर्षों पूर्व आज भी हमारे लिये आनन्द का संदेश लिये खड़ा है।
2.39।। व्याख्या --'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु'   यहाँ  तु  पद प्रकरण-सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये आया है अर्थात् पहले सांख्यका प्रकरण कह दिया, अब योगका प्रकरण कहते हैं। यहाँ  'एषा'  पद पूर्वश्लोकमें वर्णित समबुद्धिके लिये आया है। इस समबुद्धिका वर्णन पहले सांख्ययोगमें (ग्यारहवेंसे तीसवें श्लोकतक) अच्छी तरह किया गया है। देह-देहीका ठीक-ठीक विवेक होनेपर समतामें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। कारण कि देहमें राग रहनेसे ही विषमता आती है। इस प्रकार सांख्ययोगमें तो समबुद्धिका वर्णन हो चुका है। अब इसी समबुद्धिको तू कर्मयोगके विषयमें सुन।  इमाम्  कहनेका तात्पर्य है कि अभी इस समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहना है कि यह समबुद्धि कर्मयोगमें कैसे प्राप्त होती है? इसका स्वरूप क्या है? इसकी महिमा क्या है? इन बातोंके लिये भगवान्ने इस बुद्धिको योगके विषयमें सुननेके लिये कहा है। 'बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि'-- अर्जुनके मनमें युद्ध करनेसे पाप लगनेकी सम्भावना थी (1। 36, 45)। परन्तु भगवान्के मतमें कर्मोंमें विषमबुद्धि (रागद्वेष) होनेसे ही पाप लगता है। समबुद्धि होनेसे पाप लगता ही नहीं। जैसे, संसारमें पाप और पुण्यकी अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं, पर उनसे हमें पाप-पुण्य नहीं लगते; क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात् उनमें हमारा कोई पक्षपात, आग्रह, राग-द्वेष नहीं रहते। ऐसे ही तू समबुद्धिसे युक्त रहेगा, तो तेरेको भी ये कर्म बन्धनकारक नहीं होंगे। इसी अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुनने अपने कल्याणकी बात पूछी थी। इसलिये भगवान् कल्याणके मुख्य-मुख्य साधनोंका वर्णन करते हैं। पहले भगवान्ने सांख्ययोगका साधन बताकर कर्तव्य-कर्म करनेपर बड़ा जोर दिया कि क्षत्रियके लिये धर्मरूप युद्धसे बढ़कर श्रेयका अन्य कोई साधन नहीं है (2। 31)। फिर कहा कि समबुद्धिसे युद्ध किया जाय तो पाप नहीं लगता (2। 38)। अब उसी समबुद्धिको कर्मयोगके विषयमें कहते हैं। कर्मयोगी लोक-संग्रहके लिये सब कर्म करता है--'लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि' (गीता 3। 20)। लोकसंग्रहके लिये कर्म करनेसे अर्थात् निःस्वार्थभावसे लोक-मर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये लोगोंको उन्मार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगानेके लिये कर्म करनेसे समताकी प्राप्ति सुगमतासे हो जाती है। समताकी प्राप्ति होनेसे कर्मयोगी कर्मबन्धनसे सुगमतापूर्वक छूट जाता है।
।।2.39।।सुखदुःखे इति। तव तु स्वधर्मतयैव कर्माणि कुर्वतो न कदाचित् पापसंबन्धः।
।।2.39।।संख्या बुद्धिः बुद्ध्यावधारणीयम् आत्मतत्त्वं सांख्यम्। ज्ञातव्ये आत्मतत्त्वे तज्ज्ञानाय या बुद्धिः अभिधेया न त्वेवाहम् (गीता 2।12) इत्यारभ्यतस्मात् सर्वाणि भूतानि (गीता 2।30) इत्यन्तेन सा  एषा अभिहिता।  आत्मज्ञानपूर्वकमोक्षसाधनभूतकर्मानुष्ठाने यो बुद्धियोगो वक्तव्यः स इह योगशब्देन उच्यतेदूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात् (गीता 2।49) इति हि वक्ष्यते। तत्र  योगे  या  बुद्धिः  वक्तव्या ताम् इमाम् अभिधीयमानां  श्रृणु यया  बुद्ध्या  युक्तः   कर्मबन्धं प्रहास्यसि।  कर्मणा बन्धः संसारबन्ध इत्यर्थः। वक्ष्यमाणबुद्धियुक्तस्य कर्मणो माहात्म्यम् आह
।।2.39।।ननुस्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्यादिश्लोकैर्न्यायावष्टम्भेन शोकमोहापनयनस्य तात्पर्येणोक्तत्वात्तस्मिन्नुपसंहर्तव्ये किमिति परमार्थदर्शनमुपसंह्रियते तत्राह  शोकेति।  स्वधर्ममपीत्यादिभिरतीतैः श्लोकैः शोकमोहयोः स्वजनमरणगुर्वादिवधशङ्कानिमित्तयोः सम्यग्ज्ञानप्रतिबन्धकयोरपनयार्थं वर्णाश्रमकृतं धर्ममनुतिष्ठतः स्वर्गादि सिध्यति नान्यथेत्यन्वयव्यतिरेकात्मको लोकप्रसिद्धो न्यायो यद्यपि दर्शितस्तथापि नासौ तात्पर्येणोक्त इत्यर्थः। किं तर्हि तात्पर्येणोक्तं तदाह  परमार्थेति। न त्वेवाहं जातु नासं इत्यादि सप्तम्या  परामृश्यते।  उक्तम्न जायते म्रियते वा कदाचिन्न इत्यादिनोपपादितमित्यर्थः। उपसंहारप्रयोजनमाह  शास्त्रेति।  तस्य वस्तुद्वारा विषयो निष्ठाद्वयं तस्य विभक्तस्य तेनैव विभागेन प्रदर्शनार्थं परमार्थदर्शनोपसंहार इत्यर्थः। ननु किमित्यत्र शास्त्रस्य विषयविभावः प्रदर्श्यते उत्तरत्रैव तद्विभागप्रवृत्तिप्रतिपत्त्योः संभवादिति तत्राह  इह हीति।  शास्त्रप्रवृत्तेः श्रोतृप्रतिपत्तेश्च सौकर्यार्थमादौ विषयविभागसूचनमित्यर्थः। उपसंहारस्य फलवत्त्वमेवमुक्त्वा तमेवोपसंहारमवतारयति  अत आहेति।  परमार्थतत्त्वविषयां ज्ञाननिष्ठामुक्तामुपसंहृत्य वक्ष्यमाणां संगृह्णाति  योगे त्विति।  तामेव बुद्धिं विशिष्टफलवत्त्वेनाभिष्टौति  बुद्ध्येति।  तत्रोपसंहारभागं विभजते  एषेत्यादिना।  बुद्धिशब्दस्यान्तःकरणविषयत्वं व्यावर्तयति  ज्ञानमिति।  तस्य सहकारिनिरपेक्षस्य विशिष्टं फलवत्त्वमाचष्टे  साक्षादिति।  शोकमोहौ रागद्वेषौ कर्तृत्वं भोक्तृत्वमित्यादिरनर्थः संसारस्तस्य हेतुर्दोषः स्वाज्ञानं तस्य निवृत्तौ निरपेक्षं कारणं ज्ञानम्। अज्ञाननिवृत्तौ ज्ञानस्यान्वयव्यतिरेकसमधिगतसाधनत्वादित्यर्थः। योगे त्विमामित्यादि व्याकुर्वन्योगशब्दस्य प्रकृते चित्तवृत्तिनिरोधविषयत्वं व्यवच्छिनत्ति  तत्प्राप्तीति।  प्रकृतं मुक्त्युपयुक्तं ज्ञानं तत्पदेन परामृश्यते। ज्ञानोदयोपायमेव प्रकटयति  निःसङ्गतयेति।  फलाभिसन्धिवैधुर्यं निःसङ्गत्वम्। बुद्धिस्तुतिप्रयोजनमाह  प्ररोचनार्थमिति।  अभिष्टुता हि बुद्धिः श्रद्धातव्या सत्यनुष्ठातारमधिकरोति तेन स्तुतिरर्थवतीत्यर्थः। कर्मानुष्ठानविषयबुद्ध्या कर्मबन्धस्य कुतो निवृत्तिः नहि तत्त्वज्ञानमन्तरेण समूलं कर्म हातुं शक्यमित्याशङ्क्याह  ईश्वर इति।
।।2.39।।एवमशोकार्थमुपदिष्टेऽपि साङ्ख्येऽतन्मात्ररुचिं पार्थमालक्ष्य आत्मयोगोपदेशेन मनस्समाधानाय तं प्रस्तौति एषा ते इति। साङ्ख्यमात्मानात्मतत्त्वसङ्ख्यानं तत्राभिधेयेन त्वेवाहं 2।12 इत्यारभ्यतस्मात्सर्वाणि भूतानि 2।30 इत्यन्तमुपादेयतयोक्त्वा मध्ये स्वधर्मकरणमुपपाद्य पुनरप्यन्तेसुखदुःखे समे कृत्वा 2।38 इत्यादिना योगवत्साङ्ख्यशास्त्रबुद्धिर्मयोक्ता। योगे तु मनोनिरोधरूपे साम्यस्थितिप्रयोजनके ईश्वरालम्बने याऽभिधेया बुद्धिस्तामिमां स्वधर्माचरणाभिमतां शृणु। तुर्भेदार्थकः। यया बुद्ध्या युक्तस्त्वं क्रियमाणकर्मसुबन्धमुभयात्मकं पुण्यपापात्मकं प्रहास्यसि।
।।2.39।।ननु भवतु स्वधर्मबुद्ध्या युध्यमानस्य पापाभावस्तथापि न मांप्रति युद्धकर्तव्यतोपदेशस्तवोचितःय एनं वेत्ति हन्तारं इत्यादिनाकथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् इत्यनेन विदुषः सर्वकर्मप्रतिक्षेपात्। नह्यकर्त्रभोक्तृशुद्धस्वरूपोऽहमस्मि युद्धं कृत्वा तत्फलं भोक्ष्य इति च ज्ञानं संभवति विरोधात् ज्ञानकर्मणोः समुच्चयासंभवात्प्रकाशतमसोरिव। अयं चार्जुनाभिप्रायोज्यायसी चेत् इत्यत्र व्यक्तो भविष्यति। तस्मादेकमेव मांप्रति ज्ञानस्य कर्मणश्चोपदेशो नोपपद्यते इति चेन्न विद्वदविद्वदवस्थाभेदेन ज्ञानकर्मोपदेशोपपत्तेरित्याह भगवान् एषानत्वेवाहम् इत्याद्येकविंशतिश्लोकैः ते तुभ्यमभिहिता। सांख्ये सम्यक्ख्यायते सर्वोपाधिशून्यतया प्रतिपाद्यते परमात्मतत्त्वमनयेति संख्योपनिषत्तयैव तात्पर्यपरिसमाप्त्या प्रतिपाद्यते यः स सांख्यः। औपनिषदः पुरुष इत्यर्थः। तस्मिन्बुद्धिस्तन्मात्रविषयं ज्ञानं सर्वानर्थनिवृत्तिकारणं त्वांप्रति मयोक्तम्। नैतादृशज्ञानवतः क्वचिदपि कर्मोच्यतेतस्य कार्यं न विद्यते इति वक्ष्यमाणत्वात्। यदि पुनरेवं मयोक्तेऽपि तवैषा बुद्धिर्नोदेति चित्तदोषात्तदा तदपनयेनात्मतत्त्वसाक्षात्काराय कर्मयोग एव त्वयानुष्ठेयः। तस्मिन्योगे कर्मयोगे तु करणीयामिमांसुखदुःखे समे कृत्वा इत्यत्रोक्तां फलाभिसन्धित्यागलक्षणां बुद्धिं विस्तरेण मया वक्ष्यमाणां शृणु। तुशब्दः पूर्वबुद्धेर्योगविषयत्वव्यतिरेकसूचनार्थः। तथाच शुद्धान्तःकरणंप्रति ज्ञानोपदेशोऽशुद्धान्तःकरणंप्रति कर्मोपदेश इति कुतः समुच्चयशङ्कया विरोधावकाश इत्यभिप्रायः। योगविषयां बुद्धिं फलकथनेन स्तौति। यया व्यवसायात्मिकया बुद्ध्या कर्मसु युक्तस्त्वं कर्मनिमित्तं बन्धमाशयाशुद्धिलक्षणं ज्ञानप्रतिबन्धं प्रकर्षेण पुनः प्रतिबन्धानुत्पत्तिरूपेण हास्यसि त्यक्ष्यसि। अयं भावः कर्मनिमित्तो ज्ञानप्रतिबन्धः कर्मणैव धर्माख्येनापनेतुं शक्यते।धर्मेण पापमपनुदति इति श्रुतेः। श्रवणादिलक्षणो विचारस्तु कर्मात्मकप्रतिबन्धरहितस्यासंभावनादिप्रतिबन्धं दृष्टद्वारेणापनयतीति न कर्मबन्धनिराकरणायोपदेष्टुं शक्यते। अतोऽत्यन्तमलिनान्तःकरणत्वाद्बहिरङ्गसाधनं कर्मैव त्वयानुष्ठेयं नाधुना श्रवणादियोग्यतापि तव जाता दूरे तु ज्ञानयोग्यतेति। तथाच वक्ष्यतिकर्मण्येवाधिकारस्ते इति। एतेन सांख्यबुद्धेरन्तरङ्गसाधनं श्रवणादि विहाय बहिरङ्गसाधनं कर्मैव भगवता किमित्यर्जुनायोपदिश्यत इति निरस्तम्। कर्मबन्धं संसारमीश्वरप्रसादनिमित्तज्ञानप्राप्त्या प्रहास्यसीति प्राचां व्याख्याने त्वध्याहारदोषः कर्मपदवैयर्थ्यं च परिहर्तव्यम्।
।।2.39।।उपदिष्टं ज्ञानयोगमुपसंहरंस्तत्साधनं कर्मयोगं प्रस्तौति  एषा त इति।  सम्यक् ख्यायते प्रकाश्यते वस्तुतत्त्वमनयेति संख्या सम्यग्ज्ञानं तस्मिन्प्रकाशमानमात्मतत्त्वं सांख्यं तस्मिन्करणीया बुद्धिरेषा तवाभिहिता। एवमभिहितायामपि सांख्यबुद्धौ तव चेदात्मतत्त्वमपरोक्षं न संभवति तर्ह्यन्तःकरणशुद्धिद्वाराऽत्मतत्त्वापरोक्षार्थं कर्मयोगे त्विमां बुद्धिं शृणु। यया बुद्ध्या युक्तः परमेश्वरार्पितकर्मयोगेन शुद्धान्तःकरणः सन् तत्प्रसादप्राप्तापरोक्षज्ञानेन कर्मात्मकं बन्धं प्रकर्षेण हास्यसि त्यक्ष्यसि।
।।2.39।।अथ पूर्वप्रकरणोक्तशोकापनोदनहेतुषु प्रधानार्थेनोत्तरप्रकरणारम्भं सङ्गमयति एवमिति।तत्पूर्वकशब्देन आत्मज्ञानकर्मयोगयोः क्रमाभिधानौचित्यमुक्तम् आत्मयाथात्म्यज्ञानोपदेशानन्तरं तच्चिन्तनरूपज्ञानयोगाभिधानस्यौचित्येऽपि तस्य कर्मयोगसाध्यत्वात् प्रथमं कर्मयोग उच्यते। पश्चात्तु तत्फलतया प्रजहाति यदा कामान् 2।55 इत्यादिना ज्ञानयोगो वक्ष्यते।वक्तुमिति प्रसक्तं प्राधान्येन प्रपञ्चयितुमित्यर्थः। साङ्ख्ययोगाख्यवेदविरोधितन्त्राभिधानभ्रमं साङ्ख्यशब्दस्यात्रज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां 3।3 इति वक्ष्यमाणज्ञानयोगविषयत्वभ्रमं च व्युदस्यन्नाह सङ्ख्येतिबुद्धिर्मतिश्च मेधा सङ्ख्या संवित्तिरुपलब्धिः इति नैघण्टुकाः।पुरुषं निर्गुणं साङ्ख्यम् मं.उ.14 इत्याद्यौपनिषदप्रसिद्ध्या परमात्मवदात्मन्यपि साङ्ख्यशब्द उपपन्नः। न चज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् 3।3 इत्यादिष्वर्थवैरूप्यप्रसङ्गः तद्बुद्धियोगेन सर्वत्र तच्छब्दप्रयोगात्। सदपि च वैरूप्यं प्रकरणाद्यानुगुण्येन सर्वत्र सन्नह्यते। एकवचनस्य जात्यभिप्रायत्वज्ञापनायआत्मतत्त्वमित्युक्तम्।तज्ज्ञानायेत्यनेन तन्निर्णयमात्रमव्यवहितफलमिति दर्शितम्।बुद्धिरिति निर्णयफलावाक्ययुक्तिपरामर्शगर्भा बुद्धिर्विवक्षितेति न साध्यसाधनभावविरोधः। अथवा बुद्धिरिह शास्त्रनिष्पाद्यो निर्णयः।तज्ज्ञानायेति साक्षात्कारादिपरः। आत्मतत्त्वाभिधानप्रदेशमवच्छिद्याह न त्वेवेति। ततः परस्तात्तुस्वधर्मं 2।39 इत्यादिना धर्माधर्मभ्रमास्थानस्नेहेयोराक्षेपो हि क्रियत इति भावः।नोमशब्दस्यात्र प्रकरणादिविशेषितमर्थमाह आत्मज्ञानेत्यादिना। इहेत्यभिप्रेतं विवृणोति दूरेणेति।इमामिति निर्देशसूचितमविलम्बिताभिधानमाह अभिधीयमानामिति। एतेनानुप्रविष्टबुद्धेस्तद्विषयाभिधीयमानबुद्धेश्च भेदोऽपि दर्शितः। यद्वाऽनुष्ठानप्रकारविषयबुद्धिजनकमभिधानं शृण्वित्यर्थः। एतेन कर्मयोगशब्दोऽप्यत्र बुद्धिविशेषयोगमूल इति दर्शितम्।बुद्ध्या यया इत्यनयोर्वैयधिकरण्येन क्रियाद्वयान्वयभ्रमं निरस्यति यया बुद्ध्या युक्त इति। कर्मबन्धशब्दस्य अनतिशयितार्थसमासान्तरमपाकरोति कर्मणा बन्ध इति।तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन अष्टा.2।1।30 इति तत्पुरुषः। बन्धशब्दस्यात्र मुख्यार्थासम्भवादभिप्रेतमाह संसारेति। एतेनानुष्ठीयमानकर्मसम्बन्धहानभ्रमोऽपि निरस्तः।
।।2.39।।एवं साङ्ख्यमात्मज्ञानात्मकमुपदिश्योपसंहरति एषेति। एषा पूर्वोक्ता ते तव साङ्ख्ये आत्मानात्मप्रकाशके बुद्धिः करणार्थमभिहिता। साङ्ख्यस्य भगवतो विप्रयोगरसात्मककुण्डलरूपत्वात्तत्र भगवदात्मकात्मज्ञानेन न स्वास्थ्यं भवति तस्मादात्मज्ञानबुद्धिरभिहिता उक्तेत्यर्थः। तज्ज्ञानार्थमेव एतच्छ्रवणेऽपि चेत्तव न ज्ञानं जातं तदा कर्मयोगेन मोहो निवर्तिष्यत इति कर्मयोगं शृण्वित्याह योग इति। योगे तु इमां बुद्धिं शृणु यया बुद्ध्या युक्तः सन् पार्थ मद्भक्तवर कर्मबन्धं कृतकर्मपापं प्रहास्यसि त्यक्ष्यसीत्यर्थः। त्यागे प्रकर्षः पुनस्तद्भावानुदयः।
।।2.39।।एवमर्जुनस्य पूर्वोक्तौ द्वावपि मोहावपनीतौ तत्रकं घातयन्ति हन्ति कम् इति कर्तृत्वकारयितृत्वयोरात्मन्यसंभव उक्तःततो युद्धाय युज्यस्व इति नियोगश्चोक्तः नह्यकर्तुराकाशवत्सर्वगतस्य नियोज्यत्वं संभवतीति परस्परव्याहतमेतदितीमामाशङ्कां अधिकारिभेदेन उभयं व्यवस्थापयन् परिहरति  एषा ते इति।  एषा ते तुभ्यं अभिहिता अशोच्यानन्वशोचस्त्वमित्यादिना स्वधर्ममपि चावेक्ष्येत्यतः प्राक्तनेन संदर्भेणोक्ता। सांख्ये सम्यक् ख्यायते प्रकथ्यते वस्तुतत्त्वमनयेति संख्या उपनिषत् तत्र विदिते सांख्ये औपनिषदे ब्रह्मणि विषये बुद्धिर्ज्ञानं संसारनिवर्तकम्। एषा ते सांख्ये बुद्धिरभिहितेति संबन्धः। योगेसिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते इति वक्ष्यमाणलक्षणे विषये। तुशब्दः पूर्ववैलक्षण्यद्योतनार्थः। वक्ष्यति च ज्ञानकर्मनिष्ठयोर्विभिन्नाधिकारिकत्वंलोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्। इति। एतेन ज्ञानकर्मणोः समुच्चयशङ्काप्यपास्ता। इमांस्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्यादिनाऽनन्तरग्रन्थेनोक्तामपि विस्तरेणाभिधीयमानां शृणु। इमामेव बुद्धिं स्तौति सार्धेन  बुद्ध्येत्यादिना।  ननु कर्मबन्धप्रहाणमात्मज्ञानेनैव श्रूयतेतपसैवात्मपदं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेन इति श्रुतेः। कर्मयोगस्तु कर्मबन्धं दृढीकरिष्यत्येवेति कथमुच्यते कर्मबन्धं प्रहास्यसीति चेत्। श्रुतिबलादिति ब्रूमः। तथाहिईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्। कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे। इति श्रुतिरीश्वरेणेदं सर्वं स्तम्भितमस्तीति न कश्चित्किंचित्स्वेच्छया कर्तुं प्रभवति अतः सर्वत्र ममताहीनः सन् भोक्तृत्वकर्तृत्वाभिमानत्यागेनैव भोगान् भुङ्क्ष्व कर्माणि च कुरु एवं कुर्वति त्वयि कर्मलेपो नास्ति इतोऽन्यदुपायान्तरं च नास्तीति वदति। तस्मात् कनककार्ष्णायसादिवत्केनचिद्विशेषरूपेणोपेतं कर्मैव सजातीयोच्छेदनिमित्तं भविष्यतीति युक्तमुक्तं कर्मयोगेनापि कर्मबन्धं प्रहास्यसीति।
।।2.39।।एष उपदेशः शोकमोहापनयसाधनस्यात्मतत्त्वज्ञानस्य प्रसङ्गे आगतः लौकिको न्यायः स्वधर्मविद्भिः कैश्चिल्लोकैर्यथा स्वधर्मप्रतिबन्धकौ शोकमोहावकृत्वा स्वधर्मोऽनुष्ठीयते तद्वत्त्वं स्वधर्ममपि चावेक्ष्य शोकमोहाभिभूतो विकम्पितुं नार्हसीति। अथ चैनमित्यादिवत्प्रासाङ्गिकः स्वधर्ममपीत्याद्यष्टभिः श्लोकैरुक्तो नतु समुच्चयतात्पर्येण परमार्थदर्शनस्येह प्रकृतत्वात्। तच्चोक्तं परमार्थदर्शनमुपसंहरन् तदुपायभूतां योगनिष्ठां चित्तशुद्धये वक्तुं प्रतिजानीते  एषेति।  एषा ते तुभ्यमभिहिता कथिता सांख्ये परमार्थवस्तुविवेकविषये बुद्धिर्ज्ञानं साक्षाच्छोकमोहादिसहेतुदोषनिवृत्तिकारणम्। योगे तु निःसङ्गतया द्वन्द्वप्रहाणपूर्वकं ईश्वराराधनार्थे कर्मयोगे कर्मानुष्ठाने समाधियोगे च तत्प्राप्युपाये इमामनन्तरोच्यमानां बुद्धिं श्रृणु। तां स्तौति  ययेति।  यया बुद्य्धा योगविषयया युक्तः कर्मबन्धं कर्मैव धर्माधर्माख्यं बन्धस्तं प्रहास्यसि प्रकर्षेण त्यजसि। ननु योगविषयया बुद्य्धा कर्मबन्धस्य कुतो निवृत्तिः नहि तत्त्वज्ञानमन्तरेण समूलं कर्म हातुं शक्यमिति चेत्सत्यम्। तथापीश्वरप्रसादनिमित्तज्ञानप्राप्तिद्वारेत्यभिप्रायः। द्वारकथनं तु तत्साधनस्तुत्यर्थम्। पार्थेति संबोधयन् एतद्बुद्धियुक्तस्य मातृगर्भाप्राप्तिं सूचयति। यत्तु कर्मनिमित्तं बन्धमाशयाशुद्धिलक्षणं ज्ञानप्रतिबन्धं प्रहास्यसि। अयंभावः कर्मनिमित्तो ज्ञानप्रतिबन्धः कर्मणैव धर्माख्येनापनेतुं शक्यते श्रवणादिलक्षणविचारस्तु कर्मात्मकप्रतिबन्धरहितस्यासंभावनादिप्रतिबन्धं दृष्टद्वारेणपनयतीति न कर्मबन्धनिराकरणायोपदेष्टुं शक्यत इति। तन्न। स्वर्गनरकादिसाधनपुण्यपापप्रतिपादककर्मपदसंकोचे बन्धशब्दस्य प्रतिबन्धपरत्वे च कारणाभावात्। ननु एतद्बुद्य्धा धर्माधर्माख्यबन्धप्रहाणस्यासंभव एव कारणमिति चेन्न। ज्ञानप्राप्तिद्वारा तत्संभवस्योक्तत्वात्।असंभावनादेरपि पापनिमित्तचित्ताशुद्धमूलकत्वात्। अतएव शुद्धचित्तस्य विद्याधरस्यासंभावनाद्यनुत्पत्तिर्वासिष्ठ उपाख्यायते असंभावनादिनिमित्तदुरितनिवृत्त्यर्थमेवादृष्टोत्पादको विवरणाचार्यैः श्रवणे विधिरङ्गीकृतः। अन्यथा प्राकृतप्रबन्धाद्यर्थेन दृष्टेनासंभावनादिनिरासः स्यात् तथाच वेदान्तश्रवणजेन पुण्येन पापनिवृत्त्या आत्मतत्त्वं सभ्यगवगम्यत इति सर्वसंमतमनर्थकं भवेत्। एतेन कर्मबन्धं संसारं ईश्वरप्रसादनिमित्तज्ञानप्राप्त्या प्रहास्यसीति प्राचां व्याख्याने त्वध्याहारदोषः कर्मपदवैयर्थ्यं च परिहर्तव्यमिति प्रत्युक्तम्। जन्मबन्धविनिर्मुक्ता इत्यत्र जन्मपदवत्कर्मपदस्यापि बन्धस्वरुपबोधनपरत्वेन सार्थक्यात् भाष्ये अभिप्राय इत्युक्त्या तस्याभिप्रायकथनपरत्वेनाध्यारदोषाभावात् स्वेनापिबुद्धियुक्तो जहातीह उमे सुकृतदुष्कृते इत्यत्र द्वारस्योक्तत्वाच्चेति दिक्।
2.39 एषा this? ते to thee? अभिहिता (is) declared? सांख्ये in Sankhya? बुद्धिः wisdom? योगे in the Yoga? तु indeed? इमाम् this? श्रृणु hear? बुद्ध्या with wisdom? युक्तः endowed with? यया which? पार्थ O Partha? कर्मबन्धम् bondage of Karma? प्रहास्यसि (thou) shalt cast off.Commentary Lord Krishna taught Jnana (knowledge) to Arjuna till now. (Sankhya Yoga is the path of Vedanta or Jnana Yoga? which treats of the nature of the Atman or the Self and the methods to attain Selfrealisation. It is not the Sankhya philosophy of sage Kapila.) He is now giving to teach Arjuna the technie or secret of Karma Yoga endowed with which he (or anybody else) can break through the bonds of Karma. The Karma Yogi should perform work without expectation of fruits of his actions? without the idea of agency (or the notin I do this)? without attachment? after annihilating or going beyond all the pairs of opposites such as heat and cold? gain and loss? victoyr and defeat? etc. Dharma and Adharma? or merit and demerit will not touch that Karma Yogi who works without attachment and egoism. The Karma Yogi consecrates all his works and their fruits as offerings unto the Lord (Isvararpanam) and thus obtains the grace of the Lord (Isvaraprasada).
2.39 This, which has been taught to thee, is wisdon concerning Sankhya. Now listen to wisdom concerning Yoga, endowed with which, O Arjuna, thou shalt cast off the bonds of action.
2.39 I have told thee the philosophy of Knowledge. Now listen and I will explain the philosophy of Action, by means of which, O Arjuna, thou shalt break through the bondage of all action.
2.39 O Partha, this wisdom has been imparted to you from the standpoint of Self-realization. But listen to this (wisdom) from the standpoint of Yoga, endowed with which wisdom you will get rid of the bondage of action.
2.39 Partha, O son of Prtha (Arjuna); esa, this; buddhih, wisdom, the Knowledge which directly removes the defect (viz ignorance) that is responsible for sorrow, delusion, etc. [Mundane existence consists of attraction and repulsion, agentship and enjoyership, etc. These are the defects, and they arise from ignorance about one's Self. Enlightenment is the independent and sole cause that removes this ignorance.] constituting mundane existence; abhihita, has been imparted; te, to you; sankhye, from the standpoint of Self-realization, with regard to the discriminating knowledge of the supreme Reality. Tu, but; srnu, listen; imam, to this wisdom which will be imparted presently; yoge, from the spandpoint of Yoga, from the standpoint of the means of attaining it (Knowledge) i.e., in the context of Karma-yoga, the performance of rites and duties with detachment after destroying the pairs of opposites, for the sake of adoring God, as also in the context of the practice of spiritual absorption. As as inducement, He (the Lord) praises that wisdom: Yuktah, endowed; yaya, with which; buddhya, wisdom concerning Yoga; O Partha, prahasyasi, you will get rid of; karma-bandham, the bondage of action action is itself the bondage described as righteousness and unrighteousness; you will get rid of that bondage by the attainment of Knowledge through God's grace. This is the idea.
2.39. Listen, how this knowledge, imparted [to you] for your sankhya, is [also] for the Yoga; endowed with which knowledge you shall cast off the bondage of action, O son of Prtha !
2.39 Esa te etc. And this knowledge in th form of determination has been declared [to you] for your sankhya, i.e., perfect knowledge. Now, how the self-same determinate knowledge is also taught for the Yoga i.e., dexerity in action - in that manner only you must listen to by means of which determinate knowledge you shall avoid the binding nature of the actions. Truely, the actions do not themselves bind as they are insentient. Hence, it is the Self which binds Itself by means of the actions in the form of mental impressions.
2.39 'Sankhya' means 'intellect,' and the truth about the Atman, which is determinable by the intellect, is 'Sankhyam'. Concerning the nature of the self which has to be known, whatever Buddhi has to be taught, has been taught to you in the passage beginning with, 'It is not that I did not exist' (II.12) and ending with the words, 'Therefore, you shall not grieve for any being' (II.30). The disposition of mind (Buddhi) which is reired for the performance of works preceded by knowledge of the self and which thus constitutes the means of attaining release, that is here called by the term Yoga. It will be clearly told later on, 'Work done with desire for fruits is far inferior to work done with evennes of mind' (II. 49). What Buddhi or attitude of mind is reired for making your act deserve the name of Yoga, listen to it now. Endowed with that knowledge, you will be able to cast away the bondage of Karma. 'Karma-bandha' means the bondage due to Karma i.e., the bondage of Samsara. Now Sri Krsna explains the glory of works associated with the Buddhi to be described hereafter:
2.39 This Buddhi concerning the self (Sankhya) has been imparted to you. Now listen to this with regard to Yoga, by following which you will get rid of the bondage of Karma.
।।2.39।।क्योंकि यहाँ शास्त्रके विषयका विभाग दिखलाया जानेसे यह होगा कि आगे चलकर ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् इत्यादि जो दो निष्ठाओंको बतानेवाला शास्त्र है वह सुखपूर्वक समझाया जा सकेगा और श्रोतागण भी विषयविभागपूर्वक अनायास ही उसे ग्रहण कर सकेंगे। इसलिये कहते हैं मैंने तुझसे सांख्य अर्थात् परमार्थ वस्तुकी पहिचानके विषयमें यह बुद्धि यानी ज्ञान कह सुनाया। यह ज्ञान संसारके हेतु जो शोक मोह आदि दोष हैं उनकी निवृत्तिका साक्षात् कारण है। इसकी प्राप्तिके उपायरूप योगके विषयमें अर्थात् आसक्तिरहित होकर सुखदुःख आदि द्वन्द्वोंके त्यागपूर्वक ईश्वराराधनके लिये कर्म किये जानेवाले कर्मयोगके विषयमें और समाधियोगके विषयमें इस बुद्धिको जो कि अभी आगे कही जाती है सुन रुचि बढ़ानेके लिये उस बुद्धिकी स्तुति करते हैं हे अर्जुन जिस योगविषयक बुद्धिसे युक्त हुआ तू धर्माधर्म नामक कर्मरूप बन्धनको ईश्वरकृपासे होनेवाली ज्ञानप्राप्तिद्वारा नाश कर डालेगायह अभिप्राय है।
।।2.39।।  एषा ते  तुभ्यम्  अभिहिता  उक्ता  सांख्ये  परमार्थवस्तुविवेकविषये  बुद्धिः  ज्ञानं साक्षात् शोकमोहादिसंसारहेतुदोषनिवृत्तिकारणम्।  योगे तु  तत्प्राप्त्युपाये निःसङ्गतया द्वन्द्वप्रहाणपूर्वकम् ईश्वराराधनार्थे कर्मयोगे कर्मानुष्ठाने समाधियोगे च  इमाम्  अनन्तरमेवोच्यमानां बुद्धिं  शृणु । तां च बुद्धिं स्तौति प्ररोचनार्थम्  बुद्धया यया  योगविषयया  युक्तः  हे पार्थ  कर्मबन्धं  कर्मैव धर्माधर्माख्यो बन्धः कर्मबन्धः तं  प्रहास्यसि  ईश्वरप्रसादनिमित्तज्ञानप्राप्त्यैव इत्यभिप्रायः।। किञ्च अन्यत्
।।2.39।।पूर्वप्रकरणोपसंहारपूर्वकं तत्सङ्गतत्वेनोत्तरप्रकरणारम्भप्रतिज्ञार्थंएषा तेऽभिहिता इत्युक्तम् तत्र साङ्ख्ययोगशब्दौ कापिलपातञ्जलशास्त्रवचनाविति प्रतीतिनिरासाय व्याचष्टे  साङ्ख्य मिति। प्रतीतार्थावेव कुतो न स्यातां इत्यत आह  नेतरा विति। इतरौ शास्त्रलक्षणौ। कुत्रचिदागमे एतौ तूपादेयौ।बुद्ध्या युक्तः इत्यादिवचनात्। अतो न तावत्र विवक्षिताविति वाक्यशेषः। प्रकृतिपुरुषविवेकादेस्तदुक्तस्योपादेयत्वात्कथमेतत् इत्यत उक्तं  सामस्त्येने ति। एकदेशस्योपादेयतया तदुपादेयत्वे सौगतादेरपि तत्प्रसङ्ग इति भावः। इतोऽपि न योगः पातञ्जलशास्त्रमित्याह  कर्मे ति अस्मिन्नेव योगे कर्मयोगो विशिष्यत इत्यादिप्रयोगाच्च। न हि शास्त्रे कर्मयोगशब्दोऽस्तीति। न केवलमुपादेयत्वाभावान्नेतरौ विवज्ञितौ किन्त्वित्यत आह  निन्दितत्वा दिति। कथं निन्दितत्वं इत्यत आह  भिन्ने ति।साङ्ख्य योगः पाशुपतं वेदारण्यकमेव च। ज्ञानान्येतानि भिन्नानि नात्र कार्या विचारणा म.भा.12।349।64 इति साङ्ख्यादीनां विरुद्धमतत्वमुक्त्वापञ्चरात्रस्य कृत्स्नस्य वक्ता नारायणः स्वयम्। ज्ञानेष्वेतेषु राजेन्द्र सर्वेष्वेतद्विशिष्यते म.भा.12।349।68 इति पञ्चरात्रस्तुत्या विरुद्धानामेकस्तुतिपरनिन्दां गमयतीति प्रसिद्धमेवेति भावः। एवं तर्हि वेदारण्यकस्यापि निन्दा स्यादित्यत आह  वेदानां  त्विति। एकार्थत्वात्पञ्चरात्रेण।ज्ञानान्वेतानि भिन्नानि इति पार्थक्योक्तेः कथमेकार्थत्वं इत्यत आह  पार्थक्यं  त्विति। युक्तमित्यनेन तेषामेव प्रकृतत्वादित्यभिप्रैति। तथा चाद्यवाक्ये वेदारण्यकपदेन पञ्चरात्रमुत्तरवाक्ये च पञ्चरात्रपदेन वेदारण्यकमुपलक्ष्यते इति भावः। वेदपञ्चरात्रयोरेकार्थत्वं कुत इति चेत् उदाहृतमोक्षधर्मवाक्यार्थान्यथानुपपत्त्या तावत्।अपरं प्रमाणमाह  तत्रैवे ति। मोक्षधर्मे एवये हि ते यतयः ख्याताः सत्यचित्रशिखण्डिनः। तैरेकमतिभिर्भूत्वा यत्प्रोक्तं शास्त्रमुत्तमम्। वेदैश्चतुर्भिः समितं कृतं मेरौ महागिरौ म.भा.12 इत्यादिना चित्रशिखण्डिशास्त्रस्य वेदैक्योक्तेश्च असङ्गतमेतदित्यत आह  पञ्चरात्रे ति। पञ्चरात्रमूलकस्येत्यर्थः। एतच्च वैखानससंहितोपक्रम एव प्रसिद्धम्। अत एतद्व्याख्यानंज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां 3।3साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः 5।4 इत्यादावप्यतिदिशति  एवमेवे ति। शब्द इति जात्यभिप्रायमेकवचनम्। इतोऽप्यत्र साङ्ख्ययोगशब्दौ ज्ञानोपायवाचिनावित्याह  युक्तेश्चे ति। तामेव युक्तिं दर्शयति  ज्ञान मिति। अत्रोक्तवक्ष्यमाणयोरर्थयोः साङ्ख्ययोगशब्दौ प्रयुक्तावुक्तवक्ष्यमाणार्थौ ज्ञानोपायावेवेति तदर्थावेतौ युक्ताविति  जैवं ज्ञान मिति। जीवस्य तत्त्वमित्यर्थः। यद्यपीश्वरतत्त्वं चोक्तं तथापि तादर्थ्येनेत्यदोषः। ननु बुद्धिर्ज्ञानं तदुत्पाद्यत एव न त्वत्राभिहितं नापि श्राव्यते तत्कथमुच्यतेसाङ्ख्ये बुद्धिरभिहिता योगे त्विमां शृणु इति तत्राह  बुध्यत  इति। वागिति शेषः। ननु साङ्ख्यं न वाचोऽधिकरणं तत्कथं सप्तमी किमर्थं च प्रसिद्धवाक्छब्दपरित्यागेनाप्रसिद्धबुद्धिशब्दोपादानं इत्यत आह  साङ्ख्ये ति। साङ्ख्यं चासौ विषयश्च अनेन विषयसप्तमीयमित्याह। नाविशदं वाङ्मात्रमुक्तं किन्तु तव बोधो यथोत्पद्यते तथेत्यप्रसिद्धपदोपादानप्रयोजनमित्युक्तं भवति।
।।2.39।।साङ्ख्यं ज्ञानम्।शुद्धात्मतत्त्वविज्ञानं साङ्ख्यमित्यभिधीयते इति भगवद्वचनाद्व्यासस्मृतौ। योग उपायःदृष्टा योगाः प्रयुक्ताश्च पुंसां श्रेयःप्रसिद्धये इति प्रयोगादभागवते। नेतरौ साङ्ख्ययोगौ उपादेयत्वेन विवक्षितौ कुत्रचित्सामस्त्येन कर्मयोग इत्यादिप्रयोगाच्च। निन्दितत्वाच्चेतरयोर्मोक्षधर्मेषु भिन्नमतत्वमुक्त्वा पञ्चरात्रस्तुत्या वेदानां त्वेकार्यत्वान्न विरोधः। पार्थक्यं तु साङ्ख्याद्यपेक्षया युक्तम्। तत्रैव चित्रशिखण्डिशास्त्रे पञ्चरात्रमूले वेदैक्योक्तेश्च एवमेव सर्वत्र साङ्ख्ययोगशब्द उपादेयवाचको वर्णनीयः। युक्तेश्च ज्ञानं पूर्वं जैवमुक्तम्। उपायश्च वक्ष्यते। बुध्यतेऽनयेति बुद्धिः। साङ्ख्यविषयो यया वाचा बुध्यते सा वागभिहितेत्यर्थः।
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु। बुद्ध्यायुक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।2.39।।
এষা তেভিহিতা সাংখ্যে বুদ্ধির্যোগে ত্বিমাং শ্রৃণু৷ বুদ্ধ্যাযুক্তো যযা পার্থ কর্মবন্ধং প্রহাস্যসি৷৷2.39৷৷
এষা তেভিহিতা সাংখ্যে বুদ্ধির্যোগে ত্বিমাং শ্রৃণু৷ বুদ্ধ্যাযুক্তো যযা পার্থ কর্মবন্ধং প্রহাস্যসি৷৷2.39৷৷
એષા તેભિહિતા સાંખ્યે બુદ્ધિર્યોગે ત્વિમાં શ્રૃણુ। બુદ્ધ્યાયુક્તો યયા પાર્થ કર્મબન્ધં પ્રહાસ્યસિ।।2.39।।
ਏਸ਼ਾ ਤੇਭਿਹਿਤਾ ਸਾਂਖ੍ਯੇ ਬੁਦ੍ਧਿਰ੍ਯੋਗੇ ਤ੍ਵਿਮਾਂ ਸ਼੍ਰਰਿਣੁ। ਬੁਦ੍ਧ੍ਯਾਯੁਕ੍ਤੋ ਯਯਾ ਪਾਰ੍ਥ ਕਰ੍ਮਬਨ੍ਧਂ ਪ੍ਰਹਾਸ੍ਯਸਿ।।2.39।।
ಏಷಾ ತೇಭಿಹಿತಾ ಸಾಂಖ್ಯೇ ಬುದ್ಧಿರ್ಯೋಗೇ ತ್ವಿಮಾಂ ಶ್ರೃಣು. ಬುದ್ಧ್ಯಾಯುಕ್ತೋ ಯಯಾ ಪಾರ್ಥ ಕರ್ಮಬನ್ಧಂ ಪ್ರಹಾಸ್ಯಸಿ৷৷2.39৷৷
ഏഷാ തേഭിഹിതാ സാംഖ്യേ ബുദ്ധിര്യോഗേ ത്വിമാം ശ്രൃണു. ബുദ്ധ്യായുക്തോ യയാ പാര്ഥ കര്മബന്ധം പ്രഹാസ്യസി৷৷2.39৷৷
ଏଷା ତେଭିହିତା ସାଂଖ୍ଯେ ବୁଦ୍ଧିର୍ଯୋଗେ ତ୍ବିମାଂ ଶ୍ରୃଣୁ| ବୁଦ୍ଧ୍ଯାଯୁକ୍ତୋ ଯଯା ପାର୍ଥ କର୍ମବନ୍ଧଂ ପ୍ରହାସ୍ଯସି||2.39||
ēṣā tē.bhihitā sāṅkhyē buddhiryōgē tvimāṅ śrṛṇu. buddhyāyuktō yayā pārtha karmabandhaṅ prahāsyasi৷৷2.39৷৷
ஏஷா தேபிஹிதா ஸாஂக்யே புத்திர்யோகே த்விமாஂ ஷ்ரரிணு. புத்த்யாயுக்தோ யயா பார்த கர்மபந்தஂ ப்ரஹாஸ்யஸி৷৷2.39৷৷
ఏషా తేభిహితా సాంఖ్యే బుద్ధిర్యోగే త్విమాం శ్రృణు. బుద్ధ్యాయుక్తో యయా పార్థ కర్మబన్ధం ప్రహాస్యసి৷৷2.39৷৷
2.40
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।।2.40।। मनुष्यलोकमें इस समबुद्धिरूप धर्मके आरम्भका नाश नहीं होता, इसके अनुष्ठानका उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ासा भी अनुष्ठान (जन्म-मरणरूप) महान् भयसे रक्षा कर लेता है।
।।2.40।। इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है।।
।।2.40।। क्रमनाश जिस प्रकार कृषि क्षेत्र में फसल पाने के लिये भूमि जोतना सींचना बीज बोना निराई सुरक्षा और कटाई आदि क्रम का पालन करना पड़ता है अन्यथा हानि उठानी पड़ती है उसी प्रकार वेदों के कर्मकाण्ड में वर्णित यज्ञयागादि के अनुष्ठान में भी क्रमानुसार क्रिया विधि न करने पर यज्ञ का फल नहीं मिलता। इतना ही नहीं यदि वेद प्रतिपादित कर्मों को न किया जाय तो वह प्रत्यवाय दोष कहलाता है जिसका अनिष्ट फल कर्त्ता (जीव)को भोगना पड़ता है। लौकिक फल प्राप्ति में यही बातें देखी जाती हैं। भौतिक जगत् में भी इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जैसे गलत औषधियों के प्रयोग से रोगी को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है।कर्म क्षेत्र में इन दोषों के होने से हमें इष्टफल नहीं मिल पाता। भगवान् श्रीकृष्ण यहां मानो इस ज्ञान का विज्ञापन करते हुये कर्मयोग का उपर्युक्त दोनों दोषों से सर्वथा मुक्त और सुरक्षित होने का आश्वासन देते हैं।अब इस ज्ञान का स्वरूप बताते हैं
2.40।। व्याख्या-- [इस समबुद्धिकी महिमा भगवान्ने पूर्वश्लोकके उत्तरार्धमें और इस (चालीसवें) श्लोकमें चार प्रकारसे बतायी है-- (1) इसके द्वारा कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, (2) इसके उपक्रमका नाश नहीं होता, (3) इसका उलटा फल नहीं होता और (4) इसका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान महान् भयसे रक्षा करनेवाला होता है।]  'नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति'-- इस समबुद्धि (समता) का केवल आरम्भ ही हो जाय, तो उस आरम्भका भी नाश नहीं होता। मनमें समता प्राप्त करनेकी जो लालसा, उत्कण्ठा लगी है, यही इस समताका आरम्भ होना है। इस आरम्भका कभी अभाव नहीं होता; क्योंकि सत्य वस्तुकी लालसा भी सत्य ही होती है। यहाँ  'इह'  कहनेका तात्पर्य है कि इस मनुष्यलोकमें यह मनुष्य ही इस समबुद्धिको प्राप्त करनेका अधिकारी है। मनुष्यके सिवाय दूसरी सभी भोगयोनियाँ है। अतः उन योनियोंमें विषमता (राग-द्वेष) का नाश करनेका अवसर नहीं है; क्योंकि भोग राग-द्वेषपूर्वक ही होते हैं। यदि राग-द्वेष न हों तो भोग होगा ही नहीं, प्रत्युत साधन ही होगा।  'प्रत्यवायो न विद्यते'--सकामभावपूर्वक किये गये कर्मोंमें अगर मन्त्र-उच्चारण, यज्ञ-विधि आदिमें कोई कमी रह जाय तो उसका उलटा फल हो जाता है। जैसे, कोई पुत्र-प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि यज्ञ करता है तो उसमें विधिकी त्रुटि हो जानेसे पुत्रका होना तो दूर रहा, घरमें किसीकी मृत्यु हो जाती है अथवा विधिकी कमी रहनेसे इतना उलटा फल न भी हो, तो भी पुत्र पूर्ण अङ्गोंके साथ नहीं जन्मता! परन्तु जो मनुष्य इस समबुद्धिको अपने अनुष्ठानमें लानेका प्रयत्न करता है, उसके प्रयत्नका, अनुष्ठानका कभी भी उलटा फल नहीं होता। कारण कि उसके अनुष्ठानमें फलकी इच्छा नहीं होती। जबतक फलेच्छा रहती है, तबतक समता नहीं आती और समता आनेपर फलेच्छा नहीं रहती। अतः उसके अनुष्ठानका विपरीत फल होता ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं। विपरीत फल क्या है? संसारसे विषमताका होना ही विपरीत फल है। सांसारिक किसी कार्यमें राग होना और किसी कार्यमें द्वेष होना ही विषमता है, और इसी विषमतासे जन्म-मरणरूप बन्धन होता है। परन्तु मनुष्यमें जब समता आती है, तब राग-द्वेष नहीं रहते और राग-द्वेषके न रहनेसे विषमता नहीं रहती, तो फिर उसका विपरीत फल होनेका कोई कारण ही नहीं है।  'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्'--इस समबुद्धिरूप धर्मका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान हो जाय, थोड़ी-सी भी समता जीवनमें, आचरणमें आ जाय तो यह जन्ममरणरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है। जैसे सकाम कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है ऐसे यह समता धन-सम्पत्ति आदि कोई फल देकर नष्ट नहीं होती अर्थात् इसका फल नाशवान् धनसम्पत्ति आदिकी प्राप्ति नहीं होत। साधकके अन्तःकरणमें अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें जितनी समता आ जाती है, उतनी समता अ़टल हो जाती है। इस समताका किसी भी कालमें नाश नहीं हो सकता। जैसे, योगभ्रष्टकी साधन-अवस्था में जितनी समता आ जाती है, जितनी साधन-सामग्री हो जाती है, उसका स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें बहुत वर्षोंतक सुख भोगनेपर और मृत्युलोगमें श्रीमानोंके घरमें भोग भोगनेपर भी नाश नहीं होता (गीता 6। 41 44)। यह समता, साधन-सामग्री कभी किञ्चिन्मात्र भी खर्च नहीं होती, प्रत्युत सदा ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है; क्योंकि यह सत् है, सदा रहनेवाली है। 'धर्म'  नाम दो बातोंका है--(1) दान करना, प्याऊ लगाना, अन्नक्षेत्र खोलना आदि परोपकारके कार्य करना और (2) वर्ण-आश्रमके अनुसार शास्त्र-विहित अपने कर्तव्य-कर्मका तत्परतासे पालन करना। इन धर्मोंका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे समतारूप धर्म स्वतः आ जाता है; क्योंकि यह समतारूप धर्म स्वयंका धर्म अर्थात् स्वरूप है। इसी बातको लेकर यहाँ समबुद्धिको धर्म कहा गया है।  समतासम्बन्धी विशेष बात  लोगोंके भीतर प्रायः यह बात बैठी हुई है कि मन लगनेसे ही भजन-स्मरण होता है, मन नहीं लगा तो राम-राम करनेसे क्या लाभ? परन्तु गीताकी दृष्टिमें मन लगना कोई ऊँची चीज नहीं है। गीताकी दृष्टिमें ऊँची चीज है--समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें समता आ गयी उसको गीता सिद्ध कह देती है। जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जायँ और समता न आये उसको गीता सिद्ध नहीं कहती। समता दो तरहकी होती है--अन्तःकरणकी समता और स्वरूपकी समता। समरूप परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है। उस समरूप परमात्मामें जो स्थित हो गया, उसने संसार-मात्रपर विजय प्राप्त कर ली, वह जीवन्मुक्त हो गया। परन्तु इसकी पहचान अन्तःकरणकी समतासे होती है (गीता 5। 19)। अन्तःकरणकी समता है-- सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना (गीता 2। 48)। प्रशंसा हो जाय या निन्दा हो जाय कार्य सफल हो जाय या असफल हो जाय, लाखों रूपये आ जायँ या लाखों रूपये चले जायँ पर उससे अन्तःकरणमें कोई हलचल न हो; सुख-दुःख, हर्ष-शोक आदि न हो (गीता 5। 20)। इस समताका कभी नाश नहीं होता। कल्याणके सिवाय इस समताका दूसरा कोई फल होता ही नहीं। मनुष्य, तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्य-कर्म करे, वह फल देकर नष्ट हो जाता है; परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरणमें थोड़ी भी समता (निर्विकारता) आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है। इसलिये साधनमें समता जितनी ऊँची चीज है, मनकी एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है। मन एकाग्र होनेसे सिद्धियाँ तो प्राप्त हो जाती है, पर कल्याण नहीं होता। परन्तु समता आनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। सम्बन्ध-- उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने जिस समबुद्धिको योगमें सुननेके लिये कहा था उसी समबुद्धिको प्राप्त करनेका साधन आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।2.40।।एषा त इति। एषा च तव सांख्ये सम्यग्ज्ञाने बुद्धिर्निश्चयात्मिका उक्ता। एषैव च यथा योगे कर्मकौशलाय उच्यते (S K कौशले यो (S य) ज्यते) तथैव श्रृणु यया बुद्ध्या कर्मणां बन्धकत्वं त्यक्ष्यसि। न हि कर्माणि स्वयं बध्नन्ति जडत्वात्। अतः स्वयमात्मा कर्मभिः वासनात्मकैरात्मानं बध्नाति।
।।2.40।। इह  कर्मयोगे  न अभिक्रमनाशः अस्ति।  अभिक्रम आरम्भः नाशः फलसाधनभावनाशः। आरब्धस्य असमाप्तस्य विच्छिन्नस्य अपि न निष्फलत्वम्। आरब्धस्य विच्छेदे  प्रत्यवायः  अपि  न विद्यते।   अस्य  कर्मयोगाख्यस्य स्व धर्मस्य  स्वल्पांशः  अपि महतो भयात्  संसारभयात्  त्रायते।  अयम् अर्थः पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते। (गीता 6।40) इति उत्तरत्र प्रपञ्चयिष्यते।अन्यानि हि लौकिकानिवैदिकानि च साधनानि विच्छिन्नानि न हि फलप्रसवाय भवन्ति प्रत्यवायाय च भवन्ति।काम्यकर्मविषयाया बुद्धेः मोक्षसाधनभूतकर्मविषयां बुद्धिं विशिनष्टि
।।2.40।।ननु कर्मानुष्ठानस्यानैकान्तिकफलत्वेनाकिंचित्करत्वादनेकानर्थकलुषितत्वेन दोषवत्त्वाच्च योगबुद्धिरपि न श्रद्धेयेति तत्राह  किञ्चेति।  अन्यच्च किंचिदुच्यते। कर्मानुष्ठानस्यावश्यकत्वे कारणमिति यावत्। कर्मणा सह समाधेरनुष्ठातुमशक्यत्वादनेकान्तरायसंभवात्तत्फलस्य च साक्षात्कारस्य दीर्घकालाभ्याससाध्यस्यैकस्मिञ्जन्मन्यसंभवादर्थाद्योगी भ्रश्येतानर्थे च निपतेदित्याशङ्क्याह   नेहेति।  प्रतीकत्वेनोपात्तस्य नकारस्य पुनरन्वयानुगुणत्वेन नास्तीत्यनुवादः। यत्तु कर्मानुष्ठानस्यानैकान्तिकफलत्वेनाकिंचित्करत्वमुक्तं तद्दूषयति  यथेति।  कृषिवाणिज्यादेरारम्भस्यानियतं फलं संभावनामात्रोपनीतत्वान्न तथा कर्मणि वैदिके प्रारम्भस्य फलमनियतं युज्यते शास्त्रविरोधादित्यर्थः। यत्तूक्तमनेकानर्थकलुषितत्वेन दोषवदनुष्ठानमिति तत्राह  किञ्चेति।  इतोऽपि कर्मानुष्ठानमावश्यकमिति प्रतिज्ञाय हेत्वन्तरमेव स्फुटयति  नापीति।  चिकित्सायां हि क्रियमाणायां व्याध्यतिरेको वा मरणं वा प्रत्यवायोऽपि संभाव्यते कर्मपरिपाकस्य दुर्विवेकत्वान्न तथा कर्मानुष्ठाने दोषोऽस्ति विहितत्वादित्यर्थः। संप्रति कर्मानुष्ठानस्य फलं पृच्छति  किंत्विति।  उत्तरार्धं व्याकुर्वन्विवक्षितं फलं कथयति  स्वल्पमपीति।  सम्यग्ज्ञानोत्पादनद्वारेण रक्षणं विवक्षितंसर्वपापप्रसक्तोऽपि ध्यायन्निमिषमच्युतम्। यतिस्तपस्वी भवति पङ्क्तिपावनपावनः।। इति स्मृतेरित्यर्थः।
।।2.40।।सर्वतो योगे सुगमतामाह नेहाभिक्रमनाश इति। इह योगबुद्धौ धर्मस्य योऽभिक्रमः प्रारम्भस्तस्य नाशो नास्ति।नह्यङ्गोपक्रमे ध्वंसो स्वधर्मस्योद्धवाण्वपि। मया व्यवसितः 11।29।20 इति भागवतवाक्यात्। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्याभिक्रमो महतो भयात्त्रायते। साङ्ख्ये तु सिद्धे धर्मकर्मणां त्यागः अत्र तु न तथा। उक्तं च यमादयस्तु कर्त्तव्याः सिद्धे योगे कृतार्थता इति।
।।2.40।।ननुतमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्या विविदिषां ज्ञानं चोद्दिश्य संयोगपृथक्त्वन्यायेन सर्वकर्मणां विनियोगात्तत्र चान्तःकरणशुद्धेर्द्वारत्वान्मांप्रति कर्मानुष्ठानं विधीयते। तत्रतद्यथेह कर्मजितो लोकः क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यजितो लोकः क्षीयते इति श्रुतिबोधितस्य फलनाशस्य संभवात् ज्ञानं विविदिषां चोद्दिश्य क्रियमाणस्य यज्ञादेः काम्यत्वात्सर्वाङ्गोपसंहारेणानुष्ठेयस्य यत्किंचिदङ्गासंपत्तावपि वैगुण्योपपत्तेर्यज्ञेनेत्यादिवाक्यविहितानां च सर्वेषां कर्मणामेकेन पुरुषायुषपर्यवसानेऽपि कर्तुमशक्यत्वात्कुतःकर्मबन्धं प्रहास्यसि इति फलं प्रत्याशेत्यत आह भगवान् अभिक्रम्यते कर्मणा प्रारभ्यते यत्फलं सोऽभिक्रमस्तस्य नाशस्तद्यथेहेत्यादिना प्रतिपादितः स इह निष्कामकर्मयोगे नास्ति एतत्फलस्य शुद्धेः पापक्षयरूपत्वेन लोकशब्दावाच्यभोग्यत्वाभावेन च क्षयासंभवात् वेदनपर्यन्ताया एव विविदिषायाः कर्मफलत्वाद्वेदनस्य चाव्यवधानेनाज्ञाननिवृत्तिफलजनकस्य फलमजनयित्वा नाशासंभवादिह फलनाशो नास्तीति साधूक्तम्। तदुक्तम् तद्यथेहेति या निन्दा सा फले न तु कर्मणि। फलेच्छां तु परित्यज्य कृतं कर्म विशुद्धिकृत्।। इति। तथा प्रत्यवायोऽङ्गवैगुण्यनिबन्धनं वैगुण्यमिह न विद्यते तमितिवाक्येन नित्यानामेवोपात्तदुरितक्षयद्वारेण विविदिषायां विनियोगात्। तत्रच सर्वाङ्गोपसंहारनियमाभावात् काम्यानामपि संयोगपृथक्त्वन्यायेन विनियोग इति पक्षेऽपि फलाभिसंधिरहितत्वेन तेषां नित्यतुल्यत्वात्। नहि काम्यनित्याग्निहोत्रयोः स्वतः कश्चिद्विशेषोऽस्ति। फलाभिसंधितदभावाभ्यामेव तु काम्यत्वनित्यत्वव्यपदेशः। इदंच पक्षद्वयमुक्तं वार्तिके वेदानुवचनादीनामैकात्म्यज्ञानजन्मने। तमेतमिति वाक्येन नित्यानां वक्ष्यते विधिः।।यद्वा विविदिषार्थत्वं काम्यानामपि कर्मणाम्। तमेतमिति वाक्येन संयोगस्य पृथक्त्वतः।। इति। तथाच फलाभिसंधिना क्रियमाण एव कर्मणि सर्वाङ्गोपसंहारनियमात्तद्विलक्षणे शुद्ध्यर्थे कर्मणि प्रतिनिध्यादिना समाप्तिसंभवान्नाङ्गवैगुण्यनिमित्तः प्रत्यवायोऽस्तीत्यर्थः। तथास्य शुद्ध्यर्थस्य धर्मस्यतमेतम् इत्यादिवाक्यविहितस्य मध्ये स्वल्पमपि संख्ययेतिकर्तव्यतया वा यथाशक्तिभगवदाराधनार्थं किंचिदप्यनुष्ठितं सन्महतः संसारभयात्त्रायते भगवत्प्रसादसंपादनेनानुष्ठातारं रक्षति।सर्वपापप्रसक्तोऽपि ध्यायन्निमिषमच्युतम्। भूयस्तपस्वी भवति पङ्क्तिपावनपावनः।। इत्यादिस्मृतेः।तमेतम् इति वाक्ये समुच्चयविधायकाभावाच्च अशुद्धितारतम्यादेवानुष्ठानतारतम्योपपत्तेर्युक्तमुक्तंकर्मबन्धं प्रहास्यसि इति।
।।2.40।।ननु कृष्यादिवत्कर्मणां कदाचिद्विघ्नबाहुल्येन फले व्याभिचारान्मन्त्राद्यङ्गवैगुण्येन च प्रत्यवायसंभवात्कुतः कर्मयोगेन कर्मबन्धप्रहरणं तत्राह  नेहेति।  इह निष्कामकर्मयोगेऽभिक्रमस्य प्रारम्भस्य नाशो निष्फलत्वं नास्ति प्रत्यवायश्च न विद्यते ईश्वरोद्देशेनैव विघ्नवैगुण्याद्यसंभवात्। किंच अस्य धर्मस्य स्वल्पमप्युपक्रममात्रमपि कृतं महतो भयात्संसारान्त्रायते रक्षति नतु काम्यकर्मवत्किंचिदङ्गवैगुण्यादिना नैष्फल्यमस्येत्यर्थः।
।।2.40।।ननुइमां श्रृणु 2।39 इत्युक्तेऽनन्तरंव्यवसाया 2।41 इत्यादि वक्तव्यम् मध्येनेहाभिक्रम इत्येतन्न सङ्गच्छत इत्यत्राह वक्ष्यमाणेति। उपक्रमे माहात्म्यकथनेन बुभुत्सातिशयजननाय प्ररोचना क्रियत इति भावः। इहेत्यनेन सूचितं कर्मान्तरेभ्यो वैलक्षण्यमाह कर्मयोग इति। अभिमुखक्रमणशङ्कां व्युदस्यति अभिक्रम आरम्भ इति। उपक्रमशब्दवदयमिति भावः। क्रियारूपस्याभिक्रमस्य कथमविनाशित्वमित्यतोनाशः फलसाधनभावनाश इति। तात्पर्यमाह आरब्धस्येति। प्रत्यवायशङ्काहेतुं दर्शयन् द्वितीयं पादं व्याकरोति आरब्धस्य विच्छेदे इति। उक्तविवरणरूपमुत्तरार्धं व्याख्याति अस्येति।संसारभयादिति। महत्त्वविशेषितं भयं संसारभयमेव हीति भावः। स्वल्पांशस्यापि संसारनिवृत्तिहेतुत्वं देशकालादिवैगुण्यात् प्रामादिकाकृत्यकरणादिना च विच्छिन्नस्याप्यवश्यं पुनः सन्धानादिति दर्शयन्नस्य श्लोकस्योक्तार्थैकपरत्वं सङ्ग्रहविस्तररूपत्वेन वक्ष्यमाणापौनरुक्त्यं चाह अयमर्थ इति। कृतांशस्य कथं न नाशप्रसङ्ग इति शङ्कायामिहेत्यस्य व्यवच्छेद्यं दर्शयति अन्यानि हीति। लौकिकानीत्यतिशङ्काहेतुर्दृष्टान्त उक्तः।वैदिकानीति सामान्यनिर्देशस्यायं भावः नित्यनैमित्तिकान्यपि विच्छेदे सति न फलाय स्युः प्रत्यवायाय च भवेयुः। अशक्त्यादिमूलमीषद्वैकल्यमात्रं हि तत्र सह्यम्। काम्येषु त्वङ्गवैकल्येऽपि नैष्फल्यमिति विशेष इति प्रत्यवायाय च भवन्तीति न केवलं स्वर्गादेरलाभमात्रम् ब्रह्मरक्षस्त्वप्राप्त्यादिरपि स्यादिति भावः।
।।2.40।।ननु कर्मणा बाहुल्यात्कालादिसाध्यत्वाच्च कृतानां पूर्णत्वाभावाद्वैकल्यं प्रत्युत अङ्गवैगुण्यादिना प्रत्यवायादिसम्भावना भवेदिति कथं बन्धो न भविष्यतीति चेत् इत्याशङ्क्यार्जुनस्य भगवत्कुण्डलात्मकसंयोगरूपयोगस्वरूपाज्ञानात्तज्ज्ञानार्थं तत्स्वरूपमाह नेहाभिक्रमनाश इति। भगवन्मार्गे भगवदर्थं भगवदाज्ञारूपेण कर्त्तव्यत्वं कर्मणां न तु फलसाधकत्वेन तस्मान्न पूर्वोक्तदोषसम्भावनात्र। तदेवाह इह मदाज्ञात्वेन क्रियमाणस्य कर्मणोऽभिक्रमनाशः प्रारब्धकर्मनाशो नास्ति निष्फलत्वं न भवतीत्यर्थः। प्रत्यवायश्च न विद्यते। यतोऽस्य धर्मस्य स्वल्पमपि कृतं महतो भयात् त्रायते रक्षति। अत्रायं भावः अन्यत्र कृतकर्मसाफल्यार्थं साङ्गत्वाय च भगवत्स्मरणं बोध्यतेयस्य स्मृत्या वि.पु. इत्यादिना तत्र साक्षाद्भगवदर्थं कृतानां कर्मणां कथं वैफल्यं भवेत्
।।2.40।।एतदेवोपपादयति  नेहेति।  इह कर्मबन्धप्रहाणार्थे कर्मयोगेऽनुष्ठीयमाने। अभिक्रम्यते व्याप्यत इत्यभिक्रमः कर्मारम्भः कर्मैव वा तस्य नाशो नास्ति। अन्यत्तु फलं दत्त्वा नश्यति नत्विदम्। इष्टफलस्याजननात्। नन्वेतस्यापि काम्यान्तःपातितया नित्याकरणजनितः प्रत्यवाय उत्पद्येतैव। सकृदनुष्ठितस्य बन्धप्रहाणप्रत्यवायपरिहाराख्यफलद्वयहेतुत्वायोगादित्याशङ्क्याह  प्रत्यवायो न विद्यत इति। तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्या संयोगपृथक्त्वन्यायेनदध्नेन्द्रियकामस्य जुहुयात् इत्यनेन नित्यस्य दध्नो वीर्यार्थत्वमिव नित्यानामपि कर्मणां विविदिषार्थत्वं विनियोगबलात्सिध्यति। ततश्च काम्येनैव प्रयोगेण नित्यस्यापि सिद्धेर्न नित्याकरणनिमित्तो वा काम्यत्वात्सर्वाङ्गानुपसंहारनिमित्तो वा प्रत्यवायो विद्यते। नित्यानामेव विनियोगात्। नित्येषु च यथाशक्त्युपबन्धस्यानुज्ञानात्। वार्तिके तु काम्यानामप्यत्र विनियोगो दृष्टः। यथावेदानुवचनादीनामैकात्म्यज्ञानजन्मने। तमेतमिति वाक्येन नित्यानां वक्ष्यते विधिः। यद्वा विविदिषार्थत्वं काम्यानामपि कर्मणाम्। तमेतमिति वाक्येन संयोगस्य पृथक्त्वतः। इति। अस्मिन्पक्षे काम्यानामपि तुल्यफलत्वात् नित्यवद्यथाशक्त्युपबन्धो भविष्यतीति न सर्वाङ्गानुपसंहारजनितः प्रत्यवायो विद्यते। स्वल्पमपि अस्य योगधर्मस्यानुष्ठितं अनुपभुक्तबीजकल्पम्जन्मजन्मान्तराभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः। तेनैवाभ्यासयोगेन तच्चैवाभ्यसते पुनः। इति स्मृतेरुत्तरोत्तरसंस्काराधानद्वारा स्वसजातीयवृद्धेर्निमित्तं सत्कामादिदोषक्षपणद्वारा महतो भयात्संसारात्त्रायते। तस्मात्सांख्यानधिकारिणा कर्मयोग एवानुष्ठेय इति भावः।
।।2.40।।काभ्यादस्य महद्वैलक्षण्यमित्याशयेनाह  नेहेति।  इह निष्कामकर्मणि समाधियोगे च मोक्षमार्गे अभिक्रमस्य प्रारम्भस्य नाशो नास्ति। कृष्यादेरिव प्रत्यवायः पापोत्पत्तिरपि चिकित्सावन्न विद्यते। अस्य धर्मस्य त्वल्पमप्यनुष्ठितं महतो भयाज्जन्ममरणादिलक्षणसंसारभयाद्रक्षति।
2.40 न not? इह in this? अभिक्रमनाशः loss of effort? अस्ति is? प्रत्यवायः production of contrary results? न not? विद्यते is? स्वल्पम् very little? अपि even? अस्य of this? धर्मस्य duty? त्रायते protects? महतः (from) great? भयात् fear.Commentary If a religious ceremony is left uncompleted? it is a wastage as the performer cannot realise the fruits. But it is not so in the case of Karma Yoga because every action causes immediate purification of the heart.In agriculture there is uncertainty. The farmer may till the land? plough and sow the seed but he may not get a crop if there is no rain. This is not so in Karma Yoga. There is no uncertainty at all. Further? there is no chance of any harm coming out of it. In the case of medical treatment great harm will result from the doctors injudicious treatment if he uses a wrong medicine. But it is not so in the case of Karma Yoga. Anything done? however little it may be? in this path of Yoga? the Yoga of action? saves one from great fear of being caught in the wheel of birth and death. Lord Krishna here extols Karma Yoga in order to create interest in Arjuna in this Yoga.
2.40 In this there is no loss of effort, nor is there any harm (production of contrary results or transgression). Even a little of this knowledge (even a little practice of this Yoga) protects one from great fear.
2.40 On this Path, endeavour is never wasted, nor can it ever be repressed. Even a very little of its practice protects one from great danger.
2.40 Here there is no waste of an attempt; nor is there (any) harm. Even a little of this righteousness saves (one) from great fear.
2.40 Moreover, iha, here, in the path to Liberation, viz the Yoga of Action (rites and duties); na, there is no; abhikrama-nasah, waste of an attempt, of a beginning, unlike as in agriculture etc. The meaning is that the result of any attempt in the case of Yoga is not uncertain. Besides, unlike as in medical care, na vidyate, nor is there, nor does there arises; any pratyavayah, harm. But, svalpam api, even a little; asya, of this; dharmasya, righteousness in the form of Yoga (of Action); when pracised, trayate, saves (one); mahato bhayat, from great fear, of mundance existence characterized by death, birth, etc.
2.40. Here there is no loss due to transgression, and there exists no contrary downward course (sin); even a little of this righteous thing saves [one] from great danger.
2.40 Neha etc. Here in this determinate knowledge there arises no loss through transgression, an offence due to negligence; because negligence is [itself] absent there. And just as a burning oil in the boiler get cooled soon, due to a limited antity of sandal (put in it), in the same way due to this knowledge of Yoga-eventhough it is very little-the great danger in the form of the cycle of birth-and-death perishes completely. And this knowledge is not introduced as a new thing. Then what ?
2.40 Here, in Karma Yoga, there is no loss of 'Abhikrama' or of effort that has been put in; 'loss' means the loss of efficacy to bring about the fruits. In Karma Yoga if work is begun and left unfinished, and the continuity is broken in the middle, it does not remain fruitless, as in the case of works undertaken for their fruits. No evil result is acired if the continuity of work is broken. Even a little of this Dharma known as Karma Yoga or Niskama Karma (unselfish action without desire for any reward) gives protection from the great fear, i.e., the fear of transmigratory existence. The same purport is explained later thus: 'Neither in this world nor the next, O Arjuna, there is annihilation for him' (6.40). But in works, Vedic and secular, when there is interruption in the middle, not only do they not yield fruits, but also there is accrual of evil. Now, Sri Krsna distinguishes the Buddhi or mental disposition concerned with those acts which constitute a means for attaining release from those which are concerned with the acts meant for gaining the desired objects:
2.40 Here, there is no loss of effort, nor any accrual of evil. Even a little of this Dharma (called Karma Yoga) protects a man from the great fear.
।।2.40।।इसके सिवा और भी सुन आरम्भका नाम अभिक्रम है इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्गमें अभिक्रमका यानी प्रारम्भका कृषि आदिके सदृश नाश नहीं होता। अभिप्राय यह कि योगविषयक प्रारम्भका फल अनैकान्तिक ( संशययुक्त ) नहीं है। तथा चिकित्सादिकी तरह ( इसमें ) प्रत्यवाय ( विपरीत फल ) भी नहीं होता है। तो क्या होता है इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ासा भी अनुष्ठान ( साधन ) जन्ममरणरूप महान् संसारभयसे रक्षा किया करता है।
।।2.40।।  न इह  मोक्षमार्गे कर्मयोगे  अभिक्रमनाशः  अभिक्रमणमभिक्रमः प्रारम्भः तस्य नाशः नास्ति यथा कृष्यादेः। योगविषये प्रारम्भस्य न अनैकान्तिकफलत्वमित्यर्थः। किञ्चनापि चिकित्सावत् प्रत्यवायः विद्यते भवति। किं तु  स्वल्पमपि अस्य धर्मस्य  योगधर्मस्य अनुष्ठितं  त्रायते  रक्षति  महतः भयात्  संसारभयात् जन्ममरणादिलक्षणात्।।येयं सांख्ये बुद्धिरुक्ता योगे च वक्ष्यमाणलक्षणा सा
null
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नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।2.40।।
নেহাভিক্রমনাশোস্তি প্রত্যবাযো ন বিদ্যতে৷ স্বল্পমপ্যস্য ধর্মস্য ত্রাযতে মহতো ভযাত্৷৷2.40৷৷
নেহাভিক্রমনাশোস্তি প্রত্যবাযো ন বিদ্যতে৷ স্বল্পমপ্যস্য ধর্মস্য ত্রাযতে মহতো ভযাত্৷৷2.40৷৷
નેહાભિક્રમનાશોસ્તિ પ્રત્યવાયો ન વિદ્યતે। સ્વલ્પમપ્યસ્ય ધર્મસ્ય ત્રાયતે મહતો ભયાત્।।2.40।।
ਨੇਹਾਭਿਕ੍ਰਮਨਾਸ਼ੋਸ੍ਤਿ ਪ੍ਰਤ੍ਯਵਾਯੋ ਨ ਵਿਦ੍ਯਤੇ। ਸ੍ਵਲ੍ਪਮਪ੍ਯਸ੍ਯ ਧਰ੍ਮਸ੍ਯ ਤ੍ਰਾਯਤੇ ਮਹਤੋ ਭਯਾਤ੍।।2.40।।
ನೇಹಾಭಿಕ್ರಮನಾಶೋಸ್ತಿ ಪ್ರತ್ಯವಾಯೋ ನ ವಿದ್ಯತೇ. ಸ್ವಲ್ಪಮಪ್ಯಸ್ಯ ಧರ್ಮಸ್ಯ ತ್ರಾಯತೇ ಮಹತೋ ಭಯಾತ್৷৷2.40৷৷
നേഹാഭിക്രമനാശോസ്തി പ്രത്യവായോ ന വിദ്യതേ. സ്വല്പമപ്യസ്യ ധര്മസ്യ ത്രായതേ മഹതോ ഭയാത്৷৷2.40৷৷
ନେହାଭିକ୍ରମନାଶୋସ୍ତି ପ୍ରତ୍ଯବାଯୋ ନ ବିଦ୍ଯତେ| ସ୍ବଲ୍ପମପ୍ଯସ୍ଯ ଧର୍ମସ୍ଯ ତ୍ରାଯତେ ମହତୋ ଭଯାତ୍||2.40||
nēhābhikramanāśō.sti pratyavāyō na vidyatē. svalpamapyasya dharmasya trāyatē mahatō bhayāt৷৷2.40৷৷
நேஹாபிக்ரமநாஷோஸ்தி ப்ரத்யவாயோ ந வித்யதே. ஸ்வல்பமப்யஸ்ய தர்மஸ்ய த்ராயதே மஹதோ பயாத்৷৷2.40৷৷
నేహాభిక్రమనాశోస్తి ప్రత్యవాయో న విద్యతే. స్వల్పమప్యస్య ధర్మస్య త్రాయతే మహతో భయాత్৷৷2.40৷৷
2.41
2
41
।।2.41।। हे कुरुनन्दन! इस समबुद्धिकी प्राप्तिके विषयमें व्यवसायात्मिका बुद्धि एक ही होती है। अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओंवाली ही होती हैं।
।।2.41।। हे कुरुनन्दन ! इस (विषय) में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही है, अज्ञानी पुरुषों की बुद्धियां (संकल्प) बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।।
।।2.41।। कर्मयोग के साधन से आत्मसाक्षात्कार की सर्वोच्च उपलब्धि केवल इसलिये सम्भव है कि साधक दृढ़ निश्चय और एकाग्र चित्त से इसका अभ्यास करता है। जो लोग फल प्राप्ति की असंख्य इच्छाओं से प्रेरित हुये कर्म करते हैं उनका व्यक्तित्व विखरा हुआ रहता है और इस कारण एकाग्र चित्त होकर वे किसी भी क्षेत्र में सतत् कार्य नहीं कर सकते जिसका एक मात्र परिणाम उन्हें मिलता है विनाशकारी असफलता।इस श्लोक में संक्षेप में सफलता का रहस्य बताया गया है। निश्चयात्मक बुद्धि से कार्य करने पर किसी भी क्षेत्र में निश्चय ही सफलता मिलती है। परन्तु सामान्यत लोग असंख्य इच्छायें करते हैं जो अनेक बार परस्पर विरोधी होती हैं और स्वाभाविक ही उन्हें पूर्ण करने में मन की शक्ति को खोकर थक जाते हैं। इसे ही संकल्प विकल्प का खेल कहते हैं जो मनुष्य की सफलता के समस्त अवसरों को लूट ले जाता है।
2.41।। व्याख्या-- 'व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन'-- कर्मयोगी साधकका ध्येय (लक्ष्य) जिस समताको प्राप्त करना रहता है, वह समता परमात्माका स्वरूप है। उस परमात्मस्वरूप समताकी प्राप्तिके लिये अन्तःकरणकी समता साधन है, अन्तःकरणकी समतामें संसारका राग बाधक है। उस रागको हटानेका अथवा परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेका जो एक निश्चय है, उसका नाम है--व्यवसायात्मिका बुद्धि। व्यवसायात्मिका बुद्धि एक क्यों होती है? कारण कि इसमें सांसारिक वस्तु, पदार्थ आदिकी कामनाका त्याग होता है। यह त्याग एक हीहोता है, चाहे धनकी कामनाका त्याग करें चाहे मान-बड़ाईकी कामनाका त्याग करें। परन्तु ग्रहण करनेमें अनेक चीजें होती है क्योंकि एकएक चीज अनेक तरहकी होती है; जैसे--एक ही मिठाई अनेक तरहकी होती है। अतः इन चीजोँकी कामनाएं भी अनेक, अनन्त होती हैं।
।।2.41।।नेहेति। इह (S K omit इह) अस्यां बुद्धौ अतिक्रमेण अपराधेन प्रमादेन नाशो न भवति प्रमादस्याभावात्। यथा च (S N तथा च) परिमितेन श्रीखण्डकणेन ज्वालायमानोऽपि तैलकटाहः सद्यः शीतीभवति (N शीतो भवति) एवं अनया स्वल्पयापि (S omits अपि) योगबुद्ध्या महाभयं संसाररूपं विनश्यति।
।।2.41।। इह  शास्त्रीये सर्वस्मिन् कर्मणि  व्यवसायात्मिका बुद्धिः एका।  मुमुक्षुणा अनुष्ठेये कर्मणि बुद्धिः व्यवसायात्मिका बुद्धिः। व्यवसायो निश्चयः सा हि बुद्धिः आत्मयाथात्म्यनिश्चयपूर्विका। काम्यकर्मविषया तु बुद्धिः अव्यवसायात्मिका। तत्र हि कामाधिकारे देहाद् अतिरिक्तात्मास्तित्वमात्रम् अपेक्षितम् न आत्मस्वरूपयाथात्म्यनिश्चयः स्वरूपयाथात्म्यानिश्चये अपि स्वर्गादिफलार्थित्वतत्साधनानुष्ठान तत्फलानुभवानां संभवाद् अविरोधाच्च।सा इयं व्यवसायात्मिका बुद्धिः एकफलसाधनविषयतया एका। एकस्मै मोक्षफलाय हि मुमुक्षोः सर्वाणि कर्माणि विधीयन्ते।अतः शास्त्रार्थस्य एकत्वात् सर्वकर्मविषया बुद्धिः एका एव। यथा एकफलसाधनतया आग्नेयादीनां षण्णां सेतिकर्तव्यताकानाम् एकशास्त्रार्थतया तद्विषया बुद्धिः एका तद्वद् इत्यर्थः। अव्यवसायिनां  तु स्वर्गपुत्रपश्वन्नादिफलसाधनकर्माधिकृतानां  बुद्धयः  फलानन्त्याद्  अनन्ताः  तत्रापि  बहुशाखाः।  एकस्मै फलाय चोदिते अपि दर्शपूर्णमासादौ कर्मणिआयुराशास्ते सुप्रजस्त्वमाशास्ते इत्याद्यवगतावान्तरफलभेदेन बहुशाखात्वं च विद्यते। अतः अव्यवसायिनां बुद्धयः अनन्ता बहुशाखाश्च।एतद् उक्तं भवति नित्येषु नैमित्तिकेषु कर्मसु प्रधानफलानि अवान्तरफलानि च यानि श्रूयमाणानि तानि सर्वाणि परित्यज्य मोक्षैकफलतया सर्वाणि कर्माणि एकशास्त्रार्थतया अनुष्ठेयानि। काम्यानि च स्ववर्णाश्रमोचितानि तत्तत्फलानि परित्यज्य मोक्षफलसाधनतया नित्यनैमित्तिकैः एकीकृत्य यथाबलम् अनुष्ठेयानि इति।अथ काम्यकर्माधिकृतान् निन्दति
।।2.41।।ननु बुद्धिद्वयातिरिक्तानि बुद्ध्यन्तराण्यपि काणादादिशास्त्रप्रसिद्धानि विद्यन्ते। तथाच कथं बुद्धिद्वयमेव भगवतोपदिष्टमिति तत्राह  येयमिति।  सैवैका प्रमाणभूता बुद्धिरित्याह  व्यवसायात्मिकेति।  बुद्ध्यन्तराण्यविवेकमूलान्यप्रमाणानीत्याह  बहुशाखा हीति।  व्यवसायात्मिकाया बुद्धेः श्रेयोमार्गे प्रवृत्ताया विवक्षितं फलमाह  इतरेति।  प्रकृतबुद्धिद्वयापेक्षयेतरा विपरीताश्चाप्रमाणजनिताः स्वकपोलकल्पिता या बुद्धयस्तासां शाखाभेदो यः संसारहेतुस्तस्य बाधिकेति यावत्। तत्र हेतुः  सम्यगिति।  निर्दोषवेदवाक्यसमुत्थत्वादुक्तमुपायोपेयभूतं बुद्धिद्वयं साक्षात्पारम्पर्याभ्यां संसारहेतुबाधकमित्यर्थः। उत्तरार्धं व्याचष्टे  याः पुनरिति।  प्रकृतबुद्धिद्वयापेक्षयार्थान्तरत्वमितरत्वम्। तासामनर्थहेतुत्वं दर्शयति  यासामिति।  अप्रामाणिकबुद्धीनां प्रसक्तानुप्रसक्त्या जायमानानामतीव बुद्धिपरिणामविशेषाः शाखाभेदास्तेषां प्रचारः प्रवृत्तिस्तद्वशादित्येतत् अनन्तत्वं सम्यग्ज्ञानमन्तरेण निवृत्तिविरहितत्वम् अपरत्वं कार्यस्यैव सतो वस्तुभूतकारणविरहितत्वम्। अनुपरतत्वं स्फोरयति  नित्येति।  कथं तर्हि तन्निवृत्त्या पुरुषार्थपरिसमाप्तिस्तत्राह  प्रमाणेति।  अन्वयव्यतिरेकाख्येनानुमानेनागमेन च पदार्थपरिशोधनपरिनिष्पन्ना विवेकात्मिका या बुद्धिस्तां निमित्तीकृत्य समुत्पन्नसम्यग्बोधानुरोधात्प्रकृता विपरीतबुद्धयो व्यावर्तन्ते तास्वसंख्यातासु व्यावृत्तासु सतीषु निरालम्बनतया संसारोऽपि स्थातुमशक्नुवन्नुपरतो भवतीत्यर्थः। याः पुनरित्युपक्रान्तास्तत्त्वज्ञानापनोद्याः संसारास्पदीभूता विपरीतबुद्धीरनुक्रामति   ता बुद्धय इति।  बुद्धीनां वृक्षस्येव कुतो बहुशाखित्वं तत्राह  बहुभेदा इत्येतदिति।  एकैकां बुद्धिं प्रति शाखाभेदोऽवान्तरविशेषस्तेन बुद्धीनामसंख्यत्वं प्रख्यातमित्याह  प्रतिशाखेति।  बुद्धीनामानन्त्यप्रसिद्धिप्रद्योतनार्थो हिशब्दः। सम्यग्ज्ञानवतां यथोक्तबुद्धिभेदभाक्त्वमप्रसिद्धमित्याशङ्क्य प्रत्याह  केषामित्यादिना।
।।2.41।।कुत इत्यपेक्षायामाह व्यवसायेति। इह योगे बुद्धिरेका व्यवसायात्मिका। अफलार्थं भगवदर्थं वा कर्म किञ्चित्कर्त्तव्यमिति निश्चयरूपा बुद्धिरेकविषयत्वादेका। साङ्ख्ये तु त्रिपुटिशून्या वृत्तिः। काम्यकर्मतोऽपि भेदमाह अव्यवसायिनां काम्यकर्माभिनिविष्टानां तु बुद्धयो बहुशाखा अनन्ताश्चेति हि प्रसिद्धम्। वक्ष्यति चासुरसम्पत्प्रसङ्गे यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्ये 16।15 इत्यादि।
।।2.41।।एतदुपपादनाय तमेतमितिवाक्यविहितानामेकार्थत्वमाह हे कुरुनन्दन इह श्रेयोमार्गेतमेतम् इतिवाक्ये वा व्यवसायात्मिका आत्मतत्त्वनिश्चयात्मिका बुद्धिरेकैव चतुर्णामाश्रमाणां साध्या विवक्षितावेदानुवचनेन इत्यादौ तृतीयाविभक्त्या प्रत्येकं निरपेक्षसाधनत्वबोधनात्। भिन्नार्थत्वे हि समुच्चयः स्यात्। एकार्थत्वेऽपि दर्शपूर्णमासाभ्यामितिवद्वन्द्वसमासेनयदग्नये च प्रजापतये च इतिवच्चशब्देन वा न तथात्र किंचित्प्रमाणमस्तीत्यर्थः। सांख्यविषया योगविषया च बुद्धिरेकफलत्वादेका व्यवसायात्मिका सर्वविपरीतबुद्धीनां बाधिका निर्दोषवेदवाक्यसमुत्थत्वादितरास्त्वव्यवसायिनां बुद्धयो बाध्या इत्यर्थ इति भाष्यकृतः। अन्ये तु परमेश्वराराधनेनैव संसारं तरिष्यामीति निश्चयात्मिका एकनिष्ठैव बुद्धिरिह कर्मयोगे भवतीत्यर्थमाहुः। सर्वथापि तु ज्ञानकाण्डानुसारेणस्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् इत्युपपन्नम् कर्मकाण्डे पुनर्बहुशाखा अनेकभेदाः कामानामनेकभेदत्वात् अनन्ताश्च कर्मफलगुणफलादिप्रकारोपशाखाभेदात् बुद्धयो भवन्त्यव्यवसायिनाम्। तत्फलकामानां बुद्धीनामानन्त्यप्रसिद्धिद्योतनार्थो हिशब्दः। अतः काम्यकर्मापेक्षया महद्वैलक्षण्यं शुद्ध्यर्थकर्मणामित्यभिप्रायः।
।।2.41।।कुत इत्यपेक्षायामुभयोर्वैषम्यमाह  व्यवसायेति।  इहेश्वराराधनलक्षणे कर्मयोगे व्यवसायात्मिका परमेश्वरभक्त्यैव ध्रुवं तरिष्यामीति निश्चयात्मिका एकैवैकनिष्ठैव बुद्धिर्भवति। अव्यवसायिनां तु बहुर्मुखानां कामिनां कामानामानन्त्यादनन्ताः तत्रापि कर्मगुणफलादिभेदाद्बहुशाखाश्च बुद्धयो भवन्ति। ईश्वराराधनार्थं हि नित्यनैमित्तिकं कर्म किंचिदङ्गवैगुण्येनापि न नश्यति। यथा शक्नुयात्तथा कुर्यादिति हि तद्विधीयते। नच वैगुण्यम्। ईश्वरोद्देशेनैव वैगुण्योपरमात्। नतु तथा काम्यं कर्मअग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामःदध्नेन्द्रियकामो जुहुयात् इति अतो महद्वैषम्यमिति भावः।
।।2.41।।एवं माहात्म्याभिधानव्याजेनास्य कर्मणः सर्वकर्मभ्यो वैषम्यमुक्तम् अथोपदेष्टव्यतया प्रतिज्ञातां तद्विषयबुद्धिं काम्यकर्मविषयबुद्धिभ्यो हेतुफलवैषम्येण विशिंषन्नुपदिशतीत्याह काम्येति।इह इति सङ्गृहीतमाह शास्त्रीये सर्वस्मिन् कर्मणीति। अविहिताप्रतिषिद्धलौकिककर्मणां भिन्नफलत्वात्तद्विषयेऽप्यैक्यं मा भूदित्यत उक्तंशास्त्रीय इति। यद्वा सङ्ग्राहकोपाधिकथनमिदम्। प्रस्तुतयुद्धादिमात्रव्युदासायसर्वस्मिन्निति। नित्यनैमित्तिककाम्यतदवान्तरविधाभेदसङ्ग्रहः। नानाकर्मविषयनानाबुद्धेः कथमेकत्वमिति शङ्कायां विशेषणप्रकरणसामर्थ्यफलितेन विषयेण बुद्धिं विशिनष्टि मुमुक्षुणेति। व्यवसायशब्देन कृत्यध्यवसायभ्रमं निरस्यति निश्चय इति। पौनरुक्त्यव्युदासाय विषयं समासांशोत्तरपदलक्ष्यं च दर्शयन् मुमुक्षुणेत्युक्तमुपपादयति सा हीति।व्यवसायात्मिका इत्येतद्व्यवच्छेद्यमाह काम्येति।ननु देहातिरिक्तपारलौकिकात्मज्ञानमन्तरेण कथं देहान्तरानुभाव्यस्वर्गादिसाधनयागादिमहाप्रयासानुष्ठानमित्यत्राह तत्र हीति। कामनयाऽधिक्रियत इति वा कामेनाधिकारो यत्रेति वा कामाधिकारः काम्यकर्म तदधिकारित्वं वा। यद्वा तच्छास्त्रम्। अधिकारश्च मदभिलषितसाधनत्वान्मदर्थमिदं कर्मेत्यभिमानः। देहातिरिक्तात्मशब्देन देहान्तरपरिग्रहार्हस्थिरत्वमभिप्रेतम् अन्यथाऽतिरेकमात्रनिर्णयेऽपि देहसमकालनाशित्वभ्रमे सति पारलौकिककाम्यकर्माननुष्ठानप्रसङ्गात्। मात्रशब्दाभिप्रेतं विवृणोति नात्मेति। आत्मस्वरूपयाथात्म्यं चात्र नित्यत्वस्वयम्प्रकाशत्वानन्दत्वभगवत्प्रकारत्वस्वाभाविकापहतपाप्मत्वादिरूपमभिप्रेतम्। ननु देहोत्तरकालमनुभाव्ययोः स्वर्गापवर्गयोः क्वचिदात्मास्तित्वज्ञानमात्रमपेक्षितम्। क्वचित्तद्याथात्म्यनिश्चय इति कुतोऽयं विवेक इत्यत्राह स्वरूपेति। अयमभिप्रायः कामाधिकारे याथात्म्यनिश्चयोऽनुपपत्त्या वा शास्त्रबलाद्वाऽपेक्ष्यते। पूर्वत्रापि याथात्म्यनिश्चयाभावे किं स्वर्गादिफलेच्छैव न स्यात् उत तत्साधनानुष्ठानम् उत तत्फलानुभवः। न प्रथमः सुखरूपतया प्रमाणसिद्धेषु स्वरसत इच्छासिद्धेः। न द्वितीयः तदर्थिनस्तदनुकूलकरणकलेवरादिमतः स्वस्य तत्फलकालेऽप्यवस्थानं निश्चिन्वतःपामरकृष्यादिन्यायेनानुष्ठानोपपत्तेः। न तृतीयः अविकलानुष्टितोपायस्य फलोत्पत्तेरन्यनिरपेक्षत्वात् अनुभवार्थमेवोत्पन्नतया च तदनुभवसिद्धौ सार्वभौमादिभोगेष्विव स्वर्गादिभोगेष्वनुभववेलायामात्मयाथात्म्यानुभवनैरपेक्ष्यात्। तदेतदखिलमुक्तंसम्भवादित्यन्तेन। अनुपपत्त्यभावोऽत्र सम्भवः। नात्र शास्त्रबलादिति वक्तुं युक्तम् शास्त्रमपि दृष्टार्थं वा विदधीत अदृष्टार्थं वा। अत्र केवलदृष्टार्थत्वं दत्तोत्तरम्। अन्यत्रापि न तावद्यागादिकरणशरीरनिर्वर्तकत्वं तदनालोचनात्। नापि कर्तुरात्मनः संस्कारतयाऽनुप्रवेशः कामाधिकारप्रकरणेषु प्रोक्षणादिविधिवत्आत्मानं तत्त्वतो जानीयात् इति विध्यभावाद्वेदान्तविहितज्ञानस्यातिशयितफलान्तरार्थत्वादिना कर्मशेषत्वाभावस्य शारीरके समर्थितत्वात्। आत्मतत्त्वानभिज्ञानामपि च स्वर्गादिफलं प्रतिपादयन्ति हि प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म। एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढाः मुं.उ.1।2।7 इत्याद्याः श्रुतयः।यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः
।।2.41।।किञ्च। फलार्थं कर्मकर्तृ़णामनेकत्र बुद्धिर्भवति मदाज्ञात्वेन कर्तृ़णां मन्निष्ठत्वेनैकैव बुद्धिरिति भ्रमान्न वैपरीत्यशङ्केत्याह व्यवसायात्मिकेति। हे कुरुनन्दन सत्कुलोत्पन्न इह भक्तिमार्गे व्यवसायात्मिका भगवदाज्ञयैव करिष्यामीति रूपैकैव भवति। अव्यवसायिनां बहिर्मुखानामनिश्चितहृदयानां बुद्धयोऽनन्ताश्च भवन्ति फलार्थं बहुशाखाश्च भवन्ति। तत्र साङ्गत्वाभावात् प्रत्यवायादिसम्भावना स्यादेव भक्तानां तु साङ्गत्वान्नैव वैफल्यप्रत्यवायादिसम्भावना। अत एव भगवद्वाक्यम् मत्कर्म कुर्वतां पुंसां काललोपो भवेद्यदि। तत्कर्म तस्य कुर्वन्ति तिस्रः कोट्यो महर्षयः इति।
।।2.41।।नन्वेवं सांख्ययोगयोर्महाभयात्त्राणहेतुत्वं तुल्यं चेत्कोऽनयोर्विशेष इत्याशङ्क्य सांख्यानां पातशङ्का नास्ति योगिनां तु यावद्विदेहकैवल्यं पातशङ्कास्तीत्याह  व्यवसायात्मिकेति।  व्यवसायस्तत्त्वनिश्चयस्तदात्मिका तदाकारा बुद्धिरन्तःकरणवृत्तिःअहं ब्रह्मास्मि इति वाक्यजन्या ब्रह्माकारान्तःकरणवृत्तिर्ब्रह्मविद्याभिधाना समस्तवृत्त्यन्तरबाधेन सम्यगभ्युदिता एका एकैव।सकृद्विभातो ह्येष ब्रह्मलोकः इति श्रुतेः। ब्रह्मैव लोको ब्रह्मलोक इह ब्रह्मैव। नहि सकृज्ज्ञाते    ब्रह्मणि ज्ञातव्यं कर्तव्यं वा किञ्चिदवशिष्यते कृतकृत्यत्वाद्ब्रह्मविदोऽतोऽस्य पातशङ्का नास्ति। अव्यवसायिनामज्ञानिनां तु बुद्धयोऽनन्ताः ताश्च प्रत्येकं बहुशाखा इति इदमेव मम श्रेय इति निश्चयस्य दुर्लभत्वात्कदाचिदश्रेयस्यपि श्रेयोबुद्धौ सत्यां पातशङ्कास्तीति महांस्तयोर्विशेषे इति भावः।
।।2.41।।   इह मोक्षमार्गे व्यवसायात्मिका निश्चयात्मिकोपायोपेयबुद्धिरेक सभ्यक्प्रमाणजनितत्वादितविपरीतबुद्धिशाखाभेदस्य बाधिका। येतु व्यवसायात्मिका परमेश्वरभक्त्यैव तरिष्यामिति निश्चयात्मिकेति वर्णयन्ति तद्बुद्धेः स्वरुपं निरुपितं प्रमाणजनितत्वादितिवदद्भिर्भाष्यकृद्भिः सा दृढेत्युक्तमिति न विरोधः। अव्यवसायिनां प्रमाणजनितविवेकबुद्धिरहितानां कामिनां बुद्धयो बहुशाखाः बह्व्योऽनुपरतसंसारप्रदाः शाखा यासां ताः प्रतिशाखाभेदेन ह्यनन्ताश्च कामनानामानन्त्यात्। यत्तु नन्वेवं सांख्ययोगयोर्महाभयात्राणहेतुत्वं तुल्यं चेत्कोऽनयोर्विशेष इत्याशङ्क्य सांख्यानां पातशङ्का नास्ति योगिनां तु यावद्विदेहकैवल्यं पातशङ्कास्तीत्याह व्यवसायात्मिकेति तच्चिन्त्यम्। योगस्तवनपरस्य ग्रन्थस्य तन्निन्दापरत्वेनोत्यापनस्यानुचितत्वात् कामात्मान इत्यादिना सकामस्य। निन्दाप्रतीतेः स्पष्टत्वाच्च। तव तूत्तमवंशोद्भवस्य व्यवसायात्मिकैव बुद्धिर्युक्तेति सूचयन्नाह कुरुनन्दनेति।
2.41 व्यवसायात्मिका onepointed? बुद्धिः determination? एका single? इह here? कुरुनन्दन O joy of the Kurus? बहुशाखाः manybranched? हि indeed? अनन्ताः endless? च and? बुद्धयः thoughts? अव्यवसायिनाम् of the irresoulte.Commentary Here? in this path to Bliss there is only one thought of a resolute nature there is singleminded determination. This single thought arises from the right source of knowledge. The student of Yoga collects all the dissipated rays of the mind. He gathers all of them through discrimination? dispassion and concentration. He is free from wavering or vacillation of the mind.The worldlyminded man who is suck in the mire of Samsara has no singleminded determination. He entertains countless thoughts. His mind is always unsteady and vacillating.If thoughts cease? Samsara also ceases. Mind generates endless thoughts and this world comes into being. Thoughts? and names and forms are inseparable. If the thoughts are controlled? the mind is controlled and the Yogi is liberated.
2.41 Here, O joy of the Kurus, there is but a single one-pointed determination; many-branched and endless are the thoughts of the irresolute.
2.41 By its means, the straying intellect becomes steadied in the contemplation of one object only; whereas the minds of the irresolute stray into bypaths innumerable.
2.41 O scion of the Kuru dynasty, in this there is a single, one-pointed conviction. The thoughts of the irresolute ones have many branches indeed, and are innumerable.
2.41 Kuru-nandana, O scion of the Kuru dynasty; iha, is this path to Liberation; there is only eka, a single; vyavasayatmika, one-pointed; buddhih, conviction, which has been spoken of in the Yoga of Knowledge and which has the characteristics going to be spoken of in (Karma-) yoga. It is resolute by nature and annuls the numerous branches of the other opposite thoughts, since it originates from the right source of knowledge. [The right source of knowledge, viz the Vedic texts, which are above criticism.] Those again, which are the other buddhayah, thoughts; they are bahu-sakhah, possessed of numerous branches, i.e. possessed of numerous variations. Owing to the influence of their many branches the worldly state becomes endless, limitless, unceasing, ever-growing and extensive. [Endless, because it does not cease till the rixe of full enlightenment; limitless, because the worldly state, which is an effect, springs from an unreal source.] But even the worldly state ceases with the cessation of the infinite branches of thoughts, under the influence of discriminating wisdom arising from the valid source of knowledge. (And those thoughts are) hi, indeed; anantah, innumerable under every branch. Whose thoughts? Avyavasayinam, of the irresolute ones, i.e. of those who are devoid of discriminating wisdom arising from the right source of knowledg.
2.41. O source of joy to the Kurus ! The knowledge in the form of determination is just one; [but] the knowledge (thoughts) of those who do not have determination, has many branches and has no end.
2.41 Vyavasayatmika etc. The knowledge in the form of determination is just one and natural in the case of everyone; but it suffers manifoldedness according to the objects to be determined. Therefore -
2.41 Here, i.e., in every ritual sanctioned by the scriptures, the Buddhi or disposition of mind marked by resolution, is single. The Buddhi marked by resolution is the Buddhi concerned with acts which must be performed by one desirous of release (and not any kind of work). The term 'Vyavasaya' menas unshakable conviction: this Buddhi (disposition of mind) comes out of prior determination about the true nature of the self. But the Buddhi concerning the performance of rituals of fulfill certain desires, is marked by irresolution; because here only this much knowledge of the self is sufficient - 'the self (as an entity) exists differently from the body.' Such a general understanding is sufficient to alify for performing acts giving fulfilment of certain desires. It does not reire any definite knowledge about the true nature of the self. For, even if there is no such knowledge, desires for heaven etc., can arise, the means for their attainment can be adopted, and the experience of those fruits can take place. For this reason there is no contradiction in the teaching of the scriptures. [The contradiction negated here is how can the same scriptural acts produce different results - fulfilment of desires and liberation. The difference in the disposition of the mind accouts of it.] The Buddhi (mental disposition) marked by resolution has a single aim, because it relates to the attainment of a single fruit. For, as far as one desiring release is concerned, all acts are enjoined only for the accomplishment of that single fruit. Therefore, since the purpose of the scriptures here is one only (i.e., liberation), the Buddhi regarding all rituals taught in the scriptures too is only one, as far as liberation-seekers are concerned. For example, the set of six sacrifices, beginning with Agneya with all their subsidiary processes (though enjoined in different passages) forms the subject of a single injunction, as they are all for the attainment of a single fruit. Conseently the Buddhi concerning these is one only. The meaning of the verse under discussion must be construed in the same manner. But the Buddhi of the irresolute ones who are engaged in rituals for winning such fruits as heaven, sons, cattle, food etc., are endless, frutis being endless. In rituals like Darsapurnamasa (new moon and full moon sacrifice), even though attainment of a single fruit (heaven) is enjoined, there accrues to these the character of having many branches on account of the mention of many secondary fruits as evidenced by such passages as, 'He desires a long life.' Therefore the Buddhi of irresolute ones has many branches and are endless. The purport is: In performing obligatory and occasional rituals, all fruits, primary and secondary, promised in the scriptures, should be abandoned, with the idea that release or salvation is the only purpose of all scripture-ordained rituals. These rituals should be performed without any thought of selfish gains. In addition, acts motivated by desires (Kamya-karmas) also should be performed according to one's own capacity, after abandoning all desire for fruits and with the conviction that they also, when performed in that way, form the means for attainment of release. They should be looked upon as eal to obligatory and occasional rites suited to one's own station and stage in life. Sri Krsna condemns those who perform acts for the attainment of objects of desire:
2.41 In this (Karma Yoga), O Arjuna, the resolute mind is one-pointed; the minds of the irresolute are many-branched and endless.
।।2.41।।जो यह बुद्धि सांख्यके विषयमें कही गयी है और जो योगके विषयमें अब कही जानेवाली है वह हे कुरुनन्दन इस कल्याणमार्गमें व्यवसायात्मिका निश्चय स्वभाववाली बुद्धि एक ही है यानि यथार्थ प्रमाणजनित होनेके कारण अन्य विपरीत बुद्धियोंके शाखाभेदोंकी बाधक है। जो इतर ( दूसरी ) बुद्धियाँ हैं जिनके शाखाभेदके विस्तारसे संसार अनन्त अपार और अनुपरत होता है अर्थात् निरन्तर अत्यन्त विस्तृत होता है उन अनन्त भेदोंवाली बुद्धियोंका प्रमाणजनित विवेकबुद्धिके बलसे अन्त हो जानेपर संसारका भी अन्त हो जाता है। परंतु जो अव्यवसायी हैं जो प्रमाणजनित विवेकबुद्धिसे रहित हैं उनकी वे बुद्धियाँ बहुत शाखा अर्थात् बहुत भेदोंवाली और प्रतिशाखाभेदसे अनन्त होती हैं।
।।2.41।।  व्यवसायात्मिका  निश्चयस्वभावा  एका  एव  बुद्धिः  इतरविपरीतबुद्धिशाखाभेदस्य बाधिका सम्यक्प्रमाणजनितत्वात् इह श्रेयोमार्गे हे  कुरुनन्दन । याः पुनः इतरा विपरीतबुद्धयः यासां शाखाभेदप्रचारवशात् अनन्तः अपारः अनुपरतः संसारो नित्यप्रततो विस्तीर्णो भवति प्रमाणजनितविवेकबुद्धिनिमित्तवशाच्च उपरतास्वनन्तभेदबुद्धिषु संसारोऽप्युपरमते ता बुद्धयः  बहुशाखाः  बह्व्यः शाखाः यासां ताः बहुशाखाः बहुभेदा इत्येतत्। प्रतिशाखाभेदेन  हि अनन्ताश्च बुद्धयः । केषाम्  अव्यवसायिनां  प्रमाणजनितविवेकबुद्धिरहितानामित्यर्थः।।येषां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्नास्ति ते
।।2.41।।ननुव्यवसायात्मिका इति श्लोकेन प्रतिज्ञातो योग उच्यते नापिबुद्ध्या युक्तः 2।39 इत्यादिवत्प्रशंसा तत्किमर्थोऽयं इत्यत आह  योग  इति। ज्ञानोपायविषयामिमां वक्ष्यमाणां वाचं शृणु श्रुत्वा तत्र निष्ठां कुर्वित्युक्तमित्यर्थः। श्रवणमात्रस्य विधिना विनाऽसम्भवात्। बह्व्यो हि बुद्धयो ज्ञानोपायविषया वाचः परस्परविरुद्धाः सन्ति। कथं मतभेदात् एकमतमवलम्बमानाः किञ्चिज्ज्ञानसाधनमाचक्षते अपरं मतमाश्रितास्तत्प्रतिषेधेनान्यदाहुः। तत्र चेदमेव तत्त्वं नेदमिति विनिगमकं नास्ति। तत्तस्मात्कथमेकत्र त्वदीयायामेव वाचि निष्ठां विश्वासं करोमि। ननु सर्वाण्यपि मतानि व्यवसायात्मकान्येव स्वे स्वेऽर्थे सर्वेषां सन्देहाभावात्। अतः कथमुच्यते व्यवसायात्मिका अव्यवसायिनां बुद्धय इति तत्राह  सम्य गिति। युक्तिरिति प्रमाणसामान्यमुच्यते। प्रमाणत्वेन निर्णीतत्वमेवात्र व्यवसायशब्दार्थः न निश्चयमात्रमित्यर्थः। प्रामाणिकमेव मतं ग्राह्यं तत्र न कदाचिद्विप्रतिपत्तिः यतस्तवैकत्र निष्ठाभावः अप्रामाणिकेषु विद्यमानाऽपि विप्रतिपत्तिः किं करिष्यति इति भावः।
।।2.41।।योग इमां बुद्धिं शृण्वित्युक्तम् बह्वयो हि बुद्धयो मतभेदात् तत्कथमेकत्र निष्ठां करोमि इत्यत आह व्यवसायात्मिकेति। सम्यग्युक्तिनिर्णीतानां मतानामैक्यमेवेत्यर्थः।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41।।
ব্যবসাযাত্মিকা বুদ্ধিরেকেহ কুরুনন্দন৷ বহুশাখা হ্যনন্তাশ্চ বুদ্ধযোব্যবসাযিনাম্৷৷2.41৷৷
ব্যবসাযাত্মিকা বুদ্ধিরেকেহ কুরুনন্দন৷ বহুশাখা হ্যনন্তাশ্চ বুদ্ধযোব্যবসাযিনাম্৷৷2.41৷৷
વ્યવસાયાત્મિકા બુદ્ધિરેકેહ કુરુનન્દન। બહુશાખા હ્યનન્તાશ્ચ બુદ્ધયોવ્યવસાયિનામ્।।2.41।।
ਵ੍ਯਵਸਾਯਾਤ੍ਮਿਕਾ ਬੁਦ੍ਧਿਰੇਕੇਹ ਕੁਰੁਨਨ੍ਦਨ। ਬਹੁਸ਼ਾਖਾ ਹ੍ਯਨਨ੍ਤਾਸ਼੍ਚ ਬੁਦ੍ਧਯੋਵ੍ਯਵਸਾਯਿਨਾਮ੍।।2.41।।
ವ್ಯವಸಾಯಾತ್ಮಿಕಾ ಬುದ್ಧಿರೇಕೇಹ ಕುರುನನ್ದನ. ಬಹುಶಾಖಾ ಹ್ಯನನ್ತಾಶ್ಚ ಬುದ್ಧಯೋವ್ಯವಸಾಯಿನಾಮ್৷৷2.41৷৷
വ്യവസായാത്മികാ ബുദ്ധിരേകേഹ കുരുനന്ദന. ബഹുശാഖാ ഹ്യനന്താശ്ച ബുദ്ധയോവ്യവസായിനാമ്৷৷2.41৷৷
ବ୍ଯବସାଯାତ୍ମିକା ବୁଦ୍ଧିରେକେହ କୁରୁନନ୍ଦନ| ବହୁଶାଖା ହ୍ଯନନ୍ତାଶ୍ଚ ବୁଦ୍ଧଯୋବ୍ଯବସାଯିନାମ୍||2.41||
vyavasāyātmikā buddhirēkēha kurunandana. bahuśākhā hyanantāśca buddhayō.vyavasāyinām৷৷2.41৷৷
வ்யவஸாயாத்மிகா புத்திரேகேஹ குருநந்தந. பஹுஷாகா ஹ்யநந்தாஷ்ச புத்தயோவ்யவஸாயிநாம்৷৷2.41৷৷
వ్యవసాయాత్మికా బుద్ధిరేకేహ కురునన్దన. బహుశాఖా హ్యనన్తాశ్చ బుద్ధయోవ్యవసాయినామ్৷৷2.41৷৷
2.42
2
42
।।2.42 -- 2.43।। हे पृथानन्दन ! जो कामनाओंमें तन्मय हो रहे हैं, स्वर्गको ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं, भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं - ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुतसी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है।
।।2.42।। हे पार्थ अविवेकी पुरुष वेदवाद में रमते हुये जो यह पुष्पिता (दिखावटी शोभा की) वाणी बोलते हैं? इससे (स्वर्ग से) बढ़कर और कुछ नहीं है।।।
।।2.42।। no commentary.
।।2.42।। व्याख्या-- 'कामात्मानः'-- वे कामनाओंमें इतने रचे-पचे रहते हैं कि वे कामनारूप ही बन जाते हैं। उनको अपनेमें और कामनामें भिन्नता ही नहीं दीखती। उनका तो यही भाव होता है कि कामनाके बिना आदमी जी नहीं सकता, कामनाके बिना कोई भी काम नहीं हो सकता, कामनाके बिना आदमी पत्थरकी जड हो जाता है ,उसको चेतना भी नहीं रहती। ऐसे भाववाले पुरुष  'कामात्मानः'  हैं। स्वयं तो नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती, पर कामना आती-जाती रहती है और घटती-बढ़ती है। स्वयं परमात्माका अंश है और कामना संसारके अंशको लेकर है। अतः स्वयं और कामना--ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं। परन्तु कामनामें रचे-पचे लोगोंको अपने स्वरूपका अलग भान ही नहीं होता।  'स्वर्गपराः'-- स्वर्गमें बढ़िया-से-बढ़िया दिव्य भोग मिलते हैं, इसलिये उनके लक्ष्यमें स्वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है और वे उसकी प्राप्तिमें ही रात-दिन लगे रहते हैं। यहाँ  'स्वर्गपराः'  पदसे उन मनुष्योंकी बात कही गयी है, जो वेदोंमें, शास्त्रोंमें वर्णित स्वर्गादि लोकोंमें आस्था रखनेवाले हैं।  वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः'-- वे वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं अर्थात् वेदोंका तात्पर्य वे केवल भोगोंमें और स्वर्गकी प्राप्तिमें मानते हैं ,इसलिये वे  'वेदवादरताः'  हैं। उनकी मान्यतामें यहाँके और स्वर्गके भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् उनकी दृष्टिमें भोगोंके सिवाय परमात्मा, तत्त्वज्ञान, मुक्ति, भगवत्प्रेम आदि कोई चीज है ही नहीं। अतः वे भोगोंमें ही रचे-पचे रहते हैं। भोग भोगना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है।  'यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः'-- जिनमें सत्-असत्, नित्य-अनित्य, अविनाशी-विनाशीका, विवेक नहीं है, ऐसे अविवेकी मनुष्य वेदोंकी जिस वाणीमें संसार और भोगोंका वर्णन है, उस पुष्पित वाणीको कहा करते हैं। यहाँ  'पुष्पिताम्'  कहनेका तात्पर्य है कि भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाली वाणी केवल फूल-पत्ती ही है, फल नहीं है। तृप्ति फलसे ही होती है, फूल-पत्तीकी शोभासे नहीं। वह वाणी स्थायी फल देनेवाली नहीं है। उस वाणीका जो फल--स्वर्गादिका भोग है, वह केवल देखनेमें ही सुन्दर दीखता है, उसमें स्थायीपना नहीं है। 'जन्मकर्मफलप्रदाम्'-- वह पुष्पित वाणी जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है; क्योंकि उसमें सांसारिक भोगोंको ही महत्व दिया गया है। उन भोगोंका राग ही आगे जन्म होनेमें कारण है (गीता 13। 21)।  'क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति'-- वह पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये जिन सकाम अनुष्ठानोंका वर्णन करती है, उनमें क्रियाओंकी बहुलता रहती है अर्थात् उन अनुष्ठानोंमें अनेक तरहकी विधियाँ होती हैं, अनेक तरहकी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, अनेक तरहके पदार्थोंकी जरूरत पड़ती है एवं शरीर आदिमें परिश्रम भी अधिक होता है (गीता 18। 24)।
।।2.42।।न चैषा बुद्धिरपूर्वानीयते। किं तर्हिव्यवसायात्मिकेति। व्यवसायात्मिका सर्वस्यैकैव (S सर्वस्यैव) सहजा (N omits सहजा) धीः निश्चेतव्यवशात् तु बहुत्वं गच्छति।
।।2.42।। याम् इमां पुष्पितां  पुष्पमात्रफलाम् आपातरमणीयां  वाचम् अविपश्चितः  अल्पज्ञा भोगैश्वर्यगतिं प्रति वर्तमानां प्रवदन्ति  वेदवादरताः  वेदेषु ये स्वर्गादिफलवादाः तेषु सक्ताः  न अन्यद् अस्ति इति   वादिनः  तत्सङ्गातिरेकेण स्वर्गा देः अधिकं फलं न अन्यद् अस्ति इति वदन्तः।  कामात्मानः  कामप्रवणमनसः  स्वर्गपराः  स्वर्गपरायणाः स्वर्गादिफलावसाने पुन र्जन्मकर्मा ख्य फलप्रदां क्रियाविशेषबहुलां  तत्त्वज्ञानरहिततया क्रियाविशेषप्रचुरां तेषां  भोगैश्वर्यगतिं प्रति  वर्तमानां याम् इमां वाचं ये प्रवदन्ति इति सम्बन्धः।
।।2.42।।यदि सांख्ययोगरूपैकैव प्रमाणभूता बुद्धिस्तर्हि सैव सर्वेषां चित्ते किमिति स्थिरा न भवति तत्राह  येषामिति।  ते यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्ति तयापहृतचेतसां कामिनाम्। कामवशान्निश्चयात्मिका बुद्धिर्न प्रायः स्थिरा भवतीत्याह  ते। यामिति।  इमामित्यध्ययनविध्युपात्तत्वेन प्रसिद्धत्वं कर्मकाण्डरूपाया वाचो विवक्ष्यते। वक्ष्यमाणत्वं क्रियाविशेषबहुलामित्यादौ द्रष्टव्यम्। किंशुको हि पुष्पशाली शोभमानोऽनुभूयते न पुरुषभोग्यफलभागी लक्ष्यते तथेयमपि कर्मकाण्डात्मिका श्रूयमाणदशायां रमणीया वागुपलभ्यते साध्यसाधनसंबन्धप्रतिभानान्न त्वेषा निरतिशयफलभागिनी भवति कर्मानुष्ठानफलस्यानित्यत्वादिति मत्वाह  पुष्पितामिति।  वाक्यत्वेन लक्ष्यतेऽर्थवत्त्वप्रतिभानाद्वस्तुतस्तु न वाक्यमर्थाभासत्वादित्याह  वाक्यलक्षणामिति।  प्रवक्तृ़णां वेदवाक्यतात्पर्यपरिज्ञानाभावं सूचयति  अविपश्चित इति।  वेदवादा वेदवाक्यानि तानि च बहूनामर्थवादानां फलानां साधनानां च विधिशेषाणां प्रकाशकानि तेषु रतिरासक्तिस्तन्निष्ठत्वं तद्वत्त्वमपि तेषां विशेषणमित्याह  वेदवादेति।  कर्मकाण्डनिष्ठत्वं फलं कथयति  नान्यदिति।  ईश्वरो वा मोक्षो वा नास्तीत्येवं वदन्तो नास्तिकाः सन्तः सम्यग्ज्ञानवन्तो न भवन्तीत्यर्थः।
।।2.42।।अव्यवसायिनां बुद्धिभेदं निरूपयति यामिमामिति। जैमिनीया वेदवाचं सर्वकाण्डरूपां सर्वां पुष्पितां प्रकर्षेण कर्तृकर्मफलभावेन युक्तां वदन्ति। पुष्पस्थानीयेषु स्वर्गादिषु फलत्वबुद्ध्या रता भवन्तीत्यर्थः। यतो वेदवादेषु फलबोधककर्मवादेषु रताः। न च तत्सत्फलं वेदबोधितत्वादिति वाच्यम् अर्थान्तरेण वेदबोधितत्वात् तत्फलस्ययन्न दुःखेन सम्भिन्नं इत्यादिवाक्यात्. तथा चेयं वाक् पुष्पिता न फलिता। तेषु परं गन्धलोभितचेतस एव ते भ्रान्ता भवन्तीति हृदयम्।
।।2.42 2.44।।अव्यवसायिनामपि व्यवसायात्मिका बुद्धिः कुतो न भवति प्रमाणस्य तुल्यत्वादित्याशङ्क्य प्रतिबन्धकसद्भावान्न भवतीत्याह त्रिभिः यामिमां वाचं प्रवदन्ति तया वाचापहृतचेतसामविपश्चितां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवतीत्यन्वयः। इमामध्ययनविध्युपात्तत्वेन प्रसिद्धां पुष्पितां पुष्पितपलाशवदापातरमणीयांसाध्यसाधनसंबन्धप्रतिभानान्निरतिशयफलाभावाच्च। कुतो निरतिशयफलत्वाभावस्तत्राह जन्मकर्मफलप्रदां जन्म चापूर्वशरीरेन्द्रियादिसंबन्धलक्षणं तदधीनं च कर्म तत्तद्वर्णाश्रमाभिमाननिमित्तं तदधीनं च फलं पुत्रपशुस्वर्गादिलक्षणं विनश्वरं तानि प्रकर्षेण घटीयन्त्रवदविच्छेदेन ददातीति तथा ताम्। कुतएवमत आह भोगैश्वर्यगतिं प्रति क्रियाविशेषबहुलां अमृतपानोर्वशीविहारपारिजातपरिमलादिनिबन्धनो यो भोगस्तत्कारणं च यदैश्वर्यं देवादिस्वामित्वं तयोर्गतिं प्राप्तिं प्रति साधनभूता ये क्रियाविशेषा अग्निहोत्रदर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादयस्तैर्बहुलां विस्तृताम्। अतिबाहुल्येन भोगैश्वर्यसाधनक्रियाकलापप्रतिपादिकामिति यावत्। कर्मकाण्डस्य हि ज्ञानकाण्डापेक्षया सर्वत्रातिविस्तृतत्वं प्रसिद्धम्। एतादृशीं कर्मकाण्डलक्षणां वाचं प्रवदन्ति प्रकृष्टां परमार्थस्वर्गादिफलामभ्युपगच्छन्ति। के। येऽविपश्चितो विचारजन्यतात्पर्यपरिज्ञानशून्याः। अतएव वेदवादरताः वेदे ये सन्ति वादा अर्थवादाःअक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति इत्येवमादयस्तेष्वेव रता वेदार्थसत्यत्वेनैवमेवैतदिति मिथ्याविश्वासेन संतुष्टाः। हे पार्थ अतएव नान्यदस्तीतिवादिनः कर्मकाण्डापेक्षया नास्त्यन्यज्ज्ञानकाण्डं सर्वस्यापि वेदस्य कार्यपरत्वात् कर्मफलापेक्षया च नास्त्यन्यन्निरतिशयं ज्ञानफलमिति वदनशीलाः। महता प्रबन्धेन ज्ञानकाण्डविरुद्धार्थभाषिण इत्यर्थः। कुतो मोक्षद्वेषिणस्ते। यतः कामात्मानः काम्यमानविषयशताकुलचित्तत्वेन काममयाः। एवंसति मोक्षमपि कुतो न कामयन्ते। यतः स्वर्गपराः स्वर्ग एवोर्वश्याद्युपेतत्वेन पर उत्कृष्टो येषां ते तथा। स्वर्गातिरिक्तः पुरुषार्थो नास्तीति भ्राम्यन्तो विवेकवैराग्याभावान्मोक्षकथामपि सोढुमक्षमा इति यावत्। तेषां च पूर्वोक्तभोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानां क्षयित्वादिदोषादर्शनेन निविष्टान्तःकरणानां तया क्रियाविशेषबहुलया वाचापहृतमाच्छादितं चेतो विवेकज्ञानं येषां तथाभूतानामर्थवादाः स्तुत्यर्थास्तात्पर्यविषये प्रमाणान्तराबाधिते वेदस्य प्रामाण्यमिति सुप्रसिद्धमपि ज्ञातुमशक्तानां समाधावन्तःकरणे व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न विधीयते। न भवतीत्यर्थः। समाधिविषया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तेषां न भवतीति वा। अधिकरणे विषये वा सप्तम्यास्तुल्यत्वात्। विधीयत इति कर्मकर्तरि लकारः। समाधीयतेऽस्मिन्सर्वमिति व्युत्पत्त्या समाधिरन्तःकरणं वा परमात्मा वेति नाप्रसिद्धार्थकल्पनम्। अहं ब्रह्मेत्यवस्थानं समाधिस्तन्निमित्तं व्यवसायात्मिका बुद्धिर्नोत्पद्यत इति व्याख्याने तु रूढिरेवादृता। अयंभावःयद्यति काम्यान्यग्निहोत्रादीनि शुद्ध्यर्थेभ्यो न विशिष्यन्ते तथापि फलाभिसंधिदोषान्नाशयशुद्धिं संपादयन्ति। भोगानुगुणा तु शुद्धिर्न ज्ञानोपयोगिनी। एतदेव दर्शयितुं भोगैश्वर्यप्रसक्तानामिति पुनरुपात्तम्। फलाभिसन्धिभन्तरेण तु कृतानि कर्माणि ज्ञानोपयोगिनीं शुद्धिमादधतीति सिद्धं विपश्चिदविपश्चितोः फलवैलक्षण्यम्। विस्तरेण चैतदग्रे प्रतिपादयिष्यते।
।।2.42।।ननु कामिनोऽपिकष्टान्कामान्विहाय व्यवसायात्मिकामेव बुद्धिं किं न कुर्वन्ति तत्राह  यामिति।  पुष्पितां विषलतावदापातरमणीयां प्रकृष्टां परमार्थफलपरामेव वदन्ति वाचं स्वर्गादिफलश्रुतिं ये तेषां तया वाचापहृतचेतसां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न विधीयत इति तृतीयेनान्वयः। किमिति तथा वदन्ति। यतोऽविपश्चितो मूढाः। तत्र हेतुः। वेदे ये वादा अर्थवादाःअक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवतिअपाम सोमममृता अभूम इत्याद्यास्तेष्वेव रताः प्रीताः। अतएव अतः परमन्यदीश्वरतत्त्वं प्राप्यं नास्तीति वचनशीलाः।
2.42 इत्यादिना चानन्तरमेवोच्यते। अविदुषां धूमादिमार्गेण स्वर्गारोहणादिकं चोपनिषत्सु जोघुष्यते अतो विध्यभावादेवारादुपकारकत्वमपि निरस्तम्। तदेतदखिलमुक्तम् अविरोधाच्चेति। शास्त्रादिविरोधाभावादित्यर्थः। पक्षान्तरे च शास्त्रविरोधः स्यादिति भावः।मोक्षाधिकारे तु निखिलमिदमन्यथा। तथाहि यथावस्थितस्वरूपप्राप्तिरेव हि मोक्षपुरुषार्थः। स कथमनिश्चीयमान इष्येत कथं च तज्ज्ञानं तदिच्छामप्यन्तरेण तत्साधनमनुष्ठीयेत स्वरूपयाथात्म्यज्ञानस्य च विहिततया साधनानुप्रवेश इति कथं तद्व्यतिरेकेण साधनं पुष्कलमनुष्ठितं स्यात् कथं च स्वरूपाविर्भावलक्षणफलानुभवः स्वनिश्चयशून्यस्य स्यात् इति युक्तिविरोधः। चोदयन्ति च शास्त्राणि मोक्षस्य सर्वविधोपकारकतया आत्मतत्त्वज्ञानम्। अतस्तदभावे शास्त्रविरोधः स्यादिति। ननु व्यवसायात्मिकाया बुद्धेः किमिदमेकत्वम् न तावद्व्यक्त्यैक्यं तथाविधबुद्धिसन्तानासम्भवात्। नापि विषयैक्यादेकरूपतवम् अङ्गप्रधानाद्यवान्तरविषयभेदेन तदयोगात्। नापि समुदायगोचरत्वात्तद्योगः काम्यकर्मस्वपि तत्साम्यादित्यत उक्तंएकफलसाधनविषयतयेति। तदेवोपपादयति एकस्मा इति।सर्वाणीति नित्यनैमित्तिककाम्यानां सर्वेषां कर्मणां मुमुक्षुणाऽनुष्ठितानां साक्षात्परम्परया वा मोक्षसाधनोपकारित्वेन मोक्ष एक एव प्रधानं फलम्। सर्वमायुरेति छां.उ.4।11।2 इत्याद्यवान्तरफलाभिधानमपि तदुपयोगित्वमात्रादिति भावः।अस्तु सर्वेषामेकफलसाधनत्वम् तथापि क्रमभाविकर्मस्वरूपनानात्वे कथं तद्बुद्धेरैक्यं इत्यत्राह अत इति। एकफलसाधनतया सर्वेषां कर्मणामेकविधिगृहीतत्वेन एकशास्त्रार्थत्वात्तद्गोचरबुद्धिरवान्तरकर्मभेदसद्भावेऽप्येकशास्त्रार्थगोचरत्वादेकेत्युच्यत इत्यर्थः। पृथग्विधिसिद्धानां पृथग्वाक्यसिद्धेतिकर्तव्यताकानां कथमेकशास्त्रार्थत्वं इत्यत्रोक्तप्रकारेणैकत्वे दृष्टान्तमाह यथेति। आग्नेयादयो हि सेतिकर्तव्यताकाः ष़ड्यागा उत्पत्तिवाक्यैः पृथगुत्पन्नाः समुदायानुवादिवाक्यद्वयेन समुदायद्वयत्वमापन्नाः कामाधिकारे पुनरेकफलसाधनत्ववेषेणैकतया विधीयन्ते। तथा चैकशास्त्रार्थगोचरतया तद्बुद्धिरप्येकैव तद्वदित्यर्थः।अव्यवसायिनाम् इति हेतुपरमित्याह स्वर्गपुत्रेत्यादिना।फलानन्त्यादनन्ता इति। फलबाहुल्यात् स्वर्गाद्यनन्तफलभेदेन तत्साधनानामपि कर्मणां भिन्नशास्त्रार्थत्वात्तद्विष बुद्धयोऽपि यावत्फलभेदं भेदिन्य इत्यर्थः। अनन्तबहुशाखशब्दयोः प्रधानाप्रधानस्वरूपभेदप्रकारभेदविषयतया पौनरुक्त्यं परिहरन् कर्मभेदापादकत्वाभावेऽपि वैषम्यान्तरपरं बहुशाखशब्दं व्याचष्टे तत्रापीति। एकैकस्यैव बहुशाखत्वमुपपादयति एकस्मा इति। एकैकमपि हि काम्यकर्म प्रधानफलावच्छिन्नवेषेण एकपादपस्थानीयं विरोधिगुणफलाद्यवच्छिन्नं तत्तदंशभेदेन बहुशाखं भवति। मोक्षशास्त्रे तु सर्वायुःप्राप्त्यादिकमपि साधनानुष्ठानाद्यर्थत्वेन मोक्षोपयोगितया तदेकफलान्तर्भूतमित्युक्तम्।वैषम्यद्वयोपपत्तिस्थैर्याभिप्रायेण निगमयति अत इति। प्रधानावान्तरफलभेदादित्यर्थः। आकाङ्क्षाक्रमेणान्वयप्रदर्शनायानन्ता बहुशाखा इति व्युत्क्रमेण व्याख्यातम्। ननु कथं भिन्नप्रधानावान्तरफलसाधनतयैव विहितानां नित्यनैमित्तिककाम्यकर्मणामेकमेव फलं स्यात् कथन्तरामेकशास्त्रार्थत्वम् काम्यानां च कर्मणां निष्कामेन कथमनुष्ठानम्। यदि च तत्तत्काम्यफलाभावेऽपि तत्तत्कर्मानुष्ठानं तर्हि तत्तदधिकाराभावेऽपि ब्राह्मणादेः क्षत्ित्रयादिधर्मानुष्ठानप्रसङ्गः सर्वकाम्योपसंहारः फलादिविरोधाद्व्याहतो दुष्करश्च।कतिपयोपसंहारे तु किं कियदनुष्ठेयमित्यत्र किं नियामकं इत्यादिशङ्कापरिहाराय बुद्ध्येकत्वबहुत्वोक्तेः फलमाह एतदुक्तमिति। नित्यनैमित्तिकयोः प्रधानफलान्यवान्तरफलानि च प्राजापत्यलोकादिप्राप्त्युपात्तदुरितक्षयाकरणनिमित्तप्रत्यवायपरिहारादिरूपाणि। संवलितनित्यनैमित्तिकयोरप्यत्र नित्यनैमित्तिकशब्देन सङ्ग्रहः। काम्यशब्दः केवलकाम्यपरः। ननु तानि सर्वाणि परित्यज्येत्ययुक्तम् मुमुक्षोरप्युपात्तदुरितक्षयादेरवश्यापेक्षितत्वादित्यत उक्तंमोक्षैकफलतयेति। दुरितक्षयादेरप्यन्तःकरणशुद्धिद्वारेणोपकारकत्वान्न पृथक्फलत्वमिति भावः।एकशास्त्रार्थतयाऽनुष्ठेयानीति। विनियोगभेदादन्यत्र भिन्नफलत्वं भिन्नशास्त्रार्थत्वं च। अत्र तु सर्वेषामप्येकत्र विनियुक्तानां फलैक्यं शास्त्रार्थैक्यं च युज्यते। सिद्धं च नित्यकाम्यज्योतिष्टोमादावपि विनियोग पृथक्त्वमिति भावः।स्ववर्णाश्रमोचितानीति। कस्य चिद्धि कि़ञ्चित्फलमुद्दिश्य कानिचित्कर्माणि विधीयन्ते। तेषामेव कर्मणां फलान्तरार्थतया विनियोगेऽपि स एवाधिकारी भवितुमर्हतिक्लृप्तकल्प्यविरोधे तु युक्तः क्लृप्तपरिग्रहः इति न्यायादधिकार्यन्तरकल्पने प्रमाणाभावात्। यथा नित्यकाम्यज्योतिष्टोमादौ यथा चाध्ययनस्य जपादाविति भावः। निष्कामस्य काम्यकर्मानुष्ठानोपपादनायोक्तम् तत्फलानि परित्यज्य मोक्षसाधनतयेति।नित्यनैमित्तिकैरेकीकृत्येति एकफलसाधनतयैकशास्त्रार्थीकृत्येत्यर्थः।यथाबलमिति। शक्त्यनुरोधेन हि शास्ति शास्त्रम्। आह च मनुः तद्धि कुर्वन्यथाशक्ति प्राप्नोति परमां गतिम् 11।34क्षे.3 इति। एवं नित्यनैमित्तिकयोरिव काम्येष्वपि मुमुक्षोः कतिपयाङ्गवैकल्येऽपि न दोष इत्युक्तं भवति। एतेन विच्छेदे प्रत्यवायाभावकथनमपि न ज्योतिष्टोमाद्येकैकान्तर्विच्छेदपरम् अपित्वामोक्षादनुष्ठेयैकशास्त्रार्थभूतकर्मकलापे प्रयाजादिवदितिकर्तव्यतास्थानीयैकैकर्मानुष्ठानेऽपि देशादिवैगुण्यकृतोत्तराननुष्ठानपरमिति च दर्शितम्।।।2.42 2.44।।एवं काम्यकर्मविषयबुद्धितो मोक्षसाधनभूतकर्मविषयाया बुद्धेः वैलक्षण्यमुपपाद्य अनन्तरं मोक्षसाधने प्रवृत्तिशैघ्र्यार्थमितरफलवैतृष्ण्यजननाय तत्फलसाधनकर्माधिकृतान् निन्दतीत्युपरितनश्लोकत्रयमवतारयति अथेति।काम्यकर्माधिकृतानिति काम्यकर्मसु स्वर्गादिस्वाभिलषितसाधनत्वस्वार्थताबुद्धियुक्तानित्यर्थः।पुष्पिताम् इत्येतत्फलव्यवच्छेदमुखेनासुखोदर्कत्वपरमित्यभिप्रायेणाह आपातरमणीयामिति।अल्पज्ञा इति। विविधं पश्यच्चित्त्वं हि विपश्चित्त्वम्।पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् अष्टा.6।3।409 पश्यच्छब्दावयवस्य यच्छब्दस्य लोपः। तच्च बहुज्ञत्वम्। तद्व्यतिरेकश्चात्रोपनिषत्साध्यस्थिरास्थिरादिविवेकाभावादल्पज्ञत्वमिति भावः।जन्मकर्म इत्यादेः गतिविशेषणत्वभ्रमव्युदासाय गतिं प्रतीत्यस्यापेक्षितपूरणाय च क्रममुल्लङ्घ्य प्रागेवोक्तम्।भोगैश्वर्यगतिं प्रति वर्तमानामिति। एतेनवाचं इत्यस्य काम्यविधिभागपरत्वमुक्तं भवति।सामान्येन वैदिकनिन्दाभ्रममपाकरोति स्वर्गादिफलवादा इति। वेदशब्दोऽत्रवेदेषु वेदान्तेषु च गीयते इत्यादाविव कर्मभागपरः। तत्रापि विधिभागफलार्थवादभागविषयतया पुरुषवाक्यवेदवाक्यविषयतया वा वाचंवेदवाद इत्यनयोरपौनरुक्त्यमिति भावः।नान्यदस्ति इतिवादे पूर्वोत्तरपदानामर्थं हेतुतया उपादत्ते तत्सङ्गातिरेकेणेति। अपवर्गस्वरूपनिषेधोऽशक्य इत्यभिप्रायेणोक्तम् अधिकं फलमिति।वादिनः इत्यनेन तथावदनशीलत्वविवक्षाव्यञ्जनाय वदन्त इति वर्तमानप्रत्ययान्तेन व्याख्यातम्।कामप्रवणमनस इति कामेष्वात्मा मनो येषां ते कामात्मान इति व्यधिकरणबहुव्रीहिरिति भावः।स्वर्गपरायणा इति स्वर्गः परः परायणं परमप्राप्यं येषां ते स्वर्गपराः मोक्षविमुखा इति भावः।कामात्मनः स्वर्गपराः इतिपदद्वयस्य सामान्यविशेषविषयतया दृष्टादृष्टविषयतया वा हेतुसाध्यविषयतया वा कामोन्मुख्यान्यवैमुख्यपरतया वा पुनरुक्तिपरिहारः।स्वर्गादिफलभोगमध्ये जन्मादिभ्रमं व्युदस्यति स्वर्गादिफलावसान इति। यावत्सम्पातमुषित्वाऽथैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्तन्ते छां.उ.5।10।5 प्राप्यान्तं कर्मणस्तस्य यत्किञ्चेह करोत्ययम्। तस्माल्लोकात्पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मणे बृ.उ.4।4।6आब्रह्मभवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन 8।16स्वर्गेऽपि पातभीतस्य क्षयिष्णोर्नास्ति निर्वृतिः वि.पु.6।5।50 इत्यादिश्रुतिस्मृतय इह द्रष्टव्याः। जन्मवत्कर्मणोऽप्यनुशयाख्यकर्मशेषफलत्वख्यापनाय समानाधिकरणसमासतां दर्शयति जन्मकर्माख्यफलप्रदामिति। कर्मशेषेण पुनरुत्कृष्टापकृष्टजन्मप्राप्तौ श्रुतिस्तावत् प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म। एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्यू ते पुनरेवापि यन्ति मुं.उ.1।2।7 तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्ित्रययोनिं वा वैश्ययोनिं वा अथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन् श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं वा छां.उ.5।10।7 इत्यादिः। जन्मकर्मादेः सर्वस्य कर्मशेषमूलत्वे स्मृतयश्च वर्णा आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठाः प्रेत्य स्वकर्मफलमनुभूय ततः शेषेण विशिष्टदेशजातिकुलरूपायुश्श्रुतवित्तवृत्तसुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते। विष्वञ्चो विपरीता नश्यन्ति गौ.ध.2।11।10।11 इति। तथा ततः परिवृत्तौ कर्मफलशेषेण जातिं रूपं वर्णं बलं मेधां प्रज्ञां द्रव्याणि धर्मानुष्ठानमिति प्रतिपद्यते। तच्चक्रवदुभयोर्लोकदयोः सुख एव वर्तते आ.स्तं.ध.2।1।2।3 इत्यादयः। वैराग्यपादे चायमर्थो व्यक्तमनुसन्धेयः। अत्र जन्माख्यकर्मफलप्रदामिति केषुचित्कोशेषु पाठः। ननु ज्योतिष्टोमादिक्रियाविशेषस्वरूपमात्रं कामिनो ज्ञानिनश्च समानम् तत्कथंक्रियाविशेषबहुलाम् इति कामिनो विशिष्याभिधीयते तत्रोक्तम् तत्त्वज्ञानरहिततयेति। ज्ञानिनां हि सर्वं कर्म क्रियमाणमपि ज्ञानप्रचुरमेव। तच्चैकफलसाधनतया एकशास्त्रार्थरूपम्। न च मोक्षानुपयुक्ताः सर्वे क्रियाविशेषास्तेन क्रियन्ते। अतः प्रयासबहुलं परिमितनश्वरफलं चामुमुक्षोः कर्मेति भावः। अन्येषां वाचा अन्येषामपहृतचित्तत्वभ्रमं निरस्यन् षष्ठ्यन्तपदयोरदृष्टविशेष्ययोः प्रस्तुतविशेष्यविषयत्वं चाह तेषामिति।तयेति। यद्वृत्तप्रतिनिर्वेशरूपव्याख्येयोपादानम् तत्परामृष्टं प्रकृतं चेतोपहरणहेतुमाह भोगैश्वर्यविषययेति।अपहृतचेतसाम् इत्यस्य पूर्वपदेनार्थपौनरुक्त्यपरिहाराय तदर्थस्य प्रकृतव्यवसायात्मकबुद्ध्यभावहेतुत्वाय चोक्तम् अपहृतात्मज्ञानानामिति।यथोदितेति प्रागुक्तप्रकारेत्यर्थः। न विधीयते केनचिद्धेतुना न क्रियत इत्यर्थः। ततः फलितमुच्यते नोत्पद्यत इति। समाधिशब्दस्य बुद्धिविशेषविवक्षायामत्रानन्वयान्मनोविषयत्वे व्युत्पत्तिमाह समाधीयतेऽस्मिन्निति निधीयतेऽस्मिन्निति निधिवत्। यथोदितेत्याद्युक्तं प्रकारं विवृणोति तेषां मनसीत्यादिना। विधीयत इति वर्तमाननिर्देशतात्पर्यसिद्धमुक्तंकदाचिदपीति। एषां निन्दा किमर्थमित्यत आहअत इति व्यवसायात्मकबुद्धिविरोधादित्यर्थः।मुमुक्षुणा न सङ्गः कर्तव्य इति निस्सङ्गेन काम्यानामपि करणमनुमन्यते स्वरूपमात्रस्य मोक्षविरोधित्वाभावात्। मोक्षेच्छाऽस्ति चेद्बन्धकेच्छा न कार्येत्युक्तं भवति।।।2.45।।अथैवं काम्यकर्मसु तदधिकृतेषु च निन्दितेषु हिततमोपदेशिनः शास्त्रस्येदृशकर्मविधानं अनुपपन्नम् विहितस्य चात्र त्याज्यतयोपदेशो व्याहतः कर्मविधिशास्त्राणामप्रामाण्यं वा तत्प्रामाण्ये वा तन्निषेधोपदेशस्याप्रामाण्यं प्रसज्यत इति शङ्कामुत्तरश्लोकद्वयेन परिहरतीत्याह एवमत्यन्ताल्पेत्यादिना। पुनर्जन्म येषां प्रसवभूतं तानि पुनर्जन्मप्रसवानि। संसारविपिनवानस्पत्यानां हि कर्मणां परिणिनंसोः फलस्य नियतपूर्वकत्वसूचकत्वादिभिर्देहविशेषपरिग्रहः प्रसूनस्थानीयः। प्रियहितोपदेशितया मातापित्रोरुपादानम्। सर्वजन्मानुवृत्तिसूचनाय सहस्रशब्दः। सर्वात्मसाधारणचतुर्विधपुरुषार्थसकलापुरुषार्थनिवृत्तितत्साधनाभिधायितया कदाचिदप्यनुपरमादिना च वत्सलतरत्वोक्तिः। अतिशयहेतुत्रयंआत्मोज्जीवने प्रवृत्ता इति त्रिभिः सूचितम्। न हि देहादेरारोग्यादिमात्रे कदाचिदेव व्यापृता इति क्रमात्त्रयाणां भावः।किमर्थं वदन्तीति न तावत्प्रतारणार्थं हितोपदेशित्वात्। नापि हितान्तरपर्यवसितोपच्छन्दनार्थं प्रतिकरणं तत्फलमात्रपर्यवसितत्वात्। अतोऽनाधेयातिशयपरमकारुणिकपुरुषोत्तमाज्ञारूपाणां वेदानामामूलपर्यवसानमपरिमितदुःखदुर्दिनानुबन्धिसुखकणखद्योतसाधनोपदेशो विषसंपृक्तमधुभोजनोपदेशवदयुक्तः निषेध एव तु कर्तव्यः। यद्वा न सोऽपि प्रत्यक्षादेस्तत्प्रसञ्जकत्वाभावात् स्वयं प्रसज्य प्रतिषेधे जम्बालमज्जनक्षालनसमत्वादित्यभिप्रायः।कथं वेति वेदविरुद्धं हि त्याज्यतयोपदेश्यं न तु वेदविहितमिति भावः।त्रयो गुणास्त्रैगुण्यमिति। अत्रार्थान्तरासम्भवात्चातुर्वर्ण्यादीनां स्वार्थे इत्युपसङ्ख्यानात्स्वार्थिकप्रत्ययः। गुणशब्दस्य प्रयोगप्राचुर्यात्सङ्ख्याविशेषान्वयबलाद्वक्ष्यमाणपर्यालोचनाच्च सिद्धमर्थविशेषं निर्दिशति सत्त्वरजस्तमांसीति। स्वर्गादिफलकरणेतिकर्तव्यताधिकारिविशेषादिविषया हि वेदाः। न पुनः सत्त्वरजस्तमोविषया दृश्यन्त इत्यत्राह सत्त्वरजस्तमःप्रचुरा इति। तत्तद्गुणप्राचुर्यात्पुरुषास्तत्तच्छब्देनोपचर्यन्ते। भाष्यान्तरोक्ता तु फललक्षणा मन्दा अधिकारव्यवस्थापनं त्वत्रोपयुक्ततममिति भावः। अस्त्वेवं गुणत्रयप्रचुरपुरुषविषया वेदाः चोद्यस्य किमायातमित्यत्राह तम इति। एकस्मिन्नेवाधिकारिणि गुणत्रयप्राचुर्यभ्रमनिरासेन तत्तद्विधिनिषेधविषयाधिकारिवैचित्र्याभिव्यक्त्यर्थंतमःप्रचुराणामित्यादिपृथङ्निर्देशः। तामसाद्यधिकारिबाहुल्याल्पत्वाल्पतरत्वप्रकाशनाय सत्त्वरजस्तमसामग्र व्युत्क्रमपाठः। ततश्च क्रमादैहिकामुष्मिकापवर्गाभिलाषिण उपलक्ष्यन्ते।सत्त्वप्रचुराणामिति दृष्टान्ताभिप्रायः। अत एव ह्युपपादकग्रन्थेयद्येषामित्यादिना रजस्तमःप्रचुराणामेव ग्रहणम्।स्वगुणानुगुण्येनेति यथा वातपित्तकफोपात्तशुद्धसमसङ्कीर्णप्रकृतीन् पुरुषानालोच्य हितोपदेशिनो वैद्यास्तत्प्रकृत्यनुकूलभोजनभैषजादि विदधति अपथ्यादीनि च निषेधन्ति तदभावे च यथा दुरुपदेशादिमूढचेतसः प्राणिनोऽपथ्यगरलादिसेवया प्रणश्यन्ति यथा च ताम्बूलाद्यर्थिनः पुत्राः पित्रादिभिस्तत्प्रदानाभावे चौर्यादिना प्रणश्यन्ति तथाऽत्रापीति भावः।स्वर्गादिसाधनमेवेति न हि पिपासादिपीडितानां तदानीं रसायनादिकं विधेयमिति भावः। मोक्षवैमुख्यं स्वापेक्षितफलसाधनाज्ञानं च तमःकृत्यम्। कामप्रावण्यादिकं तु यथांशं रजस्तमःकृत्यम् कामप्रावण्यविवशाः काम्यफलाभिसन्धिबलेनात्मानं नियन्तुमशक्ताः।अनुपादेयेष्वित्यादि यथा बौद्धादय इति भाव्यम्।प्रणष्टा भवेयुरिति दुष्कर्मविपाकेन स्थावरादिभावमप्याश्रित्याचित्कल्पतया पुरुषार्थयोग्यतागन्धरहिता भवेयुरित्यर्थः।अत इति उक्तप्रकारेण काम्योपदेशस्य हिततमत्वादित्यर्थः।त्वं त्विति तुशब्देनाधिकारिवैषम्यं द्योतयति। किमस्याधिकारिणो वैषम्यं कथं च संसारिणस्त्रैगुण्यनिषेधः तथा सतिनित्यसत्त्वस्थः इत्यनेन विरोधश्च स्यादित्यत्राह इदानीं सत्त्वप्रचुर इति।शिष्यस्तेऽहम् 2।7 इत्यादिवचनपरामर्शादिदमुक्तम्। अर्जुनशब्दसम्बुद्धितात्पर्यलब्धो विशेषोऽस्य सत्त्वप्राचुर्यम्। अर्जुनशब्दस्यावदातपर्यायत्वात् सत्त्वस्यापि शुक्लशब्दव्यपदेशादधिकारिवैषम्यस्य चापेक्षितत्वात्तथा प्रसिद्ध्यादिबलाच्चेदमेवात्र तात्पर्यम्।तदेव वर्धयेति न तु सिद्धं सत्त्वप्राचुर्यं परित्यज्य विहिताकरणनिषिद्धकरणादिना रजस्तमसी वर्धयेत्यर्थः।निस्त्रैगुण्यो भव इति निषेधे गुणत्रयसाधारणे सति कथं सत्त्वं वर्धयेत्युच्यते इत्यत्राह नान्योऽन्येति। सत्यं गुणत्रयसाधारणो निषेधः स तु सङ्कीर्णविषयः अन्यथानित्यसत्वस्थः इति वक्ष्यमाणानुपपत्तेरिति भावः।निस्त्रैगुण्यो भव इत्येतत्अरोगो भव इत्यादिवत्पुरुषव्यापारासाध्यत्वेन प्रेषणानुपपत्तेः आशीरूपामिव दृश्यत इत्यत्राह न तदिति। रजस्तमःप्राचुर्यहेतुभूताहारादिकं परित्यजेत्युक्तं भवति।निर्गतेत्यादि। द्वन्द्वशब्दः पुण्यपापमूलसांसारिकस्वभाववर्गद्वयपर इति भावः। एतेन फलस्वरूपं वा साधनानुष्ठानदशासमकालीनस्वास्थ्यं वा द्वन्द्वतिक्षारूपेतिकर्तव्यता वा विवक्षिता।गुणद्वयरहितेति। नित्यसत्त्वस्थपदमब्भक्षादिवदवधारणगर्भमिति भावः। यद्वा नित्यपदेन कदाचिदपि गुणान्तरानभिभूतत्वमिहाभिप्रेतम्। अत एव च प्रवृद्धत्वम्। गुणान्तराभिभवे हि नित्यप्रवृद्धिर्न स्यादिति भावः। सत्त्वसम्बन्धमात्रस्य सर्वक्षेत्रज्ञसाधारणत्वान्नित्यप्रवृद्धेत्युक्तम्। ननु रजस्तमःप्राचुर्यं न वर्धयेति निषेधः सत्त्वप्राचुर्यं वर्धयेति विधिश्च नोपपद्यते न ह्यसौएतद्रजः इदं तमः इदमहं वर्धयामि इति बुद्ध्या प्रवर्तते यतो निषिद्ध्येत यतश्च सिद्धे रजस्तमसी शमयेत् न चासौ सत्त्वतदुपायौ जानाति येन तत्र प्रवर्तेत अतः किमसौ कथं कुर्यात् इत्यभिप्रायेण शङ्कते कथमिति चेदिति। तत्र निषेधस्य विधेश्चोपपादकतयानिर्योगक्षेम आत्मवान् इति पदद्वयं क्रमाद्व्याचष्टे आत्मस्वरूपेत्यादिना।निर्योगक्षेमः इति सामान्येन निषेधो मुमुक्षोर्विहितव्यतिरिक्तविषय इति ज्ञापनाय बहिर्भूतानामित्यन्तमुक्तम्।आत्मवान् भव इत्यत्र मत्वर्थानुपपत्तिमाशङ्क्याह आत्मस्वरूपान्वेषणपर इति। स्वस्यैवाप्रमत्ततागर्भस्वबुद्धिविशेषतः प्राप्त्यपेक्षया सम्बन्धविषयः प्रत्ययः। यद्वा स्वरूपान्वेषणादेव ह्ययमात्मानं लभते अन्यथा आत्महानिरेव स्यादिति भावः। एवं निषेधस्य विधेश्चानुष्ठानाय विषय उक्तः। अतः किमित्यत्र तदुभयाधीनं फलद्वयमाह एवमिति। न साक्षाद्गुणान्विषयीकृत्य तव किञ्चित्कर्तव्यम् तेषां तु निर्योगक्षेमत्वात्मवत्त्वाभ्यां असात्त्विकाहारादित्यागहेतुभ्यां स्वयमेव यथार्हं नाशोन्मेषौ स्यातामिति भावः। ।।2.46।।अथ सनिदर्शनमधिकारिभेदं प्रतिपादयन्तंयावानर्थः इत्यादिश्लोकं व्याचष्टे न चेति। वर्णाश्रमप्रवर चरणादिभेदेन प्रतिनियताधिकारिविषया हि वेदोदिता धर्मा इति भावः।सर्वार्थपरिकल्पित इति तत्तत्प्रयोजनाभिलाषिसर्वाधिकार्यर्थं परिकल्पिते। यद्वा सर्वशब्दः प्रयोजनकात्स्न्र्यपरः स्नानपानादिनानाप्रयोजनार्थं परिकल्पिते। एतच्चसर्वतस्सम्प्लुतोदके इत्यनेनार्थसिद्धमुक्तम्। उदपानं कूपतटाकादि।पिपासोरिति दार्ष्टान्तिकप्रस्थानानुरोधेनाध्याहारः। नन्वत्र दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोः का सङ्गतिः न हि पिपासोरुदपाने यावत्प्रयोजनं तावदेव विजानतः सर्वेषु वेदेष्वित्याशङ्कां परिहर्तुं वाक्यपूरणायाध्याहृत्योक्तम् तावदेव तेनोपादीयत इत्यादि। सर्वेषु चेति चशब्द उपादेयानुपादेयांशसङ्कलनद्योतनार्थः। ननुब्राह्मणस्य इत्येतत्प्रकरणासङ्गतम् क्षत्ित्रयायैव ह्युपदिश्यते। कश्चात्र ब्राह्मणस्य विशेषः ब्रह्मविद्याया अपि त्रैवर्णिकसाधारणत्वात्।विजानतः इति चायुक्तम् विजानन्नेव हि कामनाधिकारादिष्वपि प्रवर्तते। ब्राह्मणशब्दश्चात्र नतदधीते अष्टा.4।2।59 इत्याद्यर्थान्तरपरःब्राह्मोऽजातौ अष्टा.6।4।171 इति निपातनेन जातिव्यतिरिक्तार्थे ब्राह्म इत्येव वक्तव्यत्वात्। तत्राह वैदिकस्य मुमुक्षोरिति। ब्रह्म अणतीति निरुक्त्या ब्राह्मणःशकन्ध्वादिषु पररूपं वक्तव्यम् अष्टा.1।1।64 इति पररूपे कृते प्रज्ञादित्वादण्प्रत्यये च ब्राह्मण इति रूपं भवति। ब्रह्म चात्र वेदः वेदेष्वित्यत्रैव प्रसक्तत्वात्। अतोऽत्र ब्राह्मणशब्दो वैदिकमात्रपर इति न क्षत्ित्रयार्थोपदेशाद्यनुपपत्तिः। ब्राह्मणशब्दस्यात्र सन्न्यासिपरत्वेनशङ्करव्याख्या त्वतिमन्दा। अमौनं च मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः बृ.उ.3।5।1 इति श्रुतिस्तु योगिनः प्रकृष्टतरान्तरसत्त्वं अवस्थाविशेषमाह।विजानतः इति च विशिष्टज्ञानवत्त्वमुच्यते। विशिष्टत्वं च हेयोपादेयविषयतया। तथाविधज्ञानवांश्च मुमुक्षुरेव स्यादिति। तावानित्यस्य व्यवच्छेद्यमाह नान्यदिति। वेदोदितमपि न मोक्षसाधनव्यतिरिक्तमुपादेयम् अनधिकृतत्वात्। न ह्यन्यवर्णाश्रमान्यफलकामुकादिधर्मोऽन्यस्योपादेय इति भावः।।।2.47।।एवं तर्हि मोक्षसाधनेतरसकलपरित्यागे नित्यनैमित्तिकनिषेधशास्त्रातिलङ्घनेन कामचारदोषः स्यात् तावानिति च कियानुच्यते इति शङ्कायामुत्तरश्लोकमवतारयति अत इति। न कामचारदोषः एतावत उपादेयत्वात् नाप्यन्येच्छोरन्योपायप्रवृत्तिदोषः तत्तत्फलपरित्यागेन साधारणस्वरूपमात्रस्योपादेयत्वादिति भावःकर्मणि इति सामान्यशब्दस्य योग्यान्विशेषानाह नित्य इत्यादिना।केनचित् इत्यादिकं नित्यनैमित्तिककाम्यरूपे राशित्रयेऽपि सम्बध्यते। तेन नित्यनैमित्तिकयोरपूर्वमात्रार्थतामिच्छतां कुदृष्टीनां दृष्टिपरता। कर्मान्तराधिकारोपात्तदुरितक्षयाकरणनिमित्तप्रत्यवायपरिहारप्राजापत्यादिलोकपशुपुत्रादि यथासम्भवं नित्यादेः फलम्।फलविशेषेणेति। यथोत्पत्तिवाक्ये स्वरूपेणैवोत्पन्नानां कर्मणां कामाधिकारे स्वर्गादिफलविशेषेण सम्बन्धितया श्रुतत्वात् स्वर्गादिकं फलमिष्यते एवं मोक्षाधिकारेऽपि मोक्षाख्यफलविशेषेण सम्बन्धितया श्रुतत्वात् सोऽपि फलमिति भावः।ते इतिशब्दस्य प्रकृतान्वितं तात्पर्यमाह नित्यसत्त्वस्थस्य मुमुक्षोरिति। मोक्षतत्साधनादिफलव्यवच्छेदायतत्सम्बन्धितयाऽवगतेष्वित्युक्तं स्वर्गपश्वादिष्विति शेषः। मेति न निषेधविधिः किन्त्वभावमात्रबोधक इतिन कदाचिदित्युक्तम्। फलयोग्यतानिषेधात् तत्सङ्गनिषेधोऽपि फलितः। कर्ममात्राधिकारे फलानधिकारे च बुद्धिस्थक्रमेण हेतुद्वयमाह सफलस्येति। न हि मोक्षमिच्छतो बन्धरूपफलाभिलाष उपपन्नः न च तद्धेतुपरित्याग उचित इति भावः।केवलस्येत्येतन्न फलराहित्यमात्रपरंफलरहितस्येत्युक्तत्वात्। अपि तर्हि स्वरूपत एव प्रयोजनत्वपरम्। तत्र हेतुः मदाराधनरूपस्येति।कर्मफलयोरिति। पुनरुक्तिप्रसञ्जकषष्ठीसमासादपि उभयपदार्थप्रधानो द्वन्द्व एवोचितः। वक्ष्यमाणाकर्तृत्वानुसन्धानसङ्ग्रहश्चात्र युक्त इति भावः।कर्मण्येवाधिकारस्ते ৷৷. मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि इति पूर्वोत्तरवचनाभ्यामयं कर्महेतुत्वनिषेधो व्याहन्येतेत्यत्राह त्वयेति। नात्र वस्तुतो हेतुत्वं निषिध्यते अपितु हेतुत्वानुसन्धानमित्यर्थः। ननु फलहेतुत्वनिषेधः पुनरुक्तःमा फलेषु कदाचन इत्युक्तत्वात् यदि तु भोजनादिसाध्यक्षुन्निवृत्त्यादिफलनिषेधः तदा तदुपायरागस्यापि निवृत्तेः शरीरधारणादेरप्यभावप्रसङ्गेन उपायानुष्ठानस्यैव लोपः स्यादित्यत्राह फलस्यापीति।क्षुन्निवृत्त्यादेरित्यनेन पौनरुक्त्यं परिहृतम्।न त्वं हेतुरित्यनुसन्धेयमिति। नात्र क्षुन्निवृत्त्यादिस्वरूपं निषिध्यते। अपित्वात्मनस्तद्धेतुत्वानुसन्धानमिति भावः। ननु कथं कर्मफलयोर्हेतुः सन्नहेतुरित्यनुसन्धीयेत। एवं च चार्वाकादिवत् अनयोर्निर्हेतुकत्वमनुसन्धेयं स्यात् ततश्चोपायानुष्ठानमेव हीयेत। अहेतुकतया बुध्यमाने प्रयासायोगादित्यत्राह तदुभयमिति। उभयं कर्महेतुत्वं फलहेतुत्वं च।उत्तरत्रेति। अयमेव तृतीयाध्यायप्रधानार्थः। तथा हि सङ्ग्रहः असक्त्या लोकरक्षायै गुणेष्वारोप्य कर्तृताम्। सर्वेश्वरे वा न्यस्योक्ता तृतीये कर्मकार्यता गी.सं.7 इति। एवमहेतुकत्वचोद्यं तावत्परिहृतम्। तथाप्यात्महेतुकत्वानुसन्धाननिषेधेन अननुष्ठानप्रसङ्गस्तदवस्थ इति चेत् मैवं नह्यत्रानुष्ठानस्याननुष्ठानतया भ्रान्तिरुच्यते नाप्यनुष्ठातृत्वस्य सतोऽप्यप्रतिपत्तिर्विधीयते येन विरोधः स्यात् किन्त्वनेकहेतुके कस्मिंश्चिदेकस्यैव हेतुत्वं त्रैगुण्याद्युपाधिके स्वरूपप्रयुक्तत्वं च भ्रान्तिसिद्धमिति तदुभयं निषिद्ध्यते। वक्ष्यते हिशरीरवाङ्मनोभिः 18।15 इत्यादौ तृतीयाध्याये च। किञ्च साक्षात्कर्तृत्वाननुसन्धानविधावपि नाकर्तृत्वानुसन्धानकर्तृत्वप्रतिपत्तिनिषेधयोरप्यननुष्ठानप्रसङ्गः। स हि कुर्वन्नेव स्वकृतोपकारनिगूहनवदाहार्यबोधेन तथा प्रतिपद्यते। अन्यत्र वा कर्मणि क्रियमाण इति न कश्चिद्दोषः।सर्वेश्वरे इति निर्देशस्तस्मिन् कर्तृत्वाद्ध्यवसायौचित्यार्थः। जीवस्यापि हि कर्तृत्वं तत्त्वतः परमात्मायत्तमितिपरात्तु तच्छ्रुतेः ब्र.सू.2।3।45 इत्यधिकरणे स्थापितम्।पूर्वोत्तरवाक्याद्यविरोधाय कर्मस्वरूपपरित्यागं परिहरति एवमिति। गुणेश्वराधीनत्वबुद्धावपि किं मे परित्यक्तफलेन दुःखस्वरूपेण भोजनादिकर्मणा इति त्वया नोदासितव्यमिति भावः।अननुष्ठान इति।अकर्मणीत्यत्र कर्मशब्दः क्रियावाची नञत्र तदभावपर इति भावः। अननुष्ठानस्य प्रतिषेधार्थं प्रसङ्गं स्मारयति न योत्स्यामीति। अकर्मसङ्गनिषेधफलितमन्यत्र सङ्गमाह उक्तेनेति। ।।2.48।।अनन्तरग्रन्थं सङ्गमयति एतदेवेति। अवधारणेनार्थान्तरपरत्वव्युदासः।स्फुटीकरोतीति पौनरुक्त्यपरिहारः।राज्यबन्धुप्रभृतिष्विति राज्यप्रभृतिषु सङ्गः फलद्वारा बाधकः बन्धुप्रभृतिषु सङ्गस्तु युद्धाद्यननुष्ठानद्वारेति तदुभयमपि त्याज्यत्वादत्र सङ्गशब्देन सङ्गृहीतमिति भावः।युद्धादीनीति प्रकृतविशेषप्रदर्शनम्। आनुषङ्गिकत्वसूचनायोक्तंतदन्तर्भूतेति।लाभालाभौ जयाजयौ 2।38 इति पूर्वोक्तानुसन्धानेनाह विजयादीति।योगस्थः ৷৷. सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा इत्यनयोरेकवाक्यत्वे पौनरुक्त्याद्भिन्नवाक्यत्वे तु तादृशश्रुतिवाक्यविशेषोपबृंहणौपयिकयोगशब्दार्थव्याख्यानरूपत्वेन पौनरुक्त्याच्च कुर्वितीदगावर्तितम्।विद्याविनयसम्पन्ने 5।18 इत्यादिप्रदेशान्तरोक्तसमत्वान्तरव्यावर्तनायोक्तंतदिदं सिद्ध्यसिद्ध्योरिति। सार्वत्रिकयोगशब्दप्रयोगविषयव्यावृत्त्यर्थमुक्तंयोगस्थ इत्यत्रेति। योगशब्दस्य सिद्ध्यसिद्धिसाम्ये क्वचिदपि प्रयोगो न दृश्यत इत्यत्राह योग इति। चित्तसमाधाने प्रयोगस्तावद्योगानुशासनादिसिद्धः। इदमपि समत्वं तद्रूपमिति योगशब्दार्थ इत्याकूतम्।।।2.49।।अभ्यासरूपतात्पर्यलिङ्गविवक्षामभिप्रयन् पौनरुक्त्यशङ्काद्वारेणोत्तरश्लोकमवतारयति किमर्थमिति। इदं साम्यानुसन्धानरूपं चित्तसमाधानम्। तद्ध्यनन्तरं प्रशस्यते। कर्ममात्रनिन्दाभ्रमं परिजिहीषन् बुद्धियोगशब्दस्य प्रकरणविशेषितं वाच्यांशं तावदाह योऽयमिति। अजहल्लक्षणया बुद्धिप्राचुर्यहेतुकया लक्षितमाह तद्युक्तात्कर्मण इति।इतरदित्यनेन प्रकरणविहितकर्मव्यतिरिक्तविषयाऽत्र कर्मनिन्देति सूचितम्। दूरावरशब्दयोरत्र विवक्षितं निष्कर्षति महदिति। तृतीया प्रकारे।कृपणाः फलहेतवः इत्यनन्तरवाक्येन बुद्धियुक्त इत्यादिना च वक्ष्यमाणं श्रुतिस्मृत्यन्तरादितश्च सिद्धं वैरूप्यप्रकारमाह उक्तेति। नीतिमन्त्रौषधकेवलयागादिव्यावर्तनाय निखिलशब्दः। तस्योपाधिविशेषावच्छिन्नत्वात् कात्स्न्र्येऽपि प्रयोगादवच्छेदकोपाध्यन्तरव्यावर्तनायोक्तं सांसारिकेति। केवलकर्मसाध्यस्वर्गादिव्यावर्तनाय परमशब्दः। अपरिमितशब्देन स्वभावसङ्ख्याकालादिप्रयुक्तसम्भावितसमस्तपरिच्छेदनिरासः।हिशब्दस्य हेत्वर्थतामभिप्रयन्नाह अत इति। प्रकरणादिविरुद्धसाङ्ख्याद्युक्तकर्मस्वरूपपरित्यागपूर्वकज्ञानमात्रोपादानभ्रमव्युदासायोक्तंकर्मणि क्रियमाण इति।उक्तायामिति। तात्पर्यातिशयव्यक्त्यर्थं पूर्वोक्तमभ्यस्यत इति भावः।उपाये गृहरक्षित्रोः शब्दः शरणमित्ययम् अ.बु.सं.36।34 इत्यादिनाऽवगतं शरणशब्दस्य रक्षकाद्यर्थान्तरं व्यावर्तयन् विवक्षितं वक्तुं वाच्यं तावदाह वासस्थानमिति। नन्विदमसङ्गतं बुद्धेर्वासस्थानभूतगृहाद्याश्रयत्वभावादित्यत्राह तस्यामेवेति। कर्मयोगनिष्ठा ह्यत्रोपदिश्यत इति भावःकदर्ये कृपणक्षुद्रकिम्पचानमितम्पचाः अमरः3।1।49 इति कृपणशब्दस्य पुरुषविशेषे रूढत्वात् बुद्धियुक्त इत्यादिना फलाभिसन्धिरहितपुरुषाणां प्रशस्यमानत्वात्मां कर्मफलहेतुः 2।47 इति पुरुषे फलहेतुशब्दस्य प्रकृतत्वात्कृपणाः फलहेतवः इत्यत्रापि फलाभिसन्धिपूर्वककर्मकारिणः पुरुषा एव निन्द्यन्ते न तु फलमात्रमित्यभिप्रायेणाह फलसङ्गादिनेति। पुरुषाणामपि हि स्वकर्मद्वारा फलहेतुत्वमस्त्येवजन्मबन्धविनिर्मुक्ताः 2।51 इत्यादेः प्रतिरूपतया परमनिश्श्रेयसवैधुर्यस्यात्र कृपणशब्देनाभिधातुमुचितत्वात्संसारिण इत्युक्तम्। अकृपणप्रदर्शनपरानन्तरश्लोकपरामर्शाच्च अयमेवार्थ उचित इति भावः।।।2.50।।बुद्धियुक्तो जहातीह इत्यस्येह कर्मणि क्रियमाणे बुद्धियुक्त इत्यन्वयमभिप्रेत्याह बुद्धियोगयुक्तस्तु कर्म कुर्वाण इति। यद्वाकर्म कुर्वाण इति प्रकरणापन्नमुक्तम् इहशब्दस्य तु जहातिनाऽन्वयःइहैव तैर्जितः सर्गः 5।19 इत्यादिवत्। ततश्च प्रतिबन्धकनिवृत्तिरुक्ता भवति। बुद्धिरहितकेवलकर्मादिभिरनिवर्त्यत्वार्थमाह अनादिकालसञ्चिते अनन्ते इति। अनादिकालसञ्चितत्वमनन्तत्वनिदानम्। सुकृतस्य हानिरपुरुषार्थः स्यादित्यत्रोक्तंबन्धहेतुभूते इति। नहि काञ्चनकालायसश्रृङ्खलयोर्बन्धहेतुत्वे कश्चिद्विशेषः मुमुक्ष्वपेक्षया च स्वर्गादिकारणं सुकृतमपि दुष्कृतमेव अलौकिकत्वे सत्यनिष्टसाधनत्वात्। स्वर्गादेरपि हि मुमुक्ष्वपेक्षया निरयत्वम्एते वै निरयास्तात स्थानस्य परमात्मनः म.भा.12।198।11 इत्यादिभिः प्रतिपादितमिति भावः।बुद्धियुक्तः इत्यस्ययोगाय इत्यस्य च भिन्नार्थपरत्वव्युदासायाह तस्मादुक्ताय बुद्धियोगायेति। युज्यस्व सन्नह्यस्व उद्युक्तो भवेत्यर्थः।समत्वं योग उच्यते 2।48 इतिवद्योगशब्दव्याख्याभ्रमनिरासायाह कर्मस्विति। कौशलशब्दस्य तात्पर्यं वक्तुं वाच्यं तावदाह अतिसामर्थ्यमिति। बुद्धियोगस्य कर्मसामर्थ्यात्मकत्वं कथं इत्यत्राह अतिसामर्थ्यसाध्य इत्यर्थ इति। कार्ये कारणशब्द उपचरितः। अनेन श्लोकेन बन्धकसुकृतदुष्कृतहानमुक्तम्।।।2.51।।अथ तत्फलभूतबन्धनिवृत्तिपूर्वकामृतत्वप्राप्तिपरस्यकर्मजं इति श्लोकस्य हेतुफलभावक्रमेण अन्वयमाह बुद्धियोगयुक्ता इति। कर्मजं फलं सांसारिकम्। जन्मबन्धो जन्मनो बन्धः स्वच्छन्दत्वहानिः अथवा जन्मैव बन्ध इति कर्मधारयः। अनामयं पदं स्थानविशेषो वा परमप्राप्यं परमात्मस्वरूपं वा प्रकरणवशादत्र ब्रह्मपर्यन्तजीवस्वरूपं वा पद्यते गम्यत इति पदम् त्रयमपि हि साक्षादन्यथा वा मुक्तप्राप्यत्वात्पदशब्दवाच्यम्।हिशब्दस्यात्र हेतुत्वादिपरत्वासम्भवात् प्रसिद्धिपरत्वम्। प्रसिद्धिस्थलं चाह प्रसिद्धं ह्येतत्वसर्वास्विति। एवमुक्तप्रकारो हेयोपादेयविभागो युक्त्यागमनिरपेक्षं तवैव स्पष्टो भविष्यतीति चमत्कारार्थमुच्यते।।।2.52।।यदा इति श्लोकेन मोहतरणहेतुं प्रकृतं दर्शयति उक्तेति। पुण्यपापरूपसांसारिककर्मणा हि मोहः स च फलाभिसन्ध्यादिरहितकर्मणा निवर्त्यः। ततः कारणाभावात्कार्याभाव इति भावः।अत्यल्पफलसङ्गहेतुभूतमित्यनेन मोहस्येदानीं निर्वेदप्रतिबन्धकत्वमुच्यते। मोहस्वरूपातिरिक्तस्य तत्साध्यस्य कालुष्यस्याभावात्मोहरूपमित्युक्तम्।कलुषशब्दोऽत्र कालुष्यपरः।अस्मत्त इति आप्ततमेभ्य इति भावः।त्याज्यतयेति निर्वेदयोगत्वायोक्तम्। न हि श्रोतव्येषु श्रुतेषु च उपादेयांशो निर्वेदहेतुः। यद्वाश्रोतव्यस्य इत्यस्योपादेयत्वायश्रुतस्य इत्यत्र त्याज्यतयेति विशेषणम्। हेयसङ्गमुपादेयवैतृष्ण्यं च परामृश्य भवति हि निर्वेदः। स च स्वावज्ञारूपः। यथाहुर्गन्धर्ववेदिनः तत्त्वज्ञानापदीर्ष्यादेर्निर्वेदः स्वावमाननम् द.रू.4।9 इति। श्रोतव्यस्येत्यादेः सम्बन्धसामान्यषष्ठ्या विवक्षितविशेषकथनं कृत इति।स्वयमेवेति। अस्मद्वाक्यादिनिरपेक्ष इत्यर्थः।गन्तासि इत्यत्र पदभेदभ्रमं निरस्यति गमिष्यसीति।गन्तासि इत्यत्र द्वितीयान्वयात्तृजन्तत्वं न युज्यते। तृन्नन्तत्वे तु भविष्यत्त्वविवक्षा न स्वारसिकी। अतो लु़डन्ततयैकपद्यं युक्तम्। एवंजेतासि इति वक्ष्यमाणेऽपि। अनद्यतनविहितलुडन्तोऽपिशब्दोव्यतितरिष्यति इत्येतत्तुल्यतया भविष्यन्मात्रार्थेन व्याख्यात इति।।।2.53।।नित्यात्मासङ्गकर्मेहागोचरा साङ्ख्ययोगधीः। द्वितीये स्थितधीलक्षा प्रोक्ता तन्मोहशान्तये गी.सं.6 इति सङ्ग्रहश्लोकमनुसन्दधानो ज्ञानयोगाभिधानोपक्रमभूतमुत्तरश्लोकमवतारयति योगे त्विति। बुद्धिविशेषोव्यवसायात्मिका 2।41 इत्यादिना पूर्वोक्तः।लक्षभूतं उद्देश्यभूतमित्यर्थः।श्रुतिविप्रतिपन्ना इत्यस्य प्रकृतानुपयुक्ताप्रकृतवैदिकवाक्यविरोधार्थताभ्रमंश्रोतव्यस्य श्रुतस्य च इति प्रकृतानुरोधेन व्युदस्यति श्रुतिः श्रवणमित्यादिना।अस्मत्त इति सार्वज्ञसर्वशक्तिपरमकारुण्यादिभिरनाघ्रातभ्रमविप्रलम्भप्रमादादिदोषगन्धात् अव्याजबन्धोरीश्वरादिति भावः। विशब्दस्य विरुद्धार्थताव्युदासाय वैशिष्ट्यार्थतामीश्वराच्छ्रवणेनसिद्धां दर्शयति विशेषत इति। स्थास्यतीति स्थायित्वं ह्युक्तम् विशेषं पूर्वोक्तं व्यनक्ति सकलेतरेति।अर्थेनैव विशेषो हि निराकारतया धियाम् सि.त्र. इति भावः। निश्चलाचलशब्दयोः पौनरुक्त्यपरिहारायोक्तंस्वयमित्यादि। उद्देश्यान्तर्गतमचलत्वम् निश्चलत्वं तु तत्र विधेयो विशेष इति स्वयंशब्दस्य भावः। एकरूपार्थविषयत्वादेकरूपा विषयान्तरसञ्चाररहिता चेत्यर्थः। अथवाश्रुतिविप्रतिपन्ना इति श्रवणस्योक्तत्वान्मननस्थिरीकृतत्वं कुतर्कैरकम्पनीयत्वं च पदाभ्यां विवक्षितम्। यद्वा पूर्वोक्तबहुशाखत्वानन्तत्वनिषेधपरोऽचलशब्द इत्यभिप्रायेणोक्तम् एकरूपेति। समाधीयते अस्मिन्नात्मज्ञानमिति समाधिर्मन इति निर्वचनेन तैलधारावदविच्छिन्नस्मृतिहेतुतामभिप्रयतोक्तंअसङ्गेत्यादि। योगशब्दस्यात्र ज्ञानयोगरूपनिश्चलबुद्धिसाध्यफलविषयत्वात्आत्मावलोकनमित्युक्तम्।समाधिशब्दस्यात्र बुद्धिविशेषपरत्वे पुनरुक्त्यादिः तत्कालपरत्वे तु लक्षणा च स्यादिति भावः।योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु अमरः3।3।179 इत्यादिभिरनेकार्थतया प्रसिद्धोऽयं शब्दस्तत्तद्वाक्यानुकूलमनुसन्धेयः। ननूपायतया हि योगो विहितः स कथं फलतयाऽत्र निर्दिश्यते आत्मज्ञानपूर्वकस्य च कर्मयोगस्यात्मज्ञानमेव साध्यं चेदात्माश्रयादिदोषः श्रवणमननाभ्यां स्थितप्रज्ञस्य ह्यनुष्ठानम् तथा च कथमनुष्ठानसाध्या स्थितप्रज्ञता निश्चलप्रज्ञास्थितिमन्तरेण च कोऽसावपरस्तदापाद्यो योग इत्यत्राह एतदुक्तमिति। तत्र प्रथमचोद्यंकर्मयोगशब्देनयोगाख्यमात्मावलोकनमित्यनेन च परिहृतम्। शास्त्रजन्यात्मज्ञानात्मावलोकनशब्दाभ्यां आत्माश्रयादिनिरासः। आत्मज्ञानज्ञाननिष्ठाशब्दाभ्यां श्रवणमात्रसिद्धतत्त्वनिश्चयज्ञानयोगविषयाभ्यां तृतीयस्य परिहारः। चतुर्थोऽप्युक्तप्रकारेण साक्षात्कारतद्धेतुस्मृतिसन्ततिभेदात् परिहृतः। प्रथमं शास्त्रतस्तत्त्वज्ञानम् ततः स्मृतिसन्ततिरूपमुपासनम् ततस्तन्मूलसाक्षात्कार इति ज्ञानपर्वभेदः प्रदर्शितः।।।2.54।।प्रश्नरूपस्योत्तरश्लोकस्यावतारं तत्र पूर्वोत्तरार्धयोः क्रमान्निष्कृष्टप्रश्नार्थं चाह एवमिति। पूर्वार्धस्याभिप्रेतं वक्तुमन्वयं तावदाह समाधीति। समाधिरत्र पूर्वनिरुक्तप्रकारं मनः। तत्र स्थितिः तद्वशीकरणेनावस्थानम्।किं प्रभाषेत इत्यनेन पुनरुक्तिपरिहारायस्थितप्रज्ञस्य का भाषा इत्यत्र कर्तृतयाऽन्वयशङ्कामपाकरोति को वाचकः शब्द इति। ननुस्थितप्रज्ञः इत्येव वाचके सिद्धे किं वाचकान्तरं पृच्छ्यते किं चात्र वाचकप्रश्नस्य प्रयोजनं इत्यत्राह तस्येति। केनचिद्वाचकेन हि कस्यचित्प्रकारभूतप्रवृत्तिनिमित्तविशिष्टं स्वरूपं निर्देष्टव्यमिति भावः। स्थितप्रज्ञशब्दात् स्थितधीशब्दस्यार्थान्तरपरत्वभ्रमनिरासायस्थितप्रज्ञः इति पूर्वार्धोक्तशब्द एवात्रावर्तितः।किञ्च भाषणादिकमितिकिं प्रभाषेत इत्यादयः किंशब्दाः क्रियाविशेषणतयाऽन्वीयमानाः क्रियाप्रकारप्रश्नपरा इति भावः।किं प्रभाषेत इति वाचिकेकिं व्रजेत इति कायिके च पृष्टेकिमासीत इति मानसपरम् ध्यानार्थत्वादत्रासनस्य।।।2.55।।एवं करणत्रयानुष्ठानप्रकारप्रश्नस्य साक्षादुत्तरेषुप्रजहाति इत्यादिषु चतुर्षु श्लोकेषु प्रथमस्य स्वरूपप्रश्नोत्तरतामिति दर्शयति वृत्तिविशेषेति। प्रकृष्टानुकूल्ययोगिन्यात्मनि प्रीतिरूपस्य तोषस्य कामान्तरप्रहाणहेतुत्वात्तथान्वयमाह आत्मन्येवेति। सर्वशब्दस्यआत्मनि तुष्टः इत्येतत्सन्निधानसिद्धं सङ्कोचमाह तद्व्यतिरिक्तानिति। यद्वाआत्मन्येवात्मना तुष्टः इति यथाक्रममेवान्वयः आत्मैकविषयेण हि मनसाऽन्यतो जातालम्बुद्धिरूपसन्तोष इत्यर्थः। एतदभिप्रायेणोक्तंमनसाऽऽत्मैकावलम्बनेन तुष्ट इति।तेन तोषेणेति।स त्वासक्तमतिः कृष्णे दृश्यमानो महोरगैः। न विवेदात्मनो गात्रं तत्स्मृत्याह्लादसंस्थितः वि.पु.1।17।39 इतिवत्।प्रकर्षेणेति अपुनरङ्कुरमित्यर्थः। स्थितप्रज्ञविषयश्लोकचतुष्टयं तदवस्थाचतुष्टयविषयमिति मन्वानश्चतुर्थीयमवस्थेत्याह ज्ञाननिष्ठाकाष्ठेयमिति। उक्तं चहैरण्यगर्भैः दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् पा.यो.1।15 इति। ऐहिकामुष्मिकसकलफलविमुखस्य यस्तेषु फलेषु सवासनरागत्यागः सा वशीकरणसंज्ञेत्युच्यत इत्यर्थः।।।2.56।।अथैकेन्द्रियसंज्ञाख्यतृतीयावस्थोच्यत इत्याह ततोऽर्वाचीनेति।ओ विजी भयचलनयोः इति धातुरत्र चलनार्थःवीतरागभयं इति भयस्य पृथगभिधानात्। यद्वाअनुद्विग्न ৷৷. इति निर्दुःखत्वमात्रं विवक्षितम्। तत एवदुःखेषु इत्येतदपि दुःखहेतुपरमिति मन्वान आह दुःखनिमित्तेष्विति। आदिशब्देनाप्रियागमनसङ्ग्रहः। भयहेतुव्यावृत्त्यर्थमुक्तं उपस्थितेष्विति दुःखोत्पादनप्रवृत्तेष्वित्यर्थः। दुःखशब्दवदेवात्र सुखशब्दस्यापि हेतुपरतां तत्रापि पृथङ्निर्दिष्टरागविषयाद्विलक्षणतां चाह प्रियेषु सन्निहितेष्वपीति। विगतस्पृहवीतरागशब्दयोरपुनरुक्तितां व्यनक्ति अनागतेषु स्पृहा राग इति। स्पृहारागशब्दौ सामान्यविशेषविषयौ। ततश्च विशेषशब्दसन्निधाने गोबलीवर्दन्यायात् सामान्यशब्दस्तद्व्यतिरिक्तपर इति भावः। पुनरुक्तिपरिहाराय भयस्य दुःखविशेषतामाह प्रियेत्यादिनाहेतुदर्शननिमित्तं दुःखमित्यन्तेन। प्रियविश्लेषाप्रियागमनयोर्दुखरूपयोः सामग्रीदशामापन्नो यो हेतुः सूचकश्च निमित्तादिकः तस्य यद्दर्शनं सकलसहकारिसम्पत्त्युत्प्रेक्षागर्भम् दर्शनमिति ज्ञानमात्रपरं वा तेन यद्दुःखं तदानीमेवाङ्गकम्पादिहेतुरुत्पद्यते तद्भयमित्यर्थः। क्रोधलक्षणे प्रियविश्लेषादिस्त्रैकालिकः सर्वत्र क्रोधोत्पत्तिदर्शनात्। अचेतनेषु वातातपकण्टकादिषु बाधकेष्वपि क्रोधाभावात्चेतनेत्युक्तम्। यस्तून्मत्तस्तत्रापि कुप्यति सोऽपि चेतनत्वाध्यासेन।अन्तरशब्देन स्वदुःखहेतुस्वमनोविकारव्यावर्तनम्। स हि तथाविधो निर्वेदादिरूपः स्यात्। क्रोधादात्महननाद्यपि परपीडाभिसन्धिगर्भम्। मनोविकारोऽत्र रजस्तमस्समुन्मेषकृतो व्यापारविशेषः। तदधीनो ज्ञानविशेष इह तच्छब्देनोपचर्यते। मुनिर्मननशील इति व्युत्पत्तिः तस्य मननस्यात्र साक्षात्करिष्यमाणात्मविषयत्वव्यक्त्यर्थमुक्तम् आत्ममननशील इति। एवमस्यास्तृतीयावस्थाया उद्वेगस्पृहादिविरहसाम्येऽपि औत्सुक्यमात्रक्षमवासनाशेषस्य भस्मच्छन्नदहनवदवस्थितत्वाच्च चतुर्थावस्थातो विशेषः।।।2.57।।अथ व्यतिरेकसंज्ञाख्या द्वितीया दशोच्यते इत्याह ततोऽर्वाचीनदशेति। अप्रियेषु स्नेहप्रसङ्गाभावात् प्रियमात्रविषयःसर्वत्र इतिशब्द इति दर्शयति प्रियेष्विति। अभिस्नेहस्य प्रवृत्तिपर्यन्ततया तदभावोऽत्र तद्विशेषोपादानवृत्तिराहित्यपर्यन्त इत्याह उदासीन इति। एतेनप्रियेत्यादिना च व्यतिरेकसंज्ञात्वं व्यनक्ति। अपक्वान् कषायान् पक्वेभ्यः पृथगनुसन्धाय तेषामपि पाकापादनदशा हिव्यतिरेकसंज्ञा। तत्र स्वयम्प्रियेषु प्रवृत्तिरहितो दैवागतप्रियसंश्लेषविश्लेषयोश्चाभिनन्दनादिरहित इत्युक्ते पक्वेतरेषां रागादीनां पाकाभिलाषेण मनोव्यापारविशेषनिवारणमुक्तं स्यात्। अभिनन्दनं चात्राभितो नन्दनम् अनुबन्धिषु कालान्तरेषु च प्रीत्यनुवृत्तिहेतुभूतनन्दनमित्यर्थः। एवं द्वेषेऽपि।।।2.58।।अथ यतमानसंज्ञाख्या प्रथमा दशोच्यते इत्याह ततोऽर्वाचीनदशेति। प्रसक्तप्रतिषेधार्थमाह स्प्रष्टुमुद्युक्तानीति। तेन वार्धकरोगादिप्रयुक्ताशक्तिसुषुप्त्यादिकृतनिवृत्तिव्यवच्छेदः।तदैवेति भोगानन्तरनिवृत्तिव्युदासः।कूर्मोऽङ्गानीव इत्यनेनेन्द्रियाणां सङ्कल्पविशेषमात्रनियाम्यत्वमुच्यते।सर्वश इति विलोकनभाषणविलासपरिहासादिनिवृत्तिपरः विषयदोषदर्शनादिहेतुप्रकारपरो वा।प्रतिसंहृत्य इत्यनेनेन्द्रियनिरोधस्यात्ममननाङ्गता दर्शिता। अत्र च ज्ञाननिष्ठावस्थाविशेषप्रकरणे सुषुप्त्यादिविलक्षणव्यापारोपरतिः तत्साध्यात्मगोचरमनोवस्थापनपर्यन्ता विवक्षितेत्याह मन आत्मनीति।।।2.59।।किमर्थमिदमवस्थाचतुष्टयं विभज्योपदिश्यत इत्याह आह एवमिति। प्रथमं बाह्येन्द्रियाणि विषयेभ्यः प्रतिसंहृत्य मन आत्मनि व्यवस्थापयितुं यतेत इयंयतमानसंज्ञा। अथ बलात्संहृतान्यपि बाह्येन्द्रियाणि सावशेषरागद्वेषादिदोषकलुषितं मनः पुनः पुनरवसरे प्रेरयेत् स्वयं चात्मनि स्थातुं न शक्नुयात् अतः पक्वावशिष्टरागद्वेषादीनौदासीन्यानभिनन्दनादिक्रमेण पचेत् इयंव्यतिरेकसंज्ञा। ततः पक्वेऽपि दोषशेषे अनादिविषयानुभवभावितवासनामात्रमात्मानमनुबुभूषन्तीं शेमुषीं प्रति बिभत्सेत् तत्र निरतिशयानन्दरूपमात्मानं पुरुषद्वेषिण्या योषित इव युवानं प्रदर्श्यप्रदर्श्य क्रमादात्मनि तोषं समुत्पाद्य तेन तोषविशेषेण दवीयसा च स्मृतिविधुरेण कालेन बाह्यविषयवासनाजालमुन्मूलयितुमीहेत सेयंएकेन्द्रियसंज्ञा। या पुनः समस्तवासनाविलयादौत्सुक्यमात्रस्याप्यसम्भवेन परमवैराग्यदशा सावशीकारसंज्ञा। ज्ञाननिष्ठाकाष्ठा योगाख्यमात्मावलोकनं साधयति। तच्चावलोकनं परम्परया निरतिशयपुरुषार्थभूतामृतत्वाय कल्पत इति दर्शितं भवति। कामानां तथात्वेनादर्शनं तथा दृश्यमानेष्वपि निस्सङ्गतासङ्गलेशेन भुज्यमानेष्वपि नातिस्नेहः प्रचुरेऽपि रागे तन्निरोधसंरम्भ इति चावस्थावैषम्यम् आत्मरतित्वं तस्य स्वरूपम्आश्चर्यवद्वदति 2।29 इति तस्य तदेकभाषणं तदनुसन्धानरूपं तदासनं तत्प्राप्त्यर्थप्रवृत्तिरूपं तस्य व्रजनं चेति प्रश्नचतुष्कोत्तरं सिद्धम्।अथोत्तरप्रकरणं पूर्वेण पृथगर्थं प्रदर्श्य सङ्गमयन्नवतारयति इदानीमिति। ज्ञाननिष्ठायाश्चतुर्विधाया अपीति शेषः।निराहारस्य इत्यनेन भोजननिषेधभ्रमं व्युदस्यति इन्द्रियाणामित्यादिना।न चैकान्तमनश्नतः 6।16युक्ताहारविहारस्य 6।17 इति हि वक्ष्यते। अन्यत्रापिअत्याशनादतीपानात् तै.ना.1।34 इति ह्युच्यते। मोक्षधर्मे चदशैतानीन्द्रियोक्तानि द्वाराण्याहारसिद्धये म.भा.शां.मो. इति सर्वेन्द्रियविषयाणामाहारशब्देन ग्रहणं दृष्टम् न च प्रसिद्धाहारनिषेधमात्रादशेषविषयनिवृत्तिः तस्य कतिपयेन्द्रियविषयत्वादिति भावः।रसवर्जं इत्येतावति वाक्यतात्पर्यमिति द्योतनाय विनिवर्तमाना इत्यनूदितम्। आत्मगोचररागव्यवच्छेदायाह विषयराग इति। प्रस्तुता एव विषयाः परमिति निर्देशस्यावधित्वमर्हन्तीतिविषयेभ्य इत्युक्तम्। कालादिकृतपरत्वमात्रस्यानुपयुक्तत्वाद्विषयरागनिवर्तनौपयिकं परशब्दार्थमाह सुखतरमिति। विषया हि सुखरूपाः आत्मत्वरूपं तु ततोऽप्यतिशयेन सुखरूपम्। अत्रदृष्ट्वा निवर्तते इति दर्शनस्य रागकर्तृकतया निर्देश औपचारिकः। यद्वा दृष्ट्वा स्थितस्यास्य देहिनो रागो निवर्तत इत्यन्वयः। एवमात्मदर्शनेन विना विषयरागो न निवर्तत इत्युक्तम्।।।2.60।।अथानिवृत्ते विषयरागे दुर्जयानीन्द्रियाणीत्युच्यते यततः इति श्लोकेन। विपश्चित्त्वं यतमानत्वे हेतुरिति द्योतनायोक्तंविपश्चितो यतमानस्यापीति। अत्र विपश्चित्त्वं शास्त्रजन्यहेयोपादेयविवेकत्वम्। बलवतां प्रमाथित्वं हिबलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति मनुः2।215 इति स्मर्यते इति ज्ञापनायबलवन्तीत्युक्तम्। इन्द्रियाणां बलं च रागादिरेव। उक्तश्लोकद्वयतात्पर्यसिद्धमन्योन्याश्रयणं तत्फलं चाह एवमिति।।।2.61।।तर्ह्यन्योन्याश्रयदूषितेऽर्थे साध्यसाधनभावः कथं पूर्वमुपदिष्टः इत्यत्रोच्यतेतानि सर्वाणि इति।अस्येति अन्योन्याश्रयादिदोषस्येत्यर्थः।संयम्येति। विषयस्पर्शनिवारणमात्रमत्रोच्यते न त्विन्द्रियजयावस्था।मत्परः इत्यत्र वक्तृविग्रहवैशिष्ट्यविवक्षया सिद्धं शुभाश्रयविग्रहविशेषवत्त्वंचेतस इत्यादिना विवृतम्। शुभशब्देन हिरण्यगर्भादेः आश्रयशब्देन परिशुद्धात्मस्वरूपस्य च व्यवच्छेदः। युक्तशब्देनात्र विषयस्वभावात्सुकरं चित्तसमाधानं विवक्षितमित्याह समाहित इति।मत्परः इत्येतावता कथमन्योन्याश्रयादिपरिहार इत्यत्राह मनसीति। अत्राशेषशब्देनोपायविरोधिसर्वकर्मसङ्ग्रहः। निर्मलीकृतं रजस्तमोविरहितं तत एव हि शब्दादिविषयानुरागरहितम्। अत्र प्रज्ञाशब्दस्य ज्ञाननिष्ठाफलपर्यन्तत्वमात्मदर्शनशब्देनोक्तम्। शुभाश्रयानुसन्धानस्य कल्मषविनाशकत्वे स्मृत्यन्तरसंवादमाह यथेति। आत्मदर्शनमन्तरेणैव इन्द्रियजयसिद्धेर्नान्योन्याश्रयः। अतः पूर्वोक्तसाध्यसाधनभावोपपत्तिरित्युत्तरार्धेनोच्यत इत्याह तदाहेति।।।2.62 2.63।।उक्तान्योन्याश्रयणफलभूताया इन्द्रियजयात्मदर्शनयोरसिद्धेः प्रकारः श्लोकद्वयेन प्रपञ्च्यत इत्याह एवमिति। अदृष्टात्मस्वरूपस्य विषयान् ध्यायत इत्यनुवादसिद्धां विषयेषु स्वरसवाहितां सहेतुकामाह अनिरस्तेति। अत्र संयम्येति निमीलनादिमात्रकृतं निवारणमुच्यते। उपजायत इत्यत्रोपसर्गाभिप्रेतं विविच्य दर्शयति अतिप्रवृद्धो जायत इति। सङ्गकामयोरभेदात्कार्यकारणभावानुपपत्तिरित्यत्राह कामो नामेति। विपाकदशाशब्देन सामान्यत उक्तेऽपि व्यावृत्ताकारप्रतिपत्तिर्न स्यादिति तल्लक्षणमाह पुरुष इति। सर्वदा कामस्य क्रोधहेतुत्वं नास्तीत्यत उक्तंविषये चासन्निहित इति। न केवलं कामप्रतिबन्धकानेव पुरुषान् प्रति क्रोधः अपितु कृत्याकृत्यविवेकान्धतया तस्यां दशायामुपलभ्यमानान् सर्वान् प्रत्यपीति द्योतनायसन्निहितानित्युक्तम्। ईश्वरोऽपि हि क्रोधवेगमभिनयन कस्मिंश्चिदेव रक्षसि द्रुह्यतिसदेवगन्धर्वमनुष्यपन्नगं जगत्सशैलं परिवर्तयाम्यहम् वा.रा.3।64।76 इत्याह। अयं चाभिजायत इत्यत्रोपसर्गाभिप्रेतार्थः अभितो जायत इत्यर्थः। समित्येकीकारे ततोऽत्र सम्मोहः कृत्याकृत्याविवेकात्मा मोह इत्यभिप्रायेणाह कृत्येति। सम्मोहस्य स्मृतिभ्रंशहेतुत्वेऽवान्तरव्यापारमाह तयेति।कुद्धः पापं न कुर्यात्कः क्रुद्धो हन्याद्गुरूनपि म.भा.3 इत्याद्यनुसारेणोक्तंसर्वमिति।ततश्चेति। सावान्तरव्यापारात्सम्मोहादित्यर्थः। स्मर्तव्ये प्रस्तुतविषये स्मृतिभ्रंशं योजयति प्रारब्ध इति। स्मृतिभ्रंशादित्युत्तरवाक्यश्रृङ्खलावशात् स्मृतिविभ्रमशब्दस्य तदेकार्थत्वायोक्तंस्मृतिभ्रंशो भवतीति। बुद्धिनाश इत्यत्र प्रकृतं बुद्धेर्विशेषमाह आत्मेति। न तावदिह सामान्यतो ज्ञानमात्रं बुद्धिशब्दार्थः न चेतःपूर्वमात्मदर्शनं सिद्धम् न च भविष्यदात्मदर्शनादिकमिदानीं नाशयोग्यम्। अतस्तल्लिप्सया कृतस्तदुपायानुष्ठानाध्यवसाय इहोपायस्मृतिसाध्यो बुद्धिशब्देनोच्यत इति भावः। प्रणश्यतीत्यत्र नित्यस्यात्मनो नाशो ह्यसत्समत्वम्। तच्च यथावस्थिताकारानुपलम्भः। स च देहात्मभ्रमादिकृतः तत्रापि हेतुर्देहसम्बन्ध इत्यभिप्रायेणोक्तं संसारे निमग्न इति।।।2.64।।अथ तानि सर्वाणीत्युक्तार्थकरणेऽन्योन्याश्रयपरिहारप्रकारः प्रयोजनभूतसंसारनिवृत्तिश्च श्लोकद्वयेन प्रपञ्च्यते रागद्वेषेति। रागद्वेषवियोगो हि कुतः इत्यत्र पूर्वोक्त एव हेतुरित्यभिप्रायेणाह उक्तेनेति। रागद्वेषवियोगोऽत्र इन्द्रियाणामात्मवश्यताहेतुः विषायंश्चरन्नित्यनेन विषयभोगभ्रमव्युदासाय आत्मवश्यत्वफलितमाह विषयांस्तिरस्कृत्य वर्तमान इति। चरतिरत्र गत्यर्थः आक्रमणरूप गतिपरः भक्षणार्थो वा संहारपर इत्युभयथाऽपि तत्तिरस्कारार्थत्वमत्र विवक्षितम्। तिरस्कारोऽत्रानादरः तथाच नैघण्टुकाः अनादरः परिभवः परीभावस्तिरस्क्रिया अमरः1।7।22 इति। बाह्येन्द्रियतद्विषयविजयो हि मनोविजयार्थ इत्यभिप्रायेणाह विधेयमना इति। विधेयात्मेति मनसः प्रसक्तत्वात्प्रसन्नचेतसः इति वक्ष्यमाणत्वाच्च। प्रसादोऽत्र मनोनैर्मल्यमित्याह निर्मलेति।।।2.65।।प्रसादे इति श्लोके प्रसादहानिशब्दयोः क्रमात् षष्ठीद्वयान्वयभ्रमं व्युदस्यन्नन्वयप्रकारमाह अस्येति।दुःखाज्ञानमला धर्माः प्रकृतेस्ते न चात्मनः वि.पु.6।7।22 इत्याद्यभिप्रेतौपाधिकत्वेन हानियोग्यत्वार्थमाह प्रकृतीति। प्रतिबन्धकाभावे ह्याशु कार्योत्पत्तिरित्यभिप्रायेण प्रसन्नचेतस इत्यस्यार्थमाह आत्मावलोकनविरोधिदोषरहितमनस इति। मनःप्रसादस्य सर्वदुःखहानिहेतुत्वमात्मदर्शनहेतुत्वादुपपद्यत इति हेत्वर्थस्यहिशब्दस्यार्थमाह अत इति।।।2.66।।अथ पूर्वोक्तान्योन्याश्रयफलभूतामात्मदर्शनासिद्धिंबुद्धिनाशात्प्रणश्यति 2।63 इत्येतद्विवरणरूपेणानूद्य ततः परमप्रयोजनस्यापि अलाभप्रकार उच्यते नास्तीति।युक्त आसीत मत्परः 2।61 इति पूर्वोक्तस्य निवृत्तिरयुक्तशब्देनोच्यत इति तात्पर्येणाह मयीति।यततो ह्यपि 2।60 इति पूर्वोक्तं स्मारयति स्वयत्नेनेति। नास्तीत्यनेनाभिप्रेतमाह कदाचिदपीत्यादिना। अतिचिरकालप्रयासेनापीत्यर्थः। द्वितीयपादस्थमयुक्तस्येति पदं श्रृङ्खलौचित्यायायुक्तत्वफलभूतबुद्ध्यभावलक्षकमिति तात्पर्येणाह अत एवेति। यद्वा तस्येत्ययुक्तपरामर्शः। अत एवेति तु बुद्ध्यभावादेवेत्यर्थः। अथवा परम्परया हेतुत्वमभिप्रेत्यायुक्तत्वादेवेति विवक्षा भिन्नविषयभावनान्तरनिषेधायोगात्तद्भावनेत्युक्तम्।रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते 2।59रागद्वेषवियुक्तैस्तु 2।34सुखेषु विगतस्पृहः 2।56 इत्याद्यानुगुण्यन शान्ति विशिनष्टि विषयस्पृहा शान्तिरिति। अशान्तस्यैव स्वर्गादिसुखलाभादमृतत्वप्रकरणसिद्धं सुखस्य विशेषमाह नित्यनिरतिशयेति।।।2.67।।अनेन श्लोकेन प्रत्याहारादियोगावयवचतुष्टयस्य तत्फलस्य निश्श्रेयसस्य च यथासम्भवमभिधातात्पर्याभ्यां पूर्वपूर्वाभावादुत्तरोत्तरस्यालाभः सूचितो भवति। अथेन्द्रियनिग्रहाभावे बुद्ध्यभावस्य पूर्वोक्तस्य प्रकारःइन्द्रियाणाम् इत्यनन्तर श्लोकेनोच्यत इत्यपुनरुक्तिः आदरार्थं वा पुनरुक्तिरित्यभिप्रायेणाह पुनरपीति। केवलस्पन्दादिमात्रव्युदासायविषयेष्वित्युक्तम्। इन्द्रियाणां सर्वेषां न विषयेषु सञ्चारोऽस्ति अतस्तदौन्मुख्यमर्थ इति व्यञ्जनायइन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते 5।9 इति प्रयोगान्तरानुसारेणवर्तमानानामित्युक्तम्। यत्तच्छब्दयोर्मनोविषयत्वमेवोचितं प्रज्ञाहरणे तस्यैव प्रधानत्वात् मनसो बाह्येन्द्रियानुविधाने सर्वेन्द्रियसाधारण्येन वक्तव्ये यदिति निर्धारणस्य प्रयोजनाभावात् बाह्येन्द्रियस्य मनोनुविधाने प्रज्ञाहरणाभावाच्च।यद्येकं क्षरतीन्द्रियम् इति मनुवचने 2।99 तु मनसोऽनुक्तत्वादिन्द्रियशब्दाभ्यासात् एकशब्दबलाच्च निर्धारणार्थतैव। न च तत्तुल्यत्वमस्यापि वाक्यस्य निर्बन्धनीयमिति कृत्वावर्तनमनु यन्मन इत्याद्युक्तम्।विधीयते इत्यस्य कर्त्रपेक्षां पूरयति पुरुषेणेति। स्वस्यैवायमविनय इति भावः। अनभिसंहितदेशप्रापणं हि दृष्टान्तेऽभिप्रेतमिति प्रदर्शयन् हरतेर्विनाशनार्थताभ्रमव्युदासाय चाह विषयप्रवणामिति।अम्भसि इत्यस्य हरतिनाऽन्वयभ्रान्तिमपाकरोति अम्भसि नीयमानामिति। अनिष्टविषयप्रापणनिदर्शनत्वायोक्तं प्रतिकूल इति।।।2.68।।यदा संहरते 2।58 इत्याद्युपक्रान्त इन्द्रियनिग्रहोपदेश उपसंह्रियते तस्मादिति श्लोकेन।तस्मादिति इन्द्रियानुविधायिनो मनसः प्रज्ञाप्रतिष्ठाविरोधित्वादित्यर्थः। निग्रहहेतुं प्रागुक्तमनुकर्षति उक्तेनेत्यादिना।।।2.69।।एवमुपायमुपदिश्य फलमुपदिशतीत्याह एवमिति। प्रागुक्तस्यैव फलस्य प्रशंसापरत्वादपुनरुक्तिः अतोया निशा इत्यादिभिः त्रिभिः श्लोकैःप्रजहाति 2।55 इत्यादिनोक्ताऽवस्थाचतुष्टयसिद्धिर्निगम्यते।विहाय कामान् 2।71निःस्पृहः 6।18 इत्युभाभ्यां यतमानव्यतिरेकसंज्ञयोरुपलक्षणम्। यद्वा श्लोकद्वयेनावस्थाचतुष्टयफलं तृतीयेन त्ववस्थाचतुष्टयं निगम्यत इति विभागः।या इति प्रसिद्धतयेष्टनिर्देशोऽत्र प्रस्तुतप्रज्ञाविषयः। साक्षान्निशाया देशकालभेदेन विपरिवर्तमानायाः सर्वभूतसाधारण्याभावादिति तात्पर्येणाह या आत्मविषयेति। उपचारनिमित्तं व्यनक्ति निशेवाप्रकाशेति। स्वप्रकाशाया अपि बुद्धेरप्रसृतदशायामप्रकाशत्वमुपपद्यते। इन्द्रियनिग्रहस्य प्रकृतत्वात्स एवात्र संयमिशब्दार्थ इत्यभिप्रायेणोक्तम् इन्द्रियसंयमीति। या पुनःत्रयमेकत्र संयमः इति धारणाध्यानसमाधीनां समुच्चितानां संयमत्वेन पातञ्जलपरिभाषा साऽत्र न विवक्षितेति भावः। इन्द्रियसंयमस्य बुद्धिजनने अवान्तरव्यापारं पूर्वोक्तमाह प्रसन्नमना इति। जागर्तीत्यत्र मुख्यार्थायोगादाह आत्मानमिति। बुद्धौ जागरणशब्दनिर्दिष्टं प्रबुद्धत्वं प्रकाशमानप्रसृतबुद्धिविशिष्टत्वमेव सा च सविषया प्रकाशते इति भावः। बुद्धिप्रकरणत्वाद्यस्यामिति निर्देशोऽपि बुद्धिविषयः सा च बुद्धिः भूतानीत्यसंयमिनिष्ठतया व्यपदेशादात्मदर्शिनो निशात्ववचनाच्चशब्दादिविषयेत्युक्तम्।सर्वभूतानामित्यत्र समासनिमग्नोऽपि सर्वशब्दो भूतानीत्यत्रापि बुद्ध्या निष्कृष्यान्वेतव्य इतिसर्वाणीत्युक्तम्।पश्यत इत्यत्र कर्माकाङ्क्षायांआत्मानमिति प्रकरणसिद्धमुक्तम्।।।2.70।।एवं शब्दाद्यदर्शिनः पर्यवसितात्मदर्शनमयी सिद्धिरुक्ता एतस्या एव सिद्धेरर्वाचीनामदूरविप्रकृष्टां शब्दादिविषयदर्शनेऽप्यविकारतारूपामवस्थामाह आपूर्यमाणमिति। अत्र प्रवेशाप्रवेशयोरविशेषोपलम्भस्य विवक्षितत्वात्आपूर्णमाणमिति न प्रविशन्तीभिर्नादेयीभिरद्भिरापूरणं विवक्षितम् अपितु दार्ष्टान्तिके विवक्षितायाः स्वात्मावलोकनतृप्तेः प्रतिनिर्देशः क्रियते इति दर्शयति स्वेनैवेति। अचलप्रतिष्ठशब्दोऽत्र सीमातिलङ्घनादिहेतुभूतवृद्धिह्रासराहित्यपर इत्याह एकरूपमिति। नादेया इत्यनेन समुद्रप्रयत्ननिरपेक्षं स्वतस्समुद्रप्रावण्यं सूच्यते। दृष्टान्ते निर्मथितार्थमाह आसामिति। कामा इत्यत्र कर्मणि व्युत्पत्तिमभिप्रेत्याह शब्दादयो विषया इति। अविकारतासिद्ध्यर्थं यच्छब्दस्य पूर्वोक्तसंयमित्वाभिप्रायतामाह यं संयमिनमिति। रूपादिविषयाणां पुरुषे प्रवेशो नान्नपानादिवच्छरीरान्तःप्रवेशः अतः तत्तदिन्द्रियद्वारा ज्ञानविषयत्वमेव विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह इन्द्रियेति। यस्येति शेषः। तद्वदित्यनेन सिद्धमाह शब्देति। नित्यनिरवद्यनिरतिशयस्वात्मानुभवानन्दसन्दोहमग्नोनश्वरदुःखमिश्रसातिशयविषयानुभवानन्दबिन्दुषु न सज्जते इति भावः।न कामकामी इत्येतत्पूर्वोक्तस्यार्थस्य व्यतिरेकेण दृढीकरणमिति व्यञ्जयति य इति। विकारस्य प्रसक्तत्वात् कामित्वं स्वकार्यं विकारमप्यजहल्लक्षणया लक्षयतीतिविक्रियत इत्युक्तम्। कामान्कामयितुं शीलं यस्य स कामकामीकदाचिदपीति यावत्कामपरित्यागमित्यर्थः। एतेन यो विक्रियते स न शान्तिमाप्नोतीत्यनयोरैकार्थ्यशङ्का परिहृता। विषयदर्शने विक्रियमाणोऽन्यदापि स्पृहारहितो न स्यादित्यर्थः।।।2.71।।किं कामकामिनः सर्वदा शान्तिर्न स्यात् इति शङ्कामपाकुर्वन्नदर्शनाविकारत्वावस्थयोः कारणभूतां विषयसङ्ग्रहणस्पृहाममकारदेहात्मभ्रमाणां क्रमात्कार्यकारणभावनिबन्धनानुलोमप्रतिलोमान्वयव्यतिरेकद्वयानां निवृत्तिरूपामवस्थामाह विहायेति। पूर्वत्रात्र च श्लोके प्रवृत्तं कामशब्दंनिर्वक्तिकाम्यन्त इति कामा इति।चरतीति वर्तत इत्यर्थः। आत्मदर्शिपुरुषपर्वभेदविषयौ पूर्वश्लोकौ अयं त्वात्मदर्शनार्थिपुरुषविषय इति विवेकं द्योतयति आत्मानं दृष्ट्वेति। ।।2.72।।अनयोः श्लोकयोः 70।71 विषयानुभवनिवृत्तिलक्षणासा निशा 69 इति पूर्वश्लोकोक्तशान्तिरुक्ताएषा इति श्लोकेन परमप्रयोजनतया प्रकृतायाः संसारनिवृत्तिलक्षणशान्तेरुपसंहारः क्रियते यद्वा श्लोकत्रये शान्तिनिर्वाणशब्दाभ्यामेकमेव फलमुच्यते।ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति 4।69 इत्यत्रपरं निर्वाणमाप्नोति इति हि व्याख्यास्यति।एषा ब्राह्मी इति श्लोकेनाध्यायार्थस्य निगमनं फलाव्यभिचारस्थापनं च।एषा इति निर्देशस्य पूर्वोक्तनिखिलप्रकारपरामर्शित्वात्तं प्रकारमाह नित्येति। स्थितधीर्लक्षं यस्याः सा स्थितधीलक्षा ज्ञानयोगाख्यस्थितप्रज्ञतासाधनभूतेत्यर्थः। ब्राह्मीत्यत्र तद्धितविवक्षितसम्बन्धविशेषं दर्शयति ब्रह्मप्रापिकेति। एनामित्यन्वादेशोऽपि सप्रकारपरामर्शीति व्यञ्जयति ईदृशीमिति। मोहनिषेधफलितमाह पुनरिति। अन्तकाल इत्युत्क्रान्तिकालभ्रमव्युदासायाह अन्तिमेऽपि वयसीति।उत्तमे चेद्वयसि साधुवृत्तः इत्यादिवत्। एतेन बाल्यादिषु विषयप्रवणस्यापि पश्चान्निर्विण्णस्याधिकारः सूचितः। किं पुनर्ब्रह्मचर्यादिकमारभ्य स्थितस्येति भावः। स्थित्यां स्थितिस्तत्सम्बन्धः। षष्ठीसमासभ्रमापाकरणायाह निर्वाणमयं ब्रह्मेति। निर्वाणब्रह्मशब्दयोः अर्वाचीनविषयतामाह सुखेति। ननु नित्यात्मज्ञानतत्साक्षात्कारयोरपि प्रकृतत्वात् कर्मनिष्ठामात्रनिगमनपरोऽयं श्लोक इत्ययुक्तमिति शङ्कायां प्रधानभूततदनुबन्धेन अन्यकथनमिति दर्शयन् उत्तराध्यायचतुष्टयसङ्गतिं वक्तुमुक्तमर्थं च सङ्कलय्य दर्शयन्नित्यात्मेत्यादिकं द्वितीयार्थसङ्ग्रहश्लोकमपि व्याख्याति एवमिति। मोहस्य हेतुस्वरूपकार्याणि विशदयति आत्मेत्यादिना निवृत्तस्येत्यन्तेन। व्याख्यानव्याख्येयात्मना सङ्ग्रहश्लोकस्थसमासान्तर्गतपदद्वन्द्वद्वयस्य यथासङ्ख्य सम्बन्धं व्यनक्ति नित्यात्मेत्यादिना।साङ्ख्यबुद्धिरिति। कर्मयोगावाक्एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिः 2।39 इत्युक्तमात्मतत्त्वज्ञानमुच्यते तद्व्यक्त्यर्थं हिनित्यात्मविषयेत्युक्तम्। ज्ञानयोगस्तु कर्मयोगसाध्यतयानन्तरं पृथगेवोपादीयते।स्थितधीलक्षेति। अ
।।2.42।।नन्वेवं फलोत्तमतां ज्ञात्वा सर्व एवमेव व्यवसायात्मिकां बुद्धिं कथं न कुर्वन्तीत्याशङ्क्याह यामिमामिति त्रयेण। ये इमां पुष्पितां यां वाचं फलादिरहितां कुत्सितपुष्पयुक्तलतावददूरदृष्टरम्यां प्रवदन्ति प्रकर्षेण फलरूपतया वन्दति तेषां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न विधीयते नोत्पद्यत इत्यर्थः। ननु तेऽपि शास्त्रोक्तज्ञानवन्तः कथं तथा वदन्ति इत्याकाङ्क्षायामाह अविपश्चित इति। मूर्खा अज्ञाना इत्यर्थः। तेषां मूढत्वं विशेषणैः प्रकटयति वेदवादरता इति वेदोक्तफलककर्मकरणमेवोचितं न तु निष्कामतया ते तथा अत एव नान्यदस्तीति वादिनः वेदोक्तव्यतिरिक्तं कर्मफलं नास्तीति वदनशीलाः।
।।2.42।।उत्तरार्धमेव विवृणोति  यामिमामित्यादिना।  यां पुष्पितां पुष्पितद्रुमवद्दूरतो रमणीयां वाचम्अक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवतिअपाम सोमममृता अभूम इत्येवंरूपां प्रवदन्ति। अविपश्चितः अव्यवसायिनो मूढाः। यतो वेदवादरताः वेदान्तर्गतेषु अर्थवादेषुयस्य पर्णमयी जुहूर्भवतिन पापँ् श्लोकँ् शृणोति इत्येवमादिषु रताः बद्धश्रद्धाः अतएव कर्मणोऽन्यत् आत्मज्ञानं तत्फलं मोक्षश्च नास्तीति वादिनो वदनशीलाः।
।।2.42।।   अव्यवसायिनां तु व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवति प्रतिबन्धबाहुल्यादित्याशयेनाह  यामिति  त्रिभिः। यामिमां वक्ष्यमाणां पुष्पितां फलाप्रदपुष्पितवृक्षवच्छोभमानां श्रवणमात्ररमणीयांअपाम सोमभमृता अभूम इत्यादिरुपां वाचं प्रवदन्ति अविपश्चितो बुद्धिरहिता वेदस्य वादेऽर्थवादेअक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति इत्येवंरुपे रताः प्रीतिमन्तोऽतएव नान्यन्मोक्षादिकं स्वर्गादन्यदस्तीति वादिनः। त्वया तु मम मतमेवाभ्युपेयमिति सूचयन्नाह  हे पार्थेति।
2.42 याम which? इमाम् this? पुष्पिताम् flowery? वाचम् speech? प्रवदन्ति utter? अविपश्चितः the unwise? वेदवादरताः takign pleasure in the eulogising words of the Vedas? पार्थ O Partha? न not? अन्यत् other? अस्ति is? इति thus? वादिनः saying.Commentary Unwise people who are lacking in discrimination lay great stress upon the Karma Kanda or the ritualistic portion of the Vedas? which lays down specific rules for specific actions for,the attainment of specific fruits and ectol these actions and rewards unduly. They are highly enamoured of such Vedic passages which prescribe ways for the attainment of heavenly enjoyments. They say that there is nothing else beyond the sensual enjoyments in Svarga (heaven) which can be obtained by performing the rites of the Karma Kanda of the Vedas.There are two main divisions of the Vedas -- Karma Kanda (the section dealing with action) and Jnana Kanda (the section dealing with knowledge). The Karma Kanda comprises the Brahmanas and the Samhitas. This is the authority for the Purvamimamsa school founded by Jaimini. The followers of this school deal with rituals and prescribe many of them for attaining enjoyments and power here and happiness in heaven. They regard this as the ultimate object of human existence. Ordinary people are attracted by their panegyrics. The Jnana Kanda comprises the Aranyakas and the Upanishads which deal with the nature of Brahman or the Supreme Self.Life in heaven is also transitory. After the fruits of the good actions are exhausted? one has to come back to this earthplane. Liberatio or Moksha can only be attained by knowledge of the Self but not by performing a thousand and one sacrifices.Lord Krishna assigns a comparatively inferior position to the doctrine of the Mimamsakas of performing Vedic sacrifices for obtaining heaven? power and lordship in this world as they cannot give us final liberation.
2.42 Flowery speech is uttered by the unwise, taking pleasure in the eulogising words of the Vedas, O Arjuna, saying, "There is nothing else."
2.42 Only the ignorant speak in figurative language. It is they who extol the letter of the scriptures, saying, There is nothing deeper than this.'
2.42-2.43 O son of Prtha, those undiscerning people who utter this flowery talk which promises birth as a result of rites and duties, and is full of various special rites meant for the attainment of enjoyment and affluence , they remain engrossed in the utterances of the Vedas and declare that nothing else exists; their minds are full of desires and they have heaven as the goal.
2.42 Partha, O son of Prtha; those devoid of one-pointed conviction, who pravadanti, utter; imam, this; yam puspitam vacam, flowery talk, which is going to be stated, which is beautiful like a tree in bloom, pleasant to hear, and appears to be (meaningful) sentences [Sentences that can be called really meaningful are only those that reveal the self.-Tr.]; who are they? they are avipascitah, people who are undiscerning, of poor intellect, i.e. non-discriminating; veda-vada-ratah, who remain engrossed in the utterances of the Vedas, in the Vedic sentences which reveal many panegyrics, fruits of action and their means; and vadinah, who declare, are apt tosay; iti, that; na anyat, nothing else [God, Liberation, etc.]; asti, exists, apart from the rites and duties conducive to such results as attainment of heaven etc. And they are kamatmanah, have their minds full of desires, i.e. they are swayed by desires, they are, by nature, full of desires; (and) svarga-parah, have heaven as the goal. Those who accept heaven (svarga) as the supreme (para) human goal, to whom heaven is the highest, are svarga-parah. They utter that speech ( this is supplied to construct the sentence ) which janma-karma-phala-pradam, promises birth as a result of rites and duties. The result (phala) of rites and duties (karma) is karma-phala. Birth (janma) itself is the karma-phala. That (speech) which promises this is janma-karma-phala-prada. (This speech) is kriya-visesa-bahulam, full of various special rites; bhoga-aisvarya-gatim-prati, for the attainment of enjoyment and affluence. Special (visesa) rites (kriya) are kriya-visesah. The speech that is full (bahula) of these, the speech by which that is full (bahula) of these, the speech by which these, viz objects such as heaven, animals and sons, are revealed plentifully, is kriya-visesa-bahula. Bhoga, enjoyment, and aisvarya, affluence, are bhoga-aisvarya. Their attainment (gatih) is bhoga-aisvarya-gatih. (They utter a speech) that is full of the specialized rites, prati, meant for that (attainment). The fools who utter that speech move in the cycle of transmigration. This is the idea.
2.42. - 2.43. O son of Prtha ! Those, whose very nature is desire, whose goal is heaven, who esteem only the Vedic declaration [of fruits], who declare that there is nothing else, who proclaim this flowery speech about the paths to the lordship of the objects of enjoyment-[the paths] that are full of different actionsand who desire action alone as a fruit of their birth-they are men without insight.
2.42 See Comment under 2.44
2.42 - 2.44 The ignorant, whose knowledge is little, and who have as their sole aim the attainment of enjoyment and power, speak the flowery language i.e., having its flowers (show) only as fruits, which look apparently beautiful at first sight. They rejoice in the letter of the Vedas i.e., they are attached to heaven and such other results (promised in the Karma-kanda of the Vedas). They say that there is nothing else, owing to their intense attachment to these results. They say that there is no fruit superior to heaven etc. They are full of worldly desires and their minds are highly attached to secular desires. They hanker for heaven, i.e. think of the enjoyment of the felicities of heaven, after which one can again have rirth which offers again the opportunity to perform varied rites devoid of true knowledge and leads towards the attainment of enjoyments and power once again. With regard to those who cling to pleasure and power and whose understanding is contaminated by that flowery speech relating to pleasure and lordly powers, the aforesaid mental disposition characterised by resolution, will not arise in their Samadhi. Samadhi here means the mind. The knowledge of the self will not arise in such minds. In the minds of these persons, there cannot arise the mental disposition that looks on all Vedic rituals as means for liberation based on the determined conviction about the real form of the self. Hence, in an aspirant for liberation, there should be no attachment to rituals out of the conviction that they are meant for the acisition of objects of desire only. It may be estioned why the Vedas, which have more of love for Jivas than thousands of parents, and which are endeavouring to save the Jivas, should prescribe in this way rites whose fruits are infinitesimal and which produce only new births. It can also be asked if it is proper to abandon what is given in the Vedas. Sri Krsna replies to these estions.
2.42 - 2.44 O! Partha, the unwise, who rejoice in the letter of the Vedas, say, 'There is nothing else.' They are full only of wordly desires and they hanker for heaven. They speak flowery words which offer rirth as the fruit of work. They look upon the Vedas as consisting entirely of varied rites for the attainment of pleasure and power. Those who cling so to pleasure and power are attracted by that speech (offering heavenly rewards) and are unable to develop the resolute will of a concentrated mind.
।।2.42।।जिनमें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं है वे इस आगे कही जानेवाली पुष्पित वृक्षोंजैसी शोभित सुननेमें ही रमणीय जिस वाणीको कहा करते हैँ। कौन कहा करते हैं अज्ञानी अर्थात् अल्पबुद्धिवाले अविवेकी जो कि बहुत अर्थवाद और फलसाधनोंको प्रकाश करनेवाले वेदवाक्योंमें रत हैं। तथा हे पार्थ जो ऐसे भी कहनेवाले हैं कि स्वर्गप्राप्ति आदि फलके साधनरूप कर्मोंसे अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं।
।।2.42।।  याम् इमां  वक्ष्यमाणां  पुष्पितां  पुष्पित इव वृक्षः शोभमानां श्रूयमाणरमणीयां  वाचं  वाक्यलक्षणां  प्रवदन्ति । के  अविपश्चितः  अमेधसः अविवेकिन इत्यर्थः।  वेदवादरताः  बह्वर्थवादफलसाधनप्रकाशकेषु वेदवाक्येषु रताः हे  पार्थ  न  अन्यत्  स्वर्गपश्वादिफलसाधनेभ्यः कर्मभ्यः  अस्ति इति  एवं  वादिनः  वदनशीलाः।।ते च
।।2.42।।यामिमाम् इतिश्लोकस्य प्रकृतोपयोगादर्शनात्सङ्गतिमाह  स्यु रिति। न तु वैदिकान्यप्यव्यवसायात्मकानि। ततः किं प्रकृते इत्यत उक्तं  तेऽपी ति। व्यवसायात्मकं मतं वैदिकमतमवलम्बमाना अपि केचित् वैदिकानि सर्वाण्येव कर्माणि स्वर्गादिफलान्याहुः। भवांस्तु काम्यान्येव स्वर्गादिफलकानि निष्कामानीश्वरार्पणबुद्ध्याऽनुष्ठितानि तु ज्ञानार्थानीत्यभिप्रैति। तथाच त्वद्वचने निष्ठानुपपत्तिस्तदवस्थेति भावः।  आह  तेषां वैदिकाभासत्वप्रदर्शनाय निन्दामिति शेषः। भोगैश्वर्यगतेरपि प्रकृतत्वात्तयेति तत्परामर्शभ्रान्तिं वारयति  यामि ति। अन्यथा यच्छब्दः साकाङ्क्षोऽनन्वितः स्यादिति भावः। वाचः पुष्पितत्वं कथं इत्यत आह  मोक्षे ति। अत्यल्पत्वेनोपमा। वेदवादरता इत्येतत्कथं निन्दावचनं इत्यत आह  वेदे ति। कथमेतस्मात्पदाल्लभ्यते कथं चैषाऽपि निन्दा इत्यत आह  वेदै रिति। वादशब्दोऽत्रापाततः प्रतिपादने वर्तते। वक्ष्यते चात्राभिधानम्। आपाततः प्रतिपाद्यं च कर्मादि सावधारणं चैतत्। अब्भक्षो वायुभक्ष इति यथेत्यर्थः। सावधारणत्वं कुत इति चेत् उत्तरपदबलादिति तानि पठति  नान्यदि ति। आपाततः प्रतीतार्थादन्यस्य सद्भावे भवेदेषां निन्दा। कोऽसौ कुतश्च इत्यत आह  परोक्षे ति। क्वचित्प्रकटवचनादिवेत्युक्तम्। अतएव प्राय इत्याह  देवा  वेदाभिमानिनः। तत्प्रकारसूचनार्थं मां विधत्त इत्याद्युदाहृतम्। वदन्ति वेदाः।
।।2.42।।स्युरवैदिकानि मतानि अव्यवसायात्मकानि न तु वैदिकानि। तेऽपि हि केचित्कर्माणि स्वर्गादिफलान्येवाहुरित्यत आह यामिमामिति। यामाहुस्तयेत्यन्वयः। मोक्षफलमपेक्ष्य स्वर्गादिपुष्पयुक्तां वाचं प्रवदन्ति। वेदवादरताः कर्मादिवाचकवेदवादरताः। वेदैर्यन्मुखत उच्यते तत्रैव रताः। नान्यदस्तीतिवादिनःपरोक्षविषया वेदाः परोक्षप्रिया इव हि देवाः ऐ.उ.1।14बृ.उ.4।2।2मां विधत्तेऽभिधत्ते माम् भाग.11।21।43 इत्यादिभिः पारोक्ष्येण प्रायो भगवन्तं वदन्ति।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः। वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।2.42।।
যামিমাং পুষ্পিতাং বাচং প্রবদন্ত্যবিপশ্িচতঃ৷ বেদবাদরতাঃ পার্থ নান্যদস্তীতি বাদিনঃ৷৷2.42৷৷
যামিমাং পুষ্পিতাং বাচং প্রবদন্ত্যবিপশ্িচতঃ৷ বেদবাদরতাঃ পার্থ নান্যদস্তীতি বাদিনঃ৷৷2.42৷৷
યામિમાં પુષ્પિતાં વાચં પ્રવદન્ત્યવિપશ્િચતઃ। વેદવાદરતાઃ પાર્થ નાન્યદસ્તીતિ વાદિનઃ।।2.42।।
ਯਾਮਿਮਾਂ ਪੁਸ਼੍ਪਿਤਾਂ ਵਾਚਂ ਪ੍ਰਵਦਨ੍ਤ੍ਯਵਿਪਸ਼੍ਿਚਤ। ਵੇਦਵਾਦਰਤਾ ਪਾਰ੍ਥ ਨਾਨ੍ਯਦਸ੍ਤੀਤਿ ਵਾਦਿਨ।।2.42।।
ಯಾಮಿಮಾಂ ಪುಷ್ಪಿತಾಂ ವಾಚಂ ಪ್ರವದನ್ತ್ಯವಿಪಶ್ಿಚತಃ. ವೇದವಾದರತಾಃ ಪಾರ್ಥ ನಾನ್ಯದಸ್ತೀತಿ ವಾದಿನಃ৷৷2.42৷৷
യാമിമാം പുഷ്പിതാം വാചം പ്രവദന്ത്യവിപശ്ിചതഃ. വേദവാദരതാഃ പാര്ഥ നാന്യദസ്തീതി വാദിനഃ৷৷2.42৷৷
ଯାମିମାଂ ପୁଷ୍ପିତାଂ ବାଚଂ ପ୍ରବଦନ୍ତ୍ଯବିପଶ୍ିଚତଃ| ବେଦବାଦରତାଃ ପାର୍ଥ ନାନ୍ଯଦସ୍ତୀତି ବାଦିନଃ||2.42||
yāmimāṅ puṣpitāṅ vācaṅ pravadantyavipaśicataḥ. vēdavādaratāḥ pārtha nānyadastīti vādinaḥ৷৷2.42৷৷
யாமிமாஂ புஷ்பிதாஂ வாசஂ ப்ரவதந்த்யவிபஷ்ிசதஃ. வேதவாதரதாஃ பார்த நாந்யதஸ்தீதி வாதிநஃ৷৷2.42৷৷
యామిమాం పుష్పితాం వాచం ప్రవదన్త్యవిపశ్ిచతః. వేదవాదరతాః పార్థ నాన్యదస్తీతి వాదినః৷৷2.42৷৷
2.43
2
43
।।2.42 -- 2.43।। हे पृथानन्दन ! जो कामनाओंमें तन्मय हो रहे हैं, स्वर्गको ही श्रेष्ठ माननेवाले हैं, वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं, भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं - ऐसा कहनेवाले हैं, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकारकी जिस पुष्पित (दिखाऊ शोभायुक्त) वाणीको कहा करते हैं, जो कि जन्मरूपी कर्मफलको देनेवाली है तथा भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये बहुतसी क्रियाओंका वर्णन करनेवाली है।
।।2.43।। कामनाओं से युक्त? स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले लोग भोग और ऐश्वर्य को प्राप्त कराने वाली अनेक क्रियाओं को बताते हैं जो (वास्तव में) जन्मरूप कर्मफल को देने वाली होती हैं।।
।।2.43।। no commentary.उससे (वाणी से) जिनका चित्त हर लिया गया है ऐसे भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति रखने वाले पुरुषों के अन्तकरण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती अर्थात् वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य नहीं
।।2.43।। व्याख्या-- 'कामात्मानः'-- वे कामनाओंमें इतने रचे-पचे रहते हैं कि वे कामनारूप ही बन जाते हैं। उनको अपनेमें और कामनामें भिन्नता ही नहीं दीखती। उनका तो यही भाव होता है कि कामनाके बिना आदमी जी नहीं सकता, कामनाके बिना कोई भी काम नहीं हो सकता, कामनाके बिना आदमी पत्थरकी जड हो जाता है, उसको चेतना भी नहीं रहती। ऐसे भाववाले पुरुष  'कामात्मानः'  हैं। स्वयं तो नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती, पर कामना आती-जाती रहती है और घटती-बढ़ती है। स्वयं परमात्माका अंश है और कामना संसारके अंशको लेकर है। अतः स्वयं और कामना--ये दोनों सर्वथा अलग-अलग हैं। परन्तु कामनामें रचे-पचे लोगोंको अपने स्वरूपका अलग भान ही नहीं होता।  'स्वर्गपराः'-- स्वर्गमें बढ़िया-से-बढ़िया दिव्य भोग मिलते हैं, इसलिये उनके लक्ष्यमें स्वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है और वे उसकी प्राप्तिमें ही रात-दिन लगे रहते हैं। यहाँ  'स्वर्गपराः'  पदसे उन मनुष्योंकी बात कही गयी है, जो वेदोंमें, शास्त्रोंमें वर्णित स्वर्गादि लोकोंमें आस्था रखनेवाले हैं।  'वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः'-- वे वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंमें प्रीति रखनेवाले हैं अर्थात् वेदोंका तात्पर्य वे केवल भोगोंमें और स्वर्गकी प्राप्तिमें मानते हैं ,इसलिये वे 'वेदवादरताः' हैं। उनकी मान्यतामें यहाँके और स्वर्गके भोगोंके सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् उनकी दृष्टिमें भोगोंके सिवाय परमात्मा, तत्त्वज्ञान, मुक्ति, भगवत्प्रेम आदि कोई चीज है ही नहीं। अतः वे भोगोंमें ही रचे-पचे रहते हैं। भोग भोगना उनका मुख्य लक्ष्य रहता है।  'यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः'-- जिनमें सत्-असत्, नित्य-अनित्य, अविनाशी-विनाशीका विवेक नहीं है,ऐसे अविवेकी मनुष्य वेदोंकी जिस वाणीमें संसार और भोगोंका वर्णन है, उस पुष्पित वाणीको कहा करते हैं। यहाँ 'पुष्पिताम्' कहनेका तात्पर्य है कि भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाली वाणी केवल फूल-पत्ती ही है, फल नहीं है। तृप्ति फलसे ही होती है, फूल-पत्तीकी शोभासे नहीं। वह वाणी स्थायी फल देनेवाली नहीं है। उस वाणीका जो फल--स्वर्गादिका भोग है, वह केवल देखनेमें ही सुन्दर दीखता है, उसमें स्थायीपना नहीं है।
।।2.43 2.45।।तथाच यामिमामित्यादि। ये कामाभिलाषिणः ते स्वयमेतां वाचं वेदात्मिकां पुष्पितां भविष्यत्स्वर्गफलेन ( N omit भविष्यत् S reads भविष्यता) व्याप्तां वदन्ति। अत एव जन्मनः कर्मैव फलमिच्छन्ति ते अविपश्चितः। ते च तयैव स्वयं कल्पितया वेदवाचा अपहृतचित्ताः व्यवसायबुद्धियुक्ता अपि न समाधियोग्याः तत्र फलनिश्चयत्वात्। इति श्लोकत्रयस्य तात्पर्यम्।
।।2.43।। याम् इमां पुष्पितां  पुष्पमात्रफलाम् आपातरमणीयां  वाचम् अविपश्चितः  अल्पज्ञा भोगैश्वर्यगतिं प्रति वर्तमानां प्रवदन्ति  वेदवादरताः  वेदेषु ये स्वर्गादिफलवादाः तेषु सक्ताः  न अन्यद् अस्ति इति   वादिनः  तत्सङ्गातिरेकेण स्वर्गा देः अधिकं फलं न अन्यद् अस्ति इति वदन्तः।  कामात्मानः  कामप्रवणमनसः  स्वर्गपराः  स्वर्गपरायणाः स्वर्गादिफलावसाने पुन र्जन्मकर्मा ख्य फलप्रदां क्रियाविशेषबहुलां  तत्त्वज्ञानरहिततया क्रियाविशेषप्रचुरां तेषां  भोगैश्वर्यगतिं प्रति  वर्तमानां याम् इमां वाचं ये प्रवदन्ति इति सम्बन्धः।
।।2.43।।प्रकृतान्प्रवक्तृ़नविवेकिनो व्यवसायात्मकबुद्धिभाक्त्वासंभवसिद्ध्यर्थं विधान्तरेण विशिनष्टि  ते   चेति।  तेषां संसारपरिवर्तनपरिदर्शनार्थं प्रस्तुतां वाचमेव विशिनष्टि  जन्मेति।  ननु पुंसां कामस्वभावत्वमयुक्तं चेतनस्येच्छावतस्तदात्मत्वानुपपत्तेरिति तत्राह  कामपरा इति।  तत्परत्वं तत्तत्फलार्थित्वेन तत्तदुपायेषु कर्मस्वेव प्रवृत्ततया कर्मसंन्यासपूर्वकाज्ज्ञानाद्बहिर्मुखत्वम्। ननु कर्मनिष्ठानामपि   परमपुरुषार्थापेक्षया मोक्षोपाये ज्ञाने भवत्याभिमुख्यमिति नेत्याह  स्वर्गेति।  तत्परत्वं तस्मिन्नेवासक्ततया तदतिरिक्तपुरुषार्थराहित्यनिश्चयवत्त्वम्। उच्चावचमध्यमदेहप्रभेदग्रहणं जन्मवाचो यथोक्तफलप्रदत्वमप्रामाणिकमित्याशङ्क्यानुष्ठानद्वारा तदुपपत्तिरित्याह  क्रियेति।  क्रियाणामनुष्ठानानां यागदानादीनां विशेषा देशकालाधिकारिप्रयुक्ताः सप्ताहानेकाहलक्षणास्ते खल्वस्यां वाचि प्राचुर्येण प्रतिभान्तीत्यर्थः। कथं यथोक्तायां वाचि क्रियाविशेषाणां बाहुल्येनावस्थानमित्याशङ्क्य प्रकाश्यत्वेनेत्येतद्विशदयति  स्वर्गेति।  तथापि तेषां मोक्षोपायत्वोपपत्तेस्तन्निष्ठानां मोक्षाभिमुख्यं भविष्यति नेत्याह  भोगेति।  यथोक्तां वाचमभिवदतां पर्यवसानं दर्शयति  तद्बहुलामिति।
।।2.43।।किम्भूतास्तेऽविपश्चितः वेदवादतात्पर्यानभिज्ञाः। भोगैश्वर्यगतिं प्रति कामात्मानः कामयते आत्मा येषाम्। तथा स्वर्गलोक एव परः प्राप्यं फलं येषाम्। किम्भूतां वाचम् जन्मकर्मफलप्रदाम्। गतिविशेषणं वा। क्रियाविशेषबहुलां वाचं जन्मकर्मफलप्रदां वा प्रवदन्तीत्यन्वयः।
।।2.42 2.44।।अव्यवसायिनामपि व्यवसायात्मिका बुद्धिः कुतो न भवति प्रमाणस्य तुल्यत्वादित्याशङ्क्य प्रतिबन्धकसद्भावान्न भवतीत्याह त्रिभिः यामिमां वाचं प्रवदन्ति तया वाचापहृतचेतसामविपश्चितां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवतीत्यन्वयः। इमामध्ययनविध्युपात्तत्वेन प्रसिद्धां पुष्पितां पुष्पितपलाशवदापातरमणीयांसाध्यसाधनसंबन्धप्रतिभानान्निरतिशयफलाभावाच्च। कुतो निरतिशयफलत्वाभावस्तत्राह जन्मकर्मफलप्रदां जन्म चापूर्वशरीरेन्द्रियादिसंबन्धलक्षणं तदधीनं च कर्म तत्तद्वर्णाश्रमाभिमाननिमित्तं तदधीनं च फलं पुत्रपशुस्वर्गादिलक्षणं विनश्वरं तानि प्रकर्षेण घटीयन्त्रवदविच्छेदेन ददातीति तथा ताम्। कुतएवमत आह भोगैश्वर्यगतिं प्रति क्रियाविशेषबहुलां अमृतपानोर्वशीविहारपारिजातपरिमलादिनिबन्धनो यो भोगस्तत्कारणं च यदैश्वर्यं देवादिस्वामित्वं तयोर्गतिं प्राप्तिं प्रति साधनभूता ये क्रियाविशेषा अग्निहोत्रदर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादयस्तैर्बहुलां विस्तृताम्। अतिबाहुल्येन भोगैश्वर्यसाधनक्रियाकलापप्रतिपादिकामिति यावत्। कर्मकाण्डस्य हि ज्ञानकाण्डापेक्षया सर्वत्रातिविस्तृतत्वं प्रसिद्धम्। एतादृशीं कर्मकाण्डलक्षणां वाचं प्रवदन्ति प्रकृष्टां परमार्थस्वर्गादिफलामभ्युपगच्छन्ति। के। येऽविपश्चितो विचारजन्यतात्पर्यपरिज्ञानशून्याः। अतएव वेदवादरताः वेदे ये सन्ति वादा अर्थवादाःअक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति इत्येवमादयस्तेष्वेव रता वेदार्थसत्यत्वेनैवमेवैतदिति मिथ्याविश्वासेन संतुष्टाः। हे पार्थ अतएव नान्यदस्तीतिवादिनः कर्मकाण्डापेक्षया नास्त्यन्यज्ज्ञानकाण्डं सर्वस्यापि वेदस्य कार्यपरत्वात् कर्मफलापेक्षया च नास्त्यन्यन्निरतिशयं ज्ञानफलमिति वदनशीलाः। महता प्रबन्धेन ज्ञानकाण्डविरुद्धार्थभाषिण इत्यर्थः। कुतो मोक्षद्वेषिणस्ते। यतः कामात्मानः काम्यमानविषयशताकुलचित्तत्वेन काममयाः। एवंसति मोक्षमपि कुतो न कामयन्ते। यतः स्वर्गपराः स्वर्ग एवोर्वश्याद्युपेतत्वेन पर उत्कृष्टो येषां ते तथा। स्वर्गातिरिक्तः पुरुषार्थो नास्तीति भ्राम्यन्तो विवेकवैराग्याभावान्मोक्षकथामपि सोढुमक्षमा इति यावत्। तेषां च पूर्वोक्तभोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानां क्षयित्वादिदोषादर्शनेन निविष्टान्तःकरणानां तया क्रियाविशेषबहुलया वाचापहृतमाच्छादितं चेतो विवेकज्ञानं येषां तथाभूतानामर्थवादाः स्तुत्यर्थास्तात्पर्यविषये प्रमाणान्तराबाधिते वेदस्य प्रामाण्यमिति सुप्रसिद्धमपि ज्ञातुमशक्तानां समाधावन्तःकरणे व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न विधीयते। न भवतीत्यर्थः। समाधिविषया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तेषां न भवतीति वा। अधिकरणे विषये वा सप्तम्यास्तुल्यत्वात्। विधीयत इति कर्मकर्तरि लकारः। समाधीयतेऽस्मिन्सर्वमिति व्युत्पत्त्या समाधिरन्तःकरणं वा परमात्मा वेति नाप्रसिद्धार्थकल्पनम्। अहं ब्रह्मेत्यवस्थानं समाधिस्तन्निमित्तं व्यवसायात्मिका बुद्धिर्नोत्पद्यत इति व्याख्याने तु रूढिरेवादृता। अयंभावःयद्यति काम्यान्यग्निहोत्रादीनि शुद्ध्यर्थेभ्यो न विशिष्यन्ते तथापि फलाभिसंधिदोषान्नाशयशुद्धिं संपादयन्ति। भोगानुगुणा तु शुद्धिर्न ज्ञानोपयोगिनी। एतदेव दर्शयितुं भोगैश्वर्यप्रसक्तानामिति पुनरुपात्तम्। फलाभिसन्धिभन्तरेण तु कृतानि कर्माणि ज्ञानोपयोगिनीं शुद्धिमादधतीति सिद्धं विपश्चिदविपश्चितोः फलवैलक्षण्यम्। विस्तरेण चैतदग्रे प्रतिपादयिष्यते।
।।2.43।।अतएव  कामात्मान इति।  कामात्मानः कामाकुलचित्ताः। अतः स्वर्ग एव परः पुरुषार्थो येषां ते। जन्म च तत्र कर्माणि च तत्फलानि च प्रददातीति तथा ताम्। भोगैश्वर्ययोर्गतिं प्राप्तिं प्रति साधनभूता ये क्रियाविशेषास्ते बहुला यस्यां तां प्रवदन्तीत्यनुषङ्गः।
null
।।2.43।।ननु तेषां तथाकथनं किं प्रयोजनकं इत्याकाङ्क्षायामाह कामात्मान इति कामनाव्याप्तरूपाः। ननु कथं कामनायां तुच्छफले प्रवर्त्तन्त इत्याशङ्क्याह स्वर्गपरा इति। स्वर्ग एव परो मोक्षरूपं येषां तेषाम्। स्वर्गस्य तथाज्ञानार्थं पूर्ववाचं विशिनष्टि जन्मकर्मफलप्रदाम्। जन्म उत्तमयोनौ तत्रोत्तमं कर्म तथोत्तमफलं च तानि प्रकर्षेण ददाति तां तथा भोगैश्वर्यगतिं भोगैश्वर्यप्राप्तिं प्रति क्रियाविशेषा बहुला यस्यां तां तथा फलरूपां वदन्ति।
।।2.43।।तथा भोगश्च ऐश्वर्यं च तयोर्गतिः प्राप्तिस्तां प्रति तदर्थमित्यर्थः। कामात्मानः कामग्रस्तचित्ताः। अतएव स्वर्गपराः। कीदृशीं भोगैश्वर्यगतिम्। जन्मकर्मफलप्रदाम्। प्राप्तभोगैश्वर्यो हि पुरुषस्तद्वासनावासितः पुनर्भोगैश्वर्यप्राप्तये जन्म लभते तदर्थं कर्माणि च कुरुते फलं च ततो भोगादिकं प्राप्नोतीति चक्रमनिशमावर्तते। तेन निष्ठातश्च्युतो भवतीत्यर्थः। किञ्च क्रियाविशेषेण बहुलां यथा यथा वित्तव्ययायासाद्याधिक्यं तथा तथा भोगैश्वर्यप्राप्तेरप्याधिक्यमित्यर्थः। एतेनात्यन्तायाससाध्येष्वपि कर्मसु फललोभात्सज्जन्त इत्युक्तम्। भाष्ये भोगैश्वर्यगतिं प्रति साधनभूताः ये क्रियाविशेषा अग्निहोत्रादयः तद्बहुलां जन्मरूपं यत् कर्मफलं तत्प्रदां च वाचमेवेति व्याख्यातम्।
।।2.43।।यतः कामे आत्मान्तःकरणं येषाम् अतएव स्वर्गएव परः पुरुषार्थो येषां ते कर्मणः फलं जन्मैव कर्मफलं प्रददातीति तथा तां वेदवाचा कर्मणि प्रवृत्तिः कर्मणा जन्मलाभः नतु वेदवाचः स्वतन्त्रं जन्मादिप्रदातृत्वमस्तीत्यभिप्रेत्याचार्यैर्जन्म च तत्र कर्मं च तत्फलं च प्रददातीति न व्याख्यातम्। यतो भोगश्चैश्वर्यं च तयोर्गतिं प्राप्तिं प्रति क्रियाणां विशेषा बहुला यस्यां तां वाचं प्रवदन्तीत्यनुषङ्गः।
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2.43 Full of desires, having heaven as their goal, (they utter speech which is directed to ends) leading to new births as the result of their works, and prescribe various methods abounding in specific actions, for the attainment of pleasure and power.
2.43 Consulting only their own desires, they construct their own heaven, devising arduous and complex rites to secure their own pleasure and their own power; and the only result is rebirth.
2.42-2.43 O son of Prtha, those undiscerning people who utter this flowery talk which promises birth as a result of rites and duties, and is full of various special rites meant for the attainment of enjoyment and affluence , they remain engrossed in the utterances of the Vedas and declare that nothing else exists; their minds are full of desires and they have heaven as the goal.
2.43 Partha, O son of Prtha; those devoid of one-pointed conviction, who pravadanti, utter; imam, this; yam puspitam vacam, flowery talk, which is going to be stated, which is beautiful like a tree in bloom, pleasant to hear, and appears to be (meaningful) sentences [Sentences that can be called really meaningful are only those that reveal the self.-Tr.]; who are they? they are avipascitah, people who are undiscerning, of poor intellect, i.e. non-discriminating; veda-vada-ratah, who remain engrossed in the utterances of the Vedas, in the Vedic sentences which reveal many panegyrics, fruits of action and their means; and vadinah, who declare, are apt tosay; iti, that; na anyat, nothing else [God, Liberation, etc.]; asti, exists, apart from the rites and duties conducive to such results as attainment of heaven etc. And they are kamatmanah, have their minds full of desires, i.e. they are swayed by desires, they are, by nature, full of desires; (and) svarga-parah, have heaven as the goal. Those who accept heaven (svarga) as the supreme (para) human goal, to whom heaven is the highest, are svarga-parah. They utter that speech ( this is supplied to construct the sentence ) which janma-karma-phala-pradam, promises birth as a result of rites and duties. The result (phala) of rites and duties (karma) is karma-phala. Birth (janma) itself is the karma-phala. That (speech) which promises this is janma-karma-phala-prada. (This speech) is kriya-visesa-bahulam, full of various special rites; bhoga-aisvarya-gatim-prati, for the attainment of enjoyment and affluence. Special (visesa) rites (kriya) are kriya-visesah. The speech that is full (bahula) of these, the speech by which that is full (bahula) of these, the speech by which these, viz objects such as heaven, animals and sons, are revealed plentifully, is kriya-visesa-bahula. Bhoga, enjoyment, and aisvarya, affluence, are bhoga-aisvarya. Their attainment (gatih) is bhoga-aisvarya-gatih. (They utter a speech) that is full of the specialized rites, prati, meant for that (attainment). The fools who utter that speech move in the cycle of transmigration. This is the idea.
2.42. - 2.43. O son of Prtha ! Those, whose very nature is desire, whose goal is heaven, who esteem only the Vedic declaration [of fruits], who declare that there is nothing else, who proclaim this flowery speech about the paths to the lordship of the objects of enjoyment-[the paths] that are full of different actionsand who desire action alone as a fruit of their birth-they are men without insight.
2.43 See Comment under 2.44
2.42 - 2.44 The ignorant, whose knowledge is little, and who have as their sole aim the attainment of enjoyment and power, speak the flowery language i.e., having its flowers (show) only as fruits, which look apparently beautiful at first sight. They rejoice in the letter of the Vedas i.e., they are attached to heaven and such other results (promised in the Karma-kanda of the Vedas). They say that there is nothing else, owing to their intense attachment to these results. They say that there is no fruit superior to heaven etc. They are full of worldly desires and their minds are highly attached to secular desires. They hanker for heaven, i.e. think of the enjoyment of the felicities of heaven, after which one can again have rirth which offers again the opportunity to perform varied rites devoid of true knowledge and leads towards the attainment of enjoyments and power once again. With regard to those who cling to pleasure and power and whose understanding is contaminated by that flowery speech relating to pleasure and lordly powers, the aforesaid mental disposition characterised by resolution, will not arise in their Samadhi. Samadhi here means the mind. The knowledge of the self will not arise in such minds. In the minds of these persons, there cannot arise the mental disposition that looks on all Vedic rituals as means for liberation based on the determined conviction about the real form of the self. Hence, in an aspirant for liberation, there should be no attachment to rituals out of the conviction that they are meant for the acisition of objects of desire only. It may be estioned why the Vedas, which have more of love for Jivas than thousands of parents, and which are endeavouring to save the Jivas, should prescribe in this way rites whose fruits are infinitesimal and which produce only new births. It can also be asked if it is proper to abandon what is given in the Vedas. Sri Krsna replies to these estions.
2.42 - 2.44 O! Partha, the unwise, who rejoice in the letter of the Vedas, say, 'There is nothing else.' They are full only of wordly desires and they hanker for heaven. They speak flowery words which offer rirth as the fruit of work. They look upon the Vedas as consisting entirely of varied rites for the attainment of pleasure and power. Those who cling so to pleasure and power are attracted by that speech (offering heavenly rewards) and are unable to develop the resolute will of a concentrated mind.
।।2.43।।तथा वे कामात्माजिन्होंने भोगकामनाको ही अपना स्वभाव बना लिया है ऐसे भोगपरायण और स्वर्गको प्रधान माननेवाले यानी स्वर्ग ही जिनका परम पुरुषार्थ है ऐसे पुरुष जन्मरूप कर्मफलको देनेवाली ही बातें किया करते हैं। कर्मके फलका नाम कर्मफल है जन्मरूप कर्मफल जन्मकर्मफल कहलाता है उसको देनेवाली वाणी जन्मकर्मफलप्रदा कही जाती है। ऐसी वाणी कहा करते हैं। इस प्रकार भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्तिके लिये जो क्रियाओंके भेद हैं वे जिस वाणीमें बहुत हों अर्थात् स्वर्ग पशु पुत्र आदि अनेक पदार्थ जिस वाणीद्वारा अधिकतासे बतलाये जाते हों ऐसी बहुतसे क्रियाभेदोंको बतलानेवाली वाणीको बोलनेवाले वे मूढ़ बारंबार संसारचक्रमें भ्रमण करते हैं यह अभिप्राय है।
।।2.43।।  कामात्मानः  कामस्वभावाः कामपरा इत्यर्थः।  स्वर्गपराः  स्वर्गः परः पुरुषार्थः येषां ते स्वर्गपराः स्वर्गप्रधानाः।  जन्मकर्मफलप्रदां  कर्मणः फलं कर्मफलं जन्मैव कर्मफलं जन्मकर्मफलं तत् प्रददातीति जन्मकर्मफलप्रदा तां वाचम्। प्रवदन्ति इत्यनुषज्यते।  क्रियाविशेषबहुलां  क्रियाणां विशेषाः क्रियाविशेषाः ते बहुला यस्यां वाचि तां स्वर्गपशुपुत्राद्यर्थाः यया वाचा बाहुल्येन प्रकाश्यन्ते।  भोगैश्वर्यगतिं   प्रति  भोगश्च ऐश्वर्यं च भोगैश्वर्ये तयोर्गतिः प्राप्तिः भोगैश्वर्यगतिः तां प्रति साधनभूताः ये क्रियाविशेषाः तद्बहुलां तां वाचं प्रवदन्तः मूढाः संसारे परिवर्तन्ते इत्यभिप्रायः।।तेषां च
।।2.43।।गतिशब्दस्यावगतिरप्यर्थः प्रतीयेतेत्यत आह  भोगे ति। अन्यथाऽसदनुवादप्रसङ्गादिति भावः। एषाऽपि कथं निन्दा इत्यत आह  तत्प्राप्ती ति। मोक्षं वेदफलं न मन्यत इत्यर्थः।
।।2.43।।भोगैश्वर्यमतिं तत्प्राप्तिं प्रति। तत्प्राप्तिफला एव वेदा इति वदन्तीत्यर्थः।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्। क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।2.43।।
কামাত্মানঃ স্বর্গপরা জন্মকর্মফলপ্রদাম্৷ ক্রিযাবিশেষবহুলাং ভোগৈশ্বর্যগতিং প্রতি৷৷2.43৷৷
কামাত্মানঃ স্বর্গপরা জন্মকর্মফলপ্রদাম্৷ ক্রিযাবিশেষবহুলাং ভোগৈশ্বর্যগতিং প্রতি৷৷2.43৷৷
કામાત્માનઃ સ્વર્ગપરા જન્મકર્મફલપ્રદામ્। ક્રિયાવિશેષબહુલાં ભોગૈશ્વર્યગતિં પ્રતિ।।2.43।।
ਕਾਮਾਤ੍ਮਾਨ ਸ੍ਵਰ੍ਗਪਰਾ ਜਨ੍ਮਕਰ੍ਮਫਲਪ੍ਰਦਾਮ੍। ਕ੍ਰਿਯਾਵਿਸ਼ੇਸ਼ਬਹੁਲਾਂ ਭੋਗੈਸ਼੍ਵਰ੍ਯਗਤਿਂ ਪ੍ਰਤਿ।।2.43।।
ಕಾಮಾತ್ಮಾನಃ ಸ್ವರ್ಗಪರಾ ಜನ್ಮಕರ್ಮಫಲಪ್ರದಾಮ್. ಕ್ರಿಯಾವಿಶೇಷಬಹುಲಾಂ ಭೋಗೈಶ್ವರ್ಯಗತಿಂ ಪ್ರತಿ৷৷2.43৷৷
കാമാത്മാനഃ സ്വര്ഗപരാ ജന്മകര്മഫലപ്രദാമ്. ക്രിയാവിശേഷബഹുലാം ഭോഗൈശ്വര്യഗതിം പ്രതി৷৷2.43৷৷
କାମାତ୍ମାନଃ ସ୍ବର୍ଗପରା ଜନ୍ମକର୍ମଫଲପ୍ରଦାମ୍| କ୍ରିଯାବିଶେଷବହୁଲାଂ ଭୋଗୈଶ୍ବର୍ଯଗତିଂ ପ୍ରତି||2.43||
kāmātmānaḥ svargaparā janmakarmaphalapradām. kriyāviśēṣabahulāṅ bhōgaiśvaryagatiṅ prati৷৷2.43৷৷
காமாத்மாநஃ ஸ்வர்கபரா ஜந்மகர்மபலப்ரதாம். க்ரியாவிஷேஷபஹுலாஂ போகைஷ்வர்யகதிஂ ப்ரதி৷৷2.43৷৷
కామాత్మానః స్వర్గపరా జన్మకర్మఫలప్రదామ్. క్రియావిశేషబహులాం భోగైశ్వర్యగతిం ప్రతి৷৷2.43৷৷
2.44
2
44
।।2.44।। उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती।
।।2.44।।उससे जिनका चित्त हर लिया गया है ऐसे भोग और एश्र्वर्य‌ मॆ आसक्ति रखने वाले पुरुषों के अन्तकरण मे निश्चयात्मक् बुद्धि नही हॊती अर्थात वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य‌ नही होते।
।।2.44।। महर्षि व्यास ऐसे पहले साहसी क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अपने काल में अत्यन्त शोचनीय पतन की स्थिति से हिन्दू संस्कृति का पुनरुत्थान किया। क्रान्ति का वह ग्रन्थ गीता है जिसकी रचना उन्होंने की। अपने काल की स्थितियों की उनके द्वारा की गयी तीव्र आलोचना भगवान् के इन शब्दों से स्पष्ट होती है जहां श्रीकृष्ण वेदों के कर्मकाण्ड को पुष्पिता वाणी कहते हैं। कर्मकाण्ड की तीव्र आलोचना करने में व्यास जी के साहस को समझने के लिये हमें उस काल के पुरोगामी पारम्परिक वातावरण की कल्पना करनी होगी हमें मानसिक रूप से उस काल में रहना होगा।वेदों का कर्मकाण्ड उन लोगों के लिए है जो विषयोपभोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं कर्मफल पाने की इच्छा और चिन्ता के कारण जिनकी सदसद् विवेक की क्षमता खो गयी है। सर्वोच्च साध्य को भूलकर साधनभूत कर्मों में ही वे लिप्त रहते हैं।वेदोक्त कर्मों को अत्यन्त परिश्रमपूर्वक करना पड़ता है तब मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग के रूप में उनका फल प्राप्त होता है जहाँ अलौकिक विषयों का उपभोग किया जा सकता है। इन सब प्रयत्नों में कामनाओं और चिन्ताओं आदि के कारण व्यक्तित्व के विकास के लिये अवसर नहीं मिलता इसलिये व्यास जी का विचार है कि अध्यात्म की दृष्टि से ये सकाम कर्म निरर्थक हैं। कर्मकाण्ड में आसक्त पुरुष जीवन के परम साध्य को भूलकर साधन में ही फंसा रह जाता है।अनन्तस्वरूप परम सत्य के प्रतिपादक के रूप में श्रीकृष्ण उन लोगों की हँसी उड़ाते हैं जो साधन को ही साध्य मानने की त्रुटि करते हैं। कर्मकाण्ड में ही उपदिष्ट केवल कर्तव्य कर्म के पालन से चित्त शुद्धि एवं एकाग्रता प्राप्त होती है और इस प्रकार ध्यान का अभ्यास करने की योग्यता पाकर उपनिषदों में निरूपित निदिध्यासन के द्वारा आत्मा का अपरोक्ष अनुभव प्राप्त होता है जो जीवन का वास्तविक साध्य है। कर्म में ही रत पुरुषों को जीवन में कभी शान्ति नहीं मिलती।अविवेकी कामी पुरुषों को क्या फल मिलता है भगवान् कहते हैं
2.44।। व्याख्या -- 'तयापहृतचेतसाम्'-- पूर्वश्लोकोंमें जिस पुष्पित वाणीका वर्णन किया गया है  उस वाणीसे जिनका चित्त अपहृत हो गया है अर्थात् स्वर्गमें बड़ा भारी सुख है दिव्य नन्दनवन है अप्सराएँ हैं अमृत है ऐसी वाणीसे जिनका चित्त उन भोगोंकी तरफ खिंच गया है।  'भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्'-- शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध ये पाँच विषय शरीरका आराम मान और नामकी बड़ाई इनके द्वारा सुख लेनेका नाम भोग है। भोगोंके लिये पदार्थ रूपयेपैसे मकान आदिका जो संग्रह किया जाता है उसका नाम ऐश्वर्य है। इन भोग और ऐश्वर्यमें जिनकी आसक्ति है प्रियता है खिंचाव है अर्थात् इनमें जिनकी महत्त्वबुद्धि है उनको  'भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम्'  कहा गया है। जो भोग और ऐश्वर्यमें ही लगे रहते हैं वे आसुरी सम्पत्तिवाले होते हैं। कारण कि असु नाम प्राणोंका है और उन प्राणोंको जो बनाये रखना चाहते हैं उन प्राणपोषणपरायण लोगोंका नाम असुर है। वे शरीरकी प्रधानताको लेकर यहाँके अथवा स्वर्गके भोग भोगना चाहते हैं  (टिप्पणी प0 80) ।  'व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते'-- जो मनुष्यजन्मका असली ध्येय है जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला है उस परमात्माको ही प्राप्त करना है ऐसी व्यवसायात्मिका बुद्धि उन लोगोंमें नहीं होती। तात्पर्य यह है कि जो भोग भोगे जा चुके हैं जो भोग भोगे जा सकते हैं जिन भोगोंको सुन रखा है और जो भोग सुने जा सकते हैं उनके संस्कारोंके कारण बुद्धिमें जो मलिनता रहती है उस मलिनताके कारण संसारसे सर्वथा विरक्त होकर एक परमात्माकी तरफ चलना है ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं होता। ऐसे ही संसारकी अनेक विद्याओं कलाओं आदिका जो संग्रह है उससे मैं विद्वान हूँ मैं जानकार हूँ ऐसा जो अभिमानजन्य सुखका भोग होता है उसमें आसक्त मनुष्योंका भी परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय नहीं होता।  विशेष बात  परमदयालु प्रभुने कृपा करके इस मनुष्यशरीरमें एक ऐसी विलक्षण विवेकशक्ति दी है जिससे वह सुखदुःखसे ऊँचा उठ जाय अपना उद्धार कर ले सबकी सेवा करके भगवान्तकको अपने वशमें कर ले इसीमें मनुष्यशरीरकी सार्थकता है। परन्तु प्रभुप्रदत्त इस विवेकशक्तिका अनादर करके नाशवान् भोग और संग्रहमें आसक्त हो जाना पशुबुद्धि है। कारण कि पशुपक्षी भी भोगोंमें लगे रहते हैं ऐसे ही अगर मनुष्य भी भोगोंमें लगा रहे तो पशुपक्षियोंमें और मनुष्यमें अन्तर ही क्या रहा पशुपक्षी तो भोगयोनि है अतः उनके सामने कर्तव्यका प्रश्न ही नहीं है। परन्तु मनुष्यजन्म तो केवल अपने कर्तव्यका पालन करके अपना उद्धार करनेके लिये ही मिला है भोग भोगनेके लिये नहीं। इसलिये मनुष्यके सामने जो कुछ अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति आती है वह सब साधनसामग्री है भोगसामग्री नहीं। जो उसको भोगसामग्री मान लेते हैं उनकी परमात्मामें व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं होती। वास्तवमें सांसारिक पदार्थ परमात्माकी तरफ चलनेमें बाधा नहीं देते प्रत्युत वर्तमानमें जो भोगोंका महत्व अन्तःकरणमें बैठा हुआ है वही बाधा देता है। भोग उतना नहीं अटकाते जितना भोगोंका महत्व अटकाता है। अटकानेमें अपनी रुचि नीयतकी प्रधानता है। भोग और संग्रहकी रुचिको रखते हुए कोई परमात्माको प्राप्त करना चाहे तो परमात्माकी प्राप्ति तो दूर रही उनकी प्राप्तिका एक निश्चय भी नहीं हो सकता। कारण कि जहाँ परमात्माकी तरफ चलनेकी रुचि है वहीं भोगोंकी रुचि भी है। जबतक भोग और संग्रहमें मानबड़ाईआराममें रुचि है तबतक कोई भी एक निश्चय करके परमात्मामें नहीं लग सकता क्योंकि उसका अन्तःकरण भोगोंकी रुचिद्वारा हर लिया गया उसकी जो शक्ति थी वह भोग और संग्रहमें लग गयी। सम्बन्ध-- किसी बातको पुष्ट करना हो तो पहले उसके दोनों पक्ष सामने रखकर फिर उसको पुष्ट किया जाता है। यहाँ भगवान् निष्कामभावको पुष्ट करना चाहते हैं अतः पीछेके तीन श्लोकोंमें सकामभाववालोंका वर्णन करके अब आगेके श्लोकमें निष्काम होनेकी प्रेरणा करते हैं।
।।2.43 2.45।।तथाच यामिमामित्यादि। ये कामाभिलाषिणः ते स्वयमेतां वाचं वेदात्मिकां पुष्पितां भविष्यत्स्वर्गफलेन ( N omit भविष्यत् S reads भविष्यता) व्याप्तां वदन्ति। अत एव जन्मनः कर्मैव फलमिच्छन्ति ते अविपश्चितः। ते च तयैव स्वयं कल्पितया वेदवाचा अपहृतचित्ताः व्यवसायबुद्धियुक्ता अपि न समाधियोग्याः तत्र फलनिश्चयत्वात्। इति श्लोकत्रयस्य तात्पर्यम्।
।।2.44।।तेषां  भोगैश्वर्यप्रसक्तानां   तया  वाचा भोगैश्वर्यविषयया  अपहृता त्मज्ञानानां यथोदिता  व्यवसायात्मिका   बुद्धिः समाधौ  मनसि  न विधीयते  न उत्पद्यते। समाधीयते अस्मिन् आत्मज्ञानम् इति समाधिः मनः। तेषां मनसि आत्मयाथात्म्यनिश्चयज्ञानपूर्वकमोक्षसाधनभूतकर्मविषया बुद्धिः कदाचिद् अपि न उत्पद्यते इत्यर्थः। अतः काम्येषु कर्मसु मुमुक्षुणा न सङ्गः कर्तव्यः।एवम् अत्यन्ताल्पफलानि पुनर्जन्मप्रसवानि कर्माणि मातापितृसहस्रेभ्यः अपि वत्सलतरतया आत्मोपजीवने प्रवृत्ता वेदाः किमर्थं वदन्ति कथं वा वेदोदितानि त्याज्यतया उच्यन्ते इति अत्र आह
।।2.44।।ननु कर्मकाण्डनिष्ठानां कर्मानुष्ठायिनामपि बुद्धिशुद्धिद्वारेणान्तःकरणे साध्यसाधनभूतबुद्धिद्वयसमुदायसंभवादतो मोक्षो भविष्यति नेत्याह  तेषां चेति।  तदात्मभूतानां तयोरेव भोगैश्वर्ययोरात्मकर्तव्यत्वेनारोपितयोरभिनिविष्टे चेतसि तादात्म्याध्यासवतां बहिर्मुखानामित्यर्थः। तथापि शास्त्रानुसारिण्या विवेकप्रज्ञया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तेषामुदेष्यतीत्याशङ्क्याह  तयेति।  ननु समाधिः संप्रज्ञातासंप्रज्ञातभेदेन द्विधोच्यते तत्र बुद्धिद्वयविधिरप्रसक्तः सन्कथं निषिध्यते तत्राह  समाधीयत इति।
।।2.44।।तथाभूतानां तेषां तया वाचाऽपहृतचेतसां काम्यकर्मपराणां व्यवसायात्मिकैका बुद्धिः समाधिविषयिणी न विधीयते। विशेषेण न स्थाप्यते इति वा। तेषां समाधौ हृदीति।
।।2.42 2.44।।अव्यवसायिनामपि व्यवसायात्मिका बुद्धिः कुतो न भवति प्रमाणस्य तुल्यत्वादित्याशङ्क्य प्रतिबन्धकसद्भावान्न भवतीत्याह त्रिभिः यामिमां वाचं प्रवदन्ति तया वाचापहृतचेतसामविपश्चितां व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवतीत्यन्वयः। इमामध्ययनविध्युपात्तत्वेन प्रसिद्धां पुष्पितां पुष्पितपलाशवदापातरमणीयांसाध्यसाधनसंबन्धप्रतिभानान्निरतिशयफलाभावाच्च। कुतो निरतिशयफलत्वाभावस्तत्राह जन्मकर्मफलप्रदां जन्म चापूर्वशरीरेन्द्रियादिसंबन्धलक्षणं तदधीनं च कर्म तत्तद्वर्णाश्रमाभिमाननिमित्तं तदधीनं च फलं पुत्रपशुस्वर्गादिलक्षणं विनश्वरं तानि प्रकर्षेण घटीयन्त्रवदविच्छेदेन ददातीति तथा ताम्। कुतएवमत आह भोगैश्वर्यगतिं प्रति क्रियाविशेषबहुलां अमृतपानोर्वशीविहारपारिजातपरिमलादिनिबन्धनो यो भोगस्तत्कारणं च यदैश्वर्यं देवादिस्वामित्वं तयोर्गतिं प्राप्तिं प्रति साधनभूता ये क्रियाविशेषा अग्निहोत्रदर्शपूर्णमासज्योतिष्टोमादयस्तैर्बहुलां विस्तृताम्। अतिबाहुल्येन भोगैश्वर्यसाधनक्रियाकलापप्रतिपादिकामिति यावत्। कर्मकाण्डस्य हि ज्ञानकाण्डापेक्षया सर्वत्रातिविस्तृतत्वं प्रसिद्धम्। एतादृशीं कर्मकाण्डलक्षणां वाचं प्रवदन्ति प्रकृष्टां परमार्थस्वर्गादिफलामभ्युपगच्छन्ति। के। येऽविपश्चितो विचारजन्यतात्पर्यपरिज्ञानशून्याः। अतएव वेदवादरताः वेदे ये सन्ति वादा अर्थवादाःअक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति इत्येवमादयस्तेष्वेव रता वेदार्थसत्यत्वेनैवमेवैतदिति मिथ्याविश्वासेन संतुष्टाः। हे पार्थ अतएव नान्यदस्तीतिवादिनः कर्मकाण्डापेक्षया नास्त्यन्यज्ज्ञानकाण्डं सर्वस्यापि वेदस्य कार्यपरत्वात् कर्मफलापेक्षया च नास्त्यन्यन्निरतिशयं ज्ञानफलमिति वदनशीलाः। महता प्रबन्धेन ज्ञानकाण्डविरुद्धार्थभाषिण इत्यर्थः। कुतो मोक्षद्वेषिणस्ते। यतः कामात्मानः काम्यमानविषयशताकुलचित्तत्वेन काममयाः। एवंसति मोक्षमपि कुतो न कामयन्ते। यतः स्वर्गपराः स्वर्ग एवोर्वश्याद्युपेतत्वेन पर उत्कृष्टो येषां ते तथा। स्वर्गातिरिक्तः पुरुषार्थो नास्तीति भ्राम्यन्तो विवेकवैराग्याभावान्मोक्षकथामपि सोढुमक्षमा इति यावत्। तेषां च पूर्वोक्तभोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानां क्षयित्वादिदोषादर्शनेन निविष्टान्तःकरणानां तया क्रियाविशेषबहुलया वाचापहृतमाच्छादितं चेतो विवेकज्ञानं येषां तथाभूतानामर्थवादाः स्तुत्यर्थास्तात्पर्यविषये प्रमाणान्तराबाधिते वेदस्य प्रामाण्यमिति सुप्रसिद्धमपि ज्ञातुमशक्तानां समाधावन्तःकरणे व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न विधीयते। न भवतीत्यर्थः। समाधिविषया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तेषां न भवतीति वा। अधिकरणे विषये वा सप्तम्यास्तुल्यत्वात्। विधीयत इति कर्मकर्तरि लकारः। समाधीयतेऽस्मिन्सर्वमिति व्युत्पत्त्या समाधिरन्तःकरणं वा परमात्मा वेति नाप्रसिद्धार्थकल्पनम्। अहं ब्रह्मेत्यवस्थानं समाधिस्तन्निमित्तं व्यवसायात्मिका बुद्धिर्नोत्पद्यत इति व्याख्याने तु रूढिरेवादृता। अयंभावःयद्यति काम्यान्यग्निहोत्रादीनि शुद्ध्यर्थेभ्यो न विशिष्यन्ते तथापि फलाभिसंधिदोषान्नाशयशुद्धिं संपादयन्ति। भोगानुगुणा तु शुद्धिर्न ज्ञानोपयोगिनी। एतदेव दर्शयितुं भोगैश्वर्यप्रसक्तानामिति पुनरुपात्तम्। फलाभिसन्धिभन्तरेण तु कृतानि कर्माणि ज्ञानोपयोगिनीं शुद्धिमादधतीति सिद्धं विपश्चिदविपश्चितोः फलवैलक्षण्यम्। विस्तरेण चैतदग्रे प्रतिपादयिष्यते।
।।2.44।।ततश्च  भोगैश्वर्यप्रसक्तानामिति।  भोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानामभिनिविष्टानाम्। तया पुष्पितया वाचापहृतमाकृष्टं चेतो येषां तेषां समाधिः चित्तैकाग्र्यं पमेश्वरैकाग्र्याभिमुखत्वं तस्मिन्निश्चयात्मिका बुद्धिर्न विधीयते। कर्मकर्तरिप्रयोगः। नोत्पद्यत इत्यर्थः।
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।।2.44।।ततो भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तेषां तया वाचा अपहृतचित्तानां समाधौ वैयग्र्यभावेन भगवच्चिन्तने तथा बुद्धिर्न भवतीत्यर्थः।
।।2.44।। भोगेति।  तया पुष्पितया वाचा अपहृतचेतसां पुंसां बुद्धिः समाधौ समाध्यनुष्ठानकाले व्यवसायात्मिका व्यवसायो ज्ञानं तदात्मिका शुद्धचिन्मात्राकारा न विधीयते न भवति। कर्मकर्तरि लकारः। विरक्तस्य हि बुद्धिः समाधौ चिन्मात्राकारा भवति न तु भोगाद्यासक्तस्येति स्पष्टमेव। भाष्ये तु समाधौ अन्तःकरणे व्यवसायात्मिका बुद्धिर्न भवतीति व्याख्यातम्। यद्वा समाध्यनुष्ठानार्थमेव निश्चयात्मिका तेषां बुद्धिर्न भवतीति व्याख्येयम्।
।।2.44।।तेषां बोगैश्वर्ययोः प्रसक्तानामतिरक्तचितानां यतस्तया वाचापहृतमाच्छादितं चेतो येषां तेषां व्यवसायात्मिका सांख्ये योगे वा या बुद्धिः सा समाधौ समाधीयते पुरुषोपभोगाय सर्वमस्मिन्नन्तःकरणं तस्मिन्न विधीयते न स्थिरीभवतीत्यर्थः। ननु अहं ब्रह्मास्मीत्यवस्थानं समाधिस्तन्निमित्तमिति चित्तैकाग्र्यं परमेश्वरैकाग्र्याभिमुखत्वं तस्मिन्वेति व्याख्यानद्वयमाचारर्यैः कुतो न प्रदर्शितमितिचेत् अहं ब्रह्मास्मीत्यवस्थानस्य परमेश्वरैकाग्र्याभिमुखत्वस्य च व्यवसायात्मिकसांख्ययोगबुद्धावन्तर्भावमभिप्रेत्येति गृहाण।
2.44 भोगैश्वर्यप्रसक्तानाम् of the people deeply attached to pleasure and lordship? तया by that? अपहृतचेतसाम् whose minds are drawn away? व्यवसायात्मिका determinate? बुद्धिः reason? समाधौ in Samadhi? न not? विधीयते is fixed.Commentary Those who cling to pleasure and power cannot have steadiness of mind. They cannot concentrate or meditate. They are ever busy in planning projects for the acisition of wealth and power. Their minds are ever restless. They have no poised understanding.
2.44 For those who are attached to pleasure and power, whose minds are drawn away by such teaching, ï1thatï1 determinate reason is not formed which is steadily bent on meditation and Samadhi (superconscious state).
2.44 While their minds are absorbed with ideas of power and personal enjoyment, they cannot concentrate their discrimination on one point.
2.44 One-pointed conviction does not become established in the minds of those who delight in enjoyment and affluence, and whose intellects are carried away by that (speech).
2.44 And vyavasayatmika, one-pointed; buddhih, conviction, with regard to Knowledge or Yoga; na vidhiyate, does not become established, i.e. does not arise; samadhau, in the minds the word samadhi being derived in the sese of that into which everthing is gathered together for the enjoyment of a person ; bhoga-aisvarya-prasaktanam, of those who delight in enjoyment and wealth, of those who have the hankering that only enjoyment as also wealth is to be sought for, of those who identify themselves with these; and apahrta-cetasam, of those whose intellects are carried away, whose discriminating judgement becomes covered; taya, by that speech which is full of various special rites.
2.44. Those, who are very much attached to the ownership of enjoyable objects and whose minds have been carried away by that (flowery speech)-their knowledge, in the form of determination is not prescribed for concentration.
2.42-44 Yam imam etc., upto na vidhiyate. Those, who crave for objects of desire, speak, on their own accord, of this flowery Vedic speech which is pervaded by the fruits i.e., the heaven in the future; and who, hence, desire the action itself as the fruit of their birth - these are men without insight. further, having their mind carried away by the same Vedic sentence imagined by themselves, these persons, eventhough they are endowed with the determinate knowledge, are not fit for concentration, because they do not decide this (concentration) as a fruit [of their action]. This is the purport of the traid of these verses.
2.42 - 2.44 The ignorant, whose knowledge is little, and who have as their sole aim the attainment of enjoyment and power, speak the flowery language i.e., having its flowers (show) only as fruits, which look apparently beautiful at first sight. They rejoice in the letter of the Vedas i.e., they are attached to heaven and such other results (promised in the Karma-kanda of the Vedas). They say that there is nothing else, owing to their intense attachment to these results. They say that there is no fruit superior to heaven etc. They are full of worldly desires and their minds are highly attached to secular desires. They hanker for heaven, i.e. think of the enjoyment of the felicities of heaven, after which one can again have rirth which offers again the opportunity to perform varied rites devoid of true knowledge and leads towards the attainment of enjoyments and power once again. With regard to those who cling to pleasure and power and whose understanding is contaminated by that flowery speech relating to pleasure and lordly powers, the aforesaid mental disposition characterised by resolution, will not arise in their Samadhi. Samadhi here means the mind. The knowledge of the self will not arise in such minds. In the minds of these persons, there cannot arise the mental disposition that looks on all Vedic rituals as means for liberation based on the determined conviction about the real form of the self. Hence, in an aspirant for liberation, there should be no attachment to rituals out of the conviction that they are meant for the acisition of objects of desire only. It may be estioned why the Vedas, which have more of love for Jivas than thousands of parents, and which are endeavouring to save the Jivas, should prescribe in this way rites whose fruits are infinitesimal and which produce only new births. It can also be asked if it is proper to abandon what is given in the Vedas. Sri Krsna replies to these estions.
2.42 - 2.44 O! Partha, the unwise, who rejoice in the letter of the Vedas, say, 'There is nothing else.' They are full only of wordly desires and they hanker for heaven. They speak flowery words which offer rirth as the fruit of work. They look upon the Vedas as consisting entirely of varied rites for the attainment of pleasure and power. Those who cling so to pleasure and power are attracted by that speech (offering heavenly rewards) and are unable to develop the resolute will of a concentrated mind.
।।2.44।।जो भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त हैं अर्थात् भोग और ऐश्वर्य ही पुरषार्थ है ऐसे मानकर उनमें ही जिनका प्रेम हो गया है इस प्रकार जो तद्रूप हो रहे हैं तथा क्रियाभेदोंको विस्तारपूर्वक बतलानेवाली उस उपर्युक्त वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है अर्थात् ( जिनकी ) विवेकबुद्धि आच्छादित हो रही है उनकी समाधिमें सांख्यविषयक या योगविषयक निश्चयात्मिका बुद्धि ( नहीं ठहरती )। पुरुषके भोगके लिये जिसमें सब कुछ स्थापित किया जाता है उसका नाम समाधि है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार समाधि अन्तःकरणका नाम है उसमें बुद्धि नहीं ठहरती अर्थात् उत्पन्न ही नहीं होती।
।।2.44।।  भोगैश्वर्यप्रसक्तानां  भोगः कर्तव्यः ऐश्वर्यं च इति भोगैश्वर्ययोरेव प्रणयवतां तदात्मभूतानाम्। तया क्रियाविशेषबहुलया वाचा  अपहृतचेतसाम्  आच्छादितविवेकप्रज्ञानां  व्यवसायात्मिका  सांख्ये योगे वा  बुद्धिः समाधौ  समाधीयते अस्मिन् पुरुषोपभोगाय सर्वमिति समाधिः अन्तःकरणं बुद्धिः तस्मिन् समाधौ  न विधीयते  न भवति इत्यर्थः।।ये एवं विवेकबुद्धिरहिताः तेषां कामात्मनां यत् फलं तदाह
।।2.44।।तयाऽपहृतेत्यादेरप्रतीतिनिरासायार्थमाह  तेषा मिति। तेषां बुद्धिर्मनोवृत्तिर्व्यवसायात्मिका सम्यग्युक्तिनिर्णयात्मिका न भवति। तत एवेश्वरे सम्यक्समाधानार्थं न विधीयत इत्यर्थः। सम्यग्युक्तिनिर्णयात्मकत्वाभावे कुतः समाध्यभावः इत्यत आह   सम्यगि ति। अनेन समाधिशब्दार्थोऽपि विवृतो भवति। किमीश्वरे मनस्समाधानेन येन तदभावे निन्दा स्यात् इत्यत आह  तद्धी ति। मोक्षाभावश्च महानिन्देति। वक्ष्यति। सम्यङ्निर्णीतार्थानामित्युक्तम्। न केवलमानुभाविकं किन्तु पुराणेप्युक्तमित्याह   उक्तं चे ति। वरीयसीः वरीयस्यः।सुपां सुलुक् अष्टा.7।1।39 इत्यादिना जसः पूर्वसवर्णः। वाचो वेदवाचः। स्वप्ने निरुक्त्या स्वप्नप्रतीतार्थदृष्टान्तेन हेयानुमितं हेयत्वेनानुमितम्। इदमेव हि सम्यङ्निर्णीतार्थत्वम्। यद्धेयोपादेयविवेकेन हेयहानमुपादेयोपादानं च तद्धि मोक्षसाधनमित्येतत्तु श्रुत्यादिप्रसिद्धमेव।
।।2.44।।तेषां सम्यण्युक्तिनिर्णयात्मिका बुद्धिः समाधौ समाध्यर्थे न विधीयते। सम्यङ्निर्णीतार्थानामीश्वरे मनस्समाधानं सम्यग्भवति। तद्धि मोक्षसाधनम्। उक्तं चैतदन्यत्र न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षाद्वरीयसीरपि वाचः समासन्। स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यं न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् भाग.5।11।3।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।2.44।।
ভোগৈশ্বর্যপ্রসক্তানাং তযাপহৃতচেতসাম্৷ ব্যবসাযাত্মিকা বুদ্ধিঃ সমাধৌ ন বিধীযতে৷৷2.44৷৷
ভোগৈশ্বর্যপ্রসক্তানাং তযাপহৃতচেতসাম্৷ ব্যবসাযাত্মিকা বুদ্ধিঃ সমাধৌ ন বিধীযতে৷৷2.44৷৷
ભોગૈશ્વર્યપ્રસક્તાનાં તયાપહૃતચેતસામ્। વ્યવસાયાત્મિકા બુદ્ધિઃ સમાધૌ ન વિધીયતે।।2.44।।
ਭੋਗੈਸ਼੍ਵਰ੍ਯਪ੍ਰਸਕ੍ਤਾਨਾਂ ਤਯਾਪਹਰਿਤਚੇਤਸਾਮ੍। ਵ੍ਯਵਸਾਯਾਤ੍ਮਿਕਾ ਬੁਦ੍ਧਿ ਸਮਾਧੌ ਨ ਵਿਧੀਯਤੇ।।2.44।।
ಭೋಗೈಶ್ವರ್ಯಪ್ರಸಕ್ತಾನಾಂ ತಯಾಪಹೃತಚೇತಸಾಮ್. ವ್ಯವಸಾಯಾತ್ಮಿಕಾ ಬುದ್ಧಿಃ ಸಮಾಧೌ ನ ವಿಧೀಯತೇ৷৷2.44৷৷
ഭോഗൈശ്വര്യപ്രസക്താനാം തയാപഹൃതചേതസാമ്. വ്യവസായാത്മികാ ബുദ്ധിഃ സമാധൌ ന വിധീയതേ৷৷2.44৷৷
ଭୋଗୈଶ୍ବର୍ଯପ୍ରସକ୍ତାନାଂ ତଯାପହୃତଚେତସାମ୍| ବ୍ଯବସାଯାତ୍ମିକା ବୁଦ୍ଧିଃ ସମାଧୌ ନ ବିଧୀଯତେ||2.44||
bhōgaiśvaryaprasaktānāṅ tayāpahṛtacētasām. vyavasāyātmikā buddhiḥ samādhau na vidhīyatē৷৷2.44৷৷
போகைஷ்வர்யப்ரஸக்தாநாஂ தயாபஹரிதசேதஸாம். வ்யவஸாயாத்மிகா புத்திஃ ஸமாதௌ ந விதீயதே৷৷2.44৷৷
భోగైశ్వర్యప్రసక్తానాం తయాపహృతచేతసామ్. వ్యవసాయాత్మికా బుద్ధిః సమాధౌ న విధీయతే৷৷2.44৷৷
2.45
2
45
।।2.45।। वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित हो जा, योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा।
।।2.45।। हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत? निर्द्वन्द्व? नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित? योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो।।
।।2.45।। विभिन्न अनुपातों में सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों के संयोग से प्राणियों का निर्माण हुआ है। अन्तकरण (मन और बुद्धि) इन तीन गुणों का ही कार्य है। तीन गुणों के परे जाने का अर्थ है मन के परे जाना। तांबा जस्ता और टिन से निर्मित किसी मिश्र धातु का पात्र बना हो और यदि उसमें से इन तीनों धातुओं को विलग करने के लिये कहा जाय तो उसका अर्थ उस पात्र को ही नष्ट करना होगा। उपनिषद् साधक को मन के परे जाने का उपदेश देते हैं जिससे साधक को आत्मस्वरूप से ईश्वर का परिचय होगा। उपनिषदों के इस स्पष्ट उपदेश को यथार्थ में नहीं समझने के कारण अनेक हिन्दू लोग अपने धर्म से अलग हो गये और इसलिये गीता में पुनर्जागरण का आवाहन किया गया। औपनिषदिक अर्थ को ही यहां दूसरे शब्दों में कहा अर्जुन तुम त्रिगुणातीत बनो।यदि कोई चिकित्सक किसी रोगी के लिये ऐसी औषधि लिख देता है जो विश्व में कहीं भी उपलब्ध न हो तो उस चिकित्सक का लिखा हुआ उपचार व्यर्थ है। इसी प्रकार आत्मसाक्षात्कार के लिये त्रिगुणों के परे जाने का उपदेश भले ही श्रेष्ठ हो परन्तु कौन सी साधना के अभ्यास से उसे सम्पादित किया जाय इसका स्पष्टीकरण यदि नहीं किया गया है तो वह उपदेश निरर्थक है। ज्ञान क्रिया और निष्क्रियता ये क्रमश सत्त्व रज और तमोगुण के लक्षण हैं।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में त्रिगुणों के ऊपर उठकर असीम आनन्द में स्थित होने की साधना बतायी गयी है। पूर्व उपदिष्ट समत्व भाव का ही उपदेश यहाँ दूसरे शब्दों में किया गया है।परस्पर भिन्न एवं विपरीत लक्षणों वाले सुखदुख शीतउष्ण लाभहानि इत्यादि जीवन के द्वन्द्वात्मक अनुभव हैं। इन सब में समभाव में रहने का अर्थ ही निर्द्वन्द्व होना है इनसे मुक्त होना है। यही उपदेश श्रीकृष्ण अर्जुन को दे रहे हैं। नित्यसत्त्वस्थ तीनों गुणों में सत्व गुण सूक्ष्मतम एवं स्वभाव से शुद्ध है तथापि शोकात्मक रजोगुण और मोहात्मक तमोगुण के सम्बन्ध से उसमें अशुद्धि भी आ जाती है। मोह का अर्थ है वस्तु को यथार्थ रूप में न पहचानना (आवरण)। जिसके कारण वस्तु का अनुभव किसी अन्य रूप मे ही होता है जिसे विक्षेप कहते हैं और जिसका परिणाम हैशोक। अत सत्वगुण में स्थित होने का अर्थ विवेकजनित शान्ति में स्थित होना है। सत्त्वस्थ बनने के लिए सतत् सजग प्रयत्न की अपेक्षा है। निर्योगक्षेमयहाँ योग का अर्थ है अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम हैक्षेम। मनुष्य के सभी प्रयत्न योग और क्षेम के लिये होते हैं। अत इन दो शब्दों में विश्व के सभी प्राणियों के कर्म समाविष्ट हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित कर्मों का निर्देश योग और क्षेम के द्वारा किया गया है। मनुष्य की चिन्ताओं और विक्षेपों का कारण भी ये दो ही हैं। निर्योगक्षेम बनने का अर्थ है इन दोनों को त्याग देना जिससे चिन्ताओं से मुक्ति तत्काल ही मिलती हैं।निर्द्वन्द और निर्योगक्षेम बनने का उपदेश देना सरल है किन्तु साधक के लिये तत्त्वज्ञान का उपयोग तभी है जब इस ज्ञान को जीवन में उतारने की व्यावहारिक विधि का भी उपदेश दिया गया हो। इस श्लोक में ऐसी विधि का निर्देश आत्मवान भव इन शब्दों में किया गया है। द्वन्द्वों तथा योगक्षेम के कारण उत्पन्न दुख और पीड़ा केवल तभी सताते हैं जब हमारा तादात्म्य शरीर मन और बुद्धि के साथ होकर अहंकार और स्वार्थ की अधिकता होती है।इन अनात्म उपाधियों के साथ विद्यमान तादात्म्य को छोड़कर इनसे भिन्न अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप के प्रति सतत जागरूक रहने का अभ्यास ही आत्मवान अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थित होने का उपाय है। इसकी सिद्धि होने पर अहंकार नष्ट हो जाता है और वह साधक त्रिगुणों के परे आत्मा में स्थित हो जाता है। ऐसे सिद्ध पुरुष को वेदों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। वास्तव में ज्ञानी पुरुष के होने के कारण वेदवाक्यों का प्रामाण्य सिद्ध होता है।यदि वैदिक यज्ञों के फलों की कामना त्यागनी चाहिये तो उनका अनुष्ठान किस लिये करें इसका उत्तर है
2.45।। व्याख्या--  'त्रैगुण्यविषया वेदाः'-- यहाँ वेदोंसे तात्पर्य वेदोंके उस अंशसे है, जिसमें तीनों गुणोंका और तीनों गुणोँके कार्य स्वर्गादि भोग-भूमियोंका वर्णन है। यहाँ उपर्युक्त पदोंका तात्पर्य वेदोंकी निन्दामें नहीं है, प्रत्युत निष्कामभावकी महिमामें है। जैसे हीरेके वर्णनके साथ-साथ काँचका वर्णन किया जाय तो उसका तात्पर्य काँचकी निन्दा करनेमें नहीं है, प्रत्युत हीरेकी महिमा बतानेमें है। ऐसे ही यहाँ निष्कामभावकी महिमा बतानेके लिये ही वेदोंके सकामभावका वर्णन आया है, निन्दाके लिये नहीं। वेद केवल तीनों गुणोंका कार्य संसारका ही वर्णन करनेवाले हैं, ऐसी बात भी नहीं है। वेदोंमें परमात्मा और उनकी प्राप्तिके साधनोंका भी वर्णन हुआ है।  'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन'-- हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारकी इच्छाका त्याग करके असंसारी बन जा अर्थात् संसारसे ऊँचा उठ जा। 'निर्द्वन्द्वः'-- संसारसे ऊँचा उठनेके लिये राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंसे रहित होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है; क्योंकि ये ही वास्तवमें मनुष्यके शत्रु हैं अर्थात् उसको संसारमें फँसानेवाले हैं (गीता 3।34)  (टिप्पणी प0 81) । इसलिये तू सम्पूर्ण द्वन्द्वोंसे रहित हो जा।
।।2.43 2.45।।तथाच यामिमामित्यादि। ये कामाभिलाषिणः ते स्वयमेतां वाचं वेदात्मिकां पुष्पितां भविष्यत्स्वर्गफलेन ( N omit भविष्यत् S reads भविष्यता) व्याप्तां वदन्ति। अत एव जन्मनः कर्मैव फलमिच्छन्ति ते अविपश्चितः। ते च तयैव स्वयं कल्पितया वेदवाचा अपहृतचित्ताः व्यवसायबुद्धियुक्ता अपि न समाधियोग्याः तत्र फलनिश्चयत्वात्। इति श्लोकत्रयस्य तात्पर्यम्।
।।2.45।।त्रयो गुणाः त्रैगुण्यं सत्त्वरजस्तमांसि सत्त्वरजस्तमःप्रचुराः पुरुषाः त्रैगुण्यशब्देन उच्यन्ते। तद्विषया वेदाः तमःप्रचुराणां रजःप्रचुराणां सत्त्वप्रचुराणां च वत्सलतरतया एव हितम् अवबोधयन्ति वेदाः।यदि एषां स्वगुणानुगुण्येन स्वर्गादिसाधनम् एव हितं न अवबोधयन्ति तदा एव ते रजस्तमःप्रचुरतया सात्त्विकफलमोक्षविमुखाः स्वापेक्षितफलसाधनम् अजानन्तः कामप्रावण्यविवशा अनुपायेषु उपायभ्रान्त्या प्रविष्टाः प्रणष्टा भवेयुः। अतः  त्रैगुण्यविषया वेदाः  त्वं तु  निस्त्रैगुण्यो  भव इदानीं सत्त्वप्रचुरः त्वं तदेव वर्धय नान्योन्यसंकीर्णगुणत्रयप्रचुरो भव। न तत्प्राचुर्यं वर्धय इत्यर्थः  निर्द्वन्द्वः  निर्गतसकलसांसारिकस्वभावः।  नित्यसत्त्वस्थः  गुणद्वयरहितनित्यप्रवृद्धसत्त्वस्थो भव।कथम् इति चेत्  निर्योगक्षेमः  आत्मस्वरूपतत्प्राप्त्युपायबहिर्भूतानाम् अर्थानां योगं प्राप्तानां च क्षेमं परिपालनं परित्यज्य  आत्मवान्  भव आत्मस्वरूपान्वेषणपरो भव। अप्राप्तस्य प्राप्तिः योगः प्राप्तस्य परिरक्षणं क्षेमः। एवं वर्तमानस्य ते रजस्तमः प्रचुरता नश्यति सत्त्वं च वर्धते।न च वेदोदितं सर्वं सर्वस्य उपादेयम्
।।2.45।।अविवेकिनामपि वेदाभ्यासवतां विवेकबुद्धिरुदेष्यतीत्याशङ्क्याह  य एवमिति।  तर्हि वेदार्थतया कामात्मता प्रशस्तेत्याशङ्क्याह  निस्त्रैगुण्य इति।  भवेति पदं निर्द्वन्द्वादिविशेषणेष्वपि प्रत्येकं संबध्यते। त्रयाणां सत्त्वादीनां गुणानां पुण्यपापव्यामिश्रकर्मतत्फलसंबन्धलक्षणः समाहारस्त्रैगुण्यमित्यङ्गीकृत्य व्याचष्टे  संसार इति।  वेदशब्देनात्र कर्मकाण्डमेव गृह्यते तदभ्यासवतां तदर्थानुष्ठानद्वारा संसारध्रौव्यान्न विवेकावसरोऽस्तीत्यर्थः। तर्हि संसारपरिवर्जनार्थं विवेकसिद्धये किं कर्तव्यमित्याशङ्क्याह   त्वं त्विति।  कथं निस्त्रैगुण्यो भवेति गुणत्रयराहित्यं विधीयते नित्यसत्त्वस्थो भवेति वाक्यशेषविरोधादित्याशङ्क्याह  निष्काम   इति।  सप्रतिपक्षत्वं परस्परविरोधित्वं पदार्थौ शीतोष्णादिलक्षणौ। निष्कामत्वे द्वन्द्वान्निर्गतत्वं शीतोष्णादिसहिष्णुत्वं हेतुमुक्त्वा तत्रापि हेत्वपेक्षायां सदा सत्वगुणाश्रितत्वं हेतुमाह  नित्येति।  योगक्षेमव्यापृतचेतसो रजस्तमोभ्यामसंस्पृष्टे सत्त्वमात्रे समाश्रितत्वमशक्यमित्याशङ्क्याह  तथेति।  योगक्षेमयोर्जीवनहेतुतया पुरुषार्थसाधनत्वान्निर्योगक्षेमो भवेति कुतो विधिरित्याशङ्क्याह   योगेति।  योगक्षेमप्रधानत्वं सर्वस्य स्वारसिकमिति ततो निर्गमनमशक्यमित्याशङ्क्याह  आत्मवानिति।  अप्रमादो मनसो विषयपारवश्यशून्यत्वम्। अथ यथोक्तोपदेशस्य मुमुक्षुविषयत्वादर्जुनस्य मुमुक्षुत्वमिह विवक्षितमिति नेत्याह  एष इति।
।।2.45।।स्वयमेव वेदतात्पर्यमाह भगवान् त्रैगुण्यविषया वेदा इति। यत एवं कामात्मनां त्रैगुण्याधिकारिणां त्रैगुण्यफलविषया वेदास्त्रिकाण्डविषया अपि अतस्त्वं वेदादिमूलानिस्त्रिगुणतत्त्वाश्रितो भव। त्रिगुणमाश्रितस्त्रैगुण्यस्तद्भिन्नो निस्त्रैगुण्यः। निस्त्रिगुणं मामाश्रितो भवेति गूढाभिप्रायः। तल्लिङ्गमाह निर्द्वन्द्व इत्यादि।त्रिदुःखसहनं धैर्यं इति नित्यं सत्वे धैर्ये स्थितःसत्त्वैकमनसो वृत्तिः इति वाक्यान्नित्यसत्त्वरूपभगवन्निष्ठो भवेति गूढाभिसन्धिः। स्वबलेन कृतमप्राप्तसम्पादनं योगः। प्राप्तपरिपालनं क्षेमः। योगश्च क्षेमश्च योगक्षेमौ तद्रहित इति योगानुरोधेनोक्तम्। वस्तुतस्तु सत्त्वैकमनसो भगवदीयस्य भक्तियोगानुसारेण भगवदधीनयोगक्षेमवत्त्वं सूच्यते निर्योगक्षेमशब्देन। एवमेवाग्रे वक्ष्यति। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् 9।22 इति। आत्मना मनो विद्यते यस्य वश इति तथा।
।।2.45।।ननु सकामानां माभूदाशयदोषाद्व्यवसायात्मिका बुद्धिः निष्कामानां तु व्यवसायात्मकबुद्ध्या कर्म कुर्वतां कर्मस्वाभाव्यात्स्वर्गादिफलप्राप्तौ ज्ञानप्रतिबन्धः समान इत्याशङ्क्याह त्रयाणां गुणानां कर्म त्रैगुण्यं काममूलः संसारः स एव प्रकाश्यत्वेन विषयो येषां तादृशा वेदाः कर्मकाण्डात्मकाः यो यत्फलकामस्तस्यैव तत्फलं बोधयन्तीत्यर्थः। नहि सर्वेभ्यः कोमेभ्यो दर्शपूर्णमासाविति विनियोगेऽपि सकृदनुष्ठानात्सर्वफलप्राप्तिर्भवति तत्तत्कामनाविरहात् यत्फलकामनयानुतिष्ठिति तदेव फलं तस्मिन्प्रयोग इति स्थितं योगसिद्ध्यधिकरणे। यस्मादेवं कामनाविरहे फलविरहः तस्मात्त्वं निस्त्रैगुण्यो निष्कामो भव हे अर्जुन। एतेन कर्मस्वाभाव्यात्संसारो निरस्तः। ननु शीतोष्णादिद्वन्द्वप्रतीकाराय वस्त्राद्यपेक्षणात्कुतो निष्कामत्वमत आह निर्द्वन्द्वः। सर्वत्र भवेति संबध्यते। मात्रास्पर्शास्त्वित्युक्तन्यायेन शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुर्भव। असह्यं दुःखं कथं वा सोढव्यमित्यपेक्षायामाह नित्यसत्त्वस्थः नित्यमचञ्चलं यत्सत्त्वं धैर्यापरर्यायं तस्मिंस्तिष्ठतीति तथा। रजस्तमोभ्यामभिभूतसत्त्वो हि शोतोष्णादिपीडया मरिष्यामीति मन्वानो धर्माद्विमुखो भवति त्वं तु रजस्तमसी अभिभूय सत्त्वमात्रालम्बनो भव। ननु शीतोष्णादिसहनेऽपि क्षुत्पिपासादिप्रतीकारार्थं किंचिदनुपात्तमुपादेयमुपात्तं च रक्षणीयमिति तदर्थं यत्ने क्रियमाणे कुतः सत्त्वस्थत्वमित्यत आह निर्योगक्षेमः। अलब्धलाभो योगः लब्धपरिरक्षणं क्षेमस्तद्रहितो भव। चित्तविक्षेपकारिपरिग्रहरहितो भवेत्यर्थः। नचैवं चिन्ता कर्तव्या कथमेवं सति जीविष्यामिति। यतः सर्वान्तर्यामी परमेश्वर एव तव योगक्षेमादि निर्वाहयिष्यतीत्याह आत्मवान् आत्मा परमात्मा ध्येयत्वेन योगक्षेमादिनिर्वाहकत्वेन च वर्तते यस्य स आत्मवान्। सर्वकामनापरित्यागेन परमेश्वरमाराधयतो मम सएव देहयात्रामात्रमपेक्षितं संपादयिष्यतीति निश्चित्य निश्चिन्तो भवेत्यर्थः। आत्मवानप्रमत्तो भवेति वा।
।।2.45।।ननु च यदि स्वर्गादिकं परमं फलं न भवति तर्हि किमिति वेदैस्तत्साधनतया कर्माणि विधीयन्ते तत्राह  त्रैगुण्यविषया इति।  त्रिगुणात्मकाः सकामा येऽधिकारिणस्तद्विषयास्तेषां कर्मफलसंबन्धप्रतिपादका वेदाः। त्वं तु निस्त्रैगुण्यो निष्कामो भव। तत्रोपायमाह। निर्द्वन्द्वः सुखदुःखशीतोष्णादियुगुलानि द्वन्द्वानि तद्रहितो भव। तानि सहस्वेत्यर्थः। कथमित्यत्राह। नित्यसत्त्वस्थः सन्। धैर्यमवलम्ब्येत्यर्थः। तथा निर्योगक्षेमः। अप्राप्तस्वीकारो योगः प्राप्तपरिपालनं क्षेमं तद्रहितः। आत्मवानप्रमत्तः। नहि द्वन्द्वाकुलस्य योगक्षेमव्यापृतस्य च प्रमादिनस्त्रैगुण्यातिक्रमः संभवतीति।
null
।।2.45।।ननु ते त्वज्ञाः वेदोक्तविषये प्रवर्तन्ते परं स्वर्गादीनां फलाभावे वेदः कथं बोधयति इत्याशङ्क्याह त्रैगुण्यविषया वेदा इति। त्रैगुण्याः त्रिगुणसृष्टौ सृष्टा ये जीवास्तद्विषयास्तदर्थं स्वर्गादिफलककर्मबोधका वेदाः। न तु गुणातीतसाक्षाद्भगवत्क्रीडौपयिकभगवदीयसृष्ट्यन्तर्गतभगवद्भक्तविषया इत्यर्थः। भगवल्लीलासृष्टिस्तु निर्गुणा अत एवअन्यैव काचित्सा सृष्टिर्विधातुर्व्यतिरेकिणी इत्यादि श्रीवराहवचनम्। गुणातीतपुरुषोत्तमस्वरूपं तु वेदाद्यविषयमेव। अत एव श्रुतिराह नेति नेति बृ.उ.2।3।6 यतो वाचो निवर्त्तन्ते तै.उ.2।4।12।9।1 इत्यादि। यस्माद्वेदास्त्रिगुणविषयास्तस्मात् त्वं निस्त्रैगुण्यो भक्तो भवेत्यर्थः। निस्त्रिगुणस्य भावुको भवेति भावः। यद्वा वेदास्त्रैगुण्यविषयाः त्रिगुणात्मकस्वरूपफलप्रतिपादकाः न तु साक्षाद्भगवत्सम्बन्धप्रतिपादकाः। अतस्तथा बोधयन्तीत्यर्थः। ननु वेदास्त्रिगुणविषयाश्चेत्तदाऽस्माकमज्ञानानां का गतिरित्याशङ्क्याह निस्त्रैगुण्य इति। गुणातीतमद्धर्मैकपरो भवेति भावः। केन साधनेन तथात्वं भवेत् इत्याशङ्कायामाह निर्द्वन्द्व इति। निर्गतानि द्वन्द्वानि सुखदुःखाहम्ममेत्यादीनि तद्रहितो भव। सर्वं त्यक्त्वा भक्तिपरो भव। तथा त्वमपि कथं इत्याकाङ्क्षायामाह नित्यसत्त्वस्थ इति। नित्यं सत्त्वं यस्मात्तस्मिन् गुणातीते स्थितो भव। किञ्च निर्योगक्षेम इति। साधनासाध्यपरमाप्तवस्त्वभिलाषो योगः स्वेच्छाप्राप्तवस्तुन्याप्तज्ञानेन स्वीकारो क्षेमस्तद्रहित आत्मवान् आत्मज्ञानवान् भवेत्यर्थः।
।।2.45।।कस्य तर्हि समाधौ बुद्धिर्भवतीत्यत आह  त्रैगुण्येति।  त्रैगुण्यं गुणत्रयकार्यमूर्ध्वमध्याधोगतिरूपं संसरणं तदेव प्रकाश्यत्वेन विषयो येषां तादृशाः कर्मकाण्डपरा वेदाः। त्वं तु निस्त्रैगुण्यो भव। ऊर्ध्वगतावपि विरक्तो भवेत्यर्थः। वक्ष्यति च तत्तद्गुणप्रधानं गतित्रयंऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था इति। दिव्येभ्योऽपि विषयेभ्यो विरक्तः समाधावधिक्रियत इति भावः। किं लक्षणोऽसौ निस्त्रैगुण्य इत्यत आह  निर्द्वन्द्व इति।  सुखदुःखे मानापमानौ शत्रुमित्रे शीतोष्णे इत्यादीनि द्वन्द्वानि सप्रतिपक्षपदार्थरूपाणि तेभ्यो निर्गतो निर्द्वन्द्वः। सर्वत्र समबुद्धिरित्यर्थः। ननु बाधमानमुष्णादिकं कथं शीतादिवत्क्षन्तुं शक्यमत आह  नित्यसत्त्वस्थ इति।  नित्यं सर्वदा सत्त्वं धैर्यं सत्वगुणो वा तदाश्रितो भूत्वा। धीरो हि सर्वं सोढुं शक्तः सात्विको वा प्रारब्धकर्मोपस्थापितमिदं दुःखमपरिहार्यं किमु तप्ततयेति जानन् सर्वं सोढुं शक्नोत्येव। नन्वत्यन्तदुःसहं क्षुधादिदुःखं कथं निस्त्रैगुण्येन सर्वथा प्रवृत्तिशून्येन सोढुं शक्यमत आह  निर्योगक्षेम इति।  अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः। प्राप्तस्य संरक्षणं क्षेमः। एतद्वयमपि प्रारब्धकर्माधीनमिति ततोऽपि निर्गत इत्यर्थः। तत्र हेतुः यत आत्मवाञ्जितचित्तः। सहि सर्वास्वप्यापत्स्वनाकुलो नित्यतृप्ततया निरुद्यमश्च भवतीति त्वमप्येतादृशो निस्त्रैगुण्यो भवेत्यर्थः।
।।2.45।।वेदवादरतानां वेदोक्तत्रिगुणात्मकसंसार एव फलमित्याशयेनाह  त्रैगुण्येति।  त्रैगुण्यं संसारो विषयः प्रतिपाद्यो येषां कर्मकाण्डपराणां वेदानां तर्हि मया कथं भाव्यमित्याकाङ्क्षयामाह निस्त्रैगुण्य इति। निस्त्रैगुण्यो निष्कामो भव। हे अर्जुनेति संबोधयन्स्वनाम सार्थक कर्तुमर्हसीति ध्वनयति। निस्त्रैगुण्यभवने उपायमाह  निर्द्वन्द्व इति।  सुखदुःखहेतु प्रतिपक्षपदार्थो द्वन्द्वशब्दावाच्यौ तस्माद्रहितो भव। तत्रोपायमाह  नित्येति।  नित्यं सत्त्वे स्थितो भव। तत्राप्युपायमाह निर्योगेति। अनुपात्तस्योपादानं योगः उपात्तस्य रक्षणं क्षेमः ताभ्यां निर्गतः रजोगुणरहितो भव। आत्मवानप्रमत्तः। तमोगुणाद्विनिर्गतो भवेत्यर्थः।
2.45 त्रैगुण्यविषयाः deal with the three attributes? वेदाः the Vedas? निस्त्रैगुण्यः without these three attributes? भव be? अर्जुन O Arjuna निर्द्वन्द्वः free from the pairs of opposites? नित्यसत्त्वस्थः ever remaining in the Sattva (goodness)? निर्योगक्षेमः free from (the thought of) acisition and preservation? आत्मवान् established in the Self.Commentary Guna means attribute or ality. It is substance as well as ality. Nature (Prakriti) is made up of three Gunas? viz.? Sattva (purity? light or harmony)? Rajas (passion or motion) and Tamas (darkness or inertia). The pairs of opposites are heat and cold? pleasure and pain? gain and loss? victory and defeat? honour and dishonour? praise and censure. He who is anxious about new acuqisitions or about the preservation of his old possessions cannot have peace of mind. He is ever restless. He cannot concentrate or meditate on the Self. He cannot practise virtue. Therefore? Lord Krishna advises Arjuna that he should be free from the thought of acisition and preservation of things. (Cf.IX.20?21).
2.45 The Vedas deal with the three attributes (of Nature); be thou above these three attributes. O Arjuna, free yourself from the pairs of opposites, and ever remain in the ality of Sattva (goodness), freed from (the thought of) acisition and preservation, and be established in the Self.
2.45 The Vedic Scriptures tell of the three constituents of life - the Qualities. Rise above all of them, O Arjuna, above all the pairs of opposing sensations; be steady in truth, free from worldly anxieties and centered in the Self.
2.45 O Arjuna, the Vedas [Meaning only the portion dealing with rites and duties (karma-kanda).] have the three alities as their object. You become free from worldliness, free from the pairs of duality, ever-poised in the ality of sattva, without (desire for) acisition and protection, and self-collected.
2.45 To those who are thus devoid of discriminating wisdom, who indulge in pleasure, [Here Ast. adds 'yat phalam tad aha, what result accrues, that the Lord states:'-Tr.] O Arjuna, vedah, the Vedas; traigunya-visayah, have the three alities as their object, have the three gunas, [Traigunya means the collection of the three alities, viz sattva (purity), rajas (energy) and tamas (darkness); i.e. the collection of virtuous, vicious and mixed activities, as also their results. In this derivative sense traigunya means the worldly life.] i.e. the worldly life, as the object to be revealed. But you bhava, become; nistraigunyah, free from the three alities, i.e. be free from desires. [There is a seeming conflict between the advices to be free from the three alities and to be ever-poised in the ality of sattva. Hence, the Commentator takes the phrase nistraigunya to mean niskama, free from desires.] (Be) nirdvandvah, free from the pairs of duality by the word dvandva, duality, are meant the conflicting pairs [Of heat and cold, etc.] which are the causes of happiness and sorrow; you become free from them. [From heat, cold, etc. That is, forbear them.] You become nitya-sattvasthah, ever-poised in the ality of sattva; (and) so also niryoga-ksemah, without (desire for) acisition and protection. Yoga means acisition of what one has not, and ksema means the protection of what one has. For one who as 'acisition and protection' foremost in his mind, it is difficult to seek Liberation. Hence, you be free from acisition and protection. And also be atmavan, self-collected, vigilant. This is the advice given to you while you are engaged in your own duty. [And not from the point of view of seeking Liberation.]
2.45. The Vedas bind by means of the three Strands. [Hence] O Arjuna, you must be free from the three Strands, free from the pairs [of opposites]; be established in this eternal Being; be free from [the idea of] acisition and preservation; and be possessed of the Self.
2.45 Traigunya-etc. The Vedas bind very much [only] by means of the three Strands and they do not bind on their own accord. For, the rituals prescribed in the Vedas, create bondage if they are performed with an intention of pleasure, or of (avoiding) pain, or with an illlusion of attachment. Hence the traid of Strands in the form of desire (or in a pleasing form) must be abandoned. If the present passage were intended to condemn the Vedas, then the act of fighting the battle in estion would be spoiled, because there is nothing other than the Vedas do not bind those, from whom the desire for fruit has completely gone. Because the Vedas alone are useful for proper knowledge in the case of those persons [free from the Strands] hence [the Lord] says-
2.45 The word Traigunya means the three Gunas - Sattva, Rajas and Tamas. Here the term Traigunya denotes persons in whom Sattva, Rajas and Tamas are in abundance. The Vedas in prescribing desire-oriented rituals (Kamya-karmas) have such persons in view. Because of their great love, the Vedas teach what is good to those in whom Tamas, Rajas and Sattva preponderate. If the Vedas had not explained to these persons the means for the attainment of heaven etc., according to the Gunas, then those persons who are not interested in liberation owing to absence of Sattva and preponderance of Rajas and Tamas in them, would get completely lost amidst what should not be resorted to, without knowing the means for attaining the results they desire. Hence the Vedas are concerned with the Gunas. Be you free from the three Gunas. Try to acire Sattva in abundance; increase that alone. The purport is: do not nurse the preponderance of the three Gunas in their state of inter-mixture; do not cultivate such preponderance. Be free from the pairs of opposites; be free from all the characteristics of worldly life. Abide in pure Sattva; be established in Sattva, in its state of purity without the admixture of the other two Gunas. If it is estioned how that is possible, the reply is as follows. Never care to acire things nor protect what has been acired. While abandoning the acisition of what is not reired for self-realisation, abandon also the conservation of such things already acired. You can thus be established in self-control and thery become an aspirant after the essentail nature of the self. 'Yoga' is acisition of what has not been acired; 'Ksema' is preservation of things already acired. Abandoning these is a must for an aspirant after the essential nature of the self. If you conduct yourself in this way, the preponderance of Rajas and Tamas will be annihilated, and pure Sattva will develop. Besides, all that is taught in the Vedas is not fit to be utilised by all.
2.45 The Vedas have the three Gunas for their sphere, O Arjuna. You must be free from the three Gunas and be free from the pairs of opposites. Abide in pure Sattva; never care to acire things and to protect what has been acired, but be established in the self.
।।2.45।।जो इस प्रकार विवेकबुद्धिसे रहित हैं उन कामपरायण पुरुषोंके वेद त्रैगुण्यविषयक हैं अर्थात् तीनों गुणोंके कार्यरूप संसारको ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन तू असंसारी हो निष्कामी हो। तथा निर्द्वन्द्व हो अर्थात् सुखदुःखके हेतु जो परस्पर विरोधी ( युग्म ) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है उनसे रहित हो और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुणके आश्रित हो। तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तुके रक्षणका नाम क्षेम है योगक्षेमको प्रधान माननेवालेकी कल्याणमार्गमें प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है अतः तू योगक्षेमको न चाहनेवाला हो। तथा आत्मवान् हो अर्थात् ( आत्मविषयोंमें ) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठानमें लगे हुएके लिये यह उपदेश है।
।।2.45।।  त्रैगुण्यविषयाः  त्रैगुण्यं संसारो विषयः प्रकाशयितव्यः येषां ते  वेदाः  त्रैगुण्यविषयाः। त्वं तु  निस्त्रैगुण्यो भव अर्जुन  निष्कामो भव इत्यर्थः।  निर्द्वन्द्वः  सुखदुःखहेतू सप्रतिपक्षौ पदार्थौ द्वन्द्वशब्दवाच्यौ ततः निर्गतः निर्द्वन्द्वो भव।  नित्यसत्त्वस्थः  सदा सत्त्वगुणाश्रितो भव। तथा  निर्योगक्षेमः  अनुपात्तस्य उपादानं योगः उपात्तस्य रक्षणं क्षेमः योगक्षेमप्रधानस्य श्रेयसि प्रवृत्तिर्दुष्करा इत्यतः निर्योगक्षेमो भव।  आत्मवान्  अप्रमत्तश्च भव। एष तव उपदेशः स्वधर्ममनुतिष्ठतः।।सर्वेषु वेदोक्तेषु कर्मसु यान्युक्तान्यनन्तानि फलानि तानि नापेक्ष्यन्ते चेत् किमर्थं तानि ईश्वरायेत्यनुष्ठीयन्ते इत्युच्यते श्रृणु
।।2.45।।यथैषा चतुश्श्लोकी न प्रतिज्ञातं योगमाह तथात्रैगुण्य इत्येतदपीतिप्रतीतिनिरासायाह  तामि ति प्रतिज्ञाताम्। आदिग्रहणेनाषष्ठसमाप्तेरिति सूचयति। सप्तमोपक्रमे पुनः प्रतिज्ञानात्। तर्हि प्रतिज्ञानन्तरमेव कुतो नावोचदिति मन्दाशङ्कानिरासायोक्तं  इतर दिति। स्वोक्तौ निष्ठाभावे कारणमेवमपोद्येदानीं प्रतिज्ञातमाह। अन्यथा तत्प्रबन्धेनास्यानवसरादिति भावः। अथवा वक्ष्यमाणानां वाक्यानां द्वेधावृत्तिमनेनाचष्टे। कैश्चिद्वाक्यैरितरद्योगविरुद्धमपोद्य कैश्चिद्योगमाहेति। यद्वाबहूनि मे व्यतीतानि 4।5 इत्यादि प्रासङ्गिकं विहायान्यद्योगविषयं ज्ञातव्यमित्यर्थः। तथा च वक्ष्यतिसाधनं प्राधान्येनोक्तम् इति। वेदास्त्रैगुण्यविषयाः त्वं तुनिस्त्रैगुण्यो भव इत्यनेन वेदपरित्यागो विधीयते इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासाय व्याचष्टे  वेदानामि ति। त्रिगुणसम्बन्धीत्यनेन तस्थेदमित्यर्थे तद्धितोऽयम्। विचित्रा हि तद्धितगतिरिति वचनादिति सूचयति। सम्बन्धि कार्यम्। प्रतीतितः आपाततः प्रतीतितः। अर्थः प्रतिपाद्यं प्रयोजनं च। वेदानां परोक्षार्थत्वं कुतः इत्यत आह  परोक्षे ति। यत एवं भवति अतः प्राप्तिसद्भावात्प्रसक्तां भ्रान्तिं माकार्षीः। कथमेतदनेन लभ्यते इत्यत आह  वाद  इति। वेदवादरता इत्यत्राप्येतदेव चाभिधानम्। प्रतीत एवार्थोऽस्तु इत्यत आह  नत्वि ति। पक्षः परमसिद्धान्तः। उत्तानार्थो वेदो निषिध्यत एव। योगविरोधित्वादित्यतः पक्ष इत्युक्तम्। कुत इत्यत आह   वेद  इति। धर्ममूलं धर्मज्ञप्तेः कारणम्। तद्विदां वेदविदां मन्वादीनां स्मृतिर्ग्रन्थः शीलं मनोगतिः आचारो धर्मबुद्ध्यानुष्ठानम् आत्मनो मनसो रुचिः। विकल्पविषये प्रणिहितो विहितः। तद्विपर्ययः प्रतिषिद्धः विवक्षितयोगविरोधे हि वेदे सिद्धान्तो निषेध्यः स्यात्। नचैवं प्रत्युत तदनुगुण एवेति भावः। धर्मशब्दोऽत्र निवृत्तिधर्मपरः।
।।2.45।।तां योगबुद्धिमाह त्रैगुण्यविषया इत्यादिना। इतरदपोद्य वेदानां परोक्षार्थत्वात्ित्रगुणसम्बन्धिस्वर्गादिप्रतीतितोऽर्थ इव भाति।परोक्षवादो वेदोऽयं इति ह्युक्तम्। अतः प्रातीतिकेऽर्थे भ्रान्तिं मा कुर्वित्यर्थः।वादो विषयकत्वं च मुखतोवचनं स्मृतम् इत्यभिधानात्। न तु वेदपक्षो निषिध्यते।वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा। आदावन्ते च मध्ये च विष्णुः सर्वत्र गीयते। सर्वे वेदा यत्पदम् कठो.2।15वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश्चैव साधूनामात्मनो रुचि(नस्तुष्टि) रेव च मनुः2।16वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः। भाग.6।1।40 इति वेदानां सर्वात्मना विष्णुपरत्वोक्तेस्तद्विहितस्य तद्विरुद्धस्य च धर्माधर्मोक्तेश्च।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।
ত্রৈগুণ্যবিষযা বেদা নিস্ত্রৈগুণ্যো ভবার্জুন৷ নির্দ্বন্দ্বো নিত্যসত্ত্বস্থো নির্যোগক্ষেম আত্মবান্৷৷2.45৷৷
ত্রৈগুণ্যবিষযা বেদা নিস্ত্রৈগুণ্যো ভবার্জুন৷ নির্দ্বন্দ্বো নিত্যসত্ত্বস্থো নির্যোগক্ষেম আত্মবান্৷৷2.45৷৷
ત્રૈગુણ્યવિષયા વેદા નિસ્ત્રૈગુણ્યો ભવાર્જુન। નિર્દ્વન્દ્વો નિત્યસત્ત્વસ્થો નિર્યોગક્ષેમ આત્મવાન્।।2.45।।
ਤ੍ਰੈਗੁਣ੍ਯਵਿਸ਼ਯਾ ਵੇਦਾ ਨਿਸ੍ਤ੍ਰੈਗੁਣ੍ਯੋ ਭਵਾਰ੍ਜੁਨ। ਨਿਰ੍ਦ੍ਵਨ੍ਦ੍ਵੋ ਨਿਤ੍ਯਸਤ੍ਤ੍ਵਸ੍ਥੋ ਨਿਰ੍ਯੋਗਕ੍ਸ਼ੇਮ ਆਤ੍ਮਵਾਨ੍।।2.45।।
ತ್ರೈಗುಣ್ಯವಿಷಯಾ ವೇದಾ ನಿಸ್ತ್ರೈಗುಣ್ಯೋ ಭವಾರ್ಜುನ. ನಿರ್ದ್ವನ್ದ್ವೋ ನಿತ್ಯಸತ್ತ್ವಸ್ಥೋ ನಿರ್ಯೋಗಕ್ಷೇಮ ಆತ್ಮವಾನ್৷৷2.45৷৷
ത്രൈഗുണ്യവിഷയാ വേദാ നിസ്ത്രൈഗുണ്യോ ഭവാര്ജുന. നിര്ദ്വന്ദ്വോ നിത്യസത്ത്വസ്ഥോ നിര്യോഗക്ഷേമ ആത്മവാന്৷৷2.45৷৷
ତ୍ରୈଗୁଣ୍ଯବିଷଯା ବେଦା ନିସ୍ତ୍ରୈଗୁଣ୍ଯୋ ଭବାର୍ଜୁନ| ନିର୍ଦ୍ବନ୍ଦ୍ବୋ ନିତ୍ଯସତ୍ତ୍ବସ୍ଥୋ ନିର୍ଯୋଗକ୍ଷେମ ଆତ୍ମବାନ୍||2.45||
traiguṇyaviṣayā vēdā nistraiguṇyō bhavārjuna. nirdvandvō nityasattvasthō niryōgakṣēma ātmavān৷৷2.45৷৷
த்ரைகுண்யவிஷயா வேதா நிஸ்த்ரைகுண்யோ பவார்ஜுந. நிர்த்வந்த்வோ நித்யஸத்த்வஸ்தோ நிர்யோகக்ஷேம ஆத்மவாந்৷৷2.45৷৷
త్రైగుణ్యవిషయా వేదా నిస్త్రైగుణ్యో భవార్జున. నిర్ద్వన్ద్వో నిత్యసత్త్వస్థో నిర్యోగక్షేమ ఆత్మవాన్৷৷2.45৷৷
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।।2.46।। सब तरफसे परिपूर्ण महान् जलाशयके प्राप्त होनेपर छोटे गड्ढों में भरे जल में मनुष्यका जितना प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता, वेदों और शास्त्रोंको तत्त्वसे जाननेवाले ब्रह्मज्ञानीका सम्पूर्ण वेदोंमें उतना ही प्रयोजन रहता है अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता।
।।2.46।। सब ओर से परिपूर्ण जलराशि के होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है? आत्मज्ञानी ब्राह्मण का सभी वेदों में उतना ही प्रयोजन रहता है।।
।।2.46।। जलराशि का जो सुन्दर दृष्टान्त यहाँ दिया गया है वह सन्दर्भ को देखते हुये अत्यन्त समीचीन है। भीषण गर्मियों के दिनों में सरिताओं के सूख जाने पर समीप के किसी कुएँ से ही जल लेने लोगों को जाना पड़ता है। यद्यपि पैरों के नीचे पृथ्वी के गर्भ में जल स्रोत रहता है परन्तु वह उपयोग के लिये उपलब्ध नहीं होता। वर्षा ऋतु में सर्वत्र नदियों में बाढ़ आने पर छोटेछोटे जलाशय उसी में समा जाते हैं और तब उनका अलग से न अस्तित्व होता है और न प्रयोजन।उसी प्रकार जब तक मनुष्य अपने आनन्दस्वरूप को पहचानता नहीं तब तक मोहवश विषयों में ही वह सुख खोजा करता है। उस समय वेद अर्थात् कर्मकाण्ड उसे अत्यन्त उपयोगी प्रतीत होते हैं क्योंकि उसमें स्वर्गादि सुख पाने के अनेक साधन बताये गये हैं। परन्तु जब एक जिज्ञासु साधक उपनिषद् प्रतिपादित आनन्दस्वरूप आत्मा का अपरोक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब उसे कर्मकान्ड में कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। उपभोगजन्य सभी छोटेछोटे सुख उसके आनन्दस्वरूप में ही समाविष्ट होते हैं।इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि व्यास जी द्वारा यहाँ वेदों के कर्मकाण्ड की निन्दा की गयी है। जो अविवेकी लोग साधन को ही साध्य समझ लेते हैं और अनन्त की प्राप्ति की आशा अनित्य कर्मों के द्वारा करते हैं गोपाल कृष्ण उनको इस प्रकार से प्रताड़ित कर रहे हैं फलासक्ति न रखकर किये गये कर्मों से मनुष्य का व्यक्तित्व विकसित होता है और ऐसे शुद्ध अन्तकरण वाले मनुष्य को अनन्त असीम आत्मतत्त्व का अनुभव सहज सुलभ हो जाता है। तत्पश्चात् उसे अनित्य सुखों का कोई आकर्षण नहीं रह जाता।वेद हमें अपने ही शुद्ध चैतन्यस्वरूप का बोध कराते हैं। जब तक अविद्यायुक्त अहंकार का अस्तित्व है तब तक वेदाध्ययन की आवश्यकता अपरिहार्य है। आत्मबोध के होने पर उस ज्ञानी पुरुष के कारण वेदों का भी प्रामाण्य सिद्ध होता है। गणित की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त कर लेने पर उस व्यक्ति को पहाड़े रटने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि उसके पूर्ण ज्ञान में इस प्रारम्भिक ज्ञान का समावेश रहता है। जहाँ तक तुम्हारा सम्बन्ध है
2.46।। व्याख्या-- 'यावनार्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके'-- जलसे सर्वथा परिपूर्ण, स्वच्छ, निर्मल महान् सरोवरके प्राप्त होनेपर मनुष्यको छोटे-छोटे जलाशयोंकी कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती। कारण कि छोटे-से जलाशयमें अगर हाथ-पैर धोये जायँ तो उसमें मिट्टी घुल जानेसे वह जल स्नानके लायक नहीं रहता; और अगर उसमें स्नान किया जाय तो वह जल कपड़े धोनेके लायक नहीं रहता और यदि उसमें कपड़े धोये जायँ तो वह जल पीनेके लायक नहीं रहता। परन्तु महान् सरोवरके मिलनेपर उसमें सब कुछ करनेपर भी उसमें कुछ भी फरकनहीं पड़ता अर्थात् उसकी स्वच्छता, निर्मलता, पवित्रता वैसी-की-वैसी ही बनी रहती है।  'तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः'-- ऐसे ही जो महापुरुष परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो गये हैं उनके लिये वेदोंमें कहे हुए यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने भी पुण्यकारी कार्य हैं, उन सबसे उनका कोई मतलब नहीं रहता अर्थात् वे पुण्यकारी कार्य उनके लिये छोटे-छोटे जलाशयोंकी तरह हो जाते हैं। ऐसा ही दृष्टान्त आगे सत्तरवें श्लोकमें दिया है कि वह ज्ञानी महात्मा समुद्रकी तरह गम्भीर होता है। उसके सामने कितने ही भोग आ जायँ पर वे उसमें कुछ भी विकृति पैदा नहीं कर सकते। जो परमात्मतत्त्वको जाननेवाला है, और वेदों तथा शास्त्रोंके तत्त्वको भी जाननेवाला है उस महापुरुषको यहाँ  'ब्राह्मणस्य विजानतः'  पदोंसे कहा गया है।  'तावान्''  कहनेका तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर वह तीनों गुणोंसे रहित हो जाता है। वह निर्द्वन्द्व हो जाता है अर्थात् उसमें राग-द्वेष आदि नहीं रहते। वह नित्य तत्त्वमें स्थित हो जाता है। वह निर्योगक्षेम हो जाता है अर्थात् कोई वस्तु मिल जाय और मिली हुई वस्तुकी रक्षा होती रहे--ऐसा उसमें भाव भी नहीं होता। वह सदा ही परमात्मपरायण रहता है।
।।2.46।।अत एव च त्रैगुण्येति। वेदास्त्रैगुण्येन करणेन ( N कारणेन) विशेषेण सिन्वन्ति बध्नन्ति (N बध्नन्तीति) न ( N omit न तु) तु स्वयं बन्धका यस्मात् सुखदुःखमोहबुद्ध्या कर्माणि वैदिकानि क्रियमाणानि बन्धकानि अतः त्रैगुण्यं कामरूपं त्याज्यम्। यदि तु वेददूषणपरमेतदभविष्यत् प्रकृतं युद्धकरणं व्यघटिष्यत वेदादन्यस्य स्वधर्मनिश्चायकत्वाभावात्। येषां तु फलाभिलाषो विगलितः तेषां न वेदाः बन्धकाः।
।।2.46।।यथा सर्वार्थपरिकल्पिते  सर्वतः संप्लुतोदके उदपाने  पिपासोः  यावान् अर्थः  यावद् एव प्रयोजनं पानीयम् तावद् एव तेन उपादीयते न सर्वम् एवम्  सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः  वैदिकस्य मुमुक्षोः यदेव मोक्षसाधनं तद् एव उपादेयम् न अन्यत्।अतः सत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः एतावद् एव उपादेयम् इत्याह
।।2.46।।ईश्वरार्पणधिया स्वधर्मानुष्ठानेऽपि फलकामनाभावाद्वैफल्यं योगमार्गस्येति मन्वानः शङ्कते  सर्वेष्विति।  कर्ममार्गस्य फलवत्त्वं प्रतिजानीते  उच्यत इति।  किं तत्फलमित्युक्ते तद्विषयं श्लोकमवतारयति  शृण्विति।  यथोपदाने कूपादौ परिच्छिन्नोदके स्नानाचमनादिर्योऽर्थो यावानुत्पद्यते स तावानपरिच्छिन्ने सर्वतः संप्लुतोदके समुद्रेऽन्तर्भवति परिच्छिन्नोदकानामपरिच्छिन्नोदकांशत्वात्। तथा सर्वेषु वेदोक्तेषु कर्मसु यावानर्थो विषयविशेषोपरक्तः सुखविशेषो जायते स तावानात्मविदः स्वरूपभूते सुखेऽन्तर्भवति परिच्छिन्नानन्दानामपरिच्छिन्नानन्दान्तर्भावाभ्युपगमात्एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति इति श्रुतेः। तथा चापरिच्छिन्नात्मानन्दप्राप्तिपर्यवसायिनो योगमार्गस्य नास्ति वैफल्यमित्याह  यावानिति।  उक्तमर्थमक्षरयोजनया प्रकटयति  यथेति।  उदकं पीयतेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या कूपादिपरिच्छिन्नोदकविषयत्वमुदपानशब्दस्य दर्शयति  कूपेति।  कूपादिगतस्याभिधेयस्य समुद्रेऽन्तर्भावासंभवात्कथमिदमित्याशङ्क्यार्थशब्दस्य प्रयोजनविषयत्वं व्युत्पादयति  फलमिति।  यत्फलत्वेन लीयते तत्फलमित्युच्यते तत्कथं तडागादिकृतं स्नानपानादि तथेत्याशङ्क्य तस्याल्पीयसो नाशोपपत्तेरित्याह  प्रयोजनमिति।  तडागादिप्रयुक्तप्रयोजनस्य समुद्रनिमित्तप्रयोजनमात्रत्वप्रयुक्तान्यस्यान्यात्मत्वानुपपत्तेरित्याशङ्क्याह  तत्रेति।  घटाकाशादेरिव महाकाशे परिच्छिन्नोदककार्यस्यापरिच्छिन्नोदककार्यान्तर्भावः संभवति तत्प्राप्तावितरापेक्षाभावादित्यर्थः। पूर्वार्धं दृष्टान्तभूतमेवं व्याख्याय दार्ष्टान्तिकमुत्तरार्धं व्याकरोति  एवमित्यादिना।  कर्मसु योऽर्थ इत्युक्तं व्यनक्ति  यत्कर्मफलमिति।  सोऽर्थो विजानतो ब्राह्मणस्य योऽर्थस्तावानेव संपद्यत इति संबन्धः। तदेव स्पष्टयति  विज्ञानेति।  तस्मिन्नन्तर्भवतीति शेषः। सर्वं कर्मफलं ज्ञानफलेऽन्तर्भवतीत्यत्र प्रमाणमाह  सर्वमिति।  यत्किमपि प्रजाः साधु कर्म कुर्वन्ति तत्सर्वं स पुरुषोऽभिसमेति प्राप्नोति यः पुरुषस्तद्वेद विजानाति यद्वस्तु स रैक्वो वेद तद्वेद्यमिति श्रुतेरर्थः। कर्मफलस्य सगुणज्ञानफलेऽन्तर्भावः संवर्गविद्यायां श्रूयते कथमेतावता निर्गुणज्ञानफले कर्मफलान्तर्भावः संभवतीत्याशङ्क्याह  सर्वमिति।  तर्हि ज्ञाननिष्ठैव कर्तव्या तावतैव कर्मफलस्य लब्धतया कर्मानुष्ठानानपेक्षणादित्याशङ्क्याह  तस्मादिति।  योगमार्गस्य निष्फलत्वाभावस्तच्छब्दार्थः।
।।2.46।।न चोक्तरूपं वेदोदितं सर्वं सगुणस्यागुणस्य सर्वस्योपादेयं युगपत् किन्तु यावदर्थमित्याह निदर्शनेन यावानर्थ इति। सर्वार्थपरिकल्पके सर्वतः सम्प्लुतोदके च निम्नजले उदपाने उदन्वति सरसि पिपासादिमतो यावानर्थः यावदेव प्रयोजनं तावदेव तेन तेनोपादीयते न सर्वं एवं सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य वेदाधिकृतस्य तदर्थं विवेकेन जानतो योगिनो यदेवात्मसंसिद्धिसाधनं तदेवोपादेयं न सर्वम्।
।।2.46।।न चैवं शङ्कनीयं सर्वकामनापरित्यागेन कर्म कुर्वन्नहं तैस्तैः कर्मजनितैरानन्दैर्वञ्चितः स्यामिति। यस्मात् उदपाने क्षुद्रजलाशये। जातावेकवचनम्। यावानर्थः यावत्स्नानपानादिप्रयोजनं भवति सर्वतःसंप्लुतोदके महति जलाशये तावानर्थो भवत्येव। यथाहि पर्वतनिर्झराः सर्वतः स्रवन्तः क्वचिदुपत्यकायामेकत्र मिलन्ति तत्र प्रत्येकं जायमानमुदकप्रयोजनं समुदिते सुतरां भवति सर्वेषां निर्झराणामेकत्रैव कासारेऽन्तर्भावात् एवं सर्वेषु वेदेषु वेदोक्तेषु काम्यकर्मसु यावानर्थो हैरण्यगर्भानन्दपर्यन्तस्तावान्विजानतो ब्रह्मतत्त्वं साक्षात्कृतवतो ब्राह्मणस्य ब्रह्मबुभूषोर्भवत्येव। क्षुद्रानन्दानां ब्रह्मानन्दांशत्वात्तत्र क्षुद्रानन्दानामन्तर्भावात्एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति इति श्रुतेः। एकस्याप्यानन्दस्याविद्याकल्पिततत्तदुपाधिपरिच्छेदमादायांशांशिवद्व्यपदेश आकाशस्येव घटाद्यवच्छेदकल्पनया। तथाच निष्कामकर्मभिः शुद्धान्तःकरणस्य तवात्मज्ञानोदये परब्रह्मानन्दप्राप्तिः स्यात्तयैव च सर्वानन्दप्राप्तौ न क्षुद्रानन्दप्राप्तिनिबन्धनवैय्यग्र्यावकाशः। अतः परमानन्दप्रापकाय तत्त्वज्ञानाय निष्कामकर्माणि कुर्वित्यभिप्रायः। अत्र यथातथाभवतीति पदत्रयाध्याहारो यावान्तावानिति पदद्वयानुषङ्गश्च दार्ष्टान्तिके द्रष्टव्यः।
।।2.46।।ननु वेदोक्तनानाफलपरित्यागेन निष्कामतयेश्वराराधनविषया व्यवसायात्मिका बुद्धिस्तु कुबुद्धिरेवेत्याशङ्क्याह  यावानिति।  उदकं पीयतेऽस्मिन्नित्युदपानं वापीकूपतडागादि तस्मिन्स्वल्पोदके एकत्र कृत्स्नस्यार्थस्याभावात्तत्र परिभ्रमणेन विभागशो यावान्स्नानपानादिरर्थः प्रयोजनं भवति तावान्सर्वोऽप्यर्थः सर्वतःसंप्लुतोदके महाह्रदे एकत्रैव यथा भवति।।एवं यावान्सर्वेषु वेदेषु तत्तकर्मफलरूपोऽर्थस्तावान्सर्वोऽपि विजानतो व्यवसायात्मिकबुद्धियुक्तस्य ब्राह्मणस्य ब्रह्मनिष्ठस्य भवत्येव। ब्रह्मानन्दे क्षुद्रानन्दानामन्तर्भूतत्वात्एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति इति श्रुतेः। तस्मादियमेव बुद्धिः सुबुद्धिरित्यर्थः।
null
।।2.46।।नन्वेवं वेदोक्ताकरणे कथं फलसिद्धिः स्यात् इत्याशङ्कायामाह यावानिति। उदपाने उदकं पीयतेऽस्मिन्नित्युदपानं जलपात्रं तस्मिन् यावानर्थः। सर्वतः सम्प्लुतोदके तडागे च भवति परं तत्र जलाहरणपात्ररक्षणादिक्लेशोऽधिकः। तथा यावानर्थो वेदोक्तकर्मफलं वेदेषु भवति तावान् विजानतो ब्रह्मस्वरूपविदुषो ब्राह्मणस्य ब्रह्मैकनिष्ठस्य भवतीत्यर्थः। नैवं च श्रुतिविरोधः। अत एव श्रुतिराह आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् तै.उ.2।4।1 तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति श्वे.उ.3।86।15।
।।2.46।।नन्वात्मवत्त्वं चित्तशुद्धौ सत्यामेव भवति सा च सकलवेदोक्तकर्मानुष्ठानसाध्या अतो निस्त्रैगुण्यत्वं दुर्लभमित्याशङ्क्याह  यावानिति।  सर्वतः संप्लुतोदके महति उदपाने जलाशये पुरुषस्य यावान् अर्थो यावत्स्नानपानादिकं प्रयोजनं घटमात्रजलनिर्वर्त्यं भवति न कृत्स्नजलाशयव्ययनिर्वर्त्यं तावानेवार्थो विजानतो व्युत्पन्नचित्तस्य ब्राह्मणस्य ब्रह्मबुभूषोः सर्वेषु वेदेषु वेदैकदेशोपनिषच्छ्रवणमात्रनिर्वर्त्यो भवति न कृत्स्नवेदार्थानुष्ठानं स्वसिद्ध्यर्थमपेक्षते। एकेन जन्मना कृत्स्नवेदार्थानुष्ठानासंभवात्। ऐहिकेन जन्मान्तरीयेण वा जपादिना चित्तशुद्धौ सत्यामुपनिषच्छ्रवणान्निस्त्रैगुण्यता संभवतीति भावः। वृद्धास्तु सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीये आत्मज्ञाने पुरुषस्य तावानर्थः कृत्स्नोऽपि भवति यावाननेककूपरूपोदपानस्थानीयेषु सकलवेदोक्तकर्मस्वनुष्ठितेषु भवति ब्रह्मानन्दे क्षुद्रानन्दानामन्तर्भावात्। तथा च श्रुतिर्ज्ञाने सर्वकर्मफलान्तर्भावं दर्शयति।यथा कृतायविजितायाधरेयाः संयन्त्येवमेवैनं सर्वं तदभिसमेति यत्किंच प्रजाः साधु कुर्वन्ति यस्तद्वेद यत्स वेद इति। वक्ष्यति चसर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते इति। गङ्गातुल्यज्ञानोदयात्प्रागेव कूपोपमानि कर्माणि कर्तव्यानीति भाव इति व्याचख्युः। अस्मिन्पक्षे पूर्वार्धे अनेकस्मिन् यथातथाभवतीति पदचतुष्टयाध्याहारः यावान्तावान्पदयोरनुषङ्गश्च दार्ष्टान्तिके द्रष्टव्यः।
।।2.46।।   ननु वेदोक्तकर्मफलाकाङ्क्षा नापेक्षिता चेदीश्वरार्थमपि कर्म किमर्थमनुष्ठेयमित्याशङ्क्य फलाकाङ्क्षया कर्मानुष्ठातुरनेकानर्थसंभावना फलाभिसंधिरहितस्य तस्य तु ज्ञानप्राप्त्या सर्वकर्मफलानां यस्मिन्ब्रह्मसुखेऽन्तर्भावः तत्प्राप्तिः समस्तानर्थनिवृत्तिश्च भवतीत्याशयेनाह  यावानिति।  यथा लोके उदपाने कूपाद्यनेकस्मिन्स्वल्पे क्वचिद्धस्तादिप्रक्षालनं क्वचित्स्नानं क्वचित्पानमित्यादिर्यावानर्थ यावत्परिमाणं प्रयोजनं स सर्वाथस्तावत्परिमाण एव सर्वतःसंप्लुतोदके परिपूर्णोदके भवति। तत्रान्तर्भव्रतीत्यर्थः। तथा यावनार्थः फलं वेदेषु वेदबोधितेषु कर्मसु तावानर्थो ब्राह्मणस्य परमार्थतत्त्वं विजानतः संभवति सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीये ज्ञानफले ब्रह्मणि सर्वेषां फलानामन्तर्भावात्।एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति इति श्रुतेः। ब्राह्मणग्रहणं ब्रह्मविद्यायां ब्राह्मणस्य मुख्याधिकारसूचनार्थम्।
2.46 यावान् as much? अर्थः use? उदपाने in a reservoir? सर्वतः everywhere? संप्लुतोदके being flooded? तावान्,so much (use)? सर्वेषु in all? वेदेषु in the Vedas? ब्राह्मणस्य of the Brahmana? विजानतः of the knowing.Commentary Only for a sage who has realised the Self? the Vedas are of no use? because he is in possession of the infinite knowledge of the Self. This does not? however? mean that the Vedas are useless. They are useful for the neophytes or the aspirants who have just started on the spiritual path.All the transient pleasures derivable from the proper performance of all actions enjoined in the Vedas are comprehended in the infinite bliss of Selfknowledge.
2.46 To the Brahmana who has known the Self, all the Vedas are of as much use as is a reservoir of water in a place where there is a flood.
2.46 As a man can drink water from any side of a full tank, so the skilled theologian can wrest from any scripture that which will serve his purpose.
2.46 A Brahmana with realization has that much utility in all the Vedas as a man has in a well when there is a flood all around.
2.46 If there be no need for the infinite results of all the rites and duties mentioned in the Vedas, then why should they be performed as a dedication to God? Listen to the answer being given: In the world, yavan, whatever; arthah, utility, use, like bathing, drinking, etc.; one has udapane, in a well, pond and other numerous limited reservoirs; all that, indeed, is achieved, i.e. all those needs are fulfilled to that very extent; sampluhtodake, when there is a flood; sarvatah, all arount. In a similar manner, whatever utility, result of action, there is sarvesu, in all; the vedesu, Vedas, i.e. in the rites and duties mentioned in the Vedas; all that utility is achieved, i.e. gets fulfilled; tavan, to that very extent; in that result of realization which comes brahmanasya, to a Brahmana, a sannyasin; vijanatah, who knows the Reality that is the supreme Goal that result being comparable to the flood all around. For there is the Upanisadic text, '৷৷.so all virtuous deeds performed by people get included in this one৷৷.who knows what he (Raikva) knows৷৷.' (Ch. 4.1.4). The Lord also will say, 'all actions in their totality culminate in Knowledge' (4.33). [The Commentators otation from the Ch. relates to meditation on the alified Brahman. Lest it be concluded that the present verse relates to knowledge of the alified Brahman only, he otes again from the Gita toshow that the conclusion holds good in the case of knowledge of the absolute Brahman as well.] Therefore, before one attains the fitness for steadfastness in Knowledge, rites and duties, even though they have (limited) utility as that of a well, pond, etc., have to be undertaken by one who is fit for rites and duties.
2.46. What portion in a reservoir, flooded with water everywhere, is useful [for a man in thirst], that much portion [alone] in all the Vedas is useful for an intelligent student of the Vedas.
2.46 Yavan etc. He, according to whom the importance lies in his own duty alone or in the knowledge - for him the purpose is served even from a limited portion of the Vedic teaching Therefore-
2.46 Whatever use, a thirsty person has for a reservoir, which is flooded with water on all sides and which has been constructed for all kinds of purposes like irrigation, only to that extent of it, i.e., enough to drink will be of use to the thirsty person and not all the water. Likewise, whatever in all the Vedas from the means for release to a knowing Brahmana, i.e., one who is established in the study of the Vedas and who aspires for release only to that extent is it to be accepted by him and not anything else. Sri Krsna now says that this much alone is to be accepted by an aspirant, established in Sattva:
2.46 What use a thirsty person has for a water reservoir when all sides of it are flooded - that much alone is the use of all the Vedas for a Brahmana who knows.
।।2.46।।सम्पूर्ण वेदोक्त कर्मोंके जो अनन्त फल हैं उन फलोंको यदि कोई न चाहता हो तो वह उन कर्मोंका अनुष्ठान ईश्वरके लिये क्यों करे इसपर कहते हैं सुन जैसे जगत्में कूप तालाब आदि अनेक छोटेछोटे जलाशयोंमें जितना स्नानपान आदि प्रयोजन सिद्ध होता है वह सब प्रयोजन सब ओरसे परिपूर्ण महान् जलाशयमें उतने ही परिमाणमें ( अनायास ) सिद्ध हो जाता है। अर्थात् उसमें उनका अन्तर्भाव है। इसी तरह सम्पूर्ण वेदोंमें यानी वेदोक्त कर्मोंसे जो प्रयोजन सिद्ध होता है अर्थात् जो कुछ उन कर्मोंका फल मिलता है वह समस्त प्रयोजन परमार्थतत्त्वको जाननेवाले ब्राह्मणका यानी संन्यासीका जो सब ओरसे परिपूर्ण महान् जलाशयस्थानीय विज्ञान आनन्दरूप फल है उसमें उतने ही परिमाणमें ( अनायास ) सिद्ध हो जाता है। अर्थात् उसमें उसका अन्तर्भाव है। श्रुतिमें भी कहा है कि जिसको वह ( रैक्व ) जानता है उस ( परब्रह्म ) को जो भी कोई जानता है वह उन सबके फलको पा जाता है कि जो कुछ प्रजा अच्छा कार्य करती है। आगे गीतामें भी कहेंगे कि सम्पूर्ण कर्म ज्ञानमें समाप्त हो जाते हैं। इत्यादि। सुतरां यद्यपि कूप तालाब आदि छोटे जलाशयोंकी भाँति कर्म अल्प फल देनेवाले हैं तो भी ज्ञाननिष्ठाका अधिकार मिलनेसे पहलेपहले कर्माधिकारीको कर्म करना चाहिये।
।।2.46।। यथा लोके कूपतडागाद्यनेकस्मिन्  उदपाने  परिच्छिन्नोदके  यावान्  यावत्परिमाणः स्नानपानादिः  अर्थः  फलं प्रयोजनं स सर्वः अर्थः  सर्वतःसंप्लुतोदके ऽपि यः अर्थः तावानेव संपद्यते तत्र अन्तर्भवतीत्यर्थः। एवं  तावान्  तावत्परिमाण एव संपद्यते  सर्वेषु वेदेषु  वेदोक्तेषु कर्मसु यः अर्थः यत्कर्मफलं सः अर्थः  ब्राह्मणस्य  संन्यासिनः परमार्थतत्त्वं  विजानतो  यः अर्थः यत् विज्ञानफलं सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीयं तस्मिन् तावानेव संपद्यते तत्रैवान्तर्भवतीत्यर्थः। यथा कृताय विजितायाधरेयाः संयन्त्येवमेनं  सर्वं तदभिसमेति यत् किञ्चित् प्रजाः साधु कुर्वन्ति यस्तद्वेद यत्स वेद  इति श्रुतेः।  सर्वं कर्माखिलम्  इति च वक्ष्यति। तस्मात् प्राक् ज्ञाननिष्ठाधिकारप्राप्तेः कर्मण्यधिकृतेन कूपतडागाद्यर्थस्थानीयमपि कर्म कर्तव्यम्।।तव च
।।2.46।।योगोपदेशप्रसङ्गे ज्ञानफलकथनस्य क उपयोगः इत्यत आह  तथापी ति।यामिमाम् 2।43 इत्यत्र काम्यकर्मिणां निन्दा कृतानिस्त्रैगुण्यो भव 2।45 इति च तत्त्यागो विहितः। तत्र प्रष्टव्यम् किन्निमित्तमेतदिति। ननूक्तं काम्यकर्मिणां समाध्यभावेन ज्ञानाभावान्मोक्षो न भवतीति। अत्रेदमुच्यते यद्यपि ज्ञानफलं काम्यकर्मिणां न भवति तथापि तन्निन्दादिकं नोपपद्यते। कुतः काम्यकर्मिणां फलं स्वर्गादिकं ज्ञानिनां न भवति इति ज्ञानकर्मणोः साम्यमेवेति योगानुष्ठाननियमाक्षेपे सतीत्याहेत्यर्थः। केचिदस्य श्लोकस्य कर्ममात्रत्यागो तात्पर्यमाहुः अपरे तु यत्कर्मसमुच्चितं ज्ञानं मोक्षसाधनं तत्कर्मपर एव वेदभागोऽधिगन्तव्यः न तु समस्तवेदाभ्यासेनायुः समापनीयमिति तन्निरासाय व्याचष्टे  यथे ति। सामर्थ्याद्यथैवंशब्दयोरध्याहारः। यावांस्तावानित्येतयोरावृत्तिश्च  सर्वेषु वेदे ष्विति। तदुक्तकाम्यकर्मिणामित्यर्थः। ब्राह्मणस्येति न क्षत्ित्रयादिव्यावृत्तिः शङ्क्येति भावेनाह  ब्रह्मे ति। वर्णविपर्ययो निरुक्तत्वात्। एवं तर्हि ब्राह्मणशब्दो मुक्तवाचीति स्यात् न च मुक्तस्य फलमस्तीत्यत आह  अपरोक्षे ति। तदुपपादयति  स ही ति। तर्हि विजानत इति पुनरुक्तिरिति चेत् न तस्य परोक्षज्ञानिवाचित्वात्। उभयग्रहणमनुपपन्नमित्यत आह  विजानत  इति। तस्यापरोक्षज्ञानस्य परोक्षज्ञानफलत्वम्। एतच्च स्वरूपकथनम्। यद्यपि ज्ञानिनः कर्मिणश्चान्योन्यफलाभावः तथापि ज्ञानिनः फलं महासमुद्रोदकमिव महत्त्वात्। कर्मिणां फलं तु कूपोदकमिवात्यन्ताल्पम्। अतस्तयोर्न साम्यम्। तथा चाल्पास्थिरकर्मनिन्दया महानन्तफलज्ञानसाधने योगे प्रेरणं युक्तमेवेति भावः। अपव्याख्यानं तूक्तवक्ष्यमाणन्यायनिरस्तम्।
।।2.46।।तथापि काम्यकर्मिणां फलं ज्ञानिनां न भवतीति साम्यमेवेत्यत आह यावानर्थ इति। यथा यावानर्थः प्रयोजनमुदपाने कूपे भवति तावान्सर्वतः सम्प्लुतोदकेऽन्तर्भवत्येव। एवं सर्वेषु वेदेषु यत्फलं तद्विजानतोऽपि ज्ञानिनो ब्राह्मणस्य फलेऽन्तर्भवति। ब्रह्म अणतीति ब्राह्मणोऽपरोक्षज्ञानी। स हि ब्रह्म गच्छति। विजानत इति ज्ञानफलत्वं तस्य दर्शयति।
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।
যাবানর্থ উদপানে সর্বতঃ সংপ্লুতোদকে৷ তাবান্সর্বেষু বেদেষু ব্রাহ্মণস্য বিজানতঃ৷৷2.46৷৷
যাবানর্থ উদপানে সর্বতঃ সংপ্লুতোদকে৷ তাবান্সর্বেষু বেদেষু ব্রাহ্মণস্য বিজানতঃ৷৷2.46৷৷
યાવાનર્થ ઉદપાને સર્વતઃ સંપ્લુતોદકે। તાવાન્સર્વેષુ વેદેષુ બ્રાહ્મણસ્ય વિજાનતઃ।।2.46।।
ਯਾਵਾਨਰ੍ਥ ਉਦਪਾਨੇ ਸਰ੍ਵਤ ਸਂਪ੍ਲੁਤੋਦਕੇ। ਤਾਵਾਨ੍ਸਰ੍ਵੇਸ਼ੁ ਵੇਦੇਸ਼ੁ ਬ੍ਰਾਹ੍ਮਣਸ੍ਯ ਵਿਜਾਨਤ।।2.46।।
ಯಾವಾನರ್ಥ ಉದಪಾನೇ ಸರ್ವತಃ ಸಂಪ್ಲುತೋದಕೇ. ತಾವಾನ್ಸರ್ವೇಷು ವೇದೇಷು ಬ್ರಾಹ್ಮಣಸ್ಯ ವಿಜಾನತಃ৷৷2.46৷৷
യാവാനര്ഥ ഉദപാനേ സര്വതഃ സംപ്ലുതോദകേ. താവാന്സര്വേഷു വേദേഷു ബ്രാഹ്മണസ്യ വിജാനതഃ৷৷2.46৷৷
ଯାବାନର୍ଥ ଉଦପାନେ ସର୍ବତଃ ସଂପ୍ଲୁତୋଦକେ| ତାବାନ୍ସର୍ବେଷୁ ବେଦେଷୁ ବ୍ରାହ୍ମଣସ୍ଯ ବିଜାନତଃ||2.46||
yāvānartha udapānē sarvataḥ saṅplutōdakē. tāvānsarvēṣu vēdēṣu brāhmaṇasya vijānataḥ৷৷2.46৷৷
யாவாநர்த உதபாநே ஸர்வதஃ ஸஂப்லுதோதகே. தாவாந்ஸர்வேஷு வேதேஷு ப்ராஹ்மணஸ்ய விஜாநதஃ৷৷2.46৷৷
యావానర్థ ఉదపానే సర్వతః సంప్లుతోదకే. తావాన్సర్వేషు వేదేషు బ్రాహ్మణస్య విజానతః৷৷2.46৷৷
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।।2.47।। कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो।
।।2.47।। कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है? फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।।
।।2.47।। वेद प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुसार ईश्वरार्पण बुद्धि और निष्काम भाव से किये गये कर्म अन्तकरण को शुद्ध करते हैं। आत्मबोध के पूर्व चित्तशुद्धि होना अनिवार्य है। गीता में इसी सिद्धान्त की पुष्टि करते हुये विशद विवरण में वैयक्तिक और सामाजिक सभी कर्मों का समावेश कर लिया गया है जबकि वेदों में कर्म से तात्पर्य यज्ञयागादि धार्मिक विधियों से ही था।अपरिपक्व बुद्धि से तत्त्वज्ञान जैसा गम्भीर विषय समझ में नहीं आ सकता। पर्याप्त विचार किये बिना उपर्युक्त श्लोक का अर्थ असंभव ही प्रतीत होगा। अधिकसेअधिक कोई यह मान लेगा कि उस काल में दरिद्र को दरिद्र ही रखने में और धनवान को उन पर अत्याचार करने की धार्मिक अनुमति इस श्लोक में दी गयी हैं। केवल बौद्धिक विचार करने वाले व्यक्ति को फलासक्ति न रखकर कर्म करने का आदर्श अव्यावहारिक और असंभव प्रतीत होगा। परन्तु वही व्यक्ति अध्ययन के पश्चात् अपने कर्म क्षेत्र में इसका पालन करके देखे तो उसे यह ज्ञात होगा कि जीवन में वास्तविक सफलताओं को प्राप्त करने की यही एक मात्र कुंजी है।इसके पूर्व प्रेरणा का जीवन जीने की कला जो कर्मयोग के रूप में बतायी गयी थी उसी की शिक्षा यहाँ श्रीकृष्ण पुन अर्जुन को दे रहे हैं। अनुचित संकल्पविकल्प जीवन के विष हैं। जीवन में सभी असफलताओं का मूल मनस्थिरता के अभाव में निहित है जो सामान्यत भविष्य में संभाव्य हानि के भय की कल्पना मात्र का परिणाम होता है। हममें से अधिकांश लोग असफलता के भय से महान् कार्य को अपने हाथों में लेना ही स्वीकार नहीं करते और जो कोई थोड़े लोग ऐसा साहस करते भी हैं तो अल्पकाल के बाद निरुत्साहित होकर उस कार्य को अपूर्ण ही छोड़ देते हैं। इसका कारण एक ही हैमन की शक्ति का अपव्यय। इस अपव्यय के परिहार का एक मात्र उपाय है किसी श्रेष्ठ आदर्श के प्रति सब कर्मों का समर्पण। प्रेरणायुक्त इन कर्मों की परिसमाप्ति गौरवमयी सफलता मेंं ही होती है। यह कर्म का सनातन नियम है।भविष्य का निर्माण सदैव वर्तमान में होता है। आगामी कल की फसल आज के जोतने और बीज बोने पर निर्भर है। किन्तु भविष्य में सम्भावित फसल की हानि की कल्पना करके ही यदि कोई कृषक भूमि जोतने और बीजारोपण के अवसरों को वर्तमान समय में खो देता है तो यह निश्चित है कि भविष्य में उसे कोई फसल मिलने वाली नहीं। उन्नत भविष्य के लिए वर्तमान समय का उपयोग बुद्धिमत्तापूर्वक करना चाहिये। भूतकाल तो मृत है और भविष्य अभी अनुत्पन्न। वर्तमान में अकुशलता से कार्य करने पर व्यक्ति को भविष्य में किसी बड़ी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिये।इस सुविदित और बोधगम्य मूलभूत सत्य को गीता की भाषा में इस प्रकार कह सकते हैं कि यदि तुम सफलता चाहते हो तो ऐसे मन से प्रयत्न कभी नहीं करो जो फल प्राप्ति की चिन्ता एवं भय से बिखरा हुआ हो। यहाँ कर्मफल से शास्त्र का क्या तात्पर्य है इसे सूक्ष्म विचार से समझना आवश्यक और लाभप्रद होगा। सम्यक् विचार करने से यह ज्ञात होगा कि वास्तव में कर्मफल स्वयं कर्म से कोई भिन्न वस्तु नहीं है। वर्तमान में किया गया कर्म ही भविष्य में फल के रूप में प्रकट होता है। वास्तविकता यह है कि कर्म की समाप्ति अथवा पूर्णता उसके फल में ही है जो उससे भिन्न नहीं है। अत कर्मफल की चिन्ता करके उसी में डूबे रहने का अर्थ है शक्तिशाली गतिशील वर्तमान से पलायन करना और अनुत्पन्न भविष्य की कल्पना में बने रहना संक्षेप में भगवान् का आह्वान है कि मनुष्य को व्यर्थ की चिन्ताओं में प्राप्त समय को नहीं खोना चाहिये वरन् बुद्धिमत्तापूर्वक उसका सदुपयोग करना चाहिये। भविष्य का निर्माण अपने आप होगा और कर्मयोगी को प्राप्त होगी श्रेष्ठ आध्यात्मिक उन्नति।निष्कर्ष यह निकलता है कि अर्जुन के लिये इस युद्ध का प्रयोजन धर्म पालन जैसा श्रेष्ठ आदर्श है यह समझकर उसे अपनी पूरी योग्यता से कर्म में प्रवृत्त होना चाहिये। प्रेरणायुक्त कर्मों का सुफल अवश्य मिलेगा और उसके साथ ही चित्त शुद्धि के रूप में आध्यात्मिक फल भी प्राप्त होगा।एक सच्चा कर्मयोगी बनने के लिये इस श्लोक में चार नियम बताये गये हैं। जो यह समझता है कि (क) कर्म करने मात्र में मेरा अधिकार है (ख) कर्मफल की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है (ग) किसी कर्म विशेष के एक निश्चित फल का आग्रह या उद्देश्य मन में नहीं होना चाहिये और (घ) इन सबका निष्कर्ष यह नहीं कि अकर्म में प्रीति हो वही व्यक्ति वास्तव में कर्मयोगी है। संक्षेप में इस उपदेश का प्रयोजन मनुष्य को चिन्ता मुक्त बनाकर कर्म करते हुये दैवी आनन्द में निमग्न रहकर जीना सिखाना है। कर्म करना ही उसके लिये सबसे बड़ा पुरस्कार और उपहार है श्रेष्ठ कर्म करने के सन्तोष और आनन्द में वह अपने आपको भूल जाता है। कर्म है साधन और आत्मानुभूति है साध्य।ईश्वर का स्मरण करते हुये सभी बाह्य चुनौतियों का तत्परता से सामना करते हुये मनुष्य सरलतापूर्वक शान्ति और वासना क्षय द्वारा चित्त की शुद्धि प्राप्त कर सकता है। जितनी अधिक मात्रा में चित्त में शुद्धि होगी उतनी ही अधिक आत्मानुभूति उसे सुलभ होगी।यदि कर्मफल की आसक्ति रखकर कर्म न करें तो फिर उन्हें कैसे करना चाहिये इसका उत्तर है
2.47।। व्याख्या-- 'कर्मण्येवाधिकारस्ते'-- प्राप्त कर्तव्य कर्मका पालन करनेमें ही तेरा अधिकार है। इसमें तू स्वतन्त्र है। कारण कि मनुष्य कर्मयोनि है। मनुष्यके सिवाय दूसरी कोई भी योनि नया कर्म करनेके लिये नहीं है। पशु-पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष, लता आदि स्थावर प्राणी नया कर्म नहीं कर सकते। देवता आदिमें नया कर्म करनेकी सामर्थ्य तो है, पर वे केवल पहले किये गये यज्ञ, दान आदि शुभ कर्मोंका फल भोगनेके लिये ही हैं। वे भगवान्के विधानके अनुसार मनुष्योंके लिये कर्म करनेकी सामग्री दे सकते हैं, पर केवल सुखभोगमें ही लिप्त रहनेके कारण स्वयं नया कर्म नहीं कर सकते। नारकीय जीव भी भोगयोनि होनेके कारण अपने दुष्कर्मोंका फल भोगते हैं, नया कर्म नहीं कर सकते। नया कर्म करनेमें तो केवल-मनुष्यका ही अधिकार है। भगवान्ने सेवारूप नया कर्म करके केवल अपना उद्धार करनेके लिये यह अन्तिम मनुष्यजन्म दिया है। अगर यह कर्मोंको अपने लिये करेगा तो बन्धनमें पड़ जायगा और अगर कर्मोंको न करके आलस्य-प्रमादमें पड़ा रहेगा तो बार-बार जन्मता-मरता रहेगा। अतः भगवान् कहते हैं कि तेरा केवल सेवारूप कर्तव्य-कर्म करनेमें ही अधिकार है।  'कर्मणि' पदमें एकवचन देनेका तात्पर्य है कि मनुष्यके सामने देश, काल, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर शास्त्रविहित कर्म तो अलग-अलग होंगे, पर एक समयमें एक मनुष्य किसी एक कर्मको ही तत्परतापूर्वक कर सकता है। जैसे, क्षत्रिय होनेके कारण अर्जुनके लिये युद्ध करना, दान देना आदि कर्तव्यकर्मोंका विधान है, पर वर्तमानमें युद्धके समय वह एक युद्धरूप कर्तव्य-कर्म ही कर सकता है, दान आदि कर्तव्य-कर्म नहीं कर सकता।  'मार्मिक बात'  मनुष्यशरीरमें दो बातें हैं--पुराने कर्मोंका फलभोग और नया पुरुषार्थ। दूसरी योनियोंमें केवल पुराने कर्मोंका फलभोग है अर्थात् कीट-पतंग, पशु-पक्षी, देवता, ब्रह्म-लोकतककी योनियाँ भोग-योनियाँ हैं। इसलिये उनके लिये ऐसा करो और ऐसा मत करो'--यह विधान नहीं है। पशु-पक्षी कीट-पतंग आदि जो कुछ भी कर्म करते हैं, उनका वह कर्म भी फलभोगमें है। कारण कि उनके द्वारा किया जानेवाला कर्म उनके प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही रचा हुआ है। उनके जीवनमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका जो कुछ भोग होता है, वह भोग भी फलभोगमें ही है। परन्तु मनुष्यशरीर तो केवल नये पुरुषार्थके लिये ही मिला है, जिससे यह अपना उद्धार कर ले। इस मनुष्यशरीरमें दो विभाग हैं--एक तो इसके सामने पुराने कर्मोंके फलरूपमें अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आती है; और दूसरा यह नया पुरुषार्थ (नये कर्म) करता है। नये कर्मोंके अनुसार ही इसके भविष्यका निर्माण होता है। इसलिये शास्त्र, सन्त-महापुरुषोंका विधि-निषेध, राज्य आदिका शासन केवल मनुष्योंके लिये ही होता है ;क्योंकि मनुष्यमें पुरुषार्थकी प्रघानता है, नये कर्मोंको करनेकी स्वतन्त्रता है। परन्तु पिछले कर्मोंके फलस्वरूप मिलनेवाली अनुकूल-प्रतिकूलरूप परिस्थितिको बदलनेमें यह परतन्त्र है। तात्पर्य है कि मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र और फल-प्राप्तिमें परतन्त्र है। परन्तु अनुकूल-प्रतिकूलरूपसे प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके मनुष्य उसको अपने उद्धारकी साधन-सामग्री बना सकता है; क्योंकि यह मनुष्यशरीर अपने उद्धारके लिये ही मिला है। इसलिये इसमें नया पुरुषार्थ भी उद्धारके लिये है और पुराने कर्मोंके फल फलरूपसे प्राप्त परिस्थिति भी उद्धारके लिये ही है।
।।2.47।।यतो वेदाः परं तेषां सम्यग्ज्ञानोपयोगिनः अत एवाह (K omits एव) यावानिति। यस्य स्वधर्ममात्रे (N omits स्व ) ज्ञाने वा प्राधान्यं तस्य परिमितादपि वेदभाषितात् कार्यं सम्पद्यते ।
।।2.47।।नित्ये नैमित्तिके काम्ये च केनचित् फलविशेषेण संबन्धितया श्रूयमाणे  कर्मणि  नित्यसत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः ते कर्ममात्रे  अधिकारः।  तत्संबन्धितया अवगतेषु  फलेषु  न कदाचिद् अपि अधिकारः। सफलस्य बन्धरूपत्वात् फलरहितस्य केवलस्य मदाराधनरूपस्य मोक्षहेतुत्वाच्च। मा  च कर्मफलयोः  हेतुः भूः।  त्वया अनुष्ठीयमाने अपि कर्मणि नित्यसत्त्वस्थस्य मुमुक्षोः तवाकर्तृत्वम् अपि अनुसन्धेयम्। फलस्य अपि क्षुन्निवृत्त्यादेः न त्वं हेतुः इति अनुसन्धेयम्। तद् उभयं गुणेषु वा सर्वेश्वरे मयि वा अनुसन्धेयम् इति उत्तरत्र वक्ष्यते। एवम् अनुसन्धाय कर्म कुरु।  अकर्मणि  अननुष्ठाने न योत्स्यामि इति यत् त्वया अभिहितं न तत्र  ते सङ्गः अस्तु।  उक्तेन प्रकारेण युद्धादिकर्मणि एव सङ्गः अस्तु इत्यर्थः।एतद् एव स्पष्टीकरोति
।।2.47।।तर्हि परम्परया पुरुषार्थसाधनं योगमार्गं परित्यज्य साक्षादेव पुरुषार्थकारणमात्मज्ञानं तदर्थमुपदेष्टव्यं तस्मै हि स्पृहयति मनो मदीयमित्याशङ्क्याह  तव चेति।  तर्हि तत्फलाभिलाषोऽपि स्यादिति नेत्याह  मा   फलेष्विति।  पूर्वोक्तमेवार्थं प्रपञ्चयति  मा कर्मेति।  फलाभिसन्ध्यसंभवे कर्माकरणमेव श्रद्दधामीत्याशङ्क्याह  मा त इति।  ज्ञानानधिकारिणोऽपि कर्मत्यागप्रसक्तिं निवारयति  कर्मण्येवेति।  कर्मण्येवेत्येवकारार्थमाह   न  ज्ञानेति।  नहि तत्राब्राह्मणस्यापरिपक्वकषायस्य मुख्योऽधिकारः सिध्यतीत्यर्थः। फलैस्तर्हि संबन्धो दुर्वारः स्यादित्याशङ्क्याह  तत्रेति।  कर्मण्येवाधिकारे सतीति सप्तम्यर्थः। फलेष्वधिकाराभावं स्फोरयति  कर्मेति।  कर्मानुष्ठानात्प्रागूर्ध्वं तत्काले चेत्येतत्कदाचनेति विवक्षितमित्याह  कस्यांचिदिति।  फलाभिसंधाने दोषमाह  यदेति।  एवं कर्मफलतृष्णाद्वारेणेत्यर्थः। कर्मफलहेतुत्वं विवृणोति  यदा हीति।  तर्हि विफलं क्लेशात्मकं कर्म न कर्तव्यमिति शङ्कामनुभाष्य दूषयति  यदीत्यादिना।  अकर्मणि ते सङ्गो मा भूदित्युक्तमेव स्पष्टयति  अकरण इति।
।।2.47।।एवं सति मम वेदोदन्वति किमुपादेयमित्याकाङ्क्षायामाह कर्मण्येवाधिकारस्ते इति। कर्मैवोपादेयं तत्रैव तत्राधिकार इति। परन्तु तत्फलेषु मा कदाचनाधिकारोऽस्तु। उपदेशमुद्रामाह मा कर्मफलहेतुर्भूरिति। अकर्मणि च निषिद्धे परधर्मे सङ्गो मा तेऽस्तु।
।।2.47।।ननु निष्कामकर्मभिरात्मज्ञानं संपाद्य परमानन्दप्राप्तिः क्रियते चेदात्मज्ञानमेव तर्हि संपाद्यं किं बह्वायासैः कर्मभिर्बहिरङ्गसाधनभूतैरित्याशङ्क्याह ते तवाशुद्धान्तःकरणस्य तात्त्विकज्ञानोत्पत्त्ययोग्यस्य कर्मण्येवान्तःकरणशोधकेऽधिकारो मयेदं कर्तव्यमिति बोधोऽस्तु न ज्ञाननिष्ठारुपे वेदान्तवाक्यविचारादौ। कर्म च कुर्वतस्तव तत्फलेषु स्वर्गादिषु कदाचन कस्यांचिदप्यवस्थायां कर्मानुष्ठानात्प्रागूर्ध्वं तत्काले वाधिकारो मयेदं भोक्तव्यमिति बोधो मास्तु। ननु मयेदं भोक्तव्यमिति बुद्ध्यभावेऽपि कर्म स्वसामर्थ्यादेव फलं जनयिष्यतीति चेन्नेत्याह मा कर्मफलहेतुर्भूः फलकामनया हि कर्म कुर्वन्फलस्य हेतुरुत्पादको भवति। त्वं तु निष्कामः सन्कर्मफलहेतुर्माभूः। नहि निष्कामेन भगवदर्पणबुद्ध्या कृतं कर्म फलाय कल्पत इत्युक्तम्। फलाभावे किं कर्मणेत्यत आह मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि। यदि फलं नेष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेणेत्यकरणे तव प्रीतिर्माभूत्।
।।2.47।।तर्हि सर्वकर्मफलानि परमेश्वराराधनादेव भविष्यन्तीत्यभिसंधाय प्रवर्तेत किं कर्मणेत्याशङ्क्य तद्वारयन्नाह  कर्मण्येवेति।  ते तव तत्त्वज्ञानार्थिनः कर्मण्येवाधिकारः। तत्फलेषु बन्धहेतुष्वधिकारः कामो मास्तु। ननु कर्मणि कृते तत्फलं स्यादेव भोजने कृते तृप्तिवदित्याशङ्क्याह। मा कर्मफलहेतुर्भूः कर्मफलं प्रवृत्तिहेतुर्यस्य तथाभूतो मा भूः। कामितस्यैव स्वर्गादेर्नियोज्यविशेषणत्वेन फलत्वादकामितं फलं न स्यादिति भावः। अतएव फलं बन्धकं भविष्यतीति भयादकर्मणि कर्माकरणेऽपि तव सङ्गो निष्ठा मास्तु।
null
।।2.47।।नन्वेवं चेत्तर्हि किमिति कर्मकरणोपदेशः इत्याशङ्क्याह कर्मण्येवाधिकारस्त इति। ते तव स्वपराह न्मभ() ज्ञानयुक्तस्य कर्मण्येव अधिकारः। अस्तीति शेषः। अत्रायं भावः यावत्पर्यन्तं स्वपरेति ज्ञान तावन्न कर्मत्यागः। अत एवतावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता इत्याद्युक्तं श्रीभागवते 11।20।9़ ननु तर्हि पूर्वोक्तबाध इति चेत्तत्राह मा फलेषु इति। फलेषु तदुक्तेषु अधिकारो मनसि कामो मास्तु।कदाचनेति साधनदशायामपि। ननु कृतं कर्म कामाभावे स्वफलं करिष्यत्येव अज्ञानादपि भक्षणे विषवन्मृत्युमित्यत आह मा कर्मफलहेतुरिति। त्वं कर्मफलहेतुः कर्मफलभोगभोग्यदेहयुक्तो मा भूः। न भविष्यसीत्यर्थः। मदाज्ञयेति भावः। किञ्च ते अकर्मणि सकामकर्त्तरि सङ्गः सम्बन्धो मास्तु। एवं वरमेव ददामीति भावः।
।।2.47।।ननु ममाप्यौपनिषदात्मज्ञानार्थिनः शम एवेष्टस्तत्कथं मां युध्यस्वेति प्रेरयसीत्याशङ्क्याह  कर्मण्येवेति।  कर्मण्येवाधिकारो न ज्ञाननिष्ठायाम्। मा फलेषु सङ्गोऽस्त्वित्यपकृष्यते। कर्मफलं स्वर्गपश्वादिहेतुः कर्मसु प्रवर्तकं यस्य तादृशो मा भूः। अकर्मणि कर्माकरणेऽपि तव सङ्गो मास्तु।
।।2.47।।   मम तर्हि क्वाधिकार इत्याकाङ्क्षायामाह  कर्मणीति।  कर्मण्येव नतु ज्ञाननिष्ठायामन्तःकरणशुद्य्धभावात् तत्रापि चित्तशुद्धिहेतौ फलाभिसंधिरहिते कर्मणि नतु बन्धनिमित्ते काम्ये इत्याह  मेति।  कदाचन कस्यांचितवस्थायामपि कर्मफलतृष्णा ते मास्तु। फलतृष्णया काम्ये तेऽधिकारो मास्त्विति यावत्। ननु तृष्णाभावेऽपि भोजनात्तृप्तिरिव कर्मणः फलं स्यादेवेति तत्राह  मा   कर्मेति।  मा कर्मफले हेतुर्भूः फलतृष्णया तदुत्पादको माभूः। कामनया कृतस्य कर्मणः पश्वादिफलदातृत्वनियमात्चित्रया यजेत पशुकामः इति श्रुतेः। यत्तु कर्मफलं प्रवृत्तिहेतुर्यस्येति तन्न। बहुव्रीह्यपेक्षया तत्पुरुषस्य लघुत्वात् दुःखरुपेण निष्फलेन कर्मणा किमिति ते कर्माकरणे सङ्ग आसक्तिर्माभूत्।
2.47 कर्मणि in work? एव only? अधिकारः right? ते thy? मा not? फलेषु in the fruits? कदाचन at any time? मा not? कर्मफलहेतुः भूः let not the fruits of action be thy motive? मा not? ते thy? सङ्गः attachment? अस्तु let (there) be? अकर्मणि in inaction.Commentary When you perform actions have no desire for the fruits thereof under any circumstances. If you thirst for the fruits of your actions? you will have to take birth again and again to enjoy them. Action done with expectation of fruits (rewards) brings bondage. If you do not thirst for them? you get purification of heart and you will get knowledge of the Self through purity of heart and through the knowledge of the Self you will be freed from the round of births and deaths.Neither let thy attachment be towards inaction thinking what is the use of doing actions when I cannot get any reward for themIn a broad sense Karma means action. It also means duty which one has to perform according to his caste or station of life. According to the followers of the Karma Kanda of the Vedas (the Mimamsakas) Karma means the rituals and sacrifices prescribed in the Vedas. It has a deep meaning also. It signifies the destiny or the storehouse of tendencies of a man which give rise to his future birth.
2.47 Thy right is to work only, but never with its fruits; let not the fruits of action be thy motive, nor let thy attachment be to inaction.
2.47 But thou hast only the right to work, but none to the fruit thereof. Let not then the fruit of thy action be thy motive; nor yet be thou enamored of inaction.
2.47 Your right is for action alone, never for the results. Do not become the agent of the results of action. May you not have any inclination for inaction.
2.47 Te, your; adhikarah, right; is karmani eva, for action alone, not for steadfastness in Knowledge. Even there, when you are engaged in action, you have ma kadacana, never, i.e. under no condition whatever; a right phalesu, for the results of action may you not have a hankering for the results of action. Whenever you have a hankering for the fruits of action, you will become the agent of aciring the results of action. Ma, do not; thus bhuh, become; karma-phalahetuh, the agent of aciring the results of action. For when one engages in action by being impelled by thirst for the results of action, then he does become the cause for the production of the results of action. Ma, may you not; astu, have; sangah, an inclination; akarmani, for inaction, thinking, 'If the results of work be not desired, what is the need of work which involves pain?'
2.47. Let your claim lie on action alone and never on the fruits; you should never be a cause for the fruits of action; let not your attachment be to inaction.
2.47 Karmani etc. You should be concerned in the action alone, but not in the fruits of actions. But, if an action has been performed, then will not its fruit just inevitably befall [to the performer] ? No. It is not so. For, in that case, if you are covered with the dirt of desire for fruits, then you become a cuase for the fruit of action. What is prayed for is known to be the fruit; and it does not befall him who does not desire it. Thus, what attachment a person entertains with regard to the negation of action, that alone is like a firm seizure, and is of the nature of false conception, and hence it must be abandoned. Then what ?-
2.47 As for obligatory, occasional and desiderative acts taught in the Vedas and associated with some result or other, you, an aspirant established in Sattva, have the right only to perform them: You have no right to the fruits known to be derived from such acts. Acts done with a desire for fruit bring about bondage. But acts done without an eye on fruits form My worship and become a means for release. Do not become an agent of acts with the idea of being the reaper of their fruits. Even when you, who are established in pure Sattva and are desrious of release, perform acts, you should not look upon yourself as the agent. Likewise, it is necessary to contemplate yourself as not being the cause of even appeasing hunger and such other bodily necessities. Later on it will be said that both of these, agency of action and desire for fruits, should be considered as belonging to Gunas, or in the alternative to Me who am the Lord of all. Thinking thus, do work. With regard to inaction, i.e., abstaining from performance of duties, as when you said, 'I will not fight,' let there be no attachment to such inaction in you. The meaning is let your interest be only in the discharge of such obligatory duties like this war in the manner described above. Sri Krsna makes this clear in the following verse:
2.47 To work alone you have the right, and not to the fruits. Do not be impelled by the fruits of work. Nor have attachment to inaction.
।।2.47।।तेरा कर्ममें ही अधिकार है ज्ञाननिष्ठामें नहीं। वहाँ ( कर्ममार्गमें ) कर्म करते हुए तेरा फलमें कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफलकी इच्छा नहीं होनी चाहिये। यदि कर्मफलमें तेरी तृष्णा होगी तो तू कर्मफलप्राप्तिका कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन। क्योंकि जब मनुष्य कर्मफलकी कामनासे प्रेरित होकर कर्ममें प्रवृत्त होता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्मका हेतु बन ही जाता है। यदि कर्मफलकी इच्छा न करें तो दुःखरूप कर्म करनेकी क्या आवश्यकता है इस प्रकार कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्तिप्रीति नहीं होनी चाहिये।
।।2.47।।  कर्मण्येव अधिकारः  न ज्ञाननिष्ठायां  ते  तव। तत्र च कर्म कुर्वतः  मा फलेषु  अधिकारः अस्तु कर्मफलतृष्णा मा भूत्  कदाचन  कस्याञ्चिदप्यवस्थायामित्यर्थः। यदा कर्मफले तृष्णा ते स्यात् तदा कर्मफलप्राप्तेः हेतुः स्याः एवं  मा कर्मफलहेतुः  भूः। यदा हि कर्मफलतृष्णाप्रयुक्तः कर्मणि प्रवर्तते तदा कर्मफलस्यैव जन्मनो हेतुर्भवेत्। यदि कर्मफलं नेष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेण इति  मा ते  तव  सङ्गः अस्तु अकर्मणि  अकरणे प्रीतिर्मा भूत्।।यदि कर्मफलप्रयुक्तेन न कर्तव्यं कर्म कथं तर्हि कर्तव्यमिति उच्यते
।।2.47।।ज्ञानिनः कर्माभावमुक्त्वा इदानीमज्ञानिनः कर्मोच्यत इत्यन्यथा व्याख्याननिरासायाह  कामात्मना मिति। येषां कर्मिणां सकामतया कर्म कुर्वतां या निन्दा कृतायामिमां 2।42 इत्यादिना सा न युक्तेत्यर्थः। कुतः स्वर्गकामो यजेत आप.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादौ। यजनवत्स्वर्गकामस्यापि विहितत्वान्नहि विहितं कुर्वतां निन्द्यत्वम्। तथात्वे यजनस्यापि निन्द्यत्वप्रसङ्गादिति वदन्विशिष्टविधित्वं मन्यते पूर्वपक्षी।ते इत्येतदर्जुनमात्रविषयमित्यन्यथा प्रतीतिनिरासायाह   त  इति। सर्ववर्णाश्रमोपलक्षणमर्थः प्रयोजनमस्येति तथोक्तम्। वक्तर्यायत्ते शब्दप्रयोगे वाचकमेव प्रयुज्यतां किं लक्षणया इत्यत आह   तवे ति। फलकामः कर्तव्यो यस्यासौ तथोक्तस्तस्य भावस्तत्ता। फलकामस्य कर्तव्यता तव कर्तुरिति वा। कृतोऽपि फलकामो ज्ञानिनो नात्यन्तबाधकः। तत्प्रतिबन्धनीयस्य ज्ञानस्याप्तत्वात् मोक्षस्य च नियतत्वात्। तथापि मोक्षविलम्बहेतुत्वात्तस्यापि न कर्तव्यः किम्वन्येषामज्ञानिनाम् इति प्रदर्शनायोपलक्षकपदप्रयोग इति भावः। ननुकर्मण्येवाधिकारो৷৷.मा फलेषु इति द्वयमुक्तम् तत्कथं न फलकामकर्तव्यतेत्येकस्यैव ग्रहणम् उच्यते फलकामकर्तव्यतानिषेधस्यैवात्र प्राधान्यात्कर्मण्येवाधिकार इति तदर्थानुवादः। तथापि न फलकामाधिकार इति वक्तव्यम्। मैवम् अधिकाराभावाभावयोः कर्तव्यत्वाकर्तव्यत्वसमर्थनार्थमुक्तत्वेन साध्यस्यैवोपादानात्। तथा च वक्ष्यति। त इत्युपलक्षणार्थमित्युक्तस्य व्यावर्त्यमाह  न त्वि ति। केषाञ्चित्फलकामकर्तव्यताऽस्ति केवलं तेनास्तीत्यर्थस्तु नेत्यर्थः। कामान्यः कामयते मुं.उ.3।2।2 इत्यादौ सर्वेषां निषेधादिति भावः। नन्वर्जुनस्य ज्ञानित्वे स्यादिदं तदेव कुत इत्यत आह  स ही ति। हिशब्दसूचितां प्रमाणसिद्धिमेव दर्शयति  नरांश  इति। कथं तर्हियज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहं 4।35 इत्यर्जुनस्य मोह उच्यते कथं च प्रश्नकरणम् इत्यत आह  मोहादि रिति। बलवता प्रारब्धकर्मादिना ज्ञानस्याभिभवान्मोहः। विशेषज्ञानाद्यर्थः प्रश्न इत्यर्थः। नन्विन्द्रादीनामेव कुतो ज्ञानित्वं इत्यत आह  यदी ति। सत्त्वं हि ज्ञानकारणम्।सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं 14।17 इति वचनात् देवाश्च शुद्धसत्त्वाः अतः कारणसद्भावाद्युक्तं तेषां ज्ञानम्। अन्यथा न कस्यापि स्यात्। इतश्चेन्द्रादयो ज्ञानिन इत्यत आह  उपदेशे ति। एतदु हैवेंद्रो विश्वामित्राय प्रोवाच इत्यादिरुपदेशः। आदिपदेन प्रजापतौ ब्रह्मचर्यम्।अर्जुनस्य ज्ञानित्वे प्रमाणान्तरमाह  पार्थे ति। ज्ञानिषु गणनात्। एतेनापव्याख्यानमपि निरस्तम्। नन्वत्रमा फलेषु इति फलविषयो निषेधः कृतः तत्कथमुक्तं फलकामेति तत्राह  कामे ति। फलशब्देन तद्विषयं काममुपलक्ष्य तद्विषयो निषेधोऽत्र क्रियते न फलविषय इत्यर्थः। कुतो लक्षणाश्रयणं इत्यत आह  फलानी ति। यत्र हि पुरुषस्य कर्तुमकर्तुं वा स्वातन्त्र्यं तत्रैव निषेधः नान्यत्र प्रसक्तेरभावात्। न च फलेषु स्वातन्त्र्यमस्ति अतो मुख्ये बाधकाल्लक्षणाश्रयणमित्यर्थः। कथम स्वातंत्र्यमित्यतः करणे तावदाह  न ही ति। अकरणेपि तदाह  भवन्ति चे ति। चोऽवधारणे। अविरोधे ब्रह्मदर्शनादितत्तद्विरोध्यभावे। तदनेनते इतिफलेषु इति च पदद्वयं व्याख्यातम्। स्यादेतत्। स्वर्गकामो यजेत आप.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादौ स्वर्गादिकामनाविशिष्टं यजनादिकं कर्म कार्यतयोच्यते अतो न कामात्मनां निन्दोचितेति शङ्कायां किमेतत्कर्मण्येवाधिकारः इत्याद्यसङ्गतमुच्यते यश्च कर्मवत्कामनाया अपि कार्यतां मन्यते कुतस्तस्य फलकामनायामधिकाराभावः सिद्धः फलेष्विति लाक्षणिकशब्दप्रयोगे च किं प्रयोजनं इत्याशङ्क्य पूर्वार्धं व्याचष्टे  अत  इति।अतः इत्यस्य वक्ष्यमाणेनभूत्वा इत्यतः परेणेत्यर्थ इत्यनेनान्वयः। अत उक्तन्यायेन पदद्वयस्य लाक्षणिकत्वे सतीत्यर्थः। श्लोकार्थः सम्पद्यते इति शेषः। तत्र तावत्कर्मण्येवाधिकारः सर्ववर्णाश्रमिणां न फलकामनायामित्युक्तेऽर्थद्वये हेतुद्वयमाह  कर्माकरण  इति। कुर्वन्नेवेह कर्माणि इत्युक्त्वा एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ई.उ.2 इत्युक्तत्वात्। कर्माकरण एव प्रत्यवायोऽनिष्टप्राप्तीष्टानवाप्तिलक्षणः। न त्वकामनया प्रत्यवायः प्रमाणाभावात्। ननु कामाभावे तत्तत्फलानवाप्तेः कथं प्रत्यवायाभाव इत्यत उक्तम्  फलाप्राप्ता विति। काम्यकर्मफलाप्राप्तावपि न प्रत्यवाय इत्येतदुपपादनायोक्तं  ज्ञानादिना वे ति। वाशब्द उपमायाम्। यथा ज्ञानादिना साधनेन मोक्षं गच्छतः स्वर्गाद्यलाभो न खेदहेतुः महाफललाभेऽल्पफलहानेरकिञ्चित्करत्वात् तथाऽकामनया फलाप्राप्तावपि न खेदः निष्कामेण कर्मणा महाफलस्य ज्ञानादेर्लाभादिति भावः। ततः किमित्यत उक्तस्य हेतुद्वयस्य गीतोक्तं साध्यद्वयमाह  अत  इति। न तु फलकामनायामिति च वक्तव्यम्। यत एवं कर्माकरणे प्रत्यवायोऽतः कर्मण्येवाधिकारः। यतः कामाकरणे प्रत्यवायोऽतो न कामेऽधिकार इत्यर्थः। ततः किं प्रकृते इत्यतः परमसाध्यद्वयमाह  अत  इति। यतः कर्मण्येवाधिकारोऽतस्तदेव कार्यं विधिविषय इत्यर्थः। यतः कामेनाधिकारोऽतः कामेन फलप्राप्तिः फलप्राप्तये कामः इति यावत् न कार्यः। तत्र दृष्टान्तः।  ज्ञानादिनिषेधेन वे ति। अत्रापि वाशब्द उपमायाम्। यथा प्रेक्षावता ज्ञानादिकं परित्यज्य फलप्राप्तिर्न क्रियते तथेत्यर्थः।पूर्वोक्त एवाभिप्रायः। यदि कर्मैव विधिविषयो न कामः तर्हि स्वर्गकामो यजेत इत्यादिवाक्यानां किं तात्पर्यम् इत्यत आह  कामे ति। अनादिविषयवासनावासितान्तःकरणा न सहसा ज्ञानसाधने कर्मणि प्रवर्तितुं शक्यन्ते अतस्तेषां कर्मण्यभिरुचिजननार्थं स्वर्गकामः आ.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादिश्रुतिः प्रवृत्ता कर्मणि प्रवृत्तांस्तु शनैः कामं त्याजयिष्यामीत्यभिप्रायवती। यथा फलेन प्रलोभ्य बालानां भैषज्यरोचनं क्रियते तथेत्यर्थः। अस्त्वेवं तात्पर्यं योजना तु कथं इत्यत आह  अत  इति। यत एवं न्यायेन कर्मण एव कार्यत्वं न कामस्येति प्राप्तम् अतः कामी यजेतेत्येव श्रुत्यर्थः। कामानुवादेन यजनं विधीयत इति यावत्। एवशब्दव्यावर्त्यमाह  नत्वि ति। कामविशिष्टयजनविधानं तु नेत्यर्थः। एतदुक्तं भवति विशिष्टविधानशङ्कायां नेदं विशिष्टविधानं किन्तु कामानुवादेन यजनस्यैवेति परमसाध्यमत्राध्याहार्यम्। तत्कुतः इत्यपेक्षायां कर्मण एव कार्यत्वात् कामस्य तदभावादिति वा हेतुवचनं चोपस्कर्तव्यम्। तदपि कुत इत्यपेक्षायां कर्मण्येवाधिकारः न फलकाम इति गीतोक्तयोर्हेत्वोरुपस्थानम्। तदपि कुतः इत्यपेक्षायां कर्मकामकरणाकरणयोः प्रत्यवायभावाभावयोर्हेत्वोरध्याहारः। एतदुपपादनाय लाक्षणिकफलशब्दोपादानमिति।  भास्करस् त्वाह नित्यनैमित्तिकान्येव कर्माणि मुमुक्षुणा निष्कामतया कर्तव्यानि न तु ज्योतिष्टोमादीनि कामाधिकारे विहितानि तेषां निष्कामतया करणे प्रमाणाभावात् अतोऽसदिदं व्याख्यानमिति तत्राह  निष्काम मिति। यज्ञादिकमेव प्रक्रम्य तस्य निष्कामतयाऽनुष्ठानवचनाद्युक्तमिदं व्याख्यानम्।एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा 18।6 इत्यादिवक्ष्यमाणवचनेभ्यश्च। न चैतानि नित्यनैमित्तिकविषयाणि तत्र कामप्रसक्त्यभावेन तत्प्रतिषेधानुपपत्तेः। किञ्च नित्यनैमित्तिकातिरिक्तस्य ज्योतिर्नामकयज्ञस्य फलकामनया विनाऽविधानाच्च। ज्योतिष्टोमस्यैवायं गुणविधानायानुवाद इति तु न सम्मतम्। आदिपदेन विश्वजिता यजेत इत्यादेर्ग्रहणम्। तत्रापि स्वर्गकामपदाध्याहारो निर्णीत इति चेत् सत्यम् कामिनां तु तथा स्ववनेनानुक्तौ कारणमिहोक्तमिति। ननु पूर्वार्धेनैव शङ्काया निरस्तत्वात्किमुत्तरार्धेन इत्यतः क्रमेण पादद्वयोपयोगमाह  अत  इति। फलकामस्याकर्तव्यत्वात् कर्मफलहेतुत्वमप्रसक्तं किमिति प्रतिषिध्यत इत्यत आह  कर्मे ति। शाकपार्थिवादित्वात्तत्कृतिपदलोपोऽत्रेति भावः। तर्ही ति। यदि फलं नाकाङ्क्ष्यमित्यर्थः। न करोमि स्वयं क्लेशरूपत्वादिति भावः। अकर्मपदस्य निषिद्धेऽपि प्रवृत्तेः सङ्गशब्दस्य चानेकार्थत्वात्प्रकृतोपयुक्ततया व्याचष्टे  कर्मे ति। सोपपत्तिकमाक्षिप्ते कथमिदमुत्तरं इत्यतो भगवदभिप्रायमाह  अन्ये ति। प्रसादशब्देन भक्तिज्ञानादिकमप्युपलक्ष्यते। एवं तर्हि भगवत्प्रसादादीच्छया कर्म कर्तव्यमित्युक्तं स्यात्। न च तद्युक्तम् कामस्य निन्दितत्वात्। अन्यथा स्वर्गादिकामनाया अपि प्रसङ्गात्। अतो नेदं भगवदभिप्रायवर्णनं युक्तमित्यत आह  इच्छा  चेति। ते तव परितोषणाय सकलं कर्म वृणीमह इति महदाचारेण भगवत्परितोषणस्य कर्तव्यतावगमात्। ननु तदकर्तव्यतायामपि कामनानिन्दावचनं प्रमाणमस्तीत्युक्तमित्यत आह  अनिन्दना दिति। यथा महदाचारो विशेषविषयो न तथा कामनिन्दावचनं किन्तु सामान्यविषयसेव। अतो महदाचारेण बाध्यत इति भावः। तर्हि तद्वत्स्वर्गादिकामनाऽपि कार्येति यदुक्तं तत्राह  विशेषत  इति। चशब्देन प्रमाणाभावं समुच्चिनोति। अस्त्वाचारो विशेषविषयः कामनिन्दावचनं तु सामान्यविषयम् तथापि कुतो बाध्यबाधकभाव इत्यत आह  सामान्य मिति। सामान्यविशेषशब्दौ तद्विषयप्रमाणपरौ। चशब्दाद्विरोधे सति। उक्तं च प्रमाणमुपसंहरन् प्रमाणान्तराण्यप्यत्राह   अत  इति। एकात्मतां सायुज्यम्। अस्यैव शेषो भक्तिमन्विच्छन्त इति। ननु न ब्रह्मजिज्ञासाशब्दो ज्ञानेच्छापरः किन्तु विचारस्योपलक्षकः सत्यम् तथापि तत्पूर्वको विचारो लक्ष्यते अन्यथा सम्बन्धाभावात् लोकसिद्धन्यायात् लोकसिद्धव्याप्तिकानुमानात्।
।।2.47।।कामात्मनां निन्दा कृता। कथं एषां स्वर्गकामो यजेत आप.श्रौ.10।1।2।1 इत्यादौ कामस्यापि विहितत्वात् इत्यत आह कर्मण्येवेति। त इत्युपलक्षणार्थम्। तव ज्ञानिनोऽपि न फलकामकर्तव्यता किम्वन्येषाम्। नत्वस्ति केषाञ्चिन्न तेऽस्तीति। स हि ज्ञानी नरांश इन्द्रश्च मोहादिस्त्वभिभवादेः। यदि तेषां शुद्धसत्त्वानां न स्याज्ज्ञानं कान्येषाम्। उपदेशादेश्च सिद्धं ज्ञानं तेषाम्।पार्थार्ष्टिषेणेत्यादिज्ञानिगणनाच्च कामनिषेध एवात्र। फलानि ह्यस्वातन्त्र्येण भवन्ति। नहि कर्मफलानि कर्माभावे यत्नतो भवन्ति। भवन्ति च काम्यकर्मिणो विपर्ययप्रयत्नेऽप्यविरोधे। अतः कर्माकरण एव प्रत्यवायः न तु ज्ञानादिना वाऽकामनया फलाप्राप्तौ अतः कर्मण्येवाधिकारः। अतस्तदेव कार्यम्। न तु कामेन ज्ञानादिनिषेधेन वा फलप्राप्तिः।कामवचनानां तु तात्पर्यं भगवतैवोक्तम् रोचनार्थं फलश्रुतिः।यथा भैषज्यरोचनम् इति भागवते। 11।21।23 अत एव कामी यजेतेत्यर्थः। न तु कामी भूत्वेत्यर्थः।निष्कामं ज्ञानपूर्वं च इति वचनात् वक्ष्यमाणेभ्यश्च। वसन्ते वसन्ते ज्योतिषा यजेत इत्यादिभ्यश्च। अतो मा कर्मफलहेतुर्भूः। कर्मफलं तत्कृतौ हेतुर्यस्य स कर्मफलहेतुः स मा भूः।तर्हि न करोमीत्यत आह मा त इति। कर्माकरणे स्नेहो मास्त्वित्यर्थः। अन्यथा फलाभावेऽपि मत्प्रसादाख्यफलभावात्। इच्छा च तस्य युक्तावृणीमहे ते परितोषणाय इति महदाचारात्। अनिन्दनाद्विशेषत इतरनिन्दनाच्च। सामान्यं विशेषो बाधत इति च प्रसिद्धम्सर्घानानय नैकं मैत्रम् इत्यादौ। अतोनैकात्मतां मे स्पृद्दयन्ति केचित् भाग.3।25।34 भक्तिमन्विच्छन्तः।ब्रह्मजिज्ञासा ब्र.सू.1।1।1 विज्ञाय प्रज्ञां द्रष्टव्यः बृ.उ.2।4।5।5।6 इत्यादिववनेभ्यः। स्वार्थसेवकं प्रति न तथा स्नेहः। किं ददामीत्युक्ते सेवादि याचकंप्रति बहुतरस्नेह इति लोकप्रसिद्धन्यायाच्च भक्तिज्ञानादिकामना कार्येति सिद्धम्।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
কর্মণ্যেবাধিকারস্তে মা ফলেষু কদাচন৷ মা কর্মফলহেতুর্ভূর্মা তে সঙ্গোস্ত্বকর্মণি৷৷2.47৷৷
কর্মণ্যেবাধিকারস্তে মা ফলেষু কদাচন৷ মা কর্মফলহেতুর্ভূর্মা তে সঙ্গোস্ত্বকর্মণি৷৷2.47৷৷
કર્મણ્યેવાધિકારસ્તે મા ફલેષુ કદાચન। મા કર્મફલહેતુર્ભૂર્મા તે સઙ્ગોસ્ત્વકર્મણિ।।2.47।।
ਕਰ੍ਮਣ੍ਯੇਵਾਧਿਕਾਰਸ੍ਤੇ ਮਾ ਫਲੇਸ਼ੁ ਕਦਾਚਨ। ਮਾ ਕਰ੍ਮਫਲਹੇਤੁਰ੍ਭੂਰ੍ਮਾ ਤੇ ਸਙ੍ਗੋਸ੍ਤ੍ਵਕਰ੍ਮਣਿ।।2.47।।
ಕರ್ಮಣ್ಯೇವಾಧಿಕಾರಸ್ತೇ ಮಾ ಫಲೇಷು ಕದಾಚನ. ಮಾ ಕರ್ಮಫಲಹೇತುರ್ಭೂರ್ಮಾ ತೇ ಸಙ್ಗೋಸ್ತ್ವಕರ್ಮಣಿ৷৷2.47৷৷
കര്മണ്യേവാധികാരസ്തേ മാ ഫലേഷു കദാചന. മാ കര്മഫലഹേതുര്ഭൂര്മാ തേ സങ്ഗോസ്ത്വകര്മണി৷৷2.47৷৷
କର୍ମଣ୍ଯେବାଧିକାରସ୍ତେ ମା ଫଲେଷୁ କଦାଚନ| ମା କର୍ମଫଲହେତୁର୍ଭୂର୍ମା ତେ ସଙ୍ଗୋସ୍ତ୍ବକର୍ମଣି||2.47||
karmaṇyēvādhikārastē mā phalēṣu kadācana. mā karmaphalahēturbhūrmā tē saṅgō.stvakarmaṇi৷৷2.47৷৷
கர்மண்யேவாதிகாரஸ்தே மா பலேஷு கதாசந. மா கர்மபலஹேதுர்பூர்மா தே ஸங்கோஸ்த்வகர்மணி৷৷2.47৷৷
కర్మణ్యేవాధికారస్తే మా ఫలేషు కదాచన. మా కర్మఫలహేతుర్భూర్మా తే సఙ్గోస్త్వకర్మణి৷৷2.47৷৷
2.48
2
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।।2.48।। हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
।।2.48।। हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।
।।2.48।। यहाँ कर्मयोग का ही विशद् विवेचन किया गया है। इस श्लोकार्थ पर विचार करने से ज्ञात होगा कि अहंकार की पूर्ण निवृत्ति के बिना इस मार्ग में सफलता नहीं मिल सकती और इसकी निवृत्ति का उपाय है मन का समत्व भाव। इस श्लोक में प्रथम बार योग शब्द का प्रयोग किया गया है और यहीं पर उसकी परिभाषा भी दी है कि समत्व योग कहलाता है। इस योग में दृढ़ स्थित होने पर ही निष्काम कर्म किये जा सकते हैं।कर्मयोगी के लिये केवल इतना पर्याप्त नहीं कि सम भाव में रहकर वह कर्म करे परन्तु इस नित्य परिवर्तनशील जगत् में रहते हुये इस समभाव को दृढ़ करने का सतत प्रयत्न करे। इसके लिये उपाय है कर्मों के तात्कालिक फलों के प्रति संग (आसक्ति) का त्याग।कर्मों को कुशलतापूर्वक करने के लिए जिस संग को त्यागने के लिए यहाँ कहा गया है उसपर हम विचार करेंगे। इसके पूर्व के श्लोकों में श्रीकृष्ण ने जिन आसक्तियों का त्याग करने को कहा था वे सब संग शब्द से इंगित की गयी हैं अर्थात् विपरीत धारणायें झूठी आशायें दिवा स्वप्न कर्म फल की चिन्तायें और भविष्य में संभाव्य अनर्थों का भय इन सबका त्याग करना चाहिये। त्याज्य गुणों की इस सूची को देखकर किसी भी साधनरत सच्चे साधक को यह सब करना असम्भव ही प्रतीत होगा। परन्तु उपनिषदों के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर और अधिक विचार करने पर हम सरलता से इस गुत्थी को सुलझा सकेंगे।उपर्युक्त सभी कष्टप्रद धारणायें एवं गुत्थियां भ्रांति जनित अहंकार की ही हैं। यह अहंकार क्या है भूतकाल की स्मृतियों और भविष्य की आशाओं की गठरी। अत अहंकारमय जीवन का अर्थ है मृत क्षणों की श्मशानभूमि अथवा काल के गर्भ में रहना जहाँ अनुत्पन्न भविष्य स्थित है। इनमें व्यस्त रहते हुये वर्तमान समय को हम खो देते हैं जो हमें कर्म करने और लक्ष्य पाने के लिये उपलब्ध होता है। वर्तमान में प्राप्त सुअवसररूपी धन का यह मूर्खतापूर्ण अपव्यय है जिसका संकेत व्यासजी इन शब्दों में करते है संग त्याग कर समत्व योग में स्थित हुये तुम कर्म करो।वर्तमान कीअग्नि में भूतभविष्य चिन्ता भय आशा इन सबको जलाकर कर्म करना स्फूर्ति और प्रेरणा का लक्षण है। इस प्रकार अहंकार के विस्मरण और कर्म करने में ही पूर्ण आनन्द है। ऐसे कर्म का फल सदैव महान् होता है।कलाकृति के निर्माण के क्षणों में अपने आप को कृति के आनन्द में निमग्न होकर कार्यरत कलाकार इस तथ्य का प्रमाण है। वैसे इसे समझने के लिए कोई महान कलाकार होने की आवश्यकता नहीं है। जीवन में किसी कार्य को पूरी लगन और उत्साह से जब हम कर रहे होते हैं उस समय यदि वहाँ कोई व्यक्ति आकर खड़ा हो जाये तब भी हमें उसका भान नहीं रहता। आनन्द की उस अनुभूति से नीचे अहंकार के स्तर पर उतर कर आगन्तुक को उत्तर देने में भी हमें कुछ समय लग जाता है।अहंकार को भूलकर जो कार्य किये जाते हैं उनमें कर्ता को यश अथवा अपयश की कोई चिन्ता नहीं रहती क्योंकि फल की चिन्ता का अर्थ है भविष्य की चिन्ता और भविष्य में रहने का अर्थ है वर्तमान को खोना। स्फूर्त जीवन का आनन्द वर्तमान के प्रत्येक क्षण में निहित होता है। कहा जाता है कि प्रत्येक क्षण का आनन्द स्वयं में परिपूर्ण है। अत भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को जीवन की सभी परिस्थितियों में समान रहते हुये कर्म करने का उपदेश देते हैं।योगस्थ होकर किये कर्मों की तुलना में अन्य कर्मों के विषय में भगवान् कहते हैं
2.48।। व्याख्या--  'सङ्गं त्यक्त्वा'-- किसी भी कर्ममें किसी भी कर्मके फलमें, किसी भी देश, काल, घटना, परिस्थिति, अन्तःकरण, बहिःकरण आदि प्राकृत वस्तुमें तेरी आसक्ति न हो, तभी तू निर्लिप्ततापूर्वक कर्म कर सकता है। अगर तू कर्म, फल आदि किसीमें भी चिपक जायेगा, तो निर्लिप्तता कैसे रहेगी? और निर्लिप्तता रहे बिना वह कर्म मुक्तिदायक कैसे होगा?  'सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा'-- आसक्तिके त्यागका परिणाम क्या होगा? सिद्धि और असिद्धिमें समता हो जायगा।
।।2.48।।अतश्च कर्मणीति। कर्ममात्रे त्वं व्यापृतो भव न तु कर्मफलेषु। ननु कर्मणि कृते ( omits कृते N substitutes जाते) नान्तरीयकतयैव फलमापततीति मैवम्। तत्र हि यदि त्वं फलकामनाकालुष्यव्याप्तो भवसि तदा कर्मणां फलं प्रति हेतुत्वम्। यत् अप्रार्थ्यमानं फलं तत् (S N omit तत्) ज्ञानं नानिच्छोस्तत् इति। कर्माभावेन यः संगः स एव गाढग्रहरूपो मिथ्याज्ञानस्वरूपः इति त्याज्य एव ( N इत्यत्याज्य एव)।
।।2.48।।राज्यबन्धुप्रभृतिषु  सङ्गं त्यक्त्वा  युद्धादीनि  कर्माणि योगस्थः कुरु।  तदन्तर्भूतविजयादि सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा  कुरु। तद् इदं सिद्ध्यसिद्ध्योः  समत्वम्  योगस्थ इत्यत्र योगशब्देन  उच्यते। योगः  सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वरूपं चित्तसमाधानम्।किमर्थम् इदम् असकृद् उच्यते इत्यत आह
।।2.48।।आसक्तिरकरणे न युक्ता चेत्तर्हि क्लेशात्मकं कर्म किमुद्दिश्य कर्तव्यमित्याशङ्कामनूद्य श्लोकान्तरमवतारयति  यदीत्यादिना।  वक्ष्यमाणयोगमुद्दिश्य तन्निष्ठो भूत्वा कर्माणि क्लेशात्मकान्यपि विहितत्वादनुष्ठेयानीत्याह  योगस्थः सन्निति।  कर्मानुष्ठानस्योद्देश्यं दर्शयति  केवलमिति।  फलान्तरापेक्षामन्तरेणेश्वरार्थं तत्प्रसादनार्थमनुष्ठानमित्यर्थः। तर्हीश्वरसंतोषोऽभिलाषगोचरीभूतो भविष्यति नेत्याह  तत्रापीति।  ईश्वरप्रसादनार्थे कर्मानुष्ठाने स्थितेऽपीत्यर्थः। सङ्गं त्यक्त्वा कुर्विति पूर्वेण संबन्धः। आकाङ्क्षितं पूरयित्वा सिद्धिशब्दार्थमाह  फलेति।  तद्विपर्ययजा सत्त्वाशुद्धिजन्या। ज्ञानप्राप्तिलक्षणेति यावत्। कर्माननुतिष्ठतो योगमुद्दिश्य शेषतया प्रकृतमाकाङ्क्षापूर्वकं प्रकटयति  कोऽसावित्यादिना।
।।2.48।।तर्हि कथं स्वकर्म करोमि इति चेत्तत्राह योगस्थ इति। फलस्वरूपो योगो मद्योगस्थ इत्यर्थः। फलेषु सङ्गं त्यक्त्वा। योगं व्याचष्टे समत्वं योग इति। तच्च मनोनिरोधे सम्भवति तथैव कुर्विति पूर्वोक्तं समर्थितम्।
।।2.48।।पूर्वोक्तमेव विवृणोति हे धनंजय त्वं योगस्थः सन् सङ्गं फलाभिलाषं कर्तृत्वाभिनिवेशं च त्यक्त्वा कर्माणि कुरु। अत्र बहुवचनात्कर्मण्येवाधिकारस्ते इत्यत्र जातावेकवचनम्। सङ्गत्यागोपायमाह सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा फलसिद्धौ हर्षं फलासिद्धौ च विषादं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनबुद्ध्या कर्माणि कुर्वित्यर्थः। ननु योगशब्देन प्राक्कर्मोक्तम्। अत्र तु योगस्थः कर्माणि कुर्वित्युच्यते अतः कथमेतबोद्वुं शक्यमित्यत आह समत्वं योग उच्यते। यदेतत्सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं इदमेव योगस्थ इत्यत्र योगशब्देनोच्यते नतु कर्मेति न कोऽपि विरोध इत्यर्थः। अत्र पूर्वार्धस्योत्तरार्धेन व्याख्यानं क्रियत इत्यपौनरुक्त्यमिति भाष्यकारीयः पन्थाः। सुखदुःखे समे कृत्वेत्यत्र जयाजयसाम्येन युद्धमात्रकर्तव्यता प्रकृतत्वादुक्ता। इह तु दृष्टादृष्टसर्वफलपरित्यागेन सर्वकर्मकर्तव्यतेति विशेषः।
।।2.48।।किं तर्हि  योगस्थ इति।  योगः परमेश्वरैकपरता तत्र स्थितः कर्माणि कुरु। तथा सङ्गं कर्तृत्वाभिनिवेशं त्यक्त्वा केवलमीश्वराश्रयेणैव कुरु। तत्फलस्य ज्ञानस्यापि सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा केवलमीश्वरार्पणेनैव कुरु। यत एवंभूतं समत्वमेव योग उच्यते सद्भिः। चित्तसमाधानरूपत्वात्।
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।।2.48।।नन्वेवमेव चेत्तर्हि किं कर्मकरणेनेत्याशङ्ख्याह योगस्थ इति। योगस्थः भगवदेकपरचित्तो भूत्वा सङ्गं त्यक्त्वा पूर्वोक्तानां कर्माणि कुरु। मदाज्ञारूपाणि कुर्वित्यर्थः। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा। सिद्धिस्तत्फलाप्तिः असिद्धिः फलविपरीतफलं तत्र समो भूत्वा। ननु समत्वे सति किं स्यात् अत आह समत्वं योग उच्यते इति। तत्र समत्वमेव योगः। भगवदाज्ञया कर्त्तव्यत्वेन तत्फलाफले समता स्यात् सा च भगवत्परत्वज्ञापिकेति योगरूपत्वम्। यद्वा योगस्थः भगवत्संयोगे स्थितः कर्माणि तत्रोपयुक्तानि कुरु सङ्गं त्यक्त्वा सर्वत्यागं कृत्वेति भावः।धनञ्जय इति सम्बोधनेन स्वविभूतिरूपत्वात्स्वसंयोगयोग्यता बोधिता किञ्च सिद्ध्यसिद्ध्योः सिद्धिः सर्वदा योगः असिद्धिर्विप्रयोगस्तत्र समो भूत्वा संयोगानन्तरभाविविप्रयोगानन्तरभाविपरमसुखज्ञानेच्छाजनितानन्द भ৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷ रभगवद्दत्तविप्रयोगे वैमनस्यमविचार्य तथा कुरु। तत्र समत्वे योग उच्यते। तद्रसज्ञैरिति शेषः। मया वा भगवद्दत्तविप्रयोगस्यापि परमानन्दरूपत्वात्तद्दत्तत्वेन योगरूपतेति भावः। संयोगानन्तरजत्वात्तन्मध्यपातित्वादपि तथा तत्साधकत्वेनापि तथा।
।।2.48।।एतदेव विवृणोति  योगस्थ इति।  योगस्थः सन् सङ्गं फलतृष्णां कर्तृत्वाभिमानं च त्यक्त्वा कर्माणि ज्ञानार्थं कुरु। हे धनंजय सिद्ध्यसिद्ध्योः कर्मफलस्य विविदिषादेः सिद्धावसिद्धौ वा समो हर्षविषादशून्यो भूत्वा कर्माणि कुर्विति संबन्धः। इदमेव सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं योग इत्युच्यते।
।।2.48।।   एतदेव विवृणोति  योगस्थ इति।  योगस्थः कर्माणि कुरु केवलमीश्वरार्थम्। ननु योगः परमेश्वरैकपरतेति योगशब्दार्थ आचार्यैः कुतो न प्रदर्शित इतिचेत् समत्वं योग उच्यते इत्यनेन तदर्थस्य मूल एवोक्तत्वात्। तत्रापीश्वरो मे तुष्यत्विति सङ्ग त्यक्त्वा। एतद्भाष्यमुपलक्षणं कर्तृत्वाद्यभिनिवेशस्यापि। चित्तशुद्धिद्वारा ज्ञानप्राप्तिरुपायां सिद्धौ तद्विपर्ययरुपायामसिद्धौ च समो हर्षविषादशून्यो भूत्वा। अयमेव योग इत्याह  समत्वमिति।  दिग्विजये महीपाञ्जित्वा धनमाहृत्य राजसूययज्ञे त्वया नियोजितं तथाधुनाप्येतान्सर्वाञ्जित्वा यज्ञादीन्संपादयितुर्मसीति द्योतयन्नाह हे धनंजयेति।
2.48 योगस्थः steadfast in Yoga? कुरु perform? कर्माणि actions? सङ्गम् attachment? त्यक्त्वा having abandoned? धनञ्जय O Dhananjaya? सिद्ध्यसिद्ध्योः in success and failure? समः the smae? भूत्वा having become? समत्वम् evenness of mind? योगः Yoga? उच्यते is called.Commentary Dwelling in union with the Divine perform actions merely for Gods sake with a balanced mind in success and failure. Eilibrium is Yoga. The attainment of the knowledge of the Self through purity of heart obtained by doing actions without expectation of fruits is success (Siddhi). Failure is the nonattainment of knowledge by doing actions with expectation of fruit. (Cf.III.9IV.14IV.20).
2.48 Perform action, O Arjuna, being steadfast in Yoga, abandoning attachment and balanced in success and failure. Evenness of mind is called Yoga.
2.48 Perform all thy actions with mind concentrated on the Divine, renouncing attachment and looking upon success and failure with an equal eye. Spirituality implies equanimity.
2.48 By being established in Yoga, O Dhananjaya (Arjuna), undertake actions, casting off attachment and remaining eipoised in success and failure. Eanimity is called Yoga.
2.48 If action is not to be undertaken by one who is under the impulsion of the fruits of action, how then are they to be undertaken? This is being stated: Yogasthah, by becoming established in Yoga; O Dhanajaya, kuru, undertake; karmani, actions, for the sake of God alone; even there, tyaktva, casting off; sangam, attachment, in the form, 'God will be pleased with me.' ['Undertake work for pleasing God, but not for propitiating Him to become favourable towards yourself.'] Undertake actions bhutva, remaining; samah, eipoised; siddhi-asidhyoh, in success and failure even in the success characterized by the attainment of Knowledge that arises from the purification of the mind when one performs actions without hankering for the results, and in the failure that arises from its opposite. [Ignorance, arising from the impurity of the mind.] What is that Yoga with regard to being established in which it is said, 'undertake'? This indeed is that: the samatvam, eanimity in success and failure; ucyate, is called; yogah, Yoga.
2.48. O Dhananjaya ! Established in the Yoga, perform actions, abandoning attachment, remaining even-minded in success and failure; for, the even-mindedness is said to be the Yoga.
2.48 Yogasthah etc. Being established in Yoga you must perform actions. Evenness [of mind] is the Yoga.
2.48 Abandoning the attachment to kingdom, relatives etc., and established in Yoga, engage in war and such other activities. Perform these with eanimity as regards success and failure resulting from victory etc., which are inherent in them. This eanimity with regard to success and failure is called here by the term Yoga, in the expression 'established in Yoga.' Yoga is eanimity of mind which takes the form of evenness in success and failure. Sri Krsna explains why this is repeatedly said:
2.48 Abandoning attachment and established in Yoga, perfom works, viewing success and failure with an even mind. Evenness of mind is said to be Yoga.
।।2.48।।यदि कर्मफलसे प्रेरित होकर कर्म नहीं करने चाहिये तो फिर किस प्रकार करने चाहिये इसपर कहते हैं हे धनंजय योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म कर। उनमें भी ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों। इस आशारूप आसक्तिको भी छोड़कर कर। फलतृष्णारहित पुरुषद्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है और उससे विपरीत ( ज्ञानप्राप्तिका न होना ) असिद्धि है ऐसी सिद्धि और असिद्धिमें भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर। वह कौनसा योग है जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसीको योग कहते हैं।
।।2.48।।  योगस्थः  सन्  कुरु कर्माणि  केवलमीश्वरार्थम् तत्रापि ईश्वरो मे तुष्यतु इति  सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।  फलतृष्णाशून्येन क्रियमाणे कर्मणि सत्त्वशुद्धिजा ज्ञानप्राप्तिलक्षणा सिद्धिः तद्विपर्ययजा असिद्धिः तयोः  सिद्ध्यसिद्ध्योः  अपि  समः  तुल्यः  भूत्वा  कुरु कर्माणि। कोऽसौ योगः यत्रस्थः कुरु इति उक्तम् इदमेव तत् सिद्ध्यसिद्ध्योः  समत्वं योगः उच्यते।।यत्पुनः समत्वबुद्धियुक्तमीश्वराराधनार्थं कर्मोक्तम् एतस्मात्कर्मणः
।।2.48।।कर्मण्येव इत्यनेनयोगस्थः इत्यस्य गतार्थतापरिहारार्थमाह  पूर्वे ति। निष्कामनादिविशिष्टानि कर्माण्येव योगः। अतोयोगस्थः इत्यनेनैव लब्धं पुनःकुरु कर्माणि इति किमर्थमुच्यते इत्यत आह  योगस्थ  इति। ज्ञानोपायमनुतिष्ठन्नित्यर्थः। कर्मसम्बन्धं त्यक्त्वा कर्माणि कुर्वित्येतद्व्याहतमित्यत आह  सङ्ग मिति।ईश्वरो मे प्रसीदंतु इत्यभिसन्धिमपि त्यक्त्वा इति व्याख्यानं पूर्वेणैव निरस्तम्। तत एवेति परामर्शसौकर्याय त्यक्त्वेत्यनुवादः कृतः।सङ्गं त्यक्त्वासिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा इति द्वयमुक्त्वासमत्वं योग उच्यते इति एकस्यैव ग्रहणमयुक्तम्। तथा सति सङ्गत्यागस्यायोगत्वप्रसङ्गादित्यत आह  तत  इति सङ्गत्यागादेव। एतयोः कार्यकारणभावात्कार्ये गृहीते कारणमर्थाद्गृहीतमिति भावः। ननु समत्वयोगयोर्भेदः केन शङ्कितः येनसमत्वं योग उच्यते इति तयोरैक्यमुच्यते इत्यत आह   स एवे ति।योगस्थः इत्युक्ते को योग इत्यपेक्षायां भगवतासङ्गं त्यक्त्वा ৷৷. सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा इति योगो व्याख्यातः। मन्दास्तु पृथगेवैते विशेषणे कल्पयिष्यन्तीति तदनुजिघृक्षया इदमुदितमिति भावः। स एव यत्समत्वमिति शेषः। योगैकदेशे योगशब्दः।
।।2.48।।पूर्वश्लोकं स्पष्टयति योगस्थ इति। योगस्थः उपायस्थः। सङ्गं फलस्नेहं त्यक्त्वा। तत एव सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा। स एव च मयोक्तो योगः।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।
যোগস্থঃ কুরু কর্মাণি সঙ্গং ত্যক্ত্বা ধনঞ্জয৷ সিদ্ধ্যসিদ্ধ্যোঃ সমো ভূত্বা সমত্বং যোগ উচ্যতে৷৷2.48৷৷
যোগস্থঃ কুরু কর্মাণি সঙ্গং ত্যক্ত্বা ধনঞ্জয৷ সিদ্ধ্যসিদ্ধ্যোঃ সমো ভূত্বা সমত্বং যোগ উচ্যতে৷৷2.48৷৷
યોગસ્થઃ કુરુ કર્માણિ સઙ્ગં ત્યક્ત્વા ધનઞ્જય। સિદ્ધ્યસિદ્ધ્યોઃ સમો ભૂત્વા સમત્વં યોગ ઉચ્યતે।।2.48।।
ਯੋਗਸ੍ਥ ਕੁਰੁ ਕਰ੍ਮਾਣਿ ਸਙ੍ਗਂ ਤ੍ਯਕ੍ਤ੍ਵਾ ਧਨਞ੍ਜਯ। ਸਿਦ੍ਧ੍ਯਸਿਦ੍ਧ੍ਯੋ ਸਮੋ ਭੂਤ੍ਵਾ ਸਮਤ੍ਵਂ ਯੋਗ ਉਚ੍ਯਤੇ।।2.48।।
ಯೋಗಸ್ಥಃ ಕುರು ಕರ್ಮಾಣಿ ಸಙ್ಗಂ ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ ಧನಞ್ಜಯ. ಸಿದ್ಧ್ಯಸಿದ್ಧ್ಯೋಃ ಸಮೋ ಭೂತ್ವಾ ಸಮತ್ವಂ ಯೋಗ ಉಚ್ಯತೇ৷৷2.48৷৷
യോഗസ്ഥഃ കുരു കര്മാണി സങ്ഗം ത്യക്ത്വാ ധനഞ്ജയ. സിദ്ധ്യസിദ്ധ്യോഃ സമോ ഭൂത്വാ സമത്വം യോഗ ഉച്യതേ৷৷2.48৷৷
ଯୋଗସ୍ଥଃ କୁରୁ କର୍ମାଣି ସଙ୍ଗଂ ତ୍ଯକ୍ତ୍ବା ଧନଞ୍ଜଯ| ସିଦ୍ଧ୍ଯସିଦ୍ଧ୍ଯୋଃ ସମୋ ଭୂତ୍ବା ସମତ୍ବଂ ଯୋଗ ଉଚ୍ଯତେ||2.48||
yōgasthaḥ kuru karmāṇi saṅgaṅ tyaktvā dhanañjaya. siddhyasiddhyōḥ samō bhūtvā samatvaṅ yōga ucyatē৷৷2.48৷৷
யோகஸ்தஃ குரு கர்மாணி ஸங்கஂ த்யக்த்வா தநஞ்ஜய. ஸித்த்யஸித்த்யோஃ ஸமோ பூத்வா ஸமத்வஂ யோக உச்யதே৷৷2.48৷৷
యోగస్థః కురు కర్మాణి సఙ్గం త్యక్త్వా ధనఞ్జయ. సిద్ధ్యసిద్ధ్యోః సమో భూత్వా సమత్వం యోగ ఉచ్యతే৷৷2.48৷৷
2.49
2
49
।।2.49।। बुद्धियोग-(समता) की अपेक्षा सकामकर्म दूरसे (अत्यन्त) ही निकृष्ट है। अतः हे धनञ्जय ! तू बुद्धि (समता) का आश्रय ले; क्योंकि फलके हेतु बननेवाले अत्यन्त दीन हैं।
।।2.49।। इस बुद्धियोग की तुलना में(सकाम) कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं? इसलिये हे धनंजय तुम बद्धि की शरण लो फल की इच्छा करनेवाले कृपण (दीन) हैं।।
।।2.49।। कर्मफल की चिन्ताओं से मुक्त शान्त मन से किया हुआ कर्म निश्चित रूप से चिन्तित क्षुब्ध मन से किए गये कर्म से श्रेष्ठतर होता है। इस श्लोक में प्रयुक्त बुद्धियोग शब्द से कुछ व्याख्याकारों को एक और नया योग गीता में उपदेश किया गया ज्ञात होता है। परन्तु मेरे अपने विचार के अनुसार ऐसा अर्थ खींचतान कर किया हुआ प्रतीत होता है। उपनिषदों में अन्तकरण की निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि तथा संकल्पात्मक वृत्ति को मन की संज्ञा दी गयी है। संदेह और विक्षेप की स्थिति में वृत्तियों को मन कहते हैं एकाग्रता निश्चय एवं शान्ति की स्थिति में अन्तकरण की वृत्ति को बुद्धि कहा जाता है। अत बुद्धियोग का अर्थ हुआ बुद्धि के निश्चित किये अर्थ में (कार्य में) दृढ़ता से स्थिर होना। निश्चय ही दृढ़ता मन का बुद्धि के अनुशासन में रहना तथा अन्तर्बाह्य परिस्थितियों का स्वामी होना बुद्धियोग के लक्षण हैं। जीवन के परम लक्ष्य को आँखों से ओझल किये बिना प्राप्त कर्तव्यों का पालन ही बुद्धियोग है।गीता की सामान्य प्रस्तावना जिसमें व्यक्तित्व का विघटन एवं वासनाक्षय के द्वारा उसके संगठन का विवेचन किया गया है के प्रकाश में बुद्धियोग का अर्थ यह हो सकता है साधक का जीवन में बुद्धि के अनुसार रहने का सतत् प्रयत्न मन को बुद्धि के अनुशासन में लाकर उसके निर्देशानुसार काम करने के प्रयत्न को बुद्धियोग कहते हैं। इस प्रकार पूर्वार्जित वासनाओं के क्षय द्वारा अहंकार का नाश होता है और उसके नाश का अर्थ है बुद्धियोग में स्थिति। अत यहाँ अर्जुन को बुद्धि की शरण में जाने का उपदेश दिया गया है।बुद्धियोग का आश्रय ग्रहण करने में एक प्रबल कारण है। यदि मन की प्रवृत्तियों के अनुसार ही कर्म करते रहे तो चित्त में असंख्य विक्षेप तो उत्पन्न होते ही हैं परन्तु साथ ही नयीनयी वासनाओं का संचय भी होता है जिनका सघन आवरण आत्मस्वरूप पर पड़ता है। भगवान् ऐसे लोगों को कृपण कहते हैं। वास्तव में वे ही दीन हैं । इसके विपरीत बुद्धियोग में स्थित साधक निस्वार्थ भाव से कर्म करता हुआ वासनाओं के आवरण को नष्ट कर निर्मल मन से आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है।अब समभाव में रहकर कर्तव्य पालन करने वाले को क्या फल मिलता है वह जानो
2.49।। व्याख्या-- 'दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगात्'-- बुद्धियोग अर्थात् समताकी अपेक्षा सकामभावसे कर्म करना अत्यन्त ही निकृष्ट है। कारण कि कर्म भी उत्पन्न और नष्ट होते हैं तथा उन कर्मोंके फलका भी संयोग और वियोग होता है। परन्तु योग (समता) नित्य है; उसका कभी वियोग नहीं होता। उसमें कोई विकृति नहीं होती। अतः समताकी अपेक्षा सकामकर्म अत्यन्त ही निकृष्ट हैं।
।।2.49।।किं तर्हि योगस्थ इति। योगे स्थित्वा कर्माणि कुरु। साम्यं च योगः।
।।2.49।।यः अयं प्रधानफलत्यागविषयः अवान्तरफलसिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वविषयश्च बुद्धियोगः तद्युक्तात् कर्मणः इतरत्  कर्मदूरेण अवरम्।  महद् एतद् द्वयोः उत्कर्षापकर्षरूपं वैरूप्यम् उक्तबुद्धियोगयुक्तं कर्म निखिलं सांसारिकं दुःखं विनिवर्त्य परमपुरुषार्थलक्षणं च मोक्षं प्रापयति इतरद् अपरिमितदुःखरूपं संसारम् इति अतः कर्मणि क्रियमाणे उक्तायां  बुद्धौ शरणम् अन्विच्छ।  शरणं वासस्थानम् तस्याम् एव बुद्धौ वर्तस्व इत्यर्थः।  कृपणाः फलहेतवः  फलसङ्गादिना कर्म कुर्वाणाः कृपणाः संसारिणो भवेयुः।
।।2.49।।किमिति योगस्थेन तत्त्वज्ञानमुद्दिश्य कर्म कर्तव्यं फलाभिलाषेऽपि तदनुष्ठानस्य सुलभत्वादित्याशङ्क्य यथोक्तयोगयुक्तं कर्म स्तुवन्ननन्तरश्लोकमुत्थापयति  यत्पुनरिति।  अवरं कर्म बुद्धिसंबन्धविरुद्धमिति शेषः। बुद्धियुक्तस्य बुद्धियोगाधीनं प्रकर्षं सूचयति  बुद्धीति।  बुद्धिसंबन्धासंबन्धाभ्यां कर्मणि प्रकर्षनिकर्षयोर्भावे करणीयं नियच्छति  बुद्धाविति।  यत्तु फलेच्छयापि कर्मानुष्ठानं सुकरमिति तत्राह  कृपणेति।  निकृष्टं कर्मैव विशिनष्टि  फलार्थिनेति।  कस्मात्प्रतियोगिनः सकाशादिदं निकृष्टमित्याशङ्क्य प्रतीकमुपादाय व्याचष्टे  बुद्धीत्यादिना।  फलाभिलाषेण क्रियमाणस्य कर्मणो निकृष्टत्वे हेतुमाह  जन्मेति।  समत्वबुद्धियुक्तात्कर्मणस्तद्धीनस्य कर्मणो जन्मादिहेतुत्वेन निकृष्टत्वे फलितमाह  यत इति।  योगविषया बुद्धिः समत्वबुद्धिः। बुद्धिशब्दस्यार्थान्तरमाह  तत्परिपाकेति।  तच्छब्देन समत्वबुद्धिसमन्वितं कर्म गृह्यते। तस्य परिपाकस्तत्फलभूता बुद्धिशुद्धिः। शरणशब्दस्य पर्यायं गृहीत्वा विवक्षितमर्थमाह  अभयेति।  सप्तमीमविवक्षित्वा द्वितीयं पक्षं गृहीत्वा वाक्यार्थमाह  परमार्थेति।  तथाविधज्ञानशरणत्वे हेतुमाह  यत इति।  फलहेतुत्वं विवृणोति  फलेति।  तेन परमार्थज्ञानशरणतैव युक्तेति शेषः। परमार्थज्ञानबहिर्मुखानां कृपणत्वे श्रुतिं प्रमाणयति  यो वा इति।  अस्थूलादिविशेषणमेतदित्युच्यते।
।।2.49।।अयुक्तं कर्म व्यवसायबुद्धियोगादवरमपकृष्टं हि यतः अतो बुद्धौ बुद्धिनिमित्तं बुद्धिविषये वा शरणं कञ्चिदन्वेषय बुद्धावाश्रयं वाऽन्विच्छ गृहाणेत्यर्थः। कर्मणोऽवरत्वं दर्शयति तत्र फलहेतवः कृपणा इति फलमेव हेतुः प्रकृतिकारण येषां ते जनाः कृपणाः प्राप्तेऽपि फले पुनः सतृष्णाः।
।।2.49।।ननु किं कर्मानुष्ठानमेव पुरुषार्थो येन निष्फलमेव सदा कर्तव्यमित्युच्यतेप्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते इति न्यायात् तद्वरं फलकामनयैव कर्मानुष्ठानमिति चेन्नेत्याह बुद्धियोगात् आत्मबुद्धिसाधनभूतान्निष्कामकर्मयोगात् दूरेणातिविप्रकर्षेणावरमधमं कर्म फलाभिसंधिना क्रियमाणं जन्ममरणहेतुभूतं अथवा परमात्मबुद्धियोगाद्दूरेणावरं सर्वमपि कर्म। हि यस्मात् हे धनंजय तस्मात् बुद्धौ परमात्मबुद्धौ सर्वानर्थनिवर्तकायां शरणं प्रतिबन्धकपापक्षयेण रक्षकं निष्कामकर्मयोगम्। अन्विच्छ कर्तुमिच्छ। ये तु फलहेतवः फलकामा अवरं कर्म कुर्वन्ति ते कृपणाः सर्वदा जन्ममरणादिघटीयन्त्रभ्रमणेन परवशाः। अत्यन्तदीना इत्यर्थः।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः। तथाच त्वमपि कृपणो माभूः किंतु सर्वानर्थनिवर्तकात्मज्ञानोत्पादकं निष्कामकर्मयोगमेवानुतिष्ठेत्यभिप्रायः। यथाहि कृपणा जना अतिदुःखेन धनमर्जयन्तो यत्किंचिद्दृष्टसुखमात्रलोभेन दानादिजनितं महत्सुखमनुभवितुं न शक्नुवन्तीत्यात्मानमेव वञ्चयन्ति तथा महता दुःखेन कर्माणि कुर्वाणाः क्षुद्रफलमात्रलोभेन परमानन्दानुभवेन वञ्चिता इत्यहो दौर्भाग्यं मौढ्यं च तेषामिति कृपणपदेन ध्वनितम्।
।।2.49।।काम्यं तु कर्मातिनिकृष्टमित्याह  दूरेणेति।  बुद्ध्या व्यवसायात्मिकया कृतः कर्मयोगो बुद्धियोगः। बुद्धिसाधनभूतो वा तस्मात्सकाशादन्यत्काम्यं कर्म दूरेणावरमत्यन्तमपकृष्टम्। हि यस्मादेवं तस्माद्बुद्धौ ज्ञाने शरणमाश्रयं कर्मयोगमन्विच्छानुतिष्ठ। यद्वा बुद्धौ शरणं त्रातारमीश्वरमाश्रयेत्यर्थः। फलहेतवस्तु सकामा नराः कृपणा दीनाः।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः।
null
।।2.49।।नन्वेवं चेत्तदा कथं न तत्र सर्वप्रवृत्तिः इत्याशङ्क्याह दूरेणेति। धनञ्जय मद्विभूतिरूप तथा कर्मायोग्यबुद्धियोगात् दूरेण कृतं कर्म फलाद्यर्थकृतम् न तु मदाज्ञारूपत्वेन तदवरमपकृष्टमित्यर्थः। हीति युक्तोऽयमर्थः। भगवदाज्ञाव्यतिरिक्तत्वेन फलेच्छया कृतकर्मणो नीचत्वमेव। तस्मात्तदपकृष्टानां प्राकृतानामेव योग्यं नोत्कृष्टानां मदंशानामिति धनञ्जयसम्बोधनेन ज्ञापितम् तेनात्राधिकाराभावान्न सर्वेषां प्रवृत्तिरिति भावः। यस्मात्ते नीचाः सात्त्विकाधिकाररहितानां चाप्रवृत्तिः त्वं च मदंशत्वात् बुद्धियोगयोग्य इति बुद्धियोगाय यतस्वेत्याह बुद्धाविति। बुद्धौ बुद्धियोगनिमित्तमीश्वरं शरणमन्विच्छ अनुतिष्ठ। ननु सकामकर्त्तारोऽपीश्वरशरणमिच्छन्तीत्यत्र को विशेषः इत्याशङ्क्याह कृपणा इति। फलहेतवः सकामाः। कृपणा लुब्धा दीना इत्यर्थः। नहि लुब्धैरहं प्राप्तः। अत एव श्रुतौ ब्रह्मभूतस्यैव ब्रह्मप्राप्तिर्निरूपिता ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्नोति ब्रह्माप्येति बृ.उ.4।4।6।
।।2.49।।इदमेव बुद्धियोगं स्तौति  दूरेणेति।  कर्मफलकामेन क्रियमाणं बुद्धियोगात्पूर्वोक्तान्निष्कामात्कर्मणः दूरेण हि प्रसिद्धं अवरं अत्यन्तनिकृष्टं अतो बुद्धौ योगरूपायां तत्फलभूतायां सांख्यरूपायां वा तन्निमित्तं शरणं रक्षितारं आश्रयं वा ईश्वरमन्विच्छ प्रार्थयस्व। तत्प्रीत्यर्थं कर्माणि कुर्वित्यर्थः। यतः फलहेतवः फलमेव हेतुः प्रवर्तकं येषां तादृशाः फलतृष्णावन्तः कृपणा दीना भवन्ति।यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः।
।।2.49।।   काम्यं त्वतिनिकृष्टमित्याह  दूरेणेति।  दूरेण विप्रकर्षेणावरमधमफलाभिसंधिनानुष्ठीयमानं कर्म बुद्धियोगात्समत्वबुद्धियुक्तादीश्वराराधनार्थात्कर्मणः जन्मादिहेतुत्वाद्बुद्धियोगात् आत्मबुद्धिसाधनभूतात्समत्वलक्षणाद्योगादिति वाऽर्थः। यतएवमतो बुद्धौ समत्वबुद्धिं सांख्यबुद्धिं वा शरणमाश्रयं अभयप्राप्तेः परम्परया साक्षाद्व कारणमन्विछ प्रार्थयस्व। शरणो भवेत्यर्थः। बुद्धौ शरणं त्रातारमीश्वरमित्यर्थस्त्वप्रक्रान्तार्थकल्पनया विशेष्याध्याहारेण च ग्रस्तोऽत आचार्यैर्न प्रदर्शितः। यतः कारणादवरं कर्म कुर्वाणा दीनाः यतः फलहेतवः फलतृष्णायुक्ताःयो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः धनं त्वया हृतं तेन युधिष्ठिरेण स्वाराज्यकामनया राजसूयकर्मानुष्ठितं तस्य फलं भवद्भिः पूर्वमनुभूतमधुना चोपस्थितमतः काम्यं कर्मात्यधममिति सूचयन्संबोधयति धनंजयेति।
2.49 दूरेण by far? हि indeed? अवरम् inferior? कर्म action or work? बुद्धियोगात् than the Yoga of wisdom? धनञ्जय O Dhananjaya? बुद्धौ in wisdom? शरणम् refuge? अन्विच्छ seek? कृपणाः wretched? फलहेतवः seekers after fruits.Commentary Action done with evenness of mind is Yoga of wisdom. The yogi who is established in the Yoga of widdom is not affected by success or failure. He does not seek fruits of his actions. He has poised reason. His reason is rooted in the Self. Action performed by one who expects fruits for his actions? is far inferior to the Yoga of wisdom wherein the seeker does not seek fruits because the former leads to bondage and is the cause of birth and death. (Cf.VIII.18).
2.49 Far lower than the Yoga of wisdon is action, O Arjuna. Seek thou refuge in wisdom; wretched are they whose motive is the fruit.
2.49 Physical action is far inferior to an intellect concentrated on the Divine. Have recourse then to Pure Intelligence. It is only the petty-minded who work for reward.
2.49 O Dhananjaya, indeed, action is ite inferior to the yoga of wisdom. Take resort to wisdom. Those who thirst for rewards are pitiable.
2.49 Then again, O Dhananjaya, as against action performed with eanimity of mind for adoring God, karma, action undertaken by one longing for the results; is, hi, indeed; durena, ite, by far; avaram, inferior, very remote; buddhi-yogat, from the yoga of wisdom, from actions undertaken with eanimity of mind, because it (the former) is the cause of birth, death, etc. Since this is so, therefore, saranam anviccha, take resort to, seek shelter; buddhau, under wisdom, which relates to Yoga, or to the Conviction about Reality that arises from its (the former's) maturity and which is the cause of (achieving) fearlessness. The meaning is that you should resort to the knowledge of the supreme Goal, because those who under take inferior actions, phala-hetavah, who thirst for rewards, who are impelled by results; are krpanah, pitiable, according to the Sruti, 'He, O Gargi, who departs from this world without knowing this Immutable, is pitiable' (Br. 3.8.10). [See note under 2.7.-Tr.]
2.49. O Dhananjaya ! The inferior action stays away at a distance due to Yoga of (one's contact with) determining faculty; in the determining faculty you must seek refuge; wretched are those who constitute the causes for the fruits of action.
2.49 Durena etc. Due to the contact (one has) with determining faculty [one's] inferior action i.e., the action that bears bad fruits and is empty, remains far away [from him]. Therefore seek i.e., pray for a refuge in the determining faculty of that nature, on account of which that determining faculty is gained.
2.49 All other kinds of action are far inferior to those done with evenness of mind, which consists in the renunciation of the main result and with eanimity towards success or failure in respect of the secondary results. Between the two kinds of actions, the one with eanimity and the other with attachment, the former associated with eanimity removes all the sufferings of Samsara and leads to release which is the highest object of human existence. The latter type of actions, which is pursued with an eye on results, leads one to Samsara whose character is endless suffering. Thus when an act is being done, take refuge in Buddhi (evenness of mind). Refuge means abode. Live in that Buddhi, is the meaning. 'Miserable are they who act with a motive for results': it means, 'Those who act with attachment to the results, etc., are miserable, as they will continue in Samsara.'
2.49 Action with attachment is far inferior, O Arjuna, to action done with evenness of mind. Seek refuge in evenness of mind. Miserable are they who act with a motive for results.
।।2.49।।जो समत्वबुद्धिसे ईश्वराराधनार्थ किये जानेवाले कर्म हैं उनकी अपेक्षा ( सकाम कर्म निकृष्ट हैं यह दिखलाते हैं ) हे धनंजय बुद्धियोगकी अपेक्षा अर्थात् समत्वबुद्धिसे युक्त होकर किये जानेवाले कर्मोंकी अपेक्षा कर्मफल चाहनेवाले सकामी मनुष्योंद्वारा किये हुए कर्म जन्ममरण आदिके हेतु होनेके कारण अत्यन्त ही निकृष्ट हैं। इसलिये तू योगविषयक बुद्धिमें या उसके परिपाकसे उत्पन्न होनेवाली सांख्यबुद्धिमें शरण आश्रय अर्थात् अभयप्राप्तिके हेतुको पानेकी इच्छा कर। अभिप्राय यह कि परमार्थज्ञानकी शरणमें जा। क्योंकि फलतृष्णासे प्रेरित होकर सकाम कर्म करनेवाले कृपण हैं दीन हैं। श्रुतिमें भी कहा है हे गार्गी जो इस अक्षर ब्रह्मको न जानकर इस लोकसे जाता है वह कृपण है।
।।2.49।।  दूरेण  अतिविप्रकर्षेण अत्यन्तमेव  हि अवरम्  अधमं निकृष्टं कर्म फलार्थिना क्रियमाणं  बुद्धियोगात्  समत्वबुद्धियुक्तात् कर्मणः जन्ममरणादिहेतुत्वात्। हे  धनञ्जय  यत एवं ततः योगविषयायां  बुद्धौ  तत्परिपाकजायां वा सांख्यबुद्धौ  शरणम्  आश्रयमभयप्राप्तिकारणम्  अन्विच्छ  प्रार्थयस्व परमार्थज्ञानशरणो भवेत्यर्थः। यतः अवरं कर्म कुर्वाणाः  कृपणाः  दीनाः  फलहेतवः  फलतृष्णाप्रयुक्ताः सन्तः यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रैति स कृपणः इति श्रुतेः।।समत्वबुद्धियुक्तः सन् स्वधर्ममनुतिष्ठन् यत्फलं प्राप्नोति तच्छृणु
।।2.49।।ननु योगोपदेशमुपक्रम्य कर्मणो बुद्धियोगादवरत्वं किमर्थमुच्यते इत्यत आह  इतश्चे ति। युज्यस्व प्रयतस्व।यावानर्थः 2।46 इति कर्मफलस्य ज्ञानफलापेक्षयाऽल्पत्वाद्योगाय युज्यस्वेत्युक्तम्। अत्र तु तत्रैव हेत्वन्तरमुच्यते  बुद्धियोगा दिति षष्ठीसमासप्रतिनिरासायाह  बुद्धी ति। लक्षणशब्दः स्वरूपार्थः। पुरुषार्थसम्बन्धिना कर्मणा सह निर्देशे तथाभूतस्य ज्ञानस्यैव ग्रहणं युक्तमिति भावः। उपायात्पुरुषार्थस्य। दूरशब्दो विप्रकर्षवाची तस्यात्र कथमन्वयः इत्यत आह  दूरेणे ति। उक्तं कर्मणो ज्ञानादतीवावरत्वं इदानीमुपपादनीयं तद्विहाय किमिदं तृतीयपादेनोच्यते इत्यतः साध्यनिर्देशोऽयमिति सूचयन् व्याचष्टे  अत  इति। ज्ञाने स्थितिं तदुपाययोगानुष्ठानलक्षणाम्। फलहेतूनां कृपणत्ववर्णनमनुपयुक्तमित्यत आह  फल मिति।
।।2.49।।इतश्च योगाय युज्यस्वेत्यत आह दूरेणेति। बुद्धियोगाज्ज्ञानलक्षणादुपायात्। दूरेणातीव। अतो बुद्धौ शरणं ज्ञाने स्थितिम्। फलं कर्म कृतौ हेतुर्येषां ते फलहेतवः।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49।।
দূরেণ হ্যবরং কর্ম বুদ্ধিযোগাদ্ধনঞ্জয৷ বুদ্ধৌ শরণমন্বিচ্ছ কৃপণাঃ ফলহেতবঃ৷৷2.49৷৷
দূরেণ হ্যবরং কর্ম বুদ্ধিযোগাদ্ধনঞ্জয৷ বুদ্ধৌ শরণমন্বিচ্ছ কৃপণাঃ ফলহেতবঃ৷৷2.49৷৷
દૂરેણ હ્યવરં કર્મ બુદ્ધિયોગાદ્ધનઞ્જય। બુદ્ધૌ શરણમન્વિચ્છ કૃપણાઃ ફલહેતવઃ।।2.49।।
ਦੂਰੇਣ ਹ੍ਯਵਰਂ ਕਰ੍ਮ ਬੁਦ੍ਧਿਯੋਗਾਦ੍ਧਨਞ੍ਜਯ। ਬੁਦ੍ਧੌ ਸ਼ਰਣਮਨ੍ਵਿਚ੍ਛ ਕਰਿਪਣਾ ਫਲਹੇਤਵ।।2.49।।
ದೂರೇಣ ಹ್ಯವರಂ ಕರ್ಮ ಬುದ್ಧಿಯೋಗಾದ್ಧನಞ್ಜಯ. ಬುದ್ಧೌ ಶರಣಮನ್ವಿಚ್ಛ ಕೃಪಣಾಃ ಫಲಹೇತವಃ৷৷2.49৷৷
ദൂരേണ ഹ്യവരം കര്മ ബുദ്ധിയോഗാദ്ധനഞ്ജയ. ബുദ്ധൌ ശരണമന്വിച്ഛ കൃപണാഃ ഫലഹേതവഃ৷৷2.49৷৷
ଦୂରେଣ ହ୍ଯବରଂ କର୍ମ ବୁଦ୍ଧିଯୋଗାଦ୍ଧନଞ୍ଜଯ| ବୁଦ୍ଧୌ ଶରଣମନ୍ବିଚ୍ଛ କୃପଣାଃ ଫଲହେତବଃ||2.49||
dūrēṇa hyavaraṅ karma buddhiyōgāddhanañjaya. buddhau śaraṇamanviccha kṛpaṇāḥ phalahētavaḥ৷৷2.49৷৷
தூரேண ஹ்யவரஂ கர்ம புத்தியோகாத்தநஞ்ஜய. புத்தௌ ஷரணமந்விச்ச கரிபணாஃ பலஹேதவஃ৷৷2.49৷৷
దూరేణ హ్యవరం కర్మ బుద్ధియోగాద్ధనఞ్జయ. బుద్ధౌ శరణమన్విచ్ఛ కృపణాః ఫలహేతవః৷৷2.49৷৷
2.50
2
50
।।2.50।। बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्थामें ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।
।।2.50।। समत्वबुद्धि युक्त पुरुष यहां (इस जीवन में) पुण्य और पाप इन दोनों कर्मों को त्याग देता है, इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ। कर्मों में कुशलता योग है।।
।।2.50।। भावनाओं की दुर्बलताओं से ऊपर उठकर जो पुरुष समत्व बुद्धियुक्त हो जाता है वह पाप और पुण्य दोनों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं। मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँचीऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा। यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है। इस सम्पूर्ण प्रकरण में गीता का मानव मात्र को आह्वान है कि वह केवल इन्द्रियों के विषय स्थूल देह और मन के स्तर पर ही न रहे जो उसके व्यक्तित्व का बाह्यतम पक्ष है। इनसे सूक्ष्मतर बुद्धि का उपयोग कर उसको अपने वास्तविक पुरुषत्व को व्यक्त करना चाहिये। प्राणियों की सृष्टि में केवल बौद्धिक क्षमताओं के कारण ही मनुष्य को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। जब तक मनुष्य प्रकृति के इस विशिष्ट उपहार का सम्यक् प्रकार से उपयोग नहीं करता तब तक वह अपने मनुष्यत्व के अधिकार से वंचित ही रह जाता है। अर्जुन से मानसिक उन्माद त्यागकर वीर पुरुष के समान परिस्थितियों का स्वामी बनकर रहने के लिये भगवान् कहते हैं। उस समय अर्जुन इतना भावुक और दुर्बल हो गया था कि वह अपनी व अन्यों के शारीरिक सुरक्षा की चिन्ता करने लगा था। विकास की सीढ़ी पर मनुष्यत्व को प्राप्त कर जो अपनी विशेष क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करता है वही व्यक्ति जन्म जन्मान्तरों में अर्जित वासनाओं के बन्धन से मुक्त हो जाता है। इसलिये तुम योग से युक्त हो जाओ यह भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश है। इसके पूर्व समत्व को योग कहा गया था। अब इस सन्दर्भ में व्यासजी योग की और विशद परिभाषा देते हैं कि कर्म में कुशलता योग है। किसी भी विषय के शास्त्रीय ग्रन्थ में यदि भिन्नभिन्न अध्यायों में एक ही शब्द की विभिन्न परिभाषायें दी गई हों तो समझने में कठिनाई और भ्रांति होगी। फिर धर्म के इस शास्त्रीय ग्रन्थ में एक ही शब्द की विभिन्न परिभाषायें कैसे बताई हुई हैं उपर्युक्त परिभाषा को ठीक से समझने पर इस समस्या का स्वयं समाधान हो जायेगा। योग की पूर्वोक्त परिभाषा यहाँ भी संग्रहीत है अन्यथा मन के समभाव का अर्थ अकर्मण्यता एवं शिथिलता उत्पन्न करने वाली मन की समता को ही कोई समझ सकता है। इस श्लोक में ऐसी त्रुटिपूर्ण धारणा को दूर करते हुये कहा गया है कि समस्त प्रकार के द्वन्द्वों में मन के सन्तुलन को न खोकर कुशलतापूर्वक कर्म करना ही कम्र्ायोग है। इस श्लोक के स्पष्टीकरण से श्रीकृष्ण का उद्देश्य ज्ञात होता है कि कर्मयोग की भावना से कर्म करने पर वासनाओं का क्षय होता है। वासनाओं के दबाव से ही मन में विक्षेप उठते हैं। किन्तु वासना क्षय के कारण मन स्थिर और शुद्ध होकर मनन निदिध्यासन और आत्मानुभूति के योग्य बन जाता है। योग शब्द का इस अथ मेंर् प्रयोग कर व्यास जी हमारे मन में उसके प्रति व्याप्त भ्राँति को दूर कर देते हैं। समत्व भाव एवं कर्म में कुशलता की क्या आवश्यकता है उत्तर में कहते हैं
।।2.50।। व्याख्या--'बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते'-- समतायुक्त मनुष्य जीवित अवस्थामें ही पुण्य-पापका त्याग कर देता है अर्थात् उसको पुण्य-पाप नहीं लगते, वह उनसे रहित हो जाता है। जैसे संसारमें पुण्य-पाप होते ही रहते हैं, पर सर्वव्यापी परमात्माको वे पुण्य-पाप नहीं लगते, ऐसे ही जो समतामें निरन्तर स्थित रहता है, उसको पुण्यपाप नहीं लगते (गीता 2। 38)। समता एक ऐसी विद्या है जिससे मनुष्य संसारमें रहता हुआ ही संसारसे सर्वथा निर्लिप्त रह सकता है। जैसे कमलका पत्ता जलसे ही उत्पन्न होता है, और जलमें ही रहता है, पर वह जलसे लिप्त नहीं होता, ऐसे ही समतायुक्त पुरुष संसारमें रहते हुए भी संसारसे निर्लिप्त रहता है। पुण्य-पाप उसका स्पर्श नहीं करते अर्थात् वह पुण्य-पापसे असङ्ग हो जाता है। वास्तवमें यह स्वयं (चेतन-स्वरूप) पुण्य-पापसे रहित ही। केवल असत् पदार्थों--शरीरादिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही पुण्य-पाप लगते हैं। अगर यह असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध न जोड़े, तो यह आकाशकी तरह निर्लिप्त रहेगा, इसको पुण्य-पापनहीं लगेंगे।   'तस्माद्योगाय युज्यस्व'-- इसलिये तुम योगमें लग जाओ अर्थात् निरन्तर समतामें स्थित रहो। वास्तवमें समता तुम्हारा स्वरूप है। अतः तुम नित्य-निरन्तर समतामें ही स्थित रहते हो। केवल राग-द्वेषके कारण तुम्हारेको उस समताका अनुभव नहीं हो रहा है। अगर तुम हरदम समतामें स्थित न रहते, तो सुख और दुःखका ज्ञान तुम्हें कैसे होता; क्योंकि ये दोनों ही अलग-अलग हैं। जब इन दोनोंका तुम्हें ज्ञान होता है तो तुम इनके आने-जानेमें सदा समरूपसे रहते हो। इसी समताका तुम अनुभव करो।   'योगः कर्मसु कौशलम्'-- कर्मोंमें योग ही कुशलता है अर्थात् कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें और उन कर्मोंके फलके प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम रहना ही कर्मोंमें कुशलता है। उत्पत्ति-विनाशशील कर्मोंमें योगके सिवाय दूसरी कोई महत्त्वकी चीज नहीं है। इन पदोंमें भगवान्ने योगकी परिभाषा नहीं बतायी है, प्रत्युत योगकी महिमा बतायी है। अगर इन पदोंका अर्थ 'कर्मोंमें कुशलता ही योग है'--ऐसा किया जाय तो क्या आपत्ति है? अगर ऐसा अर्थ किया जायगा तो जो बड़ी कुशलतासे, सावधानीपूर्वक चोरी करता है, उसका वह चोरीरूप कर्म भी योग हो जायगा। अतः ऐसा अर्थ करना अनुचित है। कोई कह सकता है कि हम तो विहित कर्मोंको ही कुशलतापूर्वक करनेका नाम योग मानते हैं। परन्तु ऐसा माननेसे मनुष्य कुशलतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग किये गये कर्मोंके फलमें बँध जायगा, जिससे उसकी स्थिति समतामें नहीं रहेगी। अतः यहाँ 'कर्मोंमें योग ही कुशलता है'--ऐसा अर्थ लेना ही उचित है। कारण कि कर्मोंको करते हुए भी जिसके अन्तःकरणमें समता रहती है, वह कर्म और उनके फलमें बँधेगा नहीं। इसलिये उत्पत्ति-विनाशशील कर्मोंको करते हुए सम रहना ही कुशलता है, बुद्धिमानी है। दूसरी बात, पीछेके दो श्लोकोंमें तथा इस श्लोकके पूर्वार्धमें भी योग (समता) का ही प्रसङ्ग है, कुशलताका प्रसङ्ग ही नहीं है। इसलिये भी कर्मोंमें योग ही कुशलता है-- यह अर्थ लेना प्रसङ्गके अनुसार युक्तियुक्त है।
null
।।2.50।।बुद्धियोगयुक्तः तु कर्म कुर्वाण उभे सुकृतदुष्कृते अनादिकालसञ्चिते अनन्ते बन्धेहेतुभूते जहाति। तस्माद् उक्ताय बुद्धियोगाय युज्यस्व। योगः कर्मसु कौशलं कर्मसु क्रियमाणेषु अयं बुद्धियोगः कौशलम् अतिसामर्थ्यम् अतिसामर्थ्यसाध्यः इत्यर्थः।
।।2.50।।पूर्वोक्तसमत्वबुद्धियुक्तस्य स्वधर्मानुष्ठाने प्रवृत्तस्य किं स्यादित्याशङ्क्याह  समत्वेति।  बुद्धियुक्तः स्वधर्माख्यं कर्मानुतिष्ठन्निति शेषः। बुद्धियोगस्य फलवत्त्वे फलितमाह  तस्मादिति।  पूर्वार्धं व्याचष्टे  बुद्धीत्यादिना।  ननु समत्वबुद्धिमात्रान्न पुण्यपापनिवृत्तिर्युक्ता परमार्थदर्शनवतस्तन्निवृत्तिप्रसिद्धेरिति तत्राह  सत्त्वेति।  उत्तरार्धं व्याचष्टे  तस्मादिति।  स्वधर्ममनुतिष्ठतो यथोक्तयोगार्थं किमर्थं मनो योजनीयमित्याशङ्क्याह  योगो हीति।  तर्हि यथोक्तयोगसामर्थ्यादेव दर्शितफलसिद्धेरनास्था स्वधर्मानुष्ठाने प्राप्तेत्याशङ्क्याह  स्वधर्माख्येष्विति।  ईश्वरार्पितचेतस्तया कर्मसु वर्तमानस्यानुष्ठाननिष्ठस्य या यथोक्ता बुद्धिस्तत्तेषु कौशलमिति योजना। कर्मणां बन्धस्वभावत्वात्तदनुष्ठाने बन्धानुबन्धः स्यादित्याशङ्क्य कौशलमेव विशदयति  तद्धीति।  समत्वबुद्धेरेवं फलत्वे स्थिते फलितमुपसंहरति  तस्मादिति।
।।2.50।।एतद्बुद्धियोगयुक्त एव निर्द्वन्द्वो भवतीत्याह बुद्धियुक्त इति। उभे पुण्यपापे स्वर्णलोहबन्धनतुल्ये इहैव जहाति। तस्माद्योगायोक्तस्वरूपाय युक्तो भव। योगो हि कर्मसु कौशलं निर्बन्धनतावृत्तिसाधनमिति। गुणाविष्करणम्।
।।2.50।।एवं बुद्धियोगाभावे दोषमुक्त्वा तद्भावे गुणमाह इह कर्मसु बुद्धियुक्तः समत्वबुद्ध्या युक्तो जहाति परित्यजति उभे सुकृतदुष्कृते पुण्यपापे सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण। यस्मादेवं तस्मात्समत्वबुद्धियोगाय त्वं युज्यस्व घटस्य उद्युक्तो भव। यस्मादीदृशः समत्वबुद्धियोग ईश्वरार्पितचेतसः कर्मसु प्रवर्तमानस्य कौशलं कुशलभावः यद्बन्धहेतूनामपि कर्मणां तदभावो मोक्षपर्यवसायित्वं च तन्महत्कौशलम्। समत्वबुद्धियुक्तः कर्मयोगः कर्मात्मापि सन् दुष्कर्मक्षयं करोतीति महाकुशलः त्वं तु न कुशलो यतश्चेतनोऽपि सन्सजातीयदुष्टक्षयं न करोषीति व्यतिरेकोऽत्र ध्वनितः। अथवा इह समत्वबुद्धियुक्ते कर्मणि कृते सति सत्त्वशुद्धिद्वारेण बुद्धियुक्तः परमात्मसाक्षात्कारवान्सन् जहात्युभे सुकृतदुष्कृते तस्मात्समत्वबुद्धियुक्ताय कर्मयोगाय युज्यस्व। यस्मात्कर्मसु मध्ये समत्वबुद्धियुक्तः कर्मयोगः कौशलं कुशलः। दुष्टकर्मनिवारणचतुर इत्यर्थः।
।।2.50।।बुद्धियोगयुक्तस्तु श्रेष्ठ इत्याह  बुद्धीति।  सुकृतं स्वर्गादिप्रापकम् दुष्कृतं निरयादिप्रापकम् ते उभे इहैव जन्मनि परमेश्वरप्रसादेन जहाति त्यजति। तस्माद्योगाय तदर्थाय कर्मयोगाय युज्यस्व घटस्व। यतः कर्मसु यत्कौशलं बन्धकानामपि तेषामीश्वराराधनेन मोक्षपरत्वसंपादनचातुर्यं स एव योगः।
null
।।2.50।।नन्वेवं बुद्धौ किं स्यात् इत्याशङ्क्याह बुद्धियुक्त इति। बुद्ध्या युक्त इहैव उभे सुकृतदुष्कृते जहाति।अयमर्थः मयि बुद्ध्या युक्त इह अस्मिन्नेव जन्मनि सुकृतफलं स्वर्गादि दुष्कृतफलं नरकं तत्साधने सुकृतदुष्कृते त्यजति। सुकृतमुत्तमफलार्थं करोमि दुष्कृतं भ्रमाज्जातं तत्फलभोगो मम भविष्यतीति न विचारयति। किन्तु यथा ईश्वरः प्रेरयति तथा करोमीति करोति तेन भक्तसाधनत्वं भवतीत्यर्थः। यस्माद्बुद्ध्याऽहं प्रसन्नः सन् भक्तिं ददामि तस्मात्त्वं योगाय म इति शेषः युज्यस्व यत्नं कुरु। ननु योगोऽपि कृतिसाध्यत्वात् कर्म एवेति पूर्वोक्तमध्यपातित्वात् किं योगेन इत्यत आह योग इति। कर्मसु कौशलं चातुर्यम् योग इत्यर्थः। मन्निष्ठत्वान्मद्दर्शनार्थं मनःस्थिरीकरणसाधकत्वाच्चातुर्यम्। साक्षाद्भक्त्यधिकारफलानि वा। मदाज्ञया कर्मकरणं योगः। एतदेव कर्मसु चातुर्यं यत्कृत्वाऽपि भक्तिसाधने प्रवेशनीयं तादृशो योग उत्तम इति। इदानीं तदधिकाराभावात्तथोपदिशति। अन्यथाकर्मसु इति पदं व्यर्थं स्यात्।
।।2.50।।किञ्च  बुद्धीति।  बुद्धियुक्तः समत्वबुद्धियुक्तः योगाय समत्वबुद्धियोगाय युज्यस्व घटस्व। योगः सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वबुद्धिः कर्मसु बन्धकेष्वपि कौशलं बन्धनिवर्तकत्वसंपादनम्। ननु बुद्धियुक्तः कर्मभिर्दुष्कृतं त्यजतुधर्मेण पापमपनुदति इति श्रुतेः सुकृतं तु सजातीयत्वात्तैर्दुष्परिहरमिति कथमुभे सुकृतदुष्कृते जहातीत्युच्यते सत्वशुद्धिज्ञानोत्पत्तिद्वारेति प्राञ्चः। अर्वाञ्चस्तु दुष्कृतत्यागमुक्तरीत्याभ्युपेत्य फलत्यागात्सुकृतत्यागोऽपि कर्मयोगिनो भवति। दुष्कृतफलवन्मोक्षप्रतिबन्धकतत्फलस्यानुत्पादात्। यत्तु आपस्तम्बोक्ताम्रवृक्षनिदर्शनेन नान्तरीयकं सुकृतफलमुक्तं न तत्फलत्वेनोपपद्यते नान्तरीयकत्वादेव। तस्मात्फलद्वारा मोक्षप्रतिबन्धके क्रियमाणे एव सुकृतदुष्कृते कर्मयोगी जहाति ज्ञानी तु संचिते अपि ते जहातीति तयोर्विशेषे इत्याहुः।
।।2.50।।   काम्यकर्मणोऽवरत्वमुक्त्वा निष्काम कर्मणः श्रैष्ठ्यमाह समत्वबुद्धियुक्तः सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेणोभे पुण्यपापे त्यजति सांख्यबुद्धिर्युक्त इति वा तस्माद्योगाय समत्वलक्षणकर्मयागानुष्टानार्थ षटस्व ज्ञानयोगप्राप्त्यर्थमिति वा। यस्माद्योगः समत्वलक्षणः कर्मसु सर्वेषु कौशलं बन्धकानामपि तेषामीश्वरार्पितचेतस्तया मोक्षपरत्वसंपादनचातुर्यं ज्ञानयोग इति वा। अस्मिन्पक्षे कर्मसु ज्ञानप्रतिबन्धकेषु फलाभिसंधिं विहाय ज्ञानलाभचातुर्यमिति व्याख्येयम्। तस्मात्समत्वयुक्तो भवेत्यर्थः।
2.50 बुद्धियुक्तः endowed with wisdom? जहाति casts off? इह in this life? उभे both? सुकृतदुष्कृते good and evil deeds? तस्मात् therefore? योगाय to Yoga? युज्यस्व devote thyself? योगः Yoga? कर्मसु in actions? कौशलम् skill.Commentary Work performed with motive towards fruits only can bind a man. It will bring the fruits and the performer of the action will have to take birth again in this mortal world to enjoy them. If work is performed with evennes of mind (the Yoga of wisdom? i.e.? united to pure Buddhi? intelligence or reason) with the mind resting in the Lord? it will not bind him it will not bring any fruit it is no work at all. Actions which are of a binding nature lose that nature when performed with eanimity of mind? or poised reason. The Yogi of poised reason attributes all actions to the Divine Actor within (Isvara or God).
2.50 Endowed with wisdom (evenness of mind), one casts off in this life both good and evil deeds; therefore, devote thyself to Yoga; Yoga is skill in action.
2.50 When a man attains to Pure Reason, he renounces in this world the results of good and evil alike. Cling thou to Right Action. Spirituality is the real art of living.
2.50 Possessed of wisdom, one rejects here both virtue and vice. Therefore devote yourself to (Karma-) yoga. Yoga is skilfulness in action.
2.50 Listen to the result that one possessed of the wisdom of eanimity attains by performing one's own duties: Buddhi-yuktah, possessed of wisdom, possessed of the wisdom of eanimity; since one jahati, rejects; iha, here, in this world; ubhe, both; sukrta-duskrte, virtue and vice (righteousness and unrighteousness), through the purification of the mind and acisition of Knowledge; tasmat, therefore; yujyasva, devote yourself; yogaya, to (Karma-) yoga, the wisdom of eanimity. For Yoga is kausalam, skilfulness; karmasu, in action. Skilfulness means the attitude of the skilful, the wisdom of eanimity with regard to one's success and failure while engaged in actions (karma) called one's own duties (sva-dharma) with the mind dedicated to God. That indeed is skilfulness which, through eanimity, makes actions that by their very nature bind give up their nature! Therefore, be you devoted to the wisdom of eanimity.
2.50. Whosoever is endowed with determining faculty-he casts off both of these viz., the good action and the bad action. Therefore strive for Yoga; Yoga is proficiency is action.
2.50 Buddhiyuktah etc. Both indicates the mutual exclusion [of the good and bad actions]. Therefore [strive] for Yoga etc. : Working in that manner alone constitutes the supreme proficiency, by [working] in which manner the good action and the bad action perish. This is the idea here.
2.50 He, who is established in evenness of mind in the performance of actions, relinishes good and evil Karmas which have accumulated from time immemorial causing bondage endlessly. Therefore acire this aforesaid evenness of mind (Buddhi Yoga). Yoga is skill in action. That is, this evenness of mind when one is engaged in action, is possible through great skill, i.e., ability.
2.50 A man with evenness of mind discards here and now good and evil. Therefore endeavour for Yoga. Yoga is skill in action.
।।2.50।।समत्वबुद्धिसे युक्त होकर स्वधर्माचरण करनेवाला पुरुष जिस फलको पाता है वह सुन समत्वयोगविषयक बुद्धिसे युक्त हुआ पुरुष अन्तःकरणकी शुद्धिके और ज्ञानप्राप्तिके द्वारा सुकृतदुष्कृतको पुण्यपाप दोनोंको यहीं त्याग देता है इसी लोकमें कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। इसलिये तू समत्वबुद्धिरूप योगकी प्राप्तिके लिये यत्न कर चेष्टा कर। क्योंकि योग ही तो कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् स्वधर्मरूप कर्ममें लगे हुए पुरुषका जो ईश्वरसमर्पित बुद्धिसे उत्पन्न हुआ सिद्धिअसिद्धिविषयक समत्वभाव है वही कुशलता है। यही इसमें कौशल है कि स्वभावसे ही बन्धन करनेवाले जो कर्म हैं वे भी समत्व बुद्धिके प्रभावसे अपने स्वभावको छोड़ देते हैं अतः तू समत्वबुद्धिसे युक्त हो।
।।2.50।।  बुद्धियुक्तः  कर्मसमत्वविषयया बुद्ध्या युक्तः बुद्धियुक्तः सः  जहाति  परित्यजति  इह  अस्मिन् लोके उभे  सुकृतदुष्कृते  पुण्यपापे सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण यतः  तस्मात्  समत्वबुद्धि योगाय युज्यस्व  घटस्व।  योगो  हि  कर्मसु कौशलम्  स्वधर्माख्येषु कर्मसु वर्तमानस्य या सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वबुद्धिः ईश्वरार्पितचेतस्तया तत् कौशलं कुशलभावः। तद्धि कौशलं यत् बन्धनस्वभावान्यपि कर्माणि समत्वबुद्ध्या स्वभावात् निवर्तन्ते। तस्मात्समत्वबुद्धियुक्तो भव त्वम्।।यस्मात्
।।2.50।।बुद्धियुक्तः प्रेक्षावान् काम्यं सुकृतं दुष्कृतं च जह्यादिति योगस्वरूपनिरूपणपरतां निराकर्तुमाह  ज्ञाने ति। कथं कर्मणो ज्ञानादतीवावरत्वमित्यतः काम्यकर्मिणः कृपणाः दीनाः इमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति मुं.उ.1।2।10 इत्युक्तम् तथापि कथं दूरेणावरमित्यपेक्षायां कर्मफलाद्विलक्षणं ज्ञानफलमाहेत्यर्थः। प्रतीतेऽर्थेनुपपत्तिं तूत्तरत्र दर्शयिष्यति। अत्र दुष्कृतवत्सुकृतस्यापि सर्वात्मना हानं प्रतीयते तत्सङ्कोचेन व्याचष्टे  सुकृत मिति। अप्रियं सुकृतं कीदृशं इत्यत आह   मानुष्ये ति। व्यावर्त्यमाह  ने ति। बृहत् प्राङ्मुक्तेर्ज्ञानादिगुणवृद्धिलक्षणं तदनन्तरं चानन्दवृद्धिरूपं फलं यस्य तत् बृहत्फलं तथाभूतं सुकृतमेव नास्ति कारणाभावादित्यत आह  उपासने ति। आदिपदेन निवृत्तं कर्म। कुतः सङ्कोच इत्यत आह  न हास्ये ति। यजते ददाति तप्यतेऽनेनेति शेषः। अत्राविदित्वेति विशेषणाज्ज्ञानिनः सुकृताक्षयः प्रतीयते। उत्तरत्र वाऽस्याः श्रुतेरुपयोगः। ननु नास्त्यकृतः कृतेन मुं.उ.3।2।12 इत्यादिश्रवणात्सत्प्रतिपक्षा एताः श्रुतय इत्यत आह  अत  इति। विशेषश्रुतेर्बलवत्त्वादिति भावः। श्रुतिः श्रवणम्। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मुं.उ.2।2।8 इति ज्ञानिनोऽपि कर्मक्षयः प्रतीयत इति चेत् न निरवकाशश्रुतिविरोधेनास्य दुष्कृतविषयत्वात्। तदा विद्वान्पुण्यपापे विधूय मुं.उ.3।1।2 इति ज्ञानिनोऽपि उभयक्षयश्रुतिरस्तीत्यत आह  उभये ति। उक्तैव युक्तिः। युक्तिविरुद्धं च ज्ञानिनः सर्वसुकृतहानम्। तथा हि उपासनादिजनितं सुकृतं ज्ञानिनः किमिष्टं उतानिष्टम्। आद्ये किं तदिच्छया क्षीयते उत ज्ञानस्वभावात् आद्यं दूषयति  नही ति। येन ज्ञानी तत्क्षयमिच्छेत् इति शेषः। द्वितीयं निराकरोति  न चे ति। ज्ञानस्यापुरुषार्थताप्रसङ्गादिति भावः नान्त्यः अनिष्टत्वे कारणाभावात्।निष्फलत्वादनिष्टमित्यत आह  इष्टा श्चेति। केचिदित्यलौकिकाः। मुक्तावलौकिका विषया इष्टा भवन्ति। तत्प्राप्तिः सुकृतफलमिति भावः। मुक्तो विषयानिच्छतीत्येतत्कुतः इत्यत आह   स यदी ति। यज्ञो यशस्वी। ब्राह्मणानां सकाशात्। मुक्तो यद्यत्कामयते तत्कर्मास्मात्परमात्मनः सृजते। इष्टविषयप्राप्तिः सुकृतफलमित्येतदपि अनया श्रुत्योच्यते। उपासनादिकमेव ज्ञानी करोति। कृतेन वा सुकृतं न जायते इत्येतदप्यनया निराकृतम्। ननु मुक्तः किमर्थं विषयानिच्छेत् न तावत्सुखार्थम् ज्ञानेनावरणरूपाविद्यानिवृत्तौ आत्मनः स्वरूपसुखस्य व्यक्तत्वात्। पृथक्सुखस्यानङ्गीकारात्। नापि दुःखनिवृत्त्यर्थम् अविद्यानिवृत्त्यैव तत्सिद्धेरिति। मैवम् नाविद्यैवात्मस्वरूपावरणम् किन्त्वीश्वरेच्छाऽपि। तथा च वक्ष्यति। तथा च ज्ञानेनाविद्यायां निवृत्तायामशेषानिष्टनिवृत्तिर्भवति। स्वरूपसुखं च बहुतरं व्यज्यते। न तु सर्वम्। ज्ञानोत्तरमनुष्ठितेन निवृत्तकर्मणा प्रसन्नः परमेश्वरो मुक्तौ विषयानुत्पाद्य तद्भोगेन ज्ञानानभिव्यक्तमपि स्वरूपसुखं व्यक्तीकरोति। अत्र च भाष्यकृतैव तत्र तत्र प्रमाणान्युक्तानि। अनेनैवाभिप्रायेण श्रुत्यादिषु मुक्तैर्ज्ञानमात्रसाध्यत्वं ज्ञानकर्मसमुच्चयसाध्यत्वं चोच्यते। ननु ज्ञानमात्रसाध्यं यत्स्वरूपसुखं तदेव बहुतरमस्ति अतः कर्मसाध्यविषयभोगाभिव्यङ्ग्यसुखाङ्गीकारः किमर्थं इत्यत आह  बहुत्वेऽपी ति। कर्मसुखेऽङ्गीकृत इति शेषः। शरीरेन्द्रियरहितस्य मुक्तस्य कथं विषयानुभवे शक्तिः इत्यत आह  अनुभवे ति। तदुक्तंब्राह्मेण जैमिनिः ब्र.सू.4।4।6 इति। किञ्च कामरूप्यनुसञ्चरन् तै.उ.3।10।5 इत्यादिलीलाविग्रहग्रहणश्रुतेश्च मुक्तस्य विषयानुभवो युज्यत इत्याह  श्रुतेश्चे ति।ननु यदेतदुदाहृतासु श्रुतिषु विषयेच्छादिकं श्रूयते तच्चरमशरीरपातात्पूर्वकालीनं किं न स्यात् इत्यत आह  न चे ति। अस्माच्छरीरादुत्थाय ৷৷. स तत्र पर्येति छा.उ.8।12।3 अस्माल्लोकात्प्रेत्य ৷৷. एतमानन्दमयमात्मानं तै.उ.3।10।5 इत्याद्युत्तरत्र श्रवणात्। इत्यादीति क्रियाविशेषणम्। अद्वैतवादिनस्त्वाहुः ब्रह्मैकमेव तत्त्वम्। तदेवोपाधिभेदभिन्नं जीवभावं प्रतिपद्यते गगनमिव घटाद्युपाधिभिन्नं घटाकाशादित्वम्। तत्र यस्य जीवस्य ज्ञानं उत्पन्नं स ब्रह्मणैकीभवति घटनाशे इव महाकाशेनेति। तत्रैके जीवब्रह्मभेदस्योपाधेश्च मिथ्यात्वं मन्यन्ते। अन्ये च सत्यत्वम्। यदा च स ज्ञानी ब्रह्मणैकीभूतस्तदा सकलस्य क्रियाकारकलक्षणफलभेदस्य प्रविलयात्कुतो विषयभोगः यदर्थं सुकृतस्यावस्थानं इति तद्दूषयति  न चे ति। एवशब्देन भेदाभेदौ निराकरोति।परमात्मानमासाद्य तद्भूता यतयोऽमलाः। अमृतत्वाय कल्पन्ते न निवर्तन्ति वा विभो म.भा.12।301।78 इति भीष्मेण तस्मिन्भूतास्तद्भूता इत्यभिप्रायेणोक्ते मुक्तास्तद्ब्रह्मैव भूता इत्यर्थान्तरमाशङ्क्य युधिष्ठिरेणआजन्ममरणं वा ते स्मरन्त्युत वा वाऽनघ म.भा.12।301।80 इति विकल्प्य पृष्टम्। यदि ज्ञानिनो मुक्तौ ब्रह्मणैकीभवन्ति तदैवं वाच्यम् किं ते संसारानुभूतं दुःखं स्मरन्ति उत न इति। आद्यस्य दूषणमुक्तम् मोक्षे दोषो महानेषः प्राप्य सिद्धिं गतानृषीन्। यदि तत्रैव विज्ञाने वर्तन्ते यतयः परे। म.भा.12।301।82 पूर्वं सिद्धिं गतानृषीन्प्राप्य परेऽपि यतयो यदि तत्र मुक्त्तौ विज्ञाने विज्ञानेन प्रागनुभूतदुःखस्मरणेन युक्ता वर्तन्ते तर्हि मोक्षे महानेषः प्रसिद्धो दोष इति। दोषं च भाष्यकारः स्फुटीकरिष्यति। द्वितीयोऽपि दूषितः  मग्नस्ये ति। पूर्वानुभूतस्मरणाद्यभावे परेऽज्ञाने मग्नस्य चेतनस्य दुःखतरं दुःखातिशयो न भवेत्किं भवेदेव। तदेवं मोक्षधर्मेऽस्य पक्षस्य निन्दितत्वान्न ज्ञानी ब्रह्मणैकीभूत इत्यर्थः। ननु पूर्वपक्षस्थेन युधिष्ठिरेण निन्दितत्वेऽपि कथं भीष्माचार्येणोक्तमसत्स्यात् परिहारे तदुक्तदोषस्योद्धारसम्भवादित्यत आह  परिहार   इ ति। न मयैतदुक्तं किन्तु त्वमन्यथा गृहीत्वा दूषितवानसीत्याशयेन परिहारे भीष्मेण परमात्मनः पृथक्त्वेन मुक्तानां भोगाभिधानाच्च न ज्ञानी ब्रह्मणैकीभूत इत्यर्थः। तथा हि भीष्मवचनम् तथापि अत्रापि तत्त्वं परमं शृणु सम्यङ्मयेरितम्। ৷৷. इन्द्रियाणि च बुध्यन्ते स्वदेहं देहिनो नृप।।करणान्यात्मनस्तानि सूक्ष्मः पश्यति तैस्तु सः म.भा.12।301।8586 इति।।यद्यपीदं दुर्बोधं तथापि स्वः स्वरूपभूतो देहो यस्य तं स्वदेहं परमात्मानं मुक्तमन्यान्देहान्विषयांश्च मुक्तस्य इन्द्रियाणि बुध्यन्ते। किं तानि कर्तृ़णि नेत्याह  करणानी ति कस्तर्हि पूर्वार्धस्यार्थः इत्यत उक्तम्  सूक्ष्म इति । इतश्च न ज्ञानिनो ब्रह्मैक्यमित्याह  शुकादीना मिति। अनेन वाक्यत्रयेण मुक्तानां ब्रह्मभेदे क्रमेण प्रत्यक्षानुमानागमा उपन्यस्ताः। तत्र प्रत्यक्षं न बाधकम्। शुकादयो यद्यपि ज्ञानिनस्तथापीदानीमविनष्टोपाधित्वात्तन्निमित्तभेदवत्तया दृश्यन्ते। प्रारब्धकर्मक्षयादुपाधिनाशे ब्रह्मैव संवृता भूताः न पृथक् द्रक्ष्यन्त इत्यत आह  उपाधिनाशे   इ ति। जीवास्तावद्ब्रह्मणः प्रतिबिम्बा इति समर्थितम् तत्र यदि तदीयस्योपाधेर्नाशोऽङ्गीक्रियते तदा तेषां नाशः प्रसज्यते। दर्पणाद्युपाधिनाशे मुखादिप्रतिबिम्बस्य नाशदर्शनादित्यर्थः।यच्चोक्तं शुकादयोऽविनष्टोपाधित्वाद्ब्रह्मणः पृथक् दृश्यन्त इति तदसदित्याह  न चे ति। वस्तुत एकीभूतस्योपाधिनाऽपि पृथक्ज्ञाने न मानं पश्यामः। गगनादिदृष्टान्तस्यासम्मतत्वात् सत्योपाधिभेदमतस्य चेदं दूषणम्। किञ्चोपाधिक एव जीवब्रह्मणोर्भेदः वास्तवं त्वैक्यमिति वदन्प्रष्टव्यः किं ब्रह्म निर्दुःखं स्वरूपमेवानुसन्धत्ते न जीवगतं दुःखं तत्तु जीव एवानुसन्धत्त इति पक्षः उत तदपीति। आद्यं दूषयति  न चैकीभूतस्ये ति। हस्तपादाद्युपाधिभेदेऽपि भोक्तुरेकत्वदर्शनादिति भावः। द्वितीयं निराकरोति  आस मिति लङत्र सर्वकालोपलक्षणार्थः। जीवरूपेण दुःख्यासं स्वरूपेण तु नेति व्यवस्थयाऽनुसन्धानान्न विरोध इत्यत आह  अनेने ति। इति च युक्तमिति शेषः। कुतः इत्यत आह  भेदे ति। उपाधेरभेदकत्वस्योक्तत्वादिति भावः। अपरे तु ब्रह्मणैक्यमापन्नस्य मुक्तस्य पूर्वदुःखानुस्मरणमस्ति न वा नेतिपक्षेमग्नस्य हि इत्युक्तो दोषः। आद्ये किमसौ पृथक् स्मरति उत ब्रह्मात्मक एव। प्रथमस्य दूषणं  न चैकीभूतस्ये ति द्वितीयस्य  आसं  इत्यादीनि व्याचक्षते। अनेनमोक्षे दोषो महानेषः इत्युक्तो दोषः प्रदर्शितो भवति। ननुउपाधिनाशे नाशाच्च प्रतिबिम्बस्य इति यदुक्तं तदसत् भेदे हि बिम्बप्रतिबिम्बयोरेतत्स्यात्न चैवं किन्तु बिम्बमेव प्रतिबिम्बं तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञानात्।नेक्षेतोद्यन्तमादित्यं नास्तं यान्तं कदाचन। नोपरक्तं न वारिस्थं न मध्यनभसो गतम् मनुः4।38 इति स्मृतावुद्यदादाविव वारिस्थ प्रतिबिम्बेऽपि आदित्यशब्दप्रयोगदर्शनात्। भेदस्तु दर्पणाद्युपाधिकृतः। तथाचोपाधिनाशे भेद एव नश्यति प्रतिबिम्बस्य कुतो नाशः एवं जीवस्यापीत्याशङ्क्य प्रत्यभिज्ञानं तावदसिद्धमित्याह  न चे ति। न पश्यामो न प्रत्यभिजानीमः प्रत्युत प्रत्यग्भावादिना तयोर्भेदमेव पश्याम इति चार्थः। यच्चोक्तंजीवब्रह्मणोर्बिम्बप्रतिबिम्बयोरौपाधिको भेदः इति तन्नास्माकमनिष्टम्। किन्तु परस्यैव। जीवोपाधिनाशे प्रमाणाभावेन नित्यत्वात्तन्निमित्तस्यापि भेदस्य मुक्तौ स्थितेरित्याशयवानाह  उपाधिनाश  इति। न पश्याम इत्यनुवर्तते। न केवलं उपाधिनाशे प्रमाणाभावः किन्तु तन्नाशाङ्गीकारे बाधकमस्तीत्याह  मग्नस्ये ति। उपाध्यभावे स्मरणादिविलोपात्। न केवलमेतावत् उपाधिनित्यत्वे प्रमाणं चास्तीत्याह  यावदि ति। अस्तु तर्हि उदाहृतस्मृतिवाक्यं बिम्बप्रतिबिम्बयोरैक्ये प्रमाणमित्यत आह  अत  इति प्रत्यक्षेण भेदस्य प्रतीयमानत्वात्। प्रतीयमानमपीत्यनेन प्रत्यभिज्ञायामिव वचनस्वरूपेऽपि न विवादोऽस्तीत्याह वारिस्थमिति। न परस्य मुख्यं सम्भवतीत्यनौपचारिकैः सह पाठेऽपि बाधकवशादौपचारिकतब्रह्मज्ञानेन वा मुक्तिः इत्यादौ दृष्टमिति। एवंशुकादीनां इत्युक्तं प्रत्यक्षमुपपादितम्।अधुनाऽऽस्तां तावदुपपादनसापेक्षं प्रत्यक्षं तन्निरपेक्षं चास्तीत्याह  दृष्टा श्चेति। ते निवृत्तसकलकर्माणो मुक्ताः। एतच्च मोक्षधर्मे स्पष्टमुक्तम् प्राङ्मुक्तेश्वरभेदे स्मृतिरुदाहृता श्रुतिं चोदाहरति  प्रतिशाखमि ति। ननु भेद इवाभेदेऽपिपरेऽव्यये सर्व एकीभवन्ति इत्यादिवाक्यानि सन्ति तत्कथं निर्णयः इत्यतः सामान्यन्यायं तावदाह  विरोधे  त्विति। बलवद्विरोधेन दुर्बलं बाध्यते इति भावः। ततः किं प्रकृते इत्यत आह  युक्तय  इति।  अत्र  भेदपक्षे उपलक्षणमेतत्। प्रत्यक्षानुकूल्यं च भेदवाक्यानां प्राबल्याय ग्राह्यम्। तर्ह्येकीभवन्तीत्यस्य का गतिः इत्यत आह  अत  इति। उभयत्रैकीभाववादेन तद्वादिवाक्यं गृह्यते। स्थानैक्यविषयमैक्यवाक्यमित्यर्थः। इयं च रूढलक्षणेति न प्रयोजनमन्वेषणीयमिति दृष्टान्तोक्तिः। न केवलमियं गतिर्न्यायप्राप्ता किन्तु श्रौती चेत्याह  उक्तं चे ति। उदकेऽप्यैक्यादसम्मतो दृष्टान्त इत्यत आह  तत्रापी ति। नास्त्येव समुद्रे वृद्धिरनुपलम्भादित्यत आह  अस्ती ति। समुद्रेऽपि वृद्धिरिति शेषः। अनुपलम्भस्यासिद्धिमाह  द्वारी ति। नदीनां द्वारि दृश्यते चेति शेषः। अन्यत्र कुतो न दृश्यते इत्यत आह  महत्त्वादि ति सामुद्रस्योदकस्य महत्त्वात्। न केवलं वृद्धिलिङ्गादनुमानादुदकभेदः सिद्धः किं तर्हि प्रत्यक्षादपीत्याह  ता  इति। या इन्द्रकमण्डलोरादाय स्वकमण्डलूदके क्षिप्तास्ता एवापस्तस्येन्द्रस्य ददौ वसिष्ठ इति महाकौर्मवचनात्समर्थानां वसिष्ठादीनां जले भेददर्शनाच्च। भेदादर्शने विभज्य कथं दद्यादिति। इतश्च मुक्तभेदवाक्यमेव प्रबलम् अभेदनिषेधात्मकत्वादित्याह  नैवे ति। कैवल्यं सर्वोत्तमत्वम्। इतोऽपि भेदपक्षो बलवानिति वक्तुमाह   से ति। पूर्वोत्तरपक्षबलाबलचिन्ता विचारः। निर्णयो जीवेशभेदावधारणम्।बहवः पुरुषा ब्रह्मन् इत्यादिनेति शेषः। न हि भिन्नयोर्मुक्तावभेदः सम्भवतीति भावः। ततः किमित्यत आह  बलवानि ति। निर्णयश्चेति सम्बन्धः। वाक्यमात्रादेकीभवन्तीत्यादेः।कथं तर्हि यत्रेत्यादिभूमलक्षणमुच्यते इत्यत आह  अत  इति सविचारनिर्णयविरोधादेव। विद्यमानस्याप्यन्यस्य भगवदधीनसत्तादित्ववाचि। इतश्चैवमित्याह  अन्यथे ति। यद्यन्यदेव न स्यात्तर्हि कथमीश्वरस्य सर्वेश्वरत्वसार्वज्ञादिकं श्रुत्यादिसिद्धं स्यात् मायामयमेव तच्छ्रुत्यादावुच्यते इत्यत आह  न चे ति। बाधकान्तरमाह  अन्यथे ति। यदि भूमाऽद्वितीयः स्यात् कथं तर्हि तज्ज्ञानान्याच्चय स एकधा छां.उ.7।26।2 इत्यादिभेदे श्रुतिर्ब्रूयात् न तद्भ्रूमज्ञानफलम् किन्तु सगुणविद्योपासनफलमित्यत उक्तम्  तत्रैवे ति भूमप्रकरण एव। ननु नारदेन श्वेतद्वीपे भगवतो भिन्ना दृष्टास्ते मुक्ता एव न भवन्ति सशरीरत्वात् सशरीराणामपि मुक्तत्वाङ्गीकारे न ह वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति छां.उ.8।12।1 इत्यादिश्रुतिविरोध इत्यत आह   न चे ति। कुतो नेत्यत आह   वैलक्षण्या दिति। किं तदस्मदादिशरीरेभ्यस्तेषां वैलक्षण्यं इत्यत आह  अभौतिकानी ति अजडानीत्यर्थः। तर्हि किमात्मकानि इत्यत आह  नित्योपा धीति। विकारित्वाद्विनाशः स्यादित्यत उक्तम्  ईश्वरशक्त्ये ति। कुत एतदित्यत आह  तथा चे ति। नित्योपाधिरेव षोडशी कला। एतदुक्तं भवति यच्छ्रुतौ सशरीरस्य दुःखानपहतिवचनं तत्कर्माधीनजडशरीराभिप्रायम् श्वेतद्वीपे नारदेन दृष्टानि तु शरीराणि चिन्मयानि जडान्यपि न कर्माधीनानि अतो न दुःखकारणानि। तथा च न तेषां सशरीराणामपि मुक्तत्वे श्रुतिविरोध इति।यदि मुक्ताः सशरीरास्तर्हि कथं तेषु अशरीरं वा व सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः छा.उ.8।12।1 इति शरीराभाववचनमित्यत आह  वदन्ति चे ति। लौकिकाद्वैलक्षण्ये सति तद्वदत्रापीति शेषः। इतश्चाशरीरत्वोक्तिर्युक्तेत्याह  निरुक्ती ति। निरुक्तिलभ्यार्थस्य तत्राभावादित्यर्थः। काऽसौ निरुक्तिरित्यतः प्रक्रियासम्पादनगौरवपरिहाराय श्रुतिमेव तत्परां दर्शयति  तथाही ति। अशारि शीर्णमभवदिति हेतोस्तच्छरीरशब्दमभवदित्यर्थः। कथं निरुक्तिलभ्योऽर्थस्तेषु नास्ति इत्यत आह  नही ति। एवं तर्हि कथं तेषुशरीरं जायते तेषां इति शरीरशब्दप्रयोगः इत्यत आह  साम्यादि ति। अस्मदादिशरीरैः करचरणादिमत्त्वसाम्याद्गौण इत्यर्थः। कुतोऽयमशरीरशब्दस्याभिप्रायः सर्वथा विग्रहराहित्यमेव किन्न स्यात् इत्यत आह  प्रयोगाच्चे ति। नारदादिभिर्दृष्टदेहेष्वेव मुक्तेष्वेतद्वाक्यद्वये देहाभावप्रयोगादन्यथाऽनुपपत्त्याऽयमर्थः सिद्धः। न केवलं सम्भवमात्रेणेति चार्थः। इत्यादीति क्रियाविशेषणम्। प्रयोगादित्यनेन सम्बध्यते। सन्तु नारदेन दृष्टाः श्वेतद्वीपवासिनो मुक्ताः तथापि नास्माकं प्रत्यक्षविरोधः यत एतेषां श्वेतद्वीपप्राप्तिरूपा निर्गुणमुक्तेरन्या गौणी मुक्तिः। निर्गुणायामेव मुक्तौ वयमैक्यं ब्रूम इत्यत आह  न चे ति। श्वेतद्वीपप्राप्तिव्यतिरिक्तमुक्तिनिषेधादियमेव मुक्तिरित्यर्थः।ननु शिशुपालादयः श्वेतद्वीपगमनेन विनैवात्र भगवन्तं प्रविश्य मुच्यन्ते तत्कथमेतत् इत्यत आह  ये त्वि ति। ते न तदा मुच्यन्ते इति शेषः। तर्हि कदेत्यत आह  तेऽपी ति। ततो मुच्यन्त इति शेषः। ननुकेचिदत्रैव मुच्यन्ते इत्याद्युक्त्वामहाज्ञाना गच्छन्ति क्षीरसागरम् इति महायोग्यतावतामेव श्वेतद्वीपगमनोक्तेः कथमयं नियमः इत्यत आह  योग्यत्व मिति। अत्र निवास इति शेषः। अस्ति सर्वेषां श्वेतद्वीपप्राप्तिः। महाज्ञानत्वलक्षणं योग्यत्वं त्वत्र निवासे विवक्षितमित्यर्थः। नन्विदं वाक्यं श्वेतद्वीपप्राप्तिं विना सगुणमुक्तिर्नास्तीत्येतत्परम् निर्गुणमुक्तिस्त्वन्याऽस्तीत्यत आह  युधिष्ठिरे ति। सायुज्यं तावत्प्रसिद्धम् सैव निर्गुणमुक्तिः तत्रात्मनो ब्रह्मणैकत्वमित्यत आह  सायुज्यं चे ति। यथा ग्रहस्य पुरुषान्तरं प्रविश्य भोगः तथा मुक्तस्येश्वरं प्रविश्य भोग एव सायुज्यं न त्वैक्यमित्यर्थः। कुत एतत् सायुज्यशब्दसामर्थ्यादागमवाक्याच्चेत्याह  तदुक्ते श्चेति। उत्तमायां मुक्तौ सायुज्यलक्षणायामीश्वरं प्रविश्येति शेषः। ईश्वरानन्दव्युदासाय   बाह्या निति। बाह्येष्वपि विभागो वचनान्तरादवसेयः। सुकृतमप्यप्रियमित्यादिनोक्तमर्थमुपसंहरति  अत  इति। यथा सुकृतत्यागे सङ्कोचस्तथाऽनिष्टत्यागेऽप्यस्ति किमिति जिज्ञासायामाह  स  इति। प्राचुर्याभिप्रायाण्येतानि वचनानि किं न स्युः इत्यत आह  विशेषे ति।सङ्कर्षणादयः समष्टिजीवास्तावन्मुक्ताः तेषां च बललक्ष्मणादिरूपेषु दुःखं दृश्यते तदेव विशेषप्रमाणमित्यत आह  येषा मिति। न सायुज्यं प्राप्ताः न मुक्ता इत्यर्थः। सायुज्ययोग्यानां तदभावे मुक्त्यभावात्। तेषां मुक्तत्वोक्तेस्तर्हि का गतिः इत्यत आह  सामीप्यादी ति। मुक्तत्वोक्तौ बीजमिति शेषः। कुतस्ते न मुक्ताः इत्यत आह  अत  इति। दुःखदर्शनात्तद्धेतुभूतप्रारब्धकर्मभावान्न मुक्ताः। कदा तर्हि मुच्यन्ते इत्यत आह  तदि ति। अत्रागमसम्मतिमाह  तच्चोक्त मिति। सोऽस्त्येवेत्याद्युक्तमुपसंहरति   अत  इति। तत्किमनिष्टनिवृत्तिमात्रं मुक्तिः इत्यतोऽनुमानागमाभ्यां परमसुखं चेत्याह  परब्रह्मत्व मिति। मुक्तत्वं ब्रह्मादिभिर्दुःखहीनैरपि मोक्षे सक्तिस्तुत्यर्थमेतदिति न ब्रह्मण एकान्तित्वविरोधः।समासान्तविधेरनित्यत्वाद्वाङ्मनोगोचरं इत्युक्तम्।महत् इत्येतत्सुखं इत्यनेन सम्बध्यते।  ब्रह्मादिपदादप्यधिकतममि ति। ब्रह्मणो ब्रह्मपदादप्यधिकं शेषस्य शेषपदादप्यधिकमित्यादि ज्ञेयम्।एवं ज्ञानफलप्रदर्शनत्वेन पूर्वार्धो व्याख्यातः। उक्तविधया योगस्वरूपनिरुपणपरः किं न स्यात् इत्यतोऽस्मदुक्तार्थे तृतीयपादसङ्गतेः अन्यथा तदसङ्गतेरित्यभिप्रेत्य तं पठति  अत  इति। न दूरस्थहेतुपरामर्शोऽयमिति ज्ञापयितुं तस्मादिति पठितव्येअतः इत्युक्तम्। ज्ञानस्य महाफलत्वात्  योगाय युज्यस्वे ति कथं हेतुहेतुमद्भाव इत्यतोयोगाय इत्येतद्व्याचष्टे  ज्ञाने ति। ननुसमत्वं योग उच्यते 2।48 इति योगो व्याख्यातःयोगः कर्मसु कौशलम् इति पुनर्व्याख्यायते इत्यतः स्तुतिरियं योगस्य क्रियत इति भावेनाह  तद्धी ति। तद्योग इति शेषः।
।।2.50।।ज्ञानफलमाह बुद्धियुक्त इति। सुकृतमप्यप्रियं मानुष्यादिफलं जहाति न बृहत्फलमुपासनादिनिमित्तम्। न हास्य कर्म क्षीयते बृ.उ.1।4।15 अविदित्वाऽस्िमँल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राण्यन्तवदेवास्य तद्भवति बृ.उ.3।8।10 इत्यादिश्रुतिभ्यः। अतः कर्मक्षयश्रुतिरज्ञानिविषया सर्वत्र। उभयक्षयश्रुतिरप्यनिष्टविषया। नहीष्टपुण्यक्षये किञ्चित्प्रयोजनम्। न चेष्टनाशो ज्ञानिनो युक्तः।इष्टाश्च केचिद्विषयाः स यदि पितृलोककामो भवति सङ्कल्पादेवास्य पितरः समुत्तिष्ठन्ति छां.उ.8।2।1प्रजापतेः सभां वेश्म प्रपद्ये यशोऽहं भवामि ब्राह्मणानां छां.उ.8।14।1 स्त्रीभिर्वा यानैर्वा छां.उ.8।12।3 अस्माद्ध्येवात्मनो यद्यत्कामयते तत्तत्सृजते बृ.उ.1।4।15 कामान्नी कामरूप्यनुसञ्चरन् तै.उ.3।10।5 स एकधा भवति छां.उ.7।26।2 इत्यादिश्रुतिभ्यः। बहुत्वेऽप्यात्मसुखस्य पुनरिष्टत्वात्कर्मसुखेन विरोधः अनुभवशक्तिश्चेश्वरप्रसादात् श्रुतेश्च।न च शरीरपातात् पूर्वमेव। स तत्र पर्येति छां.उ.8।12।3 एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रम्य तै.उ.3।10।5 इत्याद्युत्तरत्र श्रवणात्। न चैकीभूत एव ब्रह्मणा सः।मग्नस्य हि परेऽज्ञाने किं दुःखतरं भवेत् इत्यादिनिन्दनान्मोक्षधर्मे। परिहारे पृथग्भोगाभिधानाच्च शुकादीनां पृथग्दृष्टेश्चजगद्व्यापारवर्जं ब्र.सू.4।4।17 इत्यैश्वर्यमर्यादोक्तेश्चइदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः 14।3 इति च। उपाधिनाशे नाशाच्च प्रतिबिम्बस्य।न चैकीभूतस्य पृथग्ज्ञाने मानं पश्यामः। आसं दुःखी नासमिति ज्ञानविरोधाच्चेश्वरस्य। अनेन रूपेणेति च भेदाभावात्। न च प्रतिबिम्बस्य बिम्बैक्यं लोके पश्यामः। उपाधिनाशे मानं वा।मग्नस्य हि परेऽज्ञाने इति दुःखात्मकत्वोक्तेश्च।यावदात्मभावित्वात्৷৷. ब्र.सू.2।3।30 इत्युपाधिनित्यताभिधानाच्च। अतोऽनन्यवचनं प्रतीयमानमप्यौपचारिकम्।दृष्टाश्च ते भगवतो भिन्ना नारदेन। प्रतिशाखं च स एकधा छां.उ.7।26।2 इत्यादिषु भेदेन प्रतीयन्ते। विरोधे तु युक्तिमतामेव बलंवत्त्वम्। युक्तयश्चात्रोक्ताःमग्नस्य हि इत्यादयः। अतो जले जलैकीभाववदेकीभावः। उक्तं च यथोदकं शुद्धे शुद्धं कठो.4।15 यथा नद्यः मुं.उ.3।2।8 इत्यादौ। तत्राप्यन्योन्यात्मत्वे वृद्ध्यसम्भवः। अस्ति चेषत्समुद्रेऽपि द्वारि। महत्त्वादन्यत्रादृष्टिः।ता एवापो ददौ तस्य च ऋषिः शंसितव्रतः इति महाकौर्मे। समर्थानां भेदज्ञानाच्च।नैव तत्प्राप्नुवन्त्येते ब्रह्मेशानादयः सुराः। यत्ते पदं ते कैवल्यम् इति निषेधाच्च नारदीये। सविचारश्च निर्णयः कृतो मोक्षवर्मेषु। बलवांश्च सविचारो निर्णयो वाक्यमात्रात्।अतो यत्र नान्यत्पश्यति छां.7।24।1 इत्याद्यपि तदधीनसत्तादिवाचि। अन्यथा कथमैश्वर्यादि स्यात्। न च तन्मायामयमित्युक्तम्। अन्यथा कथं तत्रैव स एकधा इत्यादि ब्रूयात्। न चन ह वै सशरीरस्य छां.उ.8।12।1 इत्यादिविरोधः। वैलक्षण्यात्तच्छरीराणाम्। अभौतिकानि हि तानि नित्योपाधिविनिर्मितानि ईश्वरशक्त्या। तथा चोक्तम्शरीरं जायते तेषां षोडश्या कलयैव हि इति नारायणरामकल्पे। वदन्ति च लौकिकाद्वैलक्षण्येऽभावशब्दंअप्रहर्षमनानन्दंसुखदुःखबाह्यः इत्यादिषु। निरुक्त्यभावाच्च न तानि शरीराणि। तथा हि श्रुतिः अशारीति्ँहितच्छरीरमभवत्। नहि तानि शीर्णानि भवन्तिसर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथयन्ति च 14।2 इति वचनात्। साम्यात्प्रयोगः। प्रयोगाच्चअनिन्द्रिया अनाहारा अनिष्पन्दाः सुगन्धिनः।म.भा.12।337।29देहेन्द्रियासुहीनानां वैकुण्ठपुरवासिनाम् भाग.7।1।34 इत्यादिदृष्टदेहेष्वेव। न चैषाऽन्या गौणी मुक्तिःबहुनाऽत्र किमुक्तेन यावच्छ्वेतं न गच्छति। योगी तावन्न मुक्तः स्यादेष शास्त्रस्य निर्णयः इत्यादित्यपुराणे तदन्यमुक्तिनिषेधात्। ये त्वत्रैव भगवन्तं विशन्ति तेऽपि पश्चात्तत्रैव यान्ति। योग्यत्वं चात्र विवक्षितम्। युधिष्ठिरप्रश्ने इतरनिन्दनाच्च। सायुज्यं य ग्रहवत्। तदुक्तेश्चभुञ्जते पुरुषं प्राप्य यथा देवग्रहादयः। तथा मुक्तावुत्तमायां बाह्यान्भोगांस्तु भुञ्जते इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। अतोऽनिष्टस्यैव वियोगः सोऽस्त्येव सर्वात्मना।अदुःखम्सर्वदुःखविवर्जिताः अशोकमहिम्। बृ.उ.5।10यत्र गत्वा न शोचन्ति इत्यादिभ्यः विशेषवचनाभावाच्च।येषां त्वीषद्दृश्यते न सायुज्यं प्राप्ताः। सामीप्याद्येव तेषाम्। अतः प्रारब्धकर्मशेषभावात्। तद्भुक्त्वा सायुज्यं गच्छन्ति। तच्चोक्तम्सङ्कर्षणादयः सर्वे स्वाधिकारादनन्तरम्। प्रविशन्ति परं देवं विष्णुं नास्त्यत्र संशयः इति व्यासयोगे। अतोऽनिष्टस्य सर्वात्मना वियोगः।परब्रह्मत्वमिच्छामि परब्रह्मञ्जनार्दन इत्यादिना ब्रह्मादिभिरपि प्रार्थितत्वात्।न मोक्षसदृशं किञ्चिदधिकं वा सुखं क्वचित्। ऋते वैष्णवमानन्दं वाङ्मनोगोचरं महत् इत्यादेश्च। ब्रह्मादिपदादप्यधिकतमं सुखं मोक्षं इति सिद्धम्। अतो योगाय युज्यस्व। ज्ञानोपायाय। तद्धि कर्मकौशलम्।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
বুদ্ধিযুক্তো জহাতীহ উভে সুকৃতদুষ্কৃতে৷ তস্মাদ্যোগায যুজ্যস্ব যোগঃ কর্মসু কৌশলম্৷৷2.50৷৷
বুদ্ধিযুক্তো জহাতীহ উভে সুকৃতদুষ্কৃতে৷ তস্মাদ্যোগায যুজ্যস্ব যোগঃ কর্মসু কৌশলম্৷৷2.50৷৷
બુદ્ધિયુક્તો જહાતીહ ઉભે સુકૃતદુષ્કૃતે। તસ્માદ્યોગાય યુજ્યસ્વ યોગઃ કર્મસુ કૌશલમ્।।2.50।।
ਬੁਦ੍ਧਿਯੁਕ੍ਤੋ ਜਹਾਤੀਹ ਉਭੇ ਸੁਕਰਿਤਦੁਸ਼੍ਕਰਿਤੇ। ਤਸ੍ਮਾਦ੍ਯੋਗਾਯ ਯੁਜ੍ਯਸ੍ਵ ਯੋਗ ਕਰ੍ਮਸੁ ਕੌਸ਼ਲਮ੍।।2.50।।
ಬುದ್ಧಿಯುಕ್ತೋ ಜಹಾತೀಹ ಉಭೇ ಸುಕೃತದುಷ್ಕೃತೇ. ತಸ್ಮಾದ್ಯೋಗಾಯ ಯುಜ್ಯಸ್ವ ಯೋಗಃ ಕರ್ಮಸು ಕೌಶಲಮ್৷৷2.50৷৷
ബുദ്ധിയുക്തോ ജഹാതീഹ ഉഭേ സുകൃതദുഷ്കൃതേ. തസ്മാദ്യോഗായ യുജ്യസ്വ യോഗഃ കര്മസു കൌശലമ്৷৷2.50৷৷
ବୁଦ୍ଧିଯୁକ୍ତୋ ଜହାତୀହ ଉଭେ ସୁକୃତଦୁଷ୍କୃତେ| ତସ୍ମାଦ୍ଯୋଗାଯ ଯୁଜ୍ଯସ୍ବ ଯୋଗଃ କର୍ମସୁ କୌଶଲମ୍||2.50||
buddhiyuktō jahātīha ubhē sukṛtaduṣkṛtē. tasmādyōgāya yujyasva yōgaḥ karmasu kauśalam৷৷2.50৷৷
புத்தியுக்தோ ஜஹாதீஹ உபே ஸுகரிததுஷ்கரிதே. தஸ்மாத்யோகாய யுஜ்யஸ்வ யோகஃ கர்மஸு கௌஷலம்৷৷2.50৷৷
బుద్ధియుక్తో జహాతీహ ఉభే సుకృతదుష్కృతే. తస్మాద్యోగాయ యుజ్యస్వ యోగః కర్మసు కౌశలమ్৷৷2.50৷৷
2.51
2
51
।।2.51।। समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं।
।।2.51।। बुद्धियोग युक्त मनीषी लोग कर्मजन्य फलों को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हुये अनामय अर्थात् निर्दोष पद को प्राप्त होते हैं।।
।।2.51।। योगयुक्त बनने के उपदेश को सुनकर अर्जुन के मन में प्रश्न उठा कि आखिर समभाव से उसको कर्म क्यों करने चाहिये। भगवान् इस प्रश्न का कुछ पूर्वानुमान कर इस श्लोक में उसका उत्तर देते हैं। बुद्धियुक्त मनीषी का अर्थ है वह पुरुष जो जीने की कला को जानता हुआ फल की चिन्ताओं से मुक्त होकर मन के पूर्ण सन्तुलन को बनाये हुये सभी कर्म करता है। दूसरे शब्दों में अहंकार और स्वार्थ से रहित व्यक्ति ही मनीषी कहलाता है।मन के साथ तादात्म्य से अहंकार उत्पन्न होता है और वह फलासक्ति के कारण बन्धनों में फँस जाता है। जीवन में उच्च लक्ष्य को रखने पर ही अहंकार और स्वार्थ का त्याग संभव है।
2.51।। व्याख्या-- 'कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः'-- जो समतासे युक्त हैं, वे ही वास्तवमें मनीषी अर्थात् बुद्धिमान् हैं। अठारहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भी कहा है कि जो मनुष्य अकुशल कर्मोंसे द्वेष नहीं करता और कुशल कर्मोंमें राग नहीं करता, वह मेधावी (बुद्धिमान्) है। कर्म तो फलके रूपमें परिणत होता ही है। उसके फलका त्याग कोई कर ही नहीं सकता। जैसे, कोई खेतीमें निष्कामभावसे बीज बोये, तो क्य खेतीमें अनाज नहीं होगा ?बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्मका फल तो मिलेगा ही। अतः यहाँ कर्मजन्य फलका त्याग करनेका अर्थ है --कर्मजन्य फलकी इच्छा, कामना, ममता, वासनाका त्याग करना। इसका त्याग करनेमें सभी समर्थ हैं।  'जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः'-- समतायुक्त मनीषी साधक जन्मरूप बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। कारण कि समतामें स्थित हो जानेसे उनमें राग-द्वेष कामना, वासना, ममता आदि दोष किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहते, अतः उनके पुनर्जन्मका कारण ही नहीं रहता। वे जन्म-मरणरूप बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाते हैं।  'पदं गच्छन्त्यनामयम्'-- 'आमय' नाम रोगका है। रोग एक विकार है। जिसमें किञ्चिन्मात्र भी किसी प्रकारका विकार न हो, उसको 'अनामय' अर्थात् निर्विकार कहते हैं। समतायुक्त मनीषीलोग ऐसे निर्विकार पदको प्राप्त हो जाते हैं। इसी निर्विकार पदको पन्द्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'अव्यय पद' और अठारहवें अध्यायके छप्पनवें श्लोकमें 'शाश्वत अव्यय पद' नामसे कहा गया है। यद्यपि गीतामें सत्त्वगुणको भी अनामय कहा गया है, (14। 6) पर वास्तवमें अनामय (निर्विकार) तो अपना स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व ही है; क्योंकि वह गुणातीत तत्त्व है, जिसको प्राप्त होकर फिर किसीको भी जन्म-मरणके चक्करमें नहीं आना पड़ता। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें हेतु होनेसे भगवान्ने सत्त्वगुणको भी अनामय कह दिया है। अनामय पदको प्राप्त होना क्या है? प्रकृति विकारशील है, तो उसका कार्य शरीर-संसार भी विकारशील हैं। स्वयं निर्विकार होते हुए भी जब यह विकारी शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह अपनेको भी विकारी मान लेता है। परन्तु जब यह शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग कर देता है, तब इसको अपने सहज निर्विकार स्वरूपका अनुभव हो जाता है। इस स्वाभाविक निर्विकारताका अनुभव होनेको ही यहाँ अनामय पदको प्राप्त होना कहा गया है। इस श्लोकमें  'बुद्धियुक्ताः'  और  'मनीषिणः'  पदमें बहुवचन देनेका तात्पर्य है कि जो भी समतामें स्थित हो जाते हैं, वे सब-के-सब अनामय पदको प्राप्त हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं। उनमेंसे कोई भी बाकी नहीं रहता। इस तरह समता अनामय पदकी प्राप्तिका अचूक उपाय है। इससे यह नियम सिद्ध होता है कि जब उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंके साथ सम्बन्ध नहीं रहता, तब स्वतः सिद्ध निर्विकारताका अनुभव हो जाता है। इसके लिये कुछ भी परिश्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि उस निर्विकारताका निर्माण नहीं करना पड़ता, वह तो स्वतः-स्वाभाविक ही है।
।।2.51।।दूरेण हीति। बुद्धियोगात्किल हेतोः अवरं दुष्टफलयुक्तं (K omits युक्तं) रिक्तं ( omits रिक्तं) कर्म दूरीभवति। अतस्तादृश्यां बुद्धौ शरणमन्विच्छ प्रार्थयस्व येन सा बुद्धिः लभ्यते।
।।2.51।।बुद्धियोगयुक्ताः  कर्मजं फलं त्यक्त्वा  कर्म कुर्वन्तः तस्माद्  जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः अनामयं पदं गच्छन्ति।  हि प्रसिद्धम् एतत् सर्वासु उपनिषत्सु इत्यर्थः।
।।2.51।।समत्वबुद्धियुक्तस्य सुकृतदुष्कृततत्फलपरित्यागेऽपि कथं मोक्षः स्यादित्याशङ्क्याह  यस्मादिति।  समत्वबुद्ध्या यस्मात्कर्मानुष्ठीयमानं दुरितादि त्याजयति तस्मात्परम्परयासौ मुक्तिहेतुरित्यर्थः। मनीषिणो हि ज्ञानातिशयवन्तो बुद्धियुक्ताः सन्तः स्वधर्माख्यं कर्मानुतिष्ठन्तस्ततो जातं फलं देहप्रभेदं हित्वा जन्मलक्षणाद्बन्धाद्विनिर्मुक्ता वैष्णवं पदं सर्वसंसारसंस्पर्शशून्यं प्राप्नुवन्तीति श्लोकोक्तमर्थं श्लोकयोजनया दर्शयति  कर्मजमित्यादिना।  इष्टो देहो देवादिलक्षणोऽनिष्टो देहस्तिर्यगादिलक्षणस्तत्प्राप्तिरेव कर्मणो जातं फलं तद्यथोक्तबुद्धियुक्ता ज्ञानिनो भूत्वा तद्बलादेव परित्यज्य बन्धविनिर्मोकपूर्वकं जीवन्मुक्ताः सन्तो विदेहकैवल्यभाजो भवन्तीत्यर्थः। बुद्धियोगादित्यादौ बुद्धिशब्दस्य समत्वबुद्धिरर्थो व्याख्यातः संप्रति परम्परां परिहृत्य सुकृतदुष्कृतप्रहाणहेतुत्वस्य समत्वबुद्धावसिद्धेर्बुद्धिशब्दस्य योग्यमर्थान्तरं कथयति  अथवेति।  अनवच्छिन्नवस्तुगोचरत्वेनानवच्छिन्नत्वं तस्याः सूचयन्बुद्ध्यन्तराद्विशेषं दर्शयति सर्वत इति। असाधारणं निमित्तं तस्या निर्दिशति  कर्मेति।  यथोक्तबुद्धेर्बुद्धिशब्दार्थत्वे हेतुमाह  साक्षादिति।  जन्मबन्धविनिर्मोकादिरादिशब्दार्थः।
।।2.51।।एवं योगेन व्यवसायिनां सिद्धिप्रकारं सदाचारेण दर्शयति कर्मजमिति। फलं त्यक्त्वा जन्मैव बन्धरूपं तेन विनिर्मुक्ता अनामयं पदं धाम अक्षराख्यं स्वरूपं गच्छन्ति।
।।2.51।।ननु दुष्कृतहानमपेक्षितं नतु सुकृतहानं पुरुषार्थभ्रंशापत्तेरित्याशङ्क्य तुच्छफलत्यागेन परमपुरुषार्थप्राप्तिं फलमाह समत्वबुद्धियुक्ता हि यस्मात्कर्मजं फलं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनार्थं कर्माणि कुर्वाणाः सत्त्वशुद्धिद्वारेण मनीषिणस्तत्त्वमस्यादिवाक्यजन्यात्ममनीषावन्तो भवन्ति तादृशाश्च सन्तो जन्मात्मकेन बन्धेन विनिर्मुक्ताः विशेषेणात्यन्तिकत्वलक्षणेन निरवशेषं मुक्ताः पदं पदनीयमात्मतत्त्वमानन्दरूपं ब्रह्म अनामयमविद्यातत्कार्यात्मकरोगरहितमभयं मोक्षाख्यं पुरुषार्थं गच्छन्ति। अभेदेन प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। यस्मादेवं फलकामनां त्यक्त्वा समत्वबुद्ध्या कर्माण्यनुतिष्ठन्तस्तैः कृतान्तःकरणशुद्धयस्तत्त्वमस्यादिप्रमाणोत्पन्नात्मतत्त्वज्ञानविनष्टाज्ञानतत्कार्याः सन्तः सकलानर्थनिवृत्तिपरमानन्दप्राप्तिरूपं मोक्षाख्यं विष्णोः परमं पदं गच्छन्ति तस्मात्त्वमपियच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे इत्युक्तेः श्रेयोजिज्ञासुरेवंविधं कर्मयोगमनुतिष्ठेति भगवतोऽभिप्रायः।
।।2.51।।कर्मणां मोक्षसाधनत्वप्रकारमाह  कर्मेति।  कर्मजं फलं त्यक्त्वा केवलमीश्वराराधनार्थमेव कर्म कुर्वाणा मनीषिणो ज्ञानिनो भूत्वा जन्मरूपेण बन्धेन विनिर्मुक्ताः सन्तोऽनामयं सर्वोपद्रवरहितं विष्णोः पदं मोक्षाख्यं गच्छन्ति।
null
।।2.51।।ननु कर्मणां स्वतन्त्रफलकत्वं भक्तेः कथं साधनता इत्याशङ्क्याह कर्मजमिति। मनीषिणः शास्त्रार्थज्ञातारः। बुद्धियुक्ता बुद्धिर्युक्ता येषां तादृशत्वं च भक्तिप्रयत्नवत्त्वेन ते हि निश्चयेन कर्मजं फलं त्यक्त्वा जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः सन्तोऽनामयं पदं भक्तिरूपं गच्छन्तीत्यर्थः। अन्यत्र रोगादिकं भवति न तु भक्तौ भगवच्चरणरूपायाम्। अत एव श्रीभागवते 10।3।27 मृत्युभयाभावत्वं भगवच्चरणे निरूपितम्।मर्त्यःइत्यारभ्यमृत्युरस्मादपैति इत्यन्तेन श्लोकेन देवकीस्तुतौ।
।।2.51।।एतदेवाह  कर्मजमिति।  बुद्धियुक्ताः समत्वबुद्धियुक्ताः। क्रियमाणकर्मजं फलं त्यक्त्वा मनीषिणो मनोनिग्रहसमर्था भूत्वा जन्मरूपेण बन्धेन मुक्ताः सन्तोऽनामयं निरुपद्रवं पदं मोक्षाख्यं गच्छन्ति।
।।2.51।।   पुण्यपापत्यागमात्रस्य फलत्वाभावमाशङ्क्याह  कर्मजमिति।  कर्मजं फलमिष्टानिष्टदेहप्राप्तिलक्षणं त्यक्त्वा हि यस्मात्समत्वबुद्धियुक्ता मनीषिणो ज्ञानिनो भूत्वा जन्मैव बन्धस्तेन विनिर्मुक्ताः सर्वोपद्रवरहितं विष्णोः परमं मोक्षाख्यं पदं गच्छन्ति। जीवन्त एव स्वस्वरुपेण जानन्तीत्यर्थः। कर्मजं फलं त्यक्त्वा सांख्यबुद्धियुक्ताः शुद्धैकाग्रमनस इति वा।
2.51 कर्मजम् actionborn? बुद्धियुक्ताः possessed of knowledsge? हि indeed? फलम् the fruit? त्यक्त्वा having abandoned? मनीषिणः the wise? जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः freed from the fetters of birth? पदम् the abode? गच्छन्ति go? अनामयम् beyond evil.Commentary Clinging to the fruits of actions is the cause of rirth. Man takes a body to enjoy them. If anyone performs actions for the sake of God in fulfilment of His purpose without desire for the fruits? he is released from the bonds of birth and attains to the blissful state or the immortal abode.Sages who possess evenness of mind abandon the fruits of their actions and thus escape from good and bad actions.Buddhi referred to in the three verses 49? 50 and 51 may be the wisdom of the Sankhyas? i.e.? the knowledge of the Self or AtmaJnana which dawns when the mind is purified by Karma Yoga.
2.51 The wise, possessed of knowledge, having abandoned the fruits of their actions, and being freed from the fetters of birth, go to the place which is beyond all evil.
2.51 The sages guided by Pure Intellect renounce the fruit of action; and, freed from the chains of rebirth, they reach the highest bliss.
2.51 Because, those who are devoted to wisdom, (they) becoming men of Enlightenment by giving up the fruits produced by actions, reach the state beyond evils by having become freed from the bondage of birth.
2.51 The words 'phalam tyaktva, by giving up the fruits' are connected with the remote word 'karmajam, produced by actions'. Hi, because; [Because, when actions are performed with an attitude of eanimity, it leads to becoming freed from sin etc. Therefore, by stages, it becomes the cause of Liberation as well.] buddhi-yuktah, those who are devoted to wisdom, who are imbued with the wisdom of eanimity; (they) becoming manisinah, men of Enlightenment; tyaktva, by giving up; phalam, the fruit, the acisition of desirable and undesriable bodies; [Desirable: the bodies of gods and others; undesirable: the bodies of animals etc.] karmajam, produced by actions; gacchanti, reach; padam, the state, the supreme state of Visnu, called Liberation; anamayam, beyond evils, i.e. beyond all evils; by having become janma-bandha-vinirmuktah, freed from the bondage of birth birth (janma) itself is a bondage (bandha); becoming freed from that , even while living. Or: Since it (buddhi) has been mentioned as the direct cause of the elimination of righteousness and unrighteousness, and so on, therefore what has been presented (in the three verses) beginning with, 'O Dhananjaya,৷৷.to the yoga of wisdom' (49), is enlightenment itself, which consists in the realization of the supreme Goal, which is comparable to a flood all around, and which arises from the purification of the mind as a result of Karma-yoga. [In the first portion of the Commentary buddhi has been taken to mean samattva buddhi (wisdom of eanimity); the alternative meaning of buddhi has been taken as 'enlightenment'. So, action is to be performed by taking the help of the 'wisdom about the supreme Reality' which has been chosen as one's Goal.]
2.51. By renouncing the fruit, born of action, the intelligent ones endowed with determining faculty and freed from the bond of birth, go to the place that is devoid of illness.
2.51 Karmajam etc. The persons who are endowed with the determining faculty with regard to the Yoga, renounce the birth-bondage, by renouncing the fruit of actions; and they attain the Brahman-existence.
2.51 Those who possess this evenness of mind while performing actions and relinish their fruits, are freed from the bondage of rirth, and go to the region beyond all ills. 'Hi' means that this dictum or teaching is well known in all the Upanisads.
2.51 The wise who possess evenness of mind, relinishing the fruits born of action, are freed from the bondage of birth, and go to the region beyond all ills.
।।2.51।।क्योंकि कर्मजम् इस पदका फलं त्यक्त्वा इस अगले पदसे सम्बन्ध है। कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली जो इष्टानिष्टदेहप्राप्ति है वही कर्मज फल कहलाता है समत्वबुद्धियुक्त पुरुष उस कर्मफलको छोड़कर मनीषी अर्थात् ज्ञानी होकर जीवित अवस्थामें ही जन्मबन्धनसे निर्मुक्त होकर अर्थात् जन्म नामके बन्धनसे छूटकर विष्णुके मोक्ष नामक अनामय सर्वोपद्रवरहित परमपदको पा लेते हैं। अथवा ( यों समझो कि ) बुद्धियोगाद्धनंजय इस श्लोकसे लेकर ( यहाँतक बुद्धि शब्दसे ) कर्मयोगजनित सत्त्वशुद्धिसे उत्पन्न हुई जो सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीय परमार्थज्ञानरूपा बुद्धि है वही दिखलायी गयी है क्योंकि ( यहाँ ) यह बुद्धि पुण्यपापके नाशमें साक्षात् हेतुरूपसे वर्णित है।
।।2.51।।  कर्मजं  फलं त्यक्त्वा इति व्यवहितेन संबन्धः। इष्टानिष्टदेहप्राप्तिः कर्मजं फलं कर्मभ्यो जातं  बुद्धियुक्ताः  समत्वबुद्धियुक्ताः सन्तः  हि  यस्मात्  फलं त्यक्त्वा  परित्यज्य  मनीषिणः  ज्ञानिनो भूत्वा  जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः  जन्मैव बन्धः जन्मबन्धः तेन विनिर्मुक्ताः जीवन्त एव जन्मबन्धात् विनिर्मुक्ताः सन्तः  पदं  परमं विष्णोः मोक्षाख्यं  गच्छन्ति   अनामयं  सर्वोपद्रवरहितमित्यर्थः। अथवा बुद्धियोगाद्धनञ्जय इत्यारभ्य परमार्थदर्शनलक्षणैव सर्वतःसंप्लुतोदकस्थानीया कर्मयोगजसत्त्वशुद्धिजनिता बुद्धिर्दर्शिता साक्षात्सुकृतदुष्कृतप्रहाणादिहेतुत्वश्रवणात्।।योगानुष्ठानजनितसत्त्वशुद्धजा बुद्धिः कदा प्राप्स्यते इत्युच्यते
।।2.51।।ननु कर्मजमिति श्लोकः पूर्वोक्तान्न विशिष्यत इत्यत आह  तदि ति। तस्य ज्ञानस्य उपायं योगं तज्ज्ञानमुपायो यस्य तं मोक्षं चाह विवृणोतीत्यर्थः। व्यवहितत्वादन्वयमाह कर्मजं फलं त्यक्त्वा। अप्राप्तस्य फलस्य कथं त्याग इत्यतो व्याचष्टे  अकामनये ति। प्रकृत्यादिभ्य उपसङ्ख्यानात्तृतीया। एतत्प्रागुक्तमित्यतः प्रकारान्तरेण व्याचष्टे  ईश्वराये ति।बुद्धियुक्ता मनीषिणः इति पौनरुक्त्यपरिहारायाऽऽह  बुद्धी ति। सम्यग्ज्ञानिन इतिशास्त्रजनिततत्त्वज्ञानिनः। अनेनमनीषिणः इत्यपरोक्षज्ञानिन इति सूचितम् प्रशंसायां मत्वर्थीयविधानात्। नन्विदमेकं वाक्यं कथं वाक्यार्थद्वयस्य विवरणम् मोक्षस्वरूपविवरणेऽपि योगो न सम्यक् विवृतः अङ्गिनः कर्मण एवानभिधानात् अङ्गानां च सङ्कल्पत्यागादीनामित्यत आह  स  इति। समस्ताङ्गसङ्ग्रहाय योगग्रहणम्। तज्ज्ञानं यद्यपि योजनावशादिदमेकं वाक्यं तथाप्यर्थद्वयवशाद्द्वे वेदितव्ये। योगश्चकर्मजं फलं त्यक्त्वा इत्यनेन समग्रो लक्षित इति भावः।
।।2.51।।   तदुपायमाह कर्मजमिति। कर्मजं फलं त्यक्त्वाऽकामनयेश्वराय समर्प्य बुद्धियुक्ताः। सम्यग्ज्ञानिनो भूत्वा पदं गच्छन्ति। स योगः कर्म ज्ञानसाधनम्। तन्मोक्षसाधनमिति भावः।
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः। जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।2.51।।
কর্মজং বুদ্ধিযুক্তা হি ফলং ত্যক্ত্বা মনীষিণঃ৷ জন্মবন্ধবিনির্মুক্তাঃ পদং গচ্ছন্ত্যনামযম্৷৷2.51৷৷
কর্মজং বুদ্ধিযুক্তা হি ফলং ত্যক্ত্বা মনীষিণঃ৷ জন্মবন্ধবিনির্মুক্তাঃ পদং গচ্ছন্ত্যনামযম্৷৷2.51৷৷
કર્મજં બુદ્ધિયુક્તા હિ ફલં ત્યક્ત્વા મનીષિણઃ। જન્મબન્ધવિનિર્મુક્તાઃ પદં ગચ્છન્ત્યનામયમ્।।2.51।।
ਕਰ੍ਮਜਂ ਬੁਦ੍ਧਿਯੁਕ੍ਤਾ ਹਿ ਫਲਂ ਤ੍ਯਕ੍ਤ੍ਵਾ ਮਨੀਸ਼ਿਣ। ਜਨ੍ਮਬਨ੍ਧਵਿਨਿਰ੍ਮੁਕ੍ਤਾ ਪਦਂ ਗਚ੍ਛਨ੍ਤ੍ਯਨਾਮਯਮ੍।।2.51।।
ಕರ್ಮಜಂ ಬುದ್ಧಿಯುಕ್ತಾ ಹಿ ಫಲಂ ತ್ಯಕ್ತ್ವಾ ಮನೀಷಿಣಃ. ಜನ್ಮಬನ್ಧವಿನಿರ್ಮುಕ್ತಾಃ ಪದಂ ಗಚ್ಛನ್ತ್ಯನಾಮಯಮ್৷৷2.51৷৷
കര്മജം ബുദ്ധിയുക്താ ഹി ഫലം ത്യക്ത്വാ മനീഷിണഃ. ജന്മബന്ധവിനിര്മുക്താഃ പദം ഗച്ഛന്ത്യനാമയമ്৷৷2.51৷৷
କର୍ମଜଂ ବୁଦ୍ଧିଯୁକ୍ତା ହି ଫଲଂ ତ୍ଯକ୍ତ୍ବା ମନୀଷିଣଃ| ଜନ୍ମବନ୍ଧବିନିର୍ମୁକ୍ତାଃ ପଦଂ ଗଚ୍ଛନ୍ତ୍ଯନାମଯମ୍||2.51||
karmajaṅ buddhiyuktā hi phalaṅ tyaktvā manīṣiṇaḥ. janmabandhavinirmuktāḥ padaṅ gacchantyanāmayam৷৷2.51৷৷
கர்மஜஂ புத்தியுக்தா ஹி பலஂ த்யக்த்வா மநீஷிணஃ. ஜந்மபந்தவிநிர்முக்தாஃ பதஂ கச்சந்த்யநாமயம்৷৷2.51৷৷
కర్మజం బుద్ధియుక్తా హి ఫలం త్యక్త్వా మనీషిణః. జన్మబన్ధవినిర్ముక్తాః పదం గచ్ఛన్త్యనామయమ్৷৷2.51৷৷
2.52
2
52
।।2.52।। जिस समय तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, उसी समय तू सुने हुए और सुननेमें आनेवाले भोगोंसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा।
।।2.52।। जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो सुनने योग्य और सुनी हुई हैं।।
।।2.52।। मोह निवृत्ति होने पर वैराग्य प्राप्ति का आश्वासन यहाँ अर्जुन को दिया गया है। श्रोतव्य शब्द से तात्पर्य उन सभी विषयोपभोगों से है जिनका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया गया है तथा श्रुत शब्द से सभी ज्ञान अनुभव सूचित किये गये हैं। यह स्वाभाविक है कि बुद्धि के शुद्ध होने पर विषयोपभोग में कोई राग नहीं रह जाता।स्वरूप से दिव्य होते हुये भी चैतन्य आत्मा मोहावरण में फँसी हुई प्रतीत होती है। इस मोह का कारण है एक अनिर्वचनीय शक्ति माया। अव्यक्त विद्युत के समान माया भी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होती परन्तु विभिन्न रूपों में उसकी अभिव्यक्ति से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है।सभी जीवों की संरचना में माया के कार्य के निरीक्षण एवं अध्ययन से वेदान्त के आचार्यों ने यह पाया कि मनुष्य के व्यक्तित्व के दो स्तरों पर माया की अभिव्यक्ति दो प्रकार से होती है। बुद्धि पर आत्मस्वरूप के अज्ञान के रूप में पड़े इस आवरण को वेदान्त में माया की आवरण शक्ति कहा गया है। बुद्धि पर पड़े इस अज्ञान आवरण के कारण मन अनात्म जगत् की कल्पना करता है और उस जगत् के विषय में उसकी दो धारणायें दृढ़ होती हैं कि (क) यह सत्य है और (ख) यह अनात्मा (देह आदि) ही में हूँ। मन के स्तर पर कार्य करने वाली माया की यह शक्ति विक्षेप शक्ति कहलाती है।इस श्लोक में कहा गया है कि कर्मयोग की भावना से कर्म करते रहने पर बुद्धि की शुद्धि होती है और तब उसके लिये सम्भव होता है कि आवरण को हटाकर आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर सके। इस प्रकार मोह निवृति का परिणाम है विषयोपभोग से वैराग्य परन्तु आत्मअज्ञान के होने पर मनुष्य विषयों से ही सुख पाने की आशा में दिनरात परिश्रम करता रहता है।शीत ऋतु में बादलों से सूर्य के आच्छादित होने पर मनुष्य अग्नि जलाकर उसके समीप बैठता है किन्तु धीरेधीरे बादलों के हट जाने पर सूर्य की उष्णता का अनुभव कर वह अग्नि के पास से उठकर धूप का आनन्द लेता है। वैसे ही आनन्दस्वरूप के अज्ञान के कारण विषयों को पाने के लिये चल रही मनुष्य की भागदौड़ स्वत समाप्त हो जाती है जब वह स्वस्वरूप को पहचान लेता है।यहाँ सम्पूर्ण जगत् का निर्देश श्रुत और श्रोतव्य इन दो शब्दों से किया गया है। इसमें सभी इन्द्रियों द्वारा ज्ञात होने वाले विषय समाविष्ट हैं। कर्मयोगी की बुद्धि न तो पूर्वानुभूत विषय सुखों का स्मरण करती है और न ही भविष्य में प्राप्त होनेवाले अनुभवों की आशा।भाष्यकार भगवान् शंकराचार्य अगले श्लोक की संगति बताते हैं कि यदि तुम्हारा प्रश्न हो कि मोहावरण भेदकर और विवेकजनित आत्मज्ञान को प्राप्त कर कर्मयोग के फल परमार्थयोग को तुम कब पाओगे तो सुनो
2.52।। व्याख्या-- 'यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति'-- शरीरमें अहंता और ममता करना तथा शरीर-सम्बन्धी माता-पिता, भाई-भौजाई, स्त्री-पुत्र, वस्तु, पदार्थ आदिमें ममता करना 'मोह' है। कारण कि इन शरीरादिमें अहंता-ममता है नहीं, केवल अपनी मानी हुई है। अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर प्रसन्न होना और प्रतिकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति आदिके प्राप्त होनेपर उद्विग्न होना, संसारमें--परिवारमें विषमता, पक्षपात, मात्सर्य आदि विकार होना--यह सब-का-सब 'कलिल' अर्थात् दलदल है। इस मोहरूपी दलदलमें जब बुद्धि फँस जाती है, तब मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। फिर उसे कुछ सूझता नहीं। यह स्वयं चेतन होता हुआ भी शरीरादि जड पदार्थोंमें अहंता-ममता करके उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। पर वास्तवमें यह जिन-जिन चीजोंके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वे चीजें इसके साथ सदा नहीं रह सकतीं और यह भी उनके साथ सदा नहीं रह सकता। परन्तु मोहके कारण इसकी इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती, प्रत्युत यह अनेक प्रकारके नये-नये सम्बन्ध जोड़कर संसारमें अधिक-से-अधिक फँसता चला जाता है। जैसे कोई राहगीर अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँचनेसे पहले ही रास्तेमें अपने डेरा लगाकर खेल-कूद, हँसी-दिल्लगी आदिमें अपना समय बिता दे, ऐसे ही मनुष्य यहाँके नाशवान् पदार्थोंका संग्रह करनेमें और उनसे सुख लेनेमें तथा व्यक्ति, परिवार आदिमें ममता करके उनसे सुख लेनेमें लग गया। यही इसकी बुद्धिका मोहरूपी कलिलमें फँसना है। हमें शरीरमें अहंता-ममता करके तथा परिवारमें ममता करके यहाँ थोड़े ही बैठे रहना है? इनमें ही फँसे रहकर अपनी वास्तविक उन्नति-(कल्याण-) से वञ्चित थोड़े ही रहना है? हमें तो इनमें न फँसकर अपना कल्याण करना है--ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाना ही बुद्धिका मोहरूपी दलदलसे तरना है। कारण कि ऐसा दृढ़ विचार होनेपर बुद्धि संसारके सम्बन्धोंको लेकर अटकेगी नहीं, संसारमें चिपकेगी नहीं। मोहरूपी कलिलसे तरनेके दो उपाय हैं--विवेक और सेवा। विवेक (जिसका वर्णन 2। 11 30 में हुआ है) तेज होता है, तो वह असत् विषयोंसे अरुचि करा देता है। मनमें दूसरोंकी सेवा करनेकी, दूसरोंको सुख पहुँचानेकी धुन लग जाय तो अपने सुख-आरामका त्याग करनेकी शक्ति आ जाती है। दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव जितना तेज होगा, उतना ही अपने सुखकी इच्छाका त्याग होगा। जैसे शिष्यकी गुरुके लिये, पुत्रकी माता-पिताके लिये, नौकरकी मालिकके लिये सुख पहुँचानेकी इच्छा हो जाती है, तो उनकी अपने सुख-आरामकी इच्छा स्वतः सुगमतासे मिट जाती है। ऐसे ही कर्मयोगीका संसारमात्रकी सेवा करनेका भाव हो जाता है, तो उसकी अपने सुख-भोगकी इच्छा स्वतः मिट जाती है। विवेक-विचारके द्वारा अपनी भोगेच्छाको मिटानेमें थोड़ी कठिनता पड़ती है। कारण कि अगर विवेक-विचार अत्यन्त दृढ़ न हो, तो वह तभीतक काम देता है, जबतक भोग सामने नहीं आते। जब भोग सामने आते हैं, तब साधक प्रायः उनको देखकर विचलित हो जाता है। परन्तु जिसमें सेवाभाव होता है, उसके सामने बढ़िया-से-बढ़िया भोग आनेपर भी वह उस भोगको दूसरोंकी सेवामें लगा देता है। अतः उसकी अपने सुखआरामकी इच्छा सुगमतासे मिट जाती है। इसलिये भगवान्ने सांख्य-योगकी अपेक्षा कर्मयोगको श्रेष्ठ (5। 2) सुगम (5। 3) एवं जल्दी सिद्धि देनेवाला (5। 6) बताया है।  'तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च'   मनुष्यने जितने भोगोंको सुन लिया है, भोग लिया है, अच्छी तरहसे अनुभव कर लिया है, वे सब भोग यहाँ  'श्रुतस्य'  पदके अन्तर्गत हैं। स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदिके जितने भोग सुने जा सकते हैं, वे सब भोग यहाँ  'श्रोतव्यस्य' (टिप्पणी प0 90)  पदके अन्तर्गत हैं। जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदलको तर जायगी, तब इन 'श्रुत' ऐहलौकिक और 'श्रोतव्य'--पारलौकिक भोगोंसे, विषयोंसे तुझे वैराग्य हो जायगा। तात्पर्य है कि जब बुद्धि मोहकलिलको तर जाती है, तब बुद्धिमें तेजीका विवेक जाग्रत् हो जाता है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है और मैं वही रहता हूँ; अतः इस संसारसे मेरेको शान्ति कैसे मिल सकती है? मेरा अभाव कैसे मिट सकता है? तब  'श्रुत'  और  'श्रोतव्य'  जितने विषय हैं, उन सबसे स्वतः वैराग्य हो जाता है। यहाँ भगवान्को  'श्रुत'  के स्थानपर भुक्त और  'श्रोतव्य'  के स्थानपर भोक्तव्य कहना चाहिये था। परन्तु ऐसा न कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जो परोक्ष-अपरोक्ष विषयोंका आकर्षण होता है, वह सुननेसे ही होता है। अतः इनमें सुनना ही मुख्य है। संसारसे, विषयोंसे छूटनेके लिये जहाँ ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्गका वर्णन किया गया है, वहाँ भी 'श्रवण' को मुख्य बताया गया है। तात्पर्य है कि संसारमें और परमात्मामें लगनेमें सुनना ही मुख्य है। यहाँ  'यदा'  और  'तदा'  कहनेका तात्पर्य है कि इन  'श्रुत'  और  'श्रोतव्य'  विषयोंसे इतने वर्षोंमें, इतने महीनोंमें और इतने दिनोंमें वैराग्य होगा--ऐसा कोई नियम नहीं है, प्रत्युत जिस क्षण बुद्धि मोहकलिलको तर जायगी, उसी क्षण  'श्रुत'  और  'श्रोतव्य'  विषयोंसे भोगोंसे वैराग्य हो जायगा। इसमें कोई देरीका काम नहीं है।
।।2.52।।बुद्धियुक्त इति। उभे इति परस्परव्यभिचारं दर्शयति। तस्माद्योगायेति। यथा हि सुकृतदुष्कृते नश्यतः (N दुष्कृते न नश्यतः) तथाकरणमेव परमं कौशलमिति भावः।
।।2.52।।उक्तप्रकारेण कर्मणि वर्तमानस्य तया वृत्त्या निर्धूतकल्मषस्य  ते बुद्धिः यदा मोहकलिलम्  अत्यल्पफलसङ्गहेतुभूतं मोहरूपं कलुषं  व्यतितरिष्यति।  तदा अस्मत्त इतः पूर्वं त्याज्यतया श्रुतस्य फलादेः इतः पश्चात्  श्रोतव्यस्य  च कृते स्वयम् एव निर्वेदं गन्तासि गमिष्यसि।योगे त्विमां श्रृणु इत्यादिना उक्तस्य आत्मयाथात्म्यज्ञानपूर्वकस्य बुद्धिविशेषसंस्कृतकर्मानुष्ठानस्य लक्षणभूतं योगाख्यं फलम् आह
।।2.52।।यस्मिन्कर्मणि क्रियमाणे परमार्थदर्शनलक्षणा बुद्धिरुद्देश्यतया युज्यते तस्मात्कर्मणः सकाशादितरत्कर्म तथाविधोद्देश्यभूतबुद्धिसंबन्धविधुरमतिशयेन निष्कृष्यते ततश्च परमार्थबुद्धिमुद्देश्यत्वेनाश्रित्य कर्मानुष्ठातव्यं परिच्छिन्नफलान्तरमुद्दिश्य तदनुष्ठाने कार्पण्यप्रसङ्गात् किञ्च परमार्थबुद्धिमुद्देश्यमाश्रित्य कर्मानुतिष्ठतः करणशुद्धिद्वारा परमार्थदर्शनसिद्धौ जीवत्येव देहे सुकृतादि हित्वा मोक्षमधिगच्छति। तथाच परमार्थदर्शनलक्षणयोगार्थं मनो धारयितव्यं योगशब्दितं हि परमार्थदर्शनमुद्देश्यतया कर्मस्वनुतिष्ठतो नैपुण्यमिष्यते यदि च परमार्थदर्शनमुद्दिश्य तद्युताः सन्तः समारभेरन्कर्माणि तदा तदनुष्ठानजनितबुद्धिशुद्ध्या ज्ञानिनो भूत्वा कर्मजं फलं परित्यज्य निर्मुक्तबन्धना मुक्तिभाजो भवन्तीत्येवमस्मिन्पक्षे श्लोकत्रयाक्षराणि व्याख्यातव्यानि। यथोक्तबुद्धिप्राप्तिकालं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति  योगेति।  श्रुतं श्रोतव्यं दृष्टं द्रष्टव्यमित्यादौ फलाभिलाषप्रतिबन्धान्नोक्ता बुद्धिरुदेष्यतीत्याशङ्क्याह  यदेति।  विवेकपरिपाकावस्था कालशब्देनोच्यते। कालुष्यस्य दोषपर्यवसायित्वं दर्शयन्विशिनष्टि  येनेति।  तदनर्थरूपं कालुष्यं तवेत्यन्वयार्थं पुनर्वचनम्। बुद्धिशुद्धिफलस्य विवेकस्य प्राप्त्या वैराग्यप्राप्तिं दर्शयति  तदेति।  अध्यात्मशास्त्रातिरिक्तं शास्त्रं श्रोतव्यादिशब्देन गृह्यते। उक्तं वैराग्यमेव स्फोरयति  श्रोतव्यमिति।  यथोक्तविवेकसिद्धौ सर्वस्मिन्ननात्मविषये नैष्फल्यं प्रतिभातीत्यर्थः।
।।2.52 2.53।।कदा तत्पदमहं प्राप्स्यामि इत्यपेक्षायामाह यदेति द्वाभ्याम्। निश्चला विशोकधैर्यादिवती ते यदा बुद्धिर्व्यवसायात्मिकैव तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च त्रैगुण्यस्य कर्मफलस्य निर्वेदं वैराग्यं प्राप्स्यसि। तस्यात्रानुपादेयत्वेन जिज्ञासां न करिष्यसीत्यर्थः। तादृशी सती ते बुद्धिरचला यदा समाधीयते तदा योगं योगस्वरूपं यास्यसि ततश्च कार्यसिद्धिः।
।।2.52।।एवं कर्माण्यनुतिष्ठतः कदा मे सत्त्वशुद्धिः स्यादित्यत आह न ह्येतावता कालेन सत्त्वशुद्धिर्भवतीति कालनियमोऽस्ति किंतु यदा यस्मिन्काले ते तव बुद्धिरन्तःकरणं मोहकलिलं व्यतितरिष्यति अविवेकात्मकं कालुष्यं अहमिदं ममेदमित्याद्यज्ञानविलसितमतिगहनं व्यतिकमिष्यति। रजस्तमोमलमपहाय शुद्धभावमापत्स्यत इति यावत्। तदा तस्मिन्काले श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च कर्मफलस्य निर्वेदं वैतृष्ण्यं गन्तासि प्राप्तासि प्राप्नोषि।परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायात् इति श्रुतेः। निर्वेदेन फलेनान्तःकरणशुद्धिं ज्ञास्यसीत्यभिप्रायः।
।।2.52।।कदा तत्पदमहं प्राप्स्यामीत्यपेक्षायामाह  यदेति  द्वाभ्याम्। मोहो देहादिष्वात्मबुद्धि तदेव कलिलंकलिलं गहनं विदुः इत्यभिधानकोशस्मृतेः। ततश्चायमर्थः। एवं पमेश्वराराधने क्रियमाणे यदा तत्प्रसादेन तव बुद्धिर्देहाभिमानलक्षणं मोहमयं गहनं दुर्गं विशेषेणातितरिष्यति तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्यार्थस्य च निर्वेदं वैराग्यं गन्तासि प्राप्स्यसि। तयोरनुपादेयत्वेन जिज्ञासां न करिष्यसीत्यर्थः।
null
।।2.52।।ननु तत्प्राप्तिः कदा स्यात् इत्यत आह यदा त इति। ते बुद्धिर्यदा मोहकलिलं मोहगहनं लौकिकेषु देहादिषु विशेषेणाऽतितरिष्यति तदा निर्वेदं मोक्षं गमिष्यसि। श्रोतव्यस्य अग्रे प्रोच्यमानस्य शास्त्रतो वा श्रुतस्य च निर्वेदं तदैव गन्तासि। यद्वा च पुनः। श्रुतस्य पूर्वोक्तसाङ्ख्यादेः। यदा ते बुद्धिर्मोहकलिलं विशेषेण अतितरिष्यति तदा श्रोतव्यस्य भक्तिमार्गस्य निर्वेदं गन्तासि। अत्रायं भावः यावत्पर्यन्तं कर्मादिमार्गेषु मोहस्तावद्भक्तिमार्गफलं न भवति तस्यानन्यसाध्यत्वात्। अत एवाग्रे तथैवोपदेष्टव्यः। अधुनाऽधिकाराभावान्नोपदिश्यते अधिकारसम्पत्त्यर्थं च सूचितः।
।।2.52।।कदा मनीषिणो भवन्तीत्यत आह  यदेति।  ते तव मोहः इष्टानिष्टवियोगसंयोगजपरितापजन्यं वैचित्यं तदेव कलिलमिव कलिलं कालुष्यं बुद्धिगतं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति व्यतिक्रमिष्यति बुद्धिः प्रसन्ना भविष्यति तदा श्रोतव्यस्य शास्त्रभागस्य श्रुतस्य च निर्वेदं वैराग्यं गन्तासि। अयं भावः मलिनायां बुद्धावसकृद्गृहीतस्यापि शास्त्रार्थस्याफुरणाच्छ्रोतव्यं श्रुतं च वृथैव तद्वच्छुद्धायामपि बुद्धौ सद्यः शास्त्रार्थस्फुरणात्तयोर्वैयर्थ्यमित्युभयथापि तत्र निर्वेद उचितः। प्रसन्ना च बुद्धिर्निग्रहीतुं योग्या भवतीति श्रवणादिकं त्यक्त्वा ध्याननिष्ठ एव भवेदिति।
।।2.52 2.53।।   सांख्यं बुद्धिं सदा प्राप्स्यामि यदर्थं कर्मानुष्ठानं भवतोपदिश्यत इत्यत आह  यदेति।  यदा यस्यामवस्थायां तव बुद्धिर्मोहात्मकमविवेकरुपं कालुष्यं व्यतिक्रमिष्यति तदा तस्यामवस्थायां श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च वैराग्यं प्राप्तासि। पूर्वं श्रुतिभिरनेकसाध्यसाधनश्रवणैर्विप्रतिपन्ना विक्षिप्ता श्रुतश्रोतवययोर्निर्वेदं लब्ध्वा यदा समाधीयते चित्तमस्मिन्निति समाधिरात्मा तस्मिन्निश्चला विक्षेपरहिता स्थास्यति स्थिरीभूता भविष्यति तदा योगं सांख्ययोगमवाप्स्यसीति द्वयोरर्थः। यद्वा योगानुष्ठानजनितसत्त्वशुद्धिजा वैराग्यादीतरसाधनसहिता नित्यानित्यवस्तुविवेकरुपा ज्ञानाधिकारसंपादिका बुद्धिः कदा प्राप्यत इत्यत आह  यदेति।  यदा तव बुद्धिर्मोहात्मकमविवेकरुपं कालुष्यं चित्ताशुद्धिजं व्यतितरिष्यति तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च कर्मफलस्य निर्वेदं गन्तासि। चित्तशुद्धिद्वारा लब्धात्मविवेकबुद्धिः कर्मयोगजं फलं परमात्मयोगं कदाप्स्यसीति तच्छृणु  श्रुतीति।  प्राग्वद्य्वाख्यानद्वयमपि भाष्याल्लभ्यत इति बोधम।
2.52 यदा when? ते thy? मोहकलिलम् mire of delusion? बुद्धिः intellect? व्यतितरिष्यति crosses beyond? तदा then? गन्तासि thou shalt attain? निर्वेदम् to indifference? श्रोतव्यस्य of what has to be heard? श्रुतस्य what has been heard? च and.Commentary The mire of delusion is the identification of the Self with the notself. The sense of discrimination between the Self and the notSelf is confounded by the mire of delusion and the mind runs towards the sensual objects and the body is takes as the pure Self. When you attain purity of mind? you will attain to indifference regarding things heard and yet to be heard. They will appear to you to be of no use. You will not care a bit for them. You will entertain disgust for them. (Cf.XVI.24).
2.52 When thy intellect crosses beyond the mire of delusion, then thou shalt attain to indifference as to what has been heard and what has yet to be heard.
2.52 When thy reason has crossed the entanglements of illusion, then shalt thou become indifferent both to the philosophies thou hast heard and to those thou mayest yet hear.
2.52 When your mind will go beyond the turbidity of delusion, then you will acire dispassion for what has to be heard and what has been heard.
2.52 When is attained that wisdom which arises from the purification of the mind brought about by the pursuit of (karma-) yoga? This is being stated: Yada, when, [Yada: when maturity of discrimination is attained.] at the time when; te, your; buddhih, mind; vyatitarisyati, will go beyond, cross over; moha-kalilam, the turbidity of delusion, the dirt in the form of delusion, in the form of non-discrimination, which, after confounding one's understanding about the distinction between the Self and the not-Self, impels the mind towards objects that is to say, when your mind will attain the state of purity; tada, then, [Tada: then, when the mind, becoming purified, leads to the rise of discrimination, which in turn matures into detachment.] at that time; gantasi, you will acire; nirvedam, despassion; for srotavyasya, what has to be heard; ca, and; srutasya, what has been heard. The idea implied is that, at that time what has to be heard and what has been heard [What has to be heard৷৷.has been heard, i.e. the scriptures other than those relating to Self-knowledge. When discrimination referred to above gets matured, then the fruitlessness of all things other than Self-knowledge becomes apparent.] becomes fruitless.
2.52. When your determining faculty goes beyond the impregnable thicket of delusion, at that time you will attain an attitude of futility regarding what has to be heard and what has been heard.
2.52 See Comment under 2.53
2.52 If you act in this manner and get freed from impurities, your intellect will pass beyond the tangle of delusion. The dense impurity of sin is the nature of that delusion which generates attachment to infinitesimal results, of which you have already heard much from us and will hear more later on. You will then immediately feel, of your own accord, renunciation or feeling of disgust for them all. Sri Krsna now teaches the goal called self-realisation (Yoga) which results from the performance of duty as taught in the passage beginning with 'Now, listen to this with regard to Karma Yoga' (2.39) which is based on the knowledge of the real nature of the self gained through the refinement of the mind.
2.52 When your intellect has passed beyond the tangle of delusion, you will yourself feel disgusted regarding what you shall hear and what you have already heard.
।।2.52।।योगानुष्ठानजनित सत्त्वशुद्धिसे उत्पन्न हुई बुद्धि कब प्राप्त होती है इसपर कहते हैं जब तेरी बुद्धि मोहकलिलको अर्थात् जिसके द्वारा आत्मानात्मके विवेकविज्ञानको कलुषित करके अन्तःकरण विषयोंमें प्रवृत्त किया जाता है उस मोहात्मक अविवेककालिमाको उल्लङ्घन कर जायगी अर्थात् जब तेरी बुद्धि बिल्कुल शुद्ध हो जायगी। तब उस समय तू सुननेयोग्यसे और सुने हुएसे वैराग्यको प्राप्त हो जायगा। अर्थात् तब तेरे लिये सुननेयोग्य और सुने हुए ( सब विषय ) निष्फल हो जायँगे यह अभिप्राय है।
।।2.52।।  यदा  यस्मिन्काले  ते  तव  मोहकलिलं  मोहात्मकमविवेकरूपं कालुष्यं येन आत्मानात्मविवेकबोधं कलुषीकृत्य विषयं प्रत्यन्तःकरणं प्रवर्तते तत् तव  बुद्धिः व्यतितरिष्यति  व्यतिक्रमिष्यति अतिशुद्धभावमापत्स्यते इत्यर्थः।  तदा  तस्मिन् काले  गन्तासि  प्राप्स्यसि  निर्वेदं  वैराग्यं  श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च  तदा श्रोतव्यं श्रुतं च ते निष्फलं प्रतिभातीत्यभिप्रायः।।मोहकलिलात्ययद्वारेण लब्धात्मविवेकजप्रज्ञः कदा कर्मयोगजं फलं परमार्थयोगमवाप्स्यामीति चेत् तत् श्रृणु
।।2.52।।यदा ते इति श्लोके योगसम्बन्धि न किमप्युच्यत इत्यतस्तत्सङ्गतिमाह  किय दिति। एवं फलकामनादिवर्जितानि ईश्वराराधनरूपाणीत्याकाङ्क्षायामाहेत्यर्थः। नन्वियमाकाङ्क्षैवानुपपन्ना योगो हि ज्ञानफलसाधनतयोपदिष्टः साधनं च साध्यप्राप्तिपर्यन्तमनुष्टेयमिति प्रसिद्धमेव।नियतपूर्वक्षणवृत्ति कारणं इति तल्लक्षणम्। उच्यते योगो हि न साक्षाज्ज्ञानसाधनम् किन्तु श्रवणादिकमेव प्रमितेः प्रमाणफलत्वात्। योगस्त्वदृष्टद्वारा सत्त्वशुद्धिमुत्पाद्य श्रवणादीनामुपकरोति उपकारस्य च द्वयी गतिर्दृष्टा अतो युक्तैवेयमाकाङ्क्षेति। तथापि जिज्ञासुनेति वक्तव्यम्। सत्यम् मोक्षसाधनज्ञानार्थिनेत्येतावतोऽर्थस्य ग्रहणाय मुमुक्षुणेत्युक्तम्। निर्वेदं वैराग्यमित्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह  निर्वेद मिति। ननु निरः पूर्वो विदिर्वैराग्ये रूढः तत्कुतो लाभार्थतेत्यत आह  प्रयोगादि ति। अस्यामपि श्रुतौ वैराग्यार्थता किं न स्यात् इत्यत आह   न ही ति। कुतो नोपपद्यत इत्यत आह  तथा सती ति।जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसङ्ख्यानम् इति कात्यायनवचनात्पाण्डित्यस्य विरामार्थधातुयोगबलेनापादानत्वप्राप्तौ अपादाने पञ्चमी स्यात् न द्वितीयेत्यर्थः। इदमत्राभिप्रेतम् निरुपसर्गः सत्तार्थस्यैव विदेरर्थं बाधित्वा तं वैराग्यार्थं व्यवस्थापयति निर्विद्यत इति कर्तरि प्रयोगदर्शनात्। लाभार्थस्य विदेरर्थं विशिनष्ट्येव केवलम्।निर्विन्दतिनिर्विन्दते इति वैराग्ये तत्प्रयोगादर्शनादिति। अथवाऽस्तु सर्वत्र निरो धात्वर्थबाधकत्वम् विशेषकत्वमपि क्वचित् किं न स्यात् व्याददातीत्यादावुभयदर्शनादिति।न केवलं गीतायां प्रयोगाल्लाभार्थता किन्तु वैराग्यार्थतानुपपत्तेश्चेत्याह  न चे ति। अनेनान्तःकरणस्य मोहकलिलातिक्रमो नाम ज्ञानप्राप्तिरिति सूचितं भवति। आदिपदेन तदुपयुक्तं गृह्यते कुतो न भवति इत्यत आह  आत्मारामा  इति। भक्तिं श्रवणादिलक्षणाम्।कस्य वा महतीमेतामात्मारामः समभ्यसत् इत्यस्योत्तरत्वात् अनुष्ठानाच्च श्रवणादेरिति शेषः। ननु शुक्रादीनां श्रवणाद्यनुष्ठानेऽपि फलं नास्ति तत्फलस्य ज्ञानस्य प्राप्तत्वात्। फलाभावानुसन्धानमेव चात्र वैराग्यशब्देनाभिप्रेतम्। यथाऽऽह मायावादीतदा श्रोतव्यं श्रुतं च निष्फलं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः शां.भा. इति। अनुष्ठानं तु लोकसङ्ग्रहार्थं संस्काराद्वेत्यत आह  न चे ति। कुतो नेत्यत आह  तस्यैवे ति। तस्यैव श्रवणादेरेव स्थान्यादेशोक्तिव्यत्ययेन द्वन्द्वेऽल्पाच्तरस्य परनिपातेन चआन्महतः समानाधिकरणजातीययोः अष्टा.6।3।46 इत्यस्य विधेरनित्यत्वज्ञापनात्महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणात् भाग.3।5।29 इत्यादिप्रयोगदर्शनाच्च महत्सुखत्वादिति युक्तम्। तथापि श्रवणादिकमेव कथं सुखम् उत्तरक्षण एव महासुखोदयादैक्योषचार इत्यदोषः। तिष्ठतु तावत् कालान्तरभावि महत्फलमित्येवशब्दः। नन्वस्मदादीनां श्रवणोत्तरक्षणे सुखं नोत्पद्यत इत्यत आह  तेषा मिति रसिकानामित्यर्थः। न हि पितृजीवनादिवार्ताश्रवणेनान्येषामिव न पुत्रस्यापि सुखेनोत्पत्तव्यमिति। अस्तु सम्भावना निश्चयस्तु कुतः इत्यत आह  ये ति। भवतो भवज्जनानां च स्वमहिमन्याविर्भूतस्वरूपे आब्रह्मण्यल्पमुक्ते। न केवलं तात्कालिकं सुखं तत्फलम् किन्तु मुक्तावानन्दवृद्धिश्चेत्याह  तेषा मिति। ज्ञानिनामपि ज्ञानोत्तरस्याप्यनुष्ठानस्य यदि फलं स्यात्तर्ह्यनुष्ठानस्यैकविध्यनियमासम्भवात्। स्वर्गवदपवर्गेऽपि तारतम्यं प्रसज्येत। न च तद्युक्तम् अप्रमाणिकत्वात् प्रमाणविरुद्धत्वाच्चेत्यतो नेदमनिष्टमिति भावेनाह  तारतम्ये ति। प्रमाणविरोधाभावाच्चेति चार्थः।कुतः प्रमाणान्मुक्ततारतम्याधिगतिः इत्यतोऽर्थापत्तिं तावदाह  तथाही ति। यदि मुक्तानां तारतम्यं न स्यात् तदा मुक्तिमप्यनिच्छतामेकान्तिनां मोक्षमात्रफलं तं मोक्षमिच्छतामपि सुप्रतीकादीनां मोक्षो भवतीत्यङ्गीकार्य स्यात्। तथा च नात्यन्तिकमिति मोक्षमनिच्छतां स्तुतिः कथमुपपन्ना स्यात् निमित्ताभावात् अतः स्तुत्यन्यथानुपपत्त्येच्छतां मुक्तेरनिच्छतां मुक्तिरधिकेति गम्यते इत्यर्थः। आत्यन्तिकं मुक्तिहेतुम्। एकात्मतां सायुज्यम्। एकत्वमपि तदेव। आगमाच्च तारतम्याधिगतिरित्याह  वचनाच्चे ति। आविर्भूतस्वरूपिणामिति कर्मधारयादतिशयार्थे इनिः। अनेन जीवन्मुक्तावैश्वर्यतारतम्येनार्थापत्तेरन्यथोपपत्तिः परिहृतालिङ्गभेदने भिन्नलिङ्गानां इत्याद्युक्तेः। परमं साम्यमुपैति मुं.उ.3।1।3 इत्यादिवचनविरुद्धं मुक्ततारतम्यमित्यत आह  साम्ये ति। प्राचुर्यं पूर्णत्वम्। कुत एतत् उक्तप्रमाणविरोधात् विशेषवचनाच्चेत्याह  तथाचे ति। यद्यपि परानन्दोऽलम्बुद्धिगोचरत्वमात्रेण समः तथापि न च ज्ञानिनामित्यादिनोक्तमर्थमुपसंहरति  अत  इति। अस्तु तर्हि भगवन्महिमादिव्यतिरिक्तश्रुतादौ वैराग्यमत्र विवक्षितमित्यत आह  न चे ति। निर्वेदशब्दस्य वैराग्यार्थकत्वे निश्चिते तद्बलाच्छ्रोतव्यादिशब्दस्यार्थसङ्कोचः क्रियेतापि। इतरत्र नितरां लाभे तस्य प्रयोगे विद्यमाने निर्मूलं सङ्कोचकल्पनमित्यर्थः। ननु लाभार्थतायामपि असच्छास्त्रादिव्युदासाय सङ्कोचः कार्य एवेत्याह  महद्भि रिति। अयोग्यतयैव तन्निरासः प्रकरणाद्वेति भावः।
।।2.52।।कियत्पर्यन्तमवश्यं कर्तव्यानि मुमुक्षुणैवं कर्माणीत्याह यदेति। निर्वेदं नितरां लाभम्। प्रयोगात् तस्माद्ब्राह्मणः पाण्डित्यं निर्विद्य बृ.उ.3।5।1 इत्यादि। न हि तत्र वैराग्यमुपपद्यते तथा सति पाण्डित्यादिति स्यात्।न च ज्ञानिनां भगवन्महिमादिश्रवणेन विरक्तिर्भवति।आत्मारामा हि मुनयो निर्ग्राह्या (निर्ग्रन्था) अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः भाग.1।7।10 इति वचनात् अनुष्ठानाच्च शुकादीनाम्। न च तेषां फलं सुखं नास्ति तस्यैव महत्सुखत्वात्। तेषांया निर्वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्मध्यानाद्भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात्। साब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्किम्वन्तकासि लुलितात्पततां विमानात् भाग.4।9।10 इत्यादिवचनात्। तेषामप्युपासनादिफलस्य साधितत्वात् तारतम्याधिगतेश्च।तथाहि यदि तारतम्यं न स्यात्नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं भाग.3।15।48नैकात्मतां मे स्पृहयन्ति केचित् भाग.2।25।34एकत्वमप्युत दीयमानं न गृह्णन्ति इति मुक्तिमप्यनिच्छतामपि मोक्ष एव फलम्। तमिच्छतामपि भवति सुप्रतीकादीनाम्। कथमनिच्छतां स्तुतिरुपपन्ना स्यात् वचनाच्च।यथा भक्तिविशेषोऽत्र दृश्यते पुरुषोत्तमे। तथा मुक्तिविशेषोऽपि ज्ञानिनां लिङ्गभेदने इति।योगिनां भिन्नलिङ्गानामाविर्भूतस्वरूपिणाम्। प्राप्तानां परमानन्दं तारतम्यं सदैव हि इति।न त्वामतिशयिष्यन्ति मुक्तावपि कदाचन। मद्भक्तियोगाज्ज्ञानाच्च सर्वानतिशयिष्यसि इति च। साम्यवचनं तु प्राचुर्यविषयम् दुःखाभावविषयं च। तथा चोक्तम् दुःखाभावः परानन्दो लिङ्गभेदः समो मतः। तथापि परमानन्दो ज्ञानभेदात्तु भिद्यते इति नारायणाष्टाक्षरकल्पे। अतो न वैराग्यं श्रुतादावत्र विवक्षितम्। न च सङ्कोचे मानं किञ्चिद्विद्यमान इतरत्र प्रयोगे महद्भिः श्रवणीयस्य श्रुतस्य च वेदादेः फलं प्राप्स्यसीत्यर्थः।
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति। तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।2.52।।
যদা তে মোহকলিলং বুদ্ধির্ব্যতিতরিষ্যতি৷ তদা গন্তাসি নির্বেদং শ্রোতব্যস্য শ্রুতস্য চ৷৷2.52৷৷
যদা তে মোহকলিলং বুদ্ধির্ব্যতিতরিষ্যতি৷ তদা গন্তাসি নির্বেদং শ্রোতব্যস্য শ্রুতস্য চ৷৷2.52৷৷
યદા તે મોહકલિલં બુદ્ધિર્વ્યતિતરિષ્યતિ। તદા ગન્તાસિ નિર્વેદં શ્રોતવ્યસ્ય શ્રુતસ્ય ચ।।2.52।।
ਯਦਾ ਤੇ ਮੋਹਕਲਿਲਂ ਬੁਦ੍ਧਿਰ੍ਵ੍ਯਤਿਤਰਿਸ਼੍ਯਤਿ। ਤਦਾ ਗਨ੍ਤਾਸਿ ਨਿਰ੍ਵੇਦਂ ਸ਼੍ਰੋਤਵ੍ਯਸ੍ਯ ਸ਼੍ਰੁਤਸ੍ਯ ਚ।।2.52।।
ಯದಾ ತೇ ಮೋಹಕಲಿಲಂ ಬುದ್ಧಿರ್ವ್ಯತಿತರಿಷ್ಯತಿ. ತದಾ ಗನ್ತಾಸಿ ನಿರ್ವೇದಂ ಶ್ರೋತವ್ಯಸ್ಯ ಶ್ರುತಸ್ಯ ಚ৷৷2.52৷৷
യദാ തേ മോഹകലിലം ബുദ്ധിര്വ്യതിതരിഷ്യതി. തദാ ഗന്താസി നിര്വേദം ശ്രോതവ്യസ്യ ശ്രുതസ്യ ച৷৷2.52৷৷
ଯଦା ତେ ମୋହକଲିଲଂ ବୁଦ୍ଧିର୍ବ୍ଯତିତରିଷ୍ଯତି| ତଦା ଗନ୍ତାସି ନିର୍ବେଦଂ ଶ୍ରୋତବ୍ଯସ୍ଯ ଶ୍ରୁତସ୍ଯ ଚ||2.52||
yadā tē mōhakalilaṅ buddhirvyatitariṣyati. tadā gantāsi nirvēdaṅ śrōtavyasya śrutasya ca৷৷2.52৷৷
யதா தே மோஹகலிலஂ புத்திர்வ்யதிதரிஷ்யதி. ததா கந்தாஸி நிர்வேதஂ ஷ்ரோதவ்யஸ்ய ஷ்ருதஸ்ய ச৷৷2.52৷৷
యదా తే మోహకలిలం బుద్ధిర్వ్యతితరిష్యతి. తదా గన్తాసి నిర్వేదం శ్రోతవ్యస్య శ్రుతస్య చ৷৷2.52৷৷
2.53
2
53
।।2.53।। जिस कालमें शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल हो जायगी, उस कालमें तू योगको प्राप्त हो जायगा।
।।2.53।। जब अनेक प्रकार के विषयों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि आत्मस्वरूप में अचल और स्थिर हो जायेगी तब तुम (परमार्थ) योग को प्राप्त करोगे।।
।।2.53।। जब पाँचो ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण करने पर भी जिसकी बुद्धि अविचलित रहती है तब उसे योग में स्थित समझा जाता है। सामान्यत इन्द्रियों के विषय ग्रहण के कारण मन में अनेक विक्षेप उठते हैं। योगस्थ पुरुष का मन इन सबमें निश्चल रहता है। उसके विषय में आगे स्थितप्रज्ञ के लक्षण और अधिक विस्तार से बताते हैं।अनेक व्याख्याकार इसका अर्थ इस प्रकार करते हैं कि विभिन्न दार्शनिकों के परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले सिद्धान्तों को सुनकर जिसकी बुद्धि विचलित नहीं होती वह योग में स्थित हुआ समझा जाता है।अब तक के प्रस्तुत किये गये तर्कों से इस विषय में अर्जुन की रुचि बढ़ने लगती है और उन्माद का प्रभाव कम होने लगता है। अपने विषाद और दुख को भूलकर श्रीकृष्ण के प्रवचन में स्वयं रुचि लेते हुये ज्ञानी पुरुष के लक्षणों को जानने की अपनी उत्सुकता को वह नहीं रोक सका। उसके प्रश्न से स्पष्ट दिखाई देता है कि वह भगवान् के सिद्धान्त को ग्रहण कर रहा है फिर भी उसके मन में कुछ है जिसके कारण वह इसे पूर्णत स्वीकार नहीं कर पा रहा था।प्रश्न पूछने के लिए अवसर पाकर समत्व में स्थित बुद्धि वाले पुरुष के लक्षणों को जानने की उत्सुकता से अर्जुन प्रश्न करता है
।।2.53।। व्याख्या-- [लौकिक मोहरूपी दलदलको तरनेपर भी नाना प्रकारके शास्त्रीय मतभेदोंको लेकर जो मोह होता है, उसको तरनेके लिये भगवान् इस श्लोकमें प्रेरण करते हैं।] 'श्रुतिविप्रतिपन्ना ते .....तदा योगमवाप्स्यसि'-- अर्जुनके मनमें यह श्रुतिविप्रतिपत्ति है कि अपने गुरुजनोंका, अपने कुटुम्बका नाश करना भी उचित नहीं है और अपने क्षात्रधर्म-(युद्ध करने-) का त्याग करना भी उचित नहीं है। एक तरफ तो कुटुम्बकी रक्षा हो और एक तरफ क्षात्रधर्मका पालन हो--इसमें अगर कुटुम्बकी रक्षा करें तो युद्ध नहीं होगा और युद्ध करें तो कुटुम्बकी रक्षा नहीं होगी--इन दोनों बातोंमें अर्जुनकी श्रुतिविप्रतिपत्ति है, जिससे उनकी बुद्धि विचलित हो रही।  (टिप्पणी प0 91)  अतः भगवान् शास्त्रीय मतभेदोंमें बुद्धिको निश्चल और परमात्मप्राप्तिके विषयमें बुद्धिको अचल करनेकी प्रेरणा करते हैं। पहले तो साधकमें इस बातको लेकर सन्देह होता है कि सांसारिक व्यवहारको ठीक किया जाय या परमात्माकी प्राप्ति की जाय? फिर उसका ऐसा निर्णय होता है कि मुझे तो केवल संसारकी सेवा करनी है और संसारसे लेना कुछ नहीं है। ऐसा निर्णय होते ही साधककी भोगोंसे उपरति होने लगती है, वैराग्य होने लगता है। ऐसा होनेके बाद जब साधक परमात्माकी तरफ चलता है तब उसके सामने साध्य और साधन-विषयक तरह-तरहके शास्त्रीय मतभेद आते हैं। इससे मेरेको किस साध्यको स्वीकार करना चाहिये और किस साधन-पद्धतिसे चलना चाहिये'--इसका निर्णय करना बड़ा कठिन हो जाता है। परन्तु जब साधक सत्सङ्गके द्वारा अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यताका निर्णय कर लेता है अथवा निर्णय न हो सकनेकी दशामें भगवान्के शरण होकर उनको पुकारता है,   संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये बुद्धि 'निश्चल' होनी चाहिये, जिसको छठे अध्यायके तेईसवें श्लोकमे
।।2.53।।कर्मजमिति। योगबुद्धियुक्ताः कर्मणां फलं त्यक्त्वा जन्मबन्धं त्यजन्ति ब्रह्मसत्तामाप्नुवन्ति (S K अवाप्नुवन्ति)।
।।2.53।। श्रुतिः  श्रवणम् अस्मत्तः श्रवणेन  वि शेषतः  प्रतिपन्ना  सकलेतरविसजातीयनित्यनिरतिशयसूक्ष्मतत्त्वविषया स्वयम्  अचला  एकरूपा  बुद्धिः  असङ्गकर्मानुष्ठानेन विमलीकृते मनसि  यदा निश्चला स्थास्यति तदा योगम्  आत्मावलोकनम्  अवाप्स्यसि।  एतद् उक्तं भवति शास्त्रजन्यात्मज्ञानपूर्वककर्मयोगः स्थितप्रज्ञताख्यज्ञाननिष्ठाम् आपादयति ज्ञाननिष्ठारूपा स्थितप्रज्ञता तु योगाख्यम् आत्मावलोकनं साधयति इति।एवम् उक्तः पार्थो निःसङ्गकर्मानुष्ठानरूपकर्मयोगसाध्यस्थितप्रज्ञतया योगसाधनभूतायाः स्वरूपं स्थितप्रज्ञस्यानुष्ठानप्रकारं च पृच्छति
।।2.53।।बुद्धिशुद्धिविवेकवैराग्यासिद्धावपि पूर्वोक्तबुद्धिप्राप्तिकालो दर्शितो न भवतीति शङ्कते  मोहेति।  प्रागुक्तविवेकादियुक्तबुद्धेरात्मनि स्थैर्यावस्थायां प्रकृतबुद्धिसिद्धिरित्याह  तच्छृण्विति।  पृष्टं कालविशेषाख्यं वस्तु तच्छब्देन गृह्यते बुद्धेः श्रुतिविप्रतिपन्नत्वं विशदयति  अनेकेति।  नानाश्रुतिप्रतिपन्नत्वमेव संक्षिपति  विक्षिप्तेति।  उक्तं हेतुद्वयमनुरुध्य वैराग्यपरिपाकावस्था कालशब्दार्थः नैश्चल्यं विक्षेपराहित्यम् अचलत्वं विकल्पशून्यत्वं विक्षेपो विपर्ययः विकल्पः संशय इति विवेकः। विवेकद्वारा जाता प्रज्ञा प्रागुक्ता बुद्धिः समाधिस्तत्रैव निष्ठा।
।।2.52 2.53।।कदा तत्पदमहं प्राप्स्यामि इत्यपेक्षायामाह यदेति द्वाभ्याम्। निश्चला विशोकधैर्यादिवती ते यदा बुद्धिर्व्यवसायात्मिकैव तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च त्रैगुण्यस्य कर्मफलस्य निर्वेदं वैराग्यं प्राप्स्यसि। तस्यात्रानुपादेयत्वेन जिज्ञासां न करिष्यसीत्यर्थः। तादृशी सती ते बुद्धिरचला यदा समाधीयते तदा योगं योगस्वरूपं यास्यसि ततश्च कार्यसिद्धिः।
।।2.53।।अन्तःकरणशुद्ध्यधैवं जातनिर्वेदस्य कदा ज्ञानप्राप्तिरित्यपेक्षायामाह ते तव बुद्धिः श्रुतिभिर्नानाविधफलश्रवणैरविचारिततात्पर्यैर्विप्रतिपन्ना अनेकविधसंशयविपर्यासवत्त्वेन विक्षिप्ता प्राक् यदा यस्मिन्काले शुद्धिजविवेकजनितेन दोषदर्शनेन तं विक्षेपं परित्यज्य समाधौ परमात्मनि निश्चला जाग्रत्स्वप्नदर्शनलक्षणविक्षेपरहिता अचला सुषुप्तिमूर्च्छास्तब्धीभावादिरूपलयलक्षणचलनरहिता सती स्थास्यति। लयविक्षेपलक्षणौ दोषौ परित्यज्य समाहिता भविष्यतीति यावत्। अथवा निश्चलाऽसंभावनाविपरीतभावनारहिता अचला दीर्घकालादनैरन्तर्यसत्कारसेवनैर्विजातीयप्रत्ययादूषिता सती निर्वातप्रदीपवदात्मनि स्थास्यतीति योजना। तदा तस्मिन्काले योगं जीवपरमात्मैक्यलक्षणं तत्त्वमस्यादिवाक्यजन्यमखण्डसाक्षात्कारं सर्वयोगफलमवाप्स्यसि। तदा पुनः साध्यान्तराभावात्कृतकृत्यः स्थितप्रज्ञो भविष्यसीत्यभिप्रायः।
।।2.53।।ततश्च      श्रुतीति।  श्रुतिभिर्नानालौकिकवैदिकार्थश्रवणैर्विप्रतिपन्ना इतः पूर्वं विक्षिप्ता सती तव बुद्धिर्यदा समाधौ स्थास्यतीति समाधीयते चित्तमस्मिन्निति समाधिः परमेश्वरः तस्मिन्निश्चला विक्षेपव्याप्तिविषयान्तरैरनाकृष्टात एवाचला अभ्यासपटुत्वेन तत्रैव स्थिरा लयव्याप्तिः सती तदा योगं योगफलं तत्त्वज्ञानमवाप्स्यपि।
null
।।2.53।।एतदेव द्रढयति श्रुतिविप्रतिपन्नेति। श्रुतिविप्रतिपन्ना नानाविधधर्मश्रवणेच्छारहिता निश्चला श्रुतैरपि तैर्धर्मैश्चालनायोग्या यदा ते बुद्धिर्भविष्यति समाधौ मच्चिन्तनसमये अचला स्वतो दृढा स्थास्यति तदा योगं मत्सान्निध्यरूपमवाप्स्यसि प्राप्स्यसीत्यर्थः।
।।2.53।।ननु बुद्धिप्रसादोऽपि केन लिङ्गेन ज्ञेय इत्यत आह  श्रुतीति।  श्रुतिभिर्नानाविधशास्त्रश्रवणैर्विप्रतिपन्ना आत्मा नित्योऽनित्यो वा नित्योऽपि कर्ताऽकर्ता वा अकर्ताप्येकोऽनेको वेत्येवमादिसंशयग्रस्ता सती यदा असंभावनाविपरीतभावनानिरासपूर्वकं श्रुतितात्पर्यविषयीभूते ब्रह्माद्वैते निश्चला पुनः कुतर्कैरनास्कन्दनीया निर्विचिकित्सा परोक्षनिश्चयवती भूत्वा समाधौ निर्विकल्पके प्रत्यगात्मनि अचला लयविक्षेपशून्या स्थास्यति स्थिरा भविष्यति तदा योगं विवेकप्रज्ञां प्राप्स्यसि। निश्चलसमाधिलाभ एव बुद्धिप्रसादलिङ्गमिति भावः।
।।2.52 2.53।।   सांख्यं बुद्धिं सदा प्राप्स्यामि यदर्थं कर्मानुष्ठानं भवतोपदिश्यत इत्यत आह  यदेति।  यदा यस्यामवस्थायां तव बुद्धिर्मोहात्मकमविवेकरुपं कालुष्यं व्यतिक्रमिष्यति तदा तस्यामवस्थायां श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च वैराग्यं प्राप्तासि। पूर्वं श्रुतिभिरनेकसाध्यसाधनश्रवणैर्विप्रतिपन्ना विक्षिप्ता श्रुतश्रोतवययोर्निर्वेदं लब्ध्वा यदा समाधीयते चित्तमस्मिन्निति समाधिरात्मा तस्मिन्निश्चला विक्षेपरहिता स्थास्यति स्थिरीभूता भविष्यति तदा योगं सांख्ययोगमवाप्स्यसीति द्वयोरर्थः। यद्वा योगानुष्ठानजनितसत्त्वशुद्धिजा वैराग्यादीतरसाधनसहिता नित्यानित्यवस्तुविवेकरुपा ज्ञानाधिकारसंपादिका बुद्धिः कदा प्राप्यत इत्यत आह  यदेति।  यदा तव बुद्धिर्मोहात्मकमविवेकरुपं कालुष्यं चित्ताशुद्धिजं व्यतितरिष्यति तदा श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च कर्मफलस्य निर्वेदं गन्तासि। चित्तशुद्धिद्वारा लब्धात्मविवेकबुद्धिः कर्मयोगजं फलं परमात्मयोगं कदाप्स्यसीति तच्छृणु  श्रुतीति।  प्राग्वद्य्वाख्यानद्वयमपि भाष्याल्लभ्यत इति बोधम।
2.53 श्रुतिविप्रतिपन्ना perplexed by what hast heard? ते thy? यदा when? स्थास्यति shall stand? निश्चला immovable? समाधौ in the Self? अचला steady? बुद्धिः intellect? तदा then? योगम् Selfrealisation? अवाप्स्यसि (thou) shalt attain.Commentary When your intellect which is tossed about by the conflict of opinions regarding the Pravritti Marga (the path of action) and the Nivritti Marga (the path of retirement or renunciation) has become immovable without distraction and doubt and firmly established in the Self? then thou shalt attain Selfrealisation or knowledge of the Self (AtmaJnana).
2.53 When thy intellect, which is perplexed by the Veda text, which thou hast read, shall stand immovable and steady in the Self, then thou shalt attain Self-realisation.
2.53 When the intellect, bewildered by the multiplicity of holy scripts, stands unperturbed in blissful contemplation of the Infinite, then hast thou attained Spirituality.
2.53 When your mind that has become bewildered by hearing [S. takes the word sruti in the sense of the Vedas.-Tr.] will become unshakable and steadfast in the Self, then you will attain Yoga that arises from discrimination.
2.53 If it be asked, 'By becoming possessed of the wisdom arising from the discrimination about the Self after overcoming the turbidity of delusion, when shall I attain the yoga of the supreme Reality which is the fruit that results from Karma-yoga?', then listen to that; Yada, when at the time when; te, your; buddhih, mind; that has become sruti-vi-pratipanna, bewildered, tossed about, by hearing (the Vedas) that reveal the diverse ends, means, and (their) relationship, i.e. are filled with divergent ideas; sthasyati, will become; niscala, unshakable, free from the trubulence in the form of distractions; and acala, steadfast, that is to say, free from doubt even in that (unshakable) state; samadhau, in samadhi, that is to say, in the Self samadhi being derived in the sense of that in which the mind is fixed; tada, then, at that time; avapsyasi, you will attain; yogam, Yoga, the enlightenment, Self-absorption, that arises from discrimination. Having got an occasion for iniry, Arjuna, with a view to knowing the characteristics of one who has the realization of the Self, [By the word samadhi is meant the enlightenment arising from discrimination, which has been spoken of in the commentary on the previous verse. The steadfastness which the monks have in that enlightenment is called steadfastness in Knowledge. Or the phrase may mean, 'the enlightenment achieved through meditation on the Self', i.e. the realization of the supreme Goal.] asked:
2.53. When your determining faculty, that had been [earlier] confused by your hearing [of scriptural declaration of fruits] shall stand stable in concentration, at that time you shall attain the Yoga.
2.52-53 Yada te etc. Sruti-etc. At the time, when the determining facult with regard to the Yoga is attained, the clear sign of recognizing it, is this : An attitude of futility about the revealed literature that has to be listened to, that has been listened to and that is being declared. What has been declared by the above is this : 'This present view of yours about the ruination of your race is out of place and it is due to the influence of your deceptive notion, born of mental impressions created by your listening to the teachings of those scriptures that favour the observers who are fallen deep into the course of ignorance. But, that view shall vanish when the respect for such a teaching disappears.
2.53 Here 'Sruti' means hearing (and not the Veda). When your intellect, which, by hearing from us, has become specially enlightened, having for its object the eternal, unsurpassed and subtle self - which belongs to a class different from all other entities -, then the intellect is firmly fixed, i.e., in a single psychosis and stands unshaken. In such a concentrated mind, purified by the performance of duties without attachment, will be generated true Yoga, which consists in the vision of the self. What is said is this: Karma Yoga, which presupposes the knowledge of the real nature of the self obtained from the scriptures, leads to a firm devotion to knowledge known as the state of firm wisdom; and the state of 'firm wisdom;' which is in the form of devotion to knowledge, generates the vision of the self; this vision is here called Yoga. Arjuna, thus taught, estions about the nature of 'firm wisdom' which constitutes the means for the attainment of Yoga and which itself is attainable through Karma Yoga which consists in work with detachment, and also about the mode of behaviour of a man of 'firm wisdom.'
2.53 When your intellect, well enlightened by hearing from Me and firmly placed, stands unshaken in a concentrated mind, then you will attain the vision of the self.
।।2.53।।यदि तू पूछे कि मोहरूप मलिनतासे पार होकर आत्मविवेकजन्य बुद्धिको प्राप्त हुआ मैं कर्मयोगके फलरूप परमार्थयोगको ( ज्ञानको ) कब पाऊँगा तो सुन अनेक साध्य साधन और उनका सम्बन्ध बतलानेवाली श्रुतियोंसे विप्रतिपन्न अर्थात् नाना भावोंको प्राप्त हुई विक्षिप्त हुई तेरी बुद्धि जब समाधिमें यानी जिसमें चित्तका समाधान किया जाय वह समाधि है इस व्युत्पत्तिसे आत्माका नाम समाधि है उसमें अचल और दृढ़ स्थिर हो जायगी यानी विक्षेपरूप चलनसे और विकल्पसे रहित होकर स्थिर हो जायगी। तब तू योगको प्राप्त होगा अर्थात् विवेकजनित बुद्धिरूप समाधिनिष्ठाको पावेगा।
।।2.53।।  श्रुतिविप्रतिपन्ना  अनेकसाध्यसाधनसंबन्धप्रकाशनश्रुतिभिः श्रवणैः प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणैः विप्रतिपन्ना नानाप्रतिपन्ना विक्षिप्ता सती ते तव बुद्धिः  यदा  यस्मिन् काले  स्थास्यति  स्थिरीभूता भविष्यति  निश्चला  विक्षेपचलनवर्जिता सती  समाधौ  समाधीयते चित्तमस्मिन्निति समाधिः आत्मा तस्मिन् आत्मनि इत्येतत्।  अचला  तत्रापि विकल्पवर्जिता इत्येतत्।  बुद्धिः  अन्तःकरणम्।  तदा  तस्मिन्काले  योगम् अवाप्स्यसि  विवेकप्रज्ञां समाधिं प्राप्स्यसि।।प्रश्नबीजं प्रतिलभ्य अर्जुन उवाच लब्धसमाधिप्रज्ञस्य लक्षणबुभुत्सया अर्जुन उवाच
।।2.53।।ननूत्तरश्लोकेऽपि योगानुष्ठानविधिरेवोच्यतेऽतः पुनरुक्तिदोष इत्यत आह  तदेवे ति। किं तन्मोहकलिलं कीदृशं च तदतितरणं इत्याकाङ्क्षायां पुंसां अधममध्यमोत्तमावस्थादिप्रदर्शनेन पूर्वश्लोकोक्तमेव योगानुष्ठानावधिमनेन स्पष्टं करोतीत्यर्थः। नन्वत्रश्रुतिविप्रतिपन्ना इति श्रवणादितो वैराग्यमुच्यते यथाह भास्करःवस्त्वन्तरश्रवणाद्विरक्तेति। ततः पूर्वत्रापि वैराग्यमर्थः स्यात्। निश्चलाऽचलेति च पुनरुक्तिश्च। योगावाप्तेरुत्तरा चेयमवस्था तत्कथमुच्यतेतदा योगमवाप्स्यसि इति शङ्कायां श्लोकं व्याचष्टे  पूर्व मिति। पूर्वावस्थायाः सामर्थ्यलब्धं वैलक्षण्यं दर्शयितुमुक्तंवेदार्थेति। चलनप्रसक्तिं दर्शयति   विपरीते ति। असच्छास्त्रैरित्यर्थः। अनेन परोक्षज्ञानकाष्ठा दर्शिता। परोक्षतत्त्वनिश्चयानुवृत्तिव्युदासायोक्तम्  ब्रह्मे ति। अत्रापि चलनप्रसक्तिमाह  भेरी ति। एतत्कथमित्यत आह  परमे ति। परमानन्दे उपायसिद्धो भवसीत्यर्थः। एतेनापरोक्षज्ञानकाष्ठा दर्शिता। उपायेन सिद्धः प्राप्तफलः। योगशब्देन तत्फलमुपलक्ष्यत इति भावः। श्लोकद्वयेप्येतदवस्थाप्राप्तिर्योगानुष्ठानावधिरिति तात्पर्यम्।
।।2.53।।तदेव स्पष्टयति श्रुतिविप्रतिपन्नेति। पूर्वं श्रुतिभिर्वेदैर्विप्रतिपन्ना विरुद्धा सती यदा वेदार्थानुकूलेन तत्त्वनिश्चयेन विपरीतवाग्भिरपि निश्चला भवति ततश्च समाधावचला। ब्रह्मप्रत्यक्षदर्शनेन भेरीताडनादावपि परमानन्दमग्नत्वात्। तदा योगमवाप्स्यसि उपायसिद्धो भवसीत्यर्थः।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।2.53।।
শ্রুতিবিপ্রতিপন্না তে যদা স্থাস্যতি নিশ্চলা৷ সমাধাবচলা বুদ্ধিস্তদা যোগমবাপ্স্যসি৷৷2.53৷৷
শ্রুতিবিপ্রতিপন্না তে যদা স্থাস্যতি নিশ্চলা৷ সমাধাবচলা বুদ্ধিস্তদা যোগমবাপ্স্যসি৷৷2.53৷৷
શ્રુતિવિપ્રતિપન્ના તે યદા સ્થાસ્યતિ નિશ્ચલા। સમાધાવચલા બુદ્ધિસ્તદા યોગમવાપ્સ્યસિ।।2.53।।
ਸ਼੍ਰੁਤਿਵਿਪ੍ਰਤਿਪਨ੍ਨਾ ਤੇ ਯਦਾ ਸ੍ਥਾਸ੍ਯਤਿ ਨਿਸ਼੍ਚਲਾ। ਸਮਾਧਾਵਚਲਾ ਬੁਦ੍ਧਿਸ੍ਤਦਾ ਯੋਗਮਵਾਪ੍ਸ੍ਯਸਿ।।2.53।।
ಶ್ರುತಿವಿಪ್ರತಿಪನ್ನಾ ತೇ ಯದಾ ಸ್ಥಾಸ್ಯತಿ ನಿಶ್ಚಲಾ. ಸಮಾಧಾವಚಲಾ ಬುದ್ಧಿಸ್ತದಾ ಯೋಗಮವಾಪ್ಸ್ಯಸಿ৷৷2.53৷৷
ശ്രുതിവിപ്രതിപന്നാ തേ യദാ സ്ഥാസ്യതി നിശ്ചലാ. സമാധാവചലാ ബുദ്ധിസ്തദാ യോഗമവാപ്സ്യസി৷৷2.53৷৷
ଶ୍ରୁତିବିପ୍ରତିପନ୍ନା ତେ ଯଦା ସ୍ଥାସ୍ଯତି ନିଶ୍ଚଲା| ସମାଧାବଚଲା ବୁଦ୍ଧିସ୍ତଦା ଯୋଗମବାପ୍ସ୍ଯସି||2.53||
śrutivipratipannā tē yadā sthāsyati niścalā. samādhāvacalā buddhistadā yōgamavāpsyasi৷৷2.53৷৷
ஷ்ருதிவிப்ரதிபந்நா தே யதா ஸ்தாஸ்யதி நிஷ்சலா. ஸமாதாவசலா புத்திஸ்ததா யோகமவாப்ஸ்யஸி৷৷2.53৷৷
శ్రుతివిప్రతిపన్నా తే యదా స్థాస్యతి నిశ్చలా. సమాధావచలా బుద్ధిస్తదా యోగమవాప్స్యసి৷৷2.53৷৷