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7.21
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।।7.21।। जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।
।।7.21।। जो-जो (सकामी) भक्त जिस-जिस (देवता के) रूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस (भक्त) की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।।
।।7.21।। इस अध्याय के प्रारम्भिक भाग में ही आत्मानात्म विवेक (जड़चेतन का विभाजन) करके भगवान् श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है कि किस प्रकार उनमें समस्त नामरूप पिरोये हुए हैं। उसके पश्चात् उन्होंने यह भी बताया कि किस प्रकार त्रिगुणात्मिका मायाजनित विकारों से मोहित होकर मनुष्य अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को नहीं पहचान पाता। आत्मचैतन्य के बिना शरीर मन और बुद्धि की जड़ उपाधियाँ स्वयं कार्य नहीं कर सकती हैं।जगत् में देखा जाता है कि सभी भक्तजन एक ही रूप में ईश्वर की आराधना नहीं करते। प्रत्येक भक्त अपने इष्ट देवता की पूजा के द्वारा सत्य तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं कि कोई भी भक्त किसी भी स्थान पर मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारा या गिरजाघर में एकान्त में या सार्वजनिक स्थान में किसी भी रूप में ईश्वर की पूजा श्रद्धा के साथ करता है उसकी उस श्रद्धा को उसके इष्ट देवता में मैं स्थिर करता हूँ। गीता के मर्म को जानने वाला सच्चा विद्यार्थी कदापि कट्टरपंथी पृथकतावादी या असहिष्णु नहीं हो सकता। ईश्वर के सभी सगुण रूपों का अधिष्ठान एक परम सत्य ही है जहाँ से भक्त के हृदय में भक्तिरूपी पौधा पल्लवित पुष्पित और फलित होने के लिए श्रद्धारूपी जल प्राप्त करता है क्योंकि भगवान् स्वयं कहते हैं मैं उस श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।आध्यात्मदृष्टि से विचार करने पर इस श्लोक का और अधिक गम्भीर अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है।मनुष्य जिस विषय का निरन्तर चिन्तन करता रहता है उसमें वह दृढ़ता से आसक्त और स्थित हो जाता है। अखण्ड चिन्तन से मन में उस विषय के संस्कार दृढ़ हो जाते हैं और फिर उसके अनुसार ही उस मनुष्य की इच्छायें और कर्म होते हैं। इसी नियम के अनुसार सतत आत्मचिन्तन करने से भी मनुष्य अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है।सारांशत भगवान् का कथन हैं कि जैसा हम विचार करते हैं वैसा ही हम बनते हैं। अत यदि कोई व्यक्ति दुर्गुणों का शिकार हो गया हो अथवा अन्य व्यक्ति दैवी गुणों से संपन्न हो तो यह दोनों के भिन्नभिन्न विचारों का ही परिणाम समझना चाहिए। विचार प्रकृति का अंग है विचारों के अनुरूप जगत् होता है जिसका एक अधिष्ठान है सर्वव्यापी आत्मतत्त्व।सतत समृद्ध हो रही श्रद्धा के द्वारा मनुष्य किस प्रकार इष्ट फल को प्राप्त करता है
।।7.21।। व्याख्या--'यो यो यां यां तनुं भक्तः ৷৷. तामेव विदधाम्यहम्'--जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवताका भक्त होकर श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करना चाहता है ,उस-उस मनुष्यकी श्रद्धा उस-उस देवताके प्रति मैं अचल (दृढ़) कर देता हूँ। वे दूसरोंमें न लगकर मेरेमें ही लग जायँ--ऐसा मैं नहीं करता। यद्यपि उन-उन देवताओंमें लगनेसे कामनाके कारण उनका कल्याण नहीं होता, फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ, तो जो मेरेमें श्रद्धा-प्रेम रखते हैं, अपना कल्याण करना चाहते हैं, उनकी श्रद्धाको मैं अपने प्रति दृढ़ कैसे नहीं करूँगा अर्थात् अवश्य करूँगा। कारण कि मैं प्राणिमात्रका सुहृद् हूँ--'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29)।इसपर यह शङ्का होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपनेमें ही दृढ़ क्यों नहीं करते? इसपर भगवान् मानो यह कहते हैं कि अगर मैं सबकी श्रद्धाको अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्यजन्मकी स्वतन्त्रता, सार्थकता ही कहाँ रही तथा मेरी स्वार्थपरताका त्याग कहाँ हुआ? अगर लोगोंको अपनेमें ही लगानेका मेरा आग्रह रहे, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ऐसा बर्ताव तो दुनियाके सभी स्वार्थी जीवोंका स्वाभाविक होता है। अतः मैं इस स्वार्थपरताको मिटाकर ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ कि कोई भी मनुष्य पक्षपात करके दूसरोंसे केवल अपनी पूजा-प्रतिष्ठा करवानेमें ही न लगा रहे और किसीको पराधीन न बनाये।अब दूसरी शङ्का यह होती है कि आप उनकी श्रद्धाको उन देवताओंके प्रति दृढ़ कर देते हैं, इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गयी, पर उन जीवोंका तो आपसे विमुख होनेसे अहित ही हुआ? इसका समाधान यह है कि अगर मैं उनकी श्रद्धाको दूसरोंसे हटाकर अपनेमें लगानेका भाव रखूँगा तो उनकी मेरेमें अश्रद्धा हो जायगी। परन्तु अगर मैं अपनेमें लगानेका भाव नहीं रखूँगा और उनको स्वतन्त्रता दूँगा, तो उस स्वतन्त्रताको पानेवालोंमें जो बुद्धिमान् होंगे, वे मेरे इस बर्तावको देखकर मेरी तरफ ही आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धारका यही तरीका बढ़िया है। अब तीसरी शङ्का यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धाको दूसरोंमें दृढ़ कर देते हैं, तो फिर उस श्रद्धाको कोई मिटा ही नहीं सकता। फिर तो उसका पतन ही होता चला जायगा? इसका समाधान यह है कि मैं उनकी श्रद्धाको देवताओंके प्रति ही दृढ़ करता हूँ, दूसरोंके प्रति नहीं--ऐसी बात नहीं है। मैं तो उनकी इच्छाके अनुसार ही उनकी श्रद्धाको दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छाको बदलनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है, योग्य है। इच्छाको बदलनेमें वे परवश, निर्बल और अयोग्य नहीं हैं। अगर इच्छाको बदलनेमें वे परवश होते तो फिर मनुष्यजन्मकी महिमा ही कहाँ रही? और इच्छा (कामना-) का त्याग करनेकी आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था--'जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्' (गीता 3। 43)?
।।7.20 7.23।।कामैरित्यादि मामपीत्यन्तम्। ये पुनः स्वेन स्वेनोत्तमादिकामनास्वभावेन विचित्रेण परिच्छिन्नमनसस्ते कामनापहृतचेतनाः (N चेतस)) तत्समुचितामेव ममैवावान्तरतनुं देवताविशेषमुपासते। अतो मत एव कामफलमुपाददते (S पासते)। किं तु तस्यान्तोऽस्ति निजयैव वासनया परिमितीकृतत्त्वात्। अत एवेन्द्रादिभावनातात्पर्येण यागादि कुर्वन्तस्तथाविधमेव फलमुपाददते। मत्प्राप्तिपरास्तु मामेव।
।।7.21।।ता अपि देवताः मदीयाः तनवःय आदित्ये तिष्ठन्यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरम् (बृ0 उ0 3।7।9) इत्यादिश्रुतिभिः प्रतिपादिताः मदीयाः तनवः। इति अजानन् अपि यो यो यां यां मदीयाम् इन्द्रादिकां तनुं भक्तः श्रद्धया अर्चितुम् इच्छति तस्य तस्य अजानतः अपि मत्तनुविषया एषा श्रद्धा इति अहम् एव अनुसन्धाय ताम् एव अचलां निर्विघ्नां विदधामि अहम्।
।।7.21।।तत्तद्देवताप्रसादात्कामिनामपि सर्वेश्वरे सर्वात्मके वासुदेवे क्रमेण भक्तिर्भविष्यतीत्याशङ्क्याह तेषां चेति। स्वभावतो जन्मान्तरीयसंस्कारवशादित्यर्थः। भगवद्विहितया स्थिरया श्रद्धया संस्काराधीनया देवताविशेषमाराधयतोऽपि भगवदनुग्रहादेव फलप्राप्तिरित्याह यो यो यां यामिति।
।।7.21।।ता अपि देवता मदीयाः शरीरभूताः य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरं बृ.उ.3।7।9 इत्यादिश्रुतिभिस्तथाप्रतिपादनात्। तदजानन्नेव यो यो यां यां इति तस्याजानतोऽपि मच्छरीरभूतविषयकैषा श्रद्धेत्यहमोकोऽनुसन्धाय तां श्रद्धामेवाचलां विदधामि।
।।7.21।।तत्तद्देवताप्रसादात्तेषामपि सर्वेश्वरे भगवति वासुदेवे भक्तिर्भविष्यतीति न शङ्कनीयम्। यतः तेषां मध्ये यो यः कामी यां यां तनुं देवतामूर्तिं श्रद्धया जन्मान्तरवासनाबलप्रादुर्भूतया भक्त्या संयुक्तः सन्नर्चितुं अर्चयितुमिच्छति प्रवर्तते। चौरादिकस्यार्चयतेर्णिजभावपक्षे रूपमिदम्। तस्य तस्य कामिनस्तामेव देवतातनुं प्रति श्रद्धां पूर्ववासनावशात्प्राप्तां भक्तिमचलां स्थिरां विदधामि करोम्यहमन्तर्यामी नतु मद्विषयां श्रद्धां तस्य तस्य करोमीत्यर्थः। तामेव श्रद्धामिति व्याख्याने यच्छब्दानन्वयः स्पष्टस्तस्मात्प्रतिशब्दमध्याहृत्य व्याख्यातम्।
।।7.21।।यो यो यां यामिति। तेषां मध्ये यो यो भक्तः यां यां तनुं देवतारूपां मदीयामेव मूर्तिं श्रद्धयार्चितुमिच्छति प्रवर्तते तस्य तस्य भक्तस्य तत्तन्मूर्तिविषयां तामेव श्रद्धामचलां दृढामहमन्तर्यामी विदधामि करोमि।
7.21 इति वक्ष्यमाणवशादत्रापि प्रपत्तेरर्चनाङ्गत्वं दर्शयति ता एवाश्रित्यार्चयन्त इति। विश्वासगर्भफलप्रदत्ववरणपूर्वकं तत्तत्कर्मभिः प्रीणयन्तीत्यर्थः। प्रपत्तिस्वरूपसामर्थ्यादवधारणसिद्धिः।तदेकोपायता याञ्चा इति हि तल्लक्षणम्।।।7.21।।एवं देवतान्तरफलान्तरसक्ता अपि तत्तदाराधनतत्फलयोः शैथिल्ये सतिअलाभे मत्तकाशिन्या दृष्टा तिर्यक्षु कामिता म.भा. इति न्यायेन अनर्थहेतुषु निषिद्धेषूपायेषु निमज्जेयुरिति भयात्परमकारुणिकोऽहमेव तत्तदाराधनहेतुश्रद्धाविघ्नशान्तिं तत्फलं च प्रयच्छामीति श्लोकद्वयेनाह यो य इति। एक एवश्वरो रामकृष्णाद्यवतारवदादित्यादिविग्रहभाक् न तु चेतनान्तरमस्तीति कुदृष्टिमतनिरासायाह ता अपीति।अयमभिप्रायः पूर्वश्लोकेप्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः 7।20 इति निर्देशं न तावदीश्वरासाधारणविग्रहविशेषविषयस्तद्विशिष्टेश्वरविषयो वा भवितुमर्हति तत्रान्यदेवतात्वव्यपदेशायोगाद्रामकृष्णादिवदेव। ततश्च चेतनान्तरविषयत्वमवश्याभ्युपगमनीयम्।देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि 7।23 इति च पृथग्वक्ष्यते। अतोऽत्र तनुशब्दः पूर्वोत्तरपरामर्शवशाच्चेतनविशेषविषयः इति सर्वासां चेतनविशेषरूपदेवतानामीश्वरशरीरत्वप्रदर्शनार्थं श्रुतिमुदाहरतिय आदित्य इति। नात्र तनुत्वेन भजनं विवक्षितम्। तथा सति प्रतर्दनविद्यादिष्विव परमात्मोपासनत्वप्रसङ्गात्।न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेन 9।24 इति वक्ष्यमाणत्वाच्चेत्यभिप्रायेणाह मदीयास्तनव इति। अजानन्नपीति। तर्हि तनुत्वेनात्र निर्देशोऽनुपपन्नो निरर्थकश्चयां यां देवतां इत्येव हि वक्तव्यमित्यत्राह तस्य तस्येति। यथा नरपतेरात्मस्वरूपमजानतोऽपि राजशरीरप्रसाधनादिकं कर्तुरन्ततो राजात्मनैव फलमिति न्यायसूचनादुपपन्नोऽत्र तनुशब्द इति भावः। जातायाः श्रद्धाया अचलत्वं नाम प्रतिबन्धकराहित्येनाफललाभाय निरन्तरसन्तन्यमानत्वमित्यभिप्रायेणोक्तंनिर्विघ्नामिति।
।।7.21।।अतोऽहमपि तान् स्वरूपरसदानायोग्यांस्तद्देवताभजने दृढान् करोमीत्याह यो य इति। यो यो भक्तो यां यां तनुं यां यां देवतामूर्तिं श्रद्धया स्वकामसिद्ध्यर्थं शुद्धान्तःकरणेन अर्चितुमिच्छति तस्य भक्तस्य तामेव श्रद्धामचलां शास्त्रज्ञानादिना वा चालयितुमयोग्यामहमेव विदधामि करोमि पोषयामि चेत्यर्थः।
।।7.21।।किंच यो यो भक्तः सात्विको राजसस्तामसो वा यां यां तनुं तादृशीमेव देवादिरूपां यक्षरक्षोरूपां भूतप्रेतरूपां वा मूर्तिं श्रद्धया तादृश्यैवार्चितुमिच्छति तस्य तस्य भक्तस्य तामेव श्रद्धां सात्त्विकीं राजसीं तामसीं वाहं सर्वेश्वरोऽचलां विदधामि।
।।7.21।।ननु तत्तत्कामैर्हृतज्ञानानामपि तेषां तत्तद्देवतानुग्रहात्क्रमेण विवेके लब्धे त्वयि वासुदेवे भक्तिर्मविष्यतीति चेत्तत्राह य इति। यः कामी यां यां देवतातनुं श्रद्धया संयुक्तो भक्तः सन्नर्चितुं पूजयितुमिच्छति तस्य तस्य कामिनः श्रद्धां यया भक्तः सन्नर्चितुमिच्छति तामेवाचलां स्थिरां विदधामि करोमि। यां यां तनुमिति यच्छब्धान्वयस्तु यो यां देवतातनुमर्चितुमिच्छतीत्यादिवदद्भिराचार्यौरुत्तरश्लोकस्थ तस्या इत्यनेन दर्शितः। एतेन यां देवतातनुं प्रति श्रद्धां विदधामि तामेव श्रद्धामिति व्याख्याने यच्छब्दान्वयः स्पष्टस्तस्मात्प्रतिशब्दमध्याहृत्य व्याख्यातमिति प्रत्युक्तम्। तामेव श्रद्धामिति भाष्यकृद्य्धाख्याने प्रतिशब्दाध्याहारं विनैव उक्तरीत्या यच्छब्दान्वयस्य स्पष्टत्वेननैवंवदतामज्ञताया अतिस्फटत्वात्।
7.21 यः who? यः who? याम् which? याम् which? तनुम् form? भक्तः devotee? श्रद्धया with faith? अर्चितुम् to worship? इच्छति desires? तस्य तस्य of him? अचलाम् unflinching? श्रद्धाम् faith? ताम् that? एव surely? विदधामि make? अहम् I.Commentary Tanu or body is used here in the sense of a Devata (god).The Lord? the indweller of all beings? makes the faith of that devotee who worships the lesser divinities? which is born of the Samskaras of his previous birth? steady and unswerving. (Cf.IV.11IX.22and23)
7.21 Whatsoever form any devotee desires to worship with faith that (same) faith of his I make firm and unflinching.
7.21 But whatever the form of worship, if the devotee have faith, then upon his faith in that worship do I set My own seal.
7.21 Whichever form (of a deity) any devotee wants to worship with faith, that very firm faith of his I strengthen.
7.21 Yam yam, whichever; tanum, form of a deity; yah, any covetous person- among these people with desires; who, being endowed sraddhaya, with faith; and being a bhaktah, devotee; icchati, wants; arcitum, to worship; tam eva, that very; acalam, firm, steady; sraddham, faith; tasya, of his, of that particular covetous person-that very faith with which he desires to worship whatever form of a deity, in which (worship) he was earlier engaged under the impulsion of his own nature-; [Ast. takes the portion 'svabhavatah yo yam devata-tanum sraddhaya arcitum icchati' with the next verse.-Tr.] vidadhami, I strengthen.
7.21. Whatever may be the form [of the deity] a devotee-whosoever he may be-desires to worship with faith, I assume that form which is firm and is according to [his] faith.
7.21 See Comment under 7.23
7.21 These divinities too constitute My body as taught in the Sruti text like: 'He who, dwelling in the sun, whom the sun does not know, whose body is the sun' (Br. U., 3.7.9). Whichever devotee seeks to worship with faith whatever form of Mine, such as the Indra, although not knowing these divinities to be My forms, I consider his faith as being directed to My bodies or manifestations, and make his faith steadfast, i.e., make it free from obstacles.
7.21 Whichever devotee seeks to worship with faith whatever form, I make that very faith steadfast.
।।7.21।।उन कामी पुरुषोंमेंसे जोजो सकाम भक्त जिसजिस देवताके स्वरूपका श्रद्धा और भक्तियुक्त होकर अर्चनपूजन करना चाहता है उसउस भक्तकी देवताविषयक उस श्रद्धाको मैं अचल स्थिर कर देता हूँ। अभिप्राय यह कि जो पुरुष पहले स्वभावसे ही प्रवृत्त हुआ जिस श्रद्धाद्वारा जिस देवताके स्वरूपका पूजन करना चाहता है (उस पुरुषकी उसी श्रद्धाको मैं स्थिर कर देता हूँ )।
।।7.21।। यः यः कामी यां यां देवतातनुं श्रद्धया संयुक्तः भक्तश्च सन् अर्चितुं पूजयितुम् इच्छति तस्य तस्य कामिनः अचलां स्थिरां श्रद्धां तामेव विदधामि स्थिरीकरोमि।।ययैव पूर्वं प्रवृत्तः स्वभावतो यः यां देवतातनुं श्रद्धया अर्चितुम् इच्छति
।।7.21 7.22।।रामकृष्णादिरूपां भगवत्तनुमिति प्रतीतिनिरासायाह यां यामिति। कुत एतत्अन्तवत्तु फलं तेषां 7।23 इति तद्भक्तानामन्तवत्फलवचनात्। तस्य च ब्रह्मादिग्रहणे सम्भवाद्भगवद्ग्रहणे चाम्सम्भवादिति भावेनाह उक्त चेति। फलस्येति शेषः। गम्यत इति गतिः इत्यादेः प्रश्नस्य परिहाररूपवाक्यसन्दर्भाच्च। बहुत्वादनुदाहरणमिति भावः। अनन्तफलत्वं मूलरूपभक्तानामस्तु अवतारतनुभक्तानामन्तवत्फलाङ्गीकारे को विरोधः इत्यत आह अवतार इति। कुत्र चावतारे।
।।7.21 7.22।।यां यां ब्रह्मादिरूपां तनुम्। उक्तं च नारदीयेअन्तो ब्रह्मादिभक्तानां मद्भक्तानामनन्तता इति।मुक्तश्च कां गतिं गच्छेन्मोक्षश्चैव किमात्मकः म.भा.12।334।3 इत्यादेः परिहारसन्दर्भाच्च मोक्षधर्मेषु।अवतारे महाविष्णोर्भक्तः कुत्र च मुच्यते त्यादेश्च ब्रह्मवैवर्ते।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21।।
যো যো যাং যাং তনুং ভক্তঃ শ্রদ্ধযার্চিতুমিচ্ছতি৷ তস্য তস্যাচলাং শ্রদ্ধাং তামেব বিদধাম্যহম্৷৷7.21৷৷
যো যো যাং যাং তনুং ভক্তঃ শ্রদ্ধযার্চিতুমিচ্ছতি৷ তস্য তস্যাচলাং শ্রদ্ধাং তামেব বিদধাম্যহম্৷৷7.21৷৷
યો યો યાં યાં તનું ભક્તઃ શ્રદ્ધયાર્ચિતુમિચ્છતિ। તસ્ય તસ્યાચલાં શ્રદ્ધાં તામેવ વિદધામ્યહમ્।।7.21।।
ਯੋ ਯੋ ਯਾਂ ਯਾਂ ਤਨੁਂ ਭਕ੍ਤ ਸ਼੍ਰਦ੍ਧਯਾਰ੍ਚਿਤੁਮਿਚ੍ਛਤਿ। ਤਸ੍ਯ ਤਸ੍ਯਾਚਲਾਂ ਸ਼੍ਰਦ੍ਧਾਂ ਤਾਮੇਵ ਵਿਦਧਾਮ੍ਯਹਮ੍।।7.21।।
ಯೋ ಯೋ ಯಾಂ ಯಾಂ ತನುಂ ಭಕ್ತಃ ಶ್ರದ್ಧಯಾರ್ಚಿತುಮಿಚ್ಛತಿ. ತಸ್ಯ ತಸ್ಯಾಚಲಾಂ ಶ್ರದ್ಧಾಂ ತಾಮೇವ ವಿದಧಾಮ್ಯಹಮ್৷৷7.21৷৷
യോ യോ യാം യാം തനും ഭക്തഃ ശ്രദ്ധയാര്ചിതുമിച്ഛതി. തസ്യ തസ്യാചലാം ശ്രദ്ധാം താമേവ വിദധാമ്യഹമ്৷৷7.21৷৷
ଯୋ ଯୋ ଯାଂ ଯାଂ ତନୁଂ ଭକ୍ତଃ ଶ୍ରଦ୍ଧଯାର୍ଚିତୁମିଚ୍ଛତି| ତସ୍ଯ ତସ୍ଯାଚଲାଂ ଶ୍ରଦ୍ଧାଂ ତାମେବ ବିଦଧାମ୍ଯହମ୍||7.21||
yō yō yāṅ yāṅ tanuṅ bhaktaḥ śraddhayārcitumicchati. tasya tasyācalāṅ śraddhāṅ tāmēva vidadhāmyaham৷৷7.21৷৷
யோ யோ யாஂ யாஂ தநுஂ பக்தஃ ஷ்ரத்தயார்சிதுமிச்சதி. தஸ்ய தஸ்யாசலாஂ ஷ்ரத்தாஂ தாமேவ விததாம்யஹம்৷৷7.21৷৷
యో యో యాం యాం తనుం భక్తః శ్రద్ధయార్చితుమిచ్ఛతి. తస్య తస్యాచలాం శ్రద్ధాం తామేవ విదధామ్యహమ్৷৷7.21৷৷
7.22
7
22
।।7.22।। उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई) श्रद्धासे युक्त होकर वह मनुष्य (सकामभावपूर्वक) उस देवताकी उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है; परन्तु वह कामना-पूर्ति मेरे द्वारा  विहित की हुई होती है।
।।7.22।। वह (भक्त) उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उससे मेरे द्वारा विधान किये हुये इच्छित भोगों को नि:सन्देह प्राप्त करता है।।
।।7.22।। वह भक्त उस श्रद्धा से युक्त होकर अपने इष्ट देवता की आराधना करता है जिसके फलस्वरूप वह देवता उसकी इच्छा को पूर्ण करता है। परन्तु भगवान् कहते हैं कि वास्तव में कर्मफलदाता वे ही हैं। सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमात्मा ही समस्त जगत् का आदि कारण होने से मनुष्य को कर्म करने की और देवताओं को फल प्रदान करने की सार्मथ्य उन्हीं से प्राप्त होती है। इष्टानिष्ट फलों की प्राप्ति से सुख दुखादि का अनुभव अन्तकरण में होता है जिसे आत्मचैतन्य प्रकाशित करता है। उसके बिना इस प्रकार का कोई अनुभव प्राप्त नहीं हो सकता।श्रद्धा के साथ किये हुये पूजन से ईश्वर द्वारा विधान किये हुए नियम के अनुसार फल प्राप्त होता है। यहाँ श्रीकृष्ण अपने परमात्म स्वरूप के साथ तादात्म्य करके कहते हैं वे इष्ट फल मेरे द्वारा ही दिये जाते हैं।अविवेकी लोग अनित्य भोगों की कामना करते हैं इसलिए उन्हें कभी शाश्वत शान्ति प्राप्त नहीं होती अत कहते हैं
।।7.22।। व्याख्या--स तया श्रद्धया युक्तः ৷৷. मयैव विहितान्हि तान् मेरे द्वारा दृढ़ की हुई श्रद्धासे सम्पन्न हुआ वह मनुष्य उस देवताकी आराधनाकी चेष्टा करता है और उस देवतासे जिस कामनापूर्तिकी आशा रखता है, उस कामनाकी पूर्ति होती है। यद्यपि वास्तवमें उस कामनाकी पूर्ति मेरे द्वारा ही की हुई होती है; परन्तु वह उसको देवतासे ही पूरी की हुई मानता है। वास्तवमें देवताओंमें मेरी ही शक्ति है और मेरे ही विधानसे वे उनकी कामनापूर्ति करते हैं। जैसे सरकारी अफसरोंको एक सीमित अधिकार दिया जाता है कि तुमलोग अमुक विभागमें अमुक अवसरपर इतना खर्च कर सकते हो, इतना इनाम दे सकते हो। ऐसे ही देवताओंमें एक सीमातक ही देनेकी शक्ति होती है; अतः वे उतना ही दे सकते हैं, अधिक नहीं। देवताओंमें अधिक-से-अधिक इतनी शक्ति होती है कि वे अपने-अपने उपासकोंको अपने-अपने लोकोंमें ले जा सकते हैं। परन्तु अपनी उपासनाका फल भोगनेपर उनको वहाँसे लौटकर पुनः संसारमें आना पड़ता है (गीता 8। 16)।यहाँ 'मयैव'कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें स्वतः जो कुछ संचालन हो रहा है, वह सब मेरा ही किया हुआ है। अतः जिस किसीको जो कुछ मिलता है, वह सब मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है। कारण कि मेरे सिवाय विधान करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। अगर कोई मनुष्य इस रहस्यको समझ ले, तो फिर वह केवल मेरी तरफ ही खिंचेगा।
।।7.20 7.23।।कामैरित्यादि मामपीत्यन्तम्। ये पुनः स्वेन स्वेनोत्तमादिकामनास्वभावेन विचित्रेण परिच्छिन्नमनसस्ते कामनापहृतचेतनाः (N चेतस)) तत्समुचितामेव ममैवावान्तरतनुं देवताविशेषमुपासते। अतो मत एव कामफलमुपाददते (S पासते)। किं तु तस्यान्तोऽस्ति निजयैव वासनया परिमितीकृतत्त्वात्। अत एवेन्द्रादिभावनातात्पर्येण यागादि कुर्वन्तस्तथाविधमेव फलमुपाददते। मत्प्राप्तिपरास्तु मामेव।
।।7.22।।स तया निर्विघ्नया श्रद्धया युक्तः तस्य इन्द्रादेः आराधनं प्रति ईहते चेष्टते ततः मत्तनुभूतेन्द्रादिदेवताराधनात् तान् एव हि स्वाभिलषितान् कामान् मया एव विहितान् लभते।यद्यपि आराधनकाले इन्द्रादयो मदीयाः तनवः तत एव तदर्चनं च मदाराधनम् इति न जानाति तथापि तस्य वस्तुतो मदाराधनत्वाद् आराधकाभिलषितम् अहम् एव विदधामि।
।।7.22।।ईहते निर्वर्तयतीत्यर्थः। आराधितदेवताप्रसादात्फलप्राप्तौ किमीश्वरेणेत्याशङ्क्य तस्य सर्वज्ञस्य कर्मफलविभागाभिज्ञस्य तत्तद्देवताधिष्ठातृत्वात्तस्यैव फलदातृत्वमित्याह सर्वज्ञेनेति।एको बहूनां यो विदधाति कामान् इत्यादिश्रुतिमाश्रित्य हि तानिति पदद्वयं व्याचष्टे यस्मादिति। हितानित्येकं पदमिति पक्षं प्रत्याह हितानिति। मुख्यत्वसंभवे किमित्यौपचारिकत्वमित्याशङ्क्याह नहीति।
।।7.22।।ततश्च स तयेति। ततो मदङ्गभूतादुपास्यदेवात् लभते कामान् मयैवाङ्गिना विहितान्निर्मितान् प्राप्नोति। यद्यप्याराधनकालेऽपि मामेवमवयविनमविजानंस्तामेव भजते स भक्तस्तथापि वस्तुतो मदाराधनत्वात् मन्निर्मितमेव फलं तल्लभते। यथा शरीरं पुरुषदत्तं वस्तुत आत्मदत्तमित्यात्मभजनस्यैव मुख्यत्वं युक्तं शाखिमूलसेचनवदिति भावः।
।।7.22।।स कामी तया मद्विहितया स्थिरया श्रद्धया युक्तस्तस्या देवतातन्वा राधनं पूजनमीहते निर्वर्तयति। उपसर्गरहितोऽपि राधयतिः पूजार्थः। सोपसर्गत्वे ह्याकारः श्रुयेत। लभते च ततस्तस्या देवतातन्वाः सकाशात्कामानीप्सितांस्तान्पूर्वसंकल्पितान्।हि प्रसिद्धम्। मयैव सर्वज्ञेन सर्वकर्मफलदायिना तत्तद्देवतान्तर्यामिणा विहितांस्तत्तत्फलविपाकसमये निर्मितान् हितान्मनःप्रियानित्यैकपद्यं वा। अहितत्वेऽपि हिततया प्रतीयमानानित्यर्थः।
।।7.22।। ततश्च स तयेति। स भक्तस्तया दृढया श्रद्धया तस्यास्तनोराराधनमीहते करोति। ततश्च ये संकल्पिताः कामास्तान्कामान् ततो देवताविशेषाल्लभते किंतु मयैव तत्तद्देवतान्तर्यामिणा विहितान्निर्मितान् हि स्फुटमेव तत्तद्देवतानामपि मदधीनत्वान्मममूर्तित्वाच्चेत्यर्थः।
।।7.22।।स तया इति श्लोकेऽपि पूर्ववद्वीप्सा भाव्या।तया इत्यस्य प्रस्तुतोपयुक्ताकारपरामर्शित्वज्ञापनायनिर्विघ्नयेत्युक्तम्। स्त्रीलिङ्गेन देवताशब्देन तनुशब्देन च पूर्वनिर्देशेऽपितस्य इति पुँल्लिङ्गेन बुद्धिस्थतत्तद्देवपरः।देवान्देवयजो यान्ति 7।23 इति ह्यनन्तरमुच्यत इत्यभिप्रायेण तस्येन्द्रादेरित्युक्तम्। यद्यपितस्याः इति पदच्छेदः शक्यः तथापिराधनं इत्यस्योपसर्गरहितस्य आराधने प्रसिद्ध्यभावात्तदनादरः। यद्वा फलितोक्तिरियंराधनं इत्येव पदच्छेदः।तत इति व्याख्येयनिर्देशः। तद्व्याख्यानंमत्तनुभूतेन्द्रादिदेवताराधनादिति।अयमभिप्रायः ततः इत्यस्येन्द्रादिपरत्वं मन्दम्मयैव विहितान् इति स्वस्यैव फलदातृत्ववचनात्। ततस्तन्निमित्तमेवात्रापेक्षितम्। अतःतस्याराधनमीहते इति प्रधानतया प्रस्तुतपरामर्श एवायमिति।हि तान् इत्यत्र हीत्यव्ययम्। सर्वत्र च तच्छब्दनिर्देशात्कामान् इत्यत्रापितान् इति विशेषणमुचितम् भगवतः समस्ताभिलषितदायित्वसूचनादपेक्षितं च। हितत्ववचनं च प्रकरणविरुद्धम्।अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् 7।23 इति तन्निन्दाप्रवृत्तत्वादित्यभिप्रायेणोक्तंतानेव ही स्वाभिलषितानिति। त्वद्विषयज्ञानहीनस्थ त्वया फलदानं कथं इत्यत्रमयैव इत्यवधारणाभिप्रेतमाहयद्यपीति। एतदप्यत्र स्मारितं यद्यपीत्यवधारणार्थमाह मदाराधनत्वादितिअहं हि सर्वयज्ञानां 9।24 इत्येतदत्र भाव्यम्। इष्टापूर्तं बहुधा जातं जायमानं विश्वं बिभर्ति भुवनस्य नाभिः म.ना.1।6 इति च श्रुतिः।
।।7.22।।ततः स मत्कृतश्रद्धया तस्याऽऽराधनं करोतीत्याह स तयेति। स तया मत्कृतया श्रद्धया युक्तस्तस्या मूर्तेराराधनमीहते करोति। ततः श्रद्धातः स्वशुद्धान्तःकरणतस्तान् कामान् स्वमनोरथरूपान् मयैव विहितान् निर्मितान् अन्यया मदाज्ञां विना देवादीनां न सामर्थ्यम् अतो मयैव निश्चयेन विहिताँल्लभते प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।7.22।।ततश्च स तया श्रद्धया युक्तः सन् तस्या मूर्तेराराधनं ससाधनं वशीकरणमीहते इच्छति। ततश्च कामान्विषयांल्लभते। मयैव विहितानाज्ञापितान्। हितानीप्सितान्। एतेन सर्वासां देवतानां स्वाज्ञावशवर्तित्वं दर्शितम्।
।।7.22।।यो यां देवतातनुं अर्चितुमिच्छति स तया मद्विहितयाऽचलया श्रद्धया युक्तः तस्या देवतातन्वा राधनं आराधनमर्जनमीहते चेष्टते करोति। ततस्तस्या आराधितायाः देवतातन्वाः सकाशादवश्यं कामानीप्सितान् लभते च। हि यस्मान्मया कर्मफलविभागज्ञेन भगवता विहिताः निर्मिताः। अतस्तान् हि स्फुटमेतदिति तु तत्तद्देवतास्वातन्ज्ञत्र्यप्रतिपादकशास्त्रे लोके चास्यास्फुटत्वादाचार्यैर्न व्याख्यातम्। हितानिति पदच्छेदे तु वस्तुतोऽहितानां कामानां हितत्वमौपचारिकं कल्पनीयम्।
7.22 सः he? तया with that? श्रद्धया with faith? युक्तः endowed? तस्य of it? आराधनम् worship? ईहते engages in? लभते obtains? च and? ततः from that? कामान् desires? मया by Me? एव surely? विहितान् ordained? हि verily? तान् those.Commentary The last two words Hi and Tan are taken as one word? Hitan meaning benefits. This is another interpretation. The devotee who worships the lesser gods attains the objects of his desire (minor psychic powers? etc.). Those objects are ordained by the Lord only as He alone knows exactly the relation between the actions and their results or rewards and as He is the Inner Ruler of all beings. Unwise or undiscriminating people only take recourse to the means of getting these finite rewards which can hardly give entire satisfaction. Pitiable indeed is their lot They have,no power of eniry (VicharaSakti) or right understanding. They get hold of pieces of glass instead of attaining the jewel of the Self? of incalculabe value.
7.22 Endowed with that faith, he engages in the worship of that (form) and from it he obtains his desire, these being verily ordained by Me (alone).
7.22 If he worships one form alone with real faith, then shall his desires be fulfilled through that only; for thus have I ordained.
7.22 Being imbued with that faith, that person engages in worshipping that form, and he gets those very desired results therefrom as they are dispensed by Me alone.
7.22 Yuktah,being endued; taya, with that; sraddhaya, faith, as granted by Me; sah, that person; ihate, engages in; radhanam, i.e. aradhanam, worshipping; tasyah, that form of the deity. And labhate, he gets; tan hi, those very; kaman, desired results; tatah, there-from, from that form of the deity which was worshipped; as vihitan, they are dispensed, meted out; maya eva, by Me alone, who am the omniscient, supreme God, because I am possessed of the knowledge of the apportionment of the results of actions. The meaning his that he surely gets those desired results since they are ordained by God. If the reading be hitan (instead of hi tan), then the beneficence (-hita means beneficent-) of the desired result should be interpreted in a figurative sense, for desires cannot be beneficial to anyone!
7.22. Endowed with that faith, he seeks to worship that deity and therefrom receives his desired objects that are ordained by none but Me.
7.22 See Comment under 7.23
7.22 He, endowed with that faith without obstacles, performs the worship of Indra and other divinities. Thence, i.e., from the worship of Indra and other divinities, who constitute My body, he attains the objects of his desire, which are in reality granted by Me alone. Although he does not know at the time of worship that divinities like Indra, who are his objects of worship, are My body only, and that worship of them is My worship, still, inasmuch as this worship is, in reality, My worship, he attains his objects of desire granted by Me alone.
7.22 Endowed with that faith, he worships that form and thence gets the objects of his desire, granted in reality by Me alone.
।।7.22।।मेरे द्वारा स्थिर की हुई उस श्रद्धासे युक्त हुआ वह उसी देवताके स्वरूपकी सेवा पूजा करनेमें तत्पर होता है। और उस आराधित देवविग्रहसे कर्मफलविभागके जाननेवाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वरद्वारा निश्चित किये हुए इष्ट भोगोंको प्राप्त करता है। वे भोग परमेश्वरद्वारा निश्चित किये होते हैं इसलिये वह उन्हें अवश्य पाता है यह अभिप्राय है। यहाँपर यदि हितान् ऐसा पदच्छेद करें तो भोगोंमे जो हितत्व है उसको औपचारिक समझना चाहिये क्योंकि वास्तवमें भोग किसीके लिये भी हितकर नहीं हो सकते।
।।7.22।। स तया मद्विहितया श्रद्धया युक्तः सन् तस्याः देवतातन्वाः राधनम् आराधनम् ईहते चेष्टते। लभते च ततः तस्याः आराधितायाः देवतातन्वाः कामान् ईप्सितान् मयैव परमेश्वरेण सर्वज्ञेन कर्मफलविभागज्ञतया विहितान् निर्मितान् तान् हियस्मात् ते भगवता विहिताः कामाः तस्मात् तान् अवश्यं लभते इत्यर्थः। हितान् इति पदच्छेदे हितत्वं कामानामुपचरितं कल्प्यम् न हि कामा हिताः कस्यचित्।।यस्मात् अन्तवत्साधनव्यापारा अविवेकिनः कामिनश्च ते अतः
।।7.21 7.22।।रामकृष्णादिरूपां भगवत्तनुमिति प्रतीतिनिरासायाह यां यामिति। कुत एतत्अन्तवत्तु फलं तेषां 7।23 इति तद्भक्तानामन्तवत्फलवचनात्। तस्य च ब्रह्मादिग्रहणे सम्भवाद्भगवद्ग्रहणे चाम्सम्भवादिति भावेनाह उक्त चेति। फलस्येति शेषः। गम्यत इति गतिः इत्यादेः प्रश्नस्य परिहाररूपवाक्यसन्दर्भाच्च। बहुत्वादनुदाहरणमिति भावः। अनन्तफलत्वं मूलरूपभक्तानामस्तु अवतारतनुभक्तानामन्तवत्फलाङ्गीकारे को विरोधः इत्यत आह अवतार इति। कुत्र चावतारे।
।।7.21 7.22।।यां यां ब्रह्मादिरूपां तनुम्। उक्तं च नारदीयेअन्तो ब्रह्मादिभक्तानां मद्भक्तानामनन्तता इति।मुक्तश्च कां गतिं गच्छेन्मोक्षश्चैव किमात्मकः म.भा.12।334।3 इत्यादेः परिहारसन्दर्भाच्च मोक्षधर्मेषु।अवतारे महाविष्णोर्भक्तः कुत्र च मुच्यते त्यादेश्च ब्रह्मवैवर्ते।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते। लभते च ततः कामान्मयैव विहितान् हि तान्।।7.22।।
স তযা শ্রদ্ধযা যুক্তস্তস্যারাধনমীহতে৷ লভতে চ ততঃ কামান্মযৈব বিহিতান্ হি তান্৷৷7.22৷৷
স তযা শ্রদ্ধযা যুক্তস্তস্যারাধনমীহতে৷ লভতে চ ততঃ কামান্মযৈব বিহিতান্ হি তান্৷৷7.22৷৷
સ તયા શ્રદ્ધયા યુક્તસ્તસ્યારાધનમીહતે। લભતે ચ તતઃ કામાન્મયૈવ વિહિતાન્ હિ તાન્।।7.22।।
ਸ ਤਯਾ ਸ਼੍ਰਦ੍ਧਯਾ ਯੁਕ੍ਤਸ੍ਤਸ੍ਯਾਰਾਧਨਮੀਹਤੇ। ਲਭਤੇ ਚ ਤਤ ਕਾਮਾਨ੍ਮਯੈਵ ਵਿਹਿਤਾਨ੍ ਹਿ ਤਾਨ੍।।7.22।।
ಸ ತಯಾ ಶ್ರದ್ಧಯಾ ಯುಕ್ತಸ್ತಸ್ಯಾರಾಧನಮೀಹತೇ. ಲಭತೇ ಚ ತತಃ ಕಾಮಾನ್ಮಯೈವ ವಿಹಿತಾನ್ ಹಿ ತಾನ್৷৷7.22৷৷
സ തയാ ശ്രദ്ധയാ യുക്തസ്തസ്യാരാധനമീഹതേ. ലഭതേ ച തതഃ കാമാന്മയൈവ വിഹിതാന് ഹി താന്৷৷7.22৷৷
ସ ତଯା ଶ୍ରଦ୍ଧଯା ଯୁକ୍ତସ୍ତସ୍ଯାରାଧନମୀହତେ| ଲଭତେ ଚ ତତଃ କାମାନ୍ମଯୈବ ବିହିତାନ୍ ହି ତାନ୍||7.22||
sa tayā śraddhayā yuktastasyārādhanamīhatē. labhatē ca tataḥ kāmānmayaiva vihitān hi tān৷৷7.22৷৷
ஸ தயா ஷ்ரத்தயா யுக்தஸ்தஸ்யாராதநமீஹதே. லபதே ச ததஃ காமாந்மயைவ விஹிதாந் ஹி தாந்৷৷7.22৷৷
స తయా శ్రద్ధయా యుక్తస్తస్యారాధనమీహతే. లభతే చ తతః కామాన్మయైవ విహితాన్ హి తాన్৷৷7.22৷৷
7.23
7
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।।7.23।। परन्तु उन अल्पबुद्धिवाले मनुष्योंको उन देवताओंकी आराधनाका फल अन्तवाला (नाशवान्) ही मिलता है। देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे ही प्राप्त होते हैं।
।।7.23।। परन्तु उन अल्प बुद्धि पुरुषों का वह फल नाशवान् होता है। देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।।
।।7.23।। नाशवान् भोगों की इच्छा को पूर्ण करने के लिए मनुष्य जो कर्म करता है वह अनित्य होने से उसका फल भी क्षणभंगुर ही होता है। स्वर्ण से बने आभूषण स्वर्ण ही होंगे। कार्य का गुणधर्म पूर्णतया कारण पर निर्भर करता है।देशकाल से परिच्छिन्न कर्मों से प्राप्त फल अनित्य ही होगा चाहे वह सुख हो या दुख। सुख का अन्त दुख का प्रारम्भ है। अत जब कोई इच्छा पूर्ण हो जाती है तब यद्यपि क्षणमात्र के लिए सुख का आभास भी होता है परन्तु शीघ्र ही उसके समाप्त होने पर दुख का कटु अनुभव मनुष्य को होता है।भगवान् श्रीकृष्ण सामान्य नियम बताते हैं कि देवपूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं। जिस नियम का जो अधिष्ठाता देवता है या जिस क्षेत्र में जो उत्पादन क्षमता है उसका आह्वान करने पर मनुष्य केवल उसी फल को प्राप्त कर सकता है।इसी प्रकार मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। परिच्छिन्न भोगों के लिए मनुष्य इतना अधिक प्रयत्न करके अन्त में क्षणिक फल को ही प्राप्त करता है। यदि वही प्रयत्न वह दैवी जीवन जीने में करे तो उसे नित्य आनन्दस्वरूप की उपलब्धि हो सकती है। किन्तु मन की बहिर्मुखी प्रवृत्तियों के कारण वह अनात्म उपाधियों से तादात्म्य करके बाह्य वैषयिक जगत् में ही रमता है।विवेकी पुरुष विषयोपभोग की तुच्छता और व्यर्थता को पहचान कर उनसे विरक्त हो जाते हैं। विवेक और वैराग्य से सम्पन्न होकर जब वे आत्मस्वरूप का ध्यान करते हैं तब उन्हें परम आनन्दस्वरूप की वह अनुभूति होती है जो शरीर मन और बुद्धि तीनों के परे है नित्य है।गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने जो मैं शब्द का प्रयोग किया है वह उस अनन्त तत्त्व को सूचित करता है जो व्यष्टि और समष्टि का अधिष्ठान है। अत वे कहते हैं कि मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं तब उनका तात्पर्य ऐतिहासिक पुरुष देवकी पुत्र कृष्ण से नहीं वरन् चैतन्यस्वरूप पुरुष से होता है। इस दृष्टि से आत्मवित् आत्मस्वरूप ही बन जाता है। यही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का वास्तविक अभिप्राय है।तब क्या कारण है कि सामान्य जन आपको प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करता उत्तर है
।।7.23।। व्याख्या--'अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्'--देवताओंकी उपासना करनेवाले अल्पबुद्धि-युक्त मनुष्योंको अन्तवाला अर्थात् सीमित और नाशवान् फल मिलता है। यहाँ शङ्का होती है कि भगवान्के द्वारा विधान किया हुआ फल तो नित्य ही होना चाहिये, फिर उनको अनित्य फल क्यों मिलता है? इसका समाधान यह है कि एक तो उनमें नाशवान् पदार्थोंकी कामना है और दूसरी बात, वे देवताओंको भगवान्से अलग मानते हैं। इसलिये उनको नाशवान् फल मिलता है। परन्तु उनको दो उपायोंसे अविनाशी फल मिल सकता है--एक तो वे कामना न रखकर (निष्कामभावसे) देवताओंकी उपासना करें तो उनको अविनाशी फल मिल जायगा और दूसरा, वे देवताओंको भगवान्से भिन्न न समझकर, अर्थात् भगवत्स्वरूप ही समझकर उनकी उपासना करें तो यदि कामना रह भी जायगी, तो भी समय पाकर उनको अविनाशी फल मिल सकता है अर्थात् भगवत्प्राप्ति हो सकती है।यहाँ 'तत्' कहनेका तात्पर्य है कि फल तो मेरा विधान किया हुआ ही मिलता है, पर कामना होनेसे वह नाशवान् हो जाता है।यहाँ 'अल्पमेधसाम्' कहनेका तात्पर्य है कि उनको नियम तो अधिक धारण करने पड़ते हैं तथा विधियाँ भी अधिक करनी पड़ती हैं, पर फल मिलता है सीमित और अन्तवाला। परन्तु मेरी आराधना करनेमें इतने नियमोंकी जरूरत नहीं है तथा उतनी विधियोंकी भी आवश्यकता नहीं है, पर फल मिलता है असीम और अनन्त। इस तरह देवताओंकी उपासनामें नियम हों अधिक, फल हो थोड़ा और हो जाय जन्म-मरणरूप बन्धन और मेरी आराधनामें नियम हों कम, फल हो अधिक और हो जाय कल्याण--ऐसा होनेपर भी वे उन देवताओंकी उपासनामें लगते हैं और मेरी उपासनामें नहीं लगते। इसलिये उनकी बुद्धि अल्प है, तुच्छ है।
।।7.20 7.23।।कामैरित्यादि मामपीत्यन्तम्। ये पुनः स्वेन स्वेनोत्तमादिकामनास्वभावेन विचित्रेण परिच्छिन्नमनसस्ते कामनापहृतचेतनाः (N चेतस)) तत्समुचितामेव ममैवावान्तरतनुं देवताविशेषमुपासते। अतो मत एव कामफलमुपाददते (S पासते)। किं तु तस्यान्तोऽस्ति निजयैव वासनया परिमितीकृतत्त्वात्। अत एवेन्द्रादिभावनातात्पर्येण यागादि कुर्वन्तस्तथाविधमेव फलमुपाददते। मत्प्राप्तिपरास्तु मामेव।
।।7.23।।तेषाम् अल्पमेधसाम् अल्पबुद्धीनाम् इन्द्रादिमात्रयाजिनां तदाराधनफलं स्वल्पम् अन्तवत् च भवति। कुतः देवान् देवयजो यान्ति यत इन्द्रादीन् देवान् तद्याजिनो यान्ति। इन्द्रादयो हि परिच्छिन्नभोगाः परिमितकालवर्तिनश्च। ततः तत्सायुज्यं प्राप्ताः तैः सह प्रच्यवन्ते।मद्भक्ता अपि तेषाम् एव कर्मणां मदाराधनरूपतां ज्ञात्वा परिच्छिन्नफलसङ्गं त्यक्त्वा मत्प्रीणनैकप्रयोजनाः माम् एव प्राप्नुवन्ति न च पुनर्निवर्तन्तेमामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते (गीता 8।16) इति वक्ष्यते।इतरे तु सर्वसमाश्रयणीयत्वाय मम मनुष्यादिषु अवतारम् अपि अकिञ्चित्करं कुर्वन्ति इत्याह
।।7.23।।प्रेक्षापूर्वकारिणि कामानां हितत्वाभावे हेतुमाह यस्मादिति। किञ्च ये कामिनस्ते न विवेकिनस्ततश्चाविवेकपूर्वकत्वात्कामानां कुतो हितत्वाशङ्केत्याह अविवेकिन इति। कामानामनन्तफलत्वेन हितत्वमाशङ्क्याह अत इति। तेषामविवेकपूर्वकत्वमतःशब्दार्थः। तुशब्दोऽवधारणार्थः। कामफलस्य विनाशित्वेकिमिति कामनिष्ठत्वं जन्तूनामित्याशङ्क्य प्रज्ञामान्द्यादित्याह अल्पेति। किं तर्हि साधनमनन्तफलायेत्याशङ्क्य भगवद्भक्तिरित्याह मद्भक्ता इति। अक्षरार्थमुक्त्वा श्लोकस्य तात्पर्यार्थमाह एवमिति। देवताप्राप्तौ चेति शेषः। मामवेत्यादौ देवताविशेषं प्रपद्यन्तेऽन्तवत्फलायेति वक्तव्यम्। उक्तवैपरीत्ये कारणमविवेकातिरिक्तं नास्तीत्यभिप्रेत्याह अहो खल्विति।
।।7.23।।अतो भावभेदात्फलभेद इत्याह अन्तवदिति। तुशब्दो भेदं सूचयति। यतोऽल्पमेधसां इन्द्रादिमात्राङ्गयाजिनां शाखाफलपत्रान्यतरसेचकानामिव तेषां फलमल्पमन्तवद्विनाशि च भवति वदति चदेवान्देवयजो यान्ति इत्यादौ तत्तद्देवसायुज्यं चाप्याप्तव्यमेवेति। यागे तु श्रौते देवानां भगवदङ्गभूतत्वज्ञानपूर्वकमाराधनमिति न विरोधः। भक्तौ तु केवलं तदङ्गिन एवाराधने सर्वाराधनं भवतीति भावेन मूलरूपत्वादिति ज्ञेयम् किंबहुना यो यं भजते श्रद्धया तं तमेवतीत्यभिप्रायेण मद्भक्ता यान्ति मामपीत्युक्तम्।
।।7.23।।यद्यपि सर्वा अपि देवताः सर्वात्मनो ममैव तनवस्तदाराधनमपि वस्तुतो मदाराधनमेव सर्वत्रापि च फलदातान्तर्याम्यहमेव तथापि साक्षान्मद्भक्तानां च तेषां च वस्तुविवेकाविवेककृतं फलवैषम्यं भवतीत्याह अल्पमेधसां मन्दप्रज्ञत्वेन वस्तुविवेकासमर्थानां तेषां तत्तद्देवताभक्तानां तन्मया विहितमपि तत्तद्देवताराधनजं फलं अन्तवदेव विनाश्येव नतु मद्भक्तानां विवेकिनामिवानन्तं फलं तेषामित्यर्थः। कुत एवं यतो देवानिन्द्रादीनन्तवत एव देवजयो मदन्यदेवताराधनपरा यान्ति प्राप्नुवन्ति। मद्भक्तास्तु त्रयः सकामाः प्रथमं मत्प्रसादादभीष्टान्कामान्प्राप्नुवन्ति। अपिशब्दप्रयोगात्ततो मदुपासनापरिपाकान्मामनन्तमानन्दघनमीश्वरमपि यान्ति प्राप्नुवन्ति। अतः समानेऽपि सकामत्वे मद्भक्तानामन्यदेवताभक्तानां च महदन्तरं तस्मात्साधूक्तमुदाराः सर्व एवैत इति।
।।7.23।।तदेव यद्यपि सर्वा अपि देवता ममैव मूर्तयः अतस्तदाराधनमपि वस्तुतो मदाराधनमेव तत्तत्फलदातापि चाहमेव तथापि साक्षान्मद्भक्तानां च तेषां फलवैषम्यं भवतीत्याह अन्तवत्त्विति। अल्पमेधसां परिच्छिन्नदृष्टीनां मया दत्तमपि तत्फलमन्तवद्विनाशि भवति। तदेवाह। देवान्यजन्तीति देवयजः ते देवानन्तवतो यान्ति। मद्भक्तास्तु मामनाद्यन्तं तं परमानन्दं प्राप्नुवन्ति।
।।7.23।।यदि भवत्प्रसादात्तेषामपि फलसिद्धिस्तर्हि तत्र को विशेषो भवदुपासकेभ्यः इत्यत्रोत्तरम् अन्तवत्तु इत्यादि। पूर्वार्धे सम्भवत्येकवाक्यत्वे वाक्यभेदभ्रमनिरासायतेषामल्पमेधसामिति सामानाधिकरण्यं दर्शितम्। तेषामिति फलाल्पत्वहेतुपरामर्शं इत्याहइन्द्रादिमात्रयाजिनामिति। तत्र हेतुरल्पबुद्धित्वम्। अल्पेष्विन्द्रादिषु तदधीनफलेषु च मेधा बुद्धिर्येषां तेऽल्पमेधसः। अल्पगोचरत्वादल्पा मेधा येषामिति वा। अल्पमेधस्त्वादेव तत्फलस्याप्यल्पत्वं सिद्धमिति कृत्वाअल्पमन्तवच्च भवतीत्युक्तम्।देवान् देवयजः इत्यत्र देवशब्दो गोबलीवर्दन्यायान्मच्छब्दोक्तभगवद्व्यतिरिक्तदेवपरः। अथवा मनुष्यादिसहपठितकर्मवश्यदेवजातिविशेषपर इत्यभिप्रायेणइन्द्रादीन् देवांस्तद्याजिन इत्युक्तम्। कथमिन्द्रादिप्राप्तिः फलस्याल्पास्थिरत्वहेतुः इत्यत्राह इन्द्रादयोऽपि हीति। अस्तु तेषामल्पभोगत्वमस्थिरत्वं च ततः किं तदुपासकस्य भगवत्प्रसादाधीनफललाभस्येत्यत्राहतत इति। केवलेन्द्रादियाजिनां तत्तदभिलषितं तत्सायुज्यादिकमेव हि भगवान् प्रयच्छति सायुज्यं च समानभोगत्वमेव तत इन्द्रादिभोगस्य परिमितस्वरूपत्वात्परिमितकालवर्तित्वाच्च तत्समानस्तदुपासकभोगोऽपि तथाविध एव भवेदिति भावः।माम् इति निर्दिष्टभगवत्स्वरूपस्य निरतिशयानन्दमयत्वात्तत्साधर्म्यमागतस्यापि निरतिशयभोगत्वं सिद्धम्। सूत्रं चभोगमात्रसाम्यलिङ्गाच्च ब्र.सू.4।4।21 इति। तन्नित्यत्वाच्च तदुपासकभोगस्यापि नित्यत्वं दर्शयतिन च पुनर्निवर्तन्त इति। अत्राभिप्रेतं वक्ष्यमाणवचनेन विशदयतिमामुपेत्येति। अत्रापि सूत्रम् अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात् ब्र.सू.4।4।22 इति।मद्भक्ता यान्ति मामपि इत्यत्र भगवति फलान्तरार्थिनामपि मोक्षे विश्रमो नारायणार्यैरुक्तः तथा देवतान्तरभक्तानां अपेक्षितार्थलाभ एव फलम् भगवद्भक्तानां तु न तावन्मात्रं फलम् किन्तु स्वभावप्राप्तादनभिसंहितादपि पापपरिक्षयात् सत्त्वाधिक्योन्मीलनेन शुद्धेषु धर्मेषु श्रद्धोत्पत्त्या शनैश्शनैर्ज्ञानवैराग्यादिलाभद्वारेण पूर्वोक्तभक्तिविशेषलाभाच्चिरतरेणापि कालेन भगवत्प्राप्तिर्भविष्यतीति नित्यफलत्वमित्यभिप्रायः इति। इदं चशाण्डिल्यसंहितायामपि भागवतापचारसङ्ग्रहे प्रोक्तं भगवन्तं समुद्दिश्य तदेकशरणा नराः। कदाचिन्न च हीयन्ते काम्यकर्मरता अपि। इति।
।।7.23।।तर्हि त्वन्निर्मितफलाप्त्या चोत्तमत्वमेव तत्फलस्य कथं न इत्यत आह अन्तवत्त्विति। तु पुनः मन्निर्मितमपि फलं तेषामल्पमतिमतां भक्तिं विहाय कामपरत्वात् अन्तवत् विनाशयुक्तं भवतीत्यर्थः। तच्छब्देन तद्बुद्ध्यनुसारेण मया तत्फलं विधीयत इति व्यज्यते। ननु देवा अपि त्वदंशास्तद्भजने कथं नोत्तमफलम् इत्यत आह देवानिति देवयजः৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷ पूर्वोक्तप्रकारेण स्वकामितफलाप्त्यर्थं देवभजनकर्त्तारः। अथवा देवत्वेन तद्भजनकर्त्तारः न तु मदंशत्वेन स्फुरितस्तमानाः৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. अतो देवान् यान्ति मत्सायुज्यकामाभावे प्राप्नुवन्ति। कामनायां तु तदेव प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। अन्यदेवेषु देवत्वेन भजनकर्त्तारस्तत्सायुज्यमेव प्राप्नुवन्ति। कामनायां तु तदपि न प्राप्नुवन्त्यतः कामनयाऽपि मद्भजनमुत्तममित्याह मद्भक्ता इति। मद्भक्ताः मद्भजनकर्तारो मामपि यान्ति। कामनयाऽपि प्रवृत्ताः पूर्वोक्तप्रकारेण। मामपि प्राप्नुवन्ति। अतएवउदाराः सर्व एवैते 7।18 इति पूर्वमुक्तम्। अतोऽग्रे तेषां मोक्षः। अक्षरसायुज्यमपि प्राप्नुवन्ति। अतएव हरिवंशेअपत्यं द्रविणं दारा हारा हर्म्यं हया गजाः। सुखानि स्वर्गमोक्षौ च न दूरे हरिभक्तितः।।इति। इदमेवापिशब्देन व्यज्यते।
।।7.23।।अल्पमेधसांअथ यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यन्मनुतेऽन्यद्विजानाति तदल्पम् इति श्रुतेः द्वैतमल्पं तत्रैव मेधा येषां ते। बाह्यार्थाभिलाषिणामित्यर्थः। तेषां तत्फलमन्तवत् सर्वस्य बाह्यार्थस्यान्तवत्त्वादेव। तुशब्दोऽभेदेनेश्वरभक्तेभ्यो विभेदार्थः। यतो देवयजो देवान्यजन्ते इति देवयजस्ते देवानन्तयुक्तानेव यान्ति। एवं यक्षरक्षोभक्ता यक्षादीनेव यान्ति। भूतप्रेतभक्ताश्च भूतादीनेवेत्यपि द्रष्टव्यम्। मद्भक्तास्तु मामेवानन्तं यान्ति। अतस्तेऽनन्तफलभाज इत्यर्थः।
।।7.23।।समानेऽप्यायासेऽन्तवत्फलासाधने तत्तद्देवताराधने प्रवर्तन्ते नतु मामेव भगवन्तं सर्वात्मानं तत्तत्कर्मफलप्रदं वासुदेवमनन्तफलाय प्रतिपद्यन्त इत्यहो तेषामल्पबुद्धितेत्यनुक्रोशं दर्शयन्नाह अन्तवदिति। तेषां तत्तद्देवताराधनापराणामल्पमेधसांअथ यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति तदल्पम् इति श्रुतेरल्पे द्वैते मेधा बुद्धिर्येषां ते भेदबुद्धय इत्यर्थः। अल्पेऽन्तवत्फले बुद्धिर्येषामिति वा अल्पे परिच्छिन्ने देवतान्तरे बुद्धिर्येषामिति वा अनल्पानन्तफलाय वासुदेव एव भजनीयो नतु अन्तवत्फलाय देवतान्तरमिति विवेक्तुमक्षमत्वात्स्वल्पा बुद्धिर्येषामिति वा फलमन्तवद्विनासि तु एव भवति तन्मया दत्तमपि। तदेवाह। यतो देवयज इन्द्राद्यर्चका देवानन्तवतो यान्ति गच्छन्ति। मद्भक्तास्वार्तादयस्त्रयोऽपि तत्तदीप्सितं लब्धवा क्रमेण मां वासुदेवं सच्चिदानन्दघनमनन्तं मोक्षाभिधेयमपि यान्ति गच्छन्ति।
7.23 अन्तवत् finite? तु verily? फलम् the fruit? तेषाम् of them? तत् that? भवति is? अल्पमेधसाम् those of small intelligence? देवान् to the gods? देवयजः the worshippers of the gods? यान्ति go to? मद्भक्ताः My devotees? यान्ति go to? माम् Me? अपि also.Commentary The exertion in the two kinds is the same and yet people do not attempt to worship the Supreme Being in order to attain the maximum benefits or the infinite reward (liberation or Moksha). The reward obtained by men of small understandng and petty intellect who worship the minor deities is small? perishable and temporary.Yajnas (Vedic rituals)? Homas (rituals in which oblations are offered into the sacred fire) and Tapas (penance) of various sorts can bestow only temporary rewards on the performer. Liberation from the wheel of transmigration alone will give everlasting bliss and eternal peace.Those who worship Indra and others are Sattvic devotees those who worship Yakshas and Rakshasas (demoniacal beings) are Rajasic devotees and those who worship the Bhutas and Pretas (discarnate spirits) are Tamasic devotees.The knowledge of those who worship the small deities is partial and incomplete. It cannot lead to liberation. (Cf.IX.25)
7.23 Verily the reward (fruit) that accrues to those men of small intelligence is finite. The worshippers of the gods go to them, but My devotees come to Me.
7.23 The fruit that comes to men of limited insight is, after all, finite. They who worship the Lower Powers attain them; but those who worship Me come unto Me alone.
7.23 That result of theirs who are of poor intellect is indeed limited. The worshippers of gods go to the gods. My devotees go to Me alone.
7.23 Since those non-discriminating men with desires are engaged in disciplines for limited results, therefore, tat phalam, that result; tesam, of theirs; alpamedhasam, who are of poor intellect, of poor wisdom; antavat tu bhavati, is limited, ephemeral, indeed. Deva-yajah, the worshippers of gods; yanti, go; devan, to the gods. Madbhaktah, My devotees; yanti, to; mam api, to Me alone. 'Thus, though the effort needed is the same, they do not resort to me alone for the unlimited result. Alas! they are surely in a pitiable condition.' In this manner the Lord expresses his compassion. 'Why do they not take refuge in Me alone?' The answer is:
7.23. But, that fruit of those men of poor intellect is finite. Those, who perform sacrifices, aiming at the gods, go to gods, and My devotees go to Me.
7.20-23 Kamaih etc. upto man api. On the other hand, those persons, whose minds are conditioned by a variety of their own respective desires for the best and so on (or the desires that may be classified as the best and so on) - they have thier thinking faculty carried away by their desires, and worship a particular deity who possesses nothing but My intermediate body that suits only to those devotees' desires. Hence, they obtain their desired result from Me alone. But, that result has an end of its own, because it is limited by the mental impressions of their own. Therefore those who perform sacrifice etc., with the aim of becming Indra etc., (or of attaining the houses of Indra etc.) gain their desired fruit accordingly. On the other hand, those whose chief aim is to attain Me, they gain Me alone. But, while the Absolute-being is immanent in all, how is it that the fruit achieved by the worshippers of other deities is limited ? The answer is given as :
7.23 The men of 'small understanding' means those whose understanding is poor, who worship only Indra and other divinities. The fruit of their worship is small and finite. Why? The worshippers of divinities like Indra go to the divinities. And Indra and other divinities possess limited joy and live only for a limited time. So if they attain eality of enjoyment with them, they also fall down along with them in due course; but My devotees, knowing that their acts are of the nature of My worship, renouncing attachment for finite, fruits, reach Me, having for their purpose the pleasing of Me alone. That is, they never more return to Samsara. For Sri Krsna teaches later on: 'But on reaching Me there is no rirth, O Arjuna' (8.16). Now Sri Krsna declares: 'But these others (i.e., who worship Indra etc.) regard as insignificant even My incarnations among men and other beings in order to make Myself easy for all to resort to.'
7.23 But limited is the fruit gained by these men of small understanding. The worshippers of the gods will go to the gods but My devotees will come to Me.
।।7.23।।क्योंकि वे कामी और अविवेकी पुरुष विनाशशील साधनकी चेष्टा करनेवाले होते हैं इसलिये उन अल्पबुद्धिवालोंका वह फल नाशवान् विनाशशील होता है। देवयाजी अर्थात् जो देवोंका पूजन करनेवाले हैं वे देवोंको पाते हैं और मेरे भक्त मुझको ही पाते हैं। अहो बड़े दुःखकी बात है कि इस प्रकार समानपरिश्रम होनेपर भी लोग अनन्त फलकी प्राप्ति के लिये केवल मुझ परमेश्वरकी ही शरणमें नहीं आते। इस प्रकार भगवान् करुणा प्रकट करते हैं।
।।7.23।। अन्तवत् विनाशि तु फलं तेषां तत् भवति अल्पमेधसां अल्पप्रज्ञानाम्। देवान्देवयजो यान्ति देवान् यजन्त इति देवयजः ते देवान् यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि। एवं समाने अपि आयासे मामेव न प्रपद्यन्ते अनन्तफलाय अहो खलु कष्टं वर्तन्ते इत्यनुक्रोशं दर्शयति भगवान्।।किंनिमित्तं मामेव न प्रपद्यन्ते इत्युच्यते
null
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अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्। देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।7.23।।
অন্তবত্তু ফলং তেষাং তদ্ভবত্যল্পমেধসাম্৷ দেবান্দেবযজো যান্তি মদ্ভক্তা যান্তি মামপি৷৷7.23৷৷
অন্তবত্তু ফলং তেষাং তদ্ভবত্যল্পমেধসাম্৷ দেবান্দেবযজো যান্তি মদ্ভক্তা যান্তি মামপি৷৷7.23৷৷
અન્તવત્તુ ફલં તેષાં તદ્ભવત્યલ્પમેધસામ્। દેવાન્દેવયજો યાન્તિ મદ્ભક્તા યાન્તિ મામપિ।।7.23।।
ਅਨ੍ਤਵਤ੍ਤੁ ਫਲਂ ਤੇਸ਼ਾਂ ਤਦ੍ਭਵਤ੍ਯਲ੍ਪਮੇਧਸਾਮ੍। ਦੇਵਾਨ੍ਦੇਵਯਜੋ ਯਾਨ੍ਤਿ ਮਦ੍ਭਕ੍ਤਾ ਯਾਨ੍ਤਿ ਮਾਮਪਿ।।7.23।।
ಅನ್ತವತ್ತು ಫಲಂ ತೇಷಾಂ ತದ್ಭವತ್ಯಲ್ಪಮೇಧಸಾಮ್. ದೇವಾನ್ದೇವಯಜೋ ಯಾನ್ತಿ ಮದ್ಭಕ್ತಾ ಯಾನ್ತಿ ಮಾಮಪಿ৷৷7.23৷৷
അന്തവത്തു ഫലം തേഷാം തദ്ഭവത്യല്പമേധസാമ്. ദേവാന്ദേവയജോ യാന്തി മദ്ഭക്താ യാന്തി മാമപി৷৷7.23৷৷
ଅନ୍ତବତ୍ତୁ ଫଲଂ ତେଷାଂ ତଦ୍ଭବତ୍ଯଲ୍ପମେଧସାମ୍| ଦେବାନ୍ଦେବଯଜୋ ଯାନ୍ତି ମଦ୍ଭକ୍ତା ଯାନ୍ତି ମାମପି||7.23||
antavattu phalaṅ tēṣāṅ tadbhavatyalpamēdhasām. dēvāndēvayajō yānti madbhaktā yānti māmapi৷৷7.23৷৷
அந்தவத்து பலஂ தேஷாஂ தத்பவத்யல்பமேதஸாம். தேவாந்தேவயஜோ யாந்தி மத்பக்தா யாந்தி மாமபி৷৷7.23৷৷
అన్తవత్తు ఫలం తేషాం తద్భవత్యల్పమేధసామ్. దేవాన్దేవయజో యాన్తి మద్భక్తా యాన్తి మామపి৷৷7.23৷৷
7.24
7
24
।।7.24।। बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मन-इन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।
।।7.24।। बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम (सर्वोत्तम) अव्यय परम भाव को न जानते हुए मुझ अव्यक्त को व्यक्त मानते हैं।।
।।7.24।। समस्त नामरूपों की वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि में प्रकाशित हो रहे परम सत्य को ग्रहण करने की विवेकसार्मथ्य जिनमें नहीं है वे लोग अव्यय अविनाशी आत्मतत्त्व का सााक्षात् नहीं कर पाते। अनित्य दृश्यमान जगत् में अत्यन्त आसक्ति के कारण वे यह नहीं जान पाते कि यह सम्पूर्ण नामरूपमय जगत् सूत्र में मणियों के समान परमात्मा में पिरोया हुआ है।जिस चैतन्य के प्रकाश में सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित हो रहा है उस परम सत्य को ही यहाँ अव्यक्त शब्द से इंगित किया गया है। इस शब्द का लक्ष्यार्थ समझना आवश्यक है। जो वस्तु इन्द्रियगोचर है या मन और बुद्धि के द्वारा जानी जा सकती है जैसे भावना या विचार वह व्यक्त कहलाती है। अत इन तीनों उपाधियों के द्वारा जिसे जाना नहीं जा सकता वह वस्तु अव्यक्त है।आत्मतत्त्व ही अव्यक्त हो सकता है क्योंकि वही एकमात्र चेतन तत्त्व है जिसके कारण इन्द्रियां मन और बुद्धि स्वविषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्मा इन सबका द्रष्टा है और इसलिए कभी दृश्यरूप में नहीं जाना जा सकता। वह अव्यक्त है।बहिर्मुखी प्रवृत्ति के लोग केवल स्थूल भौतिक रूप को ही देख पाते हैं। अविवेक के कारण वे गुरु अथवा अवतार के शरीर को और सार्मथ्य को देखकर उतने मात्र को ही सनातन सत्य समझ लेते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि चित्त की एकाग्रता के लिए अथवा उपासना के लिए किसी उपास्य की प्रतीक या प्रतिमा के रूप में आवश्यकता होती है किन्तु वह प्रतिमा स्वयं परमार्थ सत्य नहीं हो सकती। यदि वही सत्य वस्तु होती तो पाषाण से मूर्ति बनाने के पश्चात् या गुरु के पास पहुँचने मात्र से साधक को सत्य की प्राप्ति हो जाने से उसे और कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती मूर्ति पूजा का प्रयोजन चित्त की शुद्धि एवं एकाग्रता प्राप्त करना है जिसके द्वारा ध्यान का अभ्यास करके आत्मा का साक्षात् अनुभव किया जा सकता है।यह श्लोक स्पष्ट रूप से हमें बताता है कि बोतल को औषधि सममझना शरीर को ही गुरु और मूर्ति को ही भगवान् समझ लेना व्यर्थ है सभी श्वेत काष्ठ चन्दन नहीं और आकाश में प्रत्येक चमकीली वस्तु तारा नहीं होती। हो सकता है कि किसी ऊँचे स्तम्भ से आ रहे प्रकाश को देखकर अतिमूढ़ पुरुष उसे सूर्य समझ ले परन्तु कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति उसकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेगा। अवतार का सिद्धांत हिन्दू धर्म में स्वीकार किया जाता है। किसीनकिसी मात्रा में प्रत्येक व्यक्ति ही अवतार कहा जा सकता है। एक ही सत्य सर्वत्र सबमें व्याप्त है। मन और बुद्धि की उपाधियों में वह व्यक्त होता है। जितना ही अधिक शुद्ध और स्थिर अन्तकरण होगा उतना ही अधिक चैतन्य का प्रकाश उसमें व्यक्त होगा।जिस पुरुष का अन्तकरण अत्यन्त शुद्ध एवं स्थिर होता है और जिसने अपरा प्रकृति पर पूर्ण विजय पा ली होती है वह ऋषि मुनि या पैगम्बर कहलाता है। ये पुरुष आत्मस्वरूप को पहचानकर कि वही भूतमात्र की आत्मा है उसमें स्थित होकर दिव्य जीवन जीते हैं। उनके शरीर मन और बुद्धि को ही परम सत्य समझना ऐसी ही त्रुटि है जैसे कि तरंगों को ही समुद्र समझ लेना है यही कारण है कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ ऐसे अविवेकी लोगों के लिए अबुद्धय जैसे कठोर शब्द का प्रयोग करते हैं।यह अज्ञान किस निमित्त से है इस पर कहते हैं
।।7.24।। व्याख्या--अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं ৷৷. ममाव्ययमनुत्तमम्--जो मनुष्य निर्बुद्धि हैं और जिनकी मेरेमें श्रद्धा-भक्ति नहीं है, वे अल्पमेधाके कारण अर्थात् समझकी कमीके कारण मेरेको साधारण मनुष्यकी तरह अव्यक्तसे व्यक्त होनेवाला अर्थात् जन्मने-मरनेवाला मानते हैं। मेरा जो अविनाशी अव्ययभाव है अर्थात् जिससे बढ़कर दूसरा कोई हो ही नहीं सकता और जो देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें परिपूर्ण रहता हुआ इन सबसे अतीत, सदा एकरूप रहनेवाला, निर्मल और असम्बद्ध है--ऐसे मेरे अविनाशी भावको वे नहीं जानते और मेरा अवतार लेनेका जो तत्त्व है, उसको नहीं जानते। इसलिये वे मेरेको साधरण मनुष्य मानकर मेरी उपासना नहीं करते, प्रत्युत देवताओंकी उपासना करते हैं।'अबुद्धयः' पदका यह अर्थ नहीं है कि उनमें बुद्धिका अभाव है प्रत्युत बुद्धिमें विवेक रहते हुए भी अर्थात् संसारको उत्पत्ति-विनाशशील जानते हुए भी इसे मानते नहीं--यही उनमें बुद्धिरहितपना है, मूढ़ता है।दूसरा भाव यह है कि कामनाको कोई रख नहीं सकता, कामना रह नहीं सकती; क्योंकि कामना पहले नहीं थी और कामनापूर्तिके बाद भी कामना नहीं रहेगी। वास्तवमें कामनाकी सत्ता ही नहीं है, फिर भी उसका त्याग नहीं कर सकते --यही अबुद्धिपना है।मेरे स्वरूपको न जाननेसे वे अन्य देवताओंकी उपासनामें लग गये और उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी कामनामें लग जानेसे वे बुद्धिहीन मनुष्य मेरेसे विमुख हो गये। यद्यपि वे मेरेसे अलग नहीं हो सकते तथा मैं भी उनसे अलग नहीं हो सकता, तथापि कामनाके कारण ज्ञान ढक जानेसे वे देवताओंकी तरफ खिंच जाते हैं। अगर वे मेरेको जान जाते, तो फिर केवल मेरा ही भजन करते।(1) बुद्धिमान् मनुष्य वे होते हैं, जो भगवान्के शरण होते हैं। वे भगवान्को ही सर्वोपरि मानते हैं। (2) अल्पमेधावाले मनुष्य वे होते हैं, जो देवताओंके शरण होते हैं। वे देवताओंको अपनेसे बड़ा मानते हैं जिससे उनमें थोड़ी नम्रता, सरलता रहती है। (3) अबुद्धिवाले मनुष्य वे होते हैं, जो भगवान्को देवता-जैसा भी नहीं मानते; किन्तु साधारण मनुष्य-जैसा ही मानते हैं। वे अपनेको ही सर्वोपरि, सबसे बड़ा मानते हैं ,(गीता 16। 14 15)। यही तीनोंमें अन्तर है।'परं भावमजानन्तः' का तात्पर्य है कि मैं अज रहता हुआ, अविनाशी होता हुआ और लोकोंका ईश्वर होता हुआ ही अपनी प्रकृतिको वशमें करके योगमायासे प्रकट होता हूँ--इस मेरे परमभावको बुद्धिहीन मनुष्य नहीं जानते।'अनुत्तमम्'कहनेका तात्पर्य है कि पन्द्रहवें अध्यायमें जिसको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम बताया है अर्थात् जिससे उत्तम दूसरा कोई है ही नहीं, ऐसे मेरे अनुत्तम भावको वे नहीं जानते। विशेष बात इस (चौबीसवें) श्लोकका अर्थ कोई ऐसा करते हैं कि '(ये) अव्यक्तं मां व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः' अर्थात् जो सदा निराकार रहनेवाले मेरेको केवल साकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे अव्यक्त, निर्विकार और निराकार स्वरूपको नहीं जानते। दूसरे कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि '(ये) व्यक्तिमापन्नं माम् अव्यक्तं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः'अर्थात् मैं अवतार लेकर तेरा सारथि बना हुआ हूँ--ऐसे मेरेको केवल निराकार मानते हैं, वे निर्बुद्धि हैं; क्योंकि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी भावको नहीं जानते।उपर्युक्त दोनों अर्थोंमेंसे कोई भी अर्थ ठीक नहीं है। कारण कि ऐसा अर्थ माननेपर केवल निराकारको माननेवाले साकाररूपकी और साकाररूपके उपासकोंकी निन्दा करेंगे और केवल साकार माननेवाले निराकाररूपकी और निराकार-रूपके उपासकोंकी निन्दा करेंगे। यह सब एकदेशीयपना ही है। पृथ्वी, जल, तेज आदि जो महाभूत हैं, जो कि विनाशी और विकारी हैं, वे भी दो-दो तरहके होते हैं--स्थूल और सूक्ष्म। जैसे, स्थूलरूपसे पृथ्वी साकार है और परमाणुरूपसे निराकार है ;जल बर्फ, बूँदें, बादल और भापरूपसे साकार है और परमाणुरूपसे निराकार है; तेज (अग्नितत्त्व) काठ और दियासलाईमें रहता हुआ निराकार है और प्रज्वलित होनेसे साकार है, इत्यादि। इस तरहसे भौतिक सृष्टिके भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तवमें वह दो नहीं होती। साकार होनेपर निराकारमें कोई बाधा नहीं लगती और निराकार होनेपर साकारमें कोई बाधा नहीं लगती। फिर परमात्माके साकार और निराकार दोनों होनेमें क्या बाधा है? अर्थात् कोई बाधा नहीं। वे साकार भी हैं, और निराकार भी हैं सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं।गीता साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण--दोनोंको मानती है। नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान्ने अपनेको 'अव्यक्तमूर्ति' कहा है। चौथे अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मैं अज होता हुआ भी प्रकट होता हूँ, अविनाशी होता हुआ भी अन्तर्धान हो जाता हूँ और सबका ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक (पुत्र और शिष्य) बन जाता हूँ। अतः निराकार होते हुए साकार होनेमें और साकार होते हुए निराकार होनेमें भगवान्में किञ्चिन्मात्र भी अन्तर नहीं आता। ऐसे भगवान्के स्वरूपको न जाननेके कारण लोग उनके विषयमें तरह-तरहकी कल्पनाएँ किया करते हैं।  सम्बन्ध--भगवान्को साधारण मनुष्य माननेमें क्या कारण है? इसपर आगेका श्लोक कहते हैं
।।7.24।।ननु सर्वगते भगवत्तत्त्वे किमिति देवतान्तरोपासकानां मितं फलम् उच्यते अव्यक्तमिति। ते खलु अल्पबुद्धित्त्वात् मत्स्वरूपं पारमार्थिकम् अविद्यमानव्यक्तिकं न प्रत्यभिजानीते। अपि तु निजकामनासमुचिताकारविशिष्टज्ञानस्वभावं (N स्वभावां) व्यक्तिमेवापन्नं विदन्ति नान्यथा। अत एव न नाम्नि आकारे वा कश्चिद्ग्रहः। किंतु सिद्धान्तोऽयमत्र यः कामनापरिहारेण यत्किञ्चिद्देवतारूपमालम्बते तस्य तत् शुद्धमुक्तभावेन (S मुक्तभावे) पर्यवस्यति। विपर्ययात्तु विपर्ययः (SN add इति) ।
।।7.24।।सर्वैः कर्मभिः आराध्यः अहं सर्वेश्वरः वाङ्मनसापरिच्छेद्यस्वरूपस्वभावः परमकारुण्याद् आश्रितवात्सल्यात् च सर्वसमाश्रयणीयत्वाय अजहत्स्वभाव एव वसुदेवसूनुः अवतीर्ण इति मम एवं परं भावम् अव्ययम् अनुत्तमम् अजानन्तः प्राकृतराजसूनुसमानम् इतः पूर्वम् अनभिव्यक्तम् इदानीं कर्मवशाद् जन्मविशेषं प्राप्य व्यक्तिम् आपन्नं प्राप्तं माम् अबुद्धयो मन्यन्ते अतो मां न श्रयन्ते न कर्मभिः आराधयन्ति च।कुत एवं न प्रकाश्यते इति अत्र आह
।।7.24।।भगवद्भजनस्योत्तमफलत्वेऽपि प्राणिनां प्रायेण तन्निष्ठत्वाभावे प्रश्नपूर्वकं निमित्तं निवेदयति किंनिमित्तमित्यादिना। अप्रकाशं शरीरग्रहणात्पूर्वमिति शेषः। इदानीं लीलाविग्रहपरिग्रहावस्थायामित्यर्थः। प्रकाशस्य तर्हि कादाचित्कत्वं भगवति प्राप्तं नेत्याह नित्येति। कथं तर्हि भगवन्तमागन्तुकप्रकाशं मन्यन्ते तत्राबुद्धय इत्युत्तरम्। तद्विवृणोति परमिति। परमनुत्तममिति विशेषणद्वयं सोपाधिकनिरुपाधिकभावार्थम्।
।।7.24।।मद्भजने देवान्तरभजने च तैषां मत्स्वरूपमाहात्म्याज्ञानमेव हेतुरित्याह अव्यक्तमिति। यतोऽक्षरमैश्वर्यं अप्रकटं वा व्यक्तिरहितं वा मानुषलोके स्वेच्छया स्वगताशेषालौकिकसौन्दर्यं दुर्विभाव्यं व्यक्तिमापन्नं निराकारं मन्यन्ते वा मानयन्ति प्राकृतं व्यक्तिमापन्नं वा मन्यन्तेऽबुद्धयोऽतः तथा मानने हेतुः मम सदानन्दमात्रस्याचिन्त्यैश्वर्यस्य परं भावमंशांशिभावेनावस्थितिभावमानन्दमात्रत्वलक्षणं वाऽजानन्त इति।
।।7.24।।एवं भगवद्भजनस्य सर्वोत्तमफलत्वेऽपि कथं प्रायेण प्राणिनो भगवद्विमुखा इत्यत्र हेतुमाह भगवान् अव्यक्तं देहग्रहणात्प्राक् कार्याक्षमत्वेन स्थितमिदानीं वसुदेवगृहे व्यक्तिं भौतिकदेहावच्छेदेन कार्यक्षमतां प्राप्तं किंचिज्जीवमेव मन्यन्ते मामीश्वरमप्यबुद्धयो विवेकशून्याः। अव्यक्तं सर्वकारणमपि मां व्यक्तिं कार्यरूपतां मत्स्यकूर्माद्यनेकावताररूपेण प्राप्तिमिति वा। कथं ते जीवास्त्वां न विचिन्वन्ति। तत्राबुद्धय इत्युक्तं हेतुं विवृणोति परं सर्वकारणरूपमव्ययं नित्यं मम भावं स्वरूपं सोपाधिकजानन्तस्तथा निरुपाधिकमप्यनुत्तमं सर्वोत्कृष्टमनतिशयाद्वितीयपरमानन्दघनमनन्तं मम स्वरूपजानन्तो जीवानुकारिकार्यदर्शनाज्जीवमेव कंचिन्मां मन्यन्ते ततो मामीश्वरत्वेनाभिमतं विहाय प्रसिद्धं देवतान्तरमेव भजन्ते। ततश्चान्तवदेव फलं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। अग्रे च वक्ष्यतेअवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् इति।
।।7.24।। ननु च समाने प्रयासे महति च फलविशेषे सति सर्वेऽपि किमिति देवान्तरं हित्वा त्वामेव न भजन्ति तत्राह अव्यक्तमिति। अव्यक्तं प्रपञ्चातीतं मां व्यक्तिं मनुष्यमत्स्यकूर्मादिभावं प्राप्तमल्पबुद्धयो मन्यन्ते। तत्र हेतुः। मम परं भावं स्वरूपमजानन्तः। कथंभूतम्। अव्ययं नित्यम्। न विद्यत उत्तमो यस्मात्तं भावं। अतो जगद्रक्षार्थं लीलयाविष्कृतनानाविशुद्धोर्जितसत्त्वमूर्तिं मां परमेश्वरं स्वकर्मनिर्मितभौतिकदेहं देवतान्तरसमं पश्यन्तो मन्दमतयो मां नातीवाद्रियन्ते प्रत्युत क्षिप्रफलं देवतान्तरमेव भजन्ति ते चोक्तप्रकारेणान्तवत्फलं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।
।।7.24।।ननु फलान्तरदेवतान्तरवासनया हि त्वद्विषयज्ञानप्रतिबन्ध उक्तः त्वत्साक्षात्काराभावे हि तदुपपत्तिः त्वयि कारुण्यादिगुणप्रेरिते सर्वसमाश्रयणीयत्वायावतारवशादशेषजननयनगोचरे कथं त्वत्परित्याग इत्यत्रोत्तरम् अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नम् इत्यभिप्रायेणाह इतरे त्विति। इतरे चतुर्विधसुकृतिभ्योऽन्ये।परं भावम् इत्यनेनाभिप्रेतं निरतिशयपरत्वसौलभ्यरूपं स्वभावं दर्शयतिसर्वैः कर्मभिरित्यादिना अवतीर्ण इत्यन्तेन।अजहत्स्वभाव इत्यव्ययशब्दाभिप्रेतोक्तिः। अस्मादुत्तमं नास्तीत्यनुत्तमम् अनवधिकातिशयमित्यर्थः। अत्रअव्यक्तं व्यक्तिमापन्नम् इत्येतत्सामर्थ्यादवतारविषयत्वम् तत्रापिमाम् इत्यस्यौचित्यादवतारविशेषविषयत्वं च सिद्धमित्यभिप्रेत्योक्तंवसुदेवसूनुरवतीर्ण इतिप्राकृतराजसूनुसमानमिति च। इदं सर्वावतारोपलक्षणतया विशेषोदाहरणमात्रं वा।अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नम् इत्यनयोरर्थान्तरभ्रमव्युदासायाहप्राकृतेत्यादि। मन्दमतिबोद्धव्यतया निन्द्यमानोऽर्थोऽत्रायमेव भवितुमर्हतीति भावः। इतः पूर्वमनभिव्यक्तत्वमिदानीमवताराद्व्यक्तत्वमपि प्रमाणसिद्धम् तत्कथमत्र प्रतिक्षिप्यत इत्यत्रोक्तंकर्मवशाज्जन्मविशेषं प्राप्येति। उत्सर्गापवादादिनयात्सङ्कोच इति भावः।अबुद्धयः इत्यनेन परमात्मतदवतारादिविषयश्रवणमननादिराहित्यं वैलक्षण्यज्ञापकलिङ्गदर्शनेऽपि तदूहशक्तिवैकल्यं च विवक्षितम्। फलितमाह अत इत्यादि। आश्रयणमत्र प्रपत्तिपूर्वकभजनं तदभावाच्च तदङ्गतया वर्णाश्रमादिधर्मान् स्तुतिनमस्कारादींश्च न कुर्वत इत्याह न कर्मभिरिति।
।।7.24।।तर्हि कथं न सर्वे त्वामेव भजन्ति इत्यत आह अव्यक्तमिति। अबुद्धयः कामहृतज्ञाना अव्यक्तं न विद्यते व्यक्तो लौकिकवत् प्रकटो व्यवहारो यस्य व्यक्तिर्जात्यादिर्वा यस्य तादृशं पुरुषोत्तमं व्यक्तिमापन्नं मनुष्यादिभावेन जगति प्रकटं लौकिकत्वेन अन्यदेवसमं मनुष्यादिसमं वा मन्यन्ते। कुतः इत्याकाङ्क्षायामाह परमिति। मम पुरुषोत्तमस्य अव्ययं नाशरहितं लीलात्मकं केषुचित्। भाग्यवत्सु प्रकटीभूय तद्रसपोषार्थं तत्समानाकारेण लीलारूपमजानन्तः। किञ्च अनुत्तमं न विद्यते उत्तमो यस्मात्तादृशं परं भावंपुरुषोत्तमात्मकमजानन्तो मां तथा मन्यन्ते। अतः स्वकामितफलक्षिप्रप्रसादार्थमन्यदेवता एव भजन्ति न तु मामित्यर्थः।
।।7.24।।एवं तर्हि कुतस्त्वामेव सर्वे न प्रतिपद्यन्त इत्याशङ्क्याज्ञानादित्याह अव्यक्तमिति। अव्यक्तं सर्वोपाधिशून्यत्वेनास्पष्टमपि वासुदेवशरीरेण व्यक्तिमापन्नमस्मदादिवच्छरीराभिमानिनं मामबुद्धयो मन्यन्ते। यतो मम परं भावं परत्वमुत्कृष्टत्वमजानन्तः। उत्कृष्टत्वमेव विशिनष्टि। अव्ययं न व्येतीत्यव्ययमविनाशिनम्। अनुत्तमं यस्मादन्यदुत्कृष्टं च नास्ति। निरतिशयमखण्डैश्वर्यरूपमित्यर्थः।
।।7.24।।तर्हि सर्वेऽपि देवतान्तरभजनं विहाय त्वामेव कुतो न प्रतिपद्यन्त इत्याशङ्क्य मदप्रतिपत्तौ मत्परमेश्वरभावाज्ञानमेव निमित्तमित्याह। अव्यक्तमप्रकाशं लीलाविग्रहग्रहणात्पूर्वं इदानीं तद्ग्रहणावस्थायां व्यक्तिमापन्नं प्रकाशमागतं मां मन्यन्ते अबुद्धयो विवेकहीनाः। अबुद्धय इत्येतदुक्तं विवृणोति। ममाव्ययं व्ययरहितमनुत्तमं निरतिशयं परं भावं परमात्मस्वरुपं सोपाधिनिरुपाध्यात्मकमजानन्तोऽविवेकिनो नित्यसिद्धमीश्वरमपि सन्तं मां पूर्वमसन्तमधुनैवोत्पन्नं मन्यन्ते इत्यर्थः।
7.24 अव्यक्तम् the unmanifested? व्यक्तिम् to manifestation? आपन्नम् come to? मन्यन्ते think? माम् Me? अबुद्धयः the foolish? परम् the highest? भावम् nature? अजानन्तः not knowing? मम My? अव्ययम् immutable? अनुत्तमम् most excellent.Commentary The ignorant take Lord Krishna as a common mortal. They think that He has taken a body like ordinary human beings from the unmanifested state on account of the force of Karma of the previous birth. They have no knowledge of His higher? imperishable and selfluminous nature as the Highest Self. They think that He has just now come into manifestation? though He is selfexistent? eternal? beginningless? endless? birthless? deathless? changeless? infinite and unmanifest.
7.24 The foolish think of Me, the Unmanifest, as having manifestation, knowing not My higher, immutable and most excellent nature.
7.24 The ignorant think of Me, who am the Unmanifested Spirit, as if I were really in human form. They do not understand that My Superior Nature is changeless and most excellent.
7.24 The unintelligent, unaware of My supreme state which is immutable and unsurpassable, think of Me as the unmanifest that has become manifest.
7.24 Abuddhayah, the unintelligent, the non-discriminating ones; ajanantah, unaware; mama, of My; param, supreme; bhavam, state, My reality as the supreme Self; which is avyayam, immutable, undecaying; and anuttanam, unsurpassable; manyante, think; mam, of Me; as avyaktam, the unmanifest, the invisible; apannam, that has become; vyaktim, manifest, visible, at present [At present, after being embodied as an Incarnation.]-though I am the ever well-known God. They think so because they are unaware of My reality. This is the idea. What is the reason for their ignorance? This is being stated:
7.24. The men of poor intellect, are not conscious of the higher, changeless and supreme nature of Mine; and hence, they regard Me, the Unmanifest, to be a manifest one.
7.24 Avyaktam etc. Becuase of their poor intellect, these [worshippers of other deities] do not at all recognise the unmanifest and ultimately true nature of Mine. On the contrary, they conceive Me merely as one, possessing only a manifest form with a particular knowledge and a particular innage nature, all suitable to their own desires. [They think] not otherwise. That is why, no name or form [of a deity] is insisted upon [by the Lord]. However, this is the established view [of the teachers of the school] in this regard : If a person holds fast to a specific form of a deity in order to get rid of desires, that [itself] results in his becoming pure and emancipated. If the case is reversed, [the result] would be a contrary one.
7.24 Ignorant people do not know My higher nature, immutable and unsurpassed. They do not know that it is I, who is worshipped through all rites, who is the Lord of all, and whose nature is beyond speech and mind, that has incarnated as the son of Vasudeva, without abandoning My divine nature, out of My supreme compassion and parental love for those who resort to Me and in order that I may be the refuge of all. They consider Me as only a worldly prince who was not manifest before and who has now become manifest by Karma and has secured a special form. Therefore, they do not resort to Me, nor do they worship Me. Why is He not manifest (to them)? Sri Krsna says:
7.24 Not knowing My higher nature, immutable and unsurpassed, the ignorant think of Me as an unmanifest entity who has now become manifest.
।।7.24।।वे मुझ परमेश्वरकी ही शरणमें क्यों नहीं आते सो बतलाते हैं मेरे अविनाशी निरतिशय परम भावको अर्थात् परमात्मस्वरूपको न जाननेवाले बुद्धिरहित विवेकहीन मनुष्य मुझको यद्यपि मैं नित्यप्रसिद्ध सबका ईश्वर हूँ तो भी ऐसा समझते हैं कि यह पहले प्रकट नहीं थे अब प्रकट हुए हैं। अभिप्राय यह कि मेरे वास्तविक प्रभावको न समझनेके कारण वे ऐसा मानते हैं।
।।7.24।। अव्यक्तम् अप्रकाशं व्यक्तिम् आपन्नं प्रकाशं गतम् इदानीं मन्यन्ते मां नित्यप्रसिद्धमीश्वरमपि सन्तम् अबुद्धयः अविवेकिनः परं भावं परमात्मस्वरूपम् अजानन्तः अविवेकिनः मम अव्ययं व्ययरहितम् अनुत्तमं निरतिशयं मदीयं भावमजानन्तः मन्यन्ते इत्यर्थः।।तदज्ञानं किंनिमित्तमित्युच्यते
।।7.24।।अव्यक्तं इति श्लोकस्य प्रकृतेन साक्षात्सङ्गत्यभावात् तं सङ्गमयितुमाह क इति। अन्येभ्यो ब्रह्मादिभ्यः। येन तान् प्राप्तानामन्तवत्फलत्वेऽपि त्वां प्राप्तानामनन्तफलतेति शङ्काशेषः। कथमनेनोक्तशङ्कापरिहारः इत्यत आह कार्येति। अनेन यथाश्रुतं पदं पठित्वा व्याख्यातम्। वस्तुतःअव्यक्तं मां इत्यनुवादादव्यक्तोऽहमिति यत्सिद्धं तस्येदं व्याख्यानमिति ज्ञातव्यम्। इदानीमुत्तरस्य सङ्गतिमाह तद्वानिति। कार्यदेहादिमान् इवेति मृदूक्तिः वस्तुतस्त्वेवेति। अतो न तद्वर्जित इति शेषः। प्रकृतोपयोगितया व्याचष्टे कार्येति। भगवतः कार्यदेहादिवर्जितत्वं तद्वत्ताप्रतीतिश्चाज्ञानमूलेत्येतत्कुतः येन वाक्यद्वयमुक्तार्थं स्यात् इत्यतोऽर्थद्वये क्रमेण प्रमाणान्याह तच्चेति। कार्यात्कारणाच्च। इदमपरं रूपं परं तु रूपमजानन्त इति प्रतीतिनिरासार्थमाह भावमिति। याथार्थ्यं प्रमाणाव्यभिचरितस्वरूपम्। अत एव परम्। कुतोऽयमर्थः समाख्यानादित्याह तथेति। यद्यप्ययमर्थःत्रिभिः 7।13 इत्यत्रोक्तस्तथापि प्रसङ्गात् पुनरुक्त इत्यदोषः।
।।7.24।।को विशेषस्तवान्येभ्यः इत्यत आह अव्यक्तमिति। कार्यदेहादिवर्जितम्। तद्वानिव प्रतीयस इत्यत आह व्यक्तिमापन्नमिति। कार्यदेहाद्यापन्नम्। तच्चोक्तम् सदसतः परम् न तस्य कार्यम् अपाणिपादः श्वे.उ.3।19आनन्ददेहं पुरुषं मन्यन्ते गौणदैहिकम् इत्यादौ। भावं याथार्थ्यम्। तथाऽब्रवीत् याथातथ्यमजानन्तः परं तस्य विमोहिताः इत्यादि।
अव्यक्तं व्यक्ितमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।7.24।।
অব্যক্তং ব্যক্িতমাপন্নং মন্যন্তে মামবুদ্ধযঃ৷ পরং ভাবমজানন্তো মমাব্যযমনুত্তমম্৷৷7.24৷৷
অব্যক্তং ব্যক্িতমাপন্নং মন্যন্তে মামবুদ্ধযঃ৷ পরং ভাবমজানন্তো মমাব্যযমনুত্তমম্৷৷7.24৷৷
અવ્યક્તં વ્યક્િતમાપન્નં મન્યન્તે મામબુદ્ધયઃ। પરં ભાવમજાનન્તો મમાવ્યયમનુત્તમમ્।।7.24।।
ਅਵ੍ਯਕ੍ਤਂ ਵ੍ਯਕ੍ਿਤਮਾਪਨ੍ਨਂ ਮਨ੍ਯਨ੍ਤੇ ਮਾਮਬੁਦ੍ਧਯ। ਪਰਂ ਭਾਵਮਜਾਨਨ੍ਤੋ ਮਮਾਵ੍ਯਯਮਨੁਤ੍ਤਮਮ੍।।7.24।।
ಅವ್ಯಕ್ತಂ ವ್ಯಕ್ಿತಮಾಪನ್ನಂ ಮನ್ಯನ್ತೇ ಮಾಮಬುದ್ಧಯಃ. ಪರಂ ಭಾವಮಜಾನನ್ತೋ ಮಮಾವ್ಯಯಮನುತ್ತಮಮ್৷৷7.24৷৷
അവ്യക്തം വ്യക്ിതമാപന്നം മന്യന്തേ മാമബുദ്ധയഃ. പരം ഭാവമജാനന്തോ മമാവ്യയമനുത്തമമ്৷৷7.24৷৷
ଅବ୍ଯକ୍ତଂ ବ୍ଯକ୍ିତମାପନ୍ନଂ ମନ୍ଯନ୍ତେ ମାମବୁଦ୍ଧଯଃ| ପରଂ ଭାବମଜାନନ୍ତୋ ମମାବ୍ଯଯମନୁତ୍ତମମ୍||7.24||
avyaktaṅ vyakitamāpannaṅ manyantē māmabuddhayaḥ. paraṅ bhāvamajānantō mamāvyayamanuttamam৷৷7.24৷৷
அவ்யக்தஂ வ்யக்ிதமாபந்நஂ மந்யந்தே மாமபுத்தயஃ. பரஂ பாவமஜாநந்தோ மமாவ்யயமநுத்தமம்৷৷7.24৷৷
అవ్యక్తం వ్యక్ితమాపన్నం మన్యన్తే మామబుద్ధయః. పరం భావమజానన్తో మమావ్యయమనుత్తమమ్৷৷7.24৷৷
7.25
7
25
।।7.25।। जो मूढ़ मनुष्य मेरेको अज और अविनाशी ठीक तरहसे नहीं जानते (मानते), उन सबके सामने योगमायासे अच्छी तरहसे आवृत हुआ मैं प्रकट नहीं होता।
।।7.25।। अपनी योगमाया से आवृत्त मैं सबको प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ। यह मोहित लोक (मनुष्य) मुझ जन्मरहित, अविनाशी को नहीं जानता है।।
।।7.25।। यदि समस्त जगत् के अधिष्ठान के रूप में कोई दिव्य तत्त्व विद्यमान है तो फिर क्या कारण है कि सब लोगों के द्वारा सर्वत्र सदा वह अनुभव नहीं किया जाता क्यों हम परिच्छिन्न जीव के समान व्यवहार करते हैं और अपने अनन्त स्वरूप को पहचान नहीं पाते संक्षेप में मुझमें और मेरे स्वरूप के मध्य कौन सा आवरण पड़ा हुआ है जब जिज्ञासु साधकगण वेदान्त प्रतिपादित सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं तो स्वाभाविक ही उनके मन में इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं।भगवान् कहते हैं यह मोहित जगत् मुझ अजन्मा अविनाशी को नहीं जानता है क्योंकि उनके लिए मैं त्रिगुणात्मिका योगमाया से आच्छादित रहता हूँ। जब वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थी माया को एक बाह्य वस्तु के रूप में समझने का प्रयत्न करते हैं तब उसे समझने में अत्यन्त कठिनाई होती है। परन्तु जब वे अध्यात्म दृष्टि से विचार करते हैं अर्थात् अपने ही अन्तकरण में माया किस प्रकार कार्य करती है ऐसा विचार करते हैं तो माया का सिद्धांत स्पष्ट हो जाता है। माया प्रिज्म (आयत) के समान ऐसी उपाधि है जिसके माध्यम से अवर्ण अद्वैत स्वरूप तत्त्व जब व्यक्त होता है तब सप्तरंगी प्रकाश के समान वह नानाविधि सृष्टि के रूप में प्रतीत होता है।व्यष्टि (एक व्यक्ति) में कार्य कर रही माया को ही अविद्या कहते हैं। ऋषियों ने इस अविद्या का जो कि जीव के सब दुखों का कारण है सूक्ष्म अध्ययन किया और यह उद्घाटित किया कि यह तीन गुणों से युक्त है जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं। ये तीन गुण हैं सत्त्व रज और तम जो एक आयत का (प्रिज्म) का सा काम करते हैं और जिनके माध्यम से हमें इस बहुविधि सृष्टि का अनुभव होता है। रजोगुण का कार्य है विक्षेप और तमोगुण का कार्य बुद्धि पर पड़ा आवरण है।त्रिगुणों के विकारों से मोहित और भ्रान्त पुरुष को आत्मा का साक्षात् ज्ञान नहीं होता। उस आत्मज्ञान के लिए गुरु के उपदेश तथा स्वयं की साधना की आवश्यकता होती है। किसी ग्रामीण अनपढ़ व्यक्ति के लिए बल्ब में विद्युत का अभाव प्रतीत होता है क्योंकि वह अव्यक्त होती है। उसके प्रवाह को प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए सैद्धांतिक ज्ञान तथा प्रत्यक्ष प्रयोग की अपेक्षा होती है। एक बार विद्युत शक्ति के गुणधर्म का ज्ञान हो जाने पर यदि वह मनुष्य उसी बल्ब में प्रकाश देखे तो उसे अव्यक्त विद्युत का ज्ञान तत्काल हो जाता है इसी प्रकार आत्मसंयम श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा जब साधक का क्षुब्ध मन प्रशान्त हो जाता है तब आवरण के अभाव में वह मुझ अजन्मा अविनाशी स्वरूप को पहचान लेता है। अज्ञानी जीव विषयउपभोगों में नित्य सुख की खोज तभी तक करता है जब तक आवरण और विक्षेप की निवृत्ति नहीं हो जाती।कामाग्नि में सुलगते निराशा में जकड़े असन्तोष से कुचले और आत्मनाश के भय से व्याकुल उन्मत्त और संत्तप्त मनों में समता और एकाग्रता कदापि नहीं हो सकती कि वे क्षणभर के लिए भी आत्मा का शुद्ध स्वरूप अनुभव कर सकें। योगमाया से मोहित यह जगत् मुझ अव्यय स्वरूप को नहीं जानता। मानो नाम और रूप की इस सृष्टि ने आत्मा को आवृत्त कर दिया है। यह आवरण उसी प्रकार का है जैसे प्रेत स्तम्भ को मृगमरीचिका रेत को और तरंगे समुद्र को आच्छादित कर देती हैं जीवन की अज्ञान दशा के विपरीत श्रीकृष्ण अपने स्वरूप को बताते हुए कहते हैं
।।7.25।। व्याख्या--'मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्--मैं अज और अविनाशी हूँ अर्थात् जन्ममरणसे रहित हूँ। ऐसा होनेपर भी मैं प्रकट और अन्तर्धान होनेकी लीला करता हूँ अर्थात् जब मैं अवतार लेता हूँ, तब अज (अजन्मा) रहता हुआ ही अवतार लेता हूँ और अव्ययात्मा रहता हुआ ही अन्तर्धान हो जाता हूँ। जैसे सूर्य भगवान् उदय होते हैं तो हमारे सामने आ जाते हैं और अस्त होते हैं तो हमारे नेत्रोंसे ओझल हो जाते हैं, छिप जाते हैं, ऐसे ही मैं केवल प्रकट और अन्तर्धान होनेकी लीला करता हूँ। जो मेरेको इस प्रकार जन्म-मरणसे रहित मानते हैं, वे तो असम्मूढ़ हैं (गीता 10। 3 15। 19)। परन्तु जो मेरेको साधारण प्राणियोंकी तरह जन्मनेमरनेवाला मानते हैं, वे मूढ़ हैं (गीता 9। 11)।भगवान्को अज, अविनाशी न माननेमें कारण है कि इस मनुष्यका भगवान्के साथ जो स्वतः अपनापन है, उसको भूलकर इसने शरीरको अपना मान लिया कि 'यह शरीर ही मैं हूँ और यह शरीर मेरा है।' इसलिये उसके सामने परदा आ गया, जिससे वह भगवान्को भी अपने समान ही जन्मने-मरनेवाला मानने लगा।मूढ़ मनुष्य मेरेको अज और अविनाशी नहीं जानते। उनके न जाननेमें दो कारण हैं--एक तो मेरा योगमायासे छिपा रहना और एक उनकी मूढ़ता। जैसे, किसी शहरमें किसीका एक घर है और वह अपने घरमें बंद है तथा शहरके सब-के-सब घर शहरकी चहारदीवारी (परकोटे) में बंद हैं। अगर वह मनुष्य बाहर निकलना चाहे तो अपने घरसे निकल सकता है, पर शहरकी चहारदीवारीसे निकलना उसके हाथकी बात नहीं है। हाँ, यदि उस शहरका राजा चाहे तो वह चहारदीवारीका दरवाजा भी खोल सकता है और उसके घरका दरवाजा भी खोल सकता है। अगर वह मनुष्य अपने घरका दरवाजा नहीं खोल सकता तो राजा उस दरवाजेको तोड़ भी सकता है। ऐसे ही यह प्राणी अपनी मूढ़ताको दूर करके अपने नित्य स्वरूपको जान सकता है। परन्तु सर्वथा भगवत्तत्त्वका बोध तो भगवान्की कृपासे ही हो सकता है। भगवान् जिसको जनाना चाहें, वही उनको जान सकता है--'सोइ जानइ जेहि देहु जनाई' (मानस 2। 127। 2)। अगर मनुष्य सर्वथा भगवान्के शरण हो जाय तो भगवान् उसके अज्ञानको भी दूर कर देते हैं और अपनी मायाको भी दूर कर देते हैं।
।।7.25 7.26।।नाहमिति। वेदाहमिति। सर्वेषां नाहं गोचरतां प्राप्नोमि।
।।7.25।।क्षेत्रज्ञासाधारणमनुष्यत्वादिसंस्थानयोगाख्यमायया समावृतः अहं न सर्वस्यं प्रकाशः। मयि मनुष्यत्वादिसंस्थानदर्शनमात्रेण मूढः अयं लोको माम् अतिवाय्विन्द्रकर्माणम् अतिसूर्याग्नितेजसम् उपलभ्यमानम् अपि अजम् अव्ययं निखिलजगदेककारणं सर्वेश्वरं मां सर्वसमाश्रयणीयत्वाय मनुष्यत्वसंस्थानम् आस्थितं न अभिजानाति।
।।7.25।।अविवेकरूपमज्ञानं भगवन्निष्ठाप्रतिबन्धकमुक्तं तस्मिन्नपि निमित्तं प्रश्नपूर्वकमनाद्यज्ञानमुपन्यस्यति तदीयमज्ञानमित्यादिना। त्रिभिर्गुणमयैरित्यनौपाधिकरूपस्याप्रतिपत्तौ कारणमुक्तमत्र तु सोपाधिकस्यापीति विशेषं गृहीत्वा व्याचष्टे नाहमिति। तर्हि भगवद्भक्तिरनुपयुक्तेत्याशङ्क्याह केषांचिदिति। सर्वस्य लोकस्य न प्रकाशोऽहमित्यत्र हेतुमाह योगेति। अनाद्यनिर्वाच्याज्ञानाच्छन्नत्वादेव मद्विषये लोकस्य मौढ्यं ततश्च मदीयस्वरूपविवेकाभावान्मन्निष्ठत्वराहित्यमित्याह अतएवेति।
।।7.25।।कुत एवं न प्रकाशस इत्यत्राह नाहमिति। नाहं प्रकाशः सर्वस्य संसृतस्य किन्तु स्वभक्तानामेव यतोऽहं योगमायासमावृतः अंशांशिभावावस्थित्यादिसर्वभवनरूपा योगशक्तिरेवान्येषां व्यामोहिका माया तयासम्यगासमन्ताद्वृतः।वृञ् वरणे इतिधातोः लोको वा योगमायासमावृतो न जानाति।
।।7.25।।ननु जन्मकालेऽपि सर्वयोगिध्येयं श्रीवैकुण्ठस्थमैश्वरमेव रूपमाविर्भावितवति संप्रति च श्रीवत्सकौस्तुभवनमालाकिरीटकुण्डलादिदिव्योपकरणशालिनि कम्बुकमलकौमोदकीचक्रवरधारिचतुर्भुजे श्रीमद्वैनतेयवाहने निखिलसुरलोकसंपादितराजराजेश्वराभिषेकादिमहावैभवे सर्वसुरासुरजेतरि विविधदिव्यलीलाविलासशीले सर्वावतारशिरोमणौ साक्षाद्वैकुण्ठनायके निखिललोकदुःखनिस्ताराय भुवमवतीर्णे विरिञ्चिप्रपञ्चासंभविनिरतिशयसौन्दर्यसारसर्वस्वमूर्तौ बाललीलाविमोहितविधातरि तरणिकिरणोज्ज्वलव्यपीताम्बरे निरुपमश्यामसुन्दरे करदीकृतपारिजातार्थपराजितपुरन्दरे बाणयुद्धविजितशशाङ्कशेखरे समस्तसुरासुरविजयिनरकप्रभृतिमहादैतेयप्रकरप्राणपर्यन्तसर्वस्वहारिणि श्रीदामादिपरमरङ्कमहावैभवकारिणि षोडशसहस्रदिव्यरूपधारिण्यपरिमेयगुणगरिमणि महामहिमनिनारदमार्क्रण्डेयादिमहामुनिगणस्तुते त्वयि कथमविवेकिनोऽपि मनुष्यबुद्धिर्जीवबुद्धिर्वेत्यर्जुनाशङ्कामपनिनीषुराह भगवान् अहं सर्वस्य लोकस्य न प्रकाशः स्वेन रूपेण प्रकटो न भवामि किंतु केषांचिन्मद्भक्तानामेव प्रकटो भवामीत्यभिप्रायः। कथं सर्वस्य लोकस्य न प्रकट इत्यत्र हेतुमाह योगमायासमावृतः योगो मम संकल्पस्तद्वशवर्तिनी माया योगमाया तयाऽयमभक्तो जनो मां स्वरूपेण न जानात्वितिसंकल्पानुविधायिन्या मायया सम्यगावृतः। सत्यपि ज्ञानकारणे ज्ञानविषयत्वायोग्यः कृतः। अतो यदुक्तं परं भावमजानन्त इति तत्र मम संकल्प एव कारणमित्युक्तं भवति। अतो मम मायया मूढ आवृतज्ञानः सन्नयं चतुर्विधभक्तविलक्षणो लोकः सत्यपि ज्ञानकारणे मामजमव्ययमनाद्यनन्तं परमेश्वरं नाभिजानाति किंतु विपरीतदृष्ट्या मनुष्यमेव कंचिन्मन्यत इत्यर्थः। विद्यमानं वस्तुस्वरूपमावृणोत्यविद्यमानं च किंचिद्दर्शयतीति लौकिकमायायामपि प्रसिद्धमेतत्।
।।7.25।।तेषां स्वाज्ञाने हेतुमाह नाहमिति। सर्वस्य लोकस्य नाहं प्रकाशः प्रकटो न भवामि किंतु मद्भक्तानामेव। यतो योगमायया समावृतः। योगो युक्तिः मदीयः कोऽप्यचिन्त्यप्रज्ञाविलासः स एव माया अघटमानघटनाचातुर्यं अनया संच्छन्नः अतएव मत्स्वरूपज्ञाने मूढः सन्नयं लोकः अजमव्ययं च मां न जानाति।
।।7.25।।यदि त्वमप्रतिहतसङ्कल्पः साभिसन्धिकं सर्वसमाश्रयणीयत्वायावतीर्णः तर्हि कथं तत्फलासिद्धिरित्यभिप्रायेण शङ्कतेकुत इति। मायाशब्दस्तावद्विचित्र(शिष्ट)सृष्टिकरार्थवा चितया प्रागेव प्रपञ्चितः त्रिगुणात्मिकया मायया समावृतत्वं तु प्रागवस्थावतारावस्थयोः साधारणम् असाधारणश्चावरणहेतुरत्र सम्भवे वक्तुमुचितः सङ्कल्पादिश्च साधारणः योगशब्दोऽपि सम्बन्धे प्रचुरप्रयोगत्वात्तदर्थः प्राप्तः तत्सम्बन्धी चार्थसिद्धः स चात्रौचित्यात्प्रदेशान्तरेषु प्रसिद्धत्वाच्च मनुष्यादिसंस्थानवेषभाषादिरेव तेनैवेन्द्रजालमायाव्यवच्छेदोऽपि सिद्ध इत्यभिप्रायेणाहमनुष्यत्वादीति। प्रकाशः परस्वभावेनेति शेषः। तर्हि तवैवायं दोष इत्यत्रोत्तरंमूढोऽयमित्यादि। अधिगम्यत्वायापादितं मनुष्यत्वादिकं दुर्मतीनां परित्यागहेतुरभूत् नच पारमेश्वरस्वभावो मायया सर्वस्तिरोहितः लोकोत्तरकर्मतेजःप्रभृतीनां प्रकाशनात्। किन्त्वयं मन्दो लोको यत्किञ्चित्साधर्म्याद्धनावृते मयूखमालिनि खद्योतभावमवगच्छतीत्यभिप्रायेणाह मयीति। मूढः मयि मनुष्यत्वादिभ्रमविशिष्ट इत्यर्थः।माम् इति तदानीन्तनोपलभ्यमानाकारनिर्देशसामर्थ्यात्प्रदेशान्तरोक्तत्वाच्चअतिवाय्विन्द्रकर्माणमित्याद्युक्तम्। परावस्थस्याज्ञानं सर्वेषां प्राप्तमेव हि इह तुपरं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् 7।24 इति मनुष्यत्वे परत्वस्याज्ञानमुच्यते तत्र प्रतिषेध्यस्य ज्ञानस्य प्रसङ्गार्थं लिङ्गोक्तिरियम्। निरतिशयदीप्तियुक्तत्वमपि जगत्कारणपरमपुरुषासाधारणधर्मतया वेदान्तेषु निर्णीतम्। अतिवाय्विन्द्रकर्मत्वं च सर्वनियन्तृत्वलिङ्गम्।अजम् इत्यनेन फलितमाहनिखिलजगदेककारणमिति।अव्ययम् इत्यनेन लब्धमाहसर्वेश्वरमिति। स्वरूपतो धर्मतश्च निर्विकारत्वं हि तस्याव्ययत्वम् एतेनअजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् 4।6 इति प्रागुक्तसूचनं वा। अजमव्ययं नाभिजानाति किन्तु पुरुषान्तरवत्कर्माधीनजन्मानं ज्ञानसङ्कोचादिमन्तं जानातीति शेषः।
।।7.25।।ननु मनुष्या विवेकादिसहिताः कथं न त्वां जानन्ति इत्यत आह नाहमिति। अहं सर्वस्य साधारणस्य प्रकाशः प्रकटो न भवामि किन्तु कस्यचिद्भक्तस्यैव। तत्र हेतुमाह योगमायासमावृत इति। योगार्थमेव या माया अन्तरङ्गा दासीभूता शक्तिस्तया आवृतो रसार्थमाच्छन्नः। अतो मूढो भक्त्यालोचनादिज्ञानशून्योऽयं परिदृश्य৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷मानो मां पश्यन्नपि स्वरूपज्ञानरहितो लोको बहिर्दृष्टिर्मामजं जन्मरहितं लीलया प्रकटमव्ययं नित्यं नाभिजानाति अभितः सर्वभावेन न जानाति।
।।7.25।।कुतस्त्वद्विषयमज्ञानं लोकस्येत्यत आह नाहमिति। हे योग योगिन्। अर्शआद्यच्प्रत्ययान्तोऽयं योगशब्दः। अहं तत्पदार्थः सर्वस्य योगिनस्त्वंपदार्थमात्राभिज्ञस्य न प्रकाशोऽस्मि। तत्र हेतुः मायासमावृत इति। भाष्ये तु योगो युक्तिर्गुणानां घटनं सैव योगमाया चित्तसमाधिर्वा योगो भगवतस्तत्कृता मायेति। भगवत्संकल्पवशवर्तिनी मायेत्यर्थः। उत्तरार्धः स्पष्टार्थः।
।।7.25।।स्वाज्ञाने निमित्तमाह नेति। अहं परमेश्वरः सर्वस्य लोकस्य परमेश्वरेण रुपेण प्रकटो न भवामि। किंतु केषांचित्स्वभक्तानां सैव माया तया। यद्वा योगो भगवतश्चित्तसमाधिस्तत्कृता माया। भगवत्संकल्पवशवर्तिनीति यावत्। उभयथाप्यनाद्यनिर्वाच्यमज्ञानं तया योगमायया समावृतः संच्छन्नः। आच्छादित इति यावत्। हे योग योगिन्। अर्शआद्यच्प्रत्ययान्तोऽयं योगशब्दः। अहं तत्पदार्थः सर्वस्य योगिनस्त्वंपदार्थमात्राभिज्ञस्य न प्रकाशोऽस्मि। तत्र हेतुः मायया समावृत इत्यन्येषां पक्षस्तु अगतिकगत्याश्रयणात्मिकयाऽरूच्या ग्रस्तः अतोऽनाद्यनिर्वाच्याज्ञानेन मूढो मोहं गतोऽयं लोको मद्विमुखः मामजमव्ययं नाभिजानाति।
7.25 न not? अहम् I? प्रकाशः manifest? सर्वस्य of all? योगमायासमावृतः veiled by YogaMaya? मूढः deluded? अयम् this? न not? अभिजानाति knows? लोकः world? माम् Me? अजम् unborn? अव्ययम् imperishable.Commentary I am not manifest to all the people? but I am certainly manifest to the chosen few who are My devotees? who have taken sole refuge in Me alone. I am not visible to those who are deluded by the three Gunas and the pairs of opposites? and who are screened off by this universe which is a manifestation of the alities of Nature? My YogaMaya or My creative illusion. This veils the understanding of the worldlyminded people. So they are not able to behold the Lord Who keeps Maya under His perfect control.YogaMaya is the union of the three alities of Nature. The illusion or veil spread thery is called YogaMaya. The worldly people are deluded by the illusion born of the union of the three alities. Therefore? they are not able to know the Lord Who is unborn and immutable.This YogaMaya is under the perfect control of the Lord. Isvara is the wielder of Maya. Therefore it cannot obscure His own knowledge? just as the illusion created by the juggler cannot obstruct his,own knowledge or deceive him. The illusion which binds the worldly people cannot in the least affect the Lord Who has kep Maya under his perfect subjugation. (Cf.VII.13IX.5X.7XI.8)
7.25 I am not manifest to all (as I am) veiled by the Yoga-Maya. This deluded world does not know Me, the unborn and imperishable.
7.25 I am not visible to all, for I am enveloped by the illusion of Phenomenon. This deluded world does not know Me as the Unborn and the Imperishable.
7.25 Being enveloped by yoga-maya, I do not become manifest to all. This deluded world does not know Me who am birthless and undecaying.
7.25 Yoga-maya-samavrtah, being enveloped by yoga-maya-Yoga means the combination, the coming together, of the (three) gunas; that (combination) is itself maya, yoga-maya; being enveloped, i.e. veiled, by that yoga-maya; aham, I; na prakasah, do not become manifest; sarvasya, to all, to the world. The idea is that I become manifest only to some devotees of Mine. For this very reason, ayam, this; mudhah, deluded; lokah, world; na abhijanati, does not know; mam, Me; who am ajam, birthless; and avyayam, undecaying. [In verse 13 the reason for the non-realization of the supreme, unalified Brahman was stated. The present verse states the reason for the non-realization of the alified Brahman.] 'That yoga-maya, because of My being covered by which the world does not know Me- that yoga-maya, since it belongs to Me, does not obstruct the knowlege of Me who am God, the possessor of maya, just as the magic of any other magician does not cover his knowledge.' Since this is so, therefore-
7.25. Being surrounded by the trick-of-yoga-Illusion, I am not clear to all; [and hence] this deluded world [of perceivers] does not recognise Me, the unborn and the undying.
7.25 See Comment under 7.26
7.25 Concealed by the Maya called Yogamaya, I am associated with a human form and other generic structures which are special to individual selves. Because of this I am not manifest to all. The foolish, by seeing in Me merely the human or the other generic structures, do not know that My powers are greater than those of Vayu and Indra, that My lustre is more brilliant than that of sun and fire, that though visible to all, I am unborn, immutable, the cause of all the worlds, the Lord of all, and that I have assumed a human form, so that all who want can take refuge in Me.
7.25 Veiled by My Maya, I am not manifest to all. This deluded world does not recognize Me as the unborn and immutable.
।।7.25।।उनका वह अज्ञान किस कारणसे है सो बतलाते हैं तीनों गुणोंके मिश्रणका नाम योग है और वही माया है उस योगमायासे आच्छादित हुआ मैं समस्त प्राणिसमुदायके लिये प्रकट नहीं रहता हूँ अभिप्राय यह कि किन्हींकिन्हीं भक्तोंके लिये ही मैं प्रकट होता हूँ। इसलिये यह मूढ़ जगत् ( प्राणिसमुदाय ) मुझ जन्मरहित अविनाशी परमात्माको नहीं जानता।
।।7.25।। न अहं प्रकाशः सर्वस्य लोकस्य केषांचिदेव मद्भक्तानां प्रकाशः अहमित्यभिप्रायः। योगमायासमावृतः योगः गुणानां युक्ितः घटनं सैव माया योगमाया तया योगमायया समावृतः संछन्नः इत्यर्थः। अत एव मूढो लोकः अयं न अभिजानाति माम् अजम् अव्ययम्।।यया योगमायया समावृतं मां लोकः नाभिजानाति नासौ योगमाया मदीया सती मम ईश्वरस्य मायाविनो ज्ञानं प्रतिबध्नाति यथा अन्यस्यापि मायाविनः मायाज्ञानं तद्वत्।।यतः एवम् अतः
।।7.25।।तथापिनाहं प्रकाशः इति पुनरुक्तिरित्यतस्तात्पर्यमाह अज्ञानं चेति। येनाज्ञानेन मामन्यथा मन्यन्ते तदज्ञानं च मदिच्छाधीनमेव न स्वतन्त्रं येन तया निन्दया मम खेदः स्यादिति भावः।योग एव माया इति व्याख्यानं (शं.) असदिति भावेनाह योगेनेति। सामर्थ्यमेवोपायः।युज्यते येन योगोऽसावुपायः शक्तिरेव च इति वचनाद्योगशब्दस्योभयार्थत्वेन द्वन्द्वैकवद्भावः किं न स्यात् इति चेत् न मायया चेत्यस्य वैयर्थ्यापत्तेः तस्या अप्युपायविशेषत्वात्। अत एवोपायार्थत्वं गृहीत्वा सामर्थ्येति तद्व्याख्यानं कृतम्। इदं तात्पर्यं श्लोके न प्रतीयत इत्यत आह मयैवेति। उक्तार्थस्थापनाय पुराणसम्मतिमाह तथेति।
।।7.25।।अज्ञानं च मदिच्छयेत्याह नाहमिति। योगेन सामर्थ्योपायेन मायया च। मयैव मूढो नाभिजानाति। तथाहि पाद्मे आत्मनः प्रावृतिं चैव लोकचित्तस्य बन्धनम्। स्वसामर्थ्येन देव्या च कुरुते स महेश्वरः इति च।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।7.25।।
নাহং প্রকাশঃ সর্বস্য যোগমাযাসমাবৃতঃ৷ মূঢোযং নাভিজানাতি লোকো মামজমব্যযম্৷৷7.25৷৷
নাহং প্রকাশঃ সর্বস্য যোগমাযাসমাবৃতঃ৷ মূঢোযং নাভিজানাতি লোকো মামজমব্যযম্৷৷7.25৷৷
નાહં પ્રકાશઃ સર્વસ્ય યોગમાયાસમાવૃતઃ। મૂઢોયં નાભિજાનાતિ લોકો મામજમવ્યયમ્।।7.25।।
ਨਾਹਂ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਸਰ੍ਵਸ੍ਯ ਯੋਗਮਾਯਾਸਮਾਵਰਿਤ। ਮੂਢੋਯਂ ਨਾਭਿਜਾਨਾਤਿ ਲੋਕੋ ਮਾਮਜਮਵ੍ਯਯਮ੍।।7.25।।
ನಾಹಂ ಪ್ರಕಾಶಃ ಸರ್ವಸ್ಯ ಯೋಗಮಾಯಾಸಮಾವೃತಃ. ಮೂಢೋಯಂ ನಾಭಿಜಾನಾತಿ ಲೋಕೋ ಮಾಮಜಮವ್ಯಯಮ್৷৷7.25৷৷
നാഹം പ്രകാശഃ സര്വസ്യ യോഗമായാസമാവൃതഃ. മൂഢോയം നാഭിജാനാതി ലോകോ മാമജമവ്യയമ്৷৷7.25৷৷
ନାହଂ ପ୍ରକାଶଃ ସର୍ବସ୍ଯ ଯୋଗମାଯାସମାବୃତଃ| ମୂଢୋଯଂ ନାଭିଜାନାତି ଲୋକୋ ମାମଜମବ୍ଯଯମ୍||7.25||
nāhaṅ prakāśaḥ sarvasya yōgamāyāsamāvṛtaḥ. mūḍhō.yaṅ nābhijānāti lōkō māmajamavyayam৷৷7.25৷৷
நாஹஂ ப்ரகாஷஃ ஸர்வஸ்ய யோகமாயாஸமாவரிதஃ. மூடோயஂ நாபிஜாநாதி லோகோ மாமஜமவ்யயம்৷৷7.25৷৷
నాహం ప్రకాశః సర్వస్య యోగమాయాసమావృతః. మూఢోయం నాభిజానాతి లోకో మామజమవ్యయమ్৷৷7.25৷৷
7.26
7
26
।।7.26।। हे अर्जुन ! जो प्राणी भूतकालमें हो चुके हैं, तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे, उन सब प्राणियोंको तो मैं जानता हूँ; परन्तु मेरेको कोई (मूढ़ मनुष्य) नहीं जानता।
।।7.26।। हे अर्जुन ! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा भविष्य में होने वाले भूतमात्र को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझे कोई भी पुरुष नहीं जानता हैं।।
।।7.26।। विश्व के सभी धर्मों में ईश्वर को सर्वज्ञ माना गया है किन्तु केवल वेदान्त में ही सर्वज्ञता का सन्तोषजनक विवेचन मिलता है। उपनिषदों के सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में गीता का विशेष स्थान है जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि वास्तव में सर्वज्ञता का अर्थ क्या है।आत्मा ही वह चेतन तत्त्व है जो मनबुद्धि की समस्त वृत्तियों का प्रकाशित करता है। बाह्य भौतिक जगत् का ज्ञान हमें तभी होता है जब इन्द्रियां विषय ग्रहण करती हैं जिसके फलस्वरूप मन में विषयाकार वृत्तियां उत्पन्न होती हैं। इन वृत्तियों का वर्गीकरण करके विषय का निश्चय करने का कार्य बुद्धि का है। मन और बुद्धि की वृत्तियां नित्य चैतन्य स्वरूप आत्मा से ही प्रकाशित होती हैं।सूर्य का प्रकाश जगत् की समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करता है। जब मेरे नेत्र या श्रोत रूप या शब्द को प्रकाशित करते हैं तब मैं कहता हूँ कि मैं देखता हूँ या मैं सुनता हूँ। संक्षेप में वस्तु का भान होने का अर्थ है उसे जानना और जानने का अर्थ है प्रकाशित करना। जैसे सूर्य को जगच्चक्षु कहा जा सकता है क्योंकि उसके अभाव में हमारी नेत्रेन्द्रिय निष्प्रयोजन होकर गोलक मात्र रह जायोगी वैसे ही आत्मा को सर्वत्र सदा सबका ज्ञाता कहा जा सकता है। आत्मा की सर्वज्ञता भगवान् के इस कथन में कि मैं भूत वर्तमान और भविष्य के भूतमात्र को जानता हूँ स्पष्ट हो जाती है।यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि आत्मा न केवल वर्तमान का ज्ञाता है बल्कि अनादिकाल से जितने विषय भावनाएं एवं विचार व्यतीत हो चुके है उन सबका भी प्रकाशक वही था और अनन्तकाल तक आने वाले भूतमात्र का ज्ञाता भी वही रहेगा विद्युत से पंखा घूमता है परन्तु पंखा विद्युत को गति नहीं दे सकता एक व्यक्ति दूरदर्शी यन्त्र से नक्षत्रों का निरीक्षण करता है किन्तु वह यन्त्र उस द्रष्टा व्यक्ति का निरीक्षण नहीं कर सकता इन्द्रिय मन और बुद्धि को चेतना प्रदान करने वाले द्रष्टा आत्मा को किस प्रकार कोई जान सकता है भगवान् श्रीकृष्ण इस आत्मदृष्टि से कहते हैं यद्यपि मैं सबको सर्वत्र सदा जानता हूँ लेकिन मुझे कोई भी नहीं जानता है।वेदान्त में वर्णित पारमार्थिक दृष्टि से तो आत्मा को ज्ञाता या द्रष्टा भी नहीं कहा जा सकता जैसे शुद्ध तार्किक दृष्टि से यह कहना गलत होगा कि सूर्य जगत् को प्रकाशित करता है। हमें रात्रि के अन्धकार में वस्तुएं दिखाई नहीं देतीं इस कारण दिन में उनके दृष्टिगोचर होने पर सूर्य को प्रकाशित करने के धर्म से युक्त मानते हैं। तथापि नित्य प्रकाश स्वरूप सूर्य की दृष्टि से ऐसा कोई क्षण नहीं है जब वह वस्तुओं को प्रकाशित करके उन्हें अनुग्रहीत न करता हो। अत यह कहना कि सूर्य जगत् को प्रकाशित करता है उतना ही अर्थहीन है जितना यह कथन कि आजकल मैं श्वासोच्छ्वास में अत्यन्त व्यस्त हूँ आत्मा का ज्ञातृत्व औपाधिक है अर्थात् माया की उपाधि से उसे प्राप्त हुआ है। शुद्ध सत्त्वगुण प्रधान माया में व्यक्त आत्मा या ब्रह्मा को ही वेदान्त में ईश्वर कहा जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण सत्य का साकार रूप या ईश्वर का अवतार हैं और इसलिए उनका स्वयं को सर्वज्ञ घोषित करना समीचीन ही है।परन्तु दुर्भाग्य से आत्मकेन्द्रित र्मत्य जीव परिच्छिन्न संकीर्ण और सीमित मन तथा बुद्धि के छिद्र से जगत् को देखते हुए समष्टि की तालबद्ध लय को पहचान नहीं पाता। जो व्यक्ति स्वनिर्मित अज्ञान के बन्धनों को तोड़कर विश्व के साथ तादात्म्य कर सकता है वही व्यक्ति श्रीकृष्ण के दृष्टिकोण को निश्चय ही समझ सकता है उसका अनुभव कर सकता है। जो व्यक्ति सफलतापूर्वक समष्टि मन के साथ तादात्म्य प्राप्त कर जीता है वह व्यक्ति अपने तथा तत्पश्चात् आने वाले युग का कृष्ण ही है।यदि सभी औपाधिक ज्ञानों का प्रकाशक आत्मा ही है तो किन प्रतिबन्धों के कारण आत्मा का साक्षात्कार नहीं हो पाता है भगवान् कहते हैं
।।7.26।। व्याख्या--'वेदाहं समतीतानि ৷৷. मां तु वेद न कश्चन'--यहाँ भगवान्ने प्राणियोंके लिये तो भूत, वर्तमान और भविष्यकालके तीन विशेषण दिये हैं; परन्तु अपने लिये 'अहं वेद' पदोंसे केवल वर्तमानकालका ही प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य यह है कि भगवान्की दृष्टिमें भूत, भविष्य और वर्तमान--ये तीनों काल वर्तमान ही हैं। अतः भूतके प्राणी हों, भविष्यके प्राणी हों अथवा वर्तमानके प्राणी हों--सभी भगवान्की दृष्टिमें वर्तमान होनेसे भगवान् सभीको जानते हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान--ये तीनों काल तो प्राणियोंकी दृष्टिमें हैं, भगवान्की दृष्टिमें नहीं। जैसे सिनेमा देखनेवालोंके लिये भूत, वर्तमान और भविष्य-कालका भेद रहता है, पर सिनेमाकी फिल्ममें सब कुछ वर्तमान है, ऐसे ही प्राणियोंकी दृष्टिमें भूत, वर्तमान और भविष्यकालका भेद रहता है, पर भगवान्की दृष्टिमें सब कुछ वर्तमान ही रहता है। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी कालके अन्तर्गत हैं और भगवान् कालसे अतीत हैं। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि बदलते रहते हैं और भगवान् हरदम वैसे-के-वैसे ही रहते हैं। कालके अन्तर्गत आये हुए प्राणियोंका ज्ञान सीमित होता है और भगवान्का ज्ञान असीम है। उन प्राणियोंमें भी कोई योगका अभ्यास करके ज्ञान बढ़ा लेंगे तो वे 'युञ्जान योगी' होंगे और जिस समय जिस वस्तुको जानना चाहेंगे, उस समय उसी वस्तुको वे जानेंगे। परन्तु भगवान् तो 'युक्त योगी हैं' अर्थात् बिना योगका अभ्यास किये ही वे मात्र जीवोंको और मात्र संसारको सब समय स्वतः जानते हैं।भूत, भविष्य और वर्तमानके सभी जीव नित्य-निरन्तर भगवान्में ही रहते हैं, भगवान्से कभी अलग हो ही नहीं सकते। भगवान्में भी यह ताकत नहीं है कि वे जीवोंसे अलग हो जायँ! अतः प्राणी कहीं भी रहें, वे कभी भी भगवान्की दृष्टिसे ओझल नहीं हो सकते।
।।7.25 7.26।।नाहमिति। वेदाहमिति। सर्वेषां नाहं गोचरतां प्राप्नोमि।
।।7.26।।अतीतानि वर्तमानानि अनागतानि च सर्वाणि भूतानि अहं वेद जानामि मां तु वेद न कश्चन। मया अनुसन्धीयमानेषु कालत्रयवर्तिषु भूतेषु माम् एवंविधं वासुदेवं सर्वसमाश्रयणीयतया अवतीर्णं विदित्वा माम् एव समाश्रयम् न कश्चिद् उपलभ्यत इत्यर्थः। अतो ज्ञानी सुदर्लभ एव।
।।7.26।।मायया भगवानावृतश्चेत्तस्यापि लोकस्यैव ज्ञानप्रतिबन्धः स्यादित्याशङ्क्याह ययेति। नहीयं माया मायाविनो विज्ञानं प्रतिबध्नाति मायात्वाल्लौकिकमायावत् अथवा नेश्वरो मायाप्रतिबद्धज्ञानो मायावित्वाल्लौकिकमायाविवदित्यर्थः। भगवतो मायाप्रतिबद्धज्ञानत्वाभावेन सर्वज्ञत्वमप्रतिबद्धं सिद्धमित्याह यत इति। लोकस्य मायाप्रतिबद्धविज्ञानत्वादेव भगवदाभिमुख्यशून्यत्वमित्याह मां त्विति। कालत्रयपरिच्छिन्नसमस्तवस्तुपरिज्ञाने प्रतिबन्धो नेश्वरस्यास्तीति द्योतनार्थस्तुशब्दः। मां त्विति लोकस्य भगवत्तत्त्वविज्ञानप्रतिबन्धं द्योतयति। तर्हि तद्भक्तिर्विफलेत्याशङ्क्याह मद्भक्तमिति। तर्हि सर्वोऽपि त्वद्भक्तिद्वारा त्वां ज्ञास्यति नेत्याह मत्तत्त्वेति। विवेकवतो मद्भजनं नतु विवेकशून्यस्य सर्वस्यापीत्यर्थः।
।।7.26।।सर्वोत्तमं मत्स्वरूपं अजानन्त इत्युक्तं तदेव स्वसर्वोत्तमत्वं परत्वमनावृतज्ञानादिशक्तिमत्त्वेन दर्शयन्नन्येषामज्ञानमाह वेदाहमिति। अतीतानि वर्त्तमानान्यनागतानि च सर्वाणि भूतानि जानामि। मां तु कश्चन न जानाति। मयाऽनुसन्धीयमानेषु कालत्रयवर्त्तिषु मामेवंविधमहिमानं वासुदेवं सर्वमुक्त्यर्थमवतीर्णं ज्ञात्वा मामेव प्रपद्यमानो न कश्चिदुपलभ्यत इत्यर्थः। अतो भगवन्मार्गीयो ज्ञानी दुर्लभ एव।
।।7.26।।अतो मायया स्वाधीनया सर्वव्यामोहकत्वात्स्वयं चाप्रतिबद्धज्ञानात्वात् अहमप्रतिबद्धसर्वविज्ञानो मायया सर्वांल्लोकान्मोहयन्नपि समतीतानि चिरविनष्टानि वर्तमानानि च भविष्याणि च। एवं कालत्रयवर्तीनि भूतानि स्थावरजङ्गमानि सर्वाणि वेद जानामि। हे अर्जुन अतोऽहं सर्वज्ञः परमेश्वर इत्यत्र नास्ति संशय इत्यर्थः। मां तु। तुशब्दो ज्ञानप्रतिबन्धद्योतनार्थः। मां सर्वदर्शनमपि मायाविनमिव मन्मायामोहितः कश्चन कोऽपि मदनुग्रहभाजनं मद्भक्तं विना न वेद मन्मायामोहितत्वात्। अतो मत्तत्त्ववेदनाभावादेव प्रायेण प्राणिनो मां न भजन्त इत्यभिप्रायः।
।।7.26।।सर्वोत्तमं मत्स्वरूपमजानन्त इत्युक्तम् तदेव स्वस्य सर्वोत्तमत्वमनावृतज्ञानशक्तित्वेन दर्शयन्नन्येषामज्ञानमेवाह वेदेति। समतीतानि विनष्टानि वर्तमानानि भावीनि च त्रिकालवर्तीनि भूतानि स्थावरजंगमानि सर्वाण्यहं वेद जानामि मायाश्रयत्वान्मम तस्याः स्वाश्रयव्यामोहकत्वाभावादिति प्रसिद्धम्। मां तु न कोऽपि वेत्ति मन्मायामोहितत्वात्। प्रसिद्धं हि लोके मायायाः स्वाश्रयाधीनत्वमन्यमोहकत्वं च।
।।7.26।।अयं लोको नाभिजानातीत्येतावता वर्तमानमात्रपरत्वं नाशङ्कनीयं किन्तु त्रैकाल्यवर्तीन्यपि भूतानि न जानन्तीत्युच्यतेवेदाहं इत्यादिना। अत्रअतीतानि इति पृथङ्निर्दिष्टत्वात् भूतानि इत्येतत्क्षेत्रज्ञपरम्। स्वस्य सर्वज्ञत्वमत्र किमर्थमुच्यते इत्यत्राहमयेति। तद्वेदनफलं हि तदेकसमाश्रयणमिति दर्शयितुंमामेव समाश्रयन्नित्युक्तम्। परमप्रकृतेन सङ्गमयति अत इति।
।।7.26।।ननु याँस्त्वं स्वसेवार्थं प्रकटीकृतान् पुनः स्वकीयत्वेन न जानासि तदा माया तान् व्यामोहयति उतान्यथा वा इत्याशङ्क्याह वेदाहमिति। अहं समतीतानि सेवामकृत्वा नष्टानि वर्त्तमानानि साम्प्रतं सेवां कुर्वाणानि भविष्याणि सेवार्थं प्रकटानि यानि भूतानि मत्सत्तया प्रकटानि स्थावरजङ्गमानि त्रिकालवर्तीनि मदीयत्वेन वेद जानामि। तु पुनः मज्ज्ञानानन्तरमपि कश्चन त्रिकालवर्तिषु मां प्रभुत्वेन न वेद। न जानातीत्यर्थः।
।।7.26।।ननु त्वदभिन्नं लोकं त्वन्माया मोहयति चेत्त्वां कुतो न मोहयतीत्यत आह वेदाहमिति। सत्यम्। सत्यपि लोकस्य मम चाभेदे औपाधिकभेदस्य सत्त्वादुपाधिधर्माभिमानित्वाल्लोको मूढः तदभावाच्चाहं सर्वज्ञ इति विशेषः। अक्षरार्थः स्पष्टः।
।।7.26।।मायया त्वमावृतश्चेत्तवापि लोकस्येव ज्ञानप्रतिबन्धः स्यादित्याशङ्कयाह वेदेति। अहमप्रतिबद्धज्ञानशक्तिः समतीतानि समतिक्रान्तानि वर्तमानानि भविष्याणि च भूतानि चराचरात्मकानि सर्वाणि वेद जानामि। त्वमपि योगद्यभ्यासेन स्वच्छान्तःकरणः सन् ज्ञातुं शक्तोऽसि। अगं तु नित्यशुद्धः सर्वोपाधिधर्माभिमानमलशून्यो जानामीति किमु वक्त्वयमितति सूचयन्संबोधयति अर्जुनेति। मां तु परमात्मानं मद्भक्तं मच्छरणमेकं त्यक्त्वा न कश्चन वेद जानाति। तथाच यया मायया समावृतं मां लोको नाभिजानाति नासौ मदीया सती ममेश्वरस्य मायाविनो ज्ञानं प्रतिबध्नाति मायात्वात् लौकिकमायावत्। यद्वा नाहं मायय प्रतिबन्द्धज्ञानं मायावित्वात् लौकिकमायाविवदिति भावः।
7.26 वेद know? अहम् I? समतीतानि the past? वर्तमानानि the present? च and? अर्जुन O Arjuna? भविष्याणि the future? च and? भूतानि beings? माम् Me? तु verily? वेद knows? न not? कश्चन any one.Commentary Persons who are deluded by the three alities of Nature do not know the Lord. As they lack in the knowledge of His real nature? they do not adore Hi. But the Lord knows through His omniscience the beings of the past? the present and the future. He who worships the Lord with singleminded devotion knows Him in essence. He has knowledge of His real nature.
7.26 I know, O Arjuna, the beings of the past, the present and the future, but no one knows Me.
7.26 I know, O Arjuna, all beings in the past, the present and the future; but they do not know Me.
7.26 O Arjuna, I know the past and the present as also the future beings; but no one knows Me!
7.26 O Arjuna, aham, I, however; veda, know; samatitani, the past beings; and vartamanani, the present. I know ca, also; bhavisyani, the future; bhutani, beings. Tu, but; na kascana, no one; veda, knows; mam, Me. Except the one person who is My devotee and has taken refuge in Me, no one adores Me, jus because he does not know My reality. 'What, again,is the obstruction to knowing Your reality, being prevented by which the creatures that are born do not know You?' In anticipation of such a estion, the Lord says this:
7.26. O Arjuna, I know the beings that are gone off, that are present and are yet to be born; but no one, knows Me.
7.25-26 Naham etc. Vadaham etc. I am not perceivable to all. But the actions themselves, if performed, would beget emancipation at the time of dissolution [of the world]. otherwise, how does the total dissolution come to be there ? When this doubt arises, [the Bhagavat] commences [to answer] as :
7.26 I know all being that have passed away, those that live now and those that will hereafter. But no one knows Me. Among the beings existing in the three-fold divisions of time whom I look after, no one understands Me as of the nature described and as Vasudeva incarnated to be a refuge for all. So no one resorts to Me. Therefore, the one who knows Me really (Jnanin) is extremely difficult to be found. Such is the meaning. So also:
7.26 I know all beings, O Arjuna, past, present and those to come; but no one knows Me.
।।7.26।।जिस योगमायासे छिपे हुए मुझ परमात्माको संसार नहीं जानता वह योगमाया मेरी ही होनेके कारण मुझ मायापति ईश्वरके ज्ञानका प्रतिबन्ध नहीं कर सकती जैसे कि अन्य मायावी ( बाजीगर ) पुरुषोंकी माया भी उनके ज्ञानको ( आच्छादित नहीं करती ) इसलिये हे अर्जुन जो पूर्वमें हो चुके हैं उन प्राणियोंको एवं जो वर्तमान हैं और जो भविष्यमें होनेवाले हैं उन सब भूतोंको मैं जानता हूँ। परंतु मेरे शरणागत भक्तको छोड़कर मुझे और कोई भी नहीं जानता और मेरे तत्त्वको न जाननेके कारण ही ( अन्य जन ) मुझे नहीं भजते।
।।7.26।। अहं तु वेद जाने समतीतानि समतिक्रान्तानि भूतानि वर्तमानानि च अर्जुन भविष्याणि च भूतानि वेद अहम्। मां तु वेद न कश्चन मद्भक्तं मच्छरणम् एकं मुक्त्वा मत्तत्त्ववेदनाभावादेव न मां भजते।।केन पुनः मत्तत्त्ववेदनप्रतिबन्धेन प्रतिबद्धानि सन्ति जायमानानि सर्वभूतानि मां न विदन्ति इत्यपेक्षायामिदमाह
।।7.26।।अकस्मात्स्वस्य सार्वज्ञं किमित्युच्यते इत्यत आह नेति। यवनिकाद्युभयभागवर्तिनोः परस्पराज्ञानवत्तवापि भूतविषये ज्ञानं न स्यादिति शङ्कानिरासार्थमिति शेषः। तथापिमां तु वेद न कश्चन इति पुनरुक्तमित्यत आह न कश्चनेति। असमर्थो लोको न जानातु अतिसमर्थस्तु ब्रह्मादिर्ज्ञास्यतीति शङ्कानिरासार्थमेतदुक्तम्। कश्चनेति विशेषणादिति भावः। तर्हिज्ञानी च भरतर्षभ 7।16 इत्यादिविरोध इत्यत उक्तम् स्वेति।
।।7.26।।न मां माया बध्नातीत्याह वेदेति। न कश्चनातिसमर्थोऽपि स्वसामर्थ्यात्।
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन। भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।।7.26।।
বেদাহং সমতীতানি বর্তমানানি চার্জুন৷ ভবিষ্যাণি চ ভূতানি মাং তু বেদ ন কশ্চন৷৷7.26৷৷
বেদাহং সমতীতানি বর্তমানানি চার্জুন৷ ভবিষ্যাণি চ ভূতানি মাং তু বেদ ন কশ্চন৷৷7.26৷৷
વેદાહં સમતીતાનિ વર્તમાનાનિ ચાર્જુન। ભવિષ્યાણિ ચ ભૂતાનિ માં તુ વેદ ન કશ્ચન।।7.26।।
ਵੇਦਾਹਂ ਸਮਤੀਤਾਨਿ ਵਰ੍ਤਮਾਨਾਨਿ ਚਾਰ੍ਜੁਨ। ਭਵਿਸ਼੍ਯਾਣਿ ਚ ਭੂਤਾਨਿ ਮਾਂ ਤੁ ਵੇਦ ਨ ਕਸ਼੍ਚਨ।।7.26।।
ವೇದಾಹಂ ಸಮತೀತಾನಿ ವರ್ತಮಾನಾನಿ ಚಾರ್ಜುನ. ಭವಿಷ್ಯಾಣಿ ಚ ಭೂತಾನಿ ಮಾಂ ತು ವೇದ ನ ಕಶ್ಚನ৷৷7.26৷৷
വേദാഹം സമതീതാനി വര്തമാനാനി ചാര്ജുന. ഭവിഷ്യാണി ച ഭൂതാനി മാം തു വേദ ന കശ്ചന৷৷7.26৷৷
ବେଦାହଂ ସମତୀତାନି ବର୍ତମାନାନି ଚାର୍ଜୁନ| ଭବିଷ୍ଯାଣି ଚ ଭୂତାନି ମାଂ ତୁ ବେଦ ନ କଶ୍ଚନ||7.26||
vēdāhaṅ samatītāni vartamānāni cārjuna. bhaviṣyāṇi ca bhūtāni māṅ tu vēda na kaścana৷৷7.26৷৷
வேதாஹஂ ஸமதீதாநி வர்தமாநாநி சார்ஜுந. பவிஷ்யாணி ச பூதாநி மாஂ து வேத ந கஷ்சந৷৷7.26৷৷
వేదాహం సమతీతాని వర్తమానాని చార్జున. భవిష్యాణి చ భూతాని మాం తు వేద న కశ్చన৷৷7.26৷৷
7.27
7
27
।।7.27।। हे भरतवंशमें उत्पन्न परंतप ! इच्छा (राग) और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व-मोहसे मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसारमें मूढ़ताको अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त हो रहे हैं।
।।7.27।। हे परन्तप भारत ! इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्वमोह से भूतमात्र उत्पत्ति काल में ही संमोह (अविवेक) को प्राप्त होते हैं।।
।।7.27।। एक अत्यन्त वैज्ञानिक एवं सूक्ष्म दार्शनिक सत्य को इस श्लोक में सूचित किया गया है। इस तथ्य का वर्णन करने में कि क्यों और कैसे यह जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप को नहीं जान पाता है भगवान् श्रीकृष्ण मूलभूत उन सिद्धांतों को बताते हैं जो आधुनिक जीवशास्त्रियों ने जीव के विकास के सम्बन्ध में शोध करके प्रस्तुत किये हैं।आत्मसुरक्षा की सर्वाधिक प्रबल स्वाभाविक प्रवृत्ति के वशीभूत मनुष्य जगत् में जीने का प्रयत्न करता है। सुरक्षा की यह प्रवृत्ति बुद्धि में उन वस्तुओं की इचछाओं के रूप में व्यक्त होती है जिनके द्वारा मनुष्य अपने सांसारिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने की अपेक्षा रखता है।प्रिय वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा को इच्छा कहते हैं। यदि कोई वस्तु या व्यक्ति इस इच्छापूर्ति में बाधक बनता है तो उसकी ओर मन की प्रतिक्रिया द्वेष या क्रोध के रूप में व्यक्त होती है। इच्छा और द्वेष की दो शक्तियों के बीच होने वाले शक्ति परीक्षण में दुर्भाग्यशाली जीव छिन्नभिन्न होकर मरणासन्न व्यक्ति की असह्य पीड़ा को भोगता है। स्वाभाविक ही ऐसा व्यक्ति सदा प्रिय की ओर प्रवृत्ति और द्वेष की ओर से निवृत्ति में व्यस्त रहता है। शीघ्र ही वह व्यक्ति अत्याधिक व्यस्त और पूर्णतया भ्रमित होकर थक जाता है। मन में उत्पन्न होने वाले विक्षेप दिनप्रतिदिन बढ़ते हुए अशान्ति की वृद्धि करते हैं। इन्हीं विक्षेपों के आवरण के फलस्वरूप मनुष्य को अपने सत्यस्वरूप का दर्शन नहीं हो पाता।अत आत्मा की अपरोक्षानुभूति का एकमात्र उपाय है मन को संयमित करके उसके विक्षेपों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना। विश्व के सभी धर्मों में जो क्रिया प्रधान भावना प्रधान या विचार प्रधान आध्यात्मिक साधनाएं बतायी जाती हैं उन सबका प्रयोजन केवल मन को पूर्णतया शान्त करने का ही है। परम शान्ति का क्षण ही आत्मानुभूति आत्मप्रकाश और आत्ममिलन का क्षण होता है।परन्तु दुर्भाग्य है कि प्राणीमात्र उत्पत्ति काल में ही संमोह को प्राप्त होते हैं दैवी करुणा से भरे स्वर में भगवान् श्रीकृष्ण का यह कथन है। दुखपूर्ण प्रारब्ध को मनुष्य का यह कोई नैराश्यपूर्ण समर्पण नहीं है कि जिससे मुक्ति पाने में वह जन्म से ही अशक्त बना दिया गया हो। ईसाई धर्म के समान कृष्ण धर्म किसी व्यक्ति को पाप का पुत्र नहीं मानता। यमुना कुञ्ज विहारी दुर्दम्य आशावादी आशा के संदेशवाहक जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ मात्र दार्शनिक सत्य को ही व्यक्त कर रहे हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी देह विशेष और उपलब्ध वातावरण में जन्म लेने की त्रासदी अपनी अतृप्त वासनाओं और प्रच्छन्न कामनाओं की परितृप्ति के लिए स्वयं ही निर्माण करता है।इस मोह जाल से मुक्ति पाना और सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करना जीवन का पावन लक्ष्य है। गीता भगवान् द्वारा विरचित काव्य है जो विपरीत ज्ञान में फंसे लोगों को भ्रमजाल से निकालकर पूर्णानन्द में विहार कराता है।सत्य के साधकों के गुण दर्शाने के लिए भगवान् आगे कहते हैं
।।7.27।। व्याख्या--'इच्छाद्वेषसमुत्थेन ৷৷. सर्गे यान्ति परंतप'--इच्छा और द्वेषसे द्वन्द्वमोह पैदा होता है, जिससे मोहित होकर प्राणी भगवान्से बिलकुल विमुख हो जाते हैं और विमुख होनेसे बार-बार संसारमें जन्म लेते हैं।मनुष्यको संसारसे विमुख होकर केवल भगवान्में लगनेकी आवश्यकता है। भगवान्में न लगनेमें बड़ी बाधा क्या है? यह मनुष्यशरीर विवेक-प्रधान है; अतः मनुष्यकी प्रवृत्ति और निवृत्ति पशु-पक्षियोंकी तरह न होकर अपने विवेकके अनुसार होनी चाहिये। परन्तु मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व न देकर राग और द्वेषको लेकर ही प्रवृत्ति और निवृत्ति करता है, जिससे उसका पतन होता है।मनुष्यकी दो मनोवृत्तियाँ हैं--एक तरफ लगाना और एक तरफसे हटाना। मनुष्यको परमात्मामें तो अपनी वृत्ति लगानी है और संसारसे अपनी वृत्ति हटानी है अर्थात् परमात्मासे तो प्रेम करना है और संसारसे वैराग्य करना है। परन्तु इन दोनों वृत्तियोंको जब मनुष्य केवल संसारमें ही लगा देता है तब वही प्रेम और वैराग्य क्रमशः राग और द्वेषका रूप धारण कर लेते हैं, जिससे मनुष्य संसारमें उलझ जाता है और भगवान्से सर्वथा विमुख हो जाता है। फिर भगवान्की तरफ चलनेका अवसर ही नहीं मिलता। कभी-कभी वह सत्संगकी बातें भी सुनता है, शास्त्र भी पढ़ता है, अच्छी बातोंपर विचार भी करता है, मनमें अच्छी बातें पैदा हो जाती हैं तो उनको ठीक भी समझता है। फिर भी उसके मनमें रागके कारण यह बात गहरी बैठी रहती है कि मुझे तो सांसारिक अनुकूलताको प्राप्त करना है और प्रतिकूलताको हटाना है, यह मेरा खास काम है; क्योंकि इसके बिना मेरा जीवननिर्वाह नहीं होगा। इस प्रकार वह हृदयमें दृढ़तासे रागद्वेषको पकड़े रखता है जिससे सुनने पढ़ने और विचार करनेपर भी उसकी वृत्ति रागद्वेषरूप द्वन्द्वको नहीं छोड़ती। इसीसे वह परमात्माकी तरफ चल नहीं सकता।द्वन्द्वोंमें भी अगर उसका राग मुख्यरूपसे एक ही विषयमें हो जाय तो भी ठीक है। जैसे भक्त बिल्वमंगलकी वृत्ति चिन्तामणि नामक वेश्यामें लग गयी तो उनकी वृत्ति संसारसे तो हट ही गयी। जब वेश्याने यह ताड़ना की ऐसे हाड़मांसके शरीरमें तू आकृष्ट हो गया अगर भगवान्में इतना आकृष्ट हो जाता तो तू निहाल हो जाता तब उनकी वृत्ति वेश्यासे हटकर भगवान्में लग गयी और उनका उद्धार हो गया। इसी तरहसे गोपियोंका भगवान्में राग हो गया तो वह राग भी कल्याण करनेवाला हो गया। शिशुपालका भगवान्के साथ वैर (द्वेष) रहा तो वैरपूर्वक भगवान्का चिन्तन करनेसे भी उसका कल्याण हो गया। कंसको भगवान्से भय हुआ तो भयवृत्तिसे भगवान्का चिन्तन करनेसे उसका भी कल्याण हो गया। हाँ यह बात जरूर है कि वैर और भयसे भगवान्का चिन्तन करनसे शिशुपाल और कंस भक्तिके आनन्दको नहीं ले सके। तात्पर्य यह है कि किसी भी तरहसे भगवान्की तरफ आकर्षण हो जाय तो मनुष्यका उद्धार हो जाता है। परन्तु संसारमें रागद्वेष कामक्रोध ठीकबेठीक अनुकूलप्रतिकूल आदि द्वन्द्व रहनेसे मूढ़ता दृढ़ होती है और मनुष्यका पतन हो जाता है।दूसरी रीतिसे यों समझें कि संसारका सम्बन्ध द्वन्द्वसे दृढ़ होता है। जब कामनाको लेकर मनोवृत्तिका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है तब सांसारिक अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर रागद्वेष हो जाते हैं अर्थात् एक ही पदार्थ कभी ठीक लगता है कभी बेठीक लगता है कभी उसमें राग होता है कभी द्वेष होता है जिनसे संसारका सम्बन्ध दृढ़ हो जाता है। इसलिये भगवान्ने दूसरे अध्यायमें 'निर्द्वन्द्वः'(2। 45) पदसे द्वन्द्वरहित होनेकी आज्ञा दी है। निर्द्वन्द्व पुरुष सुखपूर्वक मुक्त होता है--'निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते' (5। 3)। सुखदुःख आदि द्वन्द्वोंसे रहित होकर भक्तजन अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं--'द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्' (15। 5)। भगवान्ने द्वन्द्वको मनुष्यका खास शत्रु बताया है (3। 34)। जो द्वन्द्वमोहसे रहित होते हैं वे दृढ़व्रती होकर भगवान्का भजन करते हैं (7। 28) इत्यादि रूपसे गीतामें द्वन्द्वरहित होनेकी बात बहुत बार आयी है।जन्ममरणमें जानेका कारण क्या है शास्त्रोंकी दृष्टिसे तो जन्ममरणका कारण अज्ञान है परन्तु सन्तवाणीको देखा जाय तो जन्ममरणका खास कारण रागके कारण प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग है। फलेच्छापूर्वक शास्त्रविहित कर्म करनेसे और प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग करनेसे अर्थात् भगवदाज्ञाविरुद्ध कर्म करनेसे सत्असत् योनियोंकी प्राप्ति होती है अर्थात् देवताओँकी योनि चौरासी लाख योनि और नरक प्राप्त होते हैं।प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करनेसे सम्मोह अर्थात् जन्ममरण मिट जाता है। उसका सदुपयोग कैसे करें हमारेको जो अवस्था परिस्थिति मिली है उसका दुरुपयोग न करनेका निर्णय किया जाय कि हम दुरुपयोग नहीं करेंगे अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध काम नहीं करेंगे। इस प्रकार रागरहित होकर दुरुपयोग न करनेका निर्णय होनेपर सदुपयोग अपनेआप होने लगेगा अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुकूल काम होने लगेगा। जब सदुपयोग होने लगेगा तो उसका हमें अभिमान नहीं होगा। कारण कि हमने तो दुरुपयोग न करनेका विचार किया है सदुपयोग करनेका विचार तो हमने किया ही नहीं फिर करनेका अभिमान कैसे इससे तो कर्तृत्वअभिमानका त्याग हो जायगा। जब हमने सदुपयोग किया ही नहीं तो उसका फल भी हम कैसे चाहेंगे क्योंकि सदुपयोग तो हुआ है किया नहीं। अतः इससे फलेच्छाका त्याग हो जायगा। कर्तृत्वअभिमान और फलेच्छाका होनेसे अर्थात् बन्धनका अभाव होनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध है।प्रायः साधकोंमें यह बात गहराईसे बैठी हुई है कि साधनभजन जपध्यान आदि करनेका विभाग अलग है और सांसारिक कामधंधा करनेका विभाग अलग है। इन दो विभागोंके कारण साधक भजनध्यान आदिको तो बढ़ावा देते हैं पर सांसारिक कामधंधा करते हुए रागद्वेष कामक्रोध आदिकी तरफ ध्यान नहीं देते प्रत्युत ऐसी दृढ़ भावना बना लेते हैं कि कामधंधा करते हुए तो रागद्वेष होते ही हैं ये मिटनेवाले थोड़े ही हैं। इस भावनासे बड़ा भारी अनर्थ यह होता है कि साधकके रागद्वेष बने रहते हैं जिससे उसके साधनमें जल्दी उन्नति नहीं होती। वास्तवमें साधक चाहे पारमार्थिक कार्य करे चाहे सांसारिक कार्य करे उसके अन्तःकरणमें रागद्वेष नहीं रहने चाहिये।पारमार्थिक और सांसारिक क्रियाओंमें भेद होनेपर भी साधकके भावमें भेद नहीं होना चाहिये अर्थात् पारमार्थिक और सांसारिक दोनों क्रियाएँ करते समय साधकका भाव एक ही रहना चाहिये कि मैं साधक हूँ और मुझे भगवत्प्राप्ति करनी है। इस प्रकार क्रियाभेद तो रहेगा ही और रहना भी चाहिये पर भावभेद नहीं रहेगा। भावभेद न रहनेसे अर्थात् एक भगवत्प्राप्तिका ही भाव (उद्देश्य) रहनेसे पारमार्थिक और सांसारिक दोनों ही क्रियाएँ साधन बन जायँगी।
।।7.27।।ननु च कर्माण्येव क्रियमाणानि प्रलयकाले मोक्षं विदधते (S विदधति N प्रविदधति) । अन्यथा किमिति महाप्रलय उपजायते इत्याशङ्कायामारभते ( मारभ्यते N मिदमारभ्यते) ।इच्छेति। इच्छाद्वेषक्रोधमोहादिभिस्तावन्मोहात्मक एव स परं स्फीतीभावमुपनीयते येन प्रकृतिजठरान्तर्वर्ति समग्रमेव जगत् निजकार्यकरणमात्राक्षममेव प्रसुप्ततामवलम्बते आमोहं वासनानुभवात् प्रतिदिनं रात्रिसमये सौषुप्तवत्। न तु तावता विमुक्तरूपता मोहानुभुवसमाप्तौ पुनर्विचित्रव्यापारसंसारदर्शनात्।
।।7.27।।तथाहि इच्छाद्वेषाभ्यां समुत्थेन शीतोष्णादिद्वन्द्वाख्येन मोहेन सर्वभूतानि सर्गे जन्मकाल एव संमोहं यान्ति। एतद् उक्तं भवति गुणमयेषु सुखदुःखादिद्वन्द्वेषु पूर्वपूर्वजन्मनि यद्विषयौ इच्छाद्वेषौ रागद्वैषौ अभ्यस्तौ तद्वासनया पुनरपि जन्मकाल एव तदेव द्वन्द्वाख्यम् इच्छाद्वेषविषयत्वेन समुपस्थितं भूतानां मोहनं भवति तेन मोहेन सर्वभूतानि संमोहं यान्ति तद्विषयेच्छाद्वेषस्वभावानि भवन्ति न मत्संश्लेषवियोगसुखदुःखस्वभावानि। ज्ञानी तु मत्संश्लेषवियोगैकसुखदुःखस्वभावः न तत्स्वभावं किमपि भूतं जायते इति।
।।7.27।।भगवत्तत्त्वविज्ञानप्रतिबन्धकं मूलाज्ञानातिरिक्तं प्रश्नद्वारेणोदाहरति केनेत्यादिना। पुनःशब्दात्प्रतिबन्धकान्तरविवक्षा गम्यते। अपरोक्षमवान्तरप्रतिबन्धकमिदमा गृह्यते। विशेषमाकाङ्क्षापूर्वकं निक्षिपति केनेति। विशेषापेक्षायामिति। द्वन्द्वशब्देन गृहीतयोरपीच्छाद्वेषयोर्ग्रहणं द्वन्द्वशब्दार्थोपलक्षणार्थमित्यभिप्रेत्याह तावेवेति। तयोरपर्यायमेकत्रानुपपत्तिं गृहीत्वा विशिनष्टि यथाकालमिति। नच तयोरनधिकरणं किंचिदपि भूतं संसारमण्डले संभवतीत्याह सर्वभूतैरिति। तथापि कथं तयोर्मोहहेतुत्वमित्याशङ्क्याह तत्रेति। तयोराश्रयः सप्तम्यर्थः। उक्तमेवार्थं कैमुतिकन्यायेन प्रपञ्चयति नहीति। पूर्वभागानुवादपूर्वकमुत्तरभागेन फलितमाह अत इति। प्रत्यगात्मन्यहंकारादिप्रतिबन्धप्रभावतो ज्ञानोत्पत्तेरसंभवोऽतःशब्दार्थः। कुलप्रसूत्यभिमानेन स्वरूपशक्त्या च युक्तस्यैव यथोक्तप्रतिबन्धप्रतिविधानसामर्थ्यमिति द्योतनार्थं भारत परंतपेति संबोधनद्वयम्। तत्त्वज्ञानप्रतिबन्धे प्रकृतभवान्तरकारणमुपसंहरति मोहेति। जायमानभूतानां मोहपरतन्त्रत्वे फलितमाह यत इति। भगवत्तत्त्ववेदनाभावे तन्निष्ठत्ववैधुर्यं फलतीत्याह अतएवेति।
।।7.27।।किञ्चायं मोहो नेदानीन्तनः किन्तु सृष्ट्यर्थः प्राक्तन एवेत्याह इच्छेति। इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे व्यवस्थितौ ईशकृतौ (प्राकृतौ) रागद्वेषौ तयोः पापहेतुभूतयोः समुत्पत्तिर्येन तथाभूतेन द्वन्द्वनिमित्तेन मोहेन हेतुना सर्वभूतानि क्षरपदवाच्यानि संसृतानि सर्गे एव सम्मोहं जन्ममरणपर्यावर्त्ते कारणभूतं भगवत्स्वरूपाज्ञानभयं प्राप्नुवन्ति गुणप्रवाहमध्ये पतिता भवन्तीत्यर्थः।
।।7.27।।योगमायां भगवत्तत्त्वविज्ञानप्रतिबन्धे हेतुमुक्त्वा देहेन्द्रियसंघाताभिमानातिशयपूर्वकं भोगाभिनिवेशं हेत्वन्तरमाह इच्छाद्वेषाभ्यामनुकूलप्रतिकूलविषयाभ्यां समुत्थितेन शीतोष्णसुखदुःखादिद्वन्द्वनिमित्तेन मोहेन अहं सुखी अहं दुःखीत्यादिविपर्ययेण सर्वाण्यपि भूतानि संमोहं विवेकायोग्यत्वं सर्गे स्थूलदेहोत्पत्तौ सत्यां यान्ति। हे भारत हे परंतपेति संबोधनद्वस्य कुलमहिम्ना स्वरूपशक्त्या च त्वां द्वन्द्वमोहाख्यः शत्रुर्नाभिभवितुमलमिति भावः। नहीच्छाद्वेषररितं किंचिदपि भूतमस्ति नच ताभ्यामाविष्टस्य बहिर्विषयमपि ज्ञानं संभवति पुनरात्मविषयम्। अतो रागद्वेषव्याकुलान्तःकरणत्वात्सर्वाण्यपिभूतानि मां परमेश्वरमात्मभूतं न जानन्ति अतो न भजन्ते भजनीयमपि।
।।7.27।।तदेवं मायाविषयत्वेन जीवानां परमेश्वराज्ञानमुक्तम् तस्यैवाज्ञानस्य दृढत्वे कारणमाह इच्छाद्वेषसमुत्थेनेति। सृज्यत इति सर्गः सर्गे स्थूलदेहोत्पत्तौ सत्यां तदनुकूल इच्छा तत्प्रतिकूले च द्वेषः ताभ्यां समुत्थः समुद्भूतो यः शीतोष्णसुखदुःखादिद्वन्द्वनिमित्तो मोहो विवेकभ्रंशः तेन सर्वभूतानि संमोहं च अहमेव सुखी दुःखी चेति गाढतरमभिनिवेशं प्राप्नुवन्ति अतस्तानि मज्ज्ञानाभावान्न मां जानन्तीति भावः।
।।7.27।।एवं ज्ञानिनो दौर्लभ्याय कालत्रयवर्तिसर्वभूतसाधारणं भगवदज्ञानकारणंइच्छा इति श्लोकेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाह तथाहीति। पदार्थमन्वयार्थं च दर्शयतिइच्छाद्वेषाभ्यामिति। इच्छाद्वेषाभ्यां समुत्तिष्ठतीति इच्छाद्वेषसमुत्थः। ननु जन्मकाल एवेच्छाद्वेषौ कारणाभावान्न सम्भवतः सम्भवन्तौ वा भगवद्विषयौ किं न स्याताम् न चेच्छाद्वेषमात्रेण शीतोष्णादेरुत्थानं तस्य च हेमन्तघर्मादिस्वकारणाधीनत्वात् द्वन्द्वस्य च कथं मोहशब्दार्थता मोहेन मोहं यान्तीत्यात्माश्रयादिप्रसङ्गः। इच्छाद्वेषावेव द्वन्द्वशब्देन गृह्येते अतो द्वन्द्वनिमित्तो मोहो द्वन्द्वमोह इत्यादि परव्याख्यानं च पुनरुक्त्यादिदुस्स्थम्। एतेनसुखं मे भूयात्दुःखं मा भूत् इत्यभिनिवेशो द्वन्द्वमोह इत्यपि मन्दमुक्तमित्यादिकमाशङ्क्याह एतदुक्तं भवतीति। जन्मान्तरवासनाख्यं कारणमस्ति वासनायाश्च स्वकारणस्वभावविषयत्वादिच्छाद्वेषयोर्न भगवत्संश्लेषविश्लेषविषयत्वप्रसङ्गः। उत्थानं चेच्छाद्वेषविषयतया स्फुरणमेव। मोहशब्दस्य करणे व्युत्पत्त्या द्वन्द्वे प्रयोगः। मोहकारणस्य मोहजनने च नात्माश्रयादिरिति भावः। अभोग्ये भोग्यताबुद्धिः अद्वेष्ये च द्वेष्यताबुद्धिरिह सम्मोह इत्यभिप्रायेणाह तद्विषयेति। एवंविधसम्मोहवशादिच्छाद्वेषयोः साक्षात्प्राप्तविषयपरित्यागं दर्शयति न मत्संश्लेषेति। उचितविषयेच्छाद्वेषशालिनं सुदुर्लभं ज्ञानिनं तद्व्यतिरेकप्रकाशनाय दर्शयतिज्ञानी त्विति।ज्ञानी तु परमैकान्ती तदायत्तात्मजीवनः। तत्संश्लेषवियोगैकसुखदुःखस्तदेकधीः गी.सं.27 इति सङ्ग्रहः। तद्व्यतिरेकमेव भूतानां जन्मसिद्धं दर्शयति न तदिति।
।।7.27।।तर्हि त्वज्ज्ञाने तान् माया कथं मोहयति इत्यत आह इच्छेति। सर्गे सृष्टावुत्पत्त्यनन्तरम् इच्छा स्वेष्टवस्तुषु द्वेषस्तद्विपरीतवस्तुषु ताभ्यां सम्यक् प्रकारेणोत्थितो यो द्वन्द्वमोहः सुखदुःखरूपस्तेन हे भारत भक्तवंशज सर्वभूतानि सम्मोहं यान्ति प्राप्नुवन्ति। भारतेति सम्बोधनेन भरतवत् कस्यचिदेव भक्तस्य न मोहो भवतीति व्यञ्जितम्। अत्रायं भावः मत्क्रीडार्थं सेवार्थं वा ये सृष्टास्तैर्मत्संयोगवियोगसुखदुःखविचार एव कर्तव्यः न तु स्वस्वविचारकाणां भगवत्कार्यानुपयुक्तत्वान्माया मोहयतीति भावः।
।।7.27।।केन पुनर्निमित्तेनातीतादीनि भूतानि न जानन्तीत्याशङ्क्याह इच्छेति। इच्छा रागः द्वेषस्ताभ्यां समुत्थितो द्वन्द्वमोहः शोभनाशोभनसत्यासत्यनित्यानित्यात्मानात्मसु विपर्ययः अशोभने शोभनबुद्धिः शोभने वा अशोभनबुद्धिरित्येवंरूपस्तेन। हे भारत भरतान्वय सर्वभूतानि सर्गे सृष्टिविषये मोहमविवेकं यान्ति हे परंतप। अयं भावः यो हि सृष्टेरुपादानं स्वरूपं च तत्त्वतो जानाति स ब्रह्मवित् सर्वज्ञत्वादतीतादीञ्जानाति सृष्टौ च सर्वेषां मोहोऽस्ति अशोभने स्त्र्यादौ शोभनाध्यासात् असत्ये प्रपञ्चे सत्यत्वाध्यासात् सत्ये चात्मनोऽसङ्गत्वेऽसत्यत्वाध्यासात् अनित्ये स्वर्गादौ नित्यत्वाध्यासात् अनात्मनि देहादावात्माध्यासात्। अतो विपर्ययेण सृष्टिज्ञानं प्रतिबद्धं तेन च सार्वज्ञ्यं न जायतेऽस्मदादीनामिति।
।।7.27।।भगवत्तत्वापरिज्ञाने मूलज्ञानं निमित्तमुक्त्वा तत्र प्रतिबन्धकान्तरमाह। इच्छाद्वेषाभ्यां रागद्वेषाभ्यासमनुकूलप्रतिकूलविषयाभ्यामुत्थितेन शीतोष्णसुखदुःखनिमित्तेन मोहेन चित्त्व्याकुलतापादकेन सर्वाणि भूतानि सर्गे उत्पत्ति काले प्राप्ते संमोहमतिमूढतां यान्ति गच्छन्ति। इत्छाद्वेषवशीकृतचित्तस्य बाह्यपदार्थोष्वपि यथा भूतार्थविषयं ज्ञानं नोत्पद्यते ताभ्यामाविष्टुबद्धेः संमूढस्य प्रत्गात्मनि बहुप्रतिबन्धे सति तन्नेत्पद्यत इति किमु वक्तव्यमिति भारत परंतपेति संबोधनद्वेयेनोत्तमवंशोद्भवत्वात् स्वतः शत्रुतापनत्वेनोत्कृष्टशक्तिमत्वाच्च उक्तप्रतिबन्धेन संमोहं गन्तुमयोग्योऽसीत सूचयति। यत्तु केन पुनर्निमित्तेनातीतादीनिं भूतानि न जानन्तीत्याशङ्क्याह इच्छेति। इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन शोभनाशोभनसत्यासत्यनित्यानित्यात्मानात्मसु विपर्यय स्तेन सर्वभूतानि सर्गे सृष्टिविषये संमोहमविवेकं यान्ति। अयं भावः यो हि सृष्टे रुपमानन्दस्वरुपं च तत्त्वतो जानाति स ब्रह्मवित् सर्वज्ञत्वादतीतादीञ्जानाति। सृष्टौ च सर्वेषां मोहोऽस्ति अशोभने स्त्र्यादौ शोभनाध्यासादसत्ये प्रप़ञ्चे सत्यत्वाध्यासात् सत्ये चात्मनोऽसङ्गत्वेऽसत्यत्वाध्यासात् अनित्ये स्वर्गादौ नित्यत्वाध्यासादनात्मनि देहादावात्मत्वाध्यासात्। अतो विपर्ययेण सृष्टिज्ञानं प्रतिबद्धम्। तेन च सार्वज्ञ्यं न जायतेऽस्मदादीनामिति तच्चिन्त्यम्। मां तु वेद न कश्चनेत्युक्त्या त्वदवेदनं केन प्रतिबन्धेनेति प्रश्नेनैवेतच्छ्लोकावतरणस्यौचित्येन तदनुसारिव्याख्यानस्यैव न्याय्यत्वात्। उत्तरश्लोके भजन्ते मां दृढव्रता इतिवाक्यशेषविरोधाच्च। विष्णुतत्त्वज्ञानाज्ज्ञातव्यान्तरानवशेषेऽपि ईश्वरवत्रैकालिकखिलज्ञानस्यालाभाच्चेति दिक्।
7.27 इच्छाद्वेषसमुत्थेन arisen from desire and aversion? द्वन्द्वमोहेन by the delusion of the pairs of opposites? भारत O Bharata? सर्वभूतानि all beings? संमोहम् to delusion? सर्गे at birth? यान्ति are subject? परन्तप O Parantapa (scorcher of the foes).Commentary Where there is pleasure there is Raga or attachment where there is pain there is Dvesha or aversion. There is the instinct in man to preserve his body. Man wishes to attain those objects which help the preservation of the body. He wishes to get rid of those objects which give pain to the body and the mind. On account of delusion caused by the pairs of opposites? desire and aversion spring up and man cannot get the knowledge of the things as they are? even of this external universe of senseexperience and it needs no saying that in a man whose intellect is overwhelmed by desire and aversion there cannot arise the transcendental knowledge of the innermost Self.Raga (attraction) and Dvesha (repulsion)? pleasure and pain? heat and cold? happiness and misery? joy and sorrow? success and failure? censure and priase? honour and dishonour are the Dvandvas or the pairs of opposites. Desire and aversion (or attraction and repulsion) induce delusion in all beings and serve as obstacles to the dawn of the knowledge of the Self.He whose intellect is obscured by the delusion caused by the pairs of opposites is not able to realise I am the Self. Therefore he does not adore Me as the Self.He who is a victim of RagaDvesha loses the power of discrimination. He wishes that pleasant objects should last for ever and that disagreeable or unpleasant objects should disappear immediately. How could this be Objects that are conditioned in time? space and causation will perish. That which is agreeable and pleasant now will become disagreeable and unpleasant after some time. The mind is ever fluctuating. It demands variety and gets disgusted with monotony.
7.27 By the delusion of the pairs of opposites arising from desire and aversion, O Bharata, all beings are subject to delusion at birth, O Parantapa.
7.27 O brave Arjuna! Man lives in a fairy world, deceived by the glamour of opposite sensations, infatuated by desire and aversion.
7.27 O scion of the Bharata dynasty, O destroyer of foes, due to the delusion of duality arising from likes and dislikes, all creatures become bewildered at the time of their birth.
7.27 Iccha-dvesa-samutthena, by what arises from likes and dislikes: iccha, likes, and dvesa, dislikes, are iccha-dvesau; anything arising from them is icchadvesa-samutthah. (Creatures are duluded) by that. By what? When that is thus sought to be known in particular, the Lord answers: dvandva-mohena, by the delusion of duality. Delusion (moha) that originates from duality (advandva) is dvandva-moha. Those very likes and dislikes, which are mutually opposed like heat and cold, which relate to happiness and sorrow and their causes, and which come into association with all beings in due course, are termed as duality (and this deludes all creatures). As regards them, when likes and dislikes arise from the experience of happiness, sorrow and their causes, then, by bringing the wisdom of all beings under their control, they create bewilderment which is the cause of the impediment to the rise of knowledg about the reality of Self, the suprem Truth. Indeed, exact knowledg about objects even in the external world does not arise in one whose mind is overpowered by the defects, viz likes and dislikes. It goes without saying that knowledge of the indwelling Self, beset with many obstacles as it is, does not arise in a completely bewildered person whose intelligence has been overcome by them. Therefore, bharata, O scion of the Bharata dynasty; owing to that delusion of duality arising from likes and dislikes, sarvabhutani, all creatures become deluded. Parantapa, O destroyer of foes; they yanti sammoham, become bewildered, come under delusion; sarge, at the time of their birth, i.e. at the time of their origination. The idea is that all creatures that come into being do so prepossessed by delusion. 'Since this is so, therefore all creatures, being deluded and having their wisdom obstructed by that delusion of duality, do not know Me who am their Self. Hence, they do not adore Me as their Self.' 'Who, again, are those that, becoming free from the delusion of duality, come to know You, and adore You as the Self in accordance with the scriptures?' In order to elaborate the subject enired about, it is being said:
7.27. O descendant of Bharata, O scorcher of foes ! At the time of creation, all beings get delusion because of the illusion of pairs [of opposites] arising from desire and hatred.
7.27 Iccha-etc. [At the time of destruction] he (the personal Soul) is led to expand exceedingly, while he still remains unconcious on account of his desire, aversion, agner, dellusion etc. On account of this, the entire world takes recourse to the sleeping stage while it continues to exist in its entirity within the stomach of the Prakrti (the Prime Casue); and to exist just being (temporarily) not capable of performing its activities. For, as long as there is delusion, the mental impressions are to be experienced, as in the case of the sleeping stage in the night time every day. But on that account no emancipation is gained. For, when the experience of loss of unconsciousness is over (i.e., when consciousness is regained), again the mundane life with its varieties of activites is found.
7.27 As soon as beings are born they are deluded. This delusion springs from sense experiences described as pairs of opposites like heat and cold. Such reactions spring from desire and hate. The purport is this: Desire and hatred for the pairs of opposites like pleasure and pain, which are constituted of Gunas, have their origin in the Jivas from the past experiences they had in their previous births. The subtle impressions or Vasanas of these previous experiences manifest again as instinctive desire and hatred towards similar objects in every succeeding birth of the Jivas. The delusive force of these impressions make them deluded from the very beginning. It becomes their nature to have love or hatred for such objects, in place of having happiness and misery at union with or separation from Me. The Jnanin, however, feels happiness when he is in union with Me and misery when separated from Me. No other being is born with such a nature as found in the Jnanin.
7.27 By the delusion of the pairs of opposites springing from desire and hate, O Arjuna, all beings are deluded as soon as they are born.
।।7.27।।आपका तत्त्व जाननेमें ऐसा कौन प्रतिबन्धक है जिससे मोहित हुए सभी उत्पत्तिशील प्राणी आपको नहीं जान पाते यह जाननेकी इच्छा होनेपर कहते हैं इच्छा और द्वेष इन दोनोंसे जो उत्पन्न होता है उसका नाम इच्छाद्वेषसमुत्थ है उससे ( प्राणी मोहित होते हैं। ) वह कौन है ऐसी विशेष जिज्ञासा होनेपर यह कहते हैं द्वन्द्वोंके निमित्तसे होनेवाला जो मोह है उस द्वन्द्वमोहसे ( सब मोहित होते हैं )। शीत और उष्णकी भाँति परस्परविरुद्ध ( स्वभाववाले ) और सुखदुःख तथा उनके कारणोंमें रहनेवाले वे इच्छा और द्वेष ही यथासमय सब भूतप्राणियोंसे सम्बन्धयुक्त होकर द्वन्द्व नामसे कहे जाते हैं। सो ये इच्छा और द्वेष जब इस प्रकार सुखदुःख और उनके कारणकी प्राप्ति होनेपर प्रकट होते हैं तब वे सब भूतोंकी बुद्धिको अपने वशमें करके परमार्थतत्त्वविषयक ज्ञानकी उत्पत्तिका प्रतिबन्ध करनेवाले मोहको उत्पन्न करते हैं। जिसका चित्त इच्छाद्वेषरूप दोषोंके वशमें फँस रहा है उसको बाहरी विषयोंके भी यथार्थ तत्त्वका ज्ञान प्राप्त नहीं होता फिर उन दोनोंसे जिसकी बुद्धि आच्छादित हो रही है ऐसे मूढ़ पुरुषको अनेकों प्रतिबन्धोंवाले अन्तरात्माके सम्बन्धमें ज्ञान नहीं होता इसमें तो कहना ही क्या है इसलिये हे भारत अर्थात् भरतवंशमें उत्पन्न अर्जुन उस इच्छाद्वेषजन्य द्वन्द्वनिमित्तक मोहके द्वारा मोहित हुए समस्त प्राणी हे परंतप जन्मकालमें उत्पन्न होते ही मूढ़भावमें फँस जाते हैं। अभिप्राय यह है कि उत्पत्तिशील समस्त प्राणी मोहके वशीभूत हुए ही उत्पन्न होते हैं। ऐसा होनेके कारण द्वन्द्वमोहसे जिनका ज्ञान प्रतिबद्ध हो गया है वे मोहित हुए समस्त प्राणी अपने आत्मारूप मुझ ( परमात्मा ) को नहीं जानते और इसीलिये वे आत्मभावसे मुझे नहीं भजते।
।।7.27।। इच्छाद्वेषसमुत्थेन इच्छा च द्वेषश्च इच्छाद्वेषौ ताभ्यां समुत्तिष्ठतीति इच्छाद्वेषसमुत्थः तेन इच्छाद्वेषसमुत्थेन। केनेति विशेषापेक्षायामिदमाह द्वन्द्वमोहेन द्वन्द्वनिमित्तः मोहः द्वन्द्वमोहः तेन। तावेव इच्छाद्वेषौ शीतोष्णवत् परस्परविरुद्धौ सुखदुःखतद्धेतुविषयौ यथाकालं सर्वभूतैः संबध्यमानौ द्वन्द्वशब्देन अभिधीयेते। तत्र यदा इच्छाद्वेषौ सुखदुःखतद्धेतुसंप्राप्त्या लब्धात्मकौ भवतः तदा तौ सर्वभूतानां प्रज्ञायाः स्ववशापादनद्वारेण परमार्थात्मतत्त्वविषयज्ञानोत्पत्तिप्रतिबन्धकारणं मोहं जनयतः। न हि इच्छाद्वेषदोषवशीकृतचित्तस्य यथाभूतार्थविषयज्ञानमुत्पद्यते बहिरपि किमु वक्तव्यं ताभ्यामाविष्टबुद्धेः संमूढस्य प्रत्यगात्मनि बहुप्रतिबन्धे ज्ञानं नोत्पद्यत इति। अतः तेन इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत भरतान्वयज सर्वभूतानि संमोहितानि सन्ति संमोहं संमूढतां सर्गे जन्मनि उत्पत्तिकाले इत्येतत् यान्ति गच्छन्ति हे परंतप। मोहवशान्येव सर्वभूतानि जायमानानि जायन्ते इत्यभिप्रायः। यतः एवम् अतः तेन द्वन्द्वमोहेन प्रतिबद्धप्रज्ञानानि सर्वभूतानि संमोहितानि मामात्मभूतं न जानन्ति अत एव आत्मभावेन मां न भजन्ते।।के पुनः अनेन द्वन्द्वमोहेन निर्मुक्ताः सन्तः त्वां विदित्वा यथाशास्त्रमात्मभावेन भजन्ते इत्यपेक्षितमर्थं दर्शयितुम् उच्यते
।।7.27।।इच्छाद्वेषौ द्वन्द्वम् तज्जन्यो मोहो द्वन्द्वमोहः तेनेति कश्चित् शं. तदसदिति भावेनाह द्वन्द्वेति।अन्यथा इच्छाद्वेषसमुत्थेन मोहेनेत्येव स्यादिति भावः। व्याख्यानव्याख्येयभावश्चागतिका गतिः। द्वन्द्वमोहस्येच्छाद्वेषसमुत्थत्वं कथं इत्यत आह इच्छेति। किञ्चित्सुखादिकं हेयत्वादिनेति शेषः। ननुनाहं प्रकाशः 7।25 इति भगवतोदैवी ह्येषा 7।14 इति तदधीनायाः गुणमय्या मायायाश्च मोहकत्वमुक्तं तत्कथं भगवद्विषयसम्मोहस्येच्छाद्वेषसमुत्थो द्वन्द्वमोहः कारणमुच्यते इत्यत आह कारणान्तरमिति। इच्छाद्वेषसमुत्थद्वन्द्वमोहलक्षणमेतद्भगवद्विषयस्य सम्मोहस्यावान्तरकारणमुच्यत इत्यर्थः। कुत एतदित्यतः तत्सूचकं पदं पठति सर्ग इति। सर्गः क्रिया कथं तस्याधिकरणत्वं इत्यतो लक्षणामाश्रित्य व्याचष्टे सर्गेति। तदुत्तरकालं किं तन्न कारणं इत्यतः पुनर्लक्षणाश्रयणेनाह आरभ्येति। सर्गकालमिति सम्बन्धः। कथमनेनावान्तरकारणत्वं ज्ञायते इत्यतः सावधारणमेतदित्युक्तमेवेति। उक्तमुपपादयन्नाह शरीर इति। आदिपदेन द्वेषस्य द्वन्द्वानां च ग्रहणम्। अतः सर्गकालमारभ्यैवैतत्कारणमिति सिद्धम्। एतावता कथमवान्तरकारणत्वसिद्धिः इत्यत आह पूर्वं त्विति। सर्गात्पूर्वं त्विच्छादिना विना ज्ञानमस्त्येव भगवदिच्छाद्यधीनमत एतदवान्तरं कारणमिति सिद्धमित्यर्थः।
।।7.27।।द्वन्द्वमोहेन सुखदुःखादिविषयमोहेन इच्छाद्वेषयोः प्रवृद्धयोर्न हि किञ्चिज्ज्ञातुं शक्यम्। कारणान्तरमेतत्। सर्गे सर्गकाले आरभ्यैव शरीरे हि सतीच्छादयः। पूर्वं त्वज्ञानमात्रम्।
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत। सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।7.27।।
ইচ্ছাদ্বেষসমুত্থেন দ্বন্দ্বমোহেন ভারত৷ সর্বভূতানি সংমোহং সর্গে যান্তি পরন্তপ৷৷7.27৷৷
ইচ্ছাদ্বেষসমুত্থেন দ্বন্দ্বমোহেন ভারত৷ সর্বভূতানি সংমোহং সর্গে যান্তি পরন্তপ৷৷7.27৷৷
ઇચ્છાદ્વેષસમુત્થેન દ્વન્દ્વમોહેન ભારત। સર્વભૂતાનિ સંમોહં સર્ગે યાન્તિ પરન્તપ।।7.27।।
ਇਚ੍ਛਾਦ੍ਵੇਸ਼ਸਮੁਤ੍ਥੇਨ ਦ੍ਵਨ੍ਦ੍ਵਮੋਹੇਨ ਭਾਰਤ। ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਨਿ ਸਂਮੋਹਂ ਸਰ੍ਗੇ ਯਾਨ੍ਤਿ ਪਰਨ੍ਤਪ।।7.27।।
ಇಚ್ಛಾದ್ವೇಷಸಮುತ್ಥೇನ ದ್ವನ್ದ್ವಮೋಹೇನ ಭಾರತ. ಸರ್ವಭೂತಾನಿ ಸಂಮೋಹಂ ಸರ್ಗೇ ಯಾನ್ತಿ ಪರನ್ತಪ৷৷7.27৷৷
ഇച്ഛാദ്വേഷസമുത്ഥേന ദ്വന്ദ്വമോഹേന ഭാരത. സര്വഭൂതാനി സംമോഹം സര്ഗേ യാന്തി പരന്തപ৷৷7.27৷৷
ଇଚ୍ଛାଦ୍ବେଷସମୁତ୍ଥେନ ଦ୍ବନ୍ଦ୍ବମୋହେନ ଭାରତ| ସର୍ବଭୂତାନି ସଂମୋହଂ ସର୍ଗେ ଯାନ୍ତି ପରନ୍ତପ||7.27||
icchādvēṣasamutthēna dvandvamōhēna bhārata. sarvabhūtāni saṅmōhaṅ sargē yānti parantapa৷৷7.27৷৷
இச்சாத்வேஷஸமுத்தேந த்வந்த்வமோஹேந பாரத. ஸர்வபூதாநி ஸஂமோஹஂ ஸர்கே யாந்தி பரந்தப৷৷7.27৷৷
ఇచ్ఛాద్వేషసముత్థేన ద్వన్ద్వమోహేన భారత. సర్వభూతాని సంమోహం సర్గే యాన్తి పరన్తప৷৷7.27৷৷
7.28
7
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।।7.28।। परन्तु जिन पुण्यकर्मा मनुष्योंके पाप नष्ट गये हैं, वे द्वन्द्वमोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।
।।7.28।। परन्तु जिन पुण्यकर्मी पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त और दृढ़वती पुरुष मुझे भजते हैं।।
।।7.28।। जिन पुण्यकर्मी पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है इस कथन को सम्यक् प्रकार से समझना आवश्यक है। पाप मनुष्य का स्वभाव नहीं हैं वेदान्त के अनुसार वह मनुष्य द्वारा किये गये गलत निर्णय अर्थात् विपरीत ज्ञान का परिणाम है जिसने आत्मचैतन्य को आच्छादित सा कर दिया है। पाप का मुख्य कारण है बाह्य स्थूल जगत् के निम्न स्तरीय विषयोपभोग के लिए हमारे मन की तृष्णा और स्पृहा। पापी पुरुष वह है जिसका अत्यधिक समय और ध्यान केवल अपने देहसुख के लिए ही व्यक्त होता है। ऐसे पुरुष में देह स्वामी और आत्मा उसकी दासी बन जाती है। बहिर्मुखी प्रवृत्ति वैषयिक सुखों की कामना मन में उठने वाली प्रत्येक निम्न कोटि की भावना का सन्तुष्टीकरण यह है पापी पुरुष की जीवन पद्धति।इस प्रकार का कामुक पाशविक जीवन अन्तकरण में वैसी ही वासनाएं उत्पन्न करता है। वासना के अनुसार ही विचार होते हैं। विचारानुसार कर्म और ये कर्म फिर वासना को ही दृढ़ करते हैं।मनुष्य की शान्ति और सन्तुष्टि को विनष्ट करने वाली वासनाविचारकर्म की श्रृंखला को तोड़ने के लिए मनुष्य को पुण्यकर्म का नया जीवन प्रारम्भ करने का उपदेश दिया जाता है। पुण्यकर्म पाप का विरोधी होने से उसके अन्तर्गत वे सब विचार भावनाएं तथा कर्म आते हैं जो ईश्वर को समर्पित होते हैं अर्थात् जिनका लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति होता है। मैं देह हूँ के स्थान पर मैं आत्मा हूँ इस ज्ञान को दृढ़ करके कर्म करने पर वे अपना संस्कार उत्पन्न नहीं करेंगे। कुछ कालावधि में इन पुण्यसंस्कारों के दृढ़ होने पर पाप वासनाएं नष्ट हो जायेंगी।ऐसा पापयुक्त पुरुष सुख दुखादि रूप सभी प्रकार के द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त हो जाता है। तब उसमें यह योग्यता आती है कि वह एकाग्रचित तथा दृढ़वती अर्थात् दृढ़ निश्चयी होकर आत्मा का ध्यान कर सके।साधन सम्पन्न साधक किस प्रयोजन से आत्मा का ध्यान करते हैं उत्तर है
।।7.28।। व्याख्या--'येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्'  द्वन्द्वमोहसे'--मोहित मनुष्य तो भजन नहीं करते और जो द्वन्द्वमोहसे मोहित नहीं हैं वे भजन करते हैं तो भजन न करनेवालोंकी अपेक्षा भजन करनेवालोंकी विलक्षणता बतानेके लिये यहाँ तु पद आया है।जिन मनुष्योंने अपनेको तो भगवत्प्राप्ति ही करनी है इस उद्देश्यको पहचान लिया है अर्थात् जिनको उद्देश्यकी यह स्मृति आ गयी है कि यह मनुष्यशरीर भोग भोगनेके लिये नहीं है प्रत्युत भगवान्की कृपासे केवल उनकी प्राप्तिके लिये ही मिला है ऐसा जिनका दृढ़ निश्चय हो गया है वे मनुष्य ही पुण्यकर्मा हैं। तात्पर्य यह हुआ कि अपने एक निश्चयसे जो शुद्धि होती है पवित्रता आती है वह यज्ञ दान तप आदि क्रियाओंसे नहीं आती। कारण कि हमें तो एक भगवान्की तरफ ही चलना है यह निश्चय स्वयंमें होता हैऔर यज्ञ दान आदि क्रियाएँ बाहरसे होती हैं।'अन्तगतं पापम्' कहनेका भाव यह है कि जब यह निश्चय हो गया कि मेरेको तो केवल भगवान्की तरफ ही चलना है तो इस निश्चयसे भगवान्की सम्मुखता होनेसे विमुखता चली गयी जिससे पापोंकी जड़ ही कट गयी क्योंकि भगवान्से विमुखता ही पापोंका खास कारण है। सन्तोंने कहा है कि डेढ़ ही पाप है और डेढ़ ही पुण्य है। भगवान्से विमुख होना पूरा पाप है और दुर्गुणदुराचारोंमें लगना आधा पाप है। ऐसे ही भगवान्के सम्मुख होना पूरा पुण्य है और सद्गुणसदाचारोंमें लगना आधा पुण्य है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य भगवान्के सर्वथा शरण हो जाता है तब उसके पापोंका अन्त हो जाता है।दूसरा भाव यह है कि जिनका लक्ष्य केवल भगवान् हैं वे पुण्यकर्मा हैं क्योंकि भगवान्का लक्ष्य होनेपर सब पाप नष्ट हो जाते हैं। भगवान्का लक्ष्य होनेपर पुराने किसी संस्कारसे पाप हो भी जायगा तो भी वह रहेगा नहीं क्योंकि हृदयमें विराजमान भगवान् उस पापको नष्ट कर देते हैं
।।7.28 7.30।।येषामित्यादि युक्तचेतस इत्यन्तम्। ये तु विनष्टतामसाः पुण्यापुण्यपरिक्षयक्षेमीकृतात्मानः ते विपाटितमहामोहवितानाः सर्वमेव भगवद्रश्मिखचितं जरामरणमयतमिस्रस्रुतं ब्रह्म विदन्ति आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकाधियाज्ञिकानि च ममैव रूपान्तराणि। प्रयाणकाले च नित्यं भगवद् भावितान्तःकरणत्वात् मां जानन्ति यतो येषां जन्म पूर्वमेव भगवत्तत्त्वं ते अन्तकाले परमेश्वरं संस्मरेयुः। किं जन्मासेवनया इति ये मन्यन्ते तेषां तूष्णींभाव एव शोभनः इति।
।।7.28।।येषां तु अनेकजन्मार्जितेन उत्कृष्टपुण्यसंचयेन गुणमयं द्वन्द्वेच्छाद्वेषहेतुभूतं मदौन्मुख्यविरोधि च अनादिकालप्रवृत्तं पापम् अन्तगतं क्षीणम् ते पूर्वोक्तेन सुकृततारतम्येन मां शरणम् अनुप्रपद्य गुणमयान्मोहाद् विनिर्मुक्ताः जरामरणमोक्षाय प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपदर्शनाय महते च ऐश्वर्याय मत्प्राप्त्ये च दृढव्रताः दृढसंकल्पा माम् एव भजन्ते।तत्र तेषां त्रयाणां भगवन्तं भजमानानां ज्ञातव्यविशेषान् उपादेयांश्च प्रस्तौति
।।7.28।।यदि सर्वाणि भूतानि जन्मप्रतिपद्यमानानि संमूढानि सन्ति भगवत्तत्त्वपरिज्ञानशून्यानि भगवद्भजनपराङ्मुखानि तर्हि शास्त्रानुरोधेन भगवद्भजनमुच्यमानमधिकार्यभावादनर्थकमापद्येतेति शङ्कते के पुनरिति। अनेकेषु जन्मसु सुकृतवशादपाकृतदुरितानां द्वन्द्वप्रयुक्तमोहविरहिणां ब्रह्मचर्यादिनियमवतां भगवद्भजनाधिकारित्वान्न शास्त्रविरोधोऽस्तीति परिहरति उच्यत इति। तुशब्दद्योत्यमर्थमाह पुनरिति। उक्तार्थमात्रसिद्ध्यर्थं समाप्तप्रायमित्युक्तम्। प्रकृतोपयोगं पुण्यस्य कर्मणो दर्शयितुं विशिनष्टि सत्त्वेति। उभयविधशुद्धेर्द्वन्द्वनिमित्तमोहनिवृत्तिफलमाह ते द्वन्द्वेति। मोहनिवृत्तेर्भगवन्निष्ठापर्यन्तत्वमाह भजन्त इति। तेषां नानापरिग्रहवतां भगवद्भजनप्रतिहतिमाशङ्क्याह दृढेति।
।।7.28।।येषां त्विति। सुकृतिनां जनानां पापमात्रं नष्टं पापरूपं प्रतिबन्धकं वा ते मां दृढव्रताः सन्तो भजन्ते। मां भजन्तो दृश्यन्त इत्यर्थः।
।।7.28।।यदि सर्वभूतानि संमोहं यान्ति कथं तर्हिचतुर्विधा भजन्ते मामित्युक्तम्। सत्यम्। सुकृतातिशयेन तेषां क्षीणपापत्वादित्याह येषां त्वितरलोकविलक्षणानां जनानां सफलजन्मनां पुण्यकर्मणामनेकजन्मसु पुण्याचरणशीलानां तैस्तैः पुण्यैः कर्मभिर्ज्ञानप्रतिबन्धकं पापमन्तगतमन्तमवसानं प्राप्तं ते पापाभावेन तन्निमित्तेन द्वन्द्वमोहेन रागद्वेषादिनिबन्धनविपर्यासेन स्वत एव निर्मुक्ताः पुनरावृत्त्ययोग्यत्वेन त्यक्ताः दृढव्रता अचाल्यसंकल्पाः सर्वथा भगवानेव भजनीयः स चैवंरुप एवेति प्रमाणजनिताप्रामाण्यशङ्काशून्यविज्ञानाः सन्तो मां परमात्मानं भजन्तेऽनन्यशरणाः सन्तः सेवन्ते। एतादृशा एव चतुर्विधा भजन्ते मामित्यत्र सुकृतिशब्देनोक्ताः। अतः सर्वभूतानि संमोहं यान्तीत्युत्सर्गः। तेषां मध्ये ये सुकृतिनस्ते संमोहशून्या मां भजन्त इत्यपवाद इति न विरोधः। अयमेवोत्सर्गः प्रागपि प्रतिपादितस्त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरित्यत्र। तस्मात्सत्त्वशोधकपुण्यकर्मसंचयाय सर्वदा यतनीयमिति भावः।
।।7.28।।कुतस्तर्हि केचन त्वां भजन्तो दृश्यन्ते तत्राह येषामिति। येषां तु पुण्याचरणशीलानां सर्वं प्रतिबन्धकं पापमन्तगतं नष्टं ते द्वन्द्वनिमित्तेन मोहेन निर्मुक्ताः दृढव्रता एकान्तिनः सन्तो मां भजन्ते।
।।7.28।।यद्येवं सर्वभूतानि सम्मोहं यान्ति तर्हि भगवदुपासनं कदाचिदपि कस्यचिदपि न स्यात् अतःचतुर्विधा भजन्ते माम् 7।16 इत्यादिनोक्तं चानुपपन्नं स्यादित्यत्रोत्तरंयेषां त्वित्यादि।पुण्यकर्मणाम् इत्येतत्पापनिवृत्तिहेतुपरम्। तथा च श्रुतिः धर्मेण पापमपनुदति म.ना.उ.16।1 इति। जनशब्दश्च जननवति वर्तमानत्वात् पुण्यप्रचयहेतुभूतानेकजन्मसूचनपर इत्यभिप्रायेणोक्तम् अनेकजन्मार्जितेनोत्कृष्टपुण्यसञ्चयेनेति। भगवज्ज्ञानप्रतिबन्धकपापनिवर्तकत्वाच्चोत्कृष्टत्वं फलितम्। गुणमयशब्देन सुखदुःखरूपभगवत्संश्लेषविश्लेषाख्यद्वन्द्वव्यवच्छेदः।द्वन्द्वमोहविनिर्मुक्ता मां भजन्ते इति फलद्वयदर्शनात्प्रतिबन्धकेऽपि पापे द्वन्द्वेच्छाद्वेषहेतुभूतं मदौन्मुख्यविरोधि चेति भेदो दर्शितः। अनेकजन्मार्जितोत्कृष्टपुण्यनाश्यत्वायोक्तंअनादिकालप्रवृत्तमिति। उपासनारम्भे पापस्य द्वन्द्वमोहस्य च निश्शेषविनष्टत्वाभावादन्तर्गतशब्देनाल्पावशिष्टत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तं क्षीणमिति।मामेव ये प्रपद्यन्ते 7।14चतुर्विधा भजन्ते मां इत्यादिकं च प्रायुक्तमनन्तराभिधीयमानं चजरामरणमोक्षाय 7।29 इत्यादिकमनुसन्दधान आहपूर्वोक्तेनेति। न चात्र द्वन्द्वमोहविनिर्मुक्तत्ववचनादैश्वर्यार्थिनां प्रसङ्गानुपपत्तिः तेषामपि क्षुद्रतरद्वन्द्वनिरोधस्यावश्यापेक्षितत्वात्। व्रतशब्दः सङ्कल्पविशेषेषु मुख्यः तत्सम्बन्धादेव क्रियाविशेषेषु तत्प्रयोग इत्यभिप्रायेणदृढसङ्कल्पा इत्युक्तम्। दृढव्रतशब्देन देवतान्तरपरित्यागादिनियमोऽपि यथाप्रमाणं सूचित इत्यभिप्रायेणमामेव भजन्त इत्युक्तम्।मां भजन्ते इत्यनेनैव भजनाङ्गव्रतादेरपि सिद्धत्वात्मत्प्राप्तये चेत्यन्तेन दृढसङ्कल्पत्वं स्वाभिमतफलविषयतया वा व्याख्यातम्।
।।7.28।।ननु ये मोहयुक्तास्तन्मध्ये तत्सङ्गिन एव केचन पूर्वमभजन्तः पश्चात् त्वद्भजनप्रवृत्ताः कथं भवन्ति इत्यत आह येषामिति। येषां दुर्लभानां भाग्यवतां पुण्यकर्मणां मद्दर्शनादिना पुण्याचरणशीलानां महत्सु विनयादियुक्तानाम्। तु पुनः जनादिक्लेशयुक्तानां पापं मत्स्वरूपज्ञानप्रतिबन्धकं अन्तभावं गतं प्राप्तं नष्टमिति यावत्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः स्वसुखदुःखादिमोहनिर्मुक्ताः दृढव्रताः द़ृढसङ्कल्पाः मदेकनिष्ठाः मां भजन्ते। अत्रायं भावः पूर्वजन्मकृतं यत्किञ्चित् पुण्यकर्म तेन जन्मान्तरे प्रवृद्धमाने वाऽनेकजन्मनि वयसः परिपाके पुण्योपचितमरणभयेन तन्निवृत्त्यर्थं मद्भजनप्रवृत्ता भवन्ति। अतएवजन्मान्तरसहस्रेषु तपोज्ञानसमाधिभिः। नराणां क्षीणपापानां कृष्णे भक्तिः प्रजायते पां.गी.40 इति भागवतैरुक्तम्।
।।7.28।।केषां तर्हि सार्वज्ञ्यं भवतीत्याशङ्क्याह येषां त्विति द्वाभ्याम्। येषां पुनर्जनानां पुण्यकर्मणां पापं अन्तगतं अन्तं नाशं प्राप्तं।द्वितीया श्रिता इति समासः। ते द्वन्द्वमोह उक्तलक्षणस्तेन निर्मुक्ताः सन्तः प्रथमं दृढव्रताः शमदमादिदार्ढ्य भाजो भूत्वा मां भजन्ते।
।।7.28।।के पुनस्त्वां विदित्वा यथाशास्त्र मात्मभावेन भजन्त इत्यपेक्षायामाह। येषां तु पुनर्जनानां पुण्यकर्मणां पुण्यं कर्म पापक्षयद्वारा सत्त्वशुद्धिकरं येषां ते पुण्यकर्माणस्तेषां पापमन्तं समाप्तिं गतं प्राप्तम् ते यथोक्तद्वन्द्वमोहेन विनिर्मुक्ता वर्जिता अतएव दृढव्रताः एवमेवात्मतत्त्वं नान्यथेत्येवं सर्वपरित्यागेन निश्चितविज्ञाना मां परमात्मानं भजन्ते।
7.28 येषाम् of whom? तु but? अन्तगतम् is at the end? पापम् sin? जनानाम् of men? पुण्यकर्मणाम् of men of virtuous deeds? ते they? द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः freed from the delusion of the pairs of opposites? भजन्ते worship? माम् Me? दृढव्रताः men steadfast in vows.Commentary By the performance of good deeds the heart is slowly purified Sattva increases Rajas and Tamas are gradually thinned out. The mind becomes serene and calm. The little selfarrogating personality slowly dies. You grow in spirituality. The divine flame becomes brighter and brighter. You become impersonal.Sin To forget ones identity with the Supreme Soul is the greatest sin. To see difference is sin. To take the body as the Self? to believe that this world is real is sin. Selfishness is sin. Egoism is sin. Ignorance is sin.Steadfast in vows The man steadfast in vows entertains a firm resolve I must realise the Self now I will not budge an inch from my seat till I attain Selfrealisation. He has the firm conviction that Brahman is the only Reality. This world is unreal. It is like a mirage. I can attain immortality and eternal bliss if I realise the Self only. There is not an iota of happiness in the sensual objects. Therefore the Lord says? Those persons of pure deeds worship Me steadfast in vows.
7.28 But those men of virtuous deeds whose sins have come to an end, and who are freed from the delusion of the pairs of opposites, worship Me, steadfast in their vows.
7.28 But those who act righteously, in whom sin has been destroyed, who are free from the infatuation of the conflicting emotions, they worship Me with firm resolution.
7.28 On the other hand, those persons who are of virtuous deeds, whose sin has come to an end, they, being free from the delusion of dulaity and firm in their convictions, adore Me.
7.28 Yesam jananam, those persons; tu, on the other hand; punya-karmanam, who are of virtuous deeds, in whom exist virtuous deeds that are the cause of purification of the mind; whose papam, sin; antagatam, has come to an end, is almost eradicated, attenuated; te, they; dvandva-moha-nirmuktah, being free from the delusion of duality as described; and drdhavratah, firm in their convictions-those who [Here Ast. adds, 'sarva-parityaga-vratena, through the vow of relinishing everything'.-Tr.] have the firm knowledge that the supreme Reality is such alone and not otherwise are called drdhavratah-; bhajante, adore; mam, Me, the supreme Self. Why do they worship? This is being answered:
7.28. But those men of virtuous deeds, whose sin has come to an end-they, being free from the delusion of pairs [of opposites], worship Me with firm resolve.
7.28 See Comment under 7.30
7.28 However, there are some whose sins, accruing from beginningless time, which cause desire or hatred to the pairs of opposites and annual the tendency towards Me, have come to an end, i.e., have become weakened, through the accumulation of good actions in numerous births, They resort to Me, devoid of delusion produced by the Gunas, and worship Me alone in proportion to the excellence of their Karmas previously described. In order to attain deliverance form old age and death and for aciring the supreme consummation of reaching Me, they remain steadfast in their vows. Sri Krsna enumerates what special things are to be known and what ought to be attained by these three classes of votaries of God:
7.28 But the doers of good deeds, whose sins have come to an end, are freed from the delusion of the pairs of opposites. They worship Me, steadfast in their vows.
।।7.28।।तो फिर इस द्वन्द्वमोहसे छूटे हुए ऐसे कौनसे मनुष्य हैं जो आपको शास्त्रोक्त प्रकारसे आत्मभावसे भजते हैं इस अपेक्षित अर्थको दिखानेके लिये कहते हैं जिन पुण्यकर्मा पुरुषोंके पापोंका लगभग अन्त हो गया होता है अर्थात् जिनके कर्म पवित्र यानी अन्तःकरणकी शुद्धिके कारण होते हैं वे पुण्यकर्मा हैं ऐसे उपर्युक्त द्वन्द्वमोहसे मुक्त हुए वे दृढ़व्रती पुरुष मुझ परमात्माको भजते हैं। परमार्थतत्त्व ठीक इसी प्रकार है दूसरी प्रकार नहीं ऐसे निश्चित विज्ञानवाले पुरुष दृढ़व्रती कहे जाते हैं।
।।7.28।। येषां तु पुनः अन्तगतं समाप्तप्रायं क्षीणं पापं जनानां पुण्यकर्मणां पुण्यं कर्म येषां सत्त्वशुद्धिकारणं विद्यते ते पुण्यकर्माणः तेषां पुण्यकर्मणाम् ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः यथोक्तेन द्वन्द्वमोहेन निर्मुक्ताः भजन्ते मां परमात्मानं दृढव्रताः। एवमेव परमार्थतत्त्वं नान्यथा इत्येवं सर्वपरित्यागव्रतेन निश्चितविज्ञानाः दृढव्रताः उच्यन्ते।।ते किमर्थं भजन्ते इत्युच्यते
।।7.28।।चतुर्विधाः 7।16 इत्यनेन गतार्थमुत्तरं वाक्यमित्यत आह विपरीताश्चेति। त्वत्प्रपत्तेर्मायाकरणाकारणत्वात् स्वदोषाद्वा त्वां न प्रपद्यन्त इत्यत्र कथं निर्णयः इत्यतस्तदुक्तम्। सर्वभूतानि सम्मोहं यान्ति चेत् लुप्तो मुक्तिमार्ग इत्याशङ्क्याऽत्र द्वन्द्वमोहरहिताश्च केचित्सन्तीत्याहेत्यर्थः।
।।7.28।।विपरीताश्च केचित्सन्तीत्याह येषामिति।
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्। ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।।7.28।।
যেষাং ত্বন্তগতং পাপং জনানাং পুণ্যকর্মণাম্৷ তে দ্বন্দ্বমোহনির্মুক্তা ভজন্তে মাং দৃঢব্রতাঃ৷৷7.28৷৷
যেষাং ত্বন্তগতং পাপং জনানাং পুণ্যকর্মণাম্৷ তে দ্বন্দ্বমোহনির্মুক্তা ভজন্তে মাং দৃঢব্রতাঃ৷৷7.28৷৷
યેષાં ત્વન્તગતં પાપં જનાનાં પુણ્યકર્મણામ્। તે દ્વન્દ્વમોહનિર્મુક્તા ભજન્તે માં દૃઢવ્રતાઃ।।7.28।।
ਯੇਸ਼ਾਂ ਤ੍ਵਨ੍ਤਗਤਂ ਪਾਪਂ ਜਨਾਨਾਂ ਪੁਣ੍ਯਕਰ੍ਮਣਾਮ੍। ਤੇ ਦ੍ਵਨ੍ਦ੍ਵਮੋਹਨਿਰ੍ਮੁਕ੍ਤਾ ਭਜਨ੍ਤੇ ਮਾਂ ਦਰਿਢਵ੍ਰਤਾ।।7.28।।
ಯೇಷಾಂ ತ್ವನ್ತಗತಂ ಪಾಪಂ ಜನಾನಾಂ ಪುಣ್ಯಕರ್ಮಣಾಮ್. ತೇ ದ್ವನ್ದ್ವಮೋಹನಿರ್ಮುಕ್ತಾ ಭಜನ್ತೇ ಮಾಂ ದೃಢವ್ರತಾಃ৷৷7.28৷৷
യേഷാം ത്വന്തഗതം പാപം ജനാനാം പുണ്യകര്മണാമ്. തേ ദ്വന്ദ്വമോഹനിര്മുക്താ ഭജന്തേ മാം ദൃഢവ്രതാഃ৷৷7.28৷৷
ଯେଷାଂ ତ୍ବନ୍ତଗତଂ ପାପଂ ଜନାନାଂ ପୁଣ୍ଯକର୍ମଣାମ୍| ତେ ଦ୍ବନ୍ଦ୍ବମୋହନିର୍ମୁକ୍ତା ଭଜନ୍ତେ ମାଂ ଦୃଢବ୍ରତାଃ||7.28||
yēṣāṅ tvantagataṅ pāpaṅ janānāṅ puṇyakarmaṇām. tē dvandvamōhanirmuktā bhajantē māṅ dṛḍhavratāḥ৷৷7.28৷৷
யேஷாஂ த்வந்தகதஂ பாபஂ ஜநாநாஂ புண்யகர்மணாம். தே த்வந்த்வமோஹநிர்முக்தா பஜந்தே மாஂ தரிடவ்ரதாஃ৷৷7.28৷৷
యేషాం త్వన్తగతం పాపం జనానాం పుణ్యకర్మణామ్. తే ద్వన్ద్వమోహనిర్ముక్తా భజన్తే మాం దృఢవ్రతాః৷৷7.28৷৷
7.29
7
29
।।7.29।।  जरा (वृद्धावस्था) और मरण (मृत्यु) से मोक्ष पानेके लिये जो  मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको भी जान जाते हैं।
।।7.29।। जो मेरे शरणागत होकर जरा और मरण से मुक्ति पाने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।।
।।7.29।। चित्तशुद्धि तथा ध्यानसाधना का प्रयोजन है जरा और मरण से मुक्ति पाना। आधुनिक काल में भी मनुष्य ऐसे उपायों को खोजने का प्रयत्न कर रहा है जिसके द्वारा जरा और मरण से मुक्ति मिल सके। उसकी अमृत्व की कल्पना यह है कि इस भौतिक देह का अस्तित्व सदा बना रहे परन्तु अध्यात्म शास्त्र में इसे अमृतत्त्व नहीं कहा है और न देह के नित्य अस्तित्व को जीवन का लक्ष्य बताया है।प्राणिमात्र के लिए जन्म वृद्धि व्याधि क्षय और मरण ये विकार अवश्यंभावी हैं। ये सभी विकार या परिवर्तन मनुष्य को असह्य पीड़ा दायक होते हैं। इनके अभाव में मनुष्य का जीवन अखण्ड आनन्दमय होता है। ध्यानाभ्यास में साधक का प्रयत्न इन परिवर्तनशील उपाधियों के साथ हुए तादात्म्य से ऊपर उठकर कालत्रयातीत मुक्त आत्मस्वरूप में स्थिति प्राप्त करने का होता है।योग्यता सम्पन्न साधक आत्मा का ध्यान करके अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का साक्षात्कार करता है कि यह आत्मा मैं हूँ। यह आत्मा ही वह परम सत्य है जो समस्त ब्रह्माण्ड का अधिष्ठान है जिसे वेदान्त में ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। आत्मसाक्षात्कार का अर्थ ही ब्रह्मस्वरूप बनना है क्योंकि व्यक्ति की आत्मा ही भूतमात्र की आत्मा है। सत्य के इस अद्वैत को यहाँ इस प्रकार सूचित किया गया है कि जो साधक मुझ आत्मस्वरूप पर ध्यान करते हैं वे ब्रह्म को जानते हैं।ज्ञानी पुरुष के विषय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह न केवल सर्वव्यापी आत्मा का ज्ञाता है बल्कि स्वयं की सम्पूर्ण अध्यात्म अर्थात् मनोवैज्ञानिक शक्तियों का भी ज्ञाता है तथा वह सभी कर्मों में कुशल होता है। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि आत्मानुभवी पुरुष जगत् व्यवहार में अकुशल और मूढ़ नहीं होता। अनुभवी पुरुषों का मत है कि केवल वही पुरुष वास्तविक अर्थ में जगत् की सेवा कर सकता है जिसे लोगों के मनोविज्ञान का पूर्ण ज्ञान है तथा अपने मन पर पूर्ण संयम है। सत्य का गीत गाने के लिए ऐसा पूर्णत्व प्राप्त व्यक्ति ही योग्यतम माध्यम है और ऐसे व्यक्ति का सुसंगठित और समस्त कार्यों में कुशल होना आवश्यक है।ज्ञानी पुरुषों के विषय में ही आगे कहते हैं
।।7.29।। व्याख्या--'जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये'--यहाँ जरा (वृद्धावस्था) और मरणसे मुक्ति पानेका तात्पर्य यह नहीं है कि ब्रह्म अध्यात्म और कर्मका ज्ञान होनेपर वृद्धावस्था नहीं होगी शरीरकी मृत्यु नहीं होगी। इसका तात्पर्य यह है कि बोध होनेके बाद शरीरमें आनेवाली वृद्धावस्था और मृत्यु तो आयेगी ही पर ये दोनों अवस्थाएँ उसको दुःखी नहीं कर सकेंगी। जैसे तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें 'भूतप्रकृतिमोक्षम्' कहनेका तात्पर्य भूत और प्रकृति अर्थात् कार्य और कारणसे सम्बन्धविच्छेद होनेमें है ऐसे ही यहाँ 'जरामरणमोक्षाय' कहनेका तात्पर्य जरा मृत्यु आदि शरीरके विकारोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेमें है।जैसे कोई युवा पुरुष है तो उसकी अभी न वृद्धावस्था है और न मृत्यु है अतः वह जरामरणसे अभी मुक्त है। परन्तु वास्तवमें वह जरामरणसे मुक्त नहीं है क्योंकि जरामरणके कारण शरीरके साथ जबतक सम्बन्ध है तबतक जरामरणसे रहित होते हुए भी वह इनसे मुक्त नहीं है। परन्तु जो जीवन्मुक्त महापुरुष हैं उनके शरीरमें जरा और मरण होनेपर भी वे इनसे मुक्त हैं। अतः जरामरणसे मुक्त होनेका तात्पर्य है जिसमें जरा और मरण होते हैं ऐसे प्रकृतिके कार्य शरीरके साथ सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होना। जब मनुष्य शरीरके साथ तादात्म्य (मैं यही हूँ) मान लेता है तब शरीरके वृद्ध होनेपर मैं वृद्ध हो गया और शरीरके मरनेको लेकर मैं मर जाऊँगा ऐसा मानता है। यह मान्यता शरीर मैं हूँ और शरीर मेरा है इसीपर टिकी हुई है। इसलिये तेरहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें आया है 'जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्' अर्थात् जन्म मृत्यु जरा और व्याधिमें दुःखरूप दोषोंको देखना इसका तात्पर्य है कि शरीरके साथ मैं और मेरापन का सम्बन्ध न रहे। जब मनुष्य मैं और मेरापन से मुक्त हो जायगा तब वह जरा मरण आदिसे भी मुक्त हो जायगा क्योंकि शरीरके साथ माना हुआ सम्बन्ध ही वास्तवमें जन्मका कारण है-- 'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता 13। 21)। वास्तवमें इसका शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं है तभी सम्बन्ध मिटता है। मिटता वही है जो वास्तवमें नहीं होता।यहाँ 'मामाश्रित्य यतन्ति ये' पदोंमें आश्रय लेना और यत्न करना इन दो बातोंको कहनेका तात्पर्य है कि मनुष्य अगर स्वयं यत्न करता है तो अभिमान आता है कि मैंने ऐसा कर लिया जिससे ऐसा हो गया और अगर स्वयं यत्न न करके भगवान्के आश्रयसे सब कुछ हो जायगा ऐसा मानता है तो वह आलस्य और प्रमादमें तथा संग्रह और भोगमें लग जाता है। इसलिये यहाँ दो बातें बतायीं कि शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार स्वयं तत्परतासे उद्योग करे और उस उद्योगके होनेमें तथा उद्योगकी सफलतामें कारण भगवान्को माने।जो नित्यनिरन्तर वियुक्त हो रहा है ऐसे शरीरसंसारको मनुष्य प्राप्त और स्थायी मान लेता है। जबतक वह शरीर और संसारको स्थायी मानकर उसे महत्ता देता रहता है तबतक साधन करनेपर भी उसको भगवत्प्राप्ति नहीं होती। अगर वह शरीरसंसारको स्थायी न माने और उसको महत्त्व न दे तो भगवत्प्राप्तिमें देरी नहीं लगेगी। अतः इन दोनों बाधाओँको अर्थात् शरीरसंसारकी स्वतन्त्र सत्ताको और महत्ताको विचारपूर्वक हटाना ही यत्न करना है। परन्तु जो भगवान्का आश्रय लेकर यत्न करते हैं वे श्रेष्ठ हैं। उनका तो यही भाव रहता है कि उस प्रभुकी कृपासे ही साधनभजन हो रहा है। भगवान्की कृपाका आश्रय लेनेसे और अपने बलका अभिमान न करनेसे वे भगवान्के समग्ररूपको जान लेते हैं।जो भगवान्का आश्रय न लेकर अपना कल्याण चाहते हुए उद्योग करते हैं उनको अपनेअपने साधनके अनुसार भगवत्स्वरूपका बोध तो हो जाता है पर भगवान्के समग्ररूपका बोध उनको नहीं होता। जैसे कोई प्राणायाम आदिके द्वारा योगका अभ्यास करता है तो उसको अणिमा महिमा आदि सिद्धियाँ मिलती हैं और उनसे ऊँचा उठनेपर परमात्माके निराकारस्वरूपका बोध होता है अथवा अपने स्वरूपमें स्थिति होती है। ऐसे ही बौद्ध जैन आदि सम्प्रदायोंमें चलनेवाले जितने मनुष्य हैं जो कि ईश्वरको नहीं मानते वे भी अपनेअपने सम्प्रदायके सिद्धान्तोंके अनुसार साधन करके असत्जडरूप संसारसे सम्बन्धविच्छेद करके मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो संसारसे विमुख होकर भगवान्का आश्रय लेकर यत्न करते हैं उनको भगवान्के समग्ररूपका बोध होकर भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है यह विलक्षणता बतानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ 'मामाश्रित्य यतन्ति ये' कहा है।
।।7.28 7.30।।येषामित्यादि युक्तचेतस इत्यन्तम्। ये तु विनष्टतामसाः पुण्यापुण्यपरिक्षयक्षेमीकृतात्मानः ते विपाटितमहामोहवितानाः सर्वमेव भगवद्रश्मिखचितं जरामरणमयतमिस्रस्रुतं ब्रह्म विदन्ति आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकाधियाज्ञिकानि च ममैव रूपान्तराणि। प्रयाणकाले च नित्यं भगवद् भावितान्तःकरणत्वात् मां जानन्ति यतो येषां जन्म पूर्वमेव भगवत्तत्त्वं ते अन्तकाले परमेश्वरं संस्मरेयुः। किं जन्मासेवनया इति ये मन्यन्ते तेषां तूष्णींभाव एव शोभनः इति।
।।7.29।।जरामरणमोक्षाय प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपदर्शनाय माम् आश्रित्य ये यतन्ते ते तद् ब्रह्म विदुः अध्यात्मं च कृत्स्नं विदुः कर्म च अखिलं विदुः।
।।7.29।।यथोक्तानामधिकारिणां भगवद्भजनफलं प्रश्नद्वारा दर्शयति ते किमर्थमिति। जरामरणादिलक्षणो यो बन्धस्तद्विश्लेषार्थं भगवद्भजनमित्यर्थः। संप्रति सगुणस्य सप्रपञ्चस्य मध्यमानुग्रहार्थं ध्येयत्वमाह मामाश्रित्येति। जरादिसंसारनिवृत्त्यर्थं निर्गुणं निष्प्रपञ्चं मामुत्तमाधिकारिणो जानन्तीत्युक्तंमामेव ये प्रपद्यन्ते इत्यादावित्याह जरेति। मध्यमाधिकारिणः प्रत्याह मामेति। परमेश्वराश्रयणं नाम विषयविमुखत्वेन भगवदेकनिष्ठत्वमित्याह मत्समाहितेति। प्रयतनं भगवन्निष्ठासिद्ध्यर्थं बहिरङ्गाणां यज्ञादीनामन्तरङ्गाणां च श्रवणादीनामनुष्ठानम्। प्रागुक्तं जगदुपादानं परं ब्रह्म। कथं ब्रह्म विदुरित्यपेक्षायां समस्ताध्यात्मवस्तुत्वेन सकलकर्मत्वेन च तद्विदुरित्याह कृत्स्नमिति।
।।7.29।।एवं पूर्वोक्तेषु चतुर्षु भजमानेषु ज्ञानिभक्तानामुत्कर्ष उक्तः आर्त्तार्थार्थिनस्तु भगवतः सकाशात्फलं प्राप्य पश्चान्मुमुक्षवो भूत्वा जिज्ञासवो भवन्ति तेषां ज्ञानिनां च फलं वदंस्तत्साधनीभूतज्ञानविशेषोपादेयानर्जुनस्य तज्जिज्ञासोत्पादनार्थं भगवान्प्रस्तौति द्वाभ्यां जरामरणमोक्षायेति। जरामरणतो मोक्षो हि ब्रह्मात्मज्ञान एवेति तदर्थं मुमुक्षवो मामाश्रित्य प्रपद्य यतन्ति यतयो ये आत्मतत्त्वजिज्ञासवस्ते ब्रह्म परमं तदक्षरं विदुरध्यात्मं आत्माधिगतं स्वभावं च विदुरखिलं कर्म च।
।।7.29।।अथेदानीमर्जुनस्य प्रश्नमुत्थापयितुं सूत्रभूतौ श्लोकावुच्येते। अनयोरेव वृत्तिस्थानीय उत्तरोऽध्यायो भविष्यति ये संसारदुःखान्निर्विण्णा जरामरणमोक्षाय जरामरणादिविविधदुःसंहसंसारदुःखनिरासाय तदेकहेतुं मां सगुणं भगवन्तमाश्रित्येतरसर्ववैमुख्येन शरणं गत्वा यतन्ति यतन्ते मदर्पितानि फलाभिसन्धिशून्यानि विहितानि कर्माणि कुर्वन्ति ते क्रमेण शुद्धान्तःकरणाः सन्तस्तज्जगत्कारणं मायाधिष्ठानं शुद्धं परं ब्रह्म निर्गुणं तत्पदलक्ष्यं मां विदुः। तथात्मानं शरीरमधिकृत्य प्रकाशमानं कृत्स्नमुपाध्यपरिच्छिन्नं त्वंपदलक्ष्यं विदुः। कर्म च तदुभयवेदनसाधनं गुरूपसदनश्रवणमननाद्यखिलं निरवशेषं फलाव्यभिचारि विदुर्जानन्तीत्यर्थः।
।।7.29।।एवं च मां भजन्तस्ते सर्वं विज्ञेयं विज्ञाय कृतार्था भवन्तीत्याह जरामरणेति। जरामरणयोर्निरासार्थं मामाश्रित्य ये प्रयतन्ते ते तत्परं ब्रह्म विदुः कृत्स्नमध्यात्मं च विदुः येन तत्प्राप्तव्यं तं देहादिव्यतिरिक्तं शुद्धमात्मानं च जानन्तीत्यर्थः। तत्साधनभूतमखिलं सरहस्यं कर्मं च जानन्ति।
।।7.29।।अथाष्टमाध्याये प्रपञ्चयिष्यमाणस्यार्थस्य प्रस्तावः श्लोकद्वयेन क्रियत इत्याह अत्रेति।जरामरणमोक्षाय इत्येतावतो निर्देशात्प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपदर्शनायेत्युक्तम्। यतनमत्राराधनरूपं विवक्षितम्। एषां ब्रह्माध्यात्मकर्मादीनां सप्तानां प्रश्नपूर्वकं प्रपञ्चो भविष्यति। अत्रविदुः इति सिद्धवन्निर्देशो वर्तमानापदेशोऽपि विद्ध्यर्थः।
।।7.29।।एवं भजनप्रवृत्ता मां जानन्तीत्याह जरामरणेति। जरामरणयोः भगवद्भजनप्रतिबन्धकभगवद्विस्मरणरूपयोर्मोक्षाय निवारणार्थं मामाश्रित्य अनन्यैकचित्तेन ये यतन्ति भजनार्थं यत्नं कुर्वन्ति भजन्ति वा ते तत् परं ब्रह्म पुरुषोत्तमात्मकं विदुः जानन्ति। कृत्स्नं पूर्णमध्यात्मं भजनौपयिकं साधनरूपं विदुः। च पुनः कर्म सेवारूपं तत्साधनात्मकमखिलं भावादियुक्तं जानन्तीत्यर्थः।
।।7.29।।ततश्च जरामरणयोः प्रवाहादात्मनो मोक्षाय मामाश्रित्य मयि समाहितचेतसो भूत्वा ये यतन्ति यतन्ते ज्ञानलाभाय वेदान्तश्रवणादौ ते तत् सर्ववेदान्तप्रसिद्धं कृत्स्नं ब्रह्म विदुः। विराडाद्युपासका ह्यकृत्स्नब्रह्मविदः।सूत्रकारणयोर्निष्कलस्य चाज्ञानात् श्रीगोपालबालोपासकास्तु तत्पदलक्ष्यकृत्स्नब्रह्मविदोऽतस्तेऽध्यात्मादिकं कात्स्न्र्येन जानन्ति। सर्वविदो भवन्तीत्यर्थः। अनेनयज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते इत्येकविज्ञानात्सर्वविज्ञानप्रतिज्ञा या पूर्वं कृता तस्या उपसंहारो दर्शितः। अध्यात्मं आत्मनि शरीरे स्थितं प्रत्यगात्मविषयं वस्तु शुद्धं त्वंपदार्थमित्यर्थः। कर्म च तत्त्वंपदार्थज्ञानयोः साधनं श्रवणादिकं सर्वं विदुः।
।।7.29।।किमर्थ भजन्तीत्यत आह जरामरणमोक्षाय मां परमेश्वरं सगुणमाश्रित्य ये पापहिताः पुण्यकर्माणो द्वन्द्वमोहविनिर्मुक्ताः दृढव्रताः सन्तो यतन्ति यतन्ते ते यत्परं ब्रह्म तद्विदुः। तथा कृत्स्त्रमध्यात्मं प्रत्यगात्मविषयं वस्तु कर्म च वक्ष्यमाणम्। यत्तु कर्म च तदुभयवेदनसाधनं गुरुपसदश्रवणमननाद्यखिलं निरवशेषं फलाव्यभिचारीति केचित्। तन्न।भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः इति मूलतद्भाष्यस्य यागदानहोमात्मकं वैदिकं कर्मेत्यादिस्वोक्तेश्च विरोधस्य स्पष्टत्वादखिलं प्रपञ्चं ब्रह्मानन्यं सर्वं विदुः। तथा चैवंज्ञानिनो जरामरणादिलक्षणात्संसारान्मुच्यन्त इति।
7.29 जरामरणमोक्षाय for liberation from old age and death? माम् Me? आश्रित्य having taken refuge in? यतन्ति strive? ये who? ते they? ब्रह्म Brahman? तत् that? विदुः know? कृत्स्नम् the whole? अध्यात्मम् knowledge of the Self? कर्म action? च and? अखिलम् whole.Commentary They attain to the full knowledge of the Self or perfect knowledge of Brahman. They attain to the Bhuma or the Highest or the Unconditioned. All their doubts are totally destroyed. They fully realise now? All is Vaasudeva. All indeed is Brahman. There is no such thing as diversity.They are not rorn here and have thus conered old age and death. They are liberated here and now.
7.29 Those who strive for liberation from old age and death, taking refuge in Me, realise in full ï1thatï1 Brahman, the whole knowledge of the Self and all action.
7.29 Those who make Me their refuge, who strive for liberation from decay and Death, they realise the Supreme Spirit, which is their own real Self, and in which all action finds its consummation.
7.29 Those who strive by resorting to Me for becoming free from old age and death, they know that Brahman, everything about the individual Self, and all about actions. [They know Brahman as being all the individual entities and all actions. This verse prescribes meditation on the alified Brahman for aspirants of the middle class. Verses beginning with the 14the speak about the reaization of the unalified Brahman by aspirants of the highest class.]
7.29 Ye, those who; yatanti, strive; asritya, by resorting; mam, to Me, the supreme God, by having their minds absorbed in Me; jara-marana-moksaya, for becoming free from old age and death; te, they; viduh, know; tat, that; brahma, Brahman, which is the Supreme; they know krtsnam, everything; about adhyatmam, the individual Self, that indwelling intity; ca, and; they know akhiliam, all; about karma, actions.
7.29. Those, who, relying on Me, strive to achieve freedom from old age and death-they realise all to be the Brahman and realise all the actions governing the Self.
7.29 See Comment under 7.30
7.29 Those who take refuge in Me and strive for deliverance from old age and death, i.e., for the vision of the real nature of the self as distinct from the Prakrti, they know brahman (the pure individual self). They also know all about the individual self, and the whole of Karma. [This attainment is known as Kaivalya, which means the aloofness of the self in absorption in Its own bliss.]
7.29 Those who take refuge in Me and strive for deliverance from old age and death, know brahman (or the self) all about the nature of that self, and the entire Karma (or activities leading to rirth).
।।7.29।।वे किसलिये भजते हैं सो कहते हैं जो पुरुष जरा और मृत्युसे छूटनेके लिये मुझ परमेश्वरका आश्रय लेकर अर्थात् मुझमें चित्तको समाहित करके प्रयत्न करते हैं वे जो परब्रह्म है उसको जानते हैं एवं समस्त अध्यात्म अर्थात् अन्तरात्मविषयकवस्तुको और अखिल समस्त कर्मको भी जानते हैं।
।।7.29।। जरामरणमोक्षाय जरामरणयोः मोक्षार्थं मां परमेश्वरम् आश्रित्य मत्समाहितचित्ताः सन्तः यतन्ति प्रयतन्ते ये ते यत् ब्रह्म परं तत् विदुः कृत्स्नं समस्तम् अध्यात्मं प्रत्यगात्मविषयं वस्तु तत् विदुः कर्म च अखिलं समस्तं विदुः।।
।।7.29।।मां भजन्ते 7।18 इत्युक्तानुवादेन फलमुच्यते। तत्रजरामरणमोक्षाय इत्यनुक्तस्यानुवादासम्भवादप्राप्तत्वेन विध्यर्थं मद्भजनं च जरामरणमोक्षोद्देशेन कार्यमित्येवं प्रतीतिनिरासार्थमाह जरेति। लक्षणया स्वर्गादिकामनिवृत्तिरर्थोऽस्येति तथोक्तम्। मोक्षविषयासक्तिरन्यसक्तेः प्रशस्तेतितत्स्तुत्यर्थं वा सर्वथा न विधिः। कुतः इत्यत आह मुमुक्षोरिति। इतरस्यामुमुक्षोर्भक्तस्य। न हि प्रशस्ते सत्यप्रशस्तं नियन्तुं युक्तमिति भावः। इति चेतरस्तुतेरिति सम्बन्धः। प्रकारभेदात्पृथगुक्तिः। इतश्च न मोक्षकामविधिरित्याह देवानामिति। सत्त्व एवैकमनसः शुद्धसात्त्विकस्य पुंसो देवानामिन्द्रियाणां गुणलिङ्गानां गन्धाद्युपलब्धिलक्षणगुणानुमेयानाम् तथा वचनादिक्रियानुमेयानां च आनुश्राविककर्मणां वैदिकानुष्ठान कारणानाम्। या भगवत्यनिमित्ता फलोद्देशरहिता केवलं स्वाभाविकी निरवधिकस्नेहरूपस्वभावनिर्वृत्ता वृत्तिः सा भक्तिः सा च सकामभक्त्या जातायाः सिद्धेर्मुक्तेरपिगरीयसी। या सा कामनाभावेऽपि कोशं लिङ्गशरीरं स्वभावादेव जरयत्यनलवदित्यनिमित्तत्वस्य भक्तिलक्षणत्वेनोक्तत्वाच्चेत्यर्थः। न हि लक्षणवैकल्यं विधेयमिति भावः। आह च स्पष्टमेतदन्यत्र। देवार्थाः देवप्रतिपत्त्यर्थाः। प्रतिपन्ना देवा नारायणज्ञानार्थाः। मोक्षार्थे ज्ञातव्यः। नान्यार्थः परः पुरुषार्थः। मध्यमभक्तानां चित्तवृत्तिः। एकान्तानां नियतानामुत्तमभक्तानां न कस्यचिदर्थे स एव परमपुरुषार्थः। ननुमामेव ये प्रपद्यन्ते 7।14 इत्युक्तत्वात्ते ब्रह्म तद्विदुः इति पुनरुक्तमित्यत आह त एवेति। अन्योपायनिवृत्त्यर्थमेतदित्यर्थः। स्यादेवं व्याख्यानम् यदि भगवद्भजनेनं विना ज्ञानस्यान्योपायाभावः प्रमितः स्यात्। स एव कुतः इत्यत आह यमिति। भक्तमेव च वृणुत इति च प्रसिद्धम्।
।।7.29।।जरामरणमोक्षाय इत्यन्यकामव्यावृत्त्यर्थं मोक्षे सक्तिस्तुत्यर्थ वा न विधिःमुमुक्षोरमुमुक्षुस्तु वरो ह्येकान्तभक्तिभाक् इति इतरस्तुतेर्नारदीये। नात्यन्तिकमिति च।देवानां गुणलिङ्गानामानुश्राविककर्मणाम्। सत्त्व एवैकमनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या। अनिमित्ता भगवति भक्तिः सिद्धेर्गरीयसी। जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा 3।25।3233 इति लक्षणाच्च भागवते। आह चसर्वे वेदास्तु देवार्था देवा नारायणार्थकाः। नारायणस्तु मोक्षार्थो मोक्षो नान्यार्थ इष्यते। एवं मध्यमभक्तानामेकान्तानां न कस्यचित्। अर्थे नारायणो देवः सर्वमन्यत्तदर्थकम् इति गीताकल्पे। त एव च विदुः। यमेवैष वृणुते कठो.2।22मुंडो.2।3 इति श्रुतेः।
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये। ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।।7.29।।
জরামরণমোক্ষায মামাশ্রিত্য যতন্তি যে৷ তে ব্রহ্ম তদ্বিদুঃ কৃত্স্নমধ্যাত্মং কর্ম চাখিলম্৷৷7.29৷৷
জরামরণমোক্ষায মামাশ্রিত্য যতন্তি যে৷ তে ব্রহ্ম তদ্বিদুঃ কৃত্স্নমধ্যাত্মং কর্ম চাখিলম্৷৷7.29৷৷
જરામરણમોક્ષાય મામાશ્રિત્ય યતન્તિ યે। તે બ્રહ્મ તદ્વિદુઃ કૃત્સ્નમધ્યાત્મં કર્મ ચાખિલમ્।।7.29।।
ਜਰਾਮਰਣਮੋਕ੍ਸ਼ਾਯ ਮਾਮਾਸ਼੍ਰਿਤ੍ਯ ਯਤਨ੍ਤਿ ਯੇ। ਤੇ ਬ੍ਰਹ੍ਮ ਤਦ੍ਵਿਦੁ ਕਰਿਤ੍ਸ੍ਨਮਧ੍ਯਾਤ੍ਮਂ ਕਰ੍ਮ ਚਾਖਿਲਮ੍।।7.29।।
ಜರಾಮರಣಮೋಕ್ಷಾಯ ಮಾಮಾಶ್ರಿತ್ಯ ಯತನ್ತಿ ಯೇ. ತೇ ಬ್ರಹ್ಮ ತದ್ವಿದುಃ ಕೃತ್ಸ್ನಮಧ್ಯಾತ್ಮಂ ಕರ್ಮ ಚಾಖಿಲಮ್৷৷7.29৷৷
ജരാമരണമോക്ഷായ മാമാശ്രിത്യ യതന്തി യേ. തേ ബ്രഹ്മ തദ്വിദുഃ കൃത്സ്നമധ്യാത്മം കര്മ ചാഖിലമ്৷৷7.29৷৷
ଜରାମରଣମୋକ୍ଷାଯ ମାମାଶ୍ରିତ୍ଯ ଯତନ୍ତି ଯେ| ତେ ବ୍ରହ୍ମ ତଦ୍ବିଦୁଃ କୃତ୍ସ୍ନମଧ୍ଯାତ୍ମଂ କର୍ମ ଚାଖିଲମ୍||7.29||
jarāmaraṇamōkṣāya māmāśritya yatanti yē. tē brahma tadviduḥ kṛtsnamadhyātmaṅ karma cākhilam৷৷7.29৷৷
ஜராமரணமோக்ஷாய மாமாஷ்ரித்ய யதந்தி யே. தே ப்ரஹ்ம தத்விதுஃ கரித்ஸ்நமத்யாத்மஂ கர்ம சாகிலம்৷৷7.29৷৷
జరామరణమోక్షాయ మామాశ్రిత్య యతన్తి యే. తే బ్రహ్మ తద్విదుః కృత్స్నమధ్యాత్మం కర్మ చాఖిలమ్৷৷7.29৷৷
7.30
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।।7.30।। जो मनुष्य अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे युक्तचेता मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
।।7.30।। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव तथा अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं, वे युक्तचित्त वाले पुरुष अन्तकाल में भी मुझे जानते हैं।।
।।7.30।। आत्मानुभवी पुरुष न केवल मन के स्वभाव (अध्यात्म) और कर्म ऋ़े स्वरूप को ही जानते हैं वरन् वे अधिभूत (पंच विषय रूप जगत्) अधिदैव (इन्द्रिय मन और बुद्धि की कार्य प्रणाली) और अधियज्ञ अर्थात् उन परिस्थितियों को भी जानते हैं जिनमें विषय ग्रहण रूप यज्ञ सम्पन्न होता है।ईश्वर के किसी रूप विशेष के भक्त के विषय में सम्भवत यह धारणा उचित हो सकती है कि भक्तजन अव्यावहारिक होते हैं और उनमें सांसारिक जीवन को सफलतापूर्वक जीने की कुशलता नहीं होती। एक सगुण उपासक अपने इष्ट देवता का ध्यान करने में ही इतना भावुक और व्यस्त हो जाता है कि उसमें संसार को समझने की न रुचि होती है और न क्षमता। परन्तु वेदान्त शास्त्र में आत्मज्ञानी पुरुष का जो चित्रण मिलता है उसके अनुसार वह पुरुष न केवल आत्मानुभव में दृढ़निष्ठ होता है वरन् वह सर्वत्र सदा एवं समस्त परिस्थितियों में अपने मन का स्वामी बना रहता है और ऐसी सार्मथ्य से सम्पन्न होता है जिसे सम्पूर्ण जगत् को स्वीकार करना पड़ता है।ऐसा स्वामित्व प्राप्त पुरुष ही जगत् को नेतृत्व प्रदान कर सकता है। सब प्रकार के असंयम एवं विपर्ययों से मुक्त वह ज्ञानी पुरुष अध्यात्म और अधिभूत को जानते हुए जगत् में ईश्वर के समान रहता है। सारांशत इस अध्याय की समाप्ति भगवान् की इस घोषणा के साथ होती है कि जो पुरुष मुझे जानता है वह सब कुछ जानता है। भगवान् श्रीकृष्ण के समान वह अपनी वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के भाग्य निर्माण में मार्गदर्शक बनता है।इस अध्याय के अन्तिम दो श्लोक उनमें प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का पूर्णरूप से वर्णन नहीं करते हैं। ये सूत्ररूप श्लोक हैं जिनका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में किया गया है। दो अध्यायों को संबद्ध करने की पारम्परिक शास्त्रीय पद्धतियों में से यह एक पद्धति है।conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का ज्ञानविज्ञानयोग नामक सप्तम अध्याय समाप्त होता है।उपनिषदों में उपदिष्ट सिद्धांत महर्षि व्यास के समय केवल काव्यत्मक पूर्णत्व के काल्पनिक वर्णन के रूप में रह गये थे जिनका जीवन की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस प्रकार अपनी संस्कृति के मूल वैभव एवं सार्मथ्य से विलग हुए हिन्दुओं की सांस्कृतिक चेतना में पुनर्जीवित करना आवश्यक था। यह कार्य उन्हें उनके दार्शनिक सिद्धांतों में सौन्दर्य एवं तेजस्विता को दर्शा कर सम्पन्न किया जा सकता था। इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने निश्चयात्मक रूप से यह सिद्ध किया है तथा इस पर बल दिया है कि वेदान्त प्रतिपादित पूर्णत्व कोई कल्पना नहीं वरन् वह साधक की वास्तविक उपलब्धि बन सकती है जिसे जीवन में सफलतापूर्वक जी कर वह अप्ानी पीढ़ी का कल्याण कर सकता है। अत इस अध्याय का ज्ञानविज्ञानयोग शीर्षक अत्यन्त उपयुक्त है। केवल ज्ञान विशेष उपयोगी नहीं होता। ज्ञान का पूर्णत्व उसके यथार्थ अनुभव में है। ज्ञान का उपदेश तो दिया जा सकता है परन्तु अनुभव (विज्ञान) नहीं। धर्म तत्त्व ज्ञान का उपदेश देता है और उसके साथ ही उन उपायों का भी निर्देशन करता है जिनके द्वारा वह ज्ञान साधक का अपना विज्ञान बन सके और जीवन के साथ एकरूप हो जाय। इस प्रकार धर्म का प्रयोजन ऐसे अनुभवी पुरुषों का निर्माण करना है जो जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करके धर्म को सत्योचित प्रमाणित कर सकें और अपनी पीढ़ियों को आनन्दाभिभूत करके कृतार्थ करने में सक्षम हों।
।।7.30।। व्याख्या--'साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः'--[पूर्वश्लोकमें निर्गुणनिराकारको जाननेका वर्णन करके अब सगुणसाकारको जाननेकी बात कहते हैं।]यहाँ अधिभूत नाम भौतिक स्थूल सृष्टिका है जिसमें तमोगुणकी प्रधानता है। जितनी भी भौतिक सृष्टि है उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसका क्षणमात्र भी स्थायित्व नहीं है। फिर भी यह भौतिक सृष्टि सत्य दीखती है अर्थात् इसमें सत्यता स्थिरता सुखरूपता श्रेष्ठता और आकर्षण दीखता है। यह सत्यता आदि सबकेसब वास्तवमें भगवान्के ही हैं क्षणभङ्गुर संसारके नहीं। तात्पर्य है कि जैसे बर्फकी सत्ता जलके बिना नहीं हो सकती ऐसे ही भौतिक स्थूल सृष्टि अर्थात् अधिभूतकी सत्ता भगवान्के बिना नहीं हो सकती। इस प्रकार तत्त्वसे यह संसार भगवत्स्वरूप ही है ऐसा जानना ही अधिभूतके सहित भगवान्को जानना है।अधिदैव नाम सृष्टिकी रचना करनेवाले हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीका है जिनमें रजोगुणकी प्रधानता है। भगवान् ही ब्रह्माजीके रूपमें प्रकट होते हैं अर्थात् तत्त्वसे ब्रह्माजी भगवत्स्वरूप ही हैं ऐसा जानना ही अधिदैवके सहित भगवान्को जानना है।अधियज्ञ नाम भगवान् विष्णुका है जो अन्तर्यामीरूपसे सबमें व्याप्त हैं और जिनमें सत्त्वगुणकी प्रधानता है। तत्त्वसे भगवान् ही अन्तर्यामीरूपसे सबमें परिपूर्ण हैं ऐसा जानना ही अधियज्ञके सहित भगवान्को जानना है।अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञके सहित भगवान्को जाननेका तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्णके शरीरके किसी एक अंशमें विराट्रूप है (गीता 10। 42 11। 7) और उस विराट्रूपमें अधिभूत (अनन्त ब्रह्माण्ड) अधिदैव (ब्रह्माजी) और अधियज्ञ (विष्णु) आदि सभी हैं जैसा कि अर्जुनने कहा है हे देव मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको जिनकी नाभिसे कमल निकला है उन विष्णुको कमलपर विराजमान ब्रह्मको और शंकर आदिको देख रहा हूँ (गीता 11। 15)। अतः तत्त्वसे अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। श्रीकृष्ण ही समग्र भगवान् हैं।'प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः'--जो संसारके भोगों और संग्रहकी प्राप्तिअप्राप्तिमें समान रहनेवाले हैं तथा संसारसे सर्वथा उपरत होकर भगवान्में लगे हुए हैं वे पुरुष युक्तचेता हैं। ऐसे युक्तचेता मनुष्य अन्तकालमें भी मेरेको ही जानते हैं अर्थात् अन्तकालकी पीड़ा आदिमें भी वे मेरेमें ही अटलरूपसे स्थित रहते हैं। उनकी ऐसी दृढ़ स्थिति होती है कि वे स्थूल और सूक्ष्मशरीरमें कितनी ही हलचल होनेपर भी कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होते। भगवान्के समग्ररूपसम्बन्धी विशेष बात (1) प्रकृति और प्रकृतिके कार्य क्रिया पदार्थ आदिके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही सभी विकार पैदा होते हैं और उन क्रिया पदार्थ आदिकी प्रकटरूपसे सत्ता दीखने लग जाती है। परन्तु प्रकृति और प्रकृतिके कार्यसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करके भगवत्स्वरूपमें स्थित होनेसे उनकी स्वतन्त्र सत्ता उस भगवत्तत्त्वमें ही लीन हो जाती है। फिर उनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं दीखती।जैसे किसी व्यक्तिके विषयमें हमारी जो अच्छे और बुरेकी मान्यता है वह मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्वसे तो वह व्यक्ति भगवान्का स्वरूप है अर्थात् उस व्यक्तिमें तत्त्वके सिवाय दूसरा कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व ही नहीं है। ऐसे ही संसारमें यह ठीक है यह बेठीक है इस प्रकार ठीकबेठीककी मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्वसे तो संसार भगवान्का स्वरूप ही है। हाँ संसारमें जो वर्णआश्रमकी मर्यादा है ऐसा काम करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये यह जो विधिनिषेधकी मर्यादा है इसको महापुरुषोंने जीवोंके कल्याणार्थ व्यवहारके लिये मान्यता दी है।जब यह भौतिक सृष्टि नहीं थी तब भी भगवान् थे और इसके लीन होनेपर भी भगवान् रहेंगे इस तरहसे जब वास्तविक भगवत्तत्त्वका बोध हो जाता है तब भौतिक सृष्टिकी सत्ता भगवान्में ही लीन हो जाती है अर्थात् इस सृष्टिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि संसारकी स्वतन्त्र सत्ता न रहनेपर संसार मिट जाता है उसका अभाव हो जाता है प्रत्युत अन्तःकरणमें सत्यत्वेन जो संसारकी सत्ता और महत्ता बैठी हुई थी जो कि जीवके कल्याणमें बाधक थी वह नहीं रहती। जैसे सोनेके गहनोंकी अनेक तरहकी आकृति और अलगअलग उपयोग होनेपर भी उन सबमें एक ही सोना है ऐसे ही भगवद्भक्तके द्वारा अनेक तरहका यथायोग्य सांसारिक व्यवहार होनेपर भी उन सबमें एक ही भगवत्तत्त्व है ऐसी अटलबुद्धि रहती है। इस तत्त्वको समझनेके लिये ही उन्तीसवें और तीसवें श्लोकमें समग्ररूपका वर्णन हुआ है।(2) उपासनाकी दृष्टिसे भगवान्के प्रायः दो रूपोंका विशेष वर्णन आता है एक सगुण और एक निर्गुण। इनमें सगुणके दो भेद होते हैं एक सगुणसाकार और एक सगुणनिराकार। परन्तु निर्गुणके दो भेद नहीं होते निर्गुण निराकार ही होता है। हाँ निराकारके दो भेद होते हैं एक सगुणनिराकार और एक निर्गुणनिराकार।उपासना करनेवाले दो रुचिके होते हैं एक सगुणविषयक रुचिवाला होता है और एक निर्गुणविषयक रुचिवाला होता है। परन्तु इन दोनोंकी उपासना भगवान्के सगुणनिराकार रूपसे ही शुरू होती है जैसे परमात्मप्राप्तिके लिये कोई भी साधक चलता है तो वह पहले परमात्मा है इस प्रकार परमात्माकी सत्ताको मानता है और वे परमात्मा सबसे श्रेष्ठ हैं सबसे दयालु हैं उनसे बढ़कर कोई है नहीं ऐसे भाव उसके भीतर रहते हैं तो उपासना सगुणनिराकारसे ही शुरू हुई। इसका कारण यह है कि बुद्धि प्रकृतिका कार्य (सगुण) होनेसे निर्गुणको पकड़ नहीं सकती। इसलिये निर्गुणके उपासकका लक्ष्य तो निर्गुणनिराकार होता है पर बुद्धिसे वह सगुणनिराकारका ही चिन्तन करता है (टिप्पणी प0 445)।सगुणकी ही उपासना करनेवाले पहले सगुणसाकार मानकर उपासना करते हैं। परन्तु मनमें जबतक साकाररूप दृढ़ नहीं होता तबतक प्रभु हैं और वे मेरे सामने हैं ऐसी मान्यता मुख्य होती है। इस मान्यतामें सगुण भगवान्की अभिव्यक्ति जितनी अधिक होती है उतनी ही उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्तमें जब वह सगुणसाकाररूपसे भगवान्के दर्शन भाषण स्पर्श और प्रसाद प्राप्त कर लेता है तब उसकी उपासनाकी पूर्णता हो जाती है।निर्गुणकी उपासना करनेवाले परमात्माको सम्पूर्ण संसारमें व्यापक समझते हुए चिन्तन करते हैं। उनकी वृत्ति जितनी ही सूक्ष्म होती चली जाती है उतनी ही उनकी उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्तमें सांसारिक आसक्ति और गुणोंका सर्वथा त्याग होनेपर जब मैं तू आदि कुछ भी नहीं रहता केवल चिन्मयतत्त्व शेष रह जाता है तब उसकी उपासनाकी पूर्णता हो जाती है।इस प्रकार दोनोंकी अपनीअपनी उपासनाकी पूर्णता होनेपर दोनोंकी एकता हो जाती है अर्थत् दोनों एक हीतत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं (टिप्पणी प0 446.1)। सगुणसाकारके उपासकोंको तो भगवत्कृपासे निर्गुणनिराकारका भी बोध हो जाता है मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।(मानस 3। 36। 5) निर्गुणनिराकारके उपासकमें यदि भक्तिके संस्कार हैं और भगवान्के दर्शनकी अभिलाषा है तो उसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं अथवा भगवान्को उससे कुछ काम लेना होता है तो भगवान् अपनी तरफसे भी दर्शन दे सकते हैं। जैसे निर्गुणनिराकारके उपासक मधुसूदनाचार्यजीको भगवान्ने अपनी तरफसे दर्शन दिये थे (टिप्पणी प0 446.2)।(3) वास्तवमें परमात्मा सगुणनिर्गुण साकारनिराकार सब कुछ हैं। सगुणनिर्गुण तो उनके विशेषण हैं नाम हैं। साधक परमात्माको गुणोंके सहित मानता है तो उसके लिये वे सगुण हैं और साधक उनको गुणोंसे रहित मानता है तो उसके लिये वे निर्गुण हैं। वास्तवमें परमात्मा सगुण तथा निर्गुण दोनों हैं और दोनोंसे परे भी हैं। परन्तु इस वास्तविकताका पता तभी लगता है जब बोध होता है।भगवान्के सौन्दर्य माधुर्य ऐश्वर्य औदार्य आदि जो दिव्य गुण हैं उन गुणोंके सहित सर्वत्र व्यापक परमात्माको सगुण कहते हैं। इस सगुणके दो भेद होते हैं
।।7.28 7.30।।येषामित्यादि युक्तचेतस इत्यन्तम्। ये तु विनष्टतामसाः पुण्यापुण्यपरिक्षयक्षेमीकृतात्मानः ते विपाटितमहामोहवितानाः सर्वमेव भगवद्रश्मिखचितं जरामरणमयतमिस्रस्रुतं ब्रह्म विदन्ति आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकाधियाज्ञिकानि च ममैव रूपान्तराणि। प्रयाणकाले च नित्यं भगवद् भावितान्तःकरणत्वात् मां जानन्ति यतो येषां जन्म पूर्वमेव भगवत्तत्त्वं ते अन्तकाले परमेश्वरं संस्मरेयुः। किं जन्मासेवनया इति ये मन्यन्ते तेषां तूष्णींभाव एव शोभनः इति।
।।7.30।।अत्र य इति पुनर्निर्देशात् पूर्वनिर्दिष्टेभ्यः अन्ये अधिकारिणो ज्ञायन्ते।साधिभूतं साधिदैवं माम् ऐश्वर्यार्थिनो ये विदुः इत्येतद् अनुवादस्वरूपम् अपि अप्राप्तार्थत्वात् तद्विधायकम् एव।तथा साधियज्ञम् इत्यपि त्रयाणाम् अधिकारिणाम् अविशेषेण विधीयते अर्थस्वाभाव्यात् त्रयाणां हि नित्यनैमित्तिकरूपमहायज्ञाद्यनुष्ठानम् अवर्जनीयम्।ते च प्रयाणकालेऽपि स्वाप्राप्यानुगुणं मां विदुः।ते च इति चकारात् पूर्वे जरामरणमोक्षाय यतमानाश्च प्रयाणकालेऽपि विदुः इति समुच्चीयन्ते। अनेन ज्ञानिनः अपि अर्थस्वाभाव्यात् साधियज्ञं मां विदुः प्रयाणकाले अपि स्वप्राप्यानुगुणं मां विदुः इति उक्तं भवति।
।।7.30।।न केवलं भगवन्निष्ठानां सर्वाध्यात्मिककर्मात्मकब्रह्मवित्त्वमेव किंत्वधिभूतादिसहितं तद्वेदित्वमपि सिध्यतीत्याह साधिभूतेति। अध्यात्मं कर्माधिभूतमधिदैवमधियज्ञश्चेति पञ्चकमेतद्ब्रह्म ये विदुस्तेषां यथोक्तज्ञानवतां समाहितचेतसामापदवस्थायामपि भगवत्तत्त्वज्ञानमप्रतिहतं तिष्ठतीत्याह प्रयाणेति।अपिचेति निपाताभ्यां तस्यामवस्थायां करणग्रामस्य व्यग्रतया ज्ञानासंभवेऽपि मयि समाहितचित्तानामुक्तज्ञानवतां भगवत्तत्त्वज्ञानमयत्नलभ्यमिति द्योत्यते। तदनेन सप्तमेनोत्तममधिकारिणं प्रति ज्ञेयं निरूपयता तदर्थमेव सर्वात्मकत्वादिकमुपदिशता प्रकृतिद्वयद्वारेण सर्वकारणत्वादिति च वदता तत्पदवाच्यं तल्लक्ष्यं चोपक्षिप्तम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दज्ञान0 सप्तमोऽध्यायः।।7।।
।।7.30।।साधिभूतेति। अत्रये इति पुनर्निदेशात्पूर्वनिर्दिष्टेभ्योऽन्ये जिज्ञासव उक्ता इत्यवसीयते। ये च मां (साधिभूतं) साधिदैवं साधियज्ञमिति विशेषसहितं विदुरिति। किञ्च भगवत्तत्त्वजिज्ञासवः प्राणानां प्रयाणकालेऽपि ते च मां तथाभूतमात्मानं विदुः। किम्भूतास्ते युक्तचेतस इति योगसिद्धिरन्ते सूचिता।
।।7.30।।नचैवंभूतानां मद्भक्तानां मृत्युकालेऽपि विवशकरणतया मद्विस्मरणं शङ्कनीयम् यतः साधिभूताधिदैवमधिभूताधिदैवाभ्यां सहितं तथा साधियज्ञं चाधियज्ञेन च सहितं मां ये विदुश्चिन्तयन्ति ते युक्तचेतसः सर्वदा मयि समाहितचेतसः सन्तस्तत्संस्कारपाटवात्प्रयाणकाले प्राणोत्क्रमणकाले करणग्रामस्यात्यन्तन्यग्रतायामपि चकारादयत्नेनैव मत्कृपया मां सर्वात्मानं विदुर्जानन्ति तेषां मृतिकालेऽपि मदाकारैव चित्तवृत्तिः पूर्वोपचितसंस्कारपाटवाद्भवति। तथाच ते मद्भक्तियोगात्कृतार्था एवेति भावः। अधिभूताधिदैवाधियज्ञशब्दानुत्तरेऽध्यायेऽर्जुनप्रश्नपूर्वकं व्याख्यास्यति भगवानिति सर्वमनाविलम्। तदत्रोत्तमाधिकारिणं प्रति ज्ञेयं मध्यमाधिकारिणं प्रति च ध्येयं लक्षणया मुख्यया च वृत्त्या तत्पदप्रतिपाद्यं ब्रह्म निरूपितम्।
।।7.30।। न चैवंभूतानां योगभ्रंशशङ्कापीत्याह साधिभूताधिदैवमिति। अधिभूतादिशब्दानामर्थं भगवानेवानन्तराध्याये व्याख्यास्यति। अधिभूतेनाधिदैवेन च सहाधियज्ञेन च सहितं ये मां भजन्ति ते युक्तचेतसः मय्यासक्तमनसः प्रयाणकालेऽपि मरणसमयेऽपि मां विदुर्जानन्ति नतु तदापि व्याकुलीभूय मां विस्मरन्ति। अतो मद्भक्तानां न योगभ्रंशशङ्केत्यर्थः।
।।7.30।।साधिभूत इति श्लोकस्यश्वर्यार्थिविषयत्वं वक्तुमधिकारिणो भेदमात्रज्ञापकं तावद्दर्शयति अत्रेति। पूर्वाधिकारिविषयत्वेसाधियज्ञं च ते विदुः इति हि वक्तव्यम् न चैवं शिष्टाः पठन्ति। न चात्र यच्छब्दावृत्तेः प्रयोजनमस्तीति भावः। प्रश्नोत्तरवशाच्चाधिकारिभेदः सेत्स्यति। एवं सामान्येन ज्ञातमधिकारिभेदमधिभूतादिसामर्थ्याद्विशिनष्टिऐश्वर्यार्थिन इति।जरामरणमोक्षाय [7।29] इत्यादाविव अत्रापि यच्छब्दवशादनुवादत्वं प्रतीतमिति तत्प्रतिक्षिपतिइत्येतदित्यादिना। यदाग्नेयोऽष्टाकपालः [श.ब्रा.2।5।1।11] इत्यादिवदिति भावः। अस्य च विधित्वं प्रश्नादिवशाच्च फलिष्यति। नह्यवगते प्रश्नाद्यवकाशः।साधियज्ञम् इत्यस्यैकस्मिन्नधिकारिणि निर्दिष्टस्याप्यर्थस्वाभाव्यात्ित्रष्वप्यन्वयं दर्शयति तथेति।अर्थस्वाभाव्यादिति सर्वाधिकारिसाधारणतया प्रमाणसिद्धयज्ञाख्यपदार्थस्वाभाव्यादित्यर्थः। एतदेव दर्शयति त्रयाणां हीति। अन्यथासन्ध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु इत्यादिक्रमेण कर्मानर्हत्वादिप्रसङ्ग इत्यभिप्रायेणाहअवर्जनीयमिति। अपि चेत्येकाव्ययार्थत्वे प्रयोजनाभावात् पृथक्त्वे सप्रयोजनतया अन्वयसम्भवाच्च विभज्याह ते चेति। अन्तिमप्रत्ययस्यैकस्यैव वक्ष्यमाणं विषयविशेषेण प्राप्यानुगुणाकारत्वं युक्तचेतश्शब्देन विवक्षितमित्याह स्वप्राप्यानुगुणमिति। चकारस्य पृथगन्वयेन लब्धमाहते चेति।चकारादिति यद्वृत्तप्रतियोगिकत्वात्तद्वृत्तमैश्वर्यार्थिविषयमेव। चकारात्तु पूर्वश्लोकोक्तानां समुच्चयः। तेषामपि ह्यन्तिमप्रत्यये विशेषो वक्ष्यत इति भावः।त्रयाणाम् इत्यादिकमयुक्तं ज्ञानिनामत्र प्रसङ्गाभावादित्यत्राह अनेनेति। यज्ञान्तिमप्रत्ययमात्रयोरधिकारित्रयसाधारण्यसिद्धेरिति भावः।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्गीताभाष्यटीकायां सप्तमोऽध्यायः।।7।।
।।7.30।।एवं ज्ञानस्य फलमाह साधिभूताधिदेव मेति। साधिभूताधिदैवम् अधिभूतेन अधिकरणात्मकेन अधिदेवेन मूलरूपेण सह अधियज्ञेन अंशात्मककर्मरूपेण च सहितं ये मां विदुस्ते युक्तचेतसः युक्तं तन्निष्ठं चेतो येषां तादृशा भवन्ति मां प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। च पुनः प्रयाणकाले मरणसमयेऽपि भ्रमादिरहितास्ते मां विदुः जानन्ति मरणकाले स्वज्ञानोक्त्याअन्ते या मतिः सा गतिः [ ] इति वाक्योक्तरीत्या प्राप्नुवन्तीति व्यञ्जितम्।भक्तानामेव श्रीकृष्णज्ञानविज्ञानयोग्यता। अतोऽत्र ज्ञानविज्ञानयोगं हरिरुवाच हि।।7।।
।।7.30।।एवं तत्पदार्थविवेकं सद्योमुक्तिहेतुं समाप्य तत्प्राप्त्युपायभूतान्युपासनानि क्रममुक्तिफलानि विस्तरेण वक्तुकामः संक्षेपेण सूत्रयति साधिभूतेति। अधिभूतं च अधिदैवं च ताभ्यां सहितं साधिभूताधिदैवम्। तथाऽधियज्ञेन सहितं साधियज्ञं च मां ये विदुरुपासते ते युक्तचेतसः। यतो नित्यं समाहितचित्तास्ततो मां प्रयाणकालेऽपि सर्वजनव्यामोहके विदुरेव। भावनादार्ढ्यान्मरणकालेऽपि तस्य ज्ञानस्य प्रमोषो न भवत्यतो भगवति नैरन्तर्येण दृढा भावना कर्तव्येति भावः। अधिभूतादिपदार्थं तु भगवानेव व्याख्यास्यतीति नोक्तवन्तो वयम्।
।।7.30।।ननु मरणकाले तेषां त्वद्विस्मरणस्य संभवात्कथं संसारान्मोक्ष इत्याशङ्क्याह सेति। अधिभूतं चाधिदैवं चाधिभूताधिदैवमिति समाहारद्वन्द्वस्तेन सहवर्तत इति तम् अधियज्ञेन सह वर्तत इति तं च मां ये विदुः प्रयाणकाले मरणकालेऽपि च मां ते युक्तचेतसो विदुरतस्तेषां मोक्षप्राप्तौ न कोऽपि संदेह इति। साधिभूतादिपदार्थस्तु मूलएव स्फुटीभविष्यति। तदनेन सप्तमाध्यानेनोक्तमाधिकारिणं प्रति ज्ञेयं निरुपयता तज्ज्ञानार्थ मध्यमाधिकारिणं प्रति तत्पदवाच्यं प्रतिपादयता तत्पदवाच्यं तल्लक्ष्यं च प्रदर्शितम्।श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां सप्तमोध्यायः।।7।।
7.30 साधिभूताधिदैवम् with the Adhibhuta and the Adhidaiva together? माम् Me? साधियज्ञम् with the Adhiyajna? च and? ये who? विदुः know? प्रयाणकाले at the time of death? अपि even? च and? माम् Me? ते they? विदुः know? युक्तचेतसः steadfast in mind.Commentary They who are steadfast in mind? who have taken refuge in Me? who know Me as the knowledge of elements in the physical plane? as the knowledge of the gods in the celestial or mental plane? as the knowledge of the sacrifice in the realm of sacrifice? are not affected by death. They do not lose their memory. They continue to keep up the consciousness of Me even at the time of their departure from this world. Those who worship Me along with these three know Me even at the time of death. (Cf.VIII.25)(This chapter is known by the names Vijnana Yoga and Jnana Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the Science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the seventh discourse entitledThe Yoga of Wisdom and Realisation. ,
7.30 Those who know Me with the Adhibhuta (pertaining to the elements), Adhidaiva (pertaining to the gods) and the Adhiyajna (pertaining to the sacrifice) know Me even at the time of death, steadfast in mind.
7.30 Those who see Me in the life of the world, in the universal sacrifice, and as pure Divinity, keeping their minds steady, they live in Me, even in the crucial hour of death."
7.30 Those who know me as existing in the physical and the divine planes, and also in the context of the sacrifice, they of concentrated minds know Me even at the time of death.
7.30 Ye, those who; viduh, know; mam, Me; sa-adhi-bhuta-adhidaivam, as existing in the physical and the divine planes; ca, and also; sa-adhiyajnam, as existing in the context of the sacrifice; te, they; yukta-cetasah, of concentrated minds-those who have their minds absorbed in God; viduh, know; mam, Me; api ca, even; prayanakale, at the time of death. [For those who are devoted to God, there is not only the knowledge of Brahman as identified with all individuals and all actions (see previous verse), but also the knowledge of It as existing in all things on the physical, the divine and the sacrificial planes. Those who realize Brhaman as existing in the context of all the five, viz of the individual, of actions, of the physical,of the divine, and of the sacrifices-for them with such a realization there is no forgetting, loss of awareness, of Brahman even at the critical moment of death.]
7.30. Those who realise Me as one [identical] with what governs the beings, deities and with what governs the sacrifices-they, even at the moment of their journey, experience Me, with their mastering the Yoga.
7.30 Yesam etc. upto yukta-cetasah. Those, in whom the darkness (ignorance) has totally vanished, and the Self is well secured due to the decaying of the good and bad effects of actions-they break off the canopy of their [castle of the] mighty delusion and realise everything as the Brahman studded (purified) with the rays of the Bhagavat, emerging out of the darkness of old age and death; and realise 'what governs the Self, the beings, the deities and the sacrifices are all My own different aspects'. They also experience Me at the time of their journey, on account of their having internal organ permanently immersed in the thought of the Bhagavat. For, those who remember the Bhagavat even earlier, since their birth-they at the last momnet would very well remember the Absolute Lord. [Hence] it is good to simply keep silent with regard to those who opine 'What is the use of worshiping since [the time of] birth ?'
7.30 Here, other alified persons distinct from those already mentioned (i.e., those who desire Kaivalya) are to be understood, because of the mention again of the term 'those' (ye). Even though the declaration - those seekers of fortune who know Me as being connected with the higher material entities' (Adhibhuta) and 'with that which is higher to divinities' (Adhidaiva) i.e., the self in Its lordship - resmles a repetition, it is really an injunction on account of the meaning not being known otherwise. The statement of knowing Me as being connected with the sacrifice is also enjoined as an injunction for all the three types of differently alified aspirants (those who aspire for Kaivalya, wealth and liberation) without any difference, because of the nature of the subject matter, that being sacrificial. None of the three types of aspirants can give up the performance of the great sacrifices and other rituals in the form of periodical and occasional rituals. They know Me at the hour of death in a way corresponding with their objectivies. Because of the term ca (too) in 'they too,' those who have been mentioned before as 'striving for release from old age and death' are also to be understood along with the others as knowing Me at the hour of death. By this, even the Jnanin knows Me as being connected with the sacrifice on account of the nature of the meaning of the subject treated (i.e., sacrifice). They also know Me even at the hour of death in a way corresponding with their objective. The purport is that, besides the others mentioned earlier like the knower of the Self, those others who are now described as knowing Him with Adhibhuta, Adhidaiva and Adhiyajna are to be included among those who will know Him at the time of death.
7.30 And those who know Me with the Adhibhuta, Adhidaiva and the Adhiyajna, they too, with their minds fixed in meditation, know Me even at the hour of death.
।।7.30।।( इसी प्रकार ) जो मनुष्य मुझ परमेश्वरको साधिभूताधिदैव अर्थात् अधिभूत और अधिदैवके सहित जानते हैं एवं साधियज्ञ अर्थात् अधियज्ञके सहित भी जानते हैं वे निरुद्धचित्त योगी लोग मरणकालमें भी मुझे यथावत् जानते हैं।
।।7.30।। साधिभूताधिदैवम् अधिभूतं च अधिदैवं च अधिभूताधिदैवम् सह अधिभूताधिदैवेन वर्तते इति साधिभूताधिदैवं च मां ये विदुः साधियज्ञं च सह अधियज्ञेन साधियज्ञं ये विदुः प्रयाणकाले अपि च मरणकाले अपि च मां ते विदुः युक्तचेतसः समाहितचित्ता इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्यश्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येसप्तमोऽध्यायः।।
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साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः। प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।7.30।।
সাধিভূতাধিদৈবং মাং সাধিযজ্ঞং চ যে বিদুঃ৷ প্রযাণকালেপি চ মাং তে বিদুর্যুক্তচেতসঃ৷৷7.30৷৷
সাধিভূতাধিদৈবং মাং সাধিযজ্ঞং চ যে বিদুঃ৷ প্রযাণকালেপি চ মাং তে বিদুর্যুক্তচেতসঃ৷৷7.30৷৷
સાધિભૂતાધિદૈવં માં સાધિયજ્ઞં ચ યે વિદુઃ। પ્રયાણકાલેપિ ચ માં તે વિદુર્યુક્તચેતસઃ।।7.30।।
ਸਾਧਿਭੂਤਾਧਿਦੈਵਂ ਮਾਂ ਸਾਧਿਯਜ੍ਞਂ ਚ ਯੇ ਵਿਦੁ। ਪ੍ਰਯਾਣਕਾਲੇਪਿ ਚ ਮਾਂ ਤੇ ਵਿਦੁਰ੍ਯੁਕ੍ਤਚੇਤਸ।।7.30।।
ಸಾಧಿಭೂತಾಧಿದೈವಂ ಮಾಂ ಸಾಧಿಯಜ್ಞಂ ಚ ಯೇ ವಿದುಃ. ಪ್ರಯಾಣಕಾಲೇಪಿ ಚ ಮಾಂ ತೇ ವಿದುರ್ಯುಕ್ತಚೇತಸಃ৷৷7.30৷৷
സാധിഭൂതാധിദൈവം മാം സാധിയജ്ഞം ച യേ വിദുഃ. പ്രയാണകാലേപി ച മാം തേ വിദുര്യുക്തചേതസഃ৷৷7.30৷৷
ସାଧିଭୂତାଧିଦୈବଂ ମାଂ ସାଧିଯଜ୍ଞଂ ଚ ଯେ ବିଦୁଃ| ପ୍ରଯାଣକାଲେପି ଚ ମାଂ ତେ ବିଦୁର୍ଯୁକ୍ତଚେତସଃ||7.30||
sādhibhūtādhidaivaṅ māṅ sādhiyajñaṅ ca yē viduḥ. prayāṇakālē.pi ca māṅ tē viduryuktacētasaḥ৷৷7.30৷৷
ஸாதிபூதாதிதைவஂ மாஂ ஸாதியஜ்ஞஂ ச யே விதுஃ. ப்ரயாணகாலேபி ச மாஂ தே விதுர்யுக்தசேதஸஃ৷৷7.30৷৷
సాధిభూతాధిదైవం మాం సాధియజ్ఞం చ యే విదుః. ప్రయాణకాలేపి చ మాం తే విదుర్యుక్తచేతసః৷৷7.30৷৷
8.1
8
1
।।8.1 -- 8.2।। अर्जुन बोले -- हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत किसको कहा गया है? और अधिदैव किसको कहा जाता है? यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस देहमें कैसे है? हे मधूसूदन ! नियतात्मा (वशीभूत अंतःकरण वाले) मनुष्यके द्वारा अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं?
।।8.1।। अर्जुन ने कहा -हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है? तथा कर्म क्या है? और अधिभूत नाम से क्या कहा गया है? तथा अधिदैव नाम से क्या कहा जाता है,
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।।8.1।। व्याख्या--'पुरुषोत्तम किं तद्ब्रह्म'-- हे पुरुषोत्तम वह ब्रह्म क्या है अर्थात् ब्रह्म शब्दसे क्या समझना चाहिये'
।।8.1 -- 8.2।।ते ब्रह्म तद्विदुः इत्यादिना यत् भगवता उपक्षिप्तं तत् प्रश्ननवकपूर्वकं (S पूर्वं) निर्णयति ( निर्णाययति N निर्वर्णयति) --किं तद् ब्रह्मेति। अधियज्ञ इति। अधियज्ञः कथम् [कश्च] कोऽत्र देहे तिष्ठति इति शेषः।
।।8.1।।अर्जुन उवाच -- जरामरणमोक्षाय भगवन्तम् आश्रित्य यतमानानां ज्ञातव्यतया उक्तं तद् ब्रह्म अध्यात्मं च कर्म च किम् इति वक्तव्यम् ऐश्वर्यार्थिनां ज्ञातव्यम् अधिभूतम् अधिदैवं च किं त्रयाणां ज्ञातव्यः अधियज्ञशब्दनिर्दिष्टश्च कः तस्य च अधियज्ञभावः कथं प्रयाणकाले च एभिः त्रिभिः नियतात्मभिः कथं ज्ञेयः असि।
।।8.1।।सप्तमाध्यायान्तेयेषां त्वन्तगतं पापम् इत्यादिना येषां ब्रह्मादीनामनुसंधानमुक्तं यच्च प्रयाणकाले भगवतः स्मरणं दर्शितं तदिदं जिज्ञासमानः सन्पृच्छतीति प्रश्नसमुदायमवतारयति -- ते ब्रह्मेति। प्रश्नबीजानि तद्विषयभूतानि ब्रह्मादीनि वस्तूनीति यावत्। बुभुत्सितविषयप्रतिलम्भानन्तरं तेषां प्रश्नद्वारा निर्णयार्थमाह -- अत इति। यदुक्तं ते ब्रह्म तद्विदुरिति तत्किं सोपाधिकं निरुपाधिकं वा ब्रह्मशब्दस्योभयत्रापि संभवादिति मत्वाह -- किं तदिति। यच्चोक्तं कृत्स्नमध्यात्ममिति तत्रात्मानं देहमधिकृत्य तस्मिन्नधिष्ठाने तिष्ठतीत्यध्यात्मशब्देन श्रोत्रादिकरणग्रामो वा प्रत्यग्भूतं ब्रह्मैव वा विवक्षितमित्याह -- किमध्यात्ममिति।विज्ञानं यज्ञं तनुते। कर्माणि तनुतेऽपि च इति श्रुतौ कर्मणो द्वैविध्यनिर्धारणात्कर्म चाखिलमित्यत्र कीदृक्कर्म गृहीतमिति पृच्छति -- किमिति। क्षराक्षराभ्यां कार्यकारणाभ्यामतीतस्य भगवतो न किंचिद्वेद्यमस्तीति सूचयति -- पुरुषोत्तमेति। साधिभूताधिदैवमित्यत्राधिभूतशब्देन पृथिव्यादिषु भूतेषु वर्तमानं किंचिदेव गृह्यते किंवा समस्तमेव कार्यमिति निर्दिधारयिषया पृच्छति -- अधिभूतमिति। अधिदैवमिति च दैवतविषयमनुध्यानं वा दैवतेष्वादित्यमण्डलादिषु वर्तमानं चैतन्यं वा जिघृक्षितमिति प्रश्नान्तरं प्रस्तौति -- अधिदैवमिति।
।।8.1।।ब्रह्मकर्मादिकं प्राज्ञैर्विज्ञेयं नास्मदादिभिः। इति जिज्ञासया पार्थः सन्दिहानोऽथ पृच्छति।।1।।अर्जुन उवाच -- किं तद्ब्रह्मेति द्वाभ्याम्। पूर्वेषां यत् ज्ञेयतयोक्तं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं कर्म वा किमिति वक्तव्यम् अग्रिमाणां च ज्ञेयमधिभूतमधिदैवं च किम्।
।।8.1।। , चतुर्षु भगवत्प्रियेष्वपि मतोऽधिकं यः प्रभोरुदारपदतः परः समचकार तं मामयम्।परोपनिषदर्थदैरमलवाक्यदीपैस्तमो निवार्य परमं भजे तमिह काशिराजं गुरुम्।।पूर्वाध्यायान्तेते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् इत्यादिना सार्धश्लोकेन सप्त पदार्था ज्ञेयत्वेन भगवता सूत्रितास्तेषां वृत्तिस्थानीयोऽयमष्टमोऽध्याय आरभ्यते। तत्र सूत्रितानि सप्त वस्तूनि विशेषतो बुभुत्समानः श्लोकाभ्यामर्जुन उवाच -- तत् ज्ञेयत्वेनोक्तं ब्रह्म किं सोपाधिकं निरुपाधिकं वा एवमात्मानं देहमधिकृत्य तस्मिन्नधिष्ठाने तिष्ठतीत्यध्यात्मं किं श्रोत्रादिकरणग्रामो वा प्रत्यक्चैतन्यं वा तथा कर्म चाखिलमित्यत्र किं कर्म यज्ञरूपमन्यद्वाविज्ञानं यज्ञं तनुते। कर्माणि तनुतेऽपि च इति श्रुतौ द्वैविध्यश्रवणात्। तव मम च समत्वात्कथं त्वं मां पृच्छसीति शङ्कामपनुदन्सर्वपुरुषेभ्य उत्तमस्य सर्वज्ञस्य तव न किंचिदज्ञेयमिति संबोधनेन सूचयति हे पुरुषोत्तमेति। अधिभूतं च किं प्रोक्तं पृथिव्यादिभूतमधिकृत्य यत्किंचित्कार्यमधिभूतपदेन विवक्षितं किं वा समस्तमेव कार्यजातम्। चकारः सर्वेषां प्रश्नानां समुच्चयार्थः। अधिदैवं किमुच्यते देवताविषयमनुध्यानं वा सर्वदैवतेष्वादित्यमण्डलादिष्वनुस्यूतं चैतन्यं वां।
।।8.1।।ब्रह्मकर्माधिभूतादि विदुः कृष्णैकचेतसः। इत्युक्तं ब्रह्मकर्मादि स्पष्टमष्टम उच्यते।।1।।पूर्वाध्यायान्ते भगवतोपक्षिप्तानां ब्रह्माध्यात्मादिसप्तानां पदार्थानां तत्त्वं जिज्ञासुरर्जुन उवाच -- किं तद्ब्रह्मेति द्वाभ्याम्। स्पष्टोऽर्थः।
।।8.1।।सङ्गतिदर्शनायाह -- सप्तम इति।परस्य ब्रह्मणो वासुदेवस्योपास्यत्वमिति -- मय्यासक्तमनाः [7।1] इत्यादेरथः तत्रैव ह्युपासनं प्रस्तुतम्। तच्छेषतया चान्यत्सर्वमिहोच्यते। तस्यैव प्रपञ्चनम्अहं सर्वस्य प्रभवः [10।8]वासुदेवः सर्वं [7।19]चतुर्विधा भजन्ते माम् [7।16] इत्यादिभिः परस्तात्क्रियत इति भावः।परस्येत्यादिभिरुपहितब्रह्मव्योमातीतादिपक्षप्रतिक्षेपः। ब्रह्मशब्दस्य विशेषशब्दसमभिव्याहाराद्देवतान्तरव्यावृत्तिः। वासुदेवशब्देनात्रावतारविशेषो वा विवक्षितः।निखिलेत्यादिभिरुपास्यत्वपरब्रह्मत्वोपयुक्ताकारकथनम्।निखिलचेतनाचेतनवस्तुशेषित्वमितिभूमिरापः [7।4] इत्यादेः श्लोकद्वयस्यार्थः। निखिलशब्देन कार्यकारणादिरूपावस्थासङ्ग्रहात् कार्यभूतब्रह्मरुद्रादेरपि क्रोडीकारः। कारणत्वम्एतद्योनीनि [7।6] इति श्लोकस्यार्थः।मत्तः परतरं नान्यत् [7।7] इत्युक्तस्य परत्वस्यमामेभ्यः परम् [7।13] इत्यत्रोपयुक्ततया तत्रैवोदाहर्तुमत्र तदतिक्रमेणमयि सर्वम् [7।7] इत्याद्युक्ताधारत्वोपादानम्।रसोऽहम् [7।8] इत्यादिसामानाधिकरण्यफलितं सर्वशब्दवाच्यत्वम्। तत्र हेतुराधारत्वादिविशेषसिद्धं सर्वशरीरकत्वम्। एवं शेषित्वाद्यनुवादेन वक्ष्यमाणतत्तदधिकारिप्राप्यवस्तुविशेषसामानाधिकरण्यस्यापि शरीरात्मभावहेतुकत्वं दर्शितम्।मत्त एवेति तान्विद्धि [7।12] इत्यादिषु प्रवृत्तितादधीन्यस्यापि विवक्षितत्वात्सिद्धं सर्वनियन्तृत्वम्।सवश्चेत्यनेनानिर्दिष्टानामन्येषां च आभिप्रायिकाणां सङ्ग्रहः।तस्यैवेत्यवधारणेननान्यत्किञ्चिदस्ति [7।7] इत्यस्यार्थ उक्तः।त्रिभिर्गुणमयैः [7।13] इति श्लोकस्य सार्धस्यार्थःसत्त्वेत्यादिनोक्तः।मामेव [7।14] इत्याद्युक्तप्रपत्तेः सुकृतविशेषहेतुकत्वम्।जनाः सुकृतिनः [7।16] इत्यनेन दर्शितमाहअत्युत्कृष्टसुकृतेति।न मां दुष्कृतिनः [7।15] इत्यादेः पूर्वोक्ततिरोधानप्रकारविशेषकथनरूपत्वात्सुकृतिप्रशंसाशेषत्वाच्च तदर्थोऽत्र पृथङ्गोपात्तः।चतुर्विधाः [7।16] इत्यादिकंसुकृततारतम्येनेत्यादिनाऽनुसंहितम्। उपासकभेदं चेत्यन्वयः।तेषां ज्ञानी [7।17] इत्यादेः श्लोकद्वयस्यार्थोभगवन्तमित्यादिनोक्तः।बहूनां जन्मनाम् [7।19] इत्यादिनासर्गे यान्ति परन्तप [7।27] इत्यन्तेन सिद्धमाहदुर्लभत्वमिति।येषां तु [7।28] इत्यादेरध्यायशेषस्य अर्थमाह -- एषां त्रयाणामिति। ज्ञातव्यमिह सिद्धरूपं विवक्षितम्।उपादेयं अनुष्ठेयम्। एतेनस्वयाथात्म्यम् [गी.सं.11] इत्यादिसङ्ग्रहश्लोकस्यार्थोऽपि प्रपञ्चितः। अयं त्वष्टमस्य सङ्ग्रहःऐश्वर्याक्षरयाथात्म्यभगवच्चरणार्थिनाम्। वेद्योपादेयभावानामष्टमे भेद उच्यते [गी.सं.12] इति। अत्र भेदोक्तेरध्यायार्थत्वात्स्वरूपप्रस्तावः प्रागेव कृत इति दर्शितम्।,प्रस्तुतप्रपञ्चनमिति सङ्गतिमाह -- इदानीमिति। जीवस्वरूपादिज्ञातव्यस्योपासनाद्यनुष्ठेयस्य च भेदजिज्ञासयाऽर्जुन उवाच -- किं तदिति।आर्तो जिज्ञासुः [7।16] इत्यादिना प्रागेवाधिकारित्रयस्योक्तत्वात्जरामरणमोक्षाय [7।29] इत्यादिषु यच्छब्दावृत्तिसामर्थ्यादर्थस्वभावाच्चाधिकारिभेदस्तेषां ज्ञातव्योपादेयवस्तुप्रतिनियमश्चार्जुनेन ज्ञातः तत्रैव विशेषबुभुत्सयाऽय प्रश्नः। वक्ष्यते च विशेषः। ततश्चकिं तद्ब्रह्म इत्यर्धमक्षरयाथात्म्यार्थिविषयम् अधिभूते च इत्यर्धमैश्वर्यार्थिविषयम्अधियज्ञः इति श्लोकस्तु अर्थस्वभावात् त्रयाणां साधारण इति विविनक्ति -- जरामरणेति। कथमिति प्रकारप्रश्नेअधियज्ञभाव इत्यर्थलब्धम्।अत्र इत्येतच्छब्दः शास्त्रसन्निध्युपाधिकः तच्चोत्तरग्रन्थे व्याख्यास्यति -- अत्र इन्द्रादौ मम देहभूते इति।अस्मिन् इतीदंशब्दस्तु स्वप्रत्यक्षसन्निध्युपाधिकः प्रत्यक्षा हीन्द्रादयोऽपि प्रष्टुरर्जुनस्य। एतच्छब्देदंशब्दयोश्चैकस्मिन्वाक्ये सामानाधिकरण्येन प्रयोगो दृश्यते -- स एष द्वाभ्यां दर्शनीभ्यां विराड्भ्यामनयोर्द्वाविंशयोर्द्विवचनयोरयं पुरुषः प्रतिष्ठितः इत्यादौ। यद्वाअत्र इति यज्ञस्वरूपपरामर्शः नियतात्मत्वं त्रयाणामपेक्षितम् अत्र बहुवचनमधिकारित्रयपरमित्यभिप्रायेणोक्तम् -- एभिस्त्रिभिरिति।
।।8.1।।पूर्वोक्तब्रह्मकर्मादिरूपजिज्ञासुरर्जुनः। पृष्टवान् स्पष्टमेतस्य कृष्ण उत्तरमुक्तवान्।।1।।पूर्वाध्यायान्ते भगवताते ब्रह्म [7।29] इत्यादिना समपदार्थज्ञानमुक्तं भक्तानाम् तत्स्वरूपजिज्ञासुरर्जुनः प्रभुं विज्ञापयामास -- अर्जुन उवाच किं तद्ब्रह्मेति द्वयेन। हे पुरुषोत्तम तद्ब्रह्म यदुक्तं तत्किम् अध्यात्मं किं कर्म किं च पुनः अधिभूतं किं प्रोक्तं च पुनः अधिदैवं किमुच्यते अधियज्ञः यज्ञाधिष्ठाता फलदाता कः। अत्र उक्तप्रकारेषु कथं केन प्रकारेण नियतात्मभिरनन्यैकपरिचित्तैर्ज्ञेयोऽसि। हे मधुसूदन सर्वानिष्टनिवर्तक अस्मिन् देहे प्रयाणकाले अन्तकाले कथं केन प्रकारेण ज्ञेयोऽसि। अत्रायं भावः -- पुरुषोत्तमेति सम्बोधनेन त्वमेव पुरुषोत्तमः त्वत्तः पराभावात्। कथं तद्ब्रह्मेत्युक्तम् आधिदैविकं तु त्वत्स्वरूपमेव अतस्त्वत्तोऽन्याधिदैवं किम् अध्यात्मादयस्तु৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. हीना एव तेषां ज्ञानं किं प्रयोजनकम् सेवा च कथं कार्या इत्यादिव्यञ्जितम्। मधुसूदनेति सम्बोधनेन त्वदीयानां मरणादिभयाभावे तत्समये त्वं कथं स्वज्ञानमुक्तवानिति ज्ञापितमिति भावः।
।।8.1।।पूर्वस्मिन्नध्याये मायोपहितं ब्रह्म जगत्कारणमुक्तंतच्चोत्तमानामनुपाधिब्रह्मप्रतिपत्तावुपलक्षणं मध्यमानामुपास्यं चेति मत्वा प्रतिपत्तव्यं ब्रह्म तद्विषय एकः उपासनाविषयाश्च षट् एवं सप्त प्रश्नविषयास्ते ब्रह्म तद्विदुरित्यध्यायान्ते सार्धश्लोकेन भगवता सूत्रितास्तद्वृत्तिरूपोऽयमध्याय आरभ्यते। तत्र सूत्रितानां ब्रह्मादिशब्दानामर्थं बुभुत्सुरर्जुन उवाच। किं तत्कृत्स्नं ब्रह्मेति प्रथमः प्रश्नः। शेषः स्पष्टार्थः श्लोकः।
।।8.1।।सप्तमाध्यायान्ते ते ब्रह्म तद्विदुरित्यादिसार्धेनार्जुनस्य प्रश्नबीजानि भगवतोक्तानि अतस्तत्प्रश्नार्थमर्जुन उवाच -- किमित्यादिना। ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्त्रमिति यदुक्तं तत्किं सगुणमुत निर्गुणं। ब्रह्मशब्दस्योभयत्रापि संभवात्। यच्चोक्तं कृत्स्त्रमध्यात्ममिति तत्रात्मानं देहमधिकृत्य तस्मिन्नाधिष्ठाने तिष्ठतीत्यध्यात्मशब्देन किं त्वगादीन्द्रियसमुदायो विवक्षित उत प्रत्यगात्मैव।विज्ञानं यज्ञं तनुते। कर्माणि तनुतेऽपि च इति श्रुतौ कर्मद्वैविध्यश्रवणात्कर्म चाखिलमित्यत्रापि कीदृक्वकर्म विवक्षितं किं लौकिकमुत वैदिकं यज्ञादि रुपं। पुरुषोत्तमस्य न किंचिदज्ञातमिति सूचयन्नाह -- पुरुषोत्तमेति। अधिभूतं च किं प्रोक्तं भूतेष्वाकाशादिषु वर्तमानं किंचिदेव गृह्यते उत सर्वमेव कार्यं। अधिदैवं किमुच्यते किं देवताविषयमनुध्यानमुतादित्यमण्डलादिषु वर्तमानं चैतन्यम्।
8.1 किम् what? तत् that? ब्रह्म Brahman? किम् what? अध्यात्मम् Adhytama? किम् what? कर्म action? पुरुषोत्तम O best among men? अधिभूतम् Adhibhuta? च and? किम् what? प्रोक्तम् declared? अधिदैवम् Adhidaiva? किम् what? उच्यते is called.Commentary In the last two verses of the seventh chapter Lord Krishna had used certain philosophical and technical terms such as Adhyatma? Adhibhuta? Adhidaiva and Adhiyajna. Arjuna does not understand the meaning of these terms. So he proceeds to ask the Lord the above estions for their elucidation. Lord Krishna gives the answers succinctly to the above estions in their order.Some treat this chapter as Abhyasa Yoga because in this chapter verses 7? 8? 10? 12? 13 and 14 deal with spiritual practices. Verse 7 treats of Karma and Bhakti Yoga combined (giving the hands to the service of humanity or society and fixing the mind on the Lord). Verse 8 deals with Abhyasa Yoga. Verses 10? 12 and 13 treat of Hatha Yoga (how to raise the lifeforce t the Ajna Chakra and the Sahasrara and the Brahmarandhra). Verse 14 treats of the easy Yoga of constant Namasmarana or remembering the names of the Lord constantly. This alone will help the spiritual aspirant to approach the Lord easily.The nature of Brahman? the individual Self (Adhyatma)? the nature of action? the nature of the objective universe or phenomena (Adhibhuta)? knowledge of the shining ones (Adhidaiva)? and the secret of sacrifice (Adhiyajna) are described in this discourse. The perfect sage will have perfect knowledge. He will have perfect knowledge of not only the manifested Brahman but also of the transcendental Brahman and the why of the universe? etc.
8.1 Arjuna said What is that Brahman? What is Adhyatma? What is action, O best among men? What is declared to be Adhibhuta? And, what is Adhidaiva said to be?
8.1 "Arjuna asked: O Lord of Lords! What is that which men call the Supreme Spirit, what is man's Spiritual Nature, and what is the Law? What is Matter and what is Divinity?
8.1 Arjuna said O supreme person, what is that Brahman? What is that which exists in the individual plane? What is action? And what is that which is said to exist in the physical plane? What is that which is said to be existing in the divine plane?
8.1 See Commentary under 8.2.
8.1. Arjuna Said What is that Brahman ? What is termed the Lord-of-the-self (adhyatma) ? What is action ? O the Best-of-persons ! What is stated to be the Lord-of -material-things (adhibhuta) ? What is called Lord-of-divinities (adhidaiva) ?
8.1 See Comment under 8.2
8.1 8.2 Arjuna said What are that brahman, Adhyatma and Karma which have been mentioned as what should be known by those who aspire for release from old age and death while they take refuge with the Lord? What are Adhibuta and Adhidaiva, which should be known by the aspirants for wealth? Who is Adhiyajna that is to be known by the three groups as their dying hour. In what manner are You to be known by these three groups who are self-controlled?
8.1 Arjuna said O supreme person, what is that Brahman? What is that which exists in the individual plane? What is action? And what is that which is said to exist in the physical plane? What is that which is said to be existing in the divine plane?
।।8.1।। ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नम् इत्यादि वचनोंसे ( पूर्वाध्यायमें ) भगवान्ने अर्जुनके लिये प्रश्नके बीजोंका उपदेश किया था अतः उन प्रश्नोंको पूछनेके लिये अर्जुन बोला --, हे पुरुषोत्तम वह ब्रह्मतत्त्व क्या है अध्यात्म क्या है कर्म क्या है अधिभूत किसको कहते हैं अधिदैव किसको कहते हैं हे मधुसूदन इस देहमें अधियज्ञ कौन है और कैसे है तथा संयतचित्तवाले योगियोंद्वारा आप मरणकालमें किस प्रकार जाने जा सकते हैं।
।।8.1 -- 8.2।। --,ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नम् (गीता 7।29) इत्यादिना भगवता अर्जुनस्य प्रश्नबीजानि उपदिष्टानि। अतः तत्प्रश्नार्थम् अर्जुनः उवाच -- एषां प्रश्नानां यथाक्रमं निर्णयाय श्रीभगवानुवाच --,श्रीभगवानुवाच --,
।।8.1 -- 8.2।।अध्यायस्यावान्तरप्रतिपाद्यमर्थमाह -- मरणेति। गम्यत इति गतिः। आदिपदेन मार्गादिकम्। मरणकालकर्तव्यं च गतिश्च ते आदी यस्य तत्तथोक्तम्। कर्तव्यस्मरणविषयत्वगम्यत्वादिरूपो भगवन्महिमैव वर्ण्यत इति षट्कान्तर्भावसिद्धिः। उक्तव्याख्यानपूर्वकमिति चोपस्कर्तव्यम् तेनानन्तर्यलक्षणाऽपि सङ्गतिः सिद्धा तत्प्रसङ्गेनैव मरणकालकर्तव्याद्युपदेशात्।
।।8.1 -- 8.2।।नमः श्रीमते कृष्णाय। ँ़ मरणकालकर्त्तव्यगत्याद्यस्मिन्नध्याय उपदिशति।
अर्जुन उवाच किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।8.1।।
অর্জুন উবাচ কিং তদ্ব্রহ্ম কিমধ্যাত্মং কিং কর্ম পুরুষোত্তম৷ অধিভূতং চ কিং প্রোক্তমধিদৈবং কিমুচ্যতে৷৷8.1৷৷
অর্জুন উবাচ কিং তদ্ব্রহ্ম কিমধ্যাত্মং কিং কর্ম পুরুষোত্তম৷ অধিভূতং চ কিং প্রোক্তমধিদৈবং কিমুচ্যতে৷৷8.1৷৷
અર્જુન ઉવાચ કિં તદ્બ્રહ્મ કિમધ્યાત્મં કિં કર્મ પુરુષોત્તમ। અધિભૂતં ચ કિં પ્રોક્તમધિદૈવં કિમુચ્યતે।।8.1।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਕਿਂ ਤਦ੍ਬ੍ਰਹ੍ਮ ਕਿਮਧ੍ਯਾਤ੍ਮਂ ਕਿਂ ਕਰ੍ਮ ਪੁਰੁਸ਼ੋਤ੍ਤਮ। ਅਧਿਭੂਤਂ ਚ ਕਿਂ ਪ੍ਰੋਕ੍ਤਮਧਿਦੈਵਂ ਕਿਮੁਚ੍ਯਤੇ।।8.1।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಕಿಂ ತದ್ಬ್ರಹ್ಮ ಕಿಮಧ್ಯಾತ್ಮಂ ಕಿಂ ಕರ್ಮ ಪುರುಷೋತ್ತಮ. ಅಧಿಭೂತಂ ಚ ಕಿಂ ಪ್ರೋಕ್ತಮಧಿದೈವಂ ಕಿಮುಚ್ಯತೇ৷৷8.1৷৷
അര്ജുന ഉവാച കിം തദ്ബ്രഹ്മ കിമധ്യാത്മം കിം കര്മ പുരുഷോത്തമ. അധിഭൂതം ച കിം പ്രോക്തമധിദൈവം കിമുച്യതേ৷৷8.1৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ କିଂ ତଦ୍ବ୍ରହ୍ମ କିମଧ୍ଯାତ୍ମଂ କିଂ କର୍ମ ପୁରୁଷୋତ୍ତମ| ଅଧିଭୂତଂ ଚ କିଂ ପ୍ରୋକ୍ତମଧିଦୈବଂ କିମୁଚ୍ଯତେ||8.1||
arjuna uvāca kiṅ tadbrahma kimadhyātmaṅ kiṅ karma puruṣōttama. adhibhūtaṅ ca kiṅ prōktamadhidaivaṅ kimucyatē৷৷8.1৷৷
அர்ஜுந உவாச கிஂ தத்ப்ரஹ்ம கிமத்யாத்மஂ கிஂ கர்ம புருஷோத்தம. அதிபூதஂ ச கிஂ ப்ரோக்தமதிதைவஂ கிமுச்யதே৷৷8.1৷৷
అర్జున ఉవాచ కిం తద్బ్రహ్మ కిమధ్యాత్మం కిం కర్మ పురుషోత్తమ. అధిభూతం చ కిం ప్రోక్తమధిదైవం కిముచ్యతే৷৷8.1৷৷
8.2
8
2
।।8.1 -- 8.2।। अर्जुन बोले -- हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत किसको कहा गया है? और अधिदैव किसको कहा जाता है? यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस देहमें कैसे है? हे मधूसूदन ! नियतात्मा (वशीभूत अन्तःकरणवाले) मनुष्यके द्वारा अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं?
।।8.2।। और हे मधुसूदन ! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? और संयत चित्त वाले पुरुषों द्वारा अन्त समय में आप किस प्रकार जाने जाते हैं,
।।8.2।। पूर्व अध्याय के अन्तिम दो श्लोकों में अकस्मात् ब्रह्म अध्यात्म अधिभूत आदि जैसे नवीन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया गया है और कहा है कि ज्ञानी पुरुष मरण काल में भी चित्त युक्त होकर मुझे इनके सहित जानते हैं। इससे अर्जुन कुछ भ्रमित हो गया।इस अध्याय का प्रारम्भ अर्जुन के प्रश्न के साथ होता है जिसमें वह उन शास्त्रीय शब्दों की निश्चित परिभाषायें जानना चाहता है जिनका प्रयोग भगवान् ने अपने उपदेश में किया था। वह यह भी जानने को उत्सुक है कि जीवन काल में सतत आध्यात्मिक साधना के अभ्यास के फलस्वरूप प्राप्त पूर्ण आत्मसंयम के द्वारा मरणकाल में भी आत्मा का अनुभव किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है।भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्येक शब्द की परिभाषा देते हुए कहते हैं --
।।8.2।। व्याख्या--'पुरुषोत्तम किं तद्ब्रह्म'--हे पुरुषोत्तम वह ब्रह्म क्या है अर्थात् ब्रह्म शब्दसे क्या समझना चाहिये
।।8.1 -- 8.2।।ते ब्रह्म तद्विदुः इत्यादिना यत् भगवता उपक्षिप्तं तत् प्रश्ननवकपूर्वकं (S पूर्वं) निर्णयति ( निर्णाययति N निर्वर्णयति) -- किं तद् ब्रह्मेति। अधियज्ञ इति। अधियज्ञः कथम् [कश्च] कोऽत्र देहे तिष्ठति इति शेषः।
।।8.2।।अर्जुन उवाच -- जरामरणमोक्षाय भगवन्तम् आश्रित्य यतमानानां ज्ञातव्यतया उक्तं तद् ब्रह्म अध्यात्मं च कर्म च किम् इति वक्तव्यम् ऐश्वर्यार्थिनां ज्ञातव्यम् अधिभूतम् अधिदैवं च किं त्रयाणां ज्ञातव्यः अधियज्ञशब्दनिर्दिष्टश्च कः तस्य च अधियज्ञभावः कथं प्रयाणकाले च एभिः त्रिभिः नियतात्मभिः कथं ज्ञेयः असि।
।।8.2।।साधियज्ञं चेत्यत्राधियज्ञशब्देन यज्ञमधिकृतो विज्ञानात्मा वा परदेवता वेति प्रश्नान्तरं प्रकरोति -- अधियज्ञ इति। स च कथं केन प्रकारेण ब्रह्मत्वेन चिन्तनीयः किं तादात्म्येन किं वात्यन्ताभेदेनेत्याह -- कथमिति। सर्वथापि स किमस्मिन्देहे वर्तते ततो बहिर्वा देहे चेत्स कोऽत्र बुद्ध्यादिस्तद्व्यतिरिक्तो वेति जिज्ञासया ब्रूते -- कोऽत्रेति। अधियज्ञः कथं कोऽत्रेति न प्रश्नभेदकः[दः] कथमिति तु प्रकारभेदविवक्षयेति द्रष्टव्यम्। यत्तु समाहितचित्तानामुक्तं यत्प्रयाणकालेऽपि भगवदनुसंधानं सिध्यतीति तदयुक्तमुत्क्रमणदशायां करणग्रामवैयग्र्याच्चित्तसमाधानानुपपत्तिरित्यभिप्रेत्याह -- प्रयाणेति।
।।8.2।।अधियज्ञश्च कः स चाधियज्ञोऽत्र देहे कथ ज्ञेयः। प्रयाणकाले चैभिर्नियतात्मभिः कथं ज्ञेयोऽसि।
।।8.2।।अधियज्ञो यज्ञमधिगतो देवतात्मा परब्रह्म वा। स च कथं केन प्रकारेण चिन्तनीयः। किं तादात्म्यैन किं वात्यन्ताभेदेन। सर्वथापि स किमस्मिन्देहे वर्तते ततो बहिर्वा। देहे चेत् स कोऽत्र बुद्ध्यादिस्तद्व्यतिरिक्तो वा। अधियज्ञः कथं कोऽत्रेति न प्रश्नद्वयं किंतु सप्रकार एकएव प्रश्न इति द्रष्टव्यम्। परमकारुणिकत्वादनायासेनापि सर्वोपद्रवनिवारकस्य भगवतोऽनायासेन मत्संदेहोपद्रवनिवारणमीषत्करमुचितमेवेति सूचयन्संबोधयति हे मधुसूदनेति। प्रयाणकाले च सर्वकरणग्रामवैयग्र्याच्चित्तसमाधानानुपपत्तेः कथं केन प्रकारेण नियतात्मभिः समाहितचित्तैर्ज्ञेयोऽसीत्युक्तशङ्कासूचनार्थश्चकारः। एतत्सर्वं सर्वज्ञत्वात्परमकारुणिकत्वाच्च शरणागतं मांप्रति कथयेत्यभिप्रायः।
।।8.2।। किंच -- अधियज्ञ इति। अत्र देहे यो यज्ञो वर्तते तस्मिन्कोऽधियज्ञः। अधिष्ठाता प्रयोजकः फलदाता च क इत्यर्थः। स्वरूपं पृष्ट्वा अधिष्ठानप्रकारं पृच्छति। कथं केन प्रकारेणासावस्मिन्देहे स्थितो यज्ञमधितिष्ठतीत्यर्थः। यज्ञग्रहणं सर्वकर्मणामुपलक्षणार्थम्। अन्तकाले च नियतचित्तैः पुरुषैः कथं केनोपायेन ज्ञेयोऽसि।
।। 8.2 सङ्गतिदर्शनायाह -- सप्तम इति।परस्य ब्रह्मणो वासुदेवस्योपास्यत्वमिति -- मय्यासक्तमनाः [7।1] इत्यादेरथः तत्रैव ह्युपासनं प्रस्तुतम्। तच्छेषतया चान्यत्सर्वमिहोच्यते। तस्यैव प्रपञ्चनम्अहं सर्वस्य प्रभवः [10।8]वासुदेवः सर्वं [7।19]चतुर्विधा भजन्ते माम् [7।16] इत्यादिभिः परस्तात्क्रियत इति भावः।परस्येत्यादिभिरुपहितब्रह्मव्योमातीतादिपक्षप्रतिक्षेपः। ब्रह्मशब्दस्य विशेषशब्दसमभिव्याहाराद्देवतान्तरव्यावृत्तिः। वासुदेवशब्देनात्रावतारविशेषो वा विवक्षितः।निखिलेत्यादिभिरुपास्यत्वपरब्रह्मत्वोपयुक्ताकारकथनम्।निखिलचेतनाचेतनवस्तुशेषित्वमितिभूमिरापः [7।4] इत्यादेः श्लोकद्वयस्यार्थः। निखिलशब्देन कार्यकारणादिरूपावस्थासङ्ग्रहात् कार्यभूतब्रह्मरुद्रादेरपि क्रोडीकारः। कारणत्वम्एतद्योनीनि [7।6] इति श्लोकस्यार्थः।मत्तः परतरं नान्यत् [7।7] इत्युक्तस्य परत्वस्यमामेभ्यः परम् [7।13] इत्यत्रोपयुक्ततया तत्रैवोदाहर्तुमत्र तदतिक्रमेणमयि सर्वम् [7।7] इत्याद्युक्ताधारत्वोपादानम्।रसोऽहम् [7।8] इत्यादिसामानाधिकरण्यफलितं सर्वशब्दवाच्यत्वम्। तत्र हेतुराधारत्वादिविशेषसिद्धं सर्वशरीरकत्वम्। एवं शेषित्वाद्यनुवादेन वक्ष्यमाणतत्तदधिकारिप्राप्यवस्तुविशेषसामानाधिकरण्यस्यापि शरीरात्मभावहेतुकत्वं दर्शितम्।मत्त एवेति तान्विद्धि [7।12] इत्यादिषु प्रवृत्तितादधीन्यस्यापि विवक्षितत्वात्सिद्धं सर्वनियन्तृत्वम्।सवश्चेत्यनेनानिर्दिष्टानामन्येषां च आभिप्रायिकाणां सङ्ग्रहः।तस्यैवेत्यवधारणेननान्यत्किञ्चिदस्ति [7।7] इत्यस्यार्थ उक्तः।त्रिभिर्गुणमयैः [7।13] इति श्लोकस्य सार्धस्यार्थःसत्त्वेत्यादिनोक्तः।मामेव [7।14] इत्याद्युक्तप्रपत्तेः सुकृतविशेषहेतुकत्वम्।जनाः सुकृतिनः [7।16] इत्यनेन दर्शितमाहअत्युत्कृष्टसुकृतेति।न मां दुष्कृतिनः [7।15] इत्यादेः पूर्वोक्ततिरोधानप्रकारविशेषकथनरूपत्वात्सुकृतिप्रशंसाशेषत्वाच्च तदर्थोऽत्र पृथङ्गोपात्तः।चतुर्विधाः [7।16] इत्यादिकंसुकृततारतम्येनेत्यादिनाऽनुसंहितम्। उपासकभेदं चेत्यन्वयः।तेषां ज्ञानी [7।17] इत्यादेः श्लोकद्वयस्यार्थोभगवन्तमित्यादिनोक्तः।बहूनां जन्मनाम् [7।19] इत्यादिनासर्गे यान्ति परन्तप [7।27] इत्यन्तेन सिद्धमाहदुर्लभत्वमिति।येषां तु [7।28] इत्यादेरध्यायशेषस्य अर्थमाह -- एषां त्रयाणामिति। ज्ञातव्यमिह सिद्धरूपं विवक्षितम्।उपादेयं अनुष्ठेयम्। एतेनस्वयाथात्म्यम् [गी.सं.11] इत्यादिसङ्ग्रहश्लोकस्यार्थोऽपि प्रपञ्चितः। अयं त्वष्टमस्य सङ्ग्रहःऐश्वर्याक्षरयाथात्म्यभगवच्चरणार्थिनाम्। वेद्योपादेयभावानामष्टमे भेद उच्यते [गी.सं.12] इति। अत्र भेदोक्तेरध्यायार्थत्वात्स्वरूपप्रस्तावः प्रागेव कृत इति दर्शितम्। प्रस्तुतप्रपञ्चनमिति सङ्गतिमाह -- इदानीमिति। जीवस्वरूपादिज्ञातव्यस्योपासनाद्यनुष्ठेयस्य च भेदजिज्ञासयाऽर्जुन उवाच -- किं तदिति।आर्तो जिज्ञासुः [7।16] इत्यादिना प्रागेवाधिकारित्रयस्योक्तत्वात्जरामरणमोक्षाय [7।29] इत्यादिषु यच्छब्दावृत्तिसामर्थ्यादर्थस्वभावाच्चाधिकारिभेदस्तेषां ज्ञातव्योपादेयवस्तुप्रतिनियमश्चार्जुनेन ज्ञातः तत्रैव विशेषबुभुत्सयाऽय प्रश्नः। वक्ष्यते च विशेषः। ततश्चकिं तद्ब्रह्म इत्यर्धमक्षरयाथात्म्यार्थिविषयम् अधिभूते च इत्यर्धमैश्वर्यार्थिविषयम्अधियज्ञः इति श्लोकस्तु अर्थस्वभावात् त्रयाणां साधारण इति विविनक्ति -- जरामरणेति। कथमिति प्रकारप्रश्नेअधियज्ञभाव इत्यर्थलब्धम्।अत्र इत्येतच्छब्दः शास्त्रसन्निध्युपाधिकः तच्चोत्तरग्रन्थे व्याख्यास्यति -- अत्र इन्द्रादौ मम देहभूते इति।अस्मिन् इतीदंशब्दस्तु स्वप्रत्यक्षसन्निध्युपाधिकः प्रत्यक्षा हीन्द्रादयोऽपि प्रष्टुरर्जुनस्य। एतच्छब्देदंशब्दयोश्चैकस्मिन्वाक्ये सामानाधिकरण्येन प्रयोगो दृश्यते -- स एष द्वाभ्यां दर्शनीभ्यां विराड्भ्यामनयोर्द्वाविंशयोर्द्विवचनयोरयं पुरुषः प्रतिष्ठितः इत्यादौ। यद्वाअत्र इति यज्ञस्वरूपपरामर्शः नियतात्मत्वं त्रयाणामपेक्षितम् अत्र बहुवचनमधिकारित्रयपरमित्यभिप्रायेणोक्तम् -- एभिस्त्रिभिरिति।
।। 8.2 पूर्वोक्तब्रह्मकर्मादिरूपजिज्ञासुरर्जुनः। पृष्टवान् स्पष्टमेतस्य कृष्ण उत्तरमुक्तवान्।।1।।पूर्वाध्यायान्ते भगवताते ब्रह्म [7।29] इत्यादिना समपदार्थज्ञानमुक्तं भक्तानाम् तत्स्वरूपजिज्ञासुरर्जुनः प्रभुं विज्ञापयामास -- अर्जुन उवाच किं तद्ब्रह्मेति द्वयेन। हे पुरुषोत्तम तद्ब्रह्म यदुक्तं तत्किम् अध्यात्मं किं कर्म किं च पुनः अधिभूतं किं प्रोक्तं च पुनः अधिदैवं किमुच्यते अधियज्ञः यज्ञाधिष्ठाता फलदाता कः। अत्र उक्तप्रकारेषु कथं केन प्रकारेण नियतात्मभिरनन्यैकपरिचित्तैर्ज्ञेयोऽसि। हे मधुसूदन सर्वानिष्टनिवर्तक अस्मिन् देहे प्रयाणकाले अन्तकाले कथं केन प्रकारेण ज्ञेयोऽसि। अत्रायं भावः -- पुरुषोत्तमेति सम्बोधनेन त्वमेव पुरुषोत्तमः त्वत्तः पराभावात्। कथं तद्ब्रह्मेत्युक्तम् आधिदैविकं तु त्वत्स्वरूपमेव अतस्त्वत्तोऽन्याधिदैवं किम् अध्यात्मादयस्तु৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. हीना एव तेषां ज्ञानं किं प्रयोजनकम् सेवा च कथं कार्या इत्यादिव्यञ्जितम्। मधुसूदनेति सम्बोधनेन त्वदीयानां मरणादिभयाभावे तत्समये त्वं कथं स्वज्ञानमुक्तवानिति ज्ञापितमिति भावः।
।।8.2।।अधियज्ञः कथं कोऽत्र। क इति स्वरूपप्रश्नः। कथं ज्ञेय इति पदापकर्षेण तत्तदुपासनाप्रकारप्रश्नश्चेति द्वयं मिलित्वा एकएव प्रश्नः। शेषं स्पष्टम्।
।।8.2।।अधियज्ञः कथं कोऽत्र यज्ञमधिगतो विज्ञानात्मा परमात्मा वा स च कथं केन प्रकारेण चिन्तनीयः किं तादात्म्येनोताभेदेन। सर्वथापि स किमस्मिन्देहे वर्तते उतास्माद्वहिः देहे चेत्स कोऽत्र बहिश्चेत्स किं कुङ्यादिरुत तद्य्धतिरिक्त इति प्रकारादिजिज्ञासयोक्तं कथं कोत्रेऽति। मधुसूदनेति संबोधयन् मधुसूदनस्य तव मत्संशयसूदनमतिसुकरमिति द्योतयति। यत्तूक्तंप्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः इति तत्र पृच्छति -- प्रयाणेति। प्राणोत्क्रमणदशायां करणग्रामवैयग्र्याच्चित्तसमाधानानुपपत्तेर्नियतात्मभिः प्रयाणकाले कथं ज्ञेयोऽसीति भाष्यटीकानुसारी सप्तमप्रश्नार्थः। भाष्यकृद्भिस्तु सुगमत्वान्न प्रदर्शितः।
8.2 अधियज्ञः Adhiyajna? कथम् how? कः who? अत्र here? देहे in body? अस्मिन् this? मधुसूदन O Madhusudana? प्रयाणकाले at the time of death? च and? कथम् how? ज्ञेयः knowable? असि art? नियतात्मभिः by the selfcontrolled.Commentary Arjuna put seven estions to the Lord1. What is that Brahman Is it Brahman with the Upadhis (limiting adjuncts) or Brahman without them2. Is it the aggregate of the senses or individual consciousness (PratyakChaitanya) or distinct? pure consciousness3. What is Karma Is it Yajna Or? is it distinct from Yajna4. Adhibhuta is knowledge of the Bhutas. Is this the knowledge of the elements or something else5. Adhidaiva is that which is associated with the gods. Is this the meditation on the gods Or? is it the consciousness associated with the Suryamandala? etc.6. Adhiyajna is that which is associated with Yajnas or Vedic rituals. Is this the Para Brahman (Supreme Being) or any special god Is it of the same form (Tadatmyarupa) or is it entirely nondifferent (Abheda) Does it exist in the body or outside it If it exists in the body? is it the intellect (Buddhi) or distinct from it7. At the time of death? when the memory is lost and when the senses become cold (i.e.? whenthey lose their vitality) how can the man of onepointedness and of steadfast mind know the LordO Lord Madhusudana Thou art allmerciful. Thou hast killed Madhu and removed the miseries of the people. Even so Thou canst remove my difficulties and doubts very easily. This is nothing for Thee? the omniscient Lord. (This is the reason why Arjuna addresses the Lord by the name Madhusudana.)
8.2 Who and how is Adhiyajna here in this body, O destroyer of Madhu (Krishna)? And how at the time of death, art Thou to be known by the self-controlled?
8.2 Who is it who rules the spirit sacrifice in many; and at the time of death how may those who have learned self-control come to the knowledge of Thee?
8.2 O Madhusudana, how, and who, is the entity existing in the sacrifice here in this body? And at the time of death, how are You to be known by people of concentrated minds?
8.2 In order to settle these estions seriatim -
8.2. Who is Lord-of-sacrifices (adhiyajna) [and] how ? Who in this body ? O slayer of Madhu ! How are You to be realised by the self-controlled ones at the time of their journey (i.e., death) also ?
8.1-2 What has been introduced by the Bhagavat by saying 'They know that Brahmn etc.,' [at the end of the last chapter], the same [the Sage] decides by raising nine estions [as follows] : Kim tad Brahman etc. Adhiyajnah etc. Who and how is the adhiyajna ? Who in this body ? : 'does reside' may be supplimented.
8.1 8.2 Arjuna said What are that brahman, Adhyatma and Karma which have been mentioned as what should be known by those who aspire for release from old age and death while they take refuge with the Lord? What are Adhibuta and Adhidaiva, which should be known by the aspirants for wealth? Who is Adhiyajna that is to be known by the three groups as their dying hour. In what manner are You to be known by these three groups who are self-controlled?
8.2 O Madhusudana, how, and who, is the entity existing in the sacrifice here in this body? And at the time of death, how are You to be known by people of concentrated minds?
।।8.2।। ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नम् इत्यादि वचनोंसे ( पूर्वाध्यायमें ) भगवान्ने अर्जुनके लिये प्रश्नके बीजोंका उपदेश किया था अतः उन प्रश्नोंको पूछनेके लिये अर्जुन बोला --, हे पुरुषोत्तम वह ब्रह्मतत्त्व क्या है अध्यात्म क्या है कर्म क्या है अधिभूत किसको कहते हैं अधिदैव किसको कहते हैं हे मधुसूदन इस देहमें अधियज्ञ कौन है और कैसे है तथा संयतचित्तवाले योगियोंद्वारा आप मरणकालमें किस प्रकार जाने जा सकते हैं।
।।8.1 -- 8.2।। --,ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नम् (गीता 7।29) इत्यादिना भगवता अर्जुनस्य प्रश्नबीजानि उपदिष्टानि। अतः तत्प्रश्नार्थम् अर्जुनः उवाच -- एषां प्रश्नानां यथाक्रमं निर्णयाय श्रीभगवानुवाच --,श्रीभगवानुवाच --,
।।8.1 -- 8.2।।अध्यायस्यावान्तरप्रतिपाद्यमर्थमाह -- मरणेति। गम्यत इति गतिः। आदिपदेन मार्गादिकम्। मरणकालकर्तव्यं च गतिश्च ते आदी यस्य तत्तथोक्तम्। कर्तव्यस्मरणविषयत्वगम्यत्वादिरूपो भगवन्महिमैव वर्ण्यत इति षट्कान्तर्भावसिद्धिः। उक्तव्याख्यानपूर्वकमिति चोपस्कर्तव्यम् तेनानन्तर्यलक्षणाऽपि सङ्गतिः सिद्धा तत्प्रसङ्गेनैव मरणकालकर्तव्याद्युपदेशात्।
।।8.1 -- 8.2।।नमः श्रीमते कृष्णाय। ँ़ मरणकालकर्त्तव्यगत्याद्यस्मिन्नध्याय उपदिशति।
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।।8.2।।
অধিযজ্ঞঃ কথং কোত্র দেহেস্মিন্মধুসূদন৷ প্রযাণকালে চ কথং জ্ঞেযোসি নিযতাত্মভিঃ৷৷8.2৷৷
অধিযজ্ঞঃ কথং কোত্র দেহেস্মিন্মধুসূদন৷ প্রযাণকালে চ কথং জ্ঞেযোসি নিযতাত্মভিঃ৷৷8.2৷৷
અધિયજ્ઞઃ કથં કોત્ર દેહેસ્મિન્મધુસૂદન। પ્રયાણકાલે ચ કથં જ્ઞેયોસિ નિયતાત્મભિઃ।।8.2।।
ਅਧਿਯਜ੍ਞ ਕਥਂ ਕੋਤ੍ਰ ਦੇਹੇਸ੍ਮਿਨ੍ਮਧੁਸੂਦਨ। ਪ੍ਰਯਾਣਕਾਲੇ ਚ ਕਥਂ ਜ੍ਞੇਯੋਸਿ ਨਿਯਤਾਤ੍ਮਭਿ।।8.2।।
ಅಧಿಯಜ್ಞಃ ಕಥಂ ಕೋತ್ರ ದೇಹೇಸ್ಮಿನ್ಮಧುಸೂದನ. ಪ್ರಯಾಣಕಾಲೇ ಚ ಕಥಂ ಜ್ಞೇಯೋಸಿ ನಿಯತಾತ್ಮಭಿಃ৷৷8.2৷৷
അധിയജ്ഞഃ കഥം കോത്ര ദേഹേസ്മിന്മധുസൂദന. പ്രയാണകാലേ ച കഥം ജ്ഞേയോസി നിയതാത്മഭിഃ৷৷8.2৷৷
ଅଧିଯଜ୍ଞଃ କଥଂ କୋତ୍ର ଦେହେସ୍ମିନ୍ମଧୁସୂଦନ| ପ୍ରଯାଣକାଲେ ଚ କଥଂ ଜ୍ଞେଯୋସି ନିଯତାତ୍ମଭିଃ||8.2||
adhiyajñaḥ kathaṅ kō.tra dēhē.sminmadhusūdana. prayāṇakālē ca kathaṅ jñēyō.si niyatātmabhiḥ৷৷8.2৷৷
அதியஜ்ஞஃ கதஂ கோத்ர தேஹேஸ்மிந்மதுஸூதந. ப்ரயாணகாலே ச கதஂ ஜ்ஞேயோஸி நியதாத்மபிஃ৷৷8.2৷৷
అధియజ్ఞః కథం కోత్ర దేహేస్మిన్మధుసూదన. ప్రయాణకాలే చ కథం జ్ఞేయోసి నియతాత్మభిః৷৷8.2৷৷
8.3
8
3
।।8.3।। श्रीभगवान् बोले -- परम अक्षर ब्रह्म है और जीवका अपना जो होनापन है, उसको अध्यात्म कहते हैं। प्राणियों का उद्भव (सत्ता को प्रकट) करनेवाला जो त्याग है उसको कर्म कहा जाता है।
।।8.3।। श्रीभगवान् ने कहा -- परम अक्षर (अविनाशी) तत्त्व ब्रह्म है; स्वभाव (अपना स्वरूप) अध्यात्म कहा जाता है; भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला विसर्ग (यज्ञ, प्रेरक बल) कर्म नाम से जाना जाता है।।
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।।8.3।। व्याख्या--'अक्षरं ब्रह्म परमम्'--परम अक्षरका नाम ब्रह्म है। यद्यपि गीतामें ब्रह्म शब्द प्रणव वेद प्रकृति आदिका वाचक भी आया है तथापि यहाँ ब्रह्म शब्दके साथ परम और अक्षर विशेषण देनेसे यह शब्द सर्वोपरि सच्चिदानन्दघन अविनाशी निर्गुणनिराकार परमात्माका वाचक है।
।।8.3।।अक्षरमिति। बृहत्त्वात् बृंहत्त्वात् बृंहकत्वाच्च परं ब्रह्म। अत एव अध्यात्मशब्दवाच्यं यतः स्वः अनिवृत्तिधर्मा (N निवृत्तिधर्मा K अनिवृत्तधर्मा) चैतान्याख्यो ( चैतन्यभावः) भावः। तस्य च चैतन्यस्वभावस्य ब्रह्मणोऽपरिच्छिन्नबाह्यलक्षणतया क्रोडीकृतविश्वशक्तेः ऐश्वर्यलक्षणात् स्वातन्त्र्यात् बहिर्भावावभासनात्मा (N -- भासनात्सः) बहिर्भूतभावान्तरावभासनात्मा (S -- भावान्तरभासनात्मा यो विसर्गः) च यो विसर्गः क्रमेण भूतानां ब्रह्मादिप्रमातृ़णां भावानां जडानामुद्भवकारी जडाजडवैचित्र्यनिर्भासकः। तथा भूतभावस्य विगलितसकलवितथप्रपञ्चस्य सत्यत्वस्य उद्भवं करोतीति [स कर्मसंज्ञितः]।
।।8.3।।श्रीभगवानुवाच -- तद् ब्रह्म इति निर्दिष्टं परमम् अक्षरं न क्षरति इति अक्षरं क्षेत्रज्ञं समष्टिरूपम् तथा च श्रुतिःअव्यक्तमक्षरे लीयते अक्षरं तमसि लीयते (सुबालो0 2) इत्यादिका। परमम् अक्षरं प्रकृतिविनिर्मुक्तात्मस्वरूपम्। स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते स्वभावः प्रकृतिः अनात्मभूतम् आत्मनि संबद्ध्यमानं भूतसूक्ष्मतद्वासनादिकं पञ्चाग्निविद्यायां ज्ञातव्यतया उदितम् तदुभयं प्राप्यतया त्याज्यतया च मुमुक्षुभिः ज्ञातव्यम्।भूतभावो मनुष्यादिभावः तदुद्भवकरो यो विसर्गःपञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति (छा0 उ0 5।3।3) इति श्रुतिसिद्धो योषित्संबन्धजः स कर्मसंज्ञितः तत् च अखिलं सानुबन्धम् उद्वेजनीयतया परिहरणीयतया च मुमुक्षुभिः ज्ञातव्यम्। परिहरणीयता च अनन्तरम् एव वक्ष्यतेयदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति (गीता 8।11) इति।
।।8.3।।व्याख्यातप्रश्नसप्तकस्य प्रतिवचनं भागवतमवतारयति -- एषामिति। क्रमेण कृतानां प्रश्नानां क्रमेणैव प्रतिवचने प्रष्टुरभीष्टप्रतिपत्तिसौकर्यं सिध्यतीति बुध्यमानो विशिनष्टि -- यथाक्रममिति। तत्र प्रश्नत्रयं निर्णेतुं भगवद्वचनमुदाहरति -- अक्षरमिति। किं तद्ब्रह्मेति प्रश्नस्य प्रतिवचनम् -- अक्षरं ब्रह्म परममिति। तत्राक्षरशब्दस्य निरुपाधिके परस्मिन्नात्मन्यविनाशित्वव्याप्तिमत्त्वसंबन्धात्प्रवृत्तिं व्युत्पादयति -- अक्षरमित्यादिना। कथं पुनरक्षरशब्दस्य यथोक्ते परमात्मनि वृद्धप्रयोगमन्तरेण व्युत्पत्त्या प्रवृत्तिराश्रीयते व्युत्पत्तेरर्थान्तरेऽपि संभवादित्याशङ्क्य द्यावापृथिव्यादिविषयनिरङ्कुशप्रशासनस्य परस्मादन्यस्मिन्नसंभवात्तथाविधप्रशासनकर्तृत्वेन श्रुतमक्षरं ब्रह्मैवेत्याह -- एतस्येति। रूढिर्योगमपहरतीति न्यायादोंकारे वर्णसमुदायात्मन्यक्षरशब्दस्य रूढ्या प्रवृत्तिराश्रयितुमुचितेत्याशङ्क्याह -- ओंकारस्येति। प्रतिवचनोपक्रमे प्रक्रान्तमोंकाराख्यमक्षरमेवोत्तरत्र विशेषितं भविष्यतीत्याशङ्क्य परमविशेषणविरोधान्न तस्य प्रक्रमः संभवतीत्याह -- परममिति चेति। किमध्यात्ममिति प्रश्नस्योत्तरं स्वभावोऽध्यात्ममित्यादि। तद्व्याचष्टे -- तस्यैवेति। स्वकीयो भावः स्वभावः श्रोत्रादिकरणग्रामः स चात्मनि देहेऽहंप्रत्ययवेद्यो वर्तत इत्यमुं प्रतिभासं व्यावर्त्य स्वभावपदं गृह्णाति -- स्वो भाव इति। एवं विग्रहपरिग्रहे स्वभावोऽध्यात्ममुच्यत इत्यस्यायमर्थो निष्पन्नो भवतीत्यनुवादपूर्वकं कथयति -- स्वभाव इति। तस्यैव परस्येत्यादिनोक्तं न विस्मर्तव्यमिति विशिनष्टि -- परमार्थेति। परमेव हि ब्रह्म देहादौ प्रविश्य प्रत्यगात्मभावःमनुभवतितत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् इति श्रुतेरित्यर्थः। किं कर्मेति प्रश्नस्योत्तरमुपादत्ते -- भूतेति। भूतान्येव भावास्तेषामुद्भवः समुत्पत्तिस्तां करोतीति व्युत्पत्तिं सिद्धवत्कृत्य विधान्तरेण व्युत्पादयति -- भूतानामिति। भावः सद्भावो वस्तुभावोऽतएव भूतवस्तूत्पत्तिकर इति वक्ष्यति। वैदिकं कर्मात्रोक्तविशेषणं कर्मशब्दितमिति विसर्गशब्दार्थं दर्शयन्विशदयति -- विसर्ग इत्यादिना। कथं पुनर्यथोक्तस्य यज्ञस्य सर्वेषु भूतेषु सृष्टिस्थितिप्रलयहेतुत्वेन तदुद्भवकरत्वमित्याशङ्क्य अग्नौ प्रास्ताहुतिः इत्यादिस्मृतिमनुस्मृत्याह -- एतस्माद्धीति।
।।8.3।।प्रश्नक्रमेणोत्तरमाह श्रीभगवान् -- अक्षरमिति त्रिभिः। अत्रवदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते इति भागवतपद्ये [1।2।11] ब्रह्माक्षरोऽव्यक्तोऽगणितानन्दकः यः परमात्मा सत्त्वदर्शनीयाङ्गः प्रकटानन्दांशः भगवान् पुरुषोत्तमो दर्शनीयाङ्गो निर्गुणः सदानन्द इत्युपपादितम्। यत् ब्रह्मेति निर्दिष्टं परमं प्रधानं उत्कृष्टमक्षरं न क्षरतीत्यक्षरं क्षेत्रज्ञं समष्टिव्यष्टिमूलं कूटस्थं गणितानन्दकमध्यात्मरूपं भगवतोऽभिन्नमपि पृथगुच्यते भगवद्धामत्वादित्यग्रे वक्ष्यते। यथा च सात्वततंत्रे -- विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः। प्रथमं महतः स्रष्टृ द्वितीयं खण्डसंस्थितम्। तृतीयं सर्वभूतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते इति प्रथमं अक्षरं द्वितीयं समष्टिरूपं तृतीयं व्यष्टिजीवरूपमिति बोध्यम्। अध्यात्मं आत्मनि अधिगम्यमान षोडशकलं सूक्ष्मं सेन्द्रियमनोरूपं स्वभावः। भूतेति -- भूतानां पञ्चानां भावो भौतिकं शरीरं तस्योद्भवकरो (भावेन वासनया उद्भवकरो) विसर्गःअग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठति (ते) इति पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति [छा.उ.5।3।3] इति श्रुतिप्रतिपादितः कर्मपदस्यार्थः विशेषेण सर्जनस्वभावत्वात् इति पूर्वेषां वेद्यं निर्णीत्तम्।
।।8.3।।एवं सप्तानां प्रश्नानां क्रमेणोत्तरं त्रिभिः श्लोकैः श्रीभगवानुवाच -- प्रश्नक्रमेण हि निर्णये प्रष्टुरभीष्टसिद्धिरनायासेन स्यादित्यभिप्रायवान्भगवानत्र श्लोके प्रश्नत्रयं क्रमेण निर्धारितवान्। एवं द्वितीयश्लोकेऽपि प्रश्नत्रयं तृतीयश्लोके त्वेकमिति विभागः। निरुपाधिकमेव ब्रह्मात्र विवक्षितं ब्रह्मशब्देन नतु सोपाधिकमिति प्रथमप्रश्नस्योत्तरमाह -- अक्षरं न क्षरतीत्यविनाशि अश्नुते वा सर्वमिति सर्वव्यापकं [अक्षरत्वात्]एतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनणु इत्याद्युपक्रम्यएतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतःनान्यदतोऽस्ति द्रष्टृ इत्यादिमध्ये परामृश्यएतस्मिन्नु खल्वक्षरे गार्ग्याकाश ओतश्च प्रोतश्च इत्युपसंहृतं श्रुत्या। सर्वोपाधिशून्यं सर्वस्य प्रशासितृ अव्याकृताकाशान्तस्य कृत्स्नस्य प्रपञ्चस्य धारयितृ अस्मिंश्च शरीरेन्द्रियसंघाते विज्ञातृ निरुपाधिकं चैतन्यं तदिह ब्रह्मेति विवक्षितम्। एतदेव विवृणोति -- परममिति। परमं स्वप्रकाशपरमानन्दरूपं प्रशासनस्य कृत्स्नजडवर्गधारणस्य च लिङ्गस्य तत्रैवोपपत्तेःअक्षरमम्बरान्तधृतेः इति न्यायात्। न त्विहाक्षरशब्दस्य वर्णमात्ररूढत्वाच्छ्रुतिलिङ्गाधिकरणन्यायमूलकेनरूढिर्योगमपहरति इति न्यायेन रथकारशब्देन जातिविशेषवत्प्रणवाख्यमक्षरमेव ग्राह्यं तत्रोक्तलिङ्गसंभवात्ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म इति च परेण विशेषणात्आनर्थक्यप्रतिहतानां विपरीतं बलाबलम् इति न्यायात्वर्षासु रथकार आदधीत इत्यत्र तु जातिविशेषे नास्त्यसंभव इति विशेषः। अनन्यथासिद्धेन तु लिङ्गेन श्रुतेर्बाधःआकाशस्तल्लिङ्गात् इत्यादौ विवृतः। एत्तावांस्त्विह विशेषः। अनन्यथासिद्धेन लिङ्गेन श्रुतेर्बाधे यत्र योगः संभवति तत्र स एव गृह्यते मुख्यत्वात् यथाआज्यैः स्तुवते पृष्ठैः स्तुवते इत्यादौ। यथा चात्रैवाक्षरशब्दे। यत्र तु योगोऽपि न संभवति तत्र गौणी वृत्तिर्यथाऽऽकाशप्राणादिशब्देषु। आकाशशब्दस्यापि ब्रह्मणि आसमन्तात्काशत इति योगः संभवतीति चेत्स एव गृह्यतामिति पञ्चपादीकृतः। तथाच पारमर्षं सूत्रंप्रसिद्धेश्च इति। कृतमत्र विस्तरेण। तदेवं किं तद्ब्रह्मेति निर्णीतम्। अधुना किमध्यात्ममिति निर्णीयते -- यदक्षरं ब्रह्मेत्युक्तं तस्यैव स्वभावः स्वो भावः स्वरूपं प्रत्यक्चैतन्यं नतु स्वस्य भाव इति षष्ठीसमासः लक्षणाप्रसङ्गात्। षष्ठीतत्पुरुषबाधेन कर्मधारयपरिग्रहस्य श्रुतपदार्थान्वयेन निषादस्थपत्यधिकरपासिद्धत्वात्। तस्मान्न ब्रह्मणः संबन्धि किंतु ब्रह्मस्वरूपमेव। आत्मानं देहमधिकृत्य भोक्तृतया वर्तमानमध्यात्ममुच्यतेऽध्यात्मशब्देनाभिधीयते न करणग्राम इत्यर्थः। यागदानहोमात्मकं वैदिकं कर्मैवात्र कर्मशब्देन विवक्षितमिति तृतीयप्रश्नोत्तरमाह। भूतानां भवनधर्मकाणां सर्वेषां स्थावरजङ्गमानां भावमुत्पत्तिमुद्भवं वृद्धिं च करोति यो विसर्गस्त्यागस्तत्तच्छास्त्रविहितो यागदानहोमात्मकः स इह कर्मसंज्ञितः कर्मशब्देनोक्त इति यावत्। तत्र देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागो याग उत्तिष्ठद्धोमो वषट्कारप्रयोगान्तः स एव उपविष्टहोमः स्वाहाकारप्रयोगान्त आसेचनपर्यन्तो होमः। परस्वत्वापत्तिपर्यन्तः स्वत्वत्यागो दानं सर्वत्र च त्यागांशोऽनुगतः तस्य च भूतभावोद्भवकरत्वम्अग्नौ प्रास्ताहुतिः,सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः इति स्मृतेः।ते वा एते आहुती हुते उत्क्रामतः इत्यादिश्रुतेश्च।
।।8.3।। प्रश्नक्रमेणोत्तरं श्रीभगवानुवाच -- अक्षरमिति त्रिभिः। न क्षरति न चलतीत्यक्षरम्। ननु जीवोऽप्यक्षरस्तत्राह -- परमं यदक्षरं जगतां मूलकारणं तद्ब्रह्मएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्ति इति श्रुतेः। स्वस्यैव ब्रह्मण एवांशतो जीवरूपेण भवनं स्वभावः स एवात्मानं देहमधिकृत्य भोक्तृत्वेन वर्तमानोऽध्यात्मशब्देनोच्यत इत्यर्थः। भूतानां जरायुजादीनां भाव उत्पत्तिः उद्भवश्च उत्कृष्टत्वेन भवनमुद्भवःआदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः इत्युक्तक्रमेण वृद्धिः तौ भूतभावोद्भवौ करोति यः विसर्गः देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागरूपो यज्ञः। सर्वकर्मणामुपलक्षणमेतत्। स कर्मशब्दवाच्यः।
।।8.3।।अक्षरं ब्रह्म परमम् इत्यत्र उद्देश्योपादेयान्यथाभावनिरासायाह -- तद्ब्रह्मेति निर्दिष्टमिति। ब्रह्मशब्दोऽत्र परमात्मसाधर्म्यादुपचारवृत्त्येति भावः। अक्षरः शब्दस्य निर्वचनं प्रतिपाद्यं च दर्शयतिन क्षरतीत्यादिना। क्षेत्रज्ञसमष्टौ श्रौतं प्रयोगं दर्शयतितथा चेति। लयोऽत्र संश्लेषविशेषः। अथवा श्रुतावक्षरशब्देन उन्मग्नचेतनांशः प्रकृत्यवस्थाविशेष एव अभिधीयत इति साक्षात्प्रलयार्थत्वेऽपि न विरोधः। तथापि शब्दप्रवृत्तिद्वारभूतचिदंशे तात्पर्यात्तदुदाहरणम्।परममक्षरम् इत्यत्र विशेषणाभिप्रेतमाह -- प्रकृतिविनिर्मुक्तमात्मस्वरूपमिति। स्वभावशब्दार्थःप्रकृतिरिति। नियतसम्बद्धमिति यावत्। किं तदित्याकाङ्क्षायां अध्यात्मशब्दानुसारेणाह -- अनात्मेति। आत्मन्यधिवसनात् सम्बध्यमानमित्यध्यात्मशब्दनिर्वचनम्। तत एव सिद्धमनात्मत्वम्।तद्वासनादिकं तत्संसर्गोपाधिकाज्ञानकर्मवासनादिकम्। भूतसूक्ष्मादेर्ज्ञातव्यत्वे श्रुतिं दर्शयति -- पञ्चाग्निविद्यायामिति। वेत्थ यथा पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति इत्युपक्रम्य इति तु पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति इत्युक्त्वा तद्य इत्थं विदुः [छां.उ.5।10।1] इत्यप्छब्दोपलक्षितपञ्चभूतसूक्ष्मवेद्यत्वं ह्युक्तमिति भावः। ननूपायकर्तृभूतेदानीन्तनात्मस्वरूपपरित्यागेन परिशुद्धात्मस्वरूपकथनं मुमुक्षोः क्वोपयुक्तं भूतसूक्ष्मादिकथनं च किमर्थं इत्यत्राहतदुभयमिति। यथाक्रममन्वयः। अत्र पञ्चमाहुतेर्विवक्षितत्वाद्योनिजभूतविषयोऽयं भूतशब्द इत्यभिप्रायेणाह -- भूतभावो मनुष्यादिभाव इति। मनुष्यत्वादिविशिष्टशरीरयोग इत्यर्थः। विशिष्टस्य विसर्गस्य ज्ञातव्यत्वे तस्य मनुष्यादिभावहेतुत्वे च श्रुतिं दर्शयति -- पञ्चम्यामिति। अत्र मूत्रमरुन्मलादिविसर्गव्यवच्छेदार्थमुक्तंभूतभावोद्भवकर इति। तदेव दर्शयति -- योषित्सम्बन्धज इति। विसर्गविशेषणसामर्थ्यादेतत्सिद्धम्। एवं कर्मसंज्ञितरेतोविसर्गज्ञानस्य सप्रयोजनतामाह -- तच्चाखिलमिति। अत्र कर्माभिप्रायेण नपुंसकनिर्देशः।अखिलं मनुष्यत्वमृगत्वादिजातिभेदहेतुतयाऽनेकप्रकारम्।सानुबन्धं हेतुभूतैः कर्मभिः फलभूतैश्च गर्भवासादिभिः सहितमित्यर्थः। पञ्चाग्निविद्यायामुदितसर्वावस्थानुयायित्वदुस्त्यजत्वजन्मादिदुःखकरत्वादेः फलितत्वाज्जुगुप्सनीयतारूपा भयावहत्वरूपा चोद्वेजनीयता युक्ता। परिहरणीयता तु कुतः सिद्ध्येत् इत्यत्राहपरिहरणीयता चेति।
।।8.3।।एतत्प्रश्नोत्तरं साभिप्रायज्ञानार्थं श्रीभगवानुवाच -- अक्षरमिति त्रयेण। न क्षरति न चलतीत्यक्षरं सदैकरसरूपं पुरुषोत्तमचरणात्मकं भक्तहृदयादचलं गृहात्मकं वा स्थिरं तत्। परमं परः पुरुषोत्तमो मीयत अस्मिन्निति परमं ब्रह्म बृहत् व्यापकं च। स्वभावः स्वस्य भगवतो दास्यादिसेवासिद्ध्यर्थं जीवरूपेण भवनम्। अध्यात्मम् आत्मानमविकृतं सेवायोग्यं देहमधिकृत्य तदनुभवे वर्त्तमानो जीवभावोऽध्यात्मशब्देनोच्यत इत्यर्थः। भूतानां जीवानां भावस्य भगवद्रसरूपस्योद्भवकरः प्रकटकारको यो विसर्गो भगवदथद्रव्यादिविनियोगेन सेवारूपः स कर्मसंज्ञितः क्रियारूपः कर्मशब्दवाच्य इत्यर्थः।
।।8.3।।क्रमेणैषां प्रश्नानामुत्तरमाह -- अक्षरमित्यादिभिस्त्रिभिः। तत्र किं तद्ब्रह्मेत्यस्योत्तरमक्षरं परमं ब्रह्मेति। यत्परमक्षरं तद्ब्रह्मेति योजना। अक्षरशब्दस्य वर्णेषु रूढत्वात्ओमित्येतदक्षरम् इत्यादिश्रुतौओमित्येकाक्षरं ब्रह्म इति स्मृतौ च दर्शनेनात्रापि प्रणवस्याक्षरशब्देन ग्रहणे प्रसक्ते परममिति विशेषणं प्रणवस्य परब्रह्मत्वासंभवात्। अतश्चएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् इति श्रुतिप्रसिद्धमखण्डैकरसं वस्तु अक्षरशब्दितं तद्ब्रह्मेति प्राञ्चः। यद्वा अक्षरशब्देन जीवःकूटस्थोऽक्षर उच्यते। उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः इति गीतासुक्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः इति श्रुतौ च कूटस्थपदेनामृतपदेन च विशेषितस्याक्षरपदस्य जीववाचित्वदर्शनात्। अमृतोक्षरमित्यपेक्षिते उत्वाभावश्छान्दसः। तथाचाक्षरं जीवाख्यं परमं ब्रह्म। परममिति विशेषणेन सोपाधिकस्य पूर्वाध्यायोक्तस्य व्यावृत्तिः। नहि जीवस्य सोपाधिकस्य ब्रह्मभावः संभवति। व्यावर्तकोपाधौ मायादर्पणे जाग्रति तयोरभेदायोगात्।किं तद्ब्रह्म इति प्रश्ने परममिति विशेषणाभावेऽपिते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नम् इति प्रश्नोत्थापके सूत्रे परमत्ववाचिना कृत्स्नपदेन ब्रह्मणो विशेषितत्वादुत्तरेऽपि ब्रह्मण एव परममिति विशेषं युज्यत एव। प्रश्नेऽपि तच्छब्देन कृत्स्नत्वस्यैव ग्रहात्। ततश्च किं तत्कृत्स्नं प्रश्ने यदक्षरं जीवाख्यं तदेवापेतोपाधिसंबन्धं सत् कृत्स्नं ब्रह्मेति तत्त्वमसीति महावाक्यार्थः प्रतीचो ब्रह्मभावः प्रतिपादितो भवतीति ह्यद्यम्। तथा स्वोऽनागन्तुको भावः स्वरूपं स्वभावः शुद्धस्त्वंपदार्थः सोऽध्यात्ममुच्यते। भाष्ये तु तस्यैव परस्य ब्रह्मणः प्रतिदेहं प्रत्यगात्मभावः स्वो भावः स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते अध्यात्मशब्देनाभिधीयत इति। विसर्गो देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागात्मको यागः स कर्मसंज्ञितः। तमेव विशिनष्टि -- भूतेति। भूतानां भावः सात्विकादिः स्वभावः उद्भवश्च तयोः करणात् भूतभावोद्भवकरः। तथाहिबुद्धिः कर्मानुसारिणी इति कर्मानुसारित्वं भावस्य स्मर्यते। तथा उद्भवोऽपि कर्मत एव स्मर्यते।अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः इति।
।।8.3।।क्रमेण कृतानां प्रश्नानां तथैव प्रतिवचने प्रश्नकर्तुरिष्टं सुखेन प्रश्नोत्तरदानं सिध्यतीत्याशयवानर्जुनकृतप्रश्नानां क्रमेण निर्णयाय श्रीभगवानुवाच। तत्रते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्त्रमि त्यत्र निर्गुणं ब्रह्म विविक्षितमिति प्रथमप्रश्नस्योत्तरमाह -- अक्षरं ब्रह्मेति। यदुक्तं किं तदब्रह्मेति तदक्षरं न क्षरतीत्यक्षरं विनाशरहितं अश्रुते व्याप्नोति सर्वमिति व्युत्पत्त्या वाक्षरं सर्वत्र व्यापकम्। रुढ्याक्षरशब्देनोंकारप्रतिपत्तिभ्रमं वारयति -- परममिति। परत्वं निरतिशयं परमात्मन एव पृथिव्याद्याकाशान्तस्य विकारजातस्य धारणात्। तथाच सूत्रंअक्षरमम्बरान्तधृतेः इतिकस्मिन्नु खल्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेति सहोवाचैतद्वैतदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनणु इत्यादि श्रुयते। तत्र संशयः किमक्षरशब्देनि वर्ण उच्यते किंवा परमेश्वर इति। तत्राक्षरसमाम्राय इत्यादावक्षरशब्दस्य वर्णे प्रसिद्धत्वात् प्रसिद्य्धतिक्रमस्य चायुक्तत्वादोंकार एवेदं सर्वमित्यादौ च श्रुत्यन्तरे वर्णस्याप्युपास्यत्वेन सर्वात्मत्वावधारणात् वर्ण एवाक्षरशब्दवाच्य इत्येवं प्राप्त उच्यते। परएव आत्माक्षरशब्दवाच्यः कस्मादम्बरान्तधृतेः पृथिव्यादेराकाशान्तस्य विकारजातस्य धारणात्। तत्र हि पृथिव्यादेः समस्तस्य विकारजातस्य कालत्रयप्रविभक्तस्याकाशएव तदोतं च प्रोतं चेत्याकाशप्रतिष्ठत्वमुकत्वा कस्मिन्नु खल्वाकाश ओतश्च प्रोतश्चेत्यनेन प्रश्नेनेदमक्षरमवतीरितं। तथाचोपसंहृतमेतस्मिन्खल्वक्षरे गार्ग्याकाश ओतश्च प्रोतश्चेति। नचेयमम्बरान्तधृतिर्ब्रह्मणोऽन्यत्र संभवति। यदप्योंकार एवेदं सर्वमिति तदपि ब्रह्मप्रतिपत्तिसाधनत्वात्स्तुत्यर्थं द्रष्टव्यम्। तस्मान्न क्षरत्यश्रुते वेति नित्यत्वव्यापित्वाभ्यामक्षरं परमेव ब्रह्मेति परममिति विशेषणादक्षरशब्देन जीवप्रधानप्रतिभ्रमोऽपि चारितः।।तृतीयप्रश्नस्योत्तरमाह -- भूतभावोद्भवकरः भूतानां भावो भूतभावः तस्योद्भवो भूतभावोद्भवस्तं करोतीति भूतभावोद्भवकरो भूतवस्तूत्पत्तिकर इति। भाष्ये भूतान्येव भावास्तेषामुद्भवः समुत्पत्तिस्तां करोतीति व्युत्पत्तिं सिद्धवत्कृत्य विधान्तरेण व्युत्पादयति -- भूतानामिति। भावः सद्भावो वस्तुभाव इति तट्टीकाकाराः। एवंच भूतानां भवनधर्मकाणां भाव उत्पत्तिः उद्भवो वृद्धिश्च तयोः करः भूतभावोद्भवकर इत्यादिष्युत्पत्तिसिद्धवत्करोऽपि बोध्यः। विसर्जन विसर्गः देवतोद्देशेन चरुपुरोडाशादेर्द्रव्यस्य परित्यागः सएव विसर्गलक्षणो यज्ञादिरुपो वेदविहितः कर्म संज्ञितः कर्मशब्देन मयोक्त इत्यर्थः।अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः।। इत स्मृतिभूतानां चराचराणामुद्भवमेतस्मात्कर्मणो दर्शयति।
8.3 अक्षरम् imperishable? ब्रह्म Brahman? परमम् Supreme? स्वभावः (His) Nature? अध्यात्मम् Selfknowledge? उच्यते is called? भूतभावोद्भवकरः that which causes the origin and growth of beings? विसर्गः offering (to gods)? कर्मसंज्ञितः is called action.Commentary Brahman is imperishable? immutable? eternal? selfexistent? selfluminous? unchanging and allpervading. It is the source? root and womb of everything. In It all beings that are manifested live? move and have their very being. Hence? It is Paramam? the Supreme and Akshara.Its essential nature or Svabhava is Adhyatma. Brahmans dwelling in each individual body as the innermost Self (the Pratyagatma) is called Adhyatma. Yajnavalkya (a great sage of the Upanishadic period) said O Gargi Heaven and earth stand upheld in their places. The Brahmanas call this (Brahman) the Akshara (the imperishable). It is neither red nor white It is not shadow? not darkness? nor air? not ehter? without adhesion? without smell? without eyes? without ears? without speech? without mind? without light? without breath? without a mouth or door? without measures? having nothing within and nothing outside It. It does not consume anything? nor does anyone consume It. Akshara is the Supreme Brahman only.Akshara here does not mean the holy word Om? or the Avyakta (the unmanifested source of all that is in Nature). There is Laya (absorption) for Om. There is destruction for the unmanifested Nature also. Therefore Brahman is the Akshara? the Imperishable? the Supreme Being.Offering All virtuous work.The sacrificial act which consists of offering cooked rice? cakes? etc.? to the gods and which causes the genesis and support of beings is called Karma. The oblations in the sacrifice assume a subtle form and reach the sphere of the sun. Through the sun there is rain? and various sorts of grains? vegetables and fruits crop up. The living beings (Bhutas) live and develop on account of rice and other foodstuffs. Therefore Yajnas are the cause of the genesis and support of all beings.
8.3 The Blessed Lord said Brahman is the Imperishable, the Supreme; Its essential nature is called Self-knowledge; the offering (to the gods) which causes existence and manifestation of beings and which also sustains them is called action.
8.3 The Lord Shri Krishna replied: The Supreme Spirit is the Highest Imperishable Self, and Its Nature is spiritual consciousness. The worlds have been created and are supported by an emanation from the Spirit which is called the Law.
8.3 The Blessed Lord said The Immutable is the supreme Brahman; self-hood is said to the entity present in the individual plane. By action is meant the offerings which bring about the origin of the existence of things.
8.3 Aksaram means that which does not perish (na ksarati), the supreme Self. This agrees with the Upanisadic text, 'Under the mighty rule of this Immutable, O Gargi৷৷.' (Br. 3.8.9). And (the letter) Om is not accept here [as the meaning of aksara (lit. letter)], because of its being mentioned (as a letter) later on in, 'The single letter Om, which is Brahman' (13). Besides, the adjective 'supreme' is more apporpriate with regard to the absolute, immutable Brahman. By svabhava, self-hood, is meant the eixtence of that very supreme Brahman in every body as the indwelling Self. Svabhavah ucyate, self-hood is said to be, is referred to by the word; adhyatmam, the entity which, as the indwelling Self, exists in the body (atma) by making it its habitat (adhikrtya), and which in the ultimate analysis is the supreme Brahman. Visargah, the offerings, the giving away to gods of things like porridge [Caru: An oblations of rice, barley and pulse boiled-together to be offered to gods.], cake, etc.; bhuta-bhava-udbhava-karah, which bring about the origin of the existence of things; is karma-sanjnitah, meant by action. This sacrifice consisting in pouring of oblations is called action. The existence (bhava) of (moving and nonmoving) things (bhuta) is bhuta-bhava. The coming into being (udbhava) of that (existence) is bhuta-bhava-udbhavah. That which causes (karoti) this is bhuta-bhava-udbhava-karah, i.e. the originator of existing things. It is needed from this source that all bengs, moving and non-moving, originate thorugh the successive processes of railfall etc. (see 3.14-15).
8.3. The Bhagavat said The immutable Absolute is the Brahman. Its intrinsic nature is called the Lord of the self. The emitting activity that causes the birth of both the animate and the inanimate is named 'action '.
8.3 Aksaram etc. the Supreme is [called] Brahman because It is big and causes everything to grow [in It]. On the same ground, what is termed 'as the Lord-of-self' is that thing which bears the name Consciousness which never ceases to be in It (Brahman) and which is nothing but the Brahman (svah bhavah). This Brahman, which is nothing but Consciousness, embraces the Power of [creating] the universe because of Its unlimited aspect of being external; and on account of Its freedom in the form of supremacy there arises the emitting (i.e. creative) activity [in it] in the form of manifesting Itself as the external inanimate beings and also as various external animate ones. [These two aspects of] this activity cause respectively the birth of the inanimate beings - i.e. the insentient beings, and the animate ones i.e. the sentient beings like Brahman etc. [In other words], It manifests as varigated insentient and sentient beings. Again this activity bestows on what is real, its intrinsic nature i.e. creates a reality for the one from which all that is false is excluded. this emitting activity is what is known as 'action'.
8.3 The Lord said That which is the Supreme Imperishable (Aksara) has been named 'that brahman' The Aksara is that which cannot be destroyed and forms the totality of all individual selves. The Srutis say to this effect: 'The Avyakta is dissolved into the Aksara, the Aksara is dissolved into Tamas' (Su. U., 2). The supreme Aksara is the essential form of the self, separated from Prakrti. One's own material nature (the body) is spoken of as Adhyatma or that which dwells with the self. This material nature (Svabhava) is Prakrti. It does not form the self but attaches itself to the self in the form of subtle elements, impressions etc. This has been taught in the Vidya of Five Fires (Cha. U., 5). Both these (the Aksara and the Adhyatma) should be known by the aspirants for liberation (Kaivalya) - the former as what should be attained and the latter as what should be relinished. Karma is that force which produces the origination of mundane beings. 'Beings' here means beings such as the human beings. The creative force which produces their origination is contact with woman. It has been described in the Sruti passage thus: 'The waters sacrificed in the fifth oblations become those who are named Purusas' (Cha. U., 5.3.3). That creative force is called Karma. All the acts associated with that should be considered by aspirants after release as calling for abstention. This abstention will also be inculcated immediately in the text, 'Desiring which they practise the vow of continence' (8.11).
8.3 The Blessed Lord said The Immutable is the supreme Brahman; self-hood is said to the entity present in the individual plane. By action is meant the offerings which bring about the origin of the existence of things.
।।8.3।।इन प्रश्नोंका क्रमसे निर्णय करनेके लिये श्रीभगवान् बोले --, परम अक्षर ब्रह्म है अर्थात् हे गार्गि इस अक्षरके शासनमें ही यह सूर्य और चन्द्रमा धारण किये हुए स्थित हैं इत्यादि श्रुतियोंसे जिसका वर्णन किया गया है जो कभी नष्ट नहीं होता वह परमात्मा ही ब्रह्म है। परम विशेषणसे युक्त होनेके कारण यहाँ अक्षर शब्दसे ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म इस वाक्यमें वर्णित ओंकारका ग्रहण नहीं किया गया है क्योंकि परम वह विशेषण निरतिशय अक्षर ब्रह्ममें ही अधिक सम्भव -- युक्ितयुक्त है। उसी परब्रह्मका जो प्रत्येक शरीरमें अन्तरात्मभाव है उसका नाम स्वभाव है वह स्वभाव ही अध्यात्म कहलाता है। अभिप्राय यह कि आत्मा यानी शरीरको आश्रय बनाकर जो अन्तरात्मभावसे उसमें रहनेवाला है और परिणाममें जो परमार्थ ब्रह्म ही है वही तत्त्व स्वभाव है उसे ही अध्यात्म कहते हैं अर्थात् वही अध्यात्म नामसे कहा जाता है। भूतभावउद्भवकर अर्थात् भूतोंकी सत्ता भूतभाव है। उसका उद्भव ( उत्पत्ति ) भूतभावोद्भव है उसको करनेवाला भूतभावोद्भवकर यानी भूतवस्तुको उत्पन्न करनेवाला ऐसा जो विसर्ग अर्थात् देवोंके उद्देश्यसे चरु पुरोडाश आदि ( हवन करने योग्य ) द्रव्योंका त्याग करना है वह त्यागरूप यज्ञ कर्म नामसे कहा जाता है इस बीजरूप यज्ञसे ही वृष्टि आदिके क्रमसे स्थावरजङ्गम समस्त भूतप्राणी उत्पन्न होते हैं।
।।8.3।। -- अक्षरं न क्षरतीति अक्षरं परमात्मा एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि (बृह0 उ0 3।8।9 इति श्रुतेः। ओंकारस्य च ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म (गीता 8।13) इति परेण विशेषणात् अग्रहणम्। परमम् इति च निरतिशये ब्रह्मणि अक्षरे उपपन्नतरम् विशेषणम्। तस्यैव परस्य ब्रह्मणः प्रतिदेहं प्रत्यगात्मभावः स्वभावः स्वो भावः स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते। आत्मानं देहम् अधिकृत्य प्रत्यगात्मतया प्रवृत्तं परमार्थब्रह्मावसानं वस्तु स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते अध्यात्मशब्देन अभिधीयते। भूतभावोद्भवकरः भूतानां भावः भूतभावः तस्य उद्भवः भूतभावोद्भवः तं करोतीति भूतभावोद्भवकरः भूतवस्तूत्पत्तिकर इत्यर्थः। विसर्गः विसर्जनं देवतोद्देशेन चरुपुरोडाशादेः द्रव्यस्य परित्यागः स एष विसर्गलक्षणो यज्ञः कर्मसंज्ञितः कर्मशब्दित इत्येतत्। एतस्मात् हि बीजभूतात् वृष्ट्यादिक्रमेण स्थावरजङ्गमानि भूतानि उद्भवन्ति।।
।।8.3।।ननु पूर्वाध्याये[29]ते ब्रह्म इति निर्विशेषणमेवोपक्षिप्तम् अतएवात्रकिं तद्ब्रह्म इति तथैव पृष्टम्। उत्तरे तु कस्मात्अक्षरं परमं ब्रह्म इति सविशेषणमुपादीयते इत्यत आह -- परममिति। अक्षरस्यैव परमत्वविशेषणम् न ब्रह्मण इत्यर्थः। तर्हिअक्षरं इत्येवालं किं विशेषणेन इत्यत आह -- वेदेति। आदिपदेन प्रकृतिर्गृह्यते तयोरपि ब्रह्माक्षरशब्दवाच्यत्वात् प्रसक्तिः।स्वभावोऽध्यात्मं [8।3] इति शब्दद्वयस्यैकविषयत्वसिद्धयेऽध्यात्मशब्दं तावत् द्वेधा व्याचष्टे -- आत्मनीति। आत्मानं जीवमधिकृत्य तदुपकारित्वेन वर्तमानं वस्त्वित्यर्थः। आत्माधिकार इति ग्रन्थविशेषस्य संज्ञा यत्प्रतिपाद्यं तदध्यात्ममिति वेत्यर्थः। अत्राध्यात्मशब्दं प्रथमान्तं गृहीत्वा प्रथमं व्याख्यानम्। सप्तम्यन्तमुपादाय द्वितीयं आत्मशब्दं देहविषयमादाय व्याख्याने परमेश्वरप्रसक्तेर्न तथा व्याख्यातम्।एवं तर्हि स्वभावः इत्युभयस्य कथमुत्तरं इत्यतस्तावत्तद्व्याख्यानं प्रतिजानीते -- तथा हीति।,तत्राद्योत्तरत्वेनादौ व्याचष्टे -- जैव इति। जीवस्यायं जैवोऽन्तःकरणादिर्देहपर्यन्तः पदार्थः स्वभावः स्वस्य भाव इति व्युत्पत्त्या।ते ब्रह्म तद्विदुः [7।29] इति जीवानां प्रकृतत्वात् स्वशब्दो जीववाची तथा चात्मन्यधि यत् तदित्येवं व्याख्याताध्यात्मशब्दार्थप्रश्नस्येदमुत्तरं भवतीति भावः। इदानीं द्वितीयोत्तरत्वेन व्याख्याति -- स्वाख्य इति। पूर्ववदत्रापि स्वशब्दो जीववाची तथा चात्माधिकार इति व्याख्याताध्यात्मशब्दार्थप्रश्नस्येदमुत्तरं भवतीत्याशयः। ननु जैववाचित्वे भावशब्दः सार्थकः षष्ठ्याः साकाङ्क्षत्वात् जीववाचित्वे तु तस्य पदार्थत्वाव्यभिचारात्। स्वशब्देनैवालं किंभावशब्देन इत्यतो भावशब्दं तावदन्यथा व्याचष्टे -- सर्वदेति। यद्यपि भवनकर्ता भावः तथापि विशेषानुपादाने मुख्यस्य ग्राह्यत्वात्सर्वदेत्यादि सिध्यति तथापि तस्य किं प्रयोजनम् इत्यत आह -- अन्तःकरणादीति। स्वशब्दमात्रोपादाने तस्यात्मीयेऽपि प्रयोगादन्तःकरणादिकमपि प्रसज्येत तथा च द्वितीयस्येदमुत्तरं स्यात्। आत्मैव ह्यात्माधिकारे प्रतिपाद्यो वक्तव्यः नान्तःकरणादिकम् अतस्तद्व्यावृत्त्यर्थो भावशब्दः प्रयुक्तः। कथं तेन तद्व्यावृत्तिः इत्यत आह -- न हीति। अन्नमयं हि सोम्य मनः [छां.उ.6।5।4] इत्यादेरिति भावः। तथा चान्तःकरणादौ व्यावृत्ते स्वशब्द आत्मार्थतया व्याख्यातो भवतीति हृदयम्।एवं तर्हि भाव इत्येवास्तु किं स्वशब्देन इत्यत आह -- स्वशब्द इति। ईश्वरोऽपि हि सर्वदैकप्रकारेणास्त्येव अतो भाव इत्येवोक्ते तत्प्रसक्तौ पूर्ववत् द्वितीयोत्तरत्वासम्भवे तद्व्यावृत्त्यर्थः स्वशब्दः। न हि ईश्वरो जीवानां स्वः भेदप्रमाणविरोधात्। अत एवेश्वरस्वभावो जीव इति व्याख्यानमपास्तम्। नन्वेवमपि स्वशब्दस्यात्मीयार्थत्वादीश्वरप्रसक्तिः मैवम्द्विष्ठो यद्यपि सम्बन्धः षष्ठ्युत्पत्तिः प्रधानतः इति वचनात्तस्यात्मीत्यात्वाभावात् षष्ठ्यन्तात्खल्वयं छः। सकलकार्योत्पत्तिनिमित्तभूतो देवतोद्देशेन च पुरोडाशादिद्रव्यपरित्यागस्तज्जन्यमपूर्वमिति यावदिति व्याख्यानमसत्। तस्याध्यात्मपदेनैव गृहीतत्वादिति भावेन भूतभावेत्यादिकं व्याख्याति -- भूतानामिति। उद्भवकरी च सेश्वरक्रिया चेति विग्रहः। ईश्वरक्रियाग्रहणं कर्मशब्देनैकार्थ्यप्रतिपत्त्यर्थम्। एवंलक्षणो यो विसर्गः स कर्मसंज्ञितः न तु कुलालादिसम्बन्धीत्यर्थः। ननु,विसर्गशब्दस्त्यागार्थस्तत्कथमेवं व्याख्यानं इत्यत आह -- विशेषेणेति।
।।8.3।।परममक्षरं ब्रह्म। वेदादिशङ्काव्यावृत्त्यर्थमेतत्। आत्मन्यधि यत्तदध्यात्मम्। आत्माधिकारे यत्तदिति वा। तथा हि -- जैवः स्वभावः। स्वाख्यो भावः स्वभाव इति व्युत्पत्त्या जीवो वा स्वभावः सर्वदा अस्त्येव एकप्रकारेणेति भावः। अन्तःकरणादिव्यावृत्त्यर्थो भावशब्दः। न ह्येकप्रकारेण स्थितिरन्तःकरणादेः विकारित्वात्। स्वशब्द ईश्वरव्यावृत्त्यर्थः। भूतानां जीवानां भावानां जडपदार्थानां चोद्भवकरीश्वरक्रिया विसर्गः विशेषेण सर्जनं विसर्ग इत्यर्थः।
श्री भगवानुवाच अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।।8.3।।
শ্রী ভগবানুবাচ অক্ষরং ব্রহ্ম পরমং স্বভাবোধ্যাত্মমুচ্যতে৷ ভূতভাবোদ্ভবকরো বিসর্গঃ কর্মসংজ্ঞিতঃ৷৷8.3৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ অক্ষরং ব্রহ্ম পরমং স্বভাবোধ্যাত্মমুচ্যতে৷ ভূতভাবোদ্ভবকরো বিসর্গঃ কর্মসংজ্ঞিতঃ৷৷8.3৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ અક્ષરં બ્રહ્મ પરમં સ્વભાવોધ્યાત્મમુચ્યતે। ભૂતભાવોદ્ભવકરો વિસર્ગઃ કર્મસંજ્ઞિતઃ।।8.3।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਅਕ੍ਸ਼ਰਂ ਬ੍ਰਹ੍ਮ ਪਰਮਂ ਸ੍ਵਭਾਵੋਧ੍ਯਾਤ੍ਮਮੁਚ੍ਯਤੇ। ਭੂਤਭਾਵੋਦ੍ਭਵਕਰੋ ਵਿਸਰ੍ਗ ਕਰ੍ਮਸਂਜ੍ਞਿਤ।।8.3।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಅಕ್ಷರಂ ಬ್ರಹ್ಮ ಪರಮಂ ಸ್ವಭಾವೋಧ್ಯಾತ್ಮಮುಚ್ಯತೇ. ಭೂತಭಾವೋದ್ಭವಕರೋ ವಿಸರ್ಗಃ ಕರ್ಮಸಂಜ್ಞಿತಃ৷৷8.3৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച അക്ഷരം ബ്രഹ്മ പരമം സ്വഭാവോധ്യാത്മമുച്യതേ. ഭൂതഭാവോദ്ഭവകരോ വിസര്ഗഃ കര്മസംജ്ഞിതഃ৷৷8.3৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ଅକ୍ଷରଂ ବ୍ରହ୍ମ ପରମଂ ସ୍ବଭାବୋଧ୍ଯାତ୍ମମୁଚ୍ଯତେ| ଭୂତଭାବୋଦ୍ଭବକରୋ ବିସର୍ଗଃ କର୍ମସଂଜ୍ଞିତଃ||8.3||
śrī bhagavānuvāca akṣaraṅ brahma paramaṅ svabhāvō.dhyātmamucyatē. bhūtabhāvōdbhavakarō visargaḥ karmasaṅjñitaḥ৷৷8.3৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச அக்ஷரஂ ப்ரஹ்ம பரமஂ ஸ்வபாவோத்யாத்மமுச்யதே. பூதபாவோத்பவகரோ விஸர்கஃ கர்மஸஂஜ்ஞிதஃ৷৷8.3৷৷
శ్రీ భగవానువాచ అక్షరం బ్రహ్మ పరమం స్వభావోధ్యాత్మముచ్యతే. భూతభావోద్భవకరో విసర్గః కర్మసంజ్ఞితః৷৷8.3৷৷
8.4
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।।8.4।। हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! क्षरभाव अर्थात् नाशवान् पदार्थको अधिभूत कहते हैं, पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी अधिदैव हैं और इस देहमें अन्तर्यामीरूपसे मैं ही अधियज्ञ हूँ।
।।8.4।। हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! नश्वर वस्तु (पंचमहाभूत) अधिभूत और पुरुष अधिदैव है; इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूँ।।
।।8.4।। परम अक्षर तत्त्व ब्रह्म है ब्रह्म शब्द उस अपरिवर्तनशील और अविनाशी तत्त्व का संकेत करता है जो इस दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। वही आत्मरूप से शरीर मन और बुद्धि को चैतन्य प्रदान कर उनके जन्म से लेकर मरण तक के असंख्य परिवर्तनों को प्रकाशित करता है।ब्रह्म का ही प्रतिदेह में आत्मभाव अध्यात्म कहलाता है। यद्यपि परमात्मा स्वयं निराकार और सूक्ष्म होने के कारण सर्वव्यापी है तथापि उसकी सार्मथ्य और कृपा का अनुभव प्रत्येक भौतिक शरीर में स्पष्ट होता है। देह उपाधि से मानो परिच्छिन्न हुआ ब्रह्म जब उस देह में व्यक्त होता है तब उसे अध्यात्म कहते हैं। श्री शंकाचार्य इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं प्रतिदेह में प्रत्यगात्मतया प्रवृत्त परमार्थ ब्रह्म अध्यात्म कहलाता है।मात्र उत्पादन ही कर्म नही है। उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करने का आदेश दिया जा सकता है तथा केवल अधिक परिश्रम से उसे सम्पादित भी किया जा सकता है। यहाँ प्रयुक्त कर्म शब्द का तात्पर्य और अधिक गम्भीर सूक्ष्म और दिव्य है। बुद्धि में निहित वह सृजन शक्ति वह सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति जिसके कारण बुद्धि निर्माण कार्य में प्रवृत्त होकर विभिन्न भावों का निर्माण करती है कर्म नाम से जानी जाती है। अन्य सब केवल स्वेद और श्रम है अर्जन और अपव्यय है स्मिति और गायन है सुबकन और रुदन है।नश्वर भाव अधिभूत है अक्षर तत्त्व के विपरीत क्षर प्राकृतिक जगत् है जिसके माध्यम से आत्मा की चेतनता व्यक्त होने से सर्वत्र शक्ति और वैभव के दर्शन होते हैं। क्षर और अक्षर में उतना ही भेद है जितना इंजिन और वाष्प में रेडियो और विद्युत् में। संक्षेप में सम्पूर्ण दृश्यमान जड़ जगत् क्षर अधिभूत है। अध्यात्म दृष्टि से क्षर उपाधियाँ हैं शरीर इन्द्रियाँ मन और बुद्धि। पुरुष अधिदैव है। पुरुष का अर्थ है पुरी में शयन करने वाला अर्थात् देह में वास करने वाला। वेदान्तशास्त्र के अनुसार प्रत्येक इन्द्रिय मन और बुद्धि का अधिष्ठाता देवता है उनमें इन उपाधियों के स्वविषय ग्रहण करने की सार्मथ्य है। समष्टि की दृष्टि से शास्त्रीय भाषा में इसे हिरण्यगर्भ कहते हैं।इस देह में अधियज्ञ मैं हूँ वेदों के अनुसार देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में आहुति दी जाने की क्रिया यज्ञ कहलाती है। अध्यात्म (व्यक्ति) की दृष्टि से यज्ञ का अर्थ है विषय भावनाएं एवं विचारों का ग्रहण। बाह्य यज्ञ के समान यहाँ भी जब विषय रूपी आहुतियाँ इन्द्रियरूपी अग्नि में अर्पण की जाती हैं तब इन्द्रियों का अधिष्ठाता देवता (ग्रहण सार्मथ्य) प्रसन्न होता है जिसके अनुग्रह स्वरूप हमें फल प्राप्त होकर अर्थात् तत्सम्बन्धित विषय का ज्ञान होता है। इस यज्ञ का सम्पादन चैतन्य आत्मा की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। अत वही देह में अधियज्ञ कहलाता है।भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ दी गयी परिभाषाओं का सूक्ष्म अभिप्राय या लक्ष्यार्थ यह है कि ब्रह्म ही एकमात्र पारमार्थिक सत्य है और शेष सब कुछ उस पर भ्रान्तिजन्य अध्यास है। अतः आत्मा को जानने का अर्थ है सम्पूर्ण जगत् को जानना। एक बार अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने के पश्चात् वह ज्ञानी पुरुष कर्तव्य अकर्तव्य और विधिनिषेध के समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है। कर्म करने अथवा न करने में वह पूर्ण स्वतन्त्र होता है।जो पुरुष इस ज्ञान में स्थिर होकर अपने व्यक्तित्व के शारीरिक मानसिक एवं बौद्धिक स्तरों पर क्रीड़ा करते हुए आत्मा को देखता है वह स्वाभाविक ही स्वयं को उस दिव्य साक्षी के रूप में अनुभव करता है जो स्वइच्छित अनात्म बन्धनों की तिलतिल हो रही मृत्यु का भी अवलोकन करता रहता है।अन्तकाल में आपका स्मरण करता हुआ जो देहत्याग करता है उसकी क्या गति होती है
।।8.4।। व्याख्या --'अधिभूतं क्षरो भावः'--पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश -- इन पञ्चमहाभूतोंसे बनी प्रतिक्षण परिवर्तनशील और नाशवान् सृष्टिको अधिभूत कहते हैं।'पुरुषश्चाधिदैवतम्'-- यहाँ 'अधिदैवत' (अधिदैव) पद आदिपुरुष हिरण्यगर्भ ब्रह्माका वाचक है। महासर्गके आदिमें भगवान्के संकल्पसे सबसे पहले ब्रह्माजी ही प्रकट होते हैं और फिर वे ही सर्गके आदिमें सब सृष्टिकी रचना करते हैं। 'अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर'--हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन इस देहमें अधियज्ञ मैं ही हूँ अर्थात् इस मनुष्यशरीरमें अन्तर्यामीरूपसे मैं ही हूँ (टिप्पणी प0 451.1)। भगवान्ने गीतामें 'हृदि सर्वस्य विष्ठितम्' (13। 17) 'सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः' (15। 15) 'ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति' (18। 61) आदिमें अपनेको अन्तर्यामीरूपसे सबके हृदयमें विराजमान बताया है। 'अहमेव अत्र (टिप्पणी प0 451.2) देहे'कहनेका तात्पर्य है कि दूसरी योनियोंमें तो पूर्वकृत कर्मोंका भोग होता है नये कर्म नहीं बनते पर इस मनुष्यशरीरमें नये कर्म भी बनते हैं। उन कर्मोंके प्रेरक अन्तर्यामी भगवान् होते हैं (टिप्पणी प0 451.3)। जहाँ मनुष्य रागद्वेष नहीं करता उसके सब कर्म भगवान्की प्रेरणाके अनुसार शुद्ध होते हैं अर्थात् बन्धनकारक नहीं होते और जहाँ वह रागद्वेषके कारण भगवान्की प्रेरणाके अनुसार कर्म नहीं करता उसके कर्म बन्धनकारक होते हैं। कारण कि राग और द्वेष मनुष्यके महान् शत्रु हैं (गीता 3। 34)। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्की प्रेरणासे कभी निषिद्धकर्म होते ही नहीं। श्रुति और स्मृति भगवान्की आज्ञा है -- 'श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे।' अतः भगवान् श्रुति और स्मृतिके विरुद्ध प्रेरणा कैसे कर सकते हैं नहीं कर सकते। निषिद्धकर्म तो मनुष्य कामनाके वशीभूत होकर ही करता है (गीता 3। 37)। अगर मनुष्य कामनाके वशीभूत न हो तो उसके द्वारा स्वाभाविक ही विहित कर्म होंगे जिनको अठारहवें सहज,स्वभावनियत कर्म नामसे कहा गया है।यहाँ अर्जुनके लिये 'देहभृतां वर' कहनेका तात्पर्य है कि देहधारियोंमें वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो इस देहमें परमात्मा हैं -- ऐसा जान लेता है। ऐसा ज्ञान न हो तो भी ऐसा मान ले कि स्थूल सूक्ष्म और कारणशरीरके कणकणमें परमात्मा हैं और उनका अनुभव करना ही मनुष्यजन्मका खास ध्येय है। इस ध्येयकी सिद्धिके लिये परमात्माकी आज्ञाके अनुसार ही काम करना है।तीसरे और चौथे श्लोकमें जो ब्रह्म अध्यात्म कर्म अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञका वर्णन हुआ है उसे समझनेमात्रके लिये जलका एक दृष्टान्त दिया जाता है। जैसे जब आकाश स्वच्छ होता है तब हमारे और सूर्यके मध्यमें कोई पदार्थ न दीखनेपर भी वास्तवमें वहाँ परमाणुरूपसे जलतत्त्व रहता है। वही जलतत्त्व भाप बनता है और भापके घनीभूत होनेपर बादल बनता है। बादलमें जो जलकण रहते हैं उनके मिलनेसे बूँदें बन जाती हैं। उन बूँदोंमें जब ठण्डकके संयोगसे घनता आ जाती है तब वे ही बूँदें ओले (बर्फ) बन जाती हैं -- यह जलतत्त्वका बहुत स्थूल रूप हुआ। ऐसे ही निर्गुणनिराकार ब्रह्म परमाणुरूपसे जलतत्त्व है अधियज्ञ (व्यापक विष्णु) भापरूपसे जल है अधिदैव (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा) बादलरूपसे जल है अध्यात्म (अनन्त जीव) बूँदेंरूपसे जल है कर्म (सृष्टिरचनारूप कर्म) वर्षाकी क्रिया है और,अधिभूत (भौतिक सृष्टिमात्र) बर्फरूपसे जल है। इस वर्णनका तात्पर्य यह हुआ कि जैसे एक ही जल परमाणु भाप बादल वर्षाकी क्रिया बूँदें और ओले(बर्फ) के रूपसे भिन्नभिन्न दीखता है पर वास्तवमें है एक ही। इसी प्रकार एक ही परमात्मतत्त्व ब्रह्म अध्यात्म कर्म अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञके रूपसे भिन्नभिन्न प्रतीत होते हुए भी तत्त्वतः एक ही है। इसीको सातवें अध्यायमें 'समग्रम्' (7। 1) और 'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19) कहा गया है। तात्त्विक दृष्टिसे तो सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19)। इसमें भी जब विवेकदृष्टिसे देखते हैं तब शरीरशरीरी प्रकृतिपुरुष -- ऐसे दो भेद हो जाते हैं। उपासनाकी दृष्टिसे देखते हैं तो उपास्य (परमात्मा) उपासक (जीव) और त्याज्य (प्रकृतिका कार्य -- संसार) -- ये तीन भेद हो जाते हैं। इन तीनोंको समझनेके लिये यहाँ इनके छः भेद किये गये हैं -- परमात्माके दो भेद -- ब्रह्म (निर्गुण) और अधियज्ञ (सगुण)।जीवके दो भेद -- अध्यात्म (सामान्य जीव जो कि बद्ध हैं) और अधिदैव (कारक पुरुष जो कि मुक्त हैं)।संसारके दो भेद -- कर्म (जो कि परिवर्तनका पुञ्ज है) और अधिभूत (जो कि पदार्थ हैं)। 1. ब्रह्म 2. अध्यात्म 3. कर्म 4. अधिभूत 5. अधिदैव 6. अधियज्ञ विशेष बात (1)सब संसारमें परमात्मा व्याप्त हैं --'मया ततमिदं सर्वम्' (9। 4) 'येन सर्वमिदं ततम्' (18। 46) सब संसार परमात्मामें है -- 'मयि सर्वमिदं प्रोतम्' (7। 7) सब कुछ परमात्मा ही हैं --'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19) सब संसार परमात्माका है--'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च' (9। 24) 'भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्' (5। 29) -- इस प्रकार गीतामें भगवान्के तरहतरहके वचन आते हैं। इन सबका सामञ्जस्य कैसे हो सबकी संगति कैसे बैठे इसपर विचार किया जाता है। संसारमें परमात्मप्राप्तिके लिये अपने कल्याणके लिये साधना करनेवाले जितने भी साधक (टिप्पणी प0 452) हैं वे सभी संसारसे छूटना चाहते हैं और परमात्माको प्राप्त करना चाहते हैं। कारण कि संसारके साथ सम्बन्ध रखनेसे सदा रहनेवाली शान्ति और सुख नहीं मिल सकता प्रत्युत सदा अशान्ति और दुःख ही मिलता रहता है -- ऐसा मनुष्योंका प्रत्यक्ष अनुभव है। परमात्मा अनन्त आनन्दके स्वरूप हैं वहाँ दुःखका लेश भी नहीं है -- ऐसा शास्त्रोंका कथन है और सन्तोंका अनुभव है।अब विचार यह करना है कि साधकको संसार तो प्रत्यक्षरूपसे दीखता है और परमात्माको वह केवल मानता है क्योंकि परमात्मा प्रत्यक्ष दीखते नहीं। शास्त्र और सन्त कहते हैं कि संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है इसको मानकर साधक साधन करता है। उस साधनामें जबतक संसारकी मुख्यता रहती है तबतक परमात्माकी मान्यता गौण रहती है। साधन करतेकरते ज्योंज्यों परमात्माकी धारणा (मान्यता) मुख्य होती चली जाती है त्योंहीत्यों संसारकी मान्यता गौण होती चली जाती है। परमात्माकी धारणा सर्वथा मुख्य होनेपर साधकको यह स्पष्ट दीखने लग जाता है कि संसार पहले नहीं था और फिर बादमें नहीं रहेगा तथा वर्तमानमें जो है रूपसे दीखता है वह भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है। जब संसार नहीं था तब भी परमात्मा थे जब संसार नहीं रहेगा तब भी परमात्मा रहेंगे और वर्तमानमें संसारके प्रतिक्षण अभावमें जाते हुए भी परमात्मा ज्योंकेत्यों विद्यमान हैं। तात्पर्य है कि संसारका सदा अभाव है और परमात्माका सदा भाव है। इस तरह जब संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका सर्वथा अभाव हो जाता है तब सत्यस्वरूपसे सब कुछ परमात्मा ही हैं -- ऐसा वास्तविक अनुभव हो जाता है जिसके होनेसे साधक सिद्ध कहा जाता है। कारण कि संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है -- ऐसी मान्यता संसारकी सत्ता माननेसे ही होती थी और संसारकी सत्ता साधकके रागके कारण ही दीखती थी। तत्त्वतः सब कुछ परमात्मा ही हैं। (2)सत् और असत् सब परमात्मा ही हैं --'सदसच्चाहम्' (9। 19) परमात्मा न सत् कहे जा सकते हैं और न असत् कहे जा सकते हैं -- 'न सत्तन्नासदुच्यते' (13। 12) परमात्मा सत् भी हैं असत् भी हैं और सत्असत् दोनोंसे परे भी हैं --'सदसत्तत्परं यत्' (11। 37)। इस प्रकार गीतामें भिन्नभिन्न वचन आते हैं। अब उनकी संगतिके विषयमें विचार किया जाता है।परमात्मतत्त्व अत्यन्त अलौकिक और विलक्षण है। उस तत्त्वका वर्णन कोई भी नहीं कर सकता। उस तत्त्वको इन्द्रियाँ मन और बुद्धि नहीं पकड़ सकते अर्थात् वह तत्त्व इन्द्रियाँ मन और बुद्धिकी परिधिमें नहीं आता। हाँ इन्द्रियाँ मन और बुद्धि उसमें विलीन हो सकते हैं। साधक उस तत्त्वमें स्वयं लीन हो सकता है उसको प्राप्त कर सकता है पर उस तत्त्वको अपने कब्जेमें अपने अधिकारमें अपनी सीमामें नहीं ले सकता।परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति चाहनेवाले साधक दो तरहके होते हैं -- एक विवेकप्रधान और एक श्रद्धाप्रधान अर्थात् एक मस्तिष्कप्रधान होता है और एक हृदयप्रधान होता है। विवेकप्रधान साधकके भीतर विवेककी अर्थात् जाननेकी मुख्यता रहती है और श्रद्धाप्रधान साधकके भीतर माननेकी मुख्यता रहती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि विवेकप्रधान साधकमें श्रद्धा नहीं रहती और श्रद्धाप्रधान साधकमें विवेक नहीं रहता प्रत्युत यह तात्पर्य है कि विवेकप्रधान साधकमें विवेककी मुख्यता और साथमें श्रद्धा रहती है तथा श्रद्धाप्रधान साधकमें श्रद्धाकी मुख्यता और साथमें विवेक रहता है। दूसरे शब्दोंमें जाननेवालोंमें मानना भी रहता है और माननेवालोंमें जानना भी रहता है। जाननेवाले जानकर मान लेते हैं और माननेवाले मानकर जान लेते हैं। अतः किसी भी तरहके साधकमें किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं रहती।साधक चाहे विवेकप्रधान हो चाहे श्रद्धाप्रधान हो पर साधनमें उसकी अपनी रुचि श्रद्धा विश्वास और योग्यताकी प्रधानता रहती है। रुचि श्रद्धा विश्वास और योग्यता एक साधनमें होनेसे साधक उस तत्त्वको जल्दी समझता है। परन्तु रुचि और श्रद्धाविश्वास होनेपर भी वैसी योग्यता न हो अथवा योग्यता होनेपर भी वैसी रुचि और श्रद्धाविश्वास न हो तो साधकको उस साधनमें कठिनता पड़ती है। रुचि होनेसे मन स्वाभाविक लग जाता है श्रद्धाविश्वास होनेसे बुद्धि स्वाभाविक लग जाती है और योग्यता होनेसे बात ठीक समझमें आ जाती है।विवेकप्रधान साधक निर्गुणनिराकारको पसंद करता है अर्थात् उसकी रुचि निर्गुणनिराकारमें होती है। श्रद्धाप्रधान साधक सगुणसाकारको पसंद करता है अर्थात् उसकी रुचि सगुणसाकारमें होती है। जो निर्गुणनिराकारको पसंद करता है वह यह कहता है कि परमात्मतत्त्व न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है। जो सगुणसाकारको पसंद करता है तो वह कहता है कि परमात्मा सत् भी हैं असत् भी हैं और सत्असत्से परे भी हैं।तात्पर्य यह हुआ कि चिन्मयतत्त्व तो हरदम ज्योंकात्यों ही रहता है और जड असत् कहलानेवाला संसार निरन्तर बदलता रहता है। जब यह चेतन जीव बदलते हुए संसारको महत्त्व देता है उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब यह जन्ममरणके चक्करमें घूमता रहता है। परन्तु जब यह जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद कर लेता है तब इसको स्वतःसिद्ध चिन्मयतत्त्वका अनुभव हो जाता है। विवेकप्रधान साधक विवेकविचारके द्वारा जडताका त्याग करता है। जडताका त्याग होनेपर चिन्मयतत्त्व अवशेष रहता है अर्थात् नित्यप्राप्त तत्त्वका अनुभव हो जाता है। श्रद्धाप्रधान साधक केवल भगवान्के ही सम्मुख हो जाता है जिससे वह जडतासे विमुख होकर भगवान्को प्रेमपूर्वक प्राप्त कर लेता है। विवेकप्रधान साधक तो सम शान्त सत्घन चित्घन आनन्दघन तत्त्वमें अटल स्थित होकर अखण्ड आनन्दको प्राप्त होता है पर श्रद्धाप्रधान साधक भगवान्के साथ अभिन्न होकर प्रेमके अनन्त प्रतिक्षण वर्धमान आनन्दको प्राप्त कर लेता है।इस प्रकार दोनों ही साधकोंको जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेदपूर्वक चिन्मयतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है और,सत्असत् अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही हैं -- ऐसा अनुभव हो जाता है।  सम्बन्ध --दूसरे श्लोकमें अर्जुनका सातवाँ प्रश्न था कि अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।8.4।।अधिभूतमिति। क्षरति स्रवति परिणामादिधर्मेण इति क्षरः (S omits क्षरः) घटादिः पदार्थग्राम उच्यते। पुरुषः आत्मा। स च अधिदैवतम् तत्र सर्वदैवतानां परिनिष्ठितत्त्वात्। अत एव अशेषयज्ञभोक्तृत्वेन यज्ञान् अवश्यकार्याणि कर्माणि अधिकृत्य यः स्थितः पुरुषोत्तमः सः अहमेव। अहमेव च देहे स्थित इति प्रश्नद्वयमेकेन यत्नेन निर्णीतम्।
।।8.4।।ऐश्वर्यार्थिनां ज्ञातव्यतया निर्दिष्टम् अधिभूतं क्षरो भावः वियदादिभूतेषु वर्तमानः तत्परिणामविशेषः क्षरणस्वभावो विलक्षणः शब्दस्पर्शादिः साश्रयः विलक्षणाः साश्रयाः शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः ऐश्वर्यार्थिभिः प्राप्याः तैः अनुसंधेयाः।पुरुषश्च अधिदैवतम् अधिदैवतशब्दनिर्दिष्टः पुरुषः अधिदैवतं दैवतोपरि वर्तमानम् इन्द्रप्रजापतिप्रभृतिकृत्स्नदैवतोपरि वर्तमानः इन्द्रप्रजापतिप्रभृतीनां भोग्यजाताद् विलक्षणशब्दादेः भोक्ता पुरुषः सा च भोक्तृत्वावस्था ऐश्वर्यार्थिभिः प्राप्यतया अनुसन्धेया।अधियज्ञः अहम् एव अधियज्ञशब्दनिर्दिष्टो अहम् एव अधियज्ञः यज्ञैः आराध्यतया वर्तमानः अत्रेन्द्रादौ मम देहभूते आत्मतया अवस्थितः अहम् एव यज्ञैः आराध्य इति महायज्ञादिनित्यनैमित्तकानुष्ठानवेलायां त्रयाणाम् अधिकारिणाम् अनुसन्धेयम् एतत्।इदमपि त्रयाणां साधारणम् --
।।8.4।।संप्रति प्रश्नत्रयस्योत्तरमाह -- अधिभूतमिति। अधिभूतं च किं प्रोक्तमित्यस्य प्रतिवचनं अधिभूतं क्षरो भाव इति। तत्राधिभूतपदमनूद्य वाच्यमर्थं कथयति -- अधिभूतमित्यादिना। तस्य निर्देशमन्तरेण निर्ज्ञातुमशक्यत्वात्प्रश्नद्वारा तन्निर्दिशति -- कोऽसाविति। कार्यमात्रमत्र संगृहीतमिति वक्तुमुक्तमेव व्यनक्ति -- यत्किंचिदिति। अधिदैवं किमिति प्रश्ने पुरुषश्चेत्यादिप्रतिवचनं तत्र पुरुषशब्दमनूद्य मुख्यमर्थं तस्योपन्यस्यति -- पुरुष इति। तस्यैव संभावितमर्थान्तरमाह -- पुरि शयनाद्वेति। वैराजं देहमासाद्यादित्यमण्डलादिषु दैवतेषु योऽन्तरवस्थितो लिङ्गात्मा व्यष्टिकरणानुग्राहकोऽत्र पुरुषशब्दार्थः स चाधिदैवतमिति स्फुटयति -- आदित्येति। अधियज्ञः कथमित्यादिप्रश्नं परिहरन्नधियज्ञशब्दार्थमाह -- अधियज्ञ इति। कथमुक्तायां देवतायामधियज्ञशब्दः स्यादित्याशङ्क्य श्रुतिमनुसरन्नाह -- यज्ञो वा इति। परैव देवताऽधियज्ञशब्देनोच्यते। सा च ब्रह्मणः सकाशादत्यन्ताभेदेन प्रतिपत्तव्येत्याह -- स हि विष्णुरिति। शास्त्रीयव्यवहारभूमिरत्रेत्युक्ता। देहसामानाधिकरण्याद्वात्रेत्यस्य व्याख्यानम् -- अस्मिन्निति। किमधियज्ञो बहिरन्तर्वा देहादिति संदेहो मा भूदित्याह -- देह इति। ननु यज्ञस्य देहाधिकरणत्वाभावात्कथं तथाविधयज्ञाभिमानिदेवतात्वं भगवता विवक्ष्यते तत्राह -- यज्ञो हीति। एतेन तस्य बुद्ध्यादिव्यतिरिक्तत्वमुक्तमवधेयम्। नहि परा देवता दर्शितरीत्याधियज्ञशब्दिता बुद्ध्यादिष्वन्तर्भावमनुभावयितुमलम्। देहान्बिभ्रतीति देहभृतः सर्वे प्राणिनस्तेषामेव वरः श्रेष्ठः। युक्तं हि भगवता साक्षादेव प्रतिक्षणं संवादं विदधानस्यार्जुनस्य सर्वेभ्यः श्रैष्ठ्यम्।
।।8.4।।अग्रिमाणामाह -- अधिभूतमिति। पूर्वनिर्दिष्टमधिभूतं क्षरो भावः भूताधिकृतः क्षरणस्वभावो भौतिकः पदार्थः युष्मदादिविराडन्तः किञ्च पुरुषो जीवोऽत्रात्मा सर्वत्रास्त्यधिदैवतं (सर्वेषामधिदैवतं) सर्वसाधारणं शब्दादिभोक्तृ चेति सूर्याद्या अधिदेवताश्चकारेण संगृह्यन्ते। सा भोक्तृत्वावस्था पुरुषान्तर्यामिज्ञानिभिः (पुरुषोत्तमज्ञानिभिः) सर्वत्रैकरूपतया(सर्वाधिगम्यतया)ऽनुसन्धेया। अधियज्ञोऽहमिति -- यस्त्वया पृष्टः कोऽधियज्ञ इति स चाहं यज्ञाधिष्ठातावयवी यज्ञैश्चाराध्यः परमात्मरूपः।देहेऽस्मिन्कथं इत्यस्योत्तरमाह -- अत्र देहे समस्तभूतशरीरे तदन्तर्यामितया स्थितः यथोक्तं भागवते -- आध्यात्मिकस्तु यः प्रोक्तः सोऽसावेवाधिदैविकः। यस्तत्रोभयविच्छेदः स स्मृतो ह्याधिभौतिकः। एकमेकतराभावे यदि नोपलभामहे। त्रितयं तत्र यो वेद स आत्मा [स्वाश्रयाश्रयः] स्वाश्रयः परः। [भाग.2।10।9] इति। हे देहभृतां वर यथा देहभृतः केचन विज्ञाः (लिप्ताः) केचनाऽविज्ञाः (अलिप्ताः) तथाऽहमभिज्ञः (अलिप्तः) साक्षी त्वं चापि तेषु वरो जिज्ञासुः देहभृत्त्वादिति तं स्तौति।
।।8.4।। संप्रत्यग्रिमप्रश्नत्रयस्योत्तरमाह -- क्षरतीति क्षरो विनाशी भावो यत्किंचिज्जनिमद्वस्तु भूतं प्राणिजातमधिकृत्य भवतीत्यधिभूतमुच्यते। पुरुषो हिरण्यगर्भः समष्टिलिङ्गात्मा व्यष्टिसर्वकरणानुग्राहकः।आत्मैवेदमग्र आसीत्पुरुषविधः इत्युपक्रम्यस यत्पूर्वोऽस्मात्सर्वस्मात्सर्वान्पाप्मन औषत्तस्मात्पुरुषः इत्यादि श्रुत्या प्रतिपादितः। चकारात्स वै शरीरी प्रथमः स वै पुरुष उच्यते। आदिकर्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्तत इत्यादिस्मृत्या च प्रतिपादितः। अधिदैवतं दैवतान्यादित्यादीन्यधिकृत्य चक्षुरादिकरणान्यनुगृह्णातीति तथोच्यते। अधियज्ञः सर्वयाज्ञाधिष्ठाता सर्वयज्ञफलदायकश्च। सर्वयज्ञाभिमानिनी विष्ण्वाख्या देवता।यज्ञो वै विष्णुः इति श्रुतेः। सच विष्णुरधियज्ञोऽहं वासुदेव एव न मद्भिन्नः कश्चित्। अतएव परब्रह्मणः सकाशादत्यन्ताभेदेनैव प्रतिपत्तव्य इति कथमिति व्याख्यातम्। सचात्रास्मिन्मनुष्यदेहे यज्ञरूपेण वर्तते बुद्ध्यादिव्यतिरिक्तो विष्णुरूपत्वात्। एतेन स किमस्मिन्देहे ततो बहिर्वा देहे चेत्कोऽत्र बुद्ध्यादिस्तद्यतिरिक्तो वेति संदेहो निरस्तः। मनुष्यदेहे य यज्ञस्यावस्थानं यज्ञस्य मनुष्यदेहनिर्वत्वात्पुरुषो वै यज्ञः पुरुषस्तेन यज्ञो यदेनं पुरुषस्तनुते इत्यादिश्रुतेः। हे देहभृतां वर सर्वप्राणिनां श्रेष्ठेति संबोधयन् प्रतिक्षणं मत्संभाषणात्कृतकृत्यस्त्वमेतद्बोधयोग्योऽसीति प्रोत्साहयत्यर्जुनं भगवान्। अर्जुनस्य सर्वप्राणिश्रेष्ठत्वं भगवदनुग्रहातिशयभाजनत्वात्प्रसिद्धमेव।
।।8.4।।किंच -- अधिभूतमिति। क्षरो विनश्वरो भावो देहादिपदार्थो भूतं प्राणिमात्रमधिकृत्य भवतीत्यधिभूतमुच्यते। पुरुषो वैराजः सूर्यमण्डलमध्यवर्ती स्वांशभूतसर्वदेवतानामधिपतिरधिदैवतमुच्यते। अधिदैवतमधिष्ठात्री देवतास वै शरीरी प्रथमः स वै पुरुष उच्यते। आदिकर्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्तत इति श्रुतेः। अत्रास्मिन्देहेऽन्तर्यामित्वेन स्थितोऽहमेवाधियज्ञो यज्ञाधिष्ठात्री देवता यज्ञादिकर्मप्रवर्तकस्तत्फलदाता च कथमित्यस्योत्तरमनेनैवोक्तं द्रष्टव्यम्। अन्तर्यामिणोऽसङ्गत्वादिभिर्गुणैर्जीववैलक्षण्येन देहान्तर्वर्तित्वस्य प्रसिद्धत्वात्। तथाच श्रुतिः -- द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति इति। देहभृतां मध्ये श्रेष्ठ इति संबोधयन् त्वमप्येवंभूतमन्तर्यामिणं पराधीनस्वप्रवृत्तिनिवृत्त्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां बोद्धुमर्हसीति सूचयति।
।।8.4।।ऐश्वर्यार्थिनां ज्ञातव्यतया निर्दिष्टमित्येतदधिदैवतेऽप्यनुषञ्जनीयम् अधिभूतक्षरशब्दनिर्वचनानुरोधेन व्याख्यातिवियदादीति। भूतशब्दस्यात्र जन्तुविषयत्वव्यवच्छेदाय वियदादिशब्दः। शब्दाद्यवस्थातद्वतोर्भोग्ययोर्द्वयोरपि क्षरशब्देन सङ्ग्रहणायक्षरणस्वभाव इति निर्वचनम्। नश्वर इत्यर्थः।विलक्षण इतिइन्द्रप्रजापतिप्रभृतीनां भोग्यजातात् इति वक्ष्यमाणमत्रापि द्रष्टव्यम्। एवंविधं च वैलक्षण्यं स्वासाधारणभक्तियोगप्रसन्नपरमात्मसङ्कल्पविशेषप्रसूतभोगरूपत्वात्। अस्य ज्ञातव्यताहेतुं दर्शयति -- विलक्षणा इति।क्षरो भावः इत्येकवचनं जात्यभिप्रायमिति भावः।प्राप्याप्राप्यत्वादित्यर्थः। अधिदैवतशब्दे रूढिभ्रमव्युदासायाह -- अधिदैवतशब्दनिर्दिष्ट इति। तन्निरुक्तिःदैवतोपरिवर्तमानमिति। देवतोपरीति सम्बन्धसामान्यषष्ठ्या समासः। दैवतशब्दस्यात्र सर्वेश्वरात् सङ्कोचं देवतान्तरेष्वभिव्याप्तिं चाह -- इन्द्रेति। उपरि वर्तमानत्वमिह न केवलं देशाद्यपेक्षया किन्तु भोगप्रकर्षादपीत्यभिप्रायेणेत्याह -- इन्द्रेत्यादि पुरुष इत्यन्तम्।ननु पुरुषान्तरमिहाविवक्षितम् स्वात्मस्वरूपपुरुषानुसन्धानमधिकार्यन्तरस्यापि समानम् ततोऽत्र को विशेषः इत्यत्राह -- सा चेति। न परिशुद्धस्वरूपमिहानुसन्धेयं न चाशुद्धेऽपि हेयत्वमिह भाव्यम्। पुरुषशब्दनिर्देशश्चात्र भावप्रधान इति भावः।अहमेवेति क इति प्रश्नस्योत्तरम्। कथमिति प्रश्नस्योत्तरत्वं तदभिप्रेतं विवृणोति -- अधियज्ञ इति। यज्ञे सम्बध्यमानोऽधियज्ञः। तत्र च सर्वेश्वरस्याराध्यतया सम्बन्ध इत्याह -- यज्ञैराराध्यतया वर्तमान इति। इन्द्रादयो हि तत्र च आराध्याः श्रुताः तत्कथमहमेवेत्युच्यत इत्यत्रोत्तरम्अत्र देहे इत्यनेन विवक्षितमिति दर्शयति -- अत्रेन्द्रादाविति।अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे इतीश्वरेणाभिधीयमानत्वात्तद्देहविषयत्वं प्रतीतम्। स चेश्वरदेहःयज देवपूजायाम् [1।1027] इति याज्यदेवतापेक्षयज्ञप्रसङ्गादिन्द्रादिरेवेत्यभिप्रायेणोक्तम् -- इन्द्रादाविति।यां यां तनुम् [7।21] इति प्रागुक्तं स्मारयति -- मम देहभूत इति। कर्मणा ह्यचिद्द्रव्यं कस्यचिद्देहो भवति न तथाऽत्र देहत्वं कादाचित्कमिति ज्ञापनायदेहभूत इति प्रयोगः। देहभूतकेवलेन्द्रादिव्यवच्छेदार्थंअहमेवेत्यवधारणम्। पूर्वनिर्दिष्टब्रह्माध्यात्मकर्माधिभूताधिदैववन्न तत्त्वान्तरमिति ज्ञापनार्थं वा। विष्णुः सर्वा देवताः इति च श्रुतिः। एतेनकथम् इति प्रश्नस्याप्युत्तरं दत्तम्। तत्तद्विशिष्टस्याराध्यत्वात्।देहभृतां वर,इत्यनेनाध्यात्मचिन्तानुगुणसत्त्वोत्तरदेहेन्द्रियादिमत्त्वं स्वस्यालौकिकेन्द्रादिदेहवत्त्वे निदर्शनं चाभिप्रेतम्। एवंविधाधियज्ञविज्ञानमनुष्ठानानुप्रविष्टम् न तु तदुपकारकमात्रम् न चैश्वर्यार्थिमात्रविषयमिति दर्शयति -- इति महायज्ञेति। अकरणनिमित्तानर्हतादिपरिहाराय त्रयाणामवश्यकर्तव्यताद्योतनायनित्यनैमित्तिकोक्तिः।
।।8.4।।एवं ब्रह्माध्यात्मकर्मोत्तराण्युक्त्वाऽधिभूताद्युत्तराण्याह -- अधिभूतमिति। क्षरो भावो विनश्वरो देहो भगवद्विप्रयोगतापाधिक्येन नाशभावयुक्तोऽधिभूतं जीवमात्रमधिकृत्य भवतीति अधिभूतं दास्यार्थमाविर्भावितस्वांशे विप्रयोगतापार्थं प्रकटीक्रियत इति तथोच्यत इति भावः। च पुनः। पुरुषो मम जीवहृदि पुरुषत्वेन रसात्मको भावः स अधिदैवः तं क्रीडात्मकभावमधिकृत्य भवतीति सर्वमूलरूप इति तथोच्यत इति भावः। किञ्च हे देहभृतां वर मत्सेवौपयिकसामर्थ्ययुक्त अत्र जगति देहे देहनिमित्तं सेवौपयिकोपचयार्थं अधियज्ञः यज्ञादिकर्मात्मकस्तत्प्रवर्तकश्चेत्यर्थः।
।।8.4।।क्षरो भावो जनिमद्वस्तु कर्मफलभूतं तत्साधनभूतं च तदधिभूतमित्युच्यते। अधिदैवतं पुरुषः सर्वासु पूर्षु वसतीति सर्वकरणानुग्राहकः सकलदेवतात्मा हिरण्यगर्भः। अधियज्ञो यज्ञाभिमानी विष्णुरन्तर्यामी सोऽहमेव देह्यस्मि। अत्रास्मिन्देहे देहभृतां वर।
।।8.4।।अधिभूतं च किं प्रोक्तमिति चतुर्थप्रश्नस्योत्तरमाह -- अधिभूतमिति। भूतं प्राणिजातमधिकृत्य भवतीत्यधिभूतम्। क्षरो भावः क्षरतीति क्षरो विनाशी भावो यत्किंचिज्जनिमद्वस्त्वित्यर्थः। अधिदैवं किमुच्यत इति पञ्चमप्रश्नस्योत्तरमाह। पुरुषश्चाधिदैवतं पूर्णमनेन सर्वमिति पुरुषः सर्वासु पूर्षु शयनाद्वा पुरुषः आदित्यान्तर्गतो हिरण्यगर्भः सर्वप्राणिकरणानुग्राहकः सोऽधिदैवतं दैवतान्यादित्यादीन्यधिकृत्य चक्षुरादिकरणग्राममनुगृह्णतीत्यधिदैवतमुच्यते। अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदनेति षष्ठश्रस्योत्तरमाह -- अधियज्ञ इति। यज्ञो हि देहेनोत्पात्द्योऽतो देहसमवायी। अतो देहस्तस्याधिकरणं भवति। अस्मिन्देहेऽधियज्ञः सर्वयज्ञाभिमानिनी देवता विषण्वाख्या।यज्ञो वै विष्णुः इति श्रुतेः। सोऽधियज्ञो विष्णुरहमेव कथमित्यवान्तरप्रकारप्रश्नोऽप्यनेनैव परिहृतः। अधियज्ञो बुद्य्धादिव्यतिरिक्तः परमात्माभिन्नोऽस्मिन्देहे प्रतिपत्तव्य इति। देहान्बिभ्रतीति देहभृतस्तेषां सर्वेषां प्राणिनां वरः श्रेष्ठस्तस्य संबोधनं हे देहभृतां वरेति। उक्तंच भगवता प्रतिक्षणं संवादं संविदधानस्यार्जुनस्य सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः श्रैष्ट्यमिति भाष्यटीकाकाराः। एवंभूतं मां देहभृतां वरस्त्वं प्रतिपत्तुमर्हसीति सूचनार्थं,वा संबोधनम्।
8.4 अधिभूतम् Adhibhuta? क्षरः perishable? भावः nature? पुरुषः the soul? च and? अधिदैवतम् Adhidaivata? अधियज्ञः Adhiyajna? अहम् I? एव alone? अत्र here? देहे in the body? देहभृताम् of the embodied? वर O best.Commentary Adhibhuta the perishable nature the changing universe of the five elements with all its objects all the material objects everything that has birth the changing world of names and forms.Adhidaiva Purusha literally means that by which everything is filled (pur to fill). It may also mean that which lies in this body. It is Hiranyagarbha or the universal soul or the sustainer from whom all living beings derive their sensepower. It is the witnessing consciousness.Adhiyajna Consciousness the presiding deity of sacrifice. The Lord of all works and sacrifice isVishnu. Lord Vishnu identifies Himself with all sacrificial acts. Yajna is verily Vishnu? says the Taittiriya Samhita of the Veda. Lord Krishna says? I am the presiding deity in all acts of sacrifice in the body. All sacrifices are done by the body and so it may be said that they rest in the body.
8.4 Adhibhuta (knowledge of the elements) pertains to My perishable Nature and the Purusha or the Soul is the Adhidaiva; I alone am the Adhiyajna here in this body, O best among the embodied (men).
8.4 Matter consists of the forms that perish; Divinity is the Supreme Self; and He who inspires the spirit of sacrifice in man, O noblest of thy race, is I Myself, Who now stand in human form before thee.
8.4 The which exists in the physical plane is the mutable entity, and what exists in the divine plane is the Person. O best among the embodied beings, I Myself am the entity that exists in the sacrifice in this body.
8.4 Adhibhutam, that which exists in the physical plane, i.e. that which exists by comprising all creatures;-what is it?-it consists of the ksarah bhavah, mutable entity. Ksarah is that which is mutable, which is destructible; bhavah means anything whatsoever that has orgination. This is meaning. Purusah means the Person, derived in the sense of he by whom all things are pervaded; or, he who lies in every heart. He is Hiranyagarbha, who resides in the Sun and sustains the organs of all creatures. He is adhi-daivatam, the entity existing in the divine plane. Deha-bhrtam-vara, O best among the embodied beings; adhiyajnah, the entity existing in sacrifices, is the Deity, called Visnu, presiding over all sacrifices-which agrees with the Vedic text, 'Sacrifice is indeed Vishu' (Tai, Sam. 1.7.4). Aham eva, I Myself, who am that very Visnu; am adhiyajnah, the entity existing in the sacrifice; which is going on atra dehe, in this body. Since a sacrfice is performed with body, therefore it is closely associated with the body. In this sense it is said to be going on in the body.
8.4. The changing nature is the lord of the material beings; the Person alone is the lord of the divinites; I am alone the Lord of sacrifices and I, the best of the embodied (Souls), dwell in this body.
8.4 Adhibhutam etc. The world of material beings, like pot etc., is of changing nature, because it flows or gushes forth with its innate nature of changes etc. Person : Self. It is the lord of the devinities, as all deities are established in It (or all deities get their perfections in It). On the same reason it is only Myself, the Supreme Soul, Who remain lording - as an enjoyer of sacrifice in its entirty - over sacrifices i.e. actions that are to be performed inevitably; and it is I only Who dwell in the body. Thus, a pair of estions have been decided by single effort. Now, the other estion that remains to be answered viz., 'How are You to be realised at the time of departure ?', the Lord decides as :
8.4 The perishable existences which have been declared as fit to be known by the seekers of wealth, power etc., form the Adhibhuta. They are superior material entities that remain in ether or space and other elements. They are the evolutes of material elements and are perishable in their nature. They are also of the nature of sound, touch etc., supported by their basic subtle elements but different from, and finer than, ordinary sound etc., and are of many kinds. Sound, touch, form, taste and smell on this kind, which are manifold and rooted in their several bases, are to be gained by the seekers after prosperity and should be contemplated upon by them. Adhidaivata connotes Purusa. The Purusa is superior to divinities like Indra, Prajapati and others, and is the experiencer of sound etc., which are different from, and superior to, the multitude of enjoyments of Indra, Prajapati etc. The condition of being such an enjoyer is to be contemplated upon by the seekers after prosperity, as the end to be attained. I alone am connoted by the term Adhiyajna (sacrifice). Adhiyajna denotes one who is propitiated in sacrifices. Indra and others, to whom sacrifices are made, form My body. I dwell as their Self and I alone am the object of worship by sacrifice. In this manner the three groups of alified devotees should contemplate at the time of the practice of periodical and occasional rituals like the great sacrificies. This is also common to all the three groups of devotees.
8.4 The which exists in the physical plane is the mutable entity, and what exists in the divine plane is the Person. O best among the embodied beings, I Myself am the entity that exists in the sacrifice in this body.
।।8.4।।जो प्राणिमात्रको आश्रित किये होता है उसका नाम अधिभूत है। वह कौन है क्षर -- जो कि क्षय होता है ऐसा विनाशी भाव यानी जो कुछ भी उत्पत्तिशील पदार्थ हैं वे सबकेसब अधिभूत हैं। पुरुष अर्थात् जिससे यह सब जगत् परिपूर्ण है अथवा जो शरीररूप पुरमें रहनेवाला होनेसे पुरुष कहलाता है वह सब प्राणियोंके इन्द्रियादि करणोंका अनुग्राहक सूर्यलोकमें रहनेवाला हिरण्यगर्भ अधिदैवत है। यज्ञ ही विष्णु है इस श्रुतिके अनुसार सब यज्ञोंका अधिष्ठाता जो विष्णुनामक देवता है वह अधियज्ञ है। हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन इस देहमें जो यज्ञ है उसका अधिष्ठाता वह विष्णुरूप अधियज्ञ मैं ही हूँ। यज्ञ शरीरसे ही सिद्ध होता है अतः यज्ञका शरीरसे नित्य सम्बन्ध है इसलिये वह शरीरमें रहनेवाला माना जाता है।
।।8.4।। --,अधिभूतं प्राणिजातम् अधिकृत्य भवतीति। कोऽसौ क्षरः क्षरतीति क्षरः विनाशी भावः यत्किञ्चित् जनिमत् वस्तु इत्यर्थः। पुरुषः पूर्णम् अनेन सर्वमिति पुरि शयनात् वा पुरुषः आदित्यान्तर्गतो हिण्यगर्भः सर्वप्राणिकरणानाम् अनुग्राहकः सः अधिदैवतम्। अधियज्ञः सर्वयज्ञाभिमानिनी विष्ण्वाख्या देवता यज्ञो वै विष्णुः इति श्रुतेः। स हि विष्णुः अहमेव अत्र अस्मिन् देहे यो यज्ञः तस्य अहम् अधियज्ञः यज्ञो हि देहनिर्वर्त्यत्वेन देहसमवायी इति देहाधिकरणो भवति देहभृतां वर।।
।।8.4।।परिहारं सङ्गमयितुमधिभूतशब्दार्थं तावदाह -- भूतानीति। अधिकृत्य तदुपकारित्वेन यद्वर्ततेक्षरः,सर्वाणि भूतानि [15।16] इति वक्ष्यमाणं क्षरं व्यावर्तयितुं व्याचष्टे -- क्षर इति। क्षरशब्दव्याख्या विनाशीति। भावशब्दस्यार्थद्वयं कार्य इति पदार्थ इति। भवत्युत्पद्यत इति भावः। उत्पत्तिमान्पदार्थो नाशवान् पदार्थ इति प्रत्येकमुत्तरम्। सर्वभूतानामध्यात्मत्वान्न ग्रहणम्। नन्वव्यक्तमपि सशरीरान् जीवानधिकृत्य वर्तत इति तस्याप्यधिभूतेऽन्तर्भावोऽस्त्येव न चैतद्विनाशि कार्यं वानासतः [2।16] इत्युक्तत्वात्। ततोऽव्यापकमुत्तरमित्यत आह -- अव्यक्तेति। अव्यक्तस्याधिभूतान्तर्भावेऽपि नाव्यापकमुत्तरमिति शेषः। कुतः इत्यत आह -- तस्यापीति। अन्यथाभावो वैषम्यपरित्यागेन साम्यावस्थापत्तिः। यत इति शेषः। तथा विक्रियालक्षणं जन्म चेत्यपि ग्राह्यम्। उभयत्र क्रमेण प्रमाणान्याह -- तच्चेति। व्योम्नि व्याप्ते प्रलये प्रचुरव्यापाराभावात् निष्क्रिये। ननु पुरुषः परमात्मा स ब्रह्माधियज्ञशब्दाभ्यामुक्त इत्यत आह -- पुरी त। शरीरे अधिकरणे शेतेः [अष्टा.3।2।15] इति डः।वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च इत्यादिना साधुः। तथाप्यध्यात्मशब्देन गतार्थतेत्यत आह -- स चेति। सर्वजीवाभिमानित्वादिति भावः। तस्याधिदैवत्वं कथं इत्यतो द्वेधाऽऽह -- स इति। अधिकृत्य वर्तत इत्यस्यैव विवरणं -- पतिरिति। देवाधिकारस्थस्तत्प्रकरणेषु मुख्यतः प्रतिपाद्यः। सर्वदेवतासङ्ग्रहार्थं वा द्वितीयं व्याख्यानम्। अक्षरार्थस्तु पूर्ववत्।अधियज्ञः कथं [8।2] इत्यस्योत्तरं भगवताऽनुक्तं भाष्यकृदाह -- सर्वेति। आदिपदेन तत्प्रवर्तकत्वादिनाऽध्यात्मशब्दवदधियज्ञशब्देऽव्ययीभावः। किन्तु अधिगतो यज्ञमिति प्रादिसमासः। अधिष्ठितो यज्ञोऽनेनेति बहुव्रीहिर्वा।अधियज्ञः कः इति प्रश्ने तत्परिहारे च देह इत्यस्य प्रयोजनमाह -- अन्य इति। अन्यो भगवतः इति सिद्धार्थतापरिहारार्थं प्रश्नवाक्ये देह इति विशेषणं प्रयुक्तं कर्तृभोक्तृफलदातृ़णां हेप्रेरकत्वेन वर्तमान इति। अतः परिहारवाक्येऽपि यथाप्रश्नं तदुपात्तमिति वाक्यशेषः। भगवतः सर्वयज्ञभोक्तृत्वं कुतो येनैवमुत्तरमध्याह्रियते इत्यत आह -- भोक्तारमिति। त्रैविद्यानुष्ठितयज्ञभोक्तृत्वाभावात्सर्वेत्यनुपपन्नमित्यत आह -- त्रैविद्या इति। प्रवर्तकत्वे श्रुतिमाह -- एतस्येति। यज्ञफलदातृत्वादौ प्रमाणमाह -- कुतो हीति। ध्रुवश्चिरन्तनः। निश्श्रेयसे मुक्तौ भवं पदं सुखम्। इत्यादेः प्रश्नस्य। नन्वेष परिहरो भगवतैवं कुतो नोक्तः इत्यत आह -- भगवांश्चेदिति। चेच्छब्दो यदाशब्दार्थे। अधियज्ञोऽहमिति यदाधियज्ञत्वेन भगवानुक्तः तदा तस्य सर्वयज्ञभोक्तृत्वादेरधियज्ञत्वमर्जुनस्य सिद्धमेव भोक्तारमित्यादेरर्थस्य तेन श्रुतत्वात् अन्यत्वपक्ष एव कथमिति पृष्टत्वात्। एवमालोच्य भगवता कथमित्यस्य प्रश्नस्य परिहारोऽधियज्ञोऽहमित्यतः पृथक् नोक्तः। अस्माभिस्तु मन्दान्बोधयितुमुक्त इति भावः। ननु यज्ञधियज्ञः स्वयमेव तर्हि कथंसाधियज्ञं मां इति प्रागवोचत् इत्यत आह -- सर्वेति। रूपविशेषापेक्षया साहित्यमुक्तमिति भावः। अनेन परिहारवाक्यस्थस्य देह इति विशेषणस्य प्रयोजनान्तरं चोक्तं भवति।अत्रेति देहविशेषणं किमर्थं इत्यत आह -- अत्रेति। इह लौकिके देह इत्यर्थः। कुत ईश्वरदेहो व्यावर्तनीयः इत्यत आह -- न हीति। तत्र स्वदेहे। पृथक् पृथग्भावेन। यथाऽधियज्ञोऽहमेवेत्युक्तं न तथा ब्रह्माहमिति। अतो भगवतोऽन्यदेवेदं ब्रह्म परममिति तु स्वरूपकथनम्। न तु विशेषणमिति शङ्का निवारयति -- नात्रेति। पूर्वाध्यायेते ब्रह्म तद्विदुः [7।29] इत्युक्त्वा कथम्भूतं ब्रह्मेत्याकाङ्क्षायां साधिभूताधिदैवं साधियज्ञं च ब्रह्मेति वक्तव्ये मामिति ब्रह्मणः परामर्शात्। तत्रास्तु भगवानेव ब्रह्म अत्र तु कुतः इत्यत आह -- तस्यैवेति पृष्टस्यैव वक्तव्यत्वात्। तर्हि अधियज्ञस्य ब्रह्मणश्च भगवत्त्वादेकत्राहमेवेत्युक्तिः अपरत्र तदनुक्तिः किंनिबन्धना इत्यत आह -- साधियज्ञमिति। शेषं तात्पर्यनिर्णये। एतेनापव्याख्यानमपि निरस्तम्। द्वादशादौ च विस्तरेण आगमसम्मत्योक्तं स्थापयति -- आह चेति। यानि देहस्थविष्णुरूपाणिसोधियज्ञ इतीरितः। तदपीच्छाप्रयत्नाद्यमेव न तु परिणामरूपम्। जडं देहाद्बाह्यम्। न केवलमेषां पदानामेतावन्मात्रार्थत्वं किन्तु यथाप्रतीतं प्रतीतिमनतिक्रम्य शब्दशक्त्या यावत्प्रतीतं प्रमाणाविरुद्धं च तदत्र व्याख्यायमानं वक्तुरभिप्रायं न व्यभिरचरतीत्यर्थः. कि़ञ्चिद्व्यवहितत्वात् मध्येऽपीति शब्दः। एतदेव वाक्यान्तरेण स्पष्टयति -- स्कान्दे चेति। आत्मनोऽभिमानस्य विषयः आत्माधिकारस्थं तत्र प्रतिपाद्यं देहाद्बाह्यं विनेति। सामर्थ्यादात्माभिमानस्थेन सम्बध्यते। तत्र युक्तिः अतीव बाह्यत्वात्। अत्यभिमानविषयत्वाभावात्। महाभूताधिकारगं महाभूतम्। कार्यकारणग्रहणहेतुः। तदन्तिकात्तत्तादात्म्यात् देवानामुपकारकृत्।
।।8.4।।भूतानि सशरीरान् जीवानधिकृत्य यत्तदधिभूतम्। क्षरो भावो विनाशिकार्यपदार्थः। अव्यक्तान्तर्भावेऽपि तस्याप्यन्यथाभावाख्यो विनाशोऽस्त्येव। तच्चोक्तम् -- अव्यक्तं परमे व्योम्नि निष्क्रिये सम्प्रलीयते इति।तस्मादव्यक्तमुत्पन्नं त्रिगुणं द्विजसत्तम इति च।विकारोऽव्यक्तजन्म हि इति च स्कान्दे। पुरि शयनात्पुरुषो जीवः स च सङ्कर्षणो ब्रह्मा वा। स सर्वदेवानधिकृत्य तत्पतिरित्यधिदैवतम् देवाधिकारस्थ इति वा।सर्वयज्ञभोक्तृत्वादेरधियज्ञः। अन्योऽधियज्ञोऽग्न्यादिः प्रसिद्ध इति देह इति विशेषणम्।भोक्तारं यज्ञतपसां [5।29]।त्रैविद्या मां [9।20]।ये त्वन्यदेवताभक्ताः। [9।23] एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने ৷৷. गार्गि ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति यजमानं देवाः [बृ.उ.3।8।9] इत्यादेः।कुतो ह्यस्य ध्रुवः स्वर्गः कुतो नैश्श्रेयसं पदम् [मं.भा.12।334।2] इत्यादिपरिहारश्च मोक्षधर्मे। भगवांश्चेत्तद्भोक्तृत्वादेरधियज्ञत्वं सिद्धमिति कथमित्यस्य परिहारः पृथङ्नोक्तः। सर्वप्राणिदेहस्थरूपेण साधियज्ञः।अत्रेति स्वदेहनिवृत्त्यर्थम्। न हि तत्रेश्वरस्य नियन्तृत्वं पृथगस्ति। नात्रोक्तं ब्रह्म भगवतोऽन्यत्।ते ब्रह्म [7।29] इत्युक्त्वासाधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः [7।30] इति परामर्शात् तस्यैव च प्रश्नात्।साधियज्ञं इति भेदप्रतीतेस्तन्निवृत्त्यर्थंअधियज्ञोऽहं इत्युक्तम्। मामित्यभेदप्रसिद्धेरक्षरमित्येवोक्तम्। आह च गीताकल्पे -- देहस्थविष्णुरूपाणि अधियज्ञ इतीरितः। कर्मेश्वरस्य सृष्ट्यर्थं तच्चापीच्छाद्यमुच्यते। अधिभूतं जडं प्रोक्तमध्यात्मं जीव उच्यते। हिरण्यगर्भोऽधिदैवं देवः सङ्कर्षणोऽपि वा। ब्रह्म नारायणो देवः सर्वदेवेश्वरेश्वरः इति।यथा प्रतीतं वा सर्वमत्र नैव विरुध्यते इति। स्कान्दे च -- आत्माभिमानाधिकारस्थितमध्यात्ममुच्यते। देहाद्बाह्यं विनाऽतीव बाह्यत्वादधिदैवतम्। देवाधिकारगं सर्वं महाभूताधिकारगम्। तत्कारणं तथा कार्यमधिभूतं तदन्तिकात् इति। महाकौर्मे च -- अध्यात्मं देहपर्यन्तं केवलात्मोपकारकम्। सदेहजीवभूतानि यत्तेषामुपकारकृत्। अधिभूतं तु मायान्तं देवानामधिदैवतम् इति।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्। अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।8.4।।
অধিভূতং ক্ষরো ভাবঃ পুরুষশ্চাধিদৈবতম্৷ অধিযজ্ঞোহমেবাত্র দেহে দেহভৃতাং বর৷৷8.4৷৷
অধিভূতং ক্ষরো ভাবঃ পুরুষশ্চাধিদৈবতম্৷ অধিযজ্ঞোহমেবাত্র দেহে দেহভৃতাং বর৷৷8.4৷৷
અધિભૂતં ક્ષરો ભાવઃ પુરુષશ્ચાધિદૈવતમ્। અધિયજ્ઞોહમેવાત્ર દેહે દેહભૃતાં વર।।8.4।।
ਅਧਿਭੂਤਂ ਕ੍ਸ਼ਰੋ ਭਾਵ ਪੁਰੁਸ਼ਸ਼੍ਚਾਧਿਦੈਵਤਮ੍। ਅਧਿਯਜ੍ਞੋਹਮੇਵਾਤ੍ਰ ਦੇਹੇ ਦੇਹਭਰਿਤਾਂ ਵਰ।।8.4।।
ಅಧಿಭೂತಂ ಕ್ಷರೋ ಭಾವಃ ಪುರುಷಶ್ಚಾಧಿದೈವತಮ್. ಅಧಿಯಜ್ಞೋಹಮೇವಾತ್ರ ದೇಹೇ ದೇಹಭೃತಾಂ ವರ৷৷8.4৷৷
അധിഭൂതം ക്ഷരോ ഭാവഃ പുരുഷശ്ചാധിദൈവതമ്. അധിയജ്ഞോഹമേവാത്ര ദേഹേ ദേഹഭൃതാം വര৷৷8.4৷৷
ଅଧିଭୂତଂ କ୍ଷରୋ ଭାବଃ ପୁରୁଷଶ୍ଚାଧିଦୈବତମ୍| ଅଧିଯଜ୍ଞୋହମେବାତ୍ର ଦେହେ ଦେହଭୃତାଂ ବର||8.4||
adhibhūtaṅ kṣarō bhāvaḥ puruṣaścādhidaivatam. adhiyajñō.hamēvātra dēhē dēhabhṛtāṅ vara৷৷8.4৷৷
அதிபூதஂ க்ஷரோ பாவஃ புருஷஷ்சாதிதைவதம். அதியஜ்ஞோஹமேவாத்ர தேஹே தேஹபரிதாஂ வர৷৷8.4৷৷
అధిభూతం క్షరో భావః పురుషశ్చాధిదైవతమ్. అధియజ్ఞోహమేవాత్ర దేహే దేహభృతాం వర৷৷8.4৷৷
8.5
8
5
।।8.5।। जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।
।।8.5।। और जो कोई पुरुष अन्तकाल में मुझे ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं।।
।।8.5।। महर्षि व्यास वेदान्त के इस मूलभूत सिद्धांत पर बल देते हुए नहीं थकते कि कोई भी जीव किसी देह विशेष के साथ तब तक तादात्म्य किये रहता है जब तक उसे अपने इच्छित अनुभवों को प्राप्त करने में वह देह उपयोगी और आवश्यक होता है। एक बार यह प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर वह उस शरीर को सदा के लिए त्याग देता है। तत्पश्चात उस देह के प्रति न कोई कर्तव्य रहता है न सम्बन्ध और न ही कोई अभिमान। देह से विलग होने के समय जीव के मन में उस विषय के सम्बन्ध में विचार होंगे जिसके लिए वह प्रबल इच्छा या महत्वाकांक्षा रखता था चाहे वह इच्छा किसी भी जन्म में उत्पन्न हुई हो। इस प्रकार की मान्यता युक्तियुक्त है। ध्यान और भक्ति की साधना मन को एकाग्र करने की वह कला है जिसमें ध्येय विषयक एक अखण्ड वृत्ति बनाए रखी जाती है। ऐसा साधक अन्तकाल में मुझ पर ही ध्यान करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है।मरण के पूर्व की जीव की यह अन्तिम प्रबल इच्छा उसकी भावी गति को निश्चित करती है। जो जीव अपने जीवन काल में केवल अहंकार और स्वार्थ का जीवन जीता रहा हो और देह के साथ तादात्म्य करके निम्न स्तर की कामनाओं को ही पूर्ण करने में व्यस्त रहा हो ऐसा जीव वैषयिक वासनाओं से युक्त होने के कारण ऐसे ही शरीर को धारण करेगा जिसमें उसकी पाशविक प्रवृत्तियाँ अधिक से अधिक सन्तुष्ट हो सकें।इसके विपरीत जब कोई साधक स्वविवेक से कामुक जीवन की व्यर्थता को पहचानता है और इस कारण स्वयं को उन बन्धनों से मुक्त करने के लिए आतुर हो उठता है तब देह त्याग के पश्चात् वह साधक निश्चित ही विकास की उच्चतर स्थिति को प्राप्त होता है। इसी युक्तियक्त एवं बुद्धिगम्य सिद्धांत के अनुसार वेदान्त यह घोषणा करता है कि मरणासन्न पुरुष की अन्तिम इच्छा उसके भावी शरीर तथा वातावरण को निश्चित करती है।इसलिए भगवान् यहाँ कहते हैं कि अन्तकाल में आगे जो पुरुष मेरा स्मरण करता हुआ देह त्यागता है वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।यह निश्चय केवल मेरे ही विषय में नहीं है वरन् --
।।8.5।। व्याख्या--'अन्तकाले च' 'मामेव ৷৷. याति नास्त्यत्र संशयः'-- अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए जो शरीर छोड़कर जाता है -- इसका तात्पर्य हुआ कि इस मनुष्यको जीवनमें साधनभजन करके अपना उद्धार करनेका अवसर दिया था पर इसने कुछ किया ही नहीं। अब बेचारा यह मनुष्य अन्तकालमें दूसरा साधन करनेमें असमर्थ है इसलिये बस मेरेको याद कर ले तो इसको मेरी प्राप्ति हो जायगी।'मामेव स्मरन्' का तात्पर्य है कि सुनने समझने और माननेमें जो कुछ आता है वह सब मेरा समग्ररूप है। अतः जो उसको मेरा ही स्वरूप मानेगा उसको अन्तकालमें भी मेरा ही चिन्तन होगा अर्थात् उसने जब सब कुछ मेरा ही स्वरूप मान लिया तो अन्तकालमें उसको जो कुछ याद आयेगा वह मेरा ही स्वरूप होगा इसलिये वह स्मरण मेरा ही होगा। मेरा स्मरण होनेसे उसको मेरी ही प्राप्ति होगी।'मद्भावम्' कहनेका तात्पर्य है कि साधकने मेरेको जिसकिसी भिन्न अथवा अभिन्न भावसे अर्थात् सगुणनिर्गुण साकारनिराकार द्विभुजचतुर्भुज तथा नाम लीला धाम रूप आदिसे स्वीकार किया है मेरी उपासना की है अन्तसमयके स्मरणके अनुसार वह मेरे उसी भावको प्राप्त होता है। जो भगवान्की उपासना करते हैं वे तो अन्तसमयमें उपास्यका स्मरण होनेसे उसी उपास्यको अर्थात् भगवद्भावको प्राप्त होते हैं। परन्तु जो उपासना नहीं करते उनको भी अन्तसमयमें किसी कारणवशात् भगवान्के किसी नाम रूप लीला धाम आदिका स्मरण हो जाय तो वे भी उन उपासकोंकी तरह उसी भगवद्भावको प्राप्त हो जाते हैं। तात्पर्य है कि जैसे गुणोंमें स्थित रहनेवालेकी (गीता 14। 18) और अन्तकालमें जिसकिसी गुणके बढ़नेवालेकी वैसी ही गति होती है (गीता 14। 14 15) ऐसे ही जिसको अन्तमें भगवान् याद आ जाते हैं उसकी भी उपासकोंकी तरह गति होती है अर्थात् भगवान्की प्राप्ति होती है।भगवान्के सगुणनिर्गुण साकारनिराकार आदि अनेक रूपोंका और नाम लीला धाम आदिका भेद तो साधकोंकी दृष्टिसे है अन्तमें सब एक हो जाते हैं अर्थात् अन्तमें सब एक मद्भाव -- भगवद्भावको प्राप्त हो जाते हैं क्योंकि भगवान्का समग्र स्वरूप एक ही है। परन्तु गुणोंके अनुसार गतिको प्राप्त होनेवाले अन्तमें एक नहीं हो सकते क्योंकि तीनों गुण (सत्त्व रज तम) अलगअलग हैं। अतः गुणोंके अनुसार उनकी गतियाँ भी अलगअलग होती हैं।भगवान्का स्मरण करके शरीर छोड़नेवालोंका तो भगवान्के साथ सम्बन्ध रहता है और गुणोंके अनुसार शरीर छोड़नेवालोंका गुणोंके साथ सम्बन्ध रहता है। इसलिये अन्तमें भगवान्का स्मरण करनेवाले भगवान्के सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् भगवान्को प्राप्त हो जाते हैं और गुणोंसे सम्बन्ध रखनेवाले गुणोंके सम्मुख हो जाते हैं अर्थात् गुणोंके कार्य जन्ममरणको प्राप्त हो जाते हैं।भगवान्ने एक यह विशेष छूट दी हुई है कि मरणासन्न व्यक्तिके कैसे ही आचरण रहे हों कैसे ही भाव रहे हों किसी भी तरहका जीवन बीता हो पर अन्तकालमें वह भगवान्को याद कर ले तो उसका कल्याण हो जायगा। कारण कि भगवान्ने जीवका कल्याण करनेके लिये ही उसको मनुष्यशरीर दिया है और जीवने उस मनुष्यशरीरको स्वीकार किया है। अतः जीवका कल्याण हो जाय तभी भगवान्का इस जीवको मनुष्यशरीर देना और जीवका मनुष्यशरीर लेना सफल होगा। परन्तु वह अपना उद्धार किये बिना ही आज दुनियासे विदा हो रहा है इसके लिये भगवान् कहते हैं कि भैया तेरी और मेरी दोनोंकी इज्जत रह जाय इसलिये अब जातेजाते (अन्तकालमें) भी तू मेरेको याद कर ले तो तेरा कल्याण हो जाय अतः हरेक मनुष्यके लिये सावधान होनेकी जरूरत है कि वह सब समयमें भगवान्का स्मरण करे कोई समय खाली न जाने दे क्योंकि अन्तकालका पता नहीं है कि कब आ जाय। वास्तवमें सब समय अन्तकाल ही है। यह बात तो है नहीं कि इतने वर्ष इतने महीने और इतने दिनोंके बाद मृत्यु होगी। देखनेमें तो यही आता है कि गर्भमें ही कई बालक मर जाते हैं कई जन्मते ही मर जाते हैं कई कुछ दिनोंमें महीनोंमें वर्षोंमें मर जाते हैं। इस प्रकार मरनेकी चाल हरदम चल ही रही है। अतः सब समयमें भगवान्को याद रखना चाहिये और यही समझना चाहिये कि बस यही अन्तकाल है नीतिमें यह बात आती है कि अगर धर्मका आचरण करना हो कल्याण करना हो तो मृत्युने मेरे केश पकड़े हुए हैं झटका दिया कि खत्म ऐसा विचार हरदम रहना चाहिये -- 'गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत्'। भगवान्की उपर्युक्त छूटसे मनुष्यमात्रको विशेष लाभ लेना चाहिये। कहीं कोई भी व्याधिग्रस्त मरणासन्न व्यक्ति हो तो उसके इष्टके चित्र या मूर्तिको उसे दिखाना चाहिये जैसी उसकी उपासना है और जिस भगवन्नाममें उसकी रुचि हो जिसका वह जप करता हो वही भगवन्नाम उसको सुनाना चाहिये जिस स्वरूपमें उसकी श्रद्धा और विश्वास हो उसकी याद दिलानी चाहिये भगवान्की महिमाका वर्णन करना चाहिये गीताके श्लोक सुनाने चाहिये। अगर वह बेहोश हो जाय तो उसके पास भगवन्नामका जपकीर्तन करना चाहिये जिससे उस मरणासन्न व्यक्तिके सामने भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल बना रहे। भगवत्सम्बन्धी वायुमण्डल रहनेसे वहाँ यमराजके दूत नहीं आ सकते। अजामिलके द्वारा मृत्युके समय नारायण नामका उच्चारण करनेसे,वहाँ भगवान्के पार्षद आ गये और यमदूत भागकर यमराजके पासमें गये तो यमराजने अपने दूतोंसे कहा कि जहाँ भगवन्नामका जप कीर्तन कथा आदि होते हों वहाँ तुमलोग कभी मत जाना क्योंकि वहाँ हमारा राज्य नहीं है (टिप्पणी प0 455.1)। ऐसा कहकर यमराजने भगवान्का स्मरण करके भगवान्से क्षमा माँगी कि मेरे दूतोंके द्वारा जो अपराध हुआ है उसको आप क्षमा करें (टिप्पणी प0 455.2)। अन्तकालमें स्मरणका तात्पर्य है कि उसने भगवान्का जो स्वरूप मान रखा है उसकी याद आ जाय अर्थात् उसने पहले राम कृष्ण विष्णु शिव शक्ति गणेश सूर्य सर्वव्यापक विश्वरूप परमात्मा आदिमेंसे जिस स्वरूपको मान रखा है उस स्वरूपके नाम रूप लीला धाम गुण प्रभाव आदिकी याद आ जाय। उसकी याद करते हुए शरीरको छोड़कर जानेसे वह भगवान्को ही प्राप्त होता है। कारण कि भगवान्की याद आनेसे मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा है -- इसकी याद नहीं रहती प्रत्युत केवल भगवान्को ही याद करते हुए शरीर छूट जाता है। इसलिये उसके लिये भगवान्को प्राप्त होनेके अतिरिक्त और कोई गुंजाइश ही नहीं है। यहाँ शङ्का होती है कि जिस व्यक्तिने उम्रभरमें भजनस्मरण नहीं किया कोई साधन नहीं किया सर्वथा भगवान्से विमुख रहा उसको अन्तकालमें भगवान्का स्मरण कैसे होगा और उसका कल्याण कैसे होगा इसका समाधान है कि अन्तसमयमें उसपर भगवान्की कोई विशेष कृपा हो जाय अथवा उसको किसी सन्तके दर्शन हो जायँ तो भगवान्का स्मरण होकर उसका कल्याण हो जाता है। उसके कल्याणके लिये कोई साधक उसको भगवान्का नाम लीला चरित्र सुनाये पद गाये तो भगवान्का स्मरण होनेसे उसका कल्याण हो जाता है। अगर मरणासन्न व्यक्तिको गीतामें रुचि हो तो उसको गीताका आठवाँ अध्याय सुनाना चाहिये क्योंकि इस अध्यायमें जीवकी सद्गतिका विशेषतासे वर्णन आया है। इसको सुननेसे उसको भगवान्की स्मृति हो जाती है। कारण कि वास्तवमें परमात्माका ही अंश होनेसे उसका परमात्माके साथ स्वतः सम्बन्ध है ही। अगर अयोध्या मथुरा हरिद्वार काशी आदि किसी तीर्थस्थलमें उसके प्राण छूट जायँ तो उस तीर्थके प्रभावसे उसको भगवान्की स्मृति हो जायगी (टिप्पणी प0 456.1)। ऐसे ही जिस जगह भगवान्के नामका जप कीर्तन कथा सत्संग आदि होता है उस जगह उसकी मृत्यु हो जाय तो वहाँके पवित्र वायुमण्डलके प्रभावसे उसको भगवान्की स्मृति हो सकती है। अन्तकालमें कोई भयंकर स्थिति आनेसे भयभीत होनेपर भी भगवान्की याद आ सकती है। शरीर छूटते समय शरीर कुटुम्ब रुपये आदिकी आशाममता छूट जाय और यह भाव हो जाय कि हे नाथ आपके बिना मेरा कोई नहीं है केवल आप ही मेरे हैं तो भगवान्की स्मृति होनेसे कल्याण हो जाता है। ऐसे ही किसी कारणसे अचानक अपने कल्याणका भाव बन जाय तो भी कल्याण हो सकता है (टिप्पणी प0 456.2)। ऐसे ही कोई साधक किसी प्राणी जीवजन्तुके मृत्युसमयमें उसका कल्याण हो जाय इस भावसे उसको भगवन्नाम सुनाता है तो उस भगवन्नामके प्रभावसे उस प्राणीका कल्याण हो जाता है। शास्त्रोंमें तो सन्तमहापुरुषोंके प्रभावकी विचित्र बातें आती हैं कि यदि सन्तमहापुरुष किसी मरणासन्न व्यक्तिको देख लें अथवा उसके मृत शरीर(मुर्दे) को देख लें अथवा उसकी चिताके धुएँको देख लें अथवा चिताकी भस्मको देख लें तो भी उस जीवका कल्याण हो जाता है (टिप्पणी प0 456.3)
।।8.5 -- 8.7।।अथ योऽवशिष्टः प्रश्नः कथं प्रयाणकाले ज्ञेयोऽसि इति तं निर्णयति -- अन्तकालेऽपि इत्यादि असंशयम् इत्यन्तम्। न केवलं स्वस्थावस्थायां यावत् अन्तकालेऽपि ( N कालेऽपीति) । मामेति -- व्यवच्छिन्नसकलोपाधिकम्। कथं च अस्वस्थावस्थायां (K (n) अन्तावस्थायाम्) विनिवत्तसकलेन्द्रियचेष्टस्य भगवान् स्मृतिपथमुपेयात् इत्युपायमपि उपदिशति तस्मादिति। सर्वावस्थासु व्यावहारिकीष्वपि यस्य भगवत्तत्त्वं न हृदयादपयाति तस्य भगवत्येव सकलकर्मसंन्यासिनः सततं भगवन्मयस्य अवश्यं स्वयमेव भगवत्तत्त्वं स्मृतिविषयतां यातीति। सदातद्भावभावितत्त्वं च अत्र हेतुः। अतः एवाह -- येनैव वस्तुना सदा भावितान्तःकरणः (NK (n) अन्तःकरणभावः) तदेव मरणसमये स्मर्यते तद्भाव एव च प्राप्यते इति। सर्वथा मत्परम एव मत्प्रेप्सः स्यादित्यत्र तात्पर्यम्। न तु यदेवान्ते स्मर्यते तत्तत्त्वमेवावाप्यते (N तत्तदेवावाप्यते) इति। एवं हि सति ज्ञानिनोऽपि यावच्छरीरभाविधातुदोषविकलितचिवृत्तेर्जडतां प्राप्तस्य तामसस्येव गतिः स्यात्। न च अम्युपगमोऽत्र युक्तः प्रमाणभूतश्रुतिविरोधात्। अस्ति हि -- तीर्थे श्वपचगृहे वा नष्टस्मृतिरपि परित्यजन् देहम्।ज्ञानसमकालमुक्तः कैवल्यं याति हतशोकः।।इति (PS 83 )तस्मादेवं विध्यनुवादौ। सदा येन भावितमन्तःकरणं तदेवान्ते प्रयाणानन्तरं प्राप्यते। तच्च स्मर्यते न वा इति नात्र निर्बन्धः। अन्वाचयश्चायम् अपिशब्देन सूचितः। स्मरणस्य असर्वथाभावं वाशब्दः स्फुटयति। सदा च मत्परमो जनः सर्वथा स्यात् इति तात्पर्यं मुनिरेव प्रकटयति। यदाह -- तस्मात् सर्वेषु कालेषु मानुस्मर इति। ,तेनेत्थमत्र पदसङ्गतिः -- सदा यं यं भावं स्मरन् कलेबरं त्यजति अन्तेऽपि वा स्मरन् -- वाग्रहणात् अस्मरन् वा -- तं तमेवैति। यतोऽसौ सदा तद्भावेन भावितः।अन्ये तु -- कलेवरं त्यजति सति अन्ते कलेवरत्यागक्षणे बन्धुपुत्रादिप्रमात्रगोचरे (SK (n) -- प्रमात्रन्तरागोचरे) श्वासायासहिक्कागद्गदादिचेष्टाचरमभाविनि क्षणे शरीरदार्ढ्यबन्धप्रतनूभावात् देहकृतसुखदुःखमोहबन्धे,(K -- वन्ध्ये) कालांशे देहत्यजनशब्दवाचेय यदेव स्मरति तदेव प्रथमसंविदनुगृहीतम् अस्य रूपं संपद्यते। तादृशे (SN तादृशि) च काले स्मरणस्य कारणं सदा तद्भावभावितत्त्वमिति। त्यजति इति सप्तमी योज्या इति। प्राक्तन एवार्थः।ननु एवमन्तकाले किं प्रयोजनं तत्स्मरणेन क एवमाह प्रयोजनम् इति किंतु वस्तुवृत्तोपनतमेव तद्भवति तस्मिन्नन्त्ये क्षणे।ननु पुत्रकलत्रबन्धुभृतेः शिशिरोदकपानादेर्वा अन्त्ये क्षणे दृष्टं स्मरणम् इति तद्भावापत्तिः स्यात् मैवम्। न हि सोऽन्त्यः क्षणः स्फुटदेहावस्थानात्। न हि असावन्त्यः क्षणः अस्मद्विवक्षितो भवादृशैर्लक्ष्यते। तत्र त्वन्त्ये क्षणे येनैव रूपेण भवितव्यं तत्संस्कारस्य दूरवर्त्तिनोऽपि -- जातिदेशकालव्यवहितानामपि (SN omit जाति also the following compound word स्मृति,etc.) आनन्तर्यम् स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्त्वात् (YS IV 9.)इति न्यायेन प्रबोधेन भाव्यम्। तद्वशात् तत्स्मरणं तत्स्मृत्या तद्भावप्राप्तिः। कस्य चित्तु देहस्य स्वस्थावस्थायामपि तदेव काकतालीयवशाद्व्यज्यते। यथा मृगादेः पुराणे वर्णनं तत्कृतं तु मृगत्वम्। अत एव प्रयाणकालेऽपि च माम् (VII30 ) इत्यादौ अपि च इति ग्रहणम्। ये हि सदा भगवन्तं भावयन्ति,एवंभूता भविष्यामः इति तेषाम्तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी (YS I 50 )इति न्यायेन तस्यामलक्ष्यायामन्तदशायां संस्कारान्तरापहस्तनेन तत्संस्कारकृते तत्तत्त्वस्मरणे देहसद्भावक्षणकृते च तस्य स्मरणे ( omits देहसद्भाव -- स्मरणे) अनन्तरं देहविनिपातक्षणे एव कालसंस्कारनिवृत्तेः तदिदमित्यादिवेद्यविभागानवभासात् संविन्मात्रसतत्त्वपरमेश्वरस्वभावतैव भवति (CA adds इति श्रीमदभिनवगुप्तगुरूणां संमतम् ( संस्मृतम्) after भवति) इत्यलम् ( इत्यलं बहुना)। असंशयमिति -- नात्र संदेग्धव्यमिति [तात्पर्यम्]।
।।8.5।।अन्तकाले च माम् एव स्मरन् कलेवरं त्यक्त्वाः यः प्रयाति स मद्भावं याति। मम यो भावः स्वभावः तं याति तदानीं यथा माम् अनुसंधत्ते तथाविधाकारो भवति इत्यर्थः। यथा आदिभरतादयः तदानीं स्मर्यमाणमृगसजातीयाकाराः संभूताः।स्मर्तुः स्वविषयसजातीयाकारतापादनम् अन्त्यप्रत्ययस्य स्वभाव इति सुस्पष्टम् आह --
।।8.5।।यत्तु प्रयाणकाले चेत्यादि चोदितं तत्राह -- अन्तकाले चेति। मामेवेत्यवधारणेनाध्यात्मादिविशिष्टत्वेन स्मरणं व्यावर्त्यते। विशिष्टस्मरणे हि चित्तविक्षेपान्न प्रधानस्मरणमपि स्यात्। नच मरणकाले कार्यकरणपारवश्याद्भगवदनुस्मरणासिद्धिः। सर्वदैव नैरन्तर्येणादरधिया भगवति समर्पितचेतसस्तत्कालेऽपि कार्यकरणजातमगणयतो भगवदनुसंधानसिद्धेः। शरीरे तस्मिन्नहंममाभिमानाभावादिति यावत्। प्रयातीत्यत्र प्रकृतशरीरमपादानम्।ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इत्यादिश्रुतिमाश्रित्याह -- नास्तीति। व्यासेध्यं संशयमेवाभिनयति -- याति वेति।
।।8.5।।प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि इत्यस्योत्तरमाह -- अन्तकाल इति। एवकारोऽन्यव्यवच्छेदार्थकः। मन्त्रोपासनाद्यस्पृष्टं पूर्णानन्दं मां लीलापुरुषोत्तममेव स्मरन् यो भक्तिमान् योगी प्रयाति प्रयाणं करोति स मद्भावं यातीति नास्त्यत्र संशयः।
।।8.5।।इदानीं प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसीति सप्तमस्य प्रश्नस्योत्तरमाह -- मामेव भगवन्तं वासुदेवमधियज्ञं सगुणं निर्गुणं वा परममक्षरं ब्रह्म न त्वध्यात्मादिकं स्मरन्सदा चिन्तयंस्तत्संस्कारपाटवात्समस्तकरणग्रामवैयग्र्यवत्यन्तकालेऽपि स्मरन्कलेवरं मुक्त्वा शरीरेऽहंममाभिमानं त्यक्त्वा प्राणवियोकाले यः प्रयाति सगुणध्यानपक्षेऽग्रिर्ज्योतिरहः शुक्ल इत्यादिवक्ष्यमाणेन देवयानमार्गेण पितृयानमार्गात्प्रकर्षेण याति स उपासको मद्भावं मद्रूपतां निर्गुणब्रह्मभावं हिरण्यगर्भलोकभोगान्ते याति प्राप्नोति। निर्गुणब्रह्मस्मरणपक्षे तु कलेवरं त्यक्त्वा प्रयातीति लोकदृष्ट्यभिप्रायंन तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते इति श्रुतेस्तस्य प्राणोत्क्रमणाभावेन गत्यभावात्स मद्भावं साक्षादेव याति।ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति इति श्रुतेः। नास्त्यत्र देहव्यतिरिक्त आत्मनि मद्भावप्राप्तौ वा संशयः। आत्मा देहाद्व्यतिरिक्तो न वा देहव्यतिरेकेऽपि ईश्वराद्भिन्नो न वेति संदेहो न विद्यते।छिद्यन्ते सर्वसंशयाः इति श्रुतेः। अत्र च कलेवरं मुक्त्वा प्रयातीति देहाद्भिन्नत्वं मद्भावं यातीति चेश्वरादभिन्नत्वं जीवस्योक्तमिति द्रष्टव्यम्।
।।8.5।। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसीत्यनेन पृष्टमन्तकालज्ञानोपायं तत्फलं च दर्शयति -- अन्तकाल इति। मामेवोक्तलक्षणमन्तर्यामिरूपं परमेश्वरं स्मरन्देहं त्यक्त्वा यः प्रकर्षेणार्चिरादिमार्गेण याति स मद्भावं मद्रूपतां याति। अत्र च संशयो नास्ति। स्मरणं ज्ञानोपायो मद्भावापत्तिश्च फलमित्यर्थः।
।।8.5।।प्रयाणकाले [8।2] इत्यस्य प्रश्नस्य सङ्ग्रहेणोत्तरंअन्तकाले इति श्लोकः। अतो न ज्ञानिमात्रविषय इत्यभिप्रायेणाह -- इदमपीति। अधियज्ञपदार्थस्वाभाव्याद्वक्ष्यमाणप्रकाराच्चेति भावः। अन्वयं दर्शयति -- अन्तकाले चेति।मद्भावं याति इत्यत्र श्रुत्यादिविरुद्धतादात्म्यावाप्तिभ्रमव्युदासायाहमम यो भाव इति। नन्वीश्वरस्वभावप्राप्तावस्यापि कृशोदरीनीडनिहितकीटस्य तज्जातीयत्ववदीश्वरान्तरत्वप्रसङ्गः त्रयाणामधिकारिणां गुणाष्टकरूपेश्वरस्वभावप्राप्त्यविशेषेऽधिकारिभेदश्च न स्यादित्यत आह -- तदानीमिति। तत्तदनुसन्धेयाकारविशेषसाम्यप्राप्तिर्विवक्षिता। साम्यं च स्वरूपभेदकवैधर्म्ये स्थिते सत्येवेति न कश्चिद्दोष इति भावः। एवं प्रश्नाः प्रत्युक्ताः।नास्त्यत्र संशयः इत्यनेन अभिप्रेतां प्रयोजकप्रसिद्धिं दर्शयति -- यथाऽऽदिभरतादय इति। एतेनोदाहरणेनापि तादात्म्यभ्रमो निरस्तः न ह्यादिभरतस्य स्मर्यमाणमृगेण तादात्म्यम् अपितु तत्समानाकारमृगशरीरपरिग्रह एवेति तत्रैव प्रसिद्धम्। तदानीं देहवियोगकाल इत्यर्थः।
।।8.5।।प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि इत्यस्योत्तरमाह -- अन्तकाल इति। अन्तकाले एतद्देहावसानसमये वा अन्तरूपस्य अन्तिमजन्मनो देहस्य काले नाशसमये प्राप्ते सति मामेव स्मरन् यः प्रयाति देहं मुञ्चति स कलेवरं मृतदेहं भजनायोग्यं मुक्त्वा मद्भावं सेवौपयिकस्वरूपं याति प्राप्नोति। अत्रार्थे संशयो नास्ति न वर्त्तते। अतः सन्देहो न कर्त्तव्य इत्यर्थः। चकारेण शुद्धावस्थादिकं न विचारणीयमिति ज्ञापितम्। एवकारेण कामनयाऽन्यत् किञ्चिदपि फलत्वेन न स्मरणीयमिति ज्ञापितम्।
।।8.5।।अत्र षट्प्रश्नोत्तरेषु प्रथमे जीवस्य ब्रह्मभाव उक्तः। तं जानतां प्रयाणमेव नास्ति।न तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येति इति श्रुतेः। द्वितीये शुद्धस्त्वंपदार्थ उक्तस्तज्ज्ञानस्यापि वस्तुतत्त्वविषयत्वान्न तत्र भावनापेक्षास्तीति न भावनाफलभूतकाले तत्प्रत्ययोऽपेक्षते। तृतीयचतुर्थयोस्तु कर्मतत्साधनभूतं च जन्यं वस्तूक्तम्। तत्रापि न भावनापेक्षास्ति। अन्तकाले प्रबलेनैव कर्मणा चित्तस्यावरोधात्तत्साधनफलभूतस्यैव स्मरणावश्यंभावेन तत्र भावनाया वैयर्थ्यात् परिशेषादन्त्ययोरेव कार्यकारणब्रह्मणोः सोपाधिकनिरुपाधिकयोरन्यतरस्य भावना सुदृढा चेदन्तकाले तत्प्रत्ययोऽवश्यंभावीति तयोरन्यतरं रूपं परमात्मानं स्मरन् यः कलेवरं मुक्त्वार्चिरादिमार्गेण प्रयाति स ब्रह्मलोकप्राप्तिद्वारा क्रमेण मद्भावं मोक्षं यातीत्याह -- अन्तकाले चेति। स्पष्टा योजना। नास्त्यत्र संशय इति। सोपाधिकब्रह्मोपास्तिं प्रकृत्यशतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका। तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वगन्या उत्क्रमणे भवन्ति इति तदुपासकस्य गतिपूर्वकस्यामृतत्वस्य श्रवणात्। यस्तु शुद्धत्वंपदार्थरूपमध्यात्मवस्तुमात्रं वेद असौ ब्रह्मात्मैक्यज्ञानाभावात्न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति इत्येतद्वाक्यविषयो न भवति किंतु शतं चैकाचेत्येतस्यैव,विषयः। ननु तस्यानुपासकत्वात्कथमेतदिति चेन्न।नहि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति इति न्यायेन तस्योभयभ्रष्टत्वासंभवात्। कठवल्लीषु निष्कलप्रत्यगात्मविदं केवलयोगिनं प्रकृत्य शतं चैकाचेत्याम्नानाच्च।वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्वाः। ते ब्रह्मलोके तु परान्तकाले परामृतात्परिमुच्यन्ति सर्वे इति श्रुतेर्निश्चतार्थानां शोधितत्वंपदार्थानामेव क्रममुक्तिरवगम्यते। नचात्र सुनिश्चितार्था इत्यनेन ब्रह्मात्मैक्यनिश्चयवन्तो ग्रहीतुं शक्याः। तेषां गत्यभावस्य प्रोक्तत्वात्। नाप्युपासकाः असंभवात्। उपासना हि नाम अतस्मिंस्तद्बुद्धिः। यथा शालग्रामे विष्णुबुद्धिरेवं सूत्रविराडन्तर्यामिष्वात्मबुद्धिरिति न तद्वन्तः सुनिश्चितार्था इति वक्तुं शक्यम्। तस्मादध्यात्मविदां ब्रह्मात्मैक्यानवगमादनुपासकत्वेनान्त्यप्रत्ययाभावेऽप्यर्चिरादिगतिप्राप्तिरस्तीति सर्वमनवद्यम्।
।।8.5।।प्रयाणकाले चेत्यादिसप्तमप्रश्नस्योत्तरमाह -- अन्तकाल इति। अन्तकाले च प्रयाणकाले। प्राणोत्क्रमणकाले इति यावत्। मामेव परमेश्वरं विष्णुं स्मरन्। चकारात्सदा भगवद्भावभावित इति ज्ञेयम्। मामेवेति विशेषणेनाध्यात्मादिविशिष्टत्वेन स्मरणं व्यावर्त्यते। विशिष्टस्मरणे हि चित्तविक्षेपान्न प्रधानस्मरणमपि स्यात्। कलेवरं शरीरं त्यक्त्वा यः प्रयाति स मद्भावं वैष्णवं तत्त्वं याति सगुणब्रह्मचिन्तकश्चेत्क्रमेण निर्गुणब्रह्मविच्चेत्सद्यः। अस्मिन्पक्षे कलेवरं मुक्त्वेति लोकदृष्ट्यभिप्रायम्।न तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रेव समवलीयन्ते इति श्रुतेः। अत्रास्मिन्नर्थे संशयः मद्भावं याति नवेति न विद्यतेस एतान्ब्रह्म गमयत्येष देवपथो ब्रह्मपथ एतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावर्तं नावर्तन्तेब्रह्माविदाप्नोति परम्ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इत्यादिश्रुतेः। अत्र किचिन्नास्त्यत्र देहव्यतिरिक्त आत्मनि मदभावप्राप्तौ वा संशयः। आत्मा देहाद्य्वतिरोक्तो न वा देहव्यतिरेकेऽपि ईश्वराद्भिन्नो न वेति संदेहो न विद्यते।छिद्यन्ते सर्वसंशयाः इति श्रुतेः। अत्र च करेवरं मुक्त्वा प्रयातीति देहाद्भिन्नत्वं मद्भावं यातीति चेश्वरादभिन्नत्वं जीवस्योक्तमिति द्रष्टव्यमिति। तत्रेदं वक्तव्यम्प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मनिभिरिति प्रश्नप्रतिवचने देहाद्य्वतिरिक्तो न वेति संशयनिराकरणवर्णनमकाण्डे ताण्डवम्। देहाद्य्वतिरिक्त आत्मेत्यर्थस्यासकृद्य्वुत्पादितत्वेन संशयाप्रसक्त्याऽप्रसक्तप्रतिषेधश्च युक्तभिर्निरुपितेऽर्थेऽपि पुनरुत्पन्नस्य संशयस्यार्थिकार्थेन निवृत्त्यसंभवश्चछिद्यन्ते सर्वसंशयाः इति श्रुतिरपि परावरविद इति पदसत्त्वे उदाहर्तुं योग्येति दिक्।
8.5 No Commentary.
8.5 And whosoever, leaving the body, goes forth remembering Me alone, at the time of death, he attains My Being: there is no doubt about this.
8.5 Whosoever at the time of death thinks only of Me, and thinking thus leaves the body and goes forth, assuredly he will know Me.
8.5 And at the time of death, anyone who departs by giving up the body while thinking of Me alone, he attains My state. There is no doubt about this.
8.5 Ca, and ; anta-kale, at the time of death; yah, anyone who; prayati, departs; muktva, by giving up; the kalevaram, body; smaran, while thinking; mam eva, of Me alone, who am the supreme Lord Visnu; sah, he; yati, attains; madhavam, My state, the Reality that is Vishu, Asti, there is; na, no; samsayah, doubt; atra, about this, in this regard, as to whether he attains (Me) or not. 'This rule does not apply in relation to me alone.' 'What then?'
8.5. Whosoever, at the time of death also remembering Me alone, sets forth by abandoning his body [behind], he attains My being. There is no doubt about it.
8.5 See Comment under 8.7
8.5 He who, at the last moment, while leaving the body, departs remembering Me alone, attains My being; he attains My condition. In whatever way he meditates on Me, he attains that very form, in the same manner as the royal sage Bharata attained the form of the deer remembered by him at death. Such is the meaning. Sri Krsna further elucidates that it is the nature of one's last thought that leads to the attainment of a similar form by the meditator:
8.5 And at the time of death, anyone who departs by giving up the body while thinking of Me alone, he attains My state. There is no doubt about this.
।।8.5।।और जो पुरुष अन्तकालमें -- मरणकालमें मुझ परमेश्वर -- विष्णुका ही स्मरण करता हुआ शरीर,छोड़कर जाता है वह मेरे भावको अर्थात् विष्णुके परम तत्त्वको प्राप्त होता है। इस विषयमें प्राप्त होता है या नहीं ऐसा कोई संशय नहीं है।
।।8.5।। --,अन्तकाले च मरणकाले च मामेव परमेश्वरं विष्णुं स्मरन् मुक्त्त्वा परित्यज्य कलेवरं शरीरं यः प्रयाति गच्छति सः मद्भावं वैष्णवं तत्त्वं याति। नास्ति न विद्यते अत्र अस्मिन् अर्थे संशयः -- याति वा न वा इति।।न मद्विषय एव अयं नियमः। किं तर्हि --,
।।8.5।।मद्भावमित्यस्य मदात्मकत्वमित्यन्यथाप्रतीतिनिरासायाह -- मद्भावमिति। न तु भगवति स्थितिः सर्वदाऽस्ति सा कथं फलं इत्यतो विशिनष्टि -- निर्दुःखेति। क्वचित्पाठःमद्भावं मद्वद्भावं इति। तत्र भगवत्प्रतिबिम्बानां जीवानां तत्सादृश्यं सदाऽस्ति तत्कथं प्राप्यमुच्यते इत्यत उक्तं निर्दुःखेति। अत्रआत्मकं इति पाठः अभिव्यक्तमिति शेषः। प्रतीत एवार्थः किं न स्यात् इति चेत् न मुक्तानां भगवदाश्रितत्वेन तद्भावायोगात्। तदपि कुतः इत्यत आह -- तच्चेति। क्षेत्रज्ञः परमात्मा गतिरिति समर्थितः।
।।8.5।।मद्भावं मयि सत्तां निर्दुःखनिरतिशयानन्दात्मिकाम्। तच्चोक्तम् -- मुक्तानां च (तु) गतिर्ब्रह्म क्षेत्रज्ञ इति कल्पितः [म.भा.5।334।41] इति मोक्षधर्मे।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।8.5।।
অন্তকালে চ মামেব স্মরন্মুক্ত্বা কলেবরম্৷ যঃ প্রযাতি স মদ্ভাবং যাতি নাস্ত্যত্র সংশযঃ৷৷8.5৷৷
অন্তকালে চ মামেব স্মরন্মুক্ত্বা কলেবরম্৷ যঃ প্রযাতি স মদ্ভাবং যাতি নাস্ত্যত্র সংশযঃ৷৷8.5৷৷
અન્તકાલે ચ મામેવ સ્મરન્મુક્ત્વા કલેવરમ્। યઃ પ્રયાતિ સ મદ્ભાવં યાતિ નાસ્ત્યત્ર સંશયઃ।।8.5।।
ਅਨ੍ਤਕਾਲੇ ਚ ਮਾਮੇਵ ਸ੍ਮਰਨ੍ਮੁਕ੍ਤ੍ਵਾ ਕਲੇਵਰਮ੍। ਯ ਪ੍ਰਯਾਤਿ ਸ ਮਦ੍ਭਾਵਂ ਯਾਤਿ ਨਾਸ੍ਤ੍ਯਤ੍ਰ ਸਂਸ਼ਯ।।8.5।।
ಅನ್ತಕಾಲೇ ಚ ಮಾಮೇವ ಸ್ಮರನ್ಮುಕ್ತ್ವಾ ಕಲೇವರಮ್. ಯಃ ಪ್ರಯಾತಿ ಸ ಮದ್ಭಾವಂ ಯಾತಿ ನಾಸ್ತ್ಯತ್ರ ಸಂಶಯಃ৷৷8.5৷৷
അന്തകാലേ ച മാമേവ സ്മരന്മുക്ത്വാ കലേവരമ്. യഃ പ്രയാതി സ മദ്ഭാവം യാതി നാസ്ത്യത്ര സംശയഃ৷৷8.5৷৷
ଅନ୍ତକାଲେ ଚ ମାମେବ ସ୍ମରନ୍ମୁକ୍ତ୍ବା କଲେବରମ୍| ଯଃ ପ୍ରଯାତି ସ ମଦ୍ଭାବଂ ଯାତି ନାସ୍ତ୍ଯତ୍ର ସଂଶଯଃ||8.5||
antakālē ca māmēva smaranmuktvā kalēvaram. yaḥ prayāti sa madbhāvaṅ yāti nāstyatra saṅśayaḥ৷৷8.5৷৷
அந்தகாலே ச மாமேவ ஸ்மரந்முக்த்வா கலேவரம். யஃ ப்ரயாதி ஸ மத்பாவஂ யாதி நாஸ்த்யத்ர ஸஂஷயஃ৷৷8.5৷৷
అన్తకాలే చ మామేవ స్మరన్ముక్త్వా కలేవరమ్. యః ప్రయాతి స మద్భావం యాతి నాస్త్యత్ర సంశయః৷৷8.5৷৷
8.6
8
6
।।8.6।। हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह उस (अन्तकालके) भावसे सदा भावित होता हुआ उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनिमें ही चला जाता है।
।।8.6।। हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।
।।8.6।। भारत के महान तत्त्वचिन्तक ऋषियों द्वारा सम्यक् विचारोपरांत पहुँचे हुए निष्कर्ष को भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ घोषित करते हैं अन्तकाल में जिस किसी भाव का स्मरण करते हुए जीव देह को त्यागता है वह उसी भाव को प्राप्त होता है चाहे वह पशुत्व का भाव हो अथवा देवत्व का।जैसा तुम सोचोगे वैसे ही बनोगे यह एक ऐसा सिद्धांत है जो किसी भी बुद्धिमान पुरुष को किसी दार्शनिक द्वारा दिए गये स्पष्टीकरण के बिना भी स्वत स्पष्ट हो जाता है। कर्मों के प्रेरक विचार हैं और किसी भी एक विशेष क्षण पर मनुष्य के मन में जो विचार आते हैं वे उसके पूर्वार्जित संस्कारों के अनुरूप ही होते हैं। इन संस्कार या वासनाओं का मनुष्य स्वयं निर्माण करता है। स्वाभाविक है जिस पुरुष ने जीवन पर्यन्त अनात्म उपाधियों से तादात्म्य हटाकर मन को आत्मा में स्थिर करने का सतत प्रयत्न किया हो ऐसे साधक पुरुष के मन में अध्यात्म संस्कार दृढ़ हो जाते हैं। इस सतत चिन्तन और संस्कारों के प्रभाव से मरणकाल में उसकी वृत्त सहज ही ध्येय विषयक होगी और तदनुसार ही मरणोपरांत उसकी यात्रा अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर ही होगी। हम यह नहीं सोचें कि अन्तकाल में हम ईश्वर का स्मरण कर लेंगे अन्तकाल में अपनी भावी यात्रा को निर्धारित करने का अवसर नहीं होता क्योंकि पूर्वाभ्यास के अनुसार उसी प्रकार की ही वृत्ति मन में उठती है।
।।8.6।। व्याख्या--'यं यं वापि स्मरन्भावं ৷৷. सदा तद्भावभावितः'--भगवान्ने इस नियममें दयासे भरी हुई एक विलक्षण बात बतायी है कि अन्तिम चिन्तनके अनुसार मनुष्यको उसउस योनिकी प्राप्ति होती है जब यह नियम है तो मेरी स्मृतिसे मेरी प्राप्ति होगी ही परम दयालु भगवान्ने अपने लिये अलग कोई विशेष नियम नहीं बताया है प्रत्युत सामान्य नियममें ही अपनेको शामिल कर दिया है। भगवान्की दयाकी यह कितनी विलक्षणता है कि जितने मूल्यमें कुत्तेकी योनि मिले उतने ही मूल्यमें भगवान् मिल जायँ
।।8.5 -- 8.7।।अथ योऽवशिष्टः प्रश्नः कथं प्रयाणकाले ज्ञेयोऽसि इति तं निर्णयति -- अन्तकालेऽपि इत्यादि असंशयम् इत्यन्तम्। न केवलं स्वस्थावस्थायां यावत् अन्तकालेऽपि ( N कालेऽपीति) । मामेति -- व्यवच्छिन्नसकलोपाधिकम्। कथं च अस्वस्थावस्थायां (K (n) अन्तावस्थायाम्) विनिवत्तसकलेन्द्रियचेष्टस्य भगवान् स्मृतिपथमुपेयात् इत्युपायमपि उपदिशति तस्मादिति। सर्वावस्थासु व्यावहारिकीष्वपि यस्य भगवत्तत्त्वं न हृदयादपयाति तस्य भगवत्येव सकलकर्मसंन्यासिनः सततं भगवन्मयस्य अवश्यं स्वयमेव भगवत्तत्त्वं स्मृतिविषयतां यातीति। सदातद्भावभावितत्त्वं च अत्र हेतुः। अतः एवाह -- येनैव वस्तुना सदा भावितान्तःकरणः (NK (n) अन्तःकरणभावः) तदेव मरणसमये स्मर्यते तद्भाव एव च प्राप्यते इति। सर्वथा मत्परम एव मत्प्रेप्सः स्यादित्यत्र तात्पर्यम्। न तु यदेवान्ते स्मर्यते तत्तत्त्वमेवावाप्यते (N तत्तदेवावाप्यते) इति। एवं हि सति ज्ञानिनोऽपि यावच्छरीरभाविधातुदोषविकलितचिवृत्तेर्जडतां प्राप्तस्य,तामसस्येव गतिः स्यात्। न च अम्युपगमोऽत्र युक्तः प्रमाणभूतश्रुतिविरोधात्। अस्ति हि -- तीर्थे श्वपचगृहे वा नष्टस्मृतिरपि परित्यजन् देहम्।ज्ञानसमकालमुक्तः कैवल्यं याति हतशोकः।।इति (PS 83 )तस्मादेवं विध्यनुवादौ। सदा येन भावितमन्तःकरणं तदेवान्ते प्रयाणानन्तरं प्राप्यते। तच्च स्मर्यते न वा इति नात्र निर्बन्धः। अन्वाचयश्चायम् अपिशब्देन सूचितः। स्मरणस्य असर्वथाभावं वाशब्दः स्फुटयति। सदा च मत्परमो जनः सर्वथा स्यात् इति तात्पर्यं मुनिरेव प्रकटयति। यदाह -- तस्मात् सर्वेषु कालेषु मानुस्मर इति। तेनेत्थमत्र पदसङ्गतिः -- सदा यं यं भावं स्मरन् कलेबरं त्यजति अन्तेऽपि वा स्मरन् -- वाग्रहणात् अस्मरन् ,वा -- तं तमेवैति। यतोऽसौ सदा तद्भावेन भावितः।अन्ये तु -- कलेवरं त्यजति सति अन्ते कलेवरत्यागक्षणे बन्धुपुत्रादिप्रमात्रगोचरे (SK (n) -- प्रमात्रन्तरागोचरे) श्वासायासहिक्कागद्गदादिचेष्टाचरमभाविनि क्षणे शरीरदार्ढ्यबन्धप्रतनूभावात् देहकृतसुखदुःखमोहबन्धे,(K -- वन्ध्ये) कालांशे देहत्यजनशब्दवाचेय यदेव स्मरति तदेव प्रथमसंविदनुगृहीतम् अस्य रूपं संपद्यते। तादृशे (SN तादृशि) च काले स्मरणस्य कारणं सदा तद्भावभावितत्त्वमिति। त्यजति इति सप्तमी योज्या इति। प्राक्तन एवार्थः।ननु एवमन्तकाले किं प्रयोजनं तत्स्मरणेन क एवमाह प्रयोजनम् इति किंतु वस्तुवृत्तोपनतमेव तद्भवति तस्मिन्नन्त्ये क्षणे।ननु पुत्रकलत्रबन्धुभृतेः शिशिरोदकपानादेर्वा अन्त्ये क्षणे दृष्टं स्मरणम् इति तद्भावापत्तिः स्यात् मैवम्। न हि सोऽन्त्यः क्षणः स्फुटदेहावस्थानात्। न हि असावन्त्यः क्षणः अस्मद्विवक्षितो भवादृशैर्लक्ष्यते। तत्र त्वन्त्ये क्षणे येनैव रूपेण भवितव्यं तत्संस्कारस्य दूरवर्त्तिनोऽपि -- जातिदेशकालव्यवहितानामपि (SN omit जाति also the following compound word स्मृति,etc.) आनन्तर्यम् स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्त्वात् (YS IV 9.)इति न्यायेन प्रबोधेन भाव्यम्। तद्वशात् तत्स्मरणं तत्स्मृत्या तद्भावप्राप्तिः। कस्य चित्तु देहस्य स्वस्थावस्थायामपि तदेव काकतालीयवशाद्व्यज्यते। यथा मृगादेः पुराणे वर्णनं तत्कृतं तु मृगत्वम्। अत एव प्रयाणकालेऽपि च माम् (VII30 ) इत्यादौ अपि च इति ग्रहणम्। ये हि सदा भगवन्तं भावयन्ति,एवंभूता भविष्यामः इति तेषाम्तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी (YS I 50 )इति न्यायेन तस्यामलक्ष्यायामन्तदशायां संस्कारान्तरापहस्तनेन तत्संस्कारकृते तत्तत्त्वस्मरणे देहसद्भावक्षणकृते च तस्य स्मरणे ( omits देहसद्भाव -- स्मरणे) अनन्तरं देहविनिपातक्षणे एव कालसंस्कारनिवृत्तेः तदिदमित्यादिवेद्यविभागानवभासात् संविन्मात्रसतत्त्वपरमेश्वरस्वभावतैव भवति (CA adds इति श्रीमदभिनवगुप्तगुरूणां संमतम् ( संस्मृतम्) after भवति) इत्यलम् ( इत्यलं बहुना)। असंशयमिति -- नात्र संदेग्धव्यमिति [तात्पर्यम्]।
।।8.6।।अन्ते अन्तकाले यं यं वा अपि भावं स्मरन् कलेवरं त्यजति तं तं भावम् एव मरणान्तरम् एति। अन्त्यप्रत्ययश्च पूर्वभावितविषय एव जायते।यस्मात् पूर्वकालाभ्यस्तविषये एव अन्त्यप्रत्ययो जायते --
।।8.6।।अन्तकाले भगवन्तमनुध्यायतो भगवत्प्राप्तिनियमवदन्यमपि तत्काले देवादिविशेषं ध्यायतो देहं त्यजतस्तत्प्राप्तिरवश्यंभाविनीति दर्शयति -- नेत्यादिना। कथं पुनरन्तकाले परवशस्य नियतविषयस्मृतिर्भवितुमुत्सहते तत्राह -- सदेति। देवादिविशेषस्तस्मिन्निति सप्तम्यर्थः। भावो भावना वासना स भावो भावितः संपादितो येन पुंसा स तथाविधः सन् यं यं भावं स्मरति तं तमेव देहत्यागादूर्ध्वं गच्छतीति संबन्धः।
।।8.6।।न केवलं मां स्मरन्मद्भावं यातीति नियमः -- यं यमिति। अन्तेऽन्तकाले तमेव भावं स्मर्त्तुः स्वविषयजातीयाकारत्वसम्पादकं भावं स्वरूपमेति भरतवत्।
।।8.6।।अन्तकाले भगवन्तमनुध्यायतो भगवत्प्राप्तिर्नियतेति वदितुमन्यदपि यत्कंचित्काले ध्यायतो देहं त्यजतस्तत्प्राप्तिरवश्यंभाविनीति दर्शयति -- न केवलं मां स्मरन्मद्भावं यातीति नियमः किं तर्हि यं यं वापि भावं देवताविशेषंचकारादन्यदपि यत्किंचिद्वा स्मरंश्चिन्तयन्नन्ते प्राणवियोगकाले कलेवरं त्यजति स तं तमेव स्मर्यमाणं भावमेव नान्यमेति प्राप्नोति। हे कौन्तेयेति पितृष्वसृपुत्रत्वेन स्नेहातिशयं सूचयति। तेन चावश्यानुग्राह्यत्वं तेन च प्रतारणाशङ्काशून्यत्वमिति। अन्तकाले स्मरणोद्यमासंभवेऽपि पूर्वाभ्यासजनिता वासनैव स्मृतिहेतुरित्याह -- सदेति। सदा सर्वदा तस्मिन्देवताविशेषादौ भावो भावना वासना तद्भावः स भावितः संपादितो येन स तथा। भाविततद्भाव इत्यर्थः। आहिताग्न्यादेराकृतिगणत्वाद्भावितपदस्य परनिपातः। तद्भावेन तच्चिन्तनेन भावितो वासितचित्त इति वा।
।।8.6।।न केवलं मां स्मरन्मद्भावं प्राप्नोतीति नियमः किं तर्हि -- यं यमिति। यं यं भावं देवतान्तरं वाऽन्यमपि वाऽन्तकाले स्मरन्देहं त्यजति तं तमेव स्मर्यमाणं भावं प्राप्नोति अन्तकाले भावविशेषस्मरणे हेतुः सदेति। सर्वदा तस्य भावो भावनानुचिन्तनं तेन भावितो वासितचित्तः।
।।8.6।।न केवलमीश्वरविषयान्तिमप्रत्ययस्वभावोऽयमिति मन्तव्यम् किन्तु सर्वसाधारणमिदमत्राप्युक्तमिति प्रयोजकाकारोयं यम् इति श्लोकेनोच्यत इत्याह -- स्मर्तुरिति। अन्तशब्दः पूर्वश्लोकाभिहितान्तकालपरः। तस्य चान्तिमप्रत्ययप्रभावज्ञापनायस्मरन् इत्यनेनान्वय इति दर्शयति -- अन्ते अन्तकाले इति। वीप्सयावापि इत्यनेन च स्मर्तव्यविषयनियमो नीचोत्तमविषयवैषम्याभावश्च दर्शितः।तं तम् इति वीप्सया त्वसङकीर्णतत्तत्प्राप्तिः। अवधारणेन प्रबलपुण्यान्तरेणापि तस्या दुर्वारत्वं च विवक्षितम्। भावशब्दोऽत्र स्वभावपरः। धर्मिप्रत्ययस्तु नान्तरीयकः। भावशब्दस्यात्र पदार्थपरत्वे प्रस्तुतभावशब्दवैरूप्यम्तं तमेति इति साजात्यलक्षणा च।तं तमेवैति इत्यत्र यत्र क्वचन जन्मनि सर्वसाधारणतज्जातियोगमात्रव्युदासायोक्तंमरणानन्तरमिति। नह्यादिभरतमृगत्वे जन्मान्तरव्यवधानंसदा तद्भावभावितः इत्यनेनान्तिमस्मृतिहेतुर्विवक्षित इत्याह -- अन्तिमप्रत्ययश्चेति। तद्भावभावितः तद्भावनावासित इत्यर्थः तस्मिन् भावो भावितो येनेति वा तद्भावभावितः।
।।8.6।।अन्यास्मरणे हेतुमाह -- यं यमिति। हे कौन्तेय तत्स्मरणायोग्य यं यं देवतान्तरमपि वा स्वमनोभिलषितजीवस्वरूपं स्मरन् अन्ते कलेवरं त्यजति स तमेव तत्सारूप्यमेति प्राप्नोतीत्यर्थः। अपीति निश्चयार्थे वा। अत एव भरतस्य अन्ते मृगस्मरणे मृगशरीराप्तिः अयमेवार्थोऽपिशब्देन द्योतितः। यतोऽन्तकाले यत्स्मरणेन म्रियते तमेव प्राप्नोत्यतः साधारण्येनापि मत्स्मरणेन मरणे मत्प्राप्तौ न सन्देह इत्यर्थः। नन्वन्ते वैकल्ये देवतान्तरस्मरणं स्वाभिलषितस्मरणं वा कथं स्यात् इत्यत आह -- सदा तद्भावभावितः निरन्तरं,तद्भावेन भावितो यो भवति स तमेवान्ते स्मरति।
।।8.6।।न केवलं कार्यकारणब्रह्मणोरेव भावनान्त्यप्रत्ययवशात्तद्भावप्राप्तिहेतुरपि तु कीटस्य जीवत एव भावनाबलाद्भाव्यवस्तुभावप्राप्तिर्दृश्यते। नन्दिकेश्वरस्य च स्मर्यतेस हि महादेवं भावयंस्तत्सारूप्यं देहान्तरं विनैव प्राप्तः इति। योगशास्त्रेऽपि प्रसिद्धम्। तत्र किमु वक्तव्यमन्तप्रत्ययवशाद्देहान्तरे भाव्यभावप्राप्तिरस्तीति मत्वा तमेवार्थमन्यत्रापि दर्शयति -- यं यमिति। तद्भावभावितः भाव्याकारवासनया रञ्जित इत्यर्थः।
।।8.6।।अन्तकाले मां स्मरन् मामेवैतीति नायं नियमः किंतु यं यं वापि भावं देवताविशेषं स्मरन् चिन्तयन्नन्ते मरणकाले कलेवरं शरीरं त्यजति तं तमेव चिन्तितं भावमेवैति नान्यम्। यद्यपि यंयं चापीति पाठश्चकारादन्यदपि यत्किंचिद्वा स्मरन्निति कैश्चिद्य्वाख्यायस्तथापि भाष्यकारैवर्याख्यातो न भवतीत्युपेक्षणीयः। अन्तकाले विवशस्यापि स्मृतिभवने किं कारणमिति तत्राह। सदा तद्भावभावितः सदा सर्वदा तस्मिन्देवतादिविशेषे भावो भावना वासना स भावितोऽभ्यस्तो येन सः सन् सर्वदा तस्य भावो भावनानुचिन्तनं तेन भावितो वासितचित्त इति व्युत्पत्तिं सिद्धवत्कृत्याचार्यैस्तथा व्युत्पादितमित्यविरोधः। कौन्तेयेति संबोधयन् संबन्धप्रदर्शनेन स्वस्मिन्सर्वदा भावनाभ्याससौलभ्यं द्योतयति।
8.6 यम् which? यम् which? वा or? अपि even? स्मरन् remembering? भावम् nature (idea of object)? त्यजति leaves? अन्ते in the end? कलेवरम् the body? तम् to that? तम् to that? एव only? एति goes? कौन्तेय O Kaunteya? सदा constantly? तद्भावभावितः thinking of that object.Commentary The last thoughts determine the next birth. The most prominent thought of ones life occupies the mind at the time of death. The predominant idea at the time of death is what in normal life has occupied his attention most. The last thought determines the nature or character of the body to be attained next. As a man thinketh? so shall he becometh.The force of Samskaras which one has created by his previous practice is the cause of their remembrance at death. Those who have practised worship of God throughout their life can have remembrance of their tutelary deity at the time of death.The analogy of the wasp and the caterpillar (BhramaraKitaNyaya) can be applied here. The caterpillar constantly remembers the wasp and becomes eventually transformed into a wasp. Even so he who constantly remembers his tutelary deity becomes identical with that deity. Nandikesvara is an example. He constantly thought of his Lord and assumed a form eal to that of the Lord.If you constantly think of the immortal Self during your lifetime? you will entertain the thought of the Self only even at the time of death and will attain immortality. If you always think of your body and identify yourself with the perishable body you will be born again and again. If you think of you pet dog at the time of death you will be born as a dog. Raja Jadabharata thought of his pet deer at the time of his death and so he took the birth of a deer.Every man has a definite outlook on life? definite mode of thinking? definite cravings? desires and hopes? definite character? temperament? taste? disposition and attitude.This is all due to the impressions which have become part and parcel of his subconsciousness. This is all due to experiences which have left their indelible impressions on his mind.He always thinks of his body and physical needs. He searches for his happiness in the external? perishable objects. He identifies himself with the perishable body. He ignores his innermost? allblissful? immortal Self? the source of everything. He trains his body? senses? mind and intellect in worldly pursuits. He ignores the Yogic discipline of the mind and the senses. Therefore he always thinks of his body? bread? drink and clothing. He forgets all about God and the Self? the indweller? an embodiment of bliss and knowledge? fountain of joy and happiness.Desires are endless. Therefore man cannot gratify them in one birth. At the time of death the whole storehouse of impressions and desires is churned out and the most prominent? the strongest and cherished desire comes to the surface of the mind or the field of mental consciousness. This churned up butter or cream (cherished desire) arrests his attention for immediate gratification. He thinks of only that at the time of death. Just as the most vital mango plant shoots up prominently in the nursery? so also the strongest desire shoots up on the surface of the mind. If the desire is not gratified his mind gets saturated with it and it is gratified in his nextbirth. This desire will become very promenent in his next birth.You yourself are the author of your own destiny. You yourself are responsible for your thoughts? character? feelings? actions and experiences. You planted certain worldly desires and Samskaras in your subconscious mind? and allowed them to germinate and grow. If you had planted spiritual aspiration? the desire for liberation and spiritual Samskaras? you would reap the fruit of immortality and eternal bliss. As you sow so shall you reap.He who practises constant and profound meditation on the Self of his own tutelary deity throughout his life will be able to meet death with an unruffled mind. He alone would go to the Supreme? thinking of It at the time of his departure from this world? too. You should have exclusive devotion to God. Your whole mind must be absorbed in Him. You should not allow any outside worldly impressions? wherein there is an iota of selfish desire? to sink into your subconscious mind. Then you can think of the Lord exclusively at the time of death and enter His very Being.
8.6 Whosoever at the end leaves the body, thinking of any being, to that being only does he go, O son of Kunti (Arjuna), because of his constant thought of that being.
8.6 On whatever sphere of being the mind of a man may be intent at the time of death, thither he will go.
8.6 O son of Kunti, thinking of any entity whichever it may be one gives up the body at the end, he attains that very one, having been always engrossed in its thought.
8.6 O Son of Kunti, smaran, thinking of; bhavam, any entity, any particular deity; yam yam va api, which ever it may be; tyajati, one gives up; the kalevaram, body; ante, at the end, at the time of the departure of life; eti, he attains; tam tam eva, that very one, that very entity which is remembered-none else; having been sada, always; tadbhava-bhavitah, engrossed in its thought. Engrossment in it is tad-bhavah; one by whom that is remembered as a matter of habitual recollection is tadbhava-bhavitah. Since the last thought is thus the cause of aciring the next body-
8.6. And also remembering whatever being, a person leaves his body at the end [of his life], that being alone he attains, O son of Kunti ! [Because] he has been constantly thinking about that being.
8.6 See Comment under 8.7
8.6 'At the end,' at the time of death, remembering whatsoever thought one abandones the body, to that alone one goes after death. The final thought arises only with reference to objects pervioulsy ruminated upon in one's thought. As the final thought results only about an object previously contemplated upon,
8.6 O son of Kunti, thinking of any entity whichever it may be one gives up the body at the end, he attains that very one, having been always engrossed in its thought.
।।8.6।।केवल मेरे विषयमें ही यह नियम नहीं है किंतु --, हे कुन्तीपुत्र प्राणवियोगके समय ( यह जीव ) जिसजिस भी भावका अर्थात् ( जिस किसी भी ) देवताविशेषका चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है उस भावसे भावित हुआ वह पुरुष सदा उस स्मरण किये हुए भावको ही प्राप्त होता है अन्यको नहीं। उपास्य देवविषयक भावनाका नाम तद्भाव है वह जिसने भावित यानी बारंबार चिन्तन करनेके द्वारा अभ्यस्त किया हो उसका नाम तद्भावभावित है ऐसा होता हुआ ( उसीको प्राप्त होता है )।
।।8.6।। --,यं यं वापि यं यं भावं देवताविशेषं स्मरन् चिन्तयन् त्यजति परित्यजति अन्ते अन्तकाले प्राणवियोगकाले कलेवरं शरीरं तं तमेव स्मृतं भावमेव एति नान्यं कौन्तेय सदा सर्वदा तद्भावभावितः तस्मिन् भावः तद्भावः स भावितः स्मर्यमाणतया अभ्यस्तः येन सः तद्भावभावितः सन्।।यस्मात् एवम् अन्त्या भावना देहान्तरप्राप्तौ कारणम् --,
।।8.6 -- 8.7।।ननु कलेवरत्यागस्यान्ताव्यभिचारादन्त इति व्यर्थमित्यत आह -- स्मरन्निति। नान्त इत्येतत्कलेवरं त्यजतीत्यस्य विशेषणं येन व्यर्थं स्यात् किन्तु अन्ते स्मरन्निति स्मरणस्यैव तत्रापि किं प्रयोजनं इति चेत् उच्यतेलक्षणहेत्वोः क्रियायाः [अष्टा.3।2।126] इति लक्षणेऽपि शतुर्विधानात्।स्मरन्पुरुषः कलेवरं त्यजति इति स्मरणकलेवरत्यागयोर्भिन्नकालत्वेऽपि न कश्चिच्छब्दविरोध इति मन्दमतेः शङ्का स्यात् सा मा भूदित्येवमर्थमन्त इति स्मरणस्य विशेषणमुपात्तम् तेनात्र स्मरणकलेवरत्यागयोरेककालत्वसिद्धिरिति।मन्दमतेः इत्यस्य कृत्यमाह -- सुमतेरिति। कुतः इत्यत आह -- स्मरन्निति।लटः शतृशानचौ [अष्टा.3।2।124] इति लडादेशत्वेनापि शतुर्विधानमस्ति स च लडिति वर्तमाने पुनर्लङ्ग्रहणसामर्थ्यात्क्वचित् प्रथमासामानाधिकरण्येऽपि भवति लक्षणे विहिताच्च ल़डादेशो बलीयान्। तत्र क्रियाया इत्युपपदसापेक्षत्वात् अस्यानपेक्षत्वात्। अप्रथमासमानाधिकरणे इत्यस्यातिप्रसक्तिपरिहारमात्रार्थत्वात्। तथा च बलवतो ग्राह्यत्वेस्मरंस्त्यजति इत्यस्य स्मरति च त्यजति चेत्यर्थः स्यात्। एवं चान्तः इत्यनुक्ते़ऽपि स्मरणत्यागयोरेककालीनत्वप्रतीतेः सुमतेर्नैव शङ्कावकाश इति भावः।ननु दुर्मतिरपि शाब्दं न्यायं जानात्येव अन्यथा शास्त्रे नाधिक्रियेत केवलमध्यात्मविषये न प्रवीणः तत्कथं तस्याप्येषा शङ्का स्यात् ततश्च तं प्रत्यपि अन्त इत्येतत् व्यर्थमित्यत आह -- दुर्मतेरिति। दुर्मतेर्भविष्यति शङ्का भिन्नकालत्वविषया। कुतः मरणकाले महद्दुःखं जायते दुःखस्य च संस्कारविलोपहेतुत्वं प्रसिद्धम् अतो दुःखात्कारणात् मूर्छितो न स्मरंस्त्यजति। कलेवरत्यागसमये स्मरणमसम्भवीति यावत्। एतामनुपपत्तिं पश्यन् बलवन्तमपि लडादेशं विहाय लक्षणार्थमेव हि मन्यत इति भावः। ननु सुमतेरप्येवं शङ्का स्यादेव कथं चेयं शङ्का तत्त्वप्रतीतिरेवेति चेत् न अज्ञानिन एव देहाभिमानिनो देहत्यागमात्मत्यागमिव मन्यमानस्य मरणकाले दुःखं भवति तदपि मरणक्षणात्पूर्वमेव ज्ञानी तु सर्वदा देहं हेयमेव मन्यमानो न मनागपि दुःखायते किन्तु विशिष्टमेव तस्योत्क्रमणामत्यध्यात्मशास्त्रमनुसन्दधानस्य सुमतेः शङ्कानवकाशात्। किं तदध्यात्मशास्त्रं इत्यत आह -- त्यजन्निति। कश्चिद्विद्वान्। अविद्वानपि तत्काले तस्येति मरणवैशिष्ट्यमात्रपरम् न त्वन्त इत्येतत् स्मरणविशेषणं चेत् तदासदा तद्भावभावितः [8।6] इत्यनेनैव गतार्थं स्यात् अन्यथा तद्व्यर्थं भवेदित्यत आह -- सदेति। अन्तकालस्मरणमेव तत्प्राप्तिसाधनम्। न च तदकस्माद्भवति अतः तदुपायत्वेन सदा तद्भावभावितत्वमुच्यत इत्यर्थः। कथमित्यतो यथाऽयं तदुपायः स्यात् तथा व्याचष्टे -- भाव इति। तथाऽभिधानादिति स्याद्भावोऽन्तर्गतं मन इत्येवरूपादभिधानादित्यर्थः। वासितत्वं संस्कृतत्वम्। तस्मिन् भावस्तद्भावस्तेन भावित इति मनोधर्मेणात्मोपचर्यते।
।।8.6 -- 8.7।।स्मरन्पुरुषस्त्यजतीति भिन्नकालीनत्वेऽप्यविरोध इति मन्दमतेः शङ्का मा भूदित्यन्त इति विशेषणम् सुमतेनव शङ्कावकाशः।स्मरंस्त्यजति इत्येककालीनत्वप्रतीतेः। दुर्मतेर्दुःखान्न स्मरंस्त्यजतीति शङ्का।त्यजन्देहं न कश्चित्तु मोहमाप्नोत्यसंशयम् इति स्कान्दे। तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति [बृ.उ.4।4।2] इति हि श्रुतिः।सदा तद्भावभावितः इत्यन्तकालस्मरणोपायमाह -- भावोऽन्तर्गतं मनः तथाभिधानात्। भावितत्वं अतिवासितत्वम्।भावना त्वतिवासना इत्यभिधानात्।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।
যং যং বাপি স্মরন্ভাবং ত্যজত্যন্তে কলেবরম্৷ তং তমেবৈতি কৌন্তেয সদা তদ্ভাবভাবিতঃ৷৷8.6৷৷
যং যং বাপি স্মরন্ভাবং ত্যজত্যন্তে কলেবরম্৷ তং তমেবৈতি কৌন্তেয সদা তদ্ভাবভাবিতঃ৷৷8.6৷৷
યં યં વાપિ સ્મરન્ભાવં ત્યજત્યન્તે કલેવરમ્। તં તમેવૈતિ કૌન્તેય સદા તદ્ભાવભાવિતઃ।।8.6।।
ਯਂ ਯਂ ਵਾਪਿ ਸ੍ਮਰਨ੍ਭਾਵਂ ਤ੍ਯਜਤ੍ਯਨ੍ਤੇ ਕਲੇਵਰਮ੍। ਤਂ ਤਮੇਵੈਤਿ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਸਦਾ ਤਦ੍ਭਾਵਭਾਵਿਤ।।8.6।।
ಯಂ ಯಂ ವಾಪಿ ಸ್ಮರನ್ಭಾವಂ ತ್ಯಜತ್ಯನ್ತೇ ಕಲೇವರಮ್. ತಂ ತಮೇವೈತಿ ಕೌನ್ತೇಯ ಸದಾ ತದ್ಭಾವಭಾವಿತಃ৷৷8.6৷৷
യം യം വാപി സ്മരന്ഭാവം ത്യജത്യന്തേ കലേവരമ്. തം തമേവൈതി കൌന്തേയ സദാ തദ്ഭാവഭാവിതഃ৷৷8.6৷৷
ଯଂ ଯଂ ବାପି ସ୍ମରନ୍ଭାବଂ ତ୍ଯଜତ୍ଯନ୍ତେ କଲେବରମ୍| ତଂ ତମେବୈତି କୌନ୍ତେଯ ସଦା ତଦ୍ଭାବଭାବିତଃ||8.6||
yaṅ yaṅ vāpi smaranbhāvaṅ tyajatyantē kalēvaram. taṅ tamēvaiti kauntēya sadā tadbhāvabhāvitaḥ৷৷8.6৷৷
யஂ யஂ வாபி ஸ்மரந்பாவஂ த்யஜத்யந்தே கலேவரம். தஂ தமேவைதி கௌந்தேய ஸதா தத்பாவபாவிதஃ৷৷8.6৷৷
యం యం వాపి స్మరన్భావం త్యజత్యన్తే కలేవరమ్. తం తమేవైతి కౌన్తేయ సదా తద్భావభావితః৷৷8.6৷৷
8.7
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7
।।8.7।। इसलिये तू सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मेरेमें मन और बुद्धि अर्पित करनेवाला तू निःसन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा।
।।8.7।। इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।
।।8.7।। कोई भी धर्म तब तक समाज की निरन्तर सेवा नहीं कर सकता जब तक वह धर्मानुयायी लोगों को अपना व्यावहारिक दैनिक जीवन सफलतापूर्वक जीने की विधि और साधना का उपदेश नहीं देता। यहाँ एक ऐसी साधना बतायी गयी है जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से लागू होती है। इस सरल उपदेश के पालन से न केवल रहन सहन का स्तर बल्कि सम्पूर्ण जीवन का स्तर भी उच्च किया जा सकता है।अनेक लोग हैं जिन्हें सन्देह होता है कि मन को धर्म तथा व्यावहारिक जीवन में बाँटना किसी भी क्षेत्र में वास्तविक सफलता पाने में हानिकारक है। वास्तव में यह एक अविचारपूर्ण तर्क है। बहुत ही कम अवसरों पर व्यक्ति का मन पूर्णतया उसी स्थान पर होता है जहाँ वह काम कर रहा होता है। सामान्यतः मन का एक बड़ा भाग भय के भयंकर जंगलों में या ईर्ष्या की गुफाओं में या फिर असफलता की काल्पनिक सम्भावनाओं के रेगिस्तान में सदैव भटकता रहता है। इस प्रकार मन की सम्पूर्ण शक्ति का अपव्यय करने के स्थान पर भगवान् उपदेश देते हैं कि भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सर्वोच्च लाभ पाने के इच्छुक और प्रयत्नशील पुरुष्ा को अपना मन शान्त और पावन सत्यस्वरूप में स्थिर करना चाहिए। ऐसा करने से वह अपनी सम्पूर्ण क्षमता को अपने कार्य के उपयोग में ला सकता है और इस प्रकार इह और पर दोनों ही लोकों में सर्वोच्च सम्मान का स्थान प्राप्त कर सकता है।हिन्दु धर्म में धर्म और जीवन परस्पर विलग नहीं हैं। एक दूसरे से विलग होने से दोनों ही नष्ट हो जायेंगे। वे परस्पर वैसे ही जुड़े हुए हैं जैसे मनुष्य का धड़ और मस्तक। वियुक्त होकर दोनों ही जीवित नहीं रह सकते। जीवन में आने वाली परीक्षा का घड़ियों में भी एक सच्चे साधक को चाहिए कि वह अपने मन के निरन्तर शुद्ध आत्मस्वरूप तथा विश्व के अधिष्ठान ब्रह्म में एकत्व भाव से स्थिर रखना सीखे। न तो यह कठिन है और न ही अनभ्यसनीय।रंगमंच पर राजा की भूमिका करते हुये एक अभिनेता को कभी यह विस्मृत नहीं होता कि शहर में उसकी एक पत्नी और पुत्र भी है। यदि अपनी यह पहचान भूलकर रंगमंच के बाहर भी वह राजा के समान व्यवहार करने लगे तो तत्काल ही उसे समाज के हित में किसी पागलखाने में भर्ती करा दिया जायेगा। परन्तु वह अपने वास्तविक व्यक्तित्व को जानता है इसलिए वह कुशल अभिनेता होता है। इसी प्रकार सदा अपने दिव्य स्वरूप के प्रति जागरूक रहते हुए भी हम जगत् में बिना किसी बाधा के कार्य कर सकते हैं। इस ज्ञान में स्थित होकर कर्म करने से हमारी उपलब्धियों को विशेष आभा प्राप्त होती है और उसके साथ ही जीवन में आने वाली निराशा की घड़ी में उत्पन्न होने वाली मन की प्रतिक्रियाओं को हम शान्त और मन्द करने में समर्थ बनते हैं।वास्तविक अर्थ में एक सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत पुरुष को कभी भी अपनी शिक्षा का विस्मरण नहीं होता। वह तो उसके जीवन का अंग बन जाती है। उसके आचार विचार और व्यवहार में शिक्षा की सुरभि का सतत निस्सरण होता रहता है। उसी प्रकार आत्मभाव में स्थित पुरुष के मन में सबके प्रति करुणा और प्रेम तथा कर्मों में निःस्वार्थ भाव होता है। यही वह रहस्य है जिसके कारण वैदिक सभ्यता ने अपने काल में सम्पूर्ण विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया और वह भावी पीढ़ियों के सम्मान का पात्र बनी।भगवान् यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जो पुरुष केवल धर्म प्रतिपादित फल के लिए युद्ध का जीवन जीते हुए भी मेरा स्मरण करता है उसका मन और बुद्धि मुझमें ही समाहित हो जाती है। अपने विचारों के अनुसार तुम बनोगे इस सिद्धांत के अनुसार तुम मुझे निःसन्देह प्राप्त होगे।आगे कहते हैं --
।।8.7।। व्याख्या --'तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च'--यहाँ 'सर्वेषु कालेषु' पदोंका सम्बन्ध केवल स्मरणसे ही है युद्धसे नहीं क्योंकि युद्ध सब समयमें निरन्तर हो ही नहीं सकता। कोई भी क्रिया निरन्तर नहीं हो सकती प्रत्युत समयसमयपर ही हो सकती है। कारण कि प्रत्येक क्रियाका आरम्भ और समाप्ति होती है -- यह बात सबके अनुभवकी है। परन्तु भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य होनेसे भगवान्का स्मरण सब समयमें होता है क्योंकि उद्देश्यकी जागृति हरदम रहती है।सब समयमें स्मरण करनेके लिये कहनेका तात्पर्य है कि प्रत्येक कार्यमें समयका विभाग होता है जैसे -- यह समय सोनेका और यह समय जगनेका है यह समय नित्यकर्मका है यह समय जीविकाके लिये कामधंधा करनेका है यह समय भोजनका है आदिआदि। परन्तु भगवान्के स्मरणमें समयका विभाग नहीं होना चाहिये। भगवान्को तो सब समयमें ही याद रखना चाहिये।,
।।8.5 -- 8.7।।अथ योऽवशिष्टः प्रश्नः कथं प्रयाणकाले ज्ञेयोऽसि इति तं निर्णयति -- अन्तकालेऽपि इत्यादि असंशयम् इत्यन्तम्। न केवलं स्वस्थावस्थायां यावत् अन्तकालेऽपि ( N कालेऽपीति) । मामेति -- व्यवच्छिन्नसकलोपाधिकम्। कथं च अस्वस्थावस्थायां (K (n) अन्तावस्थायाम्) विनिवत्तसकलेन्द्रियचेष्टस्य भगवान् स्मृतिपथमुपेयात् इत्युपायमपि उपदिशति तस्मादिति। सर्वावस्थासु व्यावहारिकीष्वपि यस्य भगवत्तत्त्वं न हृदयादपयाति तस्य भगवत्येव सकलकर्मसंन्यासिनः सततं भगवन्मयस्य अवश्यं स्वयमेव भगवत्तत्त्वं स्मृतिविषयतां यातीति। सदातद्भावभावितत्त्वं च अत्र हेतुः। अतः एवाह -- येनैव वस्तुना सदा भावितान्तःकरणः (NK (n) अन्तःकरणभावः) तदेव मरणसमये स्मर्यते तद्भाव एव च प्राप्यते इति। सर्वथा मत्परम एव मत्प्रेप्सः स्यादित्यत्र तात्पर्यम्। न तु यदेवान्ते स्मर्यते तत्तत्त्वमेवावाप्यते (N तत्तदेवावाप्यते) इति। एवं हि सति ज्ञानिनोऽपि यावच्छरीरभाविधातुदोषविकलितचिवृत्तेर्जडतां प्राप्तस्य तामसस्येव गतिः स्यात्। न च अम्युपगमोऽत्र युक्तः प्रमाणभूतश्रुतिविरोधात्। अस्ति हि -- तीर्थे श्वपचगृहे वा नष्टस्मृतिरपि परित्यजन् देहम्।ज्ञानसमकालमुक्तः कैवल्यं याति हतशोकः।।इति (PS 83 )तस्मादेवं विध्यनुवादौ। सदा येन भावितमन्तःकरणं तदेवान्ते प्रयाणानन्तरं प्राप्यते। तच्च स्मर्यते न वा इति नात्र निर्बन्धः। अन्वाचयश्चायम् अपिशब्देन सूचितः। स्मरणस्य असर्वथाभावं वाशब्दः स्फुटयति। सदा च मत्परमो जनः सर्वथा स्यात् इति तात्पर्यं मुनिरेव प्रकटयति। यदाह -- तस्मात् सर्वेषु कालेषु मानुस्मर इति। तेनेत्थमत्र पदसङ्गतिः -- सदा यं यं भावं स्मरन् कलेबरं त्यजति अन्तेऽपि वा स्मरन् -- वाग्रहणात् अस्मरन् ,वा -- तं तमेवैति। यतोऽसौ सदा तद्भावेन भावितः।अन्ये तु -- कलेवरं त्यजति सति अन्ते कलेवरत्यागक्षणे बन्धुपुत्रादिप्रमात्रगोचरे (SK (n) -- प्रमात्रन्तरागोचरे) श्वासायासहिक्कागद्गदादिचेष्टाचरमभाविनि क्षणे शरीरदार्ढ्यबन्धप्रतनूभावात् देहकृतसुखदुःखमोहबन्धे,(K -- वन्ध्ये) कालांशे देहत्यजनशब्दवाचेय यदेव स्मरति तदेव प्रथमसंविदनुगृहीतम् अस्य रूपं संपद्यते। तादृशे (SN तादृशि) च काले स्मरणस्य कारणं सदा तद्भावभावितत्त्वमिति। त्यजति इति सप्तमी योज्या इति। प्राक्तन एवार्थः।ननु एवमन्तकाले किं प्रयोजनं तत्स्मरणेन क एवमाह प्रयोजनम् इति किंतु वस्तुवृत्तोपनतमेव तद्भवति तस्मिन्नन्त्ये क्षणे।ननु पुत्रकलत्रबन्धुभृतेः शिशिरोदकपानादेर्वा अन्त्ये क्षणे दृष्टं स्मरणम् इति तद्भावापत्तिः स्यात् मैवम्। न हि सोऽन्त्यः क्षणः स्फुटदेहावस्थानात्। न हि असावन्त्यः क्षणः अस्मद्विवक्षितो भवादृशैर्लक्ष्यते। तत्र त्वन्त्ये क्षणे येनैव रूपेण भवितव्यं तत्संस्कारस्य दूरवर्त्तिनोऽपि -- जातिदेशकालव्यवहितानामपि (SN omit जाति also the following compound word स्मृति,etc.) आनन्तर्यम् स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्त्वात् (YS IV 9.)इति न्यायेन प्रबोधेन भाव्यम्। तद्वशात् तत्स्मरणं तत्स्मृत्या तद्भावप्राप्तिः। कस्य चित्तु देहस्य स्वस्थावस्थायामपि तदेव काकतालीयवशाद्व्यज्यते। यथा मृगादेः पुराणे वर्णनं तत्कृतं तु मृगत्वम्। अत एव प्रयाणकालेऽपि च माम् (VII30 ) इत्यादौ अपि च इति ग्रहणम्। ये हि सदा भगवन्तं भावयन्ति,एवंभूता भविष्यामः इति तेषाम्तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी (YS I 50 )इति न्यायेन तस्यामलक्ष्यायामन्तदशायां संस्कारान्तरापहस्तनेन तत्संस्कारकृते तत्तत्त्वस्मरणे,देहसद्भावक्षणकृते च तस्य स्मरणे ( omits देहसद्भाव -- स्मरणे) अनन्तरं देहविनिपातक्षणे एव कालसंस्कारनिवृत्तेः तदिदमित्यादिवेद्यविभागानवभासात् संविन्मात्रसतत्त्वपरमेश्वरस्वभावतैव भवति (CA adds इति श्रीमदभिनवगुप्तगुरूणां संमतम् ( संस्मृतम्) after भवति) इत्यलम् ( इत्यलं बहुना)। असंशयमिति -- नात्र संदेग्धव्यमिति [तात्पर्यम्]।
।।8.7।।तस्मात् सर्वेषु कालेषु आप्रयाणाद् अहरहः माम् अनुस्मर अहरहः अनुस्मृतिकरं युद्धादिकं वर्णाश्रमानुबन्धिश्रुतिस्मृतिचोदितनित्यनैमित्तिकं च कर्म कुरु। एतदुपायेन मय्यर्पितमनोबुद्धिः अन्तकाले च माम् एव स्मरन् यथाभिलषितप्रकारं मां प्राप्स्यसि न अत्र संशयः।एवं सामान्येन सर्वत्र स्वप्राप्यावाप्तिः अन्त्यप्रत्ययाधीना इति उक्त्वा तदर्थं त्रयाणाम् उपासनप्रकारभेदं वक्तुम् उपक्रमते। तत्र ऐश्वर्यार्थिनाम् उपासनप्रकारं यथोपासनम् अन्त्यप्रत्ययकारकं च आह --
।।8.7।।सततभावना प्रतिनियतफलप्राप्तिनिमित्तान्त्यप्रत्ययहेतुरित्यङ्गीकृत्यानन्तरश्लोकमवतारयति -- तस्मादिति। विशेषणत्रयवतो भगवदनुस्मरणस्य भगवत्प्राप्तिहेतुत्वं तस्मादित्युच्यते। सर्वेषु कालेष्वादरनैरन्तर्याभ्यां सहेति यावत्। भगवदनुस्मरणे विशेषणत्रयसाहित्यं यथाशास्त्रमिति द्योत्यते। भगवदनुसंधानं कर्तव्यमुक्त्वा तेन सह स्वधर्ममपि कुरु युद्धमित्युपदिशता भगवता समुच्चयो ज्ञानकर्मणोरङ्गीकृतो भातीत्याशङ्क्याह -- मयीति। मनोबुद्धिगोचरं क्रियाकारकफलजातं सकलमपि ब्रह्मैवेति भावयन्युध्यस्वेति ब्रुवता क्रियादिकलापस्य ब्रह्मातिरिक्तस्याभावाभिलापान्नात्र समुच्चयो विवक्षित इत्यर्थः। उक्तरीत्या स्वधर्ममनुवर्तमानस्य प्रयोजनमाह -- मामेवेति। उक्तसाधनवशात्फलप्राप्तौ प्रतिबन्धाभावं सूचयति -- असंशय इति।
।।8.7।।यत एवं तस्मात्त्वमपि सर्वकालेषु मामनुस्मरश्रीकृष्णः शरणं मम इति। एवं योगेन स्वकर्मकरणमपि तव श्रेय इत्याह -- युद्ध्य चेति। तथा मय्यर्पितमनोबुद्धिरत्रमनोबुद्धिः इत्युक्त्या सङ्कल्पव्यवसायावपि मय्येव विधेयाविति द्योतनाय। एवं च मामेव प्राप्स्यसि नाक्षरादिकमत्र न संशयः।
।।8.7।।यस्मादेवं पूर्वस्मरणाभ्यासजनिताऽन्त्या भावनैव तदानीं परावशस्य देहान्तरप्राप्तौ कारणम् तस्मान्मद्विषयकार्यभावनोत्पत्त्यर्थं सर्वेषु कालेषु पूर्वमेवादरेण मां सगुणमीश्वरमनुस्मर चिन्तय। यद्यन्तःकरणाशुद्धिवशान्न शक्नोषि सततमनुस्मर्तुं ततोऽन्तःकरणशुद्धये युध्य च। अन्तःकरणशुद्ध्यर्थं युद्धादिकं स्वधर्मं कुरु। युध्येति युध्यस्वेत्यर्थः। एवंच नित्यनैमित्तिककर्मानुष्ठानेनाशुद्धिक्षयान्मयि भगवति वासुदेवेऽर्पिते संकल्पाध्यवसायलक्षणे मनोबुद्धी येन त्वया स त्वमीदृशः सर्वदा मच्चिन्तनपरः सन्मामेवैष्यसि प्राप्यस्यसि। असंशयो नात्र संशयो विद्यते। इदं च सगुणब्रह्मचिन्तनमुपासकानामुक्तं तेषामन्त्यभावनासापेक्षत्वात्। निर्गुणब्रह्मज्ञानिनां तु ज्ञानसमकालमेवाज्ञाननिवृत्तिलक्षणाया मुक्तेः सिद्धत्वान्नास्त्यन्त्यभावनापेक्षेति द्रष्टव्यम्।
।।8.7।। तस्मादिति। यस्मात्पूर्ववासनैवान्तकाले स्मृतिहेतुः नहि तदा विवशस्य स्मरणोद्यमः संभवति तस्मात्सर्वदा मामनुस्मरानुचिन्तय। संततस्मरणं च चित्तशुद्धिं विना न भवति अतो युध्य च युध्यस्व। चित्तशुद्ध्यर्थं युद्धादिकं स्वधर्मं चानुतिष्ठेत्यर्थः। एवं मय्यर्पितं मनः संकल्पात्मकं बुद्धिश्च व्यवसायात्मिका येन त्वया स त्वं मामेव प्राप्स्यसि। असंशयः संशयोऽत्र नास्ति।
।।8.7।।एवमन्तिमप्रत्ययाधीने फले अन्तिमप्रत्यये चानवरतभावनाधीने भवताऽपि तथाविधभावना तदनुग्राहकं कर्म च कर्तव्यमित्युच्यतेतस्मात् इति श्लोकेन।सर्वेषु कालेषु इत्यनेन स खल्वेवं वर्तयन्यावदायुषं ब्रह्मलोकमभिसम्पद्यते [छां.उ.8।15।1] प्रायणान्तमोङ्कारमभिध्यायति [प्रश्नो.5।1] इत्यादिः श्रुतिश्चानुस्मृतेत्यभिप्रायेणआप्रायणादित्युक्तम्। सूत्रं चआप्रायणात्तत्रापि हि दृष्टम् [ब्र.सू.4।1।12] इति। प्रतिमासं प्रतिपक्षमनुस्मरणेऽप्याप्रायणादिति वक्तुं शक्यमिति तद्व्युदासाभिप्रायेण बहुवचनमित्याहअहरहरिति।तं पूर्वापररात्रेषु युञ्जानः इत्यादिविहितैकाग्रतानुरूपसात्त्विककालेष्वित्युक्तं भवति। तथा च सूत्रं -- यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् [ब्र.सू.4।1।11] इति।युध्य च इति विहितस्य युद्धस्य अत्रफलवत्सन्निधावफलं तदङ्गम् इत्यादिन्यायादनुस्मृत्यङ्गत्वं सिद्धम् तच्च युद्धमत्र प्रस्तुतत्वादुपलक्षणतयोक्तम् ततश्च प्रमाणसिद्धं यथास्ववर्णाश्रमकर्मावश्यं कर्तव्यमित्युक्तं भवतीत्यभिप्रायेणाहअहरहरनुस्मृतिकरं युद्धादिकमिति।वर्णाश्रमानुबन्धीत्युपलक्ष्यसङ्ग्राहकाकारः। चोदितमित्यने शमादिविधेश्चोदितव्यतिरिक्तविषयत्वं सूचितम्। नित्यनैमित्तिकशब्देन फलाभिसन्धिपूर्वकर्मव्युदासः।मय्यर्पितमनोबुद्धिः इत्यस्य उक्तार्थानुवादरूपत्वं दर्शयति -- एवमिति।उपायेन कर्मादिरूपेणेत्यर्थः। अनुस्मरणमेवात्र मनसोऽर्पणम् बुद्धेरर्पणं तु फलप्रदत्वाध्यवसायः। प्रकरणसिद्धावान्तरव्यापारकथनंअन्तकाले च मामेव स्मरन्निति। यद्वाअत्रोपायेनेति कर्मानुगृहीतानुस्मृतिरेवोच्यते तत्फलं मय्यर्पितमनोबुद्धिः इति। तस्यैवार्थः -- अन्तकाले च मामेव स्मरन्निति। पूर्वोत्तरानुवृत्ताधिकारित्रयसाधारण्यायाह -- यथाभिलषितप्रकारं मामिति।निस्संशयेषु सर्वेषु नित्यं वसति वै हरिः। ससंशयान् हेतुबलान्नाध्यावसति माधवः [म.भा.12।349।71] इत्यादिवत्असंशयः इत्यस्यार्जुनविशेषणत्वेऽपि फलितमाह -- नात्र संशय इति।अ मा नो ना प्रतिषेधे इति वचनादकारो वाऽत्र पृथगनुसन्धेयः। एतमितः प्रेत्याभिसम्भवितास्मीति यस्य स्यादद्धा न विचिकित्सास्ति [छां.उ.3।14।4],इत्यादिकमत्रानु सन्धेयम्।
।।8.7।।अतः सदा त्वं मद्भावयुक्तो भवेत्याह -- तस्मादिति। तस्मात् पूर्वोक्तात् कारणात् सर्वेषु कालेषु लौकिकवैदिकक्रियायोग्येषु मय्यर्पितं मनश्चाञ्चल्यदोषनिवारणार्थं बुद्धिरन्यत्र व्यवसायदोषनिवारणार्थं येन तादृशः सन् मामनुस्मर चिन्तय। अनुस्मरणेन मया कृपया सर्वदा त्वं स्मर्यसे तस्मात्सर्वदा मत्स्मरणं फलरूपं भविष्यतीति भावो व्यञ्जितः। युद्ध्य च युध्यस्व सद्भावनया मदाज्ञया युद्धमपि कुर्वित्यर्थः। एवमनुस्मरणेन असंशयः सन्देहरहितः सन् मामेव एष्यसीत्यर्थः। असंशयः अत्र च सन्देहो नास्तीति भावः।
।।8.7।।यस्मादेवं तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर अन्तकाले मत्स्मृत्या मद्भावप्राप्त्यर्थं। युध्यचेति चकारात्कर्मोपास्त्योः समुच्चयोऽवगम्यते। ज्ञानकर्मसमुच्चयकर्तरीव तदुभयानुष्ठातर्येकस्मिन्नेवाधिकारिणि कर्तृत्वाकर्तृत्वप्रत्ययकृतविरोधाभावात्। मयि अर्पिते मदेकनिष्ठतां नीते मनोबुद्धी येन स मय्यर्पितमनोबुद्धिस्त्वं असंशयं मामेवैष्यसि प्राप्स्यसि। अन्तकाले स्मरणेनेति शेषः।
।।8.7।।यस्मादेवं सदाभ्यस्ता भावनान्तकालेऽपि सैवोद्भूता स्वविषयप्राप्तिकरी तस्मात् सर्वेषु कालेषु आदरनैरन्तर्याभ्यां मां सगुणं निर्गुणं वा यथाशास्त्रमनुस्मर यध्य च युध्यस्व स्ववर्णधर्मयुद्धं च कुरु।न चलति निजवर्णधर्मतो यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे। न हरति न च हन्ति किंचिदुच्चैः सितमनसं तमवेहि विषणुभक्तम् इति विष्णुपुराणे निजवर्णधर्मतोऽजलनं विष्णुभक्तलक्षणमुक्तम्। भगवता च युध्य चेत्युक्तं तेनोपासनाकर्मसमुच्चयः। मयि अर्पिते मनोबुद्धी यस्य तव स त्वमेतादृशः सन्मामेवैष्यसि आगमिष्यसि अत्र संशयो न विद्यते।
8.7 तस्मात् therefore? सर्वेषु in all? कालेषु (in) times? माम् Me? अनुस्मर remember? युध्य fight? च and? मय्यर्पितमनोबुद्धिः with mind and intellect fixed (or absorbed) in Me? माम् to Me? एव alone? एष्यसि (thou) shalt come to? असंशयम् doubtless.Commentary The whole mental machinery should be dedicated to the Lord. You must work with the mind and intellect devoted to Him.Fight Perform your own Dharma? the duty of a Kshatriya. It will purify your heart and you will attain to knowledge and come to Me. The term fight is Upalakshana (suggestive). It means Do your duties according to your caste and order of life. VarnashramaDharmas (the duties pertaining to the various castes and orders of life) and NityaNaimittika Karmas are the Upalakshanas (factors suggested or alluded to).The ChittaVritti which is of the form of the object meditated upon is the Bhavana. (ChittaVrittis is mental modification). The Bhavana is for those who practise Saguna Upasana. Bhavana at the time of separtion of the body is not necessary for a sage or a Jnani who has attained to the knowledge of the Self or Selfrealisation. (Cf.IX.34XII.8?11)
8.7 Therefore at all times remember Me only and fight. With mind and intellect fixed (or absorbed) in Me, thou shalt doubtessly come to Me alone.
8.7 Therefore meditate always on Me, and fight; if thy mind and thy reason be fixed on Me, to Me shalt thou surely come.
8.7 Therefore, think of Me at all times and fight. There is no doubt that by dedicating your mind and intellect to Me, you will attain Me alone.
8.7 Tasmat, therefore; anusmara, think of; mam, Me, in the way prescribed by the scriptures; sarvesu kalesu, at all times; and yudhya, fight, engage your-self in war, which is your own (caste) duty. Asamsayah, there is no doubt in this matter; that arpita-mano-buddhih, by dedicating your mind and intellect; mayi; to Me; esyasi, you-you who have thus dedicated our mind and intellect to Me, Vasudeva-will attain; mam eva, Me alone, as I shall be remembered. [When the Lord instructs Arjuna to think of Him, and at the same time engage in war, it may seem that He envisages a combination of Knowledge and action. But this is not so, because when one thinks of all actions, accessories and results that come within the purview of the mind and the intellect as Brahman, it is denied that actions etc. have any separate reality apart from Brahman. Therefore no combination is involved here.] Besides,
8.7. Therefore at all times keep Me in the mind and also fight; then, having your mind and intellect dedicated to Me, you will doubtlessly attain Me alone.
8.5-7 Antakale etc., upto asamsayam. At the time of departure also : i.e., not only as longs as [one is] in the healthy and unmolested condition. Me alone : Me, with all attributes undistinguished. But at the time of unhealthy state (at the time of death) of a person, how cloud the Bhagavat enter the path of his memory, when all the activities of the senses of that person have totally ended ? Hence [to achieve this result the Lord] teaches also the means or device by 'Therefore' etc.: The Bhagavat surely, on His own accord, becomes [even at the time of death] the object of memory of that person from whose heart (mind) the Bhagavat has never gone away in any cirucumstance connected with the mundane life also; who has [thus] renounced all his actions to the Bhagavat alone; and who is full of (fully absorbed in) the Bhagavat. For this end, the means is to remain constantly absorbed in the thought of the Bhagavat. That is why He Says : 'With whatever object the internal organ of a person is filled up always, that object alone is remembered by him at the time of death, and the state of that being alone is attained [by him]. Hence, let a person, by all means, have Me alone as his goal and be desirous of attaining Me'. This is the idea here. The idea [intended here] is certainly not 'What is remembered, without fail, at the last moment that being alone is attained by him'. Because in that case the attainment of the man of wisdom would also be just like that of an ignorant man. For, the former too [at the time of death] gets [complete] dulness of mind that is benumbed by the disorder (or defect) of he elements existing in his entire body. Certainly it is not proper to accept this here. For, it would go agains the authority of the scriptures. For, the fact is- 'He who has attained liberation simultaneously with realisation [of the Self], and whose sorrows [therefore] have been destroyed - he attains completely unity [with the Absolute] even though [at the time of death] he has lost his memory and abandons his body in a sacred place or in the house of a dog-cooker (i.e., man of a low tribe)'. (PS, 83). Therefore the matter-of-fact statement (or explanation) and injunction [that are meant here] are the following : If a person's internal organ is absorbed incessantly in the thought of a particular being, the same being is attained by him at end after departure. It is immaterial whether [at the time of departure] that being is remembered or not. This secondary importance [of the remembrance] is indicated by the word api 'also'. The word va 'or' makes it clear that the rememberance does not exist in each and every case. The Sage (Vyasa) himself clarifies his idea 'Let a man always remain by all means keeping Me (the Absolute Lord) as his supreme goal'. Since the Sage says : 'Therefore at all times keep Me (the Absolute) in your mind'. Therefore, the following is the combination of words [of the verse intended here] : If a person, remembering always, or at the last moment - the use of or denotes 'or not remembering [at the last moment]' - a particular being, leaves his body, he attains that particular being alone. For, he is always absorbed in the thought of that being. But others [interpret the verses as follows] : When one leaves his body as the end, just at the moment of leaving the body i.e., at that moment which is not cognizable to the perceivers like relatives, sons etc. [standing nearby]; at that moment that comes last after the limb-movements, like [heavy] breathing, exertion, hiccup, convulsive utterance etc., [have endred]; at that fraction of time when the bondage of pleasure, pain and bewilderment is weakened as a result of the weakening of the control of the bodily strength; at that time that goes by the term dehatyajana 'the moment of casting the body off'; at that moment whatsoever being a person remembers, his nature becomes entriely identical with that being, favoured (taken as an object) by the First Consiousness. the cause for remembering [the Lord] at that moment is to remanin ever absorbed in the thought of Him. The word tyajati [of verse 6] is to be construed as the seventh case [meaning 'at the time of abandoning']. Hence, the purport [of the passage] is only what has been said above. What is the use of such a remembrance of Him at the last moment ? But, who told that [there] is a use [for it] ? But, the remembrance is certainly brought about as a natural course at the last moment. But this [proposition] would lead to an undersirable conseence. For, it has been observed that a person [usually] remberances at the last moment either the maintenance of his children, wife and relatives, or drinking of cold water and so on. So, he would become identical with those things. It is not so. The moment, you speak of, is not the last moment. For, at that moment the existence of body is being clearly felt. Really that last moment, which we would like to speak of, can't be perceived by persons like you. In what form alone the remembrance should be there at the last moment is decided by [its cause], a potential mental impression certainly arising at that time - even though it is far off - according to the general principle : 'The remembrance and the potential mental impression [that causes it] being identical in form, there should be a seential immediacy [between them], even though they are removed [from one another] by many births, by long distance and by long passage of time'. (YS, IV, 9). Thus, depending on the potential mental impression, there arises remembrance of a particular being, and becuase of its remembrance one attains the identity of that being. However in the case of certain body the same [process] is accidentally indicated even at the stage of healthy body-condition. See for example, the remembrance of a deer etc., [both in the healthy conditions and in the dying moment] and the conseential attainment of the deerhood, as described in the Puranic literature. That is why api ca 'and also' is employed in [the statement] like 'and also at the time of journey.' Therefore, those who constantly think of the Bhagavat with intention 'Let us become this Being'; they attain [in the following order] the identity with Absolute Lord, of the exclusive nature of Consciousness : [First] there arises the thought (smarana) of the Lord at the moment when the bodily existence is felt; then at that unperceivable last moment the potential mental impression, born of the said thought, gives rise to the remembrance of the Lord by striking down all the other potential mental impressions, according to the principle : 'The potential mental impression, born therefrom , make all other potential mental impressions powerless (YS., I, 50). Then only at the moment of the fall of the body, because at that time the mental impression created by [the sense of] time has come to an end and because the differences of the objects like 'this', 'that' etc., are not felt-at that moment he attains identity with the Lord. This much of discussion is enough. Without doubt (verse 7) : one should not entertain any doubt in this regard.
8.7 Therefore, at all times, until your departure, remember Me, day after day. Engage yourself in actions appropriate to your station and stage in life, which would make you remember Me. These actions are prescribed by the Srutis and Smrtis and comprise the periodical and occasional rites. Thus, by this means, with your mind and intellect set on Me, you will remember Me at the time of death and thus attain to Me in the manner desired by you. There is no doubt about this. Thus, having laid down the common principle that the attainment of one's end is dependent on one's last thought, Sri Krsna proceeds to describe different modes of contemplation (Upasana) to be practised by the three groups of devotees for aciring their objectives. Of these, he first speaks about the modes of contemplation to be adopted by the seekers of enjoyments and power and the type of the last thought consistent with their contemplation.
8.7 Therefore, think of Me at all times and fight. There is no doubt that by dedicating your mind and intellect to Me, you will attain Me alone.
।।8.7।।क्योंकि इस प्रकार अन्तकालकी भावना ही अन्य शरीरकी प्राप्तिका कारण है --, इसलिये तू हर समय मेरा स्मरण कर और शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझ वासुदेवमें जिसके मनबुद्धि अर्पित हैं ऐसा तू मुझमें अर्पित किये हुए मनबुद्धिवाला होकर मुझको ही अर्थात् मेरे यथाचिन्तित स्वरूपको ही प्राप्त हो जायगा इसमें संशय नहीं है।
।।8.7।। --,तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर यथाशास्त्रम्। युध्य च युद्धं च स्वधर्मं कुरु। मयि वासुदेवे अर्पिते मनोबुद्धी यस्य तव स त्वं मयि अर्पितमनोबुद्धिः सन् मामेव यथास्मृतम् एष्यसि आगमिष्यसि असंशयः न संशयः अत्र विद्यते।।किञ्च --,
।।8.6 -- 8.7।।ननु कलेवरत्यागस्यान्ताव्यभिचारादन्त इति व्यर्थमित्यत आह -- स्मरन्निति। नान्त इत्येतत्कलेवरं त्यजतीत्यस्य विशेषणं येन व्यर्थं स्यात् किन्तु अन्ते स्मरन्निति स्मरणस्यैव तत्रापि किं प्रयोजनं इति चेत् उच्यतेलक्षणहेत्वोः क्रियायाः [अष्टा.3।2।126] इति लक्षणेऽपि शतुर्विधानात्।स्मरन्पुरुषः कलेवरं त्यजति इति स्मरणकलेवरत्यागयोर्भिन्नकालत्वेऽपि न कश्चिच्छब्दविरोध इति मन्दमतेः शङ्का स्यात् सा मा भूदित्येवमर्थमन्त इति स्मरणस्य विशेषणमुपात्तम् तेनात्र स्मरणकलेवरत्यागयोरेककालत्वसिद्धिरिति।मन्दमतेः इत्यस्य कृत्यमाह -- सुमतेरिति। कुतः इत्यत आह -- स्मरन्निति।लटः शतृशानचौ [अष्टा.3।2।124] इति लडादेशत्वेनापि शतुर्विधानमस्ति स च लडिति वर्तमाने पुनर्लङ्ग्रहणसामर्थ्यात्क्वचित् प्रथमासामानाधिकरण्येऽपि भवति लक्षणे विहिताच्च ल़डादेशो बलीयान्। तत्र क्रियाया इत्युपपदसापेक्षत्वात् अस्यानपेक्षत्वात्। अप्रथमासमानाधिकरणे इत्यस्यातिप्रसक्तिपरिहारमात्रार्थत्वात्। तथा च बलवतो ग्राह्यत्वेस्मरंस्त्यजति इत्यस्य स्मरति च त्यजति चेत्यर्थः स्यात्। एवं चान्तः इत्यनुक्ते़ऽपि,स्मरणत्यागयोरेककालीनत्वप्रतीतेः सुमतेर्नैव शङ्कावकाश इति भावः।ननु दुर्मतिरपि शाब्दं न्यायं जानात्येव अन्यथा शास्त्रे नाधिक्रियेत केवलमध्यात्मविषये न प्रवीणः तत्कथं तस्याप्येषा शङ्का स्यात् ततश्च तं प्रत्यपि अन्त इत्येतत् व्यर्थमित्यत आह -- दुर्मतेरिति। दुर्मतेर्भविष्यति शङ्का भिन्नकालत्वविषया। कुतः मरणकाले महद्दुःखं जायते दुःखस्य च संस्कारविलोपहेतुत्वं प्रसिद्धम् अतो दुःखात्कारणात् मूर्छितो न स्मरंस्त्यजति। कलेवरत्यागसमये स्मरणमसम्भवीति यावत्। एतामनुपपत्तिं पश्यन् बलवन्तमपि लडादेशं विहाय लक्षणार्थमेव हि मन्यत इति भावः। ननु सुमतेरप्येवं शङ्का स्यादेव कथं चेयं शङ्का तत्त्वप्रतीतिरेवेति चेत् न अज्ञानिन एव देहाभिमानिनो देहत्यागमात्मत्यागमिव मन्यमानस्य मरणकाले दुःखं भवति तदपि मरणक्षणात्पूर्वमेव ज्ञानी तु सर्वदा देहं हेयमेव मन्यमानो न मनागपि दुःखायते किन्तु विशिष्टमेव तस्योत्क्रमणामत्यध्यात्मशास्त्रमनुसन्दधानस्य सुमतेः शङ्कानवकाशात्। किं तदध्यात्मशास्त्रं इत्यत आह -- त्यजन्निति। कश्चिद्विद्वान्। अविद्वानपि तत्काले तस्येति मरणवैशिष्ट्यमात्रपरम् न त्वन्त इत्येतत् स्मरणविशेषणं चेत् तदासदा तद्भावभावितः [8।6] इत्यनेनैव गतार्थं स्यात् अन्यथा तद्व्यर्थं भवेदित्यत आह -- सदेति। अन्तकालस्मरणमेव तत्प्राप्तिसाधनम्। न च तदकस्माद्भवति अतः तदुपायत्वेन सदा तद्भावभावितत्वमुच्यत इत्यर्थः। कथमित्यतो यथाऽयं तदुपायः स्यात् तथा व्याचष्टे -- भाव इति। तथाऽभिधानादिति स्याद्भावोऽन्तर्गतं मन इत्येवरूपादभिधानादित्यर्थः। वासितत्वं संस्कृतत्वम्। तस्मिन् भावस्तद्भावस्तेन भावित इति मनोधर्मेणात्मोपचर्यते।
।।8.6 -- 8.7।।स्मरन्पुरुषस्त्यजतीति भिन्नकालीनत्वेऽप्यविरोध इति मन्दमतेः शङ्का मा भूदित्यन्त इति विशेषणम् सुमतेनव शङ्कावकाशः।स्मरंस्त्यजति इत्येककालीनत्वप्रतीतेः। दुर्मतेर्दुःखान्न स्मरंस्त्यजतीति शङ्का।त्यजन्देहं न कश्चित्तु मोहमाप्नोत्यसंशयम् इति स्कान्दे। तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति [बृ.उ.4।4।2] इति हि श्रुतिः।सदा तद्भावभावितः,इत्यन्तकालस्मरणोपायमाह -- भावोऽन्तर्गतं मनः तथाभिधानात्। भावितत्वं अतिवासितत्वम्।भावना त्वतिवासना इत्यभिधानात्।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।8.7।।
তস্মাত্সর্বেষু কালেষু মামনুস্মর যুধ্য চ৷ ময্যর্পিতমনোবুদ্ধির্মামেবৈষ্যস্যসংশযম্৷৷8.7৷৷
তস্মাত্সর্বেষু কালেষু মামনুস্মর যুধ্য চ৷ ময্যর্পিতমনোবুদ্ধির্মামেবৈষ্যস্যসংশযম্৷৷8.7৷৷
તસ્માત્સર્વેષુ કાલેષુ મામનુસ્મર યુધ્ય ચ। મય્યર્પિતમનોબુદ્ધિર્મામેવૈષ્યસ્યસંશયમ્।।8.7।।
ਤਸ੍ਮਾਤ੍ਸਰ੍ਵੇਸ਼ੁ ਕਾਲੇਸ਼ੁ ਮਾਮਨੁਸ੍ਮਰ ਯੁਧ੍ਯ ਚ। ਮਯ੍ਯਰ੍ਪਿਤਮਨੋਬੁਦ੍ਧਿਰ੍ਮਾਮੇਵੈਸ਼੍ਯਸ੍ਯਸਂਸ਼ਯਮ੍।।8.7।।
ತಸ್ಮಾತ್ಸರ್ವೇಷು ಕಾಲೇಷು ಮಾಮನುಸ್ಮರ ಯುಧ್ಯ ಚ. ಮಯ್ಯರ್ಪಿತಮನೋಬುದ್ಧಿರ್ಮಾಮೇವೈಷ್ಯಸ್ಯಸಂಶಯಮ್৷৷8.7৷৷
തസ്മാത്സര്വേഷു കാലേഷു മാമനുസ്മര യുധ്യ ച. മയ്യര്പിതമനോബുദ്ധിര്മാമേവൈഷ്യസ്യസംശയമ്৷৷8.7৷৷
ତସ୍ମାତ୍ସର୍ବେଷୁ କାଲେଷୁ ମାମନୁସ୍ମର ଯୁଧ୍ଯ ଚ| ମଯ୍ଯର୍ପିତମନୋବୁଦ୍ଧିର୍ମାମେବୈଷ୍ଯସ୍ଯସଂଶଯମ୍||8.7||
tasmātsarvēṣu kālēṣu māmanusmara yudhya ca. mayyarpitamanōbuddhirmāmēvaiṣyasyasaṅśayam৷৷8.7৷৷
தஸ்மாத்ஸர்வேஷு காலேஷு மாமநுஸ்மர யுத்ய ச. மய்யர்பிதமநோபுத்திர்மாமேவைஷ்யஸ்யஸஂஷயம்৷৷8.7৷৷
తస్మాత్సర్వేషు కాలేషు మామనుస్మర యుధ్య చ. మయ్యర్పితమనోబుద్ధిర్మామేవైష్యస్యసంశయమ్৷৷8.7৷৷
8.8
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।।8.8।। हे पृथानन्दन ! अभ्यासयोगसे युक्त और अन्यका चिन्तन न करनेवाले चित्तसे परम दिव्य पुरुषका चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़नेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है।
।।8.8।। हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।
।।8.8।। इस श्लोक में प्रयुक्त याति क्रियापद का अर्थ है जाता है। परन्तु यह परम पुरुष को जाना या प्राप्त होना मृत्यु के पश्चात् ही नहीं समझना चाहिए। मृत्यु से तात्पर्य अहंकार के नाश से है जिसका उपाय है ध्यानाभ्यास। इस श्लोक का प्रयोजन यह दर्शाना है कि परिच्छिन्न अहंकार के लुप्त होने पर कोई भी साधक मुक्त पुरुष के रूप में इसी जीवन में सदा स्वस्वरूप में स्थित रहकर जी सकता है।जो व्यक्ति जगत् में अस्थायी यात्री के रूप में और न कि स्थायी निवासी बनकर उपर्युक्त जीवन पद्धति के अनुसार जीता है और नित्यनिरन्तर आत्मचिन्तन का अभ्यास करता है वह निश्चय ही ध्यान में एकाग्र हो जाता है। वास्तव में यह वेदोपदिष्ट प्रार्थना और उपासना का तथा पुराणों में वर्णित भक्ति और प्रपत्ति (शरणागति) की साधनाओं का ही स्पष्टीकरण है जबकि पूर्व श्लोक में जो उपदेश है वह धर्म के व्यावहारिक स्वरूप का है अर्थात् अपने कार्यक्षेत्र में ही संन्यास के स्वरूप का है।इस अभ्यासयोग के फलस्वरूप भक्त को चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है जो बुद्धि को सुगठित करने में उपयोगी होती है। ऐसे अन्तःकरण के आत्म साक्षात्कार के योग्य हो जाने पर आत्मा की अनुभूति सहज सिद्ध हो जाती है। निरन्तर चिन्तन से हे पार्थ साधक परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है। यह नियम न केवल परम पुरुष की प्राप्ति के विषय में सत्य प्रमाणित है वरन् किसी भी वस्तु के लिए यह समान रूप से लागू होता है। इससे इस श्लोक का गूढ़ार्थ स्पष्ट हो जाता है। यदि साधक सर्वसाधन सम्पन्न हो तो आत्मा का अनुभव तथा उसमें दृढ़ निष्ठा इसी वर्तमान जीवन में ही प्राप्त की जा सकती है।यहाँ प्रयुक्त अनुचिन्तयन् शब्द साभिप्राय है। ध्येयविषयक सजातीय वृत्ति प्रवाह को चिन्तन या ध्यान कहते हैं। अनु उपसर्ग का अर्थ है निरन्तर। अत यहाँ दिव्य पुरुष को निरन्तर चिन्तन करने का उपदेश दिया गया है।वह ध्येय पुरुष किन गुणों से विशिष्ट है भगवान् कहते हैं --
।।8.8।। व्याख्या --[सातवें अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें जो सगुणनिराकार परमात्माका वर्णन हुआ था उसीको यहाँ आठवें नवें और दसवें श्लोकमें विस्तारसे कहा गया है।] 'अभ्यासयोगयुक्तेन'-- इस पदमें अभ्यास और योग -- ये दो शब्द आये हैं। संसारसे मन हटाकर परमात्मामें बारबार मन लगानेका नाम अभ्यास है और समताका नाम योग है-- 'समत्वं योग उच्यते' (गीता 2। 48)। अभ्यासमें मन लगनेसे प्रसन्नता होती है और मन न लगनेसे खिन्नता होती है। यह अभ्यास तो है पर अभ्यासयोग नहीं है। अभ्यासयोग तभी होगा जब प्रसन्नता और खिन्नता -- दोनों ही न हों। अगर चित्तमें प्रसन्नता और खिन्नता हो भी जायँ तो भी उनको महत्त्व न दे केवल अपने लक्ष्यको ही महत्त्व दे। अपने लक्ष्यपर दृढ़ रहना भी योग है। ऐसे योगसे युक्त चित्त हो।
।।8.8।।अभ्यासेति। अनुचिन्तयन् इति -- शरीरभेदानन्तरं निवृत्तकलेवरकृतव्यथः पश्चाद्भगवन्तं चिन्तयन्निति।
।।8.8।।अहरहः अभ्यासयोगाभ्यां युक्ततया नान्यगामिना चेतसा अन्तकाले परमं पुरुषं दिव्यं मां वक्ष्यमाणप्रकारं चिन्तयन् माम् एव याति आदिभरतमृगत्वप्राप्तिवत् ऐश्वर्यविशिष्टतया मत्समानाकारो भवति।अभ्यासो नित्यनैमित्तिकाविरुद्वेषु सर्वेषु कालेषु मनसा उपास्यसंशीलनम् योगः तु अहरहः योगकाले अनुष्ठीयमानं यथोक्तलक्षणम् उपासनम्।
।।8.8।।इतश्च पूर्वश्लोकोक्तार्थानुष्ठायी भगवन्तमन्तकाले प्राप्नोतीत्याह -- किञ्चेति। अभ्यासं विभजते -- मयीति। नहि चित्तसमर्पणस्य विषयभूतं भगवतोऽर्थान्तरं वस्तु सदस्तीति मन्वानो विशनष्टि -- चित्तेति। अन्तरालकालेऽपि विजातीयप्रत्ययेषु विच्छिद्य विच्छिद्य जायमानेष्वपि सजातीयप्रत्ययावृत्तिरयोगिनोऽपि स्यादित्याशङ्क्याह -- विलक्षणेति। अभ्यासाख्येन योगेन युक्तत्वं चेतसो विवृणोति -- तत्रैवेति। तृतीयया परामृष्टोऽभ्यासयोगः सप्तम्यापि परामृश्यते। ननु (तु) प्राकृतानां चेतस्तथेत्याशङ्क्य विशिनष्टि -- योगिन इति।,तच्चेच्चेतो विषयान्तरं परामृशेन्न तर्हि परमपुरुषार्थप्राप्तिहेतुः स्यादित्याशङ्क्याह -- नान्यगामिनेति। प्रामादिकं विषयान्तरपारवश्यमभ्यनुज्ञातुं ताच्छील्यप्रत्ययस्तेन तात्पर्यादपरामृष्टार्थान्तरेण परमपुरुषनिष्ठेनेत्यर्थः। तदेव पुरुषस्य निरतिशयत्वं यदपरामृष्टाखिलानर्थत्वमनतिशयानन्दत्वं तच्च प्रागेव व्याख्यातं नेह व्याख्यानमपेक्षते।यश्चासावादित्ये इत्यादिश्रुतिमनुसृत्याह -- दिवीति। तत्र विशेषतोऽभिव्यक्तिरेव भवनम्। पूर्वोक्तेन चेतसा यथोक्तं पुरुषमनुचिन्तयन्याति तमेवेति संबन्धः। अनुचिन्तयन्नित्यत्रानुशब्दार्थं व्याचष्टे -- शास्त्रेति। चिन्तयन्निति व्याकरोति -- ध्यायन्निति।
।।8.8 -- 8.9।।एवं सप्तप्रश्नानामुत्तरं निरूप्य प्रयाणकाले योगिनां ज्ञानिनां भक्तानां च तत्तत्स्वरूपप्राप्त्यात्मकं फलमाह -- अभ्यासयोगेति। नान्यगामिना विषयाद्यगामिना(अक्षराद्यगामिना)ऽनुचिन्तयन्परमं पुरुषं नारायणं दिव्यं सूर्यस्थं याति तमेव विशिनष्टि --,कविमिति। यो योगी सर्गमर्यादाधिदेवं परमात्मानं अणोरणीयांसं समनुस्मरेत् अणोर्जीवादप्यणुतरम्अण्वीं जीवकलां ध्यायेत् इति वाक्यात्। आदित्यवर्णं स्वप्रकाशस्वरूपं तदन्तर्वर्त्तिरूपं वायुरूपं पुरुषसूक्तप्रतिपाद्यस्वरूपं वा तमसः प्रकृतेः परस्तात्परतरम्।
।।8.8।।तदेवं सप्तानामपि प्रश्नानामुत्तरमुक्त्वा प्रयाणकाले भगवदनुस्मरणस्य भगवत्प्राप्तिलक्षणं फलं विवरीतुमारभते -- अभ्यासः सजातीयप्रत्ययप्रवाहो मयि विजातीयप्रत्ययानन्तरितः षष्ठे प्राग्व्याख्यातः स एव योगः समाधिस्तेन युक्तं तत्रैव व्यापृतमात्माकारवृत्तीतरवृत्तिशून्यं यच्चेतस्तेन चेतसाऽभ्यासपाटवेन नान्यगामिना नान्यत्र विषयान्तरे निरोधप्रयत्नं विनापि गन्तुं शीलमस्येति परमं निरतिशयं पुरुषं पूर्णं दिव्यं दिवि द्योतनात्मन्यादित्ये भवंयश्चासावादित्ये इति श्रुतेः याति गच्छति। हे,पार्थ अनुचिन्तयन् शास्त्राचार्योपदेशमनुध्यायन्।
।।8.8।।संततस्मरणस्य चाभ्यासोऽन्तरङ्गसाधनमिति दर्शयन्नाह -- अभ्यासेति। अभ्यासः सजातीयप्रत्ययप्रवाहः स एव योग उपायस्तेन युक्तेनैकाग्रेण अतएव नान्यं विषयं गन्तुं शीलं यस्य तेन चेतसा दिव्यं द्योतनात्मकं परमं पुरुषं परमेश्वरमनुचिन्तयन् हे पार्थ तमेव यातीति।
।।8.8।।अन्तिमप्रत्ययप्रसङ्गात्तद्धेतुतयाअनुस्मर [8।7] इत्युपासनं प्रस्तुतम् तत्प्रकारभेदोऽनन्तरप्रघट्टकार्थ इत्यभिप्रायेणाहएवमिति। गतिभेदोऽपि वक्ष्यमाणोऽनेनोपलक्षणीयः।अभ्यास -- इत्यादिश्लोकत्रयार्थमाहतत्रेति। योगशब्दस्य सम्बन्धमात्रपरत्वे नैरर्थक्यादत्र ध्यानपरत्वं वक्तुं युक्तं तत्पुरुषाच्च द्वन्द्वस्योभयपदार्थप्रधानत्वात्परिग्राह्यत्वमस्तीति तदाह -- अभ्यासयोगाभ्यामिति।नान्यगामिना इत्येतन्नैकादिशब्दवत् अनन्यगामिनेत्यर्थः। अन्यत्र विषयान्तरे गन्तुं शीलं नास्येति नान्यगामि। अभ्यासयोगशब्देन प्राचीनचिन्तनस्योक्तत्वात्अनुचिन्तयन् इत्येतदन्तिमस्मृतिपरमिति प्रदर्शनायअन्तकाल इत्युक्तम्। चिन्तनस्य ध्यानस्य च पुरुष एवात्र कर्म स च परमशब्देन विशेषितत्वादीश्वर एवेत्यभिप्रायेणमामित्यादि पदद्वयम्।दिव्यम् इत्यस्य सूर्यमण्डले स्थितमितिशङ्करोक्तं निर्मूलम्आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् [8।9] इति वक्ष्यमाणविरुद्धं चेत्यभिप्रायेणाह -- वक्ष्यमाणप्रकारमिति। अनन्तरश्लोकद्वयेनेति शेषः। कथमैश्वर्यार्थिनोऽनपेक्षितपरमपुरुषप्राप्तिः फलतयोच्यते इत्यत्राह -- आदिभरतेति। अन्तकाले स्मर्यमाणभोगप्रदानोपयुक्ताकारविशिष्टपरमपुरुषसमानैश्वर्यप्राप्तिरिह परमपुरुषप्राप्तिः। तत्साम्यापत्तिरेव हि तत्प्राप्तितयायं यम् [8।6] इति श्लोकेनोदाहृतेति भावः।आरम्भणसंशीलनं पुनः पुनरभ्यासः इति वाक्यकारवचनानुरोधेनाभ्यासशब्दार्थमाह -- अभ्यास इति। पुनःपुनरिति वचनान्मध्येऽवश्यम्भाविभिः कैश्चिद्व्यवधानं सूचितमित्यभिप्रायेणोक्तंनित्यनैमित्तिकाविरुद्धेष्विति।सर्वेषु कालेष्विति न केवलं योगकाले तदातनस्य शीलनस्य योगशब्देनोपात्तत्वादिति भावः। आरम्भणमालम्बनम् तच्चात्रोपास्यशब्देन व्याख्यातम्। योगशब्देनात्राङ्गिस्वरूपमुच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- योगस्त्विति।यथोक्तमिति अत्यर्थप्रियविशदतमप्रत्यक्षतापन्नमित्यर्थः।
।।8.8।।अथ तव तु मत्प्राप्तिर्निस्सन्दिग्धा साक्षान्मयोपदिष्टत्वात् किन्तु मदाज्ञाव्यतिरेकेणापि येऽनन्यभावेन स्मरन्ति तेऽपि मां प्राप्नुवन्तीत्याह -- अभ्यासेति। हे पार्थ मद्भक्त अभ्यासो भगवत्सङ्गानुशीलनं स एव योग उपायः तद्युक्तेन नान्यगामिना अन्यत्रोत्तमत्वज्ञानजचाञ्चल्यदोषरहितेन चेतसा दिव्यं क्री़डात्मकं परमं पुरुषं पुरुषोत्तमभावं निर्जितचेतसा अनुचिन्तयन् भगवत्कृतस्मरणानन्तरं चिन्तयन् स्मरन् हे पार्थ तमेव याति प्राप्नोतीत्यर्थः। पार्थेति सम्बोधनेन पृथासम्बन्धान्मत्कृतस्मरणानन्तरस्मरणेन यथा त्वं मामाप्नोषीति बोध्यते।
।।8.8।।एतदेव श्लोकत्रयेण विवृणोति -- अभ्यासेति। अभ्यासयोगयुक्तेनतत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः इति सूत्रितोभ्यासः तत्र ध्येये वस्तुनि चित्तस्य स्थिरीकरणार्थो यतः। सच विजातीयप्रत्ययानन्तरितसजातीयप्रत्ययप्रवाहीकरणरूपः सोऽत्राभ्यासः। तत्र भाव्यो विषयः सिद्धः विष्णुप्रतिमादिर्विराडादिर्वा। असिद्धस्तु मानसप्रतिमादिः। तत्रासिद्धे मनसः प्रतिमाकारतासंपादने तत्र स्थैर्यसंपादने चेति विषयभेदाद्विगुणो यत्नः कर्तव्यो भवति। सिद्धे तु चित्तस्थिरीकरणार्थ एक एव यत्नः। तत्र यथा स्वतः स्वच्छः स्फटिको जपाकुसुमोपरागाल्लोहितः स्फटिक इति तत्र लौहित्याध्यासः तत्प्राबल्यात्तत्रैव स्फटिकधीप्रमोषे पद्मरागत्वाध्यासः पद्मरागेऽपि चन्द्रिकायामिन्द्रनीलत्वाध्यासस्तत्रैव तदानीमेव किंचिद्दूरस्थे निहीनोपलत्वाध्यास इत्युत्तरोत्तराध्यासक्रमेण शुद्ध एक एव स्फटिकः पञ्चविधो भवति। एवं स्वतःशुद्धं चैतन्यं मायोपरागात्तदेवेश्वरः मायाप्राबल्ये तस्यैवेश्वरत्वांशप्रमोषे तत्रैव सूत्रात्माध्यासः सूत्रेऽप्यज्ञानदार्ढ्याद्विराडध्यासः ततएव विराडेकदेशेषु शरीरादिषु आत्मत्वभ्रमः तत्र यथा घटान्तर्गतः प्रदीपो घटमात्रं भासयति घटच्छिद्राद्बहिर्गतः किंचित्स्वप्रभया संसृष्टं विषयमवभासयति सर्वात्मना घटाद्बहिर्गतस्तु कृत्स्नं भवनोदरवर्ति पदार्थजातं प्रकाशयति तद्वद्देहान्तर्गता चितिर्देहमात्रं भासयति देहच्छिद्राच्चक्षुरादेर्बहिर्गता सती तत्संनिकृष्टं कंचिद्विषंय रूपादिकमवभासयति सर्वात्मना गुरूक्तयुक्त्या देहकृतपरिच्छेदाभिमाने त्यक्ते त्वपरिच्छिन्ना सती कृत्स्नं विराडात्मानमवभासयति। यथोक्तं बाह्यग्रन्थेष्वपिमणिहुतवहतारासोमसूर्यादयोऽपि क्षितिविषयमिहाल्पं बाह्यमुद्योतयन्ति। सहजलयसमुत्थं द्योतयेज्ज्योतिरन्तस्त्रिभुवनमपि सूक्ष्मस्थूलभेदक्रमेण। इति। सहजलयसमुत्थं सहजः स्वाभाविको देहकृतपरिच्छेदाभिमानस्तस्य लयमात्रादेव उत्थितं क्रमेण संकल्पक्रमेण सदीक्षणमात्राभिनिर्वृत्तत्वात्सर्वस्य प्राक्संकल्पादसत्त्वात्। तथा च श्रुतिःस यदि पितृलोककामो भवति संकल्पादेवास्य पितरः समुत्तिष्ठन्ति इति।दोषनिमित्तं रूपादयो विषयाः संकल्पकृताः इत्यक्षपादसूत्राच्च। दोषा रागादयः। तदेवं प्रकाशमाने विराजिअहमेवेदं सर्वोऽस्मीति मन्यते सोऽस्य परमो लोकः इति शास्त्रप्रामाण्यादुपासकेन गृहीतोऽहंग्रहो यद्यपि वस्तुतत्त्वापेक्षया भ्रान्तिरूपस्तथापि स्वाभाविकाद्देहाहंग्रहात्सत्यरूपः यथा स्फटिके हीनोपलत्वग्रहापेक्षया इन्द्रनीलत्वग्रहस्तद्वत्। यथाच स्फटिके प्रणिधीयमानं चक्षुरुत्तरोत्तरपाटवविवृद्धान्विद्रनीलत्वं बाधित्वा पद्मरागत्वं तद्बाधेन लोहितस्फटिकत्वं तद्बाधेन शुद्धत्वं चावगच्छति एवं गुरूक्तयुक्त्या प्रत्यगात्मनि प्रणिधीयमानं मनोऽस्य बाह्यं बाह्यं रूपमपोह्य आन्तरे आन्तरे अवतिष्ठते। चरमं विशुद्धं रूपं प्राप्य तु स्वयमेव विलीयते। यथोक्तंयेन त्यजसि तत्त्यज इति। येन,मनसा त्यजसि विराडादिभावं तदपि मनस्त्यजेत्यर्थः। तदेवं व्यवहारापेक्षया सिद्धेषु विराट्सूत्रान्तर्यामिषु मनसः स्थिरीकरणार्थो यत्नोऽभ्यासस्तत्फलभूतो योगः समाधिर्ध्येयवस्तुन्येव चेतसः स्थैर्यं तेन गुणेन युक्तं यच्चेतस्तेन। नान्यगामिना अनन्यगामिना। नैकधेतिवत्समासः। तेन चेतसा परमं सर्वोत्कृष्टं पुरुषं निरस्ताशेषदोषम्।यत्सर्वेषां पुरस्तात्सर्वान्पाप्मन औषत्तस्मात्पुरुषः इति निर्वचनात्। दिव्यं द्योतमानमनुचिन्तयन्नहमेव भगवान्सर्वात्मा वासुदेव इति सततमाचार्योपदेशमनुध्यायन् तमेव नदीसमुद्रन्यायेन याति हे पार्थ। तथा च श्रुतिःयथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय। तथा विद्वान्पुण्यपापे विधूय परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् इति। परात्सूत्रात् परमन्तर्यामिणम्।
।।8.8।।किंच चित्तादिसमर्पणविषयभूते एकस्मिन्मयि वासुदेवे विजातीयप्रत्ययानन्तरितः सजातीयप्रत्ययावृत्तिलक्षणोऽभ्यासः सचासौ योगः समाधिस्तेन युक्तं तत्रैव व्यापृतम्। प्रत्ययावृत्तिव्यापाराविष्टमितियावत्। तेन योगिनश्चेतसाऽनन्यगामिना नान्यस्मिन्विषये गन्तुं शीलमस्य तेन अभ्यासयोगादनन्यगामितां तत्फलभूतां प्राप्तेनेत्याशयः। परमं निरतिशयं पुरुषं पूर्ण दिव्यं द्योतमाने सूर्ये भवं यथा शास्त्राचार्योपदेशमनुध्यायन् याति गच्छिति मत्प्राप्त्यर्थं मय्यभ्यासयोगयुक्तेनानन्यगामिना चेतसा परमं दिव्यं पुरुषं वासुदेवं मामनुचिन्तय मच्चिन्तनं हि तव सलभमिति ध्वनयन्नाह -- हे पार्थेति।
8.8 अभ्यासयोगयुक्तेन (with the mind made) steadfast by the method of habitual meditation? चेतसा with the mind? न not? अन्यगामिना moving towards any other thing? परमम् Supreme? पुरुषम् Purusha? दिव्यम् the resplendent? याति goes? पार्थ O Partha? अनुचिन्तयन् meditating.Commentary Abhyasa means practice. Practice is the constant repetition of one idea of God. In the practice of meditation Vijatiya Vrittis (worldly thoughts or thoughts of a type different from the object of meditation) are shut out and there is Sajatiya Vrittipravaha (continous flow of thoughts of the Self or the Absolute alone). This is Abhyasa. Abhyasa is Yoga. This will terminate in Nirvikalpa Samadhi. The Yogi with Samahita Chitta (eanimity of mind) attains Paramatman or the Supreme Soul. Just as the rivers abandoning their names and forms because one with the ocean? so also the sage or the Vidvan? being liberated from names and forms? and virtue and vice? becomes identical with the Supreme Self.The most vital factor in this practice is regularity. Be regular in your meditation. You will soon reach the goal.Purusham Divyam The resplendent? transcendental Being or the Inner Ruler (Antaryamin) in the solar orb.He who meditates constantly without allowing the mind to wander among the sensual objects? in accordance with the instructions of the scriptures and the perceptor reaches the Supreme Purusha.
8.8 With the mind not moving towards any other thing, made steadfast by the method of habitual meditation, and constantly meditating, one goes to the Supreme Person, the Resplendent, O Arjuna.
8.8 He whose mind does not wander, and who is engaged in constant meditation, attains the Supreme Spirit.
8.8 O son of Prtha, by meditating with a mind which is engaged in the yoga of practice and which does not stray away to anything else, one reaches the supreme Person existing in the effulgent region.
8.8 Partha, O son of Prtha; anu-cintayan, by meditating, i.e. contemplating in accordance with (anu) the instruction of teachers and scriptures; cestasa, with a mind; abhyasa-yogayuktena, engaged in the yoga of practice-abhyasa, practice, consists in the repetition of the same kind of thought, uninterupted by any contrary idea, with regard to Me who am the object of concentration of the mind; that practice itself is yoga; the mind of a yogi is engrossed (yuktam) in that itself; with a mind that is such, and na anya-gamina, which does not stray away to anything else which is not inclined to go away to any other object; yati, one reaches; the paramam, supreme, unsurpassed; purusam, Person; divyam, existing in the effulgent region (divi), in the Solar Orb. And, to what kind of a Person does he go? This is being stated:
8.8. He, who is engaged in the after-reflection (who meditates) on the Supreme Divine Soul with his mind, remaining fixed in the practice-Yoga and [hence] passing over no other object - that person attains [that Supreme], O son of Prtha !
8.8 Abhyasa-etc., He, who is engaged in the after-reflection : he who reflects on the Bhagavat after the pain created by the body has ended following the break of [his connection with] the body.
8.8 Contemplating on Me, the Supreme Divine Person, in the way to be specified further, at the last moment, with a mind trained by constant practice and Yoga, and not moving towards anything else, one reaches Me alone, i.e., attains a form similar to that of Mine, by virtue of the attributes of enjoyment and the prosperity contemplated upon, like the royal sage Bharata who acired the form of a deer on account of contemplating on it at the last moment. Abhyasa is the training of the mind to be often in touch with the object of meditation at all times without obstruction to the performance of the prescribed periodical and occasional rituals. Yoga is the meditation practised day by day at the time of Yoga practice in the manner prescribed.
8.8 O son of Prtha, by meditating with a mind which is engaged in the yoga of practice and which does not stray away to anything else, one reaches the supreme Person existing in the effulgent region.
।।8.8।।तथा --, हे पार्थ अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्तद्वारा अर्थात् चित्तसमर्पणके आश्रयभूत मुझ एक परमात्मामें ही विजातीय प्रतीतियोंके व्यवधानसे रहित तुल्य प्रतीतिकी आवृत्तिका नाम अभ्यास है वह अभ्यास ही योग है ऐसे अभ्यासरूप योगसे युक्त उस एक ही आलम्बनमें लगा हुआ विषयान्तरमें न जानेवाला जो योगीका चित्त है उस चित्तद्वारा शास्त्र और आचार्यके उपदेशानुसार चिन्तन करता हुआ योगी परम निरतिशय -- दिव्य पुरुषको -- जो आकाशस्थ सूर्यमण्डलमें परम पुरुष है -- उसको प्राप्त होता है।
।।8.8।। --,अभ्यासयोगयुक्तेन मयि चित्तसमर्पणविषयभूते एकस्मिन् तुल्यप्रत्ययावृत्तिलक्षणः विलक्षणप्रत्ययानन्तरितः अभ्यासः स,चाभ्यासो योगः तेन युक्तं तत्रैव व्यापृतं योगिनः चेतः तेन चेतसा नान्यगामिना न अन्यत्र विषयान्तरे गन्तुं शीलम् अस्येति नान्यगामि तेन नान्यगामिना परमं निरतिशयं पुरुषं दिव्यं दिवि सूर्यमण्डले भवं याति गच्छति हे पार्थ अनुचिन्तयन् शास्त्राचार्योपदेशम् अनुध्यायन् इत्येतत्।।किं विशिष्टं च पुरुषं याति इति उच्यते --,
।।8.8।।कुतोऽयमर्थः इत्यत उत्तरत्रैवमेव व्याख्यानादिति भावेनाह -- सदेति। द्वन्द्वादिशङ्काव्युदासार्थमाह -- अभ्यास एवेति। अभ्यासातिरिक्तस्य योगत्य प्रकृतोपयोगिनोऽभावादिति भावः।पुरुषश्चाधिदैवतम् [8।4] इति प्रकृतो हिरण्यगर्भोऽत्रोच्यत इति प्रतीतिनिरासार्थमाह दिव्यमिति। दिव्यत्वेन विशेषणात् ईश्वर एवायमित्यथः।पृ़ पालनपूरणयोः [धा.पा.3।4] इत्यतःविदिपूरोश्च इति कुषन्प्रत्ययविधानात् पूर्णं चेति सिध्यति। सर्वासु पूर्षु वर्तमान इति स्वरूपानुवादेन पुरुष इति विधेयम्। तस्य व्याख्यानं पुरिशय इत्यादि। आवरणमन्तर्व्याप्तिः। संवरणं बहिराच्छादनम्। ननु दिवि भवो दिव्यः स च सूर्यमण्डलस्थत्वाद्धिरण्यगर्भोऽपि भवतीति कश्चित् (शं.) अत आह -- दिव्यमिति। औणादिको यक्प्रत्ययः। परममिति विशेषणादिति भावः।
।।8.8।।सदा तद्भावभावितत्वं स्पष्टयति -- अभ्यासेति। अभ्यास एव योगोऽभ्यासयोगः। दिव्यं पुरुषं पुरिशयं पूर्णं च स वा अयं पुरुषः सर्वासु पूर्षु पुरिशयो नैनेन किञ्चनानावृतं नैनेन किञ्चनासंवृतम् [बृ.उ.2।5।18] इति श्रुतेः। दिव्यं सृष्ट्यादिक्रीडायुक्तम्। दिवु क्रीडा -- [धा.पा.4।1] इति धातोः।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना। परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।8.8।।
অভ্যাসযোগযুক্তেন চেতসা নান্যগামিনা৷ পরমং পুরুষং দিব্যং যাতি পার্থানুচিন্তযন্৷৷8.8৷৷
অভ্যাসযোগযুক্তেন চেতসা নান্যগামিনা৷ পরমং পুরুষং দিব্যং যাতি পার্থানুচিন্তযন্৷৷8.8৷৷
અભ્યાસયોગયુક્તેન ચેતસા નાન્યગામિના। પરમં પુરુષં દિવ્યં યાતિ પાર્થાનુચિન્તયન્।।8.8।।
ਅਭ੍ਯਾਸਯੋਗਯੁਕ੍ਤੇਨ ਚੇਤਸਾ ਨਾਨ੍ਯਗਾਮਿਨਾ। ਪਰਮਂ ਪੁਰੁਸ਼ਂ ਦਿਵ੍ਯਂ ਯਾਤਿ ਪਾਰ੍ਥਾਨੁਚਿਨ੍ਤਯਨ੍।।8.8।।
ಅಭ್ಯಾಸಯೋಗಯುಕ್ತೇನ ಚೇತಸಾ ನಾನ್ಯಗಾಮಿನಾ. ಪರಮಂ ಪುರುಷಂ ದಿವ್ಯಂ ಯಾತಿ ಪಾರ್ಥಾನುಚಿನ್ತಯನ್৷৷8.8৷৷
അഭ്യാസയോഗയുക്തേന ചേതസാ നാന്യഗാമിനാ. പരമം പുരുഷം ദിവ്യം യാതി പാര്ഥാനുചിന്തയന്৷৷8.8৷৷
ଅଭ୍ଯାସଯୋଗଯୁକ୍ତେନ ଚେତସା ନାନ୍ଯଗାମିନା| ପରମଂ ପୁରୁଷଂ ଦିବ୍ଯଂ ଯାତି ପାର୍ଥାନୁଚିନ୍ତଯନ୍||8.8||
abhyāsayōgayuktēna cētasā nānyagāminā. paramaṅ puruṣaṅ divyaṅ yāti pārthānucintayan৷৷8.8৷৷
அப்யாஸயோகயுக்தேந சேதஸா நாந்யகாமிநா. பரமஂ புருஷஂ திவ்யஂ யாதி பார்தாநுசிந்தயந்৷৷8.8৷৷
అభ్యాసయోగయుక్తేన చేతసా నాన్యగామినా. పరమం పురుషం దివ్యం యాతి పార్థానుచిన్తయన్৷৷8.8৷৷
8.9
8
9
।।8.9।। जो सर्वज्ञ, पुराण, शासन करनेवाला, सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अज्ञानसे अत्यन्त परे, सूर्यकी तरह प्रकाशस्वरूप -- ऐसे अचिन्त्य स्वरूपका चिन्तन करता है।
।।8.9।। जो पुरुष सर्वज्ञ, प्राचीन (पुराण), सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सब के धाता, अचिन्त्यरूप, सूर्य के समान प्रकाश रूप और (अविद्या) अन्धकार से परे तत्त्व का अनुस्मरण करता है।।
।।8.9।। मन को आत्मा के चिन्तन में एकाग्र करने के फलस्वरूप साधक भक्त के मन में अध्यात्म संस्कार दृढ़ हो जाते हैं। स्वाभाविक है कि ऐसे साधक को अन्तकाल में भी आत्मस्वरूप का स्मरण होगा। पूर्व के श्लोकों में यह भी संकेत किया गया था कि वर्तमान जीवन में ही अहंकार का नाश और जीवन्मुक्ति संभव है। इस अविद्याजनित विपरीत धारणाओं तथा तज्जनित गर्व मद आदि विकारों का समूल नाश तभी संभव हो सकता है जब साधक ध्यानाभ्यास के द्वारा देहादि जड़ उपाधियों के साथ अपने मिथ्या तादात्म्य का सर्वथा परित्याग कर दे।पूर्व के श्लोक में अस्पष्ट रूप से केवल इतना संकेत किया गया था कि आत्मा का ध्यान परम दिव्य पुरुष के रूप में करना चाहिए। परन्तु इन शब्दों का पूर्ण अर्थ जाने बिना उस पर ध्यान करना संभव नहीं हो सकता क्योंकि उस दशा में वे केवल अर्थहीन ध्वनि या शब्द मात्र होंगे। जैसे किसी के उपदेशानुसार मैं आक्सीजनेलिटीन नामक वस्तु पर ध्यान नहीं कर सकता क्योंकि यह एक शब्द मात्र है वेदान्त को जीवन में जीने की कला सिखाने वाले इस ग्रन्थ में इस कला का और अधिक स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। विचाराधीन दो श्लोकों में इस साधना का विस्तृत विवेचन किया गया है। कोई भी साधक इसका सफलतापूर्वक उपयोग कर सकता है।इस श्लोक में दिये गये अनेक विशेषण उस सत्य को लक्षित करते हैं (परिभाषित नहीं) जो ऐसा सार तत्त्व है जिसके कारण जड़ और मिथ्या पदार्थ भी चेतन और सत्य प्रतीत होते हैं। इसलिए यहाँ किसी भी एक विशेषण को अपने आप में सम्पूर्ण नहीं समझना चाहिए। रेखागणित में किसी अज्ञात बिन्दु का बोध अन्य दो ज्ञात बिन्दुओं के सन्दर्भ में ही कराया जाता है। उसी प्रकार यहाँ भी अनिर्वचनीय सत्य का निश्चयात्मक वर्णन इन विशेषणों के द्वारा किया गया है।इन शब्दों के ऊपर मनन करने का अर्थ अन्तःकरण में ऐसे वातावरण को उत्पन्न करना है जिसमें रहने से एक सुगठित और अन्तर्मुखी मन अनन्तस्वरूप की अनुभूति में स्थिर हो सकता है।कवि देहविशेष में उपहित चैतन्य आत्मा मन में उठने वाली समस्त वृत्तियों को प्रकाशित करती है। आत्मा एक अनन्त और सर्वव्यापी होने के कारण वही सारे शरीरों तथा वृत्तियों को प्रकाशित करती है। जैसे पृथ्वी पर स्थित सभी वस्तुओं का प्रकाशक होने से सूर्य को सर्वसाक्षी कहा जाता है वैसे ही इस आत्मा को कवि अर्थात् सर्वज्ञ कहा जाता है क्योंकि इसके बिना कोई भी ज्ञान संभव नहीं है। आत्मा का कवि यह विशेषण जगत् के परिच्छिन्न औपाधिक ज्ञान की दृष्टि से है।पुराण सृष्टि के आदि मध्य और अन्त में समान रूप से विद्यमान होने के कारण आत्मा को पुराण कहा गया है। यह शब्द दर्शाता है कि यही एक अविकारी सर्वव्यापी आत्मा काल की कल्पना का भी अधिष्ठान है।अनुशासितारम् (सब का शासक) इस विशेषण के द्वारा हम यह न समझें कि आत्मा कोई सुल्तान है जो क्रूरता से इस संसार पर शासन कर रहा है। यहाँ शासक से अभिप्राय इतना ही है कि चैतन्य तत्त्व की उपस्थिति के बिना विषयों भावनाओं एवं विचारों को ग्रहण करने की हमारी शरीर मन और बुद्धि की उपाधियाँ कार्य नहीं कर सकतीं और उस स्थिति में जीवन में आने वाले नानाविध अनुभवों को एक सूत्र में गूंथा भी नहीं जा सकता।हमारा जीवन जो कि अनुभवों की अखण्ड धारा है आत्मा के बिना संभव नहीं हो सकता। मिट्टी के बिना घट स्वर्ण के बिना आभूषण और समुद्र के बिना तरंगे नहीं हो सकती और इसीलिए मिट्टी स्वर्ण और समुद्र अपनेअपने कार्यों (विकारों) के अनुशासिता कहे जा सकते हैं। इसी अर्थ में यहाँ आत्मा को अनुशासिता समझना चाहिए। ईश्वर की इस रूप में कल्पना करना कि वह कोई शक्तिशाली पुलिस है जो अपने हाथ में स्वर्ग और नरक के द्वार खोलने के लिए सोने की और लोहे की बनी दो कुन्जियां लिए खड़ा है तो यह ईश्वर की एक असभ्य कल्पना है जिसमें बुद्धिमान जागरूक व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिए कोई पवित्रता नहीं है अणु से भी सूक्ष्मतर किसी तत्त्व का परिमाण में वह अत्यन्त सूक्ष्म अविभाज्य कण जिसमें उस तत्त्व की विशेषताएं विद्यमान होती हैं अणु कहलाता है। आत्मा अणु से भी सूक्ष्मतर है। जितनी ही सूक्ष्मतर वस्तु होगी उसकी व्यापकता उतनी ही अधिक होगी। जल बर्फ से सूक्ष्मतर है और वाष्प जल से अधिक सूक्ष्म है। वस्तुओं की व्यापकता सूक्ष्मता का तुलनात्मक अध्ययन करने का मापदण्ड है। ब्रह्म विद्या में आत्मा को सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर अर्थात् सूक्ष्मतम कहा है जिसका अभिप्राय है आत्मासर्वव्यापक है परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता।सर्वस्य धातारम् आत्मा सबका धारण पोषण करने वाला है। इसका अर्थ है कि वह सबका आधार है। चलचित्र गृह में जो स्थिर अपरिवर्तशील श्वेत पट होता है वह चलचित्र का धाता कहा जा सकता है क्योंकि उसके बिना निरन्तर परिवर्तित हो रही चित्रों की धारा हमें एक सम्पूर्ण कहानी का बोध नहीं करा सकती। चित्र के माध्यम से कितना ही आदर्श और महान् सन्देश एक कुशल चित्रकार क्यों न व्यक्त करे परन्तु पटल के बिना वह चित्र संभव नहीं हो सकता। चित्र की पूर्णता एवं सुन्दरता के लिए वह पटल धाता अर्थात् पोषक है। इसी प्रकार यदि चैतन्य तत्त्व हमारे आन्तरिक और बाह्य जगत् को निरन्तर प्रकाशित न करता होता तो हमें एक अखण्ड जीवन का अनुभव ही नहीं हो सकता था।अचिन्त्यरूपम् कवि पुराण आदि विशेषणों से विशिष्ट किसी तत्त्व पर हमें ध्यान करने को कहा जाय तो संभव है कि हम तत्काल यह धारणा बना लें कि किसी अन्य परिच्छिन्न वस्तु या विचार के समान आत्मा का भी ध्यान हृदय या बुद्धि के द्वारा किया जा सकता है। इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण धारणा को दूर करने तथा इस पर बल देने के लिए कि अनन्त आत्मा को इन्द्रियों मन और बुद्धि के द्वारा नहीं जाना जा सकता। भगवान कहते हैं कि आत्मा अचिन्त्य रूप है उसका चिन्तन नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह सत्य है कि आत्मा का स्वयं से भिन्न किसी विषय रूप में चिन्तन अथवा ज्ञान संभव नहीं है परन्तु उपाधियों के परे जाने से अर्थात् उनसे तादात्म्य न होने पर आत्मा का स्वयं के स्वरूप में साक्षात् अनुभव होता है न कि स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में।आदित्यवर्णम् यदि अचिन्त्यरूप का तात्पर्य सही हो तो कोई भी बुद्धिमान् साधक यह प्रश्न पूछने का लोभ संवरण नहीं कर सकता कि फिर आत्मा का अनुभव किस प्रकार हो सकता है साधक के रूप में साधना की प्रारम्भिक अवस्था में हमारा तादात्म्य शरीरादि उपाधियों के साथ दृढ़ होता है। उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करने के साधन भी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि ही होते हैं जिसके द्वारा हम आत्मतत्त्व को भी समझने का प्रयत्न करते हैं क्योंकि इन्हीं के द्वारा ही हम अपने अन्य अनुभवों को भी प्राप्त करते हैं। अत स्वाभाविक है कि गुरु के इस उपदेश से कि अचिन्त्य का चिन्तन करो अप्रमेय को जानो शिष्य भ्रमित हो जाता है आत्मा को अचिन्त्य अथवा अप्रमेय केवल यह दर्शाने के लिए कहा जाता है कि हमारे पास उपलब्ध प्रमाणों के द्वारा किसी विषय के रूप में आत्मा का ज्ञान नहीं हो सकता। स्वप्नद्रष्टा ने जिस स्वाप्निक अस्त्र से स्वप्न में अपने शत्रु की हत्या की थी वह अस्त्र उसे जाग्रत अवस्था में आने पर उपलब्ध नहीं होता। यहाँ तक कि उसके रक्त रंजित हाथ भी स्वत ही बिना पानी या साबुन के स्वच्छ हो जाते हैं जब तक मनुष्य अनात्म उपाधियों को अपना श्वरूप समझकर स्वकल्पित रागद्वेष युक्त बाह्य जगत् में रहता है तब तक उसके लिए यह आत्मतत्त्व अचिन्त्य और अज्ञेय रहता है। परन्तु जिस क्षण आत्मज्ञान के फलस्वरूप वह उपाधियों से परे चला जाता है उस क्षण वह अपने शुद्ध पारमार्थिक स्वरूप के प्रति जागरूक हो जाता है।वेदान्त के इस मूलभूत सिद्धांत को ग्रहण कर लेने पर यहाँ दिये गये सूर्य के अनुपम दृष्टान्त की सुन्दरता समझना सरल हो जाता है। सूर्य को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि सूर्य स्वयं ही प्रकाशस्वरूप है प्रकाश का स्रोत है। वह सब वस्तुओं का प्रकाशक होने से उसका प्रकाश स्वयंसिद्ध है। भौतिक जगत् में जैसे यह सत्य है वैसे ही आध्यात्मिक क्षेत्र में स्वयं चैतन्य स्वरूप आत्मा को जानने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। स्वप्न पुरुष कभी जाग्रत पुरुष को नहीं जान सकता क्योंकि जाग्रत अवस्था में आने पर स्वप्नद्रष्टा लुप्त होकर स्वयं जाग्रत् पुरुष बन जाता है। स्वप्न से जागने का अर्थ है जाग्रत् पुरुष को जानना और जानने का अर्थ है स्वयं वह बन जाना। ठीक इसी प्रकार आत्मसाक्षात्कार के क्षण जीव नष्ट हो जाता है। वह यह पहचानता है कि वास्तव में सदा सब काल में वह चैतन्यस्वरूप आत्मा ही था जीव नहीं। आदित्यवर्ण इस शब्द में इतना अधिक अर्थ निगूढ़ है।तमसः परस्तात् (अन्धकार से परे) कोई भी दृष्टान्त पूर्ण नहीं हो सकता। सूर्य के दृष्टान्त से साधक के मन में कुछ विपरीत धारणा बनने की संभावना हो सकती है। पृथ्वी के निवासियों का अनुभव है कि उनके लिए रात्रि में सूर्य का अभाव हो जाता है और दिन में भी सूर्य के प्रकाश और उष्णता की तीव्रता एक समान नहीं होती। उसमें परिवर्तन प्रतीत होता है। कोई मन्दबुद्धि का साधक कहीं यह न समझ ले कि आत्मा की चेतनता का भी कभी अभाव हो जाता हो तथा उस चेतनता में किसी प्रकार का तारतम्य हो सूर्य के दृष्टान्त में संभावित इन दो दोषों की निवृत्ति के लिए भगवान् श्रीकृष्ण आत्मा को अन्धकार से परे अर्थात् अविद्या से परे बताते हैं। अज्ञानरूप अन्धकार का ही निषेध कर देने पर सूर्य की परिच्छिन्नता आत्मा को प्राप्त नहीं होती। वह सदा ही चैतन्य रूप से ज्ञान और अज्ञान दोनों ही वृत्तियों को समान रूप से प्रकाशित करता है अत वह अविद्या के परे है। यही अविद्या माया भी कहलाती है।जो साधक पुरुष इस कवि पुराण अनुशासिता सूक्ष्मतम सर्वाधार अचिन्त्यरूप स्वयं प्रकाशस्वरूप अविद्या के परे आत्मतत्त्व का ध्यान करता है वह उस परम पुरुष को प्राप्त होता है।
।।8.9।। व्याख्या--'कविम्'-- सम्पूर्ण प्राणियोंको और उनके सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मोंको जाननेवाले होनेसे उन परमात्माका नाम 'कवि' अर्थात् सर्वज्ञ है।
।।8.9 -- 8.10।।कविमिति। प्रयाणेति। एवम् अनुस्मरेदिति। आदित्येति। आदित्यवर्णत्वं वासुदेवतत्त्वस्य [न] परिच्छेदकम्। आकृतिकल्पनादि (N विकल्पनादि) विभ्रान्तिमयमोहतमसः अतीतत्त्वात् रवित्वेनोपमानमित्याशयः। भ्रुवोर्मध्ये इति प्राग्वत्।
।।8.9।।कविं सर्वज्ञं पुराणं पुरातनम् अनुशासितारं विश्वस्य प्रशासितारम् अणोः अणीयांसं जीवाद् अपि सूक्ष्मतरं सर्वस्य धातारं सर्वस्य स्रष्टारम् अचिन्त्यरूपं सकलेतरविसजातीयस्वरूपम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् अप्राकृतस्वासाधारणदिव्यरूपम् तम् एवंभूतम् अहरहः अभ्यस्यमानभक्तियुक्तयोगबलेन आरूढसंस्कारतया अचलेन मनसा प्रयाणकाले भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य संस्थाप्य तत्र भ्रुवोर्मध्ये दिव्यं पुरुषं यः अनुस्मरेत् स तम् एव उपैति तद्भावं याति तत्समानैश्वर्यो भवति इत्यर्थः।अथ कैवल्यार्थिनां स्मरणप्रकारम् आह --
।।8.9।।पुरुषमनुचिन्तयन्निति संबन्धः। चकारात्कया वा नाड्योत्क्रामन्नित्यनुकृष्यते तत्र ध्यानद्वारा प्राप्यस्य पुरुषस्य विशेषणानि दर्शयति -- उच्यत इति। क्रान्तदर्शित्वमतीतादेरशेषस्य वस्तुनो दर्शनशालित्वम्। तेन निष्पन्नमर्थमाह -- सर्वज्ञमिति। चिरंतनमादिमतः सर्वस्य कारणत्वादनादिमित्यर्थः। सूक्ष्ममाकाशादि ततः सूक्ष्मतरं तदुपादानत्वादित्यर्थः। यो यथोक्तमनुचिन्तयेत्स तमेवानुचिन्तयन्यातीति पूर्वेणैव संबन्ध इति योजना। ननु विशिष्टजात्यादिमतो यथोक्तमनुचिन्तनं फलवद्भवति न त्वस्मदादीनामित्याशङ्क्याह -- यः कश्चिदिति।फलमत उपपत्तेः इति न्यायेनाह -- सर्वस्येति।एतदप्रमेयं ध्रुवं इति श्रुतिमाश्रित्याह -- अचिन्त्यरूपमिति। नहि परस्य किंचिदपि रूपादि वस्तुतोऽस्ति अरूपवदेव हीति न्यायात् कल्पितमपि नास्मदादिभिः शक्यते चिन्तयितुमित्याह -- नास्येति। मूलकारणादज्ञानात्तत्कार्याच्च पुरस्तादुपरिष्टाद्व्यवस्थितं परमार्थतो ज्ञानतत्कार्यास्पृष्टमित्याह -- तमस इति।
।।8.8 -- 8.9।।एवं सप्तप्रश्नानामुत्तरं निरूप्य प्रयाणकाले योगिनां ज्ञानिनां भक्तानां च तत्तत्स्वरूपप्राप्त्यात्मकं फलमाह -- अभ्यासयोगेति। नान्यगामिना विषयाद्यगामिना(अक्षराद्यगामिना)ऽनुचिन्तयन्परमं पुरुषं नारायणं दिव्यं सूर्यस्थं याति तमेव विशिनष्टि -- कविमिति। यो योगी सर्गमर्यादाधिदेवं परमात्मानं अणोरणीयांसं समनुस्मरेत् अणोर्जीवादप्यणुतरम्अण्वीं जीवकलां ध्यायेत् इति वाक्यात्। आदित्यवर्णं स्वप्रकाशस्वरूपं तदन्तर्वर्त्तिरूपं वायुरूपं पुरुषसूक्तप्रतिपाद्यस्वरूपं वा तमसः प्रकृतेः परस्तात्परतरम्।
।।8.9।।पुनरपि तमेवानुचिन्तयितव्यं गन्तव्यं च पुरुषं विशिनष्टि -- कविं क्रान्तदर्शिनं तेनातीताऽनागताद्यशेषवस्तुदर्शित्वेन सर्वज्ञं पुराणं चिरन्तनम्। सर्वकारणत्वादनादिमिति यावत्। अनुशासितारं सर्वस्य जगतो नियन्तारं अणोरणीयांसं सूक्ष्मादप्याकाशादेः सूक्ष्मतरं तदुपादानत्वात्। सर्वस्य कर्मफलजातस्य धातारं विचित्रतया प्राणिभयो विभक्तारंफलमत उपपत्तेः इति न्यायात्। न चिन्तयितुं शक्यमपरिमितमहित्वेन रूपं यस्य तम् आदित्यस्येव सकलजगदवभासको वर्णः प्रकाशो यस्य तम् सर्वस्य जगतोऽवभासकमिति यावत्। अतएव तमसः परस्तात्तमसो मोहान्धकारादज्ञानलक्षणात्परस्तात् प्रकाशरूपत्वेन तमोविरोधिनमिति यावत्। अनुस्मरेच्चिन्तयेद्यः कश्चिदपि स तं यातीति पूर्वेणैव संबन्धः। स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यमिति परेण वा संबन्धः।
।।8.9।।पुनरप्यनुचिन्तनाय पुरुषं विशिनष्टि -- कविमिति द्वाभ्याम्। कविं सर्वज्ञं सर्वविद्यानिर्मातारं पुराणमनादिसिद्धं अनुशासितारं नियन्तारं अणोः सूक्ष्मादप्यणीयांसमतिसूक्ष्मम् आकाशकालदिग्भ्योऽप्यतिसूक्ष्मतरं सर्वस्य धातारं पोषकं अपरिमितमहित्वादचिन्त्यरूपम् मलीमसयोर्मनोबुद्ध्योरगोचरं आदित्यवत्स्वपरप्रकाशात्मको वर्णः स्वरूपं यस्य तं तमसः प्रकृतेः परस्ताद्वर्तमानंवेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् इति श्रुतिः।
।।8.9।।क्रान्तदर्शी हि कविरित्युच्यते अत्र तु कविशब्दः ईश्वरविषयत्वात् सर्वदर्शित्वपर इत्यभिप्रायेणाह -- सर्वज्ञमिति। पुराणशब्देनानादित्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तंपुरातनमिति। अनुपूर्वः शासिर्विविच्य ज्ञापनार्थ इत्येतावन्मात्रपरत्वव्युदासायविश्वस्य प्रशासितारमित्युक्तम्। ईश्वरस्य सतोऽनुशासनमाज्ञापनभेवेति भावः। अनुशासनं कस्यत्याकाङ्क्षायांसर्वस्य धातारम् इत्यत्र सर्वस्येति पदमाकर्षणीयम् विशेषनिर्देशाभावाद्वा सर्वविषयत्वमित्यभिप्रायेण -- विश्वस्येत्युक्तम्। एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठतः [बृ.उ.3।उक्तप्रकास्येश्वरस्वरूपस्य सामान्यतो दृष्टैस्तर्कैरसम्भवनीयतां केचिदभिमन्येरन्निति तन्निरासपरम्।अचिन्त्यरूपम् इतिपदमित्यभिप्रायेणाहसकलेतरविसजातीयस्वरूपमिति। वर्णयोगस्य स्वरूपेणाघटनात् प्रमाणसिद्धविलक्षणविग्रहद्वारा तद्योगमाहअप्राकृतेति। येन सूर्यस्तपति तेजसेद्धः [य.तै.ब्रा.3।12।9।7] यस्यादित्यो भामुपयुज्य भाति तस्य भासा सर्वमिदं विभाति [मुं.उ.2।2।10] (तं)तद्देवा ज्योतिषां ज्योतिः [बृ.उ.4।4।16] इत्यादिषु निरतिशयदीप्तियोगः सिद्धः। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् [य.सं.31।18श्वे.उ.3।8] इति श्रुतिखण्डस्यात्र निबन्धः तम आसीत् [ऋक्सं.8।7।17।3यजुः2।7।9] तमसस्तन्महिनाजायतैकं [यजुः2।4।9] यदा तमः [श्वे.उ.4।18] इत्यादिश्रुत्यन्तरोपलक्षणार्थः। तेनतमसः इति सर्वकारणभूततमोद्रव्यविवक्षा।तमसः परस्तात् इत्यनेन फलितमप्राकृतत्वम् तत एव चाकर्माधीनत्वं नित्यत्वं निरवद्यत्वमित्यादि सूचितम्। एतच्छ्लोकच्छायश्च मानवः श्लोकः -- प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसम -- [णोरपि] -- णीयसाम्। रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्या (त्तं)त्तु पुरुषं परम् -- [मनुः12।122] इति। अनुकूलानां हितरमणीयत्वाद्याकारेण हिरण्यवर्णत्वरुक्माभत्वादिव्यपदेशः। प्रतिकूलदुष्प्रेक्षत्वप्रकाशातिरेकादिविवक्षया आदित्यवर्णत्वाद्युक्तिः।दिवि सूर्यसहस्रस्य [11।12] इत्यादि च वक्ष्यति। एतेनादित्यशब्दस्य नित्यचैतन्यप्रकाशपरत्वं तमश्शब्दस्य चाज्ञानविषयत्वं परोक्तं (शं.) निरस्तम्।,श्लोकद्वयस्यान्वयं दर्शयति -- तमेवम्भूतमित्यादिना।भक्त्या युक्तो योगबलेन इति पृथङ्निर्देशात् परोक्तप्राणजयबलादिपृथगर्थताप्रतीतिः स्यादिति तदपाकरणाय विशिष्टैकार्थतां दर्शयितुंभक्तियुक्तयोगबलेनेत्युक्तम्। मनसोऽचलत्वे हेतुरिदम् तस्य चावान्तरव्यापारः योग्यपर्याययुक्तशब्देन विवक्षित इत्याहआरूढसंस्कारतयेति।आवेश्य इत्यनेन योगप्रकरणेषूक्तं निश्चलावस्थापनं विवक्षितमित्याहसंस्थाप्येति। अत्र पुरुषध्यानस्यापि भ्रूमध्यमेव देशः देशान्तरानभिधानाद्योगप्रकरणान्तरेषूपदेशाच्च तत्सिद्धेरिति विभाव्योक्तंतत्र भ्रूमध्य इति। तमेवम्भूतं दिव्यं पुरुषम् इत्यन्वयः।तं तमेवैति [8।6] इत्यवधारणदर्शनात्स तं परं पुरुषम् इत्यत्रापितं इतीतरव्यवच्छेदपरमित्यभिप्रायेणाहस तमेवोपैतीति।यः प्रयाति स मद्भावं याति [8।5] इति प्रक्रान्तप्रकार एवात्र विवक्षित इति दर्शयतितद्भावं यातीति। भावप्रधानोऽत्र निर्देश इति भावः। तत्र तादात्म्यादिभ्रमं व्युदस्यतितत्समानैश्वर्यो भवतीत्यर्थ इति। परमसाम्यापत्तिव्यवच्छेदाय समानैश्वर्य इत्युक्तम्। एतेनकविम् इत्यादिभिः सर्वज्ञत्वादयो गुणाः ऐश्वर्यप्रदत्वार्थमनुसन्धेयतयोक्ताः न तु प्राप्यत्वार्थमिति फलितम्। एवमन्तिमकालस्मर्तव्यतया निर्दिष्ट एवाकारः प्रागपि ध्येयतयोक्त इति मन्तव्यम्। एवमुत्तरत्रापि।
।।8.9।।चिन्तनीयस्वरूपधर्मानाह द्वाभ्याम् -- कविमिति। कविं शब्दार्थरसिकं स्वगुणानुवर्णनश्रवणानन्दसंसूचितानुग्रहम् पुराणं अनादिसिद्धं सर्वदैकरसम् अनुशासितारं भावादिधर्मनियन्तारम् अणोरणीयांसं अणोः सूक्ष्मात् अणीयांसं सूक्ष्मम्। अयं भावः -- सूक्ष्माज्जीवात् सूक्ष्मं जीवभावभावनयोग्यस्वरूपप्राकट्येन तद्वृदि बहिस्तद्दृष्ट्यादिस्थितियोग्यम्। सर्वस्य स्वक्रीडायोग्यस्य भावादिरूपाक्षरादिरूपपदार्थस्य धातारं पोषकम्। अचिन्त्यरूपं अलौकिकक्रीडाद्यपरिमेयमहिमानम्। आदित्यवर्णं रसात्मकतापतेजसा सर्वप्रकाशकम्। तमसः परस्तात् प्रकृतेः परस्ताद्वर्त्तमानम्। अत्रायं भावः -- भावात्मकप्राप्तभक्तस्वरूपं प्रकटितलीलास्वरूपात् सर्वदा रसात्मकत्वेन वर्तमानमेवं पुरुषं पुरुषोत्तमम्।
।।8.9।।तदेवमुपासनायाः स्वरूपमुक्त्वोपासस्य स्वरूपमाह -- कविमिति। कविं क्रान्तदर्शिनं सर्वज्ञम्। पुराणं चिरन्तनं। अनुशासितारं जगतोन्तर्यामिणम्। अणोः सूक्ष्मादप्याकाशादेरणीयांसं सूक्ष्मतरं योऽनुस्मरेदनुचिन्तयेत्। सर्वस्य कर्मफलस्य धातारं विभागेन प्रदातारम्। अचिन्त्यरूपं नास्य रूपं विद्यमानमपि केनचिच्चिन्तयितुं शक्यम्। आदित्यवर्णं आदित्यस्येव नित्यप्रकाशरूपो वर्णो दीप्यमानता यस्य तं आदित्यवर्णम्। सर्वजगदवभासकमित्यर्थः। तमसः देहेन्द्रियादावनात्मनि आत्माभिमानरूपाऽविद्यातः परस्तात्पराचीनम्। सति देहाभिमाने न प्रकाशते योगयुक्त्या त्यक्ते तु तस्मिन् स्वयमेव प्रकाशत इत्यर्थः।
।।8.9।।किंविशिष्टं च पुरुषं चिन्तयन्यातीत्यत आह। कविं क्रान्तदर्शिनं तेनातीतादिवस्तुज्ञानात्सर्वज्ञं पुराणं सर्वस्य कार्यकारणस्य हेतुत्वेनानादित्वाच्चिरन्तनम्। अनुशासितारमन्तर्यामिरुपेण नियन्तरं अणोरणीयांसं अणोः सूक्ष्मादाकाशादेरप्यणायांसमतिशयेन सूक्ष्मं योऽनुचिन्तयेत् स तमेवानुचिन्तयन्तातीति पूर्वेण संबन्धः। य इत्यस्य यः कश्चिदित्यर्थः। एतेन ननु विशिष्टजात्यादिमतो यथोक्तचिन्तरं सफलं भवति नास्मदादेर्यस्य कस्यचिदिति शङ्का निरस्ता। सर्वस्य कर्मफलजातस्य धातारं विधातारं विचित्रतया प्राणिभ्यो विभज्य दातारम्। सहि सर्वाध्यक्षः देवगन्धर्वयक्षरक्षः पितृपिशाचभूतजराजुजाण्डस्वेदजोद्भिज्जादिलक्षणस्य द्युवियत्पृथिव्यादित्यचन्द्रग्रहनक्षत्रविचित्रस्य विविधप्राण्युपभोग्योग्यस्थानसाधनसंभन्धिनोऽत्यन्तकुशलशिल्पिभिरपि मनसाप्यचिन्तयनिर्माणस्य जगतः सृष्टिस्थितसंहारान्विदधद्देशकालविशेषाभिज्ञतया कर्मिणां कर्मानुरुपं फलं संपादयति। ननु कर्मण एवाचिन्त्यप्रभावात्सर्वैश्च फलहेतुत्वेनाभ्युपगमात् तत्तत्फलप्राप्तिरभ्युपगन्तव्या एवंच कृतं फलप्रदानायेश्चराधिकल्पनयेति चेन्न। प्रत्यक्षविनाशिनोऽभावरुपात्मकर्मणो भावरुपस्य फलस्य प्राप्त्यसंभवात्। ननु कर्म विनश्यत्स्वकालमेव स्वानुरुपं फलमर्जयित्वा विनश्यति। तत्फलमुपात्तमपि भोक्तुरयोग्यत्वाद्वा कर्मान्तरप्रतिबन्धाद्वा भोक्का न भुज्यते भोक्तुर्योग्यताप्राप्त्या प्रतिबन्धापगमे वा,तेन भोक्ष्यते इति चेन्न। नहि स्वर्घ आत्मानं लभतामित्यधिकारिणः कामयन्ते किंतु स्वर्गो भोग्योऽस्माकं भवत्वित्यतो यादृशमदिकारिणा काम्यते तादृशस्य फलत्वमिति भोगयस्य फलत्वेन प्राग्भोक्तृसंबन्धात् कामयन्ते किंतु स्वर्गो भोग्योऽस्माकं भवित्वित्यतो यादृशमधिकारिणा काम्यते तादृशस्य फलत्वमिति भोग्यस्य फलत्वेन प्राग्नोक्तृसंबन्धात् भोग्यत्वासिद्य्धा फलत्वानुपत्तेः। यत्कालं हि यत्सुखं दुःखं वा आत्मना भुज्यते तस्यैव लोके फलत्वं प्रसिद्धम्। किंच स्वर्गनरकौ तीव्रतमे सुखदुःके इति तद्विषयेणामुभवेन भोगापरनान्मावश्यं भवितव्यम्। तस्मादनुभवयोग्योरननुभूयमानत्वेनाननुभूयमानशशशृङ्गवन्नस्तित्वं निश्चीयते। ननु कर्मजन्यादपूर्वात्फलमुत्पत्स्यत इति चेन्न। चेतनाऽप्रवर्तितस्य काष्ठलोष्टसमस्याचेतनस्य चेतनप्रवृत्तिंविना फलोत्पत्त्यर्थं प्रवृत्त्यनुपपत्तेः तत्सत्त्वे प्रमाणभावाच्चार्थपत्तिः प्रमाणमितिचेन्न। ईश्वरसिद्धेरर्थापत्तिक्षयात्स वा एष महाजन आत्मान्नादो वसुदानः इत्येवंजातीयकया श्रुत्यापीश्वर एव कर्मफलहेतुरिति निश्चीयते। ननुस्वर्गकामो यजेत इत्येवमादिषु वाक्येषु धर्मस्य फलदातृत्वं श्रुयते विधिश्रुतेर्विषयभावोपगमाद्यागः स्वर्गस्योत्पादक इत्यवपद्येत तथा कल्पियतव्यः। नचानुत्पाद्य किमप्यपूर्वं कर्म विनश्यत्कालान्तरितं फलं दातुं श्क्नोतीत्यतः कर्मणो वा सूक्ष्मा काचिदुत्तरावस्था फलक्य वा पूर्वास्था वाऽपूर्वं नामास्तीति तर्क्यते। उपपद्यते चायमर्थ उक्तेन प्रकारेण ईश्वरः फलं तदातीत्यनुपपन्नमविचित्रस्य कारणस्य विचित्रकार्यानुपपत्तेर्वैषम्यनैर्घृण्यप्रसङ्गाच्चानुष्ठानवैयर्थ्यापत्तेश्च। तस्माद्धर्मादेव फलमिति चेदुच्यते।एष ह्येव साधुकर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते। एष ह्येवासाधुकर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य अधो निनीषते इत्यादिश्रुतिषु धर्माधर्मयोः कारयितृत्वेनेश्वरस्य हेतुत्वं फलदातृत्वं च व्यपदिश्यते। विचित्रकार्यानुपपत्त्यादयोऽपि दोषाः कृतप्रयत्नापेक्षत्वादीश्वरस्य न प्रसज्यन्ते। तथा चेश्वरसिद्धेः कर्मणो वेत्यादि न परिकल्प्यम्।सर्वगकामो यजेत इत्यादिश्रुतिरपि ईश्वरकारणवादिश्रुत्यनुरोधेन व्याख्येया। तथाच व्याससूत्राणिफलमत उपपत्तेःश्रुतत्वाच्च धर्मे जैमिनिरतएवपूर्वं तु बादरायणो हेतुव्यपदेशात्। फलमत ईश्वारत्मकर्मभिराराधिताद्भवितुमर्हति। कुतः उपपत्तेः। न केवलमुपपत्तेरेवेश्वरं फलहेतुं कल्पयामः किं तर्हि श्रुतत्वादपीश्वरं फलहेतुं मन्यामहे। तथाहि श्रुतिर्भवतिसवा एष इत्याद्या। सिद्धान्तेनोपक्रम्य पूर्वपक्षं गृह्णाति। चैमिनिराचार्यः फलस्य दातारं धर्म्यं मन्यते। अतएव हेतोः श्रुतेरुपपत्तेश्च बादरायणस्तु आचार्यः पूर्वोक्तमेवेश्वरं फलहेतुं मन्यते। केवलात्कर्मणोऽपूर्वाद्वा केवलात्फलमित्ययं पक्षस्तुशब्देन व्यावर्तते। नहि मृत्पिण्डदण्डादयोऽचेतनाश्चेतनकुम्भकाराद्यनधिष्ठिताः कुम्भाद्यारम्भाय प्रभवन्तो दृष्टाः। कल्पना च दृष्टानुसारिण्येव युक्ता। तस्मादचेचनाधिष्ठितात्केवलादचेतनात्कर्मणस्तथाभूतादपूर्वाद्वा फलमित्यनुपपन्नमु। ननुकर्मादि चेतनाधिष्ठिमचेतनत्वान्मृदादिवत् इत्यनुमानेन सिद्धस्य कर्मादेर्जीववचैतन्याधिष्ठितत्वस्य शुभस्य कर्मणः सुखमितरस्य दुःखं ज्योतिष्ठोमात्स्वर्ग इत्यादिसाक्षात्कारवदधिष्ठितत्वमस्माभिः साध्यते इति सिद्धासाधनस्याभावात्। किंच देवपूजात्मको यागो देवतां न प्रसादयन् फलं प्रसूते इत्यपि दृष्टविरुद्धम्। राजसेवात्मकमाराधनं राजानं प्रसाद्य फलाय कल्पत इति लोके दृष्टत्वात्। तस्माद्दृष्टानुगुण्याय यागादिभिः दानपरिचरणप्रणामाऋजलिकरणस्तुतिमयीभिरतिश्रद्धागर्भाभिर्भक्तिभिश्चेश्वरप्रसक्तिरुत्पाद्यते। तथाचेश्वरप्रसाददेव स्थायिनः (कर्मणः) फलोत्पत्तेः कृतमपूर्वेण। एवमशुबेनापि कर्मणेस्वरविरोषनं श्रुतिस्मृतिप्रसिद्धं ततः स्थायिनोऽनिष्टफलोत्पत्तिः यथा राजा साधुकारिणमनुगृह्णाति पापकारिणं निगृह्णाति तेन च द्विष्टो रक्तो वा न भवति तथेश्वरोऽपि। ननु प्रधानराधनेऽङ्गाराधनानामुपयोगः स्वाभ्याराधनइव तदमात्यतत्प्रणयिजनाराधनानामिवेति सर्वं समानम्। तस्माद्दृष्टाविरोधेनेश्वराराधनात्फलं नत्वपूर्वत्कर्मणो वा केवलात्। हेतुव्यपदेशः श्रौतः स्मार्तश्च व्याख्यातः। अचिन्त्यरुपंअरुपवदेव हि तत्प्रधानत्वात्प्रकाशवच्चावैयर्थ्यं आह च चिन्मात्रम् इत सूत्रोक्तप्रकारेण वस्तुतः परमेश्वरस्य किंचिदपि रुपं नास्ति। अरुपवदेव हि रुपादिरहितमेव हि ब्रह्मावधारयितव्यं न रुपादिम्त। कस्मात्तत्प्रधानत्वात्।अस्थूलमनण्वह्नस्वमदीर्घमशब्दमरुपमव्ययंतदेतब्रह्मापूर्वमनपरमबाह्यमयमात्मा ब्रह्म सर्वामुभूः इत्येवमादिनां वाक्यानां निराकारब्रह्मप्रधानत्वात्।अस्मथूलमनण्ह्नस्वमदीर्घमशब्दमरुपमव्ययंतदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमबाह्यमयमात्मा ब्रह्म सर्वामुभूः इत्येवमीदीनां वाक्यानां निराकारब्रह्मप्रधानत्वात्। तस्मादेवंजातीयकेषु वाक्येषु यथाश्रुतं निराकारमेव ब्रह्मावधारयितव्यम्। यद्याकाररहितं ब्रह्म तर्ह्याकारवद्विषयाणां श्रुतीनां का गतिरित्यत आह। प्रकाशवच्च। यथा सौरादिप्रकाशो वियद्य्वाप्यावतिष्ठमानोऽङ्गुल्याद्युपाधिसंबन्धादृजुवक्रादिभावमापन्ने सूर्यादौ तद्भावमिव प्रतिपद्यते तथा ब्रह्मापि पृथिव्याद्युपाधिसंबन्धात्तदाकारतामिव प्रतिपद्यते। तदालम्बनो ब्रह्मण आकारविशेषोपदेश उपासनार्थो न विरुध्यते। अत आकारवद्विषयाणां श्रुतीनावत्रैयर्थ्यम्। आहच श्रुतिश्चैतन्यमात्रं विलक्षणरुपान्तररहतिं निर्विशेषं ब्रह्मस यथा सैन्धवघनोऽनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्त्रो रसघन एवैवं वा अरे ब्रह्मणश्चैतन्यमेव तु नरिन्तरं स्वरुपं लतु चैतन्यादन्यदन्तर्बहिर्वा। दर्शयति च श्रुतिः पर प्रतिषेधेन ब्रह्णो निर्विशेषत्वंअथात आदेशो नेतिनेतीतिअन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधियतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा मह इत्येवमाद्या। बाष्कलिना च बाध्यः पृष्टः सन्नवचनेनैव ब्रह्म प्रोवाचेति श्रुयते।सहोवाचाधीहि भो इति सह तूष्णींबभूव तं ह द्वितीये वा तृतीये वाऽवचन उवाच ब्रूमः खलु त्वं तु न,विजानास्युपशान्तोऽयमात्मा इति। अपिच स्मृतिष्वपि परप्रतिषेधेनैवोपदिश्यते।ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्रुते। अनादि मत्परंब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।माया ह्येषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद्। सर्वभूतगुणैर्युक्तं नैव मां ज्ञातुमर्हसि इति। एवं च न वास्तवं परमात्मनि रुपादिकं किचिदस्ति। उपासनार्थं विद्यमानमपि परमेश्वरस्य काल्पनिकं रुपं न केनचिच्चिन्तयुतुं शक्यत इत्यचिन्त्यरुपं स्वयंप्रकाशस्यादित्यस्येव नित्यचैतन्यस्वप्रकाशरुपो वर्णो यस्य तं तमसोऽज्ञानलक्षणान्मोहान्धकारात्परस्तादुपरिष्टाद्य्ववस्थितम्। परमति यावत्। परमार्थतो मूलाज्ञानतत्कार्यास्पृष्टमित्यर्थः।
8.9 कविम् Omniscient? पुराणम् Ancient? अनुशासितारम् the Ruler (of the whole world)? अणोः than atom? अणीयांसम् minuter? अनुस्मरेत् remembers? यः who? सर्वस्य of all? धातारम् supporter? अचिन्त्यरूपम् one whose form is inconceivable? आदित्यवर्णम् effulgent like the sun? तमसः from the darkness (of ignorance)? परस्तात् beyond.Commentary Kavim The sage? seer or poet? the omniscient.The Lord dispenses the fruits of actions of the Jivas (individual souls). He is the Ruler of the world. It is very difficult to conceive the form of the Lord. He is selfluminous and He illumies everything like the sun.
8.9 Whosoever meditates on the Omniscient, the Ancient, the Ruler (of the whole world), minuter than an atom, the supporter of all, of inconceivable form, effulgent like the sun and beyond the darkness of ignorance.
8.9 Whoso meditates on the Omniscient, the Ancient, more minute than the atom, yet the Ruler and Upholder of all, Unimaginable, Brilliant like the Sun, Beyond the reach of darkness;
8.9 He who meditates on the Omniscient, the Anceint, the Ruler, subtler than the subtle, the Ordainer of everything, of inconceivable form, effulgent like the sun, and beyond darkness-(he attains the supreme Person).
8.9 Yah, he who, anyone who; anusmaret, meditates on; kavim, the Omniscient, the Knower of things past, present and future; puranam, the Ancient, the Eternal; anusasitaram, the Ruler, the Lord of the whole Universe; aniyamsam, subtler; anoh, than the subtle; dhataram, the Ordainer; sarvasya, of every-thing-one who grants the fruits of actions, in all their varieties, individually to all creatures; acintya-rupam, who is of inconceivable form-His form, though always existing, defies being conceived of by anybody; aditya-varnam, who is effulgent like the sun, who is manifest as eternal Consciousness like the effulgence of the sun; and parastat, beyond; tamasah, darkness-beyond the darkness of delusion in the form of ignorance-(he attains the supreme Person). This verse is to be connected with the earlier itself thus: 'by meditating (on Him)৷৷.he attains Him.' Further,
8.9. He, who meditates continuously on the Ancient Seer, the Ruler, the Subtler than the subtle, the Supporter of all, the Unimaginable-formed, the Sun-coloured, and That which is beyond the darkness;
8.9 See Comment under 8.10
8.9 - 8.10 He who focusses his life-breath between the eyrows at the time of death with a mind rendered unswerving through its purification achieved by the strength of Yoga conjoined with Bhakti practised day after day; and he who contemplates on the 'Kavi' i.e., the Omniscient, the 'Primeval', i.e., who existed always, 'the Ruler,' i.e., who governs the universe, 'who is subtler than the subtle,' i.e., who is subtler than the individual self, 'who is the Dhata' of all, i.e., the creator of all, 'whose nature is inconceivable,' i.e., whose nature is other than everything else, 'who is sun-coloured and beyond darkness,' i.e., who possesses a divine form peculiar to Himself - he who concentrates on Him, the Divine Person described above, between the eyrows, attains Him alone. He attains His state and comes to have power and glory similar to His. Such is the meaning. Then He describes the mode of meditation to be adopted by the seeker of Kaivalya or the Jijnasu (i.e., of one who seeks to know his own self or Atman in contrast to one whose object is God-realisation).
8.9 He who meditates on the Omniscient, the Anceint, the Ruler, subtler than the subtle, the Ordainer of everything, of inconceivable form, effulgent like the sun, and beyond darkness-(he attains the supreme Person).
।।8.9।।किन लक्षणोंसे युक्त परम पुरुषको ( योगी ) प्राप्त होता है इसपर कहते हैं --, जो पुरुष भूत भविष्यत् और वर्तमानको जाननेवाले -- सर्वज्ञ पुरातन सम्पूर्ण संसारके शासक और अणुसे भी अणु यानी सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर परमात्माका जो भी सम्पूर्ण कर्मफलका विधायक अर्थात् विचित्ररूपसे विभाग करके सब प्राणियोंको उनके कर्मोंका फल देनेवाला है तथा अचिन्त्यस्वरूप अर्थात् जिसका स्वरूप नियत और विद्यमान होते हुए भी किसीके द्वारा चिन्तन न किया जा सके ऐसा है एवं सूर्यके समान वर्णवाला अर्थात् सूर्यके समान नित्य चेतनप्रकाशमय वर्णवाला है और अज्ञानरूप मोहमय अन्धकारसे सर्वथा अतीत है उसका बारम्बार स्मरण करता है। ( वह ) उसका स्मरण करता हुआ उसीको प्राप्त होता है इस प्रकार पूर्वश्लोकसे सम्बन्ध है।
।।8.9।। --,कविं क्रान्तदर्शिनं सर्वज्ञं पुराणं चिरन्तनम् अनुशासितारं सर्वस्य जगतः प्रशासितारम् अणोः सूक्ष्मादपि अणीयांसं सूक्ष्मतरम् अनुस्मरेत् अनुचिन्तयेत् यः कश्चित् सर्वस्य कर्मफलजातस्य धातारं विधातारं विचित्रतया प्राणिभ्यो विभक्तारम् अचिन्त्यरूपं न अस्य रूपं नियतं विद्यमानमपि केनचित् चिन्तयितुं शक्यते इति अचिन्त्यरूपः तम् आदित्यवर्णम् आदित्यस्येव नित्यचैतन्यप्रकाशो वर्णो यस्य तम् आदित्यवर्णम् तमसः परस्तात् अज्ञानलक्षणात् मोहान्धकारात् परं तम् अनुचिन्तयत् याति इति पूर्वेण संबन्धः।।किञ्च --,
।।8.9।।उत्तरश्लोकगतविशेषणबलाच्च परमात्मैवायमिति भावेन तत्तात्पर्यमाह -- ध्येयमिति। आह विशिनष्टीत्यर्थः। ननु कवित्वमन्येषामप्यस्ति तत्कथं भगवतो विशेषणं इत्यत आह -- कविमिति। परमेश्वरस्य सार्वज्ञे प्रमिते भवेदिदं व्याख्यानम् तदेव कुतः इत्यत आह -- य इति। सर्वज्ञः कविशब्दार्थ इत्येतत्कुतः इत्यत आह -- त्वमिति। अन्येषां तुसर्वे विमोहितधियः इत्यादिना सार्वज्ञाभावः प्रमितः। ननु धाता विरिञ्चोऽपि प्रसिद्धः तत्कथमेतद्भगवतो विशेषणं इत्यत आह -- धातारमिति। कुतोऽयमर्थः। इत्यत आह -- डुधाञिति। तृचः कर्तृवाचित्वं प्रसिद्धमेव। परमेश्वरस्य धातृत्वसद्भावे किं प्रमाणं इत्यत आह -- धातेति। विधाता कर्ता। परमा सन्दृक् परमज्ञानरूपः।सर्वस्य धातारं इत्येतत् भगवत एव नान्येषामित्यत्र प्रमाणमाह -- ब्रह्मेति। तेन भगवताऽऽदिष्टं दत्तं फलं सुखं यस्यां सा तथोक्ता। मोक्षधर्मे कथितमिति शेषः। तमसः परस्तादित्येतत् आदित्यादिसाधारणं इत्यतो द्वेधा सप्रमाणकं व्याचष्टे -- तमस इति। स्थितमिति शेषोक्तिः। अप्राकृतविग्रहमित्यर्थः।
।।8.9।।ध्येयमाह -- कविभिति। कविं सर्वज्ञम् यः सर्वज्ञः [मुं.उ.1।9] इति श्रुतेः।त्वं कविः सर्ववेदनात् इति च ब्राह्मे। धातारं धारणपोषणकर्तारम्डुधाञ् धारणपोषणयोः [धा.पा.3।10] इति धातोः। धाता विधाता परमोत सन्दृक् इति च श्रुतिः।ब्रह्मा स्थाणुः इत्यारभ्यतस्य प्रसादादिच्छन्ति (ते तत्प्रसादाद्गच्छन्ति) तदादिष्टफलां गतिम् [म.भा.12।334।3539] इति च मोक्षधर्मे। तमसोऽव्यक्तात्परतः स्थितम्। तपसः परस्तादित्यव्यक्तं वै तमः परस्ताद्धि सततः इति पिप्पलादशाखायाम् मत्युर्वाव तमो मृत्युर्वा मृत्युर्वै तमो ज्योतिरमृतम् [बृ.उ.1।3।28] इति श्रुतेः।
कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः। सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।8.9।।
কবিং পুরাণমনুশাসিতার- মণোরণীযাংসমনুস্মরেদ্যঃ৷ সর্বস্য ধাতারমচিন্ত্যরূপ- মাদিত্যবর্ণং তমসঃ পরস্তাত্৷৷8.9৷৷
কবিং পুরাণমনুশাসিতার- মণোরণীযাংসমনুস্মরেদ্যঃ৷ সর্বস্য ধাতারমচিন্ত্যরূপ- মাদিত্যবর্ণং তমসঃ পরস্তাত্৷৷8.9৷৷
કવિં પુરાણમનુશાસિતાર- મણોરણીયાંસમનુસ્મરેદ્યઃ। સર્વસ્ય ધાતારમચિન્ત્યરૂપ- માદિત્યવર્ણં તમસઃ પરસ્તાત્।।8.9।।
ਕਵਿਂ ਪੁਰਾਣਮਨੁਸ਼ਾਸਿਤਾਰ- ਮਣੋਰਣੀਯਾਂਸਮਨੁਸ੍ਮਰੇਦ੍ਯ। ਸਰ੍ਵਸ੍ਯ ਧਾਤਾਰਮਚਿਨ੍ਤ੍ਯਰੂਪ- ਮਾਦਿਤ੍ਯਵਰ੍ਣਂ ਤਮਸ ਪਰਸ੍ਤਾਤ੍।।8.9।।
ಕವಿಂ ಪುರಾಣಮನುಶಾಸಿತಾರ- ಮಣೋರಣೀಯಾಂಸಮನುಸ್ಮರೇದ್ಯಃ. ಸರ್ವಸ್ಯ ಧಾತಾರಮಚಿನ್ತ್ಯರೂಪ- ಮಾದಿತ್ಯವರ್ಣಂ ತಮಸಃ ಪರಸ್ತಾತ್৷৷8.9৷৷
കവിം പുരാണമനുശാസിതാര- മണോരണീയാംസമനുസ്മരേദ്യഃ. സര്വസ്യ ധാതാരമചിന്ത്യരൂപ- മാദിത്യവര്ണം തമസഃ പരസ്താത്৷৷8.9৷৷
କବିଂ ପୁରାଣମନୁଶାସିତାର- ମଣୋରଣୀଯାଂସମନୁସ୍ମରେଦ୍ଯଃ| ସର୍ବସ୍ଯ ଧାତାରମଚିନ୍ତ୍ଯରୂପ- ମାଦିତ୍ଯବର୍ଣଂ ତମସଃ ପରସ୍ତାତ୍||8.9||
kaviṅ purāṇamanuśāsitāra- maṇōraṇīyāṅsamanusmarēdyaḥ. sarvasya dhātāramacintyarūpa- mādityavarṇaṅ tamasaḥ parastāt৷৷8.9৷৷
கவிஂ புராணமநுஷாஸிதார- மணோரணீயாஂஸமநுஸ்மரேத்யஃ. ஸர்வஸ்ய தாதாரமசிந்த்யரூப- மாதித்யவர்ணஂ தமஸஃ பரஸ்தாத்৷৷8.9৷৷
కవిం పురాణమనుశాసితార- మణోరణీయాంసమనుస్మరేద్యః. సర్వస్య ధాతారమచిన్త్యరూప- మాదిత్యవర్ణం తమసః పరస్తాత్৷৷8.9৷৷
8.10
8
10
।।8.10।। वह भक्तियुक्त मनुष्य अन्तसमयमें अचल मनसे और योगबलके द्वारा भृकुटीके मध्यमें प्राणोंको अच्छी तरहसे प्रविष्ट करके (शरीर छोड़नेपर) उस परम दिव्य पुरुषको ही प्राप्त होता है।
।।8.10।। वह (साधक) अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।
।।8.10।। इस श्लोक का केवल वाच्यार्थ लेकर प्रायः इसे विपरीत रूप से समझा जाता हैं जो कि वास्तव में इसका तात्पर्य नहीं है।गीता में प्रस्तुत प्रकरण का विषय है एकाग्र चित्त से परम पुरुष का ध्यान। अतः प्रयाणकाल से अभिप्राय अहंकार की मृत्यु के क्षण से समझना चाहिए। ध्यान साधना के द्वारा जब सजग रहकर शरीर मन और बुद्धि से हुए तादात्म्य को पूर्णतया निवृत्त किया जाता है तब साधक आन्तरिक शान्ति के स्थिर क्षण का अनुभव करता है। उस समय निश्चल मन से इस श्लोक में उपदिष्ट साधना का उसे पालन करना चाहिए।यहाँ भक्ति शब्द से सामान्य संसारी जनों की व्यापारिक पद्धति की भक्ति नहीं समझनी चाहिए। ईश्वर के लिए वह परम प्रेम जिसमें न किसी प्रकार की कामना है और न अपेक्षा जो प्रेम केवल प्रेम के लिए ही है भक्ति कहलाता है। प्रेम का अर्थ है अपने प्रियतम से वह तादात्म्य जिसमें प्रियतम के सुख और दुःख अपने स्वयं के ही सुखदुःख अनुभव होते हैं। संक्षेप में प्रेमी और प्रेमिका भक्त और ईश्वर परस्पर एकरूप हो जाते हैं। इसलिए श्री शंकराचार्य भक्ति का लक्षण बताते हैं स्वस्वरूपानुसन्धान भक्ति कहलाती है अर्थात् जीव का अपने सत्यस्वरूप के साथ एकत्व भक्ति है।प्रस्तुत श्लोक के सन्दर्भ में साधक को दी गई सबसे महत्व की सूचना यह है कि उसका ध्यानाभ्यास आत्मा के साथ एकरूप होने की तत्परता से युक्त हो। आत्मा का स्वरूप पूर्व श्लोक में विस्तार से बताया जा चुका है। आन्तरिक शान्ति के समय जब अहंकार की मृत्यु होती है तब साधक को आत्मस्वरूप में स्थित होकर रहना चाहिए।योगबलेन इस शब्द से किसी गुप्त रहस्यमयी कुण्डलिनी शक्ति के विषय में हम नहीं कह रहे हैं जिसके विषय में गुप्तता रखी जाती है और ईश्वर के भक्तों को भी सामान्यतः उसका रहस्य प्रकट नहीं किया जाता। योगबल से तात्पर्य साधक के उस बल से है जो उसे दीर्घकाल तक नियमित रूप से ध्यानाभ्यास करने के फलस्वरूप प्राप्त होता है। यह वह आन्तरिक शक्ति है जो मन के विषयों से तथा तज्जनित विक्षेपों से निवृत्त होने पर और बुद्धि के परम सत्य में स्थिर होने से प्राप्त होती है और निरन्तर समृद्ध होती जाती है।अल्पकाल में ही साधक अपने में ही मानसिक सन्तुलन रूपी सम्पत्ति और एक अवर्णनीय कार्यकुशलता को पाता है जिनकी सहायता से पूर्ण तत्परता के साथ ध्यान में वह एक चित्त हो जाता है। ध्यानाभ्यास में रत योगी के सम्पूर्ण प्राण उसके ध्यानबिन्दु में केन्द्रित हो जाते हैं जैसे यहाँ कहा गया है कि भ्रकुटी के मध्य में। यह भाग स्थिर विचार का स्थान माना जाता है।वेदान्त में प्राण से तात्पर्य केवल वायु से न होकर शरीर के विभिन्न अंगों में विभिन्न रूप से व्यक्त हो रही जीवनशक्ति से है। इस जीवनशक्ति (प्राण) का पाँच कार्यों के अनुसार पाँच विभागों में वर्गीकरण किया गया है जैसे प्राण विषय ग्रहण की क्रिया अपान मल विसर्जन व्यान सम्पूर्ण शरीर में रक्त आदि प्रवाहित करना समान पाचन क्रिया और उदान जिसके कारण हममें वह क्षमता होती है कि वर्तमान से परे भी ज्ञान को हम समझ सकें। इनके द्वारा हमारी बहुत सी शक्ति बिखर जाती है जो ध्यानाभ्यास के समय एक स्थान पर कुछ समय के लिए केन्द्रित हो जाती है। ध्यानमार्ग पर चलने वाले साधक के लिए तीव्र गति से की जाने वाली किसी शारीरिक साधना की आवश्यकता नहीं होती।ऐसे गहन ध्यान के क्षण में जिस साधक का मन पूर्णतया शान्त और निश्चल हो जाता है योगबल से प्राण भ्रकुटी के मध्य स्थित हो जाते हैं और जो परम श्रद्धा एवं उत्साह के साथ ध्येय आत्मतत्त्व के साथ एक रूप हो जाता है वह साधक उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।ओंकार पर किये जाने वाले ध्यान की प्रस्तावना के रूप में अगला श्लोक है --
।।8.10।। व्याख्या --प्रयाणकाले मनसाचलेन ৷৷. स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्--यहाँ भक्ति नाम प्रियताका है; क्योंकि उस तत्त्वमें प्रियता (आकर्षण) होनेसे ही मन अचल होता है। वह भक्ति अर्थात् प्रियता स्वयंसे होती है, मन-बुद्धि आदिसे नहीं। अन्तकालमें कवि, पुराण, अनुशासिता आदि विशेषणोंसे (पीछेके श्लोकमें) कहे हुए सगुण-निराकार परमात्मामें भक्तियुक्त मनुष्यका मन स्थिर हो जाना अर्थात् सगुण-निराकार-स्वरूपमें आदरपूर्वक दृढ़ हो जाना ही मनका अचल होना है।पहले प्राणायामके द्वारा प्राणोंको रोकनेका जो अधिकार प्राप्त किया है, उसका नाम 'योगबल' है। उस योगबलके द्वारा दोनों भ्रुवोंके मध्यभागमें स्थित जो द्विदल चक्र है, उसमें स्थित सुषुम्णा नाड़ीमें प्राणोंका,अच्छी तरहसे प्रवेश करके वह (शऱीर छोड़कर दसवें द्वारसे होकर) दिव्य परम पुरुषको प्राप्त हो जाता है।
।।8.9 -- 8.10।।कविमिति। प्रयाणेति। एवम् अनुस्मरेदिति। आदित्येति। आदित्यवर्णत्वं वासुदेवतत्त्वस्य [न] परिच्छेदकम्। आकृतिकल्पनादि (N विकल्पनादि) विभ्रान्तिमयमोहतमसः अतीतत्त्वात् रवित्वेनोपमानमित्याशयः। भ्रुवोर्मध्ये इति प्राग्वत्।
।।8.10।।कविं सर्वज्ञं पुराणं पुरातनम् अनुशासितारं विश्वस्य प्रशासितारम् अणोः अणीयांसं जीवाद् अपि सूक्ष्मतरं सर्वस्य धातारं सर्वस्य स्रष्टारम् अचिन्त्यरूपं सकलेतरविसजातीयस्वरूपम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् अप्राकृतस्वासाधारणदिव्यरूपम् तम् एवंभूतम् अहरहः अभ्यस्यमानभक्तियुक्तयोगबलेन आरूढसंस्कारतया अचलेन मनसा प्रयाणकाले भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य संस्थाप्य तत्र भ्रुवोर्मध्ये दिव्यं पुरुषं यः अनुस्मरेत् स तम् एव उपैति तद्भावं याति तत्समानैश्वर्यो भवति इत्यर्थः।अथ कैवल्यार्थिनां स्मरणप्रकारम् आह --
।।8.10।।इतश्च भगवदनुस्मरणं सफलत्वादनुष्ठेयमित्याह -- किञ्चेति। कदा तदनुस्मरणे प्रयत्नातिरेकोऽभ्यर्थ्यते तत्राह -- प्रयाणकाल इति। कथं तदनुस्मरणमित्युपकरणकलापप्रेक्ष्यमाणं प्रत्याह -- मनसेति। योऽनुस्मरेत्स किमुपैति तत्राह -- स तमिति। मरणकाले क्लेशबाहुल्येऽपि प्राचीनाभ्यासप्रसादासादितबुद्धिवैभवो भगवन्तमनुस्मरन्यथास्मृतमेव देहाभिमानविगमानन्तरमुपागच्छतीत्यर्थः। भगवदनुस्मरणस्य साधनं मनसैवानुद्रष्टव्यमिति श्रुत्युपदिष्टमाचष्टे -- मनसेति। तस्य चञ्चलत्वान्न स्थैर्यमीश्वरे सिध्यति तत्कथं तेन तदनुस्मरणमित्याशङ्क्याह -- अचलेनेति। ईश्वरानुस्मरणे प्रयत्नेन प्रवर्तितं विषयविमुखं तस्मिन्नेवानुस्मरणयोग्यपौनःपुन्येन प्रवृत्त्या निश्चलीकृतं ततश्चलनविकलं तेनेति व्याचष्टे -- अचलेनेति। संप्रत्यनुस्मरणाधिकारिणं विशिनष्टि -- भक्त्येति। परमेश्वरे परेण प्रेम्णा सहितो विषयान्तरविमुखोऽनुस्मर्तव्य इत्यर्थः। योगबलमेव स्फोरयति -- समाधिजेति। योगः समाधिश्चित्तस्य विषयान्तरवृत्तिनिरोधेन परस्मिन्नेव स्थापनं तस्य बलं संस्कारप्रचयो ध्येयैकाग्र्यकरणं तेन तत्रैव स्थैर्यमित्यर्थः। चकारसूचितमन्वयमन्वाचष्टे -- तेन चेति। यत्तु कया नाड्योत्क्रामन्यातीति। तत्राह -- पूर्वमिति। चित्तं हि स्वभावतो विषयेषु व्यापृतं तेभ्यो विमुखीकृत्य हृदये पुण्डरीकाकारे परमात्मस्थाने यत्नतः स्थापनीयम्।अथ यदिदमस्मिन्ब्रह्मपुरे इत्यादिश्रुतेस्तत्र चित्तं वशीकृत्यादावनन्तरं कर्तव्यमुपदिशति -- तत इति। इडापिङ्गले दक्षिणोत्तरे नाड्यौ हृदयान्निःसृते निरुध्य तस्मादेव हृदयाग्रादूर्ध्वगमनशीलया सुषुम्नया नाड्या हार्दं प्राणमानीय कण्ठावलम्बितस्तनसदृशं मांसखण्डं प्रापय्य तेनाध्वना भ्रुवोर्मध्ये तमावेश्याप्रमादवान्ब्रह्मरन्ध्राद्विनिष्क्रम्य कविं पुराणमित्यादिविशेषणं परमपुरुषमुपगच्छतीत्यर्थः। भूमिजयक्रमेणेत्यत्र भूम्यादीनां पञ्चानां भूतानां जयो वशीकरणं तस्य तस्य भूतस्य स्वाधीनचेष्टावैशिष्ट्यं तद्द्वारेणेत्येतदुच्यते। स तमित्यादि व्याचष्टे -- स एवमिति।
।।8.10।।ध्यानप्रकारं कालं चाह -- प्रयाणकाल इति। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्येति। स तं परं पुरुषमुपैति तत्समाकारः सामीप्यरूपमाप्नोति।
।।8.10।।कदा तदाऽनुस्मरणे प्रयत्नातिरेकोऽभ्यर्थते तदाह -- प्रयाणकालेऽन्तकाले अचलेन एकाग्रेण मनसा तं पुरुषं योऽनुस्मरेदित्यनुवर्तते। कीदृशः। भक्त्या परमेश्वरविषयेण परमेण प्रेम्णा युक्तः। योगस्य समाधेर्बलेन तज्जनितसंस्कारसमूहेन व्युत्थानसंस्कारविरोधिना च युक्तम्। एवं प्रथमं हृदयपुण्डरीके वशीकृत्य तत ऊर्ध्वगामिन्या सुषुम्नया ना़ड्या गुरूपदिष्टमार्गेण भूमिजयक्रमेण भ्रुवोर्मध्ये आज्ञाचक्रे प्राणमावेश्य स्थापयित्वा सम्यगप्रमत्तो ब्रह्मरन्ध्रादुत्क्रम्य स एवमुपासकस्तंकविं पुराणमनुशासितारम् इत्यादिलक्षणं परं पुरुषं दिव्यं द्योतनात्मकमुपैति प्रतिपद्यते।
।।8.10।।सप्रपञ्चप्रकृतिं भित्त्वा यस्तिष्ठति एवंभूतं पुरुषमन्तकाले भक्तियुक्तो निश्चलेन विक्षेपरहितेन मनसा योऽनुस्मरेत्। मनोनैश्चल्ये हेतुः योगबलेन सम्यक्सुषुम्नामार्गेण भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्येति। स तं परं पुरुषं परात्मस्वरूपं दिव्यं द्योतनात्मकं प्राप्नोति।
।। 8.10 क्रान्तदर्शी हि कविरित्युच्यते अत्र तु कविशब्दः ईश्वरविषयत्वात् सर्वदर्शित्वपर इत्यभिप्रायेणाह -- सर्वज्ञमिति। पुराणशब्देनानादित्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तंपुरातनमिति। अनुपूर्वः शासिर्विविच्य ज्ञापनार्थ इत्येतावन्मात्रपरत्वव्युदासायविश्वस्य प्रशासितारमित्युक्तम्। ईश्वरस्य सतोऽनुशासनमाज्ञापनभेवेति भावः। अनुशासनं कस्यत्याकाङ्क्षायांसर्वस्य धातारम् इत्यत्र सर्वस्येति पदमाकर्षणीयम् विशेषनिर्देशाभावाद्वा सर्वविषयत्वमित्यभिप्रायेण -- विश्वस्येत्युक्तम्। एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठतः [बृ.उ.3।उक्तप्रकास्येश्वरस्वरूपस्य सामान्यतो दृष्टैस्तर्कैरसम्भवनीयतां केचिदभिमन्येरन्निति तन्निरासपरम्।अचिन्त्यरूपम् इतिपदमित्यभिप्रायेणाहसकलेतरविसजातीयस्वरूपमिति। वर्णयोगस्य स्वरूपेणाघटनात् प्रमाणसिद्धविलक्षणविग्रहद्वारा तद्योगमाहअप्राकृतेति। येन सूर्यस्तपति तेजसेद्धः [य.तै.ब्रा.3।12।9।7] यस्यादित्यो भामुपयुज्य भाति तस्य भासा सर्वमिदं विभाति [मुं.उ.2।2।10] (तं)तद्देवा ज्योतिषां ज्योतिः [बृ.उ.4।4।16] इत्यादिषु निरतिशयदीप्तियोगः सिद्धः। आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् [य.सं.31।18श्वे.उ.3।8] इति श्रुतिखण्डस्यात्र निबन्धः तम आसीत् [ऋक्सं.8।7।17।3यजुः2।7।9] तमसस्तन्महिनाजायतैकं [यजुः2।4।9] यदा तमः [श्वे.उ.4।18] इत्यादिश्रुत्यन्तरोपलक्षणार्थः। तेनतमसः इति सर्वकारणभूततमोद्रव्यविवक्षा।तमसः परस्तात् इत्यनेन फलितमप्राकृतत्वम् तत एव चाकर्माधीनत्वं नित्यत्वं निरवद्यत्वमित्यादि सूचितम्। एतच्छ्लोकच्छायश्च मानवः श्लोकः -- प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसम -- [णोरपि] -- णीयसाम्। रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्या (त्तं)त्तु पुरुषं परम् -- [मनुः12।122] इति। अनुकूलानां हितरमणीयत्वाद्याकारेण हिरण्यवर्णत्वरुक्माभत्वादिव्यपदेशः। प्रतिकूलदुष्प्रेक्षत्वप्रकाशातिरेकादिविवक्षया आदित्यवर्णत्वाद्युक्तिः।दिवि सूर्यसहस्रस्य [11।12] इत्यादि च वक्ष्यति। एतेनादित्यशब्दस्य नित्यचैतन्यप्रकाशपरत्वं तमश्शब्दस्य चाज्ञानविषयत्वं परोक्तं (शं.) निरस्तम्। श्लोकद्वयस्यान्वयं दर्शयति -- तमेवम्भूतमित्यादिना।भक्त्या युक्तो योगबलेन इति पृथङ्निर्देशात् परोक्तप्राणजयबलादिपृथगर्थताप्रतीतिः स्यादिति तदपाकरणाय विशिष्टैकार्थतां दर्शयितुंभक्तियुक्तयोगबलेनेत्युक्तम्। मनसोऽचलत्वे हेतुरिदम् तस्य चावान्तरव्यापारः योग्यपर्याययुक्तशब्देन विवक्षित इत्याहआरूढसंस्कारतयेति।आवेश्य इत्यनेन योगप्रकरणेषूक्तं निश्चलावस्थापनं विवक्षितमित्याहसंस्थाप्येति। अत्र पुरुषध्यानस्यापि भ्रूमध्यमेव देशः देशान्तरानभिधानाद्योगप्रकरणान्तरेषूपदेशाच्च तत्सिद्धेरिति विभाव्योक्तंतत्र भ्रूमध्य इति। तमेवम्भूतं दिव्यं पुरुषम् इत्यन्वयः।तं तमेवैति [8।6] इत्यवधारणदर्शनात्स तं परं पुरुषम् इत्यत्रापितं इतीतरव्यवच्छेदपरमित्यभिप्रायेणाहस तमेवोपैतीति।यः प्रयाति स मद्भावं याति [8।5] इति प्रक्रान्तप्रकार एवात्र विवक्षित इति दर्शयतितद्भावं यातीति। भावप्रधानोऽत्र निर्देश इति भावः। तत्र तादात्म्यादिभ्रमं व्युदस्यतितत्समानैश्वर्यो भवतीत्यर्थ इति। परमसाम्यापत्तिव्यवच्छेदाय समानैश्वर्य इत्युक्तम्। एतेनकविम् इत्यादिभिः सर्वज्ञत्वादयो गुणाः ऐश्वर्यप्रदत्वार्थमनुसन्धेयतयोक्ताः न तु प्राप्यत्वार्थमिति फलितम्। एवमन्तिमकालस्मर्तव्यतया निर्दिष्ट एवाकारः प्रागपि ध्येयतयोक्त इति मन्तव्यम्। एवमुत्तरत्रापि।,
।।8.10।।प्रयाणकाले अन्तकाले मनसा निश्चलेन मनसा सर्वकामरहितेन च पुनः योगबलेनैव संयोगात्मकभावेनैव भ्रुवोर्मध्ये भाग्यस्थाने सन्तं विद्यमानं योऽनुस्मरेद्भगवत्कृतस्मरणानन्तरं स्वार्थप्रकटज्ञानेन स्मरेत् स तस्मिन्नेव प्राणमावेश्य सम्यक् भावात्मकस्वरूपप्राप्त्या परं पुरुषं पुरुषोत्तमं दिव्यं क्रीडात्मकं उपैति समीपे दास्येन प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।8.10।।उपासनायाः फलमाह -- प्रयाणेति। प्रयाणकाले मनसाऽचलेन वृत्त्यन्तरवर्जितेन भक्त्या भगवति वासुदेवे आराध्यत्वबुद्ध्या युक्तो योगबलेन योगो मनःप्राणेन्द्रियक्रियानिरोधो हृदयपुण्डरीके तेषां वशीकरणमित्यर्थः। तस्यैव बलेन च युक्तो भूमिकाजयक्रमेण प्रागेव मूलाधारादिब्रह्मरन्ध्रान्तस्थानेषु आरोहावरोहक्रमेण संचारितपवनोऽन्तकाले भ्रुवोर्मध्ये आज्ञाचक्रे प्राणमावेश्य सुषुम्नया नाड्या मूलाधारादुत्थापनपूर्वकं सम्यक् निवेश्य स्थापयित्वा। स्थापनप्रयोजनं तु अन्यविस्मरणपूर्वकं दिव्यपुरुषचिन्तनम्। तच्च भ्रूमध्यादुपर्युन्नीयमाने वायौ मनो मूर्च्छामापद्यत इति तस्यामवस्थायां न भवतीत्यन्त्यप्रत्ययस्तत्रैव संपाद्यस्ततोऽर्चिरादिमार्गपर्वणा अमानवस्य पुरुषस्य स्थानविशेषप्रापकस्य प्राप्यस्थानस्य च तस्मिन्नेव स्मरणं कर्तव्यम्। तद्वासनावासितं मनो भ्रूमध्याद्योगिना ऊर्ध्वया नाड्या उत्क्षिप्ते प्राणे मुक्तेषुवद्ब्रह्माण्डखर्परं भित्त्वा प्रचलिते सति लब्धवृत्तिकं भूत्वा पूर्वसंस्कारप्राबल्याद्योगमाहात्म्याच्च दिव्योपाध्युपेतमर्चिरादिपर्वदेवताभिरभिपूज्यमानमुत्तरोत्तरं स्थानं प्रत्यतिवाह्यमानममानवेन च पुरुषेण संगच्छमानं तेन च यथाभिलषितं स्थानं प्रापितमात्मानं पश्यति। तदिदमुक्तं भ्रुवोर्मध्ये सम्यक् प्राणमावेश्येति। स एवं कृत्वा योगी कविं पुराणमित्युक्तलक्षणं परं पुरुषं हिरण्यगर्भाख्यं सर्वस्य भूतजातस्य जनयितारं नारायणादिशब्दप्रतिपाद्यमुपैति समीपे प्राप्नोति। तल्लोकं प्राप्नोतीत्यर्थः। नहि पौराणिकानामिव वैदिकानां मते ब्रह्मविष्णुरुद्रलोकानामुपर्युपरि कल्पनास्ति किंतर्हि सर्वे हिरण्यगर्भलोकाख्ये सत्यलोके एवान्तर्भवन्ति।पराहि सोपासनकर्मोर्जितिर्हिरण्यगर्भप्राप्यता इति बृहदारण्यके तद्भाष्यादौ च स्पष्टम्।
।।8.10।।कदा तदाऽनुस्मरणे प्रयत्नातिरेकोऽभ्यर्थते तदाह -- प्रयाणकालेऽन्तकाले अचलेन एकाग्रेण मनसा तं पुरुषं योऽनुस्मरेदित्यनुवर्तते। कीदृशः। भक्त्या परमेस्वरविषयेण परमेण प्रेम्णा युक्तः। योगस्य साधिर्बलेन तज्जनितसंस्कारसमूहेन व्युत्थानसंस्कारविरोधिना च युक्तम्। एवं प्रथमं हृदयपुण्डरीके वशीकृत्य तत ऊर्ध्वगामिन्या सुषुम्नया नाङ्या गुरुपदिष्टमार्गेण भूमिजयक्रमेण भ्रुवोर्मध्ये आज्ञाचके प्राणमावेश्य स्थापयित्वा सभ्यगप्रमत्तो ब्रह्मरन्ध्रा समाधिजसंस्कारजनितं चित्तस्थैर्यलक्षणं तेन च युक्तः पूर्वं हृदयपुण्डरीके चित्तं वशीकृत्य तत ऊर्ध्वगामिन्या नाङ्या भूमिजय क्रमेण भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य स्थापयित्वा सभ्यगप्रमत्तः सन् स एवंविद्वान् यः कर्वि पुराणमित्यादिलक्षणः तं परं पुरुषमुपैति प्रतिपद्यते।
8.10 प्रयाणकाले at the time of death? मनसा with mind? अचलेन unshaken? भक्त्या with devotion? युक्तः joined? योगबलेन by the power of Yoga? च and? एव only? भ्रुवोः of the two eyrows? मध्ये in the middle? प्राणम् Prana (breath)? आवेश्य having placed? सम्यक् thoroughly? सः he? तम् that? परम् Supreme? पुरुषम् Purusha? उपैति reaches? दिव्यम् resplendent.Commentary The Yogi gets immense inner strength and power of concentration. His mind becomes ite steady through constant practice of concentration and meditation. He practises concentration first on the lower Chakras? viz.? Muladhara? Svadhishthana and Manipura. He then concentrates on the lotus of the heart (Anahata Chakra). Then he takes the lifreath (Prana) through the Sushumna and fixes it in the middle of the two eyrows. He eventually attains the resplendent Supreme Purusha (Person) by the above Yogic practice.This is possible for one who has devoted his whole life to the practice of Yoga.
8.10 At the time of death, with unshaken mind, endowed with devotio, by the power of Yoga, fixing the whole life-breath in the middle of the two eyrows, he reaches that resplendent Supreme Person.
8.10 He who leaves the body with mind unmoved and filled with devotion, by the power of his meditation gathering between his eyebrows his whole vital energy, attains the Supreme.
8.10 At the time of death, having fully fixed the Prana (vita force) between the enrows with an unswering mind, and being imbued with devotion as also the strength of concentration, he reaches that resplendent supreme person.
8.10 Prayana-kale, at the time of death; after first brining the mind under control in the lotus of the heart, and then lifting up the vital force-through the nerve going upward-by gradually gaining control over (the rudiments of nature such as) earth etc. [Space, air, fire, water and earth.] and after that, samyak, avesya, having fully fixed; pranam, the Prana (vital force); madhye, between; the bhruvoh, eye-brows, without losing attention; acalena manasa, with an unwavering mind; he, the yogi possessed of such wisdom, yuktah, imbued; bhaktya, with devotion, deep love; ca eva, as also; yoga-balena, [Yoga means spiritual absorption, the fixing of the mind on Reality alone, to the exclusion of any other object.] with the strength of concentration-i.e; imbued with that (strength) also, consisting in steadfastness of the mind arising from accumulation of impressions resulting from spiritual absorption; upaiti, reaches; tam, that; div yam, resplendent; param, supreme; purusam, Person, described as 'the Omniscient, the Ancient,' etc. The Lord again speaks of Brahman which is sought to be attained by the process going to be stated, and which is described through such characteristics as, 'What is declared by the knowers of the Vedas,'etc.:
8.10. That person endowed with a steady mind, with devotion and also with the Yoga-power, reaches at the time of journey that Supreme Divine Soul, by fixing properly the life-breath in between his eye brows.
8.9-10 Kavim etc. Prayana-etc. He who would meditate in this manner (i.e. as described in the verse) etc. The Sun-coloured. The Sun-colour does not delmit the Absolute (Vasudeva-tattva). However, a comparison with the sun is drawn because the absolute too transcends the darkness of ignorance consisting of the varied wrong notions, like fancying forms etc. This is the idea here. In between the eye-brows : [This may be understood] as above.
8.9 - 8.10 He who focusses his life-breath between the eyrows at the time of death with a mind rendered unswerving through its purification achieved by the strength of Yoga conjoined with Bhakti practised day after day; and he who contemplates on the 'Kavi' i.e., the Omniscient, the 'Primeval', i.e., who existed always, 'the Ruler,' i.e., who governs the universe, 'who is subtler than the subtle,' i.e., who is subtler than the individual self, 'who is the Dhata' of all, i.e., the creator of all, 'whose nature is inconceivable,' i.e., whose nature is other than everything else, 'who is sun-coloured and beyond darkness,' i.e., who possesses a divine form peculiar to Himself - he who concentrates on Him, the Divine Person described above, between the eyrows, attains Him alone. He attains His state and comes to have power and glory similar to His. Such is the meaning. Then He describes the mode of meditation to be adopted by the seeker of Kaivalya or the Jijnasu (i.e., of one who seeks to know his own self or Atman in contrast to one whose object is God-realisation).
8.10 At the time of death, having fully fixed the Prana (vita force) between the enrows with an unswering mind, and being imbued with devotion as also the strength of concentration, he reaches that resplendent supreme person.
।।8.10।।तथा --, ( जो योगी ) अन्त समय -- मृत्युकालमें भक्ति और योगबलसे युक्त हुआ -- अर्थात् भजनका नाम भक्ति है उससे युक्त हुआ और समाधिजनित संस्कारोंके संग्रहसे उत्पन्न हुई चित्तस्थिरताका नाम योगबल है उससे भी युक्त हुआ चञ्चलतारहित -- अचल मनसे पहले हृदयकमलमें चित्तको स्थिर करके फिर ऊपरकी ओर जानेवाली नाड़ीद्वारा चित्तकी प्रत्येक भूमिको क्रमसे जय करता हुआ भ्रुकुटिके मध्यमें प्राणोंको स्थापन करके भली प्रकार सावधान हुआ ( परमात्मस्वरूपका चिन्तन करता है ) वह ऐसा बुद्धिमान् योगी कविं पुराणम् इत्यादि लक्षणोंवाले उस दिव्य -- चेतनात्मक परम पुरुषको प्राप्त होता है।
।।8.10।। --,प्रयाणकाले मरणकाले मनसा अचलेन चलनवर्जितेन भक्त्या युक्तः भजनं भक्तिः तया युक्तः योगबलेन चैव योगस्य बलं योगबलं समाधिजसंस्कारप्रचयजनितचित्तस्थैर्यलक्षणं योगबलं तेन च युक्तः इत्यर्थः पूर्वं हृदयपुण्डरीके वशीकृत्य चित्तं ततः ऊर्ध्वगामिन्या नाड्या भूमिजयक्रमेण भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य स्थापयित्वा सम्यक् अप्रमत्तः सन् सः एवं विद्वान् योगी,कविं पुराणम् इत्यादिलक्षणं तं परं परतरं पुरुषम् उपैति प्रतिपद्यते दिव्यं द्योतनात्मकम्।।पुनरपि वक्ष्यमाणेन उपायेन प्रतिपित्सितस्य ब्रह्मणो वेदविद्वदनादिविशेषणविशेष्यस्य अभिधानं करोति भगवान् --,
।।8.10।।उत्तरश्लोकोक्तं सर्वं सर्वोच्चिक्रमिषुसाधारणमिति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- वायुजयादीति। साधका द्विविधाः भक्त्यादिप्रधाना वायुजयादिप्रधानाश्चेत्यतो विशेषणं विशेषत इति। अनेन भक्त्यादीनां साधारण्यमाह। ननु चअनुस्मरेद्यः सतं परं पुरुषमुपैति [श्लो.910] इत्यन्वयादेकस्य वाक्यस्य कथं भिन्नविषयत्वम् उच्यते -- एकस्मिन्नपि वाक्ये योगबलेनैवभ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य इत्येतन्न सर्वविषयमित्येतावन्मात्रमत्र प्रतिपाद्यते। यथा प्रातरुत्थाय इति श्रुतौन भृशं वदेत् इत्यादिकं किञ्चित्साधारणं कि़ञ्चिदसाधारणम्। कुतोऽस्यासाधारण्यं कल्प्यते इत्यत आह -- वायुजयादीति। अतो न तत्सर्वसाधारणमिति शेषः। तर्हि को विशेषोऽन्येषां येन वायुजयादिक्लेशमधिकमनुभवन्ति इत्यत आह -- तद्वतां त्विति। निपुणानां वायुजयादौ। कथञ्चिदल्पेत्यर्थः।,किञ्चिच्छीघ्रं चेत्यपि ग्राह्यम्। अत्र प्रमाणान्याह -- उक्तमिति। यथा यथार्थं बोधम्। धिष्ण्यं मन्दिरम्। इन्द्रियं त्वां विशन्त्येव न तु त इवाञ्जसा। तद्भावितास्तेन भगवता वासिताः। एतन्मुक्तिलक्षणं फलम्। तेजो नारायणाख्यम्। ईरः समीरः। ध्रुवं ब्रह्माप्यते तैः।
।।8.10।।वायुजयादियोगयुक्तानां मृतिकाले कर्तव्यमाह विशेषतः -- प्रयाणकाल इति। वायुजयादिरहितानामपि ज्ञानभक्तिवैराग्यादिसम्पूर्णानां भवत्येव मुक्तिः। तद्वतां त्वीषज्ज्ञानाद्यसम्पूर्णनामपि निपुणानां तद्बलात्कथञ्चिद्भवतीति विशेषः। उक्तं च भागवते [3।5।4546।]पानेन ते देव कथासुधायाः प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये। वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं यथाऽञ्जसा त्वापुरकुण्ठधिष्ण्यम्। तथाऽपरे त्वात्मसमाधियोगबलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम्। त्वामेव धीराः पुरुषं विशन्ति तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते इति।ये तु तद्भाविता लोका (केह्ये) एकान्तित्वं समाश्रिताः। एतदभ्यधिकं तेषां तत्तेजः प्रविशन्त्युत [मा.भा.12।334।44] इति च मोक्षधर्मे।सम्पूर्णानां भवेन्मोक्षो विरक्तिज्ञानभक्तिभिः। नियमेन तथापीरजयादियुतयोगिनाम्। वश्यत्वान्मनसस्त्वीषत्पूर्वमप्याप्यते ध्रुवम् इति च व्यासयोगे।
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।8.10।।
প্রযাণকালে মনসাচলেন ভক্ত্যা যুক্তো যোগবলেন চৈব৷ ভ্রুবোর্মধ্যে প্রাণমাবেশ্য সম্যক্ স তং পরং পুরুষমুপৈতি দিব্যম্৷৷8.10৷৷
প্রযাণকালে মনসাচলেন ভক্ত্যা যুক্তো যোগবলেন চৈব৷ ভ্রুবোর্মধ্যে প্রাণমাবেশ্য সম্যক্ স তং পরং পুরুষমুপৈতি দিব্যম্৷৷8.10৷৷
પ્રયાણકાલે મનસાચલેન ભક્ત્યા યુક્તો યોગબલેન ચૈવ। ભ્રુવોર્મધ્યે પ્રાણમાવેશ્ય સમ્યક્ સ તં પરં પુરુષમુપૈતિ દિવ્યમ્।।8.10।।
ਪ੍ਰਯਾਣਕਾਲੇ ਮਨਸਾਚਲੇਨ ਭਕ੍ਤ੍ਯਾ ਯੁਕ੍ਤੋ ਯੋਗਬਲੇਨ ਚੈਵ। ਭ੍ਰੁਵੋਰ੍ਮਧ੍ਯੇ ਪ੍ਰਾਣਮਾਵੇਸ਼੍ਯ ਸਮ੍ਯਕ੍ ਸ ਤਂ ਪਰਂ ਪੁਰੁਸ਼ਮੁਪੈਤਿ ਦਿਵ੍ਯਮ੍।।8.10।।
ಪ್ರಯಾಣಕಾಲೇ ಮನಸಾಚಲೇನ ಭಕ್ತ್ಯಾ ಯುಕ್ತೋ ಯೋಗಬಲೇನ ಚೈವ. ಭ್ರುವೋರ್ಮಧ್ಯೇ ಪ್ರಾಣಮಾವೇಶ್ಯ ಸಮ್ಯಕ್ ಸ ತಂ ಪರಂ ಪುರುಷಮುಪೈತಿ ದಿವ್ಯಮ್৷৷8.10৷৷
പ്രയാണകാലേ മനസാചലേന ഭക്ത്യാ യുക്തോ യോഗബലേന ചൈവ. ഭ്രുവോര്മധ്യേ പ്രാണമാവേശ്യ സമ്യക് സ തം പരം പുരുഷമുപൈതി ദിവ്യമ്৷৷8.10৷৷
ପ୍ରଯାଣକାଲେ ମନସାଚଲେନ ଭକ୍ତ୍ଯା ଯୁକ୍ତୋ ଯୋଗବଲେନ ଚୈବ| ଭ୍ରୁବୋର୍ମଧ୍ଯେ ପ୍ରାଣମାବେଶ୍ଯ ସମ୍ଯକ୍ ସ ତଂ ପରଂ ପୁରୁଷମୁପୈତି ଦିବ୍ଯମ୍||8.10||
prayāṇakālē manasā.calēna bhaktyā yuktō yōgabalēna caiva. bhruvōrmadhyē prāṇamāvēśya samyak sa taṅ paraṅ puruṣamupaiti divyam৷৷8.10৷৷
ப்ரயாணகாலே மநஸாசலேந பக்த்யா யுக்தோ யோகபலேந சைவ. ப்ருவோர்மத்யே ப்ராணமாவேஷ்ய ஸம்யக் ஸ தஂ பரஂ புருஷமுபைதி திவ்யம்৷৷8.10৷৷
ప్రయాణకాలే మనసాచలేన భక్త్యా యుక్తో యోగబలేన చైవ. భ్రువోర్మధ్యే ప్రాణమావేశ్య సమ్యక్ స తం పరం పురుషముపైతి దివ్యమ్৷৷8.10৷৷
8.11
8
11
।।8.11।। वेदवेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं, वीतराग यति जिसको प्राप्त करते हैं और साधक जिसकी प्राप्तिकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, वह पद मैं तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा।
।।8.11।। वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा।।
।।8.11।। इस श्लोक में जो कि एक प्रसिद्ध उपनिषद् के मन्त्र का स्मरण कराता है भगवान् श्रीकृष्ण लक्ष्य की स्तुति करते हुए वचन देते हैं कि वे अगले श्लोकों में पूर्णत्व के परम लक्ष्य तथा तत्प्राप्ति के उपायों का वर्णन करेंगे।ध्यानसाधना में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए मन की योग्यता अत्यावश्यक होती है। इस योग्यता के सम्पादन के लिए प्रायः सभी उपनिषदों में प्रणवोपासना (ओंकारोपासना) का अनेक स्थानों पर उपदेश दिया गया है। पौराणिक युग से इस उपासना का स्थान श्रद्धाभक्तिपूर्वक किये जाने वाले ईश्वर के साकार रूप या अवतारों के ध्यान पूजा आदि ने ले लिया है। इस प्रकार के ध्यान का प्रयोजन और उपयोगिता वही है जो वैदिक उपासनाओं की है।यहाँ साधक को अनेक प्रकार के प्रतिबन्धों की सूचनाओं और आवश्यक सावधानियों का निर्देश दिया गया है जिससे उसकी आध्यात्मिक तीर्थयात्रा अधिक सरल और आनन्दप्रद हो सके। साधारणतः जिन विघ्नों की शिकायत साधक करते हैं वे सब विघ्न अनात्म उपाधियों से हुए तादात्म्य के कारण ही आते हैं। इन उपाधियों के तादात्म्य से मन को परावृत्त करने में वह स्वयं को असमर्थ पाता है। आत्मोन्नति के शास्त्र के रूप में वेदान्त के लिए आवश्यक है कि यह साधक को ध्यान की विधि बताने के साथसाथ सम्भावित विघ्नों का भी संकेत देकर उनसे सुरक्षित रहने के उपायों का भी वर्णन करे। यदि साधक को इनका सम्पूर्ण ज्ञान हो तो शीघ्र ही वह अपनी सुरक्षा कर सकता है। यह श्लोक यह इंगित करता है कि आत्मसंयम और वैराग्य के द्वारा किस प्रकार इस मार्ग पर सुखपूर्वक अग्रसर हुआ जा सकता है।इसी अध्याय में ब्रह्म की लाक्षणिक परिभाषा देते हुए उसे अक्षर कहा गया था। भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं कि जो वीतराग यति हैं वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इसी अक्षर ब्रह्म में प्रवेश करते हैं।वीतरागा सम्पूर्ण गीता संन्यास का गीत हैं परन्तु यह मन्दबुद्धि पुरुष का अरचनात्मक संन्यास नहीं वरन् विवेक जनित वैराग्य है जो सर्वत्र एवं समस्त प्रगति और विकास का अग्रदूत है कामनाओं का संन्यास बुद्धि की स्वाभाविक परिपक्वता का फल है मन की प्रवृत्तियों का दमन नहीं। नईनई खिली हुई कलियाँ कुछ समय पश्चात् अपनी कोमलसुन्दर पंखुड़ियों के परिधान को त्यागकर शोभनीयता का संन्यास व्यक्त करके नग्नावस्था में खड़ी रहती हैं। परन्तु प्रकृति में यह तभी होता है जब फूलों पर सेचन क्रिया सम्पन्न होकर फल सृजन की क्रिया प्रारम्भ हो गई हो। इन फूलों पर दृष्टिपात करने वाले एक सामान्य पुरुष की दृष्टि से पंखुड़ियों का इस प्रकार बिखर जाना फूल का महान त्याग अथवा संन्यास हो सकता है किन्तु एक कृषक जानता है कि फूलों का यह त्याग उन्हें सद्यः प्राप्त परिपक्वता का परिणाम है जिसके कारण ये सुन्दर पंखुड़ियाँ स्वतः ही बिखर गई हैं।इसी प्रकार भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के अन्तर्गत निःसन्देह ही संन्यास अथवा वैराग्य की आवश्यकता पर बल दिया गया है परन्तु उसका अर्थ उदास और विषादपूर्ण आत्मत्याग अथवा स्वयं को दण्डित करना नहीं है। किन्हींकिन्हीं धर्मों में अवश्य ही इस प्रकार के त्याग का प्रचार एवं अभ्यास किया जाता है। उपनिषदों के ऋषियों ने सदा सम्यक् विवेक जनित वैराग्य का ही उपदेश दिया है तथा उसका आग्रह किया है। इसलिए वीतरागाः शब्द से उन साधकों को समझना चाहिए जो विषयों की तुच्छता एवं जीवन के परम लक्ष्य की श्रेष्ठता समझकर विषयासक्ति से सर्वथा मुक्त हो गये हैं।यह भी सर्वविदित तथ्य है कि इच्छाओं की संख्या जितनी अधिक होगी मन में विक्षेप भी उतना ही अधिक होगा। विक्षेपों की अधिकता का अर्थ मानसिक क्षमता की न्यूनता है। साधक की ध्यान में सफलता मन की शक्ति पर निर्भर करती है और मनः शान्ति ही वह धन है जिसके द्वारा इस यात्रा की कठिनाइयाँ और कष्ट कम हो सकते हैं। अतः एक नियम के रूप में कहा जा सकता है कि ज्ञान मार्ग में उन पुरुषों को सफलता का अधिक अवसर है जिनमें कामनाओं की संख्या न्यूनतम है।उपासना का क्रम तथा फल बताने के लिए भगवान् कहते हैं --
।।8.11।। व्याख्या--[सातवें अध्यायके उनतीसवें श्लोकमें जो निर्गुण-निराकार परमात्माका वर्णन हुआ था, उसीको यहाँ ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें श्लोकमें विस्तारसे कहा गया है।]
।।8.11।।यदक्षरमिति। सम्यक् गृह्यते निश्चीयते अनेनेति संग्रहः उपायः। तेन उपायेन तत् (S उपायेनैतत) पदमभिधास्ये उपायमत्र सतताभ्यासाय वक्ष्ये।
।।8.11।।यद् अक्षरम् अस्थूलत्वादिगुणकं वेदविदो वदन्ति वीतरागाः च यतयो यद् अक्षरं विशन्ति यद् अक्षरं प्राप्तुम् इच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत् ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।पद्यते गम्यते अनेन इति पदं तद् निखिलवेदान्तवेद्यं मत्स्वरूपम् अक्षरं यथा उपास्यं तथा संक्षेपेण प्रवक्ष्यामि इत्यर्थः।
।।8.11।।येन केनचिन्मन्त्रादिना ध्यानकाले भगवदनुस्मरणे प्राप्ते सत्यभिधानत्वे नियन्तुं स्मर्तव्यत्वेन प्रकृतपरमपुरुषस्य त्रैविद्यवृद्धप्रसिद्ध्या प्रामाणिकत्वमाह -- पुनरपीति। उपायो वक्ष्यमाण ओङ्कारः। अविषये प्रतीचि ब्रह्मणि वेदार्थविदामपि कथं वचनमित्याशङ्क्याविषयत्वमत्यक्त्वैवेति मत्वा श्रुतिमुदाहरति -- तद्वेति। तथापि तस्मिन्नविषये सर्वविशेषशून्ये वचनमनुचितमित्याशङ्क्याह -- सर्वेति। न केवलं विद्वदनुभवसिद्धं यथोक्तं ब्रह्म किंतु मुक्तोपसृप्यतया मुक्तानामपि प्रसिद्धमित्याह -- किञ्चेति। केषां पुनः संन्यासित्वं तदाह -- वीतरागा इति। ज्ञानार्थं ब्रह्मचर्यविधानादपि ब्रह्म ज्ञेयत्वेन प्रसिद्धमित्याह -- यच्चेति। कथं तर्हि यथोक्तं ब्रह्म मम ज्ञातुं शक्यमित्याकुलितचेतसमर्जुनं प्रत्याह -- तत्ते पदमिति।
।।8.11।।इयं त्वधियज्ञप्राप्तिरुक्तयोगिनस्त्रिधोक्ता अक्षरब्रह्मात्मचिन्तकानां ज्ञानिनां तु स एव च लभ्यो भवतीति प्रतिजानंस्तदुपासकानाह -- यदक्षरमिति। वेदविदो ब्राह्मणाः एतद्वै तदक्षरं गार्गि इत्यभिवदन्ति [बृ.उ.3।8।8]। प्रायो वेदविदां वादोऽक्षरपर्यवसायीति गम्यते। यतयो वीतरागाः परमहंसाः यत् विशन्ति एकत्वमाप्नुवन्तीति सन्न्यासिनां प्राप्यतयोक्तम्।यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति इति ब्रह्मचारिणां तदक्षरस्वरूपं मत्पदस्वरूपत्वात्पदम्चैद्ये च सात्त्वतपतेश्चरणं प्रविष्टे इति वाक्यात्अन्तर्याम्यवतारादिरूपे पादत्वमस्य हि इति निबन्धाच्चरणरूपमेतत् ते सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये तेषां गम्यमिति वक्ष्यामीत्यर्थः।
।।8.11।।इदानीं येनकेनचिदभिधानेन ध्यानकाले भगवदनुस्मरणे प्राप्तेसर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् इत्यादिश्रुतिप्रतिपादितत्वेन प्रणवेनैवाभिधानेन तदनुस्मरणं कर्तव्यं नान्येन मन्त्रादिनेति नियन्तुमुपक्रमते -- यदक्षरमविनाशि ओंकाराख्यं ब्रह्म वेदविदो वदन्तिएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् इत्यादिवचनैः सर्वविशेषनिवर्तनेन प्रतिपादयन्ति। न केवलं प्रमाणकुशलैरेव प्रतिपन्नं किंतु मुक्तोपसृप्यतया तैरप्यनुभूतमित्याह -- विशन्ति स्वरूपतया सम्यग्दर्शनेन यदक्षरं यतयो यत्नशीलाः संन्यासिनो वीतरागा निस्पृहाः। न केवलं सिद्धैरनुभूतं साधकानामपि सर्वोऽपि प्रयासस्तदर्थ इत्याह -- यदिच्छन्तो ज्ञातुं नैष्ठिका ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्यं गुरुकुलवासादि तपश्चरन्ति यावज्जीवं तदक्षराख्यं पदं पदनीयं ते तुभ्यं संग्रहेण संक्षेपेणाहं प्रवक्ष्ये प्रकर्षेण कथयिष्यामि यथा तव बोधो भवति तथा। अतस्तदक्षरं कथं मया ज्ञेयमित्याकुलो माभूरित्यभिप्रायः। अत्र च परस्य ब्रह्मणो वाचकरूपेण प्रतिमावत्प्रतीकरूपेण चयः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्यनेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत स तमधिगच्छति इत्यादिवचनैर्मन्दमध्यमबुद्धीनां क्रममुक्तिफलकमुपासनमुक्तं तदेवेहापि विवक्षितं भगवता। अतो योगधारणासहितमोंकारोपासनं तत्फलं स्वस्वरूपं ततोऽपुनरावृत्तिस्तन्मार्गश्चेत्यर्थजातमुच्यते यावदध्यायसमाप्ति।
।।8.11।।केवलादभ्यासयोगादपि प्रणवाधारमभ्यासमन्तरङ्गं विधित्सुः प्रतिजानीते -- यदक्षरमिति। यदक्षरं वेदान्तज्ञा वदन्तिएतस्य वाक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः इति श्रुतेः। वीतो रागो येभ्यस्ते वीतरागा यतयः प्रयत्नवन्तो यद्विशन्ति। यच्च ज्ञातुमिच्छन्तो गुरुकुले ब्रह्मचर्यं चरन्ति। तत्ते तुभ्यं पदं पद्यते गम्यत इति पदं प्राप्यं संग्रहरेण संक्षेपेण प्रवक्ष्ये। तत्प्राप्त्युपायं कथयिष्यामीत्यर्थः।
।।8.11।।अथ मन्दप्रयोजनोक्तपरव्याख्यातिक्षेपाययदक्षरम् इत्यादिश्लोकत्रयस्यार्थमाह -- अथेति। स्मरणशब्दोऽत्रोपासनस्यान्तिमप्रत्ययस्य च सङ्ग्राहकः उभयोरपि स्मृतिविशेषत्वात्। नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम् [यजुःका.3।55।7] इत्युक्तप्रमाणान्तरागोचरत्वपरेणवेदविदो वदन्ति इत्यनेन सूचितंवेदोक्तप्रकारकथनम् -- अस्थूलत्वादिगुणकमिति। अस्थूलमनण्वह्रस्वम् [बृ.उ.3।8।8] इत्यादिश्रुतिरिह विवक्षिता।ब्रह्मचर्यं ऊर्ध्वरेतस्त्वादिकम्। यद्वा अथ यद्यज्ञ इत्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तत् ৷৷. अथ यत्सत्रायणमित्याचक्षते ৷৷. अथ यन्मौनमित्याचक्षते ৷৷. अथ यदरण्यायनमित्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तत् [छां.उ.8।5।123] इति श्रुतेः ब्रह्मप्राप्त्यर्था या काचिदपि चर्या ब्रह्मचर्यम्। वीतरागा यतय एव यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति [कठो.2।15] इत्यत्रापि कर्तारः। एतेन फलोपाययोः प्रदर्शनम्। पदशब्दस्यात्र रूढार्थानुपपत्तेरुपपन्नं योगमाह -- पद्यत इति। अत्र पदशब्देन ज्ञानविषयत्वमुखेन उपास्यत्वादिकमभिप्रेतमित्याह -- गम्यते चेतसेति। यत्तच्छब्दाभिप्रेतां प्रसिद्धिमाह -- तन्निखिलेति। अक्षरशब्दस्यात्र विकारादिदोषरहितपरमात्मविषयत्वात्मत्स्वरूपमित्युक्तम्। स्वासाधारणं रूपमित्यर्थः। अक्षररूपपरमात्मोपासनमत्राक्षरस्वरूपजीवात्मप्राप्त्यर्थम्।
।।8.11।।ननु भक्तियुक्ता अपि तदेव प्राप्नुवन्ति योगयुक्ता अपि च तदा तयोः को विशेषः इत्याकाङ्क्षायां तयोः प्राप्यरूपमाह -- यदक्षरमिति। वेदविदो वेदान्तज्ञा यदक्षरं वदन्ति यत् वीतरागो विरागिणो यतयः सर्वत्यागादिप्रयत्नवन्तो विशन्ति यत्रैक्यं प्राप्नुवन्ति यदिच्छन्तो यत्स्वरूपज्ञानेन प्राप्तीच्छवः ब्रह्मचर्यमिन्द्रियनिग्रहं गुरुकुले चरन्ति तत्पदं तेषां प्राप्यं ते तुभ्यं सङ्ग्रहेण सङ्क्षेपेण ज्ञानार्थं प्रवक्ष्ये कथयिष्यामीत्यर्थः।
।।8.11।।भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्येत्युक्तं तत्किं कृत्वा कर्तव्यं तत्कृत्वा च किं कर्तव्यमित्येतद्वयं वदिष्यंस्तत्र प्रतीकत्वेन चिन्त्यं प्रणवं तावद्वाच्यवाचकयोरभेदविवक्षया स्तौति -- यदक्षरं प्रणवाख्यं वाचकं वेदविदो वेदादौ वदन्ति। यद्वा यदक्षरं ब्रह्म तद्वाच्यंएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् इत्येवंलक्षणं वा वेदविद उपनिषद्विदो वदन्ति यच्च यतयो विशन्ति ब्रह्मप्रतीकत्वेन शरणीकुर्वन्ति पक्षे सम्यग्दर्शने सति सरित्सागरन्यायेन यत्प्रविशन्ति यतयः। यत् अक्षरमिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्तीति पक्षद्वयेऽपि समानम्। तत्ते पदं वर्णत्रयात्मकं पदनीयं वा स्थानं विष्णोः परमं पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये। अयं च वाच्यवाचकयोरभेदः श्रुतिच्छायया गम्यते।अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात् इति सर्वधर्मातीतं ब्रह्म प्रकृत्यसर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्। इत्योंकारेणोपसंहारात्। तत्फलं च प्रतीकभावात्। ओंकारं प्रतीकत्वेन प्रकल्प्य तद्वारा शुद्धं शबलं वा ब्रह्म प्रतिपत्तव्यम्। तथा च श्रुत्यन्तरेएतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः इत्युपक्रम्यतस्मादेवंविद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति इति दृष्टम्। आयतनं शालग्रामवत्प्रतीकं तेन।
।।8.11।।इदानीं येन केचचिन्मन्त्रादिना ध्यानकाले भगवदनुस्मरणे प्राप्तेस यो ह वैतद्भगवन्मुष्येष्वाप्रायणं तमोंकारमभिध्यायीत कतमं वा स तेन लोकं जयति तस्मै सहोवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः इत्युपक्रम्ययः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीतप्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्।अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात्इतचोपक्रम्यसर्वे वेदा यत्पदभामन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् इत्यादिवचनैः परस्य ब्रह्मणो वाचरुपेण प्रतिभावत्प्रतीकरुपेण च परब्रह्मप्राप्तिसाधनत्वेन मन्दमध्यमबुद्धीनां विवक्षितस्योंकारोपासनस्य परस्य ब्रह्मणो वाचकरुपेण प्रतिभावत्प्रतीकरुपेण च परब्रह्मप्राप्तिसाधनत्वेन मन्दमध्यमबुद्धीनां विवक्षितस्योकारोपासनस्य कालान्तरमुक्तफलं यदुक्तं तदेवेहापीत्योंकारेण भगवान्स्मर्तव्य इत्याशयेनाह -- यदित्यादिना। यदक्षरं न क्षरतीत्यक्षरं अविनाशि वेदविदो वेदार्थज्ञा वदन्ति।तद्वा एतदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्ति इति श्रुतेः।अस्थूलमनण्वह्नस्वमदीर्घम्अशब्दमस्पर्शमरुपमव्ययम् इत्यादिना सर्वविशेषनिवृत्तत्वेनाभिवदनतीत्यर्थः। न केवलमाभिवदन्त्येवापि तु सभ्यग्दर्शनप्राप्तौ यतयो यत्नशीलाः संन्यासिनो वीतः अपगतो राग इत उपलक्षणं रागादिर्येभ्यस्ते वीतरागाः। रागस्यैवोपादानं तु द्वेषादीनां मूलभूतो रागग एवेत्यभिप्रायेण। यद्विशन्ति प्रविशन्ति सभ्यग्ज्ञानप्राप्तौ सत्यां यदिच्छन्तो ज्ञातुमिति शेषः। ब्रह्मचर्यं गुरौ चरन्तितदेतद्वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति इतिश्रुतेः तत्पदं ते संक्षेपेण प्रवक्ष्ये कथयिष्यामि।
8.11 यत् which? अक्षरम् imperishable? वेदविदः knowers of the Vedas? वदन्ति declare? विशन्ति enter? यत् which? यतयः the selfcontrolled (ascetics or Sannyasins)? वीतरागाः freed from attachment? यत् which? इच्छन्तः desiring? ब्रह्मचर्यम् celibacy? चरन्ति practise? तत् that? ते to thee? पदम् goal? संग्रहेण in brief? प्रवक्ष्ये (I) will declare.Commentary The Supreme Being which is symbolised by the sacred monosyllable Om or the Pranava is the highest step or the supreme goal of man.The same ideas are expressed in the Kathopanishad. Yama (the God of Death) said to Nachiketas? The goal which all the Vedas speak of? which all penances proclaim and wishing for which they lead the life of celibacy? that goal (world) I will briefly tell thee. It is Om. Satyakama the son of Sibi estioned Pippalada? O Bhagavan? if some one among men meditates here until death on the syllable Om? what world does he obtain by that Pippalada replied? O Satyakama? the syllable Om is indeed the higher and the lower Brahman. He who meditates on the higher Purusha with this syllable Om of three Matras (units) is led up by the Samaverses to the Brahmaloka or the world of Brahma. (Prasnopanishad)Pranava or Om is considered either as an expression of the Supreme Self or Its symbol like anidol (Pratika). It serves persons of dull and middling intellects as a means for realising the Supreme Self.Chant Om three times at the commencement of your meditation you will find concentration of mind easier.
8.11 That which is declared Imperishable by those who know the Vedas, that which the self-controlled (ascetics or Sannyasins) and passion-free enter, that desiring which celibacy is practised that goal I will declare to thee in brief.
8.11 Now I will speak briefly of the imperishable goal, proclaimed by those versed in the scriptures, which the mystic attains when free from passion, and for which he is content to undergo the vow of continence.
8.11 I shall speak to you briefly of that immutable Goal which the knowers of the Vedas declare, into which enter the deligent ones free from attachment, and aspiring for which people practise celibacy.
8.11 Pravaksye, I shall speak; te, to you; samgrahena, briefly; tat, of that; which is called the aksaram, immutable-that whch does not get exhausted, which is indestructible; padam, Goal to be reached; yat, which; veda-vidah, the knowers of the Vedas, the knowers of the purport of the Vedas; vedanti, declare, speak of It as opposed to all alifications-'It is neither gross nor minute' (Br. 3.8.8) etc.-, in accordance with the Upanisadic text, 'O Gargi, the knowers of Brahman say this Immutable (Brahman) is that' (ibid); and further, yat, into which, after the attainment of complete realization; visanti, enter; yatayah, the diligent ones, the monks; who have become vita-ragah, free from attachment; and icchantah, aspiring to know (-to know being supplied to complete the sense-); yat, which Immutable; people caranti, practise; brahmacaryam, celibacy-at the teacher's house. Commencing with, '"O venerable sir, which world does he really win thery who, among men, intently meditates on Om in that wonerful way till death?" To him he said, "O Satyakama, this very Brahman that is (known as) the inferior and superior is but this Om"' (pr.5.1-2), it has been stated, 'Again, anyone who meditates on the supreme Purusa with the help of this very syllable Om, as possessed of three letters,৷৷.he is lifted up to the world of Brahma (Hiranyagarbha) by the Sama-mantras,' (op.cit.5) etc. Again, beginning with '(Tell me of that thing which you see as) different from virtue, different from vice,' it has been stated, 'I tell you briefly of that goal which all the Vedas with one voice propound, which all the austerities speak of, and wishing for which people practise Brahmacarya: it is this, viz Om' (Ka.1.2.14-15), etc. In the above otations, Om which is going to be spoken of is presented as a name of this supreme Brahman, and also as Its symbol like an image. This has been done as a means to meditation on it (Om) for the attainment of the supreme Brahman by poeple of low and mediocre intellect, in as much as this leads to Liberation in course of time. Here also that very meditation on Om in the manner stated above-which is the means of attaining the supreme Brahman introduced in, '(He who meditates on) the Omniscient, the Ancient,' and in, '(I shall speak to you birefly of that immutable Goal) which the knowers of the Vedas declare,' and which (meditation) leads to Liberation in due course [Realization of Brahman leads to immediate Liberation (sadyomukti, whereas meditation (contemplation, upasana) leads to gradual Liberation (krama-mukti).-Tr.]-has to be spoken of along with 'adherence to yoga' as also whatever is connected directly or indirectly with it. For this purpose the following text is begun:
8.11. That Unchanging One which the Veda-knowers speak of; Which the passion-free ascetics enter into; seeking Which they practise celibacy (or spiritual life); that Goal together with means [to reach It] I shall tell you.
8.11 Yad aksaram etc. A means is called sangraha because by using this, the end is grasped i.e., determined. That Goal, together with means I shall tell you : Let me tell you now the means for [your] constant practice.
8.11 I shall show you briefly that goal which the knowers of the Veda call 'the imperishable,' i.e., as endowed with attributes like non-grossness etc., - that imperishable which 'the ascetics freed from passion enter'; that imperishable 'desiring to attain which men practise continence'. What is attained by the mind as its goal is called 'pada'. I shall tell you briefly My essential nature which is beyond all description and which is explained in the whole of Vedanta and which is to be meditated upon. Such is the meaning.
8.11 I shall speak to you briefly of that immutable Goal which the knowers of the Vedas declare, into which enter the deligent ones free from attachment, and aspiring for which people practise celibacy.
।।8.11।।फिर भी भगवान् आगे बतलाये जानेवाले उपायोंसे प्राप्त होनेयोग्य और वेदविदो वदन्ति इत्यादि विशेषणोंद्वारा वर्णन किये जानेयोग्य ब्रह्मका प्रतिपादन करते हैं --, हे गार्गि ब्राह्मणलोग उसी इस अक्षरका वर्णन किया करते हैं इस श्रुतिके अनुसार वेदके परम अर्थको,जाननेवाले विद्वान् जिस अक्षरका अर्थात् जिसका कभी नाश न हो ऐसे परमात्माका वह न स्थूल है न सूक्ष्म है इस प्रकार सब विशेषोंका निराकरण करके वर्णन किया करते हैं तथा जिनकी आसक्ित नष्ट हो चुकी है ऐसे वीतराग यत्नशील संन्यासी यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति हो जानेपर जिसमें प्रविष्ट होते हैं। एवं जिस अक्षरको जानना चाहनेवाले ( साधक ) गुरुकुलमें ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया करते हैं वह अक्षरनामक पद अर्थात् प्राप्त करनेयोग्य स्थान मैं तुझे संग्रहसे -- संक्षेपसे बतलाता हूँ। संग्रह संक्षेपको कहते हैं। सत्यकामके यह पूछनेपर कि हे भगवन् मनुष्योंमेंसे वह जो कि मरणपर्यन्त ओंकारका भली प्रकार ध्यान करता रहता है वह उस साधनसे किस लोकको जीत लेता है पिप्पलाद ऋषिने कहा कि हे सत्यकाम यह ओंकार ही निःसन्देह परब्रह्म है और यही अपर ब्रह्म भी है। इस प्रकार प्रसङ्ग आरम्भ करके फिर जो कोई इस तीन मात्रावाले ओम् इस अक्षरद्वारा परम पुरुषकी उपासना करता रहता है। इत्यादि वचनोंसे ( प्रश्नोपनिषद्में ) तथा जो धर्मसे विलक्षण है और अधर्मसे भी विलक्षण है इस प्रकार प्रसङ्ग आरम्भ करके फिर समस्त वेद जिस परमपदका वर्णन कर रहे हैं समस्त तप जिसको बतला रहे हैं तथा जिस परमपदको चाहनेवाले ब्रह्मचर्यका पालन किया करते हैं वह परमपद संक्षेपसे तुझे बतलाऊँगा वह है ओम् ऐसा यह ( एक अक्षर )। इत्यादि वचनोंसे ( कठोपनिषद्में )। परब्रह्मका वाचक होनेसे एवं प्रतिमाकी भाँति उसका प्रतीक ( चिह्न ) होनेसे मन्द और मध्यम बुद्धिवाले साधकोंके लिये जो परब्रह्मपरमात्माकी प्राप्तिका साधनरूप माना गया है उस ओंकारकी कालान्तरमें मुक्तिरूप फल देनेवाली जो उपासना बतलायी गयी है,
।।8.11।। -- यत् अक्षरं न क्षरतीति अक्षरम् अविनाशि वेदविदः वेदार्थज्ञाः वदन्ति तद्वा एतदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्ति (बृ0 उ0 3।8।8) इति श्रुतेः सर्वविशेषनिवर्तकत्वेन अभिवदन्ति अस्थूलमनणु (बृ0 उ0 3।8।8) इत्यादि। किञ्च -- विशन्ति प्रविशन्ति सम्यग्दर्शनप्राप्तौ सत्यां यत् यतयः यतनशीलाः संन्यासिनः वीतरागाः वीतः विगतः रागः येभ्यः ते वीतरागाः। यच्च अक्षरमिच्छन्तः -- ज्ञातुम् इति वाक्यशेषः -- ब्रह्मचर्यं गुरौ चरन्ति आचरन्ति तत् ते पदं तत् अक्षराख्यं पदं पदनीयं ते तव संग्रहेण संग्रहः संक्षेपः तेन संक्षेपेण प्रवक्ष्ये कथयिष्यामि।।स यो ह वै तद्भगवन्मनुष्येषु प्रायणान्तमोंकारमभिध्यायीत कतमं वाव स तेन लोकं जयतीति। तस्मै स होवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः इत्युपक्रम्य यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत (प्र0 उ0 5।1।2।5।। -- स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकम् इत्यादिना वचनेन अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात् इति च उपक्रम्य सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति। तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् (क0 उ0 1।2।14.15) इत्यादिभिश्च वचनैः परस्य ब्रह्मणो वाचकरूपेण प्रतिमावत् प्रतीकरूपेण वा परब्रह्मप्रतिपत्तिसाधनत्वेन मन्दमध्यमबुद्धीनां विवक्षितस्य ओंकारस्य उपासनं कालान्तरे मुक्तिफलम् उक्तं यत् तदेव इहापि कविं पुराणमनुशासितारम् (गीता 8।9) यदक्षरं वेदविदो वदन्ति (गीता 8।11) इति च उपन्यस्तस्य परस्य ब्रह्मणः पूर्वोक्तरूपेण प्रतिपत्त्युपायभूतस्य ओंकारस्य कालान्तरमुक्तिफलम् उपासनं योगधारणासहितं वक्तव्यम् प्रसक्तानुप्रसक्तं च यत्किञ्चित् इत्येवमर्थः उत्तरो ग्रन्थ आरभ्यते --
।।8.11।।क्रममुक्त्यर्थं ओङकारोपासनमुच्यत इत्यन्यथाव्याख्यानमपाकर्तुमाह -- तदेवेति। वायुजययुतानां मरणकाले कर्तव्यमेवमामनुस्मरन् [8।13] इत्यादिविरोधादिति भावः। ननु पदत्वं शब्दस्यैवोंकारस्य सम्भवति न विष्णोरित्यत आह -- प्राप्यत इति। कर्मण्यकारप्रत्ययः। पदं स्वरूपमिति प्रयोगप्रदर्शनम्।
।।8.11।।तदेव ध्येयं प्रपञ्चयति -- यदक्षरमित्यादिना। प्राप्यते मुमुक्षुभिरिति पदम्। पद गतौ [4।63] इति धातोः। तद्विष्णोः परमं पदम् [ऋक्सं.1।2।6।5कठो.3।9] इति श्रुतेश्च।गीयसे पदमित्येव मुनिभिः पद्यसे यतः इति वचनान्नारदीये।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।8.11।।
যদক্ষরং বেদবিদো বদন্তি বিশন্তি যদ্যতযো বীতরাগাঃ৷ যদিচ্ছন্তো ব্রহ্মচর্যং চরন্তি তত্তে পদং সংগ্রহেণ প্রবক্ষ্যে৷৷8.11৷৷
যদক্ষরং বেদবিদো বদন্তি বিশন্তি যদ্যতযো বীতরাগাঃ৷ যদিচ্ছন্তো ব্রহ্মচর্যং চরন্তি তত্তে পদং সংগ্রহেণ প্রবক্ষ্যে৷৷8.11৷৷
યદક્ષરં વેદવિદો વદન્તિ વિશન્તિ યદ્યતયો વીતરાગાઃ। યદિચ્છન્તો બ્રહ્મચર્યં ચરન્તિ તત્તે પદં સંગ્રહેણ પ્રવક્ષ્યે।।8.11।।
ਯਦਕ੍ਸ਼ਰਂ ਵੇਦਵਿਦੋ ਵਦਨ੍ਤਿ ਵਿਸ਼ਨ੍ਤਿ ਯਦ੍ਯਤਯੋ ਵੀਤਰਾਗਾ। ਯਦਿਚ੍ਛਨ੍ਤੋ ਬ੍ਰਹ੍ਮਚਰ੍ਯਂ ਚਰਨ੍ਤਿ ਤਤ੍ਤੇ ਪਦਂ ਸਂਗ੍ਰਹੇਣ ਪ੍ਰਵਕ੍ਸ਼੍ਯੇ।।8.11।।
ಯದಕ್ಷರಂ ವೇದವಿದೋ ವದನ್ತಿ ವಿಶನ್ತಿ ಯದ್ಯತಯೋ ವೀತರಾಗಾಃ. ಯದಿಚ್ಛನ್ತೋ ಬ್ರಹ್ಮಚರ್ಯಂ ಚರನ್ತಿ ತತ್ತೇ ಪದಂ ಸಂಗ್ರಹೇಣ ಪ್ರವಕ್ಷ್ಯೇ৷৷8.11৷৷
യദക്ഷരം വേദവിദോ വദന്തി വിശന്തി യദ്യതയോ വീതരാഗാഃ. യദിച്ഛന്തോ ബ്രഹ്മചര്യം ചരന്തി തത്തേ പദം സംഗ്രഹേണ പ്രവക്ഷ്യേ৷৷8.11৷৷
ଯଦକ୍ଷରଂ ବେଦବିଦୋ ବଦନ୍ତି ବିଶନ୍ତି ଯଦ୍ଯତଯୋ ବୀତରାଗାଃ| ଯଦିଚ୍ଛନ୍ତୋ ବ୍ରହ୍ମଚର୍ଯଂ ଚରନ୍ତି ତତ୍ତେ ପଦଂ ସଂଗ୍ରହେଣ ପ୍ରବକ୍ଷ୍ଯେ||8.11||
yadakṣaraṅ vēdavidō vadanti viśanti yadyatayō vītarāgāḥ. yadicchantō brahmacaryaṅ caranti tattē padaṅ saṅgrahēṇa pravakṣyē৷৷8.11৷৷
யதக்ஷரஂ வேதவிதோ வதந்தி விஷந்தி யத்யதயோ வீதராகாஃ. யதிச்சந்தோ ப்ரஹ்மசர்யஂ சரந்தி தத்தே பதஂ ஸஂக்ரஹேண ப்ரவக்ஷ்யே৷৷8.11৷৷
యదక్షరం వేదవిదో వదన్తి విశన్తి యద్యతయో వీతరాగాః. యదిచ్ఛన్తో బ్రహ్మచర్యం చరన్తి తత్తే పదం సంగ్రహేణ ప్రవక్ష్యే৷৷8.11৷৷
8.12
8
12
।।8.12 -- 8.13।। (इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो 'ऊँ' इस एक अक्षर ब्रह्मका  उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है।
।।8.12।। सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ।।
।।8.12।। See Commentary under 8.13.
।।8.12।। व्याख्या--'सर्वद्वाराणि संयम्य'--(अन्तसमयमें) सम्पूर्ण इन्द्रियोंके द्वारोंका संयम कर ले अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-- इन पाँचों विषयोंसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका-- इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा बोलना, ग्रहण करना, गमन करना, मूत्र-त्याग और मल-त्याग-- इन पाँचों क्रियाओंसे वाणी, हाथ, चरण, उपस्थ और गुदा--इन पाँचों कर्मेन्द्रियोंको सर्वथा हटा ले। इससे इन्द्रियाँ अपने स्थानमें रहेंगी।
।।8.12 -- 8.14।।सर्वद्वाराणीत्यादि योगिन इत्यन्तम्। द्वाराणि इन्द्रियाणि। हृदि इति -- अनेन विषयसंगाभाव उच्यते न तु विष्ठास्थानाधिष्ठानम्। आत्मनः प्राणम् आत्मसारथिम् इच्छाशक्त्यात्मनि मूर्ध्नि सकलतत्त्वातीते धारयन् इति कायनियमः। ओमिति जपन् इति वाङ्नियमः। मामनुस्मरन्निति चेतसोऽनन्यगामिता (S चेतसाऽनन्यगामिता)। यः प्रयादि -- दिनाद्दिनम् (N दिनंदिनं) अपुनरावृत्तये गच्छति। तथा च देहं त्यजन् कथं मे (SN omit मे) पुनरिदं सकलापत्स्थानं शरीरं मा भूयात् इत्येवं यो मामनन्यचेताः स्मरति सततमेव याति जानाति (S omits जानाति) स मद्भावम् मत्स्वरूपम्। न (N नन्वत्र) मुनेः परब्रह्माद्वैतपदोपक्षेपविरोधी उत्क्रान्तौ ( तत् क्रान्तौ K (n) विरोधीति उत्क्रान्तौ भरः) भरः। तथाचोक्तम् -- व्यापिन्यां शिवसत्तायाम् उत्क्रान्तिर्नाम निष्फला।अव्यापिनि शिवे नाम नोत्क्रान्तिः शिवदायिनी।।इति।।यदि वा सतताभ्यासोऽपि यैर्न कृतः तथापि कुतश्चित् स्वतन्त्रेश्वरेच्छादेर्निमित्तादन्त्ये (S omits स्वतन्त्र -- ) एव क्षणे यदा तादृग्भावो जायते तदा अयमुत्क्रान्तिलक्षण उपायः संस्कारान्तरप्रतिबन्धक उक्तः। अत एव,यदक्षरं वेदविदो वदन्ति इत्यादिना अभिधास्ये इत्यन्तेन प्रतिज्ञा कृता क्षणमात्रस्यापि भगवदनुचिन्तनस्य,(S चिन्तनमयस्य) सकलसंस्कारविध्वंसनलक्षणाम् अद्भुतवृत्तिं प्रतिपादयितुम्। यदाहुराचार्यवर्याः,(S omits यदाहु -- इति) -- निमेषमपि यद्येकं क्षीणदोषे करिष्यसि।पदं चित्ते तदा शंभो किं न संपादयिष्यसि।।(स्तवचिन्तामणिः श्लो 114) इति।अत एव प्रयाणकाले स्मरणेन विना खण्डना [ दृष्टा ] इति येषां शङ्का तान् वीतशङ्कान् कर्तुमुक्तम्,अनन्यचेताः सततम् इति अन्यत्र फलादौ साध्ये यस्य न चेत इत्यर्थः। तस्याहं सुलभ इति। तस्य,(S omit तस्य) न किंचित् प्रयाणकालौचित्यपर्येषाम् तीर्थसेवा उत्तरायणम् आयतनसंश्रयः(N आवर्तनसंश्रयः) सत्त्वविशुद्धिः (SK -- विवृद्धिः) सचिन्तकत्वम् (N सचित्तकत्वम्) विषुवदादिपुण्यकालः दिनम् अकृत्रिमपवित्रभूपरिग्रहः स्नेहमलविहीनदेहता शुद्धवस्त्रादिपरिग्रहः (SN omit परि -- ) इत्यादिक्लेशोभ्यर्थनीय इत्यर्थः यत्प्रागुक्तम् -- तीर्थ श्वपचगृहे वा इत्यादि।
।।8.12।।सर्वाणि श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि ज्ञानद्वारभूतानि संयम्य स्वव्यापारेभ्यो विनिवर्त्य हृदयकमलनिविष्टे मयि अक्षरे मनो निरुध्य योगाख्यां धारणां आस्थितः मयि एव निश्चलां स्थितिम् आस्थितः।ओम् इति एकाक्षरं ब्रह्म मद्वाचकं व्याहरन् वाच्यं माम् अनुस्मरन् आत्मनः प्राणं मूर्ध्न्याधाय देहं त्यजन् यः प्रयाति स याति परमां गतिं प्रकृतिवियुक्तं मत्समानाकारम् अपुनरावृत्तिम् आत्मानं प्राप्नोति इत्यर्थःयः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। (गीता 8।2021) इति अनन्तरम् एव वक्ष्यते। एवम् ऐश्वर्यार्थिनः कैवल्यार्थिनश्च स्वप्राप्यानुगुणः भगवदुपासनप्रकार उक्तः। अथ ज्ञानिनो भगवदुपासनप्रकारं प्राप्तिकारं च आह --
।।8.12।।वक्ष्यमाणेनोपायेनेत्युक्तं व्यक्तीकुर्वन्नोंकारद्वारा ब्रह्मोपासनं श्रुत्युक्तमनुक्रामति -- स यो हेति। सत्यकामेनाभिध्यानफलं जिज्ञासुना भगवन्निति पिप्पलादः संबोध्याभिमुखीक्रियते। निपातौ तु प्रसिद्धमर्थमेव द्योतयन्तावभिध्यानस्य फलत्वेन कर्तव्यत्वमावेदयतः। मनुष्येषु मध्ये स योऽधिकृतो मनुष्यस्तत्प्रसिद्धमभिध्यानं यथा सिध्यति तथा सर्ववेदसारभूतमोङ्कारमाभिमुख्येन ध्यायीत। तच्चाभिध्यानमाप्रयाणादिति न्यायेन मरणान्तमनुष्ठेयम्। स चैवमनुतिष्ठन्प्रकृतेनाभिध्यायेन लोकानां जेतव्यानां बहुत्वात्कतमं लोकं जयतीति प्रश्नं पृष्टवते सत्यकामाय पिप्पलादनामा किलाचार्यः प्रतिवचनं प्रोवाच। तत्र प्रथममभिध्येयमोंकारं परापरब्रह्मत्वेन महीकरोति -- एतद्वा इति। त्रिमात्रेणाकारोकारमकारात्मकेनेति यावत्। योऽभिध्यायीत तमेव यथाभिध्यातं पुरुषमधिगच्छतीत्यादिवचनेनोपासनमोंकारस्योक्तमित्यर्थः। प्रश्नश्रुतिवत्कठवल्ली च तत्रैवार्थे प्रवृत्तेत्याह -- अन्यत्रेति। अव्यवधानेनोपनिषदां व्यवधानेन च कर्मश्रुतीनां परस्मिन्नात्मनि पर्यवसानं दर्शयति -- सर्व इति। तपसामपि सर्वेषां चित्तशुद्धिद्वारा तत्रैव पर्यवसानमित्याह -- तपांसीति। तस्यैव च ज्ञानार्थमष्टाङ्गं ब्रह्मचर्यं तत्र तत्र विहितमित्याह -- यदिच्छन्त इति। तस्य पदनीयस्य ब्रह्मणः संक्षेपेण कथनमोंकारद्वारकमिति कथयति -- ओमित्येतदिति। उदाहृतवचनानां तात्पर्यं दर्शयति -- परस्येति। तस्य वाचकरूपेण वा तस्यैव प्रतीकरूपेण वा विवक्षितस्योपासनं यथोक्तैर्वचनैरुक्तमिति संबन्धः। ननु परस्मिन्ब्रह्मणि तत्त्वमस्यादिवाक्यादेवं प्रतिपत्तिरधिकारिणो भविष्यति किमित्युपासनमोङ्कारस्योपन्यस्यते तत्राह -- परेति। यद्यपि विशिष्टस्याधिकारिणो विनैवोपासनमुपनिषद्भ्यो ब्रह्मणि प्रतिपत्तिरुत्पद्यते तथापि मन्दानां मध्यमानां च तद्धीहेतुत्वेनोङ्कारो विवक्षितस्तच्चोपासनं ब्रह्मदृष्ट्या श्रुतिभिरुपदिष्टमित्यर्थः। तस्य क्रममुक्तिफलत्वादनुष्ठेयत्वं सूचयति -- कालान्तरेति। भवत्येवं श्रुतीनां प्रवृत्तिस्तावता प्रकृते किमायातमित्याशङ्क्याह -- उक्तं यदिति। तदेवेहापि वक्तव्यमित्युत्तरेण संबन्धः। उपासनमेवोपास्योपन्यासद्वारा स्फोरयति -- कविमित्यादिना। पूर्वोक्तरूपेणेत्यभिधानत्वेन प्रतीकत्वेन चेत्यर्थः। श्रौतस्योपासनस्यानूद्यमानस्य सोपस्करत्वं संगिरते -- योगेति। तर्हि कथम् -- अनन्यचेताः सततम् इत्यादि वक्ष्यते तत्राह -- प्रसक्तेति। ओंकारोपासनं प्रसक्तं तदनन्तरं तत्फलमनुप्रसक्तं तद्द्वारा चापुनरावृत्त्यादि वक्तव्यकोटिनिविष्टमित्यर्थः। उक्तेऽर्थे समनन्तरग्रन्थमुत्थापयति -- इत्येवमर्थ इति। श्रोत्रादीनां कुत्र द्वारत्वं तत्राह -- उपलब्धाविति। तेषां संयमनं विषयेषु प्रवृत्तानां दोषदर्शनद्वारा तेभ्यो वैमुख्यापादनम्। कोऽयं मनसो हृदये निरोधस्तत्राह -- निष्प्रचारमिति। मनसो विषयाकारवृत्तिं निरुध्य हृदि वशीकृतस्य कार्यं दर्शयति -- तत्रेति। ऊर्ध्वमित्यत्रापि हृदयादिति संबध्यते। सर्वाण्युपलब्धिद्वाराणि श्रोत्रादीनि संनिरुध्य वायुमपि सर्वतो निगृह्य हृदयमानीय ततो निर्गतया सुषुम्नया कण्ठभ्रूमध्यललाटक्रमेण प्राणं मूर्धन्याधाय योगधारणामारूढो ब्रह्म व्याहरन्मां च तदर्थमनुस्मरन्परमां गतिं यातीति संबन्धः।
।।8.12 -- 8.13।।तत्प्राप्तौ साङ्गमुपायमाह -- सर्वद्वाराणीति द्वाभ्याम्। ब्रह्मवादे ममैव नामरूपात्मकत्वादिति योगी मां ँ़इत्येकाक्षररूपमनुस्मरन् तथा व्याहरन्नन्तकाले परमामेतां पदत्वेन निर्दिष्टां गतिं याति।
।।8.12।।तत्र प्रवक्ष्य इत प्रतिज्ञातमर्थं सोपकरणमाह द्वाभ्याम् -- सर्वाणीन्द्रियद्वाराणि संयम्य स्वस्वविषयेभ्यः प्रत्याहृत्य विषयदोषदर्शनाभ्यासात्तत्तद्विमुखतामापादितैः श्रोत्रादिभिः शब्दादिविषयग्रहणमकुर्वन्। बाह्येन्द्रिनिरोधेऽपि मनसः प्रचारः स्यादित्यत आह -- मनो हृदि निरुध्य च अभ्यासवैराग्याभ्यां षष्ठे व्याख्याताभ्यां हृदयदेशे मनो निरुध्य निर्वृत्तिकतामापाद्य च। अन्तरपि विषयचिन्ताकुर्वन्नित्यर्थः। एवं बहिरन्तरुपलब्धिद्वाराणि सर्वाणि संनिरुध्य क्रियाद्वारं प्राणमपि सर्वतो निगृह्य भूमिजयक्रमेण मूर्ध्न्याधाय भ्रुवोर्मध्ये तदुपरि च गुरूपदिष्टमार्गेणावेश्यात्मनो योगधारणामात्मविषयसमाधिरूपां धारणामास्थितः। आत्मन इति देवतादिव्यावृत्त्यर्थम्।
।।8.12।।प्रतिज्ञातमुपायं साङ्गमाह -- सर्वेति द्वाभ्याम्। सर्वाणीन्द्रियद्वाराणि संयम्य प्रत्याहृत्य। चक्षुरादिभिर्बाह्यविषयग्रहणमकुर्वन्नित्यर्थः। मनश्च हृदि निरुध्य। बाह्यविषयस्मरणमकुर्वन्नित्यर्थः। मूर्ध्नि भ्रूवोर्मध्ये प्राणमाधाय योगस्य धारणां स्थैर्यमास्थित आश्रितवान्सन्।
।।8.12।।सर्वद्वाराणि संयम्य इत्यत्र नवद्वारप्रतीतिनिरासाय प्रत्याहारविषयताद्योतनाय चाहसर्वाणि श्रोत्रादीनीति। द्वारानुबन्धरहितस्पर्शनादीन्द्रियाणां कथं द्वारशब्दार्थतेत्यत्रोक्तंज्ञानद्वारभूतानीति। संयमनमत्र शब्दादिविषयौन्मुख्यनिवर्तनमित्यभिप्रायेणाहस्वव्यापारेभ्यो विनिवर्त्येति।मनो हृदि निरुध्य च इत्यत्र हृन्मात्रस्य ध्येयतानुपपन्नेत्यत्रोक्तंहृदयकमलनिविष्टे मय्यक्षर इति। हृच्छब्दोऽत्र तत्रत्यपुरुषलक्षकः अन्यथामामनुस्मरन् इत्यनन्तरोक्तिर्न घटेतेति भावः। अर्थक्रमेण बलवता दुर्बलस्य पाठक्रमस्य बाधमभिप्रेत्यमनो हृदि निरुध्य इत्यस्यानन्तरन्आस्थितो योगधारणाम् इत्यादिकं व्याख्यातम्। प्रत्याहारानन्तरपठितधारणाव्यवच्छेदायाहयोगाख्यां धारणामिति। षष्ठी समासात्समानाधिकरणसमासस्य ग्राह्यत्वं निषादस्थपतिन्यायसिद्धम्।स्थपतिर्निषादः स्यात् शब्दसामर्थ्यात् [पू.मी.6।1।51] इति। धारणाशब्दाधिक्याभिप्रेतमाहमय्येव निश्चलां स्थितिमिति। प्रणवस्य ब्रह्मप्रतिपादकत्वात्ब्रह्म इति व्यपदेश इत्यभिप्रायेणमद्वाचकमित्युक्तम्। मन्त्रस्यार्थविशेषप्रकाशनमुखेनोपकारकत्वमप्यत्र ब्रह्मशब्देन प्रतिपादनाद्विवक्षितमित्यभिप्रायेणवाच्यं मामनुस्मरन्नित्युक्तम्। प्रणवस्य भगवद्वाचकत्वं योगाङ्गत्वादिकं च श्रुतिस्मृत्यादिसिद्धम्। यथा कठवल्ल्यां [2।15] सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् इति।अत्र नाम्ना नामिनो निर्देशः। तथा प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्ल्क्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् [मुं.उ.2।2।4] इति। तथा आत्मानमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासा(द्देवं पश्येन्निगू)त्पश्येद्ब्रह्माग्निगूढवत् [ध्यानबिंदू.22] इति। तथा ओमित्येवं ध्यायथात्मानम् [मुं.उ.2।26] इति। तथा यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत स तेजसि सूर्ये सम्पन्नः। यथा पादोदरस्त्वचा विनि[र्मुच्यत]र्मुक्त एवं ह वै स पाप्मना विनिर्मुक्तः स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकम्। स एतस्माज्जीवघनात्परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते [प्रश्नो.5।5] इति। तथा वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिर्न दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः। स भूय एवेन्धनयोनिगृह्यस्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे।।स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासाद्देवं पश्येन्निगूढवत् [श्वे.उ.1।1314] इति। अत्रैव श्लोकेविष्णुं पश्येद्धृदि स्थितम् [शं.स्मृ.7।16] इति योगयाज्ञवल्क्यपाठः। तथाकांस्यघण्टानिनादस्तु यथा लीयति शान्तये। ओङ्कारस्तु तथा योज्यः शान्तये शान्तिमिच्छता। यस्मिन् स लीयते शब्दस्तत्परं ब्रह्म गीयते [ ] इति। तथाओं खं ब्रह्म खं पुराणम् [बृ.उ.5।1।1] इति। ओमित्येतदक्षरमादौ ৷৷. ब्रह्मास्य पादाश्चत्वारो वेदाश्चतुष्पादिदमक्षरं [परं ब्रह्म] पूर्वाऽस्य मात्रा पृथिव्यकारः इत्यारभ्य प्रथमा रक्तपीता महद्ब्रह्मदैवत्या द्वितीया विद्युमती कृष्णा विष्णुदेवत्या तृतीया शुभाशुभा शुक्ला रुद्रदैवत्या याऽवसानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा सा विद्युमती सर्ववर्णा पुरुषदैवत्या [अ.शिखो.1] इति च। अत्र अर्धमात्राधिदैवतभूतः पुरुष एवावतीर्णावस्थो द्वितीयमात्रादैवत्वेन विष्णुरिति चोक्तः। तथा ओमिति ब्रह्म ओमितीदं सर्वम् [तै.उ.1।8।1] इति ओङ्कार एवेदं सर्वम् [छां.उ.2।23।3] इति। तथा हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः। हृदि त्वमसि यो नित्यं तिस्रो मात्राः परस्तु सः। तस्योत्तरतः शिरो दक्षिणतः पादो य उत्तरतः स ओङ्कार य ओङ्कारः स प्रणवो यः प्रणवः स सर्वव्यापी यः सर्वव्यापी सोऽनन्तः योऽनन्तस्तत्तारं यत्तारं तत्सूक्ष्मं यत्सूक्ष्मं तच्छुक्लं यच्छुक्लं तद्वैद्युतं यद्वैद्युतं तत्परं ब्रह्म [अ.शिरउ.3] इति। अत्र प्रकरणादिवशात् प्रतर्दनविद्यावदन्तरितं शासनमनुसन्धेयम्।मुमुक्षोरुत्क्रमणप्रकरणे च प्रणवः श्रूयते अथ यत्रैतव स्माच्छरीरादुत्क्रामति अथैतैरेव रंश्मिभिरूर्ध्वमाक्रमते सूओमिति वा होद्वामीयते स यावत् क्षिप्येन्मनस्तावदादित्यं गच्छति एतद्वै खलु लोकस्य द्वारं विदुषां प्रपदनं निरोधोऽविदुषा। तदेव श्लोकः -- शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिस्सृतैका। तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति [छां.उ.8।6।5] इति। महाभारते च महेश्वरे वचनम्ओमित्येवं सदा विप्राः पठध्वं ध्यात केशवम् [ह.वं.वि.प.133।10] इति। आह च भगवान्या वल्क्यः -- देवतायाः परायाश्च ह्यालम्बः प्रणवः स्मृतः। कश्चिदाराधनाकामो विष्णोर्भक्त्या करोति वै।।तदाराधनसान्निध्ये प्रतिमां व्यञ्जिकां यथा। धातुद्रव्यादिपाषाणैः कृत्वा भावं निवेशयेत्।।श्रद्धाभक्त्यादराद्यैश्च तस्य देवः प्रसीदति। ओङ्कारेण तथा चात्मा ह्युपास्ते स प्रसीदति। [ ]सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।।मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्।।य एतं प्रणवेनाद्यमक्षरं प्रतिपद्यते। ततोऽक्षरेण वेदेन वेद्यं ब्रह्माधिगच्छति।।एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्। एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मभूयाय कल्पते।।अदृष्टविग्रहो देवो भावग्राह्यो निरामयः। तस्योङ्कारः स्मृतं नाम तेनाहूतः प्रसीदति।।तस्मादोमिति पूर्वं तु कृत्वा युञ्जीत तत्परः। ब्रह्मोङ्कारविधानेन तत्त्वेन प्रतिपद्यते इति। अत्रसर्वद्वाराणि इत्यादिश्लोकयोर्भगवद्वाक्यतया प्रसिद्धयोरुदाहरणात्माम् इति निर्देशस्तद्विषयः। पुनश्चात्र हैरण्यगर्भादिसिद्धान्तेषु प्रणवार्थं प्रपञ्च्यान्तेऽप्याह -- त्रिरात्मा त्रिस्वभावश्च तथा त्रिव्यूह एव च। पञ्चरात्रे तथा ह्येष भगवद्वाचकः स्मृतः। बलं वीर्यं तथा तेजस्त्रिरात्मेति च संज्ञितः। ज्ञानैश्वर्ये तथा शक्तिस्त्रिस्वभाव इति स्मृतः।।सङ्कर्षणोऽथ प्रद्युम्नो ह्यनिरुद्धस्तथैव च। त्रिव्यूह इति निर्दिष्ट ओङ्कारो विष्णुरव्ययः।।भगवद्वाचकः प्रोक्तः प्रकृतेर्वाचकस्तथा। व्यक्ताव्यक्तो वासुदेवः प्रभवः प्रलयस्तथा।।इति। यच्चात्र हैरण्यगर्भकापिलावान्तरतपस्सनत्कुमारब्रह्मिष्ठपाशुपताख्येषु सिद्धान्तेष्वर्थभेदवर्णनं तदपि तत्तदर्थविशेषान्तरितपरमपुरुषपर्यवसानमभिप्रेत्येति मन्तव्यम्। अत एव हि विष्णुप्रतिपादकतयाऽन्तकाले स्मर्तव्यत्वेनोपसंह्रियते -- ओङ्कारं विपुलमचिन्त्यमप्रमेयं सूक्ष्माख्यं ध्रुवमचरं च यत्पुराणम्। तद्विष्णोः पदमपि पद्मजप्रसूतं देहान्ते मम मनसि स्थितिं करोतु इति। प्रणवेनैवात्र भगवदर्चनमुच्यते -- तल्लिङ्गैरर्चयेन्मन्त्रैः सर्वान् देवान् समाहितः। नमस्कारेण पुष्पाणि विन्यसेत्तु यथाक्रमम्।।आवाहनादिकं कर्म यन्न सूक्तं मया त्विह। तत्सर्वं प्रणवेनैव कर्तव्यं चक्रपाणये।।दद्यात्पुरुषसूक्तेन यः पुष्पाण्यप एव वा। अर्चितं स्याज्जगदिदं तेन सर्वं चराचरम्।।विष्णुर्ब्रह्मा च रुद्रश्च विष्णुरेव दिवाकरः। तस्मात्पूज्यतमं नान्यमहं मन्ये जनार्दनात् इति। तथा परमपुरुषसाक्षात्कारकारणतया चात्र प्रणवोपासनप्रकार उच्यते।ओम्भूर्भुवस्सुवर्महर्जनस्तपस्सत्यम् इति वैदिकम्।एतदुच्चार्य वै ब्रह्म परे व्योम्नि नियोजयेत्। हृदयेऽग्निश्च वायुश्च जीवो यः समुदाहृतः।।ओङ्कारं पद्मनाले तु उद्धृत्योपरि योजयेत्। आप्राणाच्छून्यभूतात्तु चेतोङ्गं जीवसंज्ञितम्।।जायते तु यतस्तस्मात्पुनस्तत्र निवेशयेत्। घण्टाशब्दवदोङ्कारमुपासीत समाहितः।।पुरुषं निर्मलं शुभ्रं पश्येद्वै नात्र संशयः इति। योगानुशासनसूत्रं चक्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः [ब्र.सू.1।24]तस्य वाचकः प्रणवः [ब्र.सू.1।27] इति। अतः प्रणवस्य भगवद्वाचकत्वं समाध्युत्क्रमणाद्यवस्थासु तेनैव भगवदनुस्मरणं च सिद्धम्।शतं चैका च हृदयस्य ना़ड्यस्तासां मूर्धानमभिनिस्सृतैका। तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्ङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति [छां.उ.8।6।6] ऊर्ध्वमेकः स्थितस्तेषां यो भित्वा सूर्यमण्डलम्। ब्रह्मलोकमतिक्रम्य तेन याति परां गतिम् [या.स्मृ.3।137] इत्यादिश्रुतिस्मृत्यनुसारान्मुमुक्षोरुत्क्रणौपयिकमिदं मूर्ध्नि प्राणाधानम्।त्यजन् यः प्रयातीति त्यक्त्वा यः प्रयातीत्यर्थः। आत्मार्थिनो ह्यात्मा गन्तव्यः तत्रापुनरावृत्तित्वमात्रात्परमगतित्वोक्तिरित्यभिप्रायेणाह -- प्रकृतीति। ईदृशस्यात्मनः परमगतिशब्देन व्यपदेशो न केवलं प्रकरणवशात् किन्त्वस्मिन्नेवाध्याये तद्विषय एवायं प्रयोगोऽप्यस्तीत्याह -- यः स सर्वेष्विति।
।।8.12।।प्रतिज्ञातस्वरूपमाह द्वाभ्याम् -- सर्वद्वाराणीति। सर्वाणि इन्द्रियद्वाराणि संयम्य वशीकृत्य लौकिकविषयान्मनोनिरुन्धनं कृत्वा मनश्च विकल्पादिधर्मत्यागेन हृदि निरुद्ध्य मूर्ध्नि भ्रुवोर्मध्ये भाग्यस्थाने प्राणमाधाय आत्मनो योगधारणामास्थित आश्रितः सन्।
।।8.12।।भ्रुवोर्मध्ये कथं प्राणमावेशयेदित्यत आह -- सर्वेति। सर्वाणि शब्दादिविषयग्रहणद्वाराणीन्द्रियाणि संयम्य निगृह्य तथा हृदि मनोऽपि निरुध्य तेषां कञ्चुकभूतं प्राणं मूर्धन्यनाड्या सुषुम्नाख्यया मूर्ध्नि भ्रुवोर्मध्ये आधाय कथं योगधारणां योगशास्त्रोक्तां धारणां मनसो देशविशेषनिबन्धिनीं आस्थितः अनुतिष्ठन्सन्।
।।8.12।।सर्वाणि च शब्दादिविषयोपलब्धौ द्वाराणि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि संयम्य तत्तद्विषयेभ्यः संयमनं प्रत्याहरणं कत्वा हृदि हृत्कमले मनो निरुध्य तत्तद्विषयस्मरणान्निरोधनं च कृत्वा। निष्प्रचारमापाद्येतियावत्। तत्र वशीकृतेन मनसा हृद्यादूर्ध्यगामिन्या नाड्योर्ध्वं भूमिकाजयक्रमेणारुह्यात्मनः स्वस्य प्राणं मूर्धन्याधाय संस्थाप्य योगधारणां धारयितुमास्थितः प्रवृत्तः सन् आत्मनो योगधारणामिति वान्वयः।
8.12 सर्वद्वाराणि all gates? संयम्य having controlled? मनः mind? हृदि in the heart? निरुध्य having confined? ट and? मूर्ध्नि in the head? आधाय having placed? आत्मनः of the self? प्राणम् breath? आस्थितः established (in)? योगधारणाम् practice of concentration.Commentary The gates are the senses of knowledge. Closing the gates means control of all senses by the practice of Pratyahara or withdrawal of the consciousness from them. Even if the senses are controlled? the mind will be dwelling on the sensual objects. Therefore the mind is confined or fixed in the lotus of the heart and thery all the thoughts or mental modifications are also controlled. The whole lifreath is now taken up and fixed at the crown of the head (Brahmarandhra or the hole of Brahman).
8.12 Having closed all the gates, confined the mind in the heart and fixed the life-breath in the head, engaged in the practice of concentration.
8.12 Closing the gates of the body, drawing the forces of his mind into the heart and by the power of meditation concentrating his vital energy in the brain;
8.12 Having controlled all the passages, having confined the mind in the heart, and having fixed his own vital force in the head, (and then) continuing in the firmness in yoga;
8.12 Samyamya, having controlled; sarva-dvarani, all the passages, the doors of perception; niruddhya, having confined; the manah, mind; hrdi, in the heart-not allowing it to spread out; and after that, with the help of the mind controlled therein, rising up through the nerve running upward from the heart, adhaya, having fixed; atmanah, his own; pranam, vital force; murdhni, in the lead; (and then) asthitah, continuing in; yogadharanam, the firmness in yoga-in order to make it steady-. And while fixing it there itself,
8.12. Properly controlling all the gates [in the body]; well restraining the mind in the heat; fixing one's own prana in the head; taking resort to the firmness of the Yoga;
8.12 See Comment under 8.14
8.12 - 8.13 Subduing all the senses like ear etc., which constitute the 'doorways' for sense impressions, i.e., withdrawing them from their natural functions; holding the mind in Me, the imperishable 'seated within the lotus of the heart'; practising 'steady abstraction of mind (Dharana) which is called concentration or Yoga,' i.e., abiding in Me alone in a steady manner; uttering the sacred 'syllable Om,' the brahman which connotes Me; remembering Me, who am expressed by the syllable Om; and fixing his 'life-breath within the head' - whosoever abandons the body and departs in this way reaches the highest state. He reaches the pure self freed from Prakrti, which is akin to My form. From that state there is no return. Such is the meaning. Later on Sri Krsna will elucidate: 'They describe that as the highest goal of the Atman, which is not destroyed when all things are destroyed, which is unmanifest and imperishable' (8.2021). Thus, the modes of contemplation on the Lord by the aspirants after prosperity and Kaivalya (Atmann-consciousness) have been taught according to the goal they lead to. Now, Sri Krsna teaches the way of meditation on the Lord by the Jnanin and the mode of attainment by him.
8.12 Having controlled all the passages, having confined the mind in the heart, and having fixed his own vital force in the head, (and then) continuing in the firmness in yoga;
।।8.12।।यहाँ भी कविं पुराणमनुशासितारम् यदक्षरं वेदविदो वदन्ति इस प्रकार प्रतिपादन किये हुए परब्रह्मकी प्राप्तिका पूर्वोक्तरूपसे उपायभूत जो ओंकार है उसकी कालान्तरमें मुक्ितरूप फल देनेवाली वही उपासना योगधारणासहित कहनी है तथा उसके प्रसङ्ग और अनुप्रसङ्गमें आनेवाली बातें भी कहनी हैं। इसलिये आगेका ग्रन्थ आरम्भ किया जाता है --, समस्त द्वारोंका अर्थात् विषयोंकी उपलब्धिके द्वाररूप जो समस्त इन्द्रियगोलक हैं उन सबका संयम करके एवं मनको हृदयकमलमें निरुद्ध करके अर्थात् संकल्पविकल्पसे रहित करके फिर वशमें किये हुए मनके सहारेसे हृदयसे ऊपर जानेवाली नाडीद्वारा ऊपर चढ़कर अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापन करके योगधारणाको धारण करनेके लिये प्रवृत्त हुआ साधक ( परमगतिको प्राप्त होता है इस प्रकार अगले श्लोकसे सम्बन्ध है )।
।।8.12।। --,सर्वद्वाराणि सर्वाणि च तानि द्वाराणि च सर्वद्वाराणि उपलब्धौ तानि सर्वाणि संयम्य संयमनं कृत्वा मनः हृदि हृदयपुण्डरीके निरुध्य निरोधं कृत्वा निष्प्रचारमापाद्य तत्र वशीकृतेन मनसा हृदयात् ऊर्ध्वगामिन्या नाड्या ऊर्ध्वमारुह्य मूर्ध्नि आधाय आत्मनः प्राणम् आस्थितः प्रवृत्तः योगधारणां धारयितुम्।।तत्रैव च धारयन् --,
।।8.12 -- 8.13।।ननुमनो निरुध्य इत्यनेनैव सर्वेन्द्रियसंयमनं लब्धम् तत्किं पुनरुच्यते मैवम् वायुसञ्चरणद्वाराणां नाडीनामत्र ग्रहणात्। तन्नियमनं किमर्थं इत्यत आह -- ब्रह्मेति। इति हेतौ। इत्युक्तमिति शेषः। अत्र प्रमाणमाह -- निर्गच्छन्निति। सूर्यं गच्छति। मोक्षधर्मे चायमेवार्थ उक्त इति शेषः। हृदीत्यस्य प्रसिद्धार्थतानिरासार्थमाह -- हृदीति। हरतेः क्विप् च [अष्टा.3।2।76] इति क्विप् प्रसिद्धार्थ एव किं न स्यात् इत्यत आह -- नहीति। कुतो न सम्भवति इत्यत आह -- यत्रेति। आदौ हृदि निरुध्येत्यध्याहारो दोषः। मरणवेलायामखण्डस्मृतिर्वक्तव्या तत्कथं धारणोच्यते इत्यत आह -- योगेति।
।।8.12 -- 8.13।।ब्रह्मनाडीं विना यद्यन्यत्र गच्छति तर्हि विना मोक्षं स्थानान्तरं प्राप्नोतीति सर्वद्वाराणि संयम्यनिर्गच्छंश्चक्षुषा सूर्यं दिशः श्रोत्रेण चैव हि इत्यादिवचनात् व्यासयोगे मोक्षधर्मे च। हृदि नारायणे।ह्रियते त्वया जगद्यस्माद्धृदित्येवं प्रभाषसे इति पाद्मे। नहि मूर्धनि प्राणे स्थिते हृदि मनसः स्थितिः सम्भवति।यत्र प्राणो मनस्तत्र तत्र जीवः परस्तथा इति व्यासयोगे। योगधारणामास्थितः योगभरण एवाभियुक्त इत्यर्थः।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च। मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।8.12।।
সর্বদ্বারাণি সংযম্য মনো হৃদি নিরুধ্য চ৷ মূর্ধ্ন্যাধাযাত্মনঃ প্রাণমাস্থিতো যোগধারণাম্৷৷8.12৷৷
সর্বদ্বারাণি সংযম্য মনো হৃদি নিরুধ্য চ৷ মূর্ধ্ন্যাধাযাত্মনঃ প্রাণমাস্থিতো যোগধারণাম্৷৷8.12৷৷
સર્વદ્વારાણિ સંયમ્ય મનો હૃદિ નિરુધ્ય ચ। મૂર્ધ્ન્યાધાયાત્મનઃ પ્રાણમાસ્થિતો યોગધારણામ્।।8.12।।
ਸਰ੍ਵਦ੍ਵਾਰਾਣਿ ਸਂਯਮ੍ਯ ਮਨੋ ਹਰਿਦਿ ਨਿਰੁਧ੍ਯ ਚ। ਮੂਰ੍ਧ੍ਨ੍ਯਾਧਾਯਾਤ੍ਮਨ ਪ੍ਰਾਣਮਾਸ੍ਥਿਤੋ ਯੋਗਧਾਰਣਾਮ੍।।8.12।।
ಸರ್ವದ್ವಾರಾಣಿ ಸಂಯಮ್ಯ ಮನೋ ಹೃದಿ ನಿರುಧ್ಯ ಚ. ಮೂರ್ಧ್ನ್ಯಾಧಾಯಾತ್ಮನಃ ಪ್ರಾಣಮಾಸ್ಥಿತೋ ಯೋಗಧಾರಣಾಮ್৷৷8.12৷৷
സര്വദ്വാരാണി സംയമ്യ മനോ ഹൃദി നിരുധ്യ ച. മൂര്ധ്ന്യാധായാത്മനഃ പ്രാണമാസ്ഥിതോ യോഗധാരണാമ്৷৷8.12৷৷
ସର୍ବଦ୍ବାରାଣି ସଂଯମ୍ଯ ମନୋ ହୃଦି ନିରୁଧ୍ଯ ଚ| ମୂର୍ଧ୍ନ୍ଯାଧାଯାତ୍ମନଃ ପ୍ରାଣମାସ୍ଥିତୋ ଯୋଗଧାରଣାମ୍||8.12||
sarvadvārāṇi saṅyamya manō hṛdi nirudhya ca. mūrdhnyādhāyātmanaḥ prāṇamāsthitō yōgadhāraṇām৷৷8.12৷৷
ஸர்வத்வாராணி ஸஂயம்ய மநோ ஹரிதி நிருத்ய ச. மூர்த்ந்யாதாயாத்மநஃ ப்ராணமாஸ்திதோ யோகதாரணாம்৷৷8.12৷৷
సర్వద్వారాణి సంయమ్య మనో హృది నిరుధ్య చ. మూర్ధ్న్యాధాయాత్మనః ప్రాణమాస్థితో యోగధారణామ్৷৷8.12৷৷
8.13
8
13
।।8.12 -- 8.13।। (इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो साधक  'ऊँ' इस एक अक्षर ब्रह्मका उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है।
।।8.13।। जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।।
।।8.13।। ध्यान के अभ्यास में मन को सफलता और कुशलतापूर्वक एकाग्र करने के लिए साधक को तीन कार्यों को सम्पादित करना होता है। इन तीनों का वर्णन इन श्लोकों में किया गया है जो उक्त क्रम में अभ्यसनीय है।(क) इन्द्रियों के द्वारा मन को संयमित करके इन्द्रिय अवयव स्थूल शरीर में स्थित हैं। श्रोत्र त्वचा चक्षु जिह्वा और घ्राणेन्द्रिय (नाक) ये वे पाँच द्वार हैं जिनके माध्यम से बाह्य विषयों की संवेदनाएं मन में प्रवेश करके उसे विक्षुब्ध करती हैं। विवेक और वैराग्य के द्वारा इन इन्द्रिय द्वारों को अवरुद्ध अथवा संयमित करना प्रथम साधना है जिसके बिना ध्यान में प्रवेश नहीं हो सकता। इनके द्वारा न केवल बाह्य विषय मन में प्रवेश करते हैं वरन् इन्हीं के माध्यम से मन बाह्य विषयों में विचरण एवं भ्रमण करता है। विक्षेपों की इन सुरंगों को अवरुद्ध करने पर नयेनये विक्षेपों का प्रवाह ही रुद्ध हो जाता है।(ख) मन को हृदय में स्थापित करके यद्यपि इन्द्रियों के संयमित होने पर मन बाह्य विषयों से क्षुब्ध नहीं हो सकता तथापि भूतकाल के विषयोपभोगों से अर्जित वासनाओं के स्मरण से वह स्वयं ही विक्षुब्ध हो सकता है। इसलिए मन को हृदय में स्थापित करने का उपदेश दिया गया है।वेदान्त में हृदय का अर्थ शरीर में स्थित रक्त संचालक अवयव से नहीं है। साहित्य और दर्शन में हृदय का अर्थ स्नेह और सहृदयता करुणा और कृपा भक्ति और प्रपत्ति जैसी आदर्श एवं रचनात्मक भावनाओं का अनवरत् उद्गम स्थल है। बाह्य स्थूल विषयों की संवेदनाओं का मन में प्रवेश अवरुद्ध करने के पश्चात् साधक को चाहिये कि वह भावनाओं के साधनरूप मन को दिव्य एवं पवित्र बनाये न कि उसका दमन करे। हृदय के उच्च और श्रेष्ठ वातावरण में ही मन को स्थिर करना चाहिये। इसका विवेचन किया जा चुका है कि रचनात्मक विचारों की सहायता से मन के विक्षेपों को न्यूनतम किया जा सकता है। नकारात्मक विचार वह है जिसके कारण मन क्षुब्ध और चंचल हो जाता है।(ग) प्राणशक्ति को मस्तक अर्थात् बुद्धि में स्थापित करने का अर्थ है बुद्धि को सभी निम्न स्तरीय विचारों एवं वस्तुओं से निवृत्त करना। विषय ग्रहण आदि के द्वारा बुद्धि का इनसे तादात्म्य रहता है। सतत आत्मानुसंधान की प्रक्रिया से बुद्धि को विषयों से परावृत्त किया जा सकता है। उपर्युक्त तीन कार्यों के सम्पन्न होने पर मन की आत्मानुसंधान में जो दृढ़ स्थिति होती है उसे ही यहाँ योगधारणा कहा गया है।जो साधक अपने आसपास के वैषयिक वातावरण को भूलकर आनन्द और संतोष से पूर्ण हृदय से मन को बुद्धि के अनुशासन में ला सकता है वह मन में ओंकार का उच्चारण सरलता और उत्साह के साथ कर सकता है। शान्त मन में उठ रहीं ओंकार वृत्तियों को जो साक्षी होकर देख सकता है वही पुरुष प्रणवोपासना के योग्य है। श्लोक की अगली पंक्ति इस तथ्य को स्पष्ट करती है।देह त्याग कर जो जाता है ँ़ के उच्चारण तथा उसके लक्ष्यार्थ पर मनन करने के फलस्वरूप साधक मिथ्या जड़ उपाधियों के साथ हुये अपने तादात्म्य से ऊपर उठ जाता है जिसके कारण अहंकार का लोप हो जाता है। यही वास्तविक मृत्यु है। देह त्याग का अभिप्राय है देहात्मभाव का त्याग। प्रणव के लक्ष्यार्थ पर ध्यान करते हुये साधक परम गति को प्राप्त होता है क्योंकि उसका लक्ष्यार्थ है सम्पूर्ण विश्व का वह अधिष्ठान जिस पर जन्म और मृत्यु का मनः कल्पित नाटक खेला जाता है।क्या ध्यानमार्ग पर चलने वाले सभी साधकों को आत्मसाक्षात्कार समानरूप से कठिन है भगवान् कहते हैं --
।।8.13।। व्याख्या--'सर्वद्वाराणि संयम्य'--(अन्तसमयमें) सम्पूर्ण इन्द्रियोंके द्वारोंका संयम कर ले अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-- इन पाँचों विषयोंसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका-- इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा बोलना, ग्रहण करना, गमन करना, मूत्र-त्याग और मल-त्याग -- इन पाँचों क्रियाओंसे वाणी, हाथ, चरण, उपस्थ और गुदा--इन पाँचों कर्मेन्द्रियोंको सर्वथा हटा ले। इससे इन्द्रियाँ अपने स्थानमें रहेंगी।
।।8.12 -- 8.14।।सर्वद्वाराणीत्यादि योगिन इत्यन्तम्। द्वाराणि इन्द्रियाणि। हृदि इति -- अनेन विषयसंगाभाव उच्यते न तु विष्ठास्थानाधिष्ठानम्। आत्मनः प्राणम् आत्मसारथिम् इच्छाशक्त्यात्मनि मूर्ध्नि सकलतत्त्वातीते धारयन् इति कायनियमः। ओमिति जपन् इति वाङ्नियमः। मामनुस्मरन्निति चेतसोऽनन्यगामिता (S चेतसाऽनन्यगामिता)। यः प्रयादि -- दिनाद्दिनम् (N दिनंदिनं) अपुनरावृत्तये गच्छति। तथा च देहं त्यजन् कथं मे (SN omit मे) पुनरिदं सकलापत्स्थानं शरीरं मा भूयात् इत्येवं यो मामनन्यचेताः स्मरति सततमेव याति जानाति (S omits जानाति) स मद्भावम् मत्स्वरूपम्। न (N नन्वत्र) मुनेः परब्रह्माद्वैतपदोपक्षेपविरोधी उत्क्रान्तौ ( तत् क्रान्तौ K (n) विरोधीति उत्क्रान्तौ भरः) भरः। तथाचोक्तम् -- व्यापिन्यां शिवसत्तायाम् उत्क्रान्तिर्नाम निष्फला।अव्यापिनि शिवे नाम नोत्क्रान्तिः शिवदायिनी।।इति।।यदि वा सतताभ्यासोऽपि यैर्न कृतः तथापि कुतश्चित् स्वतन्त्रेश्वरेच्छादेर्निमित्तादन्त्ये (S omits स्वतन्त्र -- ) एव क्षणे यदा तादृग्भावो जायते तदा अयमुत्क्रान्तिलक्षण उपायः संस्कारान्तरप्रतिबन्धक उक्तः। अत एव,यदक्षरं वेदविदो वदन्ति इत्यादिना अभिधास्ये इत्यन्तेन प्रतिज्ञा कृता क्षणमात्रस्यापि भगवदनुचिन्तनस्य,(S चिन्तनमयस्य) सकलसंस्कारविध्वंसनलक्षणाम् अद्भुतवृत्तिं प्रतिपादयितुम्। यदाहुराचार्यवर्याः,(S omits यदाहु -- इति) -- निमेषमपि यद्येकं क्षीणदोषे करिष्यसि।पदं चित्ते तदा शंभो किं न संपादयिष्यसि।।(स्तवचिन्तामणिः श्लो 114) इति।अत एव प्रयाणकाले स्मरणेन विना खण्डना [ दृष्टा ] इति येषां शङ्का तान् वीतशङ्कान् कर्तुमुक्तम्,अनन्यचेताः सततम् इति अन्यत्र फलादौ साध्ये यस्य न चेत इत्यर्थः। तस्याहं सुलभ इति। तस्य,(S omit तस्य) न किंचित् प्रयाणकालौचित्यपर्येषाम् तीर्थसेवा उत्तरायणम् आयतनसंश्रयः(N आवर्तनसंश्रयः) सत्त्वविशुद्धिः (SK -- विवृद्धिः) सचिन्तकत्वम् (N सचित्तकत्वम्) विषुवदादिपुण्यकालः दिनम् अकृत्रिमपवित्रभूपरिग्रहः स्नेहमलविहीनदेहता शुद्धवस्त्रादिपरिग्रहः (SN omit परि -- ) इत्यादिक्लेशोभ्यर्थनीय इत्यर्थः यत्प्रागुक्तम् -- तीर्थ श्वपचगृहे वा इत्यादि।
।।8.13।।सर्वाणि श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि ज्ञानद्वारभूतानि संयम्य स्वव्यापारेभ्यो विनिवर्त्य हृदयकमलनिविष्टे मयि अक्षरे मनो निरुध्य योगाख्यां धारणां आस्थितः मयि एव निश्चलां स्थितिम् आस्थितः।ओम् इति एकाक्षरं ब्रह्म मद्वाचकं व्याहरन् वाच्यं माम् अनुस्मरन् आत्मनः प्राणं मूर्ध्न्याधाय देहं त्यजन् यः प्रयाति स याति परमां गतिं प्रकृतिवियुक्तं मत्समानाकारम् अपुनरावृत्तिम् आत्मानं प्राप्नोति इत्यर्थःयः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। (गीता 8।2021) इति अनन्तरम् एव वक्ष्यते। एवम् ऐश्वर्यार्थिनः कैवल्यार्थिनश्च स्वप्राप्यानुगुणः भगवदुपासनप्रकार उक्तः। अथ ज्ञानिनो भगवदुपासनप्रकारं प्राप्तिकारं च आह --
।।8.13।।यथोक्तयोगधारणार्थं प्रवृत्तो मूर्धनि प्राणमाधाय धारयन्किं कुर्यादित्याशङ्क्यानन्तरश्लोकमवतारयति -- तत्रैवेति। एकं च तदक्षरं चेत्येकाक्षरमोमित्येवंरूपं तत्कथं ब्रह्मेति विशिष्यते तत्राह -- ब्रह्मण इति। यः प्रयातीति मरणमुक्त्वा त्यजन्देहमिति ब्रुवता पुनरुक्तिराश्रिता स्यादित्याशङ्क्य विशेषणार्थं विवृणोति -- देहेति। एवमोंकारमुच्चारयन्नर्थं चाभिध्यायन्ध्याननिष्ठः स पुमानित्यर्थः। परमामिति गतिविशेषणं क्रममुक्तिविवक्षया द्रष्टव्यम्।
।।8.12 -- 8.13।।तत्प्राप्तौ साङ्गमुपायमाह -- सर्वद्वाराणीति द्वाभ्याम्। ब्रह्मवादे ममैव नामरूपात्मकत्वादिति योगी मां ँ़इत्येकाक्षररूपमनुस्मरन् तथा व्याहरन्नन्तकाले परमामेतां पदत्वेन निर्दिष्टां गतिं याति।
।।8.13।।ओमित्येकमक्षरं ब्रह्मवाचकत्वात्प्रतिमावद्ब्रह्मप्रतीकत्वाद्वा ब्रह्म व्याहरन्नुच्चरन्। ओमिति व्याहरन्नित्येतावतैव निर्वाहे एकाक्षरमित्यनायासकथनेन स्तुत्यर्थम्। ओमिति व्याहरन्नेकाक्षरमेकमद्वितीयमक्षरमविनाशि सर्वव्यापकं ब्रह्म मां ओमित्यस्यार्थं स्मरन्निति वा। तेन प्रणवं जपंस्तदभिधेयभूतं च मां चिन्तयन्मूर्धन्यया नाड्या देहं त्यजन् यः प्रयाति स याति देवयानमार्गेण ब्रह्मलोकं गत्वा तद्भोगान्ते परमां प्रकृष्टां गतिं मद्रूपाम्। अत्र पतञ्जलिनातीव्रसंवेगानामासन्नः समाधिलाभः इत्युक्त्वाईश्वरप्रणिधानाद्वा इत्युक्तम्। प्रणिधानं च व्याख्यातंतस्य वाचकः प्रणवः तज्जपस्तदर्थभावनम् इति।समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् इति च। इहतु साक्षादेव ततः परमगतिलाभ इत्युक्तम्। तस्मादविरोधायोमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्नात्मनो योगधारणामास्थित इति व्याख्येयम्। विचित्रफलत्वोपपत्तेर्वा न विरोधः।
।।8.13।। ओमिति। ओमित्येकं यदक्षरं तदेव ब्रह्मवाचकत्वाद्वा प्रतिमादिवद्ब्रह्मप्रतीकत्वाद्वा ब्रह्म तद्व्याहरन्नुच्चारयन् तद्वाच्यं च मामनुस्मरन्नेव देहं त्यजन्यः प्रकर्षेण याति अर्चिरादिमार्गेण स परमां श्रेष्ठां मद्गतिं याति प्राप्नोति।
।। 8.13 सर्वद्वाराणि संयम्य इत्यत्र नवद्वारप्रतीतिनिरासाय प्रत्याहारविषयताद्योतनाय चाहसर्वाणि श्रोत्रादीनीति। द्वारानुबन्धरहितस्पर्शनादीन्द्रियाणां कथं द्वारशब्दार्थतेत्यत्रोक्तंज्ञानद्वारभूतानीति। संयमनमत्र शब्दादिविषयौन्मुख्यनिवर्तनमित्यभिप्रायेणाहस्वव्यापारेभ्यो विनिवर्त्येति।मनो हृदि निरुध्य च इत्यत्र हृन्मात्रस्य ध्येयतानुपपन्नेत्यत्रोक्तंहृदयकमलनिविष्टे मय्यक्षर इति। हृच्छब्दोऽत्र तत्रत्यपुरुषलक्षकः अन्यथामामनुस्मरन् इत्यनन्तरोक्तिर्न घटेतेति भावः। अर्थक्रमेण बलवता दुर्बलस्य पाठक्रमस्य बाधमभिप्रेत्यमनो हृदि निरुध्य इत्यस्यानन्तरन्आस्थितो योगधारणाम् इत्यादिकं व्याख्यातम्। प्रत्याहारानन्तरपठितधारणाव्यवच्छेदायाहयोगाख्यां धारणामिति। षष्ठी समासात्समानाधिकरणसमासस्य ग्राह्यत्वं निषादस्थपतिन्यायसिद्धम्।स्थपतिर्निषादः स्यात् शब्दसामर्थ्यात् [पू.मी.6।1।51] इति। धारणाशब्दाधिक्याभिप्रेतमाहमय्येव निश्चलां स्थितिमिति। प्रणवस्य ब्रह्मप्रतिपादकत्वात्ब्रह्म इति व्यपदेश इत्यभिप्रायेणमद्वाचकमित्युक्तम्। मन्त्रस्यार्थविशेषप्रकाशनमुखेनोपकारकत्वमप्यत्र ब्रह्मशब्देन प्रतिपादनाद्विवक्षितमित्यभिप्रायेणवाच्यं मामनुस्मरन्नित्युक्तम्। प्रणवस्य भगवद्वाचकत्वं योगाङ्गत्वादिकं च श्रुतिस्मृत्यादिसिद्धम्। यथा कठवल्ल्यां [2।15] सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् इति।अत्र नाम्ना नामिनो निर्देशः। तथा प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्ल्क्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् [मुं.उ.2।2।4] इति। तथा आत्मानमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासा(द्देवं पश्येन्निगू)त्पश्येद्ब्रह्माग्निगूढवत् [ध्यानबिंदू.22] इति। तथा ओमित्येवं ध्यायथात्मानम् [मुं.उ.2।26] इति। तथा यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत स तेजसि सूर्ये सम्पन्नः। यथा पादोदरस्त्वचा विनि[र्मुच्यत]र्मुक्त एवं ह वै स पाप्मना विनिर्मुक्तः स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकम्। स एतस्माज्जीवघनात्परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते [प्रश्नो.5।5] इति। तथा वह्नेर्यथा योनिगतस्य मूर्तिर्न दृश्यते नैव च लिङ्गनाशः। स भूय एवेन्धनयोनिगृह्यस्तद्वोभयं वै प्रणवेन देहे।।स्वदेहमरणिं कृत्वा प्रणवं चोत्तरारणिम्। ध्याननिर्मथनाभ्यासाद्देवं पश्येन्निगूढवत् [श्वे.उ.1।1314] इति। अत्रैव श्लोकेविष्णुं पश्येद्धृदि स्थितम् [शं.स्मृ.7।16] इति योगयाज्ञवल्क्यपाठः। तथाकांस्यघण्टानिनादस्तु यथा लीयति शान्तये। ओङ्कारस्तु तथा योज्यः शान्तये शान्तिमिच्छता। यस्मिन् स लीयते शब्दस्तत्परं ब्रह्म गीयते [ ] इति। तथाओं खं ब्रह्म खं पुराणम् [बृ.उ.5।1।1] इति। ओमित्येतदक्षरमादौ ৷৷. ब्रह्मास्य पादाश्चत्वारो वेदाश्चतुष्पादिदमक्षरं [परं ब्रह्म] पूर्वाऽस्य मात्रा पृथिव्यकारः इत्यारभ्य प्रथमा रक्तपीता महद्ब्रह्मदैवत्या द्वितीया विद्युमती कृष्णा विष्णुदेवत्या तृतीया शुभाशुभा शुक्ला रुद्रदैवत्या याऽवसानेऽस्य चतुर्थ्यर्धमात्रा सा विद्युमती सर्ववर्णा पुरुषदैवत्या [अ.शिखो.1] इति च। अत्र अर्धमात्राधिदैवतभूतः पुरुष एवावतीर्णावस्थो द्वितीयमात्रादैवत्वेन विष्णुरिति चोक्तः। तथा ओमिति ब्रह्म ओमितीदं सर्वम् [तै.उ.1।8।1] इति ओङ्कार एवेदं सर्वम् [छां.उ.2।23।3] इति। तथा हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः। हृदि त्वमसि यो नित्यं तिस्रो मात्राः परस्तु सः। तस्योत्तरतः शिरो दक्षिणतः पादो य उत्तरतः स ओङ्कार य ओङ्कारः स प्रणवो यः प्रणवः स सर्वव्यापी यः सर्वव्यापी सोऽनन्तः योऽनन्तस्तत्तारं यत्तारं तत्सूक्ष्मं यत्सूक्ष्मं तच्छुक्लं यच्छुक्लं तद्वैद्युतं यद्वैद्युतं तत्परं ब्रह्म [अ.शिरउ.3] इति। अत्र प्रकरणादिवशात् प्रतर्दनविद्यावदन्तरितं शासनमनुसन्धेयम्।मुमुक्षोरुत्क्रमणप्रकरणे च प्रणवः श्रूयते अथ यत्रैतव स्माच्छरीरादुत्क्रामति अथैतैरेव रंश्मिभिरूर्ध्वमाक्रमते सूओमिति वा होद्वामीयते स यावत् क्षिप्येन्मनस्तावदादित्यं गच्छति एतद्वै खलु लोकस्य द्वारं विदुषां प्रपदनं निरोधोऽविदुषा। तदेव श्लोकः -- शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिस्सृतैका। तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति [छां.उ.8।6।5] इति। महाभारते च महेश्वरे वचनम्ओमित्येवं सदा विप्राः पठध्वं ध्यात केशवम् [ह.वं.वि.प.133।10] इति। आह च भगवान्या वल्क्यः -- देवतायाः परायाश्च ह्यालम्बः प्रणवः स्मृतः। कश्चिदाराधनाकामो विष्णोर्भक्त्या करोति वै।।तदाराधनसान्निध्ये प्रतिमां व्यञ्जिकां यथा। धातुद्रव्यादिपाषाणैः कृत्वा भावं निवेशयेत्।।श्रद्धाभक्त्यादराद्यैश्च तस्य देवः प्रसीदति। ओङ्कारेण तथा चात्मा ह्युपास्ते स प्रसीदति। [ ]सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।।मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्।।य एतं प्रणवेनाद्यमक्षरं प्रतिपद्यते। ततोऽक्षरेण वेदेन वेद्यं ब्रह्माधिगच्छति।।एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्। एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मभूयाय कल्पते।।अदृष्टविग्रहो देवो भावग्राह्यो निरामयः। तस्योङ्कारः स्मृतं नाम तेनाहूतः प्रसीदति।।तस्मादोमिति पूर्वं तु कृत्वा युञ्जीत तत्परः। ब्रह्मोङ्कारविधानेन तत्त्वेन प्रतिपद्यते इति। अत्रसर्वद्वाराणि इत्यादिश्लोकयोर्भगवद्वाक्यतया प्रसिद्धयोरुदाहरणात्माम् इति निर्देशस्तद्विषयः। पुनश्चात्र हैरण्यगर्भादिसिद्धान्तेषु प्रणवार्थं प्रपञ्च्यान्तेऽप्याह -- त्रिरात्मा त्रिस्वभावश्च तथा त्रिव्यूह एव च। पञ्चरात्रे तथा ह्येष भगवद्वाचकः स्मृतः। बलं वीर्यं तथा तेजस्त्रिरात्मेति च संज्ञितः। ज्ञानैश्वर्ये तथा शक्तिस्त्रिस्वभाव इति स्मृतः।।सङ्कर्षणोऽथ प्रद्युम्नो ह्यनिरुद्धस्तथैव च। त्रिव्यूह इति निर्दिष्ट ओङ्कारो विष्णुरव्ययः।।भगवद्वाचकः प्रोक्तः प्रकृतेर्वाचकस्तथा। व्यक्ताव्यक्तो वासुदेवः प्रभवः प्रलयस्तथा।।इति। यच्चात्र हैरण्यगर्भकापिलावान्तरतपस्सनत्कुमारब्रह्मिष्ठपाशुपताख्येषु सिद्धान्तेष्वर्थभेदवर्णनं तदपि तत्तदर्थविशेषान्तरितपरमपुरुषपर्यवसानमभिप्रेत्येति मन्तव्यम्। अत एव हि विष्णुप्रतिपादकतयाऽन्तकाले स्मर्तव्यत्वेनोपसंह्रियते -- ओङ्कारं विपुलमचिन्त्यमप्रमेयं सूक्ष्माख्यं ध्रुवमचरं च यत्पुराणम्। तद्विष्णोः पदमपि पद्मजप्रसूतं देहान्ते मम मनसि स्थितिं करोतु इति। प्रणवेनैवात्र भगवदर्चनमुच्यते -- तल्लिङ्गैरर्चयेन्मन्त्रैः सर्वान् देवान् समाहितः। नमस्कारेण पुष्पाणि विन्यसेत्तु यथाक्रमम्।।आवाहनादिकं कर्म यन्न सूक्तं मया त्विह। तत्सर्वं प्रणवेनैव कर्तव्यं चक्रपाणये।।दद्यात्पुरुषसूक्तेन यः पुष्पाण्यप एव वा। अर्चितं स्याज्जगदिदं तेन सर्वं चराचरम्।।विष्णुर्ब्रह्मा च रुद्रश्च विष्णुरेव दिवाकरः। तस्मात्पूज्यतमं नान्यमहं मन्ये जनार्दनात् इति। तथा परमपुरुषसाक्षात्कारकारणतया चात्र प्रणवोपासनप्रकार उच्यते।ओम्भूर्भुवस्सुवर्महर्जनस्तपस्सत्यम् इति वैदिकम्।एतदुच्चार्य वै ब्रह्म परे व्योम्नि नियोजयेत्। हृदयेऽग्निश्च वायुश्च जीवो यः समुदाहृतः।।ओङ्कारं पद्मनाले तु उद्धृत्योपरि योजयेत्। आप्राणाच्छून्यभूतात्तु चेतोङ्गं जीवसंज्ञितम्।।जायते तु यतस्तस्मात्पुनस्तत्र निवेशयेत्। घण्टाशब्दवदोङ्कारमुपासीत समाहितः।।पुरुषं निर्मलं शुभ्रं पश्येद्वै नात्र संशयः इति। योगानुशासनसूत्रं चक्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः [ब्र.सू.1।24]तस्य वाचकः प्रणवः [ब्र.सू.1।27] इति। अतः प्रणवस्य भगवद्वाचकत्वं समाध्युत्क्रमणाद्यवस्थासु तेनैव भगवदनुस्मरणं च सिद्धम्।शतं चैका च हृदयस्य ना़ड्यस्तासां मूर्धानमभिनिस्सृतैका। तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्ङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति [छां.उ.8।6।6] ऊर्ध्वमेकः स्थितस्तेषां यो भित्वा सूर्यमण्डलम्। ब्रह्मलोकमतिक्रम्य तेन याति परां गतिम् [या.स्मृ.3।137] इत्यादिश्रुतिस्मृत्यनुसारान्मुमुक्षोरुत्क्रणौपयिकमिदं मूर्ध्नि प्राणाधानम्।त्यजन् यः प्रयातीति त्यक्त्वा यः प्रयातीत्यर्थः। आत्मार्थिनो ह्यात्मा गन्तव्यः तत्रापुनरावृत्तित्वमात्रात्परमगतित्वोक्तिरित्यभिप्रायेणाह -- प्रकृतीति। ईदृशस्यात्मनः परमगतिशब्देन व्यपदेशो न केवलं प्रकरणवशात् किन्त्वस्मिन्नेवाध्याये तद्विषय एवायं प्रयोगोऽप्यस्तीत्याह -- यः स सर्वेष्विति। ,
।।8.13।।ओमिति। एकाक्षरं शक्तिद्वयसम्बद्धपुरुषवद्वर्णत्रयात्मकमेकं यदक्षरं ब्रह्मवाचकत्वात्तत्सरूपत्वाद्वा ब्रह्मात्मकं व्याहरन्नुच्चारयन् मामेवंरूपं प्रकटमनुस्मरन् यो देहं त्यजन् प्रयाति प्रकर्षेण भावात्मतया गच्छति स परमां परो मीयते यया यत्र वा तां गतिं अक्षरात्मिकां याति प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।8.13।।मूर्ध्नि प्राणमाधाय किं कुर्यादत आह -- ओंकाररूपं एकाक्षरं एकं च तदक्षरं च वर्णो ब्रह्म च तद्व्याहरनुच्चरन् मां च ब्रह्मभूतमनुस्मरन् यो हि देवदत्तं स्मृत्वा तन्नाम व्याहरति तस्मै देवदत्तोऽभिमुखो भवत्येवं ब्रह्मणो नामोच्चारणेन संनिहिततरं व्यापकं ब्रह्म साधकस्य संनिधीयते। संनिहिते च ब्रह्मणि यो देहं त्यजन् म्रियमाणः प्रयाति ऊर्ध्वनाड्या उत्क्रामति स परमां गतिं संनिकृष्टब्रह्मरूपां याति। ब्रह्मैव प्रकृत्य श्रूयतेएषास्य परमा गतिरेषास्य परमा संपदेषोऽस्य परम आनन्दः इति। तामेव गतिं शुद्धं ब्रह्मैव प्राप्नोति ब्रह्मलोकप्राप्तिद्वारा।
।।8.13।।ओमिति। एकं च तदक्षरं ब्रह्म ब्रह्मणोऽभिधानभूतम्। अभिधायकमितियावत्। ऊँकारं व्याहरन्नुच्चारयन् तदभिधेयं परमात्मानं मामनुस्मरन्ननुचिन्तयन्। यत्तु ओमितिव्याहरन् एकाक्षरं एकमक्षरं एकमद्वितीयमक्षरमविनाशि सर्वव्यापकं ब्रह्म मां ओमित्यस्यार्थं स्मरन्नितिकेचित्। यत्तु ओमितिव्याहरन् एकाक्षरं एकमक्षरं एकमद्वितीयमक्षरमावैनासि सर्वव्यापकं ब्रह्म मां ओमित्यस्यार्थं स्मरन्नितिकेचित्। तन्न।एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः इत्युपक्रम्ययः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाचरेण परं पुरुषभिध्यायीत इतिश्रुत्यननुसरणेन तद्विस्मरणस्य स्पष्टवात्। श्रुतिस्थत्रिमात्रशब्दस्यैकशब्देन व्याख्यानं भगवता क्रियते। श्रुतौ त्रिमात्रेणेत्यस्य प्रथममकारेणाभिध्यायीत तत उकारेण ततो मकारेणेति भ्रमो मामूदित्येतद्तम्। ओमिति त्रिमात्रमेकमेवाक्षरं व्याहरन् नतु मात्राभेदेनाक्षरत्रयं पृथक्पृथग्व्याहारन्नित्यर्थः। किंच रुढिर्योगमपहन्तीति न्यायात् अक्षरशब्द ओंकारेणैव संबध्यते तस्य वर्णे रुढत्वात्। योगाश्रयणं तु रुढ्यसंभवे। तस्मात् श्रुत्यनुसारि व्यवहितान्वयरहितं रुढिपरित्यागदोषाग्रस्तं सर्वज्ञानां भाष्यकृतां व्याख्यानमेव प्रयाणकाल आत्मनो देहत्यागमात्रं प्रयाणं नतु स्वरुपनाशेनेत्यर्थः। देहं त्यजन्यः प्रयाति स परमां उत्कृष्टामबाध्यां गतिं स्थानं मोक्षाख्यं ब्रह्मलोकप्राप्तिक्रमेण याति अधिगच्छति।
8.13 Om? इति thus? एकाक्षरम् onesyllabled? ब्रह्म Brahman? व्याहरन् uttering? माम् Me? अनुस्मरन् remembering? यः who? प्रयाति departs? त्यजन् leaving? देहम् the body? सः he? याति attains? परमाम् supreme? गतिम् goal.Commentary Having controlled the thoughts the Yogi ascends by the Sushumna? the Nadi (subtle psychic nervechannel) which passes upwards from the heart. He fixes his whole Prana or lifreath in the crown of the head in the Brahmarandhra or the hole of Brahman. He utters the sacred monosyllable Om? meditates on Me and leaves the body.
8.13 Uttering the one-syllabled Om the Brahman and remembering Me, he who departs, leaving the body, attains to the Supreme Goal.
8.13 Repeating Om, the Symbol of Eternity, holding Me always in remembrance, he who thus leaves his body and goes forth reaches the Spirit Supreme.
8.13 He who departs by leaving the body while uttering the single syllable, viz Om, which is Brahman, and thinking of Me, he attains the supreme Goal.
8.13 Yah, he who; prayati, departs, dies; tyajan, by leaving; deham, the body-the phrase 'leaving the body' is meant for alifying departure; thery it is implied that the soul's departure occurs by abandoning the body, and not through the destruction of its own reality, having abandoned thus-; vyaharan, while uttering; the eka-adsaram, single syllable; om iti brahma, viz Om, which is Brahman, Om which is the name of Brahman; and anusmaran, thinking; mam, of Me, of God who is implied by that (syllable); sah, he; yati, attains; the paramam, supreme, best; gatim, Goal. Further,
8.13. Reciting the single-syllabled Om, the very Brahman; meditating on Me; whosoever travels well, casting away [his] body-surely he attains My State.
8.13 See Comment under 8.14
8.12 - 8.13 Subduing all the senses like ear etc., which constitute the 'doorways' for sense impressions, i.e., withdrawing them from their natural functions; holding the mind in Me, the imperishable 'seated within the lotus of the heart'; practising 'steady abstraction of mind (Dharana) which is called concentration or Yoga,' i.e., abiding in Me alone in a steady manner; uttering the sacred 'syllable Om,' the brahman which connotes Me; remembering Me, who am expressed by the syllable Om; and fixing his 'life-breath within the head' - whosoever abandons the body and departs in this way reaches the highest state. He reaches the pure self freed from Prakrti, which is akin to My form. From that state there is no return. Such is the meaning. Later on Sri Krsna will elucidate: 'They describe that as the highest goal of the Atman, which is not destroyed when all things are destroyed, which is unmanifest and imperishable' (8.2021). Thus, the modes of contemplation on the Lord by the aspirants after prosperity and Kaivalya (Atmann-consciousness) have been taught according to the goal they lead to. Now, Sri Krsna teaches the way of meditation on the Lord by the Jnanin and the mode of attainment by him.
8.13 He who departs by leaving the body while uttering the single syllable, viz Om, which is Brahman, and thinking of Me, he attains the supreme Goal.
।।8.13।।उसी जगह ( प्राणोंको ) स्थिर रखते हुए --, ओम् इस एक अक्षररूप ब्रह्मका अर्थात् ब्रह्मके स्वरूपका लक्ष्य करानेवाले ओंकारका उच्चारश करता हुआ और उसके अर्थरूप मुझ ईश्वररूपका चिन्तन करता हुआ जो पुरुष शरीरको छोड़कर जाता है अर्थात् मरता है वह इस प्रकार शरीरको छोड़कर जानेवाला परम गतिको पाता है। यहाँ त्यजन्देहम् यह विशेषण मरण का लक्ष्य करानेके लिये है। अभिप्राय यह कि देहके त्यागसे ही आत्माका मरण है स्वरूपके नाशसे नहीं।
।।8.13।। --,ओमिति एकाक्षरं ब्रह्म ब्रह्मणः अभिधानभूतम् ओंकारं व्याहरन् उच्चारयन् तदर्थभूतं माम् ईश्वरम् अनुस्मरन् अनुचिन्तयन् यः,प्रयाति म्रियते सः त्यजन् परित्यजन् देहं शरीरम् -- त्यजन् देहम् इति प्रयाणविशेषणार्थम् देहत्यागेन प्रयाणम् आत्मनः न स्वरूपनाशेनेत्यर्थः -- सः एवं याति गच्छति परमां प्रकृष्टां गतिम्।।किञ्च --,
।।8.12 -- 8.13।।ननुमनो निरुध्य इत्यनेनैव सर्वेन्द्रियसंयमनं लब्धम् तत्किं पुनरुच्यते मैवम् वायुसञ्चरणद्वाराणां नाडीनामत्र ग्रहणात्। तन्नियमनं किमर्थं इत्यत आह -- ब्रह्मेति। इति हेतौ। इत्युक्तमिति शेषः। अत्र प्रमाणमाह -- निर्गच्छन्निति। सूर्यं गच्छति। मोक्षधर्मे चायमेवार्थ उक्त इति शेषः। हृदीत्यस्य प्रसिद्धार्थतानिरासार्थमाह -- हृदीति। हरतेः क्विप् च [अष्टा.3।2।76] इति क्विप् प्रसिद्धार्थ एव किं न स्यात् इत्यत आह -- नहीति। कुतो न सम्भवति इत्यत आह -- यत्रेति। आदौ हृदि निरुध्येत्यध्याहारो दोषः। मरणवेलायामखण्डस्मृतिर्वक्तव्या तत्कथं धारणोच्यते इत्यत आह -- योगेति।
।।8.12 -- 8.13।।ब्रह्मनाडीं विना यद्यन्यत्र गच्छति तर्हि विना मोक्षं स्थानान्तरं प्राप्नोतीति सर्वद्वाराणि संयम्यनिर्गच्छंश्चक्षुषा सूर्यं दिशः श्रोत्रेण चैव हि इत्यादिवचनात् व्यासयोगे मोक्षधर्मे च। हृदि नारायणे।ह्रियते त्वया जगद्यस्माद्धृदित्येवं प्रभाषसे इति पाद्मे। नहि मूर्धनि प्राणे स्थिते हृदि मनसः स्थितिः सम्भवति।यत्र प्राणो मनस्तत्र तत्र जीवः परस्तथा इति व्यासयोगे। योगधारणामास्थितः योगभरण एवाभियुक्त इत्यर्थः।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।8.13।।
ওমিত্যেকাক্ষরং ব্রহ্ম ব্যাহরন্মামনুস্মরন্৷ যঃ প্রযাতি ত্যজন্দেহং স যাতি পরমাং গতিম্৷৷8.13৷৷
ওমিত্যেকাক্ষরং ব্রহ্ম ব্যাহরন্মামনুস্মরন্৷ যঃ প্রযাতি ত্যজন্দেহং স যাতি পরমাং গতিম্৷৷8.13৷৷
ઓમિત્યેકાક્ષરં બ્રહ્મ વ્યાહરન્મામનુસ્મરન્। યઃ પ્રયાતિ ત્યજન્દેહં સ યાતિ પરમાં ગતિમ્।।8.13।।
ਓਮਿਤ੍ਯੇਕਾਕ੍ਸ਼ਰਂ ਬ੍ਰਹ੍ਮ ਵ੍ਯਾਹਰਨ੍ਮਾਮਨੁਸ੍ਮਰਨ੍। ਯ ਪ੍ਰਯਾਤਿ ਤ੍ਯਜਨ੍ਦੇਹਂ ਸ ਯਾਤਿ ਪਰਮਾਂ ਗਤਿਮ੍।।8.13।।
ಓಮಿತ್ಯೇಕಾಕ್ಷರಂ ಬ್ರಹ್ಮ ವ್ಯಾಹರನ್ಮಾಮನುಸ್ಮರನ್. ಯಃ ಪ್ರಯಾತಿ ತ್ಯಜನ್ದೇಹಂ ಸ ಯಾತಿ ಪರಮಾಂ ಗತಿಮ್৷৷8.13৷৷
ഓമിത്യേകാക്ഷരം ബ്രഹ്മ വ്യാഹരന്മാമനുസ്മരന്. യഃ പ്രയാതി ത്യജന്ദേഹം സ യാതി പരമാം ഗതിമ്৷৷8.13৷৷
ଓମିତ୍ଯେକାକ୍ଷରଂ ବ୍ରହ୍ମ ବ୍ଯାହରନ୍ମାମନୁସ୍ମରନ୍| ଯଃ ପ୍ରଯାତି ତ୍ଯଜନ୍ଦେହଂ ସ ଯାତି ପରମାଂ ଗତିମ୍||8.13||
ōmityēkākṣaraṅ brahma vyāharanmāmanusmaran. yaḥ prayāti tyajandēhaṅ sa yāti paramāṅ gatim৷৷8.13৷৷
ஓமித்யேகாக்ஷரஂ ப்ரஹ்ம வ்யாஹரந்மாமநுஸ்மரந். யஃ ப்ரயாதி த்யஜந்தேஹஂ ஸ யாதி பரமாஂ கதிம்৷৷8.13৷৷
ఓమిత్యేకాక్షరం బ్రహ్మ వ్యాహరన్మామనుస్మరన్. యః ప్రయాతి త్యజన్దేహం స యాతి పరమాం గతిమ్৷৷8.13৷৷
8.14
8
14
।।8.14।।हे पृथानन्दन ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ।
।।8.14।। हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।।
।।8.14।। उस नित्ययुक्त योगी के लिए आत्मप्राप्ति सहज साध्य होती है जो मुझ चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनन्यभाव से नित्यप्रतिदिन स्मरण करता है। पूर्व श्लोकों में कथित सिद्धान्त को ही यहाँ संक्षेप में किन्तु स्पष्ट एवं प्रभावशाली भाषा में कहा गया है।प्रार्थना कोई कीटनाशक दवाई नहीं कि जिसका यदकदा छिड़काव करना ही पर्याप्त है उसी प्रकार पूजागृह को स्नानगृह के समान नहीं समझना चाहिये जिसमें हम अशुद्ध प्रवेश करते हैं और फिर स्वच्छ होकर बाहर आते हैं यहाँ श्रीकष्ण अत्यन्त सावधानी से विशेष बल देकर आग्रह करते हैं कि यह आत्मानुसंधान या ईश्वर स्मरण नित्य निरन्तर और अखण्ड होना चाहिये।उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न योगी को हे अर्जुन मैं सुलभ हूँ। भगवान् का यह कथन विशेष महत्व एवं अभिप्राय रखता है क्योंकि इन गुणों के अभाव में ध्यान में सफलता की आशा नहीं की जा सकती।आत्मप्राप्ति के लिए प्रयत्न क्यों किया जाय इस पर कहते हैं --
।।8.14।। व्याख्या--[सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें जो सगुण-साकार परमात्माका वर्णन हुआ था, उसीको यहाँ चौदहवें, पंद्रहवें और सोलहवें श्लोकमें विस्तारसे कहा गया है।]
।।8.12 -- 8.14।।सर्वद्वाराणीत्यादि योगिन इत्यन्तम्। द्वाराणि इन्द्रियाणि। हृदि इति -- अनेन विषयसंगाभाव उच्यते न तु विष्ठास्थानाधिष्ठानम्। आत्मनः प्राणम् आत्मसारथिम् इच्छाशक्त्यात्मनि मूर्ध्नि सकलतत्त्वातीते धारयन् इति कायनियमः। ओमिति जपन् इति वाङ्नियमः। मामनुस्मरन्निति चेतसोऽनन्यगामिता (S चेतसाऽनन्यगामिता)। यः प्रयादि -- दिनाद्दिनम् (N दिनंदिनं) अपुनरावृत्तये गच्छति। तथा च देहं त्यजन् कथं मे (SN omit मे) पुनरिदं सकलापत्स्थानं शरीरं मा भूयात् इत्येवं यो मामनन्यचेताः स्मरति सततमेव याति जानाति (S omits जानाति) स मद्भावम् मत्स्वरूपम्। न (N नन्वत्र) मुनेः परब्रह्माद्वैतपदोपक्षेपविरोधी उत्क्रान्तौ ( तत् क्रान्तौ K (n) विरोधीति उत्क्रान्तौ भरः) भरः। तथाचोक्तम् -- व्यापिन्यां शिवसत्तायाम् उत्क्रान्तिर्नाम निष्फला।अव्यापिनि शिवे नाम नोत्क्रान्तिः शिवदायिनी।।इति।।यदि वा सतताभ्यासोऽपि यैर्न कृतः तथापि कुतश्चित् स्वतन्त्रेश्वरेच्छादेर्निमित्तादन्त्ये (S omits स्वतन्त्र -- ) एव क्षणे यदा तादृग्भावो जायते तदा अयमुत्क्रान्तिलक्षण उपायः संस्कारान्तरप्रतिबन्धक उक्तः। अत एव,यदक्षरं वेदविदो वदन्ति इत्यादिना अभिधास्ये इत्यन्तेन प्रतिज्ञा कृता क्षणमात्रस्यापि भगवदनुचिन्तनस्य,(S चिन्तनमयस्य) सकलसंस्कारविध्वंसनलक्षणाम् अद्भुतवृत्तिं प्रतिपादयितुम्। यदाहुराचार्यवर्याः,(S omits यदाहु -- इति) -- निमेषमपि यद्येकं क्षीणदोषे करिष्यसि।पदं चित्ते तदा शंभो किं न संपादयिष्यसि।।(स्तवचिन्तामणिः श्लो 114) इति।अत एव प्रयाणकाले स्मरणेन विना खण्डना [ दृष्टा ] इति येषां शङ्का तान् वीतशङ्कान् कर्तुमुक्तम्,अनन्यचेताः सततम् इति अन्यत्र फलादौ साध्ये यस्य न चेत इत्यर्थः। तस्याहं सुलभ इति। तस्य,(S omit तस्य) न किंचित् प्रयाणकालौचित्यपर्येषाम् तीर्थसेवा उत्तरायणम् आयतनसंश्रयः(N आवर्तनसंश्रयः) सत्त्वविशुद्धिः (SK -- विवृद्धिः) सचिन्तकत्वम् (N सचित्तकत्वम्) विषुवदादिपुण्यकालः दिनम् अकृत्रिमपवित्रभूपरिग्रहः स्नेहमलविहीनदेहता शुद्धवस्त्रादिपरिग्रहः (SN omit परि -- ) इत्यादिक्लेशोभ्यर्थनीय इत्यर्थः यत्प्रागुक्तम् -- तीर्थ श्वपचगृहे वा इत्यादि।
।।8.14।।नित्यशो माम् उद्योगप्रभृति सततं सर्वकालम् अनन्यचेताः यः स्मरति अत्यर्थं मत्प्रियत्वेन मत्स्मृत्या विना आत्मधारणम् अलभमानो निरतिशयप्रियां स्मृतिं यः करोति तस्य नित्ययुक्तस्य नित्ययोगं काङ्क्षमाणस्य योगिनः अहं सुलभः अहम् एव प्राप्यः न मद्भाव ऐश्वर्यादिकः।सुप्रापश्च तद्वियोगम् असहमानः अहम् एव तं वृणे मत्प्राप्त्यनुगुणोपासनविपाकं तद्विरोधिनिरसनम् अत्यर्थं मत्प्रियत्वादिकं च अहम् एव ददामि इत्यर्थः।यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः (मु0 3।2।3) इति हि श्रूयते वक्ष्यते च।तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।। (गीता 10।1011) इति।अतः परम् अध्यायशेषेण ज्ञानिनः कैवल्यार्थिनश्च अपुनरावृत्तिम् ऐश्वर्यार्थिनः पुनरावृत्तिं च आह --
।।8.14।।ननु वायुनिरोधविधुराणामुदीरितया रीत्या स्वेच्छाप्रयुक्तोत्क्रमणासंभवाद्दुर्लभा परमा गतिरापतेदिति तत्राह -- किञ्चेति। इतश्च भगवदनुस्मरणे प्रयतितव्यमित्यर्थः। सततं नित्यश इति विशेषणयोरपुनरुक्तत्वमाह -- सततमित्यादिना। उक्तमेवापौनरुक्त्यं व्यक्तीकरोति -- नेत्यादिना। जितासुरिच्छया देहं त्यजति तदितरस्तु कर्मक्षयेणैवेति विशेषं विवक्षयन्नाह -- यत इति। अनन्यचेतसं समाहितचेतसं प्रतीश्वरस्य सौलभ्यमेवमित्युच्यते।
।।8.14।।एवं परमात्मचिन्तकानां त्रिधा प्राप्तिमुक्त्वा स्वचिन्तकस्य भक्तस्य स्वप्राप्तिमाह -- अनन्येति। नान्यस्मिन्पुत्रदारादिके (किन्तु अक्षरादिके स्वरूपे) चेतो यस्य तथा मां भगवन्तं लीलापुरुषोत्तमं नित्यशः स्मरति सततं तस्य नित्ययुक्तस्य मदनुरक्तस्य योगिनो मत्सम्बन्धतो वाऽहं निरुपममहिमा वासुदेवः पुरुषोत्तमो भगवान्सुलभो़ऽस्मि।
।।8.14।।य एवं वायुनिरोधवैधुर्येण भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य मूर्धन्यया नाड्या देहं त्यक्तुं स्वेच्छया न शक्नोति किंतु कर्मक्षयेणैव परवशो देहं त्यजति तस्य किं स्यादिति तदाह -- न विद्यते मदन्यविषये चेतो यस्य सोऽनन्यचेताः सततं निरन्तरं नित्यशो,यावज्जीवं यो मां स्मरति तस्य स्ववशतया परवशतया वा देहं त्यजतोऽपि नित्ययुक्तस्य सततसमाहितचित्तस्य योगिनः सुलभः सुखेन लभ्योऽहं परमेश्वरः इतरेषामतिदुर्लभोऽपि हे पार्थ तवाहमतिसुलभो मा भैषीरित्यभिप्रायः। अत्र तस्येति षष्ठी शेषे संबन्धसामान्ये कर्तरिन लोका -- इत्यादिना निषेधात्। अत्र चानन्यचेतस्त्वेन सत्कारोऽत्यादरः सततमिति नैरन्तर्यं नित्यश इति दीर्घकालत्वं स्मरणस्योक्तम्। तेनस तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः इति पातञ्जलं मतमनुसृतं भवति। तत्र स इत्यभ्यास उक्तोऽपि स्मरणपर्यवसायी। तेन यावज्जीवं प्रतिक्षणं विक्षेपान्तरशून्यतया भगवदनुचिन्तनमेव परमगतिहेतुर्मूर्धन्यया नाड्या तु स्वेच्छया प्राणोत्क्रमणं भवतु न वेति नातीवाग्रहः।
।।8.14।।एवं चान्तकाले धारणया मत्प्राप्तिर्नित्याभ्यासवशत एव भवति नान्यस्येति पूर्वोक्तमेवानुस्मारयति -- अनन्येति। नास्त्यन्यस्मिंश्चेतो यस्य तथाभूतः सन् यो मां सततं निरन्तरं नित्यशः प्रतिदिनं स्मरति तस्य नित्ययुक्तस्य समाहितस्याहं सुखेन लभ्योऽस्मि नान्यस्य।
।।8.14।।सङ्गत्यर्थमनुवदति -- एवमिति। अध्यायारम्भगतप्रश्नोत्तरयोस्तत्प्रसञ्जके पूर्वाध्यायान्ते चायं क्रमो न विवक्षितः अधियज्ञान्तिमप्रत्यययोः साधारण्येन प्रतिपादने तात्पर्यात्। इह तु प्रतिनियतार्थोपदेशरूपत्वादुत्तरोत्तरं उत्कृष्टताप्रदर्शनायैश्वर्याक्षरयाथात्म्यं भगवच्चरणार्थिनः क्रमेणोक्तमिति भावः। अत्र चएवम् इति निर्देशात्स्वप्राष्यानुगुणं इति निर्देशाच्च प्रकरणस्याधिकारित्रयविषयत्वव्यवस्थापकहेतवः प्रदर्शिताः। तथाहि -- एवमत्र कश्चिच्छङ्क्येत -- ननुते ब्रह्म तद्विदुः [7।29]किं तद्ब्रह्म [8।1]अक्षरं ब्रह्म परमम् [8।3] इति ब्रह्मशब्दस्य साक्षाद्ब्रह्मविषयत्वे को बाधः तस्यैव च सर्वात्मत्वादध्यात्मशब्देनापि तद्गतं सर्वं ग्रहीतुमुचितम्भूतभावोद्भवकरो विसर्गः [8।3] इत्यपि जगत्सृष्टिग्रहणं युक्तं देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागो वा स चात्र निवृत्तिलक्षणो यज्ञःअधिभूतं क्षरो भावः [8।4] इति च अधिभवतीति व्युत्पत्तेः प्राणिजातम्। पुरुषश्च अधिदैवतमिति परब्रह्मावस्थाविशेषः समष्टिपुरुषादिर्वा अधियज्ञः सर्वयज्ञाभिमानिनी विष्ण्वाख्या देवतायज्ञो वै विष्णुः [श.ब्रा.1।3।1] इति श्रुतेःअन्तकाले च [8।5] इत्यादि श्लोकत्रयमपि मुमुक्षोरेवान्तिमप्रत्ययमधिकृत्योक्तम् प्रश्नप्रतिवचनश्लोकानां पूर्वाध्याये प्रस्तुताधिकारित्रयज्ञातव्योपादेयपरत्वेऽप्युपरितनाःश्लोकाः प्रधानतया सुदुर्लभत्वेन निर्दिष्टज्ञानिपरा युक्ताः अन्यथामामेव स्मरन् [8।5]मामेवैष्यसि [8।7] इत्यादेर्बाधात् अत एवप्रयाणकाले च कथम् [8।2]अन्तकाले च माम् [8।5] इति श्लोकयोरधिकारित्रयपरत्वेऽपि तद्विवरणेऽत्र तदैकार्थ्यं ग्राह्यमित्यपि निरस्तम्। तत्रापि चाधिकारित्रयपरत्वं न प्रतीयते नचैश्वर्यार्थिनः परमपुरुषविषयान्तिमप्रत्ययसापेक्षतायां प्रमाणं पश्यामः एवमुत्तरेष्वपि श्लोकेष्वेक एवाधिकारी तद्वेद्यं चैकमेव पुनः पुनरनूद्य विशेषतो विशदीक्रियते नच पुनरुक्तिदोषः अभ्यासस्य ज्ञानिप्राधान्यलिङ्गत्वात्संसिद्धिं परमां गताः [8।15]स याति परमां गतिं [8।13]तमाहुः परमां गतिम् [8।21] इत्यमीषामैकार्थ्यं च प्रतीतं त्वपरित्याज्यम् न च परमगन्तव्यातिरिक्ता परमसंसिद्धिः।तमाहुः परमां गतिम् [8।21] इति परोक्षनिर्देशश्चपुरुषः स परः पार्थ [8।22] इतिवत्स्यात्परमं पुरुषं दिव्यं [8।8]स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यं [8।10]पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया [8।22] इत्यमीषां भिन्नार्थत्वकल्पनं चायुक्तम् परैरपि च सर्वैः प्रायश एवमैककण्ठ्येन व्याख्यातम् -- इति। अत्रैवं परिहारक्रमः -- अधियज्ञोऽहमेव इतिवत्अहमेव ब्रह्म इत्यनुक्तेरध्यात्मादिवदत्र ब्रह्मशब्दार्थस्याप्यर्थान्तरत्वं तावत्प्रतीतम् नच ब्रह्मशब्दादक्षरशब्दस्य परमात्मनि रूढ्यतिशयः येन ततस्तद्व्याख्यानं स्यात्।एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। ये चाप्यक्षरमव्यक्तम् [12।1] इत्यादिषु च परमात्मनोऽन्यदेवोपास्यत्वमक्षरशब्देन प्रतीयतेद्वे रूपे ब्रह्मणस्तस्य मूर्तं चामूर्तमेव च। क्षराक्षरस्वरूपे ते सर्वभूतेषु च स्थिते।।अक्षरं तत्परं ब्रह्म क्षरं सर्वमिदं जगत् [वि.पु.1।22।5556] इत्यादिषु चाक्षरपरब्रह्मशब्दौ परिशुद्धात्मविषयौ शारीरकभाष्ये समर्थितौ अतोऽत्रकिं तद्ब्रह्म [8।1] इत्युक्तेऽहमेव ब्रह्मेत्यव्याख्यानात्स्वेतरविषयब्रह्मशब्दः परमशब्दविशेषिताक्षरशब्दानुगुण्याच्च प्रकृतेरीश्वराच्चान्यस्मिन्परिशुद्धात्मन्युपचाराद्वर्तते पश्चाच्चायमेवअव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तः [8।21] इति वक्ष्यते न चासौ श्लोकः परमात्मपर इति शङ्कनीयम्ये चाप्यक्षरमव्यक्तं [12।1]ये त्वक्षरमनिर्देश्यं [12।3]क्षरश्चाक्षर एव च [15।16] इत्यादिष्विवात्रापि अक्षरशब्दस्य भगवद्व्यतिरिक्तविषयत्वप्रतीतेः संसिद्धिशब्दश्च परमगतिशब्दनिर्दिष्टप्राप्यविलक्षणां समीचीनां सिद्धिं स्वरसत उपसर्गशक्त्या व्यनक्ति अतएव स्वभावादिशब्दा अधिकारित्रयज्ञातव्योपादेयवस्तुविशेषपरा उक्ताः। एवं स्ववाक्य पर्यालोचनया पूर्वाध्यायप्रकृतपरामर्शेन च प्रश्नप्रतिवचनवाक्यानामधिकारित्रयविषयत्वे सिद्धे तदनन्तराणामपि ग्रन्थानां यथासम्भवं सर्वविषयत्वं युक्तम्। प्रक्रान्ते चाधिकारित्रये यद्वृत्तत्रयेणानूद्यमाने कैवल्यभगवत्प्राप्तिकामयोरनन्तरं स्पष्टमभिधानात्अभ्यास[8।8] इत्यादिकं परिशेषादैश्वर्यार्थिविषयम् यच्चैश्वर्यार्थिनां परमपुरुषविषयान्तिमप्रत्ययसापेक्षतायां प्रमाणं नास्तीति तदपि न श्रीमद्भागवते पुराणे ध्रुवचरिते तद्दृष्टेः -- भक्तिं हरौ भगवति प्रवहन् इत्यादिना। अतो यथोक्त एवार्थः। यद्यपि ब्रह्मपुरुषपरगत्यादिशब्दैरिह सर्वत्र परमात्मभजनतत्प्राप्त्यादिरेव प्रतीयते तथापि तावतैवाधिकारिविषयत्वं वक्तुं न युज्यते पूर्वत्र प्रयाणकाले भ्रूमध्ये प्राणावेशस्य तत्रैव परमात्मध्यानस्य च विहितत्वात् अनन्तरं च हृदि ध्यानस्य मूर्ध्नि प्राणावेशस्य च तत्काल एव विधानात् तदिदं द्वयं परस्परविरुद्धं किं कालभेदाद्व्यवस्थाप्येताधिकारिभेदाद्वा तत्र न तावत्कालभेदः श्रुतः प्रत्युत कालैक्यमेव श्रूयते अतः परिशेषात्सिद्धोऽधिकारिभेदः। किञ्च शतं चैका च [छां.उ.8।6।6] इत्यादिभिर्मूर्धन्यनाड्या निष्क्रमणं मोक्षहेतुः अन्याभिर्निष्क्रमणं फलान्तरहेतुरित्यवगते प्रयाणकाले भ्रूमध्ये मूर्ध्नि च प्राणावेशस्योत्क्रमणशेषतया तत्तद्देशगतनाड्योत्क्रमणे प्रतीते सिद्धस्तदधिकारिभेदः। पूर्वत्र चाध्यायेचतुर्विधा भजन्ते माम् [7।16] इत्यादावयमधिकारिभेदः प्रस्तुतः तदन्ते चजरामरणमोक्षाय [7।29]साधिभूताधिदैवं माम् [7।30] इति श्लोकयोर्यच्छब्दावृत्त्याधिकारिभेदप्रतीतिर्भाष्ये प्रतिपादिता सा चात्रापि स्फुटाअणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः [8।9]यः प्रयाति त्यजन् देहं [8।13]यो मां स्मरति नित्यशः इति। एतदखिलमभिप्रेत्योक्तंएवमैश्वर्यार्थिन इत्यादि।उक्तश्चास्याधिकारीअनन्यचेताः इत्युच्यत इति परोक्तं निराकुर्वन्अनन्यचेताः इति श्लोकस्यार्थमाह -- अथेति।नित्यशः इत्यनेनात्मानुभवादिफलान्तरव्यवधाननैरपेक्ष्यं विवक्षितमित्याह -- उद्योगप्रभृतीति। अन्यथासततम् इत्यनेन पुनरुक्तिः सङ्कोचक्लेशो वा स्यादित्यभिप्रायेणाह -- सततं सर्वकालमिति। अनन्यचेतश्शब्देनाभिप्रेतं स्मृतेर्भक्तिरूपापन्नत्वं दर्शयति -- अत्यर्थेति। अनन्यचेतस्त्वादेव च स्मरणस्याच्छिद्रत्वम्। उत्कण्ठनेऽपि च स्मरतिः प्रयुज्यते -- भ्रातरौ स्मरतां वीरौ [वा.रा.2।13] इत्यादिषु।नित्ययुक्तस्य योगिनः इत्युक्तानुवादः फलस्याव्यवहितत्वद्योतनाय। अत्र अहंशब्देनेश्वरस्य प्रत्यगर्थोऽभिप्रेतः। तेन तद्विशेषणभूताक्षरादिफलप्राप्तिव्यवच्छेदो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाह -- अहमेवेति। तदेव विवृणोति -- न मद्भाव इति। भगवत्प्राप्तेः फलान्तरेभ्योऽतिशयितफलत्वात्तत्प्राप्तौ प्रयासातिरेकसम्भावनाव्यवच्छेदाय सुलभपदमित्यभिप्रायेणाह -- सुप्रापश्चेति। अकृच्छ्रेण प्राप्य इत्यर्थः।ईषद्दुस्सुषु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल् [अष्टा.3।3।126] इत्यनुशिष्यते। आश्रितवत्सलस्येश्वरस्य सौलभ्यं रागप्राप्तमित्याह -- तद्वियोगमिति। उक्तस्यातिवादमात्रत्वशङ्काव्युदासाय श्रुतिमूलतामाह -- यमेवेति। अत्र वरणशब्देन किमुच्यते न तावच्छेषत्वशरीरत्वाद्याकारेण स्वीकारः तस्य नित्यसिद्धत्वात् न च तद्विपरीतः विरुद्धत्वादेव नच प्राप्तिप्रदानंतेन लभ्यः इत्यनेन पौनरुक्त्यप्रसङ्गात् नचान्योऽत्र प्रकारः असम्भवादित्यत्राह -- मत्प्राप्त्यनुगुणेति। विपाकोऽत्र ध्रुवानुस्मृतिरूपत्वदर्शनसमानाधिकारत्वादिरूपः। तद्विरोधिनो दुष्कृतरजस्तमोरागद्वेषमोहादयः।अत्यर्थमत्प्रियत्वं निरतिशयभक्तित्वम्। आदिशब्देन परमपदपर्यन्तासत्तिपर्यन्तं यन्मध्येऽपेक्षितं तत्सर्वं विवक्षितम्।अहमेवेति परमकारुणिकस्य ममैवायं भर इत्यभिप्रायः।तस्याहं सुलभः इत्यादेरुक्तार्थपरत्वस्थिरीकरणायास्यैवार्थस्य वक्ष्यमाणं विस्तरगुदाहृतश्रुत्युपबृंहणरूपं दर्शयति -- वक्ष्यते चेति।,
।।8.14।।एवं योगयुक्तानां स्वांशाक्षरात्मकगतिस्वरूपमुक्त्वा भक्तियुक्तस्य स्वप्राप्तिमाह -- अनन्य इति। सततं निरन्तरमव्यवच्छिन्नतया न अन्यस्िमँल्लौकिकालौकिकविषये चेतो यस्य तादृशो यो मां नित्यशः प्रत्यहं,स्मरति तस्य नित्ययुक्तस्य मम नित्यं सम्मतस्य योगिनः सकाशादहं सुलभः सुखेन लभ्यः प्राप्यः। पार्थेति सम्बोधनेन यथा त्वन्मातृस्मरणबलेन तव सुलभो जातस्तथेति व्यञ्जितम्।
।।8.14।।इयं मतिरतीव दुर्लभेति मामंस्था इत्याह -- अनन्येति। नास्ति अन्यत्र चेतो यस्यासौ अनन्यचेता इत्यनेन स्मरणे आदर उच्यते। सततमिति नैरन्तर्यम्। यो मां स्मरति नित्यश इति दीर्घकालत्वम्। यावज्जीवं स्मरतीत्यर्थः। तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य नित्ये योगिनामावश्यके युक्ताहारविहारादौ यमनियमादौ च युक्तस्यावहितस्य योगिनः। योगमनुतिष्ठतः।
।।8.14।।किंचान्तकाले मत्स्मरणं मत्प्राप्तिकरं न सर्वस्य सुलभं किंतु योगी मां वासुदेवमनन्यचेता नान्यस्मिन्विषये चेतो,यस्य सः। अनेनात्यादार उक्तः सततं सर्वदेति नैरन्तर्यमक्तं नित्यश इति दीर्घकालत्वम्। तथाचात्यादरेण यावज्जीवं नतु षण्मासं वत्सरं वा नैरन्तर्येण यो मां परमेश्वरं स्मरति तस्य योगिनो नित्ययुक्तस्य सदा समाहितचित्तस्याहं सुलभः सुखेनानायासेन लभ्योऽन्तकालेऽनायासलब्धमत्स्मरणेनेति। यत एवमतोऽनन्येचेताः सन्मयि समाहितो भवेदित्याशयः। पार्थेति संबोधयन् तव तूकतासाधनसौलभ्येन मत्प्राप्तिः सलभेति सूचयति।
8.14 अनन्यचेताः with the mind not thinking of any other object? सततम् constantly? यः who? माम् Me? स्मरति remembers? नित्यशः daily? तस्य of him? अहम् I? सुलभः easily attainable? पार्थ O Partha? नित्ययुक्तस्य eversteadfast? योगिनः of Yogi.Commentary I am easily attainable by that eversteadfast Yogi who constantly and daily remembers Me (for a long time)? not thinking of anything else (with a single mind or onepointed mind)? O Partha (Arjuna).Commentary Constantly remembering the Lord throughout the life is the most easy way of attaining Him.Ananyachetah He has no attachment for any other object. He will not think of any other object save his IshtaDevata or tutelary deity.Nityasah For a long time? i.e.? till the end of life.He who remembers the Lord by fits and starts or he who remembers Him for six montsh and then leaves the practice and then again remembers Him for six months and so on cannot attain Him. (Cf.IX.22?34)
8.14 I am easily attainable by that ever-steadfast Yogi who constantly and daily remembers Me (for a long time), not thinking of anything else (with a single mind or one-pointed mind), O Partha (Arjuna).
8.14 To him who thinks constantly of Me, and of nothing else, to such an ever-faithful devotee, O Arjuna, am I ever accessible.
8.14 O son of Prtha, to that yogi of constant concentration and single-minded attention, who remembers Me uninterruptedly and for long, I am easy of attainment.
8.14 Partha, O son of Prtha, tasya yoginah, to that yogi; nitya-yuktasya, of constant concentration, who is ever absorbed (in God); and ananya-cetah, of single-minded attention, a yogi whose mind is not drawn to any other object; yah, who; smarati, remembers; mam, Me, the supreme God; satatam, uninteruptedly; and nityasah, for long-. By satatam, uninterrupteldy, is meant 'without any break'. By niryasah, is meant along duration. Not six months, nor even a year! What then? The meaning is: He who remembers Me for his whole life, continuously. To that yogi aham, I; am sulabhah, easy of attainment. Since this is so, therefore one should remain ever absorbed in Me, with mind given to nothing else. 'What follows from Your being easy of attainment?' This is being answered: 'Hear what follows from My being easy of attainment.'
8.14. And whosoever constantly bears Me in mind never attached to any other object-for this Yogin, ever devout, I am easy to attain, O son of Prtha !
8.12-14 Sarvadvarani etc., upto Yoginah. The gates : the sense organs, like the eyes and not the place of excrement etc. Restraining the mind in the heart : By this, only the absence of attachment towards the objects, and not any seat, is stated. One's own Prana : the driver of one's own Self (the vital air). So, the meaning is 'Fixing this Prana in the head i.e., the very Self with the Power-of-Will, lying beyond all categories. Thus the controlling of body [has been prescribed]. Reciting Om : This denotes the act of controlling the sense of speech. Meditating on Me : It signifies the non-wandering of the mind over other objects. Whosoever travels well : Whosoever travels day after day not to return back (i.e., for final emancipation). Therefore casting away the body i.e., longing 'How to avoid taking once again the body, a repository of all troubles', whosoever remembers Me always with his mind, that thinks nothingelse-he reaches Me i.e., he realises My state. Really the Sage (Vyasa) does not favour [the idea of] upward flight [of the Soul from the body] that may go against the pronounced intention of [attaining] total identity with the Absolute Brahman that admits no duality. Therefore it has been said : 'If the Siva-existence (the Absolute State) is Omnipresent, then the upward flight serves no purpose indeed. On the othe hand, if Siva (the Absolute) is not Omnipresent then the upward flight cannot yield Siva (the Auspicious one, the Absolute)'. Alternately [the Gita passage may be interpreted as :] If some persons have not undergone the process of constant practice, yet at the time of death there arises [in them] - due to some undefinable reason, like the Free Will of the Lord and the like-a condition, similar to the one mentioned above, then [in the case of those persons] this condition itself - characterised as 'the flight from the body' (getting oneself disassociated from the body) - is stated [by the Sage] as a means obstructing all the other potential mental impressions. That is why in the passage starting 'That unchanging one which the Veda-knowers speek of' and ending 'I shall tell you that', [the Sage] has made a solemn declaration in order to explain the astonishing nature of the reflection on the Bhagavat - even though it lasts only a moment - marked by the destruction of all the [other] potential mental impressions. Hence the great teachers also say : 'O Sambhu ! If You could set Your foot, atleast for the duration of a single winking of the eye, in [my] blemishless mind, what else would You not accomplish [for me]'. That is why, with a view to satisfy those who raise the estion 'But the breaking [of body of the wise] has been found without remembrance [of the Lord] at the time of departure', here it is said 'He who [remembers Me] constantly with the mind, not attached to any other thing.' The meaning of it is : 'He whose mind is not attached to any other result to be achieved.' For him I am easy to attain : For him there is no need to undertake the trouble of searching for a suitable time for departure; making pilgrimage to sacred places; [waiting for] the time of the summer solastice; taking shelter in the temples; augmenting the [Strand] Sattva; remaining absorbed in the thought [of the Lord]; [expecting] the auspicious moment of einox and of the day [time]; selecting a locality that is naturally pure; having body free from dirt of attachment (or unguent); wearing clean cloth; and similar other ones. Hence it has been stated earlier [under VIII, 5-7 above] 'Either in a sacred place or in the house of a dog-cooker' etc. But it has been declared that 'He attains My State.' Will there he rirth for him even after attaining that State ? Considering this doubt [the Lord] says :
8.14 I am easy to access to that Yogin who is 'ever integrated with Me,' i.e., who wants constant contact with Me, who recollects Me; and whose mind is not in 'anything else without break' (Nityasah), i.e., at the time of meditation and also during all other times (Satatam). As I am exceedingly dear to him, he is unable to sustain himself without remembering Me and cherishing My memory which is incomparably dear to him. I am the only object he wants to attain and not any mode of My being like sovereignty, etc. I Myself grant him the capacity to attain full maturity in devotional practice necessary for attaining Me - namely, the annulment of all obstacles and the establishment of the state of mind that renders Me exceedingly dear to oneself. The Sruti also says: 'He whom this (Self) chooses, by him He can be obtained' (Mun. U., 3.2.3 and Ka. U., 2.22). And Sri Krsna Himself will teach: "To those, ceaselessly united, who worship Me, I bestow that discernment by which they come to Me. Out of mercy for them, I, abiding in their heart, dispel the darkness born of ignorance, by the brilliant lamp of knowledge" (10.10;11). In the remaining part of this chapter, He teaches that the Jnanis and the aspirants after Kaivalya do not deturn, and that the seekers after power and prosperity return.
8.14 O son of Prtha, to that yogi of constant concentration and single-minded attention, who remembers Me uninterruptedly and for long, I am easy of attainment.
।।8.14।।तथा --, अनन्यचित्तवाला अर्थात् जिसका चित्त अन्य किसी भी विषयका चिन्तन नहीं करता ऐसा जो योगी सर्वदा निरन्तर प्रतिदिन मुझ परमेश्वरका स्मरण किया करता है। यहाँ सततम् इस शब्दसे निरन्तरताका कथन है और नित्यशः इस शब्दसे दीर्घकालका कथन है अतः यह समझना चाहिये कि छः महीने या एक वर्ष ही नहीं किंतु जीवनपर्यन्त जो निरन्तर मेरा स्मरण करता है। हे पार्थ उस नित्यसमाधिस्थ योगीके लिये मैं सुलभ हूँ। अर्थात् उसको मैं अनायास प्राप्त हो जाता हूँ। जब कि यह बात है इसलिये ( मनुष्यको ) अनन्य चित्तवाला होकर सदा ही मुझमें समाहितचित्त रहना चाहिये।
।।8.14।। --,अनन्यचेताः न अन्यविषये चेतः यस्य सोऽयम् अनन्यचेताः योगी सततं सर्वदा यः मां परमेश्वरं स्मरति नित्यशः। सततम् इति नैरन्तर्यम् उच्यते नित्यशः इति दीर्घकालत्वम् उच्यते। न षण्मासं संवत्सरं वा किं तर्हि यावज्जीवं नैरन्तर्येण यः मां स्मरतीत्यर्थः। तस्य योगिनः अहं सुलभः सुखेन लभ्यः हे पार्थ नित्ययुक्तस्य सदा समाहितचित्तस्य योगिनः। यतः एवम् अतः अनन्यचेताः सन् मयि सदा समाहितः भवेत्।।तव सौलभ्येन किं स्यात् इत्युच्यते श्रृणु तत् मम सौलभ्येन यत् भवति --,
।।8.14।।नित्ययुक्तस्य योगिन इत्येतयोरेकार्थतानिरासार्थमाह -- नित्येति। नित्योपायवत्त्वेन सम्पूर्णयोगस्येत्यर्थः।
।।8.14।।नित्ययुक्तस्य नित्योपायवतः। योगिनः परिपूर्णयोगस्य।
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।8.14।।
অনন্যচেতাঃ সততং যো মাং স্মরতি নিত্যশঃ৷ তস্যাহং সুলভঃ পার্থ নিত্যযুক্তস্য যোগিনঃ৷৷8.14৷৷
অনন্যচেতাঃ সততং যো মাং স্মরতি নিত্যশঃ৷ তস্যাহং সুলভঃ পার্থ নিত্যযুক্তস্য যোগিনঃ৷৷8.14৷৷
અનન્યચેતાઃ સતતં યો માં સ્મરતિ નિત્યશઃ। તસ્યાહં સુલભઃ પાર્થ નિત્યયુક્તસ્ય યોગિનઃ।।8.14।।
ਅਨਨ੍ਯਚੇਤਾ ਸਤਤਂ ਯੋ ਮਾਂ ਸ੍ਮਰਤਿ ਨਿਤ੍ਯਸ਼। ਤਸ੍ਯਾਹਂ ਸੁਲਭ ਪਾਰ੍ਥ ਨਿਤ੍ਯਯੁਕ੍ਤਸ੍ਯ ਯੋਗਿਨ।।8.14।।
ಅನನ್ಯಚೇತಾಃ ಸತತಂ ಯೋ ಮಾಂ ಸ್ಮರತಿ ನಿತ್ಯಶಃ. ತಸ್ಯಾಹಂ ಸುಲಭಃ ಪಾರ್ಥ ನಿತ್ಯಯುಕ್ತಸ್ಯ ಯೋಗಿನಃ৷৷8.14৷৷
അനന്യചേതാഃ സതതം യോ മാം സ്മരതി നിത്യശഃ. തസ്യാഹം സുലഭഃ പാര്ഥ നിത്യയുക്തസ്യ യോഗിനഃ৷৷8.14৷৷
ଅନନ୍ଯଚେତାଃ ସତତଂ ଯୋ ମାଂ ସ୍ମରତି ନିତ୍ଯଶଃ| ତସ୍ଯାହଂ ସୁଲଭଃ ପାର୍ଥ ନିତ୍ଯଯୁକ୍ତସ୍ଯ ଯୋଗିନଃ||8.14||
ananyacētāḥ satataṅ yō māṅ smarati nityaśaḥ. tasyāhaṅ sulabhaḥ pārtha nityayuktasya yōginaḥ৷৷8.14৷৷
அநந்யசேதாஃ ஸததஂ யோ மாஂ ஸ்மரதி நித்யஷஃ. தஸ்யாஹஂ ஸுலபஃ பார்த நித்யயுக்தஸ்ய யோகிநஃ৷৷8.14৷৷
అనన్యచేతాః సతతం యో మాం స్మరతి నిత్యశః. తస్యాహం సులభః పార్థ నిత్యయుక్తస్య యోగినః৷৷8.14৷৷
8.15
8
15
।।8.15।। महात्मालोग मुझे प्राप्त करके दुःखालय और अशाश्वत पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होते; क्योंकि वे परमसिद्धिको प्राप्त हो गये हैं अर्थात् उनको परम प्रेमकी प्राप्ति हो गयी है।
।।8.15।। परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप (गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं।।
।।8.15।। आत्मानुभूति के द्वारा ज्ञानी पुरुष को प्राप्त लाभ का मूल्यांकन करते हुए यहाँ कहा गया है कि मुझे प्राप्त कर महात्मा जन पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते। तत्त्व चिन्तक दार्शनिकों के अनुसार समस्त दुःखों का मूल है पुनर्जन्म। श्रीकृष्ण भी यहाँ पुनर्जन्म को दुःखालय और अशाश्वत कहते हैं।भारतीय दर्शन के इतिहास में एक बात ध्यान देने योग्य है कि प्रारम्भ में अमृतत्त्व को जीवन का लक्ष्य माना जाता था परन्तु बाद में पुनर्जन्म के अभाव को लक्ष्य स्वीकार किया गया। मनुष्य को सब अनुभवों में मृत्यु का अनुभव सर्वाधिक भयानक प्रतीत होता है। यही कारण है कि प्रारम्भ में साधक का समस्त प्रयत्न और व्याकुलता इस अपरिहार्य मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए थी। जीवन की घटनाओं का सम्यक् अवलोकन और मूल्यांकन करने पर जैसेजैसे उसके ज्ञान में वृद्धि हुई और विचारों में परिपक्वता आयी तब शीघ्र ही अध्यात्म के विचारक ऋषियों ने यह पाया कि जो लोग यह समझ लेते हैं कि जीवन के अनुभवों में मृत्यु भी एक है तो उनके लिए मृत्यु की भयंकरता समाप्त हो जाती है। जीवन के अखण्ड अस्तित्व को मृत्यु काट नहीं सकती। सत्य के विषय में अत्यन्त निष्पक्ष एवं निर्मम भाव से विचार करने वाले ऋषिगण तर्क एवं अनुभव के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि समस्त दुःख जन्म के साथ प्रारम्भ होते हैं। अतः जीवन का लक्ष्य पुनर्जन्म का अभाव होना चाहिए।पुनर्जन्म का स्वप्न और उसके अपरिहार्य कष्ट मिथ्या अहंकार अथवा जीव को ही होते हैं। अजन्मा आत्मा ही जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य से जीवभाव को प्राप्त होता है। बल्ब उपाधि में व्यक्त विद्युत् ही प्रकाश है उस बल्ब के फूट जाने पर कार्यरूप प्रकाश अपने कारणरूप विद्युत् में लीन हो जाता है जबकि विद्युत् एकमेव अद्वितीय सर्वत्र समान रूप से विश्व के सभी बल्बों में प्रकाशित होती है। इसी प्रकार अन्तःकरण की उपाधि से विशिष्ट अथवा परिच्छिन्न आत्मा ही जीव कहलाता है उसको ही जन्म वृद्धि व्याधि क्षय और मृत्यु के सम्पूर्ण दुःख और कष्ट सहने होते हैं। उपाधि के लय होने पर अर्थात् उससे हुए तादात्म्य के निवृत्त होने पर जीव अनुभव करता है कि वह स्वयं ही चैतन्य स्वरूप आत्मा है।आत्मज्ञानी पुरुष जानता है कि उसका मन और बुद्धि से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। जैसै जाग्रत् पुरुष का स्वप्न में देखे हुए पत्नी और पुत्रों से कोई सम्बन्ध नहीं होता ठीक वैसे ही आत्मस्वरूप के प्रति जाग्रत् होने पर अहंकार (जीव) अपने दुःखपूर्ण परिच्छिन्न जीवन के साथ ही समाप्त हो जाता है। ऐसे महात्मा जनों को इस जगत् में पुनर्जन्म लेकर दुःखों को भोगने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।जिस पुरुष ने जीवन पर्यन्त सतत आत्मानुसंधान की साधना से इन्द्रियों का संयम करना सीख लिया हो और मन को हृदय में तथा प्राण को बुद्धि में स्थापित कर लिया हो ऐसा पुरुष अनन्त नित्य स्वरूप को साक्षात् आत्मभाव से अनुभव करता है। तत्पश्चात् वह पुनः किसी देह विशेष में जन्म लेकर परिच्छिन्न विषयों में अनन्त सुख की व्यर्थ खोज नहीं करता।तब क्या ऐसे लोग हैं जो परा गति को प्राप्त न होकर पुनः जगत् को लौटते हैं इस पर कहते हैं --
।।8.15।। व्याख्या--'मामुपेत्य पुनर्जन्म ৷৷. संसिद्धिं परमां गताः'--'मामुपेत्य' का तात्पर्य है कि भगवान्के दर्शन कर ले, भगवान्को तत्त्वसे जान ले अथवा भगवान्में प्रविष्ट हो जाय तो फिर पुनर्जन्म नहीं होता। पुनर्जन्मका अर्थ है--फिर शरीर धारण करना। वह शरीर चाहे मनुष्यका हो, चाहे पशु-पक्षी आदि किसी प्राणीका हो, पर उसे धारण करनेमें दुःख-ही-दुःख है। इसलिये पुनर्जन्मको दुःखालय अर्थात् दुःखोंका घर कहा गया है।मरनेके बाद यह प्राणी अपने कर्मोंके अनुसार जिस योनिमें जन्म लेता है, वहाँ जन्म-कालमें जेरसे बाहर आते समय उसको वैसा कष्ट होता है जैसा कष्ट मनुष्यको शरीरकी चमड़ी उतारते समय होता है। परन्तु उस समय वह अपना कष्ट, दुःख किसीको बता नहीं सकता, क्योंकि वह उस अवस्थामें महान् असमर्थ होता है। जन्मके बाद बालक सर्वथा परतन्त्र होता है। कोई भी कष्ट होनेपर वह रोता रहता है,-- पर बता नहीं सकता। थोड़ा बड़ा होनेपर उसको खाने-पीनेकी चीजें, खिलौने आदिकी इच्छा होती है और उनकी पूर्ति न होनेपर बड़ा दुःख होता है। पढ़ाईके समय शासनमें रहना पड़ता है। रातों जागकर अभ्यास करना पड़ता है तो कष्ट होता है। विद्या भूल जाती है तथा पूछनेपर उत्तर नहीं आता तो दुःख होता है। आपसमें ईर्ष्या, द्वेष, डाह, अभिमान आदिके कारण हृदयमें जलन होती है। परीक्षामें फेल हो जाय तो मूर्खताके कारण उसका इतना दुःख होता है कि कई आत्महत्यातक कर लेते हैं।जवान होनेपर अपनी इच्छाके अनुसार विवाह आदि न होनेसे दुःख होता है। विवाह हो जाता है तो पत्नी अथवा पति अनुकूल न मिलनेसे दुःख होता है। बाल-बच्चे हो जाते हैं तो उनका पालन-पोषण करनेमें कष्ट होता है। लड़कियाँ बड़ी हो जाती हैं तो उनका जल्दी विवाह न होनेपर माँ-बापकी नींद उड़ जाती है, खाना-पीना अच्छा नहीं लगता, हरदम बेचैनी रहती है।वृद्धावस्था आनेपर शरीरमें असमर्थता आ जाती है। अनेक प्रकारके रोगोंका आक्रमण होने लगता है। सुखसे उठना-बैठना, चलना-फिरना, खाना-पीना आदि भी कठिन हो जाता है। घरवालोंके द्वारा तिरस्कार होने लगता है। उनके अपशब्द सुनने पड़ते हैं। रातमें खाँसी आती है। नींद नहीं आती। मरनेके समय भी बड़े भयंकर कष्ट होते हैं। ऐसे दुःख कहाँतक कहें? उनका कोई अन्त नहीं।मनुष्य-जैसा ही कष्ट पशु-पक्षी आदिको भी होता है। उनको शीत-घाम, वर्षा-हवा आदिसे कष्ट होता है। बहुत-से जंगली जानवर उनके छोटे बच्चोंको खा जाते हैं तो उनको बड़ा दुःख होता है। इस प्रकार सभी योनियोंमें अनेक तरहके दुःख होते हैं। ऐसे ही नरकोंमें और चौरासी लाख योनियोंमें दुःख भोगने पड़ते हैं। इसलिये पुनर्जन्मको 'दुःखालय' कहा गया है।
।।8.15।।ननु मद्भावं याति इत्युक्तम्। तत्किं (SN तत्र किम्) प्राप्तेऽपि पुनरावृत्तिरस्ति इत्यशंक्याह -- मामुपेत्येति। अन्यतस्तु सर्वत एव पुनरावृत्तिरस्ति इति ( omits अन्यतस्तु -- इति) समनन्तरश्लोकेन प्रतिपादयिष्यते। मां तु प्राप्य न पुनर्योगिनः जन्मादित्रासमाप्नुवन्ति ( N प्राप्नुवन्ति NK (n) add न स पुनरावर्तते इति श्रुतेः। यं प्राप्य न निवर्तन्ते इत्यग्रेऽपि) ।
।।8.15।।मां प्राप्य पुनः निखिलदुःखालयम् अस्थिरं जन्म न प्राप्नुवन्ति यत एते महात्मानः महामनसो यथावस्थितमत्स्वरूपज्ञानाः अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मया विना आत्मधारणम् अलभमाना मयि आसक्तमनसो मदाश्रयाः माम् उपास्य परमसंसिद्धिरूपं मां प्राप्ताः।ऐश्वर्यगतिं प्राप्तानां भगवन्तं प्राप्तानां च पुनरावृत्तौ अपुनरावृत्तौ च हेतुम् अनन्तरम् आह --
।।8.15।।किं त्वां प्राप्तास्त्वय्येवावतिष्ठन्ते किं वा पुनरावर्तन्ते चन्द्रलोकादिवेति संदेहात्पृच्छति -- तवेति। तत्रोत्तरश्लोकेन निश्चयं दर्शयति -- उच्यत इति। ईश्वरोपगमनं न सामीप्यमात्रमिति व्याचष्टे -- मद्भावमिति। पुनर्जन्मनोऽनिष्टत्वं प्रश्नद्वारा स्पष्टयति -- किमित्यादिना। महात्मत्वं प्रकृष्टसत्त्ववैशिष्ट्यम्।,यतयस्तस्मिन्नेवेश्वरे समुत्पन्नसम्यग्दर्शिनो भूत्वेति शेषः। भगवन्तमुपगतानामपुनरावृत्तौ ततो विमुखानामनुपजातसम्यग्धियां पुनरावृत्तिरर्थसिद्धेत्याह -- ये पुनरिति।
।।8.15।।स्वप्राप्तावपुनरावृत्तिं सदाचारेण दर्शयति -- मामिति। परमपुरुषं अन्तर्यामिणमक्षरं परं पुरुषोत्तमं मां प्राप्य पुनर्जन्म न प्राप्नुवन्ति महात्मानः किन्तु परमां सिद्धिं मुक्तिं निर्गुणां गताः।
।।8.15।।भगवन्तं प्राप्ताः पुनरावर्तन्ते न वेति संदेहे नावर्तन्त इत्याह -- मामीश्वरं प्राप्य पुनर्जन्म मनुष्यादिदेहसंबन्धम्। कीदृशम्। दुःखालयं गर्भवासयोनिद्वारनिर्गमनाद्यनेकदुःखस्थानं अशाश्वतमस्थिरं दृष्नष्टप्रायं नाप्नुवन्ति। पुनर्नावर्तन्त इत्यर्थः। यतो महात्मानः रजस्तमोमलरहितान्तःकरणाः शुद्धसत्त्वाः समुत्पन्नसम्यग्दर्शना मल्लोकभोगान्ते परमां सर्वोत्कृष्टां संसिद्धिं मुक्तिं गतास्ते। अत्र मां प्राप्य सिद्धिं गता इति वदतोपासकानां क्रममुक्तिर्दर्शिता।
।।8.15।।यद्यप्येवं त्वं सुलभोऽसि ततः किमत आह -- मामिति। उक्तलक्षणा महात्मानो मद्भक्ता मां प्राप्य पुनर्दुःखाश्रयमनित्यं च जन्म न प्राप्नुवन्ति। यतस्ते परमां सम्यक्सिद्धिं मोक्षमेव प्राप्ताः पुनर्जन्म दुःखानां चालयं स्थानं ते मामुपेत्य न प्राप्नुवन्तीति वा।
।।8.15।।इतः पूर्वं त्रयाणामधिकारिणां केचन वेद्योपादेयभेदाः प्रतिपादिताः अतः परमधिकारौपयिकतयाऽवश्यवेद्यस्य फलस्य स्थिरास्थिरत्वलक्षणविशेषं दर्शयतीत्याह -- अतः परमिति। अत्र ज्ञानिनस्तावदपुनरावृत्तिरुच्यतेमामुपेत्य इति श्लोकेन। दुःखानन्त्यस्य सर्वप्रमाणसिद्धत्वाद्दुःखशब्दस्य निर्विशेषणस्य सङ्कोचायोगात् -- निखिलेत्युक्तम्। जन्मनश्चाशाश्वतशब्दनिर्दिष्टमस्थिरत्वं,जन्माविनाभूतदेहभोगाद्यस्थिरत्वरूपमिह विवक्षितम् जन्मशब्दो वाऽत्र जनिमच्छरीरपरः।महात्मानः इति स्तुतिमात्रादपि माहात्म्यस्यात्र संसिद्धिहेतुत्वमुचितमित्यभिप्रायेणाह -- यत इति। महामनस्त्वं ज्ञानिनां प्राक्प्रपञ्चितमिहानूदितं दर्शयतियथावस्थितेत्यादिना। अभिलषितस्य फलस्य सिद्धिव्यपदेशौचित्यात् परमशब्दस्वारस्याच्चपरमसंसिद्धिरूपं मामित्युक्तम्। परमसंसिद्धिरूपं परमपुरुषार्थरूपमित्यर्थः। समीचीना सिद्धिः संसिद्धिः।
।।8.15।।नन्वेवमेव तत्तद्देवोपासकास्तत्तत्सायुज्यं प्राप्नुवन्तीति तत्तच्छास्त्रेषु निगद्यत इति भवत्प्राप्तौ को विशेषः इत्याकाङ्क्षायां स्वप्राप्तेर्विशेषमाह -- मामुपेत्येति। महात्मानो महात्मका भक्ता परमां संसिद्धिं भावरूपां गताः सन्तो मामेकं पुरुषोत्तममुपेत्य समीपे प्राप्य पुनः दुःखालयं संसारात्मकं अशाश्वतमनित्यं लौकिकं जन्म न प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।
।।8.15।।त्वल्लाभेऽपि किं स्यादत आह -- मामिति। मामुपेत्य पुनर्द्वितीयवारं जन्म नाप्नुवन्ति। यज्जन्म दुःखानामालयभूतं मूढदृष्ट्या किंचित्सुखालयत्वेऽप्यशाश्वतं नश्वरम्। तुच्छमित्यर्थः। के नाप्नुवन्ति। महात्मानो योगेन जितचित्ताः। अतएव परमां संसिद्धिं मोक्षं गताः। अगता अपि प्रत्यासन्नत्वाद्गता एव। तथा ब्रह्मलोकगतान्प्रकृत्य स्मर्यतेब्रह्मणा सह ते सर्वे संप्राप्ते प्रतिसंचरे। परस्यान्ते कृतात्मानः प्रविशन्ति परं पदम् इति। प्रतिसंचरे ब्राह्मे प्रलये। परस्य चतुर्मुखस्य अन्ते नाशे।
।।8.15।।किं त्वां प्राप्ताश्चन्द्रलोकादिव पुनरावर्तन्ते उत नेति संदिहानं प्रत्याह -- मामिति। मामीश्वरमुपेत्य मद्भावं मत्सारुप्यादिकमापद्य पुनर्जन्म पुररुत्पत्तिं पुनरावृत्तिमितियावत्। किंविशिष्टं पुनर्जन्म न प्राप्तनुवन्तीति तद्विशेषणमाह। दुःखालयं दुःखानामाध्यात्मिकाधिकाधिभौतिकाधिदैविकानामालयमालीयन्ते दुःखान्यस्मिन्निति दुःखालयम्। दुःखाश्रयमिति यावत्। तत्राध्यात्मिकं द्विविधं शारीरं मानसं च। वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यनिमित्तं शारीरं कामक्रोधलोभमोहभयोर्ष्याविषयविशेषादर्शनादिनिबन्धनं मानसं। सर्वं चैतदान्तरोपायसाध्यत्वादाध्यात्मिकं मनुष्यपशुमृगपक्षिसरीसृपस्थावरनिमित्तामाधिभौतिकं यक्षराक्षसविनायकग्रहाद्यावेशनिबन्धनमाधिदैविकं। आधिभौतिकमादिदैविकं च दुःखं बाह्योपायसाध्यं पुनर्जन्मनो दुःखानां चालयं स्थानमिति। अस्मिन्पक्षेमामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते इति वक्ष्यमाणाननुरोधो विशेष्याध्याहारापत्त्यादि दोषश्चातपतत्यत आचार्यौरयं पक्ष उपेक्षतिः। गर्भवासयोनिद्वारनिर्गमनादिदुःखानां दुःखत्रयेष्वन्तर्भावो बोध्यः। न केवलं दुःखालयं अशाश्वतं अशश्वद्भवमनवस्थितरुपं चेदृशं पुनर्जन्म नाप्नुवन्ति। यतः महात्मानः विशुद्धचित्ताः तस्मिन्परमेश्वरे समुत्पन्नसम्यग्दर्शनाः संसिद्धिं परमां प्रकृष्टां मोक्षाभिधां गताः प्राप्ताः परमां सिद्धिं मोक्षं गता अगता अपि पत्यासन्नत्वात्गता एव। यथा ब्रह्मलोकगतान्प्रकृत्य स्मर्यतेब्रह्मणा सह ते सर्वे संप्राप्ते प्रतिसंचरे। परस्यान्ते कृतात्मानः प्रविशन्ति परं पदम्।। इति। प्रतिसंचरे ब्रह्मप्रलये। परस्य चतुर्मुखस्यान्ते नाशे इत्यन्ये। अस्मिन्पक्षे आब्रह्मभवनादित्यत्तरश्लोकवि रोधोमुख्यार्थपरित्यागश्च बोध्यः।
8.15 माम् to Me? उपेत्य having attained? पुनर्जन्म rirth? दुःखालयम् the place of pain? अशाश्वतम् noneternal? न not? आप्नुवन्ति get? महात्मानः Mahatmas or the great souls? संसिद्धिम् to perfection? परमाम् highest? गताः having reached.Commentary Birth is the home of pain or seat of sorrow arising from the body. Study the Garbhopanishad. There the nature of pain? i.e.? how the child is confined in the womb? and how it is pressed during its passage along the vaginal canal and the neck of the womb or uterus? is described. Further it is much affected by the PrasutiVayu (the vital air which is responsible for the delivery of the child).Mahatmas (great souls) are free from Rajas and Tamas.Having attained Me This denotes KramaMukti or gradual liberation. The devotees who pass along the Devayana through the force of their Upasana? attain to Brahmaloka (the world of Brahma the Creator) or Satyaloka (the world of truth? the highest of the seven worlds) and there enjoy all the divine wealth and glory of the Lord and then attain to Kaivalya Moksha (final liberation) through the knowledge of Brahman? along with Brahma during the cosmic dissolution.Mahatmas or great souls who have attained Moksha do not come again to birth. Those who have not attained Me? take birth again in this world.
8.15 Having attained Me these great souls do not again take birth (here) which is the place of pain and is non-eternal: they have reached the highest perfection (liberation).
8.15 Coming thus unto Me, these great souls go no more to the misery and death of earthly life, for they have gained perfection.
8.15 As a result of reaching Me, the exalted ones who have attained the highest perfection do not get rirth which is an abode of sorrows and which is impermanent.
8.15 Upetya mam, as a result of reaching Me who am God-as a result of realizing My nature; mahatmanah, the exalted ones, the monks; gatah, who have attained; the paramam, highest; samsiddhim, perfection, called Liberation; na, do not; apnuvanti, get; this kind of punarjanama, rirth. As to what kind of rirth they do not get, the Lord states its characteristics-duhkhalayam, which is an abode of sorrows, a resort of physical and other sorrows, i.e. a birth to which sorrows adhere. It is not merely an abode of sorrows, but also asavatam, impermanent, having no fixity of nature. On the other hand, those who do not reach Me, they come again. Again, 'Is it that those who attain someone other than You return?' This is being answered:
8.15. Having attained Me, the men of great soul who have achieved the supreme perfection, do not get the transient rirth, a store-house of all troubles.
8.15 Mam upetya etc. In the next verse it is going to be asserted that from all others (other goals) one has to return back. But [in the present verse it is declared that ] 'having attained Me, the Yogins do not again suffer from fear of rirth etc.'
8.15 Having attained Me, they are not subject to rirth, which leads to a condition that is transient and an abode of sorrow. These great souls, i.e., men of noble minds, worship and attains Me as the sorrow object of attainment; because they possess knowledge of My essential nature as it really is; they are unable to maintain or sustain themselves without Me, as I am exceedingly dear to them. With their minds deeply attached to Me and completely dependent on Me, they reach Me as the supreme goal. Sri Krsna next teaches the reason for the return to Samsara of those aspirants for Aisvarya (prosperity) and for the non-return to Samsara of those who have reached the Lord:
8.15 As a result of reaching Me, the exalted ones who have attained the highest perfection do not get rirth which is an abode of sorrows and which is impermanent.
।।8.15।।आपके सुलभ हो जानेसे क्या होगा इसपर कहते हैं कि मेरी सुलभ प्राप्तिसे जो होता है वह सुन --, मुझ ईश्वरको पाकर अर्थात् मेरे भावको प्राप्त करके फिर ( वे महापुरुष ) पुनर्जन्मको नहीं पाते। किस प्रकारके पुनर्जन्मको नहीं पाते यह स्पष्ट करनेके लिये उसके विशेषण बतलाते हैं -- आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकारके दुःखोंका जो स्थान -- आधार है अर्थात् समस्त दुःख जिसमें रहते हैं केवल दुःखोंका स्थान ही नहीं जो अशाश्वत भी है अर्थात् जिसका स्वरूप स्थिर नहीं है ऐसे पुनर्जन्मको मोक्षरूप परम श्रेष्ठ सिद्धिको प्राप्त हुए महात्मा -- संन्यासीगण नहीं पाते। परंतु जो मुझे प्राप्त नहीं होते वे फिर संसारमें आते हैं।
।।8.15।। --,माम् उपेत्य माम् ईश्वरम् उपेत्य मद्भावमापद्य पुनर्जन्म पुनरुत्पत्तिं नाप्नुवन्ति न प्राप्नुवन्ति। किं विशिष्टं पुनर्जन्म न प्राप्नुवन्ति इति तद्विशेषणमाह -- दुःखालयं दुःखानाम् आध्यात्मिकादीनां आलयम् आश्रयम् आलीयन्ते यस्मिन् दुःखानि इति दुःखालयं जन्म। न केवलं दुःखालयम् अशाश्वतम् अनवस्थितस्वरूपं च। नाप्नुवन्ति ईदृशं पुनर्जन्म महात्मानः यतयः संसिद्धिं मोक्षाख्यां परमां प्रकृष्टां गताः प्राप्ताः। ये पुनः मां न प्राप्नुवन्ति ते पुनः आवर्तन्ते।।किं पुनः त्वत्तः अन्यत् प्राप्ताः पुनरावर्तन्ते इति उच्यते --,
।।8.15।।स याति परमां गतिम् [8।13]तस्याहं सुलभः [8।14] इति द्वेधावचनात् परमगतिर्भगवल्लाभश्च पृथगिति न मन्तव्यम् भगवत्प्राप्तेरेवोत्तरत्र स्तुतेः अन्यथोभयस्तुतिप्रसङ्गादित्यभिप्रायेणाह -- तत्प्राप्तिमिति। तर्हि कथंमामुपेत्य इत्युक्त्वासंसिद्धिं परमां गताः इति पृथगुक्तिः इत्यत आह -- परमामिति। ये मामुपेतास्ते परमां सिद्धिं मोक्षलक्षणां हि गताः। न च मुक्तानां निर्बीजं जन्म सम्भवतीत्येवं तत्र स्वयम्प्राप्तानां जन्माभावे हेतुरयमुच्यते। न तु भगवत्प्राप्तेरन्या परमसंसिद्धिप्राप्तिरित्यर्थः।
।।8.15।।तत्प्राप्तिं स्तौति -- मामिति। परमां सिद्धिं गता इति हि तत्र हेतुः।
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्। नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।8.15।।
মামুপেত্য পুনর্জন্ম দুঃখালযমশাশ্বতম্৷ নাপ্নুবন্তি মহাত্মানঃ সংসিদ্ধিং পরমাং গতাঃ৷৷8.15৷৷
মামুপেত্য পুনর্জন্ম দুঃখালযমশাশ্বতম্৷ নাপ্নুবন্তি মহাত্মানঃ সংসিদ্ধিং পরমাং গতাঃ৷৷8.15৷৷
મામુપેત્ય પુનર્જન્મ દુઃખાલયમશાશ્વતમ્। નાપ્નુવન્તિ મહાત્માનઃ સંસિદ્ધિં પરમાં ગતાઃ।।8.15।।
ਮਾਮੁਪੇਤ੍ਯ ਪੁਨਰ੍ਜਨ੍ਮ ਦੁਖਾਲਯਮਸ਼ਾਸ਼੍ਵਤਮ੍। ਨਾਪ੍ਨੁਵਨ੍ਤਿ ਮਹਾਤ੍ਮਾਨ ਸਂਸਿਦ੍ਧਿਂ ਪਰਮਾਂ ਗਤਾ।।8.15।।
ಮಾಮುಪೇತ್ಯ ಪುನರ್ಜನ್ಮ ದುಃಖಾಲಯಮಶಾಶ್ವತಮ್. ನಾಪ್ನುವನ್ತಿ ಮಹಾತ್ಮಾನಃ ಸಂಸಿದ್ಧಿಂ ಪರಮಾಂ ಗತಾಃ৷৷8.15৷৷
മാമുപേത്യ പുനര്ജന്മ ദുഃഖാലയമശാശ്വതമ്. നാപ്നുവന്തി മഹാത്മാനഃ സംസിദ്ധിം പരമാം ഗതാഃ৷৷8.15৷৷
ମାମୁପେତ୍ଯ ପୁନର୍ଜନ୍ମ ଦୁଃଖାଲଯମଶାଶ୍ବତମ୍| ନାପ୍ନୁବନ୍ତି ମହାତ୍ମାନଃ ସଂସିଦ୍ଧିଂ ପରମାଂ ଗତାଃ||8.15||
māmupētya punarjanma duḥkhālayamaśāśvatam. nāpnuvanti mahātmānaḥ saṅsiddhiṅ paramāṅ gatāḥ৷৷8.15৷৷
மாமுபேத்ய புநர்ஜந்ம துஃகாலயமஷாஷ்வதம். நாப்நுவந்தி மஹாத்மாநஃ ஸஂஸித்திஂ பரமாஂ கதாஃ৷৷8.15৷৷
మాముపేత్య పునర్జన్మ దుఃఖాలయమశాశ్వతమ్. నాప్నువన్తి మహాత్మానః సంసిద్ధిం పరమాం గతాః৷৷8.15৷৷
8.16
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।।8.16।। हे अर्जुन ! ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्ती है; परन्तु हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता।
।।8.16।। हे अर्जुन ! ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं। परन्तु, हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता।।
।।8.16।। गीताचार्य श्रीकृष्ण की किसी सिद्धांत को बल देकर समझाने की अपनी विशेष पद्धति यह है कि वे उस सिद्धांत को उसके विरोधी तथ्य की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत करते हैं। गीता में प्रायः इस पद्धति का उपयोग किया गया है। इस श्लोक में भी परस्पर दो विरोधी तथ्यों को एक साथ व्यक्त किया गया है जिससे कोई भी विद्यार्थी उन्हें तुलनात्मक दृष्टि से स्पष्ट समझ सकता है। प्रथम पंक्ति में कहा गया है कि ब्रह्मलोक तक के सब लोक पुनरावर्ती हैं। इसके विपरीत जो पुरुष आत्मा का साक्षात अनुभव करते हैं वे मुझे प्राप्त होकर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते।वेदान्त में क्रममुक्ति का एक सिद्धांत प्रतिपादित है। इसके अनुसार जो पुरुष वैदिक कर्म एवं उपासना का युगपत् (एक साथ) अनुष्ठान करता है वह कर्म और उपासना के इस समुच्चय के फलस्वरूप ब्रह्मलोक अर्थात् सृष्टिकर्त्ता के लोक को प्राप्त करता है। यहाँ कल्प की समाप्ति पर ब्रह्मा जी के उपदेश से परब्रह्म के साथ एकरूप हो जाता है अर्थात् मुक्त हो जाता है। इस ब्रह्मलोक में भी मुक्ति का अधिकारी बनने के लिए उसे आत्मसंयम ब्रह्मा जी के उपदेश का पालन तथा आत्मविचार करना आवश्यक होता है। तभी अज्ञान जनित बन्धन से उसकी पूर्ण मुक्ति हो सकती है। जो जीव ब्रह्मलोक तक नहीं पहुँच पाते वे मोक्ष का आनन्द नहीं अनुभव कर सकते। कल्प की समाप्ति पर उन्हें अवशिष्ट कर्मों के अनुसार पुनः किसी देह विशेष को धारण करना पड़ता है। इसी सिद्धांत को दृष्टि में रखते हुए भगवान् कहते हैं कि ब्रह्मलोक तक के सभी लोकों को प्राप्त हुए जीवों को पुनः जन्म लेना पड़ता है। किन्तु ब्रह्मलोक को प्राप्त करने पर अधिकारी जीव मुक्त हो जाता है।परन्तु वर्तमान जीवन में ही जिन्होंने अपने वास्तविक नित्य स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लिया है वे एक सर्वव्यापी आत्मस्वरूप मुझे प्राप्त होकर पुनः संसार को प्राप्त नहीं होते। स्वप्न से जाग्रत अवस्था में आने पर जाग्रत पुरुष पुनः स्वप्न में प्रवेश नहीं करता जागने का अर्थ है सदा के लिए स्वप्न में अनुभव किये सुख और दुःख से मुक्त हो जाना। जाग्रत पुरुष को (मुक्त को) प्राप्त होकर साधक स्वप्न (संसार) को पुनः लौटता नहीं।
।।8.16।। व्याख्या--(टिप्पणी प0 467.2) 'आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन'--हे अर्जुन ! ब्रह्माजीके लोकको लेकर सभी लोक पुनरावर्ती हैं, अर्थात् ब्रह्मलोक और उससे नीचेके जितने लोक (सुखभोग-भूमियाँ) हैं, उनमें रहनेवाले सभी प्राणियोंको उन-उन लोकोंके प्रापक पुण्य समाप्त हो जानेपर लौटकर आना ही पड़ता है।जितनी भी भोग-भूमियाँ हैं, उन सबमें ब्रह्मलोकको श्रेष्ठ बताया गया है। मात्र पृथ्वीमण्डलका राजा हो और उसका धनधान्यसे सम्पन्न राज्य हो, स्त्री-पुरुष, परिवार आदि सभी उसके अनुकूल हों, उसकी युवावस्था हो तथा शरीर नीरोग हो--यह मृत्यु-लोकका पूर्ण सुख माना गया है। मृत्युलोकके सुखसे सौ गुणा अधिक सुख मर्त्य देवताओंका है। मर्त्य देवता उनको कहते हैं, जो पुण्यकर्म करके देवलोकको प्राप्त होते हैं और देवलोकके प्रापक पुण्य क्षीण होनेपर पुनः मृत्युलोकमें आ जाते हैं (गीता 9। 21)। इन मर्त्य देवताओंसे सौ गुणा अधिक सुख आजान देवताओंका है। आजान देवता वे कहलाते हैं, जो कल्पके आदिमें देवता बने हैं और कल्पके अन्ततक देवता बने रहेंगे। इन आजान देवताओंसे सौ गुणा अधिक सुख इन्द्रका माना गया है। इन्द्रके सुखसे सौ गुणा अधिक सुख ब्रह्मलोकका माना गया है। इस ब्रह्मलोकके सुखसे भी अनन्त गुणा अधिक सुख भगवत्प्राप्त, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त महापुरुषका माना गया है। तात्पर्य यह है कि पृथ्वीमण्डलसे लेकर ब्रह्मलोकतकका सुख सीमित, परिवर्तनशील और विनाशी है। परन्तु भगवत्प्राप्तिका सुख अनन्त है, अपार है, अगाध है। यह सुख कभी नष्ट नहीं होता। अनन्त ब्रह्मा और अनन्त ब्रह्माण्ड समाप्त हो जायँ, तो भी यह परमात्मप्राप्तिका सुख कभी नष्ट नहीं होता, सदा बना रहता है।
।।8.16।।आ ब्रह्मेति। ब्रह्मलोकप्राप्तानामपि (S -- काप्तानामपि) पुनरावृत्तिरस्ति इति सर्वैर्व्याख्यातम्। एतद्भ्युपगमे च तदुपरितनलोकगतिर्मुक्तिः इत्यभिहितं स्यात्। तच्च न हृदयङ्गममिति संशयमहामोहकलुषीकृतान्तर्दृशामस्माकं प्रतिभाति। इयमागमाधिगत व्याख्यावर्तिः (S व्याख्यावृत्तिः) -- आब्रह्म यावत् ब्रह्मपदं प्राप्तं तावत् यस्मात् कस्माच्चित् तिर्यगूर्ध्वादधस्ताद् भुवनात् पुनरावर्तन्ते चक्रवत् स्थानान्तरमविरतं भ्राम्यन्तो विपरिवर्तन्ते इति।
।।8.16।।ब्रह्मलोकपर्यन्ताः ब्रह्माण्डोदरवर्तिनः सर्वे लोकाः भोगैश्वर्यालयाः पुनरावर्तिनः विनाशिनः। अत ऐश्वर्यगतिं प्राप्तानां प्राप्यस्थानविनाशाद् विनाशित्वम् अवर्जनीयम्। मां सर्वज्ञं सत्यसंकल्पं निखिलजगदुत्पत्तिस्थितिलयलीलं परमकारुणिकं सदा एकरूपं प्राप्तानां विनाशप्रसङ्गाभावात् तेषां पुनर्जन्म न विद्यते।ब्रह्मलोकपर्यन्तानां लोकानां तदन्तर्वर्तिनां च परमपुरुषसंकल्पकृताम् उत्पत्तिविनाशकालव्यवस्थाम् आह --
।।8.16।।अपाम सोमममृता अभूम इति श्रुतेः स्वर्गादिगतानामपि समानैवानावृत्तिरित्याशङ्क्यते -- किं पुनरिति। अर्थवादश्रुतौ कर्मिणाममृतत्वस्यापेक्षिकत्वं विवक्षित्वा परिहरति -- उच्यत इति। एतेन भूरादिलोकचतुष्टयं प्रविष्टानां पुनरावृत्तावपि जनआदिलोकत्रयं प्राप्तानामपुनरावृत्तिरिति विभागोक्तिरप्रामाणिकत्वादेव हेयेत्यवधेयम्। तर्हि तद्वदेवेश्वरं प्राप्तानामपि पुनरावृत्तिः शङ्क्यते नेत्याह -- मामिति। यावत्संपातश्रुतिवदीश्वरं प्राप्तानां निवृत्ताविद्यानां पुनरावृत्तिरप्रामाणिकीत्यर्थः। यस्य स्वाभाविकी वंशप्रयुक्ता च शुद्धिस्तस्यैवोक्तेऽर्थे बुद्धिरुदेतीति मत्वा संबुद्धिद्वयम्।
।।8.16।।अनेवम्भूतानामभक्तानां संसारे पुनरावृत्तिं वदन् स्वप्राप्तानां तदभावमाह -- आब्रह्मेत्यादिना। हे अर्जुन अन्ये लोकाः ब्रह्मभुवनमभिव्याप्य निर्दिष्टा जनाः सर्वे एवेह पुनरावर्त्तनशीलाः सन्ति धर्मस्य ह्यनिमित्तस्य विपाकः परमेष्ठ्यसौ इत्यपि वचनात्। मामुपेत्य तु तथाभूतं पुनर्जन्म तेषां न विद्यते नैष्कर्म्यगम्यत्वात्। निश्चयार्थं पुनः कथनम्।
।।8.16।।भगवन्तमुपागतानां सम्यग्दर्शिनामपुनरावृत्तौ कथितायां ततो विमुखानामसम्यग्दर्शिनां पुनरावृत्तिरर्थसिद्धेत्याह -- आब्रह्मभुवनात् भवन्त्यत्र भूतानीति भुवनं लोकः। अभिविधावाकारः। ब्रह्मलोकेन सह सर्वेऽपि लोका मद्विमुखानामसम्यग्दर्शिनां भोगभूमयः पुनरावर्तिनः पुनरावर्तनशीलाः। ब्रह्मभवनादिति पाठे भवनं वासस्थानमिति स एवार्थः। हे अर्जुन स्वतःप्रसिद्धमहापौरुष। किं तद्वदेव त्वां प्राप्तानामपि पुनरावृत्तिर्नेत्याह -- मामीश्वरमेकमुपेत्य तु। तुशब्दो लोकान्तरवैलक्षण्यद्योतनार्थोऽवधारणार्थो वा। मामेव प्राप्य निर्वृतानां हे कौन्तेय मातृतोऽपि प्रसिद्धमहानुभाव पुनर्जन्म न विद्यते। पुनरावृत्तिर्नास्तीत्यर्थः। अत्रार्जुन कौन्तेयेति संबोधनद्वयेन स्वरूपतः कारणतश्च शुद्धिर्ज्ञानसंपत्तये सूचिता। अत्रेयं व्यवस्था -- ये क्रममुक्तिफलाभिरुपासनाभिर्ब्रह्मलोकं प्राप्तास्तेषामेव तत्रोत्पन्नसम्यग्दर्शनानां ब्रह्मणा सह मोक्षः। येतु पञ्चाग्निविद्यादिभिरतत्क्रतवोऽपि तत्र गतास्तेषामवश्यंभावि पुनर्जन्म। अतएव क्रममुक्त्यभिप्रायेणब्रह्मलोकमभिसंपद्यते नच पुनरावर्ततेअनावृत्तिः शब्दात् इति श्रुतिसूत्रयोरुपपत्तिः। इतरत्र तेषामिह न पुनरावृत्तिःइमं मानवमावर्तं नावर्तन्ते इतिइहेमम् इतिच विशेषणाद्गमनाधिकरणकल्पादन्यत्र पुनरावृत्तिः प्रतीयते।
।।8.16।।एतदेव सर्वेष्वपि लोकेषु पुनरावृर्त्तिं दर्शयन्निर्धारयति -- आब्रह्मेति। ब्रह्मणो भुवनं वासस्थानं ब्रह्मलोकस्तमभिव्याप्य सर्वे लोकाः पुनरावर्तनशीलाः ब्रह्मलोकस्यापि विनाशित्वात्तत्प्राप्तानामनुत्पन्नज्ञानानामवश्यंभावि पुनर्जन्म। य एवं क्रममुक्तिफलाभिरुपासनाभिर्ब्रह्मलोकं प्राप्तास्तेषामेव तत्रोत्पन्नज्ञानानां ब्रह्मणा सह मोक्षो नान्येषाम्। तथाचब्रह्मणा सह ते सर्वे संप्राप्ते प्रतिसंचरे। परस्यान्ते कृतात्मानः प्रविशन्ति परं पदम्। परस्यान्ते ब्रह्मणः परमायुषोऽन्ते कृतात्मानो ब्रह्मभावापादितमनोवृत्तयः कर्मद्वारेण येषां ब्रह्मलोकप्राप्तिस्तेषां न मोक्ष इति परिनिष्ठितिः। मामुपेत्य वर्तमानानां तु पुनर्जन्म नास्त्येवेत्यर्थः।
।।8.16।।अप्रसक्तस्य प्रतिषेधायोगात् प्रतिषेध्यस्य प्रसङ्गिनश्च आसन्नवर्तिन उपादातुमुचितत्वान्नश्वरफलभूतैश्वर्यार्थिनां जन्ममात्रं तन्निषेधमुखेन सूचितम् अतस्तत्रापि हेतुरेव केवलं वक्तव्य इत्यभिप्रायेणाह -- ऐश्वर्यगतिमिति।मामुपेत्य तु इति भगवतः प्रतियोगीकरणादाङोऽत्राभिविधिपरत्वाभिप्रायेणाहब्रह्मलोकेति। प्रकृत्याख्यभगवन्मायामहोदधौ ब्रह्माण्डैरपि यदा बुद्बुदायितं तदा कैव कथा तदन्तर्वर्तिनां लोकानामित्यभिप्रायेणब्रह्माण्डोदरवर्तिन इत्युक्तम्। तेन परमाकाशव्यवच्छेदसिद्धिश्च। ऐश्वर्यानित्यताप्रतिपादनपरत्वायोक्तंभोगैश्वर्यालया इति। भुवनशब्दसमभिव्याहृतस्य लोकशब्दस्य जनविषयत्वायोगाल्लोकस्व गमनाभावेन पुनरावृत्तेरप्यभावात् पुनरावृत्तिशब्देन प्रवाहतोऽपि विनाशमात्रं लक्ष्यत इत्याहविनाशिन इति। पुनरावृत्तिशब्दस्याजहल्लक्षणावृत्तेस्तल्लोकगतपुरुषपुनरावृत्तिरेव वा द्वारम्। फलितमाहअत इति।माम् इत्यत्र तुशब्देन द्योतितानपुनरावृत्तिहेतुविशेषान् दर्शयतिमां सर्वज्ञमित्यादिना। असर्वज्ञमसत्यसङ्कल्पं कार्यकोटिघटितं (तमनिर्गुणं) निर्घृणं रजस्तमोमूलरागद्वेषादिनानाविकारशालिनं कञ्चन क्षुद्रदैवतं प्राप्तानां हि तदन्येन तेनैव वा पुनरावृत्तिः स्यादिति विशेषणानां तात्पर्यम्।
।।8.16।।अथान्येषां पुनर्जन्म भवतीत्यर्थः -- आब्रह्मेति। आब्रह्मभुवनात् ब्रह्मभुवनमभिव्याप्य सर्वे लोकाः पुनरावर्तिनः सर्वे पुनर्जन्मभाजो भवन्ति। मां तु उपेत्य कौन्तेय परमस्निग्ध परं जन्म न विद्यते न स्यादित्यर्थः। तुशब्देन मन्मार्गे प्रवृत्तस्य अत एव शङ्का न भवतीति ज्ञापितम्।
।।8.16।।त्वदलाभेऽपि किं स्यादत आह -- आब्रह्मेति। आब्रह्मभुवनाद्ब्रह्मलोकमभिव्याप्य। ब्रह्मलोकेन सहैवेत्यर्थः। लोकाः पुनरावर्तिनः पुनरावृत्तिस्वभावाः। हे अर्जुन शेषं स्पष्टम्। अत्रेयं व्यवस्था। ये क्रममुक्तिफलाभिर्दहरादिविद्याभिर्ब्रह्मलोकं गतास्ते तत्रैव ज्ञानं प्राप्य ब्रह्मणा सह मुच्यन्ते। येतु पञ्चाग्निविद्याभिर्ब्रह्मलोकं गतास्तेऽनुपासितपरमेश्वराः पुनरावर्तन्त इति।
।।8.16।।ये पुनर्मा न प्राप्नुवन्ति ब्रह्मलोकादिकं प्राप्ता अपि पुनरावर्तन्ते इत्याह -- आब्रह्मभुवनादिति। ब्रह्मलोकसहिताः सर्वे लोकाः पुरनावर्तिनः पुनरवानर्तनस्वभावाः मामीश्वरमेकमुपेत्य तु पुनर्जन्म पुनरुत्पत्तिः। पुनरावृत्तिरिति यावत्। न विद्यते। अर्जुन कौन्तेयेति संबोधनद्वयेन साक्षान्मद्भक्ताः मामुपेत्य न निवर्तन्ते इत्यत्र तु नास्ति संशयः। ब्रह्मलोकं गता अपि ये अश्वमेधादिकर्मणा विगतापापत्वातस्वच्छतामापन्नास्तत्र गतास्ते पुनरावर्तन्ते। ये तु मत्संबन्धिहिरण्यगर्भाद्युपासकास्ते तत्रोत्पन्नसम्यग्दर्शनाः न पुनरावर्तन्ते इति व्यवस्थां सूचयति।
8.16 आब्रह्मभुवनात् up to the world of Brahma? लोकाः worlds? पुनरावर्तिनः subject to return? अर्जुन O Arjuna? माम् Me? उपेत्य having attained? तु but? कौन्तेय O Kaunteya? पुनर्जन्म rirth? न not? विद्यते is.Commentary Those devotees who practise Daharopasana (a kind of meditation on the mystic space in the heart) and other devotees who reach Brahmaloka through the path of the gods (Devayana) and attain gradual liberation (KramaMukti) will not return again to this world. But those who reach Brahmaloka through the practice of the Panchagni Vidya (a ritual) will enjoy life in Brahmaloka and come back to this world.All the worlds are subjected to return because they are limited or conditioned by time.
8.16 (All) the worlds including the world of Brahma are subject to return again, O Arjuna; but he who reaches Me, O son of Kunti, has no rirth.
8.16 The worlds, with the whole realm of creation, come and go; but, O Arjuna, whoso comes to Me, for him there is nor rebirth.
8.16 O Arjuna, all the worlds together with the world of Brahma are subject to return. But, O son of Kunti, there is no rirth after reaching Me.
8.16 O Arjuna, all the lokah, worlds; abrahma-bhuvanat, together with the world of Brahma-bhuvana is that (place) in which creatures are born, and brahma-bhuvana means the world of Brahma; punah avartinah, are subject to return, are by nature liable to come again; Tu, but; kaunteya, O son of Kunti, na vidyate, there is no; punarjanma, rirth; upetya, after reaching; mam, Me alone. Why are all the worlds together with the realm of Brahma subject to return? Becuase they are limited by time. How?
8.16. Till the Brahman [is attained], people do return from [each and every] world, O Arjuna ! But there is no rirth for one who has attained Me, O son of Kunti !
8.16 A Brhma etc. [This verse] has been interpreted by all as 'There is rirth even for those who have reached the world of Brhma (the personal god).' If this interpretation is accepted, then it would amount to the proposition that going to the worlds that are higher than that [of Brahma], is emancipation [from rirth]. However according to us, with our inner sight blurred by the powerful darkness of doubt, this interpretation does not seem to touch the heart [of the text]. Hence, the following is the wick of the lamp brought from the Agama literature : Till Brahman : Till the status of the Supreme Brahman is attained. Till then all are subject to return (to rirth) from each and every world, whether it lies adjacently, or above or below [the world of Brahman]; men run round like a wheel wandering without stop from one place to another. But who knows in this manner viz., 'from all the world there is return' ? For, it is heard [in the Puranas] that [the personal gods like] Brahma etc., themselves exist indeed for a very long period. How is it that they too are subject to return again ? If they are subject to return, will they not be of the nature of having birth and death ? Expecting this objection, [the Lord] says :
8.16 All the worlds, from the realm of Brahma included in the Brahmanda (cosmic sphere), are spheres in which experiences conferring Aisvarya (prosperity and power) can be obtained. But they are destructible and those who attain them are subject to return. Therefore destruction, i.e., return is unavoidable for the aspirants for Aisvarya, as the regions where it is attained perish. On the contrary there is no rirth to those who attain Me, the Omniscient, who has true resolves, whose sport is creation, sustentation and dissolution of the entire universe, who is supremely compassionate and who is always of the same form. For these reasons there is no destruction in the case of those who attain Me. He now elucidates the time-period settled by the Supreme Person's will in regard to the evolution and dissolution of the worlds upto the cosmic sphere of Brahma and of those who are within them.
8.16 O Arjuna, all the worlds together with the world of Brahma are subject to return. But, O son of Kunti, there is no rirth after reaching Me.
।।8.16।।तो क्या आपके सिवा अन्य स्थानको प्राप्त होनेवाले पुरुष फिर संसारमें आते हैं इसपर कहा जाता है --, जिसमें प्राणी उत्पन्न होते और निवास करते हैं उसका नाम भुवन है ब्रह्मलोक ब्रह्मभुवन कहलाता है। हे अर्जुन ब्रह्मलोकपर्यन्त अर्थात् ब्रह्मलोकसहित समस्त लोक पुनरावर्ती हैं अर्थात् जिनमें जाकर फिर संसारमें जन्म लेना पड़े ऐसे हैं। परंतु हे कुन्तीपुत्र केवल एक मुझे प्राप्त होनेपर फिर पुनर्जन्म -- पुनरुत्पत्ति नहीं होती।
।।8.16।। --,आ ब्रह्मभुवनात् भवन्ति अस्मिन् भूतानि इति भुवनम् ब्रह्मणो भुवनं ब्रह्मभुवनम् ब्रह्मलोक इत्यर्थः आ ब्रह्मभुवनात् सह ब्रह्मभुवनेन लोकाः सर्वे पुनरावर्तिनः पुनरावर्तनस्वभावाः हे अर्जुन। माम् एकम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म पुनरुत्पत्तिः न विद्यते।।ब्रह्मलोकसहिताः लोकाः कस्मात् पुनरावर्तिनः कालपरिच्छिन्नत्वात्। कथम् --,
।।8.16।।आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनः इति सत्यलोकसहितानां पुनरावृत्तिरुच्यत इत्येतदपव्याख्यानमिति भावेनाह -- महामेरुस्थेति। परतः स्थितानाम्। एवं जनलोकमारभ्येत्यपि ग्राह्यम्। कुत एतत् इत्यतः श्लोकमागमेनैव व्याचष्टे -- तच्चेति। पृथिवीसम्बन्धिनां तदसम्बन्धिनां लोकानां ग्रहणायोभयोपादानम्। परतः स्थितानाम्। यद्यपीति शेषः। अभावो जनेः लभ्यत इति शेषः। अनेनैव व्याख्यातं भवति। महामेरुस्थब्रह्मसदनं जनलोकं चारभ्य न पुनरावृत्तिः। अतो मामुपेत्य पुनर्जन्मेति किमुच्यते इति चेत् सत्यम् आ ब्रह्मभुवनात् एवमाजनाच्चार्वाग्भवा एव लोकाः पुनरावर्तिनः। परे न पुनरावर्तिन इति यावत्। तथापि नोक्तमयुक्तम् यतस्तेषु लोकेषु स्थितं मामुपेत्यावस्थितस्य पुनर्जन्म न विद्यत इति। अन्यथा मामुपेत्य पुनर्जन्मेत्युक्तत्वात् उत्तरार्धवैयर्थ्यं च।
।।8.16।।महामेरुस्थब्रह्मसदनमारभ्य न पुनरावृत्तिः। तच्चोक्तं नारायणगोपालकल्पेआ मेरुब्रह्मसदनादा जनान्न जनिर्भुवि। तथाप्यभावः सर्वत्र प्राप्यैव वसुदेवजम् इति।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन। मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।8.16।।
আব্রহ্মভুবনাল্লোকাঃ পুনরাবর্তিনোর্জুন৷ মামুপেত্য তু কৌন্তেয পুনর্জন্ম ন বিদ্যতে৷৷8.16৷৷
আব্রহ্মভুবনাল্লোকাঃ পুনরাবর্তিনোর্জুন৷ মামুপেত্য তু কৌন্তেয পুনর্জন্ম ন বিদ্যতে৷৷8.16৷৷
આબ્રહ્મભુવનાલ્લોકાઃ પુનરાવર્તિનોર્જુન। મામુપેત્ય તુ કૌન્તેય પુનર્જન્મ ન વિદ્યતે।।8.16।।
ਆਬ੍ਰਹ੍ਮਭੁਵਨਾਲ੍ਲੋਕਾ ਪੁਨਰਾਵਰ੍ਤਿਨੋਰ੍ਜੁਨ। ਮਾਮੁਪੇਤ੍ਯ ਤੁ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਪੁਨਰ੍ਜਨ੍ਮ ਨ ਵਿਦ੍ਯਤੇ।।8.16।।
ಆಬ್ರಹ್ಮಭುವನಾಲ್ಲೋಕಾಃ ಪುನರಾವರ್ತಿನೋರ್ಜುನ. ಮಾಮುಪೇತ್ಯ ತು ಕೌನ್ತೇಯ ಪುನರ್ಜನ್ಮ ನ ವಿದ್ಯತೇ৷৷8.16৷৷
ആബ്രഹ്മഭുവനാല്ലോകാഃ പുനരാവര്തിനോര്ജുന. മാമുപേത്യ തു കൌന്തേയ പുനര്ജന്മ ന വിദ്യതേ৷৷8.16৷৷
ଆବ୍ରହ୍ମଭୁବନାଲ୍ଲୋକାଃ ପୁନରାବର୍ତିନୋର୍ଜୁନ| ମାମୁପେତ୍ଯ ତୁ କୌନ୍ତେଯ ପୁନର୍ଜନ୍ମ ନ ବିଦ୍ଯତେ||8.16||
ābrahmabhuvanāllōkāḥ punarāvartinō.rjuna. māmupētya tu kauntēya punarjanma na vidyatē৷৷8.16৷৷
ஆப்ரஹ்மபுவநால்லோகாஃ புநராவர்திநோர்ஜுந. மாமுபேத்ய து கௌந்தேய புநர்ஜந்ம ந வித்யதே৷৷8.16৷৷
ఆబ్రహ్మభువనాల్లోకాః పునరావర్తినోర్జున. మాముపేత్య తు కౌన్తేయ పునర్జన్మ న విద్యతే৷৷8.16৷৷
8.17
8
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।।8.17।। जो मनुष्य ब्रह्माके एक हज़ार चतुर्युगीवाले एक दिनको और सहस्त्र चतुर्युगीपर्यन्त एक रातको जानते हैं, वे मनुष्य ब्रह्माके दिन और रातको जाननेवाले हैं।
।।8.17।। जो लोग ब्रह्मा जी के एक दिन की अवधि जानते हैं जो कि सहस्र वर्ष की है तथा एक सहस्र वर्ष की अवधि की एक रात्रि को जानते हैं वे दिन और रात्रि को जानने वाले पुरुष हैं।।
।।8.17।। आइन्स्टीन के सापेक्षवाद ने एक रहस्योद्घाटन किया है जो कि अब पश्चिमी देशों में स्वीकृत हो चुका है। इस सिद्धांत के अनुसार देश और काल की कल्पनाएं उन व्यक्तिगत तत्त्वों पर निर्भर करती हैं जो इनके मापदण्ड के नियामक होते हैं। जब मन क्षुब्ध होता है तब समय भार मालूम पड़ता है और मन्दगति से बीत रहा प्रतीत होता है जैसे जब कोई व्यक्ति किसी की व्याकुलता या अत्यन्त उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा होता है किन्तु उसी व्यक्ति को समय उड़ता हुआ प्रतीत होता है जब वह विश्राम और सुखदायक परिस्थितियों में बैठा हो जहाँ उसका मनोरंजन हो रहा हो। ताश खेलने में मग्न पुरुष को रात कैसे व्यतीत हो गई इसका भान नहीं रहता और उषाकाल की सूर्य की किरणों को खिड़की में से आते देखकर उसे आश्चर्य होता है। मन के प्रतिकूल कार्य करना पड़े अथवा शरीर में पीड़ा हो तो एकएक क्षण युगों के समान जान पड़ता है। निद्रावस्था के एक अखण्ड अनुभव में काल की कोई कल्पना नहीं होती।उपर्युक्त घटनाओं के निरीक्षण से हिन्दू दार्शनिक इस युक्तियुक्त निष्कर्ष पर पहुँचे कि वास्तव में जिसे हम काल कहते हैं वह दो भिन्नभिन्न अनुभवों के मध्य के अन्तराल की गणना है। मन को क्षुब्ध करने वाले अनुभवों की संख्या जितनी ही अधिक होगी समय की गति मन्द अनुभव होगी। एक ही अनुभव यदि दीर्घकाल तक बना रहे तो समय तीव्र गति से व्यतीत होगा। केवल एक ही अनुभव में काल का अनुभव नहीं होता जैसे एक ही बिन्दु पर दूरी की गणना नहीं होती क्योंकि दो बिन्दुओं के मध्य अन्तराल की गणना से ही दूरी नापी जा सकती है। इस सिद्धांत के आधार पर काल की गणना करते हुए पौराणिक कवियों ने जो कहा कि देवताओं की घड़ियों के डायल बड़े होते हैं तो उनका कथन उपयुक्त ही है उपनिषदों में भी आनन्द की मीमांसा की गई है जिसमें एक मानवीय आनन्द को इकाई मानकर ब्रह्माजी तक के देवों को प्राप्त आनन्द की मात्रा की गणना की गई है। र्मत्यलोक से उच्चतर विभिन्न लोकों में आनन्द की मात्रा में वृद्धि उन लोकों में प्राप्त होने वाली मन की शान्ति एवं समता के तारतम्य को दर्शाती है।इस श्लोक में कहा गया है कि ब्रह्माजी का एक दिन एक सहस्र युगों का होता है तथा एक रात्रि भी उतनी ही दीर्घ होती है। युग से तात्पर्य कल्प से है। कालविदों ने जो यह गणना की है वह हमारे 365 दिनों के एक वर्ष की गणना के अनुसार है। चार युगों का एक कल्प होता है और ब्रह्माजी का एक दिन एक सहस्र कल्पों का माना गया है।जैसे व्यष्टि इकाइयाँ होंगी वैसे ही समष्टि होगी। व्यष्टि (एक) मन स्वेच्छा से अपनी सृष्टि की रचना करता है और उसका पोषण भी करता है। तत्पश्चात् उसे नष्ट कर देता है केवल पुनः नई सृष्टि रचने के लिए। सृष्टि और लय का यह निरन्तर कार्य मनुष्य केवल दिन में अर्थात् अपनी जाग्रत्अवस्था में ही करता है। इसी प्रकार यह माना जाता है कि समष्टि मन अर्थात् ब्रह्मा जी इस चराचर सृष्टि की रचना केवल उनकी जाग्रत् अवस्था में करते हैं।
।।8.17।। व्याख्या--सहस्रयुगपर्यन्तम् ৷৷. तेऽहोरात्रविदो जनाः --सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि--मृत्युलोकके इन चार युगोंको एक चतुर्युगी कहते हैं। ऐसी एक हजार चतुर्युगी बीतनेपर ब्रह्माजीका एक दिन होता है और एक हजार चतुर्युगी बीतनेपर ब्रह्माजीकी एक रात होती है (टिप्पणी प0 470)। दिन-रातकी इसी गणनाके अनुसार सौ वर्षोंकी ब्रह्माजीकी आयु होती है। ब्रह्माजीकी आयुके सौ वर्ष बीतनेपर ब्रह्माजी परमात्मामें लीन हो जाते हैं और उनका ब्रह्मलोक भी प्रकृतिमें लीन हो जाता है तथा प्रकृति परमात्मामें लीन हो जाती है। कितनी ही बड़ी आयु क्यों न हो, वह भी कालकी अवधिवाली ही है। ऊँचे-से-ऊँचे कहे जानेवाले जो भोग हैं, वे भी संयोगजन्य होनेसे दुःखोंके ही कारण हैं--'ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते' (गीता 5। 22) और कालकी अवधिवाले हैं। केवल भगवान् ही कालातीत हैं। इस प्रकार कालके तत्त्वको जाननेवाले मनुष्य ब्रह्मलोकतकके दिव्य भोगोंको किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व नहीं देते।  सम्बन्ध--ब्रह्माजीके दिन और रातको लेकर जो सर्ग और प्रलय होते हैं, उसका वर्णन अब आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
।।8.17 -- 8.19।।ननु क एवं जानाति यत् सर्वभुवनेभ्यः पुनरावृत्तिः। ब्रह्मादय एव ही तावत् चिरतरस्थायिनः श्रूयन्ते। ते एव (SN अत एव तावत्) कथं पुनरावर्त्तिनः पुनरावर्त्तित्वे हि तेऽपि स्युः प्रभवाप्ययधर्माणाः इत्या[शङ्कया ] ह -- सहस्रेत्यादि आगम इत्यन्तम्। ये खलु दीर्घदृश्वानः (N अदीर्घ -- ) ते ब्रह्मणोऽपि रात्रिं दिवं [ च ] पश्यन्ति प्रलयोदयतया। तथा च अहरहस्त एव विबुध्य निजां निजामेव चेष्टामनुरुध्यन्ते ( -- मवरुध्यन्ते) प्रतिरात्रि च तेषामेव निवृत्तपरिस्पन्दानां (S -- परिस्पन्दिनाम्) शक्तिमात्रत्वेनावस्थानम् (N -- त्वेनोपस्थानम्)। एवं सृष्टौ प्रलये च पुनः पुनर्भावः (K (n) -- र्भवः)। नान्येऽन्ये उपसृज्यन्ते अपि तु त एव जीवाः। कालकृतस्तु चिरक्षिप्रप्रत्ययात्मा विशेषः। एष च परिच्छेदः प्रजापतीनामप्यस्ति। ततश्च तेऽपि प्रभवाप्ययधर्माण एवेति,स्थितम्।
।।8.17।।ये मनुष्यादिचतुर्मुखान्तानां मत्संकल्पकृताहोरात्रव्यवस्थाविदो जनाः ते ब्रह्मणः चतुर्मुखस्य यत् अहः चतुर्युगसहस्रावसानं विदुः रात्रिं च तथारूपाम्।
।।8.17।।ब्रह्मलोकसहितानां पुनरावृत्तौ हेतुं प्रश्नद्वारा दर्शयति -- ब्रह्मेति। उक्तमेव हेतुमाकाङ्क्षापूर्वकमुत्तरश्लोकेन साधयति -- कथमित्यादिना। यथोक्ताहोरात्रावयवमासर्त्वयनसंवत्सरावयवशतसंख्यायुरवच्छिन्नत्वात्प्रजापतेस्तदन्तर्वर्तिनामपि लोकानां यथायोग्यकालपरिच्छिन्नत्वेन पुनरावृत्तिरित्यभिप्रेत्य व्याचष्टे -- सहस्रेत्यादिना। अक्षरार्थमुक्त्वा तात्पर्यार्थमाह -- यत इति।
।।8.17।।ननु कथमेवमुच्यतेआब्रह्मभुवनात् इति सत्यं ब्रह्मणोऽपि कालप्रमितत्वादित्याह -- सहस्रमिति।,अत्र चतुःपदं योजनीयंचतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते इति वाक्यात्। तथा चैवं मानेन ब्रह्मणो द्विपरार्द्धपर्यंते लय इत्युक्तम्।
।।8.17।।ब्रह्मलोकसहिताः सर्वे लोकाः पुनरावर्तिनः कस्मात्कालपरिच्छिन्नत्वादित्याह -- मनुष्यपरिमाणेन सहस्रयुगपर्यन्त सहस्रं युगानि चतुर्युगानि पर्यन्तोऽवसानं यस्य तत्।चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते इति हि पौराणिकं वचनम्। तादृशं ब्रह्मणः प्रजापतेरहर्दिनं तत् ये विदुः। तथा रात्रिं युगसहस्रान्तां चतुर्युगसहस्रपर्यन्तां ये विदुरिति वर्तते। तेऽहोरात्रविदस्त एवाहोरात्रविदो योगिनो जनाः। ये तु चन्द्रार्कगत्यैव विदुस्ते नाहोरात्रविदः स्वल्पदर्शित्वादित्यभिप्रायः।
।।8.17।।ननु चतपस्विनो दानशीला वीतरागास्तितिक्षवः। त्रिलोक्या उपरि स्थानं लभन्ते शोकवर्जितम् इत्यादिपुराणवाक्यैस्त्रिलोक्याः सकाशान्महर्लोकादीनामुत्कृष्टत्वं गम्यते। विनाशित्वे च सर्वेषामवैशिष्ट्ये कथमसौ विशेषः स्यादित्याशङ्क्य बहुकल्पकालावस्थायित्वनिमित्तोऽसौ विशेष इत्याशयेन स्वमानेन शतवर्षायुषो ब्रह्मणोऽहन्यहनि त्रिलोक्या उत्पत्तिर्निशिनिशि च लयो भवतीति दर्शयिष्यन् ब्रह्मणोऽहोरात्रयोः प्रमाणमाह -- सहस्रेति। सहस्रं युगानि पर्यन्तोऽवसानं यस्य तद्ब्रह्मणो यदहस्तद्ये विदुः युगसहस्रमन्तो यस्यास्तां रात्रिं च योगबलेन ये विदुस्त एव सर्वज्ञजना अहोरात्रविदः। येषां तु केवलं चन्द्रार्कगत्यैव ज्ञानं ते तथाहोरात्रविदो न भवन्ति अल्पदर्शित्वात्। युगशब्देनात्र चतुर्युगमभिप्रेतम्चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते इति विष्णुपुराणोक्तेः। ब्रह्मण इति च महर्लोकादिवासिनामप्युपलक्षणार्थम्। तत्रायं कालगणनाप्रकारः। मनुष्याणां यद्वर्षं तद्देवानामहोरात्रं। तादृशैरहोरात्रैः पक्षमासादिकल्पनया द्वादशभिर्वर्षसहस्रैश्चतुर्युगं भवति। चतुर्युगसहस्रं च ब्रह्मणो दिनम्। तावत्परिमाणैव रात्रिः। तादृशैश्चाहोरात्रैः पक्षमासादिक्रमेण वर्षशतं ब्रह्मणः परमायुरिति।
।।8.17।।सहस्र -- इत्यादिश्लोकत्रयस्य पिण्डितार्थमाह -- ब्रह्मलोकपर्यन्तानामिति। हिरण्यगर्भादिस्वातन्त्र्यसिद्धसत्यलोकादिस्थैर्यशङ्काव्युदासायाहपरमपुरुषसङ्कल्पकृतामिति। ईश्वरस्वातन्त्र्यमेव ह्यन्यूनानतिरिक्तदिनरात्र्यादिविचित्रव्यवस्थायां कारणम्। तथा चोच्यतेकालस्य च हि मृत्योश्च [म.भा.5।68।13]कालचक्रं जगच्चक्रं [म.भा.5।68।12] इत्यादिभिः। एवमेवोक्तमन्यत्रततो युगसहस्रान्ते संहरिष्ये जगत्पुनः। कृत्वा मत्स्थानि भूतानि चराणि स्थावराणि च इत्यादि। यत्तु मानवेतद्ये युगसहस्रं तु (तद्वे युगसहस्रांतं) ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः। रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः [1।73] इति तत्र य इत्येव पाठाद्यथाक्रममन्वयः। इह तुसहस्र -- इतिश्लोकेयत् इत्यस्याहश्शब्देनैव ह्यन्वयो घटते ततश्चते इत्यस्यये इति पदमपेक्षितम् तत्रापिये विदुस्तेऽहोरात्रविदो जनाः इत्यन्वये प्रसङ्गरहिताहोरात्रवेदिव्युत्पादनरूपं स्तुतिपरं वाक्यं प्रस्तुतासङ्गतं स्यात् ततश्चयेऽहोरात्रविदो जनास्त एवं विदुः इत्यन्वयः। एवं कालव्यवस्थायां प्रामाणिकत्वप्रतिपादनपरोऽत्र स्वीकार्य इत्यभिप्रायेणाहये मनुष्यादीति। अनूद्यमानमहोरात्रवेदित्वं यथाप्रसिद्धि सर्वविषयमेव भवितुमर्हति तेन चतुर्मुखस्यापि मनुष्यादितुल्यता द्योतिता स्यादित्यभिप्रायेणमनुष्यादीत्यादिकमुक्तम्। ब्रह्मशब्दस्यात्र परमात्मविषयत्वभ्रमव्युदासायचतुर्मुखशब्दः। तस्यैव हि सहस्रयुगप्रतिनियताहोरजनीविभागः प्रसिद्ध इति भावः।सविशेषणौ विधिनिषेधौ विशेषणमुपसङ्कामतः इति न्यायात्येऽहोरात्रविदो जनाः इत्यहोरात्रवेदतांशस्यानूदितत्त्वाच्च सहस्रयुगपर्यन्ततावेदनमेवात्र विधेयमित्यभिप्रायेणतच्चतुर्युगसहस्रावसानं विदुरित्युक्तम्। सहस्रयुगानि पर्यन्तं यस्य तत्सहस्रयुगपर्यन्तम्। युगशब्दश्चात्र प्रमाणान्तरानुसाराच्चतुर्युगपरः।,अस्त्वेवं चतुर्मुखस्याहोरात्रव्यवस्था ततः किं प्रस्तुतस्य इत्यत्रोत्तरम् -- अव्यक्तात् इति श्लोकः। तस्यार्थमाह -- तत्रेति।अयमभिप्रायः -- अत्र व्यक्तिशब्दस्तावन्न महदादिविषयः चतुर्मुखात्प्रागेव तदुत्पत्तेः। अतश्चतुर्मुखसृज्यमात्रविषय एवासौ। व्यज्यन्त इति व्यक्तयः। तत्रापि सत्यलोकादेः प्रतिकल्पं प्रलयाभावात् त्रैलोक्यान्तर्वर्त्तिदेहेन्द्रियादिवस्तुमात्रविषयत्वमेव स्वीकार्यम्। तेषां चोत्पत्तिः ब्रह्मशरीरादेव। ततश्चात्राव्यक्तशब्दोऽपि न मूलाव्यक्तविषयः अपितु तदुपादानकब्रह्मशरीरपरः। शरीरे चाव्यक्तशब्दप्रयोगः सूत्रेऽप्युपपादितःसूक्ष्मं तु तदर्हत्वात् [ब्र.सू.1।4।2] इति।एवंविधसृष्टिप्रलयकारणविशेषं तदनुच्छेदाच्च सृष्टिप्रलयसन्तानानुच्छेदं अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्रसङ्गपरिहारमुक्तस्यार्थस्य सर्वेष्वपि कल्पेषु अभिव्याप्तिं यथापूर्वकल्पनं चभूतग्रामः इति श्लोकः प्रतिपादयतीत्यभिप्रायेणाह -- स एवायमिति। भूतशब्दोऽत्राचिद्विशिष्टक्षेत्रज्ञपरः। सृज्यत्वसंहार्यत्वहेतुभूतमवशत्वं कर्मनिबन्धनमेव हीत्यभिप्रायेणकर्मवश्य इत्युक्तम्।अहरागमे इति पदंभूत्वा इत्यत्रापि अनुवर्तनीयमित्यभिप्रायेणअहरागमे भूत्वेत्यन्वय उक्तः। इदं च नैमित्तिकप्रलयप्रतिपादनं श्रुत्यादिप्रसिद्धप्राकृतप्रलयस्याप्युपलक्षणम्। तथा सति [तेन] सत्यलोकविनाशसिद्धिःआब्रह्मभुवनाल्लोकाः [8।16] इति ह्युपक्रान्तमित्यभिप्रायेणाह -- तथेति। यद्वा रात्र्यागमशब्द एव ब्रह्मणोऽन्तिमरात्र्यागममपि शक्त्या संगृह्णातीति भावः। तदेतत्सूचितंवर्षशतावसानरूपयुगसहस्रान्त इति। तथा चान्यत्र स्मर्यते -- निजेन तस्य मानेन आयुर्वर्षशतं स्मृतम् इति। एवमहरागमशब्दोऽपि प्रथममहः संगृह्णाति। पृथिव्यादितत्त्वानामेव विलये तदारब्धानां ब्रह्मलोकब्रह्मशरीरब्रह्माण्डादीनां का कथेत्यभिप्रायेण -- पृथिवीत्यादिश्रुतिरुदाहृता। तमोवस्थाचिद्द्रव्यस्यैकीभावो हि परस्मिन्नेव देवे श्रूयते। अत्रापिअहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः [7।6] इत्यादिकं ह्युच्यत इत्यभिप्रायेणमय्येवेत्युक्तम्। एवं यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वम् [श्वे.उ.6।18]एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानः [महो.1।1] इति क्रमेण पुनर्ब्रह्मादिसृष्टिः पुनश्च तत्प्रलय इत्यादिकमपि भाव्यम्। ईदृशसृष्टिप्रलयप्रतिपादनस्य प्रकृतोपयोगं दर्शयति -- एवमिति। सर्वेषु सृष्टिप्रलयप्रकरणेष्विदमेव तात्पर्यं भाव्यम्।मद्व्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्येत्यनेनअहं कृत्स्नस्य [7।6] इति प्रागुक्तं स्मारितम्। उक्तं च मोक्षधर्मेऽपिनित्यं हि (च) नास्ति जगति भूतं स्थावरजङ्गमम्। ऋते तमेकं पुरुषं वासुदेवं सनातनम् [म.भा.12।339।32] इति।
।।8.17।।ननु ब्रह्मलोकगतास्तेन सह मुच्यन्तेब्रह्मणा सह मुच्यन्ते इत्यादिभ्यस्तेऽपि पुनरावृत्तिरहिता भवन्त्येवेत्याशङ्क्य तेषां तदभावमाह -- सहस्रेति। सहस्रयुगपर्यन्तं चतुर्युगसहस्रं पर्यन्तोऽवसानं यस्य तत् ब्रह्मणो यदहर्दिनं तद्ये विदुर्जानन्ति युगसहस्रान्तां चतुर्युगसहस्रं अन्तो यस्यास्तादृशीं रात्रिं ये विदुस्ते अहोरात्रविदः। तत्र कालगणने मनुष्याणां यद्वर्षं तद्देवानामहोरात्रः तादृगहोरात्रगणितद्वादशवर्षसहस्रेण चतुर्युगं तच्च तद् ब्रह्मणो दिनं तावत्येव रात्रिस्तद्गणनक्रमेण वर्षशतं तत् ब्रह्मणः परमायुरित्युच्यते तदवसाने तत्सहितमुक्तानामक्षरप्राप्तिः परम्परया भवति।
।।8.17।।आवृत्तिभाजां कालपरिच्छेदमाह -- सहस्रेति। युगशब्दोऽत्र चतुर्युगपर्यायः।चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते इति पुराणान्तरदर्शनात् सहस्रं चतुर्युगानि पर्यन्तोऽवसानं यस्य। चतुर्युगसहस्रं ब्रह्मणो दिनं रात्रिरपि तावतीत्याह -- रात्रिमिति। अत्रापि चतुर्युगसहस्राणां अन्तो भवति तां चतुर्युगसहस्रान्ताम्। ते प्रसिद्धा अहोरात्रविदो जना विदुः।
।।8.17।।ब्रह्मलोकसहति लोगाः पुनरावर्तिन इत्युक्तं तेषां कालपरिच्छिन्नत्वादिति हेतुनोपपादयति। संहस्त्रं युगानि पर्यन्तं पर्यवासनं यस्याह्नस्तदहः सहस्त्रयुगपर्यन्तम्। युगशब्दोऽत्र चतुर्युगपरः।चतुर्युगसहस्त्रं तु ब्राह्मणो दिनमुच्यते इति पुराणोक्तेः। चतुर्युगपरिमाणं तु मनुष्याणां यद्वर्ष तदेव देवानामहोरात्रं तादृशैरहोरात्रैः पक्षादिक्रमेण द्वादशभिर्वर्षसहस्त्रैश्चतुर्युगं भवति। तत्र वर्ष चतुः सहस्त्रं कृतयुगं त्रिसहस्त्रंत्रैता द्विसहस्त्रं द्वापरं एकसहस्त्रं कलिः अष्टशतं कृतयुगस्य पूर्वोत्तरसंध्ये एवमग्रेपि युगऋभेण षट्चतुर्द्विशतसंख्याकसंध्याक्रमो बोध्यः। सहस्त्रयुगपर्यन्तं ब्रह्मणः प्रजापतेर्विराजोऽहर्दिनं विदुः। रात्रिमपि सहस्त्रयुगमन्तो यस्यास्तामहः परिमाणामेव विदुः। के वदुरित्याह। तेऽरोरात्राविदो ब्रह्मणो दिनरात्रिकालसंख्याविदो जनाः नतु मनुष्यदिनरात्रिकालविद इत्यर्थः। यतएवं यथोक्ताहोरात्रावयवमासर्त्वयनसंवत्सरावयवशतसंख्यायुरवच्छिन्नः प्रजापतिस्तदन्तर्वर्तिलोका अपि यथायोग्यकालपरिच्छिन्ना अतो ब्रह्मलोकसहिताः सर्वे लोकाः पुनरावर्तिन इत्याशयः।
8.17 सहस्रयुगपर्यन्तम् ending in a thousand Yugas (ages)? अहः day? यत् which? ब्रह्मणः of Brahma? विदुः know? रात्रिम् the night? युगसहस्रान्ताम् ending in a thousand Yugas (ages)? ते they? अहोरात्रविदः knowers of day and night? जनाः people.Commentary Day means evolution or projection or manifestation of the universe. Night means involution of the universe or Pralaya. The worlds are limited or conditioned in time. Therefore they return again. The world of Brahma (Brahmaloka or Sattyaloka) is also transient? although it lasts for a thousand ages. When the four great Yugas have gone round a thousan times? it make a daytime of Brahma and when an eal number of Yugas pass again it makes a night. Those who can see and live through the day and night of Brahma can really know what is a day and what is a night.The Suryasiddhanta speaks of the same division of time.According to it YearsKaliyuga (with its Sandhya andSandhyamsa) consists of 432?000Dvapara Yuga (do) 864?000Tretayuga (do) 1?296?000Kritayuga (do) 1?728?000Thus a Mahayuga consisting ofthese four Yugas comprises 4?320?00071 such Mahayugas with an additionalSandhya? at the close of 1?728?000years make one Manvantara of 308?448?00014 such Manvantaras with anotherSandhya? at the close of 1?728?000years constitute one Kalpa of 4?320?000?000Two Kalpas make a day and nightof Brahma of 8?640?000?000360 such days and nights make oneyear of Brahma consisting of 3?110?400?000?000100 such years constituteHis lifetime of 311?040?000?000?000The world is absorbed in the Avyakta or the Unmanifested or Mulaprakriti during the cosmic Pralaya (involution of the world). Just as the tree remains in a latent state in the seed? so also this whole universe remains in a latent state in a seedform in the Mulaprakriti during Pralaya. This is the night of Brahma. This is the cosmic night. Again the world is projected at the beginning of the Mahakalpa (evolution). There comes the cosmic dawn or cosmic day. This eternal rhythm of cosmic day and night (evolution and involution) is kept up in the macrocosm.Nothing that comes under this everrevolving wheel of cosmic day and night lasts for ever. That is the reason why the seers of the Upanishads? the sages of yore? lived in the transcendental Supreme being? the imperishable Self? the indestructible Purusha? the supreme goal of life? the highest end of man? which is beyond the cosmic day and night. Just as the seeds that are fried can hardly germinate? so also those who have attained to the imperishable Brahman? the Absolute? the Eternal? cannot return to this world of sorrow? pain and misery. They know neither day nor night. They are one with Existence Absolute.The manifested and the unmanifested dwell in Brahman. Brahman is beyond the manifested and the unmanifested. When the world and the body are destroyed Brahman is not destroyed. The waves come out and subside? but the ocean remains unaffected. So also the worlds come and subside? but Brahman the source of everything? the source of Mulaprakriti? ever remains unaffected. Just as ornaments come out of gold and then go back to gold when they are melted? so also all the worlds come out of Brahman and go back to Brahman. Gold is in no way affected by the various forms such as earning? bracelets? anklets? etc.? that have been made of it. Even so Brahman is not in the least affected by the projection and destruction (dissolution) of the worlds and the bodies of beings. It remains always as It is.
8.17 Those people who know the day of Brahma which is of a duration of a thousand Yugas (ages) and the night which is also of a thousand Yugas duration, they know day and night.
8.17 Those who understand the cosmic day and cosmic night know that one day of creation is a thousand cycles, and that the night is of equal length.
8.17 Those poeple who are knowers of what day and night are, know the day of Brahma which ends in a thousand yugas [The four yugas (in the human worlds), viz Satya, Treta, Dwapara, and Kali are made up of 4,320,000 years. This period multiplied by a thousand constitutes one day of Brahma. His night also extends over an eal period. See M.S. and V.S.A.], and His night which ends in a thousand yugas.
8.17 Viduh, they know; that ahah, day; brahmanah, of Brahma, of Prajapati, of Virat; yat, which; sahasra-yuga-paryantam, ends in a thousand yugas; and also the ratirm, night; yuga-sahasra-antam, which ends in a thousand yugas, having the same duration as the day. Who knows (these)? In reply the Lord says: Te, they; janah, poeple; ahoratra-vidah, who are the knowers of what day and night are, i.e. the people who know the measurement of time. Since the worlds are thus delimited by time, therefore they are subject to return. What happens during the day and the night of Prajapati is being stated:
8.17. Those who know the day of Brahma as compassing one thousand yugas (world-ages), and night [also] as compassing one thousand yugas-those men know the day and night of Brahma.
8.17 See Comment under 8.19
8.17 These men who know the order of the day and night as established by My will in regard to all beings, beginning with man and ending with Brahma - they understand that what forms Brahma's day is a unit comprising in it a thousand periods of four Yugas (Catur-yugas) and anight is a unit of eal duration.
8.17 Those poeple who are knowers of what day and night are, know the day of Brahma which ends in a thousand yugas [The four yugas (in the human worlds), viz Satya, Treta, Dwapara, and Kali are made up of 4,320,000 years. This period multiplied by a thousand constitutes one day of Brahma. His night also extends over an eal period. See M.S. and V.S.A.], and His night which ends in a thousand yugas.
।।8.17।।ब्रह्मलोकसहित समस्त लोक पुनरावर्ती किस कारणसे हैं कालसे परिच्छिन्न हैं इसलिये कालसे परिच्छिन्न कैसे हैं --, ब्रह्मा -- प्रजापति अर्थात् विराट्के एक दिनको एक सहस्रयुगकी अवधिवाला अर्थात् जिसका एक सहस्रयुगमें अन्त हो ऐसा समझते हैं। तथा ब्रह्माकी रात्रिको भी सहस्रयुगकी अवधिवाली अर्थात् दिनके बराबर ही समझते हैं। ऐसा कौन समझते हैं सो कहते हैं -- वे दिन और रातके तत्त्वको जाननेवाले अर्थात् कालके परिमाणको जाननेवाले योगीजन ऐसा जानते हैं। इस प्रकार कालसे परिच्छिन्न होनेके कारण वे सभी लोक पुनरावृत्तिवाले हैं।
।।8.17।। --,सहस्रयुगपर्यन्तं सहस्राणि युगानि पर्यन्तः पर्यवसानं यस्य अह्नः तत् अहः सहस्रयुगपर्यन्तम् ब्रह्मणः प्रजापतेः विराजः विदुः रात्रिम् अपि युगसहस्रान्तां अहःपरिमाणामेव। के विदुरित्याह -- ते अहोरात्रविदः कालसंख्याविदो जनाः इत्यर्थः। यतः एवं कालपरिच्छिन्नाः ते अतः पुनरावर्तिनो लोकाः।।प्रजापतेः अहनि यत् भवति रात्रौ च तत् उच्यते --
।।8.17 -- 8.19।।उत्तरप्रकरणस्यासङ्गतिमाशङ्क्याह -- मां प्राप्येति। अवस्थितानामिति शेषः। प्रतिज्ञामात्रेण हि तदुक्तं अव्यक्तसामर्थ्यस्यात्र कथनात् कथमात्मेत्युच्यते इत्यत उक्तम् -- अव्यक्ताख्येति। प्रलयादीति तत्कारणत्वमात्मनः। सृष्टिप्रलययोरिदम्पूर्वत्वाभावज्ञापनाय गीतामुल्लङ्घ्योक्तम्। अत्र सहस्रशब्दो,दशशतवाचीतिप्रतीतिनिरासायाह -- सहस्रेति। बहुशब्दपर्यायोऽयं न तु प्रसिद्धार्थः। विरिञ्चाहोरात्रयोः प्रसिद्धस्य सहस्रचतुर्युगपर्यन्तत्वात् कथमेतत् इत्यत आह -- ब्रह्मेति। तथा च द्विपरार्धप्रलयस्यादिसृष्टेश्चात्र विवक्षितत्वात् उक्तं युक्तम्। ननु परस्य ब्रह्मणो नित्यत्वादहोरात्रे न स्तः। तत्कथं तत्परमेतत् इत्यत आह -- सेति। सा निर्व्यापारावस्था परिपूर्णरूपस्यापि हरेः रजनीत्यर्थः। अनेनाहरपि सिद्धम्। भवेदेतद्यद्यत्र द्विपरार्धप्रलयस्यादिसृष्टेश्च विवक्षेत्यत्र प्रमाणं स्यादित्यत आह -- द्विपरार्धेति। एवमादिसृष्टिश्चेत्यपि ग्राह्यम्। न ह्यवान्तरसृष्टिप्रलययोः सर्वकार्योत्पत्तिविनाशाविति भावः। आगमान्तरसम्मतेश्चैवमित्याह -- उक्तं चेति। इतोऽप्येवमित्याह -- य इति। न ह्यवान्तरप्रलये सर्वेषामाकाशादीनां भूतानां नाशः नापि विरिञ्चस्य पञ्चभूतनाशेऽपि अविनाशित्वमिति भावः।
।।8.17 -- 8.19।।मां प्राप्य न पुनरावृत्तिरिति स्थापयितुं अव्यक्ताख्यात्मसामर्थ्यं दर्शयितुं प्रलयादि दर्शयति -- सहस्रयुगेत्यादिना। सहस्रशब्दोऽत्रानेकवाची। ब्रह्मपरम्। सा विश्वरूपस्य रजनी इति श्रुतिः। द्विपरार्धप्रलय एवात्र विवक्षितः।अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः [8।18] इत्युक्तेः। उक्तं च महाकौर्मेअनेकयुगपर्यन्तं महाविष्णोस्तथा निशा। रात्र्यादौ लीयते सर्वमहरादौ तु जायते इति च।यः स सर्वेषु भूतेषु [8।20] इति वाक्यशेषाच्च।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः। रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।8.17।।
সহস্রযুগপর্যন্তমহর্যদ্ব্রহ্মণো বিদুঃ৷ রাত্রিং যুগসহস্রান্তাং তেহোরাত্রবিদো জনাঃ৷৷8.17৷৷
সহস্রযুগপর্যন্তমহর্যদ্ব্রহ্মণো বিদুঃ৷ রাত্রিং যুগসহস্রান্তাং তেহোরাত্রবিদো জনাঃ৷৷8.17৷৷
સહસ્રયુગપર્યન્તમહર્યદ્બ્રહ્મણો વિદુઃ। રાત્રિં યુગસહસ્રાન્તાં તેહોરાત્રવિદો જનાઃ।।8.17।।
ਸਹਸ੍ਰਯੁਗਪਰ੍ਯਨ੍ਤਮਹਰ੍ਯਦ੍ਬ੍ਰਹ੍ਮਣੋ ਵਿਦੁ। ਰਾਤ੍ਰਿਂ ਯੁਗਸਹਸ੍ਰਾਨ੍ਤਾਂ ਤੇਹੋਰਾਤ੍ਰਵਿਦੋ ਜਨਾ।।8.17।।
ಸಹಸ್ರಯುಗಪರ್ಯನ್ತಮಹರ್ಯದ್ಬ್ರಹ್ಮಣೋ ವಿದುಃ. ರಾತ್ರಿಂ ಯುಗಸಹಸ್ರಾನ್ತಾಂ ತೇಹೋರಾತ್ರವಿದೋ ಜನಾಃ৷৷8.17৷৷
സഹസ്രയുഗപര്യന്തമഹര്യദ്ബ്രഹ്മണോ വിദുഃ. രാത്രിം യുഗസഹസ്രാന്താം തേഹോരാത്രവിദോ ജനാഃ৷৷8.17৷৷
ସହସ୍ରଯୁଗପର୍ଯନ୍ତମହର୍ଯଦ୍ବ୍ରହ୍ମଣୋ ବିଦୁଃ| ରାତ୍ରିଂ ଯୁଗସହସ୍ରାନ୍ତାଂ ତେହୋରାତ୍ରବିଦୋ ଜନାଃ||8.17||
sahasrayugaparyantamaharyadbrahmaṇō viduḥ. rātriṅ yugasahasrāntāṅ tē.hōrātravidō janāḥ৷৷8.17৷৷
ஸஹஸ்ரயுகபர்யந்தமஹர்யத்ப்ரஹ்மணோ விதுஃ. ராத்ரிஂ யுகஸஹஸ்ராந்தாஂ தேஹோராத்ரவிதோ ஜநாஃ৷৷8.17৷৷
సహస్రయుగపర్యన్తమహర్యద్బ్రహ్మణో విదుః. రాత్రిం యుగసహస్రాన్తాం తేహోరాత్రవిదో జనాః৷৷8.17৷৷
8.18
8
18
।।8.18।। ब्रह्माजीके दिनके आरम्भकालमें अव्यक्त- (ब्रह्माजीके सूक्ष्म-शरीर-) से सम्पूर्ण प्राणी पैदा होते हैं और ब्रह्माजीकी रातके आरम्भकालमें उसी अव्यक्तमें सम्पूर्ण प्राणी लीन हो जाते हैं।
।।8.18।। (ब्रह्माजी के) दिन का उदय होने पर अव्यक्त से (यह) व्यक्त (चराचर जगत्) उत्पन्न होता है; और (ब्रह्माजी की) रात्रि के आगमन पर उसी अव्यक्त में लीन हो जाता है।।
।।8.18।। See Commentary under 8.19.,
।।8.18।। व्याख्या--'अव्यक्ताद्व्यक्तयः ৷৷. तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके'--मात्र प्राणियोंके जितने शरीर हैं, उनको यहाँ 'व्यक्तयः'और चौदहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें 'मूर्तयः' कहा गया है। जैसे, जीवकृत सृष्टि अर्थात् 'मैं' और 'मेरापन' को लेकर जीवकी जो सृष्टि है, जीवके नींदसे जगनेपर वह सृष्टि जीवसे ही पैदा होती है और नींदके आ जानेपर वह सृष्टि जीवमें ही लीन हो जाती है। ऐसे ही जो यह स्थूल समष्टि सृष्टि दीखती है, वह सब-की-सब ब्रह्माजीके जगनेपर उनके सूक्ष्मशरीरसे अर्थात् प्रकृतिसे पैदा होती है और ब्रह्माजीके सोनेपर उनके सूक्ष्मशरीरमें ही लीन हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि ब्रह्माजीके जगनेपर तो 'सर्ग' होता है और ब्रह्माजीके सोनेपर 'प्रलय' होता है। जब ब्रह्माजीकी सौ वर्षकी आयु बीत जाती है, तब 'महाप्रलय' होता है, जिसमें ब्रह्माजी भी भगवान्में लीन हो जाते हैं। ब्रह्माजीकी जितनी आयु होती है, उतना ही महाप्रलयका समय रहता है। महाप्रलयका समय बीतनेपर ब्रह्माजी भगवान्से प्रकट हो जाते हैं तो 'महासर्ग' का आरम्भ होता है (गीता 9। 7 8)।
।।8.17 -- 8.19।।ननु क एवं जानाति यत् सर्वभुवनेभ्यः पुनरावृत्तिः। ब्रह्मादय एव ही तावत् चिरतरस्थायिनः श्रूयन्ते। ते एव (SN अत एव तावत्) कथं पुनरावर्त्तिनः पुनरावर्त्तित्वे हि तेऽपि स्युः प्रभवाप्ययधर्माणाः इत्या[शङ्कया ] ह -- सहस्रेत्यादि आगम इत्यन्तम्। ये खलु दीर्घदृश्वानः (N अदीर्घ -- ) ते ब्रह्मणोऽपि रात्रिं दिवं [ च ] पश्यन्ति प्रलयोदयतया। तथा च अहरहस्त एव विबुध्य निजां निजामेव चेष्टामनुरुध्यन्ते ( -- मवरुध्यन्ते) प्रतिरात्रि च तेषामेव निवृत्तपरिस्पन्दानां (S -- परिस्पन्दिनाम्) शक्तिमात्रत्वेनावस्थानम् (N -- त्वेनोपस्थानम्)। एवं सृष्टौ प्रलये च पुनः पुनर्भावः (K (n) -- र्भवः)। नान्येऽन्ये उपसृज्यन्ते अपि तु त एव जीवाः। कालकृतस्तु चिरक्षिप्रप्रत्ययात्मा विशेषः। एष च परिच्छेदः प्रजापतीनामप्यस्ति। ततश्च तेऽपि प्रभवाप्ययधर्माण एवेति स्थितम्।
।।8.18।।तत्र ब्रह्मणः अहरागमसमये त्रैलोक्यान्तर्वर्तिन्यो देहेन्द्रियभोग्यभोगस्थानरूपा व्यक्तयः चतुर्मुखदेहावस्थाद् अव्यक्तात् प्रभवन्ति। तत्र एव अव्यक्तावस्थाविशेषे चतुर्मुखदेहे रात्र्यागमसमये प्रलीयन्ते।
।।8.18।।यतः प्रजापतेरहस्तद्युगसहस्रपरिमितं या च तस्य रात्रिः सापि तथेति कालविदामभिप्रायमनुसृत्य ब्राह्मस्याहोरात्रस्य कालपरिमाणं दर्शयित्वा तत्रैव विभज्य कार्यं कथयति -- प्रजापतेरिति। अव्यक्तमव्याकृतमिति शङ्कां वारयति -- अव्यक्तमित्यादिना। जातिप्रतियोगिभूता व्यक्तीर्व्यावर्तयति -- स्थावरेति। असदुत्पत्तिप्रसक्तिं प्रत्यादिशति -- अभिव्यज्यन्त इति। पूर्वोक्तमव्यक्तसंज्ञकं स्वापावस्थं ब्रह्म प्रजापतिशब्दितं तस्मिन्निति यावत्।
।।8.18।।परं समष्टिभूतस्याह। पुनरागमे व्यष्टिभूतानां व्यक्तिप्रभवो नैमित्तिकश्च रात्र्यागमे लयस्तमाह -- अव्यक्ताद्व्यक्तय इति। अक्षरात्मकात्तत उद्भूतात् परमेष्ठिपुरुषात् समष्टिमूलभूतात्तत्प्रकृत्यन्वितात् दैवेच्छया निराकाराणां चेतनानां जीवानां ब्रह्मण्यनुशयितानां व्यक्तयो व्यष्टयो देहाद्या योनयो लोकाश्च प्रभवन्ति आविर्भवन्ति। तिरोभावात्मकं लयमाह। रात्र्यागमे तथाभूते तस्मिन्नेवाव्यक्तसंज्ञके प्रलीयन्ते तिरोभवन्ति।
।।8.18।।यथोक्तैरहोरात्रैः पक्षमासादिगणनया पूर्णं वर्षशतं प्रजापतेः परमायुरिति कालपरिच्छिन्नत्वेनानित्योऽसौ। तेन तल्लोकात्पुनरावृत्तिर्युक्तैव। ये तु ततोऽर्वाचीनास्तेषां तदहर्मात्रपरिच्छिन्नत्वात्तत्तल्लोकेभ्यः पुनरावृत्तिरिति किमु वक्तव्यमित्याह -- अत्र दैनंदिनसृष्टिप्रलययोरेव वक्तुमुपक्रान्तत्वात्तत्र चाकाशादीनां सत्त्वादव्यक्तशब्देनाव्याकृतावस्था नोच्यते किंतु प्रजापतेः स्वापावस्थैव। स्वापावस्थः प्रजापतिरिति यावत्। अहरागमे प्रजापतेः प्रबोधसमयेऽव्यक्तात्तत्स्वापावस्थारूपाद्व्यक्तयः शरीरविषयादिरूपा भोगभूमयः प्रभवन्ति व्यवहारक्षमतयाऽभिव्यज्यन्ते। रात्र्यागमे तस्य स्वापकाले पूर्वोक्ताः सर्वा अपि व्यक्तयः प्रलीयन्ते तिरोभवन्ति यत आविर्भूतास्तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके कारणे प्रागुक्ते स्वापावस्थे प्रजापतौ।
।।8.18।। ततः किमत आह -- अव्यक्तादिति। कार्यस्याव्यक्तं रूपं कारणात्मकं तस्मादव्यक्तात्कारणरूपाद्व्यज्यन्तेऽभिव्यज्यन्त इति व्यक्तयश्चराचराणि भूतानि प्रादुर्भवन्ति। कदा। अहरागमे ब्रह्मणो दिनस्योपक्रमे। तथा रात्रेरागमे ब्रह्मशयने तस्मिन्नेवाव्यक्तसंज्ञके कारणरूपे प्रलयं यान्ति। यद्वा तेऽहोरात्रविद इत्येतन्न विधीयते किंतु ते प्रसिद्धा अहोरात्रविदो जना यद्ब्रह्मणोऽहविंदुस्तस्याह्न आगमे अव्यक्ताद्व्यक्तयः प्रभवन्ति यां च रात्रिं विदुस्तस्या,रात्रेरागमे प्रलीयन्त इति द्वयोरन्वयः।
।। 8.18 सहस्र -- इत्यादिश्लोकत्रयस्य पिण्डितार्थमाह -- ब्रह्मलोकपर्यन्तानामिति। हिरण्यगर्भादिस्वातन्त्र्यसिद्धसत्यलोकादिस्थैर्यशङ्काव्युदासायाहपरमपुरुषसङ्कल्पकृतामिति। ईश्वरस्वातन्त्र्यमेव ह्यन्यूनानतिरिक्तदिनरात्र्यादिविचित्रव्यवस्थायां कारणम्। तथा चोच्यतेकालस्य च हि मृत्योश्च [म.भा.5।68।13]कालचक्रं जगच्चक्रं [म.भा.5।68।12] इत्यादिभिः। एवमेवोक्तमन्यत्रततो युगसहस्रान्ते संहरिष्ये जगत्पुनः। कृत्वा मत्स्थानि भूतानि चराणि स्थावराणि च इत्यादि। यत्तु मानवेतद्ये युगसहस्रं तु (तद्वे युगसहस्रांतं) ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः। रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः [1।73] इति तत्र य इत्येव पाठाद्यथाक्रममन्वयः। इह तुसहस्र -- इतिश्लोकेयत् इत्यस्याहश्शब्देनैव ह्यन्वयो घटते ततश्चते इत्यस्यये इति पदमपेक्षितम् तत्रापिये विदुस्तेऽहोरात्रविदो जनाः इत्यन्वये प्रसङ्गरहिताहोरात्रवेदिव्युत्पादनरूपं स्तुतिपरं वाक्यं प्रस्तुतासङ्गतं स्यात् ततश्चयेऽहोरात्रविदो जनास्त एवं विदुः इत्यन्वयः। एवं कालव्यवस्थायां प्रामाणिकत्वप्रतिपादनपरोऽत्र स्वीकार्य इत्यभिप्रायेणाहये मनुष्यादीति। अनूद्यमानमहोरात्रवेदित्वं यथाप्रसिद्धि सर्वविषयमेव भवितुमर्हति तेन चतुर्मुखस्यापि मनुष्यादितुल्यता द्योतिता स्यादित्यभिप्रायेणमनुष्यादीत्यादिकमुक्तम्। ब्रह्मशब्दस्यात्र परमात्मविषयत्वभ्रमव्युदासायचतुर्मुखशब्दः। तस्यैव हि सहस्रयुगप्रतिनियताहोरजनीविभागः प्रसिद्ध इति भावः।सविशेषणौ विधिनिषेधौ विशेषणमुपसङ्कामतः इति न्यायात्येऽहोरात्रविदो जनाः इत्यहोरात्रवेदतांशस्यानूदितत्त्वाच्च सहस्रयुगपर्यन्ततावेदनमेवात्र विधेयमित्यभिप्रायेणतच्चतुर्युगसहस्रावसानं विदुरित्युक्तम्। सहस्रयुगानि पर्यन्तं यस्य तत्सहस्रयुगपर्यन्तम्। युगशब्दश्चात्र प्रमाणान्तरानुसाराच्चतुर्युगपरः। अस्त्वेवं चतुर्मुखस्याहोरात्रव्यवस्था ततः किं प्रस्तुतस्य इत्यत्रोत्तरम् -- अव्यक्तात् इति श्लोकः। तस्यार्थमाह -- तत्रेति।अयमभिप्रायः -- अत्र व्यक्तिशब्दस्तावन्न महदादिविषयः चतुर्मुखात्प्रागेव तदुत्पत्तेः। अतश्चतुर्मुखसृज्यमात्रविषय एवासौ। व्यज्यन्त इति व्यक्तयः। तत्रापि सत्यलोकादेः प्रतिकल्पं प्रलयाभावात् त्रैलोक्यान्तर्वर्त्तिदेहेन्द्रियादिवस्तुमात्रविषयत्वमेव स्वीकार्यम्। तेषां चोत्पत्तिः ब्रह्मशरीरादेव। ततश्चात्राव्यक्तशब्दोऽपि न मूलाव्यक्तविषयः अपितु तदुपादानकब्रह्मशरीरपरः। शरीरे चाव्यक्तशब्दप्रयोगः सूत्रेऽप्युपपादितःसूक्ष्मं तु तदर्हत्वात् [ब्र.सू.1।4।2] इति।एवंविधसृष्टिप्रलयकारणविशेषं तदनुच्छेदाच्च सृष्टिप्रलयसन्तानानुच्छेदं अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्रसङ्गपरिहारमुक्तस्यार्थस्य सर्वेष्वपि कल्पेषु अभिव्याप्तिं यथापूर्वकल्पनं चभूतग्रामः इति श्लोकः प्रतिपादयतीत्यभिप्रायेणाह -- स एवायमिति। भूतशब्दोऽत्राचिद्विशिष्टक्षेत्रज्ञपरः। सृज्यत्वसंहार्यत्वहेतुभूतमवशत्वं कर्मनिबन्धनमेव हीत्यभिप्रायेणकर्मवश्य इत्युक्तम्।अहरागमे इति पदंभूत्वा इत्यत्रापि अनुवर्तनीयमित्यभिप्रायेणअहरागमे भूत्वेत्यन्वय उक्तः। इदं च नैमित्तिकप्रलयप्रतिपादनं श्रुत्यादिप्रसिद्धप्राकृतप्रलयस्याप्युपलक्षणम्। तथा सति [तेन] सत्यलोकविनाशसिद्धिःआब्रह्मभुवनाल्लोकाः [8।16] इति ह्युपक्रान्तमित्यभिप्रायेणाह -- तथेति। यद्वा रात्र्यागमशब्द एव ब्रह्मणोऽन्तिमरात्र्यागममपि शक्त्या संगृह्णातीति भावः। तदेतत्सूचितंवर्षशतावसानरूपयुगसहस्रान्त इति। तथा चान्यत्र स्मर्यते -- निजेन तस्य मानेन आयुर्वर्षशतं स्मृतम् इति। एवमहरागमशब्दोऽपि प्रथममहः संगृह्णाति। पृथिव्यादितत्त्वानामेव विलये तदारब्धानां ब्रह्मलोकब्रह्मशरीरब्रह्माण्डादीनां का कथेत्यभिप्रायेण -- पृथिवीत्यादिश्रुतिरुदाहृता। तमोवस्थाचिद्द्रव्यस्यैकीभावो हि परस्मिन्नेव देवे श्रूयते। अत्रापिअहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः [7।6] इत्यादिकं ह्युच्यत इत्यभिप्रायेणमय्येवेत्युक्तम्। एवं यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वम् [श्वे.उ.6।18]एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानः [महो.1।1] इति क्रमेण पुनर्ब्रह्मादिसृष्टिः पुनश्च तत्प्रलय इत्यादिकमपि भाव्यम्। ईदृशसृष्टिप्रलयप्रतिपादनस्य प्रकृतोपयोगं दर्शयति -- एवमिति। सर्वेषु सृष्टिप्रलयप्रकरणेष्विदमेव तात्पर्यं भाव्यम्।मद्व्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्येत्यनेनअहं कृत्स्नस्य [7।6] इति प्रागुक्तं स्मारितम्। उक्तं च मोक्षधर्मेऽपिनित्यं हि (च) नास्ति जगति भूतं स्थावरजङ्गमम्। ऋते तमेकं पुरुषं वासुदेवं सनातनम् [म.भा.12।339।32] इति।
।।8.18।।पुनस्तत्प्रकटसमये तत्सहितानामागमनमित्याह -- अव्यक्तादिति। अव्यक्तादक्षराद्भगवच्चरणरूपात् व्यक्तयः स्थावरजङ्गमादयः सर्वाः देवादिकीटतृणादयः अहरागमे ब्रह्मदिनोद्गमे प्रभवन्ति उत्पद्यन्ते। तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके अक्षरे रात्र्यागमे रात्र्युद्गमे प्रलीयन्ते लीना भवन्तीति तद्विदो जनास्तत्र प्रविशन्तीत्यर्थः।
।।8.18।।किं ब्रह्मणोऽह्नि जायते किंवा रात्रावित्यत आह -- अव्यक्तादिति। अत्र दैनंदिनसृष्टिप्रलययोः प्रकृतत्वादव्यक्तशब्देन नाव्याकृतं वियदादिकारणमिह ग्राह्यम्। तदा आकाशादीनां सत्त्वात्। किं तर्हि प्रजापतेः स्वापावस्थैवेहाव्यक्तशब्दार्थः। अयं भावः -- प्रजापतेः स्वापकाले तत्कल्पितः स्थावरजगंमप्रपञ्चः सर्वोऽपि तदीयेऽज्ञानेऽव्याकृताख्ये लीयते रात्र्यागमे। तथा दिवसागमे पुनस्तत एव यथापूर्वमाविर्भवति। एवं दृष्टिसृष्टिन्यायेनास्मत्कल्पितोऽप्ययं वियदादिप्रपञ्चोऽस्मत्सुषुप्तौ लीयते अस्मत्प्रबोधे यथापूर्वं प्रादुर्भवतीति।
।।8.18।।प्रजापतेरहोरात्रे यद्भवति तदाह -- अवक्तादिति। अत्राव्यक्तशब्देन नाव्याकृतं गृह्यते दैनंदिनसृष्टिप्रलययोः पस्तुतत्वात्तत्र चाकाशोदेरुत्पत्तिनाशानुक्तेस्तस्मादव्यक्तं प्रजापतेः स्वापावस्था तस्माद्य्वज्यन्त इति व्यक्तयश्चराचरलक्षणा निखिलाः प्रजा भवन्ति आविर्भवन्ति नत्वसन्त्य उत्पद्यन्ते प्रलीयन्ते इत्यनुरोधात्। युक्तियुक्तत्वाच्च सत्कार्यावादस्तावद्युक्तियुक्तो नत्वसत्कार्यवादः। तथाहि कारणव्यापारात्प्रागपि सत्कार्यं कारणव्यापारेण तर्हि किं साध्यत इतिचेत्पूर्वं सत एव कार्यस्याविर्भाव इति ब्रूमः। यत्तु भृत्पिण्टादिध्वंसानन्तरं घटाद्युत्पत्तिर्दृश्यते न तत्र प्रध्वंसः कारणमपितु भाव एव मृदाद्यवयवरुपः। अन्यथाऽभावस्य सर्वत्र सुलभत्वेन सर्वत्र सर्वदा कार्योत्पत्तिः प्रसज्येत। कारणव्यापारादसत्कार्यवादे तु असतः कार्यस्य सत्त्वं केनापि कर्तुमशक्यम्। नहि शिल्पिलक्षेणापि सिकताभ्यस्तैलं प्रसज्येत। कारणव्यापारदसत्कार्यवादे तु असतः कार्यस्य सत्त्वं केनापि कर्तुमशक्यम्। नहि शिल्पिलक्षेणापि सिकताभ्यस्तैलं कुड्यादेरङकुरमुत्पादयुतुं शक्यम्। किंच कार्येण संबद्धं ह्युपादानकारणं कार्यस्य जनकं संबन्धश्चा सतः कार्यस्य कारणेन न संभवति। ननु मास्तु संबन्धोऽसंबद्धमेव कारणैः कार्यं कस्मान्न जन्यते तथाचासदेव कार्यमुत्पत्स्यत इतिचेन्न। तथात्वेऽसंबद्धत्वाविशेषेण सर्वस्य कार्यजातस्य सर्वस्मात्कारणादुत्पत्तिप्रसङ्गात्। नन्वसंबद्धमपि सत्कारणं तदेव करोति यत्कारणं यत्र शक्तं शक्तिश्च कार्यदर्शनादवगम्यते।,अतो नाव्यवस्थेति चेत्सा शक्तिः कारणश्रया सर्वत्र उत शक्यमात्रे। आद्ये तदवस्थैवाव्यवस्था। न द्वितीयः। असत्कार्यवादिनस्तव मते शक्यस्य कार्यस्यासत्त्वात्। ननु शक्तिभेद एवैतादृशो यतः यत्किंचिदेव कार्यमुत्पादयेत् न स्रवमितिचेत्। स शक्तिविशेषः किं कार्यसंबद्धः कार्यमुत्पादयति उतासंबद्धः। नाद्यः। असता संबन्धायोगात्। न द्वितीयः। अव्यस्थातादवस्थ्यादित्यन्यत्र विस्तरः। ब्रह्मणोऽह्नः आगमे तस्य प्रबोधकालेऽव्यक्ताद्य्वक्तयो भवन्ति तथा रात्र्यागमे ब्रह्मणः स्वापकाले सर्वा व्यक्तयोऽव्यक्तसंज्ञिके पूर्वोक्ते प्रलीयन्ते।
8.18 अव्यक्तात् from the Unmanifested? व्यक्तयः the manifested? सर्वाः all? प्रभवन्ति proceed? अहरागमे at the coming of day? रात्र्यागमे at the coming of night? प्रलीयन्ते dissolve? तत्र there? एव verily? अव्यक्तसंज्ञके in that which is called the Unmanifested.Commentary When Brahma awakes? all manifestations? moving and unmoving (animate and inanimate) stream forth at the coming of the day from the Avyakta or the Unmanifested. When Brahma goes to sleep? all the manifestations merge in the Unmanifested? for the cosmic night has set in.Coming of the day Commencement of creation.Coming of the night Commencement of dissolution. (Cf.IX.7and8)
8.18 From the Unmanifested all the manifested (worlds) proceed at the coming of the 'day'; at the coming of the 'night' they dissolve verily into ï1thatï1 alone which is called the Unmanifested.
8.18 At the dawning of that day all objects in manifestation stream forth from the Unmanifest, and when evening falls they are dissolved into It again.
8.18 With the coming of day all manifested things emerge from the Unmanifest and when night comes they merge in that itself which is called the Unmanifested.
8.18 Ahar-agame, with the coming of day, at the time when Brahma wakes; sarvah vyaktayah, all manifested things, all things that get manifested, all creatures characterized as moving and non-moving; prabhavanti, emerge, become manifested; avyaktat, from the Unmanifested-avyakta (Unmanifested) is the state of sleep of Prajapati; from that avyakta. Similarly, ratri-agame, when night comes, at the time when Brahma sleeps; praliyante, they, all the manifested things, merge; tatra eva, in that itself; avyakta-sanjnake, which is called the Unmanifested referred to above. In order to obviate the defect of the emergence of some unmerited result and the destruction of merited results; [The following verse says that the very same multitude of beings continues in the different cycles of creation, and there-fore these two defects do not arise.] for pointing out the meaningfulness of the scriptures [For the earlier reason the scriptures do not lose their validity.] dealing with bondage and Liberation; and with a view to propounding detachment from the world on the ground that the helpless multitude of beings perishes after being born again and again under the influence of accumulated results of actions that have for their origin such evils as ignorance etc. [The five evils are: ignorance, egoism, attachment, aversion and clinging to life. (See P. Y. Su. 2.3)], the Lord says this:
8.18. While the day approaches, all manifestations issue forth from the unmanifest and while the night approaches they dissolve into the same that bears the name 'the unmanifest.'
8.18 See Comment under 8.19
8.18 Thus, at the dawn of a day of Brahma, the manifest entities existing in the three worlds, possessing body, senses, objects, and places of enjoyment appear from the non-manifest (Avyakta), which is the condition of Brahma's body in that state, and at the beginning of the night they are dissolved into the condition of the unevolved (Avyakta) which forms the body of Brahma then.
8.18 With the coming of day all manifested things emerge from the Unmanifest and when night comes they merge in that itself which is called the Unmanifested.
।।8.18।।प्रजापतिके दिनमें और रात्रिमें जो कुछ होता है उसका वर्णन किया जाता है --, दिनके आरम्भकालका नाम अहरागम है ब्रह्माके दिनके आरम्भकालमें अर्थात् ब्रह्माके प्रबोधकालमें अव्यक्तसे -- प्रजापतिकी निद्रावस्थासे समस्त व्यक्तियाँ -- स्थावरजङ्गमरूप समस्त प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं -- प्रकट होती हैं। जो व्यक्तप्रकट होती है उसका नाम व्यक्ति है। तथा रात्रिके आनेपर -- ब्रह्माके शयन करनेके समस्त उस पूर्वोक्त अव्यक्त नामक प्रजापतिकी निद्रावस्थामें ही समस्त प्राणी लीन हो जाते हैं।,
।।8.18।। --,अव्यक्तात् अव्यक्तं प्रजापतेः स्वापावस्था तस्मात् अव्यक्तात् व्यक्तयः व्यज्यन्त इति व्यक्तयः स्थावरजङ्गमलक्षणाः सर्वाः प्रजाः प्रभवन्ति अभिव्यज्यन्ते अह्नः आगमः अहरागमः तस्मिन् अहरागमे काले ब्रह्मणः प्रबोधकाले। तथा रात्र्यागमे ब्रह्मणः स्वापकाले प्रलीयन्ते सर्वाः व्यक्तयः तत्रैव पूर्वोक्ते अव्यक्तसंज्ञके।।अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशदोषपरिहारार्थम् बन्धमोक्षशास्त्रप्रवृत्तिसाफल्यप्रदर्शनार्थम् अविद्यादिक्लेशमूलकर्माशयवशाच्च अवशः भूतग्रामः भूत्वा भूत्वा प्रलीयते इत्यतः संसारे वैराग्यप्रदर्शनार्थं च इदमाह --,
।।8.17 -- 8.19।।उत्तरप्रकरणस्यासङ्गतिमाशङ्क्याह -- मां प्राप्येति। अवस्थितानामिति शेषः। प्रतिज्ञामात्रेण हि तदुक्तं अव्यक्तसामर्थ्यस्यात्र कथनात् कथमात्मेत्युच्यते इत्यत उक्तम् -- अव्यक्ताख्येति। प्रलयादीति तत्कारणत्वमात्मनः। सृष्टिप्रलययोरिदम्पूर्वत्वाभावज्ञापनाय गीतामुल्लङ्घ्योक्तम्। अत्र सहस्रशब्दो दशशतवाचीतिप्रतीतिनिरासायाह -- सहस्रेति। बहुशब्दपर्यायोऽयं न तु प्रसिद्धार्थः। विरिञ्चाहोरात्रयोः प्रसिद्धस्य सहस्रचतुर्युगपर्यन्तत्वात् कथमेतत् इत्यत आह -- ब्रह्मेति। तथा च द्विपरार्धप्रलयस्यादिसृष्टेश्चात्र विवक्षितत्वात् उक्तं युक्तम्। ननु परस्य ब्रह्मणो नित्यत्वादहोरात्रे न स्तः। तत्कथं तत्परमेतत् इत्यत आह -- सेति। सा निर्व्यापारावस्था परिपूर्णरूपस्यापि हरेः रजनीत्यर्थः। अनेनाहरपि सिद्धम्। भवेदेतद्यद्यत्र द्विपरार्धप्रलयस्यादिसृष्टेश्च विवक्षेत्यत्र प्रमाणं स्यादित्यत आह -- द्विपरार्धेति। एवमादिसृष्टिश्चेत्यपि ग्राह्यम्। न ह्यवान्तरसृष्टिप्रलययोः सर्वकार्योत्पत्तिविनाशाविति भावः। आगमान्तरसम्मतेश्चैवमित्याह -- उक्तं चेति। इतोऽप्येवमित्याह -- य इति। न ह्यवान्तरप्रलये सर्वेषामाकाशादीनां भूतानां नाशः नापि विरिञ्चस्य पञ्चभूतनाशेऽपि अविनाशित्वमिति भावः।
।।8.17 -- 8.19।।मां प्राप्य न पुनरावृत्तिरिति स्थापयितुं अव्यक्ताख्यात्मसामर्थ्यं दर्शयितुं प्रलयादि दर्शयति -- सहस्रयुगेत्यादिना। सहस्रशब्दोऽत्रानेकवाची। ब्रह्मपरम्। सा विश्वरूपस्य रजनी इति श्रुतिः। द्विपरार्धप्रलय एवात्र विवक्षितः।अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः [8।18] इत्युक्तेः। उक्तं च महाकौर्मेअनेकयुगपर्यन्तं महाविष्णोस्तथा निशा। रात्र्यादौ लीयते सर्वमहरादौ तु जायते इति च।यः स सर्वेषु भूतेषु [8।20] इति वाक्यशेषाच्च।
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे। रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।8.18।।
অব্যক্তাদ্ব্যক্তযঃ সর্বাঃ প্রভবন্ত্যহরাগমে৷ রাত্র্যাগমে প্রলীযন্তে তত্রৈবাব্যক্তসংজ্ঞকে৷৷8.18৷৷
অব্যক্তাদ্ব্যক্তযঃ সর্বাঃ প্রভবন্ত্যহরাগমে৷ রাত্র্যাগমে প্রলীযন্তে তত্রৈবাব্যক্তসংজ্ঞকে৷৷8.18৷৷
અવ્યક્તાદ્વ્યક્તયઃ સર્વાઃ પ્રભવન્ત્યહરાગમે। રાત્ર્યાગમે પ્રલીયન્તે તત્રૈવાવ્યક્તસંજ્ઞકે।।8.18।।
ਅਵ੍ਯਕ੍ਤਾਦ੍ਵ੍ਯਕ੍ਤਯ ਸਰ੍ਵਾ ਪ੍ਰਭਵਨ੍ਤ੍ਯਹਰਾਗਮੇ। ਰਾਤ੍ਰ੍ਯਾਗਮੇ ਪ੍ਰਲੀਯਨ੍ਤੇ ਤਤ੍ਰੈਵਾਵ੍ਯਕ੍ਤਸਂਜ੍ਞਕੇ।।8.18।।
ಅವ್ಯಕ್ತಾದ್ವ್ಯಕ್ತಯಃ ಸರ್ವಾಃ ಪ್ರಭವನ್ತ್ಯಹರಾಗಮೇ. ರಾತ್ರ್ಯಾಗಮೇ ಪ್ರಲೀಯನ್ತೇ ತತ್ರೈವಾವ್ಯಕ್ತಸಂಜ್ಞಕೇ৷৷8.18৷৷
അവ്യക്താദ്വ്യക്തയഃ സര്വാഃ പ്രഭവന്ത്യഹരാഗമേ. രാത്ര്യാഗമേ പ്രലീയന്തേ തത്രൈവാവ്യക്തസംജ്ഞകേ৷৷8.18৷৷
ଅବ୍ଯକ୍ତାଦ୍ବ୍ଯକ୍ତଯଃ ସର୍ବାଃ ପ୍ରଭବନ୍ତ୍ଯହରାଗମେ| ରାତ୍ର୍ଯାଗମେ ପ୍ରଲୀଯନ୍ତେ ତତ୍ରୈବାବ୍ଯକ୍ତସଂଜ୍ଞକେ||8.18||
avyaktādvyaktayaḥ sarvāḥ prabhavantyaharāgamē. rātryāgamē pralīyantē tatraivāvyaktasaṅjñakē৷৷8.18৷৷
அவ்யக்தாத்வ்யக்தயஃ ஸர்வாஃ ப்ரபவந்த்யஹராகமே. ராத்ர்யாகமே ப்ரலீயந்தே தத்ரைவாவ்யக்தஸஂஜ்ஞகே৷৷8.18৷৷
అవ్యక్తాద్వ్యక్తయః సర్వాః ప్రభవన్త్యహరాగమే. రాత్ర్యాగమే ప్రలీయన్తే తత్రైవావ్యక్తసంజ్ఞకే৷৷8.18৷৷
8.19
8
19
।।8.19।। हे पार्थ ! वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृतिके परवश हुआ ब्रह्माके दिनके समय उत्पन्न होता है और ब्रह्माकी रात्रिके समय लीन होता है।
।।8.19।। हे पार्थ ! वही यह भूतसमुदाय, है जो पुनः पुनः उत्पन्न होकर लीन होता है। अवश हुआ (यह भूतग्राम) रात्रि के आगमन पर लीन तथा दिन के उदय होने पर व्यक्त होता है।।
।।8.19।। ब्रह्माजी का कार्यभार एवं कार्यप्रणाली तथा सृष्टि की उत्पत्ति और लय का वर्णन इन दो श्लोकों में किया गया है। यहाँ कहा गया है कि दिन में जो कि एक सहस्र युग का है वे सृष्टि करते हैं और उनकी रात्रि का जैसे ही आगमन होता है वैसे ही सम्पूर्ण सृष्टि पुनः अव्यक्त में लीन हो जाती है।सामान्यतः जगत् में सृष्टि शब्द का अर्थ होता है किसी नवीन वस्तु की निर्मिति। परन्तु दर्शनशास्त्र की दृष्टि से सृष्टि का अभिप्राय अधिक सूक्ष्म है तथा अर्थ उसके वास्तविक स्वभाव का परिचायक है। एक कुम्भकार मिट्टी के घट का निर्माण कर सकता है लेकिन लड्डू का नहीं निर्माण की क्रिया किसी पदार्थ विशेष (उपादान कारण कच्चा माल जैसे दृष्टान्त में मिट्टी) से एक आकार को बनाती है जिसके कुछ विशेष गुण होते हैं। भिन्नभिन्न रूपों को पुनः विभिन्न नाम दिये जाते हैं। विचार करने पर ज्ञात होगा कि जो निर्मित नामरूप है वह अपने गुण के साथ पहले से ही अपने कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान था। मिट्टी में घटत्व था किन्तु लड्डुत्व नहीं इस कारण मिट्टी से घट की निर्मिति तो हो सकी परन्तु लड्डू का एक कण भी नहीं बनाया जा सका। अतः वेदान्ती इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सृष्टि का अर्थ है अव्यक्त नाम रूप और गुणों का व्यक्त हो जाना।कोई भी व्यक्ति वर्तमान में जिस स्थिति में रहता दिखाई देता है वह उसके असंख्य बीते हुये दिनों का परिणाम है। भूतकाल के विचार भावना तथा कर्मों के अनुसार उनका वर्तमान होता है। मनुष्य के बौद्धिक विचार एवं जीवन मूल्यों के अनुरूप होने वाले कर्म अपने संस्कार उसके अन्तःकरण में छोड़ जाते हैं। यही संस्कार उसके भविष्य के निर्माता और नियामक होते हैं।जिस प्रकार विभिन्न जाति के प्राणियों की उत्पत्ति में सातत्य का विशिष्ट नियम कार्य करता है उसी प्रकार विचारों के क्षेत्र में भी वह लागू होता है। मेढक से मेढक की मनुष्य से मनुष्य की तथा आम्रफल के बीज से आम्र की ही उत्पत्ति होती है। ठीक इसी प्रकार शुभ विचारों से सजातीय शुभ विचारों की ही धारा मन में प्रवाहित होगी और उसमें उत्तरोत्तर बृद्धि होती जायेगी। मन में अंकित इन विचारों के संस्कार इन्द्रियों के लिए अव्यक्त रहते हैं और प्रायः मन बुद्धि भी उन्हें ग्रहण नहीं कर पाती। ये अव्यक्त संस्कार ही विचार शब्द तथा कर्मों के रूप में व्यक्त होते हैं। संस्कारों का गुणधर्म कर्मों में भी व्यक्त होता है।उदाहरणार्थ किसी विश्रामगृह में चार व्यक्ति चिकित्सक वकील सन्त और डाकू सो रहे हों तब उस स्थिति में देह की दृष्टि से सबमें ताप श्वास रक्त मांस अस्थि आदि एक समान होते हैं। वहाँ डाक्टर और वकील या सन्त और डाकू का भेद स्पष्ट नहीं होता। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्टता को हम इन्द्रियों से देख नहीं पाते तथापि वह प्रत्येक में अव्यक्त रूप में विद्यमान रहती है उनसे उसका अभाव नहीं हो जाता है।उन लोगों के अव्यक्त स्वभाव क्षमता और प्रवृत्तियाँ उनके जागने पर ही व्यक्त होती हैं। विश्रामगृह को छोड़ने पर सभी अपनीअपनी प्रवत्ति के अनुसार कार्यरत हो जायेंगे। अव्यक्त से इस प्रकार व्यक्त होना ही दर्शनशास्त्र की भाषा में सृष्टि है।सृष्टि की प्रक्रिया को इस प्रकार ठीक से समझ लेने पर सम्पूर्ण ब्रह्मांड की सृष्टि और प्रलय को भी हम सरलता से समझ सकेंगे। समष्टि मन (ब्रह्माजी) अपने सहस्युगावधि के दिन की जाग्रत् अवस्था में सम्पूर्ण अव्यक्त सृष्टि को व्यक्त करता है और रात्रि के आगमन पर भूतमात्र अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण इस पर विशेष बल देते हुये कहते हैं कि वही भूतग्राम पुनः पुनः अवश हुआ उत्पन्न और लीन होता है। अर्थात् प्रत्येक कल्प के प्रारम्भ में नवीन जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। इस कथन से हम स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि किस प्रकार मनुष्य अपने ही विचारों एवं भावनाओं के बन्धन में आ जाता है ऐसा कभी नहीं हो सकता कि कोई पशु प्रवृत्ति का व्यक्ति जो सतत विषयोपभोग का जीवन जीता है और अपनी वासनापूर्ति के लिए निर्मम और क्रूर कर्म करता है रातों रात सर्व शुभ गुण सम्पन्न व्यक्ति बन जाय। ऐसा होना सम्भव नहीं चाहे उसके गुरु कितने ही महान् क्यों न हों अथवा कितना ही मंगलमय पर्व क्यों न हो और किसी स्थान या काल की कितनी ही पवित्रता क्यों न हो।जब तक शिष्य में दैवी संस्कार अव्यक्त रूप में न हों तब तक कोई भी गुरु उपदेश के द्वारा उसे तत्काल ही सन्त पुरुष नहीं बना सकता। यदि कोई तर्क करे कि पूर्व काल में किसी विरले महात्मा में किसी विशिष्ट गुरु के द्वारा तत्काल ही ऐसा अभूतपूर्व परिवर्तन लाया गया तो हमको किसी जादूगर के द्वारा मिट्टी से लड्डू बनाने की घटना को भी स्वीकार करना चाहिए लड्डू बनाने की घटना में हम जानते हैं कि वह केवल जादू था दृष्टिभ्रम था और वास्तव में मिट्टी से लड्डू बनाया नहीं गया था। इसी प्रकार जो बुद्धिमान लोग जीवन के विज्ञान को समझते हैं और गीताचार्य के प्रति जिनके मन में कुछ श्रद्धा भक्ति है वे ऐसे तर्क को किसी कपोलकल्पित कथा से अधिक महत्व नहीं देंगे। ऐसी कथा को केवल काव्यात्मक अतिशयोक्ति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो शिष्यों द्वारा अपने गुरु की स्तुति में की जाती हैं।वही भूतग्राम का अर्थ है वही वासनायें। जीव अपनी वासनाओं से भिन्न नहीं होता। वासनाक्षय के लिए जीव विभिन्न लोकों में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करता है। इसमें वह अवश है। अवश एक प्रभावशाली शब्द है जो यह सूचित करता है कि अपनी दृढ़ वासनाओं के फलस्वरूप यह जीव स्वयं को अपने भूतकाल से वियुक्त करने में असमर्थ होता है। जब हम ज्ञान के प्रकाश की ओर पीठ करके चलते हैं तब हमारा भूतकाल का जीवन हमारे मार्ग को अन्धकारमय करता हुआ हमारे साथ ही चलता है। ज्ञान के प्रकाश की ओर अभिमुख होकर चलने पर वही भूतकाल नम्रतापूर्वक संरक्षक देवदूत के समान आत्मान्वेषण के मार्ग में हमारा साथ देता है।एक देह को त्यागकर जीव का अस्तित्व उसी प्रकार बना रहता है जैसे नाटक की समाप्ति पर राजा के वेष का त्याग कर अभिनेता का। नाटक के पश्चात् वह अपनी पत्नी के पति और बच्चों के पिता के रूप में रहता है। एक देह विशेष को धारण कर कर्मों के रूप में अपने मन की वासनाओं या विचारों का गीत गाना ही सृष्टि है और उपाधियों को त्यागने पर विचारों का अव्यक्त होना ही लय है। वीणावादक अपने वाद्य के माध्यम से अपने संगीत के ज्ञान को व्यक्त करता है किन्तु जब वीणा को बन्द कर दिया जाता है तो उस वादक का संगीतज्ञान अव्यक्त अवस्था में रहता है।मनुष्य का बाह्य जगत् से सम्पर्क होने या उसकी वासनायें अर्थात् अव्यक्त निरन्तर परिवर्तित होता रहता है। यह पहले भी कहा जा चुका है कि यह निरन्तर परिवर्तन एक अपरिवर्तनशील नित्य अविकारी अधिष्ठान के बिना ज्ञात नहीं हो सकता। उसी अधिष्ठान पर इस परिवर्तन का आभास होता है।वह नित्य अधिष्ठान क्या है जिस पर इस सृष्टि का नाटक खेला जाता है
।।8.19।। व्याख्या --'भूतग्रामः स एवायम्'--अनादिकालसे जन्म-मरणके चक्करमें पड़ा हुआ यह प्राणिसमुदाय वही है, जो कि साक्षात् मेरा अंश, मेरा स्वरूप है। मेरा सनातन अंश होनेसे यह नित्य है। सर्ग और प्रलय तथा महासर्ग और महाप्रलयमें भी यही था और आगे भी यही रहेगा। इसका न कभी अभाव हुआ है और न आगे कभी इसका अभाव होगा। तात्पर्य है कि यह अविनाशी है, इसका कभी विनाश नहीं होता। परन्तु भूलसे यह प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। प्राकृत पदार्थ (शरीर आदि) तो बदलते रहते हैं, उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, पर यह उनके सम्बन्धको पकड़े रहता है। यह कितने आश्चर्यकी बात है कि सम्बन्धी (सांसारिक पदार्थ) तो नहीं रहते, पर उनका सम्बन्ध रहता है; क्योंकि उस सम्बन्धको स्वयंने पकड़ा है। अतः यह स्वयं जबतक उस सम्बन्धको नहीं छोड़ता, तबतक उसको दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। उस सम्बन्धको छोड़नेमें यह स्वतन्त्र है, सबल है। वास्तवमें यह उस सम्बन्धको रखनेमें सदा परतन्त्र है; क्योंकि वे पदार्थ तो हरदम बदलते रहते हैं, पर यह नया-नया सम्बन्ध पकड़ता रहता है। जैसे, बालकपनको इसने नहीं छोड़ा और न छोड़ना चाहा, पर वह छूट गया। ऐसे ही जवानीको इसने नहीं छोड़ा, पर वह छूट गयी। और तो क्या, यह शरीरको भी छोड़ना नहीं चाहता, पर वह भी छूट जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्राकृत पदार्थ तो छूटते ही रहते हैं, पर यह जीव उन पदार्थोंके साथ अपने सम्बन्धको बनाये रखता है, जिससे,इसको बार-बार शरीर धारण करने पड़ते हैं, बार-बार जन्मना-मरना पड़ता है। जबतक यह उस माने हुए सम्बन्धको नहीं छोड़ेगा तबतक यह जन्ममरणकी परम्परा चलती ही रहेगी, कभी मिटेगी नहीं।
।।8.17 -- 8.19।।ननु क एवं जानाति यत् सर्वभुवनेभ्यः पुनरावृत्तिः। ब्रह्मादय एव ही तावत् चिरतरस्थायिनः श्रूयन्ते। ते एव (SN अत एव तावत्) कथं पुनरावर्त्तिनः पुनरावर्त्तित्वे हि तेऽपि स्युः प्रभवाप्ययधर्माणाः इत्या[शङ्कया ] ह -- सहस्रेत्यादि आगम इत्यन्तम्। ये खलु दीर्घदृश्वानः (N अदीर्घ -- ) ते ब्रह्मणोऽपि रात्रिं दिवं [ च ] पश्यन्ति प्रलयोदयतया। तथा च अहरहस्त एव विबुध्य निजां निजामेव चेष्टामनुरुध्यन्ते ( -- मवरुध्यन्ते) प्रतिरात्रि च तेषामेव निवृत्तपरिस्पन्दानां (S -- परिस्पन्दिनाम्) शक्तिमात्रत्वेनावस्थानम् (N -- त्वेनोपस्थानम्)। एवं सृष्टौ प्रलये च पुनः पुनर्भावः (K (n) -- र्भवः)। नान्येऽन्ये उपसृज्यन्ते अपि तु त एव जीवाः। कालकृतस्तु चिरक्षिप्रप्रत्ययात्मा विशेषः। एष च परिच्छेदः प्रजापतीनामप्यस्ति। ततश्च तेऽपि प्रभवाप्ययधर्माण एवेति स्थितम्।
।।8.19।।स एव अयं कर्मवश्यो भूतग्रामः अहरागमे भूत्वा भूत्वा रात्र्यागमे प्रलीयते पुनः अपि अहरागमे प्रभवति। तथा वर्षशतावसानरूपयुगसहस्रान्ते ब्रह्मलोकपर्य्यन्ता लोकाः ब्रह्मा च पृथिवी अप्सु प्रलीयते आपः तेजसि लीयन्ते इत्यादिक्रमेण अव्यक्ताक्षरतमःपर्यन्तं मयि एव प्रलीयन्ते।एवं मद्व्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्य कालव्यवस्थया मत्त उत्पत्तेः मयि प्रलयात् च उत्पत्तिविनाशयोगित्वम् अवर्जनीयम् इति ऐश्वर्यगतिं प्राप्तानां पुनरावृत्तिः अपरिहार्या। माम् उपेतानां तु न पुनरावृत्तिप्रसङ्गः।अथ कैवल्यप्राप्तानाम् अपि पुनरावृत्तिः न विद्यते इति आह --
।।8.19।।ननु प्रबोधकाले ब्रह्मणो यो भूतग्रामो भूत्वा तस्यैव स्वापकाले विलीयते तस्मादन्यो भूयो ब्रह्मणोऽहरागमे भूत्वा पुना रात्र्यागमे परवशो विनश्यति तदेवं प्रत्यवान्तरकल्पं भूतग्रामविभागो भवेदित्याशङ्क्यानन्तरश्लोकतात्पर्यमाह -- अकृतेति। प्रतिकल्पं प्राणिनिकायस्य भिन्नत्वे सत्यकृताभ्यागमादिदोषप्रसङ्गात्तत्परिहारार्थं भूतग्रामस्य प्रतिकल्पमैक्यमास्थेयमित्यर्थः। यदि स्थावरजङ्गमलक्षणप्राणिनिकायस्य प्रतिकल्पमन्यथात्वं तदेकस्य बन्धमोक्षान्वयिनोऽभावात्काण्डद्वयात्मनो बन्धमोक्षार्थस्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिरफला प्रसज्येतातस्तत्साफल्यार्थमपि प्रतिकल्पं प्राणिवर्गस्य नवीनत्वानुपपत्तिरित्याह -- बन्धेति। कथं पुनर्भूतसमुदायोऽस्वतन्त्रः सन्नवशो भूत्वा प्रविलीयते तत्राह -- अविद्यादीति। आदिशब्देनास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा गृह्यन्ते। यथोक्तं क्लेशपञ्चकं मूलं प्रतिलभ्य धर्माधर्मात्मककर्मराशिरुद्भवति तद्वशादेवास्वतन्त्रो भूतसमुदायो जन्मविनाशावनुभवतीत्यर्थः। प्राणिनिकायस्य जन्मनाशाभ्यासोक्तेरर्थमाह -- इत्यत इति। संसारे विपरिवर्तमानानां प्राणिनामस्वातन्त्र्यादवशानामेव जन्ममरणप्रबन्धादलमनेन संसारेणेति वैतृष्ण्यं तस्मिन्प्रदर्शनीयं तदर्थं चेद भूतानामहोरात्रमावृत्तिवचनमित्यर्थः। समनन्तरवाक्यमिदमा परामृश्यते। रात्र्यागमे प्रलयमनुभवतोऽहरागमे च प्रभवं प्रतिपद्यमानस्य प्राणिवर्गस्य तुल्यं पारवश्यमित्याशयवानाह -- अह्न इति।
।।8.19।।उत्पत्तिः प्रलयश्चापि तेषामेव व्यष्टीनां न त्वन्येषां नूतनानां मुक्तानां वेति निरूपयति -- भूतग्राम इति। यः पूर्वोक्तः स एवायं अवशः प्रकृतिगुणाधीनः।
।।8.19।।एवमाशुविनाशित्वेऽपि संसारस्य न निवृत्तिः क्लेशकर्मादिभिरवशतया पुनःपुनः प्रादुर्भावात्प्रादुर्भूतस्य च पुनः क्लेशादिवशेनैव तिरोभावात् संसारे विपरिवर्तमानानां सर्वेषामपि प्राणिनामस्वातन्त्र्यादवशानामेव जन्ममरणादिदुःखप्रबन्धसंबन्धादलमनेन संसारेणेति वैराग्योत्पत्त्यर्थं समाननामरूपत्वेन च पुनःपुनः प्रादुर्भावात्कृतनाशाकृताभ्यागमपरिहारार्थं वाह -- भूतग्रामो भूतसमुदायः स्थावरजङ्गमलक्षणो यः पूर्वस्मिन्कल्पे स्थितः स एवायमेतस्मिन्कल्पे जायमानोऽपि नतु प्रतिकल्पमन्योन्यश्च। असत्कार्यवादानभ्युपगमात्।सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः इति श्रुतेःसमाननामरूपत्वादावृत्तावप्यविरोधो दर्शनात् स्मृतेश्च इति न्यायाच्च। अवश इत्यविद्याकामकर्मादिपरतन्त्रः। हे पार्थ स्पष्टमितरत्।
।।8.19।।तत्र च कृतनाशाकृताभ्यागमशङ्कां वारयन्वैराग्यार्थं सृष्टिप्रलयप्रवाहस्याविच्छेदं दर्शयति -- भूतेति। भूतानां चराचरप्राणिनां ग्रामः समूहो यः प्रागासीत्स एवायमहरागमे भूत्वा रात्रेरागमे प्रलीयते। प्रलीय पुनरप्यहरागमेऽवशः कर्मादिपरतन्त्रः प्रभवति। नान्य इत्यर्थः।
।। 8.19 सहस्र -- इत्यादिश्लोकत्रयस्य पिण्डितार्थमाह -- ब्रह्मलोकपर्यन्तानामिति। हिरण्यगर्भादिस्वातन्त्र्यसिद्धसत्यलोकादिस्थैर्यशङ्काव्युदासायाहपरमपुरुषसङ्कल्पकृतामिति। ईश्वरस्वातन्त्र्यमेव ह्यन्यूनानतिरिक्तदिनरात्र्यादिविचित्रव्यवस्थायां कारणम्। तथा चोच्यतेकालस्य च हि मृत्योश्च [म.भा.5।68।13]कालचक्रं जगच्चक्रं [म.भा.5।68।12] इत्यादिभिः। एवमेवोक्तमन्यत्रततो युगसहस्रान्ते संहरिष्ये जगत्पुनः। कृत्वा मत्स्थानि भूतानि चराणि स्थावराणि च इत्यादि। यत्तु मानवेतद्ये युगसहस्रं तु (तद्वे युगसहस्रांतं) ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः। रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः [1।73] इति तत्र य इत्येव पाठाद्यथाक्रममन्वयः। इह तुसहस्र -- इतिश्लोकेयत् इत्यस्याहश्शब्देनैव ह्यन्वयो घटते ततश्चते इत्यस्यये इति पदमपेक्षितम् तत्रापिये विदुस्तेऽहोरात्रविदो जनाः इत्यन्वये प्रसङ्गरहिताहोरात्रवेदिव्युत्पादनरूपं स्तुतिपरं वाक्यं प्रस्तुतासङ्गतं स्यात् ततश्चयेऽहोरात्रविदो जनास्त एवं विदुः इत्यन्वयः। एवं कालव्यवस्थायां प्रामाणिकत्वप्रतिपादनपरोऽत्र स्वीकार्य इत्यभिप्रायेणाहये मनुष्यादीति। अनूद्यमानमहोरात्रवेदित्वं यथाप्रसिद्धि सर्वविषयमेव भवितुमर्हति तेन चतुर्मुखस्यापि मनुष्यादितुल्यता द्योतिता स्यादित्यभिप्रायेणमनुष्यादीत्यादिकमुक्तम्। ब्रह्मशब्दस्यात्र परमात्मविषयत्वभ्रमव्युदासायचतुर्मुखशब्दः। तस्यैव हि सहस्रयुगप्रतिनियताहोरजनीविभागः प्रसिद्ध इति भावः।सविशेषणौ विधिनिषेधौ विशेषणमुपसङ्कामतः इति न्यायात्येऽहोरात्रविदो जनाः इत्यहोरात्रवेदतांशस्यानूदितत्त्वाच्च सहस्रयुगपर्यन्ततावेदनमेवात्र विधेयमित्यभिप्रायेणतच्चतुर्युगसहस्रावसानं विदुरित्युक्तम्। सहस्रयुगानि पर्यन्तं यस्य तत्सहस्रयुगपर्यन्तम्। युगशब्दश्चात्र प्रमाणान्तरानुसाराच्चतुर्युगपरः। अस्त्वेवं चतुर्मुखस्याहोरात्रव्यवस्था ततः किं प्रस्तुतस्य इत्यत्रोत्तरम् -- अव्यक्तात् इति श्लोकः। तस्यार्थमाह -- तत्रेति।अयमभिप्रायः -- अत्र व्यक्तिशब्दस्तावन्न महदादिविषयः चतुर्मुखात्प्रागेव तदुत्पत्तेः। अतश्चतुर्मुखसृज्यमात्रविषय एवासौ। व्यज्यन्त इति व्यक्तयः। तत्रापि सत्यलोकादेः प्रतिकल्पं प्रलयाभावात् त्रैलोक्यान्तर्वर्त्तिदेहेन्द्रियादिवस्तुमात्रविषयत्वमेव स्वीकार्यम्। तेषां चोत्पत्तिः ब्रह्मशरीरादेव। ततश्चात्राव्यक्तशब्दोऽपि न मूलाव्यक्तविषयः अपितु तदुपादानकब्रह्मशरीरपरः। शरीरे चाव्यक्तशब्दप्रयोगः सूत्रेऽप्युपपादितःसूक्ष्मं तु तदर्हत्वात् [ब्र.सू.1।4।2] इति।एवंविधसृष्टिप्रलयकारणविशेषं तदनुच्छेदाच्च सृष्टिप्रलयसन्तानानुच्छेदं अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशप्रसङ्गपरिहारमुक्तस्यार्थस्य सर्वेष्वपि कल्पेषु अभिव्याप्तिं यथापूर्वकल्पनं चभूतग्रामः इति श्लोकः प्रतिपादयतीत्यभिप्रायेणाह -- स एवायमिति। भूतशब्दोऽत्राचिद्विशिष्टक्षेत्रज्ञपरः। सृज्यत्वसंहार्यत्वहेतुभूतमवशत्वं कर्मनिबन्धनमेव हीत्यभिप्रायेणकर्मवश्य इत्युक्तम्।अहरागमे इति पदंभूत्वा इत्यत्रापि अनुवर्तनीयमित्यभिप्रायेणअहरागमे भूत्वेत्यन्वय उक्तः। इदं च नैमित्तिकप्रलयप्रतिपादनं श्रुत्यादिप्रसिद्धप्राकृतप्रलयस्याप्युपलक्षणम्। तथा सति [तेन] सत्यलोकविनाशसिद्धिःआब्रह्मभुवनाल्लोकाः [8।16] इति ह्युपक्रान्तमित्यभिप्रायेणाह -- तथेति। यद्वा रात्र्यागमशब्द एव ब्रह्मणोऽन्तिमरात्र्यागममपि शक्त्या संगृह्णातीति भावः। तदेतत्सूचितंवर्षशतावसानरूपयुगसहस्रान्त इति। तथा चान्यत्र स्मर्यते -- निजेन तस्य मानेन आयुर्वर्षशतं स्मृतम् इति। एवमहरागमशब्दोऽपि प्रथममहः संगृह्णाति। पृथिव्यादितत्त्वानामेव विलये तदारब्धानां ब्रह्मलोकब्रह्मशरीरब्रह्माण्डादीनां का कथेत्यभिप्रायेण -- पृथिवीत्यादिश्रुतिरुदाहृता। तमोवस्थाचिद्द्रव्यस्यैकीभावो हि परस्मिन्नेव देवे श्रूयते। अत्रापिअहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः [7।6] इत्यादिकं ह्युच्यत इत्यभिप्रायेणमय्येवेत्युक्तम्। एवं यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वम् [श्वे.उ.6।18]एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानः [महो.1।1] इति क्रमेण पुनर्ब्रह्मादिसृष्टिः पुनश्च तत्प्रलय इत्यादिकमपि भाव्यम्। ईदृशसृष्टिप्रलयप्रतिपादनस्य प्रकृतोपयोगं दर्शयति -- एवमिति। सर्वेषु सृष्टिप्रलयप्रकरणेष्विदमेव तात्पर्यं भाव्यम्।मद्व्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्येत्यनेनअहं कृत्स्नस्य [7।6] इति प्रागुक्तं स्मारितम्। उक्तं च मोक्षधर्मेऽपिनित्यं हि (च) नास्ति जगति भूतं स्थावरजङ्गमम्। ऋते तमेकं पुरुषं वासुदेवं सनातनम् [म.भा.12।339।32] इति।
।।8.19।।तत्र प्रलीनाश्च पुनरुत्पद्यन्त इत्याह -- भूतग्राम इति। स एव पूर्वोक्त एवायं परिदृश्यमानो मत्सम्बन्धरहितो भूतग्रामश्चराचरसमूहो भूत्वा भूत्वा उत्पद्योत्पद्य रात्र्यागमे दिवसावसाने अवशः परवशः सन् प्रलीयते। हे पार्थेति सावधानः श्रृण्वित्यर्थः। तथैव अहरागमे दिनागमेऽवश एव प्रभवति उत्पद्यत इत्यर्थः।
।।8.19।।कृतहानाकृताभ्यागमदोषापमुक्तये बन्धमोक्षशास्त्रप्रवृत्तिसाफल्याय च अविद्यादिवशादवशोऽयं भूतग्रामः पुनःपुनर्भूत्वा पुनः पुनः प्रलीयत इत्याह वैराग्योत्पादनार्थम् -- भूतग्राम इति। अहरागमे भूत्वा भूत्वा रात्र्यागमे प्रलीयत इति योजना। स एव भूत्वा प्रलीयते नान्योऽभिनवो भवतीत्यर्थः। कुतः यतोऽवशः अविद्याकामकर्माधीनस्तस्मात्सर्वानर्थबीजभूताया अविद्याया विद्यया उच्छेदे जन्ममरणप्रवाहविच्छेदायावश्यं यतितव्यमित्यर्थः।
।।8.19।।पूर्वकल्पीया एव प्रजा रात्र्यागमे अव्यक्ते प्रलीना अहरागमेऽव्यक्तादाविर्भवन्ति नतु ता विनष्टा अन्या एवास्मिन्कल्पे उत्पद्यन्ते इतीममर्थं स्फुटमाह -- भूतग्राम इति। भूतसमुदायश्चराचरलक्षणो यः पूर्वस्मिन्कल्पे आसीत्स एवायं नान्यः अहरागमे पुनःपुनर्भूत्वा रात्र्यागमे पुनःपुनर्लीयते पुनरहागमे प्रभवति प्रादुर्भवति। अवशो विद्यादिपरतन्त्रः। पार्थेति संबोधयन् कुन्तिभोजसंबन्धेन यथा पृथैव कुन्ती संपन्ना नतु पृथान्यैव स्थितान्यैव कुन्ती जातेति ध्वनयति। अयमाशयः -- प्रतिकल्पं भूतग्रामस्याभिनवत्वेऽकृताभ्यागमकृतविप्रणाशदोषो बन्धमोक्षान्वयिन एकस्याभावात्। बन्धमोक्षार्थस्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिनिष्फलता चापतति तन्निरासार्थ भूतग्रामस्य प्रतिकल्पमैक्यमभ्युपेयम्। अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशक्लेशमूलधर्माधर्माशयशाच्चावशो भूतग्रामो भूत्वा भूत्वा प्रलीयत इत्यतोऽलमनेन संसारेणेति विरक्तो भूत्वा ज्ञानेन संसारोपरमं संपादयेदिति।
8.19 भूतग्रामः multitude of beings? सः that? एव verily? अयम् this? भूत्वा भूत्वा being born again and again? प्रलीयते dissolves? रात्र्यागमे at the coming of night? अवशः helpless? पार्थ O Partha? प्रभवति comes forth? अहरागमे at the coming of day.Commentary Avidya (ignorance)? Kama (desire) and Karma (action) are the three knots that bind the individual to Samsara. Desire is born of Avidya. Man exerts to attain and enjoy the objects of his desires. During this activity he favours some and injures others through the force of RagaDvesha (love and hatred or attraction and repulsion). Therefore he is caught in the wheel of Samsara or transmigration. He has to take birth again and again to reap the fruits of his own actions. He repeatedly comes forths and dissolves through the force of his own Karma.The individual souls have lost their independence as they are bound by ignorance? desire and activity. Therefore they are subject to the sorrows? miseries and pains of this Samsara. In order to create dispassion in their minds and a longing for liberation in their hearts? and to remove the fallacious belief that a man reaps the fruits of what he has not done or that he does not reap the fruits of what he has done? the Lord has said that all creatures involuntarily come into being again and again at the coming of the day and dissolve at the coming of the night (on account of the actions or Karmas caused by desire born of ignorance).
8.19 This same multitude of beings, being born again and again, is dissolved, helplessly, O Arjuna (into the Unmanifested) at the coming of the night and comes forth at the coming of the day.
8.19 The same multitude of beings, which have lived on earth so often, all are dissolved as the night of the universe approaches, to issue forth anew when morning breaks. Thus is it ordained.
8.19 O son of Prtha, after being born again and again, that very multitude of beings disappears in spite of itself at the approach of night. It comes to life at the approach of day.
8.19 O son of Prtha, bhutva, after being born again and again at the approach of day; sah eva, that very-not any other; bhutagramah, multitude of beings, consisting of the moving and the non-moving objects that existed in the earlier cycle of creation; praliyate, disappears repeatedly; avasah, in spinte of itself, [For they are impelled by their own defects] without any independence whatever; ratri-agame, at the approach of night, at the close of the day. Prabhavati, it comes to life, verily in spite of itself; ahar-agame, at the approach of day. The means for the attainment of that Immutable which was introduced has been pointed out in, 'He who departs by leaving the body while uttering the single syllable, viz Om, which is Brahman, ' etc. (13). Now, with a vies to indicating the real nature of that very Immutable, this is being said-that It is to be reached through this path of yoga:
8.19. Being born and born again, the self same multitude of beings gets dissolved while the night approaches, and issues forth willy-nilly while the day approaches, O son of Prtha !
8.17-19 Sahasra-etc., upto aharagama. Those who could see afar (great seers), see [actually] the night and day even in the case of Brahma as being marked [respectively] by the destruction and creation [of the world]. Accordingly, having risen from sleep, the same [Selves] continue their own respective activities every day; they theyselves, putting an end to their activities every night, remain exclusively in the form of Energy [of the Absolute]. In this manner they come to be again and again at the time of creation and of dissolution. No new, but only the self-same personal Souls are let loose. Their mutual difference in the form of the idea of the long and short lives is based only on the concept of time. This delimitation is unavoidable even in the case of the Prajapatis. Hence it is established that they too are cetainly of the nature of having evolution and dissolution. [The Lord] clarifies His [own] statement : 'People do return from each and every world; but having attained Me, the Supreme Lord, they do not do so.'
8.19 The same multitude of beings, controlled by Karma, evolves again and again, undergoing dissolution at the coming of night. Again at the coming of the day it comes forth. Similarly, at the end of the life span of Brahma which consists of a hundred years of three hundred and sixty days each, each Brahma-day being a thousand Caturyugas, all the worlds including that of Brahma and Brahma himself dissolve into Me in accordance with the order thus described in the Srutis: 'The earth is dissolved into the waters, the waters are dissolved into light' etc., (Su. U., 2). The process of involution ends, after passing through all the other stages of dissolution, with the Avyakta, Akasa and Tamas. Therefore, for every other entity except Myself, origination and annihilation are unavoidable. So for those who seek Aisvarya (prosperity and power) birth and dissolution according to the above mentioned time arrangement are unavoidable. But in the case of those who attain to Me, there is no return again to Samsara. [The immense duration of time, according to ancient thinkers, is as follows: Catur-yuga, or a unit of the four yugas of Krta, Treta, Dvapara and Kali, has a cumulative duration of 4,320,000 human years. A thousand such periods constitute a day time of Brahma and a similar period his night. Periodic creation and dissolution of the universe take place in these two periods respectively. One year of Brahma consists of 360 such diurnal period. A Brahma has a life-span of 100 such years - i.e., 311, 040, 000,000,000 human years. At the end of it, there is a Mahapralaya, and a new Brahma comes into being. Time thus goes on endlessly]. Now Sri Krsna teaches that there is no return to Samsara even for those who have attained Kaivalya (isolation of the self).
8.19 O son of Prtha, after being born again and again, that very multitude of beings disappears in spite of itself at the approach of night. It comes to life at the approach of day.
।।8.19।।न किये कर्मोंका फल मिलना और किये हुए कर्मोंका फल न मिलना इस दोषका परिहार करनेके लिये बन्धन और मुक्तिका मार्ग बतलानेवाले शास्त्रवाक्योंकी सफलता दिखानेके लिये और अविद्यादि पञ्चक्लेशमूलक कर्मसंस्कारोंके वशमें पड़कर पराधीन हुआ प्राणीसमुदाय बारंबार उत्पन्न होहोकर लय हो जाता है -- इस प्रकारके कथनसे संसारमें वैराग्य दिखलानेके लिये यह कहते हैं --, जो पहले कल्पमें था वही -- दूसरा नहीं -- यह स्थावरजङ्गमरूप भूतोंका समुदाय ब्रह्माके दिनके आरम्भमें बारंबार उत्पन्न होहोकर दिनकी समाप्ति और रात्रिका प्रवेश होनेपर पराधीन हुआ ही बारंबार लय होता जाता है और फिर उसी प्रकार विवश होकर दिनके प्रवेशकालमें पुनः उत्पन्न होता जाता है।
।।8.19।। --,भूतग्रामः भूतसमुदायः स्थावरजङ्गमलक्षणः यः पूर्वस्मिन् कल्पे आसीत् स एव अयं नान्यः। भूत्वा भूत्वा अहरागमे प्रलीयते पुनः पुनः रात्र्यागमे अह्नः क्षये अवशः अस्वतन्त्र एव हे पार्थ प्रभवति जायते अवश एव अहरागमे।।यत् उपन्यस्तम् अक्षरम् तस्य प्राप्त्युपायो निर्दिष्टः ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म (गीता 8।13) इत्यादिना। अथ इदानीम् अक्षरस्यैव स्वरूपनिर्दिदिक्षया इदम् उच्यते अनेन योगमार्गेण इदं गन्तव्यमिति --,
।।8.17 -- 8.19।।उत्तरप्रकरणस्यासङ्गतिमाशङ्क्याह -- मां प्राप्येति। अवस्थितानामिति शेषः। प्रतिज्ञामात्रेण हि तदुक्तं अव्यक्तसामर्थ्यस्यात्र कथनात् कथमात्मेत्युच्यते इत्यत उक्तम् -- अव्यक्ताख्येति। प्रलयादीति तत्कारणत्वमात्मनः। सृष्टिप्रलययोरिदम्पूर्वत्वाभावज्ञापनाय गीतामुल्लङ्घ्योक्तम्। अत्र सहस्रशब्दो दशशतवाचीतिप्रतीतिनिरासायाह -- सहस्रेति। बहुशब्दपर्यायोऽयं न तु प्रसिद्धार्थः। विरिञ्चाहोरात्रयोः प्रसिद्धस्य सहस्रचतुर्युगपर्यन्तत्वात् कथमेतत् इत्यत आह -- ब्रह्मेति। तथा च द्विपरार्धप्रलयस्यादिसृष्टेश्चात्र विवक्षितत्वात् उक्तं युक्तम्। ननु परस्य ब्रह्मणो नित्यत्वादहोरात्रे न स्तः। तत्कथं तत्परमेतत् इत्यत आह -- सेति। सा निर्व्यापारावस्था परिपूर्णरूपस्यापि हरेः रजनीत्यर्थः। अनेनाहरपि सिद्धम्। भवेदेतद्यद्यत्र द्विपरार्धप्रलयस्यादिसृष्टेश्च विवक्षेत्यत्र प्रमाणं स्यादित्यत आह -- द्विपरार्धेति। एवमादिसृष्टिश्चेत्यपि ग्राह्यम्। न ह्यवान्तरसृष्टिप्रलययोः सर्वकार्योत्पत्तिविनाशाविति भावः। आगमान्तरसम्मतेश्चैवमित्याह -- उक्तं चेति। इतोऽप्येवमित्याह -- य इति। न ह्यवान्तरप्रलये सर्वेषामाकाशादीनां भूतानां नाशः नापि विरिञ्चस्य पञ्चभूतनाशेऽपि अविनाशित्वमिति भावः।
।।8.17 -- 8.19।।मां प्राप्य न पुनरावृत्तिरिति स्थापयितुं अव्यक्ताख्यात्मसामर्थ्यं दर्शयितुं प्रलयादि दर्शयति -- सहस्रयुगेत्यादिना। सहस्रशब्दोऽत्रानेकवाची। ब्रह्मपरम्। सा विश्वरूपस्य रजनी इति श्रुतिः। द्विपरार्धप्रलय एवात्र विवक्षितः।अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः [8।18] इत्युक्तेः। उक्तं च महाकौर्मेअनेकयुगपर्यन्तं महाविष्णोस्तथा निशा। रात्र्यादौ लीयते सर्वमहरादौ तु जायते इति च।यः स सर्वेषु भूतेषु [8।20] इति वाक्यशेषाच्च।
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते। रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।8.19।।
ভূতগ্রামঃ স এবাযং ভূত্বা ভূত্বা প্রলীযতে৷ রাত্র্যাগমেবশঃ পার্থ প্রভবত্যহরাগমে৷৷8.19৷৷
ভূতগ্রামঃ স এবাযং ভূত্বা ভূত্বা প্রলীযতে৷ রাত্র্যাগমেবশঃ পার্থ প্রভবত্যহরাগমে৷৷8.19৷৷
ભૂતગ્રામઃ સ એવાયં ભૂત્વા ભૂત્વા પ્રલીયતે। રાત્ર્યાગમેવશઃ પાર્થ પ્રભવત્યહરાગમે।।8.19।।
ਭੂਤਗ੍ਰਾਮ ਸ ਏਵਾਯਂ ਭੂਤ੍ਵਾ ਭੂਤ੍ਵਾ ਪ੍ਰਲੀਯਤੇ। ਰਾਤ੍ਰ੍ਯਾਗਮੇਵਸ਼ ਪਾਰ੍ਥ ਪ੍ਰਭਵਤ੍ਯਹਰਾਗਮੇ।।8.19।।
ಭೂತಗ್ರಾಮಃ ಸ ಏವಾಯಂ ಭೂತ್ವಾ ಭೂತ್ವಾ ಪ್ರಲೀಯತೇ. ರಾತ್ರ್ಯಾಗಮೇವಶಃ ಪಾರ್ಥ ಪ್ರಭವತ್ಯಹರಾಗಮೇ৷৷8.19৷৷
ഭൂതഗ്രാമഃ സ ഏവായം ഭൂത്വാ ഭൂത്വാ പ്രലീയതേ. രാത്ര്യാഗമേവശഃ പാര്ഥ പ്രഭവത്യഹരാഗമേ৷৷8.19৷৷
ଭୂତଗ୍ରାମଃ ସ ଏବାଯଂ ଭୂତ୍ବା ଭୂତ୍ବା ପ୍ରଲୀଯତେ| ରାତ୍ର୍ଯାଗମେବଶଃ ପାର୍ଥ ପ୍ରଭବତ୍ଯହରାଗମେ||8.19||
bhūtagrāmaḥ sa ēvāyaṅ bhūtvā bhūtvā pralīyatē. rātryāgamē.vaśaḥ pārtha prabhavatyaharāgamē৷৷8.19৷৷
பூதக்ராமஃ ஸ ஏவாயஂ பூத்வா பூத்வா ப்ரலீயதே. ராத்ர்யாகமேவஷஃ பார்த ப்ரபவத்யஹராகமே৷৷8.19৷৷
భూతగ్రామః స ఏవాయం భూత్వా భూత్వా ప్రలీయతే. రాత్ర్యాగమేవశః పార్థ ప్రభవత్యహరాగమే৷৷8.19৷৷
8.20
8
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।।8.20।। परन्तु उस अव्यक्त- (ब्रह्माजीके सूक्ष्म-शरीर-) से अन्य अनादि सर्वश्रेष्ठ भावरूप जो अव्यक्त है, उसका सम्पूर्ण प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी नाश नहीं होता।
।।8.20।। परन्तु उस अव्यक्त से परे अन्य जो सनातन अव्यक्त भाव है, वह समस्त भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता।।
।।8.20।। विद्यालय की कक्षा में एक श्यामपट लगा होता है जिसका उपयोग एक ही दिन में अनेक अध्यापक विभिन्न विषयों को समझाने के लिए करते हैं। प्रत्येक अध्यापक अपने पूर्व के अध्यापक द्वारा श्यामपट पर लिखे अक्षरों को मिटाकर अपना विषय समझाता है। इस प्रकार गणित का अध्यापक अंकगणित या रेखागणित की आकृतियाँ खींचता है तो भूगोल पढ़ाने वाले अध्यापक नक्शों को जिनमें नदी पर्वत आदि का ज्ञान कराया जाता है। रासायन शास्त्र के शिक्षक रासायनिक क्रियाएँ एवं सूत्र समझाते हैं और इतिहास के शिक्षक पूर्वजों की वंश परम्पराओं का ज्ञान कराते हैं। प्रत्येक अध्यापक विभिन्न प्रकार के अंक आकृति चिह्न आदि के द्वारा अपने ज्ञान को व्यक्त करता है। यद्यप्ा सबके विषय आकृतियाँ भिन्नभिन्न थीं परन्तु उन सबके लिए उपयोग किया गया श्यामपट एक ही था।इसी प्रकार इस परिवर्तनशील जगत् के लिए भी जो कि अव्यक्त का व्यक्त रूप है एक अपरिवर्तनशील अधिष्ठान की आवश्यकता है जो सब भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। जब संध्याकाल में सब विद्यार्थी और शिक्षक अपने घर चले जाते हैं तब भी वह श्यामपट अपने स्थान पर ही स्थित रहता है। यह चैतन्य तत्त्व जो स्वयं इन्द्रिय मन और बुद्धि के द्वारा अग्राह्य होने के कारण अव्यक्त कहलाता है इस जगत् का अधिष्ठान है जिसे भगवान् श्रीकृष्ण के इस कथन में इंगित किया गया है परन्तु इस अव्यक्त से परे अन्य सनातन अव्यक्त भाव है। इस प्रकार हम देखते है कि यहाँ व्यक्त सृष्टि के कारण को तथा चैतन्य तत्त्व दोनों को ही अव्यक्त कहा गया है। परन्तु दोनों में भेद यह है कि चैतन्य तत्त्व कभी भी व्यक्त होकर प्रमाणों का विषय नहीं बनता जबकि सृष्टि की कारणावस्था जो अव्यक्त कहलाती है कल्प के प्रारम्भ में सूक्ष्म तथा स्थूल रूप में व्यक्त भी होती है।अव्यक्त (वासनाएँ) व्यक्त सृष्टि की बीजावस्था है जिसे वेदान्त में अविद्या भी कहते हैं। अविद्या या अज्ञान स्वयं कोई वस्तु नहीं है किन्तु अज्ञान किसी विद्यमान वस्तु का ही हो सकता है। किसी मनुष्य को अपनी पूँछ का अज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि पूँछ अभावरूप है। इससे एक भावरूप परमार्थ सत्य का अस्तित्व सिद्ध होता है। जैसे कक्षा में पढ़ाये गये विषय ज्ञान के लिए श्यामपट अधिष्ठान है वैसे ही इस सृष्टि के लिए यह चैतन्य तत्त्व आधार है। इस सत्य को नहीं जानना ही अविद्या है जो इस परिवर्तनशील नामरूपमय सृष्टि को व्यक्त करती है। पुनः पुनः सर्ग स्थिति और लय को प्राप्त होने वाली इस अविद्याजनित सृष्टि से परे जो तत्त्व है उसी का संकेत यहाँ सन्ाातन अव्यय भाव इन शब्दों द्वारा किया गया है।क्या यह अव्यक्त ही परम तत्त्व है अथवा इस सनातन अव्यय से परे श्रेष्ठ कोई भाव जीवन का लक्ष्य बनने योग्य है
।।8.20।। व्याख्या--'परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः'-- सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक ब्रह्मलोक तथा उससे नीचेके लोकोंको पुनरावर्ती कहा गया है। परन्तु परमात्मतत्त्व उनसे अत्यन्त विलक्षण है, -- यह बतानेके लिये यहाँ 'तु' पद दिया गया है।यहाँ 'अव्यक्तात्' पद ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरका ही वाचक है। कारण कि इससे पहले अठारहवें-उन्नीसवें श्लोकोंमें सर्गके आदिमें ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरसे प्राणियोंके पैदा होनेकी और प्रलयमें ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरमें प्राणियोंके लीन होनेकी बात कही गयी है। इस श्लोकमें आया 'तस्मात्' पद भी ब्रह्माजीके उस सूक्ष्मशरीरका द्योतन करता है। ऐसा होनेपर भी यहाँ ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीर-(समष्टि मन, बुद्धि और अहंकार-) से भी पर अर्थात् अत्यन्त विलक्षण जो भावरूप अव्यक्त कहा गया है, वह ब्रह्माजीके सूक्ष्म-शरीरके साथ-साथ ब्रह्माजीके कारण-शरीर- (मूल प्रकृति-) से भी अत्यन्त विलक्षण है।ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरसे पर दो तत्त्व हैं--मूल प्रकृति और परमात्मा। यहाँ प्रसङ्ग मूल प्रकृतिका नहीं है, प्रत्युत परमात्माका है। अतः इस श्लोकमें परमात्माको ही पर और श्रेष्ठ कहा गया है, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता। आगेके श्लोकमें भी 'अव्यक्तोऽक्षर' आदि पदोंसे उस परमात्माका ही वर्णन आया है। गीतामें प्राणियोंके अप्रकट होनेको अव्यक्त कहा गया है--'अव्यक्तादीनि भूतानि' (2। 28); ब्रह्माजीके सूक्ष्मशरीरको भी अव्यक्त कहा गया है (8। 18) प्रकृतिको भी अव्यक्त कहा गया है --'अव्यक्तमेव च' (13। 5) आदि। उन सबसे परमात्माका स्वरूप विलक्षण, श्रेष्ठ है, चाहे वह स्वरूप व्यक्त हो, चाहे अव्यक्त हो। वह भावरूप है अर्थात् किसी भी कालमें उसका अभाव हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। कारण कि वह सनातन है अर्थात् वह सदासे है और सदा ही रहेगा। इसलिये वह पर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है। उससे श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता और होनेकी सम्भावना भी नहीं है।
।।8.20 -- 8.22।।सर्वतो लोकेभ्यः पुनरावत्तिः न तु मां परमेश्वरं (S K omit परमेश्वरम्) प्राप्य इति स्फुटयति -- पर इत्यादि प्रतिष्ठितमित्यन्तम्। उक्तप्रकारं कालसंकलनाविवर्जितं तु वासुदेवतत्त्वम्। व्यक्तम् सर्वानुगतम् तत्त्वेऽपि अव्यक्तम् दुष्प्रापत्वात्। तच्च भक्तिलभ्यमित्यावेदितं प्राक्। तत्रस्थं च एतद्विश्वं यत्खलु अविनाशिरूपं ( स्वरूपम्) सदा तथाभूतम्। तत्र कः पुनःशब्दस्य आवृत्तिशब्दस्य चार्थः स हि मध्ये तत्स्वभावविच्छेदापेक्षः। न च सदातनविश्वोत्तीर्णविश्वाव्यतिरिक्त -- विश्वप्रतिष्ठात्मक (SNK (n) विश्वनिष्ठात्मक -- ) परबोधस्वातन्त्र्यस्वभावस्य श्रीपरमेश्वरस्य तद्भावप्राप्तिः (N -- प्राप्तस्य) [ संभवति ] येन स्वभावविच्छेदः कोऽपि कदाप्यस्ति [इति कल्प्येत]। अतो युक्तमुक्ततम् मामुपेत्य तु (VIII 16) इति।
।।8.20।।तस्माद् अव्यक्ताद् अचेतनप्रकृतिरूपात् पुरुषार्थतया पर उत्कृष्टो भावः अन्यो ज्ञानैकाकारतया तस्माद् विसजातीयः अव्यक्तः केनचित् प्रमाणेन न व्यज्यत इति अव्यक्तः स्वसंवेद्यसाधारणाकार इत्यर्थः। सनातनः उत्पत्तिविनाशानर्हतया नित्यः। यः सर्वेषु वियदादिषु भूतेषु सकारणेषु सकार्येषु विनश्यत्सु तत्र तत्र स्थितो अपि न विनश्यति।
।।8.20।।अक्षरं ब्रह्म परममित्युपक्रम्य तदनुपयुक्तं किमिदमन्यदुक्तमित्याशङ्क्य वृत्तमनूद्यानन्तरग्रन्थसंगतिमाह -- यदुपन्यस्तमिति। अक्षरस्वरूपे निर्दिदिक्षिते तस्मिन्पूर्वोक्तयोगमार्गस्य कथमुपयोगः स्यादित्याशङ्क्य तत्प्राप्त्युपायत्वेनेत्याह -- अनेनेति। गन्तव्यमिति योगमार्गोक्तिरुपयुक्तेति शेषः। पूर्वोक्तादव्यक्तादिति संबन्धः। परशब्दस्य व्यतिरिक्तविषयत्वे तुशब्देन वैलक्षण्यमुक्त्वा पुनरन्यशब्दप्रयोगात्पौनरुक्त्यमित्याशङ्क्याह -- व्यतिरिक्तत्व इति। तुना द्योतितं वैलक्षण्यमन्यशब्देन प्रकटितम्। यतो भिन्नेष्वपि भावभेदेषु सालक्षण्यमालक्ष्यते ततश्चाव्यक्ताद्भिन्नत्वेऽपि ब्रह्मणस्तेन सादृश्यमाशङ्कते तन्निवृत्त्यर्थमन्यपदमित्यर्थः। यद्वा परशब्दस्य प्रकृष्टवाचिनो भावविशेषणार्थत्वे पुनरुक्तिशङ्कैव नास्तीति द्रष्टव्यम्। अनादिभावस्याक्षरस्याविनाशित्वमर्थसिद्धं समर्थयते -- यः स भाव इति। सर्वं हि विनश्यद्विकारजातं पुरुषान्तं विनश्यति स तु विनाशहेत्वभावान्न,विन(नं)ष्टुमर्हतीत्यर्थः।
।।8.20।।व्यक्तिसम्बन्धाद्व्यक्तसंज्ञको जीव आब्रह्मपर्यन्त उक्तः। तस्मात्क्षरादन्योऽव्यक्तः व्यक्तिरहितः परो गुणातीतश्च सनानतः व्यक्तिमत्सु सर्वेषु नश्यत्सु न नश्यति अनुच्छित्तिधर्मत्वात्।
।।8.20।।एवमवशानामुत्पत्तिविनाशप्रदर्शनेनआब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनः इत्येतद्व्याख्यातं अधुनामामुपेत्य पुनर्जन्म न विद्यते इत्येतद्व्यांचष्टे द्वाभ्याम् -- तस्माच्चराचरस्थूलप्रपञ्चकारणभूताद्धिरण्यगर्भाख्यादव्यक्तात्परो व्यतिरिक्तः श्रेष्ठो वा,तस्यापि कारणभूतः। व्यतिरेकेऽपि सालक्षण्यं स्यादिति नेत्याह -- अन्योऽत्यन्तविलक्षणः।न तस्य प्रतिमा अस्ति इति श्रुतेः। अव्यक्तो रूपादिहीनतया चक्षुराद्यगोचरो भावः कल्पितेषु सर्वेषु कार्येषु सद्रूपेणानुगतः। अतएव सनातनो नित्यः। तुशब्दो हेयादनित्यादव्यक्तादुपादेयत्वं नित्यस्याव्यक्तस्य वैलक्षण्यं सूचयति। एतादृशो यो भावः हिरण्यगर्भ इव सर्वेषु भूतेषु नश्यत्स्वपि न विनश्यति उत्पद्यमानेष्वपि नोत्पद्यत इत्यर्थः। हिरण्यगर्भस्य तु कार्यस्य भूताभिमानित्वात्तदुत्पत्तिविनाशाभ्यां युक्तावेवोत्पत्तिविनाशौ नतु तदनभिमानिनोऽकार्यस्य परमेश्वरस्येति भावः।
।।8.20।। लोकानामनित्यत्वं प्रपञ्चय परमेश्वरस्वरूपस्य नित्यत्वं प्रपञ्चयति -- पर इति द्वाभ्याम्। तस्माच्चराचरकारणभूतादव्यक्तात्परः तस्यापि कारणभूतो योऽन्यस्तद्विलक्षणोऽव्यक्तश्चक्षुराद्यगोचरो भावः सनातनोऽनादिः स तु सर्वेषु कार्यकारणलक्षणेषु भूतेषु नश्यत्स्वपि न विनश्यति।
।।8.20।।परः इत्यादिश्लोकद्वयस्यार्थमाह -- अथेति।अयमभिप्रायः -- भगवन्तं प्राप्तानां पुनरावृत्तिः प्रागेवोक्ता अव्यक्तात्परत्वेन निर्दिष्टोऽक्षरश्च जीव एव भवितुमर्हतिअपरेयमितस्त्वन्याम् [7।5] इत्यादिप्रत्यभिज्ञानात् वक्तव्या च कैवल्यार्थिनामवरोहाभावादपुनरावृत्तिः। अत एव तत्परमेवेदं श्लोकद्वयम् -- इति। अव्यक्तस्यैव पूर्वप्रकृतत्वात् अत्रापिअव्यक्तात् इत्येव परभेदः। तस्य चापेक्षया परशब्दान्यशब्दाभ्यामप्यन्वयः। तत्र च पौनरुक्त्यव्युदासायोत्कृष्टत्वाभिधानमुखेन पुरुषार्थरूपत्वपरः परशब्दः। तत एव च स्वरूपभेदस्य सिद्धत्वादन्यशब्दः प्रकारान्यत्वपरः। अतः स च प्रकारभेदश्चेतनत्वरूप एव प्रमाणसिद्ध इत्यभिप्रायेणाह -- तस्मादिति। भावशब्दोऽत्र पदार्थमात्रवाची।व्यक्तः इति पदच्छेदो न युक्तःअव्यक्तोऽक्षरः इत्यत्रैवाभिधानात् दुर्ग्रहे च जीवे व्यक्तशब्दप्रयोगानुपपत्तेरित्यभिप्रायेणाह -- केनचिदिति। ननु जीवस्याव्यक्तत्वमयुक्तं प्रत्यक्षानुमानागमैर्यथासम्भवं तद्व्यक्तेः अन्यथा खपुष्पत्वप्रसङ्गादित्यत्राह -- स्वसंवेद्येति। प्रमाणान्तराणि हि साधारण्येन तत्प्रतिपादकानीति भावः। नित्यत्वे द्वितीयाध्यायोक्तहेतुस्मरणंउत्पत्तिविनाशानर्हतयेति। भूतशब्दोऽत्र महाभूतपरः तद्विनाशेऽप्यात्मस्थितवचनेन नित्यत्वस्यानायासादलभात्। तत्र सर्वशब्दाभिप्रायवशादेव सकारणत्वं सकार्यत्वं च सिद्धमित्यभिप्रायेणाहवियदादिष्विति। प्रसक्तो हि नाशो जीवे निषेध्यः प्रसङ्गश्चात्र नश्यत्पदार्थानुप्रवेशवशात् यथा तिलेषु दह्यमानेषु तदनुप्रविष्टं तैलमपि दह्यते ततश्च सर्वेषु भूतेषु नश्यत्स्वित्यस्यैव सामर्थ्यलब्धमुक्तंतत्र तत्र स्थितोऽपीतियः स सर्वेषु [मम इति सम्बन्धमात्रविधानस्य प्रागेव सिद्धेः स्थानस्य च स्थानिसापेक्षत्वनियमात् य आत्मनि तिष्ठन् [श.प.ब्रा.14।6।5।30] इत्याद्युक्तमधिष्ठेयं स्थानपर्यायं धामशब्देन विवक्षितमित्याहनियमनस्थानमिति। अत्र किमपरं नियमनस्थानं यद्व्यवच्छेदाय परमशब्दः इत्यत्राहअचेतनेति। अत्र परमधामत्वव्यपदेशात्परिशुद्धात्मविषयत्वं सिद्धम् ततश्चाशुद्धो जीवोऽप्यपर एव विवक्षित इत्याहतत्संसृष्टेति। यदि मुक्तोऽपि परमात्मपरतन्त्रः तर्हि स्वतन्त्रेण परमात्मना पुनरपि संसारगर्ते प्रक्षिप्येतेत्यत्राहतच्चेति।अयं भावः -- अविद्यादिर्हि संसारकारणम् न तु पारतन्त्र्यं अविद्यादेश्च प्रक्षयादीश्वरकारुण्यादीनां च स्वाभाविकत्वान्न मुक्तस्य संसारगन्ध इत्यर्थः। यद्वा न केवलं भगवत्प्राप्तिरेव अपुनरावृत्तिरूपा किन्तु परिशुद्धजीवप्राप्तिरपि अवरोहणाभावात्तथेति भावः।नियमनस्थानं इत्यस्याश्रितविशेषणोपादानारुचेराहअथ वेति। अस्तु धामशब्दस्तेजःपयार्यः प्रकाशवाची तस्य कथमत्रान्वयः इत्यत्राहप्रकाशश्चेति। विशेषणफलितं दर्शयति -- प्रकृतिसंसृष्टादिति। प्रकाशपक्षे -- तत् परमं धाम मम -- मच्छेषभूतम् -- इति वाक्यार्थः। यद्यपिअपरेयम् [7।5] इत्यादिना प्रागेव स्वशेषत्वमुक्तम् तथापि समष्टिचेतनमात्रविषयत्वं तत्र प्रतीयते इह तु मुक्तस्यापि स्वशेषत्वमुच्यत इत्यपौनरुक्त्यम्।
।।8.20।।एवं तेषां पुनरुद्गममुक्त्वा स्वप्राप्तौ तदभावाय स्वस्थानस्वरूपमाह -- परस्तस्मादिति। तुशब्देन पूर्वस्य परत्वं व्यावर्त्तयति तस्मात्पूर्वोत्पत्तिकारणात्मकादन्यो भावः अव्यक्तः तस्यापि मूलभूत इत्यर्थः। अव्यक्तात्सनातनः अनादिसिद्धः परः सर्वोत्तम इत्यर्थः। तत्स्वरूपमाह -- यः सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु सत्सु न विनश्यति न विकारमाप्नोतीत्यर्थः।
।।8.20।।एवं ब्रह्मभुवनान्तानामावृत्तिं व्याख्याय यत्प्राप्तानामावृत्तिर्नास्ति तदक्षरं परमं ब्रह्मेत्युपक्रान्तं वस्तु लक्षयति -- परस्तस्मादिति त्रिभिः। पर इति। तस्मादव्यक्ताद्भूतग्रामबीजभूतादविद्यालक्षणादनृतात् अन्योऽत्यन्तविलक्षणो भावः सत्ता। तुशब्दात्पराभिमतं सत्तासामान्यं वारयति। तस्य सामान्यादिभ्यो व्यावृत्तत्वात्। अस्य च सर्वानुगतत्वात्। सनातनो नित्यैकरूपः। उपाधिमान् हि उपाधिविक्रियया नित्यं विक्रियत इव भाति। अयं त्वनुपाधित्वान्नित्यैकरूप एव यः स भावः सर्वेषु भूतेषु वियदादिषु नश्यत्सु न विनश्यति केवलसत्तारूपत्वात्। एतेन तस्य कालत्रयाबाध्यत्वं नित्यत्वं चोक्तम्।
।।8.20।।अक्षरं ब्रह्म परममित्युपक्रम्योमित्येकाक्षरं ब्रह्मेत्यादिना तत्प्राप्त्युपाय उपदिष्टः अथेदानीमक्षरस्य प्राप्यस्य स्वरुपमाह -- पर इत्यादिना। तस्मात्त्वव्यक्ताद्भूतग्रामबीजभूताविद्यालक्षणात्परो व्यक्तिरिक्तो भिन्नः। अव्यक्तात् हिरण्यगर्भादिति वा। अस्मिन्पक्षेमहतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इति श्रुत्या हरिण्यगर्भान्महानात्मेत्यनेन प्रतिपादितात्पत्वमव्यक्तशब्दप्रतिपादिताया मूलप्रकृतेरुक्तं तदनुरोधेनात्रापि हिरण्यगर्भात्परस्य मूलप्रकृतिबोधकस्याव्यक्तशब्दस्य ग्रहणः प्राप्तोतीति। इमं पक्षं विहायाचार्यैरव्यक्तात्पुरुषः परः इति श्रुतिरनुसृता। तुशब्दः संसारबीजभूतान्मूलप्रकृतिशब्दावाच्यादव्यक्तान्मोक्षाख्यस्य सकलप्रपञ्चशून्यस्य परमानन्दैकघनस्य परमात्मनोऽव्यक्तस्याक्षरस्य वैलक्षण्यद्योतनार्थः। भावः सत्तास्वरुपः अक्षराख्यं परं ब्रह्म। स्वरूपो व्यतिरिक्तत्वेऽपि लक्षणैक्यव्यावृत्त्यर्थं तुना द्योतितमर्थं तद्वाचकेनाप्याहान्य इति। विलक्षण इत्यर्थः। यद्वा परशब्दस्य प्रकृष्टवाचिनो भावे विशेषणार्थत्वेन पुनरुक्तिशंङ्कैव नास्तीत्येके। आचार्यैस्तु निकृष्टात्प्रकृष्टस्य विलक्षणत्वव्यतिरिक्तत्वध्रौव्याक्तुशब्दयोरुभयोरपि वैयथर्यमभिप्रेत्य सुगमत्वाद्वायं पक्षस्त्यक्तः। वैलक्षण्यं स्फुटयति। सनातनः चिरंतनः यः सर्वेषु भूतेषु हिरण्यगरभादिषु विनयश्यत्सु न विनश्यति स भावः परमात्मेत्यर्थः। तथाच सनातन्तवे सति अनश्वरत्वं परमात्मलक्षणं नाव्यक्त इति भावः।
8.20 परः higher? तस्मात् than that? तु but? भावः existence? अन्यः another? अव्यक्तः unmanifested? अव्यक्तात् than the unmanifested? सनातनः Eternal? यः who? सः that? सर्वेषु all? भूतेषु beings? नश्यत्सु when destroyed? न not? विनश्यति is destroyed.Commentary Another unmanifested in the ancient or eternal Para Brahman Who is distinct from the Unmanifested (Avyakta or Primordial Nature)? Who is of ite a different nature. It is superior to Hiranyagarbha (the Cosmic Creative Intelligence) and the Unmanifested Nature because It is their cause. It is not destroyed when all the beings from Brahma down to the ants or the blade of grass are destroyed. (Cf.XV.17)
8.20 But verily there exists, higher than this Unmanifested, another unmanifested Eternal, which is not destroyed when all beings are destroyed.
8.20 In truth, therefore, there is the Eternal Unmanifest, which is beyond and above the Unmanifest Spirit of Creation, which is never destroyed when all these being perish.
8.20 But distinct from that Unmanifested is the other eternal unmainfest Reality, who does not get destroyed when all beings get destroyed.
8.20 He is parah, distinct, different;-From what?-tasmat, from that aforesaid (Unmanifested). The word tu, but, is meant for showing the distinction of the Immutable that is going to be spoken of from the Unmanifested. He is bhavah, the Reality, the supreme Brahman called the Immutable. Even though different, there is the possibility of similarlity of characteristics. Hence, for obviating this the Lord says: anyah, the other, of a different characteristic, and He is the Immutable which is beyond the range of the organs. It has been said that He is distinct from that. From what, again is He distinct? Avyaktat, from the Unmaifested spoken of earlier, which is the seed of the multitude of beings, and which is characterized as ignorance (avidya) [Ast. adds, 'anyah vilaksanah, bhavah ityabhiprayah: The meaning is that the Reality is different and distinct (form that Unmanifested).-Tr.] He is sanatnah, eternal. Bhavah, the Reality; yah sah, who is such; na, does not; vinasyati, get destroyed; when sarvesu bhutesu, all beings, beginning from Brahma; nasyatsu, get destroyed.
8.20. But there exists another Being which is beyond this, and It is both manifest and unmanifest and is etnernal. It is this Being that does not perish while all [the other] beings perish.
8.20 See Comment under 8.22
8.20 - 8.21 Superior, as an object of human end, to this unmanifest (Avyakta), which is inanimate Prakrti, there is another state of being, of a kind different from this, but also called Avyakta. It has only knowledge-form and is also unmanifest. It is the self, Atman. It is unmanifest because It cannot be apprehended by any means of knowledge (Pramanas). The meaning is that Its nature is unie and that It can be known only to Itself. That is, It can be understood only vaguely in the ordinary ways of knowing. It is eternal, namely, ever-enduring, because It is not subject to origination and annihilation. In texts like 'For those who meditate on the imperishable, undefinable, the unmanifest' (12.3) and 'The imperishable is called the unchanging' (15.16) - that being the self. It has been called the unmanifest (Avyakta) and imperishable (Aksara); when all material elements like ether, etc., with their causes and effects are annihilated, the self is not annihilated in spite of It being found alone with all the elements. [The elements are what constitute the bodies of beings.] The knowers of the Vedas declare It as the highest end. The meaning is that the imperishable entity which has been denoted by the term 'highest goal' in the passage, 'Whosoever abandons the body and departs (in the manner described) reaches the highest state (Dhama)' (8.13), is the self (Atman) abiding in Its essential nature free from the contact with the Prakrti. This self, which abides thus in Its essential nature, by attaining which It does not return, - this is My 'highest abode,' i.e., is the highest object of My control. The inanimate Prakrti is one object of My control. The animate Prakrti associated with this inanimate Prakrti is the second object of My control. The pristine nature of the freed self, free from contact with inanimate matter, is the highest object of My rule. Such is the meaning. This state is also one of non-return to Samsara. Or the term 'dhama' may signify 'luminosity'. And luminosity connotes knowledge. The essential nature of the freed self is boundless knowledge, or supreme light, which stands in contrast to the shrunken knowledge of the self, when involved in Prakrti. [The description given above is that of Kaivalya, the state of self-luminous existence as the pure self]. Sri Krsna now teaches that the object of attainment for the Jnanin, is totally different from this:
8.20 But distinct from that Unmanifested is the other eternal unmainfest Reality, who does not get destroyed when all beings get destroyed.
।।8.20।।जिस अक्षरका पहले प्रतिपादन किया था उसकी प्राप्तिका उपाय ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म इत्यादि कथनसे बतला दिया। अब उसी अक्षरके स्वरूपका निर्देश करनेकी इच्छासे यह बतलाया जाता है कि इस योगमार्गद्वारा अमुक वस्तु मिलती है --, तु शब्द यहाँ आगे वर्णन किये जानेवाले अक्षरकी उस पूर्वोक्त अव्यक्तसे विलक्षणता दिखलानेके लिये है। ( वह अव्यक्त ) भाव यानी अक्षरनामक परब्रह्म परमात्मा अत्यन्त भिन्न है। किससे उस पहले कहे हुए अव्यक्त से। भिन्न होनेपर भी किसी प्रकार समानता हो सकती है इस शंकाकी निवृत्तिके लिये कहते हैं कि वह इन्द्रियोंसे प्रत्यक्ष न होनेवाला अव्यक्तभाव अन्य -- दूसरा है अर्थात् सर्वथा विलक्षण है। उससे पर है ऐसा कहा सो किससे पर है वह उस पूर्वोक्त भूतसमुदायके बीजभूत अविद्यारूप अव्यक्तसे परे है। ऐसा जो सनातन भाव अर्थात् सदासे होनेवाला भाव है वह ब्रह्मादि समस्त प्राणियोंका नाश होनेपर भी नष्ट नहीं होता।
।।8.20।। --,परः व्यतिरिक्तः भिन्नः कुतः तस्मात् पूर्वोक्तात्। तुशब्दः अक्षरस्य विवक्षितस्य अव्यक्तात् वैलक्षण्यविशेषणार्थः। भावः अक्षराख्यं परं ब्रह्म। व्यतिरिक्तत्वे सत्यपि सालक्षण्यप्रसङ्गोऽस्तीति तद्विनिवृत्त्यर्थम् आह -- अन्यः इति। अन्यः विलक्षणः।,स च अव्यक्तः अनिन्द्रियगोचरः। परस्तस्मात् इत्युक्तम् कस्मात् पुनः परः पूर्वोक्तात् भूतग्रामबीजभूतात् अविद्यालक्षणात् अव्यक्तात्। अन्यः विलक्षणः भावः इत्यभिप्रायः। सनातनः चिरन्तनः यः सः भावः सर्वेषु भूतेषु ब्रह्मादिषु नश्यत्सु न विनश्यति।।
।।8.20 -- 8.21।।इदानीमव्यक्ताख्यात्मेति यदुक्तं तत्साधयितुमाह -- अव्यक्त इति।मामुपेत्य [8।1516] इत्युक्तार्थस्ययं प्राप्य न निवर्तन्ते इत्यव्यक्तविषयतया परामर्शात्। न केवलमव्यक्तशब्दो युक्तिबलात् भगवति नीयते। किन्तु वाचकस्य तस्येत्याह -- अव्यक्तमिति। कथं तर्हि भगवता व्यक्तस्य स्वस्थानत्वमुच्यते इत्यत आह -- धामेति।
।।8.20 -- 8.21।।अव्यक्तो भगवान्यं प्राप्य न निवर्तन्ते इतिमामुपेत्य [8।15] इत्यस्य परामर्शात्।अव्यक्तं परमं विष्णुं इति प्रयोगाच्च गारुडे। धाम स्वरूपं तेजस्स्वरूपंतेजस्स्वरूपं च गृहं प्राज्ञैर्धामेति गीयते इत्यभिधानात्।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः। यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।8.20।।
পরস্তস্মাত্তু ভাবোন্যোব্যক্তোব্যক্তাত্সনাতনঃ৷ যঃ স সর্বেষু ভূতেষু নশ্যত্সু ন বিনশ্যতি৷৷8.20৷৷
পরস্তস্মাত্তু ভাবোন্যোব্যক্তোব্যক্তাত্সনাতনঃ৷ যঃ স সর্বেষু ভূতেষু নশ্যত্সু ন বিনশ্যতি৷৷8.20৷৷
પરસ્તસ્માત્તુ ભાવોન્યોવ્યક્તોવ્યક્તાત્સનાતનઃ। યઃ સ સર્વેષુ ભૂતેષુ નશ્યત્સુ ન વિનશ્યતિ।।8.20।।
ਪਰਸ੍ਤਸ੍ਮਾਤ੍ਤੁ ਭਾਵੋਨ੍ਯੋਵ੍ਯਕ੍ਤੋਵ੍ਯਕ੍ਤਾਤ੍ਸਨਾਤਨ। ਯ ਸ ਸਰ੍ਵੇਸ਼ੁ ਭੂਤੇਸ਼ੁ ਨਸ਼੍ਯਤ੍ਸੁ ਨ ਵਿਨਸ਼੍ਯਤਿ।।8.20।।
ಪರಸ್ತಸ್ಮಾತ್ತು ಭಾವೋನ್ಯೋವ್ಯಕ್ತೋವ್ಯಕ್ತಾತ್ಸನಾತನಃ. ಯಃ ಸ ಸರ್ವೇಷು ಭೂತೇಷು ನಶ್ಯತ್ಸು ನ ವಿನಶ್ಯತಿ৷৷8.20৷৷
പരസ്തസ്മാത്തു ഭാവോന്യോവ്യക്തോവ്യക്താത്സനാതനഃ. യഃ സ സര്വേഷു ഭൂതേഷു നശ്യത്സു ന വിനശ്യതി৷৷8.20৷৷
ପରସ୍ତସ୍ମାତ୍ତୁ ଭାବୋନ୍ଯୋବ୍ଯକ୍ତୋବ୍ଯକ୍ତାତ୍ସନାତନଃ| ଯଃ ସ ସର୍ବେଷୁ ଭୂତେଷୁ ନଶ୍ଯତ୍ସୁ ନ ବିନଶ୍ଯତି||8.20||
parastasmāttu bhāvō.nyō.vyaktō.vyaktātsanātanaḥ. yaḥ sa sarvēṣu bhūtēṣu naśyatsu na vinaśyati৷৷8.20৷৷
பரஸ்தஸ்மாத்து பாவோந்யோவ்யக்தோவ்யக்தாத்ஸநாதநஃ. யஃ ஸ ஸர்வேஷு பூதேஷு நஷ்யத்ஸு ந விநஷ்யதி৷৷8.20৷৷
పరస్తస్మాత్తు భావోన్యోవ్యక్తోవ్యక్తాత్సనాతనః. యః స సర్వేషు భూతేషు నశ్యత్సు న వినశ్యతి৷৷8.20৷৷
8.21
8
21
।।8.21।। उसीको अव्यक्त और अक्षर कहा गया है और उसीको परमगति कहा गया है तथा जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर नहीं आते, वह मेरा परमधाम है।
।।8.21।। जो अव्यक्त अक्षर कहा गया है, वही परम गति (लक्ष्य) है। जिसे प्राप्त होकर (साधकगण) पुनः (संसार को) नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है।।
।।8.21।। पूर्व श्लोक में जिसे सनातन अव्यय भाव कहा गया है जो अविनाशी रहता हैं उसे ही यहाँ अक्षर शब्द से इंगित किया गया है। अध्याय के प्रारम्भ में कहा गया था कि अक्षर तत्त्व ब्रह्म है जो समस्त विश्व का अधिष्ठान है। ँ़ या प्रणव उस ब्रह्म का वाचक या सूचक है जिस पर हमें ध्यान करने का उपदेश दिया गया था। यह अविनाशी चैतन्य स्वरूप आत्मा ही अव्यक्त प्रकृति को सत्ता एवं चेतनता प्रदान करता है जिसके कारण प्रकृति इस वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि को व्यक्त करने में समर्थ होती है। यह सनातन अव्यक्त अक्षर आत्मतत्त्व ही मनुष्य के लिए प्राप्त करने योग्य पररम लक्ष्य है।संसार में जो कोई भी स्थिति या लक्ष्य हम प्राप्त करते हैं उससे बारम्बार लौटना पड़ता है। संसार शब्द का अर्थ ही है वह जो निरन्तर बदलता रहता है। निद्रा कोई जीवन का अन्त नहीं वरन् दो कर्मप्रधान जाग्रत अवस्थाओं के मध्य का विश्राम काल है उसी प्रकार मृत्यु भी जीवन की समाप्ति नहीं है। प्रायः वह जीव के दो विभिन्न शरीर धारण करने के मध्य का अव्यक्त अवस्था में विश्राम का क्षण होता है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि ब्रह्मलोक तक के सभी लोक पुनरावर्ती हैं जहाँ से जीवों को पुनः अपनी वासनाओं के क्षय के लिए शरीर धारण करने पड़ते हैं। पुनर्जन्म दुःखालय कहा गया है इसलिए परम आनन्द का लक्ष्य वही होगा जहाँ से संसार का पुनरावर्तन नहीं होता।प्रायः वेदान्त के जिज्ञासु विद्यार्थी प्रश्न पूछते हैं कि आत्मसाक्षात्कार के पश्चात् पुनरावर्तन क्यों नहीं होगा यद्यपि ऐसा प्रश्न पूछना स्वाभाविक ही है तथापि वह क्षण भर के परीक्षण के समक्ष टिक नहीं सकता। सामान्यतः कारण की खोज उसी के सम्बन्ध में की जाती है जो वस्तु उत्पन्न होती है या जो घटना घटित होती हैं और न कि उसके सम्बन्ध में जो अनुत्पन्न या अघटित है कोई मुझे उत्सुकता से यह नहीं पूछता कि मैं अस्पताल में क्यों नहीं हूँ जबकि अस्पताल में जाने पर उसका कारण जानना उचित हो सकता है। हम यह पूछ सकते हैं कि अनन्त ब्रह्म परिच्छिन्न कैसे बन गया परन्तु इस प्रश्न का कोई औचित्य ही सिद्ध नहीं होता कि अनन्त वस्तु पुनः परिच्छिन्न क्यों नहीं बनेगी यह प्रश्न अत्युक्तिक इसलिए है कि यदि वस्तु अनन्तस्वरूप है तो वह न कभी परिच्छिन्न बनी थी और न कभी भविष्य में बन सकती है।एक छोटीसी बालिका को हम वैवाहिक जीवन के शारीरिक और भावुक पक्ष के सुखों का वर्णन करके नहीं बता सकते हैं और न समझा सकते हैं। उसमें उस विषय को समझने की शारीरिक और मानसिक परिपक्वता नहीं होती। बचपन में वह केवल यह चाहती है कि उसकी माँ उसका विवाह करे परन्तु वही बालिका युवावस्था में पदार्पण करने पर उस विषय को समझने योग्य बन जाती है। इसी कारण अन्तःकरण की अशुद्धि रूप गोबर के ढेर के अशुद्ध वातावरण में पड़ा हुआ व्यक्ति खुले आकाश में मन्दमन्द प्रवाहित समीर की सुगन्ध को कभी नहीं जान सकता। जब वह व्यक्ति उपदिष्ट ध्यानविधि के अभ्यास से उपाधियों के साथ हुए मिथ्या तादात्म्य को दूर कर देता है तब वह अपने शुद्ध अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव करता है। स्वप्न से जागने पर ही स्वप्न के मिथ्यात्व का बोध होता है अन्यथा नहीं और एक बार जाग्रत् अवस्था में आने के पश्चात् स्वप्न के सुख और दुःख के प्रभाव से मनुष्य सर्वथा मुक्त हो जाता है।यहाँ शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा को महर्षि व्यास जी ने काव्यात्मक शैली द्वारा श्रीकृष्ण के निवास स्थान के रूप में वर्णित किया है तद्धाम परमं मम। अनेक स्थलों पर यह स्पष्ट किया गया है कि गीता में भगवान् श्रीकृष्ण मैं शब्द का प्रयोग आत्मस्वरूप की दृष्टि से करते हैं। अतः यहाँ भी धाम शब्द से किसी स्थान विशेष से तात्पर्य नहीं वरन् उनके स्वरूप से ही है। यह आत्मानुभूति ही साधक का लक्ष्य है जो उसके लिए सदैव उपलब्ध भी है। ध्यान द्वारा परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति के प्रकरण में इसका विस्तृत वर्णन किया जा चुका है।अब उस परम धाम की उपलब्धि का साक्षात् उपाय बताते हैं --
।।8.21।। व्याख्या--'अव्यक्तोऽक्षर ৷৷. तद्धाम परमं मम'--भगवान्ने सातवें अध्यायके अट्ठाईसवें, उन्तीसवें और तीसवें श्लोकमें जिसको 'माम्', कहा है तथा आठवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'अक्षरं ब्रह्म', चौथे श्लोकमें 'अधियज्ञः', पाँचवें और सातवें श्लोकमें 'माम्', आठवें श्लोकमें 'परमं पुरुषं दिव्यम्', नवें श्लोकमें 'कविं पुराणमनुशासितारम्' आदि, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें श्लोकमें 'माम्', बीसवें श्लोकमें,'अव्यक्तः' और 'सनातनः' कहा है, उन सबकी एकता करते हुए भगवान् कहते हैं कि उसीको अव्यक्त और अक्षर कहते हैं तथा उसीको परमगति अर्थात् सर्वश्रेष्ठ गति कहते हैं; और जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर नहीं आते, वह मेरा परमधाम है अर्थात् मेरा सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है। इस प्रकार जिस प्रापणीय वस्तुको अनेक रूपोंमें कहा गया है, उसकी यहाँ एकता की गयी है। ऐसे ही चौदहवें अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें भी 'ब्रह्म, अविनाशी, अमृत, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय मैं हूँ' ऐसा कहकर भगवान्ने प्रापणीय वस्तुकी एकता की है।लोगोंकी ऐसी धारणा रहती है कि सगुण-उपासनाका फल दूसरा है और निर्गुण-उपासनाका फल दूसरा है।,इस धारणाको दूर करनेके लिये इस श्लोकमें सबकी एकताका वर्णन किया गया है। मनुष्योंकी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार उपासनाके भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं, पर उनके अन्तिम फलमें कोई फरक नहीं होता। सबका प्रापणीय तत्त्व एक ही होता है। जैसे भोजनके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर तृप्तिकी एकता होनेपर भी भोजनके पदार्थोंमें भिन्नता रहती है, ऐसे ही परमात्माके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर पूर्णताकी एकता होनेपर भी उपासनाओंमें भिन्नता रहती है। तात्पर्य यह हुआ कि उस परमात्माको चाहे सगुण-निराकार मानकर उपासना करें, चाहे निर्गुण-निराकार मानकर उपासना करें और चाहे सगुण-साकार मानकर उपासना करें, अन्तमें सबको एक ही परमात्माकी प्राप्ति होती है।
।।8.20 -- 8.22।।सर्वतो लोकेभ्यः पुनरावत्तिः न तु मां परमेश्वरं (S K omit परमेश्वरम्) प्राप्य इति स्फुटयति -- पर इत्यादि प्रतिष्ठितमित्यन्तम्। उक्तप्रकारं कालसंकलनाविवर्जितं तु वासुदेवतत्त्वम्। व्यक्तम् सर्वानुगतम् तत्त्वेऽपि अव्यक्तम् दुष्प्रापत्वात्। तच्च भक्तिलभ्यमित्यावेदितं प्राक्। तत्रस्थं च एतद्विश्वं यत्खलु अविनाशिरूपं ( स्वरूपम्) सदा तथाभूतम्। तत्र कः पुनःशब्दस्य आवृत्तिशब्दस्य चार्थः स हि मध्ये तत्स्वभावविच्छेदापेक्षः। न च सदातनविश्वोत्तीर्णविश्वाव्यतिरिक्त -- विश्वप्रतिष्ठात्मक (SNK (n) विश्वनिष्ठात्मक -- ) परबोधस्वातन्त्र्यस्वभावस्य श्रीपरमेश्वरस्य तद्भावप्राप्तिः (N -- प्राप्तस्य) [ संभवति ] येन स्वभावविच्छेदः कोऽपि कदाप्यस्ति [इति कल्प्येत]। अतो युक्तमुक्ततम् मामुपेत्य तु (VIII 16) इति।
।।8.21।।सः अव्यक्तः अक्षर इति उक्तःये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। (गीता 12।3)कूटस्थोऽक्षर उच्यते।। (गीता 15।16) इत्यादिषु तं वेदविदः परमां गतिम् आहुः अयम् एवयः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्।। इत्यत्र परमगतिशब्दनिर्दिष्टः अक्षरः प्रकृतिसंसर्गवियुक्तस्वरूपेण अवस्थित आत्मा इत्यर्थः।यम् एवंभूतं स्वरूपेणावस्थितम् प्राप्य न निवर्तन्ते तद् मम परमं धाम परमं नियमनस्थानम्। अचेतनप्रकृतिः एकं नियमनस्थानम् तत्संसृष्टरूपा जीवप्रकृतिः द्वितीयं नियमनस्थानम् अचित्संसर्गवियुक्तं स्वरूपेणावस्थितं मुक्तस्वरूपं परमं नियमनस्थानम् इत्यर्थः। तत् च अपुनरावृत्तिरूपम्।अथवा प्रकाशवाची धामशब्दः प्रकाशः च इह ज्ञानम् अभिप्रेतं प्रकृतिसंसृष्टात् परिच्छिन्नज्ञानरूपाद् आत्मनः अपरिच्छिन्नज्ञानरूपतया मुक्तस्वरूपं परं धाम।ज्ञानिनः प्राप्यं तु तस्माद् अत्यन्तविभक्तम् इत्याह --
।।8.21।।यथोक्तेऽव्यक्ते भावे श्रुतिसंमतिमाह -- अव्यक्त इति। तस्य परमगतित्वं साधयति -- यं प्राप्येति। योऽसावव्यक्तो भावोऽत्र दर्शितः सयेनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यम् इत्यादिश्रुतावक्षर इत्युक्तस्तं वाक्षरं भावं परमां गतिंपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्याद्याः श्रुतयो वदन्तीत्याह -- योऽसाविति। परमपुरुषस्य परमगतित्वमुक्तं व्यनक्ति -- यं भावमिति।तद्विष्णोः परमं पदम् इति श्रुतिमत्र संवादयति -- तद्धामेति।
।।8.21।।तथापि सोऽव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तः। न चाव्यक्तशब्देन जीवः प्रकृतिर्वाऽभिधेयायं प्राप्य न निवर्त्तन्ते इत्युक्तत्वात् जीवादौ तथात्वासम्भवात् तथा सति नित्यमुक्तत्वापत्त्या शास्त्रसाधनादिवैफल्यापत्तेश्च। अतएव ज्ञानमार्गीयाणां तत्प्राप्तिरेव मुक्तिरिति तदाह -- तमाहुः परमां गतिमिति। मम पुरुषोत्तमस्याधिष्ठानभूतं च तदित्याह -- परमं मम धामेति वैकुण्ठभुवनं तेजश्च प्रकाशात्मकम्सत्यं ज्ञानमनन्तं यद्ब्रह्म ज्योतिः सनातनम्। ते तु ब्रह्मह्रदं नीता मग्नाः कृष्णेन चोद्धृताः। ददृशुर्ब्रह्मणो लोकं इत्यादिवाक्यात् ततो भूतप्रकृतिवियुक्तात्मा गुणातिगो द्युभ्वाद्यायतनोऽनन्तरूपोऽगणितानन्दः सर्वधर्माश्रयः पुरुषप्रकृतिको ब्रह्मपदवाच्योऽक्षरोऽध्यात्मरूपं पुरुषोत्तमस्य धामतदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम्। विष्णोर्धाम परं साक्षात् पुरुषस्य महात्मनः। इति वाक्यात्। सोऽयं ससाधनज्ञानलभ्यः अहं तु न तथाऽहैतुकभक्तिलभ्यत्वादित्याह।
।।8.21।।यो भाव इहाव्यक्त इत्यक्षर इति चोक्तोऽन्यत्रापि श्रुतिषु स्मृतिषु च तं भावमाहुः श्रुतयः स्मृतयश्चपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्याद्याः। परमामुत्पत्तिविनाशशून्यस्वप्रकाशपरमानन्दरूपां गतिं पुरुषार्थविश्रान्तिम्। यं भावं प्राप्य न पुनः निवर्तन्ते संसाराय तद्धाम स्वरूपं मम विष्णोः परमं सर्वोत्कृष्टम्। मम धामेति राहोः शिर इतिवद्भेदकल्पनया षष्ठी। अतोऽहमेव परमा गतिरित्यर्थः।
।।8.21।।अविनाशे प्रमाणं दर्शयन्नाह -- अव्यक्त इति। यो भावः अव्यक्तोऽतीन्द्रियोऽक्षरः प्रवेशनाशशून्य इतितथाऽक्षरात्संभवतीह विश्वम् इत्यादिश्रुतिष्वक्षर इत्युक्तः तं परमां गतिं गम्यं पुरुषार्थमाहुःपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्यादिश्रुतयः। परमगतित्वमेवाह -- यं प्राप्य न निवर्तन्त इति। तच्च ममैव धाम स्वरूपम्। ममैवेत्युपचारे षष्ठी राहोः शिर इतिवत्। अतोऽहमेव परमा गतिरित्यर्थः।
।। 8.21 परः इत्यादिश्लोकद्वयस्यार्थमाह -- अथेति।अयमभिप्रायः -- भगवन्तं प्राप्तानां पुनरावृत्तिः प्रागेवोक्ता अव्यक्तात्परत्वेन निर्दिष्टोऽक्षरश्च जीव एव भवितुमर्हतिअपरेयमितस्त्वन्याम् [7।5] इत्यादिप्रत्यभिज्ञानात् वक्तव्या च कैवल्यार्थिनामवरोहाभावादपुनरावृत्तिः। अत एव तत्परमेवेदं श्लोकद्वयम् -- इति। अव्यक्तस्यैव पूर्वप्रकृतत्वात् अत्रापिअव्यक्तात् इत्येव परभेदः। तस्य चापेक्षया परशब्दान्यशब्दाभ्यामप्यन्वयः। तत्र च पौनरुक्त्यव्युदासायोत्कृष्टत्वाभिधानमुखेन पुरुषार्थरूपत्वपरः परशब्दः। तत एव च स्वरूपभेदस्य सिद्धत्वादन्यशब्दः प्रकारान्यत्वपरः। अतः स च प्रकारभेदश्चेतनत्वरूप एव प्रमाणसिद्ध इत्यभिप्रायेणाह -- तस्मादिति। भावशब्दोऽत्र पदार्थमात्रवाची।व्यक्तः इति पदच्छेदो न युक्तःअव्यक्तोऽक्षरः इत्यत्रैवाभिधानात् दुर्ग्रहे च जीवे व्यक्तशब्दप्रयोगानुपपत्तेरित्यभिप्रायेणाह -- केनचिदिति। ननु जीवस्याव्यक्तत्वमयुक्तं प्रत्यक्षानुमानागमैर्यथासम्भवं तद्व्यक्तेः अन्यथा खपुष्पत्वप्रसङ्गादित्यत्राह -- स्वसंवेद्येति। प्रमाणान्तराणि हि साधारण्येन तत्प्रतिपादकानीति भावः। नित्यत्वे द्वितीयाध्यायोक्तहेतुस्मरणंउत्पत्तिविनाशानर्हतयेति। भूतशब्दोऽत्र महाभूतपरः तद्विनाशेऽप्यात्मस्थितवचनेन नित्यत्वस्यानायासादलभात्। तत्र सर्वशब्दाभिप्रायवशादेव सकारणत्वं सकार्यत्वं च सिद्धमित्यभिप्रायेणाहवियदादिष्विति। प्रसक्तो हि नाशो जीवे निषेध्यः प्रसङ्गश्चात्र नश्यत्पदार्थानुप्रवेशवशात् यथा तिलेषु दह्यमानेषु तदनुप्रविष्टं तैलमपि दह्यते ततश्च सर्वेषु भूतेषु नश्यत्स्वित्यस्यैव सामर्थ्यलब्धमुक्तंतत्र तत्र स्थितोऽपीतियः स सर्वेषु [मम इति सम्बन्धमात्रविधानस्य प्रागेव सिद्धेः स्थानस्य च स्थानिसापेक्षत्वनियमात् य आत्मनि तिष्ठन् [श.प.ब्रा.14।6।5।30] इत्याद्युक्तमधिष्ठेयं स्थानपर्यायं धामशब्देन विवक्षितमित्याहनियमनस्थानमिति। अत्र किमपरं नियमनस्थानं यद्व्यवच्छेदाय परमशब्दः इत्यत्राहअचेतनेति। अत्र परमधामत्वव्यपदेशात्परिशुद्धात्मविषयत्वं सिद्धम् ततश्चाशुद्धो जीवोऽप्यपर एव विवक्षित इत्याहतत्संसृष्टेति। यदि मुक्तोऽपि परमात्मपरतन्त्रः तर्हि स्वतन्त्रेण परमात्मना पुनरपि संसारगर्ते प्रक्षिप्येतेत्यत्राहतच्चेति।अयं भावः -- अविद्यादिर्हि संसारकारणम् न तु पारतन्त्र्यं अविद्यादेश्च प्रक्षयादीश्वरकारुण्यादीनां च स्वाभाविकत्वान्न मुक्तस्य संसारगन्ध इत्यर्थः। यद्वा न केवलं भगवत्प्राप्तिरेव अपुनरावृत्तिरूपा किन्तु परिशुद्धजीवप्राप्तिरपि अवरोहणाभावात्तथेति भावः।नियमनस्थानं इत्यस्याश्रितविशेषणोपादानारुचेराहअथ वेति। अस्तु धामशब्दस्तेजःपयार्यः प्रकाशवाची तस्य कथमत्रान्वयः इत्यत्राहप्रकाशश्चेति। विशेषणफलितं दर्शयति -- प्रकृतिसंसृष्टादिति। प्रकाशपक्षे -- तत् परमं धाम मम -- मच्छेषभूतम् -- इति वाक्यार्थः। यद्यपिअपरेयम् [7।5] इत्यादिना प्रागेव स्वशेषत्वमुक्तम् तथापि समष्टिचेतनमात्रविषयत्वं तत्र प्रतीयते इह तु मुक्तस्यापि स्वशेषत्वमुच्यत इत्यपौनरुक्त्यम्।
।।8.21।।एवमव्यक्तपरस्वरूपमुक्त्वा ज्ञानार्थं विशिनष्टि -- अव्यक्त इति। अव्यक्तः अप्रकटः ज्ञातुभशक्यो यो भावः स अक्षरः न क्षरति न चलति मच्चरणांशरूप इत्युक्तः तमक्षरं वेदादिविदः परमां परस्य अनुमेयां गतिमाहुः। ननु ते तस्य परमगतित्वं कुतो वदन्ति। इत्याशङ्क्याह -- यं प्राप्य न निवर्तन्ते इति। यत्स्थानं प्राप्य न निवर्तन्ते पुनर्जन्मानो न भवन्ति अतस्तथा वदन्तीत्यर्थः। तथात्वं तस्य स्वसम्बन्धादित्याह -- तदिति। तदक्षरात्मकं मम परममुत्कृष्टं धाम गृहमित्यर्थः। मद्गृहत्वात् पुनरावृत्तिर्न भवतीति भावः।
।।8.21।।अव्यक्तो न व्यज्यत इति दृश्यत्वं निरस्तम्। अक्षरोऽश्नुते व्याप्नोतीति त्रिविधपरिच्छेदशून्यत्वमुक्तम्। तं भावं परमां गतिम्। ब्रह्मलोकान्ता गतिरपरमा। कार्यत्वात्। इयं तु परमा। कार्यकराणातीतत्वात्। आहुःएषास्य परमा गतिः इत्यादयः श्रुतयः। यं भावं प्राप्य न निवर्तन्ते पुनः संसारे न पतन्ति तदिति विधेयापेक्षं क्लीबत्वम्। स एव मम विष्णोः परममुपाध्यस्पृष्टं धाम प्रकाशःतद्विष्णोः परमं पदम् इति श्रुतिप्रसिद्धं निष्कलं ब्रह्म।
।।8.21।।योऽसौ अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्एतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्ति अस्थूलमनणुएतस्य वाऽक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः। एतस्मिन्नु खल्वक्षरे गार्गि आकाश ओतश्च प्रोतश्चपुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः इत्यादिश्रुतयस्तमेवाक्षरसंज्ञकं अव्यक्तं भावे परमां प्रकृष्टां गतिं प्राप्यमाहुः। यं प्राप्यं भावं प्राप्य गत्वा पुनः संसाराय न निवर्तन्ते। जन्ममरणादिरुपां संसृतिं न प्राप्नुवन्ति। मम विषणोः परब्रह्मणः तत्परमं सर्वोत्कृष्टं धाम स्थानंतद्विष्णोः परमं पदम् इति श्रुतेः। श्रुतावत्र च राहोः शिर इतिवदभेदेऽपि भेदकल्पनया षष्ठी। अतोऽहमेव मोक्षाख्यं परमं स्थानमित्यर्थः।
8.21 अव्यक्तः unmanifested? अक्षरः imperishable? इति thus? उक्तः called? तम् That? आहुः (they) say? परमाम् the highest? गतिम् goal (path)? यम् which? प्राप्य having reached? न not? निवर्तन्ते return? तत् that? धाम abode (place or state)? परमम् highest? मम My.Commentary Para Brahman is called the Unmanifested because It cannot be perceived by the senses. It is called the Imperishable also. It is allpervading? allpermeating and interpenetrating. Para Brahman is the highest Goal. There is nothing higher than It. This is the true nondual state free from all sorts of limiting adjuncts. The attainment of Brahmaloka (the region of the Creator) etc.? is inferior to this. Only by realising the Self is one liberated from Samsara. (Cf.XII.3?XV.6)
8.21 What is called the Unmanifested and the Imperishable, That they say is the highest goal. They who reach It do not return (to this Samsara). That is My highest abode (place or state).
8.21 The wise say that the Unmanifest and Indestructible is the highest goal of all; when once That is reached, there is no return. That is My Blessed Home.
8.21 He who has been mentioned as the Unmanifested, the Immutable, they call Him the supreme Goal. That is the supreme abode of Mine, reaching which they do not return.
8.21 He Himself who has been uktah, meantioned; as avyaktah, Unmanifest; the aksarah, Immutable; ahuh, they call; tam, Him-that very unmanifest Reality which is termed as the Immutable; the paramam, supreme; gatim, Goal. Tat, That; is the paramam, supreme; dhama, abode, i.e. the supreme State; mama, of Mine, of Visnu; yam prapya, reaching which Reality; na nivartante, they do not return to the worldly state. The means for gaining That is being stated:
8.21. [The scriptures] speak of This as Unmanifest and Changeless and declare This is to be the highest Goal. Having attained which people do not return, this is My highest abode.
8.21 See Comment under 8.22
8.20 - 8.21 Superior, as an object of human end, to this unmanifest (Avyakta), which is inanimate Prakrti, there is another state of being, of a kind different from this, but also called Avyakta. It has only knowledge-form and is also unmanifest. It is the self, Atman. It is unmanifest because It cannot be apprehended by any means of knowledge (Pramanas). The meaning is that Its nature is unie and that It can be known only to Itself. That is, It can be understood only vaguely in the ordinary ways of knowing. It is eternal, namely, ever-enduring, because It is not subject to origination and annihilation. In texts like 'For those who meditate on the imperishable, undefinable, the unmanifest' (12.3) and 'The imperishable is called the unchanging' (15.16) - that being the self. It has been called the unmanifest (Avyakta) and imperishable (Aksara); when all material elements like ether, etc., with their causes and effects are annihilated, the self is not annihilated in spite of It being found alone with all the elements. [The elements are what constitute the bodies of beings.] The knowers of the Vedas declare It as the highest end. The meaning is that the imperishable entity which has been denoted by the term 'highest goal' in the passage, 'Whosoever abandons the body and departs (in the manner described) reaches the highest state (Dhama)' (8.13), is the self (Atman) abiding in Its essential nature free from the contact with the Prakrti. This self, which abides thus in Its essential nature, by attaining which It does not return, - this is My 'highest abode,' i.e., is the highest object of My control. The inanimate Prakrti is one object of My control. The animate Prakrti associated with this inanimate Prakrti is the second object of My control. The pristine nature of the freed self, free from contact with inanimate matter, is the highest object of My rule. Such is the meaning. This state is also one of non-return to Samsara. Or the term 'dhama' may signify 'luminosity'. And luminosity connotes knowledge. The essential nature of the freed self is boundless knowledge, or supreme light, which stands in contrast to the shrunken knowledge of the self, when involved in Prakrti. [The description given above is that of Kaivalya, the state of self-luminous existence as the pure self]. Sri Krsna now teaches that the object of attainment for the Jnanin, is totally different from this:
8.21 He who has been mentioned as the Unmanifested, the Immutable, they call Him the supreme Goal. That is the supreme abode of Mine, reaching which they do not return.
।।8.21।।जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसे कहा गया है उसी अक्षर नामक अव्यक्तभावको परम -- श्रेष्ठ गति कहते हैं। जिस परम भावको प्राप्त होकर ( मनुष्य ) फिर संसारमें नहीं लौटते वह मेरा परम श्रेष्ठ स्थान है अर्थात् मुझ विष्णुका परमपद है।
।।8.21।। --,योऽसौ अव्यक्तः अक्षरः इत्युक्तः तमेव अक्षरसंज्ञकम् अव्यक्तं भावम् आहुः परमां प्रकृष्टां गतिम्। यं परं भावं प्राप्य गत्वा न निवर्तन्ते संसाराय तत् धाम स्थानं परमं प्रकृष्टं मम विष्णोः परमं पदमित्यर्थः।।तल्लब्धेः उपायः उच्यते --,
।।8.20 -- 8.21।।इदानीमव्यक्ताख्यात्मेति यदुक्तं तत्साधयितुमाह -- अव्यक्त इति।मामुपेत्य [8।1516] इत्युक्तार्थस्ययं प्राप्य न निवर्तन्ते इत्यव्यक्तविषयतया परामर्शात्। न केवलमव्यक्तशब्दो युक्तिबलात् भगवति नीयते। किन्तु वाचकस्य तस्येत्याह -- अव्यक्तमिति। कथं तर्हि भगवता व्यक्तस्य स्वस्थानत्वमुच्यते इत्यत आह -- धामेति।
।।8.20 -- 8.21।।अव्यक्तो भगवान्यं प्राप्य न निवर्तन्ते इतिमामुपेत्य [8।15] इत्यस्य परामर्शात्।अव्यक्तं परमं विष्णुं इति प्रयोगाच्च गारुडे। धाम स्वरूपं तेजस्स्वरूपंतेजस्स्वरूपं च गृहं प्राज्ञैर्धामेति गीयते इत्यभिधानात्।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।8.21।।
অব্যক্তোক্ষর ইত্যুক্তস্তমাহুঃ পরমাং গতিম্৷ যং প্রাপ্য ন নিবর্তন্তে তদ্ধাম পরমং মম৷৷8.21৷৷
অব্যক্তোক্ষর ইত্যুক্তস্তমাহুঃ পরমাং গতিম্৷ যং প্রাপ্য ন নিবর্তন্তে তদ্ধাম পরমং মম৷৷8.21৷৷
અવ્યક્તોક્ષર ઇત્યુક્તસ્તમાહુઃ પરમાં ગતિમ્। યં પ્રાપ્ય ન નિવર્તન્તે તદ્ધામ પરમં મમ।।8.21।।
ਅਵ੍ਯਕ੍ਤੋਕ੍ਸ਼ਰ ਇਤ੍ਯੁਕ੍ਤਸ੍ਤਮਾਹੁ ਪਰਮਾਂ ਗਤਿਮ੍। ਯਂ ਪ੍ਰਾਪ੍ਯ ਨ ਨਿਵਰ੍ਤਨ੍ਤੇ ਤਦ੍ਧਾਮ ਪਰਮਂ ਮਮ।।8.21।।
ಅವ್ಯಕ್ತೋಕ್ಷರ ಇತ್ಯುಕ್ತಸ್ತಮಾಹುಃ ಪರಮಾಂ ಗತಿಮ್. ಯಂ ಪ್ರಾಪ್ಯ ನ ನಿವರ್ತನ್ತೇ ತದ್ಧಾಮ ಪರಮಂ ಮಮ৷৷8.21৷৷
അവ്യക്തോക്ഷര ഇത്യുക്തസ്തമാഹുഃ പരമാം ഗതിമ്. യം പ്രാപ്യ ന നിവര്തന്തേ തദ്ധാമ പരമം മമ৷৷8.21৷৷
ଅବ୍ଯକ୍ତୋକ୍ଷର ଇତ୍ଯୁକ୍ତସ୍ତମାହୁଃ ପରମାଂ ଗତିମ୍| ଯଂ ପ୍ରାପ୍ଯ ନ ନିବର୍ତନ୍ତେ ତଦ୍ଧାମ ପରମଂ ମମ||8.21||
avyaktō.kṣara ityuktastamāhuḥ paramāṅ gatim. yaṅ prāpya na nivartantē taddhāma paramaṅ mama৷৷8.21৷৷
அவ்யக்தோக்ஷர இத்யுக்தஸ்தமாஹுஃ பரமாஂ கதிம். யஂ ப்ராப்ய ந நிவர்தந்தே தத்தாம பரமஂ மம৷৷8.21৷৷
అవ్యక్తోక్షర ఇత్యుక్తస్తమాహుః పరమాం గతిమ్. యం ప్రాప్య న నివర్తన్తే తద్ధామ పరమం మమ৷৷8.21৷৷
8.22
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।।8.22।। हे पृथानन्दन अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है।
।।8.22।। हे पार्थ ! जिस (परमात्मा) के अन्तर्गत समस्त भूत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण (जगत्) व्याप्त है, वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त करने योग्य है।।
।।8.22।। हिन्दुओं के उपदेष्टा भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ उस साधन मार्ग को बताते हैं जिसके द्वारा उस परम पुरुष को प्राप्त किया जा सकता है जिसे अव्यक्त अक्षर कहा गया था। वह साधन मार्ग है अनन्य भक्ति। परम पुरुष से भक्ति (निष्काम परम प्रेम) तभी वास्तविक और पूर्ण हो सकती है जब साधक भक्त स्वयं को शरीर मन और बुद्धि द्वारा अनुभूयमान जगत् से विरत और वियुक्त करना सीख लेता है। नित्य पारमार्थिक सत्य से प्रेम ही वह साधन है जिसके द्वारा मिथ्या वस्तु से वैराग्य होता है। प्रखर जिज्ञासा से अनुप्राणित हुई आत्मतत्त्व की खोज और फिर उसके साथ एकत्त्व की यह अनुभूति कि यह आत्मा मैं हूँ अनन्य भक्ति है जिसके विषय में यहाँ बताया गया है।ध्यानावस्थित मन के द्वारा जिस आत्मा की अनुभूति स्वस्वरूप के रूप में होती है उसे कोई परिच्छिन्न चेतन तत्त्व नहीं समझना चाहिए जो केवल एक व्यष्टि उपाधि में ही स्थित उसे चेतनता प्रदान कर रहा हो। यद्यपि आत्मा की खोज और अनुभव साधक अपने हृदय में करता है तथापि उसका ज्ञान यह होता है कि यह चैतन्य आत्मा सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान है। इस हृदयस्थ आत्मा का जगदधिष्ठान सत्य ब्रह्म के साथ एकता का निर्देश भगवान् श्रीकृष्ण इस वाक्य में देते हैं कि जिसमें भूतमात्र स्थित है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है वह पुरुष है।मिट्टी के बने सभी घट मिट्टी में ही स्थित होते हैं और उनके नाम रूपरंग और आकार विविध होते हुए भी एक ही मिट्टी उन सबमें व्याप्त होती है। सभी लहरें तरंगें फेन आदि समुद्र में ही स्थित होते हैं और समुद्र उन्हें व्याप्त किये रहता है। घटों के अन्तर्बाह्य उनका उपादान कारण (मूल स्वरूप) मिट्टी और लहरों में समुद्र होता है।शुद्ध चैतन्य स्वरूप ही वह सनातन सत्य है जिसमें अव्यक्त सृष्टि व्यक्त होती है। किसी वस्त्र पर धागे से बनाये गये चित्र का अधिष्ठान कपास है जिसके बिना वह चित्र नहीं बन सकता था। शुद्ध चैतन्य तत्त्व वासनाओं के विविध सांचों में ढलकर अविद्या से स्थूल रूप को प्राप्त होकर असंख्य नामरूपमय जगत् के रूप में प्रतीत होता है। तत्पश्चात् सर्वत्र सब लोग विषयों को देखकर आकर्षित होते हैं उनकी कामना करते हैं उन्हें प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं। जो पुरुष आत्मस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लेता है वह यह समझ लेता है कि इस नानाविध सृष्टि का एक ही अधिष्ठान है जिसके अज्ञान से ही इस जगत् का प्रत्यक्ष हो रहा है। जीव अज्ञान के वश इसे ही सत्य समझ कर संसार के मिथ्या दुःखों से पीड़ित रहता है व्यक्त से अव्यक्त को लौटने के दो विभिन्न मार्गों को बताने के पश्चात् अब भगवान् अगले प्रकरण में साधकों द्वारा प्राप्त किये जा सकने वाले दो विभिन्न लक्ष्यों के भिन्नभिन्न मार्गों का वर्णन करते हैं। कोई साधक उस लक्ष्य को प्राप्त होते हैं जहाँ से संसार का पुनरावर्तन होता है तथा अन्य लक्ष्य वह है जिसे प्राप्त कर पुनः संसार को नहीं लौटना पड़ता।वे दो मार्ग कौन से हैं भगवान् कहते हैं --
।।8.22।। व्याख्या--'यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्'--सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें भगवान्ने निषेधरूपसे कहा कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं, पर मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं। यहाँ भगवान् विधिरूपसे कहते हैं कि परमात्माके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्राणी हैं और परमात्मा सम्पूर्ण संसारमें परिपूर्ण हैं। इसीको भगवान्ने नवें अध्यायके चौथे, पाँचवें और छठे श्लोकमें विधि और निषेध--दोनों रूपोंसे कहा है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरे सिवाय किसीकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सब मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं; मेरेमें ही स्थित रहते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं, अतः सब कुछ मैं ही हुआ।वे परमात्मा सर्वोपरि होनेपर भी सबमें व्याप्त हैं अर्थात् वे परमात्मा सब जगह हैं; सब समयमें हैं; सम्पूर्ण वस्तुओंमें हैं, सम्पूर्ण क्रियाओंमें हैं और सम्पूर्ण प्राणियोंमें हैं। जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंमें पहले भी सोना ही था, गहनारूप बननेपर भी सोना ही रहा और गहनोंके नष्ट होनेपर भी सोना ही रहेगा। परन्तु सोनेसे बने गहनोंके नाम, रूप, आकृति, उपयोग, तौल मूल्य आदिपर दृष्टि रहनेसे सोनेकी तरफ दृष्टि नहीं जाती। ऐसे ही संसारके पहले भी परमात्मा थे, संसाररूपसे भी परमात्मा ही हैं और संसारका अन्त होनेपर भी परमात्मा ही रहेंगे। परन्तु संसारको पाञ्चभौतिक, ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा, अनुकूल-प्रतिकूल आदि मान लेनेसे परमात्माकी तरफ दृष्टि नहीं जाती।
।।8.20 -- 8.22।।सर्वतो लोकेभ्यः पुनरावत्तिः न तु मां परमेश्वरं (S K omit परमेश्वरम्) प्राप्य इति स्फुटयति -- पर इत्यादि प्रतिष्ठितमित्यन्तम्। उक्तप्रकारं कालसंकलनाविवर्जितं तु वासुदेवतत्त्वम्। व्यक्तम् सर्वानुगतम् तत्त्वेऽपि अव्यक्तम् दुष्प्रापत्वात्। तच्च भक्तिलभ्यमित्यावेदितं प्राक्। तत्रस्थं च एतद्विश्वं यत्खलु अविनाशिरूपं ( स्वरूपम्) सदा तथाभूतम्। तत्र कः पुनःशब्दस्य आवृत्तिशब्दस्य चार्थः स हि मध्ये तत्स्वभावविच्छेदापेक्षः। न च सदातनविश्वोत्तीर्णविश्वाव्यतिरिक्त -- विश्वप्रतिष्ठात्मक (SNK (n) विश्वनिष्ठात्मक -- ) परबोधस्वातन्त्र्यस्वभावस्य श्रीपरमेश्वरस्य तद्भावप्राप्तिः (N -- प्राप्तस्य) [ संभवति ] येन स्वभावविच्छेदः कोऽपि कदाप्यस्ति [इति कल्प्येत]। अतो युक्तमुक्ततम् मामुपेत्य तु (VIII 16) इति।
।।8.22।।मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। (गीता 7।7)मामेभ्यः परमव्ययम् (गीता 7।13) इत्यादिना निर्दिष्टस्य यस्यान्तःस्थानि सर्वाणि भूतानि येन च परेण पुरुषेण सर्वम् इदं ततं स परपुरुषो अनन्यचेताः सततम् (गीता 8।14) इति अनन्यया भक्त्या लभ्यः।अथ आत्मयाथात्म्यविदः परमपुरुषनिष्ठस्य च साधारणीम् अर्चिरादिकां गतिम् आह द्वयोः अपि अर्चिरादिका गतिः श्रुतौ श्रुता सा च अपुनरावृत्तिलक्षणा।यथा पञ्चाग्निविद्यायांतद्य इत्थं विदुः ये चेमेऽरण्ये श्रद्धां तप इत्युपासते तेऽर्चिषमभिसंभवन्त्यर्चिषोऽहः (छा0 उ0 5।10।1) इत्यादौ अर्चिरादिकया गत्या गतस्य परब्रह्मप्राप्तिः अपुनरावृत्तिः च उक्तास एनान्ब्रह्म गमयतिएतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावर्त्तं नावर्तन्ते (छा0 उ0 4।15।5) इति।न च प्रजापतिवाक्यादौ श्रुतिपरविद्याङ्गभूतात्मप्राप्तिविषया इयम्तद्य इत्थं विदुः इति गतिश्रुतिःये चेमेऽरण्ये श्रद्धां तप इत्युपासते (छा0 उ0 5।10।1) इति परविद्यायाः पृथक्श्रुतिवैयर्थ्यात्।पञ्चाग्निविद्यायां चइति तु पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति (छा0 उ0 5।9।1) इतिरमणीयचरणाः कपूयचरणाः (छा0 उ0 5।10।7) इति पुण्यपापहेतुको मनुष्यादिभावो अपाम् एव भूतान्तरसंसृष्टानाम् आत्मनस्तु यत्परिष्वङ्गमात्रम् इति चिदचितोर्विवेकम् अभिधायतद्य इत्थं विदुः तेऽर्चिषमभिसंभवन्ति (छा0 उ0 5।10।1)इमं मानवमावर्त्तं नावर्तन्ते (छा0 उ0 4।15।5) इति विविक्ते चिदचिद्वस्तुनि त्याज्यतया प्राप्यतया चतद्य इत्थं विदुस्तेऽर्चिरादिना गच्छन्ति न च पुनरावर्तन्ते इति उक्तम् इति गम्यते।आत्मयाथात्म्यविदः परमपुरुषनिष्ठस्य चस एनान्ब्रह्म गमयति (छा0 उ0 4।15।5) इति ब्रह्मप्राप्तिवचनात् अचिद्वियुक्तम् आत्मवस्तु ब्रह्मात्मकतया ब्रह्मशेषतैकरसम् इत्यनुसंधेयम्।तत्क्रतुन्यायाच्च परशेषतैकरसत्वं चय आत्मनि तिष्ठन्यस्यात्मा शरीरम् (श0 ब्रा0 14।6।5।5।30) इत्यादिश्रुतिसिद्धम्।
।।8.22।।नन्वव्यक्तादतिरिक्तस्य तद्विलक्षणस्य परमपुरुषस्य प्राप्तौ कश्चिदसाधारणो हेतुरेषितव्यो यस्मिन्प्रेक्षापूर्वकारी तत्प्रेक्षया प्रवृत्तो निर्वृणोति तत्राह -- तल्लब्धेरिति। परस्य पुरुषस्य सर्वकारणत्वं सर्वव्यापकत्वं च विशेषणद्वयमुदाहरति -- यस्येति। निरतिशयत्वं विशदयति -- यस्मादिति। तुशब्दोऽवधारणार्थः। भक्तिर्भजनम् सेवा प्रदक्षिणप्रणामादिलक्षणा तां व्यावर्तयति -- ज्ञानेति। उक्ताया भक्तेर्विषयतो वैशिष्ट्यमाह -- अनन्ययेति। कोऽसौ पुरुषो यद्विषया भक्तिस्तत्प्राप्तौ पर्याप्तेत्याशङ्क्योत्तरार्धं व्याचष्टे -- यस्येति। कथंभूतानां तदन्तःस्थत्वं तत्राह -- कार्यं हीति।स पर्यगात् इति श्रुतिमाश्रित्याह -- येनेति।
।।8.22।।पुरुषः स पर इति। अनेनाक्षरात्परस्य स्वस्य पूर्णानन्दस्य निर्हेतुकभक्तिलभ्यत्वमुक्तम्। तेन न ज्ञानमार्गीयाणां पुरुषोत्तमप्राप्तिरिति सिद्धम्। परस्य लक्षणमाह -- यस्यान्तस्स्थानि भूतानि इति साक्षराणि। एतच्च स्पष्टं मृद्भक्षणप्रसङ्गेश्रीगोकुलेश्वरेयेन सर्वमिदं ततं [18।46] इति माहात्म्यं परिच्छिन्नमेव व्यापकमिति दामोदरलीलायां इदं सर्वंअक्षरधियां त्ववरोधः सामान्यतद्भावाभ्यामौपसदवत्तदुक्तं इत्यादिसूत्रभाष्ये [ब्र.सू.3।3।33] प्रपञ्चितम्। यत्तु (रामानुजाचार्यैः) कैश्चिदुक्तंभूम्यादिप्रकृतिर्जीवभूता च भगवतो धाम इति तद्युक्तमुक्तम्। तस्माज्जीवभूतस्य च तद्धामत्वं श्रूयतेऽपि यस्य पृथिवी शरीरं [बृ.उ.3।7।3] यस्यात्मा शरीरं [श.ब्रा.14।6।5।5] इति। न त्वक्षरत्वं तदा(सदा)जीवभूतस्य सम्भवति ज्ञानोत्तरं तत्त्वसिद्धेः। तस्माज्जीवातीतः सर्वकारणकारणभूतोऽक्षरोऽपि पृथगित्यवोचाम। यत उक्तं भागवते तृतीये [3941]आण्डकोशो बहिरयं पञ्चाशत्कोटिविस्तृतः। दशोत्तराधिकैर्यत्र प्रविष्टः परमाणुवत्। लक्ष्यतेऽन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो ह्यण्डराशयः। तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम्। विष्णोर्धाम परं साक्षात् पुरुषस्य महात्मनः।। इति तस्याक्षरस्यांशः पुरुषस्तु समष्टिव्यष्ट्यभिमानी वैराजः स जीवलोके जीवभूत इति व्यपदिश्यते। पुरुषोत्तमस्तु एतत्ित्रयान्य इति स्वयमेव वक्ष्यति। स च सर्वसाधनफलात्मजीवलोकोत्तरसानन्दस्वरूपो नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन [कठो.2।22] किन्तु यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः [कठो.2।22] इति श्रुतेः स्वानुगृहीतभक्तिलभ्य इति प्रतिभाति। तथैवाग्रे प्रदर्शयिष्यामः।
।।8.22।।इदानीम्अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः इति प्रागुक्तं भक्तियोगमेव तत्प्राप्त्युपायमाह -- स परो निरतिशयः पुरुषः परमात्माहमेव। अनन्यया न विद्यतेऽन्यो विषयो यस्यां तया प्रेमलक्षणया भक्त्यैव लभ्यो नान्यथा। स क इत्यपेक्षायामाह -- यस्य पुरुषस्यान्तःस्थान्यन्तर्वतीनि भूतानि सर्वाणि कार्याणि। कारणान्तर्वर्तित्वात्कार्यस्य। अतएव येन पुरुषेण सर्वमिदं कार्यजातं ततं व्याप्तम्यस्मात्परं नापरमस्ति किंचिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्।वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वयच्च किंचिज्जगत्सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा। अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितःसपर्यगाच्छुक्रम् इत्यादिश्रुतिभ्यश्च।
।।8.22।। तत्प्राप्तौ च भक्तिरन्तरङ्गोपाय इत्युक्तमेवाह -- पुरुष इति। स चाहं परः पुरुषोऽनन्यया न विद्यते अन्यः शरणत्वेन यस्यास्तया एकान्तभक्त्यैव लभ्यो नान्यथा। परत्वमेवाह। यस्य कारणभूतस्यान्तर्मध्ये भूतानि स्थितानि। येन च कारणभूतेन सर्वमिदं जगत्ततं व्याप्तम्।
।।8.22।।पुरुषः सः इति श्लोके तुशब्देनार्थान्तरद्योतनात्अनन्यया भक्त्या इत्यस्य सामर्थ्यात्पुरुषशब्दस्य परमात्मनि पुरिशयत्वपूर्णत्वपूर्वसद्भावपुरुदानादिभिर्निमित्तैः सहस्रशीर्षा पुरुषः [ऋक्सं.8।4।17।8यजुस्सं.31।1] इत्यादिप्रयोगप्राचुर्यात्परशब्देन विशेषणाच्च पूर्वोक्तात्फलादधिकफलोपदेशार्थोऽयं श्लोक इत्यभिप्रायेणाह -- ज्ञानिन इति।विभक्तं विवेचकैरिति शेषः। विलक्षणमिति वाऽर्थः। गगनाद्यन्तस्थितावपि गगनादेः परत्वाभावात्तत्सिद्ध्यर्थंयस्य इत्यादिप्रसिद्धवन्निर्देशोऽत्र पूर्वोक्तपरत्वपर इति दर्शयति -- मत्त इति। अनुवादपुरोवादयोरैकार्थ्यमिति भावः। यस्मात्परं नापरम् इत्यारभ्य तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् [श्वे.उ.3।9] इति श्रुतिस्मारणाययेन च परेण पुरुषेणेत्युक्तम्। भक्तेरनन्यत्वं कीदृशं इत्यत्राह -- अनन्यचेता इति।
।।8.22।।ननु यद्धामगता न निवर्तन्ते स त्वं कथं प्राप्यः इत्याकाङ्क्षायामाह -- पुरुष इति। हे पार्थ मद्भक्त सोऽहं परः पुरुषोत्तमः अनन्यया ऐहिकपारलौकिकयोर्मच्छरणैकरूपया मदितरज्ञानरहितया भक्त्या स्नेहेन लभ्यः प्राप्यः। स कीदृशः इत्यत आह -- यस्येति। यस्य अन्तस्स्थानि भूतानि चराचराणि रमणकारणात्मकानि यस्य मध्ये स्वरूपे तिष्ठन्ति येन इदं परिदृश्यमानं सर्वं जगत् ततं व्याप्तम्। अत्रायं भावः -- लौकिकाः सर्वे क्रीडोपयुक्ता न भवन्ति आचरणस्थितत्वात् अतस्ते ज्ञानादिना मद्धाम प्राप्यं लीनास्तत्रैव,मुक्ता भवन्तीत्यर्थः। येन क्रीडार्थमाविर्भूतेन तदधिष्ठानत्वादिदं मयि जगत् व्याप्तं सत् ततं विस्तृतं विभातीति भावः।
।।8.22।।एवं ज्ञेयं प्रत्यगभिन्नं ब्रह्मोक्त्वा जगत्कारणमुपासनीयमितोऽन्यदित्याह -- पुरुष इति। तुशब्दः पूर्ववैलक्षण्यद्योतनार्थः। हे पार्थ योयं भक्त्या आराधनेन। उपासनेनेतियावत्। कीदृश्या। अनन्यया नास्त्यन्यो यस्यां सा तया उपास्योपासकभेदमन्तरेणाहंग्रहरूपयेत्यर्थः। तया भक्त्या यो लभ्यः स परः पूर्वोक्तादव्यावृत्ताननुगतादक्षरादन्यः कारणात्मेति यावत्। लभ्यत्वादेवास्यान्यत्वमपि। नह्यात्मा च लभ्यश्चेति युज्यते। अस्य कारणत्वमेवाह -- यस्येति। यस्य पुरुषस्यान्तःस्थानि बीजे द्रुम इव सर्वाणि वियदादीनि स्थावरजंगमानि च येन च इदं सर्वं ततं व्याप्तमुपादानत्वात् स भक्त्या लभ्यत इति योजना।
।।8.22।।तत्प्राप्तेव्याभिचारि साधनमाह। स परः पुरुषः सर्वोत्तमः पुरिशयनात्पूर्णत्वाद्वा पुरुषः। अनन्यया न विद्यतेऽन्यो विषयो यस्यां तया। आत्मविषययेति यावत्। भक्त्या ज्ञानलक्षणयोत्तमभक्त्या। तदुक्तंसर्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः। भूतानि भगवत्यामन्येष भागवत्तोत्तमः।।ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च। प्रेम मैत्री दयोपेक्षाः यः करोति स मध्यमः।।अर्चायामेव हरये पूजा यः श्रद्धयेहते। न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः इति।वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।यो वै अन्यां देवतामुपास्ते अहमन्योऽसावन्य इति न स वेदेति तस्मात्सः परः पुरुष अहमेव न तदभिन्नात्मनः किंचित्पृथगस्ति इत्यनन्यया भक्तया लभ्यः लब्धुं शक्यः। ननु सतु सदैव प्राप्त इत्याशङ्क्य द्विविधो हि लाभोऽलब्धलाभो लब्धलाभस्चेति। तत्रालब्धस्य ग्रामदे राजसेवादिना लाभ आद्यः। लब्धस्यैव ग्रैवेयकादेराप्तवाक्याल्लाभो द्वितीयः। तत्रान्त्यलाभोऽत्राभिप्रेत इत्याशयेन शङ्कामङ्गीकरोति। यस्य परस्य पुरुषस्यान्तर्मध्ये स्थानि स्थितानि भूतानि सर्वाणि कार्यजातानि भूतानि यस्मिन्नधिष्ठाने कल्पितानीत्यर्थः। कल्पितं ह्यधिष्ठास्यान्तर्भवति न व्यतिरिक्तं येन पुरुषेणेदं सर्व जगत्ततं सत्तास्फूर्तिभ्यां व्याप्तं त्वमपि मत्प्राप्त्यव्यभिचारिसाधिनभूतां भक्तिं यत्नेन संपादय नतु पृथानतयोऽहं मम तु भक्तिं विनैवेश्वरलाभो भविष्यतीति विश्रम्भाश्रयणं कुर्विति ध्वनयन् संबोधयति -- हे पार्थेति। मद्विषयानन्या भक्तिस्तवानायासलभ्येति सूचनार्थ वा संबोधनम्।
8.22 पुरुषः Purusha? सः that? परः highest? पार्थ O Partha? भक्त्या by devotion? लभ्यः is attainable? तु verily? अनन्यया without another object (unswerving)? यस्य of whom? अन्तःस्थानि dwelling within? भूतानि beings? येन by whom? सर्वम् all? इदम् this? ततम् pervaded.Commentary All the beings (effects) dwell within the Purusha (the Supreme Person? the cause) because every effect rests within its cause. Just as the effect? pot? rests within its cause? the clay? so also all beings and the worlds rest within their cause? the Purusha. Therefore the whole world is pervaded by the Purusha.Sri Sankara explains exclusive devotion as Jnana or knowledge of the Self.Purusha is so called because everything is filled by It (derived from the Sanskrit root pur which means to fill) or because It rests in the body of all (derived from the Sanskrit root pur). None is higher than It and so It is the Supreme Person. (Cf.IX.4XI.38XV.6and7)
8.22 That highest Purusha, O Arjuna, is attainable by unswerving devotion to Him alone within Whom all beings dwell and by Whom all this is pervaded.
8.22 O Arjuna! That Highest God, in Whom all beings abide, and Who pervades the entire universe, is reached only by wholehearted devotion. [The following material (between the asterisks) is an example of what may be a "doctored' inclusion. It does not jibe with the rest of the material because it is not presented as metaphor and clearly implies that worldly phenomena are spiritually determining. Maybe it was added by an individual or individuals who were less cognizant than the originating author. Or maybe was 'craftily' inserted to function as a sort of litmus test - those who get"taken in' by it may be recognized as not having "spiritual discernment'.]
8.22 O son of Prtha, that supreme Person-in whom are included (all) the beings and by whom all this is pervaded-is, indeed, reached through one-pointed devotion.
8.22 O son of Prtha, sah, that; parah purusah, supreme, unsurpassable Person-(the word purusa) derived in the sense of 'residing in the heart' or 'all-pervasiveness'; that Person, compared to whom there is nothing superior-; yasya, in whom, in which Person; antahsthani, are included; bhutani, (all) the beings which are Its products-for a product remains inherent in its cause; and yena, by whom, by which Person; tatam, is pervaded; sarvam, all; idam, this, the Universe, as pot etc. are by space; is tu, indeed; labhyah, reached; through ananyaya, one-pointed; bhaktya, through devotion, characterized as Knowledge; ananyaya, which is one pointed, which relates to the Self. The Northern Path meant for the attainment of Braman by the yogis under discussion, who have superimposed the idea of Brahman on the syllable Om and who are destined to get Liberation in due course, has to be stated. Hence, in order to present the intended idea the verse, '(O best of the Bharata dynasty) of that time৷৷.at which,' etc. is being recited. The description of the Path of Return (in verse 25) is by way of praising the other Path (of Departure, in verse 24):
8.22. The Supreme Soul. O son of Prtha, is attainable through devotion that admits no other things; having attained Which Soul, the men of Yoga do not get birth again; within Which exist the beings; and in Which everything is well established, O Arjuna !
8.22 Parah etc. upto pratisthitam. The Absolute (Vasudevatattva) of the above description is beyond the concept of Time Manifest : [because] It is immanent in all beings. In spite of being so, It is Unmanifest : because It is difficult to attain. That It is, however, attainable by means of devotion has also been made clear already. In This exists this universe which is [Its] perennial nature that remains always the same. Now, what is the meaning of the word, punah 'again' and of the word avrtti 'returning' ? This meaning certainly presupposes a conditon of disruption of one's own nature for sometime in the intervening period. The auspicious Supreme Lord's real nature is His Absolute Freedom viz., the Supreme Consciousness that transcends the universe, yet remains identical with the universe, and serves as the basis of the universe; and It is perennial. Hence, it cannot be assumed that there was some disruption at any time for this real nature and that the Supreme Lord regained that nature. Hence it is rightly said 'Having attained Me' etc. So far the behaviour of those persons who attain the Bhagavat by constant practice without much labour has been described. Now a difference that lies between those who, by departing, will (or attain) emancipation and those who will enjoyment [of mundane life], is described :
8.22 That Supreme Person has been declared in such texts as 'There is nothing higher than Myself, O Arjuna. All this is strung on Me, as rows of gems are on a thread' (7.7), and 'Who am beyond them and immutable' (7.13) - He is the Supreme Person in whom all beings abide and by whom all this is pervaded. He is to be attained by undivided devotion as described in 'Whose mind is not in anything else' (8.14). Now, Sri Krsna teaches the 'path of light,' described in the Srutis which is common to the knowers of the true nature of the self and to the persons who are devoted to the Supreme Person. The nature of this path is alified as one of 'non-return to Samsara.' In the case of a person journeying through the 'path of light,' as described in the text of the worship of Five Fires is as follows: 'So those who know It (i.e., the eternal nature of the individual self) thus, as taught in the Vidya of the Five Fires, and those too who worhip in the forest with faith and Tapas go to the deity ruling over the rays of light, and from there to the deity of the day' (Cha. U., 5.10.1). The attainment of the Supreme Brahman and the non-return to birth are declared with reference to those who go by the path of light, etc., by the teaching that 'He the Supreme Being leads them to Brahman ৷৷. Those who reach by this path do not return to the (wordly) life of man' (Cha. U., 4.15.5). This declaration of the goal in the text, 'Those who know it thus etc.,' is not with reference to the attainment of the Atman which constitutes ony the limb of the science of Brahman as taught in the beginning of Prajapati's teaching. For there will then arise purposelessness for the separate teaching of the same in regard to the principal science of the Supreme in the text. 'Those who are in the forest worship by means of faith and austerity etc.,' (Cha. U., 5.10.1). It is taught in the Vidya (meditation) of Five Fires: 'Thus, indeed, in the fifth oblation the waters become Purusa' (Cha. U., 5.9.1) and 'Those with a balance of good Karmas ৷৷. and those with a balance of bad Karmas' (Ibid., 5.10.7). What is to be understood here is that the state of existence as men and other beings, which has its origin in good and evil Karmas, refer to the 'waters' which alone are mixed with other elements (i.e., to the body-mind); as for the self, there is only contact with them and not identification. Thus, is declared the difference between intelligent self and inanimate matter. Then, by the texts, 'Those who know this' (Ibid., 5.10.1), 'Those who go to the rays of light' (Ibid.), and 'They who proceed by it return not to the human condition here,' it is instructed that those who know this concerning the sentient and inanimate entities - the one to be attained and the other to be rejected , they jourey along the path described by the terms 'beginning with light and do not return to Samsara'. On account of the passage, 'He leads them to the Brahman' (Ibid., 4.15.5), which holds that the Brahman is attained by both the knower of real nature of the self and the devotees of the Supreme Person and also because of the axiom of 'results according to efforts' (Tat-kratu-nyaya), the entity self, separated from the inanimate matter, should be constantly meditated upon as having its sole joy in absolute subservience to the Supreme Brahman who is Its self. The self's nature of finding only joy consists in absolute subservience to the Surpeme Person. This is proved from the Srutis like 'He who dwells within the self ৷৷. whose body is the self' (Sa. Bra., 14.6.5.5.30).
8.22 O son of Prtha, that supreme Person-in whom are included (all) the beings and by whom all this is pervaded-is, indeed, reached through one-pointed devotion.
।।8.22।।उस परमधामकी प्राप्तिका उपाय बतलाया जाता है --, शरीररूप पुरमें शयन करनेसे या सर्वत्र परिपूर्ण होनेसे परमात्माका नाम पुरुष है। हे पार्थ वह निरतिशय परमपुरुष जिससे पर ( सूक्ष्मश्रेष्ठ ) अन्य कुछ भी नहीं है जिस पुरुषके अन्तर्गत समस्त कार्यरूप भूत स्थित हैं -- क्योंकि कार्य कारणके अन्तर्वर्ती हुआ करता है -- और जिस पुरुषसे यह सारा संसार आकाशसे घट आदिकी भाँति व्याप्त है। ऐसा परमात्मा अनन्य भक्ितसे अर्थात् आत्मविषयक ज्ञानरूप भक्ितसे प्राप्त होने योग्य है।,
।।8.22।। --,पुरुषः पुरि शयनात् पूर्णत्वाद्वा स परः पार्थ परः निरतिशयः यस्मात् पुरुषात् न परं किञ्चित्। सः भक्त्या लभ्यस्तु ज्ञानलक्षणया अनन्यया आत्मविषयया। यस्य पुरुषस्य अन्तःस्थानि मध्यस्थानि भूतानि कार्यभूतानि कार्यं हि कारणस्य अन्तर्वर्ति भवति। येन पुरुषेण सर्वं इदं जगत् ततं व्याप्तम् आकाशेनेव घटादि।।प्रकृतानां योगिनां प्रणवावेशितब्रह्मबुद्धीनां कालान्तरमुक्तिभाजां ब्रह्मप्रतिपत्तये उत्तरो मार्गो वक्तव्य इति यत्र काले इत्यादि विवक्षितार्थसमर्पणार्थम् उच्यते आवृत्तिमार्गोपन्यासः इतरमार्गस्तुत्यर्थः --,
।।8.22।।भक्त्या युक्तः [8।10] इति भक्तेर्भगवत्प्राप्तिसाधनत्वस्योक्तत्वात् पुनरुक्तमुत्तरं वाक्यमित्यत आह -- परमेति। अन्यैः साधनैः सहोक्तत्वेन तत्साम्यशङ्कायां साधनेषु भक्तेः परमत्वमनेनाह। तच्च पुनर्वचनेनैव द्योत्यमिति भावः।
।।8.22।।परमसाधनमाह -- पुरुष इति।
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया। यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।8.22।।
পুরুষঃ স পরঃ পার্থ ভক্ত্যা লভ্যস্ত্বনন্যযা৷ যস্যান্তঃস্থানি ভূতানি যেন সর্বমিদং ততম্৷৷8.22৷৷
পুরুষঃ স পরঃ পার্থ ভক্ত্যা লভ্যস্ত্বনন্যযা৷ যস্যান্তঃস্থানি ভূতানি যেন সর্বমিদং ততম্৷৷8.22৷৷
પુરુષઃ સ પરઃ પાર્થ ભક્ત્યા લભ્યસ્ત્વનન્યયા। યસ્યાન્તઃસ્થાનિ ભૂતાનિ યેન સર્વમિદં તતમ્।।8.22।।
ਪੁਰੁਸ਼ ਸ ਪਰ ਪਾਰ੍ਥ ਭਕ੍ਤ੍ਯਾ ਲਭ੍ਯਸ੍ਤ੍ਵਨਨ੍ਯਯਾ। ਯਸ੍ਯਾਨ੍ਤਸ੍ਥਾਨਿ ਭੂਤਾਨਿ ਯੇਨ ਸਰ੍ਵਮਿਦਂ ਤਤਮ੍।।8.22।।
ಪುರುಷಃ ಸ ಪರಃ ಪಾರ್ಥ ಭಕ್ತ್ಯಾ ಲಭ್ಯಸ್ತ್ವನನ್ಯಯಾ. ಯಸ್ಯಾನ್ತಃಸ್ಥಾನಿ ಭೂತಾನಿ ಯೇನ ಸರ್ವಮಿದಂ ತತಮ್৷৷8.22৷৷
പുരുഷഃ സ പരഃ പാര്ഥ ഭക്ത്യാ ലഭ്യസ്ത്വനന്യയാ. യസ്യാന്തഃസ്ഥാനി ഭൂതാനി യേന സര്വമിദം തതമ്৷৷8.22৷৷
ପୁରୁଷଃ ସ ପରଃ ପାର୍ଥ ଭକ୍ତ୍ଯା ଲଭ୍ଯସ୍ତ୍ବନନ୍ଯଯା| ଯସ୍ଯାନ୍ତଃସ୍ଥାନି ଭୂତାନି ଯେନ ସର୍ବମିଦଂ ତତମ୍||8.22||
puruṣaḥ sa paraḥ pārtha bhaktyā labhyastvananyayā. yasyāntaḥsthāni bhūtāni yēna sarvamidaṅ tatam৷৷8.22৷৷
புருஷஃ ஸ பரஃ பார்த பக்த்யா லப்யஸ்த்வநந்யயா. யஸ்யாந்தஃஸ்தாநி பூதாநி யேந ஸர்வமிதஂ ததம்৷৷8.22৷৷
పురుషః స పరః పార్థ భక్త్యా లభ్యస్త్వనన్యయా. యస్యాన్తఃస్థాని భూతాని యేన సర్వమిదం తతమ్৷৷8.22৷৷
8.23
8
23
।।8.23।। हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! जिस काल अर्थात् मार्गमें शरीर छोड़कर गये हुए योगी अनावृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर नहीं आते और (जिस मार्गमें गये हुए) आवृत्तिको प्राप्त होते हैं अर्थात् पीछे लौटकर आते हैं, उस कालको अर्थात् दोनों मार्गोंको मैं कहूँगा।
।।8.23।। हे भरतश्रेष्ठ ! जिस काल में (मार्ग में) शरीर त्याग कर गये हुए योगीजन अपुनरावृत्ति को, और (या) पुनरावृत्ति को प्राप्त होते हैं, वह काल (मार्ग) मैं तुम्हें बताऊँगा।।
।।8.23।। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न करते हैं। अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। यह वास्तव में सुख का आभास मात्र है क्योंकि प्रत्येक उपभोग के गर्भ में दुःख छिपा रहता है। निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष। इसमें मनुष्य आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है। इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है।ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। आत्मानुभवी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है।यदि लक्ष्य परस्पर भिन्नभिन्न हैं तो उन दोनों की प्राप्ति के मार्ग भी भिन्नभिन्न होने चाहिए। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ भरतश्रेष्ठ अर्जुन को वचन देते हैं कि वे उन दो आवृत्ति और अनावृत्ति मार्गों का वर्णन करेंगे।यहाँ काल शब्द का द्वयर्थक प्रयोग किया गया है। काल का अर्थ है प्रयाण काल और उसी प्रकार प्रस्तुत सन्दर्भ में उसका दूसरा अर्थ है मार्ग जिससे साधकगण देहत्याग के उपरान्त अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं।प्रथम अपुनरावृत्ति का मार्ग बताते हैं --
।।8.23।। व्याख्या --[जीवित अवस्थामें ही बन्धनसे छूटनेको 'सद्योमुक्ति' कहते हैं अर्थात् जिनको यहाँ ही भगवत्प्राप्ति हो गयी, भगवान्में अनन्यभक्ति हो गयी, अनन्यप्रेम हो गया, वे यहाँ ही परम संसिद्धिको प्राप्त हो जाते हैं। दूसरे जो साधक किसी सूक्ष्म वासनाके कारण ब्रह्मलोकमें जाकर क्रमशः ब्रह्माजीके साथ मुक्त हो जाते हैं, उनकी मुक्तिको 'क्रममुक्ति' कहते हैं। जो केवल सुख भोगनेके लिये ब्रह्मलोक आदि लोकोंमें जाते हैं, वे फिर लौटकर आते हैं। इसको 'पुनरावृत्ति' कहते हैं। सद्योमुक्तिका वर्णन तो पंद्रहवें श्लोकमें हो गया, पर क्रममुक्ति और पुनरावृत्तिका वर्णन करना बाकी रह गया। अतः इन दोनोंका वर्णन करनेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण आरम्भ करते हैं।]
।।8.23।।एवं च सतताभ्यासेन येषां क्लेशं विनैव भगवदाप्तिः तेषां वृत्तमुक्तम्। इदानीम् (NK (n) इदानीं पुनः) उत्क्रान्त्या येऽपवर्गं भोगं चेच्छन्ति तेषां कश्चिद्विशेष उच्यते -- यत्रेति। अनावृत्तिः मोक्षः। आवृत्तिः भोगाय।
।।8.23।।अत्र कालशब्दो मार्गस्य अहःप्रभृतिसंवत्सरान्तकालाभिमानिदेवताभूयस्तया मार्गोपलक्षणार्थः यस्मिन् मार्गे प्रयाता योगिनो अनावृत्तिं पुण्यकर्माणः च आवृत्तिं यान्ति तं मार्गं वक्ष्यामि इत्यर्थः।
।।8.23।।ननु ज्ञानायत्ता परमपुरुषप्राप्तिरुक्ता। न च ज्ञानं मार्गमपेक्ष्य फलाय कल्पते विदुषो गत्युत्क्रान्तिनिषेधश्रुतेस्तथाच मार्गोक्तिरयुक्तेत्याशङ्क्य सगुणशरणानां तदुपदेशोऽर्थवानित्यभिप्रेत्याह -- प्रकृतानामिति। वक्तव्य इति यत्र काल इत्याद्युच्यत इति संबन्धः। स चेद्वक्तव्यस्तर्हि किमित्यध्यात्मादिभावेन सविशेषं ब्रह्म ध्यायतां फलाप्तये मूर्धन्यनाडीसंबद्धे देवयाने पथ्युपास्यत्वाय वक्तव्ये कालो निर्दिश्यते तत्राह -- विवक्षितेति। सोऽर्थो मार्गस्तदुक्तिशेषत्वेन कालोक्तिरित्यर्थः। पितृयाणमार्गोपन्यासस्तर्हि किमिति क्रियते तत्राह -- आवृत्तीमिति। मार्गान्तरस्यावृत्तिफलत्वादस्य चानावृत्तिफलत्वात्तदपेक्षया महीयानयमिति स्तुतिर्विवक्षितेति भावः। योगिन इति ध्यायिनां कर्मिणां च तन्त्रेणाभिधानमित्याह -- योगिन इति। कथं कर्मिषु योगिशब्दो वर्ततामित्याशङ्क्यानुष्ठानगुणयोगादित्याह -- कर्मिणस्त्विति। गुणतो योगिन इति संबन्धः। तत्रैव वाक्योपक्रमस्यानुकूल्यमाह -- कर्मयोगेने(णे)ति। अवशिष्टान्यक्षराणि व्याचक्षाणो वाक्यार्थमाह -- यत्रेति। योगिनो ध्यायिनोऽत्र विवक्षिताः आवृत्तावधिकृता योगिनः कर्मिण इति विभागः। कालप्राधान्येन मार्गद्वयोपन्यासमुपक्रम्य तमेव प्रधानीकृत्य देवयानं पन्थानमवतारयति -- तं कालमिति।
।।8.23।।अथ कदा केन मार्गेण गता नावर्त्तन्ते केन वा गताश्चावर्त्तन्ते इत्यपेक्षायामाह -- यत्रेति। अत्र कालशब्दोऽपि चाहःप्रभृतिसंवत्सरान्तकालाभिमानिदेवताभिरातिवाहिकीभिर्द्वारा मार्गोपलक्षणार्थः। तथा चायमर्थः -- कालाभिमानिदेवोपलक्षिते यत्र काले मार्गे च प्रयाताः प्राणतो वियोगिनो वा सन्तो भगवन्महिमज्ञानिनः भक्ता अर्थार्थिनश्च यथाक्रममनावृत्तिमावृत्तिं च यान्ति तं वक्ष्यामि। यद्यप्यग्निज्योतिषोः कालाभिमानित्वं स्वतो न सम्भवति तथापि सायम्प्रातः कालाभिमानित्वेन तथोक्तिः सम्भवति। अतएव मंत्रे -- अग्निश्च मामन्युश्च,[म.ना.31।3] इति रात्रौ सूर्यश्च मामन्युश्च इति दिवा निरूप्यते।
।।8.23।।सगुणब्रह्मोपासकास्तत्पदं प्राप्य न निवर्तन्ते किंतु क्रमेण मुच्यन्ते। तत्र तल्लोकभोगात्प्रागनुत्पन्नसम्यग्दर्शनानां तेषां मार्गापेक्षा विद्यते नतु सम्यग्दर्शिनामिव तदनपेक्षेत्युपासकानां तल्लोकप्राप्तये देवयानमार्ग उपदिश्यते। पितृयाणमार्गोपन्यासस्तु तस्य स्तुतये -- प्राणोत्क्रमणानन्तरं यत्र यस्मिन्काले कालाभिमानिदेवतोपलक्षिते मार्गे प्रयाता योगिनो ध्यायिनः कर्मिणश्य अनावृत्तिमावृत्तिं च यान्ति देवयाने पथि प्रयाता ध्यायिनोऽनावृत्तिं यान्ति। पितृयाणे पथि प्रयाताश्च कर्मिण आवृत्तिं यान्ति। यद्यपि देवयानेऽपि पथि प्रयाताः पुनरावर्तन्त इत्युक्तंआब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनः इत्यत्र तथापि पितृयाणे पथि गता आवर्तन्त एव न केऽपि तत्र क्रममुक्तिभाजः। देवयाने पथि गतास्तु यद्यपि केचिदावर्तन्ते प्रतीकोपासकास्तडिल्लोकपर्यन्तं गता हिरण्यगर्भपर्यन्तममानवपुरुषनीता अपि पञ्चाग्निविद्याद्युपासका अतत्क्रतवो भोगान्ते निवर्तन्त एव तथापि दहराद्युपासकाः क्रमेण मुच्यन्ते भोगान्त इति न सर्व एवावर्तन्ते। अतएव पितृयाणः पन्था नियमेनावृत्तिफलत्वान्निकृष्टः। अयं तु देवयानः पन्था अनावृत्तिफलत्वादतिप्रशस्त इति स्तुतिरुपपद्यते। केषांचिदावृत्तावप्यनावृत्तिफलत्वस्यानपायात्। तं देवयानं पितृयाणं च कालं कालाभिमानिदेवतोपलक्षितं मार्गं वक्ष्यामि हे भरतर्षभ अत्र कालशब्दस्य मुख्यार्थत्वे अग्निर्ज्योतिर्धूमशब्दानामनुपपत्तिर्गतिसृतिशब्दयोश्चेति तदनुरोधेनैकस्मिन्कालपद एव लक्षणाश्रिता कालाभिमानिदेवतानां मार्गद्वयेऽपि बाहुल्यात् अग्निधूमयोस्तदितरयोः सतोरप्यग्निहोत्रशब्दवदेकदेशेनाप्युपलक्षणं कालशब्देन। अन्यथा प्रातरग्निदेवताया अभावात्तत्प्रख्यं चान्यशास्त्रमित्यनेन तस्य नामधेयता न स्यात्। आम्रवणमिति च लौकिकों दृष्टान्तः।
।।8.23।।तदेवं परमेश्वरोपासकाः तत्पदं प्राप्य न निवर्तन्ते अन्ये त्वावर्तन्त इत्युक्तम्। तत्र केन मार्गेण गता नावर्तन्ते केन वा गताश्चावर्तन्त इत्यपेक्षायामाह -- यत्रेति। यत्र यस्मिन्काले प्रयाता योगिनोऽनावृत्तिं यान्ति यस्मिंश्च काले प्रयाता आवृत्तिं यान्ति तं कालं वक्ष्यामीत्यन्वयः। अत्र च रश्म्यनुसारी अतश्चायनेऽपि दक्षिण इति सूचितन्यायेनोत्तरायणादिकालविशेषस्मरणस्य विवक्षितत्वात्कालशब्देन कालाभिमानिनीभिरातिवाहिकीभिर्देवताभिः प्राप्यो मार्ग उपलक्ष्यते अतोऽयमर्थः -- यस्मिन्कालाभिमानिदेवतोपलक्षिते मार्गे प्रयाता योगिन उपासकाः कर्मिणश्च यथाक्रममनावृत्तिमावृत्तिं च यान्ति तं कालाभिमानिदेवतोपलक्षितं मार्गं कथयिष्यामीति। अग्निज्योतिषोः कालाभिमानित्वाभावेऽपि भूयसामहरादिशब्दोक्तानां कालाभिमानित्वात्तत्साहचर्यादाम्रवनमित्यादिवत्कालशब्देनोपलक्षणमविरुद्धम्।
।।8.23।।यत्र काले तु इत्यादेःयोगयुक्तो भवार्जुन [8।27] इत्यन्तस्य तात्पर्यमाह -- अथेति। अत्र धूमादिमार्गकथनं हेयत्वार्थम् अर्चिरादिमार्गोपदेशस्तु तदनुसन्धानार्थ एवेति तत्रैव तात्पर्यमिति भावः। ननु परमपुरुषार्थनिष्ठस्यैव ह्यर्चिरादिगतिः तत्कथमत्र साधारण्यमुच्यते इत्यत्राह -- द्वयोरपीति। आत्मनिष्ठस्याप्यपुनरावृत्तेः पूर्वोक्तत्वात्तस्याप्यर्चिरादिकैव गतिरिति दर्शयितुमाह -- सा चेति। साधारण्यापुनरावृत्त्योः श्रुतिमेव दर्शयति -- यथेति। अङ्गिफलमेवाङ्गेऽपि व्यपदिश्यत इत्याशङ्क्य परिहरति -- नचेति। हेतुमाह -- ये चेति। यद्यप्यङ्गिफलमेवाङ्गेऽपि निर्देष्टुं युक्तम् तथाप्यङ्गिना सहाङ्गस्य तुल्यवत्पृथङ्निर्दिष्टस्य तत्फलनिर्देशो न युक्त इति भावः। एतेन प्रथमषट्कोदितप्रत्यगात्मवेदनादत्रत्याक्षरयाथात्म्यानुसन्धानस्य भेदोऽपि दर्शितः।तद्य इत्थं विदुः इत्यस्य प्रत्यगात्मनिष्ठविषयत्वं कथं इत्यत्राह -- पञ्चाग्निविद्यायां चेति। आपः पुरुषवचसो भवन्ति [छां.उ.5।9।14] इति त्रिवृत्कृतानामभिधीयमानत्वाद्भूतान्तरसंसर्गसिद्धिः।अपामेवेत्यात्मस्वरूपपरिणामव्युदासायोक्तम्। एवंविधशरीरसम्बन्धमात्रस्याप्यौपाधिकत्वप्रदर्शनायाहपुण्यपापहेतुक इति। रमणीयचरणा रमणीयां योनिं ৷৷. कपूयचरणाः कपूयां योनिम् इत्यादिवचनान्न केवलाचिद्विषयमिदं प्रकरणम्। तद्य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये श्रद्धा तप इत्युपासते इत्युक्तयद्वृत्तद्वयस्य तेऽर्चिषम् इत्येकेन तद्वृत्तेन प्रतिनिर्देशादुभयोर्गतिरविशिष्टेति ज्ञापनाय तद्य इत्थं विदुः तेऽर्चिषम् इति व्यवहितमुपात्तम्। इत्थंशब्दानूदितं प्रस्तुताकारविशेषं दर्शयति -- विविक्ते इति। ,ननुतत्पुरुषोऽमानवः स एनान् ब्रह्म गमयति [छां.उ.4।15।6] इत्यर्चिरादिना गतस्य ब्रह्मप्राप्तिः श्रूयते तत्कथं केवलात्मोपासकस्य ब्रह्मप्रापकार्चिरादिगतिप्राप्तिः इत्यत्राह -- आत्मयाथात्म्येति। अयं पञ्चाग्निविद्यानिष्ठो न केवलात्मोपासकः अपितु ब्रह्मात्मकस्वात्मानुसन्धायीति भावः। अन्यथा तत्क्रतुन्यायविरोध इत्यभिप्रायेणाह -- तत्क्रतुन्यायाच्चेति। चकार इतरेतरयोगे। यथावस्थितात्मानुसन्धानस्य परशेषतैकरसत्वानुसन्धानरूपत्वे प्रमाणमाह -- य आत्मनीति। आदिशब्देन पतिं विश्वस्य [तै.ना.6।11।3] करणाधिपाधिपः [श्वे.उ.6।9] इत्यादिवाक्यशतं गृह्यते। अत्र शारीरकभाष्यादिविरोधो मन्दैराशङ्कितः इह तावच्छ्रुतिसूत्रभाष्यादिष्वन्यत्र च पञ्चाग्निविदः परमात्मात्मकस्वात्मानुसन्धातृत्वमर्चिरादिगतिश्चाविशेषेणोच्यते। तस्याश्च ब्रह्मगमयितृत्वस्य श्रुत्यादिष्विह चतत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः इति सिद्धत्वात् पञ्चाग्निविदोऽपि परमात्मप्राप्तिरस्त्येवेति स्वीकर्तव्यम्। तत्र प्राप्तौ ज्ञानिनां परमात्मात्मकस्वात्मानुसन्धानस्य स्वविशिष्टो भोग्यः अक्षरयाथात्म्यनिष्ठानां तु स्वस्वरूपमेव पूर्वं भोग्यम् वस्वादिपदप्राप्तिपूर्वकब्रह्मप्राप्तिसाधनमधुविद्यादिन्यायादन्ततो ब्रह्मप्राप्तिः ईदृशपर्वक्रमप्रतिनियमश्च प्राचीनापेक्षाभेदात् स च प्राचीनकर्मविशेषात्चतुर्विधा भजन्ते माम् [7।16] इति प्रागेव दर्शितः।न चात्र जिज्ञासोरन्य एवात्मयाथात्म्यविदिति भाष्यते जिज्ञासुवेद्यतयोक्तस्वभावविसर्गयोरत्र च पञ्चाग्निविद्योदाहरणात् मध्ये च कैवल्यार्थिन एव मूर्धन्यनाड्या निष्क्रमणमनावृत्तिश्चोक्ता आत्मयाथात्म्याक्षरयाथात्म्यशब्दयोश्चात्र न भिन्नार्थत्वम् तस्योपासने किञ्चिदस्ति विशेषः अक्षरयाथात्म्यविदः -- परमात्मशरीरभूतस्वात्मोपासकाः ज्ञानिनस्तु स्वात्मशरीरकपरमात्मोपासका इत्ययमेव विशेषः तद्य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये [छां.उ.5।10।1] इति विभागनिर्देशाभिप्रेत इति भाष्यादिषूक्तः। सारे तुउभयेऽपि हि परिपूर्णं ब्रह्मोपासते मुखभेदेन स्वात्मशरीरकं ब्रह्म केचन ब्रह्मात्मकस्वात्मानमितरे [वे.सा.4।3।14] इति। अत एव सप्तमे प्रक्रान्तो जिज्ञासुः परमात्मप्राप्तिकामज्ञानिव्यतिरिक्तत्वात् अब्रह्मात्मकस्वात्मानुसन्धायीति न भ्रमितव्यम्। तस्य चोदारकोटिमात्रे निवेशः स्वात्मानुभवविलम्बिविमुखज्ञानिव्यतिरेकात्।अर्चिरादिगतिनिषेधस्तु ब्रह्मात्मकस्वात्मानुसन्धानरहितस्वात्मोपासनविषयः। इदमपि भाष्यादिषु व्यक्तमेवोक्तंतस्मादचिन्मिश्रं केवलं वा चिद्वस्तु ब्रह्मदृष्ट्या तद्वियोगेन च य उपासते न तान्नयति अपितु परं ब्रह्मोपासीनान् आत्मानं च प्रकृतिवियुक्तं ब्रह्मात्मकमुपासीनानातिवाहिको गुणो नयति [ब्र.सू.भा.4।3।15] इत्यादिभिः। यत्पुनरुच्यते ये तु शिष्टास्त्रयो भक्ताः फलकामा हि ते मताः। सर्वे च्यवनधर्माणः प्रतिबुद्धस्तु मोक्षभाक् [म.भा.12।341।35] इति तत्रापि आत्ममात्रानुभवसुखस्य स्थिरत्वादेव च्यवनधर्मत्वमुच्यते न तावता पुनः संसारप्रसङ्गःइन्द्रलोकात्परिभ्रष्टो मम लोकपरायणः। प्रमुक्तः सर्वसंसारैर्मम लोकं च गच्छति [वा.पु.139।98] प्रच्युतो वा एषोऽस्माल्लोकादसतो देवलोकम् [यजुः6।1।1।5] इत्यादिष्विवोत्तरोत्तरातिशयितपदप्राप्तावपि पूर्वपदभ्रंशमात्राच्च्यवनधर्मत्ववाचो युक्तेरविरोधात् परिमितसुखानुभवविलम्बनेन तदानीं निरतिशयसुखानुभवाद्भ्रष्टत्वेनापि निन्दोपपत्तेश्च। उपासनदशानुभूते परमात्मनि फलदशायां किञ्चित्कालमनुभवविच्छेदाद्वा प्राप्तभ्रंशलक्षणं च्यवनधर्मत्वम्।प्रतिबुद्धस्तु मोक्षभाक् [म.भा.12।341।35] इति चाव्यवहितमोक्षभाक्त्वं प्रतिबुद्धस्योच्यते न तावतान्यस्य मोक्षाभावःभुक्त्वा च भोगान्विपुलांस्त्वमन्ते मत्प्रसादतः। ममानुस्मरणं प्राप्य मम लोकमवाप्स्यसि [वि.पु.5।19।26] इतिवदविरोधात्।यथा च मुमुक्षोरेव कस्यचिन्मध्ये ब्रह्मकायनिषेवणसुखमुच्यते तथात्रापि स्थानविशेषे स्वात्मानुभवविलम्बः। यथा चअथवा नेच्छते तत्र ब्रह्मकायनिषेवणम्। उत्क्रामति च मार्गस्थः शीतीभूतो निरामयः इत्यादिना ब्रह्मकायनिषेवणसङ्गात् मुक्तस्य देवयानेन मार्गेण परमाकाशगमनमुच्यते तद्वदिहापि स्वात्मानुभवस्थानात्प्रच्युतस्य परमव्योमाधिरोहः स्यात् अर्चिरादिगतिश्चास्यावान्तरफलानुभवात्पश्चाद्वा गतिमध्ये वा। दक्षिणायनमृतस्य चन्द्रमसः सायुज्यवद्विश्रममात्ररूपोऽयमवान्तरफलानुभव इत्युभयधापि न विरोधः। एतेन पश्चादेवास्याप्रतीकालम्बनत्वमित्यपि निरस्तं मधुविद्यावदेव प्रथममपि तदुपपत्तेः। स्मरन्ति च स्वात्मानुभवस्थानं मुक्तिस्थानादर्वाचीनंयोगिनाममृतं स्थानं स्वात्मसन्तोषकारिणाम्। एकान्तिनः सदा ब्रह्मध्यायिनो योगिनो हि ये। तेषां तत्परमं स्थानं यद्वै पश्यन्ति सूरयः [वि.पु.1।6।38] इति। अमृतस्थानवर्तिनां च मुक्तत्वव्यपदेशो जरामरणादिविरहात्पुनर्जन्महेतुभूतपुण्यपापविगमाच्च।अस्ति च परित्यक्तस्थूलदेहानामपि तत्तदुपासनाविशेषाधीनमपवर्गादर्वाचीनं फलम्। तच्च प्रकृतिलयादिशब्देन साङ्ख्याः पठन्तिधर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण। ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः।।वैराग्यात्प्रकृतिलयः संसारो भवति राजसाद्रागात्। ऐश्वर्यादविघातो विपर्ययात्तद्विपर्यासः।।[सां.स.का.44।45],इति।विपर्ययादिष्यते बन्धः इत्यत्र च वाचस्पतिना व्याख्यातं -- विपर्ययात् -- अतत्त्वंज्ञानात् इष्यते बन्धः स च त्रिविधः प्राकृतिको वैकृतिको दाक्षायणिकश्चेति। तत्र प्रकृतावात्मज्ञानाद्ये प्रकृतिमुपासते तेषां प्राकृतिको बन्धः। यः पुराणे प्रकृतिलयान् प्रकृत्योच्यते -- पूर्णं वर्षसहस्रं तु तिष्ठन्त्यव्यक्तचिन्तकाः इति। वैकारिको बन्धः तेषाम् ये विकारानेव भूतेन्द्रियाहङ्कारबुद्धीरुपासते पुरुषबुद्ध्या तान् प्रतीदमुच्यते यथा -- दश मन्वन्तराणीह तिष्ठन्तीन्द्रियचिन्तकाः। भौतिकास्तु शतं पूर्णं सहस्रं त्वाभिमानिकाः।।बौद्धा दश सहस्राणि तिष्ठन्ति विगतज्वराः। ते खल्वमी विदेहा येषां वैकृतिको बन्धः।। इति।एवमव्यक्तादितत्त्वचिन्तकानामिव प्रत्यगात्मतत्त्वचिन्तकानामपि तदुचितदेशकालं ततोऽनिश्चितमतिशयितं फलमुपपद्यते। अत एव भूमविद्यायां प्रत्यगात्ममात्रोपासकस्याप्यतिवादित्वमुक्तम्। ब्रह्मात्मकस्वात्मानुसन्धाने तु ब्रह्मप्राप्तौ विश्रमादपुनरावृत्तिरिति विशेषः। अत एवाक्षरानुभवस्यान्तवत्त्वे तदर्थिनां कथमैश्वर्याधिकारणोऽधिकार्यन्तरत्वमित्यपि निरस्तम् बाह्यान्तरभोक्तव्यविभागादावृत्त्यनावृत्तियोग्यताभेदाच्च तद्भेदोपपत्तेः। विलम्बाक्षमाणां पुनरियं निष्ठा -- सर्वधर्मांश्च सन्त्यज्य सर्वलोकांश्च साक्षरान्। लोकविक्रान्तचरणौ शरणं तेऽव्रजं विभो।। इति।कैवल्यं भगवन्तं च मन्त्रोऽयं साधयिष्यति [बृ.हा.स्मृ.3।40] इत्यादिष्वपि कैवल्यशब्देनात्ममात्रानुभवसुखं तदपेक्षिभिः प्राप्यमुच्यते। एतच्चान्तरायकोटिनिविष्टत्वादादितः सावधाना ज्ञानिनः परिहरन्ति। केचित्तु ब्रह्मानुभववैमुख्येन नित्यमात्मानुभवसुखमिच्छन्ति न तत्र भाष्यकारादिसम्प्रदायं प्रमाणं युक्तिं वा पश्यामः निश्शेषकर्मक्षये स्वाभाविकरूपाविर्भावेन ब्रह्मानुभवावश्यम्भावात् कर्मशेषयोगे तु संसारप्रसङ्गाच्च जरामरणादिहेतुभूतसर्वकर्मविनाशादसंसारः तावन्मात्रेण च मुक्तत्वव्यपदेशः। ब्रह्मानुभवप्रतिबन्धककर्मणस्त्वविनाशात्तदुभयाभाव इति चेत् -- अस्त्वेवम् एतत्कर्म परस्तादपि न नङ्क्ष्यतीत्यत्र न नियामकमस्ति -- इत्येषा दिक्।। -- परप्राप्त्यादिरहितनित्यकैवल्यकल्पना। सूत्रभाष्यश्रुतिस्मृत्याद्य बाधेन न सिध्यति।अतोऽधिकारिभेदेन ह्यवस्थाभेदमाश्रिताः। अन्यामपि गतिं प्राञ्चः प्रतीचीं प्रत्यपादयन्।।तत्रावृत्तिपरप्राप्तिवैरूप्यादेरयोगतः। अस्मदुक्तं श्रुतिस्मृत्योरनपायं रसायनम्।।ननु -- अर्चिरादिगतिमाहेति कथमुच्यतेयत्र काले इति कालविशेषो ह्युपक्रम्यत इत्यत्राहअत्र कालशब्द इति। शारीरके दक्षिणायनादिमृतस्यापि मोक्ष उक्तः अतश्चायनेऽपि हि दक्षिणे [ब्र.सू.4।2।20] इति। अत्र चशुक्लकृष्णे गती ह्येते [8।26] इत्यनन्तरमेवोच्यते अन्यथाअग्निर्ज्योतिः इत्यादिना च विरुध्येतनैते सृती पार्थ जानन् [8।27] इति च मार्गवाचिना शब्देनोपसंह्रियत इति भावः।यत्र काले प्रयाता इति व्यवहितेन सम्बन्धं दर्शयन् योगिनामावृत्तिः कथमिति च शङ्कां परिहरन्यत्र काले इति श्लोकस्य वाक्यार्थमाह -- यस्मिन्निति। अत्र योगिनः ज्ञानिनः पुण्यकर्मसम्बन्धिनश्च।सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ [अष्टा.1।2।64]। यद्वा पुण्यकर्माण इत्यध्याहृतम्। तेऽर्चिषमभिसम्भवन्त्यर्चिषोऽहरह्नआपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान् षडुदङ्ङेति मासांस्तान्मासेभ्यः संवत्सरम् [छां.उ.5।10।12] इत्यादिश्रुत्यनुसारेणोक्तंसंवत्सरादीनां प्रदर्शनमिति। एतद्वैशद्यमर्चिरादिपादे। तत्रैवं सङ्गृहीतं वरदगुरुभिःअर्चिरहस्िसतपक्षानुदगयनाब्दमरुदर्केन्दून्। अपि वैद्युतवरुणेन्द्रप्रजापतीनातिवाहिकानाहुः [त.सा.102] इति।अग्निर्ज्योतिः इति अग्निरूपज्योतिरित्यर्थः। तेन देवयानपथमपर्वस्थार्चिर्विवक्षा। अत एवाग्निज्योतिषोर्भिन्नदेवतात्वं कालाभिमानिदेवतात्वं च वदन्तः प्रत्युक्ताः।
।।8.23।।नन्वितो गता य आवर्तन्ते निवर्तन्ते वा ये तेऽत्र कथं ज्ञेयाः इत्याशङ्क्याह -- यत्रेति। यत्र काले यस्मिन् काले प्रयाता योगिनः अनावृत्तिं यान्ति प्राप्नुवन्ति च पुनः यस्मिन् काले प्रयाता आवृत्तिमेव प्राप्नुवन्ति हे भरतर्षभ ज्ञानयोग्यकुलोत्पन्न तं कालं वक्ष्यामि कथयामीत्यर्थः।,
।।8.23।।पूर्वोक्तानामोंकारद्वारा सगुणब्रह्मविदां क्रममुक्तिभाजां ब्रह्मप्रतिपत्तये उत्तरो मार्गो वक्तव्य इत्यत आह -- यत्रेति। आवृत्तिमार्गोपन्यासोऽनावृत्तिमार्गस्तुत्यर्थः। योगिन इति। योगिनः कर्मिणश्चोच्यन्ते तेषां यथायोगं मार्गद्वयविभागः। शेषं स्पष्टम्।
।।8.23।।यद्यपीहैवात्मसाक्षात्कारवतांन तस्य प्राणा उत्क्रामन्त्यत्रैव समवलीयन्ते इति श्रुत्या गत्युत्क्रान्तिनिषेधाद्वक्ष्यमाणमार्गोपदेशस्तदर्थ नोपयज्यते तथापि प्रणवावेशितबुद्धीना प्रकृतानां योगिनां सगुणोपासकानां क्रममुक्तिभाजां केन क्रमेण ब्रह्मप्राप्तिरित्याकाङ्क्षायामुत्तरमार्गे निरुपिव्ये उत्तरमार्गेण गता न निवर्तन्ते गतास्तु पुररावृत्तिभाज इत वक्तव्यस्तुत्यर्थे पितृयाणमार्गोपदेशः। यत्रेति। यत्र काले प्रयाता मृता योगिनो ध्यानयोगिन उपासका अनावृत्तिमपुनरावृत्तिं यान्ति कर्मयोगिनश्चावृत्तिं पुनरावृत्तिं यान्ति तं कालं वक्ष्यामि कर्मिणः योगित्वमनुष्ठानयोगात्कर्मयोगेन योगिनामित्युक्तत्वात् योगिन इत्यनेन प्रक्रान्ता ओमित्येकाक्षरमित्यादिक्तो ग्राह्यास्तेन पञ्चाग्निविद्योपासकानां देवयानमार्गेण ब्रह्मलोकं गतानामपि ततो निवृत्तौ न क्षतिः। कर्मयोगिनोऽप्यपासनासमुच्चितकर्मयोगिनो ग्राह्याः। भरतर्षभेति संबोधयन् भरता अपि निष्कामकर्मयोगसमुच्चितेनेपास नेनात्रैव साक्षात्कारं लब्ध्वा साक्षान्मुक्तिं देवयानमार्गेण गत्वा क्रमेण वा प्राप्तास्त्वं तु तेभ्यः श्रेष्ठस्तथैव भवितुं योग्योऽसीति सूचयति।
8.23 यत्र where? काले in time? तु verily? अनावृत्तिम् nonreturn? आवृत्तिम् return? च and? एव even? योगिनः Yogis? प्रयाताः departing? यान्ति go to? तम् that? कालम् time? वक्ष्यामि (I) will tell? भरतर्षभ O chief of Bharatas.Commentary I shall declare to you? O Prince of the Bharatas? the time at which if the Yogis leave their body they will not be born again and also when if they die they will be born again.To return means to be born again.
8.23 Now I will tell thee, O chief of Bharatas, the times departing at which the Yogis will return or not return.
8.23 *Now I will tell thee, O Arjuna, of the times at which, if the mystics go forth, they do not return, and at which they go forth only to return.
8.23 O best of the Bharata dynasty, I shall now speak of that time by departing at which the yogis attain the State of Non-return, and also (of the time by departing at which they attain) the State of Return.
8.23 Bharatarsabha, O best of the Bharata dynasty; vaksyami, I shall speak; tu, now; tam, of that; kalam, time; prayatah, by departing, by dying; (-these words are to be which time; yoginah, the yogis; yanti, attain; anavrttim, the State of Non-return, of nonrirth; ca eva, and also; of the time by departing at which they attain its opposite, avrttim, the State of Return. By 'Yogis' are implied both the yogis (men of meditation) and the men of acitons (rites and duties). But the men of action are yogis by courtesy, in accordance with the description, 'through the Yoga of Action for the yogis' (3.3). The Lord speaks of that time: [This is Ast.'s reading.-Tr.]
8.23. Departing at what times the Yogins attain the non-return or the return only-those times I shall declare to you, O chief of the Bharatas !
8.23 Yatra etc. The non-return : emancipation. The return : i.e., for enjoying [worldly life]. (23)
8.23 - 8.24 Here, the term 'time' denotes a path, having many deities beginning with day and ending with year. The deities preside over divisions of time. The meaning is - I declare to you the path departing in which Yogins do not return and also the path departing in which the doers of good actions return. By the clause, 'Light in the form of fire, the day, bright fortnight, six months of the northern course,' year also is denoted.
8.23 O best of the Bharata dynasty, I shall now speak of that time by departing at which the yogis attain the State of Non-return, and also (of the time by departing at which they attain) the State of Return.
।।8.23।।जिन्होंने ओंकारमें ब्रह्मबुद्धि सम्पादन की है जिन्हें कालान्तरमें मुक्ति मिलनेवाली है तथा यहाँ जिनका प्रकरण चल रहा है उन योगियोंकी ब्रह्मप्राप्तिके लिये आगेका मार्ग बताना चाहिये। अतः विवक्षित अर्थको बतलानेके लिये ही यत्र काले इत्यादि अगले श्लोक कहे जाते हैं। यहाँ पुनरावर्ती मार्गका वर्णन दूसरे मार्गकी स्तुति करनेके लिये किया गया है --, यत्र काले इस पदका व्यवधानयुक्त प्रयाताः इस अगले पदसे सम्बन्ध है। जिस कालमें अनावृत्तिको -- अपुनर्जन्मको और जिस कालमें आवृत्तिको -- उससे विपरीत पुनर्जन्मको योगी लोग पाते हैं। योगिनः इस पदसे कर्म करनेवाले कर्मी लोग भी योगी कहे गये हैं क्योंकि कर्मयोगेन योगिनाम् इस विशेषणसे कर्मी भी किसी गुणविशेषसे योगी हैं। तात्पर्य यह है कि अर्जुन जिस कालमें मरे हुए योगी लोग पुनर्जन्मको नहीं पाते और जिस कालमें मरे हुए लोग पुनर्जन्म पाते हैं मैं अब उस कालका वर्णन करता हूँ।
।।8.23।। -- यत्र काले प्रयाताः इति व्यवहितेन संबन्धः। यत्र यस्मिन् काले तु अनावृत्तिम् अपुनर्जन्म आवृत्तिं तद्विपरीतां चैव। योगिनः इति योगिनः कर्मिणश्च उच्यन्ते कर्मिणस्तु गुणतः -- कर्मयोगेन योगिनाम् (गीता 3।3) इति विशेषणात् -- योगिनः। यत्र काले प्रयाताः मृताः योगिनः अनावृत्तिं यान्ति यत्र काले च प्रयाताः आवृत्तिं यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।तं कालमाह --,
।।8.23।।यस्मिन् काले मृताः आवृत्त्यनावृत्ती यान्ति तत्प्रतिपादनार्थमुत्तरो ग्रन्थ इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- यदिति। याश्च ताः कालाभिमानिन्यश्चेति विग्रहः। देवता गता इति तदधिष्ठितमार्गाभ्यां गता इत्यर्थः काल इत्युक्तत्वात्। कथमादिपदप्रक्षेपेण व्याख्यानं इत्यत आह -- काल इति। कुतः इत्यत आह -- अग्न्यादेरिति। अग्निर्ज्योतिर्धूमानाम्।
।।8.23।।यत्कालाद्यभिमानिदेवता गता आवृत्त्यनावृत्ती गच्छन्ति ता आह -- यत्रेत्यादिना। काल इत्युपलक्षणं अग्न्यादेरपि वक्ष्यमाणत्वात्।
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः। प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।8.23।।
যত্র কালে ত্বনাবৃত্তিমাবৃত্তিং চৈব যোগিনঃ৷ প্রযাতা যান্তি তং কালং বক্ষ্যামি ভরতর্ষভ৷৷8.23৷৷
যত্র কালে ত্বনাবৃত্তিমাবৃত্তিং চৈব যোগিনঃ৷ প্রযাতা যান্তি তং কালং বক্ষ্যামি ভরতর্ষভ৷৷8.23৷৷
યત્ર કાલે ત્વનાવૃત્તિમાવૃત્તિં ચૈવ યોગિનઃ। પ્રયાતા યાન્તિ તં કાલં વક્ષ્યામિ ભરતર્ષભ।।8.23।।
ਯਤ੍ਰ ਕਾਲੇ ਤ੍ਵਨਾਵਰਿਤ੍ਤਿਮਾਵਰਿਤ੍ਤਿਂ ਚੈਵ ਯੋਗਿਨ। ਪ੍ਰਯਾਤਾ ਯਾਨ੍ਤਿ ਤਂ ਕਾਲਂ ਵਕ੍ਸ਼੍ਯਾਮਿ ਭਰਤਰ੍ਸ਼ਭ।।8.23।।
ಯತ್ರ ಕಾಲೇ ತ್ವನಾವೃತ್ತಿಮಾವೃತ್ತಿಂ ಚೈವ ಯೋಗಿನಃ. ಪ್ರಯಾತಾ ಯಾನ್ತಿ ತಂ ಕಾಲಂ ವಕ್ಷ್ಯಾಮಿ ಭರತರ್ಷಭ৷৷8.23৷৷
യത്ര കാലേ ത്വനാവൃത്തിമാവൃത്തിം ചൈവ യോഗിനഃ. പ്രയാതാ യാന്തി തം കാലം വക്ഷ്യാമി ഭരതര്ഷഭ৷৷8.23৷৷
ଯତ୍ର କାଲେ ତ୍ବନାବୃତ୍ତିମାବୃତ୍ତିଂ ଚୈବ ଯୋଗିନଃ| ପ୍ରଯାତା ଯାନ୍ତି ତଂ କାଲଂ ବକ୍ଷ୍ଯାମି ଭରତର୍ଷଭ||8.23||
yatra kālē tvanāvṛttimāvṛttiṅ caiva yōginaḥ. prayātā yānti taṅ kālaṅ vakṣyāmi bharatarṣabha৷৷8.23৷৷
யத்ர காலே த்வநாவரித்திமாவரித்திஂ சைவ யோகிநஃ. ப்ரயாதா யாந்தி தஂ காலஂ வக்ஷ்யாமி பரதர்ஷப৷৷8.23৷৷
యత్ర కాలే త్వనావృత్తిమావృత్తిం చైవ యోగినః. ప్రయాతా యాన్తి తం కాలం వక్ష్యామి భరతర్షభ৷৷8.23৷৷
8.24
8
24
।।8.24।। जिस मार्गमें प्रकाशस्वरूप अग्निका अधिपति देवता, दिनका अधिपति देवता, शुक्लपक्षका अधिपति देवता, और छः महीनोंवाले उत्तरायणका अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्गसे गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष (पहले ब्रह्मलोकको प्राप्त होकर पीछे ब्रह्माजीके साथ) ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं।
।।8.24।। जो ब्रह्मविद् साधकजन मरणोपरान्त अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छः मास वाले मार्ग से जाते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।।
।।8.24।। इस श्लोक में क्रममुक्ति के मार्ग को दर्शाया गया है। वेदप्रतिपादित कर्म एवं उपासना के समुच्चय अर्थात् दोनों का साथसाथ अनुष्ठान करने वाले साधक और उसी प्रकार जिन लोगों को वर्तमान जीवन में ही ब्रह्म का साक्षात् अनुभव न हुआ हो ऐसे ब्रह्म के उपासक इस क्रममुक्ति के अधिकारी होते हैं। उपनिषदों के अनुसार ये साधक जन देह त्याग के पश्चात् देवयान (देवताओं के मार्ग) के द्वारा ब्रह्मलोक अर्थात् सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के लोक में प्रवेश करते हैं। वहाँ कल्प की समाप्ति तक दिव्य अलौकिक विषयों के आनन्द का अनुभव करके प्रलय के समय ब्रह्माजी के साथ वे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। उपनिषदों में प्रयुक्त शब्दों का उपयोग कर भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ देवयान को इंगित करते हैं। ऋषि प्रतिपादित तत्त्व ज्ञान के जिज्ञासुओं के लिये अध्यात्म दृष्टि से यह श्लोक विशेष अर्थपूर्ण है।अग्नि ज्योति दिन शुक्लपक्ष उत्तरायण के षण्मास ये सब सूर्य के द्वारा अधिष्ठित देवयान को सूचित करते हैं। प्रश्नोपनिषद् में परम सत्य की सृष्टि से उत्पत्ति का वर्णन करते हुए इन मार्गों को स्पष्ट रूप से बताया गया है। वहाँ गुरु बताते हैं कि सृष्टिकर्ता प्रजापति स्वयं सूर्य और चन्द्र बन गये। आकाश में दृश्यमान सूर्य और चन्द्र क्रमशः चेतन और जड़ तत्त्व के प्रतीक स्वरूप हैं।चेतन तत्त्व के साथ तादात्म्य स्थापित करके जो सत्य का उपासक अपना जीवन जीता है वह मरण के समय भी जीवन पर्यन्त की गई उपासना के उपास्य (ध्येय) का ही चिन्तन और स्मरण करता है स्वाभाविक है कि ऐसा उपासक अपने उपास्य के लोक को प्राप्त होगा क्योंकि वृत्ति के अनुरूप व्यक्ति बनता है। सम्पूर्ण जीवन काल में रचनात्मक दैवी एवं विकासशील विचारों का ही चिन्तन करते रहने पर मनुष्य निश्चित ही वर्तमान शरीर का त्याग करने पर विकास के मार्ग पर ही अग्रसर होगा। इस मार्ग को अग्नि ज्योति दिन आदि शब्दों से लक्षित किया गया है। इस प्रकार उपनिषदों की अपनी विशिष्ट भाषा में ब्रह्म के उपासकों की मुक्ति का मार्ग उत्तरायण कहलाता है। क्रममुक्ति को बताने के लिए ऋषियों द्वारा प्रायः प्रयोग किये जाने वाले इस शब्द उत्तरायण में उपर्युक्त सभी अभिप्राय समाविष्ट हैं।इस मार्ग के विपरीत वह मार्ग जिसे प्राप्त करने पर पुनः संसार को लौटना पड़ता है उसका वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं --
।।8.24।। व्याख्या--'अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्'--इस भूमण्डलपर शुक्लमार्गमें सबसे पहले अग्निदेवताका अधिकार रहता है। अग्नि रात्रिमें प्रकाश करती है, दिनमें नहीं; क्योंकि दिनके प्रकाशकी अपेक्षा अग्निका प्रकाश सीमित है। अतः अग्निका प्रकाश थोड़ी दूरतक (थोड़े देशमें) तथा थोड़े समयतक रहता है; और दिनका प्रकाश बहुत दूरतक तथा बहुत समयतक रहता है।
।।8.24 -- 8.25।।अग्निरिति। धूमेति। उत्तरेण ऊर्ध्वेन अयनं षाण्मासिकम्। तच्च प्रकाशादिधर्मकत्वात् दहनादिकैः शब्दैरुपचर्यते। अतो विपरीतं विपर्ययेण। तत्र चन्द्रमसो भोग्यांशानुप्रवेशात् भोगायावृत्तिः।
।।8.24।।अग्निः ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् इति संवत्सरादीनां प्रदर्शनम्।
।।8.24।।यथोपक्रमं व्याख्याय यथाश्रुतं व्याख्याति -- अथवेति। कथं तर्हि देवतानामतिनेत्रीणां ग्रहणे कालप्राधान्येन निर्देशः श्लिष्यते तत्राह -- भूयसां त्विति। मार्गद्वयेऽपि कालाद्यभिमानिन्यो देवताः कालशब्देनोच्यन्ते। कालाभिमानिनीनां भूयस्त्वात्कालशब्देन सर्वासां देवतानामुपलक्षणत्वं विवक्षित्वा कालकथनमित्यर्थः। यथाम्राणां भूयस्त्वाद्विद्यमानेष्वपि द्रुमान्तरेषु आम्रैरेव वनं निर्दिश्यते तद्वदित्युदाहरणमाह -- आम्रेति। ननु मार्गचिह्नानां भोगभूमीनां वा तत्तच्छब्दैरुपादानसंभवे किमिति देवताग्रहणमित्याशङ्क्यातिवाहिकास्तल्लिङ्गादिति न्यायेनोत्तरमाह -- इति स्थित इति। तेषामग्न्यादीनां समीपमिति सामीप्ये तत्रेति सप्तमी। ब्रह्म कार्योपाधिकं परं वा ब्रह्म परंपरया मुक्त्यालम्बनम्। अतएव क्रमेणेत्युक्तम्। निर्गुणमप्रपञ्चं ब्रह्मास्मीति विद्यावतो व्यवच्छिनत्ति -- ब्रह्मोपासनेति। ननु ब्रह्मशब्दस्य मुख्यार्थत्वार्थं परब्रह्मविदामेवेयं गतिरुच्यते न बादर्यधिकरणविरोधादित्याह -- नहीति।
।।8.24।।तत्रानावृत्तिमार्गमाह -- अग्निरिति। निष्कामानामग्निहोत्रिणां अग्निरित्यादिसंवत्सरदेवलोकाधिदेवतानामुपलक्षणार्थं निष्कामाग्निहोत्रगम्यतदीयज्योतिःकाले शुक्ले उत्तरायणे प्रयाता मृताः मार्गे वा तत्र प्रयाता ब्रह्माक्षरं भगवन्महिमभूतं क्रममुक्तिप्रकारेण गच्छन्ति। श्रीपुरुषोत्तमतत्त्वज्ञानिनस्तु तदा सद्योमुक्तिप्रकारेण प्रयाता भगवन्तमुपासीना भवन्तीति द्वितीयस्कन्धे निरूप्यतेयादृशी भावना यस्य तादृशं तस्य तत्फलम्। हरिरेकाक्षरतया भावुकानामिदं फलम्। हरिं रसात्मकतया भावुकानां परं फलम्। तल्लीलामध्यपातित्वं तत्समीपनिवासतः। एते तु ब्रह्म तदक्षरं प्राप्नुवंति तथा च श्रुतौ तेऽर्चिषमभिसंविशन्ति। अर्चिषोऽहरहरापूर्यमाणपक्षं आपूर्यमाणपक्षवान् षण्मासानुदगादित्यं प्रैति मासेभ्यो देवलोकं इत्यादि।
।।8.24।।तत्रोपासकानां देवयानं पन्थानमाह -- अग्निर्ज्योतिरित्यर्चिरभिमानिनी देवता लक्ष्यते। अहरित्यहरभिमानिनी। शुक्लपक्ष इत शुक्लपक्षाभिमानिनी। षण्मासा उत्तरायणमिति उत्तरायणरूपषण्मासाभिमानिनी देवतैव लक्ष्यते।आतिवाहिकास्तल्लिङ्गात् इति न्यायात्। एतच्चान्यासामपि श्रुत्युक्तानां देवतानामुपलक्षणार्थम्। तथाच श्रुतिःतेऽर्चिरभिसंभवन्त्यर्चिषोहरह्न आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान्षडुदङ्ङेति मासांस्तान्मासेभ्यः संवत्सरं संवत्सरादादित्यमादित्याच्चन्द्रमसं चन्द्रमसो विद्युतं तत्पुरुषोऽमानवः स एनान्ब्रह्म गमयत्येष देवपथो ब्रह्मपथ एतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावर्तं नावर्तन्ते इति। अत्र श्रुत्यन्तरानुसारात्संवत्सरानन्तरं देवलोकदेवता ततो वायुदेवता तत आदित्य इत्याकरे निर्णीतम्। एवं विद्युतोऽनन्तरं वरुणेन्द्रप्रजापतयस्तावता मार्गपरिपूर्तिः। तत्रार्चिरहःशुक्लपक्षोत्तरायणदेवता इहोक्ताः। संवत्सरो देवलोको वायुरादित्यश्चन्द्रमा विद्युद्वरुण इंन्द्रः प्रजापतिश्चेत्यनुक्ता अपि द्रष्टव्याः। तत्र देवयानमार्गे प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्मकार्योपाधिकंकार्यं बादरिरस्य गत्युपपत्तेः इति न्यायात्। निरुपाधिकं तु ब्रह्म तद्द्वारैव क्रममुक्तिफलत्वात्। ब्रह्मविदः सगुणब्रह्मोपासका जनाः अत्रएतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावर्तं नावर्तन्ते इति श्रुताविममिति विशेषणात्कल्पान्तरे केचिदावर्तन्त इति प्रतीयते। अतएवात्र भगवतोदासितं श्रौतमार्गकथनेनैव व्याख्यानात्।
।।8.24।।तत्रानावृत्तिमार्गमाह -- अग्निरिति। अग्निज्योतिःशब्दाभ्यांतेऽर्चिषमभिसंभवन्ति इति श्रुत्युक्तार्चिरभिमानिनी देवतोपलक्ष्यते। अहरिति दिवसाभिमानिनी। शुक्ल इति शुक्लपक्षाभिमानिनी। उत्तरायणरूपाः षण्मासा इत्युत्तरायणाभिमानिनी। एतच्चान्यासामपि श्रुत्युक्तानां संवत्सरदेवलोकादिदेवतानामुपलक्षणार्थम्। एवंभूतो यो मार्गस्तत्र प्रयाता गता भगवदुपासका जनाः ब्रह्म प्राप्नुवन्ति। यतस्ते ब्रह्मविदः। तथाच श्रुतिःतेऽर्चिषमभिसंभवन्ति अर्चिषोऽहरह्न आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान्षण्मासानुदङ्ङादित्य एति मासेभ्यो देवलोकम् इति। नहि सद्योमुक्तिभाजां सम्यग्दर्शननिष्ठानां गतिर्वा क्वचिदस्तिन तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति इति श्रुतेः।
।। 8.24 यत्र काले तु इत्यादेःयोगयुक्तो भवार्जुन [8।27] इत्यन्तस्य तात्पर्यमाह -- अथेति। अत्र धूमादिमार्गकथनं हेयत्वार्थम् अर्चिरादिमार्गोपदेशस्तु तदनुसन्धानार्थ एवेति तत्रैव तात्पर्यमिति भावः। ननु परमपुरुषार्थनिष्ठस्यैव ह्यर्चिरादिगतिः तत्कथमत्र साधारण्यमुच्यते इत्यत्राह -- द्वयोरपीति। आत्मनिष्ठस्याप्यपुनरावृत्तेः पूर्वोक्तत्वात्तस्याप्यर्चिरादिकैव गतिरिति दर्शयितुमाह -- सा चेति। साधारण्यापुनरावृत्त्योः श्रुतिमेव दर्शयति -- यथेति। अङ्गिफलमेवाङ्गेऽपि व्यपदिश्यत इत्याशङ्क्य परिहरति -- नचेति। हेतुमाह -- ये चेति। यद्यप्यङ्गिफलमेवाङ्गेऽपि निर्देष्टुं युक्तम् तथाप्यङ्गिना सहाङ्गस्य तुल्यवत्पृथङ्निर्दिष्टस्य तत्फलनिर्देशो न युक्त इति भावः। एतेन प्रथमषट्कोदितप्रत्यगात्मवेदनादत्रत्याक्षरयाथात्म्यानुसन्धानस्य भेदोऽपि दर्शितः।तद्य इत्थं विदुः इत्यस्य प्रत्यगात्मनिष्ठविषयत्वं कथं इत्यत्राह -- पञ्चाग्निविद्यायां चेति। आपः पुरुषवचसो भवन्ति [छां.उ.5।9।14] इति त्रिवृत्कृतानामभिधीयमानत्वाद्भूतान्तरसंसर्गसिद्धिः।अपामेवेत्यात्मस्वरूपपरिणामव्युदासायोक्तम्। एवंविधशरीरसम्बन्धमात्रस्याप्यौपाधिकत्वप्रदर्शनायाहपुण्यपापहेतुक इति। रमणीयचरणा रमणीयां योनिं ৷৷. कपूयचरणाः कपूयां योनिम् इत्यादिवचनान्न केवलाचिद्विषयमिदं प्रकरणम्। तद्य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये श्रद्धा तप इत्युपासते इत्युक्तयद्वृत्तद्वयस्य तेऽर्चिषम् इत्येकेन तद्वृत्तेन प्रतिनिर्देशादुभयोर्गतिरविशिष्टेति ज्ञापनाय तद्य इत्थं विदुः तेऽर्चिषम् इति व्यवहितमुपात्तम्। इत्थंशब्दानूदितं प्रस्तुताकारविशेषं दर्शयति -- विविक्ते इति। ननुतत्पुरुषोऽमानवः स एनान् ब्रह्म गमयति [छां.उ.4।15।6] इत्यर्चिरादिना गतस्य ब्रह्मप्राप्तिः श्रूयते तत्कथं केवलात्मोपासकस्य ब्रह्मप्रापकार्चिरादिगतिप्राप्तिः इत्यत्राह -- आत्मयाथात्म्येति। अयं पञ्चाग्निविद्यानिष्ठो न केवलात्मोपासकः अपितु ब्रह्मात्मकस्वात्मानुसन्धायीति भावः। अन्यथा तत्क्रतुन्यायविरोध इत्यभिप्रायेणाह -- तत्क्रतुन्यायाच्चेति। चकार इतरेतरयोगे। यथावस्थितात्मानुसन्धानस्य परशेषतैकरसत्वानुसन्धानरूपत्वे प्रमाणमाह -- य आत्मनीति। आदिशब्देन पतिं विश्वस्य [तै.ना.6।11।3] करणाधिपाधिपः [श्वे.उ.6।9] इत्यादिवाक्यशतं गृह्यते। अत्र शारीरकभाष्यादिविरोधो मन्दैराशङ्कितः इह तावच्छ्रुतिसूत्रभाष्यादिष्वन्यत्र च पञ्चाग्निविदः परमात्मात्मकस्वात्मानुसन्धातृत्वमर्चिरादिगतिश्चाविशेषेणोच्यते। तस्याश्च ब्रह्मगमयितृत्वस्य श्रुत्यादिष्विह चतत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः इति सिद्धत्वात् पञ्चाग्निविदोऽपि परमात्मप्राप्तिरस्त्येवेति स्वीकर्तव्यम्। तत्र प्राप्तौ ज्ञानिनां परमात्मात्मकस्वात्मानुसन्धानस्य स्वविशिष्टो भोग्यः अक्षरयाथात्म्यनिष्ठानां तु स्वस्वरूपमेव पूर्वं भोग्यम् वस्वादिपदप्राप्तिपूर्वकब्रह्मप्राप्तिसाधनमधुविद्यादिन्यायादन्ततो ब्रह्मप्राप्तिः ईदृशपर्वक्रमप्रतिनियमश्च प्राचीनापेक्षाभेदात् स च प्राचीनकर्मविशेषात्चतुर्विधा भजन्ते माम् [7।16] इति प्रागेव दर्शितः।न चात्र जिज्ञासोरन्य एवात्मयाथात्म्यविदिति भाष्यते जिज्ञासुवेद्यतयोक्तस्वभावविसर्गयोरत्र च पञ्चाग्निविद्योदाहरणात् मध्ये च कैवल्यार्थिन एव मूर्धन्यनाड्या निष्क्रमणमनावृत्तिश्चोक्ता आत्मयाथात्म्याक्षरयाथात्म्यशब्दयोश्चात्र न भिन्नार्थत्वम् तस्योपासने किञ्चिदस्ति विशेषः अक्षरयाथात्म्यविदः -- परमात्मशरीरभूतस्वात्मोपासकाः ज्ञानिनस्तु स्वात्मशरीरकपरमात्मोपासका इत्ययमेव विशेषः तद्य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये [छां.उ.5।10।1] इति विभागनिर्देशाभिप्रेत इति भाष्यादिषूक्तः। सारे तुउभयेऽपि हि परिपूर्णं ब्रह्मोपासते मुखभेदेन स्वात्मशरीरकं ब्रह्म केचन ब्रह्मात्मकस्वात्मानमितरे [वे.सा.4।3।14] इति। अत एव सप्तमे प्रक्रान्तो जिज्ञासुः परमात्मप्राप्तिकामज्ञानिव्यतिरिक्तत्वात् अब्रह्मात्मकस्वात्मानुसन्धायीति न भ्रमितव्यम्। तस्य चोदारकोटिमात्रे निवेशः स्वात्मानुभवविलम्बिविमुखज्ञानिव्यतिरेकात्।अर्चिरादिगतिनिषेधस्तु ब्रह्मात्मकस्वात्मानुसन्धानरहितस्वात्मोपासनविषयः। इदमपि भाष्यादिषु व्यक्तमेवोक्तंतस्मादचिन्मिश्रं केवलं वा चिद्वस्तु ब्रह्मदृष्ट्या तद्वियोगेन च य उपासते न तान्नयति अपितु परं ब्रह्मोपासीनान् आत्मानं च प्रकृतिवियुक्तं ब्रह्मात्मकमुपासीनानातिवाहिको गुणो नयति [ब्र.सू.भा.4।3।15] इत्यादिभिः। यत्पुनरुच्यते ये तु शिष्टास्त्रयो भक्ताः फलकामा हि ते मताः। सर्वे च्यवनधर्माणः प्रतिबुद्धस्तु मोक्षभाक् [म.भा.12।341।35] इति तत्रापि आत्ममात्रानुभवसुखस्य स्थिरत्वादेव च्यवनधर्मत्वमुच्यते न तावता पुनः संसारप्रसङ्गःइन्द्रलोकात्परिभ्रष्टो मम लोकपरायणः। प्रमुक्तः सर्वसंसारैर्मम लोकं च गच्छति [वा.पु.139।98] प्रच्युतो वा एषोऽस्माल्लोकादसतो देवलोकम् [यजुः6।1।1।5] इत्यादिष्विवोत्तरोत्तरातिशयितपदप्राप्तावपि पूर्वपदभ्रंशमात्राच्च्यवनधर्मत्ववाचो युक्तेरविरोधात् परिमितसुखानुभवविलम्बनेन तदानीं निरतिशयसुखानुभवाद्भ्रष्टत्वेनापि निन्दोपपत्तेश्च। उपासनदशानुभूते परमात्मनि फलदशायां किञ्चित्कालमनुभवविच्छेदाद्वा प्राप्तभ्रंशलक्षणं च्यवनधर्मत्वम्।प्रतिबुद्धस्तु मोक्षभाक् [म.भा.12।341।35] इति चाव्यवहितमोक्षभाक्त्वं प्रतिबुद्धस्योच्यते न तावतान्यस्य मोक्षाभावःभुक्त्वा च भोगान्विपुलांस्त्वमन्ते मत्प्रसादतः। ममानुस्मरणं प्राप्य मम लोकमवाप्स्यसि [वि.पु.5।19।26] इतिवदविरोधात्।यथा च मुमुक्षोरेव कस्यचिन्मध्ये ब्रह्मकायनिषेवणसुखमुच्यते तथात्रापि स्थानविशेषे स्वात्मानुभवविलम्बः। यथा चअथवा नेच्छते तत्र ब्रह्मकायनिषेवणम्। उत्क्रामति च मार्गस्थः शीतीभूतो निरामयः इत्यादिना ब्रह्मकायनिषेवणसङ्गात् मुक्तस्य देवयानेन मार्गेण परमाकाशगमनमुच्यते तद्वदिहापि स्वात्मानुभवस्थानात्प्रच्युतस्य परमव्योमाधिरोहः स्यात् अर्चिरादिगतिश्चास्यावान्तरफलानुभवात्पश्चाद्वा गतिमध्ये वा। दक्षिणायनमृतस्य चन्द्रमसः सायुज्यवद्विश्रममात्ररूपोऽयमवान्तरफलानुभव इत्युभयधापि न विरोधः। एतेन पश्चादेवास्याप्रतीकालम्बनत्वमित्यपि निरस्तं मधुविद्यावदेव प्रथममपि तदुपपत्तेः। स्मरन्ति च स्वात्मानुभवस्थानं मुक्तिस्थानादर्वाचीनंयोगिनाममृतं स्थानं स्वात्मसन्तोषकारिणाम्। एकान्तिनः सदा ब्रह्मध्यायिनो योगिनो हि ये। तेषां तत्परमं स्थानं यद्वै पश्यन्ति सूरयः [वि.पु.1।6।38] इति। अमृतस्थानवर्तिनां च मुक्तत्वव्यपदेशो जरामरणादिविरहात्पुनर्जन्महेतुभूतपुण्यपापविगमाच्च।अस्ति च परित्यक्तस्थूलदेहानामपि तत्तदुपासनाविशेषाधीनमपवर्गादर्वाचीनं फलम्। तच्च प्रकृतिलयादिशब्देन साङ्ख्याः पठन्तिधर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण। ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बन्धः।।वैराग्यात्प्रकृतिलयः संसारो भवति राजसाद्रागात्। ऐश्वर्यादविघातो विपर्ययात्तद्विपर्यासः।।[सां.स.का.44।45] इति।विपर्ययादिष्यते बन्धः इत्यत्र च वाचस्पतिना व्याख्यातं -- विपर्ययात् -- अतत्त्वंज्ञानात् इष्यते बन्धः स च त्रिविधः प्राकृतिको वैकृतिको दाक्षायणिकश्चेति। तत्र प्रकृतावात्मज्ञानाद्ये प्रकृतिमुपासते तेषां प्राकृतिको बन्धः। यः पुराणे प्रकृतिलयान् प्रकृत्योच्यते -- पूर्णं वर्षसहस्रं तु तिष्ठन्त्यव्यक्तचिन्तकाः इति। वैकारिको बन्धः तेषाम् ये विकारानेव भूतेन्द्रियाहङ्कारबुद्धीरुपासते पुरुषबुद्ध्या तान् प्रतीदमुच्यते यथा -- दश मन्वन्तराणीह तिष्ठन्तीन्द्रियचिन्तकाः। भौतिकास्तु शतं पूर्णं सहस्रं त्वाभिमानिकाः।।बौद्धा दश सहस्राणि तिष्ठन्ति विगतज्वराः। ते खल्वमी विदेहा येषां वैकृतिको बन्धः।। इति।एवमव्यक्तादितत्त्वचिन्तकानामिव प्रत्यगात्मतत्त्वचिन्तकानामपि तदुचितदेशकालं ततोऽनिश्चितमतिशयितं फलमुपपद्यते। अत एव भूमविद्यायां प्रत्यगात्ममात्रोपासकस्याप्यतिवादित्वमुक्तम्। ब्रह्मात्मकस्वात्मानुसन्धाने तु ब्रह्मप्राप्तौ विश्रमादपुनरावृत्तिरिति विशेषः। अत एवाक्षरानुभवस्यान्तवत्त्वे तदर्थिनां कथमैश्वर्याधिकारणोऽधिकार्यन्तरत्वमित्यपि निरस्तम् बाह्यान्तरभोक्तव्यविभागादावृत्त्यनावृत्तियोग्यताभेदाच्च तद्भेदोपपत्तेः। विलम्बाक्षमाणां पुनरियं निष्ठा -- सर्वधर्मांश्च सन्त्यज्य सर्वलोकांश्च साक्षरान्। लोकविक्रान्तचरणौ शरणं तेऽव्रजं विभो।। इति।कैवल्यं भगवन्तं च मन्त्रोऽयं साधयिष्यति [बृ.हा.स्मृ.3।40] इत्यादिष्वपि कैवल्यशब्देनात्ममात्रानुभवसुखं तदपेक्षिभिः प्राप्यमुच्यते। एतच्चान्तरायकोटिनिविष्टत्वादादितः सावधाना ज्ञानिनः परिहरन्ति। केचित्तु ब्रह्मानुभववैमुख्येन नित्यमात्मानुभवसुखमिच्छन्ति न तत्र भाष्यकारादिसम्प्रदायं प्रमाणं युक्तिं वा पश्यामः निश्शेषकर्मक्षये स्वाभाविकरूपाविर्भावेन ब्रह्मानुभवावश्यम्भावात् कर्मशेषयोगे तु संसारप्रसङ्गाच्च जरामरणादिहेतुभूतसर्वकर्मविनाशादसंसारः तावन्मात्रेण च मुक्तत्वव्यपदेशः। ब्रह्मानुभवप्रतिबन्धककर्मणस्त्वविनाशात्तदुभयाभाव इति चेत् -- अस्त्वेवम् एतत्कर्म परस्तादपि न नङ्क्ष्यतीत्यत्र न नियामकमस्ति -- इत्येषा दिक्।। -- परप्राप्त्यादिरहितनित्यकैवल्यकल्पना। सूत्रभाष्यश्रुतिस्मृत्याद्य बाधेन न सिध्यति।अतोऽधिकारिभेदेन ह्यवस्थाभेदमाश्रिताः। अन्यामपि गतिं प्राञ्चः प्रतीचीं प्रत्यपादयन्।।तत्रावृत्तिपरप्राप्तिवैरूप्यादेरयोगतः। अस्मदुक्तं श्रुतिस्मृत्योरनपायं रसायनम्।।ननु -- अर्चिरादिगतिमाहेति कथमुच्यतेयत्र काले इति कालविशेषो ह्युपक्रम्यत इत्यत्राहअत्र कालशब्द इति। शारीरके दक्षिणायनादिमृतस्यापि मोक्ष उक्तः अतश्चायनेऽपि हि दक्षिणे [ब्र.सू.4।2।20] इति। अत्र चशुक्लकृष्णे गती ह्येते [8।26] इत्यनन्तरमेवोच्यते अन्यथाअग्निर्ज्योतिः इत्यादिना च विरुध्येतनैते सृती पार्थ जानन् [8।27] इति च मार्गवाचिना शब्देनोपसंह्रियत इति भावः।यत्र काले प्रयाता इति व्यवहितेन सम्बन्धं दर्शयन् योगिनामावृत्तिः कथमिति च शङ्कां परिहरन्यत्र काले इति श्लोकस्य वाक्यार्थमाह -- यस्मिन्निति। अत्र योगिनः ज्ञानिनः पुण्यकर्मसम्बन्धिनश्च।सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ [अष्टा.1।2।64]। यद्वा पुण्यकर्माण इत्यध्याहृतम्। तेऽर्चिषमभिसम्भवन्त्यर्चिषोऽहरह्नआपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान् षडुदङ्ङेति मासांस्तान्मासेभ्यः संवत्सरम् [छां.उ.5।10।12] इत्यादिश्रुत्यनुसारेणोक्तंसंवत्सरादीनां प्रदर्शनमिति। एतद्वैशद्यमर्चिरादिपादे। तत्रैवं सङ्गृहीतं वरदगुरुभिःअर्चिरहस्िसतपक्षानुदगयनाब्दमरुदर्केन्दून्। अपि वैद्युतवरुणेन्द्रप्रजापतीनातिवाहिकानाहुः [त.सा.102] इति।अग्निर्ज्योतिः इति अग्निरूपज्योतिरित्यर्थः। तेन देवयानपथमपर्वस्थार्चिर्विवक्षा। अत एवाग्निज्योतिषोर्भिन्नदेवतात्वं कालाभिमानिदेवतात्वं च वदन्तः प्रत्युक्ताः।
।।8.24।।तत्र पूर्वमनावृत्तिज्ञापककालस्वरूपमाह -- अग्निरिति। अग्निर्ज्योतिः। तापयुक्तज्योतिर्युक्तः अहः दिवसः। शुक्लः शुक्लपक्षः। षण्मासा उत्तरायणं प्राप्य भवन्ति। तत्र तस्मिन् काले प्रयाता ब्रह्मविदो जना भक्ताः। ब्रह्म भगवत्स्वरूपमनावृत्त्यात्मकं गच्छन्ति। अत्रायं भावः आयुर्भोगपूर्णतया कालवशेनोत्तरायणादिविशिष्टकालमृताः सर्व एव न तत् प्राप्नुवन्ति किन्तु भगवद्भक्ता भीष्मवत् तत्काल आगते भगवन्निष्ठैकतया ये प्राणांस्त्यक्त्वा यातास्ते प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। एतज्ज्ञापनायैव ब्रह्मविद इत्युक्तम्। एतदेव तज्ज्ञापकमित्यर्थः।
।।8.24।।तत्रोपासकानां देवयानं पन्थानमाह -- अग्निरिति। अग्निर्ज्योतिरित्यर्चिरभिमानिनी देवता लक्ष्यते। एवमहरित्यहरभिमानिनी। एवं शुक्लपक्षस्य षष्ठमाससंमितोत्तरायणस्य चाभिमानिन्यौ देवते एव। एतच्चान्यासामप्युपलक्षणम्। तत्र प्रयाता उत्क्रान्ता ब्रह्मकार्यं ब्रह्मतद्वारा परं च गच्छन्ति। ब्रह्मविदो ब्रह्मोपासका जनाः।
।।8.24।।तं कालं वक्ष्यामीति प्रतिज्ञानुरोधेनाग्निः कालाभिमानिनी देवता एवं ज्योतिरपि कालाभिमानिनी देवतैव। अथवाग्निरदेवता ज्योतिर्ज्योतिर्देवतेति यथाश्रुते एव देवते। ननु यत्र काले तं कालं वक्ष्यामीति कथं युज्यते इति चेत् कालाभिमानिनीनां देवतानां मार्गद्वेयेऽपि भूयसां वक्तव्यत्वेन कालशब्देन सर्वासां देवतानामुपलक्ष्यत्वं विवक्षित्वा तथा निर्देशः। यथाऽन्येषां गन्तृ़णां सत्वेऽपि छत्रिणां भूयस्त्वे छत्रिणो यान्तीति निर्देशः। यथावा वृक्षान्तराणां सत्वेऽप्याम्राणां भूयस्त्वादम्रैरेव वनमिति निर्दिश्यते तद्वत्। एतेन कालाभिमानिदेवतापलक्षितं मार्गै वक्ष्यामि। कालशब्दस्य मुख्यार्थत्वेऽग्निज्योतिर्धूमशब्दानामनुपपत्तिः गतिसृतिशब्दयोश्चेति प्रत्युक्तम्। यतोऽत्र किं यस्मिन्मार्गे जनाः सुखेन गच्छन्ति तं मार्गे वक्ष्यामीति प्रतिज्ञाय यथा कश्चिदुपदिशति आदौ गिरिस्ततो न्यग्राधस्ततो नदीति तथा मार्गोपदेश उत यत्र सुखेन नगरं ग्रामं वा गच्छन्ति तं वक्ष्यामीति प्रतिज्ञाय कश्चिदुपदिशति आदौ वृषयानं ततोऽश्वयानं ततो नरयानं ततः पादयानमिति तद्वन्। आद्येआतिवाहाकास्तलिङ्गात्इत्यधिकरणविरोधः। द्वितीये उक्तरीत्याग्न्यादिशब्दानां सम्यगुपपत्त्या लक्षणावैयर्थ्य श्रुतावतिवाहिका इतिन्यायेनार्चिरादीनामतिवाहिकत्वस्थापनादप्यग्न्यादीनामतिवाहिकत्वेन ग्राह्यत्वावश्यकत्वेन तं कालं वक्ष्यामीति प्रतिज्ञावक्येऽपि कालाभिमानिन्यो देवता वक्ष्यामीत्यर्थस्यैव सभ्यवत्वं च। यथागमनाधिकरणए पृथिवीप्रदेशेऽस्मिन्मार्गे एते गच्छन्तीति व्यवहारस्तथा योगगमनाधिकारणरुपासु कालाभिमानिनीष्वग्नयादिषु देवतासु इति न वक्ष्यमाणगतिसृतिश्बदयोरनुपपत्तिः। यद्वा भाष्येऽपि कालशब्देन कालाभिमानिदेवतोपलक्षितं मार्गे वक्ष्यामीति व्याख्याय यथाकथंचिदविरोधः संपाद्यः। एतच्चान्यासामपि श्रुत्युक्तानां देवतानामुपलक्षणार्थम्। तथाच श्रुतिःतेऽर्चषमभिसंभवन्त्यर्चिषोहरह्न आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षात् यान् षडुदङ्डेति मासांस्तान्मासेभ्यः संवात्सरं संवत्सरादादित्यमादित्याच्चन्द्रमसं चन्द्रमसो विद्युतं तत्पुरुषो मानवः स एतान्ब्रह्म गमयत्येष ब्रह्मपथो देवपथ इमं मानवमावर्ते नावर्तन्ते इति। अत्र श्रुतावपि श्रुत्यन्तरानुसारेण संवत्सरोद्दवलोकं देवलोकाद्वायुं वायोरादित्यमिति विद्युतोऽनन्तरं च विद्युतो वरुणं वरुणाद्विन्द्रमिन्द्रात्प्रजापतिमिति बोध्यम्। तत्र तस्मिन्देवयाने प्रयाता मृता ब्रह्मविदः क्रमेण ब्रह्म गच्छन्ति। ब्रह्मविद इति ब्रह्मपासका ग्राह्या नतु सभ्यग्दर्शननिष्ठाः सद्योमुक्तिभाजः।न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति इत्यादिश्रुत्या तेषां गतिमागतिं च प्रतिषिध्य ब्रह्मसंलीनप्राणात्वब्रह्मभूतत्वप्रतिपादनात्। तथाच भगवतो व्यावस्य सूत्रम्कार्य वादरिरस्य गत्युपपत्तेः इत। स एतान्ब्रह्म गमयतीत्यत्र विचकित्स्यते किं कार्यमपरं ब्रह्म गमयति आहोस्वित्परमेवाऽविकृतं मुख्यं ब्रह्मेति। कुतः संशयः। ब्रह्मशब्दप्रयोगात् गतिश्रुतेश्च। तत्र कार्यमेव सगुणमपरं ब्रह्म नयत्येतानमानवः पुरुष इति बादरिराचार्यो मन्यते। कुतः गत्युपपत्तेरस्य हि कार्यस्य ब्रह्मणोन्तव्यत्वमुपपद्यते प्रदेशवत्त्वात् नतु परस्मिन्ब्रह्मणि गन्तृत्वं गन्तव्यत्वं गतिर्वावकल्पते सर्वगत्वात् प्रत्यगात्मत्वाच्च गन्तृ़णामिति।
8.24 अग्निः fire? ज्योतिः light? अहः day? शुक्लः the bright fortnight? षण्मासाः six months? उत्तरायणम् the northern path of the sun? तत्र there? प्रयाताः departed? गच्छन्ति go? ब्रह्म to Brahman? ब्रह्मविदः knowers of Brahman? जनाः people.Commentary This is the UttaraMarga or Devayana? the northern path or the path of light? by which the Yogis go to Brahman. This path leads to salvation. It takes the devotee to Brahmaloka. The six months of the northern solstice is from the middle of January to the middle of July. It is regarded as the better period for death. There is a vivid description in the Chhandogya Upanishad? the Kaushitaki Upanishad and the Brahma Sutras? chapter IV.3 and 4? ii. 18 and 21.On the road beginning with light (the departed soul proceeds)? on account of that being widely known.Having reached the path of the gods he comes to the world of Agni (fire)? to the world of Vayu (air)? to the world of Varuna (rain)? to the world of Indra (king of the gods)? to the world of Prajapati (the Creator)? to the world of Brahman.They go to the light? from the light to day? from day to the waxing half of the moon? from the waxing half of the moon to the six months when the sun goes to the north? from those months to the year? from the year to the sun.When the person goes away from this world he comes to Vayu (air). Then Vayu room for him like the hole of a wheel and through it he mounts higher. He comes to the sun.From the moon to the lightning there a person that is not human leads him to Brahman.Time is here used in the sense of the path or the stage on the path. Fire and light are the deities who preside over time. Daytime is the deity who presides over the day. The bright fortnight is the deity presiding over it. The six months of the northern solstice are the deity who presides over the northern path.This is the path of illumination that leads to liberation.The lifreaths of the liberated sages who have attained knowledge of the Self do not depart. They are absorbed in Brahman. The Jivanmuktas who attain KaivalyaMoksha or immediate,salvation or liberation have no place to go to or return from. They become one with the allpervading Brahman.Each step may mean a plane or a state of consciousness or the degree of purity or illumination. The more the purity the more the divine light. There are bright objects throughout the course of the path. There is illumination or knowledge when one passes along this path. Hence it is called the path of light.After Bhishma was mortally wounded? he lay on the bed of arrows till the onset of the northern solstice and then departed from here to the Abode of the Lord.
8.24 Fire, light daytime, the bright fortnight, the six months of the northern path of the sun (the northern solstice) departing then (by these) men who know Brahman go to Brahman.
8.24 If knowing the Supreme Spirit the sage goes forth with fire and light, in the daytime, in the fortnight of the waxing moon and in the six months before the Northern summer solstice, he will attain the Supreme.
8.24 Fire, light, daytime, the birght forrnight, the six months of the Northern solstice-by following this Path, persons who are knowers of Brahman attain Brahman when they die.
8.24 Agnih, fire-is a deity presiding over a period of time; similarly, jyotih, light-also is a deity presiding over a period of time. Or fire and light are the well-known Vedic deities. As the expression 'mango grove' is used with regard to a place where mango trees are more numerous, similarly, the expressions 'at which time' and 'that time' (in the earlier verse) are used in view of the predominance (of the deities presiding over time). [If the first two (fire and light) are taken as Vedic deities, then the remaining three are the only deities of time. Still, the latter being numerically greater, all the five deities are referred to as deities of time. The deities of both the Paths-of gods and manes, or of the Northern and the Southern Paths as they are called-who are gods of time, are referred to here as 'time' by such words as day, fortnight, six months, etc.] So also, ahah, daytime, means the deity of daytime. Suklah, the bright fortnight, implies the deity presiding over the bright fortnight. Sanmasah uttarayanam, the six months of the Northern solstice-here, too, is understood the deity presiding over the Path. This is the principle (of interpretation followed elsewhere (in the Upanisads also). Tatra, following this Path; janah, persons; who are brahma-vidah, knowers of Brahman, those engaged in meditation on (the alified) Brahman; gacchanti, attain; brahma, Brahman; prayatah, when they die. It is understood that they attain Brahman through stages. Indeed, according to the Upanisadic text, 'His vital forces do not depart' (Br. 4.4.46), there is neither going nor coming back for those established in full realization, who are fit for immediate Liberation. Having their organs merged in Brahman, they are suffused with Brahman, they are verily identified with Brahman.
8.24. The northern course [of the sun] consisting of six months, is fire, light, day and bright one. Departing in it, the Brahman-knowing men attain the Brahman .
8.24 See Comment under 8.25
8.23 - 8.24 Here, the term 'time' denotes a path, having many deities beginning with day and ending with year. The deities preside over divisions of time. The meaning is - I declare to you the path departing in which Yogins do not return and also the path departing in which the doers of good actions return. By the clause, 'Light in the form of fire, the day, bright fortnight, six months of the northern course,' year also is denoted.
8.24 Fire, light, daytime, the birght forrnight, the six months of the Northern solstice-by following this Path, persons who are knowers of Brahman attain Brahman when they die.
।।8.24।।यहाँ अग्नि कालाभिमानी देवताका वाचक है तथा ज्योति भी कालाभिमानी देवताका ही वाचक है अथवा अग्नि और ज्योति नामवाले दोनों प्रसिद्ध वैदिक देवता ही हैं। जिस वनमें आमके पेड़ अधिक होते हैं उसको जैसे आमका वन कहते हैं उसी प्रकार यहाँ कालाभिमानी देवताओंका वर्णन अधिक होनेसे यत्र काले तं कालम् इत्यादि कालवाचक शब्दोंका प्रयोग किया गया है। ( अभिप्राय यह कि जिस मार्गमें अग्निदेवता ज्योतिदेवता ) दिनका देवता शुक्लपक्षका देवता और उत्तरायणके छः महीनोंका देवता है उस मार्गमें ( अर्थात् उपर्युक्त देवताओंके अधिकारमें ) मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता यानी ब्रह्मकी उपासनामें तत्पर हुए पुरुष क्रमसे ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। यहाँ उत्तरायण मार्ग भी देवताका ही वाचक हैं क्योंकि अन्यत्र ( ब्रह्मसूत्रमें ) भी यही न्याय माना गया है। जो पूर्ण ज्ञाननिष्ठ सद्योमुक्ितके पात्र होते हैं उनका आनाजाना कहीं नहीं होता श्रुति भी कहती है उसके प्राण निकलकर कहीं नहीं जाते। वे तो ब्रह्मसंलीनप्राण अर्थात् ब्रह्ममय -- ब्रह्मरूप ही हैं।
।।8.24।। -- अग्निः कालाभिमानिनी देवता। तथा ज्योतिरपि देवतैव कालाभिमानिनी। अथवा अग्निज्योतिषी यथा श्रुते एव देवते। भूयसा तु निर्देशो यत्र काले (गीता 8।23) तं कालम् (गीता 8।23) इति आम्रवणवत्। तथा अहः देवता अहरभिमानिनी अहः शुक्लः शुक्लपक्षदेवता षण्मासा उत्तरायणम् तत्रापि देवतैव मार्गभूता इति स्थितः अन्यत्र अयं न्यायः। तत्र तस्मिन् मार्गे प्रयाताः मृताः गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो ब्रह्मोपासकाः ब्रह्मोपासनपरा जनाः। क्रमेण इति वाक्यशेषः। न हि सद्योमुक्तिभाजां सम्यग्दर्शननिष्ठानां गतिः आगतिर्वा क्वचित् अस्ति न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति इति श्रुतेः। ब्रह्मसंलीनप्राणा एव ते ब्रह्ममया ब्रह्मभूता एव ते।
।।8.24।।ज्योतिश्शब्दस्यानेकार्थत्वाद्विवक्षितमर्थमाह -- ज्योतिरिति। अभिसम्भवन्ति प्राप्नुवन्ति। श्रुतिपुराणयोरह्नः प्रागर्चिषः प्राप्तेरुक्तेस्तत्समाख्यानादित्यर्थः। प्रातीतिक एवार्थः किं न स्यात् कुतोऽभिमानिदेवताग्रहणम् इत्यत आह -- अभिमानीति। आदिशब्दसमर्थनेन सह समुच्चयार्थश्चशब्दः। अन्यथा मरणकालपरिग्रहे इति श्रुतिः। उपलक्षणमेतत्अहः शुक्लः इति गीताऽपि। अहोरात्रव्यतिरिक्तपक्षाभावादिति भावः। समाख्यानाच्चैवमित्याह -- दिवादीति। किञ्चषण्मासा उत्तरायणम्षण्मासा दक्षिणायनम् [8।25] इत्येदपि अभिमानिदेवतां गमयति। मांसातिरिक्तायनाभावादभिमानिनां तु पृथक्त्वेन पृथगुक्तिसम्भवादिति भावेनाह -- मासेति। अनेन षण्मासा एवायनमिति व्याख्यानं च निरस्तं भवति पुराणविरोधात्। अत्रानुक्तमपि किञ्चिदध्याहरति -- अहरिति। सहस्थितं यातीत्यप्यत्र द्रष्टव्यमिति भावः। एतदप्यभिमानिदेवतापरिग्रहसमर्थनार्थम्। प्राधान्यादेरविवक्षितत्वात् साह्नेत्युक्तम्। सपूर्णिमासपूर्णिमेनसुपां सुलुक् [अष्टा.7।1।39] इत्यादेः। विषुशब्दस्योवङ्यणादेशविकल्पछान्दसः।
।।8.24।।ज्योतिरर्चिः। तेऽर्चिषमभिसम्भवन्ति [बृ.उ.6।2।15] इति हि श्रुतिः। तथा च नारदीये -- अग्निं प्राप्य ततश्चार्चिस्ततश्चाप्यहरादिकम् इति। अभिमानिदेवताश्चाग्न्यादयः। कथमन्यथाअह्न आपूर्यमाणपक्षं [छा.उ.5।1।1] इति युज्यते।दिवादेदेवताभिस्तु पूजितो ब्रह्म याति हि इति ब्राह्मे। मासाभिमानिभ्यो अयनाभिमानी च पृथक्। तच्चोक्तं गारुडे -- पूजितस्त्वयनेनासौ मासाः परिवृतेन हि इति। अहरभिजिता शुक्लं पौर्णमास्यायनं विषुवा सह तच्चोक्तं ब्रह्मवैवर्ते -- साह्ना मध्यन्दिनेनाथ शुक्लेन च सपूर्णिमा। सविष्वा चायनेनासौ पूजितः केशवं व्रजेत्। इति।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्। तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।8.24।।
অগ্নির্জ্যোতিরহঃ শুক্লঃ ষণ্মাসা উত্তরাযণম্৷ তত্র প্রযাতা গচ্ছন্তি ব্রহ্ম ব্রহ্মবিদো জনাঃ৷৷8.24৷৷
অগ্নির্জ্যোতিরহঃ শুক্লঃ ষণ্মাসা উত্তরাযণম্৷ তত্র প্রযাতা গচ্ছন্তি ব্রহ্ম ব্রহ্মবিদো জনাঃ৷৷8.24৷৷
અગ્નિર્જ્યોતિરહઃ શુક્લઃ ષણ્માસા ઉત્તરાયણમ્। તત્ર પ્રયાતા ગચ્છન્તિ બ્રહ્મ બ્રહ્મવિદો જનાઃ।।8.24।।
ਅਗ੍ਨਿਰ੍ਜ੍ਯੋਤਿਰਹ ਸ਼ੁਕ੍ਲ ਸ਼ਣ੍ਮਾਸਾ ਉਤ੍ਤਰਾਯਣਮ੍। ਤਤ੍ਰ ਪ੍ਰਯਾਤਾ ਗਚ੍ਛਨ੍ਤਿ ਬ੍ਰਹ੍ਮ ਬ੍ਰਹ੍ਮਵਿਦੋ ਜਨਾ।।8.24।।
ಅಗ್ನಿರ್ಜ್ಯೋತಿರಹಃ ಶುಕ್ಲಃ ಷಣ್ಮಾಸಾ ಉತ್ತರಾಯಣಮ್. ತತ್ರ ಪ್ರಯಾತಾ ಗಚ್ಛನ್ತಿ ಬ್ರಹ್ಮ ಬ್ರಹ್ಮವಿದೋ ಜನಾಃ৷৷8.24৷৷
അഗ്നിര്ജ്യോതിരഹഃ ശുക്ലഃ ഷണ്മാസാ ഉത്തരായണമ്. തത്ര പ്രയാതാ ഗച്ഛന്തി ബ്രഹ്മ ബ്രഹ്മവിദോ ജനാഃ৷৷8.24৷৷
ଅଗ୍ନିର୍ଜ୍ଯୋତିରହଃ ଶୁକ୍ଲଃ ଷଣ୍ମାସା ଉତ୍ତରାଯଣମ୍| ତତ୍ର ପ୍ରଯାତା ଗଚ୍ଛନ୍ତି ବ୍ରହ୍ମ ବ୍ରହ୍ମବିଦୋ ଜନାଃ||8.24||
agnirjyōtirahaḥ śuklaḥ ṣaṇmāsā uttarāyaṇam. tatra prayātā gacchanti brahma brahmavidō janāḥ৷৷8.24৷৷
அக்நிர்ஜ்யோதிரஹஃ ஷுக்லஃ ஷண்மாஸா உத்தராயணம். தத்ர ப்ரயாதா கச்சந்தி ப்ரஹ்ம ப்ரஹ்மவிதோ ஜநாஃ৷৷8.24৷৷
అగ్నిర్జ్యోతిరహః శుక్లః షణ్మాసా ఉత్తరాయణమ్. తత్ర ప్రయాతా గచ్ఛన్తి బ్రహ్మ బ్రహ్మవిదో జనాః৷৷8.24৷৷
8.25
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।।8.25।। जिस मार्गमें धूमका अधिपति देवता, रात्रिका अधिपति देवता, कृष्णपक्षका अधिपति देवता और छः महीनोंवाले दक्षिणायनका अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्गसे गया हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त होता है।
।।8.25।। धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के छः मास वाले मार्ग से चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त कर, योगी (संसार को) लौटता है।।
।।8.25।। पुनरावृत्ति के मार्ग को पितृयाण (पितरों का मार्ग) कहते हैं। इसका अधिष्ठाता देवता है चन्द्रमा जो जड़ पदार्थ जगत् का प्रतीक है। जो लोग उपासनारहित पुण्य कर्मों को जिनमें समाज सेवा तथा यज्ञयागादि कर्म सम्मिलित हैं करते हैं वे मरणोपरान्त पितृलोक को प्राप्त होते हैं जिसे प्रचलित भाषा में स्वर्ग कहते हैं। पुण्यकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त इस स्वर्गलोक में विषयोपभोग करने पर जब पुण्यकर्म क्षीण हो जाते हैं तब इन स्वर्ग के निवासियों को अपनी अवशिष्ट वासनाओं के अनुसार उचित शरीर को धारण करने के लिए पुनः संसार में आना पड़ता है। उस देह में ही उनकी वासनाएं व्यक्त एवं तृप्त हो सकती हैं।धूम रात्रि कृष्णपक्ष और दक्षिणायन ये सब पितृलोक प्राप्ति का मार्ग बताने वाले हैं।चन्द्रमा जड़ पदार्थ का प्रतीक और विषयोपभोग का अधिष्ठाता है। उसके अनुग्रह से कुछ काल तक स्वर्ग सुख भोगने के पश्चात् जीव को पुनः र्मत्यलोक में आना पड़ता है।संक्षेप में इन दो श्लोकों में यह बताया गया है कि निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील साधक परम लक्ष्य को प्राप्त होता है और भोग की कामना करने वाला पुरुष भोग के पश्चात् पुनः शरीर को धारण करता है जहाँ वह चाहे तो अपना उत्थान अथवा पतन कर सकता है।विषय का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं --
।।8.25।। व्याख्या--'धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः ৷৷. प्राप्य निवर्तते'--देश और कालकी दृष्टिसे जितना अधिकार अग्नि अर्थात् प्रकाशके देवताका है, उतना ही अधिकार धूम अर्थात् अन्धकारके देवताका है। वह धूमाधिपति देवता कृष्णमार्गसे जानेवाले जीवोंको अपनी सीमासे पार कराकर रात्रिके अधिपति देवताके अधीन कर देता है। रात्रिका अधिपति देवता उस जीवको अपनी सीमासे पार कराकर देश-कालको लेकर बहुत दूरतक अधिकार रखनेवाले कृष्णपक्षके अधिपति देवताके अधीन कर देता है। वह देवता उस जीवको अपनी सीमासे पार कराकर देश और कालकी दृष्टिसे बहुत दूरतक अधिकार रखनेवाले दक्षिणायनके अधिपति देवताके समर्पित कर देता है। वह देवता उस जीवको चन्द्रलोकके अधिपति देवताको सौंप देता है। इस प्रकार कृष्णमार्गसे जानेवाला वह जीव धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायनके देशको पार करता हुआ चन्द्रमाकी ज्योतिको अर्थात् जहाँ अमृतका पान होता है, ऐसे स्वर्गादि दिव्य लोकोंको प्राप्त हो जाता है। फिर अपने पुण्योंके अनुसार न्यूनाधिक समयतक वहाँ रहकर अर्थात् भोग भोगकर पीछे लौट आता है।यहाँ एक ध्यान देनेकी बात है कि यह जो चन्द्रमण्डल दीखता है, यह चन्द्रलोक नहीं है। कारण कि यह चन्द्रमण्डल तो पृथ्वीके बहुत नजदीक है, जब कि चन्द्रलोक सूर्यसे भी बहुत ऊँचा है। उसी चन्द्रलोकसे अमृत इस चन्द्रमण्डलमें आता है, जिससे शुक्लपक्षमें ओषधियाँ पुष्ट होती हैं।अब एक समझनेकी बात है कि यहाँ जिस कृष्णमार्गका वर्णन है, वह शुक्लमार्गकी अपेक्षा कृष्णमार्ग है। वास्तवमें तो यह मार्ग ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें जानेका है। सामान्य मनुष्य मरकर मृत्युलोकमें जन्म लेते हैं, जो पापी होते हैं, वे आसुरी योनियोंमें जाते हैं और उनसे भी जो अधिक पापी होते हैं, वे नरकके कुण्डोंमें जाते हैं -- इन सब मनुष्योंसे कृष्णमार्गसे जानेवाले बहुत श्रेष्ठ हैं। वे चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होते हैं -- ऐसा कहनेका यही तात्पर्य है कि संसारमें जन्ममरणके जितने मार्ग हैं उन सब मार्गोंसे यह कृष्णमार्ग (ऊर्ध्वगतिका होनेसे) श्रेष्ठ है और उनकी अपेक्षा प्रकाशमय है।कृष्णमार्गसे लौटते समय वह जीव पहले आकाशमें आता है। फिर वायुके अधीन होकर बादलोंमें आता है और बादलोंमेंसे वर्षाके द्वारा भूमण्डलपर आकर अन्नमें प्रवेश करता है। फिर कर्मानुसार प्राप्त होनेवाली योनिके पुरुषोंमें अन्नके द्वारा प्रवेश करता है और पुरुषसे स्त्री-जातिमें जाकर शरीर धारण करके जन्म लेता है। इस प्रकार वह जन्म-मरणके चक्करमें पड़ जाता है।यहाँ सकाम मनुष्योंको भी 'योगी' क्यों कहा गया है? इसके अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे --,(1) गीतामें भगवान्ने मरनेवाले प्राणियोंकी तीन गतियाँ बतायी हैं -- ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति (गीता 14। 18)। इनमेंसे ऊर्ध्वगतिका वर्णन इस प्रकरणमें हुआ है। मध्यगति और अधोगतिसे ऊर्ध्वगति श्रेष्ठ होनेके कारण यहाँ सकाम मनुष्योंको भी योगी कहा गया है।,(2) जो केवल भोग भोगनेके लिये ही ऊँचे लोकोंमें जाता है, उसने संयमपूर्वक इस लोकके भोगोंका त्याग किया है। इस त्यागसे उसकी यहाँके भोगोंके मिलने और न मिलनेमें समता हो गयी है। इस आंशिक समताको लेकर ही उसको यहाँ योगी कहा गया है। (3) जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका है, पर अन्तकालमें किसी सूक्ष्म भोग-वासनाके कारण वे योगसे,विचलितमना हो जाते हैं, तो वे ब्रह्मलोक आदि ऊँचे लोकोंमें जाते हैं और वहाँ बहुत समयतक रहकर पीछे यहाँ भूमण्डलपर आकर शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेते हैं। ऐसे योगभ्रष्ट मनुष्योंका भी जानेका यही मार्ग (कृष्णमार्ग) होनेसे यहाँ सकाम मनुष्यको भी योगी कह दिया है।भगवान्ने पीछेके (चौबीसवें) श्लोकमें ब्रह्मको प्राप्त होनेवालोंके लिये 'ब्रह्मविदो जनाः' कहकर बहुवचनका प्रयोग किया है और यहाँ चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होनेवालोंके लिये 'योगी' कहकर एकवचनका प्रयोग किया है। इससे ऐसा अनुमान होता है कि सभी मनुष्य परमात्माकी प्राप्तिके अधिकारी हैं, और परमात्माकी प्राप्ति सुगम है। कारण कि परमात्मा सबको स्वतः प्राप्त हैं। स्वतःप्राप्त तत्त्वका अनुभव बड़ा सुगम है। इसमें करना कुछ नहीं पड़ता। इसलिये बहुवचनका प्रयोग किया गया है। परन्तु स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये विशेष क्रिया करनी पड़ती है, पदार्थोंका संग्रह करना पड़ता है, विधि-विधानका पालन करना पड़ता है। इस प्रकार स्वर्गादिको प्राप्त करनेमें भी कठिनता है तथा प्राप्त करनेके बाद पीछे लौटकर भी आना पड़ता है। इसलिये यहाँ एकवचन दिया गया है। विशेष बात (1) जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका है; परन्तु सुखभोगकी सूक्ष्म वासना सर्वथा नहीं मिटी है, वे शरीर छोड़कर ब्रह्मलोकमें जाते हैं। ब्रह्मलोकके भोग भोगनेपर उनकी वह वासना मिट जाती है तो वे मुक्त हो जाते हैं। इनका वर्णन यहाँ चौबीसवें श्लोकमें हुआ है।        जिनका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका ही है और जिनमें न यहाँके भोगोंकी वासना है तथा न ब्रह्मलोकके भोगोंकी; परन्तु जो अन्तकालमें निर्गुणके ध्यानसे विचलित हो गये हैं, वे ब्रह्मलोक आदि लोकोंमें नहीं जाते। वे तो सीधे ही योगियोंके कुलमें जन्म लेते हैं अर्थात् जहाँ पूर्वजन्मकृत ध्यानरूप साधन ठीक तरहसे हो सके, ऐसे योगियोंके कुलमें उनका जन्म होता है। वहाँ वे साधन करके मुक्त हो जाते हैं (गीता 6। 42 43)।
।।8.24 -- 8.25।।अग्निरिति। धूमेति। उत्तरेण ऊर्ध्वेन अयनं षाण्मासिकम्। तच्च प्रकाशादिधर्मकत्वात् दहनादिकैः शब्दैरुपचर्यते। अतो विपरीतं विपर्ययेण। तत्र चन्द्रमसो भोग्यांशानुप्रवेशात् भोगायावृत्तिः।
।।8.25।।एतत् च धूमादिमार्गस्थपितृलोकादेः प्रदर्शनम्। अत्र योगिशब्द पुण्यकर्मसम्बन्धिविषयः।
।।8.25।।प्रकृतं देवयानं पन्थानं स्तोतुं पितृयाणमुपन्यस्यति -- धूम इति। अत्रापि मार्गचिह्नानि भोगभूमीश्च व्यवच्छिद्यातिवाहिकदेवताविषयत्वं धूमादिपदानां विभजते -- धूमेत्यादिना। तत्रेति सप्तमी पूर्ववदेव सामीप्यार्था इष्टादीत्यादिशब्देन पूर्तदत्ते गृह्येते। कृतात्ययेऽनुशयवानिति न्यायं सूचयति -- तत्क्षयादिति।
।।8.25।।आवृत्तिमार्गमाह सकामाग्निहोत्रिणाम्। रात्रौ कृष्णे दक्षिणायने मृतः। धूम इत्यादि धूममार्गपितृलोकादेः प्रदर्शनम्। अत्रापि श्रुतिः -- ते धूममभिसंवशिन्ति इत्यादिः तेन भगवदर्पणात्मककर्मरूपनिवृत्त्या सात्विक्या भगवदुपासनातः क्रममुक्तिः सात्विकी। काम्यकर्मभिः पुनर्भवहेतुभिश्चन्द्रलोकं प्राप्य सुखभोगानन्तरमावृत्ती राजसी। निषिद्धकर्मभिस्तु नरकभोगानन्तरमावृत्तिस्तामसी। क्षुद्रकर्मणां तु जन्तूनामत्रैव पुनः पुनर्जन्मवतामुत्क्रान्तिगत्या गतय इत्यवगन्तव्यम्।
।।8.25।।देवयानमार्गस्तुत्यर्थं पितृयाणमार्गमाह -- अत्रापि धूम इति धूमाभिमानिनी देवता रात्रिरिति रात्र्यभिमानिनी कृष्ण,इति कृष्णपक्षाभिमानिनी षण्मासा दक्षिणायमिति दक्षिणायनाभिमानिनी लक्ष्यते। एतदप्यन्यासां श्रुत्युक्तानामुपलक्षणम्। तथाहि श्रुतिःते धूमममिसंभवन्ति धूमाद्रात्रिं रात्रेपरपक्षमपरक्षाद्यान्षड्दक्षिणैति मासांस्तान्नैते संवत्सरमभिप्राप्नुवन्ति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकादाकाशमाकाशाच्चन्द्रमसमेष सोमो राजा तद्देवानामन्नं तं देवा भक्षयन्ति तस्मिन्यावत्संपातमुषित्वाथैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्तन्ते इति। तत्र धूमरात्रिकृष्णपक्षदक्षिणायनदेवता इहोक्ताः। पितृलोक आकाशश्चन्द्रमा इत्यनुक्ता अपि द्रष्टव्याः। तत्र तस्मिन्पथि प्रयाताश्चान्द्रमसं ज्योतिः फलं योगी कर्मयोगीष्टापूर्तदत्तकारी प्राप्य यावत्संपातमुषित्वा निवर्तते। संपतत्यनेनेति संपातः कर्म। तस्मादेतस्मादावृत्तिमार्गादनावृत्तिमार्गः श्रेयानित्यर्थः।
।।8.25।।आवृत्तिमार्गमाह -- धूम इति। धूमाभिमानिनी देवता। रात्र्यादिशब्दैश्च पूर्ववदेव रात्रिकृष्णपक्षदक्षिणायनरूपषण्मासाभिमानिन्यस्तिस्रो देवता उपलक्ष्यन्ते। एताभिर्देवताभिरुपलक्षितो मार्गस्तत्र प्रयातः कर्मयोगी चान्द्रमसं ज्योतिस्तदुपलक्षितं स्वर्गलोकं प्राप्य तत्रेष्टापूर्तकर्मफलं भुक्त्धा पुनरावर्तते। अत्रापि श्रुतिःते धूममभिसंभवन्ति धूमाद्रात्रिं रात्रेपरपक्षमपरपक्षाद्यान्षण्मासान्दक्षिणादित्य एति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाच्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति इत्यादिः। तदेवं निवृत्तिकर्मसहितोपासनया क्रममुक्तिः काम्यकर्मभिश्च स्वर्गभोगानन्तरमावृत्तिः निषिद्धकर्मभिस्तु नरकभोगानन्तरमावृत्तिः क्षुद्रकर्मणां जन्तूनां त्वत्रैव पुनः पुनर्जन्मेति द्रष्टव्यम्।
।।8.25।।पितृलोकादेरित्यादिशब्देन आकाशचन्द्रग्रहणम्। योगिनो धूमादिमार्गः पुनरावृत्तिश्च कथमुच्यते इत्यत्राहअत्र योगिशब्द इति। अत्र योगशब्द उपायमात्रवाची यद्वा सम्बन्धमात्रवाची धूमादिसामर्थ्यात्तु पुण्यकर्मस्वरूपसम्बन्धिविशेषसिद्धिरिति भावः। अथ य इमे ग्राम इष्टापूर्ते दत्तमित्युपासते ते धूममभिसम्भवन्ति [छां.उ.5।10।13] इत्यादिका श्रुतिरत्रोपबृंहिता।
।।8.25।।आवृत्तिकालरूपमाह -- धूम इति। धूमस्तापरूपाग्न्यात्मकप्रतिबन्धरूपः रात्रिर्निशा कृष्णः पक्षः एवं षण्मासा दक्षिणायनम्। तत्र योगी सकामः प्रयातः सन् चान्द्रमसं स्वर्गादिसुखं शीतलात्मकं प्राप्य सुखभोगं कृत्वा निवर्तते पुनर्जन्म प्राप्नोतीत्यर्थः।
।।8.25।।एतेन च धूमो रात्रिरित्येषोऽपि धूमादिमार्गः कर्मिणामपक्वयोगिनां चोचित आवृत्तिफलश्च व्याख्यातः।
।।8.25।।देवयानस्तुतये पितृयाणमुपन्यस्यति -- धूम इति। धूमादिशब्दैस्तत्तदभिमानिन्यो देवता आतिवाहिकाः पूर्ववद्वह्याः नतु मार्गचिन्हानि भोगभूमयो वा। तत्र प्रयाता इत विभक्तिं विपरिणभ्यानुषज्जते। तस्मिन्मार्गे मृत इत्यर्थः। योगी इष्टापूर्तदत्तकारी कर्मयोगी चन्द्रमसि चन्द्रे भवं चान्द्रमसं ज्योतिः फलं प्राप्त भुक्त्वा तत्क्षयात्पुनर्निवर्तते। एतदप्यन्यासां श्रुत्युक्तानामुपलणार्थम्। तथाच श्रुतिःते धूमभिसंभवन्ति धूमादात्रिं रात्रेपरपक्षमपरपक्षाद्यान्षड्दक्षिणैति मासांस्तानेते संवत्सरमभिप्राप्नुवन्ति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकादाकाशं आकाशाच्चन्द्रमसमेष सोमो राजा तद्देवानामन्नं तं देवा भक्षयन्ति तस्मिन्यावत्संपातमुषित्वाथैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्तते इति। तथाच पुनःपुनरावृत्तिलक्षणदस्मान्मार्गात्पूर्वोक्तोऽपुनरावृत्तिलक्षणो मार्गो ज्यायानित्यभिप्रायः।
8.25 धूमः smoke? रात्रिः night? तथा also? कृष्णः the dark (fortnight)? षण्मासाः the six months? दक्षिणायनम् the southern path of the sun? तत्र there? चान्द्रमसम् lunar? ज्योतिः light? योगी the Yogi? प्राप्य having attained? निवर्तते returns.Commentary This is the Pitriyana or the path of darkness or the path of the ancestors which leads to rirth. Those who do sacrifices to the gods and other charitable works with expectation of reward go to the Chandraloka through this path and come back to this world when the fruits of the Karmas are exhausted.Smoke? night time? the dark fortnight and the six months of the southern solstice are all deities who preside over them. They may denote the degree of ignorance? attachment and passion. There are smoke and darkcoloured objects throughout the course. There is no illumination when one passes along this path. It is reached by ignorance. Hence it is called the path of darkness or smoke.
8.25 Attaining to the lunar light by smoke, night time, the dark fortnight also, the six months of the southern path of the sun (the southern solstice), the Yogi returns.
8.25 But if he departs in gloom, at night, during the fortnight of the waning moon and in the six months before the Southern solstice, then he reaches but lunar light and he will be born again.
8.25 Smoke, night, as also the dark fortnight and the six months of the Southern solstice-following this Path the yogi having reached the lunar light, returns.
8.25 Dhuman, smoke; and ratrih night, are the deities presiding over smoke and night. Similarly, krsnah, the dark fornight, means the deity of the dark fortnight. Just as before, by sanmasah daksinayanam the six months of the Southern solstice, also is verily meant a deity. Tatra, following this Path; yogi, the yogi who performs sacrifices etc., the man of actions; prapya, having reached; candramasam jyotih, the lunar light-having enjoyed the results (of his actions); nivartate, returns, on their exhaustion.
8.25. The southern course [of the sun], consisting of six months, is smoke, night, and also dark. [Departing] in it, the Yogin attains the moon's light and he returns.
8.24-25 Agnih etc. Dhumah etc. Northern : upper (or upward). Course : the one taken [by the sun] during the period of six months. This course, on account of its illuminating nature, is figuratively described by the words denoting fire etc., and the course, contrary to this, by opposite terms. This course is intercepted with the lunar parts of enjoyment. Hence [it leads to] the return for enjoyment.
8.25 This denotes the world of the manes etc., described by the term 'starting with smoke.' Here the term Yogin connotes one associated with good actions.
8.25 Smoke, night, as also the dark fortnight and the six months of the Southern solstice-following this Path the yogi having reached the lunar light, returns.
।।8.25।।जिस मार्गमें धूम और रात्रि है अर्थात् धूमाभिमानी और रात्रिअभिमानी देवता हैं तथा कृष्णपक्ष अर्थात् कृष्णपक्षका देवता है एवं दक्षिणायनके छः महीने हैं अर्थात् पूर्ववत् दक्षिणायन मार्गाभिमानी देवता है उस मार्गमें ( उन उपर्युक्त देवताओंके अधिकारमें मरकर ) गया हुआ योगी अर्थात् इष्टपूर्त आदि कर्म करनेवाला कर्मी चन्द्रमाकी ज्योतिको अर्थात् कर्मफलको प्राप्त होकर -- भोगकर उस कर्मफलका क्षय होनेपर लौट आता है।
।।8.25।। --,धूमो रात्रिः धूमाभिमानिनी रात्र्यभिमानिनी च देवता। तथा कृष्णः कृष्णपक्षदेवता। षण्मासा दक्षिणायनम् इति च पूर्ववत् देवतैव। तत्र चन्द्रमसि भवं चान्द्रमसं ज्योतिः फलम् इष्टादिकारी योगी कर्मी प्राप्य भुक्त्वा तत्क्षयात् इह पुनः निवर्तते।।
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धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्। तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।8.25।।
ধূমো রাত্রিস্তথা কৃষ্ণঃ ষণ্মাসা দক্ষিণাযনম্৷ তত্র চান্দ্রমসং জ্যোতির্যোগী প্রাপ্য নিবর্ততে৷৷8.25৷৷
ধূমো রাত্রিস্তথা কৃষ্ণঃ ষণ্মাসা দক্ষিণাযনম্৷ তত্র চান্দ্রমসং জ্যোতির্যোগী প্রাপ্য নিবর্ততে৷৷8.25৷৷
ધૂમો રાત્રિસ્તથા કૃષ્ણઃ ષણ્માસા દક્ષિણાયનમ્। તત્ર ચાન્દ્રમસં જ્યોતિર્યોગી પ્રાપ્ય નિવર્તતે।।8.25।।
ਧੂਮੋ ਰਾਤ੍ਰਿਸ੍ਤਥਾ ਕਰਿਸ਼੍ਣ ਸ਼ਣ੍ਮਾਸਾ ਦਕ੍ਸ਼ਿਣਾਯਨਮ੍। ਤਤ੍ਰ ਚਾਨ੍ਦ੍ਰਮਸਂ ਜ੍ਯੋਤਿਰ੍ਯੋਗੀ ਪ੍ਰਾਪ੍ਯ ਨਿਵਰ੍ਤਤੇ।।8.25।।
ಧೂಮೋ ರಾತ್ರಿಸ್ತಥಾ ಕೃಷ್ಣಃ ಷಣ್ಮಾಸಾ ದಕ್ಷಿಣಾಯನಮ್. ತತ್ರ ಚಾನ್ದ್ರಮಸಂ ಜ್ಯೋತಿರ್ಯೋಗೀ ಪ್ರಾಪ್ಯ ನಿವರ್ತತೇ৷৷8.25৷৷
ധൂമോ രാത്രിസ്തഥാ കൃഷ്ണഃ ഷണ്മാസാ ദക്ഷിണായനമ്. തത്ര ചാന്ദ്രമസം ജ്യോതിര്യോഗീ പ്രാപ്യ നിവര്തതേ৷৷8.25৷৷
ଧୂମୋ ରାତ୍ରିସ୍ତଥା କୃଷ୍ଣଃ ଷଣ୍ମାସା ଦକ୍ଷିଣାଯନମ୍| ତତ୍ର ଚାନ୍ଦ୍ରମସଂ ଜ୍ଯୋତିର୍ଯୋଗୀ ପ୍ରାପ୍ଯ ନିବର୍ତତେ||8.25||
dhūmō rātristathā kṛṣṇaḥ ṣaṇmāsā dakṣiṇāyanam. tatra cāndramasaṅ jyōtiryōgī prāpya nivartatē৷৷8.25৷৷
தூமோ ராத்ரிஸ்ததா கரிஷ்ணஃ ஷண்மாஸா தக்ஷிணாயநம். தத்ர சாந்த்ரமஸஂ ஜ்யோதிர்யோகீ ப்ராப்ய நிவர்ததே৷৷8.25৷৷
ధూమో రాత్రిస్తథా కృష్ణః షణ్మాసా దక్షిణాయనమ్. తత్ర చాన్ద్రమసం జ్యోతిర్యోగీ ప్రాప్య నివర్తతే৷৷8.25৷৷
8.26
8
26
।।8.26।। क्योंकि शुक्ल और कृष्ण -- ये दोनों गतियाँ अनादिकालसे जगत्-(प्राणिमात्र-) के साथ सम्बन्ध रखनेवाली मानी गई हैं। इनमेंसे एक गतिमें जानेवालेको लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गतिमें जानेवालेको लौटना पड़ता है।
।।8.26।। जगत् के ये दो प्रकार के शुक्ल और कृष्ण मार्ग सनातन माने गये हैं । इनमें एक (शुक्ल) के द्वारा (साधक) अपुनरावृत्ति को तथा अन्य (कृष्ण) के द्वारा पुनरावृत्ति को प्राप्त होता है।।
।।8.26।। पूर्वोक्त देवयान और पितृयान को ही यहाँ क्रमशः शुक्लगति और कृष्णगति कहा गया है। लक्ष्य के स्वरूप के अनुसार यह उनका पुनर्नामकरण किया गया है। प्रथम मार्ग साधक को उत्थान के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचाता है तो अन्य मार्ग परिणामस्वरूप पतन की गर्त में ले जाता है। इन्हीं दो मार्गों को क्रमशः मोक्ष का मार्ग और संसार का मार्ग माना जा सकता है।मानव की प्रत्येक पीढ़ी में जीवन जीने के दो मार्ग या प्रकार होते हैं भौतिक और आध्यात्मिक। भौतिकवादियों के अनुसार मानव की आवश्यकताएं केवल भोजन वस्त्र और गृह हैं। उनके मतानुसार जीवन का परम पुरुषार्थ वैषयिक सुखोपभोग के द्वारा शरीर और मन की उत्तेजनाओं को सन्तुष्ट करना ही है। केवल इतने से ही उनको सन्तोष हो जाता है। इससे उच्चतर तथा दिव्य आदर्श के प्रति न कोई उनकी रुचि होती है और न प्रवृत्ति। परन्तु अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले विवेकीजन अपने समक्ष आकर्षक विषयों को देखकर लुब्ध नहीं हो जाते। उनकी बुद्धि अग्निशिखा के समान सदा उर्ध्वगामी होती है जो सतही जीवन में उच्च और श्रेष्ठ लक्ष्य की खोज में रमण करती है।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये दोनों ही मार्ग सनातन हैं और अनादिकाल से इन पर चलने वाले दो भिन्न प्रवृत्तियों के लोग रहे हैं। व्यापक अर्थ की दृष्टि से इन दोनों का सम्मिलित रूप ही संसार है। परन्तु वेदान्त का सिद्धांत है कि जीव संसार दुःख से निवृत्त हो सकता है। यह ऋषियों का प्रत्यक्ष अनुभव है।एक साधक की दृष्टि से विचार करने पर इस श्लोक में सफल योगी बनने के लिए दिये गये निर्देश का बोध हो सकता है। कभीकभी साधना काल में मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण साधक विषयों की ओर आकर्षित होकर उनमें आसक्त हो जाता है। ऐसे क्षणों में न हमें स्वयं को धिक्कारने की आवश्यकता है और न आश्चर्य मुग्ध होने की। भगवान् स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य के मन में उच्च जीवन की महत्वाकांक्षा और निम्न जीवन के प्रति आकर्षण इन दोनों विरोधी प्रवृत्तियों में अनादि काल से कशिश चल रही है। धैर्य से काम लेने पर निम्न प्रवृत्तियों पर हम विजय प्राप्त कर सकते हैं।इन दो मार्गों तथा उनके सनातन स्वरूप को जानने का निश्चित फल क्या है
।।8.26।। व्याख्या--'शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते'--शुक्ल और कृष्ण--इन दोनों मार्गोंका सम्बन्ध जगत्के सभी चर-अचर प्राणियोंके साथ है। तात्पर्य है कि ऊर्ध्वगतिके साथ मनुष्यका तो साक्षात् सम्बन्ध है और चर-अचर प्राणियोंका परम्परासे सम्बन्ध है। कारण कि चर-अचर प्राणी क्रमसे अथवा भगवत्कृपासे कभी-न-कभी मनुष्य-जन्ममें आते ही हैं और मनुष्यजन्ममें किये हुए कर्मोंके अनुसार ही ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति होती है। अब वे ऊर्ध्वगतिको प्राप्त करें अथवा न करें, पर उन सबका सम्बन्ध ऊर्ध्वगति अर्थात् शुक्ल और कृष्ण-गतिके साथ है ही।जबतक मनुष्योंके भीतर असत् (विनाशी) वस्तुओंका आदर है, कामना है, तबतक वे कितनी ही ऊँची भोग-भूमियोंमें क्यों न चले जायँ, पर असत् वस्तुका महत्त्व रहनेसे उनकी कभी भी अधोगति हो सकती है। इसी तरह परमात्माके अंश होनेसे उनकी कभी भी ऊर्ध्वगति हो सकती है। इसलिये साधकको हरदम सजग रहना चाहिये और अपने अन्तःकरणमें विनाशी वस्तुओंको महत्त्व नहीं देना चाहिये। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मप्राप्तिके लिये किसी भी लोकमें, योनिमें कोई बाधा नहीं है। इसका कारण यह है कि परमात्माके साथ किसी भी प्राणीका कभी सम्बन्ध-विच्छेद होता ही नहीं। अतः न जाने कब और किस योनिमें वह परमात्माकी तरफ चल दे-- इस दृष्टिसे साधकको किसी भी प्राणीको घृणाकी दृष्टिसे देखनेका अधिकार नहीं है।चौथे अध्यायके पहले श्लोकमें भगवान्ने 'योग' को अव्यय कहा है। जैसे योग अव्यय है, ऐसे ही ये शुक्ल और कृष्ण -- दोनों गतियाँ भी अव्यय, शाश्वत हैं अर्थात् ये दोनों गतियाँ निरन्तर रहनेवाली हैं, अनादिकालसे हैं और जगत्के लिये अनन्तकालतक चलती रहेंगी।
।।8.26।।शुक्लकृष्णे इति। अनयोर्गर्त्योर्मध्यादाद्यया अनावृत्ितः मोक्षः अन्यया भोगः।
।।8.26।।शुक्ला गतिः अर्चिरादिका कृष्णा च धूमादिका। शुक्लया अनावृत्तिं यान्ति कृष्णया तु पुनः आवर्तन्ते। एते शुक्लकृष्णे गती ज्ञानिनां विविधानां पुण्यकर्मणां च श्रुतौ शाश्वते मते।तद्य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये श्रद्धां तप इत्युपासते तेऽर्चिषमभिसंभवन्ति। (छा0 उ0 5।10।1)अथ य इमे ग्रामे इष्टापूर्ते दत्तमित्युपासते ते धूममभिसम्भवन्ति (छा0 उ0 5।10।3) इति।
।।8.26।।आरोहावरोहयोरभ्यासवाचिना पुनःशब्देन संसारस्यानादित्वं सूच्यते। रात्र्यादौ मृतानां ब्रह्मविदामब्रह्मप्राप्तिशङ्कानिवृत्त्यर्थमभिमानिदेवताग्रहणाय मार्गयोर्नित्यत्वमाह -- शुक्लेति।,ज्ञानप्रकाशकत्वाद्विद्याप्राप्यत्वादर्चिरादिप्रकाशोपलक्षितत्वाच्च शुक्ला देवयानाख्या गतिस्तदभावाज्ज्ञानप्रकाशकत्वाभावाद्धूमाद्यप्रकाशोपलक्षितत्वादविद्याप्राप्यत्वाच्च कृष्णा पितृयाणलक्षणा गतिस्तयोर्गत्योः श्रुतिस्मृतिप्रसिद्ध्यर्थो हिशब्दः। जगच्छब्दस्य ज्ञानकर्माधिकृतविषयत्वेन संकोचे हेतुमाह -- न जगत इति। अन्यथा ज्ञानकर्मोपदेशानर्थक्यादित्यर्थः। तयोर्नित्यत्वे हेतुमाह -- संसारस्येति। मार्गयोर्यावत्संसारभावित्वे फलितमाह -- तत्रेति। क्रममुक्तिरनावृत्तिः। भूयो भोक्तव्यकर्मक्षये शेषकर्मवशादित्यर्थः।
।।8.26।।उक्तं मार्गद्वयमुपसंहरति -- शुक्लकृष्णे इति। शुक्लाऽर्चिरादिगतिः कृष्णा च धूमादिगतिः। उभयोः प्रकाशतमोमयत्वाद्भेदः।
।।8.26।।उक्तौ मार्गावुपसंहरति -- शुक्ला अर्चिरादिगतिर्ज्ञानप्रकाशमयत्वात्। कृष्णा धूमादिगतिर्ज्ञानहीनत्वेन तमोमयत्वात्। ते एते शुक्लकृष्णे गती मार्गौ हि प्रसिद्धे सगुणविद्याकर्माधिकारिणोः जगतः सर्वस्यापि शास्त्रज्ञस्य शाश्वते अनादी मते संसारस्यानादि त्वात्। तयोरेकया शुक्लया यात्यनावृत्तिं कश्चित् अन्यया कृष्णया पुनरावर्तते सर्वोऽपि।
।।8.26।। उक्तौ मार्गावुपसंहरति -- शुक्लेति। शुक्लाऽर्चिरादिगतिः प्रकाशमयत्वात् कृष्णा धूमादिगतिस्तमोमयत्वात्। एते गती मार्गौ ज्ञानकर्माधिकारिणो जगतः शाश्वतेऽनादी संमते संसारस्यानादित्वात्। तयोरेकया शुक्लया निवृत्तिं मोक्षं याति। अन्यथा कृष्णया तु पुनरावर्तते।
।।8.26।।उक्तमार्गद्वये श्रुतिप्रसिद्धिः प्रदर्श्यते -- शुक्लकृष्णे इति श्लोकेन। अत्र शुक्लपक्षकृष्णपक्षान्वयाद्वा शुद्ध्यशुद्धिविवक्षया वा अभिमन्तृस्वरूपस्याभिमन्तव्ये आरोपादेर्वा गत्योः शुक्लकृष्णशब्दोपचारः। अत्राधिकृतवर्गद्वयविषयजगच्छब्दाभिप्रेतप्रदर्शनंज्ञानिनां विविधानां पुण्यकर्मणां चेति। इष्टापूर्ते,दत्तमित्युपासते इत्युक्ततत्तत्कर्मनिष्ठभेदानिप्रायेण विविधशब्दः। हिशब्देन श्रुतिप्रसिद्धिर्द्योतितेतिश्रुतावित्युक्तम्। शाश्वतत्वं प्रवाहरूपेणानाद्यनन्तत्वं व्यवस्थितत्वम्।
।।8.26।।एवं कालस्वरूपद्वयमुक्त्वोपसंहरति -- शुक्ल इति। शुक्लकृष्णे पूर्वोक्ता शुक्ला इतरा कृष्णा एते गती ज्ञानप्रकाशकगमनात्मके जगतस्तत्तदधिकारिणः शाश्वते सनातने अनादी मते मन्मत इत्यर्थः। एकया पूर्वोक्तया अनावृत्तिं याति अन्यया कृष्णया पुनः वर्तते आवर्त्तते। अनेन प्रकारेण गमनादिना स्वरूपमत्रैव ज्ञेयमित्यर्थः।
।।8.26।।उक्तौ मार्गावुपसंहरति -- शुक्लेति। शुक्ला ज्ञानहेतुत्वादर्चिरादिगतिः तदभावात्कृष्णा धूमादिगतिः। एकया शुक्लया। अन्यया कृष्णया।
।।8.26।।शुक्ला ज्ञानप्रकाशहेतुत्वात्तदभावात्कृष्णा। एते शुक्लकृष्णे गती मार्गो जगतः उपासनायां कर्मणि चाधिकृतस्य,शाश्वते नित्ये अनादिरुपे मते अभिप्रेते संसारस्यानादित्वात्। तत्रैकया शुक्लया गत्या अनावृत्तिं याति अन्यया कृष्णया गत्या पुनर्भूयः आवर्तते।
8.26 शुक्लकृष्णे bright and dark? गती (two) paths? हि verily? एते these? जगतः of the world? शाश्वते eternal? मते are thought? एकया by one? याति (he) goes? अनावृत्तिम् to nonreturn? अन्यया by another? आवर्तते (he) returns? पुनः again.Commentary The bright path is the path to the gods taken by the devotees. The dark path is of the manes taken by those who perform sacrifices or charitable acts with the expectation of rewards. These two paths are not open to the whole world. The bright path is open to the devotees and the dark one to those who are devoted to the rituals. These paths are as eternal as the Samsara.World here means devotees or people devoted to ritual.Pitriloka or Chandraloka is Svarga or heaven.
8.26 The bright and the dark paths of the world are verily thought to be eternal; by the one (the bright path) a man goes not to return and by the other (the dark path) he returns.
8.26 These bright and dark paths out of the world have always existed. Whoso takes the former, returns not; he who chooses the latter, returns.*
8.26 These two courses of the world, which are white and black, are verily considered eternal. By the one a man goes to the State of Non-return; by the other he returns again.
8.26 Ete, these two; gati, courses; jagatah, of the world; which are sukla-krsne, white and black [The Northern Path (the path of the Gods), and the Southern Path (the Path of the Manes) respectively.]-white because it is a revealer of Knowlege, and black because there is absence of that (revelation); are hi, verily; mate, considered; sasvate, eternal, because the world is eternal. These two courses are possible for those who are alified for Knowledge and for rites and duties; not for everybody. This being so, ekaya, by the one, by the white one; yati, a man goes; anavrttim, to the State of Non-return; anyaya, by the other; avartate, he returns; punah, again.
8.26. For, these two bright and dark courses are considered to be perpetual for the world. One attains the non-return by the first of these, and one returns back by the other one.
8.26 Sukla-krsne etc. By the first of these two courses the non-return i.e., the liberation is attained, and by the other, the enjoyment [of the mundane life].
8.26 The bright path is characterised by the terms 'starting with light.' The dark path is characterised by the 'terms starting with smoke.' By the bright path a man goes to the plane of no-return, but he who goes by the dark path returns again. In the Sruti both the bright and dark paths are said to be eternal in relation to Jnanis and doers of good actions of many kinds. This is corroborated in the text: 'Those who know this and those who worship with faith do Tapas in the forest etc., they go to the light' (Cha. U., 5.10.1), and 'But those who in the village perform Vedic and secular acts of a meritorious nature and the giving of alms - they pass to the smoke' (ibid., 5.10.3).
8.26 These two courses of the world, which are white and black, are verily considered eternal. By the one a man goes to the State of Non-return; by the other he returns again.
।।8.26।।शुक्ल और कृष्ण -- ये दो मार्ग अर्थात् जिसमें ज्ञानका प्रकाश है -- वह शुक्ल और जिसमें उसका अभाव है वह कृष्ण -- ऐसे ये दोनों मार्ग जगत्के लिये नित्य -- सदासे माने गये हैं क्योंकि जगत् नित्य है। यहाँ जगत्शब्दसे जो ज्ञानी और कर्मी उपर्युक्त गतिके अधिकारी हैं उन्हींको समझना चाहिये क्योंकि सारे संसारके लिये यह गति सम्भव नहीं है। उन दोनों मार्गोंमेंसे एक -- शुक्लमार्गसे गया हुआ तो फिर लौटता नहीं है और दूसरे मार्गसे गया हुआ लौट आता है।
।।8.26।। --,शुक्लकृष्णे शुक्ला च कृष्णा च शुक्लकृष्णे ज्ञानप्रकाशकत्वात् शुक्ला तदभावात् कृष्णा एते शुक्लकृष्णे हि गती जगतः इति अधिकृतानां ज्ञानकर्मणोः न जगतः सर्वस्यैव एते गती संभवतः शाश्वते नित्ये संसारस्य नित्यत्वात् मते अभिप्रेते। तत्र एकया शुक्लया याति अनावृत्तिम् अन्यया इतरया आवर्तते पुनः भूयः।।
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शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते। एकया यात्यनावृत्तिमन्ययाऽऽवर्तते पुनः।।8.26।।
শুক্লকৃষ্ণে গতী হ্যেতে জগতঃ শাশ্বতে মতে৷ একযা যাত্যনাবৃত্তিমন্যযাবর্ততে পুনঃ৷৷8.26৷৷
শুক্লকৃষ্ণে গতী হ্যেতে জগতঃ শাশ্বতে মতে৷ একযা যাত্যনাবৃত্তিমন্যযাবর্ততে পুনঃ৷৷8.26৷৷
શુક્લકૃષ્ણે ગતી હ્યેતે જગતઃ શાશ્વતે મતે। એકયા યાત્યનાવૃત્તિમન્યયાવર્તતે પુનઃ।।8.26।।
ਸ਼ੁਕ੍ਲਕਰਿਸ਼੍ਣੇ ਗਤੀ ਹ੍ਯੇਤੇ ਜਗਤ ਸ਼ਾਸ਼੍ਵਤੇ ਮਤੇ। ਏਕਯਾ ਯਾਤ੍ਯਨਾਵਰਿਤ੍ਤਿਮਨ੍ਯਯਾਵਰ੍ਤਤੇ ਪੁਨ।।8.26।।
ಶುಕ್ಲಕೃಷ್ಣೇ ಗತೀ ಹ್ಯೇತೇ ಜಗತಃ ಶಾಶ್ವತೇ ಮತೇ. ಏಕಯಾ ಯಾತ್ಯನಾವೃತ್ತಿಮನ್ಯಯಾವರ್ತತೇ ಪುನಃ৷৷8.26৷৷
ശുക്ലകൃഷ്ണേ ഗതീ ഹ്യേതേ ജഗതഃ ശാശ്വതേ മതേ. ഏകയാ യാത്യനാവൃത്തിമന്യയാവര്തതേ പുനഃ৷৷8.26৷৷
ଶୁକ୍ଲକୃଷ୍ଣେ ଗତୀ ହ୍ଯେତେ ଜଗତଃ ଶାଶ୍ବତେ ମତେ| ଏକଯା ଯାତ୍ଯନାବୃତ୍ତିମନ୍ଯଯାବର୍ତତେ ପୁନଃ||8.26||
śuklakṛṣṇē gatī hyētē jagataḥ śāśvatē matē. ēkayā yātyanāvṛttimanyayā৷৷vartatē punaḥ৷৷8.26৷৷
ஷுக்லகரிஷ்ணே கதீ ஹ்யேதே ஜகதஃ ஷாஷ்வதே மதே. ஏகயா யாத்யநாவரித்திமந்யயாவர்ததே புநஃ৷৷8.26৷৷
శుక్లకృష్ణే గతీ హ్యేతే జగతః శాశ్వతే మతే. ఏకయా యాత్యనావృత్తిమన్యయావర్తతే పునః৷৷8.26৷৷
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।।8.27।। हे पृथानन्दन  ! इन दोनों मार्गोंको जाननेवाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अतः हे अर्जुन ! तू सब समयमें योगयुक्त हो जा।
।।8.27।। हे पार्थ इन दो मार्गों को (तत्त्व से) जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। इसलिए, हे अर्जुन ! तुम सब काल में योगयुक्त बनो।।
।।8.27।। शुक्लगति और कृष्णगति इन दोनों के ज्ञान का फल यह है कि इनका ज्ञाता योगी पुरुष कभी मोहित नहीं होता है मन में उठने वाली निम्न स्तर की प्रवृत्तियों के कारण धैर्य खोकर वह कभी निराश नहीं होता।भगवान् श्रीकृष्ण ने अब तक पुनरावृत्ति और अपुनरावृत्ति के मार्गों का वर्णन किया और अब इस श्लोक में वे ज्ञान और उसके फल को संग्रहीत करके कहते हैं कि इसलिए हे अर्जुन तुम सब काल में योगी बनो। जिसने अनात्मा से तादात्म्य हटाकर मन को आत्मस्वरूप में एकाग्र करना सीखा हो वह पुरुष योगी है।संक्षेप में इस सम्पूर्ण अध्याय के माध्यम से भगवान् द्वारा अर्जुन को उपदेश दिया गया है कि उसको जगत् में कार्य करते हुए भी सदा अक्षर पुरुष के साथ अनन्य भाव से तादात्म्य स्थापित कर आत्मज्ञान में स्थिर होने का प्रयत्न करना चाहिए।अन्त में इस योग का महात्म्य बताते हुए भगवान् कहते हैं --
।।8.27।। व्याख्या--'नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन'--शुक्लमार्ग प्रकाशमय है और कृष्णमार्ग अन्धकारमय है। जिनके अन्तःकरणमें उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व नहीं है और जिनके उद्देश्य, ध्येयमें प्रकाशस्वरूप (ज्ञानस्वरूप) परमात्मा ही हैं, ऐसे वे परमात्माकी तरफ चलनेवाले साधक शुक्लमार्गी हैं अर्थात् उनका मार्ग प्रकाशमय है। जो संसारमें रचे-पचे हैं और जिनका सांसारिक पदार्थोंका संग्रह करना और उनसे सुख भोगना ही ध्येय होता है, ऐसे मनुष्य तो घोर अन्धकारमें हैं ही पर जो भोग भोगनेके उद्देश्यसे यहाँके भोगोंसे संयम करके यज्ञ, तप, दान आदि शास्त्रविहित शुभ कर्म करते हैं और मरनेके बाद स्वर्गादि ऊँची भोग-भूमियोंमें जाते हैं, वे यद्यपि यहाँके भोगोंमें आसक्त मनुष्योंसे ऊँचे उठे हुए हैं, तो भी आने-जानेवाले (जन्म-मरणके) मार्गमें होनेसे वे भी अन्धकारमें ही हैं। तात्पर्य है कि कृष्णमार्गवाले ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें जानेपर भी जन्म-मरणके चक्करमें पड़े रहते हैं। कहीं जन्म गये तो मरना बाकी रहता है और मर गये तो जन्मना बाकी रहता है --ऐसे जन्म-मरणके चक्करमें पड़े हुए वे कोल्हूके बैलकी तरह अनन्तकालतक घूमते ही रहते हैं।-- इस तरह शुक्ल और कृष्ण दोनों मार्गोंके परिणामको जाननेवाला मनुष्य योगी अर्थात् निष्काम हो जाता है, भोगी नहीं। कारण कि वह यहाँके और परलोकके भोगोंसे ऊँचा उठ जाता है। इसलिये वह मोहित नहीं होता।सांसारिक भोगोंके प्राप्त होनेमें और प्राप्त न होनेमें जिसका उद्देश्य निर्विकार रहनेका ही होता है, वह योगी कहलाता है।
।।8.27।।नैते इति। एते सृति यो वैत्ति आभ्यन्तरेण क्रमेण योगाभ्यासस्वीकृतेनेत्यर्थः। एतच्च वितत्य प्रकाश्यमानं ग्रन्थं विस्तारयतीत्यलम्। तस्मादिति -- सर्वे ये काला आभ्यन्तराः (N अभ्यन्तराः) तद्विषयं योगमभ्यस्येः (K अभ्यसेत्)। अस्मद्गुरवस्तु आहुः -- सर्वानुग्राहकतया मध्ये आभ्यन्तरकालकृतमुत्क्रान्तिभेदमभिधाय (S omits आभ्यन्तर -- ) प्रकृतमेव बाह्यकालविषयं (S omits बाह्यकालविषयं) मुख्यं (N मुख्यप्रमेयं) प्रमेयमुपसंहृतम् तस्मात्सर्वेषु कालेषु इत्यादिना।
।।8.27।।एतौ मार्गौ जानन् योगी प्रयाणकाले कश्चन न मुह्यति अपि तु स्वेन एव देवयानेन पथा याति। तस्माद् अहरहः अर्चिरादिगतिचिन्तनाख्ययोगयुक्तो भव।अथ अध्यायद्वयोदितशास्त्रार्थवेदनफलम् आह --
।।8.27।।गतेरुपास्यत्वाय तद्विज्ञानं स्तौति -- नैते इति। योगस्य मोहापोहकत्वे फलितमाह -- तस्मादिति। ज्ञानप्रकारमनुवदति -- संसारायेति। मोक्षाय क्रममुक्त्यर्थमित्यर्थः। योगी ध्याननिष्ठो गतिमपि ध्यायन्नैव मुह्यति केवलं कर्म दक्षिणमार्गप्रापकं कर्तव्यत्वेन प्रत्येतीत्यर्थः। योगस्यापुनरावृत्तिफलत्वे नित्यकर्तव्यत्वं सिद्धमित्युपसंहरति -- तस्मादिति।
।।8.27।।मार्गज्ञानफलं दर्शयन् योगे उक्तरूपे निवेशयति -- नैत इति। योगी कश्चन न मुह्यति तस्मात्किंबहुना त्वं सर्वेषु कालेषु योगी भव न प्राणप्रयाणकाल एव योगस्य सर्वदापेक्षणादिति भावः।
।।8.27।।गतेरुपास्यत्वाय तद्विज्ञानं स्तौति -- एते सृती मार्गौ हे पार्थ जानन् क्रममोक्षायैका पुनः संसारायापरेति निश्चिन्वन् योगी ध्याननिष्ठो न मुह्यति। केवलं कर्म धूमादिमार्गप्रापकं कर्तव्यत्वेन न प्रत्येति कश्चन कश्चिदपि। तस्माद्योगस्यापुनरावृत्तिफलत्वात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तः समाहितचित्तो भवापुनरावृत्तये हे अर्जुन।
।।8.27।। मार्गज्ञानफलं दर्शयन् भक्तियोगमुपसंहरति -- नैते इति। एते सृती मार्गौ हे पार्थ मोक्षसंसारप्रापकौ जानन्कश्चिदपि योगी न मुह्यति। सुखबुद्ध्या स्वर्गादिफलं न कामयते किंतु परमेश्वरनिष्ठ एव भवतीत्यर्थः। स्पष्टमन्यत्।
।।8.27।।नैती सृती इति श्लोकेन यद्यपि मार्गचिन्तनमप्युपासनवत्परमपुरुषप्रीत्यर्थमेव तथापि मार्गज्ञानं हि गन्तुरव्याकुलगमनार्थमिति लोके सिद्धम् अत्रापि तथोपकारः सम्भवन्न परित्याज्यः तत्प्रसादादेव हि तत्सिद्धिरपीत्यभिप्रायेणाहएताविति।कश्चनेति कश्चिदपीत्यर्थः।न मुह्यतितत्प्रकाशितद्वारः [ब्र.सू.4।2।17] इत्यादिप्रकारेण स्पष्टमार्गो भवतीत्यर्थः। मार्गद्वयज्ञानं हेयमार्गप्रहाणार्थमित्यभिप्रायेणाहअपित्विति। गतिज्ञानस्य फलमुपदिश्य तस्मादिति हेतुतया परामृश्य साक्षाद्योगविधानस्यासङ्गतत्वाद्योगशब्दोऽत्र ध्यानमात्रविषयः। तच्च ध्यानं प्रस्तुतगतिचिन्तनरूपमेव भवितुमर्हतीत्यभिप्रायेणाह -- तस्मादिति।
।।8.27।।एतज्ज्ञानफलं वदन्नुपसंहरति -- नैते इति। एते सृती मार्गौ हे पार्थ मद्भक्त जानन् कश्चन योगी मत्सम्बन्धियोगं विना केवलयोगी भूत्वा न मुह्यति न मोहं प्राप्नोति। सकामो भूत्वा केवलयोगाद्यासक्तो न भवतीत्यर्थः। यत एतज्ज्ञानिनो मोहो न भवति तस्मात् मदुक्तज्ञानयुक्तः सर्वत्र मोहरहितः सर्वेषु कालेषु लौकिकालौकिकेषु पूर्वोक्तेषु वा अर्जुन मोक्षजातीयनामयुक्त योगयुक्तो मद्योगयुक्तो भवेत्यर्थः।
।।8.27।।एते सृती मार्गौ आवृत्त्यनावृत्तिफले जानन् योगी न मुह्यति। योगभ्रष्टोऽयतिरल्पप्रयत्नश्च योगी न भवति कश्चन कोऽपि। यस्मादेवं तस्मात्सर्वेष्वित्यादि स्पष्टम्।
।।8.27।।एते सृती मार्गौ जानन् पुनरावृत्तिलक्षणसंसारायैका अपुनरावृत्तिलक्षणमोक्षायान्येति निश्चयवान्योगी ध्यानयोगी कश्चिदपि न मुह्यति। तस्मात्त्वमपि गतिद्वयं ज्ञात्वा मोहरहितः सर्वेषु कालेषु योगयुक्तः समाहितो भव। हे अर्जुन पूर्वार्धे पार्थेति संबोधनस्य मार्गद्वयज्ञाता योगाभ्यासेन क्रमेण मुच्यते नतु मातुर्गर्भे पुनरायातीत्यभिप्रायः। उत्तरार्धेऽर्जुनेति संबोधनस्य तु सर्वेषु कालेषु समाधानेनैव स्वस्वरुपं शुद्धं परं ब्रह्मावाप्स्यसीति।
8.27 न not? एते these? सृती two paths? पार्थ O Partha? जानन् knowing? योगी the Yogi? मुह्यति is deluded? कश्चन anyone? तस्मात् therefore? सर्वेषु in all? कालेषु times? योगयुक्तः steadfast in Yoga? भव (be) thou? अर्जुन O Arjuna.Commentary Knowing the nature of the two paths and the conseences they lead to? a Yogi never loses his discrimination. The Yogi who knows that the path of the gods or the path of light leads to Moksha (gradual liberation)? and the path of darkness to Samsara or the world or region of birth and death? is no longer deluded. Knowledge of these two paths serves as a compass or a beaconlight to guide the Yogis steps at every moment. He strives to stick to the path of light.
8.27 Knowing these paths, O Arjuna, no Yogi is deluded; therefore at all times be steadfast in Yoga.
8.27 O Arjuna! The saint knowing these paths is not confused. Therefore meditate perpetually.
8.27 O son of Prtha, no yogi [One steadfast in meditation.) whosoever has known these two courses becomes deluded. Therefore, O Arjuna, be you steadfast in yoga at all times.
8.27 O son of Prtha, na kascana yogi, no yogi whosoever; janan, has known; ete srti, these two courses as described-that one leads to worldly life, and the other to Liberation; muhyati, becomes deluded. Tasmat, therefore; O Arjuna, bhava, be you; yoga-yuktah, steadfast in Yoga; sarvesu kalesu, at all times. Here about the greatness of that yoga:
8.27. O son of Prtha, not a single Yogin, knowing these two courses, gets deluded. Therefore, O Arjuna, be practising Yoga connected with all times.
8.27 Naite etc. The idea here is this : [That Yogin does not get deluded] who knows these two courses by adopting 'the internal method' , approved by the [school of] Yoga practice. This point, if explained in detain, would lengthen our treatise. Hence let us stop here. Therefore etc. Whatsoever are the [units of] time that are internal let one practise the Yoga that is concerned with them all. Our preceptors have however said as : So far the peculiarity in the passing away [of the Yogins], as indicated by the internal times, has been described, in the middle of the discourse, for the benefit of one and all. Having done this, now the chief topic, under consideration, regarding the external units of times, is being wound up by the words 'Therefore, concerned with all times etc.'
8.27 Having known these two paths, no Yogin is deluded. On the contrary, he goes by the path of gods, his own path. Therefore, be integrated every day with Yoga called meditation on the path described by the terms starting with light. Next Sri Krsna speaks of the fruit of knowing the import of the Sastras, as taught in the two chapters 7 and 8.
8.27 O son of Prtha, no yogi [One steadfast in meditation.) whosoever has known these two courses becomes deluded. Therefore, O Arjuna, be you steadfast in yoga at all times.
।।8.27।।हे पार्थ इन उपर्युक्त दोनों मार्गोंको इस प्रकार जाननेवाला कि एक पुनर्जन्मरूप संसारको देनेवाला है और दूसरा मोक्षका कारण है कोई भी योगी मोहित नहीं होता। इसलिये हे अर्जुन तू सब समय योगयुक्त हो अर्थात् समाधिस्थ हो।
।।8.27।। --,न एते यथोक्ते सृती मार्गौ पार्थ जानन् संसाराय एका अन्या मोक्षाय इति योगी न मुह्यति कश्चन कश्चिदपि। तस्मात् सर्वेषु कालेषु योगयुक्तः समाहितो भव अर्जुन।।शृणु तस्य योगस्य माहात्म्यम् --,
।।8.27।।नैते सृती पार्थ इति मार्गज्ञानमात्रेण मोहाभावोऽभिधीयत इति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- एते इति। अनुष्ठायोपायमिति शेषः। कुत एतत् योगीत्युक्तत्वात् पुराणसंवादाच्चेत्याह -- तच्चेति। मोहो भगवद्विस्मृतिरूपः। अन्या भगवत्प्राप्तेः। भाष्ये पुराणे चानुष्ठायेत्याकारस्थाने क्वचिदीकारो लेखकदोषेण पतितः। मूलपुस्तकेष्वदर्शनात्।
।।8.27।।एते सृती सोपाये ज्ञात्वाऽनुष्ठाय न मुह्यति। तच्चाह स्कान्दे -- सृती ज्ञात्वा च सोपाये अनुष्ठाय च साधनम्। न कश्चिन्मोहमाप्नोति न चान्या तत्र वै गतिः इति।
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन। तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।8.27।।
নৈতে সৃতী পার্থ জানন্যোগী মুহ্যতি কশ্চন৷ তস্মাত্সর্বেষু কালেষু যোগযুক্তো ভবার্জুন৷৷8.27৷৷
নৈতে সৃতী পার্থ জানন্যোগী মুহ্যতি কশ্চন৷ তস্মাত্সর্বেষু কালেষু যোগযুক্তো ভবার্জুন৷৷8.27৷৷
નૈતે સૃતી પાર્થ જાનન્યોગી મુહ્યતિ કશ્ચન। તસ્માત્સર્વેષુ કાલેષુ યોગયુક્તો ભવાર્જુન।।8.27।।
ਨੈਤੇ ਸਰਿਤੀ ਪਾਰ੍ਥ ਜਾਨਨ੍ਯੋਗੀ ਮੁਹ੍ਯਤਿ ਕਸ਼੍ਚਨ। ਤਸ੍ਮਾਤ੍ਸਰ੍ਵੇਸ਼ੁ ਕਾਲੇਸ਼ੁ ਯੋਗਯੁਕ੍ਤੋ ਭਵਾਰ੍ਜੁਨ।।8.27।।
ನೈತೇ ಸೃತೀ ಪಾರ್ಥ ಜಾನನ್ಯೋಗೀ ಮುಹ್ಯತಿ ಕಶ್ಚನ. ತಸ್ಮಾತ್ಸರ್ವೇಷು ಕಾಲೇಷು ಯೋಗಯುಕ್ತೋ ಭವಾರ್ಜುನ৷৷8.27৷৷
നൈതേ സൃതീ പാര്ഥ ജാനന്യോഗീ മുഹ്യതി കശ്ചന. തസ്മാത്സര്വേഷു കാലേഷു യോഗയുക്തോ ഭവാര്ജുന৷৷8.27৷৷
ନୈତେ ସୃତୀ ପାର୍ଥ ଜାନନ୍ଯୋଗୀ ମୁହ୍ଯତି କଶ୍ଚନ| ତସ୍ମାତ୍ସର୍ବେଷୁ କାଲେଷୁ ଯୋଗଯୁକ୍ତୋ ଭବାର୍ଜୁନ||8.27||
naitē sṛtī pārtha jānanyōgī muhyati kaścana. tasmātsarvēṣu kālēṣu yōgayuktō bhavārjuna৷৷8.27৷৷
நைதே ஸரிதீ பார்த ஜாநந்யோகீ முஹ்யதி கஷ்சந. தஸ்மாத்ஸர்வேஷு காலேஷு யோகயுக்தோ பவார்ஜுந৷৷8.27৷৷
నైతే సృతీ పార్థ జానన్యోగీ ముహ్యతి కశ్చన. తస్మాత్సర్వేషు కాలేషు యోగయుక్తో భవార్జున৷৷8.27৷৷
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।।8.28।। योगी इसको (शुक्ल और कृष्णमार्गके रहस्यको) जानकर वेदोंमें, यज्ञोंमें, तपोंमें तथा दानमें जो-जो पुण्यफल कहे गये हैं, उन सभी पुण्यफलोंका अतिक्रमण कर जाता है और आदिस्थान परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
।।8.28।। योगी पुरुष यह सब (दोनों मार्गों के तत्त्व को) जानकर वेदाध्ययन, यज्ञ, तप और दान करने में जो पुण्य फल कहा गया है, उस सबका उल्लंघन कर जाता है और आद्य (सनातन), परम स्थान को प्राप्त होता है।।
।।8.28।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण इस पर बल देते हैं कि जिस पुरुष में कुछ मात्रा में भी योग्यता है उसको ध्यान का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि शास्त्रों में वेदाध्ययन यज्ञ तप और दान को करने में जो पुण्य फल कहा गया है उस फल को योगी प्राप्त करता है। इतना ही नहीं भगवान् विशेष रूप से बल देकर कहते हैं कि योगी उन फलों का उल्लंघन कर जाता है अर्थात् सर्वोच्च फल को प्राप्त होता है। ध्यानाभ्यास द्वारा व्यक्तित्व का संगठन उपर्युक्त यज्ञादि साधनों की अपेक्षा लक्षगुना अधिक सरलता एवं शीघ्रता से हो सकता है किन्तु यहाँ यह मानकर चलते हैं कि ध्यान के साधक में आवश्यक मात्रा में विवेक और वैराग्य दोनों ही हैं। सतत नियमपूर्वक ध्यान करने से इनका भी विकास हो सकता है।इस प्रकार जब योगी ध्यान साधना से निष्काम कर्म एवं उपासना का फल प्राप्त करता है और ध्यान की निरन्तरता बनाये रखता है तो वह सफलता के उच्चतर शिखर की ओर अग्रसर होता हुआ अन्त में इस आद्य अक्षर पुरुष स्वरूप मेरे परम धाम को प्राप्त होकर पुनः संसार को नहीं लौटता।conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षरब्रह्मयोगो नाम अष्टमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का अक्षरब्रह्मयोग नामक आठवां अध्याय समाप्त होता है।अक्षरब्रह्मयोग का अर्थ है अक्षरब्रह्म की प्राप्ति का मार्ग । इस अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन द्वारा किये गये प्रश्नों का उत्तर देने के पश्चात् अपनी दिव्य प्रेरणा से प्रेरित होकर भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रयाणकाल में परम पुरुष का स्मरण करने वालों को अनन्त की प्राप्ति कैसे होती है इसका वर्णन किया है और अर्जुन को ईश्वर स्मरण करते हुए जीवनसंघर्षों की चुनौतियों का कुशलता से सामना करने का उपदेश दिया है।
।।8.28।। व्याख्या--'वेदेषु यज्ञेषु तपःसु ৷৷. स्थानमुपैति चाद्यम्'--यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने भी शास्त्रीय उत्तम-से-उत्तम कार्य हैं और उनका जो फल है, वह विनाशी ही होता है। कारण कि जब उत्तम-से-उत्तम कार्यका भी आरम्भ और समाप्ति होती है, तो फिर उस कार्यसे उत्पन्न होनेवाला फल अविनाशी कैसे हो सकता है? वह फल चाहे इस लोकका हो, चाहे स्वर्गादि भोग-भूमियोंका हो, उसकी नश्वरतामें किञ्चिन्मात्र भी फरक नहीं है। जीव स्वयं परमात्माका अविनाशी अंश होकर भी विनाशी पदार्थोंमें फँसा रहे, तो इसमें उसकी अज्ञता ही मुख्य है। अतः जो मनुष्य तेईसवें श्लोकसे लेकर छब्बीसवें श्लोकतक वर्णित शुक्ल और कृष्णमार्गके रहस्यको समझ लेता है, वह यज्ञ, तप, दान आदि सभी पुण्यफलोंका अतिक्रमण कर जाता है। कारण कि वह यह समझ लेता है कि भोग-भूमियोंकी भी आखिरी हद जो ब्रह्मलोक है, वहाँ जानेपर भी लौटकर पीछे आना पड़ता है; परन्तु भगवान्को प्राप्त होनेपर लौटकर नहीं आना पड़ता (8। 16); और साथ-साथ यह भी समझ लेता है कि मैं तो साक्षात् परमात्माका अंश हूँ तथा ये प्राकृत पदार्थ नित्य-निरन्तर अभावमें, नाशमें जा रहे हैं, तो फिर वह नाशवान् पदार्थोंमें, भोगोंमें न फँसकर भगवान्के ही आश्रित हो जाता है। इसलिये वह आदिस्थान (टिप्पणी प0 480) परमात्माको प्राप्त हो जाता है, जिसको इसी अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें 'परमगति' और 'परमधाम' नामसे कहा गया है।नाशवान् पदार्थोंके संग्रह और भोगोंमें आसक्त हुआ मनुष्य उस आदिस्थान परमात्मतत्त्वको नहीं जान सकता। न जाननेकी यह असामर्थ्य न तो भगवान्की दी हुई है, न प्रकृतिसे पैदा हुई है और न किसी कर्मका फल ही है अर्थात् यह असामर्थ्य किसीकी देन नहीं है; किन्तु स्वयं जीवने ही परमात्मतत्त्वसे विमुख होकर इसको पैदा किया है। इसलिये यह स्वयं ही इसको मिटा सकता है। कारण कि अपने द्वारा की हुई भूलको स्वयं ही मिटा सकता है और इसको मिटानेका दायित्व भी स्वयंपर ही है। इस भूलको मिटानेमें यह जीव असमर्थ नहीं है, निर्बल नहीं है, अपात्र नहीं है। केवल संयोगजन्य सुखकी लोलुपताके कारण यह अपनेमें असामर्थ्यका आरोप कर लेता है और इसीसे मनुष्यजन्मके महान् लाभसे वञ्चित रह जाता है। अतः मनुष्यको संयोगजन्य सुखकी लोलुपताका त्याग करके मनुष्यजन्मको सार्थक बनानेके लिये नित्य-निरन्तर उद्यत रहना चाहिये।छठे अध्यायके अन्तमें भगवान्ने पहले योगीकी महिमा कही और पीछे अर्जुनको योगी हो जानेकी आज्ञा दी (6। 46); और यहाँ भगवान्ने पहले अर्जुनको योगी होनेकी आज्ञा दी और पीछे योगीकी महिमा कही। इसका तात्पर्य है कि छठे अध्यायमें योगभ्रष्टका प्रसङ्ग है, और उसके विषयमें अर्जुनके मनमें सन्देह था कि वह कहीं नष्ट-भ्रष्ट तो नहीं हो जाता? इस शङ्काको दूर करनेके लिये भगवान्ने कहा कि 'कोई किसी तरहसे योगमें लग जाय तो उसका पतन नहीं होता। इतना ही नहीं, इस योगका जिज्ञासुमात्र भी शब्दब्रह्मका अतिक्रमण कर जाता है।' इसलिये योगीकी महिमा पहले कही और पीछे अर्जुनके लिये योगी होनेकी आज्ञा दी। परन्तु यहाँ अर्जुनका प्रश्न रहा कि नियतात्मा पुरुषोंके द्वारा आप कैसे जाननेमें आते हैं? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान्ने कहा कि 'जो सांसारिक पदार्थोंसे सर्वथा विमुख होकर केवल मेरे परायण होता है, उस योगीके लिये मैं सुलभ हूँ', इसलिये पहले 'तू योगी हो जा' ऐसी आज्ञा दी और पीछे योगीकी महिमा कही।
।।8.28।।वेदेष्विति। अत्येति अभिभवति सर्वकर्मसंस्काराणां भगवत्स्मृत्या विफलीकरणात्। सर्वकर्मपरिक्षये च असौ सुखेनैव विन्दति परं शिवमिति।
।।8.28।।ऋग्यजुःसामाथर्वरूपवेदाभ्यासयज्ञतपोदानप्रभृतिषु सर्वेषु पुण्येषु यत् फलं निर्दिष्टम् इदम् अध्यायद्वयोदितं भगवन्माहात्म्यं विदित्वा तत् सर्वम् अत्येति एतद्वेदनसुखातिरेकेण तत् सर्वं तृणवत् मन्यते। योगी ज्ञानी च भूत्वा ज्ञानिनः प्राप्यम् परम् आद्यं स्थानम् उपैति। ,
।।8.28।।श्रद्धाविवृद्ध्यर्थं योगं स्तौति -- शृण्विति। पवित्रपाणित्वप्राङ्मुखत्वादिसाहित्यमध्ययनस्य सम्यक्त्वम्। अङ्गोपाङ्गोपेतत्वमनुष्ठानस्य साद्गुण्यम्। तपसां सुतप्तत्वं मनोबुद्ध्याद्यैकाग्र्यपूर्वकत्वम्। दानस्य च सम्यक्त्वं देशकालपात्रानुगुणत्वम्। इदं विदित्वेत्यत्रेदंशब्दार्थमेव स्फुटयति -- सप्तेति। यद्यपिकिं तद्ब्रह्म इत्यादौअधियज्ञः कथं कोऽत्र इत्यत्र प्रश्नद्वयं प्रतिभासानुसारेण कैश्चिदुक्तं तथापि प्रतिवचनालोचनायां द्वित्वप्रतीत्यभावात्प्रकारभेदविवक्षया चशब्दद्वयस्य प्रतिनियतत्वान्न सप्तेति विरुध्यते। न चेदं वेदनमापातिकं किंत्वनुष्ठानपर्यन्तमित्याह -- सम्यगिति। प्रकृतो ध्याननिष्ठो योगीत्युच्यते। ऐश्वर्यं विष्णोः परमं पदं तदेव तिष्ठत्यस्मिन्नशेषमिति स्थानं योगानुष्ठानादशेषफलातिशायिमोक्षलक्षणं फलं क्रमेण लब्धुं शक्यमिति भावः। तदनेन सप्तप्रश्नप्रतिवचनेन योगमार्गं दर्शयता ध्येयत्वेन तत्पदार्थो व्याख्यातः।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृत0अष्टमोऽध्यायः।।8।।
।।8.28।।एवं मनस्समाधानार्थं वैराग्यार्थं महापुरुषचिन्तनयोग उक्तः तत्फलमाह -- वेदेष्विति। सर्ववेदादिषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टमैहिकमथ पारलौकिकं अन्नाद्यपशुपुत्रस्वाराज्यादिरूपं तदप्यत्येति। तत्र वैराग्ये जाते तदतिक्राम्यति न पुनर्वाञ्छति योगी तत्सर्वमिदं अष्टमाध्याये अष्टप्रश्नार्थनिर्णयेनोक्तं सत्वं विदित्वा विज्ञाय परमुत्कृष्टमाद्यं जगन्मूलभूतं स्थानं भगवद्धाम प्राप्नोति।चतुर्विधानां भगवद्योगिनां तत्पृथक् फलम्। यथाधिकारमत्रोक्तं भगवद्योगवेदिना।।1।।
।।8.28।।पुनः श्रद्धावृद्ध्यर्थं योगं स्तौति -- वेदेषु दर्भपवित्रपाणित्वप्राङ्मुखत्वगुर्वधीनत्वादिभिः सम्यगधीतेषु यज्ञेष्वङगोपाङ्गसाहित्येन श्रद्धया सम्यगनुष्ठितेषु तपस्सु शास्त्रोक्तेषु मनोबुद्ध्याद्यैकाग्र्येण श्रद्धया सुतप्तेषु दानेषु तुलापुरुषादिषु देशे काले पात्रे च श्रद्धया सम्यग्दत्तेषु यत्पुण्यफलं पुण्यस्य धर्मस्य फलं स्वर्गस्वाराज्यादि प्रदिष्टं शास्त्रेण अत्येत्यतिक्रामति तत्सर्वं इदं पूर्वोक्तसप्तप्रश्ननिरूपणद्वारेणोक्तं विदित्वा सम्यगनुष्ठानपर्यन्तमवधार्यानुष्ठाय च योगी ध्याननिष्ठः न केवलं तदतिक्रामति परं सर्वोत्कृष्टमैश्वरं स्थानमाद्यं सर्वकारणं उपैति च प्रतिपद्यते च। सर्वकारणं ब्रह्मैव प्राप्नोतीत्यर्थः। तदनेनाध्यायेन ध्येयत्वेन तत्पदार्थो व्याख्यातः।
।।8.28।।अध्यायार्थमष्टप्रश्नार्थनिर्णयं सफलमुपसंहरति -- वेदेष्विति। वेदेष्वध्ययनादिभिः यज्ञेष्वनुष्ठानादिभिः तपःसु कायशोषणादिभिः दानेषु सत्पात्रार्पणादिभिः यत्पुण्यफलमुपदिष्टं शास्त्रेषु तत्सर्वमत्येति ततोऽपि श्रेष्ठं योगैश्वर्यं प्राप्नोति। किं कृत्वा। इदमष्टप्रश्नार्थनिर्णयेनोक्तं तत्त्वं विदित्वा ततश्च योगी ज्ञानी भूत्वा परमुत्कृष्टमाद्यं जगन्मूलभूतस्थानं विष्णोः परमं पदं प्राप्नोति।
।।8.28।।इदं विदित्वा इति सामान्यतो निर्देशादविशेषाच्चैकप्रकरणभूताध्यायद्वयार्थो गृह्यत इत्यभिप्रायेणाह -- अथेति।वेदेषु इत्यपि यज्ञादिवत्फलकारणतयोपादानम् न तु प्रतिपादकतया तदा यज्ञादिफलव्यतिरिक्तविषयतया सङ्कोचनीयत्वापातात्। वेदाभ्यासस्य च दुरितक्षयादिफलप्रदत्वं श्रुत्यादिसिद्धम्। यज्ञादिफलानां प्रतिपादकतयोपादाने च प्रस्तुताध्यायद्वयार्थस्यापि वेदार्थत्वात्ततोऽपि सङ्कोचः स्यात्। तदेतत्सर्वमभिप्रेत्य -- वेदाभ्यासेत्युक्तम्।दाने च इति चकारस्यानुक्तसमुच्चायकत्वप्रदर्शनायप्रभृतिशब्दः।पुण्यफलम् इत्यत्र पुण्यशब्देन फलविशेषणतया यज्ञादीनामेव सामान्यतो निर्देशः फलस्य श्लाघ्यताप्रदर्शनार्थ इत्यभिप्रायेण यज्ञादिविशेष्यतयापुण्येष्वित्युक्तम्।अध्यायद्वयोदितं भगवन्माहात्म्यमिति -- सप्तमारम्भे हि भगवन्माहात्म्यं प्रक्रान्तम् तदनुबन्धादन्यत्सर्वमुक्तमिति भावः।परं स्थानमुपैति इति योगानुष्ठानसाध्यस्य साक्षात्फलस्य पृथगुच्यमानत्वात्तद्विषयत्वे पौनरुक्त्यादधिकपुण्यफलप्राप्तिविवक्षायां लक्षितलक्षणापातात्। संसारनिवृत्तिमात्रपरत्वेऽपि पुण्यफलशब्देन पापफलस्यापि लक्षयितव्यत्वात्तत्सर्वमत्येति इत्येतत्तद्विवेकमूलविरक्त्यभिप्रायम्। अतिशयितफलवेदनं हिमनःप्रीतिरनायासात् इत्यादिन्यायेन फलान्तरवैतृष्ण्यहेतुरित्यभिप्रायेणाह -- एतद्वेदनेति। भगवन्माहात्म्यज्ञानस्य परस्थानप्राप्तिहेतुत्वे प्रागुक्तज्ञानविशेषरूपद्वारप्रदर्शनंयोगी इत्यनेन क्रियत इत्यभिप्रायेण -- ज्ञानी च भूत्वेत्युक्तम्। परत्वं देशकालयोगादिभिः आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् [यजुस्सं.31।18श्वे.उ.3।8] तदक्षरे परमे व्योमन् [तै.ना.6।1।2]दिव्यं स्थानमजरं चाप्रमेयम् [म.भा.15।5।27]एते वै निरयास्तात स्थानस्य परमात्मनः [म.भा.12।196।31] इत्यादेः। आद्यमनादिमित्यर्थः।आदौ भवं कारणं ब्रह्म इति [शां.भा.] परोक्तं तु स्थानशब्दवैघट्यादयुक्तम्।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायामष्टमोऽध्यायः।।8।।
।।8.28।।एवमष्टप्रश्नोत्तरमुक्त्वैतज्ज्ञानयुक्तयोगिनः सर्वकालप्राप्तिमुक्त्वोपसंहरति -- वेदेष्विति। वेदेषु अध्ययनादिभिः यज्ञेषु यज्ञानुष्ठानादिभिः तपस्सु परमसन्तापेन क्लेशसहनादिभिः दानेषु तुलापुरुषादिभिर्यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् उक्तमिति यावत् तत्सर्वं फलमिदं समस्ताध्यायार्थं विदित्वा अभ्येति प्राप्नोति ततोऽधिकमपि योगी मद्योगयुक्तः सन् परं मत्सेवारूपं आद्यं सकलकारणरूपं मच्चरणात्मकम् (स्थानं) उपैति मत्समीपे प्राप्नोतीति भावः।भक्तैः शुद्धात्मभक्त्यैव संयोगः पुरुषोत्तमे।प्राप्यते कृष्णदेवेन तदुक्तमिह चाष्टमे।।1।।महापुरुषसंयोगो जीवानां तु यथा भवेत्।कृपया कृष्णदेवेन पार्थायोक्तं तदष्टमे।।2।।इति श्रीभगवद्गीतामृततरङ्गिण्यामष्टमोऽध्यायः।।8।।
।।8.28।।पुनः श्रद्धाभिवृद्धये योगं स्तौति -- वेदेष्विति। वेदेषु सम्यगधीतेषु यज्ञेषु तपःसु च सम्यगनुष्ठितेषु दानेषु च सम्यग्दत्तेषु यत्पुण्यं तत्फलं चेति पुण्यफलं सर्वेषु समुच्चितेषु यत्प्रदिष्टं शास्त्रेषु तत्सर्वं योगी अत्येत्यतिक्रामति कार्यब्रह्मलोकं प्राप्नोतीत्यर्थः। किंकृत्वा इदं पूर्वोक्तमुपासनं विदित्वा ज्ञात्वानुष्ठाय च। ततश्च किमित्यत आह -- यत्स्थानं निर्विशेषं ब्रह्मोपैति प्राप्नोति च क्रमेणेत्यर्थः। आद्यं न तु केनचिन्निर्भितम्।,तदनेनाध्यायेन ध्येयस्तत्पदार्थो व्याख्यातः। अग्रिमेऽध्याये ज्ञेयं ब्रह्म व्याख्यास्यति।
।।8.28।।श्रद्धाविवृद्य्धर्थै योगस्य माहात्म्यं श्रावयति। वेदेषु सम्यगधीतेषु। अध्ययनस्य सम्यवक्त्वं च पवित्रपाणित्वप्राङ्युरवत्वगर्वधीनत्वब्रह्मचर्यपालनत्वादिसाहित्यम् यज्ञेषु श्रद्धयाङोपाङ्गसाहि तपस्सु शास्त्रेक्तेषु मनोबुद्य्धाद्यैकाग्र्येण श्रद्धया सुप्तप्तेषु दानेषु तुलापुरुषादिषु देशे काले पात्रे च श्रद्धया सभ्यग्दत्तेषु यत्पुण्यफलं पुण्यस्य धर्मस्य फलं स्वर्गस्वाराज्यादि प्रदिष्टं शास्त्रेण अतेयत्यतिक्रामति तत्सर्वं इदं पूर्वोक्तसप्तप्रश्ननिरुपणद्वारेणोक्तं विदित्वा सभ्यगनुष्ठानपर्यन्तमवधार्यानुष्ठानाय च योगी ध्याननिष्ठः न केवलं तदतिक्रामति परं सर्वोत्कृष्टमैश्वरं स्थानमाद्यं सर्वकारणं उपैति च प्रतिपद्यते च। सर्वकारणं ब्रह्मैव प्राप्नोतीत्यर्थः। तदनेनाध्यायेन ध्येत्वेन तत्पादार्थो व्याख्यातः।इति श्रीमत्परहंसपरिव्राजकाचार्यश्राविश्वेश्वरसलस्वतीपादशिष्यमधुसूदनसरस्वतीविरतचितायां श्रीभगवद्गीतागूढार्थदीपिकायां अक्षरपरब्रह्मयोगो नाम अष्ठमोऽध्यायः।।8।।
8.28 वेदेषु in the Vedas? यज्ञेषु in sacrifices? तपःसु in austerities? च and? एव also? दानेषु in gifts? यत् whatever? पुण्यफलम् fruit of merit? प्रदिष्टम् is declared? अत्येति goes beyond? तत् that? सर्वम् all? इदम् this? विदित्वा having known? योगी the Yogi? परम् Supreme? स्थानम् abode? उपैति attains? च and? आद्यम् primeval (first? ancient).Commentary The glory of Yoga is described in this verse. Whatever meritorious effect is declared in the scriptures to accrue from the proper study of the Vedas? from the performance of sacrifices properly? from the practice of austerities -- above all these rises the Yogi who rightly understands and follows the teaching imparted by Lord Krishna in His answers to the seven estions put by Arjuna? and who meditates on Brahman. He attains to the Supreme Abode of Brahman Which existed even in the beginning (primeval)? and is the first or ancient.Idam Viditva Having known this. Having known properly the answers given by the Lord to the seven estions put by Arjuna at the beginning of this chapter.(This chapter is known by the name Abhyasa Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the eighth discourse entitledThe Yoga of the Imperishable Brahman. ,
8.28 Whatever fruit of merit is declared (in the scriptures) to accrue from (the study of) the Vedas, (the performance of) sacrifices, (the practice of) austerities, and gifts beyond all this goes the Yogi, having known this; and he attains to the Supreme Primeval (first or ancient) Abode.
8.28 The sage who knows this passes beyond all merit that comes from the study of the scriptures, from sacrifice, from austerities and charity, and reaches the Supreme Primeval Abode."
8.28 Having known this, the yogi transcends all those results of rigtheous deeds that are declared with regard to the Vedas, sacrifices, austerities and also charities, and he reaches the primordial supreme State.
8.28 Viditva, having known; idam, this-having fully ascertained and practised what was spoken in the course of determining the answers to the seven estions (put by Arjuna in verse 1 and 2); the yogi atyeti, transcends, goes beyond; tat sarvam, all those; punya-phalam, results of righteous deeds, aggregate of rewards; yat, that are; pradistam, declared by the scriptures; with regard to these,viz vedesu, with regard to teh Vedas which have been properly [Sitting facing eastward after having washed one's hands, face, etc.] studied; yajnesu, with regard to sacrifices performed together with their accessories; tapahsu, with regard to austerities practised correctly [With concentrated mind, intellect, etc.]; ca eva, and also; danesu, with regard to charities rightly [Taking into consideration place, time and fitness of the recipient.] given; and upaiti, he reaches; the param, supreme; sthanam, State of God; adyam, which is primordial, the Cause that existed in the beginning, i.e. Brahman.
8.28. Having understood all this, the Yogin goes beyond whatever fruit of merit is ordained [in the scriptures] in case the Vedas [are recited], the sacrifices [performed], the austerities [observed], and also gifts [donated]; and he goes to the Supreme Primeval Abode.
8.28 Vedesu etc. He goes beyond : he humiliates, because he, by his [constant] remembrance of the Bhagavat, neutralizes all the mental impression of all the activities. When all the actions (their mental impressions) are destroyed, he easily attains the Supreme Siva.
8.28 Whatever fruit is said to accrue for meritorious actions in the form of the regular study of the Vedas Rg, Yajus, Saman and Atharvan as also for the performance of sacrifices, austerities, gifts - all these does not transcend on knowing this, namely the greatness of the Lord as taught in the two chapters (7 and 8). By immense joy arising from the knowledge of this, he regards all these results as negligible as straw. Be being a Yogin, viz., a Jnanin, he reaches the supreme, primal abode which is without beginning and is attainable by such a Jnanin.
8.28 Having known this, the yogi transcends all those results of rigtheous deeds that are declared with regard to the Vedas, sacrifices, austerities and also charities, and he reaches the primordial supreme State.
।।8.28।।योगका माहात्म्य सुन --, इनको जानकर अर्थात् इन सात प्रश्नोंके निर्णयद्वारा कहे हुए रहस्यको यथार्थ समझकर और उसका अनुष्ठान करके योगी पुरुष भलीभाँति पढ़े हुए वेद श्रेष्ठ गुणोंसहित सम्पादन किये हुए यज्ञ भली प्रकार किये हुए तप और यथार्थ पात्रको दिये हुए दान इन सबका शास्त्रोंने जो पुण्यफल बतलाया है उस सबको अतिक्रम कर जाता है और आदिमें होनेवाले सबके कारणरूप परम श्रेष्ठ ऐश्वरपदको अर्थात् ब्रह्मको पा लेता है।
।।8.28।। --,वेदेषु सम्यगधीतेषु यज्ञेषु च साद्गुण्येन अनुष्ठितेषु तपःसु च सुतप्तेषु दानेषु च सम्यग्दत्तेषु यद् एतेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टं शास्त्रेण अत्येति अतीत्य गच्छति तत् सर्वं फलजातम् इदं विदित्वा सप्तप्रश्ननिर्णयद्वारेण उक्तम् अर्थं सम्यक् अवधार्य अनुष्ठाय योगी परम् उत्कृष्टम् ऐश्वरं स्थानम् उपैति च प्रतिपद्यते आद्यम् आदौ भवम् कारणं ब्रह्म इत्यर्थः।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येअष्टमोऽध्यायः।।
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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्। अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।8.28।।
বেদেষু যজ্ঞেষু তপঃসু চৈব দানেষু যত্পুণ্যফলং প্রদিষ্টম্৷ অত্যেতি তত্সর্বমিদং বিদিত্বা যোগী পরং স্থানমুপৈতি চাদ্যম্৷৷8.28৷৷
বেদেষু যজ্ঞেষু তপঃসু চৈব দানেষু যত্পুণ্যফলং প্রদিষ্টম্৷ অত্যেতি তত্সর্বমিদং বিদিত্বা যোগী পরং স্থানমুপৈতি চাদ্যম্৷৷8.28৷৷
વેદેષુ યજ્ઞેષુ તપઃસુ ચૈવ દાનેષુ યત્પુણ્યફલં પ્રદિષ્ટમ્। અત્યેતિ તત્સર્વમિદં વિદિત્વા યોગી પરં સ્થાનમુપૈતિ ચાદ્યમ્।।8.28।।
ਵੇਦੇਸ਼ੁ ਯਜ੍ਞੇਸ਼ੁ ਤਪਸੁ ਚੈਵ ਦਾਨੇਸ਼ੁ ਯਤ੍ਪੁਣ੍ਯਫਲਂ ਪ੍ਰਦਿਸ਼੍ਟਮ੍। ਅਤ੍ਯੇਤਿ ਤਤ੍ਸਰ੍ਵਮਿਦਂ ਵਿਦਿਤ੍ਵਾ ਯੋਗੀ ਪਰਂ ਸ੍ਥਾਨਮੁਪੈਤਿ ਚਾਦ੍ਯਮ੍।।8.28।।
ವೇದೇಷು ಯಜ್ಞೇಷು ತಪಃಸು ಚೈವ ದಾನೇಷು ಯತ್ಪುಣ್ಯಫಲಂ ಪ್ರದಿಷ್ಟಮ್. ಅತ್ಯೇತಿ ತತ್ಸರ್ವಮಿದಂ ವಿದಿತ್ವಾ ಯೋಗೀ ಪರಂ ಸ್ಥಾನಮುಪೈತಿ ಚಾದ್ಯಮ್৷৷8.28৷৷
വേദേഷു യജ്ഞേഷു തപഃസു ചൈവ ദാനേഷു യത്പുണ്യഫലം പ്രദിഷ്ടമ്. അത്യേതി തത്സര്വമിദം വിദിത്വാ യോഗീ പരം സ്ഥാനമുപൈതി ചാദ്യമ്৷৷8.28৷৷
ବେଦେଷୁ ଯଜ୍ଞେଷୁ ତପଃସୁ ଚୈବ ଦାନେଷୁ ଯତ୍ପୁଣ୍ଯଫଲଂ ପ୍ରଦିଷ୍ଟମ୍| ଅତ୍ଯେତି ତତ୍ସର୍ବମିଦଂ ବିଦିତ୍ବା ଯୋଗୀ ପରଂ ସ୍ଥାନମୁପୈତି ଚାଦ୍ଯମ୍||8.28||
vēdēṣu yajñēṣu tapaḥsu caiva dānēṣu yatpuṇyaphalaṅ pradiṣṭam. atyēti tatsarvamidaṅ viditvā yōgī paraṅ sthānamupaiti cādyam৷৷8.28৷৷
வேதேஷு யஜ்ஞேஷு தபஃஸு சைவ தாநேஷு யத்புண்யபலஂ ப்ரதிஷ்டம். அத்யேதி தத்ஸர்வமிதஂ விதித்வா யோகீ பரஂ ஸ்தாநமுபைதி சாத்யம்৷৷8.28৷৷
వేదేషు యజ్ఞేషు తపఃసు చైవ దానేషు యత్పుణ్యఫలం ప్రదిష్టమ్. అత్యేతి తత్సర్వమిదం విదిత్వా యోగీ పరం స్థానముపైతి చాద్యమ్৷৷8.28৷৷
9.1
9
1
।।9.1।। श्रीभगवान् बोले -- यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान दोषदृष्टिरहित तेरे लिये तो मैं फिर अच्छी तरहसे कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभसे अर्थात् जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्त हो जायगा।
।।9.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- तुम अनसूयु (दोष दृष्टि रहित) के लिए मैं इस गुह्यतम ज्ञान को विज्ञान के सहित कहूँगा, जिसको जानकर तुम अशुभ (संसार बंधन) से मुक्त हो जाओगे।।
।।9.1।। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन में एक मुमुक्षु के लक्षण पाते हैं? जो वास्तव में आत्मोन्नति के द्वारा संसार के समस्त बंधनों का विच्छेदन करना चाहता है। उसे केवल किसी ऐसी सहायता की आवश्यकता है? जिससे कि उसे अपने साधन मार्ग की प्रामाणिकता का दृढ़ निश्चय हो सके। भगवान् कहते हैं कि वे अनसूयु अर्जुन को विज्ञान के सहित ज्ञान का अर्थात् सैद्धान्तिक ज्ञान तथा उसके अनुभव का उपदेश देंगे। असूया का अर्थ है गुणों में भी दोष देखना। अत अनसूयु का अर्थ है वह पुरुष जो असूया रहित है अथवा दोष दृष्टि रहित है। इस ज्ञान का प्रयोजन है? जिसे जानकर तुम अशुभ अर्थात् संसार बंधनों से मुक्त हो जाओगे।जीवन की चुनौतियों का सामना करने में मनुष्य की अक्षमता का कारण यह है कि वह वस्तु और व्यक्ति अर्थात् जगत् का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन करता है। फलत जीवनसंगीत के सुर और लय को वह खो देता है। अपने तथा बाह्य जगत् के वास्तविक स्वरूप को समझने का अर्थ है जगत् के साथ स्वस्थ एवं सुखवर्धक संबंध रखने के रहस्य को जानना। जो पुरुष इस प्रकार समष्टि के साथ एकरूपता पाने में सक्षम है? वही जीवन में निश्चित सफलता और पूर्ण विजय का भागीदार होता है।आन्तरिक विघटन के कारण अपने समय का वीर योद्धा अर्जुन एक विक्षिप्त पुरुष के समान व्यवहार करने लगा था। ऐसे पुरुष को जीवन की समस्यायें अत्यन्त गम्भीर? कर्तव्य महत् कष्टप्रद और स्वयं जीवन एक बहुत बड़ा भार प्रतीत होने लगता है। वे सभी लोग संसारी कहलाते हैं? जो जीवनइंजिन को अपने ऊपर से चलने देकर छिन्नभिन्न हो जाते हैं। इनके विपरीत? जो पुरुष इस जीवनइंजिन में चालक के स्थान पर बैठकर मार्ग के सभी गन्तव्यों को पार करके अपने गन्तव्य तक सुरक्षित पहुँचते हैं? वे आत्मज्ञानी? और सन्त ऋषि कहलाते हैं। यद्यपि आत्मज्ञानी का यह पद मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है? तथापि इस धरोहर का लाभ केवल वह विवेकी प्ाुरुष पाता है? जिसमें अपने जीवन पर विजय पाने का उत्साह और साहस होता है और जो इस पृथ्वी पर ईश्वर के समान रहता है सभी परिस्थितियों का शासक बनकर और जीवन की दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों में हँसता हुआ।जीवन जीने की इस कला के प्रति साधक के मन में रुचि और उत्साह उत्पन्न करने के लिए इस ज्ञान की स्तुति करते हुए भगवान् कहते हैं --
।।9.1।। व्याख्या--इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे--भगवान्के मनमें जिस तत्त्वको, विषयको कहनेकी इच्छा है, उसकी तरफ लक्ष्य करानेके लिये ही यहाँ भगवान् सबसे पहले 'इदम्' (यह) शब्दका प्रयोग करते हैं। उस (भगवान्के मन-बुद्धिमें स्थित) तत्त्वकी महिमा कहनेके लिये ही उसको 'गुह्यतमम्' कहा है अर्थात् वह तत्त्व अत्यन्त गोपनीय है। इसीको आगेके श्लोकमें 'राजगुह्यम्' और अठारहवें अध्यायके चौंसठवें श्लोकमें 'सर्वगुह्यतमम्' कहा है। यहाँ पहले 'गुह्यतमम्'कहकर पीछे (गीता 9। 34 में) 'मन्मना भव' ৷৷. कहा है और अठारहवें अध्यायमें पहले 'सर्वगुह्यतमम्' कहकर पीछे (गीता 18। 65 में) 'मन्मना भव' ৷৷. कहा है। तात्पर्य है कि यहाँका और वहाँका विषय एक ही है, दो नहीं।
।।9.1।।इदमिति। अनसूयत्वं ज्ञानसंक्रान्तौ कारणं मुख्यम्। ज्ञानविज्ञाने प्राग्वत्।
।।9.1।।श्री भगवानुवाच -- इदं तु ते गुह्यतमं भक्तिरूपम् उपासनाख्यं ज्ञानं विज्ञानसहितम् उपासनगतिविशेषज्ञानसहितम् अनसूयवे ते प्रवक्ष्यामि। मद्विषयं सकलेतरविसजातीयम् अपरिमितप्रकारं माहात्म्यं श्रुत्वा एवम् एव संभवति इति मन्वानाय ते प्रवक्ष्यामि इत्यर्थः। यद् ज्ञानम् अनुष्ठानपर्यन्तं ज्ञात्वा मत्प्राप्तिविरोधिनः सर्वस्माद् अशुभात् मोक्ष्यसे।
।।9.1।।अतीतेनागामिनोऽध्यायस्यागतार्थत्वं वक्तुं वृत्तमनुवदति -- अष्टम इति। नाडी सुषुम्नाख्या। धारणाख्येनाङ्गेन युक्तो योगो धारणायोगः। सगुणः सर्वद्वारसंयमनादिगुणस्तेन सहित इत्यर्थः। तत्फलोक्त्यर्थमनन्तराध्यायारम्भमाशङ्क्याह -- तस्य चेति। अग्निरर्चिरित्यादिनोपलक्षितेन क्रमवता देवयानेन पक्षेति यावत्। ज्ञानानन्तरमेव यथोक्तफललाभादलमनेन मार्गेणेत्याशङ्क्याह -- कालान्तर इति। अर्चिरादिमार्गेण ब्रह्मप्राप्तौ मुक्तेर्मार्गायत्तत्वात् न तस्य इत्यादिश्रुतिविरोधः स्यादित्याशयेन शङ्क्यते -- तत्रेति। वृत्तोऽर्थः सप्तम्यर्थः। उक्ताशङ्कानिवृत्त्यर्थमनन्तराध्यायमुत्थापयति -- तदाशङ्केति। संप्रयुक्तत्वेनापरोक्षत्वाभावेऽपि पूर्वोत्तरग्रन्थालोचनया बुद्धिसंनिधानादिदंशब्देन ब्रह्मज्ञानं गृहीतमित्याह -- तद्बुद्धाविति। प्रकृताज्ञानाज्ज्ञानस्य वैशिष्ट्यावद्योती तुशब्द इत्याह -- तुशब्द इति। निपातार्थमेव स्फुटयति -- इदमेवेति। तस्मिन्नर्थे संवादकत्वेन श्रुतिस्मृती दर्शयति -- वासुदेव इति। अद्वैतज्ञानवद्द्वैतज्ञानमपि केषांचिन्मोक्षहेतुरित्याशङ्क्याह -- नान्यदिति। द्वैतज्ञानं मोक्षाय न क्षममित्यत्र श्रुतिमुदाहरति -- अथेति। अविद्याप्रकरणोपक्रमार्थोऽथशब्दः। अतोऽद्वैतादन्यथा। भिन्नत्वेनेत्यर्थः। विदुस्तत्त्वमिति शेषः। द्वैतस्य दुर्निरूपत्वेन कल्पितत्वात्तज्ज्ञानं रज्जुसर्पादिज्ञानतुल्यत्वान्न क्षेमप्राप्तिहेतुरिति चकारार्थः। असूया गुणेषु दोषाविष्करणं तद्रहिताय। ज्ञानाधिकृतायेत्यर्थः। ज्ञानं ब्रह्मचैतन्यं तद्विषयं वा प्रमाणज्ञानं तस्य तेनैव विशेषितत्वानुपपत्तिमाशङ्क्य व्याकरोति -- अनुभवेति। विज्ञानमनुभवः साक्षात्कारस्तेन सहितमित्यर्थः। उक्तज्ञानं प्राप्तस्य किं स्यादित्याशङ्क्याह -- यज्ज्ञानमिति।
।।9.1।।नवमे स्वाक्षरैश्वर्यज्ञानं सद्भक्तिगर्भितम्। प्राह विज्ञानसहितं महापतितपावनः।।1।।एवं तावत्पूर्वत्र स्वमहिमानं सर्वोत्तममुक्त्वा स्वस्य योगनिष्पन्नज्ञानिभक्त्यैकलभ्यत्वं सूचितं इदानीं स्वाक्षरैश्वर्यमहिमज्ञानद्वारा स्वभक्तेरसाधारणमाहात्म्यं महापतितपावनत्वं प्रदर्शयिष्यन् श्रीभगवानुवाच इदं त्विति। तुः पूर्वव्यावृत्त्यर्थः। तत्तु गुह्यं चतुर्विधोपासकभेदनिबन्धनविशेषरूपं? इदं तु गुह्यतमं भजनीयभक्तिमाहात्म्यनिबन्धनरूपमिति ते तुभ्यं अनसूयवे पुनः पुनः सकलेतरविजातीयं मद्विषयकमपरिमितगुणमाहात्म्यं श्रुत्वैवमेव सम्भवतीति मन्वानाय ज्ञानं स्वमाहात्म्यविषयकं विज्ञानं भक्तिगतविशेषज्ञानसहितं प्रकर्षेण वक्ष्यामि यत् ज्ञात्वाऽशुभान्मोहान्मोक्ष्यसे।
।।9.1।।,मामक्षरं यः परमक्षरं हि परोपदेशेन चिदक्षरेण।,चकार विभ्रान्त्यपनोदविद्यस्तं काशिराजं गुरुराजमीडे।।पूर्वाध्याये मूर्धन्यनाडीद्वारकेण हृदयकण्ठभ्रूमध्यादिधारणासहितेन सर्वेन्द्रियद्वारसंयमगुणकेन योगेन स्वेच्छयोत्क्रान्तप्राणस्यार्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकं प्रयातस्य तत्र सम्यग्ज्ञानोदयेन कल्पान्ते परब्रह्मप्राप्तिलक्षणा क्रममुक्तिर्व्याख्याता। तत्र चानेनैव प्रकारेण मुक्तिर्लभ्यते नान्यथेत्याशङ्क्यअनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। तस्याहं सुलभः इत्यादिना भगवत्तत्त्वविज्ञानात्साक्षान्मोक्षप्राप्तिरभिहिता। तत्र चानन्या भक्तिरसाधारणो हेतुरित्युक्तंपुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया इति। तत्र पूर्वोक्तयोगधारणापूर्वकप्राणोत्क्रमणार्चिरादिमार्गगमनकालविलम्बादिक्लेशमन्तरेणैव साक्षान्मोक्षप्राप्तये भगवत्तत्त्वस्य तद्भक्तेश्च विस्तरेण ज्ञापनाय नवमोऽध्याय आरभ्यते। अष्टमे ध्येयब्रह्मनिरूपणेन तद्ध्याननिष्ठस्य गतिरुक्ता? नवमे तु ज्ञेयब्रह्मनिरूपणेन ज्ञाननिष्ठस्य गतिरुच्यत इति संक्षेपः। तत्र वक्ष्यमाणज्ञानस्तुत्यर्थास्त्रीञ् श्लोकान् श्रीभगवानुवाच -- इदं त्वित्यादिना। इदं प्राग्बहुधोक्तमग्रे च वक्ष्यमाणमधुनोच्यमानं ज्ञानं शब्दप्रमाणकं ब्रह्मतत्त्वविषयकं ते तुभ्यं प्रवक्ष्यामि। तुशब्दः पूर्वाध्यायोक्ताद्ध्यानाज्ज्ञानस्य वैलक्षण्यमाह। इदमेव सम्यग्ज्ञानं साक्षान्मोक्षप्राप्तिसाधनं नतु ध्यानं तस्याज्ञानानिवर्तकत्वात्। तत्त्वन्तःकरणशुद्धिद्वारेदमेव ज्ञानं संपाद्य क्रमेण मोक्षं जनयतीत्युक्तम्। कीदृशं ज्ञानम्। गुह्यतमं गोपनीयतम्। अतिरहस्यत्वात्। यतो विज्ञानसहितं ब्रह्मानुभवपर्यन्तं ईदृशमतिरहस्यमप्यहं शिष्यगुणाधिक्याद्वक्ष्यामि ते तुभ्यं अनसूयवे। असूया गुणेषु दोषदृष्टिस्तदाविष्करणादिफला सर्वदायमात्मैश्वर्यख्यापनेनात्मानं प्रशंसति मत्पुरस्तादित्येवंरूपा तद्रहिताय। अनेनार्जवसंयमावपि शिष्यगुणौ व्याख्यातौ। पुनः कीदृशं ज्ञानम्। यज्ज्ञात्वा प्राप्य मोक्ष्यसे सद्य एव संसारबन्धनादशुभात्सर्वदुःखहेतोः।
।।9.1।।परेशः प्राप्यते शुद्धभक्त्येति स्थितमष्टमे। नवमे तु तदैश्वर्यमत्याश्चर्यं प्रपञ्च्यते।।1।।एवं तावत्सप्तमाष्टमयोः स्वीयं पारमेश्वरं तत्त्वं भक्त्यैव सुलभं नान्यथेत्युक्त्वेदानीमचिन्त्यं स्वकीयमैश्वर्यं भक्तेश्चासाधारणप्रभावं प्रपञ्चयिष्यन् श्रीभगवानुवाच -- इदंत्विति। विशेषेण ज्ञायतेऽनेनेति विज्ञानमुपासनं तत्सहितं ज्ञानमीश्वरविषयमिदं अनसूयवे पुनः पुनः स्वमाहात्म्यवोपदिशतीत्येवं परमकारुणिके मयि दोषदृष्टिरहिताय ते तुभ्यं वक्ष्यामि। तुशब्दो वैशिष्ट्ये। तदेवाह -- गुह्यतममित्यादिना। गुह्यं धर्मज्ञानं? ततो देहादिव्यतिरिक्तात्मज्ञानं गुह्यतरं? ततोऽपि परमात्मज्ञानमतिरहस्यत्वाद्गुह्यतमम्। यज्ज्ञात्वाऽशुभात्संसारान्मोक्ष्यसे सद्य एव मुक्तो भविष्यति।
।।9.1।।स्वमाहात्म्यं मनुष्यत्वे परत्वं च महात्मनाम्। विशेषो नवमे योगो भक्तिरूपः प्रकीर्तितः [गी.सं.13] इति सङ्ग्रहश्लोकमपि व्याकुर्वंस्तदनुसारेणाष्टमनवमयोः सङ्गतिं च दर्शयति -- उपासकेत्यादिना। विशेषाः ज्ञातव्योपादेयभेदाः। परमपुरुषमाहात्म्यस्य ज्ञानिनां विशेषस्य च प्रागेव प्रकृतत्वात्तत्प्रभावविशोधनमत्रोपासनतत्फलानुप्रविष्टतया क्रियते अध्यायप्रधानार्थस्तूपासनस्वरूपनिष्कर्षप्रधानार्थत्वेन इत्यभिप्रायेणविशोध्येति विच्छिद्य?भक्तिरूपस्येत्यादि पृथगुक्तम्। भजनोपासनशब्दयोरस्मिन्नेवाध्याये प्रकरणान्तरेषु च समानविषयतयैव प्रयोगवशाच्छ्रुतिसिद्धोपासनस्यैवात्र भक्तिशब्देन विशेषणं कृतमित्यभिप्रायेणभक्तिरूपस्योपासनस्येत्युक्तम्। अत्रइदं तु ते गुह्यतमम् इति ज्ञानस्योपक्रान्तत्वात्?मन्मना भव [9।34] इति चोपसंह्रियमाणत्वात्? मध्ये च बहुशो भजनस्यैवाभ्यस्यमानत्वात्? प्रत्यक्षरूपत्वनिरतिशयप्रियत्वकीर्तनीययतननमस्काररूपत्वादीनां चापूर्वाणां भक्तिस्वरूपानुप्रवेशिनां प्रकाराणां प्रतिपाद्यमानत्वात्? स्वरूपतः साध्यतया निरतिशयफलप्रतिपादनात्?राजविद्या इत्यादिना प्रशंसारूपार्थवाददर्शनाच्चात्रोपक्रमोपसंहारादितात्पर्यलिङ्गैः भक्तिस्वरूपनिष्कर्षेऽध्यायस्य तात्पर्यम् तदन्विततयाऽन्यदत्रोच्यत इत्यभिप्रायः।इदं तु ते इत्यत्र वक्ष्यमाणमेव बुद्धिस्थतयाइदम् इति निर्दिष्टम्। एष तु वा अतिवदति [छां.उ.7।16।1] इति प्राणविदपेक्षया सत्यविदोऽधिकत्ववत्? तुशब्देन कर्मयोगज्ञानयोगाभ्यामप्यस्याधिक्यं विवक्षितम्। तयोर्हि गुह्यत्वं? गुह्यतरत्वं च। इदं तु गुह्यतमम्। इदं च शूश्रूषातिशयोत्थापनार्थं? गोपनाधिक्यशिक्षणार्थं चोक्तम्।उपबृंहणीयवेदान्तवाक्येष्विवात्रापि ज्ञानशब्दस्य वक्ष्यमाणविशेषपर्यवसानप्रदर्शनायभक्तिरूपमुपासनाख्यमित्युक्तम्।उपासनगतविशेषज्ञानसहितमिति पूर्वोक्तविज्ञानादत्रत्यविज्ञानस्य भेदः तद्ध्युपास्यादिविशेषज्ञानम्? उपासनगतविशेषः? उपासनप्रकारः। प्रस्तुतौपयिकमनसूयुत्वप्रकारं दर्शयतिमद्विषयमिति। गुणेषु दोषाविष्करणचित्तवृत्तिविशेषो ह्यसूया तद्विपर्ययश्च गुणेषु गुणाध्यवसाय एव हीति भावः। एतेनोपदेशयोग्यायोग्यविभागेन शिष्यशिक्षणं कृतम्। स्मरन्ति च विद्याया वचनम्असूयकाय मां मादाः [मनुः2।114] इत्यादि। वक्ष्यति चइदं ते नातपस्काय इत्यारभ्यन च मां योऽभ्यसूयति [18।67] इति। प्रवक्ष्यामि कृत्स्नं लघु व्यक्तं च वक्ष्यामीत्यर्थः।यज्ज्ज्ञानमनुष्ठानपर्यन्तं ज्ञात्वेति नह्यनुष्ठेयज्ञानमात्रादनुष्ठानफलम् अत उपासनस्वरूपं ज्ञात्वा तदनुष्ठानद्वारा मोक्ष्यस इत्युच्यत इति भावः। कर्मादिभिर्हि भक्त्युत्पत्त्यादिविरोधिपापनिरसनम् भक्त्या तु भगवत्प्राप्तिविरोधिसमस्तपापनिरसनं हि प्रमाणसिद्धमित्यभिप्रायेण -- मत्प्राप्तिविरोधिनः सर्वस्मादशुभादित्युक्तम्। अशुभशब्दस्यात्र स्वर्गाद्यपरपर्यायव्यामोहननिरयहेतुभूतपुण्यशब्दाभिलप्यपापविषयत्वमपिसर्वस्मादित्यनेन विवक्षितम्।
।।9.1।।प्रोवाच कृष्णः कृपया नवमे पाण्डवं प्रति। राजविद्या राजगुह्यं योगं स्वैश्वर्यबोधकम्।।1।।एवं पूर्वाध्याये स्वस्वरूपं भक्त्यैकलभ्यमुक्त्वा भक्तिस्वरूपज्ञानमाह कृष्णः कृपया -- इदं त्विति। इदं तु गुह्यतममत्यन्तं गुप्तं भगवद्विषयकभक्त्यात्मकं ज्ञानं विज्ञानसहितमनुभवसहितं भक्तिप्रतिफलनरूपं अनसूयवे प्रतिक्षणमुत्तरोत्तरमतिकाठिन्यभक्त्यैकलभ्यस्वरूपकथनेऽपि दोषरहितश्रवणैकपरचित्ताय ते तुभ्यं प्रवक्ष्यामि? प्रकर्षेण स्वरूपज्ञानसहितं कथयिष्यामीत्यर्थः। यज्ज्ञात्वा यत्स्वरूपं ज्ञात्वा अशुभात् स्वरूपाज्ञानात्मकसंसारात् मोहाद्वा मोक्ष्यसे? मुक्तो भविष्यसीत्यर्थः। तुशब्देन सर्वेषामकथनीयत्वं ज्ञापितम्। ते इति कथनेन कृपया वक्ष्यामीति व्यञ्जितम्।
।।9.1।।पूर्वाध्याये किंतद्ब्रह्मेत्यादिसप्तप्रश्न्यां अक्षरं ब्रह्म परममित्यादिना संक्षिप्य व्याख्यातायां तज्ज्ञानस्य पृथक्प्रयोजनाकाङ्क्षायां कर्मविद आधिभौतिकं धूमादिमार्गप्राप्यं स्थानमिति निरूपणेन प्राप्यप्रापकादिविभागो दर्शितः। तेन कर्माधिभूते व्याख्याते। तथा सूत्रान्तर्यामिणोरुपासकस्यार्चिरादिमार्गेण क्रममुक्तिस्थानप्राप्तिरित्युक्तं तेनाधिदैवाधियज्ञौ व्याख्यातौ। ओमित्येकाक्षरमित्यादिना अन्तकाले कथं ज्ञेयोऽसीत्यस्योत्तरं व्याख्यातम्। तदेवं ध्येयब्रह्मविद्या साङ्गा निरूपिता? परिशिष्टमाद्यं ज्ञेयब्रह्मविषयं प्रश्नद्वयं किं तद्ब्रह्म किमध्यात्ममिति तद्विवरणाय नवमोऽध्याय आरभ्यते। न केवलमर्चिरादिगतिप्राप्या कालान्तर एव मुक्तिरस्ति किंत्विहैव सद्योमुक्तिरस्तीति विशेषं वक्तुं श्रीभगवानुवाच -- इदं तु ते इति। इदं वक्ष्यमाणं तु पूर्वस्माद्ध्येयाद्विलक्षणं ज्ञेयं ते तुभ्यं गुह्यतममतिगोप्यं प्रवक्ष्यामि। अनसूयवे असूया गुणेषु दोषाविष्करणं तद्रहिताय। ज्ञानं ज्ञप्तिमात्रस्वरूपं ब्रह्म। विज्ञानेनानुभवेन सहितं नतु केवलं पारोक्ष्येण। यज्ज्ञानं ज्ञात्वा साक्षात्कृत्य अशुभात्संसारान्मोक्ष्यसे। अत्र यत्सप्तमादौज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः इति प्रतिज्ञातं? यस्य च विज्ञानाय शाखाचन्द्रन्यायेनोपलक्षणीभूतं जगत्कारणं ब्रह्म तत्रैव निरूपितम्? यद्विज्ञानेऽधिकारसंपत्त्यर्थं तस्यैव सगुणस्योपासनमुक्तं तदिह सर्वशेषीभूतं ब्रह्म वक्तव्यमिति तथैव प्रतिजानीते वचनमात्रेणैवात्रापरोक्षं ज्ञानं जायत इति। तच्च तत्रैव व्युत्पादितं न विस्मर्तव्यम्।
।।9.1।।अष्टमे देवयानमार्गेणापुनरावृत्तिं मोक्षं गच्छन्तीत्युक्तम्? तत्र तेनैव प्रकारेण मोक्षाप्राप्तिर्नान्यथेति शङ्कामपनुदन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। पूर्वोक्तेष्वध्यायेषूक्तं वक्ष्यमाणं च ब्रह्मज्ञानं बुद्धौ संनिधीकृत्येदमित्युक्तम्। तुशब्दो ध्यानाज्ज्ञानस्य वैलक्षण्यद्योदनार्थः। ज्ञानस्य सविज्ञानस्य साक्षान्मोक्षासाधनत्वात्। इदं तु ते ज्ञानं प्रवक्ष्यामीति संबन्धः। तच्च प्रत्यगभिन्नपरमात्मज्ञानंवासुदेवः सर्वमिति? आत्मैवेदं सर्व? अहं ब्रह्मास्मि? सर्व खल्विदं ब्रह्म? एकमेवाद्वितीयं? नेहनानास्ति किंचन? मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति इत्यादिश्रुतस्मिमृत्युक्तं विज्ञानेनामुभवेन सहितं युक्तं गुह्यतमम्। अयमर्थःधर्मज्ञानं हि गुह्यम्? उपास्यज्ञानं गह्यतरम्? अखण्डार्थज्ञानं गुह्यतममतिगोप्यम्। ननु गुह्यतमं किमर्थै वदसीति चेत्तवानसूयागुणेन वशीकृतो वक्ष्यामीत्याह -- अनसूयव इति। गुणेषु दोषाविष्करणमसूया। साक्षान्मोक्षसाधनं परमात्मज्ञानं तु तत्तल्लोकविषयभोगविरोधीति परमरुपुषार्थसाधने तत्त्वज्ञाने दोषदृष्टिस्तद्रहिताय सर्वदायमात्मैश्वर्यख्यापनेनात्मानं प्रशंसति मत्पुरस्तादित्येवंरुपासूयेति वाभ्यसूयति आत्मप्रशंसादिदोषाध्योरोपणेन ईश्वरत्वमजानन्न सहते इति भाष्यात्। यज्ज्ञानमुक्तविशेषणविशुष्टं ज्ञात्वा लब्ध्वा अशुभात्संकारबन्धनान्मोक्ष्यसे। मुक्तो भविष्यसीत्यर्थः। यत्तु इदं वक्ष्यमाणं तु पूर्वस्मात् ध्येयाद्विलक्षणं ज्ञेयं ज्ञानं ज्ञप्तिमात्रस्वरुपं ब्रह्म विज्ञानेनानुभवेन सहितं नतु केवलं पारोक्ष्येण यज्ज्ञानं ज्ञात्वा साक्षात्कृत्येत्यादि तदुपेक्ष्यम्। विज्ञानसहितंराजविद्या राजगुह्यंअश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप इति मूलेन इदं ब्रह्मज्ञानं विद्यानां राजा दीप्त्यतिशयवत्त्वाद्दीप्यते हीयमपतिश्येन ब्रह्मविद्या। आत्मज्ञानस्य धर्मस्यास्येति तद्भाष्येण च विरोधस्य स्पष्टत्वादिति दिक्।
9.1 इदम् this? तु indeed? ते to thee? गुह्यतमम् greatest secret? प्रवक्ष्यामि (I) shall declare? अनसूयवे to one who does not cavil? ज्ञानम् knowledge? विज्ञानसहितम् combined with experience? यत् which? ज्ञात्वा having known? मोक्ष्यसे thou shalt be free? अशुभात् from evil.Commentary Idam (this) alludes to knowledge of the Self.Jnana Theoretical knowledge of Brahman through the study of the Upanishads? also known as Paroksha Brahma Jnana.Vijnana Direct intuitive perception of Brahman or AtmaSakshatkara? also known as Aparoksha Brahma Jnana.This alone forms the direct means of attaining to liberation from evil or the bondage of Samsara? freedom from birth and death.The knowledge of the Self is the most profound secret. It can hardly be described in words. It can be realised only through direct experience or spiritual intuition. Atman or Brahman or the selfluminous? eternal? Supreme Purusha is ever shining in the chambers of the hearts of men. Throughout the ages there have always been a few who have trodden the spiritual path and found out this secret or the spiritual treasure of the precious pearl of the Self. Knowledge of the Self is the only direct means for attaining liberation? Karma Yoga purifies the heart and leads to the dawn of the knowledge of the Self.Lord Krishna says? O Arjuna? I shall teach you this profoundest secret knowledge combined with realisation as you are free from jealousy. From this we can clearly understand that freedom from jealousy is an important alification for an aspirant. Knowledge can only dawn in a mind which is free from all forms of jealousy which causes great distraction of the mind and produces intense heartburning. Matsarya (malicious envy)? Irshya (jealous of others prosperity or happiness) and Asuya (envious or indignant over the merits of another) are all varieties of jealousy. If you superimpose evil alities on a virtuous man who really does not possess these alities on a virtuous man who really does not possess these alities and speak ill of him? this is jealousy (Asuya). To behold evil or to look at a person with the faultfinding evil eye? and to see evil in him who is free from any kind of fault and who is virtuous is Asyua. Jealousy is only pettymindedness. This is a modification of ignorance. It can be eradicated by eniry of the nature of the Self and cultivating its opposite alities? viz.? nobility? broad and universal tolerance? magnanimity and largeheartedness.To thee who does not carp or cavil This implies that Arjuna was endowed with all the virtues of a disciple such as straightforwardness? selfcontrol? restraint of the senses? serenity of mind? discrmination? dispassion? etc. This is the Upalakshana (the truth alluded to where only a part is stated) and Asuya is the Upalakshaka (the hint which alludes to the Upalakshana).
9.1 The Blessed Lord said I shall now declare to thee who does not cavil, the greatest secret, the knowledge combined with experience (Self-realisation). Having known this thou shalt be free evil.
9.1 "Lord Shri Krishna said: I will now reveal to thee, since thou doubtest not, that profound mysticism, which when followed by experience, shall liberate thee from sin.
9.1 The Blessed Lord said However, to you who are not given to cavilling I shall speak of this highest secret itself, which is Knowledge [Jnana may mean Brahman that is Consciousness, or Its knowledge gathered from the Vedas (paroksa-jnana). Vijnana is direct experience (aparoksa-jnana).] combined with experience, by realizing which you shall be free from evil.
9.1 Te, to you; anasuyave, who are not given to cavilling, who are free from carping; pravaksyami, I shall speak of; idam, this. The Lord uttered the word 'this' by bearing in mind as an immediately present fact the knowledge of Brahman that will be and was spoken of in the earlier chapters. The word tu (however) is used for pointing out a distinction [The distinction of Knowledge from meditation that was being discussed.]. (I shall speak) of this itself-what is that?-(it is) guhyatamam, the highest secret; and is jnanam, Knowledge, complete Knowledge-nothing else-, the direct means to Liberation, as stated in the Upanisads and the Smrtis, 'Vasudeva is all' (7.19), 'the Self verily is all this' (Ch. 7.25.2), 'One only, without a second' (op. cit. 6.2.1), etc., and also as stated in such Upanisadic texts as, 'On the other hand, those who understand otherwise than this come under a different ruler, and belong to the worlds that are subject to decay' (op. cit. 7.25.2). (Knowledge) of what kind? It is vijnana-sahitam, combined with experience; jnatva, by realizing, by attaining; yat, which Knowledge; moksyase, you shall be free; asubhat, from evil, from worldly bondage.
9.1. The Bhagavat said To you, who is entertaining no displeasure, I shall clearly declare also this most secret knowledge, together with action, by knowing which you shall be free from evil.
9.1 Idam etc. Not to entertain displeasure is an important reisite for communicating knowledge. The words Jnana and Vijnana [mean respectively 'knowledge' and 'action'] as above.
9.1 The Lord said I will declare to you, who does not cavil, this most mysterious knowledge called Upasana, which is of the nature of Bhakti, together with special knowledge, namely, the distinguishing knowledge of how it differs from other meditations. The import is this: You have heard of My eminence, which is distinct in kind from all other forms of greatness and is unlimited in its modes. You must have been convinced that it can be so only and not otherwise. To you whose mind is thus prepared, I shall declare that knowledge by aciring which, and making which your way of life, you will be emancipated from all evil that hinders you from attaining Me.
9.1 The Lord said I shall declare to you, who does not cavil, this most mysterious knowledge together with special knowledge, knowing which you would be freed from evil.
।।9.1।।वहाँ (यह शङ्का होती है कि ) क्या इस प्रकार साधन करनेसे ही मोक्षप्राप्तिरूप फल मिलता है अन्य किसी प्रकारसे नहीं मिलता इस शङ्काको निवृत्त करनेकी इच्छासे श्रीभगवान् बोले --, जो ब्रह्मज्ञान आगे कहा जायगा और जो कि पूर्वके अध्यायोंमें भी कहा जा चुका है? उसको बुद्धिके सामने रखकर यहाँ इदम् शब्दका प्रयोग किया है। तु शब्द अन्यान्य ज्ञानोंसे इसे अलग करके विशेषतासे लक्ष्य करानेके लिये है। यही यथार्थ ज्ञान साक्षात् मोक्षप्राप्तिका साधन है। जो कि सब कुछ वासुदेव ही है आत्मा ही यह समस्त जगत् है ब्रह्म अद्वितीय एक ही है इत्यादि श्रुतिस्मृतियोंसे दिखलाया गया है? ( इसके अतिरिक्त ) और कोई ( मोक्षका साधन ) नहीं है। जो इससे विपरीत जानते हैं वे अपनेसे भिन्न अपना स्वामी माननेवाले मनुष्य विनाशशील लोकोंको प्राप्त होते हैं इत्यादि श्रुतियोंसे भी यही सिद्ध होता है। तुझ असूयारहित भक्तसे मैं यह अति गोपनीय विषय कहूँगा। वह क्या है ज्ञान। कैसा ज्ञान विज्ञानसहित अर्थात् अनुभवसहित ज्ञान। जिस ज्ञानको जानकर अर्थात् पाकर तू संसाररूप बन्धनसे मुक्त हो जायगा।
।।9.1।। -- इदं ब्रह्मज्ञानं वक्ष्यमाणम् उक्तं च पूर्वषु अध्यायेषु? तत् बुद्धौ संनिधीकृत्य इदम् इत्याह। तुशब्दो विशेषनिर्धारणार्थः। इदमेव तु सम्यग्ज्ञानं साक्षात् मोक्षप्राप्तिसाधनम् वासुदेवः सर्वमिति आत्मैवेदं सर्वम् (बृ0 उ0 2।4।6) एकमेवाद्वितीयम् (छा0 उ0 6।2।1) इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः नान्यत्? अथ ते येऽन्यथातो विदुः अन्यराजानः ते क्षय्यलोका भवन्ति इत्यादिश्रुतिभ्यश्च। ते तुभ्यं गुह्यतमं गोप्यतमं प्रवक्ष्यामि कथयिष्यामि अनसूयवे असूयारहिताय। किं तत् ज्ञानम्। किंविशिष्टम् विज्ञानसहितम् अनुभवयुक्तम्? यत् ज्ञात्वा प्राप्य मोक्ष्यसे अशुभात् संसारबन्धनात्।।त़ञ्च --,
।।9.1।।पूर्वसङ्गतत्वेनाध्यायार्थमाह -- सप्तमेति। भगवन्माहात्म्यमिति शेषः। पदार्थज्ञानपूर्वकं वाक्यार्थज्ञानमिति सप्तमोक्तपदार्थानष्टमे व्याख्याय नवमे तद्वाक्यार्थं स्पष्टीकरोतीत्यर्थः।
।।9.1।।श्रीरङ्गनाथाय नमः। म्। सप्तमाध्यायोक्तं स्पष्टयत्यस्मिन्नध्याये।
श्री भगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।9.1।।
শ্রী ভগবানুবাচ ইদং তু তে গুহ্যতমং প্রবক্ষ্যাম্যনসূযবে৷ জ্ঞানং বিজ্ঞানসহিতং যজ্জ্ঞাত্বা মোক্ষ্যসেশুভাত্৷৷9.1৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ ইদং তু তে গুহ্যতমং প্রবক্ষ্যাম্যনসূযবে৷ জ্ঞানং বিজ্ঞানসহিতং যজ্জ্ঞাত্বা মোক্ষ্যসেশুভাত্৷৷9.1৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ ઇદં તુ તે ગુહ્યતમં પ્રવક્ષ્યામ્યનસૂયવે। જ્ઞાનં વિજ્ઞાનસહિતં યજ્જ્ઞાત્વા મોક્ષ્યસેશુભાત્।।9.1।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਇਦਂ ਤੁ ਤੇ ਗੁਹ੍ਯਤਮਂ ਪ੍ਰਵਕ੍ਸ਼੍ਯਾਮ੍ਯਨਸੂਯਵੇ। ਜ੍ਞਾਨਂ ਵਿਜ੍ਞਾਨਸਹਿਤਂ ਯਜ੍ਜ੍ਞਾਤ੍ਵਾ ਮੋਕ੍ਸ਼੍ਯਸੇਸ਼ੁਭਾਤ੍।।9.1।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಇದಂ ತು ತೇ ಗುಹ್ಯತಮಂ ಪ್ರವಕ್ಷ್ಯಾಮ್ಯನಸೂಯವೇ. ಜ್ಞಾನಂ ವಿಜ್ಞಾನಸಹಿತಂ ಯಜ್ಜ್ಞಾತ್ವಾ ಮೋಕ್ಷ್ಯಸೇಶುಭಾತ್৷৷9.1৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച ഇദം തു തേ ഗുഹ്യതമം പ്രവക്ഷ്യാമ്യനസൂയവേ. ജ്ഞാനം വിജ്ഞാനസഹിതം യജ്ജ്ഞാത്വാ മോക്ഷ്യസേശുഭാത്৷৷9.1৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ଇଦଂ ତୁ ତେ ଗୁହ୍ଯତମଂ ପ୍ରବକ୍ଷ୍ଯାମ୍ଯନସୂଯବେ| ଜ୍ଞାନଂ ବିଜ୍ଞାନସହିତଂ ଯଜ୍ଜ୍ଞାତ୍ବା ମୋକ୍ଷ୍ଯସେଶୁଭାତ୍||9.1||
śrī bhagavānuvāca idaṅ tu tē guhyatamaṅ pravakṣyāmyanasūyavē. jñānaṅ vijñānasahitaṅ yajjñātvā mōkṣyasē.śubhāt৷৷9.1৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச இதஂ து தே குஹ்யதமஂ ப்ரவக்ஷ்யாம்யநஸூயவே. ஜ்ஞாநஂ விஜ்ஞாநஸஹிதஂ யஜ்ஜ்ஞாத்வா மோக்ஷ்யஸேஷுபாத்৷৷9.1৷৷
శ్రీ భగవానువాచ ఇదం తు తే గుహ్యతమం ప్రవక్ష్యామ్యనసూయవే. జ్ఞానం విజ్ఞానసహితం యజ్జ్ఞాత్వా మోక్ష్యసేశుభాత్৷৷9.1৷৷
9.2
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।।9.2।। यह सम्पूर्ण विद्याओंका और सम्पूर्ण गोपनीयोंका राजा है। यह अति पवित्र तथा अतिश्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है और करनेमें बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।
।।9.2।। यह ज्ञान राजविद्या (विद्याओं का राजा) और राजगुह्य (सब गुह्यों अर्थात् रहस्यों का राजा) एवं पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष ज्ञानवाला और धर्मयुक्त है, तथा करने में सरल और अव्यय है।।
।।9.2।। धर्म शब्द का प्रचलित अर्थ यह है कि सप्ताह के किसी विशेष दिन? निर्धारित समय के लिए देवालय में जाकर व्रत पालन तथा पूजा करना आदि। इस दृष्टि से वेदान्त कोई धर्म नहीं है परन्तु आदर्श जीवन जीने की कला को धर्म समझने पर वेदान्त सर्वश्रेष्ठ धर्म है? क्योंकि उसमें आदर्श जीवन का वैज्ञानिक विश्लेषण एवं विवेचन किया गया है। राजविद्या? राजगुह्य? पवित्र और उत्तम कहकर भगवान् श्रीकृष्ण उसकी प्रशंसा करते हैं।कोई ज्ञान? राजविद्या और गुह्यतम तथा परम पवित्र होते हुए भी यदि अनुभव ग्राह्य नहीं है? तो उसका कोई उपयोग नहीं हो सकता। परन्तु इस ज्ञान में यह दोष नहीं है? क्योंकि यह प्रत्यक्षावगमम् अर्थात् इसका आत्मरूप में साक्षात् अनुभव किया जा सकता है।इसी प्रकार? यह ज्ञान र्धम्य अर्थात् धर्म के अनुकूल है? धर्मयुक्त है। धर्म शब्द का अर्थ अनेक स्थलों पर बताया जा चुका है। आत्मचैतन्य के अभाव में मनुष्य स्थूल और सूक्ष्मरूप जड़तत्त्वों का समूह मात्र है? जो स्वयं कोई भी कार्य करने में समर्थ नहीं है। यह चेतनतत्त्वआत्मा ही मनुष्य का वास्तविक धर्म है? स्वरूप है। भगवान् यहाँ जो ज्ञान प्रदान करने वाले हैं? वह न भौतिक विज्ञान है और न मनोविज्ञान किन्तु वह आत्मज्ञान अर्थात् मनुष्य के स्वस्वरूप का ज्ञान है।सुसुखं कर्तुम् धर्म कोई बाह्य जगत् में की जाने वाली क्रिया नहीं? वरन् आत्मिक उन्नति का मार्ग है? जिसका अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही करता है। यदि प्रस्तुत ज्ञान को प्राप्त करना अत्यन्त कठिन हो? तो उसमें किसी की प्रवृत्ति न होने से उसकी विद्यमानता व्यर्थ ही होगी। वैज्ञानिकों की इस घोषणा से कि मंगलग्रह पर सोने का अक्षय भण्डार वितरण के लिए उपलब्ध है? देश की दरिद्रता दूर नहीं होती भगवान् इस ज्ञान के कठिन होने के भय को साधक के मन से निवृत्त करने के लिए कहते हैं कि यह करने में अत्यन्त सरल है। लगनशील और योग्य विद्यार्थी के लिये चित्तशुद्धि और उसके द्वारा ज्ञान से लक्ष्यप्राप्ति करना अत्यन्त सरल कार्य है।करने में सरल होते हुए भी यदि इस ज्ञान का फल अनित्य और विनाशी हो? तो कोई भी बुद्धिमान पुरुष उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करेगा। किन्तु स्वयं भगवान् प्रमाणित करते हैं कि इस ज्ञान का फल अव्यय है आत्म साक्षात्कार का अर्थ है? स्वयं अनादिअनन्त आत्मा ही बन जाना? जो इस आभासिक दृश्यमान जगत् का एकमेव अद्वितीय अधिष्ठान है। इसलिए कहा गया है कि यह ज्ञान अव्यय है।ज्ञान के साधकों के विपरीत? जो लोग इस नित्य वस्तु के लिए प्रयत्न नहीं करते? उनके विषय में कहते हैं --
।।9.2।। व्याख्या--'राजविद्या'--यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओंका राजा है; क्योंकि इसको ठीक तरहसे जान लेनेके बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता।भगवान्ने सातवें अध्यायके आरम्भमें कहा है कि 'मेरे समग्ररूपको जाननेके बाद जानना कुछ बाकी नहीं रहता।' पन्द्रहवें अध्यायके अन्तमें कहा है कि 'जो असम्मूढ़ पुरुष मेरेको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम जानता है, वह सर्ववित् हो जाता है अर्थात् उसको जानना कुछ बाकी नहीं रहता', इससे ऐसा मालूम होता है कि भगवान्के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त आदि जितने स्वरूप हैं, उन सब स्वरूपोंमें भगवान्के सगुण-साकार स्वरूपकी बहुत विशेष महिमा है।
।।9.2।।राजेति। राजते सर्वविद्यामध्ये वीप्यते या। इहैव ह्युच्यते -- अध्यात्मविद्या विद्यानाम् इति। राज्ञां जनकादीनाम् अत्र अधिकारः? तेषां रहस्यम् अतिगुप्तत्वात् (S??N प्रति गुप्तत्वात्)। क्षत्रियसुलभेन वी,(धी) रभावेनाविकम्पनात् (S??N -- कम्पत्वात्) कर्तुमनुष्ठातुं (N अनुष्ठानम्) सुसुखम्। [अव्ययम्]? न चास्य ब्रह्मोपासनात्मनः कर्मणः अन्यकर्मवदुपभोगादिना व्ययोऽस्ति।
।।9.2।।राजविद्या विद्यानां राजा राजगुह्यं गुह्यानां राजा राज्ञां विद्येति वा राजविद्या? राजानो हि विस्तीर्णागाधमनसः? महामनसाम् इयं विद्या इत्यर्थः।महामनस एव गोपनीयगोपनकुशला इति तेषाम् एव गुह्यम् इदम्। उत्तमम् पवित्रं मत्प्राप्तिविरोध्यशेषकल्मषापहं प्रत्यक्षावगमम्? अवगम्यते इति अवगमो विषयः? प्रत्यक्षभूतः अवगमो विषयो यस्य ज्ञानस्य तत् प्रत्यक्षावगमम्? भक्तिरूपेण उपासनेन उपास्यमानः अहं तदानीम् एव उपासितुः प्रत्यक्षताम् उपागतो भवामि इत्यर्थः।अथापि धर्म्यं धर्माद् अनपेतं धर्मत्वं हि निःश्रेयससाधनत्वम् स्वरूपेण एव अत्यर्थप्रियत्वेन तदानीम् एव मद्दर्शनापादनतया च स्वयं निःश्रेयसरूपम् अपि निरतिशयनिःश्रेयसरूपात्यन्तिकमत्प्राप्तिसाधनम् इत्यर्थः। अत एव सुसुखं कर्तुं सुसुखोपादानम्? अत्यर्थप्रियत्वेन उपादेयम् अव्ययम् अक्षयं मत्प्राप्तिं साधयित्वा अपि स्वयं न क्षीयते। एवंरूपम् उपासनं कुर्वतो मत्प्रदाने कृते अपि न किञ्चित् कृतं मया अस्य इति मे प्रतिभाति इत्यर्थः।
।।9.2।।तदाभिमुख्यसिद्धये तज्ज्ञानं स्तौति -- तच्चेति। ब्रह्मविद्या विद्यानां राजा श्रेष्ठेत्यत्र हेतुमाह -- दीप्तीति। कुतो ब्रह्मविद्याया विद्यान्तरेभ्यो दीप्त्यतिशयवत्त्वं तदाह -- दीप्यते हीति। दृश्यते हि विद्वदन्तरेभ्यो लोके पूजातिरेको ब्रह्मविदामिति भावः। उत्कृष्टतमं शुद्धिकारणं ब्रह्मज्ञानमित्येतदुपपादयति -- अनेकेति। तत्र च श्रुतिस्मृती प्रमाणयितव्ये। न शास्त्रैकगम्यमिदं ज्ञानं किंतु प्रत्यक्षप्रमेयमित्याह -- किञ्चेति। प्रत्यक्षमवगमो मानमस्मिन्निति तथा? यद्वावगम्यत इत्यवगमः फलं प्रत्यक्षोऽवगमोऽस्येति दृष्टफलत्वं ज्ञानस्योच्यते। धर्म्यमित्येतद्व्याकरोति -- अनपेतमिति। धर्मस्येव तस्य क्लेशसाध्यत्वमाशङ्क्याह -- एवमपीति। तत्र रत्नविषयं विवेकज्ञानं संप्रयोगादुपदेशापेक्षादनायासेन दृष्टं तथेदं ब्रह्मज्ञानमित्याह -- तथेति। अव्ययमिति विशेषणमाशङ्कापूर्वकं विवृणोति -- तत्रेत्यादिना। व्यवहारभूमिः सप्तम्यर्थः। ज्ञानस्याक्षयफलत्वे फलितमाह -- अत इति।
।।9.2।।किञ्च राजविद्येति। इदं ज्ञानं खलु राज्ञां महामनसां विद्या गुह्यं च मन्त्ररूपं विद्यानां राजा गुह्यं च इति वा। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परत्वम्। पावनसम्बन्धित्वात् पवित्रम्। प्रत्यक्षेति अवगम्यत इत्यवगमो विषयो यस्य ज्ञानस्य सोऽहं प्रत्यक्षतामुपगतो भवामीत्यर्थः? भक्त्यावृतत्वात्। अथापि धर्म्यं निश्श्रेयसलक्षणाद्धर्मादनपेतम्अनिच्छतो गतिमण्वीं प्रयुङ्क्ते इति वाक्यात्। कर्तुं च सुसुखं न कर्मान्तरवद्दुष्करम्।
।।9.2।।पुनस्तदाभिमुख्याय तज्ज्ञानं स्तौति -- राजविद्या सर्वासां विद्यानां राजा? सर्वाविद्यानाशकत्वात्? विद्यान्तरस्याविद्यैकदेशविरोधित्वात्। तथा राजगुह्यं सर्वेषां गुप्तानां राजा? अनेकजन्मकृतसुकृतसाध्यत्वेन बहुभिरज्ञातत्वात्। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परनिपातः। पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रायश्चित्तैर्हि किंचिदेकमेव पापं निवर्त्यते। निवृत्तं च तत्स्वकारणे सूक्ष्मरूपेण तिष्ठत्येव। यतः पुनस्तत्पापमुपचिनोति पुरुषः। इदं त्वनेकजन्मसहस्रसंचितानां सर्वेषामपि पापानां स्थूलसूक्ष्मावस्थानां तत्कारणस्य चाज्ञानस्य सद्य एवोच्छेदकम्। अतः सर्वोत्तमं। पावनमिदमेव। नचातीन्द्रिये धर्म इवात्र कस्यचित्संदेहः? स्वरूपतः फलतश्च प्रत्यक्षत्वादित्याह -- प्रत्यक्षावगमं अवगम्यतेऽनेनेत्यवगमो मानं? अवगम्यते प्राप्यत इत्यवगमः फलं? प्रत्यक्षमवगमो मानमस्मिन्निति स्वरूपतः साक्षिप्रत्यक्षत्वं? प्रत्यक्षोऽवगमोऽस्येति फलतः साक्षिप्रत्यक्षत्वं? मयेदं विदितमतो नष्टमिदानीमत्र,ममाज्ञानमिति हि सार्वलौकिकः साक्ष्यनुभवः। एवं लोकानुभवसिद्धत्वेऽपि तज्ज्ञानं धर्म्यं धर्मादनपेतं अनेकजन्मसंचितनिष्कामधर्मफलम्। तर्हि दुःसंपादं स्यान्नेत्याह -- सुसुखं कर्तुं,गुरूपदर्शितविचारसहकृतेन वेदान्तवाक्येन सुखेन कर्तुं शक्यं न देशकालादिव्यवधानमपेक्षते प्रमाणवस्तुपरतन्त्रत्वाज्ज्ञानस्य। एवमनायाससाध्यत्वे स्वल्पफलत्वं स्यादत्यायासाध्यानामेव कर्मणां महाफलत्वदर्शनादिति नेत्याह -- अव्ययम्। एवमनायाससाध्यस्याप्यस्य फलतो व्ययो नास्तीत्यव्ययम्। अक्षयफलमित्यर्थः। कर्मणां त्वतिमहतामपि क्षयिकफलत्वमेवयो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्िमँल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते बहूनि वर्षसहस्राण्यन्तवदेवास्य तद्भवति इति श्रुतेः। तस्मात्सर्वोत्कृष्टत्वाच्छ्रद्धेयमेवात्मज्ञानम्।
।।9.2।।किंच -- राजविद्येति। इदं ज्ञानं राजविद्या विद्यानां राजेति राजविद्या च। गुह्यानां राजेति राजगुह्यं विद्यासु गोप्येषु च रहस्यम्। अतिश्रेष्ठमित्यर्थः। राजदन्तादित्वादुपसर्जनस्य परत्वम्। राज्ञां विद्या राज्ञां गुह्यमितिवा उत्तमं पवित्रमत्यन्तपावनमिदं ज्ञानिनां प्रत्यक्षावगमं च प्रत्यक्षः स्पष्टोऽवगमोऽवबोधो यस्य तत्प्रत्यक्षावगमम्। दृष्टफलमित्यर्थः। धर्म्यं च धर्मादनपेतं? सर्वधर्मफलत्वात्। कर्तुं सुसुखं च। सुखेन कर्तुं शक्यमित्यर्थः। अव्ययमक्षयफलत्वात्।
।।9.2।।उपायान्तरेभ्योऽस्योपायस्यातिशयं दर्शयति -- राजविद्येति। राजशब्दस्यात्र क्षत्रियविषयत्वेविशेषविधिः शेषनिषेधं गमयति [ ] इतिन्यायात् ब्राह्मणादेरनधिकारप्रसङ्गात्राज्ञां विद्या इति विग्रहमनादृत्याह -- विद्यानां राजा ৷৷. गुह्यानां राजेति। समानाधिकरणसमासफलमनुरुध्येदमुक्तम् शब्दार्थस्तु राजभूता विद्येति राजदन्तादिषु वा पाठो द्रष्टव्यः।पवित्रमिदमुत्तमम् इत्युत्तमशब्दसमानन्यायतया राजशब्दोऽत्र श्रेष्ठवाची। एवमप्रसिद्धार्थक्लेशमसहमान आहराज्ञां विद्येति। ब्राह्मणादेरधिकारनिषेधपरत्वशङ्कापरिहारायोपचारनिमित्तं गुणं दर्शयतिराजानो हीति। फलितमाहमहामनसामिति। अजहल्लक्षणा वा गौणी वा वृत्तिरिह विवक्षिता? अन्यैर्ज्ञातुमशक्यत्वादिति भावः।राजगुह्यम् इत्यस्यापि सप्रयोजनत्वायौपचारिकार्थत्वं दर्शयतिमहामनस एव हीति। उपायविरोधिनिवर्तककतिपयनिवर्तकव्यवच्छेदार्थमुत्तमशब्दविशेषितपवित्रशब्दविवक्षितमाह -- मत्प्राप्तीति।प्रत्यक्षावगमम् इत्यत्र प्रत्यक्षरूपज्ञानपरत्वे नपुंसकत्वायोगाज्ज्ञानस्यैव विशेष्यस्य ज्ञानमेव विशेषणीकृत्य बहुव्रीह्ययोगाच्च कर्मणि व्युत्पत्त्या बहुव्रीहित्वं घटयतिअवगम्यत इत्यादिना। नन्विदमयुक्तम्? उपासनस्य स्मृतिसन्ततिरूपत्वात्? उपास्यस्य चाप्रत्यक्षत्वश्रुतेः प्रत्यक्षस्य तु विषयान्तरस्य भक्तावनन्वयादित्यत्राहभक्तरूपेणेति।भक्त्या त्वनन्यया शक्यः [11।54] इत्यादिकमिह भाव्यम्।तदानीमेवेत्यासक्तिवशादुक्तम्।स्वयं फलभूतानां हि फलान्तरसाधनत्वरूपं धर्मत्वं दुर्लभमित्यभिप्रायेणाह -- अथापि धर्म्यमिति।धर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते [अष्टा.4।4।92] इति सूत्रानुसारेण धर्म्यशब्दं निर्वक्तिधर्मादिति। अभिप्रेतं विवृणोतिधर्मत्वं हीत्यादिना। प्रीतिपर्यायधृतिवाचके धातौ करणविवक्षया व्युत्पन्नो ह्ययं धर्मशब्द इति भावः। उक्तं चाभियुक्तैःधर्म इत्युपसंहार्ये यच्छ्रेयस्करभाषणम्। तद्धर्मपदवाच्यार्थनिरूपणविवक्षया इत्यादि। श्रेयसोऽत्रावच्छेदकाभावात्मुक्तिः कैवल्यनिर्वाणश्रेयोनिश्श्रेयसामृतम् [अमरः1।5।6] इति नैघण्टुकपाठाच्चनिरतिशयेत्यादिकमुक्तम्।अत एवेति -- स्वरूपतः साध्यतश्च पुरुषार्थरूपत्वादित्यर्थः। कर्तुं सुसुखं करणे सुसुखमित्यर्थः।सुसुखं इत्यस्य तुमुनन्तक्रियाकर्मीभावभ्रमव्युदासायाहसुसुखोपादानमिति। उपसर्गसुखशब्दयोरत्राभिप्रेतमाहअत्यर्थेति। स्वरूपतो विषयतश्चात्यर्थानुकूलत्वात्सुखेनानुष्ठेयमित्यर्थः। फलविनाश्यं हि सर्वमन्यत्कर्म इदं तु सुकरमपि फलेनापि न क्षीयते अपवर्गरूपं फलमप्येतस्य नालमित्यतिशयपरोऽव्ययशब्द इत्यभिप्रायेणाहअक्षयमिति। तद्विवृणोतिमत्प्राप्तिमिति। तर्हि किमन्यदधिकं साध्यमिति शङ्कायामभिप्रेतमाहएवंरूपमिति।
।।9.2।।गुह्यतमत्वज्ञापनायोच्यमानस्य सर्वोत्तमत्वमाह -- राजविद्येति। इदमुच्यमानं राजविद्या विद्यानां राजा? ब्रह्मविद्यात्मकमित्यर्थः। राजगुह्यं गुह्यानां गोप्यानां राजा? विद्यासु मुख्यत्वात् गोप्येषु मुख्यत्वात् कस्यापि न वक्तव्यमिति भावः। पवित्रं? परमपावनमित्यर्थः। उत्तमं सर्वोत्कृष्टम्। प्रत्यक्षावगमं साक्षात्फलात्मकं? दृष्टफलरूपमित्यर्थः। धर्म्यं धर्मोत्पादकं? कर्तुं सुसुखं सुखेन कर्तुं योग्यम्? अव्ययं अविनाशि। यद्वा -- अव्ययं कर्तुं स्वसुखं सुसुखं परमसुखमित्यर्थः।
।।9.2।।एतदेव स्तौति -- राजविद्येति। विद्यानां राजा इति राजविद्या अध्यात्मविद्या। गुह्यानां राजा इति राजगुह्यम्।राजदन्तादिषु परम् इत्युपसर्जनस्य परनिपातः। पवित्रं पावनम्। उत्तमं पूर्वापरदुरितनाशाश्लेषहेतुत्वात्प्रायश्चित्ताद्यपेक्षया श्रेष्ठम्। प्रत्यक्षावगमं प्रत्यक्षं नित्यापरोक्षं यत्प्रत्यगात्मवस्तु तदेव याथात्म्येनावगम्यतेऽनेनेति प्रत्यक्षावगमं? प्रत्यक्षेण सुखादिवद्गमो यस्येति वा। अस्मिन्पक्षे विज्ञानसहितमिति विशेषणस्य श्लोकान्तरस्थत्वान्न तेन पौनरुक्त्यदोषः। तर्हि अपूर्वत्वाभावान्निष्फलं स्यादत आह। धर्म्यं धर्मादनपेतम्। तथाहि क्षणमपि प्रत्यगात्माकारवृत्तौ सत्यां श्रूयतेक्षणमेकं क्रतुशतस्य चतुःसप्तत्या यत्फलं तद्वाप्नोति इति। तर्हि दुःसाध्यं स्यान्नेत्याह -- सुसुखं कर्तुमिति। कर्तुं संपादयितुमाविष्कर्तुं सुसुखमनायाससाध्यम्। अज्ञानापनयमात्रसिद्धत्वात्। तर्हि आशुविनाशिफलं चेत्। अव्ययं? वस्तुमात्रविषयत्वात्। अनन्तफलं नतु कर्मफलवन्नश्यति।
।।9.2।।तज्ज्ञानं स्तौति राजेति। राजविद्या विद्यानां सर्वासां राजा। ब्रह्मविद्यावतः पूजातिशयदर्शयेन तस्या अतिशयेन देदीप्यमानत्वात्। तथाच श्रुतिःतस्मादात्मज्ञमर्चयेद्भूतिकामः इति। भगवद्ववचनं चनिरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्। अनुब्रजाभ्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्गिरेणुभिः।। इति। तथा सर्वेषां गुह्यानामुत्कर्षवत्त्वेन गोप्यानां राजाऽत्यत्कर्षत्वात्राजदन्तादिषु परम् इत्युपासर्जनस्य परनिपातः। इदं ब्रह्मज्ञानमुत्तमं पवित्रं सर्वेषां पावनानामपि शुद्धिकत्वात्। अन्यद्धि प्रायश्चित्तादिरुपं पवित्रं यथाकथंचित्किंचित्पापं नाशयति। इदं तु सर्वै धर्माधर्मादिलक्षणं अनेकजन्मसंचितं समूलं कर्म नाशयति। क्रियमाणं चाश्चलष्टं करोति। तथाच व्याससूत्रेतदधिगम उत्तरपूर्वाधयोरश्लेषविनाशौ तद्य्वपदेशात्इतरस्याप्येवमसंश्लेषः पाते तु इति। तस्मात्किं तस्य ब्रह्मज्ञानस्य परमपावनत्वं वक्तव्यमेतल्लवसदृशस्यान्यस्य पावन स्यानिरुपणात्। किंच न केवलं धर्मवच्छास्त्रगम्यं परोक्षमेवापितु प्रत्यक्षावगमं प्रत्यक्षेण सुखादेरिवावगमो यस्येति भाष्यम्। प्रत्यक्षोऽवगमो मानमस्मिमन्निति तथा। यद्वावगम्यत इत्यवगमः फलं प्रत्यक्षोऽवगमोऽस्येति दृष्टफलत्वं ज्ञानस्योच्यत इति तट्टीका। प्रथमपक्षेऽवगम्येतऽनेनेत्यवगमो मानं प्रत्यक्षं तदस्मिन्निति स्वरुपतः साक्षिप्रत्यक्षत्वं। द्वितीयपक्षे फलतः तत्प्रत्यक्षत्वं मयेदं विदतमतो नष्टमिदानीं ममात्राज्ञानमिति सार्वजनीनः साक्ष्यनुभवः इति तदर्थः। प्रत्यक्षं नित्यापरोक्षं यत्प्रत्यगात्मवस्तु तदेव याथात्म्येनावगम्येऽनेनेत्यपि केचित्तदेतत्पक्षत्रयमपि भाष्यस्योपलक्षणार्थत्वेनोपादेयम्। नन्वनेकगुणवतोऽपि मांसभक्षणादेर्धर्मविरुद्धत्वं दृष्टम्? तथा आत्मज्ञानमपि किं न स्यादिति तत्राह। धर्म्यं धर्मादनपेतम्। अनेकजन्मार्जितसुकृतसाध्यत्वात्। नन्वेमपि दुःसंपाद्यं स्यादिति तत्राह। सुसुखं कर्ते गुरुपदिष्टवेदान्तवाक्यैरज्ञाननिवृत्त्या सुखेनैव संपादयितुं शक्यं न देशकालऋत्विगाद्यपेक्षास्तीति। ननु लोके यन्महत्फलं तद्वह्वायाससाध्यकर्मसाध्यम्। अल्पं त्वल्पायाससाध्यकर्मसाध्यं दृष्टम्। तद्वज्ज्ञानमपि कर्तुं सुखं अल्पफलं भविष्यतीत्याशङ्क्य रत्नविवेकज्ञानस्याल्पायाससाध्यस्यापि महाफलदर्शनान्नेत्याह। अव्ययं नास्य ज्ञानस्य लोकवत्फलतो व्ययो नाशोस्तीऽत्यव्ययम्। अतः श्रद्धयावश्यं संपाद्यमिति भावः।
9.2 राजविद्या the king of sciences? राजगुह्यम् kingly secret? पवित्रम् purifier? इदम् this? उत्तमम् highest? प्रत्यक्षावगमम् realisable by direct? intuitional knowledge? धर्म्यम् according to righteousness? सुसुखम् very easy? कर्तुम् to perform? अव्ययम् imperishable.Commentary In this verse Lord Krishna eulogies the knowledge of Brahman very highly in order to create a great interest in the spiritual aspirants for attaining It ickly.There is neither blind faith nor faithmongering in this royal science. The truth? the sovereign,secret (the Self or the Absolute) can be directly realised by intuition or immediate perception. The science of the Absolute is the most splendid of all sciences. It is the science of sciences. Of sciences the highest? of secrets the most profoun? of purifiers the supreme is this. The knowledge of Brahman is the best purifier. It reduces the roots of all Karmas and all the Karmas themselves which have been stored up in the course of many thousands of births? into ashes in the twinkling of an eye. It destroys Avidya along with its effects. An expiatory act (Prayaschitta) cannot destroy all sins. It removes the effect of a single sin? only to some extent. Even if it is removed the effect of that sin remains in a subtle state in the mind and forces him to do sinful acts in his next birth. But the knowledge of the Self destroys ickly all the sins in their gross and subtle states that are accumulated in the course of several thousands of births along with Avidya? their cause. That is the reason why it is a supreme purifier. The causal body of the Jiva is called MulaAvidya (rootignorance). The Avidya or the veil of ignorance that envelops the visible objects of this world is called Sthula Avidya or gross ignorance.The knowledge of the Self is not opposed to Dharma. It is the fruit of all actions done in many births without expectation of fruits. Further? the knowledge of the Absolute can very easily be attained. One may think that this knowledge will perish soon as it is easily obtained? when its effect is exhausted. It is not so. It is imperishable. It is everlasting. It shines for ever by its own Selfeffulgence. He who has tasted this nectar even once becomes immortal. Therefore the knowledge of the Absolute is certainly worth aciring. You will have to strive very hard to attain it anyhow in this birth? as it is very difficult to get a human birth. Strive hard every moment? for life is uncertain and the prize (final liberation) is great.
9.2 This is the kingl science, the kingly secret, the supreme purifier, realisable by direct intuitional knowledge, according to righteousness, very easy to perform and imperishable.
9.2 This is the Premier Science, the Sovereign Secret, the Purest and Best; intuitional, righteous; and to him who practiseth it pleasant beyond measure.
9.2 This is the Sovereign Knowledge, the Sovereign Profundity, the best sanctifire; directly realizable, righteous, very easy to practise and imperishable.
9.2 And that is raja-vidya, the Sovereign Knowledge, the kind among sciences because of the abundance of its radiance. Indeed, this knowledge of Brahman shines most brilliantly among all kiinds of learning [The word raja means a king, or figuratively, the greatest; or, derived from the root raj, to shine, it may mean shining.-Tr.] So also, idam, this; is raja-guhyam, the Sovereign Profundity, the kind among profundities; uttamam, the best; pavitram, sanctifier. This knowledge of Brahman, which sanctifies all things that purify, is the greatest. Shine it reduces to ashes in a moment (the results of) all actions-righteous, unrighteous and others-together with their roots, accumulated over many thousands of births, therefore, what to speak of its sanctifying power! Besides, it is pratyaksavagamam, directly realizable, directly perceivable like happiness etc. Even though possessed of many alities, a thing may be noticed to be contrary to righteousness. The knowledge of the Self is not opposed to righteousness, in that way, but it is dharmyam, righteous, not divorced from righteousness. Eeve so, it may be difficult to practice. Hence the Lord says it is susukham, very easy; kartum to practise, like the knowledge of the distinction among jewels. It is seen (in the world) that, actions which reire little effort and are accomplished easily yield meagre results, whereas those that are difficult to accomplish yield great results. Thus the contingency arises that this (knowledge of Brahman), however. which is easily attained, perishes when its result gets exhausted. Therefore the Lord says it is avyayam, imperishable. From the point of view of its result, it is not perishable like (the results of) actions. Hence the knowledge of the Self should be highly regarded.
9.2. This shines among the sciences; (this is) the secret of monarchs; it is a supreme purifier, it is comprehensible by immediate perception, is righteous, easy to do, and imperishable.
9.2 Raja-etc. Shines : that which illumines in the midst of all sciences. Here [in the Gita] itself it is said 'The science of the Self [is the chief] among the sciences'. Here in this science kings like Janaka etc., have a right and pervilege (adhikara) [to learn]. It is their secret, as it is much protected (by them) by heroism easy for the Ksatriyas. As they do not waver [in their mind] because of their heroic nature that is common in the members of the warring class, it is very easy to do i.e., to observe. Imperishable : Unlike other actions this action of worshipping Brahman does not perish through the enjoyment of [its result].
9.2 This is a 'royal science', the king among sciences; 'the royal mystery', the king among mysteries. Or royal science may also mean the science known and practised by kings. Indeed kings are those who have broad and profound minds. The meaning is that this is the science of great minds. This is a mystery, because the great-minded alone are skilled in keeping mysteries. This is 'supreme purifier'; for it removes completely all blemishes opposed to the attainment of Myself. It is realised by 'direct perception'. Avagama' is that which is apprehended - the subject of knowledge. It is that knowledge which has become direct perception, so that its object is directly apprehended. The import is that I, when worshipped in the spirit of Bhakti, become perceptible to the worshipper immediately. Even so, it is in 'accord with Dharma' or inseparable from Dharma. What is called Dharma is that which constitutes the means for the highest good. Though it is of the nature of supreme good, as it brings about the vision of Myself, yet it is also the means for completely attaining Me, which is the end unsurpassed and the final good. Because of this, it is 'pleasurable' to practise; its adoption is a matter of supreme love. It is 'abiding', imperishable. It does not perish even after leading to My attainment. That is, I give Myself up to one who performs this form of worship; even then it appears to Me that I have done nothing for him. Such is the meaning.
9.2 This is the royal science, royal mystery, the supreme purifier, It is realised by direct experience. It is in accord with Dharma, it is pleasant to practise and is abiding.
।।9.2।।वह ज्ञान --, अतिशय प्रकाशयुक्त होनेके कारण समस्त विद्याओंका राजा है। ब्रह्मविद्या सब विद्याओंमें अतिशय देदीप्यमान है यह प्रसिद्ध ही है। तथा ( यह ज्ञान ) समस्त गुप्त रखनेयोग्य भावोंका भी राजा है। एवं यह बड़ा पवित्र और उत्तम भी है? अर्थात् सम्पूर्ण पवित्र करनेवालोंको पवित्र करनेवाला यह ब्रह्मज्ञान सबसे उत्कृष्ट है। जो अनेक सहस्र जन्मोंमें इकट्ठे हुए पुण्य पापादि कर्मोंको क्षणमात्रमें मूलसहित भस्म कर देता है उसकी पवित्रताका क्या कहना है साथ ही यह ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभवमें आनेवाला है? अर्थात् सुख आदिकी भाँति जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हो सके? ऐसा है। अनेक गुणोंसे युक्त वस्तुका भी धर्मसे विरोध देखा जाता है? परंतु आत्मज्ञान उनकी तरह धर्मविरोधी नहीं है बल्कि धर्म्य -- धर्ममय है अर्थात् धर्मसे युक्त है। ऐसा पदार्थ भी दुःसम्पाद्य ( प्राप्त करनेमें बड़ा कठिन ) हो सकता है। इसलिये कहते हैं कि वह ज्ञान रत्नोंके विवेकविज्ञानकी भाँति समझनेमें बड़ा सुगम है। परंतु संसारमें अल्प परिश्रमसे सुखपूर्वक सम्पन्न होनेवाले कर्मोंका अल्प फल और कठिनतासे सम्पन्न होनेवाले कर्मोंका महान् फल देखा गया है? अतः यह ज्ञान भी सुगमतासे सम्पन्न होनेवाला होनेके कारण अपने फलका क्षय होनेपर क्षीण हो जायगा? ऐसी शङ्का प्राप्त होनेपर कहते हैं -- यह ज्ञान अव्यय है अर्थात् कर्मोंकी भाँति फलनाशके द्वारा इसका नाश नहीं होता। अतः यह आत्मज्ञान श्रद्धा करने योग्य है।
।।9.2।। --,राजविद्या विद्यानां राजा? दीप्त्यतिशयवत्त्वात् दीप्यते हि इयम् अतिशयेन ब्रह्मविद्या सर्वविद्यानाम्। तथा राजगुह्यं गुह्यानां राजा। पवित्रं पावनं इदम् उत्तमं सर्वेषां पावनानां शुद्धिकारणं ब्रह्मज्ञानम् उत्कृष्टतमम्। अनेकजन्मसहस्रसंचितमपि धर्माधर्मादि समूलं कर्म क्षणमात्रादेव भस्मीकरोति इत्यतः किं तस्य पावनत्वं वक्तव्यम्। किञ्च -- प्रत्यक्षावगमं प्रत्यक्षेण सुखादेरिव अवगमो यस्य तत् प्रत्यक्षावगमम्। अनेकगुणवतोऽपि धर्मविरुद्धत्वं दृष्टम्? न तथा आत्मज्ञानं धर्मविरोधि? किंतु धर्म्यं धर्मादनपेतम्। एवमपि? स्याद्दुःखसंपाद्यमित्यत आह -- सुसुखं कर्तुम्? यथा रत्नविवेकविज्ञानम्। तत्र अल्पायासानामन्येषां कर्मणां सुखसंपाद्यानाम् अल्पफलत्वं दुष्कराणां च महाफलत्वं दृष्टमिति? इदं तु सुखसंपाद्यत्वात् फलक्षयात् व्येति इति प्राप्ते? आह -- अव्ययम् इति। न अस्य फलतः कर्मवत् व्ययः अस्तीति अव्ययम्। अतः श्रद्धेयम् आत्मज्ञानम्।।ये पुनः --,
।।9.2।।राज्ञामश्वपतिजनकादीनां विद्या राजविद्येति कश्चित्? तदसत् ब्राह्मणादीनामनधिकारप्रसङ्गादिति भावेनाह -- राजेति। राजेव राजा? राजा चासौ विद्या चेति राजविद्येत्यर्थः। प्रत्यक्षेणावगमो यस्येति (शां.) व्याख्यानमसत्। भगवन्माहात्म्यस्य शास्त्रैकसमधिगम्यत्वात्अद्वैतोद्गारस्य प्रमाणविरुद्धत्वादिति भावेनाह -- प्रत्यक्षमिति। शास्त्रैकवेद्यं ब्रह्म कथं प्रत्यक्षं इत्यत आह -- अक्षेष्विति। प्रत्यक्षः परमात्मा। प्रादिसमासोऽयं? नाव्ययीभाव इति ज्ञापनाय नपुंसके प्रकृतेऽपि पुँल्लिङ्गनिर्देशः? अन्यथा षष्ठी न श्रूयेत। परमात्मनोऽक्षेषु स्थितत्वे किं मानं इत्यत आह -- तथा चेति। प्राण इति प्राणाभिमानिनी देवतोच्यते? प्राणादन्तरो भिन्नः। अङ्गुष्ठेति कर्मेन्द्रियाधिष्ठातृत्वमुच्यते। मन इत्यादेर्मनआदिस्थ इत्यर्थः। प्रत्यक्षशब्दस्यायमर्थ इत्यत्र श्रुतिमाह -- स इति। प्रतिस्थितः। अक्षवान् प्रशस्तेन्द्रियः। यो विद्वानेवं प्रत्यक्षशब्दार्थं वेद। धर्मादनपेतं धर्म्यमिति निर्वचनेऽपि न प्रसिद्धधर्माविरुद्धत्वमर्थः? निवृत्तधर्मस्य ब्रह्मज्ञानाविरुद्धतायाः प्रसिद्धत्वात्। प्रवृत्तिलक्षणस्य तु तद्विरुद्धत्वादिति भावेनाह -- धर्म इति। तस्मादनपेतमित्यर्थस्तद्विषयमिति। कथं भगवान् धर्मः इत्यत आह -- सर्वमिति। धृञो मन्प्रत्यय औणादिकः। धारके धर्मशब्दप्रवृत्तिः कुतः इत्यत आह -- पृथिवीति। पर्वतोपरीत्यर्थः। भगवतः सर्वधारकत्वे किं मानं इत्यत आह -- भारभृदिति। सर्वत्र स्थितो भगवान् सर्वेण ध्रियते? स कथं सर्वस्य धारकः इत्यत आह -- भर्तेति। भर्ता सन्नेव म्रियमाणो न स्वकीयस्थित्यै। धर्मशब्दस्य भगवद्वाचित्वं कुतः इत्यत आह -- धर्मो वा इति। इदमग्रे अस्याग्रे। अत्र पुण्यं धर्मः किं न स्यात् इति शङ्कानिरासार्थं सोऽध्यायदिति वाक्यशेषोदाहरणम्।
।।9.2।।राजविद्या प्रधानविद्या। प्रत्यक्षं ब्रह्म अवगम्यते येन तत्प्रत्यक्षावगमम्। अक्षेष्विन्द्रियेषु प्रति प्रतिस्थित इति प्रत्यक्षः। तथा च श्रुतिः यः प्राणे तिष्ठन्प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेद यस्य प्राणः शरीरम्। यः प्राणमन्तरो यमयत्येष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः। यो वाचि तिष्ठन् ৷৷. यश्चक्षुषि तिष्ठन् [बृ.उ.3।7।1618] इत्यादिः। य एषोऽन्तरक्षिणि पुरुषो दृश्यते [छां.उ.1।7।5] इति च अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽङ्गुष्ठं च समाश्रितः [म.ना.उ.15।5] इति च।त्वं मनस्त्वं चन्द्रमास्त्वं चक्षुरादित्यः इत्यादेश्च मोक्षधर्मे। [म.भा.12।338।98100] स प्रत्यक्षः प्रति इति हि सोऽक्षेष्वक्षवान् भवति य एवं विद्वान्प्रत्यक्षं वेद इति सामवेदे बाभ्रव्यशाखायाम्। धर्मो भगवान् तद्विषयं धर्म्यम्। सर्वं जगद्धत्त इति धर्मः।पृथिवी धर्ममूर्धनि इति च प्रयोगान्मोक्षधर्मे।भारभृत्कथितो योगी [म.भा.13।149।106] इति च। भर्ता सन् भ्रियमाणो बिभर्ति [तै.आ.3।14] इति च श्रुतिः। धर्मो वा इदमग्र आसीन्न पृथिवी न वायुर्भाकाशो न ब्रह्मा न रुद्रो न देवा न ऋषयः सोऽध्यायत् इति च सामवेदशाखायाम्।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।।
রাজবিদ্যা রাজগুহ্যং পবিত্রমিদমুত্তমম্৷ প্রত্যক্ষাবগমং ধর্ম্যং সুসুখং কর্তুমব্যযম্৷৷9.2৷৷
রাজবিদ্যা রাজগুহ্যং পবিত্রমিদমুত্তমম্৷ প্রত্যক্ষাবগমং ধর্ম্যং সুসুখং কর্তুমব্যযম্৷৷9.2৷৷
રાજવિદ્યા રાજગુહ્યં પવિત્રમિદમુત્તમમ્। પ્રત્યક્ષાવગમં ધર્મ્યં સુસુખં કર્તુમવ્યયમ્।।9.2।।
ਰਾਜਵਿਦ੍ਯਾ ਰਾਜਗੁਹ੍ਯਂ ਪਵਿਤ੍ਰਮਿਦਮੁਤ੍ਤਮਮ੍। ਪ੍ਰਤ੍ਯਕ੍ਸ਼ਾਵਗਮਂ ਧਰ੍ਮ੍ਯਂ ਸੁਸੁਖਂ ਕਰ੍ਤੁਮਵ੍ਯਯਮ੍।।9.2।।
ರಾಜವಿದ್ಯಾ ರಾಜಗುಹ್ಯಂ ಪವಿತ್ರಮಿದಮುತ್ತಮಮ್. ಪ್ರತ್ಯಕ್ಷಾವಗಮಂ ಧರ್ಮ್ಯಂ ಸುಸುಖಂ ಕರ್ತುಮವ್ಯಯಮ್৷৷9.2৷৷
രാജവിദ്യാ രാജഗുഹ്യം പവിത്രമിദമുത്തമമ്. പ്രത്യക്ഷാവഗമം ധര്മ്യം സുസുഖം കര്തുമവ്യയമ്৷৷9.2৷৷
ରାଜବିଦ୍ଯା ରାଜଗୁହ୍ଯଂ ପବିତ୍ରମିଦମୁତ୍ତମମ୍| ପ୍ରତ୍ଯକ୍ଷାବଗମଂ ଧର୍ମ୍ଯଂ ସୁସୁଖଂ କର୍ତୁମବ୍ଯଯମ୍||9.2||
rājavidyā rājaguhyaṅ pavitramidamuttamam. pratyakṣāvagamaṅ dharmyaṅ susukhaṅ kartumavyayam৷৷9.2৷৷
ராஜவித்யா ராஜகுஹ்யஂ பவித்ரமிதமுத்தமம். ப்ரத்யக்ஷாவகமஂ தர்ம்யஂ ஸுஸுகஂ கர்துமவ்யயம்৷৷9.2৷৷
రాజవిద్యా రాజగుహ్యం పవిత్రమిదముత్తమమ్. ప్రత్యక్షావగమం ధర్మ్యం సుసుఖం కర్తుమవ్యయమ్৷৷9.2৷৷
9.3
9
3
।।9.3।। हे परंतप! इस धर्मकी महिमापर श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य मेरे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारके मार्गमें लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।
।।9.3।। हे परन्तप ! इस धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूपी संसार में रहते हैं (भ्रमण करते हैं)।।
।।9.3।। नित्यसिद्ध आत्मा का अनादर करके जीने वाले लोग निश्चय ही नित्यस्वरूप मुझे प्राप्त न होकर संसार को लौटते हैं। बहिर्मुखी प्रवृत्ति के लोग सदैव विषयों का ही चिन्तन करके अपनी बौद्धिक क्षमता? मानसिक शक्ति और शारीरिक बल का अपव्यय करते हैं। विषयभोग के नित्य नवीन साधन खोजने में लगे हुए ये लोग मृत्युरूपी संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं।जब मनुष्य विषयों का चिन्तन करके उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करता है तब उसे भोग प्राप्त तो हो जाते हैं? परन्तु वे सब अनित्य होने के कारण उनका अन्तिम परिणाम दुख ही होता है। और विडम्बना यह है कि वह फिर भी उनमें ही और अधिक आसक्त हो जाता है परमात्मा की अपरा प्रकृति का वह पूजक बन जाता है। कितना ही विशाल समुद्र क्यों न हो? उसमें से किसी भी स्थान से लिया गया प्रत्येक बूँद स्वाद में खारा ही होता है। इसी प्रकार? विषय प्रेम के पीछे हमारा कोई भी उद्देश्य क्यों न हो? एक बार विषयलोलुप हो जाने पर हम निश्चय ही दुख के खारे अश्रु पीने को बाध्य हो जाते हैं? क्योंकि अनित्यता? नश्वरता तो हमारे प्रेम के विषय का स्वरूप ही है। नामरूपमय यह जगत् परिच्छिन्न और नित्य परिवर्तनशील है। यहाँ प्रतिक्षण प्रत्येक वस्तु परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रही है? और प्रत्येक परिवर्तन वस्तु की पूर्व स्थिति की मृत्यु है। इस प्रकार? यहाँ भगवान् द्वारा प्रयुक्त मृत्यु शब्द को उसके व्यापक अर्थ में ग्रहण करना चाहिए। संक्षेप में? विषयलोलुप लोग सदैव दुखपूर्ण मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं।यद्यपि वेदान्तशास्त्र में श्रद्धा शब्द गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के आशय को भी सूचित करता है? तथापि यह श्रद्धा भावुकता के कोहरे पर निर्मित नहीं? वरन् सिद्धांत की युक्तियुक्तता के ज्ञान के स्थित प्रकाश पर स्थिर है। श्रीशंकराचार्य श्रद्धा की परिभाषा इस प्रकार देते हैं? शास्त्र और आचार्य के उपदेश को सत्यबुद्धि से ग्रहण करना श्रद्धा है जिसके द्वारा परमार्थ सत्य वस्तु की प्राप्ति होती है। श्रद्धा वह दृढ़ विश्वास है? जो हमें मन और बुद्धि से परे तत्त्व की ऊँचाई तक उठाता है? और र्मत्यपरिच्छिन्न जीव से अमृत स्वरूप अनन्त सत्य के गढ़ने में सहायक होता है।किसी वस्तु का धर्म वह कुछ होता है? जिसके बिना उस वस्तु का उस रूप में अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता? जैसे अग्नि की उष्णता? बर्फ की शीतलता और सूर्य का प्रकाश। जिन लोगों को अपने दिव्य आत्मस्वरूप के अस्तित्व में श्रद्धा नहीं होती वे अपनी भावनाओं के कूजन? बुद्धि के गर्जन और देह की फुंकारों द्वारा बड़ी सरलता से आनन्दस्वरूप से अपहरण कर लिये जाते हैं। वे विकास की सीढ़ी से नीचे गिर कर द्विपाद पशुओं के समान जीवन जीते हैं। जैसे कोई विक्षिप्त (पागल) राजा अपने आप को भूलकर अपनी राजप्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है? और फिर एक निराश्रित व्रात्य (आवारा) पुरुष के समान व्यवहार करता हुआ गलियों मे नग्नावस्था में घूम्ाता रहता है? वैसे ही यह जीव अज्ञानवश अपने आत्मस्वरूप की गरिमा को भूलकर विषयोपभोगांे की खुली नालियों में सुख को खोजता हुआ ऐसे घूमता है? मानो वह किसी नाली में रेंगने वाले काड़े से भी निकृष्ट हो।सरलता का आभास लिये हुए? यह श्लोक वास्तव में अत्यन्त सारगर्भित है। अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में ज्ञान के मार्ग का अज्ञान के मार्ग से भेद दर्शाकर? भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन की बुद्धि में ज्ञानमार्ग की उपादेयता को बैठा देते हैं। ज्ञानमार्ग अक्षर पुरुष की स्वानुभूति का मार्ग है।अब भगवान् श्रीकृष्ण ज्ञान का उपदेश देना प्रारम्भ करते हैं --
।।9.3।। व्याख्या--'अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य (टिप्पणी प0 486) परंतप'--धर्म दो तरहका होता है--स्वधर्म और परधर्म। मनुष्यका जो अपना स्वतःसिद्ध स्वरूप है, वह उसके लिये स्वधर्म है और प्रकृति तथा प्रकृतिका कार्यमात्र उसके लिये परधर्म है--'संसारधर्मैरविमुह्यमानः'(श्रीमद्भा0 11। 2। 49)। पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान्ने जिस विज्ञानसहित ज्ञानको कहनेकी प्रतिज्ञा की और राजविद्या आदि आठ विशेषण देकर जिसका बड़ा माहात्म्य बताया, उसीको यहाँ 'धर्म' कहा गया है। इस धर्मके माहात्म्यपर श्रद्धा न रखनेवाले अर्थात् उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंको सच्चा मानकर उन्हींमें रचे-पचे रहनेवाले मनुष्योंको यहाँ 'अश्रद्दधानाः' कहा गया है।यह एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि मनुष्य अपने शरीरको, कुटुम्बको, धन-सम्पत्ति-वैभवको निःसन्देह-रूपसे उत्पत्ति-विनाशशील और प्रतिक्षण परिवर्तनशील जानते हुए भी उनपर विश्वास करते हैं, श्रद्धा करते हैं, उनका आश्रय लेते हैं। वे ऐसा विचार नहीं करते कि इन शरीरादिके साथ हम कितने दिन रहेंगे और ये हमारे साथ कितने दिन रहेंगे श्रद्धा तो स्वधर्मपर होनी चाहिये थी, पर वह हो गयी परधर्मपर
।।9.3।।अश्रद्दधाना इति। निवर्तन्ते ( adds न च मत्स्था यथाकाशमें (ए) वं हि सर्वभूतानि -- before निवर्तन्ते। Obviously this is to go the next verse) ? पुनः पुनर्जायन्ते म्रियन्ते च।
।।9.3।।अस्य उपासनाख्यस्य धर्मस्य निरतिशयप्रियमद्विषयतया स्वयं निरतिशयप्रियरूपस्य परमनिःश्रेयसस्वरूपमत्प्राप्तिसाधनस्य अव्ययस्य उपादानयोग्यदशां प्राप्य अश्रद्दधानाः विश्वासपूर्वकत्वारारहिताः पुरुषाः माम् अप्राप्य मृत्युरूपे संसारवर्त्मनि नितरां वर्तन्ते। अहो महद् इदम् आश्चर्यम् इत्यर्थः।श्रृणु तावत् प्राप्यभूतस्य मम अचिन्त्यमहिमानम् --
।।9.3।।आत्मज्ञानाख्ये धर्मे श्रद्धावतां तन्निष्ठानां परमपदप्राप्तिमुक्त्वा ततो विमुखानां संसारप्राप्तिमाह -- ये पुनरिति। आत्मज्ञानतत्फलयोर्नास्तिकानेव विशिनष्टि -- पापेति। उक्तानामात्मंभरीणां भगवत्प्राप्तिसंभावनाभावादप्राप्य मामित्यप्रसक्तप्रतिषेधः स्यादित्याशङ्क्याह -- मत्प्राप्ताविति।
।।9.3।।अस्य ज्ञानस्य मध्ये धर्मस्य भजनलक्षणस्य? पाठान्तरे तु धर्मस्य तत्सहितज्ञानस्य वा श्रद्धारहिताः पुरुषा ये ते मां पुरुषोत्तममप्राप्य मृत्युरूपे संसारे नितरां वर्तन्ते।
।।9.3।।एवमप्यस्य सुकरत्वे सर्वोत्कृष्टत्वे च सर्वेऽपि कुतोऽत्र न प्रवर्तन्ते। तथाच न कोऽपि संसारी स्यादित्यत आह -- अस्यात्मज्ञानाख्यस्य धर्मस्य स्वरूपे साधने फले च शास्त्रप्रतिपादितेऽपि अश्रद्दधानाः वेदविरोधिकुहेतुदर्शनदूषितान्तःकरणतया प्रामाण्यममन्यमानाः पापकारिणोऽसुरसंपदमारूढाः स्वमतिकल्पितेनोपायेन कथंचिद्यतमाना अपि शास्त्रविहितोपायाभावादप्राप्य मां मत्प्राप्तिसाधनमप्यलब्ध्वा निवर्तन्ते निश्चयेन वर्तन्ते। क्व। मृत्युयुक्ते संसारवर्त्मनि। सर्वदा जननमरणप्रबन्धेन नारकितिर्यगादित्योनिष्वेव भ्रमन्तीत्यर्थः।
।।9.3।। नन्वेवमस्वातिसुकरत्वे के नाम संसारिणः स्युस्तत्राह -- अश्रद्दधाना इति। अस्य भक्तिलक्षणज्ञानसहितस्य धर्मस्येति कर्मणिषष्ठ्यौ। इमं धर्ममश्रद्दधाना आस्तिक्येनास्वीकुर्वन्तः? उपायान्तरेण मत्प्राप्तये कृतप्रयत्ना अपि मामप्राप्य मृत्युयुक्ते संसारवर्त्मनि निवर्तन्ते। मृत्युव्याप्ते संसारमार्गे परिभ्रमन्तीत्यर्थः।
।।9.3।।उक्तप्रकारश्रद्धेयज्ञानानुष्ठानाभावे मोक्षो न सिद्ध्यतीति दर्शयन् स्वरूपतः फलतश्च निरतिशयसुखरूपस्य सर्वैरनुष्ठानाभावे हेतुं च वदन् नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय [यजुस्सं.31।18श्वे.उ.3।8] इत्यादिकमुपबृंहयतिअश्रद्दधानाः इति श्लोकेन।अस्य इति पूर्वोक्तसर्वाकारपरामर्श इत्याहनिरतिशयेत्यादिना। धर्मस्येति सम्बन्धसामान्यविषयायाः षष्ठ्याः फलितान्वयप्रदर्शनायाहउपादानयोग्यदशां प्राप्येति। यद्वा श्रद्धानिषेधस्तत्प्रसङ्गे सति हीत्यभिप्रायः। कारणनिवृत्तेः कार्यानुष्ठाननिवृत्तिपर्यन्तत्वप्रदर्शनायोक्तंविश्वासपूर्वकत्वरारहिता इति।मृत्युरूप इति बाधकस्वरूप इत्यर्थः? अथवा मरणगर्भत्वादेव मृत्युरूपता।निवर्तन्ते इत्यत्र प्रतिनिवृत्तिविवक्षायामवधिसाकाङ्क्षत्वादत्र च तन्निर्देशाभावात्?मामप्राप्य इति पृथङ्निर्दिष्टत्वेन परमपुरुषस्याप्यवधित्वकल्पनायोगात्?संसारवर्त्मनि इति सप्तम्याः स्वरसत आधेयसाकाङ्क्षत्वात्? उपसर्गाणां चानेकार्थत्वात्नितरां वर्तन्त इत्युक्तम्। स्वरूपतः फलतश्च निरतिशयपुरुषार्थं सुकरं चोपासनं ज्ञात्वाऽपि परित्यज्य पुरुषाः पुरुषार्थतारतम्यविदोऽपि निरतिशयापुरुषार्थमयं संसारमादरेण सेवन्त इति विस्मयाविद्धस्येश्वरस्य इदं वचनमित्यभिप्रायेणाहअहो इति। आश्चर्यतमो दुष्कर्मप्रभाव इत्यभिप्रायेणाहमहदिदमाश्चर्यमिति। अश्रद्धाहेतव आन्तरशत्रवोऽपि त्वया निराकार्या इतिपरन्तप इति सम्बुद्धेर्भावः।
।।9.3।।एवं पूर्वंते प्रवक्ष्यामि [9।1] इत्यनेन श्रद्दधानाय तुभ्यं कथयामीति प्रतिज्ञाय एतदश्रद्दधानाः संसारं प्राप्नुवन्तीति कथनेनैतस्योत्तमत्वं प्रतिपादयति -- अश्रद्दधाना इति। हे परन्तप मत्प्रसादात्मकोत्कृष्टतपोयुक्त इदं ज्ञानं मद्वाक्यरूपमश्रद्दधानाः पुरुषाः योगज्ञा अपि अस्य धर्मस्य फलरूपं मां अप्राप्य मृत्युयुक्ते संसारमार्गे निवर्तन्ते परिभ्रमन्ति जायस्व म्रियस्व [छां.उ.5।10।8] इति तृतीयमार्गाभिनिविष्टा भवन्तीत्यर्थः।अश्रद्दधानाः इति कथनेन श्रद्धामात्रेणापि संसाराभावो व्यञ्जितः।
।।9.3।।तर्हि कुतएतज्ज्ञानं सर्वे न संपादयन्तीत्याह -- अश्रद्दधाना इति। स्पष्टार्थः श्लोकः।
।।9.3।।श्रद्धया ज्ञाननिष्ठानां ज्ञानप्राप्त्या मोक्षप्राप्तिरित्यन्वयमुखेन ज्ञानं स्तुत्वा व्यतिरेकमुखेन तत्स्तौति -- अश्रद्दधाना इति। ये पुनरस्य धर्मस्य ब्रह्मज्ञानलक्षणस्य स्वरुपे फले वा श्रद्धहीना नास्तिकाः अनेकजन्मार्जतपापैः पाप एव प्रवर्तिता देहमात्रात्मदर्शनमेव प्रतिपन्नाः केवलमसुर्तणनिष्ठाः। केनचिदुत्कटेन पुण्यलवेन मनुष्येयोनिं प्राप्ताः पुरुषा मामप्राप्य मृत्युक्ते संसारवर्त्मनि नरकतिर्यगादिप्राप्तिलक्षणे निवर्तन्ते। निश्चयेन वर्तन्त इत्यर्थः। मामप्राप्येत्यस्य मत्प्राप्तिमार्गसाधनविशेषभक्तिमार्गमप्राप्येत्यर्थः। अन्यथा तेषां परमेश्वरप्राप्तिसंभावनाया अप्यभावादप्रसक्तिप्रतिषेध आपद्येत। परंतपेति संबोधयन् परानश्रद्धादीन् शत्रून् तापयन् ब्रह्मज्ञाने श्रद्धां कर्तुं योग्योऽसि न त्वश्रद्धयाभिभूतः एतत्पङौ निवेष्टुमिति सूचयति।
9.3 अश्रद्दधानाः without faith? पुरुषाः men? धर्मस्य of duty? अस्य of this? परन्तप O scorcher of foes? अप्राप्य without attaining? माम् Me? निवर्तन्ते return? मृत्युसंसारवर्त्मनि in the path of this world of death.Commentary Arjuna asks? O Lord? why do people not attempt to attain this knowledge of the Self when it can be easily attained? when it is the highest of all things? and when it gives the greatest benefits All should certainly attain this knowledge. The Lord replies? O My beloved disciple? people have no faith in this Dhrama or knowledge and so return to the path of this world of death. Even if they strive with the help of the means of their own imagination they cannot attain Me as they are not endowed with the right means prescribed by the scriptures.Dharma means law? religion? knowledge of the Self.This faith is not mere intellectual belief in certain dogmas or principles. It is not merely belief in the statement of another. It is unshakable firm inner conviction that the knowledge of the Self alone can give one supreme peace? immortality and eternal bliss. It was this strong and unflinching faith of Sri Sankara that goaded him to leave his mother and take shelter under the kind protection of his Guru Sri Govindapada for attaining this knowledge which is the supreme purifier? intuitional? accordig to righteousness? very easy to perform? and imperishable. It was the strong faith of Lord Buddha that induced him to have that iron determination which he expressed in these words? I will not budge an inch from my seat till I get illumination. Faith goes hand in hand with fiery determination.The Lord has eulogies the knowledge of the Self in the first two verses by the positive method (Vidhi Mukhastuti). He has extolled it in the third verse by the negative method (Nishedha Mukhastuti). The benefits of obtaining knowledge of the Self are described in the first and the second verses. This is Vidhi Mukhastuti. The disastrous effects that result from not obtaining the knowledge of the Self are described in the third verse. This is Nishedha Mukhastuti.The greedy? lustful and sinful persons who are the followers of the philosophy of the flesh? who lead the life of the demons? who worship the body taking it to be the Self? and who have no faith in the knowledge of the Self? do not reach Me. They do not even possess an iota of devotion which is also one of the paths that lead men to Me. They remain in the path of the world of death which leads to hell and the lower births of animals? worms? etc.
9.3 Those who have no faith in this Dharma (knowledge of the Self), O Parantapa (Arjuna), return to the path of this world of death without attaining Me.
9.3 They who have no faith in this teaching cannot find Me, but remain lost in the purlieus of this perishable world.
9.3 O destroyer of foes, persons who are regardless of this Dharma (knowledge of the Self) certainly go round and round, without reaching Me, along the path of transmigration which is fraught with death.
9.3 Parantapa, O destroyer of foes; those purusah, persons, again; who are asraddadhanah, regardless of, devoid of faith in; asya dharmasya, this Dharma, this knowledge of the Self-those who are faithless as regards its true nature as well as its result, who are sinful, who have taken recourse to the 'upanisad' (mystical teaching) of demoniacal people, consisting in consideration the body alone as the Self, and who delight in life (sense enjoyments); nivartante, certainly go round and round;-where?-mrtyu-samsara-vartmani, along the path (vartma) of transmigration (samsara) fraught with death (mrtyu), the path leading to hell, birth as low creatures, etc., i.e., they go round and round along that very path; aprapya, without reaching; mam, Me, the supreme God. Certainly there is no estion of their attaining Me. Hence, the implication is that (they go round and round) without even aciring a little devotion, which is one of the disciplines [Ast. omits the word sadhana, disciplines.-Tr.] constituting the path for reaching Me. Having drawn Arjuna's attention through the (above) eulogy, the Lord says:
9.3. O scorcher of foes ! Having no faith in this Dharma, persons do not attain Me and remain eternally in the circuit of mundane existence, wrought with death.
9.3 Asraddadhanah etc. They remain eternally : Again and again they are born and they die.
9.3 Some men who even after attaining the state fit for the practice of this Dharma which is called Upasana (worship) - which is immensely dear inasmuch as it has for its goal Myself who am incomparably dear, and which is the means for the attainment of Myself forming the supreme good that does not perish - may still 'lack faith' in it. Such persons who lack faith which reires eagerness for realization, will not attain Me but remain in the mortal pathway of Samsara. O how strange it is - this hindrance caused by evil Karma! Such is the meaning. [It means, that to declare that one has faith in a spiritual doctrine and yet to take no steps to put it into practice, is pure hypocrisy.] Listen then to the inconceivable glory of Myself, who am the goal tobe attained:
9.3 Men devoid of faith in this Dharma, O scorcher of foes, ever remain without attaining Me, in the mortal pathway of Samsara.
।।9.3।।परंतु जो --, इस आत्मज्ञानरूप धर्मकी श्रद्धासे रहित हैं? अर्थात् इसके स्वरूपमें और फलमें आस्तिक भावसे रहित हैं -- नास्तिक हैं वे असुरोंके सिद्धान्तोंका अनुवर्तन करनेवाले देहमात्रको ही आत्मा समझनेवाले एवं पापकर्म करनेवाले इन्द्रियलोलुप मनुष्य? हे परंतप मुझ परमेश्वरको प्राप्त न होकर -- मेरी प्राप्तिकी तो उनके लिये आशङ्का भी नहीं हो सकती? मेरी प्राप्तिके मार्गकी साधनरूप भेदभक्तिको भी प्राप्त न होकर निश्चय ही घूमते रहते हैं। कहाँ घूमते रहते हैं मृत्युयुक्त संसारके मार्गमें? अर्थात् जो संसार मृत्युयुक्त है उस मृत्युसंसारके नरक और पशुपक्षी आदि योनियोंकी प्राप्तिरूप मार्गमें वे बारंबार घूमते रहते हैं।
।।9.3।। --,अश्रद्दधानाः श्रद्धाविरहिताः आत्मज्ञानस्य धर्मस्य अस्यस्वरूपे तत्फले च नास्तिकाः पापकारिणः? असुराणाम् उपनिषदं देहमात्रात्मदर्शनमेव प्रतिपन्नाः असुतृपः पापाः पुरुषाः अश्रद्दधानाः? परंतप? अप्राप्य मां परमेश्वरम्? मत्प्राप्तौ नैव आशङ्का इति मत्प्राप्तिमार्गसाधनभेदभक्तिमात्रमपि अप्राप्य इत्यर्थः। निवर्तन्ते निश्चयेन वर्तन्ते क्व -- मृत्युसंसारवर्त्मनि मृत्युयुक्तः संसारः मृत्युसंसारः तस्य वर्त्म नरकतिर्यगादिप्राप्तिमार्गः? तस्मिन्नेव वर्तन्ते इत्यर्थः।।स्तुत्या अर्जुनमभिमुखीकृत्य आह --,
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अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप। अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।
অশ্রদ্দধানাঃ পুরুষা ধর্মস্যাস্য পরন্তপ৷ অপ্রাপ্য মাং নিবর্তন্তে মৃত্যুসংসারবর্ত্মনি৷৷9.3৷৷
অশ্রদ্দধানাঃ পুরুষা ধর্মস্যাস্য পরন্তপ৷ অপ্রাপ্য মাং নিবর্তন্তে মৃত্যুসংসারবর্ত্মনি৷৷9.3৷৷
અશ્રદ્દધાનાઃ પુરુષા ધર્મસ્યાસ્ય પરન્તપ। અપ્રાપ્ય માં નિવર્તન્તે મૃત્યુસંસારવર્ત્મનિ।।9.3।।
ਅਸ਼੍ਰਦ੍ਦਧਾਨਾ ਪੁਰੁਸ਼ਾ ਧਰ੍ਮਸ੍ਯਾਸ੍ਯ ਪਰਨ੍ਤਪ। ਅਪ੍ਰਾਪ੍ਯ ਮਾਂ ਨਿਵਰ੍ਤਨ੍ਤੇ ਮਰਿਤ੍ਯੁਸਂਸਾਰਵਰ੍ਤ੍ਮਨਿ।।9.3।।
ಅಶ್ರದ್ದಧಾನಾಃ ಪುರುಷಾ ಧರ್ಮಸ್ಯಾಸ್ಯ ಪರನ್ತಪ. ಅಪ್ರಾಪ್ಯ ಮಾಂ ನಿವರ್ತನ್ತೇ ಮೃತ್ಯುಸಂಸಾರವರ್ತ್ಮನಿ৷৷9.3৷৷
അശ്രദ്ദധാനാഃ പുരുഷാ ധര്മസ്യാസ്യ പരന്തപ. അപ്രാപ്യ മാം നിവര്തന്തേ മൃത്യുസംസാരവര്ത്മനി৷৷9.3৷৷
ଅଶ୍ରଦ୍ଦଧାନାଃ ପୁରୁଷା ଧର୍ମସ୍ଯାସ୍ଯ ପରନ୍ତପ| ଅପ୍ରାପ୍ଯ ମାଂ ନିବର୍ତନ୍ତେ ମୃତ୍ଯୁସଂସାରବର୍ତ୍ମନି||9.3||
aśraddadhānāḥ puruṣā dharmasyāsya parantapa. aprāpya māṅ nivartantē mṛtyusaṅsāravartmani৷৷9.3৷৷
அஷ்ரத்ததாநாஃ புருஷா தர்மஸ்யாஸ்ய பரந்தப. அப்ராப்ய மாஂ நிவர்தந்தே மரித்யுஸஂஸாரவர்த்மநி৷৷9.3৷৷
అశ్రద్దధానాః పురుషా ధర్మస్యాస్య పరన్తప. అప్రాప్య మాం నివర్తన్తే మృత్యుసంసారవర్త్మని৷৷9.3৷৷
9.4
9
4
।।9.4 -- 9.5।। यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मुझ में स्थित नहीं हैं -- मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग-(सामर्थ्य-) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और उनका धारण, भरण-पोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियोंमें स्थित नहीं है।
।।9.4।। यह सम्पूर्ण जगत् मुझ (परमात्मा) के अव्यक्त स्वरूप से व्याप्त है; भूतमात्र मुझमें स्थित है, परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूं।।
।।9.4।। यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त स्वरूप के द्वारा व्याप्त है किसी वस्तु की सूक्ष्मता उसकी व्यापकता से नापी जाती है और इसलिए सूक्ष्मतम वस्तु का सर्वव्यापक होना अनिवार्य है। देशकाल से परिच्छिन्न (सीमित) सभी वस्तुओं का आकार तथा नाश होता है अत सर्वव्यापी वस्तु निराकार और नाशरहित होगी। इस प्रकार आत्मतत्त्व अपने मूल अव्यक्तस्वरूप से सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है? जैसे मिट्टी के बने सभी रूपों और आकारों वाले घटों में मिट्टी व्याप्त होती है।यदि? इस प्रकार? अनन्तपरिच्छिन्न तत्त्व सान्त और परिच्छिन्न जगत् को व्याप्त किये है? तो इन दोनों में निश्चित रूप से क्या संबंध है क्या यह जगत् अनन्ततत्त्व से प्रकट हुआ है अथवा क्या अनन्त ने सान्त का निर्माण किया है या फिर क्या अनन्त वस्तु स्वयं विकार को प्राप्त होकर यह जगत् बन गयी? जैसे दूध दही बनता है अथवा? क्या इन दोनों में पितापुत्र या स्वामीभृत्य का संबंध है विश्व के विभिन्न धर्म ऐसे प्रश्नों से भरे हुए हैं। द्वैतवादी लोग ही अनन्त और सान्त? ईश्वर और भक्त के मध्य किसीनकिसी प्रकार के काल्पनिक संबंध में रम सकते हैं। परन्तु अद्वैती ऐसे किसी भी प्रकार के संबंध को स्वीकार नहीं कर सकते? क्योंकि संबंध किन्हीं दो वस्तुओं में ही हो सकता है? जब कि उनके सिद्धांतानुसार केवल आत्मा ही एकमेव अद्वितीय पारमार्थिक सत्य वस्तु है।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में सत्य और मिथ्या के बीच के इस संबंधरहित संबंध का शास्त्रीय वर्णन किया गया है। समस्त भूत मुझमें स्थित हैं? परन्तु मैं उनमें अवस्थित नहीं हूँ। शास्त्रीय पद्धति से अनभिज्ञ उतावले पाठकों को यह कथन एक अनाकलनीय विरोधाभास प्रतीत होगा? जिसे अर्थशून्य शब्दों के जमघट के द्वारा व्यक्त किया गया है। परन्तु जिसने अध्यास के सिद्धांत को सम्यक् प्रकार से समझ लिया है? उसके लिए उक्त कथन का अर्थ अत्यन्त सरल है। किसी वस्तु के अज्ञान से उस पर किसी अन्य वस्तु की कल्पना करना अध्यास है जैसे एक स्तम्भ पर प्रेत की कल्पना। शास्त्रीय भाषा में स्तम्भ को अधिष्ठान और प्रेत को अध्यास कहेंगे। इस दृष्टान्त में स्तम्भ (अधिष्ठान) के बिना प्रेत का आभास नहीं हो सकता था। अब स्तम्भ की दृष्टि से उसमें और उस अध्यस्त प्रेत में निश्चित रूप से कौन सा संबंध है कल्पना करें कि स्तम्भ में प्रेत देखकर मोहित हुए व्यक्ति को वह स्तम्भ स्वयंका सम्यक् ज्ञान कराना चाहता है? तो वह किस प्रकार उपदेश देगा वह निर्दोष स्तम्भ उस मूढ़ पुरुष के प्रति असीम प्रेम के कारण भगवान् श्रीकृष्ण के समान ही उपदेश देगा। वह कहेगा निसन्देह ही वह प्रेत मुझमें स्थित है? परन्तु मैं उसमें नहीं हूँ और इसलिए? मैने कदापि किसी भी मूढ़ यात्री को भयभीत नहीं किया है। इसी प्रकार भगवान् यहाँ कहते हैं? मैं अपने अव्यक्त स्वरूप से इस सम्पूर्ण व्यक्त जगत् का अधिष्ठान हूँ। यद्यपि परमात्मा इस नानारूपमय सृष्टि का अधिष्ठान है? तथापि वह उनके गुण दोष? सुख दुख? जन्ममृत्यु आदि से लिप्त नहीं होता? क्योंकि मैं उनमें अवस्थित नहीं हूँ।इस पंक्ति में पूर्व1 कथित सिद्धांत ही प्रतिध्वनित होता है? जहाँ सम्भवत और अधिक लहरदार भाषा में इसे व्यक्त किया गया था कि? मैं उनमें नहीं हूँ? वे मुझमें है। संक्षेप में? यहाँ सूचित किया गया है कि जड़ उपाधियों से तादात्म्य के कारण आत्मा उनमें स्थित हुआ मानो दुखीसंसारी जीव बना है और इस मिथ्या तादात्म्य की निवृत्ति से उसे बोध होता है कि वास्तव में? मैं अविनाशी? अव्यक्तस्वरूप आत्मा उनमें स्थित नहीं हूँ।उपर्युक्त कथन से मन में यह विचार आ सकता है कि तब अनन्त तत्त्व में परिच्छिन्न का किसी अन्य प्रकार का अस्तित्व हो सकता है परन्तु भगवान् कहते हैं --
।।9.4।। व्याख्या--'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना'--मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे जिसका ज्ञान होता है, वह भगवान्का व्यक्तरूप है और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियोंका विषय नहीं है अर्थात् मन आदि जिसको नहीं जान सकते, वह भगवान्का अव्यक्तरूप है। यहाँ भगवान्ने 'मया' पदसे व्यक्त(साकार-) स्वरूप और 'अव्यक्तमूर्तिना' पदसे अव्यक्त-(निराकार-) स्वरूप बताया है। इसका तात्पर्य है कि भगवान् व्यक्तरूपसे भी हैं और अव्यक्तरूपसे भी हैं। इस प्रकार भगवान्की यहाँ व्यक्त-अव्यक्त (साकार-निराकार) कहनेकी गूढ़ाभिसन्धि समग्ररूपसे है अर्थात् सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदिका भेद तो सम्प्रदायोंको लेकर है, वास्तवमें परमात्मा एक हैं। ये सगुण-निर्गुण आदि एक ही परमात्माके अलग-अलग विशेषण हैं, अलग-अलग नाम हैं। गीतामें जहाँ सत्-असत् शरीरशरीरीका वर्णन किया गया है, वहाँ जीवके वास्तविक स्वरूपके लिये आया है--'येन सर्वमिदं ततम्' (2। 17) क्योंकि यह परमात्माका साक्षात् अंश होनेसे परमात्माके समान ही सर्वत्र व्यापक है अर्थात् परमात्माके साथ इसका अभेद है। जहाँ सगुणनिराकारकी उपासनाका वर्णन आया है, वहाँ बताया है -- येन सर्वमिदं ततम् (8। 22), जहाँ कर्मोंके द्वारा भगवान्का पूजन बताया है, वहाँ भी कहा है--येन सर्वमिदं ततम् (18। 46)। इन सबके साथ एकता करनेके लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं -- मया ततमिदं सर्वम्।'मतस्थानि सर्वभूतानि'-- सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं अर्थात् पराअपरा प्रकृतिरूप सारा जगत् मेरेमें ही स्थित है। वह मेरेको छोड़कर रह ही नहीं सकता। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं, मेरेमें ही स्थित रहते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप जो कुछ परिवर्तन होता है, वह सब मेरेमें ही होता है। अतः वे सब प्राणी मेरेमें स्थित हैं।'न चाहं तेष्ववस्थितः'-- पहले भगवान्ने दो बातें कहीं -- पहली 'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' और दूसरी 'मत्स्थानि सर्वभूतानि।' अब भगवान् इन दोनों बातोंके विरुद्ध दो बातें कहते हैं।पहली बात(मैं सम्पूर्ण जगत्में स्थित हूँ) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। कारण कि यदि मैं उनमें स्थित होता तो उनमें जो परिवर्तन होता है, वह परिवर्तन मेरेमें भी होता उनका नाश होनेसे मेरा भी नाश होता और उनका अभाव होनेसे मेरा भी अभाव होता। तात्पर्य है कि उनका तो परिवर्तन, नाश और अभाव होता है परन्तु मेरेमें कभी किञ्चिन्मात्र भी विकृति नहीं आती। मैं उनमें सब तरहसे व्याप्त रहता हुआ भी उनसे निर्लिप्त हूँ, उनसे सर्वथा सम्बन्धरहित हूँ। मैं तो निर्विकाररूपसे अपनेआपमें ही स्थित हूँ।वास्तवमें मैं उनमें स्थित हूँ -- ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि मेरी सत्तासे ही उनकी सत्ता है, मेरे होनेपनसे ही उनका होनापन है। यदि मैं उनमें न होता, तो जगत्की सत्ता ही नहीं होती। जगत्का होनापन तो मेरी सत्तासे ही दीखता है। इसलिये कहा कि मैं उनमें स्थित हूँ। 'न च मत्स्थानि भूतानि' (टिप्पणी प0 489) -- अब भगवान् दूसरी बात(सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि वे प्राणी मेरेमें स्थित नहीं हैं। कारण कि अगर वे प्राणी मेरेमें स्थित होते तो मैं जैसा निरन्तर निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहता हूँ, वैसा संसार भी निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहता। मेरा कभी उत्पत्तिविनाश नहीं होता, तो संसारका भी उत्पत्तिविनाश नहीं होता। एक देशमें हूँ और एक देशमें नहीं हूँ, एक कालमें हूँ, और एक कालमें नहीं हूँ, एक व्यक्तिमें हूँ और एक व्यक्तिमें नहीं हूँ -- ऐसी परिच्छिन्नता मेरेमें नहीं है, तो संसारमें भी ऐसी परिच्छिन्नता नहीं होती। तात्पर्य है कि निर्विकारता, नित्यता, व्यापकता, अविनाशीपन आदि जैसे मेरेमें हैं, वैसे ही उन प्राणियोंमें भी होते। परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरी स्थिति निरन्तर रहती है और उनकी स्थिति निरन्तर नहीं रहती, तो इससे सिद्ध हुआ कि वे मेरेमें स्थित नहीं हैं।अब उपर्युक्त विधिपरक और निषेधपरक चारों बातोंको दूसरी रीतिसे इस प्रकार समझें। संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है तथा परमात्मा संसारमें नहीं हैं और संसार परमात्मामें नहीं है। जैसे, अगर तरंगकी सत्ता मानी जाय तो तरंगमें जल है और जलमें तरंग है। कारण कि जलको छोड़कर तरंग रह ही नहीं सकती। तरंग जलसे ही पैदा होती है, जलमें ही रहती है और जलमें ही लीन हो जाती है अतः तरंगका आधार, आश्रय केवल जल ही है। जलके बिना उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये तरंगमें जल है और जलमें तरंग है। ऐसे ही संसारकी सत्ता मानी जाय तो संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है। कारण कि परमात्माको छोड़कर संसार रह ही नहीं सकता। संसार परमात्मासे ही पैदा होता है, परमात्मामें ही रहता है और परमात्मामें ही लीन हो जाता है। परमात्माके सिवाय संसारकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है।अगर तरंग उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होनेसे तथा जलके सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे तरंगकी सत्ता न मानी जाय, तो न तरंगमें जल है और न जलमें तरंग है अर्थात् केवल जलहीजल है और जल ही तरंगरूपसे दीख रहा है। ऐसे ही संसार उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होनेसे तथा परमात्माके सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे संसारकी सत्ता न मानी जाय, तो न संसारमें परमात्मा हैं और न परमात्मामें संसार है अर्थात् केवल परमात्माहीपरमात्मा हैं और परमात्मा ही संसाररूपसे दीख रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे तत्त्वसे एक जल ही है, तरंग नहीं है, ऐसे ही तत्त्वसे एक परमात्मा ही हैं, संसार नहीं है--'वासुदेवः सर्वम्' (7। 19)।अब कार्यकारणकी दृष्टिसे देखें तो जैसे मिट्टीसे बने हुए जितने बर्तन हैं, उन सबमें मिट्टी ही है क्योंकि वे मिट्टीसे ही बने हैं, मिट्टीमें ही रहते हैं और मिट्टीमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका आधार मिट्टी ही है। इसलिये बर्तनोंमें मिट्टी है और मिट्टीमें बर्तन हैं। परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो बर्तनोंमें मिट्टी और मिट्टीमें बर्तन नहीं हैं। अगर बर्तनोंमें मिट्टी होती, तो बर्तनोंके मिटनेपर मिट्टी भी मिट जाती। परन्तु मिट्टी मिटती ही नहीं। अतः मिट्टी मिट्टीमें ही रही अर्थात् अपनेआपमें ही स्थित रही। ऐसे ही अगर मिट्टीमें बर्तन होते, तो मिट्टीके रहनेपर बर्तन हरदम रहते। परन्तु बर्तन हरदम नहीं रहते। इसलिये मिट्टीमें बर्तन नहीं हैं। ऐसे ही संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार रहते हुए भी संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार नहीं है। कारण कि अगर संसारमें परमात्मा होते तो संसारके मिटनेपर परमात्मा भी मिट जाते। परन्तु परमात्मा मिटते ही नहीं। इसलिये संसारमें परमात्मा नहीं हैं। परमात्मा तो अपनेआपमें स्थित हैं। ऐसे ही परमात्मामें संसार नहीं है। अगर परमात्मामें संसार होता तो परमात्माके रहनेपर संसार भी रहता परन्तु संसार नहीं रहता। इसलिये परमात्मामें संसार नहीं है।जैसे, किसीने हरिद्वारको याद किया तो उसके मनमें हरिकी पैड़ी दीखने लग गयी। बीचमें घण्टाघर बना हुआ है। उसके दोनों ओर गङ्गाजी बह रही हैं। सीढ़ियोंपर लोग स्नान कर रहे हैं। जलमें मछलियाँ उछलकूद मचा रही हैं। यह सबकासब हरिद्वार मनमें है। इसलिये हरिद्वारमें बना हुआ सब कुछ,(पत्थर, जल, मनुष्य, मछलियाँ आदि) मन ही है। परन्तु जहाँ चिन्तन छोड़ा, वहाँ फिर हरिद्वार नहीं रहा, केवल मनहीमन रहा। ऐसे ही परमात्माने 'बहु स्यां प्रजायेय'संकल्प किया, तो संसार प्रकट हो गया। उस संसारके कणकणमें परमात्मा ही रहे और संसार परमात्मामें ही रहा क्योंकि परमात्मा ही संसाररूपमें प्रकट हुए हैं। परन्तु जहाँ परमात्माने संकल्प छोड़ा, वहाँ फिर संसार नहीं रहा, केवल परमात्माहीपरमात्मा रहे।तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा हैं और संसार है-- इस दृष्टिसे देखा जाय तो संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार है। परन्तु तत्त्वकी दृष्टिसे देखा जाय तो न संसारमें परमात्मा हैं और न परमात्मामें संसार है क्योंकि वहाँ संसारकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। वहाँ तो केवल परमात्माहीपरमात्मा हैं --'वासुदेवः सर्वम्।' यही जीवन्मुक्तोंकी, भक्तोंकी दृष्टि है। 'पश्य मे योगमैश्वरम्' (टिप्पणी प0 490) -- मैं सम्पूर्ण जगत्में और सम्पूर्ण जगत् मेरेमें होता हुआ भी सम्पूर्ण जगत् मेरेमें नहीं है और मैं सम्पूर्ण जगत्में नहीं हूँ अर्थात् मैं संसारसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ, अपनेआपमें ही स्थित हूँ -- मेरे इस ईश्वरसम्बन्धी योगको अर्थात् प्रभाव(सामर्थ्य) को देख। तात्पर्य है कि मैं एक ही अनेकरूपसे दीखता हूँ और अनेकरूपसे दीखता हुआ भी मैं एक ही हूँ अतः केवल मैंहीमैं हूँ।'पश्य' क्रियाके दो अर्थ होते हैं -- जानना और देखना। जानना बुद्धिसे और देखना नेत्रोंसे होता है। भगवान्के योग(प्रभाव) को जाननेकी बात यहाँ आयी है और उसे देखनेकी बात ग्यारहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें आयी है।'भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः' -- मेरा जो स्वरूप है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंको पैदा करनेवाला, सबको धारण करनेवाला तथा उनका भरणपोषण करनेवाला है। परन्तु मैं उन प्राणियोंमें स्थित नहीं हूँ अर्थात् मैं उनके आश्रित नहीं हूँ, उनमें लिप्त नहीं हूँ। इसी बातको भगवान्ने पंद्रहवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें कहा है कि क्षर (जगत्) और अक्षर (जीवात्मा) -- दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जिसको,परमात्मा नामसे कहा गया है और जो सम्पूर्ण लोकोंमें व्याप्त होकर सबकाभरणपषण करता हुआ सबका शासन करता है।तात्पर्य यह हुआ कि जैसे मैं सबको उत्पन्न करता हुआ और सबका भरणपोषण करता हुआ भी अहंताममतासे रहित हूँ और सबमें रहता हुआ भी उनके आश्रित नहीं हूँ, उनसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ। ऐसे ही मनुष्यको चाहिये कि वह कुटुम्बपरिवारका भरणपोषण करता हुआ और सबका प्रबन्ध, संरक्षण करता हुआ उनमें अहंताममता न करे और जिसकिसी देश, काल, परिस्थितिमें रहता हुआ भी अपनेको उनके आश्रित न माने अर्थात् सर्वथा निर्लिप्त रहे।भक्तके सामने जो कुछ परिस्थिति आये, जो कुछ घटना घटे, मनमें जो कुछ संकल्पविकल्प आये, उन सबमें उसको भगवान्की ही लीला देखनी चाहिये। भगवान् ही कभी उत्पत्तिकी लीला, कभी स्थितिकी लीला और कभी संहारकी लीला करते हैं। यह सब संसार स्वरूपसे तो भगवान्का ही रूप है और इसमें जो परिवर्तन होता है, वह सब भगवान्की ही लीला है -- इस तरह भगवान् और उनकी लीलाको देखते हुए भक्तको हरदम प्रसन्न रहना चाहिये। मार्मिक बात सब कुछ परमात्मा ही है -- इस बातको खूब गहरा उतरकर समझनेसे साधकको इसका यथार्थ अनुभव हो जाता है। यथार्थ अनुभव होनेकी कसौटी यह है कि अगर उसकी कोई प्रशंसा करे कि आपका सिद्धान्त बहुत अच्छा है आदि, तो उसको अपनेमें बड़प्पनका अनुभव नहीं होना चाहिये। संसारमें कोई आदर करे या निरादर -- इसका भी साधकपर असर नहीं होना चाहिये। अगर कोई कह दे कि संसार नहीं है और परमात्मा हैं -- यह तो आपकी कोरी कल्पना है और कुछ नहीं आदि, तो ऐसी काटछाटँसे साधकको किञ्चिन्मात्र भी बुरा नहीं लगना चाहिये। उस बातको सिद्ध करनेके लिये दृष्टान्त देनेकी, प्रमाण खोजनेकी इच्छा ही नहीं होनी चाहिये और कभी भी ऐसा भाव नहीं होना चाहिये कि यह हमारा सिद्धान्त है, यह हमारी मान्यता है, इसको हमने ठीक समझा है आदि। अपने सिद्धान्तके विरुद्ध कोई कितना ही विवेचन करे, तो भी अपने सिद्धान्तमें किसी कमीका अनुभव नहीं होना चाहिये और अपनेमें कोई विकार भी पैदा नहीं होना चाहिये। अपना यथार्थ अनुभव स्वाभाविकरूपसे सदासर्वदा अटल और अखण्डरूपसे बना रहना चाहिये। इसके विषयमें साधकको कभी सोचना ही नहीं पड़े।  सम्बन्ध--अब भगवान् पीछेके दो श्लोकोंमें कही हुई बातोंको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं।
।।9.4।।मयेति। मत्स्थानि सर्वभूतानीति। सुचिरमपि गत्वा अन्यस्य प्रतिष्ठाधाम्नः अविद्यमानत्वात्। भूतरूपबोध्यात्मकप्रसिद्धतदीयजडरूपपुरःसरीकारेण तदवभासे तद्विपरीतबोधस्वभाववर्तिरोधानम्,(N तत्तद्विपरीत -- ) इत्येतदाह -- न चाहं तेष्यवस्थितः इति।
।।9.4।।इदं चेतनाचेतनात्मकं कृत्स्नं जगद् अव्यक्तमूर्तिना अप्रकाशितस्वरूपेण मया अन्तर्यामिणा ततम्। अस्य जगतो धारणार्थं नियमनार्थम् च शेषित्वेन व्याप्तम् इत्यर्थः। यथा अन्तर्यामिब्राह्मणेयः पृथिव्यां तिष्ठन् ৷৷. यं पृथिवी न वेद (बृ उ0 3।7।3)यं आत्मनि तिष्ठन् ৷৷. यमात्मा न वेद (श0 प0 ब्रा0 14।6।5।5।30) इति चेतनाचेतनवस्तुजातैः अदृष्टेन अन्तर्यामिणा तत्र तत्र व्याप्तिः उक्ता।ततो मत्स्थानि सर्वभूतानि सर्वाणि भूतानि मयि अन्तर्यामिणि स्थितानि? तत्र एव ब्राह्मणेयस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति (बृ0 उ0 3।7।3)यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति (श0 प0 ब्रा0 14।6।6।5।30) इति शरीरत्वेन नियाम्यत्वप्रतिपादनात्। तदायत्ते स्थितिनियमने प्रतिपादिते शेषित्वं च? न च अहं तेषु अवस्थित्रः अहं तु न तदायत्तस्थितिः? मत्स्थितौ तैः न कश्चित् उपकार इत्यर्थः।
।।9.4।।स्तुतिनिन्दाभ्यां ज्ञाननिष्ठां महीकृत्य ज्ञानं व्याख्यातुमारभते -- स्तुत्येति। सोपाधिकस्य व्याप्त्यसंभवमभिप्रेत्य विशिनष्टि -- ममेति। अनवच्छिन्नस्य भगवद्रूपस्य निरुपाधिकत्वमेव साधयति -- करणेति। व्याप्यव्यापकत्वेन जगतो भगवतश्च परिच्छेदमाशङ्क्याह -- तस्मिन्निति। तथापि भगवतो भूतानां चाधाराधेयत्वेन भेदः स्यादित्याशङ्क्याह -- नहीति। निरात्मकस्य व्यवहारानर्हत्वे फलितमाह -- अत इति। ईश्वरस्य भूतात्मत्वे तेषु स्थितिः स्यादित्याशङ्क्याह -- तेषामिति। तस्य तेषु स्थित्यभावं व्यवस्थापयति -- मूर्तवदिति। संश्लेषाभावेऽपि किमिति नाधेयत्वमत आह -- नहीति।
।।9.4।।एवं ज्ञानं प्रस्तुत्याऽर्जुनमभिमुखीकृत्य स्वस्य महिमज्ञानं पूर्वमुपदिशतिमयेति। अव्यक्तोऽक्षरोऽविरुद्धधर्मप्रकृतिपुरुषात्मकः स्वेच्छया पृथग्भासि (वि) तोऽपि महिमरूपः कालात्मा च स बहिर्मर्यादामार्गाधिदैवतं अध्यात्मस्वरूपं तन्मूर्त्तिना मयाऽन्तर्यामिणा च तदिदं सर्वं चेतनाचेतनात्मकं जगत्प्राकृतं ततम्।अन्तश्चिदन्तर्यामितदङ्घ्रिरूपोऽक्षरश्चाव्यक्तपदवाच्यः इति स्थितमाकरे। स चान्तर्यामी चाहं अन्तर्यामिब्राह्मणे यः पृथिव्यां तिष्ठन्पृथिवी यं न वेद य आत्मनि तिष्ठन्यमात्मा न वेद [बृ.उ.3।7।3] इत्यादि निरूपितम्।
।।9.4।।तदेवं वक्तव्यतया प्रतिज्ञातस्य ज्ञानस्य विधिमुखेनेतरनिषेधमुखेन च स्तुत्याभिमुखीकृतमर्जुनं प्रति तदेवाह द्वाभ्याम् -- इदं जगत्सर्वं भूतभौतिकतत्कारणरूपं दृश्यजातं मदज्ञानकल्पितं मयाधिष्ठानेन परमार्थसत्ता सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च ततं व्याप्तं रज्जुखण्डेनेव तदज्ञानकल्पितं सर्पधारादि। त्वया वासुदेवेन परिच्छिन्नेन सर्वं जगत्कथं व्याप्तं प्रत्यक्षविरोधादिति? नेत्याह -- अव्यक्ता सर्वकरणागोचरीभूता स्वप्रकाशाद्वयचैतन्यसदानन्दरूपा मूर्तिर्यस्य तेन मया व्याप्तमिदं सर्वं न त्वनेन देहेनेत्यर्थः। अतएव सन्तीव स्फुरन्तीव मद्रूपेण स्थितानि मत्स्थानि सर्वभूतानि स्थावराणि जङ्गमानि च। परमार्थतस्तु नच नैवाहं तेषु कल्पितेषु भूतेष्ववस्थितः। कल्पिताकल्पितयोः संबन्धायोगात्। अतएवोक्तं यत्र यदध्यस्तं तत्कृतेन गुणेन दोषेण वाणुमात्रेणापि न स संबध्यत इति।
।।9.4।।तदेवं वक्तव्यतया प्रस्तुतस्य ज्ञानस्य स्तुत्या श्रोतारमभिमुखीकृत्य तदेव ज्ञानं कथयति -- मयेति द्वाभ्याम्। अव्यक्ता अतीन्द्रिया मूर्तिः स्वरूपं यस्य तादृशेन मया कारणभूतेन सर्वमिदं जगत्ततं व्याप्तम्तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् इति श्रुतेः। अतएव कारणभूते मयि तिष्ठन्तीति मत्स्थानि सर्वाणि चराचराणि भूतानि। एवमपि घटादिषु स्वकार्येषु मृत्तिकेव तेषु भूतेषु नाहमवस्थित आकाशवदसङ्गत्वात्।
।।9.4।।एवमध्यायप्रधानार्थस्य प्रापकस्य माहात्म्यमुक्तम् अथ प्राप्यमाहात्म्यद्वाराऽपि तदेव स्थिरीक्रियत इत्यभिप्रायेणाहशृणु तावदिति।इदं सर्वम् इति निर्देशः प्रमाणसिद्धसमस्तवस्तुपर इत्यभिप्रायेणइदं चेतनाचेतनात्मकमित्युक्तम्।अव्यक्तमूर्तिना इत्यस्य विग्रहविषयत्वेऽत्रानुपयोगात्स्वरूपविषयोऽयमौपचारिकः प्रयोग इति दर्शयितुंअप्रकाशितस्वरूपेणेत्युक्तम्। आकाशवत्सन्निधिमात्ररूपव्याप्तिव्युदासाय बहुप्रमाणसिद्धो व्याप्तिप्रकारःमया इत्यनेनाभिप्रेत इत्याहअन्तर्यामिणेति। उक्तप्रकाराया व्याप्तेः प्रयोजनं तन्निदानं च दर्शयतिअस्येति। अत्र धारणमनन्तरग्रन्थसिद्धम् अत एव नियमनमप्यर्थसिद्धम्। धारणं हि प्रशासनाधीनं श्रूयते। शेषित्वं तु प्रागुक्तं? शरीरित्वेनार्थसिद्धं च। अप्रकाशितस्वरूपत्वेन नियामकत्वेन च सर्वव्याप्तिं श्रुतौ दर्शयतियथेति। पृथिव्युदाहरणं तत्प्रकरणोक्तसर्वाचेतनोपलक्षणार्थम्। उक्तप्रकारव्यापकत्ववशात्मत्स्थानि इत्यनेन जगतः पृथक्सिद्धता निरस्यत इत्यभिप्रायेणाहतत इति। श्रीविश्वरूपादिषु विग्रहाश्रितत्वमपि सर्वस्योच्यते अत्र तु स्वरूपनिष्ठतेत्यपौनरुक्त्याय -- मय्यन्तर्यामिणीत्युक्तम्। अनयोर्धारणनियमनयोरपि व्याप्त्या सहाधीततामाह -- तत्रैवेति।स्थितिनियमने -- स्थितिप्रवृत्ती इत्यर्थः। शरीरशरीरित्ववचनात् धृतिः शेषित्वं च तत्रार्थसिद्धे इत्यभिप्रायेणाहशेषित्वं चेति।मया ततमिदं सर्वम् इत्यभिधायैवन चाहं तेष्ववस्थितः इति वचनं व्याहतम्? यः पृथिव्यां तिष्ठन् इत्यादिश्रुतिविरुद्धं चेत्यत्राहअहं त्विति।मत्स्थानि सर्वभूतानि इति प्रस्तुतप्रकारा स्थितिरत्र निषिध्यते। स भगवः कस्मिन् प्रतिष्ठितः इत्यत्र स्वे महिम्नि यदि वा न महिम्नि [छां.उ.7।24।1] इति हि श्रूयत इति भावः। उक्तं विवृणोतिमत्स्थिताविति।न कश्चिदिति स्वरूपतः सङ्कल्पादृष्टादिना वेति भावः।मत्स्थानिन च मत्स्थानि इत्येतद्व्याहतमित्यत्राह -- न घटादीनामिति। मूर्त हि मूर्तान्तरं पतनप्रतिघातिना संयोगेन धारयति न तथाऽत्रेति भावः। लोकदृष्टविपरीतं न सम्भवतीत्यभिप्रायेण शङ्कतेकथमिति। शरीरशरीरिणोरिव सम्भवमभिप्रेत्याहमत्सङ्कल्पेनेति। स्वेच्छाधीनधारकत्वं हि विहितम्। अस्वतन्त्रतया धारकत्वं तु निषिध्यत इत्यविरोध इति भावः।ऐश्वरम् इत्यनेनानन्यसाधारणत्वं फलितम्।पश्य इत्यनेन चाश्चर्यता द्योतितेत्यभिप्रायेणाहअन्यत्रेति।योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु [अमरः3।3।22] इति पाठात्सङ्कल्परूपं ध्यानमिह योगः? युज्यमानस्वभावादिर्वा।पश्य मे योगम् इत्युक्ते योगस्वरूपमेवानन्तरं वक्तव्यमिति तदाकाङ्क्षा दर्शयतिकोऽसाविति।भूतभृन्न च भूतस्थः इत्यत्रार्थौचित्यादहमित्येव विशेष्यम्। अथवाभूतभावनः इतिवत्ममात्मा इति निर्दिष्टसङ्कल्पविशेषणत्वेऽपि फलितकथनंसर्वेषां भूतानां भर्ताऽहमित्यादि।आत्मा इति विशेषनिर्देशः परिसङ्ख्यानयात्तदतिरिक्तसहकारिव्यवच्छेदार्थ इत्यभिप्रायेणाहममात्मैवेति।ममात्मा इति व्यधिकरणनिर्देशस्वारस्यसिद्धमात्मशब्दार्थमाहमम मनोमयः सङ्कल्प इति। एतेन देहादिसङ्घातेऽहङ्कारमध्यारोप्य लोकबुद्ध्यनुसारेणममात्मा इति व्यपदेश इतिशङ्करोक्तं प्रत्युक्तम्। सङ्कल्प एव मनःकार्यतयाऽन्यत्र प्रसिद्धो मनःप्रतिपादकेनात्मशब्देनात्र व्यपदिष्टः। यद्वा आत्मशब्दोऽत्र सङ्कल्परूपमनःपर एव?मनसैव जगत्सृष्टिं [वि.पु.5।22।15]मनोऽकुरुत (आत्मन्वी) स्यामिति [बृ.उ.1।2।1] इत्यादेः। तदर्थज्ञापनाय तु मनोमयशब्दः। धारणनियमनयोरेव प्रकृतत्वात्? अनन्तरश्लोके च निर्दिश्यमानत्वात्? सृष्टेश्च ततोऽप्यनन्तरं वक्ष्यमाणत्वादत्रभूतभावनः इत्येतत्सत्तातादधीन्यनियमनाद्युपलक्षणमित्यभिप्रायेणाहधारयिता नियन्ता चेति। अथवाभूतभृन्न च भूतस्थः इत्यस्यैवायमर्थः।
।।9.4।।एवं प्रतिज्ञाय तत्स्वरूपं च स्तुत्वा ज्ञानमेवाह द्वाभ्याम् -- मयेति। अव्यक्तातिरिक्तेषु लौकिकेन्द्रियागोचरा स्वक्रियेच्छैकदृश्या मूर्तिः स्वरूपं यस्य। वक्ष्यति चाग्रेदिव्यं ददामि ते चक्षुः [11।8]भक्त्या त्वनन्यया [11।54] इत्यादि। एतादृशेन मया इदं जगत् सर्वं जडजङ्गमात्मकमातृणस्तम्बान्तं ततं व्याप्तं? मत्क्रीडार्थं मदात्मकं मया सृष्टमित्यर्थः। यद्वा अव्यक्तमूर्तिना मया व्याप्तमिदं सर्वं जगत् अस्तीति शेषः।अयं भावः -- आतृणस्तम्बान्तं सर्ववस्तुषु तत्तत्स्वरूपोऽहमेवास्मि? अव्यक्तत्वात्तथा सवैर्न ज्ञायते एवं चेत्सर्वेषु भूतेषु तद्रूपः प्रविष्टो भवानाधिदैविकन्यायेन भविष्यतीत्यत आह -- मत्स्थानीति। मत्स्वरूपस्थानि सर्वाणि सन्ति? सर्वाधारत्वात्। क्रीडेच्छया पृथक् तत्तद्रूपं प्रकटयामीति भावः। अपरिच्छिन्नत्वात् प्रकटमपि जगन्मय्येव तिष्ठति। तेषु न च अहम्। तेषु परिच्छिन्नतया न तिष्ठामीत्यर्थः।
।।9.4।।एवं स्तुत्यादिमुखीकृत्य यद्वक्तव्यं तदाह -- मयेति। मया इदं सर्वं जगत् ततं व्याप्तं उपादानत्वात् कनकेनेव कुण्डलादीनि। ननु प्रागेवैतदुक्तंअहं सर्वस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा इति। तथा चराजविद्या इत्यादिस्तुतिरस्थाने एव कृता स्यात्। वक्तव्यविशेषाभावादितिचेत्। अत्र ब्रूमः। यथायतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद्ब्रह्मेति इति ज्ञेयस्य ब्रह्मणो लक्षणं जगज्जन्मादिहेतुत्वमुक्त्वा तस्यानुगमं अन्नादिशब्दशब्दितेषु विराडादिषु दर्शयतिअन्नाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते प्राणाद्ध्येव इत्यादिना। तस्य निर्णयवाक्यं तुआनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते इतिसैषा भार्गवी वारुणी विद्या इति तत्रैव विद्यायाः पर्यवसानाभिधानात्? एवमिहापि सप्तमेभूमिरापोऽनलो वायुः इत्यादिना सर्वभूतात्मकस्य विराजो जगज्जन्मादिहेतुत्वं प्रदर्श्य पश्चात्अहं सर्वस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा इत्यनेन मायाशबलेऽपि तत्प्रदर्श्य इदानीं शुद्धे प्रत्यगात्मन्येव तद्दर्शयति स्थूलारुन्धतीन्यायेन प्रतिपत्तिसौकर्यार्थमिति गम्यते। राजविद्येत्यादिना स्तुतत्वात्। यथा कश्चिद्दुर्लक्ष्यां सूक्ष्मामरुन्धतीं दिदर्शयिषुस्तत्समीपस्थां स्थूलां तारामरुन्धतीति ग्राहयति? प्रतिपद्यते चानेनैव क्रमेण प्रतिपत्ता? एवमिहापि कार्यकारणप्रतिपत्तिद्वारा अकार्यकारणस्य शुद्धस्य प्रतिपत्तिर्युक्ता। अतएव भगवान्भाष्यकारो मया ततमिदं सर्वमित्यत्र मया मम यः परो भावस्तेन ततं व्याप्तमिति व्याचख्यौ। नत्वहं सर्वस्य जगतः प्रभव इत्यत्र मम यः परो भावः स सर्वस्य जगतः प्रभव इति। सच भागवतः कारणात्मनः परो भावः परमानन्द एव तेनैव चेदं ततम्। आनन्दाद्ध्येवेत्युदाहृतश्रुतेस्तस्यैव जगदुपादानत्वेन तदीयसत्तास्फूर्तिभ्यां जगतो व्याप्तत्वात्।,अतएवाव्यक्तमूर्तिनेति विशेषणम्। मायाशबलं हि कारणं बुद्धिग्राह्यत्वात्करणगोचरः? शुद्धं हि बुद्धेः परत्वाकरणागोचर इति। किंभूताकारेणानन्दः परिणमत इत्यत आह -- मत्स्थानीति। मयि प्रत्यगानन्दे रज्ज्वां स्रक्सर्पदण्डधारादय इव सर्वभूतानि स्थितानि अतो मत्स्थानीत्युपचारादुच्यन्ते। अधिष्ठानाध्यस्तयोर्वास्तवसंबन्धायोगात्। एतदेवाह -- न चेति। नचाहं परमानन्दस्तेषु भूतेष्ववस्थितोऽस्मि घटादाविव मृत्। अपरिणामित्वादेव।
।।9.4।।एवमन्ययमुखेन व्यतिरेकमुखेन च ज्ञानं स्तुत्वा श्रोतारमभिमुखीकृत्य तत्स्वरुपमाह -- मयेति। मया परमात्मना सच्चिदानन्दघनेनाव्यक्तमूर्तिना न व्यक्ता इन्द्रियागोचरा मूर्तिः स्वरुपं यस्य मम तेन मया इदं सर्वं जगत् ब्रह्मदिस्तम्बपर्यन्तं,चराचरात्मकं ततं व्याप्तं शुक्त्या तत्र कल्पितं रुप्यमिव? अतएवाव्यक्तस्वरुपे सच्चिदान्दघने परमात्मनि अधिष्ठानरुपे मयि स्थितानि कल्पितानि सर्वभूतानि। अधिष्ठानमेव हि अध्यस्तस्य स्वरुपं भवति। नहि रुपयस्य शुक्त्यतिरिक्तं स्वरुपं केनचिन्निरुपयितुं शक्यम्। अहं च तेषामधिष्टानत्वादात्मनि स्वरुपभूते मयि सर्वाणि भूतानि स्थितानि नान्यत्रेत्यर्थः। तेषामात्मत्वेन परमात्मापि तेष्ववस्थित इति मूर्खणामवभासतेऽतो ब्रवीमि। नचाहं तेषु मयि कल्पितेषु सर्वभूतेष्ववस्थितः। अमूर्तस्य मम केनापि संबन्धेन तत्रावस्थिरेतनिरुपणत्।
9.4 मया by Me? ततम् pervaded? इदम् this? सर्वम् all? जगत् world? अव्यक्तमूर्तिना by the unmanifested form? मत्स्थानि exist in Me? सर्वभूतानि all beings? न not? च and? अहम् I? तेषु in them? अवस्थितः placed.Commentary Avyaktamurti is Para Brahman or the Supreme Unmanifested Being invisible to the senses but cognisable through intuition. All beings from Brahma? the Creator? down to the blade of grass or an ant? dwell in the transcendental Para Brahman. They have no independent existence they exist through the Self which is the support for everythin? which underlies them all.Nothing here contains It. As Brahman is the Self of all beings? one may imagine that It dwells in them. But it is not so. How could it be How can the Infinite be contained in a finite object Brahman has no connection or contact with any material object? just as a chair or a table has contact with the ground or a man or a book. So It does not dwell in those beings. That which has no connection or contact with objects or beings cannot be contained anywhere as if in a vessel? trunk? room or receptacle. The Self is not rooted in all these forms. It is not contained by any of these forms just as the ether is not contained in any form though all forms are derived from the ether.All beings appear to be living in Brahman? but this is an illusion. If this illusion vanishes? nothing remains anywhere except Brahman. When ignorance? the cause of this illusion? disappears? the very idea of the existence of these beings also will vanish.In verses 4 and 5 the Lord uses a paradox or an apparent contradiction All beings dwell in Me and yet do not dwell in Me I do not dwell in them. For a thinker there is no real contradiction at all. Just as space contains all beings and yet is not touched by them? so also Para Brahman contains everything and yet is not touched by them. Even Mulaprakriti? the source or womb of this world? is supported by Brahman. Brahman has no support or root. It rests in Its own pristine glory. (Cf.VII.12?24VIII.22)
9.4 All this world is pervaded by Me in My unmanifest aspect; all beings exist in Me, but I do not dwell in them.
9.4 The whole world is pervaded by Me, yet My form is not seen. All living things have their being in Me, yet I am not limited by them.
9.4 This whole world is prevaded by Me in My unmanifest form. All beings exist in Me, but I am not contained in them!
9.4 Idam, this; sarvam, whole; jagat, world; is tatam, pervaded; maya, by Me; through the supreme nature, that I have, avyakta-murtina, in My unmanifest form, in that form in which My nature is not manifest, i.e. in My form which is beyond the range of the organs. Sarva-bhutani, all beings, from Brahma to a clump of grass; matsthani, exist in Me, are established in Me in that unmanifest form. For, no created thing that is bereft of the Self (i.e. of Reality) can be conceived of as an object of practical use. Therefore, being possessed of their reality through Me who am their Self, they exist in Me. Hence they are said to be established in Me. I Myself am the Self of those created things. Conseently, it appears to people of little understanding that I dwell in them. Hence I say: Na ca aham, but I am not; avasthitah, contained; tesu, in them, in the created things. Since unlike gross objects I am not in contact with anything, therefore I am certainly the inmost core even of space. For, a thing that has no contact with anything cannot exist like something contained in a receptacle. For this very reason that I am not in contact with anyting-
9.4. This entire universe is pervaded by Me, having the unmanifest form (aspect); all beings exist in Me and I do not exist in them.
9.4 Maya etc. All beings exist in Me : Because no other abode of rest is available, even if one wanders [in search of it] for long. The beings (or elements) that form the objects of knowledge possess their well-known nature of insentiency. When these beings manifest with this nature foremost, their other innate nature viz., sentiency, that is opposed to this [former nature], remain hidden. This is what He says by I do not exist in them.
9.4 This 'entire universe,' composed to sentient and non-sentient beings, is pervaded by Me, the inner controller, whose 'form is not manifest,' namely, whose essential nature is unmanifest. The meaning is that all this is pervaded by Me, the Principal (Sesi), so that I may sustain and rule this universe. This, the pervasion of all by the inner controller, who is invisible to the entire group of sentient and non-sentient beings, is taught in the following passage of the Antaryami-brahmana: 'He who dwells in the earth ৷৷. whom the earth 'does not know' (Br. U., 3.7.3) and 'He who dwells in the self ৷৷. whom the self does not know etc.,' (Br. U. Madh., 3.7.22). Therefore 'all beings abide in Me'; all beings rest in Me who am their inner controller. In the same Brahmana it is taught that their existence and control are dependent on Him, as they are subject to His control and as they constitute His body: 'He whose body is the earth ৷৷. who controls the earth from within' (Br. U., 3.7.3) and 'He whose body is the self ৷৷. He who controls the self from within' (Br. U. Madh., 3.7.22). So also His primacy over everything is taught. 'I am not in them,' namely, I do not 'depend' on them for My existence. There is no help derived from them for My existence.
9.4 This entire universe is pervaded by Me, in an unmanifest form. All beings abide in Me, but I do not abide in them.
।।9.4।।इस प्रकार ज्ञानकी प्रशंसाद्वारा अर्जुनको सम्मुख करके कहते हैं --, मुझ अव्यक्तरूप परमात्माद्वारा अर्थात् मेरा जो परमभाव है? जिसका स्वरूप प्रत्यक्ष नहीं है यानी मन? बुद्धि और इन्द्रियोंका विषय नहीं है? ऐसे मुझ अव्यक्तमूर्तिद्वारा यह समस्त जगत् व्याप्त है -- परिपूर्ण है। उस अव्यक्तस्वरूप मुझ परमात्मामें ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त समस्त प्राणी स्थित हैं। क्योंकि कोई भी निर्जीव प्राणी व्यवहारके योग्य नहीं समझा जाता। अतः वे सब मुझमें स्थित हैं अर्थात् मुझ परमात्मासे ही आत्मवान् हो रहे हैं? इसलिये मुझमें स्थित कहे जाते हैं। उन भूतोंका वास्तविक स्वरूप मैं ही हूँ इसलिये अज्ञानियोंको ऐसी प्रतीति होती है कि मैं उनमें स्थित हूँ? अतः कहता हूँ कि मैं उन भूतोंमें स्थित नहीं हूँ। क्योंकि साकार वस्तुओंकी भाँति मुझमें संसर्गदोष नहीं है। इसलिये मैं बिना संसर्गके सूक्ष्मभावसे आकाशके भी अन्तर्व्यापी हूँ। सङ्गहीन वस्तु कहीं भी आधेयभावसे स्थित नहीं होती? यह प्रसिद्ध है।
।।9.4।। --,मया मम यः परो भावः तेन ततं व्याप्तं सर्वम् इदं जगत् अव्यक्तमूर्तिना न व्यक्ता मूर्तिः स्वरूपं यस्य मम सोऽहमव्यक्तमूर्तिः तेन मया अव्यक्तमूर्तिना? करणगोचरस्वरूपेण इत्यर्थः। तस्मिन् मयि अव्यक्तमूर्तौ स्थितानि मत्स्थानि? सर्वभूतानि ब्रह्मादीनि स्तम्बपर्यन्तानि। न हि निरात्मकं किञ्चित् भूतं व्यवहाराय अवकल्पते। अतः मत्स्थानि मया आत्मना आत्मवत्त्वेन स्थितानि? अतः मयि स्थितानि इति उच्यन्ते। तेषां भूतानाम् अहमेव आत्मा इत्यतः तेषु स्थितः इति मूढबुद्धीनां अवभासते अतः ब्रवीमि -- न च अहं तेषु भूतेषु अवस्थितः? मूर्तवत् संश्लेषाभावेन आकाशस्यापि अन्तरतमो हि अहम्। न हि असंसर्गि वस्तु क्वचित् आधेयभावेन अवस्थितं भवति।।अत एव असंसर्गित्वात् मम --,
।।9.4।।एवं तर्हि पुनरुक्तिः स्यात्? ब्रह्मविषयं ज्ञानमित्यस्य ब्रह्मावगम्यते विषयीक्रियतेऽनेन ज्ञानेनेत्यस्य च भेदाभावादित्यत आह -- प्रत्यक्षेति। नावगमशब्देन विषयीकरणमुच्यते? किन्तु अवगतिसाधनत्वम्। न च ज्ञानस्य तद्विरुद्धम्? परोक्षज्ञानस्यापरोक्षज्ञानसाधनत्वोपपत्तेरिति भावः।ज्ञानं विज्ञानसहितं प्रवक्ष्यामि इति प्रतिज्ञाययज्ज्ञात्वा [9।1] इत्यादिना तत्प्रशंसादिकमुक्तम्। अतःमया ततं इत्यादिकमपि किं तथाभूतमेव किञ्चिदुत प्रतिज्ञातमुच्यते इति शङ्कायामाह -- तदिति। प्रतिज्ञातमित्यर्थः। यस्यापरोक्षज्ञानसाधनत्वमुक्तं तदिति वा। कृत्स्नाध्यायप्रतिपाद्योक्तिरियम्। विशेषणवैयर्थ्यमाशङ्क्याह -- तर्हीति। सर्वव्यापी चेदित्यर्थः। न दृश्यते सर्वत्रेति शेषः।
।।9.4।।प्रत्यक्षावगमशब्देनापरोक्षज्ञानसाधनत्वमुक्तम्। तज्ज्ञानाद्याह -- मयेति। तर्हि किमिति न दृश्यते इत्यत आह -- अव्यक्तमूर्तिनेति।
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।9.4।।
মযা ততমিদং সর্বং জগদব্যক্তমূর্তিনা৷ মত্স্থানি সর্বভূতানি ন চাহং তেষ্ববস্থিতঃ৷৷9.4৷৷
মযা ততমিদং সর্বং জগদব্যক্তমূর্তিনা৷ মত্স্থানি সর্বভূতানি ন চাহং তেষ্ববস্থিতঃ৷৷9.4৷৷
મયા તતમિદં સર્વં જગદવ્યક્તમૂર્તિના। મત્સ્થાનિ સર્વભૂતાનિ ન ચાહં તેષ્વવસ્થિતઃ।।9.4।।
ਮਯਾ ਤਤਮਿਦਂ ਸਰ੍ਵਂ ਜਗਦਵ੍ਯਕ੍ਤਮੂਰ੍ਤਿਨਾ। ਮਤ੍ਸ੍ਥਾਨਿ ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਨਿ ਨ ਚਾਹਂ ਤੇਸ਼੍ਵਵਸ੍ਥਿਤ।।9.4।।
ಮಯಾ ತತಮಿದಂ ಸರ್ವಂ ಜಗದವ್ಯಕ್ತಮೂರ್ತಿನಾ. ಮತ್ಸ್ಥಾನಿ ಸರ್ವಭೂತಾನಿ ನ ಚಾಹಂ ತೇಷ್ವವಸ್ಥಿತಃ৷৷9.4৷৷
മയാ തതമിദം സര്വം ജഗദവ്യക്തമൂര്തിനാ. മത്സ്ഥാനി സര്വഭൂതാനി ന ചാഹം തേഷ്വവസ്ഥിതഃ৷৷9.4৷৷
ମଯା ତତମିଦଂ ସର୍ବଂ ଜଗଦବ୍ଯକ୍ତମୂର୍ତିନା| ମତ୍ସ୍ଥାନି ସର୍ବଭୂତାନି ନ ଚାହଂ ତେଷ୍ବବସ୍ଥିତଃ||9.4||
mayā tatamidaṅ sarvaṅ jagadavyaktamūrtinā. matsthāni sarvabhūtāni na cāhaṅ tēṣvavasthitaḥ৷৷9.4৷৷
மயா ததமிதஂ ஸர்வஂ ஜகதவ்யக்தமூர்திநா. மத்ஸ்தாநி ஸர்வபூதாநி ந சாஹஂ தேஷ்வவஸ்திதஃ৷৷9.4৷৷
మయా తతమిదం సర్వం జగదవ్యక్తమూర్తినా. మత్స్థాని సర్వభూతాని న చాహం తేష్వవస్థితః৷৷9.4৷৷
9.5
9
5
।।9.4 -- 9.5।। यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझ में स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मेरेमें स्थित नहीं हैं -- मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग-(सामर्थ्य-) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और उनका धारण, भरण-पोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियोंमें स्थित नहीं है।
।।9.5।। और (वस्तुत:) भूतमात्र मुझ में स्थित नहीं है; मेरे ईश्वरीय योग को देखो कि भूतों को धारण करने वाली और भूतों को उत्पन्न करने वाली मेरी आत्मा उन भूतों में स्थित नहीं है।।
।।9.5।। पूर्व श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि समस्त भूत अर्थात् सम्पूर्ण चराचर सृष्टि उनमें स्थित है? परन्तु वे उसमें नहीं हैं। उसी विषय के तर्क की अगली कड़ी बताते हुए वे अब कहते हैं कि वस्तुत? वे भूत मुझमें स्थित नहीं हैं? अर्थात् अनन्त से सान्त की उत्पत्ति कभी नहीं हुई स्तम्भ और प्रेत के दृष्टान्त का पुन उपयोग करते हुए? भगवान् की उक्ति स्तम्भ के इस कथन के तुल्य होगी कि? वास्तव में? मुझ विद्युत् स्तम्भ में प्रेत का अस्तित्व कदापि नहीं था। अनन्त स्वरूप शुद्ध चैतन्य परमात्मा में इस नानाविध जगत् का अस्तित्व न कभी था? न अब है और न कभी होगा। जाग्रत पुरुष के लिए स्वप्न के भोग कभी उपलब्ध नहीं होते। संक्षेप में? आत्मानुभव में इस नानाविध सृष्टि का दर्शन नहीं होता। वर्तमान में इसकी प्रतीति का कारण अज्ञानरूप आत्मविस्मृति है।यह आत्मा भूतमात्र को उत्पन्न करने वाला और उसका धारकपोषक है? जैसे? समस्त तरंगों का जन्मदाता और धारणपोषण करने वाला समुद्र है और फिर भी? मैं उनमें (भूतों में) स्थित नहीं हूँ। कैसे जैसे? समुद्र तरंगों में नहीं रहता अर्थात् उसके परिच्छेदों से सदा मुक्त रहता है। समस्त घटों की उत्पत्ति? स्थिति और धारण मिट्टी से ही है? तथापि उनमें से कोई एक घट अथवा घटसमुदाय न तो मिट्टी को परिभाषित कर सकता है और न उसके सम्पूर्ण ज्ञान को करा सकता है। दिव्य? सनातन शुद्ध चैतन्य स्वरूप परमात्मा ही वह अधिष्ठान है? जो इस नित्य परिवर्तनशील विविधरूप सृष्टि के विस्तृत हृदय को धारण और प्रकाशित करता है।ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों के ग्रहण से मन में विषयाकार वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं? जिन्हें सर्वरूपों में स्थित चैतन्य आत्मा प्रकाशित करता है। यदि यह चैतन्य न होता तो हमें अखण्ड अनुभवों की धारा के रूप में जीवन का कभी भान भी नहीं हो सकता था। जैसे कपड़े में कपास है? आभूषणों में स्वर्ण और अग्नि में उष्णता है? वैसे ही क्षर सृष्टि में अक्षर तत्त्व है। जाग्रत पुरुष के बिना स्वप्नद्रष्टा नहीं हो सकता जाग्रत पुरुष स्वप्न जगत् को व्याप्त किये रहता है? परन्तु वह स्वप्न से कभी दूषित या लिप्त नहीं होता और? जाग्रत पुरुष की दृष्टि से स्वप्न का अस्तित्व कभी होता ही नहीं।भगवान् श्रीकृष्ण यह अनुभव करते हैं कि विरोधाभास की यह भाषा अर्जुन जैसे सामान्य पुरुषों के लिए एक पहेली सिद्ध हो रही है? इसलिए करूणासागर भगवान् अपने शिष्य के लिए एक दृष्टान्त देते हैं --
।।9.5।। व्याख्या--'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना'--मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे जिसका ज्ञान होता है, वह भगवान्का व्यक्तरूप है और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियोंका विषय नहीं है अर्थात् मन आदि जिसको नहीं जान सकते, वह भगवान्का अव्यक्तरूप है। यहाँ भगवान्ने 'मया' पदसे व्यक्त(साकार) स्वरूप और,'अव्यक्तमूर्तिना' पदसे अव्यक्त-(निराकार-) स्वरूप बताया है। इसका तात्पर्य है कि भगवान् व्यक्तरूपसे भी हैं और अव्यक्तरूपसे भी हैं। इस प्रकार भगवान्की यहाँ व्यक्तअव्यक्त (साकारनिराकार) कहनेकी गूढ़ाभिसन्धि समग्ररूपसे है अर्थात् सगुणनिर्गुण, साकारनिराकार आदिका भेद तो सम्प्रदायोंको लेकर है, वास्तवमें परमात्मा एक हैं। ये सगुणनिर्गुण आदि एक ही परमात्माके अलगअलग विशेषण हैं, अलगअलग नाम हैं। गीतामें जहाँ सत्असत्, शरीरशरीरीका वर्णन किया गया है, वहाँ जीवके वास्तविक स्वरूपके लिये आया है-- 'येन सर्वमिदं ततम्' (2। 17) क्योंकि यह परमात्माका साक्षात् अंश होनेसे परमात्माके समान ही सर्वत्र व्यापक है अर्थात् परमात्माके साथ इसका अभेद है। जहाँ सगुणनिराकारकी उपासनाका वर्णन आया है, वहाँ बताया है -- 'येन सर्वमिदं ततम्' (8। 22), जहाँ कर्मोंके द्वारा भगवान्का पूजन बताया है, वहाँ भी कहा है -- 'येन सर्वमिदं ततम्' (18। 46)। इन सबके साथ एकता करनेके लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं --'मया ततमिदं सर्वम्'। 'मतस्थानि सर्वभूतानि'-- सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं अर्थात् पराअपरा प्रकृतिरूप सारा जगत् मेरेमें ही स्थित है। वह मेरेको छोड़कर रह ही नहीं सकता। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं, मेरेमें ही स्थित रहते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका उत्पत्ति,स्थिति और प्रलयरूप जो कुछ परिवर्तन होता है, वह सब मेरेमें ही होता है। अतः वे सब प्राणी मेरेमें स्थित हैं।'न चाहं तेष्ववस्थितः'-- पहले भगवान्ने दो बातें कहीं -- पहली 'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' और दूसरी 'मत्स्थानि सर्वभूतानि।' अब भगवान् इन दोनों बातोंके विरुद्ध दो बातें कहते हैं।
।।9.5।।न चेति। न च मत्स्थानि -- अविद्यान्धानां तत्त्वादृष्टेः। न हि मूढा अविच्छिन्नसंवित्स्वभावं परमेश्वरं समस्तवस्तुपरिच्छेदप्रतिष्ठास्थानं मन्यन्ते। अपि तु कृशो देवदत्तोऽहम् इदं वेद्मि भूतले (S omits भूतले) इदं स्थितम् इति मितमेवस्वभावं प्रतिष्ठास्थानतया (N प्रतिष्ठानस्थानतया) पश्यन्ति।ननु कथमेतद्विरुद्धम् [उच्यते] इत्या [शङ्क्या] ह पश्य योगमैश्वरम्इति। योगः शक्तिः युज्यमानत्वात्। एतदेव ममैश्वर्यम्? यदेवं निरतिशयाद्भुतवृत्ति स्वातन्त्र्यमित्यर्थः।
।।9.5।।न च मत्स्थानि भूतानि न घटादीनां जलादेः इव मम धारकत्वम्? कथम् मत्संकल्पेन।पश्य मम ऐश्वरं योगम् अन्यत्र कुत्रचिद् असंभवनीयं मदसाधारणम् आश्चर्यं योगं पश्य।कः असौ योगः भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः। सर्वेषां भूतानां भर्ता अहं न च तैः कश्चिद् अपि मम उपकारः। मम आत्मा एव भूतभावनः? मम मनोमयः संकल्प एव भूतानां भावयिता धारयिता नियन्ता च। सर्वस्य अस्य स्वसंकल्पायत्तस्थितिप्रवृत्तित्वे निदर्शनम् आह --
।।9.5।।परमेश्वरस्य भूतेषु स्थित्यभावेऽपि भूतानां तत्र स्थितिरास्थितेति कुतोऽसङ्गत्वं तत्राह -- अतएवेति। नचेत्यत्र चकारोऽवधारणार्थः। भूतानामीश्वरे नैव स्थितिरित्यत्र हेतुमाह -- पश्येति। आत्मनोऽसङ्गत्वं,स्वरूपमित्यत्र प्रमाणमाह -- तथाचेति। असङ्गश्चेदीश्वरस्तर्हि कथं मत्स्थानि भूतानीत्युक्तं कथं च तथोक्त्वा नच मत्स्थानीति तद्विरुद्धमुदीरितमित्याशङ्क्याह -- इदं चेति। तर्हि भूतसंबन्धः स्यादिति नेत्याह -- नचेति। यथोक्तेन न्यायेन। असङ्गत्वेनेति यावत्। असङ्गतया वस्तुतो भूतासंबन्धेऽपि कल्पनया तदविरोधान्न मिथोविरोधोऽस्तीति भावः। आत्मनः सकाशादात्मनोऽन्यत्वायोगात्कुतः संबन्धोक्तिरित्याशङ्क्याह -- असाविति। (विभज्येति)। यथा लोको वस्तुतत्त्वमजानन्भेदमारोप्य ममायमिति संबन्धमनुभवति न तथेह संबन्धव्यपदेश आत्मनि स्वतो भेदाभावादतो भेदेऽसत्येव लोके संबन्धबुद्धिदर्शनमनुसरन्भगवानात्मनो देहादिसंघातं विभज्याहंकारं तस्मिन्नारोप्य असौ ममात्मेति भेदं व्यपदिशति। तथाच संघातस्य ममेति व्यपदेशात्ततो नि(कृ)ष्कृष्टस्य स्वरूपस्यात्मशब्देन निर्देशान्न भूतस्थोऽसावित्यर्थः। पूर्वोक्तासङ्गत्वाङ्गीकारेणैवात्मा भूतानि भावयतीत्याह -- तथेति।
।।9.5।।तेन भूतानि पञ्चमहाभूतानि प्राणिजातानि च नामरूपज्ञानकर्मात्मकानि मत्स्थानि अस्तिभातिप्रियत्वेन रूपेण नाम्ना च प्रकाशमाने मय्येवाक्षरे सर्वान्तर्यामिस्वरूपे उपादाने स्थितानि। द्वितीयपक्षे मत्स्थानि भूतानि मदायत्तस्थितिकानीत्यर्थः। अहं तु न तदायत्तस्थितिरित्याहनचाहं तेषु [9।4] इति। एवम्भूतो ममाखिलधर्माश्रयस्य मूलभूतस्य क्षराक्षरातीतस्य स्वैश्वर्यमहिमेति बोधयतिन च मत्स्थानि इति। निर्लेपतया विरुद्धसर्वधर्माश्रयत्वमाह। वस्तुतो न च मत्स्थानि नहि घटादीनामिव जलाद्यवलेपकत्वं (जलावधारकत्वं) मयि मदाधारशक्त्या तत्स्थितिरपि नान्यथेत्यचिन्त्यैश्वर्ययोगोऽयं ममेत्याहपश्य मे योगमैश्वरं इति। तथाहि मे मनोमयसङ्कल्प एव सर्वं कर्त्तुं शक्तोऽलौकिकयोगः स एवान्यव्यामोहको मायापदव्यपदिश्यमानोऽपि क्वचित् स च ममात्माऽक्षरस्वरूपोऽध्यात्मधर्माख्यो भूतानां भावयिता नियन्ता च तमेतं पश्य मम विरुद्धधर्माश्रयमालोचय। स किम्भूतः भूतभृन्न च भूतस्थ इति। न तत्सजातीयः? अपितु भूम्याद्यन्तर्वर्त्ती पालक उद्भावकश्च।
।।9.5।।अतएव दिविष्ठ इवादित्ये कल्पितानि जलचलनादीनि मयि कल्पितानि भूतानि परमार्थतो मयि न सन्ति। त्वमर्जुनः प्राकृतीं मनुष्यबुद्धिं हित्वा पश्य पर्यालोचय। मे योगं प्रभावमैश्वरं अघटनघटनाचातुर्यं मायाविन इव ममावलोकयेत्यर्थः। नाहं कस्यचिदाधेयो नापि कस्यचिदाधारस्तथाप्यहं सर्वेषु भूतेषु मयि च सर्वाणि भूतानीति महतीयं माया। यतो भूतानि सर्वाणि कार्याण्युपादानतया बिभर्ति धारयति पोषयतीति च भूतभृत् भूतानि सर्वाणि कर्तृतयोत्पादयतीति भूतभावनः। एवमभिन्ननिमित्तोपादानभूतोऽपि ममात्मा मम परमार्थस्वरूपभूतः सच्चिदानन्दघनोऽसङ्गाद्वितीयस्वरूपत्वान्न भूतस्थः परमार्थतो न भूतसंबन्धी स्वप्नदृगिव न परमार्थतः स्वकल्पितसंबन्धीत्यर्थः। ममात्मेति राहोः शिर इतिवत्कल्पनया षष्ठी।
।।9.5।।किंच -- नचेति। नच मयि स्थितानि भूतान्यसङ्गत्वादेव मम। ननु तर्हि व्यापकत्वमाश्रयत्वं च पूर्वोक्तं विरुद्धमित्याशङ्क्याह -- यथेति। म ऐश्वरमसाधारणं योगं युक्तिमघटितघटनाचातुर्यं पश्य। मदीययोगमायावैभवस्यावितर्क्यत्वान्न विरुद्धं किंचिदित्यर्थः। अन्यदप्याश्चर्यं पश्येत्याह -- भूतेति। भूतानि बिभर्ति धारयतीति भूतभृत्। भूतानि भावयति पालयतीति भूतभावनः। एवंभूतोऽपि ममात्मा परं स्वरूपं भूतस्थो न भवति।।अयंभावः -- यथा जीवो देहं बिभ्रत्पालयंश्चाहंकारेण तत्संश्लिष्टस्तिष्ठत्येवमहं भूतानि धारयन्पालयन्नपि न तेषु तिष्ठामि? निरहंकारत्वादिति।
।। 9.5 एवमध्यायप्रधानार्थस्य प्रापकस्य माहात्म्यमुक्तम् अथ प्राप्यमाहात्म्यद्वाराऽपि तदेव स्थिरीक्रियत इत्यभिप्रायेणाहशृणु तावदिति।इदं सर्वम् इति निर्देशः प्रमाणसिद्धसमस्तवस्तुपर इत्यभिप्रायेणइदं चेतनाचेतनात्मकमित्युक्तम्।अव्यक्तमूर्तिना इत्यस्य विग्रहविषयत्वेऽत्रानुपयोगात्स्वरूपविषयोऽयमौपचारिकः प्रयोग इति दर्शयितुंअप्रकाशितस्वरूपेणेत्युक्तम्। आकाशवत्सन्निधिमात्ररूपव्याप्तिव्युदासाय बहुप्रमाणसिद्धो व्याप्तिप्रकारःमया इत्यनेनाभिप्रेत इत्याहअन्तर्यामिणेति। उक्तप्रकाराया व्याप्तेः प्रयोजनं तन्निदानं च दर्शयतिअस्येति। अत्र धारणमनन्तरग्रन्थसिद्धम् अत एव नियमनमप्यर्थसिद्धम्। धारणं हि प्रशासनाधीनं श्रूयते। शेषित्वं तु प्रागुक्तं? शरीरित्वेनार्थसिद्धं च। अप्रकाशितस्वरूपत्वेन नियामकत्वेन च सर्वव्याप्तिं श्रुतौ दर्शयतियथेति। पृथिव्युदाहरणं तत्प्रकरणोक्तसर्वाचेतनोपलक्षणार्थम्। उक्तप्रकारव्यापकत्ववशात्मत्स्थानि इत्यनेन जगतः पृथक्सिद्धता निरस्यत इत्यभिप्रायेणाहतत इति। श्रीविश्वरूपादिषु विग्रहाश्रितत्वमपि सर्वस्योच्यते अत्र तु स्वरूपनिष्ठतेत्यपौनरुक्त्याय -- मय्यन्तर्यामिणीत्युक्तम्। अनयोर्धारणनियमनयोरपि व्याप्त्या सहाधीततामाह -- तत्रैवेति।स्थितिनियमने -- स्थितिप्रवृत्ती इत्यर्थः। शरीरशरीरित्ववचनात् धृतिः शेषित्वं च तत्रार्थसिद्धे इत्यभिप्रायेणाहशेषित्वं चेति।मया ततमिदं सर्वम् इत्यभिधायैवन चाहं तेष्ववस्थितः इति वचनं व्याहतम्? यः पृथिव्यां तिष्ठन् इत्यादिश्रुतिविरुद्धं चेत्यत्राहअहं त्विति।मत्स्थानि सर्वभूतानि इति प्रस्तुतप्रकारा स्थितिरत्र निषिध्यते। स भगवः कस्मिन् प्रतिष्ठितः इत्यत्र स्वे महिम्नि यदि वा न महिम्नि [छां.उ.7।24।1] इति हि श्रूयत इति भावः। उक्तं विवृणोतिमत्स्थिताविति।न कश्चिदिति स्वरूपतः सङ्कल्पादृष्टादिना वेति भावः।मत्स्थानिन च मत्स्थानि इत्येतद्व्याहतमित्यत्राह -- न घटादीनामिति। मूर्त हि मूर्तान्तरं पतनप्रतिघातिना संयोगेन धारयति न तथाऽत्रेति भावः। लोकदृष्टविपरीतं न सम्भवतीत्यभिप्रायेण शङ्कतेकथमिति। शरीरशरीरिणोरिव सम्भवमभिप्रेत्याहमत्सङ्कल्पेनेति। स्वेच्छाधीनधारकत्वं हि विहितम्। अस्वतन्त्रतया धारकत्वं तु निषिध्यत इत्यविरोध इति भावः।ऐश्वरम् इत्यनेनानन्यसाधारणत्वं फलितम्।पश्य इत्यनेन चाश्चर्यता द्योतितेत्यभिप्रायेणाहअन्यत्रेति।योगः सन्नहनोपायध्यानसङ्गतियुक्तिषु [अमरः3।3।22] इति पाठात्सङ्कल्परूपं ध्यानमिह योगः? युज्यमानस्वभावादिर्वा।पश्य मे योगम् इत्युक्ते योगस्वरूपमेवानन्तरं वक्तव्यमिति तदाकाङ्क्षा दर्शयतिकोऽसाविति।भूतभृन्न च भूतस्थः इत्यत्रार्थौचित्यादहमित्येव विशेष्यम्। अथवाभूतभावनः इतिवत्ममात्मा इति निर्दिष्टसङ्कल्पविशेषणत्वेऽपि फलितकथनंसर्वेषां भूतानां भर्ताऽहमित्यादि।आत्मा इति विशेषनिर्देशः परिसङ्ख्यानयात्तदतिरिक्तसहकारिव्यवच्छेदार्थ इत्यभिप्रायेणाहममात्मैवेति।ममात्मा इति व्यधिकरणनिर्देशस्वारस्यसिद्धमात्मशब्दार्थमाहमम मनोमयः सङ्कल्प इति। एतेन देहादिसङ्घातेऽहङ्कारमध्यारोप्य लोकबुद्ध्यनुसारेणममात्मा इति व्यपदेश इतिशङ्करोक्तं प्रत्युक्तम्। सङ्कल्प एव मनःकार्यतयाऽन्यत्र प्रसिद्धो मनःप्रतिपादकेनात्मशब्देनात्र व्यपदिष्टः। यद्वा आत्मशब्दोऽत्र सङ्कल्परूपमनःपर एव?मनसैव जगत्सृष्टिं [वि.पु.5।22।15]मनोऽकुरुत (आत्मन्वी) स्यामिति [बृ.उ.1।2।1] इत्यादेः। तदर्थज्ञापनाय तु मनोमयशब्दः। धारणनियमनयोरेव प्रकृतत्वात्? अनन्तरश्लोके च निर्दिश्यमानत्वात्? सृष्टेश्च ततोऽप्यनन्तरं वक्ष्यमाणत्वादत्रभूतभावनः इत्येतत्सत्तातादधीन्यनियमनाद्युपलक्षणमित्यभिप्रायेणाहधारयिता नियन्ता चेति। अथवाभूतभृन्न च भूतस्थः इत्यस्यैवायमर्थः।
।।9.5।।मत्स्थानि सर्वभूतानि [9।4] इत्युक्त्या भगवतस्ते भिन्ना भविष्यन्तीति ज्ञानेन व्यापकत्वे भ्रमो मा भवत्वित्यत आह -- न च मत्स्थानीति। च पुनः। तानि भूतानि जातान्यपि भिन्नतया मत्स्थानि न? किन्तु मदात्मकान्येवेत्यर्थः। ननु तर्हि कथं भेदप्रतीतिः इत्यत आह -- पश्य मे योगमैश्वरमिति। मे ऐश्वरं कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थत्वरूपं क्रीडात्मकं योगं पश्य।अयमर्थः -- मया क्रीडार्थमभेदेऽपि भेदो बोध्यते। एतदेव विशदयति -- भूतभृदिति। भूतानि आधारत्वेन धारयति स्वरसार्थं पोषयतीति भूतभृत्। भूतानि पालयति तथा भावयति स्वभावभावितानि करोतीति भूतभावनः। एतादृशोऽपि सन् ममात्मा मदात्मस्वरूपं भूतस्थो न भवति। अयं भावः -- तेषु क्रीडां कुर्वन्नपि यथा ते क्रीडार्थं सृष्टास्तत्र स्थिताः स्वाभिमानेन भिन्नतया,तिष्ठन्ति तथाऽहं न तिष्ठामि।
।।9.5।।एवमभ्युपगतमानन्दस्य जगद्विवर्ताधिष्ठानत्वं तदप्यपवदति -- न च मत्स्थानीति। अयंभावः -- अस्य द्वैतेन्द्रजालस्य यदुपादानकारणम्। अज्ञानं तदुपाश्रित्य ब्रह्मकारणमुच्यते इति वार्तिकोक्तेरज्ञानमेव जगत्कारणं तच्च तुच्छम्। अहं चासङ्गः। ततश्च तुच्छतरेण तत्कार्येण भूतसंघेन न ममासङ्गस्याधाराधेयभावसंबन्धोऽनिर्वचनीयोऽप्यस्ति। आवृतं हि रज्ज्वादिकमनिर्वचनीयेन सर्पादिना संबध्यते। अहं तु सर्वदानावृतः साक्षिरूपत्वात्तत्संबन्धशून्य इति न च मत्स्थानि भूतानीत्युक्तमिति। ननु साक्षिणस्तव ब्रह्मणो युवा सुखी चेति प्रतीत्येव भूतसंबन्धानुभवात्कथं न च मत्स्थानीत्युक्तिरित्याशङ्क्याह -- पश्य मे योगमैश्वरमिति। मे मम भूतैः सह योगं युक्तिघटनां पश्य। ऐश्वरं ईश्वरेण मायाविना निर्मितं गगने गन्धर्वनगरमिव। अतएव मम कारणशरीरस्यात्मा प्रत्यगानन्दे भूतभृदपि भूतस्थो न। चकारोऽप्यर्थे भिन्नक्रमश्च। खमिव गन्धर्वनगरभृदपि तत्स्थं न। तस्य तदाकारेण परिणामासंभवात्। एवंरूपोऽपि परानन्दरूपो ममात्मा स भूतभावनः भूतानां वृद्धिकरः।एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति। को ह्येवान्यात्कः प्राण्याद्यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् इत्यादिश्रुतिभ्यः। आकाशेऽव्याकृताख्ये स्वाधिष्ठानभूत आनन्दोऽनुस्यूतो न स्यात्तर्हि प्राणापानक्रियां कश्चिदपि न कुर्यात् कारणगतं जाड्यं कार्येऽपि स्यात्। आकाशे आनन्दानुबन्धे तु कारणस्य चेतनत्वात्कार्यमपि चेतनावत्स्यादिति श्रुत्यर्थः। बृहदारण्यकेऽपियदूर्ध्वं गार्गि दिवो यदवाक् पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच्च भविष्यच्चेत्याचक्षत आकाश एव तदोतं च प्रोतं च इति मायाविनि सर्वस्योतप्रोतत्वमुक्त्वाकस्मिन्नु खल्वाकाश ओतश्च प्रोतश्च इत्यस्योत्तरम्एतस्मिन्खल्वक्षरे गार्गि आकाश ओतश्च प्रोतश्च इत्यस्थूलादिलक्षणस्याक्षरस्याकाशाधारत्वमुक्तम्। तस्माद्युक्तमुक्तमाकाशशरीरेण भगवता कारणोपाधिनिष्कृष्टचिन्मात्राभिप्रायेण ममात्मा भूतभावन इति।
।।9.5।।अतएव सर्वसङ्गविवर्जिते मयि परमात्मनि वस्तुस्तु भूतान्यपि सर्वाणि नच स्थितानि। पश्य मे योगमैश्वम्। योगं युक्तं घटनां ममैश्वरं याथात्म्यभावम्। तथाच श्रुतिःअङ्गो नहि सञ्जते इति। इदं चान्यद्योगमधटितधटनापटीयस्त्वं पश्य। भूतभृन्नच भूतस्थो ममात्माऽसङ्गित्वात् भूतेषु न तिष्ठतीति तथा वस्तुत एतादृशोऽपि सन् भूतानि स्थावरजङ्गमादीनि बिभर्ति धारयति पोषयतीति तथा भूतभावनः भूतानि भावत्युत्पादयतीति तथा ममात्मेति तु भेदमारोप्य राहोः शरि इतिवत्प्रयोगः।
9.5 न not? च and? मत्स्थानि dwelling in Me? भूतानि beings? पश्य behold? मे My? योगम् Yoga? ऐश्वरम् Divine? भूतभृत् supporting the beings? न not? च and? भूतस्थः dwelling in the beings? मम My? आत्मा Self? भूतभावनः bringing forth beings.Commentary Brahman or the Self no connection with any object as It is very subtle and attributes and formless and so It is unattached (Asanga). There cannot be any real connection between matter and Spirit. Saakara (an object with form) can have no connection with Nirakara (the formless). How could this be Devoid of attachment It is never attached. (Brihadaranyaka Upanishad? III.9.26) Though unattached? It supports all beings It is the efficient or instrumental cause It brings forth all beings but It does not dwell in them? because It is unconnected with any object. This is a great mystery. Just as the dreamer has no connection with the dream object? just as ether or air has no connection with the vessel? so also Brahman has no connection with the objects or the body. The connection between the Self and the physical body is illusory.The Adhishthana or support (Brahman) for the illusory object (Kalpitam) superimposed on,Brahman has no connection whatsoever with the alities or the defects of the objects that are superimposed on the Absolute. The snake is superimposed on a rope. The rope is the support (Adhishthana) for the illusory snake (Kalpitam). This is an example of superimposition or Adhyasa. (Cf.VII.25X.7.XI.8)
9.5 Nor do beings exist in Me (in reality); behold My divine Yoga, supporting all beings, but not dwelling in them, is My Self, the efficient cause of beings.
9.5 Nevertheless, they do not consciously abide in Me. Such is My Divine Sovereignty that though I, the Supreme Self, am the cause and upholder of all, yet I remain outside.
9.5 Nor do the beings dwell in Me. Behod My divine Yoga! I am the sustainer and originator of beings, but My Self is not contained in the beings.
9.5 Na ca bhutani, nor do the beings, beginning from Brahma; matsthani, dwell in Me. Pasya, behold; me, My; aisvaram, divine; yogam, Yoga, action, performance, i.e. this real nature of Myself. The Upanisadic text, too, similarly shows the absence of association (of the Self) due to Its being free from contact: '৷৷.unattached, for It is never attached' (Br. 3.9.26). Behold this other wonder: I am the bhuta-bhrt, sustainer of beings, though I am unattached. Ca, but; mama atma, My Self; na bhutasthah, is not contained in the bengs. As it has been explained according to the logic stated above, there is no possibility of Its remaining contained in beings. How, again, is it said, 'It is My Self? Following human understanding, having separated the aggregate of body etc. (from the Self) and superimposing eoism of them, the Lord calls It 'My Self'. But not that He has said so by ignorantly thinking like ordinary mortals that the Self is different from Himself. So also, I am the bhuta-bhavanah, originator of beings, one who gives birth to or nourishes the beings. By way of establishing with the help of an illustration the subject-matter [Subject-matter-that the Self, which has no contact with anything, is the substratum of creation, continuance and dissolution.] dealt with in the aforesaid two verses, the Lord says:
9.5. Yet, the beings do not exist in Me. Look at the Sovereign Yoga of Mine. My Self is the sustainer of the beings, does not exist in beings, and cuases beings to be born.
9.5 Na ca etc. Yet, the beings do not exist in Me : For, the persons, who are blind with nescience, do not see the reality. The ignorant do not consider the Absolute Lord - Who is of the nature of infinite Consciousness - as a basis of determinate knowledge of all objects. On the other hand conceiving [like] 'I, the lean Devadatta, know this, as existing here on the floor', they view [things of] finite nature aone as the basis [of determination]. But why this contradiction ? On this doubt [the Lord] says Look at the Sovereign Yoga of Mine. Yoga signifies the Power [of the Absolute], because it is being employed. This is indeed My Sovereignty, which is the Freedom of behaving in this manner in a highly strange way. This is the idea (here).
9.5 And yet 'beings do not abide in Me,' as I do not support them as a jug or any kind of vessel supports the water contained in them. How then are they contained? By My will. Behold My divine Yoga power, namely, My wonderful divine modes, unie to Me alone and having no comparison elsewhere. What are these modes? 'I am the upholder of all beings and yet I am not in them - My will sustains all beings.' The meaning is I am the supporter of all beings, and yet I derive no help for Myself whatever from them. My will alone projects, sustains and controls all beings. He gives an illustration to show how all beings depend on His will for their being and acts:
9.5 And yet beings do not abide in Me. Behold My divine Yoga. I am the upholder of all beings and yet I am not in them. My will alone causes their existence.
।।9.5।।मैं असंसर्गी हूँ? इसलिये --, ( वास्तवमें ) ब्रह्मादि सब प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं हैं? तू मेरे इस ईश्वरीय योग -- युक्ति -- घटनाको देख? अर्थात् मुझ ईश्वरके योगको यानी यथार्थ आत्मतत्त्वको समझ। संसर्गरहित आत्मा कहीं भी लिप्त नहीं होता यह श्रुति भी संसर्गरहित होनेके कारण ( आत्माकी ) निर्लेपता दिखलाती है। यह और भी आश्चर्य देख कि भूतभावन मेरा आत्मा संसर्गरहित होकर भी भूतोंका भरणपोषण करता रहता है परंतु भूतोमें स्थित नहीं है। क्योंकि परमात्माका भूतोंमें स्थित होना सम्भव नहीं? यह बात उपर्युक्त न्यायसे स्पष्ट दिखलायी जा चुकी है। पू0 -- ( जब कि आत्मा अपनेसे कोई अन्य वस्तु ही नहीं है ) तो मेरा आत्मा यह कैसे कहा जाता है उ0 -- लौकिक बुद्धिका अनुकरण करते हुए देहादि संघातको आत्मासे अलग करके फिर उसमें अहंकारका अध्यारोप करके मेरा आत्मा ऐसा कहते हैं? आत्मा अपने आपसे भिन्न है ऐसा समझकर लोगोंकी भाँति अज्ञानपूर्वक ऐसा नहीं कहते। जो भूतोंको प्रकट करता है -- उत्पन्न करता है या बढ़ाता है उसको भूतभावन कहते हैं।
।।9.5।। -- न च मत्स्थानि भूतानि ब्रह्मादीनि। पश्य मे योगं युक्तिं घटनं मे मम ऐश्वरम् ईश्वरस्य इमम् ऐश्वरम्? योगम् आत्मनो याथात्म्यमित्यर्थः। तथा च श्रुतिः असंसर्गित्वात् असङ्गतां दर्शयति -- असङ्गो न हि सज्जते (बृह0 उ0 3।9।26) इति। इदं च आश्चर्यम् अन्यत् पश्य -- भूतभृत् असङ्गोऽपि सन् भूतानि बिभर्ति न च भूतस्थः? यथोक्तेन न्यायेन दर्शितत्वात् भूतस्थत्वानुपपत्तेः। कथं पुनरुच्यते असौ मम आत्मा इति विभज्य देहादिसङ्घातं तस्मिन् अहंकारम् अध्यारोप्य लोकबुद्धिम् अनुसरन् व्यपदिशति मम आत्मा इति? न पुनः आत्मनः आत्मा अन्यः इति लोकवत् अजानन्। तथा भूतभावनः भूतानि भावयति उत्पादयति वर्धयतीति वा भूतभावनः।।यथोक्तेन श्लोकद्वयेन उक्तम् अर्थं दृष्टान्तेन उपपादयन् आह --,
।।9.5।।मत्स्थानि सर्वभूतानि [9।4] इत्युक्त्वा पुनः कथंन च मत्स्थानि इति व्याहृतमुच्यते इत्यत आह -- मत्स्थत्वेऽपीति। स्पृष्ट्वेति। स्पर्शनेन्द्रियेण तां ज्ञात्वाऽन्योन्यधर्मसंक्रान्तिमासाद्य चेत्यर्थः। परमेश्वरस्य स्पर्शनाद्यवेद्यत्वे प्रमाणमाह -- नेति। संज्ञया शब्देनैव संज्ञा सम्यग् ज्ञानं यस्यासौ तथोक्तः। मत्स्थानीत्यादेरुक्तत्वात् भूतभृदित्यादिकं पुनरुक्तमित्यत आह -- ममेति। प्राग्भूताधारत्वादिकं स्वस्योक्तम्? अत्र पुनरव्यक्तमूर्तिनेति मूर्तावुक्तायां साऽस्मदादीनामिव भिन्नेति भ्रान्तिनिरासार्थं स्वलक्षणं स्वदेहस्योच्यत इत्यर्थः।,भूतभावनत्वस्याधिकस्योक्तेश्च न पुनरुक्तिरिति भावेनोक्तम् -- भूतेति। स्यादिदं व्याख्यानं यदि भगवद्देहस्येदं भवेत्। तदेव कुतः इत्यत आह -- महाविभूतेरिति। माहात्म्यमेव शरीरं यस्यासौ तथोक्तः।
।।9.5।।मत्स्थत्वेऽपि यथा पृथिव्यां स्पृष्ट्वा स्थितानि न तथा मयीत्याह -- न चेति।न दृश्यश्चक्षुषा चासौ न स्पृश्यः स्पर्शनेन च [म.भा.12।339।21] इति हि मोक्षधर्मे।संज्ञासंज्ञः [म.भा.12।338।47] इति च। ममात्मा देह एव भूतभावनः।महाविभूतेर्माहात्म्यशरीरइति इति मोक्षधर्मे [म.भा.12।338।17475]।
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्। भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।9.5।।
ন চ মত্স্থানি ভূতানি পশ্য মে যোগমৈশ্বরম্৷ ভূতভৃন্ন চ ভূতস্থো মমাত্মা ভূতভাবনঃ৷৷9.5৷৷
ন চ মত্স্থানি ভূতানি পশ্য মে যোগমৈশ্বরম্৷ ভূতভৃন্ন চ ভূতস্থো মমাত্মা ভূতভাবনঃ৷৷9.5৷৷
ન ચ મત્સ્થાનિ ભૂતાનિ પશ્ય મે યોગમૈશ્વરમ્। ભૂતભૃન્ન ચ ભૂતસ્થો મમાત્મા ભૂતભાવનઃ।।9.5।।
ਨ ਚ ਮਤ੍ਸ੍ਥਾਨਿ ਭੂਤਾਨਿ ਪਸ਼੍ਯ ਮੇ ਯੋਗਮੈਸ਼੍ਵਰਮ੍। ਭੂਤਭਰਿਨ੍ਨ ਚ ਭੂਤਸ੍ਥੋ ਮਮਾਤ੍ਮਾ ਭੂਤਭਾਵਨ।।9.5।।
ನ ಚ ಮತ್ಸ್ಥಾನಿ ಭೂತಾನಿ ಪಶ್ಯ ಮೇ ಯೋಗಮೈಶ್ವರಮ್. ಭೂತಭೃನ್ನ ಚ ಭೂತಸ್ಥೋ ಮಮಾತ್ಮಾ ಭೂತಭಾವನಃ৷৷9.5৷৷
ന ച മത്സ്ഥാനി ഭൂതാനി പശ്യ മേ യോഗമൈശ്വരമ്. ഭൂതഭൃന്ന ച ഭൂതസ്ഥോ മമാത്മാ ഭൂതഭാവനഃ৷৷9.5৷৷
ନ ଚ ମତ୍ସ୍ଥାନି ଭୂତାନି ପଶ୍ଯ ମେ ଯୋଗମୈଶ୍ବରମ୍| ଭୂତଭୃନ୍ନ ଚ ଭୂତସ୍ଥୋ ମମାତ୍ମା ଭୂତଭାବନଃ||9.5||
na ca matsthāni bhūtāni paśya mē yōgamaiśvaram. bhūtabhṛnna ca bhūtasthō mamātmā bhūtabhāvanaḥ৷৷9.5৷৷
ந ச மத்ஸ்தாநி பூதாநி பஷ்ய மே யோகமைஷ்வரம். பூதபரிந்ந ச பூதஸ்தோ மமாத்மா பூதபாவநஃ৷৷9.5৷৷
న చ మత్స్థాని భూతాని పశ్య మే యోగమైశ్వరమ్. భూతభృన్న చ భూతస్థో మమాత్మా భూతభావనః৷৷9.5৷৷
9.6
9
6
।।9.6।। जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं -- ऐसा तुम मान लो।
।।9.6।। जैसे सर्वत्र विचरण करने वाली महान् वायु सदा आकाश में स्थित रहती हैं, वैसे ही सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा तुम जानो।।
।।9.6।। इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न कर रहे भ्रमित राजकुमार अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण एक सुन्दर एवं स्पष्ट दृष्टान्त देकर उसकी सहायता करते हैं। किसी ऐसी वस्तु की कल्पना कर सकना अत्यन्त कठिन है जो सर्वत्र विद्यमान है? जिसमें सबकी स्थिति है और फिर भी? वह स्वयं उन सब वस्तुओं के दोषों से लिप्त या बद्ध नहीं होती। सामान्य मनुष्य की बुद्धि इस ज्ञान की ऊँचाई तक सरलता से उड़ान नहीं भर सकती। शिष्य की ऐसी बुद्धि के लिये एक टेक या आश्रय के रूप में यहाँ एक अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है? जिसकी सहायता से स्वयं को ऊँचा उठाकर वह अपने ही परिच्छेदों के परे दृष्टिपात करके अनन्त तत्त्व के विस्तार का दर्शन कर सके।स्थूल कभी सूक्ष्म को सीमित नहीं कर सकता। जैसे किसी कवि ने गाया है? पाषाण की दीवारें कारागृह नहीं बनातीं? क्योंकि एक बन्दी के शरीर को वहाँ बन्दी बना लेने पर भी उसके विचार अपने मित्र और बन्धुओं के पास पहुँचने में नित्य मुक्त हैं? स्वतन्त्र हैं। स्थूल पाषाण की दीवारें उसके सूक्ष्म विचारों की उड़ान पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकतीं। यदि एक बार इस सिद्धांत को भली भांति समझ लें? तो यह दृष्टान्त अत्यन्त भाव व्यंजक बनकर अपने गूढ़ अभिप्रायों को प्रदर्शित कर देता है।वायु का बहना? घूर्णन करना और भंवर के रूप में वेग से घूमना यह सब कुछ एक आकाश में होता है। आकाश उन सबको आश्रय देकर उन्हें सर्वत्र व्याप्त किये रहता है? किन्तु वे किसी भी प्रकार से आकाश को सीमित नहीं करते। सामान्य बौद्धिक क्षमता का साधक भी यदि इस दृष्टान्त का मनन करे? तो वह आत्मा और अनात्मा के बीच के वास्तविक संबंध को समझ सकता है? उसे परिभाषित कर सकता है। सत्य वस्तु मिथ्या का आधार है मिथ्या तादात्म्य से उत्पन्न असंख्य जीव नित्य और सत्य वस्तु में ही रहते हुए सुखदुख? कष्ट और पीड़ा का जीवन जीते हुए दिखाई देते हैं। परन्तु मिथ्या वस्तु कभी सत्य को सीमित या दोषलिप्त नहीं कर सकती। वायु के विचरण से आकाश में कोई गति नहीं आती आकाश वायु के सब गुण धर्मों से मुक्त रहता है। सर्वव्यापक आकाश की तुलना में? जिसमें कि असंख्य ग्रह नक्षत्र? तारामण्डल अमाप गति से घूम रहे हैं? यह वायुमण्डल और उसके विकार तो पृथ्वी की सतह से कुछ मील की ऊँचाई तक ही होते हैं। अनन्त सत्य की व्यापक विशालता में? अविद्याजनित मिथ्या जगत् के परिवर्तन की रंगभूमि मात्र एक नगण्य क्षेत्र है৷৷. और वहाँ भी सत्य और मिथ्या के बीच संबंध वही है? जो चंचल वायु और अनन्त आकाश में है।यह श्लोक केवल शब्दों के द्वारा सत्य का वर्णन करने के लिए नहीं है। व्याख्याकारों का वर्णन कितना ही सत्य क्यों न हो प्रत्येक जिज्ञासु साधक को इनके अर्थ पर स्वयं चिन्तनमनन करना होगा।तब पूर्वाध्याय में आपके बताये हुए पुनर्जन्म के सिद्धांत और ब्रह्माजी के दिन और रात में होने वाली सृष्टि और प्रलय की कथा की स्थिति क्या होगी इस पर कहते हैं --
।।9.6।। व्याख्या--'यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्'-- जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है अर्थात् वह कहीं निःस्पन्दरूपसे रहती है, कहीं सामान्यरूपसे क्रियाशील रहती है, कहीं बड़े वेगसे चलती है आदि, पर किसी भी रूपसे चलनेवाली वायु आकाशसे अलग नहीं हो सकती। वह वायु कहीं रुकी हुई मालूम देगी और कहीं चलती हुई मालूम देगी, तो भी वह आकाशमें ही रहेगी। आकाशको छोड़कर वह कहीं रह ही नहीं सकती। ऐसे ही तीनों लोकों और चौदह भुवनोंमें घूमनेवाले स्थावरजङ्गम सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें ही स्थित रहते हैं -- तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानि।भगवान्ने चौथे श्लोकसे छठे श्लोकतक तीन बार 'मत्स्थानि' शब्दका प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ये सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें ही स्थित हैं। मेरेको छोड़कर ये कहीं जा सकते ही नहीं। ये प्राणी प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर आदिके साथ कितना ही घनिष्ठ सम्बन्ध मान लें, तो भी वे प्रकृति और उसके कार्यसे एक हो सकते ही नहीं और अपनेको मेरेसे कितना ही अलग मान लें, तो भी वे मेरेसे अलग हो सकते ही नहीं।वायुको आकाशमें नित्य स्थित बतानेका तात्पर्य यह है कि वायु आकाशसे कभी अलग हो ही नहीं सकती। वायुमें यह किञ्चिन्मात्र भी शक्ति नहीं है कि वह आकाशसे अलग हो जाय क्योंकि आकाशके साथ उसका नित्यनिरन्तर घनिष्ठ सम्बन्ध अर्थात् अभिन्नता है। वायु आकाशका कार्य है और कार्यकी कारणके साथ अभिन्नता होती है। कार्य केवल कार्यकी दृष्टिसे देखनेपर कारणसे भिन्न दीखता है परन्तु कारणसे कार्यकी अलग सत्ता नहीं होती। जिस समय कार्य कारणमें लीन रहता है, उस समय कार्य कारणमें प्रागभावरूपसे अर्थात् अप्रकटरूपसे रहता है, उत्पन्न होनेपर कार्य भावरूपसे अर्थात् प्रकटरूपसे रहता है और लीन होनेपर कार्य प्रध्वंसाभावरूपसे अर्थात् कारणरूपसे रहता है। कार्यका प्रध्वंसाभाव नित्य रहता है, उसका कभी अभाव नहीं होता क्योंकि वह कारणरूप ही हो जाता है। इस रीतिसे वायु आकाशसे ही उत्पन्न होती है, आकाशमें ही स्थित रहती है और आकाशमें ही लीन हो जाती है अर्थात् वायुकी स्वतन्त्र सत्ता न रहकर आकाश ही रह जाता है। ऐसे ही यह जीवात्मा परमात्मासे ही प्रकट होता है, परमात्मामें ही स्थित रहता है और परमात्मामें ही लीन हो जाता है अर्थात् जीवात्माकी स्वतन्त्र सत्ता न रहकर केवल परमात्मा ही रह जाते हैं।जैसे वायु गतिशील होती है अर्थात् सब जगह घूमती है, ऐसे यह जीवात्मा गतिशील नहीं होता। परन्तु जब यह गतिशील प्रकृतिके कार्य शरीरके साथ अपनापन (मैंमेरापन) कर लेता है, तब शरीरकी गति इसको अपनी गति देखने लग जाती है। गतिशीलता दीखनेपर भी यह नित्यनिरन्तर परमात्मामें ही स्थित रहता है। इसलिये दूसरे अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भगवान्ने जीवात्माको नित्य, सर्वगत,अचल, स्थाणु और सनातन बताया है। यहाँ शरीरोंकी गतिशीलताके कारण इसको सर्वगत बताया है। अर्थात् यह सब जगह विचरनेवाला दीखता हुआ भी अचल और स्थाणु है। यह स्थिर स्वभाववाला है। इसमें हिलनेडुलनेकी क्रिया नहीं है। इसलिये भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि सब प्राणी अटलरूपसे नित्यनिरन्तर मेरीमें ही स्थित हैं।तात्पर्य हुआ कि तीनों लोक और चौदह भुवनोंमें घूमनेवाले जीवोंकी परमात्मासे भिन्न किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और हो सकती भी नहीं अर्थात् सब योनियोंमें घूमते रहनेपर भी वे नित्यनिरन्तर परमात्माके सच्चिदानन्दघनस्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। परन्तु प्रकृतिके कार्यके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे इसका अनुभव नहीं हो रहा है। अगर ये मनुष्यशरीरमें अपनापन न करें, मैंमेरापन न करें तो इनको असीम आनन्दका अनुभव हो जाय। इसलिये मनुष्यमात्रको चेतावनी देनेके लिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि तुम मेरेमें नित्यनिरन्तर स्थित हो, फिर मेरी प्राप्तिमें परिश्रम और देरी किस बातकी मेरेमें अपनी स्थिति न माननेसे और न जाननेसे ही मेरेसे दूरी प्रतीत हो रही है।'इति उपधारय' --यह बात तुम विशेषतासे धारण कर लो, मान लो कि चाहे सर्ग(सृष्टि) का समय हो, चाहे प्रलयका समय हो, अनन्त ब्रह्माण्डोंके सम्पूर्ण प्राणी सर्वथा मेरेमें ही रहते हैं मेरेसे अलग उनकी स्थिति कभी हो ही नहीं सकती। ऐसा दृढ़तासे मान लेनेपर प्रकृतिके कार्यसे विमुखता हो जायगी और वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जायगा।इस वास्तविक तत्त्वका अनुभव करनेके लिये साधक दृढ़तासे ऐसा मान ले कि जो सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें सर्वथा परिपूर्ण हैं, वे परमात्मा ही मेरे हैं। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदि कोई भी मेरा नहीं है और मैं उनका नहीं हूँ। विशेष बात सम्पूर्ण जीव भगवान्में ही स्थित रहते हैं। भगवान्में स्थित रहते हुए भी जीवोंके शरीरोंमें उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका क्रम चलता रहता है क्योंकि सभी शरीर परिवर्तनशील हैं और यह जीव स्वयं अपरिवर्तनशील है। इस जीवकी परमात्माके साथ तात्त्विक एकता है। परन्तु जब यह जीव परमात्मासे विमुख होकर शरीरके साथ,अपनी एकता मान लेता है, तब इसे मैंपनकी स्वतन्त्र सत्ताका भान होने लगता है कि मैं शरीर हूँ। इस मैंपनमें एक तो परमात्माका अंश है और एक प्रकृतिका अंश है -- यह जीवका स्वरूप हुआ। जीव अंश तो है परमात्माका, पर पकड़ लेता है प्रकृतिके अंशको।इस मैंपनमें जो प्रकृतिका अंश है, वह स्वतः ही प्रकृतिकी तरफ खिंचता है। परन्तु प्रकृतिके अंशके साथ तादात्म्य होनेसे परमात्माका अंश जीव उस खिंचावको अपना खिंचाव मान लेता है और मुझे सुख मिल जाय, धन मिल जाय,भोग मिल जाय -- ऐसा भाव कर लेता है। ऐसा भाव करनेसे वह परमात्मासे विशेष विमुख हो जाता है। उसमें संसारका सुख हरदम रहे पदार्थोंका संयोग हरदम रहे यह शरीर मेरे साथ और मैं शरीरके साथ सदा रहूँ -- ऐसी जो इच्छा रहती है, यह इच्छा वास्तवमें परमात्माके साथ रहनेकी है क्योंकि उसका नित्य सम्बन्ध तो परमात्माके साथ ही है।जीव शरीरोंके साथ कितना ही घुलमिल जाय, पर परमात्माकी तरफ उसका खिंचाव कभी मिटता नहीं, मिटनेकी सम्भावना ही नहीं। मैं नित्यनिरन्तर रहूँ, सदा रहूँ, सदा सुखी रहूँ तथा मुझे सर्वोपरि सुख मिले -- इस रूपमें परमात्माका खिंचाव रहता ही है। परन्तु उससे भूल यह होती है कि वह (जडअंशकी मुख्यतासे) इस सर्वोपरि सुखको जडके द्वारा ही प्राप्त करनेकी इच्छा करता है। वह भूलसे उस सुखको चाहने लगता है, जिस सुखपर उसका अधिकार नहीं है। अगर वह सजग, सावधान हो जाय और भोगोंमें कोई सुख नहीं है, आजतक कोईसा भी संयोग नहीं रहा, रहना सम्भव ही नहीं -- ऐसा समझ ले, तो सांसारिक संयोगजन्य सुखकी इच्छा मिट जायगी और वास्तविक, सर्वोपरि, नित्य रहनेवाले सुखकी इच्छा (जो कि आवश्यकता है) जाग्रत् हो जायगी। यह आवश्यकता ज्योंज्यों जाग्रत् होगी, त्योंहीत्यों नाशवान् पदार्थोंसे विमुखता होती चली जायगी। नाशवान् पदार्थोंसे सर्वथा विमुखता होनेपर मेरी स्थिति तो अनादिकालसे परमात्मामें ही है -- इसका अनुभव हो जायगा।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंकी स्थिति अपनेमें बतायी, पर उनके महासर्ग और महाप्रलयका वर्णन करना बाकी रह गया। अतः उसका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
।।9.6।।यथेति। एवमिति। यद्वदाकाशवाय्वोरविनाभाविन्यपि संबन्धे न जातु (S जातुचित्) नभः स्पृश्यता श्रूयते।
।।9.6।।यथा आकाशे अनालम्बने महान् वायुः स्थितः सर्वत्र गच्छति। स तु वायुः निरालम्बनो मदायत्तस्थितिः इति अवश्याभ्युपगमनीयो मया एव धृत इति विज्ञायते तथा एव सर्वाणि भूतानि तैः अदृष्टे मयि स्थितानि मया एव धृतानि इति उपधारय।यथा आहुः वेदविदःमेघोदयः सागरसन्निवृत्तिरिन्दोर्विभागः स्फुरितानि वायोः। विद्युद्विभङ्गो गतिरुष्णरश्मेर्विष्णोर्विचित्राः प्रभवन्ति मायाः।।इति विष्णोः अनन्यसाधारणानि महाश्चर्याणि इत्यर्थः। श्रुतिः अपि -- एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः (बृ0 उ0 3।8।9)भीषास्माद्वातः पवते भीषोदेति सूर्यः। भीषास्मादग्निश्चेन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः (तै0 उ0 2।8।1) इत्यादिका।सकलेतरनिरपेक्षस्य भगवतः संकल्पात् सर्वेषां स्थितिः प्रवृत्तिः च उक्ताः तथा तत्संकल्पाद् एव सर्वेषाम् उत्पत्तिप्रलयौ अपि? इति आह --
।।9.6।।सृष्टिस्थितिसंहाराणामसङ्गात्माधारत्वंमया ततमिदम् इत्यादिश्लोकद्वयेनोक्तोऽर्थस्तं दृष्टान्तेनोपपादयन्नादौ दृष्टान्तमाहेति योजना। सदेत्युत्पत्तिस्थितिसंहारकालो गृह्यते। आकाशादेर्महतोऽन्याधारत्वं कथमित्याशङ्क्याह -- महानिति। यथा सर्वगामित्वात्परिमाणतो महान्वायुराकाशे सदा तिष्ठति तथाकाशादीनि महान्त्यपि सर्वाणि भूतान्याकाशकल्पे पूर्णे प्रतीच्यसङ्गे परस्मिन्नात्मनि संश्लेषमन्तरेण स्थितानीत्यर्थः।
।।9.6।।असंश्लिष्टयोरप्याधाराधेयभावं दृष्टान्तेनाह -- यथाकाशस्थित इति। अवकाशं विनाऽवस्थानानुपपत्तेर्नित्यमाकाशाधारो वा वायुरभ्युपेयते? स च नाकाशेन संश्लिष्यते? निरवयवत्वेन संश्लेषायोगात् तथा सर्वभूतानि मयि जानीहि। वस्तुतस्तु महाभूतान्यपि सर्वाणि मदाधारशक्त्यैवोपष्टब्धानि। मयैव विधृतान्याकाशादीनि। अक्षरमूर्तिना मयैव सर्वं विधृतमित्यर्थः। तथा च श्रूयतेएतस्यैवाक्षरस्य प्रशासने गार्गि [द्यावापृथिवी] सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः ৷৷. द्यावापृथिव्यौ विधृते (अव) तिष्ठतः [बृ.उ.3।8।9] इत्यादि।
।।9.6।।असंश्लिष्टयोरप्याधाराधेयभावं दृष्टान्तेनाह -- यथैवासङ्गस्वभाव आकाशे स्थितो नित्यं सर्वदोत्पत्तिस्थितिसंहारकालेषु वातीति वायुः सर्वदा चलनस्वभावः। अतएव सर्वत्र गच्छतीति सर्वत्रगः। महान् परिमाणतः एतादृशोऽपि न कदाप्याकाशेन सह संसृज्यते। तथैवासङ्गस्वभावे मयि संश्लेषमन्तरेणैव सर्वाणि भूतान्याकाशादीनि महान्ति सर्वत्रगाणि च स्थितानीत्युपधारय विमृश्यावधारय।
।।9.6।।असंश्लिष्टयोरप्याधाराधेयभावं दृष्टान्तेनाह -- यथेति। अवकाशं विनाऽवस्थानानुपपत्तेर्नित्यमाकाशस्थितो वायुः सर्वत्रगोऽपि महानपि नाकाशेन संश्लिष्यते निरवयवत्वेन संश्लेषायोगात्तथा सर्वाणि भूतानि मयि स्थितानीति जानीहि।
।।9.6।।यथाकाशस्थितः इति श्लोके स्वस्मिन् सर्वभूतस्थितेराकाशे वायुस्थितिर्दृष्टान्त इति केचिदाहुः? तदयुक्तम्? आकाशस्य वाय्वपेक्षया नियमनधारणयोरभावात्तथाविधस्थितेरिह प्रकृतत्वेन तन्निदर्शनार्थत्वस्यैवौचित्याच्चेत्यभिप्रायेणाहसर्वस्येति।आकाशस्थितः सर्वत्रगः इत्याभ्यामीश्वरैकधार्यत्वं तदेकप्रेर्यत्वं च विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहयथाकाशेऽनालम्बन इति। महत्त्वं चान्याशक्यत्वायोक्तम्। अभिप्रेतं निदर्शनप्रकारं विशदयतिस त्विति। यथा निरालम्बने विहायसि विहङ्गमशरीरादेश्चेतनविशेषाधिष्ठेयत्वं? एवमेव वाय्वादेरपीति भावः।तैरदृष्ट इत्यनेन अनुपलम्भबाधनिरासाय पूर्वोक्तश्रुत्यादिसिद्धायोग्यत्वप्रदर्शनम्। ईश्वरानुमानमनभ्युपगच्छतां कथमिदं निदर्शनमित्यत्राहयथाऽऽहुर्वेदविद इति। आगममूलसम्भावनातर्कपरमिति भावः।वेदविद इत्यनेनाधीयमानवेदोपबृंहणरूपता द्योतिता। अस्मदाद्यगोचरोपादानोपकरणसम्प्रदानादिकानां तत्क्षणादेव सकलदिङ्मुखव्यापिनां धाराधराणामुत्पत्तिः? सकलभुवनाप्लावनलम्पटस्यैव जलनिधेरम्बरालम्बिनां तरङ्गाणां वेलातले निवृत्तिः? प्रतिनियतकलावृद्धिक्षयशृङ्गोन्नमनादिरूपश्चन्द्रमसो विभागः? अशङ्कितागमानामनियतदिग्विशेषाणां तृणगिरितरुषण्डलुण्ठाकानां चण्डमारुतादीनां विस्फूर्तयः? प्रशान्तदहनमिहिरहिमकरादिमहसि प्रावृषि निशीथेऽप्यविदितपूर्वोत्तरक्षणानां क्षणरुचीनां विभङ्गः? निरालम्बने विहायसि महीयसो मिहिरमण्डलस्य प्रतिनियतदिनरजनिमासायनसंवत्सरादिदेशिकः सञ्चारः? एवंविधान्यन्यानि च परिवेषोपरागेन्द्रचापकरकास्तनिताशनिभूकम्पप्रभञ्जनभ्रमणादयोऽत्यद्भुतप्रकाराः सर्वे सर्वव्यापिनः सर्वशक्तेर्विष्णोरेव विचित्रसृष्टिशक्तिमूला भवितुमर्हन्तीति श्लोकार्थः। मायाशब्दस्य मिथ्यार्थत्वनिरसनायाहविष्णोरिति। सम्बन्धसामान्यस्य नियाम्यत्वधार्यत्वादिविशेषपर्यवसानाययथाहुर्वेदविदः इत्यनेनाभिप्रेतं विवृणोति -- श्रुतिरपीति। प्रशासनमत्र सङ्कल्पविशेषःभीषेति -- भयादित्यर्थः।
।।9.6।।तर्हि भवतो व्यापकत्वज्जीवस्याणुत्वादव्यापकत्वाच्च मत्स्थानीत्याधाराधेयभावः। कथं इत्यत आह सदृष्टान्तम् -- यथेति। यथा सर्वगो महानपि वायुर्नित्यमाकाशस्थितो भवति आकाशेन च न स्पृश्यते। नित्यपदेनाकाश एव सर्वत्र गतियुक्तो भवतीति व्यञ्जितम्। तथा सर्वाणि भूतानि सर्वत्रगतियुक्तानि मत्क्रीडेच्छयैव मत्स्थानीत्युपधारय जानीहि। उप समीपे मत्समीपे धारय पश्येत्यर्थः।
।।9.6।।श्लोकद्वयोक्तेऽर्थे दृष्टान्तमाह -- यथेति। यथा लोके आकाशे स्थितो नित्यं सदा वायुः सर्वत्रगः परिमाणतश्च महान्? तथा सर्वाणि भूतानि सर्वगते मयि असंश्लेषेणैव स्थितानीत्येवमुपधारयेति प्राञ्चः। किंतद्ब्रह्मेति प्रश्नस्योत्तरमुक्तं अक्षरं परमं ब्रह्मेति। अक्षरसंज्ञं शुद्धस्त्वंपदार्थएव निरुपाधिकं ब्रह्मेत्युक्तम्। तत्र निरुपाधिकं ब्रह्म श्लोकद्वयेन व्याख्यातम्। इदानीं तस्याक्षराख्येन जीवेनाभेदं सदृष्टान्तमाह -- यथेति। वायुः सूत्रात्मावायुर्वै गोतम तत्सूत्रम् इतिश्रुतेः। सर्वत्रगतिसमष्टिलिङ्गत्वात्तस्य सर्वगतत्वम्। महानिति बाह्यवायुव्यावृत्त्यर्थम्। स यथा आकाशस्थितः अव्याकृताकाशे स्वकारणे स्थितः। नित्यमिति कालत्रयेऽपि तस्याकाशसंबन्ध उक्तः। सर्वाणि भूतान्युपाधिनिष्कृष्टत्वंपदार्थरूपी चेतनवर्गः। बहुत्वं लोकाभिप्रायेण। यथा कार्यं सर्वमुत्पत्तेः प्राक् नाशादूर्ध्वं मध्ये च स्वकारण एवाभेदेन तिष्ठति? एवं सर्वोऽपि जीववर्ग उपाध्युत्पत्तेः प्राक् तन्नाशादूर्ध्वं मध्ये वा घटाकाशो महाकाशादिव परस्माद्ब्रह्मणः कालत्रयेऽपि नातिरिच्यत इत्यर्थः। एतेन जीवब्रह्माभेदकथनेनस्वभावोऽध्यात्ममुच्यते इति यत्प्रागुक्तं ब्रह्मैव जीव इति तद्विवृतम्।
।।9.6।।सर्वसङ्गिविवर्जितेऽपि सर्वाणि भूतानि स्थितानीत्युक्तं श्लोकद्वयेन तत्र दृष्टान्तमाह। यथा लोके वायुः सर्वत्र गच्छतीति सर्वत्रगः परिमाणतो महान्। एवंभूतोऽपि नित्यं सदा आकाशोऽसङ्गिनि तिष्ठतीति आकाशस्थः। तथा सर्वाणि महान्ति सूक्ष्माणि च मयि असङ्गिनि स्थितानीत्युपधारय निश्चयेन जानिहि। युत्तु किंतद्ब्रह्मेति प्रश्नस्योत्तरमुक्तं? अक्षरं परमं ब्रह्मैत्यक्षरसंज्ञः शुद्धस्त्वंपदार्थ एव निरुपाधिकं ब्रह्मेत्युक्तं? तत्रानिरुपपाधिकं सर्वत्रगः। महानित्यनेन बाह्यवायोर्व्यावृत्तिः। स यथा नित्यं कालत्रयेऽप्युत्पत्तेः प्राक्? नाशादूर्ध्वं मध्ये च स्वकारणे आकाशोऽव्याकृते अभेदेन तिष्ठति तथा सर्वाणि भूतानि उपाधिनिष्कृष्टत्वंपदार्थरुपी चेतनवर्गः। बहुत्वं लोकाभिप्रायेण। एतेन जीवब्रह्माभेदकथनेन स्वभावोऽध्यात्ममुच्यत इति प्रागुक्तं ब्रह्मैव जीव इति विवृतमित्यन्ये। तत्रेदं वक्तव्यं निरुपाधिकस्याक्षरस्य परब्रह्मणस्तत्त्वंपदलक्ष्यत्वेनोभयपदलक्ष्त्वात् त्वंपदलक्ष्यत्वबोधकोपपदादेरभावच्च शुद्धः त्वंपदार्थ एवेत्याद्यसंगतं तत्रेत्यादिना विभागोऽप्यनुपपन्नः। मत्स्थानि सर्वभूतानीत्यस्य पूर्वमपि विद्यमानत्वात्। सर्वाणि भूतानीत्यस्योपाधिनिष्कृष्टत्वंपदार्थरूपी चेतनवर्ग इति व्याख्यानमप्यसंगतम्। पूर्वोत्तरश्लोकेषु सर्वभूतानीत्यस्य स्थावरजंगमपरत्वेनात्रैवंपरत्वेऽसङ्गततायाः स्पष्टत्वात्। एवं सर्वोऽपि जीववर्ग इत स्वग्रन्थविरोधाच्च। एतेन नन्वेवं जीवस्य उपाधिरहतिस्यैव ब्रह्माणि लयश्चेदुपाधेः का गतिरित्याशङ्क्याह सर्वेतीति प्रत्युक्तमिति दिक्।
9.6 यथा as? आकाशस्थितः rests in the Akasa? नित्यम् always? वायुः the air? सर्वत्रगः moving everywhere? महान् great? तथा so? सर्वाणि all? भूतानि beings? मत्स्थानि rest in Me? इति thus? उपधारय know.Commentary The Lord gives a beautiful illustration or simile in this verse to explain what He has said in the previous two verses. Just as the wind ever rests in the ether (space) without any contact or attachment? so also all beings and objects rest in Brahman without any attachment or contact at all. These objects cannot produce any effect on It.What sort of relationship is there between Brahman and the objects of this universe Is it Samyoga? Samavaya or Tadatmya Sambandha The relationship of the stick with the drum is Samyaoga Sambandha. Let us assume that there is such a Sambandha (relationship or connection). There cannot be connection between all the parts because Brahman is infinite and the elements are finite. You may say that there is connection of the Ekadesa type. This is also not possible? because there can be such relationship only between objects which possess members or parts like the tree and monkey. (Ekadesa is partial). Brahman has no parts.If you say that there is Samavaya Sambandha between Brahman and the objects or the elements? this is also not possible. The relationship between the attribute and the possessors of that attribute is called Samavaya Sambandha. The relationship between an individual Brahmin and the whole Brahmin caste is also Samavaya Sambandha. The relationship between hand and man? between the leg and the man is also Samavaya Sambandha. Such relationship does not exist between Brahman and the objects or the elements.The third kind of relationship? viz.? Tadatmya Sambandha is seen to exist between milk and water? fire and the iron ball. Milk shares its alities of sweetness and whiteness with water. Fire shares its alities of brilliance? heat and redness with the hot iron ball. This too is not possible between Brahman and the objects or the elements? because Brahman is ExistenceKnowledgeBliss Absolute and allfull and perfect whereas the elements are insentient? finite and painful. How can they with ite contrary alities have Tadatmya Sambandha with BrahmanTherefore it can be admitted that the elemtns have only got Kalpita Sambandha (superimposition) with Brahman. That object which is superimposed on the substratum or support exists in name only. It does not exist in reality. Brahman is the support or the substratum for this world of names and forms. World here includes all beings and their three kinds of bodies (physical? mental and causal). Therefore? the elements or the beings in this world are not really rooted in Brahman. They do not really dwell in Brahman. It is all in name only.Vayu also means Sutratman or Hiranyagarbha. Bhuta also means the individual consciousness. Just as the ether in the pot is not distinct from the universal ether before the origin and after the destruction of the pot and even when the pot exists? and it is of the nature of the universal soul is of the nature of Brahman during the three periods of time? past? present and future.Just as all efects exist in a state of nondifference in their material cause before they appear? during their period of existence and after their destruction? so also the individual souls are not different from Brahman before the origin of the various limiting adjuncts like mind? intellect? etc.?,during the period of their existence and after their destruction.
9.6 As the mighty wind, moving everywhere, rests always in the ether, even so, know thou that all beings rest in Me.
9.6 As the mighty wind, though moving everywhere, has no resting place but space, so have all these beings no home but Me.
9.6 Understand thus that just as the voluminous wind moving everywhere is ever present in space, similarly all beings abide in Me.
9.6 Upadharaya, understand; iti, thus; that yatha, just as; in the world, the mahan, voluminous-in dimension; vayuh, wind; sarvatragah, moving everywhere; is nityam, ever; [During creation, continuance and dissolution] akasa-sthitah, present in space; tatha, similarly; (sarvani, all; bhutani, beings; matsthani,) abide in Me who am omnipresent like space-abide certainly without any contact.
9.6. Just as the mighty wind exists in the ether, always moving [in it] everywhere, in the same manner all beings exist in Me. Be sure of it.
9.6 Yatha etc. Evam etc. In spite of the concomitant connection between the ether and the wind, the touchability of the ether is never heard of. In the same manner the Absolute pervades the entire universe and yet remains not comprehended by all men.
9.6 The 'powerful air' remains and moves everywhere in the ether (Akasa) without any perceivable support. So it has necessarily got to be admitted that the powerful air is dependent on Me for its existence and is being upheld by Me alone. Even so know that all entities abide in Me, who am invisible to them, and that they are upheld by Me alone. The knowers of the Veda declare thus: 'The origin of clouds, the waters of the ocean remaining within bounds, the phases of the moon, the strong movements of the gale, the flash of lightning and the movements of the sun - all these are marvellous manifestations of the power of Visnu.' The meaning is that they are all the marvellous miracles which are unie to Visnu. The Srutis and other texts also declare likewise: 'Verily, O Gargi, at the ?nd of that Imperishable One, the sun and the moon stand apart' (Br. U., 3.8.9, and 'Through the fear of Him the wind blows, through the fear of Him the sun rises, through the fear of Him Agni and Indra perform their duties' (Tai. U., 2.8.1). It has been declared that the existence and acts of all beings originate by the will of the Lord, who is independent of all others. Now Sri Krsna declares that the origin and dissolution of all entities also are due to His will only:
9.6 As the powerful element air moving everywhere ever remains in the ether, know that so too all beings abide in Me.
।।9.6।।उपर्युक्त दो श्लोकोंद्वारा कहे हुए अर्थको दृष्टान्तसे सिद्ध करते हुए कहते हैं --, लोकमें जैसे ( यह प्रसिद्ध है ) सब जगह विचरनेवाला परमाणमें अति महान् वायु सदा आकाशमें ही स्थित है? वैसे ही आकाशके समान सर्वत्र परिपूर्ण मुझ परमात्मामें समस्त भूत निर्लिप्तभावसे स्थित हैं? ऐसा तू जान।
।।9.6।। --,यथा लोके आकाशस्थितः आकाशे स्थितः नित्यं सदा वायुः सर्वत्र गच्छतीति सर्वत्रगः महान् परिमाणतः? तथा आकाशवत् सर्वगते मयि असंश्लेषेणैव स्थितानि इत्येवम् उपधारय विजानीहि।।एवं वायुः आकाशे इव मयि स्थितानि सर्वभूतानि स्थितिकाले तानि --,
।।9.6।।एकमेकत्राश्रितमित्यत्रासम्भावनाभावात्? किं दृष्टान्तोक्त्या इत्यत आह -- मत्स्थानीति। तत्र स्थितत्वेऽप्यन्योन्यधर्मासंक्रान्त्यादावित्यर्थः। तदत्र न प्रतीयत इत्यतो व्याचष्टे -- न हीति। स्पर्शादीति तद्धर्मोपलक्षणम्।
।।9.6।।मत्स्थानि न च मत्स्थानीत्यत्र दृष्टान्तमाह -- यथाऽऽकाशस्थित इति। न ह्याकाशस्थितो वायुः स्पर्शाद्याप्नोति।
यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्। तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।9.6।।
যথাকাশস্থিতো নিত্যং বাযুঃ সর্বত্রগো মহান্৷ তথা সর্বাণি ভূতানি মত্স্থানীত্যুপধারয৷৷9.6৷৷
যথাকাশস্থিতো নিত্যং বাযুঃ সর্বত্রগো মহান্৷ তথা সর্বাণি ভূতানি মত্স্থানীত্যুপধারয৷৷9.6৷৷
યથાકાશસ્થિતો નિત્યં વાયુઃ સર્વત્રગો મહાન્। તથા સર્વાણિ ભૂતાનિ મત્સ્થાનીત્યુપધારય।।9.6।।
ਯਥਾਕਾਸ਼ਸ੍ਥਿਤੋ ਨਿਤ੍ਯਂ ਵਾਯੁ ਸਰ੍ਵਤ੍ਰਗੋ ਮਹਾਨ੍। ਤਥਾ ਸਰ੍ਵਾਣਿ ਭੂਤਾਨਿ ਮਤ੍ਸ੍ਥਾਨੀਤ੍ਯੁਪਧਾਰਯ।।9.6।।
ಯಥಾಕಾಶಸ್ಥಿತೋ ನಿತ್ಯಂ ವಾಯುಃ ಸರ್ವತ್ರಗೋ ಮಹಾನ್. ತಥಾ ಸರ್ವಾಣಿ ಭೂತಾನಿ ಮತ್ಸ್ಥಾನೀತ್ಯುಪಧಾರಯ৷৷9.6৷৷
യഥാകാശസ്ഥിതോ നിത്യം വായുഃ സര്വത്രഗോ മഹാന്. തഥാ സര്വാണി ഭൂതാനി മത്സ്ഥാനീത്യുപധാരയ৷৷9.6৷৷
ଯଥାକାଶସ୍ଥିତୋ ନିତ୍ଯଂ ବାଯୁଃ ସର୍ବତ୍ରଗୋ ମହାନ୍| ତଥା ସର୍ବାଣି ଭୂତାନି ମତ୍ସ୍ଥାନୀତ୍ଯୁପଧାରଯ||9.6||
yathā৷৷kāśasthitō nityaṅ vāyuḥ sarvatragō mahān. tathā sarvāṇi bhūtāni matsthānītyupadhāraya৷৷9.6৷৷
யதாகாஷஸ்திதோ நித்யஂ வாயுஃ ஸர்வத்ரகோ மஹாந். ததா ஸர்வாணி பூதாநி மத்ஸ்தாநீத்யுபதாரய৷৷9.6৷৷
యథాకాశస్థితో నిత్యం వాయుః సర్వత్రగో మహాన్. తథా సర్వాణి భూతాని మత్స్థానీత్యుపధారయ৷৷9.6৷৷
9.7
9
7
।।9.7।। हे कुन्तीनन्दन ! कल्पोंका क्षय होनेपर सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और कल्पोंके आदिमें मैं फिर उनकी रचना करता हूँ।
।।9.7।। हे कौन्तेय ! (एक) कल्प के अन्त में समस्त भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं; और (दूसरे) कल्प के प्रारम्भ में उनको मैं फिर रचता हूँ।।
।।9.7।। See commentary under 9.8.
।।9.7।। व्याख्या--'सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकां कल्पक्षये' -- सम्पूर्ण प्राणी मेरे ही अंश हैं और सदा मेरेमें ही स्थित रहनेवाले हैं। परन्तु वे प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर आदिके साथ तादात्म्य (मैं-मेरेपनका सम्बन्ध) करके जो कुछ भी कर्म करते हैं, उन कर्मों तथा उनके फलोंके साथ उनका सम्बन्ध जुड़ता जाता है, जिससे वे बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं। जब महाप्रलयका समय आता है,(जिसमें ब्रह्माजी सौ वर्षकी आयु पूरी होनेपर लीन हो जाते हैं), उस समय प्रकृतिके परवश हुए वे सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिजन्य सम्बन्धको लेकर अर्थात् अपने-अपने कर्मोंको लेकर मेरी प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं।महासर्गके समय प्राणियोंका जो स्वभाव होता है, उसी स्वभावको लेकर वे महाप्रलयमें लीन होते हैं। 'पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्'-- महाप्रलयके समय अपने-अपने कर्मोंको लेकर प्रकृतिमें लीन हुए प्राणियोंके कर्म जब परिपक्व होकर फल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं, तब प्रभुके मनमें 'बहु स्यां प्रजायेय' ऐसा संकल्प हो जाता है। यही महासर्गका आरम्भ है। इसीको आठवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें कहा है -- 'भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः' अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंका जो होनापन है, उसको प्रकट करनेके लिये भगवान्का जो संकल्प है, यही विसर्ग (त्याग) है और यही आदिकर्म है। चौदहवें अध्यायमें इसीको 'गर्भं' 'दधाम्यहम्' (14। 3) और 'अहं बीजप्रदः पिता' (14। 4) कहा है।तात्पर्य यह हुआ कि कल्पोंके आदिमें अर्थात् महासर्गके आदिमें ब्रह्माजीके प्रकट होनेपर मैं पुनः प्रकृतिमें लीन हुए, प्रकृतिके परवश हुए, उन जीवोंका उनके कर्मोंके अनुसार उन-उन योनियों-(शरीरों-) के साथ विशेष सम्बन्ध करा देता हूँ--यह मेरा उनको रचना है। इसीको भगवान्ने चौथे अध्यायके तेरहवें श्लोकमें कहा है--'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः'अर्थात् मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है।ब्रह्माजीके एक दिनका नाम 'कल्प' है, जो मानवीय एक हजार चतुर्युगीका होता है। इतने ही समयकी ब्रह्माजीकी एक रात होती है। इस हिसाबसे ब्रह्माजीकी आयु सौ वर्षोंकी होती है। ब्रह्माजीकी आयु समाप्त होनेपर जब ब्रह्माजी लीन हो जाते हैं, उस महाप्रलयको यहाँ 'कल्पक्षये' पदसे कहा गया है। जब ब्रह्माजी पुनः प्रकट होते हैं, उस महासर्गको यहाँ 'कल्पादौ'पदसे कहा गया है।
।।9.7।।सर्वेति। प्रकृतिं? अव्यक्तरूपाम्।
।।9.7।।स्थावरजङ्गमात्मकानि सर्वाणि भूतानि मामिकां मच्छरीरभूतां प्रकृतिं तमःशब्दवाच्यां नामरूपविभागानर्हां कल्पक्षये चतुर्मुखावसानसमये मत्संकल्पाद् यान्ति। तानि एव भूतानि कल्पादौ पुनः विसृजामि अहम्। यथा आह मनुः -- आसीदिदं तमोभूतम् (मनु0 1।5)सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् (मनु0 1।8) इति श्रुतिरपि -- यस्याव्यक्तं शरीरम् (सु0 उ0 7) इत्यादिकाअव्यक्तमक्षरे लीयते अक्षरं तमसि लीयते? तमः परे देवे एकीभवति (सु0 उ0 2)तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतम् (ऋ0 सं0 8।7।17।3) इति च।
।।9.7।।आकाशे वाय्वादिस्थितिवदाकाशादीनि भूतानि स्थितिकाले परमेश्वरे स्थितानि चेत्तर्हि प्रलयकाले ततोऽन्यत्र तिष्ठेयुरित्याशङ्क्याह -- एवमिति। प्रकृतिशब्दस्य स्वभाववचनत्वं व्यावर्तयति -- त्रिगुणात्मिकामिति। सा चापरेयमिति प्रागेव सूचितेत्याह -- अपरामिति। तस्याश्चेश्वराधीनत्वेनास्वातन्त्र्यमाह -- मदीयामिति। प्रलयकाले भूतानि यथोक्तां प्रकृतिं यान्ति चेदुत्पत्तिकालेऽपि ततस्तेषामुत्पत्तेरीश्वराधीनत्वं भूतसृष्टेर्न स्यादित्याशङ्क्याह -- पुनरिति।
।।9.7।।तदेवमसङ्गस्यैव योगैश्वर्यशक्त्या (मायया) स्थितिप्रवृत्तिहेतुत्वमुक्तम्? सर्गप्रलयहेतुत्वं चाह -- सर्वेति। स्थावरजङ्गमात्मकानि वियदादीनि च कल्पक्षये शतं कल्पा ब्रह्मणो वर्षात्मकास्तेषां क्षयेऽवान्तरे च प्रातिलोम्येन,मामिकां मत्क्रियाशक्त्यंशां त्रिगुणां मच्छायाभूतां मदधीनां प्रकृतिं पृथग्भूततत्त्वस्वरूपां तमश्शब्दश्रुतां नामरूपविभागानर्हां यान्ति तत्र प्रलीयन्ते। पुनः कल्पादौ विसृजामि तान्यहमक्षरात्मा प्रकृतिपुरुषद्वारा। मम न तैर्लेपः प्रकृतिगतत्वात्तेषामिति भावः।
।।9.7।। एवमुत्पत्तिकाले स्थितिकाले च कल्पितेन प्रपञ्चेनासङ्गस्यात्मनोऽसंश्लेषमुक्त्वा प्रलयेऽपि तमाह -- सर्वाणि भूतानि कल्पक्षये प्रलयकाले मामिकां मच्छक्तित्वेन कल्पितां प्रकृतिं त्रिगुणात्मिकां मायां स्वकारणभूतां यान्ति। तत्रैव सूक्ष्मरूपेण लीयन्त इत्यर्थः। हे कौन्तेयेत्युक्तार्थम्। पुनस्तानि कल्पादौ सर्गकाले विसृजामि प्रकृतावविभागापन्नानि विभागेन व्यनज्मि। अहं सर्वज्ञः सर्वशक्तिरीश्वरः।
।।9.7।।तदेवमसङ्गस्य योगमायया स्थितिहेतुत्वमुक्तम् तयैव सृष्टिप्रलयहेतुत्वं चाहं -- सर्वेति। कल्पक्षये प्रलयकाले सर्वाणि भूतानि मदीयां प्रकृतिं यान्ति त्रिगुणात्मिकायां मायायां लीयन्ते? पुनः कल्पादौ सृष्टिकाले तानि विसृजामि विशेषेण सृजामि।
।।9.7।।अप्रस्तुतसृष्टिप्रलयाभिधानस्य सङ्गतिमाह -- सकलेति। प्रवृत्तिश्चेत्यर्थसिद्धोक्तिःमामिकाम् इत्यनेन शेषत्वं सिद्धम् तच्च शरीरतयेत्यत्रावगतंयस्य तमः शरीरम् [बृ.उ.3।7।93] इति अतोमच्छरीरभूतामित्युक्तम्। सर्वभूतशब्देन समस्तकार्यावस्थासङ्ग्रहात् -- तमश्शब्दवाच्यामित्युक्तम्। तमः ৷৷. एकीभवति [सु.उ.2] इत्युक्तप्रदर्शनंनामरूपविभागानर्हामिति। सर्वभूतशब्दात्?प्रकृतिं यान्ति इति वचनाच्च प्राकृतप्रलय एवात्र विवक्षित इत्याहचतुर्मुखावसानसमय इति। कल्पक्षये -- अन्तिमब्रह्मदिवसावसान इत्यर्थः। कल्पानां क्षय इति वा विवक्षितम्। ब्रह्मायुःपरो वाऽत्र कल्पशब्दः?संहर्ता च स्वयं प्रभुः [वि.पु.1।2।64]मनसैव जगत्सृष्टिं संहारं च करोति यः [वि.पु.5।22।15] इत्याद्युक्तेः? अत्रैवपुनस्तानि विसृजामि इति वचनाच्च। मदीयां प्रकृतिं यापयामीत्यभिप्रायः। तदाह -- मत्सङ्कल्पाद्यान्तीति। तानि -- तत्सजातीयानीत्यर्थः तदभिप्रायेणतान्येवेत्युक्तम्।यथर्तुष्वृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये। दृश्यन्ते तानि तान्येव [वि.पु.1।5।65] इतिवत्। यथा कुन्तीशरीरात्तवोत्पत्तिस्त्वयाऽनुपलब्धाप्याप्तवाक्याद्दृढप्रतिपन्ना? तथा मच्छरीरात्प्रपञ्चस्योत्पत्तिं ममैव वाक्यादभ्युपगच्छेतिकौन्तेय इत्यस्य भावः।मच्छरीरभूतां ৷৷. तमश्शब्दवाच्याम् इति स्वोक्तमर्थं भेषजायमानयत्किञ्चनोक्तेर्मनोर्वचनेन संवादयति -- यथाहेति।आसीदिदम् इत्यादिकायां सप्तश्लोक्यां नारायणस्यैव परमकारणत्वं ब्रह्मादेरशेषस्य तद्विसृष्टत्वं च सुव्यक्तमुक्तमनुसन्धेयम्। कारणावस्थस्याप्यचिद्द्रव्यस्य परमात्मशरीरतयाऽत्यन्तभिन्नत्वे तमश्शब्दवाच्यत्वादौ च मनोरुपबृंहणीयां श्रुतिं दर्शयति -- श्रुतिरपीति।
।।9.7।।ननु भगवद्गतानां भवति स्थितानां नाशः कथं इत्याशङ्क्याह -- सर्वभूतानीति। हे कौन्तेय कृपैकपात्र कल्पक्षये कल्पसमाप्तौ सर्वभूतानि मामिकां प्रकृतिं स्वरतीच्छारूपां यान्ति। पुनस्तानि कल्पादौ प्रपञ्चक्रीडेच्छया अहं विसृजामि विशेषेण नीचोच्चप्रकारेण वैचित्र्यार्थं सृजामि।
।।9.7।।नन्वेवमुपाधिरहितस्यैव ब्रह्मणि लयश्चेदुपाधेः का गतिरित्याशङ्क्याह -- सर्वेति। सर्वाणि भूतानि स्थावरजंगमशरीराणि मामिकां मम मायाविनः प्रकृतिं त्रिगुणात्मिकामपरां सूक्ष्मभूम्याद्यात्मिकां यान्ति प्रविशन्ति। कदा यान्ति कल्पक्षये। पुनश्च तान्येव भूतानि प्रकृतौ सुप्ताविव संस्कारात्मना स्थितानि एकतां गतानि कल्पादौ विसृजामि विविधरूपेण सृजाम्यहं कारणात्मा मायावी।
।।9.7।।आकाशे वायुरिवाकाशादीनि समस्तभूतानि स्थितिकाले मयि स्थितानीत्युक्तम्? इदानीं लयकाले उत्पत्तिकाले च मयि तिष्ठन्तीति वक्तुं स्वाधीनप्रकृतौ सर्वेषां भूतानां लयं स्वस्मादुत्पत्तिं चाह -- सर्वेति। सर्वभूतानि प्रकृतिं त्रिगुणात्मिकामपरां माया मामिकां मदीयाम्। मदधीनामितियावत्। नतु स्वतन्त्रां कल्पक्षये यान्ति तस्यां लीयन्त इत्यर्थः। कल्पक्षय इत्यस्य सर्वभूतानि प्रकृतिमिति स्वारस्यात् ब्राह्मे प्रलयकाले इत्यर्थः। पुनर्भूस्तानि ब्रह्मादीनि सर्वभूतानि कल्पादावुत्पत्तिकालेऽहं सृजामि पूर्ववदुत्पादयामि। एतादृशोऽहं त्वन्मातृभ्रातृपुत्ररुपेणाविर्भूत इत्यहो तव भाग्यमिति कौन्तेयेति संबोधनाशयः।
9.7 सर्वभूतानि all beings? कौन्तेय O Kaunteya? प्रकृतिम् to Nature? यान्ति go? मामिकाम् My? कल्पक्षये at the end of the Kalpa? पुनः again? तानि them? कल्पादौ at the beginning of the Kalpa? विसृजामि send forth? अहम् I.Commentary Prakriti The inferior one or the lower Nature composed of the three alities? Sattva? Rajas and Tamas.Just as the grass grows from the earth and dries up in the earth? just as the ripples and waves rise from the ocean and disappear in the ocean itself? just as the dreams proceed from the mind and melt away in the mind itself when the dreamer comes back to the waking state? so also the beings which arise from Nature merge into it during dissolution or Pralaya.Pralaya is the period of dissolution. MahaUtpatti is the time of creation. (Cf.VIII.18?19)
9.7 All beings, O Arjuna, go into My Nature at the end of a Kalpa; I send them forth again at the beginning of (the next) Kalpa.
9.7 All beings, O Arjuna, return at the close of every cosmic cycle into the realm of Nature, which is a part of Me, and at the beginning of the next I send them forth again.
9.7 O son Kunti, all the beings go back at the end of a cycle to My Prakrti. I project them forth again at the beginning of a cycle.
9.7 Kaunteya, O son of Kunti; sarva-bhutani, all the beings-all the beings which, like wind abiding in space, abide thus in Me during their period of existence; yanti, go back; kalpa-ksaye, at the end of a cycle, at the time of dissolution; mamikam prakrtim, to My Prakrti which consists of the three gunas (alities; see 7.13) and is (called My) lower Nature. Punah, again; aham, I; visrjami, project forth, create; tani, them, the beings, as before [As before: as in previous cycles of creation.]; kalpadau, at the beginning of a cycle, at the time of creation.
9.7. O son of Kunti, all beings pass into the nature [of Mine] at the end of the Kalpa (the age of universe); I send them forth again at the beginning of the [next] Kalpa.
9.7 Sarva- etc. Nature : unmanifest form.
9.7 All the mobile and immobile entities enter into My Prakrti at the end of a cycle, namely at the end of Brahma's life in accordance with My will. This Prakrti, constituting My body, is designated by the term Tamas, as it cannot be differentiated into name and form. I again send forth the very same beings at the beginning of a cycle. Manu declares accordingly: 'This universe became Tamas ৷৷. by an act of will. He produced it out of His body' (Manu, 1.5.8). The Srutis also declare thus: 'He whose body is Avyakta' (Su. U., 7); 'The Avyakta merges into Aksara, the Aksara into Tamas' (Ibid., 2); and also 'There was Tamas; the intelligence was concealed by Tamas' (Tai. Br., 1.8.9).
9.7 All beings, O Arjuna, enter into My Prakrti at the end of a cycle of time. Again I send these forth at the beginning of a cycle of time.
।।9.7।।इस प्रकार जगत्के स्थितिकालमें? आकाशमें वायुकी भाँति? मुझमें स्थित जो समस्त भूत हैं वे --, सम्पूर्ण प्राणी? हे कुन्तीपुत्र प्रलयकालमें मेरी त्रिगुणमयी -- अपरानिकृष्ट प्रकृतिको प्राप्त हो जाते हैं और फिर कल्पके आदिमें अर्थात् उत्पत्तिकालमें मैं पहलेकी भाँति पुनः उन प्राणियोंको रचता हूँ -- उत्पन्न करता हूँ।
।।9.7।। --,सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं त्रिगुणात्मिकाम् अपरां निकृष्टां यान्ति मामिकां मदीयां कल्पक्षये प्रलयकाले। पुनः भूयः तानि भूतानि उत्पत्तिकाले कल्पादौ विसृजामि उत्पादयामि अहं पूर्ववत्।।एवम् अविद्यालक्षणाम् --,
।।9.7।।यथामया ततम् [9।4] इत्याद्युक्तोपपादनार्थान्युत्तरवाक्यानि? न तथा सर्वभूतानीत्यादि किन्तु स्वतन्त्रमेव ज्ञानप्रतिपादकमिति भावेनाह -- ज्ञानेति। प्रलयादीति तत्कारणत्वम्?प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य [9।8],इति वचनात्।
।।9.7।।ज्ञानप्रदर्शनार्थं प्रलयादि प्रपञ्चयति -- सर्वभूतानीत्यादिना।
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।9.7।।
সর্বভূতানি কৌন্তেয প্রকৃতিং যান্তি মামিকাম্৷ কল্পক্ষযে পুনস্তানি কল্পাদৌ বিসৃজাম্যহম্৷৷9.7৷৷
সর্বভূতানি কৌন্তেয প্রকৃতিং যান্তি মামিকাম্৷ কল্পক্ষযে পুনস্তানি কল্পাদৌ বিসৃজাম্যহম্৷৷9.7৷৷
સર્વભૂતાનિ કૌન્તેય પ્રકૃતિં યાન્તિ મામિકામ્। કલ્પક્ષયે પુનસ્તાનિ કલ્પાદૌ વિસૃજામ્યહમ્।।9.7।।
ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਨਿ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਪ੍ਰਕਰਿਤਿਂ ਯਾਨ੍ਤਿ ਮਾਮਿਕਾਮ੍। ਕਲ੍ਪਕ੍ਸ਼ਯੇ ਪੁਨਸ੍ਤਾਨਿ ਕਲ੍ਪਾਦੌ ਵਿਸਰਿਜਾਮ੍ਯਹਮ੍।।9.7।।
ಸರ್ವಭೂತಾನಿ ಕೌನ್ತೇಯ ಪ್ರಕೃತಿಂ ಯಾನ್ತಿ ಮಾಮಿಕಾಮ್. ಕಲ್ಪಕ್ಷಯೇ ಪುನಸ್ತಾನಿ ಕಲ್ಪಾದೌ ವಿಸೃಜಾಮ್ಯಹಮ್৷৷9.7৷৷
സര്വഭൂതാനി കൌന്തേയ പ്രകൃതിം യാന്തി മാമികാമ്. കല്പക്ഷയേ പുനസ്താനി കല്പാദൌ വിസൃജാമ്യഹമ്৷৷9.7৷৷
ସର୍ବଭୂତାନି କୌନ୍ତେଯ ପ୍ରକୃତିଂ ଯାନ୍ତି ମାମିକାମ୍| କଲ୍ପକ୍ଷଯେ ପୁନସ୍ତାନି କଲ୍ପାଦୌ ବିସୃଜାମ୍ଯହମ୍||9.7||
sarvabhūtāni kauntēya prakṛtiṅ yānti māmikām. kalpakṣayē punastāni kalpādau visṛjāmyaham৷৷9.7৷৷
ஸர்வபூதாநி கௌந்தேய ப்ரகரிதிஂ யாந்தி மாமிகாம். கல்பக்ஷயே புநஸ்தாநி கல்பாதௌ விஸரிஜாம்யஹம்৷৷9.7৷৷
సర్వభూతాని కౌన్తేయ ప్రకృతిం యాన్తి మామికామ్. కల్పక్షయే పునస్తాని కల్పాదౌ విసృజామ్యహమ్৷৷9.7৷৷
9.8
9
8
।।9.8।। प्रकृतिके वशमें होनेसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणिसमुदायको मैं (कल्पोंके आदिमें) अपनी प्रकृतिको वशमें करके बार-बार रचता हूँ।
।।9.8।। प्रकृति को अपने वश में करके (अर्थात् उसे चेतनता प्रदान कर) स्वभाव के वश से परतन्त्र (अवश) हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को मैं पुन:-पुन: रचता हूँ।।
।।9.8।। समष्टि सूक्ष्म शरीर (मनबुद्धि) में व्यक्त हो रहे चैतन्य ब्रह्म को ईश्वर सृष्टिकर्ता कहते हैं एक व्यष्टि सूक्ष्म शरीर को उपाधि से विशिष्ट वही ब्रह्म? संसारी जीव कहलाता है। एक ही सूर्य विशाल? स्वच्छ और शान्त सरोवर में तथा मटमैले जल से भरे कुण्ड में भी प्रतिबिम्बित होता है। तथापि दोनों के प्रतिबिम्बों में जो अन्तर होता है उसका कारण दोनों जलांे का अन्तर है। यह उदाहरण जीव और ईश्वर के भेद को स्पष्ट करता है। जिस प्रकार आकाश में स्थित सूर्य का यह कथन उपयुक्त होगा कि सरोवर के निश्चल और तेजस्वी प्रतिबिम्ब तथा जलकुण्ड के चंचल और मन्द प्रतिबिम्ब का कारण मैं हूँ? उसी प्रकार ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं कि सृष्टिकर्ता और सृष्टप्रणियों की चेतन आत्मा मैं हूँ।समष्टि सूक्ष्म शरीर रूपी उपाधि ब्रह्म की अपरा प्रकृति है। कल्प के आदि में? अपरा प्रकृति में विद्यमान वासनायें व्यक्त होती हैं और? कल्प की समाप्ति पर सब भूत मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं।प्रकृति को चेतना प्रदान करने की क्रिया ब्रह्म की कृपा है? जिससे प्रकृति वृद्धि को प्राप्त होकर संसार वृक्ष का रूप धारण करती है। यदि परम चैतन्यस्वरूप ब्रह्म प्रकृति (माया) से तादात्म्य न करे अथवा उसमें व्यक्त न हो? तो वह प्रकृति स्वयं जड़ होने के कारण? किसी भी जीव की सृष्टि नहीं कर सकती। वासनारूपी इस सम्पूर्ण भूतसमुदाय को? मैं पुनपुन रचता हूँ। आत्मा की चेतनता प्राप्त होने के पश्चात् भूतमात्र व्यक्त हुए बिना नहीं रह सकते? क्योंकि वे प्रकृति के वश में हैं? स्वतन्त्र नहीं।प्राय वेदान्त दर्शन में? ऋषिगण विश्व की उत्पत्ति का वर्णन समष्टि के दृष्टिकोण से करते हैं? जिसके कारण वेदान्त के प्रारम्भिक विद्यार्थियों को कुछ कठिनाई होती है। परन्तु जो विद्यार्थी? उसके आशय को व्यक्तिगत (व्यष्टि) दृष्टि से समझने का प्रयत्न करता है? वह इस सृष्टि की रचना को सरलता से समझ सकता है। इस प्रकार व्यष्टि का दृष्टि से विचार करने पर भगवान् श्रीकृष्ण का कथन सत्य प्रमाणित होगा। अपरा प्रकृति के अंश रूप मन और बुद्धि से आत्मचैतन्य का तादात्म्य हुए बिना हममें एक विशिष्ट गुणधर्मी जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती? जो अपने संसारी जीवन के दुखों को भोगता रहता है।हम पहले भी देख चुके हैं कि निद्रावस्था में मनबुद्धि के साथ तादात्म्य अभाव में एक अत्यन्त दुष्ट पुरुष और एक महात्मा पुरुष दोनों एक समान होते हैं। परन्तु जाग्रत अवस्था में दोनों अपनेअपने स्वभाव को व्यक्त करते हैं? जबकि दोनों में वही एक आत्मचैतन्य व्यक्त होता है। दुष्ट मनुष्य साधु के समान क्षणमात्र भी व्यवहार नहीं कर सकता और न वह साधु ही उस दुष्ट के समान व्यवहार करेगा? क्योंकि दोनों ही अपनी प्रकृति के वशात् अन्यथा व्यवहार करने में असमर्थ हैं। भूत समुदाय की सृष्टि और प्रलय का यह सम्पूर्ण नाटक अपरिवर्तनशील? अक्षर नित्य आत्मतत्त्व के रंगमंच पर खेला जाता है मैं पुनपुन उसको रचता हूँ।कर्म का सिद्धांत विवादातीत है। जैसा कर्म वैसा फल। यदि आत्मा भूतमात्र की सृष्टि और प्रलय के कर्म का कर्ता हो? तो क्या उसे भी धर्मअधर्म रूप बन्धन होता है इस पर भगवान् कहते हैं --
।।9.8।। व्याख्या--'भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्'-- यहाँ प्रकृति शब्द व्यष्टि प्रकृतिका वाचक है। महाप्रलयके समय सभी प्राणी अपनी व्यष्टि प्रकृति-(कारणशरीर) में लीन हो जाते हैं, व्यष्टि प्रकृति समष्टि प्रकृतिमें लीन होती है और समष्टि प्रकृति परमात्मामें लीन हो जाती है। परन्तु जब महासर्गका समय आता है, तब जीवोंके कर्मफल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं। उस उन्मुखताके कारण भगवान्में 'बहु स्यां प्रजायेय' (छान्दोग्य0 6। 2। 3) -- यह संकल्प होता है, जिससे समष्टि प्रकृतिमें क्षोभ (हलचल) पैदा हो जाता है। जैसे, दहीको बिलोया जाय तो उसमें मक्खन और छाछ --ये दो चीजें पैदा हो जाती हैं। मक्खन तो ऊपर आ जाता है और छाछ नीचे रह जाती है। यहाँ मक्खन सात्त्विक है, छाछ तामस है और बिलोनारूप क्रिया राजस है। ऐसे ही भगवान्के संकल्पसे प्रकृतिमें क्षोभ हुआ तो प्रकृतिसे सात्त्विक, राजस और तामस --ये तीनों गुण पैदा हो गये। उन तीनों गुणोंसे स्वर्ग, मृत्यु और पाताल --ये तीनों लोक पैदा हुए। उन तीनों लोकोंमें भी अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभावसे सात्त्विक, राजस और तामस जीव पैदा हुए अर्थात् कोई सत्त्व-प्रधान हैं, कोई रजःप्रधान हैं और कोई तमःप्रधान हैं।इसी महासर्गका वर्णन चौदहवें अध्यायके तीसरे-चौथे श्लोकोंमें भी किया गया है। वहाँ परमात्माकी प्रकृतिको 'महद्ब्रह्म' कहा गया है और परमात्माके अंश जीवोंका अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभावके अनुसार प्रकृतिके साथ विशेष सम्बन्ध करा देनेको बीज-स्थापन करना कहा गया है।
।।9.8।।प्रकृतिमिति। स्वां प्रकृतिमवष्टभ्य इत्येतावता जडोऽपि स्वतोऽयं भाव (भूत) ग्रामः परप्रकृत्यन्वयात् प्रकाशतां प्राप्तः [इति प्रतिपादितम्]।
।।9.8।।स्वकीयां विचित्रपरिणामिनीं प्रकृतिम् अवष्टभ्य अष्टधा परिणमय्य इमं चतुर्विधं देवतिर्यङ्मनुष्यस्थावरात्मकं भूतग्रामं मदीयाया मोहिन्याः गुणमय्याः प्रकृतेः वशात् अवशं पुनः पुनः काले काले विसृजामि।एवं तर्हि विषमसृष्ट्यादीनि कर्माणि नैर्घृण्याद्यापादनेन भगवन्तं बध्नन्ति इति? अत्र आह --
।।9.8।।तर्हि कीदृशी प्रकृतिः सा च कथं सृष्टावुपयुक्तेत्याशङ्क्याह -- एवमिति। संसारस्यानादित्वद्योतनार्थं पुनःपुनरित्युक्तम्। भूतसमुदायस्याविद्यास्मितादिदोषपरवशत्वे हेतुमाह -- स्वभाववशादिति।
।।9.8।।विसर्जनप्रकारमाह -- प्रकृतिमिति। भगवतो मम सदंशभूतेयं प्रकृतिर्योगशक्तिः गुणैर्मोहयतीति मायेत्युच्यते। प्रकृष्टा कृतिर्यया साऽष्टधा परिणममाना स्वाधीना तामवष्टभ्य पुरुषरूपः सन् भार्यामिवोपादाय प्रेक्षयाऽभ्युपेत्य अथवा इमं प्रलीनं सर्वभूतग्रामं वियदादिकं कृत्स्नं भूतं चतुर्विधं च पुनः पुनस्तत्तत्प्रजापतिद्वारा च विसृजामि। प्रकृत्या विसर्जनात्तद्वशादवशम्। अनेन मयैव स्वेच्छया कृतोऽयं प्रकृतिद्वारात्मविभागः नान्येन कृत इति सूच्यते। प्राचीनकर्मनिमित्ततत्तत्स्वभावोऽपि प्राकृत एवेति कारणमेव प्रकृतिरुक्ता।
।।9.8।।किंनिमित्ता परमेश्वरस्येयं सृष्टिर्न तावत्स्वभोगार्था तस्य सर्वसाक्षिभूतचैतन्यमात्रस्य भोक्तृत्वाभावात्तथात्वे वा संसारित्वेनेश्वरत्वव्याघातात्। नाप्यन्यो भोक्ता यदर्थेयं सृष्टिश्चेतनान्तराभावात्। ईश्वरस्यैव सर्वत्र जीवरूपेण स्थितत्वात्। अचेतनस्य चाभोक्तृत्वात्। अतएव नापवर्गार्थापि सृष्टिः बन्धाभावादपवर्गाविरोधित्वाच्चेत्याद्यनुपपत्तिः। सृष्टेर्मायामयत्वं साधयन्ती नास्माकं प्रतिकूलेति न,परिहर्तव्येत्यभिप्रेत्य मायामयत्वान्मिथ्यात्वं प्रपञ्चस्य वक्तुमारभते त्रिभिः -- प्रकृतिं मायाख्यामनिर्वचनीयां स्वां स्वस्मिन्कल्पितामवष्टभ्य स्वसत्तास्फूर्तिभ्यां दृढीकृत्य तस्याः प्रकृतेर्मायाया वशादविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशकारणावरणविक्षेपात्मकशक्तिप्रभावाज्जायमानमिमं सर्वप्रमाणसंधापितं भूतग्राममाकाशादिभूतग्रामसमुदायमहं मायावीव पुनः पुनर्विसृजामि विविधं सृजामि। कल्पनामात्रेण स्वप्नदृगिव च स्वप्नप्रपञ्चम्।
।।9.8।।नन्वसङ्गो निर्विकारश्च त्वं कथं सृजसीत्यपेक्षायामाह -- प्रकृतिमिति द्वाभ्याम्। स्वां स्वाधीनां प्रकृतिमवष्टभ्याधिष्ठाय प्रलये लीनं सन्तं चतुर्विधमिमं सर्वं भूतग्रामं कर्मादिपरवशं पुनःपुनर्विविधं सृजामि विशेषेण सृजामीति वा। कथम्। प्रकृतेर्वशात्प्राचीनकर्मनिमित्ततत्स्वभावबलात्।
।।9.8।।विसृजामि इत्युक्तायाः समष्टिव्यष्टिरूपायाः सृष्टेः प्रकारः प्रदर्श्यते -- प्रकृतिं स्वाम् इति श्लोकेन। विकारजननीमज्ञामष्टरूपामजां ध्रुवाम्। ध्यायतेऽध्यासिता तेन तन्यते प्रेर्यते पुनः।।सूयते पुरुषार्थं च तेनैवाधिष्ठितं जगत्। गौरनाद्यन्तवती सा जनित्री भूतभाविनी [मन्त्रिको.35] इत्यादिश्रुत्यनुसारेणास्य श्लोकस्यार्थमाहस्वकीयामिति। उपादानद्रव्यस्य कर्त्रावष्टम्भो ह्यधिष्ठानम्? तच्चाभिमतकार्यविशेषानुगुणमध्यमावस्थाप्रापणमेवेत्यभिप्रायेणोक्तम्अष्टधा परिणमय्येति।भूमिरापः [7।4] इत्यादिना प्रागुक्तमष्टविधत्वम्। एवमर्थसिद्धः समष्टिसृष्टिप्रकार उक्तः भूतग्रामशब्दोऽत्र देवतादिजात्यवच्छिन्नव्यष्टिजीवस्तोमपरः? अचेतनपरत्वेप्रकृतेर्वशादवशम् इत्यनेनानन्वयात्। तस्य चतुर्विधस्य सावान्तरभेदस्य सङ्ग्रहार्थः कृत्स्नशब्दः। एवंविधकार्यत्वे प्रकृतिपरवशत्वे च योग्यताप्रदर्शनार्थम्इमम् इति निर्देशइत्यभिप्रायेणोक्तमिमं चतुर्विधमित्यादि। चातुर्विध्यमेव विवृणोति -- देवेति।प्रकृतेर्वशात् इत्यनेनाभिप्रेतःप्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः [9।12] इत्यत्र च कण्ठोक्तोऽवशत्वहेतुःमोहिन्या इत्युक्तः। तत्रापि हेतुर्गुणमयत्वंत्रिभिर्गुणमयैः [7।13] इत्यादिनोक्तम्।पुनः पुनः इत्यनेन तदुत्पत्तिप्रलयोचितद्विपरार्धसहस्रयुगादिप्रतिनियतानाद्यनन्तप्रवाहकालावच्छेदकविशेषो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाह -- काले काल इति।विसृजामि -- विविधं सृजामि? विचित्रनामरूपदेशकालभोगादियुक्तं करोमीत्यर्थः।
।।9.8।।ननु त्वयि लीनानामानन्दनिमग्नानां पुनः सृष्टौ किं तात्पर्यं इत्याशङ्क्याह -- प्रकृतिमिति। स्वां प्रकृतिं असाधारणीं रमणात्मिकामवष्टभ्याधिष्ठाय रमणभावमङ्गीकृत्य पुनःपुनः वारंवारं मम क्रीडायोग्यं मद्दर्शनयोग्यं च भूतग्रामं चतुर्विधं कृत्स्नं पूर्णं अवशं मदिच्छाधीनं प्रकृतेर्वशात् क्रीडात्मकस्वरूपवशात् सृजामि। अन्यथा सृष्टानां पूर्वोक्तदूषणं स्यात् स्वक्रीडार्थं सृष्टानामत्राप्यानन्दरूपतैवेति भावः।
।।9.8।।एतदेवाह -- प्रकृतिमिति। एवमविद्यालक्षणां स्वां प्रकृतिमवष्टभ्य आश्रित्य तां विना केवलस्य स्रष्टृत्वासंभवात्। इमं भूतग्रामं पुनःपुनर्विविधं सृजामि। किंभूतम्। प्रकृतेर्वशात्स्वभाववशात्। अवशं रागद्वेषाद्यधीनम्।
।।9.8।।ननु सृजाभ्यहमित्युक्त्या किं प्रकृतिं स्वामनधिष्ठायैव सृजसि नेत्याह -- प्रकृतिमविद्यालक्षणां त्रिगुणात्मिकां मायं स्वां स्वाधीनामवष्टभ्याधिष्टायेमं प्रत्क्षादिसन्नधापितं भूतानां ग्रामं समुदायं निखिलं प्रकृतेः स्वभावस्य वशादवशं अविद्यादिदोषैः परवशीकृतं पुनः पुनः सृजामि। अनेन संसारस्यानादित्वं सूचितम्।
9.8 प्रकृतिम् Nature? स्वाम् My own? अवष्टभ्य having animated? विसृजामि (I) send forth? पुनः again? पुनः again? भूतग्रामम् multitude of beings? इमम् this? कृत्स्नम् all? अवशम् helpless? प्रकृतेः of Nature? वशात् by force.Commentary The Lord leans on? presses or embraces Nature. He invigorates and fertilises Nature which had gone to sleep at the end of the Mahakalpa or universal dissolution and projects again and again this whole multitude of beings. He gazes at each level and plane after plane comes into being.The term Prakriti denotes or indicates the five Kleshas or afflictions? viz.? Avidya (ignorance)? Asmita (egoism)? Raga (likes)? Dvesha (dislikes) and Abhinivesa (clinging to earthly life). (Cf.IV.6)
9.8 Animating My Nature, I again and again send forth all this multitude of beings, helpless by the force of the Nature.
9.8 With the help of Nature, again and again I pour forth the whole multitude of beings, whether they will or no, for they are ruled by My Will.
9.8 Keeping My own prakrti under control, I project forth again and again the whole of this multitude of beings which are powerless owing to the influence of (their own) nature.
9.8 Thus avastabhya, keeping under control; svam, My own; prakrtim, Prakrti, which is charcterized as nescience; visrjami, I project forth; punah, punah, again and again; the krtsnam, whole of; imam, this; existing bhuta-gramam, multitude of beings which are born of Prakrti; which, being under another's sub-jugation due to such defects [See under 8.19, introductory Commentary.-Tr.] as ignorance etc., are avasam, powerless, not independent; prakrteh vasat, under the influence of their own nature. 'In that case, You, who are the supreme God and who ordain this multitude of beings uneally, will become associated with virtue and vice as a result of that act?' In aswer the Lord says this"
9.8. Taking hold of My own nature I send forth again and again this entire host of beings, which is powerless under the control of [My] nature.
9.8 Prakrtim etc. Taking hold of My own nature : By this much [of statement] it is explained that this host of Beings, though itself insentient, attains luminosity as it is linked to the Absolute nature of [Consciousness]
9.8 Operating My Prakrti, with its wonderfully variegated potency, I develop it eightfold and send forth this fourfold aggregate of beings, gods, animals, men and inanimate things, time after time. All these entities are helpless, being under the sway of My Prakrti comprising the three Gunas which can cause delusion. If this is so, it may be urged, inealities of creation can be said to affect the Lord with cruelty, partiality etc. To this, the Lord answers:
9.8 Controlling the Prakrti, which is My own, I send forth again and again all this multitude of beings, helpless under the sway of Prakrti.
।।9.8।।इस प्रकार अविद्यारूप --, अपनी प्रकृतिको वशमें करके? मैं प्रकृतिसे उत्पन्न हुए इस विद्यमान समग्र अस्वतन्त्र भूतसमुदायको? जो कि स्वभाववश अविद्यादि दोषोंसे परवश हो रहा है? बारंबार रचता हूँ।
।।9.8।। --,प्रकृतिं स्वां स्वीयाम् अवष्टभ्य वशीकृत्य विसृजामि पुनः पुनः प्रकृतितो जातं भूतग्रामं भूतसमुदायम् इमं वर्तमानं कृत्स्नं समग्रम् अवशम् अस्वतन्त्रम्? अविद्यादिदोषैः परवशीकृतम्? प्रकृतेः वशात् स्वभाववशात्।।तर्हि तस्य ते परमेश्वरस्य? भूतग्रामम् इमं विषमं विदधतः? तन्निमित्ताभ्यां धर्माधर्माभ्यां संबन्धः स्यादिति? इदम् आह भगवान् --,
।।9.8।।तद्विकलस्य भगवतो न सामर्थ्यमिति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- प्रकृतीति। तथा लीलयैव? न तु केवलस्य सामर्थ्याभावादिति शेषः। कुत एतत् भगवतः सर्वसामर्थ्यसम्पूर्णस्य प्रमितत्वादित्याह -- सर्वेति। सर्ववस्तुसामर्थ्यैः। एवंभूतवत् पारतन्त्र्याद्युपेतं किन्तु दैवं देवोत्तमम्। पञ्चमहाभूतानि महदहङ्कारौ च सप्त सूक्ष्माणि।सर्वज्ञता तृप्तिः इत्युक्तप्रकारेण षडङ्गम्। प्रधानस्य मूलप्रकृतेर्विनियोगः कार्येषु यो व्यापारस्तत्स्थस्तज्ज्ञानी। मायामधिरुह्य प्रकृतिमवष्टभ्य। कं कः प्रवोचं प्रावोचत्। प्रकृतेर्वशाद्विसृजामीत्याविद्यकमेवेश्वरस्य कर्तृत्वं वस्तुतस्तु निष्क्रियत्वमित्युच्यत इत्यन्यथाप्रतीतिनिरासायान्यथाऽन्वयमाह -- प्रकृतेरिति। कुत एतदित्यतः पूर्वोक्तार्थसहितेत्यत्र प्रमाणमाह -- त्वमेवेति। एतत्सर्जने एतस्य लोकस्य सृष्ट्याम्। अन्यस्मिन्नपि पालनादौ सर्वकर्मणि। तस्मान्मायावशत्वादेवावशम्? एतदेतं स्रक्ष्यसि सृजसि।
।।9.8।।प्रकृत्यवष्टम्भस्तु यथा कश्चित्समर्थोऽपि पादेन गन्तुं लीलया दण्डमवष्टभ्य गच्छति।सर्वभूतगुणैर्युक्तं नैवं त्वं ज्ञातुमर्हसि [म.भा.12।339।46] इतिसर्वभूतगुणैर्युक्तं दैवं मां ज्ञातुर्महसि इति च मोक्षधर्मे।विदित्वा सप्त सूक्ष्माणि षडङ्गं च महेश्वरम्। प्रधानविनियोगस्थः परं ब्रह्माधिगच्छति इति च।नकुत्रचिच्छक्तिरनन्तरूपा विहन्यते तस्य महेश्वरस्य। तथापि मायामधिरुह्य देवः प्रवर्तते सृष्टिविलापनेषु इति ऋग्वेदखिलेषु।मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतोऽनन्तविग्रहे इति भागवते [6।4।28] अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्मेति [बृहद्बृहत्या] बृंहति बृंहयति इति चाथर्वणे [अथर्वशिर उप.4] पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते [श्वे.उ.6।8] इति च। विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्रवोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि। [ऋक्सं.2।2।24।1] न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमं तमाप [ऋक्सं.5।6।24।2] इत्यादेश्च। प्रकृतेर्वशादवशम्। त्वमेवैतत्सर्जने सर्वकर्मण्यनन्तशक्तोऽपि स्वमाययैव। मायावशं चावशं लोकमेतत्तस्मात्स्रक्ष्यस्यत्सि पासीश विष्णो इति गौतमखिलेषु।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।9.8।।
প্রকৃতিং স্বামবষ্টভ্য বিসৃজামি পুনঃ পুনঃ৷ ভূতগ্রামমিমং কৃত্স্নমবশং প্রকৃতের্বশাত্৷৷9.8৷৷
প্রকৃতিং স্বামবষ্টভ্য বিসৃজামি পুনঃ পুনঃ৷ ভূতগ্রামমিমং কৃত্স্নমবশং প্রকৃতের্বশাত্৷৷9.8৷৷
પ્રકૃતિં સ્વામવષ્ટભ્ય વિસૃજામિ પુનઃ પુનઃ। ભૂતગ્રામમિમં કૃત્સ્નમવશં પ્રકૃતેર્વશાત્।।9.8।।
ਪ੍ਰਕਰਿਤਿਂ ਸ੍ਵਾਮਵਸ਼੍ਟਭ੍ਯ ਵਿਸਰਿਜਾਮਿ ਪੁਨ ਪੁਨ। ਭੂਤਗ੍ਰਾਮਮਿਮਂ ਕਰਿਤ੍ਸ੍ਨਮਵਸ਼ਂ ਪ੍ਰਕਰਿਤੇਰ੍ਵਸ਼ਾਤ੍।।9.8।।
ಪ್ರಕೃತಿಂ ಸ್ವಾಮವಷ್ಟಭ್ಯ ವಿಸೃಜಾಮಿ ಪುನಃ ಪುನಃ. ಭೂತಗ್ರಾಮಮಿಮಂ ಕೃತ್ಸ್ನಮವಶಂ ಪ್ರಕೃತೇರ್ವಶಾತ್৷৷9.8৷৷
പ്രകൃതിം സ്വാമവഷ്ടഭ്യ വിസൃജാമി പുനഃ പുനഃ. ഭൂതഗ്രാമമിമം കൃത്സ്നമവശം പ്രകൃതേര്വശാത്৷৷9.8৷৷
ପ୍ରକୃତିଂ ସ୍ବାମବଷ୍ଟଭ୍ଯ ବିସୃଜାମି ପୁନଃ ପୁନଃ| ଭୂତଗ୍ରାମମିମଂ କୃତ୍ସ୍ନମବଶଂ ପ୍ରକୃତେର୍ବଶାତ୍||9.8||
prakṛtiṅ svāmavaṣṭabhya visṛjāmi punaḥ punaḥ. bhūtagrāmamimaṅ kṛtsnamavaśaṅ prakṛtērvaśāt৷৷9.8৷৷
ப்ரகரிதிஂ ஸ்வாமவஷ்டப்ய விஸரிஜாமி புநஃ புநஃ. பூதக்ராமமிமஂ கரித்ஸ்நமவஷஂ ப்ரகரிதேர்வஷாத்৷৷9.8৷৷
ప్రకృతిం స్వామవష్టభ్య విసృజామి పునః పునః. భూతగ్రామమిమం కృత్స్నమవశం ప్రకృతేర్వశాత్৷৷9.8৷৷
9.9
9
9
।।9.9।। हे धनञ्जय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मेरेको वे कर्म नहीं बाँधते।
।।9.9।। हे धनंजय ! उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीन के समान स्थित मुझ (परमात्मा) को वे कर्म नहीं बांधते हैं।।
।।9.9।। एक परिच्छिन्न जीव को उसके अहंकारमूलक कर्म अपने संस्कार उसके अन्तकरण में अंकित करके कालान्तर में फलोन्मुख होकर उसे उत्पीड़ित करते हैं। सभी अहंकार केन्द्रित कर्म? जो कि सदा स्वार्थ से ही प्रेरित होते हैं? अपने कुरूप पदचिन्हों को मनरूपी समुद्र तट पर अंकित करते हैं? निरहंकार और निस्वार्थ भाव से किये गये कर्म नहीं जैसे? आकाश में विचरण करते हुए पक्षी अपने पदचिन्हों को पीछे नहीं छोड़ते। एक कृतघ्न पुत्र अपने पिता पर ही पदाघात करता है इसकी तुलना कीजिये? खेल में मग्न उस निष्पाप शिशु से जो अपने छोटेछोटे पैरों से अपने पिता को मार रहा हो यद्यपि पदाघात की क्रिया में समानता होने पर भी दोनों के अन्तर को समझने के लिए हमें किसी दार्शनिक की सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता नहीं होती। जहाँ कहीं और जब कभी अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर कर्म किये जाते हैं? वे निश्चय ही दुखदायक वासनाओं को जन्म देते हैं।प्रकृति को चेतनता प्रदान करने और भूत समुदाय की पुनपुन रचना करने में परम पुरुष को न कोई राग है और न कोई द्वेष। इस सृष्टि चक्र के चलते रहने मात्र से वह सनातन परम पुरुष कभी प्रभावित नहीं होता। वे कर्म मुझे बांधते नहीं। कारण यह है कि वे कर्म न अहंकार मूलक हैं और न स्वार्थ से प्रेरित।चलचित्रगृह के श्वेत परदे पर दिखाया जाने वाला चलचित्र (सिनेमा) कितना ही दुखान्त और हत्यापूर्ण क्यों न हो? उसकी कथा कितनी ही अश्रुपूर्ण और उदासी भरी क्यों न हो? कितने ही आंधी और वर्षा के दृश्य उसमें क्यों न दिखाये गये हों सिनेमा की समाप्ति पर वह श्वेतपट न रक्तरंजित होता है और न अश्रुओं से भीगा ही होता है? और न तूफानों से वह क्षतिग्रस्त ही होता है। तथापि हम जानते हैं कि उस स्थिर अपरिवर्तित पट के बिना? छाया और प्रकाश के माध्यम से चित्रपट की कथा प्रदर्शित नहीं की जा सकती थी। उसी प्रकार? नित्य शुद्ध अनन्त आत्मा वह चिरस्थायी रंगमंच हैं? जिस पर दुखपूर्ण जीवन का नाटक अनेकत्व की भाषा में असंख्य जीवों के द्वारा निरन्तर अभिनीत होता रहता है? जो अपनी पूर्वाजित वासनाओं से विवश हुए निर्धारित भूमिकाओं को करते रहते हैं।रेल के पटरी से उतरने के कारण होने वाली भयंकर दुर्घटना के लिए इंजिन की वाष्प को दंडित नहीं किया जाता? और न ही गन्तव्य तक अपने समय पर सुरक्षित पहुँचने पर उसका अभिनन्दन ही किया जाता है। यह सत्य है कि उस वाष्प के बिना दुर्घटना नहीं हो सकती थी और न ही गन्तव्य की प्राप्ति क्योंकि उसके बिना इंजिन केवल निष्क्रिय? भारी लोहा ही होता है। रचनात्मक या विध्वंसात्मक कार्य करने की शक्ति इंजिन को वाष्प से ही प्राप्त होती है। इन सब घटनाओं में? उस वाष्प को इंजिन चलाने के प्रति न राग है और न द्वेष? इसलिए इन घटनाओं का उत्तरदायित्व उस पर थोप कर उसे बन्धन में नहीं डाला जाता। कर्म का प्रेरक उद्देश्य ही कर्म के फल्ा को निश्चित करता है।सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत आत्मा है। वह मन को शक्ति प्रदान करता है। प्रत्येक मन वासनाओं का संचय मात्र है। शुभ वासनाओं से संस्कारित मन आनन्द और सामञ्जस्य का गीत गाता है? जबकि अशुभ वासनाएं मन को दुख से कराहने को बाध्य करती हैं। ग्रामोफोन की सुई रिकार्ड से बज रहे संगीत के लिए उत्तरदायी नहीं होती। जैसा रिकार्ड? वैसा संगीत। इसी प्रकार? आत्मा सनातन है? जिसे इसकी चिन्ता नहीं होती है कि किस प्रकार का जगत् उत्पन्न हुआ है। जगत् परिवर्तन के प्रति उसे किसी प्रकार की व्याकुलता नहीं होती। जगत् में जो कुछ हो रहा हो चाहे हत्या हो या प्राणोत्सर्ग सूर्यप्रकाश उसे प्रकाशित करता है। सूर्य का सम्बन्ध न हत्यारे के अप्ाराध से है और न बलिदानी पुरुष के गौरव से ही है। शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मा वासनारूपी प्रकृति को व्यक्त करने की क्षमता प्रदान करता है? फिर वे वासनाएं नरकयातना के लिए हों या गौरव ख्याति के लिए। उन कर्मों में असक्त और उदासीन के समान स्थित आत्मा को वे कर्म नहीं बांधते हैं।अनन्त और सान्त में निश्चित रूप से वह अद्भुत सम्बन्ध कौनसा है ऐसा कहा गया है कि सान्त प्रकृति अनन्त आत्मा के कारण कार्य करती है और फिर भी आत्मा उदासीन रहता है? वह कैसे
।।9.9।। व्याख्या--'उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु'--महासर्गके आदिमें प्रकृतिके परवश हुए प्राणियोंकी उनके कर्मोंके अनुसार विविध प्रकारसे रचनारूप जो कर्म है, उसमें मेरी आसक्ति नहीं है। कारण कि मैं उनमें उदासीनकी तरह रहता हूँ अर्थात् प्राणियोंके उत्पन्न होनेपर मैं हर्षित नहीं होता और उनके प्रकृतिमें लीन होनेपर मैं खिन्न नहीं होता।यहाँ 'उदासीनवत्' पदमें जो 'वत्'(वति) प्रत्यय है, उसका अर्थ तरह होता है अतः इस पदका अर्थ हुआ -- उदासीनकी तरह। भगवान्ने अपनेको उदासीनकी तरह क्यों कहा? कारण कि मनुष्य उसी वस्तुसे उदासीन होता है, जिस वस्तुकी वह सत्ता मानता है। परन्तु जिस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है, उसकी भगवान्के सिवाय कोई स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। इसलिये भगवान् उस संसारकी रचनारूप कर्मसे उदासीन क्या रहें? वे तो उदासीनकी तरह रहते हैं; क्योंकि भगवान्की दृष्टिमें संसारकी कोई सत्ता ही नहीं है। तात्पर्य है कि वास्तवमें यह सब भगवान्का ही स्वरूप है, इनकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं, तो अपने स्वरूपसे भगवान् क्या उदासीन रहें? इसलिये भगवान् उदासीनकी तरह हैं।
।।9.9 -- 9.10।।न चेति। मयेति। न च मेऽस्ति कर्मबन्धः? औदासीन्येन वर्तमानोऽहं यतः। अत एवाहं जगन्निर्माणे अनाश्रितव्यापारत्वात् हेतुः।
।।9.9।।न च तानि विषमसृष्ट्यादीनि कर्माणि मां निबध्नन्ति मयि नैर्घृण्यादिकं न आपादयन्ति? यतः क्षेत्रज्ञानां पूर्वकृत्यानि एव कर्माणि देवादिविषमभावहेतवः अहं तु तत्र वैषम्ये असक्तः तत्र उदासीनवद् आसीनः। यथा आह सूत्रकारः -- वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात् (ब्र0 सू0 2।1।34) न कर्माविभागादिति चेन्नानादित्वात् (ब्र0 सू0 2।1।35) इति।
।।9.9।।यदि प्राकृतं भूतग्रामं स्वभावादविद्यादितन्त्रं विषमं विदधासि तर्हि तव विषमसृष्टिप्रयुक्तं धर्मादिमत्त्वमित्यनीश्वरत्वापत्तिरिति शङ्क्यते -- तर्हीति। तत्रेति सप्तम्या परमेश्वरो निरुच्यते। ईश्वरस्य फलासङ्गाभावात्कर्तृत्वाभिमानाभावाच्च कर्मासंबन्धवदीश्वरादन्यस्यापि तदुभयाभावो धर्माद्यसंबन्धे कारणमित्याह -- अतोऽन्यस्येति। यदि कर्मसु कर्तृत्वाभिमानो वा कस्यचित्कर्मफलसङ्गो वा स्यात्तत्राह -- अन्यथेति।
।।9.9।।नचैवं विषमकर्मकरणे मम नैर्घृण्यादिबन्धोऽसक्तत्वादित्याह -- न च मामिति। असाधारणमहिमत्वद्योतकानि न मां बध्नन्ति नैर्घृण्यादिबन्धं नापादयन्ति? यतो जीवात्मनां प्राकृतानि कर्माणि तानि च देवादिभावहेतूनि। अहं तु तेषु कर्मसु प्रकृतौ च उदासीनवदितिमाया परैत्यभिमुखे च विलज्जमाना इत्यादिवाक्यात्। वैषम्यनैर्घृण्यं च सक्तस्य कर्मिणो भवति? न चासक्तस्य। यथाऽऽह सूत्रकारः -- वैषम्यनैर्घृण्ये न सापेक्षत्वात्तथाहि दर्शयतिन कर्माविभागादिति चेत? न अनादित्वात् [ब्र.सू.2।1।3435] इति।
।।9.9।।अतः नच नैव सृष्टिस्थितिप्रलयाख्यानि तानि मायाविनेव स्वप्नदृशेव च मया क्रियमाणानि मां निबध्नन्ति अनुग्रहनिग्रहाभ्यां न सुकृतदुष्कृतभागिनं कुर्वन्ति मिथ्याभूतत्वात्। हे धनंजय? युधिष्ठिरराजसूयार्थं सर्वान्राज्ञो जित्वा धनमाहृतवानिति महान्प्रभावः सूचितः प्रोत्साहनार्थम्। तानि कर्माणि कुतो न बध्नन्ति तत्राह -- उदासीनवदासीनं? यथा कश्चिदुपेक्षको द्वयोर्विवदमानयोर्जयपराजयासंसर्गी तत्कृतहर्षविषादाभ्यामसंसृष्टो निर्विकार आस्ते तद्वन्निर्विकारतयाऽसीनम्। द्वयोर्विवदमानयोरीहाभावादुपेक्षकत्वमात्रसाधर्म्येण वतिप्रत्ययः।,अतएव निर्विकारत्वात्तेषु सृष्ट्यादिकर्मस्वसक्तं अहं करोमीत्यभिमानलक्षणेन सङ्गेन रहितं मां न निबध्नन्ति कर्माणीति युक्तमेव। अन्यस्यापि हि कर्तृत्वाभावे फलसङ्गाभावे च कर्माणि न बन्धकारणानीत्युक्तमनेन? तदुभयसत्त्वे तु कोशकार इव कर्मभिर्बध्यते मूढ इत्यभिप्रायः।
।।9.9।। ननु एवं नानाविधानि कर्माणि कुर्वतस्तव जीववद्वन्धः कथं न स्यादित्याशङ्क्याह -- नचेति। तानि सृष्ट्यादीनि कर्माणि मां न निबध्न्ति। कर्मासक्तिर्हि बन्धहेतुः सा चाप्तकामत्वान्मम नास्त्यत उदासीनवद्वर्तमानस्य मे बन्धनं नापादयन्ति? उदासीनत्वे कर्तृत्वानुपपत्तेरुदासीनवत्स्थितमित्युक्तम्।
।।9.9।।न च मां तानि कर्माणि इत्येतन्न पुण्यपापरूपकर्मविषयम्? तस्याप्रस्तुतत्वेनतानि इति परामर्शायोगात् सृष्टिसंहारादेश्च प्रसक्तत्वात्तत्परामर्श एवोचितः तस्य दोषरूपत्वमपि सृज्यदेवादिवैषम्यादिना द्योतितमिति तन्निरासार्थोऽयं श्लोक इत्यभिप्रायेणाह -- एवं तर्हीति।सृष्ट्यादीनीत्यादिशब्देन स्थितिसंहारनिग्रहानुग्रहादिसङ्ग्रहः।नैर्घृण्यादीत्यादिशब्देन पक्षपातित्वाव्यवस्थितत्वादि सङ्गृह्यते।निबध्नन्ति इति न संसाररूपो बन्ध उच्यते? जगत्सृष्ट्यादेः संसारहेतुत्वाश्रवणात्? परोक्तधर्माधर्मसम्बन्धशङ्काप्रसङ्गाभावात्? दौर्जन्ये सत्यपीश्वरस्य नियामकाभावात् अतो नैर्घृण्यादिरूपदोषानुबन्ध एवात्र शङ्कितः प्रतिषिध्यत इत्याहमयीति। चः शङ्कानिवृत्त्यर्थः। सृष्टिवैषम्ये प्रयोजकमभिप्रेतमाहयत इति।स्वशक्त्या वस्तु वस्तुतां [वि.पु.1।4।52]कर्मभिर्भाविताः पूर्वैः [वि.पु.1।5।26]आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ता जगदन्तर्व्यवस्थिताः। प्राणिनः कर्मजनितसंसारवशवर्तिनः [वि.ध.104।23।36]वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् [मनुः12।9]अविद्या कर्मसंज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते। यया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा वेष्टिता नृप सर्वगा।।संसारतापानखिलानवाप्नोत्यतिसन्ततान्। तया तिरोहितत्वाच्च शक्तिः क्षेत्रज्ञसंज्ञिता।।सर्वभूतेषु भूपाल तारतम्येन [वर्तते] लक्ष्यते [वि.पु.6।7।6163़] इत्यादिभिः सिद्धोऽयमर्थः।तेषु कर्मस्वसक्तम् इत्युक्ते सति अकर्तृत्वादिभ्रमः स्यादिति तन्निरासायोक्तंतत्र वैषम्य इति।असक्तः प्रयोजकत्वरूपसम्बन्धरहित इत्यर्थः। असक्तत्वे दृष्टान्त उच्यतेउदासीनवदासीन इति। यथा कस्मिंश्चित्कर्मणि उदासीनस्तत्र प्रयोजकत्वरूपसम्बन्धरहितः? तथा कर्ताऽप्यसौ तस्मिन्नंशे। यद्वा उदासीनवदासीन इत्यर्थः। तेन कर्मानुष्ठानदशायामीश्वरस्य वैषम्यादुदासीनत्वमेवोच्यते। विषमसृष्टेः,कर्मसापेक्षत्वे जीवानां तत्कर्मप्रवाहाणां च अनादितया प्रलयकालेऽपि तत्सद्भावे सूत्रद्वयं दर्शयति -- वैषम्येति।
।।9.9।।ननु रमणात्मकशक्तिवशसृष्टानि तानि त्वां वशीकृत्य प्रपञ्चरमण एवं कथं न स्थापयन्ति इत्याशङ्क्याह -- न च मामिति। हे धनञ्जय लौकिकपरवशैकचित्त तानि भूतानि उदासीनवत् आसीनं तेषु? परमकृपया कृतार्थीकरणार्थं तेषु तिष्ठन्तं मां न निबध्नन्ति न वशीकुर्वन्ति। च पुनः कर्माणि क्रीडात्मकानि च मां न वशीकुर्वन्ति। कुतः तेषु कर्मसु क्रीडात्मकेष्वपि असक्तमनासक्तम्? आत्मारामत्वात् शक्तिषु रसदानार्थं क्रीडाकरणात्। एतदेवोक्तंवैकुण्ठः कल्पितो येन लोको लोकनमस्कृतः। रमया प्रार्थ्यमानेन देव्या तत्प्रियकाम्यया [भाग.8।5।5] इति।
।।9.9 -- 9.10।।ननु विषमां सृष्टिं कुर्वतस्तव वैषम्यनैर्घृण्ये स्यातामत आह -- न चेति। तानि विषमसृष्टिरूपाणि कर्मामि मां न निबध्नन्ति। तत्र हेतुः उदासीनवदासीनमिति। यथा पर्जन्यो बीजविशेषेषु रागं केषुचिद्द्वेषं चाकृत्वा उदासीनः सन् वर्षति एवमीश्वरोऽपि पुण्यवत्सु रागं पापिषु द्वेषं चाकुर्वञ्जगत्सृजति। तत्तदसाधारणकर्मबीजवशात्ते ते विभिन्नं फलं प्राप्नुवन्तीति नेश्वरवैषम्यादीत्यर्थः। ननु विसृजामि। उदासीनवदासीनमिति परस्परविरुद्धमुच्यत इत्याशङ्क्याह -- मयेति। मया कूटस्थेन अध्यक्षेण अयस्कान्तकल्पेन प्रवर्तकेन प्रकृतिश्चराचरं जगत् सूयते उत्पादयति। अनेनाध्यक्षत्वेनैव हेतुना हे कौन्तेय? जगद्विपरिवर्तते जन्माद्यवस्थासु भ्रमति। अयस्कान्तवदहमुदासीनश्च सृष्टिप्रवर्तकश्च भवामीति भावः। तथा च मन्त्रवर्णःएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च इति एकस्यैव देवस्य सर्वाध्यक्षत्वं साक्षित्वं च प्रतिपादयति।
।।9.9।।ननु यथा जीवो विषमस्वभावत्वाद्वध्यते तथा त्वामपि देवनतिर्यगादिरुपविषमसृष्टिकर्तारं वैषम्यावशयंभावाद्धर्माधर्मादिकर्माणि कुतो न निबन्धन्तीत्याशङ्क्यास्य शुभं दास्याम्यस्याशुभमिति तत्तच्छुभाशुभदानात्म केषु कर्मस्वसक्तं यता कल्पवृक्षादिकमुदासी नं तत्तत्पुरुषस्य तत्तत्कर्मजन्यतत्तत्संकल्पानुसारितत्तत्फलोत्पत्तिकर्तारं तानि तानि कर्माणइ न निबन्धन्ति तथा मामपीत्याह -- नचेति। मामीश्वरं तानि भूतसमुदायस्य विष्टम्भविसर्गनिमित्तानि कर्माणि न निबन्धन्ति यथा युधिष्ठिरराजसूर्यार्थं धनं जेतुं प्रवृत्तं त्वां तत्र तत्र कृतानि निग्रहानुग्रहादीनि कर्माणि न निबन्धन्ति तत्तद्राज्ञः कर्मानुसारेण निरग्रहानुग्रहादीनां त्वया संपादितत्वादिति धनंजयेति संबोधनाभिसंधिः। कर्माणि मां न निबन्धन्तीत्युक्तं तत्र हेतुमाह -- उदासीनवदासीनमित्यादिना। तथाच फलासक्तिरहितस्याहंकरोमीत्यभिमानवर्जितस्य न तत्तत्कर्मभिर्बन्धः अतोऽन्यस्यापि फलासक्तिकर्तत्वाभावोऽबन्धस्य हेतुरन्यथा कोशकारवन्मूढः कर्मभिर्बध्यत इत्यभिप्रायः।
9.9 न not? च and? माम् Me? तानि these? कर्माणि acts? निबध्नन्ति bind? धनञ्जय O Dhananjaya? उदासीनवत् like one indifferent? आसीनम् sitting? असक्तम् unattached? तेषु in those? कर्मसु acts.Commentary These acts Creation and dissolution of the universe. I am the only cause of dissolution of the universe. I am the only cause of Nature and its activities and yet? being indifferent to everythin? I do nothing. Nor do I cause anything to be done.I remain as one neutral or indifferent or unconcerned. I have no attachment for the fruits of those actions. Further I have not go the egoistic feeling of agency I do this. I know that the Self is actionless. Therefore the actions involved in creation and dissolution do not bind Me.As in the case of Isvara so in the case of others also the absence of the egoistic feeling of agency and the absense of attachment to the fruits of action is the cause of freedom (from Dharma and Adharma? virtue and evil) The ignorant man who works with egoism and who expects rewards for his action is bound by his own actions like the silkworm in the cocoon.Just as the neutral referee or umpire in a cricket or football match is not affected by the victory or defeat of the parties? so also the Lord is not affected by the creation and destruction of this world as He remains unconcerned or indifferent and as He is a silent and changeless witness. (Cf.IV.14)
9.9 These acts do not bind Me, O Arjuna, sitting like one indifferent, unattached to those acts.
9.9 But these acts of mine do not bind Me. I remain outside and unattached.
9.9 O Dhananjaya (Arjuna), nor do those actions bind Me, remaining (as I do) like one unconcerned with, and unattached to, those actions.
9.9 O Dhananjaya, na ca, nor do; tani, those; karmani, actions-which are the sources of the creation of the multitude of beings uneally; nibadhnanti, bind; mam, Me, who am God. As to that, the Lord states the reason for His not becoming associated with the actions: Asinam, remaining (as I do); udasinavat, like one unconcerned, like some indifferent spectator- for the Self is not subject to any change; and asaktam, unattached; tesu karmasu, to those actions-free from attachment to results, free from the egoism that 'I do.' Hence, even int he case of any other person also, the absence of the idea of agentship and the absence of attachment to results are the causes of not getting bound. Otherwise, like the silkworm, a foolish man becomes bound by acitons. This is the idea. There (in th previous two verses) it involves a contradiction to say, 'Remaining like one unconcerned, I project forth this multitude of beings.' In order to dispel this doubt the Lord says:
9.9. O Dhananjaya ! These acts do not bind Me, remaining as if unconcerned and unattached in these actions.
9.9 See Comment under 9.10
9.9 But actions like uneal creation do not bind Me. There can be no imputation of cruelty etc., to Me, because the previous actions (Karmas) of individual selves are the causes for the ineality of conditions like that of gods etc. I am untouched by the ineality. I sit, as it were, apart from it as one unconcerned. Accordingly, the author of the Vedanta-sutras says: 'Not ineality and cruelty, on account of (creation) being dependent, for so scripture declares' (Br. Su., 2.1.34), and 'If it be said that there is no Karma on account of non-distinction, it is replied that it is not proper to say so, because it is beginningless ৷৷.' (Ibid., 2.1.35). [The idea is this: Creation has no first beginning. It is an eternal cyclic process of creation and dissolution of the universe. So the differentiation of Karma, Jiva and Isvara even before creation has to be accepted. Only in the creative cycle the differentiation becomes patent, and in the dissolved condition it remains latent.]
9.9 But these actions do not bind Me, O Arjuna, for I remain detached from them like one unconcerned.
।।9.9।।तब तो भूतसमुदायको विषम रचनेवाले आप परमेश्वरका उस विषम रचनाजनित पुण्यपापसे भी सम्बन्ध होता ही होगा ऐसी शङ्का होनेपर भगवान् ये वचन बोले --, हे धनंजय भूतसमुदायकी विषम रचनानिमित्तक वे कर्म? मुझ ईश्वरको बन्धनमें नहीं डालते। उन कर्मोंका सम्बन्ध न होनेमें कारण बतलाते हैं -- मैं उन कर्मोंमें उदासीनकी भाँति स्थित रहता हूँ अर्थात् आत्मा निर्विकार है? इसलिये जैसे कोई उदासीन -- उपेक्षा करनेवाला स्थित हो उसीकी भाँति मैं स्थित रहता हूँ। तथा उन कर्मोंमें फलसम्बन्धी आसक्तिसे और मैं करता हूँ इस अभिमानसे भी मैं रहित हूँ ( इस कारण वे कर्म मुझे नहीं बाँधते )। इससे यह अभिप्राय समझ लेना चाहिये कि कर्तापनके अभिमानका अभाव और फलसम्बन्धी आसक्तिका अभाव दूसरोंको भी बन्धनरहित कर देनेवाला है। इसके सिवा अन्य प्रकारसे किये हुए कर्मोंद्वारा मूर्खलोग कोशकार ( रेशमके कीड़े ) की भाँति बन्धनमें पड़ते हैं।,
।।9.9।। --,न च माम् ईश्वरं तानि भूतग्रामस्य विषमसर्गनिमित्तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय। तत्र कर्मणां असंबन्धित्वे कारणमाह -- उदासीनवत् आसीनं यथा उदासीनः उपेक्षकः कश्चित् तद्वत् आसीनम्? आत्मनः अविक्रियत्वात्? असक्तं फलासङ्गरहितम्? अभिमानवर्जितम् अहं करोमि इति तेषु कर्मसु। अतः अन्यस्यापि कर्तृत्वाभिमानाभावः फलासङ्गाभावश्च असंबन्धकारणम्? अन्यथा कर्मभिः बध्यते मूढः कोशकारवत् इत्यभिप्रायः।।तत्र भूतग्राममिमं विसृजामि उदासीनवदासीनम् इति च विरुद्धम् उच्यते? इति तत्परिहारार्थम् आह --,
।।9.9।।स्वतः कर्तृत्वे कथमुदासीनत्वमुच्यते इति चेत्? न वतिना तस्य निषिद्धत्वादिति भावेनाह -- उदासीनवदिति। अनुदासीनत्वेऽपि वतिर्व्यर्थः स्यात्? अन्यस्य तदर्थस्याभावादित्यत आह -- तदर्थमिति। वत्यर्थं सादृश्यं स्वयमेव विवृणोतीत्यर्थः। परमेश्वरस्य कर्मसु सक्त्यभावे प्रमाणमाह -- अवाक्येति। सर्वथोदासीन एव किं न स्यात् इति चेत्? न तथा सति प्रकृत्यादीनामसत्त्वप्रसङ्गादिति भावेनाह -- द्रव्यमिति। यदीश्वरस्य स्वतः कर्तृत्वं स्यात्तदाउदासीनं इत्येतत्?न तु मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति इत्यत्र कथं हेतुः स्यात् इत्यत आह -- यस्येति। असक्त्या अनादरेणानायासेनेति यावत्। भगवतोऽपि कर्मबन्धोऽस्तीति केषाञ्चित्प्रलापः? यथाविष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे [भ.नी.श.92] इत्यादि तन्निरासाय श्रुत्युपपत्ती प्राह -- न कर्मणेति। नियामयति नियच्छति।
।।9.9।।उदासीनवत्? नतूदासीनः। तदर्थमाह -- असक्तमिति। अवाक्यनादरः [छां.उ.3।34।2] इति श्रुतिः।द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च। यदनुग्रहतः सन्ति न सन्ति यदुपेक्षया इति भागवते [2।10।12] यस्यासक्त्यैव सर्वकर्मशक्तिः कुतस्तस्य सर्वकर्मबन्धः इति भावः। न कर्मणा वर्धते नो कनीयान् [बृ.उ.4।4।23] इति हि श्रुतिः। यः कर्माणि नियामयति कथं च तं कर्म बध्नाति।
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय। उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।9.9।।
ন চ মাং তানি কর্মাণি নিবধ্নন্তি ধনঞ্জয৷ উদাসীনবদাসীনমসক্তং তেষু কর্মসু৷৷9.9৷৷
ন চ মাং তানি কর্মাণি নিবধ্নন্তি ধনঞ্জয৷ উদাসীনবদাসীনমসক্তং তেষু কর্মসু৷৷9.9৷৷
ન ચ માં તાનિ કર્માણિ નિબધ્નન્તિ ધનઞ્જય। ઉદાસીનવદાસીનમસક્તં તેષુ કર્મસુ।।9.9।।
ਨ ਚ ਮਾਂ ਤਾਨਿ ਕਰ੍ਮਾਣਿ ਨਿਬਧ੍ਨਨ੍ਤਿ ਧਨਞ੍ਜਯ। ਉਦਾਸੀਨਵਦਾਸੀਨਮਸਕ੍ਤਂ ਤੇਸ਼ੁ ਕਰ੍ਮਸੁ।।9.9।।
ನ ಚ ಮಾಂ ತಾನಿ ಕರ್ಮಾಣಿ ನಿಬಧ್ನನ್ತಿ ಧನಞ್ಜಯ. ಉದಾಸೀನವದಾಸೀನಮಸಕ್ತಂ ತೇಷು ಕರ್ಮಸು৷৷9.9৷৷
ന ച മാം താനി കര്മാണി നിബധ്നന്തി ധനഞ്ജയ. ഉദാസീനവദാസീനമസക്തം തേഷു കര്മസു৷৷9.9৷৷
ନ ଚ ମାଂ ତାନି କର୍ମାଣି ନିବଧ୍ନନ୍ତି ଧନଞ୍ଜଯ| ଉଦାସୀନବଦାସୀନମସକ୍ତଂ ତେଷୁ କର୍ମସୁ||9.9||
na ca māṅ tāni karmāṇi nibadhnanti dhanañjaya. udāsīnavadāsīnamasaktaṅ tēṣu karmasu৷৷9.9৷৷
ந ச மாஂ தாநி கர்மாணி நிபத்நந்தி தநஞ்ஜய. உதாஸீநவதாஸீநமஸக்தஂ தேஷு கர்மஸு৷৷9.9৷৷
న చ మాం తాని కర్మాణి నిబధ్నన్తి ధనఞ్జయ. ఉదాసీనవదాసీనమసక్తం తేషు కర్మసు৷৷9.9৷৷
9.10
9
10
।।9.10।। प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें सम्पूर्ण चराचर जगत् को रचती है। हे कुन्तीनन्दन ! इसी हेतुसे जगत् का विविध प्रकारसे परिवर्तन होता है।
।।9.10।। हे कौन्तेय ! मुझ अध्यक्ष के कारण ( अर्थात् मेरी अध्यक्षता में) प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है; इस कारण यह जगत् घूमता रहता है।।
।।9.10।। वेदान्त में? अकर्म आत्मा और क्रियाशील अनात्मा के सम्बन्ध को अनेक उपमाओं के द्वारा स्पष्ट किया गया है। प्रत्येक उपमा इस संबंध रहित संबध के किसी एक पक्ष पर विशेष रूप से प्रकाश डालती है।सूर्य की किरणें जिन वस्तुओं पर पड़ती हैं? उन्हें उष्ण कर देती हैं? परन्तु बीच के उस माध्यम को नहीं? जिसमें से निकल कर वह उस वस्तु तक पहुँचती हैं। आत्मा भी अपने अनन्त वैभव में स्थित रहता है और उसके सान्निध्य से अनात्मा चेतनवत् व्यवहार करने में सक्षम हो जाता है। अनात्मा और प्रकृति पर्यायवाची शब्द हैं।किसी राजा के मन में संकल्प उठा कि आगामी माह की पूर्णिमा के दिन उसको एक विशेष तीर्थ क्षेत्र को दर्शन करने के लिए जाना चाहिये। अपने मन्त्री को अपना संकल्प बताकर राजा उस विषय को भूल जाता है। किन्तु पूर्णिमा के एक दिन पूर्व वह मन्त्री राजा के पास पहुँचकर उसे तीर्थ दर्शन का स्मरण कराता है। दूसरे दिन जब राजा राजप्रासाद के बाहर आकर यात्रा प्रारम्भ करता है? तब देखता है कि सम्पूर्ण मार्ग में उसकी प्रजा एकत्र हुई है और स्थानस्थान पर स्वागत द्वार बनाये गये हैं। राजा के इस तीर्थ दर्शन और वापसी के लिए विस्तृत व्यवस्था योजना बनाकर उसे सफलतापूर्वक और उत्साह सहित कार्यान्वित किया गया है। समस्त राजकीय अधिकारयों तथा प्रजाजनों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता और प्रयत्न को उड़ेल दिया है? जिससे राजा की तीर्थयात्रा सफल हो सके।इन समस्त उत्तेजनापूर्ण कर्मों में प्रत्येक व्यक्ति को कर्म का अधिकार और शक्ति राजा के कारण ही थी? परन्तु स्वयं राजा इन सब कार्यों में कहीं भी विद्यमान नहीं था। राजा की अनुमति प्राप्त होने से मन्त्री की आज्ञाओं का सबने निष्ठा से पालन किया। यदि केवल सामान्य नागरिक के रूप में वही मन्त्री यह प्रदर्शन आयोजित करना चाहता? तो वह कभी सफल नहीं हो सकता था। इसी प्रकार? आत्मा की सत्ता मात्र से प्रकृति कार्य क्षमता प्राप्त कर सृष्टि रचना की योजना एवं उसका कार्यान्वयन करने में समर्थ होती है।व्यष्टि की दृष्टि से विचार करने पर यह सिद्धांत और अधिक स्पष्ट हो जाता है। आत्मा केवल अपनी विद्यमानता से ही मन और बुद्धि को प्रकाशित कर उनमें स्थित वासनाओं की अभिव्यक्ति एवं पूर्ति के लिए बाह्य भौतिक जगत् और उसके अनुभव के लिए आवश्यक ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों को रचता है। मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है। यहाँ प्रकृति का अर्थ है अव्यक्त।नानाविध जगत् का यह नृत्य परिवर्तन एवं विनाश की लय के साथ आत्मा की सत्तामात्र से ही चलता रहता है। इसी कारण संसार चक्र घूमता रहता है। उपर्युक्त विचार का अन्तिम निष्कर्ष यही निकलता है कि आत्मा सदा अकर्त्ता ही रहता है। आत्मा के सान्निध्य से प्रकृति चेतनता प्राप्त कर सृष्टि का प्रक्षेपण करती है। उसकी सत्ता और चेतनता आत्मा के निमित्त से है? स्वयं की नहीं। आत्मा और अनात्मा? पुरुष और प्रकृति के मध्य यही सम्बन्ध है।स्तम्भ के ऊपर अध्यस्त प्रेत के दृष्टान्त में स्तम्भ और प्रेत के सम्बन्ध पर विचार करने से जिज्ञासु को पुरुष और प्रकृति का संबंध अधिक स्पष्टतया ज्ञात होगा।यदि? इस प्रकार? सम्पूर्ण जगत् का मूल स्वरूप नित्यमुक्त आत्मा ही है तो क्या कारण है कि समस्त जीव उसे अपने आत्मस्वरूप से नहीं जान पाते हैं इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते हैं --
।।9.10।। व्याख्या--मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्-- मेरेसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चर-अचर, जड-चेतन आदि भौतिक सृष्टिको रचती है। जैसे बर्फका जमना, हीटरका जलना, ट्राम और रेलका आना-जाना, लिफ्टका चढ़ना-उतरना, हजारों मील दूरीपर बोले जानेवाले शब्दोंको सुनना, हजारों मील दूरीपर होनेवाले नाटक आदिको देखना, शरीरके भीतरका चित्र लेना, अल्पसमयमें ही बड़े-से-बड़ा हिसाब कर लेना, आदि-आदि कार्य विभिन्न-विभिन्न यन्त्रोंके द्वारा होते हैं। परन्तु उन सभी यन्त्रोंमें शक्ति बिजलीकी ही होती है। बिजलीकी शक्तिके बिना वे यन्त्र स्वयं काम कर ही नहीं सकते; क्योंकि उन यन्त्रोंमें बिजलीको छोड़कर कोई सामर्थ्य नहीं है। ऐसे ही संसारमें जो कुछ परिवर्तन हो रहा है अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्डोंका सर्जन, पालन और संहार, स्वर्गादि लोकोंमें और नरकोंमें पुण्य-पापके फलका भोग, तरह-तरहकी विचित्र परिस्थितियाँ और घटनाएँ, तरह-तरहकी आकृतियाँ, वेश-भूषा, स्वभाव आदि जो कुछ हो रहा है, वह सब-का-सब प्रकृतिके द्वारा ही हो रहा है; पर वास्तवमें हो रहा है भगवान्की अध्यक्षता अर्थात् सत्ता-स्फूर्तिसे ही। भगवान्की सत्ता-स्फूर्तिके बिना प्रकृति ऐसे विचित्र काम कर ही नहीं सकती; क्योंकि भगवान्को छोड़कर प्रकृतिमें ऐसी स्वतन्त्र सामर्थ्य ही नहीं है कि जिससे वह ऐसे-ऐसे काम कर सके। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे बिजलीमें सब शक्तियाँ हैं, पर वे मशीनोंके द्वारा ही प्रकट होती हैं, ऐसे ही भगवान्में अनन्त शक्तियाँ हैं, पर वे प्रकृतिके द्वारा ही प्रकट होती हैं।
।।9.9 -- 9.10।।न चेति। मयेति। न च मेऽस्ति कर्मबन्धः? औदासीन्येन वर्तमानोऽहं यतः। अत एवाहं जगन्निर्माणे अनाश्रितव्यापारत्वात् हेतुः।
।।9.10।।तस्मात् क्षेत्रज्ञकर्मानुगुणं मदीया प्रकृतिः सत्यसंकल्पेन मया अध्यक्षेण ईक्षिता सचराचरं जगत् सूयते? अनेन क्षेत्रज्ञकर्मानुगुणमदीक्षणेन हेतुना जगद् विपरिवर्तते इति मत्स्वाम्यं सत्यसंकल्पत्वं नैर्घृण्यादिदोषरहितत्वम् इत्येवमादिकं मम वसुदेवसूनोः ऐश्वरं योगं पश्य। यथा श्रुतिः -- अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्वान्यो मायया संनिरूद्धः।।मायां तु प्रकृतिं विद्यात् मायिनं तु महेश्वरम् (श्वेता0 4।910) इति।
।।9.10।।ईश्वरे स्रष्टृत्वमौदासीन्यं च विरुद्धमिति शङ्कते -- तत्रेति। पूर्वग्रन्थः सप्तम्यर्थः। विरोधपरिहारार्थमुत्तरश्लोकमवतारयति -- तदिति। तृतीयाद्वयं समानाधिकरणमित्यभ्युपेत्य व्याचष्टे -- मयेत्यादिना। प्रकृतिशब्दार्थमाह -- ममेति। तस्या अपि ज्ञानत्वं व्यावर्तयति -- त्रिगुणेति। पराभिप्रेतं प्रधानं व्युदस्यति -- अविद्येति। साक्षित्वे प्रमाणमाह -- तथाचेति। मूर्तित्रयात्मना भेदं वारयति -- एक इति। अखण्डं जाड्यं प्रत्याह -- देव इति। आदित्यवत्ताटस्थ्यं प्रत्यादिशति -- सर्वभूतेष्विति। किमिति तर्हि सर्वैर्नोपलभ्यते तत्राह -- गूढ इति। बुद्ध्यादिवत्परिच्छिन्नत्वं व्यवच्छिनत्ति -- सर्वव्यापीति। तर्हि नभोवदनात्मत्वं नेत्याह -- सर्वभूतेति। तर्हि तत्र तत्र कर्मतत्फलसंबन्धित्वं स्यात्तत्राह -- कर्मेति। सर्वाधिष्ठानत्वमाह -- सर्वेति। सर्वेषु भूतेषु सत्तास्फूर्तिप्रदत्वेन संनिधिर्वा(सो)त्रोच्यते। न केवलं कर्मणामेवायमध्यक्षोऽपि तु तद्वतामपीत्याह -- साक्षीति। दर्शनकर्तृत्वशङ्कां शातयति -- चेतेति। अद्वितीयत्वं केवलत्वम्। धर्माधर्मादिराहित्यमाह -- निर्गुण इति। किं बहुना सर्वविशेषशून्य इति चकारार्थः। उदासीनस्यापीश्वरस्य साक्षित्वमात्रं निमित्तीकृत्य जगदेतत्पौनःपुन्येन सर्गसंहारावनुभवतीत्याह -- हेतुनेति। कार्यवत्कारणस्यापि साक्ष्यधीना प्रवृत्तिरिति वक्तुं व्यक्ताव्यक्तात्मकमित्युक्तम्। सर्वावस्थास्वित्यनेन सृष्टिस्थितिसंहारावस्था गृह्यन्ते। तथापि जगतः सर्गादिभ्यो,भिन्ना प्रवृत्तिः स्वाभाविकी नेश्वरायत्तेत्याशङ्क्याह -- दृशीति। नहि दृशा व्याप्यत्वं विना जडवर्गस्य कापि प्रवृत्तिरिति हिशब्दार्थः। तामेव प्रवृत्तिमुदाहरति -- अहमित्यादिना। भोगस्य विषयोपलम्भाभावेसंभवान्नानाविधां विषयोपलब्धिं दर्शयति -- पश्यामीति। भोगफलमिदानीं कथयति -- सुखमिति। विहितप्रतिषिद्धाचरणनिमित्तं सुखं दुःखं चेत्याह -- तदर्थमिति। नच विमर्शपूर्वकं विज्ञानं विनानुष्ठानमित्याह -- इदमिति। इत्याद्या प्रवृत्तिरिति संबन्धः। सा च प्रवृत्तिः सर्वा दृक्कर्मत्वमुररीकृत्यैवेत्युक्तं निगमयति -- अवगतीति। तत्रैव च प्रवृत्तेरवसानमित्याह -- अवगत्यवसानेति। परस्याध्यक्षत्वमात्रेण जगच्चेष्टेत्यत्र प्रमाणमाह -- यो अस्येति। अस्य जगतो योऽध्यक्षो निर्विकारः स परमे प्रकृष्टे हार्दे व्योम्नि स्थितो दुर्विज्ञेय इत्यर्थः। ईश्वरस्य साक्षित्वमात्रेण स्रष्टृत्वे स्थिते फलितमाह -- ततश्चेति। किंनिमित्तापरस्येयं सृष्टिर्न तावद्भोगार्था परस्य परमार्थतो भोगासंबन्धित्वात्तस्य सर्वसाक्षिभूतचैतन्यमात्रत्वान्न चान्यो भोक्ता चेतनान्तराभावादीश्वरस्यैकत्वादचेतनस्याभोक्तृत्वान्न च सृष्टुरपवर्गार्था तद्विरोधित्वान्नैवं प्रश्नो वा तदनुरूपं प्रतिवचनं वा युक्तं परस्य मायानिबन्धने सर्गे तस्यानवकाशत्वादित्यर्थः। परस्यात्मनो दुर्विज्ञेयत्वे श्रुतिमुदाहरति -- को अद्धेति। तस्मिन्प्रवक्तापि संसारमण्डले नास्तीत्याह -- क इहेति। जगतः सृष्टिकर्तृत्वेन परस्य ज्ञेयत्वमाशङ्क्य कूटस्थत्वात्ततो न सृष्टिर्जातेत्याह -- कुत इति। नहीयं विविधा सृष्टिरन्यस्मादपि कस्माच्चिदुपपद्यतेऽन्यस्य वस्तुनोऽभावादित्याह -- कुत इति। कथं तर्हि सृष्टिरित्याशङ्क्याज्ञानाधीनेत्याह -- दर्शितं चेति।
।।9.10।।परं प्रकृतिरपि न स्वतः कार्यकारणक्षमाऽचेतनत्वात्? मयाऽध्यक्षेणाधिष्ठात्रा निमित्तभूतेन पुरुषरूपेण तु सहिता सा चेद्गर्भीकृतेति यावत्। सचराचरं जगत्सूयते जनयति पत्नीवत्। तत्रापि पूर्वसर्गा(कर्मा)नुगुणमात्मनां चेतनानां जन्म नित्यपरिच्छिन्नानां तद्धर्मैः समागम इति व्यपदिश्यते तदनुगुण एव सहयोगः स्वान्तस्स्थान्प्रकृतौ जनयामीति प्रवृत्तेच्छया अनेनैव हेतुना जगद्विपरिवर्त्तते विनिमितं वर्तते। विनिमयो हि द्विविधो व्यवहारश्चिदचिद्रूपः? तदात्मकमित्यैश्वरं योगं पश्येति भावः। तथा च श्रुतिः -- सच्च त्यच्चाभवत् [तै.उ.2।6।1] अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः। मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वम्। तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् [श्वे.उ.4।910] इति। एतेन स्थावरजङ्गमात्मकस्य सर्वस्य जगतो भगवदिच्छामायाजातत्वात्प्राकृतत्वं सत्यत्वं भगवत्कार्यत्वं चोक्तम्। अतएवोक्तं निबन्धेप्रपञ्चो भगवत्कार्यस्तद्रूपो माययाऽभवत् इत्यादि। मायया द्वारभूतया स्त्रीस्थानापन्नयेत्यर्थः। एतेनाचेतनायाश्चेतनाधिष्ठिततया सर्वकार्यकरणक्षमत्वसूचनेन स्वमाहात्म्यमुक्तम्।
।।9.10।।भूतग्राममिमं विसृजाम्युदासीनवदासीनमिति च परस्परविरुद्धमिति शङ्कापरिहारार्थं पुनर्मायामयत्वमेव प्रकटयति -- मया सर्वतो दृशिमात्रस्वरूपेणाविक्रियेणाध्यक्षेण नियन्त्रा भासकेनावभासिता प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका सत्त्वासत्त्वादिभिरनिर्वाच्या माया सूयते उत्पादयति सचराचरं जगत् मायाविनाधिष्ठितेव मायाकल्पितगजतुरगादिकम्? न त्वहं सकार्यमायाभासनमन्तरेण करोमि व्यापारान्तरम्। हेतुना निमित्तेनानेनाध्यक्षत्वेन हे कौन्तेय? जगत्सचराचरं विपरिवर्तते विविधं परिवर्तते। जन्मादिविनाशान्तं विकारजातमनवरतमासादयतीत्यर्थः। अतो भासकत्वमात्रेण व्यापारेण विसृजामीत्युक्तम्। तावता चादित्यादेरिव कर्तृत्वाभावादुदासीनवदासीनमित्युक्तमिति न विरोधः। तदुक्तंअस्य द्वैतेन्द्रजालस्य यदुपादानकारणम्। अज्ञानं तदुपाश्रित्य ब्रह्म कारणमुच्यते इति श्रुतिस्मृतिवादाश्चात्रार्थे सहस्रश उदाहार्याः।
।।9.10।।तदेवोपपादयति -- मयेति। मयाध्यक्षेणाधिष्ठात्रा निमित्तभूतेन प्रकृतिः सचराचरं विश्वं सूयते जनयति। अनेन मदधिष्ठानेन हेतुना इदं जगद्विपरिवर्तते पुनःपुनर्जायते। संनिधिमात्रेणाधिष्ठातृत्वात्कर्तृत्वमुदासीनत्वं चाविरुद्धमिति भावः।
।।9.10।।यदि कर्मानुगुणा विषमसृष्टिः? तर्हि प्रकृतिरेव परिणामशीला तदनुगुणं परिणमतां? किं त्वया इत्यत्रोच्यते -- मयाऽध्यक्षेणेति।सर्वभूतानि इत्युपक्रान्तस्वसङ्कल्पाधीनसृष्टिप्रलयोपसंहारताद्योतनायाहतस्मादिति।मयाध्यक्षेण इति पदद्वयाभिप्रेतं श्रौतमर्थमाह -- सत्यसङ्कल्पेन ৷৷. ईक्षिता इति। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः [श्वे.उ.6।11] योऽस्याध्यक्षः परमे व्योमन् [ऋग्वे.8।7।17।7] ध्यायतेऽध्यासिता तेन [मन्त्रिको.3।5] इत्यादिकमत्र भाव्यम्। अधिकमश्नुत इति अध्यक्ष इति केचित्। जगच्छब्दस्तत्राप्यन्वेतव्यः। पूर्वार्धगतसचराचरशब्द उत्तरत्रापीत्यभिप्रायेणसचराचरं जगदित्युक्तम्।सूयते इत्यनेनसूयते पुरुषार्थं च [मन्त्रिको.3।5] इत्यादिश्रुतिः स्मारिता। पूर्वार्धे सृष्टिहेतुतयोक्तमेवोत्तरत्रापि संहारहेतुतयाअनेन हेतुना इति परामर्शार्हम् न पुनः प्रधानतयोपस्थापितापि सृष्टिः? तस्याः प्रलयादिकं तस्य हेतुत्वादित्यभिप्रायेणाहइत्यनेनेति। तेनाध्यक्षशब्दस्यात्र अधिक्रियायानिर्विकारचैतन्यपरतां वदन्तः प्रत्युक्ताः। कर्मवशाज्जीवहेतुभूतं प्रपञ्चं प्रति कथं तव स्वाम्यं? कथं च कारुणिकस्यापि कर्मपरतन्त्रतया दुःखमुत्पादयितुः सत्यसङ्कल्पता इत्यत्राह -- मत्स्वाम्यमिति।पश्य मे योगम् [9।5] इत्युपक्रान्तनिर्वहणरूपताप्रदर्शनायममेत्यादिकम्।अवजानन्ति माम् [8।11] इत्यनन्तरश्लोकस्थास्मच्छब्दानुसन्धानवशात्मे इत्येतन्निरतिशयसौलभ्यसंछादितेश्वरभावमवतारमभिप्रैतीतिवसुदेवसूनोरित्युक्तम्। एतेनमनुष्यत्वे परत्वं च [गी.सं.13] इति सङ्ग्रहश्लोकांशोऽनुसंहितः। युज्यत इति व्युत्पत्त्या स्वाम्यादेरत्र योगशब्दार्थतोक्ता। प्रकृतेरीश्वराधीनपरिणामत्वे जीवानां कर्मानुगुणप्रकृतिवशत्वे च श्रुतिमुदाहरतियथाहेति।
।।9.10।।ननूदासीनस्तेषु त्वं चेत्तदा प्रकृतिवशोत्पन्ना जीवाः कथं क्रीडायोग्या भवन्ति कथं वा त्वं कर्ता इत्याशङ्क्याह -- मयेति। मया परिदृश्यमानेन अध्यक्षेण अधिष्ठात्रा सकलकर्त्रा क्रीडाधिष्ठिता सती प्रकृतिः सचराचरं जडजीवसहितं जगत् सूयते जनयति। अनेन क्रीडात्मकेन हेतुना कारणेन जगत् विशेषेण परिवर्त्तते जायते च। अतो योग्या भवन्तीत्यर्थः।
।।9.9 -- 9.10।।ननु विषमां सृष्टिं कुर्वतस्तव वैषम्यनैर्घृण्ये स्यातामत आह -- न चेति। तानि विषमसृष्टिरूपाणि कर्मामि मां न निबध्नन्ति। तत्र हेतुः उदासीनवदासीनमिति। यथा पर्जन्यो बीजविशेषेषु रागं केषुचिद्द्वेषं चाकृत्वा उदासीनः सन् वर्षति एवमीश्वरोऽपि पुण्यवत्सु रागं पापिषु द्वेषं चाकुर्वञ्जगत्सृजति। तत्तदसाधारणकर्मबीजवशात्ते ते विभिन्नं फलं प्राप्नुवन्तीति नेश्वरवैषम्यादीत्यर्थः। ननु विसृजामि। उदासीनवदासीनमिति परस्परविरुद्धमुच्यत इत्याशङ्क्याह -- मयेति। मया कूटस्थेन अध्यक्षेण अयस्कान्तकल्पेन प्रवर्तकेन प्रकृतिश्चराचरं जगत् सूयते उत्पादयति। अनेनाध्यक्षत्वेनैव हेतुना हे कौन्तेय? जगद्विपरिवर्तते जन्माद्यवस्थासु भ्रमति। अयस्कान्तवदहमुदासीनश्च सृष्टिप्रवर्तकश्च भवामीति भावः। तथा च मन्त्रवर्णःएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च इति एकस्यैव देवस्य सर्वाध्यक्षत्वं साक्षित्वं च प्रतिपादयति।
।।9.10।।ननु भूतग्रामिमं कृत्स्त्रं विसृजामि। उदासीनवदासीनमिति च विरुद्धमिदमुच्यते इति चेतत्राह -- मयेति। मया,चेतनरुपेण सर्वविक्रियाशून्येनाध्यक्षेण स्वामिना सन्नधिमात्रेण सत्तास्फूर्तिप्रदानेन प्रवर्तकेन प्रवर्तिता प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिकाऽविद्यालक्षणा मायाशब्दवाच्याऽनिर्वचनीया सचराचरं व्यक्ताव्यक्तात्मकं जगदुत्पादयति। तथाच मन्त्रवर्णःएको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च इति मूर्तित्रयात्मना भेदव्यावृत्त्यर्थं एक इति। जाड्यव्यावृत्त्यर्थमुक्तं देव इति। आदित्यवत्ताटस्थ्यं वारयति सर्वभूतेषु गूढ इति। बुद्य्धादिवत्परिच्छिन्नत्वं निराकरोति सर्वव्यापीति। आकाशवदनात्मत्वं वारयति सर्वभूतान्तरात्मेति। जीववत्कर्मपराधीनत्वं तस्य निराचष्टे कर्माध्यक्षः कर्मणां तत्तत्फलप्रदानाय प्रवर्तकः। न केवलं कर्माध्यक्ष एवापितु सर्वाधिष्ठानं कर्मवतां साक्षी चेत्याह सर्वभूताधिवासः साक्षीति। सर्वभूतेषु सत्तास्फूर्तिप्रदानायाधिवसति सन्निहित इत्यर्थः। यद्वा सर्वाणि भूतानि अधिवसन्ति यस्मिन्नधिष्ठाने सः। दर्शनकर्तत्वं वारयति चेता इति। विजातीयकृतं भेदं व्यवच्छिनत्ति केवल इति। अद्वितीय इत्यर्थः। स्वगतभेदं प्रत्याचष्टे निर्गुण इति। तथाच सूर्यवत्प्रकृतिसत्तास्फूर्तिप्रदानेन जगत्कर्तृत्वेऽप्यदासीनत्वमविरुद्धमिति भावः। अनेनाध्यक्षत्वेन हेतुना निमित्तेन सचराचरं जगद्विपरिवर्तते सर्वास्थासु जाग्रदादिषु बाल्यादिषु चेदमहं भोक्ष्ये इदं पश्यामि इदं श्रृणोमीदं स्पृशामीदमास्वादयामीदं जिघ्रामीदं सुखदुःखमनुभवामि तदर्थमिदं धर्माधर्मलक्षणं कर्म करिष्ये इत्यादिसर्वापि जगतः प्रवृत्तिः चेतनव्याप्तिं विना जडवर्गस्य न संभवति। तथाच मन्त्रवर्णःयो अस्याध्यक्षः परमे व्यामेन् इत्यादिः। अस्य प्रत्यक्षादिसन्निधापितस्य जगतो योऽध्यक्षः सत्तास्फूर्तप्रदादेन प्रवर्तत्तः सूर्यवन्निर्विकारः सः परमे प्रकष्टे हार्ते व्योम्र्याकाशे स्थितो दुर्विज्ञय इत्यर्थः। एतेनेदं फलितम्। ननु किंनिमित्तेयं परस्येश्वात्त सृष्टिः किं स्वभोगार्था? उत चेतनान्तरभोगार्था? उत चेतनान्तरभोगार्था? उताचेतनार्था? उतापवर्गार्था। नाद्यः। एकस्य देवस्य सर्वाध्यक्षभूतचैतन्यस्य परमार्थसत आप्तकामस्य पूर्णस्य सर्वभोगास्पृष्टत्वात्।नेह नानास्ति किंचन िति श्रुतेरचेतनस्य भोक्तृत्वायोगाच्च। नापि चतुर्थः। सृष्टेरपवर्गविरोधित्वात्। किंच कस्य मोक्षार्था स्वस्योतान्यस्य। नाद्यः। स्वस्य नित्यमुक्तत्वात्। नान्त्योऽन्यस्यानिरुपणादित्यादिशङ्कातदनुरुपं प्रतिवचनं च न युक्तं? परस्य ब्रह्मणः मायानिबन्धने सर्गे उक्तशङ्कानवकाशत्वेन प्रतिवचनयोग्यताया अभावात्। किंच मायासर्गमभ्युपगच्छतां परत्र ब्रह्मणि नानाभावो वास्तवो न संभवतीति वदतामौपनिषदानामियमुक्तिरिष्टैव। तथाच मन्त्रवर्णःको अद्धा वेद क इह प्रवोचत्कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः इत्यादिः। इत्यादिः। परमात्मनो दुर्विज्ञेयत्वं प्रतिपादयन् सृष्टिकर्तृत्वं तस्मिन्नाक्षिपति परमात्मानमद्धा साक्षात् को वेद घटमिव तदिदमिति। न कोऽपि जानातीत्यर्थः। तस्मिन्परमात्मनि प्रवक्तापि संसारमण्डले नास्तीत्याह -- क इहेतु। शुद्धस्य परमात्मनः सर्वशब्दावाच्यत्वान्न कोऽपि प्रावोचदित्यर्थः।यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इति श्रुतेः। तर्हि ब्रह्माज्ञानाय श्रवणादौ प्रवृत्तिबोधकानांब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवतितरति शोकमात्मवित् इत्यादिकानां च श्रुतिनामप्रामाण्यमिति चेन्नैष दोषः। फलव्याप्तिप्रतिषेधेनाज्ञाननिबर्हणाय वृत्तिव्याप्तिस्वीकारेण चाविरोधात्। शब्दोऽपि साक्षान्न ब्रह्म पतिपादयति किंतु अज्ञाननिबर्हण एव तस्याचिन्त्या शक्तिरित स्वीक्रीयते। तथाच सुप्ते देवदत्ते देवदत्तेतिशब्दो यथा तन्निद्रां नाशयति एवं तत्त्वमसीतिवाक्यमपि नाहं ब्रह्मेत्यज्ञानं निराकरोति। तदुक्तं सुरेश्वराचार्यैःदुर्बलत्वादविद्याया आत्मत्वाद्वोधरुपिणाः। शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वाद्विह्य्स्तं मोहहानतः। अग्रहीत्वैव संबन्धमभिधानाभिधेययोः। हित्वा निद्रां प्रबुध्यन्ते सुषुप्ते बोधिताः परैः। जाग्रद्वन्न यतः शब्दं सुषुप्ते वेत्ति कश्चन। ध्वस्तेऽतो ज्ञानतोऽज्ञाने ब्रह्मास्मीति भवेत्फलम्। अविद्याघातिनः शब्दाद्याहं ब्रह्मेति धीर्भवेत्। नश्यत्यविद्यया सार्धं हत्वा रोगमिवौषसंभवात्। ननु अन्यस्मान्निमित्ताद्भविष्यतीति चेत्तत्राह -- कुत इति। अन्यस्य वस्तुनो भावादियं विविधा सृष्टिर्न कुतश्चिन्निमित्तादुत्पद्यत इत्यर्थः। ननुयतो वा इमानि भूतानि जायन्ते?यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे?जन्माद्यस्य यतः इत्यादिश्रुतिस्मृतिसूत्राणामप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेन्नैष दोषः। ब्रह्मणः सृष्टेरुत्पत्त्यादिप्रतिपादनेन तदत्यन्तासत्त्वस्य निरपवादादन्यथा वायौ रुपं नास्तीत्यपवादमात्रेण तेजसि रुपस्य सत्तानपायान्न तस्यासत्त्वं प्रतीयते। तथा ब्रह्मणि जगन्नास्तीत्यपवादमात्रेण प्रधानादौ तत्सत्त्वापत्त्यातदसिद्धेः। कथं तर्हि मुथ्याभूते प्रपञ्चे इदमुत्पन्नमिदं नष्टमिति वैदिकलौकिकव्यवहार इति चेत् अनाद्यनिर्वचनीयाज्ञानकल्पितं लौकिकमपवदितुं श्रुतिभरनूद्यते इति गृहाण। तदुग्तंअज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः इति। यथा पाण्डुनाध्यक्षेण कुन्ती त्वामुत्पादितवती तथा मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सचराचरं जगदुत्पादयतीति कौन्तेयेति संबोधनस्य गूढाभिसंधिः।
9.10 मया by Me? अध्यक्षेण as supervisor? प्रकृतिः Nature? सूयते produces? सचराचरम् the moving and the unmoving? हेतुना by cause? अनेन by this? कौन्तेय O Kaunteya? जगत् the world? विपरिवर्तते revolves.Commentary The Lord presides only as a witness. Nature does everything. By reason of His proximity or presence? Nature sends forth the moving and the unmoving. The prime cause of this creation is Nature. For the movable and the immovable? and for the whole universe? the root cause is Nature itself.Although all actions are done with the help of the light of the sun? yet? the sun cannot become the doer of actions. Even so the Lord cannot become the doer of actions even though Nature does all actions with the help of the light of the Lord.As Brahman illumines Avidya (ignorance)? the material cause of this world? It is regarded as the cause of this world. The magnet is ite indifferent although it makes the iron pieces move on account of its proximity. Even so the Lord remains indifferent although He makes Nature create the world.As the Lord and the Witness? He presides over this world which consists of moving and unmoving objects the manifested and the unmanifested wheel round and round.What is the purpose of creation Why has God created this world when He has really no concern with any enjoyment whatsoever This is a transcendental estion or Atiprasna. It is therefore irrelevant to ask or to answer this estion. You cannot say that God created this world for His own enjoyment because He really does not enjoy anything. He is a mere witness only. (Cf.X.8)
9.10 Under Me as supervisor, Nature produces the moving and the unmoving; because of this, O Arjuna, the world revolves.
9.10 Under my guidance, Nature produces all things movable and immovable. Thus it is, O Arjuna, that this universe revolves.
9.10 Under Me as the supervisor, the Prakrti produces (the world) of the moving and the non-moving things. Owing to this reason, O son of Kunti, the world revolves.
9.10 Maya, under Me; adhyaksena, as the supervisor, remaining changeless as a mere witness under all circumstances; prakrtih, the Prakrti, My maya consisting of the three gunas and characterized as ignorance; suyate, produces; the world sa-cara-acaram. of the moving and the none-moving things. Thus there is the Vedic text, 'The one divine Being is hidden in all beings; He is amnipresent, the indwelling Self of all bengs, the Supervisor of actions, the refuge of all beings, the witness, the one who imparts consceiousness, unconditioned [This is according to Sankaracarya's commentary on this verse. A.G. interprets kevala as non-dual.-Tr.] and without alities' (Sv. 6.11). Anena hetuna, owing to this reason-because of this presiding over; O son of Kunti, the jagat, world, with the moving and the non-moving things, consisting of the manifest and the unmanifest; viparivartate, revolves, under all conditions [During creation, continuance and dissolution.] All the activities of the world in the form, 'I eat this; I see; I hear this; I experience this happiness, suffer this sorrow; I shall do this for that purpose, [Ast. omits this portion.-Tr] I shall do this for this purpose; I shall know this,' etc. indeed arise owing to their being the objects of the conscious witness. They verily exist in consciousness, and end in consciousness. And such mantras as, 'He who is the witness of this is in the supreme heaven' [Supreme heaven, the heart; i.e. He is inscrutable.] (Rg., Na. Su. 10.129.7; Tai. Br.2.8.9), reveal this fact. Since it follows from this that there is no other conscious being part from the one Deity-who is the witness of all as the absolute Consciousness, and who in reality has no contact with any kind of enjoyment-, therefore there is no other enjoyer. Hence, in this context, the estion, 'For what purpose is this creation?', and its answer are baseless-in accordance with the Vedic text, 'Who know (It) truly, who can fully speak about this here? From where has this come? From where is this variegated creation?' (Rg. 3.54.5; 10.129.6). And it has been pointed out by the Lord also: 'Knowledge remains covered by ignorance. Thery the creatures become deluded' (5.15).
9.10. O son of Kunti ! On account of Me, Who remain (only) as an observer and as prime cause, the nature [of Mine] gives birth to [both] the moving and unmoving; hence this world moves in a circle.
9.9-10 Na ca etc. Maya etc. There is for Me no bondage of actions, because I remain unconcerned. That is why, not resorting to any activity, I am the pirme cause in the process of world-creation.
9.10 Therefore, My Prakrti, looked at by Me, through My will and under My supervision creates the world with its mobile and immobile beings in accordance with the Karma of individual selves. Because of this, namely, My look at Prakrti in conformity with the Karma of individual selves, the world revolves. Behold in this wonderful phenomena the lordly power inherent to Me, the son of Vasudeva, such as My sovereignty, true resolve and being devoid of cruelty and similar blemishes! So declare the Srutis: 'The possessor of Maya projects this universe out of this. The other (i.e., individual self) is confined by Maya in the world. One should know the Maya to be the Prakrti. And the possessor of Maya to be the Mighty Lord' (Sve. U., 4.9.10).
9.10 Under My supervision, Prakrti gives birth to all mobile and immobile entities. Because of this, O Arjuna, does the world revolve.
।।9.10।।यहाँ यह शङ्का होती है कि इस भूतसमुदायको मैं रचता हूँ? तथा मैं उदासीनकी भाँति स्थित रहता हूँ यह कहना परस्पर विरुद्ध है। इस शङ्काको दूर करनेके लिये कहते हैं --, सब ओरसे द्रष्टामात्र ही जिसका स्वरूप है ऐसे निर्विकारस्वरूप मुझ अधिष्ठातासे ( प्रेरित होकर ) अविद्यारूप मेरी त्रिगुणमयी माया -- प्रकृति समस्त चराचर जगत्को उत्पन्न किया करती है। वेदमन्त्र भी यही बात कहते हैं कि समस्त भूतोंमें अदृश्यभावसे रहनेवाला एक ही देव है जो कि सर्वव्यापी और सम्पूर्ण भूतोंका अन्तरात्मा तथा कर्मोंका स्वामी? समस्त भूतोंका आधार? साक्षी? चेतन? शुद्ध और निर्गुण है। हे कुन्तीपुत्र इसी कारणसे अर्थात् मैं इसका अध्यक्ष हूँ इसीलिये चराचरसहित साकारनिराकाररूप समस्त जगत् सब अवस्थाओंमें परिवर्तित होता रहता है? क्योंकि जगत्की समस्त प्रवृत्तियाँ साक्षीचेतनके ज्ञानका विषय बननेके लिये ही हैं। मैं यह खाऊँगा? यह देखता हूँ? यह सुनता हूँ? अमुक सुखका अनुभव करता हूँ? दुःख अनुभव करता हूँ? उसके लिये अमुक कार्य करूँगा? इसके लिये अमुक कार्य करूँगा? अमुक वस्तुको जानूँगा इत्यादि जगत्की समस्त प्रवृत्तियाँ ज्ञानाधीन और ज्ञानमें ही लय हो जानेवाली हैं। जो इस जगत्का अध्यक्ष साक्षी चेतन है वह परम हृदयाकाशमें स्थित है इत्यादि मन्त्र भी यही अर्थ दिखला रहे हैं। जब कि सबका अध्यक्षरूप चैतन्यमात्र एक देव वास्तवमें समस्त भोगोंके सम्बन्धसे रहित है और उसके सिवा अन्य चेतन न होनेके कारण दूसरे भोक्ताका अभाव है तो यह सृष्टि किसके लिये है इस प्रकारका प्रश्न और उसका उत्तर -- यह दोनों ही नहीं बन सकते ( अर्थात् यह विषय अनिर्वचनीय है )। ( इसको ) साक्षात् कौन जानता है -- इस विषयमें कौन कह सकता है यह जगत् कहाँसे आया किस कारण यह रचना हुई इत्यादि मन्त्रोंसे ( यही बात कही गयी है )। इसके सिवा भगवान्ने भी कहा है कि अज्ञानसे ज्ञान आवृत हो रहा है इसलिये समस्त जीव मोहित हो रहे हैं।
।।9.10।। -- मया अध्यक्षेण सर्वतो दृशिमात्रस्वरुपेण अविक्रियात्मना अध्यक्षेण मया? मम माया त्रिगुणात्मिका अविद्यालक्षणा प्रकृतिः सूयते उत्पादयति सचराचरं जगत्। तथा च मन्त्रवर्णः -- एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च (श्वे0 उ0 6।11) इति। हेतुना निमित्तेन अनेन अध्यक्षत्वेन कौन्तेय जगत् सचराचरं व्यक्ताव्यक्तात्मकं विपरिवर्तते सर्वावस्थासु। दृशिकर्मत्वापत्तिनिमित्ता हि जगतः सर्वा प्रवृत्तिः -- अहम् इदं भोक्ष्ये? पश्यामि इदम्? शृणोमि इदम्? सुखमनुभवामि? दुःखमनुभवामि? तदर्थमिदं करिष्ये? इदं ज्ञास्यामि? इत्याद्या अवगतिनिष्ठा अवगत्यवसानैव। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् (तै0 ब्रा0 2।8।9) इत्यादयश्च मन्त्राः एतमर्थं दर्शयन्ति। ततश्च एकस्य देवस्य सर्वाध्यक्षभूतचैतन्यमात्रस्य परमार्थतः सर्वभोगानभिसंबन्धिनः अन्यस्य चेतनान्तरस्य अभावे भोक्तुः अन्यस्य अभावात्। किंनिमित्ता इयं सृष्टिः इत्यत्र प्रश्नप्रतिवचने अनुपपन्ने? को अद्धा वेद क इह प्रवोचत्। कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः (तै0 ब्रा0 2।8।9) इत्यादिमन्त्रवर्णेभ्यः। दर्शितं च भगवता -- अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः (गीता 5।15) इति।।एवं मां नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वज्ञं सर्वजन्तूनाम् आत्मानमपि सन्तम् --,
।।9.10।।कथं तर्ह्यहं केवलं द्रष्टैव? प्रकृतिरेव चराचरं सूयत इत्युत्तरवाक्यमित्यतस्तन्निवर्त्याशङ्कां प्रदर्श्य व्याचष्टे -- उदासीनवदिति। भगवतोदासीनसादृश्यं स्वयमेव व्याख्यातम्? तदज्ञात्वा क्रियाभाव एवोक्त इति मत्वा शङ्कितम्। पुराप्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि [9।8] इत्युक्तम् इदानीं तुउदासीनवत् [2।9] इति निष्क्रियत्वमुच्यते। एवं तर्हि प्रकृतिरेव सूयते? त्वयि तु तत्सन्निधानात्कर्तृत्वोपचारमात्रमित्यापन्नमिति तन्निवृत्त्यर्थमिदं वाक्यम्। तत्रअध्यक्षेण इत्यनेन प्रकृतिसूतेर्द्रष्टाऽहमेवेत्युच्यते। तृतीयया च तत्प्रयोजककर्ता चाहमेव? न तु तस्याः स्वातन्त्र्यमिति दर्शनपूर्वकत्वात्प्रयोजकत्वस्य तदुक्तिः? अन्यथा तृतीया व्यर्था स्यादिति भावः। प्रकृतिप्रयोजकत्वं परमेश्वरस्य कुतः इत्यत आह -- यत इति। प्रसूता सृष्टावभिमुखीभूता प्रसूती प्रसूतिः तोयेन कर्मणा व्यससर्ज विससर्ज। बहुलग्रहणात्।
।।9.10।।उदासीनवदिति चेत्स्वयमेव प्रकृतिः सूयत इत्यत आह -- मयेति। प्रकृतिसूतिद्रष्टा कर्त्ता अहमेवेत्यर्थः। तथा च श्रुतिः यतः प्रसूता जगतः प्रसूती तोयेन जीवान्व्यससर्ज भूम्याम् [म.ना.उ.1।4] इति।
मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।9.10।।
মযাধ্যক্ষেণ প্রকৃতিঃ সূযতে সচরাচরম্৷ হেতুনানেন কৌন্তেয জগদ্বিপরিবর্ততে৷৷9.10৷৷
মযাধ্যক্ষেণ প্রকৃতিঃ সূযতে সচরাচরম্৷ হেতুনানেন কৌন্তেয জগদ্বিপরিবর্ততে৷৷9.10৷৷
મયાધ્યક્ષેણ પ્રકૃતિઃ સૂયતે સચરાચરમ્। હેતુનાનેન કૌન્તેય જગદ્વિપરિવર્તતે।।9.10।।
ਮਯਾਧ੍ਯਕ੍ਸ਼ੇਣ ਪ੍ਰਕਰਿਤਿ ਸੂਯਤੇ ਸਚਰਾਚਰਮ੍। ਹੇਤੁਨਾਨੇਨ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਜਗਦ੍ਵਿਪਰਿਵਰ੍ਤਤੇ।।9.10।।
ಮಯಾಧ್ಯಕ್ಷೇಣ ಪ್ರಕೃತಿಃ ಸೂಯತೇ ಸಚರಾಚರಮ್. ಹೇತುನಾನೇನ ಕೌನ್ತೇಯ ಜಗದ್ವಿಪರಿವರ್ತತೇ৷৷9.10৷৷
മയാധ്യക്ഷേണ പ്രകൃതിഃ സൂയതേ സചരാചരമ്. ഹേതുനാനേന കൌന്തേയ ജഗദ്വിപരിവര്തതേ৷৷9.10৷৷
ମଯାଧ୍ଯକ୍ଷେଣ ପ୍ରକୃତିଃ ସୂଯତେ ସଚରାଚରମ୍| ହେତୁନାନେନ କୌନ୍ତେଯ ଜଗଦ୍ବିପରିବର୍ତତେ||9.10||
mayā.dhyakṣēṇa prakṛtiḥ sūyatē sacarācaram. hētunā.nēna kauntēya jagadviparivartatē৷৷9.10৷৷
மயாத்யக்ஷேண ப்ரகரிதிஃ ஸூயதே ஸசராசரம். ஹேதுநாநேந கௌந்தேய ஜகத்விபரிவர்ததே৷৷9.10৷৷
మయాధ్యక్షేణ ప్రకృతిః సూయతే సచరాచరమ్. హేతునానేన కౌన్తేయ జగద్విపరివర్తతే৷৷9.10৷৷
9.11
9
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।।9.11।। मूर्खलोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वररूप परमभावको न जानते हुए मुझे मनुष्यशरीरके आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।
।।9.11।। समस्त भूतों के महान् ईश्वर रूप मेरे परम भाव को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मनुष्य शरीरधारी मुझ परमात्मा का अनादर करते हैं।।
।।9.11।। सातवें अध्याय में ब्रह्म की परा और अपरा प्रकृति का वर्णन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने यह घोषित किया था कि मूढ़ लोग? मेरे अव्यय और परम भाव को नहीं जानते हैं और परमार्थत अव्यक्तस्वरूप मुझको व्यक्त मानते हैं।इस अध्याय में स्वयं को सबकी आत्मा बताते हुए श्रीकृष्ण पुन उसी कठोर शब्द मूढ़ का प्रयोग उन लोगों की निन्दा के लिए करते हैं? जो तत्त्व को छोड़कर केवल रूप को ही पकड़े रहते हैं। मेरे परम स्वरूप को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मुझे किसी देह विशेष में ही स्थित मानते हैं प्रतिमा को ही भगवान् मानना या गुरु के शरीर को ही अनन्त परमात्मा समझना उसी प्रकार की त्रुटि या विपरीत ज्ञान है? जैसे घट को ही उसमें निहित वस्तु मान लेना है। मूर्ति तो उस इन्द्रिय अगोचर सूक्ष्म सत्य का मात्र प्रतीक है। भूखे या प्यासे होने पर केवल दूध की बोतल से खेलने से ही ताजगी अनुभव नहीं होती वास्तव में भूखे होने पर थाली पर चम्मच बजाने से कोई सन्तोष नहीं मिलता। प्रतीक को ही ध्येय समझने का अर्थ है साधन को ही साध्य मानने की गलती करना। ऐसी विपरीत धारणायें धार्मिक कट्टरता एवं असहिष्णुता को जन्म देती हैं जो लोगों में शत्रुता और ईर्ष्या के बीज बोती हैं। इन बीजों से? समय आने पर? केवल विपत्ति और नाश की फसल ही प्राप्त होती है यह सब कुछ विभिन्न धर्मावलम्बियों के अपनेअपने पाषाण के देवता? काष्ठ के बने प्रतीक और पीपल के बने भगवान् के नाम पर होता है खादी का तिरंगा कपड़ा राष्ट्रध्वज हो सकता है? परन्तु वह स्वयं मेरी मातृभूमि नहीं है परन्तु जब ध्वजारोहण के समय मैं अपना शीश झुकाता हूँ तो राष्ट्र के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करता हूँ वह ध्वज मेरे राष्ट्र की संस्कृति एवं महत्वाकांक्षाओं का पवित्र प्रतीक है।इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर इस श्लोक का अध्ययन करने पर वह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है। भगवान् कहते हैं कि साधारण भक्तजन मुझे भूतमात्र के महेश्वर के रूप में नहीं जानते हैं और मनुष्य शरीर धारण करने पर मेरा अनादर करते हैं।क्यों ये मूढ़ लोग आत्मा का सम्यक् परिचय प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं उत्तर में कहते हैं --
।।9.11।। व्याख्या--परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्--जिसकी सत्ता-स्फूर्ति पाकर प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डोंकी रचना करती है, चरअचर, स्थावर-जङ्गम प्राणियोंको पैदा करती है; जो प्रकृति और उसके कार्यमात्रका संचालक, प्रवर्तक, शासक और संरक्षक है जिसकी इच्छाके बिना वृक्षका पत्ता भी नहीं हिलता प्राणी अपने कर्मोंके अनुसार जिनजिन लोकोंमें जाते हैं, उन-उन लोकोंमें प्राणियोंपर शासन करने-वाले जितने देवता हैं, उनका भी जो ईश्वर (मालिक) है और जो सबको जाननेवाला है-- ऐसा वह मेरा भूतमहेश्वररूप सर्वोत्कृष्ट भाव (स्वरूप) है। 'परं भावम्' कहनेका तात्पर्य है कि मेरे सर्वोत्कृष्ट प्रभावको अर्थात् करनेमें, न करनेमें और उलट-फेर करनेमें जो सर्वथा स्वतन्त्र है; जो कर्म, क्लेश, विपाक आदि किसी भी विकारसे कभी आबद्ध नहीं है; जो क्षरसे अतीत और अक्षरसे भी उत्तम है तथा वेदों और शास्त्रोंमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है (गीता 15। 18) -- ऐसे मेरे परमभावको मूढ़लोग नहीं जानते, इसीसे वे मेरेको मनुष्य-जैसा मानकर मेरी अविज्ञा करते हैं।'मानुषी तनुमाश्रितम्'-- भगवान्को मनुष्य मानना क्या है? जैसे साधारण मनुष्य अपनेको शरीर, कुटुम्ब-परिवार, धन-सम्पत्ति, पद-अधिकार आदिके आश्रित मानते हैं अर्थात् शरीर, कुटुम्ब आदिकी इज्जत-प्रतिष्ठाको अपनी इज्जतप्रतिष्ठा मानते हैं; उन पदार्थोंके मिलनेसे अपनेको बड़ा मानते हैं; और उनके न मिलनेसे अपनेको छोटा मानते हैं और जैसे साधारण प्राणी पहले प्रकट नहीं थे, बीचमें प्रकट हो जाते हैं तथा अन्तमें पुनः अप्रकट हो जाते हैं (गीता 2। 28), ऐसे ही वे मेरेको साधारण मनुष्य मानते हैं। वे मेरेको मनुष्यशरीरके परवश मानते हैं अर्थात् जैसे साधारण मनुष्य होते हैं? ऐसे ही साधारण मनुष्य कृष्ण हैं --ऐसा मानते हैं।
।।9.11।।अवजानन्तीति। सोऽहं सर्वजनान्तःशायी (S omits सर्व -- ?N omit -- जन -- ) ? सर्वस्यात्मरूपतया (S?K -- त्मपररू -- ) अवज्ञास्पदम् यत् मानुषादिचतुर्दशविध ( omits -- विध -- ) सर्गव्यतिरिक्त ईश्वरो नोपलभ्यते? स कथमस्ति इति।
।।9.11।।एवं मां भूतमहेश्वरं सर्वज्ञं सत्यसंकल्पं निखिलजगदेककारणं परमकारुणिकतया सर्वसमाश्रयणीयत्वाय मानुषीं तनुम् आश्रितं स्वकृतैः पापकर्मभिः मूढा अवजानन्ति -- प्राकृतमनुष्यसमं मन्यन्ते।भूतमहेश्वरस्य मम अपारकारुण्यौदार्यसौशील्यवात्सल्यादिनिबन्धनं मनुष्यत्वसमाश्रयणलक्षणम् इमं परं भावम् अजानन्तो मनुष्यत्वसमाश्रयणमात्रेण माम् इतरसजातीयं मत्वा तिरस्कुर्वन्ति इत्यर्थः।
।।9.11।।सर्वाध्यक्षः सर्वभूताधिवासो नित्यमुक्तश्चेत्त्वं तर्हि किमिति त्वामेवात्मत्वेन भेदेन वा सर्वे न भजन्ते तत्राह -- एवमिति। विपर्यस्तबुद्धित्वं भगवदवज्ञायां कारणमित्याह -- मूढा इति। भगवतो मनुष्यदेहसंबन्धात्तस्मिन्विपर्यासः संभवतीत्याह -- मानुषीमिति। अस्मदादिवद्देहतादात्म्याभिमानं भगवतो व्यावर्तयति -- मनुष्येति। भगवन्तमवजानतामविवेकमूलाज्ञानं हेतुमाह -- परमिति। ईश्वरावज्ञानात्किं भवतीत्यपेक्षायां तदवज्ञानप्रतिबद्धबुद्धयः शोच्या भवन्तीत्याह -- ततश्चेति। भगवदवज्ञानादेव हेतोरवजानन्तस्ते जन्तवो वराकाः शोच्याः सर्वपुरुषार्थबाह्याः स्युरिति संबन्धः। तत्र हेतुं सूचयति -- तस्येति। प्रकृतस्य भगवतोऽवज्ञानमनादरणं निन्दनं वा तस्य भावनं पौनःपुन्यं तेनाहतास्तज्जनितदुरितप्रभावात् प्रतिबद्धबुद्धय इत्यर्थः।
।।9.11।।नन्वेवंविधमहिमानं त्वां किमिति केचिन्नान्द्रियन्ते इत्यत्राह द्वाभ्यां -- अवजानन्तीति। मां सर्वभूतनियन्तारं सर्वज्ञं सत्यसङ्कल्पं अचिन्त्यमहिमानं योगेश्वरेश्वरं निखिलजगदेककारणं परमकारुणिकतया सर्वेषामाश्रयणीयत्वाय मानुषीं तनुमाश्रितं मनुष्यत्वसमाश्रयणेन इतरसमजातीयं मत्वा मूढा आसुरादयो जनास्तिरस्कुर्वन्ति इत्यर्थः। तत्र हेतुः परं भावं अचिन्त्यमाहात्म्यस्वरूपमानन्दमात्रलक्षणं तत्त्वमजानन्त इति। अत्र तु तनुं स्वरूपात्मिकामानन्दमात्रकरपादमुखोदरादिरूपां मानुषाकारामाश्रितमित्येव व्याख्येयम् अन्यथा भेदः स्यात्। वस्तुतस्तत्र देहदेहिविभाग एव नास्ति? एक एवआन्दमात्रकरपादमुखोदरादिः सर्वत्र च स्वगतभेदविवर्जितात्मा। निर्दोषपूर्णविग्रह आत्मतन्त्रो निश्चेतनात्मकशरीरगुणैर्विहीनः इति स्मर्यते। तथाविधाकार एव प्राकृताकाररहित इति श्रौतानुभवश्च आवृत्तचक्षुः [कठो.4।1] आत्मानमैक्षत आनन्दं ब्रह्मणो रूपं इत्यत्र सर्वं निरूपितं श्रीमद्बिद्वन्मण्डनभाष्यकृद्भिस्तत एव सर्वमवसेयम्।
।।9.11।।एवं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वजन्तूनामात्मानमानन्दघनमनन्तमपि सन्तं अवजानन्ति मां साक्षादीश्वरोऽयमिति नाद्रियन्ते निन्दन्ति वा मूढा अविवेकिनो जनास्तेषामवज्ञाहेतुं भ्रमं सूचयति। मानुषीं तनुमाश्रितं मनुष्यतया प्रतीयमानां मूर्तिमात्मेच्छया भक्तानुग्रहार्थं गृहीतवन्तम्। मनुष्यतया प्रतीयमानेन देहेन व्यवहरन्तमिति यावत्। ततश्च मनुष्योऽयमिति भ्रान्त्या आच्छादितान्तःकरणा मम परं भावं प्रकृष्टं पारमार्थिकं तत्त्वं सर्वभूतानां महान्तमीश्वरमजानन्तो यन्नाद्रियन्ते निन्दन्ति वा तदनुरूपमेव मूढत्वस्य।
।।9.11।।नन्वेवंभूतं परमेश्वरं त्वां किमिति केचिन्नाद्रियन्ते तत्राह -- अवजानन्तीति द्वाभ्याम्। सर्वभूतमहेश्वररूपं मदीयं परं भावं तत्त्वमजानन्तो मूढा मूर्खा मामवजानन्त्यवमन्यन्ते। अवज्ञाने हेतुः शुद्धसत्वमयीमपि तनुं भक्तेच्छावशान्मनुष्याकारामाश्रितवन्तम्।
।।9.11।।महात्मनां विशेषं वक्तुं मूढानां स्वभाव उच्यतेअवजानन्ति इति श्लोकद्वयेन। प्रकृतसङ्गत्यर्थमेवंशब्दः।भूतमहेश्वरम् इत्यस्य भावविशेषणत्वायोगाव्यवहितेनापिमाम् इत्यनेनान्वयः। भूतमहेश्वरादिशब्देनाभिप्रेतप्रदर्शनंसर्वज्ञमित्यादि।मानुषीं मनुष्यसम्बन्धिनीम् मनुष्यसजातीयसन्निवेशवतीमित्यर्थः। यथा हिरण्मयमृण्मयघटयोर्द्रव्यवैजात्येऽपि संस्थानसाम्यं? तद्वदत्रापि। इदं च मत्स्यादितन्वाश्रयणस्याप्युपलक्षणम्। मौढ्यस्यापीश्वराधीनत्वेन तद्दोषव्युदासायस्वकृतैः पापकर्मभिरित्युक्तम्। अवज्ञाकारणं दर्शयतिप्राकृतेति।परं भावमजानन्तः इत्यनेन भ्रमहेतोर्भेदाग्रहस्य कथनम्मानुषीं तनुमाश्रितम् इति तु सादृश्यस्य ताभ्यां प्राकृतमनुष्यसजातीयताभ्रमः ततश्च यथाकथञ्चित्प्रतीयमानोत्कर्षापह्नवेन निकर्षापादानरूपावज्ञा तदेतदखिलं विशदयतिभूतमहेश्वरस्येति।मनुष्यत्वसमाश्रयणलक्षणमिति अजहत्स्वस्वभावस्य अनितरसाधारणमेवंविधमनुष्यत्वाश्रयणमपि वस्तुतः परत्वानुप्रविष्टमिति भावः।
।।9.11।।नन्विदं स्वरूपं सर्वाधिष्ठातृ सर्वे कथं न जानन्ति इत्यत आह -- अवजानन्तीति द्वयेन। मूढा असुराः केवलमिच्छयैव सृष्टाः? मम भूतमहेश्वरं सर्वाधिष्ठातृ सर्वाधिदैविकरूपं परं भावं पुरुषोत्तमात्मकं अजानन्तो मानुषीं तनुं मायिनं स्वाज्ञानेन मां ज्ञात्वा अवजानन्ति अवमन्यन्ते।अत्रायं भावः -- पुरुषोत्तमोऽयं येन स्वरूपेण वदति तदेव स्वरूपं ब्रह्मरूपमानन्दमयम्? तमेव मानुर्षी तनुमाश्रितं जानन्ति अज्ञत्वात्।
।।9.11।।एवंभूतं मां सन्तं मूढाः अवजानन्ति। यतो मानुषीं तनुमाश्रितं मनुष्यदेहेन व्यवहरन्तम्। मम परं प्रकृष्टं भावं तत्त्वमजानन्तः भूतानां महेश्वरं मामवजानन्तीति संबन्धः।
।।9.11।। नन्वेवंभूतं शुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सर्वजन्ततूनामात्मानं त्वां किमति सर्वे आत्मत्वेन भेदेन वा न प्रतिपद्यन्ते प्रत्युतावजनन्ततीतेचेत्तत्राह -- अवजानन्तीति। एवंभूतमपि मां अवजान्ति अवज्ञां परिभवं अपरोक्षं च तिरस्कारं निन्दां च कुर्वन्तीति यावत्। भगवदवज्ञायां कारणमाह -- मूढा इति। विपरीतज्ञानाः। विपरीतज्ञाने निमित्तमाह। मानुषीं तनुमाश्रितं मनुष्यसंबन्धिनं देहमाश्रितं मनुष्यदेहेन व्यवहरन्तमितियावत्। तथाच मनुष्यवद्देहाभिमाशून्ये साधकानुग्रहार्थं गृहीतमायामयलीलाविग्रहे मयि परब्रह्मणिदेहसंबन्धदर्शनं विपर्ययबुद्धौ निमित्तमिति भावः। देहादिसंबन्धशून्ये परमात्मनि देहादिसंसर्गावलोकने हेतुमाह -- परमिति। मम सर्वभूतानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानां महान्तमीश्वरं परं सर्वोत्कृष्टं भावं परमात्मतत्त्वभाकाशवत्सर्वसङ्गविवर्जितमाकाशस्यापि मूलकारणभूतं स्वात्मस्वरुपमजानन्त इत्यर्थः। तथाच मम,वास्तवस्वरुपाज्ञानमेव तत्र हेतुरित्याशयः।
9.11 अवजानन्ति disregard? माम् Me? मूढाः fools? मानुषीम् human? तनुम् form? आश्रितम् assumed? परम् higher? भावम् state or nature? अजानन्तः not knowing? मम My? भूतमहेश्वरम् the Great Lord of beings.Commentary Fools only find fault with My pure nature? just as a man with jaundiced eyes finds all objects to be yellow. The man who is suffering from fever finds even milk as bitter as the essence of neem. Those who wish to behold Me by means of the physical eyes cannot know Me. If anyone takes the mirage for the Ganga? can he find any water thereFools who do not have discrimination and right understanding despise Me? dwelling in the human form. I have taken this body to bless My devotees. These fools have no knowledge of My higher Being. They do not know that I am the great Lord? the Supreme SElf? the luminous? omniscient? pure? ever free? immortal? wise? the Self of all. These fools take Me for an ordinary mortal and despise Me always. The wise know both My transcendental nature and the glory of My manifestation.I pervade? permeate and interpenetrate the universe. I am the support of this world? body? mind? lifeforce and the senses and yet there are some miserable fools? who say that I do not exist. There is thus not a place anywhere where I am not? and yet these people are not able to see Me. Look at the misfortune of these people. Pitiable is their lot (Cf.IV.6VII.24)
9.11 Fools disregard Me, clad in human form, not knowing My higher Being as the great Lord of (all) beings.
9.11 Fools disregard Me, seeing Me clad in human form. They know not that in My higher nature I am the Lord-God of all.
9.11 Not knowing My supreme nature as the Lord of all beings, foolish people disregard Me who have taken a human body.
9.11 Ajanatah, not knowing; mama, My; param, supreme; bhavam, nature-My supreme Reality, which is like space, nay, which is subtler and more pervasive than space; as bhuta-maheswaram, the Lord of all beings, the great Lord of all beings who is their Self; mudhah, foolish people, the non-discriminating ones; avajananti, disregard, belittle; mam, Me, although I am by nature thus eternal, pure, intelligent, free and the Self of all beings; and asritam, who have taken; manusim tanum, a human body common to men, i.e৷৷. when I act with the help of a human body. As a result of that, as a result of continously disrespecting Me, those wretches get ruined. How?
9.11. Being unaware of the immutable highest Absolute Supreme nature of Mine, the deluded ones disregard Me dwelling in the human body.
9.11 Avajananti etc. I am reclining within all that is born Being the Self of all, I become the object of disrespect. For, [they raise the estion] : 'Apart from the fourteen types of creation, like man etc., no Lord is found; hence how can He exist ?'
9.11 Because of their evil actions (Karmas), fools disregard Me - the great Lord of all beings, the Omniscient, whose resolves are true, who is the sole cause of the entire universe, and who has taken the human body out of great compassion so that I might become the refuge of all. They consider Me to be a man like themselves. The meaning is that they disregard Me, not knowing My higher nature which is an abode of compassion, generosity, condescension and parental solicitude. This nature of mine is the cause of My resorting to the human shape. But without understanding this, the ignorant consider Me as of the same nature as others, because I have assumed the human form.
9.11 Fools disregard Me, dwelling in a human form, not knowing My higher nature, as the Supreme Lord of all beings.
।।9.11।।इस प्रकार मैं यद्यपि नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव तथा सभी प्राणियोंका आत्मा हूँ तो भी --, मूढ़ -- अविवेकी लोग मेरे सर्व लोकोंके महान् ईश्वररूप परमभावको अर्थात् सबका अपना आत्मारूप मैं परमात्मा सब प्राणियोंका महान् ईश्वर हूँ एवं आकाशकी भाँति बल्कि आकाशकी अपेक्षा भी सूक्ष्मतर भावसे व्यापक हूँ -- इस परम परमात्मतत्त्वको न जाननेके कारण मुझ मनुष्यदेहधारी परमात्माको तुच्छ समझते हैं अर्थात् मनुष्यरूपसे लीला करते हुए मुझ परमात्माकी अवज्ञा -- अनादर करते हैं। इसलिये मुझ परमात्माके निरादरकी भावनासे वे पामर जीव ( व्यर्थ ) मारे हुए पड़े हैं।
।।9.11।। --,अवजानन्ति अवज्ञां परिभवं कुर्वन्ति मां मूढाः अविवेकिनः मानुषीं मनुष्यसंबन्धिनीं तनुं देहम् आश्रितम्? मनुष्यदेहेन व्यवहरन्तमित्येतत्? परं प्रकृष्टं भावं परमात्मतत्त्वम् आकाशकल्पम् आकाशादपि अन्तरतमम् अजानन्तो मम भूतमहेश्वरं सर्वभूतानां महान्तम् ईश्वरं स्वात्मानम्। ततश्च तस्य मम अवज्ञानभावनेन आहताः ते वराकाः।।कथम् --,
।।9.11।।उत्तरवाक्यस्य सङ्गत्यप्रतीतेस्तामाह -- तर्हीति। यदि त्वमेव जगतः सृष्टिस्थितिसंहाराणां कर्ता? कैश्चिदवज्ञानात् तेषां चानर्थाभावादुक्तमसदिति शङ्काभिप्रायः।मानुषीं तनुमाश्रितं इत्येतदन्यथाप्रतीतिनिरासाय व्याचष्टे -- मानुषीमिति। भ्रान्त्यनुवाद एवायमिति भावः। कुतो न इत्यत आह -- उक्तं चेति। चो हेतौ। शरीराणि हि भौतिकानि भवन्ति। भूतानि चेश्वरस्य बुद्धिजानि? तत्कथं तानि बध्नीत्युरित्यर्थः। अत्रैवईश्वरो हि इत्यादिनाऽन्ये हेतवोऽभिधीयन्ते। विराट् नित्याभिव्यक्तरूपः। वरदो मोक्षप्रदः। सगुणः स्वातन्त्र्यादिगुणवान्। भूतानि प्रलीयन्ते यस्मिंस्तदव्यक्तम्? तदभिमानिनी देवता तस्य शुश्रूषुः। लिङ्गव्यत्ययश्छान्दसः। अस्त्वेतन्मूलरूपविषयम्? अवतारस्य तु कृष्णस्य मानुषत्वं भवत्वित्यत आह -- अवतारेति।यत्तद्ददृशिवान् ब्रह्मा रूपं हयशिरोधरम् [म.भा.12।] इति ह्वयग्रीवावतारप्रसङ्गे। अस्तु हयग्रीवस्यैवम्। कृष्णस्तु मानुषशरीर एव किं न स्यात् इति चेत्? न युक्तिसाम्यात् विशेषप्रमाणाच्चेत्याह -- रूपाणीति। असृजद्व्यभजत्। प्रादुर्भावभवायोत्तरत्र। स नारायणः। मानुषं कृष्णादिकम्। तत्रैव मोक्षधर्म एव? प्रथमसर्गकाल एव? मानुषादिजात्युत्पत्तेः प्रागेवेत्यर्थः। उपसंहरति -- अत इति। तेषामवताराणाम्। उत्तरपदविरोधश्चान्यथेति भावेन तद्व्याचष्टे -- भूतमिति। भूतं सर्वदा विद्यमानमिति कालानन्त्यमाचष्टे -- महदिति देशानन्त्यम्? ईश्वरमिति गुणानन्त्यम्। भावं याथार्थ्यमिति व्याख्यानपेक्षया नपुंसकम्। अत्र श्रुतिं पठति, -- तथा हीति। ईशं वराणामितीश्वरम्। षष्ठ्याः परनिपातः। देवाः वीर्यं पुत्रा यस्यासौ तथोक्तः।महतो भूतस्य इति देशकालानन्त्यमुच्यते। वराणां देवानामीशत्वे ब्रह्मेति मोक्षधर्मवाक्यं प्रमाणं पुरोहितादिदेवनिकायास्त्वदधीना इत्यर्थः। ब्रह्मेति द्विरुक्तिरादरार्था।
।।9.11।।तर्हि केचित्कथं त्वामवजानन्ति का च तेषां गतिः इत्यत आह -- अवजानन्तीत्यादिना। मानुषीं तनुं? मूढानां मानुषवत्प्रतीतां तनुं? न तु मनुष्यरूपाम्। उक्तं च मोक्षधर्मेयत्किञ्चिदिह लोकेऽस्मिन्देहबद्धं विशाम्पते। सर्वं पञ्चभिराविष्टं भूतैरीश्वरबुद्धिजैः। ईश्वरो हि जगत्स्रष्टा प्रभुर्नारायणो विराट्। भूतान्तरात्मा वग्दः सगुणो निर्गुणोऽपि च। भूतप्रलयमव्यक्तं शुश्रूषु(शुणुष्व) -- र्नृपसत्तम [म.भा.12।347।1113] इति। अवतारप्रसङ्गे चैतदुक्तम्। अतो नावताराः पृथक् शङ्क्याः।रूपाण्यनेकान्यसृजत्प्रादुर्भावभवाय सः। वाराहं नारसिंहं च वामनं मानुषं तथा [म.भा.12।349।37] इति। तत्रैव प्रथमसर्गकाल एवावताररूपविभक्त्युक्तेः। अतो न तेषां मानुषत्वादिर्विना भ्रान्तिम्। भूतं महदीश्वरं चेति भूतमहेश्वरम्। तथा हि (सामवेदे) बाभ्रव्यशाखायाम् -- अनाद्यनन्तं परिपूर्णरूपमीशं वराणामपि देववीर्यम् इति। अस्य महतो भूतस्य निश्श्वसितम् [बृ.उ.2।4।10] इति च।ब्रह्मपुरोहित ब्रह्मकायिक राजिक महाराजिकं -- इति च मोक्षधर्मे [म.भा.12।338नाम4043]।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।9.11।।
অবজানন্তি মাং মূঢা মানুষীং তনুমাশ্রিতম্৷ পরং ভাবমজানন্তো মম ভূতমহেশ্বরম্৷৷9.11৷৷
অবজানন্তি মাং মূঢা মানুষীং তনুমাশ্রিতম্৷ পরং ভাবমজানন্তো মম ভূতমহেশ্বরম্৷৷9.11৷৷
અવજાનન્તિ માં મૂઢા માનુષીં તનુમાશ્રિતમ્। પરં ભાવમજાનન્તો મમ ભૂતમહેશ્વરમ્।।9.11।।
ਅਵਜਾਨਨ੍ਤਿ ਮਾਂ ਮੂਢਾ ਮਾਨੁਸ਼ੀਂ ਤਨੁਮਾਸ਼੍ਰਿਤਮ੍। ਪਰਂ ਭਾਵਮਜਾਨਨ੍ਤੋ ਮਮ ਭੂਤਮਹੇਸ਼੍ਵਰਮ੍।।9.11।।
ಅವಜಾನನ್ತಿ ಮಾಂ ಮೂಢಾ ಮಾನುಷೀಂ ತನುಮಾಶ್ರಿತಮ್. ಪರಂ ಭಾವಮಜಾನನ್ತೋ ಮಮ ಭೂತಮಹೇಶ್ವರಮ್৷৷9.11৷৷
അവജാനന്തി മാം മൂഢാ മാനുഷീം തനുമാശ്രിതമ്. പരം ഭാവമജാനന്തോ മമ ഭൂതമഹേശ്വരമ്৷৷9.11৷৷
ଅବଜାନନ୍ତି ମାଂ ମୂଢା ମାନୁଷୀଂ ତନୁମାଶ୍ରିତମ୍| ପରଂ ଭାବମଜାନନ୍ତୋ ମମ ଭୂତମହେଶ୍ବରମ୍||9.11||
avajānanti māṅ mūḍhā mānuṣīṅ tanumāśritam. paraṅ bhāvamajānantō mama bhūtamahēśvaram৷৷9.11৷৷
அவஜாநந்தி மாஂ மூடா மாநுஷீஂ தநுமாஷ்ரிதம். பரஂ பாவமஜாநந்தோ மம பூதமஹேஷ்வரம்৷৷9.11৷৷
అవజానన్తి మాం మూఢా మానుషీం తనుమాశ్రితమ్. పరం భావమజానన్తో మమ భూతమహేశ్వరమ్৷৷9.11৷৷
9.12
9
12
।।9.12।। जिनकी सब आशाएँ व्यर्थ होती हैं, सब शुभ-कर्म व्यर्थ होते हैं और सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात् जिनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान सत्-फल देनेवाले नहीं होते, ऐसे अविवेकी मनुष्य आसुरी, राक्षसी और मोहिनी फकृतिका आश्रय लेते हैं।
।।9.12।। वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अविचारीजन राक्षसों के और असुरों के मोहित करने वाले स्वभाव को धारण किये रहते हैं।।
।।9.12।। See commentary under 9.13
।।9.12।। व्याख्या--'मोघाशाः'-- जो लोग भगवान्से विमुख होते हैं, वे सांसारिक भोग चाहते हैं, स्वर्ग चाहते हैं तो उनकी ये सब कामनाएँ व्यर्थ ही होती हैं। कारण कि नाशवान् और परिवर्तनशील वस्तुकी कामना पूरी होगी ही-- यह कोई नियम नहीं है। अगर कभी पूरी हो भी जाय, तो वह टिकेगी नहीं अर्थात् फल देकर नष्ट हो जायगी। जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक कितनी ही सांसारिक वस्तुओंकी इच्छाएँ की जायँ और उनका फल भी मिल जाय तो भी वह सब व्यर्थ ही है (गीता 7। 23)।'मोघकर्माणः'--भगवान्से विमुख हुए मनुष्य शास्त्रविहित कितने ही शुभकर्म करें, पर अन्तमें वे सभी व्यर्थ हो जायँगे। कारण कि मनुष्य अगर सकामभावसे शास्त्रविहित यज्ञ, दान आदि कर्म भी करेंगे, तो भी उन कर्मोंका आदि और अन्त होगा और उनके फलका भी आदि और अन्त होगा। वे उन कर्मोंके फलस्वरूप ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें भी चले जायँगे, तो भी वहाँसे उनको फिर जन्म-मरणमें आना ही पड़ेगा। इसलिये उन्होंने कर्म करके केवल अपना समय बरबाद किया, अपनी बुद्धि बरबाद की और मिला कुछ नहीं। अन्तमें रीते-के-रीते रह गये अर्थात् जिसके लिये मनुष्यशरीर मिला था, उस लाभसे सदा ही रीते रह गये। इसलिये उनके सब कर्म व्यर्थ, निष्फल ही हैं।तात्पर्य यह हुआ कि ये मनुष्य स्वरूपसे साक्षात् परमात्माके अंश हैं, सदा रहनेवाले हैं और कर्म तथा उनका,फल आदि-अन्तवाला है; अतः जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी, तबतक वे सकामभावपूर्वक कितने ही कर्म करें और उनका फल भोंगे, पर अन्तमें दुःख और अशान्तिके सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। जो शास्त्रविहित कर्म अनुकूल परिस्थिति प्राप्त करनेकी इच्छासे सकामभावपूर्वक किये जाते हैं, वे ही कर्म व्यर्थ होते हैं अर्थात् सत्-फल देनेवाले नहीं होते। परन्तु जो कर्म भगवान्के लिये, भगवान्की प्रसन्नताके लिये किये जाते हैं और जो कर्म भगवान्के अर्पण किये जाते हैं, वे कर्म निष्फल नहीं होते अर्थात् नाशवान् फल देनेवाले नहीं होते, प्रत्युत सत्-फल देनेवाले हो जाते हैं-- 'कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते'(गीता 17। 27)।
।।9.12।।मोघेति। तेषां च कर्म ज्ञानम् आकांक्षाश्च सर्वं निष्फलम्? अवस्तुविषयत्त्वात्। आसुरीं राक्षसीं चेति -- उद्रिक्तरजस्तमोधर्माण इति।
।।9.12।।मम मनुष्यत्वे परमकारुण्यादिपरत्वतिरोधानकरीं राक्षसीम् आसुरीं च मोहिनीं प्रकृतिम् आश्रिताः? मोघाशाः मोघवाञ्छिता निष्फलवाञ्छिताः? मोघकर्माणः मोघारम्भाः? मोघज्ञानाः सर्वेषु मदीयेषु चराचरेषु अर्थेषु मयि च विपरीतज्ञानतया निष्फलज्ञानाः विचेतसः तथा सर्वत्र विगतयाथात्म्यज्ञानाः? मां सर्वेश्वरम् इतरसमं मत्वा मयि यत् कर्तुम् इच्छन्ति? यद् उद्दिश्य आरम्भान् कुर्वते? तत् सर्वं मोघं भवति इत्यर्थः।
।।9.12।।भगवन्तमवजानतां प्रश्नपूर्वकं शोच्यत्वं विशदयति -- कथमिति। भगवन्निन्दापराणां न काचिदपि प्रार्थनार्थवतीत्याह -- वृथेति। ननु भगवन्तं निन्दन्तोऽपि नित्यं नैमित्तिकं वा कर्मानुतिष्ठन्ति? तदनुष्ठानाच्च तेषां प्रार्थनाः सार्था भविष्यन्तीति नेत्याह -- तथेति। परिभवस्तिरस्करणम्? अवज्ञानमनादरणम्। तेषामपि शास्त्रार्थाज्ञानवतां तद्द्वारा प्रार्थनार्थवत्त्वमित्याशङ्क्याह -- तथा मोघेति। तथापि यौक्तिकविवेकवशात्तत्प्रार्थनासाफल्यमित्याशङ्क्याह -- विचेतस इति। न केवलमुक्तविशेषणवत्त्वमेव तेषां किंतु वर्तमानदेहपातादनन्तरं तत्तदतिक्रूरयोनिप्राप्तिश्च निश्चितेत्याह -- किञ्चेति। मोहकरीमिति प्रकृतिद्वयेऽपि तुल्यं विशेषणं? छिन्धि भिन्धि पिब खादेति प्राणिहिंसारूपो रक्षसां स्वभावः? असुराणां स्वभावस्तु न देहि नो जुहुधि परस्वमेवापहरेत्यादिरूपः? मोहो मिथ्याज्ञानम्। उक्तमेव स्फुटयति -- छिन्धीति।
।।9.12।।न केवलमजानन्त इत्येव वक्तव्यं सर्वस्य तथात्वात्। किञ्च ते मोघाशाः परमार्थतो मोघे स्वर्गादौ देवतायां च ईश्वरं विना कर्मैव फलदमिति मोघा वा आशा येषां ते? अतएव मोघकर्माणः मोघमेव च ज्ञानमासुरं मायावादादिशास्त्रोपदेशजन्यं येषां तत एव विक्षिप्तचेतसः। सर्वत्र हेतुः राक्षसीमासुरीं चेति। मम मनुष्यानुकरणे परमकारुण्यादिपरत्वभावनिरोधकरीं प्रकृतिं स्वभावरूपां शब्दादिविषयैकपरां राजसीमासुरीं मायेत्यसुरा इति श्रूयमाणां श्रिताः राक्षसीं तामसीं शिश्नोदरभरणैकस्वभावरूपां तथा मोहिनीं सात्विकराजसी मानुषीं प्रकृतिं संश्रिता इत्यासुरादयो मामवजानन्ति।
।।9.12।।ते च भगवदवज्ञाननिन्दनजनितमहादुरितप्रतिबद्धबुद्धयो निरन्तरं निरयनिवासार्हा एव -- ईश्वरमन्तरेण कर्माण्येव नः फलं दास्यन्तीत्येवंरूपा मोघा निष्फलैवाशा फलप्रार्थना येषां ते। अतएवेश्वरविमुखत्वान्मोघानि श्रममात्ररूपाण्यग्निहोत्रादीनि कर्माणि येषां ते। तथा मोघमीश्वराप्रतिपादककुतर्कशास्त्रजनितं ज्ञानं येषां ते। कुत एवं। यतो विचेतसो भगवदवज्ञानजनितदुरितप्रतिबद्धविवेकविज्ञानाः। किंच ते भगवदवज्ञानवशात् राक्षसीं तामसीं अविहितहिंसाहेतुद्वेषप्रधानां आसुरीं च राजसीं शास्त्रानभ्यनुज्ञातविषयभोगहेतुरागप्रधानां च। मोहिनीं शास्त्रीयज्ञानभ्रंशहेतुं प्रकृतिं स्वभावमाश्रिता एव भवन्ति। ततश्चत्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभः इत्युक्तनरकद्वारभागितया नरकयातनामेव ते सततमनुभवन्तीत्यर्थः।
।।9.12।।किंच -- मोघाशा इति। मत्तोऽन्यद्देवतान्तरं क्षिप्रं फलं दास्यतीत्येवंभूता मोघा निष्फलैवाशा येषां ते। अतएव मद्विमुखत्वान्मोघानि व्यर्थानि कर्माणि येषां ते। मोघमेव नानाकुतर्काश्रितं शास्त्रज्ञानं येषां ते। अतएव विचेतसो विक्षिप्तचित्ताः। सर्वत्र हेतुः। राक्षसीं तामसीं हिंसादिप्रचुराम् आसुरीं च राजसीं कामदर्पादिबहुलाम् मोहिनीं बुद्धिभ्रंशकरीं प्रकृतिं स्वभावं श्रिताः आश्रिताः सन्तो मामवजानन्तीति पूर्वेणान्वयः।
।।9.12।।मोघाशाः इति श्लोकेन प्रस्तुतस्य हेतुफले प्रतिपाद्येते। मोहिनीप्रकृत्याश्रयणं हि मोघाशत्वादौ हेतुरिति पूर्वमुत्तरार्धव्याख्या। राक्षसीं रक्षस्सम्बन्धिनीं तामसीं? आसुरीमसुरसम्बन्धिनीं राजसीं क्रोधलोभादिमयीमित्यर्थः प्रकृतिंस्वभावमित्यर्थः।यजन्ते सात्त्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः। भूतान् प्रेतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः [17।4]मन्ये त्वां राक्षसं क्रूरमथवा तामसात्मकम्। यस्मात्क्षिपसि गोविन्दं पाण्डवं च धनञ्जयम् इत्यादिष्विवेति द्रष्टव्यम्।मोहिनीम् इत्यनेन भगवत्परत्वतिरोधानादिकमभिप्रेतम्।मोघाशाः इति समासांशद्वयार्थकथनंमोघवाञ्छिता निष्फलवाञ्छिता इति। फलपर्यन्तकर्मस्वरूपासिद्ध्यभिप्रायेणमोघारम्भा इत्युक्तम्। उपक्रमप्रभृति निष्फलप्रवृत्तय इत्यर्थः। ज्ञानस्य मोघत्वं हि स्वाधीनप्रवृत्त्यभिमतफलराहित्यम्। तच्चायथार्थत्वनिबन्धनम्। तस्य चात्र विषयविशेषनिर्देशाभावाद्यथासम्भवं सर्वविषयत्वमुचितमित्यभिप्रायेणाहसर्वेष्विति। वैपरीत्यं च अस्वतन्त्रे स्वतन्त्रत्वम्? अन्यदीये स्वकीयत्वम्? अजडे नित्ये जडत्वानित्यत्वादिकम्? अस्थिरे स्थिरत्वमित्यादिकं द्रष्टव्यम्।मोघज्ञानाः इति ज्ञानविशेषस्य विहितत्वात्तत एव तत्कारणस्य च निषेद्धुमशक्यत्वात्विचेतसः इति निषेधस्तदतिरिक्तज्ञानपर इत्यभिप्रायेणाहसर्वत्र विगतयाथात्म्यज्ञाना इति। ननु मोघाशत्वादिकमसिद्धं? स्वर्गफलाद्यभिलषितसिद्धेः? तदुपायभूतयागादिषु यथार्थज्ञानाच्चेत्यत्राहमामिति। अत्र,यथार्थज्ञानाभावान्मोघज्ञानत्वम्? तत एव मोघाशत्वमोघारम्भत्वे इति क्रमः।
।।9.12।।तेषां मूढत्वं विशदयति -- मोघाशा इति। मोघाशाः मोघं निष्फलं असमर्पितान्नं केवलं देहपोषार्थं अश्नन्ति भक्षयन्तीति तथा। मोघं निष्फलमेव भगवत्सेवातिरिक्तकर्मकर्त्तारः। मोघज्ञानाः मोघं निष्फलं मोहकशास्त्रोक्तभगवत्स्वरूपज्ञानातिरिक्तज्ञानयुक्ताः। विचेतसः अव्यवस्थितमनसः। राक्षसीं स्वदेहपोषणरूपाम्। च पुनः। आसुरीं परोपद्रवकरणरूपां मोहिनीं मद्विस्मारिकां प्रकृतिमेव मायामेव स्वभावमाश्रिताः। अतएव मां मानुषीं तनुमाश्रितं ज्ञात्वा अवमन्यन्त इति पूर्वेणान्वयः।
।।9.12।।मदवज्ञानाच्च ते मोघाशाः वृथैव आशा आशिषो येषां ते मोघाशाः। तथा मोघकर्माणो निष्फलोद्योगाः। मोघज्ञानाः निष्फलज्ञानाः। यतो विचेतसो निर्विवेकाः। यतो राक्षसीमासुरीं च रजस्तमःप्रधानां मोहिनीं मोहकरीं प्रकृतिं श्रिताः। छिन्धि भिन्धि पिब खाद परस्वमपहरेत्येवंवादशीलाः क्रूरकर्माणो भवन्तीत्यर्थः।
।।9.12।।ततश्च तेषामनादरणेन तिरस्कारणएन निन्दया च हतानां सर्वपुरुषार्थभ्रष्टानां अतिक्षुद्राणां केनापि कापि प्रार्थना न सिध्यतीत्याह -- मोघाशा इति। माघो व्यर्था आशा आशिषस्तत्तद्वस्तुप्रार्थना येषां ते। ननु तेषां प्रार्थना अग्निहोत्रादिकर्मानुष्ठानात्सार्था भविष्यतीतिचेत् भगवन्तिमात्मानमवजानतामग्निहोत्रादिकर्मणां श्रममात्रत्वेन नैष्फल्यान्नेत्याह -- मोघकर्माण इति। मोघानि निष्पलान्येव श्रमहेतुभूतानि अग्निहोत्रादीनि कर्माणि येषां ते। तदुक्तम्धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासुः यः। नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् इति। ननु भगवन्तमवजानन्तोऽपि ज्ञानिनो दृश्यन्ते ज्ञानाच्च तेषां मोक्षप्रार्थना सार्था भविष्यतीतिचेत्। भगवदवज्ञानसहितस्य तस्य साक्षात्काराहेतुत्वेन मोक्षाहेतुत्वान्नेत्याह। मोघज्ञाना मोघं निष्फलं ज्ञानं येषां ते। तदुक्तंनैष्कर्म्यम्पयत्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जमनम्। कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे च चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् इति। विगतचेतसो विगतविवेकाश्चेति भाष्ये चो हेतौ। यतो भगवदवज्ञानेन कर्मादीनि निष्फलानि तद्भक्त्या तु सफलानीति विवेकशून्या अत एतादृशास्ते भवन्तीत्यभिप्रायः। किंच यतो राक्षसीं रक्षसां प्रकृतिं स्वभावं च्छिन्धि भिन्धि पिब खादेत्येवंरुपाम्? आसूरीमसुराणां च प्रकृतिं न देहि न जुहुधि परस्वमपहरेत्येवंरुपां मोहिनीं मोहकारीं देहात्माभिमानरुपां श्रिता आश्रिताः क्रूरकरर्माणस्ते भवन्ति अतोऽपि तेषामुक्तविशेषणवत्त्वमित्यर्थः। यद्वा किंच न केवलमुक्तविशेषणवत्त्वमेव तेषामपि तु एतादृशा अपीत्याह -- राक्षसीमिति। अथवा न केवलं वर्तमानदेह एवैतादृशाः किंतु वर्तमानदेहपातानन्तरमेतेषां तत्तदतिक्रूरयोनिप्राप्तिश्च निश्चितेत्याह -- राक्षसीमिति। तथाच श्रुतिःअसूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसा वृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये केचात्महनो जनाः इति।
9.12 मोघाशाः of vain hopes? मोघकर्माणः of vain actions? मोघज्ञानाः of vain knowledge? विचेतसः senseless? राक्षसीम् devilish? आसुरीम् undivine? च and? एव verily? प्रकृतिम् nature? मोहिनीम् deceitful? श्रिताः (are) possessed of.Commentary They entertain vain hopes? for there can be no hope in perishable forms. It is vain hope because they run after transient objects and miss the Eternal. It is vain action? because it is not performed by them as sacrifice unto the Lord. The Agnihotra (a ritual) and other actions performed by them are fruitless? because they insult the Lord. They are senseless. They have no,discrimination. They have no idea of the eternal Self. They worship their body only. They behold no self beyond the body. They neglect their own Self. They do atrocious crimes and cruel actions. They rob others property and murder people. They partake of the nature of the demons and the undivine beings.The Rakshasa are Tamasic and the Asuras are Rajasic.Prakriti means here Svabhava (ones own nature).They see the external human body only. They have no knowledge of the Self that dwells within the body. They do not behold God in the universe. They life for eating and drinking only.He who entertains hope of getting the rewards of actions through mere Karma alone? without the grace of the Lord is one of empty hope and empty deed. Karmas are insentient. They cannot give rewards independently. The omniscient Lord Who knows the relationship between Karmas and their fruits can dispense them. He who has obtained knowledge from books which do not admit of the existence of the Self and which do not speak of the Self is one of empty knowledge. This will not give any reward. That knowledge obtained through the study of spiritual books which treat of Brahman alone can give the reward. (Cf.VII.15XVI.6?20)
9.12 Of vain hopes, of vain actions, of vain knowledge and senseless, they verily are possessed of the deceitful nature of demons and undivine beings.
9.12 Their hopes are vain, their actions worthless, their knowledge futile; they are without sense, deceitful, barbarous and godless.
9.12 Of vain hopes, of vain actions, of vain knowledge, and senseless, they become verily possessed of the deceptive disposition of fiends and demons.
9.12 Moghasah, of vain hopes. So also, mogha-karmanah, of vain actions: their rites, such as Agnihotra etc. which are undertaken by them, verily become vain, fruitless actions, because of dishonouring the Lord, disregarding Him who is their own Self. In this way they are of vain actions. Similarly, mogha-jnanah, of vain knowledge: of fruitless knowledge; even their knowledge verily becomes useless. And vicetasah, senseless: i.e., they lose their power of discrimination. Besides, [Besides, in the next birth৷৷.] they become sritah, possessed of; the mohinim, self-deceptive, self-delusive; prakritim, disposition; raksasim, of fiends; and asurim, of demons-according to which the body is the Self; i.e., they become habitually inclined to act cruelly, saying, 'cut, break, drink, eat, steal others' wealth,' etc. [The habit to cut, break, drink, eat, etc. is characteristic of fiends. The habit of stealing others' wealth, etc. is characteristic of demons.] This is stated in the Sruti, 'Those worlds of devils (are covered by blinding darkness)' (Is. 3).
9.12. [They] are of futile aspirations, futile actions, futile knowledge and wrong intellect; and they take recourse only to the delusive nature that is demoniac and also devilish.
9.12 Mogha-etc. Their action, knowledge and aspirations are all futile, as these are concerned with the unreal. The demoniac and devilish nature etc. They are of the nature of excessive desire and ignorance.
9.12 Men yielding to the deluding nature characteristics of Asuras and Raksas and not aware of My higher nature like compassion etc. When I am in a human form, are possessed of vain hopes, i.e, their hopes remain fruitless, and their knowledge also is vain, i.e., is fruitless. They are so because of their erroneous understanding which fails to know that all things, mobile and immobile, belong to Me. They are ignorant on account of their being devoid of knowledge of truth everywhere. Whatever they do regarding Me, the Lord of all, is done with an attitude that I am an ordinary mortal. So their efforts go in vain. All this springs from their partaking of the nature of Raksasas and Asuras.
9.12 Senseless men entertain a nature which is deluding and akin to that of Raksasas (fiends) and Asuras (monsters). Their hopes are vain, acts are vain and knowledge is vain.
।।9.12।।क्योंकि --, वे मोघाशा -- जिनकी आशाएँ -- कामनाएँ व्यर्थ हों ऐसे व्यर्थ कामना करनेवाले और मोघकर्मा -- व्यर्थ कर्म करनेवाले होते हैं क्योंकि उनके द्वारा जो कुछ अग्निहोत्रादि कर्म किये जाते हैं वे सब अपने अन्तरात्मारूप भगवान्का अनादर करनेके कारण निष्फल हो जाते हैं। इसलिये वे मोघकर्मा होते हैं। इसके अतिरिक्त वे मोघज्ञानी -- निष्फल ज्ञानवाले होते हैं? अर्थात् उनका ज्ञान भी निष्फल ही होता है। और वे विचेता अर्थात् विवेकहीन भी होते हैं। तथा वे मोह उत्पन्न करनेवाली देहात्मवादिनी राक्षसी और आसुरी प्रकृतिका यानी राक्षसोंके और असुरोंके स्वभावका आश्रय करनेवाले हो जाते हैं। अभिप्राय यह कि तोड़ो? फोड़ो? पिओ? खाओ? दूसरोंका धन लूट लो इत्यादि वचन बोलनेवाले और बड़े क्रूरकर्मा हो जाते हैं। श्रुति भी कहती है कि वे असुरोंके रहने योग्य लोक प्रकाशहीन हैं इत्यादि।
।।9.12।। --,मोघाशाः वृथा आशाः आशिषः येषां ते मोघाशाः? तथा मोघकर्माणः यानि च अग्निहोत्रादीनि तैः अनुष्ठीयमानानि कर्माणि तानि च? तेषां भगवत्परिभवात्? स्वात्मभूतस्य अवज्ञानात्? मोघान्येव निष्फलानि कर्माणि भवन्तीति मोघकर्माणः। तथा मोघज्ञानाः मोघं निष्फलं ज्ञानं येषां ते मोघज्ञानाः? ज्ञानमपि तेषां निष्फलमेव स्यात्। विचेतसः विगतविवेकाश्च ते भवन्ति इत्यभिप्रायः। किञ्च -- ते भवन्ति राक्षसीं रक्षसां प्रकृतिं स्वभावम् आसुरीम् असुराणां च प्रकृतिं मोहिनीं मोहकरीं देहात्मवादिनीं श्रिताः आश्रिताः? छिन्द्धि? भिन्द्धि? पिब? खाद? परस्वमपहर? इत्येवं वदनशीलाः क्रूरकर्माणो भवन्ति इत्यर्थः? असुर्या नाम ते लोकाः (ई0 उ0 3) इति श्रुतेः।।ये पुनः श्रद्दधानाः भगवद्भक्तिलक्षणे मोक्षमार्गे प्रवृत्ताः --,
।।9.12।।किञ्च तेषां फलमित्यस्य परिहारो न दृश्यते अत आह -- तेषामिति। अनर्थत्वप्रदर्शनाय व्याचष्टे -- वृथेति। सम्पदादिप्राप्तिदर्शनात्कथमित्यत आह -- भगवदिति। युद्धादिकर्मणां साफल्यदर्शनात्कथं मोघकर्माणः इत्यत आह -- यज्ञादीति। ज्ञानं तत्त्वविषयं तेषां नास्त्येव? अतः कथं तस्य मोघत्वमुच्यते इत्यत आह -- ज्ञानं चेति। ज्ञानं च तेषां वृथैवेत्यस्य केनापीत्यर्थ इति सम्बन्धः। अनेन ज्ञानपदमुपलक्षणमिति चोक्तं भवति। न केवलं पुरुषार्थानवाप्तिः? अपितु दुःखावाप्तिश्चेति भावेन तत्र प्रमाणान्याह -- वक्ष्यति चेति। आ सम्यक् लोकान्तस्य चण्डालादेः। पुष्करविष्टराद्ये पद्मासनस्य पितरि। भ्रूणानन्तघ्नोऽनन्तभ्रूणघ्नः। यद्येवं? कथं तर्हि भागवतादौ भगवद्द्वेषस्य मोक्षसाधनत्ववचनम् इत्यत आह -- द्वेषादिति। तद्गतिं गता इति सम्बन्धः। वैरेण ध्यायन्तः यदीयगत्यादिभिराकृतधियः आकृष्टबुद्धयः। ये पूर्वं भक्ताः शिशुपालादयस्तद्विषये भवत्वेषा गतिः? न तु पौण्ड्रशाल्वादिविषये? अत आह -- नित्येति। भक्तप्रियत्वज्ञापनार्थमित्युक्तं विवृणोति -- स्वभक्तस्येति। इति भक्तप्रियत्वज्ञापनार्थमिति योजना।स्यादेतत्? यदि तेषां स्वतो भक्तत्वं शापबलादेव द्वेषित्वमित्येतत्प्रमितं स्यात् तदेव कुतः इत्यत आह -- भक्ता एव हीति। प्रसिद्धमेवैतत् भागवतादावित्यर्थः। कुतो वचनानामर्थान्तरकल्पनेति चेत्?यो द्विष्यात् इत्याद्युदाहृतवाक्याविरोधात्। हेत्वन्तरं चाह -- तत्प्रश्नेति।अहो अत्यद्भुतं ह्येतद्दुर्लभैकान्तिनामपि। वासुदेवे भगवति गतिश्चैद्यस्य विद्विषः [भाग.7।1।15] इति युधिष्ठिरेण द्वेषिणः कथं मुक्तिर्जातेत्येवंरूपे तद्विषये प्रश्ने कृते सति नारदेनमातृष्वसेयो वश्चैद्यो दन्तवक्त्रश्च पाण्डव। पार्षदप्रवरौ विष्णोर्विप्रशापात्पदच्युतौ [भाग.7।1।32] इति तदुत्तरत्वेन पूर्वपार्षदत्वादिकं कथ्यते। ततोऽपि द्वेषो न मोक्षसाधनमित्येततज्ज्ञायते। कथमित्यत आह -- अन्यथेति। यदि द्वेषो मोक्षसाधनं स्यात्तदा किमत्राद्भुतम् यतो द्वेषोऽप्येको मुक्तिमार्ग इत्युत्तरं वक्तव्यम्। पूर्वपार्षदत्वादिकं त्वप्रस्तुतमनुपयुक्तं न वक्तव्यं स्यादित्यर्थः। ननु नारदेननिन्दनस्तवसत्कारन्यक्वारार्थं [भाग.7।1।22] इत्यादिना भगवतो निन्दादौ साम्यमपि तदुत्तरत्वेन कथ्यते? यदि स्तुतेरिव निन्दाया तु मोक्षसाधनत्वं स्यात्तदा तदनुपयुक्तं न वक्तव्यमिति सत्प्रतिपक्षार्थापत्तिरित्यतोऽस्यान्यथोपपत्तिमाह -- भगवत इति। साम्यं निर्विकारत्वम्। भक्तानामपराधं भगवान्न गणयतीत्येतत्कुतः इत्यत आह -- नेति। द्वेषस्य मुक्तिसाधनत्वाभावेभावो यथा कथञ्चिच्चिन्तनं? भवस्य मोक्षस्य कारणम् इत्यादिवचनविरोधः स्यादित्यत आह -- न चेति। कुतो नेत्यत आह -- द्वेषेति। हि यस्मादेतद्वचनमिति युक्तं घटनोपेतं तस्मादित्यर्थः। यथोक्तम्यादृशी भावना ज्ञेया सिद्धिर्भवति तादृशी [ ] इति। प्रतीत एवार्थः किं न स्यात् इत्यत आह -- अन्यथेति। भगवद्द्वेषिणो मुक्तिभाजः तदाकृतधीत्वात्? भगवद्भक्तवत् इत्यनुमानविरोध इत्यत आह -- नचेति। उभयोराकृतधीत्वे सति फलेऽप्यविशेष इति च नेत्यर्थः। कुतः इत्यतः कालातीतत्वादित्याह -- तेषामेवेति। आकृतधीनामेव। विविक्षुर्वक्ष्यतीति सम्भावनाविषयः। आशङ्कायामचेतनेषूपसङ्ख्यानात्। मह्यं मम। ननु वचनत्वाविशेषात्यो द्विष्यात् इत्यादिभिःद्वेषाच्चेद्यादयः इत्यादीनां कथं बाधनं इत्यत आह -- बह्विति। निषेधो द्वेषस्य मुक्तिसाधनतायाः। न केवलं बहुत्वाबहुत्वरूपोऽनयोर्विशेषः। किन्तु स्वव्याहतत्वास्वव्याहतत्वरूपोऽपीत्याह -- यस्मिन्निति। भागवतादौ ग्रन्थेभगवन्निन्दया इत्यादिर्निषेधः।भगवद्गुणोत्कर्ष एव सर्ववेदानां यन्महातात्पर्यं तद्विरोधो द्वेषान्मुक्तिवाचिनाम्? इतरेषां तु तदानुकूल्यमिति च विशेष इति भावेनाह -- महातात्पर्येति। उक्तः उक्तप्रायः। इतोऽपि बाध्यबाधकभावो युक्त इति भावेन व्याप्तिं तावदाह -- अयुक्तिमद्भ्य इति। सप्तम्यर्थे मतुप्। ततः किमित्यत आह -- युक्तयश्चेति। महातात्पर्यविरोधश्चेत्यपेक्षया। अन्येषामनुकूलाः।अव्ययं विबुधश्रेष्ठम्पुष्करविष्टराद्ये इति। सावकाशत्वनिरवकाशत्वविशेषाच्चैवमित्याह -- न चेति। इतरेषां तूक्तैवेति शेषः। इतश्च बाध्यबाधकभावो युक्त इत्यभिप्रेत्य व्याप्तिं तावदाह -- साम्येऽपीति। गुणान्तरेण साम्येऽपीति कैमुत्यार्थं लोकानुकूलशब्देन,लोकदृष्टव्याप्तिकानुमानानुकूलत्वमुच्यते। ततः किमित्यत आह -- लोकेति। इतरद्द्वेषिप्रियत्वं भगवत्प्रीत्यैव मोक्ष इति तु प्रसिद्धमेव। शिशुपालादीनां पूर्वभक्तत्वं प्रसिद्धमित्युक्तम्? तत्कथमिति चेत्? पार्षदत्वात्? वचनाच्चेत्याह -- उक्तं चेति। त्रयाणां लोकानामधीशे। संरम्भेण मार्गमात्रेणाभिनिविष्टचित्तान्। उपसंहरति -- अत इति। गतिः सद्गतिः। स्वमौढ्यादेव मामवजानन्ति। न मद्दोषात्तेषां न महाननर्थ इति सर्वं समाहितम्। राक्षसीमित्यादि तु किमर्थं इत्यत आह -- द्वेषेति। मौढ्यान्मिथ्याज्ञानं भवतु? प्रज्वलनात्मको द्वेषस्तु कुतः इत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमिति शेषः। अन्येषामविद्यमानं मौढ्यमेव तेषां कुतः इत्याशङ्कानिरासार्थमिति वा। अत्र कारणमिति मूलकारणम्।
।।9.12।।तेषां फलमाह -- मोघाशा इति। वृथाशाः? भगवद्वेषिभिराशासितं न किञ्चिदाप्यते। यज्ञादिकर्माणि च वृथैव तेषां? ज्ञानं च। केनापि ब्रह्मरुद्रादिभक्त्याद्युपायेन न कश्चित् पुरुषार्थ आमुष्मिकस्तैराप्यत इत्यर्थः। वक्ष्यति चतानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् [16।16] इत्यादि। मोक्षधर्मे च [म.भा.12।346।6?7]कर्मणा मनसा वाचा यो द्विष्याद्विष्णुमव्ययम्। मज्जन्ति पितरस्तस्य नरके शाश्वतीः समाः। यो द्विष्याद्विबुधश्रेष्ठं देवं नारायणं हरिम्। कथं स न भवेद्वेष्य आलोकान्तस्य (आत्मा लोकस्य) कस्यचित् इति। सर्वोत्कृष्टे ज्ञानभक्ती हि यस्य नारायणे पुष्करविष्टराद्ये। सर्वावमे द्वेषयुतश्च तस्मिन्भ्रूणानन्तघ्नोऽस्य समो न चैव इति सामवेदे शाण्डिल्यशाखायाम्।द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः [भाग.7।1।30]वैरणं यं नृपतयः शिशुपालपौण्ड्रशाल्वादयो गतिविलासविलोकनाद्यैः। ध्यायन्त आकृतधियः शयनासनादौ तत्साम्यमीयुरनुरक्तधियः पुनः किम् [11।5।48] इति भागवते। भक्तिप्रियत्वज्ञापनार्थं नित्यध्यानस्तुत्यर्थं च? स्वभक्तस्य कदाचिच्छापबलात् द्वेषिणोऽपि भक्तिफलमेव भगवान्ददातीति।भक्ता एव हि ते पूर्वं शिशुपालादयः शापबलात् द्वेषिणः। तत्प्रश्नपूर्वं पार्षदत्वशापादिकथनाच्चैतज्ज्ञायते। अन्यथा किमिति तदप्रस्तुतमुच्यते। भगवतः साम्यकथनं तु द्वेषिणामपि द्वेषमनिरूप्य पूर्वतनभक्तिफलमेव ददातीति ज्ञापयितुम्।न मे भक्तः प्रणश्यति [9।31] इति वक्ष्यति। न चभावो हि भवकारणं इत्यादिविरोधः। द्वेषभाविनां द्वेष एव भवतीति हि युक्तम्। अन्यथा गुरुद्वेषिणामपि गुरुत्वं भवतीत्यनिष्टमापद्येत। न चाकृतधीत्वे विशेषः? तेषामेव हिरण्यकशिप्वादीनां पापप्रतीतेः।हिरण्यकशिपुश्चापि भगवन्निन्दया तमः। विविक्षुरत्यगात्सूनोः प्रह्लादस्यानुभावतः [भाग.4।21।47] इति।यदनिन्दत्पिता मह्यं (मे त्वां) इत्यारभ्यतस्मात्पिता मे पूयेत दुरन्ताद्दुस्तरादघात् [भाग.7।10।1517] इति प्रह्लादेन भगवतो वरयाचनाच्च। बहुषु ग्रन्थेषु च निषेधः। कुत्रचिदेव तदुक्तिरिति विशेषः। यस्मिंस्तदुच्यते तत्रैव निषेध उक्तः।महातात्पर्यविरोधश्चोक्तः पुरस्तात्। अयुक्तिमद्भ्यो युक्तिमन्त्येव बलवन्ति वाक्यानि। युक्तयश्चोक्ता अन्येषाम्। न चैषां काचिद्गतिः। साम्येऽपि वाक्ययोर्लोकानुकूलाननुकूलयोर्लोकानुकूलमेव बलवत्। लोकानुकूलं भक्तप्रियत्वं च नेतरत्। उक्तं च तेषां भक्तत्वम्।मन्ये सुरान्भागवतांस्त्र्यधीशे संरम्भमार्गाभिनिविष्टचित्तान् [भाग.3।1।24] इत्यादि। अतो न भगवद्वेषिणां काचिद्गतिरिति सिद्धम्। द्वेषकारणमाह -- राक्षसीमिति।
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः। राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।9.12।।
মোঘাশা মোঘকর্মাণো মোঘজ্ঞানা বিচেতসঃ৷ রাক্ষসীমাসুরীং চৈব প্রকৃতিং মোহিনীং শ্রিতাঃ৷৷9.12৷৷
মোঘাশা মোঘকর্মাণো মোঘজ্ঞানা বিচেতসঃ৷ রাক্ষসীমাসুরীং চৈব প্রকৃতিং মোহিনীং শ্রিতাঃ৷৷9.12৷৷
મોઘાશા મોઘકર્માણો મોઘજ્ઞાના વિચેતસઃ। રાક્ષસીમાસુરીં ચૈવ પ્રકૃતિં મોહિનીં શ્રિતાઃ।।9.12।।
ਮੋਘਾਸ਼ਾ ਮੋਘਕਰ੍ਮਾਣੋ ਮੋਘਜ੍ਞਾਨਾ ਵਿਚੇਤਸ। ਰਾਕ੍ਸ਼ਸੀਮਾਸੁਰੀਂ ਚੈਵ ਪ੍ਰਕਰਿਤਿਂ ਮੋਹਿਨੀਂ ਸ਼੍ਰਿਤਾ।।9.12।।
ಮೋಘಾಶಾ ಮೋಘಕರ್ಮಾಣೋ ಮೋಘಜ್ಞಾನಾ ವಿಚೇತಸಃ. ರಾಕ್ಷಸೀಮಾಸುರೀಂ ಚೈವ ಪ್ರಕೃತಿಂ ಮೋಹಿನೀಂ ಶ್ರಿತಾಃ৷৷9.12৷৷
മോഘാശാ മോഘകര്മാണോ മോഘജ്ഞാനാ വിചേതസഃ. രാക്ഷസീമാസുരീം ചൈവ പ്രകൃതിം മോഹിനീം ശ്രിതാഃ৷৷9.12৷৷
ମୋଘାଶା ମୋଘକର୍ମାଣୋ ମୋଘଜ୍ଞାନା ବିଚେତସଃ| ରାକ୍ଷସୀମାସୁରୀଂ ଚୈବ ପ୍ରକୃତିଂ ମୋହିନୀଂ ଶ୍ରିତାଃ||9.12||
mōghāśā mōghakarmāṇō mōghajñānā vicētasaḥ. rākṣasīmāsurīṅ caiva prakṛtiṅ mōhinīṅ śritāḥ৷৷9.12৷৷
மோகாஷா மோககர்மாணோ மோகஜ்ஞாநா விசேதஸஃ. ராக்ஷஸீமாஸுரீஂ சைவ ப்ரகரிதிஂ மோஹிநீஂ ஷ்ரிதாஃ৷৷9.12৷৷
మోఘాశా మోఘకర్మాణో మోఘజ్ఞానా విచేతసః. రాక్షసీమాసురీం చైవ ప్రకృతిం మోహినీం శ్రితాః৷৷9.12৷৷
9.13
9
13
।।9.13।। परन्तु हे पृथानन्दन ! दैवी प्रकृतिके आश्रित अनन्यमनवाले महात्मालोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं।
।।9.13।। हे पार्थ ! परन्तु दैवी प्रकृति के आश्रित महात्मा पुरुष मुझे समस्त भूतों का आदिकारण और अव्ययस्वरूप जानकर अनन्यमन से युक्त होकर मुझे भजते हैं।।
।।9.13।। किसी तर्क को समझाने के लिए प्राय भगवान् श्रीकृष्ण दो परस्पर विरोधी तथ्यों को एक स्थान पर ही बताने की शैली अपनाते हैं? जिससे एक दूसरे की पृष्ठभूमि में दोनों का स्पष्ट ज्ञान हो सके। प्रथम श्लोक में उन मोहित पुरुषों का वर्णन है? जो अपनी निम्न स्तर की प्रवृत्तियों का अनुकरण करते हैं। दूसरे श्लोक में उन महात्मा पुरुषों का चित्रण किया गया है? जो समस्त दिव्य गुणों से सम्पन्न होते हैं। झूठी आशाओं से मोहित होकर उनकी पूर्ति के लिए व्यर्थ के निकृष्ट कर्मों से थके हुए मूढ़ लोग विचार करने में सर्वथा भ्रमित और विचलित हो जाते हैं। ऐसे लोग जगत् की ओर देखने के दैवी दृष्टिकोण को खोकर अपने कर्मों में राक्षसी बन जाते हैं? और समस्त कालों में अपने कामुक और आसुरी स्वभाव का ही प्रदर्शन करते हैं। रावण की परम्परा वाले इन लोगों को ही यहाँ राक्षस और असुर कहा गया है।वर्तमान में किये गये कर्म मनुष्य के मन में अपनी वासनाएं उत्पन्न करते हैं? जिसके अनुरूप ही उस मनुष्य की इच्छाएं और विचार होते हैं। वृथा और निषिद्ध कर्मों से नकारात्मक वासनाओं की ही वृद्धि होती है जो मन्दबुद्धि पुरुष की बुद्धि की जड़ता को और अधिक स्थूल कर देती हैं। ज्ञानी की दृष्टि में? मिथ्यात्व और अशुद्धता की इस खाई में रहने वाला मनुष्य एक दैत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।राक्षसी संस्कृति के इन लोगों के विपरीत? दैवी स्वभाव के महात्मा पुरुष होते हैं। दूसरा श्लोक हमें दर्शाता है कि इन ज्ञानी पुरुषों का अनुभव और कर्म किस प्रकार का होता है। इन दोनों के दर्शाये अन्तर से आत्मोन्नति के साधक को चाहिए कि वे कर्मों में सही भावना और जगत् की ओर देखने के सही दृष्टिकोण को अपनायें।दैवी गुणों से सम्पन्न महात्मा पुरुष अनन्यभाव से मुझ अनन्त अमृतस्वरूप का ही साक्षात्कार चाहते हैं। वे जानते हैं कि मैं भूतमात्र का आदिकारण हूँ जो लोग मिट्टी को जानते हैं? वे मिट्टी के बने सभी घटों में मिट्टी को देख पाते हैं। इसी प्रकार? हिन्दू संस्कृति ऋ़े वे सच्चे सुपुत्र जो इस चैतन्य आत्मा को जगत् के आदिकारण के रूप में जानते हैं? समाज के अन्य व्यक्तियों को अपने समान ही देखते और उनका आदर करते हैं। सम्पूर्ण विश्व में इससे अधिक महान् और प्रभावशाली समाजवाद न कभी पढ़ाया गया है और न प्रचारित ही किया गया है। यदि वर्तमान पीढ़ी इस आध्यात्मिक समाजवाद को समझ नहीं पाती या पसंद नहीं करती हैं? जो कि वास्तव में विश्व की समस्त व्याधियों और बुराइयों की? एकमात्र रामबाण औषधि है? तो उसका कारण पूर्व के श्लोक में ही वर्णित है कि? लोग आसुरी और राक्षसी प्रकृति के वशात् मोहित हुए हैं।महात्मा पुरुष अनन्य भाव से आपको किस प्रकार भजते हैं
।।9.13।। व्याख्या--'महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः'--पूर्वश्लोकमें जिन आसुरी, राक्षसी और मोहिनी स्वभावके आश्रित मूढ़लोगोंका वर्णन किया था, उनसे दैवी-सम्पत्तिके आश्रित महात्माओंकी विलक्षणता बतानेके लिये ही यहाँ 'तु' पद आया है।
।।9.13 -- 9.14।।महात्मान इत्यादि विश्वतोमुखमित्यन्तम्। दैवीं? सात्विकीम्। यजन्तः? बाह्यद्रव्यादियागैः। अन्ये तु मा ज्ञानयज्ञेनैवोपासते। अतः केचित् एकतया ज्ञानतः? केचित् बहुधा? कर्मयोगात्। मत्परा एव सर्वे।
।।9.13।।ये तु स्वकृतैः पुण्यसञ्चयैः मां शरणम् उपगम्य विध्वस्तसमस्तपापबन्धाः दैवीं प्रकृतिम् आश्रिताः महात्मानः ते? भूतादिम् अव्ययं वाङ्मनसागोचरनामकर्मस्वरूपं परमकारुणिकतया साधुपरित्राणाय मनुष्यत्वेन अवतीर्णं मां ज्ञात्वा अनन्यमनसः मां भजन्ते मत्प्रियत्वातिरेकेण मद्भजनेन विना मनसः च आत्मनः च बाह्यकरणानां च धारणम् अलभमानाः? मद्भजनैकप्रयोजनाः भजन्ते।
।।9.13।।के पुनर्भगवन्तं भजन्ते तानाह -- ये पुनरिति। महान्प्रकृष्टो यज्ञादिभिः शोधित आत्मा सत्त्वं येषामिति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- अक्षुद्रेति। तुशब्दोऽवधारणे। प्रकृतिं विशिनष्टि -- शमेति। अनन्यस्मिन् प्रत्यग्भूते मयि परस्मिन्नेव मनो येषामिति व्युत्पत्त्या व्याकरोति -- अनन्यचित्ता इति। अज्ञाते सेवानुपपत्तेः शास्त्रोपपत्तिभ्यामादौ ज्ञात्वा ततः सेवन्त इत्याह -- ज्ञात्वेति। अव्ययमविनाशिनम्।
।।9.13।।महात्मान इति। महात्मानस्तु मां भजन्ते। एते भगवदीया दैवाः प्रतीयन्तेसात्त्विका भगवद्भक्ता ये मुक्तावधिकारिणः। भवान्तसम्भवा दैवास्तेषामर्थे निरूप्यते इति भगवन्मुखोक्त्याशयात्। तथाहिदैवीं प्रकृतिमाश्रिताः इतिअभयं सत्त्वसंशुद्धिः [16।1] इत्यादिना वक्ष्यमाणां दैवस्वभावरूपां समन्तात् श्रिताः दैवाः जन्मजन्मान्तरकृतानेकसुकृतसञ्चयैर्मां शरणमुपागम्य विध्वस्तपापा अन्तिमजन्मनि सम्भूता महात्मशब्देनोच्यन्तेऽतएव मुक्तावधिकारिणः येषां सत्त्वसंशुद्धिरिति सात्विका मां भजन्ति? न कदाचिदवजानन्ति सर्वभूतादिमव्ययं सर्वकारणभूतमविकृतमानन्दमात्रकरपादमुखोदरादिं ज्ञात्वा भगवन्मार्गीयाचार्यचरणोपदेशानुसारेण भजन्ति पुरुषोत्तमं मामेव। नान्यस्मिन्नक्षरादौ मनो येषामित्यनन्यभावेन भजनमुक्तम्।
।।9.13।।भगवद्विमुखानां फलकामनायास्तत्प्रयुक्तस्य नित्यनैमित्तिककाम्यकर्मानुष्ठानस्य तत्प्रयुक्तस्य शास्त्रीयज्ञानस्य च वैयर्थ्यात्पारलौकिकफलतत्साधनशून्यास्ते। नाप्यैहलौकिकं किंचित्फलमस्ति तेषां विवेकविज्ञानशून्यतया। विचेतसो हि ते। अतः सर्वपुरुषार्थबाह्याः शोच्या एव सर्वेषां ते वराका इत्युक्तम्। अधुना के सर्वपुरुषार्थभाजोऽशोच्याः ये भगवदेकशरणा इत्युच्यते -- महाननेकजन्मकृतसुकृतैः संस्कृतः क्षुद्रकामाद्यनभिभूत आत्मान्तःकरणं येषां ते अतएवअभयं सत्त्वसंशुद्धिः इत्यादिवक्ष्यमाणां दैवीं सात्त्विकीं प्रकृतिमाश्रिताः। अतएवान्यस्मिन्मद्व्यतिरिक्ते नास्ति मनो येषां ते। भूतादिं सर्वजगत्कारणमव्ययमविनाशिनं च,मामीश्वरं ज्ञात्वा भजन्ति सेवन्ते।
।।9.13।। के तर्हि त्वामाराधयन्तीत्यत आह -- महात्मानस्त्विति। महात्मानः कामाद्यनभिभूतचित्ताः यतोऽभयं सत्त्वसंशुद्धिरित्यादिना वक्ष्यमाणां दैवीं प्रकृतिं स्वभावमाश्रिताः। अतएव मद्व्यतिरेकेण नास्त्यन्यस्मिन्मनो येषां ते भूतादिं जगत्कारणमव्ययं नित्यं च मां ज्ञात्वा भजन्ति।
।।9.13।। एवमवज्ञाप्रवृत्तमूढभूयिष्ठे लोके निष्फलस्तवावतार इति शङ्कायामवतारसाफल्यकारिणां महात्मनां वृत्तकथनव्याजेन भक्तिं प्रसञ्जयति -- महात्मानस्त्विति। महात्मशब्देन तुशब्देन च सिद्धं भजनौपयिकमतिशयं दर्शयन् उद्देश्योपादेयांशं च विभजतेये त्विति।जनाः सुकृतिनः [7।16]मामेव ये प्रपद्यन्ते [7।14] इत्यादि प्रागुक्तं प्रतिसन्धापयतिस्वकृतैः पुण्यसञ्चयैर्मां शरणमुपगम्येति। दैवीं सात्त्विकीम्।भूतादिं इत्यनेनाशक्यापादानपरत्वं विवक्षितमित्याहवाङ्मनसेति।माम् इत्यनेनावतारपर्यवसितं सौलभ्यं सहेतुकमाहपरमकारुणिकतयेति। अवतारस्य दयादिमूलकत्वेन कर्ममूलत्वाभावाज्ज्ञानसङ्कोचाद्यभावोऽव्ययशब्देनोच्यते। अनन्यमनस्त्वं सहेतुकं विवृणोतिमत्प्रियत्वेति। अतोऽप्यार्ताद्यधिकार्यन्तरव्यवच्छेदार्थत्वादनन्यप्रयोजनत्वविवक्षाऽत्रोचितामत्प्रियत्वेति। पार्थशब्देनेन्द्रसूनुस्त्वमपि दैवप्रकृतिरिति सूचितम्।
।।9.13।।एवमासुराणां स्वाज्ञानमुक्त्वा देवानां स्वज्ञानमाह -- महात्मानस्त्विति। हे पार्थ भक्तस्वरूपश्रवणैकयोग्य महात्मानस्तु महान् अहमेव आत्मा येषां ते महात्मानः। तुशब्दः प्रकरणान्तरज्ञापनाय। तदेवाह -- दैवीं क्रीडात्मिकां देवरूपां वा प्रकृतिं स्वभावं आश्रिताः। अनन्यमनसः न विद्यते अन्यत्र मद्व्यतिरिक्ते मनो येषां ते मां भूतादिं सकलजगत्कारणं अव्ययं नित्यं यथार्थरूपं ज्ञात्वा भजन्ति।
।।9.13।।तथा ये महात्मानोऽक्षुद्रचित्ताः। तु पूर्वेभ्योऽत्यन्तं विलक्षणाः मां भजन्ति। यतो दैवीं प्रकृतिं सत्वप्रधानामाश्रिताः। अनन्यमनसः एकाग्रचेतसः। किं गतानुगतिकतया दम्भेन वा भजन्ति। न। किं तर्हि मां भूतादि सर्वभूतकारणमव्ययं ज्ञात्वा मत्वा भजन्ति।
।।9.13।।के पुनस्त्वां भजन्त इति तत्राह -- महात्मान इति। तुशब्दोऽवधारणार्थः। पूर्वेभ्योऽयन्तवैलक्षण्यद्योतनार्थ इति वा। ये पुनः श्रद्दधाना भगवद्भक्तिलक्षणे मोक्षामार्गे प्रवृत्ताः महान्प्रकृष्टोऽनेकजन्मार्जतयज्ञदानादितिः शोधित आत्मा चित्तं येषां तेऽक्षुद्रचित्ताः। अतए दैवीं प्रकृतिं शमदमदयाश्रद्धादिलक्षणामाश्रिताः सन्तो मां परमेश्वरं भूतानामाकाशादीनामादिं कारणम्। ननु यदि दधिकारणदुग्धवत् वियदातिरुपेण परिणतत्वात् भूतादिः परमेश्वरस्तर्हि परिणामी स्यादित्याशङ्क्य शुक्तिरुप्यस्य शुक्तिरिव कारणमतः परिणामशून्योऽविनाशीत्याह -- अव्यमिति। ज्ञात्वाऽनन्यमनसः अन्यस्मिन्परमेश्वराद्य्वतिरिक्ते विषयातौ न विद्यते मनो येषां ते? अनन्यस्मिन्प्रत्यगभिन्ने मनो येषामिति वा ते अनन्यमनसः सन्तो मां भजन्ति सेवन्ते। पार्थेति संबोधयन् त्वं त्वतिपुण्यशीलायाः पृथाया अपत्यत्वान्महात्मत्वादिविशेषणविशिष्टोऽसीति सूचयति।
9.13 महात्मानः great souls? तु but? माम् Me? पार्थ O Partha? दैवीम् divine? प्रकृतिम् nature? आश्रिताः refuged (in)? भजन्ति worship? अनन्यमनसः with a mind devoted to nothing else? ज्ञात्वा having known? भूतादिम् the source of beings? अव्ययम् imperishable.Commentary Jnatva Bhutadimavyayam There is another interpretation -- knowing Me to be the source or the origin of beings and imperishable.Daivim Prakritim Divine or Sattvic nature. Those who are endowed with divine nature? and who possess selfrestraint? mercy? faith? purity? etc.Mahatmanah Or? the highsouled ones are those whose pure minds have been made by Me? as My special abode. I dwell in the pure minds of the highsouled ones. They have sincere devotion to Me. Those who possess divine Sattvic nature? who are endowed with a pure mind? and who have knowledge of the Self are Mahatmas.Bhutas All living beings? as well as the five elements.
9.13 But the great souls, O Arjuna, partaking of My divine nature, worship Me with a single mind (with the mind devoted to nothing else), knowing Me as the imperishable source of beings.
9.13 But the Great Souls, O Arjuna! Filled with My Divine Spirit, they worship Me, they fix their minds on Me and on Me alone, for they know that I am the imperishable Source of being.
9.13 O son of Prtha, the noble ones, being possessed of divine nature, surely adore Me with single-mindedness, knowing Me as the immutable source of all objects.
9.13 On the other hand, O son of Prtha, those mahat-manah, noble ones-who are not small-mined, who are imbued with faith, and who have set out on the path of Liberation, which is characerized by devotion to God; being asritah, possessed of; daivim, divine; prakrtim, nature-distinguished by mental and physical control, kindness, faith, etc.; tu, surely; bhajante, adore; mam, Me, God; ananya-manasah, with single-mindedness; jnatva, knowing Me; as the avyayam, immutable; bhutadim, source of all objects, of space etc. (i.e. th five elements) as well as of living beings. How?
9.13. O son of Prtha ! The great-souledmen, however, taking hold of the divine nature and having nothing else in their mind, adore Me by viewing Me as the imperishable prime cuase of beings.
9.13 See Comment under 9.15
9.13 Those who, through their multitude of good acts, have taken refuge in Me and have been thery released from the bondage of evil - they understand My divine nature. They are high-souled. Knowing Me to be the immutable source of all beings, namely, as the Lord whose name, acts and nature are beyond thought and speech, and who has descended in a human form out of supreme compassion to rescue the good, - they worship Me with un unswerving mind. As I am extremely dear to them, without worshipping Me they are unable to find support for their mind, self and external organs. Thus they become devoted to Me as their sole object.
9.13 But the great-souled ones, O Arjuna, who are associated with My divine nature, worship Me with unwavering mind, knowing Me to be the immutable source of beings.
।।9.13।।परन्तु जो श्रद्धायुक्त हैं और भगवद्भक्तिरूप मोक्षमार्गमें लगे हुए हैं वे --, हे पार्थ शम? दम? दया? श्रद्धा आदि सद्गुणरूप देवोंके स्वभावका अवलम्बन करनेवाले उदारचित्त महात्मा भक्तजन? मुझ ईश्वरको सब भूतोंका अर्थात् आकाशादि पञ्चभूतोंका और समस्त प्राणियोंका भी आदिकारण जानकर? एवं अविनाशी समझकर? अनन्य मनसे युक्त हुए भजते हैं अर्थात् मेरा चिन्तन किया करते हैं।
।।9.13।। --,महात्मानस्तु अक्षुद्रचित्ताः माम् ईश्वरं पार्थ दैवीं देवानां प्रकृतिं शमदमदयाश्रद्धादिलक्षणाम् आश्रिताः सन्तः भजन्ति सेवन्ते अनन्यमनसः अनन्यचित्ताः ज्ञात्वा भूतादिं भूतानां वियदादीनां प्राणिनां च आदिं कारणम् अव्ययम्।।कथम् -- --,
।।9.13।।ननु कुतोऽयं विवेकः इत्याकाङ्क्षायां राक्षसादिभ्य इतरे न द्विषन्तीत्येतावदव वक्तव्यम्। भजन्तीत्यादि तु व्यर्थं इत्यत आह -- नेतर इति। सत्यमेतत् तथापि देवानां स्वरूपकथनार्थमेतत्। तच्च द्वेषाभावोपपादनार्थमिति भावः। देवानित्युत्तमजीवोपलक्षणम्।
।।9.13।।नेतरे द्विषन्तीति दर्शयितुं देवानाह -- महात्मान इति।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।9.13।।
মহাত্মানস্তু মাং পার্থ দৈবীং প্রকৃতিমাশ্রিতাঃ৷ ভজন্ত্যনন্যমনসো জ্ঞাত্বা ভূতাদিমব্যযম্৷৷9.13৷৷
মহাত্মানস্তু মাং পার্থ দৈবীং প্রকৃতিমাশ্রিতাঃ৷ ভজন্ত্যনন্যমনসো জ্ঞাত্বা ভূতাদিমব্যযম্৷৷9.13৷৷
મહાત્માનસ્તુ માં પાર્થ દૈવીં પ્રકૃતિમાશ્રિતાઃ। ભજન્ત્યનન્યમનસો જ્ઞાત્વા ભૂતાદિમવ્યયમ્।।9.13।।
ਮਹਾਤ੍ਮਾਨਸ੍ਤੁ ਮਾਂ ਪਾਰ੍ਥ ਦੈਵੀਂ ਪ੍ਰਕਰਿਤਿਮਾਸ਼੍ਰਿਤਾ। ਭਜਨ੍ਤ੍ਯਨਨ੍ਯਮਨਸੋ ਜ੍ਞਾਤ੍ਵਾ ਭੂਤਾਦਿਮਵ੍ਯਯਮ੍।।9.13।।
ಮಹಾತ್ಮಾನಸ್ತು ಮಾಂ ಪಾರ್ಥ ದೈವೀಂ ಪ್ರಕೃತಿಮಾಶ್ರಿತಾಃ. ಭಜನ್ತ್ಯನನ್ಯಮನಸೋ ಜ್ಞಾತ್ವಾ ಭೂತಾದಿಮವ್ಯಯಮ್৷৷9.13৷৷
മഹാത്മാനസ്തു മാം പാര്ഥ ദൈവീം പ്രകൃതിമാശ്രിതാഃ. ഭജന്ത്യനന്യമനസോ ജ്ഞാത്വാ ഭൂതാദിമവ്യയമ്৷৷9.13৷৷
ମହାତ୍ମାନସ୍ତୁ ମାଂ ପାର୍ଥ ଦୈବୀଂ ପ୍ରକୃତିମାଶ୍ରିତାଃ| ଭଜନ୍ତ୍ଯନନ୍ଯମନସୋ ଜ୍ଞାତ୍ବା ଭୂତାଦିମବ୍ଯଯମ୍||9.13||
mahātmānastu māṅ pārtha daivīṅ prakṛtimāśritāḥ. bhajantyananyamanasō jñātvā bhūtādimavyayam৷৷9.13৷৷
மஹாத்மாநஸ்து மாஂ பார்த தைவீஂ ப்ரகரிதிமாஷ்ரிதாஃ. பஜந்த்யநந்யமநஸோ ஜ்ஞாத்வா பூதாதிமவ்யயம்৷৷9.13৷৷
మహాత్మానస్తు మాం పార్థ దైవీం ప్రకృతిమాశ్రితాః. భజన్త్యనన్యమనసో జ్ఞాత్వా భూతాదిమవ్యయమ్৷৷9.13৷৷
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।।9.14।। नित्य- (मेरेमें) युक्त मनुष्य दृढ़व्रती होकर लगनपूर्वक साधनमें लगे हुए और भक्तिपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा नमस्कार करते हुये निरन्तर मेरी उपासना करते हैं।
।।9.14।। सतत मेरा कीर्तन करते हुए, प्रयत्नशील, दढ़व्रती पुरुष मुझे नमस्कार करते हुए, नित्ययुक्त होकर भक्तिपूर्वक मेरी उपासना करते हैं।।
।।9.14।। पूर्व श्लोक में महात्माओं का वर्णन करते समय? ज्ञानमार्ग का संकेत किया गया था। अब यहाँ? आत्मसंगठन एवं आत्मविकास के दो अन्य मुख्य मार्ग बताये गये हैं अनन्य भक्ति और यज्ञ भावना से किये जाने वाले निष्काम कर्म।सतत मेरी कीर्ति का गान करते हुए सामान्यत कीर्तन के नाम पर बेसुरे वाद्यों के साथ समान रूप से बेसुरी आवाज में लोग उच्च स्वर से भजन कीर्तन करते हैं यह कीर्तन का अत्यन्त विकृत रूप है। कीर्तन का आशय इससे कहीं अधिक पवित्र है। वास्तव में? श्रद्धाभक्ति पूर्वक अपने आदर्श ईश्वर की पूजा करना और उनके यशकीर्तिप्रताप का गान करना? उस मन की मौन क्रिया है जो विकसित होकर अपने आदर्श को सम्यक् रूप से समझता है तथा जिनका गौरव गान करना उसने सीखा हैं। अनेक लोग दिनभर संदिग्ध कार्यों में व्यस्त रहते हुए रात्रि में किसी स्थान पर एकत्र होकर उच्च स्वर में कुछ समय तक भजनकीर्तन करते हैं और तत्पश्चात् उन्हीं अवगुणों के कार्य क्षेत्रों में पुन लौट जाते हैं। इन लोगों के कीर्तन की अपेक्षा सामाजिक कार्यकर्ताओं की समाज सेवा और ज्ञानी पुरुष के हृदय में प्राणिमात्र के लिये उमड़ता प्रेम ईश्वर का अधिक श्रेष्ठ और प्रभावशाली कीर्तन है।यतन्तश्च दृढ़व्रता (दृढ़निश्चय से प्रयत्न करते हुए) ये कुछ सरल एवं सामान्य तर्कसंगत तथ्य हैं जिन पर साधारणत ध्यान नहीं दिया जाता और परिणाम स्वरूप साधकगण अपने ही हाथों अपनी आध्यात्मिक सफलता का शवागर्त खोदते हैं। अधिकतर लोगों का धारणा यह होती हैं कि सप्ताह में किसी एक दिन केवल शरीर से यन्त्र के समान पूजनअर्चन? व्रतउपवास आदि करने मात्र से धर्म के प्रति उनका उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है। उन्हें इतना करना ही पर्याप्त प्रतीत होता है। फिर शेष कार्य उनके काल्पनिक देवताओं का है? जो साधना के फल को तैयार करके इनके सामने लायें? जिससे ये लोग उसका भोग कर सकें इस विवेकहीन? अन्धश्रद्धाजनित धारण्ाा का आत्मोन्नति के विज्ञान से किञ्चित् मात्र संबंध नहीं है। वास्तव में धर्म तो तत्त्वज्ञान का व्यावहारिक पक्ष है।यदि कोई व्यक्ति वर्तमान जीवन एवं रहनसहन सम्बन्धी गलत विचारधारा और झूठे मूल्यांकन की लीक से हटकर आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर होना चाहता हो? तो उसके लिए सतत और सजग प्रयत्न अनिवार्य है। जीवन में जो असामंजस्य वह अनुभव करता है? और उसके मन की वीणा पर जीवन की परिस्थितियाँ जिन वर्जित स्वरों की झनकार करती हैं इन सब के कारण उसके अनुभवों के उपकरणों (इन्द्रियाँ? मनबुद्धि) की अव्यवस्था है। उन्हें पुर्नव्यवस्थित करने के लिए अखण्ड सावधानी? निरन्तर प्रयत्न और दृढ़ लगन की आवश्यकता है। इस प्रकार आत्मोद्धार के लिए प्रयत्न करते समय? शारीरिक कामवासनाओं को उद्दीप्त करने वाले प्रलोभन साधक के पास आकर कानाफूसी करके उसे निषिद्ध फल को खाने के लिए प्रेरित करते हैं? परन्तु ऐसे प्रबल प्रलोभनों के क्षणों में उसे मिथ्या का त्याग करने का और सत्य के मार्ग पर स्थिरता से चलने का दृढ़ निश्चय करना चाहिए।विशुद्ध प्रेम ही वास्तविक भक्ति है। प्रेमी का प्रेमिका अथवा अपने प्रेम के विषय के साथ हुआ तादात्म्य प्रेम का मापदण्ड है। भूत मात्र के आदि कारण और अव्यय स्वरूप मुझ से भक्ति ही वह मार्ग है? जिसके द्वारा मोहित जीव अपने आत्मस्वरूप के साथ तादात्म्य प्राप्त कर सकता है। इसकी सफल परिसमाप्ति अनात्म उपाधियों से वैराग्य प्राप्त होने से ही होगी। अनात्मा से मन को परावृत्त करने की साधना को यहाँ मुझे नमस्कार करते हुए शब्द के द्वारा सूचित किया गया है। आत्मसाक्षात्कार की विधेयात्मक साधना यह है कि साधक एकाग्र मन से आत्मस्वरूप का ही चिन्तन करके अन्त में स्वस्वरूपानुभूति में ही स्थित हो जाता है। इस विधेयात्मक पक्ष को भक्तया शब्द के द्वारा बताया गया है। मिथ्या उपाधियों से मन को निवृत्त करके आत्मचिन्तन के द्वारा आत्मसाक्षात्कार केवल उन लोगों को उपलब्ध होता है जो मुझ से नित्ययुक्त हैं और मेरी उपासना करते हैं। ज्ञानमार्ग में? कर्मकाण्ड की पूजा के समान न पुष्पार्पण करना है और न चन्दन चर्चित करना है। मन में आत्मचिन्तन की सजग वृत्ति बनाये रखना ही उस परमात्मा की जो समस्त जगत् का अधिष्ठान और भूतमात्र की आत्मा है वास्तविक पूजा है। यह पूजा हमारे अहंकारमय जीवन की कलियों को विकसित करके ईश्वरीय पुरुष के फूल रूप में खिला सकती है? और उनकी पूर्णता की सुगन्ध सर्वत्र प्रवाहित करके ले जा सकती है।
।।9.14।। व्याख्या--'नित्ययुक्ताः'--मात्र मनुष्य भगवान्में ही नित्ययुक्त रह सकते हैं, हरदम लगे रह सकते हैं, सांसारिक भोगों और संग्रहमें नहीं। कारण कि समय-समयपर भोगोंसे भी ग्लानि होती है और संग्रहसे भी उपरति होती है। परन्तु भगवान्की प्राप्तिका, भगवान्की तरफ चलनेका जो एक उद्देश्य बनता है, एक दृढ़ विचार होता है, उसमें कभी भी फरक नहीं पड़ता।
।।9.13 -- 9.14।।महात्मान इत्यादि विश्वतोमुखमित्यन्तम्। दैवीं? सात्विकीम्। यजन्तः? बाह्यद्रव्यादियागैः। अन्ये तु मा ज्ञानयज्ञेनैवोपासते। अतः केचित् एकतया ज्ञानतः? केचित् बहुधा? कर्मयोगात्। मत्परा एव सर्वे।
।।9.14।।अत्यर्थं मत्प्रियत्वेन मत्कीर्तनयतननमस्कारैः विना क्षणाणुमात्रे अपि आत्मधारणम् अलभमानाः मद्गुणविशेषवाचीनि मन्नामानि स्मृत्वा पुलकितसर्वाङ्गाः? हर्षगद्गदकण्ठाः श्रीरामनारायणकृष्णवासुदेवेत्येवमादीनि सततं कीर्तयन्तः तथा एव यतन्तः मत्कर्मसु अर्चनादिकेषु वन्दनस्तवनकरणादिकेषु तदुपकारकेषु भवननन्दनवनकरणादिकेषु च दृढसंकल्पाः यतमानाः? भक्तिभारावनमितमनोबुद्ध्यभिमानपदद्वयकरद्वयशिरोभिः अष्टाङ्गैः अचिन्तितपांसुकर्द्दमशर्करादिके धरातले दण्डवत् प्रणिपतन्तः? सततं मां नित्ययुक्ताः नित्ययोगम् आकाङ्क्षमाणा आत्मवन्तो मद्दास्यव्यवसायिनः उपासते।
।।9.14।।भजनप्रकारं पृच्छति -- कथमिति। तत्प्रकारमाह -- सततमिति। सर्वदेति श्रवणावस्था गृह्यन्ते? कीर्तनं वेदान्तश्रवणं प्रणवजपश्च? व्रतं ब्रह्मचर्यादि? नमस्यन्तो मांप्रति चेतसा प्रह्वीभवन्तो भक्त्या परेण प्रेम्णा नित्ययुक्ताः सन्तः सदा संयुक्ताः।
।।9.14।।सततमित्यादि। अयमर्थः -- सच्चिदानन्दा द्विविधाः स्वरूपात्मका धर्मात्मकाश्च। एवं द्विविधा अपि आधिदैविकाध्यात्मिकाधिभौतिकभेदेन त्रिविधाः। तत्र स्वरूपात्मकाधिदैविकसच्चिदानन्दरूपो भगवान्पुरुषोत्तमः? आध्यात्मिकं तद्रूपमक्षरं द्वितीयः पुरुषः? आधिभौतिकं तद्रूपं क्षरं प्रथमपुरुषः। धर्मात्मकाधिदैविकसच्चिदानन्दरूपो वैकुण्ठादिपरिकरः। तादृशाधिभौतिकसदंशात्मकान्यष्टाविंशतितत्त्वानि। तादृशाधिभौतिकचिदंशभूतं तत्त्वनिष्ठं ज्ञानम्। तादृशाधिभौतिकचिदंशभूतं तत्त्वनिष्ठं सुखम्। एवमेव यथातथान्तरतिरोभावो ज्ञेयः। एवं सति स्वरूपात्मकस्याधिदैविकाध्यात्मिकानन्दस्येषत्तिरोभावो दुःखाभावः स एव मोक्ष इति लोकैरुच्यते। वैदिकसाधनस्य यज्ञादेस्तदेव फलं स्वरूपात्मकस्यैकानन्दस्यैव सर्वथोद्भवः सुखमित्यर्थः। एवं लोकेऽपि धर्मात्मकतत्त्वाधिष्ठानकाधिभौतिकानन्दस्येषत्तिरोभावो लौकिकदुःखाभावः सर्वथोद्गमो लौकिकसुखमित्यादि बोध्यम्। तेषां भजनप्रकारमाह द्वाभ्यां बाह्याभ्यन्तरभेदतः। निरन्तरं कीर्तयन्त इति वाचिकं कीर्त्तनमुक्तम्। यतन्त इति श्रवणेऽर्चने च यत्नं कुर्वन्त इति श्रवणार्चनभक्तिर्निरूपिता। श्रवणं ज्ञानपूर्वं वा निरूपितम्। दृढानि एकादशीजन्माष्टमीरामनवमीवामनद्बादशीनृसिंहजयन्तीसंज्ञकानि व्रतानि येषां ते दृढव्रताः? इति स्मरणमुक्तम्। नमस्यन्त इति वन्दनम्। भक्त्या चरणसेवया मां पुरुषोत्तमं सर्वत्र उपासते दास्यभावेन भजन्ते। नित्ययुक्ता इति योगसिद्धरीत्या कर्मकरणप्रकारः स्मारितः।
।।9.14।।ते केन प्रकारेण भजन्तीत्युच्यते द्वाभ्याम् -- सततं सर्वदा ब्रह्मनिष्ठं गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यविचारेण गुरूपसदनेतरकाले च प्रणवजपोपनिषदावर्तनादिभिर्मां सर्वोपनिषत्प्रतिपाद्यं ब्रह्मस्वरूपं कीर्तयन्तः। वेदान्तशास्त्राध्ययनरूपश्रवणव्यापारविषयीकुर्वन्त इति यावत्। तथा यतन्तश्च गुरुसंनिधावन्यत्र वा वेदान्ताविरोधितर्कानुसंधानेनाप्रामाण्यशङ्कानास्कन्दितगुरूपदिष्टमत्स्वरूपावधारणाय यतमानाः। श्रवणनिर्धारितार्थबाधकशङ्कापनोदककुतर्कानुसंधानरूपमननपरायणा इति यावत्। तथा दृढव्रताः दृढानि प्रतिपक्षैश्चालयितुमशक्यानि अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहादीनि व्रतानि येषां ते। शमदमादिसाधनसंपन्ना इति यावत्। तथा चोक्तं पतञ्जलिनाअहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः? ते तु,जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् इति। जात्या ब्राह्मणत्वादिकया? देशेन तीर्थादिना? कालेन चतुर्दश्यादिना? समयेन यज्ञाद्यन्यत्वेनानवच्छिन्ना अहिंसादयः सार्वभौमाः क्षिप्तमूढविक्षिप्तभूमिष्वपि भाव्यमानाः? कस्यामपि जातौ कस्मिन्नपि देशे कस्मिन्नपि काले यज्ञादिप्रयोजनेऽपि हिंसां न करिष्यामीत्येवंरूपेण किंचिदप्यपर्युदस्य सामान्येन प्रवृत्ता एते महाव्रतमित्युच्यन्त इत्यर्थः। तथा नमस्यन्तश्च मां कायवाङ्मनोभिर्नमस्कुर्वन्तश्च मां भगवन्तं वासुदेवं सकलकल्याणगुणनिधानमिष्टदेवतारूपेण गुरुरूपेण च स्थितम्। चकारात्श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् इति वन्दनसहचरितं श्रवणाद्यपि बोद्धवयम्। अर्चनं पादसेवनमित्यपि गुरुरूपे तस्मिन्सुकरमेव। अत्र मामिति पुनर्वचनं सगुणरूपपरामर्शाथम्। अन्यथा वैयर्थ्यप्रसङ्गात्। तथा भक्त्या मद्विषयेण परेण प्रेम्णा नित्ययुक्ताः सर्वदा संयुक्ताः। एतेन सर्वसाधनपौष्कल्यं प्रतिबन्धकाभावश्च दर्शितः।यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः इति श्रुतेः। पतञ्जलिना चोक्तम्ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च इति। तत ईश्वरप्रणिधानात्प्रत्यक्चेतनस्य त्वंपदलक्ष्यस्याधिगमः साक्षात्कारो भवति अन्तरायाणां विघ्नानां चाभावो भवतीति सूत्रस्यार्थः। तदेवं शमदमादिसाधनसंपन्ना वेदान्तश्रवणमननपरायणाः परमेश्वरे परमगुरौ प्रेम्णा नमस्कारादिना च विगतविघ्नाः परिपूर्णसर्वसाधनाः सन्तो मामुपासते विजातीयप्रत्ययानन्तरितेन सजातीयप्रत्ययप्रवाहेण श्रवणमननोत्तरभाविना सन्ततं चिन्तयन्ति महात्मानः। अनेन निदिध्यासनं चरमसाधनं दर्शितम्। एतादृशसाधनपौष्कल्ये सति यद्वेदान्तवाक्यजमखण्डगोचरं साक्षात्काररूपमहं ब्रह्मास्मीति ज्ञानं तत्सर्वशङ्काकलङ्कास्पृष्टं सर्वसाधनफलभूतं स्वोत्पत्तिमात्रेण दीप इव तमः सकलमज्ञानं तत्कार्यं च नाशयतीति निरपेक्षमेव साक्षान्मोक्षहेतुर्नतु भूमिजयक्रमेण भ्रूमध्ये प्राणवेशनं मूर्धन्यया नाड्या प्राणोत्क्रमणमर्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकगमनं तद्भोगान्तकालविलम्बं वा प्रतीक्ष्यते। अतो यत्प्राक्प्रतिज्ञातंइंद तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानम् इति तदेतदुक्तं? फलं चास्याशुभान्मोक्षणं प्रागुक्तमेवेतीह पुनर्नोक्तम्। एवमत्रायं गम्भीरो भगवतोऽभिप्रायः? उत्तानार्थस्तु प्रकट एव।
।।9.14।।तेषां भजनप्रकारमाह -- सततमिति द्वाभ्याम्। सततं सर्वदा स्तोत्रमन्त्रादिभिः कीर्तयन्तः केचिन्मामुपासते सेवन्ते दृढानि व्रतानि नियमा येषां तादृशाः सन्तो यतन्तश्चेश्वरपूजादिषु इन्द्रियोपसंहारादिषु प्रयत्नं कुर्वन्तश्च केचिद्भक्त्या नमस्यन्तः प्रणमन्तश्चान्ये नित्ययुक्ता अनवरतमवहिताः सर्वे सेवन्ते भक्त्येति नित्ययुक्ता इति च कीर्तनादिष्वपि द्रष्टव्यम्।
।।9.14।।भजन्तीत्युपासनं प्रसक्तम् अथ तदेव कीर्तनयतननमस्कारेषु प्रेरयित्र्याऽत्यर्थप्रियत्वलक्षणावस्थया विशेष्यते -- सततमिति। कीर्तनादीनां त्रयाणां वाङ्मनःकायकर्मरूपतां तेषामेव प्रकरणान्तरेषु सिद्धं प्रकारंसततं इत्यस्य च कीर्तनयतननमस्कारनित्ययुक्तत्वोपासनेष्वविशेषेणान्वयमाहअत्यर्थेति। अत्यर्थमत्प्रियत्वं भक्त्येत्यस्यार्थः। क्षणे महापृथिव्यादिवत्कल्पितेऽप्यस्य चरमावयवतया कल्पितोंऽशःक्षणाणुमात्रेऽपीत्युक्तः। नाम्नां स्वादुत्वातिशयसिद्ध्यर्थंमद्गुणविशेषवाचीनीत्युक्तम्। नामकीर्तनं चेष्टितादिकीर्तनस्योपलक्षणम्। गुणानुसन्धानाभावेऽपि स्वरूपतः प्रीतिजननाय पुनःमन्त्रामानीति व्यपदेशः।पुलकाञ्चितसर्वाङ्गा इत्यादिकं तत्तत्प्रदेशोक्तशब्दोपादानम् यथातन्नामस्मरणोद्भूतपुलकश्चेदिपुङ्गवः इति।हर्षगद्गदकण्ठा इत्यनेनस्वरनेत्राङ्गविक्रिया इत्यादिभक्तिलक्षणग्रन्थस्मारणम्।कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्च निर्वृतिवाचकः [म.भा.5।70।5] इति कृष्णशब्दोऽपि पुरुषार्थहेतुत्वप्रतिपादनमुखेन परव्यूहादिसमस्तावस्थासाधारण इति ज्ञापनाय व्यापकयोर्मध्ये पठितः। अवतारान्तरेष्वपि कृष्णशब्दः प्रयुज्यते।उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना [म.ना.4।5] इति। यद्वानारायणेति परत्वानुसन्धानम्?कृष्णवासुदेवेति तु अवतारविशेषपरतया सौलभ्यानुसन्धानम्।यज्ञेशाच्युत गोविन्द माधवानन्त केशव। कृष्ण विष्णो हृषीकेशेत्याह राजा स केवलम्नाम्नोऽस्ति यावती शक्तिः पापनिर्हरणे हरेःकमलनयन वासुदेव विष्णो धरणिधराच्युत शङ्खचक्रपाणे [वि.पु.3।7।33]एतावतालमघनिर्हरणाय पुंसां [भाग.6।3।24]सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमात्रम् [पां.गी.19] इत्यादिषु सर्वत्र सङ्कीर्तनप्रभावः प्रसिद्धः। रहसि जन्मसन्निधौ च व्रीडादिराहित्यमपि सततशब्देन व्यञ्जितम्।तथैव सततं भक्त्येत्यर्थः।मत्कर्मस्वित्यादिकं कर्मभक्तियोगसाधारणयतनविषयप्रदर्शनम्। तत्कर्मयतने दृढसङ्कल्पत्वं महत्यामापदि? सम्पदि चान्याश्रयणपरिहारार्थम्।भक्तिभारेत्यादिकं प्रणामस्य रागप्राप्तत्वकथनम्।मनोबुद्ध्यभिमानेन सह न्यस्य धरातले। कूर्मवच्चतुरः पादाञ्छिरस्तत्रैव पञ्चमम् [सा.सं.6।187] इत्युक्तोऽष्टाङ्गप्रणामः।नित्ययुक्ताः इति आशंसायां क्त इत्याहनित्ययोगमाकाङ्क्षमाणा इति। काङ्क्षमाणशब्दश्चानश्प्रत्ययान्तः?ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश् [अष्टा.3।2।129] इत्यनुशासनात्।दासभूताः [पं.रा.] इत्याद्युक्तस्वरूपानुरूपेण नित्ययोगं विशिनष्टि -- आत्मवन्तो मद्दास्यव्यवसायिन इति।
।।9.14।।ते च द्विविधाः? भक्ता ज्ञानिनश्च? तत्र प्रथमं भक्तानां भजन प्रकारमाह -- सततमिति। सततं निरन्तरं मां कीर्तयन्तः लीलास्वरूपज्ञानेन श्रीभागवतोक्तप्रकारेण गुणगानं कुर्वन्तः? सर्वत्र मदुत्कर्षं कथयन्तः। यतन्तश्च कीर्तने यत्नादिकं कुर्वाणाः? इन्द्रियनिग्रहं वा कुर्वन्तः। चकारेण श्रवणादिकं ज्ञाप्यते। पुनः कीदृशाः दृढव्रताः दृढं ऐहिकपारलौकिकयोर्मदेकनिष्ठं मोहशात्रा৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷द्यपरिभूतं व्रतं निश्चयो येषां तादृशाः। किञ्च नमस्यन्तश्चकिमासनं ते गरुडासनाय इत्यादिना परमकाष्ठापन्नवस्तुरूपनमस्कारं कुर्वन्तः स्वदैन्याविर्भावपूर्वकं? चकारेण नृत्यादिकमपि कुर्वन्तः। पुनः कीदृशाः। नित्ययुक्ताः सावधानाः मदेकपरचित्ताः। भक्त्या स्नेहेन? न तु विहितत्वेन? मामुपासते सेवन्त इत्यर्थः।
।।9.14।।भजनस्वरूपमाह -- सततमिति। यतन्तः इन्द्रियोपसंहारशमदमादिषु प्रयतमानाः दृढान्यहिंसादीनि व्रतानि येषां ते दृढव्रताः नमस्यन्तश्च मां हृदयेशं प्रतिमादिरूपं वा भक्त्या। नित्ययुक्ताः नित्यमवहिताः सन्त उपासते।
।।9.14।।भजन्तीत्युक्तं तत्र भजनप्रकारजिज्ञासायमाह द्वाभ्याम् -- सततमिति। निरन्तरं सर्वदा ब्रह्मरूपं मां कीर्यन्तः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं गुरुमुपसंगम्य तन्मुखादुपनिषच्छ्रवणानन्तरमुपनिषद्भिः हरे गोविन्द वासुदेव दामोदर माधव मुकुन्देत्यादिनामभिश्च कीर्ययन्तः यतन्तश्च शमदमदयाऽहिंसाऽस्ते ब्रह्मचर्यापरिग्रहादिभिर्यत्नं कुर्वन्तः। अतएव दृढं स्थिरं केनापि चालयितुमशक्यं व्रतं शमदमादिरुपं येषां ते भक्त्या परप्रेम्णा मां हृदयेशयमन्तर्यामिरुपेण प्रत्यक्चेतनरुपेण च हृद्गुहावासिनमात्मानं नित्ययुक्ता उद्युक्ताः सन्त उपासते सेवन्ते। सततमित्यनेन कीर्तनादिव्यतिरिक्तकालव्यावृत्तिः। अत्र केचित्। गुरुपसदनोत्तरकाले प्रणवजपोपनिषदावर्तनादिभिर्मां सर्वोपनिषत्प्रतिपाद्यं ब्रह्मस्वरुपं कीर्तयन्तः वेदान्तशास्त्राध्ययनरुपश्रवणव्यापारविषयीकुर्वन्त इतियावत्। तथा यतन्तश्च गुरुमुखाच्छ्रेतमत्स्वरुपावधारणाय यतमानाः श्रवणगृहीतार्थबाधकशङ्कानिवर्तकतर्कानुसंधानरुपं मननं यत्नेन संपादयन्त इतियावत्। तथा दृढानि अहिंसादिव्रतानि येषां ते दृढव्रताः। शमदमादिसाधनसंपन्ना इतियावत्। तथा नमस्यन्तश्च मां भगवन्तं वासुदेवमिष्टदेवतारुपेण गुरुरुपेण च स्थितं कायवाङ्यनोभिर्नमस्कुर्वन्तश्च। चकारात्श्रवणं कीर्तनं विषणोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् इति वन्दनसहचरितं श्रवणाद्यपि बोध्यम्। पादसेवनमित्यपि गुरुरुपे परमात्मनि सुकरमेव। अत्र मामिति पुनर्वचनं सगुणरुपपरामर्शार्थम्। अन्यथैकस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गात्। तया भक्त्या मद्विषयेण परप्रेम्णा नित्ययुक्ताः। एतेन सर्वसाधनपौष्कल्यं प्रतिबन्धकाभावश्च दर्शितः। तथाच श्रुतिःयस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः इति। तदेवं शमदमादिसाधनसंपन्नाः वेदान्तश्रवणमननपरायणाः परमेश्वरे परमगुरौ परप्रेरणा नमस्कारदिना च विगतविघ्नाः परिपूर्णसाधनाः सन्तो मामुपासते विजातीयप्रत्ययानन्तरितेन सजातीयप्रत्ययप्रवाहेण श्रवणमननोत्तरभाविना सततं चिन्तयन्ति महात्मानोऽनेन निदिध्यासनं चरमसाधनं दर्शितमित्यदि वर्णयन्ति तदेतद्भाष्यस्य श्रवणमननोत्तरभाविना सततं चिन्तयन्ति महात्मानोऽनेन निदिध्यासनं चरमसाधनं दर्शितमित्यादि वर्णयन्ति तदेतद्भाष्यस्य सामान्यरुपस्याविरोधेनोपादेयम्।
9.14 सततम् always? कीर्तयन्तः glorifying? माम् Me? यतन्तः striving? च and? दृढव्रताः firm in vows? नमस्यन्तः prostrating? च and? माम् Me? भक्त्या with devotion? नित्ययुक्ताः always steadfast? उपासते worship.Commentary These great souls sing My glory. They do Japa (repetition) of Pranava (Om). They study and recite the Upanishads. They hear the Srutis (the Vedas) from their spiritual preceptor? reflect and meditate on the attributeless Absolute (Nirguna Brahman). They cultivate the Sattvic virtues such as patience? mercy? cosmic love? tolerance? forbearance? truthfulness? purity? etc. They control the senses and steady the mind. They are firm in their vows of nonviolence? truthfulness and purity in thought? word and deed. They worship Me with great faith and devotion as the inner Self hidden in their heart. As a neophyte cannot see God face to face? he will have to worship his Guru (spiritual preceptor) firt and regard him as God or Brahman Himself.
9.14 Always glorifying Me, striving,firm in vows, prostrating themselves before Me, they worship Me with devotion always steadfast.
9.14 Always extolling Me, strenuous, firm in their vows, prostrating themselves before Me, they worship Me continually with concentrated devotion.
9.14 Always glorifying Me and striving, the men of firm vows worship Me by paying obeisance to Me and being ever endowed with devotion.
9.14 Satatam, always; kirtayantah, glorifying; mam, Me, God, who am Brahman in reaility; ca, and; yatantah, striving, endeavouring with the help of such virtues as withdrawal of the organs, control of mind and body, kindness, non-injury, etc.; drdha-vratah, the men of firm vows those whose vows [Vows such as celibacy], those whosevows are unshakable; upasate, worship Me; namasyantah, by paying obeisance; mam, to Me, to the Self residing in the heart, ca, and; nitya-yuktah, being ever endowed; bhaktya, with devotion. The various ways in which they adore are being stated:
9.14. Ever speaking of My glory, striving with firm resolve, paying homage to Me and being permanently endowed with devotion they worship Me.
9.14 See Comment under 9.15
9.14 Because of My being very dear to them, they are unable to find support for their souls even for a moment without 'singing My praises,' 'striving for My sake and bowing to Me in reverence.' Remembering My names connotative of My special attributes, they cry out My names - Narayana, Krsna, Vasudeva etc., with horripilations in every part of their bodies and with their voices tremulous and indistinct because of joy. They engage in activities for my sake, such as performing worship, and doing actions helpful to worship, lik building temples and cultivating temple gardens. They prostrate themselves on the earth like a stick, indifferent to dust, mud and the gravel, with all the eight members of their beings - the Manas, Buddhi, Ahankara, the two feet, two hands, and the head, which are bowed down under the influence of Bhakti. Aspiring for eternal communion with Me, desiring eternal union with Me, they worship Me, resolved to attain the state of servitude to Me for their entire being.
9.14 Aspiring for eternal communion with Me, they worship Me, always singing My praises, striving with steadfast resolution and bowing down to Me in devotion.
।।9.14।।किस प्रकार भजते हैं --, वे दृढ़व्रती भक्त अर्थात् जिनका निश्चय दृढ़स्थिरअचल है ऐसे वे भक्तजन सदानिरन्तर ब्रह्मस्वरूप मुझ भगवान्का कीर्तन करते हुए तथा इन्द्रियनिग्रह? शम? दम? दया और अहिंसा आदि धर्मोंसे युक्त होकर प्रयत्न करते हुए एवं हृदयमें वास करनेवाले मुझ परमात्माको भक्ितपूर्वक नमस्कार करते हुए और सदा मेरा चिन्तन करनेमें लगे रहकर? मेरी उपासना -- सेवा करते रहते हैं।
।।9.14।। --,सततं सर्वदा भगवन्तं ब्रह्मस्वरूपं मां कीर्तयन्तः? यतन्तश्च इन्द्रियोपसंहारशमदमदयाहिंसादिलक्षणैः धर्मैः प्रयतन्तश्च? दृढव्रताः दृढं स्थिरम् अचाल्यं व्रतं येषां ते दृढव्रताः नमस्यन्तश्च मां हृदयेशम् आत्मानं भक्त्या नित्ययुक्ताः सन्तः उपासते सेवन्ते।।ते केन केन प्रकारेण उपासते इत्युच्यते --,
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सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।9.14।।
সততং কীর্তযন্তো মাং যতন্তশ্চ দৃঢব্রতাঃ৷ নমস্যন্তশ্চ মাং ভক্ত্যা নিত্যযুক্তা উপাসতে৷৷9.14৷৷
সততং কীর্তযন্তো মাং যতন্তশ্চ দৃঢব্রতাঃ৷ নমস্যন্তশ্চ মাং ভক্ত্যা নিত্যযুক্তা উপাসতে৷৷9.14৷৷
સતતં કીર્તયન્તો માં યતન્તશ્ચ દૃઢવ્રતાઃ। નમસ્યન્તશ્ચ માં ભક્ત્યા નિત્યયુક્તા ઉપાસતે।।9.14।।
ਸਤਤਂ ਕੀਰ੍ਤਯਨ੍ਤੋ ਮਾਂ ਯਤਨ੍ਤਸ਼੍ਚ ਦਰਿਢਵ੍ਰਤਾ। ਨਮਸ੍ਯਨ੍ਤਸ਼੍ਚ ਮਾਂ ਭਕ੍ਤ੍ਯਾ ਨਿਤ੍ਯਯੁਕ੍ਤਾ ਉਪਾਸਤੇ।।9.14।।
ಸತತಂ ಕೀರ್ತಯನ್ತೋ ಮಾಂ ಯತನ್ತಶ್ಚ ದೃಢವ್ರತಾಃ. ನಮಸ್ಯನ್ತಶ್ಚ ಮಾಂ ಭಕ್ತ್ಯಾ ನಿತ್ಯಯುಕ್ತಾ ಉಪಾಸತೇ৷৷9.14৷৷
സതതം കീര്തയന്തോ മാം യതന്തശ്ച ദൃഢവ്രതാഃ. നമസ്യന്തശ്ച മാം ഭക്ത്യാ നിത്യയുക്താ ഉപാസതേ৷৷9.14৷৷
ସତତଂ କୀର୍ତଯନ୍ତୋ ମାଂ ଯତନ୍ତଶ୍ଚ ଦୃଢବ୍ରତାଃ| ନମସ୍ଯନ୍ତଶ୍ଚ ମାଂ ଭକ୍ତ୍ଯା ନିତ୍ଯଯୁକ୍ତା ଉପାସତେ||9.14||
satataṅ kīrtayantō māṅ yatantaśca dṛḍhavratāḥ. namasyantaśca māṅ bhaktyā nityayuktā upāsatē৷৷9.14৷৷
ஸததஂ கீர்தயந்தோ மாஂ யதந்தஷ்ச தரிடவ்ரதாஃ. நமஸ்யந்தஷ்ச மாஂ பக்த்யா நித்யயுக்தா உபாஸதே৷৷9.14৷৷
సతతం కీర్తయన్తో మాం యతన్తశ్చ దృఢవ్రతాః. నమస్యన్తశ్చ మాం భక్త్యా నిత్యయుక్తా ఉపాసతే৷৷9.14৷৷
9.15
9
15
।।9.15।। दूसरे साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेद-भावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे कई साधक अपनेको पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट्ररुपकी अर्थात् संसारको मेरा विराट्ररुप मानकर (सेव्य-सेवकभावसे) मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं।
।।9.15।। कोई मुझे ज्ञानयज्ञ के द्वारा पूजन करते हुए एकत्वभाव से उपासते हैं, कोई पृथक भाव से, कोई बहुत प्रकार से मुझ विराट स्वरूप (विश्वतो मुखम्) को उपासते हैं।।
।।9.15।। ज्ञानयज्ञ में कोई कर्मकाण्ड नहीं होता। इस यज्ञ में यजमान साधक का यह सतत प्रयत्न होता है कि दृश्यमान विविध नामरूपों में एकमेव चैतन्य स्वरूप आत्मा की अभिव्यक्ति और चेतनता को वह देखे और अनुभव करे। यह साधना वे साधक ही कर सकते हैं? जिन्होंने वेदान्त के इस प्रतिपादन को समझा है कि अव्यय आत्मा सर्वत्र व्याप्त है और अपने सत्स्वरूप में इस दृश्यमान विविधता तथा उनकी परस्पर वैचित्र्यपूर्ण क्रियायों को धारण किये हुये है।विभिन्न व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा निर्मित चॉकलेटों के आकार? रंग? स्वाद? मूल्य आदि भिन्नभिन्न होते हुए भी सब चॉकलेट ही हैं? और इसलिए उन सबका वास्तविक धर्म मधुरता? सभी में एक समान होता है। उस मधुरता को चाहने वाले बालक सभी प्रकार की चॉकलेटों को प्रसन्नता से खाते हैं।इसी प्रकार आत्मज्ञान का साधक सभी नाम और रूपों में? सभी परिस्थितियों और दशाओं में एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति का अवलोकन करता है? निरीक्षण करता है और पहचानता है। जिस किसी आभूषण विशेष में हीरे जड़े हों? हीरे के व्यापारी के लिए वह सब प्रकाश और आभा के बिन्दु ही हैं। वह उनकी आभा के अनुसार उनका मूल्यांकन करता है? न कि उस आभूषण की रचनाकृति या सौन्दर्य को देखकर।आत्मानुभवी पुरुष अपने आत्मस्वरूप को सब प्रकार के कर्मों? शब्दों और विचारों में व्यक्त देखते हुए जगत् में विचरण करता है। जिस प्रकार सहस्र दर्पणों के मध्य स्थित दीपज्योति के करोड़ों प्रतिबिम्ब सर्वत्र दिखाई देते हैं? उसी प्रकार? आत्मस्वरूप में स्थित ज्ञानी पुरुष जब जगत् में विचरण करता है? तब वह सर्वत्र अपनी आत्मा को ही नृत्य करते हुए देखता है? जो उस पर सब ओर से कटाक्ष करती हुई उसे सदैव पूर्णत्व के आनन्द से हर्षविभोर करती रहती है।नेत्रों की दीप्ति में? मित्र की मन्दस्मिति और शत्रु के कृत्रिम हास्य में? ईर्ष्या के कठोर शब्दों में और प्रेम के कोमल स्वरों में? शीत और उष्ण में? जय और पराजय में? समस्त मनुष्यों? पशुओं? वृक्ष लताओं में और जड़ वस्तुओं के संग में सर्वत्र वह सच्चिदानन्द परमात्मा का ही मंगल दर्शन करता है यही अर्थ है ईश्वर दर्शन अथवा आत्मदर्शन का? जिसका विश्व के समस्त धर्मशास्त्रों में गौरव से गान किया गया है। असंख्य नामरूपों में ईश्वर की मन्दस्मिति को देखने और पहचानने का अर्थ ही निरन्तर ज्ञानयज्ञ की भावना में रमना और जीना है।समस्त रूपों में उसकी पूजा करना? समस्त परिस्थितियों में उसका ध्यान रखना? मन की समस्त वृत्तियों के साथ उसका अनुभव करना ही आत्मा के अखण्ड स्मरण में जीना है। ऐसे पुरुष ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी उपासना करते हैं।प्रारम्भिक अवस्था में सर्वत्र आत्मदर्शन की साधना प्रयत्न साध्य होने के कारण उसमें साधक को कष्ट और तनाव का अनुभव होता है। परन्तु जैसेजैसे साधक की आध्यात्म दृष्टि विकसित होती जाती है? वैसेवैसे उसके लिए यह साधना सरल बनती जाती है? और वह एक ही आत्मा को इसके ज्योतिर्मय वैभव के असंख्य रूपों में छिटक कर फैली हुई देखता है। यही है विश्वतो मुखम् ईश्वर का विराट् स्वरूप।ज्ञानी पुरुष न केवल यह जानता है कि नानाविध उपाधियों से आत्मा सदा असंस्पर्शित है? अलिप्त है? वरन् वह यह भी अनुभव करता है कि विश्व की समस्त उपाधियों में वही एक आत्मा क्रीड़ा कर रही है। एक बार आकाश में स्थित जगत् से अलिप्त सूर्य को पहचान लेने पर? यदि हम उसके असंख्य प्रतिबिम्ब भी दर्पणों या जल में देखें? तब भी एक सूर्य होने का हमारा ज्ञान लुप्त नहीं हो जाता। सर्वत्र हम उस एक सूर्य को ही देखते और पहचानते हैं।यदि कोई पुरुष अपने मन की शान्ति और समता को किसी एकान्त और शान्त स्थान में ही बनाये रख सकता है? तो वेदान्त के अनुसार? उसका आत्मनुभव कदापि पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। यदि केवल समाधि स्थिति के विरले क्षणों में ही उसे आत्मानुभूति होती है? तो ऐसा पुरुष? वह तत्त्वदर्शी नहीं है? जिसकी उपनिषद् के ऋषियों ने प्रशंसा की है। यह तो हठयोगियों का मार्ग है। अन्तर्बाह्य सर्वत्र एक ही आत्मतत्त्व को पहचानने वाला ही वास्तविक ज्ञानी पुरुष है। एक तत्त्व सबको व्याप्त करता है परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता। ऐसे अनुभवी पुरुष के लिए किसी व्यापारिक केन्द्र का अत्यन्त व्यस्त एवं तनावपूर्ण वातावरण आत्मदर्शन के लिए उतना ही उपयुक्त है जितना हिमालय की घाटियों की अत्यन्त शान्त और एकान्त कन्दराओं का। वह चर्मचक्षुओं से नहीं? वरन् ज्ञान के अन्तचक्षुओं से सर्वत्र एकमेव अद्वितीय आत्मा का ही दर्शन करता है।मेरे हाथों और पैरों में? मैं सदा एक समान व्याप्त रहता हूँ। मैं जानता हूँ कि मैं उन सब में हूँ। क्या इस ज्ञान से मेरे हाथ पैर लुप्त हो जाते हैं? जैसे सूर्योदय पर कोहरा यदि कोई ऐसा कहता है? तो वह खिल्ली उड़ाकर जाने वाला पागलपन ही है? कोई वैज्ञानिक कथन नहीं। जैसे एक ही समय में मैं अपने शरीर के अंगप्रत्यंग में स्थित हुआ जाग्रत् अवस्था में जगत् का अनुभव करता हूँ? वैसे ही? आत्मज्ञानी पुरुष जानता है कि उसकी आत्मा ही अपने अनन्त साम्राज्य में सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किये हुए हैं एक रूप में? पृथक् रूप में और विविध रूप में।वेदान्त प्रतिपादित दिव्यत्व की पहचान और अनन्त का अनुभव अन्तर्बाह्य जीवन में है। कोई संयोगवश प्राप्त यह क्षणिक अनुभव नहीं है। यह कोई ऐसा अवसर नहीं है कि जिसे लड्डू वितरित कर मनाने के पश्चात् सदा के लिए उस अनुभव से निवृत्ति हो जाय। जिस प्रकार विद्यालयी शिक्षा से मनुष्य द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान समस्त कालों और परिस्थितियों में यहाँ तक कि स्वप्न में भी उसके साथ रहता है? उससे भी कहीं अधिक शक्तिशाली? कहीं अधिक अंतरंग और कहीं अधिक दृढ़ ज्ञानी पुरुष का आत्मानुभव होता है। आत्मवित् आत्मा ही बन जाता है। इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं है। वेदान्त के द्वारा प्रतिपादित इस सत्य की पुष्टि दूसरी पंक्ति में की गई है कि मुझ विराट स्वरूप परमात्मा को वे एकत्व भाव से? पृथक् भाव से और अन्य कई प्रकार से उपासते हैं।अब तक हमने जो विवेचन किया है उसे यहाँ प्रमाणित किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब ध्यानाभास द्वारा मन प्रशान्त हो जाता है? तब एकमेव अद्वितीय आत्मा का उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव होता है। मिट्टी का ज्ञाता मिट्टी के बने विभिन्न प्रकार के घटों में एक ही मिट्टी को सरलता से देख सकता है घटों के रूप? रंग और आकार उसके मिट्टी के ज्ञान को नष्ट नहीं कर सकते। इसी प्रकार पारमार्थिक सत्य पर जो आभासिक और मोहक नाम और रूप अध्यस्त हैं? वे ज्ञानी पुरुष की दृष्टि से सत्य को न कभी आच्छादित कर सकते हैं और न वे ऐसा करते ही हैं। सत्य के द्रष्टा ऋषि आत्मा को न केवल प्रत्येक व्यक्ति में पृथक्पृथक् रूप से पहचानते हैं? वरन् जैसा कि यहाँ वेदान्त के समर्थक भगवान् श्रीकृष्ण उद्घोष करते हैं ज्ञानीजन सत्य को प्रत्येक रूप में पहचानते हैं? जो विश्वतोमुख है अर्थात् जिसके मुख सर्वत्र हैं। यह कहना सर्वथा असंगत है कि मिट्टी का ज्ञाता मिट्टी के घट को केवल दक्षिण या वाम भाग में ही पहचानता है मिट्टी उस घट में सर्वत्र व्याप्त है और जहाँ मिट्टी नहीं वहां घट भी नहीं है। यदि आत्मा का अभाव हो? तो सृष्टि की विविधता की प्रतीति या दर्शन कदापि सम्भव नहीं हो सकता।यदि विविध रूपों में? विभिन्न प्रकार से पूजा और उपासना की जाती हो? तो वे सब एक ही परमात्मा की पूजा कैसे हो सकती हैं
।।9.15।। व्याख्या--[जैसे, भूखे आदमियोंकी भूख एक होती है और भोजन करनेपर सबकी तृप्ति भी एक होती है परन्तु उनकी भोजनके पदार्थोंमें रुचि भिन्न-भिन्न होती है। ऐसे ही परिवर्तनशील अनित्य संसारकी तरफ लगे हुए लोग कुछ भी करते हैं, पर उनकी तृप्ति नहीं होती, वे अभावग्रस्त ही रहते हैं। जब वे संसारसे विमुख होकर परमात्माकी तरफ ही चलते हैं, तब परमात्माकी प्राप्ति होनेपर उन सबकी तृप्ति हो जाती है अर्थात् वे कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाते हैं। परन्तु उनकी रुचि, योग्यता, श्रद्धा, विश्वास आदि भिन्नभिन्न होते हैं। इसलिये उनकी उपासनाएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।]
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।।9.15।।अन्ये अपि महात्मानः पूर्वोक्तैः कीर्तनादिभिः ज्ञानाख्येन यज्ञेन च यजन्तः माम् उपासते? कथम् बहुधा पृथक्त्वेन जगदाकारेण विश्वतोमुखं विश्वप्रकारम् अवस्थितं माम् एकत्वेन उपासते।एतद् उक्तं भवति भगवान् वासुदेव एव नामरूपविभागानर्हातिसूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरः सन् सत्यसंकल्पः विविधविभक्तनामरूपस्थूलचिदचिद्वस्तुशरीरः स्याम् इति संकल्प्य स एकदेव एव तिर्यङ्मनुष्यस्थावराख्यविचित्रजगच्छरीरः अवतिष्ठते इति अनुसंदधानाश्च माम् उपासते इति।तथा हि विश्वशरीरः अहम् एव अवस्थितः? इति आह --
।।9.15।।उपासनप्रकारभेदप्रतिपित्सया पृच्छति -- ते केनेति। तत्प्रकारभेदोदीरणार्थं श्लोकमवतारयति -- उच्यत इति। इज्यते पूज्यते परमेश्वरोऽनेनेति प्रकृते ज्ञाने यज्ञशब्दः। ईश्वरं चेति चकारोऽवधारणे। देवतान्तरध्यानत्यागमपिशब्दसूचितं दर्शयति -- अन्यामिति। अन्ये ब्रह्मनिष्ठामिति यावत्। ज्ञानयज्ञमेव विभजते -- तच्चेति। उत्तमाधिकारिणामुपासनमुक्त्वा मध्यमानामधिकारिणामुपासनप्रकारमाह -- केचिच्चेति। तेषामेव प्रकारान्तरेणोपासनमुदीरयति -- केचिदिति। बहुप्रकारेणाग्न्यादित्यादिरूपेणेति यावत्।
।।9.15।।किञ्च ज्ञानयज्ञेन चेति। भक्योपासते इति पूर्वमुक्तम्। ज्ञानयज्ञेन चोपासते इत्यधुनोच्यते। अत्र यज्ञपदेनब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः [4।24] इति पूर्वोक्तप्रकारः स्मारित इति गम्यते। तेन च मामक्षरस्वरूपमुपासते। तत्रापि प्रकारभेदः। केचिदेकत्वेनसोऽस्मि इत्यात्माभेदभावनया तान्त्रिकाः।आत्मानं परमं ध्यायेत् इत्यादिवाक्यात्। केचित्पृथक्त्वेन राजसतान्त्रिका भेदभावनया दासोऽस्मीति रूपया मां स्वामिनमुपासते। केचित्तु बहुधा शिवशक्तिसूर्यगणेशादिरूपेण। यद्वा ब्रह्मवादिनः बहुधा घटपटादिजगदाकारेणाविकृतमेव सन्तमेवं विश्वतोमुखं विश्वप्रकारत्वेनावस्थितं सर्वतः पाणिपादान्तं सर्वतोक्षिशिरोमुखं मामुपासते।
।।9.15।।इदानीं य एवमुक्तश्रवणमनननिदिध्यासनासमर्थास्तेऽपि त्रिविधा उत्तमा मध्यमा मन्दाश्चेति सर्वेऽपि स्वानुरूप्येण मामुपासत इत्याह -- अन्ये पूर्वोक्तसाधनानुष्ठानासमर्थाः ज्ञानयज्ञेनत्वं वा अहमस्मि भगवो देवते अहं वै त्वमसि इत्यादिश्रुत्युक्तमहग्रहापासनं ज्ञानं स एव परमेश्वरयजनरूपत्वाद्यज्ञस्तेन। चकार एवार्थे। अपिशब्दः साधनान्तरत्यागार्थः। केचित्साधनान्तरनिस्पृहाः सन्त उपास्योपासकाभेदचिन्तारूपेण ज्ञानयज्ञेनैकत्वेन भेदव्यावृत्त्या मामेवोपासते चिन्तयन्त्युत्तमाः। अन्ये तु केचिन्मध्यमाः पृथक्त्वेनोपास्योपासकयोर्भेदेनआदित्यो ब्रह्मेत्यादेशः इत्यादिश्रुत्युक्तेन प्रतीकोपासनरूपेण ज्ञानयज्ञेन मामेवोपासते। अन्येत्वहंग्रहोपासने वाऽसमर्थाः केचिन्मन्दाः कांचिदन्यां देवतां चोपासीनाः कानिचित्कर्माणि वा कुर्वाणा बहुधा तैस्तैर्बहुभिः प्रकारैर्विश्वरूपं सर्वात्मानं मामेवोपासते तेन तेन ज्ञानयज्ञेनेति उत्तरोत्तराणां क्रमेण पूर्वपूर्वभूमिलाभः।
।।9.15।।किंच -- ज्ञानेति। वासुदेवः सर्वमित्येवं सर्वात्मत्वदर्शनं ज्ञानं तदेव यज्ञस्तेन ज्ञानयज्ञेन मां यजन्तः पूजयन्तोऽन्येऽप्युपासते? तत्रापि केचिदेकत्वेन एकमेव परं ब्रह्मेति परमार्थदर्शनरूपाभेदभावनया? केचित्पृथक्त्वेन दासोऽहमिति पृथग्भावनया? केचित्तु विश्वतोमुखं सर्वात्मकं मां बहुधा ब्रह्मरुद्रादिरूपेणोपासते।
।।9.15।।भजन्त्यनन्यमनसः इत्यनन्यमनस्त्वेन प्रथममुपासनं विशेषितम् ततश्च कीर्तनादिभिरन्तरङ्गैः। अथ वेद्याकारविशेषप्रदर्शनेनापि तदेव विशेष्यतेज्ञानयज्ञेन इत्यादिनासदसच्चाहमर्जुन [9।19] इत्यन्तेन। चकारः पूर्वोक्तकीर्तनादिसमुच्चयार्थः। अपिस्तुअन्ये इत्यनेनान्वितः। अन्यथा नैरर्थक्यादित्यभिप्रायेणाहअन्येऽपीति। अन्यशब्दोऽत्र पूर्णोपासकपरः। यज्ञेन यजन्तः यज्ञेन प्रीणयन्त इत्यर्थः।बहुधा पृथक्त्वेन इत्यनेन समष्टिव्यष्टितदवान्तररूपसमस्तसङ्ग्रह इत्याहजगदाकारेणेति। विश्वतोमुखशब्दस्यात्र समभिव्याहारानुगुणं विवक्षितमाहविश्वप्रकारमिति। नन्वेकत्वेन पृथक्त्वेन चोपासत इत्यन्वयः किं नोच्यते कथं चैकस्यैव सतो बहुत्वेनावस्थानम् तथाच सविकारत्वसंसारित्वादिदोषाश्च स्युः बहुधावस्थितस्यैकत्वेनोपासितुर्दृष्टिविधिवद्भ्रान्तिश्च स्यादित्यत्राहएतदुक्तमिति। एतेन परोक्तप्रक्रिययोपासनविधात्रयपरत्वं भेदाभेदादिवर्णनं च प्रत्युक्तम्।भगवानित्यनेन,सृष्ट्याद्यौपयिकगुणप्रपञ्चप्रदर्शनम्। वासुदेवशब्दे प्रथमशिन सर्वसामानाधिकरण्यव्यपदेशनिदानसर्वशरीरकत्वपर्यवसितव्याप्तिविशेषः? द्वितीयांशेन सृष्टिप्रयोजनं क्रीडादिरेवेत्युच्यते। द्वाभ्यां च पदाभ्यां अनन्योपासकैकान्तिजनशीलितमन्त्रविशेषोऽपि स्मारितः। पृथिव्यादिबहुत्वमात्रस्य प्रत्यक्षादिसिद्धत्वादेकस्यैव सतो बहुत्वं हि शास्त्रवेद्यम् ततश्च तथाभूतैकत्व एवात्र वाक्यतात्पर्यम् तच्चैकस्य सर्वशरीरकत्वेन निर्व्यूढमिति न कश्चिद्दोषः।
।।9.15।।एवं भक्तानां भजनप्रकारमुक्त्वा ज्ञानिनामाह -- ज्ञानयज्ञेनेति। अन्ये ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन चापि ज्ञानात्मकयजनप्रकारेण चापि यजन्तो हृद्येव मां पूजयन्त उपासते भजन्त इत्यर्थः। अपिशब्देन चकारेण च पूर्वोक्तभजनापेक्षया हीनत्वं व्यज्यते। ज्ञानभजने बहवः प्रकाराः सन्ति? तानाह -- एकत्वेनसोऽहं ब्रह्मास्मि [ ] इति प्रकारेण पृथक्त्वेन योगेन शरणागमनरीत्या बहुधा सर्वत्र तद्रूपेण विश्वतोमुखं सर्वात्मकं माम्? एवमनेकप्रकारेण मामुपासते भजन्त इत्यर्थः।
।।9.15।।ज्ञानयज्ञेन निर्विकल्पसमाधिना पातञ्जलाः। एकत्वेन अहमेव भगवान्वासुदेव इत्यभेदेनौपनिषदाः। पृथक्त्वेन अयमीश्वरो ममस्वामीति बुद्ध्या प्राकृताः। अन्ये पुनर्बहुधा बहुप्रकारं विश्वतोमुखं सर्वैर्द्वारैर्यत्किंचिद्दृष्टं तद्भगवत्स्वरूपमेव? यच्छ्रुतं तत्तन्नामैव? यद्दत्तं भुक्तं वा तत्तदर्पितमेवेत्येवं विश्वतोमुखं यथा स्यात्तथा मामुपासते।
।।9.15।।एवमुपासनाप्रकारः सर्वोपासकसाधारणो दर्शितः। तत्रासाधारणं तमाह -- ज्ञानयज्ञेन। ज्ञानमेव परमात्मविषयं तत्पूजनरुपत्वाद्यज्ञस्तेन ज्ञानयज्ञेन यजन्तः पूजयन्तः मां परमात्मानमन्ये उत्तमाः। चकार उक्तानामनुक्तानां च,साधारणानामुपासनाप्रकाराणां समुच्चयार्थः। अपिशब्द इन्द्रादिदेवतोपासनापरित्यागार्थः। तथाचान्यामुपासनां परित्यज्य मामुपासत इत्यर्थः। तच्च ज्ञानमेकमेव परं ब्रह्मेति परमार्थदर्शनं तेन यजन्ते। यत्तु अन्ये पूर्वोक्तसाधनानुष्ठानासमर्था ज्ञानयज्ञेनत्वं वाहमस्मि भगवो देवतेऽहं वै त्वमसि इत्यादिश्रुत्युक्तमहंग्रहोपासनं ज्ञानमति तच्चिन्त्यम्। मुख्यामुख्ययोर्मुख्ये संभवत्यमुख्यग्रहणस्यान्याय्यत्वात्। एतेन ज्ञानयज्ञेन निर्विकल्पसमाधिना पातञ्चला इति प्रत्युक्तम्। केचिच्च स एव भगवान् बहुधा व्यवस्थितो विश्वतोमुखो विश्वरपस्तं बहुधा बहुप्रकारेण उपासते मन्दाः।
9.15 ज्ञानयज्ञेन with the wisdomsacrifice? च and? अपि also? अन्ये others? यजन्तः sacrificing? माम् Me?,उपासते worhsip? एकत्वेन as one? पृथक्त्वेन as different? बहुधा in various ways? विश्वतोमुखम् the Allfaced.Commentary Others too sacrificing by the wisdomsacrifice? i.e.? seeing the Self in all? adore Me the One and the manifold? present everywhere. They regard all the forms they see as the forms of God? all sounds they hear as the names of God. They give all objects they eat as offerings unto the Lord in vaious ways.Some adore Him with the knowledge that there is only one Reality? the Supreme Being Who is ExistenceKnowledgeBliss. They identify themselves with the Truth or Brahman. This is the Monistic view of the Vedantins. Some worship Him making a distinction between the Lord and themselves with the attitude of master and servant. This is the view of the Dualistic School of philosophy. Some worship Him with the knowledge that He exists as the various divinities? Brahma? Vishnu? Rudra? Siva? etc.Visvatomukham Others worship Him who has assumed all the manifold forms in the world? Who exists in all the forms as the Allfaced (the one Lord exists in all the different forms with His face on all sides? as it were). (Cf.IV.33)
9.15 Others also sacrificing with the wisdom-sacrifice worship Me, the All-faced, as one, as distinct, and as manifold.
9.15 Others worship Me with full consciousness as the One, the Manifold, the Omnipresent, the Universal.
9.15 Others verily worship Me by adoring exclusively through the sacrifice of the knowledge of oneness; (others worship Me) multifariously, and (others) as the multiformed existing variously.
9.15 Anye, others, giving up others forms of adoration; ca, verily; upasate, worship; mam, Me, God; yajantah, by adoring, glorifying; api, exclusively; jnana-yajnene ekatvena, through the sacrifice of the knowledge of oneness-knowledge of God itself being the sacrifice; and that knowledge consists in the realization of the highest truth that the supreme Brahman is verily one. Adoring with that (knowledge) they worship Me. And some others Me prthaktvena, multifariously-in different forms as the sun, moon, etc. They worship (Me) by thinking that, Visnu who is God Himself exists in different forms as the sun etc. Still others worship Me thinking that, that very God who is visvatomukhah, mulitiformed, who has His facr everywhere, i.e., who is the Cosmic Person; exists bahudha, variously. In numerous ways they worship Him, the Cosmic Person, who has His face everywhere. 'If they worship in numerous ways, how is it that they worship You alone?' Hence the Lord says:
9.15. [Of them] some worship Me by knowledge-sacrifice and others by offering sacrifices; [thus] they worship Me, the Universally-faced [either] as One [or] as Many.
9.13-15 Mahatmanah etc., upto Visvato-mukham. Divine nature i.e., of goodness. Offering sacrifices : i.e., by means of sacrifices with the external materials. But others worship Me with knowledge-sacrifice only. Hence through knowledge some [worship Me] as One, while others [worship Me] as Many through the action-Yoga. However all conceive Me alone, as their highest goal. But, action certainly abounds in the idea of duality, because it is coextensive with hosts of different causes (karakas). So how can it lead to the Absolute state ? It is answered [as] :
9.15 Other high-minded persons worship Me by singing My names, etc., already described; and they also perform the sacrifice called knowledge. They worship Me, who, by being 'characterised by diversity in various ways' in the form of the cosmos, is a multiform, namely, having all entities as modes (Prakaras) and also as One (the Prakari). The purport is this: The Lord Vasudeva alone, having the body comprising animate and inanimate entities in an extremely subtle form (in the state of Cosmic dissolution) incapable of distinctness by name and form, resolves by His unfailing true will power: 'May I become embodied in gross animate and inanimate entities, distinguished variously by name and form.' He alone then abides, with the variegated cosmos as His body, comprising gods, animals, men and immobile things. They worship Me by contemplating on Me thus. Therefore Sri Krsna declares: 'I, having the universe for My body, alone abide'.
9.15 Others, too, besides offering the sacrifice of knowledge, worship Me as One, who, characterised by diversity in numberless ways, is multiformed (in My Cosmic aspect).
।।9.15।।वे किसकिस प्रकारसे उपासना करते हैं सो कहते हैं --, कुछ ( ज्ञानीजन ) दूसरी उपासनाओंको छोड़कर भगवद्विषयक ज्ञानरूप यज्ञसे मेरा पूजन करते हुए उपसना किया करते हैं अर्थात् परमब्रह्म परमात्मा एक ही है? ऐसे एकत्वरूप परमार्थज्ञानसे पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं। और कोईकोई पृथक् भावसे अर्थात् आदित्य? चन्द्रमा आदिके भेदसे इस प्रकार समझकर उपासना करते हैं कि वही भगवान् विष्णु? सूर्य आदिके रूपमें स्थित हुए हैं। तथा कितने ही भक्त ऐसा समझकर कि वही सब ओर मुखवाले विश्वमूर्ति भगवान् अनेक रूपसे स्थित हो रहे हैं। उन विश्वरूप विराट् भगवान्हीकी विविध प्रकारसे उपासना करते हैं।
।।9.15।। -- --,ज्ञानयज्ञेन ज्ञानमेव भगवद्विषयं यज्ञः तेन ज्ञानयज्ञेन? यजन्तः पूजयन्तः माम् ईश्वरं च अपि अन्ये अन्याम् उपासनां परित्यज्य उपासते। तच्च ज्ञानम् -- एकत्वेन एकमेव परं ब्रह्म इति परमार्थदर्शनेन यजन्तः उपासते। केचिच्च पृथक्त्वेन, आदित्यचन्द्रादिभेदेन स एव भगवान् विष्णुः अवस्थितः इति उपासते। केचित् बहुधा अवस्थितः स एव भगवान् सर्वतोमुखः विश्वरुपः इति तं विश्वरूपं सर्वतोमुखं बहुधा बहुप्रकारेण उपासते।।यदि बहुभिः प्रकारैः उपासते? कथं त्वामेव उपासते इति? अत आह --,
।।9.15।।एकत्वेनाद्वैतभावनयेति व्याख्यानमसत्? मिथ्याभावनात्वादिति भावेनाह सर्वत्रेति। सर्वत्र स्थितो नारायण एक एवेति योजना। पृथक्त्वेनादित्यचन्द्रादिरूपेणेत्यसदिति (शं.) भावेनाह -- पृथक्त्वेनेति। अपरस्तु पृथक्त्वेनेत्येतत्सम्यग्व्याख्याय बहुधेत्येतदादित्यादिरूपेणेति व्याख्यातवानत आह -- बहुधेति। कथमित्यत आगमेनैव दर्शयति -- शुक्लमिवेति। इवशब्दोऽप्यर्थः। प्रकारान्तरेण व्याख्याति -- दैवमेवेति।
।।9.15।।सर्वत्र एक एव नारायणः स्थितः इत्येकत्वेन? पृथक्त्वेन सर्वतो वैलक्षण्येन। बहुधा हि तस्य रूपं,आभाति शुक्लमिव लोहितमिवाथो नीलमथोऽर्जुनं इति सनत्सुजाते [म.भा.5।44।26]दैवमेवापरे [4।25] इत्युक्तप्रकारेण बहवो वा बहुधा।
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते। एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।9.15।।
জ্ঞানযজ্ঞেন চাপ্যন্যে যজন্তো মামুপাসতে৷ একত্বেন পৃথক্ত্বেন বহুধা বিশ্বতোমুখম্৷৷9.15৷৷
জ্ঞানযজ্ঞেন চাপ্যন্যে যজন্তো মামুপাসতে৷ একত্বেন পৃথক্ত্বেন বহুধা বিশ্বতোমুখম্৷৷9.15৷৷
જ્ઞાનયજ્ઞેન ચાપ્યન્યે યજન્તો મામુપાસતે। એકત્વેન પૃથક્ત્વેન બહુધા વિશ્વતોમુખમ્।।9.15।।
ਜ੍ਞਾਨਯਜ੍ਞੇਨ ਚਾਪ੍ਯਨ੍ਯੇ ਯਜਨ੍ਤੋ ਮਾਮੁਪਾਸਤੇ। ਏਕਤ੍ਵੇਨ ਪਰਿਥਕ੍ਤ੍ਵੇਨ ਬਹੁਧਾ ਵਿਸ਼੍ਵਤੋਮੁਖਮ੍।।9.15।।
ಜ್ಞಾನಯಜ್ಞೇನ ಚಾಪ್ಯನ್ಯೇ ಯಜನ್ತೋ ಮಾಮುಪಾಸತೇ. ಏಕತ್ವೇನ ಪೃಥಕ್ತ್ವೇನ ಬಹುಧಾ ವಿಶ್ವತೋಮುಖಮ್৷৷9.15৷৷
ജ്ഞാനയജ്ഞേന ചാപ്യന്യേ യജന്തോ മാമുപാസതേ. ഏകത്വേന പൃഥക്ത്വേന ബഹുധാ വിശ്വതോമുഖമ്৷৷9.15৷৷
ଜ୍ଞାନଯଜ୍ଞେନ ଚାପ୍ଯନ୍ଯେ ଯଜନ୍ତୋ ମାମୁପାସତେ| ଏକତ୍ବେନ ପୃଥକ୍ତ୍ବେନ ବହୁଧା ବିଶ୍ବତୋମୁଖମ୍||9.15||
jñānayajñēna cāpyanyē yajantō māmupāsatē. ēkatvēna pṛthaktvēna bahudhā viśvatōmukham৷৷9.15৷৷
ஜ்ஞாநயஜ்ஞேந சாப்யந்யே யஜந்தோ மாமுபாஸதே. ஏகத்வேந பரிதக்த்வேந பஹுதா விஷ்வதோமுகம்৷৷9.15৷৷
జ్ఞానయజ్ఞేన చాప్యన్యే యజన్తో మాముపాసతే. ఏకత్వేన పృథక్త్వేన బహుధా విశ్వతోముఖమ్৷৷9.15৷৷
9.16
9
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।।9.16 -- 9.18।।  क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।
।।9.16।। मैं ऋक्रतु हूँ; मैं यज्ञ हूँ; स्वधा और औषध मैं हूँ, मैं मन्त्र हूँ, घी हूँ, मैं अग्नि हूँ और हुतं अर्थात् हवन कर्म मैं हूँ।।
।।9.16।।,इस श्लोक में उक्त विचार को इसके पूर्व भी एक प्रसिद्ध श्लोक में व्यक्त किया गया था। हवन क्रिया तथा उसमें प्रयुक्त विविध सामग्रियों के रूपक के द्वारा इस श्लोक में आत्मा की सर्वरूपता एवं सर्वात्मकता का बोध कराया गया है। कर्मकाण्ड में वर्णित कर्मानुष्ठान ही पूजाविधि है। वेदों में उपदिष्ट यज्ञ कर्म को क्रतु तथा स्मृतिग्रन्थों में कथित कर्म को ही यज्ञ कहा जाता है? जिसका अनुष्ठान महाभारत काल में किया जाता था। पितरों को दिया जाने वाला अन्न स्वधा कहलाता है। अर्जुन को यहाँ उपदेश में बताया गया है कि उपर्युक्त ये सब क्रतु आदि मैं ही हूँ।इतना ही नही वरन् यज्ञकर्म में प्रयुक्त औषधि? अग्नि में आहुति के रूप में अर्पित किया जाने वाला घी (आज्यम्)? अग्नि? कर्म में उच्चारित मन्त्र और हवन क्रिया ये सब विविध रूपों में आत्मा की ही अभिव्यक्ति हैं। जब स्वर्ण से अनेक आभूषण बनाये जाते हैं? तब स्वर्ण निश्चय ही यह कह सकता है कि मैं कुण्डल हूँ? मैं अंगूठी हूँ? मैं कण्ठी हूँ? मैं इन सब की चमक हूँ आदि। इसी प्रकार? आत्मा ही सब रूपों का? घटनाओं आदि का सारतत्त्व होने के कारण भगवान् श्रीकृष्ण का उक्त कथन दार्शनिक बुद्धि से सभी पाठकों को स्वीकार्य होगा।और --
।।9.16।। व्याख्या--[अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वासके अनुसार किसीको भी साक्षात् परमात्माका स्वरूप मानकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वास्तवमें यह सम्बन्ध सत्के साथ ही है। केवल अपने मन-बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञानके द्वारा मनुष्य सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्वको ही जानता है। परमात्माके सिवाय दूसरी किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया,आदिकी किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है--इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान् विराट्रूपसे अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं; अतः सब कुछ भगवान्-ही-भगवान् हैं -- इसमें अपनेको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिये। कारण कि 'यह सब भगवान् कैसे हो सकते हैं?' यह संदेह साधकको वास्तविक तत्त्वसे, मुक्तिसे वञ्चित कर देता है और महान् आफतमें फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़तासे मान लें कि कार्य-कारणरूपे स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान् ही हैं। इसी कार्य-कारणरूपसे भगवान्की सर्वव्यापकताका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है।]
।।9.16 -- 9.19।।ननु कर्म तावत् कारककलापव्याप्तभेदोद्रेकि कथमभिन्नं भगवत्पदं प्रापयतीति उच्यते -- अहं क्रतुरिति अर्जुनेत्यनन्तम्। एकस्यैव निर्भागस्य ब्रह्मतत्त्वस्य परिकल्पित [भेदवत्] साधनाधीनं कर्म पुनरेकत्वं निर्वर्तयति क्रियायाः सर्वकारकात्मसाक्षात्कारेणावस्थाने भगवत्पदप्राप्तिं प्रत्यविदूरत्वात्। उक्तं च -- सेयं क्रियात्मिका शक्तिः शिवस्य पशुवर्तिनी।बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता सिद्ध्युपपादिका।। (Spk? III? 16)इति मयाप्युक्तम् -- उपक्रमे यैव बुद्धिर्भावाभावानुयायिनी।उपसंहृतिकाले सा भावाभावानुयायिनी।।इति।तत्र तत्र वितत्य विचारितचरमेतत् इतीहोपरम्यते (S omits इति)। तपाम्यहमित्यादि अद्वैतकथाप्रसङ्गेनोक्तम्।
।।9.16।।अहं क्रतुः अहं ज्योतिष्टोमादिकक्रतुः अहम् एव यज्ञः महायज्ञः अहम् एव स्वधा पितृगणपुष्टिदायिनी औषधं हविः च अहम् एव। अहम् एव च मन्त्रः अहम् एव आज्यम्। प्रदर्शनार्थम् इदम्? सोमादिकं च हविः अहम् एव इत्यर्थः। अहम् आहवनीयादिकः अग्निः होमश्च अहम् एव।
।।9.16।।भगवदेकविषयमुपासनं तर्हि न सिध्यतीति शङ्कते -- यदीति। प्रकारभेदमादाय ध्यायन्तोऽपि भगवन्तमेव ध्यायन्ति तस्य सर्वात्मकत्वादित्याह -- अत आहेति। क्रतुयज्ञशब्दयोरपौनरुक्त्यं दर्शयन् व्याचष्टे -- श्रौत इत। क्रियाकारकफलजातं भगवदतिरिक्तं नास्तीति समुदायार्थः।
।।9.16।।अन्त्यपक्षमेव ज्ञानं सिद्धं विवृणोति -- अहमिति चतुर्भिश्चतुर्विधपुरुषार्थसिद्ध्यर्थम्। अत्र स्वस्य सर्वरूपत्वात्सर्वोऽहं इति वक्तव्यत्वेऽपि यत्तदेकदेशरूपेण कथनं तद्वैश्वानरद्वादशकपालादिवद्देवयुक्त्यानुवादेन। तत्पदयोजनं तु तत्तद्रूपं भजतां तेन रूपेण फलदानं वैश्वानरद्वादशकपालाष्टादशकपालादिकानां तथैव सिद्धत्वादिति तत्तद्रूपत्वं ज्ञात्वा मां भजतां मत्त एव सर्वं फलं इति बोधयितुमाह -- क्रतुरिति। क्रतुः श्रौतकर्मसु सङ्कल्पः अहं ब्रह्मैव। यज्ञः श्रौतः सोमादिरहम्। स्वधा पितृभ्यो दीयमानमन्नं नान्दीमुखादौ। औषधं व्रीह्यादिकमन्नं ब्रह्म। मन्त्रो गायत्र्यादिः? आथर्वणश्च ब्रह्मकर्मरूपोऽहं याज्यापुरोनुवाक्यादिरूपश्च। आज्यं घृतं सर्वहव्योपलक्षणमेतत्। अग्निस्त्रेतादिरूपोऽहं पञ्चाग्निविद्यासिद्धश्च। हुतं हविःप्रक्षेपोऽहं ब्रह्म। तदुपासनत्वेन ब्रह्मत्वं बोधयितुं प्रत्येकमहं शब्दः।
।।9.16।।यदि बहुधोपासते तर्हि कथं त्वामेवेत्याशङ्क्यात्मनो विश्वरूपत्वं प्रपञ्चयति चतुर्भिः -- सर्वस्वरूपोऽहमिति वक्तव्ये तत्तदेकदेशकथनमवयुत्यानुवादेन वैश्वानरे द्वादशकपालेऽष्टाकपालत्वादिकथनवत्। क्रतुः श्रौतोऽग्निष्टोमादिः? यज्ञः स्मार्तो वैश्वदेवादिर्महायज्ञत्वेन श्रुतिस्मृतिप्रसिद्धः? स्वधान्नं पितृभ्यो दीयमानं? औषधं ओषधिप्रभवमन्नं सर्वैः प्राणिभिर्भज्यमानं भेषजं वा। मन्त्रो याज्यापुरोनुवाक्यादिर्येनोद्दिश्य हविर्दीयते देवेभ्यः। आज्यं घृतम्। सर्वहविरुपलक्षणमिदम्। अग्निराहवनीयादिर्हविप्रक्षेपाधिकरणम्। हुतं हवनं हविःप्रक्षेपः। एतत्सर्वमहं परमेश्वर एव। एतदेकैकज्ञानमपि भगवदुपासनमिति कथयितुं प्रत्येकमहंशब्दः। क्रियाकारकफलजातं किमपि भगवदतिरिक्तं नास्तीति समुदायार्थः।
।।9.16।। सर्वात्मतां प्रपञ्चयति -- अहमिति चतुर्भिः। क्रतुः श्रौतोऽग्निष्टोमादिः? यज्ञस्तु स्मार्तः पञ्चयज्ञादिः? स्वधा पित्रर्थे श्राद्धादिः? औषधमोषधिप्रभवमन्नं भेषजं वा? मन्त्रो याज्यापुरोनुवाक्यादिः? आज्यं होमादिसाधनम्? अग्निराहवनीयादिः? हुतं होमः? एतत्सर्वमहमेव।
।।9.16।।यद्यपि परव्यूहादिरूपेणैकत्वपृथक्त्वे वक्तुं शक्ये? तथापि अनन्तरग्रन्थानुसारादुक्त एवार्थ इत्यभिप्रायेणअहं क्रतुः इत्यादिश्लोकचतुष्टयस्य प्रकृतसङ्गतमर्थं चाहतथाहीति।ज्योतिष्टोमादिक इत्यनेनमहायज्ञ इत्यनेन च विषयविशेषप्रदर्शनात् क्रतुयज्ञशब्दयोः पौनरुक्त्यपरिहारः। शारीरमानसश्रौतस्मार्तादिविभागस्तु न प्रसिद्ध्यनुसारीति भावः। महायज्ञः ब्रह्मयज्ञादिः पञ्चविधः। अविशेषादेवकारः सर्वत्रान्वेतव्यः। क्रतुतदवयवादिप्रसङ्गात् स्वधाशब्दसहपाठादाज्यस्य च पृथगुक्तत्वादोषधिविकारहविर्विशेषविषयोऽयमौषधशब्द इत्याहऔषधं हविश्चाहमेवेति। एतेन स्वधौषधशब्दयोरन्नभेषजादिपरत्वव्याख्या प्रत्युक्ता।विशेषविधिः शेषनिषेधार्थः इति शङ्कां परिहरतिप्रदर्शनार्थमिति। एवमुत्तरेष्वपि पितामहादिकथनं प्रपितामहादिप्रदर्शनार्थं ग्राह्यम्। अत्राग्निशब्दस्य प्रकरणविशेषाद्भूततृतीयादिमात्रविषयत्वं न युज्यत इत्यभिप्रायेणाह -- अहमाहवनीयादिकोऽग्निरिति। हविषां प्रागुक्तत्वादत्र हुतशब्दो भावार्थ इत्याह -- होमश्चेति।
।।9.16।।नन्वेकमेव त्वां बहुधा ये भजन्ति ते च ज्ञानिन एव? तेषामज्ञाने ज्ञाने कथं प्रवेशः इत्याशङ्क्य तत्तदात्मकं मां ज्ञात्वैव भजन्तीति ज्ञापनाय स्वस्य सर्वात्मत्वं प्रकटयति -- क्रतुरित्यादिचतुर्भिः। क्रतुः यज्ञाधिष्ठात्री देवता अहम्? आधिदैविकरूपस्तत्फलदातेत्यर्थः। यज्ञो धर्मात्मकोऽग्निहोत्रादिर्यज्ञात्मकोऽहम्। स्वधा पित्रर्थे श्राद्धादिपितृयज्ञरूपोऽहम्। औषधं सकलरोगनिवर्तनात्मकभैषज्यरूपोऽन्नरूपो वा अहम्। मन्त्रः ऋगादिरहम्। आज्यं होमद्रव्यं हविः। अग्निराहवनीयादिः। हुतं होमः।
।।9.16।।इदमेवोपासनं विवृणोति -- अहमिति। क्रतुः संकल्पो देवताध्यानरूपः। यज्ञः श्रौतः स्मार्तश्च देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागः। स्वधा पितृ़णामन्नम्। औषधं मनुष्याणामन्नम्। मन्त्रो येन दीयते सः। आज्यं हविः। अग्निः। हुतं प्रक्षेपक्रिया। इदं सर्वं यस्मादहमेवातस्तेषां विश्वतोमुखमुपासनं युक्ततरमित्यर्थः।
।।9.16।।ननु बहुभिः प्रकारैः यदि उपासते तर्हि कथं तेषां त्वदेकविषयमुपासनं सिध्यतीत्याशङ्क्य तत्तत्प्रकारभेदेन ध्यायन्तोऽपि मामेव ध्यायन्ति सर्वात्मकत्वान्ममेत्याशयेनाह -- अहमित्यादिना। अहं क्रतुः श्रौतः कर्मभेदोऽहमेवं। ननु क्रतुः संकल्पो देवताध्यानरुप इति भाष्यकृद्भिः कुतो न व्याख्यातमितिचेत्? यज्ञादिसमभिव्याहारादिति गृहाण। यज्ञः स्मार्तकर्मभेदो वैश्वदेवादिः सोऽप्यहमेव। पितृभ्योद्दीयतेऽन्नं तत्स्वधाशब्देन ग्राह्यम्। सर्वप्राणिभिर्यदद्यतेऽन्नं तदौषधम्। यद्वा स्वधाशब्देन साधारणमन्नं गृह्यते। औषधशब्देन व्याधिनिवर्तकमौषधम्। येन पितृभ्यो देवेभ्यश्च हविर्दीयते स मन्त्रः आज्यं हविः यस्मिन्हूयते सोऽग्निः हुतं हवनकर्मक्रियाकारकफलजातं मह्यतिरिक्तं नास्तीति समुदायार्थः।
9.16 अहम् I? क्रतुः sacrifice? अहम् I? यज्ञः the sacrifice? स्वधा the offering to Pitris or ancestors? अहम् I? अहम् I? औषधम् the medicinal herbs and all plants? मन्त्रः sacred syllable? अहम् I? अहम् I? एव also? आज्यम् ghee or clarified butter? अहम् I? अग्निः the fire? अहम् I? हुतम् the offering.Commentary Kratu is a kind of Vedic sacrifice.Yajna is the worship enjoined in the Smriti or the holy books laying down lay and the code of conduct.I am the Mantra? the chant with which the oblation is offered to the manes or ancestors? and the shining ones (the Devatas or gods).Hutam also means the act of offering.Aushadham All plants including rice and barley or medicine that can cure diseases. (Cf.IV.24)
9.16 I am the Kratu; I am the Yajna; I am the offering (food) to the manes; I am the medicinal herbs and all the plants; I am the Mantra; I am also the Ghee or the melted butter; I am the fire; I am the oblation.
9.16 I am the Oblation, the Sacrifice and the Worship; I am the Fuel and the Chant, I am the Butter offered to the fire, I am the Fire itself, and I am the Act of offering.
9.16 I am the kratu, I am the yajna, I am the svadha, I am the ausadha, I am the mantra, I Myself am the ajya, I am the fire, and I am the act of offering.
9.16 Aham, I; am the kratuh, a kind of Vedic sacrifice; I Myself am the yajnah, sacrifice as prescribed by the Smrtis; further, I am svadha, the food that is offered to the manes; I am ausadham-by which word is meant the food that is eaten by all creatures. Or, svadha means food in general of all creatures, and ausadha means medicine for curing diseases. I am the mantra with which offering is made to manes and gods. I Myself am the ajyam, oblations; and I am agnih, the fire-I Myself am the fire into which the oblation is poured. And I am the hutam, act of offering. Besides,
9.16. I am determination; I am sacrifice; I am Svadha; I am the juice of the herb; I am the (Vedic) hymn; I am alone the clarified butter also; I am the [sacrificial] fire; (and) I am the act of offering.
9.16 See Comment under 9.19
9.16 I am the Kratu, namely, I am Jyotistoma and other Vedic sacrifices. I alone am the Great Sacrifice (the fivefold sacrifices). I am the Svadha, the libation offered to nourish the hosts of manes. I am the herb, namely, oblation. I am the Mantra. I alone am the clarified butter. This implies other illustrations also. I alone am the oblation of Soma etc. Such is the meaning. I am the fire such as Ahavaniya etc. I am the act of offering into fire.
9.16 I am the Kratu. I am the sacrifice. I am the offering to the manes. I am the herb. I am the Mantra. I am Myself the clarified butter. I am the fire. I am the oblation.
।।9.16।।यदि भक्तलोग बहुत प्रकारसे उपासना करते हैं तो आपकी ही उपासना कैसे करते हैं इसपर कहते हैं --, क्रतु -- श्रौतयज्ञविशेष मैं हूँ और यज्ञस्मार्तकर्मविशेष भी मैं ही हूँ। तथा जो पितरोंको दिया जाता है? वह स्वधा नामक अन्न भी मैं ही हूँ। सब प्राणियोंसे जो खायी जाती है? उसका नाम औषध है? वह औषध भी मैं ही हूँ। अथवा यों समझो कि सब प्राणियोंका साधारण अन्न स्वधा है और व्याधिका नाश करनेके लिये काममें ली जानेवाली भेषज औषध है। तथा जिसके द्वारा देव और पितरोंको हवि पहुँचायी जाती है वह मन्त्र भी मैं ही हूँ। इसके अतिरिक्त मैं ही आज्य हविघृत हूँ? जिसमें होम किया जाता है वह अग्नि भी मैं ही हूँ और मैं ही हवनरूपकर्म भी हूँ।
।।9.16।। --,अहं क्रतुः श्रौतकर्मभेदः अहमेव। अहं यज्ञः स्मार्तः। किञ्च स्वधा अन्नम् अहम्? पितृभ्यो यत् दीयते। अहम् औषधं सर्वप्राणिभिः यत् अद्यते तत् औषधशब्दशब्दितं व्रीहियवादिसाधारणम्। अथवा स्वधा इति सर्वप्राणिसाधारणम् अन्नम्? औषधम् इति व्याध्युपशमनार्थं भेषजम्। मन्त्रः अहम्? येन पितृभ्यो देवताभ्यश्च हविः दीयते। अहमेव आज्यं हविश्च। अहम् अग्निः? यस्मिन् हूयते हविः सः अग्निः अहम्। अहं हुतं हवनकर्म च।।किञ्च --,
।।9.16।।विश्वतोमुखं इत्युक्तं सर्वात्मकत्वं प्रपञ्चयत्युत्तरेण इत्यन्यथा व्याख्याननिरासार्थमाह -- प्रतिज्ञातमिति। अन्यथा प्रतिज्ञातानुक्तिप्रसङ्ग इति भावः। व्याख्यानं तुरसोऽहमप्सु [7।8] इत्यादेरिव द्रष्टव्यम्।क्रतवः इति क्रतुयज्ञशब्दयोरर्थभेदमाह। सामान्यविशेषभावेन भेद इत्यर्थः।
।।9.16।।प्रतिज्ञातं विज्ञानमाह -- अहं क्रतुरित्यादिना। क्रतवोऽग्निष्टोमादयः। यज्ञो देवतामुद्दिश्य द्रव्यपरित्यागः।उद्दिश्य देवान्द्रव्याणां त्यागो यज्ञ इतीरितः इत्यभिधानात्।
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाऽहमहमौषधम्। मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।9.16।।
অহং ক্রতুরহং যজ্ঞঃ স্বধাহমহমৌষধম্৷ মংত্রোহমহমেবাজ্যমহমগ্নিরহং হুতম্৷৷9.16৷৷
অহং ক্রতুরহং যজ্ঞঃ স্বধাহমহমৌষধম্৷ মংত্রোহমহমেবাজ্যমহমগ্নিরহং হুতম্৷৷9.16৷৷
અહં ક્રતુરહં યજ્ઞઃ સ્વધાહમહમૌષધમ્। મંત્રોહમહમેવાજ્યમહમગ્નિરહં હુતમ્।।9.16।।
ਅਹਂ ਕ੍ਰਤੁਰਹਂ ਯਜ੍ਞ ਸ੍ਵਧਾਹਮਹਮੌਸ਼ਧਮ੍। ਮਂਤ੍ਰੋਹਮਹਮੇਵਾਜ੍ਯਮਹਮਗ੍ਨਿਰਹਂ ਹੁਤਮ੍।।9.16।।
ಅಹಂ ಕ್ರತುರಹಂ ಯಜ್ಞಃ ಸ್ವಧಾಹಮಹಮೌಷಧಮ್. ಮಂತ್ರೋಹಮಹಮೇವಾಜ್ಯಮಹಮಗ್ನಿರಹಂ ಹುತಮ್৷৷9.16৷৷
അഹം ക്രതുരഹം യജ്ഞഃ സ്വധാഹമഹമൌഷധമ്. മംത്രോഹമഹമേവാജ്യമഹമഗ്നിരഹം ഹുതമ്৷৷9.16৷৷
ଅହଂ କ୍ରତୁରହଂ ଯଜ୍ଞଃ ସ୍ବଧାହମହମୌଷଧମ୍| ମଂତ୍ରୋହମହମେବାଜ୍ଯମହମଗ୍ନିରହଂ ହୁତମ୍||9.16||
ahaṅ kraturahaṅ yajñaḥ svadhā.hamahamauṣadham. maṅtrō.hamahamēvājyamahamagnirahaṅ hutam৷৷9.16৷৷
அஹஂ க்ரதுரஹஂ யஜ்ஞஃ ஸ்வதாஹமஹமௌஷதம். மஂத்ரோஹமஹமேவாஜ்யமஹமக்நிரஹஂ ஹுதம்৷৷9.16৷৷
అహం క్రతురహం యజ్ఞః స్వధాహమహమౌషధమ్. మంత్రోహమహమేవాజ్యమహమగ్నిరహం హుతమ్৷৷9.16৷৷
9.17
9
17
।।9.16 -- 9.18।। क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत् का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।
।।9.17।। मैं ही इस जगत् का पिता, माता, धाता (धारण करने वाला) और पितामह हूँमैं वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ, पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।।
।।9.17।। आत्मा कोई अस्पष्ट? अगोचर सत् तत्त्व नहीं कि जो भावरहित? संबंध रहित और गुण रहित हो। यह दर्शाने के लिए कि यही आत्मा ईश्वर के रूप में परम प्रेमस्वरूप है? परिच्छिन्न जगत् के साथ उसके सम्बन्धों को यहाँ दर्शाया गया है। मैं जगत् का पिता? माता? धाता और पितामह हूँ। माता? पिता और धाता इन तीनों से अभिप्राय यह है कि वह जगत् का एकमात्र कारण है और उसका कोई कारण नहीं है। यह तथ्य पितामह शब्द से दर्शाया गया है। परमात्मा स्वयं सिद्ध है।यहाँ विशेष बल देकर कहा गया है कि जानने योग्य एकमेव वस्तु (वेद्य) मैं हूँ। इस बात को सभी धर्मशास्त्रों में बारम्बार कहा गया है आत्मा वह तत्त्व है जिसे जान लेने पर? अन्य सब कुछ ज्ञात हो जाता है। आत्मबोध से अपूर्णता का? सांसारिक जीवन का और मर्मबेधी दुखों का अन्त हो जाता है। देहधारी जीव के रूप में जीने का अर्थ है? अपनी दैवी सार्मथ्य से निष्कासित जीवन को जीना। वास्तव में हम तो दैवी सार्मथ्य के उत्तराधिकारी हैं परन्तु अज्ञानवश जीव भाव को प्राप्त हो गये हैं। अपने इस परमानन्द स्वरूप का साक्षात्कार करना ही वह परम पुरुषार्थ है? जो मनुष्य को पूर्णतया सन्तुष्ट कर सकता है।सम्पूर्ण विश्व के अधिष्ठान आत्मा को वेदों में ओंकार के द्वारा सूचित किया गया है। हम अपने जीवन में अनुभवों की तीन अवस्थाओं से गुजरते हैं जाग्रत्? स्वप्न और सुषुप्ति। इन तीनों अवस्थाओं का अधिष्ठान और ज्ञाता (अनुभव करने वाला) इन तीनों से भिन्न होना चाहिए? क्योंकि ज्ञाता ज्ञेय वस्तुओं से और अधिष्ठान अध्यस्त से भिन्न होता है।इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न उस तत्त्व को? जो इन को धारण किये हुये है? उपनिषद् के ऋषियों ने तुरीय अर्थात् चतुर्थ कहा है। इन चारों को जिस एक शब्द के द्वारा वेदों में सूचित किया गया है वह शब्द है । ओम् ही आत्मा है? जिसकी उपासना के लिए भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा श्रीमद्भागवत में वर्णित है।प्रणव के द्वारा लक्षित आत्मा ही वेद्य वस्तु है? जो पारमार्थिक सत्य है? जिसको कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष अथवा मौनरूप से वेदों में निर्देशित किया गया है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि मैं ऋग्वेद? सामवेद और यजुर्वेद हूँ।आगे कहते हैं --
।।9.17।। व्याख्या--[अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वासके अनुसार किसीको भी साक्षात् परमात्माका स्वरूप मानकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वास्तवमें यह सम्बन्ध सत्के साथ ही है। केवल अपने मन-बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञानके द्वारा मनुष्य सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्वको ही जानता है। परमात्माके सिवाय दूसरी किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया,आदिकी किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है -- इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान् विराट्रूपसे अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं; अतः सब कुछ भगवान्-ही-भगवान् हैं-- इसमें अपनेको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिये। कारण कि 'यह सब भगवान् कैसे हो सकते हैं?' यह संदेह साधकको वास्तविक तत्त्वसे, मुक्तिसे वञ्चित कर देता है और महान् आफतमें फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़तासे मान लें कि कार्य-कारणरूपे स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान् ही हैं। इसी कार्यकारणरूपसे भगवान्की सर्वव्यापकताका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है।]
।।9.16 -- 9.19।।ननु कर्म तावत् कारककलापव्याप्तभेदोद्रेकि कथमभिन्नं भगवत्पदं प्रापयतीति उच्यते -- अहं क्रतुरिति अर्जुनेत्यनन्तम्। एकस्यैव निर्भागस्य ब्रह्मतत्त्वस्य परिकल्पित [भेदवत्] साधनाधीनं कर्म पुनरेकत्वं निर्वर्तयति क्रियायाः सर्वकारकात्मसाक्षात्कारेणावस्थाने भगवत्पदप्राप्तिं प्रत्यविदूरत्वात्। उक्तं च -- सेयं क्रियात्मिका शक्तिः शिवस्य पशुवर्तिनी।बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता सिद्ध्युपपादिका।। (Spk? III? 16)इति मयाप्युक्तम् -- उपक्रमे यैव बुद्धिर्भावाभावानुयायिनी।उपसंहृतिकाले सा भावाभावानुयायिनी।।इति।तत्र तत्र वितत्य विचारितचरमेतत् इतीहोपरम्यते (S omits इति)। तपाम्यहमित्यादि अद्वैतकथाप्रसङ्गेनोक्तम्।
।।9.17।।अस्य स्थावरजङ्गमात्मकस्य जगतः तत्र तत्र पितृत्वेन मातृत्वेन धातृत्वेन पितामहत्वेन च वर्तमानः अहम् एव। अत्र धातृशब्दो मातृपितृव्यतिरिक्ते उत्पत्तिप्रयोजके चेतनविशेषे वर्तते। यत् किञ्चिद् वेद वेद्यं पवित्रं पावनं तद् अहम् एव। वेदकश्च वेदबीजभूतः प्रणवः अहम् एव। ऋक्सामयजुरात्मको वेदश्च अहम् एव।
।।9.17।।इतश्च भगवतः सर्वात्मकत्वमनुमन्तव्यमित्याह -- किञ्चेति। पवित्रं पूयतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या परिशुद्धिकारणं पुण्यं कर्मेत्याह -- पावनमिति। वेदितव्ये ब्रह्मणि वेदनसाधनमोङ्कारस्तत्र प्रमाणमृगादि। चकारादथर्वाङ्गिरसो गृह्यन्ते।
।।9.17।।किञ्च ब्रह्मयज्ञे जगतो यजमानस्य पिताऽस्मि जनकः सोऽहम्। माता चाहम्। धाताऽन्वाधाता। यजमानश्चाहं ब्रह्मैव?ब्रह्मणा हुतं [4।24] इति पूर्वसूत्रितत्वात्। पितामहश्चाहं स्मार्त्ते श्राद्धे त्रयाणामुपदेशात्। तत्र वेद्यं यज्ञरूपं चाहमेव। पवित्रं शोधनं प्रायश्चित्तादिरूपमहम्। कार इति मन्त्राणामाद्युच्चार्यमाणः,प्रणवाख्योऽहम्। तत्र ऋक्साम यजुरेव च -- ऋक् पादबद्धं वाक्यं? साम गीतियुक्तं वाक्यं? यजुः पादगीतिभ्यां रहितं वाक्यम्। चकारोऽथर्वाङ्गिरसां समुच्चायकः त्रयः सोऽहमेव।
।।9.17।।किंच -- अस्य जगतः सर्वस्य प्राणिजातस्य पिता जनयिता माता जनयित्री धाता पोषयिता तत्तत्कर्मफलविधाता वा पितामहः पितुः पिता वेद्यं वेदितव्यं वस्तु पूयतेऽनेनेति पवित्रं पावनं शुद्धिहेतुर्गङ्गास्नानगायत्रीजपादि। वेदितव्ये ब्रह्मणि वेदनसाधनमोङ्करः। नियताक्षरपादा ऋक्। गीतिविशिष्टा सैव साम। सामपदं तु गीतिमात्रस्यैवाभिधायकमित्यन्यत्। गीतिरहितमनियताक्षरं यजुः। एतत्ित्रविधं मन्त्रजातं,कर्मोपयोगि। चकारादथर्वाङ्गिरसोपि गृह्यन्ते। एवकारोऽहमेवेत्यवधारणार्थः।
।।9.17।।किंच -- पितेति। धाता कर्मफलविधाता? वेद्यं ज्ञेयं वस्तु? पवित्रं शोधकं प्रायश्चित्तात्मकं वा? ओंकारः प्रणवः? ऋग्वेदादयो वेदाश्च अहमेव? स्पष्टमन्यत्।
।।9.17।।पिताऽहमस्य इत्यादौ न स्वस्वरूपेण पितृत्वादिकमिहोच्यते अपितु पितृत्वादिरूपेण प्रतिपन्नानां स्वान्तर्यामिकत्वम्। तथा सति हि प्रकृतसङ्गतिरित्यभिप्रायेणाहअस्येति। स्थावरेष्वपि तानि तानि कारणानीश्वरशरीराणीति तत्रापि तस्य पितृत्वादिव्यवहारः। धातृशब्दो हि स्रष्ट्टचेतनविशेषपरतया प्रसिद्धः ततश्चात्र पौनरुक्त्यमित्याशङ्क्याहअत्रेति। गोबलीवर्दन्यायादिति भावः। एकस्यैव सर्वपितृत्वाद्यभावात् प्रतिनियतप्रदर्शनायतत्रतत्रेत्युक्तम्।अत्रेति -- पित्रादि समभिव्याहृतत्वादित्यर्थः। रुद्रेन्द्रादिसहपाठे हि चतुर्मुखपरतेति भावः। धात्वर्थभूतधारणादिद्वारोत्पत्तिप्रयोजकत्वम्। वेद्यत्वमात्रस्य सर्वसाधारण्यात् वेद्यपवित्रशब्दयोर्विशेषणविशेष्यभावेन अन्वयः सम्भवन्प्रतीयमानो बाधकाभावान्न त्याज्य इत्यभिप्रायेणाहयत्किञ्चिदिति। वेदनस्यानन्तरमभिधीयमानत्वात् पवित्रत्वसामर्थ्याच्चवेदवेद्यमित्युक्तम्। नपुंसकनिर्देशाद्विशेषकाभावाच्च अनुक्तसमस्तवेदवेद्यसङ्ग्रहविषयोऽयमिति ज्ञापनाययत्किञ्चिच्छब्दः।,सङ्कोचकसंज्ञापरत्वव्युदासायपावनमित्युक्तम्। सम्प्रति सम्बन्धिनिर्देशमध्यपाताद्वेद्यप्रतिसम्बन्धिनिर्देशरूपत्वज्ञापनायवेदकश्चेत्युक्तम्। ऋक्सामयजुषां पृथगभिधानेऽपि तदनुप्रविष्टस्य प्रणवस्य पृथगुक्तिः किमभिप्रायेत्यत्राहवेदबीजभूत इति।
।।9.17।।किञ्च। अस्य जगतो मदात्मकस्य अहमेव पिता उत्पादकः। माता योनिः। धाता कर्मफलदाता। पितामहो ब्रह्मा। वेद्यं सर्वज्ञानादिसाधनैर्वेद्यवस्तु। पवित्रं पावनम्। कारः अक्षरात्मकब्रह्मबीजम्? ऋगादिः वेदत्रयात्मा।
।।9.17।।धाता कर्मफलानां विकर्ता। वेद्यं वेदितव्यं ब्रह्म। पवित्रं पावनं तप आदिकम्।
।।9.17।।किंचास्य प्रत्यक्षादिसन्निधापितस्य जगतः स्थावरजंगमात्मकस्याहं पितोत्पादयिता माता जनयित्री घाता कर्मफलस्य प्राणिभ्यो विधाता पितुः पुता पितामहः वेद्यं वेदितव्यं ब्रह्मादि तद्वेदनसाधनमपि अहमेवेत्याह -- पवित्रमित्यादि। पूयतेऽनेनेति पवित्रं पावनं यज्ञदानादि। ऊँकारः प्रणवः। ऋक् ऋग्वेदः एवमग्रेऽपि। चकारादथर्वाङ्गिरसो गृह्यन्ते।
9.17 पिता father? अहम् I? अस्य of this? जगतः world? माता mother? धाता the dispenser of the fruits of actions? पितामहः grandfather? वेद्यम् the (one) thing to be known? पवित्रम् the purifier? ओंकारः the Omkara? ऋक् Rik? साम Sama? यजुः Yajus? एव also? च and.Commentary Dhata Supporter or sustainer by dispenser of the fruits of actions.Isvara or the Saguna Brahman is the father. MulaPrakriti or the primordial Nature is the mother. The pure Satchidananda Para Brahman (ExistenceKnowledgeBliss Absolute) is the grandfather.Vedyam The one thing to be known. This is the Supreme Being.Pavitram Purifier. I am of the form of a bath in the holy river Ganga and the Gayatri Japa which purify the aspirants externally and internally.Cha and. This includes the AtharvanaVeda also. (Cf.XIV.3)
9.17 I am the father of this world, the mother, the dispenser of the fruits of actions and the grandfather; the (one) thing to be known, the purifier, the sacred monosyllable (Om), and also the Rik-, the Sama-and the Yajur-Vedas.
9.17 I am the Father of the universe and its Mother; I am its Nourisher and its Grandfather; I am the Knowable and the Pure; I am Om; and I am the Sacred Scriptures.
9.17 Of this world I am the father, mother, ordainer, (and the), grand-father; I am the knowable, the sancitifier, the syllable Om as also Rk, Sama and Yajus.
9.17 Asya, of this; jagatah, world; aham, I; am pita, the father; mata, the mother; dhata, ordainer, dispenser of the results of their actions to the creatures; (and the) pirtamahah, grand-father. I am the vedayam, knowable-that which has to be known; the pavitram, sanctifier; [Virtuous actions.] and the onkarah, syllable Om; eva ca, as also Rk, Sama and Yajus. [Brahman, which has to be known, is realizable through Om, regarding which fact the three Vedas are the authority. The ca (as also) is suggestive of the Atharva-veda.] Moreover,
9.17. I am the father, the mother, the sustainer and the paternal-grandsire of this world; [I am] the sacred object of knowledge, the syullable Om, the Rk, the Saman, and the Yajus too.
9.17 See Comment under 9.19
9.17 Of the world consisting of mobile and immobile entities, I alone am the father, mother, creator and grandfather. Here the term Dhatr stands for one other than the parents who helps in the birth of a particular person. Whatever is known from theVedas as purifying, I alone am that. I am the Pranava, which originates knowledge and forms the seed of the Vedas. I am the Veda comprising Rk, Saman and Yajus.
9.17 I am the father, mother, creator and grandfather of the universe. I am the purifier. I am the syllable Om and also Rk, Saman and the Yajus.
।।9.17।।तथा --, मैं ही इस जगत्को उत्पन्न करनेवाला पिता और उसकी जन्मदात्री माता हूँ तथा मैं ही प्राणियोंके कर्मफलका विधान करनेवाला विधाता और पितामह अर्थात् पिताका पिता हूँ तथा जाननेके योग्य? पवित्र करनेवाला? ओंकार? ऋग्वेद? सामवेद और यजुर्वेद सब कुछ मैं ही हूँ।
।।9.17।। --,पिता जनयिता अहम् अस्य जगतः? माता जनयित्री? धाता कर्मफलस्य प्राणिभ्यो विधाता? पितामहः पितुः पिता? वेद्यं वेदितव्यम्? पवित्रं पावनम् ओंकारः? ऋक् साम यजुः एव च।।किञ्च --,
null
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पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामहः। वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।9.17।।
পিতাহমস্য জগতো মাতা ধাতা পিতামহঃ৷ বেদ্যং পবিত্রমোংকার ঋক্ সাম যজুরেব চ৷৷9.17৷৷
পিতাহমস্য জগতো মাতা ধাতা পিতামহঃ৷ বেদ্যং পবিত্রমোংকার ঋক্ সাম যজুরেব চ৷৷9.17৷৷
પિતાહમસ્ય જગતો માતા ધાતા પિતામહઃ। વેદ્યં પવિત્રમોંકાર ઋક્ સામ યજુરેવ ચ।।9.17।।
ਪਿਤਾਹਮਸ੍ਯ ਜਗਤੋ ਮਾਤਾ ਧਾਤਾ ਪਿਤਾਮਹ। ਵੇਦ੍ਯਂ ਪਵਿਤ੍ਰਮੋਂਕਾਰ ਰਿਕ੍ ਸਾਮ ਯਜੁਰੇਵ ਚ।।9.17।।
ಪಿತಾಹಮಸ್ಯ ಜಗತೋ ಮಾತಾ ಧಾತಾ ಪಿತಾಮಹಃ. ವೇದ್ಯಂ ಪವಿತ್ರಮೋಂಕಾರ ಋಕ್ ಸಾಮ ಯಜುರೇವ ಚ৷৷9.17৷৷
പിതാഹമസ്യ ജഗതോ മാതാ ധാതാ പിതാമഹഃ. വേദ്യം പവിത്രമോംകാര ഋക് സാമ യജുരേവ ച৷৷9.17৷৷
ପିତାହମସ୍ଯ ଜଗତୋ ମାତା ଧାତା ପିତାମହଃ| ବେଦ୍ଯଂ ପବିତ୍ରମୋଂକାର ଋକ୍ ସାମ ଯଜୁରେବ ଚ||9.17||
pitā.hamasya jagatō mātā dhātā pitāmahaḥ. vēdyaṅ pavitramōṅkāra ṛk sāma yajurēva ca৷৷9.17৷৷
பிதாஹமஸ்ய ஜகதோ மாதா தாதா பிதாமஹஃ. வேத்யஂ பவித்ரமோஂகார றக் ஸாம யஜுரேவ ச৷৷9.17৷৷
పితాహమస్య జగతో మాతా ధాతా పితామహః. వేద్యం పవిత్రమోంకార ఋక్ సామ యజురేవ చ৷৷9.17৷৷
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।।9.16 -- 9.18।।  क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।
।।9.18।। गति (लक्ष्य), भरण-पोषण करने वाला, प्रभु (स्वामी), साक्षी, निवास, शरणस्थान तथा मित्र और उत्पत्ति, प्रलयरूप तथा स्थान (आधार), निधान और अव्यय कारण भी मैं हूँ।।
।।9.18।। आत्मस्वरूप का वर्णन करने वाले प्रसंग का ही यहाँ विस्तार है। आत्मा अधिष्ठान है इस सम्पूर्ण दृश्यमान नानाविध जगत् का? जो हमें आत्मअज्ञान की दशा में प्रतीत हो रहा है। वास्तव में यह परम सत्य पर अध्यारोपित है। आत्मस्वरूप से तादात्म्य कर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं का वर्णन अनेक सांकेतिक शब्दों के द्वारा करते हैं। ऐसे इन सारगर्भित शब्दों से निर्मित मालारूपी यह एक अत्युत्तम श्लोक है? जिस पर सभी साधकों को मनन करना चाहिए।मैं गति हूँ पूर्णत्व के अनुभव में हमारी समस्त अपूर्णताएं नष्ट हो जाती हैं और उसके साथ ही अनादि काल से चली आ रही परम आनन्द की हमारी खोज भी समाप्त हो जाती है। रज्जु (रस्सी) में मिथ्या सर्प को देखकर भयभीत हुए पुरुष को सांत्वना और सन्तोष तभी मिलता है? जब रस्सी के ज्ञान से सर्प भ्रम की निवृत्ति हो जाती है। दुखपूर्ण प्रतीत होने वाले इस जगत् का अधिष्ठान आत्मा है। उस आत्मा का साक्षात्कार करने का अर्थ है समस्त श्वासरोधक बन्धनों के परे चले जाना। वह पारमार्थिक ज्ञान जिसे जानकर अन्य सब कुछ ज्ञात हो जाता है? उसे यहाँ आत्मा के रूप में दर्शाया गया है।मैं भर्ता हूँ जैसे रेगिस्तान उस मृगजल का आधार है धारण करने वाला है? जिसे एक प्यासा व्यक्ति भ्रान्ति से देखता है? वैसे ही? आत्मा सबको धारण करने वाला है। अपने सत्स्वरूप से वह इन्द्रियगोचर वस्तुओं को सत्ता प्रदान करता है? और समस्त परिवर्तनों के प्रवाह को एक धारा में बांधकर रखता है। इसके कारण ही अनुभवों की अखण्ड धारा रूप जीवन का हमें अनुभव होता है।मैं प्रभु हूँ यद्यपि समस्त कर्म उपाधियों के द्वारा किये जाते हैं? परन्तु वे स्वयं जड़ होने के कारण यह स्पष्ट होता है कि उन्हें चेतनता किसी अन्य से प्राप्त हुई है। वह चेतन तत्त्व आत्मा है। उसके अभाव में उपाधियाँ कर्म में असमर्थ होती है इसलिए यह आत्मा ही उनका प्रभु अर्थात् स्वामी है।मैं साक्षी हूँ यद्यपि आत्मा चैतन्य स्वरूप होने के कारण जड़ उपाधियों को चेतनता प्रदान करता है? तथापि वह स्वयं संसार के आभासिक और भ्रान्तिजन्य सुखों एवं दुखों के परे होता है। इस दृश्य जगत् को आत्मा से ही अस्तित्व प्राप्त हुआ है? परन्तु स्वयं आत्मा मात्र साक्षी है। साक्षी उसे कहते हैं जो किसी घटना को घटित होते हुए समीप से देखता है? परन्तु उसका घटना से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता। बिना किसी राग या द्वेष के वह उस घटना को देखता है। जब किसी व्यक्ति की उपस्थिति में कोई घटना स्वत हो जाती है? तब वह व्यक्ति उसका साक्षी कहलाता है। अनन्त आत्मा साक्षी है? क्योंकि वह स्वयं अलिप्त रहकर बुद्धि के अन्तपुर? मन की रंगभूमि? शरीर के आंगन और बाह्य जगत् के विस्तार को प्रकाशित करता है।मैं निवास हूँ समस्त चराचर जगत् का निवास स्थान आत्मा है। सड़क के किनारे खड़े किसी स्तम्भ पर किन्हीं यात्रियों ने दाँत निकाले हुए भूत को देखा? कुछ अन्य लोगों ने मन्दस्मिति भूत को देखा? तो दूसरों ने वही पर एक नग्न विकराल भूत को देखा? जिसका मुँह रक्त से सना हुआ था और आँखें चमक रही थीं? उसी प्रकार कुछ अन्य लोग भी थे? जिन्होंने आमन्त्रित करते हुए से श्वेत वस्त्र धारण किये हुए भूत को देखा? जो प्रेमपूर्वक उन्हें सही मार्ग दर्शा रहा था। एक ही स्तम्भ पर उन सभी लोगों ने अपनीअपनी भ्रामक कल्पनाओं का प्रक्षेपण किया था। स्वाभाविक है कि? वह स्थाणु उन समस्त प्रकार के भूतों का निवास कहलायेगा। इसी प्रकार जहाँ कहीं भी हमारी इन्द्रियों और मन को बहुविध दृश्यजगत् का आभास होता है? उन सबके लिए आत्मा ही अस्तित्व और सुरक्षा का निवास हैशरणम् मोह? शोक को जन्म देता है? जबकि ज्ञान आनन्द का जनक है। मोहजनित होने के कारण यह संसार दुखपूर्ण है। विक्षुब्ध संसार सागर की पर्वताकार उत्ताल तरंगों पर दुख पा रहे भ्रमित जीव के लिए जगत् के अधिष्ठान आत्मा का बोध शान्ति का शरण स्थल है। एक बार जब आत्मा शरीर? मन और बुद्धि के साथ तादात्म्य कर व्यष्टि जीव भाव को प्राप्त होकर बाह्य जगत् में क्रीड़ा करने जाता है? तब वह सागर तट की सुरक्षा से दूर तूफानी समुद्र में भटक जाता है। जीव की इस जर्जर नाव को जब सब ओर से भयभीत और प्रताड़ित किया जाता है? ऊपर घिरती हुई काली घटाएं? नीचे उछलता हुआ क्रुद्ध समुद्र? और चारों ओर भयंकर गर्जन करता हुआ तूफान तब नाविक के लिए केवल एक ही शरणस्थल रह जाता है? और वह शान्त पोतस्थान है आत्मा आत्मा का उपर्युक्त वर्णन सत्य के विषय में ऐसी धारणा को जन्म देता है मानो वह सत्य निष्ठुर है या एक अत्यन्त प्रतिष्ठित देवता है? या एक अप्राप्त पूर्णत्व है। अर्जुन जैसे भावुक साधकों के कोमल हृदय से इस प्रकार की धारणाओं को मिटा देने के लिए वह सनातन सत्य? मनुष्य के प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं का परिचय देते हुए अब मानवोचित शब्दों का प्रयोग करते हैं।मैं मित्र हूँ अनन्त परमात्मा परिच्छिन्न जीव का मित्र है। उसकी यह मित्रता नमस्कार तक ही सीमित नहीं? वरन् उसकी आतुरता अपने मित्र की सुरक्षा और कल्याण के लिए होती है। प्रत्युपकार की अपेक्षा किये बिना मित्र पर उपकार करने वाला मनुष्य सुहृत् कहलाता है।मैं प्रभव? प्रलय? स्थान और निधान हूँ जैसे आभूषणों में स्वर्ण और घटों में मिट्टी है? वैसे ही आत्मा सम्पूर्ण विश्व में है। इसलिए सभी की उत्पत्ति? स्थिति और लय स्थान वही हो सकता है। इसी कारण से उसे यहाँ निधान कहा गया है? क्योंकि सभी नाम? रूप एवं गुण इसी में निहित रहते हैं।मैं अव्यय बीज हूँ सामान्य बीज अंकुरित होकर और वृक्ष को जन्म देकर स्वयं नष्ट हो जाते हैं? परन्तु यह बीज सामान्य से सर्वथा भिन्न है। आत्मा निसन्देह ही इस संसार वृक्ष का बीज है? परन्तु इस वृक्ष की उत्पत्ति में स्वयं आत्मा परिणाम को नहीं प्राप्त होता? क्योंकि वह अव्यय स्वरूप है। यह धारणा कि सनातन सत्य परिणाम को प्राप्त होकर यह सृष्ट जगत् बन गया है? मनुष्य की तर्क बुद्धि को एक कलंक है और वेदान्त ऐसी दोषपूर्ण अयुक्तिक धारणा को अस्वीकार करता है? परन्तु द्वैतवादी इस सिद्धांत का समर्थन करते हैं? अन्यथा उनके तर्कों का महल ही धराशायी होकर चूरचूर हो जायेगा? जैसे शरद ऋतु के आकाश में निर्मित मेघों का किला छन्नभिन्न हो जाता है।जैसा कि पहले बताया जा चुका है? यह श्लोक सरल किन्तु सारगर्भित शब्दों से पूर्ण है? जिसमें प्रत्येक शब्द साधक के मनन के लिए छायावृत मार्ग है? जिस पर आनन्दपूर्वक टहलते हुए सत्य के द्वार तक पहुँचा जा सकता है।भगवान् आगे कहते हैं --
।।9.18।। व्याख्या--[अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वासके अनुसार किसीको भी साक्षात् परमात्माका स्वरूप मानकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वास्तवमें यह सम्बन्ध सत्के साथ ही है। केवल अपने मन-बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञानके द्वारा मनुष्य सब देश, काल, वस्तु व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्वको ही जानता है। परमात्माके सिवाय दूसरी किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया,आदिकी किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है -- इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान् विराट्रूपसे अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं अतः सब कुछ भगवान्हीभगवान् हैं -- इसमें अपनेको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिये। कारण कि यह सब भगवान् कैसे हो सकते हैं यह संदेह साधकको वास्तविक तत्त्वसे, मुक्तिसे वञ्चित कर देता है और महान् आफतमें फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़तासे मान लें कि कार्यकारणरूपे स्थूलसूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान् ही हैं। इसी कार्यकारणरूपसे भगवान्की सर्वव्यापकताका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है।]
।।9.16 -- 9.19।।ननु कर्म तावत् कारककलापव्याप्तभेदोद्रेकि कथमभिन्नं भगवत्पदं प्रापयतीति उच्यते -- अहं क्रतुरिति अर्जुनेत्यनन्तम्। एकस्यैव निर्भागस्य ब्रह्मतत्त्वस्य परिकल्पित [भेदवत्] साधनाधीनं कर्म पुनरेकत्वं निर्वर्तयति क्रियायाः सर्वकारकात्मसाक्षात्कारेणावस्थाने भगवत्पदप्राप्तिं प्रत्यविदूरत्वात्। उक्तं च -- सेयं क्रियात्मिका शक्तिः शिवस्य पशुवर्तिनी।बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता सिद्ध्युपपादिका।। (Spk? III? 16)इति मयाप्युक्तम् -- उपक्रमे यैव बुद्धिर्भावाभावानुयायिनी।उपसंहृतिकाले सा भावाभावानुयायिनी।।इति।तत्र तत्र वितत्य विचारितचरमेतत् इतीहोपरम्यते (S omits इति)। तपाम्यहमित्यादि अद्वैतकथाप्रसङ्गेनोक्तम्।
।।9.18।।गम्यत इति गतिः? तत्र तत्र प्राप्यस्थानम् इत्यर्थः। भर्ता धारयिता? प्रभुः शासिता? साक्षी साक्षाद् द्रष्टा? निवासः वासस्थानं च वेश्मादि? शरणम् इष्टस्य प्रापकतया अनिष्टस्य निवारणतया समाश्रयणीयः चेतनः शरणम्? स च अहम् एव सुहृत् हितैषी? प्रभवप्रलयस्थानं यस्य कस्य यत्र कुत्रचित् प्रभवप्रलययोः यत् स्थानं तद् अहम् एव। निधानं निधीयत इति निधानम् उत्पाद्यम् उपसंहार्यं च अहम् एव इत्यर्थः। अव्ययं बीजं तत्र तत्र व्ययरहितं यत् कारणं तद् अहम् एव।
।।9.18।।भगवतः सर्वात्मकत्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। गम्यत इति प्रकृतिविलयान्तं कर्मफलं गतिरित्याह -- कर्मेति। पोष्टा कर्मफलस्य प्रदाता। कार्यकरणप्रपञ्चस्याधिष्ठानमित्याह -- निवास इति। शीर्यते दुःखमस्मिन्निति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- शरणमिति। प्रभवत्यस्माज्जगदिति व्युत्पत्तिमादायोक्तम् -- उत्पत्तिरिति। कारणस्य कथमव्ययत्वमित्याशङ्क्याह -- यावदिति। कारणमन्तरेणापि कार्यं कदाचिदुदेष्यति किं कारणेनेत्याशङ्क्याह -- नहीति। मा भूत्तर्हि संसारदशायामेव कदाचित्कार्योत्पत्तिरित्याशङ्क्याह -- नित्यं चेति। कारणव्यक्तेर्नाशमङ्गीकृत्य तदन्यतमव्यक्तिशून्यत्वं पूर्वकालस्य नास्तीति सिद्धवत्कृत्य विशिनष्टि -- बीजेति।
।।9.18।।किञ्च गतिः प्राप्यलोकादिरूपा ब्रह्मैव? तेन गन्तव्यमिति पूर्वसूत्रितत्वात्। भर्त्ता पोषकश्चाहम्। प्रभुः फलदश्च साक्षी कृताकृतावेक्षकत्वेन ब्रह्मरूपश्चाहम्। निवासो यागभूमिरहम्।शरणं गृहरक्षित्रोः [अमरः3।3।52] इति कोशात् यज्ञशाला चाहम्। सुहृत् यजमानस्य बन्धुवर्गः। प्रभवः फलस्योत्पादको देवतारूपः। प्रलयः पापानां नाशकश्च। स्थानं देशस्तीर्थक्षेत्रादिरूपः। निधानं निधीयतेऽस्मिन्निति यूपचमसादिपात्रमहं ब्रह्मैव। बीजं यवादि। अव्ययं पशुजातम्। नचाव्यपदेन कथं पशुबोध इति वाच्यम् अव्येतीत्यव्ययं इति व्युत्पत्त्याऽजादिबोधात् गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः [ऋक्सं.8।4।18।5यजुस्सं.31।8] इति श्रुतेश्च। अथवा ब्रह्मयज्ञे हि पूर्वमनुक्तत्वादालभनस्येत्यभिप्रायेण तथैव तदुक्तम्। अव्ययं बीजं अपूर्वाख्यमहमेव।
।।9.18।।किंच -- गम्यत इति गतिः कर्मफलंब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो महानव्यक्तमेव च। उत्तमां सात्त्विकीमेतां गतिमाहुर्मनीषिणः इत्येवं मन्वाद्युक्तम्। भर्ता पोष्टा सुखसाधनस्यैव दाता। प्रभुः स्वामी मदीयोऽयमिति स्वीकर्ता। साक्षी सर्वप्राणिनां शुभाशुभद्रष्टा। निवसन्त्यस्मिन्निति निवासो भोगस्थानम्। शीर्यते दुःखमस्मिन्निति शरणम्। प्रपन्नानामार्तिहृत्। सुहृत् प्रत्युपकारानपेक्षः सन्नुपकारी। प्रभव उत्पत्तिः प्रलयो विनाशः स्थानं स्थितिः। यद्वा प्रकर्षेण भवन्त्यनेनेति प्रभवः स्रष्टा। प्रकर्षेण लीयन्तेनेनेति प्रलयः संहर्ता। तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानमाधारः। निधीयते निक्षिप्यते तत्कालभोगायोग्यतया कालान्तरोपभोग्यं वस्त्वस्मिन्निति निधानं सूक्ष्मरूपसर्ववस्त्वधिकरणं प्रलयस्थानमिति यावत्। शङ्खपद्मादिनिधिर्वा बीजमुत्पत्तिकारणम्। अव्ययमविनाशि। नतु व्रीह्यादिवद्विनश्वरं तेनानाद्यनन्तं यत्कारणं तदप्यहमेवेति पूर्वेणैव संबन्धः।
।।9.18।।किंच -- गतिरिति। गम्यत इति गतिः। फलम्? भर्ता पोषणकर्ता? प्रभुः नियन्ता? साक्षी शुभाशुभद्रष्टा? निवासः भोगस्थानम्? शरणं रक्षकः?सुहृद्धितकर्ता? प्रकर्षेण भवत्यनेनेति प्रभवः स्रष्टा? प्रलीयतेऽनेनेति प्रलयः संहर्ता? तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थानमाधारः? निधीयतेऽस्मिन्निति निधानं लयस्थानम्? बीजं कारणम्? तथाप्यव्ययमविनाशि नतु व्रीह्यादिबीजवन्नश्वरमित्यर्थः।
।।9.18।।गतिशब्दस्याग्र्यप्रायन्यायेन द्रव्यपरत्वौचित्यान्नात्र भावार्थपरत्वमित्यभिप्रायेण स्थानपरत्वमाह -- गम्यत इतीति। सर्वजनसाधारणेषु अर्थेषु निर्दिश्यमानेषु तन्मध्ये स्त्रीविशेषमात्रप्रतिसम्बन्धिपदार्थो न वक्तुमुचितः? धारणार्थत्वं च बिभर्तिधातोः प्रसिद्धमित्यभिप्रायेणाहभर्ता धारयितेति। प्रभुशब्दस्यात्र प्रभूततामात्रपरत्वेजगतः इत्यनेनान्वयो न स्यादित्यभिप्रायेणाहशासितेति।साक्षाद्द्रष्टेति -- साक्षाद्द्रष्टरि संज्ञायाम् [अष्टा.5।2।91] इति हि साक्षिशब्दोऽनुशिष्यते।वासस्थानमिति -- अत्र भावादिपरत्वानौचित्यादधिकरणार्थोऽयं घञिति भावः। गतिशब्देन पौनरुक्त्यनिरासायोक्तंवेश्मादीति। गतिशब्दस्तु स्वर्गपृथिव्यादिगन्तव्यदेशपर उक्तः? तत्तद्देशानुभाव्यभोग्यपरो वा। शरणशब्दस्यात्र निवासशब्दनिर्दिष्टगृहाद्यचेतनपरत्वव्युदासायाहइष्टस्येति। इष्टप्राप्त्यनिष्टनिवारणयोर्यथेच्छं प्रत्येकसमुदायाभ्यामन्वयः।शरणं गृहरक्षित्रोः [अमरः3।3।52] इति पाठादत्र रक्षितृपरः शरणशब्दः।हितैषीति -- शोभनहृदययुक्तो हि सुहृत्? शोभनत्वं च हृदयस्य हितगोचरत्वमिति भावः।यस्यकस्यचिदिति -- न केवलं ब्रह्मादेरव्यक्तादेर्वा यदुत्पत्तिप्रलयस्थानमित्यभिप्रायः।प्रभवः इति व्यस्तं परोक्तं पाठान्तरमप्रसिद्धेरनार्जवाच्चानादृतम्।प्रभवप्रलयस्थानम् इति प्रसक्तत्वात् तत्र यत्प्रभवति? यच्च प्रलीयते? तदत्र निधानशब्देन विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहनिधीयते इति निधानमिति। कर्मार्थोऽयं ल्युट्प्रत्ययः। एतेन निधानशब्दस्य प्रलयस्थानविशेषणत्वेन अव्याकृतपरत्वयोजना निरस्ता।प्रभवप्रलयस्थानं,इत्यस्योपादानविवक्षायां बीजशब्दः कारणमात्रपरः तस्योपादानपरत्वविवक्षायां बीजाधारक्षित्यादिदेशपरः पूर्व इत्यभिप्रायेणाहतत्रतत्रेति।
।।9.18।।गतिर्मोक्षादिफलरूपः। भर्त्ता पोषकः। प्रभुः समर्थः सर्वनियन्ता। साक्षी द्रष्टेत्यर्थः। निवासः स्थानं सर्वदेहस्वरूपात्मक इति। शरणं अभयदाता मृत्युप्रभृतिभय रक्षकः। सुहृत् अप्रार्थितहितकर्ता। प्रभवः प्रकर्षेण भवत्यस्मादिति जगत्स्रष्टा। प्रलयः प्रकर्षेण लीयतेऽस्मिन्निति लयस्थानम्। स्थानं तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानं सकलाधारः। निधानं निधीयते स्थाप्यतेऽनेनेति निधानं? रक्षक इत्यर्थः। अव्ययं बीजम्? अविनाशि बीजं मूलकारणमित्यर्थः।
।।9.18।।गतिर्मुक्तिप्राप्यं स्थानम्। भर्ता कर्मफलदानेन पोषकः। प्रभुः अन्तर्यामी। साक्षी कृताकृतावेक्षकः। निवसन्त्यस्मिन्निति निवास आश्रयो यजमानादिः। शरणं रक्षकः। सुहृदुपकारमनपेक्ष्योपकर्ता। प्रभव उत्पत्तिस्थानम्। प्रलयो लयस्थानम्। स्थानं स्थितिस्थानम्। निधानं कर्मफलसमर्पणस्थानम्। कालान्तरे फलप्रसवार्थं बीजं प्ररोहकारणं प्ररोहधर्मिणाम्। अव्ययं यावत्संसारभावित्वात्।
।।9.18।।किंच गतिः कर्मणः साक्षात्परंपरया च फलं स्वर्गादि। भर्ता कर्मफलप्रदानेन पोषणकर्ता। प्रभुः सर्वस्य नियन्ता स्वामीतियावत्। साक्षी प्राणिनां शुभाशुभयोः पक्षपातविनिर्मुक्तमनुद्रष्टा। निवसन्ति प्राणिनोऽस्मिन्निवासः। प्राणिवासस्थानमित्यर्थः। निवसन्ति भोगाय प्राणिनेऽस्मिन्निति निवासो भोगस्थानमिति वा। शीर्यते दुःखखस्मिन्निति शरणमार्तानां मत्प्रपन्नानां पीडाहारः। सुहृत्प्रत्युपकारनिरपेक्षः सन्नुपकारकर्ता। प्रभवनमिति प्रभव उत्पत्तिः। प्रलीयते विश्वमस्मिन्निति प्रलयः। यद्वा प्रकर्षेण भवत्यनेनेति प्रभवः स्त्रष्टा। प्रलीयतेऽनेनेति प्रलयः संहर्ता। भाष्यस्योपलक्षणार्थत्वादविरोधः। तिष्ठत्यस्मिन्स्थितिकाले विश्वमिति स्थानम्। निधीयते निक्षिप्यते कालान्तरोपभोग्यं प्राणिनां कर्मफलमस्मिन्निति निधानं शङ्खपद्मदिनिधिर्वा। भाष्यं तूपलक्षणार्थमित्युक्तमेव। बीजं प्ररोहधार्मिणां वस्तूनां प्ररोहकारणम्। अव्ययं यावत्संसारभावित्वात्। नह्यबीजं किंचित्प्ररोहति। प्ररोहदर्शनाद्वीजसंततेर्नित्यत्वमिति गम्यते। अव्ययमविनाशि नतु व्रीह्यदिबीजवद्विनश्वरमिति वा। आचार्यैस्तु बीजशब्देन जगद्वीजस्य ब्रह्मण उपादाने तु अव्यपदस्योपपन्नत्वेन सुगमत्वात्। ब्रह्मणः परमकारणतया उक्त्वाच्चायं पक्ष उपेक्षिति इति ध्येयम्। गत्यादिकं सर्वमहमेवेत्यर्थः।
9.18 गतिः the goal? भर्ता the supporter? प्रभुः the Lord? साक्षी the witness? निवासः the abode? शरणम् the shelter? सुहृत् the friend? प्रभवः the origin? प्रलयः the dissolution? स्थानम् the foundation? निधानम् the treasurehouse? बीजम् the seed? अव्ययम् imperishable.Commentary I am the goal? the fruit of action. He who nourishes and supports is the huand. I am the witness of the good and evil actions done by the Jivas (individuals). I am the abode wherein all living beings dwell. I am the shelter or refuge for the distressed. I relieve the sufferings of those who take shelter under Me. I am the friend? i.e.? I do good without expecting any return. I am the source of this universe. In Me the whole world is dissolved. I am the mainstay or the foundation of this world. I am the treasurehouse which living beings shall enjoy in the future. I am the imperishable see? i.e.? the cause of the origin of all beings. Therefore? take shelter under My feet.
9.18 I am the goal, the supporter, the Lord, the witness, the abode, the shelter, the friend, the origin, the dissolution, the foundation, the treasure-house and the seed which is imperishable.
9.18 I am the Goal, the Sustainer, the Lord, the Witness, the Home, the Shelter, the Lover and the Origin; I am Life and Death; I am the Fountain and the Seed Imperishable.
9.18 (I am) the fruit of actions, the nourisher, the Lord, witness, abode, refuge, friend, origin, end, foundation, store and the imperishable seed.
9.18 (I am) the gatih, fruit of actions; the bharta, nourisher; [The giver of the fruits of actions.] the prabhuh, Lord; the saksi, witness of all tha is done or not done by creatures; the nivasah, abode, where creatures live; the saranam, refuge, remover of sufferings of the afflicted who take shelter; the suhrt, friend, one who does a good turn without thought of reward; the prabhavah, origin of the world; the pralayah, end, the place into which the world merges. So also, (I am) the sthanam, foundation on which the world rests; the nidhanam, store, which is for future enjoyment of creatures; and the avyayam, imperishable; bijam, seed, the cause of growth of all things which germinate. The seed is imperishable because it continues so long as the world lasts. Indeed, nothing springs up without a seed. And since creation is noticed to be continuous, it is understood that the continuity of the seed never ends. Further,
9.18. [I am] the method, the nourisher, the lord, the witness, the abode, the refuge, the good-hearted (friend), the origin, the dissolution, the sustenance, the repository and the imperishable seed [of the world].
9.18 See Comment under 9.19
9.18 'Gaith' means that which is reached. The meaning is that it is the place to be reached from everywhere. The 'supporter' is one who props. The 'ruler' is one who rules. The 'witness' is one who sees directly. The 'abode' is that where one dwells in as in a house etc. The 'refuge' is the intelligent being wh has to be sought, as he leads one to the attainment of desirable things and avoidance of evils. A 'friend' is one who wishes well. The 'base' is that place in which origin and dissolution takes place. I alone am that 'Nidhana', that which is preserved. What comes into being and is dissolved is Myself. The imperishable seed is that exhaustless cause everywhere. I alone am that.
9.18 I am the goal, supporter, the Lord, the witness, the abode, the refuge and the friend. I am the seat of origin and dissolution, the base for preservation and the imperishable seed.
।।9.18।।तथा मैं ही --, गति -- कर्मफल? भर्ता -- सबका पोषण करनेवाला? प्रभु -- सबका स्वामी? प्राणियोंके कर्म और अकर्मका साक्षी? जिसमें प्राणी निवास करते हैं वह वासस्थान? शरण अर्थात् शरणमें आये हुए दुःखियोंका दुःख दूर करनेवाला? सुहृत् -- प्रत्युपकार न चाहकर उपकार करनेवाला? प्रभव -- जगत्की उत्पत्तिका कारण और,जिसमें सब लीन हो जाते हैं वह प्रलय भी मैं ही हूँ। तथा जिसमें सब स्थित होते हैं वह स्थान? प्राणियोंके कालान्तरमें उपभोग करनेयोग्य कर्मोंका भण्डाररूप निधान और अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ अर्थात् उत्पत्तिशील वस्तुओंकी उत्पत्तिका अविनाशी कारण मैं ही हूँ। जबतक संसार है तबतक उसका बीज भी अवश्य रहता है? इसलिये बीजको अविनाशी कहा है क्योंकि बिना बीजके कुछ भी उत्पन्न नहीं होता और उत्पत्ति नित्य देखी जाती है? इससे यह जाना जाता है कि बीजकी परम्पराका नाश नहीं होता।
।।9.18।। --,गतिः कर्मफलम्? भर्ता पोष्टा? प्रभुः स्वामी? साक्षी प्राणिनां कृताकृतस्य? निवासः यस्मिन् प्राणिनो निवसन्ति? शरणम् आर्तानाम्? प्रपन्नानामार्तिहरः। सुहृत् प्रत्युपकारानपेक्षः सन् उपकारी? प्रभवः उत्पत्तिः जगतः? प्रलयः प्रलीयते अस्मिन् इति? तथा स्थानं तिष्ठति अस्मिन् इति? निधानं निक्षेपः कालान्तरोपभोग्यं प्राणिनाम्? बीजं प्ररोहकारणं प्ररोहधर्मिणाम्? अव्ययं यावत्संसारभावित्वात् अव्ययम्? न हि अबीजं किञ्चित् प्ररोहति नित्यं च प्ररोहदर्शनात् बीजसंततिः न व्येति इति गम्यते।।किञ्च --,
।।9.18।।गतिः कर्मफलमिति व्याख्यानं (शं.) अपाकर्तुमाह -- गम्यते इति। शरणमित्यतो भेदार्थमुक्तं मुमुक्षुभिरिति। अत एव गम्यत इत्यस्यावगम्यत इत्यर्थः। कुत एतत् इत्यत आह -- तथा हीति। किमुच्यत इत्यपि प्रश्नोऽध्याहार्यः। साक्षीत्यौदासीन्यं प्रतीयते? अत आह -- साक्षादिति। कुत एतदित्यत आह -- तथा हीति। यदद्राक्षीत्साक्षात्तत्साक्षिणः परमेश्वरस्य साक्षित्वं साक्षिशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम्। तदुक्तम्साक्षाद्द्रष्टरि संज्ञायाम् [अष्टा.5।2।91] इति। निवासशब्दागतार्थतया शरणशब्दार्थमाह -- शरणमिति। संसारभीतस्येति मुक्तोपलक्षणम्। विष्णोर्मुक्ताश्रयत्वे प्रमाणमाह -- परमिति। परायणं मुक्तानामाश्रयः। तथापि निधानमिति पुनरुक्तिरित्यत आह -- संहारेति। सर्वभूतानिप्रकृतिं यान्ति [3।33] इत्युक्तत्वात् कथं भगवति निधीयत इत्यत उक्तं प्रकृत्येति। प्रथमं प्रकृतिं यान्ति पश्चात्तत्र निधीयन्त इत्यर्थः। तत्कुतः इत्यत आह -- तथा हीति। विश्वकर्मणीश्वरे शुभ्रचक्षुः शुद्धदृष्टिरहम्।
।।9.18।।गम्यते मुमुक्षुभिरिति गतिः। तथा हि सामवेदे वासिष्ठशाखायाम् अथ कस्मादुच्यते गतिरिति ब्रह्मैव गतिरिति तद्धि गम्यते पापविमुक्तैः इति। साक्षादीक्षत इति साक्षी। तथाहि बाष्कलशाखायाम् स साक्षादिदमद्राक्षीद्यदद्राक्षीत्तत्साक्षिणः साक्षित्वम् इति। शरणमाश्रयः संसारभीतस्य।परं परायणं इत्याद्युक्तम्। नारायणं महाज्ञेयं विश्वात्मानं परायणम् [म.ना.उ.9।3] इति च। संहारकाले प्रकृत्या जगदत्र निधीयत इति निधानम्। तथा हि ऋग्वेदखिलेषु अपश्यमप्यये मायया विश्वकर्मण्यदो जगन्निहितं शुभ्रचक्षुः इति।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।9.18।।
গতির্ভর্তা প্রভুঃ সাক্ষী নিবাসঃ শরণং সুহৃত্৷ প্রভবঃ প্রলযঃ স্থানং নিধানং বীজমব্যযম্৷৷9.18৷৷
গতির্ভর্তা প্রভুঃ সাক্ষী নিবাসঃ শরণং সুহৃত্৷ প্রভবঃ প্রলযঃ স্থানং নিধানং বীজমব্যযম্৷৷9.18৷৷
ગતિર્ભર્તા પ્રભુઃ સાક્ષી નિવાસઃ શરણં સુહૃત્। પ્રભવઃ પ્રલયઃ સ્થાનં નિધાનં બીજમવ્યયમ્।।9.18।।
ਗਤਿਰ੍ਭਰ੍ਤਾ ਪ੍ਰਭੁ ਸਾਕ੍ਸ਼ੀ ਨਿਵਾਸ ਸ਼ਰਣਂ ਸੁਹਰਿਤ੍। ਪ੍ਰਭਵ ਪ੍ਰਲਯ ਸ੍ਥਾਨਂ ਨਿਧਾਨਂ ਬੀਜਮਵ੍ਯਯਮ੍।।9.18।।
ಗತಿರ್ಭರ್ತಾ ಪ್ರಭುಃ ಸಾಕ್ಷೀ ನಿವಾಸಃ ಶರಣಂ ಸುಹೃತ್. ಪ್ರಭವಃ ಪ್ರಲಯಃ ಸ್ಥಾನಂ ನಿಧಾನಂ ಬೀಜಮವ್ಯಯಮ್৷৷9.18৷৷
ഗതിര്ഭര്താ പ്രഭുഃ സാക്ഷീ നിവാസഃ ശരണം സുഹൃത്. പ്രഭവഃ പ്രലയഃ സ്ഥാനം നിധാനം ബീജമവ്യയമ്৷৷9.18৷৷
ଗତିର୍ଭର୍ତା ପ୍ରଭୁଃ ସାକ୍ଷୀ ନିବାସଃ ଶରଣଂ ସୁହୃତ୍| ପ୍ରଭବଃ ପ୍ରଲଯଃ ସ୍ଥାନଂ ନିଧାନଂ ବୀଜମବ୍ଯଯମ୍||9.18||
gatirbhartā prabhuḥ sākṣī nivāsaḥ śaraṇaṅ suhṛt. prabhavaḥ pralayaḥ sthānaṅ nidhānaṅ bījamavyayam৷৷9.18৷৷
கதிர்பர்தா ப்ரபுஃ ஸாக்ஷீ நிவாஸஃ ஷரணஂ ஸுஹரித். ப்ரபவஃ ப்ரலயஃ ஸ்தாநஂ நிதாநஂ பீஜமவ்யயம்৷৷9.18৷৷
గతిర్భర్తా ప్రభుః సాక్షీ నివాసః శరణం సుహృత్. ప్రభవః ప్రలయః స్థానం నిధానం బీజమవ్యయమ్৷৷9.18৷৷
9.19
9
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।।9.19।। हे अर्जुन ! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, जलको ग्रहण करता हूँ और फिर उस जलको वर्षारूपसे बरसा देता हूँ। (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।
।।9.19।। हे अर्जुन ! मैं ही (सूर्य रूप में) तपता हूँ; मैं वर्षा का निग्रह और उत्सर्जन करता हूँ। मैं ही अमृत और मृत्यु एवं सत् और असत् हूँ।।
।।9.19।। मैं तपता हूँ विद्युत् का यह कहना उपयुक्त होगा कि वह उष्णक (हीटर) में उष्णता? बल्ब में प्रकाश और शीतक (फ्रीज) में शीतलता देती है क्योंकि इन उपकरणों के द्वारा विद्युत् ही उष्णता आदि के रूप में व्यक्त होती है। इसी प्रकार? एक सत्स्वरूप आत्मा दृश्य प्रकृति की एक वस्तु सूर्य के साथ तादात्म्य कर समस्त जगत् के लिए उष्णता का स्रोत बन जाता है।मैं वर्षा का निग्रह और उत्सर्जन करता हूँ ऐसी बात नहीं है कि केवल आधुनिक मौसम विज्ञान के विशेषज्ञों ने ही जगत् में जलवायु की स्थिति में सूर्य के प्रभाव को समझा है। प्राचीन ऋषियों को भी प्रकृति के स्वभाव एवं व्यवहार का पूर्ण ज्ञान था। वे जानते थे कि सूर्य की स्थिति? दशा एवं स्वरूप जलवायु को निश्चित करता है? जो जगत् के लिए कभी वरदान या अभिशाप बनकर आता है। पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी के अनुभवक्षेत्र को सूर्य नियन्त्रित और प्रभावित करता है? क्योंकि वह जलवायु का नियामक है। यदि सूर्य की उष्णता में कुछ अंशों की वृद्धि हो जाय? तो विश्व की सम्पूर्ण वनस्पति और पशु जीवन में परिवर्तन हो जायेगा। उसी प्रकार? यदि सूर्य अपनी कलोरी उष्णता को देना कम कर दे? तो उससे होने वाला परिवर्तन इतना अधिक होगा कि वर्तमान जगत् का रूप ही सर्वथा परिवर्तित हो जायेगा। तत्काल ही? उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव से गति भूमध्य रेखा की ओर होगी और प्राणीमात्र को बलात् पृथ्वी के मध्य भाग में खींच कर ले आयेगी? जहाँ अत्यधिक जनसंख्या के दबाव और पर्याप्त अन्न के अभाव में दुख ही दुख होगा मैं अमृत और मृत्यु हूँ मृत्यु का अर्थ है परिवर्तन। चैतन्य के बिना इस परिवर्तनशील जगत् की न सत्ता है और न भान। अत यहाँ कहा गया है कि मैं मृत्यु हूँ। पुन? इन परिवर्तनों का जो प्रकाशक आत्मा है? उसको अपरिवर्तनशील होना ही चाहिए। वह आत्मा अमृत है। आत्मा स्वयं अमृत रहते हुए मृत्यु को प्रकाशित करती है।मैं सत् और असत् हूँ कोई वस्तु है और कोई नहीं है इन दोनों सत् (है) और असत् (नहीं हैं) का एक भावस्वरूप प्रकाशक होना अनिवार्य है। उसके बिना इनका अनुभव नहीं हो सकता। आत्यन्तिक अभाव को जानना या अनुभव करना असंभव है? जहाँ कहीं हमें अभाव का ज्ञान होता है वह इसी रूप में होता है कि अमुक वस्तु का अभाव है इस अत्यन्त सूक्ष्म दार्शनिक व्याख्या के अतिरिक्त इन दो शब्दों सत् और असत् का सरल अभिप्राय भी है। इन्द्रियगोचर? स्थूल व्यक्त वस्तु को सत् तथा सूक्ष्म? अव्यक्त वस्तु को असत् कहा जाता है। अथवा सत् और असत् शब्द से क्रमश कार्य और कारण को भी वेदान्त में सूचित किया जाता है। प्रकाशक चैतन्य आत्मा के बिना सत् (बाह्य विषय) और असत् (मन की विचार वृत्ति) का ज्ञान नहीं हो सकता। अत यहाँ कहा गया है कि इन दोनों का मूल स्वरूप आत्मा है। मिट्टी के बिना घटों का कोई अस्तित्व नहीं होता? अत मिट्टी यह दावा कर सकती है कि सभी आकारों? रंगों और रूपों वाले घट मैं ही हूँ।ध्यान के आसन पर साधकों के लिए यह श्लोक जीवनपर्यन्त प्रेरणादायक बन सकता है।जो अज्ञानी लोग सकाम भावना से ईश्वर की पूजा करते हैं? वे अपने इष्टफल को प्राप्त करते हैं। कैसे भगवान् कहते हैं --
।।9.19।। व्याख्या --'तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च'--'पृथ्वीपर जो कुछ अशुद्ध, गंदी चीजें हैं, जिनसे रोग पैदा होते हैं, उनका शोषण करके प्राणियोंको नीरोग करनेके लिये (टिप्पणी प0 505.2) अर्थात् ओषधियों, जड़ी-बूटियोंमें जो जहरीला भाग है, उसका शोषण करनेके लिये और पृथ्वीका जो जलीय भाग है, जिससे अपवित्रता होती है, उसको सुखानेके लिये मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ। सूर्यरूपसे उन सबके जलीय भागको ग्रहण करके और उस जलको शुद्ध तथा मीठा बना करके समय आनेपर वर्षारूपसे प्राणिमात्रके हितके लिये बरसा देता हूँ, जिससे प्राणिमात्रका जीवन चलता है।
।।9.16 -- 9.19।।ननु कर्म तावत् कारककलापव्याप्तभेदोद्रेकि कथमभिन्नं भगवत्पदं प्रापयतीति उच्यते -- अहं क्रतुरिति अर्जुनेत्यनन्तम्। एकस्यैव निर्भागस्य ब्रह्मतत्त्वस्य परिकल्पित [भेदवत्] साधनाधीनं कर्म पुनरेकत्वं निर्वर्तयति क्रियायाः सर्वकारकात्मसाक्षात्कारेणावस्थाने भगवत्पदप्राप्तिं प्रत्यविदूरत्वात्। उक्तं च -- सेयं क्रियात्मिका शक्तिः शिवस्य पशुवर्तिनी।बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता सिद्ध्युपपादिका।। (Spk? III? 16)इति मयाप्युक्तम् -- उपक्रमे यैव बुद्धिर्भावाभावानुयायिनी।उपसंहृतिकाले सा भावाभावानुयायिनी।।इति।तत्र तत्र वितत्य विचारितचरमेतत् इतीहोपरम्यते (S omits इति)। तपाम्यहमित्यादि अद्वैतकथाप्रसङ्गेनोक्तम्।
।।9.19।।अग्न्यादित्यादिरूपेण अहम् एव तपामि? ग्रीष्मादौ अहम् एव वर्षं निगृह्णामि तथा वर्षासु अपि च अहम् एव उत्सृजामि। अमृतं च एव मृत्युः च येन जीवति लोको येन च म्रियते? तद् उभयम् अपि अहम् एव। किम अत्र बहुना उक्तेन सद् असत् च अपि अहम् एव। सद् यद् वर्तते? असद् यद् अतीतम् अनागतं च? सर्वावस्थावस्थितचिदचिद्वस्तुशरीरतया तत्तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थित इत्यर्थः।एवं बहुधा पृथक्त्वेन विभक्तनामरूपावस्थितकृत्स्नजगच्छरीरतया तत्प्रकारः अहम् एव अवस्थित इति एकत्वज्ञानेन अनुसंदधानाः च माम् उपासते ते एव महात्मानः।एवं महात्मनां ज्ञानिनां भगवदनुभवैकभोगानां वृत्तम् उक्त्वा तेषाम् एव विशेषं दर्शयितुम् अज्ञानां कामकामानां वृत्तम् आह --
।।9.19।।इतश्च सर्वात्मत्वे भगवतो न विवदितव्यमित्याह -- किञ्चेति।आदित्याज्जायते वृष्टिः इति स्मृतिमवष्टभ्य व्याचष्टे -- कैश्चिदिति। वर्षोत्सर्गनिग्रहावेकस्यैकस्मिन्काले विरुद्धावित्याशङ्क्याह -- अष्टभिरिति। ऋतुभेदेन वर्षस्य निग्रहोत्सर्गावेककर्तृकावविरुद्धावित्यर्थः। यस्य कारणस्य संबन्धित्वेन,यत्कार्यमभिषज्यते तदिह सदित्युच्यते? कारणसंबन्धेनानभिव्यक्तं कारणमेवानभिव्यक्तनामरूपमसदिति व्यवह्रियते तदेतदाह -- सदिति। शून्यवादं व्युदस्यति -- न पुनरिति। भगवतोऽत्यन्तासत्त्वे कार्यकारणकल्पना निरधिष्ठाना न तिष्ठतीत्यर्थः। तर्हि यथाश्रुतं कार्यस्य सत्त्वं कारणस्य चासत्त्वमास्थेयमित्याशङ्क्य वाशब्देन निषेधति -- कार्येति। नहि कार्यस्यात्यन्तिकं सत्त्वं वाचारम्भणश्रुतेर्नापीतरस्यात्यन्तिकमसत्त्वंकुतस्तु खलु इत्यादिश्रुतेरित्यर्थः। उक्तैर्ज्ञानयज्ञैर्भगवदभिनिविष्टबुद्धीनां किं फलमित्याशङ्क्यह सद्यो वा क्रमेण वा मुक्तिरित्याह -- य इति।
।।9.19।।अतः परं सृष्ट्यादिद्वारा सृष्ट्यादिसम्पादकत्वं पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति [छां.उ.5।3।3] इति श्रुतिप्रामाण्यात्क्रममुक्तिद्वारत्वं च स्वस्यैवाह तपामीति। तापनेन किं भवतीति तत्राह। वर्षं निगृह्णाम्यष्टसु मासेषु। उत्सृजामि च चतुर्षु सूर्यात्मना वृष्टिं करोमि। तद्वारान्नजननात् सृष्ट्यादिसम्पादकोऽहं यज्ञोपयोगित्वार्थं तथैतदुपास्यमुक्तम्। अमृतं जीवनम्। मृत्युः वर्षादेर्मृत्युस्तन्निग्रहणाच्चाहमित्यात्मप्रभवप्रलयावपि ब्रह्मवादेनाह। अन्यत्किं वाच्यं हेऽर्जुन शुद्धस्वरूप तस्मिन् शुद्धस्वरूपे ब्रह्मयज्ञे सदसदप्यहं लोकप्रतीत्याभावमपि सर्वं ब्रह्मैवाहमिति पूर्वोक्तं विवृतंयदात्मकः प्रपञ्चोऽयं स एव हि पिता हरिः। जनको भगवान्स्वामी माता प्रकृतिरुत्तमा। इति भावेन ब्रह्मैव सर्वरूपमुदीरितम्। यज्ञादिरूपं निबन्धे ब्रह्मवादानुरोधतः। तदेवं प्रसङ्गान्महात्मनां भक्तानां सात्त्विकानां वृत्तिरुक्ता। ततो द्विविधानां ज्ञानमार्गीयाणां राजसानां तामसानां च वृत्तिमुक्त्वाऽन्ते ब्रह्मवादिनां वृत्तिः सिद्धान्तिता अधुना तेषामेव विशेषं दर्शयितुं वेदार्थानभिज्ञानां काम्यकर्मकारिणां स्थितिं दर्शयन् गतिमाह।
।।9.19।।किंच -- तपाम्यहमादित्यः सन् ततश्च तापवशादहं वर्षं पूर्ववृष्टिरूपं रसं पृथिव्या निगृह्णाम्याकर्षामि। कैश्चिद्रश्मिभिरष्टसु मासेषु। पुनस्तमेव निगृहीतं रसं चतुर्षु मासेषु कैश्चिद्रश्मिभिरुत्सृजामि च वृष्टिरूपेण प्रक्षिपामि च भूमौ। अमृतं च देवानां सर्वप्राणिनां जीवनं वा। एवकारस्याहमित्यनेन संबन्धः। मृत्युश्च मर्त्यानां सर्वप्राणिनां विनाशो वा। सत् यत्संबन्धितया यद्विद्यते तत्तत्र सत्। असच्च यत्संबन्धितया तत्र विद्यते तत्तत्रासत्। एतत्सर्वमहमेव हे अर्जुन? तस्मात्सर्वात्मानं मां विदित्वा स्वस्वाधिकारानुसारेण बहुभिः प्रकारैर्मामेवोपासत इत्युपपन्नम्।
।।9.19।।किंच -- तपामीति। आदित्यात्मना स्थितत्वान्निदाघसमये तपामि जगतस्तापं करोमि वृष्टिसमये च वर्षमुत्सृजामि विमुञ्चामि कदाचित्तु वर्षं निगृह्णामि आकर्षामि अमृतं जीवनं मृत्युश्च नाशः सत्स्थूलं दृश्यम् असच्च सूक्ष्ममदृश्यम् एतत्सर्वमहमेवेति मत्वा मामेव बहुधा उपासत इति पूर्वेणैवान्वयः।
।।9.19।।एवंप्राधान्यतः [10।19] इति वक्ष्यमाणप्रकारेण लोके तत्तच्छब्दवाच्यतया प्रसिद्धानां प्रकृष्टपदार्थानां सत्तायाः स्वाधीनत्वप्रदर्शनम् अथ प्रवृत्तितादधीन्यमनेनोच्यतेतपामि इति। स्वरूपतस्तापहेतुत्वाभावाद्विशिष्टे तद्दर्शयतिअग्न्यादित्यादीति। आदिशब्देन अग्न्यादितप्तद्रव्यविवक्षा। एककर्तृकयोर्विरुद्धयोः कालादिभेदेन व्यवस्थेत्यभिप्रायेणाहग्रीष्मादाविति वर्षास्विति च। अत्र पर्जन्यादिरूपेणेति भाव्यम्। एवं रश्मिविशेषोऽपि ग्राह्यः।अहं क्रतुः [9।16] इत्युपक्रम्य एतावताधियज्ञाधिप्रजाधिवेदाध्यात्माधिदैवतविवक्षेति केचित्। अथ साधकबाधकरूपेण संगृह्योच्यतेअमृतं चैव मृत्युश्च इति। मृतिकारणाभिधायिमृत्युशब्दसहप्रयोगात् मृतिप्रतिबन्धकमात्रविषयोऽयममृतशब्दः सुधापरत्वे तु विषेण सह पठितव्यम् अमृतसहपाठाच्च मृत्युशब्दस्य वैवस्वतादिपरत्वमयुक्तमित्यभिप्रायेणाह -- येनेति। त्रैकाल्यवर्तिसर्वसङ्ग्रहेण उपसंहारपरतां दर्शयतिकिमत्रेति। अत्र सच्छब्दवदसच्छब्दोऽपि भावान्तराभाववादाद्वस्तुविशेषपरः? अन्यथा अहमिति सामानाधिकरण्यायोगादित्यभिप्रायेणाहयद्वर्तते यदतीतमनागतं चेति। असच्छब्दोऽत्र वर्तमानान्यविषयः। ननु प्रकरणान्तरेष्विव चेतनाचेतनादिविषयत्वमनयोः किं नोच्यते इत्यत्राहसर्वावस्थेति। सर्वस्य भगवदात्मकत्वं हि प्रकृतम् त्रैकालिकसमस्तसङ्ग्रहौचित्याय वर्तमानत्वादिविवक्षायामपि चिदचितोर्न त्यागः तयोरेव तत्तदवस्थाविशेषविशिष्टस्वरूपविषयत्वात्। अथवासर्वेत्यादिकम्?अहं क्रतुः [9।16] इत्याद्युक्तकृत्स्नवाक्यार्थकथनमनुध्येयम्। सर्वतादधीन्यवचनं प्रकृतेनोपासनेन सङ्गमयतिएवं बहुधेत्यादिना। विशिष्टैकत्वमिह विवक्षितम् न पुनः प्रलयदशापन्नमविभक्तत्वलक्षणम्। प्रस्तुतज्ञानयज्ञत्वस्मारणायज्ञानेनानुसन्दधाना इत्युक्तम्।
।।9.19।।तपामि रसास्वादनार्थं सर्वेषां तापं करोमि। यदा तपामि तदा वर्षं रसात्मकं निगृह्णामि आकर्षामि स्वस्मिन् स्थापयामि। च पुनः तद्दानसमये पुनरुत्सृजामि। अमृतं जीवनमक्षयम्। मृत्युश्च मृत्युरूपः। सत् स्थूलं परिदृश्यमानम्। असत् सूक्ष्ममदृश्यम्। हे अर्जुन एतत्सर्वं पूर्वोक्तमहमेवेत्यर्थः। एवं बहुधा मामुपासत इति पूर्वेणैव सम्बन्धः।
।।9.19।।अहं तपामि आदित्यो भूत्वा। अहं वर्षं वृष्टिस्तां निगृह्णामि अष्टसु मासेषु कैश्चिद्रश्मिभिः। उत्सृजामि च चतुर्षुमासेषु कैश्चिदिति। अमृतं जीवनं मृत्युर्मरणम्। अमृतं देवान्नं वा। सत् साधु? असत् असाधु। एतत्सर्वमहमेव। अतस्तेषां विश्वतोमुखं मम भजनं कुर्वतां सर्वरूपेणाहमनुग्रहं करोमीति भावः।
।।9.19।।किंचाहमादित्यो भूत्वा कैश्चित्किरणैः ग्रीष्मर्तौ तपामि। कैश्चित्करणैरहं वर्षं पूर्वं मयैव त्यक्तं अष्टसु मासेषु निगृह्णामि। कैश्चित्किणैरहं वर्षं पुनर्वर्षासूत्सृजामि। अमृतं चैवाहमेव मर्त्यानां मृत्युश्चाहमेव। सदसच्चाहमेव यस्य कारणस्य संबन्धितया यत्कार्यं नामरुपाभ्यां व्यज्यते तदत्र सज्छब्देनोपादीयते। कारणासंबन्धेन नामरुपाभ्यामनभिव्यक्तं कारणात्मना स्थितमसदित्युच्यते। ननु सदसच्छब्दयोर्मुख्योऽर्थः कुतो नाङ्गीक्रियते इतिचेत्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यं?तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः। विमतं मिथ्यादृश्यत्वात् परिच्छिन्नत्वात् जडत्वात् शुक्तिरुप्यवत्।तरति शोकमात्मवित् इति श्रुत्युक्तबन्धोपलक्षितसंसारनिवृत्तेः प्रपञ्चमिथ्यात्वं विनानुपपत्तिरिति श्रुतिसूत्रानुमानार्थापत्तिभ्यः कार्यजातस्यासत्त्वावधारणात् सर्वाधिष्ठानस्य शून्यत्वायोगाच्चेति गृहाण। एवंभूतः सन्नपि वस्तुतः सर्वोपाधिविनिर्मुक्तः स्वच्छ एवास्मीति ध्वनयमन् संबोधयति -- हे अर्जुनेति।
9.19 तपामि give heat? अहम् I? अहम् I? वर्षम् rain? निगृह्णामि withhold? उत्सृजामि send forth? च and? अमृतम् immortality? च and? एव also? मृत्युः death? च and? सत् existence? असत् nonexistence? च and? अहम् I? अर्जुन O Arjuna.Commentary I radiate heat in the form of the sun. I send forth the rain in the form of Indra in the rainy season and I take it back during the rest of the year.Sat Existence? the manifested world (the effect).Asat Nonexistence? the unmanifested (the cause).Nonexistence does not mean nothingness. The subtle? unmanifested cause is spoken of as nonexitence. The Self or Brahman or the Eternal can never be altogether nonexistence. It always exists. It is Existence Absolute. If you say that the subtle unmanifested cause is nothing? it is impossible to conceive existence coming out of nothing. The Chhandogya Upanishad asks? How can existence come out of nonexistence It is simply absurd to conceive that existence has arisen out of nonexistence (nothing).For a Vedantin ( student or follower of Vedanta) Brahman (the Absolute) is Sat (existence) because It always exists and because It is unchanging. This manifested world is Asat or unreal. For the worldlyminded people who have neither understanding nor knowledge of Brahman? who are endowed with gross and impure mind? who do not have a sharp and subtle intellect? and who ca perceive the gross forms only? this manifested world is the Sat and the subtle unmanifested MulaPrakriti (the primordial Nature)? the cause of this manifested world? is Asat. For them Brahman also is Asat. The unmanifested refers to MulaPrakriti and Para Brahman also because both are hidden.Every object has three states? viz.? the gross (Sthula)? the subtle (Sukshma) and the causal (Karana). Mahakarana (the great causeless cause) is Para Brahman. The gross and the subtle states are the effects of Karana. What you see outside is the physical body. This physical body is moved by the astral (the subtle) body made up of the mind? liferoce and the senses. The causal body is the seedbody. From this seedbody have sprung the subtle and the gross bodies. Take the case of an orange. The outer skin is its physical body the inner pulp or essence is the subtle body the innermost causal body which gives rise to the pulp and the outer skin is the seed. This is only a gross illustration. The orange has got another kind of subtle and causal bodies. The worldlyminded man beholds the physical body only and takes this as the Truth. For him? the astral and the causal bodies are unreal.
9.19 (As the sun) I give heat; I withhold and send forth the rain; I am immortality and also death, existence and non-existence, O Arjuna.
9.19 I am the Heat of the Sun, I release and hold back the Rains. I am Death and Immortality; I am Being and Not-Being.
9.19 O Arjuna, I give heat, I withhold and pour down rain. I am verily the nectar, and also death existence and nonexistence.
9.19 O Arjuna, aham, I, in the form of the sun; tapami, give heat through some intense rays. Through some rays utsrjami, I pour down; varsam, rain. Having poured down, again nigrhnami, I withdraw it through some rays-for eight months. Again I pour it down in the rainy season. I am eva ca, verily; the amrtam, nectar of the gods; and mrtyuh, death of the mortals. I Myself am sat, existence-the effect which has come into bneing in relation to its cause; and its opposite, asat, nonexistence. [Nonexistence: the cause which has not become manifest as the effect possessing name and form, It cannot be admitted that the effect has absolute existence, for the Upanisad says, 'All transformation has speech as it basis, and it is name only' (Ch.6. 1. 4). Nor can it be said that the cause has absolute non-existence, for there is the text,'৷৷.by what logic can the existent come verily out of nonexistence? But surely,৷৷.all this was Existence, one without a second' (op. cit. 6.2.2).] It is not that the Lord is Himself absolutely nonexistence; nor are effect and cause (absolutely) existence and nonexistent (respectively). Those men of Knowledge who meditate of Me while worshpping Me according to the respective forms of sacrifices mentioned above-regardomg Me as one or multifirious, etc.-, they attain Me alone according to their conceptions.
9.19. I give heat; I hold back and also end forth rains; I am immortality and also death, the real and also the unreal, O Arjuna !
9.16-19 Ahim kratuh etc. upto Arjuna. The Brahman-being is of course only one and admits of no parts. The action also depends only on the assumed [or not real] causes. Hence, it accomplishes the aloneness (or oneness) of the Brahman. For, if it is performed with the realisation that all the different causes are nothing but the Self, then the action is not far away from reaching the Bhagavat. That has also been stated - 'This self same action-power of Siva, if it exists in the ignorant, binds [him]; the same power, when it is realised that it is a path to his own Self [Siva], then it leads to the goal (the Lord).' (SpK, III, 16). I have myself (Ag.) stated elsewhere as : The intellect that confirms, in the beginning, to [the duality of] the beings and the non-beings; the same intellect does not conform, at the time of withdrawl, to [the duality of] the beings and the non-beings. This subject has been discussed in detail in different places. Hence let us stop [the present discussion] here. I give heat etc. This is said in the context of discussing the One that admits no duality. But if the Brahman can be attained by means of external sacrifices also, then, is a different god (different from Vasudeva) worshipped in the sacrifices like the Agnistoma ? If it is admitted, then it would lead to the doctrine of duality. If [on the other hand] it is Vasudeva Himself, the how is it that emancipation is not attained by the performence [of these sacrifices] ? Therefore it is stated -
9.19 I send out 'heat' in the form of fire, the sun etc. I 'hold back' the rain during summer. Likewise, I pour out the rains during the rainy season. I am 'immortality as well as death' - I am both these conditions through which the world lives and dies. Why say more? I am 'the being and the non-being.' Being is that which exists in the present time. Non-being is that which existed in the past and that which may exist in the future, but is not experienced now as existing. The meaning is that, I alone am existent, having all the entities for my modes, as all intelligent and inhert beings existing in all states, constitute My body. In this way, they (the wise) worship Me, contemplating, through the realisation of My essential unity, as the entire universe distinguished by names and forms and characterished by varied pluralities constituting My body. I alone exist; all the pluralities are only My modes. Thus, after depiciting the character of the noble-minded, whose enjoyment consists of only the experience of the Lord, and in order to bring into bolder relief their greatness, He describes the behaviour of ignorant men who covet the objects of desire.
9.19 I give heat. I hold back and send forth the rain. I am immortality as well as death, O Arjuna. I am the being, as also the non-being.
।।9.19।।तथा --, मैं ही सूर्य होकर अपनी कुछ प्रखर रश्मियोंसे सबको तपाता हूँ और कुछ किरणोंसे वर्षा करता हूँ तथा वर्षा कर चुकनेपर फिर कुछ रश्मियोंद्वारा आठ महीनेतक जलका शोषण करता रहता हूँ और वर्षाकाल आनेपर फिर बरसा देता हूँ। हे अर्जुन देवोंका अमृत और मर्त्यलोकमें बसनेवालोंकी मृत्यु तथा सत् और असत् सब मैं ही हूँ अर्थात् जो जिसके सम्बन्धसे विद्यमान है वह और जो उसके विपरीत है वह भी मैं ही हूँ। परंतु ( यह ध्यानमें रखना चाहिये कि ) स्वयं भगवान् अत्यन्त असत् नहीं हैं। अथवा सत् और असत्का अर्थ यहाँ कार्य और कारण समझना चाहिये। जो ज्ञानी पहले कहे हुए क्रमानुसार एकत्वपृथक्त्व आदि विज्ञानरूप यज्ञोंसे पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं वे अपने विज्ञानानुसार मुझे ही प्राप्त होते हैं।
।।9.19।। --,तपामि अहम् आदित्यो भूत्वा कैश्चित् रश्मिभिः उल्बणैः। अहं वर्षं कैश्चित् रश्मिभिः उत्सृजामि। उत्सृज्य पुनः निगृह्णामि कैश्चित् रश्मिभिः अष्टभिः मासैः पुनः उत्सृजामि प्रावृषि। अमृतं चैव देवानाम्? मृत्युश्च मर्त्यानाम्। सत् यस्य यत् संबन्धितया विद्यमानं तत्? तद्विपरीतम् असच्च एव अहम् अर्जुन। न पुनः अत्यन्तमेव असत् भगवान्? स्वयं कार्यकारणे वा सदसती।।ये पूर्वोक्तैः निवृत्तिप्रकारैः एकत्वपृथक्त्वादिविज्ञानैः यज्ञैः मां पूजयन्तः उपासते ज्ञानविदः? ते यथाविज्ञानं मामेव प्राप्नुवन्ति। ये पुनः अज्ञाः कामकामाः --,
।।9.19।।असतो नियाम्यत्वानुपपत्तेःसदसच्चाहं इत्ययुक्तमित्यत आह -- सदिति। कार्यं सदित्युच्यते। अभिव्यक्तिरूपत्वादित्यनेन सदेर्गत्यर्थस्य क्विपि कर्मणि रूपमेतदित्युच्यते। कारणमप्यव्यक्तरूपत्वादेव असच्छब्दितम्। कार्यकारणयोः सदसच्छब्दप्रयोगं च दर्शयति -- असच्चेति। तस्मात्सदसतोर्विश्वस्माद्ब्रह्म परम्।
।।9.19।।सत्कार्यमसत्कारणम्।सदभिव्यक्तरूपत्वात्कार्यमित्युच्यते बुधैः। असदव्यक्तरूपत्वात्कारणं चापि शब्दितम् इत्यभिधानम्।असच्च सच्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम् इति च भारते।
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च। अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।9.19।।
তপাম্যহমহং বর্ষং নিগৃহ্ণাম্যুত্সৃজামি চ৷ অমৃতং চৈব মৃত্যুশ্চ সদসচ্চাহমর্জুন৷৷9.19৷৷
তপাম্যহমহং বর্ষং নিগৃহ্ণাম্যুত্সৃজামি চ৷ অমৃতং চৈব মৃত্যুশ্চ সদসচ্চাহমর্জুন৷৷9.19৷৷
તપામ્યહમહં વર્ષં નિગૃહ્ણામ્યુત્સૃજામિ ચ। અમૃતં ચૈવ મૃત્યુશ્ચ સદસચ્ચાહમર્જુન।।9.19।।
ਤਪਾਮ੍ਯਹਮਹਂ ਵਰ੍ਸ਼ਂ ਨਿਗਰਿਹ੍ਣਾਮ੍ਯੁਤ੍ਸਰਿਜਾਮਿ ਚ। ਅਮਰਿਤਂ ਚੈਵ ਮਰਿਤ੍ਯੁਸ਼੍ਚ ਸਦਸਚ੍ਚਾਹਮਰ੍ਜੁਨ।।9.19।।
ತಪಾಮ್ಯಹಮಹಂ ವರ್ಷಂ ನಿಗೃಹ್ಣಾಮ್ಯುತ್ಸೃಜಾಮಿ ಚ. ಅಮೃತಂ ಚೈವ ಮೃತ್ಯುಶ್ಚ ಸದಸಚ್ಚಾಹಮರ್ಜುನ৷৷9.19৷৷
തപാമ്യഹമഹം വര്ഷം നിഗൃഹ്ണാമ്യുത്സൃജാമി ച. അമൃതം ചൈവ മൃത്യുശ്ച സദസച്ചാഹമര്ജുന৷৷9.19৷৷
ତପାମ୍ଯହମହଂ ବର୍ଷଂ ନିଗୃହ୍ଣାମ୍ଯୁତ୍ସୃଜାମି ଚ| ଅମୃତଂ ଚୈବ ମୃତ୍ଯୁଶ୍ଚ ସଦସଚ୍ଚାହମର୍ଜୁନ||9.19||
tapāmyahamahaṅ varṣaṅ nigṛhṇāmyutsṛjāmi ca. amṛtaṅ caiva mṛtyuśca sadasaccāhamarjuna৷৷9.19৷৷
தபாம்யஹமஹஂ வர்ஷஂ நிகரிஹ்ணாம்யுத்ஸரிஜாமி ச. அமரிதஂ சைவ மரித்யுஷ்ச ஸதஸச்சாஹமர்ஜுந৷৷9.19৷৷
తపామ్యహమహం వర్షం నిగృహ్ణామ్యుత్సృజామి చ. అమృతం చైవ మృత్యుశ్చ సదసచ్చాహమర్జున৷৷9.19৷৷
9.20
9
20
।।9.20।। वेदत्रयीमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा इन्द्ररूपसे मेरा पूजन करके स्वर्ग-प्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे पुण्यके फलस्वरूप इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गमें देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।
।।9.20।। तीनों वेदों के ज्ञाता (वेदोक्त सकाम कर्म करने वाले), सोमपान करने वाले एवं पापों से पवित्र हुए पुरुष मुझे यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग प्राप्ति चाहते हैं; वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप इन्द्रलोक को प्राप्त कर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोग भोगते हैं।।
।।9.20।। च्ड्ढड्ढ क्दृथ्र्थ्र्ड्ढदद्यठ्ठद्धन्र् द्वदड्डड्ढद्ध 9.21
।।9.20।। व्याख्या--'त्रैविद्याः मां सोमपाः ৷৷. दिव्यान्दिवि देवभागान्'--संसारके मनुष्य प्रायः यहाँके भोगोंमें ही लगे रहते हैं उनमें जो भी विशेष बुद्धिमान् कहलाते हैं, उनके हृदयमें भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व रहनेके कारण जब वे ऋक्, साम और यजुः -- इन तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका तथा उनके फलका वर्णन सुनते हैं, तब वे (वेदोंमें आस्तिकभाव होनेके कारण) यहाँके भोगोंकी इतनी परवाह न करके स्वर्गके भोगोंके लिये ललचा उठते हैं और स्वर्गप्राप्तिके लिये वेदोंमें कहे हुए यज्ञोंके अनुष्ठानमें लग जाते हैं। ऐसे मनुष्योंके लिये ही यहाँ 'त्रैविद्याः' पद आया है। सोमलता अथवा सोमवल्ली नामकी एक लता होती है। उसके विषयमें शास्त्रमें आता है कि जैसे शुक्लपक्षमें प्रतिदिन चन्द्रमाकी एक-एक कला बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमाको कलाएँ पूर्ण हो जाती हैं और कृष्णपक्षमें प्रतिदिन एक-एक कला क्षीण होते-होते अमावस्याको कलाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं ऐसे ही उस सोमलताका भी शुक्लपक्षमें प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकलते-निकलते पूर्णिमातक पंद्रह पत्ते निकल आते हैं और कृष्णपक्षमें प्रतिदिन एक-एक पत्ता गिरते-गिरते अमावस्यातक पूरे पत्ते गिर जाते हैं (टिप्पणी प0 506)। उस सोमलताके रसको सोमरस कहते हैं। यज्ञ करनेवाले उस सोमरसको वैदिक मन्त्रोंके द्वारा अभिमन्त्रित करके पीते हैं, इसलिये उनको 'सोमपाः' कहा गया है।
।।9.20 -- 9.21।।नन्वेवं यदि बाह्ययागादिनाऽपि ब्रह्म प्राप्तिः (S ब्रह्माप्तिः) ? तर्हि अग्निष्टोमादिष्वपि किम् अन्यो याज्यः अभ्युपगमे भेदवादः वासुदेव एव (S omits एव) इति चेत्? कथं नापवर्गस्तैः [प्राप्यते] तदर्थमुच्यते -- त्रैविद्या इत्यादि। ते तमित्यादि। यद्यपि ते मामेव यजन्ते। तथापि स्वर्गमात्रप्रार्थनया मितं कर्म निजसत्त्वदुर्बलतया स्वर्गादिमात्रेणैव फलेनावच्छिन्दन्ति। अत एवैषां पुनरावर्तको धर्मः। एवं ते गतागतं लभन्ते? न तु यागस्य पुनरावृत्तिप्रसवधर्मा स्वभावः।
।।9.20।।ऋग्यजुः सामरूपाः तिस्रो विद्याः त्रिविद्यम्? केवलं त्रिविद्यनिष्ठाः त्रैविद्याः। न तु त्रय्यन्तं निष्ठाः? त्रय्यन्तनिष्ठा हि महात्मानः पूर्वोक्तप्रकारेण अखिलवेदवेद्यं माम् एव ज्ञात्वा अतिमात्रमद्भक्तिकारितकीर्तनादिभिः ज्ञानयज्ञेन च मदेकप्राप्या माम् एव उपासते।त्रैविद्याः तु वेदप्रतिपाद्यकेवलेन्द्रादियागशिष्टसोमान् पिबन्तः पूतपापाः स्वर्गादिप्राप्तिविरोधिपापात् पूताः तैः केवलेन्द्रादिदैवत्यतया अनुसंहितैः यज्ञैः वस्तुतः तद्रूपं माम् इष्ट्वा तथा अवस्थितं माम् अजानन्तः स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यं दुःखासंभिन्नं सुरेन्द्रलोकं प्राप्य तत्र दिव्यान् देवभोगान् अश्नन्ति।
।।9.20।।भगवद्भक्तानामपि निष्कामाना(णा)मेव मुक्तिरिति दर्शयितुं सकामानां पुंसां संसारमवतारयति -- ये पुनरिति। तिस्रो विद्या अधीयते विदन्तीति वा? त्रैविद्या वेदविदस्तदाह -- ऋगिति। वस्वादीत्यादिशब्देन सवनद्वयेशानादित्यारुद्राश्च गृह्यन्ते। शुद्धकिल्बिषाः निरस्तपापा इति यावत्।
।।9.20 -- 9.21।।त्रैविद्या इति। त्रिगुणात्मकत्रिवेदविद्यायां निष्णाताः? तथा च त्रिगुणकर्मकारिणः तथाविधैरेव यज्ञैस्तत्तद्देवताविशेषं समाराध्य वस्तुतस्तत्राहमेवेति मामित्युक्तम्। स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।।स्वर्गतिमित्युपलक्षणं कर्मानुगुणलोकानाम्। तथाहि निबन्धे -- सात्त्विकः सात्त्विकं कर्म यथा श्रुतिपरः कृती। स्वर्गलोकस्तस्य सिद्धयेद्विमानैस्त्रीभिरावृतः।।पुण्यस्य तु तिरोधाने पतत्यर्वाक्शिरास्ततः। पुण्यशेषं समादाय समीचीनेषु जायते। राजसं कर्म कुर्वाणो मेर्वादिसुखभाग्भवेत्। तामसं कर्म कुर्वाणोऽधोलोके सुखभाग्भवेत्।।राजसं सात्विकं कुर्वन् दैत्यसर्गेषु जायते। राजसं कर्म कुर्वाणश्चन्द्रलोके सुखी भवेत्। वृष्टिद्वाराऽन्नरूपः सन् रेतोयोनिषु जायते। तामसं कर्म कुर्वाणो यक्षलोके सुखी भवेत्। तामसः सात्विकं कुर्वन् पितृलोके महीयते। राजसं कर्म कुर्वाणो भूतादिसुखमाप्नुयात्।।तामसं कर्म कुर्वाणः सर्पादिसुखभाग्भवेत्। सर्वेषां पुनरावृत्तिस्तथा कर्म पुनर्भवः इति। तदाह -- क्षीणे पुण्ये इति। न तु क्षीणे लोके तद्यथेह कर्मजितो [चितो] लोकः क्षीयत एवमेव अमुत्र पुण्यजितो [चितो] लोकः क्षीयते [छां.उ.8।1।6] इति श्रुतिस्तूपचारमात्रम्। एवं त्रयीधर्मपराः कामकामा गतागतमवाप्नुवन्ति जन्ममरणपर्यावर्त्तमनुभवन्तो गुणप्रवाहमार्गे पतिता भवन्तीत्यर्थः। अयं जायस्य म्रियस्वेति तृतीयो दुष्टोऽधर्म -- (गुण) प्रवाहमार्ग उक्तः? तत्र अधर्मप्रवाहमार्गे जीवा नाङ्गीकृताः केनापि स्वरूपेण किन्तु माययेति सिद्धान्तः।
।।9.20।।एवमेकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा चेति त्रिविधा अपि निष्कामाः सन्तो भगवन्तमुपासीनाः सत्त्वशुद्धिज्ञानोत्पत्तिद्वारेण क्रमेण मुच्यन्ते। ये तु सकामाः सन्तो न केनापि प्रकारेण भगवन्तमुपासते किंतु स्वस्वकामसाधनानि काम्यान्येव कर्माण्यनुतिष्ठन्ति ते सत्त्वशोधकाभावेन ज्ञानसाधमनधिरूढाः पुनःपुनर्जन्ममरणप्रबन्धेन सर्वदा संसारदुःखमेवानुभवन्तीत्याह द्वाभ्यां। ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदलक्षणा हौत्राध्वर्यवौद्गात्रप्रतिपत्तिहेतवस्तिस्रो विद्या येषां ते त्रिविद्याः त्रिविद्या एव स्वार्थिकतद्धितेन त्रैविद्यास्तिस्रो विद्या वदन्तीति वा वेदत्रयविदो याज्ञिकाः यज्ञैरग्निष्टोमादिभिः क्रमेण सवनत्रये वसुरुद्रादित्यरूपिणं मामीश्वरमिष्ट्वा तद्रूपेण मामजानन्तोऽपि वस्तुवृत्तेन पूजयित्वा अभिषुत्य हुत्वा च सोमं पिबन्तीति समोपाः सन्तस्तेनैव सोमपानेन पूतपापा निरस्तस्वभोगप्रतिबन्धकपापाः सकामतया स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते नतु सत्त्वशुद्धिज्ञानोत्पत्त्यादि। ते दिवि स्वर्गे लोके पुण्यं पुण्यफलं सर्वोत्कृष्टं सुरेन्द्रलोकं शतक्रतोः स्थानमासाद्य दिव्यान्मनुष्यैरलभ्यान् देवभोगान्देवदेहोपभोग्यान्कामानश्नन्ति भुञ्जते।
।।9.20।।तदेवम्अवजानन्ति मां मूढा इत्यादिश्लोकद्वयेन क्षिप्रफलाशया देवतान्तरं भजन्तो मां नाद्रियन्त इत्यभक्ता दर्शिताः।महात्मानस्तु मां पार्थ इत्यादिना च भक्ता उक्तास्तत्रैकत्वेन पृथक्त्वेन वा परमेश्वरं श्रीवासुदेवं ये न भजन्ति तेषां जन्ममृत्युप्रवाहो दुर्वार इत्याह -- त्रैविद्या मामिति द्वाभ्याम्। ऋग्यजुःसामलक्षणास्तिस्रो विद्या येषां ते त्रिविद्याः एव त्रैविद्याः स्वार्थे तद्धितः। तिस्रो विद्या अधीयन्ते जानन्तीति वा त्रैविद्याः। वेदत्रयोक्तकर्मतत्परा इत्यर्थः। वेदत्रयविहितैर्यज्ञैर्मामिष्ट्वा ममैव रूपं देवतान्तरमित्यजानन्तोऽपि वस्तुत इन्द्रादिरूपेण मामेवेष्ट्वा संपूज्य यज्ञशेषं सोमं पिबन्तीति सोमपाः तेनैव पूतपापाः शोधितकल्मषाः सन्तः स्वर्गतिं स्वर्गं प्रति गतिं ये प्रार्थयन्ते ते पुण्यफलरूपं सुरेन्द्रस्य लोकं स्वर्गमासाद्य प्राप्य दिवि स्वर्गे दिव्यानुत्तमान्देवानां भोगानश्नन्ति भुञ्जते।
।।9.20।।सदसच्चाहमर्जुन इत्यस्यानन्तरंत्रैविद्याः इत्यादिकमसङ्गतमिति शङ्कायां पूर्वोत्तरानुवृत्तप्रघट्टाकार्थं प्रदर्शयन् सङ्गतिमाह -- एवं महात्मनामिति।महात्मनां ज्ञानिनां भगवदनुभवैकभोगानामिति त्रिभिःमहात्मानस्तुज्ञात्वाअनन्यमनसः [9।13] इति प्रागुक्तस्मारणम्।अवजानन्ति [9।11] इत्याद्यपेक्षयामहात्मानस्तु इत्यादेः विशेषकथनरूपत्वेऽपि भजनकीर्तनादेर्भक्तस्वरूपनिरूपकतयावृत्तमुक्त्वेत्युक्तम्। एवं निरूपितस्वरूपाणां तेषां निरतिशयफलसौकर्यादिकमभिधास्यमानं विशेषो भवितुमर्हतीतितेषामेव विशेषं दर्शयितुमित्युक्तम्।अज्ञानामित्यनेनपरं भावमजानन्तः [9।11] इति प्रागुक्ता एवात्र फल्गुफलयोगादिभिः प्रपञ्च्यन्त इति सूचितम्।त्रैविद्याः इत्यत्र सङ्ख्याविशेषप्रसिद्ध्यात्रयीधर्मम् इति वक्ष्यमाणानुसन्धानाच्च विद्यां विशिंषन् समासार्थं चाहऋग्यजुरिति। तिस्रो विद्याः समाहृता इति द्रष्टव्यम्। द्विगुसमासत्वात् त्रिविद्यमित्येकवद्भावनपुंसकत्वे।अकारान्तोत्तरपदो द्विगुः स्त्रियां भाष्यते इत्यस्यपात्रादिभ्यः प्रतिषेधो वक्तव्यः इत्यपवादः।तदधीते तद्वेद [अष्टा.4।2।59] इत्यण्प्रत्ययविवक्षयाऽऽहत्रिविद्यनिष्ठा इति। सर्ववेदविषयत्वे विरोधात्कर्ममात्रविषयत्वज्ञापनायकेवलशब्दः। तदेव विशदयतिन तु त्रय्यन्तनिष्ठा इति। विषयव्यवस्थापनाय पूर्वोक्तानां महात्मनामपि वेदैकदेशभूतोपनिषन्निष्ठत्वं सर्वस्यापि वेदस्य तत्तद्द्वारा भगवत्परत्वस्वीकारं च वदन्? यथावस्थितज्ञानाधीनपुरुषार्थविशेषाभिलाषतदुपायनिष्ठतामात्रेण विशेषात्सिद्धान्तान्तरनिष्ठत्वभ्रमं च व्युदस्यन्? केवलत्रयीनिष्ठवृत्तव्याख्यानावसरे तद्व्यवच्छेद्यमखिलं दर्शयतित्रय्यन्तनिष्ठा हीति। एतेन प्रकरणान्तरेषुचतुर्थी विद्या इति मोक्षसाधनभूता त्रय्यन्तविद्यैवोच्यते इति दर्शितम्। यथाऽऽह जनकाय याज्ञवल्क्यः -- एषा तेऽऽन्वीक्षिकी विद्या चतुर्थी साम्परायिकी [म.भा.12।318।47] इतिचतुर्थी राजशार्दूल विद्यैषा साम्परायिकी [म.भा.12।318।35] इति च।वेदप्रतिपाद्येति -- कर्मभागमात्रप्रतिपाद्येत्यर्थः। महात्मनामपि विद्याङ्गकर्मगतसोमपानसद्भावात्तद्व्यवच्छेदायोक्तंकेवलेन्द्रादियागशिष्टेति। अयज्ञशिष्टसोमपानस्याधर्मत्वाद्यागशिष्टत्वोक्तिः।स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते इत्यनन्तरमभिधानात्तत्प्रतिबन्धकपापनिरासकत्वमात्रमेवात्र सोमपानस्येत्यभिप्रायेण स्वर्गादिप्राप्तिविरोधिपापात्पूता इत्युक्तम्। स्वर्गशब्दोपलक्षणार्थत्वज्ञापनायादिशब्दः। पापस्य पूतत्वं नाम निरस्तत्वम् तदेव हि पुरुषस्य पूतत्वमित्यभिप्रायेणपापात्पूता इति निर्देशः। पापान्मुक्ता इत्यर्थः। स्वर्गाद्यर्थिनां तत्त्वतो भगवज्ज्ञानाभावस्य साक्षाद्भगवद्याजिनां भगवत्प्राप्तेः केवलेन्द्रादियागानामपि वस्तुतः परमपुरुषाराधनरूपत्वस्य तज्ज्ञानाभावाच्च तेषां वैकल्यस्यये त्वन्यदेवताभक्ताः [9।23] इत्यादिश्लोकत्रयेण वक्ष्यमाणत्वात्?यज्ञैर्मामिष्ट्वा इत्येतत्परमपुरुषस्य स्वानुसन्धानमात्रमूलं वचः न पुनर्यजमानानुसन्धानमूलमिति ज्ञापनायोक्तंतैरित्यादि अजानन्त इत्यन्तम्। अनुष्ठानस्य फलकामनापूर्वकत्वेऽपि यज्ञानन्तरमेव हि फलं देहीति देवतां प्रति प्रार्थनम् अतःइष्ट्वा प्रार्थयन्ते इति क्रमोपपत्तिः। पुण्यक्रियातज्जन्यादृष्टयोर्लोकसामानाधिकरण्यायोगात् सुरेन्द्रलोकस्य फलमात्ररूपस्य पावनत्वेनाश्रुतत्वात् प्रभूतदुःखासम्भिन्नत्वस्य च श्रुतत्वात्पुण्यप्रतिक्षेप्यपापकार्यदुःखनिवृत्तिपरोऽयं पुण्यशब्द इत्यभिप्रायेणोक्तंदुःखासम्भिन्नमिति। पुण्यसाध्यसुखमयत्वलक्षणायां वा दुःखनिवृत्तिरर्थसिद्धा। पुण्यसाध्यत्वलक्षणायां त्वर्थतः पुनरुक्तिः स्यात्।सुरेन्द्रलोकं प्राप्य इत्युक्तेऽपि पुनःदिवि इति निर्देशो विचित्रभोगाश्रयतत्तदवान्तरप्रदेशविशेषविषयो भवितुमर्हतीतितत्रतत्रेत्युक्तम्।दिव्यानिति मोहनत्वाय भौमभोगवैलक्षण्यकथनम्। दिव्यान् दिवि भवान् देवभोगान् देवानां भोग्यानित्यर्थः। देवभोग्यपशुपुरोडाशादिभौमव्यवच्छेदार्थं चदिव्यशब्दः। देवा हि स्वरूपतः कालतश्च परिमितान् स्वभोगान् स्वयाजिभ्यः संविभजन्ते। अश्नन्ति भुञ्जते? अनुभवन्तीत्यर्थः।भुक्त्वेति ह्यनूद्यते।विशालम् इत्यनेन भौमभोगापेक्षया पृथुत्वसूचनम्।स्वर्गलोकं भुक्त्वेति स्वर्गलोकसम्भवान् भोगाननुभूयेत्यर्थः। नहि स्वर्गानुभवाद्बन्धकपुण्यान्तरक्षयः कर्मशेषेण विशिष्टजात्यादिप्राप्तिः श्रूयत इत्यभिप्रायेणोक्तंतदनुभवहेतुभूत इति। एतेनस्वर्गेऽपि पातभीतस्य [वि.पु.6।5।50] इत्यादि दर्शितम्। मर्त्यशब्देन भूलोकेऽप्यस्थिरत्वं द्योतितम्। एवंशब्दाभिप्रेतेन प्रकारेण त्रयीशब्दस्य तत्र सङ्कोचं? कामकामत्वे हेतुं च दर्शयतिएवं त्रय्यन्तसिद्धज्ञानविधुरा इति। अनुवादोऽयं स्वरूपतो मोक्षानुगुणस्यापि धर्मस्य प्रकारविशेषात्पुनरावृत्तिहेतुत्वमिति ज्ञापनार्थः। पूर्वः कामशब्दः कर्मणि व्युत्पन्न इत्याहकाम्यस्वर्गादिकामा इति। मोक्षस्यापि फलतया काम्यमानत्वात्ततोऽत्र सङ्कोचाय स्वर्गादिशब्दः। केवलशब्देन त्रय्यन्तसिद्धस्वाङ्गिभूतपरमधर्मराहित्योक्तिः। गतं चागतं च गतागतं? तदेव लभन्ते। नहि गमनामनमात्रं दोष इत्यत्राहअल्पेति। अनुभवदशायामप्यल्पत्वात्?यथा पशुरेवं स देवानाम् [बृ.उ.1।4।10] इति प्रक्रिययाऽतिशयितब्रह्मादिसुखानुसन्धानेन दुःखत्वम तस्य चास्थिरत्वानुसन्धानाद्दुःखतरत्वम् तत्प्रध्वंसागमे तु दुःखतमत्वम् घटीयन्त्रन्यायेन पुनरावृत्त्यधीनगर्भवासव्याधिरनिरयादिसम्भवं तु दुःखं वक्तुमपि दुस्सहम् तच्चासङ्ख्यातप्रवाहमिति भावः।
।।9.20।।एवं बहुप्रकारकं यत्स्वस्वरूपमुक्तं तदज्ञात्वा ये यज्ञाद्रिकमन्यया कुर्वन्ति सकामास्ते जन्ममरणात्मके संसारे तिष्ठन्तीत्याह द्वाभ्याम् -- त्रैविद्या इति। त्रैविद्याः वेदत्रयीनिरूपितकर्मकर्त्तारः। सोमपाः यज्ञशेषामृतपातारः। पूतपापाः कर्मिणां पापसम्भवाद्विधूतकल्मषाः। यज्ञैरेव वा विधूतकल्मषाः। मां यज्ञैरिष्ट्वा मदाज्ञारूपत्वेन भक्तिप्रतिबन्धनिवर्तकत्वमज्ञात्वा तत्स्वरूपं चाज्ञात्वा स्वर्गतिं इन्द्रादिलोकं प्रार्थयन्ते।
।।9.20।।ये पुनरुक्तेषु प्रकारेष्वन्यतमेनापि मां न भजन्ते ते केवलकर्मठाः कां गतिं प्राप्नुवन्तीति शृणु -- त्रैविद्या इति। तिस्रः ऋग्यजुःसामरूपाः विद्या येषां ते त्रिविद्याः त एव त्रैविद्याः सोमपाः सोमपायिनो याज्ञिकाः यज्ञैर्मामिष्ट्वा स्वर्गतिं फलं प्रार्थयन्ते। दिव्यानप्राकृतान्संकल्पमात्रोपनतान्दुःखासंभिन्नान्।
।।9.20।।एवं ते सततं कीर्तयन्तः यतन्तश्च दृढव्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते। ज्ञानयज्ञेन एकत्वेन पृथकत्वेन बहुधा चोपासते इति पूर्वोक्तैर्वृत्तिप्रकारैः मां पूजयन्तस्ते साक्षात्परंपरया च मामेव प्राप्नुवन्तीर्थादुक्तम् इदानीमाज्ञानां भगवद्भक्तिवर्जितानां केवलकर्मजडानां स्वर्गप्राप्त्यापि संसारानिवृत्तिरित्याह -- त्रैविधा इत्यादिना। ऋग्यजुःसामवेदप्रतिपादितकर्ममात्रज्ञाः याज्ञिकाः सोमं पिबन्तीति सोमपास्तेनैव सोमपानेन पूतानि सर्वगप्रतिबन्धकानि येषां ते शुद्धकिल्बिषाः धूतपापा इतियावत्। यज्ञैरग्निष्टोमादिभिर्मामिन्द्रवस्वादिरुपिणमजानन्तोऽपि वस्तुवृत्त्या तद्रूपिणं मामिष्ट्वा पजयित्वा ये स्वर्गतिं स्वर्गगमनं गम्यत इति गतिः फल स्वरेव गतिरिति वा तां प्रार्थयन्ते च पुण्यं पुण्यफलं सुरेन्द्रस्य देवराजस्य पुरंदरस्य लोकं स्वर्गलोकं आसाद्य संप्राप्य दिवि स्वर्गे दिव्यान् दिविभवान् देवभोगान् देवैर्भोक्तुं योग्यान् भोगानश्रन्ति भुञ्जते।
9.20 त्रैविद्याः the knowers of the three Vedas? माम् Me? सोमपाः the drinkers of Soma? पूतपापाः purified from sin? यज्ञैः by sacrifices? इष्ट्वा worshipping? स्वर्गतिम् way to heaven? प्रार्थयन्ते pray? ते they? पुण्यम् holy? आसाद्य having reached? सुरेन्द्रलोकम् the world of the Lord of gods? अश्नन्ति eat (enjoy)? दिव्यान् divine? दिवि in heaven? देवभोगान् the divine pleasures.Commentary May aspirants climb up to a certain height on the ladder of Yoga. They are irresistibly swept away by the temptation of the higher planes (the heaven? and the plane of the celestial beings? etc.). They lose their power of discrimination and right understanding and thery lose themselves in heavenly enjoyments. The dwellers of the higher planes? the shining ones? tempt the aspirants in a variety of ways. They say unto them? O Yogi? we are very much pleased with your austerities and dispassion? spiritual practices and divine alities. This is the plane for your final resting which you have obtained through your merit and your austerities. We are all your servants to obey your orders and carry out your ?nds or behests. Here is the celestial car for you. You can move about anywhere you like. Here are the celestial damsels to attend on you. They will please you with their celestial music. Here is the wishfulfilling ree which will give you whatever you want. Here is the celestial nectar in the golden cup? which will make you immortal. Here is the celestial lake of supreme joy. You can swim freely in this lake. The uncautious Yogi is easily carried away by the invitations of the gods and the sweet flowery speeches. He gets false satisfaction or contentment. He thinks that he has reached the highest goal of Yoga. He yields to the templations and his energy is dissipated in various directions. As soon as his merits are exhausted he comes down to this earthplane. He will have to start his upward climb on the spiritual lader once more. But that dispassionate Yogi who is endowed with strong discrimination rejects ruthlessly these invitations from the gods? marches boldly on his spiritual path and stops not till he attains the highest rung on the ladder of Yoga or the highest summit on the hill of knowledge or Nirvikalpa Samadhi. He is fully conscious that enjoyments in heaven are as much worthless as those of this illusory world. The pleasures of heaven are subtle? exceedingly intense and extremely intoxicating. That is the reason why the uncautious? nonvigilant and less dispassionate aspirant yields easily to the temptations of the higher planes. Even in this physical plane? in the West and in America where there is abundance of wealth? plenty of dollars and gold? people enjoy subtle and intense sensual pleasures. Every day scientists bring out new inventions? new forms of sensual pleasures for the gratification of the mischievous and revolting senses. Even an abstemious man of simple habits of India becomes a changed man when he lives in America or Europe for some time. He yields to the temptations. Such is the power of Maya. Such is the influence of temptation. Such is the strength of the senses. That man who is endowed with strong discrimination? sustained dispassion? good selfanalytic power? and burning yearning for liberation? can resist temptations and he aloen can be really happy. He alone can attain the highest goal of life? the final beatitude or the sublime vision of the Infinite.Those who drink the Soma juice are purified from sin.Sacrifices Such as the Agnistoma? Jyotistoma. They worship Me as the Vasus and other deities (Rudras and Adityas) by sacrifices such as the Agnistoma.Indra is the Lord of the gods. He is called Satakratu because he had performed a hundred sacrifices. The divine pleasures are the supernatural pleasures of the heaven.DivyaBhoga An enjoyment that is beyond the reach of man or an enjoyment that can be had only by the celestial body of the gods or an enjoyment given by the gods in the heaven. The term Bhoga indicates sensual pleasures. Though the heavenly pleasuresare of a very subtle nature? yet,they are sensual pleasures only. (Cf.II.45)
9.20 The knowers of the three Vedas, the drinkers of Soma, purified of all sins, worshipping Me by sacrifices, pray for the way to heaven; they reach the holy world of the Lord of the gods and enjoy in heavn the divine pleasures of the gods.
9.20 Those who are versed in the scriptures, who drink the mystic Soma-juice and are purified from sin, but who while worshipping Me with sacrifices pray that I will lead them to heaven; they reach the holy world where lives the Controller of the Powers of Nature, and they enjoy the feasts of Paradise.
9.20 Those who are versed in the Vedas, who are drinkers of Soma and are purified of sin, pray for the heavenly goal by worshipping Me through sacrifices. Having reached the place (world) of the king of gods, which is the result of righteousness, they enjoy in heaven th divine pleasure of gods.
9.20 Those, again, who are ignorant and desirous of pleasures, trai-vidyah, who are versed in the three Vedas, who know the Rk, Yajus and Sama Vedas; somapah, who are drinkers of Soma; and who, as a result of that very drinking of Soma, are puta-papah, purified of sin; prarthayante, pray for; the svargatim, heavenly goal, the attainment of heaven-heaven itself being the goal [Ast. adds this portion-svareva gatih, heaven itself being the goal.-Tr.]-; istva, by worshipping; mam, Me, existing in the forms of gods such as the Vasus and others; yajnaih, through sacrifices such as the Agnistoma etc. And asadya, having reached; surendra-lokam, the place (world) of the kind of gods, of Indra; (which is) punyam, the result of righteousness; te, they; asnanti, enjoy; divi, in heaven; the devyan, divine, heavenly, supernatural;; deva-bhogan, pleasures of gods.
9.20. The masters of the three Vedas, the Somadrinkers, purified of their sins, aspire for the heavengoal by offering sacrifices to Me. They attain the meritorious world of the lord of gods and taste in the heaven the heavenly pleasures of the gods.
9.20 See Comment under 9.21
9.20 The three Vedas consist of the Rk, Yajus and Saman. The followers of the three Vedas are called 'Trai-vidyah', but they are not devoted to Vedanta (or Trayyanta). The great souls, who rely on Vedanta, know Me, as mentioned before, to be the only object to be known from all the Vedas. Considering Me as the highest object of attainment, they worship Me through singing My names etc., caused by deep devotion to Me, and also through the sacrifice of knowledge. But the followers of the three Vedas drink the Soma beverage, forming the remainder of sacrifices in honour of Indra and other divinities, as prescribed by the Vedas. They are thery purified of evil that stand in the way of attainment of heaven. In these sacrifices, in which Indra etc., are regarded as divinties, they really worship Me in the forms of these divinities. They 'however' do not know that I abide in them in that way, and so they pray for the way to heaven etc. After attaining the world of Indra, which is free from unhappiness, they enjoy everywhere the divine pleasures.
9.20 Those who are versed in the three Vedas, being purified from sin by drinking the Soma juice, pray for the passage to heaven and worship Me by sacrifices. Reaching the holy realm of the chief of the gods, they enjoy in heaven celestial pleasures of the gods.
।।9.20।।परंतु जो विषयवासनायुक्त अज्ञानी --, ऋक्? यजु और साम -- इन तीनों वेदोंको जाननेवाले? सोमरसका पान करनेवाले और पापरहित हुए अर्थात् सोमरसका पान करनेसे जिनके पाप नष्ट हो गये हैं ऐसे सकाम पुरुष वसु आदि देवोंके रूपमें स्थित मुझ परमात्माका अग्निष्टोमादि यज्ञोंद्वारा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी इच्छा करते हैं। वे अपने पुण्यके फलस्वरूप इन्द्रके स्थानको पाकर स्वर्गमें देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं अर्थात् देवताओंके जो स्वर्गमें होनेवाले अप्राकृत भोग हैं उनको भोगते हैं।
।।9.20।। --,त्रैविद्याः ऋग्यजुःसामविदः मां वस्वादिदेवरूपिणं सोमपाः सोमं पिबन्तीति सोमपाः? तेनैव सोमपानेन पूतपापाः शुद्धकिल्बिषाः? यज्ञैः अग्निष्टोमादिभिः इष्ट्वा पूजयित्वा स्वर्गतिं स्वर्गगमनं स्वरेव गतिः स्वर्गतिः ताम्? प्रार्थयन्ते। ते च पुण्यं पुण्यफलम् आसाद्य संप्राप्य सुरेन्द्रलोकं शतक्रतोः स्थानम् अश्नन्ति भुञ्जते दिव्यान् दिवि भवान् अप्राकृतान् देवभोगान् देवानां भोगान्।।
।।9.20 -- 9.21।।सदसच्चाहमर्जुन [9।16] इति विज्ञानस्योपसंहृतत्वादुत्तरस्यासङ्गतिमाशङ्क्याह -- तथापीति।अहं क्रतुः [9।16] इत्यादिना सर्वक्रत्वादिभोक्तृत्वं यदुक्तं भगवतस्तदसदिति वक्ष्यामीति गूढाभिसन्धिना यदि सर्वत्र भोक्ता भगवान्? तर्हि किं भागवतानां त्रैविद्यानां च फलसाम्यमेव इति,पृष्टस्येदमुत्तरमित्याशयः। तथापि सर्वत्र भगवतो भोक्तृत्वेऽपि मद्भजनं भागवतैरनुष्ठितम्? देवतेति पित्राद्युपलक्षणम् त्रैविद्याद्यनुष्ठिताद्वरमुत्कृष्टफलम्। इत्यादिना श्लोकत्रयेण।
।।9.20 -- 9.21।।तथापि मद्भजनमेवान्यदेवताभजनाद्वरमिति दर्शयति -- त्रैविद्या इत्यादिना।
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।9.20।।
ত্রৈবিদ্যা মাং সোমপাঃ পূতপাপা যজ্ঞৈরিষ্ট্বা স্বর্গতিং প্রার্থযন্তে৷ তে পুণ্যমাসাদ্য সুরেন্দ্রলোক- মশ্নন্তি দিব্যান্দিবি দেবভোগান্৷৷9.20৷৷
ত্রৈবিদ্যা মাং সোমপাঃ পূতপাপা যজ্ঞৈরিষ্ট্বা স্বর্গতিং প্রার্থযন্তে৷ তে পুণ্যমাসাদ্য সুরেন্দ্রলোক- মশ্নন্তি দিব্যান্দিবি দেবভোগান্৷৷9.20৷৷
ત્રૈવિદ્યા માં સોમપાઃ પૂતપાપા યજ્ઞૈરિષ્ટ્વા સ્વર્ગતિં પ્રાર્થયન્તે। તે પુણ્યમાસાદ્ય સુરેન્દ્રલોક- મશ્નન્તિ દિવ્યાન્દિવિ દેવભોગાન્।।9.20।।
ਤ੍ਰੈਵਿਦ੍ਯਾ ਮਾਂ ਸੋਮਪਾ ਪੂਤਪਾਪਾ ਯਜ੍ਞੈਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵਾ ਸ੍ਵਰ੍ਗਤਿਂ ਪ੍ਰਾਰ੍ਥਯਨ੍ਤੇ। ਤੇ ਪੁਣ੍ਯਮਾਸਾਦ੍ਯ ਸੁਰੇਨ੍ਦ੍ਰਲੋਕ- ਮਸ਼੍ਨਨ੍ਤਿ ਦਿਵ੍ਯਾਨ੍ਦਿਵਿ ਦੇਵਭੋਗਾਨ੍।।9.20।।
ತ್ರೈವಿದ್ಯಾ ಮಾಂ ಸೋಮಪಾಃ ಪೂತಪಾಪಾ ಯಜ್ಞೈರಿಷ್ಟ್ವಾ ಸ್ವರ್ಗತಿಂ ಪ್ರಾರ್ಥಯನ್ತೇ. ತೇ ಪುಣ್ಯಮಾಸಾದ್ಯ ಸುರೇನ್ದ್ರಲೋಕ- ಮಶ್ನನ್ತಿ ದಿವ್ಯಾನ್ದಿವಿ ದೇವಭೋಗಾನ್৷৷9.20৷৷
ത്രൈവിദ്യാ മാം സോമപാഃ പൂതപാപാ യജ്ഞൈരിഷ്ട്വാ സ്വര്ഗതിം പ്രാര്ഥയന്തേ. തേ പുണ്യമാസാദ്യ സുരേന്ദ്രലോക- മശ്നന്തി ദിവ്യാന്ദിവി ദേവഭോഗാന്৷৷9.20৷৷
ତ୍ରୈବିଦ୍ଯା ମାଂ ସୋମପାଃ ପୂତପାପା ଯଜ୍ଞୈରିଷ୍ଟ୍ବା ସ୍ବର୍ଗତିଂ ପ୍ରାର୍ଥଯନ୍ତେ| ତେ ପୁଣ୍ଯମାସାଦ୍ଯ ସୁରେନ୍ଦ୍ରଲୋକ- ମଶ୍ନନ୍ତି ଦିବ୍ଯାନ୍ଦିବି ଦେବଭୋଗାନ୍||9.20||
traividyā māṅ sōmapāḥ pūtapāpā yajñairiṣṭvā svargatiṅ prārthayantē. tē puṇyamāsādya surēndralōka- maśnanti divyāndivi dēvabhōgān৷৷9.20৷৷
த்ரைவித்யா மாஂ ஸோமபாஃ பூதபாபா யஜ்ஞைரிஷ்ட்வா ஸ்வர்கதிஂ ப்ரார்தயந்தே. தே புண்யமாஸாத்ய ஸுரேந்த்ரலோக- மஷ்நந்தி திவ்யாந்திவி தேவபோகாந்৷৷9.20৷৷
త్రైవిద్యా మాం సోమపాః పూతపాపా యజ్ఞైరిష్ట్వా స్వర్గతిం ప్రార్థయన్తే. తే పుణ్యమాసాద్య సురేన్ద్రలోక- మశ్నన్తి దివ్యాన్దివి దేవభోగాన్৷৷9.20৷৷
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।।9.21।। वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।
।।9.21।। वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर, पुण्यक्षीण होने पर, मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे गये कर्म के शरण हुए और भोगों की कामना वाले पुरुष आवागमन (गतागत) को प्राप्त होते हैं।।
।।9.21।। जिन्होंने तीनों वेदों के कर्मकाण्ड का अध्ययन किया हो और जो स्वर्गादि फल के प्रापक यज्ञयागादि के विधिविधान भी जानते हों? ऐसे लोग यदि सकाम भावना से श्रद्धापूर्वक उन कर्मों का अनुष्ठान करते हैं? तो वे स्वर्ग लोक को प्राप्त हो कर वहाँ दिव्य देवताओं के भोगांे को भोगते हैं।सोम नामक एक लता होती है? जिसका दूधिया रस यज्ञ कर्म में प्रयोग किया जाता है और यज्ञ की समाप्ति पर अल्प मात्रा में तीर्थपान के समान इसे ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार सोमपा शब्द से अभिप्राय यज्ञकर्म की समाप्ति से समझना चाहिए। सकाम भावना से किये गये ये यज्ञकर्म अनित्य फल देने वाले होते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्वर्ग को प्राप्त जीव पुण्य समाप्त होने पर मृत्युलोक में प्रवेश करते हैं।ऐसे अविवेकी कामी लोगों के प्रति भगवान् की अरुचि उनके इन शब्दों में स्पष्ट होती है कि वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान कर? भोगों की कामना करने वाले? बारम्बार (स्वर्ग को) जाते और (संसार को) आते हैं।परन्तु जो पुरुष निष्काम और तत्त्वदर्शी हैं? उनके विषय में भगवान् कहते हैं --
।।9.21।। व्याख्या--'ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं ৷৷. कामकामा लभन्ते'--स्वर्गलोक भी विशाल (विस्तृत) है वहाँकी आयु भी विशाल (लम्बी) है और वहाँकी भोगसामग्री भी विशाल (बहुत) है। इसलिये इन्द्रलोकको विशाल कहा गया है।स्वर्गकी प्राप्ति चाहनेवाले न तो भगवान्का आश्रय लेते हैं और न भगवत्प्राप्तिके किसी साधनका ही आश्रय लेते हैं। वे तो केवल तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मों-(अनुष्ठानों-) का ही आश्रय लेते हैं। इसलिये उनको त्रयीधर्मके शरण बताया गया है।
।।9.20 -- 9.21।।नन्वेवं यदि बाह्ययागादिनाऽपि ब्रह्म प्राप्तिः (S ब्रह्माप्तिः) ? तर्हि अग्निष्टोमादिष्वपि किम्,अन्यो याज्यः अभ्युपगमे भेदवादः वासुदेव एव (S omits एव) इति चेत्? कथं नापवर्गस्तैः [प्राप्यते] तदर्थमुच्यते -- त्रैविद्या इत्यादि। ते तमित्यादि। यद्यपि ते मामेव यजन्ते। तथापि स्वर्गमात्रप्रार्थनया मितं कर्म निजसत्त्वदुर्बलतया स्वर्गादिमात्रेणैव फलेनावच्छिन्दन्ति। अत एवैषां पुनरावर्तको धर्मः। एवं ते गतागतं लभन्ते? न तु यागस्य पुनरावृत्तिप्रसवधर्मा स्वभावः।
।।9.21।।ते तं विशालं स्वर्गलोकं भुक्त्वा तदनुभवहेतुभूते पुण्ये क्षीणे पुनरपि मर्त्यलोकं विशन्ति।एवं त्रय्यन्तसिद्धज्ञानविधुराः काम्यस्वर्गादिकामाः केवलं त्रयीधर्मम् अनुप्रपन्नाः गतागतं लभन्ते। अल्पास्थिरस्वर्गादीन् अनुभूय पुनः पुनः निवर्तन्ते इत्यर्थः।महात्मानः तु निरतिशयप्रियरूपं मच्चिन्तनं कृत्वा माम् अनवधिकातिशयानन्दं प्राप्य न पुनरावर्तन्ते इति तेषां विशेषं दर्शयति --
।।9.21।।तर्हि स्वर्गप्राप्तिरपि भगवत्प्राप्तितुल्येत्याशङ्क्याह -- ते तमिति। पुण्ये स्वर्गप्राप्तिहेताविति यावत्। प्रसिद्ध्यार्थो हिशब्दः। त्रयाणां हौत्रादीनां वेदत्रयविहितानां धर्माणां समाहारस्त्रिधर्मं तदेव त्रैधर्म्यं तदनुप्रपन्नाः। तदनुगता इति यावत्। कामकामानां गमनागमनद्वारा कामितफलाप्तिश्चेदिष्टमेव चेष्टितमित्याशङ्क्याह -- गतेति।
।।9.20 -- 9.21।।त्रैविद्या इति। त्रिगुणात्मकत्रिवेदविद्यायां निष्णाताः? तथा च त्रिगुणकर्मकारिणः तथाविधैरेव यज्ञैस्तत्तद्देवताविशेषं समाराध्य वस्तुतस्तत्राहमेवेति मामित्युक्तम्। स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।।स्वर्गतिमित्युपलक्षणं कर्मानुगुणलोकानाम्। तथाहि निबन्धे -- सात्त्विकः सात्त्विकं कर्म यथा श्रुतिपरः कृती। स्वर्गलोकस्तस्य सिद्धयेद्विमानैस्त्रीभिरावृतः।।पुण्यस्य तु तिरोधाने पतत्यर्वाक्शिरास्ततः। पुण्यशेषं समादाय समीचीनेषु जायते। राजसं कर्म कुर्वाणो मेर्वादिसुखभाग्भवेत्। तामसं कर्म कुर्वाणोऽधोलोके सुखभाग्भवेत्।।राजसं सात्विकं कुर्वन् दैत्यसर्गेषु जायते। राजसं कर्म कुर्वाणश्चन्द्रलोके सुखी भवेत्। वृष्टिद्वाराऽन्नरूपः सन् रेतोयोनिषु जायते।,तामसं कर्म कुर्वाणो यक्षलोके सुखी भवेत्। तामसः सात्विकं कुर्वन् पितृलोके महीयते। राजसं कर्म कुर्वाणो भूतादिसुखमाप्नुयात्।।तामसं कर्म कुर्वाणः सर्पादिसुखभाग्भवेत्। सर्वेषां पुनरावृत्तिस्तथा कर्म पुनर्भवः इति। तदाह -- क्षीणे पुण्ये इति। न तु क्षीणे लोके तद्यथेह कर्मजितो [चितो] लोकः क्षीयत एवमेव अमुत्र पुण्यजितो [चितो] लोकः क्षीयते [छां.उ.8।1।6] इति श्रुतिस्तूपचारमात्रम्। एवं त्रयीधर्मपराः कामकामा गतागतमवाप्नुवन्ति जन्ममरणपर्यावर्त्तमनुभवन्तो गुणप्रवाहमार्गे पतिता भवन्तीत्यर्थः। अयं जायस्य म्रियस्वेति तृतीयो दुष्टोऽधर्म -- (गुण) प्रवाहमार्ग उक्तः? तत्र अधर्मप्रवाहमार्गे जीवा नाङ्गीकृताः केनापि स्वरूपेण किन्तु माययेति सिद्धान्तः।
।।9.21।। ततः किमनिष्टमिति तदाह -- ते सकामास्तं काम्येन पुण्येन प्राप्तं विशालं विस्तीर्णं स्वर्गलोकं भुक्त्वा? तद्भोगजनके पुण्ये क्षीणे सति तद्देहनाशात्पुनर्देहग्रहणाय मर्त्यंलोकं विशन्ति। पुनर्गर्भवासादियातना अनुभवन्तीत्यर्थः। पुनःपुनरेवमुक्तप्रकारेण। हि प्रसिद्ध्यर्थः। त्रैधर्म्यं हौत्राध्वर्यवौद्गात्रधर्मत्रयार्हं ज्योतिष्टोमादिकं काम्यं कर्म। त्रयीधर्ममिति पाठेऽपि त्रय्या वेदत्रयेण प्रतिपादितं धर्ममिति स एवार्थः। अनुप्रपन्नाः अनादौ संसारे पूर्वप्रतिपत्त्यपेक्षयाऽनुशब्दः पूर्वप्रतिपत्त्यनन्तरं मनुष्यलोकमागत्य पुनः प्रतिपन्नाः कामकामा दिव्यान्भोगान्कामयमाना एव गतागतं लभन्ते। कर्म कृत्वा स्वर्गं यान्ति तत आगत्य पुनः कर्म कुर्वन्तीत्येवं गर्भवासादियातनाप्रवाहस्तेषामनिशमनुवर्तत इत्यभिप्रायः।
।।9.21।।ततश्च -- ते तं भुक्त्वेति। ते स्वर्गकामास्तं प्रार्थितं विपुलं स्वर्गलोकं तत्सुखं भुक्त्वा भोगप्रापके पुण्ये क्षीणे सति,मर्त्यलोकं विशन्ति। पुनरप्येवमेव वेदत्रय्या विहितं धर्ममनुसृताः कामकामा भोगान्कामयमाना गतागतं यातायातं लभन्ते।
।। 9.21 सदसच्चाहमर्जुन इत्यस्यानन्तरंत्रैविद्याः इत्यादिकमसङ्गतमिति शङ्कायां पूर्वोत्तरानुवृत्तप्रघट्टाकार्थं प्रदर्शयन् सङ्गतिमाह -- एवं महात्मनामिति।महात्मनां ज्ञानिनां भगवदनुभवैकभोगानामिति त्रिभिःमहात्मानस्तुज्ञात्वाअनन्यमनसः [9।13] इति प्रागुक्तस्मारणम्।अवजानन्ति [9।11] इत्याद्यपेक्षयामहात्मानस्तु इत्यादेः विशेषकथनरूपत्वेऽपि भजनकीर्तनादेर्भक्तस्वरूपनिरूपकतयावृत्तमुक्त्वेत्युक्तम्। एवं निरूपितस्वरूपाणां तेषां निरतिशयफलसौकर्यादिकमभिधास्यमानं विशेषो भवितुमर्हतीतितेषामेव विशेषं दर्शयितुमित्युक्तम्।अज्ञानामित्यनेनपरं भावमजानन्तः [9।11] इति प्रागुक्ता एवात्र फल्गुफलयोगादिभिः प्रपञ्च्यन्त इति सूचितम्।त्रैविद्याः इत्यत्र सङ्ख्याविशेषप्रसिद्ध्यात्रयीधर्मम् इति वक्ष्यमाणानुसन्धानाच्च विद्यां विशिंषन् समासार्थं चाहऋग्यजुरिति। तिस्रो विद्याः समाहृता इति द्रष्टव्यम्। द्विगुसमासत्वात् त्रिविद्यमित्येकवद्भावनपुंसकत्वे।अकारान्तोत्तरपदो द्विगुः स्त्रियां भाष्यते इत्यस्यपात्रादिभ्यः प्रतिषेधो वक्तव्यः इत्यपवादः।तदधीते तद्वेद [अष्टा.4।2।59] इत्यण्प्रत्ययविवक्षयाऽऽहत्रिविद्यनिष्ठा इति। सर्ववेदविषयत्वे विरोधात्कर्ममात्रविषयत्वज्ञापनायकेवलशब्दः। तदेव विशदयतिन तु त्रय्यन्तनिष्ठा इति। विषयव्यवस्थापनाय पूर्वोक्तानां महात्मनामपि वेदैकदेशभूतोपनिषन्निष्ठत्वं सर्वस्यापि वेदस्य तत्तद्द्वारा भगवत्परत्वस्वीकारं च वदन्? यथावस्थितज्ञानाधीनपुरुषार्थविशेषाभिलाषतदुपायनिष्ठतामात्रेण विशेषात्सिद्धान्तान्तरनिष्ठत्वभ्रमं च व्युदस्यन्? केवलत्रयीनिष्ठवृत्तव्याख्यानावसरे तद्व्यवच्छेद्यमखिलं दर्शयतित्रय्यन्तनिष्ठा हीति। एतेन प्रकरणान्तरेषुचतुर्थी विद्या इति मोक्षसाधनभूता त्रय्यन्तविद्यैवोच्यते इति दर्शितम्। यथाऽऽह जनकाय याज्ञवल्क्यः -- एषा तेऽऽन्वीक्षिकी विद्या चतुर्थी साम्परायिकी [म.भा.12।318।47] इतिचतुर्थी राजशार्दूल विद्यैषा साम्परायिकी [म.भा.12।318।35] इति च।वेदप्रतिपाद्येति -- कर्मभागमात्रप्रतिपाद्येत्यर्थः। महात्मनामपि विद्याङ्गकर्मगतसोमपानसद्भावात्तद्व्यवच्छेदायोक्तंकेवलेन्द्रादियागशिष्टेति। अयज्ञशिष्टसोमपानस्याधर्मत्वाद्यागशिष्टत्वोक्तिः।स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते इत्यनन्तरमभिधानात्तत्प्रतिबन्धकपापनिरासकत्वमात्रमेवात्र सोमपानस्येत्यभिप्रायेण स्वर्गादिप्राप्तिविरोधिपापात्पूता इत्युक्तम्। स्वर्गशब्दोपलक्षणार्थत्वज्ञापनायादिशब्दः। पापस्य पूतत्वं नाम निरस्तत्वम् तदेव हि पुरुषस्य पूतत्वमित्यभिप्रायेणपापात्पूता इति निर्देशः। पापान्मुक्ता इत्यर्थः। स्वर्गाद्यर्थिनां तत्त्वतो भगवज्ज्ञानाभावस्य साक्षाद्भगवद्याजिनां भगवत्प्राप्तेः केवलेन्द्रादियागानामपि वस्तुतः परमपुरुषाराधनरूपत्वस्य तज्ज्ञानाभावाच्च तेषां वैकल्यस्यये त्वन्यदेवताभक्ताः [9।23] इत्यादिश्लोकत्रयेण वक्ष्यमाणत्वात्?यज्ञैर्मामिष्ट्वा इत्येतत्परमपुरुषस्य स्वानुसन्धानमात्रमूलं वचः न पुनर्यजमानानुसन्धानमूलमिति ज्ञापनायोक्तंतैरित्यादि अजानन्त इत्यन्तम्। अनुष्ठानस्य फलकामनापूर्वकत्वेऽपि यज्ञानन्तरमेव हि फलं देहीति देवतां प्रति प्रार्थनम् अतःइष्ट्वा प्रार्थयन्ते इति क्रमोपपत्तिः। पुण्यक्रियातज्जन्यादृष्टयोर्लोकसामानाधिकरण्यायोगात् सुरेन्द्रलोकस्य फलमात्ररूपस्य पावनत्वेनाश्रुतत्वात् प्रभूतदुःखासम्भिन्नत्वस्य च श्रुतत्वात्पुण्यप्रतिक्षेप्यपापकार्यदुःखनिवृत्तिपरोऽयं पुण्यशब्द इत्यभिप्रायेणोक्तंदुःखासम्भिन्नमिति। पुण्यसाध्यसुखमयत्वलक्षणायां वा दुःखनिवृत्तिरर्थसिद्धा। पुण्यसाध्यत्वलक्षणायां त्वर्थतः पुनरुक्तिः स्यात्।सुरेन्द्रलोकं प्राप्य इत्युक्तेऽपि पुनःदिवि इति निर्देशो विचित्रभोगाश्रयतत्तदवान्तरप्रदेशविशेषविषयो भवितुमर्हतीतितत्रतत्रेत्युक्तम्।दिव्यानिति मोहनत्वाय भौमभोगवैलक्षण्यकथनम्। दिव्यान् दिवि भवान् देवभोगान् देवानां भोग्यानित्यर्थः। देवभोग्यपशुपुरोडाशादिभौमव्यवच्छेदार्थं चदिव्यशब्दः। देवा हि स्वरूपतः कालतश्च परिमितान् स्वभोगान् स्वयाजिभ्यः संविभजन्ते। अश्नन्ति भुञ्जते? अनुभवन्तीत्यर्थः।भुक्त्वेति ह्यनूद्यते।विशालम् इत्यनेन भौमभोगापेक्षया पृथुत्वसूचनम्।स्वर्गलोकं भुक्त्वेति स्वर्गलोकसम्भवान् भोगाननुभूयेत्यर्थः। नहि स्वर्गानुभवाद्बन्धकपुण्यान्तरक्षयः कर्मशेषेण विशिष्टजात्यादिप्राप्तिः श्रूयत इत्यभिप्रायेणोक्तंतदनुभवहेतुभूत इति। एतेनस्वर्गेऽपि पातभीतस्य [वि.पु.6।5।50] इत्यादि दर्शितम्। मर्त्यशब्देन भूलोकेऽप्यस्थिरत्वं द्योतितम्। एवंशब्दाभिप्रेतेन प्रकारेण त्रयीशब्दस्य तत्र सङ्कोचं? कामकामत्वे हेतुं च दर्शयतिएवं त्रय्यन्तसिद्धज्ञानविधुरा इति। अनुवादोऽयं स्वरूपतो मोक्षानुगुणस्यापि धर्मस्य प्रकारविशेषात्पुनरावृत्तिहेतुत्वमिति ज्ञापनार्थः। पूर्वः कामशब्दः कर्मणि व्युत्पन्न इत्याहकाम्यस्वर्गादिकामा इति। मोक्षस्यापि फलतया काम्यमानत्वात्ततोऽत्र सङ्कोचाय स्वर्गादिशब्दः। केवलशब्देन त्रय्यन्तसिद्धस्वाङ्गिभूतपरमधर्मराहित्योक्तिः। गतं चागतं च गतागतं? तदेव लभन्ते। नहि गमनामनमात्रं दोष इत्यत्राहअल्पेति। अनुभवदशायामप्यल्पत्वात्?यथा पशुरेवं स देवानाम् [बृ.उ.1।4।10] इति प्रक्रिययाऽतिशयितब्रह्मादिसुखानुसन्धानेन दुःखत्वम तस्य चास्थिरत्वानुसन्धानाद्दुःखतरत्वम् तत्प्रध्वंसागमे तु दुःखतमत्वम् घटीयन्त्रन्यायेन पुनरावृत्त्यधीनगर्भवासव्याधिरनिरयादिसम्भवं तु दुःखं वक्तुमपि दुस्सहम् तच्चासङ्ख्यातप्रवाहमिति भावः।
।।9.21।।ते पुण्यात्मकं सुरेन्द्रलोकमासाद्य प्राप्य दिवि स्वर्गे स्वर्गलोकं विशालं सकलविषयभोगयोग्यं भुक्त्वा भोगेन पुण्ये क्षीणे सति मर्त्यलोकं विशन्ति? प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। एवं प्रकारेण त्रयीधर्ममिष्टं৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. परित्यज्य,कामकामाः सन्तोऽनुप्रपन्नाः गतागतं जन्ममरणात्मकप्रवाहं लभन्ते प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।
।।9.21।।त्रयी वेदत्रयी तस्यामुक्तं धर्मं त्रयीधर्मं काम्ययज्ञं कामकामाः विषयकामुकाः गतागतं यातायातं सातत्येन लभन्ते। तथाच श्रुतिःप्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म। एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापि यान्ति इति। अष्टादशेति षोडशर्त्विजः यजमानः पत्नी चेति द्वौ।
।।9.21।।एतादृशस्याप्यतिकष्टेनासादितस्यापि स्वर्गलोकस्य सान्तत्वादनिष्टतां बोधयति -- ते इति। ते त्रैविद्याः तं स्वर्गलोकं विशालं विस्तीर्णं भुक्त्वा पुण्ये यज्ञादिरुपे भोगप्रदे भोगं दत्त्वा क्षीणे सति मर्त्यलोकं विशन्त्याविशन्ति। गर्भवासादिदुःखमनुभवन्तीत्यर्थः। एवं यथोक्तेन प्रकारेण हि प्रसिद्धं त्रयाणां धर्माणां हौत्राध्यर्ववौद्गात्राणां ऋग्यजुःसमाख्यवेदत्रयबोधतानां समाहारस्त्रिधर्मं तदेव त्रैधर्म्यमिति। त्रयीधर्ममिति वा पाठः। त्रय्या वेदत्रयेण प्रतिपादितमित्यर्थः। अयं पाठः कैश्चिद्य्वाख्यातोऽपि भाष्यकृद्भिरव्याख्यातत्वान्नादर्तव्यः। अनुप्रपन्नाः प्रकर्षेणानुसृतवन्तः कामान्विषयान् कामयन्त इति कामकामाः गतागतं गमनागमनं मरणवेदनामनुभूय क्षणिकं स्वर्गादिकंप्रति गमनं ततः जन्मादिवेदनामनुभवितुमागमनं च लभन्ते नतु स्वातन्त्र्यं क्वचिदपि कर्माधीनत्वात्तेषाम्।
9.21 ते they? तम् that? भुक्त्वा having enjoyed? स्वर्गलोकम् heavenworld? विशालम् vast? क्षीणे at the exhaustion of? पुण्ये merit? मर्त्यलोकम् the world of mortals? विशन्ति enter? एवम् thus? त्रयीधर्मम् of the three Vedas? अनुप्रपन्नाः abiding by? गतागतम् the state of goind and returning? कामकामाः desiring desires? लभन्ते attain.Commentary When the accumulated merit (the cause of heavenly pleasures) is exhausted? they descend to this world. They come and go. They have no independence.The Dharma of the three Mere Vedic ritual? enjoined by the three Vedas. KamaKamah The people whose minds are filled with Vasanas or worldly tendencies.
9.21 They, having enjoyed the vast heaven, enter the world of mortals when their merit is exhausted; thus abiding by the injunctions of the ï1threeï1 (Vedas) and desiring (objects of) desires, they attain to the state of going and returning.
9.21 Yet although they enjoy the spacious glories of Paradise, nevertheless, when their merit is exhausted, they are born again into this world of mortals. They have followed the letter of the scriptures, yet because they have sought but to fulfill their own desires, they must depart and return again and again.
9.21 After having enjoyed that vast heavenly world, they enter into the human world on the exhaustion of their merit. Thus, those who follow the rites and duties prescribed in the three Vedas, and are desirous of pleasures, attain the state of going and returning.
9.21 Bhuktva, after having enjoyed; tam, that: visalam, vast; svargalokam, heavenly world; te, they; visanti, enter into; this martyalokam, human world; ksine, on the exhaustion; of their punye, merit. Evam, thus, indeed; anuprapannah, those who follow in the manner described; trai-dharmyam, [A variant reading is trayi-dharmam.-Tr.] the rites and duties prescribed in the three Vedas-merely the Vedic rites and duties; and are kama-kamah, desirous of pleasures; labhante, attain; only gata-agatam, the state of going and returning, but never that of independence. This is the meaning.
9.21. Having enjoyed that vast world of heaven, they, when their merit is exhausted, enter the world of the mortals. Thus the persons, who long for pleasure and continuously take refuge in the code of conduct prescribed by the Three Vedas, attain the state of going and coming.
9.20-21 Traividyah etc. Te tam etc. Of course, they worship Me (Vasudeva) alone. However, the action [like sacrifice] is limited (or is known [to them]) by their aspiration for heaven only. Hence, on account of the weakness is their own being (sattva), they condition the action solely by the result of the heaven. That is why their religious act leads to rirth and thus they attain the state of going and coming. But [on that account] it is not the inherent nature of the sacrifice to beget rirth. For instance :
9.21 After enjoying the spacious world of heaven, they return to the world of mortals when the meritorious Karma forming the cause of that experience is exhausted. Thus, lacking in the knowledge established in the Vedanta and desiring only the attainment of heaven etc., they who follow the teaching of the three Vedas on sacrificial rites, come and go. After enjoying the trifling and transient pleasures of heaven, they return to Samsara again and again. But the great souls meditating on Me, who am incomparably dear to them, attain boundless and unsurpassed bliss and do not return to Samsara. Sri Krsna desribes their distinguishing features:
9.21 Having enjoyed the spacious world of heaven, they return to the world of mortals their merit is exhausted. Thus, those who follow the Vedic rituals and are drawn by desires, come and go.
।।9.21।।वे उस विशाल -- विस्तृत स्वर्गलोकको भोग चुकनेपर ( उसकी प्राप्तिके कारणरूप ) पुण्योंका क्षय हो जानेपर इस मृत्युलोकमें लौट आते हैं। उपर्युक्त प्रकारसे केवल वैदिक कर्मोंका आश्रय लेनेवाले कामकामी -- विषयवासनायुक्त मनुष्य बारंबार आवागमनको ही प्राप्त होते रहते हैं अर्थात् जाते हैं और लौट आते हैं इस प्रकार बराबर आवागमनको ही प्राप्त होते हैं? कहीं भी स्वतन्त्रता लाभ नहीं करते।
।।9.21।। --,ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं विस्तीर्णं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति आविशन्ति। एवं यथोक्तेन प्रकारेण त्रयीधर्मं केवलं वैदिकं कर्म अनुप्रपन्नाः गतागतं गतं च आगतं च गतागतं गमनागमनं कामकामाः कामान् कामयन्ते इति कामकामाः लभन्ते गतागतमेव? न तु स्वातन्त्र्यं क्वचित् लभन्ते इत्यर्थः।।ये पुनः निष्कामाः सम्यग्दर्शनिः --,
।।9.20 -- 9.21।।सदसच्चाहमर्जुन [9।16] इति विज्ञानस्योपसंहृतत्वादुत्तरस्यासङ्गतिमाशङ्क्याह -- तथापीति।अहं क्रतुः [9।16] इत्यादिना सर्वक्रत्वादिभोक्तृत्वं यदुक्तं भगवतस्तदसदिति वक्ष्यामीति गूढाभिसन्धिना यदि सर्वत्र भोक्ता भगवान्? तर्हि किं भागवतानां त्रैविद्यानां च फलसाम्यमेव इति पृष्टस्येदमुत्तरमित्याशयः। तथापि सर्वत्र भगवतो भोक्तृत्वेऽपि मद्भजनं भागवतैरनुष्ठितम्? देवतेति पित्राद्युपलक्षणम् त्रैविद्याद्यनुष्ठिताद्वरमुत्कृष्टफलम्। इत्यादिना श्लोकत्रयेण।
।।9.20 -- 9.21।।तथापि मद्भजनमेवान्यदेवताभजनाद्वरमिति दर्शयति -- त्रैविद्या इत्यादिना।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। एव त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।।9.21।।
তে তং ভুক্ত্বা স্বর্গলোকং বিশালং ক্ষীণে পুণ্যে মর্ত্যলোকং বিশন্তি৷ এব ত্রযীধর্মমনুপ্রপন্না গতাগতং কামকামা লভন্তে৷৷9.21৷৷
তে তং ভুক্ত্বা স্বর্গলোকং বিশালং ক্ষীণে পুণ্যে মর্ত্যলোকং বিশন্তি৷ এব ত্রযীধর্মমনুপ্রপন্না গতাগতং কামকামা লভন্তে৷৷9.21৷৷
તે તં ભુક્ત્વા સ્વર્ગલોકં વિશાલં ક્ષીણે પુણ્યે મર્ત્યલોકં વિશન્તિ। એવ ત્રયીધર્મમનુપ્રપન્ના ગતાગતં કામકામા લભન્તે।।9.21।।
ਤੇ ਤਂ ਭੁਕ੍ਤ੍ਵਾ ਸ੍ਵਰ੍ਗਲੋਕਂ ਵਿਸ਼ਾਲਂ ਕ੍ਸ਼ੀਣੇ ਪੁਣ੍ਯੇ ਮਰ੍ਤ੍ਯਲੋਕਂ ਵਿਸ਼ਨ੍ਤਿ। ਏਵ ਤ੍ਰਯੀਧਰ੍ਮਮਨੁਪ੍ਰਪਨ੍ਨਾ ਗਤਾਗਤਂ ਕਾਮਕਾਮਾ ਲਭਨ੍ਤੇ।।9.21।।
ತೇ ತಂ ಭುಕ್ತ್ವಾ ಸ್ವರ್ಗಲೋಕಂ ವಿಶಾಲಂ ಕ್ಷೀಣೇ ಪುಣ್ಯೇ ಮರ್ತ್ಯಲೋಕಂ ವಿಶನ್ತಿ. ಏವ ತ್ರಯೀಧರ್ಮಮನುಪ್ರಪನ್ನಾ ಗತಾಗತಂ ಕಾಮಕಾಮಾ ಲಭನ್ತೇ৷৷9.21৷৷
തേ തം ഭുക്ത്വാ സ്വര്ഗലോകം വിശാലം ക്ഷീണേ പുണ്യേ മര്ത്യലോകം വിശന്തി. ഏവ ത്രയീധര്മമനുപ്രപന്നാ ഗതാഗതം കാമകാമാ ലഭന്തേ৷৷9.21৷৷
ତେ ତଂ ଭୁକ୍ତ୍ବା ସ୍ବର୍ଗଲୋକଂ ବିଶାଲଂ କ୍ଷୀଣେ ପୁଣ୍ଯେ ମର୍ତ୍ଯଲୋକଂ ବିଶନ୍ତି| ଏବ ତ୍ରଯୀଧର୍ମମନୁପ୍ରପନ୍ନା ଗତାଗତଂ କାମକାମା ଲଭନ୍ତେ||9.21||
tē taṅ bhuktvā svargalōkaṅ viśālaṅ kṣīṇē puṇyē martyalōkaṅ viśanti. ēva trayīdharmamanuprapannā gatāgataṅ kāmakāmā labhantē৷৷9.21৷৷
தே தஂ புக்த்வா ஸ்வர்கலோகஂ விஷாலஂ க்ஷீணே புண்யே மர்த்யலோகஂ விஷந்தி. ஏவ த்ரயீதர்மமநுப்ரபந்நா கதாகதஂ காமகாமா லபந்தே৷৷9.21৷৷
తే తం భుక్త్వా స్వర్గలోకం విశాలం క్షీణే పుణ్యే మర్త్యలోకం విశన్తి. ఏవ త్రయీధర్మమనుప్రపన్నా గతాగతం కామకామా లభన్తే৷৷9.21৷৷
9.22
9
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।।9.22।। जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मेरेमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।
।।9.22।। अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।।
।।9.22।। यह श्लोक उस रहस्य को अनावृत करता है? जिसे जानकर आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में भी निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि यह श्लोक लगभग गीता का मध्यबिन्दु है। हम क्रमश आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टि से इसके अर्थ पर विचार करेंगे।जो लोग यह जानकर कि एकमात्र आत्मा ही सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य है? अनन्यभाव से मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप का ध्यान करते हैं? श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि उन नित्ययुक्त भक्तजनों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। योग का अर्थ है अधिक से अधिक आध्यात्मिक शक्ति? और क्षेम का अर्थ है अध्यात्म का चरम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति? जो यज्ञ का फल है। इन योग और क्षेम को भगवान् ही पूर्ण करते हैं।अब? यदि इसे? व्यावहारिक जगत् के विभिन्न कार्य क्षेत्रों में दिनरात परिश्रम करने वाले लोगों के लिए सफलता का भेद बताने वाला मानें? तब भी यही श्लोक उस रहस्य को बताता हैं? जिसके द्वारा संसारी लोग अपने जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं। हाथ में लिए हुए किसी भी कार्य में? यदि मनुष्य एक ही लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी संकल्प शक्ति का उपयोग कर एक ही संकल्प को बनाये रख सकता है? तो उसकी सफलता निश्चित समझनी चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य है कि सामान्य जन एक ही संकल्प को बनाये नहीं रख पाते हैं। इसलिए? उनका लक्ष्य सदैव परिवर्तित होता रहता है और उनसे दूर और दूर होता जाता है। इस स्थिति में उनका संकल्प दृढ़ कैसे रह सकता है ऐसे आकस्मिक और क्षणिक निश्चय वाले लोगों के लिए जीवन में किसी भी कार्य क्षेत्र में उन्नति करना सम्भव नहीं है।हमारे युग की सबसे बड़ी त्रासदी (दुख की बात) यह प्रतीत होती है कि हम इस एक अत्यन्त स्पष्ट एवं सुबोध तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि विचारों से ही निर्माण कार्य होता है। संकल्पशक्ति से ही कर्मबल प्राप्त करते हैं। जब शक्तिदायक स्रोत ही श्वासरुद्ध हो जाता है या बिखर जाता है? तब बाह्य कार्यों में कार्यान्वयन की शक्ति क्षीण और प्रभावहीन हो जाती है। सफलता के लिए आवश्यक है कि मनुष्य एकाग्र चित्त से? निश्चित किये हुए अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में सतत स्फूर्ति? उत्साह और सार्मथ्य के साथ चिन्तन करे।केवल विचार करना अपने आप में पर्याप्त नहीं है और कर्मों की आवश्यकता के विषय में भी दो मत नहीं हो सकते हैं। वर्तमान पीढ़ी के अनेक नवयुवक यद्यपि एक लक्ष्य को निरन्तर बनाये रखने में सक्षम हैं? परन्तु कार्यक्षेत्र में प्रवेश करके सफलता के लिए सर्व सम्भव प्रयत्न करने के लिए जिस तत्परता की आवश्यकता होती है? उसका उनमें अभाव रहता है। उपासना शब्द का अर्थ है पूजा। पूजा के द्वारा हम देवता का आह्वान करते हैं देवता माने किसी भी क्षेत्र की फल प्रदायक सार्मथ्य।यहाँ उपासते क्रियापद को परि उपसर्ग लगाया गया है? जिसका आशय है सम्पूर्ण प्रयत्न। अपने चुने हुए कार्य में सफलता की निर्मिति के लिए सम्पूर्ण प्रयत्न की आवश्यकता है? जिसमें कोई भी सम्भव प्रयत्न नहीं छोड़ा गया हो।अब तक? सफलता के रहस्य की दो कुञ्जियाँ बताई गयीं है? जिनके अभाव मंे कोई भी कार्य यशस्वी नहीं हो सकता? और वे हैं (क) संकल्प का सातत्य? और (ख) एक निश्चित लक्ष्य के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करना। तीसरी मुख्य कुञ्जी है (ग) नित्ययुक्तता अर्थात् आत्मसंयम। जीवन में दर्शनीय व गौरवमय सफलता पाने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है।जब जीवन में किसी महत्त्वाकांक्षा को लेकर मनुष्य अपने मार्ग पर अग्रसर होता है? तब उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके लक्ष्य से भिन्न? अनेक आकर्षक और प्रलोभित करने वाली योजनाएं उसके समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं? जिनके चिन्तन में वह अपनी शक्ति का अपव्यय करके थक जाता है और इस प्रकार अपने चुने हुए कार्य को भी सफलतापूर्वक करने में असमर्थ हो जाता है। उन्नति में बाधक ऐसे विघ्न से सुरक्षित रहने के लिए आत्मसंयम अत्यावश्यक है।श्री शंकराचार्य योगक्षेम के अर्थ इस प्रकार बताते हैं ? अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना योग और प्राप्त वस्तु का रक्षण करना क्षेम कहलाता है। प्रस्तुत विवेचन के सन्दर्भ में ये अर्थ भी उपयुक्त हैं और प्रयोज्य हैं। जीवन में? जिन किसी भी रूप में विरोध और स्पर्धा? संघर्ष और दुख आते हैं? वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्थानस्थान पर और समयसमय पर भिन्नभिन्न प्रकार के होते हैं। मनुष्य के इस संघर्ष को मुख्यत दो भागों में विभाजित किया जा सकता है? (क) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष? और (ख) प्राप्त वस्तु के रक्षण के लिए प्रयत्न। इन दोनों से उत्पन्न तनाव जीवन की शान्ति और आनन्द को छिन्नभिन्न कर देता है। जो व्यक्ति इन दो चिन्ताओं से मुक्त है? वह सबसे भाग्यवान व्यक्ति है? क्योंकि वह कृतकृत्य है। इन दोनों के अभाव में उस पुरुष के जीवन में दुख की गन्धमात्र नहीं होती और वह अक्षय सुख को प्राप्त हो जाता है।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि जो कोई व्यक्ति उपर्युक्त सफलता की तीन कुञ्जियों को समझकर उद्यमता से उनका पालन करेगा उसे? योग और क्षेम की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है? क्योंकि उसको पूर्ण करने का उत्तरदायित्व स्वयं भगवान् स्वेच्छापूर्वक निभाते हैं। यहाँ भगवान् शब्द से तात्पर्य इस जगत् और उसमें होने वाली घटनाओं के पीछे जो शाश्वत नियम कार्य कर रहा है? उससे समझना चाहिए। सिंचाई कार्य के लिए जब जल को उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित किया जाता है? तो इच्छित क्षेत्र में उसके प्रवाह के लिए हमें केवल उसकी दिशा ही सही करनी होती है। तत्पश्चात् प्रकृतिक नियम के अनुसार वह जल स्वत ही उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित होगा। इसी प्रकार? जो कोई पुरुष अपने कार्यक्षेत्र में यहाँ वर्णित शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक स्तर पर पालन करने योग्य नियमांे के अनुसार कार्य करेगा? सफलता ऐसी परिस्थितियों के सजग शासक के चरणों को चूमेगी।अब? एक अन्य प्रकरण का प्रारम्भ किया जाता है? जिसमें उन साधकों के विषय में विचार किया गया है? जो विपरीत मार्गदर्शन के कारण परिच्छिन्न शक्ति एवं अनित्य फल के अधिष्ठाता देवताओं की पूजा करते हैं --
।।9.22।। व्याख्या--'अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते'--जो कुछ देखने, सुनने और समझनेमें आ रहा है, वह सब-का-सब भगवान्का स्वरूप ही है और उसमें जो कुछ परिवर्तन तथा चेष्टा हो रही है, वह सब-की-सब भगवान्की लीला है -- ऐसा जो दृढ़तासे मान लेते हैं, समझ लेते हैं, उनकी फिर भगवान्के सिवाय कहीं भी महत्त्वबुद्धि नहीं होती। वे भगवान्में ही लगे रहते हैं। इसलिये वे 'अनन्य' हैं। केवल भगवान्में ही महत्ता और प्रियता होनेसे उनके द्वारा स्वतः भगवान्का ही चिन्तन होता है।
।।9.22।।तथा हि --,अनन्या इति। तेभ्योऽन्ये मां चिन्तयन्तः। कथम् अनन्या अविद्यमानं अन्यत् मद्व्यतिरिक्तं कामनीयं,( कमनीयं) फलं येषामिति। योगः? अप्रतिलब्धमत्स्वरूपलाभः। क्षेमम्? प्राप्तभगवत्स्वरूपप्रतिष्ठालाभपरिरक्षणम्? येन योगभ्रष्टत्वशंकाऽपि न भवेत् इत्यर्थः।
।।9.22।।अनन्याः अनन्यप्रयोजना मच्चिन्तनेन विना आत्मधारणालाभात् मच्चिन्तनैकप्रयोजनाः मां चिन्तयन्तो ये महात्मानः जनाः पर्युपासते सर्वकल्याणगुणान्वितं सर्वविभूतियुक्तं मां परित उपासते अन्यूनम् उपासते तेषां नित्याभियुक्तानां मयि नित्याभियोगं काङ्क्षमाणानाम् अहं मत्प्राप्तिलक्षणं योगम् अपुनरावृत्तिरूपं क्षेमं च वहामि।
।।9.22।।फलमनभिसंधाय त्वामेवाराधयतां सम्यग्दर्शननिष्ठानामत्यन्तनिष्कामानां(णां) कथं योगक्षेमौ स्यातामित्याशङ्क्याह -- ये पुनरिति। तेषां योगक्षेमं वहामीत्युत्तरत्र संबन्धः। येभ्योऽन्यो न विद्यत इति,व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- अपृथगिति। कार्यस्येव कारणे कर्मतादात्म्यं व्यावर्तयति -- परमिति। अहमेव वासुदेवः सर्वात्मा न मत्तोऽन्यत्किंचिदस्तीति ज्ञात्वा तमेव प्रत्यञ्चं सदा ध्यायन्त इत्याह -- चिन्तयन्त इति। प्राकृतान्व्यावर्त्य मुख्यानधिकारिणो निर्दिशति -- संन्यासिन इति। पर्युपासते परितः सर्वतोऽनवच्छिन्नतया पश्यन्तीत्यर्थः। नित्याभियुक्तानां नित्यमनवरतमादरेण ध्याने व्यापृतानामित्याह -- सततेति। योगश्च क्षेमश्च योगक्षेमम्। तत्रापुनरुक्तमर्थमाह -- योग इति। किमर्थं परमार्थदर्शिनां योगक्षेमं वहसीत्याशङ्क्याह -- ज्ञानीत्विति। अतस्तेषां योगक्षेमं वहामीति संबन्धः। सम्यग्दर्शननिष्ठानामेव योगक्षेमं वहति भगवानिति विशेषणममृष्यमाणः शङ्कते -- नन्विति। अन्येषामपि भक्तानां भगवान्योगक्षेमं वहतीत्येतदङ्गीकरोति -- सत्यमिति। तर्हि भक्तेषु ज्ञानिषु च विशेषो नास्तीति पृच्छति -- किंत्विति। तत्र विशेषं प्रतिज्ञाय विवृणोति -- अयमित्यादिना। योगक्षेममुद्दिश्य स्वयमीहन्ते चेष्टां कुर्वन्तीति यावत्। आत्मविदां स्वार्थं योगक्षेममुद्दिश्य चेष्टाभावं स्पष्टयति -- नहीति। गृद्धिरपेक्षा कामना तामित्येतत्। ज्ञानिनां तर्हि सर्वत्रानास्थेत्याशङ्क्याह -- केवलमिति। तेषां तदेकशरणत्वे फलितमाह अत इति। इतिशब्दो विशेषशब्देन संबध्यते।
।।9.22।।मद्भक्तास्तु मदनुग्रहेण कृतार्था भवन्तीत्याह -- अनन्या इति। अत्रेदमाकूतम् -- भगवता मार्गत्रयं स्वत उद्भावितम्? मनसा वाचा स्वरूपेण चेति तत्र स्वप्राप्त्यर्थं मार्गद्वयं प्रकटितं मर्यादारूपं पुष्टिरूपं च तत्र येषां जीवानां दैवानां मर्यादायामङ्गीकारस्तेषां साधनक्रमेणैव भगवत्प्राप्तिः। यथाऽऽसुरावेशिनामपि मुक्तिं ददत्स्वरूपं दृष्टवतो मुचुकुन्दस्य दोषवर्णनपूर्वकं तद्रहिताग्रिमान्तिमजन्मनि स्वप्राप्तिकथनम्। येषां च पुष्टिभक्तिमार्गे तेषां केवलानुग्रहेणैव न साधनापेक्षयेति निश्चयः? यथा व्रजादिस्थितानाम्। तत्र तत्राङ्गीकारे चेच्छैव हेतुः स्वतन्त्रेच्छत्वान्नान्यनियम्यता। तथाच साधनवाक्यान्यत्र मर्यादामार्गपराणि। तत्राङ्गीकृतानां तथैव प्रवृत्तिः फलं च। पुष्टिमार्गे त्वङ्गीकृतानांतस्मान्मद्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः। न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह। यत्कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्। योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि। सर्वं मद्भक्तियोगेन मद्भक्तो लभतेऽञ्जसा। [भाग.11।20।3133] इति भगवद्वाक्यैर्ज्ञानादिसाधनरहितानामेव भक्तिकथनम्। मद्भक्तेः कल्पतरुस्वभावत्वेनेतरसकलसाधनासाध्यसाधकत्वोक्तेश्च नेतरसाधनसापेक्षता भक्तौ।भगवान् भजतां मुकुन्दो मुक्तिं ददाति कर्हिचित् स्म न भक्तियोगं इति वाक्येऽपि मुक्तिसाधनपूर्णानामपि भगवद्दाने भक्तिप्राप्तिरदाने चाप्राप्तिरिति निरूपणादप्यनुग्रहेतरसाधनासाध्यत्वं भक्तौ निश्चीयते। उक्तमार्गद्वये चाङ्गीकारोऽनुग्रहेणैवेति न मर्यादामार्गेऽपि भक्तेः साधनबलैकसाध्यत्वम्। अन्यथा जायस्व म्रियस्वेति तृतीयमार्गे एवाङ्गीकारं कथं न कुर्यात्। पुष्टौ साधनानां व्यभिचारादेव न हेतुत्वं? मर्यादायां न तथेति इदमग्रे स्पष्टीभविष्यति। ये जना मदीया अनन्या भावनान्तररहिताः (साधनान्तररहिताः) भावनान्तरया देवान्तरविषया फलान्तरविषया मार्गान्तरविषया च तद्रहिताः मदनुग्रहैकलभ्यमभक्तिमन्तः मां पुरुषोत्तममेव चिन्तयन्तः मर्यादापुष्टिमार्गीयाः मदुक्तमार्गेण मामुपासते सेवन्ते तेषां नित्यमेवाभितो युक्तानां सम्बद्धानां योगक्षेममिति। योगं इह लोके सेवोपयोगार्थं धनधान्यवस्त्रादिलाभं? क्षेमं चामुत्रात्यन्तिकं श्रेयो मोक्षलक्षणं वहामि साधयामि।
।।9.22।।निष्कामाः सम्यग्दर्शिनस्तु अन्यो भेददृष्टिविषयो न विद्यते येषां तेऽनन्याः सर्वाद्वैतदर्शिनः सर्वभोगनिःस्पृहा अहमेव भगवान्वासुदेवः सर्वात्मा न मद्व्यतिरिक्तं किंचिदस्तीति ज्ञात्वा तमेव प्रत्यञ्चं सदा चिन्तयन्तो मां नारायणमात्मत्वेन ये जनाः साधनचतुष्टयसंपन्नाः संन्यासिनः परि सर्वतोऽनवच्छिन्नतया पश्यन्ति ते मदनन्यतया कृतकृत्या एवेति शेषः। अद्वैतदर्शननिष्ठानामत्यन्तनिष्कामानां(णां) तेषां स्वयमप्रयतमानानां कथं योगक्षेमौ स्यातामित्यत आह -- तेषां नित्याभियुक्तानां नित्यमनवरतमादरेण ध्याने व्यापृतानां देहयात्रामात्रार्थमप्यप्रयतमानानां योगं च क्षेमं च अलब्धस्य लाभं लब्धस्य परिरक्षणं च शरीरस्थित्यर्थं,योगक्षेममकामयमानानामपि वहामि प्रापयाम्यहं सर्वेश्वरः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः। उदाराः सर्व एवैते ज्ञानीत्वमात्मैव मे मतम् इति ह्युक्तम्। यद्यपि सर्वेषामपि योगक्षेमं वहति भगवान् तथाप्यन्येषां प्रयत्नमुत्पाद्य तद्द्वारा वहति? ज्ञानिनां तु तदर्थं प्रयत्नमनुत्पाद्य वहतीति विशेषः।
।।9.22।। मद्भक्तास्तु मत्प्रसादेन कृतार्था भवन्तीत्याह -- अनन्या इति। अनन्या नास्ति मद्व्यतिरेकेणान्यत्काम्यं भजनीयं देवतान्तरं येषां तथाभूता ये जना मां चिन्तयन्तः सेवन्ते? तेषां नित्याभियुक्तानां सर्वदा मदेकनिष्ठानां योगं धनादिलाभं क्षेमं च तत्पालनं मोक्षं वा तैरप्रार्थितमप्यहमेव वहामि प्रापयामि।
।।9.22।।उपायस्यापि सुखरूपतया फलस्य च नित्यनिर्दोषनिरतिशयानन्दतया महात्मनां विशेषोऽभिधीयत इत्याहमहात्मानस्त्विति। अनन्यत्वविशेषणवशाच्चिन्तनस्य निरतिशयसुखरूपत्वसिद्धिः।मां इत्यादिना योगक्षेमशब्दविवक्षितमुक्तम्। यद्यपिये त्वन्यदेवताभक्ताः [9।23़] इति वक्ष्यमाणावेक्षणेनान्यदेवताप्रतीतिः? तथापि प्रकृतकाम्यव्यवच्छेदार्थत्वादुपायसहचरं ततोऽन्यत्फलं व्यवच्छेत्तुंअनन्यशब्दः। अत एवैकत्वानुसन्धानपरत्वं चायुक्तमिति दर्शयतिअनन्यप्रयोजना इति। तत्र हेतुमाहमच्चिन्तनेन विनेति।अनन्याश्चिन्तयन्तः इति समभिव्याहारसामर्थ्याच्चिन्तनादन्यस्य निषेधसिद्धिः। निर्विशेषणस्य जनशब्दस्याकृतिगणतुल्ये जने प्रयोगात्तद्व्यवच्छेदाय प्रकरणसिद्धमुक्तंये महात्मानो जना इति। ये महात्मानो जानन्ति तेषामेव हि जननसाफल्यमिति भावः।पर्युपासते इत्यत्र प्रयुक्तस्य परीत्यस्योपसर्गस्य नैरर्थक्यायोगात्तदर्थे परित इति विवक्षिते तस्यैव प्रमाणान्तरसिद्धविशेषं दर्शयतिसर्वकल्याणेति। प्रती कोपासनव्यवच्छेदार्थमिदमुक्तमित्यभिप्रायेणाहअन्यूनमिति। अखण्डितगुणविभूतिकमित्यर्थः। अत्रअहं इत्यनेन परमोदारत्वसौशील्यादिगुणविवक्षा। नहि मोक्षकाङ्क्षिणामानुषङ्गिकभोग(प्राधान्येऽ)प्रदानेऽपि मोक्षानुपयुक्तशरीरयात्रादिरूपौ योगक्षेमौ दातव्यावित्यभिप्रायेणाहमत्प्राप्तीति। अलब्धलाभो योगः लब्धरक्षणं क्षेमः। समाहारार्थत्वादेकवद्भावः। वहामि ददामीत्यर्थः।
।।9.22।।अथ ये पूर्वोक्तसर्वस्वरूपं मदंशबलयुक्तं ज्ञात्वा सर्वं परित्यज्य मां भजन्ति? तेषां सर्वमहमेव करोमि? त उत्तमा इति तत्स्वरूपमाह -- अनन्या इति। अनन्याः न विद्यते अन्यो लौकिकालौकिकादिषु प्रार्थ्यत्वेन येषां? वा मत्सेवनातिरिक्तं फलं येषां ते तथाभूताः सन्तो मामेकं चिन्तयन्तः सर्वतो मनोनिरोधेन मां स्मरन्तो ये दुर्लभा जनाः जन्मभाजो मत्सेवार्थकजन्मज्ञानवन्तः पर्युपासते परितः सर्वात्मभावेन सेवन्त इत्यर्थः। तेषां नित्याभियुक्तानां नित्यस्वरूपस्य मम सेवनपराणां मम नित्यमभियुक्तानां सम्मतानां योगं सेवार्थधनादिसम्पत्तिलाभं सेवने मद्योगं वा? क्षेमं तत्पालनं भक्त्युन्मुखीकरणात्मकं मद्भावरूपं वा अहं पुरुषोत्तमः वहामि पालयामीत्यर्थः। वहनोक्त्या तदशक्तौ स्वशक्त्याविर्भावेन तत्करोमीति व्यञ्जितम्।
।।9.22।।एवं कर्मिणामावृत्तिं फलं चोक्त्वा भक्तानामपि मद्भजनेनैव सर्वसिद्धिरित्याह -- अनन्या इति। नास्ति अन्य उपास्यो येषाम्। अहमेव भगवान्वासुदेव इत्यभेदेन चिन्तयन्त इत्यर्थः। ये जनाः पर्युपासते परितः साकल्येन कात्स्न्र्येनाद्वैतदृष्ट्येत्यर्थः। उपासते तेषां नित्याभियुक्तानां सतताभियोगिनां। योगः अप्राप्तस्यान्नादेर्योगभूमिकाया वा प्रापणं। क्षेमः तस्यैव प्राप्तस्य संरक्षणं। तद्वयमहमेव वहामि निर्वहामि। तैरन्नाद्यर्थं वा योगभूमिषूर्ध्वोर्ध्वभूमिलाभार्थं वा चिन्ता न कर्तव्येत्यर्थः। अनन्यचेतसां तेषां मदभिन्नत्वात्सर्वं सेत्स्यतीत्यर्थः। तथा चोक्तंज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इति।
।।9.22।।ननु कामकामानां तु तत्तत्कामनया कर्मानुष्ठाने कृते सति भोगादिकं सिध्यति? ये पुनर्निष्कामाः तत्त्वदर्शिनस्त्वां पर्युपासते तेषां भोगकामनारहितानामपि शरीरस्थितिहेतुभूतौ योगक्षेमौ खतं स्यातामिति तत्राह -- अनन्या इति। मत्तोऽपृथग्भूताः परं देवं वासुदेवं ममात्मत्वेन प्रतिपन्नाः सन्ते जना मां चिन्तयन्तोऽहमेव वासुदेव इति ज्ञात्वा प्रत्यभिन्नं मां ध्यायन्तः पर्युपासते परितः सर्वतोऽनवच्छिन्नतया पश्यन्तीत्यर्थः। तेषां सभ्यग्दर्शिनां नित्याभियुक्तानां नित्यं सततमत्यादरेण मच्चिन्तने व्यापृतानां योगक्षेमं वहाम्यहं योगश्च क्षेमश्चेति समाहारद्वन्द्वः। अलब्धस्य प्रापणं योगः। लब्धस्य परिपालनं क्षेमस्तदुभयं वहामि प्रापयामि। यतः कारणात् ज्ञानिनो ममात्मभूतत्वादतिप्रियाः। तदुक्तम्उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतं?स च मम प्रियः इति। यद्यप्यन्येषामपि भक्तानां योगक्षेमं भगवान्वहत्येव तथाप्यन्ये ये भक्तास्ते आत्मार्थं स्वयमपि योगक्षेममीहन्ते अनन्यदर्शिनस्तु नेति विशेषः।
9.22 अनन्याः without others? चिन्तयन्तः thinking? माम् Me? ये who? जनाः men? पर्युपासते worship? तेषाम् of them? नित्याभियुक्तानाम् of the everunited? योगक्षेमम् the supply of what is not already possessed? and the preservation of what is already possessed? वहामि carry? अहम् I.Commentary Ananyah Nonseparate. This is another interpretation. Persons who? meditating on Me as nonseparate? worship Me in all beings -- to them who are ever devout? I secure gain and safety. They consider themselves as nonseparate? i.e.? they look upon the Supreme Being as nonseparate from their own Self they look upon the Supreme Being as their own Self.Those devotees who behold nothing as separate from themselves have no selfish interests of their own. They certainly do not look for their own gain and safety. They have no desire for life or death. They have taken sole refuge in the Lord. They have nothing to lose? because there is nothing they call their own. Their very bodies become Gods. They have no desire for acisition because all their desires are gratified by their communion with the Lord. They have eternal satisfaction as they possess all the divine Aisvarya? the supreme wealth of the Lord.They entertain no other thoughts than those of the Lord. Conseently the Lord Himself looks after their bodily wants? such as food and clothing (this is known as Yoga)? and preserves what they already possess (this is known as Kshema). He does these two acts. Just as the father and mother attend to the bodily needs of their children? so also the Lord attends to the needs of His devotees.They direct their whole mind with full faith towards the Lord. They make the Lord alone the sole object of their thought. For them nothing is dearer in this world than the Lord. They live for the Lord alone. They think of Him only with singeleness of purpose and onepointed devotion. They behold nothing but the Lord. They love Him in all creatures. When they lead such a life? the Lord takes the whole burden of securing gain (Yoga) and safety (Kshema) for them upto Himself.Nityayuktah Those who constantly meditate on the Lord with intense devotion and onepointed mind. (Cf.VIII.14XVIII.66)
9.22 For those men who worship Me alone, thinking of no other, for those ever-united, I secure what is not already possessed and preserve what they already possess.
9.22 But if a man will meditate on Me and Me alone, and will worship Me always and everywhere, I will take upon Myself the fulfillment of his aspiration, and I will safeguard whatsoever he shall attain.
9.22 Those persons who, becoming non-different from Me and meditative, worship Me everywhere, for them, who are ever attached (to Me), I arrange for securing what they lack and preserving what they have.
9.22 On the other hand, ye janah, those persons, the monks, who are desireless and fully illumined; who ananyah, becoming non-different (from Me), having realized the supreme Deity, Narayana, as their own Self; and cintayantah, becoming meditative; ['Having known that I, Vasudeva, am the Self of all, and there is nothing else besides Me'.] paryu-pasate mam, worship Me everywhere; ['They see Me the one, all-pervading, infinite Reality.'] tesam, for them; who have realized the supreme Truth, nitya-abhiyuktanam, who are ever attached (to Me); aham, I; vahami, arrange for; both yoga-kesamam, securing what they lack and preserving what they have. Yoga means making available what one does not have, and ksema means the protection of what one has got. Since 'but the man of Knowledge is the very Self. (This is) My opinion' and 'he too is dear to Me' (7.17,18), therefore they have become My own Self as also dear. Does not the Lord surely arrange for securing what they lack and protecting what they have even in the case of other devotees? This is true. He does arrange for it. But the difference lies in this: Others who are devotees make their own efforts as well for their own sake, to arrange for securing what they lack and protecting what they have. On the contrary, those who have realized non-duality do not make any effrot to arrange for themselves the acisition of what they do not have and the preservation of what they have. Indeed, they desire nothing for themselves, in life or in death. They have taken refuge only in the Lord. Therefore the Lord Himself arranges to procure what they do not have and protect what they have got. 'If you Yourself are the other gods even, then do not their devotees too worship You alone?' 'Quite so!'
9.22. Those men who, having nothing else [as their goal] worship Me everywhere and are thinking of Me [alone]; to them, who are constantly and fully attached [to Me], I bear acisition and the security of acisition.
9.22 Ananyah etc. [See for example] those who are different [from the above mentioned] and who think of Me. How [do they think] ? They have nothing else : They have no other fruit apart from Me to desire for. Acisition : gaining (realising) My nature not gained (realised) earlier. Security of acisition : protection of the already achieved gain of being well established in the nature of the Bhagavat. On account of this there may not be even a doubt regarding the fall from the Yoga. This is the idea here.
9.22 There are Mahatmas who, excluding everything else and having no other purpose, meditate on Me as their only purpose, because without Me they are unable to sustain themselves. They think of Me and worship Me with all my auspicious attributes and with all my glories. In the case of such devotees aspiring after eternal union with Me, I Myself undertake the responsibility of bringing them to Myself (Yoga translated as 'prosperity') and of preserving them in that state for ever (Ksema translated as 'welfare'). The meaning is that they do not return to Samsara.
9.22 There are those who, excluding all else, think of Me and worship Me, aspiring after eternal union with Me. Their prosperity and welfare (Yoga and Ksema) are looked after by Me.
।।9.22।।परंतु जो निष्कामी -- पूर्ण ज्ञानी हैं --, जो संन्यासी अनन्यभावसे युक्त हुए अर्थात् परमदेव मुझ नारायणको आत्मरूपसे जानते हुए मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी श्रेष्ठ -- निष्काम उपासना करते हैं? निरन्तर मुझमें ही स्थित उन परमार्थज्ञानियोंका योगक्षेम मैं चलाता हूँ। अप्राप्त वस्तुकी प्राप्तिका नाम योग है और प्राप्त वस्तुकी रक्षाका नाम क्षेम है? उनके ये दोनों काम मैं स्वयं किया करता हूँ। क्योंकि ज्ञानीको तो मैं अपना आत्मा ही मानता हूँ और वह मेरा प्यारा है इसलिये वे उपर्युक्त भक्त मेरे आत्मारूप और प्रिय हैं। पू0 -- अन्य भक्तोंका योगक्षेम भी तो भगवान् ही चलाते हैं उ0 -- यह बात ठीक है? अवश्य भगवान् ही चलाते हैं किंतु उसमें यह भेद है कि जो दूसरे भक्त हैं वे स्वयं भी अपने लिये योगक्षेमसम्बन्धी चेष्टा करते हैं? पर अनन्यदर्शी भक्त अपने लिये योगक्षेमसम्बन्धी चेष्टा नहीं करते। क्योंकि वे जीने और मरनेमें भी अपनी वासना नहीं रखते? केवल भगवान् ही उनके अवलम्बन रह जाते हैं। अतः उनका योगक्षेम स्वयं भगवान् ही चलाते हैं।
।।9.22।। --,अनन्याः अपृथग्भूताः परं देवं नारायणम् आत्मत्वेन गताः सन्तः चिन्तयन्तः मां ये जनाः संन्यासिनः पर्युपासते? तेषां परमार्थदर्शिनां नित्याभियुक्तानां सतताभियोगिनां योगक्षेमं योगः अप्राप्तस्य प्रापणं क्षेमः तद्रक्षणं तदुभयं वहामि प्रापयामि अहम् ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् स च मम प्रियः यस्मात्? तस्मात् ते मम आत्मभूताः प्रियाश्च इति।।ननु अन्येषामपि भक्तानां योगक्षेमं वहत्येव भगवान्। सत्यं वहत्येव किं तु अयं विशेषः -- अन्ये ये भक्ताः ते आत्मार्थं स्वयमपि योगक्षेमम् ईहन्ते अनन्यदर्शिनस्तु न आत्मार्थं योगक्षेमम् ईहन्ते न हि ते जीविते मरणे वा आत्मनः गृद्धिं कुर्वन्ति केवलमेव भगवच्छरणाः ते अतः भगवानेव तेषां योगक्षेमं वहतीति।।ननु अन्या अपि देवताः त्वमेव चेत् तद्भक्ताश्च त्वामेव यजन्ते। सत्यमेवम् --,
।।9.22।।अद्वैतज्ञानिनोऽनन्याः इति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- अनन्या इति। अविद्यमानमन्यद्येषां ते अनन्याः। तच्चअनन्याश्चिन्तयन्तो मां इति प्रसङ्गाच्चिन्तनीयमिति लब्धे अन्यदचिन्तयित्वेति सिध्यति। प्रतीत एवार्थः किं न स्यात् इत्यत आह -- तथा हीति।देवमेव विशन्ति इत्यनेनयोगक्षेमं वहाम्यहं इत्युक्तार्थं भवति। अत्रैव काममित्यागमान्तरम्। प्रभया सन्दृश्यं मण्डलं स्वरूपं यस्यासौ तथोक्तः। दर्शनस्य योगक्षेमसाधनत्वं प्रसिद्धमेव।नित्याभियुक्तानां इत्यस्यापवादविषयाणामित्यन्यथाप्रतीतिनिरासार्थमाह -- नित्यमिति। सर्वतः सर्वस्मिन्देशे। शरीरेन्द्रियमनोभिर्वा युक्तानां भगवति सेवोद्युक्तानाम्।
।।9.22।।अनन्याः अन्यदचिन्तयित्वा। तथा हि गौतमखिलेषु -- सर्वं परित्यज्य मनोगतं यद्विना देवं केवलं शुद्धमाद्यम्। ये चिन्तयन्तीह तमेव धीरा अनन्यास्ते देवमेवाविशन्ति इति।कामं कालेन महता एकान्तित्वात्समाहितैः। शक्यो द्रष्टुं स भगवान्प्रभासन्दृश्यमण्डलः इति मोक्षधर्मे [म.भा.12।366।24।55]। नित्यमभितः सर्वतो युक्तानाम्।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।
অনন্যাশ্িচন্তযন্তো মাং যে জনাঃ পর্যুপাসতে৷ তেষাং নিত্যাভিযুক্তানাং যোগক্ষেমং বহাম্যহম্৷৷9.22৷৷
অনন্যাশ্িচন্তযন্তো মাং যে জনাঃ পর্যুপাসতে৷ তেষাং নিত্যাভিযুক্তানাং যোগক্ষেমং বহাম্যহম্৷৷9.22৷৷
અનન્યાશ્િચન્તયન્તો માં યે જનાઃ પર્યુપાસતે। તેષાં નિત્યાભિયુક્તાનાં યોગક્ષેમં વહામ્યહમ્।।9.22।।
ਅਨਨ੍ਯਾਸ਼੍ਿਚਨ੍ਤਯਨ੍ਤੋ ਮਾਂ ਯੇ ਜਨਾ ਪਰ੍ਯੁਪਾਸਤੇ। ਤੇਸ਼ਾਂ ਨਿਤ੍ਯਾਭਿਯੁਕ੍ਤਾਨਾਂ ਯੋਗਕ੍ਸ਼ੇਮਂ ਵਹਾਮ੍ਯਹਮ੍।।9.22।।
ಅನನ್ಯಾಶ್ಿಚನ್ತಯನ್ತೋ ಮಾಂ ಯೇ ಜನಾಃ ಪರ್ಯುಪಾಸತೇ. ತೇಷಾಂ ನಿತ್ಯಾಭಿಯುಕ್ತಾನಾಂ ಯೋಗಕ್ಷೇಮಂ ವಹಾಮ್ಯಹಮ್৷৷9.22৷৷
അനന്യാശ്ിചന്തയന്തോ മാം യേ ജനാഃ പര്യുപാസതേ. തേഷാം നിത്യാഭിയുക്താനാം യോഗക്ഷേമം വഹാമ്യഹമ്৷৷9.22৷৷
ଅନନ୍ଯାଶ୍ିଚନ୍ତଯନ୍ତୋ ମାଂ ଯେ ଜନାଃ ପର୍ଯୁପାସତେ| ତେଷାଂ ନିତ୍ଯାଭିଯୁକ୍ତାନାଂ ଯୋଗକ୍ଷେମଂ ବହାମ୍ଯହମ୍||9.22||
ananyāśicantayantō māṅ yē janāḥ paryupāsatē. tēṣāṅ nityābhiyuktānāṅ yōgakṣēmaṅ vahāmyaham৷৷9.22৷৷
அநந்யாஷ்ிசந்தயந்தோ மாஂ யே ஜநாஃ பர்யுபாஸதே. தேஷாஂ நித்யாபியுக்தாநாஂ யோகக்ஷேமஂ வஹாம்யஹம்৷৷9.22৷৷
అనన్యాశ్ిచన్తయన్తో మాం యే జనాః పర్యుపాసతే. తేషాం నిత్యాభియుక్తానాం యోగక్షేమం వహామ్యహమ్৷৷9.22৷৷
9.23
9
23
।।9.23।। हे कुन्तीनन्दन! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी करते हैं मेरा ही पूजन, पर करते है अविधिपूर्वक
।।9.23।। हे कौन्तेय ! श्रद्धा से युक्त जो भक्त अन्य देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझे ही अविधिपूर्वक पूजते हैं।।
।।9.23।। विश्व के सभी लोग एक ही पूजास्थल पर पूजा नहीं करते। न केवल शारीरिक दृष्टि से यह असम्भव है? वरन् मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी यह तर्कसंगत नहीं है? क्योंकि सब लोगों की अभिरुचियाँ भिन्नभिन्न होती हैं।भक्तगण जब भिन्नभिन्न देव स्थानों पर पूजा करते हैं? तब ये एक ही चेतन सत्य की आराधना करते हैं? जो इस परिवर्तनशील सृष्ट जगत् का अधिष्ठान है। जब वे विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं? तब भी वे उस एक सनातन सत्य का ही आह्वान करते हैं? जो उनके इष्ट देवता के रूप में व्यक्त हो रहा है। जब हम यह स्वीकार करते हैं कि अनन्त सत्य एकमेव अद्वितीय है? जो भूत? वर्तमान और भविष्य काल तीनों में एक समान रहता है? तब यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी ऋषिमुनियों? साधुसन्तों? पैगम्बरों और अवतारों की उपाधियों में व्यक्त होने वाला आत्मचैतन्य एक ही है।सहिष्णुता हिन्दू धर्म का प्राण है। हम पहले भी विचार कर चुके हैं कि परमार्थ सत्य को अनन्तस्वरूप में स्वीकार करने वाले अद्वैती किस प्रकार सहिष्णु होने के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकते हैं। असहिष्णुता उस धर्म में पायी जाती है? जिसमें किसी देवदूत विशेष को ही ईश्वर के रूप में स्वीकारा जाता है। हिन्दुओं में भी प्राय भिन्नभिन्न पंथों एवं सम्प्रदायों के मतावलम्बी निर्दयता की सीमा तक कट्टर पाये जाते हैं। असभ्यता के कुछ ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं? जिनमें एक भक्त की यह धारणा होती है कि अन्य लोगों के देवताओं की निन्दा करना? अपने इष्ट देवता की स्तुति और भक्ति करना है परन्तु इस प्रकार के मत विकृत? घृणित और अशिष्ट हैं? जिन्हें हिन्दू धर्मशास्त्र में कोई स्वीकृति नहीं है? और न ही ऋषियों द्वारा प्रवर्तित सांस्कृतिक परम्परा में उन्हें कोई स्थान प्राप्त है।उदार हृदय? करुणासागर? प्रेमस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण घोषणा करते हैं? ये भक्त भी वास्तव में मुझे ही पूजते हैं? यद्यपि वह पूजन अविधिपूर्वक है।बाह्य जगत् में व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से इस श्लोक का अभिप्राय यह है कि परमानन्दस्वरूप आत्मा की प्राप्ति को त्यागकर जो लोग सांसारिक विषयों की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करते हैं? वे भी आत्मकृपा का ही आह्वान करते हैं? परन्तु अविधिपूर्वक।अत्यन्त विषयोपभोगी पुरुष भी जब धन के अर्जन? रक्षण और व्यय की योजनाएं बनाता है? जिससे कि वह नित्य नवीन विषयों को प्राप्त कर उनको भोग सके? तब वह भी स्वयं में स्थित अव्यक्त क्षमताओं का ही आह्वान करता है। आत्मा के बिना कोई भी व्यक्ति न पापकर्म कर सकता है और न पुण्य कर्म। आत्महत्या जैसे कार्य में भी जीवनी शक्ति की आवश्यकता होती है? परन्तु शस्त्र उठाने में वह पुरुष आत्मचेतना का दुरुपयोग कर रहा होता है।इस सन्दर्भ में अविधिपूर्वक का अर्थ अज्ञानपूर्वक है? जिसका अन्तिम परिणाम दुख और विषाद् होता है? तथा साधक आत्मा के परम आनन्द से वंचित रह जाता है।इन भक्तों के पूजन को अविधिपूर्वक क्यों कहा गया है इसके उत्तर में कहते हैं --
।।9.23।।   व्याख्या--'येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः' -- देवताओंके जिन भक्तोंको 'सब कुछ मैं ही हूँ' ('सदसच्चाहम्' 9। 19) -- यह समझमें नहीं आया है और जिनकी श्रद्धा अन्य देवताओंपर है, वे उन देवताओंका ही श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं। वे देवताओंको मेरेसे अलग और बड़ा मानकर अपनी-अपनी,श्रद्धाभक्तिके अनुसार अपनेअपने इष्ट देवताके नियमोंको धारण करते हैं। इन देवताओंकी कृपासे ही हमें सब कुछ मिल जायगा-- ऐसा समझकर नित्य-निरन्तर देवताओंकी ही सेवा-पूजामें लगे रहते हैं। 'तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्' -- देवताओंका पूजन करनेवाले भी वास्तवमें मेरा ही पूजन करते हैं, क्योंकि तत्त्वसे मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं। मेरेसे अलग उन देवताओंकी सत्ता ही नहीं है। वे मेरे ही स्वरूप हैं। अतः उनके द्वारा किया गया देवताओंका पूजन भी वास्तवमें मेरा ही पूजन है, पर है अविधिपूर्वक। अविधि-पूर्वक कहनेका मतलब यह नहीं है कि पूजन-सामग्री कैसी होनी चाहिये? उनके मन्त्र कैसे होने चाहिये? उनका पूजन कैसे होना चाहिये? आदि-आदि विधियोंका उनको ज्ञान नहीं है। इसका मतलब है -- मेरेको उन देवताओंसे अलग मानना। जैसे कामनाके कारण ज्ञान हरा जानेसे वे देवताओंके शरण होते हैं (गीता 7। 20), ऐसे ही यहाँ मेरेसे देवताओंकी अलग (स्वतन्त्र) सत्ता मानकर जो देवताओंका पूजन करना है, यही अविधिपूर्वक पूजन करना है। इस श्लोकका निष्कर्ष यह निकला कि (1) अपनेमें किसी प्रकारकी किञ्चिन्मात्र भी कामना न हो और उपास्यमें भगवद्बुद्धि हो, तो अपनी-अपनी रुचिके अनुसार किसी भी प्राणीको, मनुष्यको और किसी भी देवताको अपना उपास्य मानकर उसकी पूजा की जाय, तो वह सब भगवान्का ही पूजन हो जायगा और उसका फल भगवानकी ही प्राप्ति होगा; और (2) अपनेमें किञ्चिन्मात्र भी कामना हो और उपास्यरूपमें साक्षात् भगवान् हों तो वह अर्थार्थी, आर्त आदि भक्तोंकी श्रेणीमें आ जायगा, जिनको भगवान्ने उदार कहा है (7। 18)। वास्तवमें सब कुछ भगवान् ही हैं। अतः जिस किसीकी उपासना की जाय, सेवा की जाय, हित किया जाय, वह प्रकारान्तरसे भगवान्की ही उपासना है। जैसे आकाशसे बरसा हुआ पानी नदी, नाला, झरना आदि बनकर अन्तमें समुद्रको ही प्राप्त होता है (क्योंकि वह जल समुद्रका ही है), ऐसे ही मनुष्य जिस किसीका भी पूजन करे, वह तत्त्वसे भगवान्का ही पूजन होता है (टिप्पणी प0 509)। परन्तु पूजकको लाभ तो अपनी-अपनी भावनाके अनुसार ही होता है।  सम्बन्ध --देवताओंका पूजन करनेवालोंका अविधिपूर्वक पूजन करना क्या है? इसपर कहते हैं --
।।9.23 -- 9.25।।येऽपीत्यादि प्रयतात्मनः इत्यन्तम्। येऽपि नामधेयान्तरैरुपासते तेऽपि मामेवोपासते। न हि ब्रह्मव्यतिरेकि किञ्चिदुपास्यमस्ति। किन्तु अविधिना इति विशेषः। अविधिः अन्यो विधिः। नानाप्रकारैर्विधभिरहमेव परब्रह्मसत्तास्वभावो याज्य इति।न तु यथा अन्यैर्दर्शनान्तरदूषणसमुपार्जितमहापातकम (S? omit पातक -- ) -- लीमसैर्व्याख्यातम् अविधिना? दुष्टविधिना इति। एवं हि सति मामेव यजन्ते? सर्वयज्ञानाञ्चाहमेव भोक्ता इति दृश्यमानमेतदसमञ्जसीभवेत् इत्यलं कल्मषकलिलैस्साकं संलापेन।अस्मद्गुरवस्तु निरूपयन्ति -- अन्या स्वात्मव्यतिरिक्ता भेदवादनयेन ब्रह्मस्वभावहीनैव काचिद्देवता इति गृहीत्वा तामेव [ये] यजन्ते तेऽपि वस्तुतो मामेव स्वात्मरूपं यजन्ते? किं तु अविधिना दुष्टेन विधिना भेदग्रहणरूपेण,(S? भेदग्रहरूपेण) इति।अत एवाह -- न तु मां स्वात्मानं तत्त्वेन देवतारूपतया भोक्तृत्वेन जानन्ति? अतश्चलन्ति ते,(S? ? N च्यवन्ते) मद्रूपात्। किम् देवव्रतत्वेन देवान् यान्ति इत्यादि। एतदेव चलनमिति,(S??N च्यवन) यावत्। ये तु मत्स्वरूपमभेदेन (?N -- स्वरूपभेदे (दं) न विदुः? ते देवभूतपितृयागादिनाऽपि मामेव यजन्ते (N यजन्ति)। ते च मद्याजिनो मामेव गच्छन्ति (N यजन्ति) इत्युपसंहरिष्यति।ननु द्रव्यत्यागार्थमुद्दिष्टा देवता इत्युच्यते। तत् कथमनुद्दिश्यस्वात्मतत्त्वस्य याज्यत्वम् आदित्यः प्रायणीयश्चरुः इति विधिशेषभूतदेवता उद्देशात्मकविध्यन्तरभावितो (?N प्रभावितो) ह्यसौ उद्देशः (श्यः)। न च स्वात्मविषयो (S??N omit विषयो) विधिरस्ति इत्यभिप्रायेणाह -- अविधिपूर्वकं मामिति। स्वात्मव्यतिरिक्तायां देवतायामस्ति अपेक्ष्यो विधिः? अप्राप्तप्रापणरूपत्वात्। स्वात्मा तु परमेश्वरो न विधिपूर्वकः? विधिपरिप्रापितत्त्वाभावात् (S??N -- परिप्राप्यत्वाभावात्)। न हि तदनुद्देशेन किञ्चित्प्रवर्तते। तेन विधिपरिप्रापितेन्द्रादिदेवतोद्देशेषु सर्वेषु स (S omits सः) स्वात्मा विश्वावभासनस्वभावः तदुद्देश्यदेवतावभासभित्ति (?N substitutes -- भित्ति with मिति -- ) स्थानीयतयैव अहमहमिकया सततावभासमानः स्रक्सूत्रकल्पः सततोद्दिष्टः इति युक्तिसिद्धमेतत्? मामेव यजन्ति अविधिपूर्वकत्वात् [इति]। मुख्यभूतमत्प्राप्तिफलस्य तान्प्रति कर्त्रभिप्रायत्वं नास्ति? अपि तु परिमितदक्षिणास्थानीयेन्द्रादिपद ( -- येन्द्रपदातिमात्र N येन्द्रपदादि K (n) -- इन्द्रादिपदमात्र -- ) -- मात्रप्राप्तेरेव (? K (n) प्राप्तय एव N प्राप्त एव) याजकवच्चरितार्थत्वमेषाम् इति प्रथयितुं परस्मैपदम्। यदुक्तं मयैव -- वेदान् वेद न वेद शाम्भवपदं दूयेत निर्वेदवान् स्वर्गार्थी यजमानतां प्रतिजहज्जातो यजन् याजकः।सर्वाः कर्मरसप्रवाहविसराः (K प्रसराः) संवित्स्रवन्त्योऽखिलाः स्त्वामा (स्वात्मा) नन्दमहाम्बुधिं विदधते नाप्राप्य पूर्णां, स्थितिम्।।इतिएवं य उक्तक्रमेण वेत्ति तस्येन्द्रादिदेवतायागोऽपि परमेश्वरयाग इति।
।।9.23।।ये अपि अन्यदेवताभक्ताः ये तु इन्द्रादिदेवताभक्ताः केवलत्रयीनिष्ठाः श्रद्धया अन्विताः इन्द्रादीन् यजन्ते? तेऽपि पूर्वोक्तेन न्यायेन सर्वस्य मच्छरीरतया मदात्मत्वेन इन्द्रादिशब्दानां च मद्वाचित्वाद् वस्तुतो माम् एव यजन्ते अपि तु अविधिपूर्वकं यजन्ते। इन्द्रादीनां देवतानां कर्मसु आराध्यतया अन्वयं यथा वेदान्तवाक्यानिचतुर्होतारो यत्र संपदं गच्छन्ति देवैः (तै0 आ0 4) इत्यादीनि विदधति? न तत्पूर्वकं यजन्ते।वेदान्तवाक्यजातं हि परमपुरुषशरीरतया अवस्थितानाम् इन्द्रादीनाम् आराध्यत्वं विदधद् आत्मभूतस्य परमपुरुषस्य एव साक्षाद् आराध्यत्वं विदधाति।चतुर्होतारः अग्निहोत्रदर्शपौर्णमासादीनि कर्माणि कुर्वाणा यत्र परमात्मनि आत्मतया अवस्थिते सति एव तच्छरीरभूतैः इन्द्रादिदेवैः संपदं गच्छन्ति? इन्द्रादिदेवानाम् आराधनानि एतानि कर्माणि मद्विषयाणि इति मां संपदं गच्छन्ति इत्यर्थः।अतः त्रैविद्या इन्द्रादिशरीरस्य परमपुरुषस्य आराधनानि एतानि कर्माणि? आराध्यः च स एव? इति न जानन्ति? ते च परिमितफलभागिनः च्यवनस्वभावाः च भवन्ति? तद् आह --
।।9.23।।तत्तद्देवतात्मना परस्यैवात्मनः स्थित्यभ्युपगमाद्देवतान्तरपराणामपि भगवच्छरणत्वाविशेषात्तदेकनिष्ठत्वमकिंचित्करमिति मन्वानः शङ्कते -- नन्विति। उक्तमङ्गीकृत्य परिहरति -- सत्यमित्यादिना। देवतान्तरयाजिनां भगवद्याजिभ्यो विशेषमाह -- अविधीति। तद्व्याकरोति -- अविधिरिति।
।।9.23।।ननु ब्रह्मवादे तव सर्वात्मत्वाद्देवान्तरभजनेऽपि त्वद्भजनमेव भवति? तर्हि किमिति ते गतागतं लभन्ते इति चेत्तत्राह -- येऽपीति। अन्यदेवताभक्ताःरविर्विनायकश्चण्डी ईशो विष्णुस्तु पञ्चमः। अनुक्रमेण पूज्यन्ते व्युत्क्रमे तु महद्भयम् इति श्रीमत्या प्रोक्तपञ्चायतनपूजापरा अपि श्रद्धया युक्ताः सन्तः पूजयन्ति तेऽपि रव्यादिषु मामेव ब्रह्म ध्यात्वा यजन्ति। यद्वा त्वर्थेऽपीति केचित्। तेऽपि मामेवेति। उक्तन्यायेन सर्वस्य मदङ्गभूतया मदात्मकत्वेनेन्द्रादिशब्दानां मद्वाच्यत्वाद्वस्तुतो मामेव यजन्ते। अपित्वविधिपूर्वकं तेषामात्मभूतमधिष्ठानताज्ञानपूर्वकं यजनं वेदे विहितम् इतरथा त्वविहितमित्यविधिपूर्वकं ते यजन्ते ततो गतागतं लभन्त इति भावः। अथवामूलं विष्णुर्हि देवानां [भाग.10।4।39] इति वाक्यात् मूलभूतं परित्यज्य शाखापत्रादौ सेचनवद्यजनमविहितमित्यनन्यत्वदर्ढ्यायैवमुच्यते। वेदवाक्यं हि चतुर्होतारो यत्र सम्पदं गच्छन्ति देवैः इतिरूपे मदात्मकविषयाणि देवाराधनानि स्पष्टमुक्तानीति युक्तमुक्तम् -- अविधिपूर्वकं ते यजन्ते इति।
।।9.23।।नन्वन्या अपि देवतास्त्वमेव तद्व्यतिरिक्तस्य वस्त्वन्तरस्याभावात् तथाच देवतान्तरभक्ता अपि त्वामेव भजन्त इति न कोपि विशेषः स्यात्। तेन गतागतं कामकामा वसुरुद्रादित्यादिभक्ता लभन्ते। अनन्याश्चिन्तयन्तो मां तु कृतकृत्या इति कथमुक्तं तत्राह -- येऽप्यन्येति। यथा मद्भक्ता मामेव यजन्ति तथा येऽन्यदेवतानां वस्वादीनां भक्ता यजन्ते ज्योतिष्टोमादिभिः श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या अन्विताः तेऽपि मद्भक्ता एव हे कौन्तेय? तत्तद्देवतारूपेण स्थितं मामेव यजन्ति पूजयन्ति। अविधिपूर्वकं अविधिरज्ञानं तत्पूर्वकं सर्वात्मत्वेन मामज्ञात्वा मद्भिन्नत्वेन वस्वादीन्कल्पयित्वा यजन्तीत्यर्थः।
।।9.23।।ननु च त्वद्व्यतिरेकेण वस्तुतो देवतान्तरस्याभावादिन्द्रादिसेविनोऽपि त्वद्भक्ता एवेति कथं ते गतागतं लभेरंस्तत्राह -- येऽपीति। श्रद्धयोपेता भक्ताः सन्तो येऽपि जना यज्ञेनान्यदेवता इन्द्रादिरूपा यजन्ते तेऽपि मामेव यजन्तीति सत्यम्? किंत्वविधिपूर्वकं मोक्षप्रापकं विधिं विना यजन्त्यतस्ते पुनरावर्तन्ते।
।।9.23।।सर्वासामपि देवतानां भगवच्छरीरत्वात्त्रैविद्या माम् [20] इत्युक्तप्रकारेण वस्तुतः स्वसमाराधनमिति जानन् भवान् किं न केवलकर्मिणामपि मोक्षरूपयोगक्षेमं प्रयच्छतीत्यत्रोत्तरमुच्यतेये तु इत्यादिश्लोकद्वयेन। तुशब्दः शङ्कानिवृत्त्यर्थः।अन्यदेवताभक्ताः इत्येतत्समभिव्याहारफलितम्इन्द्रादीनिति।पूर्वोक्तेन न्यायेनेति -- मयि सर्वमिदं प्रोतं [7।7] इत्यादावस्मिन्नप्यध्यायेमया ततमिदं सर्वम् [9।4] इत्यादौ चेति भावः।मामेव यजन्ति इत्यन्तं शङ्कितानुवादरूपम् शेषं तु विधेयरूपमित्यभिप्रायेणाहअपित्विति। विधिः स्वज्ञानद्वारा यस्य पूर्वं कारणं? तद्विधिपूर्वम् तदन्यदविधिपूर्वकम्। कथमविधिपूर्वकत्वं विहितानामित्यत्राहइन्द्रादीनामिति।तत्पूर्वकमिति -- तथाविधविध्यनुसन्धानपूर्वकमित्यर्थः। यथा विदधतीत्युक्तं विवृणोतिवेदान्तेति। इन्द्रादीनामाराध्यत्वमात्रं कर्मभोगे प्रतिपादितम् तेषामेव यथावस्थितं स्वरूपं वेदान्तेष्विति न विरोधः।साक्षादिति निरुपाधिकमित्यर्थः? प्रधानतयेति वा। हविरुद्देश्यपरमपुरुषविशेषणतयेन्द्रादीनामुद्देश्यानुप्रवेशः यथा प्रतर्दनविद्यादिषूपास्यानुप्रवेश इति भावः।चतुर्होतारः इति उपात्तवाक्यस्य कथं प्रस्तुतार्थता तत्राहचतुर्होतार इति। उपलक्षणतामभिप्रेत्योक्तंअग्निहोत्रदर्शपूर्णमासादीनीति। अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा [यजुः3।10।2] इत्यादिप्रसिद्धः यत्रशब्दार्थ उच्यतेपरमात्मनीत्यादिना। यस्यादित्यः शरीरम् [बृ.उ.3।7।9] इत्यादिवाक्यानुसन्धानेनतच्छरीरभूतैरित्यादिकमुक्तम्। कर्मणां देवैः साध्या सम्पत् तदाराधनत्वरूपोऽतिशय एव स चान्ततः फलसाधनत्वप्रकारे पर्यवसित इत्यभिप्रायेणाहइन्द्रादिदेवतानामित्यादि।
।।9.23।।नन्वन्यदेवभजनकर्त्तारोऽपि त्वदंशत्वात् त्वद्भजनमेव कुर्वन्तीति कथं न तेषु त्वत्कृपा तद्भजनं च कथं भोग एव क्षीयते इत्यत आह -- येऽपीति। येऽपि श्रद्धयाऽन्विताः श्रद्धायुक्तास्तदासक्तत्वधर्मयुक्ता अन्यदेवता यज्ञादिसाधनैस्तदधिष्ठातृरूपेण मदंशाज्ञानेन भजन्ति तेषु मदंशत्वात् मामेव भजन्ति? परन्तु मत्स्वरूपाज्ञानादविधिपूर्वकं भजन्ति? अतस्तेषां तद्भजनानुरूपं क्षयिष्ण्वेव फलं भवति अहं च न कृपां करोमीत्यर्थः। अत एव स्मृतिष्वविधिकरणनिषेधःविधिहीनं भावदुष्टं कृतमश्रद्धया च यत्। तद्धरन्त्यसुरास्तस्य सुमूढस्याऽकृतात्मनः इति।
।।9.23।।अविधिपूर्वकं विधिरभेदबुद्धिस्तद्राहित्यादविधिपूर्वकत्वं तदीयभजनस्य।
।।9.23।।नन्वन्या वासुदेवाभिन्ना इति ज्ञानाभावात्तेषां मद्भक्तेभ्यो विशेष इत्याह -- येऽपीति। येप्यन्यासु इन्द्रादिदेवतासु भक्ताः सन्तः श्रद्धया आस्तिक्यबुद्य्धा अन्विता युक्ता अन्यदेवतां यजन्ते पूजयन्ति तेऽपि वस्तुगत्या मामेव यजन्ति। यथा कुन्तीसुतोऽपि त्वं वस्तुवृत्त्यास्मत्पितामहौहित्र एवेति संबोधनाशयः। तथापि मद्भजने वासुदेवव्यतिरिक्तं वस्तु नास्तीत ज्ञानं विधिस्तदभावोऽविधिस्तत्पर्वकं यजन्त इत्यर्थः।
9.23 ये who? अपि even? अन्यदेवताः other gods? भक्ताः devotees? यजन्ते worship? श्रद्धया with faith? अन्विताः endowed? ते they? अपि also? माम् Me? एव alone? कौन्तेय O Kaunteya? यजन्ति worship? अविधिपूर्वकम् by the wrong method.Commentary They worship Me in ignorance. Their mode of worship is contrary to the ancient,rule. Hence they return to this world.People worship Agni? Indra? Surya? Varuna? the Vasus? etc. Even they attain Me? because I am everywhere. But their devotion is not pure. It is vicarious. Water should be given to the root and not to the branches. If the root is satisfied? the whole tree must be and is satisfied. Even so? if I (the root of this world and all the gods) am satisfied? all the gods must be and are satisfied. Though the messages from the five organs of knowledge reach the one consciousness? will it be right and useful to place a sweetmeat in the ear and a flower in the eyes The function of eating must be done by the mouth alone and the function of smelling by the nose alone. Therefore I should be worshipped in My own nature. They should know Me as the Self in all beings. They should recognise Me in other worship. I am the root. I am the source of all the gods and of this whole world. (Cf.IV.11VII.20)
9.23 Even those devotees who, endowed with faith, worship other gods, worship Me alone, O Arjuna, b the wrong method.
9.23 Even those who worship the lesser Powers, if they do so with faith, they thereby worship Me, though not in the right way.
9.23 Even those who, being devoted to other deities and endowed with faith, worship (them), they also, O son of Kunti, worship Me alone (though) following the wrong method.
9.23 Api, even; ye, those who; anya-devata-bhaktah, being devoted to tother deities; and anvitah sraddhaya, endowed with faith; yajante, worship (them), te api, they also; O son of Kunti, yajanti, worship; mam, Me; eva, alone; (though) avidhi-purvakam, following the wrong method. Avidhi implies ignorance. So the idea is that they worship (Me) ignorantly. 'How it is that they worship (Me) ignorantly?' [i.e. the worshippers of other deities worship them knowingly, and hence, how can the estion of their ignorance arise?] This is being answered: Because-
9.23. O son of Kunti ! Even those who are the devotees of other gods and worship [them] with faith, worship Me alone, [but] following non-injunction;
9.23 See Comment under 9.26
9.23 Those, however, who are devoted to Indra and other divinities, who rely on the three Vedas alone, and who, possessed of faith, worship Indra and other divinities - they too worship Me actually in the light of the truth that all existing things constitute My body and have Me for their selves. In the light of this principle, terms like Indra denote Me only. The worshippers of Indra and other deities therefore worship Me only, in ways not sanctioned by the Sastras. They do not worship Indra and other divinities with a proper understanding of the place of these deities in the light of the Vedanta texts. An example is 'Wherein (i.e., in the Supreme Self) the sacrifices known as the Caturhotri attain their fulfilment through the divinities' (Tai. Ar., 4) etc. These texts say in what way these forms of worship apply to these divinties. For all Vedanta texts lay down that the Supreme Person alone is to be worshipped directly when they enjoin the worship of Indra and other divinities, as they form the body of the Supreme Person. The meaning is that in the Caturhotri sacrifice like Agnihotra, the full moon and the new moon sacrifices etc., it is the Supreme Self only that is worshipped, as He abides as the self in Indra etc., who are the ostensible objects worshipped in these sacrifices by which these worshippers obtain their fulfilment through them. Therefore, the votaries of the three Vedas do not understand that these rituals form the worship of the Supreme Person and that He alone is to be worshipped. As they do not do so, they become experiencers of limited results, and they are again liable to fall into Samsara. Sri Krsna gives expressions to this:
9.23 Even those who are devoted to other divinities with faith in their hearts, worship Me alone, O Arjuna, though not as sanctioned by the Sastras.
।।9.23।।यदि कहो कि अन्य देव भी आप ही हैं? अतः उनके भक्त भी आपहीका पूजन करते हैं तो यह बात ठीक है --, जो कोई अन्य देवोंके भक्त -- अन्य देवताओंमें भक्ित रखनेवाले? श्रद्धासे -- आस्तिकबुद्धिसे युक्त हुए (उनका ) पूजन करते हैं? हे कुन्तीपुत्र वे भी मेरा ही पूजन कहते हैं ( परंतु ) अविधिपूर्वक ( करते हैं )। अविधि अज्ञानको करते हैं? सो वे अज्ञानपूर्वक मेरा पूजन करते हैं।
।।9.23।। --,येऽपि अन्यदेवताभक्ताः अन्यासु देवतासु भक्ताः अन्यदेवताभक्ताः सन्तः यजन्ते पूजयन्ति श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या अन्विताः अनुगताः? तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्ति अविधिपूर्वकम् अविधिः अज्ञानं तत्पूर्वकं यजन्ते इत्यर्थः।।कस्मात् ते अविधिपूर्वकं यजन्ते इत्युच्यते यस्मात् --,
।।9.23।।उक्तप्रश्नस्योत्तरं जातं? तत्किमुत्तरेणेत्यतः प्रश्नाभिसन्ध्युद्धाटनस्येदमुत्तरमित्याह -- तर्हीति। भगवद्भोगनिमित्तं हि फलं? स चेत्सर्वत्र समस्तदा सर्वेषां फलसाम्येन भाव्यम्। तदभावश्चेत्तर्हिअहं क्रतुः [9।16] इत्युक्तं सर्वत्र भगवतो भोक्तृत्वमप्यसत्यमित्यर्थः।
।।9.23।।तर्हिअहं क्रतुः [9।16] इत्यादि असत्यमित्यत आह -- येऽपीति।
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।
যেপ্যন্যদেবতা ভক্তা যজন্তে শ্রদ্ধযান্বিতাঃ৷ তেপি মামেব কৌন্তেয যজন্ত্যবিধিপূর্বকম্৷৷9.23৷৷
যেপ্যন্যদেবতা ভক্তা যজন্তে শ্রদ্ধযান্বিতাঃ৷ তেপি মামেব কৌন্তেয যজন্ত্যবিধিপূর্বকম্৷৷9.23৷৷
યેપ્યન્યદેવતા ભક્તા યજન્તે શ્રદ્ધયાન્વિતાઃ। તેપિ મામેવ કૌન્તેય યજન્ત્યવિધિપૂર્વકમ્।।9.23।।
ਯੇਪ੍ਯਨ੍ਯਦੇਵਤਾ ਭਕ੍ਤਾ ਯਜਨ੍ਤੇ ਸ਼੍ਰਦ੍ਧਯਾਨ੍ਵਿਤਾ। ਤੇਪਿ ਮਾਮੇਵ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਯਜਨ੍ਤ੍ਯਵਿਧਿਪੂਰ੍ਵਕਮ੍।।9.23।।
ಯೇಪ್ಯನ್ಯದೇವತಾ ಭಕ್ತಾ ಯಜನ್ತೇ ಶ್ರದ್ಧಯಾನ್ವಿತಾಃ. ತೇಪಿ ಮಾಮೇವ ಕೌನ್ತೇಯ ಯಜನ್ತ್ಯವಿಧಿಪೂರ್ವಕಮ್৷৷9.23৷৷
യേപ്യന്യദേവതാ ഭക്താ യജന്തേ ശ്രദ്ധയാന്വിതാഃ. തേപി മാമേവ കൌന്തേയ യജന്ത്യവിധിപൂര്വകമ്৷৷9.23৷৷
ଯେପ୍ଯନ୍ଯଦେବତା ଭକ୍ତା ଯଜନ୍ତେ ଶ୍ରଦ୍ଧଯାନ୍ବିତାଃ| ତେପି ମାମେବ କୌନ୍ତେଯ ଯଜନ୍ତ୍ଯବିଧିପୂର୍ବକମ୍||9.23||
yē.pyanyadēvatā bhaktā yajantē śraddhayā.nvitāḥ. tē.pi māmēva kauntēya yajantyavidhipūrvakam৷৷9.23৷৷
யேப்யந்யதேவதா பக்தா யஜந்தே ஷ்ரத்தயாந்விதாஃ. தேபி மாமேவ கௌந்தேய யஜந்த்யவிதிபூர்வகம்৷৷9.23৷৷
యేప్యన్యదేవతా భక్తా యజన్తే శ్రద్ధయాన్వితాః. తేపి మామేవ కౌన్తేయ యజన్త్యవిధిపూర్వకమ్৷৷9.23৷৷
9.24
9
24
।।9.24।। क्योंकि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी हूँ;  परन्तु वे मेरेको तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।
।।9.24।। क्योंकि सब यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ, परन्तु वे मुझे तत्त्वत: नहीं जानते हैं, इसलिए वे गिरते हैं, अर्थात् संसार को प्राप्त होते हैं।।
।।9.24।। सभी यज्ञों का भोक्ता और स्वामी एक आत्मा ही है। आत्मा ही विभिन्न देवता शरीरों में व्यक्त हुआ है? जिसके कारण उन देवताओं को अपनीअपनी सार्मथ्य प्राप्त हुई है। उनका कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिए भक्तजन उनकी आराधना करते हैं। भगवान् यहाँ कहते हैं कि श्रद्धापूर्वक इन पूजकों द्वारा जिन देवताओं का यज्ञादि में आह्वान किया जाता है? उनका मूल अव्ययस्वरूप मैं ही हूँ। यह पूजा चाहे मन्दिर में हो या मस्जिद में? गिरजाघर में हो या गुरुद्वारे में। परन्तु क्योंकि वे मेरी परिच्छिन्न शक्तियों के अधिष्ठाता देवताओं की ही पूजा करते हैं? इसलिए वे मुझे अपने आत्मरूप में नहीं जानते? जो अनन्तस्वरूप हैं। परिणाम यह होता है कि पुन संसार के शोकमोह और असंख्य बन्धनों में घिर जाते हैं।इसी सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में लागू करें? तो ज्ञात होगा कि उन सभी कार्यक्षेत्रों में जहाँ लोग परिश्रम (यज्ञ) करते हैं? वह सदैव किसी न किसी अनित्य लाभ या फल (देवता) को प्राप्त करने के लिए ही होता है। वे आध्यात्मिक विकास के लिए परिश्रम नहीं करते? जिससे कि वे अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को पहचान सकें। कामुकता की फिसलन भरी ढलान पर चलते हुए वे क्रूर पाशविकता के स्तर तक गिर जाते हैं? जो कि मानव के पद और प्रतिष्ठा पर एक बड़ा कलंक है।पूर्ण सुख और सन्तोष? परम शान्ति और समाधान हृदय के अन्तरतम भाग में स्थित हैं? न कि बाह्य जगत् के लाभ और सफलता में? यश और कीर्ति में। हृदय में स्थित इस शाश्वत लाभ की ओर ध्यान न देकर? कामनाओं के बिच्छुओं से दंशित अविवेकी मनुष्य इतस्तत दौड़ते हैं? और इस प्रकार अपने साथसाथ उस मार्ग पर चलने वाले अन्य लोगों के लिए भी दुर्व्यवस्था और दुख उत्पन्न करते हैं। जब ऐसे मोहित लोगों की पीढ़ी स्वच्छन्दता को प्रोत्साहित कर उपभोग का ही जीवन जीती है? और एक क्षण भी रुककर अपने कर्मों का मूल्यांकन करने पर कदापि ध्यान नहीं देती? तब अवश्य ही? उस पीढ़ी का इतिहास विस्फोटित जगत् के मुख पर? उसी विस्फोट से मृत और अपंग हुए लोगों के उस रक्त से लिखा जाता हैं? जो पुत्रों और पतियों से वियुक्त हुई माताओं और विधवाओं के अश्रुओं से मिश्रित होता है। निश्चय ही? वे र्मत्यलोक के दुखों को पुन लौटते हैं।हम यह कैसे कह सकते हैं कि अविधिपूर्वक पूजन करने पर भी वे भक्तजन किसी फल को प्राप्त करते हैं इस पर कहते हैं --
।।9.24।। व्याख्या--[दूसरे अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि जो भोग और ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, वे 'मेरेको केवल परमात्माकी तरफ ही चलना है' -- ऐसा निश्चय नहीं कर सकते (2। 44)। अतः परमात्माकी तरफ चलनेमें दो बाधाएँ मुख्य हैं-- अपनेको भोगोंका भोक्ता मानना और अपनेको संग्रहका मालिक मानना। इन दोनोंसे ही मनुष्यकी बुद्धि उलटी हो जाती है, जिससे वह परमात्मासे सर्वथा विमुख हो जाता है। जैसे, बचनपमें बालक माँके बिना रह नहीं सकता पर बड़ा होनेपर जब उसका विवाह हो जाता है, तब वह स्त्रीसे 'मेरी स्त्री है' ऐसा सम्बन्ध जोड़कर उसका भोक्ता और मालिक बन जाता है। फिर उसको माँ उतनी अच्छी नहीं लगती, सुहाती नहीं। ऐसे ही जब यह जीव भोग और ऐश्वर्यमें लग जाता है अर्थात् अपनेको भोगोंका भोक्ता और संग्रहका मालिक मानकर उनका दास बन जाता है और भगवान्से सर्वथा विमुख हो जाता है, तो फिर उसको यह बात याद ही नहीं रहती कि सबके भोक्ता और मालिक भगवान् हैं। इसीसे उसका पतन हो जाता है। परन्तु जब इस जीवको चेत हो जाता है कि वास्तवमें मात्र भोगोंके भोक्ता और मात्र ऐश्वर्यके मालिक भगवान् ही हैं, तो फिर वह भगवान्में लग जाता है, ठीक रास्तेपर आ जाता है। फिर उसका पतन नहीं होता।] 'अहं हि सर्वयज्ञानां (टिप्पणी प0 510.1) भोक्ता च प्रभुरेव च'-- शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार मनुष्य यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जितने शुभकर्म करते हैं तथा अपने वर्ण-आश्रमकी मर्यादाके अनुसार जितने व्यावहारिक और शारीरिक कर्तव्य-कर्म करते हैं, उन सब कर्मोंका भोक्ता अर्थात् फलभागी मैं हूँ। कारण कि वेदोंमें, शास्त्रोंमें, पुराणोंमें, स्मृतिग्रन्थोंमें प्राणियोंके लिये शुभकर्मोंका जो विधान किया गया है, वह सब-का-सब मेरा ही बनाया हुआ है, और मेरेको देनेके लिये ही बनाया हुआ है,जिससे ये प्राणी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंसे और उनके फलोंसे सर्वथा निर्लिप्त रहें, कभी अपने स्वरूपसे च्युत न हों और अनन्य भावसे केवल मेरेमें ही लगे रहें। अतः उन सम्पूर्ण शुभ-कर्मोंका और व्यावहारिक तथा शारीरिक कर्तव्य-कर्मोंका भोक्ता मैं ही हूँ।जैसे सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता (फलभागी) मैं ही हूँ, ऐसे ही सम्पूर्ण संसारका अर्थात् सम्पूर्ण लोक, पदार्थ, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया और प्राणियोंके शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदिका मालिक भी मैं ही हूँ। कारण  कि अपनी प्रसन्नताके लिये ही मैंने अपनेमेंसे इस सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना की है; अतः इन सबकी रचना करनेवाला होनेसे इनका मालिक मैं ही हूँ। विशेष बात भगवान्का भोक्ता बनना क्या है? भगवान्ने कहा है कि महात्माओंकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19) और मेरी दृष्टिमें भी सत्-असत् सबकुछ मैं ही हूँ (9। 19)। जब सब कुछ मैं ही हूँ, तो कोई किसी देवताकी पुष्टिके लिये यज्ञ करता है, उस यज्ञके द्वारा देवतारूपमें मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसीको दान देता है, तो दान लेनेवालेके रूपमें मेरा ही अभाव दूर होता है, उससे मेरी ही सहायता होती है। कोई तप करता है, तो उस तपसे तपस्वीके रूपमें मेरेको ही सुख-शान्ति मिलती है। कोई किसीको भोजन कराता है, तो उस भोजनसे प्राणोंके रूपमें मेरी ही तृप्ति होती है। कोई शौचस्नान करता है, तो उससे उस मनुष्यके रूपमें मेरेको ही प्रसन्नता होती है। कोई पेड़-पौधोंको खाद देता है,उनको जलसे सींचता है तो वह खाद और जल पेड़-पौधोंके रूपमें मेरेको ही मिलता है और उनसे मेरी ही पुष्टि होती है। कोई किसी दीनदुःखी, अपाहिजकी तन-मन-धनसे सेवा करता है तो वह मेरी ही सेवा होती है। कोई वैद्यडाक्टर किसी रोगीका इलाज करता है, तो वह इलाज मेरा ही होता है। कोई कुत्तोंको रोटी डालता है कबूतरोंको दाना डालता है गायोंकी सेवा करता है भूखोंको अन्न देता है प्यासोंको जल पिलाता है तो उन सबके रूपमें मेरी ही सेवा होती है। उन सब वस्तुओंको मैं ही ग्रहण करता हूँ (टिप्पणी प0 510.2)। जैसे कोई किसी मनुष्यकी सेवा करे, उसके किसी अङ्गकी सेवा करे, उसके कुटुम्बकी सेवा करे, तो वह सब सेवा उस मनुष्यकी ही होती है। ऐसे ही मनुष्य जहाँकहीं सेवा करे, जिस-किसीकी सहायता करे, वह सेवा और सहायता मेरेको ही मिलती है। कारण कि मेरे बिना अन्य कोई है ही नहीं। मैं ही अनेक रूपोंमें प्रकट हुआ हूँ -- 'बहु स्यां प्रजायेय' (तैत्तिरीय0 2। 6)। तात्पर्य यह हुआ कि अनेक रूपोंमें सब कुछ ग्रहण करना ही भगवान्का भोक्ता बनना है।भगवान्का मालिक बनना क्या हैभगवत्तत्त्वको जाननेवाले भक्तोंकी दृष्टिमें अपरा और पराप्रकृतिरूप मात्र संसारके मालिक भगवान् ही हैं। संसारमात्रपर उनका ही अधिकार है। सृष्टिकी रचना करें या न करें, संसारकी स्थिति रखें या न रखें, प्रलय करें या न करें प्राणियोंको चाहे जहाँ रखें, उनका चाहे जैसा संचालन करें, चाहे जैसा उपभोग करें,अपनी मरजीके मुताबिक चाहे जैसा परिवर्तन करें, आदि मात्र परिवर्तन-परिवर्द्धन करनेमें भगवान्की बिलकुल स्वतन्त्रता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे भोगी पुरुष भोग और संग्रहका चाहे जैसा उपभोग करनेमें स्वतन्त्र है (जबकि उसकी स्वतन्त्रता मानी हुई है, वास्तवमें नहीं है), ऐसे ही भगवान् मात्र संसारका चाहे जैसा परिवर्तनपरिवर्द्धन करनेमें सर्वथा स्वतन्त्र हैं। भगवान्की वह स्वतन्त्रता वास्तविक है। यही भगवान्का मालिक बनना है।
।।9.23 -- 9.25।।येऽपीत्यादि प्रयतात्मनः इत्यन्तम्। येऽपि नामधेयान्तरैरुपासते तेऽपि मामेवोपासते। न हि ब्रह्मव्यतिरेकि किञ्चिदुपास्यमस्ति। किन्तु अविधिना इति विशेषः। अविधिः अन्यो विधिः। नानाप्रकारैर्विधभिरहमेव परब्रह्मसत्तास्वभावो याज्य इति।न तु यथा अन्यैर्दर्शनान्तरदूषणसमुपार्जितमहापातकम (S? omit पातक -- ) -- लीमसैर्व्याख्यातम् अविधिना? दुष्टविधिना इति। एवं हि सति मामेव यजन्ते? सर्वयज्ञानाञ्चाहमेव भोक्ता इति दृश्यमानमेतदसमञ्जसीभवेत् इत्यलं कल्मषकलिलैस्साकं संलापेन।अस्मद्गुरवस्तु निरूपयन्ति -- अन्या स्वात्मव्यतिरिक्ता भेदवादनयेन ब्रह्मस्वभावहीनैव काचिद्देवता इति गृहीत्वा तामेव [ये] यजन्ते तेऽपि वस्तुतो मामेव स्वात्मरूपं यजन्ते? किं तु अविधिना दुष्टेन विधिना भेदग्रहणरूपेण,(S? भेदग्रहरूपेण) इति।अत एवाह -- न तु मां स्वात्मानं तत्त्वेन देवतारूपतया भोक्तृत्वेन जानन्ति? अतश्चलन्ति ते,(S? ? N च्यवन्ते) मद्रूपात्। किम् देवव्रतत्वेन देवान् यान्ति इत्यादि। एतदेव चलनमिति,(S??N च्यवन) यावत्। ये तु मत्स्वरूपमभेदेन (?N -- स्वरूपभेदे (दं) न विदुः? ते देवभूतपितृयागादिनाऽपि मामेव यजन्ते (N यजन्ति)। ते च मद्याजिनो मामेव गच्छन्ति (N यजन्ति) इत्युपसंहरिष्यति।ननु द्रव्यत्यागार्थमुद्दिष्टा देवता इत्युच्यते। तत् कथमनुद्दिश्यस्वात्मतत्त्वस्य याज्यत्वम् आदित्यः प्रायणीयश्चरुः इति विधिशेषभूतदेवता उद्देशात्मकविध्यन्तरभावितो (?N प्रभावितो) ह्यसौ उद्देशः (श्यः)। न च स्वात्मविषयो (S??N omit विषयो) विधिरस्ति इत्यभिप्रायेणाह -- अविधिपूर्वकं मामिति। स्वात्मव्यतिरिक्तायां देवतायामस्ति अपेक्ष्यो विधिः? अप्राप्तप्रापणरूपत्वात्। स्वात्मा तु परमेश्वरो न विधिपूर्वकः? विधिपरिप्रापितत्त्वाभावात् (S??N -- परिप्राप्यत्वाभावात्)। न हि तदनुद्देशेन किञ्चित्प्रवर्तते। तेन विधिपरिप्रापितेन्द्रादिदेवतोद्देशेषु सर्वेषु स (S omits सः) स्वात्मा विश्वावभासनस्वभावः तदुद्देश्यदेवतावभासभित्ति (?N substitutes -- भित्ति with मिति -- ) स्थानीयतयैव अहमहमिकया सततावभासमानः स्रक्सूत्रकल्पः सततोद्दिष्टः इति युक्तिसिद्धमेतत्? मामेव यजन्ति अविधिपूर्वकत्वात् [इति]। मुख्यभूतमत्प्राप्तिफलस्य तान्प्रति कर्त्रभिप्रायत्वं नास्ति? अपि तु परिमितदक्षिणास्थानीयेन्द्रादिपद ( -- येन्द्रपदातिमात्र N येन्द्रपदादि K (n) -- इन्द्रादिपदमात्र -- ) -- मात्रप्राप्तेरेव (? K (n) प्राप्तय एव N प्राप्त एव) याजकवच्चरितार्थत्वमेषाम् इति प्रथयितुं परस्मैपदम्। यदुक्तं मयैव -- वेदान् वेद न वेद शाम्भवपदं दूयेत निर्वेदवान् स्वर्गार्थी यजमानतां प्रतिजहज्जातो यजन् याजकः।सर्वाः कर्मरसप्रवाहविसराः (K प्रसराः) संवित्स्रवन्त्योऽखिलाः स्त्वामा (स्वात्मा) नन्दमहाम्बुधिं विदधते नाप्राप्य पूर्णां, स्थितिम्।।इतिएवं य उक्तक्रमेण वेत्ति तस्येन्द्रादिदेवतायागोऽपि परमेश्वरयाग इति।
।।9.24।।प्रभुः एव च तत्र तत्र फलप्रदाता च अहम् एव इत्यर्थः।अहो महद् इदं वैचित्र्यं यद् एकस्मिन् एव कर्मणि वर्तमानाः संकल्पमात्रभेदेन केचिद् अत्यल्पफलभागिनः,च्यवनस्वभावाः च भवन्ति? केचन अनवधिकातिशयानन्दपरमपुरुषप्राप्तिरूपफलभागिनः अपुनरावर्त्तिनः च भवन्ति? इति आह --
।।9.24।।ननु वस्वादित्येन्द्रादिज्ञानपूर्वकमेव तद्भक्तास्तद्याजिनो भवन्तीति कथमविधिपूर्वकं तेषां यजनमिति शङ्कते -- कस्मादिति। देवतान्तरयाजिनां यजनमविधिपूर्वकमित्यत्र हेत्वर्थत्वेन श्लोकमुत्थापयति -- उच्यत इति। सर्वेषां द्विविधानां यज्ञानां वस्वादिदेवतात्वेनाहमेव भोक्ता स्वेनान्तर्यामिरूपेण प्रभुश्चाहमेवेति प्रसिद्धमेतदिति हिशब्दः। प्रभुरेव चेत्युक्तं विवृणोति -- मत्स्वामिको हीति। तत्र पूर्वाध्यायगतवाक्यं प्रमाणयति -- अधियज्ञोऽहमिति। तथापि देवतान्तरयाजिनां यजनमविधिपूर्वकमिति कुतः सिद्धं तत्राह -- तथेति। ममैव यज्ञेषु भोक्तृत्वे प्रभुत्वे च सतीति यावत्। तयोर्भोक्तृप्रभ्वोर्भावस्तत्त्वं तेन भोक्तृत्वेन प्रभुत्वेन च मां यथावद्यतो न जानन्त्यतो भोक्तृत्वादिना ममाज्ञानान्मय्यनर्पितकर्माणश्चयवन्ते कर्मफलादित्याह -- अतश्चेति।
।।9.24।।एतदेव विवृणोति -- अहं हीति। मदङ्गभूतेषु मे शरीरतयाऽवस्थितेषु तेष्विन्द्रादिदेवेष्वात्मतयाऽवस्थितोऽहमेव सर्वयज्ञानां भोक्ता प्रभुः फलदाता। चकाराद्यज्ञादिरूपस्तत्साधनादिरूपश्च। न हि स्वहस्तादिकृतं नात्मकृतं भवतीति केनाप्युपलभ्यते पत्रादिनिष्ठकृतिर्न मूलभूतकृतंति च परं तथा तत्त्वेन मूलत्वेन तु मां नाभिजानन्ति कर्मजडाः अतोऽन्तवत्फलभोगादपि पुनश्चयवन्ति। स्वर्गादितः अन्यभावाच्च्यवन्ति पुनः पतन्तीत्यर्थ। ततो भावभेद एव फलभेदे हेतुरुक्तः।
।।9.24।।अविधिपूर्वकत्वं विवृण्वन्फलप्रच्युतिममीषामाह -- अहं भगवान्वासुदेव एव सर्वेषां यज्ञानां श्रौतानां स्मार्तानां च तत्तद्देवतारूपेण भोक्ता च स्वेनान्तर्यामिरूपेण अधियज्ञत्वात्प्रभुश्च फलदाता चेति प्रसिद्धमेतत्। देवतान्तरयाजिनस्तु मामीदृशं तत्त्वेन भोक्तृत्वेन प्रभुत्वेन च भगवान्वासुदेव एव वस्वादिरूपेण यज्ञानां भोक्ता स्वेन रूपेण च फलदाता न तदन्योऽस्ति कश्चिदाराध्य इत्येवंरूपेण न जानन्ति। अतो मत्स्वरूपापरिज्ञानान्महतायासेनेष्ट्वापि मय्यर्पितकर्माणस्तत्तद्देवलोकं धूमादिमार्गेण गत्वा तद्भोगान्ते च्यवन्ति प्रच्यवन्ते। तद्भोगजनककर्मक्षयात्तद्देहादिवियुक्ताः पुनर्देहग्रहणाय मनुष्यलोकं प्रत्यावर्तन्ते। ये तु तत्तद्देवतासु भगवन्तमेव सर्वान्तर्यामिणं पश्यन्तो यजन्ते ते भगवदर्पितकर्माणस्तद्विद्यासहितकर्मवशादर्चिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकं गत्वा तत्रोत्पन्नसम्यग्दर्शनास्तद्भोगान्ते मुच्यन्त इति विवेकः।
।।9.24।।एतदेव विवृणोति -- अहं हीति। सर्वेषां यज्ञानां तत्तद्देवतारूपेणाहमेव भोक्ता प्रभुश्च स्वामी फलदातापि चाहमेवेत्यर्थः। एवंभूतं मां ते तत्त्वेन यथावन्नाभिजानन्ति अतश्च्यवन्ति प्रच्यवन्ते पुनरावर्तन्ते। येतु सर्वदेवतासु मामेवान्तर्यामिणं पश्यन्तो यजन्ति ते तु नावर्तन्ते।
।।9.24।।अविधिपूर्वकत्वविवरणरूपतां? तथाविधस्यात्यन्तनैष्फल्यशङ्कापरिहाररूपतां चअहं हि इति श्लोकस्य दर्शयतिअत इति। सर्वशब्देनेन्द्राद्युद्देशेन क्रियमाणानामित्यभिप्रेतम्।आराध्यश्चेति भोक्तृशब्दाभिप्रेतोक्तिः।च्यवन्ति इत्यनेन कुतश्चिदिति सिद्धम्? तच्च तत्तत्कर्मसाध्यमस्थिरं फलमेवेतियान्ति इत्यनन्तरश्लोकवशाद्वाक्यान्तराच्च लब्धम् तदाहपरिमितेत्यादिना। फलस्य परिमितत्वं देशतः कालतः स्वरूपतश्च। अतस्तद्भागिनां च्यवनस्वभावता। प्रभुशब्दस्यात्रगतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी [9।18] इत्यादिष्विव शास्तृत्वादिविवक्षाव्युदासाय योग्यमर्थमाहतत्रतत्रेति। सूत्रं च -- फलमत उपपत्तेः [ब्र.सू.3।2।38] इति। यथेन्द्राद्याराधनतया प्रयोगेऽपि तत्रतत्र फलप्रदोऽहम्? न तथा मदाराधनत्वेऽन्यः फलप्रद इत्येवकारार्थः।
।।9.24।।विधिहीनरूपमाह -- अहमिति। हि निश्चयेन सर्वयज्ञानां भोक्ता तदधिष्ठातृदेवानां मदंशत्वात्तद्रूपेण अहं भोक्ता। चकारेण तद्रूपोऽपि। प्रभुरेव च? फलदाता चेत्यर्थः। एवकारेण৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. द्वितीयचकारेण च सर्वप्रभुत्वेन भोक्तृत्वेऽपि मदेकांशप्रीणनमेव भवति? न तु सर्वप्रभुमत्प्रीतिरिति ज्ञापितम्। एतादृशं मां तु पुनस्तत्त्वेन मूलरूपेण न अभितः सर्वप्रकारेण जानन्तियावान् यश्चास्मि (तत्त्वतः) यादृशः [18।55] इति। अतस्ते च्यवन्ति पर्यावर्तन्ते। मत्तो वा च्यवन्ति भ्रश्यन्ति। अत्रायं भावः -- भगवदंशदेवताभजनत्वेन यज्ञादिना वा यत्फलं भवति तन्महाप्रभुभजनेन भवतिमूलनिषेकः शाखायामपि इति न्यायेन प्रभुभजने तेऽपि प्रसीदन्ति? तद्भजने त एव प्रसीदन्ति तदंशप्राकट्य च भवेत्। अत एव युधिष्ठिरेण श्रीभागवतेक्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः। यक्ष्ये विभूतीर्भवतस्तत्सम्पादय नः प्रभो [10।72।3] इति विज्ञापितम्। तेन भगवदिच्छया भगवद्भजनं कुर्वता तदिच्छां ज्ञात्वा तदंशप्राकट्यं चेत्तदा तद्रीत्यैव৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. कार्यमन्यथा न कार्यमेतदज्ञानात्तत्त्वज्ञानाभावः।
।।9.24।।हि यतः सर्वयज्ञानामहमेव सर्वदेवतारूपेण भोक्ता प्रभुः फलदाता च। एवं सति ते मां प्रत्यगभिन्नं तत्त्वेन याथातथ्येन न जानन्ति अतश्च्यवन्ति ज्ञाननिष्ठामलब्ध्वा संसारगर्ते पतन्ति।
।।9.24।।एतदेव स्फोरयति -- अहमिति। सर्वयज्ञानां श्रौतानां स्मार्तानां च देवतारुपेण भोक्तन्तर्यामिरुपेण फलप्रदातृरुपेण प्रभूरेव चाहं हि प्रसिद्धमेतत्। तथा चैतादृशं मा यतस्तत्त्वेन ये नाभिजानन्तिं अतोऽविथोपूर्वकमिष्ट्वा यागफलभोगान्ते च्यवन्ति ते मर्त्यलोकं विशन्ति।
9.24 अहम् I? हि verily? सर्वयज्ञानाम् of all sacrifices? भोक्ता enjoyer? च and? प्रभुः Lord? एव alone? च and? न not? तु but? माम् Me? अभिजानन्ति know? तत्त्वेन in essence (or in reality)? अतः hence? च्यवन्ति fall? ते they.Commentary They do not know that I? the Supreme Self? am the enjoyer of all sacrifices enjoined in the Vedas and the Smritis (the codes of right conduct) and the Lord of all sacrifices. As I am the inner Ruler of this world I am the Lord of all sacrifices (Vide chapter VIII. 4 -- Adhiyajnohamevatra I am the presiding deity of the sacrifice). I am at the beginning and at the end of every sacrifice and yet these people worship other gods. Therefore they worship in ignorance. As they worhsip other gods without recognising Me? and as they have not consecrated their actions to Me? they return to this mortal world after their merits are exhausted from the plane to which they had attained as the result of their sacrifices.Those who are devoted to other gods and who worship Me in ignorance (Avidhipurvakam) also get the fruit of sacrifice. How (Cf.V.29XV.9)
9.24 (For) I alone am the enjoyer and also the Lord of all sacrifices; but they do not know Me in essence (in reality), and hence they fall (return to this mortal world).
9.24 I am the willing recipient of sacrifice, and I am its true Lord. But these do not know me in truth, and so they sink back.
9.24 I indeed am the enjoyer as also the Lord of all sacrifices; but they do not know Me in reality. Therefore they fall.
9.24 As the Self of the deities (of the sacrifices), aham, I; hi, indeed; am the bhokta, enjoyer; ca eva, as also; the prabhuh, Lord; [The Lord: 'I being the indwelling Ruler of all.'] sarva-yajnanam, of all sacrifices enjoined by the Vedas and the Smrtis. A sacrifice is verily presided over by Me, for it has been said earlier, 'I Myself am the entity (called Visnu) that exists in the sacrifice in this body' (8.4). Tu, but; na abhi-jananti, they do not know; mam, Me as such; tattvena, in reality. And atah, therefore, by worshipping ignorantly; te, they; cyavanti, fall from the result of the sacrifice. ['Although they perform sacrifices with great diligence, still just because they do not know Me real nature and do not offer the fruits of their sacrifices to Me, they proceed to the worlds of the respective deities through the Southern Path (beginning with smoke; see 8.25). Then, after the exhaustion of the results of those sacrifices and the falling of the respective bodies (assumed in those worlds) they return to the human world for rembodiment.'-M.S. (See also 9.20-1.)] The result of a sacrifice is inevitable even for those who worship ignorantly out of their devotion to other deities. How?
9.24. Because, I am the enjoyer as well as the lord of all sacrifices. But they do not recognise Me correctly and hence they move away [from Me].
9.24 See Comment under 9.26
9.24 I am 'the only Lord' - the meaning is that I alone am the bestower of rewards everywhere. How wonderful is this, that though devoting themselves to the same kind of action, on account of the difference in intention some partake of a very small reward with the likelihood of fall, while some others partake of a reward in the form of attainment of the Supreme Person which is unalloyed, limitless, and incomparable! Sri Krsna explains this:
9.24 For, I am the only enjoyer and the only Lord of all sacrifices. They do not recognise Me in My true nature; hence they fall.
।।9.24।।उनका पूजन करना अविधिपूर्वक कैसे है सो कहते हैं कि --, श्रौत और स्मार्त समस्त यज्ञोंका देवतारूपसे मैं ही भोक्ता हूँ और मैं ही स्वामी हूँ। मैं ही सब यज्ञोंका स्वामी हूँ यह बात अधियज्ञोऽहमेवात्र इस श्लोकमें भी कही गयी है। परंतु वे अज्ञानी इस प्रकार यथार्थ तत्त्वसे मुझे नहीं जानते। अतः अविधिपूर्वक पूजन करके वे यज्ञके असली फलसे गिर जाते हैं अर्थात् उनका पतन हो जाता है।
।।9.24।। -- अहं हि सर्वयज्ञानां श्रौतानां स्मार्तानां च सर्वेषां यज्ञानां देवतात्मत्वेन भोक्ता च प्रभुः एव च। मत्स्वामिको हि यज्ञः? अधियज्ञोऽहमेवात्र (गीता 8।4) इति हि उक्तम्। तथा न तु माम् अभिजानन्ति तत्त्वेन यथावत्। अतश्च अविधिपूर्वकम् इष्ट्वा यागफलात् च्यवन्ति प्रच्यवन्ते ते।।येऽपि अन्यदेवताभक्तिमत्त्वेन अविधिपूर्वकं यजन्ते? तेषामपि यागफलं अवश्यंभावि। कथम् --,
।।9.24।।अहं क्रतुः [9।16] इत्यादिनोक्तत्वादहं हीति पुनरुक्तिरित्यत आह -- कारणमिति। त्रैविद्यादिकृतानां यज्ञानां भगवांश्चेद्भोक्ता कथं तर्ह्यविधिपूर्वकत्वं इति शङ्कायामिति शेषः।
।।9.24।।कारणमाह विधिपूर्वकत्वे -- अहं हीति।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।9.24।।
অহং হি সর্বযজ্ঞানাং ভোক্তা চ প্রভুরেব চ৷ ন তু মামভিজানন্তি তত্ত্বেনাতশ্চ্যবন্তি তে৷৷9.24৷৷
অহং হি সর্বযজ্ঞানাং ভোক্তা চ প্রভুরেব চ৷ ন তু মামভিজানন্তি তত্ত্বেনাতশ্চ্যবন্তি তে৷৷9.24৷৷
અહં હિ સર્વયજ્ઞાનાં ભોક્તા ચ પ્રભુરેવ ચ। ન તુ મામભિજાનન્તિ તત્ત્વેનાતશ્ચ્યવન્તિ તે।।9.24।।
ਅਹਂ ਹਿ ਸਰ੍ਵਯਜ੍ਞਾਨਾਂ ਭੋਕ੍ਤਾ ਚ ਪ੍ਰਭੁਰੇਵ ਚ। ਨ ਤੁ ਮਾਮਭਿਜਾਨਨ੍ਤਿ ਤਤ੍ਤ੍ਵੇਨਾਤਸ਼੍ਚ੍ਯਵਨ੍ਤਿ ਤੇ।।9.24।।
ಅಹಂ ಹಿ ಸರ್ವಯಜ್ಞಾನಾಂ ಭೋಕ್ತಾ ಚ ಪ್ರಭುರೇವ ಚ. ನ ತು ಮಾಮಭಿಜಾನನ್ತಿ ತತ್ತ್ವೇನಾತಶ್ಚ್ಯವನ್ತಿ ತೇ৷৷9.24৷৷
അഹം ഹി സര്വയജ്ഞാനാം ഭോക്താ ച പ്രഭുരേവ ച. ന തു മാമഭിജാനന്തി തത്ത്വേനാതശ്ച്യവന്തി തേ৷৷9.24৷৷
ଅହଂ ହି ସର୍ବଯଜ୍ଞାନାଂ ଭୋକ୍ତା ଚ ପ୍ରଭୁରେବ ଚ| ନ ତୁ ମାମଭିଜାନନ୍ତି ତତ୍ତ୍ବେନାତଶ୍ଚ୍ଯବନ୍ତି ତେ||9.24||
ahaṅ hi sarvayajñānāṅ bhōktā ca prabhurēva ca. na tu māmabhijānanti tattvēnātaścyavanti tē৷৷9.24৷৷
அஹஂ ஹி ஸர்வயஜ்ஞாநாஂ போக்தா ச ப்ரபுரேவ ச. ந து மாமபிஜாநந்தி தத்த்வேநாதஷ்ச்யவந்தி தே৷৷9.24৷৷
అహం హి సర్వయజ్ఞానాం భోక్తా చ ప్రభురేవ చ. న తు మామభిజానన్తి తత్త్వేనాతశ్చ్యవన్తి తే৷৷9.24৷৷
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।।9.25।। (सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोड़नेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।
।।9.25।। देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरपूजक पितरों को जाते हैं, भूतों का यजन करने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मुझे पूजने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।।
।।9.25।। जीवन का यह नियम है कि जैसे तुम विचार करोगे वैसे तुम बनोगे। जैसी वृत्ति वैसा व्यक्ति। समयसमय पर किये गये विचारों के अनुसार व्यक्ति के भावी चरित्र का रेखाचित्र अन्तकरण में खिंच जाता है। यह एक ऐसा तथ्य है? जिसकी सत्यता का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में ही हो सकता है। मनोविज्ञान के इस नियम को आत्मविकास के आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रयुक्त करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं? देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं इत्यादि। देवता? पितर? भूतों के पूजक लोग जब दीर्घकाल तक एकाग्रचित्त से अपने इष्ट की पूजा और भक्ति करते हैं? तब उसके परिणामस्वरूप उनकी इच्छायें पूर्ण होती हैं।देवता ज्ञानेन्द्रियों के अधिष्ठाता हैं। हमें जगत् का अनुभव ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ही होता है। यहाँ देवताओं से आशय इन्द्रियों के द्वारा अनुभूत सम्पूर्ण भौतिक जगत् से है। जो लोग निरन्तर बाह्य जगत् के सुख और यश की कामना एवं तत्प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं? वे अपने इच्छित अनुभवों के विषय और क्षेत्र को प्राप्त होते है।पितृव्रता शब्द का अर्थ है? वे लोग जो अपने पितरों की सांस्कृतिक शुद्धता और परम्परा के प्रति जागरूक हैं? तथा जो उन्हीं आदर्शों के अनुरूप जीवन जीने का उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार जीने का सतत प्रयत्न करता है? वह? फलत? इस शुद्धता एवं पूर्णता के अत्युत्तम जीवन की सुन्दरता और आभा प्राप्त करता है।हमारी भारत भूमि के प्राचीन ऋषियों ने इस तथ्य की कभी उपेक्षा नहीं की कि किसी भी समाज में? आध्यात्मिक आदर्शों के अतिरिक्त? वैज्ञानिक अन्वेषण तथा प्रकृति के गर्भ में निहित अनेक नियमों एवं वस्तुओं का अविष्कार भी होता रहता है। भौतिक विज्ञानों के क्षेत्र में होने वाले अन्वेषण और अनुसंधान मानव मन की जिज्ञासा का ही एक अंग हैं। अत भूतों के पूजक से तात्पर्य उन वैज्ञानिकों से है? जो प्रकृति का निरीक्षण करते हैं और निरीक्षित नियमों का वर्गीकरण कर उस ज्ञान को सुव्यवस्थित रूप देते हैं। आधुनिक युग में प्रकृति? वस्तु? व्यक्ति एवं प्राणियों के अध्ययन का ज्ञान जिन शाखाओं के अन्तर्गत किया जाता है? वे भौतिकशास्त्र? रसायनशास्त्र? यान्त्रिकी? कृषि? राजनीति? समाजशास्त्र? भूगोल? इतिहास? भूगर्भशास्त्र आदि हैं। इन शास्त्रों में भी अनेक शाखायें होती हैं? जिनका विशेष रूप से अध्ययन करके लोग उस शाखा के विशेषज्ञ बनते हैं। अथर्ववेद के एक बहुत बड़े भाग में उस काल के ऋषियों को अवगत प्रकृति के स्वभाव एवं व्यवहार के सिद्धांत दिये गये हैं। भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ कथित मनोविज्ञान का नियम मनुष्य के सभी कर्मों के क्षेत्रों में लागू होता है। वह नियम है किसी भी क्षेत्र में मनुष्य द्वारा किये गये प्रयत्नों के समान अनुपात में उसे सफलता प्राप्त होती है।इस प्रकार? यदि देवता? पितर और भूतों की पूजा करने से अर्थात् उनका निरन्तर चिन्तन करने से क्रमश देवता? पैतृक परम्परा और प्रकृति के रहस्यों को जानकर भौतिक जगत् में सफलता प्राप्त होती है? तो उसी सिद्धांत के अनुसार हमें वचन दिया गया है कि? मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। एकाग्र चित्त से आत्मस्वरूप पर सतत दीर्घकाल तक ध्यान करने पर साधक अपने सनातन? अव्यय आत्मस्वरूप का सफलतापूर्वक साक्षात् अनुभव कर सकता है। सतत आत्मानुसंधान के फलस्वरूप अन्त में जीव की आत्मस्वरूप में ही परिणति को वेदान्त के प्रकरण ग्रन्थों में भ्रमरकीट न्याय द्वारा दर्शाया गया है।गीता का प्रयोजन और प्रयत्न ज्ञान के साथ विज्ञान अर्थात् अनुभव को भी प्रदान करता है। इस श्लोक का प्रयोजन साधक को यह विश्वास दिलाना है कि यहाँ कथित प्रारम्भिक साधना के द्वारा परम पुरुषार्थ की भी प्राप्ति हो सकती है। जिस प्रकार समर्पित होकर भौतिक जगत् में कार्य करने पर भौतिक सफलता मिलती है? वही नियम आन्तरिक जगत् के सम्बन्ध में भी सत्य प्रमाणित होता है। इसका पर्यवसान आध्यात्मिक साक्षरता में होता है। सतत ध्यान अवश्य ही फलदायक होगा। भगवान् के इस आश्वासन का तर्कसंगत कारण इस श्लोक में दिया गया है।क्या भक्ति पूर्वक की गई पूजा मात्र से ऐसे परमार्थ की प्राप्ति हो सकती है क्या हमको वेदोक्त कर्मकाण्ड के अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है? जिसके पालन के लिए प्राय वेदों में आग्रह किया गया है इस पर भगवान् कहते हैं --
।।9.25।। व्याख्या--[पूर्वश्लोकमें भगवान्ने यह बताया कि मैं ही सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और सम्पूर्ण संसारका मालिक हूँ, परन्तु जो मनुष्य मेरेको भोक्ता और मालिक न मानकर स्वयं भोक्ता और मालिक बन जाते हैं, उनका पतन हो जाता है। अब इस श्लोकमें उनके पतनका विवेचन करते हैं।]
।।9.23 -- 9.25।।येऽपीत्यादि प्रयतात्मनः इत्यन्तम्। येऽपि नामधेयान्तरैरुपासते तेऽपि मामेवोपासते। न हि ब्रह्मव्यतिरेकि किञ्चिदुपास्यमस्ति। किन्तु अविधिना इति विशेषः। अविधिः अन्यो विधिः। ,नानाप्रकारैर्विधभिरहमेव परब्रह्मसत्तास्वभावो याज्य इति।न तु यथा अन्यैर्दर्शनान्तरदूषणसमुपार्जितमहापातकम (S? omit पातक -- ) -- लीमसैर्व्याख्यातम् अविधिना? दुष्टविधिना इति। एवं हि सति मामेव यजन्ते? सर्वयज्ञानाञ्चाहमेव भोक्ता इति दृश्यमानमेतदसमञ्जसीभवेत् इत्यलं कल्मषकलिलैस्साकं संलापेन।अस्मद्गुरवस्तु निरूपयन्ति -- अन्या स्वात्मव्यतिरिक्ता भेदवादनयेन ब्रह्मस्वभावहीनैव काचिद्देवता इति गृहीत्वा तामेव [ये] यजन्ते तेऽपि वस्तुतो मामेव स्वात्मरूपं यजन्ते? किं तु अविधिना दुष्टेन विधिना भेदग्रहणरूपेण,(S? भेदग्रहरूपेण) इति।अत एवाह -- न तु मां स्वात्मानं तत्त्वेन देवतारूपतया भोक्तृत्वेन जानन्ति? अतश्चलन्ति ते,(S? ? N च्यवन्ते) मद्रूपात्। किम् देवव्रतत्वेन देवान् यान्ति इत्यादि। एतदेव चलनमिति,(S??N च्यवन) यावत्। ये तु मत्स्वरूपमभेदेन (?N -- स्वरूपभेदे (दं) न विदुः? ते देवभूतपितृयागादिनाऽपि मामेव यजन्ते (N यजन्ति)। ते च मद्याजिनो मामेव गच्छन्ति (N यजन्ति) इत्युपसंहरिष्यति।ननु द्रव्यत्यागार्थमुद्दिष्टा देवता इत्युच्यते। तत् कथमनुद्दिश्यस्वात्मतत्त्वस्य याज्यत्वम् आदित्यः प्रायणीयश्चरुः इति विधिशेषभूतदेवता उद्देशात्मकविध्यन्तरभावितो (?N प्रभावितो) ह्यसौ उद्देशः (श्यः)। न च स्वात्मविषयो (S??N omit विषयो) विधिरस्ति इत्यभिप्रायेणाह -- अविधिपूर्वकं मामिति। स्वात्मव्यतिरिक्तायां देवतायामस्ति अपेक्ष्यो विधिः? अप्राप्तप्रापणरूपत्वात्। स्वात्मा तु परमेश्वरो न विधिपूर्वकः? विधिपरिप्रापितत्त्वाभावात् (S??N -- परिप्राप्यत्वाभावात्)। न हि तदनुद्देशेन किञ्चित्प्रवर्तते। तेन विधिपरिप्रापितेन्द्रादिदेवतोद्देशेषु सर्वेषु स (S omits सः) स्वात्मा विश्वावभासनस्वभावः तदुद्देश्यदेवतावभासभित्ति (?N substitutes -- भित्ति with मिति -- ) स्थानीयतयैव अहमहमिकया सततावभासमानः स्रक्सूत्रकल्पः सततोद्दिष्टः इति युक्तिसिद्धमेतत्? मामेव यजन्ति अविधिपूर्वकत्वात् [इति]। मुख्यभूतमत्प्राप्तिफलस्य तान्प्रति कर्त्रभिप्रायत्वं नास्ति? अपि तु परिमितदक्षिणास्थानीयेन्द्रादिपद ( -- येन्द्रपदातिमात्र N येन्द्रपदादि K (n) -- इन्द्रादिपदमात्र -- ) -- मात्रप्राप्तेरेव (? K (n) प्राप्तय एव N प्राप्त एव) याजकवच्चरितार्थत्वमेषाम् इति प्रथयितुं परस्मैपदम्। यदुक्तं मयैव -- वेदान् वेद न वेद शाम्भवपदं दूयेत निर्वेदवान् स्वर्गार्थी यजमानतां प्रतिजहज्जातो यजन् याजकः।सर्वाः कर्मरसप्रवाहविसराः (K प्रसराः) संवित्स्रवन्त्योऽखिलाः स्त्वामा (स्वात्मा) नन्दमहाम्बुधिं विदधते नाप्राप्य पूर्णां, स्थितिम्।।इतिएवं य उक्तक्रमेण वेत्ति तस्येन्द्रादिदेवतायागोऽपि परमेश्वरयाग इति।
।।9.25।।व्रतशब्दः संकल्पवाची? देवव्रताः दर्शपौर्णमासादिभिः कर्मभिः इन्द्रादीन् यजामः? इति इन्द्रादियजनसंकल्पाः? ये ते इन्द्रादिदेवान् यान्ति।ये च पितृयज्ञादिभिः पितृ़न् यजामः? इति पितृयजनसंकल्पाः? ते पितृ़न् यान्ति।ये च यक्षरक्षः पिशाचादीनि भूतानि यजामः? इति भूतयजनसंकल्पाः? ते भूतानि यान्ति।ये तु तैः एव यज्ञैः देवपितृभूतशरीरकं परमात्मानं भगवन्तं वासुदेवं यजामः इति मां यजन्ते ते मद्याजिनः माम् एव यान्ति।देवादिव्रता देवादीन् प्राप्य तैः सह परिमितं भोगं भुक्त्वा तेषां विनाशकाले तैः सह विनष्टा भवन्ति मद्याजिनः तु माम् अनादिनिधनं सर्वज्ञं सत्यसंकल्पं अनवधिकातिशयासंख्येयकल्याणगुणगणमहोदधिम् अनवधिकातिशयानन्दं प्राप्य न पुन निवर्तन्ते इत्यर्थः।मद्याजिनाम् अयम् अपि विशेषः अस्ति इति आह --
।।9.25।।यद्यन्यदेवताभक्ता भगवत्तत्त्वाज्ञानात्कर्मफलाच्च्यवन्ते तर्हि तेषां देवतान्तरयजनमकिंचित्करमित्याशङ्क्याह -- येऽपीति। देवतान्तरयाजिनामनावृत्तिफलाभावेऽपि तत्तद्देवतायागानुरूपफलप्राप्तिध्रौव्यान्न तदकिंचित्करमित्यर्थः। देवतान्तरयाजिनामावश्यकं तत्फलमाशङ्कापूर्वकमुदाहरति -- कथमित्यादिना। नियमो बल्युपहारप्रदक्षिणप्रह्वीभावादिरित्यर्थः। देवतान्तराराधनस्यान्तवत्फलमुक्त्वा भगवदाराधनस्यानन्तफलत्वमाह -- यान्तीति। भगवदाराधनस्यानन्तफलत्वे देवतान्तराराधनं त्यक्त्वा भगवदाराधनमेव युक्तमायाससाभ्यात्फलातिरेकाच्चेत्याशङ्क्याह -- समानेऽपीति। अज्ञानाधीनत्वेन देवतान्तराराधनवतां फलतो न्यूनतां दर्शयति -- तेनेति।
।।9.25।।तथाहि यान्ति देवव्रता इति। व्रतः सङ्कल्पः मानसं कर्मेति यावत्? स एव भावपदवाच्यः। दर्शपौर्णमासादिभिः कर्मभिरिन्द्रादीन् देवान् यजाम इति कृतसङ्कल्पाः देवान् यान्ति तत्तत्सायुज्यं गच्छन्ति। एवं सङ्कल्पः सर्वत्र। पितृव्रता राजसभावाः। भूतेज्यास्तामसभाववन्तः भूतानि यक्षरक्षःपिशाचादिकाः। तैरेव यज्ञैः ये देवपितृभूताधिष्ठानकं परमात्मानं श्रीवासुदेवं यजाम इति सङ्कल्पेन विशुद्धसत्त्वभावा निर्गुणभावाश्च मां यजन्ते ते मत्सायुज्यं गच्छन्तीत्यर्थः।
।।9.25।।देवतान्तरयाजिनामनावृत्तिफलाभावेऽपि तत्तद्देवतायागानुरूपक्षुद्रफलावाप्तिर्ध्रुवेति वदन्भगवद्याजिनां तेभ्यो वैलक्षण्यमाह -- अविधिपूर्वकयाजिनो हि त्रिविधाः अन्तःकरणोपाधिगुणत्रयभेदात्। तत्र सात्त्विका देवव्रताः? देवा वसुरुद्रादित्यादयस्तत्संबन्धिव्रतं बल्युपहारप्रदक्षिणप्रह्वीभावादिरूपं पूजनं येषां ते तानेव देवान्यान्ति।तं यथायथोपासते तदेव भवति इति श्रुतेः। राजसास्तु पितृव्रताः श्राद्धादिक्रियाभिरग्निष्वात्तादीनां पितृ़णामाराधकास्तानेव पितृ़न्यान्ति। तथा तामसा भूतेज्या यक्षरक्षोविनायकमातृगणादीनां भूतानां पूजकास्तान्येव भूतानि यान्ति। अत्र देवपितृभूतशब्दानां तत्संबन्धिलक्षणयोष्ट्रमुखन्यायेन समासः। मध्यमपदलोपीसमासानङ्गीकारात्प्रकृतिविकृतिभावाभावेन च तादर्थ्यचतुर्थीसमासायोगात्। अन्ते च पूजावाचीज्याशब्दप्रयोगात्पूर्वपर्यायद्वयेऽपि व्रतशब्दः पूजापर एव। एवं देवतान्तराराधनस्य तत्तद्देवतारूपत्वमन्तवत्फलमुक्त्वा भगवदाराधनस्य भगवद्रूपत्वमनन्तं फलमाह -- मां भगवन्तं यष्टुं पूजयितुं शीलं येषां ते मद्याजिनः सर्वासु देवतासु भगवद्भावदर्शिनो भगवदाराधनपरायणा मां भगवन्तमेव यान्ति। समानेऽप्यज्ञानात् भगवन्तमन्तर्याणिमनन्तफलदमनाराध्य देवतान्तरमाराध्यान्तवत्फलं यान्तीत्यहो दुर्दैववैभवमज्ञानमित्यभिप्रायः।
।।9.25।। तदेवोपपादयति -- यान्तीति। देवेष्विन्द्रादिषु व्रतं नियमो येषां ते अन्तवन्तो देवान्यान्ति अतः पुनरावर्तन्ते। पितृषु व्रतं येषां श्राद्धादिक्रियापराणां ते पितृ़न्यान्ति। भूतेषु विनायकमातृकादिष्विज्या पूजा येषां ते भूतानि यान्ति। मां यष्टुं शीलं येषां ते मद्याजिनस्ते तु मामक्षयं परमानन्दरूपं नारायणं यान्ति।
।।9.25।।एकस्यैव कर्मणः कथं भोगमोक्षविरुद्धफलसाधनत्वं इत्यत्र सङ्कल्पाख्यसहकारिवैचित्र्यात्तदुपपत्तिरिति प्राप्यवैषम्यंयान्ति इति श्लोकेन प्रदर्श्यत इत्यभिप्रायेणाहअहो महदिति। सङ्कल्पभेदाद्विचित्रफलसाधनत्वं ज्योतिष्टोमादिष्वपि सिद्धम्।व्रतशब्दः सङ्कल्पवाचीति अत्र सङ्कल्पविशेषाद्धि फलभेद इति भावः।देवव्रताः इत्यादौ यजनंभूतेज्याः इत्यत्र व्रतं चापेक्षया मेलितम्। भूतशब्दस्यात्र प्राणिमात्रादिपरत्वव्युदासेन राजसतामसयाज्यवर्गप्रदर्शनाययक्षेत्यादिकम्। न देवयजनपितृयजनादिवत् क्रियास्वरूपभेदोऽत्रेति ज्ञापनायतैरेवेत्युक्तम्। वाक्यान्तरविहितदेवयजनाद्यनुवादेन फलविशेषोऽत्र प्रदर्श्यते? न तु ज्योतिष्टोमादिवाक्यवत्फलार्थोपायविधानं क्रियत इति ज्ञापनाय यत्तच्छब्दविन्यासेन व्याख्यातम्। देवेषु व्रतं येषां ते देवव्रताः भूतानुद्दिश्येज्या येषां ते भूतेज्याः। तत्तत्प्राप्यभेदवचनं तत्तत्समानदेशकालसमानभोगत्वार्थमिति दर्शयतिदेवादिव्रता इति।अनादिनिधनमित्यनेन प्राप्यानित्यत्वनिबन्धनायाः पुनरावृत्तेः प्रतिक्षेपःसर्वज्ञमित्यनेन विरोध्यज्ञाननिमित्तायाःसत्यसङ्कल्पमित्यनेन त्वशक्तिमूलाया भगवत्स्वातन्त्र्यशङ्क्तितायाश्च।भक्तान्नावर्तयेयम् इत्यपि सङ्कल्पोऽस्य सत्य इति भावः। स्वरूपतश्च परिमितत्वप्रयुक्तभोगाल्पत्वव्युदासायअनवधिकेत्यादि विशेषणद्वयम्। एतेनान्यवैतृष्ण्यहेतुतया स्वेच्छोपाधिकपुनरावृत्तिव्युदासः।
।।9.25।।ननु त्वदंशाज्ञाने यजनकर्त्तारश्च्यवन्ति? येषां तु त्वदंशज्ञानेन तद्देवयजनकर्तृत्वं तेषां किं फलं इत्यत आह -- यान्तीति। देवव्रताः इन्द्रादिषु मदंशज्ञानेन तद्भूपेषु सनियमाः। देवान् तानेव यान्ति प्राप्नुवन्ति। पितृव्रताः श्राद्धादिविधिभिः पितृयाजकाः पितृ़न् यान्ति प्राप्नुवन्ति। भूतेज्याः विनायकदुर्गादिपूजकाः भूतानि तान्येव यान्ति। अत्रायमर्थः -- तत्तद्देवान् प्राप्य तत्सङ्गेन परम्परया मां प्राप्नुवन्ति। मद्याजिनः कर्मादिभिस्तदाधिदैविकरूपं मद्यजनकर्त्तारोऽपि मां प्राप्नुवन्ति। ते परम्परया मां प्राप्नुवन्ति। एते साक्षादिति विशेषः। अपिशब्देन कर्माङ्गत्वेन भजनेऽपि मुक्त्यात्मकस्वप्राप्तिरूपविशेषो व्यञ्जितः।
।।9.25।।सर्वे भक्ता यथाभजनं प्राप्नुवन्ति स्वाराध्यसांनिध्यमित्याह -- यान्तीति। भूतार्थमिज्या येषां ते भूतेज्याः।
।।9.25।।अविधिपूर्वकं यजतामपि फलमवशयंभावीत्याह -- यान्तीति। देवव्रता देवेषु व्रतं बल्युपहारप्रदक्षिणाप्रह्वीभावादिरुपो नियमो भक्तिश्च येषां ते देवानुपास्यानिन्द्रवस्वादीन् यान्ति गच्छन्तितं यथायथोपासते तदेव भवति इति श्रुतेः। तथा पितृष्वग्निष्वात्तादिषु व्रतं श्राद्धादिक्रियानियमो भक्तिश्च येषां ते पितृ़न्यान्ति। तथा भूतेषु विनायकमातृगणचतुःषष्टियोगिन्यादिषु इज्या पूजा येषां ते भूतयाजका भूतानि यान्ति। तथा मद्यजने मम पूजने शीलं येषां ते मामेव भगवन्तं वासुदेवं यान्ति आयासस्य समानत्वेऽप्यज्ञानान्मद्यजनमनल्पफलदं विहायान्यदेवादियजन्मङगीकुर्वन्ति तेनाल्पफलभाजो भवन्तीत्यहो लोकानां मौढ्यमित्यभिप्रायः।
9.25 यान्ति go? देवव्रताः worshippers of the gods? देवान् to the gods? पितृ़न् to the Pitris or ancestors? यान्ति go? पितृव्रताः worshippers of the Pitris? भूतानि to the Bhutas? यान्ति go? भूतेज्याः the worshippers of the Bhutas? यान्ति go? मद्याजिनः My worshippers? अपि also? माम् to Me.Commentary The worshippers of the manes such as the Agnisvattas who perform Sraaddha and other rites in devotion to their ancestors go to the manes. Those who worship the gods with devotion and vows go to them.Bhutas are elemental beings lower than the gods but higher than human beigns they are the Vinayakas? the hosts of Matris? the four Bhaginis and the like.Those who devote themselves to the gods attain the form of those gods at death. Similar is the fate of those who worship the manes (their own ancestors) or the Bhutas. The fruit of the worship is in accordance with the knowledge? faith? offering and nature of worship of the devotee.Though the exertion is the same? people do not worship Me on account of their ignorance. Conseently they get very little reward.My devotees obtain endless fruit. They do not come back to this mortal world. It is also easy for them to worship Me. How (Cf.VII.23)
9.25 The worshippers of the gods go to them; to the manes go the ancestor-worshippers; to the deities who preside over the elements go their worshippers; but My devotees come to Me.
9.25 The votaries of the lesser Powers go to them; the devotees of spirits go to them; they who worship the Powers of Darkness, to such Powers shall they go; and so, too, those who worship Me shall come to Me.
9.25 Votaries of the gods reach the gods; the votarites of the manes go to the manes; the worshippers of the Beings reach the Beings; and those who worship Me reach Me.
9.25 Deva-vratah, votaries of the gods, those whose religious observances [Making offerings and presents, circumambulation, bowing down, etc.] and devotion are directed to the gods; yanti, reach, go to; devan, the gods. Pitr-vratah, the votaries of the manes, those who are occupied with such rites as obseies etc., who are devoted to the manes; go pitrn, to the manes such as Agnisvatta and others. Bhutejyah, the Beings such as Vinayaka, the group of Sixteen (divine) Mothers, the Four Sisters, and others. And madyajinah, those who worship Me, those who are given to worshipping Me, the devotees of Visnu; reach mam, Me alone. Although the effort (involved) is the same, still owing to ingorance they do not worship Me exclusively. Thery they attain lesser results. This is the meaning. 'Not only do My devotees get the everlasting result in the form of non-return (to this world), but My worship also is easy.' How?
9.25. The votaries of the gods attain the gods; the votaries of the manes attain the manes; performers of sacrifices for the goblins attain the goblins; also the performers of scrifices for Me attain Me.
9.24 See Comment under 9.26
9.25 The term 'Vrata' in the text denotes will, intention or motive. Those who intend to worship gods, like Indra and others with the resolution, 'Let us worship Indra and other gods by ceremonies like the new moon and full moon sacrifices' - such worshippers go to Indra and other gods. Those who intend worshipping manes, resolving 'Let us worship the manes through sacrifices,' - such worshippers go to the manes or others resolving - 'Let us worship the Yaksas, Raksasas,' Pisacas and other evil spirits' - they go to them. But those who, with the same rites of worship, worship Me with the intention, 'Let us worship Lord Vasudeva, the Supreme Self, whose body is constituted of gods, the manes and the evil spirits' - they are My worshippers and they reach Me only. Those who intend worshipping gods etc., attain gods etc. After sharing limited enjoyment with them, they are destroyed with them when the time comes for their destruction. But My worshippers attain Me, who has no beginning or end, who is omniscient, whose will is unfailingly effective, who is a great ocean of innumerable auspicious attributes of unlimited excellence and whose bliss too is of limitless excellence. They do not return to Samsara. Such is the meaning. Sri Krsna continues to say, 'There is also another distinguishing characteristic of My worshippers.'
9.25 Devotees of gods go to the gods. The manes-worshippers go to the manes. The worshippers of Bhutas go to the Bhutas. And those who worship Me come to Me.
।।9.25।।जो भक्त अन्य देवताओंकी भक्ितके रूपमें अविधिपूर्वक भी मेरा पूजन करते हैं उनको भी यज्ञका फल अवश्य मिलता है। कैसे ( सो कहा जाता है -- ) जिनका नियम और भक्ित देवोंके लिये ही है वे देवउपासकगण देवोंको प्राप्त होते हैं। श्राद्ध आदि क्रियाके परायण हुए पितृभक्त अग्निष्वात्तादि पितरोंको पाते हैं। भूतोंकी पूजा करनेवाले विनायक? षोडशमातृकागण और चतुर्भगिनी आदि भूतगणोंको पाते हैं तथा मेरा पूजन करनेवाले वैष्णव भक्त अवश्यमेव मुझे ही पाते हैं। अभिप्राय यह कि समान परिश्रम होनेपर भी वे ( अन्यदेवोपासक ) अज्ञानके कारण केवल मुझ परमेश्वरको ही नहीं भजते इसीसे वे अल्प फलके भागी होते हैं।,
।।9.25।। --,यान्ति गच्छन्ति देवव्रताः देवेषु व्रतं नियमो भक्तिश्च येषां ते देवव्रताः देवान् यान्ति। पितृ़न् अग्निष्वात्तादीन् यान्ति पितृव्रताः श्राद्धादिक्रियापराः पितृभक्ताः। भूतानि विनायकमातृगणचतुर्भगिन्यादीनि यान्ति भूतेज्याः भूतानां पूजकाः। यान्ति मद्याजिनः मद्यजनशीलाः वैष्णवाः मामेव यान्ति। समाने अपि आयासे मामेव न भजन्ते अज्ञानात्? तेन ते अल्पफलभाजः भवन्ति इत्यर्थः।।न केवलं मद्भक्तानाम् अनावृत्तिलक्षणम् अनन्तफलम्? सुखाराधनश्च अहम्। कथम् --,
।।9.25।।ते पुण्यमासाद्य [9।20] इतियोगक्षेमं वहाम्यहम् [9।22] इति च फलभेदस्योक्तत्वात्किं यान्तीत्यादिनेत्यत आह -- फलमिति। तस्यैवायं प्रपञ्च इति भावः।
।।9.25।।फलं विविच्याह -- यान्तीति।
यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।
যান্তি দেবব্রতা দেবান্ পিতৃ়ন্যান্তি পিতৃব্রতাঃ৷ ভূতানি যান্তি ভূতেজ্যা যান্তি মদ্যাজিনোপি মাম্৷৷9.25৷৷
যান্তি দেবব্রতা দেবান্ পিতৃ়ন্যান্তি পিতৃব্রতাঃ৷ ভূতানি যান্তি ভূতেজ্যা যান্তি মদ্যাজিনোপি মাম্৷৷9.25৷৷
યાન્તિ દેવવ્રતા દેવાન્ પિતૃ઼ન્યાન્તિ પિતૃવ્રતાઃ। ભૂતાનિ યાન્તિ ભૂતેજ્યા યાન્તિ મદ્યાજિનોપિ મામ્।।9.25।।
ਯਾਨ੍ਤਿ ਦੇਵਵ੍ਰਤਾ ਦੇਵਾਨ੍ ਪਿਤਰਿ਼ਨ੍ਯਾਨ੍ਤਿ ਪਿਤਰਿਵ੍ਰਤਾ। ਭੂਤਾਨਿ ਯਾਨ੍ਤਿ ਭੂਤੇਜ੍ਯਾ ਯਾਨ੍ਤਿ ਮਦ੍ਯਾਜਿਨੋਪਿ ਮਾਮ੍।।9.25।।
ಯಾನ್ತಿ ದೇವವ್ರತಾ ದೇವಾನ್ ಪಿತೃ್ಯಾನ್ತಿ ಪಿತೃವ್ರತಾಃ. ಭೂತಾನಿ ಯಾನ್ತಿ ಭೂತೇಜ್ಯಾ ಯಾನ್ತಿ ಮದ್ಯಾಜಿನೋಪಿ ಮಾಮ್৷৷9.25৷৷
യാന്തി ദേവവ്രതാ ദേവാന് പിതൃ്യാന്തി പിതൃവ്രതാഃ. ഭൂതാനി യാന്തി ഭൂതേജ്യാ യാന്തി മദ്യാജിനോപി മാമ്৷৷9.25৷৷
ଯାନ୍ତି ଦେବବ୍ରତା ଦେବାନ୍ ପିତୃ଼ନ୍ଯାନ୍ତି ପିତୃବ୍ରତାଃ| ଭୂତାନି ଯାନ୍ତି ଭୂତେଜ୍ଯା ଯାନ୍ତି ମଦ୍ଯାଜିନୋପି ମାମ୍||9.25||
yānti dēvavratā dēvān pitṛnyānti pitṛvratāḥ. bhūtāni yānti bhūtējyā yānti madyājinō.pi mām৷৷9.25৷৷
யாந்தி தேவவ்ரதா தேவாந் பிதரி஀ந்யாந்தி பிதரிவ்ரதாஃ. பூதாநி யாந்தி பூதேஜ்யா யாந்தி மத்யாஜிநோபி மாம்৷৷9.25৷৷
యాన్తి దేవవ్రతా దేవాన్ పితృ్యాన్తి పితృవ్రతాః. భూతాని యాన్తి భూతేజ్యా యాన్తి మద్యాజినోపి మామ్৷৷9.25৷৷
9.26
9
26
।।9.26।।जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य प्राप्त वस्तु) को भक्तिपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मेरेमें तल्लीन हुए अन्तःकरणवाले भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उपहार-(भेंट-) को मैं खा लेता हूँ।
।।9.26।। जो कोई भी भक्त मेरे लिए पत्र, पुष्प, फल, जल आदि भक्ति से अर्पण करता है, उस शुद्ध मन के भक्त का वह भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ (पत्र पुष्पादि) मैं भोगता हूँ अर्थात् स्वीकार करता हूँ।।
।।9.26।। विश्व में कोई ऐसा धर्म नहीं है? जो भक्तों द्वारा ईश्वर को उपहार देने को मान्यता और प्रोत्साहन न देता हो। आधुनिक शिक्षित पुरुष को वास्तव में आश्चर्य होता है कि आखिर अनन्त परमात्मा को अपने दीपक के लिए तेल या एक मोमबत्ती या रहने के लिए मन्दिर या मस्जिद के रूप में एक घर जैसी क्षुद्र वस्तुओं की आवश्यकता क्यों होती है विपरीत धारणाओं के विष से विषाक्त हुई शुष्क व आनन्दहीन बुद्धि के लोग निर्लज्जतापूर्वक इसका भी आग्रह करने लगे हैं कि ईश्वर के इन घरों को अस्पताल? विद्यालय? मानसिक चिकित्सालय और प्रसूति गृहों में परिवर्तित कर देना चाहिए।परन्तु मेरा विश्वास है कि मैं ऐसे समाज को सम्बोधित कर रहा हूँ? जो कमसेकम अभी तो नैतिक पतन के अधोबिन्दु तक नहीं पहुँचा है। जिस समाज में अभी भी भावनापूर्ण स्वस्थ हृदय के विवेकशील लोग रहते हैं? वहाँ निश्चय ही मन्दिरों और पूजा की आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि इन मन्दिरों में उनकी कलाकौशल पूर्ण रचना? कर्मकाण्ड का आडम्बर या स्वर्णाभूषणों की चमक और धन का प्रदर्शन उनकी सफलता के मूल कारण नहीं हैं। यहाँ तक कि प्रतिदिन वहाँ आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या पर भी उनकी सफलता निर्भर नहीं करती।इस श्लोक की प्रत्यक्ष भाषा और शैली ही यह स्पष्ट करती है कि विश्वपति भगवान् को इन भौतिक वस्तुओं का कोई मूल्य और महत्व नहीं है। वे अपने भक्त का वह प्रेम और भक्ति स्वीकार करते हैं जिससे प्रेरित होकर वह अल्प उपहार भगवान् को अर्पण करता है फिर अर्पित की हुई वस्तु चाहे पत्र? पुष्प? फल? या स्वर्ण मन्दिर हो? उसका महत्त्व नहीं भगवान् कहते हैं? शुद्धचित्त के उस भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित वह उपहार मैं स्वीकार करता हूँ।इस श्लोक में विशेष रूप से चुनकर कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया है जो त्याग और अर्पण के उस सिद्धांत को स्पष्ट करता है? जिस पर सभी धर्मों का आग्रह होता है। इसमें सन्देह नहीं है कि परमात्मा को अपना पूर्णत्व पूर्ण करने के लिए अथवा अनन्त वैभव को बनाये रखने के लिए भक्तों के उपहारों की आवश्यकता नहीं होती। भक्तगण अपने इष्ट देवता को कुछनकुछ अर्पण करना चाहते हैं? जो वास्तव में भगवान् के द्वारा निर्मित जगत् रूप उपवन की ही एक वस्तु होती है? जिसका भक्तजन उपयोग कर रहे थे। एक सार्वजनिक उपवन में भी कोई प्रेमी वहीं से फूल तोड़कर अपनी प्रेमिका को भेंट देता है। इसी प्रकार? भक्त भी भगवान् के ही उपवन से वस्तु चुराकर उन्हें ही पुन अर्पित करता है। विचार करने से ज्ञात होता है कि वास्तव में? भगवान् को कुछ भेंट देने का हमारा अभिमान कितना वृथा और खोखला है।फिर भी? ईश्वर की सब प्रकार की पूजाओं में उन्हें कुछ अर्पण करने का महत्त्वपूर्ण विधान है? जिसके पालन पर विशेष बल दिया जाता है। पत्रपुष्पादि अर्पण करते समय यदि भक्त यह समझता है कि वह उन वस्तुओं को ही समर्पित कर रहा है? तो वह इस विधान का ही दुरुपयोग कर रहा है। वह अर्पण के सिद्धांत को नहीं जानता है। यहाँ पुष्प आदि का प्रयोजन एक चम्मच के समान है। भोजन के समय हम चम्मच का उपयोग किसी खाद्य पदार्थ को मुँह तक ले जाने में करते हैं परन्तु भोजनोपरान्त चम्मच थाली में ही रखा रहता है। बगीचे में या मन्दिर में फूलफल आदि रहते ही हैं परन्तु जब एक भक्त उन्हें तोड़कर भगवान् को अर्पण करता है तब वे उसके प्रेम और समर्पण को व्यक्त करने के माध्यम बन जाते हैं।यही बात भगवान यहाँ स्पष्ट करते हैं कि? शुद्ध बुद्धि के भक्त द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित वस्तु को मैं स्वीकार करता हूँ।इसलिए भगवान को कुछ अर्पण करने की क्रिया प्रभावपूर्ण होने के लिए दो बातों की आवश्यकता है (क) वह उपहार भक्तिपूर्वक अर्पण किया गया हो तथा (ख) वह शुद्ध बुद्धि के भक्त द्वारा अर्पण किया गया हो। इन दोनों बातों के बिना अर्पण केवल आर्थिक अपव्यय है और अन्धश्रद्धा तथा मिथ्याविश्वास है। यदि उसका उचित अनुसरण किया जाय तो आत्मविकास के आध्यात्मिक मार्ग के लिए उपयुक्त वाहन बन जाता है।इसलिए --
।।9.26।। व्याख्या--[भगवान्की अपरा प्रकृतिके दो कार्य हैं--पदार्थ और क्रिया। इन दोनोंके साथ अपनी एकता मानकर ही यह जीव अपनेको उनका भोक्ता और मालिक मानने लग जाता है और इन पदार्थों और क्रियाओंके भोक्ता एवं मालिक भगवान् हैं -- इस बातको वह भूल जाता है। इस भूलको दूर करनेके लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं कि पत्र, पुष्प, फल आदि जो कुछ पदार्थ हैं और जो कुछ क्रियाएँ हैं (9। 27), उन सबको मेरे अर्पण कर दो, तो तुम सदासदाके लिये आफतसे छूट जाओगे (9। 28)।दूसरी बात, देवताओंके पूजनमें विधि-विधानक, मन्त्रों आदिकी आवश्यकता है। परन्तु मेरा तो जीवके साथ स्वतः-स्वाभाविक अपनेपनका सम्बन्ध है, इसलिये मेरी प्राप्तिमें विधियोंकी मुख्यता नहीं है। जैसे, बालक माँकी गोदीमें जाय, तो उसके लिये किसी विधिकी जरूरत नहीं है। वह तो अपनेपनके सम्बन्धसे ही माँकी गोदीमें जाता है। ऐसे ही मेरी प्राप्तिके लिये विधि, मन्त्र आदिकी आवश्यकता नहीं है, केवल अपनेपनके दृढ़ भावकी आवश्यकता है।]    'पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति'-- जो भक्त अनायास यथासाध्य प्राप्त पत्र (तुलसीदल आदि), पुष्प, फल, जल आदि भी प्रेमपूर्वक भगवान्के अर्पण करता है, तो भगवान् उसको खा जाते हैं। जैसे, द्रोपदीसे पत्ता लेकर भगवान्ने खा लिया और त्रिलोकीको तृप्त कर दिया। गजेन्द्रने सरोवरका एक पुष्प भगवान्के अर्पण करके नमस्कार किया, तो भगवान्ने गजेन्द्रका उद्धार कर दिया। शबरीके दिये हुए फल पाकर भगवान् इतने प्रसन्न हुए कि जहाँ कहीं भोजन करनेका अवसर आया, वहाँ शबरीके फलोंकी प्रशंसा करते रहे (टिप्पणी प0 514.1)। रन्तिदेवने अन्त्यजरूपसे आये भगवान्को जल पिलाया तो उनको,भगवान्के साक्षात् दर्शन हो गये। जब भक्तका भगवान्को देनेका भाव बहुत अधिक बढ़ जाता है, तब वह अपने-आपको भूल जाता है। भगवान् भी भक्तके प्रेममें इतने मस्त हो जाते हैं कि अपने-आपको भूल जाते हैं। प्रेमकी अधिकतामें भक्तको इसका खयाल नहीं रहता कि मैं क्या दे रहा हूँ, तो भगवान्को भी यह खयाल नहीं रहता कि मैं क्या खा रहा हूँ! जैसे, विदुरानी प्रेमके आवेशमें भगवान्को केलोंकी गिरी न देकर छिलके देती है, तो भगवान् उन छिलकोंको भी गिरीकी तरह ही खा लेते हैं! (टिप्पणी0 514.2)।
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।।9.26।।सर्वसुलभं पत्रं वा पुष्पं वा फलं वा तोयं वा यो भक्त्या मे प्रयच्छति अत्यर्थमत्प्रियतया तत्प्रदानेन विना आत्मधारणम् अलभमानतया तदेकप्रयोजनो यो मे पत्रादिकं ददाति तस्य प्रयतात्मनः तत्प्रदानैकप्रयोजनत्वरूपशुद्धियुक्तमनसः तत् तथाविधभक्त्युपहृतम् अहं सर्वेश्वरो निखिलजगदुदयविभवलयलीलः अवाप्तसमस्तकामः सत्यसंकल्पः अनवधिकातिशयासंख्येकल्याणगुणगणः स्वाभाविकानवधिकातिशयानन्दस्वानुभवे वर्तमानः अपि? मनोरथपथदूरवर्ति प्रियं प्राप्य इव अश्नामि। यथा उक्तं मोक्षधर्मे -- याः क्रियाः संप्रयुक्ताः स्युः एकान्तगतबुद्धिभिः। ताः सर्वाः शिरसा देवः प्रतिगृह्णाति वै स्वयम्।। (महा0 शा0 340।64) इति।यस्माद् ज्ञानिनां महात्मनां वाङ्मनसागोचरः अयं विशेषः तस्मात् त्वं च ज्ञानी भूत्वा उक्तलक्षणभक्तिभारावनतात्मा आत्मीयः कीर्तनयतनार्चनप्रणामादिकं सततं कुर्वाणो लौकिकं वैदिकं च नित्यनैमित्तिकं कर्म च इत्थं कुरु इति आह --
।।9.26।।अनन्तफलत्वाद्भगवदाराधनमेव कर्तव्यमित्युक्तं सुकरत्वाच्च तथेत्याह -- न केवलमिति। भगवदाराधनस्य सुकरत्वमेव प्रश्नपूर्वकं प्रपञ्चयति -- कथमित्यादिना। यद्धि पुष्पादिकं भक्तिपूर्वकं मदर्थमर्पितं तेनायं शुद्धचेतास्तपस्वी मामाराधयतीत्यहमवधारयामीत्याह -- पत्रमित्यादिना।
।।9.26।।तदेवं स्वभक्तानां स्वप्राप्तिप्रकारं उक्त्वाऽधुना स्वभक्तेः सर्वोत्तमत्वमनायासत्वेनेतरविलक्षणत्वं च दर्शयति -- पत्रं पुष्पमिति। विवृत्तमेतद्भागवतसुबोधिन्यां इति नात्र प्रपञ्च्यते। न हि महाविभूतेः परमात्मनो मम क्षुद्रदेवतानामिव बहुपचाराडम्बरेण परितोषःकिमासनं ते गरुडासनाय इत्युक्तत्वात् किन्तु भक्तमात्रेण समर्पितं पत्रादिमात्रमपि विदुरस्येव तस्य भक्तस्य प्रयतचित्तस्य मत्सम्बद्धात्मन आत्मनिवेदिनो वा भक्त्याऽर्पितं विश्वासदार्ढ्यार्यं चाश्नामि। अयं तेभ्यो विशेषो दर्शितः। स्वल्पोपचारमात्रेणैव भक्त्या बहुप्रतोषलाभ इतिअनश्नन्भगवान्वेदे भक्तावशनधर्मवान् इति वाक्यात्।
।।9.26।।तदेवं देवतान्तराणि परित्यज्यानन्तफलत्वाद्भगवत एवाराधनं कर्तव्यमतिसुकरत्वाच्चेत्याह -- पत्रं पुष्पं फलं तोयमन्यद्वाऽनायासलभ्यं यत्किंचिद्वस्तु यः कश्चिदपि नरो मे मह्यमनन्तमहाविभूतिपतये परमेश्वराय भक्त्यान वासुदेवात्परमस्ति किंचित् इति बुद्धिपूर्विकया प्रीत्या प्रयच्छति ईश्वराय भृत्यवदुपकल्पयति। मत्स्वत्वानास्पदद्रव्याभावात्सर्वस्यापि जगतो मयैवार्जितत्वात्। अतो मदीयमेव सर्वं मह्यमर्पयति जनः तस्य प्रीत्या प्रयच्छतः प्रयतात्मनः शुद्धबुद्धेस्तत्पत्रपुष्पादि तृच्छमपि वस्तु अहं सर्वेश्वरोऽश्नामि अशनवत्प्रीत्या स्वीकृत्य तृप्यामि। अत्र वाच्यस्यात्यन्ततिरस्कारादर्शनलक्षितेन स्वीकारविशेषेण प्रीत्यतिशयहेतुत्वं व्यज्यते।न ह वै देवा अश्नन्ति न पिबन्त्येतदेवामृतं दृष्ट्वा तृप्यन्ति इति श्रुतेः। कस्मात्तुच्छमपि तदश्नामि? यस्मात् भक्त्युपसंहृतं भक्त्या प्रीत्या समर्पितम्। तेन प्रीत्या समर्पणं मत्स्वीकारनिमित्तमित्यर्थः। अत्र भक्त्या प्रयच्छतीत्युक्त्वा पुनर्भक्त्युपहृतमिति वदन्नभक्तस्य ब्राह्मणत्वतपस्वित्वादि मत्स्वीकारनिमित्तं न भवतीति परिसंख्यां सूचयति। श्रीदामब्राह्मणानीततण्डुलकणभक्षणवत्प्रीतिविशेषप्रतिबद्धभक्ष्याभक्ष्यविज्ञानो बाल इव मात्राद्यर्पितं पत्रपुष्पादि,भक्तार्पितं साक्षादेव भक्षयामीति वा। तेन भक्तिरेव मत्परितोषनिमित्तं नतु देवतान्तरवद्बल्युपहारादि बहुवित्तव्ययायाससाध्यं किंचिदिति देवतान्तरमपहाय मामेव भजेतेत्यभिप्रायः।
।।9.26।।तदेवं स्वभक्तानामक्षयफलत्वमुक्तम्। अनायासत्वं स्वभक्तेर्दर्शयति -- पत्रमिति। पत्रपुष्पादिमात्रमपि मह्यं भक्त्या प्रीत्या यः प्रयच्छति तस्य प्रयतात्मनः शुद्धचित्तस्य निष्कामभक्तस्य तत्पत्रपुष्पादिकं तेन भक्त्योपहृतं समर्पितमहमश्नामि प्रीत्या गृह्णामि। नहि महाविभूतिपतेः परमेश्वरस्य मम क्षुद्रदेवतानामिव बहुवित्तसाध्ययागादिभिः परितोषः स्यात् किंतु भक्तिमात्रेण। अतो भक्तेन समर्पितं यत्किंचित्पत्रादिमात्रमपि तदनुग्रहार्थमेवाश्नामीति भावः।
।।9.26।।समानेऽप्यायासे प्राप्यवैषम्यमुक्तम्? अथोपायवैषम्यमुच्यत इत्याहमद्याजिनामिति। मद्यजनशीलानामित्यथः।अयमपीति उपास्यसौलभ्यातिशयप्रयुक्तोपायसौकर्यरूप इत्यर्थः। पत्रपुष्पफलानां प्रायशो हेतुकार्यभावात् क्रमविन्यासः। तस्य तत्तत्कालानुरूपं यथासम्भवं किमपि लभ्यमिति भावः। पत्रादीनां समासाकरणादसमुच्चयाच्च परस्परनैरपेक्ष्यं सूचितम् तद्द्योतनायपत्रं वेत्यादिविकल्पकरणम्। एकैकेन तुष्यति भगवानिति ह्युच्यते।अन्यत्पूर्णादपां कुम्भादन्यत्पादावनेज(सेच)नात्। अन्यत्कुशलसम्प्रश्ना(न्नैवेक्ष्यति)न्न चेच्छति जनार्दनः [म.भा.5।87।13] इति सर्वाभावेऽपि तोयं लभ्यमित्यभिप्रायेण तस्य पश्चादुक्तिः। नह्येतद्वित्तव्ययादिसाध्यतया दरिद्रादीनां दुर्लभमित्यभिप्रायेणसर्वसुलभमित्युक्तम्। अन्यत्र चाहुः -- पत्रेषु पुष्पेषु फलेषु तोयेष्वक्रीतलभ्येषु सदैव सत्सु। भक्त्यैकलभ्ये पुरुषे पुराणे मुक्त्यै किमर्थं क्रियते न यत्नः [गा.पु.पू.219।34ना.पु.62।19] इति। य इति सामान्यनिर्देशेन सापराधनिरपराधजडाजडादिविभागमपि न पश्यामीत्यभिप्रेतम्। वक्ष्यति हि -- येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्याः [9।32] इत्यादि।भक्त्येति।भक्त्येत्यनेन दृष्टादृष्टप्रत्यवायपरिहारफलान्तरहेतुत्वव्यवच्छेदः तद्व्यञ्जयतिअत्यथंति। प्रयतात्मशब्दं व्याख्यातितत्प्रदानति।तस्य ताम्रतलौ तात चरणौ सुप्रतिष्ठितौ। सुजातमृदुरक्ताभिरङ्गुलीभिरलङ्कृतौ। प्रयत्नेन मया मूर्ध्ना गृहीत्वा ह्यभिवन्दितौ इत्यादिष्विव प्रयोजनान्तररागरूपाशुद्धिविरहः प्रयतत्वमित्यर्थः। पुण्येष्वपि फलाभिसन्धिरेव हि मनसोऽशुद्धिः। तदप्याहुः -- तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः। प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्कस्तान्येव भावोपहतानि कल्कः [म.भा.1.1।275] इति।भक्त्युपहृतम् इति पुनः कीर्तनं भगवदादरणीयत्वे हेतुरयमेवेति ज्ञापनार्थम्। तथाच स्वयमेवाहअण्वप्युपहृतं भक्तैर्मम भोगाय जायते। भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे भोगाय जायते [पं.रा.] इति। फलाभिलाषिणामपि काचिद्भक्तिरस्तीति तद्व्युदासाय तच्छब्द इत्यभिप्रायेणतथाविधभक्त्युपहृतमित्युक्तम्। पत्रादिक्षुद्रद्रव्यपरिग्रहपरिपन्थिनः प्रकारा अहंशब्देन विवक्षिता इति दर्शयितुंसर्वेश्वर इत्यादिकम्। अपिशब्दः प्रत्येकमन्वेतव्यः।सर्वेश्वर इति यथेन्द्रादयः स्वशक्तिवृद्धये हविरादिकं गृह्णन्ति न हि तथाऽहं? सर्वगोचरसदातननियमनशक्तिशालित्वादिति भावः।निखिलजगदुदयविभवलयलील इति न हि मल्लीलोपकरणाद्बहिर्भूतं पत्रादिकं मह्यं दीयत इति भावः।अवाप्तसमस्तकाम इति न हि मे अनवाप्तमवाप्तव्यमस्तीत्यभिप्रायः।सत्यसङ्कल्प इति न हि ममाशक्यं किञ्चिदन्येनोपहृतं स्वीक्रियत इति भावः।अनवधिकेत्यादि गुणतः स्वरूपतश्च निरतिशयानन्दतप्तस्य मे कियदिदं पत्रादिकं इति तात्पर्यम्।स्वाभाविकशब्देन हेतुनैरपेक्ष्यं?वर्तमानशब्देन चानिवर्त्यत्वं विवक्षितम्।परिपूर्णोऽपि भगवान् भक्तैर्यत्किञ्चिदीरितम्। सापेक्षवत्तदादत्ते तेन प्रीतो ददात्यलम् [म.भा.12।35।64] इत्यस्यार्थमभिप्रयन्नाहमनोरथेति।अश्नामि इत्युपभोगमात्रलक्षणा तेन निवेद्याभावे पत्रादिकमपि निवेद्यं स्यादिति व्यज्यते। फलान्तरार्थिजनसमर्पितानांतत्सर्वं वेदवेद्यस्य (कृत्स्नं तु तस्य देवस्य) चरणावुपतिष्ठते [म.भा.12।343।63] इति भगवत्पादोपसर्पणमुक्त्वा परमैकान्तिजनदत्तानां भगवताऽत्यादरेण शिरसा प्रतिग्रहो मोक्षधर्मेऽभिहित इत्याहयथोक्तमिति।
।।9.26।।भक्तेषु विशेषमाह -- पत्रमिति। पत्रं तुलस्यादीनां प्रियरूपम्। पुष्पं अलङ्कारात्मकम्। फलं सामग्रीरूपम्। तोयं सामग्रीभेदरूपम्। यो मे मम भक्त्या स्नेहेन? न तु विहितत्वेन? प्रयच्छति प्रकर्षेण भावात्मकतया समर्पयति? तत् पूर्वोक्तं सर्वं भक्त्युपहृतं स्नेहेन समर्पितं प्रयतात्मनः मदेकपरतया वशीकृतचेतसः अहं पुरुषोत्तमः अश्नामि भुनज्मीत्यर्थः। अनायासप्राप्त्यर्थं पत्रादिकमुक्तम्। अशनोक्त्या तदङ्गीकारेणाग्रे स्वभोगयोग्यसर्वसामग्रीसम्पादनं व्यज्यते। अत एव सुदामार्थं स्वसम्पद्दाने पृथुकमुष्टिमङ्गीकृतवान्।,
।।9.26।।मद्भक्तिरतिसुकरा देवतान्तरभक्तिस्तु बहुवित्तव्ययायाससाध्येत्याशयेनाह -- पत्रमिति। भक्तिरेव केवलं ममापेक्षिता नान्यदिति भावः। भक्त्युपहृतं भक्त्या समर्पितम्।
।।9.26।।न केवलं मम पूजकानां मत्प्राप्तिरुपमना वृत्तिलक्षणमनन्तफलमपि तु मत्पूजनसाधनानामतिसौलभ्यान्मद्यजनमतिसुलभमित्याह। पत्रं तुलसीपत्रं? पुष्पं? फलं? तोयं जलं? यो मे मह्यं भक्त्या परप्रेरणा प्रयच्छति अर्पयति। प्रयतात्मनः तत् पत्रादि भक्त्या उपहृतं समर्पितं अश्रामि गृहीत्वा तृप्यामीत्यर्थः। सुदाम्नोपाहृततन्दुलवद्भक्षयामीति वा। तस्माद्देवतान्तरादिपूजनं विहायाल्पायासलब्यवस्तुसाध्यमनन्तफलदं मद्यजनमतिभक्त्या कर्तव्यमित्यभिप्रायः।
9.26 पत्रम् a leaf? पुष्पम् a flower? फलम् a fruit? तोयम् water? यः who? मे to Me? भक्त्या with devotion? प्रयच्छति,offers? तत् that? अहम् I? भक्त्युपहृतम् offered with devotion? अश्नामि eat (accept)? प्रयतात्मनः of the pureminded.Commentary A gift? however small? is accepted by the Lord? when it is offered with profound faith. The Lord is ite satisfied even with a leaf? a flower? a fruit or water? when it is offered with singleminded devotion and pure heart. Was He not satisfied with the little parched rice from the bundle of Sudama and the small berries offered by Sabari You need not build a golden temple for Him. Build a golden temple in your heart. Enthrone Him there. He wants only your devoted heart. But it is difficult to please Indra. You wll have to offer valuable (material) objects to him.A leaf? a flower of a fruit are merely symbols. The true means of attaining the Lord is pure unflinching devotion. All the objects of the state belong to the king. If the servants of the state offer with devotion some objects to the king he is highly satisfied. Even so all the objects of the whole world belong to Him. Yet? He is highly pleased if you offer even a little thing with devotion.Asnami? literally means eat. The indicative meaning or Lakshana Vritti is accept.
9.26 Whoever offers Me with devotion a leaf, a flower, a fruit or a little water that, so offered devotedly by the pure-minded, I accept.
9.26 Whatever a man offers to Me, whether it be a leaf, or a flower, or fruit, or water, I accept it, for it is offered with devotion and purity of mind.
9.26 Whoever offers Me with devotion-a leaf, a flower, a fruit, or water, I accept that (gift) of the pure-hearted man which has been devotionally presented.
9.26 Yah, whoever; prayaccati, offers; me, Me; bhaktya, with devotion; patram, a leaf; puspam, a flower phalam, a fruit; or toyam, water; asnami, I accept; tat, that (gift)-leaf etc.; prayata-atmanah, of the pure-hearted man; which has been bhakti-upahrtam devotionally presented. Since this is so, therefore-
9.26. Whosoever with devotion offers Me a leaf, a flower, a fruit, or [a little] water, I taste that offered with devotion by one with well-controlled self (mind).
9.23-26 Ye' pi etc. upto prayatatmanah. Even those who worship [gods] with other names, they too [in fact] worship Me alone, becaue there is nothing (no god) to be worshipped apart from the Brahman. But the difference is that [they do so] by non-injunction. Non-injunction : different injunctions. [This amounts to saying that] having the innate nature of the Absolute Brahman-Existence, I am indeed worshipped by manifold injunctions (i.e., sacrifices enjoined by injunctions). But non-injunction should not be explained as 'by defective injunction' as it has been done by others (other commentators), who acire dirts of great sins by insulting other systems of philosophy. If their view is correct then the declarations that are actually found viz., 'They offer sacrifice to Me alone', and 'I am alone the enjoyer of all sacrifices' - all would be inconsistent. Enough of talk with the sinful ones. Our preceptors, however, explain [ye'pyanya-etc.] as follows : Those who, following the principle of the doctrine of duality consider certain deity as different from their own Self and as devoid of the innate nature of the Brahman, and offer sacrifice to that deity only-but it is only to Me, their own Self that even those men offer their sacrifices, however by non-injunction i.e. by faulty injunction of the nature of duality-view. That is why [the Lord] says (in verse 25) 'They do not recognise Me, their own Self, correctly as that deity itself, i.e., as the enjoyer [of the oblation of the sacrifice]. Hence they move away from My nature . Why ? By being votaries of gods, they attain the gods etc. (verse 26). It amounts to say that this [fact of attaining these gods] is itself nothing but moving away [from Me, the Self]. On the other hand, those who realise My nature (i.e. Me) as being not different [from their Self], they offer sacrifices to Me alone, even though those sacrifices etc. are for the gods, goblins and manes.' [The Lord] is going to conclude [the present topic] as : '(Thus) offering sacrifice to Me they attain Me alone.' (IX-29,35). But that alone is called a deity which is aimed at [according to injunction], for offering things (i.e. oblation). Hence, how can a sacrifice be offered to one's own Self, a category that cannot be aimed at ? For example, there is the injunction: 'The oblation [of rice] of the rite prayana, crooked in the milk, is intended for the deity Aditi'; and hence this Aditi becomes the object intended [in the sacrifice], because that particular deity is an adjunct of an injunction, and because it is included in the injunction as one to be aimed at. But [in the present case], there is no injunction that concerns the Self. Having [these objections] in mind [the Lord] says : [They offer sacrifice] to Me following non-injunction. The idea is this : An injunction is reired only in the case of a deity that is different from one's own Self. For, the injunction is one of the nature of imparting the knowledge only of that particular thing which is not known [otherwise]. But, one's own Self, the Absolute Lord, is known, not following any injunction. For, the knowledge of the Self is not brought by injunction. Certainly no action is undertaken not aiming the Self. Therefore in all cases [of offerings], intended for the deities like Indra etc., this Self of one's own is certainly intended , as the Self is, by nature, the illuminator of the entire Universe; as It is like a thread in a garland; and as It is illumining [on Its own accord], asserting Its superiority [over all others] and only serving as a background (bhittih, 'a screen', or 'a wall') of the manifestations of the deity so intended by him [in the sacrifice]. Thus it is established by logic that even the votaries of gods offer sacrifices to Me (the Absolute) alone, becuase 'I' depends on no injunction. As far as these sacrificers are concerned, the principal effect of the sacrifice viz., attaining 'Me', is not intended by them as their own. On the other hand, they are very much satisfied with attaining the status of Indra etc., just as a priest is satisfied with limited fees. To indicate this, the parasmaipada form (yajanti) [is used]. For, it has been stated by myself (Ag.) [else-where] as : 'One, who knows the Vedas and does not know [to intend for] the status of (or the word) Sambhu (the Absolute), would feel afflicted in despair. [For], aspiring for the heaven, and [hence] rejecting the status of [the actual] performer of of sacrifice (yajamana), [but at the same time] performing sacrifice for others (yajan), he has become a [mere] priest in the sacrifice. Indeed, the divergently flowing floods of taste for action, without exception, - even though they flow from the Absolute consciousness - do not bestow [on the performer] the mighty ocean of Bliss of one's own Self if they do not gain a complete stability' Thus whosoever realises in the said manner, his sacrifice, though aimed at the deities like Indra, is in fact a sacrifice offered to the Absolute Lord. Whatever may be the other actions of his, they too become acts of worshipping his own Self, the Absolute Lord, as It alone is intended in all his action. This [the Lord] says :
9.26 Whoever offers to Me with true devotion a leaf, or a flower, or a fruit or water, which can be easily obtained, I accept it. That true devotion is love of such an exalted kind that the devotee cannot sustain himself without making such offering; the devotee has no extraneous purpose other than serving Me. Such an offering coming from a heart rendered pure with that singleness of purpose of considering the offering as an end in itself - I, the Lord of the universe, whose sport consists in the origin, maintenance and dissolution of the entire world, who has all desires fulfilled, whose will is always accomplished, whose auspicious attributes are unlimited and unsurpassed, who is enjoying the infinite and unsurpassed bliss that is in Myself - I accept and enjoy the aforesaid type of offering, as if I was obtaining a desired object far beyond the range of My hopes. Thus it is declared in the Moksa-dharma: "Whatever acts are consecrated by those whose intellects are concentrated in single-pointed devotion, all these, the Lord Himself accepts on His head." (Ma. Bha. Sa., 340.64) Sri Krsna proceeds to say: As there is this distinctive excellence, incomprehensible by speech and mind in respect of these great men called the Jnanins, you also, following them, become a Jnanin, i.e., have your self and all your belongings 'bent down,' i.e., dedicated, under the weight of Bhakti as prescribed earlier. Be always singing My praises, doing My services, worshipping Me and prostrating before Me; also perform your secular and Vedic duties, periodical and occasional, in this manner.'
9.26 Whoever offers Me with true devotion a leaf, a flower, a fruit or some water, I accept this offering made with devotion by him who is pure of heart.
।।9.26।।मेरे भक्तोंको केवल अपुनरावृत्तिरूप अनन्त फल मिलता है इतना ही नहीं? किंतु मेरी आराधना भी सुखपूर्वक की जा सकता है। कैसे ( सो कहते हैं -- ) जो भक्त मुझे पत्र? पुष्प? फल और जल आदि कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है? उस प्रयतात्मा -- शुद्धबुद्धि भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए वे पत्र पुष्पादि मैं ( स्वयं ) खाता हूँ अर्थात् ग्रहण करता हूँ।
।।9.26।। --,पत्रं पुष्पं फलं तोयम् उदकं यः मे मह्यं भक्त्या प्रयच्छति? तत् अहं पत्रादि भक्त्या उपहृतं भक्तिपूर्वकं प्रापितं भक्त्युपहृतम् अश्नामि गृह्णामि प्रयतात्मनः शुद्धबुद्धेः।।यतः एवम्? अतः --,
।।9.26।।पत्रमित्यस्य सङ्गत्यप्रतीतेराह -- दुर्बलैरिति। अतस्तद्भजनस्य महाफलत्वेऽपि तद्विहायाल्पानां देवानां भजनमल्पफलमपि सुशकत्वात्करोमीति प्रासङ्गिकशङ्काशेषः। साधनानादरस्योक्तत्वाद्यत्किञ्चित्पत्रादिकमिति न मन्तव्यमित्याह -- न त्विति। तत्किमपि भगवते समर्पणीयमेवेति नियमोऽत्राभिप्रेत इत्यत आह -- भक्त्यैवेति। कुतः इत्यत आह -- भक्तेति। स्वार्थः स्वार्थसाधनोपायः।
।।9.26।।दुर्बलैस्त्वं पूजयितुमशक्यो महत्त्वादित्याशङक्याह -- पत्रमिति। न त्वविहितपत्रादि? तस्यापराधत्वोक्तेर्वाराहादा। भक्त्यैवाहं तृप्य इति भावः।भक्तप्रियं सकललोकनमस्कृतं च इति भारते।एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसः स्वार्थः परः स्मृतः। एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्रात्मदर्शनम् [भाग.7।7।55]।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।।
পত্রং পুষ্পং ফলং তোযং যো মে ভক্ত্যা প্রযচ্ছতি৷ তদহং ভক্ত্যুপহৃতমশ্নামি প্রযতাত্মনঃ৷৷9.26৷৷
পত্রং পুষ্পং ফলং তোযং যো মে ভক্ত্যা প্রযচ্ছতি৷ তদহং ভক্ত্যুপহৃতমশ্নামি প্রযতাত্মনঃ৷৷9.26৷৷
પત્રં પુષ્પં ફલં તોયં યો મે ભક્ત્યા પ્રયચ્છતિ। તદહં ભક્ત્યુપહૃતમશ્નામિ પ્રયતાત્મનઃ।।9.26।।
ਪਤ੍ਰਂ ਪੁਸ਼੍ਪਂ ਫਲਂ ਤੋਯਂ ਯੋ ਮੇ ਭਕ੍ਤ੍ਯਾ ਪ੍ਰਯਚ੍ਛਤਿ। ਤਦਹਂ ਭਕ੍ਤ੍ਯੁਪਹਰਿਤਮਸ਼੍ਨਾਮਿ ਪ੍ਰਯਤਾਤ੍ਮਨ।।9.26।।
ಪತ್ರಂ ಪುಷ್ಪಂ ಫಲಂ ತೋಯಂ ಯೋ ಮೇ ಭಕ್ತ್ಯಾ ಪ್ರಯಚ್ಛತಿ. ತದಹಂ ಭಕ್ತ್ಯುಪಹೃತಮಶ್ನಾಮಿ ಪ್ರಯತಾತ್ಮನಃ৷৷9.26৷৷
പത്രം പുഷ്പം ഫലം തോയം യോ മേ ഭക്ത്യാ പ്രയച്ഛതി. തദഹം ഭക്ത്യുപഹൃതമശ്നാമി പ്രയതാത്മനഃ৷৷9.26৷৷
ପତ୍ରଂ ପୁଷ୍ପଂ ଫଲଂ ତୋଯଂ ଯୋ ମେ ଭକ୍ତ୍ଯା ପ୍ରଯଚ୍ଛତି| ତଦହଂ ଭକ୍ତ୍ଯୁପହୃତମଶ୍ନାମି ପ୍ରଯତାତ୍ମନଃ||9.26||
patraṅ puṣpaṅ phalaṅ tōyaṅ yō mē bhaktyā prayacchati. tadahaṅ bhaktyupahṛtamaśnāmi prayatātmanaḥ৷৷9.26৷৷
பத்ரஂ புஷ்பஂ பலஂ தோயஂ யோ மே பக்த்யா ப்ரயச்சதி. ததஹஂ பக்த்யுபஹரிதமஷ்நாமி ப்ரயதாத்மநஃ৷৷9.26৷৷
పత్రం పుష్పం ఫలం తోయం యో మే భక్త్యా ప్రయచ్ఛతి. తదహం భక్త్యుపహృతమశ్నామి ప్రయతాత్మనః৷৷9.26৷৷
9.27
9
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।।9.27।। हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
।।9.27।। हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो।।
।।9.27।। जीवन में सब प्रकार के कर्म करते हुए हम ईश्वरापर्ण की भावना से रह सकते हैं। सम्पूर्ण गीता में असंख्य बार इस पर बल दिया गया है कि केवल शारीरिक कर्म की अपेक्षा ईश्वरार्पण की भावना सर्वाधिक महत्व की है और यह एक ऐसा तथ्य हैं ? जिसका प्राय साधकांे को विस्मरण हो जाता है।शरीर? मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले विषय ग्रहण और उनके प्रति हमारी प्रतिक्रिया रूप जितने भी कर्म हैं? उन सबको भक्तिपूर्वक मुझे अर्पण करे। यह मात्र मानने की बात नहीं हैं और न ही कोई अतिश्योक्ति हैं यह भी नहीं कि इसका पालन करना मनुष्य के लिए किसी प्रकार से बहुत कठिन हो। एक ही आत्मा ईश्वर? गुरु और भक्त में और सर्वत्र रम रहा है हम अपने व्यावहारिक जीवन में असंख्य नाम और रूपों के साथ व्यवहार करते हैं। हम जानते है कि इन सबको धारण करने के लिए आत्मसत्ता की आवश्यकता है। यदि हम अपने समस्त व्यवहार में इस आत्मतत्व का स्मरण रख सकें तो वह जगत् के अधिष्ठान का ही स्मरण होगा। यदि किसी वस्त्र की दुकान्ा में विभिन्न रूप? रंग? बुनावट और कीमतों के सूती वस्त्र हों तो दुकानदार को सलाह दी जाती हैं कि उसको सदा इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि वह सूती कपड़ों का व्यापार कर रहा हैं। किसी भी समझदार व्यापारी को यह करना कठिन नहीं हो सकता। वास्तव में देखा जाय तो इस प्रकार का स्मरण रखना उसके लिए अधिक सुरक्षित और लाभदायक है अन्यथा वह कहीं किसी कपडे़ का मूल्य ऊनी वस्त्र के हिसाब से अत्यधिक बता देगा अथवा अपने माल को टाट के बोरे जैसे सस्ते दामों में बेच देगा। यदि किसी स्वर्णकार को यह स्मरण रखने की सलाह दी जाय कि वह सोने पर कार्य कर रहा हैं? तो वह सलाह उसके लाभ के लिए ही हैं।जैसे आभूषणों में स्वर्ण और कपडे में सूत हैं वैसे ही विश्व के सभी नाम और रूपों में आत्मा ही मूल तत्व हैं। जो भक्त अपने जीवन के समस्त व्यवहार में इस दिव्य तत्त्व का स्मरण रख सकता हैं वही पुरुष जीवन को वह आदर और सम्मान दे सकता हैं? जिसके योग्य जीवन हैं। यह नियम है कि जीवन को जो तुम दोगे वही तुम जीवन से पाओगे। तुम हँसोगे तो जीवन हँसेगा और तुम चिढोगे तो जीवन भी चिढेगा उसके पास आत्मज्ञान से उत्पन्न आदर और सम्मान के साथ जाओगे? तो जीवन में तुम्हें भी आदर और सम्मान प्राप्त होगा।समर्पण की भावना से समस्त कर्मों को करने पर न केवल परमात्मा के प्रति हमारा प्रेम बढ़ता है? बल्कि आदर्श प्रयोजन और दिव्य लक्ष्य के कारण हमारा जीवन भी पवित्र बन जाता हैं। गीता में अनन्य भाव और सतत आत्मानुसंधान पर विशेष बल दिया गया है इस श्लोक में हम देख सकते हैं कि एक ऐसे उपाय का वर्णन किया गया है जिसके पालन से अनजाने ही साधक को ईश्वर का अखण्ड स्मरण बना रहेगा। इसके लिए कहीं किसी निर्जन सघन वन में या गुप्त गुफाओं में जाने की आवश्यकता नहीं है इसका पालन तो हम अपने नित्य के कार्य क्षेत्र में ही कर सकते हैं।इस प्रकार समर्पण की भावना का जीवन जीने से क्या लाभ होगा? उसे अब बताते हैं।
।।9.27।। व्याख्या--भगवान्का यह नियम है कि जो जैसे मेरी शरण लेते हैं, मैं वैसे ही उनको आश्रय देता हूँ (गीता 4। 11)। जो भक्त अपनी वस्तु मेरे अर्पण करता है, मैं उसे अपनी वस्तु देता हूँ। भक्त तो सीमित ही वस्तु देता है, पर मैं अनन्त गुणा करके देता हूँ। परन्तु जो अपने-आपको ही मुझे दे देता है, मैं अपनेआपको उसे दे देता हूँ। वास्तवमें मैंने अपने-आपको संसारमात्रको दे रखा है (गीता 9। 4), और सबको सब कुछ करनेकी स्वतन्त्रता दे रखी है। अगर मनुष्य मेरी दी हुई स्वतन्त्रताको मेरे अर्पण कर देता है, तो मैं भी अपनी स्वतन्त्रताको उसके अर्पण कर देता हूँ अर्थात् मैं उसके अधीन हो जाता हूँ। इसलिये यहाँ भगवान् उस स्वतन्त्रताको अपने अर्पण करनेके लिये अर्जुनसे कहते हैं।]
।।9.27 -- 9.28।।यदपि अन्यत् कर्म? तदपि महेश्वरस्वात्मार्चनरूपं? तस्यैव सर्वत्रोद्देशात् इत्याह -- यत् करोषीति। शुभाशुभेति। देवतान्तरयाजिनो यतो मितमनोरथाः फलं लघयन्ति? अतस्त्वं सर्वं प्रागुक्तोपदेशक्रमेण मदर्पणं मन्मयत्वेन भावन (S omits मन्मयत्वेन भावनम्) कुरु। एष एव च संन्यासयोग इति विस्तीर्णं विस्पष्टप्रायं पुरस्तादेव।
।।9.27।।यत् देहयात्रादिशेषभूतं लौकिकं कर्म करोषि? यत् च देहधारणाय अश्नासि? यत् च वैदिकं होमदानतपःप्रभृति नित्यनैमित्तिकं कर्म करोषि? तत् सर्वं मदर्पणं कुरुष्व। अर्प्यत इति अर्पणम्? सर्वस्य लौकिकस्य वैदिकस्य च कर्मणः कर्तृत्वं भोक्तृत्वं आराध्यत्वं च यथा मयि सर्वं समर्पितं भवति तथा कुरु।एतद् उक्तं भवति -- यागदानादिषु आराध्यतया प्रतीयमानानां देवादीनां कर्मकर्तुः भोक्तुः तव च मदीयतया मत्संकल्पायत्तस्वरूपस्थितिप्रवृत्तितया च मयि एव परमशेषिणि परमकर्तरि त्वां च कर्तारं भोक्तारम् आराधकम् आराध्यं च देवताजातम् आराधनं च क्रियाजातं सर्वं समर्पय। तव मन्नियाम्यतापूर्वकमच्छेषतैकरसताम् आराध्यादेः च एतत्स्वभावकगर्भताम् अत्यर्थप्रीतियुक्तः अनुसंधत्स्व इति।
।।9.27।।तदाराधनस्य सुकरत्वे तदेवावश्यकमित्याह -- यत इति। स्वतः शास्त्रादृते प्राप्तं गमनादीति यावत्। यदश्नासि यं कंचिद्भोगं भुङ्क्षे। हवनस्य स्वतस्त्वं वारयति श्रौतमिति। मत्समर्पणं तत्सर्वं मह्यं समर्पयेत्यर्थः।
।।9.27।।तस्मात्त्वमपि भगवत्सेवायामुक्तलक्षणयोगभावाराधनरतात्मा मदर्पितमेव लौकिकं? वैदिकं नित्यं नैमित्तिकं कर्म कुरु? ततो निर्बन्धपूर्वकं मत्प्राप्तिरित्याह द्वाभ्याम् -- यत्करोषीति। यदिति लौकिकं धनं वसनादिसञ्चयनं अश्नासि च यदन्नं लौकिकं होमदानतपःप्रभृतिनित्यनैमित्तिकभेदेन वैदिकं च यत्कर्म करोषि तन्मदर्पणं यथा भवति तथा कुरु। ततस्च सर्वदोषनिवृत्तिः।असमर्पितवस्तूनां तस्माद्वर्जनमाचरेत्। निवेदिभिः समर्प्यैव सर्वं कुर्यादिति स्थितिः।।न मतं देवदेवस्य सामिभुक्तसमर्पणम्। तस्मादादौ सर्वकार्ये सर्ववस्तुसमर्पणम्।।दत्तापहरवचनं तथा च सकलं हरे। न ग्राह्यमिति वाक्यं हि भिन्नमार्गपरं मतम्।।सेवकानां यथा लोके व्यवहारः प्रसिद्ध्यति। तथा कार्यं समर्प्यैव सर्वेषां ब्रह्मता ततः।।इति भगवन्मुखोक्तभक्तिमार्गसिद्धान्तः।
।।9.27।।कीदृशं ते भजनं तदाह -- यदिति। यत्करोषि शास्त्रादृतेऽपि रागात्प्राप्तं गमनादि। यदश्नासि स्वयं तृप्त्यर्थं कर्मसिद्ध्यर्थं वा। तथा यज्जुहोषि शास्त्रबलान्नित्यमग्निहोत्रादिहोमं निर्वर्तयसि। श्रौतस्मार्तसर्वहोमोपलक्षणमेतत्। तथा यद्ददासि अतिथिब्राह्मणादिभ्योऽन्नहिरण्यादि। तथा यत्तपस्यसि प्रतिसंवत्सरमज्ञातप्रामादिकपापनिवृत्तये चान्द्रायणादि चरसि उच्छृङ्खलप्रवृत्तिनिरासाय शरीरेन्द्रियसंघातं संयमयसीति वा। एतच्च सर्वेषां नित्यनैमित्तिककर्मणामुपलक्षणम्। तेन यत्तव प्राणिस्वभाववशाद्विनापि शास्त्रमवश्यंभावि गमनाशनादि। यच्च शास्त्रवशादवश्यंभावि होमदानादि। हे कौन्तेय? तत्सर्वं लौकिकं वैदिकं च कर्मान्येनैव निमित्तेन क्रियमाणं मदर्पणं मय्यर्पितं यथा स्यात्तथा कुरुष्व। आत्मनेपदेन समर्पकनिष्ठमेव समर्पणफलं नतु मह्यं किंचिदिति दर्शयति। अवश्यंभाविनां कर्मणां मयि परमगुरौ समर्पणमेव मद्भजनं नतु तदर्थं पृथग्व्यापारः कश्चित्कर्तव्य इत्यभिप्रायः।
।।9.27।।नच पत्रपुष्पादिकमपि यज्ञार्थं पशुसोमादिद्रव्यवन्मदर्थमेवोद्यमैरापाद्य समर्पणीयम्? किं तर्हि -- यदिति। स्वभावतो वा शास्त्रतो वा यत्किंचित्कर्म करोषि? तथा यदश्नासि यज्जुहोषि? यद्ददासि? यत्तपस्यसि तपः करोषि तत्सर्वं मय्यर्पितं यथा भवत्येवं कुरुष्व।
।।9.27।।उक्तार्थफलितपरतया उत्तरश्लोकस्य सङ्गतिमाह -- यस्मादिति। महात्मनां विशेष उक्तः अथ तत्परिगृहीतं भक्तियोगं वक्तुं तदङ्गभूत बुद्धिविशेषमनुशास्तीत्यभिप्रायेणइत्थं कुर्वित्युक्तम्।यत्करोषि इति श्लोकेन स्वभावार्थशास्त्रप्राप्तसर्वकर्मसमर्पणविषयमन्त्रविशेषोऽपि स्मारितः। इममेव च श्लोकंयत्करोमि इत्युपक्रम्यभगवन् इति सम्बुद्ध्यात्वदर्पणम् इत्युक्तं मन्त्रमेव केचिदनुसन्दधते। तत्रयत्करोषि इत्येतद्गोबलीवर्दन्यायात्संकुचितं स्वभावप्राप्तविषयमित्याहयद्देहेति।अश्नासि इत्येतदर्यप्राप्तवर्गोपलक्षणमित्यभिप्रायेणाहयच्च देहधारणायाश्नासीति।यज्जुहोषि इत्यादेः शास्त्रप्राप्तसमस्तोपलक्षणत्वमुपलक्षणीयसङ्ग्राहकाकारं च दर्शयतियच्च वैदिकमिति। अत्र यच्छब्दाः सर्वे क्रियाविशेषाः। अर्पणशब्दस्य भाववाचित्वे व्यधिकरणबहुव्रीहिक्लेशात्तत्पुरुषत्वौपयिककर्मप्रत्ययान्ततां व्युत्पादयतिअर्प्यत इत्यर्पणमिति।कृत्यल्युटो बहुलम् [अष्टा.3।3।113] इति कर्मणि ल्युट्। मय्यर्पितं कुरुष्वेति शब्दार्थः। अन्यत्र स्थितस्य स्थायिनः ततोऽन्यस्मिन्निवेशनं हि समर्पणम् तच्चात्र क्षणिके कर्मणि कथं इत्यत्राहसर्वस्येति। ननु जीवस्यैव कर्तृत्वं भोक्तृत्वं चकर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् [ब्र.सू.2।3।33] इत्यधिकरणे स्थापितम् इन्द्रादीनां चाराध्यत्वं श्रुतम् तथा च देवताभेदो मीमांसितः अतन्निष्ठस्य तन्निष्ठत्वानुसन्धाने भ्रान्तिरेव स्यात्? तत्कथमीश्वरे तत्समर्पणं इत्यत्राहएतदुक्तमिति।परमकर्तरीति -- परात्तु तच्छ्रुतेः [ब्र.सू.2।3।41] इत्यधिकरणार्थः स्मारितः।कर्तारं भोक्तारमाराधकमिति क्रियायास्तत्फलस्य तत्प्रदातृ़णां चेति शेषः।,परमकर्तृत्वात्कर्तृत्वसमर्पणम् परमशेषित्वादाराध्यत्वादिसमर्पणम्। कर्तृत्वादौ त्वयि समर्पिते साक्षात्कर्तर्याराध्यविशेषणभूतेन्द्रादौ च किमनुसन्धेयं इति शङ्कायां समर्पणं शिक्षयतितवेति। भक्तिप्रकरणात्प्रीतियुक्तत्वोक्तिः।
।।9.27।।यतोऽहं भक्त्युपहृतमङ्गीकरोम्यतः पूर्वकृतानां कुर्वतां च कर्मणां फलभोगरूपप्रतिबन्धनिवृत्त्यर्थं तत्सर्वं मदर्पितं कुर्वित्याह -- यत्करोषीति। यत् लौकिकं वैदिकं करोषि? यदश्नासि भुङ्क्षे? यज्जुहोषि होमं,करोषि? यद्ददासि दानं करोषि? तत्सर्वं मदर्पणं मत्समर्पितं कुरुष्व। देहादिधर्मान् विवाहपुत्रोत्पत्त्यर्थकामादीन् निद्राजागरणमूत्रपुरीषादिकाँस्तानपि भगवत्सेवाद्यर्थप्रतिबन्धाभावार्थविचारेण कुर्यात्? न तु स्वसुखेच्छया। तथा भोजनादिकमपि तत्र प्रसादजपुष्ट्या सेवार्थबलाप्त्यर्थम्। होमश्च तद्वियोगजदुःखास्ये (दुःखमुखे)। दानं च तदीयत्वेन द्रव्यशुद्ध्या भगवद्विनियोगप्रतिबन्धनिवृत्त्यर्थम्। तपश्च भगवतः कारुण्योदयार्थम्। एवमेतत्सर्वं भगवत्समर्पितं भवति।
।।9.27।।अतः सर्वं मदर्पणं कुर्वित्याह -- यदिति। यत्करोषि गमनादिकं तद्भगवत एव प्रदक्षिणादिकं करोमीति मत्प्रीत्यर्थमेव तदर्पणं कुर्विति। एवं वचनादिष्वपि नामकीर्तनादिदृष्ट्या ऊह्यम्।
।।9.27।।यतः पत्रादिकमपि मक्त्युपहृतं गृह्णामि अतः सर्वमपि कर्म मय्यार्पितं यथा भवेत्तथा कर्तव्यमिदमेव चातुसुलभं मद्यजनमित्याह। यत्करोषि यद्रागादाचरसि? यच्चाश्रासि? यच्च जुहोशि श्रोतं स्मार्तं वा हवनं संपादयसि? यच्च हिरण्यादि ब्राह्मणादिभ्यो ददासि प्रयच्छसि? यत्तपस्यसि तपश्चरसि? तन्मदर्पणं कुरुष्वेश्वरप्रेरणया तदर्थमेव सर्वं करोमीति बुद्य्धा मयि वासुतेवेऽर्पितं यथा भवति तथा कुरुष्व मत्संबन्धित्वात्तवैतदतिसुलभमिति सूचयन्नाह -- कौन्तेयेति। यद्वा यथा कुन्ती भर्तुराज्ञया भवदादीनिन्द्रादिसङ्गेनोत्पाद्यापि तत्कर्मसंबन्धवर्जिता तथा त्वमप्येवं कुर्वन् कर्मब्धनैर्मोक्ष्यसे इति संबोधनस्य गूढाभिप्रायः।
9.27 यत् whatever? करोषि thou doest? यत् whatever? अश्नासि thou eatest? यत् whatever? जुहोषि thou offerest in sacrifice? ददासि thou givest? यत् whatever? यत् whatever? तपस्यसि thou practisest as austerity? कौन्तेय O Kaunteya? तत् that? कुरुष्व do? मदर्पणम् offering unto Me.Commentary Consecrate all acts to the Lord. Then you will be freed from the bondage of Karma. You will have freedom in action. He who tries to live in the spirit of this verse will be able to do selfsurrender unto the Lord. Gradually he ascends the spiritual path step by step. His greedy nature is slowly dissolved now. He always gives. He is not eager to take. His whole life with all its actions? thoughts and feelings? is dedicated to the service of the Lord eventually. He lives for the Lord only. He works for the Lord only. There is not a bit of egoism now. His whole nature is transformed into divinity. When actions are dedicated to the Lord? there is no rirth for you. This is the simplest method of Yoga. Do not waste your time any longer. Take it up from today.All actions? all results and all rewards will go to the Lord. There is no separte living for the individual. Just as the river joins the sea abandoning its own name and form so also the individual soul joins the Supreme Soul giving up his own name and form? his own egoistic desires and egoism. The individual will has become one with the cosmic will.Whatever thou doest of thy own sweet will? whatever thou offerest in sacrifice as enjoined in the scriptures? whatever thou givest -- such things as gold? rice? ghee? clothes? etc.? to the Brahmins and others -- whatever austerity such as the ChandrayanaVrata (to destroy sin)? control of the senses? etc.? thou doest? do thou all these as an offering unto Me. (Cf.V.32XII.6and8)Now listen to what you will gain by doing thus.
9.27 Whatever thou doest, whatever thou eatest, whatever thou offerest in sacrifice, whatever thou givest, whatever thou practisest as austerity, O Arjuna, do it as an offering unto Me.
9.27 Whatever thou doest, whatever thou dost eat, whatever thou dost sacrifice and give, whatever austerities thou practisest, do all as an offering to Me.
9.27 O son of Kunti, whatever you do, whatever you eat, whatever you offer as a sacrifice, whatever you give and whatever austerities you undertake, (all) that you offer to Me.
9.27 O son of Kunti, yat-karosi, whatever you do, what comes spontaneously; [Actions such as walking etc. that are spontaneous,not injunctions of the scriptures.] yad-asnasi, whatever you eat; and yat-juhosi, whatever you offer as a sacrifice, whatever sacrifices you perform-be it prescribed by the Vedas or by the Smrtis; yatadadasi, whatever you give-gold, food, clarified butter, etc. to Brahmanas and others; and yat-tapasyasi, whatever austerties you undertake; (all) tat, that; kurusva madarpanam, you offer to Me. 'Hear what happens to you when you act thus.'
9.27. Whatever you do, whatever you eat, whatever oblation you offer, whatever gift you make and what-ever austerity you perform, O son of Kunti, do that as an offering to Me.
9.27 See Comment under 9.28
9.27 Whatsoever worldly work you do for the sustenance of the body, whatsoever you set aside for the sustenance of the body, whatsoever Vedic acts, obligatory and occasional, like offerings, charity and austerity you practise - do all that as an offering to Me. 'Arpana' is offering. Do all acts, secular and Vedic, as if the doer, the enjoyer and the worshipped were all offerings to Me. The import is this: The divinities etc., who are the objects of sacrificial worship, charities etc., and you, the agent and experiencer - all belong to Me and have their essence, existence and actions dependent on Me. Thus only to Me, the supreme Principal (Sesi) and supreme agent, offer everything - yourself as the agent, experiencer and worshipper, all the host of divinities who are the object of worship and the sum of actions constituting the worship. Actuated by overwhelming love, contemplate yourself and other factors such as the objects of worship, as dependent on Me as My Sesas, and hence as of a nature that finds delight only in subservience to Me.
9.27 Whatsoever you do, whatsoever you eat, whatsoever you offer, whatsoever you give away, whatsoever austerity you practise, O Arjuna, do that as an offering to Me.
।।9.27।।क्योंकि यह बात है? इसलिये --, हे कुन्तीपुत्र तू जो कुछ भी स्वतःप्राप्त कर्म करता है? जो खाता? जो कुछ श्रौत या स्मार्त यज्ञरूप हवन करता है? जो कुछ सुवर्ण? अन्न? घृतादि वस्तु ब्राह्मणादि सत्पात्रोंको दान देता है और जो कुछ तपका आचरण करता है? वह सब मेरे समर्पण कर।
।।9.27।। --,यत् करोषि स्वतः प्राप्तम्? यत् अश्नासि? यच्च जुहोषि हवनं निर्वर्तयसि श्रौतं स्मार्तं वा? यत् ददासि प्रयच्छसि ब्राह्मणादिभ्यः हिरण्यान्नाज्यादि? यत् तपस्यसि तपः चरसि कौन्तेय? तत् कुरुष्व मदर्पणं मत्समर्पणम्।।एवं कुर्वतः तव यत् भवति? तत् श्रृणु --,
।।9.27।।आत्मनो गोविन्दस्यासाधनानादरस्य पूर्वमेवोक्तत्वाद्व्यर्थमुत्तरमित्यत आह -- अत इति। सामान्यमुक्त्वा विशेषे निगमनमेतदिति भावः।
।।9.27।।अतो यत्करोषि।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।।
যত্করোষি যদশ্নাসি যজ্জুহোষি দদাসি যত্৷ যত্তপস্যসি কৌন্তেয তত্কুরুষ্ব মদর্পণম্৷৷9.27৷৷
যত্করোষি যদশ্নাসি যজ্জুহোষি দদাসি যত্৷ যত্তপস্যসি কৌন্তেয তত্কুরুষ্ব মদর্পণম্৷৷9.27৷৷
યત્કરોષિ યદશ્નાસિ યજ્જુહોષિ દદાસિ યત્। યત્તપસ્યસિ કૌન્તેય તત્કુરુષ્વ મદર્પણમ્।।9.27।।
ਯਤ੍ਕਰੋਸ਼ਿ ਯਦਸ਼੍ਨਾਸਿ ਯਜ੍ਜੁਹੋਸ਼ਿ ਦਦਾਸਿ ਯਤ੍। ਯਤ੍ਤਪਸ੍ਯਸਿ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਤਤ੍ਕੁਰੁਸ਼੍ਵ ਮਦਰ੍ਪਣਮ੍।।9.27।।
ಯತ್ಕರೋಷಿ ಯದಶ್ನಾಸಿ ಯಜ್ಜುಹೋಷಿ ದದಾಸಿ ಯತ್. ಯತ್ತಪಸ್ಯಸಿ ಕೌನ್ತೇಯ ತತ್ಕುರುಷ್ವ ಮದರ್ಪಣಮ್৷৷9.27৷৷
യത്കരോഷി യദശ്നാസി യജ്ജുഹോഷി ദദാസി യത്. യത്തപസ്യസി കൌന്തേയ തത്കുരുഷ്വ മദര്പണമ്৷৷9.27৷৷
ଯତ୍କରୋଷି ଯଦଶ୍ନାସି ଯଜ୍ଜୁହୋଷି ଦଦାସି ଯତ୍| ଯତ୍ତପସ୍ଯସି କୌନ୍ତେଯ ତତ୍କୁରୁଷ୍ବ ମଦର୍ପଣମ୍||9.27||
yatkarōṣi yadaśnāsi yajjuhōṣi dadāsi yat. yattapasyasi kauntēya tatkuruṣva madarpaṇam৷৷9.27৷৷
யத்கரோஷி யதஷ்நாஸி யஜ்ஜுஹோஷி ததாஸி யத். யத்தபஸ்யஸி கௌந்தேய தத்குருஷ்வ மதர்பணம்৷৷9.27৷৷
యత్కరోషి యదశ్నాసి యజ్జుహోషి దదాసి యత్. యత్తపస్యసి కౌన్తేయ తత్కురుష్వ మదర్పణమ్৷৷9.27৷৷
9.28
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।।9.28।। इस प्रकार मेरे अर्पण करनेसे जिनसे कर्मबन्धन होता है, ऐसे शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे मुक्त हुआ तू मेरेको प्राप्त हो जायगा।
।।9.28।। इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।।
।।9.28।। यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य एक ही होता हैं किन्तु उसकी प्राप्ति के साधनमार्ग अनेक हैं इन मार्गों का सतही अध्ययन करने पर वे परस्पर सर्वथा विपरीत दिखाई पड़ते हैं? तथापि उन सबका वैज्ञानिक आधार एक ही है? जो उन सबकी उपयोगिता एवं औचित्य को न्यायसंगत प्रमाणित करता है। गीता में अनेक स्थलों पर इस मूलभूत आधार को स्पष्टत दर्शाया गया है? तो किन्हीं अन्य स्थानों पर केवल उनका संकेत किया गया हैं फिर भी गीता के सावधान और सजग विद्यार्थी उसे पहचान सकते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में इस पर विचार किया गया हैं कि किस प्रकार अर्पण की भावना से जीवन जीते हुए? मनुष्य परम पुरुषार्थ को प्राप्त कर सकता हैं जो कि निदिध्यासन और यज्ञ की भावना का निश्चित फल हैं।यह सर्वविदित तथ्य हैं कि जो कर्म का कर्ता होता हैं? वही कर्मफल का भोक्ता भी होता है। अत यदि हम कर्तृत्वाभिमान से कर्म करें? तो फलोपभोग के लिए भी हमें बाध्य होना पडेगा। इसलिए वेदान्त का सिद्धांत है कि निरहंकार भाव से कर्म किये जाने पर उनसे शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकार की वासनाएं उत्पन्न नहीं होती।भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं? तुम शुभअशुभ रूप कर्म के बन्धनांे से मुक्त हो जाओगे। कारण यह है कि अहंकार के अभाव में साधक के किये नये कर्मो से वसानाओं में वृद्धि नहीं होती और साथहीसाथ पूर्व संचित वासनाओं का शनैशनै क्षय हो जाता है। संक्षेप में? उस साधक का चित्त अधिकाधिक शुद्ध होता जाता है शास्त्रीय भाषा में इसे चित्तशुद्धि कहते हैं।मन के शुद्ध होने पर उसकी एकाग्रता की शक्ति में वृद्धि हो जाती हैं।विकास की अगली सीढ़ी यह हैं कि इस चित्तशुद्धि के फलस्वरूप साधक की आत्मानात्मविवेक की सार्मथ्य में अभिवृद्धि होती है। फिर वह संन्यास और योग के जीवन का आचरण करता है इन दो शब्दों का विस्तृत विवेचन पूर्व में किया जा चुका है? जिन्हें गीता में वर्णित अर्थ की दृष्टि से समझना चाहिए। संन्यास का अर्थ भौतिक जगत् का त्याग नहीं? वरन् गीता की भाषा में? संन्यास का अर्थ है (क) अहंकार से प्रेरित सब कर्मों का त्याग? और (ख) कर्मफल के साथ आसक्ति का त्याग। जो पुरुष परिश्रम और उत्साह के साथ अपनी भक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में अर्पण का जीवन जीता है? उसके लिए यह दोनों त्याग स्वाभाविक हो जाते हैं। अन्त में वह समस्त फलों को ईश्वर को अर्पण कर देता है।इस प्रकार? संन्यास का जीवन जीते हुए जिस साधक ने विवेक के द्वारा पूर्ण चित्तशुद्धि प्राप्त कर ली हैं उसे आत्मानुसंधानरूप योग सरल हो जाता है इसका कारण यह है कि वह अपने दैनिक कार्यकलापों में भी अनन्त आत्मस्वरूप का स्मरण बनाये रखता है।स्वभावत ऐसा साधन सम्पन्न योग्य अधिकारी पाता है कि उसकी अज्ञान दशा का मिथ्या उपाधियों के साथ तादात्म्य और तज्जिनित परिच्छिन्नता एवं मृत्यु के दुख सर्वथा समाप्त हो गये हैं। स्वस्वरूपानुभूति उसके लिए सहज सिद्ध हो जाती हैं। संन्यास और योग से युक्त हुए तुम मुक्त होकर मुझे प्राप्त हो जाओगे।जिस आत्मस्वरूप की प्राप्ति साधक को होगी? उस आत्मा का स्वरूप क्या है उसे अगले श्लोक में बताते हैं --
।।9.28।। व्याख्या--शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः--पूर्वोक्त प्रकारसे सब पदार्थ और क्रियाएँ मेरे अर्पण करनेसे अर्थात् तेरे स्वयंके मेरे अर्पित हो जानेसे अनन्त जन्मोंके जो शुभ-अशुभ कर्मोंके फल हैं, उन सबसे तू मुक्त हो जायगा। वे कर्मफल तेरेको जन्म-मरण देनेवाले नहीं होंगे। यहाँ शुभ और अशुभकर्मोंसे अनन्त जन्मोंके किये हुए संचित शुभ-अशुभकर्म लेने चाहिये। कारण कि भक्त वर्तमानमें भगवदाज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म ही भगवान्को अर्पण करता है। भगवदाज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म शुभ ही होते हैं, अशुभ होते ही नहीं। हाँ, अगर किसी रीतिसे, किसी परिस्थितिके कारण, किसी पूर्वाभ्यासके प्रवाहके कारण भक्तके द्वारा कदाचित्, किञ्चिन्मात्र भी कोई आनुषङ्गिक अशुभकर्म बन जाय, तो उसके हृदयमें विराजमान भगवान् उस अशुभकर्मको नष्ट कर देते हैं (टिप्पणी प0 517.1)।जितने भी कर्म किये जाते हैं, वे सभी बाह्य होते हैं अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिके द्वारा ही होते हैं। इसलिये उन शुभ और अशुभकर्मोंका अनुकल-प्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें जो फल आता है, वह भी बाह्य ही होता है। मनुष्य भूलसे उन परिस्थितियोंके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर सुखी-दुःखी होता रहता है। यह सुखी-दुःखी होना ही कर्मबन्धन है और इसीसे वह जन्मता-मरता है। परन्तु भक्तकी दृष्टि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंपर न रहकर भगवान्की कृपापर रहती है अर्थात् भक्त उनको भगवान्का विधान ही मानता है, कर्मोंका फल मानता ही नहीं। इसलिये वह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है। 'संन्यासयोगयुक्तात्मा'--सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्के अर्पण करनेका नाम 'संन्यासयोग' है। इस संन्यासयोग अर्थात् समर्पणयोगसे युक्त होनेवालेको यहाँ 'संन्यासयोगयुक्तात्मा' कहा गया है। ऐसे तो गीतामें बहुत जगह 'संन्यास' शब्द सांख्ययोगका वाचक आता है, पर इसका प्रयोग भक्तिमें भी होता है; जैसे-- 'मयि संन्यस्य' (18। 57)। जैसे सांख्ययोगी सम्पूर्ण कर्मोंको मनसे नवद्वारवाले शरीरमें रखकर स्वयं सुखपूर्वक अपने स्वरूपमें स्थित रहता है (गीता 5। 13), ऐसे ही भक्त कर्मोंके साथ अपने माने हुए सम्बन्धको भगवान्में रख देता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे कोई सज्जन अपनी धरोहरको कहीं रख देता है, ऐसे ही भक्त अपनेसहित अनन्त जन्मोंके संचित कर्मोंको, उनके फलोंको और उनके सम्बन्धको भगवान्में रख देता है। इसलिये इसको 'संन्यासयोग' कहा गया है।
।।9.27 -- 9.28।।यदपि अन्यत् कर्म? तदपि महेश्वरस्वात्मार्चनरूपं? तस्यैव सर्वत्रोद्देशात् इत्याह -- यत् करोषीति। शुभाशुभेति। देवतान्तरयाजिनो यतो मितमनोरथाः फलं लघयन्ति? अतस्त्वं सर्वं प्रागुक्तोपदेशक्रमेण मदर्पणं मन्मयत्वेन भावन (S omits मन्मयत्वेन भावनम्) कुरु। एष एव च संन्यासयोग इति विस्तीर्णं विस्पष्टप्रायं पुरस्तादेव।
।।9.28।।एवं संन्यासाख्ययोगयुक्तमना आत्मानं मच्छेषतामन्नियाम्यतैकरसं कर्म च सर्वं मदाराधनम् अनुसंदधानो लौकिकं वैदिकं च कर्म कुर्वन् शुभाशुभफलैः अनन्तैः प्राचीनकर्माख्यैः बन्धनैः मत्प्राप्तिविरोधिभिः सर्वैः मोक्ष्यसे? तैः विमुक्तो माम् एव उपैष्यसि।मम इमं परमम् अतिलोकं स्वभावं श्रृणु --
।।9.28।।किमतो भवति तदाह -- एवमिति। भगवदर्पणबुद्ध्या सर्वकर्म कुर्वतो जीवन्मुक्तस्य प्रारब्धकर्मावसाने विदेहकैवल्यमावश्यकमित्याह -- शुभेत्यादिना। भगवदर्पणकरणान्मुक्तिः संन्यासयोगाच्चेति साधनद्वयशङ्कां शातयति -- सोऽयमिति।
।।9.28।।एवं च मर्यादायामनुगृहीतस्य तव या फलसिद्धिस्तामवधेहि -- शुभेति। एवं सति सन्न्यासस्त्यागो भजनार्थः फलादिविषयकोमनसैवानुद्रष्टव्यं इति वा योगस्तदभिन्न एकार्थकश्चेतसः समत्वं तेन युक्त आत्मा यस्य तथाविधस्त्वं कर्मबन्धनैरिष्टानिष्टफलैः मुक्तो भविष्यसि मुक्तिसिद्धर्भविता। जगति स्थितोऽपि त्वं मत्सेवको योगी संसारधर्माऽलिप्त एव मां पुरुषोत्तमं समुपैष्यसि सेवोपयोगिस्वरूपेण व्यापिवैकुण्ठे। मत्समीपे स्थास्यसीति भावः।
।।9.28।।एतादृशस्य भजनस्य फलमाह -- एवमनायाससिद्धेऽपि सर्वकर्मसमर्पणरूपे मद्भजने सति शुभाशुभे इष्टानिष्टे फले येषां तैः कर्मबन्धनैर्बन्धरूपैः कर्मभिर्मोक्ष्यसे मयि समर्पितत्वात्तव तत्संबन्धानुपपत्तेः कर्मभिस्तत्फलैश्च न संस्रक्ष्यसे। ततश्च संन्यासयोगयुक्तात्मा संन्यासः सर्वकर्मणां भगवति समर्पणं स एव योग इव चित्तशोधकत्वाद्योगस्तेन युक्तः शोधित आत्मान्तःकरणं यस्य स त्वं त्यक्तसर्वकर्मा वा। कर्मबन्धनैर्जीवन्नेव विमुक्तः सन्सम्यग्दर्शनेनाज्ञानावरणनिवृत्त्या मामुपैष्यसि साक्षात्करिष्यस्यहं ब्रह्मास्मीति। ततः प्रारब्धकर्मक्षयात्पतितेऽस्मिञ्शरीरे विदेहकैवल्यरूपं मामुपैष्यसि। इदानीमपि सद्रूपः सन्सर्वोपाधिनिवृत्त्या मायिकभेदव्यवहारविषयो न भविष्यसीत्यर्थः।
।।9.28।। एवं च यत्फलं प्राप्स्यसि तच्छृणु -- शुभेति। एवं कुर्वन्कर्मबन्धनैः कर्मनिमित्तैरिष्टानिष्टैः फलैर्मुक्तो भविष्यसि। कर्मणां मयि समर्पितत्वेन तव तत्फलसंबन्धानुपपत्तेः। तैश्च विमुक्तः सन्संन्यासयोगयुक्तात्मा संन्यासः कर्मणां मदर्पणं स एव योगस्तेन युक्त आत्मा चित्तं यस्य तथाभूतस्त्वं मां प्राप्स्यसि।
।।9.28।।सन्न्यासयोगयुक्तात्मा इत्ययं फलविधानार्थः पूर्वश्लोकार्थानुवादः न तु ज्ञानकर्मयोगादिपर इत्यभिप्रायेणान्वयमाह -- एवं सन्न्यासाख्येति। योगशब्दोऽत्रानुसन्धानपरः। तदेव प्रकृतसमर्पणानुवादिना सन्न्यासशब्देन विशेष्यते।आत्मानमित्यादि तद्विवरणम्।लौकिकमित्यादि स्वभावार्थप्राप्तयोः सामान्यरूपम्।शुभाशुभफलैः? अनुकूलप्रतिकूलफलैरित्यर्थः।अनन्तैरिति बहुवचनाभिप्रेतकथनम्। समर्पणबुद्ध्या क्रियमाणस्य बन्धकत्वाभावात्तद्व्यवच्छेदायप्राचीनशब्दः। अभिमतगतिनिवृत्तिहेतुर्हि बन्धनमित्यभिप्रायेणमत्प्राप्तिविरोधिभिरित्युक्तम् तेनोपायविरोधिव्यवच्छेदश्च। एतेनैव शुभफलस्यापि कर्मणोऽतिशयितफलप्रतिबन्धकत्वात् हेयत्वं निर्व्यूढम्।मामुपैष्यसि इत्येतत्सामर्थ्यात्सर्वैरित्युक्तम्।मोक्ष्यसे इत्युक्त एवार्थोविमुक्तः इत्यनूद्यत इत्यपौनरुक्त्याभिप्रायेणाहतैर्विमुक्त इति। अत्र विमुक्तिशब्दस्य जीवन्मुक्तिपरत्वं वदन्तस्तदसम्भवादेव निरसनीयाः। कर्तृत्वफलप्रदत्वादिवत्फलत्वमपि स्वस्यैवेत्यभिप्रायेणमामेवोपैष्यसीत्युक्तम्। यद्वा क्रमेण प्राप्त्या विलम्बव्यवच्छेदार्थ एवकारः।मामेवैष्यसि [9।34] इति च वक्ष्यते।
।।9.28।।एवं मत्समर्पितेषु तत्कृतबन्धो न भविष्यतीत्याह -- शुभाशुभफलैरिति। एवं मत्समर्पणेन शुभाशुभफलैः -- शुभानि शुभपुत्रादीनि? अशुभानि क्लेशदारिद्र्यादीनि यानि कर्मजानि फलानि तैर्मोक्ष्यसे मुक्तो भविष्यसीत्यर्थः। तानि फलानि मत्सेवौपयिकान्येव भविष्यन्तीति भावः। ततः सन्न्यासयोगयुक्तात्मा सन्न्यासः कर्मणां मत्समर्पणं तेन यो योगो मद्भक्त्यात्मकस्तेन युक्त आत्मा अन्तःकरणं यस्य तादृशः सन् कर्मबन्धनैर्विमुक्तो मामुपैष्यसि प्राप्स्यसीत्यर्थः।
।।9.28।।एवं कुर्वतः फलमाह -- शुभाशुभेति। शुभाशुभफलैरिष्टानिष्टफलैः कर्मरूपैर्बन्धनैरेवं कुर्वन् त्वं मोक्ष्यसे भगवदर्पणबुद्ध्या यत्किञ्चित्कर्म कुर्वतः कर्मलेपो नास्तीत्यर्थः। अयमेवोक्तलक्षणः कर्मफलसंन्यासरूपो,मार्गस्तत्र युक्तात्मा समाहितचित्तः सन् विमुक्तः कर्मबन्धनैर्विमुक्तः सन् मां सर्वेषां प्रत्यगात्मानमुपैष्यसि।
।।9.28।।एवं मदर्पणं कुर्वतस्तत्व यत्फलं भविष्यति तच्छृणु। शूभाशुभे इष्यानिष्टे फले येषां कर्मणां तान्येव बन्धनानि शूभाशूभफलैः कर्मरुपैर्बन्धनैरितियावत्। एवं मदुक्तं कुर्वन् मोक्ष्यसे। कर्मभिर्न बध्यस इत्यर्थः। सोऽयं मदर्पणबुद्य्धा क्रियमाणकर्मसंन्यासयोगो नाम फलत्यागात्संन्यासश्चासौ कर्मत्वाद्योगश्च तेन युक्त आत्मा अन्तःकरणं यस्य स त्वं संन्यासः स्वरुपतः सर्वकर्मत्यागः स एव युज्यते ब्रह्मणानेनेति योगस्तेन युक्तस्तस्मिन्युक्तः समाहितो वा आत्मान्तःकरणं यस्य स त्वं संन्यासः स्वरुपतः सर्वकर्मत्यागः स ए युज्यते ब्रह्मणानेनेति योगस्तेन युक्तस्तस्मिन्युक्तः समाहितो वा आत्मान्तःकरणं यस्य स त्वमित्यर्थस्तु सर्वकर्मत्यागरुपे मुख्यसंन्यासेऽर्जुनाधिकारो भगवतोऽनभिप्रेत इत्यभिप्रेत्याचार्यैर्न प्रदर्शितः। संन्यासयोगयुक्तात्मा सन् ज्ञानप्राप्त्या जीवन्नेव कर्मबन्धनैर्विमुक्तः पतितं च देहे मां परमात्मानं सच्चिदान्दघनं मोक्षाख्यमुपैष्यसि प्राप्स्यसि।
9.28 शुभाशुभफलैः from good and evil fruits? एवम् thus? मोक्ष्यसे (thou) shalt be freed? कर्मबन्धनैः from the bonds of actions? संन्यासयोगयुक्तात्मा with the mind steadfast in the Yoga of renunciation? विमुक्तः liberated? माम् to Me? उपैष्यसि (thou) shalt come.Commentary Evam Thus -- when you thus offer everything to Me.Renunciation of the fruits of all works is Sannyasa. He who is eipped with the mind steadfast in the Yog of renunciation is Sannyasayogayuktatma. The act of offering everything unto the Lord,constitutes the Yoga of renunciation. It is also Yoga as it is an action. With the mind endowed with renunciation and Yoga thou shalt be freed from good and evil results while yet living and thou shalt come unto Me when this body falls.An objector says? Then the Lord has love and hatred as He confers His grace on His devotees only and not on others.The answer is? Not so. The Lord is impartial and is beyond love and hatred. His grace flows towards all. But the devotee recieves it freely as he has opened his heart to the reception of His grace.This is explained in the next verse.
9.28 Thus shalt thou be freed from the bonds of actions yielding good and evil fruits; with the mind steadfast in the Yoga of renunciation, and liberated, thou shalt come unto Me.
9.28 So shall thy action be attended by no result, either good or bad; but through the spirit of renunciation thou shalt come to Me and be free.
9.28 Thus, you will become free from bondage in the form of actions which are productive of good and bad results. Havng your mind inbued with the yoga of renunciation and becoming free, you will attain Me.
9.28 By dedicating to Me evam, thus; maksyase, you will become free; karma-bandhanaih, from bondage in the form of actions-actions themselves being the bonds; subha-asubha-phalaih, which are productive of good and bad results-i.e. from actions that have desirable (subha) and undesireable (asubha) results (phala). Sannyasa, renunciation, is that which results from dedication (of actions) to Me, and that is also yoga since it involves actions. He who has his mind (atma) endowed (yukta) with that yoga of renunciation (sannyasa-yoga) is sannyasa-yoga-yukta-atma. You, being such, having your mind endowed with the yoga of renunciation, and vimuktah, becoming free from the bonds of actions evern while living; upaisyasi, will attain, come; mam, to Me, when this body falls. In that case the Lord is possessed of love and hatred inasmuch as He favours the devotees, and not others? That is not so:
9.28. Thus, you shall be freed from the good and evi results which are the action-bonds. Having your innate nature immersed in the Yoga of renunciation and (thus) being fully liberated you shall attain Me.
9.27-28 Yat karosi etc. Subhasubha - etc. Because the performers of sacrifices intending other deities have in their mind only limited purpose, and [hence] belitle the [principal] result [of the sacrifice etc.]; therefore all [actions] you should offer, by the method advised above, to Me i.e., consider them to be absorbed in Me (or to be born of Me). This is the renunciation-Yoga. Extensively it has already been made almost ite clear.
9.28 Thus, eipped with a mind which is firmly set in Yoga, called Sannyasa, considering yourself as one whose delight lies in being a subsidiary (Sesa) to Me and subject to My control and all acts to be My worship, and engaging yourself in secular and Vedic actions with such an attitude, you will free yourself from countless bonds, called ancient Karmas, productive of auspicious and inauspicious results which stands as a hindrance preventing you from attaining Me. Freed from them, you shall come to Me only. Listen now, to My supreme nature which transcends the world:
9.28 Thus eipped in mind with the Yoga of renunciation, you will free yourself from the bonds of Karma, productive of auspicious as well as inauspicious fruits. Thus liberated, you will come to Me.
।।9.28।।ऐसा करनेसे तुझे जो लाभ होगा वह सुन --, इस प्रकार कर्मोंको मेरे अर्पण करके तू शुभाशुभ फलयुक्त कर्मबन्धनसे अर्थात् अच्छा और बुरा जिसका फल,है ऐसे कर्मरूप बन्धनसे छूट जायगा। तथा इस प्रकार तू संन्यासयोगयुक्तात्मा होकर? -- मेरे अर्पण करके कर्म किये जानेके कारण जो संन्यास है और कर्मरूप होनेके कारण जो योग है उस संन्यासरूप योगसे जिसका अन्तःकरण युक्त है उसका नाम संन्यासयोगयुक्तात्मा है? ऐसा होकर? -- तू इस जीवितावस्थामें ही कर्मबन्धनसे मुक्त होकर इस शरीरका नाश होनेपर मुझे ही प्राप्त हो जायगा। अर्थात् मुझमें ही विलीन हो जायगा।
।।9.28।। --,शुभाशुभफलैः एवं शुभाशुभे इष्टानिष्टे फले येषां तानि शुभाशुभफलानि कर्माणि तैः शुभाशुभफलैः कर्मबन्धनैः कर्माण्येव बन्धनानि कर्मबन्धनानि तैः कर्मबन्धनैः एवं मदर्पणं कुर्वन् मोक्ष्यसे। सोऽयं संन्यासयोगो नाम? संन्यासश्च असौ मत्समर्पणतया कर्मत्वात् योगश्च असौ इति? तेन संन्यासयोगेन युक्तः आत्मा अन्तःकरणं यस्य तव सः त्वं संन्यासयोगयुक्तात्मा सन् विमुक्तः कर्मबन्धनैः जीवन्नेव पतिते चास्मिन् शरीरे माम् उपैष्यसि आगमिष्यसि।।रागद्वेषवान् तर्हि भगवान्? यतो भक्तान् अनुगृह्णाति? न इतरान् इति। तत् न --,
null
null
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः। संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।9.28।।
শুভাশুভফলৈরেবং মোক্ষ্যসে কর্মবন্ধনৈঃ৷ সংন্যাসযোগযুক্তাত্মা বিমুক্তো মামুপৈষ্যসি৷৷9.28৷৷
শুভাশুভফলৈরেবং মোক্ষ্যসে কর্মবন্ধনৈঃ৷ সংন্যাসযোগযুক্তাত্মা বিমুক্তো মামুপৈষ্যসি৷৷9.28৷৷
શુભાશુભફલૈરેવં મોક્ષ્યસે કર્મબન્ધનૈઃ। સંન્યાસયોગયુક્તાત્મા વિમુક્તો મામુપૈષ્યસિ।।9.28।।
ਸ਼ੁਭਾਸ਼ੁਭਫਲੈਰੇਵਂ ਮੋਕ੍ਸ਼੍ਯਸੇ ਕਰ੍ਮਬਨ੍ਧਨੈ। ਸਂਨ੍ਯਾਸਯੋਗਯੁਕ੍ਤਾਤ੍ਮਾ ਵਿਮੁਕ੍ਤੋ ਮਾਮੁਪੈਸ਼੍ਯਸਿ।।9.28।।
ಶುಭಾಶುಭಫಲೈರೇವಂ ಮೋಕ್ಷ್ಯಸೇ ಕರ್ಮಬನ್ಧನೈಃ. ಸಂನ್ಯಾಸಯೋಗಯುಕ್ತಾತ್ಮಾ ವಿಮುಕ್ತೋ ಮಾಮುಪೈಷ್ಯಸಿ৷৷9.28৷৷
ശുഭാശുഭഫലൈരേവം മോക്ഷ്യസേ കര്മബന്ധനൈഃ. സംന്യാസയോഗയുക്താത്മാ വിമുക്തോ മാമുപൈഷ്യസി৷৷9.28৷৷
ଶୁଭାଶୁଭଫଲୈରେବଂ ମୋକ୍ଷ୍ଯସେ କର୍ମବନ୍ଧନୈଃ| ସଂନ୍ଯାସଯୋଗଯୁକ୍ତାତ୍ମା ବିମୁକ୍ତୋ ମାମୁପୈଷ୍ଯସି||9.28||
śubhāśubhaphalairēvaṅ mōkṣyasē karmabandhanaiḥ. saṅnyāsayōgayuktātmā vimuktō māmupaiṣyasi৷৷9.28৷৷
ஷுபாஷுபபலைரேவஂ மோக்ஷ்யஸே கர்மபந்தநைஃ. ஸஂந்யாஸயோகயுக்தாத்மா விமுக்தோ மாமுபைஷ்யஸி৷৷9.28৷৷
శుభాశుభఫలైరేవం మోక్ష్యసే కర్మబన్ధనైః. సంన్యాసయోగయుక్తాత్మా విముక్తో మాముపైష్యసి৷৷9.28৷৷
9.29
9
29
।।9.29।। मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। उन प्राणियोंमें न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मेरेमें हैं और मैं  उनमें हूँ।
।।9.29।। मैं समस्त भूतों में सम हूँ; न कोई मुझे अप्रिय है और न प्रिय; परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ।।
।।9.29।। भूतमात्र में व्याप्त आत्मा एक ही है वही एक चैतन्य तत्त्व प्राणिमात्र के अन्तकरण की भावनाओं एवं विचारों को प्रकाशित करता है। मैं समस्त भूतों में सम हूँ। एक सूर्य जगत् की सभी वस्तुओं को प्रकाशित करता है और उसकी किरणें सभी वस्तुओं की सतहों पर से परावर्तित होती हैं चाहे वह सतह पाषाण की हो या किसी रत्न की।मुझे न कोई अप्रिय है और न कोई प्रिय यदि एक ही आत्मा? श्रीकृष्ण और बुद्ध में? आचार्य शंकर और ईसामसीह में? एक पागल और हत्यारे में तथा साधु और दुष्ट में रमती है तो क्या कारण है कि कोईकोई पुरुष तो इस आत्मा को पहचान पाते हैं? जबकि अन्य लोग कृत्रिम कीटों के समान जीवन जीते हैं भक्तिमार्ग की विवेचना करने वाले भावना प्रधान साहित्य में उपर्युक्त वैषम्य का भावुक स्पष्टीकरण दिया जाता है। उनके अनुसार ईश्वर की कृपा के कारण किन्हीं किन्हीं पुरुषों में दिव्यता अधिक मात्रा में अभिव्यक्त होती है। यह स्पष्टीकरण उन लोगों के लिए पर्याप्त या सन्तोषजनक हो सकता है? जो धर्मविषयक चर्चा में अपनी बौद्धिक क्षमता का अधिक उपयोग नहीं करते हैं। परन्तु बुद्धिमान विचारी पुरुषों को यह स्पष्टीकरण असंगत जान पड़ेगा? क्योंकि उस स्थिति में यह मानना पड़ेगा कि परमात्मा कुछ लोगों के प्रति पक्षपात करते हैं। इस प्रकार की दोषपूर्ण व्याख्या का खण्डन और शुद्ध तर्क संगत सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि आत्मा भूतमात्र में सदा एक समान भाव से स्थित है। उसके लिए शुभ और अशुभ का भेदभाव नहीं है आत्मा को किसी प्राणी के प्रति न प्रेम विशेष है और न किसी अन्य के प्रति द्वेष।इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि आत्मा कोई शक्तिहीन जड़ तत्त्व है। सूर्य की उपमा द्वारा इस श्लोक का आशय सम्यक् प्रकार से समझा जा सकता है। यद्यपि एक ही सूर्य जगत् की विविध प्रकार की वस्तुओं पर प्रतिबिम्बत या परावर्तित होता है? तथापि यह भी सत्य है कि परावर्तित प्रकाश की स्पष्टता एवं प्रखरता परावर्तन के माध्यम की सतह के गुणों पर निर्भर करेगी। एक खुरदरे पाषाण पर प्रकाश की न्यूनतम मात्रा परावर्तित होगी? जबकि स्वच्छ चमकीले दर्पण पर सम्भवत सर्वाधिक होगी।इस भेद के कारण सूर्य पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उसे दर्पण के प्रति विशेष प्रेम है और पाषाण के प्रति घृणा। इस उपमा को आन्तरिक जीवन में लागू करके देखें? तो यह स्पष्ट होगा कि यदि स्वर्णिमहृदय के कुछ विरले लोगों में आध्यात्मिक सौन्दर्य एवं सार्मथ्य अधिक मात्रा में व्यक्त होती है और अनेक पाषाणी हृदयों के व्यक्तियों में रंचमात्र भी नहीं? तो इसका कारण विभिन्न उपाधियां हैं? और न कि आत्मा। आत्मा न किसी को वरीयता देता है और न किसी के प्रति उसका पूर्वाग्रह ही है। हमें जो विषमता अनुभव होती है? वह सर्वथा प्रकृति के नियमानुसार ही है।प्रथम पंक्ति में परमात्मा का पक्षपातरहित स्वरूप दिखाया? और फिर कहते हैं कि? परन्तु जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं? वे मुझमें और मैं भी उनमें हूँ। इन दोनों पंक्तियों में विरोधाभास प्रत्यक्ष होते हुए भी वास्तविकता ऐसी नहीं हैं। यह सत्य है कि परमात्मा को किसी से राग या द्वेष नहीं है? किन्तु लोगों का उनके प्रति अवश्य ही राग या द्वेष हो सकता है। जिन्हें ईश्वर से प्रेम है? वे लोग उनके समीप पहुँचना चाहते हैं और अन्य लोग उनसे दूर ही रहते हैं। इस प्रकार जो भक्तिपूर्वक परमात्मा की पूजा करते हैं वे अन्त में अपने पूज्य और ध्येय को आत्मस्वरूप में साक्षात् अनुभव करते हैं? अर्थात् उन्हें यह ज्ञान होता है कि वास्तव में वे परमात्मस्वरूप से एक ही हैं? भिन्न नहीं।जो मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं प्रारम्भ में इसका अर्थ कर्मकाण्डीय पूजा के विविध विधान से समझा जा सकता है। उसके आध्यात्मिक अभिप्राय को समझने के लिए सूक्ष्म और गम्भीर अध्ययन की आवश्यकता है। मूलत पूजा वह साधन प्रकिया है? जिसके द्वारा सम्पूर्ण वृत्तिरूपी सैन्य को संगठित करके उन्हें ध्यान के दिव्य ध्येय की ओर प्रवृत्त किया जाता है। इसमें प्रयत्न यह होता है कि ध्येय सत्य के साथ पूर्ण तादात्म्य? पूर्ण एकत्व स्थापित हो जाय। यह साधना भक्तिपूर्वक करने से भक्त भगवान् से? ध्याता ध्येय से तद्रूप हो जाता है।इस अभिप्राय को ध्यान में रखकर इस श्लोक का पुन अध्ययन करने पर भगवान् के सैद्धांतिक कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। यद्यपि सत्स्वरूप आत्मा को किसी से कोई पक्षपात नहीं है? परन्तु किन्हींकिन्हीं शुद्धांतकरण के भक्तजनों में अपने परमात्मस्वरूप की पहचान के कारण इस दिव्यत्व की अभिव्यक्ति होती है।अनात्म उपाधियों के साथ आत्मबुद्धि से अत्यधिक आसक्ति के कारण जीव पूर्णत्व के आनन्द का अनुभव नहीं कर पाता है। परन्तु जब इस आसक्ति और बहिर्मुखी प्रवृत्तियों का वह परित्याग कर देता है? तब ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बन कर अपने आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाता है। मनुष्य के मन की स्थिति उसके बद्धत्व या मुक्तत्व का द्योतक है। बहिर्मुखी मन अनित्य विषयों में सुख की खोज करते हुए उनसे बँध जाता है और सदा दुख और निराशा के कारण कराहता रहता है जबकि वही मन अन्तर्मुखी होकर आत्मचिन्तन के द्वारा आत्मानुभव को प्राप्त करता है।शीतकाल में अपने कमरे के अन्दर बैठकर कोई व्यक्ति अत्यधिक शीत का अनुभव करता है? जबकि अन्य व्यक्ति बाहर सूर्य की खुली धूप में बैठकर सूर्य की उष्णता का आनन्द लेता है। सूर्य को बाहर बैठे व्यक्ति से न प्रेम है और न कमरे में बैठे व्यक्ति से कोई द्वेष। इस श्लोक की भाषा में हम कह सकते हैं कि बाहर धूप में बैठे लोग सूर्य से अनुग्रहीत हैं और अन्य लोग उसकी कृपा से वंचित हैं। किसी भी स्थान पर गीता मनुष्य को परिस्थितियों के सामने अथवा अपनी दुर्बलता और अयोग्यता के समक्ष आत्मसमर्पण करने को प्रेरित नहीं करती यह गीताशास्त्र कर्तव्य कर्म और आशावादी प्रयत्नों को प्रोत्साहित करने वाला है जो इस पर बल देता है कि मनुष्य अपनी दुर्बलताओं एवं परिस्थितियों का स्वामी है? दास नहीं।क्या आत्मसाक्षात्कार का मार्ग केवल साधु पुरुषों के लिए ही उपलब्ध है भगवान् इस भक्ति के माहात्म्य को बताते हुए कहते हैं --
।।9.29।। व्याख्या--'समोऽहं सर्वभूतेषु'-- मैं स्थावरजंगम आदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें व्यापकरूपसे और कृपादृष्टिसे सम हूँ। तात्पर्य है कि मैं सबमें समानरूपसे व्यापक, परिपूर्ण हूँ --'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' (गीता 9। 4), और मेरी सबपर समानरूपसे कृपादृष्टि है--'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29)।
।।9.29 -- 9.31।।सम इत्यादि प्रणश्यतीत्यन्तम्। प्रतिजाने इति। युक्तियुक्तोऽयमर्थो भगवत्प्रतिज्ञातत्वात् सुष्ठुतमां दृढो भवति।
।।9.29।।देवतिर्यङ्मनुष्यस्थावरात्मना स्थितेषु जातितः च आकारतः स्वभावतो ज्ञानतः च अत्यन्तोत्कृष्टापकृष्टरूपेण वर्तमानेषु सर्वेषु भूतेषु समाश्रयणीयत्वेन समः अहम् अयं जात्याकारस्वभावज्ञानादिभिः निकृष्ट इति समाश्रयणे न मे द्वेष्यः अस्ति उद्वेजनीयतया न त्याज्यः अस्ति तथा समाश्रितत्वातिरेकेण जात्यादिभिः अत्यन्तोत्कृष्टः अयम् इति तद्युक्ततया समाश्रयणे न कश्चित् प्रियः अस्ति न संग्राह्यः अस्ति।अपि तु अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मद्भजनेन विना आत्मधारणालाभात् मद्भजनैकप्रयोजना ये मां भजन्ते ते जात्यादिभिः उत्कृष्टाः अपकृष्टा वा मत्समानगुणवद्यथासुखं मयि एव वर्तन्ते अहम् अपि तेषु मदुत्कृष्टेषु इव वर्ते।
।।9.29।।भगवतो रागद्वेषवत्त्वेनानीश्वरत्वमाशङ्क्य परिहरति -- रागेत्यादिना। तर्हि भगवद्भजनमकिंचित्करमित्याशङ्क्याह -- अग्निवदिति। तत्प्रपञ्चयति -- यथेति। भक्तानभक्तांश्चानुगृह्णतोऽननुगृह्णतश्च भगवतो न कथं रागादिमत्त्वमित्याशङ्क्याह -- ये भजन्तीति। ये वर्णाश्रमादिधर्मैर्मां भजन्ति ते तेनैव भजनेनाचिन्त्यमाहात्म्येन परिशुद्धबुद्धयो मयि मत्समीपे वर्तन्ते मदभिव्यक्तियोग्यचित्ता भवन्ति। तुशब्दोऽस्य विशेषस्य द्योतनार्थः। तेषु च समीपे तेषामहमपि स्वभावतो वर्तमानस्तदनुग्रहपरो भवामि। यथा व्यापकमपि सावित्रं तेजः स्वच्छे दर्पणादौ प्रतिफलति तथा परमेश्वरोऽवर्जनीयतया भक्तिनिरस्तसमस्तकलुषसत्त्वेषु पुरुषेषु संनिधत्ते दैवीं प्रकृतिमाश्रिता मां भजन्तीत्युक्तत्वादित्यर्थः।
।।9.29।।ननु यदि भक्तेभ्य एव मुक्तिं ददासि नाभक्तेभ्यस्तर्हि तवापि किं रागद्वेषादिकृतवैषम्यम् नहि नहीत्याह -- समोऽहमिति। सर्वभूतेषु उच्चनीचेषु सम एव वर्त्तेऽहं न तु विषमः।समोऽस्मि मित्रे च रिपौ इति वाक्यात्। एवं सत्यपि मां भक्त्या ये भजन्ति ते तु मयि मदाधाराः? अहं चापि तेषु तदाधारोऽस्मि? इदं च भक्तिमाहात्म्यमेव ममाप्यस्वतन्त्रत्वमापादयति। तथा चोक्तं भागवते [9।4।6368] भगवतैव -- साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्। अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।।वशे (वशी) कुर्वंति मां भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा।।इत्यादिना च। नच पुनरपि दोषतादवस्थ्यं कल्पतरुस्वभावत्वात्। नहि कल्पतर्वादावनाश्रितानां कामाद्यसिद्ध्या वैषम्यं वक्तुमुचितं तथा भगवत्यपीति बोध्यम्।
।।9.29।।यदि भक्तानेवानुगृह्णासि नाभक्तान् ततो रागद्वेषवत्त्वेन कथं परमेश्वरः स्यादिति नेत्याह -- सर्वेषु प्राणिषु समस्तुल्योऽहं सद्रूपेण स्फुरणरूपेणानन्दरूपेण च स्वाभाविकेनौपाधिकेन चान्तर्यामित्वेन। अतो न मम द्वेषविषयः प्रीतिविषयो वा कश्चिदस्ति सावित्रस्येव गगनमण्डलव्यापिनः प्रकाशस्य। तर्हि कथं भक्ताभक्तयोः फलवैषम्यं तत्राह -- ये भजन्ति तु ये तु भजन्ति सेवन्ते मां सर्वकर्मसमर्पणरूपया भक्त्या। अभक्तापेक्षया भक्तानां विशेषद्योतनार्थस्तुशब्दः। कोऽसौ मयि ते ये मदर्पितैर्निष्कामैः कर्मभिः शोधितान्तःकरणास्ते निरस्तसमस्तरजस्तमोमलस्य सत्त्वोद्रेकेणातिस्वच्छस्यान्तःकरणस्य सदा मदाकारां वृत्तिमुपनिषन्मानेनोत्पादयन्तो मयि वर्तन्ते। अहमप्यतिस्वच्छायां तदीयचित्तवृत्तौ प्रतिबिम्बतस्तेषु वर्ते। चकारोऽवधारणार्थः। त एव मयि तेष्वेवाहमिति। स्वच्छस्य हि द्रव्यस्यायमेव स्वभावो येन संबध्यते तदाकारं गृह्णातीति। स्वच्छद्रव्यसंबद्धस्य च वस्तुन एष एव स्वभावो यत्तत्र प्रतिफलतीति। तथा अस्वच्छद्रव्यस्याप्येष एव स्वभावो यत्स्वसंबद्धस्याप्याकंर न गृह्णातीति। अस्वच्छद्रव्यसंबद्धस्य च वस्तुन एष एव स्वभावो यत्तत्र न प्रतिफलतीति। यथा हि सर्वत्र विद्यमानोऽपि सावित्रः प्रकाशः स्वच्छे दर्पणादावेवाभिव्यज्यते न त्वस्वच्छे घटादौ। तावता न दर्पणे रज्यति न वासौ द्वेष्टि घटं? एवं सर्वत्र समोऽपि स्वच्छे भक्तचित्तेऽभिव्यज्यमानोऽस्वच्छे चाभक्तचित्तेऽनभिव्यज्यमानोऽहं न रज्यामि कुत्रचित्। न वा द्वेष्मि कंचित्। सामग्रीमर्यादया जायमानस्य कार्यस्यापर्यनुयोज्यत्वात् वह्निवत्कल्पतरुवच्चावैषम्यं व्याख्येयम्।
।।9.29।।यदि भक्तेभ्य एव मोक्षं ददासि नाभक्तेभ्यश्च तर्हि तवापि किं रागद्वेषादिकृतं वैषम्यमस्ति? नेत्याह -- सम इति। समोऽहं सर्वेष्वपि भूतेषु। अतो मे मम प्रियश्च द्वेष्यश्च नास्त्येव। एवंसत्यपि ये मां भजन्ति ते भक्ता मयि वर्तन्ते। अहमपि तेष्वनुग्राहकतया वर्ते। अयं भावः -- यथाग्नेः स्वसेवकेष्वेव तमःशीतादिदुःखमपाकुर्वतोऽपि न वैषभ्यं? यथावा कल्पवृक्षस्य? तथैव भक्तपक्षपातिनोऽपि मम न वैषम्यं किंतु मद्भक्तेरेवं महिमेति।
।।9.29।।दुर्लभसुलभोत्कृष्टापकृष्टादिद्रव्यतारतम्यादशनेन स्वीकारःपत्रम् [9।26] इति श्लोकेन प्रोक्तः तेन सौलभ्यमुक्तं भवति?यत्करोषि [9।27] इत्यादिना क्रियमाणस्य सर्वस्य बुद्धिविशेषमात्रेण तदाराधनत्वसम्पत्त्या तदेव दृढीकृतम् अथ भक्तियोगाधिकारिप्रशंसनपरेसमोऽहम् इति श्लोके तु जात्याकारादितारतम्यानादरेण भक्तैः स्वस्यैकरस्यमुच्यते। तेन सौशील्यमुक्तं भवति। कंसादिनिग्रहादक्रूराद्यनुग्रहात्तत्कुरुष्व मदर्पणम् [9।27]मामुपैष्यसि [9।28] इत्याद्युक्तेश्च जाता रागद्वेषशङ्का प्रतिक्षेप्येत्यभिप्रायेणाह -- ममेति। अहंशब्दोऽत्र स्वेतरव्यवच्छेदपर इत्यभिप्रायेणअतिलोकमित्युक्तम्।समोऽहम् इत्यस्य प्रतिशिरोभूतं वैषम्यं सर्वशब्देन विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहदेवेति।जातितः देवत्वमनुष्यत्वब्राह्मणत्वक्षत्रियत्वादेःआकारतः अभिरूपस्त्रीत्वपुंस्त्वसमविषमाङ्गत्वादेः। वक्ष्यति हियेऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः [9।32] इति।स्वभावतः इत्यनेन सात्त्विकराजसत्वादिकं विवक्षितम्। देवादीनां भगवत्समाश्रयणंतदुपर्यपि बादरायणः सम्भवात् [ब्र.सू.1।3।26] इत्यधिकरणे समर्थितम् तिरश्चामपि गजेन्द्रवानरेन्द्रादिषु पुण्याधिक्यनिबन्धनज्ञानविशेषवत्सु प्रथितम्। तस्मात्तिर्यगधिकरणाविरोधः। स्थावरेष्वपि शापादिजातेषु क्वचिज्ज्ञानं महर्षयः कथयन्ति। ततश्च मनोवृत्तिरूपं समाश्रयणं तत्रापि सम्भवेदेव।न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः इत्यस्य प्रतिषेधस्य प्रसङ्गसाकाङ्क्षत्वात् जात्यादिभिर्निकर्षोत्कर्षौ प्रतिषेध्यप्रसञ्जकतयोक्तावित्याहअयमिति। तद्द्वेष्यत्वप्रियत्वे हि त्याज्यात्याज्यत्वसङ्ग्राह्यत्वार्थे इति तन्निषेधात्तन्निषेधः फलित इत्यभिप्रायेणोक्तम्उद्वेजनीयतया न त्याज्योऽस्तीति?न सङ्ग्राह्योऽस्तीति च। समाश्रयणाधीनप्रियत्वप्रतिषेधभयात्समाश्रितत्वातिरेकेणेत्युक्तम्। यदि? न प्रियत्वहेतुतया प्रसिद्धाज्जात्यादिभिरुत्कर्षात्प्रियत्वम्? कुतस्तर्हि यदि न कुतश्चित्?स च मम प्रियः इत्यादिविरोध इति शङ्कानिराकरणार्थस्तुशब्द इत्यभिप्रायेणाहअपित्विति।भक्त्या भजन्ति इत्यनयोः पौनरुक्त्यपरिहारायान्वयमाहअत्यर्थेति।ये इत्येतदुत्कर्षापकर्षानियमाभिप्रायमित्याहते जात्यादिभिरिति। तुल्यानामिवान्योन्यमैकरस्यमिहमयि इत्यादिना विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तंमत्समानगुणवद्यथासुखमिति। ननु स्वामित्वेन त्वामनुसन्धाय भजतां कथं त्वयि समानगुणवद्वृत्तिरित्यस्योत्तरंतेषु चाप्यहम् इत्यनेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाहअहमपीति। सौशील्यातिरेकतो मत्तोऽप्युत्कृष्टानिवाहंशिरसा देवः प्रतिगृह्णाति [म.भा.12।343।64] इत्युक्तप्रक्रियया सम्भावयामि ततश्च ते मत्परमेश्वरत्वाद्यनुसन्धाननिबन्धनसाध्वसविधुराः सुखं मां सेवन्त इति भावः। अहं च ते चान्योन्यं पित्रादिष्विव न्यस्तभरा इति पिण्डितार्थः। स्वजातिप्रतिनियतधर्मैर्भजनान्नापकृष्टजातिनिर्देशविरोधः।
।।9.29।।एवं कर्मसमर्पणेन तद्बन्धनिवृत्त्युक्त्या असमर्पकाणां च बन्ध एव पर्यवसितस्तेन स्ववैषम्यमाशङ्कमानमाह -- समोऽहमिति। अहं सर्वभूतेषु समः। न मे द्वेष्यः कोऽपि। न प्रियः। अत्रायं भावः -- स्वक्रीडार्थं सर्वभूतानि मया सृष्टानि? अतस्तेषु सर्वेष्वहं समः ये क्रीडार्थकत्वमज्ञात्वाऽन्यथाकर्मादिकर्तारो मयि विषमत्वं कुर्वन्ति? अतस्तेषां त्वात्मदोषेणैव बन्धादिकं भवति ये तु मां भक्त्या स्नेहेन क्रीडारूपं ज्ञात्वा भजन्ति ते स्वभजनात्मकधर्मेण मयि तिष्ठन्ति? तेष्वहं तत्कृतितुष्टस्तिष्ठामि? तेन न वैषम्यमिति भावः।
।।9.29।।यतो भक्तानेवानुगृह्णाति नेतरानित्यतो रागद्वेषवान्भगवानित्यत आह -- समोऽहमिति। यथाग्निः रागादिशून्योऽपि समीपस्थानामेव शीतं नाशयति न दूरस्थानां तद्वत्सर्वत्र समोऽप्यहं शरणागतानामेव बन्धं नाशयामि नान्येषामित्यर्थः। अतो मम न रागद्वेषाविति भावः। मयि ते तेषु चाप्यहम्। भक्ता अनन्यशरणतया मय्येव वर्तन्ते अहमपि तेष्वेव वर्ते। अभक्तचित्तानां रागाद्याक्रान्तत्वेन तत्र मम विशेषतोऽभिव्यक्तिर्नास्तीति भावः।
।।9.29।।ननु मोक्षादिदानेन भक्ताननुह्णतस्तददानेनाभक्तानननुगृह्णतस्त्व वैषम्यमिति चेत्तत्राह -- सम इति। अहं परमात्मा सच्चिदानन्दघनः सर्वभूतेषु ब्रह्मादिस्तम्ब पर्यन्वेष समः समानः। यतो मम द्वेषविषयः कश्चितपि न भवति रागाविषयश्च। एवं तर्हि कथं भक्ताननुगृह्णासि नेतरानिति तरह -- य इति। तुशब्दः शङ्काव्यवच्छेदार्थः। यता सवितृप्रकाशः स्वच्छास्वच्छातर्पणेषु समोऽपि स्वच्छेषु विशेषेण वर्तते नास्वच्छेषु। यथा वह्निः सर्वसमोऽपि सन्निहितानां शीतं नाशयति नासन्निहितानाम्। यथावा कल्पवृक्षो भक्ताननुगृह्णाति लाभक्तान्। एवं ये तु भक्त्या मां भजन्ते सेवन्ते ते स्वभावतो मयि वर्तन्ते। मदाकाराकारितचित्तवृत्तयोऽनुग्रहभाजो भवन्तीत्यर्थः। अहंच तेषु स्वभावत एव वर्ते तेषां चित्तवृत्तौ स्वभावादेव प्रतिफलितोऽनुग्राहको भवामीत्यर्थः।
9.29 समः the same? अहम् I? सर्वभूतेषु in all beings? न not? मे to Me? द्वेष्यः hateful? अस्ति is? न not? प्रियः dear? ये who? भजन्ति worship? तु but? माम् Me? भक्त्या with devotion? मयि in Me? ते they? तेषु in them? च and? अपि also? अहम् I.Commentary The Lord has an even outlook towards all. He regards all living beings alike. None He has condemned? none has He favoured. He is the enemy of none. He is the partial lover of none. He does not favour some and frown on others. The egoistic man only has created a wide gulf between himself and the Supreme Being by his wrong attitude. The Lord is closer to him that his own breath? nearer than his hands and feet.I am like fire. Just as fire removes cold from those who draw near it but does not remove the cold from those who keep away from it? even so I bestow My grace on My devotees? but not owing to any sort of attachment on My part. Just as the light of the sun? though pervading everywhere? is reflected only in a clean mirror but not in a pot? so also I? the Supreme Lord? present everywhere? manifest Myself only in those persons from whose minds all kinds of impurities (which have accumulated there on account of ignorance) have been removed by their devotion.The sun has neither attachment for the mirror nor hatred for the pot. The Kalpavriksha has neither hatred nor love for people. It bestows the desired objects only on those who go near it. (Cf.VII.17XII.14and20)Now hear the glory of devotion to Me.
9.29 The same am I to all beings; to Me there is none hateful or dear; but those who worship Me with devotion are in Me and I am also in them.
9.29 I am the same to all beings. I favour none, and I hate none. But those who worship Me devotedly, they live in Me, and I in them.
9.29 I am impartial towards all beings; to Me there is none detastable or none dear. But those who worship Me with devotion, they exist in Me, and I too exist in them.
9.29 Aham, I; am samah, impartial, eal; sarva-bhutesu, towards all beings; me, to Me; na asti, there is none; dvesyah, detestable; na, none; priyah, dear. I am like fire: As fire does not ward off cold from those who are afar, but removes it from those who apporach, near, similarly I favour the devotees, not others. Tu, but; ye, those who approach near, similarly I favour the devotees, not others. Tu, but; ye, those who; bhajanti, worship Me, God; bhaktya, with devotion; te they; exist mayi, in Me-by their very nature; ['Their mind becomes fit for My manifestation, as it has been purified by following the virtuous path.'] they do not exist in Me because of My love, Ca, and; aham, I; api, too; naturally exist tesu, in them, not in others. Thus there is no hatred towards them (the latter). 'Listen to the greatness of devotion to Me:'
9.29. I am the same in all beings; to Me none is hateful and none is dear; but whosoever worship Me with devotion, they are in Me and I am in them.
9.29 See Comment under 9.31
9.29 Being a refuge for all, I am the same to all creation, be they gods, animals, men or immovables, who exist differentiated from the highest to the lowest according to their birth, form, nature and knowledge. With regard to those seeking refuge, none is hateful because of inferiority in status by birth, form, nature, knowledge etc. No one is discarded as an object of odium. Likewise, it is not that one who has resorted to Me is dear to Me on account of any consideration like birth, status etc. That he has taken refuge in Me is the only consideration. The meaning is no one is accepted as a refuge for reasons like birth. But those who worship Me as their sole objective I like, because I am exceedingly dear to them, and because they find it impossible to sustain themselves without My worship. So they abide in Me, irrespective of whether they are exalted or humble by birth etc. They abide in Me, as if they possess alities eal to Mine. I also abide in them, as if they are My superiors. Moreover:
9.29 I am the same to all creation. There is none hateful or dear to Me. But those who worship Me with devotin abide in Me and I do abide in them.
।।9.29।।( यदि कहो कि ) तब तो भगवान् रागद्वेषसे युक्त हैं क्योंकि वे भक्तोंपर ही अनुग्रह करते हैं दूसरोंपर नहीं करते? तो यह कहना ठीक नहीं है --, मैं सभी प्राणियोंके प्रति समान हूँ? मेरा न तो ( कोई ) द्वेष्य है और न ( कोई ) प्रिय है। मैं अग्निके समान हूँ। जैसे अग्नि अपनेसे दूर रहनेवाले प्राणियोंके शीतका निवारण नहीं करता? पास आनेवालोंका ही करता है? वैसे ही मैं भक्तोंपर अनुग्रह किया करता हूँ? दूसरों पर नहीं। जो ( भक्त ) मुझ ईश्वरका प्रेमपूर्वक भजन करते हैं? वे मुझमें स्वभावसे ही स्थित हैं? कुछ मेरी आसक्तिके कारण नहीं औरमैं भी स्वभावसेही उनमें स्थित हूँ? दूसरोंमें नहीं। परन्तु इतनेहीसे यह बात नहीं है कि मेरा उनमें ( दूसरोंमें ) द्वेष है।
।।9.29।। --,समः तुल्यः अहं सर्वभूतेषु। न मे द्वेष्यः अस्ति न प्रियः। अग्निवत् अहम् -- दूरस्थानां यथा अग्निः शीतं न अपनयति? समीपम् उपसर्पतां अपनयति तथा अहं भक्तान् अनुगृह्णामि? न इतरान्। ये भजन्ति तु माम् ईश्वरं भक्त्या मयि ते -- स्वभावत एव? न मम रागनिमित्तम् मयि वर्तन्ते। तेषु च अपि अहं स्वभावत एव वर्ते? न इतरेषु। न एतावता तेषु द्वेषो मम्।।श्रृणु मद्भक्तेर्माहात्म्यम् --,
।।9.29।।भक्तप्रियत्वमुक्त्वा तद्विरुद्धं सर्वत्र साम्यं कथमुच्यते इत्यत आह तर्हीति। यदि त्वं भक्तप्रियः तदा द्वेष्योऽप्रियश्च स्याः? ततश्च भक्तेषु द्वेषिषु यथासङ्ख्यं स्नेहद्वेषवत्त्वादल्पभक्तस्यापि कस्यचिद्बहुफलं सुखरूपं ददासि? विपरीतस्याल्पद्वेषिणोऽपि कस्यचिद्बहुफलं दुःखरूपं ददासीत्याद्यापद्यते? राजादिषु तथा दर्शनात्? तथा च वैषम्यनैर्घृण्ये तवेति शङ्कार्थः? पूर्वार्धेनैव शङ्कायाः परिहृतत्वात्किमुत्तरार्धेनेत्यत आह -- तर्हीति। अहं हि सर्वभूतेषु समः? न वैषम्यादिमान् यतो मे तदीयं द्वेषमपेक्ष्याधिकं द्वेष्यो नास्ति? तदीयां भक्तिमपेक्ष्याधिकं प्रियश्च नास्तीति भगवतोक्तेऽपि विपरीतमर्थं गृहीत्वा शङ्कते। यदि ते प्रियो नास्ति तर्हि न भक्तिः प्रयोजनं,फलस्य। तथा चोक्तविरोध इति भावः।मयि ते तेषु चाप्यहम् इत्येतन्न फलं स्वभावसिद्धत्वादित्यत आह -- मयीति। इत्यस्येत्यर्थ इति योजना। कुत एतत् इत्यत आह -- उक्तं चेति। मम ते वशा इत्येतदपि तादृगेव? भजनाभावेऽपि तद्वशत्वस्वाभाव्यादित्यत आह तदिति। यद्यपीति शेषः। अत्र दृष्टान्तं प्रमाणं चाह -- उद्धवादिवदिति। अबुद्धिपूर्वं यो वशः सः।
।।9.29।।तर्हि स्नेहादिमत्त्वादल्पभक्तस्यापि कस्यचिद्बहुफलं ददासि? विपरीतस्यापि कस्यचिद्विपरीतमित्यत आह -- समोऽहमिति। तर्हि न भक्तिप्रयोजनमित्यत आह -- ये भजन्तीति। मयि ते तेषु चाप्यहमिति? मम ते वशाः तेषामहं वश इति। उक्तं च पैङ्गिखिलेषु -- ये वै भजन्ते परमं पुमांसं तेषां वशः स तु मे मद्वशाश्च,इति। तद्वशा एव ते सर्वदा? तथापि बुद्धिपूर्वाबुद्धिपूर्वकत्वेन भेदः? उद्धवादिवच्छिशुपालादिवच्च। तच्चोक्तं तत्रैव -- अबुद्धिपूर्वाद्यो वशस्तस्य ध्यानात्पुनर्वशो भवते बुद्धिपूर्वम् इति।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।9.29।।
সমোহং সর্বভূতেষু ন মে দ্বেষ্যোস্তি ন প্রিযঃ৷ যে ভজন্তি তু মাং ভক্ত্যা মযি তে তেষু চাপ্যহম্৷৷9.29৷৷
সমোহং সর্বভূতেষু ন মে দ্বেষ্যোস্তি ন প্রিযঃ৷ যে ভজন্তি তু মাং ভক্ত্যা মযি তে তেষু চাপ্যহম্৷৷9.29৷৷
સમોહં સર્વભૂતેષુ ન મે દ્વેષ્યોસ્તિ ન પ્રિયઃ। યે ભજન્તિ તુ માં ભક્ત્યા મયિ તે તેષુ ચાપ્યહમ્।।9.29।।
ਸਮੋਹਂ ਸਰ੍ਵਭੂਤੇਸ਼ੁ ਨ ਮੇ ਦ੍ਵੇਸ਼੍ਯੋਸ੍ਤਿ ਨ ਪ੍ਰਿਯ। ਯੇ ਭਜਨ੍ਤਿ ਤੁ ਮਾਂ ਭਕ੍ਤ੍ਯਾ ਮਯਿ ਤੇ ਤੇਸ਼ੁ ਚਾਪ੍ਯਹਮ੍।।9.29।।
ಸಮೋಹಂ ಸರ್ವಭೂತೇಷು ನ ಮೇ ದ್ವೇಷ್ಯೋಸ್ತಿ ನ ಪ್ರಿಯಃ. ಯೇ ಭಜನ್ತಿ ತು ಮಾಂ ಭಕ್ತ್ಯಾ ಮಯಿ ತೇ ತೇಷು ಚಾಪ್ಯಹಮ್৷৷9.29৷৷
സമോഹം സര്വഭൂതേഷു ന മേ ദ്വേഷ്യോസ്തി ന പ്രിയഃ. യേ ഭജന്തി തു മാം ഭക്ത്യാ മയി തേ തേഷു ചാപ്യഹമ്৷৷9.29৷৷
ସମୋହଂ ସର୍ବଭୂତେଷୁ ନ ମେ ଦ୍ବେଷ୍ଯୋସ୍ତି ନ ପ୍ରିଯଃ| ଯେ ଭଜନ୍ତି ତୁ ମାଂ ଭକ୍ତ୍ଯା ମଯି ତେ ତେଷୁ ଚାପ୍ଯହମ୍||9.29||
samō.haṅ sarvabhūtēṣu na mē dvēṣyō.sti na priyaḥ. yē bhajanti tu māṅ bhaktyā mayi tē tēṣu cāpyaham৷৷9.29৷৷
ஸமோஹஂ ஸர்வபூதேஷு ந மே த்வேஷ்யோஸ்தி ந ப்ரியஃ. யே பஜந்தி து மாஂ பக்த்யா மயி தே தேஷு சாப்யஹம்৷৷9.29৷৷
సమోహం సర్వభూతేషు న మే ద్వేష్యోస్తి న ప్రియః. యే భజన్తి తు మాం భక్త్యా మయి తే తేషు చాప్యహమ్৷৷9.29৷৷
9.30
9
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।।9.30।। अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
।।9.30।। यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।।
।।9.30।। जिस विशेष अर्थ में भक्ति शब्द गीता में प्रयुक्त है उसकी यहाँ गौरवमयी प्रशंसा की गई है। भक्ति में प्रत्येक साधक पर होने वाले प्रभाव को दर्शाकर भक्ति का माहात्म्य यहाँ बताया गया है। गीता में वर्णित भक्ति का अर्थ है एकाग्रचित्त से अद्वैत स्वरूप ब्रह्म का आत्मरूप से अर्थात् एकत्वभाव से ध्यान करना। इस भक्ति साधना का अभ्यास दीर्घ काल तक आवश्यक तीव्रता और लगन से करने पर साधक के होने वाले विकास का क्रम यहाँ दर्शाया गया है।साधारणत? लोगों के मन में कुछ ऐसी धारणा बन गई है कि एक दुष्ट पापी या हतोत्साहित अपराधी वह बहिष्कृत व्यक्ति है? जो कदापि स्वर्ग के आंगन में प्रवेश करने का साहस नहीं कर सकता है। भ्रष्ट या अनैतिक पुरुष की ऐसी निन्दा करना वैदिक साहित्य के तात्पर्य और मर्म को विपरीत समझना है। यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। वेद पाप की निन्दा करते हैं? पापी की नहीं। पापी के पापपूर्ण कर्म उसके मन में स्थित अशुभ विचारों की केवल अभिव्यक्ति हैं। अत? यदि उसके विचारों की रचना या दिशा को बदला जा सके? तो उसके व्यवहार में भी निश्चित रूप से परिवर्तन होगा। जो व्यक्ति? समृद्ध होती हुई भक्ति के वातावरण में? अपने मन में सतत्ा ईश्वर को बनाये रखने में सफल हो गया है? उसके मानसिक जीवन का पुनर्वास इस प्रकार सम्पन्न होता है कि तत्पश्चात् वह पुन पापाचरण में प्रवृत्त नहीं हो सकता।यदि अतिशय दुराचारी भी मुझे भजता है गीता न केवल पापियों के लिए अपने द्वार खुले रखती है? वरन् ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिव्य गान के गायक भगवान् श्रीकृष्ण एक धर्मप्रचारक के उत्साह के साथ समस्त पापियों को मुक्त करके उन्हें सुखी बनाना चाहते हैं। केवल जीवन की अशुद्धता और हीन कर्मों के कारण पापकर्मियों का आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश निषेध नहीं किया गया है। आग्रह केवल इस बात का है कि उस भक्त को अनन्य भाव से आत्मा की पूजा और चिन्तन करना चाहिए। यहाँ अनन्य शब्द का अर्थ साधक के मन से तथा ध्येय के स्वरूप से भी सम्बन्धित है। इसका समग्र अर्थ यह होगा कि भक्ति का निर्दिष्ट फल तभी प्राप्त होगा जब भक्त एकाग्रचित्त से अद्वैत और नित्य स्वरूप परमात्मा का ध्यान आत्मरूप से करेगा। इस अद्वैत आत्मा को भक्त के मूल स्वरूप से भिन्न नहीं समझना चाहिए। यही अनन्यभाव है।वह साधु ही मानने योग्य है भक्ति साधना को ग्रहण करने के पूर्व तक कोई व्यक्ति कितना ही दुष्ट और क्रूर क्यों न रहा हो? या उसका जीवन कितना ही अनियन्त्रित कामुकतापूर्ण क्यों न हो? जिस क्षण वह भक्तिपूर्वक आत्मचिन्तन के मार्ग पर प्रथम चरण रखता है? उसी क्षण से वह साधु ही मानने योग्य है? यह भगवान् श्रीकृष्ण का कथन है। इस प्रकार का पूर्वानुमानित कथन का प्रयोग सभी भाषाओं में किया जाता है। जैसे रोटी बनाना या चाय बनाना। वास्तव में केवल आटा गूँथा जा रहा था? या पानी गरम हो रहा था परन्तु फिर भी निकट भविष्य में क्रियाओं की पूर्णता रोटी बनने या चाय बनने में होती है? इसलिए उक्त प्रकार के वाक्य कहे जाते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी जिस क्षण वह पापी पुरुष भक्ति मार्ग का आश्रय लेता है? उसी क्षण से वह साधु कहलाने योग्य हो जाता है? क्योंकि शीघ्र ही वह अपने अवगुणों से मुक्त होकर आध्यात्मिक वैभव के क्षेत्र में विकास और उन्नति को प्राप्त करने वाला होता है। यह पूर्वानुमानित कथन है।ऐसे पुरुष को साधु मानने का कारण यह है कि उसने यथार्थ निश्चय किया है। इस दिव्य जीवन में केवल दिनचर्या की अपेक्षा यथार्थ शुभ निश्चय अधिक महत्त्वपूर्ण है। बहुसंख्यक साधक उदास भाव से चिन्तित हुए अपने मार्ग पर केवल श्रमपूर्वक ऐसे चलते हैं? जैसे भूखे मर रहे पशु कसाईखाने की ओर बढ़ रहे हों ऐसा खिन्न उदास जुलूस कसाई के कुन्दे के अतिरिक्त कहीं और नहीं पहुँच सकता? जहाँ काल उन्हें टुकड़ेटुकड़े कर देता है जो पुरुष स्थिर एवं दृढ़ निश्चयपूर्वक? सजगता और उत्साह? प्रसन्नता और वीरता के साथ इस मार्ग पर अग्रसर होता है? वही निश्चित सफलता के गौरव को प्राप्त करता है। इसलिए? मुरलीमनोहर भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं कि सम्यक् निश्चय कर लेने पर उसी क्षण से अतिशय दुराचारी पुरुष भी साधु ही मानने योग्य है? क्योंकि शीघ्र ही वह सफल ज्ञानी पुरुष बनने वाला है।आपके कथन में हम कैसे विश्वास कर लें इस अनन्यभक्ति का निश्चित प्रभाव क्या होता है इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं --
।।9.30।। व्याख्या --[कोई करोड़पति या अरबपति यह बात कह दे कि मेरे पास जो कोई आयेगा, उसको मैं एक लाख रुपये दूँगा, तो उसके इस वचनकी परीक्षा तब होगी, जब उससे सर्वथा ही विरुद्ध चलनेवाला, उसके साथ वैर रखनेवाला, उसका अनिष्ट करनेवाला भी आकर उससे एक लाख रुपये माँगे और वह उसको दे दे। इससे सबको यह विश्वास हो जायगा कि जो यह माँगे, उसको दे देता है। इसी भावको लेकर भगवान् सबसे पहले दुराचारीका नाम लेते हैं।] 'अपि चेत्'-- सातवें अध्यायमें आया है कि जो पापी होते हैं, वे मेरे शरण नहीं होते (7। 15) और यहाँ कहा है कि दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है-- इन दोनों बातोंमें आपसमें विरोध प्रतीत होता है। इस विरोधको दूर करनेके लिये ही यहाँ 'अपि' और 'चेत्' ये दो पद दिये गये हैं। तात्पर्य है कि सातवें अध्यायमें 'दुष्कृती मनुष्य मेरे शरण नहीं होते' ऐसा कहकर उनके स्वभावका वर्णन किया है। परन्तु वे भी किसी कारणसे मेरे भजनमें लगना चाहें तो लग सकते हैं। मेरी तरफसे किसीको कोई मना नहीं है (टिप्पणी प0 521.1); क्योंकि किसी भी प्राणीके प्रति मेरा द्वेष नहीं है। ये भाव प्रकट करनेके लिये ही यहाँ 'अपि' और 'चेत्' पदोंका प्रयोग किया है।
।।9.29 -- 9.31।।सम इत्यादि प्रणश्यतीत्यन्तम्। प्रतिजाने इति। युक्तियुक्तोऽयमर्थो भगवत्प्रतिज्ञातत्वात् सुष्ठुतमां दृढो भवति।
।।9.30।।तत्र अपि तत्र तत्र जातिविशेषे जातानां यः समाचार उपादेयः परिहरणीयः च? तस्माद् अतिवृत्तः अपि उक्तप्रकारेण माम् अनन्यभाक् भजनैकप्रयोजनो भजते चेत् साधुः एव सः वैष्णवाग्रेसर एव मन्तव्यः? बहुमन्तव्यः पूर्वोक्तैः सम इत्यर्थः। कुत एतत् सम्यग् व्यवसितो हि सः? यतः अस्य व्यवसायः सुसमीचीनः।भगवान् निखिलजगदेककारणभूतः परब्रह्मनारायणः चराचरपतिः अस्मत्स्वामी मम गुरुः मम सुहृद् मम परं भोग्यम् इति सर्वैः दुष्प्रापः अयं व्यवसायः तेन कृतः? तत्कार्यं च अनन्यप्रयोजनं निरन्तरभजनं तस्य अस्ति? अतः साधुः एव बहुमन्तव्यः।अस्मिन् व्यवसाये तत्कार्ये च उक्तप्रकारभजने संपन्ने सति तस्य आचारव्यतिक्रमः स्वल्पवैकल्यम् इति न तावता अनादरणीयः? अपि तु बहुमन्तव्य एव इत्यर्थः।ननुनाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः। नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।। (क0 उ0 1।2।24) इत्यादिश्रुतेः आचारव्यतिक्रम उत्तरोत्तरभजनोत्पत्तिप्रवाहं निरुणद्धि इति अत्र आह --
।।9.30।।प्रकृतां भगवद्भक्तिं स्तुवन्पापीयसामपि तत्राधिकारोऽस्तीति सूचयति -- शृण्विति। सम्यग्वृत्त एव भगवद्भक्तो ज्ञातव्य इत्यत्र हेतुमाह -- सम्यगिति।
।।9.30।।तत्र भक्तिमत्त्वं नाधिकार(रि)विशेषणं? अन्यत्रापि दर्शनात् इत्यभिप्रायेणअप्रिचेत् इति भगवान् महापतितपावनत्वं च स्वस्य दर्शयति। सुदुराचारः अनाचार्यपि चेन्मां भजते स साधुरेव सर्वैर्मन्तव्यः। महापतितोऽपि चेन्मामनन्यभाक् नान्यदेवं भजते सेवते च। सेवा च तत्प्रवणचेतोरूपामानसी सा परा मता इत्युक्ता? तद्भाववान् सः साधुर्वैष्णवाग्रगण्य एव मन्तव्यः विप्रात् द्विषङ्गुणयुतादरविन्दनाभपादारविन्दविमुखात् श्वपचं वरिष्ठम् इति [7।9।10] भागवतवचनात्। कुत एवं तत्राह -- हि यतः सम्यग्व्यवसितः स माहात्म्यं ज्ञात्वाऽज्ञात्वा वा भगवति चित्तप्रावण्यकरणे निश्चितः (निरतः)।
।।9.30।।किंच मद्भक्तेरेवायं महिमा यत्समेऽपि वैषम्यमापादयति शृणु तन्महिमानम्। यःकश्चित्सुदुराचारोऽपि चेदजामिलादिरिव अनन्यभाक्सन्मां भजते कुतश्चिद्भाग्योदयात्सेवते स प्रागसाधुरपि साधुरेव मन्तव्यः। हि यस्मात्सम्यग्व्यवसितः साधुनिश्चयवान्सः।
।।9.30।। अपिच मद्भक्तेरवितर्क्यः प्रभाव इति दर्शयन्नाह -- अपिचेदिति। अत्यन्तं दुराचारोऽपि यद्यप्यपृथक्त्वेन पृथग्देवता अपि वासुदेव एवेति बुद्ध्या नरो देवतान्तरभक्तिमकुर्वन्मामेव श्रीनारायणं भजते तर्हि साधुः श्रेष्ठ एव स मन्तव्यः। यतोऽसौ सम्यग्व्यवसितः परमेश्वरभजनेनैव कृतार्थो भविष्यामीति शोभनमध्यवसायं कृतवान्।
।।9.30।।एवं समाश्रयणस्वीकारे जात्याद्यपकर्षोऽकिञ्चित्कर इत्युक्तम् तत्र चोपरि वृत्तापकर्षोऽप्यकिञ्चित्कर इत्युच्यतेअपि चेत् इति श्लोकेनेत्यभिप्रयेणाहतत्रापीति। ब्राह्मणाद्याचारः शूद्रादेरधर्मः? शूद्राद्याचारश्च ब्राह्मणादेः एवं ब्राह्मणस्य निषिद्धं मधुमांसादिकं शूद्रस्य न निषिध्यते शूद्रस्य निषिद्धं च कपिलाक्षीरादिकं ब्राह्मणस्य प्रशस्तम् अतः स्वजातिनियमाद्यपेक्षया दुराचारत्वं दोष इत्यभिप्रायेणाहतत्र तत्रेति। विहिताकरणं निषिद्धकरणं चेत्युभयमपि दुराचार इति ज्ञापनायउपादेयः परिहरणीयश्चेत्युक्तम्। अत्रचेत् इत्यस्य नैरर्थक्यादिपरिहाराय दुराचारोऽपि भजेत चेदित्यन्वयः प्रदर्शितः।उक्तप्रकारेणेति -- सततकीर्तनादिनेत्यर्थः। प्रकरणविशेषतोऽनन्यभागित्यस्यार्थोभजनैकप्रयोजन इति। तेनैव देवदेवतान्तरभजनप्रसङ्गो दूरनिरस्तः। यथोच्यते -- ब्रह्माणं शितिकण्ठं च याश्चान्या देवताः स्मृताः। प्रतिबुद्धा न सेवन्ते यस्मात्परिमितं फलम् [म.भा.12।341।36] इति। ननुआचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः [म.भा.13।149।137]आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः [वा.स्मृ.6।3]सन्ध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्मसु [द.स्मृ.2।22] इत्यादिषु सत्सु दुराचारस्य केनाकारेण साधुत्वमित्यत्राह -- वैष्णवाग्रेसर इति। अनन्यभजनं वैष्णवाग्रेसरत्वे प्रयोजकम्। ननुसाधवः क्षीणदोषाः स्युः सच्छब्दः साधुवाचकः। तेषामाचरणं यत्तु सदाचारः स उच्यते [वि.पु.3।11।3] इति भगवत्पराशरवचनात् क्षीणपापानां च कृष्णभक्तिस्मरणात्साधुशब्दोऽत्र कथं वैष्णवाग्रेसरपर उक्तः आचारशून्यस्य शिष्टापरिग्रहादसाधुत्वमेवेत्यत्रोत्तरंमन्तव्यः इत्युच्यत इति दर्शयतिबहुमन्तव्य इति। अर्थसिद्धबोद्धव्यतामात्रकथनं निरर्थकम् सम्पूर्वस्य मनिधातोश्च बहुमतिरर्थः उपसर्गार्थाश्च धातुलीना इति भावः। अपरिग्रहे सति खल्वसाधुत्वशङ्का? न तु सोऽस्तीत्याह -- पूर्वोक्तैः सम इति। विष्णुरेव भूत्वा [यजुः2।1।3।16] इत्यादौ साम्येऽप्येवकारः प्रयुज्यत इति भावः। पूर्वोक्तैर्महात्मभिरित्यर्थः।ननु स्वाचारदुराचारयोः पुष्कलविकलोपाययोर्न तावदुपायतः साम्यम् तत एव न फलतोऽपीति शङ्कायांसम्यक् इत्यादिकमवतारयति -- कुत एतदिति।यत इति -- हिर्हेताविति भावः। व्यवसायस्य समीचीनतां प्राधान्यतोऽप्यवसेयविषयविशेषेण विशदयति -- भगवानिति। भगवान्उभयलिङ्गकः।निखिलजगदेककारणभूत इत्यनेन ब्रह्मत्वसाधकं श्रौतं लक्षणमुक्तम् तेन ज्ञात्वाभूतादिमव्ययम् [9।13] इति पूर्वोक्तं च स्मारितम्। सामान्यशब्दस्य विशेषे पर्यवसानंनारायणपरं ब्रह्म [म.ना.9।4तै.ना.6।11] इत्यादितत्त्वनिर्णायकवाक्यं चाभिप्रेत्यपरं ब्रह्म नारायण इत्युक्तम्।चराचरपतिः पतिं विश्वस्यात्मेश्वरम् [तै.ना.6।11] पतिं पतीनाम् [श्वे.उ.6।7] इत्यादि द्रष्टव्यम्। एवं परत्वव्यवसायः? अथ सौलभ्याध्यवसायःअस्मत्स्वामीति। नह्यहं तद्विभूतेर्बहिर्भूतः स्वशेषभूतं मामसौ स्वयमेव लब्धुमुपक्रान्त इति भावः। एवं पदद्वयेन सांसिद्धिकः सम्बन्धो दर्शितः। अत्यन्तमूर्खस्य मम सम्यग्ज्ञानप्रदायी महोपकारकोऽयमित्यभिप्रायेणमम गुरुरित्युक्तम्। अनन्तमहापराधशालिनि मय्यपि शोभनहृदयोऽयमित्यभिप्रायेणमम सुहृदित्युक्तम्। अतिक्षुद्रदुःखमिश्रनश्वरसुखकणसङ्गिनो मे निरतिशयनिर्दोषनित्यसुखसागरं स्वात्मानं प्रकाशितवानित्यभिप्रायेणमम परं भोग्यमित्युक्तम्। गुरुत्वसुहृत्त्वे प्रापकत्वार्थे भोग्यत्वं तु प्राप्यत्वार्थम्।सर्वैर्दुष्प्राप इत्याचारबहुलेष्वपि तादृशो व्यवसायो न दृश्यतेआकरेऽपि शिलाशकलमनुपादेयम् अवकरेऽपि रत्नमादरणीयमिति भावः।बहूनां जन्मनामन्ते [7।19] इति ह्येवंविधो व्यवसाय उक्तः। स्मरन्ति चश्रीपौष्करे -- ये जन्मकोटिभिः सिद्धाःअनेकसंसारचिते चिते पापसमुच्चयेनास्ते क्षीणे जायमानेऽत्र संस्थितिः इति। श्रीशुकं प्रति जनकश्चाहज्ञानं च व्यवसायश्च द्वौ परप्रतिपादकौ। व्यवसायादृते ब्रह्म नासादयति तत्परम् [म.भा.12।326।40] इति। व्यवसायमात्रेण कथं भजमानैः समानत्वं इत्यत्राह -- तत्कार्यं चेति।भजते माम् इत्यत्र व्यवसायोऽन्तर्गतः? व्यवसित इत्यत्राप्यर्थाद्भजनम् अनन्यभजनमूलबहुमन्तव्यत्वहेतुतया हि व्यवसायोऽयमुक्त इति भावः। अविकलानुष्ठायिवद्विकलानुष्ठायी कथं बहुमन्तव्यः इत्यत्राह -- अस्मिंश्चेति। तादृशे पुरुषे स्वल्पवैकल्यनिमित्तोऽनादर एव महापराधः स्यादिति भावः।स्मृतः सम्भाषितो वापि पूजितो वा द्विजोत्तमस च पूज्यो यथा ह्यहम् [गा.पू.219] इत्यादिप्रमाणसूचनाभिप्रायेण निगमयतिअपितु बहुमन्तव्य एवेति।
।।9.30।।ननु ये त्वां भजन्ति तेषु चेत्त्वं तिष्ठसि? कथं तदा ते विषयाद्यभिभूता भवन्ति इत्यत आह -- अपीति। चेत् सुदुराचारोऽपि? अनन्यभाक् मां भजते स साधुरेव मन्तव्यः।अत्रायं भावः -- विषयादिमहापापौघाचरणशीलस्तन्निवृत्तिनिमित्तान्यदेवभजनप्रायश्चित्तादिधर्मानुपायज्ञानेन अन्यभजनरहितस्तत्त्यागाशक्तस्त्यक्तुकामः स्वदैन्याविर्भावेन यो मां भजते स साधुरेव मान्यः। त्वयेति शेषः।अपि चेत् इत्यनेन तादृशाचारस्यानन्यभजनत्वे दुर्लभत्वं ज्ञापितम्। कुतः इत्यत आह -- सम्यग्व्यवसितः स पूर्वोक्तः सम्यगध्यवसायं निश्चयं यतः कृतवान् यन्मम महापातकनिवारकः श्रीकृष्णं विना नान्य इति। हीति निश्चयार्थम्। अत्र सन्देहो नास्तीत्यर्थः।
।।9.30।।भक्तेर्माहात्म्यमाह -- अपिचेदिति। अत्यन्तपापिष्ठोऽपि मां यद्यनन्यचेताः सन् भजते तथापि स साधुरेव मन्तव्यः। हि यतः स सम्यग्व्यवसितः सम्यग्वृत्तः।
।।9.30।।शृणु मद्भक्तेर्महिमानं दुराचारानपि यया युक्ताननुगृह्णामीत्याह। अपिचेत् यद्यपि सुदुराचारः सुष्ठु अत्यन्तं दुष्ट आचारः आचरणं यस्य स पूर्वं सुदुराचारोऽपि यो मां परमेस्वरं अनन्यभाक् न विद्यतेऽन्यस्मिमन्भक्तिर्यस्य सः भजते सेवते स साधुरेव मन्तव्यः। हि यस्मात्सभ्यग्वयवसितः सम्यक् यथावत् व्यवसायं निश्चयं प्राप्तः।
9.30 अपि even? चेत् if? सुदुराचारः a very wicked person? भजते worships? माम् Me? अनन्यभाक् with devotion to none else? साधुः righteous? एव verily? सः he? मन्तव्यः should be regarded? सम्यक् rightly? व्यवसितः resolved? हि indeed? सः he.Commentary Even if the most sinful worships Him with undivided heart? he too must indeed be deemed righteous for he has made the holy resolution to give up the evil ways of his life. Rogue Ratnakar became Valmiki by his holy resolution. Jagai and Madhai also became righteous devotees. Mary Magdalene a woman of illfame? became a pious woman. Sin vanishes when thoughts of God arise in the mind. Chandrayana and Kricchra Vratas will remove only certain particular sins but the remembrance of the Lord? thoughts of the Supreme Being? Japa and meditation? and Abheda Brahma Chintana (contemplation of Brahman with a nondualistic or Aham Brahmasmi or I am the Absolute attitute) will destroy the sins committed by a person even in hundred crores of Kalpas or ages.By abandoning the evil ways in his external life and by the force of his internal right resolution? he becomes righteous and attains eternal peace. (Cf.IV.36)
9.30 Even if the most sinful worships Me, with devotion to none else, he too should indeed by regarded as righteous for he has rightly resolved.
9.30 Even the most sinful, if he worship Me with his whole heart, shalt be considered righteous, for he is treading the right path.
9.30 Even if a man of very bad conduct worships Me with one-pointed devotion, he is to be considered verily good; for he has resolved rightly.
9.30 Api cet, even if; su-duracarah, a man of very bad conduct, of extremely vile behaviour, of very condemnable character; bhajate, worships; mam, Me; ananyabhak, with one-pointed devotion, with his mind not given to anybody else; he; mantavyah, is to be considered, deemed; eva, verily; sadhuh, good, as well behaved; hi, for; sah, he; samyakvyavasitah, has resolved rightly, has virtuous intentions.
9.30. Even if an incorrigible evil-doer worships Me, not resorting to anything else [as his goal], he should be deemed to be righteous; for, he has undertaken his task properly.
9.30 See Comment under 9.31
9.30 Even though he has transgressed rules that ought to be followed and has failed to avoid what a person belonging to a particular class should avoid, if he has begun to worship Me in the manner described above with undivided devotion, namely, with worship as the only purpose - such a person must be considered highly righteous. He is eminent among the worshippers of Visnu. He must be esteemed as fit for honour. The meaning is that he is eal to those Jnanins mentioned earlier. What can be the reason for this? The reason is that, he has rightly resolved, i.e., his resolve is in the proper direction. 'The Lord who forms the sole cause of the entire universe, who is the Supreme Brahman, Narayana, the Lord of all mobile and immobile beings, is our Master, our Teacher, and our Friend, highest object of enjoyment,' - such a resolve is difficult to be made by all. Its effect, unremitting worship which has no other purpose, will be found in him who makes such a resolve. Hence he is holy and is to be highly honoured. When this resolve, and unremitting worship which is its effect, are found in a person, he is not to be belittled; for, his transgression of rules is a negligible mistake compared to this kind of excellence. On the other hand he is to be regarded with high honour. Such is the meaning. No, if it be said that transgression of rules will annul the flow of worship, as declared in the Sruti passages like, 'One who has not ceased from bad conduct, is not tranil, is not composed and also not calm in mind, cannot obtain Him through intelligence' (Ka. U., 1.2.24), Sri Krsna replies:
9.30 If even the most sinful man worships Me with undivided devotion, he must be regarded as holy, for he has rightly resolved.
।।9.30।।मेरी भक्तिकी महिमा सुन --, यदि कोई सुदुराचारी अर्थात् अतिशय बुरे आचरणवाला मनुष्य भी अनन्य प्रेमसे युक्त हुआ मुझ ( परमेश्वर ) को भजता है तो उसे साधु ही मानना चाहिये अर्थात् उसे यथार्थ आचरण करनेवाला ही समझना चाहिये क्योंकि यह यथार्थ निश्चययुक्त हो चुका है -- उत्तम निश्चयवाला हो गया है।
।।9.30।। --,अपि चेत् यद्यपि सुदुराचारः सुष्ठु दुराचारः अतीव कुत्सिताचारोऽपि भजते माम् अनन्यभाक् अनन्यभक्तिः सन्? साधुरेव सम्यग्वृत्त एव सः मन्तव्यः ज्ञातव्यः सम्यक् यथावत् व्यवसितो हि सः? यस्मात् साधुनिश्चयः सः।।उत्सृज्य च बाह्यां दुराचारताम् अन्तः सम्यग्व्यवसायसामर्थ्यात् --,
।।9.30।।अपि चेत् इत्यादिना भक्तेः प्रशंसा क्रियते। तत्र विष्णुभक्तेः सुदुराचारेणैकत्र समावेशप्रतीतौ यथावद्व्याचष्टे -- न भवत्येवेति।
।।9.30।।न भवत्येव प्रायस्तद्भक्तः सुदुराचारस्तथापि बहुपुण्येन यदि कथञ्चिद्भवति तर्हि साधुरेव स मन्तव्यः।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।
অপি চেত্সুদুরাচারো ভজতে মামনন্যভাক্৷ সাধুরেব স মন্তব্যঃ সম্যগ্ব্যবসিতো হি সঃ৷৷9.30৷৷
অপি চেত্সুদুরাচারো ভজতে মামনন্যভাক্৷ সাধুরেব স মন্তব্যঃ সম্যগ্ব্যবসিতো হি সঃ৷৷9.30৷৷
અપિ ચેત્સુદુરાચારો ભજતે મામનન્યભાક્। સાધુરેવ સ મન્તવ્યઃ સમ્યગ્વ્યવસિતો હિ સઃ।।9.30।।
ਅਪਿ ਚੇਤ੍ਸੁਦੁਰਾਚਾਰੋ ਭਜਤੇ ਮਾਮਨਨ੍ਯਭਾਕ੍। ਸਾਧੁਰੇਵ ਸ ਮਨ੍ਤਵ੍ਯ ਸਮ੍ਯਗ੍ਵ੍ਯਵਸਿਤੋ ਹਿ ਸ।।9.30।।
ಅಪಿ ಚೇತ್ಸುದುರಾಚಾರೋ ಭಜತೇ ಮಾಮನನ್ಯಭಾಕ್. ಸಾಧುರೇವ ಸ ಮನ್ತವ್ಯಃ ಸಮ್ಯಗ್ವ್ಯವಸಿತೋ ಹಿ ಸಃ৷৷9.30৷৷
അപി ചേത്സുദുരാചാരോ ഭജതേ മാമനന്യഭാക്. സാധുരേവ സ മന്തവ്യഃ സമ്യഗ്വ്യവസിതോ ഹി സഃ৷৷9.30৷৷
ଅପି ଚେତ୍ସୁଦୁରାଚାରୋ ଭଜତେ ମାମନନ୍ଯଭାକ୍| ସାଧୁରେବ ସ ମନ୍ତବ୍ଯଃ ସମ୍ଯଗ୍ବ୍ଯବସିତୋ ହି ସଃ||9.30||
api cētsudurācārō bhajatē māmananyabhāk. sādhurēva sa mantavyaḥ samyagvyavasitō hi saḥ৷৷9.30৷৷
அபி சேத்ஸுதுராசாரோ பஜதே மாமநந்யபாக். ஸாதுரேவ ஸ மந்தவ்யஃ ஸம்யக்வ்யவஸிதோ ஹி ஸஃ৷৷9.30৷৷
అపి చేత్సుదురాచారో భజతే మామనన్యభాక్. సాధురేవ స మన్తవ్యః సమ్యగ్వ్యవసితో హి సః৷৷9.30৷৷
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।।9.31।। वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन ! तुम प्रतिज्ञा करो कि मेरे भक्तका विनाश (पतन) नहीं होता।
।।9.31।। हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।।
।।9.31।। पूर्व श्लोक में दृढ़तापूर्वक किये गये पूर्वानुमानित कथन की युक्तियुक्तता को इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है। जब एक दुराचारी पुरुष अपने दृढ़ निश्चय से प्रेरित होकर अनन्यभक्ति का आश्रय लेता है? तब वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है। वस्तु के अस्तित्व का कारण उस वस्तु का धर्म कहलाता है जैसे अग्नि की उष्णता अग्नि का धर्म है? जिसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं हो सकता। इसी प्रकार? मनुष्य का धर्म या स्वरूप चैतन्यस्वरूप आत्मा है? जिसके बिना उसकी कोई भी उपाधियाँ कार्य नहीं कर सकती हैं। इसलिए धर्मात्मा शब्द का अनुवाद केवल साधु पुरुष करने से उसका अर्थ पूर्णरूप से स्पष्ट नहीं होता है।अनन्य भक्ति और पुरुषार्थ से एकाग्रता का विकास होता है? जिसका फल है मन की सूक्ष्मदर्शिता में अभिवृद्धि। ऐसा सम्पन्न मन ध्यान की सर्वोच्च उड़ान में भी अपनी समता बनाये रखता है। शीघ्र ही वह आत्मानुभव की झलक पाता है और? इस प्रकार? अधिकाधिक प्रभावशाली सन्त का जीवन जीते हुए अपने आदर्शों? विचारों एवं कर्मों के द्वारा अपने दिव्यत्व की सुगन्ध को सभी दिशाओं में बिखेरता है।साधारणत? हमारा मन विषयों की कामनाओं और भोग की उत्तेजनाओं में ही रमता है। उसका यह रमना जब शान्त हो जाता है? तब हम उस परम शक्ति का साक्षात् अनुभव करते हैं? जो हमारे जीवन को सुरक्षित एवं शक्तिशाली बनाती है। यह शाश्वत शान्ति ही हमारा मूल स्वरूप है। विश्व का कोई धर्म ऐसा नहीं है? जिसमें यह लक्ष्य न बताया गया हो। स्थिर और शान्त मन वह खुली खिड़की है? जिसमें से झांककर मनुष्य स्वयं को ही सत्य के दर्पण में प्रतिबिम्बित हुआ देखता है। यहाँ आश्वासन दिया गया है कि? वह शाश्वत शान्ति को प्राप्त करता है परन्तु इसका अर्थ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि यह शान्ति हमसे कहीं सुदूर स्थित है यह तो अपने नित्यसिद्ध स्वस्वरूप की पहचान मात्र है।वेदान्त में निर्दिष्ट पूर्णत्व हमसे उतना ही दूर है? जितना हमारी जाग्रत अवस्था हमारे स्वप्न से। यहाँ मन को केवल एकाग्र करने की ही आवश्यकता है। यदि कैमरे को ठीक से केन्द्रीभूत (फोकस) नहीं किया जाता? तो सामने के सुन्दर दृश्य का केवल धुँधला चित्र ही प्राप्त होता है और यदि उस कैमरे को सम्यक् प्रकार से फोकस किया जाय तो उसी से हमें सम्पूर्ण दृश्य का उसके विस्तार एवं भव्य सौन्दर्य के साथ चित्र प्राप्त होता है। दुर्व्यवस्थित मन और बुद्धि? जो निरन्तर इच्छा और कामना की उठती हुई तरंगों के मध्य थपेड़े खाती रहती है? आत्मदर्शन के लिए उपयुक्त साधन नहीं है।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति भगवान् श्रीकृष्ण के अतुलनीय धर्मप्रचारक व्यक्तित्व को उजागर करती है। यह बताने के पश्चात् कि अतिशय दुराचारी पुरुष भी भक्ति और सम्यक् निश्चय के द्वारा शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है? श्रीकृष्ण मानो अर्जुन की पीठ थपथपाते हुए घोषित करते हैं? मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।ऋषियों का अनुसरण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि उसे इस निर्बाध सत्य का सर्वत्र उद्घोष करना चाहिए कि (प्रतिजानीहि) आदर्श मूल्यों का जीवन जीने वाला साधक कभी नष्ट नहीं होता है और यदि उसका निश्चय दृढ़ और प्रयत्न निष्ठापूर्वक है तो वह असफल नहीं होता है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को दी गई सम्मति के लिए जिस विशेष शब्द प्रतिजानीहि का प्रयोग यहाँ किया है? उसकी अपनी ही प्रतिपादन की क्षमता है और वह शब्द आदेशात्मक परमावश्यकता या शीघ्रता को व्यक्त करता है। संस्कृत के विद्यार्थी इस भाव को सरलता से देख सकेंगे? और जो इस भाषा से अनभिज्ञ हैं? वे इस शब्द पर विशेष ध्यान दें।संक्षेप में? इन दोनों श्लोकों का सार यह है कि जो व्यक्ति अपने मन के किसी एक भाग में भी ईश्वर का भान बनाए रखता है? तो उसके ही प्रभाव से उस व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन परवर्तित होकर वह अपने अन्तर्बाह्य जीवन में प्रगति और विकास के योग्य बन जाता है। जैसे सड़क पर लगे नीले रंग के प्रकाश के नीचे से कोई व्यक्ति किसी भी रंग के वस्त्र पहने निकलता है? तो उसके वस्त्रों को नीलवर्ण का आभा प्राप्त होती है? उसी प्रकार हृदय में आत्मचैतन्य का भान रहने पर मन में उठने वाली अपराधी और पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ भी उसके ईश्वरीय पूर्णत्व की स्वर्णिम आभा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकतीं जैसे वस्त्र रखने की अलमारी में रखी नेफ्थलीन की ग्ाोलियाँ वहाँ रखे हुए सभी वस्त्रों की रक्षा करती हैं और कृमियों को उनसे दूर रखती हैं? उसी प्रकार आत्मा का अखण्ड स्मरण मानव व्यक्तित्व को विनाशकारी आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों के कृमियों से सुरक्षित रखता है।आगे कहते हैं --
।।9.31।। व्याख्या --'क्षिप्रं भवति धर्मात्मा'-- वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है अर्थात् महान् पवित्र हो जाता है। कारण कि यह जीव स्वयं परमात्माका अंश है और जब इसका उद्देश्य भी परमात्माकी प्राप्ति करना हो गया तो अब उसके धर्मात्मा होनेमें क्या देरी लगेगी? अब वह पापात्मा कैसे रहेगा? क्योंकि वह धर्मात्मा तो स्वतः था ही, केवल संसारके सम्बन्धके कारण उसमें पापात्मापन आया था, जो कि आगन्तुक था। अब जब अहंता बदलनेसे संसारका सम्बन्ध नहीं रहा, तो वह ज्यों-का-त्यों (धर्मात्मा) रह गया।यह जीव जब पापात्मा नहीं बना था, तब भी पवित्र था और जब पापात्मा बन गया, तब भी वैसा ही पवित्र था। कारण कि परमात्माका अंश होनेसे जीव सदा ही पवित्र है। केवल संसारके सम्बन्धसे वह पापात्मा बना था। संसारका सम्बन्ध छूटते ही वह ज्योंकात्यों पवित्र रह गया।
।।9.29 -- 9.31।।सम इत्यादि प्रणश्यतीत्यन्तम्। प्रतिजाने इति। युक्तियुक्तोऽयमर्थो भगवत्प्रतिज्ञातत्वात् सुष्ठुतमां दृढो भवति।
।।9.31।।मत्प्रियत्वकारितानन्यप्रयोजनमद्भजनेन विधूतपापतया एव समूलोन्मूलितरजस्तमोगुणः क्षिप्रं धर्मात्मा भवति क्षिप्रम् एव विरोधिरहितसपरिकरमद्भजनैकमना भवति। एवंरूपभजनम् एव हिधर्मस्य अस्य परंतप। (9।3) इति उपक्रमे धर्मशब्दोदितः।शश्वच्छान्तिं निगच्छति। शाश्वतीम् अपुनरावर्तिनीं मत्प्राप्तिविरोध्याचारनिवृत्तिं गच्छति।कौन्तेय त्वम् एव अस्मिन् अर्थे प्रतिज्ञां कुरु मद्भक्तौ उपक्रान्तो विरोध्याचारमिश्रः अपि न नश्यति अपि तु मद्भक्तिमाहात्म्येन सर्वं विरोधिजातं नाशयित्वा शाश्वतीं विरोधिनिवृत्तिम् अधिगम्य क्षिप्रं परिपूर्णभक्तिः भवति।
।।9.31।।हेत्वर्थमेव प्रपञ्चयति -- उत्सृज्येति। भगवन्तं भजमानस्य कथं दुराचारता परित्यक्ता भवतीत्याशङ्क्याह -- क्षिप्रमिति। सति दुराचारे कथं धर्मचित्तत्वं तदाह -- शश्वदिति। उपशमो दुराचारादुपरमः। किमिति त्वद्भक्तस्य दुराचारादुपरतिरुच्यते दुराचारोपहतचेतस्तया किमित्यसौ न नङ्क्ष्यतीत्याशङ्क्याह -- शृण्विति।
।।9.31।।ननु नीचजातिमान्सम्यगव्यवसायमात्रेण कथं साधुर्मन्तव्यस्तत्राह -- क्षिप्रमिति। सत्यमुक्तं नीचजातिस्तत्र विरोधिनीति परं तदुत्तरभजनमहिम्ना निर्मूलमुन्मूलितजातिपापः सन् धर्मात्मा भवति एवं स्वरूपभजनेन शश्वच्छान्तिमपुनरावर्त्तिनीं मत्प्राप्तिं विरुद्धाचारनिवृत्तिं याति हे कौन्तेय त्वमस्मिन्नर्थे मे प्रतिज्ञां जानीहि।न मे भक्तः प्रणश्यति इति त्वं वा सभायां गत्वा प्रतिज्ञां कुरु? न मे भगवतो भक्तो दोषैः पराभूतो भवाम्बुधौ निमज्जति? किन्तु परां गतिं याति। अनेनातितामसानां राजसानां महापतितानां च स्वसम्बद्धानां च पावने निरोधने च स्वसमर्थत्वं स्वस्य कृपालोः पुरुषोत्तमस्य दर्शितम्। अतएव -- सर्वोद्धारप्रयत्नात्मा कृष्णः प्रादुर्बभूव ह इति निरूपितं निबन्धेये भक्ताः शास्त्ररहिताः स्त्रीशूद्रद्विजबन्धवः। तेषामुद्धारकः कृष्णः पुरुषोत्तम एव हि इति च।
।।9.31।।अस्मादेव सम्यग्व्यवसायात्स हित्वा दुराचारतां चिरकालमधर्मात्मापि मद्भजनमहिम्ना क्षिप्रं शीघ्रमेव भवति धर्मात्मा धर्मानुगतचित्तः। दुराचारत्वं झटित्येव त्यक्त्वा सदाचारो भवतीत्यर्थः। किंच शश्वन्नित्यं शान्तिं विषयभोगस्पृहानिवृत्तिं निगच्छति नितरां प्राप्नोत्यतिनिर्वेदात्। कश्चित्त्वद्भक्तः प्रागभ्यस्तं,दुराचारत्वमत्यजन्नभवेदपि धर्मात्मा। तथाच स नश्येदेवेति नेत्याह -- भक्तानुकम्पापरवशतया कुपित इव भगवान्। नैतदाश्चर्यं मन्वीथाः है कौन्तेय? निश्चितमेवेदृशं मद्भक्तेर्माहात्म्यं? अतो विप्रतिपन्नामां पुरस्तादपि त्वं प्रतिजानीहि सावज्ञं सगर्वं च प्रतिज्ञां कुरु। न मे वासुदेवस्य भक्तोऽतिदुराचारोऽपि प्राणसंकटमापन्नोऽपि सुदुर्लभमयोग्यः सन्प्रार्थयमानोऽपि अतिमूढोऽशरणोऽपि न प्रणश्यति किंतु कृतार्थ एव भवतीति। दृष्टान्ताश्चाजामिलप्रह्लादध्रुवगजेन्द्रादयः प्रसिद्धा एव। शास्त्रं चन वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् इति।
।।9.31।।ननु कथं समीचीनाध्यवसायमात्रेण साधुर्मन्तव्यस्तत्राह -- क्षिप्रमिति। दुराचारोऽपि मां भजञ्छीघ्रं धर्मचित्तो भवति। ततश्च शश्वच्छान्तिं शाश्वतीमुपशान्तिं चित्तोपप्लवोपरमरूपां परमेश्वरनिष्ठां नितरां गच्छति प्राप्नोति। कुतर्ककर्कशवादिनो नैतन्मन्येरन्निति शङ्काव्याकुलचित्तमर्जुनं प्रोत्साहयति। हे कौन्तेय? पटहकाहलादिमहाघोषपूर्वकं विवदमानानां सभां गत्वा बाहुमुत्क्षिप्य निःशङ्कं प्रतिजानीहि प्रतिज्ञां कुरु। कथं? मे परमेश्वरस्य भक्तः सुदुराचारोऽपि न प्रणश्यति अपितु कृतार्थ एव भवतीति। ततश्च ते त्वत्प्रौढिविजृभ्माद्विध्वंसितकुतर्का निःसंशयं त्वामेव गुरुत्वेनाश्रयेरन्।
।।9.31।।अस्त्वन्येषां बहुमन्तव्यः? स्वस्य तु कार्यासिद्धिरिति शङ्कापूर्वकमनन्तरश्लोकमवतारयति -- ननु नाविरत इति। न केवलं प्राप्तिमात्रनिषेधः श्रुतौ अपितु प्रज्ञानस्यापि निषेधोऽभिप्रेत इत्यभिप्रायेणोक्तम्उत्तरोत्तरभजनोत्पत्तिप्रवाहं निरुणद्धीति। तथाचोच्यते -- पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः। नष्टप्रज्ञः पापमेव पुनरारभते द्विज (नरः) [म.भा.5।35।6162] इति। प्रतिबन्धकरजस्तमोमूलभूतपापनिरासाय ह्याचारः तस्मिंश्च पापे मद्भजनेन विनिवृत्ते सति नोपासनप्रतिबन्ध इत्यभिप्रायेणाहमत्प्रियत्वेति। विकलस्य विलम्बशङ्काप्रतिक्षेपार्थः क्षिप्रशब्दः। धर्मशब्दोऽत्र प्रकरणादनन्यभजनपरः। आत्मशब्दश्च तत्करणभूतमनोविषयः।अनन्यमनसः [9।13]मन्मना भव [9।34] इति हि पूर्वापरम् भजनमेव कथं भजनोत्पत्तिप्रतिबन्धकनिवर्तकमिति चेत् तन्न? परिपूर्णभजनस्य साध्यत्वात् भक्त्युपक्रमस्य च हेतुत्वात् तदेतदाह -- क्षिप्रमेवेत्यादिना।नन्वत्र धर्मशब्दो वर्णाश्रमधर्ममात्रपरः किं न स्यात् इत्यत्राहएवं रूपेति। सामान्यशब्दस्य प्राकरणिकविशेषविषयत्वमेव न्याय्यम् प्रयुक्तश्चायमेव शब्दः प्रक्रमे भजनरूपविशेषविषयतयेति भावः। अस्तु भजनप्रभावात्पापनिवृत्तिः तथापि परितापरहितबुद्धिपूर्वानुवृत्तदुराचारसन्तानः कथं न प्रतिबन्धक इत्यत्रोत्तरशश्वच्छान्तिं निगच्छतीति।मत्प्राप्तिविरोध्याचारनिवृत्तिमिति प्रकरणविशेषतः शान्तिशब्दार्थः।,प्रतिजानीहि इत्यत्र ज्ञानमात्रविधावुपसर्गस्य नैरर्थक्यात् वास्तोष्पते प्रतिजानीह्यस्मान् [ऋक्सं.5।4।21।1] इत्यादिष्वगत्या नैरर्थक्यस्वीकारादत्र च ज्ञानविधेः प्रयोजनाभावात्? प्रतीयमानप्रतिज्ञार्थस्यात्यन्तनिर्णीतत्वस्थापकतयाऽपेक्षितत्वाच्चाहकौन्तेय त्वमेवास्मिन्नर्थे प्रतिज्ञां कुर्विति।प्रतिजानामि इति स्वप्रतिज्ञानादपिप्रतिजानीहि इति श्रोतुरेव प्रतिज्ञाविधानमत्यन्तस्थैर्याभिप्रायमिति व्यञ्जनायोक्तंत्वमेवेति।न मे भक्तः प्रणश्यति इत्ययं प्रतिज्ञाविषय इति ज्ञापनायअस्मिन्नर्थे इत्युक्तम्। परिपूर्णोपासकस्य नाशप्रसङ्गाभावात्अपि चेत्सुदुराचारः [9।30] इत्युक्तविषयत्वाच्चाहमद्भक्तावुपक्रान्तो विरोध्याचारमिश्रोऽपीति। उपक्रान्तभक्तिरपि हि भक्त इत्युच्यते। भक्तस्य नाशनिषेधःशश्वत् इत्याद्युक्ततत्प्रतिकूलनाशमुखेन परिपूर्तिपर्यवसित इत्यभिप्रायेणाहअवित्विति। अत्रोपरिचरादिवृत्तान्तो ग्राह्यः। यथोपरिचरो भगवद्धर्ममास्थितः कदाचिद्देवानामृषीणां च विवादेऽपि पिष्टपश्वादि भृग्वादिमहर्षिविरुद्धमनृतमभिधाय निपतितः क्षिप्रं भगवतोदस्तः [म.भा.12।337] यथा चउपमानमशेषाणां साधूनां यः सदाऽभवत् [वि.पु.1।15।150] इति प्रसिद्धः प्रह्लादः कदाचिद्भगवन्तं प्रतियोद्धुं प्रवृत्तः शीघ्रं प्रत्यबुध्यत यथा च पापिष्ठः क्षत्रबन्धुर्भगवन्नामप्रभावादनन्तरजन्मनि जातिं स्मरन् जातनिर्वेदो भगवन्तं शरणमुपसङ्गम्य ह्यमुच्यत [वि.ध.अ.97]। इतिशब्दस्यअस्मिन्नर्थे इत्यनेनान्वयः।
।।9.31।।एवं प्रवृत्तस्य दुराचारादिकं नश्यतीत्याह -- क्षिप्रमिति। क्षिप्रं शीघ्रं धर्मात्मा मत्सेवनयोग्यो भवति? ततः शश्वच्छार्न्ति शाश्वतीं शान्तिं मद्रूपां नितरां भावात्मरूपेण गच्छति प्राप्नोतीत्यर्थः। तस्मात् हे कौन्तेय मत्कृपापात्र तथा दुराचरणशीलेऽपि मद्भक्ते निर्दोषभावेन साधुत्वं मत्वा मद्भक्ते दोषदृष्टिषु प्रतिजानीहि प्रतिज्ञां कुरु यन्मे भक्तो दुराचारादिदोषैर्न प्रणश्यति दोषा एव नश्यन्तीत्यर्थः। एवं मद्भक्ताधिक्यवर्णनेनाहं तुष्टो भविष्यामीति भावः।
।।9.31।।सम्यग्व्यवसितत्वादेव क्षिप्रं धर्मात्मा भवति। शान्तिं च शश्वन्निगच्छति प्राप्नोति। हे कौन्तेय? त्वमेव मदाज्ञया प्रतिजानीहि प्रतिज्ञां कुरु मे मम भगवतो हरेर्भक्तो न नश्यतीति।
।।9.31।।ननु किं त्वामनन्यभाक् भजन्नपि सुदुराचार एव तिष्ठति? नेत्याह -- क्षिप्रमिति। अतः मद्भजनरुपसम्यग्व्यवसायसामर्थ्याद्वाह्यतां दुराचारतां च विहाय क्षिप्रं शीघ्रं धर्मात्मा धर्मे आत्मा चित्तं यस्य स धर्मचित्त एव भवति। तत एव शश्वन्नित्यं शान्तिमुपशमं नितरां गच्छति प्राप्नोति। अस्मिन्नर्थेऽसंभावनां निरस्यन्नाह। हे कौन्तेय? मे मम भ्कतो न प्रणश्यतीति प्रतिजानीहि निश्चितां प्रतिज्ञां कुरु। यथा कुन्ती इन्द्रादिसंसर्गं कृत्वापि मद्भक्तिमहिम्ना सर्वोत्तमा सतीत्वेन परिगणिता नाधर्मसंबन्धेन नाशयोग्या तथेति कौन्तेयेति संबोधनस्य गूढाभिप्रायः।
9.31 क्षिप्रम् soon? भवति (he) becomes? धर्मात्मा righteous? शश्वत् eternal? शान्तिम् peace? निगच्छति attains to? कौन्तेय O son of Kunti? प्रतिजानीहि proclaim for certain? न not? मे My? भक्तः Bhakta? प्रणश्यति perishes.Commentary Listen? this is the truth? O Arjuna you may proclaim that My devotee who has sincere devotion to Me? who has offered his inner soul to Me never perishes.
9.31 Soon he becomes righteous and attains to eternal peace; O Arjuna, proclaim thou for certain that My devotee never perishes.
9.31 He shall attain spirituality ere long, and Eternal Peace shall be his. O Arjuna! Believe me, My devotee is never lost.
9.31 He soon becomes possessed of a virtuous mind; he attains everlasting peace. Do you proclain boldly, O son of Kunti, that My devotee does not get ruined.
9.31 Having given up his external evil behaviour due to the strength of his internal proper resolves, ksipram bhavati, he soon becomes; verily dharma-atma, possessed of a virtuous mind; and nigaccahti, he attains; sasvat, everlasting; santim, peace, ietude [Cessation of evil acts.]. O son of Kunti, listen to the supreme Truth: Pratijanihi, do you proclaim boldly, make a firm declaration; that me, My; bhaktah, devotee, who has dedicated his inner being to Me; na, does not; pranasyati, get ruined. Moreover,
9.31. Quickly he becomes righteous-souled (minded) and attains peace permanently. O son of Kunti ! I swear that my devotee gets never lost.
9.29-31 Ksipram etc. I swear etc. This result (or subject), has logic [as its strong basis] and now being promised by the Bhagavat, it becomes established most firmly.
9.31 Quickly he becomes righteous, the Gunas of Rajas and Tamas in him being eradicated with their roots, as he has shaken off all evils through the worship of Myself without any ulterior motive but only because of My being dear to him. Quickly he becomes one whose mind is specially attuned to My worship with all the ancillaries and having all the obstacles removed. It is this kind of worship which was alluded to by the term. Dharma at the commencement of this chapter thus: 'Asraddhadanah purusa dharmasy'asya' etc., (9.3). Such a person obtains enduring peace, i.e., he attains to an eternal state, free from conduct contrary to the attainment of Myself, and from which there will be no return to Samsara. O Arjuna, you may affirm that one who has begun to worship Me in this way will not perish even though he is tarnished by some misconduct in the past. On account of his devotion to Me, he annihilates the entire host of obstacles. After obtaining eternal state of freedom from obstacles, he ickly obtains perfect Bhakti.
9.31 Quickly he becomes righteous and obtains everlasting peace. Affirm on My behalf, O Arjuna, My devotee never perishes.
।।9.31।।आन्तरिक यथार्थ निश्चयकी शक्तिसे बाहरी दुराचारिताको छोड़कर --, वह शीघ्र ही धर्मात्मा -- धार्मिक चित्तवाला बन जाता है और सदा रहनेवाली नित्य शान्ति -- उपरतिको पा लेता है। हे कुन्तीपुत्र तू यथार्थ बात सुन? तू यह निश्चित प्रतिज्ञा कर अर्थात् दृढ़ निश्चय कर ले कि जिसने मुझ परमात्मामें अपना अन्तःकरण समर्पित कर दिया है वह मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता? अर्थात् उसका कभी पतन नहीं होता।
।।9.31।। --,क्षिप्रं शीघ्रं भवति धर्मात्मा धर्मचित्तः एव। शश्वत् नित्यं शान्तिं च उपशमं निगच्छति प्राप्नोति। श्रृणु परमार्थम्? कौन्तेय प्रतिजानीहि निश्चितां प्रतिज्ञां कुरु? न मे मम भक्तः मयि समर्पितान्तरात्मा मद्भक्तः न प्रणश्यति इति।।किञ्च --,
।।9.31।।बहुपुण्येन स्वयोग्यादधिकेनार्जितेनसम्यग्व्यवसितो हि सः [9।30] इति हेतोरुक्तत्वात्क्षिप्रं इत्यादि व्यर्थमित्यत आह -- कुत इति। सम्यग्व्यवसायवत्त्वेऽपि सुदुराचारः कुतः साधुर्मन्तव्य इति शङ्कार्थः। सम्यग्व्यवसायवत्त्वात्क्षिप्रं भवति धर्मचित्तः। यदेतद्भक्तेः सुदुराचारेण सहैकत्र क्वचिदवस्थानमङ्गीकृतं तदपि न मनुष्यविषयमित्याह -- देवेति। देवाश्चन्द्रादयः? तदंशाः सुग्रीवादयः। आदिपदेन विश्वामित्रादीनामृषीणां ग्रहणम्। एतच्च देवदेवांशादिष्वेव विषयेषु भवतीति योजना। कुतः इत्यत आह -- उक्तं चेति। दुश्चरितादविरतो यः कश्चित्सोऽमलाशयो भूत्वा वासुदेवे सम्यग्भक्तो न भवेत्? तथाऽभक्तः श्रवणकीर्तनादिभक्तिलिङ्गरहितः? एवमसमाहितो विषयविक्षिप्तमनाश्च। देवादयश्च क्वचिदेवम्भूता अपि सम्यग्भक्ता भवन्ति। कुतः ज्ञानतः सम्यग्व्यवसायत्वात्। ननु देवादिभ्योऽन्योऽपि सुदुराचारस्तद्भक्तो दृश्यते? शङ्खचक्राङ्कितबाहुमूलत्वादिलिङ्गवत्त्वात्। कथमेतत् इत्यत आह -- अतोऽन्य इति। भवति चेत्सुदुराचारोऽपि भक्तिलिङ्गवानिति शेषः। मा भूत्सुदुराचारो भक्तः? मध्यमदुराचारस्तु तथाविधः कथं इत्यत आह -- साधारणेति। महतीति। वक्ष्यमाणसाधारणभक्तिव्यवच्छेदार्थं सुदुराचाराणामपि भगवत्प्रेम्णोऽनुभवसिद्धत्वात्कथं दाम्भिकत्वानुमानं इत्यत आह -- साधारणेति। अल्पेत्यर्थः। प्रेमानुभवाभावेऽनुमानमुक्तम्। महाभक्त्यभावविषयं वेति भावः। सुदुराचारोऽपि भक्तिलिङ्गवान्महाभक्त एवास्तु? किं दाम्भिकत्वादिकल्पनया इत्यत आह -- स इति। शठमतिः दम्भबुद्धिः। महाभक्तेर्दुराचारोपशमहेतुत्वोक्तेश्च न तयोरेकत्र समावेश इत्याह -- सेति? हरिभक्तिः। इतश्चैवमित्याह -- वेदा इति। मम मया। परस्य गुह्यं न च भिन्नपूर्वं पिशुनत्वं नाचरितम्। उपस्थमुदरं पाणिर्वागिति चत्वारि। मे मया। एकान्तभावेन नियतमनसा। सत्त्वमन्तःकरणम्। कारणसामग्र्यां सत्यां कार्यानुदयो ह्याश्चर्यहेतुः। नन्वाचारस्य ज्ञानसाधनत्वोक्त्यां दुराचाराणां ज्ञानाभावः सिध्यतु? महाभक्त्यभावस्तु कुतः इत्यत आह -- ज्ञानेति। कुत एतत् इत्यत आह -- तथा हीति। भक्तिज्ञानयोरविनाभूतत्वाच्च तदभावे तदभावसिद्धिरित्याह -- भक्तिरिति।
।।9.31।।कुतः क्षिप्रं भवति धर्मात्मा। देवदेवांशादिष्वेव च तद्भवति। उक्तं च सामवेदे शाण्डिल्यशाखायाम् -- नाविरतो दुश्चरितान्नाभक्तो नासमाहितः। सम्यग्भक्तो भवेत् कश्चिद्वासुदवेऽमलाशयः। देवर्षयस्तदंशाश्च भवन्ति क्वच ज्ञानतः इति। अतोऽन्यः कश्चिद्भवति चेत् दाम्भिकत्वेन सोऽनुमेयः। साधारणपापानां सत्सङ्गान्महत्यपि कथञ्चिद्भक्तिर्भवति। साधारणभक्तिर्वेतरेषाम्।स शठमतिरुपयाति योऽर्थतृष्णां तमधमचेष्टमवैहि नास्य भक्तिम् इति श्रीविष्णुपुराणे [3।7।30]सा श्रद्दधानस्य विवर्धमाना विरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः इति च।वेदास्त्वधीता (वेदाः स्वधीताः) मम लोकनाथ तृप्तं तपो नानृतमुक्तपूर्वम्। पूजां गुरूणां सततं करोमि परस्य गुह्यं न च भिन्नपूर्वम्। गुप्तानि चत्वारि यथागमं (यथं) मे शत्रौ च मित्रे च समोऽस्मि नित्यम्। तं चापि (चादि -- ) देवं शरणं (सततं) प्रपन्नमेकान्तभावेन भजा(वृणो)म्यजस्रम्। एतैरुपायैः (एभिर्विशेषैः) परिशुद्धसत्त्वः कस्मान्न पश्येयमनन्तमेन(ईश)म् इति मोक्षधर्मे [म.भा.12।335।3?4?5]। आचारस्य ज्ञानसाधनत्वोक्तेश्च ज्ञानाभावे सम्यग्भक्त्यभावात्। तथा हि गौतमखिलेषु -- विना ज्ञानं कुतो भक्तिः कुतो भक्तिं विना च तत् इति।भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैतत्ित्रकमेककालम् इति च भागवते [11।2।42]।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।9.31।।
ক্ষিপ্রং ভবতি ধর্মাত্মা শশ্বচ্ছান্তিং নিগচ্ছতি৷ কৌন্তেয প্রতিজানীহি ন মে ভক্তঃ প্রণশ্যতি৷৷9.31৷৷
ক্ষিপ্রং ভবতি ধর্মাত্মা শশ্বচ্ছান্তিং নিগচ্ছতি৷ কৌন্তেয প্রতিজানীহি ন মে ভক্তঃ প্রণশ্যতি৷৷9.31৷৷
ક્ષિપ્રં ભવતિ ધર્માત્મા શશ્વચ્છાન્તિં નિગચ્છતિ। કૌન્તેય પ્રતિજાનીહિ ન મે ભક્તઃ પ્રણશ્યતિ।।9.31।।
ਕ੍ਸ਼ਿਪ੍ਰਂ ਭਵਤਿ ਧਰ੍ਮਾਤ੍ਮਾ ਸ਼ਸ਼੍ਵਚ੍ਛਾਨ੍ਤਿਂ ਨਿਗਚ੍ਛਤਿ। ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਪ੍ਰਤਿਜਾਨੀਹਿ ਨ ਮੇ ਭਕ੍ਤ ਪ੍ਰਣਸ਼੍ਯਤਿ।।9.31।।
ಕ್ಷಿಪ್ರಂ ಭವತಿ ಧರ್ಮಾತ್ಮಾ ಶಶ್ವಚ್ಛಾನ್ತಿಂ ನಿಗಚ್ಛತಿ. ಕೌನ್ತೇಯ ಪ್ರತಿಜಾನೀಹಿ ನ ಮೇ ಭಕ್ತಃ ಪ್ರಣಶ್ಯತಿ৷৷9.31৷৷
ക്ഷിപ്രം ഭവതി ധര്മാത്മാ ശശ്വച്ഛാന്തിം നിഗച്ഛതി. കൌന്തേയ പ്രതിജാനീഹി ന മേ ഭക്തഃ പ്രണശ്യതി৷৷9.31৷৷
କ୍ଷିପ୍ରଂ ଭବତି ଧର୍ମାତ୍ମା ଶଶ୍ବଚ୍ଛାନ୍ତିଂ ନିଗଚ୍ଛତି| କୌନ୍ତେଯ ପ୍ରତିଜାନୀହି ନ ମେ ଭକ୍ତଃ ପ୍ରଣଶ୍ଯତି||9.31||
kṣipraṅ bhavati dharmātmā śaśvacchāntiṅ nigacchati. kauntēya pratijānīhi na mē bhaktaḥ praṇaśyati৷৷9.31৷৷
க்ஷிப்ரஂ பவதி தர்மாத்மா ஷஷ்வச்சாந்திஂ நிகச்சதி. கௌந்தேய ப்ரதிஜாநீஹி ந மே பக்தஃ ப்ரணஷ்யதி৷৷9.31৷৷
క్షిప్రం భవతి ధర్మాత్మా శశ్వచ్ఛాన్తిం నిగచ్ఛతి. కౌన్తేయ ప్రతిజానీహి న మే భక్తః ప్రణశ్యతి৷৷9.31৷৷
9.32
9
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।।9.32।। हे पृथानन्दन ! जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों, वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसन्देह परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं।
।।9.32।। हे पार्थ ! स्त्री, वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले हों, वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।
।।9.32।। पूर्व के श्लोकद्वय की व्याख्या और परिशिष्ट के रूप में? भगवान् आगे कहते हैं कि बाह्य जगत् की प्रतिकूल परिस्थितियों के दुष्प्रभाव के वशीभूत हुए केवल दुराचारी लोग ही ईश्वर के अखण्ड स्मरण से बन्धमुक्त हो जाते हों? ऐसी बात नहीं है। जो लोग जन्म से ही मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं की कमी एवं आंतरिक दुर्व्यवस्था के शिकार हैं? वे ही आत्मा के अखण्ड स्मरण की इस साधना से अन्तकरण को शुद्ध एवं सुसंगठित कर सकते हैं।इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्रुति? स्मृति और पुराणों में ऐसी उक्तियाँ हैं? जो इस श्लोक की भाषा के समान ही प्रतीत होती हैं। स्त्रियों? वैश्यों और शूद्रों को पापयोनि में जन्मे हुए कहकर उनकी निन्दा करने का अर्थ यह होगा कि धर्म का इष्ट प्रभाव समाज के केवल कुछ मुट्ठी भर लोगों पर ही है। ऐसा समझना माने प्रारम्भ से भगवान् श्रीकृष्ण जिस सिद्धांत का प्रतिपादन बारम्बार बल देकर कर रहे हैं? उस सबको नकारना हैं। इसलिए? यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण के शब्दों के वास्तविक अभिप्राय को हमें समझना होगा।धर्म की साधना न शारीरिक विकास के लिए है और न ही शरीर के द्वारा पूर्ण करने योग्य है। विकास की जिस उन्नति को धर्म लक्ष्य के रूप में इंगित करता है? उसमें शरीर के लिंग? जाति आदि से किञ्चिन्मात्र प्रयोजन नहीं है। आध्यात्मिक साधनाओं का प्रयोजन मन और बुद्धि को सुगठित करना है? जो विकास की अपनी परिपक्व अवस्था में स्वयं स्थिर हो जाती है? और? फिर? आत्मा सर्वोपाधिविनिर्मुक्त होकर स्वमहिमा में प्रतिष्ठित रहता है। अत यहाँ प्रयुक्त स्त्रियादि शब्दों से तात्पर्य अन्तकरण के कुछ विशेष गुणों से समझना चाहिए जो समयसमय पर विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न तारतम्य में व्यक्त होते हैं।स्त्रियों से तात्पर्य स्त्री के समान मन से है। ऐसे मन के लोग अत्यन्त भावुक प्रवृत्ति के होते हैं तथा जगत् की वस्तुओं में उनकी अत्यधिक आसक्ति होती है।इसी प्रकार? समाज में अनेक लोग अपने विचारों एवं कर्मों में व्यापारिक वृत्ति के होते हैं। ये लोग अपने आन्तरिक मानसिक जीवन में वैश्य के समान रहते हैं वे सदा इसकी ही गणना और चिन्ता करते रहते हैं कि ईश्वर स्मरण आदि में वे मन की जो पूँजी लगा रहे हैं? उससे उन्हें क्या लाभ होगा। ऐसी गणना करने वाला और सदा अधिकाधिक लाभ की आशा लगाये रहने वाला मन ध्यानयोग के द्वारा विकसित होने योग्य नहीं होता है। मन को स्थिर करके क्षणभर के लिए सारभूत अनन्तस्वरूप में जीवन्त रहने का एकमात्र उपाय है सब कर्मों को ईश्वरार्पण कर देना। इस प्रकार? जब अध्यात्मशास्त्र में वैश्यों की निन्दा की जाती है? तो? वास्तव में? यह हमारे मन की वैश्य वृत्ति की निन्दा समझनी चाहिए। ऐसी वृत्ति का पुरुष इस दिव्य मार्ग पर प्रगति की आशा नहीं कर सकता है।अन्त में? शूद्र शब्द के द्वारा आलस्य? निद्रा और प्रमाद जैसी मन की वृत्तियों को दर्शाया गया है।भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने युग में सर्वपरिचित शब्दों के उपयोग के द्वारा अन्तकरण के विशेष गुणों को इंगित किया है। इन शब्दों को उपर्युक्त अर्थ में जब हम समझते हैं? तभी इस श्लोक का वास्तविक तात्पर्य समझ में आता है। उनके विपरीत अर्थ करके? गीता को अपनी योग्यता के आधार पर प्राप्त मानव मात्र के धर्मशास्त्र होने की प्रतिष्ठा से नीचे गिराने की आवश्यकता नहीं है।इस श्लोक के द्वारा भगवान् वचन देते हैं कि अनन्य भक्ति तथा आत्मस्वरूप के सतत् निदिध्यासन से न केवल दुराचारी लोग? वरन् जन्म से ही किसी प्रकार की मानसिक और बौद्धिक हीनता के शिकार हुए लोग भी सफलतापूर्वक आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।पापयोनि से जन्मे हुए वेदान्त के अनुसार? पाप मन की वह दूषित प्रवृत्ति है? जो उसके भूतकाल के नकारात्मक और दोषपूर्ण जीवन के कारण मन में उत्पन्न हो जाती है। मन की ये कुवासनायें दुर्निवार होती हैं और मनुष्य को बलपूर्वक झूठे आदर्शों का जीवन व्यतीत करने को बाध्य करती हैं। फलत उस व्यक्ति के अपने तथा अन्यों के जीवन में भी भ्रम? अशान्ति और दुर्व्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। ये वासनायें ही उपर्युक्त स्त्री? वैश्य और शूद्र वृत्तियों का मूल स्रोत हैं। केवल एक मन्द बुद्धि पंडित में ही वह धृष्टता होगी जो शास्त्रों के वाच्यार्थ के प्रति दृढ़ निष्ठा रखते हुए इस श्लोक की व्याख्या उसी के अनुसार करने की मूर्खता करेगा। ऐसा करने में वह? स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा परिभाषित वर्णाश्रम धर्म के अर्थ को आराम से भूल जायेगा।संक्षेप में? जब मन इन दुष्प्रवृत्तियों से भरा होता है? तब ऐसे मन वाले व्यक्ति का वेदाध्ययन करना निर्रथक होता है। इस कारण? केवल करुणावश ऋषियों ने उनके लिए वेदाध्ययन का निषेध किया है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि ऐसे व्यक्तियों को सदा के लिए अध्ययन से वंचित रखा जाय। इस पवित्र ब्रह्मविद्या का सफल अध्ययन करने हेतु आवश्यक योग्यताओं की प्राप्ति के लिए ही आध्यात्मिक साधनाओं का विधान किया गया है। ऐसी सभी साधनाओं में सबसे अधिक प्रभावशाली साधना है उपासना अर्थात् भक्तिपूर्ण हृदय से ईश्वर का अखण्ड स्मरण करना। वेदान्त का यह घोषणा है कि उपासना के द्वारा मन की शुद्धि होती है। मन की अशुद्धियों अथवा कमजोरियों को यहाँ स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा इन शब्दों के द्वारा सूचित किया गया है।एक बार जब ये नकारात्मक प्रवृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं? तब मन में एकाग्रता? अनन्यता और ध्यान की ऊँची उड़ान की क्षमता आ जाती है। इस प्रकार यदि? यात्रा के लिए वाहन पूर्णरूप से तैयार हो जाय? तो गन्तव्य की प्राप्ति शीघ्र ही हो जायेगी। इसलिए भगवान् वचन देते है? वे भी परम गति को प्राप्त होते हैं।भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।
।।9.32।। व्याख्या--'मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ৷৷. यान्ति परां गतिम्'-- जिनके इस जन्ममें आचरण खराब हैं अर्थात् जो इस जन्मका पापी है, उसको भगवान्ने तीसवें श्लोकमें 'दुराचारी' कहा है। जिनके पूर्वजन्ममें आचरण खराब थे अर्थात् जो पूर्वजन्मके पापी हैं और अपने पुराने पापोंका फल भोगनेके लिये नीच योनियोंमें पैदा हुए हैं, उनको भगवान्ने यहाँ 'पापयोनि' कहा है। यहाँ 'पापयोनि' शब्द ऐसा व्यापक है, जिसमें असुर, राक्षस, पशु, पक्षी आदि सभी लिये जा सकते हैं (टिप्पणी प0 526) और ये सभी भगवद्भक्तिके अधिकारी माने जाते हैं। शाण्डिल्य ऋषिने कहा है --'आनिन्द्ययोन्यधिक्रियते पारम्पर्यात् सामान्यवत्।' (शाण्डिल्य-भक्तिसूत्र 78) अर्थात् जैसे दया, क्षमा, उदारता आदि सामान्य धर्मोंके मात्र मनुष्य अधिकारी हैं, ऐसे ही भगवद्भक्तिके नीची-से-नीची योनिसे लेकर ऊँची-से-उँची योनितकके सब प्राणी अधिकारी हैं। इसका कारण यह है कि मात्र जीव भगवान्के अंश होनेसे भगवान्की तरफ चलनेमें, भगवान्की भक्ति करनेमें, भगवान्के सम्मुख होनेमें अनधिकारी नहीं हैं। प्राणियोंकी योग्यताअयोग्यता आदि तो सांसारिक कार्योंमें हैं क्योंकि ये योग्यता आदि बाह्य हैं और मिली हुई हैं तथा बिछुड़नेवाली हैं। इसलिये भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेमें योग्यताअयोग्यता कोई कारण नहीं है अर्थात् जिसमें योग्यता है, वह भगवान्में लग सकता है और जिसमें अयोग्यता है, वह भगवान्में नहीं लग सकता -- यह कोई कारण नहीं है। प्राणी स्वयं भगवान्के हैं अतः सभी भगवान्के सम्मुख हो सकते हैं। तात्पर्य हुआ कि जो हृदयसे भगवान्को चाहते हैं, वे सभी भगवद्भक्तिके अधिकारी हैं। ऐसे पापयोनिवाले भी भगवान्के शरण होकर परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं, परम पवित्र हो जाते हैं।
।।9.32 -- 9.34।।मां हि इत्यादि मत्परायण इत्यन्तम्। पापयोनयः पशुपक्षिसरीसृपादयः। स्त्रिय इति अज्ञाः। वैश्या इति कृष्यादिकर्मान्तररताः। शूद्रा इति कार्त्स्येन वैदिकक्रियानधिकृताः परतन्त्रवृत्तयश्च। तेऽपि मदाश्रिता मामेव यजन्ते। गजेन्द्रमोक्षणादीनि चरितानि हि परमकारुणिकस्य भगवतः सहस्रशः श्रूयन्ते। किमङ्ग पुनरेतद्विपरीतवृत्तयः।केचिदाक्षते -- द्विजराजन्यप्रशंसापरमेतद्वाक्यम्? न तु स्त्र्यादिषु अपवर्गप्राप्तितात्पर्येण इति। ते हि भगवतः सर्वानुग्राहिकां शक्तिं मितविषयतया खण्डयन्तः तथा परमेश्वरस्य परमकृपालुत्वमसहमानाः (S omits तथा -- मसहमानाः) न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ? अपि चेत्सुदुराचारः इत्यादीन्यन्यानि चैवंप्रकारस्फुटार्थप्रतिपादकानि वाक्यानि विरोधयन्तः निरतिशययुक्तिप्रपञ्चसाधिताद्वैतभगवत्तत्त्वे (S??N भगवत्तत्त्वम्) भेदलिङ्गं (S? भेदभङ्गम् N भेदभङ्ग -- ) बलादेवानयन्तः अन्यांश्च आगमविरोधानचेतयमानाः कथमिदं कथमिदम् इति पर्यनुयोज्यमाना (?N पर्यनुयुज्यमानः) यदि? परम् अन्तर्गर्भीकृतजात्यादिमहाग्रहाविष्टान्तः (? N -- ग्रहगृहीताविष्टान्तः -- ) करणाः मात्सर्यावहित्थालज्जाचिह्नीकृतवाङ्मुखदृष्टयः समग्रस्य जनस्य असत्प्रलापिनः इति हास्यरसविषयभावमात्मनि (S omits -- विषय -- ) आरोपयन्ति। यत्पूर्वैव व्याख्या सर्वस्य करोति शिवम् इति।
।।9.32।।स्त्रियो वैश्याः शूद्राः च पापयोनयः अपि मां व्यपाश्रित्य परां गतिं यान्ति।
।।9.32।।इतश्च भगवद्भक्तिर्विधातव्येत्याह -- किञ्चेति। न मे भक्तः प्रणश्यतीत्यन्न हेतुमाचक्षाणो भक्त्यधिकारे जातिनियमो नास्तीत्याह -- मां हीति।
।।9.32।।सर्वोद्धारकत्वमेवाह -- मां हीति। तथाहि पापयोनयः पूतनाद्याः स्त्रिय इतिते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः [11।12।7] नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि। न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः [10।23।42] इति भागवतवाक्यैः सर्वसाधनरहिततया प्रतिपाद्यमानाकेवलेनैव भावेन गोप्यः [भाग.11।12।7] इति लौकिके सति भावमात्रवत्यः प्रसिद्धाः स्त्रियो व्रजपुरवनिताः वैश्यास्तुलाधारादयो भारते ख्याताः? नन्दादयो वा व्रजवासिन एव प्रसिद्ध एव? शूद्य्रामुत्पन्नाः शूद्रा विदुरादयश्च? ये वा पापयोनयः हीनजातयो हूणयवनशबरादयः पुलिन्द्यश्च मां पुरुषोत्तमं वात्सल्यजलधिं करुणावरुणालयं महापतितपावनमशरणशरणागतव्रजपालकं येन केनचिद्भावेनाश्रित्य साक्षात्कृतस्य मे आश्रयमात्रेण परां गतिं यान्ति। अत्र याताश्च केचिद्यान्तीति भावेन वर्त्तमान उक्तः।
।।9.32।।एवमागन्तुकदोषदुष्टानां भगवद्भक्तिप्रभावान्निस्तारमुक्त्वा स्वाभाविकदोषदुष्टानामपि तदाह -- हि निश्चितं हे पार्थ? मां व्यपाश्रित्य शरणमागत्य येऽपि स्युः पापयोनयोऽन्त्यजास्तिर्यञ्चो वा जातिदोषेण दुष्टाः? तथा वेदाध्ययनादिशून्यतया निकृष्टाः स्त्रियो वैश्याः कृष्यादिमात्ररताः तथा शूद्राः जातितोऽध्ययनाद्यभावेन च परमगत्ययोग्यास्तेऽपि यान्ति परां गतिं। अपिशब्दात्प्रागुक्तदुराचारा अपि।
।।9.32।। आचारभ्रष्टं मद्भक्तिः पवित्रीकरोतीति किमत्र चित्रम्? यतो मद्भक्तिर्दुष्कुलानप्यनधिकारिणोऽपि संसारान्मोचयतीत्याह -- मां हीति। येऽपि पापयोनयः स्युः निकृष्टजन्मानोऽन्त्यजादयो भवेयुः? येऽपि वैश्याः केवलं कृष्यादिनिरताः? स्त्रियः? शूद्रादयश्चाध्ययनादिरहिताः? तेऽपि मां व्यपाश्रित्य संसेव्य परां गतिं यान्ति। हि निश्चितम्।
।।9.32।।अपिचेत्सुदुराचारः [9।30] इत्यागन्तुकपापोक्तिः अथ जन्मत एव पापिष्ठानां जात्याद्यपकर्षेऽपि स्वसमाश्रयणमात्रेण फलसिद्धिं प्राक्प्रस्तुतां प्रपञ्च्य तत एव जात्याद्युत्कर्षे भक्तिपौष्कल्ये च कैमुतिकन्यायमुक्त्वा जात्यादिभिरुत्कृष्टस्त्वं फले निस्सन्देह उपायमातिष्ठेत्युच्यते -- मां हि इत्यादिश्लोकद्वयेन। स्त्रीवैश्यशूद्राणां परगतिविरोधितया शङ्किताकारानुवादार्थः पापयोनिशब्दः। तत्र ये पापयोनयोऽपि स्युरित्यन्वयः। त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोऽपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्त्रानधिकारित्वात्। ऋत्विज एव हि सर्वे सत्त्रेषु यजमानाः? आर्त्विज्यं च ब्राह्मणस्य? स च सत्त्राधिकाररूप उत्कर्षः तस्माद्वाजपेययाज्यार्त्विजीनः इति क्षत्रियस्यापि श्रुतः। पापयोनिशब्दप्रतिशिरस्त्वात्पुण्यशब्दोऽत्र पुण्ययोनित्वपरः प्रदर्शितः।किं पुनः इत्यादिकैमुतिकन्यायादनायासत्ववचनम्। राजर्षिप्रदर्शनमर्जुनस्य फलसिद्धिप्रतिपादनार्थमित्यभिप्रायेणाहअतस्त्वमिति। राजर्षिशब्देन सामर्थ्यं व्यञ्जितम्अस्थिरमित्यादिना त्वर्थित्वम्। अनित्यशब्दस्यसततविक्रिया इत्युक्तप्रकारेण क्षरणस्वभावविषयत्वज्ञापनायास्थिरशब्दः। असुखशब्दस्यात्र पर्युदासवृत्त्या दुःखपरतां सांसारिकसुखस्यापि दुःखकोटिनिवेशात् सुखराहित्यपरत्वं चाभिप्रेत्याहतापत्रयेति।इमम् इत्यनेन अतिक्षुद्रत्वं निर्दिष्टम्।प्राप्य इत्यस्यानुवादरूपताज्ञापनायप्राप्य वर्तमान इत्युक्तम्। एवमनित्यत्वासुखत्वक्षुद्रत्वानुदर्शनाद्भजनवैमुख्यनिवृत्तिर्भवतीत्यभिप्रायः।
।।9.32।।नन्वेवं भक्ते हीनाधिकारित्वं स्यादित्यत आह -- मां हीति। हे पार्थ मातृसम्बन्धेनोत्पन्नभक्तिरूप हीति निश्चयेन मां व्यपाश्रित्य विशेषेण आश्रित्य संसेव्य ये पापयोनयोऽपि स्युः नीचयोनयः अन्त्यजादयो म्लेच्छादयश्च? स्त्रियः परतन्त्रैकयोनयः? वैश्याः केवलं कृष्यादिपरा उदरम्भराः? तथा शूद्राः शोकेन द्रवीभूता अनुपदेश्याः तेऽपि परां गतिं मोक्षं सायुज्यं यान्ति प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। तत्रये इतिपदेन स्वसेवार्थोत्पादितातिरिक्ता इति ज्ञापितम्।
।।9.32।।किं च हे पार्थ? हि प्रसिद्धं मां व्यपाश्रित्य आश्रित्य येऽत्यन्तं पापयोनयः स्त्र्यादयस्तेऽपि परां गतिं यान्ति।
।।9.32।।किंच हे पार्थ? येऽपि पापं योनिर्येषां ते पापयोनयः पापजन्मानस्तेऽपि मां वासुदेवं व्यपाश्रित्य ईश्वर एव भक्त्या प्रदादितोऽस्माकमुद्धर्तेत्याश्रयत्वेन गृहीत्वा परां प्रकृष्टां गतिं यान्ति गच्छन्ति। के ते पापयोनय इत्यत आह -- स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा इति। तत्र स्त्रीशूद्राणां वेदाध्ययनादावनधिकृतानां पापबाहुल्याल्लब्धस्त्रीजन्मानां पापयोनित्वं स्पष्टमेव। वैश्या अपि पूर्वजन्मनि ब्राह्मणाः क्षत्रिया वा पापकर्मणा वैश्ययोनिमापन्नाः कृष्यादिरता ग्राह्याः। ननु येऽपि स्युः पापयोनयोऽन्यत्यजास्तिर्यञ्जचो वा जातिदोषेण दुष्टाः तथा स्त्रियो वैश्यास्था शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिमित्याचार्यैः कुतो न व्याख्यातमिति चेदुच्यते। निकृष्टा अपि मां व्यपाश्रित्य परां गतिं यान्ति किं पुनरुत्कृष्टा इति ह्यर्थोऽत्र विवक्षितः। तत्र पापनिबन्धना निकृष्टता पुण्यनिमित्ता चोत्कृष्टता। तथाच स्त्रियादीनां निकृष्टत्वेन पापयोनित्वावश्यकत्वेनेदमेव पापयोनय इतिपदं स्त्रियातौ संबध्यते। अन्यथा पापयोनयोऽन्त्यजादयोऽपि ये स्युस्तेऽपि मामुपाश्रित्य परां गतिं यान्तीत्येतावतैव निर्वाहे स्त्रियाद्युपादानस्यि वैयर्थ्यं स्यादिति दिक्। त्वं तु मत्पैतृष्वस्त्रेयत्वादत्युत्कृष्ट इति सूचयन्त्संबोधयति पार्थेति।
9.32 माम् Me? हि indeed? पार्थ O Partha? व्यपाश्रित्य taking refuge in? ये who? अपि even? स्युः may be? पापयोनयः of sinful birth? स्त्रियः women? वैश्याः Vaisyas? तथा also? शूद्राः Sudras? ते they? अपि also? यान्ति attain? पराम् the Supreme? गतिम् Goal.Commentary Chandalas or outcastes are of a sinful birth. Women and Sudras are darred by social rules from the study of the Vedas. What is wanted is devotion. There is no need for family traditions. The elephant Gajendra remembered Me with devotion and attained Me in spite of his being an animal. The lowest of the low and the vilest of the vile can attain Me if they have faith and devotion? if they sing and repeat My Name and if they think of Me always and think of no worldy object.Prahlada was a demon and yet by his devotion forced Me to incarnate as Narasimha. Birth is immaterial. Devotion is everything. The Gopis attained Me through their devotion. Kamsa and Ravana attained Me through fear. Sisupala reached Me through hatred. Narada? Dhruva? Akrura? Suka? Sanatkumara and others attined Me through their devotion. Nandan? a man of low caste but a great devotee of Lord Siva? had direct vision of the Lord in Chidambaram in South India. Raidas? a cobbler? was a great devotee. In the spiritual life or in the Adhyatmic sphere all the external distinctions of caste? colour and creed disappear altogether. Shabari? though a Bhilni (a tribe) by birth? was a great devotee of Lord Rama.Hindu scriptures are full of such instances. Hinduism does not restrict salvation to any one group or section of humanity. All can attain God if they have devotion.
9.32 For, taking refuge in Me, they also who, O Arjuna, may be of a sinful birth women, Vaisyas as well as Sudras attain the Supreme Goal.
9.32 For even the children of sinful parents, and those miscalled the weaker sex, and merchants, and labourers, if only they will make Me their refuge, they shall attain the Highest.
9.32 For, O son of Prtha, even those who are born of sin-women, Vaisyas, as also Sudras [S.'s construction of this portion is: women, Vaisyas as also Sudras, and even others who are born of sin (i.e., those who are born low and are of vile deeds, viz Mlecchas, Pukkasas and others). M.S. also takes papa-yonayah (born of sin) as a separate phrase, and classifies women and others only as those darred from Vedic study, etc.-Tr.]-, even they reach the highest Goal by taking shelter under Me.
9.32 Hi, for; O son of Prtha, ye api, even those; papayonayah syuh, who are born of sin;-as to who they are, the Lord says-striyah, women; vaisyah, Vaisyas, tatha, as also; sudrah, Sudras; te api, even they; yanti, reach, go to; the param, highest; gatim, Goal vyapasritya, by taking shelter; mam, under Me-by accepting Me as their refuge.
9.32. O son of Prtha, even those who are of sinful birth, [besides] women, men of working class, and the members of the fourth caste-even they, having taken refuge in Me, attain the highest goal.
9.32 See Comment under 9.34
9.32 - 9.33 Women, Vaisyas and Sudras, and even those who are of sinful birth, can attain the supreme state by taking refuge in Me. How much more then the well-born Brahmanas and royal sages who are devoted to me! Therefore, roayl sage that you are, do worship Me, as you have come to this transient and joyless world stricken by the threefold afflictions. Sri Krsna now describes the nature of Bhakti:
9.32 By taking refuge in Me even men of evil birth, women, Vaisyas and also Sudras attain the supreme state.
।।9.32।।तथा --, क्योंकि हे पार्थ जो कोई पापयोनिवाले हैं अर्थात् जिनके जन्मका कारण पाप है ऐसे प्राणी हैं -- वे कौन हैं सो कहते हैं -- वे स्त्री? वैश्य और शूद्र भी मेरी शरणमें आकर -- मुझे ही अपना अवलम्बन बनाकर परम -- उत्तम गतिको ही पाते हैं।
।।9.32।। --,मां हि यस्मात् पार्थ व्यपाश्रित्य माम् आश्रयत्वेन गृहीत्वा येऽपि स्युः भवेयुः पापयोनयः पापा योनिः येषां ते पापयोनयः पापजन्मानः। के ते इति? आह -- स्त्रियः वैश्याः तथा शूद्राः तेऽपि यान्ति गच्छन्ति परां प्रकृष्टां गतिम्।।
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मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।9.32।।
মাং হি পার্থ ব্যপাশ্রিত্য যেপি স্যুঃ পাপযোনযঃ৷ স্ত্রিযো বৈশ্যাস্তথা শূদ্রাস্তেপি যান্তি পরাং গতিম্৷৷9.32৷৷
মাং হি পার্থ ব্যপাশ্রিত্য যেপি স্যুঃ পাপযোনযঃ৷ স্ত্রিযো বৈশ্যাস্তথা শূদ্রাস্তেপি যান্তি পরাং গতিম্৷৷9.32৷৷
માં હિ પાર્થ વ્યપાશ્રિત્ય યેપિ સ્યુઃ પાપયોનયઃ। સ્ત્રિયો વૈશ્યાસ્તથા શૂદ્રાસ્તેપિ યાન્તિ પરાં ગતિમ્।।9.32।।
ਮਾਂ ਹਿ ਪਾਰ੍ਥ ਵ੍ਯਪਾਸ਼੍ਰਿਤ੍ਯ ਯੇਪਿ ਸ੍ਯੁ ਪਾਪਯੋਨਯ। ਸ੍ਤ੍ਰਿਯੋ ਵੈਸ਼੍ਯਾਸ੍ਤਥਾ ਸ਼ੂਦ੍ਰਾਸ੍ਤੇਪਿ ਯਾਨ੍ਤਿ ਪਰਾਂ ਗਤਿਮ੍।।9.32।।
ಮಾಂ ಹಿ ಪಾರ್ಥ ವ್ಯಪಾಶ್ರಿತ್ಯ ಯೇಪಿ ಸ್ಯುಃ ಪಾಪಯೋನಯಃ. ಸ್ತ್ರಿಯೋ ವೈಶ್ಯಾಸ್ತಥಾ ಶೂದ್ರಾಸ್ತೇಪಿ ಯಾನ್ತಿ ಪರಾಂ ಗತಿಮ್৷৷9.32৷৷
മാം ഹി പാര്ഥ വ്യപാശ്രിത്യ യേപി സ്യുഃ പാപയോനയഃ. സ്ത്രിയോ വൈശ്യാസ്തഥാ ശൂദ്രാസ്തേപി യാന്തി പരാം ഗതിമ്৷৷9.32৷৷
ମାଂ ହି ପାର୍ଥ ବ୍ଯପାଶ୍ରିତ୍ଯ ଯେପି ସ୍ଯୁଃ ପାପଯୋନଯଃ| ସ୍ତ୍ରିଯୋ ବୈଶ୍ଯାସ୍ତଥା ଶୂଦ୍ରାସ୍ତେପି ଯାନ୍ତି ପରାଂ ଗତିମ୍||9.32||
māṅ hi pārtha vyapāśritya yē.pi syuḥ pāpayōnayaḥ. striyō vaiśyāstathā śūdrāstē.pi yānti parāṅ gatim৷৷9.32৷৷
மாஂ ஹி பார்த வ்யபாஷ்ரித்ய யேபி ஸ்யுஃ பாபயோநயஃ. ஸ்த்ரியோ வைஷ்யாஸ்ததா ஷூத்ராஸ்தேபி யாந்தி பராஂ கதிம்৷৷9.32৷৷
మాం హి పార్థ వ్యపాశ్రిత్య యేపి స్యుః పాపయోనయః. స్త్రియో వైశ్యాస్తథా శూద్రాస్తేపి యాన్తి పరాం గతిమ్৷৷9.32৷৷
9.33
9
33
।।9.33।। जो पवित्र आचरणवाले ब्राह्मण और ऋषिस्वरूप क्षत्रिय भगवान्  के भक्त हों, वे परमगतिको प्राप्त हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है। इसलिये इस अनित्य और सुखरहित शरीरको प्राप्त करके तू मेरा भजन कर।
।।9.33।। फिर क्या कहना है कि पुण्यशील ब्राह्मण और राजर्षि भक्तजन (परम गति को प्राप्त होते हैं); (इसलिए) इस अनित्य और सुखरहित लोक को प्राप्त होकर (अब) तुम भक्तिपूर्वक मेरी ही पूजा करो।।
।।9.33।। यदि पूर्व श्लोक में वर्णित गुणहीन और साधनहीन लोग भी भक्ति के द्वारा ईश्वर को प्राप्त हो सकते हैं? तो फिर साधन सम्पन्न व्यक्तियों के लिए परमार्थ की प्राप्ति कितनी सरल होगी? यह कहने की आवश्यकता नहीं है। ये साधनसम्पन्न लोग हैं ब्राह्मण अर्थात् शुद्धान्तकरण का व्यक्ति? तथा राजा माने उदार हृदय और दूर दृष्टि का बुद्धिमान व्यक्ति। जिस राजा ने बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी राजसत्ता एवं धनवैभव का उपयोग किया हो? वह आत्मानुसंधान के द्वारा वास्तविक शान्ति का अनुभव प्राप्त करता है। ऐसे राजा को ही राजर्षि कहते हैं।सब प्रकार के सम्भावित बुद्धि और हृदय के लोगों का वर्णन करके? और आत्मज्ञान के लिए सबको उपयुक्त साधना का विधान करने के पश्चात्? अब? भगवान् इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए कहते हैं? इस अनित्य और सुखरहित लोक को प्राप्त करके अब तुम मेरा भजन करो। अर्जुन के निमित्त दिया गया उपदेश हम सबके लिए ही है क्योंकि यदि श्रीकृष्ण आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं? तो अर्जुन उस मनुष्य का प्रतिनिधि है? जो जीवन संघर्षों की चुनौतियों का सामना करने में अपने आप को असमर्थ पाता है।असंख्य विषय? इन्द्रियाँ और मन के भाव इनसे युक्त जगत् में ही हमें जीवन जीना होता है। ये तीनों ही सदा बदलते रहते हैं। स्वाभाविक ही? इन्द्रियों के द्वारा विषयोपभोग का सुख अनित्य ही होगा। और दो सुखों के बीच का अन्तराल केवल दुखपूर्ण ही होगा।आशावाद का जो विधेयात्मक और शक्तिप्रद ज्ञान गीता सिखाती है? उसी स्वर में? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि यह जगत् केवल दुख का गर्त या निराशा की खाई या एक सुखरहित क्षेत्र है।भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि इस अनित्य और सुखरहित लोक को प्राप्त होकर अब उसको नित्य और आनन्दस्वरूप आत्मा की पूजा में प्रवृत्त होना चाहिए। इस साधना में अर्जुन को प्रोत्साहित करने के लिए भगवान् ने यह कहा है कि गुणहीन लोगों के विपरीत जिस व्यक्ति में ब्राह्मण और राजर्षि के गुण होते हैं? उसके लिए सफलता सरल और निश्चित होती है। इसलिए भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करो।हे मेरे प्रभु जब मुझे युद्धभूमि में शत्रुओं का सामना करना हो? तब मैं आपकी पूजा किस प्रकार कर सकता हूँ इस पर भगवान् कहते हैं --
।।9.33।। व्याख्या--'किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता (टिप्पणी प0 528) राजर्षय स्तथा'-- जब वर्तमानमें पाप करनेवाला साङ्गोपाङ्ग दुराचारी और पूर्वजन्मके पापोंके कारण नीच योनियोंमें जन्म लेनेवाले प्राणी तथा स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र--ये सभी मेरे शरण होकर, मेरा आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं, परम पवित्र हो जाते हैं, तो फिर जिनके पूर्वजन्मके आचरण भी अच्छे हों और इस जन्ममें भी उत्तम कुलमें जन्म हुआ हो, ऐसे पवित्र ब्राह्मण और पवित्र क्षत्रिय अगर मेरे शरण हो जायँ, मेरे भक्त बन जायँ, तो वे परमगतिको प्राप्त हो जायँगे, इसमें कहना ही क्या है! अर्थात् वे निःसन्देह परमगतिको प्राप्त हो जायँगे।
।।9.32 -- 9.34।।मां हि इत्यादि मत्परायण इत्यन्तम्। पापयोनयः पशुपक्षिसरीसृपादयः। स्त्रिय इति अज्ञाः। वैश्या इति कृष्यादिकर्मान्तररताः। शूद्रा इति कार्त्स्येन वैदिकक्रियानधिकृताः परतन्त्रवृत्तयश्च। तेऽपि मदाश्रिता मामेव यजन्ते। गजेन्द्रमोक्षणादीनि चरितानि हि परमकारुणिकस्य भगवतः सहस्रशः श्रूयन्ते। किमङ्ग पुनरेतद्विपरीतवृत्तयः।केचिदाक्षते -- द्विजराजन्यप्रशंसापरमेतद्वाक्यम्? न तु स्त्र्यादिषु अपवर्गप्राप्तितात्पर्येण इति। ते हि भगवतः सर्वानुग्राहिकां शक्तिं मितविषयतया खण्डयन्तः तथा परमेश्वरस्य परमकृपालुत्वमसहमानाः (S omits तथा -- मसहमानाः) न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ? अपि चेत्सुदुराचारः इत्यादीन्यन्यानि चैवंप्रकारस्फुटार्थप्रतिपादकानि वाक्यानि विरोधयन्तः निरतिशययुक्तिप्रपञ्चसाधिताद्वैतभगवत्तत्त्वे (S??N भगवत्तत्त्वम्) भेदलिङ्गं (S? भेदभङ्गम् N भेदभङ्ग -- ) बलादेवानयन्तः अन्यांश्च आगमविरोधानचेतयमानाः कथमिदं कथमिदम् इति पर्यनुयोज्यमाना (?N पर्यनुयुज्यमानः) यदि? परम् अन्तर्गर्भीकृतजात्यादिमहाग्रहाविष्टान्तः (? N -- ग्रहगृहीताविष्टान्तः -- ) करणाः मात्सर्यावहित्थालज्जाचिह्नीकृतवाङ्मुखदृष्टयः समग्रस्य जनस्य असत्प्रलापिनः इति हास्यरसविषयभावमात्मनि (S omits -- विषय -- ) आरोपयन्ति। यत्पूर्वैव व्याख्या सर्वस्य करोति शिवम् इति।
।।9.33।।किं पुनः पुण्ययोनयो ब्राह्मणाः राजर्षयः च मद्भक्तिम् आश्रिताः। अतः त्वं राजर्षिः अस्थिरं तापत्रयाभिहततया असुखं च इमं लोकं प्राप्य वर्तमानो मां भजस्व।भक्तिस्वरूपम् आह --
।।9.33।।यदि पापयोनिः पापाचारश्च त्वद्भक्त्या परां गतिं गच्छति तर्हि किमुत्तमजातिनिमित्तेन संन्यासादिना किं वा सद्वृत्तेनेत्याशङ्क्याह -- किं पुनरिति। उत्तमजातिमतां ब्राह्मणादीनामतिशयेन परा गतिर्यतो लभ्यतेऽतो भगवद्भजनं तैरेकान्तेन विधातव्यमित्याह -- यत इति। मनुष्यदेहातिरिक्तेषु पश्वादिदेहेषु भगवद्भजनयोग्यताभावात्प्राप्ते मनुष्यत्वे तद्भजने प्रयतितव्यमित्याह -- दुर्लभमिति।
।।9.33।।यदैवं निस्साधना अधिकारसम्भावनाया अविषया अप्येते परां गतिं यान्ति तदा किं पुनर्वक्तव्यं वेदोक्तसाधनवत्तया पुण्याः ब्राह्मणाः राजर्षय उत्तमक्षत्ित्रयाश्च परां गतिं यान्तीति परमुत्तमयोनीनां सकलसाधनवतां ब्राह्मणादीनां मदाश्रयभक्तावुत्तमाधिकार एव विरोधी जायत इति वैमुख्यकारकः अहम्भावेन विप्रमाथुराणामिव ते तथा न भजन्तो दृश्यन्ते भजन्तस्तु विरला नारदश्रुतदेवसुदासबहुलाश्वादय इति निगूढाशयेन पुष्टिपुरुषोत्तमेन पार्थे भजनं स्वधर्मवद्विहितमित्युपदिश्यते।मां भजस्व इति पुरुषोत्तमैकभजनं विहितं स्वधर्मत्वात्?यो यदंशः स तं भजेत् इति विधानवाक्यात्सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिपः। स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्यः क्वापि कदाचन इत्याचार्योक्तेश्च। तदेव वैराग्यपूर्वकं द्रढयति -- अनित्यमिति। इमं लोकं देहं वाऽनित्यं विनश्वरमसुखं च प्राप्य प्रकर्षेण सर्वकार्यसाधकमवगत्य भजस्व भजनगर्भितं स्वधर्मं कुर्विति भावः।
।।9.33।।एवं चेत् -- पुण्याः सदाचारा उत्तमयोनयश्च ब्राह्मणास्तथा राजर्षयः सूक्ष्मवस्तुविवेकिनः क्षत्रिया मम भक्ताः परां गतिं यान्तीति किं पुनर्वाच्यम्। अत्र कस्यचिदपि संदेहाभावादित्यर्थः। यतो मद्भक्तेरीदृशो महिमा अतो महता प्रयत्नेनेमं लोकं सर्वपुरुषार्थसाधनयोग्यमतिदुर्लभं च मनुष्यदेहमनित्यमाशुविनाशिनमसुखं गर्भवासाद्यनेकदुःखबहुलं लब्ध्वा यावदयं न नश्यति तावदतिशीघ्रमेव भजस्व मां शरणमाश्रयस्व। अनित्यत्वादसुखत्वाच्चास्य विलम्बं सुखार्थमुद्यमं च मा कार्षींस्त्वं च राजर्षिरतो मद्भजनेनात्मानं सफलं कुरु। अन्यथा ह्येतादृशं जन्म निष्फलमेव ते स्यादित्यर्थः।
।।9.33।।यदेवं तदा सत्कुलाः सदाचाराश्च मद्भक्ताः परां गतिं यान्तीति किं वक्तव्यमित्याह -- किमिति। पुण्याः सुकृतिनो ब्राह्मणाः। तथा राजानश्च ते ऋषयश्च क्षत्रियाः। एवंभूताः परां गतिं यान्तीति किं वक्तव्यमित्यर्थः। अतस्त्वमिमं राजर्षिरूपं लोकं देहं प्राप्य लब्ध्वा मां भजस्व। किंच अनित्यमध्रुवमसुखं सुखरहितमिमं मर्त्यलोकं प्राप्यानित्यत्वाद्विलम्बमकुर्वन्? असुखत्वाच्च सुखार्थोद्यमं हित्वा मामेव भजस्वेत्यर्थः।
।। 9.33 अपिचेत्सुदुराचारः [9।30] इत्यागन्तुकपापोक्तिः अथ जन्मत एव पापिष्ठानां जात्याद्यपकर्षेऽपि स्वसमाश्रयणमात्रेण फलसिद्धिं प्राक्प्रस्तुतां प्रपञ्च्य तत एव जात्याद्युत्कर्षे भक्तिपौष्कल्ये च कैमुतिकन्यायमुक्त्वा जात्यादिभिरुत्कृष्टस्त्वं फले निस्सन्देह उपायमातिष्ठेत्युच्यते -- मां हि इत्यादिश्लोकद्वयेन। स्त्रीवैश्यशूद्राणां परगतिविरोधितया शङ्किताकारानुवादार्थः पापयोनिशब्दः। तत्र ये पापयोनयोऽपि स्युरित्यन्वयः। त्रैवर्णिकस्य विद्यादिमतोऽपि वैश्यस्य शूद्रादिभिः सह पापयोनित्वेन परिगणनं सत्त्रानधिकारित्वात्। ऋत्विज एव हि सर्वे सत्त्रेषु यजमानाः? आर्त्विज्यं च ब्राह्मणस्य? स च सत्त्राधिकाररूप उत्कर्षः तस्माद्वाजपेययाज्यार्त्विजीनः इति क्षत्रियस्यापि श्रुतः। पापयोनिशब्दप्रतिशिरस्त्वात्पुण्यशब्दोऽत्र पुण्ययोनित्वपरः प्रदर्शितः।किं पुनः इत्यादिकैमुतिकन्यायादनायासत्ववचनम्। राजर्षिप्रदर्शनमर्जुनस्य फलसिद्धिप्रतिपादनार्थमित्यभिप्रायेणाहअतस्त्वमिति। राजर्षिशब्देन सामर्थ्यं व्यञ्जितम्अस्थिरमित्यादिना त्वर्थित्वम्। अनित्यशब्दस्यसततविक्रिया इत्युक्तप्रकारेण क्षरणस्वभावविषयत्वज्ञापनायास्थिरशब्दः। असुखशब्दस्यात्र पर्युदासवृत्त्या दुःखपरतां सांसारिकसुखस्यापि दुःखकोटिनिवेशात् सुखराहित्यपरत्वं चाभिप्रेत्याहतापत्रयेति।इमम् इत्यनेन अतिक्षुद्रत्वं निर्दिष्टम्।प्राप्य इत्यस्यानुवादरूपताज्ञापनायप्राप्य वर्तमान इत्युक्तम्। एवमनित्यत्वासुखत्वक्षुद्रत्वानुदर्शनाद्भजनवैमुख्यनिवृत्तिर्भवतीत्यभिप्रायः।
।।9.33।।यत्र हीनाधिकारिणः परमां गतिं प्राप्नुवन्ति? तत्रोत्तमाधिकारिणां किं वक्तव्यं इत्याह -- किं पुनरिति। पुण्याः वेदोक्तमत्स्वरूपज्ञानार्थं पूर्वं वेदाध्ययनकारिणा ब्राह्मणाः? तथा पुण्यधर्मादिकरणेन प्रजापतिपालकाः राजर्षयः राजानः क्षत्ित्रया भूत्वा ऋषयः ब्रह्मकर्मनिष्ठा उत्तमाधिकारिणो भक्ताः सन्तः परां गतिं प्राप्नुवन्तीति किं पुनर्वक्तव्यम्। तेषां तु साक्षाद्भजनौपयिकत्वमेव भवतीति भावः। एतेन उत्तमाधिकारिणां तु भवत्येव यत्र हीनाधिकारिणामपि भवतीत्यनेनअधिकं तत्रानुप्रविष्टं? न तु तद्धानिः इत्ययं न्यायः प्रदर्शितः।,एतेनोत्तमानामेतदभावे हीनत्वमेवेति व्यञ्जितम्। यत उत्तमाधिकारिणामावश्यकमतस्तव क्षत्ित्रयत्वात् स्वधर्मनिष्ठत्वात् भक्तपुत्रत्वाच्चोत्तमाधिकारित्वेनावश्यं कर्त्तव्यमित्याह -- अनित्यमिति। इमं लोकमधिकरणं देहं प्राप्य अनित्यं असुखं संसारं त्यक्त्वा ज्ञात्वा वेति शेषः मां भजस्व।
।।9.33।।ब्राह्मणादयः पुनः पुण्याः मदाश्रयेण परां गतिं यान्तीत्यत्र किं चित्रम्। अतस्त्वमिमं मर्त्यलोकं अनित्यं नश्वरं असुखं सुखलेशहीनं प्राप्य मां परमात्मानं भजस्व। लोकान्तरे भजनं न भविष्यतीत्यर्थः। तथा च श्रुतिःइह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः इति।
।।9.33।।किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्याः पुण्ययोनयः शमादिसंपन्नाः तथा पुण्ययोनयो राजानश्च ते ऋषयः सूक्ष्मदर्शिनो मद्भक्ताः क्षत्रियाः मां व्यपाश्रित्य परां गतिं यान्तीति किंमु वक्तव्यमित्यर्थः। यस्मान्मद्भजनमेव परमपुरुषार्थसाधनं अतोऽनित्यमसुखमिमं मनुष्यलोकं पुरुषार्थसाधनं प्राप्य मां वासुदेवं परमात्मानं भजस्व। अनित्यमित्यनेन कालान्तरे त्वद्भजनं करिष्यामीति वारितम्। सुखवर्जितमिति तद्धननेन सुखत्यागो भविष्यतीति। इममित्यनेन राजर्षिदेहं मत्संनिधियोग्यमतिदुर्लभमित्युक्तम्।
9.33 किम् पुनः how much more? ब्राह्मणाः Brahmins? पुण्याः holy? भक्ताः devoted? राजर्षयः royal saints? तथा also? अनित्यम् impermanent? असुखम् unhappy? लोकम् world? इमम् this? प्राप्य having obtained? भजस्व worship? माम् Me.Commentary Rajarshis are kings who have become saints while discharging the duties of the kingdom.It is very difficult to get a human birth which is the means of attaining the goal of life. Being born in this human body you should lead a life of devotion to the Lord. In the human body alone will you have the power to reflect (VicharaSakti)? discrimination and dispassion. Even the gods envy the human birth.This body is impermanent. It perishes soon. It brings pain of various sorts. So give up the efforts for securing happiness and comfort for this body. If you do not aim at Selfrealisation even after attaining a human birth? you live in vain you are wasting your life and you are a slayer of the Self. You will again and again be caught in the wheel of birth and death.
9.33 How much more (easily) then the hold Brahmins and devoted royal saints (attain the goal); having come to this impermanent and unhappy world, do thou worship Me.
9.33 What need then to mention the holy Ministers of God, the devotees and the saintly rulers? Do thou, therefore, born in this changing and miserable world, do thou too worship Me.
9.33 What to speak of the holy Brahmanas as also of devout kind-sages! Having come to this ephemeral and miserable world, do you worship Me.
9.33 Kim punah, what to speak of; the punyah brahmanah, holy Bramanas, of sacred birth; tatha, as also; of the bhaktah, devout; rajarsayah, kind-sages-those who are kings and, at the same time, sages! Since this is so, therefore, prapya, having come; imam, to this; anityam, ephemeral, ever changeful; and asukham, miserable, unhappy; lokam, world, the human world-having attained this human life which is a means to Liberation; bhajasva, do you worship, devoted yourself; mam to Me. How?
9.33. Certainly it should be so in the case of the pious men of the priestly class and of the devoted royal seers. Having come to (i.e., being born in) this transient and joyless world, you should be devoted to Me.
9.32 See Comment under 9.34
9.32 - 9.33 Women, Vaisyas and Sudras, and even those who are of sinful birth, can attain the supreme state by taking refuge in Me. How much more then the well-born Brahmanas and royal sages who are devoted to me! Therefore, roayl sage that you are, do worship Me, as you have come to this transient and joyless world stricken by the threefold afflictions. Sri Krsna now describes the nature of Bhakti:
9.33 How much more then the Brahmanas and royal sages who are pure and are My devotees! Having obtained this transient, joyless world, worship Me.
।।9.33।।फिर जो पुण्ययोनि ब्राह्मण और राजर्षि भक्त हैं उनका तो कहना ही क्या है जो राजा भी हों और ऋषि भी हों? वे राजर्षि कहलाते हैं। क्योंकि यह बात है? इसलिये इस अनित्य? क्षणभङ्गुर और सुखरहित मनुष्यलोकको पाकर अर्थात् परम पुरुषार्थके साधनरूप दुर्लभ मनुष्यशरीरको पाकर मुझ ईश्वरका ही भजन कर -- मेरी ही सेवा कर।
।।9.33।। --,किं पुनः ब्राह्मणाः पुण्याः पुण्ययोनयः भक्ताः राजर्षयः तथा राजानश्च ते ऋषयश्च इति राजर्षयः। यतः एवम्? अतः अनित्यं क्षणभङ्गुरम् असुखं च सुखवर्जितम् इमं लोकं मनुष्यलोकं प्राप्य पुरुषार्थसाधनं दुर्लभं मनुष्यत्वं लब्ध्वा भजस्व सेवस्व माम्।।कथम् --,
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किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा। अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।।9.33।।
কিং পুনর্ব্রাহ্মণাঃ পুণ্যা ভক্তা রাজর্ষযস্তথা৷ অনিত্যমসুখং লোকমিমং প্রাপ্য ভজস্ব মাম্৷৷9.33৷৷
কিং পুনর্ব্রাহ্মণাঃ পুণ্যা ভক্তা রাজর্ষযস্তথা৷ অনিত্যমসুখং লোকমিমং প্রাপ্য ভজস্ব মাম্৷৷9.33৷৷
કિં પુનર્બ્રાહ્મણાઃ પુણ્યા ભક્તા રાજર્ષયસ્તથા। અનિત્યમસુખં લોકમિમં પ્રાપ્ય ભજસ્વ મામ્।।9.33।।
ਕਿਂ ਪੁਨਰ੍ਬ੍ਰਾਹ੍ਮਣਾ ਪੁਣ੍ਯਾ ਭਕ੍ਤਾ ਰਾਜਰ੍ਸ਼ਯਸ੍ਤਥਾ। ਅਨਿਤ੍ਯਮਸੁਖਂ ਲੋਕਮਿਮਂ ਪ੍ਰਾਪ੍ਯ ਭਜਸ੍ਵ ਮਾਮ੍।।9.33।।
ಕಿಂ ಪುನರ್ಬ್ರಾಹ್ಮಣಾಃ ಪುಣ್ಯಾ ಭಕ್ತಾ ರಾಜರ್ಷಯಸ್ತಥಾ. ಅನಿತ್ಯಮಸುಖಂ ಲೋಕಮಿಮಂ ಪ್ರಾಪ್ಯ ಭಜಸ್ವ ಮಾಮ್৷৷9.33৷৷
കിം പുനര്ബ്രാഹ്മണാഃ പുണ്യാ ഭക്താ രാജര്ഷയസ്തഥാ. അനിത്യമസുഖം ലോകമിമം പ്രാപ്യ ഭജസ്വ മാമ്৷৷9.33৷৷
କିଂ ପୁନର୍ବ୍ରାହ୍ମଣାଃ ପୁଣ୍ଯା ଭକ୍ତା ରାଜର୍ଷଯସ୍ତଥା| ଅନିତ୍ଯମସୁଖଂ ଲୋକମିମଂ ପ୍ରାପ୍ଯ ଭଜସ୍ବ ମାମ୍||9.33||
kiṅ punarbrāhmaṇāḥ puṇyā bhaktā rājarṣayastathā. anityamasukhaṅ lōkamimaṅ prāpya bhajasva mām৷৷9.33৷৷
கிஂ புநர்ப்ராஹ்மணாஃ புண்யா பக்தா ராஜர்ஷயஸ்ததா. அநித்யமஸுகஂ லோகமிமஂ ப்ராப்ய பஜஸ்வ மாம்৷৷9.33৷৷
కిం పునర్బ్రాహ్మణాః పుణ్యా భక్తా రాజర్షయస్తథా. అనిత్యమసుఖం లోకమిమం ప్రాప్య భజస్వ మామ్৷৷9.33৷৷
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।।9.34।। तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको नमस्कार कर। इस प्रकार मेरे साथ अपने-आपको लगाकर, मेरे परायण हुआ तू मेरेको ही प्राप्त होगा। ,
।।9.34।। (तुम) मुझमें स्थिर मन वाले बनो; मेरे भक्त और मेरे पूजन करने वाले बनो; मुझे नमस्कार करो; इस प्रकार मत्परायण (अर्थात् मैं ही जिसका परम लक्ष्य हूँ ऐसे) होकर आत्मा को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।।
।।9.34।। यह श्लोक सम्पूर्ण अध्याय का सुन्दर सारांश है? क्योंकि इस अध्याय के कई अन्य श्लोकों पर यह काफी प्रकाश डालता है। हम कह सकते हैं कि यह श्लोक अनेक श्लोकों की व्याख्या का कार्य करता है।वेदान्त के प्रकरण ग्रन्थों में आत्मविकास एवं आत्मसाक्षात्कार के लिए सम्यक् ज्ञान और ध्यान का उपदेश दिया गया है। ध्यान के स्वरूप की परिभाषा इस प्रकार दी गई है कि? उस (सत्य) का ही चिन्तन? उसके विषय में ही कथन? परस्पर उसकी चर्चा करके मन का तत्पर या तत्स्वरूप बन जाने को ही? ज्ञानी पुरुष ब्रह्माभ्यास समझते हैं। ब्रह्माभ्यास की यह परिभाषा ध्यान में रखकर ही महर्षि व्यास इस श्लोक में दृढ़तापूर्वक अपने सुन्दर भक्तिमार्ग का चित्रण करते हैं। यही विचार इसी अध्याय में एक से अधिक अवसरों पर व्यक्त किया गया है।सब काल में किसी भी कार्य में व्यस्त रहते हुए भी मन को मुझमें स्थिर करके? मेरा भक्त मेरा पूजन करता है और मुझे नमस्कार करता है। संक्षेपत? जीवन में आध्यात्मिक सुधार के लिए मन का विकास एक मूलभूत आवश्यकता है। यदि वास्तव में हम आध्यात्मिक विकास करना चाहें तो बाह्य दशा या परिस्थिति? हमारी आदतें? हमारा भूतकालीन या वर्तमान जीवन कोई भी बाधक नहीं हो सकता है।प्रयत्नपूर्वक ईश्वर स्मरण या आत्मचिन्तन ही सफलता का रहस्य है। इस प्रकार जब तुम मुझे परम लक्ष्य समझोगे तब तुम मुझे प्राप्त होओगे? यह श्रीकृष्ण का अर्जुन को आश्वासन है। वर्तमान में हम जो कुछ हैं? वह हमारे संस्कारों के कारण है। शुभ और दैवी संस्कारों के होने पर हम उन्हीं के अनुरूप बन जाते हैं।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का राजविद्याराजगुह्ययोग नामक नवां अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय के लिए दिया गया यह नाम उपयुक्त है। राजविद्या और राजगुह्य इन दो शब्दों का विस्तृत विवेचन किया जा चुका है। अध्याय के प्रारम्भ में हमने देखा कि शुद्ध चैतन्य ही वह ज्ञान है? जिसके प्रकाश में सभी औपाधिक या वृत्तिज्ञान सम्भव है। अत उस पारमार्थिक तत्त्व का बोध कराने वाली इस विद्या को राजविद्या कहना अत्यन्त समीचीन है। उपनिषदों में इसे सर्वविद्या प्रतिष्ठा कहा गया है? क्योंकि इसे जानकर और कोई जानने योग्य शेष नहीं रह जाता है यही मुण्डकोपनिषद् की भी घोषणा है।
।।9.34।। व्याख्या --[अपने हृदयकी बात वहीं कही जाती है, जहाँ सुननेवालेमें कहनेवालेके प्रति दोषदृष्टि न हो, प्रत्युत आदरभाव हो। अर्जुन दोषदृष्टिसे रहित हैं, इसलिये भगवान्ने उनको अनसूयवे (9। 1) कहा है। इसी कारण भगवान् यहाँ अर्जुनके सामने अपने हृदयकी गोपनीय बात कह रहे हैं।]'मद्भक्तः' -- मेरा भक्त हो जा कहनेका तात्पर्य है कि तू केवल मेरे साथ ही अपनापन कर केवल मेरे साथ ही सम्बन्ध जोड़, जो कि अनादिकालसे स्वतःसिद्ध है। केवल भूलसे ही शरीर और संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान रखा है अर्थात् 'मैं अमुक वर्णका हूँ, अमुक आश्रमका हूँ, अमुक सम्प्रदायका हूँ, अमुक नामवाला हूँ -- इस प्रकार वर्ण, आश्रम आदिको अपनी अहंतामें मान रखा है। इसलिये अब असत्रूपसे बनी हुई अवास्तविक अहंताको वास्तविक सत्रूपमें बदल दे कि मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरे हो। फिर तेरा मेरे साथ स्वाभाविक ही अपनापन हो जायगा, जो कि वास्तवमें है।'मन्मना भव' -- मन वहीं लगता है, जहाँ अपनापन होता है, प्रियता होती है। तेरा मेरे साथ जो अखण्ड सम्बन्ध है, उसको मैं तो नहीं भूल सकता, पर तू भल सकता है इसलिये तेरेको मेरेमें मनवाला हो जा -- ऐसा कहना पड़ता है।'मद्याजी' -- मेरा पूजन करनेवाला हो अर्थात् तू खाना-पीना, सोना-जगना, आना-जाना, काम-धन्धा करना आदि जो कुछ क्रिया करता है, वह सब-की-सब मेरी पूजाके रूपमें ही कर उन सबको मेरी पूजा ही समझ।'मां नमस्कुरु' -- मेरेको नमस्कार कर कहनेका तात्पर्य है कि मेरा जो कुछ अनुकूल, प्रतिकूल या सामान्य विधान हो, उसमें तू परम प्रसन्न रह। मैं चाहे तेरे मन और मान्यतासे सर्वथा विरुद्ध फैसला दे दूँ, तो भी उसमें तू प्रसन्न रह। जो मनुष्य हानि और परलोकके भयसे मेरे चरणोंमें पड़ते हैं, मेरे शरण होते हैं, वे वास्तवमें अपने सुख और सुविधाके ही शरण होते हैं, मेरे शरण नहीं। मेरे शरण होनेपर किसीसे कुछ भी सुख-सुविधा पानेकी इच्छा होती है तो वह सर्वथा मेरे शरणागत कहाँ हुआ? कारण कि वह जबतक कुछ-न-कुछ सुख-सुविधा चाहता है, तबतक वह अपना कुछ स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है।वास्तवमें मेरे चरणोंमें पड़ा हुआ वही माना जाता है, जो अपनी कुछ भी मान्यता न रखकर मेरी मरजीमें अपने मनको मिला देता है। उसमें मेरेसे ही नहीं प्रत्युत संसारमात्रसे भी अपनी सुखसुविधा, सम्मानकी किञ्चित् गन्धमात्र भी नहीं रहती। अनुकूलता-प्रतिकूलताका ज्ञान होनेपर भी उसपर उसका कुछ भी असर नहीं होता अर्थात् मेरे द्वारा कोई अनुकूल-प्रतिकूल घटना घटती है, तो मेरे परायण रहनेवाले भक्तकी उस घटनामें विषमता नहीं होती। अनुकूल-प्रतिकूलका ज्ञान होनेपर भी वह घटना उसको दो रूपसे नहीं दीखती, प्रत्युत केवल मेरी कृपारूपसे दीखती है।मेरा किया हुआ विधान चाहे शरीरके अनुकूल हो, चाहे प्रतिकूल हो, मेरे विधानसे कैसी भी घटना घटे, उसको मेरा दिया हुआ प्रसाद मानकर परम प्रसन्न रहना चाहिये। अगर मनके प्रतिकूल-से-प्रतिकूल घटना घटती है, तो उसमें मेरी विशेष कृपा माननी चाहिये क्योंकि उस घटनामें उसकी सम्मति नहीं है। अनुकूल घटनामें उसकी जितने अंशमें सम्मति हो जाती है, उतने अंशमें वह घटना उसके लिये अपवित्र हो जाती है। परन्तु प्रतिकूल घटनामें केवल मेरा ही किया हुआ शुद्ध विधान होता है -- इस बातको लेकर उसको परम प्रसन्न होना चाहिये। मनुष्य प्रतिकूल घटनाको चाहते नहीं, करता नहीं और उसमें उसका अनुमोदन भी नहीं रहता, फिर भी ऐसी घटना घटती है, तो उस घटनाको उपस्थित करनेमें कोई भी निमित्त क्यों न बने और वह भी भले ही किसीको निमित्त मान ले, पर वास्तवमें उस घटनाको घटानेमें मेरी ही हाथ है, मेरी ही मरजी है (टिप्पणी प0 531)। इसलिये मनुष्यको उस घटनामें दुःखी होना और चिन्ता करना तो दूर रहा, प्रत्युत उसमें अधिक-से-अधिक प्रसन्न होना चाहिये। उसकी यह प्रसन्नता मेरे विधानको लेकर नहीं होनी चाहिये किन्तु मेरेको (विधान करनेवालेको) लेकर होनी चाहिये। कारण कि अगर उसमें उस मनुष्यका मङ्गल न होता, तो प्राणिमात्रका परमसुहृद् मैं उसके लिये ऐसी घटना क्यों घटाता इसी प्रकार हे अर्जुन तू भी सर्वथा मेरे चरणोंमें पड़ जा अर्थात् मेरे प्रत्येक विधानमें परम प्रसन्न रह।जैसे, कोई किसीका अपराध करता है, तो वह उसके सामने जाकर लम्बा पड़ जाता है और उससे कहता है कि आप चाहे दण्ड दें, चाहे पुरस्कार दें, चाहे दुत्कार दें, चाहे जो करें, उसीमें मेरी परम प्रसन्नता है। उसके मनमें यह नहीं रहता कि सामनेवाला मेरे अनुकूल ही फैसला दे। ऐसे ही भक्त भगवान्के सर्वथा शरण हो जाता है, तो भगवान्से कह देता है कि हे प्रभो मैंने न जाने किन-किन जन्मोंमें आपके प्रतिकूल क्याक्या आचरण किये हैं, इसका मेरेको पता नहीं है। परन्तु उन कर्मोंके अनुरूप आप जो परिस्थिति भेजेंगे, वह मेरे लिये सर्वथा कल्याणकारक ही होगी। इसलिये मेरेको किसी भी परिस्थितिमें किञ्चिन्मात्र भी असन्तोष न,होकर प्रसन्नता-ही-प्रसन्नता होगी। हे नाथ मेरे कर्मोंका आप कितना खयाल रखते हैं कि मैंने न जाने किसकिस जन्ममें, किसकिस परिस्थितिमें परवश होकर क्या-क्या कर्म किये हैं, उन सम्पूर्ण कर्मोंसे सर्वथा रहित करनेके लिये आप कितना विचित्र विधान करते हैं मैं तो आपके विधानको किञ्चिन्मात्र भी समझ नहीं सकता और मेरेमें आपके विधानको समझनेकी शक्ति भी नहीं है। इसलिये हे नाथ मैं उसमें अपनी बुद्धि क्यों लगाऊँ मेरेको तो केवल आपकी तरफ ही देखना है। कारण कि आप जो कुछ विधान करते हैं, उसमें आपका ही हाथ रहता है अर्थात् वह आपका ही किया हुआ होता है, जो कि मेरे लिये परम मङ्गलमय है। यही 'मां नमस्कुरु' का तात्पर्य है। 'मामैवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः' -- यहाँ 'एवम्' का तात्पर्य है कि 'मद्भक्तः' से तू स्वयं मेरे अर्पित हो गया, 'मन्मनाः' से तेरा अन्तःकरण मेरे परायण हो गया, 'मद्याजी' से तेरी मात्र क्रियाएँ और पदार्थ मेरी पूजासामग्री बन गये और 'मां नमस्कुरु' से तेरा शरीर मेरे चरणोंके अर्पित हो गया। इस प्रकार मेरे परायण हुआ तू मेरेको ही प्राप्त होगा।युक्त्वैवमात्मानम् (अपनेआपको मेरेमें लगाकर) कहनेका तात्पर्य यह हुआ कि मैं भगवान्का ही हूँ ऐसे अपनी अहंताका परिवर्तन होनेपर शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, क्रिया -- ये सबकेसब मेरेमें ही लग जायँगे। इसीका नाम शरणागति है। ऐसी शरणागति होनेपर मेरी ही प्राप्ति होगी, इसमें सन्देह नहीं है। मेरी प्राप्तिमें सन्देह वहीं होता है, जहाँ मेरे सिवाय दूसरेकी कामना है, आदर है, महत्त्वबुद्धि है। कारण कि कामना, महत्त्वबुद्धि, आसक्ति आदि होनेपर सब जगह परिपूर्ण रहते हुए भी मेरी प्राप्ति नहीं होती।'मत्परायणः' का तात्पर्य है कि मेरी मरजीके बिना कुछ भी करनेकरानेकी किञ्चिन्मात्र भी स्फुरणा नहीं रहे। मेरे साथ सर्वथा अभिन्न होकर मेरे हाथका खिलौना बन जाय। विशेष बात ( 1 ) भगवान्का भक्त बननेसे, भगवान्के साथ अपनापन करनेसे, मैं भगवान्का हूँ इस प्रकार अहंताको बदल देनेसे मनुष्यमें बहुत जल्दी परिवर्तन हो जाता है। वह परिवर्तन यह होगा कि वह भगवान्में मनवाला हो जायगा, भगवान्का पूजन करनेवाला बन जायगा और भगवान्के मात्र विधानमें प्रसन्न रहेगा। इस प्रकार इन चारों बातोंसे शरणागति पूर्ण हो जाती है। परन्तु इन चारोंमें मुख्यता भगवान्का भक्त बननेकी ही है। कारण कि जो स्वयं भगवान्का हो जाता है, उसके न मनबुद्धि अपने रहते हैं, न पदार्थ और क्रिया अपने रहते हैं और न शरीर अपना रहता है। तात्पर्य है कि लौकिक दृष्टिमें जो अपनी कहलानेवाली चीजें हैं, जो कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं, उनमेंसे कोई भी चीज अपनी नहीं रहती। स्वयंके अर्पित हो जानेसे मात्र प्राकृत चीजें भगवान्की ही हो जाती हैं। उनमेंसे अपनी ममता उठ जाती है। उनमें ममता करना ही गलती थी, वह गलती सर्वथा मिट जाती है। ( 2 ) मनुष्य संसारके साथ कितनी ही एकता मान लें, तो भी वे संसारको नहीं जान सकते। ऐसे ही शरीरके साथ कितनी ही अभिन्नता मान लें, तो भी वे शरीरके साथ एक नहीं हो सकते और उसको जान भी नहीं सकते। वास्तवमें संसारशरीरसे अलग होकर ही उनको जान सकते हैं। इस रीतिसे परमात्मासे अलग रहते हुए परमात्माको यथार्थरूपसे नहीं जान सकते। परमात्माको तो वे ही जान सकते हैं, जो परमात्मासे एक हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने मैं और 'मेरा'-पन सर्वथा भगवान्के समर्पित कर दिया है। मैं और 'मेरा'-पन तो,दूर रहा, मैं और मेरेपनकी गन्ध भी अपनेमें न रहे कि मैं भी कुछ हूँ, मेरा भी कोई सिद्धान्त है, मेरी भी कुछ मान्यता है आदि।जैसे, प्राणी शरीरके साथ अपनी एकता मान लेता है, तो स्वाभाविक ही शरीरका सुखदुःख अपना सुखदुःख दीखता है। फिर उसको शरीरसे अलग अपने अस्तित्वका भान नहीं रहता। ऐसे ही भगवान्के साथ अपनी स्वतःसिद्ध एकताका अनुभव होनेपर भक्तका अपना कि़ञ्चिन्मात्र भी अलग अस्तित्व नहीं रहता। जैसे संसारमें भगवान्की मरजीसे जो कुछ परिवर्तन होता है, उसका भक्तपर असर नहीं पड़ता, ऐसे ही उसके स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरमें जो कुछ परिवर्तन होता है, उसका उसपर कुछ भी असर नहीं पड़ता। उसके शरीरद्वारा भगवान्की मरजीसे स्वतःस्वाभाविक क्रिया होती रहती है। यही वास्तवमें भगवान्की परायणता है।भगवान्को प्राप्त होनेका तात्पर्य है कि भगवान्के साथ अभिन्नता हो जाती है, जो कि वास्तविकता है। यह अभिन्नता भेदभावसे भी होती है और अभेदभावसे भी होती है। जैसे, श्रीजीकी भगवान् श्रीकृष्णके साथ अभिन्नता है। मूलमें भगवान् श्रीकृष्ण ही श्रीजी और श्रीकृष्ण -- इन दो रूपोंमें प्रकट हुए हैं। दो रूप होते हुए भी श्रीजी भगवान्से भिन्न नहीं हैं और भगवान् श्रीजीसे भिन्न नहीं हैं। परन्तु परस्पर रस( प्रेम) का आदानप्रदान करनेके लिये उनमें योग और वियोगकी लीला होती रहती है। वास्तवमें उनके योगमें भी वियोग है और वियोगमें भी योग है अर्थात् योगसे वियोग और वियोगसे योग पुष्ट होता रहता है, जिसमें अनिर्वचनीय प्रेमकी वृद्धि होती रहती है। इस अनिर्वचनीय और प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमको प्राप्त हो जाना ही भगवान्को प्राप्त होना है। सातवें और नवें अध्यायके विषयकी एकता सातवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने विज्ञानसहित ज्ञान अर्थात् राजविद्याको पूर्णतया कहनेकी प्रतिज्ञा की थी -- 'ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः' (7। 2)। सातवें अध्यायमें भगवान्के कहनेका जो प्रवाह चल रहा था, आठवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनके प्रश्न करनेसे उसमें कुछ परिवर्तन आ गया। अतः आठवें अध्यायका विषय समाप्त होते ही भगवान् अर्जुनके बिना पूछे ही 'इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञानसहितं --' (9। 1) कहकर अपनी तरफसे पुनः विज्ञानसहित ज्ञान कहना शुरू कर देते हैं। सातवें अध्यायमें भगवान्ने जो विषय तीस श्लोकोंमें कहा था, उसी विषयको नवें अध्यायके आरम्भसे लेकर दसवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकतक लगातार कहते ही चले जाते हैं। इन श्लोकोंमें कही हुई बातोंका अर्जुनपर बड़ा प्रभाव पड़ता है, जिससे वे दसवें अध्यायके बारहवें श्लोकसे अठारहवें श्लोकतक भगवान्की स्तुति और प्रार्थना करते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सातवें अध्यायमें कही गयी बातको भगवान्ने नवें अध्यायमें संक्षेपसे, विस्तारसे अथवा प्रकारान्तरसे कहा है।सातवें अध्यायके पहले श्लोकमें 'मय्यासक्तमनाः' आदि पदोंसे जो विषय संक्षेपसे कहा था, उसीको नवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें 'मन्मनाः' आदि पदोंसे थोड़ा विस्तारसे कहा है।सातवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा जिसको जाननेसे फिर जानना बाकी नहीं रहेगा। यही बात भगवान्ने नवें अध्यायके पहले श्लोकमें कही कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा जिसको जानकर तू अशुभ(संसार) से मुक्त हो जायगा। मुक्ति होनेसे फिर जानना बाकी नहीं रहता। इस प्रकार भगवान्ने सातवें और नवें -- दोनों ही अध्यायोंके आरम्भमें विज्ञानसहित ज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा की और दोनोंका एक फल बताया।सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा कि हजारोंमें कोई एक मनुष्य वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न,करता है और यत्न करनेवालोंमें कोई एक मेरेको तत्त्वसे जानता है। इसका कारण नवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें बताते हैं कि इस विज्ञानसहित ज्ञानपर श्रद्धा न रखनेसे मनुष्य मेरेको प्राप्त न हो करके मौतके रास्तेमें चले जाते हैं अर्थात् बारबार जन्मतेमरते रहते हैं।सातवें अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण जगत्का प्रभव और प्रलय बताया। यही बात नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें 'प्रभवः प्रलयः' पदोंसे बतायी।सातवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेको सनातन बीज बताया और नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें अपनेको अव्यय बीज बताया।सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें 'न त्वहं तेषु ते मयि' कहकर जिस राजविद्याका संक्षेपसे वर्णन किया था, उसीका नवें अध्यायके चौथे और पाँचवें श्लोकमें विस्तारसे वर्णन किया है।सातवें अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंको तीनों गुणोंसे मोहित बताया और नवें अध्यायके आठवें श्लोकमें सम्पूर्ण प्राणियोंको प्रकृतिके परवश हुआ बताया।सातवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि जो मनुष्य मेरे ही शरण हो जाते हैं, वे मायाको तर जाते हैं और नवें अध्यायके बाईसवें श्लोकमें कहा कि जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।सातवें अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने 'न मां दुष्कृतिनो मूढाः' कहा था, उसीको नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें 'अवजानन्ति मां मूढाः' कहा है।सातवें अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने 'आसुरं भावमाश्रिताः' पदोंसे जो बात कही थी, वही बात नवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें 'राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः' पदोंसे कही है। सातवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें जिनको सुकृतिनः कहा था, उनको ही नवें अध्यायके तेरहवें श्लोकमें,'महात्मानः' कहा है।सातवें अध्यायके सोलहवेंसे अठारहवें श्लोकतक सकाम और निष्कामभावको लेकर भक्तोंके चार प्रकार बताये और नवें अध्यायके तीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक वर्ण, आचरण और व्यक्तिको लेकर भक्तोंके सात भेद बताये।सातवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भगवान्ने महात्माकी दृष्टिसे 'वासुदेवः सर्वम्' कहा और नवें अध्यायके उन्नसीवें श्लोकमें भगवान्ने अपनी दृष्टिसे 'सदसच्चाहम् कहा।भगवान्से विमुख होकर अन्य देवताओंमें लगनेमें खास दो ही कारण हैं -- पहला कामना और दूसरा भगवान्को न पहचानना। सातवें अध्यायके बीसवें श्लोकमें कामनाके कारण देवताओंके शरण होनेकी बात कही गयी और नवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें भगवान्को न पहचाननेके कारण देवताओंका पूजन करनेकी बात कही गयी।सातवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें सकाम पुरुषोंको अन्तवाला (नाशवान्) फल मिलनेकी बात कही और नवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें सकाम पुरुषोंके आवागमनको प्राप्त होनेकी बात कही।सातवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि देवताओंके भक्त देवताओंको और मेरे भक्त मेरेको प्राप्त होते हैं। यही बात भगवान्ने नवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें भी कही।सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने जो 'अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः' कहा था, उसीको नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकके पूर्वार्धमें 'अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्'कहा है। ऐसे ही सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें जो 'परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्' कहा था, उसीको नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकके उत्तरार्धमें 'परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्' कहा है।सातवें अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें भगवान्ने 'सर्गे यान्ति' कहा था, उसीको नवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'मृत्युसंसारवर्त्मनि' कहा है।सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेको जाननेकी बात मुख्य बतायी है और नवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्पण करनेकी बात मुख्य बतायी है।
।।9.32 -- 9.34।।मां हि इत्यादि मत्परायण इत्यन्तम्। पापयोनयः पशुपक्षिसरीसृपादयः। स्त्रिय इति अज्ञाः। वैश्या इति कृष्यादिकर्मान्तररताः। शूद्रा इति कार्त्स्येन वैदिकक्रियानधिकृताः परतन्त्रवृत्तयश्च। तेऽपि मदाश्रिता मामेव यजन्ते। गजेन्द्रमोक्षणादीनि चरितानि हि परमकारुणिकस्य भगवतः सहस्रशः श्रूयन्ते। किमङ्ग पुनरेतद्विपरीतवृत्तयः।केचिदाक्षते -- द्विजराजन्यप्रशंसापरमेतद्वाक्यम्? न तु स्त्र्यादिषु अपवर्गप्राप्तितात्पर्येण इति। ते हि भगवतः सर्वानुग्राहिकां शक्तिं मितविषयतया खण्डयन्तः तथा परमेश्वरस्य परमकृपालुत्वमसहमानाः (S omits तथा -- मसहमानाः) न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ? अपि चेत्सुदुराचारः इत्यादीन्यन्यानि चैवंप्रकारस्फुटार्थप्रतिपादकानि वाक्यानि विरोधयन्तः निरतिशययुक्तिप्रपञ्चसाधिताद्वैतभगवत्तत्त्वे (S??N भगवत्तत्त्वम्) भेदलिङ्गं (S? भेदभङ्गम् N भेदभङ्ग -- ) बलादेवानयन्तः अन्यांश्च आगमविरोधानचेतयमानाः कथमिदं कथमिदम् इति पर्यनुयोज्यमाना (?N पर्यनुयुज्यमानः) यदि? परम् अन्तर्गर्भीकृतजात्यादिमहाग्रहाविष्टान्तः (? N -- ग्रहगृहीताविष्टान्तः -- ) करणाः मात्सर्यावहित्थालज्जाचिह्नीकृतवाङ्मुखदृष्टयः समग्रस्य जनस्य असत्प्रलापिनः इति हास्यरसविषयभावमात्मनि (S omits -- विषय -- ) आरोपयन्ति। यत्पूर्वैव व्याख्या सर्वस्य करोति शिवम् इति।
।।9.34।।मन्मना भव मयि सर्वेश्वरे निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणैकताने सर्वज्ञे सत्यसंकल्पे निखिलजगदेककारणे परस्मिन् ब्रह्मणि पुरुषोत्तमे पुण्डरीकदलामलायतेक्षणे स्वच्छनीलजीमूतसंकाशे युगपदुदितदिनकरसहस्रसदृशतेजसि लावण्यामृतमहोदधौ उदारपीवरचतुर्बाहौ अत्युज्जवलपीताम्बरे अमलकिरीटमकरकुण्डलहारकेयूरकटकादिभूषिते,अपारकारुण्यसौशील्यसौन्दर्यमाधुर्यगाम्भीर्यौदार्यवात्सल्यजलधौ अनालोचितविशेषाशेषलोकशरण्ये सर्वस्वामिनि तैलधारावद् अविच्छेदेन निविष्टमना भव।तद् एव विशिनष्टि -- मद्भक्तः अत्यर्थमत्प्रियत्वेन युक्तो मन्मनो भव इत्यर्थः।पुनः अपि विशिनष्टि -- मद्याजी अनवधिकातिशयप्रियमदनुभवकारि -- तमद्यजनपरो भव।यजनं नाम परिपूर्णशेषवृत्तिः? औपचारिकसांस्पर्शिकाभ्यवहारिकादिसकलभोगप्रदानरूपो हि यागः।यथा मदनुभवजनितनिरवधिकातिशयप्रीतिकारितमद्यजनपरो भवसि तथा मन्मना भव इत्युक्तं भवति।पुनः अपि तद् एव विशिनष्टि -- मां नमस्कुरु? अनवधिकातिशयप्रियमदनुभवकारितात्यर्थप्रियाशेषशेषवृत्तौ अपर्यवस्यन् मयि अन्तरात्मनि अतिमात्रप्रह्वीभावव्यसायं कुरु।मत्परायणः अहम् एव परम् अयनं यस्य असौ मत्परायणः? मया विना आत्मधारणासंभावनया मदाश्रय इत्यर्थः।एवम् आत्मानं युक्त्वा मत्परायणः त्वम् एवम् अनवधिकातिशयप्रीत्या मदनुभवसमर्थं मनः प्राप्य माम् एव एष्यसि। आत्मशब्दो हि अत्र मनोविषयः।एवंरूपेण मनसा मां ध्यात्वा माम् अनुभूय माम् इष्टवा मां नमस्कृत्य मत्परायणो माम् एव प्राप्स्यसि इत्यर्थः।तद् एवं लौकिकानि शरीरधारणार्थानि वैदिकानि च नित्यनैमित्तिकानि कर्माणि मत्प्रीतये मच्छेषतैकरसो मया एव कारित इति कुर्वन् सततं मत्कीर्तनयजननमस्कारादिकान् प्रीत्या कुर्वाणो मन्नियाम्यं निखिलजगत् मच्छेषतैकरसम् इति च अनुसंदधानः? अत्यर्थप्रियमद्गुणगणं च अनुसंधाय अहरहः उक्तलक्षणम् इदम् उपासनम् उपादधानो माम् एव प्राप्स्यसि।
।।9.34।।भगवद्भक्तेरित्थंभावं पृच्छति -- कथमिति। ईश्वरभजन इतिकर्तव्यतां दर्शयति -- मन्मना इति। एवं भगवन्तं भजमानस्य मम किं स्यादित्याशङ्क्याह -- मामेवेति। समाधाय भगवत्येवेति शेषः। एवमात्मानमित्येतद्विवृणोति -- अहंहीति। अहमेव परमयनं तवेति मत्परायणस्तथाभूतः सन्मामेवात्मानमेष्यसीति संबन्धः। तदेवं मध्यमानां ध्येयं निरूप्य नवमेनाधमानामाराध्याभिधानमुखेन निजेन पारमार्थिकेन रूपेण प्रत्युक्तेन ज्ञानं परमेश्वरस्य परमाराधनमित्यभिदधता सोपाधिकं तत्पदवाच्यं निरुपाधिकं च तत्पदलक्ष्यं व्याख्यातम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ नवमोऽध्यायः।।9।।
।।9.34।।इदं मुख्यं भजनस्वरूपमाह -- मन्मना इति। मय्येव श्रीपुरुषोत्तमे नीलव्योममूर्त्तिमति सर्वज्ञे सर्वशक्तिमति परमानन्दमात्रकरपादमुखोदरादिके निखिलालौकिकगुणगणेऽचिन्त्ये सर्ववेदान्तवेद्ये स्वेच्छया स्वगताशेषसौन्दर्यमाविर्भाव्य भुवि प्रादुर्भूते कृशतरजनपोषके स्वसर्वस्वमिति सर्वात्मभावेनाविच्छेदेन निर्मिषमना एव भव। अनेन स्मरणरूपमुक्तसाङ्ख्ययोगतात्पर्यभूतं भजन(मनन)मुक्तम् तेन (सयोग)ज्ञानकाण्डार्थसिद्धिः मद्भक्त इति भजनं पुरुषोत्तमस्वरूपसेवानिष्ठो भव इत्युपासनाकाण्डार्थसिद्धिः? मद्याजीति कर्मकाण्डार्थसिद्धिश्च सूचिता। मानसं कायिकं च भजनमुक्तम्। मामेव नमस्कुर्विति तस्यानन्यभावेन तवास्मीति साष्टाङ्गप्रणामपूर्वकं प्रपत्तिः स्वाहङ्कारादिदोषत्यागपूर्वकं तदीयत्वानुसन्धानगर्भा प्रदर्शिता। एवकारस्य सर्वत्रानुषङ्गो ज्ञेयः। तेननान्यं देवं नमस्कुर्यान्नान्यं देव निरीक्षयेत् इति विधीयते। अन्यभजनादिरूपस्यास्यैव सर्वधर्मपदवाच्यस्य परित्यागोऽन्ते वक्ष्यतेसर्वधर्मान्परित्यज्य [18।66] इत्यादिना। इयमेव भगवदनुग्रहात्मकपोषणभक्तिसरणिः। भगवदाश्रयमात्रस्य मुख्यता यतः? तथा च ताद्दशसेवकानामहमेव सर्वसाधनरूपः फलरूपश्चेत्याह -- मामेवैष्यसीति। परिदृश्यमानं पुरुषोत्तमं मामेव प्राप्स्यसि मद्भक्त्या प्राप्योऽहमेव फलमित्यर्थः। इदं च सर्वं सेवाफलग्रन्थे समुपपादितं श्रीमदाचार्यैः -- अलौकिकसामर्थ्यं सायुज्यं सेवोपयोगि देहो वा वैकुण्ठादिषु तत्समीपवर्त्ती इत्यादि च। अयमेतन्मार्गीयः परः पुरुषार्थः सूचितः। तत्र च पुनरप्येवमात्मानं युक्त्वा योगेन समाधाय मत्परायण एव भविष्यसीति मार्गान्तराद्वैलक्षण्यमुक्तम्।,फलभूतत्वादेतन्मार्गस्य मर्यादापुष्टिपुरुषोत्तमसम्बन्धित्वाच्चेति दिक्।
।।9.34।।भजनप्रकारं दर्शयन्नुपसंहरति -- राजभक्तस्यापि राजभृत्यस्य पुत्रादौ मनस्तथा स तन्मना अपि न तद्भक्त इत्यत उक्तं मन्मना भव मद्भक्त इति। तथा मद्याजी मत्पूजनशीलो मां नमस्कुरु मनोवाक्कायैः। एवमेभिः प्रकारैर्मत्परायणो भदेकशरणः सन्नात्मानमन्तःकरणं युक्त्वा मयि समाधाय मामेव परमानन्दघनं स्वप्रकाशं सर्वोपद्रवशून्यमभयमेष्यसि प्राप्स्यसि।श्रीगोविन्दपदारविन्दमकरन्दास्वादशुद्धाशयाः संसाराम्बुधिमुत्तरन्ति सहसा पश्यन्ति पूर्णं महः।वेदान्तैरवधारयन्ति परमं श्रेयस्त्यजन्ति भ्रमं द्वैतं स्वप्नसमं विदन्ति विमलां विन्दन्ति चानन्दताम्।।
।।9.34।। भजनप्रकारं दर्शयन्नुपसंहरति -- मन्मना इति। मय्येव मनो यस्य स मन्मनास्त्वं भव। तथैव ममैव भक्तः मत्सेवको भव। मद्याजी मद्यजनशीलो भव। मामेव च नमस्कुरु। एवमेभिः प्रकारैर्मत्परायणः सन्नात्मानं मनो मयि युक्त्वा समाधाय मामेव परमानन्दरूपमेष्यसि प्राप्स्यसि।
।।9.34।।भजस्व [9।33] इत्युक्तभक्तिस्वरूपनिष्कर्षोऽनन्तरं क्रियत इति सङ्गतिं दर्शयति -- भक्तिस्वरूपमाहेति। सामान्येन सर्वासु परविद्यासूपास्यतया तदुपयुक्ततया च प्रमाणशतैः प्रतिपादिताः स्वरूपरूपगुणादयोऽत्रास्मच्छब्देन विवक्षिता इत्यभिप्रायेणाह -- मयीति। तमीश्वराणां परमं महेश्वरं [श्वे.उ.6।7] न तस्येशे कश्चन [तै.ना.1।9] इत्यादेरर्थमाह -- सर्वेश्वरेश्वर इति। न ह्यसमर्थसेवया किञ्चिल्लभ्यते नच ब्रह्माण्डान्तरादेरनीश्वरा ब्रह्मेशादयोऽपि मोक्षदानशक्ता इति भावः। क्षेत्रज्ञस्येश्वरज्ञानाद्विशुद्धिः परमा मता [या.स्मृ.3।34] इति ह्युच्यते। हेयास्पदस्य गुणरहितस्य च भजनीयत्वाभावादितरव्यावृत्त्यर्थं सगुणनिर्गुणश्रुतीनां विषयव्यवस्थयोभयलिङ्गत्वमाह -- निखिलेति। समस्तानिष्टनिवर्तकत्वादनन्तभोग्यमयत्वाच्चायमेवोपास्य इति भावः। अनन्तमङ्गलगुणोपलक्षकतया ध्येयलक्षणजगत्कारणत्वमोक्षप्रदत्वौपयिकं गुणद्वयंसर्वज्ञे सत्यसङ्कल्प इत्युक्तम्। यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः। तस्मादेतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते [मुं.उ.1।9] इति? सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः [छां.उ.8।1।5] इति च अनिष्टनिवृत्त्यादौ चान्याज्ञातं सहकारिसापेक्षत्वं च नास्तीति भावः। यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते इत्युपक्रम्य तद्विजिज्ञासस्व [तै.उ.3।1।1] कारणं तु ध्येयः [अ.शिखो.3] इत्याद्यभिप्रायेण -- निखिलजगदेककारण इत्युक्तम्। निखिलशब्देनाव्यक्तादेर्ब्रह्मरुद्रादेश्च सङ्ग्रहः। व्योमातीतनिर्गुणवादादिनिराकरणं? सामान्यविशेषशब्दयोरैकरस्यं चाभिप्रेत्यपरस्मिन् ब्रह्मणि पुरुषोत्तम इत्युक्तम्। अनेन सर्वात्मकत्वं सर्वविलक्षणत्वं चाविरुद्धमुपदर्शितं भवति। नारायणानुवाकपुरुषसूक्तादिकं च स्मारितम्। एतावता विशिष्टं स्वरूपमुक्तम्।अथ सर्वशाखादिपठितपुरुषसूक्तादिसिद्धं शुभाश्रयप्रकरणप्रपञ्चितं च विग्रहतद्गुणादिकमुच्यते।तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी [छां.उ.1।6।7] इत्याद्युक्तपरत्वचिह्नमाह -- पुण्डरीकदलामलायताक्ष इति।स्वच्छेत्यादिना नीलतोयदमध्यस्था [तै.ना.11।12] इत्यादिकमनुसंहितम्। स्वच्छत्वं मणिमुकुरसलिलकाचादिवद्व्यवहितप्रकाशप्रतिबिम्बादियोग्यः प्रसादविशेषः।दिवि सूर्यसहस्रस्य [11।12] इत्यादि वक्ष्यमाणं तमेव भान्तम् [मुं.उ.2।2।10] इत्यादिश्रुतिं चाभिप्रेत्योक्तं -- युगपदित्यादि। श्रुत्यादिप्रसिद्धं बहूनामुदारत्वमौर्जित्यमभिमतफलप्रदत्वं च। यत्र रूपान्तरं न विशिष्टं? तत्र वक्तुर्वसुदेवनन्दनस्य रूपं विवक्षितम् तच्च सर्वावतारोपलक्षणम्। चतुर्भुजत्वं भगवतः कृष्णस्य पररूपस्य सांसिद्धिकम् द्विभुजत्वं सहस्रभुजत्वादिकं चाहार्यमित्याशयेनोक्तं -- चतुर्बाहाविति। अथवापि चतुर्भुजत्वं -- भुजैश्चतुर्भिः समुपेतमेतद्रूपं विशिष्टं दिवि संस्थितं च। भूमौ गतं पूजयताप्रमेयं सदा हि तस्मिन्निवसामि देवाः इत्यादिकमिह भाव्यम्। दिव्याम्बरयोगमाह -- अत्युज्ज्वलितेति। मूर्धादिपादान्तदिव्यावयवगतसमस्ताभरणवर्गोपलक्षणतया किरीटाद्युक्तिः।ध्येयः सदा इत्युपक्रम्यकेयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी [भ.उ.पु.आ.हृ.155] इत्यादिकमिह द्रष्टव्यम्। मकरशब्दो मकराकारकुण्डलपरः। तेजःप्राचुर्यं प्रतिकूलैर्दुष्प्रेक्षत्वं चाभिप्रेत्ययुगपदित्यादिकमुक्तम्।लावण्येत्यादिना तु तस्यैवानुकूलभोग्यत्वाकर्षकत्वादिकमभिप्रेतम्। चक्षुरानन्दजनकस्तेजोविशेषो हि लावण्यम्। तत इदमुच्यते -- लोचनैरनुजग्मुस्ते तमादृष्टिपथात्पुनः। मनोभिरनुजग्मुश्च कृष्णं प्रीतिसमन्विताः।।अतृप्तमनसामेवं तेषां केशवदर्शने। क्षिप्रमन्तर्दधे शौरिश्चक्षुषां प्रियदर्शनः।।अमृतस्येव नातृप्यन् प्रेक्षमाणा जनार्दनम् [म.भा.2।2।2628]नहि तस्मान्मनः कश्चिच्चक्षुषी वा नरोत्तमात्। नरः शक्नोत्यपाक्रष्टुमतिक्रामति राघवे [वा.रा.2।17।13] इति।अपारेत्यादिना सौलभ्योपयोगिनोऽमिताः सुन्दरत्वादिमिश्राः समाश्रयणीयत्वेऽत्यन्तापेक्षिताः स्वरूपरूपयोर्गुणा उक्ताः।सर्वलोकशरण्याय [वा.रा.6।17।17]सुदुष्टो वाऽप्यदुष्टो वा [वा.रा.6।18।5]विभीषणो वा सुग्रीव यदि वा रावणः स्वयम् [वा.रा.6।18।34] इत्यादिकमनुसन्धाय कारुण्यादिफलितमाह -- अनालोचितेति। आश्रितसंरक्षणं स्वलाभं मत्वा प्रवर्तत इत्यभिप्रायेणोक्तं -- सर्वस्वामिनीति।कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम् [म.भा.2।38।23] इत्युक्तम्। निदिध्यासितव्यः [बृ.उ.2।4।54।5।6] ध्यायथ [मुं.उ.2।2।6] ध्रुवा स्मृतिः [छां.उ.7।26।2] आवृत्तिरसकृदुपदेशात् [ब्र.सू.4।1।1] इत्याद्यनुसन्धानेन मनश्शब्दस्यात्र ध्यानाख्यमनोवृत्तिविशेषविषयतामाह -- तैलधारेति।मय्येव मन आधत्स्व [12।8] इत्युच्यत इति। अत्रमामेवैष्यसि इति साध्यगतावधारणात्साधनेऽप्यवधारणं विवक्षितमिति गम्यते। तेन चानन्यमनस्त्वादिकं सिद्धम्। ततश्च तैलधारादिवदविच्छेदोऽपि फलित इति भावः।यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः [कठो.1।2।22] इति श्रुत्युपबृंहणतामभिप्रेत्याहतदेवेति। भक्तेरपि ज्ञानविशेषरूपत्वाद्विशेषकत्वमुपपद्यत इत्यभिप्रायेणाहअत्यर्थेति। स्वतन्त्रार्थान्तरविधानशङ्कानिरासायाह पुनरपीति। भक्तिस्वरूपविशेषनिष्कर्षपरत्वात्तदसाधारणशास्त्रविशेषप्रतिपादितपूजाविशेषपरोऽयं यजनशब्द इत्यभिप्रायेणाह -- यजनं नामेति। शेषवृत्तिः कैङ्कर्यम्। इदं चपत्रं पुष्पम् [9।26] इत्यादिना प्रदर्शितस्य भगवच्छास्त्रप्रपञ्चितस्य सङ्ग्रहशासनम्। अतोऽत्र यजिर्दर्शपूर्णमासादिविषय इति न भ्रमितव्यम्।यज देवपूजायाम् [धा.पा.1।1027] इत्येव च पठ्यते।देवतामुद्दिश्य द्रव्यत्यागो यागः इति चाहुः। अग्निहोत्रादिव्यतिरिक्तेष्वपि पञ्चमहायज्ञादिषु यजिर्निरूढः। अन्यत्रापिकृष्णो वाक्यैरिज्यते सम्मृशानैः [म.भा.13।18।6] इत्यादयः प्रयोगाः। अतोऽत्र भगवच्छास्त्रादिप्रपञ्चितविषयोऽयं यजिरित्यभिप्रायेणाह -- औपचारिकेति। औपचारिकाः नीराजनादयः सांस्पर्शिकाः स्रक्चन्दनादयः आदिशब्देन सान्दृष्टिकदीपादिग्रहणम्।मद्याजी इत्यनेन बाह्यक्रियापरेण मन्मनस्त्वं कथं विशेष्यत इत्यत्राह -- यथेति।पुनरपीत्याद्यपि पूर्ववत्। पूर्वोक्तादधिकरूपत्वं दर्शयितुम् -- अपर्यवस्यन्नित्यन्तमुक्तम्।अत्यर्थशब्देन दास्यस्य स्वरूपप्राप्तता विवक्षिता।अतिमात्रशब्देन तस्य निरतिशयभोगरूपत्वं सूचितम्। त्रिविधप्रतिसङ्ग्रहाय नमधातुस्वरूपनिरूपणेन प्रह्वीभावशब्दः।प्रेक्षावतः प्रवृत्तिर्या प्रह्वीभावात्मिका परा। उत्कृष्टं परमुद्दिश्य तन्नमः परिगीयते [अहिर्बु.सं.52।10] इति हि नमश्शब्दो विवृतः। ज्ञानविशेषकत्वव्यक्त्यर्थंव्यवसायशब्दः।परायणः इत्यत्र परशब्दविशेषणसामर्थ्यादवधारणं विवक्षितमित्यभिप्रायेणअहमेवेत्युक्तम्। फलितमाह -- मया विनेति। एषैव भक्तेः परमा काष्ठा प्राप्तेरव्यवहितपूर्वभाविनीति फलाभिलाषज्ञापनार्थो मत्परायणशब्द इत्यभिप्रायः। एवंशब्दानूदितमाकारमाह -- अनवधिकेत्यादिना।आत्मानंयुक्त्वा इति पदयोरत्रोचितार्थप्रदर्शनंमनः प्राप्येति। युजिरत्र योगार्थः समाध्यर्थो वा।मन्मना भव इत्युक्तार्थपरत्वंएवमात्मानम् इत्यनुवादेन प्रतीयत इत्यभिप्रायेणाह -- आत्मशब्दो हीति। मनसोऽत्र निर्देशो ध्यानाधिकरणत्वेनेति प्रदर्शयन् श्लोकस्य पिण्डितार्थमाह -- एवं रूपेणेति। निरतिशयप्रीतिमतेत्यर्थः। ध्यानादिकं मद्भक्त इति विशेषणाद्भोगरूपमित्यभिप्रायेणमामनुभूयेत्युक्तम्।अथ सुखग्रहणाध्यायप्रधानार्थभूतसाङ्गोपाङ्गफलशिरस्कभक्तिस्वरूपं सङ्क्षेपेण निष्कृष्य वदन्नुपसंहरति -- तदेवमिति। तत् तस्मादित्यर्थः। तव दुःखबहुलसंसारसागरपतितत्वात्? मम च परत्वसौलभ्यादियुक्तस्य समस्तदुःखसागरोत्तरणसांयात्रिकत्वात्? उपायस्य चात्यन्तसुकरत्वादिगुणयुक्तत्वादित्यर्थः।एवमिति पूर्वग्रन्थैरुक्तप्रकारेणेत्यर्थः।लौकिकानीत्यादि कुर्वन्नित्यन्तंयत्करोषि इत्यादेरर्थःमन्नियाम्यमित्यादिकंमया ततम् [9।4] इत्यादेरभिप्रेतकथनम्अत्यर्थप्रियमद्गुणगणमितिसमोऽहम् [9।29]पत्रं पुष्पम् [9।26] इत्यादेरर्थः। गुणानुसन्धानाद्भक्तेः पुरुषसाध्यत्वं युज्यत इत्यभिप्रायेणाह -- मद्गुणगणं चानुसन्धायाहरहरुक्तलक्षणमिदमुपासनमुपाददान इति।इति मत्वा भजन्ते माम् [10।8] इत्यादिकमत्रानुसंहितम्।अहरहरित्यादिकंमन्मनाः इत्यादेर्विवक्षितम्। आप्रयाणत्वसिद्ध्यर्थम्अहरहरित्याद्युक्तम्।उक्तलक्षणमिति -- अनन्यप्रयोजननमस्कारादिप्रेरकमदेकधारकत्वदशापर्यन्तनिरतिशयप्रीतिरूपमित्यर्थः।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु श्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां नवमोऽध्यायः।।9।।
।।9.34।।भजने प्रकारमाह -- मन्मना इति। मय्येव मनो यस्य तादृशो भूत्वा मद्भक्तो मयि स्नेहयुक्तश्च सन् मद्याजी मत्पूजकः परिचर्याकरणशीलो मां नमस्कुरु। मनोनिवेशनेन मनोभजनमुक्तम्। पूजनेन कायिकम्। नमनोक्त्या वाचिकम्। ततः कायवाङ्मनोभिर्भजनं कुर्वित्युक्तम्। एवं मत्परायणः सन् आत्मानं मयि युक्त्वा युक्तं कृत्वा अवश्यं मामेव पुरुषोत्तमं एष्यसि प्राप्स्यसि। एवकारेणाक्षरांशादिप्राप्तिर्निवारिता।एवं स्वभक्तिमाहात्म्यं भजनार्थं ससाधनम्।प्रोवाच नवमेऽध्याये श्रीकृष्णो ह्यर्जुनाय तु।।9।।
।।9.34।।भजनप्रकारं दर्शयति -- मन्मना इति। मय्येव मनो यस्य न पुत्रादौ स मन्मनाः। ममैव भक्तो न राजादेर्धनाद्यर्थं स मद्भक्तः। मद्याजी मदर्थमेव यजते न स्वर्गाद्यर्थं स मद्याजी तादृशो भव। मामेव नमस्कुरु शरणं व्रज नत्वन्यान्। एवमनेन प्रकारेण युक्त्वा योगं कृत्वा मामेवात्मानं सर्वान्तरं एष्यसि प्राप्स्यसि। अभेदेन घटाकाश इव महाकाशम्। यतो मत्परायणः अहमेव सर्वोपाधिशून्यश्चिदात्मा परं सर्वोत्कृष्टमयनं प्राप्यं यस्य स मत्परायणः। तथा च श्रूयतेयथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय। तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् इति।
।।9.34।।भजनप्रकारमाह -- मन्मना भव मयि परमेश्वरे एव मनो यस्य न स्त्र्यादौ स तथा भव। मम भक्तो नतु भूतादेः। तथा मद्यजनशीलो भव नत्विन्द्रादेः। मामेव च नमस्कुरु नतु मद्य्वतिरिक्तबुद्य्धान्यान्। तथा चैवमात्मामन्तःकरणं समाधाय मद्भजनप्रकारेण मत्परायणः सन्मामेवैष्यसि प्राप्स्यसीत्यर्थः। एवमुक्ताप्रकारं भक्तियोगं विधाय आत्मानं,समस्तभूतप्रत्यगात्माभिन्नपरमात्मानं मामेवैश्यसीति वा संबन्धः। तदनेन नवमाध्यायेन तत्पदलक्ष्यं ज्ञेयं ब्रह्म निरुपयता तदुपायभूतं भगवद्भजनमत्युत्तमफलदमतिसुलभं पापजन्मनामप्युद्धारकमत एवावश्यकमिति दर्शितम्।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्टदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचिताया श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां नवमोऽध्यायः।।9।।
9.34 मन्मनाः with mind filled with Me? भव be thou? मद्भक्तः My devotee? मद्याजी sacrificing unto Me? माम्,unto Me? नमस्कुरु bow down? माम् to Me? एव alone? एष्यसि thou shalt come? युक्त्वा having united? एवम् thus? आत्मानम् the self? मत्परायणः taking Me as the Supreme Goal.Commentary Fill thy mind with Me. Fix your head? heart and hands on Me. Get your heart in tune with Me. Become a true worshipper. You will secure eternal bliss. Having known Me? you will cross beyond death.The whole being of man should be surrendered to the Lord without reservation. Then the whole life will undergo a wonderful transformation. You will have the vision of God everywhere. All sorrows and pains will vanish. Your mind will be one with the divine consciousness.Just as the potether becomes one with the universal ether when the limiting adjunct (pot) is broken? just as the Ganga and the Yamuna? leaving their names and forms become one with the ocean? so also the sage gets rid of Avidya and all sorts of limiting adjuncts through the direct realisation of the Self and becomes identical with Para Brahman.Yukta means steadied in thought? having thus fixed the mind on the Lord? knowing that I am the Self of all beings and the highest goal. (Cf.V.17VII.7?14XVIII.65)(This chapter is known by the name Adhyatma Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the ninth discourse entitledThe Yoga of the Kingly Science and the Kingly Secret.,
9.34 Fix thy mind on Me; by devoted to Me; sacrifice unto Me; bow down to Me; having thus united thy whole self to Me, taking Me as the supreme goal, thou shalt come unto Me.
9.34 Fix thy mind on Me, devote thyself to Me, sacrifice for Me, surrender to Me, make Me the object of thy aspirations, and thou shalt assuredly become one with Me, Who am thine own Self."
9.34 Having your mind fixed on Me, be devoted to Me, sacrifice to Me, and bow down to Me. By concentrating your mind and accepting Me as the supreme Goal, you shall surely attain Me who am thus the Self.
9.34 Manmana bhava, have your mind fixed on Me; [Here Ast. adds the word vasudeva.-Tr] and also be madbhakah, devoted to Me. Madyaji, sacrifice to Me, be engaged in sacrificing to Me. And namaskuru, bow down; only mam, to Me. Yuktva, by concentrating your mind; and mat-parayanah, by accepting Me as the supreme Goal; esyasi eva, you shall surely attain; mam, Me who am God. You shall attain Me evam atmanam, who am thus the Self: I indeed am the Self of all the beings, and am also the supreme Goal. You shall attain Me who am such. In this way, the word atmanam (Self) is to be connected with the preceding word mam (Me). This is the purport.
9.34. Have your mind fixed on Me; be My devotee; offer scrifice to Me; [and] pay homage to Me; thus fixing your self (internal organ) and having Me as your supreme goal, you shall certainly attain Me.
9.32-34 Man hi etc; upto Matparayanah. Those who are of sinful birth : I.e., the animals, birds, reptiles etc. Women denotes the ignorant. Men of working class denotes those who find pleasure in different vocations, like agriculture etc. Men of the fourth caste : those who do not have any claim whatsoever for [performing] the Vedic rituals and whose livelihood depend on others. By taking refuge [solely] in Me, even these all attain Me alone. The deeds of the exceedingly compassionate Bhagavat, like the one granting liberation to a chief of the elephants are heard in thousands [in the Puranas]. Certainly it must be so, for those whose behaviour is just the opposite to that of these persons. Some (commentators] declare : The present sentence [of the Lord] intends to glorify the twice-born and members of the ruling class, and it is not uttered with the intention of speaking of the attainment of liberation in the case of the women etc. Indeed these persons [aim to] break into pieces the Graceous-to-all Power of the Bhagavat by foistering upon It, a limited applicability; likwise they do not tolerate the profoundly compassionate nature of the Absolute Lord; they contradict the [Lord's own] statements 'To Me none is hateful and none is dear (IX, 30)', 'Even a highly evil-doer etc. (IX, 31)', and other similar statements, very clearly of the same import; with all effort they [strive to] bring in something indicative of duality even in the Absolute-being, Whose non-dual nature has been well established firmly by the diversity of the best reasonings; they are not mindful of other contradictions [that lurk in their theory] with the revealed literature; when simply estioned 'How is this ?' and 'How is that ?', these persons, having their internal organ totally possessed by the mighty devil of the caste [considerations], concealed within, and having their tongue, face and eyes all twisted by their sense of jealously, hypocrisy and shame-they prattle evil for the entire humanity; and thus they put upon themselves the status of being an object of ridicule. Therefore the above explanation [of ours] does good to all.
9.34 Focus your mind on Me; fix your mind on Me uninterruptedly like a continous stream of oil - on Me the Ruler of rulers, antagonistic to all that is evil, the sole abode of auspiciousness, omniscient, whose resolve is always true, the sole cause of the entire universe, the Supreme Brahman, the Supreme Person; on Me, of long large eyes like a lotus petal; who has the complexion of a clear blue cloud; whose shining lustre is like that of a thousand suns simultaneously risen; on Me, the great ocean of the nectar of beauty; of four arms, noble and strong, and of brilliant yellow raiment; on Me, adorned with a pure crown, fish-shaped ear-rings, garlands, bracelet on the arms and bangles at the wrist; on Me, the ocean of infinite mercy, affability, beauty, sweetness, majesty, magnanimity and parental affection; on Me, the refuge of all without exception and without regard to their differences; on Me the Lord of all. Sri Krsna again makes the same clear. Be My devotee. Be one whose mind is focussed on Me by contemplating on Me as exceedingly dear. Such is the meaning. He makes thie yet clearer. Be My worshipper, namely, become engaged in My worship, which you have begun to practise by your experience of Me as supremely dear and unlimited and unsurpassed. What is called worship is the conduct of one who realises that he is absolutely a subsidiary - (Sesa) of God. Worship consists also in offering all things of enjoyment such as waving of lights etc., all those things which come into bodily contact like garlands, sandal paste etc., and those meant for offering like food preparations and other edibles. The meaning is this: Let your mind be focussed on Me so as to be engaged in My worship, resulting from love which is unlimited and unsurpassed and which is born from the experience of Myself. Again Sri Krsna expounds the same: Bow down to Me. Do not be satisfied only with services of one who is absolutely subsidiary to me. Do services which are incomparably dear and animated by an experience of Myself who is dear and unlimited and unsurpassed. Also bow down to Me in utter humility, regarding Me as the supreme goal, i.e., He who is the supreme abode and the supreme goal. The meaning is that having resorted to Me, it is impossible for you to live without Me. Having disciplined the mind in this way and considering Me as the supreme goal, you will thus, through love which is unsurpassed and incomparable, obtain a mind which is fit for experiencing Me. You will then reach Me alone. Here the term Atman stands for the mind. The import is that, holding Me as the sole support, possesing a mind of this kind, meditating on Me, experiencing Me, worshipping Me and bowing down to Me - you will reach Me alone. Thus, with such a turn of mind you carry on, for pleasing Me alone, your secular works for bodily sustenance and Vedic activities like obligatory and occasional rites, regarding them as actuated by Me and finding sole joy in absolute subservience to Me. You shall ever engage yourself in praising My names with love and in endeavouring to serve Me and bowing down to Me etc. You shall contemplate on the entire universe as being under My rule and being subsidiary (Sesa) to Me. Contemplating on the multitudes of My attributes, which are exceedingly dear to you, and practising every day this worship as described, you will reach Me alone.
9.34 Focus your mind on Me, be My devotee, be my worshipper. Bow down to Me. Engaging your mind in this manner and regarding Me as the supreme goal, you will come to Me.
।।9.34।।किस प्रकार ( भजनसेवा करें सो कहा जाता है -- ) तू मन्मना -- मुझमें ही मनवाला हो। मद्भक्त -- मेरा ही भक्त हो। मद्याजी -- मेरा ही पूजन करनेवाला हो और मुझे ही नमस्कार किया कर। इस प्रकार चित्तको मुझमें लगाकर मेरे परायण -- शरण हुआ तू मुझ,परमेश्वरको ही प्राप्त हो जायगा। अभिप्राय यह कि मैं ही सब भूतोंका आत्मा और परमगति -- परम स्थान हूँ? ऐसा जो मैं आत्मरूप हूँ उसीको तू प्राप्त हो जायगा। इस प्रकार पहलेके माम् शब्दसे आत्मानम् शब्दका सम्बन्ध है।
।।9.34।। --,मयि वासुदेवे मनः यस्य स त्वं मन्मनाः भव तथा मद्भक्तः भव मद्याजी मद्यजनशीलः भव। माम् एव च नमस्कुरु। माम् एव ईश्वरम् एष्यसि आगमिष्यसि युक्त्वा समाधाय चित्तम्। एवम् आत्मानम्? अहं हि सर्वेषां भूतानाम् आत्मा? परा च गतिः? परम् अयनम्? तं माम् एवंभूतम्? एष्यसि इति अतीतेन संबन्धः? मत्परायणः सन् इत्यर्थः।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोवन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येनवमोऽध्यायः।।,
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मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34।।
মন্মনা ভব মদ্ভক্তো মদ্যাজী মাং নমস্কুরু৷ মামেবৈষ্যসি যুক্ত্বৈবমাত্মানং মত্পরাযণঃ৷৷9.34৷৷
মন্মনা ভব মদ্ভক্তো মদ্যাজী মাং নমস্কুরু৷ মামেবৈষ্যসি যুক্ত্বৈবমাত্মানং মত্পরাযণঃ৷৷9.34৷৷
મન્મના ભવ મદ્ભક્તો મદ્યાજી માં નમસ્કુરુ। મામેવૈષ્યસિ યુક્ત્વૈવમાત્માનં મત્પરાયણઃ।।9.34।।
ਮਨ੍ਮਨਾ ਭਵ ਮਦ੍ਭਕ੍ਤੋ ਮਦ੍ਯਾਜੀ ਮਾਂ ਨਮਸ੍ਕੁਰੁ। ਮਾਮੇਵੈਸ਼੍ਯਸਿ ਯੁਕ੍ਤ੍ਵੈਵਮਾਤ੍ਮਾਨਂ ਮਤ੍ਪਰਾਯਣ।।9.34।।
ಮನ್ಮನಾ ಭವ ಮದ್ಭಕ್ತೋ ಮದ್ಯಾಜೀ ಮಾಂ ನಮಸ್ಕುರು. ಮಾಮೇವೈಷ್ಯಸಿ ಯುಕ್ತ್ವೈವಮಾತ್ಮಾನಂ ಮತ್ಪರಾಯಣಃ৷৷9.34৷৷
മന്മനാ ഭവ മദ്ഭക്തോ മദ്യാജീ മാം നമസ്കുരു. മാമേവൈഷ്യസി യുക്ത്വൈവമാത്മാനം മത്പരായണഃ৷৷9.34৷৷
ମନ୍ମନା ଭବ ମଦ୍ଭକ୍ତୋ ମଦ୍ଯାଜୀ ମାଂ ନମସ୍କୁରୁ| ମାମେବୈଷ୍ଯସି ଯୁକ୍ତ୍ବୈବମାତ୍ମାନଂ ମତ୍ପରାଯଣଃ||9.34||
manmanā bhava madbhaktō madyājī māṅ namaskuru. māmēvaiṣyasi yuktvaivamātmānaṅ matparāyaṇaḥ৷৷9.34৷৷
மந்மநா பவ மத்பக்தோ மத்யாஜீ மாஂ நமஸ்குரு. மாமேவைஷ்யஸி யுக்த்வைவமாத்மாநஂ மத்பராயணஃ৷৷9.34৷৷
మన్మనా భవ మద్భక్తో మద్యాజీ మాం నమస్కురు. మామేవైష్యసి యుక్త్వైవమాత్మానం మత్పరాయణః৷৷9.34৷৷
10.1
10
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।।10.1।। श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम वचनको तुम फिर भी सुनो, जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामनासे कहूँगा; क्योंकि तुम मेरेमें अत्यन्त प्रेम रखते हो।
।।10.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे महाबाहो ! पुन: तुम मेरे परम वचनों का श्रवण करो, जो मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिये हित की इच्छा से कहूँगा।।
।।10.1।। प्रथम अध्याय के अनिश्चय की स्थिति में देखे गये कम्पित अर्जुन ने अब तक एक अतुलनीय आन्तरिक सन्तुलन प्राप्त कर लिया था। हिन्दू दर्शन के बुद्धिमत्तापूर्वक किये गये अध्ययन से? जो आन्तरिक शान्ति प्राप्त होती है? उसे भगवान् इस अध्याय के प्रारम्भ में ही अपने शिष्य अर्जुन को प्रीयमाण कहकर स्पष्ट करते हैं। प्रीयमाण का अर्थ है जो प्रसन्न हो। यहाँ अर्जुन की प्रसन्नता का कारण भगवान् के उपदेश का श्रवण है।शिष्यों के उत्साह एवं रुचिपूर्ण श्रवण से गुरु का उत्साह भी द्विगुणित हो जाता है। वेदान्त दर्शन के गूढ़ अभिप्रायों को अधिकाधिक समझने पर आन्तरिक शान्ति और सन्तोष का अनुभव हुए बिना नहीं रह सकता। गीताचार्य श्रीकृष्ण पुन उत्साह से भरकर इस ज्ञान का विस्तार से वर्णन करते हैं। पुन तुम मेरे परम वचनों को सुनो? जो मैं तुम्हारे हित की इच्छा से कहूँगा।यहाँ अर्जुन को महाबाहो कहकर सम्बोधित किया गया है। यह सम्बोधन अर्जुन को इस बात का स्मरण कराता है कि उसको अपने आन्तरिक जीवन में भी एक वीर पुरुष के समान प्राप्त परिस्थिति में से ही एक दिव्य आनन्द के राज्य का निर्माण करना चाहिए? जो कि उसकी वास्तविक धरोहर है यह स्पष्ट है कि भगवान् का प्रवचन किसी लौकिक विषय पर न होकर मनुष्य में ही निहित आध्यात्मिक श्रेष्ठता की सम्भावनाओं तथा उन्हें उजागर करने के उपायों पर है क्योंकि यहाँ कहा गया है कि तुम मेरे परम वचनों को सुनो? जो मैं तुम्हारे (आध्यात्मिक) हित की इच्छा से कहूंगा।पुन प्रवचन प्रारम्भ करने का क्या प्रयोजन है? इसे वे अब बताते हैं --
।।10.1।। व्याख्या--'भूयः एव'--भगवान्की विभूतियोंको तत्त्वसे जाननेपर भगवान्में भक्ति होती है, प्रेम होता है। इसलिये कृपावश होकर भगवान्ने सातवें अध्यायमें (8वें श्लोकसे 12वें श्लोकतक) कारणरूपसे सत्रह विभूतियाँ और नवें अध्यायमें (16वें श्लोकसे 19वें श्लोकतक) कार्यकारणरूपसे सैंतीस विभूतियाँ बतायीं। अब यहाँ और भी विभूतियाँ बतानेके लिये (टिप्पणी प0 535.1) तथा (गीता 8। 14 एवं 9। 22, 34 में कही हुई) भक्तिका और भी विशेषतासे वर्णन करनेके लिये भगवान् 'भूयः एव' कहते हैं। 'श्रृणु मे परमं वचः' -- भगवान्के मनमें अपनी महिमाकी बात, अपने हृदयकी बात, अपने प्रभावकी बात कहनेकी विशेष आ रही है (टिप्पणी प0 535.2)। इसलिये वे अर्जुनसे कहते हैं कि 'तू फिर मेरे परम वचनको सुन'। दूसरा भाव यह है कि भगवान् जहाँ-जहाँ अर्जुनको अपनी विशेष महत्ता, प्रभाव, ऐश्वर्य आदि बताते हैं अर्थात् अपने-आपको खोल करके बताते हैं, वहाँ-वहाँ वे परम वचन, रहस्य आदि शब्दोंका प्रयोग करते हैं; जैसे--चौथे अध्यायके तीसरे श्लोकमें ''रहस्यं ह्येतदुत्तमम्' पदोंसे बताते हैं कि जिसने सूर्यको उपदेश दिया था, वही मैं तेरे रथके घोड़े हाँकता हुआ तेरे सामने बैठा हूँ। अठारहवें अध्यायके चौंसठवें श्लोकमें 'श्रृणु मे परमं वचः' पदोंसे यह परम वचन कहते हैं कि तू सम्पूर्ण धर्मोंका निर्णय करनेकी झंझटको छोड़कर एक मेरी शरणमें आ जा मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर (18। 66)। यहाँ ''श्रृणु मे परमं वचः' पदोंसे भगवान्का आशय है कि प्राणियोंके अनेक प्रकारके भाव मेरेसे ही पैदा होते हैं और मेरेमें ही भक्तिभाव रखनेवाले सात महर्षि, चार सनकादि तथा चौदह मनु -- ये सभी मेरे मनसे पैदा होते हैं। तात्पर्य यह है कि सबके मूलमें मैं ही हूँ। जैसे आगे तेरहवें अध्यायमें ज्ञानकी बात कहते हुए भी चौदहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने फिर ज्ञानका वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की है, ऐसे ही सातवें और नवें अध्यायमें ज्ञान-विज्ञानकी बात कहते हुए भी दसवें अध्यायके आरम्भमें फिर उसी विषयको कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं। चौदहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने,''परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्' कहा, और यहाँ (दसवें अध्यायके आरम्भमें) 'श्रृणु मे परमं वचः' कहा! इनका तात्पर्य है कि ज्ञानमार्गमें समझकी, विवेक-विचारकी मुख्यता रहती है, अतः साधक वचनोंको सुन करके विचार-पूर्वक तत्त्वको समझ लेता है। इसलिये वहाँ 'ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्' कहा है। भक्तिमार्गमें श्रद्धाविश्वासकी मुख्यता रहती है; अतः साधक वचनोंको सुन करके श्रद्धा-विश्वासपूर्वक मान लेता है। इसलिये यहाँ 'परमं वचः' कहा गया है।'यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया' -- सुननेवाला वक्तामें श्रद्धा और प्रेम रखनेवाला हो और वक्ताके भीतर सुननेवालेके प्रति कृपापूर्वक हित-भावना हो तो वक्ताके वचन, उसके द्वारा कहा हुआ विषय श्रोताके भीतर अटलरूपसे जम जाता है। इससे श्रोताकी भगवान्में स्वतः रुचि पैदा हो जाती है, भक्ति हो जाती है, प्रेम हो जाता है। यहाँ 'हितकाम्यया' पदसे एक शङ्का हो सकती है कि भगवान्ने गीतामें जगह-जगह कामनाका निषेध किया है, फिर वे स्वयं अपनेमें कामना क्यों रखते हैं? इसका समाधान यह है कि वास्तवमें अपने लिये भोग, सुख, आराम आदि चाहना ही 'कामना' है। दूसरोंके हितकी कामना 'कामना' है ही नहीं। दूसरोंके हितकी कामना तो त्याग है और अपनी कामनाको मिटानेका मुख्य साधन है। इसलिये भगवान् सबको धारण करनेके लिये आदर्शरूपसे कह रहे हैं कि जैसे मैं हितकी कामनासे कहता हूँ, ऐसे ही मनुष्यमात्रको चाहिये कि वह प्राणिमात्रके हितकी कामनासे ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करे। इससे अपनी कामना मिट जायगी और कामना मिटनेपर मेरी प्राप्ति सुगमतासे हो जायगी। प्राणिमात्रके हितकी कामना रखनेवालेको मेरे सगुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है -- 'ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः' (गीता 12। 4)? और निर्गुण स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है-- 'लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं ৷৷. सर्वभूतहिते रताः' (गीता 5। 25)।  सम्बन्ध--परम वचनके विषयमें, जिसे मैं आगे कहूँगा, मेरे सिवाय पूरा-पूरा बतानेवाला अन्य कोई नहीं मिल सकता। इसका कारण क्या है इसे भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।
।।10.1।।श्री भगवानुवाच -- मम माहात्म्यं श्रुत्वा प्रीयमाणाय ते मद्भक्त्युत्पत्तिविवृद्धिरूपहितकामनाय भूयः मन्माहात्म्यप्रपञ्चविषयम् एव परमं वचो यद् वक्ष्यामि तद् अवहितमनाः श्रृणु।
।।10.1।।अध्यायद्वये सिद्धमर्थं संक्षेपतोऽनुभाषते -- सप्तम इति। तत्त्वं सोपाधिकं निरुपाधिकं च। विभूतयः सविशेषनिर्विशेषरूपप्रतिपत्त्युपयोगिन्यः। उत्तराध्यायस्याध्यायद्वयेन संबन्धं वदन्नध्यायान्तरमवतारयति -- अथेति। वक्तव्याः सविशेषध्याने निर्विशेषप्रतिपत्तौ च शेषत्वेनेति शेषः। ननु सविशेषं निर्विशेषं च भगवतो रूपं प्रागेव तत्र तत्रोक्तं तत्किमिति पुनरुच्यते तत्राह -- उक्तमपीति। यद्यपि तत्र तत्र तत्त्वमुक्तं तथापि पुनर्वक्तव्यं दुर्विज्ञेयत्वादिति यतो मन्यतेऽत इति योजना। प्रकृष्टत्वं वचसः स्पष्टयति -- निरतिशयेति। तदेव वचो विशिनष्टि -- यत्परममिति। सकृदुक्तेरर्थसिद्धेरसकृदुक्तिरनर्थिकेत्याशङ्क्याह -- प्रीयमाणायेति। ततो वक्ष्यामि तुभ्यमिति पूर्वेण संबन्धः। हितं दुर्विज्ञेयं तत्त्वज्ञानम्।
।।10.1।।अथोक्तभक्तिवृद्ध्यर्थं स्वयोगप्रभवं हरिः। भूय एवाहानुपृष्टो विभूतिं चापि केशवः।।1।।सच्चिदानन्दसम्भूतं जगदेतत्सदा(मदा)त्मकम्। इति सर्वात्मदृष्ट्यर्थं सर्वस्याह विभूतिताम्।।2।।पूर्णस्य तत्पूर्णमदः पूर्णमेवावशिष्यते। इति श्रुत्यांशिनो विष्णोस्तथात्वे नास्त्यपूर्णता।।3।।समुद्रस्येव पूर्णस्य कोटिब्रह्माण्डदेहिनः। सर्वा विभूतयस्तस्य मुख्या एवात्र कीर्त्तिताः।।4।।तथाहि श्रीभगवानुवाच -- भूय एवेति। स्वधर्मानुष्ठानार्थं विद्यमानौ महान्तौ बाहू यस्य हे महाबाहो भूयस्तन्मे वचः श्रृणु? यत्तेऽहं वक्ष्यामि हितकाम्यया। किम्भूताय मन्माहात्म्यं श्रुत्वा प्रीयमाणाय। वचश्च किम्भूतं परमं मद्योगवैभवज्ञापनविषयकम्।
।।10.1।।यद्राजविद्या किल राजगुह्यं पवित्रमेकं निजरूपरूपम्। येनोपदिष्टं श्रुतिवाक्यमाद्यं तं काशिराजं गुरुराजमीडे।।एवं सप्तमाष्टमनवमैस्तत्पदार्थस्य भगवतस्तत्त्वं सोपाधिकं निरुपाधिकं च दर्शितं? तस्य च विभूतयः सोपाधिकस्य ध्याने निरुपाधिकस्य ज्ञाने चोपायभूताःरसोऽहमप्सु कौन्तेय इत्यादिना सप्तमे?अहं क्रतुरहं यज्ञः इत्यादिना नवमे च सङ्क्षेपेणोक्ताः। अथेदानीं तासां विस्तरो वक्तव्यो भगवतो ध्यानाय? तत्त्वमपि दुर्विज्ञेयत्वात्पुनस्तस्य वक्तव्यं ज्ञानायेति दशमोऽध्याय आरभ्यते। तत्र प्रथममर्जुनं प्रोत्साहयितुं श्रीभगवानुवाच -- भूयएव पुनरपि हे महाबाहो? शृणु मे मम परमं प्रकृष्टं वचः। यत्ते तुभ्यं प्रीयमाणाय मद्वचनादभृतपानादिव प्रीतिमनुभवते वक्ष्याम्यहं परमाप्तस्तव हितकाम्ययेष्टप्राप्तीच्छया।।
।।10.1।।उक्ताः संक्षेपतः पूर्वं सप्तमादौ विभूतयः। दशमे ता वितन्यन्ते सर्वत्रेश्वरदृष्टये।।1।।एवं तावत्सप्तमादिभिस्त्रिभिरध्यायैर्भजनीयं परमेश्वररूपं निरूपितम्। तद्विभूतयश्च सप्तमेरसोऽहमप्सु कौन्तेय इत्यादिना संक्षेपतो दर्शिताः। अष्टमे चअधियज्ञोऽहमेवात्र इत्यादिना? नवमे चअहं ऋतुरहं यज्ञः इत्यादिना। अथेदानीं ता एव विभूतीः प्रपञ्चयिष्यन् स्वभक्तेश्चावश्यंकरणीयत्वं वर्णयिष्यन् श्रीभगवानुवाच -- भूय एवेति। महान्तौ युद्धादिस्वधर्मानुष्ठाने महत्परिचर्यायां वा कुशलौ बाहू यस्य हे महाबाहो? भूयएव पुनरपि मे वचः शृणु। कथंभूतम्। परमं परमात्मनिष्ठं मद्वचनामृतेनैव प्रीतिं प्राप्नुवते ते तुभ्यं हितकाम्यया हितेच्छया यदहं वक्ष्यामि तत्।
।।10.1।।दशमसङ्गतिं वक्तुं नवमार्थं सप्तमप्रभृत्यध्यायत्रयार्थं वा सङ्गृह्याह -- भक्तियोग इति।स्वकल्याणगुणानन्त्यं कृत्स्नस्वाधीनतामतिः। भक्त्युत्पत्तिविवृद्ध्यर्था विस्तीर्णा दशमोदिता [गी.सं.14] इति सङ्ग्रहश्लोकं व्याकुर्वन् सङ्गतिमाह -- इदानीमिति। पूर्वत्र सपरिकरभक्तियोगस्वरूपप्रपञ्चनपरतया स्वकल्याणगुणादेः सङ्ग्रहेण कथनम् इह तु तत्प्रपञ्चनमित्यवसरप्राप्तिरपौनरुक्त्यं चविस्तीर्णा इत्यनेन विवक्षितमिति दर्शयितुंइदानीं प्रपञ्च्यत इति पदद्वयम्। अर्जुनस्य वक्ष्यमाणार्थश्रवणयोग्यत्वं तस्यार्थस्य च परमहितसाधनत्वादिकं च वदन् सोपच्छन्दनं सावधानयतिभूय एव इति श्लोकेन। प्रश्नमन्तरेणापि स्वयमेव प्रतिपादने हेतुःप्रीयमाणाय इत्यनेनोच्यत इत्यभिप्रयंस्तादृशप्रीतेर्विषयं दर्शयतिमम माहात्म्यं श्रुत्वेति। बाहुशालिनां हि परोत्कर्षकथनमसूयावहम् भवतस्तु शिशुपालादिव्याकुले जगति भाग्यवशादीदृशी प्रीतिः सञ्जातेतिमहाबाहोप्रीयमाणाय इत्यनयोर्भावः। यद्वा बाहुबलाद्यथा ते बाह्यशत्रुविजयः? तथा मद्विषयप्रीतिबलादान्तरशत्रवोऽपि त्वया जिता इति भावः। प्रकरणादर्थस्वभावाच्च हितं विशिनष्टि -- मद्भक्त्युत्पत्तिविवृद्धिरूपेति।सर्वपापैः प्रमुच्यते [10।3]सोऽविकम्प्येन योगेन युज्यते [10।7] इति हि वक्ष्यत इति भावः। उक्तमात्रस्य पुनरभिधाने प्रयोजनाभावात्भूय एव इत्यनेन प्रक्रान्तगुह्यतमानुबन्ध्यर्थप्रपञ्चनरूपत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेण -- भूयो मन्माहात्म्यप्रपञ्चनविषयमेवेत्युक्तम्। एतेनैव वचसः परमत्वे हेतुरपि दर्शितः। शृण्वत एवार्जुनस्य पुनःश्रृणु इति विधानं विशिष्टश्रवणार्थमित्यभिप्रायेणाह -- तदवहितमना इति। पूर्वमनसूयवे दोषनिवृत्त्या गहनमात्रमुक्तम् इदानीमुच्यमाने प्रीयमाणाय गुणसम्पत्त्यातिगहनमुच्यते अतस्त्वयाऽत्यन्तावहितेन भवितव्यमिति भावः।
।।10.1।।नवमे भक्तिरूपं यदुक्तं तत्सिद्धये हरिः। स्वविभूतिस्वरूपं च कृपया दशमेऽब्रवीत्।।1।।पूर्वाध्याये सर्वकर्मसमर्पणमुक्तं? ततश्च भक्ितकरणमाज्ञप्तम्? तच्च स्वरूपाज्ञानेन कृतमप्यकृतप्रायमिति स्वरूपज्ञानार्थं स्वस्वरूपं स्वविभूतिरूपं वदन् पार्थं श्रवणार्थं सावधानतया सम्मुखीकुर्वन् प्रतिजानीते -- श्रीभगवानुवाच भूय एवेति। हे महाबाहो भजनौपयिककृपाशक्ितमन् भूय एव पुनरपि मम वचनश्रवणेन प्रीयमाणाय परमानन्दं प्राप्नुवते ते हितकाम्यया यदहं वक्ष्यामि तत् परमं परो मीयते ज्ञायतेऽनेनेति परमार्थरूपमुत्कृष्टं मे वचः शृणु।प्रीयमाणाय इति पदेनान्येभ्योऽवक्तव्यत्वं गोप्यत्वं च ज्ञापितम्।हितकाम्यया इतिपदेन परमकृपा दर्शिता।
।।10.1।।सप्तमे त्वंपदवाच्योऽर्थो निरूपितः? तदुपासनाच्च क्रममुक्तिरित्यष्टमे प्रोक्तं? नवमे तत्पदलक्ष्यार्थ उक्तस्तत्प्राप्तये च विश्वतोमुखं सर्वत्र भगवद्भावभावनात्मकं भगवद्भजनमुक्तम्? तद्रागद्वेषकलुषितमनसामशक्यमिति मन्वानो भगवांस्तत्सिद्धये स्वविभूतीः केषुचिदेव पदार्थेषु भगवद्बुद्धिविधानार्थास्तावद्दर्शयति दशमे। तत्फलभूतं विश्वतोमुखस्योपासनं तेन च विश्वरूपदर्शनमेकादशे। द्वादशे पुनस्तत्पदलक्ष्यस्याव्यक्तस्योपासनं तदुपासकलक्षणानि चोक्त्वा उपासनाकाण्डं तत्पदार्थशोधनार्थं समापयिष्यति तत्र वात्सल्यात्स्वयमेव श्रीभगवानुवाच -- भूय एवेति। हे महाबाहो? भूयः प्रागुक्तमपि पुनर्मे परमं निरतिशयवस्तुनः प्रकाशकं वचः शृणु। प्रीयमाणाय अमृतपानादिवन्मद्वचनात्प्रीतिमनुभवते वक्ष्यामि। हितकाम्यया तव हितेच्छया।
।।10.1।।सप्तमेऽध्यायऽष्टमे च भगवतस्तत्त्वं सोपाधिकं विभूतयः सविशेषबोधोपयोगिन्यः प्रकाशिताः? नवमे च तत्त्वं निरुपाधिकं विभूतयो निर्विशेषबोधोपायोगिनः। अथेदानीं सविशेषध्याने निर्विशेषज्ञाने चोपायभूता येषु येषु भावेषु चिन्तयः परमेश्वरस्ते ते भावा वक्त्व्याः? तत्त्वं च यद्यप्युक्तं तथापि दुर्विज्ञेयत्वात्पुनरपि वक्तव्यमिति मन्यमानो भगवानुवाच -- भूत इति। भूयएव पुनरपि हे महाबाहो? मे मम परमं प्रकृष्टं वचो वचनं श्रुणु। वचसः प्रकृष्टं वचो वचनं श्रुणु। वचसः प्रकष्टत्वं च प्रकृष्टवस्तुप्रकाशकत्वेन यत् परमं वचस्ते तुभ्यं अहं वक्ष्यामि। कुत इत्यत आह। प्रीयमाणाय यतस्त्वं मद्वचनं श्रृण्वन्नमृतमिव पिबन्नत्यन्तं प्रीयसेऽतस्त्व हितकाम्यया हितकामनया यद्वक्ष्यामि तच्छ्रण्वित्यर्थः। श्रुत्वा च महाबाहुत्वं सार्थकं कुर्विति संबोधनाशयः।
10.1 भूयः again? एव verily? महाबाहो O mightyarmed? श्रृणु hear? मे My? परमम् supreme? वचः word? यत् which? ते to thee? अहम् I? प्रीयमाणाय who art beloved? वक्ष्यामि (I) will declare? हितकाम्यया wishing (thy) welfare.Commentary I shall repeat what I said before (in the seventh and the ninth discourses). My essential nature and My manifestations have already been pointed out. As it is very difficult to understand the divine nature? I shall describe it once more to you? although it has been described already. I shall tell you of the divine glories and point out in which forms of being I should be thought of.I will speak to you as you are delighted to hear Me. Now your heart is taking delight in Me.The Lord wants to encourage Arjuna and cheer him up and so He Himself comes forward to give instructions to Arjuna even without his reest.Paramam Vachah supreme word. Paramam means supreme? revealing the unsurpassed truth (Niratisaya Vastu which is Brahman).O Arjuna You are immensely delighted with My speech? as if you are drinking the immortalising nectar.
10.1 The Blessed Lord said Again, O mighty-armed Arjuna, listen to my supreme word which I will declare to thee who who art beloved, for thy welfare.
10.1 "Lord Shri Krishna said: Now, O Prince! Listen to My supreme advice, which I give thee for the sake of thy welfare, for thou art My beloved.
10.1 The Blessed Lord said O mighty-armed one, listen over again ot My supreme utterance, which I, wishing your welfare, shall speak to you who take delight (in it).
10.1 O mighty-armed one, srnu, listen; bhuyah eva, over agiain; me, to My; paramam, supreme; vacah, utterance, which is expressive of the transcendental Reality; yat, which supreme Truth; aham, I; vaksyami, shall speak; te, to you; priyamanaya, who take delight (in it). You become greatly pleased by My utterance, like one drinking ambrosia. Hence, I shall speak to you hita-kamyaya, wishing your welfare. 'Why shall I speak?' In answer to this the Lord says:
10.1. The Bhagavat said O mighty-armed [Arjuna] ! Yet, again listen to My best message, which, with good intention, I shall declare to you, who are dear to Me.
10.1 See Comment under 10.5
10.1 The Lord said Listen with rapt attention to these words which I shall utter - words which are supreme and which give you a much wider understanding of My greatness. I shall speak out to you about the rise and growth of devotion to Me, as you are pleased with listening to My greatness and as I too love you.
10.1 The Lord said Further said, O Arjuna, listen to My Supreme word. Desirous of your good, I shall speak to you who love Me.
।।10.1।।सातवें और नवें अध्यायमें भगवान्के तत्त्वका और विभूतियोंका वर्णन किया गया। अब जिनजिन भावोंमें भगवान् चिन्तन किये जाने योग्य हैं उनउन भावोंका वर्णन किया जाना चाहिये। यद्यपि भगवान्का तत्त्व पहले कहा गया है परंतु दुर्विज्ञेय होनेके कारण फिर भी उसका वर्णन होना चाहिये? इसलिये श्रीभगवान् बोले --, हे महाबाहो फिर भी तू मेरे परम उत्तम निरतिशय वस्तुको प्रकाशित करनेवाले वाक्य सुन? जो कि मैं तुझ प्रसन्न होनेवालेके हितकी इच्छासे कहूँगा। मेरे वचनोंको सुनकर तू अमृतपान करता हुआसा अत्यन्त प्रसन्न होता है? इसीलिये मैं तुझसे यह परम वाक्य कहने लगा हूँ। ,
।।10.1।। --,भूयः एव भूयः पुनः हे महाबाहो श्रृणु मे मदीयं परमं प्रकृष्टं निरतिशयवस्तुनः प्रकाशकं वचः वाक्यं यत् परमं ते तुभ्यं प्रीयमाणाय -- मद्वचनात् प्रीयसे त्वम् अतीव अमृतमिव पिबन्? ततः -- वक्ष्यामि हितकाम्यया हितेच्छया।।किमर्थम् अहं वक्ष्यामि इत्यत आह --,
।।10.1।।प्रकृतसङगतत्वेनाध्यायप्रतिपाद्यं दर्शयति -- उपासनार्थमिति। षष्ठे ध्यानमुक्तं तन्नवमान्तेमन्मना भव इति स्मारितं? तच्च ध्येयसापेक्षं? विशिष्टाधिकारिणां च भगवद्विभूतय उपास्या अतस्ता आहानेन दशमाध्यायेन। तत्रादौ केषाञ्चिद्बुद्ध्यादीनां महर्ष्यादीनां च विशेषकारणत्वमपि भगवत आहेत्यर्थः। विभूतिशब्दार्थस्तात्पर्यनिर्णयेऽभिहितः। तदुक्तेर्भूयस्त्वात्प्रथममुपादानम्। अत एवैकवाक्यता। ननु विभूतयःरसोऽहं [7।8] इत्यादिनोक्ता एव सत्यम्? अत एवविस्तरेणात्मनः [10।18] इति वक्ष्यति विशेषकारणत्वं नाम सामर्थ्यातिशयोपेततया निर्माणम्। प्राक्शोकसंविग्नमानसः [1।47] इत्युक्तम्? तद्विरुद्धं कथंप्रीयमाणाय इत्युच्यत इत्यतो व्याचष्टे -- प्रीयमाणायेति। पूर्वं बन्धुस्नेहाच्छोक उक्तः? इदानीं भगवद्वचनश्रवणनिमित्तात्सन्तोषप्राप्तिः श्रोतृत्वसम्पत्प्रतिपादनायोच्यत इति न विरोध इति भावः।
।।10.1।।म्। उपासनार्थं विभूतीः विशेषणकारणत्वं च केषाञ्चिदनेनाध्यायेनाह -- प्रीयमाणाय श्रुत्वा सन्तोषं प्राप्नुवते।
श्री भगवानुवाच भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः। यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।10.1।।
শ্রী ভগবানুবাচ ভূয এব মহাবাহো শ্রৃণু মে পরমং বচঃ৷ যত্তেহং প্রীযমাণায বক্ষ্যামি হিতকাম্যযা৷৷10.1৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ ভূয এব মহাবাহো শ্রৃণু মে পরমং বচঃ৷ যত্তেহং প্রীযমাণায বক্ষ্যামি হিতকাম্যযা৷৷10.1৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ ભૂય એવ મહાબાહો શ્રૃણુ મે પરમં વચઃ। યત્તેહં પ્રીયમાણાય વક્ષ્યામિ હિતકામ્યયા।।10.1।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਭੂਯ ਏਵ ਮਹਾਬਾਹੋ ਸ਼੍ਰਰਿਣੁ ਮੇ ਪਰਮਂ ਵਚ। ਯਤ੍ਤੇਹਂ ਪ੍ਰੀਯਮਾਣਾਯ ਵਕ੍ਸ਼੍ਯਾਮਿ ਹਿਤਕਾਮ੍ਯਯਾ।।10.1।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಭೂಯ ಏವ ಮಹಾಬಾಹೋ ಶ್ರೃಣು ಮೇ ಪರಮಂ ವಚಃ. ಯತ್ತೇಹಂ ಪ್ರೀಯಮಾಣಾಯ ವಕ್ಷ್ಯಾಮಿ ಹಿತಕಾಮ್ಯಯಾ৷৷10.1৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച ഭൂയ ഏവ മഹാബാഹോ ശ്രൃണു മേ പരമം വചഃ. യത്തേഹം പ്രീയമാണായ വക്ഷ്യാമി ഹിതകാമ്യയാ৷৷10.1৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ଭୂଯ ଏବ ମହାବାହୋ ଶ୍ରୃଣୁ ମେ ପରମଂ ବଚଃ| ଯତ୍ତେହଂ ପ୍ରୀଯମାଣାଯ ବକ୍ଷ୍ଯାମି ହିତକାମ୍ଯଯା||10.1||
śrī bhagavānuvāca bhūya ēva mahābāhō śrṛṇu mē paramaṅ vacaḥ. yattē.haṅ prīyamāṇāya vakṣyāmi hitakāmyayā৷৷10.1৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச பூய ஏவ மஹாபாஹோ ஷ்ரரிணு மே பரமஂ வசஃ. யத்தேஹஂ ப்ரீயமாணாய வக்ஷ்யாமி ஹிதகாம்யயா৷৷10.1৷৷
శ్రీ భగవానువాచ భూయ ఏవ మహాబాహో శ్రృణు మే పరమం వచః. యత్తేహం ప్రీయమాణాయ వక్ష్యామి హితకామ్యయా৷৷10.1৷৷
10.2
10
2
।।10.2।। मेरे प्रकट होनेको न देवता जानते हैं और न महर्षि; क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओं और महर्षियोंका आदि हूँ।
।।10.2।। मेरी उत्पत्ति (प्रभव) को न देवतागण जानते हैं और न महर्षिजन; क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।।
।।10.2।। जब कभी हम प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुभव के द्वारा कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं? तब हम उसे उस विषय के ज्ञाता पुरुषों से समझना चाहते हैं। उन्हें आप्त पुरुष कहा जाता है। किन्तु ब्रह्मविद्या के क्षेत्र में आत्मप्रशिक्षण की यह अप्रत्यक्ष विधि भी कठिन है? क्योंकि? भगवान् कहते हैं? मेरी उत्पत्ति को न देवतागण जानते हैं और न महर्षिजन।बाद में? भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही स्पष्ट करेंगे कि महर्षि शब्द से उनका निश्चित अभिप्राय क्या है। ये महर्षिगण पुराणों में बताये हुए भृगु आदि सप्त ऋषि नहीं है। सप्त ऋषियों का दार्शनिक अर्थ निम्न प्रकार से है। जब अनन्तस्वरूप ब्रह्म केवल आभासिक रूप से समष्टि बुद्धि (महत् तत्त्व) के साथ तादात्म्य को प्राप्त कर अपना एक व्यक्तित्व प्रकट (अहंकार) करता है? तब वह स्वयं ही स्वयं को? स्वयं के आनन्द के लिए इस विषयात्मक जगत् में प्रपेक्षित करता है अथवा व्यक्त करता है। वास्तव में? ये भोग के विषय सूक्ष्म होते हैं? जिन्हें तन्मात्रा कहते हैं। इन सबको पुराणों में सप्त ऋषि कह कर विभिन्न नाम भी दिये गये हैं वे सप्तर्षि हैं महत् तत्त्व? अहंकार और पंचतन्मात्राएं। पुराणों में इन्हें मानवीय रूप दे दिया गया है। संयुक्त रूप में ये सप्तर्षि मनुष्य के बौद्धिक और मानसिक जीवन के तथा सृष्टि के निमित्त और उपादान कारण के प्रतीक हैं।देव (सुर) शब्द का वाच्यार्थ स्वर्ग के निवासी यहाँ अभिप्रेत नहीं है? यद्यपि वह अर्थ भी संभव है। देव शब्द द्यु धातु से बनता है? जिसका अर्थ है प्रकाशित करना। अत हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ही वे देव हैं? जो हमारे असंख्य अनुभवों के लिए विषयों को प्रकाशित करते हैं।इसलिए यह कथन उचित ही है कि चिन्मय स्वरूप मैं सब देवगणों तथा महर्षिजनों का आदिकारण हूँ। अर्थात् आत्मा हमारे स्थूल और सूक्ष्म? शारीरिक और मानसिक जीवन का अधिष्ठान है। यद्यपि वे इस सत्य आत्मा में ही स्थित रहते हैं? किन्तु वे मेरे प्रभव को नहीं जान सकते।चैतन्य आत्मा हमारे हृदय में द्रष्टा के रूप में स्थित है? इसलिए वह इन्द्रियों का दृश्य विषय? या मन की भावना अथवा बुद्धि के ज्ञान का विषय कदापि नहीं बन सकता।तब क्या यह सत्य है कि सम्पूर्ण जगत् के आदिकारण इस आत्मा का ज्ञान और अनुभव किसी को भी नहीं हो सकता है ऐसी आशंका को दूर करने के लिए भगवान् कहते हैं --
।।10.2।। व्याख्या --न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः--यद्यपि देवताओंके शरीर, बुद्धि, लोक, सामग्री आदि सब दिव्य हैं, तथापि वे मेरे प्रकट होनेको नहीं जानते। तात्पर्य है कि मेरा जो विश्वरूपसे प्रकट होना है, मत्स्य, कच्छप आदि अवताररूपसे प्रकट होना है, सृष्टिमें क्रिया, भाव और विभूतिरूपसे प्रकट होना है, ऐसे मेरे प्रकट होनेके उद्देश्यको, लक्ष्यको, हेतुओंको देवता भी पूरापूरा नहीं जानते। मेरे प्रकट होनेको पूरा-पूरा जानना तो दूर रहा, उनको तो मेरे दर्शन भी बड़ी कठिनतासे होते हैं। इसलिये वे मेरे दर्शनके लिये हरदम लालायित रहते हैं (गीता 11। 52)।ऐसे ही जिन महर्षियोंने अनेक ऋचाओंको, मन्त्रोंको, विद्याओंको, विलक्षणविलक्षण शक्तियोंको प्रकट किया है, जो संसारसे ऊँचे उठे हुए हैं, जो दिव्य अनुभवसे युक्त हैं, जिनके लिये कुछ करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहा है, ऐसे तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महर्षि लोग भी मेरे प्रकट होनेको अर्थात् मेरे अवतारोंको, अनेक प्रकारकी लीलाओंको, मेरे महत्त्वको पूरा-पूरा नहीं जानते।यहाँ भगवान्ने देवता और महर्षि -- इन दोनोंका नाम लिया है। इसमें ऐसा मालूम देता है कि ऊँचे पदकी दृष्टिसे देवताका नाम और ज्ञानकी दृष्टिसे महर्षिका नाम लिया गया है। इन दोनोंका मेरे प्रकट होनेको न जाननेमें कारण यह है कि मैं देवताओँ और महर्षियोंका सब प्रकारसे आदि हूँ-- अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः। उनमें जो कुछ बुद्धि है, शक्ति है, सामर्थ्य है, पद है, प्रभाव है, महत्ता है, वह सब उन्होंने मेरेसे ही प्राप्त की है। अतः मेरेसे प्राप्त किये हुए प्रभाव, शक्ति, सामर्थ्य आदिसे वे मेरेको पूरा कैसे जान सकते हैं? अर्थात् नहीं जान सकते। जैसे बालक जिस माँसे पैदा हुआ है, उस माँके विवाहको और अपने शरीरके पैदा होनेको नहीं जानता? ऐसे ही देवता और महर्षि मेरेसे ही प्रकट हुए हैं अतः वे मेरे प्रकट होनेको और अपने कारणको नहीं जानते। कार्य अपने कारणमें लीन तो हो सकता है, पर उसको जान नहीं सकता। ऐसे ही देवता और महर्षि मेरेसे उत्पन्न होनेसे, मेरा कार्य होनेसे कारणरूप मेरेको नहीं जान सकते, प्रत्युत मेरेमें लीन हो सकते हैं।तात्पर्य यह हुआ कि देवता और महर्षि भगवान्के आदिको, अन्तको और वर्तमानकी इयत्ताको अर्थात् भगवान् ऐसे ही हैं, इतने ही अवतार लेते हैं -- इस माप-तौलको नहीं जान सकते। कारण कि इन देवताओं और महर्षियोंके प्रकट होनेसे पहले भी भगवान् ज्यों-के-त्यों ही थे और उनके लीन होनेपर भी भगवान् ज्यों-के-त्यों ही रहेंगे। अतः जिनके शरीरोंका आदि और अन्त होता रहता है, वे देवता और महर्षि अनादि-अनन्तको अर्थात् असीम परमात्माको अपनी सीमित बुद्धि, योग्यता, सामर्थ्य आदिके द्वारा कैसे जान सकते हैं? असीमको अपनी सीमित बुद्धिके अन्तर्गत कैसे ला सकते हैं? अर्थात् नहीं ला सकते।इसी अध्यायके चौदहवें श्लोकमें अर्जुनने भी भगवान्से कहा है कि आपको देवता और दानव नहीं जानते; क्योंकि देवताओंके पास भोग-सामग्रीकी और दानवोंके पास माया-शक्तिकी अधिकता है। तात्पर्य है कि भोगोंमें लगे रहनेसे देवताओँको (मेरेको जाननेके लिये) समय ही नहीं मिलता और माया-शक्तिसे छल-कपट करनेसे दानव मेरेको जान ही नहीं सकते।  सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें कहा गया कि देवता और महर्षिलोग भी भगवान्के प्रकट होनेको सर्वथा नहीं जान सकते, तो फिर मनुष्य भगवान्को कैसे जानेगा और उसका कल्याण कैसे होगा? इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।
।।10.2।।सुरगणा महर्षयः च अतीन्द्रियार्थदर्शिनः अधिकतरज्ञाना अपि मे प्रभवं प्रभावं न विदुः? मम नामकर्मस्वरूपस्वभावादिकं न जानन्ति। यतः तेषां देवानां महर्षीणां च सर्वशः अहम् आदिः? तेषां स्वरूपस्य ज्ञानशक्त्यादेः च अहम् एव आदिःतेषां देवत्वदेवऋषित्वादिहेतुभूतपुण्यानुगुणं मया दत्तं ज्ञानं परिमितम्? अतः ते परिमितज्ञानाः मत्स्वरूपकादिकं यथावत् न जानन्ति।तद् एतद् देवाद्यचिन्त्यस्वरूपयाथात्म्यविषयज्ञानं भक्त्युत्पत्तिविरोधिपापविमोचनोपायम् आह --
।।10.2।।कश्चिदन्योऽपि परमं वचो मह्यं वक्ष्यति तेन च मम तत्त्वज्ञानं भविष्यत्यतो भगवद्वचनमकिंचित्करमिति शङ्कित्वा परिहरति -- किमर्थमित्यादिना। इन्द्रादयो भृग्वादयश्च भगवत्प्रभावं न विदन्तीत्यत्र प्रश्नपूर्वकं हेतुमाह -- कस्मादिति। निमित्तत्वेनोपादानत्वेन च यतो देवादीनां भगवानेव हेतुरतस्तद्विकारास्ते न तस्य प्रभावं विदुरित्यर्थः।
।।10.2।।उक्तस्यापि पुनः परमतया कथने दुर्विज्ञेयत्वं हेतुमाह -- न मे विदुरिति। प्रभवं योगवैभवं जन्मादिकं वा महर्षयः अतीन्द्रियार्थदर्शिनोऽपि हि यतस्तेषामादिरहं इत्यतो न विदुः अर्वाचीनाः? नहि जन्यो जनकस्यादिं जानाति।
।।10.2।।प्राग्बहुधोक्तमेव किमर्थं पुनर्वक्ष्यसीत्यत आह -- प्रभवं प्रभावं प्रभुशक्त्यतिशयं? प्रभवनमुत्पत्तिमनेकविभूतिभिराविर्भावं वा। सुरगणा इन्द्रादयो महर्षयश्च भृग्वादयः सर्वज्ञा अपि न मे विदुः। तेषां तदज्ञाने हेतुमाह -- अहं हि यस्मात्सर्वेषां देवानां महर्षीणां च सर्वशः सर्वैः प्रकारैरुत्पादकत्वेन बुद्ध्यादिप्रवर्तकत्वेन च निमित्तत्वेनोपादानत्वेन चेति वा कारणम्। अतो मद्विकारास्ते मत्प्रभावं न जानन्तीत्यर्थः।
।।10.2।।उक्तस्यापि पुनर्वचने दुर्ज्ञेयत्वं हेतुमाह -- न म इति। मे मम प्रकृष्टं भवं जन्मरहितस्यापि नानाविभूतिभिराविर्भावं सुरगणा अपि महर्षयो भृग्वादयोऽपि न जानन्ति। तत्र हेतुःअहं हि देवानां महर्षीणां चादिः कारणम्? सर्वशः सर्वप्रकारैरुत्पादकत्वेन बुद्ध्यादिप्रवर्तकत्वेन च। अतो मदनुग्रहं विना मां केऽपि न जानन्तीत्यर्थः।
।।10.2।।वक्ष्यमाणस्य ज्ञानस्यातिदुर्लभत्वमादरणीयतरत्वायोच्यते -- न मे विदुः इति श्लोकेन।सुरगणाःमहर्षयः इत्याभ्यां प्रतिषेधौपयिकप्रतिषेध्यसम्भावनास्थलप्रदर्शनमित्यभिप्रायेणोक्तंअतीन्द्रियार्थदर्शिनोऽधिकतरज्ञाना अपीति। प्रभावगोचरवेदनमत्र निषिध्यते न तु प्रभावः विशिष्टनिषेधे गौरवात्? कर्माधीनोत्पत्तेरभावादेव तद्वेदनस्य निषेद्धुमयुक्तत्वात्? अनन्तरं चयो माम् [10।3] इति प्रभावज्ञानमेवोच्यते? न तु जन्मज्ञानम्?अजम् इत्येव वचनात् अत एवावताररहस्यविषयत्वमपि नात्रान्वितम्? प्रपञ्चितं च तत्प्रागेव इह त्वन्यत्प्रपञ्च्यते ततश्चात्र देवर्षिभिरप्यवेद्यः ईश्वरे विद्यमानश्च प्रभवः -- प्रकर्षेण सत्ता प्रभाव एव भवितुमर्हतीत्यभिप्रायेणप्रभावमित्युक्तम्। प्रभावं विविच्याह -- मम नामेति। जन्मविषयत्वे हेतुरनन्वित इत्यभिप्रायेणयत इत्यनेन हिशब्दस्य हेतुपरता दर्शिता।सर्वशः इति न देवादीनां कात्स्न्र्यमात्रं विवक्षितं? तस्य बहुवचनासङ्कोचादपि सिद्धेः अतस्तदभिप्रेतं व्यञ्जयति -- तेषां स्वरूपस्येत्यादिना। कथमसौ प्रभावापरिज्ञानहेतुरिति शङ्कायामभिप्रेतं हेतुत्वप्रकारं विशदयति -- तेषां देवत्वेति। वैषम्यनैर्घृण्यपरिहाराय परिमितत्वसिद्धये च पुण्यानुगुणत्वकथनम्। को अद्धा वेद क इह प्रवोचत्। कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः। अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनाय। अथा को वेद यत आबभूव इयं विसृष्टिर्यत आबभूव। यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्। सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद [ऋक्सं.8।7।17तै.ब्रा.2।8।9।76] इत्यादिश्रुत्यभिप्रायेणाह -- अत इति।यन्न देवा न मुनयो न चाहं न च शङ्करः। जानन्ति परमेशस्य तद्विष्णोः परमं पदम् [वि.पु.1।9।53] इत्यादिस्मृतिश्च द्रष्टव्या।
।।10.2।।अथ स्वकृपां विना अस्योक्तस्वस्वरूपस्यातिदुर्ज्ञेयत्वेन दुर्लभत्वमाह -- न म इति। मे मम प्रभवं प्रकृष्टं भवं जन्म -- प्रादुर्भावमिति यावत् -- सुरगणा ब्रह्मेन्द्रादयो महर्षयो भृग्वादयो न विदुः न जानन्ति। अहं देवानां ब्रह्मादीनां सर्वशः सर्वप्रकारैः आधिदैविकत्वेन देवत्वेन च आदिर्मूलभूतः। च पुनस्तथैव महर्षीणाम्। हीति निश्चयेन सन्देहाभावार्थं देवत्वात् ऋषित्वात् स्वमूलभूतत्वेन ज्ञानमावश्यकं? तथापि भूभारहरणार्थं स्वरक्षार्थं धर्मरक्षार्थं प्रादुर्भावं जानन्ति परं यदर्थं यद्रूपश्च प्रादुर्भावस्तं मत्कृपां विना न जानन्तीति भावः।
।।10.2।।दुर्ज्ञेयत्वाच्च मत्स्वरूपस्याहं त्वां ब्रवीमीत्याह -- न मे इति। प्रभवं प्रकृष्टं भवमैश्वर्यं वियदादिसृष्टिसामर्थ्यं न विदुः। तत्र हेतुराह अहमिति। अयं भावः -- देहोत्पत्त्यनन्तरं हि देवादीनां बुद्ध्यादिलाभो न चार्वाचीनैर्बुद्ध्यादिभिः स्वोत्पत्तिप्राक्कालीनोऽर्थः परिच्छेत्तुं शक्यत इति। पदार्थः स्पष्टः।
।।10.2।।ननु किमर्थं वक्ष्यसि त्वया वक्ष्यमाणस्य सुरादिभिर्ज्ञातत्वात्ततएव ममापि ज्ञानसंभवादितिचेत्तत्राह -- नेति। मे मम प्रभवं पभूत्वातिशयं उत्पत्तिं वा सुरराणा इन्द्रादयो न विदुः न जानन्ति। नापि भृग्वादयो महर्षयः। कुत इत्याह। हि यस्मातहं देवानां महर्षीणां च सर्वशः सर्वप्रकारैरुपादानत्वादिभिरादिः कारणं तत्मादित्यर्थः।
10.2 Commentary Prabhavam Origin. It may also mean great lordly power.Maharshis great sages like Bhrigu.As I am the source of all these gods? sages and living beings? it is very difficult for them to know Me.Sarvasah In every way -- not only am I the source of all the gods and the sages but also their efficient cause? their inner ruler and the dispenser or ordainer and the guide of their intellect? etc.
10.2 Neither the hosts of the gods nor the great sages know My origin; for in every way I am the source of all the gods and the great sages.
10.2 Neither the professors of divinity nor the great ascetics know My origin, for I am the source of them all.
10.2 Neither the gods nor the great sages know My majesty. For, in all respects, I am the source of the gods and the great sages.
10.2 Na sura-sanah, neither the gods-Brahma and others; viduh, know;-what do they not know?-me, My; prabhavam (prabhavam), majesty, abundance of lordly power-or, derived in the sense of 'coming into being', it means origin. Nor even the maharsayah, great sages, Bhrgu and others [Bhrgu, Marici, Atri, Pulastya, Pulaha, Kratu and Vasistha.-Tr.] devanam, of the gods; ca, and; maharsinam, of the great sages. Besides,
10.2. Neither the hosts of gods, nor the great seers know My origin. For, I am the first, in every respect, among the gods and great seers.
10.2 See Comment under 10.5
10.2 However supernatural the vision and however great the knowledge of the host of the gods and the wise seers may be, they cannot comprehend My powers. They do not know My name, actions, essence, attributes etc., for the reason that I am the source in every way of these gods and great seers. I am the source of their nature and knowledge, power etc. The knowledge given to them by Me according to their meritorious deeds constitutes the cause of their being gods, the great seers etc. That knowledge is limited. Thus, they have limited knowledge and do not know the real nature of My essence. Sri Krsna proceeds to explain that knowledge about His real nature, which is beyond the grasp of gods etc., and which is the means for release from the evil that stands in the way of the rise of devotion.
10.2 Neither the host of the gods nor the great seers know My power. Indeed, I am the only source of the gods and of the great seers.
।।10.2।।मैं ( ऐसा ) किसलिये कहता हूँ सो बतलाते हैं --, ब्रह्मादि देवता मेरे प्रभवको यानी अतिशय प्रभुत्वशक्तिको अथवा प्रभव यानी मेरी उत्पत्तिको नहीं जानते और भृगु आदि महर्षि भी ( मेरे प्रभवको ) नहीं जानते। वे किस कारणसे नहीं जानते सो कहते हैं --,, क्योंकि देवोंका और महर्षियोंका सब प्रकारसे मैं ही आदि -- मूल कारण हूँ।,
।।10.2।। --,न मे विदुः न जानन्ति सुरगणाः ब्रह्मादयः। किं ते न विदुः मम प्रभवं प्रभावं प्रभुशक्त्यतिशयम्? अथवा प्रभवं प्रभवनम् उत्पत्तिम्। नापि महर्षयः भृग्वादयः विदुः। कस्मात् ते न विदुरित्युच्यते -- अहम् आदिः कारणं हि यस्मात् देवानां महर्षीणां च सर्वशः सर्वप्रकारैः।।किञ्च --,
।।10.2।।प्रभवशब्दः केनचित्सामर्थ्यमात्रवाचित्वेन व्याख्यातः? अन्येन तु भगवदुत्पत्तिवाचित्वेन? तदुभयमङ्गीकुर्वन्नधिकमपि विवक्षुराह -- प्रभवमिति। मदीयामुत्पत्तिमिति सम्बन्धः। जगदुत्पत्तिर्म इति कथं विशेष्यते इत्यत आह -- तदिति। जगदुत्पत्तिरिति वर्तते। एवं तर्हि भगवत्प्रभाववज्जगदुपत्तिवच्च भगवदुत्पत्तिरस्त्येव? किन्तु दुर्ज्ञानैवेत्यापन्नमित्यत आह -- यदीति। भगवदुत्पत्तिरिति शेषः। सर्वज्ञत्वात् सामान्यत इति शेषः। ततः परं न च सामान्यतोऽपि जानन्तीत्यध्याहारः। अतः सर्वथाऽनुपलम्भात्। प्रभावादिकं तु विशेषत एव न जानन्ति? न तु सामान्यतोऽपीति भावः। ननु भगवदुत्पत्तेरभावश्चेदत्राभिप्रेतस्तदाअहमादिर्हि इति हेतुवचनं न सङ्गच्छते। अत्र हि देवादयोऽर्वाक्तना मया सृष्टाः कथं पूर्वतनीमुत्पत्तिं जानीयुः इति प्रतीयत इत्यत आह -- अहमिति। अपिशब्दोऽध्याहृतेन सर्वस्येत्यनेन सम्बध्यते। कुतः जनकात्। नन्वत्र सर्वस्याप्युत्पत्तिर्भगवदधीनेति नोच्यते किन्तु देवादीनामेव? तत्कथमनेन कारणाभावः सिध्यति इति चेत्? न देवादिशब्दस्योपलक्षणार्थत्वात्। तत्कुत इत्यत आह -- अहमिति। उक्तमर्थत्रयमुपपादयति -- उक्तं चेतिं। इयं विसृष्टिर्विविधा जगत्सृष्टिः कुतः कारणादाजातेति कः पुरुषः कुतः प्रमाणादद्धा वेद कश्चेह लोके प्रावोचत् न कोऽपि कुतश्चित्। यतो देवा अस्येश्वरस्य विसर्जनेन निष्प्रभा अर्वाचीनाः। सर्वथाऽप्यज्ञाने तदभावः स्यादित्यत उक्तं? अथान्यत् यतो यस्मात् इयमा बभूव स कः प्रजापतिर्भगवानद्धा वेदेत्यर्थः। न तत्प्रभावमित्यत्राद्धेति द्रष्टव्यम्। अत एव व्युत्क्रमः। प्रमाणं प्रमा। अन्यस्त्वर्थो भगवतो जन्माभावः।
।।10.2।।प्रभवं प्रभावं? मदीयां जगदुत्पत्तिं वा। तद्वशत्वात्तस्येत्युच्यते। यद्यस्ति तर्हि देवादधोऽपि जानन्ति? सर्वज्ञत्वात् अतो नास्तीति भावः।अहमादिर्हि इति तूत्पत्तिरपि यस्य वशा? कुतस्तस्य जनिरिति ज्ञापनार्थम्।अहं सर्वस्य जगतः प्रभवः प्रलयः [7।6] इति चोक्तम्। उक्तं चैतत्सर्वमन्यत्रापि। को अद्धा वेद क इह प्रवोचत्कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः। अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव [ऋक्सं.8।7।17।6तै.ब्रा.2।89] इति न तत्प्रभावमृषयश्च देवा विदुः कुतोऽन्येऽल्पधृतिप्रमाणाः इति ऋग्वेदखिलेषु। अन्यस्त्वर्थोयो मामजं [10।3] इति वाक्यादेव ज्ञायते।
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः। अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।10.2।।
ন মে বিদুঃ সুরগণাঃ প্রভবং ন মহর্ষযঃ৷ অহমাদির্হি দেবানাং মহর্ষীণাং চ সর্বশঃ৷৷10.2৷৷
ন মে বিদুঃ সুরগণাঃ প্রভবং ন মহর্ষযঃ৷ অহমাদির্হি দেবানাং মহর্ষীণাং চ সর্বশঃ৷৷10.2৷৷
ન મે વિદુઃ સુરગણાઃ પ્રભવં ન મહર્ષયઃ। અહમાદિર્હિ દેવાનાં મહર્ષીણાં ચ સર્વશઃ।।10.2।।
ਨ ਮੇ ਵਿਦੁ ਸੁਰਗਣਾ ਪ੍ਰਭਵਂ ਨ ਮਹਰ੍ਸ਼ਯ। ਅਹਮਾਦਿਰ੍ਹਿ ਦੇਵਾਨਾਂ ਮਹਰ੍ਸ਼ੀਣਾਂ ਚ ਸਰ੍ਵਸ਼।।10.2।।
ನ ಮೇ ವಿದುಃ ಸುರಗಣಾಃ ಪ್ರಭವಂ ನ ಮಹರ್ಷಯಃ. ಅಹಮಾದಿರ್ಹಿ ದೇವಾನಾಂ ಮಹರ್ಷೀಣಾಂ ಚ ಸರ್ವಶಃ৷৷10.2৷৷
ന മേ വിദുഃ സുരഗണാഃ പ്രഭവം ന മഹര്ഷയഃ. അഹമാദിര്ഹി ദേവാനാം മഹര്ഷീണാം ച സര്വശഃ৷৷10.2৷৷
ନ ମେ ବିଦୁଃ ସୁରଗଣାଃ ପ୍ରଭବଂ ନ ମହର୍ଷଯଃ| ଅହମାଦିର୍ହି ଦେବାନାଂ ମହର୍ଷୀଣାଂ ଚ ସର୍ବଶଃ||10.2||
na mē viduḥ suragaṇāḥ prabhavaṅ na maharṣayaḥ. ahamādirhi dēvānāṅ maharṣīṇāṅ ca sarvaśaḥ৷৷10.2৷৷
ந மே விதுஃ ஸுரகணாஃ ப்ரபவஂ ந மஹர்ஷயஃ. அஹமாதிர்ஹி தேவாநாஂ மஹர்ஷீணாஂ ச ஸர்வஷஃ৷৷10.2৷৷
న మే విదుః సురగణాః ప్రభవం న మహర్షయః. అహమాదిర్హి దేవానాం మహర్షీణాం చ సర్వశః৷৷10.2৷৷
10.3
10
3
।।10.3।। जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर जानता है अर्थात् दृढ़तासे मानता है, वह मनुष्योंमें असम्मूढ़ (जानकार) है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।
।।10.3।। जो मुझे अजन्मा, अनादि और लोकों के महान् ईश्वर के रूप में जानता है, र्मत्य मनुष्यों में ऐसा संमोहरहित (ज्ञानी) पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है।।
।।10.3।। जो मुझे जानता है यह जानना केवल भावना के प्रवाह में अथवा बुद्धि के विचारों से जानना नहीं है? वरन् यह पूर्ण और वास्तविक आत्मानुभूति है? जो आत्मा के साथ घनिष्ठ तादात्म्य के क्षणों में होती है। आत्मा को किसी दृश्य के समान नहीं किन्तु स्वस्वरूप से इस प्रकार जानना है कि वह अजन्मा? अनादि और सर्वलोकमहेश्वर है। जो लोग वेदान्त दर्शन की प्राचीन परम्परा से कुछ परिचित हैं? उनके लिए उपर्युक्त ये तीन विशेषण अत्यन्त सारगर्भित हैं? जबकि उससे अनभिज्ञ लोगों को ये विशेषण निरर्थक ही प्रतीत होंगे। अनात्म जड़ जगत् परिच्छिन्न है? जहाँ कि प्रत्येक वस्तु? प्राणी या अनुभव अनित्य हैं? अर्थात् समस्त वस्तुएं आदि (जन्म) और अन्त (मत्यु) से युक्त हैं।असीम अनन्त परमात्मा का कभी जन्म नहीं हो सकता? क्योंकि जो उत्पन्न हुआ है? वह परिच्छिन्न है और किसी भी परिच्छिन्न वस्तु में अनन्त तत्त्व कभी अपने अनन्त स्वरूप में व्यक्त नहीं हो सकता। स्थाणु (स्तम्भ) में जब भ्रान्ति से पुरुष (या प्रेत) की प्रतीति होती है? तब पुरुष का नाश (अप्रतीति) हो सकता है? क्योंकि वह उत्पन्न हुआ था। परन्तु? वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि स्थाणु ने प्रेत को जन्म दिया? अथवा स्तम्भ से प्रेत की उत्पत्ति हुई। स्थाणु तो वहाँ पहले भी था? है और रहेगा। आत्मा नित्य सनातन है? इसलिए वह जन्मरहित है। अन्य वस्तुओं का जन्म? स्थिति और नाश इस आत्मा में ही होता है। तरंगे समुद्र से उत्पन्न होती हैं? परन्तु समुद्र स्वयं अजन्मा है। प्रत्येक तरंग का आदि है? मध्य है और अन्त भी। किन्तु उन सबका सारतत्त्व इन समस्त विकारों से सर्वथा मुक्त है और इसलिए? इस श्लोक में आत्मा को अनादि विशेषण दिया गया है।लोकमहेश्वर लोक शब्द का अर्थ जगत् करने से इस संस्कृत शब्द के व्यापक आशय की उपेक्षा हो जाती है। लोक शब्द जिस धातु से बनता है उसका अर्थ है देखना? अनुभव करना। अत इसका सम्पूर्ण अर्थ होगा अनुभव का क्षेत्र। हमारे दैनिक जीवन में भी इसी अर्थ में लोक शब्द का प्रयोग किया जाता है? जैसे धनवानों का लोक? अपराधियों का लोक? विद्यार्थी लोक? कवियों का लोक आदि। इसलिए? उसके व्यापक अर्थ में लोक शब्द से मात्र भौतिक जगत् ही नहीं? बल्कि भावनाओं एवं विचारों के जगत् का भी बोध होता है।इस प्रकार? मेरा लोक वह है? जो मैं अपने शरीर? मन और बुद्धि के द्वारा अनुभव करता हूँ। यह तो स्पष्ट है कि जब तक मुझे इनका निरन्तर भान नहीं होता तब तक ये अनुभव मेरे नहीं हो सकते। यह चैतन्य तत्त्व? जिसके कारण ही मैं जीता हूँ और जगत् का अनुभव करता हूँ? वास्तव में मेरे लोक का ईश्वर होना ही चाहिए।जो मेरे व्यष्टि के विषय में सत्य है? वही जगत् के समस्त प्राणियों के विषय में भी सत्य है? क्योंकि आत्मा सर्वत्र एक ही है। इस समष्टि लोक का शासक? महान् ईश्वर स्वयं परमात्मा ही हो सकता है। यह लोक महेश्वर शब्द का वास्तविक अर्थ है। ईश्वर कोई निरंकुश एवं क्रूर शासक अथवा आकाश में बैठा कोई सुल्तान नहीं। आत्मा हमारे लोक का ईश्वर ऐसे ही है? जैसे? दिन के समय सूर्य इस बाह्य जगत् का स्वामी है? क्योंकि वही जगत् को प्रकाशित करता है।जो मुझे अजन्मा? अनादि और लोक महेश्वर के रूप में जानता है? वह संमोहरहित हो जाता है। स्थाणु में प्रेत देखकर भयभीत व्यक्ति जैसे ही उस स्थाणु को पहचानता है? वैसे ही वह मोह और भ्रान्ति से मुक्त हो जाता है। हिन्दू धर्म में पाप की कल्पना किसी विकराल अवश्यंभाविता का भयंकर चित्र नहीं है। मनुष्य अपने पापों के लिए दण्डित नहीं? वरन् अपने पापों के द्वारा ही दण्डित होता है। पाप वह स्वअपमानजनक कर्म है? जिसका कारण है मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का अज्ञान।जब कोई व्यक्ति अपने शुद्ध आत्मस्वरूप से भटक कर दूर चला जाता है? तब वह जगत् की घटनाओं के साथ तादात्म्य कर सुखदुख का अनुभव करता है। वह जगत् में इस प्रकार व्यवहार करता है? मानो वह एक घृणित मांसपिण्ड ही है? अथवा स्पन्दनशील भावनाओं की गठरी अथवा विचारों का समूह मात्र है। उसका यह व्यवहार अपनी एकमेव अद्वितीय ईश्वरीय? दिव्य प्रतिष्ठा का अपमान ही है। ऐसे कर्म और विचार मनुष्य को निम्न स्तर के भोगों में आसक्त कर बाँध देते हैं? जिसके कारण वह उनसे ऊपर उठकर वास्तविक पूर्णत्व के शिखर तक कभी नहीं पहुँच पाता।आत्मस्वरूप को पहचान कर उसमें दृढ़ निष्ठा प्राप्त कर लेने पर वह व्यक्ति पुन कभी पापकर्म में प्रवृत्त नहीं होता। पापवृत्तियाँ वे विषैले फोड़े हैं? जिनके कारण हम अपनी परिच्छिन्नताओं की पीड़ा और बंधनों के दुख सहते रहते हैं। जिस क्षण हम अपने आत्मस्वरूप को पहचानते हैं कि वह अजन्मा और अनादि है तथा उसका विकारी और विनाशी उपाधियों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है? उस समय हम वह सब कुछ प्राप्त कर लेते हैं जो जीवन में प्राप्तव्य है? और वह सब कुछ जान लेते हैं जो ज्ञातव्य है। ऐसा सम्यक् तत्त्वदर्शी पुरुष स्वयं ही लोकमहेश्वर बन जाता है।निम्न कारण से भी आत्मा लोकमहेश्वर है --
।।10.3।। व्याख्या --'यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्'-- पीछेके श्लोकमें भगवान्के प्रकट होनेको जाननेका विषय नहीं बताया है। इस विषयको तो मनुष्य भी नहीं जानता, पर जितना जाननेसे मनुष्य अपना कल्याण कर ले, उतना तो वह जान ही सकता है। वह जानना अर्थात् मानना यह है कि भगवान् अज अर्थात् जन्मरहित हैं। वे अनादि हैं अर्थात् यह जो काल कहा जाता है, जिसमें आदि-अनादि शब्दोंका प्रयोग होता है, भगवान् उस कालके भी काल हैं। उन कालातीत भगवान्में कालका भी आदि और अन्त हो जाता है। भगवान् सम्पूर्ण लोकोंके महान् ईश्वर हैं अर्थात् स्वर्ग, पृथ्वी और पातालरूप जो त्रिलोकी है तथा उस त्रिलोकीमें जितने प्राणी हैं और उन प्राणियोंपर शासन करनेवाले (अलग-अलग अधिकार-प्राप्त) जितने ईश्वर (मालिक) हैं, उन सब ईश्वरोंके भी महान् ईश्वर भगवान् हैं। इस प्रकार जाननेसे अर्थात् श्रद्धा-विश्वासपूर्वक दृढ़तासे माननेसे मनुष्यको भगवान्के अज, अविनाशी और लोकमहेश्वर होनेमें कभी किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं होता।
।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।
।।10.3।।न जायते इति अजः? अनेन विकारिद्रव्याद् अचेतनात् तत्संसृष्टात् संसारिचेतनात् च विसजातीयत्वम् उक्तम् संसारिचेतनस्य हि कर्मकृताचित्संसर्गो जन्म।अनादिम् इति अनेन पदेन आदिमतः अजात् मुक्तात्मनः विसजातीयत्वम् उक्तम्। मुक्तात्मनो हि अजत्वम् आदिमत्? तस्य हेयसम्बन्धस्य पूर्ववृत्तत्वात् तदर्हता अस्ति? अतः अनादिम् इति अनेन तदनर्हतया तत्प्रत्यनीकता उच्यतेनिरवद्यम् (श्वे0 उ0 6।19) इत्यादिश्रुत्या च।एवं हेयसम्बन्धप्रत्यनीकस्वरूपतया तदनर्हं मां लोकमहेश्वरं लोकेश्वराणाम् अपि ईश्वरं मर्त्येषु असंमूढो यो वेत्ति इतरसजातीयतया एकीकृत्य मोहः संमोहः तद्रहितोऽसंमूढः स मद्भक्त्युत्पत्तिविरोधिभिः सर्वैः पापैः प्रमुच्यते।एतद् उक्तं भवति -- लोके मनुष्याणां राजा इतरमनुष्यसाजीतयः? केनचित् कर्मणा तदाधिपत्यं प्राप्तः? तथा देवानाम् अधिपतिः अपि? तथा ब्रह्माण्डाधिपतिः अपि इतरसंसारिसजातीयः तस्यापि भावनात्रयान्तर्गतत्वात्यो ब्रह्माणं विदधाति (श्वे0 उ0 6।18) इति श्रुतेः च। तथा अन्ये अपि ये केचन अणिमाद्यैश्वर्यं प्राप्ताः।अयं तु लोकमहेश्वरः -- कार्यकारणावस्थाद् अचेतनाद् बद्धात् मुक्तात् च चेतनाद् ईशितव्यात् सर्वस्मात् निखिलहेयप्रत्यनीकानवधिकातिशयासंख्येयकल्याणैकतानतया नियमनैकस्वस्वभावतया च विसजातीय इति? इतरसजातीयतामोहरहितो यो मां वेत्ति स सर्वैः पापैः प्रमुच्यते इति।एवं स्वस्वभावानुसंधानेन भक्त्युत्पत्तिविरोधिपापनिरसनं विरोधिनिरसनाद् एव अर्थतो भक्त्युत्पत्तिं च प्रतिपाद्य स्वैश्वर्यस्वकल्याणगुणगणप्रपञ्चानुसंधानेन भक्तिवृद्धिप्रकारम् आह --
।।10.3।।इतश्च कश्चिदेव भगवत्प्रभावं वेत्तीत्याह -- किञ्चेति। कोऽसौ प्रभावो भगवतो यं बहवो न विदुरित्यपेक्षायां पारमार्थिकं प्रभावं तद्धीफलं च कथयति -- यो मामिति। पदद्वयापौनरुक्त्यमाह -- अनादित्वमिति।
।।10.3।।अत एव मन्त्रद्रष्टृभिरप्यनुलभ्यमानप्रभवत्वादहमज एव श्रौतानुभवगम्यः? अन्यत्तु गुणप्रकृतिवियदादि जायते एवमतः तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः [तै.उ.2।1] इत्यादिश्रुतेः। तत्संसृष्टा जीवाश्च हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् [ऋक्सं.8।7।3।1यजुस्सं.23।1] इत्यादिश्रुतेः। अनादिरप्यहमेव मुक्तात्मा अजो भवामि। यद्यपि नचाऽनादिरित्येतदर्थमुक्तमनादिरिति अन्यथा एकार्थवाचकत्वे पृथङ्निरूपणं न कृतं स्यात्। अतएवाधस्ताज्जाता गुणसंसृष्टाः सर्वे ये लोकास्तेषां 2महाश्वरोनियन्ताऽहं इत्येवम्भूतं मां मर्त्येष्वसम्मूढा यो वेत्ति मर्त्येषु स्वेच्छया 2सर्वे रर्थे2 विजातीयविलक्षणं वेत्ति स सर्वपापैः संसारहेतुभूतैः भक्त्युत्पात्ताविरोधिभिः प्रमुच्यत इति तथा ज्ञान तवास्तु इति भावः।
।।10.3।।महाफलत्वाच्च कश्चिदेव भगवतः प्रभावं वेत्तीत्याह -- सर्वकारणत्वान्न विद्यते आदिः कारणं यस्य तमनादिं अनादित्वादजं जन्मशून्यं लोकानां महान्तमीश्वरं च मां यो वेत्ति स मर्त्येषु मनुष्येषु मध्ये असंमूढः सन्मोहवर्जितः सर्वैः पापैर्मतिपूर्वकृतैरपि प्रमुच्यते प्रकर्षेण कारणोच्छेदात्तत्संस्काराभावरूपेण मुच्यते मुक्तो भवति।
।।10.3।। एवंभूतात्मज्ञाने फलमाह -- यो मामिति। सर्वकारणत्वादेव न विद्यते आदिः कारणं यस्य तमनादिम्। अतएवाजं जन्मशून्यं लोकानां महेश्वरं च मां यो वेत्ति स मनुष्येष्वसंमूढः संमोहरहतिः सन्सर्वपापैः प्रमुच्यते।
।।10.3।।देवादिभिरप्यवेदनीयत्वकथनस्य वक्ष्यमाणोपयोगं व्यञ्जयन्यो माम् इतिश्लोकाभिप्रेतमाह -- तदेतदिति।यो वेत्ति इत्यनुवादरूपत्वप्रतीतावप्यर्थतः फलानुवादेनोपायविधाने तात्पर्यमित्यभिप्रायेणउपायमाहेत्युक्तम्। अजशब्दस्य व्यवच्छेद्यप्रदर्शनाय व्युत्पत्तिं तावदाहन जायत इत्यज इति। विशेषणसामर्थ्यफलितां तदुचिताद्व्यवच्छेद्याद्व्यावृत्तिमाहअनेनेति।विकारिद्रव्यात्तत्संसृष्टादित्युभाभ्यां व्यवच्छेदयोग्यत्वं दर्शितम्। अजो नित्यः शाश्वतः [कठो.1।2।18] इत्यादिभिर्नित्यस्य जीवस्य कथमचित्संसर्गमात्रेणाजशब्दव्यवच्छेद्यत्वमित्यत्राहसंसारिचेतनस्येति। ईश्वरस्यापि सर्वशरीरतया,तत्तदचित्संसर्गस्य विद्यमानत्वात्तद्व्युदासायकर्मकृतेत्युक्तम्। मुक्तस्यापि स्वरूपानादित्वमस्ति ततः कथं व्यवच्छेद्यत्वमित्यत्राहमुक्तात्मनो ह्यजत्वमादिमदिति। अजत्ववेषेणानादित्वमिह विवक्षितम्। स्वरूपानाद्गित्वविवक्षायां तु पौनरुक्त्यमिति भावः। मुक्तदशायामचित्संसर्गो नास्ति? प्राचीनसंसर्गविवक्षायां बद्धादेर्व्यवच्छेदः स्यात् अतस्तदानीन्तनस्वरूपाद्व्यावृत्तिः कथमुक्ता स्यादित्यत्राह -- तस्येति। सहकारिसन्निधौ कुर्वत्स्वभावत्वं सहकार्यभावप्रयुक्तकार्याभाववत्त्वमपि हि योग्यतेत्यभिप्रायः। कालविशेषावच्छेदरहितनिरवद्यत्वविधायकश्रुत्या च अयमर्थसिद्ध इत्याह -- निरवद्यमिति। अन्वयार्थमाह -- एवमिति। देवैर्महर्षिभिश्च दुर्लभं ज्ञानं मन्दप्रज्ञेषु मर्त्येषु भाग्यवशात्कस्यचिज्जायत इति निर्धारणार्थत्वमुचितम्। उत्तरार्धे च फलनिर्देशेनासम्मूढमर्त्यशब्दयोः समुचितान्वयो नास्ति?यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् [15।19] इति च वक्ष्यमाणच्छायाऽत्र युक्तेत्यभिप्रायेणमर्त्येष्वसम्मूढो यो वेत्तीत्युक्तम्। असम्मूढशब्दार्थं वक्तुमुपसर्गाभिप्रेतमर्थं व्यञ्जयति -- इतरेति।एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। सोऽविकम्प्येन योगेन युज्यते नात्र संशयः [10।7] इत्यनन्तरमेव वक्ष्यमाणत्वादत्रापि तदुपयुक्तपापविमोक्ष एवाभिप्रेत इत्यभिप्रायेणमद्भक्त्युत्पत्तिविरोधिभिरित्युक्तम्।लोकमहेश्वरे परस्मिन् प्रतिपन्ने चाप्रतिपन्ने च न सम्मोहप्रसङ्गः येन तन्निषेधः स्यात्? कथं च ब्रह्मरुद्रसनकादिषु जीवत्सु परमपुरुषस्यैव लोकमहेश्वरत्वम् कथं वा बद्धमुक्तविलक्षणत्वेऽपि नित्यसूरिवर्गाद्व्यवच्छेदः इत्यादिशङ्कायां सम्मोहोदयतदभावप्रकारौ विवृणोति -- एतदुक्तमिति। तत्तदधिपतीनामपि लोके तत्तत्सजातीयत्वदर्शनादत्रापि सामान्यतोऽवगते शङ्कावकाशः। मनुष्यदेवाधिपतिप्रभृतिवदण्डाधिपतिप्रभृतेरपि कर्मविशेषमूलपरिमितदेशकालविषयभगवत्सङ्कल्पाधीनैश्वर्ययोगितया भगवत एवोत्तरावधिरहितमैश्वर्यम्। लोकमहेश्वरशब्देन सर्वगोचरैश्वर्यस्य विवक्षितत्वादेव नित्यानामपि व्यवच्छदसिद्धिरिति भावः। सजातीयस्य कथमधिकत्वसिद्धिरित्यत्रोक्तंकेनचित्कर्मणेति। कथं ब्रह्माण्डाधिपतेस्तदधीनस्वरूपस्थितिप्रवृत्तिभिरितरसंसारिभिः साजात्यमित्यत्राहतस्यापीति। कर्मभावनाब्रह्मभावनोभयभावनेति भावनात्रयम्। तेषामपि भावनात्रययोगादिकं भगवत्पराशरशौनकादिभिः प्रपञ्चितम् यथा हिरण्यगर्भादीनुपक्रम्यअशुद्धास्ते समस्तास्तु देवाद्याः कर्मयोनयः [वि.पु.6।7।7] इतिआब्रह्मस्तम्बपर्यन्ता जगदन्तर्व्यवस्थिताः। प्राणिनः कर्मजनितसंसारवशवर्तिनः। यतस्ततो न ते ध्याने ध्यानिनामुपकारकाः इति। प्रतिबुद्धैरनुपास्यत्वं भगवदधीनत्वं च पञ्चम एव वेदे सुव्यक्तंब्रह्माणं शितिकण्ठं च याश्चान्या देवताः स्मृताः। प्रतिबुद्धा न सेवन्ते यस्मात्परिमितं फलम् [म.भा.12।341।36]एतौ द्वौ विबुधश्रेष्ठौ प्रसादक्रोधजौ स्मृतौ। तदादर्शितपन्थानौ सृष्टिसंहारकारकौ [म.भा.12।341।19] इत्यादिभिः। भावनात्रयान्वयेन सह हिरण्यगर्भस्य कार्यत्वादिसमुच्चयार्थः चशब्दः। सनकसनत्कुमाररुद्रादिब्रह्मकुमारवर्गमभिप्रेत्याहतथान्येऽपीति।अणिमादीति अणिमा महिमा च तथा लघिमा गरिमा वशित्वमैश्वर्यम्। प्राप्तिः प्राकाम्यं चेत्यष्टैश्वर्याणि योगयुक्तस्य [ ] तानि च कर्माधीनभगवत्सङ्कल्पाधीनान्येव। रौद्रस्याणिमाद्यैश्वर्यस्य क्वचिदकृत्रिमत्वोक्तिरपि जन्मप्रभृतिसिद्धतामाह अन्यथामहादेवः सर्व(यज्ञे)मेधे महात्मा हुत्वाऽऽत्मानं देवदेवो बभूव [म.भा.12।20।12] इत्यादिभिर्विरोधात्। लोकशब्दो लोक्यत इति व्युत्त्पत्त्या सर्वसङ्ग्राहक इत्यभिप्रायेणाहकार्येति।निखिलेत्यादिकं महच्छब्दस्याभिप्रेतविवरणम्नियमनैकस्वभावतयेति ईश्वरशब्दस्य।
।।10.3।।एवं स्वकृपां विना स्वाज्ञानात् देवानां देवत्वमपि जातं व्यर्थमेवेत्युक्त्वा स्वकृपया ज्ञानेन मनुष्याणामप्युत्तमत्वं भवतीत्याह -- यो मामजमिति। यो मां मनुष्येषु च अजं जन्मादिदोषरहितम्? अनादिं लीलादिभिर्नित्यमेवम्भूतमेव लोकमहेश्वरं लोकानां परमेश्वरं कर्तुमन्यथाकर्तुं समर्थम्? असम्मूढः प्रमादरहितः सन् जानाति स सर्वपापैः मद्भक्तिप्रतिबन्धरूपैः प्रमुच्यते प्रकर्षेण मुच्यतेः मनुष्यभावरहितो देवरूपो भवतीत्यर्थः।
।।10.3।।कस्तर्हि त्वां वेत्तीत्यत आह -- य इति। योऽसंमूढः स मां वेत्ति। स एव सर्वपापैः प्रमुच्यत इति संबन्धः। जडाजडयोर्बुद्ध्यात्मनोरेकीभावेनान्योन्याध्यासलक्षणेन मूढः संमूढस्तद्विपरीतोऽसंमूढस्तत्त्वज्ञानेन बाधिताध्यासः स एवात्मवित्त्वादितरस्य जनिमनुभवन् मां प्रत्यगात्मानं लोकमहेश्वरमनादिं आदिः कारणं तच्छून्यमतएवाजमजातं वेत्ति स सर्वैः कृतैः क्रियमाणैर्वा पापैः प्रमुच्यते मर्त्येषु मध्ये।
।।10.3।।अजत्वेन सर्वभूतमहेश्वरत्वेन च मज्ज्ञानं केषांचिदसंमूढानां सुरादीनां भवति तु एतावानीश्वर प्रभावः इदं परमेश्वरस्य जन्मेत्यतस्तावज्ज्ञानेन केवलं सर्वपापैः प्रमुच्यन्ते नतु प्रभववर्णने शक्ता भवन्तीत्यतः स्वप्रभवमहमेव वक्ष्यामीत्यभिप्रायेणाह -- य इति। यो मानीश्वरं सर्वकारणं कारणवर्जितमतएवाजमुत्पत्तिरहितं लोकानां महान्तमीश्वरं निरति शयैस्वर्यवन्तं वेत्ति परमात्मानादित्वेनाजः सर्वलोकमहेश्वर इति यो जानाति स मर्त्येषु असंमूढः। संमोहो नाम देहेन्द्रियादिविलक्षण ईश्वरादिभिन्नोऽकर्ताऽभोक्ता चाहमिति स्वस्वरुपास्फुरणं तेन मत्कृपया रहितः सर्वैः ज्ञाताज्ञातै संचितक्रियमाणैः प्रकर्षेणाविद्यानिवृत्तिपूर्वकमुच्यते।
10.3 यः who? माम् Me? अजम् unborn? अनादिम् beginningless? च and? वेत्ति knows? लोकमहेश्वरम् the great Lord of the worlds? असम्मूढः undeluded? सः he? मर्त्येषु amongst mortals? सर्वपापैः from all sins? प्रमुच्यते is liberated. Commentary As the Supreme Being is the cause of all the worlds? He is beginningless. As He is the source of the gods and the great sages? there is no source for His existence. As He is beginningless He is unborn. He is the great Lord of all the worlds.Asammudhah Undeluded. He who has realised that his own innermost Self is not different from the Supreme Self is an undeluded person. Through the removal of ignorance the delusion which is of the form of mutual superimposition between the Self and the notSelf is also removed. He is freed from all sins done consciously or unconsciously in the three periods of time.The ignorant man removes his sins through the performance of expiatory acts (Prayaschitta) and enjoyment of the results. But he is not completely freed from all sins because he continues to do sinful actions through the force of evil Samskaras or impressions because he has not eradicated ignorance? the root cause of all sins? and its effect? egoism and superimposition or the feeling of I in the physical body. As he dies? swayed by the forces of evil Samskaras? he engages himself in doing sinful actions in the next birth. But the sage of Selfrealisation is completely liberated from,all sins because ignorance? the root cause of all sins? and its effect? viz.? the mistaken notion that the body is the Self on account of mutual superimposition between the Self and the notSelf? is eradicated in toto along with the Samskaras and all the sins. The Samskaras are burnt completely like roasted seeds. Just as burnt seeds cannot germinate? so also the burnt Samskaras cannot generate further actions or future births.For the following reason also? I am the great Lord of the worlds.
10.3 He who knows Me as unborn and beginningless, as the great Lord of the worlds, he, among mortals, is undeluded and he is liberated from all sins.
10.3 He who knows Me as the unborn, without beginning, the Lord of the universe, he, stripped of his delusion, becomes free from all conceivable sin.
10.3 He who knows Me-the birthless, the beginningless, and the great Lord of the worlds, he, the undeluded one among mortals, becomes freed from all sins.
10.3 Yah, he who; vetti, knows; mam, Me; ajam, the birthless; and anadim, the beginningless: Since I am the source of the gods and the great sages, and nothing else exists as My origin, therefore I am birthless and beginningless. Being without an origin is the cause of being birthless. He who knows Me who am thus birthless and beginningless, and loka-maheswaram, the great Lord of the worlds, the transcendental One devoid of ignorance and its effects; sah, he; the asammudhah, undeluded one; martyesu, among mortals, among human beings; pramucyate, becomes freed; sarva-papaih, from all sins-committed knowingly or unknowingly. 'For the following reason also I am the great Lord of the worlds:'
10.3. Whosoever knows Me as the unborn and beginningless Absolute Lord of the universe, that person, not deluded among the mortals, is delivered from all sins.
10.3 See Comment under 10.5
10.3 He who exists 'without being born' at any particular time unlike other beings is 'unborn' in the sense of being eternal. For, this attribute denotes a unie state distinct in kind both from insentient things which are subject to modifications, and from the self in Its state of involvement in Samsara when It is united with insentient matter. In that state the birth of the self involved in matter is generated by Karma. The temr 'Anadi', or without beginning, is used to distinguish the state of the Lord, which is distinct in kind, from that of the liberated state which is birthless but can be said to have a beginning. For, to the liberated self, the state of liberation has a beginning, because, in regard to this, conjunction with matter which deserves to be abandoned, existed previously. Hence the term 'Anadi' implies that the Lord is without such conjunction and does not deserve the same description. The Sruti also says: 'Him who is stainless' (Sve. U., 4.19). Thus, he who is undeluded among the mortals understands Me as 'the great Lord of the worlds,' as the Lord of the lords of the worlds. My nature is incompatible with association with evil which has to be given up. What is called 'delusion' is the wrong knowledge of taking Me as one among other entities of the same kind. To be bereft of this delusion is to be 'undeluded'. Such a person is released from all sins which stand against the rise of Bhakti to Me. The meaning is this: In this world, the king who rules over men is only like all those men. He has become a ruler by some good Karma. Such is not the case with the Lord of the gods (the Supreme Being). Even the lord of the cosmic egg (Brahma) is of the same class as other beings in Samsara, because he too is a created being coming within the threefold classification of beings according to the three innate tendencies for growth - namely Karma-bhavana, Brahma-bhavana and Ubhaya-bhavana. These three are described respectively as fitness to practise work alone, fitness to practise meditation alone and fitness to practise both together. Brahma comes under the third group. The Sruti also says, 'He who creates Brahma' (Sve. U., 6.18). The same is the case with all those who have acired the eight superhuman powers like becoming atomic etc. But I, the Supreme Being, is the great Lord of the worlds. He who is not subject to the delusion of regarding Me as of the same order as others, - such a person knows Me as distinct in kind from non-conscient matter in its states as cause and effect, from the self whether bound or free, and from everything else, on account of all of them being subject to My control. I am antagonistic to all that is evil and I am the sole centre of innumerable auspicious attributes, unsurpassed and incomparable. It is also My inherent nature to be the controller of everything. One who understands Me to be all this is released from every sin. Thus, after showing the annihilation, by meditation on His nature, of all evil impeding the rise of Bhakti, and also of the rise of devotion, through implication, by the destruction of such opposing factors, Sri Krsna now explains the way in which Bhakti develops by meditation on His sovereign power and on the multitude of His auspicious attributes:
10.3 He who knows Me as unborn and without a beginning and the great Lord of the worlds - he among the mortals is undeluded and is released from every sin.
।।10.3।।तथा --, क्योंकि मैं महर्षियोंका और देवोंका आदिकारण हूँ? मेरा आदि दूसरा कोई नहीं है? इसलिये मैं अजन्मा और अनादि हूँ। अनादित्व ही जन्मरहित होनेमें कारण है। इस प्रकार जो मुझे जन्मरहित अनादि और लोकोंका महान् ईश्वर अर्थात् अज्ञान और उसके कार्यसे रहित ( जाग्रत? स्वप्न? सुषुप्ति -- इन तीनों अवस्थाओंसे अतीत ) चतुर्थ अवस्थायुक्त जानता है? वह ( इस प्रकार जाननेवाला ) मनुष्योंमें ज्ञानी है अर्थात् मोहसे रहित श्रेष्ठ पुरुष है और वह जानबूझकर किये हुए या बिना जाने किये हुए सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है।
।।10.3।। --,यः माम् अजम् अनादिं च? यस्मात् अहम् आदिः देवानां महर्षीणां च? न मम अन्यः आदिः विद्यते अतः अहम् अजः अनादिश्च अनादित्वम् अजत्वे हेतुः? तं माम् अजम् अनादिं च यः वेत्ति विजानाति लोकमहेश्वरं लोकानां महान्तम् ईश्वरं तुरीयम् अज्ञानतत्कार्यवर्जितम् असंमूढः संमोहवर्जितः सः मर्त्येषु मनुष्येषु? सर्वपापैः सर्वैः पापैः मतिपूर्वामतिपूर्वकृतैः प्रमुच्यते प्रमोक्ष्यते।।इतश्चाहं महेश्वरो लोकानाम् --,
।।10.3।।अजशब्दागतार्थतयाऽनादिशब्दं व्याचष्टे -- अन इति। सर्वस्येत्युभयशेषः। अन्तर्णीतण्यर्थादनतेः पचाद्यच्। न विद्यते आदिकारणमस्येत्यनादिरिति अन्ये? तदसत् आर्थिकपुनरुक्तेरपरिहारादित्याह -- अजत्वेनेति। इतरस्य कारणराहित्यस्य। अजत्वे हेतुरयमुच्यत इति चेत्? मेवम् तज्ज्ञापकविभक्त्याद्यभावात्। गत्यन्तराभावे हि गमनिकैषा। चेष्ट कत्वं प्रागनुक्तं कथमनूद्यते इति चेत्? न प्रभावे सर्वस्यान्तर्भावात्।
।।10.3।।अनश्चेष्टयिता आदिश्च सर्वस्येत्यनादिः। अजत्वेन सिद्धेरितरस्य।
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्। असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।10.3।।
যো মামজমনাদিং চ বেত্তি লোকমহেশ্বরম্৷ অসম্মূঢঃ স মর্ত্যেষু সর্বপাপৈঃ প্রমুচ্যতে৷৷10.3৷৷
যো মামজমনাদিং চ বেত্তি লোকমহেশ্বরম্৷ অসম্মূঢঃ স মর্ত্যেষু সর্বপাপৈঃ প্রমুচ্যতে৷৷10.3৷৷
યો મામજમનાદિં ચ વેત્તિ લોકમહેશ્વરમ્। અસમ્મૂઢઃ સ મર્ત્યેષુ સર્વપાપૈઃ પ્રમુચ્યતે।।10.3।।
ਯੋ ਮਾਮਜਮਨਾਦਿਂ ਚ ਵੇਤ੍ਤਿ ਲੋਕਮਹੇਸ਼੍ਵਰਮ੍। ਅਸਮ੍ਮੂਢ ਸ ਮਰ੍ਤ੍ਯੇਸ਼ੁ ਸਰ੍ਵਪਾਪੈ ਪ੍ਰਮੁਚ੍ਯਤੇ।।10.3।।
ಯೋ ಮಾಮಜಮನಾದಿಂ ಚ ವೇತ್ತಿ ಲೋಕಮಹೇಶ್ವರಮ್. ಅಸಮ್ಮೂಢಃ ಸ ಮರ್ತ್ಯೇಷು ಸರ್ವಪಾಪೈಃ ಪ್ರಮುಚ್ಯತೇ৷৷10.3৷৷
യോ മാമജമനാദിം ച വേത്തി ലോകമഹേശ്വരമ്. അസമ്മൂഢഃ സ മര്ത്യേഷു സര്വപാപൈഃ പ്രമുച്യതേ৷৷10.3৷৷
ଯୋ ମାମଜମନାଦିଂ ଚ ବେତ୍ତି ଲୋକମହେଶ୍ବରମ୍| ଅସମ୍ମୂଢଃ ସ ମର୍ତ୍ଯେଷୁ ସର୍ବପାପୈଃ ପ୍ରମୁଚ୍ଯତେ||10.3||
yō māmajamanādiṅ ca vētti lōkamahēśvaram. asammūḍhaḥ sa martyēṣu sarvapāpaiḥ pramucyatē৷৷10.3৷৷
யோ மாமஜமநாதிஂ ச வேத்தி லோகமஹேஷ்வரம். அஸம்மூடஃ ஸ மர்த்யேஷு ஸர்வபாபைஃ ப்ரமுச்யதே৷৷10.3৷৷
యో మామజమనాదిం చ వేత్తి లోకమహేశ్వరమ్. అసమ్మూఢః స మర్త్యేషు సర్వపాపైః ప్రముచ్యతే৷৷10.3৷৷
10.4
10
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।।10.4 -- 10.5।। बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, भव, अभाव, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश -- प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलग-अलग (बीस) भाव मेरेसे ही होते हैं।
।।10.4।। बुद्धि, ज्ञान, मोह का अभाव, क्षमा, सत्य, दम (इन्द्रिय संयम), शम (मन: संयम), सुख, दु:ख, जन्म और मृत्यु, भय और अभय।।
।।10.4।। See commentary under 10.5.
।।10.4।। व्याख्या--'बुद्धिः'--उद्देश्यको लेकर निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम बुद्धि है।'ज्ञानम्' -- सार-असार, ग्राह्य-अग्राह्य, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य -- ऐसा जो विवेक अर्थात् अलग-अलग जानकारी है, उसका नाम 'ज्ञान' है। यह ज्ञान (विवेक) मानवमात्रको भगवान्से मिला है।
।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।
।।10.4।।बुद्धिः मनसो निरूपणसामर्थ्यम्? ज्ञानं चिदचिद्वस्तुविशेषविषयः निश्चयः। असंमोहः पूर्वगृहीताद् रजतादेः विसजातीये शुक्तिकादिवस्तुनि सजातीयताबुद्धिनिवृत्तिः। क्षमा मनोविकारहेतौ सति अपि अविकृतमनस्त्वम्। सत्यं यथादृष्टविषयं भूतहितरूपं वचनम्? तद्नुगणा मनोवृत्तिः इह अभिप्रेता? मनोवृत्तिप्रकरणात्। दमः बाह्यकरणानाम् अनर्थविषयेभ्यो नियमनम्। शमः अन्तःकरणस्य तथा नियमनम्। सुखम् आत्मानुकूलानुभवः। दुःखं प्रतिकूलानुभवः। भवो भवनम् अनुकूलानुभवहेतुकं मनसो भवनम्। अभावः,प्रतिकूलानुभवहेतुको मनसः अवसादः। भयम् आगामिनो दुःखस्य हेतुदर्शनजं दुःखम्? तन्निवृत्तिः अभयम्। अहिंसा परदुःखाहेतुत्वम्। समता आत्मनि सुहृत्सु विपक्षेषु च अर्थानर्थयोः सममतित्वम्। तुष्टिः सर्वेषु आत्मसु दृष्टेषु तोषस्वभावत्वम्। तपः शीस्त्रीयो भोगसंकोचरूपः कायक्लेशः। दानं स्वकीयभोग्यानां परस्मै प्रतिपादनम्। यशो गुणवत्ताप्रथा? अयशः नैर्गुण्यप्रथा? कीर्त्यकीर्त्यनुगुणमनोवृत्तिविशेषौ तथा उक्तौ? मनोवृत्तिप्रकरणात्। तपोदाने च तथा। एवमाद्याः सर्वेषां भूतानां भावाः प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतवो मनोवृत्तयो मत्त एव मत्संकल्पायत्ताः भवन्ति।सर्वस्य भूतजातस्य सृष्टिस्थित्योः प्रवर्तयितारः च मत्संकल्पायत्तप्रवृत्तय इत्याह --
।।10.4।।भगवतो लोकमहेश्वरत्वे हेत्वन्तरमाह -- इतश्चेति। मुमुक्षुभिराराध्यत्वसिद्धये बन्धमोक्षसाधनं पुरस्कृत्याशेषजगत्प्रकृत्यधिष्ठातृत्वलक्षणं सोपाधिकं भगवत्प्रभावमभिधत्ते -- बुद्धिरिति। सूक्ष्मादीत्यादिशब्देन सूक्ष्मतरः सूक्ष्मतमश्चार्थो गृह्यते। उक्तं सामर्थ्यं बुद्धिरित्यस्मिन्नर्थे प्रसिद्धिं प्रमाणयति -- तद्वन्तमिति। आत्मादीति। तदवबोधवन्तं हि ज्ञानिनं वदन्ति। अन्तःकरणस्योपशमो विषयेभ्यो व्यावृत्तिरिति शेषः।
।।10.4 -- 10.5।।किञ्च अचिन्त्यैश्वर्ययोगकल्याणगुणान्मत्त एव बुद्धिर्ज्ञानं च भवति। ज्ञानमित्युपलक्षणं सर्वस्य सदसद्गुणसर्गस्यमत्तः सर्वं प्रवर्त्तते [10।8] इति वाक्यात्। तथाहि बुद्धिरित्यादि। बुद्धिः तत्त्वतोऽध्यवसायरूपा? ज्ञानमुपदेशजन्यम्?असम्मूढः [10।3] इत्यत्रोक्तोऽसम्मोहोऽपि मत्त एव भवति। क्षमा सहिष्णुता सत्यं प्रमाणेनावबुद्धस्यार्थस्य तथैव भाषणम्? दमो बाह्येन्द्रियाणां स्वविषयेभ्यो निवृत्तिः? शमोऽन्तःकरणस्य? सुखमात्मानुकूलानुभवः? दुःखं तद्विपरीतं च मत्त एव भवति। मार्गत्रयाधिष्ठाताऽहं यथामार्गानुसरणं तत्तदधिकृताय तथैव दुःखं सुखं प्रयच्छामीति भावः। एवं भवः उद्भवः? अभावस्तद्विपरीतः? भयमभयं च दानं यशः अयशश्चेति विंशद्भावास्तत्तन्मार्गरतानां प्राणिनां यथासर्गं पृथग्विधा मत्त एव भवन्तिरूपनामविभेदेन जगत् क्रीडति यो यतः इति निबन्धोक्तेः। अनेन स्वस्य मुख्यं कर्तृत्वं सर्वकारणत्वं चोक्तम्। प्रकृत्यादेस्तु करणत्वमेव? न कारणत्वं साधकतमत्त्वादिति स्वयोगमहिमोक्तः।
।।10.4।।आत्मनो लोकमहेश्वरत्वं प्रपञ्चयति -- बुद्धिरन्तःकरणस्य सूक्ष्मार्थविवेकसामर्थ्यम्। ज्ञानमात्मानात्सर्वपदार्थावबोधः। असंमोहः प्रत्युत्पन्नेषु बोद्धव्येषु कर्तव्येषु वाऽव्याकुलतया विवेकेन प्रवृत्तिः। क्षमा आकुष्टस्य ताडितस्य वा निर्विकारचित्तता। सत्यं प्रमाणेनावबुद्धस्यार्थस्य तथैव भाषणम्। दमो बाह्येन्द्रियाणां स्वविषयेभ्यो निवृत्तिः। शमोऽन्तःकरणस्य सा। सुखं धर्मासाधारणकारणमनुकूलवेदनीयम्। दुःखमधर्मासाधारणकारणकं प्रतिकूलवेदनीयम्। भवः उत्पत्तिः। भावः सत्ता। अभावोऽसत्तेति वा। भयं च त्रासस्तद्विपरीतमभयम्। एवंच एकश्चकार उक्तसमुच्चयार्थः। अपरोऽनुक्ताबुद्ध्यज्ञानादिसमुच्चयार्थः। एवेत्येते सर्वलोकप्रसिद्धा एवेत्यर्थः। मत्तएव भवन्तीत्युत्तरेणान्वयः।
।।10.4।। लोकमहेश्वरतामेव स्फुटयति -- बुद्धिरिति त्रिभिः। बुद्धिः सारासारविवेकनैपुण्यम्? ज्ञानमात्मविषयम्? असंमोहो व्याकुलत्वाभावः? क्षमा सहिष्णुत्वम्? सत्यं यथार्थभाषणम्? दमो बाह्येन्द्रियसंयमः? शमोऽन्तःकरणसंयमः? सुखमनुकूलसंवेदनीयम्? दुःखं च तद्विपरीतम्? भव उद्भवः अभावस्तद्विपरीतः? भयं त्रासः? अभयं तद्विपरीतम्। अस्य लोकस्य मत्त एव भवन्तीत्युत्तरेणान्वयः।
।।10.4।।भक्त्युत्पत्तिविवृद्ध्यर्था [गी.सं.14] इत्यत्र विवक्षितं विवृण्वन्नुक्तेन तत्फलितेन च वक्ष्यमाणप्रकरणस्य च सङ्गतिमाह -- एवमिति। बुद्धिज्ञानशब्दयोः पौनरुक्त्यपरिहारायबुद्धिमत्त्वाज्जानाति इति प्रयोगानुसारेण शक्तिलक्षणया बुध्यतेऽनयेति तद्व्युत्पत्त्या वा हेतुकार्यपरतया व्याख्यातिबुद्धिर्मनसो निरूपणसामर्थ्यमिति। असम्मोहासक्त्या तद्धेतुभूतं ज्ञानमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहज्ञानं चिदचिद्वस्तुविशेषविषयो निश्चय इति। बुद्धिज्ञानशब्दयोरध्यवसायमोक्षधीविषयत्वेन व्याख्यानं शब्दद्वयसङ्कोचादिप्रसङ्गादनादृतम्। विजातीये सजातीयताबुद्धिः सम्मोहः तदुदाहरति -- पूर्वेति।पूर्वगृहीतात्? आपणादिनिष्ठतयाऽनुभूतादित्यर्थः। इदं च स्मर्यमाणाध्यासोदाहरणम्। न कोपाख्यविकाराभावमात्रेण सुषुप्त्यादिषु क्षमाशब्दः? अपितु कोपहेतुषु सत्सु तदभावे तत्प्रयोग इत्यभिप्रायेणाह,मनोविकारेति। क्रोधहेतावाक्रोशताडनादौ सत्यपीत्यर्थः।ननु कथं हेतौ सति तत्कार्यनिवृत्तिः तथात्वे तस्य हेतुत्वमेव हीयेत उच्यते -- नह्यवश्यं हेतौ सति कार्येण भवितव्यमिति नियमः अपितु प्रतिबन्धकरहितायां सामग्र्यां सत्याम् अन्यथा प्रत्येकं हेतूनां प्रतिबद्धानां च तत्तत्कार्यजनकत्वे कार्यस्य सदातनत्वसार्वत्रिकत्वप्रसङ्गात्? नित्यविभोश्च कारणस्य सद्भावात् तर्हि कः क्षमाया विस्मयः इति चेद्यथा मणिमन्त्रादिभिः स्फोटसामग्री स्तभ्यते तथा प्रबलविवेकाख्यप्रतिबन्धकेन कोपसामग्र्या दुर्निवारायाः स्तम्भनादिति भावः। वस्तुसत्यत्वस्य यथार्थदर्शनमप्यपेक्षितम्? तथापि यथादृष्टवचनमात्रे वक्तुर्नापराधः? भ्रमस्य दैवागतत्वादित्यभिप्रायेणयथादृष्टविषयमित्येतावदुक्तम्। परमार्थत्वेऽपि परानर्थहेतोःसत्यं भूतहितं प्रोक्तम् इत्यादिभिः सत्यत्वप्रतिक्षेपात्भूतहितरूपेति विशेषितम्। भावशब्दस्य मनोवृत्तौ प्रसिद्धिप्रकर्षबलमग्र्यप्रायनयं चाभिप्रेत्य सत्यशब्दस्यात्र लाक्षणिकत्वमाहतदनुगुणेति। शमदमशब्दयोरेकैकस्योभयनियमनाभिधानसामर्थ्येऽपि पौनरुक्त्यपरिहाराय विषयभेदे वक्तव्ये नियमनक्रमेण दमशमयोर्बाह्यान्तरकरणविषयत्वोक्तिः। शास्त्रीयेभ्यो नियमनस्य निषिद्धत्वात्अनर्थविषयेभ्य इत्युक्तम्।तथेति अनर्थविषयेभ्य एव।अनुकूलत्वमात्रं प्रतिकूलत्वमात्रमेव च सुखदुःखयोर्लक्षणम् तथापि मनोवृत्तिरूपत्वसिद्ध्यर्थमनुभवशब्दः। सुखदुःखभयाभयमध्यपतितत्वात्भवोऽभावः इत्यत्रापि परस्परविरुद्धार्थविषयत्वं सम्भवदपरित्याज्यम् ततश्च भावाभावशब्दयोः प्रत्ययभेदमात्रमेव? न त्वर्थभेदः तत्र चाभाव इत्येव पदच्छेदः तयोरपि मनोवृत्तिरूपत्वं वक्तव्यम् प्रस्तुतयोरेव च सुखदुःखयोस्तद्धेतुत्वमुचितम् अत एवभवो भव्यता? भावोऽभिप्रायः इत्यादि परव्याख्यानं मन्दम् तदेतदखिलमभिप्रेत्याहअनुकूलेति।भवनमिति उद्धर्षोऽत्र विवक्षितः अवसादप्रतियोगित्वात्। अनवसादानुद्धर्षो हि सहोक्तौ वाक्यकारेणतल्लब्धिर्विवेकविमोकाभ्यासक्रियाकव्याणानवसादानुद्धर्षेभ्यः [बो.वृ.] इति। सुखदुःखशब्दाभ्यां पौनरुक्त्यव्युदासाय भयाभयशब्दयोस्तद्विशेषविषयतां दर्शयति -- आगामिन इति। आगामिप्रत्यवायोत्प्रेक्षा भयमिति लक्षणेऽपि तस्यैव ज्ञानविशेषस्य प्रतिकूलरूपत्वाद्दुःखत्वम् नह्यन्यो दुःखाख्यो गुणोऽस्मद्दर्शने।परदुःखाहेतुत्वमित्यत्र दुःखशब्देनाहितं विवक्षितम्? चिकित्सादौ हितरूपदुःखकरणस्य हिंसात्वाभावात्? प्रपञ्चितं चैतत्प्रागेव। अभयाहिंसयोरभावरूपयोरपि भावान्तरत्ववेषेण मनोवृत्तिरूपत्वं भाव्यम्। समत्वप्रकारेषु बहुषु सत्स्वपि हिंसानिषेधप्रसङ्गाद्धिंसाविषयभूतशत्रुस्मृतिर्जाता ततश्च द्वेषाद्यभावेन शत्रुमित्रादिसाम्यं प्रदेशान्तरप्रपञ्चितमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहआत्मनीति।न चलति निजवर्णधर्मतो यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे। न हरति नच हन्ति किञ्चिदुच्चैः सितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम् [वि.पु.3।7।20] इति भगवत्पराशरवचनमिह तत्तत्पदैः स्मारितम्।अर्थानर्थयोरिति -- आत्मार्थपरार्थयोरात्मानर्थपरानर्थयोश्चेत्यादि भाव्यम्।तुष्टेः समतासहपाठात् शत्रूणां समृद्धिमतामपि सङ्ग्रहाय सर्वशब्दः। सर्वत्र सन्तोष एव ह्यात्मनः स्वारसिकः प्राप्तः? प्रातिकूल्यभावनाद्युपाध्यधीनं हि वैरादिकमित्यभिप्रायेणसन्तोषस्वभावत्वमित्युक्तम्। इदं च मैत्र्यादिषु चतुर्षु मुदिताख्यचित्तपरिकर्म। बाह्यागमादिमूलक्लेशस्य तपस्त्वव्यवच्छेदायोक्तंशास्त्रीय इति। शास्त्रधिस्यैव भोगसङ्कोचस्य व्याध्यादिवशादक्लेशात्मकत्वे तपस्त्वं नास्तीति व्यञ्जनायकायक्लेश इत्युक्तम्। दाने परकीयानां स्वकीयानामपि हेयभूतानां व्यवच्छेदायस्वकीयभोग्यानामित्युक्तम्।परस्मै प्रतिपादनं परस्वत्वापादनमित्यर्थः। अयशश्शब्दै नञो विरोधिपरत्वं प्रयोगप्रकर्षसिद्धमाह -- नैर्गुण्यप्रथेति। सदोषत्वप्रथेत्यर्थः। प्रथात्वमात्रमुभयसाधारणम् अतो गुणवत्त्वनैर्गुण्याभ्यां विशेषणम्।एतच्चेत्यादिकं पूर्ववत्। सिंहावलोकितकेनाह -- तपोदाने च तथेति मनोवृत्तिविशेषावित्यर्थः। उक्तमात्रव्युदासायोपलक्षणतामभिप्रेत्याहएवमाद्या इति। अभिप्रायेऽपि भावशब्दप्रयोगादत्र भावशब्दस्य मनोवृत्तिविषयता। सर्वेषां कर्तृकरणादीनां प्रवृत्तेः स्वाधीनत्वेऽपि मनोवृत्त्युदाहरणं प्राकरणिकभक्तिरूपमनोवृत्तेरपि स्वसङ्कल्पमूलत्वज्ञापनार्थम्। प्रवृत्तिनिवृत्त्योः स्वाधीनत्वे कैमुत्यार्थमाहप्रवृत्तिनिवृत्तिहेतव इति।मत्त एव इत्यत्र परोक्तसन्निधिमात्रादिव्युदासाय,पञ्चम्यवगतं हेतुत्वं व्यापारमुखेनेत्याहमत्सङ्कल्पेति। पृथग्विधानां परस्परविरुद्धानामप्यहमेको हेतुरित्येवकाराभिप्रायः।
।।10.4।।एवं ये जानन्ति तेषामन्येषामजानतां च सर्वेश्वरत्वात् मत्त एव नानाविधा भावास्तत्तज्ज्ञानानुरूपा भवन्तीत्याह द्वयेन -- बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह इति। बुद्धिः धर्मज्ञानकौशलं? ज्ञानं स्वरूपात्मकम्? असम्मोहो मायाविलासेषु? क्षमा दुष्टादिकृतिसहिष्णुता? सत्यं आपदादिष्वपि यथार्थभाषणं? दम इन्द्रियनिग्रहः? शमः परमानन्दाप्तिरूपा शान्तिः? सुखं मद्भावानन्दरूपं? दुःखं आनन्दतिरोधानात्मकं? भवः संसारात्मकः? अभावो नाशः? भयं मृत्युकालादीनाम्। चकारेण यमयातनादयः। अभयं मच्चरणाप्त्या कालादिभयाभावः।
।।10.4।।मम महेश्वरत्वादेव मत्तो बुद्ध्यादयो भवन्तीत्याह -- बुद्धिरिति। बुद्धिरन्तःकरणस्य सूक्ष्मार्थावबोधने सामर्थ्यम्? ज्ञानमात्मानात्मादिपदार्थावबोधः। असंमोहः प्रत्युत्पन्नेषु बोद्धव्येष्वव्याकुलतया विवेकपूर्विका प्रतिपत्तिः। क्षमा आकृष्टस्य ताडितस्य वाऽविकृतचित्तता। सत्यं प्रमाणेनावगतस्यार्थस्य यथार्थत्वेन भाषणम्। दमो बाह्येन्द्रियनियमः। शमो मनोनिग्रहः। सुखमाह्लादः। दुःखं तापः। भव उत्पत्तिः। भावः सत्ता अभावस्तद्विपर्ययः। भयं त्रासः। अभयमेव च तद्विपरीतम्।
।।10.4।।स्वस्य लोकमहेश्वरत्वं देवादिबुद्य्धगोचरत्वेन साधितं तदेव प्रपञ्चयति। बुद्धिरन्तःकरणस्य सूक्ष्माद्यर्थावबोधनसामर्थ्यम्। ज्ञानमात्मादिपदार्थावबोधः। असंमोहः प्रत्युत्पन्नेषु ज्ञातव्येषु विवेखपुरःसरा बुद्धिप्रवृत्तिः। आकुष्टस्य ताडितस्य वाऽविकृतचित्तता क्षमा। प्रमाणावगतार्थस्य यथार्थभाषणं सत्यं। बाह्येन्द्रियोपशमो दमः। अन्तःकरणशान्तिः शमः। आह्लादः सुखम्। तापो दुःखम्। भव उत्पत्तिः। अभावो नाशः। भयं त्रासः। अभयमत्रासः।
10.4 बुद्धिः intellect? ज्ञानम् wisdom? असंमोहः nondelusion? क्षमा forgiveness? सत्यम् truth? दमः selfrestraint? शमः calmness? सुखम् happiness? दुःखम् pain? भवः birth or existence? अभावः nonexistence? भयम् fear? च and? अभयम् fearlessness? एव even? च and. Commentary Intellect is the power which the Antahkarana (the fourfold inner instrument -- the mind? the subconscious mind? intellect and egoism) has of understanding subtle objects. Wisdom is knowledge of the Self. Nondelusion is freedom from illusion. It consists in acting with discrimination when anything has to be done or kown at the moment. Patience is the nonagitation of the mind when assaulted or abused. Not thinking of any harm of evil for those who ahve assulted or abused is also patience. Patience is enduring without lamentation the three kinds of pains? Adhyatmika? Adhidaivika and Adhibhautika Taapas. Fever? etc.? is Adhyatmika pain. Pain or discomfort from severe cold? heat? too much rain? thunder? and lightning is Adhidaivika pain. Pain from scorpionsting? snakite? and wild animals is Adhibhautika pain.Satyam or truth is veracity. It is speaking of ones own actual or real experience of things as actually heard or seen. There is not the least twisting or exaggeration or the slightest modification of facts. Dama or selfrestraint is control of the external senses. It is withdrawal of the senses (ear? skin? eyes? tongue and nose) from their respective objects (viz.? sound? touch? form? palatable foods and fragrance). Sama is calmness or tranillity of the mind produced by checking the mind from thinking of external objects of the senses and by disconnecting it from the senses.Sukham Happiness. That which has Dharma or virtue as its chief cause and that which is favourable to all beings? is happiness. Duhkham That which has Adhrama as its cause and that which is unfavourable to all beings? is pain.That which appears is Bhavah. Sat is Bhavah. Asat or unreality is Abhavah.
10.4 Intellect, wisdom, non-delusion, forgiveness, truth, self-restraint, calmness, happiness, pain, existence or birth, non-existence or death, fear and also fearlessness.
10.4 Intelligence, wisdom, non-illusion, forgiveness, truth, self-control, calmness, pleasure, pain, birth, death, fear and fearlessness;
10.4 Intelligence, wisdom, non-delusion, forgiveness, truth, control of the external organs, control of the internal organs, happiness, sorrow, birth, death and fear as also fearlessness;
10.4 See Commentary under 10.5.
10.4. Intellect, knowledge, steadiness, patience, truth, control [over sense-organs], tranility [of mind], pleasure, pain, birth, death, fear and courage;
10.4 See Comment under 10.5
10.4 - 10.5 'Intelligence' is the power of the mind to determine. 'Knowledge' is the power of determining the difference between the two entities - non-sentient matter and the individual self. 'Non-delusion' is freedom from the delusion of perceiving as silver the mother-of-pearl etc., which are different from silver etc., previously observed. 'Forbearance', is a non-disturbed state of mind, even when there is a cause for getting disturbed. 'Truth' is speech about things as they are actually seen, and meant for the good of all beings. Here, the working of the mind in conformity with the ideal is intended, because the context is with reference to the working of the mind. 'Restraint' is the checking of the outgoing organs from their tendency to move towards their objects and generate evil. 'Self-control' is the restraint of the mind in the same manner. 'Pleasure' is the experience of what is agreeable to oneself. 'Pain' is th experience of what is adverse. 'Exaltation' is that state of elation of the mind caused by experiences which are agreeable to oneself. 'Depression' is the state of mind caused by disagreeable experiences. 'Fear' is the misery which springs from the perception of the cause of future sufferings. 'Fearlessness' is the absence of such feelings. 'Non-violence' is avoidance of being the cause of sorrow to others. 'Eability' is to become eable in mind whether good or bad befalls and to look upon with the same eanimity on what happens to oneself, friends and enemies. 'Cheerfulness' is the natural disposition to feel pleased with everything seen. 'Austerity' is the chastising of the body by denying to oneself pleasures, as enjoined by the scriptures. 'Beneficence' is giving to another what contributes to one's own enjoyment. 'Fame' is the renown of possessing good alities. 'Infamy' is notoriety of possessing bad alities. The workings of the mind which are in accordance with fame and infamy must be understood here, because it is the subject-matter of the context. Austerity and beneficence are to be understood in the same way. All these mental faculties - these functioning of the mind - resulting either in activity or inactivity, are from Me alone, i.e., are dependent on My volition. Sri Krsna declares: 'Thos agents who direct the creation, sustentation etc., of all beings, have their activity dependent on My Will.'
10.4 Intelligence, knowledge, non-delusion, forbearance truth, restraint, self-control, pleasure, pain, exaltation depression, fear and fearlessness;
।।10.4।। इसलिये भी मैं लोकोंका महान् ईश्वर हूँ --, सूक्ष्म? सूक्ष्मतर आदि पदार्थोंको समझनेवाली अन्तःकरणकी ज्ञानशक्तिका नाम बुद्धि है। उससे युक्त मनुष्यको ही बुद्धिमान् कहते हैं। ज्ञान -- आत्मा आदि पदार्थोंका बोध? असंमोह -- जाननेयोग्य पदार्थ प्राप्त होनेपर उनमें विवेकपूर्वक प्रवृत्ति? क्षमा -- किसीके द्वारा अपनी निन्दाकी जाने या ताड़ना दी जानेपर भी चित्तमें विकार न होना? सत्य -- देखने और सुननेसे जिस प्रकारका अपनेको अनुभव हुआ हो? उसको दूसरेकी बुद्धिमें पहुँचानेके लिये उसी प्रकार कही जानेवाली वाणी सत्य कहलाती है? दम -- बाह्य इन्द्रियोंको वशमें कर लेना? शम -- अन्तःकरणकी उपरति? सुख -- आह्लाद? दुःख -- सन्ताप? भव -- उत्पत्ति? अभाव -- उत्पत्तिके विपरीत ( विनाश ) तथा भय -- त्रास और अभय -- उसके विपरीत जो निर्भयता है वह भी।
।।10.4।। --,बुद्धिः अन्तःकरणस्य सूक्ष्माद्यर्थावबोधनसामर्थ्यम्? तद्वन्तं बुद्धिमानिति हि वदन्ति। ज्ञानम् आत्मादिपदार्थानामवबोधः। असंमोहः प्रत्युत्पन्नेषु बोद्धव्येषु विवेकपूर्विका प्रवृत्तिः। क्षमा आक्रुष्टस्य ताडितस्य वा अविकृतचित्तता। सत्यं यथादृष्टस्य यथाश्रुतस्य च आत्मानुभवस्य परबुद्धिसंक्रान्तये तथैव उच्चार्यमाणा वाक् सत्यम् उच्यते। दमः बाह्येन्द्रियोपशमः। शमः अन्तःकरणस्य उपशमः। सुखम् आह्लादः। दुःखं संतापः। भवः उद्भवः। अभावः तद्विपर्ययः। भयं च त्रासः? अभयमेव च तद्विपरीतम्।।
।।10.4।।तर्ह्यादिमित्यनेन बुद्धिरित्यादिकं गतार्थमित्यत आह -- तदिति। सर्वादित्वं बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरमिति गौतमवचनात्। बुद्धिर्ज्ञानमिति पुनरुक्तिरित्यत आह -- कार्येति। कुत एतदित्यत आह -- ज्ञानमिति। ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं शास्त्रमित्यसत्? अध्यात्मिकधर्मप्रसङ्गात्। दमो बाह्येन्द्रियोपशमः? शमोऽन्तःकरणस्योपशम इति कश्चित् (शं.) तदसत्? एकेनैव शब्देन सिद्धत्वात्? किन्तु दमः क्रियासु विनयः? शमो बाह्यान्तःकरणसंयम इत्यपरः? तदप्यसदिति भावेनाह -- दम इति। कुत इत्यत आह --,शम इति।
।।10.4।।तत्प्रथयति -- बुद्धिरित्यादिना। कार्याकार्यविनिश्चयो बुद्धिः। ज्ञानं प्रतीतिः।ज्ञानं प्रतीतिर्बुद्धिस्तु कार्याकार्यविनिश्चयः इति ह्यभिधानम्। दम इन्द्रियनिग्रहः। शमः परमात्मनि निष्ठा।शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियनिग्रहः [11।17।36] इति भागवते।
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।10.4।।
বুদ্ধির্জ্ঞানমসংমোহঃ ক্ষমা সত্যং দমঃ শমঃ৷ সুখং দুঃখং ভবোভাবো ভযং চাভযমেব চ৷৷10.4৷৷
বুদ্ধির্জ্ঞানমসংমোহঃ ক্ষমা সত্যং দমঃ শমঃ৷ সুখং দুঃখং ভবোভাবো ভযং চাভযমেব চ৷৷10.4৷৷
બુદ્ધિર્જ્ઞાનમસંમોહઃ ક્ષમા સત્યં દમઃ શમઃ। સુખં દુઃખં ભવોભાવો ભયં ચાભયમેવ ચ।।10.4।।
ਬੁਦ੍ਧਿਰ੍ਜ੍ਞਾਨਮਸਂਮੋਹ ਕ੍ਸ਼ਮਾ ਸਤ੍ਯਂ ਦਮ ਸ਼ਮ। ਸੁਖਂ ਦੁਖਂ ਭਵੋਭਾਵੋ ਭਯਂ ਚਾਭਯਮੇਵ ਚ।।10.4।।
ಬುದ್ಧಿರ್ಜ್ಞಾನಮಸಂಮೋಹಃ ಕ್ಷಮಾ ಸತ್ಯಂ ದಮಃ ಶಮಃ. ಸುಖಂ ದುಃಖಂ ಭವೋಭಾವೋ ಭಯಂ ಚಾಭಯಮೇವ ಚ৷৷10.4৷৷
ബുദ്ധിര്ജ്ഞാനമസംമോഹഃ ക്ഷമാ സത്യം ദമഃ ശമഃ. സുഖം ദുഃഖം ഭവോഭാവോ ഭയം ചാഭയമേവ ച৷৷10.4৷৷
ବୁଦ୍ଧିର୍ଜ୍ଞାନମସଂମୋହଃ କ୍ଷମା ସତ୍ଯଂ ଦମଃ ଶମଃ| ସୁଖଂ ଦୁଃଖଂ ଭବୋଭାବୋ ଭଯଂ ଚାଭଯମେବ ଚ||10.4||
buddhirjñānamasaṅmōhaḥ kṣamā satyaṅ damaḥ śamaḥ. sukhaṅ duḥkhaṅ bhavō.bhāvō bhayaṅ cābhayamēva ca৷৷10.4৷৷
புத்திர்ஜ்ஞாநமஸஂமோஹஃ க்ஷமா ஸத்யஂ தமஃ ஷமஃ. ஸுகஂ துஃகஂ பவோபாவோ பயஂ சாபயமேவ ச৷৷10.4৷৷
బుద్ధిర్జ్ఞానమసంమోహః క్షమా సత్యం దమః శమః. సుఖం దుఃఖం భవోభావో భయం చాభయమేవ చ৷৷10.4৷৷
10.5
10
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।।10.4 -- 10.5।। बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, भव, अभाव, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश और अपयश -- प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके और अलग-अलग (बीस) भाव मेरेसे ही होते हैं।
।।10.5।। अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान. यश और अपयश ऐसे ये प्राणियों के नानाविध भाव मुझ से ही प्रकट होते हैं।।
।।10.5।। प्रस्तुत प्रकरण के विचार को ही आगे बढ़ाते हुए कि परमात्मा ही सम्पूर्ण विश्व का उपादान और निमित्त कारण है? भगवान् श्रीकृष्ण इन दो श्लोकों में उन विविध गुणों को गिनाते हैं? जो मनुष्य के मन और बुद्धि में व्यक्त होते हैं।साधारणत? सृष्टि शब्द से केवल हम भौतिक जगत् ही समझते हैं। परन्तु उपर्युक्त समस्त गुण उसके व्यापक एवं सर्वग्राहक अर्थ को सूचित करते हैं। उनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि जगत् शब्द के अर्थ में हमारे मानसिक और बौद्धिक जीवन भी सम्मिलित हैं।पुन सभी मनुष्यों और प्राणियों का वर्गीकरण इन्हीं गुणों के आधार पर किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण या स्वभाव के वशीभूत है। यथा मन तथा मनुष्य। ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ केवल शुभ दैवी गुणों का ही गणना की गई है। संस्कृत व्याख्याकारों की पारम्परिक शैली का अनुकरण करते हुए? श्लोक में प्रयुक्त च शब्द की व्याख्या यह की जा सकती है कि उसके द्वारा विरोधी अशुभ गुणों को भी यहाँ सूचित किया गया है। तथापि भगवान् केवल शुभ गुणों को ही स्पष्टत बताते हैं? क्योंकि जिस व्यक्ति में इन गुणों का अधिकता होती है? उसमें आत्मा की शुद्धता एवं दिव्यता के दर्शन होते हैं।इन विभिन्न प्रकार की भावनाओं एवं विचारों से प्रेरित होकर प्रत्येक व्यक्ति अपनेअपने संस्कारों के अनुसार कर्म में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार यहाँ विविध प्रकार के जीवन दृष्टिगोचर होते है। ये समस्त गुण? मुझसे ही प्रकट होते हैं। स्तम्भ में प्रतीत हुआ प्रेत चाहे प्रेम से मन्दस्मित करे या क्रोध से खिसियाये अथवा प्रतिशोध की भावना से धमकाये? उसका मन्द स्मित या धमकाना इत्यादि गुणों का केवल एक अधिष्ठान है स्तम्भ। आत्मचैतन्य के बिना बुद्धि? ज्ञान आदि गुणों का न अस्तित्व है और न भान।इन गुणों के द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों का तथा उनके अनुभवों का प्राय पूर्ण वर्गीकरण किया गया है। इसलिए जैसा कि शंकराचार्य कहते हैं? ये दो श्लोक आत्मा का सर्वलोकमहेश्वर होना सिद्ध करते हैं।
।।10.5।। व्याख्या--'बुद्धिः'--उद्देश्यको लेकर निश्चय करनेवाली वृत्तिका नाम बुद्धि है।'ज्ञानम्'--सार-असार, ग्राह्य-अग्राह्य, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, उचित-अनुचित, कर्तव्यअकर्तव्य --ऐसा जो विवेक अर्थात् अलगअलग जानकारी है, उसका नाम 'ज्ञान' है। यह ज्ञान (विवेक) मानवमात्रको भगवान्से मिला है।
।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।
।।10.5।।बुद्धिः मनसो निरूपणसामर्थ्यम्? ज्ञानं चिदचिद्वस्तुविशेषविषयः निश्चयः। असंमोहः पूर्वगृहीताद् रजतादेः विसजातीये शुक्तिकादिवस्तुनि सजातीयताबुद्धिनिवृत्तिः। क्षमा मनोविकारहेतौ सति अपि अविकृतमनस्त्वम्। सत्यं यथादृष्टविषयं भूतहितरूपं वचनम्? तद्नुगणा मनोवृत्तिः इह अभिप्रेता? मनोवृत्तिप्रकरणात्। दमः बाह्यकरणानाम् अनर्थविषयेभ्यो नियमनम्। शमः अन्तःकरणस्य तथा नियमनम्। सुखम् आत्मानुकूलानुभवः। दुःखं प्रतिकूलानुभवः। भवो भवनम् अनुकूलानुभवहेतुकं मनसो भवनम्। अभावः,प्रतिकूलानुभवहेतुको मनसः अवसादः। भयम् आगामिनो दुःखस्य हेतुदर्शनजं दुःखम्? तन्निवृत्तिः अभयम्। अहिंसा परदुःखाहेतुत्वम्। समता आत्मनि सुहृत्सु विपक्षेषु च अर्थानर्थयोः सममतित्वम्। तुष्टिः सर्वेषु आत्मसु दृष्टेषु तोषस्वभावत्वम्। तपः शीस्त्रीयो भोगसंकोचरूपः कायक्लेशः। दानं स्वकीयभोग्यानां परस्मै प्रतिपादनम्। यशो गुणवत्ताप्रथा? अयशः नैर्गुण्यप्रथा? कीर्त्यकीर्त्यनुगुणमनोवृत्तिविशेषौ तथा उक्तौ? मनोवृत्तिप्रकरणात्। तपोदाने च तथा। एवमाद्याः सर्वेषां भूतानां भावाः प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतवो मनोवृत्तयो मत्त एव मत्संकल्पायत्ताः भवन्ति।सर्वस्य भूतजातस्य सृष्टिस्थित्योः प्रवर्तयितारः च मत्संकल्पायत्तप्रवृत्तय इत्याह --
।।10.5।।यथाशक्तीति। पात्रे श्रद्धया स्वशक्तिमनतिक्रम्यार्थानां देशकालानुगुण्येन प्रतिपादनमित्यर्थः। उक्तानां बुद्ध्यादीनां साश्रयाणामीश्वरादुत्पत्तिं प्रतिजानीते -- भवन्तीति। नानाविधत्वे हेतुमाह -- स्वकर्मेति। कथंचिदपि तेषामात्मातिरेकेणाभावान्मत्त एवेत्युक्तम्।
।।10.4 -- 10.5।।किञ्च अचिन्त्यैश्वर्ययोगकल्याणगुणान्मत्त एव बुद्धिर्ज्ञानं च भवति। ज्ञानमित्युपलक्षणं सर्वस्य सदसद्गुणसर्गस्यमत्तः सर्वं प्रवर्त्तते [10।8] इति वाक्यात्। तथाहि बुद्धिरित्यादि। बुद्धिः तत्त्वतोऽध्यवसायरूपा? ज्ञानमुपदेशजन्यम्?असम्मूढः [10।3] इत्यत्रोक्तोऽसम्मोहोऽपि मत्त एव भवति। क्षमा सहिष्णुता सत्यं प्रमाणेनावबुद्धस्यार्थस्य तथैव भाषणम्? दमो बाह्येन्द्रियाणां स्वविषयेभ्यो निवृत्तिः? शमोऽन्तःकरणस्य? सुखमात्मानुकूलानुभवः? दुःखं तद्विपरीतं च मत्त एव भवति। मार्गत्रयाधिष्ठाताऽहं यथामार्गानुसरणं तत्तदधिकृताय तथैव दुःखं सुखं प्रयच्छामीति भावः। एवं भवः उद्भवः? अभावस्तद्विपरीतः? भयमभयं च दानं यशः अयशश्चेति विंशद्भावास्तत्तन्मार्गरतानां प्राणिनां यथासर्गं पृथग्विधा मत्त एव भवन्तिरूपनामविभेदेन जगत् क्रीडति यो यतः इति निबन्धोक्तेः। अनेन स्वस्य मुख्यं कर्तृत्वं सर्वकारणत्वं चोक्तम्। प्रकृत्यादेस्तु करणत्वमेव? न कारणत्वं साधकतमत्त्वादिति स्वयोगमहिमोक्तः।
।।10.5।।अहिंसा प्राणिनां पीडाया निवृत्तिः। समता चित्तस्य रागद्वेषादिरहितावस्था। तुष्टिर्भोग्येष्वेतावताऽलमिति बुद्धिः। तपः शास्त्रीयमार्गेण कायेन्द्रियशोषणम्। दानं देशे काले श्रद्धया,यथाशक्त्यर्थानां सत्पात्रे समर्पणम्। यशो धर्मनिमित्ता लोकश्लाघारूपा प्रसिद्धिः। अयशस्त्वधर्मनिमित्ता लोकनिन्दारूपा प्रसिद्धिः। एते बुद्ध्यादयो भावाः कार्यविशेषाः सकारणकाः पृथग्विधा धर्माधर्मादिसाधनवैचित्र्येण नानाविधा भूतानां सर्वेषां प्राणिनां मत्तः परमेश्वरादेव भवन्ति नान्यस्मात्। तस्मात्किं वाच्यं मम लोकमहेश्वरत्वमित्यर्थः।
।।10.5।।किंच -- अहिंसेति। अहिंसा परपीडानिवृत्तिः? समता रागद्वेषादिराहित्यं? मित्रामित्रतुल्यता च? तुष्टिर्दैवलब्धेन संतोषः? तपः शारीरादि वक्ष्यमाणम्? दानं न्यायार्जितधनादेः सत्पात्रार्पणम्? यशः सत्कीर्तिः? अयशोऽपकीर्तिः? एते बुद्धिर्ज्ञानमित्यादयस्तद्विपरीताश्चाबुद्ध्यादयो नानाविधा भावाः प्राणिनां मत्तः सकाशादेव भवन्ति।
।। 10.5 भक्त्युत्पत्तिविवृद्ध्यर्था [गी.सं.14] इत्यत्र विवक्षितं विवृण्वन्नुक्तेन तत्फलितेन च वक्ष्यमाणप्रकरणस्य च सङ्गतिमाह -- एवमिति। बुद्धिज्ञानशब्दयोः पौनरुक्त्यपरिहारायबुद्धिमत्त्वाज्जानाति इति प्रयोगानुसारेण शक्तिलक्षणया बुध्यतेऽनयेति तद्व्युत्पत्त्या वा हेतुकार्यपरतया व्याख्यातिबुद्धिर्मनसो निरूपणसामर्थ्यमिति। असम्मोहासक्त्या तद्धेतुभूतं ज्ञानमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहज्ञानं चिदचिद्वस्तुविशेषविषयो निश्चय इति। बुद्धिज्ञानशब्दयोरध्यवसायमोक्षधीविषयत्वेन व्याख्यानं शब्दद्वयसङ्कोचादिप्रसङ्गादनादृतम्। विजातीये सजातीयताबुद्धिः सम्मोहः तदुदाहरति -- पूर्वेति।पूर्वगृहीतात्? आपणादिनिष्ठतयाऽनुभूतादित्यर्थः। इदं च स्मर्यमाणाध्यासोदाहरणम्। न कोपाख्यविकाराभावमात्रेण सुषुप्त्यादिषु क्षमाशब्दः? अपितु कोपहेतुषु सत्सु तदभावे तत्प्रयोग इत्यभिप्रायेणाह मनोविकारेति। क्रोधहेतावाक्रोशताडनादौ सत्यपीत्यर्थः।ननु कथं हेतौ सति तत्कार्यनिवृत्तिः तथात्वे तस्य हेतुत्वमेव हीयेत उच्यते -- नह्यवश्यं हेतौ सति कार्येण भवितव्यमिति नियमः अपितु प्रतिबन्धकरहितायां सामग्र्यां सत्याम् अन्यथा प्रत्येकं हेतूनां प्रतिबद्धानां च तत्तत्कार्यजनकत्वे कार्यस्य सदातनत्वसार्वत्रिकत्वप्रसङ्गात्? नित्यविभोश्च कारणस्य सद्भावात् तर्हि कः क्षमाया विस्मयः इति चेद्यथा मणिमन्त्रादिभिः स्फोटसामग्री स्तभ्यते तथा प्रबलविवेकाख्यप्रतिबन्धकेन कोपसामग्र्या दुर्निवारायाः स्तम्भनादिति भावः। वस्तुसत्यत्वस्य यथार्थदर्शनमप्यपेक्षितम्? तथापि यथादृष्टवचनमात्रे वक्तुर्नापराधः? भ्रमस्य दैवागतत्वादित्यभिप्रायेणयथादृष्टविषयमित्येतावदुक्तम्। परमार्थत्वेऽपि परानर्थहेतोःसत्यं भूतहितं प्रोक्तम् इत्यादिभिः सत्यत्वप्रतिक्षेपात्भूतहितरूपेति विशेषितम्। भावशब्दस्य मनोवृत्तौ प्रसिद्धिप्रकर्षबलमग्र्यप्रायनयं चाभिप्रेत्य सत्यशब्दस्यात्र लाक्षणिकत्वमाहतदनुगुणेति। शमदमशब्दयोरेकैकस्योभयनियमनाभिधानसामर्थ्येऽपि पौनरुक्त्यपरिहाराय विषयभेदे वक्तव्ये नियमनक्रमेण दमशमयोर्बाह्यान्तरकरणविषयत्वोक्तिः। शास्त्रीयेभ्यो नियमनस्य निषिद्धत्वात्अनर्थविषयेभ्य इत्युक्तम्।तथेति अनर्थविषयेभ्य एव।अनुकूलत्वमात्रं प्रतिकूलत्वमात्रमेव च सुखदुःखयोर्लक्षणम् तथापि मनोवृत्तिरूपत्वसिद्ध्यर्थमनुभवशब्दः। सुखदुःखभयाभयमध्यपतितत्वात्भवोऽभावः इत्यत्रापि परस्परविरुद्धार्थविषयत्वं सम्भवदपरित्याज्यम् ततश्च भावाभावशब्दयोः प्रत्ययभेदमात्रमेव? न त्वर्थभेदः तत्र चाभाव इत्येव पदच्छेदः तयोरपि मनोवृत्तिरूपत्वं वक्तव्यम् प्रस्तुतयोरेव च सुखदुःखयोस्तद्धेतुत्वमुचितम् अत एवभवो भव्यता? भावोऽभिप्रायः इत्यादि परव्याख्यानं मन्दम् तदेतदखिलमभिप्रेत्याहअनुकूलेति।भवनमिति उद्धर्षोऽत्र विवक्षितः अवसादप्रतियोगित्वात्। अनवसादानुद्धर्षो हि सहोक्तौ वाक्यकारेणतल्लब्धिर्विवेकविमोकाभ्यासक्रियाकव्याणानवसादानुद्धर्षेभ्यः [बो.वृ.] इति। सुखदुःखशब्दाभ्यां पौनरुक्त्यव्युदासाय भयाभयशब्दयोस्तद्विशेषविषयतां दर्शयति -- आगामिन इति। आगामिप्रत्यवायोत्प्रेक्षा भयमिति लक्षणेऽपि तस्यैव ज्ञानविशेषस्य प्रतिकूलरूपत्वाद्दुःखत्वम् नह्यन्यो दुःखाख्यो गुणोऽस्मद्दर्शने।परदुःखाहेतुत्वमित्यत्र दुःखशब्देनाहितं विवक्षितम्? चिकित्सादौ हितरूपदुःखकरणस्य हिंसात्वाभावात्? प्रपञ्चितं चैतत्प्रागेव। अभयाहिंसयोरभावरूपयोरपि भावान्तरत्ववेषेण मनोवृत्तिरूपत्वं भाव्यम्। समत्वप्रकारेषु बहुषु सत्स्वपि हिंसानिषेधप्रसङ्गाद्धिंसाविषयभूतशत्रुस्मृतिर्जाता ततश्च द्वेषाद्यभावेन शत्रुमित्रादिसाम्यं प्रदेशान्तरप्रपञ्चितमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहआत्मनीति।न चलति निजवर्णधर्मतो यः सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे। न हरति नच हन्ति किञ्चिदुच्चैः सितमनसं तमवेहि विष्णुभक्तम् [वि.पु.3।7।20] इति भगवत्पराशरवचनमिह तत्तत्पदैः स्मारितम्।अर्थानर्थयोरिति -- आत्मार्थपरार्थयोरात्मानर्थपरानर्थयोश्चेत्यादि भाव्यम्।तुष्टेः समतासहपाठात् शत्रूणां समृद्धिमतामपि सङ्ग्रहाय सर्वशब्दः। सर्वत्र सन्तोष एव ह्यात्मनः स्वारसिकः प्राप्तः? प्रातिकूल्यभावनाद्युपाध्यधीनं हि वैरादिकमित्यभिप्रायेणसन्तोषस्वभावत्वमित्युक्तम्। इदं च मैत्र्यादिषु चतुर्षु मुदिताख्यचित्तपरिकर्म। बाह्यागमादिमूलक्लेशस्य तपस्त्वव्यवच्छेदायोक्तंशास्त्रीय इति। शास्त्रधिस्यैव भोगसङ्कोचस्य व्याध्यादिवशादक्लेशात्मकत्वे तपस्त्वं नास्तीति व्यञ्जनायकायक्लेश इत्युक्तम्। दाने परकीयानां स्वकीयानामपि हेयभूतानां व्यवच्छेदायस्वकीयभोग्यानामित्युक्तम्।परस्मै प्रतिपादनं परस्वत्वापादनमित्यर्थः। अयशश्शब्दै नञो विरोधिपरत्वं प्रयोगप्रकर्षसिद्धमाह -- नैर्गुण्यप्रथेति। सदोषत्वप्रथेत्यर्थः। प्रथात्वमात्रमुभयसाधारणम् अतो गुणवत्त्वनैर्गुण्याभ्यां विशेषणम्।एतच्चेत्यादिकं पूर्ववत्। सिंहावलोकितकेनाह -- तपोदाने च तथेति मनोवृत्तिविशेषावित्यर्थः। उक्तमात्रव्युदासायोपलक्षणतामभिप्रेत्याहएवमाद्या इति। अभिप्रायेऽपि भावशब्दप्रयोगादत्र भावशब्दस्य मनोवृत्तिविषयता। सर्वेषां कर्तृकरणादीनां प्रवृत्तेः स्वाधीनत्वेऽपि मनोवृत्त्युदाहरणं प्राकरणिकभक्तिरूपमनोवृत्तेरपि स्वसङ्कल्पमूलत्वज्ञापनार्थम्। प्रवृत्तिनिवृत्त्योः स्वाधीनत्वे कैमुत्यार्थमाहप्रवृत्तिनिवृत्तिहेतव इति।मत्त एव इत्यत्र परोक्तसन्निधिमात्रादिव्युदासाय पञ्चम्यवगतं हेतुत्वं व्यापारमुखेनेत्याहमत्सङ्कल्पेति। पृथग्विधानां परस्परविरुद्धानामप्यहमेको हेतुरित्येवकाराभिप्रायः।
।।10.5।।अहिंसा दयात्मिका? समता सर्वत्र मद्भावः? तुष्टिः सदा मद्भावसन्तोषः? तपो मदर्थक्लेशसहनं? दानं मदुपदेशादीनां? यशो मत्सेवकत्वेन सत्कीर्तिः? अयशो दुष्टत्वादिलक्षणात्मिकाऽपकीर्तिः। भूतानां एते भावाः पृथग्विधाः भिन्नाः मत्कृपाविशिष्टमज्ज्ञानवतां बुद्ध्यादयः सर्वे भवन्ति। अन्येषाप्नयशस्सहितदुःखादिचतुष्टया भावा भवन्तीति भावः।
।।10.5।।अहिंसा प्राणिनामपीडा। समता मित्रामित्रादौ समचित्तता। तुष्टिः संतोषो लब्धे पर्याप्तबुद्धिः। तप इन्द्रियसंयमपूर्वकं शरीरपीडनम्। दानं यथाशक्ति संविभागः। यशो धर्मनिमित्ता कीर्तिः। अयशोऽधर्मनिमित्ता अकीर्तिः। एते बुद्ध्यादयो विंशतिर्भावा मत्त एव प्राणिनां भवन्ति। पृथग्विधाः प्रत्येकं नानाप्रकाराः। तत उत्तमगुणलाभायाहमेव त्वया शरणीकरणीय इति भावः।
।।10.5।।अहिंसा प्राणिनामपीडा। समता समचित्तता। तुष्टिः संतोषोऽलंबुद्धिः। इन्द्रियसंयमपुरःसरं शास्त्रीयं देहपीडनं तपः। देशकालानुरोधेन शक्तिमतिक्रम्य श्रद्धयापात्रेऽर्थानामर्पणं दानम्। धर्मनिदाना कीर्तियेशः। अधर्मनिदानाऽपकीर्तिरपयशः। एते यथोक्ता भावाः पृथग्विधा नानाप्रकारा भूतानां स्वकर्मानुसारेण मत्तएवेश्वराद्भवन्ति। अतोऽहमेव सर्वलोकमहेश्वरः सर्वैर्भोगमोक्षार्थं शरणीकरणीय इति भावः।
10.5 अहिंसा noninjury? समता eanimity? तुष्टिः contentment? तपः austerity? दानम् beneficence? यशः fame? अयशः illfame? भवन्ति arise? भावाः alities? भूतानाम् of beings? मत्तः from Me? एव alone? पृथग्विधाः of different kinds. Commentary Ahimsa is noninjury to living beings in thought? word and deed. Samata is that state wherein there is neither Raga (like) nor Dvesha (dislike)? when one gets pleasant or unpleasant objects. There is neither exhilaration when one gets pleasant or favourable objects nor depressions when one gets unpleasant or unfavourable objects. Tushtih is satisfaction or contentment. The man of contentment is satisfied with whatever object he gets through Prarabdha. He is satisfied with his present acisitions. He is free from greed and so he has peace of mind. Contentment makes a man very rich. It annihilates greed. Greed makes even a rich man a beggar of beggars. A greedy man is ever restless. Tapas is restraint of the senses? with bodily mortification through the practice of fasting and slow reduction of food. The strength of the body and the senses is reduced through fasting.Danam is beneficence. It is sharing of ones own things with others according to ones own means? or distribution of rice? gold? cloth? etc.? to a worthy person? in a fit place and time? especially to one who can do nothign in return.Yasas is fame due to Dharma or virtuous actions.Ayasah is illfame or disgrace due to Adharma or sinful actions.All these different kinds of alities of living beings arise from Me alone? the great Lord of the worlds? according to their respective Karmas.
10.5 Non-injury, eanimity, contentment, austerity, beneficence, fame, ill-fame (these) different kinds of alities of beings arise from Me alone.
10.5 Harmlessness, equanimity, contentment, austerity, beneficence, fame and failure, all these, the characteristics of beings, spring from Me only.
10.5 Non-injury, eanimity, satisfaction, austerity, charity, fame, infamy-(these) different dispositions of beings spring from Me alone.
10.5 Buddhih, intelligence-the power of the internal organ to know of things which are subtle etc. Indeed, people talk of a man possessed of this (power) as intelligent. Jnanam, wisdom-knowledge of entities such as the Self etc. Asammohah, non-delusion-proceeding with discrimination with regard to things that are to be known as they present them-selves. Ksama, forgiveness-unperturbability of the mind of one who is abused or assulted. Satyam, truth-an utterance regarding what one has seen, heard, and felt oneself, communicated as such to others for their understanding, is said to be truth. Damah, control of the external organs. Samah, control of the internal organs. Sukham, happiness. Duhkham, sorrow. Bhavah, birth; and its opposite abhavah, death. And bhayam, fear; as also its opposite abhayam, fearlessness. Ahimsa, non-injury-non-cruely towards creatures. Samata, eanimity. Tustih, satisfaction-the idea of sufficiency with regard to things acired. Tapah, austerity-disciplining the body through control of the organs. Danam, charity-distribution (of wealth) according to one's capacity. Yasah, fame-renown arising from righteousness. On the contrary, ayasah is infamy due to unrighteousness. (These) prthak-vidhah, different; bhavah, dispositions-intelligence etc. as described; bhuanam, of beings, of living bengs. bhavanti, spring; mattah, eva, from Me alone, [This is said in the sesne that none of these dispositions can exist without the Self.] from God, in accordanced with their actions. Moreover,
10.5. [Also] non-injury, eanimity, contentment, austerity, charity, repute and ill-repute - all these diverse dispositions of beings emanate from none but Me.
10.1-5 The subject-matter that has been indicated in the previous nine chapters - the same in being detailed here in this chapter by citing individual instances. That is why [the Bhagavat] says 'Yet again etc.' (10.X, 1). He thus indicates 'Hear the subject matter, which has already been related to you, but which once again being explained in order to make it clear'. Arjuna too says in the seel likewise 'Tell me once again etc.' (10.X, 18). This is the purport of [this] chapter. Other items are clear by mere reciting. Hence, why to repeat them ? However, whatever is doubtful that shall be decided [then and there]. Bhuyah etc. upto prthagvidhah. Steadiness is that which induces one.
10.4 - 10.5 'Intelligence' is the power of the mind to determine. 'Knowledge' is the power of determining the difference between the two entities - non-sentient matter and the individual self. 'Non-delusion' is freedom from the delusion of perceiving as silver the mother-of-pearl etc., which are different from silver etc., previously observed. 'Forbearance', is a non-disturbed state of mind, even when there is a cause for getting disturbed. 'Truth' is speech about things as they are actually seen, and meant for the good of all beings. Here, the working of the mind in conformity with the ideal is intended, because the context is with reference to the working of the mind. 'Restraint' is the checking of the outgoing organs from their tendency to move towards their objects and generate evil. 'Self-control' is the restraint of the mind in the same manner. 'Pleasure' is the experience of what is agreeable to oneself. 'Pain' is th experience of what is adverse. 'Exaltation' is that state of elation of the mind caused by experiences which are agreeable to oneself. 'Depression' is the state of mind caused by disagreeable experiences. 'Fear' is the misery which springs from the perception of the cause of future sufferings. 'Fearlessness' is the absence of such feelings. 'Non-violence' is avoidance of being the cause of sorrow to others. 'Eability' is to become eable in mind whether good or bad befalls and to look upon with the same eanimity on what happens to oneself, friends and enemies. 'Cheerfulness' is the natural disposition to feel pleased with everything seen. 'Austerity' is the chastising of the body by denying to oneself pleasures, as enjoined by the scriptures. 'Beneficence' is giving to another what contributes to one's own enjoyment. 'Fame' is the renown of possessing good alities. 'Infamy' is notoriety of possessing bad alities. The workings of the mind which are in accordance with fame and infamy must be understood here, because it is the subject-matter of the context. Austerity and beneficence are to be understood in the same way. All these mental faculties - these functioning of the mind - resulting either in activity or inactivity, are from Me alone, i.e., are dependent on My volition. Sri Krsna declares: 'Thos agents who direct the creation, sustentation etc., of all beings, have their activity dependent on My Will.'
10.5 Non-violence, eality, cheerfulness, austerity, beneficence, fame and infamy- these different alities of beings arise from Me alone.
।।10.5।।अहिंसा -- प्राणियोंको किसी प्रकार पीड़ा न पहुँचाना? समता -- चित्तका समभाव? संतोष -- जो कुछ मिले उसीको यथेष्ट समझना? तप -- इन्द्रियसंयमपूर्वक शरीरको सुखाना? दान -- अपनी शक्तिके अनुसार धनका विभाग करना ( दूसरोंको बाँटना )? यश -- धर्मके निमित्तसे होनेवाली कीर्ति? अपयश -- अधर्मके निमित्तसे होनेवाली अपकीर्ति। इस प्रकार जो प्राणियोंके अपने अपने कर्मोंके अनुसार होनेवाले बुद्धि आदि नाना प्रकारके भाव हैं? वे सब मुझ ईश्वरसे ही होते हैं।
।।10.5।। --,अहिंसा अपीडा प्राणिनाम्। समता समचित्तता। तुष्टिः संतोषः पर्याप्तबुद्धिर्लाभेषु। तपः इन्द्रियसंयमपूर्वकं शरीरपीडनम्। दानं यथाशक्ति संविभागः। यशः धर्मनिमित्ता कीर्तिः। अयशस्तु अधर्मनिमित्ता अकीर्तिः। भवन्ति भावाः यथोक्ताः बुद्ध्यादयः भूतानां प्राणिनां मत्तः एव ईश्वरात् पृथग्विधाः नानाविधाः स्वकर्मानुरूपेण।।किञ्च --,
।।10.5।।सुखशब्दागतार्थतया तुष्टिशब्दं सप्रमाणकं व्याचष्टे -- तुष्टिरिति।
।।10.5।।तुष्टिरलम्बुद्धिः।अलम्बुद्धिस्तथा तुष्टिः इत्यभिधानात्।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।10.5।।
অহিংসা সমতা তুষ্টিস্তপো দানং যশোযশঃ৷ ভবন্তি ভাবা ভূতানাং মত্ত এব পৃথগ্বিধাঃ৷৷10.5৷৷
অহিংসা সমতা তুষ্টিস্তপো দানং যশোযশঃ৷ ভবন্তি ভাবা ভূতানাং মত্ত এব পৃথগ্বিধাঃ৷৷10.5৷৷
અહિંસા સમતા તુષ્ટિસ્તપો દાનં યશોયશઃ। ભવન્તિ ભાવા ભૂતાનાં મત્ત એવ પૃથગ્વિધાઃ।।10.5।।
ਅਹਿਂਸਾ ਸਮਤਾ ਤੁਸ਼੍ਟਿਸ੍ਤਪੋ ਦਾਨਂ ਯਸ਼ੋਯਸ਼। ਭਵਨ੍ਤਿ ਭਾਵਾ ਭੂਤਾਨਾਂ ਮਤ੍ਤ ਏਵ ਪਰਿਥਗ੍ਵਿਧਾ।।10.5।।
ಅಹಿಂಸಾ ಸಮತಾ ತುಷ್ಟಿಸ್ತಪೋ ದಾನಂ ಯಶೋಯಶಃ. ಭವನ್ತಿ ಭಾವಾ ಭೂತಾನಾಂ ಮತ್ತ ಏವ ಪೃಥಗ್ವಿಧಾಃ৷৷10.5৷৷
അഹിംസാ സമതാ തുഷ്ടിസ്തപോ ദാനം യശോയശഃ. ഭവന്തി ഭാവാ ഭൂതാനാം മത്ത ഏവ പൃഥഗ്വിധാഃ৷৷10.5৷৷
ଅହିଂସା ସମତା ତୁଷ୍ଟିସ୍ତପୋ ଦାନଂ ଯଶୋଯଶଃ| ଭବନ୍ତି ଭାବା ଭୂତାନାଂ ମତ୍ତ ଏବ ପୃଥଗ୍ବିଧାଃ||10.5||
ahiṅsā samatā tuṣṭistapō dānaṅ yaśō.yaśaḥ. bhavanti bhāvā bhūtānāṅ matta ēva pṛthagvidhāḥ৷৷10.5৷৷
அஹிஂஸா ஸமதா துஷ்டிஸ்தபோ தாநஂ யஷோயஷஃ. பவந்தி பாவா பூதாநாஂ மத்த ஏவ பரிதக்விதாஃ৷৷10.5৷৷
అహింసా సమతా తుష్టిస్తపో దానం యశోయశః. భవన్తి భావా భూతానాం మత్త ఏవ పృథగ్విధాః৷৷10.5৷৷
10.6
10
6
।।10.6।। सात महर्षि और उनसे भी पूर्वमें होनेवाले चार सनकादि तथा चौदह मनु -- ये सब-के-सब मेरे मनसे पैदा हुए हैं और मेरेमें भाव (श्रद्धाभक्ति) रखनेवाले हैं, जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है।
।।10.6।। सात महर्षिजन, पूर्वकाल के चार (सनकादि) तथा (चौदह) मनु ये मेरे प्रभाव वाले मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार (लोक) में यह प्रजा है।।
।।10.6।। इस अध्याय के दूसरे श्लोक में जिस सिद्धांत का संकेत मात्र किया गया है कि किस प्रकार सप्तर्षि? सनकादि चार कुमार और चौदह मनु? परमेश्वर के मन से उत्पन्न हुए हैं। ये सभी मिलकर जगत् के उपादान और निमित्त कारण हैं? क्योंकि यहाँ कहा गया है? इनसे यह सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न हुई है।सप्तर्षि जिन्हें पुराणों में मानवीय रूप में चित्रित किया गया है? वे सप्तर्षि अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से महत् तत्त्व? अहंकार और पंच तन्मात्राएं हैं। इन सब के संयुक्त रूप को ही जगत् कहते हैं।व्यक्तिगत दृष्टि से? सप्तर्षियों के रूपक का आशय समझना बहुत सरल है। हम जानते हैं कि जब हमारे मन में कोई संकल्प उठता है? तब वह स्वयं हमें किसी भी प्रकार से विचलित करने में समर्थ नहीं होता। परन्तु? किसी एक विषय के प्रति जब यह संकल्प केन्द्रीभूत होकर कामना का रूप ले लेता है? तब कामना में परिणित वही संकल्प अत्यन्त शक्तिशाली बनकर हमारी शान्ति और सन्तुलन को नष्ट कर देता है। ये संकल्प ही बाहर प्रक्षेपित होकर पंच विषयों का ग्रहण और उनके प्रति हमारी प्रतिक्रियायें व्यक्त कराते हैं। यह संकल्पधारा और इसका प्रक्षेपण ये दोनों मिलकर हमारे सुखदुख पूर्ण यशअपयश तथा प्रयत्न और प्राप्ति के छोटे से जगत् के निमित्त और उपादान कारण बन जाते हैं।पूर्वकाल के चार (सनकादि) और मनु श्री शंकराचार्य अपने भाष्य में इस प्रकार पदच्छेद करते हैं कि पूर्वकाल सम्बन्धी और चार मनु। यहाँ इसका आध्यात्मिक विश्लेषण करना उचित है जिसके लिए हमें दूसरी पंक्ति में आधार भी मिलता है। भगवान् कहते हैं? ये सब मेरे मन से अर्थात् संकल्प से ही प्रकट हुए हैं।पुराणों में ऐसा वर्णन किया गया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ही सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी से चार मानस पुत्र सनत्कुमार? सनक? सनातन और सनन्दन का जन्म हुआ। हममें से प्रत्येक (व्यष्टि) व्यक्ति में निहित सृजन शक्ति अथवा सृजन की प्रवृत्ति के माध्यम से व्यक्त चैतन्य ही व्यष्टि सृष्टि का निर्माता है। यह सृजन की प्रवृत्ति अन्तकरण के चार भागों में व्यक्त होती है तभी किसी प्रकार का निर्माण कार्य होता है। वे चार भाग हैं संकल्प (मन)? निश्चय (बुद्धि)? पूर्वज्ञान का स्मरण (चित्त) और कर्तृत्वाभिमान (अहंकार)। मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार इन चारों को उपर्युक्त चार मानस पुत्रों के द्वारा इंगित किया गया है।इस प्रकार एक ही श्लोक में समष्टि और व्यष्टि की सृष्टि के कारण बताए गए हैं। समष्टि सृष्टि की उत्पत्ति एवं स्थिति के लिए महत् तत्त्व? अहंकार और पंच तन्मात्राएं कारण हैं? जबकि व्यष्टि सृष्टि का निर्माण मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार की क्रियाओं से होता है।संक्षेप में? सप्तर्षि समष्टि सृष्टि के तथा चार मानस पुत्र व्यष्टि सृष्टि के निमित्त और उपादान कारण हैं।व्यष्टि और समष्टि की दृष्टि से? सृष्टि के अभिप्राय को समझने की क्या आवश्यकता है सुनो --
।।10.6।। व्याख्या --[पीछेके दो श्लोकोंमें भगवान्ने प्राणियोंके भाव-रूपसे बीस विभूतियाँ बतायीं। अब इस श्लोकमें व्यक्ति-रूपसे पचीस विभूतियाँ बता रहे हैं, जो कि प्राणियोंमें विशेष प्रभावशाली और जगत्के कारण हैं।] 'महर्षयः सप्त'-- जो दीर्घ आयुवाले; मन्त्रोंको प्रकट करनेवाले; ऐश्वर्यवान्; दिव्य दृष्टिवाले; गुण, विद्या; आदिसे वृद्ध धर्मका साक्षात् करनेवाले; और गोत्रोंके प्रवर्तक हैं -- ऐसे सातों गुणोंसे युक्त ऋषि सप्तर्षि कहे जाते हैं (टिप्पणी प0 540.1)। मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ -- ये सातों ऋषि उपर्युक्त सातों ही गुणोंसे युक्त हैं। ये सातों ही वेदवेत्ता हैं, वेदोंके आचार्य माने गये हैं, प्रवृत्ति-धर्मका संचालन करनेवाले हैं और प्रजापतिके कार्यमें नियुक्त किये गये हैं (टिप्पणी प0 540.2)। इन्हीं सात ऋषियोंको यहाँ 'महर्षि' कहा गया है।
।।10.6 -- 10.11।।महर्षय इत्यादि भास्वता इत्यन्तम्। परस्परबोधनया अन्योन्यबोधस्फारसंक्रमणात् सर्व एव हि प्रमातारः एक ईश्वर इति विततव्याप्त्या (S??N वितत्य व्याप्त्या) सुखेनैव सर्वशक्तिकसर्वगतस्वात्मरूपताधिगमेन (S -- ताधिशयनेन अधिगमेन) माहेश्वर्यमेषामिति भावः (After इति भावः ?N add तेषां सततयुक्तानाम् इत्यतः प्रभृति अध्यायान्ता टीका उट्टङ्किता युगपद्धि वेद्या। तेषामेव अनु च अर्जुनप्रश्नपद्यानि षट् उल्लिखति। श्रीभगवान् अथवा बहुना इति पर्यन्तानि पद्यानि 23 वक्ति।। These sentences are obviously of some copyist. It is to be noted however,that the Mss. generally contain seven (not six) verses of Arjuna and then 24 (not 23) verses of the hagavan) ।
।।10.6।।पूर्वे सप्त महर्षयः अतीतमन्वन्तरे ये भृग्वादयः सप्त महर्षयो नित्यसृष्टिप्रवर्तनाय ब्रह्मणो मनसः संभवाः नित्यस्थितिप्रवर्तनाय ये च सावर्णिका नाम चत्वारो मनवः स्थिताः येषां संतानमये लोके जाता इमाः सर्वाः प्रजाः? प्रतिक्षणम् आप्रलयाद् अपत्यानाम् उत्पादकाः पालकाश्च भवन्ति? ते भृग्वादयो मनवः च मद्भावाः? मम यो भावः स एव येषां भावः ते मद्भावाः? मन्मते स्थिताः मत्संकल्पानुवर्तिन इत्यर्थः।
।।10.6।।न केवलं भगवतः सर्वप्रकृतित्वमेव किंतु सर्वज्ञत्वसर्वेश्वरत्वरूपमधिष्ठातृत्वमपीत्याह -- किञ्चेति। आद्या भृग्वादयो वसिष्ठान्ताः सर्वज्ञा विद्यासंप्रदायप्रवर्तकाः। तथेति मनूनामपि पूर्वत्वेनाद्यत्वमनुकृष्यते। के ते मनवस्तत्राह -- सावर्णा इतीति। प्रसिद्धाः पुराणेषु प्रजानां पालकाः स्वयमीश्वराश्चेति शेषः। महर्षीणां मनूनां च तुल्यं विशेषणं -- ते चेति। मयि सर्वज्ञे सर्वेश्वरे गता भावना येषां ते तथा। भावनाफलमाह -- वैष्णवेनेति। वैष्णव्या शक्त्याधिष्ठितत्वेन ज्ञानैश्वर्यवन्त इत्यर्थः। तेषां जन्मनो वैशिष्ट्यमाचष्टे -- मानसा इति। मन्वादीनेव विशिनष्टि -- येषामिति। विद्यया जन्मना च संततिभूता मन्वादीनामस्मिंल्लोके सर्वाः प्रजा इत्यर्थः।
।।10.6।।एवं जातस्य गुणसर्गस्य हेतुरहमज एक इत्युक्त्वाअहमादिर्हि देवानां [10।2] इति व्याचष्टे -- महर्षय इति। गुणसंसर्गिण एते पूर्वे भृग्वादयःसप्त ब्रह्माण्ड इत्येते पुराणे निश्चयं गताः [म.भा.12।208।5],इत्यादिपुराणप्रसिद्धाः। मानसाः तथा चतुर्दशसु मनुषु पूर्वे प्रथमाश्चत्वारो मनवः स्वायम्भुवस्वारोचिषोत्तमतामसाख्या इत्येते नित्यसर्गप्रवर्त्तनार्था मद्भावा जाताः? मत्त एवेत्यनुवर्त्तनीयम्। एतेन कारणभूतसर्वर्षिमनुदेवानामादिभूततयाऽनादित्वं स्वस्योक्तम्। एतेषां तु बुद्ध्यादिवन्न प्राकृतभावत्वमेव? किन्तु मद्भावत्वमिति। तदाह -- मद्भावा इति। मम भावः सामर्थ्यं तेजोभावो वा येषु ते तथा? एते मानसा भावाश्चेतनाः मत् मत्तो जाता इति वा? अथवा बुद्ध्यादयो येषां लोक इमाः प्रजास्ते महर्षिमन्वादयश्चेत्येते सर्वे भावा मत् मत्तो मानसा जाताःइच्छामात्रेण मनसा प्रवाहं सृष्टवान् हरिः इति भगवन्मुखोक्तेः सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय [तै.उ.2।6।1] इति असतोऽधिमनो यस्य मनः प्रजापतिमसृजत? प्रजापतिः प्रजा असृजत? तद्वा इदं मय्येव परमं प्रतिष्ठितम्। मनसो ह्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते? मनसो वशे सर्वमिदं बभूव? कामस्तदग्रे समवर्त्तताधीः इत्यादिश्रुतेश्च।
।।10.6।।इतश्चैतदेवमाह -- महर्षयो वेदतदर्थद्रष्टारः सर्वज्ञा विद्यासंप्रदायप्रवर्तका भृग्वाद्याः सप्त पूर्वे सर्गाद्यकालाविर्भूताः। तथाच पुराणंभृगुं मरिचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्। वसिष्ठं च महातेजाः सोऽसृजन्मनसा सुतान्। सप्त ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः इति। तथा चत्वारो मनवः सावर्णा इति प्रसिद्धाः। अथवा महर्षयः सप्त भृग्वाद्याः?तेऽभ्योऽपि पूर्वे प्रथमाश्चत्वारः सनकाद्या महर्षयो? मनवस्तथा स्वायंभुवाद्याश्चतुर्दश मयि परमेश्वरे भावो भावना येषां ते मद्भावा मच्चिन्तनपराः। मद्भावनावशादाविर्भूतमदीयज्ञानैश्वर्यशक्तय इत्यर्थः। मानसाः मनःसंकल्पादेवोत्पन्ना नतु योनिजाः। अतो विशुद्धजन्मत्वेन सर्वप्राणिश्रेष्ठा मत्तएव हिरण्यगर्भात्मनो जाताः सर्गाद्यकाले प्रादुर्भूताः। येषां महर्षीणां सप्तानां,भृग्वादीनां चतुर्णां च सनकादीनां मनूनां च चतुर्दशानां अस्िमँल्लोके जन्मना च विद्यया च सन्ततिभूता इमा ब्राह्मणाद्याः सर्वाः प्रजाः।
।।10.6।।किंच -- महर्षय इति। सप्त महर्षयोभृग्वादयः सप्त ब्राह्मणा इत्येते पुराणे निश्चयं गता इत्यादि पुराणप्रसिद्धाः। तेभ्योऽपि पूर्वेऽन्ये चत्वारो महर्षयः सनकादयः? तथा मनवः स्वायंभुवादयः मद्भावा मदीयो भावः प्रभावो येषु ते हिरण्यगर्भात्मनो ममैव मनसः संकल्पमात्राज्जाताः। प्रभावमेवाह -- येषामिति। येषां भृग्वादीनां च सनकादीनां चेमा ब्राह्मणाद्या लोके वर्धमाना यथायथं पुत्रपौत्रादिरूपाः शिष्यादिरूपाश्च प्रजा जाता वर्तन्ते।
।।10.6।।सृष्टिस्थितिहेतुतया प्रसिद्धेषु महत्स्वपि हेतुभूतेषु स्वतन्त्रत्वशङ्का न कार्या? अन्यसङ्कल्पप्रसूतेष्वपि मत्सङ्कल्पमूलत्वमनुसन्धेयमित्यस्योदाहरणतयामहर्षयः इत्युच्यत इत्यभिप्रायेणाहसर्वस्येति।येषां लोक इमाः प्रजाः इत्येतदभिप्रेतकथनंसर्वस्य भूतजातस्येत्यादि।सृष्टिस्थित्योरिति महर्षिषु मनुषु च क्रमादन्वेतव्यम्। सप्तर्षीणां पूर्वत्वविशेषणविवक्षितमाहअतीतमन्वन्तर इति।भृग्वादय इति -- महर्षीणां भृगुरहम् [10।25] इति तत्प्रधानत्वं हि वक्ष्यते -- सप्त ब्रह्माण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः [म.भा.12।208।5] इत्यादिस्मारणाय सप्तशब्दः। आर्षेयवरणे वरणीयानां गोत्राणां प्रवर्तयितार इत्यभिप्रायेणाहनित्यसृष्टिप्रवर्तनायेति।ब्रह्मणो मनसः सम्भवा इति। सौबाले [1] -- स मानसान् सप्त पुत्रानसृजत् इत्यादि। नैमित्तिकसृष्ट्यादिव्यवच्छेदाय नित्यशब्दः। ननु ब्रह्मदिवसे चतुर्दश मनवः क्रमादधिकुर्वन्ति? एकस्मिन् मन्वन्तरे एक एव तत्कथं चत्वार इत्यत्राहये च सावर्णिका नामेति।ब्रह्मसावर्णो? रुद्रसावर्णो? धर्मसावर्णो? दक्षसावर्णः इति दक्षस्य दुहितरि तैश्चतुर्भिर्मानसा जनिताः।मद्भावाः इत्येतावदत्र विधेयम् अन्यत्सर्वं पुराणादिप्रसिद्धमनूद्यते इति ज्ञापनाय यच्छब्दः।सन्तानमय इति।जनो लोकः प्रोक्तः इति पाठाल्लोकोऽत्र सन्तानः।येषां ৷৷. लोके जाताः -- यत्पुत्रपौत्रादिभ्यो जाता इत्यर्थः।इमाः इति निर्देशः कालान्तरवर्तिनित्यसृष्टेरपि सङ्ग्राहकः? न तु व्युदासकः ईश्वरस्य तत्राप्यापरोक्ष्यादित्यभिप्रायेणाहप्रतिक्षणमाप्रलयादिति।उत्पादकाः पालकाश्चेति महर्षीणां मनूनां च यथाक्रमं निर्देशः।उत्पादिकाः इत्यादिस्त्रीलिङ्गपाठे तु तत्तत्प्रजाभिर्यथासम्भवमन्वयः।मम यो भावः स एव येषां भाव इति भावसामानाधिकरण्ये फलितोक्तिरियम्? मध्यमपदलोपी वा समासः। राज्ञो भाव एव किङ्करस्य भाव इतिवदभिप्रायसाम्यापेक्षयाऽयं व्यपदेश इति दर्शयतिमन्मते स्थिता इति। स्वाच्छन्द्यादभिप्रायसाम्यं भृत्यादिवद्बुद्धिपूर्वानुवर्तनमात्रं च व्युदस्यति -- मत्सङ्कल्पानुवर्तिन इति।
।।10.6।।ननु कृष्यादिप्रयुक्तधर्माचरणादिभिः सर्वेषां तत्तत्फलरूपा भावा भवन्ति? तत्कथं भवत एव इत्याकाङ्क्षायामाह -- महर्षय इति। महर्षयः सप्त भृग्वादयः? ततः पूर्वे अन्ये चत्वारो महर्षयः? तथा स्वायम्भुवादयो मनवः? हिरण्यगर्भात्मनो मम मानसा मद्भावा मदीयोऽनुभावो मत्क्रीडार्थरूपो येषु तादृशा जाताः। येषां लोके इमाः प्रजास्तदुक्तप्रवर्तमाना भवन्तीत्यर्थः। अतोऽपि मत्त एव भवन्तीति भावः।
।।10.6।।एतदेव शिष्टाचारप्रदर्शनेन द्रढयति -- महर्षय इति। सप्त भृग्वाद्याश्चत्वारः सनकादयश्च पूर्वे प्रसिद्धा महर्षय इति संबन्धः। तथा मनवश्चतुदर्श प्रसिद्धाः। ते सर्वे मानसा हिरण्यगर्भरूपस्य मम मनस एवोद्भूता अयोनिजा जाता उत्पन्नाः। इमाः प्रजाश्चतुर्विधा अयं लोकश्च तदाधारभूतः तदुभयं येषां यत्संबन्धि संततिर्येषां संततिरित्यर्थः। यद्ववा येषामिति षष्ठी पञ्चम्यर्थे। येभ्य इमाः प्रजा अयं लोकश्च जाता इत्यर्थः। तेऽपि मद्भावा मय्येव भावो मनो येषां ते। प्रसिद्धमहिमानोऽप्येते यतो मामेवोपासतेऽतस्त्वमपि मामुपास्वेति भावः।
।।10.6।।स्वसामर्थ्यंयुक्तानां स्वेनोत्पादितानां भृग्वादीनामपि लोकेश्वरत्वं प्रसिद्धं किं वक्त्वयं मम लोकमहेश्वरत्वमित्याह -- महर्षय इति। महर्षयः सप्त भृग्वादयः पूर्वेऽतीतकालसंबन्धिनोभृगु मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुं। वसिष्ठं च महातेजाः सोऽसृजन्मनसा सुतान् इत्युक्ताःचत्वारो मनवस्तथा? सावर्णिस्तु मनुर्योऽसौ मैत्रेय भविता ततः। नवमो दक्ष्सावर्णिर्मैत्रेय भविता मनुः। एकादशश्र्च भविता धर्मसावर्णिको मनुः। रुद्रपुत्रस्तु सावर्णो भविता द्वादशो मनुः।। इति विष्णुपुराणादौ सावर्णा इति प्रसिद्धाः। महर्षयः सप्त भृग्वादयः। तेभ्योऽपि पूर्वे प्रथमाश्चत्वारः सन्काद्या महर्षयः मनवस्तथा स्वयंभुवाद्याश्चतुर्दशेति वा। अस्मिन्पक्षे सनकाद्याश्र्चतुर्दशेत्यध्याहारदोषमभिप्रेत्याचार्यैरयं पक्षो न प्रदर्शितः। ते च मद्भावा मद्भतभावना मयि परमात्मनि भावना येषामतो वैष्णवेन सामर्थ्येन युक्ता मानसा मया मनसैवोत्पादिताः सन्तो जाताः उत्पन्ना यथायथं योनितोऽयोनितश्च येषां महर्षीणां मनूनां च लोके इमा विद्यया च जन्मना च सन्ततिभूताः प्रजाः स्थावरजंगमलक्षणाः।
10.6 महर्षयः the great Rishis? सप्त seven? पूर्वे ancient? चत्वारः four? मनवः Manus? तथा also? मद्भावाः possessed of powers like Me? मानसाः from mind? जाताः born? येषाम् from whom? लोके in world? इमाः these? प्रजाः creatures. Commentary In the beginning I was alone and from Me came the mind and from the mind were produced the seven sages (such as Bhrigu? Vasishtha and others)? the ancient four Kumaras (Sanaka? Sanandana? Sanatkumara and Sanatsujata)? as well as the four Manus of the past ages known as Savarnis? all of whom directed their thoughts to Me exclusively and were therefore endowed with divine powers and supreme wisdom.The four Kumaras (chaste? ascetic youths) declined to marry and create offspring. They preferred to remain perpetual celibates and to practise BrahmaVichara or profound meditation on Brahman or the Absolute.They were all created by Me? by mind alone. They were all mindborn sons of Brahma. They were not born from the womb like ordinary mortals. Manavah? men? the present inhabitants of this world? are the sons of Manu. The Manus are the mindborn sons of God. These creatures which consist of the moving and the unmoving beings are born of the seven great sages and the four Manus. The great sages were original teaches of BrahmaVidya or the ancient wisdom of the Upanishads. The Manus were the rulers of men. They framed the code or rules of conduct or the laws of Dharma for the guidance and uplift of humanity.The seven great sages represent the seven planes also. In the macrocosm? Mahat or cosmic Buddhi? Ahamkara or the cosmic egoism and the five Tanmatras or the five rootelements of which the five great elements? viz.? earth? water? fire? air and ether are the gross forms? represent the seven great sages. This gross universe with the moving and the unmoving beings and the subtle inner world have come out of the above seven principles. In mythology or the Puranic terminology these seven principles have been symbolised and give human names. Bhrigu? Marichi? Atri? Pulastya? Pulaha? Kratu and Vasishtha are the seven great sages.In the microcosm? Manas (mind)? Buddhi (intellect)? Chitta (subconsciousness) and Ahamkara (egoism) have been symbolised as the four Manus and given human names. The first group forms the base of the macrocosm. The second group forms the base of the microcosm (individuals). These two groups constitute this vast universe of sentient life.Madbhava with their being in Me? of My nature.
10.6 The seven great sages, the ancient four and also the Manus, possessed of powers like Me (on account of their minds being fixed on Me), were born of (My) mind; from them are these creatures born in this world.
10.6 The seven Great Seers,* the Progenitors of mankind, the Ancient Four,** and the Lawgivers were born of My Will and come forth direct from Me. The race of mankind has sprung from them. [* Mareechi, Atri, Angira, Pulah, Kratu, Pulastya, Vahishta. ** The Masters: Sanak, Sanandan, Sanatan, Sanatkumar.]
10.6 The seven great sages as also the four Manus of anceint days, of whom are these creatures in the world, had their thoughts fixed on Me, and they were born from My mind.
10.6 Sapta, the seven; maharsayah, great sages-Bhrgu and others; tatha, as also; catvarah, the four; manavah, Manus [Savarni, Dharma-savarini, Daksa-savarni, and Savarna.-Tr.]- well known as Savarnas; purve, of ancient days; yesam, of whom, of which Manus and the great sages; imah, these; prajah, creatures, moving and non-moving; loke in the world, are the creation; madbhavah, had their thoughts fixed on Me-they had their minds fixed on Me, (and hence) they were endowed with the power of Visnu; and they jatah, were born; manasa; from My mind-they were created by Me through My mind itself.
10.6. The ancient Seven Great-Seers and also the Four Manus, of whom these creatures in this world are offsprings-they have been born as My mental dispositions.
10.6 See Comment under 10.11
10.6 'The seven great Rsis of yore', namely, those seven great Rsis like Bhrgu etc., were from the mind of Brahma in the cycle of the past Manu to perpetuate the creation permanently; and the four Manas called the sons of Savarna existed for the work of eternal sustentation. All creatures in the world are their progeny. So they are the generators of this progeny as also their sustainers till the time of Pralaya. These Bhrgu etc., and the Manus, derive their mental condition from Me. Their disposition is My disposition - they subsist on My disposition. The meaning is they follow My will.
10.6 The seven great seers of yore and similarly the four Manus, all possessing My mental disposition, were born of My mind. All these creatures of the world are descended from them.
।।10.6।।तथा --, भृगु आदि सप्त महर्षि और पहले होनेवाले चार मनु जिनका अतीत कालसे सम्बन्ध है और जो सावर्ण इस नामसे पुराणोंमें प्रसिद्ध हैं? ये सभी मुझमें भावनावाले -- ईश्वरीय सामर्थ्यसे युक्त और मेरे द्वारा मनसे उत्पन्न किये हुए हैं? जिस मनु और महर्षियोंकी रची हुई ये चर और अचररूप सब प्रजाएँ लोकमें प्रसिद्ध हैं।
।।10.6।। --,महर्षयः सप्त भृग्वादयः पूर्वे अतीतकालसंबन्धिनः? चत्वारः मनवः तथा सावर्णा इति प्रसिद्धाः? ते च मद्भावाः मद्गतभावनाः वैष्णवेन सामर्थ्येन उपेताः? मानसाः मनसैव उत्पादिताः मया जाताः उत्पन्नाः? येषां मनूनां महर्षीणां च सृष्टिः लोके इमाः स्थावरजङ्गमलक्षणाः प्रजाः।।
।।10.6।।महर्षयः सप्त भृग्वादय इति शङ्करः? तदसत् पूर्व इति विशेषणेन प्रथममन्वन्तरस्थानामेव ग्रहणस्योचितत्वात् मोक्षधर्मसंवादाच्चेति भावेनाह -- पूर्व इति। इतोऽपि मरीच्यादय एवेत्याह -- ते हीति। निरुपपदेन सप्तर्षिशब्देनेति शेषः।पूर्वे इत्यस्योत्तरत्र सम्बन्धेऽपि एतत्सिद्धमिति भावेनानेकप्रमाणोपन्यासः। ब्रह्मसावर्ण्यो रुद्रसावर्ण्यो दक्षसावर्ण्यो धर्मसावर्ण्य इति भविष्यन्तश्चत्वारो मनव इत्यन्ये? तदसदिति भावेनाह -- चत्वार इति। स्वायम्भुवस्वारोचिषरैवतोत्तमाः। प्रथमातिक्रमे कारणाभावादिति भावः। किञ्चयेषां लोक इमाः,प्रजाः इति विशेषणमेष्वेव सम्भवति? नेतरेष्वतोऽप्येवमित्याह -- तेषां हीति। इमा वर्तमानाः प्रजा अपत्यानि। ननु चतुर्दशमनवस्तेषु चतुर्णां यत्पृथक्करणं तत्र कारणेन भाव्यम्। अस्ति च तत्परोक्तेषु संज्ञासाम्यम् न तु स्वायम्भुवादिषु अतः कथमेतत् इत्यत आह -- विभाग इति। प्राधान्यादेवेति शेषः संज्ञासाम्यस्याप्रयोजकत्वात्। अन्यथा मेरुसावर्णेरपि ग्रहणप्रसङ्गादिति भावः। अस्त्वेवं प्राधान्यं च परोक्तानामेवेत्यत आह -- प्राधान्यं चेति। स्वायम्भुवादीनामिति शेषः। किञ्च श्रुतौ स्वायम्भुवादीनामेव पृथक्करणात्त एवात्रेत्याह -- गौतमेति। पृथक्करणे न फलमिति शेषः। प्राथमिकत्वादेव प्राधान्यं भवतीत्युक्तं तत्कथं इत्यत आह -- पूर्वेभ्यो हीति। तत्सन्ततावित्यर्थः। तेषां पूर्वेषां उत्तरान्प्रति। तत्सन्ततावजातान् प्रति प्रथमानां कथं प्राधान्यं इत्यत आह -- अजातेष्विति। विषयसप्तमीयम्। ज्यैष्ठ्यं प्रथमानां प्राधान्यमित्यर्थः। इदमुक्तं भवति -- प्रधानगुणभावो हि सति सम्बन्धे भवति। अयुगपद्भाविषु चैतेषु प्रथमानामेव प्राधान्यं? उत्तरेषगुणत्वमुक्तविधया सम्भवति। न त्वन्यथा कथमपीति। प्रथमाश्चेद्गृह्यन्ते तदा चतुर्थस्तामसो गीताभिप्रेततया कुतो न व्याख्यायते इत्यत आह -- तामसस्येति। अनुक्तिरव्याख्यानं भगवति चमद्भावा मानसा जाताः इति विशेषणासम्भवादिति भावः। तामसस्य भगवदवतारत्वं कुतः इत्यत आह -- तच्चेति।चतुर्थ उत्तमभ्राता मनुर्नाम्ना च तामसः। [भाग.8।1।27] हरिरित्याहृतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात् [भाग.8।1।30] इत्यादिना। ननु यदि विशेषणासम्भवात्प्रथमप्राप्तातिक्रमेण तत्सम्भवतां ग्रहणम्। तर्हिमानसा जाताः इति विशेषणासम्भवादेतान्परित्यज्य ब्रह्मसावर्ण्यादय एव ग्राह्यास्तेषु तत्सम्भवादिति भास्करः तत्राह -- मानसत्वं चेति। चतुर्णां दक्षदुहितरि किल भावो युगपदासीदित्येवंविधं मानसत्वं न सर्वेषामिति चेत्? न अत्रार्थे तद्धितोत्पत्तेरस्मरणात्। ननु ब्रह्मपुत्राः सन्तु मानसाः? न तु तदा ते मनवः? किन्तु मच्छरीरं परित्यज्य प्रियव्रतादिपुत्रा जातास्तदैव? अतो मनुषु मानसत्वमसम्भाव्यमित्यत आह -- अन्येति। तन्मानसं शरीरं अपरित्यज्य स्थितानामप्यन्यपुत्रत्वं सम्भवतीति योजना। द्वितीये शरीरे जाते तत्पूर्वशरीरेणैक्यमापद्यत इति सम्प्रदायविदः। किमत्र प्रमाणं इत्यत आह -- प्रमाणं चेति। मनूनामेव ब्रह्ममानसपुत्रत्ववाक्यं प्रियव्रतादिपुत्रत्ववाक्यं चेत्युभयविधवाक्यम्। उपचारत्वकल्पना क्लिष्टैव। किञ्चपूर्वे इति विशेषणं पूर्वेणैव सम्बध्यते? परेणैव वोभाभ्यामपीति त्रयः पक्षाः? पक्षत्रयेऽपि चत्वारो मनवः प्रथमा एवेति सिध्यति आद्ये सप्तर्षीणां प्रथमत्वेन तत्साहचर्यात्? द्वितीयतृतीययोर्वचनादेवेति भावेनाह -- पूर्व इति। मयि भावो येषामिति व्याख्यानं प्रकृतासङ्गतं कारणत्वस्यात्र प्रकृतत्वादिति भावेनाह -- मत्त इति। भावो जन्म। ननुमानसा जाताः इत्यनेन भगवतस्तत्कारणत्वमुच्यते? मैवम्ततो मनून् इति वचनस्य सत्वेन ब्रह्मणो मानसा जाता इति व्याख्येयत्वात्? तर्हि कथं न व्याहतिः इत्यत आह -- ये त इति। मत्त एव ब्रह्मान्तर्यामिणः। ब्रह्मा तु द्वारमात्रमिति भावः।
।।10.6।।पूर्वे सप्तर्षयः -- मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठश्च महातेजाः इति मोक्षधर्मोक्ताः [म.भा.12।335।28]। ते हि सर्वपुराणेषु उच्यन्ते। चत्वारः प्रथमाः स्वायम्भुवाद्याः तेषां हीमाः प्रजाः -- नहि भविष्यतामिमाः प्रजा इति युक्तं -- विभागः प्राधान्यं च प्राथमिकत्वादेव भवति। गौतमखिलेषु चोक्तम् -- स्वायम्भुवं रोचिषं च रैवतं च तथोत्तमम्। वेद यः स प्रजावान् इति। पूर्वेभ्यो ह्युत्तरा जायन्त इत्येषां प्राधान्यम्। अजातेषु च ज्यैष्ठ्यम्।तामसस्य भगवदवतारत्वादनुक्तिः। तच्च भागवते प्रसिद्धम्। मानसत्वं च सर्वेषां मनूनामुक्तं भागवते ()ततो मनून्ससर्जान्ते मनसा लोकभावनान् [ ] इति। अन्यपुत्रत्वं त्वपरित्यज्यापि शरीरं तद्भवति। प्रमाणं चोभयविधवाक्यान्यथाऽनुपपत्तिरेव। पूर्व इति विशेषणाच्चैतत्सिद्धिः। मत्तो भावो येषां ते मद्भावाः। ये ते ब्रह्मणो मानसा जातास्ते मत्त एव जाता इति भावः।
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।10.6।।
মহর্ষযঃ সপ্ত পূর্বে চত্বারো মনবস্তথা৷ মদ্ভাবা মানসা জাতা যেষাং লোক ইমাঃ প্রজাঃ৷৷10.6৷৷
মহর্ষযঃ সপ্ত পূর্বে চত্বারো মনবস্তথা৷ মদ্ভাবা মানসা জাতা যেষাং লোক ইমাঃ প্রজাঃ৷৷10.6৷৷
મહર્ષયઃ સપ્ત પૂર્વે ચત્વારો મનવસ્તથા। મદ્ભાવા માનસા જાતા યેષાં લોક ઇમાઃ પ્રજાઃ।।10.6।।
ਮਹਰ੍ਸ਼ਯ ਸਪ੍ਤ ਪੂਰ੍ਵੇ ਚਤ੍ਵਾਰੋ ਮਨਵਸ੍ਤਥਾ। ਮਦ੍ਭਾਵਾ ਮਾਨਸਾ ਜਾਤਾ ਯੇਸ਼ਾਂ ਲੋਕ ਇਮਾ ਪ੍ਰਜਾ।।10.6।।
ಮಹರ್ಷಯಃ ಸಪ್ತ ಪೂರ್ವೇ ಚತ್ವಾರೋ ಮನವಸ್ತಥಾ. ಮದ್ಭಾವಾ ಮಾನಸಾ ಜಾತಾ ಯೇಷಾಂ ಲೋಕ ಇಮಾಃ ಪ್ರಜಾಃ৷৷10.6৷৷
മഹര്ഷയഃ സപ്ത പൂര്വേ ചത്വാരോ മനവസ്തഥാ. മദ്ഭാവാ മാനസാ ജാതാ യേഷാം ലോക ഇമാഃ പ്രജാഃ৷৷10.6৷৷
ମହର୍ଷଯଃ ସପ୍ତ ପୂର୍ବେ ଚତ୍ବାରୋ ମନବସ୍ତଥା| ମଦ୍ଭାବା ମାନସା ଜାତା ଯେଷାଂ ଲୋକ ଇମାଃ ପ୍ରଜାଃ||10.6||
maharṣayaḥ sapta pūrvē catvārō manavastathā. madbhāvā mānasā jātā yēṣāṅ lōka imāḥ prajāḥ৷৷10.6৷৷
மஹர்ஷயஃ ஸப்த பூர்வே சத்வாரோ மநவஸ்ததா. மத்பாவா மாநஸா ஜாதா யேஷாஂ லோக இமாஃ ப்ரஜாஃ৷৷10.6৷৷
మహర్షయః సప్త పూర్వే చత్వారో మనవస్తథా. మద్భావా మానసా జాతా యేషాం లోక ఇమాః ప్రజాః৷৷10.6৷৷
10.7
10
7
।।10.7।। जो मनुष्य मेरी इस विभूतिको और योगको तत्त्वसे जानता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मानता है, वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है; इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
।।10.7।। जो पुरुष इस मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है, वह पुरुष अविकम्प योग (अर्थात् निश्चल ध्यान योग) से युक्त हो जाता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।।
।।10.7।। जो इस मेरी विभूति और योग को तत्त्व से जानता है? वह ब्रह्मज्ञान में निष्ठा प्राप्त करता है। इस श्लोक में प्रयुक्त इन दो शब्दों विभूति और योग का जो अर्थ सदैव बताया जाता है वह क्रमश भूतमात्र का विस्तार और ऐश्वर्य सार्मथ्य है।यद्यपि ये अर्थ सही हैं? तथापि वे इतने प्रभावी नहीं हैं कि पूर्व श्लोक में वर्णित सिद्धांत और इस श्लोक के साथ उसकी सूक्ष्म और सुन्दर संगति को व्यक्त कर सकें। सप्तर्षियों के माध्यम से समष्टि विश्व की अभिव्यक्ति ही परमात्मा की विभूति है जबकि चार मानस पुत्रों द्वारा सृष्ट जीव (व्यष्टि) के अनुभव का जगत् आत्मा का दिव्य योग है। व्यष्टि जीव के जगत् का अधिष्ठान आत्मा ही परमात्मा (ब्रह्म) है? जो सम्पूर्ण विश्व का आधार है। अत? यहाँ कहा गया है कि? जो पुरुष विभूति और योग इन दोनों को ही परमात्मा की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में साक्षात् जानता है? वही पुरुष अनन्त ब्रह्म का अपरोक्ष अनुभव करता है।उपर्युक्त विवेचन द्वारा पूर्व श्लोक में कथित सप्तर्षि तथा चार कुमारों की ब्रह्माजी के मन से उत्पत्ति हुई की उपयुक्तता को समझने में कठिनाई नहीं रह जाती। जब परमात्मा व्यष्टि और समष्टि मनों से अपने तादात्म्य को त्याग देता है? तब वह अपनी स्वमहिमा में ही प्रतिष्ठित होकर रमता है। समष्टि उपाधि के साथ तादात्म्य से वह ब्रह्म ईश्वर बन जाता है? और व्यष्टि के साथ संबंध से जीवभाव को प्राप्त हो जाता है। वेदान्त के इस अभिप्राय को समझना और उसी अनुभव में जीना ही अविकम्प योग है। इस योग से ही आत्मानुभूति में दृढ़ और स्थायी निष्ठा प्राप्त होती है। योग शब्द से कुछ ऐसा अर्थ समाज में प्रचलित हो गया था कि लोगों के मन में उसके प्रति भय व्याप्त हो गया था। गीता में? महर्षि व्यास? स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से इस परिचित शब्द योग का अर्थ नए सन्दर्भ में इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि उसके प्रति व्याप्त आशंका निर्मूल हो जाती है और वह सबके लिए कल्याणकारक भी सिद्ध होता है। अविकम्प योग उतना ही अपूर्व है जितनी कि योग शब्द की विविध परिभाषायें हैं? जो गीता के पूर्वाध्यायों के विभिन्न श्लोकों में दी गयी हैं। गीता हिन्दूपुनरुत्थान की रचनात्मक क्रांति का वह एकमात्र धर्मग्रन्थ है? जिसका स्थान अन्य कोई ग्रन्थ नहीं ले सकता।आत्मस्वरूप के अखण्ड अनुभव में दृढ़ और स्थायी निष्ठा प्राप्त करने के लिए कौन सा निश्चित साधन है भगवान् श्रीकृष्ण अगले श्लोक में बताते हैं --
।।10.7।। व्याख्या --'एतां विभूतिं योगं च मम--एताम्' सर्वनाम अत्यन्त समीपका लक्ष्य कराता है। यहाँ यह शब्द चौथेसे छठे श्लोकतक कही हुई विभूति और योगका लक्ष्य कराता है।
।।10.6 -- 10.11।।महर्षय इत्यादि भास्वता इत्यन्तम्। परस्परबोधनया अन्योन्यबोधस्फारसंक्रमणात् सर्व एव हि प्रमातारः एक ईश्वर इति विततव्याप्त्या (S??N वितत्य व्याप्त्या) सुखेनैव सर्वशक्तिकसर्वगतस्वात्मरूपताधिगमेन (S -- ताधिशयनेन अधिगमेन) माहेश्वर्यमेषामिति भावः (After इति भावः ?N add तेषां सततयुक्तानाम् इत्यतः प्रभृति अध्यायान्ता टीका उट्टङ्किता युगपद्धि वेद्या। तेषामेव अनु च अर्जुनप्रश्नपद्यानि षट् उल्लिखति। श्रीभगवान् अथवा बहुना इति पर्यन्तानि पद्यानि 23,वक्ति।। These sentences are obviously of some copyist. It is to be noted however that the Mss. generally contain seven (not six) verses of Arjuna and then 24 (not 23) verses of the hagavan) ।
।।10.7।।विभूतिः ऐश्वर्यम्? एतां सर्वस्य मदायत्तोत्पत्तिस्थितिप्रवृत्तिरूपां विभूतिं मम हेयप्रत्यनीककल्याणगुणरूपं योगं च यः तत्त्वतो वेत्ति? सः अविकम्पेन अप्रकम्पेन भक्तियोगेन युज्यते? न अत्र संशयः।मद्विभूतिविषयं कल्याणगुणविषयं च ज्ञानं भक्तियोगवर्धनम् इति स्वयम् एव द्रक्ष्यसि इत्यभिप्रायः।विभूतिज्ञानविपाकरूपां भक्तिवृद्धिं दर्शयति --
।।10.7।।सोपाधिकं प्रभावं भगवतो दर्शयित्वा तज्ज्ञानफलमाह -- एतामिति। बुद्ध्याद्युपादानत्वेन विविधा भूतिर्भवनं वैभवं सर्वात्मकत्वं तदाह -- विस्तारमिति। ईश्वरस्य तत्तदर्थसंपादनसामर्थ्यं योगस्तदाह -- आत्मन इति। योगस्तत्फलमैश्वर्यं सर्वज्ञत्वं सर्वेश्वरत्वं च मदीयं शक्तिज्ञानलेशमाश्रित्य मन्वादयो भृग्वादयश्चेशते जानते च तदाह -- अथवेति। यथा तौ विभूतियोगौ तथा वेदनस्य निरङ्कुशत्वं दर्शयति -- यथावदिति। सोपाधिकं ज्ञानं निरुपाधिकज्ञाने द्वारमित्याह -- सोऽविकम्पेनेति। उक्तेऽर्थे प्रतिबन्धाभावमाह -- नास्मिन्निति।
।।10.7।।एतां विभूतिमिति। तथाविधैश्वर्यं च यो वेत्ति तत्त्वतः स भक्तिरूपेण योगेन युज्यते।
।।10.7।।एवं सोपाधिकस्य भगवतः प्रभावमुक्त्वा तज्ज्ञानफलमाह -- एतां प्रागुक्तां बुद्ध्यादिमहर्ष्यादिरूपां विभूतिं विविधभावं तत्तद्रूपेणावस्थितिं योगं च तत्तदर्थनिर्माणसामर्थ्यं। परमैश्वर्यमिति यावत्। मम यो वेत्ति तत्त्वतः यथावत्सोऽविकम्पेनाप्रचलितेन योगेन सम्यग्ज्ञानस्थैर्यलक्षणेन समाधिना युज्यते। नात्र संशयः प्रतिबन्धः कश्चित्।
।।10.7।।यथोक्तविभूत्यादितत्त्वज्ञानस्य फलमाह -- एतामिति। एतां भृग्वादिलक्षणां मम विभूतिं? योगं चैश्वर्यलक्षणं तत्त्वतो यो वेत्ति सोऽविकम्पेन निःसंशयेन योगेन सम्यग्दर्शनेन युक्तो भवति। नास्त्यत्र संशयः।
।।10.7।।एतां विभूतिं योगं च इति -- पूर्वोक्तार्थस्य बुद्धिस्थक्रमेणानुवादः।स्वकल्याण [गी.सं.14] इत्यादिसंग्रहश्लोके त्वयमेवार्थो यथाक्रममुक्तः तदनुसारेण पदार्थवाक्यार्थावाहविभूतिरैश्वर्यमित्यादिना।सर्वस्य मदायत्तोत्पत्तिस्थितिप्रवृत्तितारूपां विभूतिमिति। तन्निरूप्यत्वात्तत्तत्सामानाधिकरण्यम्। उत्पत्तिस्थित्योरपि सङ्कल्पाधीनत्वान्नियमनविषयत्वम्। प्रवृत्तिरिह स्वकार्यार्थव्यापारः? स्पन्दादेरसार्वत्रिकत्वात्।विभूतिर्भूतिरैश्वर्यम् [अमरः1।1।38] इति नैघण्टुकाः। विभुशब्दश्च नियन्तरि प्रयुक्तचरः। अतो विभवनमिह नियमनमेव वक्ति? तस्य भावार्थतास्वारस्यात् अनपवादाच्च। वस्त्वन्तरसामानाधिकरण्यवद्विभूतिशब्देषु तु नियन्तव्यविषयता वक्ष्यते। युज्यत इति व्युत्पत्त्या उभयलिङ्गत्वमिह योग उक्तः। ईश्वरेऽनीश्वरस्वभावभूतपारतन्त्र्यदुःखाज्ञानाद्यारोपमनीश्वरे चेश्वराधीनस्वातन्त्र्यादेः स्वतस्सिद्धत्वाद्यारोपं च परित्यज्येतितत्त्वतः इत्यस्य भावः।अविकम्प्येन इत्यत्र स्वतः कम्पराहित्यमात्रव्युदासेन बाधकशतैरप्यविचाल्यत्वं च दर्शयितुम् -- अप्रकम्प्येनेत्युक्तम्। पूर्वापरपरामर्शादुपासकान्वितयोगशब्दस्य योगविशेषनिष्ठतामाह -- भक्तियोगेनेति। शास्त्रसिद्धस्याप्यर्थस्य साक्षात्कारे सत्येव ह्यत्यन्तवैशद्यमित्यभिप्रायेणनात्र संशयः इत्यस्याशयं विशदयति -- मद्विभूतीति।
।।10.7।।एतन्निरूपणप्रयोजनमाह -- एतामिति। एतां मदनुभावरूपां भृग्वादिलक्षणां तां मम विभूतिं क्रीडार्थैकप्रकटिताम् च पुनः क्रीडार्थप्रकटितसामग्र्या मम योगं तत्त्वतः मल्लीलारूपेण यो वेत्ति सः? अविकम्पेन निश्चलेन मद्वियोगादिरहितेन योगेन मत्संयोगेन भक्तिरूपेण युज्यते? युक्तो भवतीत्यर्थः। नात्र संशयः? अत्र सन्देहो नास्तीत्यर्थः। अनेन सन्देहे सति न भवतीति ज्ञापितम्।
।।10.7।।उपास्तावधिकारिणमाह -- एतामिति। एतां वक्ष्यमाणां विभूतिं योगं च विश्वतोमुखे भगवति मनःसमाधानं यस्तत्त्वतो वेत्ति सम्यगनुष्ठातुं ज्ञातुं च समर्थो भवति सोऽविकम्पेनाचलेन निर्विकल्पकेन षष्ठाध्यायोक्तेन योगेन मद्विषयेण समाधिना युज्यते ततश्च कृतकृत्यो भवति। नात्र संशय इति प्रवृत्त्यतिशयार्थमुच्यते। भगवद्वचसि संशयासंभवात्।
।।10.7।।स्वप्रभावमुक्त्वा तज्ज्ञानफलमाह -- एतामिति। एतां यथोक्तां विभूतिं विविधभावं विस्तीरमितियावत्। परमात्मनस्तदर्थघटनसामर्थ्यं योगः यल्लेशसंबन्धेन भृग्वादयो ज्ञानादिमन्तो भवन्ति। यद्वा योगैश्वर्यसामर्थ्यं सर्वज्ञत्वं योगजन्यं योगशब्देनाभिधीयते। तं यस्तत्त्वतो यथावद्वेत्ति जानाति सोऽप्रकम्पेनाप्रचलितेन योगेन निरुपाधिब्रह्मसम्यग्ज्ञानलक्षणेन युज्यते युक्तो भवति। अस्मिन्नर्थे संशयो नास्ति।
10.7 एताम् this? विभूतिम् (manifold) manifestation of My Being? Commentary Knowledge of the glory of the Lord is really conducive to Yoga. He who knows in essence the immanent pervading power of the Lord by which He causes the manifestations? and His diverse manifestations (Vibhutis)? unites with Him in firm unalterable Yoga and attains eternal bliss and perfect harmony. From the ant to the Creator there is nothing except the Lord. He who knows in reality this extensive manifestation of the Lord and His Yoga (Yoga here stands for what is born of Yoga? viz.? infinite Yogic powers as well as omniscience)? is endowed with firm unwavering Yoga. He lives in the Eternal and is endowed with the highest knowledge of the Self. He who has realised this Truth is free from the superiority and inferiority complexes. There i real awakening of wisdom in him. He will behold the Lord in all beings and all beings in the Lord. He will never hate any creature on this earth. This is a rare living cosmic experience. The Yogi realises that the Lord and His manifestations are one. He attains the supreme goal and is absorbed in Him through his wholehearted devotion. He is perfectly aware of his oneness with the Supreme by My divine Yoga.He can keep his balance of mind now in whatever environments and circumstances he is placed and can do any action without losing his consciousness of oneness or identity with the Supreme Self. (Cf.VII.25IX.5XI.8)What is that unshaken Yoga with which they are endowedThe answer follows.
10.7 He who in truth knows these manifold manifestations of My Being and (this) Yoga-power of Mine becomes established in the unshakable Yoga; there is no doubt about it.
10.7 He who rightly understands My manifested glory and My Creative Power, beyond doubt attains perfect peace.
10.7 One who knows truly this majesty and yoga of Mine, he becomes imbued with unwavering Yoga. There is no doubt about this.
10.7 Yah, one who; vetti, knows; tattvatah, truly, i.e. just as it is; etam, this, aforesaid; vibhutim. majesty, (divine) manifestations; [Omnipresence.] and yogam, yoga, action, My own ability to achieve [God's omnipotence. (God's power of accomplishing the impossible.-M.S.)]-or, the capacity for mystic powers, the omniscience resulting from yoga (meditation), is called yoga; sah, he; yujyate, becomes imbued with; avikampena, unwavering; yogena, Yoga, consisting in steadfastness in perfect knowledge. [After realizing the personal God, he attains the transcendental Reality; the earlier knowledge leads to the latter.] There is no samsayah, doubt; atra, about this. With what kind of unwavering Yoga does he become endued? This is being answered:
10.7. He, who knows correctly this extensively manifesting power and the Yogic power of Mine-he is endowed with the unwavering Yoga. There is no doubt about it.
10.7 See Comment under 10.11
10.7 'Supernal manifestation' is the glory (Vibhuti) of the Lord. He who in truth knows this supernal manifestation that all origination, sustentation and activity depend on Me, and also that Yoga of Mine which is in the form of auspicious attributes antagonistic to all that is evil - such a person becomes united with the Yoga or Bhakti of an unshakable nature. Of this, there is no doubt. The meaning is: You yourself will see that the knowledge concerning the supernal manifestation and auspicious attributes of Mine will increase devotion. Sri Krsna now shows that the growth of devotion is of the form of the development of knowledge of His supreme state.
10.7 He who in truth knows this supernal manifestation and splendour of auspicious attributes of Mine, becomes, united with the unshakable Yoga of Bhakti. Of this, there is no doubt.
।।10.7।।मेरी इस उपर्युक्त विभूतिको अर्थात् विस्तारको और योग -- युक्तिको अर्थात् अपनी मायिक घटनाको? अथवा योगसे उत्पन्न हुई सर्वज्ञतारूप सामर्थ्यको जो कि योगशब्दसे कही जाती है? जो तत्त्वसे -- यथार्थ जानता है? वह पुरुष पूर्ण ज्ञानकी स्थिरतारूप निश्चल योगसे युक्त हो जाता है? इस विषयमें ( कुछ भी ) संशय नहीं है।
।।10.7।। --,एतां यथोक्तां विभूतिं विस्तारं योगं च युक्तिं च आत्मनः घटनम्? अथवा योगैश्वर्यसामर्थ्यं सर्वज्ञत्वं योगजं योगः उच्यते? मम मदीयं योगं यः वेत्ति तत्त्वतः तत्त्वेन यथावदित्येतत्? सः अविकम्पेन अप्रचलितेन योगेन सम्यग्दर्शनस्थैर्यलक्षणेन युज्यते संबध्यते। न अत्र संशयः न अस्मिन् अर्थे संशयः अस्ति।।कीदृशेन अविकम्पेन योगेन युज्यते इत्युच्यते --,
null
null
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।10.7।।
এতাং বিভূতিং যোগং চ মম যো বেত্তি তত্ত্বতঃ৷ সোবিকম্পেন যোগেন যুজ্যতে নাত্র সংশযঃ৷৷10.7৷৷
এতাং বিভূতিং যোগং চ মম যো বেত্তি তত্ত্বতঃ৷ সোবিকম্পেন যোগেন যুজ্যতে নাত্র সংশযঃ৷৷10.7৷৷
એતાં વિભૂતિં યોગં ચ મમ યો વેત્તિ તત્ત્વતઃ। સોવિકમ્પેન યોગેન યુજ્યતે નાત્ર સંશયઃ।।10.7।।
ਏਤਾਂ ਵਿਭੂਤਿਂ ਯੋਗਂ ਚ ਮਮ ਯੋ ਵੇਤ੍ਤਿ ਤਤ੍ਤ੍ਵਤ। ਸੋਵਿਕਮ੍ਪੇਨ ਯੋਗੇਨ ਯੁਜ੍ਯਤੇ ਨਾਤ੍ਰ ਸਂਸ਼ਯ।।10.7।।
ಏತಾಂ ವಿಭೂತಿಂ ಯೋಗಂ ಚ ಮಮ ಯೋ ವೇತ್ತಿ ತತ್ತ್ವತಃ. ಸೋವಿಕಮ್ಪೇನ ಯೋಗೇನ ಯುಜ್ಯತೇ ನಾತ್ರ ಸಂಶಯಃ৷৷10.7৷৷
ഏതാം വിഭൂതിം യോഗം ച മമ യോ വേത്തി തത്ത്വതഃ. സോവികമ്പേന യോഗേന യുജ്യതേ നാത്ര സംശയഃ৷৷10.7৷৷
ଏତାଂ ବିଭୂତିଂ ଯୋଗଂ ଚ ମମ ଯୋ ବେତ୍ତି ତତ୍ତ୍ବତଃ| ସୋବିକମ୍ପେନ ଯୋଗେନ ଯୁଜ୍ଯତେ ନାତ୍ର ସଂଶଯଃ||10.7||
ētāṅ vibhūtiṅ yōgaṅ ca mama yō vētti tattvataḥ. sō.vikampēna yōgēna yujyatē nātra saṅśayaḥ৷৷10.7৷৷
ஏதாஂ விபூதிஂ யோகஂ ச மம யோ வேத்தி தத்த்வதஃ. ஸோவிகம்பேந யோகேந யுஜ்யதே நாத்ர ஸஂஷயஃ৷৷10.7৷৷
ఏతాం విభూతిం యోగం చ మమ యో వేత్తి తత్త్వతః. సోవికమ్పేన యోగేన యుజ్యతే నాత్ర సంశయః৷৷10.7৷৷
10.8
10
8
।।10.8।। मैं संसारमात्रका प्रभव (मूलकारण) हूँ, और मुझसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है -- ऐसा मेरेको मानकर मेरेमें ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं -- सब प्रकारसे मेरे ही शरण होते हैं।
।।10.8।। मैं ही सबका प्रभव स्थान हूँ; मुझसे ही सब (जगत्) विकास को प्राप्त होता है, इस प्रकार जानकर बुधजन भक्ति भाव से युक्त होकर मुझे ही भजते हैं।।
।।10.8।। व्यष्टि और समष्टि में जो भेद है वह उन उपाधियों के कारण है? जिनके माध्यम से एक ही सनातन? परिपूर्ण सत्य प्रकट होता है। इन दो उपाधियों के कारण ब्रह्म को ही क्रमश जीव और ईश्वर भाव प्राप्त होते हैं जैसे एक ही विद्युत् शक्ति बल्ब और हीटर में क्रमश प्रकाश और ताप के रूप में व्यक्त होती है। स्वयं विद्युत् में न प्रकाश है और न उष्णता। इसी प्रकार स्वयं परमात्मा में न ईश्वर भाव है और न जीव भाव। जो पुरुष इसे तत्त्वत जानता है वह अविकम्प योग के द्वारा ब्रह्मनिष्ठता को प्राप्त होता है।एक कुम्भकार कुम्भ बनाने के लिए सर्वप्रथम घट के निर्माण के उपयुक्त लचीली मिट्टी तैयार करता है। तत्पश्चात् उस मिट्टी के गोले को चक्र पर रखकर घटाकृति में परिवर्तित करता है। तीसरी अवस्था में घट को सुखाकर उसे चमकीला किया जाता है और चौथी अवस्था में उस तैयार घट को पकाकर उस पर रंग लगाया जाता है। घट निर्माण की इस क्रिया में मिट्टी निश्चय ही कह सकती है कि वह घट का प्रभव स्थान है। चार अवस्थाओं में घट का जो विकास होता है? उसका भी अधिष्ठान मिट्टी ही थी? न कि अन्य कोई वस्तु। यह बात सर्वकालीन घटों के सम्बन्ध में सत्य है। किसी भी घट की उत्पत्ति? वृद्धि और विकास उसके उपादान कारणभूत मिट्टी के बिना नहीं हो सकता। इसी प्रकार एक ही चैतन्यस्वरूप परमात्मा? ईश्वर और जीव के रूप में प्रतीत होता है।जिस पुरुष ने विवेक के द्वारा व्यष्टि और समष्टि के इस सूक्ष्म भेद को समझ लिया है? वही पुरुष अपने मन को बाह्य जगत् से निवृत्त करके इन दोनों के अधिष्ठान स्वरूप आत्मा में स्थिर कर सकता है। मन के इस भाव को ही यहाँ इस अर्थपूर्ण शब्द भावसमन्विता के द्वारा दर्शाया गया है।प्रेम या भक्ति का मापदण्ड है पुरुष की अपनी प्रिय वस्तु के साथ तादात्म्य करने की क्षमता। संक्षेपत? प्रेम की परिपूर्णता इस तादात्म्य की पूर्णता में है। जब एक भक्त स्वयं यह अनुभव कर लेता है कि एक परमात्मा ही समष्टि और व्यष्टि की अन्तकरण की उपाधियों के माध्यम से मानो ईश्वर और जीव बन गया है? तब वह पराभक्ति को प्राप्त भक्त कहा जाता है।जिस भक्ति के विषय में पूर्व श्लोक में केवल एक संकेत ही किया गया था? उसी को यहाँ क्रमबद्ध करके एक साधना का रूप दिया गया है? जिसके अभ्यास से उपर्युक्त ज्ञान प्रत्येक साधक का अपना निजी और घनिष्ट अनुभव बन सकता है।
।।10.8।। व्याख्या --[पूर्व श्लोककी बात ही इस श्लोकमें कही गयी है। 'अहं सर्वस्य प्रभवः' में 'सर्वस्य' भगवान्की विभूति है अर्थात् देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ आ रहा है, वह सब-की-सब भगवान्की विभूति ही है। 'मत्तः सर्वं प्रवर्तते' में 'मत्तः' भगवान्का योग (प्रभाव) है, जिससे सभी विभूतियाँ प्रकट होती हैं। सातवें, आठवें और नवें अध्यायमें जो कुछ कहा गया है, वह सबकासब इस श्लोकके पूर्वार्धमें आ गया है।] 'अहं सर्वस्य प्रभवः' -- मानस, नादज, बिन्दुज, उद्भिज्ज, जरायुज, अण्डज, स्वेदज अर्थात् जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम यावन्मात्र जितने प्राणी होते हैं, उन सबकी उत्पत्तिके मूलमें परमपिता परमेश्वरके रूपमें मैं ही हूँ (टिप्पणी प0 543)।
।।10.6 -- 10.11।।महर्षय इत्यादि भास्वता इत्यन्तम्। परस्परबोधनया अन्योन्यबोधस्फारसंक्रमणात् सर्व एव हि प्रमातारः एक ईश्वर इति विततव्याप्त्या (S??N वितत्य व्याप्त्या) सुखेनैव सर्वशक्तिकसर्वगतस्वात्मरूपताधिगमेन (S -- ताधिशयनेन अधिगमेन) माहेश्वर्यमेषामिति भावः (After इति भावः ?N add तेषां सततयुक्तानाम् इत्यतः प्रभृति अध्यायान्ता टीका उट्टङ्किता युगपद्धि वेद्या। तेषामेव अनु च अर्जुनप्रश्नपद्यानि षट् उल्लिखति। श्रीभगवान् अथवा बहुना इति पर्यन्तानि पद्यानि 23,वक्ति।। These sentences are obviously of some copyist. It is to be noted however that the Mss. generally contain seven (not six) verses of Arjuna and then 24 (not 23) verses of the hagavan) ।
।।10.8।।अहं सर्वस्य विचित्रचिदचित्प्रपञ्चस्य प्रभवः उत्पत्तिकारणम् सर्वं मत्त एव प्रवर्तते इति इदं मम स्वाभाविकं निरङ्कुशैश्वर्यं सौशील्यसौन्दर्यवात्सल्यादिकल्याणगुणगणयोगं च मत्वा बुधाः ज्ञानिनो भावसमन्विताः मां सर्वकल्याणगुणान्वितं भजन्ते। भावो मनोवृत्तिविशेषः? मयि स्पृहयालवो मां भजन्त इत्यर्थः।कथम् --
।।10.8।।कथं तावकविभूत्यैश्वर्यज्ञानमुक्तयोगस्य हेतुरिति मत्वा पृच्छति -- कीदृशेनेति। उक्तज्ञानमाहात्म्यात्प्रतिष्ठिता भगवन्निष्ठा सिद्ध्यतीत्याह -- उच्यत इति। प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः सर्वप्रकृतिः सर्वात्मेत्याह -- उत्पत्तिरिति। सर्वज्ञात्सर्वेश्वरान्मत्तो निमित्तात्सस्थितिनाशादि भवति मया चान्तर्यामिणा प्रेर्यमाणं सर्वं यथास्वं मर्यादामनतिक्रम्य चेष्टते तदाह -- मत्त इति। इत्थं मम सर्वात्मत्वं सर्वप्रकृतित्वं सर्वेश्वरत्वं सर्वज्ञत्वं च महिमानं ज्ञात्वा मय्येव निष्ठावन्तो भवन्तीत्याह -- इत्येवमिति। संसारासारताज्ञानवतां भगवद्भजनेऽधिकारं द्योतयति -- अवगतेति। परमार्थतत्त्वे पूर्वोक्तरीत्या ज्ञाते प्रेमादरावभिनिवेशाख्यौ भवतस्तेन संयुक्तत्वं च भगवद्भजने भवति हेतुरित्याह -- भावेति।
।।10.8 -- 10.10।।विभूतियोगज्ञानविपाकरूपभक्तिविवृद्धिं दर्शयति चतुर्भिः पुमर्थरूपैः अहमित्यादिभिः -- अहं सर्वस्य प्रभव इत्यादि। विश्वोत्पादकत्वप्रवर्त्तकत्वरूपस्वयोगविभूतिस्वरूपाविष्करणं इत्येवं मम योगं विभूतिं च भगवन्मार्गीयाचार्योपदेशद्वारा मयि भावो भक्तिस्तया समन्विता मां सेवन्ते बुधाः। एते च माहात्म्यज्ञानपूर्वकभक्तिमन्तो भगवत्सेवकाः स्वरूपतो निर्दिश्यन्ते भगवन्मार्गीया उद्धवादय इव। मच्चित्ता इति मदर्पितान्तःकरणाः। मद्गतप्राणा इति -- प्राणशब्द इन्द्रियप्राणवाचक इति मदर्पितेन्द्रियप्राणाः मयि सततं युक्ता देहेनेति? समर्पितदेहाः आत्मना वा भगवति सततं युक्ताः अयमेव ब्रह्मसम्बन्धः भगवते कृष्णाय दारागारपुत्राप्त -- इतिवाक्यात्आत्मना सह तत्तदीहापराणि देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणानि तद्धर्मांश्च समर्पयित्वा स्वयं दासभूता नित्यं भगवन्तं भजन्ते सेवामार्गप्रकारेण सेवन्ते? न पूजाडम्बरेणेति? सेवायां स्थितिस्तेषामुक्तासेवायां वा कथायां वा इति भक्तिवर्द्धिन्यां कथायां च स्थितिमाह -- परस्परं बोधयन्तः कथयन्तश्च मां इति। तदपि नित्यं? न तु नैमित्तिकम्। तथैव च तुष्यन्ति मनउत्सवादिषु च रमन्ति अनुकरणेन वा क्री़डन्ति तथाभूतानां तेषां प्रीतिपूर्वकं पुष्टिमर्यादानुकूलापरानुरक्तिरीश्वरे सर्वात्मना प्रीतिस्तत्पूर्वकं भजतां सेवतां -- अनेनचेतस्तत्प्रवणं सेवा इति मानसीस्वरूपमुक्तं -- तेषामेव बुद्धियोगं विपाकदशामापन्नं ददामि येन ते मां पुरुषोत्तमं उप समीप एव प्राप्ता भवन्ति। इत्थं तेषां निर्गुणमुक्तिर्भावितया सूचिता।
।।10.8।।यादृशेन विभूतियोगयोर्ज्ञानेनाविकम्पयोगप्राप्तिस्तद्दर्शयति चतुर्भिः -- अहं परं ब्रह्म वासुदेवाख्यं सर्वस्य जगतः प्रभव उत्पत्तिकारणमुपादानां निमित्तं च। स्थितिनाशादि च सर्वं मत्त एव प्रवर्तते भवति। मयैवान्तर्यामिणा सर्वज्ञेन सर्वशक्तिना प्रेर्यमाणं स्वस्वमर्यादामनतिक्रम्य सर्वं जगत्प्रवर्तते चेष्टत इति वा। इत्येवं मत्वा बुधा विवेकेनावगततत्त्वाभावेन परमार्थतत्त्वग्रहणरूपेण प्रेम्णा समन्विताः सन्तो मां भजन्ते।
।।10.8।। यथा च विभूतियोगयोर्ज्ञानेन सम्यग्ज्ञानावाप्तिस्तद्दर्शयति -- अहमित्यादिचतुर्भिः। अहं सर्वस्य जगतः प्रभवो भृग्वादिरूपविभूतिद्वारेणोत्पत्तिहेतुः। मत्त एव चास्य सर्वस्यबुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः इत्यादि सर्वं प्रवर्तत इति? एवं मत्वाऽवबुध्य बुधा विवेकिनो भावसमन्विताः प्रीतियुक्ता मां भजन्ते।
।।10.8।।उक्तार्थस्यानन्तरमुदाहरणप्रदर्शनमुखेन प्रपञ्चनं क्रियत इत्यभिप्रायेणाह -- विभूतिज्ञानेति। तदेव हि ज्ञानं भक्तिरूपेण परिणमत इत्यभिप्रायेण विभूतिज्ञानविपाकरूपत्वोक्तिः। असङ्कोचात्कार्यभूतब्रह्मादिसमस्तगोचरः सर्वशब्द इत्यभिप्रायेणविचित्रेत्यादिकमुक्तम्। प्रभवशब्दस्यात्रोत्पत्तिक्रियादिमात्रपरत्वव्युदासायाह -- उत्पत्तिकारणमिति। अत्र वक्ष्यमाणप्रकारेण सृष्ट्युपयुक्तकल्याणगुणयोगोऽपि गर्भितः। ब्रह्मादेरपि स्वप्रवृत्तिसामर्थ्यं मदधीनमितिमत्तः सर्वम् इत्यनेन विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहसर्वं मत्त एवेति। पूर्वोक्तविभूत्याद्यनुवादरूपतां दर्शयतिइतीदमित्यादिना। स्वाभाविकनिरंकुशशब्दाभ्यां अर्वाचीनेश्वरव्यवच्छेदाय श्रुतिसिद्धाहेतुसाध्यत्वानवधिकत्वोक्तिः। वक्तृरूपावतारसौलभ्यपरास्मच्छब्दाभिप्रेतंमां भजन्ते इत्युच्यमानभजनस्यात्यन्तोपयुक्तं योगशब्दार्थमाह --,सौशील्येत्यादिना।सौशील्यवात्सल्येति दिव्यात्मगुणवर्गस्य प्रदर्शनार्थम्?सौन्दर्येत्याकर्षकतमदिव्यमङ्गलविग्रहगुणवर्गस्य। बुधशब्देनात्र प्रकृतज्ञानविशेषवन्तः प्रागुक्ता महात्मानो विवक्षिता इत्यभिप्रायेणज्ञानिन इत्युक्तम्। मत्वा भावसमन्विता इत्यन्वयः। एवंविधज्ञानस्य भक्तिसाधनत्वे तात्पर्यात्।माम् इत्यनेनात्र भजनदशानुसन्धेयगुणगणविशिष्टस्वरूपं विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तंसर्वकल्याणगुणान्वितमिति। अनेकार्थस्य भावशब्दस्य प्रकृतानुगुणमर्थमाह -- भावो मनोवृत्तिविशेष इति। तमेव विशेषं विशदयति -- मयि स्पृहयालव इति।
।।10.8।।एवं ज्ञानिनो भक्तियुक्तत्वं विशदयति -- अहमिति चतुर्भिः। अहं सर्वस्य जगतः प्रभव उत्पत्तिस्थानं? सर्वं जगत् मत्तःबुद्धिर्ज्ञानं [10।4] इत्यादिरीत्या भृग्वाद्युक्तधर्मादिरीत्या च प्रवर्तते? मत्क्रीडार्थकभावयुक्तं भवतीत्यर्थः। भावंसमन्विताः मत्सेवनैकप्रयत्नवन्तः सन्तो बुधाः पण्डिता विवेकिनः? इति अमुना प्रकारेण क्रीडात्मकतया प्रकटीभूतरूपं मां भजन्ते सेवन्ते।
।।10.8।।उपासनास्वरूपमाह द्वाभ्याम् -- अहमिति। बुधा मां प्रत्यगात्मानमिति मत्वा भजन्ते। इति कथम्। अहमेव सर्वस्य जगतः प्रभव उत्पत्तिः। मत्तो मदनुग्रहं प्राप्यैव सर्वं बुद्ध्यादिकं स्वस्वकार्याय प्रवर्तते। अहमेव,जगतः कर्तान्तर्यामी चेत्यहंग्रहेणात्मानमुपासीतेति भावः। भावसमन्विताः भावनायुक्ताः एतच्चोत्तरार्थम्।
।।10.8।।ननु कथं तावकविभूतियोगज्ञानेनाविकम्पयोगप्राप्तिस्तवोपासनायास्तत्प्राप्तिसाधनत्वादित्याशङ्क्य विभूतियोगज्ञानमहिम्ना प्राप्त्या मदुपादनया मद्गतेनाविकम्पयोगेन युज्यते इत्याह -- अहमिति चतुर्भिः। अहं परमात्मा वासुदेवाभिधः सर्वस्य ब्रह्मादिस्थावरान्तस्य प्रभवः प्रभवत्यस्मादिति प्रभवः प्रकृतिरभिन्ननिमित्तोपादानं मत्त एव सर्वज्ञानत्सर्वेश्वरात्सर्वं स्थितिनाशक्रियाफलोपभोगलक्षणं जगत्प्रवर्तते इति मत्वा वासुदेवएव सर्वात्मा सर्वेश्वरः सर्वज्ञः सर्वोपादानं सर्वनियन्ता भजनीय इत श्रुत्वा मननेन निशित्य भजन्ते सेवन्ते। के ते इत्यत आह -- बुधा अवगतसंसारतत्त्वाः। संसारासारज्ञानवतामेव भगवद्भजनेऽधिकार इति भावः। भावो भावना अयमेव भगवान्वासुदेवः परमार्थतत्त्वं इत्यभिनिवेशस्तेन सम्यक् युक्ताः।
10.8 अहम् I? सर्वस्य of all? प्रभवः the source? मत्तः from Me? सर्वम् everything? प्रवर्तते evolves? इति thus? मत्वा understanding? भजन्ते worship? माम् Me? बुधाः the wise? भावसमन्विताः endowed with meditation. Commentary Waves originate in water? depend on water and dissolve in water. The only support for the waves is water. Even so the only support for the whole world is the Lord. Realising this? feeling the omnipresence of the Lord? the wise worship Him with devotion and affection in all places. The Supreme is the same in all countries and at all times. He is the material and the efficient cause.As Mulaprakriti or Avyaktam the Lord is the source of all forms. The Lord is the primum mobile. He gazes at His Sakti (creative power) and the whole world evolves and the forms move. The worldly man who has neither sharp nor subtle intellect beholds the changing forms only through the fleshly eyes. He has no idea of the Indwelling Presence? the substratum? the allpervading intelligence or the blissful consciousness. He is allured by the passing forms. He fixes his hopes and joy on these transitory forms. He lives and exerts for them. He rejoices when he gets a wife and children. If these forms pass away he is drowned in sorrow. But the wise ones constantly dwell in the Supreme? the source and the life of all? and enjoy the eternal bliss of the immortal? inner Self? their own nondual Atman? albeit all these forms around them change and pass away. They are steadfast in Yoga. They are endowed with unshakable Yoga. They are enthroned in Yoga. They worship the Supreme in contemplation and enjoy the indescribable bliss of Nirvikalpa Samadhi.Para Brahman? known as Vaasudeva? is the source of the whole world. From Him alone evolves the whole world with all its changes? viz.? existence (Sthiti)? destruction (Nasa)? action (Kriya)? fruit (Phala) and enjoyment (Bhoga). Understanding thus? the wise adore the Supreme Being and engage themselves in profound meditation on the Absolute. (Cf.IX.10)
10.8 I am the source of all; from Me everything evolves; understanding thus, the wise, endowed with meditation, worship Me.
10.8 I am the source of all; from Me everything flows. Therefore the wise worship Me with unchanging devotion.
10.8 I am the origin of all; everything moves on owing to Me. Realizing thus, the wise ones, filled with fervour, adore Me.
10.8 Aham, I, the supreme Brahman called Vasudeva; am the prabhavah, origin; sarvasya, of all, of the whole world; sarvam, everything, the whole world of changes, consisting of continuance, destruction, action and enjoyment of the fruits of action; pravartate, moves on; mattah, owing to Me alone. Matva, realizing; iti, thus; the budhah, wise ones, the knowers of the supreme Reality; bhava-samanvitah, filled with fervour-bhava is the same as bhavana, meaning ardent longing for the supreme Reality; filled (samanvitah) with that, i.e. imbued with that; bhajante, adore; mam, Me. Besides,
10.8. 'He is the source of all and from Him all comes forth' - Thus viewing, the wise men revere Me with devotion.
10.8 See Comment under 10.11
10.8 I am the 'origin', namely, the cause of originating everything in this universe consisting of wonderful sentient and non-sentient beings. From Me proceed everything. Thinking thus of My sovereignty, natural and unhindered, and knowing Me as endowed with a multitude of auspicious attributes like condescension, beauty, parental affection etc., the wise or the men of knowledge worship Me with devotion endowed as I am with all auspicious attributes. 'Bhava' is a particular disposition, here a loving disposition, of the mind. The meaning is that they worship Me with intense yearning of the heart. How?
10.8 I am the origin of all; from Me proceed everything thinking thus the wise worship Me with all devotion (Bhava).
।।10.8।।किस प्रकारके अविचल योगसे युक्त हो जाता है सो कहा जाता है --, मैं वासुदेव नामक परब्रह्म समस्त जगत्की उत्पत्तिका कारण हूँ? और मुझसे ही यह स्थिति? नाश? क्रिया और कर्मफलोपभोगरूप विकारमय सारा जगत् घुमाया जा रहा है। इस अभिप्रायको ( अच्छी प्रकार ) समझकर भावसमन्वित -- परमार्थतत्त्वकी धारणासे युक्त हुए? बुद्धिमान् -- तत्त्वज्ञानी पुरुष? मुझे भजते हैं अर्थात् मेरा चिन्तन किया करते हैं।
।।10.8।। --,अहं परं ब्रह्म वासुदेवाख्यं सर्वस्य जगतः प्रभवः उत्पत्तिः। मत्तः एव स्थितिनाशक्रियाफलोपभोगलक्षणं विक्रियारूपं सर्वं जगत् प्रवर्तते। इति एवं मत्वा भजन्ते सेवन्ते मां बुधाः अवगतपरमार्थतत्त्वाः? भावसमन्विताः भावः भावना परमार्थतत्त्वाभिनिवेशः तेन समन्विताः संयुक्ताः इत्यर्थः।।किञ्च --,
।।10.8 -- 10.10।।ननुएतां विभूतिम् [10।7] इति परिज्ञातुः फलमुक्तं तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यतस्तात्पर्यान्तरमाह -- सन्ति चेति। उक्तफले विश्वासजननार्थमिति शेषः।
।।10.8 -- 10.10।।सन्ति च भजन्तः केचिदित्याह -- अहमित्यादिना।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।10.8।।
অহং সর্বস্য প্রভবো মত্তঃ সর্বং প্রবর্ততে৷ ইতি মত্বা ভজন্তে মাং বুধা ভাবসমন্বিতাঃ৷৷10.8৷৷
অহং সর্বস্য প্রভবো মত্তঃ সর্বং প্রবর্ততে৷ ইতি মত্বা ভজন্তে মাং বুধা ভাবসমন্বিতাঃ৷৷10.8৷৷
અહં સર્વસ્ય પ્રભવો મત્તઃ સર્વં પ્રવર્તતે। ઇતિ મત્વા ભજન્તે માં બુધા ભાવસમન્વિતાઃ।।10.8।।
ਅਹਂ ਸਰ੍ਵਸ੍ਯ ਪ੍ਰਭਵੋ ਮਤ੍ਤ ਸਰ੍ਵਂ ਪ੍ਰਵਰ੍ਤਤੇ। ਇਤਿ ਮਤ੍ਵਾ ਭਜਨ੍ਤੇ ਮਾਂ ਬੁਧਾ ਭਾਵਸਮਨ੍ਵਿਤਾ।।10.8।।
ಅಹಂ ಸರ್ವಸ್ಯ ಪ್ರಭವೋ ಮತ್ತಃ ಸರ್ವಂ ಪ್ರವರ್ತತೇ. ಇತಿ ಮತ್ವಾ ಭಜನ್ತೇ ಮಾಂ ಬುಧಾ ಭಾವಸಮನ್ವಿತಾಃ৷৷10.8৷৷
അഹം സര്വസ്യ പ്രഭവോ മത്തഃ സര്വം പ്രവര്തതേ. ഇതി മത്വാ ഭജന്തേ മാം ബുധാ ഭാവസമന്വിതാഃ৷৷10.8৷৷
ଅହଂ ସର୍ବସ୍ଯ ପ୍ରଭବୋ ମତ୍ତଃ ସର୍ବଂ ପ୍ରବର୍ତତେ| ଇତି ମତ୍ବା ଭଜନ୍ତେ ମାଂ ବୁଧା ଭାବସମନ୍ବିତାଃ||10.8||
ahaṅ sarvasya prabhavō mattaḥ sarvaṅ pravartatē. iti matvā bhajantē māṅ budhā bhāvasamanvitāḥ৷৷10.8৷৷
அஹஂ ஸர்வஸ்ய ப்ரபவோ மத்தஃ ஸர்வஂ ப்ரவர்ததே. இதி மத்வா பஜந்தே மாஂ புதா பாவஸமந்விதாஃ৷৷10.8৷৷
అహం సర్వస్య ప్రభవో మత్తః సర్వం ప్రవర్తతే. ఇతి మత్వా భజన్తే మాం బుధా భావసమన్వితాః৷৷10.8৷৷
10.9
10
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।।10.9।।। मेरेमें चित्तवाले, मेरेमें प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन आपसमें मेरे गुण, प्रभाव आदिको जानते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मेरेमें प्रेम करते हैं।
।।10.9।। मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों (इन्द्रियों) को अर्पित करने वाले भक्तजन, सदैव परस्पर मेरा बोध कराते हुए, मेरे ही विषय में कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं।।
।।10.9।। जब मन सुगठित और एकाग्र होता है? तभी साधक उस मन के द्वारा परमात्मा का ध्यान सफलतापूर्वक कर सकता है। ध्येय से भिन्न विषय का विचार उठने पर यह एकाग्रता भंग हो जाती है। विद्युत् के सभी उपकरणों में विद्युत् शक्ति देखने? अथवा मिट्टी से बने घटों में मिट्टी को पहचानने में हमें कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं होती अथवा कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता? क्योंकि उनका हमें दृढ़ ज्ञान होता है। इसी प्रकार? एक बार निश्चयात्मक रूप से यह जान लेने पर कि ईश्वर और जीव का वास्तविक स्वरूप एक चैतन्य आत्मा ही है? मन में किसी भी प्रकार की वृत्ति उठने पर भी सत्य के साधक को इस आत्मा का भान बनाये रखने में कोई कठिनाई नहीं होती। इस्ा आशय को यहाँ मच्चिता इस शब्द से स्पष्ट किया गया है।समस्त प्राणों अर्थात् इन्द्रियों को मुझमें अर्पित करके (मद्गतप्राणा) प्राण शब्द से केवल प्राणवायु से ही तात्पर्य नहीं समझना चाहिए। प्राणियों के शरीर में होने वाली पाचनादि क्रियाओं को प्राण शब्द से दर्शाया जाता है। किन्तु यहाँ इस शब्द का प्रयोग मुख्यत पाँच ज्ञानेन्द्रियों को सूचित करने के लिए किया गया है। ये इन्द्रियाँ ही वे पाँच द्वार या वातायन हैं? जिनके द्वारा मन बाह्य विषयों में विचरण करता है और इनके माध्यम से ही जगत् के विषय मन में प्रवेश करते हैं। वेदान्त कभी भी इन विषयों से पलायन का उपदेश नहीं देता। इस जगत् में जीते हुए विषयों से पलायन कदापि सम्भव नहीं हो सकता। ज्ञानमार्ग विवेकपूर्ण विचार का मार्ग है। इसमें विवेक के द्वारा मन को इस प्रकार संयमित और प्रशिक्षित किया जाता है कि जब कभीभी बाह्य विषय मन पर अपना प्रभाव डालते हैं? तत्काल ही साधक को अपने उस आत्मस्वरूप का स्मरण हो जाता है? जिसके बिना वे विषय कभी प्रकाशित नहीं हो सकते थे।परस्पर चर्चा करते हुए किसी एक विषय में समान बौद्धिक रुचि के विद्यार्थीगण जब आपस में उस विषय की चर्चा करते हैं? तब न केवल वे अपने ज्ञान को स्पष्टत व्यक्त करते हैं? वरन् इस प्रक्रिया में उनका ज्ञान दृ88ढ़ निश्चयात्मक रूप भी ले लेता है जो प्रारम्भ में केवल पुस्तकीय ज्ञान ही था। परिसंवाद की इस सर्वविदित पद्धति का वेदान्त में अथक रूप से अनुमोदन एवं उपदेश दिया गया है। वेदान्त में इसका नाम है ब्रह्माभ्यास जो साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।अध्यात्म का सच्चा साधक वही है? जो अपने मन और इन्द्रियों की सभी प्रकार की क्रियाओं में आत्मा का स्मरण बनाये रखता है। इसका एक उपाय है आत्म विषय में अन्य साधकजनों के साथ चर्चा एवं निदिध्यासन। ऐसे साधक साधना के फलस्वरूप उस परम आनन्द को प्राप्त करते हैं? जो उनके जीवन रथ के चक्रों के लिए पथरीले मार्ग पर सरलता से अग्रसर होने के लिए चिकने तेल का काम करता है और यात्रा को सुगम बना देता है। तुष्यन्ति और रमन्ति के भाव को ही उपनिषदों में सुन्दर प्रकार से क्रीडन्ति और रमन्ति शब्दों के द्वारा इंगित किया गया है।भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं कि पूर्णत्व का साधक जब विचार मार्ग पर अग्रसर होता है तब उसी समय उसे सन्तोष और रमण का अनुभव होता है। सन्तोष और आनन्द से मन में ऐसा सुन्दर वातावरण निर्मित होता है? जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए अत्यन्त अनुकूल बनकर साधक की सफलता निश्चित कर देता है। सदैव असन्तुष्ट? शोक मनाने वाले मानसिक स्तब्धता और बौद्धिक दरिद्रता का चित्र प्रस्तुत करने वाले साधक कदापि अपने इस परम आनन्दस्वरूप में प्रवेश नहीं कर सकते हैं।प्रगति की इस सीमा तक पहुँचने पर साधकों को कहाँ से मार्गदर्शन और बल मिलता है जिससे वे अपनी यात्रा के लक्ष्य तक पहुँचते हैं इसका उत्तर है --
।।10.9।। व्याख्या--[भगवान्से ही सब उत्पन्न हुए हैं और भगवान्से ही सबकी चेष्टा हो रही है अर्थात् सबके मूलमें परमात्मा है -- यह बात जिनको दृढ़तासे और निःसन्देहपूर्वक जँच गयी है, उनके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। बस, उनका एक ही काम रहता है -- सब प्रकारसे भगवान्में ही लगे रहना। यही बात इस श्लोकमें बतायी गयी है।]
।।10.6 -- 10.11।।महर्षय इत्यादि भास्वता इत्यन्तम्। परस्परबोधनया अन्योन्यबोधस्फारसंक्रमणात् सर्व एव हि प्रमातारः एक ईश्वर इति विततव्याप्त्या (S??N वितत्य व्याप्त्या) सुखेनैव सर्वशक्तिकसर्वगतस्वात्मरूपताधिगमेन (S -- ताधिशयनेन अधिगमेन) माहेश्वर्यमेषामिति भावः (After इति भावः ?N add तेषां सततयुक्तानाम् इत्यतः प्रभृति अध्यायान्ता टीका उट्टङ्किता युगपद्धि वेद्या। तेषामेव अनु च अर्जुनप्रश्नपद्यानि षट् उल्लिखति। श्रीभगवान् अथवा बहुना इति पर्यन्तानि पद्यानि 23,वक्ति।। These sentences are obviously of some copyist. It is to be noted however that the Mss. generally contain seven (not six) verses of Arjuna and then 24 (not 23) verses of the hagavan) ।
।।10.9।।मच्चित्ताः मयि निविष्टमनसः? मद्गतप्राणाः मद्गतजीविताः मया विना आत्मधारणम् अलभमाना इत्यर्थः। स्वैः स्वैः अनुभूतान् मदीयान् गुणान् परस्परं बोधयन्तः? मदीयानि दिव्यानि रमणीयानि कर्माणि च कथयन्तः तुष्यन्ति च रमन्ति च। वक्तारः तद्वचनेन अनन्यप्रयोजनेन तुष्यन्ति? श्रोतारश्च तच्छ्रवणेन अनवधिकातिशयप्रियेण रमन्ते।
।।10.9।।न केवमुक्तमेव भगवद्भजने साधनां साधनान्तरं चास्तीत्याह -- किञ्चेति। ईश्वरात्प्रतीचः प्रागुक्तादन्यत्र चित्तप्रचारराहित्यं भगवद्भजनोपायमाह -- मयीति। चक्षुरादीनां भगवत्यप्राप्तिस्तदगोचरत्वात्तस्येत्याशङ्क्याह -- मय्युपसंहृतेति। भगवदतिरेकेण जीवनेऽपि नादरस्तदपि मय्येवार्पितं भक्तानामित्याह -- अथवेति। आचार्येभ्यः श्रुत्वा वादकथया परस्परं भगवन्तं सब्रह्मचारिणो बोधयन्ति तदपि भगवद्भजनसाधनमित्याह -- बोधयन्त इति। आगमोपपत्तिभ्यां भगवन्तमेव विशिष्टधर्माणं शिष्येभ्यो गुरवो व्यपदिशन्ति तदपि भगवद्भजनमेवेत्याह -- कथयन्त इति। भक्तानां तुष्टिरती स्वरसतः स्यातामित्याह -- तुष्यन्तीति। मनोरथपूर्त्या रतिप्राप्तौ कामुकसंमतमुदाहरणमाह -- प्रियेति।
।।10.8 -- 10.10।।विभूतियोगज्ञानविपाकरूपभक्तिविवृद्धिं दर्शयति चतुर्भिः पुमर्थरूपैः अहमित्यादिभिः -- अहं सर्वस्य प्रभव इत्यादि। विश्वोत्पादकत्वप्रवर्त्तकत्वरूपस्वयोगविभूतिस्वरूपाविष्करणं इत्येवं मम योगं विभूतिं च भगवन्मार्गीयाचार्योपदेशद्वारा मयि भावो भक्तिस्तया समन्विता मां सेवन्ते बुधाः। एते च माहात्म्यज्ञानपूर्वकभक्तिमन्तो भगवत्सेवकाः स्वरूपतो निर्दिश्यन्ते भगवन्मार्गीया उद्धवादय इव। मच्चित्ता इति मदर्पितान्तःकरणाः। मद्गतप्राणा इति -- प्राणशब्द इन्द्रियप्राणवाचक इति मदर्पितेन्द्रियप्राणाः मयि सततं युक्ता देहेनेति? समर्पितदेहाः आत्मना वा भगवति सततं युक्ताः अयमेव ब्रह्मसम्बन्धः भगवते कृष्णाय दारागारपुत्राप्त -- इतिवाक्यात्आत्मना सह तत्तदीहापराणि देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणानि तद्धर्मांश्च समर्पयित्वा स्वयं दासभूता नित्यं भगवन्तं भजन्ते सेवामार्गप्रकारेण सेवन्ते? न पूजाडम्बरेणेति? सेवायां स्थितिस्तेषामुक्तासेवायां वा कथायां वा इति भक्तिवर्द्धिन्यां कथायां च स्थितिमाह -- परस्परं बोधयन्तः कथयन्तश्च मां इति। तदपि नित्यं? न तु नैमित्तिकम्। तथैव च तुष्यन्ति मनउत्सवादिषु च रमन्ति अनुकरणेन वा क्री़डन्ति तथाभूतानां तेषां प्रीतिपूर्वकं पुष्टिमर्यादानुकूलापरानुरक्तिरीश्वरे सर्वात्मना प्रीतिस्तत्पूर्वकं भजतां सेवतां -- अनेनचेतस्तत्प्रवणं सेवा इति मानसीस्वरूपमुक्तं -- तेषामेव बुद्धियोगं विपाकदशामापन्नं ददामि येन ते मां पुरुषोत्तमं उप समीप एव प्राप्ता भवन्ति। इत्थं तेषां निर्गुणमुक्तिर्भावितया सूचिता।
।।10.9।।प्रेमपूर्वकं भजनमेव विवृणोति -- मयि भगवति चित्तं येषां ते मच्चित्ताः। तथा मद्गता मां प्राप्ताः प्राणाश्चक्षुरादयो येषां ते मद्गतप्राणाः? मद्भजननिमित्तचक्षुरादिव्यापारा मय्युपसंहृतसर्वकरणा वा। अथवा मद्गतप्राणा मद्भजनार्थजीवनाः। मद्भजनातिरिक्तप्रयोजनशून्यजीवना इति यावत्। विद्वद्गोष्ठीषु परस्परमन्योन्यं श्रुतिभिर्युक्तिभिश्च मामेव बोधयन्तः तत्त्वबुभुत्सुकथया ज्ञापयन्तः। तथा स्वशिष्येभ्यश्च मामेव कथयन्त उपदिशन्तश्च। मयि चित्तार्पणं तथा बाह्यकरणार्पणं तथा जीवनार्पणमेवं समानामन्योन्यं मद्बोधनं स्वन्यूनेभ्यश्च मदुपदेशनमित्येवंरूपं यन्मद्भजनं तेनैव तुष्यन्ति च। एतावतैव लब्धसर्वार्था वयमलमन्येन लब्धव्येनेत्येवंप्रत्ययरूपं संतोषं प्राप्नुवन्ति च। तेन संतोषेण रमन्ति च रमन्ते च। प्रियसङ्गमेनेवोत्तमं सुखमनुभवन्ति च। तदुक्तं पतञ्जलिनासंतोषादनुत्तमः सुखलाभः इति। उक्तंच पुराणेयच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् इति। तृष्णाक्षयः संतोषः।
।।10.9।। प्रीतिपूर्वकं भजनमेवाह -- मच्चित्ता इति। मय्येव चित्तं येषां ते मच्चित्ताः। मामेव गताः प्राप्ताः प्राणा इन्द्रियाणि येषां ते मद्गतप्राणाः मदर्पितजीवना इति वा। एवंभूतास्ते बुधाः अन्योन्यं मां न्यायोपेतैः श्रुत्यादिप्रमाणैर्बोधयन्तः? बुद्ध्या च मां कथयन्तः संकीर्तयन्तः सन्तो नित्यं तुष्यन्त्यनुमोदनेन तुष्टिं यान्ति। रमन्ति च निर्वृत्तिं यान्ति।
।।10.9।।भावसमन्वितत्वप्रपञ्चनमेवानन्तरं क्रियत इत्यभिप्रायेण तदाकाङ्क्षां दर्शयतिकथमिति। भक्तिपरिपाकक्रमविशेषसिद्धाकारप्रदर्शनंमच्चित्ताः इत्यादिभिश्चतुर्भिर्विशेषणैः क्रियत इत्यभिप्रायेणमयि निविष्टमनस इत्यादिकमुक्तम्।मद्गतग्राणाः इत्यस्य तात्पर्यप्रदर्शनाय पर्यायं तावदाहमद्गतजीविता इति। भक्तगतस्य जीवितस्य कथं तद्गतत्वं इत्यत्राहमया विनेति। बोधनकथनशब्दयोरेकविषयत्वे पौनरुक्त्याद्विषयभेदो वाच्यः तत्र चबोधयन्तः इत्यनेन अज्ञातार्थज्ञापनंकथयन्तः इत्यनेन च इति वृत्तवर्णनं च स्वरसतः प्रतीयत इत्यभिप्रायेणस्वैः स्वैरित्यादिकमुक्तम्।दिव्यानीत्यतिमानुषत्वप्रयुक्ताद्भुतत्वं विवक्षितम्। तस्यैव भोग्यत्वंरमणीयानीत्यनेनोक्तम्।तुष्यन्ति च रमन्ति च इत्यनयोर्द्वयोरपि कथाकथकविषयत्वेनातिभिन्नार्थतायां मन्दप्रयोजनत्वात्कस्यचित्कथकविषयत्वमन्यस्य कथनाक्षिप्तश्रोतृविषयत्वं च युक्तम् तत्र च स्वप्रयोजनान्तरसाधकपरप्रीत्यर्थं हि लोके कथाप्रयोगो दृष्टः। तोषशब्दश्चाधिकस्पृहानिवृत्त्यर्थः ततोऽत्रतुष्यन्ति इत्यनन्यप्रयोजनकथकविषयम्? पारिशेष्यात्रमन्ति इत्यस्य श्रवणमूलत्वं लब्धम्।तुष्यन्ति च रमन्ति च इत्यनयोःमच्चित्ताः इत्याद्युक्तैककर्तृकत्वं कथनश्रवणयोरेकस्मिन्नेव कालभेदेन सम्भवान्न परित्यक्तम्। तदेतदखिलमभिप्रेत्याहवक्तार इत्यादिरमन्त इत्यन्तम्।
।।10.9।।भजने प्रकारमाह -- मच्चित्ता इति। मय्येव चित्तं येषां ते मच्चिन्तनपराः लीलावस्थमत्स्वरूपविचारणपराः। मद्गतप्राणाः मय्येव गताः प्राप्ताः प्राणा येषां ते? मद्दुःखदुःखिता मत्सुखसुखिता इत्यर्थः। तादृशाः सन्तः परस्परं तादृशानेव मामेतादृशं स्वानुभवप्रमाणादिभिर्बोधयन्तस्तदनुकथयन्तः कीर्तनरीत्या कीर्तयन्तः। चकारेणाऽन्यकीर्त्तनं श्रृण्वन्तः। च पुनः। तद्भाने सति तुष्यन्ति ज्ञानेन वा रमन्ते च। स्वयं कीर्त्तनेनानन्दयुक्ता भवन्ति रमन्ते वा। तोषमानन्दं च प्राप्नुवन्तीति भावः। यद्वा मां विप्रयोगादिलीलावस्थासु नित्यं कथयन्तः सततं परस्परं बोधयन्तः।
।।10.9।।एवं ध्याने भावनाप्रकारमुक्त्वा व्युत्थाने तमाह -- मच्चित्ता इति। अहमेव चित्ते येषां ते मच्चित्ताः। तथाहमेव गतो विद्यमानो येषु ते मद्गतास्तथाविधाः प्राणा इन्द्रियाणि येषां ते मद्गतप्राणाः। चित्तेनेन्द्रियैर्वा यद्गृह्यते तत्सर्वं प्रत्यगात्मा वासुदेव इति भावयन्त इत्यर्थः। इममेवार्थं परस्परं बोधयन्तः श्रुतियुक्तिप्रदर्शनेन समानानां समुदायं ज्ञापयन्तः। कथयन्तश्च शिष्यान्प्रति। तुष्यन्ति तेनैव ज्ञानेन न तु मिष्टान्नादिना। रमन्ति च तत्रैव नतु स्त्र्यादावित्यर्थः।
।।10.9।।किं चैवं भजन्तीत्याह -- मच्चित्ता मयि वासुदेवे चित्तं येषां ते मा गताः प्राप्ताः प्राणाश्र्चक्षुरादयो येषां ते मय्युपसंहृतसर्वकरणाः? सद्गतजीवना इति वा। आचार्यात् श्रुत्वा वादकथया समानेषु परस्परं बोधयन्तः मां ज्ञानबलादियुक्तं शिष्येभ्यः कथयन्तः मद्भजनेनैव तुष्यन्ति संतोषमुपयान्ति तेनैव च रमन्ति रतिं प्राप्नुवन्ति न स्त्र्यादिना।
10.9 मच्चित्ताः with their minds wholly in Me? मद्गतप्राणाः with their life absorbed in Me? बोधयन्तः,enlightening? परस्परम् mutually? कथयन्तः speaking of? च and? माम् Me? नित्यम् always? तुष्यन्ति are satisfied? च and? रमन्ति (they) are delighted? च and.Commentary The characteristics of a devotee who has attained the realisation of oneness are described in this verse. The devotee constantly thinks of the Lord. His very life is absorbed in Him. He has consecrated his whole life to the Lord. According to another interpretation? all his senses (which function because of the Prana)? such as the eye are absorbed in Him. He takes immense delight in talking about Him? about His supreme wisdom? power? might and other attributes. He has completely dedicated himself to the Lord.He feels intense satisfaction and is delighted as if he is in the company of his Beloved (God). The Purana says? The sum total of the sensual pleasures of this world and also all the great pleasures of the divine regions (heavens) are not worth a sixteenth part of that bliss which proceeds from the eradication of desires and cravings. (Cf.XII.8)
10.9 With their mind and their life wholly absorbed in Me, enlightening each other and ever speaking of Me, they are satisfied and delighted.
10.9 With minds concentrated on Me, with lives absorbed in Me, and enlightening each other, they ever feel content and happy.
10.9 With minds fixed on Me, with lives dedicated to Me, enlightening each other, and always speaking of Me, they derive satisfaction and rejoice.
10.9 Maccittah, with minds fixed on Me; mad-gata-pranah, with lives (pranas) dedicated to Me, or having their organs, eyes etc. absorbed in Me, i.e. having their organs withdrawn into Me; bodhayantah, enlightening; parasparam, each other; and nityam, always; kathayantah, speaking of; mam, Me, as possessed of alities like knowledge, strength, valour, etc; tusyanti, they derive satisfaction; and ramanti, rejoice, get happiness, as by coming in contact with a dear one.
10.9. Having their mind fixed on Me, their life gone into Me, enlightening each other, and constantly talking of Me, they are pleased and are delighted.
10.9 See Comment under 10.11
10.9 They live with their minds 'focussed' on Me, namely, with their minds fixed on Me; with their 'Pranas', i.e., life, centred on Me - the meaning is that they are unable to sustain themselves without Me. They 'inspire one another' by speaking about My attributes which have been experienced by them and narrating My divine and adorable deeds. They live in contentment and bliss at all times. The speakers are delighted by their own speech, because it is spontaneous, without any ulterior motive; the listeners too feel the speech to be unsurpassingly and incomparably dear to them. They thus live in bliss.
10.9 With their minds focussed on Me, with their Pranas centred in Me, inspiring one another and always speaking of Me, they live in contentment and bliss at all times.
।।10.9।।तथा --, मुझमें ही जिनका चित्त है वे मच्चित्त हैं तथा मुझमें ही जिनके चक्षु आदि इन्द्रियरूप प्राण लगे रहते हैं -- मुझमें ही जिन्होंने समस्त करणोंका उपसंहार कर दिया है वे मद्गतप्राण हैं अथवा जिन्होंने मेरे लिये ही अपना जीवन अर्पण कर दिया है वे मद्गतप्राण हैं। ऐसे मेरे भक्त आपसमें एक दूसरेको ( मेरा तत्त्व ) समझाते हुए एवं ज्ञान? बल और सामर्थ्य आदि गुणोंसे युक्त मुझ परमेश्वरके स्वरूपका वर्णन करते हुए सदा संतुष्ट रहते हैं अर्थात् संतोषको प्राप्त होते हैं और रमण करते हैं अर्थात् मानो कोई अपना अत्यन्त प्यारा मिल गया हो उसी तरह रतिको प्राप्त होते हैं।
।।10.9।। --,मच्चित्ताः? मयि चित्तं येषां ते मच्चित्ताः? मद्गतप्राणाः मां गताः प्राप्ताः चक्षुरादयः प्राणाः येषां ते मद्गतप्राणाः? मयि उपसंहृतकरणाः इत्यर्थः। अथवा? मद्गतप्राणाः मद्गतजीवनाः इत्येतत्। बोधयन्तः अवगमयन्तः परस्परम् अन्योन्यम्? कथयन्तश्च ज्ञानबलवीर्यादिधर्मैः विशिष्टं माम्? तुष्यन्ति च परितोषम् उपयान्ति च रमन्ति च रतिं च प्राप्नुवन्ति प्रियसंगत्येव।।ये यथोक्तैः प्रकारैः भजन्ते मां भक्ताः सन्तः --,
।।10.8 -- 10.10।।ननुएतां विभूतिम् [10।7] इति परिज्ञातुः फलमुक्तं तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यतस्तात्पर्यान्तरमाह -- सन्ति चेति। उक्तफले विश्वासजननार्थमिति शेषः।
।।10.8 -- 10.10।।सन्ति च भजन्तः केचिदित्याह -- अहमित्यादिना।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।10.9।।
মচ্চিত্তা মদ্গতপ্রাণা বোধযন্তঃ পরস্পরম্৷ কথযন্তশ্চ মাং নিত্যং তুষ্যন্তি চ রমন্তি চ৷৷10.9৷৷
মচ্চিত্তা মদ্গতপ্রাণা বোধযন্তঃ পরস্পরম্৷ কথযন্তশ্চ মাং নিত্যং তুষ্যন্তি চ রমন্তি চ৷৷10.9৷৷
મચ્ચિત્તા મદ્ગતપ્રાણા બોધયન્તઃ પરસ્પરમ્। કથયન્તશ્ચ માં નિત્યં તુષ્યન્તિ ચ રમન્તિ ચ।।10.9।।
ਮਚ੍ਚਿਤ੍ਤਾ ਮਦ੍ਗਤਪ੍ਰਾਣਾ ਬੋਧਯਨ੍ਤ ਪਰਸ੍ਪਰਮ੍। ਕਥਯਨ੍ਤਸ਼੍ਚ ਮਾਂ ਨਿਤ੍ਯਂ ਤੁਸ਼੍ਯਨ੍ਤਿ ਚ ਰਮਨ੍ਤਿ ਚ।।10.9।।
ಮಚ್ಚಿತ್ತಾ ಮದ್ಗತಪ್ರಾಣಾ ಬೋಧಯನ್ತಃ ಪರಸ್ಪರಮ್. ಕಥಯನ್ತಶ್ಚ ಮಾಂ ನಿತ್ಯಂ ತುಷ್ಯನ್ತಿ ಚ ರಮನ್ತಿ ಚ৷৷10.9৷৷
മച്ചിത്താ മദ്ഗതപ്രാണാ ബോധയന്തഃ പരസ്പരമ്. കഥയന്തശ്ച മാം നിത്യം തുഷ്യന്തി ച രമന്തി ച৷৷10.9৷৷
ମଚ୍ଚିତ୍ତା ମଦ୍ଗତପ୍ରାଣା ବୋଧଯନ୍ତଃ ପରସ୍ପରମ୍| କଥଯନ୍ତଶ୍ଚ ମାଂ ନିତ୍ଯଂ ତୁଷ୍ଯନ୍ତି ଚ ରମନ୍ତି ଚ||10.9||
maccittā madgataprāṇā bōdhayantaḥ parasparam. kathayantaśca māṅ nityaṅ tuṣyanti ca ramanti ca৷৷10.9৷৷
மச்சித்தா மத்கதப்ராணா போதயந்தஃ பரஸ்பரம். கதயந்தஷ்ச மாஂ நித்யஂ துஷ்யந்தி ச ரமந்தி ச৷৷10.9৷৷
మచ్చిత్తా మద్గతప్రాణా బోధయన్తః పరస్పరమ్. కథయన్తశ్చ మాం నిత్యం తుష్యన్తి చ రమన్తి చ৷৷10.9৷৷
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।।10.10।। उन नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है।
।।10.10।। उन (मुझ से) नित्य युक्त हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को, मैं वह 'बुद्धियोग' देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं।।
।।10.10।। जब तक सबसे श्रेष्ठ आनन्ददायक वस्तु या लक्ष्य को नहीं पाया गया है जिसमें हमारा मन पूर्णतया रम सके? तब तक बाह्य विषयों? भावनाओं तथा विचारों के जगत् के साथ हुए तादात्म्य से हमारी सफलतापूर्वक निवृत्ति नहीं हो सकती। आनन्दस्वरूप आत्मा में ध्यानाकर्षण करने की ऐसी सार्मथ्य है और इसलिए? जिस मात्रा या सीमा तक इस आत्मस्वरूप में मन स्थित होता है? उसी मात्रा में वह दुखदायी मिथ्या बंधनों की पकड़ से मुक्त हो जाता है। इस वेदान्तिक सत्य का भगवान् श्रीकृष्ण इस वाक्य में वर्णन करते हैं? जो मेरा भक्तिपूर्वक भजन करते हैं।प्रिय के साथ तादात्म्य का ही अर्थ है प्रेम। आत्मा के साथ हुए तादात्म्य के अनुपात में ही जीव भक्त कहलाता है और जब वह सततयुक्त हो जाता है? तभी वह वास्तविक रूप में हृदयस्थित अपनी अव्यक्त दिव्यता को अभिव्यक्त कर पाता है।ऐसे भक्त जो निरन्तर भक्ति? सन्तोष और आनन्द के वातावरण में सतत आत्मा का चिन्तन करते हैं उन भक्तों को स्वयं भगवान् ही वह बुद्धियोग देते हैं? जिसके द्वारा वे भगवान् को ही प्राप्त होते हैं।बुद्धियोग का पहले भी वर्णन किया जा चुका है। आत्मा के अनन्त स्वरूप पर निदिध्यासन से सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना ही बुद्धियोग है। प्रस्तुत संदर्भ में उसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि उपर्युक्त पद्धति से साधनाभ्यास करने वाले साधक को सत्य का बौद्धिक ग्रहण होता है। निसंदेह हमारा वह अभिप्राय कदापि नहीं है कि परिच्छिन्न बुद्धि के द्वारा कभी अनन्त वस्तु का ग्रहण किया जा सकता है। हम केवल लौकिक जगत् के एक सुपरिचित वाक्प्रचार का उपयोग ही कर रहे हैं। जब तक बुद्धि से ग्रहण किया गया एक अनुभव किसी अन्य अनुभव से बाधित नहीं होता? तब तक उस पूर्व अनुभव को प्रामाणिक और संदेह रहित माना जाता है। आत्मा का अनुभव्ा कदापि बाधित नहीं हो सकता? क्योंकि वह अनुभवकर्ता का ही स्वरूप है। ऐसा दृढ़ ज्ञान केवल उन साधकों को ही प्राप्त होता है जिनमें आत्मानुसंधान करने की परिपक्वता एवं स्थिरता आ जाती है।इस प्रकार? उक्त ध्यानाभ्यास के द्वारा सत्य पर पड़े आवरण और तज्जनित विक्षेपों की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है? तब वह साधक समाधि का साक्षात् अनुभव करता है? जो बुद्धियोग की परिसमाप्ति और पूर्णता है।इस बुद्धियोग के द्वारा भगवान् अपने भक्तों के लिए निश्चित रूप से क्या करते हैं? इसका वर्णन अगले श्लोक में है --
।।10.10।। व्याख्या --[भगवन्निष्ठ भक्त भगवान्को छोड़कर न तो समता चाहते हैं, न तत्त्वज्ञान चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं (टिप्पणी प0 546.3)। उनका तो एक ही काम है-- हरदम भगवान्में लगे रहना। भगवान्में लगे रहनेके सिवाय उनके लिये और कोई काम ही नहीं है। अब सारा-का-सारा काम, सारी जिम्मेवारी भगवान्की ही है अर्थात् उन भक्तोंसे जो कुछ कराना है, उनको जो कुछ देना है आदि सब काम भगवान्का ही रह जाता है। इसलिये भगवान् यहाँ (दो श्लोकोंमें) उन भक्तोंको समता और तत्त्वज्ञान देनेकी बात कह रहे हैं।]
।।10.6 -- 10.11।।महर्षय इत्यादि भास्वता इत्यन्तम्। परस्परबोधनया अन्योन्यबोधस्फारसंक्रमणात् सर्व एव हि प्रमातारः एक ईश्वर इति विततव्याप्त्या (S??N वितत्य व्याप्त्या) सुखेनैव सर्वशक्तिकसर्वगतस्वात्मरूपताधिगमेन (S -- ताधिशयनेन अधिगमेन) माहेश्वर्यमेषामिति भावः (After इति भावः ?N add तेषां सततयुक्तानाम् इत्यतः प्रभृति अध्यायान्ता टीका उट्टङ्किता युगपद्धि वेद्या। तेषामेव अनु च अर्जुनप्रश्नपद्यानि षट् उल्लिखति। श्रीभगवान् अथवा बहुना इति पर्यन्तानि पद्यानि 23,वक्ति।। These sentences are obviously of some copyist. It is to be noted however that the Mss. generally contain seven (not six) verses of Arjuna and then 24 (not 23) verses of the hagavan) ।
।।10.10।।तेषां सततयुक्तानां मयि सततयोगम् आशंसमानानां मां भजमानानाम् अहं तम् एव बुद्धियोगं विपाकदशापन्नं प्रीतिपूर्वकम् ददामि येन ते माम् उपयान्ति।किं च --
।।10.10।।यदुक्तं सोऽविकम्पेनेत्यादि तदर्थं भूमिकां कृत्वा तदिदानीमुदाहरति -- ये यथोक्तेति। नित्याभियुक्तानामनवरतं भगवत्यैकाग्र्यसंपन्नानामित्यर्थः। पुत्रादिलोकत्रयहेत्वर्थित्वेन वा गर्भदासत्वेन वा प्रत्यहं जीवनोपायसिद्धये वा भजनमिति शङ्कित्वा दूषयति -- किमित्यादिना। प्रागुक्तां ज्ञानाख्यां भक्तिं स्नेहेन कुर्वतामित्यर्थः। तेभ्योऽहं तत्त्वज्ञानं प्रयच्छामीत्याह -- ददामीति। उक्तबुद्धिसंबन्धस्य फलमाह -- येनेति। ध्यानजन्यप्रकर्षकाष्ठागतान्तःकरणपरिणामे निरस्ताशेषविशेषभगवद्रूपप्राप्तिहेतौ बुद्धियोगे प्रश्नपूर्वकमुक्तानधिकारिणो दर्शयति -- के त इति।
।।10.8 -- 10.10।।विभूतियोगज्ञानविपाकरूपभक्तिविवृद्धिं दर्शयति चतुर्भिः पुमर्थरूपैः अहमित्यादिभिः -- अहं सर्वस्य प्रभव इत्यादि। विश्वोत्पादकत्वप्रवर्त्तकत्वरूपस्वयोगविभूतिस्वरूपाविष्करणं इत्येवं मम योगं विभूतिं च भगवन्मार्गीयाचार्योपदेशद्वारा मयि भावो भक्तिस्तया समन्विता मां सेवन्ते बुधाः। एते च,माहात्म्यज्ञानपूर्वकभक्तिमन्तो भगवत्सेवकाः स्वरूपतो निर्दिश्यन्ते भगवन्मार्गीया उद्धवादय इव। मच्चित्ता इति मदर्पितान्तःकरणाः। मद्गतप्राणा इति -- प्राणशब्द इन्द्रियप्राणवाचक इति मदर्पितेन्द्रियप्राणाः मयि सततं युक्ता देहेनेति? समर्पितदेहाः आत्मना वा भगवति सततं युक्ताः अयमेव ब्रह्मसम्बन्धः भगवते कृष्णाय दारागारपुत्राप्त -- इतिवाक्यात्आत्मना सह तत्तदीहापराणि देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणानि तद्धर्मांश्च समर्पयित्वा स्वयं दासभूता नित्यं भगवन्तं भजन्ते सेवामार्गप्रकारेण सेवन्ते? न पूजाडम्बरेणेति? सेवायां स्थितिस्तेषामुक्तासेवायां वा कथायां वा इति भक्तिवर्द्धिन्यां कथायां च स्थितिमाह -- परस्परं बोधयन्तः कथयन्तश्च मां इति। तदपि नित्यं? न तु नैमित्तिकम्। तथैव च तुष्यन्ति मनउत्सवादिषु च रमन्ति अनुकरणेन वा क्री़डन्ति तथाभूतानां तेषां प्रीतिपूर्वकं पुष्टिमर्यादानुकूलापरानुरक्तिरीश्वरे सर्वात्मना प्रीतिस्तत्पूर्वकं भजतां सेवतां -- अनेनचेतस्तत्प्रवणं सेवा इति मानसीस्वरूपमुक्तं -- तेषामेव बुद्धियोगं विपाकदशामापन्नं ददामि येन ते मां पुरुषोत्तमं उप समीप एव प्राप्ता भवन्ति। इत्थं तेषां निर्गुणमुक्तिर्भावितया सूचिता।
।।10.10।।ये यथोक्तेन प्रकारेण भजन्ते मां -- तेषां सततं सर्वदा युक्तानां भगवत्येकाग्रबुद्धीनां। अतएव लाभपूजाख्यात्याद्यनभिसंधाय प्रीतिपूर्वकमेव भजतां सेवमानानां तेषां अविकम्पेन योगेनेति यः प्रागुक्तस्तं बुद्धियोगं मत्तत्त्वविषयसम्यग्दर्शनं ददामि उत्पादयामि। येन बुद्धियोगेन मामीश्वरमात्मत्वेनोपयान्ति ये मच्चित्तत्वादिप्रकारैर्मां भजन्ते ते।
।।10.10।।एवंभूतानां च सम्यग्ज्ञानमहं ददामीत्याह -- तेषामिति। एवं सततयुक्तानां मय्यासक्तानां प्रीतिपूर्वकं भजतां तेषां तं बुद्धिरूपं योगमुपायं ददामि। तमिति कम्। येनोपायेन ते भक्ता मां प्राप्नुवन्ति।
।।10.10।।भगवद्गुणविभूतिज्ञानस्य भक्त्युत्पत्तिविवृद्धिहेतुत्वमुक्तम् तथाविधविवृद्धभक्तेर्भगवत्प्राप्तिपूर्वभाविविशदतमसाक्षात्काररूपावस्थाविशेषहेतुत्वं भगवत्प्रसादावान्तरव्यापारकमुच्यतेतेषामिति।मयि सततयोगमाशंसमानानामिति। नहि सततं समाधानरूपो योगः शक्यः। सततशब्देन प्रतिदिनविवक्षा च न स्वारसिकी? न च प्राप्तिरूपसततयोग इदानीं वृत्तः अत आशंसार्थत्वमेव युक्तमिति भावः।तमेवेति आशंसाविषयान्तर्गतमेवेत्यर्थः। सततयोगाशंसयैव भजने प्रीतिरूपत्वस्य फलितत्वात्प्रीतिपूर्वकम् इत्यस्य भजनान्वये प्रयोजनं नास्तिददामि इत्यनेनान्वये तु भजनावान्तरव्यापारकथनरूपेण परमोदारत्वादिभगवद्गुणगणप्रकाशनेन च महत्प्रयोजनमित्यभिप्रायेणप्रीतिपूर्वकं ददामीत्यन्वय उक्तः।मामुपयान्ति इत्यत्रापरामृष्टपदपदार्थैर्मूढैरैक्यापत्तिर्व्याख्याता।
।।10.10।।एवम्भावेन भजतामहं फलं ददामीत्याह -- एवमिति। एवममुना प्रकारेण सततयुक्तानां निरन्तरं मत्कृपाविशिष्टानां प्रीतिपूर्वकमनुद्वेगेन भजतां तं बुद्धियोगं मत्स्वरूपानुभवात्मकभक्त्युपायरूपं ददामि? येन ते मामुपयान्ति प्राप्नुवन्ति। उपसर्गेण तथा यान्ति यथा तद्भावच्युतिः कदापि न भवतीति ज्ञापितम्।
।।10.10।।उपासनायाः फलमाह -- तेषामिति। सततयुक्तानां नित्योत्साहवताम्। प्रीतिः प्रेमा तत्पूर्वकं भजतां सेवमानानां तेभ्यो ददामि तं बुद्धियोगं ज्ञानरूपं योगं समाधिम्। ज्ञाननिष्ठामित्यर्थः। तां ददामि येन यया निष्ठया ते मामुपयान्ति समुद्रमिव नद्योऽभेदेन प्रविशन्ति।
।।10.10।।तेषां सततयुक्तानां सततं निरन्तरमभियुक्तानाम्। किमर्थित्वादिपूर्वकं नेत्याह। प्रीतिः स्नेहस्तपूर्वकं भजताम्। प्रेमलक्षणभक्तिमतामित्यर्थः। तं सम्यग्ज्ञानलक्षणमविकल्पबुद्धियोगं ददामि। येन बुद्धियोगेन मां परमात्मानमात्मत्वेपयान्ति प्रतिपद्यन्ते। साक्षात्कुर्वन्तीत्यर्थः। ते ये मां मच्चित्तत्वादिप्रकारैर्भजन्ते।
10.10 तेषाम् to them? सततयुक्तानाम् ever steadfast? भजताम् (of the) worshipping? प्रीतिपूर्वकम् with love? ददामि (I) give? बुद्धियोगम् Yoga of discrimination? तम् that? येन by which? माम् to Me? उपयान्ति come? ते they.Commentary The devotees who have dedicated themselves to the Lord? who are ever harmonious and selfabiding? who are ever devout and who adore Him with intense love (not for attaining any selfish purpose)? obtain the divine grace. The Lord gives them wisdom or the Yoga of discrimination or understanding by which they attain the knowledge of the Self. The Lord bestows on these devotees who have fixed their thoughts on Him alone? devotion of right knowledge. (Buddhi Yoga) by which they know Him in essence. They know through the eye of intuition in deep meditaion the Supreme Lord? the One in all? the Self of all? as their own Self? destitue of all limitations. Buddhi here is the inner eye of intuition by which the magnificent experience of oneness is had. Buddhi Yoga is Jnana Yoga. (Cf.IV.39XII.6and7)Why does the Lord impart this Yoga of knowledge to His devotees What obstacles does the Buddhi Yoga remove on the path of the aspirant or devotee The Lord gives the answer in the following verse.
10.10 To them who are ever steadfast, worshipping Me with love, I give the Yoga of discrimination by which they come to Me.
10.10 To those who are always devout and who worship Me with love, I give the power of discrimination, which leads them to Me.
10.10 To them who are ever devoted and worship Me with love, I grant that possession of wisdom by which they reach Me.
10.10 Tesam, to them, who, becoming devotees, adore Me in the manner described earlier; satata-yuktanam, who are ever devoted, ever attached, who have become free from all external desires; and bhajatam, who worship-. Is it because of hankering for possessions? The Lord says: No, (they worship) priti-purvakam, with love. To them who worship Me with that (love), dadami, I grant; tam, that; buddhi-yogam, possession of wisdom-buddhi means full enlightenment with regard to My real nature; coming in possession (yoga) of that is buddhi-yoga; yena, by which possession of wisdom consisting in full enlightenment; upayanti, they reach, realize as their own Self; mam, Me, the supreme God who is the Self. Who do so? Te, they, who adore Me through such disciplines as fixing their minds on Me, etc. 'For what purpose, or as the destroyer of what cause standing as an obstacle on the way of reaching You, do You bestow that possession of wisdom to those devotees of Yours?' In reply to such a ery the Lord says:
10.10. To these persons, who are [thus] mingling [with Me] and revere [Me] with love, I grant that knowledge-Yoga by means of which they reach Me.
10.10 See Comment under 10.11
10.10 To those 'ceaselessly united with Me,' namely, those who desire ceaseless union with Me, and who are worshipping Me, I grant with love, that same 'Buddhi-yoga' or devotional attitude of a mature state. By that they come to Me. Likewise:
10.10 To those, who are ceaselessly united with Me and who worship Me with immense love, I lovingly grant that mental disposition (Buddhi-yoga) by which they come to Me.
।।10.10।।जो पुरुष मुझमें प्रेम रखते हुए उपर्युक्त प्रकारसे मेरा भजन करते हैं --, उन समस्त बाह्य तृष्णाओंसे रहित निरन्तर तत्पर होकर भजन -- सेवन करनेवाले पुरुषोंको? किसी वस्तुकी इच्छा आदि कारणोंसे भजनेवालोंको नहीं? किंतु प्रीतिपूर्वक भजनेवालोंको यानी प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवालोंको? मैं वह बुद्धियोग देता हूँ। मेरे तत्त्वके यथार्थ ज्ञानका नाम बुद्धि है? उससे युक्त होना ही बुद्धियोग है। वह ऐसा बुद्धियोग मैं ( उनको ) देता हूँ कि जिस पूर्णज्ञानरूप बुद्धियोगसे वे मुझ आत्मरूप परमेश्वरको आत्मरूपसे समझ लेते हैं। वे कौन हैं जो मच्चित्ताः आदि ऊपर कहे हुए प्रकारोंसे मेरा भजन करते हैं।,
।।10.10।। --,तेषां सततयुक्तानां नित्याभियुक्तानां निवृत्तसर्वबाह्यैषणानां भजतां सेवमानानाम्। किम् अर्थित्वादिना कारणेन नेत्याह -- प्रीतिपूर्वकं प्रीतिः स्नेहः तत्पूर्वकं मां भजतामित्यर्थः। ददामि प्रयच्छामि बुद्धियोगं बुद्धिः सम्यग्दर्शनं मत्तत्त्वविषयं तेन योगः बुद्धियोगः तं बुद्धियोगम्? येन बुद्धियोगेन सम्यग्दर्शनलक्षणेन मां परमेश्वरम् आत्मभूतम् आत्मत्वेन उपयान्ति प्रतिपद्यन्ते। के ते ये मच्चित्तत्वादिप्रकारैः मां भजन्ते।।किमर्थम्? कस्य वा? त्वत्प्राप्तिप्रतिबन्धहेतोः नाशकं बुद्धियोगं तेषां त्वद्भक्तानां ददासि इत्यपेक्षायामाह --,
।।10.8 -- 10.10।।ननुएतां विभूतिम् [10।7] इति परिज्ञातुः फलमुक्तं तत्किमर्थं पुनरुच्यते इत्यतस्तात्पर्यान्तरमाह -- सन्ति चेति। उक्तफले विश्वासजननार्थमिति शेषः।
।।10.8 -- 10.10।।सन्ति च भजन्तः केचिदित्याह -- अहमित्यादिना।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10.10।।
তেষাং সততযুক্তানাং ভজতাং প্রীতিপূর্বকম্৷ দদামি বুদ্ধিযোগং তং যেন মামুপযান্তি তে৷৷10.10৷৷
তেষাং সততযুক্তানাং ভজতাং প্রীতিপূর্বকম্৷ দদামি বুদ্ধিযোগং তং যেন মামুপযান্তি তে৷৷10.10৷৷
તેષાં સતતયુક્તાનાં ભજતાં પ્રીતિપૂર્વકમ્। દદામિ બુદ્ધિયોગં તં યેન મામુપયાન્તિ તે।।10.10।।
ਤੇਸ਼ਾਂ ਸਤਤਯੁਕ੍ਤਾਨਾਂ ਭਜਤਾਂ ਪ੍ਰੀਤਿਪੂਰ੍ਵਕਮ੍। ਦਦਾਮਿ ਬੁਦ੍ਧਿਯੋਗਂ ਤਂ ਯੇਨ ਮਾਮੁਪਯਾਨ੍ਤਿ ਤੇ।।10.10।।
ತೇಷಾಂ ಸತತಯುಕ್ತಾನಾಂ ಭಜತಾಂ ಪ್ರೀತಿಪೂರ್ವಕಮ್. ದದಾಮಿ ಬುದ್ಧಿಯೋಗಂ ತಂ ಯೇನ ಮಾಮುಪಯಾನ್ತಿ ತೇ৷৷10.10৷৷
തേഷാം സതതയുക്താനാം ഭജതാം പ്രീതിപൂര്വകമ്. ദദാമി ബുദ്ധിയോഗം തം യേന മാമുപയാന്തി തേ৷৷10.10৷৷
ତେଷାଂ ସତତଯୁକ୍ତାନାଂ ଭଜତାଂ ପ୍ରୀତିପୂର୍ବକମ୍| ଦଦାମି ବୁଦ୍ଧିଯୋଗଂ ତଂ ଯେନ ମାମୁପଯାନ୍ତି ତେ||10.10||
tēṣāṅ satatayuktānāṅ bhajatāṅ prītipūrvakam. dadāmi buddhiyōgaṅ taṅ yēna māmupayānti tē৷৷10.10৷৷
தேஷாஂ ஸததயுக்தாநாஂ பஜதாஂ ப்ரீதிபூர்வகம். ததாமி புத்தியோகஂ தஂ யேந மாமுபயாந்தி தே৷৷10.10৷৷
తేషాం సతతయుక్తానాం భజతాం ప్రీతిపూర్వకమ్. దదామి బుద్ధియోగం తం యేన మాముపయాన్తి తే৷৷10.10৷৷
10.11
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।।10.11।। उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप (होनेपन) में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ।
।।10.11।। उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए मैं उनके अन्त:करण में स्थित होकर, अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय ज्ञान के दीपक द्वारा नष्ट करता हूँ।।
।।10.11।। कभीकभी कोई वस्तु विद्यमान होते हुए भी हमारी दृष्टि के लिए आच्छादित रहती है? क्योंकि उसे देखने के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। ध्वनि सुनने के लिए उसमें आवश्यक स्पन्दन होने चाहिए तथा यह भी आवश्यक है कि वे ध्वनि तरंगे हमारे कानों तक पहुँचे। इसी प्रकार? अपेक्षित प्रकाश के अभाव में वस्तु के समक्ष होने पर भी उसका नेत्रों द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता।यदि हम अन्धकार में मेज पर पड़ी अपना कुंजी (चाभी) को टटोलकर खोज रहे हों और उसी समय कोई व्यक्ति स्विच दबाकर कमरे को प्रकाशित कर देता है? तो हमें अपनी कुंजी दिखाई पड़ती है। हम कह सकते हैं कि उस व्यक्ति के इस दयापूर्ण कार्य ने हमें कुंजी की प्राप्ति करायी? परन्तु यह कहना सर्वथा असंगत होगा कि प्रकाश ने उस कुंजी को उत्पन्न किया।इस दृष्टान्त के द्वारा वेदान्त में यह ज्ञान कराया जाता है कि आत्मा तो सदा हमारे हृदय में ही विद्यमान है? किन्तु प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण यथार्थ अनुभव के लिए उपलब्ध नहीं है। उन प्रतिकूल तत्त्वों की निवृत्ति होने पर वह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप से अनुभव किया जा सकता है। आत्मा को आच्छादित करने वाला वह आवरण है अज्ञानजनित अंधकार। स्मरण रहे कि इस अज्ञान अवस्था में भी आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप से विद्यमान रहता है? परन्तु हमारे साक्षात् अनुभव के लिए उपलब्ध नहीं होता। जो साधक बुद्धियोग में दृढ़ स्थिति प्राप्त कर लेते हैं? वे आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान के पात्र बन जाते हैं।बुद्धियोग की साधना अवस्था में ध्याता और ध्येय में भेद होता है? जिसे सविकल्प समाधि कहते हैं। इस श्लोक में यह कहा गया है कि इस सविकल्प अवस्था से वह साधक? मानो किसी ईश्वरीय कृपा से पूर्ण निर्विकल्प समाधि की स्थिति में स्थानान्तरित किया जाता है। वस्तुत? सविकल्प समाधि की स्थिति तक ही साधक अपने पुरुषार्थ के द्वारा पहुँच सकता है। यह बुद्धियोग भी मानो किसी अन्य स्थान से प्राप्त होता है? तात्पर्य यह है कि वह कोई सावधानीपूर्वक किये गये किसी प्रयत्न का फल नहीं? वरन् सहज स्वाभाविक आंशिक दैवी प्रेरणा है। अहंकार और शुद्ध आत्मा के मध्य का सघन कुहासा जब विरल हो जाता है? तब इस दैवी प्रेरणा का अनुभव होता है। जब यह कोहरा पूर्णतया नष्ट हो जाता है? तब पूर्ण आत्म साक्षात्कार अपने स्वयंप्रकाश स्वरूप में होता है।एक अन्धेरे कमरे में मेज पर रेडियम के डायल की एक घड़ी रखी हुई है? जिस पर कागज? पुस्तक आदि पड़े हुए होने से वह दिखाई नहीं देती। जब कोई व्यक्ति अन्धेरे में ही उसे खोजता हुआ उन कागजों को हटा देता है? तो वह घड़ी स्वयं ही चमकती हुई दिखाई पड़ती है। उसकी चमक ही उसकी परिचायक होती है। सनातन सत्य भी अज्ञान से आवृत्त हुआ अभाव रूप प्रतीत हो सकता है? किन्तु अज्ञान की निवृत्ति होने पर? वह स्वयं अपने प्रकाश से ही प्रकाशित होता है? और उसे जानने के लिए अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती।जब अज्ञान का अन्धकार? प्रकाशमय ज्ञान के दीपक से नष्ट हो जाता है तब आत्मा अपने एकमेव अद्वितीय? सर्वव्यापी और परिपूर्ण स्वरूप में स्वत प्रकट होता है। अपने भक्तों के हृदय में स्थित स्वयं भगवान् इस आत्मा के प्रकटीकरण की क्रिया को उनके ऊपर अनुग्रह करने के भाव से सम्पन्न करते हैं? किन्तु वास्तविकता यह है कि यह अनुग्रह स्वयं के ऊपर ही है। जब मैं चलतेचलते थक जाता हूँ तब मैं किसी स्थान पर बैठ जाता हूँ केवल अपने ही प्रति अनुकम्पा के कारण।इस अनुकम्पा के लिए उचित मूल्य चुकाये बिना साधक को सीधे ही इसकी प्राप्ति नहीं हो सकती। दिन के समय? मेरे कमरे की खिड़कियां खोल देने पर? सूर्य प्रकाश अनुकम्पावशात् मेरे लिए कमरे को प्रकाशित करता है। जैसा कि हम जानते हैं कि जब तक वे खिड़कियां खुली रहती हैं? तब तक सूर्य को यह स्वतन्त्रता नहीं है कि वह अपनी दया का द्वार बन्द कर ले। उसी प्रकार उसकी दया तब तक प्रकट भी नहीं होगी? जब तक मैं अपने कमरे की खिड़कियां नहीं खोल देता हूँ। संक्षेपत? सूर्य प्रकाश का आह्वान उसी क्षण होता है? जब उसके मार्ग का अवरोधक दूर हो जाता है।इसी प्रकार? प्रारम्भिक साधनाओं के अभ्यास से साधक बुद्धियोग का पात्र बनता है। तत्पश्चात् इसके निरन्तर प्रयत्नपूर्वक किये गये अभ्यास से वह अज्ञान तथा तज्जनित विक्षेपों के आवरण को सर्वथा नष्ट कर देता है। तत्काल ही आत्मा अपने स्वयं के प्रकाश में ही प्रकाश स्वरूप से प्रकाशित होता है। मेघों को चीरकर जाती हुई विद्युत् को देखने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती।जीवन के सर्वोच्च व्यवसाय अथवा लक्ष्य चित्तशुद्धि और आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति के लिए दिये गये उपदेश का खण्ड यहाँ पर समाप्त हो जाता है? तथापि अर्जुन को इससे सन्तोष नहीं होता? और इसलिए वह अपनी शंका को व्यक्त करते हुए भगवान् से सहायता के लिए अनुरोध करता है? जिससे कि साक्षात् अनुभव के द्वारा वह स्वयं सत्य की पुष्टि कर सके।भगवान् के मुख से उनकी विभूति और योग के विषय में श्रवण कर? अर्जुन अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है --
।।10.11।। व्याख्या--'तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः'--उन भक्तोंके हृदयमें कुछ भी सांसारिक इच्छा नहीं, होती। इतना ही नहीं, उनके भीतर मुझे छोड़कर मुक्तितककी भी इच्छा नहीं होती (टिप्पणी प0 547)। अभिप्राय है कि वे न तो सांसारिक चीजें चाहते हैं और न पारमार्थिक चीजें (मुक्ति, तत्त्वबोध आदि) ही चाहते हैं। वे तो केवल प्रेमसे मेरा भजन ही करते हैं। उनके इस निष्कामभाव और प्रेमपूर्वक भजन करनेको देखकर मेरा हृदय द्रवित हो जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा उनकी कुछ सेवा बन जाय, वे मेरेसे कुछ ले लें। परन्तु वे मेरेसे कुछ लेते नहीं तो द्रवित हृदय होनेके कारण केवल उनपर कृपा करनेके लिये कृपा-परवश होकर मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको दूर कर देता हूँ। मेरे द्रवित हृदय होनेका कारण यह है कि मेरे भक्तोंमें किसी प्रकारकी किञ्चिन्मात्र भी कमी न रहे।
।।10.6 -- 10.11।।महर्षय इत्यादि भास्वता इत्यन्तम्। परस्परबोधनया अन्योन्यबोधस्फारसंक्रमणात् सर्व एव हि प्रमातारः एक ईश्वर इति विततव्याप्त्या (S??N वितत्य व्याप्त्या) सुखेनैव सर्वशक्तिकसर्वगतस्वात्मरूपताधिगमेन (S -- ताधिशयनेन अधिगमेन) माहेश्वर्यमेषामिति भावः (After इति भावः ?N add तेषां सततयुक्तानाम् इत्यतः प्रभृति अध्यायान्ता टीका उट्टङ्किता युगपद्धि वेद्या। ,तेषामेव अनु च अर्जुनप्रश्नपद्यानि षट् उल्लिखति। श्रीभगवान् अथवा बहुना इति पर्यन्तानि पद्यानि 23,वक्ति।। These sentences are obviously of some copyist. It is to be noted however that the Mss. generally contain seven (not six) verses of Arjuna and then 24 (not 23) verses of the hagavan) ।
।।10.11।।तेषाम् एव अनुग्रहार्थम् अहम् आत्मभावस्थः तेषां मनोवृत्तौ विषयतया अवस्थितो मदीयान् कल्याणगुणगणान् च आविष्कुर्वन् मद्विषयज्ञानाख्येन भास्वता दीपेन ज्ञानविरोधिप्राचीनकर्मरूपाज्ञानजं मद्व्यतिरिक्तविषयप्रावण्यरूपं पूर्वाभ्यस्तं तमः नाशयामि।एवं सकलेतरविसजातीयं भगवदसाधारणं श्रृण्वतां निरतिशयानन्दजनकं कल्याणगुणगणयोगं तदैश्वर्यविततिं च श्रुत्वा तद्विस्तारं श्रोतुकामः अर्जुन उवाच --
।।10.11।।भगवत्प्राप्तेर्बुद्धिसाध्यत्वे सत्यनित्यत्वापत्तेस्त्वमापे भक्तेभ्यो बुद्धियोगं ददासीत्ययुक्तमिति शङ्कते -- किमर्थमिति। तेषां बुद्धियोगं किमर्थं ददासीति संबन्धः। भगवत्प्राप्तिप्रतिबन्धकनाशको बुद्धियोगस्तेन नास्ति तत्प्राप्तेरनित्यत्वमित्याशङ्क्याह -- कस्येति। भक्तानां तत्प्राप्तिप्रतिबन्धकं विविच्य दर्शयति -- इत्याकाङ्क्षायामिति। अविवेको नामाज्ञानं ततो जातं मिथ्याज्ञानं तदुभयमेकीकृत्य तमो विवक्ष्यते। नच तन्नाशकत्वं जडस्य कस्यचित्तदन्तर्भूतस्य युक्तं तेनाहं नाशयामीत्युक्तम्। केवलचैतन्यस्य जडबुद्धिवृत्तेरिवाज्ञानाद्यनाशकत्वमाशङ्क्य विशिनष्टि -- आत्मेति। तस्याशयस्तन्निष्ठो वृत्तिविशेषः। वाक्योत्थबुद्धिवृत्त्यभिव्यक्तश्चिदात्मा सहायसामर्थ्यादज्ञानादिनिवृत्तिहेतुरित्यर्थः। बुद्धीद्धबोधस्याज्ञानादिनिवर्तकत्वमुक्त्वा बोधेद्धबुद्धेस्तन्निवर्तकत्वमिति पक्षान्तरमाह -- ज्ञानेति। देहाद्यव्यक्तान्तानात्मवर्गातिरिक्तवस्तुगोचरत्वमाह -- विवेकेति। भगवति सदा विहितया भक्त्या तस्य प्रसादोऽनुग्रहः स एव स्नेहस्तेनासेचनद्वाराऽस्योत्पत्तिमाह -- भक्तीति। मय्येव भावनायामभिनिवेशो वातस्तेन प्रेरितोऽयं जायते? नहि वातप्रेरणमन्तरणादौ दीपस्योत्पत्तिरित्याह -- मद्भावनेति। ब्रह्मचर्यमष्टाङ्गमादिशब्देन शमादिग्रहः। तेन हेतुनाहितसंस्कारवती या प्रज्ञा तथाविधवर्तिनिष्ठश्चायं नहि वर्त्यतिरेकेण दीपो निर्वर्त्यते तदा -- ब्रह्मचर्येति। न चाधारादृते दीपस्योत्पत्तिरदृष्टत्वादित्याह -- विरक्तेति। यद्विषयेभ्यो व्यावृत्तं चित्तं रागाद्यकलुषितं तदेव निवातमपवारकं तत्र स्थितत्वमस्य दर्शयति -- विषयेति। भास्वतेति विशेषणं विशदयति -- नित्येति। सदातनं चित्तैकाग्र्यं तत्पूर्वकं ध्यानं तेन जनितं सम्यग्दर्शनं फलं तदेव भास्तद्वता तत्पर्यन्तेनेत्यर्थः। तेनाज्ञाने सकार्ये निवृत्ते भगवद्भावः स्वयमेव प्रकाशीभवतीति मत्वा व्याख्यातमेव पदमनुवदति -- ज्ञानेति।
।।10.11।।आत्मज्ञानमपि तेषां मयैव सम्पाद्यते इत्याह -- तेषामेवानुकम्पार्थमिति।जनो वै लोक एतस्मिन्नविद्याकामकर्मभिः। उच्चावचासु गतिषु वेद स्वां गतिं भ्रमन्। इति सञ्चिन्त्य भगवान्महाकारुणिको विभुः। तेषामन्तरात्मत्वं अङ्गीकृत्य स्थितो भास्वता ज्ञानदर्पणेनात्मविषयकसाक्षात्कारेणोभयाज्ञानजं तमो देहाध्यासादिना विषयप्रावण्यरूपं पूर्वाभ्यस्तं सर्वं नाशयामि। एवं च भगवदीयानां निजानामहमेव सर्वयोगक्षेमसाधको नान्य इति द्योत्यते।
।।10.11।।दीयमानस्य बुद्धियोगस्यात्मप्राप्तौ फले मध्यवर्तिनं व्यापारमाह -- तेषामेव कथं श्रेयः स्यादित्यनुग्रहार्थं आत्मभावस्थ आत्माकारान्तःकरणवृत्तौ विषयत्वेन स्थितोऽहं स्वप्रकाशचैतन्यानन्दाद्वयलक्षण आत्मा तेनैव मद्विषयान्तःकरणपरिणामरूपेण ज्ञानदीपेन दीपसदृशेन ज्ञानेन भास्वता चिदाभासयुक्तेनाप्रतिबद्धेनाज्ञानजमज्ञानोपादानकं तमो मिथ्याप्रत्ययलक्षणं स्वविषयावरणमन्धकारं तदुपादानाऽज्ञाननाशेन नाशयामि। सर्वभ्रमोपादानस्याज्ञानस्य,ज्ञाननिवर्त्यत्वादुपादाननाशनिवर्त्यत्वाच्चोपादेयस्य। यथा दीपेनान्धकारे निवर्तनीये दीपोत्पत्तिमन्तरेण न कर्मणोऽभ्यासस्य वापेक्षा विद्यमानस्यैव च वस्तुनोऽभिव्यक्तिस्ततो नानुत्पन्नस्य कस्यचिदुत्पत्तिस्तथा ज्ञानेनाज्ञाने निवर्तनीये न ज्ञानोत्पत्तिमन्तरेणान्यस्य कर्मणोऽभ्यासस्य वापेक्षा विद्यमानस्यैव च ब्रह्मभावस्य मोक्षस्याभिव्यक्तिस्ततो नानुत्पन्नस्योत्पत्तिर्येन क्षयित्वं कर्मादिसापेक्षत्वं वा भवेदिति रूपकालंकारेण सूचितोऽर्थः। भास्वतेत्यनेन तीव्रपवनादेरिवासंभवनादेः प्रतिबन्धकस्याभावः सूचितः। ज्ञानस्य च दीपसाधर्म्यं स्वविषयावरणनिवर्तकत्वं स्वव्यवहारेण सजातीयपरानपेक्षत्वं स्वोत्पत्त्यतिरिक्तसहकार्यनपेक्षत्वमित्यादिरूपकबीजं द्रष्टव्यम्।
।।10.11।।बुद्धियोगं दत्त्वा च तस्यानुभवपर्यन्तं तमापाद्याविद्याकृतं संसारं नाशयामीत्याह -- तेषामिति। तेषामनुकम्पार्थमनुग्रहार्थमेवाज्ञानाज्जातं तमः संसाराख्यं नाशयामि। कुत्र वा स्थितः सन्केन साधनेन तमो नाशयसीत्यत,आह। आत्मभावस्थः बुद्धिवृत्तौ स्थितः सन् भास्वता विस्फुरता ज्ञानलक्षणेन दीपेन नाशयामि।
।।10.11।।उक्तबुद्धियोगोत्पत्तिप्रतिबन्धनिरसनंतेषामेव इति श्लोकेनोच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- किञ्चेति।अनुकम्पाशब्देनात्र अनिष्टनिवृत्तिपूर्वकेष्टप्राप्तिहेतुःमदनुग्रहाय [11।1] इति वक्ष्यमाणप्रसादविशेषो विवक्षितः। सहजकारुण्यमात्रपरत्वेऽर्थशब्दस्य व्यर्थत्वादित्यभिप्रायेणोक्तं -- अनुग्रहार्थमिति। अत्र चाहंशब्देनानुग्रहौपयिकज्ञानशक्तिकरुणादिव्यमङ्गलविग्रहादिविशिष्टस्वरूपं विवक्षितम्।मनोवृत्ताविति -- आत्मभावशब्दस्यात्रात्मत्वस्वस्वभावादिपरत्वेऽधिकप्रयोजनं नास्ति मनोवृत्तिविषयत्वं तु बुद्धियोगस्यात्यन्तोपयुक्तमिति भावः। व्याप्तस्येश्वरस्य कीदृशीयमपूर्वा स्थितिः इत्यत्रोक्तं -- विषयतयेति। दीपतया रूपितस्य ज्ञानस्य भास्वरत्वं परितः प्रकाशनम्? तच्च प्रकारविशेषप्रकाशनं भवितुमर्हति। तथाविधविशदानुभवादज्ञाननिवृत्तिः? शब्दादिप्राकृतगुणप्रावण्यनिवृत्तिश्चेत्यभिप्रायेणाह -- मदीयान्कल्याणगुणगणांश्चाविष्कुर्वन्निति। हेतुकार्यभावेन व्यपदेशादज्ञानतमश्शब्दयोरत्रार्थान्तरं वाच्यम् कर्मणि च ज्ञानविरोधित्वेनाज्ञानशब्दः यथोक्तम् -- अविद्या कर्मसंज्ञाऽन्या [वि.पु.6।61] इति। कर्मजन्यं भगवत्साक्षात्काररूपप्रकाशप्रतिबन्धकं च तमोऽर्थस्वभावाद्विषयान्तरप्रावण्यमेव। निरतिशयभोग्यभगवज्ज्ञानस्य भोग्यान्तरप्रावण्यनिवर्तकत्वं युक्तं?तवामृतस्यन्दिनि पादपङ्कजे निवेशितात्मा कथमन्यदिच्छति। स्थितेऽरविन्दे मकरन्दनिर्भरे मधुव्रतो नेक्षुरकं हि वीक्षते [स्तो.र.] इत्यादिन्यायात् तदेतदभिप्रेत्योक्तंज्ञानविरोधीत्यादि। तमश्शब्देन तमोवृत्तिलक्षणादिपक्षोऽप्यनेन निरस्तः। यद्यपि विषयप्रावण्यनिवृत्तिपूर्वकं भजनं? तथापि,संस्कारशेषादनुवृत्तं सूक्ष्मं प्रावण्यमिह भजनविनाश्यतयोक्तमिति नान्योन्याश्रयः।
।।10.11।।नन्वन्यबोधने तेषामज्ञत्वाद्बहुकालव्यासङ्गेन सेवावियोगक्लेशः स्यादिति कथं बोधनं स्यात् इत्याशङ्क्याहतेषामेवेति। तेषामेव भक्तानामेव अनुकम्पार्थं मत्सेवाविप्रयोगक्लेशाभावार्थम्? आत्मभावस्थेषु तेषु स्वीयत्वभावयुक्तोऽहमन्येषामज्ञानजं तमः संसारात्मकं भास्वता स्फुरद्रूपेण ज्ञानदीपेन नाशयामि। ततः संसाराज्ञानविमुक्तानां शीघ्रं स्वरूपबोधात् पुनः परस्परं मद्गुणकथनेन परमानन्द एव भवति? न तु क्लेश इति भावः।
।।10.11।।किं च तेषां भक्तानामुपर्यनुकम्पार्थं न स्वप्रयोजनसिद्ध्यर्थं राजवत्। बुद्धियोगप्रदानेनाज्ञानजमविवेकादुत्थितं मिथ्याप्रत्ययलक्षणं मोहान्धकारं तमोनामकं सर्वानर्थनिदानमूलाज्ञाननाशेन नाशयामि। आत्मभावस्थ आत्मनो भावोऽन्तःकरणगृहं तत्स्थः। ज्ञानरूपेण दीपेन। भास्वता प्रबलेन। अयं भावः -- तत्त्वमसीति वाक्यजा ब्रह्माकारान्तःकरणवृत्तिः स्वोत्पत्तये श्रवणमननध्यानानि शमादीनि कर्माणि चापेक्षते। यथा दीपः स्वोत्पत्तये तैलवर्त्यग्न्यादीन्। उत्पन्ना तु तमोनाशेन स्वविषयप्रकाशनार्थं प्रत्ययावृत्तिलक्षणं प्रसंख्यानं च कर्मभिरुपकारं वा नापेक्षते। नहि ज्ञाते घटे तदाकारप्रत्ययावृत्तिर्वा कर्मापेक्षा वा तज्ज्ञानदार्ढ्यायापेक्षते। प्रमाणव्याप्तिमात्रसापेक्षत्वात् ज्ञानस्य। तस्माद्ये उत्पन्नज्ञानानामपि प्रसंख्यानापेक्षां कर्मभिरुपकारापेक्षां च वदन्ति ते बलादेव मोक्षस्य कृतकतामनित्यतां च प्रार्थयन्त इति दिक्।
।।10.11।।मत्प्राप्तिबन्धकनाशकं बुद्धियोगं ददामीत्याशयेनाह। तेषामेव मच्चित्तत्वादिप्रकारैर्भजतामनुकम्पार्थ दयाहेतोरहमज्ञानजं मूलाज्ञानाज्जातं मिथ्याप्रत्ययलक्षणं तमो मोहाबन्धकारं ज्ञानदीपेन नाशयामि। अचेतनस्य नाशकत्वासंभवादहमित्युक्तं निखिलभ्रामधिष्ठानत्वेनाखिलभासकल्य केवलचैतन्यस्यापि तदसंभवात्। आत्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वतेत्युक्तं। आत्मनो भावोऽन्तःकरणाशयस्तस्मिन्नवस्थितः तत्त्वमस्यादिमहावाक्योत्यान्तःकरणवृत्त्यभिव्यक्तः सन् तेनैव वृत्तिज्ञानदीपेन भक्त्यादिना भास्वता देदीप्यमानेन समूलाज्ञानं मत्प्राप्तिप्रतिबन्धकं मिथ्याप्रत्यवलक्षणं तमो नाशयामीत्यर्थः।
10.11 तेषाम् for them? एव mere? अनुकम्पार्थम् out of compassion? अहम् I? अज्ञानजम् born of ignorance? तमः darkness? नाशयामि (I) destroy? आत्मभावस्थः dwelling within their self? ज्ञानदीपेन by the lamp of knowledge? भास्वता luminous.Commentary Luminous lamp of knowledge The Lord dwells in the heart of the devotees who constantly think of Him and destroys the veil or the darkness born of ignorance due to the absence of discrimination? by the luminous lamp of knowledge fed by the oil of pure devotion? fanned by the wind of profound meditation on Him? provided with the wick of right intuition? generated by the constant cultivation of celibacy? piety and other divine virtues held in the chambers of the heart free from worldliness? placed in the innermost recesses of the mind free from the wind of senseattractions (withdrawn from the objects of the senses) and untainted by likes and dislikes? and shining with the light of knowledge of the Self caused by the constant practice of meditation.The lamp is not in need of an instrument or means or any sort of practice for the removal of darkness. The generation of the light itself is ite sufficient to remove the darkness. As soon as the darkness is removed by the light? the pot? the chair and the other articles are seen. Even so the dawn of knowledge of the Self itself is ite sufficient to remove ignorance. No other Karma or,practice is necessary. After the ignorance is removed by the knowledge of the Self? Brahman alone shines in Its pristine glory.
10.11 Out of mere compassion for them, I, dwelling within their Self, destroy the darkness born of ignorance by the luminous lamp of knowledge.
10.11 By My grace, I live in their hearts; and I dispel the darkness of ignorance by the shining light of wisdom.
10.11 Out of compassion for them alone, I, residing in their hearts, destroy the darkness born of ignorance with the luminous lamp of Knowledge.
10.11 Anukampartham, out of compassion; tesam eva, for them alone, anxious as to how they may have bliss; aham, I; atmabhavasthah, residing in their hearts-atmabhavah means the seat that is the heart; being seated there itself; nasayami, destroy; tamah, the darkness; ajnanajam, born of ignorance, originating from non-discrimination, the darkness of delusion known as false comprehension; jnana-dipena, with the lamp of Knowledge, in the form of discriminating comprehension; i.e. bhasvata, with the luminous lamp of Knowledge-fed by the oil of divine grace resulting from devotion, fanned by the wind of intensity of meditation on Me, having the wick of the intellect imbued with the impressions arising from such disciplines as celibacy etc., in the receptacle of the detached mind, placed in the windless shelter of the mind withdrawn from objects and untainted by likes and dislikes, and made luminous by full Illumination resulting from the practice of constant concentration and meditation. After hearing the above-described majesty and yoga of the Lord,
10.11. Out of compassion only towards these men, I, who remain as their very Self, destroy with teh shining light of wisdom, their darkness born of ignorance,
10.9-11 Maharsaya etc., upto bhasvata. Through the process of mutual enlightening, the wisdom-shock is transmitted to each other. On account of that, they get the all-inclusive [knowledge] 'Indeed all sentient subjects are only a single Absolute Lord'. By means of this extensive pervasion, they easily come to realise their own Self as Omnipotent and omnipresent and by that they attain the Absolute Lordship. This is the idea here.
10.11 To show favour to them alone, abiding in their mental activity, i.e., established as the object of thought in their mind, and manifesting the host of My auspicious attributes by the brillinat lamp called knowledge relating to Me, - I dispel the darkness incompatible with knowledge. This darkness is born of ignorance in the form of old Karma consisting of attachment to objects other than Myself, to which they were previously habituated. Thus having heard of the Lord as having a host of auspicious attributes, and of the extent of His sovereign glories which are unie and different from all others and which generate unsurpassed bliss in listeners, - Arjuna desired to listen to the details about them and said:
10.11 Out of compassion for them alone, I, abiding in their mental activity as its object, dispel the darkness born of ignorance by the brilliant lamp of knowledge.
।।10.11।।आपकी प्राप्तिके कौनसे प्रतिबन्धके कारणका नाश करनेवाला बुद्धियोग आप उन भक्तोंको देते हैं और किसलिये देते हैं इस आकाङ्क्षापर कहते हैं --, उन ( मेरे भक्तों ) का किसी तरह भी कल्याण हो ऐसा अनुग्रह करनेके लिये ही मैं उनके आत्मभावमें स्थित हुआ अर्थात् आत्माका भाव जो अन्तःकरण है उसमें स्थित हुआ उनके अविवेकजन्य मिथ्या प्रतीतिरूप,मोहमय अन्धकारको प्रकाशमय विवेकबुद्धिरूप ज्ञानदीपकद्वारा नष्ट कर देता हूँ। अर्थात् जो भक्ितके प्रसादरूप घृतसे परिपूर्ण है और मेरे स्वरूपकी भावनाके अभिनिवेशरूप वायुकी सहायतासे प्रज्वलित हो रहा है? जिसमें ब्रह्मचर्य आदि साधनोंके संस्कारोंसे युक्त बुद्धिरूप बत्ती है? आसक्ितरहित अन्तःकरण जिसका आधार है? जो विषयोंसे हटे हुए और रागद्वेषरूप कालुष्यसे रहित हुए चित्तरूप वायुरहित अपवारकमें ( ढकनेमें ) स्थित है और जो निरन्तर अभ्यास किये हुए एकाग्रतारूप ध्यानजनित? पूर्ण ज्ञानस्वरूप प्रकाशसे युक्त है? उस ज्ञानदीपकद्वारा ( मैं उनके मोहका नाश कर देता हूँ )।
।।10.11।। --,तेषामेव कथं नु नाम श्रेयः स्यात् इति अनुकम्पार्थं दयाहेतोः अहम् अज्ञानजम् अविवेकतः जातं मिथ्याप्रत्ययलक्षणं मोहान्धकारं तमः नाशयामि? आत्मभावस्थः आत्मनः भावः अन्तःकरणाशयः तस्मिन्नेव स्थितः सन् ज्ञानदीपेन विवेकप्रत्ययरूपेण भक्तिप्रसादस्नेहाभिषिक्तेन मद्भावनाभिनिवेशवातेरितेन ब्रह्मचर्यादिसाधनसंस्कारवत्प्रज्ञावर्तिना विरक्तान्तःकरणाधारेण विषयव्यावृत्तचित्तरागद्वेषाकलुषितनिवातापवरकस्थेन नित्यप्रवृत्तैकाग्र्यध्यानजनितसम्यग्दर्शनभास्वता ज्ञानदीपेनेत्यर्थः।।यथोक्तां भगवतः विभूतिं योगं च श्रुत्वा अर्जन उवाच --,अर्जन उवाच --,
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तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।10.11।।
তেষামেবানুকম্পার্থমহমজ্ঞানজং তমঃ৷ নাশযাম্যাত্মভাবস্থো জ্ঞানদীপেন ভাস্বতা৷৷10.11৷৷
তেষামেবানুকম্পার্থমহমজ্ঞানজং তমঃ৷ নাশযাম্যাত্মভাবস্থো জ্ঞানদীপেন ভাস্বতা৷৷10.11৷৷
તેષામેવાનુકમ્પાર્થમહમજ્ઞાનજં તમઃ। નાશયામ્યાત્મભાવસ્થો જ્ઞાનદીપેન ભાસ્વતા।।10.11।।
ਤੇਸ਼ਾਮੇਵਾਨੁਕਮ੍ਪਾਰ੍ਥਮਹਮਜ੍ਞਾਨਜਂ ਤਮ। ਨਾਸ਼ਯਾਮ੍ਯਾਤ੍ਮਭਾਵਸ੍ਥੋ ਜ੍ਞਾਨਦੀਪੇਨ ਭਾਸ੍ਵਤਾ।।10.11।।
ತೇಷಾಮೇವಾನುಕಮ್ಪಾರ್ಥಮಹಮಜ್ಞಾನಜಂ ತಮಃ. ನಾಶಯಾಮ್ಯಾತ್ಮಭಾವಸ್ಥೋ ಜ್ಞಾನದೀಪೇನ ಭಾಸ್ವತಾ৷৷10.11৷৷
തേഷാമേവാനുകമ്പാര്ഥമഹമജ്ഞാനജം തമഃ. നാശയാമ്യാത്മഭാവസ്ഥോ ജ്ഞാനദീപേന ഭാസ്വതാ৷৷10.11৷৷
ତେଷାମେବାନୁକମ୍ପାର୍ଥମହମଜ୍ଞାନଜଂ ତମଃ| ନାଶଯାମ୍ଯାତ୍ମଭାବସ୍ଥୋ ଜ୍ଞାନଦୀପେନ ଭାସ୍ବତା||10.11||
tēṣāmēvānukampārthamahamajñānajaṅ tamaḥ. nāśayāmyātmabhāvasthō jñānadīpēna bhāsvatā৷৷10.11৷৷
தேஷாமேவாநுகம்பார்தமஹமஜ்ஞாநஜஂ தமஃ. நாஷயாம்யாத்மபாவஸ்தோ ஜ்ஞாநதீபேந பாஸ்வதா৷৷10.11৷৷
తేషామేవానుకమ్పార్థమహమజ్ఞానజం తమః. నాశయామ్యాత్మభావస్థో జ్ఞానదీపేన భాస్వతా৷৷10.11৷৷
10.12
10
12
।।10.12 -- 10.12।। अर्जुन बोले -- परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं -- ऐसा सब-के-सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।
।।10.12।। अर्जुन ने कहा आप -परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हंै; सनातन दिव्य पुरुष, देवों के भी आदि देव, जन्म रहित और सर्वव्यापी हैं।।
।।10.12।। See commentary under 10.13.
।।10.12।। व्याख्या --'परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्'-- अपने सामने बैठे हुए भगवान्की स्तुति करते हुए अर्जुन कहते हैं कि मेरे पूछनेपर जिसको आपने परम ब्रह्म (गीता 8। 3) कहा है, वह परम ब्रह्म आप ही हैं। जिसमें सब संसार स्थित रहता है, वह परम धाम अर्थात् परम स्थान आप ही हैं (गीता 9। 18)। जिसको पवित्रोंमें भी पवित्र कहते हैं -- 'पवित्राणां पवित्रं यः' वह महान् पवित्र भी आप ही हैं। 'पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं ৷৷. स्वयं चैव ब्रवीषि मे'-- ग्रन्थोंमें ऋषियोंने, (टिप्पणी प0 549.1) देवर्षि नारदने, (टिप्पणी प0 549.2)? असित और उनके पुत्र देवल ऋषिने (टिप्पणी प0 549.3) तथा महर्षि व्यासजीने (टिप्पणी प0 549.4) आपको शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु कहा है। आत्माके रूपमें 'शाश्वत' (गीता 2। 20), सगुण-निराकारके रूपमें 'दिव्य पुरुष' (गीता 8। 10), देवताओँ और महर्षियों आदिके रूपमें 'आदिदेव' (गीता 10। 2), मूढ़लोग मेरेको अज नहीं जानते (गीता 7। 25) तथा असम्मूढ़लोग मेरेको 'अज' जानते हैं (गीता 10। 3 ) -- इस रूपमें अज और मैं अव्यक्तरूपसे सारे संसारमें व्यापक हूँ (गीता 9। 4) -- इस रूपमें 'विभु' स्वयं आपने मेरे प्रति कहा है।
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।।10.12।।अर्जुन उवाच -- परं ब्रह्म परं धाम परमं पवित्रम् इति यं श्रुतयो वदन्ति स हि भवान्।यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते? येन जातानि जीवन्ति? यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति? तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्मेति (तै0 उ0 3।1)ब्रह्मविदाप्नोति परम् (तै0 उ0 2।1)स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मु0 उ0 3।2।9) इति।तथा परं धाम धामशब्दो ज्योतिर्वचनः परं ज्योतिःअथ यदतः परो दिव्यो ज्योतिर्दीप्यते (छा0 उ0 3।13।7)परं ज्योतिरूपसंपद्यस्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते (छा0 उ0 8।12।2)तद् देवा ज्योतिषां ज्योतिः (बृ0 उ0 4।4।16) इति।तथा च परमं पवित्रं परमं पावनं स्मर्तुःअशेषकल्मषाश्लेषकरं विनाशकरं च।यथा पुष्करपलाश आपो न श्िलष्यन्त एवमेवंविदि पापं कर्म न श्िलष्यते (छा0 उ0 4।14।3)तद्यथेषीकातूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतैव्ँहास्य सर्वे पाप्मानः प्रदूयन्ते (छा0 उ0 5।24।3)।नारायणः परं ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परः। नारायणः परं ज्योतिरात्मा नारायणः परः।। (महाभा0 9।4) इति हि श्रुतयो वदन्ति।ऋषयः च सर्वे परावरतत्त्वयाथात्म्यविदः त्वाम् एव शाश्वतं दिव्यं पुरुषम् आदिदेवम् अजं विभुम् आहुः। तथा एव देवर्षिः नारदः असितो देवलो व्यासः च।एष नारायणः श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः। नागपर्यङ्कमुत्सृज्य ह्यागतो मथुरां पुरीम्।।पुण्या द्वारवती तत्र यत्रास्ते मधुसूदनः। साक्षाद्देवः पुराणोऽसौ स हि धर्मः सनातनः।।ये च वेदविदो विप्रा चे चाध्यात्मविदो जनाः। ते वदन्ति महात्मानं कृष्णं धर्मं सनातनम्।।पवित्राणां हि गोविन्दः पवित्रं परमुच्यते। पुण्यानामपि पुण्योऽसौ मङ्गलानां च मङ्गलम्।।त्रैलोक्ये पुण्डरीकाक्षो देवदेवः सनातनः। आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा तत्रैव मधुसूदनः।। (महा0 वन0 88।2428) तथायत्र नारायणो देवः परमात्मा सनातनः। तत्र कृत्स्नं जगत्पार्थ तीर्थान्यायतनानि च।।तत्पुण्यं तत्परं ब्रह्म तत्तीर्थं तत्तपोवनम्। ৷৷. तत्र देवर्षयः सिद्धाः सर्वे चैव तपोधनाः।।आदिदेवो महायोगी यत्रास्ते मधुसूदनः। पुण्यानामपि तत्पुण्यं माभूत्ते संशयोऽत्र वै।। (महा0 वन0 90।2832)कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाप्ययः। कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम्।। (महा0 सभा0 38।23) इति।तथा स्वयम् एव ब्रवीषि चभूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (गीता 7।4) इत्यादिना?अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते (गीता 10।8) इत्यन्तेन।
।।10.12।।निरस्ताशेषविशेषं निरुपाधिकं सोपाधिकं च सर्वात्मत्वादि भगवतो रूपं तद्धीफलं च श्रुत्वा निरुपाधिकरूपस्य प्राकृतबुद्ध्यनवगाह्योक्तिपूर्वकं मन्दानुग्रहार्थं सर्वदा सर्वबुद्धिग्राह्यं सोपाधिकं रूपं विस्तरेण,श्रोतुमिच्छन्पृच्छतीत्याह -- यथोक्तामिति। परं ब्रह्म भवानिति लक्ष्यनिर्देशः। तस्य लक्षणार्थं परं धामेत्यादिविशेषणत्रयम्। धामशब्दस्य स्थानवाचित्वं व्यावर्तयन्व्याचष्टे तेज इति। तस्य चैतन्यस्य परमत्वं जन्मादिराहित्येन कौटस्थ्यम्। प्रकृष्टं पावनमत्यन्तशुद्धत्वमुच्यते। यदेवंलक्षणं परं ब्रह्म तद्भवानेव नान्य इत्यर्थः। कुतस्त्वमेवमज्ञासीरित्याशङ्क्याप्तवाक्यादित्याह -- पुरुषमिति। दिवि परमे व्योम्नि भवतीति दिव्यस्तं सर्वप्रपञ्चातीतं दीव्यति द्योतत इति देवः स चादिः सर्वमूलत्वादत एवाजस्तं त्वां सर्वगतमाहुरिति संबन्धः।
।।10.12 -- 10.14।।एवं सकलेतरविसजातीयं भगवतो योगप्रभावं तादृशविभूतिहेतुत्वं स्वानन्यजनकात्मत्वं च निशम्य तद्विस्तारं ज्ञातुकामो भगवन्तं स्तुवन् अर्जुन उवाच -- परं ब्रह्मेति सप्तभिः धर्मधर्म्यभिप्रायेण। इदं च सर्वं श्रुतेरिव प्रतिवाक्यभूतं भवान् परं ब्रह्मेत्यादि। त्वामेवाहुः सर्वे ऋषयः? तथा महाभगवदीयो मर्यादापुष्टिभक्तः देवर्षिर्नारदः आह असितो देवलो व्यासश्च -- एष नारायणः श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः। नागपर्यङ्कमुत्सृज्य ह्यागतो मधुरां पुरीम् [म.भा.3।88।24] इति भारते।कृष्ण एव हि भूतानामुत्पत्तिरपि चाव्ययः। कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम् इत्यादीनि भूयांसि महर्षिवचनानि श्रूयन्ते। भागवते [10।37।10] देवर्षिवचनं -- कृष्ण कृष्ण प्रमेयात्मन्योगेश जगदीश्वर इत्यादि। स्वयं च ब्रवीषिअहं सर्वस्य प्रभवः [10।8] इत्यादि। पुरुषोत्तम एव स्वमुखेन स्वस्वरूपं स्वमाहात्म्यं च वदति? नान्य इति। तदेतत्सर्वोक्तत्वात्सत्यमेव मन्ये यन्मां त्वं च वदसि। अतो भगवन् षडगुणपूण ज्ञानं त्वय्येव गुणः त्वद्दत्तमेवान्यत्रोद्भवतीति नान्ये देवा दानवाश्च ते व्यक्तिं अनन्यसाधारणं योगप्रभावं तत्तद्विभूतिरूपां व्यक्तिं च ते विदुः।
।।10.12।।एवं भगवतो विभूतिं योगं च श्रुत्वा परमोत्कण्ठितः अर्जुन उवाच -- परं ब्रह्म परं धामं आश्रयः प्रकाशो वा। परमं पवित्रं पावनं च भवानेव। यतः पुरुषं परमात्मानं शाश्वतं सर्वदैकरूपं दिवि परमे व्योम्नि,स्वस्वरूपे भवं दिव्यं सर्वप्रपञ्चातीतमादि च सर्वकारणं देवं च द्योतनात्मकं स्वप्रकाशमादिदेवं अतएवाजं विभुं सर्वगतं त्वामाहुरिति संबन्धः।
।।10.12।। संक्षेपेणोक्ता विभूतीर्विस्तरेण जिज्ञासुर्भगवन्तं स्तुवन्नर्जुन उवाच -- परं ब्रह्मेति सप्तभिः। परं ब्रह्म च? परं धाम च आश्रयः? परमं च पवित्रं भवानेव। कुत इत्यत आह। यतः शाश्वतं नित्यं पुरुषं तथा दिव्यं द्योतनात्मकं स्वप्रकाशं च आदिश्चासौ देवश्च तं। देवानामादिभूतमित्यर्थः। तथा अजमजन्मानं विभुं व्यापकं त्वामेवाहुः।
।।10.12।।परं ब्रह्म इत्यादेःअमृतम् [श्रुतिप्रदर्शनार्थं विषयमुपादाय शोधयति -- तथेत्यादिना। सामानाधिकरण्यप्रयोगाद्वस्त्वन्तरसामानाधिकरण्यसहपाठाभावाद्भगवतस्तत्तच्छ्रुतिप्रतिपादितपरत्वप्रकारव्यञ्जने तात्पर्याच्च अत्र धामशब्दस्य स्थानादिपरत्वमयुक्तमित्यभिप्रायेणाह -- धामशब्दो ज्योतिर्वचन इति।विष्णुसंज्ञं सर्वाधारं धाम इत्यादि धामशब्दप्रयोगेऽपिपरं धाम इति विशेषणादर्शनात्पर्यायान्वयमुखेन तत्प्रदर्शयतिपरं ज्योतिरिति।अथ यदतः इत्यादिवाक्येनाप्राकृतलोकादिविशिष्टत्वंपादोऽस्य सर्वा भूतानि [छां.उ.3।12।6] इत्यादिव्यपदेशवशसिद्धपुरुषसूक्तप्रकरणैकार्थ्याच्च समीहितमखिलं सिद्धम्परं ज्योतिरुपसम्पद्य इति वाक्येन मुक्तप्राप्यत्वादिकम्?परं ज्योतिः इति विशिष्टप्रयोगश्च सिद्धः। तं (तत्) देवा ज्योतिषां ज्योतिः [बृ.उ.4।4।16] इत्यादिना देवोपास्यत्वमुखेन ज्योतिषां ज्योतिष्ट्वेन च परत्वमर्थलब्धम्। भगवदसाधारणं परमशब्दविशेषितं पावनत्वं दर्शयितुं पवित्रशब्दस्यात्र संज्ञात्वव्युदासायाहपरमं पावनमिति।विनाशकरमित्यत्र कल्मषशब्दो बुद्ध्या निष्कृष्यानुसन्धेयः। प्रदूयन्ते? नश्यन्तीत्यर्थः। सूत्रं च -- तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात् [ब्र.सू.4।1।13] इति। तत्त्वनिर्णयैकतत्परनारायणानुवाकवाक्येनापि परब्रह्मत्वादिकंभवान् इति निर्दिष्टदेवताविशेषस्यैव संवादयतिनारायणेति। अनयोर्वाक्ययोः प्रथमौ नारायणशब्दौ लुप्तविभक्तिकौ?तत्त्वं नारायणः परः इत्यादिसहपाठवशाद्व्यस्तत्वं प्रथमान्तत्वं च प्राप्तम्। तथैव सविभक्तिकतया श्रुत्यन्तरेऽधीयतेनारायणः परं ब्रह्म इत्यादि। एतेन पञ्चमीसमासतां वदन् भगवद्द्वेषी प्रत्युक्तः? सर्वश्रुतिस्मृतिसूत्रन्यायविरोधाच्च।इति हि श्रुतयोवदन्तीत्यत्रयतो वा इमानि इत्यादिकमखिलमन्वेतव्यम् मध्ये तत्तदर्थवैशद्यायावान्तरवाक्यम्।एवं श्रुतिसिद्धोऽर्थः स्मृतीतिहासपुराणायमानमहर्षिवचनाच्छ्रुतिवदन्यानपेक्षसर्वज्ञवचनाच्च सिद्ध इत्याह -- पुरुषम् इति सार्धेन। सर्वशब्देनाविगीतत्वं विवक्षितम्।परावरतत्त्वयाथात्म्यविद इति ऋषिशब्दाभिप्रेतोक्तिः। तेनाप्ततमत्वमुक्तं भवति।त्वाम् इत्येतद्ब्रह्मरुद्रादिविशेषान्तरव्युदासार्थमित्यभिप्रायेण -- त्वामेवेत्युक्तम्। यद्वा अवतीर्णं त्वामेवेत्यर्थः।शाश्वतं नित्यम्?दिव्यं परमव्योमनिलयम्?पुरुषं परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते [प्रश्नो.5।5] इत्यादिप्रतिपादितम्।शाश्वतं दिव्यं पुरुषम् इति व्युत्क्रमोपादानं दिवि वर्तमानस्य पुरुषस्य पुरुषसूक्तोदितामृतत्रिपाद्विभूतिविशिष्टवेषेण शाश्वतत्वमिह विवक्षितमिति व्यञ्जनार्थम्। आदिश्चासौ देवश्चेत्यादिदेवः जगत्कारणभूतः क्रीडारूपजगत्कारणव्यापारच्चेत्यर्थः। स्मरन्ति च -- क्रीडतो बालकस्येव [वि.पु.1।2।18]क्रीडा हरेरिदं सर्वंबालः क्रीडनकैरिव [म.भा.2।97।31] इति। सूत्रितं चलोकवत्तु लीलाकैवल्यम् [ब्र.सू.2।1।33] इति। एतेन ब्रह्मादीनामपि देवजात्यनुप्रविष्टानां परमपुरुषलीलोपकरणत्वं कार्यत्वं चोक्तं भवति। नारायणाद्ब्रह्मा जायते नारायणाद्रुद्रो जायते [ना.उ.1] एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानः [महो.1।1] तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताः साध्या मनुष्याः पशवो वयांसि [मुं.उ.2।1।7]एतौ द्वौ विबुधश्रेष्ठौ प्रसादक्रोध -- (जावुभौ) जौ स्मृतौ [म.भा.12।341।19]आवां तवाङ्गे सम्भृतौ [ह.वं.] इत्याद्याः। कारणवाक्यार्थ उक्तः? शोधकवाक्यार्थमुपलक्षयति -- अजमिति। कर्मकृतजन्मादिरहितमित्यर्थः। स्वरूपापेक्षया वा निर्विकारत्वमुच्यते। विभुम् आकाशवत्सर्व(गतं सुसूक्ष्मं)गतश्च नित्यः [शां.उ.2।1] इति प्रक्रियया व्याप्तं नियन्तारमिति वा। एतेन कारणत्वाद्यनुगुणव्याप्तिनियमनादिकमन्तर्यामिब्राह्मणादिसिद्धं स्मारितम्। एतैः पदैः एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः [सुबालो.7] इति श्रुतिः सूचिता। सर्व इति सामान्यतः सङ्ग्रहेऽप्याप्ततमत्वविवक्षया नारदादेः पृथगभिधानम्। देवर्षिशब्देन जात्यापि सत्त्वोत्तरत्वं प्रकाश्यते। तत्राप्यसौदेवर्षीणां च नारदः [10।26] इति प्रकृष्टः। असितः? देवलश्च तस्य पिता। व्यासश्चात्र भगवान् पाराशर्यः।आहुस्त्वामृषयः सर्वे इत्यादिकं संवादयति -- ये चेति। वेदविदः कर्मभागवेदिनः? अध्यात्मविदः वेदान्तार्थवेदिनः। कृष्णं महात्मानं सनातनं धर्मं वदन्तीत्यन्वयः। महात्मशब्देन सर्वातिशायि परमैश्वर्यादिकं विवक्षितम् महानात्मेति परमात्मत्वं वा? स वा एष महानज आत्मा [बृ.उ.4।4।22] इत्यादेः। यागदानादयो हि देशकालादिपरिमितफलदायिनः? स्वयं चानित्याः अयं तु नित्यनिरतिशयफलदायी? नित्यश्चेति सनातनशब्देन धर्मस्य विशेषणम्। पवित्रशब्दोऽत्र पापनिबर्हणपरः। पुण्यशब्दोऽभिमतफलविशेषसाधनपरः। मङ्गलशब्दश्च स्वसन्निधिमात्रेणातिसमृद्धिहेतुभूतकल्याणवस्तुपरः।त्रैलोक्यं पुण्डरीकाक्षः इति कार्यकरणभावेन शरीरात्मभावेन वा सामानाधिकरण्यम्। त्रयो लोकास्त्रैलोक्यम् -- बद्धमुक्तनित्या इत्यर्थः। यद्वोपलक्षणतया भूम्यन्तरिक्षादिकमुच्यते। पुण्डरीकाक्षशब्देन अन्तरादित्यविद्याप्रतिपादितविलक्षणविग्रहत्वं दर्शितम्।तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी [छां.उ.1।6।7] इत्यस्य च वाक्यस्य द्रविडभाष्योदितेषु षट्स्वर्थेषु सिद्धान्तत्वेन भाष्यकारपरिगृहीतास्त्रयोऽर्थाः। तथाहि वेदार्थसङ्ग्रहे दर्शितं -- गम्भीराम्भस्समुद्भूतसुमृष्टनालरविकरविकसितपुण्डरीकदलामलायतेक्षणः इति। इदं च वरदगुरुभिस्तत्त्वसारे दर्शितं प्रपञ्चितं च। नारायणशब्देन परतत्त्वनिर्णयैकपरनारायणानुवाकसूचनम्।श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः इत्याभ्यां ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ [यजुषि.आ.3।13।3] अम्भस्यपारे [म.ना.1।1] यमन्तस्समुद्रे [म.ना.1।3] इत्यादिकं स्मारितम्।उत्सृज्यागतः इत्यवतारमात्रत्वं विवक्षितम्। कृष्णावतारदशायामपि क्षीरार्णवगतनागपर्यङ्कशायिविग्रहस्य तत्रैव स्थितत्वात्।साक्षादिति -- न त्वौपचारिकः आत्मान्तरव्यवहितो वेत्यर्थः।तथेति -- प्रकरणान्तरत्वव्यत्यर्थम्।देवर्षिर्नारदस्तथा इति व्याख्येयविभागावगमात्तत्तदुक्तवाक्योपादानमपि तथाविभागेन कुर्मह इति च दर्शितम्।तत्र कृत्स्नम् इत्यादि नारायणस्यैव सर्वाश्रयत्वात्सर्वप्रकारातिशययोगित्वाद्वा।तत्पुण्यम् इत्यादिकं ब्रह्मशब्दानुरोधेन नारायणविषयं वा? प्रकरणविशेषेण तदाश्रितस्थानप्रशंसनं वा।स्वयमेवेति -- स्वतःसर्वज्ञो ब्रह्मादीनामपि गुरुस्त्वमेवेत्यर्थः।भूमिरापः [7।4] इत्यादिषु सर्वशेषित्वं सर्वकारणत्वं सर्वशरीरित्वमित्यादिकमुक्तम्।
।।10.12।।एवंन मे विदुः सुरगणाः [10।2] इत्यादिना सर्वेषां स्वावेदनयुक्तानांयो मामजमनादिं च [10।3] इत्यादिना स्वज्ञानस्योत्तमत्वं प्रतिपादितम्। ततः सर्वभावोत्पत्तिः स्वत उक्ता स्वरूपा या? स्वस्वविभूतिज्ञस्य स्वभजने स्वप्राप्तिमुक्तवान्? एतत्सर्वजिज्ञासुरर्जुनः प्रभुं विज्ञापयति सप्तभिः। विज्ञप्तेरपि भगवदात्मत्वाय षड्गुणधर्मिसमसङ्ख्यैः श्लोकैर्विज्ञापयति -- अर्जुन उवाच। परं ब्रह्मेति। परं पुरुषोत्तमाख्यं ब्रह्म बृहद्व्यापकं परं धाम पुरुषोत्तमात्मकतेजोरूपं रमणात्मगृहात्मकं वा? परमं पवित्रं सर्वोत्कृष्टं सर्वपावनम्? एतत्सर्वरूपो भवान् सत्यमेवेत्यर्थः। कथमेवमवगतं इत्यत आह -- पुरुषमिति। पुरुषं पुरुषोत्तमम्। अन्यत्रापि तथात्वमाशङ्क्य शाश्वतं नित्यमिति। अक्षरादिष्वपि नित्यत्वमाशङ्क्य दिव्यमित्याह क्रीडनैकरूपम्। अवतारादिष्वपि तथात्वमाशङ्क्याह -- आदिदेवमिति। मूलरूपमित्यर्थः। परिदृश्यमानजन्माद्याशङ्कायामाह -- अजमिति। जन्मरहितम्। जन्माभावे जन्मप्रतीतिः कथं इत्यत आह -- विभुमिति। समर्थमित्यर्थः। तथाप्रतीतिकरणसमर्थमिति भावः।
।।10.12 -- 10.13।।एवं एतां विभूतिं योगं चेत्यादिना विभूतिज्ञानस्य फलोदर्कं श्रुत्वा तत्प्राप्त्युत्सुकः प्रथमं स्तुत्या भगवन्तमावर्जयन्नर्जुन उवाच -- परमिति। परं ब्रह्म नत्वपरमुपास्यम्।तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते इति श्रुतेः। परं धाम ज्योतिः नत्वपरं वृत्तिरूपं ज्ञानम्। एतस्यह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति श्रुतेर्वृत्तिरूपत्वात्। परमं पवित्रं न तु तीर्थादिवदपरमं भवान्। तत्र मानमाह -- पुरुषमिति सार्धेन। पुरुषं देहान्तरस्थम्। शाश्वतं नित्यं। दिव्यं दिवि हार्दाकाशे आविर्भूतम्। आदिदेवं सूत्रात्मनोऽप्याद्यम्। अतएव अजं विभुं व्यापकम्। त्वां ऋषय आहुरिति संबन्धः।
।।10.12।।मच्चित्तत्वादिप्रकारभक्तिद्वाराऽविकम्पयोगसाधनभूतौ विभूतियोगौ संक्षेपतः श्रुत्वा विस्तरश्रवणोत्सुकः अर्जुन उवाच -- परमिति। भवान् वासुदेवः परं अक्षरं निरञ्जनं निर्गुणं ब्रह्म। परस्य ब्रह्मणो लक्षणमाह। परं धाम परं तेजः सूर्यादितेजसामपि तेजः।यस्य भासा सर्वमिदं विभाति इति श्रुतेः। अस्यार्थस्य निरञ्जने ब्रह्मणि सामञ्जस्यमभिप्रेत्य परं धाम परं स्थानमित्यर्थ आचार्यैरुपेक्षितः। पवित्रं पावनं परमं प्रकृष्टं ज्ञानमात्रेण सवासनाऽविद्याकामकर्मेभ्यो मोचकत्वात्। एतादृशं परं ब्रह्म भवानेव नान्यः। नन्वेत्त्वया कुतो ज्ञातमिति चेदाप्तवाक्यादित्याह। पुरुषं परि शयं पूर्णं परमात्मानं अतएव शाश्वतं सर्वदैकरसं दिव्यं दिवि परमे व्योम्नि हृदयाकाशे भवं दिव्यम्। आदिदेवं सर्वेषां ब्रह्मादिदेवानामादिभवं अतएवाजं। विभुं विभवनशीलं। विभवनमित्यस्य विविधं भवनमिति व्यापनमिति वार्थः।
10.12 परम् supreme? ब्रह्म Brahman? परम् supreme? धाम abode? पवित्रम् purifier? परमम् supreme? भवान् Thou? पुरुषम् Purusha? शाश्वतम् eternal? दिव्यम् divine? आदिदेवम् primeval God? अजम् unborn? विभुम् omnipresent.Commentary Param Brahma The highest Self. The word Param indicates the pure and attributeless Absolute? free from the limiting adjuncts. It is Satchidananda Brahman. The inferior Brahman is the Brahman with alities (Saguna) or Isvara? Brahman with the limiting adjuncts or the chosen object of meditation by the devotees.Param Dhama means Param Tejah or the supreme light. From the Creator down to the blade of grass the Supreme Being is the support or substratum. Therefore He is known as the supreme abode.Adideva The primeval God or the original God Who existed before all other gods. This God is Para Brahman Itself. It is selfluminous.Pavitram Paramam Supreme purifier. The sacred rivers and holy places of pilgrimage can remove only the sins but Para Brahman can destroy all sins and ignorance? the root cause of all sins. Therefore Para Brahman or the Supreme Self is the supreme purifier.
10.12 Arjuna said Thou art the Supreme Brahman, the supreme abode (or the supreme light), the supreme purifier, eternal, divine Person, the primeval God, unborn andn omnipresent.
10.12 Arjuna asked: Thou art the Supreme Spirit, the Eternal Home, the Holiest of the Holy, the Eternal Divine Self, the Primal God, the Unborn and the Omnipresent.
10.12-10.13 Arjuna said You are the supreme Brahman, the supreme Light, the supreme Sanctifier. All the sages as also the divine sage Narada, Asita, Devala and Vyasa [Although Narada and the other sages are already mentioned by the words 'all the sages', still they are named separately because of their eminence. Asita is the father of Devala.] call You the eternal divine Person, the Primal God, the Birthless, the Omnipresent; and You Yourself verily tell me (so).
10.12 Bhavan, You; are the param brahma, supreme Brahman, the supreme Self; the param dhama, supreme Light; the paramam pavitram, supreme Sanctifier. Sarve, all; rsayah, the sages-Vasistha and others; tatha, as also; the devarisih, divine sage; naradah, Narada; Asita and Devala ahuh, call; tvam, You; thus: Sasvatam, the eternal; divyam, divine; purusam, Person; adi-devam, the Primal God, the God who preceded all the gods; ajam, the birthless; vibhum, the Omnipresent-capable of assuming diverse forms. And even Vyasa also speaks in this very way. Ca, and; svayam, You Yourself; eva, verily; bravisi, tell; me, me (so).
10.12. - 10.13. Arjuna said You are the Supreme Brahman, Supreme Abode, Supreme Purifier. All the seers and also the divine seer Narada, Asita Devala, Vyasa describe You as the Eternal Divine Soul, the unborn, all-manifesting First-God. You too say so to me.
10.12 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
10.12 - 10.13 Arjuna said You are He whom the Srutis proclaim as the Supreme Brahman, the Supreme Light, the Supreme Sanctifier. Thus the Srutis assert: 'From whom all these beings are born, by whom, when born, they live and unto whom they go when they perish - desire to know that well. This is Brahman' (Tai. U., 3.1.1); 'He who knows Brahman attains the Highest' (Ibid., 2.1.1); and 'He who knows the Supreme Brahman becomes the Brahman' (Mun. U., 3.2.9). Likewise He is the Supreme Light. The term 'Dhaman' connotes light. He is the Supreme Light as taught (in the Upanisads): 'Now, the light which shines higher than this heaven ৷৷.' (Cha. U., 3.13. 7); 'Attaining the Supreme Light. He appears with His own form' (Ibid., 8.12.2); 'The gods worship Him as the Light of lights' (Br. U., 4.4.16). So also He is the Supreme Sanctifier: He makes the meditator bereft of all the impurities, and also destroyes them without any trace. The Srutis declares: 'As water clings not to the leaf of a lotus-flower, so evil deeds cling not to him who knows thus' (Cha. U., 4.14.3): 'Just as the fibre of Isika reed (reed-cotton) laid on a fire is burnt up, so also all his sins are burnt up' (Ibid., 5.24.3); and 'Narayana is Supreme Brahman, Narayana is Supreme Light, Narayana is Supreme Self' (Ma. Na., 9.4). Sages are those who know in reality the higher truth (the Supreme Brahman), and the lower truth (individual selves); they speak of You as the eternal Divine Person, Primal Lord, the unborn and all-pervading. So also divine sage Narada, Asita, Devala and Vyasa declare: 'This Narayana, Lord of Sri, the resident of the Milk Ocean, has come to the city of Mathura abandoning his Serpent-couch.' 'Where Madhusudana is, there is the blessed Dvaravati. He is the Lord Himself, the ancient One and Eternal Dharma (Ma. Bh. Vana. 88. 24-25). Those who know the Vedas and those who know the self declare the great-minded Krsna to be the eternal Dharma. Of all sanctifiers, Govinda is said to be the most sanctifying, the most auspicious among the auspicious. The lotus-eyed God of gods, the eternal, abides as the three worlds ৷৷. Hari who is beyond thought, abides thus. Madhusudana is there alone' (Ma. Bha. Vana., 88.24-28). Similarly it is stated: 'O Arjuna, where the divine, the eternal Narayana the Supreme Self is, there the entire universe, the sacred water and the holy shrines are to be found. That is sacred, that is Supreme Brahman, that is sacred waters, that is the austerity grove ৷৷. there dwell the divine sages, the Siddhas and all those rich in austerities where the Primal Lord, the agent Yogin Madhusudana dwells. It is the most sacred among the sacred. For you, let there be no doubt about this' (Ibid., 90.28-32); 'Krsna Himself is the origin and dissolution of all beings. For, this universe, consisting of sentient and non-sentient entities, was generated for the sake of Krsna' (Ma. Bha. Sabha., 38.23). And you yourself say so in the passage beginning with 'Earth, water, fire, ether, mind, intellect and Ahankara - this Prakrti, which is divided eightfold, is Mine' (7.4) and ending with 'I am the origin of all; from Me proceed everything' (10.8).
10.12 - 10.13 Arjuna said You are Supreme Brahman, the Supreme Light, and the Supreme Sanctifier. All the seers proclaim You as the eternal, divine Person, the Primal Lord, the unborn and all-pervading. So also proclaim the divine sages Narada, Asita, Devala and Vyasa. You Yourself also proclaim this.
।।10.12।।ऊपर कही हुई भगवान्की विभूतिको और योगको सुनकर अर्जुन बोला --, आप परमब्रह्मपरमात्मा? परमधाम -- परमतेज और परमपावन हैं तथा आप नित्य और दिव्य पुरुष हैं अर्थात् देवलोकमें रहनेवाले अलौकिक पुरुष हैं एवं आप सब देवोंसे पहले होनेवाले आदिदेव? अजन्मा और व्यापक हैं।
।।10.12।। --,परं ब्रह्म परमात्मा परं धाम परं तेजः पवित्रं पावनं परमं प्रकृष्टं भवान्। पुरुषं शाश्वतं नित्यं दिव्यं दिवि भवम् आदिदेवं सर्वदेवानाम् आदौ भवम् आदिदेवम् अजं विभुं विभवनशीलम्।।ईदृशम् --,
।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्मविभुशब्दावैकार्थ्यपरिहाराय क्रमेण सप्रमाणकं व्याचष्टे -- ब्रह्मेति। परं वस्तु ब्रह्मेति,कस्मादुच्यते बृहतिं पूर्णं भवति बृंहयति पूरयति चान्यान्। बृहतेर्मन्प्रत्ययोऽमागमश्च। ईश्वरो ब्रह्मणोऽन्यः स कथं परं ब्रह्मेत्युच्यते इत्यत उक्तम् -- परममिति। विविधमनेकरूपत्वेनाभवत्। मेहनावतः सेचकस्य भगवतः प्रथमं रूपं विभु प्रभु चेत्येतदनूद्य व्याख्यायते। प्राभवत्समर्थोऽभवदिति प्रभुः विविधोऽभवदिति विभुः। सोऽकामयत इति विविधभवने श्रुत्यन्तरम्। विप्रसम्भ्यो ड्वसंज्ञायाम् [अष्टा.3।2।180] इति च स्मृतिः।
।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्म परिपूर्णम्। अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म ৷৷. बृहद्बृहत्या बृंहयति [अ.शिर.4] इति च श्रुतिः। बृह बृहि वृद्धाविति पठन्ति।परमं यो महद्ब्रह्म [म.भा.13।149।9] इति च। विविधमासीदिति विभुः। तथा हि वारुणशाखायाम् -- विभु प्रभु प्रथमं मेहनावतः [ऋक्सं.2।7।2।5] इति स ह्येव प्रभावाद्विविधोऽभवत् इति। सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय [तै.उ.2।6] इत्यादेश्च।
अर्जुन उवाच परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्। पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।10.12।।
অর্জুন উবাচ পরং ব্রহ্ম পরং ধাম পবিত্রং পরমং ভবান্৷ পুরুষং শাশ্বতং দিব্যমাদিদেবমজং বিভুম্৷৷10.12৷৷
অর্জুন উবাচ পরং ব্রহ্ম পরং ধাম পবিত্রং পরমং ভবান্৷ পুরুষং শাশ্বতং দিব্যমাদিদেবমজং বিভুম্৷৷10.12৷৷
અર્જુન ઉવાચ પરં બ્રહ્મ પરં ધામ પવિત્રં પરમં ભવાન્। પુરુષં શાશ્વતં દિવ્યમાદિદેવમજં વિભુમ્।।10.12।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਪਰਂ ਬ੍ਰਹ੍ਮ ਪਰਂ ਧਾਮ ਪਵਿਤ੍ਰਂ ਪਰਮਂ ਭਵਾਨ੍। ਪੁਰੁਸ਼ਂ ਸ਼ਾਸ਼੍ਵਤਂ ਦਿਵ੍ਯਮਾਦਿਦੇਵਮਜਂ ਵਿਭੁਮ੍।।10.12।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಪರಂ ಬ್ರಹ್ಮ ಪರಂ ಧಾಮ ಪವಿತ್ರಂ ಪರಮಂ ಭವಾನ್. ಪುರುಷಂ ಶಾಶ್ವತಂ ದಿವ್ಯಮಾದಿದೇವಮಜಂ ವಿಭುಮ್৷৷10.12৷৷
അര്ജുന ഉവാച പരം ബ്രഹ്മ പരം ധാമ പവിത്രം പരമം ഭവാന്. പുരുഷം ശാശ്വതം ദിവ്യമാദിദേവമജം വിഭുമ്৷৷10.12৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ପରଂ ବ୍ରହ୍ମ ପରଂ ଧାମ ପବିତ୍ରଂ ପରମଂ ଭବାନ୍| ପୁରୁଷଂ ଶାଶ୍ବତଂ ଦିବ୍ଯମାଦିଦେବମଜଂ ବିଭୁମ୍||10.12||
arjuna uvāca paraṅ brahma paraṅ dhāma pavitraṅ paramaṅ bhavān. puruṣaṅ śāśvataṅ divyamādidēvamajaṅ vibhum৷৷10.12৷৷
அர்ஜுந உவாச பரஂ ப்ரஹ்ம பரஂ தாம பவித்ரஂ பரமஂ பவாந். புருஷஂ ஷாஷ்வதஂ திவ்யமாதிதேவமஜஂ விபும்৷৷10.12৷৷
అర్జున ఉవాచ పరం బ్రహ్మ పరం ధామ పవిత్రం పరమం భవాన్. పురుషం శాశ్వతం దివ్యమాదిదేవమజం విభుమ్৷৷10.12৷৷
10.13
10
13
।।10.12 -- 10.13।। अर्जुन बोले -- परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु (व्यापक) हैं -- ऐसा सब-के-सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।
।।10.13।। ऐसा आपको समस्त ऋषिजन कहते हैं;  वैसे ही देवर्षि नारद, असित, देवल ऋषि तथा व्यास और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।।
।।10.13।। अर्जुन वैदिक साहित्य से परिचित था। वह यहाँ कहता है कि प्राचीन ऋषियों ने अनन्त सनातन सत्य को जिन शब्दों के द्वारा सूचित किया है? उससे वह परिचित है? जैसे परं ब्रह्म? परं धाम? परम पवित्र आदि। परन्तु उसने अब तक यही समझा था कि ये सब परम सत्य के गुण हैं। इसलिए? जब वह भगवान् को इन्हीं शब्दों का प्रयोग स्वयं के लिए करते हुए सुनता है? तब वह कुन्तीपुत्र आश्चर्यचकित रह जाता है। उसे समझ में नहीं आता कि वह अपने रथसारथि श्रीकृष्ण को विश्व के आदिकारण के रूप में किस प्रकार जानेव्यावहारिक बुद्धि का व्यक्ति होने के नाते अर्जुन को श्रीकृष्ण के स्वरूप को समझने के लिए अधिक तथ्यों की जानकारी की आवश्यकता थी। हम देखेंगे कि उसकी मांग को पूर्ण करने हेतु इसी अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने पर्याप्त सूचनाएं और तथ्य प्रस्तुत किये हैं। परन्तु? अर्जुन को सन्तुष्ट करने के स्थान पर वह जानकारी उसकी उत्सुकता को द्विगुणित कर देती है? और वह बाध्य होकर भगवान् से उनके विश्वरूप को दिखाने की मांग प्रस्तुत करता है भक्तवत्सल करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण अगले अध्याय में अपने विश्वरूप को दर्शाकर अर्जुन को कृतार्थ कर देते हैं।यद्यपि अर्जुन ने इसके पूर्व भी परम पुरुष आदि शब्दों को ऋषियों से सुना था? किन्तु उसे वे अर्थहीन और निष्प्रयोजन ही प्रतीत हुए थे। उसका आश्चर्य इन शब्दों में स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है कि? आप भी मेरे प्रति ऐसा ही कहते हैं। यहाँ उनके कुछ आश्चर्यचकित एवं भ्रमित होने का अवसर इसलिए था कि वह समझ नहीं पाया कि उसके समकालीन श्रीकृष्ण जो उसके समक्ष खड़े थे? जिन्हें वह कई वर्षों से जानता था और जो उसके सम्बन्धी भी थे किस प्रकार अनन्त? परम? जन्मरहित और सर्वव्यापी हो सकते हैं।अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण को अपने चर्म चक्षुओं से देखता है और इसलिए उसे उनका केवल शरीर ही दिखाई देता है। सम्पूर्ण गीता में श्रीकृष्ण स्वयं को आत्मस्वरूप में ही प्रकट करते हैं? और न कि समाज के एक सदस्य के रूप में। गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण परमात्मा हैं? वसुदेव के पुत्र या गोपियों के प्रियतम नहीं। श्रीकृष्ण को सदैव मित्र या प्रेमी अथवा एक विश्वसनीय बुद्धिमान्? कूटनीतिज्ञ के रूप में देखते रहने से अर्जुन आत्मस्वरूप श्रीकृष्ण को पहचान नहीं पाया। यही उसके आश्चर्य और भ्रम का कारण था।अगला श्लोक अर्जुन में स्थित एक जिज्ञासु साधक के भाव को स्पष्ट करता है --
।।10.13।। व्याख्या --'परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्'-- अपने सामने बैठे हुए भगवान्की स्तुति करते हुए अर्जुन कहते हैं कि मेरे पूछनेपर जिसको आपने परम ब्रह्म (गीता 8। 3) कहा है, वह परम ब्रह्म आप ही हैं। जिसमें सब संसार स्थित रहता है, वह परम धाम अर्थात् परम स्थान आप ही हैं (गीता 9। 18)। जिसको पवित्रोंमें भी पवित्र कहते हैं -- 'पवित्राणां पवित्रं यः' वह महान् पवित्र भी आप ही हैं। 'पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं ৷৷. स्वयं चैव ब्रवीषि मे'-- ग्रन्थोंमें ऋषियोंने, (टिप्पणी प0 549.1) देवर्षि नारदने (टिप्पणी प0 549.2), असित और उनके पुत्र देवल ऋषिने (टिप्पणी प0 549.3) तथा महर्षि व्यासजीने (टिप्पणी प0 549.4) आपको शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा और विभु कहा है।आत्माके रूपमें 'शाश्वत' (गीता 2। 20), सगुण-निराकारके रूपमें 'दिव्य पुरुष' (गीता 8। 10), देवताओँ और महर्षियों आदिके रूपमें 'आदिदेव' (गीता 10। 2), मूढ़लोग मेरेको अज नहीं जानते (गीता 7। 25) तथा असम्मूढ़लोग मेरेको अज जानते हैं (गीता 10। 3 ) -- इस रूपमें 'अज' और मैं अव्यक्तरूपसे सारे संसारमें व्यापक हूँ (गीता 9। 4) -- इस रूपमें 'विभु' स्वयं आपने मेरे प्रति कहा है।
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।।10.13।।अर्जुन उवाच -- परं ब्रह्म परं धाम परमं पवित्रम् इति यं श्रुतयो वदन्ति स हि भवान्।यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते? येन जातानि जीवन्ति? यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति? तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्मेति (तै0 उ0 3।1)ब्रह्मविदाप्नोति परम् (तै0 उ0 2।1)स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मु0 उ0 3।2।9) इति।तथा परं धाम धामशब्दो ज्योतिर्वचनः परं ज्योतिःअथ यदतः परो दिव्यो ज्योतिर्दीप्यते (छा0 उ0 3।13।7)परं ज्योतिरूपसंपद्यस्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते (छा0 उ0 8।12।2)तद् देवा ज्योतिषां ज्योतिः (बृ0 उ0 4।4।16) इति।तथा च परमं पवित्रं परमं पावनं स्मर्तुःअशेषकल्मषाश्लेषकरं विनाशकरं च।यथा पुष्करपलाश आपो न श्िलष्यन्त एवमेवंविदि पापं कर्म न श्िलष्यते (छा0 उ0 4।14।3)तद्यथेषीकातूलमग्नौ प्रोतं प्रदूयेतैव्ँहास्य सर्वे पाप्मानः प्रदूयन्ते (छा0 उ0 5।24।3)।नारायणः परं ब्रह्म तत्त्वं नारायणः परः। नारायणः परं ज्योतिरात्मा नारायणः परः।। (महाभा0 9।4) इति हि श्रुतयो वदन्ति।ऋषयः च सर्वे परावरतत्त्वयाथात्म्यविदः त्वाम् एव शाश्वतं दिव्यं पुरुषम् आदिदेवम् अजं विभुम् आहुः। तथा एव देवर्षिः नारदः असितो देवलो व्यासः च।एष नारायणः श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः। नागपर्यङ्कमुत्सृज्य ह्यागतो मथुरां पुरीम्।।पुण्या द्वारवती तत्र यत्रास्ते मधुसूदनः। साक्षाद्देवः पुराणोऽसौ स हि धर्मः सनातनः।।ये च वेदविदो विप्रा चे चाध्यात्मविदो जनाः। ते वदन्ति महात्मानं कृष्णं धर्मं सनातनम्।।पवित्राणां हि गोविन्दः पवित्रं परमुच्यते। पुण्यानामपि पुण्योऽसौ मङ्गलानां च मङ्गलम्।।त्रैलोक्ये पुण्डरीकाक्षो देवदेवः सनातनः। आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा तत्रैव मधुसूदनः।। (महा0 वन0 88।2428) तथायत्र नारायणो देवः परमात्मा सनातनः। तत्र कृत्स्नं जगत्पार्थ तीर्थान्यायतनानि च।।तत्पुण्यं तत्परं ब्रह्म तत्तीर्थं तत्तपोवनम्। ৷৷. तत्र देवर्षयः सिद्धाः सर्वे चैव तपोधनाः।।आदिदेवो महायोगी यत्रास्ते मधुसूदनः। पुण्यानामपि तत्पुण्यं माभूत्ते संशयोऽत्र वै।। (महा0 वन0 90।2832)कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाप्ययः। कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम्।। (महा0 सभा0 38।23) इति।तथा स्वयम् एव ब्रवीषि चभूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। (गीता 7।4) इत्यादिना?अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते (गीता 10।8) इत्यन्तेन।
।।10.13।।उक्तविशेषणं त्वामृषयः सर्वे यस्मादाहुस्तस्मात्तद्वचनात्तवोक्तं ब्रह्मत्वं युक्तमित्याह -- ईदृशमिति। ऋषिग्रहणेन गृहीतानामपि नारदादीनां विशिष्टत्वात्पृथग्ग्रहणम्। असितो देवलस्य पिता। किमन्यैस्त्वं स्वयमेवात्मानमुक्तरूपं मह्यमुक्तवानित्याह -- स्वयं चेति।
।।10.12 -- 10.14।।एवं सकलेतरविसजातीयं भगवतो योगप्रभावं तादृशविभूतिहेतुत्वं स्वानन्यजनकात्मत्वं च निशम्य तद्विस्तारं ज्ञातुकामो भगवन्तं स्तुवन् अर्जुन उवाच -- परं ब्रह्मेति सप्तभिः धर्मधर्म्यभिप्रायेण। इदं च सर्वं श्रुतेरिव प्रतिवाक्यभूतं भवान् परं ब्रह्मेत्यादि। त्वामेवाहुः सर्वे ऋषयः? तथा महाभगवदीयो मर्यादापुष्टिभक्तः देवर्षिर्नारदः आह असितो देवलो व्यासश्च -- एष नारायणः श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः। नागपर्यङ्कमुत्सृज्य ह्यागतो मधुरां पुरीम् [म.भा.3।88।24] इति भारते।कृष्ण एव हि भूतानामुत्पत्तिरपि चाव्ययः। कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम् इत्यादीनि भूयांसि महर्षिवचनानि श्रूयन्ते। भागवते [10।37।10] देवर्षिवचनं -- कृष्ण कृष्ण प्रमेयात्मन्योगेश जगदीश्वर इत्यादि। स्वयं च ब्रवीषिअहं सर्वस्य प्रभवः [10।8] इत्यादि। पुरुषोत्तम एव स्वमुखेन स्वस्वरूपं स्वमाहात्म्यं च वदति? नान्य इति। तदेतत्सर्वोक्तत्वात्सत्यमेव मन्ये यन्मां त्वं च वदसि। अतो भगवन् षडगुणपूण ज्ञानं त्वय्येव गुणः त्वद्दत्तमेवान्यत्रोद्भवतीति नान्ये देवा दानवाश्च ते व्यक्तिं अनन्यसाधारणं योगप्रभावं तत्तद्विभूतिरूपां व्यक्तिं च ते विदुः।
।।10.13।।आहुः कथयन्ति त्वामनन्तमहिमानं ऋषयस्तत्त्वज्ञाननिष्ठाः सर्वे भृगुवसिष्ठादयः। तथा देवर्षिर्नारदः असितो देवलश्च धौम्यस्य ज्येष्ठो भ्राता व्यासश्च भगवान् कृष्णद्वैपायनः। एतेऽपि त्वां पूर्वोक्तविशेषणं मे मह्यमाहुः साक्षात्किमन्यैर्वक्तृभिः। स्वयमेव त्वं च मह्यं ब्रवीषि। अत्र ऋषित्वेऽपि साक्षाद्वक्तृ़णां नारदादीनामतिविशिष्टत्वात्पृथग्ग्रहणम्।
।।10.13।।के त इत्यत आह -- आहुरिति। ऋषयः भृग्वादयः सर्वे देवर्षिर्नारदः असितश्च देवलश्च व्यासश्च स्वयं त्वमेव साक्षान्मे मह्यं ब्रवीषि।
।। 10.13 परं ब्रह्म इत्यादेःअमृतम् [श्रुतिप्रदर्शनार्थं विषयमुपादाय शोधयति -- तथेत्यादिना। सामानाधिकरण्यप्रयोगाद्वस्त्वन्तरसामानाधिकरण्यसहपाठाभावाद्भगवतस्तत्तच्छ्रुतिप्रतिपादितपरत्वप्रकारव्यञ्जने तात्पर्याच्च अत्र धामशब्दस्य स्थानादिपरत्वमयुक्तमित्यभिप्रायेणाह -- धामशब्दो ज्योतिर्वचन इति।विष्णुसंज्ञं सर्वाधारं धाम इत्यादि धामशब्दप्रयोगेऽपिपरं धाम इति विशेषणादर्शनात्पर्यायान्वयमुखेन तत्प्रदर्शयतिपरं ज्योतिरिति।अथ यदतः इत्यादिवाक्येनाप्राकृतलोकादिविशिष्टत्वंपादोऽस्य सर्वा भूतानि [छां.उ.3।12।6] इत्यादिव्यपदेशवशसिद्धपुरुषसूक्तप्रकरणैकार्थ्याच्च समीहितमखिलं सिद्धम्परं ज्योतिरुपसम्पद्य इति वाक्येन मुक्तप्राप्यत्वादिकम्?परं ज्योतिः इति विशिष्टप्रयोगश्च सिद्धः। तं (तत्) देवा ज्योतिषां ज्योतिः [बृ.उ.4।4।16] इत्यादिना देवोपास्यत्वमुखेन ज्योतिषां ज्योतिष्ट्वेन च परत्वमर्थलब्धम्। भगवदसाधारणं परमशब्दविशेषितं पावनत्वं दर्शयितुं पवित्रशब्दस्यात्र संज्ञात्वव्युदासायाहपरमं पावनमिति।विनाशकरमित्यत्र कल्मषशब्दो बुद्ध्या निष्कृष्यानुसन्धेयः। प्रदूयन्ते? नश्यन्तीत्यर्थः। सूत्रं च -- तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोरश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात् [ब्र.सू.4।1।13] इति। तत्त्वनिर्णयैकतत्परनारायणानुवाकवाक्येनापि परब्रह्मत्वादिकंभवान् इति निर्दिष्टदेवताविशेषस्यैव संवादयतिनारायणेति। अनयोर्वाक्ययोः प्रथमौ नारायणशब्दौ लुप्तविभक्तिकौ?तत्त्वं नारायणः परः इत्यादिसहपाठवशाद्व्यस्तत्वं प्रथमान्तत्वं च प्राप्तम्। तथैव सविभक्तिकतया श्रुत्यन्तरेऽधीयतेनारायणः परं ब्रह्म इत्यादि। एतेन पञ्चमीसमासतां वदन् भगवद्द्वेषी प्रत्युक्तः? सर्वश्रुतिस्मृतिसूत्रन्यायविरोधाच्च।इति हि श्रुतयोवदन्तीत्यत्रयतो वा इमानि इत्यादिकमखिलमन्वेतव्यम् मध्ये तत्तदर्थवैशद्यायावान्तरवाक्यम्।एवं श्रुतिसिद्धोऽर्थः स्मृतीतिहासपुराणायमानमहर्षिवचनाच्छ्रुतिवदन्यानपेक्षसर्वज्ञवचनाच्च सिद्ध इत्याह -- पुरुषम् इति सार्धेन। सर्वशब्देनाविगीतत्वं विवक्षितम्।परावरतत्त्वयाथात्म्यविद इति ऋषिशब्दाभिप्रेतोक्तिः। तेनाप्ततमत्वमुक्तं भवति।त्वाम् इत्येतद्ब्रह्मरुद्रादिविशेषान्तरव्युदासार्थमित्यभिप्रायेण -- त्वामेवेत्युक्तम्। यद्वा अवतीर्णं त्वामेवेत्यर्थः।शाश्वतं नित्यम्?दिव्यं परमव्योमनिलयम्?पुरुषं परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते [प्रश्नो.5।5] इत्यादिप्रतिपादितम्।शाश्वतं दिव्यं पुरुषम् इति व्युत्क्रमोपादानं दिवि वर्तमानस्य पुरुषस्य पुरुषसूक्तोदितामृतत्रिपाद्विभूतिविशिष्टवेषेण शाश्वतत्वमिह विवक्षितमिति व्यञ्जनार्थम्। आदिश्चासौ देवश्चेत्यादिदेवः जगत्कारणभूतः क्रीडारूपजगत्कारणव्यापारच्चेत्यर्थः। स्मरन्ति च -- क्रीडतो बालकस्येव [वि.पु.1।2।18]क्रीडा हरेरिदं सर्वंबालः क्रीडनकैरिव [म.भा.2।97।31] इति। सूत्रितं चलोकवत्तु लीलाकैवल्यम् [ब्र.सू.2।1।33] इति। एतेन ब्रह्मादीनामपि देवजात्यनुप्रविष्टानां परमपुरुषलीलोपकरणत्वं कार्यत्वं चोक्तं भवति। नारायणाद्ब्रह्मा जायते नारायणाद्रुद्रो जायते [ना.उ.1] एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानः [महो.1।1] तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताः साध्या मनुष्याः पशवो वयांसि [मुं.उ.2।1।7]एतौ द्वौ विबुधश्रेष्ठौ प्रसादक्रोध -- (जावुभौ) जौ स्मृतौ [म.भा.12।341।19]आवां तवाङ्गे सम्भृतौ [ह.वं.] इत्याद्याः। कारणवाक्यार्थ उक्तः? शोधकवाक्यार्थमुपलक्षयति -- अजमिति। कर्मकृतजन्मादिरहितमित्यर्थः। स्वरूपापेक्षया वा निर्विकारत्वमुच्यते। विभुम् आकाशवत्सर्व(गतं सुसूक्ष्मं)गतश्च नित्यः [शां.उ.2।1] इति प्रक्रियया व्याप्तं नियन्तारमिति वा। एतेन कारणत्वाद्यनुगुणव्याप्तिनियमनादिकमन्तर्यामिब्राह्मणादिसिद्धं स्मारितम्। एतैः पदैः एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः [सुबालो.7] इति श्रुतिः सूचिता। सर्व इति सामान्यतः सङ्ग्रहेऽप्याप्ततमत्वविवक्षया नारदादेः पृथगभिधानम्। देवर्षिशब्देन जात्यापि सत्त्वोत्तरत्वं प्रकाश्यते। तत्राप्यसौदेवर्षीणां च नारदः [10।26] इति प्रकृष्टः। असितः? देवलश्च तस्य पिता। व्यासश्चात्र भगवान् पाराशर्यः।आहुस्त्वामृषयः सर्वे इत्यादिकं संवादयति -- ये चेति। वेदविदः कर्मभागवेदिनः? अध्यात्मविदः वेदान्तार्थवेदिनः। कृष्णं महात्मानं सनातनं धर्मं वदन्तीत्यन्वयः। महात्मशब्देन सर्वातिशायि परमैश्वर्यादिकं विवक्षितम् महानात्मेति परमात्मत्वं वा? स वा एष महानज आत्मा [बृ.उ.4।4।22] इत्यादेः। यागदानादयो हि देशकालादिपरिमितफलदायिनः? स्वयं चानित्याः अयं तु नित्यनिरतिशयफलदायी? नित्यश्चेति सनातनशब्देन धर्मस्य विशेषणम्। पवित्रशब्दोऽत्र पापनिबर्हणपरः। पुण्यशब्दोऽभिमतफलविशेषसाधनपरः। मङ्गलशब्दश्च स्वसन्निधिमात्रेणातिसमृद्धिहेतुभूतकल्याणवस्तुपरः।त्रैलोक्यं पुण्डरीकाक्षः इति कार्यकरणभावेन शरीरात्मभावेन वा सामानाधिकरण्यम्। त्रयो लोकास्त्रैलोक्यम् -- बद्धमुक्तनित्या इत्यर्थः। यद्वोपलक्षणतया भूम्यन्तरिक्षादिकमुच्यते। पुण्डरीकाक्षशब्देन अन्तरादित्यविद्याप्रतिपादितविलक्षणविग्रहत्वं दर्शितम्।तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी [छां.उ.1।6।7] इत्यस्य च वाक्यस्य द्रविडभाष्योदितेषु षट्स्वर्थेषु सिद्धान्तत्वेन भाष्यकारपरिगृहीतास्त्रयोऽर्थाः। तथाहि वेदार्थसङ्ग्रहे दर्शितं -- गम्भीराम्भस्समुद्भूतसुमृष्टनालरविकरविकसितपुण्डरीकदलामलायतेक्षणः इति। इदं च वरदगुरुभिस्तत्त्वसारे दर्शितं प्रपञ्चितं च। नारायणशब्देन परतत्त्वनिर्णयैकपरनारायणानुवाकसूचनम्।श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः इत्याभ्यां ह्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ [यजुषि.आ.3।13।3] अम्भस्यपारे [म.ना.1।1] यमन्तस्समुद्रे [म.ना.1।3] इत्यादिकं स्मारितम्।उत्सृज्यागतः इत्यवतारमात्रत्वं विवक्षितम्। कृष्णावतारदशायामपि क्षीरार्णवगतनागपर्यङ्कशायिविग्रहस्य तत्रैव स्थितत्वात्।साक्षादिति -- न त्वौपचारिकः आत्मान्तरव्यवहितो वेत्यर्थः।तथेति -- प्रकरणान्तरत्वव्यत्यर्थम्।देवर्षिर्नारदस्तथा इति व्याख्येयविभागावगमात्तत्तदुक्तवाक्योपादानमपि तथाविभागेन कुर्मह इति च दर्शितम्।तत्र कृत्स्नम् इत्यादि नारायणस्यैव सर्वाश्रयत्वात्सर्वप्रकारातिशययोगित्वाद्वा।तत्पुण्यम् इत्यादिकं ब्रह्मशब्दानुरोधेन नारायणविषयं वा? प्रकरणविशेषेण तदाश्रितस्थानप्रशंसनं वा।स्वयमेवेति -- स्वतःसर्वज्ञो ब्रह्मादीनामपि गुरुस्त्वमेवेत्यर्थः।भूमिरापः [7।4] इत्यादिषु सर्वशेषित्वं सर्वकारणत्वं सर्वशरीरित्वमित्यादिकमुक्तम्।
।।10.13।।एवंविधं त्वां सर्वे वदन्तीत्यनेनावगतमित्याह -- आहुरिति। सर्वे ऋषयो भृग्वादयः? तथा देवर्षिः देवानामपि मन्त्रद्रष्टा नारदः सर्वमोक्षदः। असितः भगवद्धर्मरूपः। देवलः देवानुग्रहकृत्। व्यासः ज्ञानावतारः च पुनः स्वयमेव त्वमेव साक्षान्मे मह्यम्अहमादिर्हि देवानाम् [10।2] इत्यादिना ब्रवीषि। अतस्त्वां तथा जानामीत्यर्थः।
।।10.12 -- 10.13।।एवं एतां विभूतिं योगं चेत्यादिना विभूतिज्ञानस्य फलोदर्कं श्रुत्वा तत्प्राप्त्युत्सुकः प्रथमं स्तुत्या भगवन्तमावर्जयन्नर्जुन उवाच -- परमिति। परं ब्रह्म नत्वपरमुपास्यम्।तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते इति श्रुतेः। परं धाम ज्योतिः नत्वपरं वृत्तिरूपं ज्ञानम्। एतस्यह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति श्रुतेर्वृत्तिरूपत्वात्। परमं पवित्रं न तु तीर्थादिवदपरमं भवान्। तत्र मानमाह -- पुरुषमिति सार्धेन। पुरुषं देहान्तरस्थम्। शाश्वतं नित्यं। दिव्यं दिवि हार्दाकाशे आविर्भूतम्। आदिदेवं सूत्रात्मनोऽप्याद्यम्। अतएव अजं विभुं व्यापकम्। त्वां ऋषय आहुरिति संबन्धः।
।।10.13।।ईदृशं त्वामेव ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः सर्व आहुः। नारदादीनां श्रेष्ठ्यद्योतनार्थं पृथग्ग्रहणम्। किमन्यैरिति सूचयन्नाह -- स्वयं चैव ब्रवीषीति।
10.13 आहुः (they) declared? त्वाम् Thee? ऋषयः the Rishis? सर्वे all? देवर्षिः Devarshi? नारदः Narada? तथा also? असितः Asita? देवलः Devala? व्यासः Vyasa? स्वयम् Thyself? च and? एव even? ब्रवीषि (Thou) sayest? मे to me.Commentary Rishi is a holy sage of disciplined mind and senses.Devarshi A divine sage more highly evolved than a Rishi.
10.13 All the sages have thus declared Thee, as also the divine sage Narada; so also Asita, Devala and Vyasa; and now Thou Thyself sayest so to me.
10.13 So have said the seers and the divine sage Narada; as well as Asita, Devala and Vyasa; and Thou Thyself also sayest it.
10.12-10.13 Arjuna said You are the supreme Brahman, the supreme Light, the supreme Sanctifier. All the sages as also the divine sage Narada, Asita, Devala and Vyasa [Although Narada and the other sages are already mentioned by the words 'all the sages', still they are named separately because of their eminence. Asita is the father of Devala.] call You the eternal divine Person, the Primal God, the Birthless, the Omnipresent; and You Yourself verily tell me (so).
10.13 Bhavan, You; are the param brahma, supreme Brahman, the supreme Self; the param dhama, supreme Light; the paramam pavitram, supreme Sanctifier. Sarve, all; rsayah, the sages-Vasistha and others; tatha, as also; the devarisih, divine sage; naradah, Narada; Asita and Devala ahuh, call; tvam, You; thus: Sasvatam, the eternal; divyam, divine; purusam, Person; adi-devam, the Primal God, the God who preceded all the gods; ajam, the birthless; vibhum, the Omnipresent-capable of assuming diverse forms. And even Vyasa also speaks in this very way. Ca, and; svayam, You Yourself; eva, verily; bravisi, tell; me, me (so).
10.12. - 10.13. Arjuna said You are the Supreme Brahman, Supreme Abode, Supreme Purifier. All the seers and also the divine seer Narada, Asita Devala, Vyasa describe You as the Eternal Divine Soul, the unborn, all-manifesting First-God. You too say so to me.
10.13 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
10.12 - 10.13 Arjuna said You are He whom the Srutis proclaim as the Supreme Brahman, the Supreme Light, the Supreme Sanctifier. Thus the Srutis assert: 'From whom all these beings are born, by whom, when born, they live and unto whom they go when they perish - desire to know that well. This is Brahman' (Tai. U., 3.1.1); 'He who knows Brahman attains the Highest' (Ibid., 2.1.1); and 'He who knows the Supreme Brahman becomes the Brahman' (Mun. U., 3.2.9). Likewise He is the Supreme Light. The term 'Dhaman' connotes light. He is the Supreme Light as taught (in the Upanisads): 'Now, the light which shines higher than this heaven ৷৷.' (Cha. U., 3.13. 7); 'Attaining the Supreme Light. He appears with His own form' (Ibid., 8.12.2); 'The gods worship Him as the Light of lights' (Br. U., 4.4.16). So also He is the Supreme Sanctifier: He makes the meditator bereft of all the impurities, and also destroyes them without any trace. The Srutis declares: 'As water clings not to the leaf of a lotus-flower, so evil deeds cling not to him who knows thus' (Cha. U., 4.14.3): 'Just as the fibre of Isika reed (reed-cotton) laid on a fire is burnt up, so also all his sins are burnt up' (Ibid., 5.24.3); and 'Narayana is Supreme Brahman, Narayana is Supreme Light, Narayana is Supreme Self' (Ma. Na., 9.4). Sages are those who know in reality the higher truth (the Supreme Brahman), and the lower truth (individual selves); they speak of You as the eternal Divine Person, Primal Lord, the unborn and all-pervading. So also divine sage Narada, Asita, Devala and Vyasa declare: 'This Narayana, Lord of Sri, the resident of the Milk Ocean, has come to the city of Mathura abandoning his Serpent-couch.' 'Where Madhusudana is, there is the blessed Dvaravati. He is the Lord Himself, the ancient One and Eternal Dharma (Ma. Bh. Vana. 88. 24-25). Those who know the Vedas and those who know the self declare the great-minded Krsna to be the eternal Dharma. Of all sanctifiers, Govinda is said to be the most sanctifying, the most auspicious among the auspicious. The lotus-eyed God of gods, the eternal, abides as the three worlds ৷৷. Hari who is beyond thought, abides thus. Madhusudana is there alone' (Ma. Bha. Vana., 88.24-28). Similarly it is stated: 'O Arjuna, where the divine, the eternal Narayana the Supreme Self is, there the entire universe, the sacred water and the holy shrines are to be found. That is sacred, that is Supreme Brahman, that is sacred waters, that is the austerity grove ৷৷. there dwell the divine sages, the Siddhas and all those rich in austerities where the Primal Lord, the agent Yogin Madhusudana dwells. It is the most sacred among the sacred. For you, let there be no doubt about this' (Ibid., 90.28-32); 'Krsna Himself is the origin and dissolution of all beings. For, this universe, consisting of sentient and non-sentient entities, was generated for the sake of Krsna' (Ma. Bha. Sabha., 38.23). And you yourself say so in the passage beginning with 'Earth, water, fire, ether, mind, intellect and Ahankara - this Prakrti, which is divided eightfold, is Mine' (7.4) and ending with 'I am the origin of all; from Me proceed everything' (10.8).
10.12 - 10.13 Arjuna said You are Supreme Brahman, the Supreme Light, and the Supreme Sanctifier. All the seers proclaim You as the eternal, divine Person, the Primal Lord, the unborn and all-pervading. So also proclaim the divine sages Narada, Asita, Devala and Vyasa. You Yourself also proclaim this.
।।10.13।।ऐसे --, आपका वसिष्ठादि सब महर्षिगण वर्णन करते हैं तथा असित? देवल? व्यास और देवर्षि नारद भी इसी प्रकार कहते हैं एवं स्वयं आप भी मुझसे ऐसा ही कह रहे हैं।
।।10.13।। --,आहुः कथयन्ति त्वाम् ऋषयः वसिष्ठादयः सर्वे देवर्षिः नारदः तथा। असितः देवलोऽपि एवमेवाह? व्यासश्च? स्वयं चैव त्वं च ब्रवीषि मे।।
।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्मविभुशब्दावैकार्थ्यपरिहाराय क्रमेण सप्रमाणकं व्याचष्टे -- ब्रह्मेति। परं वस्तु ब्रह्मेति कस्मादुच्यते बृहतिं पूर्णं भवति बृंहयति पूरयति चान्यान्। बृहतेर्मन्प्रत्ययोऽमागमश्च। ईश्वरो ब्रह्मणोऽन्यः स कथं परं ब्रह्मेत्युच्यते इत्यत उक्तम् -- परममिति। विविधमनेकरूपत्वेनाभवत्। मेहनावतः सेचकस्य भगवतः प्रथमं रूपं विभु प्रभु चेत्येतदनूद्य व्याख्यायते। प्राभवत्समर्थोऽभवदिति प्रभुः विविधोऽभवदिति विभुः। सोऽकामयत इति विविधभवने श्रुत्यन्तरम्। विप्रसम्भ्यो ड्वसंज्ञायाम् [अष्टा.3।2।180] इति च स्मृतिः।
।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्म परिपूर्णम्। अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म ৷৷. बृहद्बृहत्या बृंहयति [अ.शिर.4] इति च श्रुतिः। बृह बृहि वृद्धाविति पठन्ति।परमं यो महद्ब्रह्म [म.भा.13।149।9] इति च। विविधमासीदिति विभुः। तथा हि वारुणशाखायाम् -- विभु प्रभु प्रथमं मेहनावतः [ऋक्सं.2।7।2।5] इति स ह्येव प्रभावाद्विविधोऽभवत् इति। सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय [तै.उ.2।6] इत्यादेश्च।
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा। असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे।।10.13।।
আহুস্ত্বামৃষযঃ সর্বে দেবর্ষির্নারদস্তথা৷ অসিতো দেবলো ব্যাসঃ স্বযং চৈব ব্রবীষি মে৷৷10.13৷৷
আহুস্ত্বামৃষযঃ সর্বে দেবর্ষির্নারদস্তথা৷ অসিতো দেবলো ব্যাসঃ স্বযং চৈব ব্রবীষি মে৷৷10.13৷৷
આહુસ્ત્વામૃષયઃ સર્વે દેવર્ષિર્નારદસ્તથા। અસિતો દેવલો વ્યાસઃ સ્વયં ચૈવ બ્રવીષિ મે।।10.13।।
ਆਹੁਸ੍ਤ੍ਵਾਮਰਿਸ਼ਯ ਸਰ੍ਵੇ ਦੇਵਰ੍ਸ਼ਿਰ੍ਨਾਰਦਸ੍ਤਥਾ। ਅਸਿਤੋ ਦੇਵਲੋ ਵ੍ਯਾਸ ਸ੍ਵਯਂ ਚੈਵ ਬ੍ਰਵੀਸ਼ਿ ਮੇ।।10.13।।
ಆಹುಸ್ತ್ವಾಮೃಷಯಃ ಸರ್ವೇ ದೇವರ್ಷಿರ್ನಾರದಸ್ತಥಾ. ಅಸಿತೋ ದೇವಲೋ ವ್ಯಾಸಃ ಸ್ವಯಂ ಚೈವ ಬ್ರವೀಷಿ ಮೇ৷৷10.13৷৷
ആഹുസ്ത്വാമൃഷയഃ സര്വേ ദേവര്ഷിര്നാരദസ്തഥാ. അസിതോ ദേവലോ വ്യാസഃ സ്വയം ചൈവ ബ്രവീഷി മേ৷৷10.13৷৷
ଆହୁସ୍ତ୍ବାମୃଷଯଃ ସର୍ବେ ଦେବର୍ଷିର୍ନାରଦସ୍ତଥା| ଅସିତୋ ଦେବଲୋ ବ୍ଯାସଃ ସ୍ବଯଂ ଚୈବ ବ୍ରବୀଷି ମେ||10.13||
āhustvāmṛṣayaḥ sarvē dēvarṣirnāradastathā. asitō dēvalō vyāsaḥ svayaṅ caiva bravīṣi mē৷৷10.13৷৷
ஆஹுஸ்த்வாமரிஷயஃ ஸர்வே தேவர்ஷிர்நாரதஸ்ததா. அஸிதோ தேவலோ வ்யாஸஃ ஸ்வயஂ சைவ ப்ரவீஷி மே৷৷10.13৷৷
ఆహుస్త్వామృషయః సర్వే దేవర్షిర్నారదస్తథా. అసితో దేవలో వ్యాసః స్వయం చైవ బ్రవీషి మే৷৷10.13৷৷
10.14
10
14
।।10.14।। हे केशव ! मेरेसे आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन् ! आपके प्रकट होनेको न तो देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं।
।।10.14।। हे केशव ! जो कुछ भी आप मेरे प्रति कहते हैं, इस सबको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्, आपके (वास्तविक) स्वरूप को न देवता जानते हैं और न दानव।।
।।10.14।। यहाँ अर्जुन अपने मन के भावों को स्पष्ट करते हुए गुरु के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा को भी व्यक्त करता है जो कुछ आप मेरे प्रति कहते हैं उसे मैं सत्य मानता हूँ। केशव शब्द का अर्थ है जिनके केश सुन्दर हैं अथवा केशि नामक असुर का वध करने वाले। यद्यपि वह श्रीकृष्ण के कथन को सत्य मानता है? परन्तु वह उनके सम्पूर्ण आशय को ग्रहण नहीं कर पाता। तात्पर्य यह है कि उसे हृदय से भगवान के वचनों में पूर्ण विश्वास है? किन्तु उसकी बुद्धि अभी भी असन्तुष्ट ही है।ज्ञानपिपासा के वशीभूत अर्जुन का असन्तुष्ट व्यक्तित्व मानो कराहता है । यह ज्ञानपिपासा दूसरी पंक्ति में प्रतिध्वनित होती है जहाँ वह कहता है आपके व्यक्तित्व को न देवता जानते है और न दानव। दानव दनु के पुत्र थे? जो प्राय स्वर्ग पर आक्रमण करते रहते थे? यज्ञयागादि में बाधा पहुँचाते थे और आसुरी जीवन जीते थे। इसके विपरीत? पुराणों के वर्णनानुसार? देवतागण स्वर्ग के निवासी हैं जो र्मत्य मानवों की अपेक्षा शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं में अधिक शक्तिशाली होते हैं।वैयक्तिक दृष्टि से? देव और दानव हमारे मन की क्रमश शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। जब अर्जुन कहता है कि आत्मा के स्वरूप का निर्धारण न तो सूक्ष्म और शुभ के दर्शन के समान हो सकता है? और न ही दानवी प्रवृत्ति के समान? तब उसकी निराशा स्पष्ट झलकती है। न तो हमारी दैवी प्रवृत्तियां सत्य का आलिंगन कर सकती हैं? और न ही दानवी गुण उसको युद्ध के लिए आह्वान करके शत्रु रूप में हमारे सामने ला सकते हैं। जगत् में हम वस्तुओं या व्यक्तियों को केवल दो रूप में मिलते हैं प्रिय और अप्रिय अथवा मित्र और शत्रु के रूप में। आत्मा के व्यक्तित्व की पहचान इन दोनों ही प्रकारों से नहीं हो सकती? क्योंकि वह योग और विभूति की अभिव्यक्तियों में द्रष्टा है।यदि सत्य को कोई नहीं जान सकता है? तो फिर अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से उसका वर्णन करने का अनुरोध क्यों करता है उनमें ऐसा कौन सा विशेष गुण है? जिसके कारण वे उस वस्तु का वर्णन करने में समर्थ हैं? जिसे अन्य कोई जान भी नहीं पाता है
।।10.14।। व्याख्या --'सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव '-- क नाम ब्रह्माका है, 'अ' नाम विष्णुका है, 'ईश' नाम शंकरका है और 'व' नाम वपु अर्थात् स्वरूपका है। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, और शंकर जिसके स्वरूप हैं, उसको 'केशव' कहते हैं। अर्जुनका यहाँ 'केशव' सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि आप ही,संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाले हैं।
null
।।10.14।।अतः सर्वम् एतद् यथावस्थितवस्तुकथनं मन्ये न प्रशंसाद्यभिप्रायम्। यद् मां प्रति अनन्यसाधारणम् अनवधिकातिशयं स्वाभाविकं तव ऐश्वर्यं कल्याणगुणगणानन्त्यं च वदसि। अतो भगवन् निरतिशयज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजसां निधे ते व्यक्तिं व्यञ्जनप्रकारं न हि परिमितज्ञाना देवा दानवाः च विदुः।
।।10.14।।ऋषिभिस्त्वया चोक्तत्वादुक्तं सर्वं सत्यमेवेति मम मनीषेत्याह -- सर्वमिति। किं तदित्याशङ्क्यात्मरूपमित्याह -- यन्मामिति। देवादिभिः सर्वैरुच्यमानतया त्वद्रूपे विशिष्टवक्तृग्रहणमनर्थकमित्याशङ्क्याह -- नहीति। प्रभवो नाम प्रभावो निरुपाधिकस्वभावः? यदा देवादीनामपि दुर्विज्ञेयं तव रूपं तदा का कथा मनुष्याणामित्यर्थः।
।।10.12 -- 10.14।।एवं सकलेतरविसजातीयं भगवतो योगप्रभावं तादृशविभूतिहेतुत्वं स्वानन्यजनकात्मत्वं च निशम्य तद्विस्तारं ज्ञातुकामो भगवन्तं स्तुवन् अर्जुन उवाच -- परं ब्रह्मेति सप्तभिः धर्मधर्म्यभिप्रायेण। इदं च सर्वं श्रुतेरिव प्रतिवाक्यभूतं भवान् परं ब्रह्मेत्यादि। त्वामेवाहुः सर्वे ऋषयः? तथा महाभगवदीयो मर्यादापुष्टिभक्तः देवर्षिर्नारदः आह असितो देवलो व्यासश्च -- एष नारायणः श्रीमान् क्षीरार्णवनिकेतनः। नागपर्यङ्कमुत्सृज्य,ह्यागतो मधुरां पुरीम् [म.भा.3।88।24] इति भारते।कृष्ण एव हि भूतानामुत्पत्तिरपि चाव्ययः। कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं चराचरम् इत्यादीनि भूयांसि महर्षिवचनानि श्रूयन्ते। भागवते [10।37।10] देवर्षिवचनं -- कृष्ण कृष्ण प्रमेयात्मन्योगेश जगदीश्वर इत्यादि। स्वयं च ब्रवीषिअहं सर्वस्य प्रभवः [10।8] इत्यादि। पुरुषोत्तम एव स्वमुखेन स्वस्वरूपं स्वमाहात्म्यं च वदति? नान्य इति। तदेतत्सर्वोक्तत्वात्सत्यमेव मन्ये यन्मां त्वं च वदसि। अतो भगवन् षडगुणपूण ज्ञानं त्वय्येव गुणः त्वद्दत्तमेवान्यत्रोद्भवतीति नान्ये देवा दानवाश्च ते व्यक्तिं अनन्यसाधारणं योगप्रभावं तत्तद्विभूतिरूपां व्यक्तिं च ते विदुः।
।।10.14।।सर्वमेतदुक्तमृषिभिश्च त्वया च तदृतं सत्यमेवाहं मन्ये यन्मां प्रति वदसि केशव। नहि त्वद्वचसि मम कुत्राप्यप्रामाण्यशङ्का। तच्च सर्वज्ञत्वात्त्वं जानासीति केशौ ब्रह्मरुद्रौ सर्वेशावप्यनुकम्प्यतया वात्यवगच्छतीति व्युत्पत्तिमाश्रित्य निरतिशयैश्वर्यप्रतिपादकेन केशवपदेन सूचितम्। अतो यदुक्तंन मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः इत्यादि तत्तथैव -- हि यस्मात् हे भगवन् समग्रैश्वर्यादिसंपन्न? ते तव व्यक्तिं प्रभावं ज्ञानातिशयशालिनोऽपि देवा न विदुर्नापि दानवा न महर्षय इत्यपि द्रष्टव्यम्।
।।10.14।। अतो ममेदानीं त्वदैश्वर्येऽसंभावना निवृत्तेत्याह -- सर्वमिति। एतद्भवानेव परं ब्रह्मेत्यादि सर्वमप्यृतं सत्यं मन्ये यन्मां प्रति त्वं कथयसिन मे विदुः सुरगणा इत्यादि तदपि सत्यमेव मन्य इत्याह -- न हीति। हे भगवन्? तव व्यक्तिं देवा न विदुः। अस्मदनुग्रहार्थमियमभिव्यक्तिरिति न जानन्ति। दानवाश्चास्मन्निग्रहार्थमिति न विदुरेवेति।
।।10.14।।सङ्गत्यर्थमाह -- अत इति। आप्ततमैराम्नायैर्महर्षिभिर्भवतापि चोक्तत्वादिति भावः।ऋतं मन्ये इत्यस्याभिप्रेतमाहन प्रशंसाद्यभिप्रायमिति। अन्येषु हि तद्गुणारोपणेन प्रशंसेत्यभिप्रायः।माम् इत्यनेनशिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् [2।7] इत्यादिकमभिप्रेतम्। वदिरिह शिष्टमनुवदन्नत्र शास्यर्थे वर्तमाने द्विकर्मकः। एवं शिष्टस्यानुभाषणं शासनविशेषप्राधान्यार्थम्।अनन्यसाधारणमनवधिकातिशयमिति विशेषणाभ्यां समाधिकराहित्यम्?स्वाभाविकमित्यनन्याधीनत्वं विवक्षितम्। अतो न विदुरित्यर्थः।ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजांस्यशेषतः। भगवच्छब्दवाच्यानि विना हेयैर्गुणादिभिः [वि.पु.6।5।79] इति भगवत्पराशरवचनानुसारेण देवादिभिरवेद्यत्वाय भगवच्छब्दार्थं दर्शयति -- निरतिशयज्ञानेत्यादिना। व्यक्तिशब्दोऽत्रकिमात्मिकैवैषा भगवतो व्यक्ति इत्यादिष्विव न विग्रहादिपरः? अप्रसक्तत्वात् अनन्तरं चापृच्छ्यमानत्वात्। अतोवक्तुमर्हस्यशेषेण [10।16] इत्यनन्तरं विवक्षोःअन्ये त्वत्प्रतिपादनप्रकारमपि न जानन्ति? किं पुनः प्रत्यक्षादिवत्प्रकाशनम् इत्ययमर्थोऽपेक्षितत्वात्स्वीकार्य इत्यभिप्रायेणाह -- व्यञ्जनप्रकारमिति।अक्षरक्षरयोर्व्यक्तिमिच्छाम्यरिनिषूदन। उपलब्धुम् इतिवत्।परिमितज्ञाना इति शब्दतात्पर्योक्तिः।
।।10.14।।परोक्ते स्वानुभवाभावे न विश्वासः स्यादित्यत आह -- सर्वमेतदिति। सर्वं पूर्वोक्तं परं ब्रह्म [श्वे.उ.3।7गी.10।12] इत्यादि अहं स्वानुभवात् ऋतं सत्यं मन्ये। किञ्चन मे विदुः [10।2] इत्यादिना देवाः क्रीडारूपाः। दानवाविरोधेऽपि मोक्षदातुः हे भगवन् ते व्यक्तिं प्राकट्यं स्वरूपं वा न विदुरिति। केशव दुष्टगुणव्याप्तयोरपि मोक्षदायक यत् मां वदसि एतत्सर्वं हि निश्चयेन ऋतं मन्ये।
।।10.14।।व्यक्तिं प्रभवम्।
।।10.14।।एतस्सर्वं सत्यं मन्ये यन्भां वदसि केशव ब्रह्मादीन्प्रत्यन्तर्यामितया गच्छतीति सः तस्य संबोधनं हे केशवेति। ब्रह्मदिमुखेनापि त्वमेव वदसीति भावः। हि यस्मात्त तव व्यक्तिं प्रभावं देवा न विदुःऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। वैराग्यस्य च ज्ञानस्य षण्णां भग इदीङ्गना इत्युक्तो भगवांस्तत्वमेव स्वप्रभावं कथयितुं समर्थोऽसि नत्वन्यः स्वसामर्थ्येनेति सूचयन्नाह -- हे भगवनन्निति।
10.14 सर्वम् all? एतत् this? ऋतम् true? मन्ये (I) think? यत् which? माम् to me? वदसि (Thou) sayest? केशव O Krishna? न not? हि verily? ते Thy? भगवन् O blessed Lord? व्यक्तिम् manifestation? विदुः know? देवाः gods? न not? दानवाः demons.Commentary Bhagavan is He? in whom ever exist the six attributes in their fullness? viz.? Jnana (wisdom)? Vairagya (dispassion)? Aisvarya (lordship)? Dharma (virtue)? Sri (wealth) and Bala (omnipotence). Also? He Who knows the origin? dissolution and the future of all beings and Who is omniscient? is called Bhagavan.Vyakti Origin.Danavah Demons or the Titans.Arjuna addresses the Lord as Keshava (Lord of all) because the Lord knows what is going on in his mind? as He is omniscient. As the Lord is the source of the gods? the demons and others? they cannot comprehend His manifestation or origin. (Cf.IV.6)
10.14 I believe all this that Thou sayest to me to be true, O Krishna; verily, O blessed Lord! neither the gods nor the demons know Thy manifestation (origin).
10.14 I believe in what Thou hast said, my Lord! For neither the godly not the godless comprehend Thy manifestation.
10.14 O Kesava, I accept to be true all this which You tell me. Certainly, O Lord, neither the gods nor the demons comprehend Your glory.
10.14 O Kesava, manye, I accept; to be rtam, true indeed; sarvam, all; etat, this that has been said by sages and You; yat, which; vadasi, You tell, speak; mam, to Me. Hi, certainly; bhagavan, O Lord; na devah, neither the gods; na danavah, nor the demons; viduh, comprehend; te, Your; vyaktim, glory [Prabhavam in the Commentary is the same as prabhavam, glory, the unalified State.]. Since You are the origin of the gods and others, therefore,
10.14. What You tell me, I take all to be true, O Kesava ! For, O Bhagavat, neither the gods nor the great seers know Your manifestation.
10.14 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
10.14 Therefore, I deem all this to be a statement of facts as they are in reality, and not merely an exaggeration - all this which You tell me of Your sovereign glory and infinite auspicious attributes which are unie, unbounded, unsurpassed and natural. Therefore, O Lord, O Treasure of unsurpassed knowledge, power, strength, sovereignty, valour and radiance! - neither the gods nor the demons who possess limited knowledge know 'Your manifestation', the way in which You manifest Yourself.
10.14 I deem as true all this that you say to Me, O Krsna. Verily O Lord, neither the gods nor the demons know Your manifestation.
।।10.14।।हे केशव उपर्युक्त प्रकारसे ऋषियोंद्वारा और आपके द्वारा कही हुई ये सब बातें जो कि आप मुझसे कह रहे हैं? मैं सत्य मानता हूँ क्योंकि हे भगवन् आपकी उत्पत्तिको न देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं।
।।10.14।। --,सर्वमेतत् यथोक्तम् ऋषिभिः त्वया च एतत् ऋतं सत्यमेव मन्ये? यत् मां प्रति वदसि भाषसे हे केशव। न हि ते तव भगवन्,व्यक्तिं प्रभवं विदुः न देवाः? न दानवाः।।यतः त्वं देवादीनाम् आदिः? अतः --,
।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्मविभुशब्दावैकार्थ्यपरिहाराय क्रमेण सप्रमाणकं व्याचष्टे -- ब्रह्मेति। परं वस्तु ब्रह्मेति कस्मादुच्यते बृहतिं पूर्णं भवति बृंहयति पूरयति चान्यान्। बृहतेर्मन्प्रत्ययोऽमागमश्च। ईश्वरो ब्रह्मणोऽन्यः स कथं परं ब्रह्मेत्युच्यते इत्यत उक्तम् -- परममिति। विविधमनेकरूपत्वेनाभवत्। मेहनावतः सेचकस्य भगवतः प्रथमं रूपं विभु प्रभु चेत्येतदनूद्य व्याख्यायते। प्राभवत्समर्थोऽभवदिति प्रभुः विविधोऽभवदिति विभुः। सोऽकामयत इति विविधभवने श्रुत्यन्तरम्। विप्रसम्भ्यो ड्वसंज्ञायाम् [अष्टा.3।2।180] इति च स्मृतिः।
।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्म परिपूर्णम्। अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म ৷৷. बृहद्बृहत्या बृंहयति [अ.शिर.4] इति च श्रुतिः। बृह बृहि वृद्धाविति पठन्ति।परमं यो महद्ब्रह्म [म.भा.13।149।9] इति च। विविधमासीदिति विभुः। तथा हि वारुणशाखायाम् -- विभु प्रभु प्रथमं मेहनावतः [ऋक्सं.2।7।2।5] इति स ह्येव प्रभावाद्विविधोऽभवत् इति। सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय [तै.उ.2।6] इत्यादेश्च।
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। न हि ते भगवन् व्यक्ितं विदुर्देवा न दानवाः।।10.14।।
সর্বমেতদৃতং মন্যে যন্মাং বদসি কেশব৷ ন হি তে ভগবন্ ব্যক্িতং বিদুর্দেবা ন দানবাঃ৷৷10.14৷৷
সর্বমেতদৃতং মন্যে যন্মাং বদসি কেশব৷ ন হি তে ভগবন্ ব্যক্িতং বিদুর্দেবা ন দানবাঃ৷৷10.14৷৷
સર્વમેતદૃતં મન્યે યન્માં વદસિ કેશવ। ન હિ તે ભગવન્ વ્યક્િતં વિદુર્દેવા ન દાનવાઃ।।10.14।।
ਸਰ੍ਵਮੇਤਦਰਿਤਂ ਮਨ੍ਯੇ ਯਨ੍ਮਾਂ ਵਦਸਿ ਕੇਸ਼ਵ। ਨ ਹਿ ਤੇ ਭਗਵਨ੍ ਵ੍ਯਕ੍ਿਤਂ ਵਿਦੁਰ੍ਦੇਵਾ ਨ ਦਾਨਵਾ।।10.14।।
ಸರ್ವಮೇತದೃತಂ ಮನ್ಯೇ ಯನ್ಮಾಂ ವದಸಿ ಕೇಶವ. ನ ಹಿ ತೇ ಭಗವನ್ ವ್ಯಕ್ಿತಂ ವಿದುರ್ದೇವಾ ನ ದಾನವಾಃ৷৷10.14৷৷
സര്വമേതദൃതം മന്യേ യന്മാം വദസി കേശവ. ന ഹി തേ ഭഗവന് വ്യക്ിതം വിദുര്ദേവാ ന ദാനവാഃ৷৷10.14৷৷
ସର୍ବମେତଦୃତଂ ମନ୍ଯେ ଯନ୍ମାଂ ବଦସି କେଶବ| ନ ହି ତେ ଭଗବନ୍ ବ୍ଯକ୍ିତଂ ବିଦୁର୍ଦେବା ନ ଦାନବାଃ||10.14||
sarvamētadṛtaṅ manyē yanmāṅ vadasi kēśava. na hi tē bhagavan vyakitaṅ vidurdēvā na dānavāḥ৷৷10.14৷৷
ஸர்வமேததரிதஂ மந்யே யந்மாஂ வதஸி கேஷவ. ந ஹி தே பகவந் வ்யக்ிதஂ விதுர்தேவா ந தாநவாஃ৷৷10.14৷৷
సర్వమేతదృతం మన్యే యన్మాం వదసి కేశవ. న హి తే భగవన్ వ్యక్ితం విదుర్దేవా న దానవాః৷৷10.14৷৷
10.15
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।।10.15।। हे भूतभावन ! हे भूतेश ! हे देवदेव ! हे जगत्पते ! हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं।
।।10.15।। हे पुरुषोत्तम ! हे भूतभावन ! हे भूतेश ! हे देवों के देव ! हे जगत् के स्वामी ! आप स्वयं ही अपने आप को जानते हैं।।
।।10.15।। यह श्लोक दर्शाता है कि किस प्रकार श्रीकृष्ण उस परम सत्य का वर्णन करने में सक्षम हैं? जिसे न स्वर्ग के देवता जान सकते हैं और न दानवगण। आत्मा को कभी प्रमाणों (इन्द्रियों) के द्वारा दृश्य पदार्थ के रूप में नहीं जाना जा सकता है? और न वह हमारी शुभ अशुभ प्रवृत्तियों के द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है। परन्तु? आत्मा चैतन्य स्वरूप होने से स्वयं ज्ञानमय है और ज्ञान को जानने के लिए किसी अन्य प्रमाण (ज्ञान का साधन) की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए अर्जुन यहाँ कहता है? आप स्वयं अपने से अपने आप को जानते हैं।सांख्यदर्शन के अनुसार प्रतिदेह में स्थित चैतन्य? पुरुष कहलाता है। यहाँ श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम नाम से सम्बोधित किया गया है? जिसका अर्थ है? वह एकमेव अद्वितीय तत्त्व जो भूतमात्र की आत्मा है। पुरुषोत्तम शब्द का लौकिक अर्थ है पुरुषों में उत्तम तथा अध्यात्मशास्त्र के अनुसार अर्थ है परमात्मा। अब अर्जुन? भगवान् श्रीकृष्ण के शुद्ध ब्रह्म के रूप में स्वीकार करके उनका गौरव गान करते हुए उन्हें इन नामों से सम्बोधित करता है? हे भूतभावन (भूतों की उत्पत्ति करने वाले) हे भूतेश हे देवों के देव हे जगत् के शासक स्वामी किसी भी वस्तु का सारतत्त्व उस वस्तु के गुणों का शासक और धारक होता है। स्वर्ण आभूषणों के आकार? आभा आदि गुणों का शासक होता है। परन्तु चैतन्य की नियमन एवं शासन की शक्ति अन्य की अपेक्षा अधिक है? क्योंकि उसके बिना हम न कुछ जान सकते हैं और न कुछ कर्म ही कर सकते हैं। वस्तुओं और घटनाओं का भान या ज्ञान तभी संभव होता है जब इनके द्वारा अन्तकरण में उत्पन्न वृत्तियाँ इस शुद्ध चैतन्यरूप आत्म्ाा से प्रकाशित होती हैं।अपने आश्चर्य? आदर और भक्ति को व्यक्त करने वाले इस कथन के बाद? अब अर्जुन सीधे ही भगवान् के समक्ष अपनी बौद्धिक जिज्ञासा को प्रकट करता है --
।।10.15।। व्याख्या--'भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते पुरुषोत्तम'--सम्पूर्ण प्राणियोंको संकल्पमात्रसे उत्पन्न करनेवाले होनेसे आप 'भूतभावन' हैं; सम्पूर्ण प्राणियोंके और देवताओंके मालिक होनेसे आप 'भूतेश' और 'देवदेव' हैं; जड-चेतन, स्थावर-जङ्गममात्र जगत्का पालन-पोषण करनेवाले होनेसे आप 'जगत्पति' हैं; और सम्पूर्ण पुरुषोंमें उत्तम होनेसे आप लोकमें और वेदमें 'पुरुषोत्तम' नामसे कहे गये हैं (गीता 15। 18) (टिप्पणी प0 550)। इस श्लोकमें पाँच सम्बोधन आये हैं। इतने सम्बोधन गीताभरमें दूसरे किसी भी श्लोकमें नहीं आये। कारण है कि भगवान्की विभूतियोंकी और भक्तोंपर कृपा करनेकी बात सुनकर अर्जुनमें भगवान्के प्रति विशेष भाव पैदा होते हैं और उन भावोंमें विभोर होकर वे भगवान्के लिये एक साथ पाँच सम्बोधनोंका प्रयोग करते हैं (टिप्पणी प0 551)। 'स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वम्'--भगवान् अपने-आपको अपनेआपसे ही जानते हैं। अपने-आपको जाननेमें उन्हें किसी प्राकृत साधनकी आवश्यकता नहीं होती। अपने-आपको जाननेमें उनकी अपनी कोई वृत्ति पैदा नहीं होती, कोई जिज्ञासा भी नहीं होती, किसी करण-(अन्तःकरण और बहिःकरण-) की आवश्यकता भी नहीं,होती। उनमें शरीर-शरीरीका भाव भी नहीं है। वे तो स्वतः-स्वाभाविक अपने-आपसे ही अपने-आपको जानते हैं। उनका यह ज्ञान करण-निरपेक्ष है, करण-सापेक्ष नहीं।इस श्लोकका भाव यह है कि जैसे भगवान् अपने-आपको अपने-आपसे ही जानते हैं, ऐसे ही भगवान्के अंश जीवको भी अपने-आपसे ही अपने-आपको अर्थात् अपने स्वरूपको जानना चाहिये। अपने-आपको अपने स्वरूपका जो ज्ञान होता है, वह सर्वथा करण-निरपेक्ष होता है। इसलिये इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिसे अपने स्वरूपको नहीं जान सकते। भगवान्का अंश होनेसे भगवान्की तरह जीवका अपना ज्ञान भी करण-निरपेक्ष है।  सम्बन्ध--विभूतियोंका ज्ञान भगवान्में दृढ़ करानेवाला है (गीता 10। 7)। अतः अब आगेके श्लोकोंमें अर्जुन भगवान्से विभूतियोंको विस्तारसे कहनेके लिये प्रार्थना करते हैं।
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।।10.15।।हे पुरुषोत्तम आत्मना आत्मानं त्वं स्वयम् एव स्वेन एव ज्ञानेन वेत्थ। भूतभावन सर्वेषां भूतानाम् उत्पादयितः? भूतेश सर्वेषां भूतानां नियन्तः? देवदेव दैवतानाम् अपि परमदैवत? यथा मनुष्यमृगपक्षिसरीसृपादीन् सौन्दर्यसौशील्यादिकल्याणगुणगणैः दैवतानि अतीत्य वर्तन्ते तथा तानि सर्वाणि दैवतानि अपि तैः तैः गुणैः अतीत्य वर्तमान? जगत्पते जगत्स्वामिन्।
।।10.15।।कश्चिदेव महता कष्टेनानेकजन्मसंसिद्धो जानाति त्वदनुगृहीतस्त्वद्रूपमित्यभिप्रेत्याह -- यत इति। स्वयमेवोपदेशमन्तरेणेत्यर्थः। आत्मना प्रत्यक्त्वेनाविषयतयेति यावत्। आत्मानं निरुपाधिकं रूपम्। नच तव सोपाधिकमपि रूपमन्यस्य गोचरे तिष्ठतीत्याह -- निरतिशयेति। पुरुषश्चासावुत्तमश्चेति क्षराक्षरातीतपूर्णचैतन्यरूपत्वं संबोधनेन बोध्यते। सर्वप्रकृतित्वं सर्वकर्तृत्वं च कथयति -- भूतानीति। सर्वेश्वरत्वमाह -- भूतानामिति। उक्तं ते सोपाधिकं रूपं देवादीनामाराध्यतामधिगच्छतीत्याह -- देवेति। जगतः सर्वस्य स्वामित्वेन पालयितृत्वमाह -- जगदिति।
।।10.15।।किं तर्हि स्वयमेव वेत्थेति तदप्यात्मना? न साधनान्तरेण।
।।10.15।।यतस्त्वं तेषां सर्वेषामादिरशक्यज्ञानश्चातः -- स्वयमेव अन्योपदेशादिकमन्तरेणैव त्वमेवात्मना स्वरूपेणात्मानं निरुपाधिकं सोपाधिकं च? निरुपाधिकं प्रत्यक्त्वेनाविषयतया सोपाधिकं च निरतिशयज्ञानैश्वर्यादिशक्तिमत्त्वेन वेत्थ जानासि नान्यः कश्चित्। अन्यैर्ज्ञातुमशक्यमहं कथं जानीयामित्याशङ्कामपनुदन्प्रेमौत्कण्ठ्येन बहुधा संबोधयति। हे पुरुषोत्तम? त्वदपेक्षया सर्वेऽपि पुरुषा अपकृष्टा एव। अतस्तेषामशक्यं सर्वोत्तमस्य तव शक्यमेवेत्यभिप्रायः। पुरुषोत्तमत्वमेव विवृणोति पुनश्चतुर्भिः संबोधनैः -- भूतानि सर्वाणि भावयत्युत्पादयतीति हे भूतभावन सर्वभूतपितः। पितापि कश्चिन्नेष्टस्तत्राह हे भूतेश सर्वभूतनियन्तः। नियन्तापि कश्चिन्नाराध्यस्तत्राह हे देवदेव देवानां सर्वाराध्यानामप्याराध्य। आराध्योऽपि कश्चिन्न पालयितृत्वेन पतिस्तत्राह हे जगत्पते हिताहितोपदेशकवेदप्रणेतृत्वेन सर्वस्य जगतः पालयितः। एतादृशसर्ववविशेषणविशिष्टस्त्वं सर्वेषां पिता सर्वेषां गुरुः सर्वेषां राजा अतः सर्वैः प्रकारैः सर्वेषामाराध्य इति किं वाच्यं पुरुषोत्तमत्वं तवेति भावः।
।।10.15।।किं तर्हि -- स्वयमिति। स्वयमेव त्वमात्मानं वेत्थ जानासि नान्यः तदप्यात्मना स्वेनैव वेत्थ न साधनान्तरेण। अत्यादरेण बहुधा संबोधयति हे पुरुषोत्तम। पुरुषोत्तमत्वे हेतुगर्भाणि संबोधनानि। हे भूतभावन भूतोत्पादक भूतानामीश नियन्तः? देवानामादित्यादीनां देव प्रकाशक? जगत्पते विश्वपालक।
।।10.15।।देवादीनां भगवद्वैभवे वक्तृत्वयोग्यता प्रतिक्षिप्ता अथ भगवत एव स्ववैभववचनयोग्यतामाह -- स्वयमेव इतिश्लोकेन। अत्रपुरुषोत्तम इति संज्ञा शेषं तु तत्संज्ञान्वयौपयिकगुणपरमिति विभजनाय पूर्वमेवहे पुरुषोत्तमेत्युक्तम्। अत्रत्वमेव त्वां वेत्थ योऽसि सोऽसि [यजुःकाठ.1।3।1] इति श्रुतिस्मरणाद्यभिप्रायेणआत्मानम् इत्यस्य त्वामिति प्रतिपादनम्।स्वयमेव इत्यनेन फलितोक्तिःस्वेनैव ज्ञानेनेति।आत्मना -- अन्यैरननुगृहीत इत्यर्थः। यथाऽन्येषांमत्तः स्मृतिर्ज्ञानम् [15।15] इति न तथास्येति भावः। यद्वाआत्मना इत्यस्य व्याख्याज्ञानेनेति?आत्मा जीवे इत्यारभ्ययत्नेऽर्केऽग्नौ मतौ वायौ इति पाठात्। भावनशब्दस्य चिन्ताद्यर्थपरत्वव्युदासायाहउत्पादयितरिति। भूतेशजगत्पतिशब्दयोः पौनरुक्त्यशङ्काव्युदासाय नियन्तृत्वस्वामित्वकथनम्। रक्षणे व्युत्पन्नस्यापि पतिशब्दस्य शेषित्वे रूढिः। स कारणं करणाधिपाधिपः [श्वे.उ.6।9] तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं दैवतानां परमं च दैवतम्। पतिं पतीनां परमं परस्ताद्विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् [श्वे.उ.6।7] इति श्रुतिसिद्धाश्चत्वारोऽर्थाःभूतभावन इत्यादिभिश्चतुर्भिः प्रतिपाद्यन्त इति ज्ञापनायदैवतानामपि परमदैवतेति श्रुतिगतैः पदैर्व्याख्यातम्। देवशब्दस्य जातिविशेषवाचकत्वेन प्रतिसम्बन्धिशब्दत्वाभावात् द्वितीयो देवशब्द उत्कर्षविशेषविषयतया औपचारिक इति मुख्यगौणानुगतमुपचारनिमित्तं दर्शयतियथेति। अन्योन्यवैलक्षण्यस्याकिञ्चित्करत्वायात्यन्तवैलक्षण्यज्ञापनाय च मृगपक्षिसरीसृपग्रहणम्। यथा देवादीनां कीटाः? तथा परमात्मनो देवा अपि।कीटाः समस्ताः सुराः दृष्टे यत्र इति ह्याहुः।सौन्दर्यसौशील्येति विग्रहगुणानामात्मगुणानां चोपलक्षणम्।
।।10.15।।यतोऽन्ये न विदुरतः स्वस्वरूपं स्वयमेव जानासीत्याह৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷৷. -- स्वयमेवेति। स्वयं स्वेच्छयैव? न केनचित् प्रेरितः। आत्मना स्वस्वरूपेणैव आत्मानं यादृशोऽसि तादृशं त्वमेव वेत्थ? जानासीत्यर्थः। अन्यथा ज्ञानहेतुभूतत्वेन सम्बोधयति। हे पुरुषोत्तम केन कथं वा ज्ञातुं योग्य इत्यर्थः। अतएव ब्रह्माण्डपुराणे -- नैष भावयितुं योग्यः केनचित् पुरुषोत्तम् इत्युक्तम्। ननु तर्हियो मामजमनादिं च वेत्ति [10।3] इति कथमुक्तं इत्याशङ्क्य तत्कृपया स्ववेदनात्मकस्वशक्तिदानेन ज्ञापयतीतिददामि बुद्धियोगं तम् [10।10] इत्यादिनोक्तम्। तथात्वेनैव सम्बोधयन्नाह -- भूतभावनेत्यादिभिः। हे भूतभावन भूतानि भावयसि स्वभावयुक्तानि करोषीति तथा। कथमेवं करोतीत्यत आह -- भूतेश तेषां स्वामी नियामकः तेन स्वीयत्वेन करोतीति भावः। ईशत्वेऽपि कथमेवं करोति इत्यत आह -- देवदेव पूज्यानामपि पूज्य तत्पूजादिसन्तुष्टस्तथा करोतीति भावः। तर्हि देवेष्वेव तथोचितं? न तु सर्वेष्वित्यत आह -- जगत्पते इति। जगतः सर्वस्यैव पतिः पालको रक्षक इति यावत् रक्षार्थं तथा करोतीति भावः।
।।10.15।।हे भूतभावन भूतानां भावक।
।।10.15।।अतः सर्वेषामादिस्त्वं स्वयमेवान्योपदेशमन्तरेणात्मना नत्वन्तःकरणादिकरणेनात्मानं निरुपाधिकं सोपाधिकं च निरतिशयज्ञानैश्वर्यबलादिशक्तिमन्तं जानासि नत्वन्यस्त्वदननुग्रीतः। भगवतः निरुपाधिकात्मज्ञानसामर्थ्यं संबोधनेनाप्याह -- हे पुरुषोत्तमेति। निरुपाधिकः परमात्मा त्वं निरुपाधिकं स्वस्वरुपं वेत्थेति भावः। सोपाधिकोऽपि जगत्कर्तृत्वादिमांस्त्वमेवातस्तमपि त्वमेव जानासीति ध्वनयन् चतुर्धा संबोधयति। भूतभावनेत्यादिना। भूतोत्पादक? भूतेष भूतनियन्तः। देवदेव देवानां सूर्यादीनामपि द्योतक? जगत्पते जगत्पालक। तथाच जगत उत्प्तिस्थितिनियमकर्ता त्वमेव। ननु ब्रह्मादयः सूर्यादयो रुद्रादय एतत्कर्तारो दृश्यन्ते इत्याशङ्क्य देवानां ब्रह्मादीनामपि देव? त्वदधिष्ठिता एव ते उत्पत्त्यादिकर्तारो न स्वतन्त्रा इति भावः।
10.15 स्वयम् Thyself? एव only? आत्मना by Thyself? आत्मानम् Thyself? वेत्थ (Thou) knowest? त्वम् Thou? पुरुषोत्तम O Purusha Supreme? भूतभावन O source of beings? भूतेश O Lord of beings? देवदेव O God of,gods? जगत्पते O ruler of the world.Commentary Purushottama means the best among all Purushas. He assumes the four forms? viz.? the source of beings? the Lord of beings? God of gods and ruler of the world. Hence He is called Purushottama.Devadeva is He who is worshipped even by Indra and other gods.Jagatpati The Lord protects the world and guides the people through the instructions given in the Vedas. Hence the name ruler of the world.
10.15 Verily, Thou Thyself knowest Thyself by Thyself, O Supreme Person, O source and Lord of beings, O God of gods, O ruler of the world!
10.15 Thou alone knowest Thyself, by the power of Thy Self; Thou the Supreme Spirit, the Source and Master of all being, the Lord of Lords, the Ruler of the Universe.
10.15 O supreme Person, the Creator of beings, the Lord of beings, God of gods, the Lord of the worlds, You Yourself alone know Yourself by Yourself.
10.15 Purusottama, O supreme Person; bhuta-bhavana, O Creator of beings, one who brings the creatures into being; bhutesa, the Lord of beings; deva-deva, O God of gods; jagat-pate, the Lord of the worlds; tvam, You; svayam, Yourself; eva, alone; vettha, know; atmanam, Yourself, as God possessed of unsurpassable powers of knowledge, sovereignty, strength, etc.; atmana, by Yourself.
10.15. Only Yourself know Yourself by Yourself, O Supreme Purusa, Creator of all beings, Lord of beings, God of gods, Lord of the Universe !
10.15 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
10.15 O Supreme Person, You Yourself know Yourself by Yourself; namely, by virtue of Your knowledge! O Creator of beings, namely, O Originator of all beings! O Lord of all beings, namely, O Controller of all beings! O God of gods, namely, O the Supreme Deity even of all divinities! Just as the gods surpass men, animals, birds, reptiles etc., in beauty, condescension and the host of auspicious alities, You, O Lord, in the same manner, transcend all these gods in all these attributes! O Ruler of the universe, O Master of the universe!
10.15 O Supreme Person, O Creator of beings, O Lord of beings, O God of gods, O Ruler of the universe, You Yourself know Yourself by Yourself.
।।10.15।।क्योंकि आप देवादिके आदि कारण हैं? इसलिये --, हे पुरुषोत्तम हे भूतप्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले भूतभावन हे भूतेशभूतोंके ईश्वर हे देवोंके देव हे जगत्पते आप स्वयं ही अपनेद्वारा अपने आपको अर्थात् निरतिशय ज्ञान? ऐश्वर्य? सामर्थ्य आदि शक्तियोंसे युक्त ईश्वरको जानते हैं।
।।10.15।। --,स्वयमेव आत्मना आत्मानं वेत्थ जानासि त्वं निरतिशयज्ञानैश्वर्यबलादिशक्तिमन्तम् ईश्वरं पुरुषोत्तम। भूतानि भावयतीति भूतभावनः? हे भूतभावन। भूतेश भूतानाम् ईशितः। हे देवदेव जगत्पते।।
।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्मविभुशब्दावैकार्थ्यपरिहाराय क्रमेण सप्रमाणकं व्याचष्टे -- ब्रह्मेति। परं वस्तु ब्रह्मेति कस्मादुच्यते बृहतिं पूर्णं भवति बृंहयति पूरयति चान्यान्। बृहतेर्मन्प्रत्ययोऽमागमश्च। ईश्वरो ब्रह्मणोऽन्यः स कथं परं ब्रह्मेत्युच्यते इत्यत उक्तम् -- परममिति। विविधमनेकरूपत्वेनाभवत्। मेहनावतः सेचकस्य भगवतः प्रथमं रूपं विभु प्रभु चेत्येतदनूद्य व्याख्यायते। प्राभवत्समर्थोऽभवदिति प्रभुः विविधोऽभवदिति विभुः। सोऽकामयत इति विविधभवने श्रुत्यन्तरम्। विप्रसम्भ्यो ड्वसंज्ञायाम् [अष्टा.3।2।180] इति च स्मृतिः।
।।10.12 -- 10.15।।ब्रह्म परिपूर्णम्। अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म ৷৷. बृहद्बृहत्या बृंहयति [अ.शिर.4] इति च श्रुतिः। बृह बृहि वृद्धाविति पठन्ति।परमं यो महद्ब्रह्म [म.भा.13।149।9] इति च। विविधमासीदिति विभुः। तथा हि वारुणशाखायाम् -- विभु प्रभु प्रथमं मेहनावतः [ऋक्सं.2।7।2।5] इति स ह्येव प्रभावाद्विविधोऽभवत् इति। सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय [तै.उ.2।6] इत्यादेश्च।
स्वयमेवात्मनाऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम। भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।10.15।।
স্বযমেবাত্মনাত্মানং বেত্থ ত্বং পুরুষোত্তম৷ ভূতভাবন ভূতেশ দেবদেব জগত্পতে৷৷10.15৷৷
স্বযমেবাত্মনাত্মানং বেত্থ ত্বং পুরুষোত্তম৷ ভূতভাবন ভূতেশ দেবদেব জগত্পতে৷৷10.15৷৷
સ્વયમેવાત્મનાત્માનં વેત્થ ત્વં પુરુષોત્તમ। ભૂતભાવન ભૂતેશ દેવદેવ જગત્પતે।।10.15।।
ਸ੍ਵਯਮੇਵਾਤ੍ਮਨਾਤ੍ਮਾਨਂ ਵੇਤ੍ਥ ਤ੍ਵਂ ਪੁਰੁਸ਼ੋਤ੍ਤਮ। ਭੂਤਭਾਵਨ ਭੂਤੇਸ਼ ਦੇਵਦੇਵ ਜਗਤ੍ਪਤੇ।।10.15।।
ಸ್ವಯಮೇವಾತ್ಮನಾತ್ಮಾನಂ ವೇತ್ಥ ತ್ವಂ ಪುರುಷೋತ್ತಮ. ಭೂತಭಾವನ ಭೂತೇಶ ದೇವದೇವ ಜಗತ್ಪತೇ৷৷10.15৷৷
സ്വയമേവാത്മനാത്മാനം വേത്ഥ ത്വം പുരുഷോത്തമ. ഭൂതഭാവന ഭൂതേശ ദേവദേവ ജഗത്പതേ৷৷10.15৷৷
ସ୍ବଯମେବାତ୍ମନାତ୍ମାନଂ ବେତ୍ଥ ତ୍ବଂ ପୁରୁଷୋତ୍ତମ| ଭୂତଭାବନ ଭୂତେଶ ଦେବଦେବ ଜଗତ୍ପତେ||10.15||
svayamēvātmanā.tmānaṅ vēttha tvaṅ puruṣōttama. bhūtabhāvana bhūtēśa dēvadēva jagatpatē৷৷10.15৷৷
ஸ்வயமேவாத்மநாத்மாநஂ வேத்த த்வஂ புருஷோத்தம. பூதபாவந பூதேஷ தேவதேவ ஜகத்பதே৷৷10.15৷৷
స్వయమేవాత్మనాత్మానం వేత్థ త్వం పురుషోత్తమ. భూతభావన భూతేశ దేవదేవ జగత్పతే৷৷10.15৷৷
10.16
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।।10.16।।  जिन विभूतियोंसे आप इन सम्पूर्ण लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियोंका सम्पूर्णतासे वर्णन करनेमें आप ही समर्थ हैं।
।।10.16।। आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को अशेषत: कहने के लिए योग्य हैं, जिन विभूतियों के द्वारा इन समस्त लोकों को आप व्याप्त करके स्थित हैं।।
।।10.16।। राजपुत्र अर्जुन को इस बात का निश्चय हो गया है कि भगवान् ही विश्व के अधिष्ठान हैं? जिनके बिना विश्व का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। परन्तु जब वह अपने उपलब्ध और परिचित प्रमाणों इन्द्रियों? मन और बुद्धि के द्वारा बाह्य जगत् को देखता है? तब उसे केवल विषयों? भावनाओं और विचारों का ही अनुभव होता है जिन्हें किसी भी दृष्टि से दिव्य नहीं कहा जा सकता।जब किसी उत्सव के अवसर पर किसी इमारत पर विद्युत् की दीपसज्जा की जाती है? तब वहाँ विविध रंगों के तथा विभिन्न विद्युत् क्षमताओं के बल्बों से प्रकाश फूटकर निकल पड़ता प्रतीत होता है। परन्तु जब हमें बताया जाता है कि एक ही विद्युत् इन सबमें व्यक्त होकर इन्हें धारण कर रही है? तो कोई अनपढ़ अज्ञानी पुरुष? स्वाभाविक ही? प्रत्येक बल्ब में व्यक्त हुई विद्युत् को देखने की इच्छा प्रकट करेगा विराट् ईश्वर के रूप में भगवान् ही इस नामरूपमय संसार की समष्टि सृष्टि (विभूति) और व्यष्टि सृष्टि (योग) बने हुए हैं। यद्यपि श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय के द्वारा इसे अनुभव किया जा सकता है? परन्तु बुद्धि के तीक्ष्ण होने पर भी उसके द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसलिए? स्वाभाविक ही? अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से उन विभूतियों का वर्णन करने का अनुरोध करता है? जिनके द्वारा वे इस जगत् को व्याप्त करके स्थित हैं। कर्मशील होने के कारण अर्जुन अत्यन्त व्यावहारिक बुद्धि का पुरुष था इसलिए वह और अधिक पर्याप्त तथ्यों को एकत्र करना चाहता था? जिन पर वह विचार करके और उनका वर्गीकरण करके उन्हें समझ सके।क्या अर्जुन की यह केवल बौद्धिक जिज्ञासा ही है? जिसके कारण वह ऐसा प्रश्न करता है वह स्वयं स्पष्ट करते हुए कहता है
।।10.16।। व्याख्या--'याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि' -- भगवान्ने पहले (सातवें श्लोकमें) यह बात कही थी कि जो मनुष्य मेरी विभूतियोंको और योगको तत्त्वसे जानता है, उसका मेरेमें अटल भक्तियोग हो जाता है। उसे सुननेपर अर्जुनके मनमें आया कि भगवान्में दृढ़ भक्ति होनेका यह बहुत सुगम और श्रेष्ठ उपाय है; क्योंकि भगवान्की विभूतियोंको और योगको तत्त्वसे जाननेपर मनुष्यका मन भगवान्की तरफ स्वाभाविक ही खिंच जाता है और भगवान्में उसकी स्वाभाविक ही भक्ति जाग्रत् हो जाती है। अर्जुन अपना कल्याण चाहते हैं और कल्याणके लिये उनको भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ उपाय दीखती है। इसलिये अर्जुन कहते हैं कि जिन विभूतियोंसे आप सम्पूर्ण लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं, उन अलौकिक, विलक्षण विभूतियोंका विस्तारपूर्वक सम्पूर्णतासे वर्णन कीजिये। कारण कि उनको कहनेमें आप ही समर्थ हैं; आपके सिवाय उन विभूतियोंको और कोई नहीं कह सकता।'वक्तुमर्हस्यशेषेण' -- आपने पहले (सातवें, नवें और यहाँ दसवें अध्यायके आरम्भमें) अपनी विभूतियाँ बतायीं और उनको जाननेका फल दृढ़ भक्तियोग होना बताया। अतः मैं भी आपकी सब विभूतियोंको जान जाऊँ और मेरा भी आपमें दृढ़ भक्तियोग हो जाय, इसलिये आप अपनी विभूतियोंको पूरी-की-पूरी कह दें, बाकी कुछ न रखें।'दिव्या ह्यात्मविभूतयः' -- विभूतियोंको दिव्य कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें जो कुछ विशेषता दीखती है वह मूलमें दिव्य परमात्माकी ही है, संसारकी नहीं। अतः संसारकी विशेषता देखना भोग है और परमात्माकी विशेषता देखना विभूति है, योग है।
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।।10.16।।दिव्याः त्वदसाधारण्यो विभूतयो याः ताः त्वम् एव अशेषण वक्तुम् अर्हसि त्वम् एव व्यञ्जय इत्यर्थः। याभिः अनन्ताभिः विभूतिभिः यैः नियमनविशेषैः युक्त इमान् लोकान् त्वं नियन्तृत्वेन व्याप्य तिष्ठसि।किमर्थं तत्प्रकाशनम् इति अपेक्षायाम् आह --
।।10.16।।यस्मादस्मादृशामगोचरस्तवात्मा जिज्ञासितश्च। तस्मात्त्वयैव तद्रूपं वक्तव्यमित्याह -- वक्तुमिति। दिव्यत्वमप्राकृतत्वम्। संप्रत्यन्वयमन्वाचष्टे -- आत्मन इति। वक्तव्या विभूतीर्विशिनष्टि -- याभिरिति। यद्द्वारा लोकान्पूरयित्वा वर्तसे ता विभूतीरशेषेण वक्तुमर्हसीत्यर्थः।
।।10.16।।यतो देवादयो न विदुस्तस्माद्वक्तुमर्हसि अशेषेणेति। या दिव्यास्तवासाधारण्यो विभूतयः ता अशेषेण वद। याभिः स्वांशभवनरूपैर्नियमनविशेषैर्गुणभूतैस्तदात्मभूतैश्चेमाँल्लोकांस्त्रीन् व्याप्य तिष्ठसि।
।।10.16।।यस्मादन्येषां सर्वेषां ज्ञातुमशक्या अवश्यं ज्ञातव्याश्च तव विभूतयः? तस्मात् -- याभिर्विभूतिभिरिमान्सर्वांल्लोकान्व्याप्य त्वं तिष्ठसि तास्तवासाधारणा विभूतयो दिव्या असर्वज्ञैर्ज्ञातुमशक्या हि यस्मात्तस्मात्सर्वज्ञस्त्वमेव ता अशेषेण वक्तुमर्हसि।
।।10.16।।यस्मात्तवाभिव्यक्तिं त्वमेव वेत्सि न देवादयस्तस्माद्वक्तुमर्हसीति या आत्मनस्तव दिव्या अत्यद्भुता विभूतयस्ताः सर्वा वक्तुं त्वमेवार्हसि योग्यो भवसि। याभिरिति विभूतीनां विशेषणं स्पष्टार्थम्।
।।10.16।।आत्मशब्दोऽन्यविभूतित्वव्युदासार्थ इत्याह -- त्वदसाधारण्य इति।विभूतयः इति प्रथमान्तत्वेनवक्तुमर्हसि इत्यनेन अन्वयायोगात् -- विभूतयो या इति यच्छब्दाध्याहारः। यतो दिव्याः? अतोऽवश्यवक्तव्याः अतस्ता वक्तुमर्हसीति वाक्यावृत्तिज्ञापनार्थः।अर्हसि इति योग्यत्वनिर्देशेन तत्प्रार्थनं विवक्षितम्। ईश्वरेणाप्यशेषेण वक्तुं अर्जुनेन च श्रोतुमशक्यत्वाद्वचनतः प्रसादतश्च प्रकाशमात्रमिह प्रार्थ्यतेन हि ते भगवन् व्यक्तिम् [10।14] इति हि पूर्वमुक्तमित्यभिप्रायेणाहत्वमेव व्यञ्जयेत्यर्थ इति। बहुवचनासङ्कोचात्अशेषेण इति निर्देशाच्च आनन्त्यमिह विवक्षितम्।नास्त्यन्तो विस्तरस्य [10।19] इत्याद्युत्तरवशाच्चेत्यभिप्रायेण -- अनन्ताभिरित्युक्तम्। विपूर्वो भवतिः भावप्रत्ययान्तो नियमनवाचीत्युक्तम्। नचात्रार्थान्तरं घटते? नियन्तव्यसामानाधिकरण्याद्यभावादित्यभिप्रायेणयैर्नियमनविशेषैरित्युक्तम्। प्रभूतनियमनविषये कौतुकातिरेकद्योतनाय विशेषशब्दः। तृतीयाया इह करणाद्यर्थत्वायोगादित्थम्भूतलक्षणार्थत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणयुक्त इत्युक्तम्। अत्र विभूतिशब्दस्य नियन्तव्यपरत्वेऽश्वत्थादीनां न लोकव्याप्तिकारणत्वं? नच तद्विशिष्टस्य? तैः सह वा तदितरव्याप्तिः नच व्याप्तौ नियन्तव्यानामित्थम्भूतलक्षणत्वं? नैरर्थक्यात् नियमनविशेषाणां तु श्रुत्यनुसारादाकाशादिव्याप्तिव्यवच्छेदार्थत्वाच्च तदुपपत्तिरित्यभिप्रायेणाह -- नियन्तृत्वेन व्याप्येति। अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानाम् [यजु.सं.3।10] अन्तरो यमयति [बृ.उ.3।7।323शत.14।5।30] अन्तर्याम्यमृतः [बृ.उ.3।7।323] इत्यादिभिः श्रूयते।व्याप्य तिष्ठसि इत्यनेन व्याप्य नारायणः स्थितः [म.ना.9।5] इति श्रुतिः स्मारिता।
।।10.16।।एवं सम्बोध्य जगत्पतित्वेन स्वस्यापि पतित्वं सम्पाद्येदानीं स्वीयत्वेनानुग्रहं कुरु यथाऽहं पूर्वोक्तं त्वत्स्वरूपं ज्ञात्वा प्रपन्नो भवामीत्याह -- वक्तुमर्हसीति। दिव्याः क्रीडारूपाः? आत्मविभूतयः स्वविभूतयः कार्यार्थं स्वयमेवांशरूपाः? अशेषेण वक्तुं त्वमेवार्हसि योग्योऽसि। योग्यत्वोक्त्या विभूतिज्ञानमपि नान्यस्य? यत्र तत्र साक्षात् त्वदज्ञाने किं वाच्यमिति व्यञ्जितम्। यतस्त्वमेव योग्योऽस्यतः कृपया वदेति भावः। याभिर्विभूतिभिः इमान् लोकान् व्याप्य स्वीयत्वेनाङ्गीकृत्य तिष्ठसि ता वक्तुमर्हसीत्यर्थः।
।।10.16।।एवं स्तुत्वात्मनो बुभुत्सितमाह -- वक्तुमिति।
।।10.16।।अतोऽप्राकृता हि आत्मनो विभूतयः माहात्म्यविस्ताराः यास्ताः वक्तुमर्हसि। याभिर्विभूतिस्त्वमिमाँल्लोकान्वाप्य तिष्ठसि।
10.16 वक्तुम् to tell? अर्हसि (Thou) shouldst? अशेषेण without reminder? दिव्याः divine? हि indeed? आत्मविभूतयः Thy glories? याभिः by which? विभूतिभिः by glories? लोकान् worlds? इमान् these? त्वम् Thou? व्याप्य having pervaded? तिष्ठसि existest.No Commentary.
10.16 Thou shouldst indeed tell, without reserve, of Thy divine glories by which Thou existest, pervading all these worlds. (None else can do so.)
10.16 Please tell me all about Thy glorious manifestations, by means of which Thou pervadest the world.
10.16 Be pleased to speak in full of Your own manifestations which are indeed divine, through which manifestations You exist pervading these worlds.
10.16 Arhasi, be pleased; vaktum, to speak; asesena, in full; atmavibhutayah, of Your own manifestations; divyah hi, which are indeed divine; yabhih, through which; vibhutibhih, manifestations, manifestations of Your glory; tisthasi, You exist; vyapya, pervading; iman, these; lokan, worlds.
10.16. You are [alone] capable of fully declaring the auspicious manifesting powers of Yours, by which manifesting power You remain pervading these worlds.
10.16 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
10.16 Whatever manifestations there be that are divine, unie to Yourself - You alone are capable of describing them without exception. 'You reveal them Yourself' is the meaning. With these innumerable Vibhutis, these instances of your manifestation indicating Your will to rule, You abide, pervading all these worlds as their controller. What is the need for such description? The answer follows:
10.16 You should tell Me without reserve Your divine manifestations whery You abide pervading all these worlds.
।।10.16।।अपनी दिव्य विभूतियोंका पूर्णतया वर्णन करनेमें ( आप ही ) समर्थ हैं -- आपकी जो विभूतियाँ हैं? जिन विभूतियोंसे अर्थात् अपने माहात्म्यके विरतारसे आप इन सारे लोकोंको व्याप्त करके स्थित हो रहे हैं? उन्हें कहनेमें आप ही समर्थ हैं।
।।10.16।। --,वक्तुं कथयितुम् अर्हसि अशेषेण। दिव्याः हि आत्मविभूतयः। आत्मनो विभूतयो याः ताः वक्तुम् अर्हसि। याभिः विभूतिभिः आत्मनो माहात्म्यविस्तरैः इमान् लोकान् त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।
।।10.16।।विभूतय ऐश्वर्याणि पृष्टानि नानारूपाणि वक्ष्यन्ते। किं केन सङ्गतं इत्यत आह -- विभूतय इति। विविधभूतयो नानाभूतानि रूपाणि।
।।10.16।।विभूतयो विविधभूतयः।
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः। याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।10.16।।
বক্তুমর্হস্যশেষেণ দিব্যা হ্যাত্মবিভূতযঃ৷ যাভির্বিভূতিভির্লোকানিমাংস্ত্বং ব্যাপ্য তিষ্ঠসি৷৷10.16৷৷
বক্তুমর্হস্যশেষেণ দিব্যা হ্যাত্মবিভূতযঃ৷ যাভির্বিভূতিভির্লোকানিমাংস্ত্বং ব্যাপ্য তিষ্ঠসি৷৷10.16৷৷
વક્તુમર્હસ્યશેષેણ દિવ્યા હ્યાત્મવિભૂતયઃ। યાભિર્વિભૂતિભિર્લોકાનિમાંસ્ત્વં વ્યાપ્ય તિષ્ઠસિ।।10.16।।
ਵਕ੍ਤੁਮਰ੍ਹਸ੍ਯਸ਼ੇਸ਼ੇਣ ਦਿਵ੍ਯਾ ਹ੍ਯਾਤ੍ਮਵਿਭੂਤਯ। ਯਾਭਿਰ੍ਵਿਭੂਤਿਭਿਰ੍ਲੋਕਾਨਿਮਾਂਸ੍ਤ੍ਵਂ ਵ੍ਯਾਪ੍ਯ ਤਿਸ਼੍ਠਸਿ।।10.16।।
ವಕ್ತುಮರ್ಹಸ್ಯಶೇಷೇಣ ದಿವ್ಯಾ ಹ್ಯಾತ್ಮವಿಭೂತಯಃ. ಯಾಭಿರ್ವಿಭೂತಿಭಿರ್ಲೋಕಾನಿಮಾಂಸ್ತ್ವಂ ವ್ಯಾಪ್ಯ ತಿಷ್ಠಸಿ৷৷10.16৷৷
വക്തുമര്ഹസ്യശേഷേണ ദിവ്യാ ഹ്യാത്മവിഭൂതയഃ. യാഭിര്വിഭൂതിഭിര്ലോകാനിമാംസ്ത്വം വ്യാപ്യ തിഷ്ഠസി৷৷10.16৷৷
ବକ୍ତୁମର୍ହସ୍ଯଶେଷେଣ ଦିବ୍ଯା ହ୍ଯାତ୍ମବିଭୂତଯଃ| ଯାଭିର୍ବିଭୂତିଭିର୍ଲୋକାନିମାଂସ୍ତ୍ବଂ ବ୍ଯାପ୍ଯ ତିଷ୍ଠସି||10.16||
vaktumarhasyaśēṣēṇa divyā hyātmavibhūtayaḥ. yābhirvibhūtibhirlōkānimāṅstvaṅ vyāpya tiṣṭhasi৷৷10.16৷৷
வக்துமர்ஹஸ்யஷேஷேண திவ்யா ஹ்யாத்மவிபூதயஃ. யாபிர்விபூதிபிர்லோகாநிமாஂஸ்த்வஂ வ்யாப்ய திஷ்டஸி৷৷10.16৷৷
వక్తుమర్హస్యశేషేణ దివ్యా హ్యాత్మవిభూతయః. యాభిర్విభూతిభిర్లోకానిమాంస్త్వం వ్యాప్య తిష్ఠసి৷৷10.16৷৷
10.17
10
17
।।10.17।। हे योगिन् ! हरदम साङ्गोपाङ्ग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ ? और हे भगवन् ! किन-किन भावोंमें आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किन-किन भावोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ ?
।।10.17।। हे योगेश्वर ! मैं किस प्रकार निरन्तर चिन्तन करता हुआ आपको जानूँ, और हे भगवन् ! आप किनकिन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं।।
।।10.17।। किस प्रकार मैं आपका चिन्तन या ध्यान करूँ जिससे कि मैं आपको साक्षात् जान सकूँ साधक का लक्ष्य है एकत्व भाव से आत्मा को साक्षात् जानना। अब तक के अध्यायों में कहीं भी गीता ने ध्यानाभ्यास के लिए किसी नदी के तट पर या एकान्त गुफा में जाकर संन्यास का जीवन व्यतीत करने का समर्थन नहीं किया है। श्रीकृष्ण का मनुष्य को आह्वान कर्त्तव्य कर्म करने के लिए है और अपने इसी व्यावहारिक जीवन में ईश्वरानुभूति में जीने के लिए है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गीताशास्त्र का उद्घोष महाभारत के समरांगण में उस क्षण हुआ था? जब तत्कालीन समस्त राष्ट्र अपने समय की सबसे बड़ी ऐतिहासिक क्रांति वेला का सामना करने के लिए उद्यत थे। यह क्रांति वेला लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही मूल्यों की निर्णायक थी।अर्जुन कर्त्तव्य पालन के गीताधर्म में पूर्णतया परिवर्तित हो गया था। उसका यह परिवर्तन श्रीकृष्ण को सम्बोधित किये योगिन शब्द से विशेष रूप से दर्शाया गया है। श्रीकृष्ण ऐसे सर्वश्रेष्ठ कर्मयोगी थे? जिन्होंने विविध घटनाओं से परिपूर्ण जीवन में अत्यन्त व्यस्त रहते हुए भी कभी अपने शुद्ध दिव्यस्वरूप का विस्मरण नहीं होने दिया।इस श्लोक में अर्जुन अपने अनुरोध का कारण भी बताते हुए कहता है? आप किनकिन भावों में मेरे द्वारा चिन्तन करने योग्य हैं व्यावहारिक जीवन जीते हुए और उसकी चुनौतियों का सामना करते हुए? यदि सर्वत्र व्याप्त आत्मा का अखण्ड स्मरण बनाये रखना हो? तो साधक को निश्चित रूप से यह जानना आवश्यक होगा कि वह उस तत्त्व को प्रत्येक वस्तु? वस्तुओं के समूह और मनुष्यों के समाज में कहाँ और कैसे देखे।अर्जुन अपनी इच्छा को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहता है कि यदि भगवान् का उत्तर विस्तृत भी हो? तब भी उन्हें सुनने और समझने में वह थकान नहीं अनुभव करेगा
।।10.17।। व्याख्या--'कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्'--सातवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि जो मेरी विभूति और योगको तत्त्वसे जानता है, वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है। इसलिये अर्जुन भगवान्से पूछते हैं कि हरदम चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ?
null
।।10.17।।अहं योगी भक्तियोगनिष्ठः सन् भक्त्या त्वां सदा परिचिन्तयन् चिन्तयितुं प्रवृत्तः चिन्तनीयं त्वां परिपूर्णैश्वर्यादिकल्याणगुणगणं कथं विद्या पूर्वोक्तबुद्धिज्ञानादिभाव्यतिरेक्तेषु अनुक्तषु केषु केषु च भावेषु मया नियन्तृत्वेन चिन्त्यः असि।
।।10.17।।किमर्थं विभूतीः श्रोतुमिच्छसीत्याशङ्क्य ध्यानसौकर्यप्रकारप्रश्नेन फलं कथयति -- कथमिति। योगो नामैश्वर्यं तदस्यास्तीति योगी हे योगिन्? अहं स्थविष्ठमतिस्त्वां केन प्रकारेण सततमनुसंदधानो विशुद्धबुद्धिर्भूत्वा निरुपाधिकं त्वां विजानीयामिति प्रश्नः। प्रश्नान्तरं प्रस्तौति -- केषु केष्विति। चेतनाचेतनभेदादुपाधिबहुत्वाच्च बहुवचनम्।
।।10.17 -- 10.18।।किमर्थं तत्प्रकाशनं इत्यपेक्षायामाह -- कथं विद्यामिति। अहं त्वया योगी विधीये तस्य च चिन्तनं युक्तमेवेति। केषुकेषूभयविधेषु भावेषु मया चिन्त्योऽसि।योगिन् इति पाठे तद्वत्त्वात्तव योगमपि कथमहं विद्यामिति प्रश्न उपलभ्यते। ततो विस्तरेणेति समस्तप्रश्नस्फोरणं विभूतिं योगं चेति। यद्यपि पूर्वं त्वयोक्ता विभूतिस्तथ पि सङ्क्षेपेणेत्यधुना विस्तरेण वदेति पृच्छति।
।।10.17।।किं प्रयोजनं तत्कथनस्य तदाह द्वाभ्याम् -- योगो निरतिशयैश्वर्यादिशक्तिः सोऽस्यास्तीति हे योगिन्निरतिशयैश्वर्यादिशक्तिशालिन्? अहमतिस्थूलमतिस्त्वां देवादिभिरपि ज्ञातुमशक्यं कथं विद्यां जानीयाम्। सदा परिचिन्तयन्सर्वदा ध्यायन्। ननु मद्विभूतिषु मां ध्यायन्? ज्ञास्यसि तत्राह -- केषु केषु च भावेषु चेतनाचेतनात्मकेषु वस्तुषु त्वद्विभूतिभूतेषु मया चिन्त्योऽसि हे भगवन्।
।।10.17।।कथनप्रयोजनं दर्शयन्प्रार्थयते -- कथमिति द्वाभ्याम्। हे योगिन्? कथं कैर्विभूतिभेदैः सदा परिचिन्तयन्नहं त्वां विद्यां जानीयाम्। विभूतिभेदेन चिन्त्योऽपि त्वं केषु केषु पदार्थेषु मया चिन्तनीयोऽसि।
।।10.17।।योगिशब्दः प्रकरणविशेषात्त्वां सदा परिचिन्तयन् इत्यादेः सामर्थ्याच्च योगिविशेषविषय इत्याह -- भक्तियोगनिष्ठः सन्निति। सन्नित्यनेन निष्पन्नयोगिपरत्वमपि व्यावर्तितम्। अत्रयोगिन् इति परेषां पाठोऽनार्षः।सदा इतिविशेषणसामर्थ्यात्भक्त्येति सिद्धम्। वेदनात्पूर्वं चिन्तनाशक्तेः?कथं विद्याम् इत्यस्य चिन्तनहेतुत्वात्लक्षणहेत्वोः क्रियायाः [अष्टा.3।2।126] इति शतुरनुशासनाच्चचिन्तयितुं प्रवृत्त इत्युक्तम्।त्वाम् इति धर्मिविशेषस्य प्रतिपन्नत्वात्प्रकारविशेषेषु बुभुत्सेति ज्ञापनायोक्तंपरिपूर्णेत्यादि। प्रश्नो ह्यज्ञातविशेषज्ञापनार्थ इत्यभि सन्धायोक्तं -- पूर्वोक्तेत्यादि।भावेषु इति सप्तम्यभिप्रेतोक्तिः? प्रकृतानुकर्षणं वा, -- नियन्तृत्वेनेति।
।।10.17।।कथनप्रयोजनमाह -- कथमिति। हे योगिन् सर्वव्यापक सर्वकरणसमर्थ अहं प्रकटरूपमानन्दमयं त्वां सदा परिचिन्तयन् परितो बाह्याभ्यन्तरभेदेन चिन्तयन् विभूतीः कथ विद्यां जानामीत्यर्थः।अत्रायं भावः -- साक्षाद्भगवच्चिन्तने विभूतिज्ञाने तत्र मनोनिवेशने चिन्तनविच्छेदो भविष्यतीति कथं जानामि ननु तर्हि प्रश्नः किमर्थं इत्याशङ्क्य यत्पूर्वमुक्तम्एतां विभूतिं [10।7] इत्यारभ्ययेन मामुपयान्ति ते [10।7] इत्यन्तं तेन त्वत्प्राप्त्यर्थं पृच्छामि? तत्रापि स्वाधिकारानुसारेण यत्स्वस्यावश्यकं तत्कथयेति विज्ञापयति -- केष्विति। केषु लोकेषु? च पुनः केषु भावेषु पदार्थेषु भगवन् षड्गुणैश्वर्य पूर्णगुणैः सर्वव्यापक मया चिन्तनीयोऽसि।
।।10.17।।योग ऐश्वर्यं तद्वन् हे योगिन्? त्वां कथं चर्मचक्षुषा विद्यां न कथमपीति विश्वरूपदर्शनस्य दौर्लभ्यं मन्वानः कतिपयेष्वेव स्थानेषु भगवन्तं चिन्तयिष्यामि विश्वरूपदर्शनेऽधिकारसिद्ध्यर्थमित्याशयेनाह -- केष्विति।
।।10.17।।हे योगन्? अहं स्थूलबुद्धिस्त्वां केन प्रकारेण परि समन्ताच्चिन्तयन् सूक्ष्मबुद्धिर्भूत्वा जानीयाम्। अघटितघटनं योगस्तद्वान् त्वम्। मामपि त्वां ज्ञातुमयोग्यं योग्यं कर्तुमर्हसीति संबोधनाशयः। केषुकेषु च भावेषु पदार्थेषु मया ध्येयोऽसि तत्तत्पदार्थेषु स्वैश्वर्यादिमत्पदार्थ वदेति द्योतयन्नाह -- हे भगवन्निति।
10.17 कथम् how? विद्याम् shall know? अहम् I? योगिन् O Yogin? त्वाम् Thee? सदा always? परिचिन्तयन् meditating? केषु केषु in what and what? च and? भावेषु aspects? चिन्त्यः to be thought of? असि (Thou) art? भगवन् O blessed Lord? मया by me.Commentary Arjuna says O Lord? how may I know Thee by constant meditation In what aspects art Thou to be thought of by me Even when I think of external objects I can meditate on Thee in Thy particular manifestations in them if I have a detailed knowledge of Thy glories. Therefore deign to tell me? without reserve? of Thy own glories. Then only can I behold oneness everywhere.
10.17 How shall I, ever meditating, know Thee, O Yogin? In what aspects or things, O blessed Lord, art Thou to be thought of by me?
10.17 O Master! How shall I, by constant meditation, know Thee? My Lord! What are Thy various manifestations through which I am to mediate on Thee?
10.17 O Yogi, [Here yoga stands for the results of yoga, viz omniscience, omnipotence, etc.; one possessed of these is a yogi. (See Comm. on 10.7)] how shall I know You by remaining ever-engaged in meditation? And through what objects, O Lord, are You to be meditated on by me?
10.17 O Yogi, katham, how; aham vidyam, shall I know tvam, You; sada pari-cintayan, by remaining ever-engaged in meditation? Ca, and; kesu kesu bhavesu, through what objects; bhagvan, O Lord; cintah asi, are You to be meditated on; maya, by me?
10.17. O Mighty Yogin ! How should I know You, meditating on You ? In what several entities, O Bhagavat, are You to be contemplated upon by me ?
10.17 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
10.17 I, 'Your devotee' (Yogin), namely, one engaged in Bhakti Yoga, and 'constantly meditating on You' with devotion, namely, embarked on meditation on You, - how am I to know You, the object of meditation, as possessing a multitude of auspicious attributes like sovereignty etc.? And in what varied modes of mental dispositions, which are as yet untold and which are different from the intelligence, knowledge etc., described earlier, are You the Controller of all, to be meditated upon by me.
10.17 How can I, Your devotee, know You by constantly meditating on You? And in what modes, O Lord, are you to be meditated upon by Me.
।।10.17।।हे योगिन् आपका सदा चिन्तन करता हुआ मैं आपको किस प्रकार जानूँ हे भगवन् आप किनकिन भावोंमें अर्थात् वस्तुओंमें मेरे द्वारा चिन्तन किये जानेयोग्य हैं।
।।10.17।। --,कथं विद्यां विजानीयाम् अहं हे योगिन् त्वां सदा परिचिन्तयन्। केषु केषु च भावेषु वस्तुषु चिन्त्यः असि ध्येयः असि भगवन् मया।।
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कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्। केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।10.17।।
কথং বিদ্যামহং যোগিংস্ত্বাং সদা পরিচিন্তযন্৷ কেষু কেষু চ ভাবেষু চিন্ত্যোসি ভগবন্মযা৷৷10.17৷৷
কথং বিদ্যামহং যোগিংস্ত্বাং সদা পরিচিন্তযন্৷ কেষু কেষু চ ভাবেষু চিন্ত্যোসি ভগবন্মযা৷৷10.17৷৷
કથં વિદ્યામહં યોગિંસ્ત્વાં સદા પરિચિન્તયન્। કેષુ કેષુ ચ ભાવેષુ ચિન્ત્યોસિ ભગવન્મયા।।10.17।।
ਕਥਂ ਵਿਦ੍ਯਾਮਹਂ ਯੋਗਿਂਸ੍ਤ੍ਵਾਂ ਸਦਾ ਪਰਿਚਿਨ੍ਤਯਨ੍। ਕੇਸ਼ੁ ਕੇਸ਼ੁ ਚ ਭਾਵੇਸ਼ੁ ਚਿਨ੍ਤ੍ਯੋਸਿ ਭਗਵਨ੍ਮਯਾ।।10.17।।
ಕಥಂ ವಿದ್ಯಾಮಹಂ ಯೋಗಿಂಸ್ತ್ವಾಂ ಸದಾ ಪರಿಚಿನ್ತಯನ್. ಕೇಷು ಕೇಷು ಚ ಭಾವೇಷು ಚಿನ್ತ್ಯೋಸಿ ಭಗವನ್ಮಯಾ৷৷10.17৷৷
കഥം വിദ്യാമഹം യോഗിംസ്ത്വാം സദാ പരിചിന്തയന്. കേഷു കേഷു ച ഭാവേഷു ചിന്ത്യോസി ഭഗവന്മയാ৷৷10.17৷৷
କଥଂ ବିଦ୍ଯାମହଂ ଯୋଗିଂସ୍ତ୍ବାଂ ସଦା ପରିଚିନ୍ତଯନ୍| କେଷୁ କେଷୁ ଚ ଭାବେଷୁ ଚିନ୍ତ୍ଯୋସି ଭଗବନ୍ମଯା||10.17||
kathaṅ vidyāmahaṅ yōgiṅstvāṅ sadā paricintayan. kēṣu kēṣu ca bhāvēṣu cintyō.si bhagavanmayā৷৷10.17৷৷
கதஂ வித்யாமஹஂ யோகிஂஸ்த்வாஂ ஸதா பரிசிந்தயந். கேஷு கேஷு ச பாவேஷு சிந்த்யோஸி பகவந்மயா৷৷10.17৷৷
కథం విద్యామహం యోగింస్త్వాం సదా పరిచిన్తయన్. కేషు కేషు చ భావేషు చిన్త్యోసి భగవన్మయా৷৷10.17৷৷
10.18
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।।10.18।। हे जनार्दन ! आप अपने योग (सामर्थ्य) को और विभूतियोंको विस्तारसे फिर कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।
।।10.18।। हे जनार्दन ! अपनी योग शक्ति और विभूति को पुन: विस्तारपूर्वक कहिए, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं होती।।
।।10.18।। दर्शनशास्त्र के तथा अन्य किसी विषय के विद्यार्थी में भी? सर्वप्रथम प्रखर जिज्ञासा का होना अत्यावश्यक है। विषय को जानने और समझने की इस जिज्ञासा के बिना कोई भी ज्ञान दृढ़ नहीं होता है और न विद्यार्थी के लिए वह लाभदायक ही हो सकता है। आत्मविकास के आध्यात्मिक ज्ञान में यह बात विशेष रूप से लागू होती है क्योंकि अन्य ज्ञानों के समान? न केवल इसे ग्रहण और धारण ही ऋ़रना है? वरन् यह आत्मज्ञान होने पर उसे अपने जीवन में दृढ़ता से जीना भी होता है। इसलिए श्रवण की इच्छा को एक श्रेष्ठ और आदर्श गुण माना गया है? जो वेदान्त के उत्तम अधिकारी के लिए अनिवार्य है। इस गुण के होने से ज्ञानमार्ग में प्रगति तीव्र गति से होती है।पाण्डुपुत्र अर्जुन इस श्रेष्ठ गुण से सम्पन्न था जो कि उसके इस कथन से स्पष्ट होता है कि आपके अमृतमय वचनों को सुनकर मेरी तृप्ति नहीं होती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वेदान्त का शुद्धिकारी प्रभाव रुचिपूर्वक श्रवण करने वाले सभी बुद्धिमान विद्यार्थियों पर पड़ता है। एक सच्चे ज्ञानी गुरु के मुख से आत्मतत्त्व का उपदेश सुनकर प्रारम्भ में शिष्य को होने वाला आनन्द क्षणिक उल्लास ही देता है? जो स्थिर नहीं रह पाता। जब वह शिष्य प्रवचन के बाद अकेला रह जाता है? तब उसका मन पुन अनेक कारणों से अशान्त हो सकता है। और फिर भी? कितना ही क्षणिक आनन्द क्यों न हो? उसमें अर्जुन के समान नवदीक्षित विद्यार्थियों को आकर्षित करने की सार्मथ्य होती है? जिसके कारण उनकी उस विषय के प्रति रुचि एक व्यसन के समान बढ़ती ही जाती है। वेदान्त प्रवचनों के श्रवणार्थ इस अधिकाधिक अभिरुचि को यहाँ स्पष्ट दर्शाया गया है। यद्यपि यह साधना है? साध्य नहीं? तथापि? निसन्देह यह एक शुभ प्रारम्भ है। जिन लोगों को तत्त्वज्ञान के बौद्धिक अध्ययन से ही सन्तोष का अनुभव होता हो? वे भी निश्चय ही उन सहस्रों लोगों से श्रेष्ठतर हैं? जो दिव्य आत्मस्वरूप को दर्शाने वाले एक भी आध्यात्मिक प्रवचन को नहीं सुन सकते? या सह नहीं सकतेएक अथक धर्म प्रचारक के रूप में भगवान् श्रीकृष्ण अत्यन्त धैर्य के साथ? अर्जुन से कहते हैं
।।10.18।। व्याख्या--'विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन'--भगवान्ने सातवें और नवें अध्यायमें ज्ञानविज्ञानका विषय खूब कह दिया। इतना कहनेपर भी उनकी तृप्ति नहीं हुई, इसलिये दसवाँ अध्याय अपनी ओरसे ही कहना शुरू कर दिया। भगवान्ने दसवाँ अध्याय आरम्भ करते हुए कहा कि 'तू फिर मेरे परम वचनको सुन।'
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।।10.18।।अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते (गीता 10।8) इति संक्षेपेण उक्तं तव स्रष्टृत्वादियोगं विभूतिं नियमनं च भूयः विस्तरेण कथय। त्वया उच्यमानं त्वन्माहात्म्यामृतं श्रृण्वतो मे तृप्तिः न अस्ति हि -- मम अतृप्तिः त्वया एव विदिता इति अभिप्रायः।
।।10.18।।प्रकृतं प्रश्नमुपसंहरति -- विस्तरेणेति। अर्दतेर्गतिकर्मणो जनार्दनेति रूपम्? तद्व्युत्पादयति -- असुराणामिति। प्रकारान्तरेण शब्दार्थं व्युत्पादयति -- अभ्युदयेति। ननु पूर्वमेव सप्तमे नवमे च विभूतिरैश्वर्यं चेश्वरस्य दर्शितं तत्किमिति श्रोतुमिष्यते तत्राह -- भूय इति। अमृतममृतप्रख्यमित्यर्थः।
।।10.17 -- 10.18।।किमर्थं तत्प्रकाशनं इत्यपेक्षायामाह -- कथं विद्यामिति। अहं त्वया योगी विधीये तस्य च चिन्तनं युक्तमेवेति। केषुकेषूभयविधेषु भावेषु मया चिन्त्योऽसि।योगिन् इति पाठे तद्वत्त्वात्तव योगमपि कथमहं विद्यामिति प्रश्न उपलभ्यते। ततो विस्तरेणेति समस्तप्रश्नस्फोरणं विभूतिं योगं चेति। यद्यपि पूर्वं त्वयोक्ता विभूतिस्तथ पि सङ्क्षेपेणेत्यधुना विस्तरेण वदेति पृच्छति।
।।10.18।।अतः आत्मनस्तव योगं सर्वज्ञत्वसर्वशक्तित्वादिलक्षणमैश्वर्यातिशयं विभूतिं च ध्यानालम्बनं विस्तरेण,संक्षेपेण सप्तमे नवमे चोक्तमपि भूयः पुनः कथय। सर्वैर्जनैरभ्युदयनिःश्रेयसप्रयोजनं याच्यस इति हे जनार्दन? अतो ममापि याञ्चा त्वय्युचितैव। उक्तस्य पुनः कथनं कुतो याचसे तत्राह -- तृप्तिरलंप्रत्ययेनेच्छाविच्छित्तिर्नास्ति। हि यस्माच्छृण्वतः श्रवणेन पिबतस्त्वद्वाक्यामृतममृतवत्पदे पदे स्वादु स्वादु। अत्र त्वद्वाक्यमित्यनुक्तेरपह्नुत्यतिशयोक्तिरूपकसंकरोऽयं माधुर्यातिशयानुभवेनोत्कण्ठातिशयं व्यनक्ति।
।।10.18।।तदेवं बहिर्मुखेऽपि चित्ते तत्र तत्र विभूतिभेदेन त्वच्चिन्तैव यथा भवेत्तथा विस्तरेण कथयेत्याह -- विस्तरेणेति। आत्मनस्तव योगं सर्वज्ञत्वसर्वशक्तित्वादिलक्षणं योगैश्वर्यं विभूतिं च विस्तरेण पुनः कथय। हि यस्मात्त्वद्वाक्यममृतरूपं शृण्वतो मम तृप्तिरलंबुद्धिर्नास्ति।
।।10.18।।प्रतिकूलजनानां नरकादिगमयितृत्वात् अनुकूलजनैः स्वाभिलषितं याच्यमानत्वाद्वा जनार्दनः। विस्तरबुभुत्साहेतुज्ञापनार्थं योगशब्दविवक्षितव्यक्त्यर्थं च भूयश्शब्दफलितमाह -- अहं सर्वस्येति। अमृतशब्दोऽत्रातृप्तिसमभिव्याहारान्माहात्म्ये भोग्यत्वपरः। भोग्यतमत्वायोक्तंत्वयोच्यमानमिति। त्वन्मुखचन्द्रनिस्सृतमिति भावः। हिशब्दाभिप्रेतं विवृणोति -- ममेति।
।।10.18।।यच्चिन्तनात् त्वां प्राप्नोमि याथातथ्येन जानामि तादृशमात्मनो योगं पदार्थेषु क्रीडात्मकं योगम्। च पुनः। तादृशीमेव विभूतिं हे जनार्दन सर्वाविद्यानाशक पूर्वं सङ्क्षेपकथितामपि भूयो विस्तारेण कथय। हि यस्मात् अमृतं मोक्षात्मकं मरणनिवर्तकमानन्दरूपं त्वद्वाक्यं शृण्वतो मे तृप्तिः अलम्भावो न भवतीत्यर्थः।
।।10.18।।योगं वैश्वरूप्यम्। विभूतिं ध्यानालम्बनम्। अमृतं अमृतस्य मोक्षस्य साधनम्।
।।10.18।।ननु सप्तमे नवमे च विभूतिरैश्यवर्य च दर्शितं तत्किमिति पुनः पृच्छसि तत्राह -- विस्तरेणेति। स्वस्य योगैश्वर्यशक्तिविशेषं विभूतिं च पूर्वोक्तमपि योगादि भूयो विस्तरेण कथय। हे जनार्दन देवशत्रुजनानां असुराणां प्राणवियोगनरकादिगमयितृत्वातं। तथा चास्मच्छत्रुजनानां रोगद्वेषादीनां नाशनाय ध्येयोगविभूति कथनं तव नामानुरुपत्वाद्योग्यमित्याशयः। यद्वाभ्युदयनिःश्रेयसपुरुषार्थप्रयोजनं सर्वैजनैर्याच्यते इति तथा संबोधयन् ममापि याञ्चा त्वयि युक्तेवेति सूचयति। हि यस्मात्तव वाक्याभृतं श्रृण्वतो मम तृप्तिर्नास्ति। नीरसत्वप्रयुक्ततृप्तिव्यावृत्तयेऽमृतमित्युक्तम्। रसाज्ञानप्रयुक्ततृप्तिव्यावर्तनाय मे लसज्ञस्येत्युक्तम्। उदरे पूर्णेऽभृतेऽप्यलंबुद्धिर्भवतीति तद्य्ववच्छेदाय श्रृण्वत इत्युक्तम्। आकाशात्मकस्य श्रोत्रस्य शब्देन गुणे पूर्णताया असंभवात्तृप्तिर्नास्तीति।
10.18 विस्तरेण in detial? आत्मनः Thy? योगम् Yoga? विभूतिम् glory? च and? जनार्दन O Janardana? भूयः again? कथय tell? तृप्तिः contentment? हि for? श्रृण्वतः (of) hearing? न not? अस्ति is? मे of me? अमृतम् nectar.Commentary The Lord is called Janardana because all pray to Him for worldly success? prosperity and also salvation. Arjuna also prays to the Lord to explain His Yogic power and glory? for his salvation.Arjuna says to Lord Krishna Tell me in detail of Thy mysterious power (Yoga) and sovereignty (Aisvarya) and the various things to be meditated upon. Tell me again though You have described earlier in the seventh and the ninth chapters succinctly for there is no satiety in hearing Thy ambrosial speech or nectarlike conversation. However much of it I hear? I am not satisfied surely it is nectar of immortality for me.
10.18 Tell me again in detail, O Krishna, of Thy Yogic power and glory; for I am not satiated with what I have heard of Thy life-giving and nectar-like speech.
10.18 Tell me again, I pray, about the fullness of Thy power and Thy glory; for I feel that I am never satisfied when I listen to Thy immortal words.
10.18 O Janardana, narrate to me again [In addition to what has been said in the seventh and ninth chapters.] Your onw yoga and (divine) manifestations elaborately. For, while hearing (Your) nectar-like (words), there is no satiety in me.
10.18 O Janardana: ardana is derived from ard, in the sense of the act of going; by virtue of making the janas, the demons who are opposed to the gods, go to hell etc. He is called Jana-ardana. Or, He is called so because He is prayed to [The verbal root ard has got a second meaning, 'to pray'.] by all beings for the sake of human goals, viz prosperity and Liberation. Kathaya, narrate to me; bhuyah, again, though spoken of earlier; atmanah, Your own; yogam, yoga-the special ability in the form of mystic powers; and vibhutaim, the (divine) manifestations-the variety of the objects of meditation; vistarena, elaborately. Hi, for; srnvatah, while hearing; (Your) amrtam, nectar-like speech issuing out of Your mouth; na asti, there is no; trptih, satiety; me, in me.
10.18. In detail, please expound, once again Your own Yogic power and the manifesting power. O Janardana ! I don't feel contended in hearing Your nectar-[like exposition].
10.18 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
10.18 Speak to me again in full, your association with the alities of being the creator etc., and Your sovereignty, Your rulership, which have been briefly described in 'I am the origin of all; from Me proceed everything' (10.8). For I am not satiated by hearing Your ambrosial words. The meaning is, 'My enthusiasm to know more and more of your ambrosial teachings is known to You.'
10.18 Speak to me again in full, O Krsna, about Your attributes and glories. For I am not satiated by hearing Your ambrosial words.
।।10.18।।हे जनार्दन अपने योगको -- अपनी योगैश्वर्यरूप विशेष शक्तिको और विभूतिको यानी चिन्तन करनेयोग्य पदार्थोंके विस्तारको? विस्तारपूर्वक कहिये। गमन जिसका कर्म है ऐसी अर्द धातुका रूप जनार्दन है। असुरोंको यानी देवोंके प्रतिपक्षी मनुष्योंको नरकादिमें भेजनेवाले होनेसे भगवान्का नाम जनार्दन है। अथवा उन्नति और कल्याण -- ये दोनों पुरुषार्थरूप प्रयोजन सब लोगोंके द्वारा भगवान्से माँगे जाते हैं? इसलिये भगवान्का नाम जनार्दन है -- यद्यपि आप पहले कह चुके हैं तो भी फिर कहिये क्योंकि आपके मुखसे निकले हुए वाक्यरूप अमृतको सुनतेसुनते मुझे तृप्ति नहीं होती है -- संतोष नहीं होता है।
।।10.18।। --,विस्तरेण आत्मनः योगं योगैश्वर्यशक्तिविशेषं विभूतिं च विस्तरं ध्येयपदार्थानां हे जनार्दन? अर्दतेः गतिकर्मणः रूपम्? असुराणां देवप्रतिपक्षभूतानां जनानां नरकादिगमयितृत्वात् जनार्दनः अभ्युदयनिःश्रेयसपुरुषार्थप्रयोजनं सर्वैः जनैः याच्यते इति वा। भूयः पूर्वम् उक्तमपि कथय तृप्तिः परितोषः हि यस्मात् नास्ति मे मम शृण्वतः त्वन्मुखनिःसृतवाक्यामृतम्।।श्रीभगवानुवाच --,
।।10.18।।अर्द गतौ याचने च [धा.पा.1।55] इति वचनात् आसुरजनानां नरकादिगमयितृत्वाज्जनैर्याच्यत्वाद्वा जनार्दन इति शङ्करः? तदप्रामाणिकं व्याख्यानम्। इदं तु श्रौतत्वादुपादेयमिति भावेनाह -- न जायत इति। नञः परनिपातः। अत एव नलोपाभावः उत्तरपदे तस्य स्मरणात् अर्दयति गमयति। स ह्यासीदिति। भूतः। अनादितः सत्तावानित्यर्थः। स नासीन्न स जन्मवान्सोऽर्दयतीति जनार्दनः।
।।10.18।।न जायतेऽर्दयति च संसारमिति जनार्दनः। तथा च बाभ्रव्यशाखायाम् -- स भूतः स जनार्दनः इति। स ह्यासीत्स नासीत्सोऽर्दयत् इति।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।।10.18।।
বিস্তরেণাত্মনো যোগং বিভূতিং চ জনার্দন৷ ভূযঃ কথয তৃপ্তির্হি শ্রৃণ্বতো নাস্তি মেমৃতম্৷৷10.18৷৷
বিস্তরেণাত্মনো যোগং বিভূতিং চ জনার্দন৷ ভূযঃ কথয তৃপ্তির্হি শ্রৃণ্বতো নাস্তি মেমৃতম্৷৷10.18৷৷
વિસ્તરેણાત્મનો યોગં વિભૂતિં ચ જનાર્દન। ભૂયઃ કથય તૃપ્તિર્હિ શ્રૃણ્વતો નાસ્તિ મેમૃતમ્।।10.18।।
ਵਿਸ੍ਤਰੇਣਾਤ੍ਮਨੋ ਯੋਗਂ ਵਿਭੂਤਿਂ ਚ ਜਨਾਰ੍ਦਨ। ਭੂਯ ਕਥਯ ਤਰਿਪ੍ਤਿਰ੍ਹਿ ਸ਼੍ਰਰਿਣ੍ਵਤੋ ਨਾਸ੍ਤਿ ਮੇਮਰਿਤਮ੍।।10.18।।
ವಿಸ್ತರೇಣಾತ್ಮನೋ ಯೋಗಂ ವಿಭೂತಿಂ ಚ ಜನಾರ್ದನ. ಭೂಯಃ ಕಥಯ ತೃಪ್ತಿರ್ಹಿ ಶ್ರೃಣ್ವತೋ ನಾಸ್ತಿ ಮೇಮೃತಮ್৷৷10.18৷৷
വിസ്തരേണാത്മനോ യോഗം വിഭൂതിം ച ജനാര്ദന. ഭൂയഃ കഥയ തൃപ്തിര്ഹി ശ്രൃണ്വതോ നാസ്തി മേമൃതമ്৷৷10.18৷৷
ବିସ୍ତରେଣାତ୍ମନୋ ଯୋଗଂ ବିଭୂତିଂ ଚ ଜନାର୍ଦନ| ଭୂଯଃ କଥଯ ତୃପ୍ତିର୍ହି ଶ୍ରୃଣ୍ବତୋ ନାସ୍ତି ମେମୃତମ୍||10.18||
vistarēṇātmanō yōgaṅ vibhūtiṅ ca janārdana. bhūyaḥ kathaya tṛptirhi śrṛṇvatō nāsti mē.mṛtam৷৷10.18৷৷
விஸ்தரேணாத்மநோ யோகஂ விபூதிஂ ச ஜநார்தந. பூயஃ கதய தரிப்திர்ஹி ஷ்ரரிண்வதோ நாஸ்தி மேமரிதம்৷৷10.18৷৷
విస్తరేణాత్మనో యోగం విభూతిం చ జనార్దన. భూయః కథయ తృప్తిర్హి శ్రృణ్వతో నాస్తి మేమృతమ్৷৷10.18৷৷
10.19
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।।10.19।। श्रीभगवान् बोले -- हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियोंको तेरे लिये प्रधानतासे (संक्षेपसे) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ ! मेरी विभूतियोंके विस्तारका अन्त नहीं है।
।।10.19।। श्रीभगवान् ने कहा -हन्त अब मैं तुम्हें अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानता से कहूँगा। हे कुरुश्रेष्ठ मेरे विस्तार का अन्त नहीं है।।
।।10.19।। प्रस्तुत अध्याय को बृहत् आकार देने वाला भगवान् श्रीकृष्ण का यह विस्तृत एवं व्याख्यापूर्ण उत्तर? एकएक वस्तु और व्यक्ति में तथा उनके समूह में आत्मा की वास्तविक पहचान का वर्णन करता है। यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि अपनी विभूति और योग का वर्णन करते समय भगवान् श्रीकृष्ण निम्नलिखित दो बातों को बताने का विशेष ध्यान रखते हैं। (क) प्रत्येक वस्तु में अपना सर्वोच्च महत्त्व? (ख) उनके बिना किसी भी एक वस्तु या समूह का सामञ्जस्यपूर्ण अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता।इस खण्ड का प्रारम्भ जिस हन्त शब्द से होता है? वह अर्जुन के प्रति गीताचार्य के प्रेमपूर्ण सहानुभूति को दर्शाता है? तथा उससे अर्जुन में प्रतीत होने वाली अक्षमता के प्रति भगवान् की चिन्ता भी व्यक्त होती है? क्योंकि उस अक्षमता के कारण वह उस तत्त्व को नहीं अनुभव कर पा रहा था जो उसके अत्यन्त समीप है? उसका स्वरूप ही है। हन्त शब्द को इस खण्ड के प्रारम्भ का केवल सूचक मानने में उसमें निहित गूढ़ अभिप्राय का लोप हो जाने के कारण वह अर्थ स्वीकार्य नहीं हो सकता।समष्टि और व्यष्टि उपाधियों के द्वारा इस बहुविध सृष्टि के रूप में व्यक्त हुए आत्मा के विस्तार का अन्त नहीं हो सकता। इसलिए उसका वर्णन करना असंभव है? तथापि करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण अपने शरणागत् शिष्य अर्जुन के प्रति अपनी असीम अनुकम्पा के कारण इस असंभव कार्य को अपने हाथ में लेते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि उनके विस्तार का कोई अन्त नहीं है फिर भी वे अर्जुन को अपनी प्रधान विभूतियाँ बतायेंगे।भौतिक जगत् में यह एक अनुभूत सत्य है कि सूर्यप्रकाश सभी वस्तुओं की सतह पर से परावर्तित होता है चाहे वह पाषाण हो या दर्पण किन्तु दर्पण में उसका प्रतिबिम्ब या परावर्तन अधिक स्पष्ट और तेजस्वी होता है। भगवान् वचन देते हैं कि वे ऐसे दृष्टान्त देंगे जिनमें दिव्यता की अभिव्यक्ति के साक्षात् दर्शन हो सकते हैं।परन्तु? उन विभूतियों के वर्णन में प्रवेश करने के पूर्व एक मूलभूत सत्य को बताते हैं
।।10.19।। व्याख्या--'हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः'--योग और विभूति कहनेके लिये अर्जुनकी जो प्रार्थना है, उसको 'हन्त' अव्ययसे स्वीकार करते हुए भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी दिव्य, अलौकिक, विलक्षण विभूतियोंको तेरे लिये कहूँगा (योगकी बात भगवान्ने आगे इकतालीसवें श्लोकमें कही है)।'दिव्याः' कहनेका तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना आदिमें जो कुछ भी विशेषता दीखती है, वह,वस्तुतः भगवान्की ही है। इसलिये उसको भगवान्की ही देखना दिव्यता है और वस्तु, व्यक्ति आदिकी देखना अदिव्यता अर्थात् लौकिकता है। 'प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे'-- जब अर्जुनने कहा कि भगवन्! आप अपनी विभूतियोंको विस्तारसे, पूरी-की-पूरी कह दें, तब भगवान् कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियोंको संक्षेपसे कहूँगा; क्योंकी मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है। पर आगे ग्यारहवें अध्यायमें जब अर्जुन बड़े संकोचसे कहते हैं कि मैं आपका विश्वरूप देखना चाहता हूँ; अगर मेरे द्वारा वह रूप देखा जाना शक्य है तो दिखा दीजिये, तब भगवान् कहते हैं --'पश्य मे पार्थ रूपाणि' (11। 5) अर्थात् तू मेरे रूपोंको देख ले। रूपोंमें कितने रूप? क्या दो-चार? नहीं-नहीं, सैकड़ों-हजारों रूपोंको देख! इस प्रकार यहाँ अर्जुनकी विस्तारसे विभूतियाँ कहनेकी प्रार्थना सुनकर भगवान् संक्षेपसे विभूतियाँ सुननेके लिये कहते हैं और वहाँ अर्जुनकी एक रूप दिखानेकी प्रार्थना सुनकर भगवान् सैकड़ों-हजारों रूप देखनेके लिये कहते हैं!
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.19।।श्रीभगवानुवाच -- हे कुरुश्रेष्ठ मदीयाः कल्याणीः विभूतीः प्राधान्यतः ते कथयिष्यामि। प्राधान्यशब्देन उत्कर्षो विवक्षितः?पुरोधसां च मुख्यं माम् (गीता 10।24) इति हि वक्ष्यते। जगति उत्कृष्टाः काश्चन विभूतीः वक्ष्यामि? विस्तरेण वक्तुं श्रोतुं च न शक्यते? तासाम् आनन्त्यात्। विभूतित्वं नाम नियाम्यत्वम्? सर्वेषां भूतानां बुद्ध्यादयः पृथग्विधा भावा मत्त एव भवन्ति इति उक्त्वाएतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। (गीता 10।7) इति प्रतिपादनात्। तथा तत्र योगशब्दनिर्दिष्टं स्रष्टृत्वादिकं विभूतिशब्दनिर्दिष्टं तत्प्रवर्त्यत्वम् इति युक्तम्। पुनश्चअहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।। (गीता 10।8) इति उक्तम्।तत्र सर्वभूतानां प्रवर्तनरूपं नियमनम् आत्मतया अवस्थाय इति इमम् अर्थं योगशब्दनिर्दिष्टं सर्वस्य स्रष्टृत्वं पालयितृत्वं संहर्तृत्वं च इति सुस्पष्टम् आह --
।।10.19।।प्रष्टारं विश्रम्भयितुं भगवानुक्तवानित्याह -- श्रीभगवानिति। हन्तेत्यनुमतिं व्यावर्त्य जिज्ञासावच्छिन्नं कालं दर्शयति -- इदानीमिति। दिवि भवत्वमप्राकृतत्वमस्मदगोचरत्वम्। वाक्यान्वयं द्योतयति -- यास्ता इति। सर्वविभूतीनां वक्तव्यत्वप्राप्तावुक्तम् -- यत्रेति। किमित्यनवशेषतो विभूतयो नोच्यन्ते तत्राह -- अशेषतस्त्विति। तत्र हेतुर्यत इति।
।।10.19।।एवं प्रार्थितः श्रीभगवानुवाच -- हन्तेति। अनुकम्पा सम्बोधने। या दिव्या ममात्मविभूतयस्ता वक्ष्यामि। तत्रापि प्राधान्यतः? न तु सामस्त्येन अनन्तत्वात्तदाह -- नास्त्यन्त इति। विभूतिर्हि विविधतया स्वांशरूपेण प्रकृतौ भूतिराविर्भूतिः केनचिद्विशेषेण युक्ता सर्वत्र सत्ता वा स्वस्य विविधा सर्वेषां नियम्यत्त्वोक्त्या स्वांशत्वकथनमभिप्रेतम्। एवं च सर्वस्य विभूतिरूपत्वे प्राधान्यतो विभूतय इहोच्यन्ते।पुरोधसां च मुख्यं मां [10।24] इति रीत्या मुख्यभावो ज्ञेयः। एवमपि भगवानव्ययोऽचिन्त्यैश्वर्यादिधर्मकत्वादिति योगः स च तदन्ते वक्ष्यतेविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् [10।42] इति।
।।10.19।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच -- हन्तेत्यनुमतौ। यत्त्वया प्रार्थितं तत्करिष्यामि मा व्याकुलोभूरित्यर्जुनं समाश्वास्य तदेव कर्तुमारभते। कथयिष्यामि प्राधान्यतस्ता विभूतीर्या दिव्या हि प्रसिद्धा आत्मनो ममासाधारणा विभूतयः हे कुरुश्रेष्ठ? विस्तरेण तु कथनमशक्यम्। यतो नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे विभूतीनां? अतः प्रधानभूताः,काश्चिदेव विभूतीर्वक्ष्यामीत्यर्थः।
।।10.19।। एवं प्रार्थितः सन् श्रीभगवानुवाच -- हन्तेति। हन्तेत्यनुकम्पासंबोधनम्। दिव्या या मम विभूतयस्ताः प्राधान्येन तुभ्यं कथयिष्यामि। यतोऽवान्तरस्य विभूतिविस्तरस्य मदीयस्यान्तो नास्त्यतः प्रधानभूताः कतिचिद्वर्णयिष्यामि।
।।10.19।।एवमतृप्त्या पृच्छन्तमर्जुनं प्रति अतिप्रसन्नो भगवांस्तस्याभिजनादिवर्णनमुखेन योग्यतां दर्शयन् विभूतेर्विस्तरेण प्रत्येकं वक्तुं श्रोतुं च अशक्यत्वात्केनचिदुपाधिविशेषेण संगृहीता विभूतीर्वक्ष्यामीत्याह -- हन्तेति। ते अनसूयत्वप्रीयमाणत्वातृप्तत्वादिगुणपूर्णायेति भावः। गुणत्वादिप्रतियोगिकशेषित्वादिप्राधान्यविवक्षायां वक्ष्यमाणसमस्तोदाहरणव्याप्त्यभावाद्गणानां च प्राधान्येन व्यपदेक्ष्यमाणत्वात्सङ्ग्राहकमर्थविशेषमाहप्राधान्यशब्देनेति। तस्यैव विवक्षितत्वं वक्ष्यमाणेन संवादयतिपुरोधसामिति। पिण्डितार्थमाहजगतीति।विस्तरेण कथय इति पृच्छन्तं प्रति प्राधान्यतः कथयिष्यामीति कथमुच्यते इति शङ्कायांनास्त्यन्तो विस्तरस्य मे इत्युच्यते। विभूतीनामिति शेषः।विभूतेर्विस्तरो मया [10।40] इति हि वक्ष्यते। नास्तिशब्दाभिप्रेतमशक्यत्वं दर्शयतिविस्तरेण वक्तृभिति। नेदं वक्तृश्रोत्रोरसामर्थ्यनिबन्धनमित्याहतासामानन्त्यादिति। तदेतदुक्तंनास्त्यन्त इति। वक्ष्यमाणेषु पदार्थेषु विभूतिशब्दप्रयोगनिमित्तमाहविभूतित्वं नामेति। नियन्तव्यवस्त्वन्तरविषयो विभूतिशब्दो विभवनकर्मपरः। अन्यत्र चब्रह्मा दक्षादयः कालःविष्णुर्मन्वादयः कालःरुद्रः कालान्तकाद्याश्चजनार्दनविभूतयः [वि.पु.1।22।3133] इत्यादिषु इति नियन्तव्येषु विभूतिशब्दो दृष्ट इति भावः। कुतः इत्यत्राह -- सर्वेषामिति। प्रस्तुतं तादधीन्यं ह्येतच्छब्देन परामृश्यत इति भावः। समनन्तरश्लोकेनापि तस्य श्लोकस्य तदर्थपरत्वं दर्शयतितथेति। नन्वस्य श्लोकस्य व्याख्याने पूर्वंसौशील्यवात्सल्यसौन्दर्यादिकल्याणगुणयोगं इत्युक्तम् इह तु योगशब्दनिर्दिष्टं स्रष्ट्टत्वादिकमुच्यते तत्कथं घटते इत्थम् -- उभयत्रोभयमप्यादिशब्देन सङ्गृहीतमित्येकार्थत्वात्। अत एव हिएतविभूतिं योगं च [10।7] इत्यत्र ममहेयप्रत्यनीककल्याणगुणगणरूपं योगं च इति प्रयोजकेन संगृहीतम्।एतां विभूतिम् इत्यादेः पूर्ववन्नियमनपरत्वेन व्याख्यानेऽपि अत्र तदुपादानं समृद्ध्याद्यर्थान्तरव्युदासेन सोपसर्गधात्वर्थव्यञ्जनार्थम्।विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च [10।18] इत्यत्र तुयाभिर्विभूतिभिः [10।16] इति तत्पूर्वप्रश्नवाक्यस्थविभूतिशब्दैकार्थ्यस्वारस्यान्नियमनार्थतोक्ता। अतः प्रश्नोत्तरपदयोरीषद्वैरूप्यं सह्यम्।
।।10.19।।एवं जिज्ञासुनाऽर्जुनेन प्रार्थित आह -- हन्तेति। स्वस्वरूपज्ञानार्थकतादृक्प्रार्थनया हन्तेति हर्षे। हे कुरुश्रेष्ठ भक्तवंशोद्भव दिव्याः क्रीडारूपा विभूतयः ते प्राधान्यतस्त्वद्योग्यास्त्वदर्थं कथयिष्यामि। ननु विस्तरेण कथं नोच्यते इत्यत आह -- नास्तीति। मे विभूतीनां विस्तरस्य अन्तो नास्ति। अतस्त्वत्पृष्टत्वाद्योग्या एव कथयिष्यामीति भावः।
।।10.19।।अत्रोत्तरं श्रीभगवानुवाच -- हन्तेति। हन्त इदानीम्। हन्तेत्यनुमतौ वा। दिव्याः पुराणान्तरेष्वपि श्रेष्ठत्वेन प्रसिद्धाः या आत्मविभूतयस्ताः कथयामीति योजना। प्राधान्यत इति। योगोपकारित्वेन विभूतय इह प्राधान्येन? योगस्तु संक्षेपेणैवोच्यते। तस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वादिति भावः। अन्यथा योगं विभूतिं च कथयेति पुष्टे विभूतिमात्रकथनेनानवहितचित्तत्वं भगवतः स्यात्। नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे विभूतिनामिति विपरिणामेनानुषञ्जनीयम्।
।।10.19।।एवं पृष्टो भगवानुवाच। हन्तेदानीं या आत्मनो विभूतयस्ताः कथियिष्यामि प्राधान्यतः। प्रधानां तां तां विभूतिमित्यर्थः। कुरुश्रेष्ठेति संबोधयन् स्वमधिकारीति सूचयति। विस्तरेण कथयेत्युक्तं तत्राह। मे विभूतीनां विस्तरस्यान्तो नास्ति।
10.19 हन्त now? very well? ते to thee? कथयिष्यामि (I) will declare? दिव्याः divine? हि indeed? आत्मविभूतयः My glories? प्राधान्यतः in their prominence? कुरुश्रेष्ठ O best of the Kurus? न not? अस्ति is? अन्तः end? विस्तरस्य of detail? मे of Me.Commentary Now I will tell you of My most prominent divine glories. My glories are illimitable it is not possible to describe all of them.
10.19 The Blessed Lord said Very well! Now I will declare to thee My divine glories in their prominence, O Arjuna; there is no end to their detailed description.
10.19 Lord Shri Krishna replied: So be it, My beloved fried! I will unfold to thee some of the chief aspects of My glory. Of its full extent there is no end.
10.19 The Blessed Lord said O best of the Kurus, now, according to their importance, I shall described to you My onw glories, which are indeed divine. There is no end to my manifestations.
10.19 Kuru-srestha, O best of the Kurus; hanta, now; since, on the other hand, it is not possible to speak exhaustively of them even in a hundred years, (there-fore) pradhanyatah, according to their importance, according as those manifestations are pre-eminent in their respective spheres; kathayisyami, I shall described; te, to you; atma-vibhutayah, My own glories; which are (hi, indeed) divyah, divine, heavenly. Na asti there is no; antah, end; me, to My; vistarasya, manifestations. 'Of those, now listen to the foremost:'
10.19. The Bhagavat said Yes. O the best among the Kurus ! I shall expound to you, only the chief auspicious manifesting powers of Mine. For, there would be no end to My details.
10.19 See Comment under 10.42
10.19 The Lord said O Arjuna, I shall tell you My auspicious manifestations - those that are prominent among these. The term 'Pradhanya' connotes pre-eminence. For it will be said, 'Know Me to be the chief among family priests' (10.24). I shall declare to you those that are prominent in the world. For it would not be possible to tell or listen to them in detail, because there is no limit to them. To be a Vibhuti, the manifestation referred to should be under the control of the Lord; because it is stated: 'He who in truth knows this supernal manifestation and the seat of auspicious attributes' (10.7), after listing the various kinds of mental dispositions like intelligence etc., of all beings. Similarly it has been stated there that 'being the creator etc.,' is meant by the term Yoga, and that their 'being actuated,' meant by the term Vibhuti. Again it is stated: 'I am the origin of all; from me proceed everything; thinking thus, the wise worship Me with all devotion' (10.8). Sri Krsna clearly declares that he rules over all creatures by actuating them from within as their Self. He also declares His being the creator, sustainer and destroyer of everything, as connected by the term Yoga.
10.19 The Lord said Indeed I shall tell you, O Arjuna, My auspicious manifestations (Vibhutis) - those that are prominent among these. There is no end to their extent.
।।10.19।।श्रीभगवान् बोले -- हे कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ अब मैं तुझे अपनी दिव्य -- देवलोकमें होनेवाली विभूतियाँ प्रधानतासे बतलाता हूँ अर्थात् मेरी जहाँजहाँपर जोजो प्रधानप्रधान विभूतियाँ हैं? उनउन प्रधान विभूतियोंका ही मैं प्रधानतासे वर्णन करता हूँ। सम्पूर्णतासे तो वे सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं कही जा सकतीं क्योंकि मेरे विस्तारका अर्थात् मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है।
।।10.19।। --,हन्त इदानीं ते तव दिव्याः दिवि भवाः आत्मविभूतयः आत्मनः मम विभूतयः याः ताः कथयिष्यामि इत्येतत्। प्राधान्यतः यत्र यत्र प्रधाना या या विभूतिः तां तां प्रधानां प्राधान्यतः कथयिष्यामि अहं कुरुश्रेष्ठ। अशेषतस्तु वर्षशतेनापि न शक्या वक्तुम्? यतः नास्ति अन्तः विस्तरस्य मे मम विभूतीनाम् इत्यर्थः।।तत्र प्रथममेव तावत् श्रृणु --,
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श्री भगवानुवाच हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः। प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।।10.19।।
শ্রী ভগবানুবাচ হন্ত তে কথযিষ্যামি দিব্যা হ্যাত্মবিভূতযঃ৷ প্রাধান্যতঃ কুরুশ্রেষ্ঠ নাস্ত্যন্তো বিস্তরস্য মে৷৷10.19৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ হন্ত তে কথযিষ্যামি দিব্যা হ্যাত্মবিভূতযঃ৷ প্রাধান্যতঃ কুরুশ্রেষ্ঠ নাস্ত্যন্তো বিস্তরস্য মে৷৷10.19৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ હન્ત તે કથયિષ્યામિ દિવ્યા હ્યાત્મવિભૂતયઃ। પ્રાધાન્યતઃ કુરુશ્રેષ્ઠ નાસ્ત્યન્તો વિસ્તરસ્ય મે।।10.19।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਹਨ੍ਤ ਤੇ ਕਥਯਿਸ਼੍ਯਾਮਿ ਦਿਵ੍ਯਾ ਹ੍ਯਾਤ੍ਮਵਿਭੂਤਯ। ਪ੍ਰਾਧਾਨ੍ਯਤ ਕੁਰੁਸ਼੍ਰੇਸ਼੍ਠ ਨਾਸ੍ਤ੍ਯਨ੍ਤੋ ਵਿਸ੍ਤਰਸ੍ਯ ਮੇ।।10.19।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಹನ್ತ ತೇ ಕಥಯಿಷ್ಯಾಮಿ ದಿವ್ಯಾ ಹ್ಯಾತ್ಮವಿಭೂತಯಃ. ಪ್ರಾಧಾನ್ಯತಃ ಕುರುಶ್ರೇಷ್ಠ ನಾಸ್ತ್ಯನ್ತೋ ವಿಸ್ತರಸ್ಯ ಮೇ৷৷10.19৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച ഹന്ത തേ കഥയിഷ്യാമി ദിവ്യാ ഹ്യാത്മവിഭൂതയഃ. പ്രാധാന്യതഃ കുരുശ്രേഷ്ഠ നാസ്ത്യന്തോ വിസ്തരസ്യ മേ৷৷10.19৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ହନ୍ତ ତେ କଥଯିଷ୍ଯାମି ଦିବ୍ଯା ହ୍ଯାତ୍ମବିଭୂତଯଃ| ପ୍ରାଧାନ୍ଯତଃ କୁରୁଶ୍ରେଷ୍ଠ ନାସ୍ତ୍ଯନ୍ତୋ ବିସ୍ତରସ୍ଯ ମେ||10.19||
śrī bhagavānuvāca hanta tē kathayiṣyāmi divyā hyātmavibhūtayaḥ. prādhānyataḥ kuruśrēṣṭha nāstyantō vistarasya mē৷৷10.19৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச ஹந்த தே கதயிஷ்யாமி திவ்யா ஹ்யாத்மவிபூதயஃ. ப்ராதாந்யதஃ குருஷ்ரேஷ்ட நாஸ்த்யந்தோ விஸ்தரஸ்ய மே৷৷10.19৷৷
శ్రీ భగవానువాచ హన్త తే కథయిష్యామి దివ్యా హ్యాత్మవిభూతయః. ప్రాధాన్యతః కురుశ్రేష్ఠ నాస్త్యన్తో విస్తరస్య మే৷৷10.19৷৷
10.20
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।।10.20।। हे नींदको जीतनेवाले अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें भी मैं ही हूँ और प्राणियोंके अन्तःकरणमें आत्मरूपसे भी मैं ही स्थित हूँ।
।।10.20।। हे गुडाकेश (निद्राजित्) ! मैं समस्त भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।।
।।10.20।। भूतमात्र के हृदय में स्थित आत्मा मैं ही हूँ इस सामान्य कथन के साथ श्रीकृष्ण इस प्रकरण का प्रारम्भ करते हैं। वैज्ञानिक विचारपद्धति से शोधकार्य करने का एक सुप्रशिक्षित प्राध्यापक? अनुसंधान के अपने प्रिय विषय की चर्चा का प्रारम्भ एक संक्षिप्त व सारपूर्ण कथन के साथ करता है। तत्पश्चात् वह उस विषय का विस्तार से विचार करके युक्तियुक्त विवेचन के द्वारा अन्त में उसी प्रारम्भिक कथन के निष्कर्ष पर पहुँचता है। यहाँ पर भी हम देखेंगे कि इस अध्याय की समाप्ति पर भगवान् इसी विचार को और अधिक प्रभावशाली ढंग से दोहराते हैं कि मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हूँ।इस श्लोक की पहली पंक्ति में भगवान् अपनी सर्वात्मकता दर्शाते हैं और दूसरी पंक्ति में इसी भाव को प्रकारान्तर से बताते हैं कि मैं समस्त भूतों का आदि? मध्य और अन्त हूँ। वस्तुत बाह्य चराचर जगत् मन की प्रक्षेपित सृष्टि है दूसरे शब्दों में बाह्य जगत् परिच्छिन्न मन के द्वारा किया गया अनन्त का अन्यथा दर्शन है। यह तथ्य आन्तरिक वैचारिक जगत् से सम्बन्धित भी समझा जा सकता है। प्रत्येक बुद्धिवृत्ति चैतन्य में प्रकट होकर उसी में लीन हो जाती है। चैतन्य के अभाव में वृत्ति की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आगे भी इसी विचार को दोहराया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण इस महान् सत्य को दोहराते कभी नहीं थकते हैं।इस चराचर जगत् में रहते हुए ईश्वरोपासना की साधनाओं को या पद्धति को अब बताते हैं।
।।10.20।। व्याख्या--[भगवान्का चिन्तन दो तरहसे होता है-- (1) साधक अपना जो इष्ट मानता है, उसके सिवाय दूसरा कोई भी चिन्तन न हो। कभी हो भी जाय तो मनको वहाँसे हटाकर अपने इष्टदेवके चिन्तनमें ही लगा दे; और (2) मनमें सांसारिक विशेषताको लेकर चिन्तन हो, तो उस विशेषताको भगवान्की ही विशेषता समझे। इस दूसरे चिन्तनके लिये ही यहाँ विभूतियोंका वर्णन है। तात्पर्य है कि किसी विशेषतोको लेकर जहा-कहीं वृत्ति जाय, वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये, उस वस्तु-व्यक्तिका नहीं। इसीके लिये भगवान् विभूतियोंका वर्णन कर रहे हैं।] 'अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च (टिप्पणी प0 555)'-- यहाँ भगवान्ने अपनी सम्पूर्ण विभूतियोंका सार कहा है कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्ति-विनाशशील होती है, उसके आरम्भ और अन्तमें जो तत्त्व रहता है, वही तत्त्व उसके मध्यमें भी रहता है (चाहे दीखे या न दीखे) अर्थात् जो वस्तु जिस तत्त्वसे उत्पन्न होती है और जिसमें लीन होती है, उस वस्तुके आदि, मध्य और अन्तमें (सब समयमें) वही तत्त्व रहता है। जैसे, सोनेसे बने गहने पहले सोनारूप होते हैं और अन्तमें (गहनोंके सोनेमें लीन होनेपर) सोनारूप ही रहते हैं तथा बीचमें भी सोनारूप ही रहते हैं। केवल नाम, आकृति, उपयोग, माप, तौल आदि अलग-अलग होते हैं; और इनके अलगअलग होते हुए भी गहने सोना ही रहते हैं। ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी आदिमें भी परमात्मस्वरूप थे और अन्तमें लीन होनेपर भी परमात्मस्वरूप रहेंगे तथा मध्यमें नाम, रूप, आकृति, क्रिया, स्वभाव आदि अलग-अलग होनेपर भी तत्त्वतः परमात्मस्वरूप ही हैं -- यह बतानेके लिये ही यहाँ भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें कहा है।भगवान्ने विभूतियोंके इस प्रकरणमें आदि, मध्य और अन्तमें -- तीन जगह साररूपसे अपनी विभूतियोंका वर्णन किया है। पहले इस बीसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ बीचके बत्तीसवें श्लोकमें कहा कि सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ;' और अन्तके उनतालीसवें श्लोकमें कहा कि 'सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह मैं ही हूँ क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है। चिन्तन करनेके लिये यही विभूतियोंका सार है। तात्पर्य यह है कि किसी विशेषता आदिको लेकर जो विभूतियाँ कही गयी हैं, उन विभूतियोंके अतिरिक्त भी जो कुछ दिखायी दे, वह भी भगवान्की ही विभूति है -- यह बतानेके लिये भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें विद्यमान कहा है। तत्त्वसे सब कुछ परमात्मा ही है -- 'वासुदेवः सर्वम्'-- इस लक्ष्यको बतानेके लिये ही विभूतियाँ कही गयी हैं। इस बीसवें श्लोकमें भगवान्ने प्राणियोंमें जो आत्मा है, जीवोंका जो स्वरूप है, उसको अपनी विभूति बताया है। फिर बत्तीसवें श्लोकमें भगवान्ने सृष्टिरूपसे अपनी विभूति बतायी कि जो जड-चेतन, स्थावर-जङ्गम सृष्टि है, उसके आदिमें 'मैं एक ही बहुत रूपोंमें हो जाऊँ' ('बहु स्यां प्रजायेयेति' छान्दोग्य0 6। 2। 3) --ऐसा संकल्प करता हूँ और अन्तमें मैं ही शेष रहता हूँ--'शिष्यते शेषसंज्ञः' (श्रीमद्भा0 10। 3। 25)। अतः बीचमें भी सब कुछ मैं ही हूँ -- 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता 7। 19) 'सदसच्चाहमर्जुन' (गीता 9। 19 ); क्योंकि जो तत्त्व आदि और अन्तमें होता है, वही तत्त्व बीचमें होता है। अन्तमें उन्तालीसवें श्लोकमें भगवान्ने बीज-(कारण-) रूपसे अपनी विभूति बतायी कि मैं ही सबका बीज हूँ, मेरे बिना कोई भी प्राणी नहीं है। इस प्रकार इन तीन जगह--तीन श्लोकोंमें मुख्य विभूतियाँ बतायी गयी हैं और अन्य श्लोकोंमें जो समुदायमें मुख्य हैं, जिनका समुदायपर आधिपत्य है, जिनमें कोई विशेषता है, उनको लेकर विभूतियाँ बतायी गयी हैं। परन्तु साधकको चाहिये कि वह इन विभूतियोंकी महत्ता, विशेषता, सुन्दरता, आधिपत्य आदिकी तरफ खयाल न करे, प्रत्युत ये सब विभूतियाँ भगवान्से ही प्रकट होती हैं, इनमें जो महत्ता आदि है, वह केवल भगवान्की है; ये विभूतियाँ भगवत्स्वरूप ही हैं-- इस तरफ खयाल रखे। कारण कि अर्जुनका प्रश्न भगवान्के चिन्तनके विषयमें है (10। 17), किसी वस्तु, व्यक्तिके चिन्तनके विषयमें नहीं।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.20।।सर्वेषां भूतानाम् मम शरीरभूतानाम् आशये हृदये अहम् आत्मतया अवस्थितः। आत्मा हि नाम शरीरस्य सर्वात्मना आधारो नियन्ता शेषी च। तथा वक्ष्यते -- सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च (गीता 15।15)ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशोऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18।61) इति। श्रूयते च -- यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदुः। यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतायन्तरो यमयति। एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृ0 उ0 3।7।15) इतिय आत्मनि तिष्ठन् आत्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद यस्य आत्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः (श0 प0 14।5।30) इति च।एवं सर्वभूतानाम् आत्मतया अवस्थितः अहं तेषाम् आदिः मध्यं च अन्तः च? तेषाम् उत्पत्तिस्थितिप्रलयहेतुः इत्यर्थः।एवं भगवतः स्वविभूतिभूतेषु सर्वेषु आत्मतया अवस्थानं तत्तच्छब्दसामानाधिकरण्यनिर्देशहेतुं प्रतिपाद्य विभूतिविशेषाम् सामानाधिकरण्येन व्यपदिशति भगवति आत्मतया अवस्थिते हि सर्वे शब्दाः तस्मिन् एव पर्यवस्यन्ति। यथा देवो मनुष्यः पक्षी वृक्ष इत्यादयः शब्दाः शरीराणि प्रतिपादयन्तः तत्तदात्मनि पर्यवस्यन्ति।भगवतः तत्तदात्मतया अवस्थानम् एव तत्तच्छब्दसामानाधिकरण्यनिबन्धनम्? इति विभूत्युपसंहारे वक्ष्यति -- न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्। (गीता 10।39) इति सर्वेषां स्वेन अविनाभाववचनात्। अविनाभावश्चनियाम्यतया इतिमत्तः सर्वं प्रवर्तते (गीता 10।8) इति उपक्रमोदितम्।
।।10.20।।विभूतिप्रदर्शने प्रस्तुते सत्यादावेव पारमार्थिकं पारमेश्वरं रूपं दर्शयितुं श्रोतुरर्जुनस्य मनःसमाधानार्थं यतते -- तत्रेति। सोपाधिकमपि काल्पनिकं परस्य रूपं पश्चाद्वक्ष्यमाणं श्रोतुं चित्तसमाधानं कर्तव्यमेवेत्याह -- तावदिति। आशेरतेऽस्मिन्विद्याकर्मपूर्वप्रज्ञा इत्याशयो हृदयं सर्वेषां भूतानां हृदयेऽन्तःस्थितो,यः प्रत्यगात्मा सोऽहमेवेति वाक्यार्थमाह -- सर्वेषामिति। यस्तु मन्दो मध्यमो वा परमात्मानमात्मत्वेन ध्यातुं नालं तं प्रत्याह -- तदशक्तेनेति। वक्ष्यमाणादित्यादिषु परस्य न ध्येयत्वमन्यदेव कारणं किंचित्तत्र तत्र ध्येयमित्याशङ्क्याह -- यस्मादिति। सर्वकारणत्वेन सर्वज्ञत्वेन सर्वेश्वरत्वेन च परस्य ध्येयत्वमत्रेप्सितं नान्यस्य कस्यचित्कारणस्यादित्यादिषु ध्येयतेत्यर्थः।
।।10.20।।तत्र प्रथमं योगं लक्षयन्नाह -- अहमिति। गुडाका निद्रा तस्या ईशः नियन्ता भवेति निरालस्यतयैव चिन्तनीयमिति सम्बोधयति। अहं स्वांशभूतस्य प्राकृतस्य सर्वस्यैव प्रथममात्मा। स्वशरीरभूतस्य पृथिव्यादेः सर्वभूतपदवाच्यचेतनस्य चाशये स्थितोऽहमन्तस्तथा सर्वेषामादिश्चेति पूर्वोक्तस्यअहमादिर्हि देवानां [10।2] इत्यस्य प्रपञ्चः। सर्वत्रात्मत्वेनाहं चिन्तनीय इति भावः। अत्रांशांशिनोरभेदाभिप्रायेण तथोक्तिरवसेया।
।।10.20।।तत्र प्रथमं तावन्मुख्यं चिन्तनीयं शृणु -- सर्वभूतानामाशये हृद्देशेऽन्तर्यामिरूपेण प्रत्यगात्मरूपेण च स्थित आत्मा चैतन्यानन्दघनस्त्वयाहं वासुदेव एवेति ध्येयः। हे गुडाकेश जितनिद्रेति ध्यानसामर्थ्यं सूचयति। एवं ध्यानासामर्थ्ये तु वक्ष्यमाणानि ध्यानानि कार्याणि। तत्राप्यादौ ध्येयमाह -- अहमेवादिश्चोत्पत्तिः भूतानां प्राणिनां चेतनत्वेन लोके व्यवह्रियमाणानां? मध्यं च स्थितिः? अन्तश्च नाशः। सर्वचेतनवर्गाणामुत्पत्तिस्थितिनाशरूपेण तत्कारणरूपेण चाहमेव ध्येय इत्यर्थः।
।।10.20।।तत्र प्रथममैश्वरं रूपं कथयति -- अहमिति। हे गुडाकेश? सर्वेषां भूतानामाशयेष्वन्तःकरणेषु सर्वज्ञत्वादिगुणैर्नियन्तृत्वेनावस्थितः परमात्माहम्। आदिर्जन्म? मध्यं स्थितिः? अन्तः संहारः? सर्वभूतानां जन्मादिहेतुश्चाहमेवेत्यर्थः।
।।10.20।।विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च [10।18] इति पृष्टमर्थद्वयं विस्तरेण वक्तुं तस्योत्तरद्वयम्अहमात्मा इति श्लोकेन संगृह्योच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- तत्रेति। एतेन प्रागुक्तेषु वक्ष्यमाणेषु च सामानाधिकरण्यनिर्देशेषु यथासम्भवं निमित्तद्वयमुक्तं भवति।आत्मतयाऽवस्थित इति फलितान्वयप्रदर्शनम्। अनेकार्थोऽप्यात्मशब्दः शरीरप्रतिसम्बन्धिनि प्रसिद्धिप्राचुर्यात्प्रतिसम्बन्धिरूपं शरीरमपेक्षते ततश्च वृत्त्यन्तर्गतोऽपि भूतशब्दो बुद्ध्या निष्कृष्यान्वेतव्य इत्यभिप्रायेणसर्वेषां भूतानां मम शरीरभूतानामित्युक्तम्। ईश्वरस्य जीवशरीराणि भूतानि जीवांश्च प्रति कथमात्मत्वं इत्यत्रात्मलक्षणं दर्शयति -- आत्मा हीति। त्रयमप्येकं लक्षणमित्येके। तत्र श्रुत्याद्यनुसारेण जन्मादित्रयस्य ब्रह्मलक्षणत्व इव शङ्कितमात्रव्यवच्छेदार्थतया त्रयाणां साफल्यं भाव्यम्। लक्षणत्रयमिति चान्ये। तत्र त्वेवंविवेकः -- यस्य चैतन्यविशिष्टस्य यद्द्रव्यं सर्वात्मना स्वार्थे नियन्तुं धारयितुं च शक्यम् इत्यादि शरीरलक्षणवाक्यमपि भाव्यम्। शरीरलक्षणान्तराणि च तत्र तत्र विस्तरेण प्रतिक्षिप्तानि। चैतन्यविशिष्टं प्रत्यपृथक्सिद्धविशेषणभूतद्रव्यं शरीरमिति भाष्याभिप्रेतोमऽस्माकं निष्कर्षः। अत्र सर्वभूतशब्देन शरीरमात्रनिर्देशशङ्काव्युदासाय आशयशब्दस्य च हृदयविषयत्वव्यञ्जनायाधारत्वनियन्तृत्वादेरात्मलक्षणत्वसिद्ध्यर्थं चाहतथेति।सर्वस्य चाहम् [15।15] इत्यस्यानन्तरंद्वाविमौ पुरुषौ [15।16] इत्युपक्रम्यक्षरः सर्वाणि भूतानि [15।16] इति वचनात्सर्वभूतशब्दोऽचिद्विशिष्टक्षेत्रज्ञपर इति निश्चीयते तद्वदत्रापि। तथा तस्मिन्नेव प्रकरणेउत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः [15।17] इत्युक्त्वायो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः [15।17] इत्युक्तम्। अत्रबिभर्तीश्वरः इत्याभ्यां आधारत्वनियन्तृत्वे स्पष्टे ईश्वरशब्दरूढ्या च स्वामित्वसिद्धिः न खलु गरुडादिषु भुजङ्गादीन्नियच्छत्सु तदीश्वरशब्दः। ईश्वरशब्दस्याहंशब्दस्य चात्रैकविषयत्वं श्लोकद्वयोपादानेन दर्शितम्। अत्र हि सर्वभूतशब्दो जीवपर एवःभ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया [18।61] इत्यभिधानात्।भ्रामयन् इत्यनेन नियन्तृत्वादिसिद्धिः। हृद्देशस्थित्या चमयि सर्वमिदं प्रोतम् [7।7] इत्याद्युक्तधारकत्वादि सूचितमेव। एवं चिदचिदात्मकसमस्तवस्तुशरीरत्वं सर्वभूतशब्दान्वयेनैव वदन्तीं श्रुतिं दर्शयति -- यः सर्वेषु भूतेष्विति। चिदंशं प्रति शरीरित्वं प्रपञ्चयद्वाक्यमुपादत्तेय आत्मनीति। आत्मत्वेनावस्थानस्योपादानत्वनिमित्तत्वोपयोगात्पूर्वार्धेन सङ्गमयन्नुत्तरार्धं व्याख्याति -- एवमिति। एवमात्मतयाऽवस्थितोऽहमित्यनेन निर्विकारस्य स्वस्यैवोपादानत्वस्थापनम्। देशतः कालतो वा आदिमध्यान्तत्वमात्रमनुचितमिति तदुपचरितमाह -- तेषामुत्पत्तीति। ,
।।10.20।।एवं कथनं प्रतिज्ञाय प्रथमं सर्वत्र स्वयोगमाह -- अहमिति। अतन्द्रितभावेन श्रवणार्थं सम्बोध यति -- हे गुडाकेश सर्वभूतानामाशयेषु अन्तःकरणेषु स्थितः आत्मा अहम्? तेन मदात्मकात्मसम्बन्धेन सर्वेषां जीवानां विषयानन्दमारभ्य ब्रह्मानन्दानुभवान्तानन्दानुभवो भवतीत्यर्थः। त्वयाऽपि तेषु आनन्दानुभवार्थकमदंशात्मकसंयोगात्मकोऽहं चिन्तनीय इति भावः। एतच्चिन्तनं च माहात्म्यज्ञानायोपयोक्ष्यतीति भावः। ननु त्वदात्मसंयोगे नाशः कथं भवति इत्याकाङ्क्षायामाह -- अहमिति। भूतानामादि उत्पत्तिस्थानं,चाहम्? च पुनः मध्यं स्थितिः। अन्तश्च लयस्थानमहमेव। यतो मदिच्छया मत्क्रीडार्थमुत्पादिताः यावत्क्रीडनं च रक्षिताः? क्रीडोपसंहारेच्छायां च लयं प्रापिता अतो न दोष इति भावः। मयोत्पादितानां मदात्मांशसंयुक्तानामन्यतो नाशेऽन्यलीनत्वे दोषः स्यात्? न तु मयि लीनानाम्। इदमेवैवकारेण द्योतितम्। अत एव निर्दोषभावेन मदंशात्मसंयोगं सर्वेषु चिन्तयेति भावः।
।।10.20।।संक्षेपेण योगमाह -- अहमिति। हे गुडाकेश हे जितनिद्र घनकेशेति वा। अहं वासुदेव आत्मा अततीत्यात्मा व्यापकः। अतएव सर्वेषां भूतानामाशयः एकीभावस्थानं जलानामिव कासारो जलाशयस्तद्वदहं सर्वभूताशयः। स्थितः अचलः।खर्परे शरि वा विसर्गलोपो वक्तव्यः इति वार्तिकेन पक्षे विसर्गलोपः। भाष्ये तु सर्वेषां भूतानामाशयेऽन्तर्हृदि स्थित इति व्याख्यातम्। सर्वभूताशयत्वादेवाहं आदिर्जन्मकारणम्। मध्यं स्थितिकारणम्। भूतानामन्तः लयस्थानम्। सर्वमिदं ब्रह्माण्डं मय्येवास्तीति भावः।
।।10.20।।योगं विभूतिं च कथयेति त्वया पृष्टं तत्र प्रथमं तावन्मदीयं योगं श्रुणु। अहं वासुदेव आत्मा प्रत्यगात्मा सर्वेषां भूतानामाशयेऽन्तःकरणे स्थितः। एतज्जिताज्ञाननिद्रैरेव ज्ञातव्यमिति द्योतयन् संबोधयति -- हे गुडाकेशेति। एतदशक्तस्याह। अहमादिः कारणं भूतानां मध्यः स्थितिरन्तः प्रलयश्च। तथाच सर्वभूतान्तरात्मत्वेन ध्यातुमशक्तेनोत्पत्त्यादिकर्तृत्वेनाहं ध्येय इत्याशयः।
10.20 अहम् I? आत्मा the Self? गुडाकेश O Gudakesa? सर्वभूताशयस्थितः seated in the hearts of all beings? अहम् I? आदिः the beginning? च and? मध्यम् the middle? च and? भूतानाम् of (all) beings? अन्तः the end? एव even? च and.Commentary O Gudakesa I am the soul (Pratyagatma) which exists in the hearts of all beings and I am also the source or origin? the middle or stay? and the end of all created beings. I am the birth? the life and the death of all beings. Meditate on Me as the innermost Self.Gudakesa means either coneror of sleep or thickhaired.He who is able to meditate on the Self with Abheda Bhavana (attitude of nonduality)? is a alified aspirant (Adhikari) of the first class. He who is not able to meditate on the Self should think of the Lord in those things which are mentioned below. This type of meditation is for the aspirants of the middle class.
10.20 I am the Self, O Gudakesa, seated in the hearts of all beings; I am the beginning, the middle and also the end of all beings.
10.20 O Arjuna! I am the Self, seated in the hearts of all beings; I am the beginning and the life, and I am the end of them all.
10.20 O Gudakesa, I am the Self residing in the hearts of all beings, and I am the beginning and the middle as also the end of (all) beings.
10.20 Gudakesa, O Gudakesa-gudaka means sleep, and isa means master; master of that (sleep) is gudakesa, i.e. one who has conered sleep; [See also under 1.24.-Tr.] or, one who has got thick hair; aham, I; am the atma, Self, the indwelling Self; who is to be ever-meditated on as sarva-bhuta-asaya [Asaya-that in which are contained the impressions of meditations (upasanas), actions and past experiences.]-sthitah, residing in the hearts of all beings. And, by one who is unable to do so, I am to be meditated on through the following aspects. I am capable of being meditated on (through them) becasue aham, I; am verily the adih, beginning, the origin; and the madhyam, middle, continuance; ca, as also; the antah, end, dissolution; bhutanam, of (all) beings. 'I am to be meditated upon thus also:'
10.20. O coneror of sleep ! I am the Soul residing in the heart of all beings; I am the beginning, and the middle and also the very end of beings.
10.20 See Comment under 10.42
10.20 I am the Self dwelling in the heart of all beings who constitute My body. What is called 'Self' is in every way the supporter, controller and the principal of a body. It is further declared: 'And I am seated in the hearts of all; from Me are memory, knowledge and their removal' (15.15), and 'The Lord dwells, O Arjuna in the heart of every being causing them to spin round and round by His power, as if set on a wheel' (18.61). The Srutis also declare: 'He who, dwelling in all beings, is within all beings, whom all beings do not know, whose body all beings are, who controls all beings from within, is your Inner Controller, immortal Self (Br. U., 3.7.15); and 'He who, dwelling in the self is within the self, whom the self does not know, whose body the self is, and who controls the self from within, He is your Inner Controller and Immortal Self' (Sata. Br., 14.5.30). Thus, I am the Self of all beings and I am their beginning, the middle and also the end. The meaning is that I am the cause of their origination, sustentation and dissolution. Thus, having explained that the Lord's immanence in all beings, which are His manifestations having Him, as their Self, is the ground for naming them in the manner of Samanadhikaranya or co-ordinate predication with Him (i.e., predication that they are He Himself), Sri Krsna proceeds to present some specific or distinguished manifestations in the same style of co-ordinate predication. As the Lord abides as the Self in all, the final significance of all terms culminates in Him. Terms such as god, man, bird, tree etc., though they signify the respective physical forms of those objects, they culminate through them in the selves in them as their final significance. Just like that here it is going to be stated in the conclusion of the account of the manifestations of the Lord, that the Lord's immanence in them all as their Self is the basis for describing them in such co-ordinate predication (as He Himself). The text 'There is nothing, moving or unmoving, apart from Me' (10.39) says that they are inseparable from Him, and this inseparability is the result of their being under His control. This has been initially declared in the words 'All proceed from Me' (10.8). [This word Samanadhikaranya is translated by some also as 'grammatical co-ordination.' It is a context in which a number of words, usually having varying denotations, are used to signify an identical object. This kind of co-ordinate relation occurs in all the following verses in which Sri Krsna eates Himself with various objects having different denotations as Atman, Visnu among the Adityas, Indra, Marici, Sankara, Kubera, etc. Further explanation is given in the commentary.]
10.20 I am the Self, O Arjuna, dwelling in the hearts of all beings. I am the beginning, the middle and also the end of all beings.
।।10.20।।उनमें तू पहली विभूतिको ही सुन --, गुडाका -- निद्रा उसका स्वामी यानी निद्राजयी होनेके कारण अथवा घनकेश होनेके कारण अर्जुनका नाम गुडाकेश है। हे गुडाकेश समस्त भूतोंके आशयमें यानी आन्तरिक हृदयदेशमें स्थित सबका अन्तरात्मा मैं हूँ ( ऊँचे अधिकारियोंको तो ) मेरा ध्यान सदा इस प्रकार करना चाहिये। परंतु जो ऐसा ध्यान करनेमें असमर्थ हों उन्हें आगे कहे हुए भावोंमें मेरा चिन्तन करना चाहिये? अर्थात् उनके द्वारा ( इन अगले भावोंमें ) मेरा चिन्तन किया जा सकता है क्योंकि मैं ही सब भूतोंका आदि? मध्य और अन्त हूँ अर्थात् उनकी उत्पत्ति? स्थिति और प्रलयरूप मैं ही हूँ।
।।10.20।। --,अहम् आत्मा प्रत्यगात्मा गुडाकेश? गुडाका निद्रा तस्याः ईशः गुडाकेशः? जितनिद्रः इत्यर्थः घनकेश इति वा। सर्वभूताशयस्थितः सर्वेषां भूतानाम् आशये अन्तर्हृदि स्थितः अहम् आत्मा प्रत्यगात्मा नित्यं ध्येयः। तदशक्तेन च उत्तरेषु भावेषु चिन्त्यः अहम् यस्मात् अहम् एव आदिः भूतानां कारणं तथा मध्यं च स्थितिः अन्तः प्रलयश्च।।एवं च ध्येयोऽहम् --,
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अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।।10.20।।
অহমাত্মা গুডাকেশ সর্বভূতাশযস্থিতঃ৷ অহমাদিশ্চ মধ্যং চ ভূতানামন্ত এব চ৷৷10.20৷৷
অহমাত্মা গুডাকেশ সর্বভূতাশযস্থিতঃ৷ অহমাদিশ্চ মধ্যং চ ভূতানামন্ত এব চ৷৷10.20৷৷
અહમાત્મા ગુડાકેશ સર્વભૂતાશયસ્થિતઃ। અહમાદિશ્ચ મધ્યં ચ ભૂતાનામન્ત એવ ચ।।10.20।।
ਅਹਮਾਤ੍ਮਾ ਗੁਡਾਕੇਸ਼ ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਸ਼ਯਸ੍ਥਿਤ। ਅਹਮਾਦਿਸ਼੍ਚ ਮਧ੍ਯਂ ਚ ਭੂਤਾਨਾਮਨ੍ਤ ਏਵ ਚ।।10.20।।
ಅಹಮಾತ್ಮಾ ಗುಡಾಕೇಶ ಸರ್ವಭೂತಾಶಯಸ್ಥಿತಃ. ಅಹಮಾದಿಶ್ಚ ಮಧ್ಯಂ ಚ ಭೂತಾನಾಮನ್ತ ಏವ ಚ৷৷10.20৷৷
അഹമാത്മാ ഗുഡാകേശ സര്വഭൂതാശയസ്ഥിതഃ. അഹമാദിശ്ച മധ്യം ച ഭൂതാനാമന്ത ഏവ ച৷৷10.20৷৷
ଅହମାତ୍ମା ଗୁଡାକେଶ ସର୍ବଭୂତାଶଯସ୍ଥିତଃ| ଅହମାଦିଶ୍ଚ ମଧ୍ଯଂ ଚ ଭୂତାନାମନ୍ତ ଏବ ଚ||10.20||
ahamātmā guḍākēśa sarvabhūtāśayasthitaḥ. ahamādiśca madhyaṅ ca bhūtānāmanta ēva ca৷৷10.20৷৷
அஹமாத்மா குடாகேஷ ஸர்வபூதாஷயஸ்திதஃ. அஹமாதிஷ்ச மத்யஂ ச பூதாநாமந்த ஏவ ச৷৷10.20৷৷
అహమాత్మా గుడాకేశ సర్వభూతాశయస్థితః. అహమాదిశ్చ మధ్యం చ భూతానామన్త ఏవ చ৷৷10.20৷৷
10.21
10
21
।।10.21।।  मैं अदितिके पुत्रोंमें विष्णु (वामन) और प्रकाशमान वस्तुओंमें किरणोंवाला सूर्य हूँ। मैं मरुतोंका तेज और नक्षत्रोंका अधिपति चन्द्रमा हूँ।
।।10.21।। मैं (बारह) आदित्यों में विष्णु और ज्योतियों में अंशुमान् सूर्य हूँ; मैं (उनचास) मरुतों (वायु देवताओं) में मरीचि हूँ और नक्षत्रों में शशी (चन्द्रमा) हूँ।।
।।10.21।। मैं आदित्यों में विष्णु हूँ वैदिक परम्परा में आदित्यों का संख्या कहीं पाँच तो कहीं छ बतायी गई है। ये अदिति के पुत्र थे। तत्पश्चात् पारम्परिक विश्वास के अनुसार इनकी संख्या बारह मानी गई? जो बारह मासों के सूचक हैं। विष्णु पुराण के अनुसार विष्णु नामक एक आदित्य है? जो अन्य आदित्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है।मैं ज्योतियों में सूर्य हूँ आधुनिक भौतिक विज्ञान भी सूर्य को समस्त ऊर्जाओं के स्रोत के रूप में स्वीकार करता है। अत भगवान् के कथन का अभिप्राय स्वत स्पष्ट हो जाता है। जहाँ कहीं भी कोई ऊर्जा व्यक्त होती है? उसका स्रोत आत्मा ही है।मैं वायु देवताओं में मरीचि हूँ वायु के अधिष्ठाता देवता मरुत कहलाते हैं? जिनकी संख्या उनचास कही गई है। इन में मरीचि नामक मरुत मैं हूँ। मरुतगण रुद्र पुत्र माने गये हैं। ऋग्वेद के अनुसार मरीचि उनमें प्रमुख है। मैं नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ भारतीय खगोलशास्त्र में जिस अर्थ में नक्षत्र शब्द प्रयुक्त किया जाता है? वह चन्द्रमा के मार्ग के तीन तारों का सूचक है। इस दृष्टि से? विश्व में चन्द्रमा का यह मार्ग भगवान् की विभूति की ही एक अभिव्यक्ति है और चन्द्रमा उनमें सर्वश्रेष्ठ है? क्योंकि वह नियन्त्रक और नियामक है तथा तेज में भी अपूर्व है।परन्तु हम नक्षत्र शब्द से सामान्य प्रचलित अर्थ को भी स्वीकार कर सकते हैं? जिसके अनुसार रात्रि के समय आकाश में जड़े हुए छोटेछोटे चमकते हुए असंख्य तारे ही नक्षत्र हैं। कुछ व्याख्याकार एक पग आगे जाकर कहते हैं कि नक्षत्र शब्द रात्रि के समस्त प्रकाशों का सूचक है। चिन्तन के लिए उपयोगी होने से यह अर्थ भी स्वीकार्य हो सकता है। रात्रि के समय एक छोटी सी कुटिया से लेकर संसद भवन तक को चमकाने वाले चन्द्रमा का प्रकाश शीतल शान्तिप्रद और गौरवमय होता है। ठीक उसी प्रकार आत्मा का प्रकाश भी अतुलनीय है।यहाँ बाइस श्लोकों की इस मालिका में? भगवान् श्रीकृष्ण कुल पचहत्तर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। उनका उद्देश्य ज्ञानयोग के मार्ग पर चलने वाले साधक की सहायता करना है। यहाँ उक्त उपासनाओं के द्वारा साधकगण अपने मनबुद्धि को सुगठित करके चित्त की एकाग्रता प्राप्त कर सकते हैं। ध्यान के लिए उपयोगी ये पचहत्तर अभ्यास हैं
।।10.21।। व्याख्या--'आदित्यानामहं विष्णुः'--अदितिके धाता, मित्र आदि जितने पुत्र हैं? उनमें 'विष्णु' अर्थात् वामन मुख्य हैं। भगवान्ने ही वामनरूपसे अवतार लेकर दैत्योंकी सम्पत्तिको दानरूपसे लिया और उसे अदितिके पुत्रों-(देवताओँ-) को दे दिया (टिप्पणी प0 556.2)।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.21।।द्वादशसंख्यासंख्यातानाम् आदित्यानां द्वादशो य उत्कृष्टो विष्णुः नाम आदित्यः सः अहम् ज्योतिषां जगति प्रकाशकानां यः अंशुमान् रविः आदित्यगणः सः अहम्? मरुताम् उत्कृष्टो मरीचिः यः सः अहम् अस्मि? नक्षत्राणाम् अहं शशी। न इयं निर्धारणे षष्ठी?भूतानाम् अस्मि चेतना इतिवत् नक्षत्राणां पतिः यः चन्द्रः सः अहम् अस्मि।।
।।10.21।।उक्तध्यानाशक्तेभ्यो व्यस्तं विभूतियोगमुपदिशति -- एवंचेति। तत्र तत्र प्रधानत्वेन परस्य ध्येयत्वम्। एवंशब्दार्थमेव दर्शयति -- आदित्यानामित्यादिना।
।।10.21।।इदानीं विभूतिमाह -- आदित्यानामित्यादिना। द्वादशानां मध्ये विष्णुनामाऽऽदित्योऽहम्। आदित्यानां देवानामेव वामन इति केचित्। ज्योतिषां प्रकाशभूतानां मध्येंऽशुमान् रविरहम्। मरुतां देवानामुत्कृष्टो यो मरीचिः सोऽहम्। नक्षत्राणामहं शशीति। अथ सर्वत्र प्रायेणेति निर्द्धारणे षष्ठी? क्वचित् निर्द्धारणे सम्बन्धे च षष्ठी विज्ञातव्या? यथाभूतानामस्पि चेतना [10।22] इत्यादौ।
।।10.21।।एतदशक्तेन बाह्यानि ध्यानानि कार्याणीत्याह यावदध्यायसमाप्ति -- आदित्यानां द्वादशानां मध्ये विष्णुर्विष्णुनामादित्योऽहं? वामनावतारो वा। ज्योतिषां प्रकाशकानां मध्येऽहं रविरंशुमान्विश्वव्यापी प्रकाशकः। मरुतां सप्तसप्तकानां मध्ये मरीचिनामाहम्। नक्षत्राणामधिपतिरहं शशी चन्द्रमाः। निर्धारणे षष्ठी। अत्र प्रायेण निर्धारणे षष्ठी। क्वचित्संबन्धेऽपि यथा भूतानामस्मि चेतनेत्यादौ। वामनरामादयश्चावताराः सर्वैश्वर्यशालिनोऽप्यनेन रूपेण ध्यानविवक्षया विभूतिषु पठ्यन्ते। वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मीति तेन रूपेण ध्यानविवक्षया स्वस्यापि स्वविभूतिमध्ये पाठवत्। अतः परं च प्रायेणायमध्यायः स्पष्टार्थ इति क्वचित्किंचिद्व्याख्यास्यामः।
।।10.21।।इदानीं विभूतीः कथयति -- आदित्यानामित्यादिना यावदध्यायसमाप्ति। आदित्यानां द्वादशानां मध्ये विष्णुर्वामनोऽहम्। ज्योतिषां प्रकाशानां मध्येंऽशुमान्विश्वव्यापकरश्मियुक्तो रविः सूर्योऽहम्। मरुतां देवविशेषाणां मध्ये मरीचिनामाहमस्मि। यद्वा सप्त मरुद्गणा वायवस्तेषां मध्य इति। ते च आवहः? प्रवहः? विवहः? परावहः? उद्वहः? संवहः? परिवह इति मरुद्गणाः। नक्षत्राणां मध्ये चन्द्रोऽहम्। अत्र चआदित्यानामहं विष्णुः इत्यादिषु प्रायशो निर्धारणे षष्ठी। क्वचिच्चभूतानामस्मि चेतना इत्यादिना संबन्धे षष्ठी। तच्च तत्र तत्रैव दर्शयिष्यामः। विष्णुरित्याद्यवतारोऽपि प्रभावातिशयमात्रविवक्षया विभूतित्वेन निर्दिश्यते। अतः परं चाध्यायस्य स्पष्टार्थत्वेऽपि क्वचित्किंचिद्व्याख्यास्यामः।
।।10.21।।आदित्यानामहं विष्णुः इत्युपक्रम्ययच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन [10।39] इत्यन्तं सामानाधिकरण्यप्रघट्टकंअहमात्मा [10।20] इति श्लोकेन सङ्गमयन्नवतारयति -- एवं भगवत इति। एतेनअहमात्मा इत्यादिकाः समस्ताश्चतस्रो विभूतय इति मतान्तरं निरस्तम्।विभूतिविशेषानिति? प्राधान्यत इति ह्युपक्रान्तम्। ननु शरीरवाचिनः शरीरादिशब्दा नात्मनि पर्यवस्यन्ति तस्मादत्रापीति लक्षणास्वीकार एव न्याय्यः न शक्तिकल्पना? लाघवाच्चेत्यत्राह -- भगवतीति। हिशब्दो हेत्वर्थः। अपृथक्सिद्धविशेषणवाचिनः शब्दास्तत्तद्द्वारा धर्मिण्यपि मुख्यवृत्ता इति प्रयोजकरूपेण गुणादिष्वपि सिद्धत्वान्न शक्तिकल्पनागौरवमिति भावः। तदेतदुक्तंपर्यवस्यन्तीति। शरीरवाचिशब्दानां स्वरसतस्तत्तदात्मनि पर्यवसानमपृथक्सिद्ध्युपाधिकं दर्शयति -- यथेति। शरीरादिशब्दास्तु गुण इत्यादिशब्दवन्निष्कर्षकशब्दत्वान्न धर्मिणि पर्यवस्यन्ति। एतदभिप्रायेणोक्तंदेवो मनुष्यः पक्षी वृक्ष इत्यादयः शब्दा इति। अध्यासादिहेतुकसामानाधिकरण्यशङ्कामपनयतिभगवतस्तत्तदात्मतयेति। नह्युपक्रमोपसंहारविरुद्धोऽर्थो मध्ये स्वीकार्यः न च ब्रह्मणः सर्वहेयमयत्वं भ्रमाद्वा तत्त्वतो वाऽङ्गीकर्तुं युक्तमिति भावः।अविनाभाववचनादिति आत्मना विना हि शरीरभूतं न भवतीति भावः।अग्निना विना धूमो नास्ति गुणिना विना गुणो नास्ति इत्युक्ते अग्न्यादिरेव परमार्थः धूमादिस्तु मिथ्याभूत इति वा? अग्न्याद्यात्मक इति वा प्रत्ययो हि न भवति तद्वदत्रापि इति। ननुयज्ञदत्तं विनाऽन्ये गृहे न सन्तिरज्जुं विना सर्पादिकं नास्ति इत्युक्ते यथैकस्यैव सत्त्वं तदतिरिक्तानां चासत्त्वं प्रतीयते? तद्वदत्रापि किं न स्यात् इत्यत्राहअविनाभावश्चेति। असञ्जातविरोधिकालसमुदितोपक्रमविरुद्धतया उपसंहारस्य नोदय इत्युपक्रमाधिकरणसिद्धमिति भावः।नियम्यतयेत्यनेन धूमाग्निव्याप्तिवैषम्यमपि दर्शितम्।,एवमेतावता ग्रन्थेनअहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः [10।20] इति सर्वशरीरवर्तिनां जीवानां ब्रह्मस्वरूपैक्यमुच्यत इति कुदृष्टिमतमुन्मूलितम्। आदित्यानां अदित्यपत्यानाम्।अजघन्यो जघन्यः इत्यादिवचनानुसारेणद्वादशो य उत्कृष्ट इत्युक्तम्। अत्र चोत्तरेषु च निर्धारणार्थविशेषप्रदर्शनार्थ उत्कृष्टशब्दः। स चपुरोधसां च मुख्यं मां [10।24] इति वक्ष्यमाणमुख्यपर्यायतया अपेक्षितप्रदेशे सर्वत्र निहितः। अत्र चोद्ध्रियमाणानां पदार्थानां केषाञ्चित्प्राधान्यं प्रत्यक्षम् केषाञ्चिदागमिकम्। क्वचिदव्यवहितं? क्वचिज्जीवव्यवहितं च सामानाधिकरण्यम्। ज्योतिश्शब्देन तारकामात्रग्रहणे ततो बहिर्भूतस्य तत्सम्बन्धरहितस्य तस्य च रवेर्निर्धारणाद्ययोगात्प्रकाशकानामिति सामान्येनोक्तम्। जगत्कारणभूतपरज्योतिरपेक्षया रवेः खद्योतकल्पत्वात्तद्व्यवच्छेदायजगतीति विशेषितम्।अंशुमान् इति निर्धारणौपयिकातिशयितप्रकाशयोगो मतुपा विवक्षितः? अन्यथा पौनरुक्त्यात्। रविशब्दस्य द्वादशादित्यसाधारणत्वादेकवचनं समुदायाभिप्रायमिति प्रदर्शनायोक्तंआदित्यगण इति। मरुतो वायव एकोनपञ्चाशद्दितिपुत्राः? येषां सप्तकाः सप्त गणा भवन्ति। शशिनोऽपि यदि नक्षत्रत्वं स्यात्? तदा हि तस्माद्वर्गात्तस्य निर्धारणमित्यभिप्रायेणाहनेयमिति। कस्तर्ह्यत्रार्थः इत्यत्राह -- नक्षत्राणां पतिरिति।प्राधान्यतः इति ह्युपक्रान्तमिति भावः।ननु पूर्वापरेषु सर्वेषु निर्धारणार्थेषु मध्ये कस्यचित्सम्बन्धमात्रपरत्वमयुक्तम् नक्षत्रशब्देन निशि प्रकाशमात्रं छत्रिन्यायाद्ग्राह्यम्? सुकृतां वा एतानि ज्योतींषि यन्नक्षत्राणि [यजुः5।4।1।3] इति श्रुतेश्चन्द्रमण्डलस्यापि वा स्वर्गिणां भोगस्थानत्वान्नक्षत्रत्वं यो वा इह यजते अमुं स लोकं न क्षते तन्नक्षत्राणां नक्षत्रत्वं देवगृहा वै नक्षत्राणि [यजुः1।5।2।10] इति तत्राह -- भूतानामस्मि चेतनेतिवदिति। मुख्ये सम्भवति लक्षणा न न्याय्या? नचात्र सर्वत्र निर्धारणार्थताभूतानामस्मि चेतना
।।10.21।।योगयुक्ता विभूतीः कथयति -- आदित्यानामित्यारभ्य यावदध्यायसमाप्ति। आदित्यानां द्वादशानां मध्ये विष्णुः व्यापकधर्मात्मको बिम्बप्रकाशकोऽहं ज्योतिषां बहिर्जगत्प्रकाशकानां मध्ये अंशुमान् सर्वप्रकाशकरश्मियुक्तो रविः सूर्योऽस्मीत्यर्थः। मरुतां वायूनां मध्ये मरीचिर्नाम कश्चन सर्वसुखोत्पादनरूपो वायुरस्मि। नक्षत्राणां मध्ये शशी चन्द्रोऽस्मि।शशी इति नाम्ना रोहिण्यासक्तिजलाञ्छनवत्त्वेन रसात्मकासक्तिधर्मरूपशृङ्गाररसात्मकत्वं व्यञ्जितम्।
।।10.21।।योगमुक्त्वा विभूतीराह -- आदित्यानामित्यादिना यावदध्यायसमाप्ति। आदित्यानां द्वादशानां मध्ये विष्णुनामादित्योऽहं? वामनावतारो वा। ज्योतिषामग्न्यादीनां मध्ये रविः अंशुमान् अत्यन्तं प्रतपनशीलो निदाघमध्याह्ने तीव्रातपवान्रविरहमेवेत्यर्थः। मरुतां सप्तसप्तकानां मध्ये मरीचिरहम्। नक्षत्राणां ताराणाम्। अत्र प्रायेण निर्धारणे षष्ठी। भूतानामस्मि चेतनेत्यादौ संबन्धेऽपि। शशी चन्द्रमाः।
।।10.21।।एवमात्मनो योगमुक्त्वा तत्र तत्र ध्येया विभूतीराह। आदित्यानां विष्णुः शकोऽर्यमा धाता त्वष्टा पूषा विवस्वान् सविता मित्रो वरुणः अंशो भगश्चत्युक्तानां द्वादशानां विष्णुर्नामादित्योऽहम्। वामनावतारो वेति व्याख्यानस्यापि विष्णुर्नामदित्यो वामनावतारोऽहमित्यर्थावगमेनाचार्योक्तव्याख्यानान्तर्भूतत्वाद्वेत्युक्तिरपार्था। यद्वा अरुणः सूर्यो भानुस्तपनश्चन्द्रमा मित्रो हिरण्यवीर्यो रविरर्यमा गभस्तिर्दिवाकारो विष्णुरित्युक्तानामादित्यानां विष्णुरित्यभिप्रायोणाचार्यैरेवमुक्तमिति बोध्यम्। प्रकाशयितृ़णां जगद्य्वपी रश्मिवान्सूर्यः। मरुतां देवता भेदानां मरीचिनामास्मि। नक्षत्राणामधिपतिश्चन्द्रोऽहमस्मि।
10.21 आदित्यानम् among the Adityas? अहम् I? विष्णुः Vishnu? ज्योतिषाम् among lights? रविः the sun? अंशुमान् radiant? मरीचिः Marichi? मरुताम् of the Maruts (winds)? अस्मि (I) am? नक्षत्राणाम् among the stars? अहम् I? शशी the moon.Commentary Of the twelve Adityas I am the Aditya known as Vishnu? Dhata? Mitra? Aryama? Rudra? Varuna? Bhaga? Surya? Vivasvan? Pusham? Savita? Tvashta and Vishnu are the twelve Adityas. The twelve months of the year are the Adityas.The Maruts are the gods controlling the winds. Some hold that there are seven of them while others say there are fortynine.The twelve Adityas? the luminaries like Agni? lightning? etc.? the Maruts? the stars? etc.? are the Samanya Vibhutis (ordinary manifestations) of the Lord. Vishnu? the sun? Marichi? and the moon are His Visesha Vibhutis (special manifestations) and hence they have greater splendour in them.You can superimpose the Lord on the sun and the moon? and meditate on them as forms of the Lord. You can practise the same kind of meditation on all forms mentioned in the following verses of this chapter.
10.21 Among the (twelve) Adityas, I am Vishnu; among luminaries, the radiant sun; I am Marichi among the (seven or forty-nine) Maruts; among stars the moon am I.
10.21 Of all the creative Powers I am the Creator, of luminaries the Sun; the Whirlwind among the winds, and the Moon among planets.
10.21 Among the Adityas [viz Dhata, Mitra, aryama, Rudra, Varuna, Surya, Bhaga, Vivasvan, Pusa, Savita, Tvasta and Visnu.-Tr.] I am Visnu; among the luminaries, the radiant sun; among the (forty-nine) Maruts [The seven groups of Maruts are Avaha, Pravaha, Vivaha, Paravaha, Udvaha, Samvaha and parivaha.-Tr.] I am Marici; among the stars I am the moon.
10.21 Adityanam, among the twelve Adityas; aham, I; am the Aditya called Visnu. Jyotisam, among the luminaries; amsuman, the radiant; ravih, sun. Marutam, among the different gods called Maruts; asmi, I am; the one called Marici. Naksatranam, among the stars; I am sasi, the moon.
10.21. Of the sons of Aditi, I am Visnu; of the luminaries, the radiant Sun; of the Maruts, I am Marici; of the stars, I am the Moon.
10.21 See Comment under 10.42
10.21 Of Adityas, who are twelve in number, I am the twelfth Aditya, called Visnu, who is paramount. Of luminuous bodies, namely, among luminaries in the world, I am the sun, the most brilliant luminary. Of Maruts I am the paramount Marici. Of constellations, I am the moon. The genitive case here is not to specify one out of many included in a group. Its use is the same as what is exemplifed in the statement 'I am the consciousness in all beings' (10.22). I am the moon who is the Lord of the constellations.
10.21 Of Adityas I am Visnu, of luminous bodies I am the radiant sun. Of the Maruts I am Marici, and among the constellations I am the moon.
।।10.21।।तथा इस प्रकार भी मेरा ध्यान किया जा सकता है --, द्वादश आदित्योंमें मैं विष्णु नामक आदित्य हूँ। प्रकाश करनेवाली ज्योतियोंमें मैं किरणोंवाला सूर्य हूँ। वायुसम्बन्धी देवताओंके भेदोंमें मैं मरीचि नामक देवता हूँ और नक्षत्रोंमें मैं शशी -- चन्द्रमा हूँ।
।।10.21।। --,आदित्यानां द्वादशानां विष्णुः नाम आदित्यः अहम्। ज्योतिषां रविः प्रकाशयितृ़णाम् अंशुमान् रश्मिमान्। मरीचिः नाम मरुतां मरुद्देवताभेदानाम् अस्मि। नक्षत्राणाम् अहं शशी चन्द्रमाः।।
।।10.21।।द्विविधं विभूतिरूपं प्रत्यक्षं तिरोहितं च अत्र विष्ण्वादिकं प्रत्यक्षमिति ज्ञापयितुं तच्छब्दान्व्याकुर्वन्आदित्यानामहं विष्णुः इति विष्णुशब्दं तावत्सप्रमाणकं व्याकरोति -- विष्णुरिति। सर्वेति? योग्यतया सम्बध्यते।आदिपदेन वक्ष्यमाणार्थसङ्ग्रहः। चशब्दो धात्वन्तरसमुच्च्यार्थः। गच्छन्त्यनेनेति गतिः। भूतानां पृथिव्यादीनां प्रजानां ब्रह्मादीनाम्।वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु [धा.पा.2।38] इत्यतो गत्यर्थात् क्स्नुप्रत्ययो धातोर्ह्रस्वश्च। मे मया? रोदसी द्यावापृथिव्यौ? व्याप्तौ व्याप्तेविष्लृ व्याप्तौ [धा.पा.3।13] इत्यतः क्नुः? कान्तिः कमनीयतावश कान्तौ [धा.पा.2।70] इत्यतो नुः धातोरकारस्येकारः? शकारस्य षकारः।वी गति इत्यतो वा,कान्तिकर्मणः क्स्नुः। अधिभूतं प्राग्व्याख्यातम्।विश प्रवेशने [धा.पा.6।143] इति? अतः क्नुः षत्वं च। तदिच्छुरधिभूतस्य जन्मादीच्छुः। कान्तिरिच्छा। अतो वयतेर्वष्टेश्च पूर्ववद्रूपम्। क्रमणात् त्रिविक्रमरूपेण पादविक्षेपात्। पूर्ववद्वयतेर्गत्यर्थात्कर्तरि प्रत्ययः।
।।10.21।।विष्णुः सर्वव्यापित्वप्रवेशित्वादेः।विष्लृ व्याप्तौ? विश् प्रवेशने इति पठन्ति।गतिश्च सर्वभूतानां प्रजानां चापि (प्रजनश्चास्मि) भारत व्याप्तौ मे रोदसी पार्थ कान्तिश्चाभ्यधिका मम। आधिभूतनिविष्टश्च तदिच्छुश्चा -- (तद्विश्वं चा)स्मि भारत। क्रमणाच्चाप्यहं पार्थ विष्णुरित्यभिसंज्ञितः [म.भा.12।341।42?43] इति मोक्षधर्मे।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्। मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।10.21।।
আদিত্যানামহং বিষ্ণুর্জ্যোতিষাং রবিরংশুমান্৷ মরীচির্মরুতামস্মি নক্ষত্রাণামহং শশী৷৷10.21৷৷
আদিত্যানামহং বিষ্ণুর্জ্যোতিষাং রবিরংশুমান্৷ মরীচির্মরুতামস্মি নক্ষত্রাণামহং শশী৷৷10.21৷৷
આદિત્યાનામહં વિષ્ણુર્જ્યોતિષાં રવિરંશુમાન્। મરીચિર્મરુતામસ્મિ નક્ષત્રાણામહં શશી।।10.21।।
ਆਦਿਤ੍ਯਾਨਾਮਹਂ ਵਿਸ਼੍ਣੁਰ੍ਜ੍ਯੋਤਿਸ਼ਾਂ ਰਵਿਰਂਸ਼ੁਮਾਨ੍। ਮਰੀਚਿਰ੍ਮਰੁਤਾਮਸ੍ਮਿ ਨਕ੍ਸ਼ਤ੍ਰਾਣਾਮਹਂ ਸ਼ਸ਼ੀ।।10.21।।
ಆದಿತ್ಯಾನಾಮಹಂ ವಿಷ್ಣುರ್ಜ್ಯೋತಿಷಾಂ ರವಿರಂಶುಮಾನ್. ಮರೀಚಿರ್ಮರುತಾಮಸ್ಮಿ ನಕ್ಷತ್ರಾಣಾಮಹಂ ಶಶೀ৷৷10.21৷৷
ആദിത്യാനാമഹം വിഷ്ണുര്ജ്യോതിഷാം രവിരംശുമാന്. മരീചിര്മരുതാമസ്മി നക്ഷത്രാണാമഹം ശശീ৷৷10.21৷৷
ଆଦିତ୍ଯାନାମହଂ ବିଷ୍ଣୁର୍ଜ୍ଯୋତିଷାଂ ରବିରଂଶୁମାନ୍| ମରୀଚିର୍ମରୁତାମସ୍ମି ନକ୍ଷତ୍ରାଣାମହଂ ଶଶୀ||10.21||
ādityānāmahaṅ viṣṇurjyōtiṣāṅ raviraṅśumān. marīcirmarutāmasmi nakṣatrāṇāmahaṅ śaśī৷৷10.21৷৷
ஆதித்யாநாமஹஂ விஷ்ணுர்ஜ்யோதிஷாஂ ரவிரஂஷுமாந். மரீசிர்மருதாமஸ்மி நக்ஷத்ராணாமஹஂ ஷஷீ৷৷10.21৷৷
ఆదిత్యానామహం విష్ణుర్జ్యోతిషాం రవిరంశుమాన్. మరీచిర్మరుతామస్మి నక్షత్రాణామహం శశీ৷৷10.21৷৷
10.22
10
22
।।10.22।। मैं वेदोंमें सामवेद हूँ, देवताओंमें इन्द्र हूँ, इन्द्रियोंमें मन हूँ और प्राणियोंकी चेतना हूँ।
।।10.22।। मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में वासव (इन्द्र) हूँ; मैं इन्द्रियों में मन और भूतप्राणियों में चेतना (ज्ञानशक्ति) हूँ।।
।।10.22।। मैं वेदों में सामवेद हूँ ऋग्वेद का सार ही सामवेद है। चारों वेदों में ऋग्वेद का स्थान सबसे प्रमुख है। सामवेद को छान्दोग्योपनिषद् में सुन्दरता से गौरवान्वित किया गया है। सामवेद में संगीत का विशेष आनन्द भी जुड़ा हुआ है? क्योंकि साम मन्त्रों को सुन्दर राग? सुर और लय में गाया जाता है? जो इस बात के प्रमाण हैं कि संगीत की इस सुन्दर और शक्तिशाली कला को हमारे पूर्वजों ने इतना अधिक विकसित किया था। इस उपमा के सौन्दर्य के द्वारा हम कह सकते हैं कि श्रीकृष्ण संगीत की आत्मा हैं? जैसे ऋग्वेद का सार सामवेद है।मैं देवों में इन्द्र हूँ स्वर्ग के निवासी देवों का राजा वासव इन्द्र है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि वैदिक सिद्धान्त के अनुसार यद्यपि रहनसहन का सर्वोच्च स्तर स्वर्ग में है? परन्तु वहाँ भी देवताओं के पदों में श्रेष्ठता और हीनता का तारतम्य होता है। स्वर्ग की प्राप्ति इह लोक में किये गये पुण्य कर्मों के फलस्वरूप होती है और इस कारण जिस पुरुष ने यहाँ अधिक पुण्य अर्जित किया होगा? उसे वहाँ श्रेष्ठतर भोगों की प्राप्ति होगी। इस नियम के अनुसार? उन सब देवों के जीवन की अपेक्षा इन्द्र का जीवन अधिक वैभव? एवं विलासपूर्ण तथा शक्तिशाली और समर्थ होना स्वाभाविक है। देवताओं में इन्द्र मैं हूँ जो अन्य देवों का शासक और नियन्ता है? जिससे कि उनका जीवन सुखी एवं समृद्धशाली होता है।मैं इन्द्रियों में मन हूँ आधिदैविक दृष्टि से जिसे इन्द्र कहते हैं? आध्यात्मिक दृष्टि से वही मन कहलाता है? क्योंकि देव शब्द का अर्थ इन्द्रिय होता है। जैसे इन्द्र देवताओं का राजा है? वैसे ही मन इन्द्रियों का राजा है। मन के बिना इन्द्रियाँ स्वतन्त्र रूप से अपना व्यापार नहीं कर सकती हैं। इसलिये यहाँ कहा गया है कि मैं इन्द्रियों में मन हूँ। जगत् की समस्त सृष्ट वस्तुओं में सर्वाधिक श्रेष्ठ और अद्भुत वस्तु है बुद्धिमत्ता। यह एक ऐसी रहस्यमयी शक्ति है? जिसके विषय में आधुनिक वैज्ञानिक एक अस्पष्ट और काल्पनिक धारणा बनाने के अतिरिक्त कुछ विशेष ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके हैं।
।।10.22।। व्याख्या--'वेदानां सामवेदोऽस्मि'--वेदोंकी जो ऋचाएँ स्वरसहित गायी जाती हैं, उनका नाम सामवेद है। सामवेदमें इन्द्ररूपसे भगवान्की स्तुतिका वर्णन है। इसलिये सामवेद भगवान्की विभूति है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.22।।वेदानाम् ऋग्यजुःसामाथर्वणां य उत्कृष्टः सामवेदः सः अहम् देवानाम् इन्द्रः अहम् अस्मि। एकादशानाम् इन्द्रियाणां यद् उत्कृष्टं मन इन्द्रियं तद् अहम् अस्मि। इयम् अपि न निर्धारणे -- भूतानां,चेतनावतां या चेतना सा अहम् अस्मि।
।।10.22।।मन्त्रब्राह्मणसमुदायानामृगादीनां मध्ये सामवेदोऽस्मीति। ध्यानान्तरमुदाहरति -- वेदानामिति। संघाते जीवाधिष्ठिते यावत्पञ्चत्वं सर्वत्र व्यापिनी चैतन्याभिव्यञ्जिकेति शेषः।
।।10.22।।वेदानामिति। सामवेदोऽहं वेदानां मध्ये सामवेदोऽस्मि। देवानामहमिन्द्र इति यज्ञे गानमाधुर्येण भगवद्विभूतिराराध्या। इन्द्रियाणां एकादशानां मध्ये मनोऽहम्। नात्र निर्द्धारणे षष्ठी। प्रायःपदान्मनस्यपीद्रियत्वं निर्बाधम्।
।।10.22।।चतुर्णां वेदानां मध्ये गानमाधुर्येणातिरमणीयः सामवेदोऽहमस्मि। वासव इन्द्रः सर्वदेवाधिपतिः इन्द्रियाणामेकादशानां प्रवर्तकं मनः। भूतानां सर्वप्राणिसंबन्धिनां परिणामानां मध्ये चिदभिव्यञ्जिका बुद्धेर्वृत्तिश्चेतनाहमस्मि।
।।10.22।।वेदानामिति। वासव इन्द्रः। भूतानां संबन्धिनी चेतना ज्ञानशक्तिरहमस्मि।
[10.22]सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन [10।32]वादः प्रवदतामहम् [10।32]अहमेवाक्षयः कालः [10।33]उद्भवश्च भविष्यताम् [10।34]द्यूतं छलयतामस्मि [10।36]तेजस्तेजस्विनामहम् [7।10]जयोऽस्मि व्यवसायो़ऽस्मि [10।36] इत्यादिषु निर्धारणाभावात् अतोऽत्र चन्द्रस्य नक्षत्रजातीयत्वाभावात् षष्ठ्यभिहितस्य सम्बन्धसामान्यस्य प्रमाणसिद्धविशेषे पर्यवसानमिति भावः।।।10.22।।गीतिर्हि सामशब्दार्थः तस्य वेदेषु निर्धारणं कथं इति शङ्काव्युदासायसामवेदोऽस्मि इति निर्देश इति प्रदर्शयतिऋग्यजुरिति। सामवेदस्योत्कर्षो गीतिप्रधानत्वसहस्रशाखत्वादिभिः अन्येषां तु तदभावात्तावन्मात्रेणापकर्षः न तु प्रामाण्यतारतम्यात्। ऋक् च वा इदमग्रे साम चास्तां सैव नाम ऋगासीदमो नाम साम स वा ऋक्सामो वावदन्मिथुनं सम्भवाव प्रजात्या इति नेत्यब्रवीत् साम ज्यायान्वा अतो मम महिमा [ऋ.ऐ.ब्रा.3।23] इति गीतिरूपस्य साम्नः प्राधान्याद्गीतात्मकस्य सामवेदस्य प्राधान्यम्। ऋग्भ्यो जातं वैश्यं वर्णमाहुः यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योर्नि सामवेदो ब्राह्मणानां प्रसूतिः [यजुःका3।9।50] इति च। देवा इति स्वर्गवासिनो विवक्षिताः ब्रह्मादिसङ्ग्रहायोगात्। वासवशब्दस्येन्द्रशब्देन व्याख्यानमतिशयद्योतनार्थम्?इदि परमैश्वर्ये [धा.पा.1।63] इति। इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः [कठो.3।10] एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च [मुं.उ.2।1।3] इत्यादिषु मनस इन्द्रियेभ्यः पृथगभिधानात्कथंइन्द्रियाणां मनश्चास्मि इति निर्धारणमित्यत्राह -- एकादशेन्द्रियाणां यदुत्कृष्टं मन इन्द्रियमिति।अयमभिप्रायः -- इन्द्रियाणि दशैकं च [13।5]एकादशं मनश्चात्र [वि.पु.1।2।46] इत्यादिषु मनसोऽपीन्द्रियत्वेन व्यपदेशात्क्वाचित्कः पृथग्व्यपदेशो गोबलीवर्दन्यायादिति निर्धारणोपपत्तिः -- इति। नहि भूतेषु चेतनासंज्ञकं किञ्चिद्भूतमस्तीत्यभिप्रायेणाहइयमपीति षष्ठीति शेषः।तेजस्तेजस्विनां [7।1010।36]सत्त्वं सत्त्ववताम् [10।36] इत्यादिवद्विशिष्टे सारभूतविशेषणांशो विवक्षित इत्यभिप्रायेणचेतनावतामित्युक्तम्। ननु भूतानां षष्ठत्वेन चेतनासंज्ञं किमप्यन्यत्रोच्यते यथामहाभूतानि खं वायुरग्निरापस्तथा मही। षष्ठस्तु चेतनाधातुरात्मा सप्तम उच्यते। अष्टमं तु मनो ज्ञेयम् इति तथाषष्ठं वा चेतनाधातुर्मन इत्युपदिश्यते इति च। अत्र मनसोऽधिष्ठानतया चेतनायास्तदपृथग्वचनमित्यविरोधः। अतोभूतानामस्मि चेतना इति निर्धारणार्थत्वं युज्यत इति। मैवं? नहि भूतषष्ठनिर्देशमात्रान्महाभूतत्वम्? अन्यथापि सङ्ख्यानिवेशसम्भवात्? अत्र च सप्तमतया अष्टमतया च निर्दिष्टयोर्महाभूतत्वानभ्युपगमात्? चेतनाशब्दस्य च अप्रसिद्धार्थत्वात्? प्रसिद्धार्थस्वीकारस्योचित्यात्। अतस्सम्बन्धमात्रविवक्षयैव अत्र षष्ठी युक्तेति।
।।10.22।।वेदानां चतुर्णामपि मध्ये सामवेदोऽस्मि। गानात्मकमाधुर्यरसवत्त्वेनाऽधिक्यं तत्रेति भावः। देवानां मध्ये वासव इन्द्रोऽस्मि? शतमखत्वेन सर्वक्रियांशभोक्तृत्वेन राज्यभोक्तृत्वेन च। इन्द्रियाणां आधिदैविकेन्द्रियरूपोऽस्मि। च पुनः सर्वप्रेरकत्वान्मनोऽस्मि। भूतानां चेतनानां चेतना ज्ञानशक्तिरस्मि।
।।10.22।।सामवेदो गानेन रमणीयत्वात्। वासवो देवराजत्वात्। मन इन्द्रियान्तरप्रवर्तकत्वात्। चेतना धीवृत्तिः। चिदभिव्यक्तिहेतुत्वात्। एते वेदादीनां मध्ये श्रेष्ठाः।
।।10.22।।वासवः इन्द्रः। चेतना कार्यकरणसंघातेऽभिव्यक्ता बुद्धवृत्तिः।
10.22 वेदानाम् among the Vedas? सामवेदः the Sama Veda? अस्मि (I) am? देवानाम् among the gods? अस्मि (I) am? वासवः Indra? इन्द्रियाणाम् among the senses? मनः mind? च and? अस्मि (I) am? भूतानाम् among living beings? अस्मि (I) am? चेतना intelligence.Commentary Vasava is Indra.Gods Such as Rudras? Adityas.Indriyas The five JnanaIndriyas or organs of knowledge? viz.? ear? skin? eye? tongue and nose and the five KarmaIndriyas or organs of action? viz.? speech? hands? feet? genitals and anus. The mind is regarded as the eleventh sense. As the senses cannot function without the help of the mind? the mind is regarded as the chief among the senses.Chetana Intelligence is that state of intellect which is manifest in the aggregate of the body and the senses.That which illumines all? from the intellect down to the grossest object? is called Chetana.
10.22 Among the Vedas I am the Sama-Veda; I am Vasava among the gods; among the senses I am the mind; and I am intelligence among living beings.
10.22 Of the Vedas I am the Hymns, I am the Electric Force in the Powers of Nature; of the senses I am the Mind; and I am the Intelligence in all that lives.
10.22 Among the Vedas I am Sama-veda; among the gods I am Indra. Among the organs I am the mind, and I am the intelligence in creatures.
10.22 Vedanam, among the Vedas; I am the Sama-veda. Devanam, among the gods-such as Rudras, Adityas and others; I am vasavah, Indra. Indriyanam, among the eleven organs, viz eye etc.; I am the manah, mind. I am the mind which is of the nature of reflection and doubt. And I am the cetana, intelligence [It is the medium for the manifestation of Consciousness.], the function of the intellect ever manifest in the aggregate of body and organs; bhtanam, in creatures.
10.22. Of the Vedas, I am the Samaveda; of the gods, I am Vasava (Indra); of the sense-organs, I am the mind; of the beings, I am the sentience.
10.22 See Comment under 10.42
10.22 Of the Vedas, namely, Of Rk, Yajus, Saman, Atharva, I am that Samaveda which is the paramount one. Of the gods, I am Indra. Of eleven sense-organs, I am the sense-organ called Manas which is most paramount. Of living beings, namely, of those with consciousness, I am that consciousness. Here too the genitive is not used for specifying.
10.22 Of the Vedas I am Samaveda. Of gods, I am Indra. Of sense-organs I am the Manas (mind), and of living beings I am consciousness.
।।10.22।।मैं वेदोमें सामवेद हूँ? रुद्र? आदित्य आदि देवोंमें इन्द्र हूँ और चक्षु आदि एकादश इन्द्रियोंमें संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब प्राणियोंमें ( मैं ) चेतना हूँ। कार्यकरणके समुदायरूप शरीरमें सदा प्रकाशित रहनेवाली जो बुद्धिवृत्ति है? उसका नाम चेतना है।
।।10.22।। --,वेदानां मध्ये सामवेदः अस्मि। देवानां रुद्रादित्यादीनां वासवः इन्द्रः अस्मि। इन्द्रियाणाम् एकादशानां चक्षुरादीनां मनश्च अस्मि संकल्पविकल्पात्मकं मनश्चास्मि। भूतानाम् अस्मि चेतना कार्यकरणसंघाते नित्याभिव्यक्ता बुद्धिवृत्तिः चेतना।।
null
null
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः। इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।10.22।।
বেদানাং সামবেদোস্মি দেবানামস্মি বাসবঃ৷ ইন্দ্রিযাণাং মনশ্চাস্মি ভূতানামস্মি চেতনা৷৷10.22৷৷
বেদানাং সামবেদোস্মি দেবানামস্মি বাসবঃ৷ ইন্দ্রিযাণাং মনশ্চাস্মি ভূতানামস্মি চেতনা৷৷10.22৷৷
વેદાનાં સામવેદોસ્મિ દેવાનામસ્મિ વાસવઃ। ઇન્દ્રિયાણાં મનશ્ચાસ્મિ ભૂતાનામસ્મિ ચેતના।।10.22।।
ਵੇਦਾਨਾਂ ਸਾਮਵੇਦੋਸ੍ਮਿ ਦੇਵਾਨਾਮਸ੍ਮਿ ਵਾਸਵ। ਇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਾਣਾਂ ਮਨਸ਼੍ਚਾਸ੍ਮਿ ਭੂਤਾਨਾਮਸ੍ਮਿ ਚੇਤਨਾ।।10.22।।
ವೇದಾನಾಂ ಸಾಮವೇದೋಸ್ಮಿ ದೇವಾನಾಮಸ್ಮಿ ವಾಸವಃ. ಇನ್ದ್ರಿಯಾಣಾಂ ಮನಶ್ಚಾಸ್ಮಿ ಭೂತಾನಾಮಸ್ಮಿ ಚೇತನಾ৷৷10.22৷৷
വേദാനാം സാമവേദോസ്മി ദേവാനാമസ്മി വാസവഃ. ഇന്ദ്രിയാണാം മനശ്ചാസ്മി ഭൂതാനാമസ്മി ചേതനാ৷৷10.22৷৷
ବେଦାନାଂ ସାମବେଦୋସ୍ମି ଦେବାନାମସ୍ମି ବାସବଃ| ଇନ୍ଦ୍ରିଯାଣାଂ ମନଶ୍ଚାସ୍ମି ଭୂତାନାମସ୍ମି ଚେତନା||10.22||
vēdānāṅ sāmavēdō.smi dēvānāmasmi vāsavaḥ. indriyāṇāṅ manaścāsmi bhūtānāmasmi cētanā৷৷10.22৷৷
வேதாநாஂ ஸாமவேதோஸ்மி தேவாநாமஸ்மி வாஸவஃ. இந்த்ரியாணாஂ மநஷ்சாஸ்மி பூதாநாமஸ்மி சேதநா৷৷10.22৷৷
వేదానాం సామవేదోస్మి దేవానామస్మి వాసవః. ఇన్ద్రియాణాం మనశ్చాస్మి భూతానామస్మి చేతనా৷৷10.22৷৷
10.23
10
23
।।10.23।। रुद्रोंमें शंकर और यक्ष-राक्षसोंमें कुबेर मैं हूँ।वसुओंमें पावक (अग्नि) और शिखरवाले पर्वतोंमें सुमेरु मैं हूँ।
।।10.23।। मैं (ग्यारह) रुद्रों में शंकर हूँ और यक्ष तथा राक्षसों में धनपति कुबेर (वित्तेश) हूँ; (आठ) वसुओं में अग्नि हूँ तथा शिखर वाले पर्वतों में मेरु हूँ।।
।।10.23।। मैं रुद्रों में शंकर हूँ जीवन का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को नाश के अधिष्ठाता देवता के रूप में रुद्र की कल्पना को भलीभाँति समझना चाहिये। प्रत्येक परवर्ती (आगामी) रचना के पूर्व नाश होना आवश्यक है। फल को स्थान देने के लिए फूल को नष्ट होना पड़ता है और बीज को प्राप्त करने के लिए फल का विनाश आवश्यक है। ये बीज पुन नष्ट होकर पौधे को जन्म देते हैं। इस प्रकार? प्रत्येक प्रगति और विकास के पूर्व रचनात्मक विनाश की एक अखण्ड शृंखला बनी रहती है। इस तथ्य को सूक्ष्मदर्शी तत्त्वचिन्तक ऋषियों ने पहचाना? और ज्ञान की परिपक्वता में निर्भय होकर उन्होंने रचनात्मक विनाश के सुखदायक देवता शंकर को सम्मान दिया और उनका पूजार्चन किया।मैं यक्ष और राक्षसों में कुबेर हूँ स्वर्ग के धन के कोषाध्यक्ष कुबेर कहे जाते हैं। कुबेर शब्द का अर्थ है कुत्सित शरीर वाला। पुराणों में इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है कुबेर अत्यन्त कुत्सित राक्षसी प्राणी है? स्थूल एवं ह्रस्व काय? (त्रिपाद) तीन पैरों वाले? विशाल उदर के? लघु मस्तक वाले और जिसके आठ दांत बाहर निकले हुये हैं। स्वर्ग के इस कोषाध्यक्ष की सहायता के लिए उसी के समान कुरूप? भोगवादी और क्रूरचिन्तक यक्ष और राक्षसों की नियुक्ति होती है? जो कोष रक्षा में कुबेर की सहायता करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि भारतीय ऋषिगण पूँजीवाद के कितने विरोधी थे कि उन्होंने धनपति कुबेर को अत्यन्त हास्यास्पद और विकृत आकृति वाला इतना कुरूप चित्रित किया है कि हमें हँसी भी नहीं आ सकती।मैं वसुओं में अग्नि हूँ वेदों में आठ वसुओं का वर्णन किया गया है? जो ऋतुओं के अधिष्ठाता देवता हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि इन वसुओं का मुख अग्नि है। वहाँ? मुख से तात्पर्य अनुभव और भोग के साधन से है। अत? आत्मा ही वह स्रोत है? जहाँ से हमें समस्त ऋतुओं के अनुभव प्राप्त होते हैं।बाह्य प्रकृति में छ ऋतुएँ हैं? तथा दो ऋतुएँ मन की हैं सुख और दुख। इस प्रकार यहाँ आठ ऋतुओं का निर्देश है। बसन्त ऋतु में यदि वियोग के कारण हम दुखी हों? तो उस ऋतु के फूल भी हमारे लिए अश्रुधार बहाते हुए प्रतीत होते हैं जबकि मन में सफलता का पूर्ण आनन्द उमड़ रहा हो तो शरद ऋतु के पर्णहीन वृक्ष भी हमें आनन्द का नृत्य करते प्रतीत होते हैं इस कारण ये दो आन्तरिक ऋतुएँ हैं। इन सबका अनुभव आत्मचैतन्य की उपस्थिति में ही हो सकता है? अन्यथा नहीं।मैं समस्त पर्वतों में मेरु पर्वत हूँ मेरु एक पौराणिक पर्वत है? जिसका प्राचीन हिन्दू भूगोल शास्त्र में विश्व के मध्य बिन्दु के रूप में वर्णन किया गया है। इस पर्वत के ऊपर देवता वास करते हैं और इसके नीचे सप्तद्वीप फैले हुए हैं? जिनसे यह जगत् बना है। मेरु पर्वत की ऊँचाई सात से आठ हजार मील मानी गई है? जिसके शिखर से गंगा सभी दिशाओं में बहती है। इस वर्णन से अनेक विद्वानों का यह मत बना कि यह हिमालय का वर्णन है? जो? निसन्देह ही? अस्वीकार्य नहीं हो सकता। परन्तु हम उसे वस्तुत गूढ़ सांकेतिक भाषा में किया गया तत्त्व का वर्णन मानेंगे। मेरु पर्वत ऐसे प्रभावी स्थान का सूचक है जिसका आधार जम्बू द्वीप में है। जिसके उच्च शिखर से अध्यात्म ज्ञान की गंगा समस्त द्वीपों का कल्याण करने के लिए प्रवाहित होती है।परिचित जगत् की वस्तुओं में आत्मा की प्रतिष्ठा को बताते हुए आगे कहते हैं
।।10.23।। व्याख्या--'रुद्राणां शंकरश्चास्मि'-- हर, बहुरूप, त्र्यम्बक आदि ग्यारह रुद्रोंमें शम्भु अर्थात् शंकर सबके अधिपति हैं। ये कल्याण प्रदान करनेवाले और कल्याणस्वरूप हैं। इसलिये भगवान्ने इनको अपनी विभूति बताया है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.23।।रुद्राणाम् एकादशानां शङ्करः अहम् अस्मि यक्षरक्षसां वैश्रवणः अहम्? वसूनाम् अष्टानां पावकः अहम् शिखरिणां शिखरशोभिनां पर्वतानां मध्ये मेरुः अहम्।
।।10.23।।मन्त्रब्राह्मणसमुदायानामृगादीनां मध्ये सामवेदोऽस्मीति। ध्यानान्तरमुदाहरति -- वेदानामिति। संघाते जीवाधिष्ठिते यावत्पञ्चत्वं सर्वत्र व्यापिनी चैतन्याभिव्यञ्जिकेति शेषः।
।।10.23।।रुद्राणामिति। एकादशानां मध्ये वा मूलं शङ्करोऽस्मि वैषणवत्वेन माननीयः। वित्तेशो मम कोशाधिकारी। वसूनां मध्ये पावको भगवन्मुखभूतोऽग्निरहम्।
।।10.23।।रुद्राणामेकादशानां मध्ये शंकरः वित्तेशो धनाध्यक्षः कुबेरः। यक्षरक्षसां यक्षाणां राक्षसानां च। वसूनामष्टानां पावकोऽग्निः। मेरुः सुमेरुः शिखरिणां शिखरवतामत्युच्छ्रितानां पर्वतानां च।
।।10.23।।रुद्राणामिति। यक्षरक्षसामिति। राक्षसानामपि क्रूरत्वादिसाम्याद्यक्षैः सहैकीकृत्य निर्देशः। तेषां मध्ये वित्तेशः कुबेरोऽस्मि। पावकोऽग्निः। शिखरिणां शिखरवतामुच्छ्रितानां मध्ये मेरुः।
।।10.23।।रुद्राणामिति। रुद्रेष्वेकस्य शङ्करसंज्ञयैवोत्कर्षद्योतनम्। यक्षराक्षसजात्योरविदूरविप्रकर्षात्यक्षरक्षसामित्युक्तम्? न तु वित्तेशस्य राक्षसत्वगन्धः यद्वानक्षत्राणामहं शशी [10।21] इतिवज्जातिद्वयपतित्वमात्रमिह विवक्षितम्। वित्तेशसंज्ञया च धनदस्यासाधारणैश्वर्योत्कर्षद्योतनम्।स्थावराणां हिमालयः [10।25] इति पर्वतमात्राणां परस्ताद्वक्ष्यमाणत्वात्मेरुः शिखरिणाम् इत्यत्र शिखरिशब्दः पर्वतविशेषोपलक्षकः। शक्तश्चायं शब्दो विशेषं दर्शयितुमित्यभिप्रायेणोक्तंशिखरशोभिनां पर्वतानामिति। प्रशंसापरः प्रत्यय इति भावः। प्रशस्तरत्नकाञ्चनादिमयशिखरविशेषयोगान्मेरोरतिशयः।
।।10.23।।रुद्राणां तामसानामेकादशानां च मध्ये शङ्करः सुखकरः सर्वेषां भक्तिज्ञानोपदेशकोऽस्मि। यक्षरक्षसां वित्तेशः कुबेरोऽस्मि। वसूनां मध्ये मुख्यतया द्रोणोऽस्मि। अतएवद्रोणो वसूनां प्रवरः इति श्रीभागवते [10।8।48] उक्तम्। च पुनः पावकः अग्निरस्मि। शिखरिणां शिखरवतामुच्चानां मध्ये मेरुरहमस्मि।
।।10.23।।रुद्राणामेकादशानां? वसूनामष्टानां? शिखराणि रत्नविशेषास्तद्वतां मध्ये मेरुरहम्।
।।10.23।।रुद्राणां वीरभद्रशेभुगिरिशाजैकपादाहिर्बुन्धयपिनाकिभवानीशकपालिदिक्पतिस्थाणुरुद्रसंज्ञानामेकादशानां शं करोतीति शंकरः। शुंभुश्चास्मि शं भवत्यस्मादिति व्युत्पत्तेः। वित्तेशः कुबेरः। वसूनां ध्रुवाध्वरापसोभानलानिलप्रत्यूषप्रभाससंज्ञानामष्टानामग्मिरस्मि। शिखरवतामत्युच्छ्रितानां मेरुरहम्।
10.23 रुद्राणाम् among the Rudras? शङ्करः Sankara? च and? अस्मि (I) am? वित्तेशः Kubera? यक्षरक्षसाम्,among celestial fairies and spirits? वसूनाम् among Vasus? पावकः Pavaka? च and? अस्मि (I) am? मेरुः Meru? शिखरिणाम् of mountains? अहम् I.Commentary Rudras are eleven in number. The ten vital airs (Pranas and the UpaPranas? which are five each) and the mind are the eleven Rudras. They are so called because they produce grief when they depart from the body. They have been symbolised in the Puranas as follows Virabhadra? Sankara? Girisa? Ajaikapati? Bhuvanadhisvara? Aherbhujya? Pinaki? Aparajita? Kapali? Sthanu and Bhaga. Among these Rudras? Sankara is regarded as the chief.Vasus are earth? water? fire? air? ether? sun? moon and stars. They are so called because they comprehend the whole universe within them. They have been symbolised in the Puranas as follows Apah? Dhruva? Soma? Dhara? Anila? Anala? Pratyusa and Prabhasa. Of these Anala or Pavaka (fire) is the chief.
10.23 And, among the Rudras I am Sankara; among the Yakshas and Rakshasas, the Lord of wealth (Kubera); among the Vasus I am Pavaka (fire); and among the (seven) mountains I am the Meru.
10.23 Among Forces of Vitality I am the life, I am Mammon to the heathen and the godless; I am the Energy in fire, earth, wind, sky, heaven, sun, moon and planets; and among mountains am the Mount Meru.
10.23 Among the Rudras [Aja, Ekapada, Ahirbudhnya, Pinaki, Aparajita, Tryam-baka, Mahesvara, Vrsakapi, Sambhu, Harana and Isvara. Different Puranas give different lists of eleven names.-Tr,] I am Sankara, and among the Yaksas and goblins I am Kubera [God of wealth. Yaksas are a class of demigods who attend on him and guard his wealth.]. Among the Vasus [According to the V.P. they are: Apa, dhruva, Soma, Dharma, Anila, Anala (Fire), Pratyusa and Prabhasa. The Mbh. and the Bh. given a different list.-Tr.] I am Fire, and among the mountains I am Meru.
10.23 Rudranam, among the eleven Rudras, I am Sankara; and yaksaraksasam, among the Yaksas and goblins; I am vittesah, Kubera. Vasunam, among the eight Vasus; I am pavakah, Fire; and sikharinam, among the peaked mountains, I am Meru.
10.23. And of the Rudras, I am Sankara; of the Yaksas and the Raksas, [I am] the Lord-of-Wealth (Kubera); of the Vasus, I am the Fire-god; of the mountains, I am the Meru.
10.23 See Comment under 10.42
10.23 Of eleven Rudras I am Sankara. Of Yaksas and Raksasas I am Kubera, son of Visravas. Among the eight Vasus I am Agni. Of mountains, namely, of those mountains which shine with peaks, I am Meru.
10.23 Of the Rudras I am Sankara. Of the Yaksas and Raksasas, I am the Lord of wealth (Kubera). Of the Vasus, I am Agni; of the mountains, I am Meru.
।।10.23।।एकादश रुद्रोंमें मैं शंकर हूँ। यक्ष और राक्षसोंमें मैं धनेश्वर कुबेर हूँ। आठ वसुओंमें मैं पावक -- अग्नि हूँ। शिखरवालोंमें ( पर्वतोंमें ) मैं सुमेरु पर्वत हूँ।
।।10.23।। --,रुद्राणाम् एकादशानां शंकरश्च अस्मि। वित्तेशः कुबेरः यक्षरक्षसां यक्षाणां रक्षसां च। वसूनाम् अष्टानां पावकश्च अस्मि अग्निः। मेरुः शिखरिणां शिखरवताम् अहम्।।
null
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रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्। वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।।10.23।।
রুদ্রাণাং শঙ্করশ্চাস্মি বিত্তেশো যক্ষরক্ষসাম্৷ বসূনাং পাবকশ্চাস্মি মেরুঃ শিখরিণামহম্৷৷10.23৷৷
রুদ্রাণাং শঙ্করশ্চাস্মি বিত্তেশো যক্ষরক্ষসাম্৷ বসূনাং পাবকশ্চাস্মি মেরুঃ শিখরিণামহম্৷৷10.23৷৷
રુદ્રાણાં શઙ્કરશ્ચાસ્મિ વિત્તેશો યક્ષરક્ષસામ્। વસૂનાં પાવકશ્ચાસ્મિ મેરુઃ શિખરિણામહમ્।।10.23।।
ਰੁਦ੍ਰਾਣਾਂ ਸ਼ਙ੍ਕਰਸ਼੍ਚਾਸ੍ਮਿ ਵਿਤ੍ਤੇਸ਼ੋ ਯਕ੍ਸ਼ਰਕ੍ਸ਼ਸਾਮ੍। ਵਸੂਨਾਂ ਪਾਵਕਸ਼੍ਚਾਸ੍ਮਿ ਮੇਰੁ ਸ਼ਿਖਰਿਣਾਮਹਮ੍।।10.23।।
ರುದ್ರಾಣಾಂ ಶಙ್ಕರಶ್ಚಾಸ್ಮಿ ವಿತ್ತೇಶೋ ಯಕ್ಷರಕ್ಷಸಾಮ್. ವಸೂನಾಂ ಪಾವಕಶ್ಚಾಸ್ಮಿ ಮೇರುಃ ಶಿಖರಿಣಾಮಹಮ್৷৷10.23৷৷
രുദ്രാണാം ശങ്കരശ്ചാസ്മി വിത്തേശോ യക്ഷരക്ഷസാമ്. വസൂനാം പാവകശ്ചാസ്മി മേരുഃ ശിഖരിണാമഹമ്৷৷10.23৷৷
ରୁଦ୍ରାଣାଂ ଶଙ୍କରଶ୍ଚାସ୍ମି ବିତ୍ତେଶୋ ଯକ୍ଷରକ୍ଷସାମ୍| ବସୂନାଂ ପାବକଶ୍ଚାସ୍ମି ମେରୁଃ ଶିଖରିଣାମହମ୍||10.23||
rudrāṇāṅ śaṅkaraścāsmi vittēśō yakṣarakṣasām. vasūnāṅ pāvakaścāsmi mēruḥ śikhariṇāmaham৷৷10.23৷৷
ருத்ராணாஂ ஷங்கரஷ்சாஸ்மி வித்தேஷோ யக்ஷரக்ஷஸாம். வஸூநாஂ பாவகஷ்சாஸ்மி மேருஃ ஷிகரிணாமஹம்৷৷10.23৷৷
రుద్రాణాం శఙ్కరశ్చాస్మి విత్తేశో యక్షరక్షసామ్. వసూనాం పావకశ్చాస్మి మేరుః శిఖరిణామహమ్৷৷10.23৷৷
10.24
10
24
।।10.24।। हे पार्थ ! पुरोहितोंमें मुख्य बृहस्पतिको मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियोंमें स्कन्द और जलाशयोंमें समुद्र मैं हूँ।
।।10.24।। हे पार्थ ! पुरोहितों में मुझे बृहस्पति जानो; मैं सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हूँ।।
।।10.24।। मैं पुरोहितों में बृहस्पति हूँ गुरु ग्रह के अधिष्ठाता बृहस्पति को ऋग्वेद में ब्रह्मणस्पति कहा गया है? जो स्वर्ग के अन्य देवों में उनके पद को स्वत स्पष्ट कर देता है। देवताओं के वे आध्यात्मिक गुरु माने जाते हैं।मैं सेनापतियों में स्कन्द हूँ स्कन्द को ही कार्तिक स्वामी के नाम से जाना जाता है? जो भगवान् शिव के पुत्र हैं। उनका वाहन मयूर है तथा हाथ में वे भाला (बरछा) धारण किये रहते हैं।मैं जलाशयों में सागर हूँ इन समस्त उदाहरणों में एक बात स्पष्ट होती है कि भगवान् न केवल स्वयं के समष्टि या सर्वातीत रूप को ही बता रहे हैं? वरन् अपने व्यष्टि या वस्तु व्यापक स्वरूप को भी। विशेषत? इस श्लोक में निर्दिष्ट उदाहरण देखिये। निसन्देह ही? गंगाजल का समुद्र के जल से कोई संबंध प्रतीत नहीं होता। यमुना? गोदावरी? नर्मदा? सिन्धु या कावेरी? नील? टेम्स या अमेजन जगत् के विभिन्न सरोवरों का जल? ग्रामों के तालाबों का जल और सिंचाई नहरों का जल? व्यक्तिगत रूप से? स्वतन्त्र हैं? जिनका उस समुद्र से कोई संबंध नहीं है? जो जगत् को आलिंगन बद्ध किये हुए हैं। और फिर भी? यह एक सुविदित तथ्य हैं कि इस विशाल समुद्र के बिना ये समस्त नदियाँ तथा जलाशय बहुत पहले ही सूख गये होते। इसी प्रकार चर प्राणी और अचर वस्तुओं का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्रतीत होता है? जिसका सत्य के असीम समुद्र से सतही दृष्टि से कोई संबंध प्रतीत न हो? किन्तु भगवान् सूचित करते हैं कि इस सत्य के बिना यह दृश्य जगत् बहुत पहले ही अपने अस्तित्व को मिटा चुका होता।इसी विचार का विस्तार करते हुए कहते हैं
।।10.24।। व्याख्या--'पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्'--संसारके सम्पूर्ण पुरोहितोंमें और विद्या-बुद्धिमें बृहस्पति श्रेष्ठ हैं। ये इन्द्रके गुरु तथा देवताओंके कुलपुरोहित हैं। इसलिये भगवान्ने अर्जुनसे बृहस्पतिको अपनी विभूति जानने-(मानने-) के लिये कहा है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.24।।पुरोधसाम् उत्कृष्टो बृहस्पतिः यः सः अहम् अस्मि। सेनानीनां सेनापतीनां स्कन्दः अहम् अस्मि? सरसां सागरः अहम् अस्मि।
।।10.24।।पुरोहितेषु बृहस्पतेर्मुख्यत्वे हेतुमाह -- स हीति।
।।10.24।।पुरोधसामिति। सरसां स्थिरजलाशयानां मध्ये सागरः।
।।10.24।।इन्द्रस्य सर्वराजश्रेष्ठत्वात्तत्पुरोधसं बृहस्पतिं सर्वेषां पुरोधसां राजपुरोहितानां मध्ये मुख्यं श्रेष्ठं मामेव हे पार्थं? विद्धि जानीहि। सेनानीनां सेनापतीनां मध्ये देवसेनापतिः स्कन्दो गुहोऽहमस्मि। सरसां देवखातजलाशयानां मध्ये सागरः सगरपुत्रैः खातो जलाशयोऽहमस्मि।
।।10.24।।पुरोधसामिति। पुरोधसां मध्ये देवपुरोहितत्वान्मुख्यं बृहस्पतिं मां विद्धि। सेनानीनां सेनापतीनां मध्ये देवसेनापतिः स्कन्दोऽहमस्मि। सरसां स्थिरजलाशयानां मध्ये समुद्रोऽस्मि।
।।10.24।।बृहस्पतिसंज्ञया बृहतां पतिरित्यतिशयसिद्धिः गिरां पतिर्ह्यसौ। सेनानीशब्देनात्र कर्मवश्यसेनापतिसङ्ग्रहः। स्कन्दस्य देवसेनानीत्वलक्षणोऽतिशयः। सरश्शब्देन प्रवाहव्यतिरिक्तस्थास्नुसलिलाशयमात्रस्य विवक्षितत्वात्सागरसङ्ग्रहः? स्रोतसां पृथग्वक्ष्यमाणत्वात् [10।31]।
।।10.24।।हे पार्थ पुरोधसां च मध्ये मुख्यं बृहस्पतिं मां विद्धि। पार्थेति सम्बोधनेन पृथासम्बन्धेन त्वयि कृपां करोमि। तथा निन्दिते पौरोहित्येऽपि देवक्रियया तस्मिन् बुद्ध्यादिशक्तिरूपेण तिष्ठामि? तेन मत्स्वरूपं विद्धीति व्यञ्जितम्। सेनानीनां सेनामध्ये देवसेनापतित्वात् स्कन्दोऽस्मि। सरसां रसयुतानां स्थिरजलानां मध्ये सागरः समुद्रोऽस्मि? रत्नाकर इत्यर्थः।
।।10.24।।पुरोधसां पुरोहितानां बृहस्पतिं देवराजपुरोहितत्वात्। सेनानीनां सेनापतीनां स्कन्दः कार्तिकेयः। सरसां जलाशयानाम्।
।।10.24।।पुरोधसां राजपुरोहितानां इन्द्रपुरोहितत्वान्मुख्यं पुरोहितं बृहस्पतिं जानीहि। यता त्वं पार्थानां मुख्य इति सूचयन्नाह -- पार्थेति। सेनापतीनां कार्तिकेय देवसेनापतिः। सरसां देवखातजलाशयानां सागरोऽस्मि।
10.24 पुरोधसाम् among the household priests? च and? मुख्यम् the chief? माम् Me? विद्धि know? पार्थ O Partha? बृहस्पतिम् Brihaspati? सेनानीनाम् among generals? अहम् I? स्कन्दः Skanda? सरसाम् among lakes? अस्मि (I) am? सागरः the ocean.Commentary Brihaspati is the chif priest of the gods. He is the househld priest of Indra.Skanda is Kartikeya or Lord Subramanya. He is the general of the hosts of the gods.Of things holding water -- natural reservoirs or lakes -- I am the ocean.
10.24 And, among the household priests (of kings), O Arjuna, know Me to be the chief, Brihaspati; among the army generals I am Skana; among lakes I am the ocean. '
10.24 Among the priests, know, O Arjuna, that I am the Apostle Brihaspati; of generals I am Skanda, the Commander-in-Chief, and of waters I am the Ocean.
10.24 O son of Prtha, know me to be Brhaspati, the foremost among the priests of kings. Among comanders of armies I am Skanda; among large expanses of water I am the sea.
10.24 O son of Prtha viddhi, know; mam, Me; to be Brahaspati, mukhyam, the foremost; purodhasam, among the priests of kings. Being as he is the priest of Indra, he should be the foremost. Senaninam, among ?ners of armies; I am Skanda, the ?nder of the armies of gods. Sarasam, among large expanses of water, among reservoirs dug by gods (i.e. among nature reservoirs); I am sagarah, the sea.
10.24. Of the royal priests I am the chief viz., Brhaspati (the priest of gods), O son of Prtha, you should know that; of the army-generals, I am Skanda [the War-god]; of the water reservoirs, I am the ocean.
10.24 See Comment under 10.42
10.24 I am that Bhraspati who is paramount among family priests. Of generals, I am Skanda. Of reservoirs of waters, O am the ocean.
10.24 Among family Priests, O Arjuna, know Me to be the chief Brhaspati. Of generals, I am Skanda. Of reservoirs of water, I am the ocean.
।।10.24।।हे पार्थ पुरोहितोंमें यानी राजपुरोहितोंमें तू मुझे प्रधान पुरोहित बृहस्पति समझ क्योंकि वे ही इन्द्रके मुख्य पुरोहित हैं। सेनापतियोंमें मैं देवोंका सेनापति कार्तिकेय हूँ तथा सरोवरोंमें अर्थात् जो देवनिर्मित सरोवर हैं उनमें समुद्र हूँ।
।।10.24।। --,पुरोधसां च राजपुरोहितानां च मुख्यं प्रधानं मां विद्धि हे पार्थ बृहस्पतिम्। स हि इन्द्रस्येति मुख्यः स्यात् पुरोधाः। सेनानीनां सेनापतीनाम् अहं स्कन्दः देवसेनापतिः। सरसां यानि देवखातानि सरांसि तेषां सरसां सागरः अस्मि भवामि।।
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पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्। सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।10.24।।
পুরোধসাং চ মুখ্যং মাং বিদ্ধি পার্থ বৃহস্পতিম্৷ সেনানীনামহং স্কন্দঃ সরসামস্মি সাগরঃ৷৷10.24৷৷
পুরোধসাং চ মুখ্যং মাং বিদ্ধি পার্থ বৃহস্পতিম্৷ সেনানীনামহং স্কন্দঃ সরসামস্মি সাগরঃ৷৷10.24৷৷
પુરોધસાં ચ મુખ્યં માં વિદ્ધિ પાર્થ બૃહસ્પતિમ્। સેનાનીનામહં સ્કન્દઃ સરસામસ્મિ સાગરઃ।।10.24।।
ਪੁਰੋਧਸਾਂ ਚ ਮੁਖ੍ਯਂ ਮਾਂ ਵਿਦ੍ਧਿ ਪਾਰ੍ਥ ਬਰਿਹਸ੍ਪਤਿਮ੍। ਸੇਨਾਨੀਨਾਮਹਂ ਸ੍ਕਨ੍ਦ ਸਰਸਾਮਸ੍ਮਿ ਸਾਗਰ।।10.24।।
ಪುರೋಧಸಾಂ ಚ ಮುಖ್ಯಂ ಮಾಂ ವಿದ್ಧಿ ಪಾರ್ಥ ಬೃಹಸ್ಪತಿಮ್. ಸೇನಾನೀನಾಮಹಂ ಸ್ಕನ್ದಃ ಸರಸಾಮಸ್ಮಿ ಸಾಗರಃ৷৷10.24৷৷
പുരോധസാം ച മുഖ്യം മാം വിദ്ധി പാര്ഥ ബൃഹസ്പതിമ്. സേനാനീനാമഹം സ്കന്ദഃ സരസാമസ്മി സാഗരഃ৷৷10.24৷৷
ପୁରୋଧସାଂ ଚ ମୁଖ୍ଯଂ ମାଂ ବିଦ୍ଧି ପାର୍ଥ ବୃହସ୍ପତିମ୍| ସେନାନୀନାମହଂ ସ୍କନ୍ଦଃ ସରସାମସ୍ମି ସାଗରଃ||10.24||
purōdhasāṅ ca mukhyaṅ māṅ viddhi pārtha bṛhaspatim. sēnānīnāmahaṅ skandaḥ sarasāmasmi sāgaraḥ৷৷10.24৷৷
புரோதஸாஂ ச முக்யஂ மாஂ வித்தி பார்த பரிஹஸ்பதிம். ஸேநாநீநாமஹஂ ஸ்கந்தஃ ஸரஸாமஸ்மி ஸாகரஃ৷৷10.24৷৷
పురోధసాం చ ముఖ్యం మాం విద్ధి పార్థ బృహస్పతిమ్. సేనానీనామహం స్కన్దః సరసామస్మి సాగరః৷৷10.24৷৷
10.25
10
25
।।10.25।। महर्षियोंमें भृगु और वाणियों-(शब्दों-) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञोंमें जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालोंमें हिमालय मैं हूँ।
।।10.25।। मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ। मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ।।
।।10.25।। मैं महर्षियों में भृगु हूँ इसी अध्याय में बताये हुए सप्तऋषियों में भृगु ऋषि प्रमुख हैं। भृगु मनु के पुत्र माने गये हैं जो मानव धर्मशास्त्र का वर्णन करते हैं।मैं शब्दों में एकाक्षर ओंकार हूँ शब्द अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए ध्वनि के संकेतक हैं। एक वक्ता अपने मन के भावों को शब्दों के द्वारा व्यक्त कर उन्हीं भावों को श्रोताओं के मन में उत्पन्न करता है। इस प्रकार? टमाटर शब्द एक पदार्थ का संकेतक है? जिसके उच्चारण से टमाटर से परिचित लोगों के मन में समान आकार की वृत्ति उत्पन्न होती है। यदि वक्ता यह पाता है कि इस शब्द के उच्चारण से श्रोताओं को अर्थ का बोध नहीं हुआ है? तो फिर वह अनेक वाक्यों के द्वारा उस वस्तु का वर्णन करके अर्थ बोध कराता है। जिस सीमा तक वह वक्ता? टमाटर के रूप? रंग? स्वाद और अन्य गुणों के संबंध में श्रोता के मन में चित्र को स्पष्ट करेगा? उस सीमा तक श्रोताओं को उसके प्रतिपाद्य विषय का ज्ञान होगा। इस प्रकार? सामान्यत कोई भी भाषा ऐसे शब्दों से पूर्ण होती है? जो हमारे अनुभवों और विचारों को व्यक्त कर सकती है और अन्यों को बोध कराने में सहायक होती है।यदि सामान्य शब्द किसी लौकिक परिच्छिन्न वस्तु को दर्शाता है? तो ऋषियों ने एक ऐसे शब्द की कल्पना की जो नित्य वस्तु का सूचक या वाचक हो। वह शब्द है ? जिसे ओंकार या प्रणव भी कहते हैं। वेदमन्त्रों में प्रणवमन्त्र महानतम है तथा आध्यात्मिक जगत् में आज तक साधकों के ध्यान के लिए आलम्बन के रूप में इस शब्द प्रतीक का उपयोग किया जाता है।मैं यज्ञों में जपयज्ञ हूँ जप एक सार्वभौमिक आध्यात्मिक साधना है। किसी एक मन्त्र के जप की सहायता से साधक अपने मन में एक इष्ट देवता की अखण्ड वृत्ति बनाये रखता है। कर्म भक्ति या ज्ञान के मार्ग में भी साधक का प्रयत्न यही होता है कि मन में एक सजातीय वृत्ति प्रवाह बना रहे चाहे वह कर्मकाण्ड की पूजा के द्वारा हो या ध्यान साधना से। इस प्रकार? सभी साधनाओं में? किसीनकिसी रूप में? सजातीय वृत्ति की पुनरावृत्ति का अभ्यास किया जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन्त्र जप अपने आप में एक स्वतन्त्र साधना है? किन्तु किसीनकिसी रूप में वह अन्य साधन मार्गों का भी अन्तरतम केन्द्र है।इस प्रकार? यहाँ जपयज्ञ का प्रशंसा की गई है? क्योंकि वह सभी साधनों का केन्द्र होने के साथसाथ अपने आप में एक स्वतन्त्र साधन मार्ग भी है। अखण्ड आत्मस्मरण ही पूर्णत्व का अनुभव और बुद्धि की परम शान्तिसमाधि का क्षण है।मैं स्थावरों में हिमालय हूँ स्थावर का अर्थ है जड़? अचेतन वस्तु। पर्वत किसे कहते हैं मिट्टी और चट्टानें? पेड़ और पौधे? पशु और पक्षी जो प्रकृतिक शक्तियों के वैभव के साथ मिले होते है। जैसे सूंसूं आवाज करता हुआ तूफान? मेघों को चीर कर जाती हुई विद्युत्? शान्त घाटियों से गरजकर बहती जाती नदियाँ? शान्त झील और सरोवर? नील वर्ण आकाश व गिरि शिखरों को स्नेहपूर्वक अपने हृदयों में प्रतिबिम्बित करते निस्तब्ध जलाशय इन सबका संयुक्त रूप है पर्वत। भगवान् कहते हैं? समस्त पर्वतों में मैं हिमालय हूँ। निश्चय ही वह हिमालय को उसके विशेष गुण के कारण अधिक गौरव और दिव्य प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। जग्ात् के सभी पर्वतों से सर्वथा विपरीत? भारत में? हिमालय के ऐसे गुप्त शिखर हैं? जहाँ बैठकर मनुष्य ने अपने विचारों की उड़ानों के द्वारा बुद्धि के परे तत्त्व का अनुभव करने के लिए अपने प्रयोग में वह सफलता पायी है? जो प्राणियों के इतिहास में उसके पूर्व किसी ने नहीं पायी थी।इससे भी सन्तुष्ट न होकर? भगवान् श्रीकृष्ण और अधिक उत्साह के साथ? अन्य सुन्दर उदाहरणों के द्वारा? अपने अनन्त वैभव को? सांसारिक बुद्धि के योद्धा मित्र अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं
।।10.25।। व्याख्या--'महर्षीणां भृगुरहम्'--भृगु, अत्रि, मरीचि आदि महर्षियोंमें भृगुजी बड़े भक्त, ज्ञानी और तेजस्वी हैं। इन्होंने ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश-- इन तीनोंकी परीक्षा करके भगवान् विष्णुको श्रेष्ठ सिद्ध किया था। भगवान् विष्णु भी अपने वक्षःस्थलपर इनके चरणचिह्नको 'भृगुलता' नामसे धारण किये रहते हैं। इसलिये भगवान्ने इनको अपनी विभूति बताया है। 'गिरामस्म्येकमक्षरम्'-- सबसे पहले तीन मात्रा-वाला प्रणव प्रकट हुआ। फिर प्रणवसे त्रिपदा गायत्री, त्रिपदा गायत्रीसे वेद और वेदोंसे शास्त्र, पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्मय जगत् प्रकट हुआ। अतः इन सबका कारण होनेसे और इन सबमें श्रेष्ठ होनेसे भगवान्ने एक अक्षर-- प्रणवको अपनी विभूति बताया है। गीतामें और जगह भी इसका वर्णन आता है जैसे --'प्रणवः सर्ववेदेषु' (7। 8) --'सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव मैं हूँ;' 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।' (8। 13) 'जो मनुष्य -- इस एक अक्षर प्रणवका उच्चारण करके और भगवान्का स्मरण करके शरीर छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है;' 'तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्' (17। 24) वैदिक लोगोंकी शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ प्रणवका उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' -- मन्त्रोंसे जितने यज्ञ किये जाते हैं, उनमें अनेक वस्तु-पदार्थोंकी, विधियोंकी,आवश्यकता पड़ती है और उनको करनेमें कुछ-न-कुछ दोष आ ही जाता है। परन्तु जपयज्ञ अर्थात् भगवन्नामका जप करनेमें किसी पदार्थ या विधिकी आवश्यकता नहीं पड़ती। इसको करनेमें दोष आना तो दूर रहा, प्रत्युत सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। इसको करनेमें सभी स्वतन्त्र हैं। भिन्न-भिन्न सम्प्रदायोंमें भगवान्के नामोंमें अन्तर तो होता है, पर नामजपसे कल्याण होता है -- इसको हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, जैन आदि सभी मानते हैं। इसलिये भगवान्ने जपयज्ञको अपनी विभूति बताया है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन,व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.25।।महर्षीणां मरीच्यादीनां भृगुः अहम् अर्थाभिधायिनः शब्दा गिरः? तासाम् एकम् अक्षरं प्रणवः अहम् अस्मि यज्ञानाम् उत्कृष्टः जपयज्ञः अस्मि? पर्वतमात्राणां हिमवान् अहम्।
।।10.25।।एकमित्योंकारस्य ब्रह्मप्रतीकत्वेन तदभिधानत्वेन च प्रधानत्वमुच्यते। जपयज्ञस्य यज्ञान्तरेभ्यो हिंसादिराहित्येन प्राधान्यमुपेत्याह -- यज्ञानामिति। शिखरवतामुच्छ्रितानां पर्वतानां मध्ये मेरुरहमित्युक्तेऽपि स्थितिशीलानां तेषामेव हिमवान्पर्वतराजोऽस्मीत्यर्थभेदं गृहीत्वाह -- स्थितिमतामिति।
।।10.25।।महर्षीणामिति। भृगुरहं ब्रह्मानन्दजनको भक्तिनिर्द्धारकश्चेत्यतो मद्विभूतिः। अक्षरमेकं सर्वबीजं प्रणवरूपोऽस्मि।
।।10.25।।महर्षीणां सप्त ब्रह्मणां मध्ये भृगुरतितेजस्वित्वादहम्। गिरां वाचां पदलक्षणानां मध्ये एकमक्षरं पदमोंकारोऽहमस्मि। यज्ञानां मध्ये जपयज्ञो हिंसादिदोषशून्यत्वेनात्यन्तशोधकोऽहमस्मि। स्थावराणां स्थितिमतां मध्ये हिमालयोऽहम्। शिखरवतां मध्ये हि मेरुरहमित्युक्तमतः स्थावरत्वेन शिखरवत्त्वेन चार्थभेदाददोषः।
।।10.25।। महर्षीणामिति। गिरां वाचां पदात्मिकानां मध्य एकमक्षरमोंकाराख्यं पदमस्मि। यज्ञानां श्रौतस्मार्तानां मध्ये जपरूपो यज्ञोऽहमस्मि।
।।10.25।।देवर्षीणां मुनीनाम् [10।2637] इत्यादेर्वक्ष्यमाणत्वादत्र महच्छब्देन विशेषणाच्चमहर्षीणाम् इति ऋषिगणविशेषो विवक्षित इत्यभिप्रायेणमरीच्यादीनामित्युक्तम्।गिराम् इति न शब्दमात्रं विवक्षितम् समुद्रघोषादिषु तत्प्रयोगाभावात्। अत एव नाक्षरमात्रम्अक्षराणामकारोऽस्मि [10।33] इति पृथग्वक्ष्यमाणत्वाच्च। तत एवएकमक्षरम् इत्यप्यकारव्यतिरिक्तविषयम्।ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म [8।13] इत्यादिषु प्रणवेऽप्येकशब्दविशेषितोऽक्षरशब्दः प्रयुक्त इत्यभिप्रायेणाह -- अर्थाभिधायिन इति। अर्थाभिधायिषु प्रणवस्योत्कर्षः सर्वोत्कृष्टार्थाभिधायित्वादिना शङ्कुना पर्णानामिव सर्वासां वाचां प्रणवेन सन्तृण्णत्वश्रुतेश्च [छां.उ.2।23।3] यज्ञेषु जपयज्ञस्य प्राशस्त्यमन्यत्र सिद्धंविधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः [मनुः2।85] इति। किञ्चकुर्याद्धृतपशुं (वापि) कुर्यात्पिष्टपशुं तथा। न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुमिच्छेत्क(दाचन) थञ्चन [मनुः5।37] इतिपशुयज्ञैः कथं हिंस्रैर्मादृशो यष्टुमर्हति। हिंसात्मकैस्तु किं तस्य यज्ञैः कार्यं महात्मनः। प्रस्वापे च प्रबोधे च पूजितो येन केशवः इत्यादिवचनबलादहिंसात्मकयज्ञानर्हाणां हिंसात्मकयज्ञानुज्ञानम्। तत्रापि विधितः प्रवृत्तेः अपकारानभिसन्धानादुपकारश्रुतेर्देवताप्रीणनत्वाच्च न प्रत्यवायः। फलार्थिनां तु तत्फलमल्पमस्थिरं दुःखमिश्रं च। अहिंसात्मकास्तु यज्ञा विशिष्टाधिकारिसाध्याः भगवतोऽतिप्रीणनत्वादपवर्गप्रत्यासन्नाः। अत एव ह्युपरिचरादयः पिष्टपशुभिरिष्टवन्तः। एवमितरेषु यज्ञेषु हिंसादिप्रसङ्गोऽधिकारिविशेषादिना विषयव्यवस्थापनमित्यादिर्महान् क्लेशः जपयज्ञे तु तत्प्रसङ्गाभावादव्याक्षेपेणार्थप्रतीत्या सबीजयोगद्वारा समाधौ सहसा निवेशनाच्च यज्ञान्तरेभ्यो जपयज्ञः प्रशस्ततमः सर्वाश्रमसाधारण्यात्जप्ये(नैव) नापि तु संसिद्ध्येद्ब्राह्मणो नात्र संशयः। कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते [मनुः2।87] इति विधुरादेरपि सिद्धिहेतुत्वाच्च। पर्वतविशेषाणां पूर्वमुक्तत्वात् (23) वृक्षाणां वक्ष्यमाणत्वाच्च (26) तदुभयव्यवच्छेदार्थं हिमवतः शैलराजत्वप्रसिद्ध्यनुरोधार्थं चोक्तंपर्वतमात्राणामिति।
।।10.25।।महर्षीणां सर्ववेदात्मको भृगुरस्मि। गिरां पदात्मकानां मध्ये एकाक्षरम् कारात्मकमहमस्मि। यज्ञानां कर्मणां मध्ये जपयज्ञोऽस्मि। स्थावराणामचलानां हिमालयोऽस्मि।
।।10.25 -- 10.26।।एकमक्षरमोंकाराख्यम्। जपयज्ञो हिंसाशून्यत्वात्। स्थावराणां स्थितिमताम्।
।।10.25।।गिरां वाक्यपदलक्षणानां एकमक्षरर्मोकारोऽस्मि। स्थावराणां स्थितिमताम्।
10.25 महर्षीणाम् among the great Rishis? भृगुः Bhrigu? अहम् I? गिराम् among words? अस्मि (I) am? ऐकम् the one? अक्षरम् syllable? यज्ञानाम् among sacrifices? जपयज्ञः the sacrifice of silent repetition? अस्मि (I) am? स्थावराणाम् among immovable things? हिमालयः Himalayas.Commentary Manu has said Whatever else the Brahmana may or may not do? he attains salvation by Japa (silent repetition of a Mantra) alone.Bhrigu is one of the mindborn of the Creator.Himalaya The highest mountain range in the world.Japayajna There is neither injury nor loss in this Yajna. Therefore? it is regarded as the best of all Yajnas.
10.25 Among the great sages I am Bhrigu; among words I am the one syllable (Om); among sacrifices I am the sacrifice of silent repetition; among the immovable things I am the Himalayas.
10.25 Of the great seers I am Bhrigu, of words I am Om, of offerings I am the silent prayer, among things immovable I am the Himalayas.
10.25 Among the great sages I am Bhrgu; of words I am the single syllable (Om) [Om is the best because it is the name as well as the symbol of Brahman.]. Among rituals I am the ritual of Japa [Japa, muttering prayers-repeating passages from the Vedas, silently repeating names of deities, etc. Rituals often involve killing of animals. But Japa is free from such injury, and hence the best.] of the immovables, the Himalaya.
10.25 Maharsinam, among the great sages, I am Bhrgu, Giram, of words, of utterances, in the form of words; I am the ekam, single; aksaram, syllable Om. Yajnanam, among rituals; I am the japa-yajnah, rituals of Japa. Sthavaranam, of the immovables, I am the Himalaya.
10.25. Of the great seers, I am Bhrgu; of the words, I am the Single-syllable (Om); of the sacrifices [performed with external objects], I am the sacrifice of muttering prayer; of the immovables, I am the Himalayan range.
10.25 See Comment under 10.42
10.25 Of great seers like Marici etc., I am Bhrgu. Words are sounds that convey meaning. Of such words, I am the single-lettered word Pranava (Or Om). Of the sacrifices, I am the sacrifice of Japa (sacred formula silently repeated) which is the most prominent form of sacrificial offerings. Of immovables or mountains, I am the Himalaya.
10.25 Of the great seers, I am Bhrgu. Of words, I am the single-lettered word Om. Of sacrifices, I am the sacrifice of Japa. Of immovable things I am the Himalayas.
।।10.25।।महर्षियोंमें मैं भृगु हूँ? वाणीसम्बन्धी भेदोंमें -- पदात्मक वाक्योंमें एक अक्षर -- ओंकार हूँ? यज्ञोंमें जपयज्ञ हूँ और स्थावरोंमें अर्थात् अचल पदार्थोंमें हिमालय नामक पर्वत हूँ।
।।10.25।। --,महर्षीणां भृगुः अहम्। गिरां वाचां पदलक्षणानाम् एकम् अक्षरम् ओंकारः अस्मि। यज्ञानां जपयज्ञः अस्मि? स्थावराणां स्थितिमतां हिमालयः।।
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महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्। यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।10.25।।
মহর্ষীণাং ভৃগুরহং গিরামস্ম্যেকমক্ষরম্৷ যজ্ঞানাং জপযজ্ঞোস্মি স্থাবরাণাং হিমালযঃ৷৷10.25৷৷
মহর্ষীণাং ভৃগুরহং গিরামস্ম্যেকমক্ষরম্৷ যজ্ঞানাং জপযজ্ঞোস্মি স্থাবরাণাং হিমালযঃ৷৷10.25৷৷
મહર્ષીણાં ભૃગુરહં ગિરામસ્મ્યેકમક્ષરમ્। યજ્ઞાનાં જપયજ્ઞોસ્મિ સ્થાવરાણાં હિમાલયઃ।।10.25।।
ਮਹਰ੍ਸ਼ੀਣਾਂ ਭਰਿਗੁਰਹਂ ਗਿਰਾਮਸ੍ਮ੍ਯੇਕਮਕ੍ਸ਼ਰਮ੍। ਯਜ੍ਞਾਨਾਂ ਜਪਯਜ੍ਞੋਸ੍ਮਿ ਸ੍ਥਾਵਰਾਣਾਂ ਹਿਮਾਲਯ।।10.25।।
ಮಹರ್ಷೀಣಾಂ ಭೃಗುರಹಂ ಗಿರಾಮಸ್ಮ್ಯೇಕಮಕ್ಷರಮ್. ಯಜ್ಞಾನಾಂ ಜಪಯಜ್ಞೋಸ್ಮಿ ಸ್ಥಾವರಾಣಾಂ ಹಿಮಾಲಯಃ৷৷10.25৷৷
മഹര്ഷീണാം ഭൃഗുരഹം ഗിരാമസ്മ്യേകമക്ഷരമ്. യജ്ഞാനാം ജപയജ്ഞോസ്മി സ്ഥാവരാണാം ഹിമാലയഃ৷৷10.25৷৷
ମହର୍ଷୀଣାଂ ଭୃଗୁରହଂ ଗିରାମସ୍ମ୍ଯେକମକ୍ଷରମ୍| ଯଜ୍ଞାନାଂ ଜପଯଜ୍ଞୋସ୍ମି ସ୍ଥାବରାଣାଂ ହିମାଲଯଃ||10.25||
maharṣīṇāṅ bhṛgurahaṅ girāmasmyēkamakṣaram. yajñānāṅ japayajñō.smi sthāvarāṇāṅ himālayaḥ৷৷10.25৷৷
மஹர்ஷீணாஂ பரிகுரஹஂ கிராமஸ்ம்யேகமக்ஷரம். யஜ்ஞாநாஂ ஜபயஜ்ஞோஸ்மி ஸ்தாவராணாஂ ஹிமாலயஃ৷৷10.25৷৷
మహర్షీణాం భృగురహం గిరామస్మ్యేకమక్షరమ్. యజ్ఞానాం జపయజ్ఞోస్మి స్థావరాణాం హిమాలయః৷৷10.25৷৷
10.26
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।।10.26।। सम्पूर्ण वृक्षोंमें पीपल, देवर्षियोंमें नारद, गन्धर्वोंमें चित्ररथ और सिद्धोंमें कपिल मुनि मैं हूँ।
।।10.26।। मैं समस्त वृक्षों में अश्वत्थ (पीपल) हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ; मैं गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्ध पुरुषों में कपिल मुनि हूँ।।
।।10.26।। मैं समस्त वृक्षों में अश्वत्थ वृक्ष हूँ परिमाण और आयुमर्यादा दोनों की दृष्टि से अश्वत्थ अर्थात् पीपलवृक्ष को सर्वव्यापक और नित्य माना जा सकता है? क्योंकि वह प्राय कई शताब्दियों तक जीवित रहता है। हिन्दू लोग उसकी पूजा करते हैं। उसके साथ दिव्यता और पवित्रता की भावना जुड़ी हुई है। वैदिक परम्परा से परिचित लोगों को अश्वत्थ शब्द उपनिषदों में वर्णित संसार वृक्ष के रूपक का स्मरण भी कराता है। गीता के भी आगे आने वाले एक अध्याय में अश्वत्थ वृक्ष का वर्णन मिलता है? जो इस दृश्यमान मिथ्या जगत् का प्रतीक रूप है।मैं देवर्षियों में नारद हूँ देवर्षि नारद हमारी पौराणिक कथाओं के एक प्रिय पात्र हैं। नारद का वर्णन हरिभक्त के रूप में किया गया है। वे न केवल देवर्षियों में महान् हैं? वरन् वे प्राय इस पृथ्वीलोक पर अवतरित होकर लोगों के मन में गर्व अभिमान दूर करने के लिए जानबूझकर उनकी आपस में कलह करवाते हैं और अन्त में सबको भक्ति का मार्ग दर्शाकर स्वर्ग सुख की प्राप्ति कराते हैं। सम्भवत? श्रीकृष्ण स्वयं धर्मोद्धारक और धर्मप्रचारक होने के नाते नारद जी के प्रति उनके प्रचार के उत्साह के कारण आदर भाव रखते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार अनेक अधर्मियों को धर्म मार्ग में परिवर्तित कर नारद जी ने उन्हें मोक्ष दिलाया है। भगवान् श्रीकृष्ण और नारद दोनों की ही समान महत्वाकांक्षा होने से दोनों के मध्य स्नेह होना स्वाभाविक ही है।मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ गन्धर्वगण स्वर्ग के गायक वृन्द हैं? जो कला और संगीत के द्वारा देवताओं का मनोरंजन करते हैं। स्वर्ग के मनोरंजन के वे सितारे हैं। उन गन्धर्वों में सर्वश्रेष्ठ हैं चित्ररथ।मैं सिद्धों में कपिल मुनि हूँ ये सिद्ध पुरुष जादूगर नहीं हैं। इस संस्कृत शब्द का अर्थ है जिस पुरुष ने अपने लक्ष्य (साध्य) को सिद्ध (प्राप्त) कर लिया है। अत आत्मानुभवी पुरुष ही सिद्ध कहलाता है। ऐसे सिद्ध पुरुषों में भगवान् कहते हैं कि? मैं कपिल मुनि हूँ। मुनि शब्द से उस पारम्परिक धारणा को बनाने की आवश्यकता नहीं है? जिसमें मुनि को एक बृद्ध? पक्व केश वाले? प्राय निर्वस्त्र और साधारणत अगम्य स्थानों में विचरण करने वाले पुरुष के रूप में अज्ञानी चित्रकारों के द्वारा चित्रित किया जाता है। उसके विषय में ऐसी धारणा प्रचलित हो गई है कि वह एक सामान्य नागरिक के समान न होकर जंगलों का कोई विचित्र प्राणी है? जो विचित्र्ा आहार पर जीता है। वस्तुत मुनि का अर्थ है मननशील अर्थात् तत्त्वचिन्तक पुरुष। वह शास्त्रीय कथनों के गूढ़ अभिप्रायों पर सूक्ष्म? गम्भीर मनन करता है। ऐसे विचारकों में मैं कपिल मुनि हूँ।सांख्य दर्शन के प्रणेता के रूप में कपिल मुनि सुविख्यात हैं? जिनका संकेत यहाँ किया गया है। अनेक सिद्धांतों पर गीता का सांख्य दर्शन के साथ मतैक्य है। अत भगवान् यहाँ कपिल मुनि को अपनी विभूति की सम्मानित प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं।पुन?
।।10.26।। व्याख्या--'अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्'--पीपल एक सौम्य वृक्ष है। इसके नीचे हरेक पेड़ लग जाता है, और यह पहाड़, मकानकी दीवार, छत आदि कठोर जगहपर भी पैदा हो जाता है। पीपल वृक्षके पूजनकी बड़ी महिमा है। आयुर्वेदमें बहुत-से रोगोंका नाश करनेकी शक्ति पीपल वृक्षमें बतायी गयी है। इन सब दृष्टियोंसे भगवान्ने पीपलको अपनी विभूति बताया है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.26।।सर्ववृक्षाणां मध्ये पूज्यः अश्वत्थ एव अहम्। देवर्षीणां मध्ये परमवैष्णवो नारदः अहम् अस्मि। गन्धर्वाणां देवगायकानां मध्ये चित्ररथः अस्मि। सिद्धानां योगनिष्ठानां परमोपास्यः कपिलः अहम्।
।।10.26।।सर्ववृक्षाणामित्यत्र सर्वशब्देन वनस्पतयो गृह्यन्ते।
।।10.26।।अश्वत्थ इति। वैष्णवोऽयं ध्येयः पूज्यश्च। देवर्षीणां नारदोऽहं महाभागवतो मर्यादापुष्टिरसिकः। गन्धर्वाणां मध्ये चित्ररथो गायको वैष्णवत्वाच्चिन्तनीयः। कपिलस्तु भगवदवतारःसाङ्ख्यतत्त्ववक्तापुष्टिसर्गप्रणेता भगवद्विभूतिः।
।।10.26।।सर्वेषां वृक्षाणां वनस्पतीनामन्येषां च। देवा एव सन्तो ये मन्त्रदर्शित्वेन ऋषित्वं प्राप्तास्ते देवर्षयस्तेषां मध्ये नारदोऽहमस्मि। गन्धर्वाणां गानधर्मिणां देवगायकानां मध्ये चित्ररथोऽहमस्मि। सिद्धानां जन्मनैव विनाप्रयत्नं धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यातिशयं प्राप्तानामधिगतपरमार्थानां मध्ये कपिलो मुनिरहम्।
।।10.26।।अश्वत्थ इति। देवा एव सन्तो मन्त्रदर्शनेन य ऋषित्वं प्राप्तास्तेषां मध्ये नारदोऽस्मि। सिद्धानामुत्पत्तित एवाधिगतपरमार्थतत्त्वानां मध्ये कपिलाख्यो मुनिरस्मि।
।।10.26।।अश्वत्थ इति। ननुसर्ववृक्षाणाम् इत्येतदनुपपन्नं? पारिजाताद्यपेक्षया अश्वत्थस्य निकृष्टत्वादित्यत्रोक्तंपूज्य इति। पारिजातादीनामप्यश्वत्थवत्पूज्यत्वं नास्तीति भावः। देवा मन्त्रदर्शिनो देवर्षयः? देवर्षिषु नारदस्य बहुप्रकारोऽतिशयो बहुषु प्रदेशेषु महाभारत एव प्रपञ्चितः। चित्ररथो गन्धर्वराजः।सिद्धानाम् इत्यादि पूर्वसञ्चितसुकृतविशेषवशाज्जन्मसिद्धाणिमाद्यैश्वर्यसिद्धिः।आदिविद्वान्सिद्धः इति कपिलमाहुः।ऋषिं प्रसूतं कपिलं (महान्तम्) यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति [श्वे.उ.5।2] इति च श्रुतिः।ददृशुः कपिलं तत्र वासुदेवं सनातनम् [वा.रा.1।40।25] इति चाहुः। अयमपि परशुरामादिवत्।
।।10.26।।सर्ववृक्षाणां मध्ये अश्वत्थः पिप्पलोऽस्मि। देवर्षीणां देवमन्त्रद्रष्टृ़णां मध्ये मदिङ्गितोपदेशकत्वान्नारदोऽस्मि। गन्धर्वाणां गायकानां मध्ये चित्ररथोऽस्मि। सिद्धानां अघिगतपरमार्थानां मध्ये स्वतोऽधीतपरमार्थरूपः कपिलो मुनिरस्मि।
।।10.25 -- 10.26।।एकमक्षरमोंकाराख्यम्। जपयज्ञो हिंसाशून्यत्वात्। स्थावराणां स्थितिमताम्।
।।10.26।।देवानामेव सतां मन्त्रदर्शित्वात् ऋषित्वं प्राप्तानां नारदोऽस्मिं। सिद्धानां जन्मनैव धर्मज्ञानादिनिरतिशयं प्राप्तानाम्।
10.26 अश्वत्थः Asvattha? सर्ववृक्षाणाम् among all trees? देवर्षीणाम् among Divine Rishis? च and? नारदः Narada? गन्धर्वाणाम् among Gandharvas? चित्ररथः Chitraratha? सिद्धानाम् among the Siddhas or the perfected? कपिलः Kapila? मुनिः sage.Commentary Devarshis are gods and at the same time Rishis or seers of Mantras.Siddhas are the perfected ones those who at their very birth attained without any effort Dharma (virtue)? Jnana (knowledge of the Self)? Vairagya (dispassion) and Aisvarya (lordship).Muni is one who does Manana or reflection one who meditates.
10.26 Among all the trees ( I am) the Peepul; among the divine sages, I am Narada; among Gandharvas, Chitraratha; among the perfected, the sage Kapila.
10.26 Of trees I am the sacred Fig-tree, of the Divine Seers Narada, of the heavenly singers I am Chitraratha, their Leader, and of sages I am Kapila.
10.26 Among all trees (I am) the Asvatha (peepul), and Narada among the divine sages. Among the dandharvas [A class of demigods regarded as the musicians of gods.] (I am) Citraratha; among the perfected ones, the sage Kapila.
10.26 Sarva-vrksanam, among all trees, (I am) the Asvatta; and Narada devarsinam, among the divine sages-those who were gods and became sages by virtue of visualizing Vedic mantras; among them I am Narada. Gandharvanam, among the gandharvas, I am the gandharva called Citraratha. Siddhanam, among the perfected ones, among those who, from their very birth, were endowed with an abundance of the wealth of virtue, knowledge and renunciation; (I am) munih, the sage Kapila.
10.26. Of all trees, I am the Pipal-tree; and of the divine seers, Narada; of the Gandharvas (the celestial musicians), Citraratha; of the perfected ones, the sage Kapila.
10.26 See Comment under 10.42
10.26 - 10.29 Of trees I am Asvattha which is worthy of worship. Of celestial seers I am Narada. Kamadhuk is the divine cow. I am Kandarpa, the cause of progeny. Sarpas are single-headed snakes while Nagas are many-headed snakes. Aatic creatures are known as Yadamsi. Of them I am Varuna. Of subdures, I am Yama, the son of the sun-god.
10.26 Of trees I am the Asvattha. Of celestial seers, I am Narada. Of the Gandharvas I am Citraratha. Of the perfected, I am Kapila.
।।10.26।।समस्त वृक्षोंमें पीपलका वृक्ष और देवर्षियोंमें अर्थात् जो देव होकर मन्त्रोंके द्रष्टा होनेके कारण ऋषिभावको प्राप्त हुए हैं? उनमें मैं नारद हूँ। गन्धर्वोंमें मैं चित्ररथ नामक गन्धर्व हूँ? सिद्धोंमें अर्थात् जन्मसे ही अतिशय धर्म? ज्ञान? वैराग्य और ऐश्वर्यको प्राप्त हुए पुरुषोंमें मैं कपिलमुनि हूँ।
।।10.26।। --,अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्? देवर्षीणां च नारदः देवाः एव सन्तः ऋषित्वं प्राप्ताः मन्त्रदर्शित्वात्ते देवर्षयः? तेषां नारदः अस्मि। गन्धर्वाणां चित्ररथः नाम गन्धर्वः अस्मि। सिद्धानां जन्मनैव धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यातिशयं प्राप्तानां कपिलो मुनिः।।
।।10.26 -- 10.27।।सिद्धानां कपिलो मुनिः इति कपिलशब्दं व्याचष्टे -- सुखेति। सुखरूप इति कः? पाल्यते जगदनेनेति पिः?पा रक्षणे [धा.पा.2।46] इत्यतः किः? लीयते जगदनेनेति लः।ली श्लेषणे [धा.पा.9।29] इत्यस्माड्डःला आदाने [धा.पा.2।48] इत्यतो वाकः। ततः कर्मधारयः। कशब्दस्य सुखवाचित्वेऽभिधानं प्रयोगं च पठति -- प्रीतिरिति। समग्रार्थे श्रुतिमाह -- ऋषिमिति। तं भगवन्तमृषिं कपिलं च पश्येत्। कथमृषिः सर्वज्ञत्वात्? इत्युच्यते। यः प्रसूतं पूर्वकल्पेषु जातं जायमानं वर्तमानं चैवमागामि च जगज्ज्ञानैर्बिभर्ति जानातीति यावत्। कथं कपिलः इत्यत उक्तं -- सुखादिति। यच्छब्दद्वयस्य तमित्यनेनान्वयः।
।।10.26 -- 10.27।।सुखरूपः पाल्यते लीयते च जगदनेनेति कपिलः।प्रीतिः सुखं कमानन्दः इत्यभिधानात् प्राणो ब्रह्म कं ब्रह्म खं ब्रह्म [छां.उ.4।10।5] इति च। ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति (ज्ञा) जायमानं च पश्येत् [श्वे.उ.5।2] सुखादनन्तात्पालनाल्लीयनाच्च यं वै देवं कपिलमुदाहरन्ति इति (सामवेदे) बाभ्रव्यशाखायाम्।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः। गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः।।10.26।।
অশ্বত্থঃ সর্ববৃক্ষাণাং দেবর্ষীণাং চ নারদঃ৷ গন্ধর্বাণাং চিত্ররথঃ সিদ্ধানাং কপিলো মুনিঃ৷৷10.26৷৷
অশ্বত্থঃ সর্ববৃক্ষাণাং দেবর্ষীণাং চ নারদঃ৷ গন্ধর্বাণাং চিত্ররথঃ সিদ্ধানাং কপিলো মুনিঃ৷৷10.26৷৷
અશ્વત્થઃ સર્વવૃક્ષાણાં દેવર્ષીણાં ચ નારદઃ। ગન્ધર્વાણાં ચિત્રરથઃ સિદ્ધાનાં કપિલો મુનિઃ।।10.26।।
ਅਸ਼੍ਵਤ੍ਥ ਸਰ੍ਵਵਰਿਕ੍ਸ਼ਾਣਾਂ ਦੇਵਰ੍ਸ਼ੀਣਾਂ ਚ ਨਾਰਦ। ਗਨ੍ਧਰ੍ਵਾਣਾਂ ਚਿਤ੍ਰਰਥ ਸਿਦ੍ਧਾਨਾਂ ਕਪਿਲੋ ਮੁਨਿ।।10.26।।
ಅಶ್ವತ್ಥಃ ಸರ್ವವೃಕ್ಷಾಣಾಂ ದೇವರ್ಷೀಣಾಂ ಚ ನಾರದಃ. ಗನ್ಧರ್ವಾಣಾಂ ಚಿತ್ರರಥಃ ಸಿದ್ಧಾನಾಂ ಕಪಿಲೋ ಮುನಿಃ৷৷10.26৷৷
അശ്വത്ഥഃ സര്വവൃക്ഷാണാം ദേവര്ഷീണാം ച നാരദഃ. ഗന്ധര്വാണാം ചിത്രരഥഃ സിദ്ധാനാം കപിലോ മുനിഃ৷৷10.26৷৷
ଅଶ୍ବତ୍ଥଃ ସର୍ବବୃକ୍ଷାଣାଂ ଦେବର୍ଷୀଣାଂ ଚ ନାରଦଃ| ଗନ୍ଧର୍ବାଣାଂ ଚିତ୍ରରଥଃ ସିଦ୍ଧାନାଂ କପିଲୋ ମୁନିଃ||10.26||
aśvatthaḥ sarvavṛkṣāṇāṅ dēvarṣīṇāṅ ca nāradaḥ. gandharvāṇāṅ citrarathaḥ siddhānāṅ kapilō muniḥ৷৷10.26৷৷
அஷ்வத்தஃ ஸர்வவரிக்ஷாணாஂ தேவர்ஷீணாஂ ச நாரதஃ. கந்தர்வாணாஂ சித்ரரதஃ ஸித்தாநாஂ கபிலோ முநிஃ৷৷10.26৷৷
అశ్వత్థః సర్వవృక్షాణాం దేవర్షీణాం చ నారదః. గన్ధర్వాణాం చిత్రరథః సిద్ధానాం కపిలో మునిః৷৷10.26৷৷
10.27
10
27
।।10.27।। घोड़ोंमें अमृतके साथ समुद्रसे प्रकट होनेवाले उच्चैःश्रवा नामक घोड़ेको, श्रेष्ठ हाथियोंमें ऐरावत नामक हाथीको और मनुष्योंमें राजाको मेरी विभूति मानो।
।।10.27।। अश्वों में अमृत से उत्पन्न हुए उच्चैश्रवा नामक अश्व, हाथियों में ऐरावत और मनुष्यों में राजा मुझे ही जानो।।
।।10.27।। सुर और असुरों के द्वारा क्षीरसागर का मन्थन करके अमृत प्राप्त करने की पौराणिक कथा सुप्रसिद्ध है। इस मन्थन की प्रकिया के समय पंखयुक्त शक्तिशाली और समर्थ ऐसा एक अश्व प्रकट हुआ था? जिसका नाम उच्चैश्रवा था? तथा ऐरावत नाम का एक श्वेत गज भी प्रकट हुआ था। इन दोनों को देवताओं के राजा इन्द्र को उपहार के रूप में भेंट किया गया था। पौराणिक वर्णन के अनुसार इस प्रकार की कुल तेरह आकर्षक वस्तुएं उस मन्थन में प्रकट हुई थीं।
।।10.27।। व्याख्या--'उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्'--समुद्रमन्थनके समय प्रकट होनेवाले चौदह रत्नोंमें उच्चैःश्रवा घोड़ा भी एक रत्न है। यह इन्द्रका वाहन और सम्पूर्ण घोड़ोंका राजा है। इसलिये भगवान्ने इसको अपनी विभूति बताया है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.27।।सर्वेषाम् अश्वानां मध्ये अमृतमथनोद्भवम् उच्चैःश्रवसं मां विद्धि। गजेन्द्राणां सर्वेषां मध्येः अमृतमथनोद्भवम् ऐरावतं मां विद्धि।अमृतोद्भवम् इति ऐरावतस्य अपि विशेषणम्। नराणां मध्ये राजानं मां विद्धि।
।।10.27।।सर्ववृक्षाणामित्यत्र सर्वशब्देन वनस्पतयो गृह्यन्ते।
।।10.27।।उच्चैश्श्रवसमिति। सप्तमुखाग्निरूपमश्वम्? अमृतेन समुद्भवो यस्य। भगवत्सेवायां क्रीडोपयोगितया विभूतिः स चिन्तनीयः। तथैरावतोऽपि तदभिषेचनेन वा। भागवतेऽपि [स्कं.11अ.16] विभूतिनिरूपणे तदिदमुक्तम्। तारतम्यभेदस्त्वैच्छिकः एकवक्तृकत्वात्।
।।10.27।।अश्वानां मध्ये उच्चैःश्रवसममृतमथनोद्भवमश्वं मां विद्धि। ऐरावतं गजममृतमथनोद्भवं गजेन्द्राणां मध्ये मां विद्धि। नराणां च मध्ये नराधिपं राजानं मां विद्धीत्यनुषज्यते।
।।10.27।।उच्चैःश्रवसमिति। अमृतार्थं क्षीराब्धिमथनादुद्भूतमुच्चैःश्रवसं नामाश्वं मद्विभूतिं विद्धि। अमृतोद्भवमित्येतदैरावतेऽपि संबध्यते। नराधिपं राजानं मां विद्धि।
।।10.27।।अमृतोद्भवम् इति जन्मतः प्रकर्षसूचनम्। अमृतमत्र जलं मथ्यमानावस्था सुधैव वा। गजेन्द्रशब्देन दिग्गजा विवक्षिताः। तेषु प्रधानतया दिक्पालेश्वरस्य शचीपतेरौपवाह्य ऐरावतः। अमृतोद्भवत्वं च काकाक्षिन्यायादैरावतेऽप्यन्वेतव्यम्। रथन्तरसामोद्भवत्वं वा द्रष्टव्यम्। नराधिपशब्देनैव निर्वाहकत्वलक्षणोऽतिशयः सिद्धः।
।।10.27।।अश्वानां अमृतमथने अमृतसङ्गोत्पन्नमुच्चैश्श्रवसं मदंशं विद्धि। गजेन्द्राणां ऐरावतं विद्धि। नराणां मध्ये पालकं नरं राजानं विद्धि।
।।10.27।।अमृतोद्भवममृतमथनावसरे उद्भवो यस्य तम्।
।।10.27।।अमृतोद्भवममृतथनोद्भवम्। इदं ऐरावतेऽपि संबन्धनीयम्। नराधिपं राजानम्।
10.27 उच्चैःश्रवसम् Ucchaisravas? अश्वानम् among horses? विद्धि know? माम् Me? अमृतोद्भवम् born of nectar?,ऐरावतम् Airavata? गजेन्द्राणाम् among lordly elephants? नराणाम् among men? च and? नराधिपम् the king.Commentary Nectar was obtained by the gods by churning the ocean of milk. Ucchaisravas is the name of the royal horse which was born in that ocean of milk when it was churned for the nectar.Airavatam The offspring of Iravati? the elephant of Indra born at the time when the ocean of milk was churned.
10.27 Know Me as Ucchaisravas born of nectar, among horses; among lordly elephants (I am) the Airavata; and, among men, the king.
10.27 Know that among horses I am Pegasus, the heaven-born; among the lordly elephants I am the White one, and I am the Ruler among men.
10.27 Among horses, know Me to be Uccaihsravas, born of nectar; Airavata among the lordly elephants; and among men, the Kind of men. [Uccaihsravas and Airavata are respectively the divine horse and elephant of Indra.]
10.27 Asvanam, among horses; viddhi, know; mam, Me; to be the horse named Uccaihsravas; amrta-udbhavam, born of nectar-born when (the sea was) churned (by the gods) for nectar. Airavata, the son of Iravati, gajendranam, among the Lordly elephants; 'know Me to be so' remains understood. And naranam, among men; know Me as the naradhipam, King of men.
10.27. Of the horses, you should know Me to be the nectar-born Uccaihsravas (Indra's horse); of the best elephants, the Airavata (Indra's elephant); and of the men, their king.
10.27 See Comment under 10.42
10.26 - 10.29 Of trees I am Asvattha which is worthy of worship. Of celestial seers I am Narada. Kamadhuk is the divine cow. I am Kandarpa, the cause of progeny. Sarpas are single-headed snakes while Nagas are many-headed snakes. Aatic creatures are known as Yadamsi. Of them I am Varuna. Of subdures, I am Yama, the son of the sun-god.
10.27 Of horses know Me to be Uccaihsravas the nectar-born. Of lordly elephants, I am Airavata, and of men, I am the monarch.
।।10.27।।घोड़ोंमें? जो अमृतप्राप्तिके निमित्त किये हुए समुद्रमन्थनसे उत्पन्न उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा है? उसको तू मेरा स्वरूप समझ। गजेन्द्रोंमें -- मुख्य हाथियोंमें -- इरावतीका पुत्र जो ऐरावत नामक हाथी है? उसको तू मेरा स्वरूप जान और मनुष्योंमें मुझे तू राजा समझ।
।।10.27।। --,उच्चैःश्रवसम् अश्वानां उच्चैःश्रवाः नाम अश्वराजः तं मां विद्धि विजानीहि अमृतोद्भवम् अमृतनिमित्तमथनोद्भवम्। ऐरावतम् इरावत्याः अपत्यं गजेन्द्राणां हस्तीश्वराणाम्? तम् मां विद्धि इति अनुवर्तते। नराणां च मनुष्याणां नराधिपं राजानं मां विद्धि जानीहि।।
।।10.26 -- 10.27।।सिद्धानां कपिलो मुनिः इति कपिलशब्दं व्याचष्टे -- सुखेति। सुखरूप इति कः? पाल्यते जगदनेनेति पिः?पा रक्षणे [धा.पा.2।46] इत्यतः किः? लीयते जगदनेनेति लः।ली श्लेषणे [धा.पा.9।29] इत्यस्माड्डःला आदाने [धा.पा.2।48] इत्यतो वाकः। ततः कर्मधारयः। कशब्दस्य सुखवाचित्वेऽभिधानं प्रयोगं च पठति -- प्रीतिरिति। समग्रार्थे श्रुतिमाह -- ऋषिमिति। तं भगवन्तमृषिं कपिलं च पश्येत्। कथमृषिः सर्वज्ञत्वात्? इत्युच्यते। यः प्रसूतं पूर्वकल्पेषु जातं जायमानं वर्तमानं चैवमागामि च जगज्ज्ञानैर्बिभर्ति जानातीति यावत्। कथं कपिलः इत्यत उक्तं -- सुखादिति। यच्छब्दद्वयस्य तमित्यनेनान्वयः।
।।10.26 -- 10.27।।सुखरूपः पाल्यते लीयते च जगदनेनेति कपिलः।प्रीतिः सुखं कमानन्दः इत्यभिधानात् प्राणो ब्रह्म कं ब्रह्म खं ब्रह्म [छां.उ.4।10।5] इति च। ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति (ज्ञा) जायमानं च पश्येत् [श्वे.उ.5।2] सुखादनन्तात्पालनाल्लीयनाच्च यं वै देवं कपिलमुदाहरन्ति इति,(सामवेदे) बाभ्रव्यशाखायाम्।
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्। ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्।।10.27।।
উচ্চৈঃশ্রবসমশ্বানাং বিদ্ধি মামমৃতোদ্ভবম্৷ ঐরাবতং গজেন্দ্রাণাং নরাণাং চ নরাধিপম্৷৷10.27৷৷
উচ্চৈঃশ্রবসমশ্বানাং বিদ্ধি মামমৃতোদ্ভবম্৷ ঐরাবতং গজেন্দ্রাণাং নরাণাং চ নরাধিপম্৷৷10.27৷৷
ઉચ્ચૈઃશ્રવસમશ્વાનાં વિદ્ધિ મામમૃતોદ્ભવમ્। ઐરાવતં ગજેન્દ્રાણાં નરાણાં ચ નરાધિપમ્।।10.27।।
ਉਚ੍ਚੈਸ਼੍ਰਵਸਮਸ਼੍ਵਾਨਾਂ ਵਿਦ੍ਧਿ ਮਾਮਮਰਿਤੋਦ੍ਭਵਮ੍। ਐਰਾਵਤਂ ਗਜੇਨ੍ਦ੍ਰਾਣਾਂ ਨਰਾਣਾਂ ਚ ਨਰਾਧਿਪਮ੍।।10.27।।
ಉಚ್ಚೈಃಶ್ರವಸಮಶ್ವಾನಾಂ ವಿದ್ಧಿ ಮಾಮಮೃತೋದ್ಭವಮ್. ಐರಾವತಂ ಗಜೇನ್ದ್ರಾಣಾಂ ನರಾಣಾಂ ಚ ನರಾಧಿಪಮ್৷৷10.27৷৷
ഉച്ചൈഃശ്രവസമശ്വാനാം വിദ്ധി മാമമൃതോദ്ഭവമ്. ഐരാവതം ഗജേന്ദ്രാണാം നരാണാം ച നരാധിപമ്৷৷10.27৷৷
ଉଚ୍ଚୈଃଶ୍ରବସମଶ୍ବାନାଂ ବିଦ୍ଧି ମାମମୃତୋଦ୍ଭବମ୍| ଐରାବତଂ ଗଜେନ୍ଦ୍ରାଣାଂ ନରାଣାଂ ଚ ନରାଧିପମ୍||10.27||
uccaiḥśravasamaśvānāṅ viddhi māmamṛtōdbhavam. airāvataṅ gajēndrāṇāṅ narāṇāṅ ca narādhipam৷৷10.27৷৷
உச்சைஃஷ்ரவஸமஷ்வாநாஂ வித்தி மாமமரிதோத்பவம். ஐராவதஂ கஜேந்த்ராணாஂ நராணாஂ ச நராதிபம்৷৷10.27৷৷
ఉచ్చైఃశ్రవసమశ్వానాం విద్ధి మామమృతోద్భవమ్. ఐరావతం గజేన్ద్రాణాం నరాణాం చ నరాధిపమ్৷৷10.27৷৷
10.28
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।।10.28।। आयुधोंमें वज्र और धेनुओंमें कामधेनु मैं हूँ। सन्तान-उत्पत्तिका हेतु कामदेव मैं हूँ और सर्पोंमें वासुकि मैं हूँ।
।।10.28।। मैं शस्त्रों में वज्र और धेनुओं (गायों) में कामधेनु हूँ, प्रजा उत्पत्ति का हेतु कन्दर्प (कामदेव) मैं हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ।।
।।10.28।। मैं शस्त्रों में वज्र हूँ दिव्यास्त्रों में प्रमुख वज्रास्त्र अमोघ है। वृत्रासुर प्राय स्वर्ग पर आक्रमण करके वहाँ की शान्ति भंग करता था। अपनी प्रचण्ड शक्ति के कारण वह अवध्य बन गया था। उस समय दधीचि नामक एक महान् तपस्वी ऋषि ने उसके नाश हेतु एक दिव्य शस्त्र बनाने के लिए अपनी अस्थियों का दान किया था? जिससे इस अस्त्र का निर्माण करके वृत्रासुर की बध किया गया।मैं धेनुओं में कामधेनु हूँ कामधेनु की प्राप्ति भी अमृतमन्थन से हुई थी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यह एक ऐसी अनूठी गाय है? जिसके द्वारा हम अपनी समस्त इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं।प्रजोत्पत्ति के कारणों में मैं कामदेव हूँ भारतीय धारणा के अनुसार काम का देवता कन्दर्प (कामदेव? मदन) है? जो एक कुटिल हृष्टपुष्ट युवक के रूप में चित्रित किया गया है। यह कामदेव अपनी मन्दस्मिति के धनुष के द्वारा पाँच सुपुष्पित बाणों से मनुष्य की एकएक इन्द्रिय को आहत करता है यह जीव विज्ञान से सम्बन्धित एक सत्य है। प्रजोत्पत्ति माने केवल गर्भाधान की क्रिया या वनस्पति जगत् में होने वाली सेचन क्रिया ही नहीं समझी जानी चाहिए। भारतीय कामशास्त्र के अनुसार इसका अर्थ उन समस्त कामुक प्रवृत्तियों की शान्ति से है? जो सभी इन्द्रियों के माध्यम से व्यक्त होती हैं। एक दार्शनिक सच्चा वैज्ञानिक होता है और इस कारण उसमें वह मिथ्या लज्जा या संकोच नहीं होता? जो प्राय स्वभाव से अनैतिक किन्तु दिखावे के लिए कट्टर नैतिकतावादी व तिलकधारी पाखण्डी लोगों का होता है। वेदान्त के आचार्य कामवासना के संबंध में विश्लेषण करते समय इस प्रकार निर्मम होते हैं? जैसे चिकित्साशास्त्र के महाविद्यालय में कोई प्राध्यापक।भगवान् घोषणा करते हैं कि प्रजोत्पत्ति के सब कारणों में कन्दर्प मैं हूँ। वैषयिक भोग के क्षेत्र में कामदेव मनुष्य के शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक व्यक्तित्व के पूर्ण सन्तोष का प्रतीक है।मैं सर्पों में वासुकि हूँ पुराणों में किये गये वर्णन के अनुसार वासुकि भगवान् शिव की अंगुली पर लिपटा रहता है। यद्यपि यह सर्प शिवजी की अंगूठी का आकार लेने योग्य छोटा है? परन्तु क्षीरसागर के मन्थन के लिए वह रज्जु (रस्सी) का कार्य करने को प्रयुक्त होता है। स्वाभाविक ही? वासुकि शब्द से उपनिषद् के उस कथन का स्मरण हो आता है जिसमें कहा गया है कि आत्मतत्त्व अणु से भी सूक्ष्म है और बृहत्तम वस्तु से भी अधिक बृहत् है। अत सर्पों में वासुकि को भगवान् की विभूति बताना उपयुक्त ही है। सर्प और नाग में भेद है। सर्प एक फण वाला होता है? जबकि नाग के अनेक फण होते हैं।गीता के दिव्य गायक अपने सुन्दर राग में अपनी गानपूर्ण विभूतियों को और भी बताते हैं
।।10.28।। व्याख्या--'आयुधानामहं वज्रम्'--जिनसे युद्ध किया जाता है, उनको आयुध (अस्त्र-शस्त्र) कहते हैं। उन आयुधोंमें इन्द्रका वज्र मुख्य है। यह दधीचि ऋषिकी हड्डियोंसे बना हुआ है और इसमें दधीचि ऋषिकी तपस्याका तेज है। इसलिये भगवान्ने वज्रको अपनी विभूति कहा है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.28।।आयुधानां मध्ये वज्रं तद् अहम्। धेनूनां हविर्दुघानां मध्ये कामधुक्? दिव्या सुरभिः। प्रजनः जननहेतुः कन्दर्पः च अहम् अस्मि? सर्पाः एकशिरसः तेषां मध्ये वासुकिः अस्मि।
।।10.28।।प्रजनयतीति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- प्रजनयितेति। सर्पा नागाश्च जातिभेदाद्भिद्यन्ते।
।।10.28।।आयुधानामिति। धेनूनां मध्ये कामधुगहम्। भगवत्सेवोपयोगितया सा पूज्या वन्द्या च। प्रजनानां मध्ये भगवदीयप्रजोत्पत्तिहेतुर्नियमागतः कामोऽहं? बलवत्वाद्वा मुख्यः।
।।10.28।।आयुधानामस्त्राणां मध्ये वज्रं दधीचेरस्थिसंभवमस्त्रमहमस्मि। धेनूनां दोग्ध्रीणां मध्ये कामं दोग्धीति कामधुक् समुद्रमथनोद्भवा वसिष्ठस्य कामधेनुरहमस्मि। कामानां मध्ये प्रजनः प्रजनयिता पुत्रोत्पत्त्यर्थो यः कन्दर्पः कामः सोऽहमस्मि। चकारस्त्वर्थो रतिमात्रहेतुकामव्यावृत्त्यर्थः। सर्पाश्च नागाश्च जातिभेदाद्भिद्यन्ते तत्र सर्पाणां मध्ये तेषां राजा वासुकिरहमस्मि।
।।10.28।। आयुधानामिति। आयुधानां मध्ये वज्रम्। कामान्दोग्धीति कामधुक्। प्रजनः प्रजोत्पत्तिहेतुः कंदर्पः कामोऽस्मि। न केवलं संभोगप्रधानः कामो मद्विभूतिः अशास्त्रीयत्वात्। सर्पाणां सविषाणां राजा वासुकिरस्मि।
।।10.28।।आयुधानाम् इत्यर्वाचीनायुधपरं? सुदर्शनाद्यपेक्षया दधीचेरस्थिसम्भवस्य वज्रस्यापि निकृष्टत्वात्। धेनूनां दोग्ध्रीणाम्।दिव्या सुरभिरिति यौगिकः कामधुक्शब्दोऽत्र व्यक्तिविशेषनिष्ठ इति भावः। प्रजनशब्देन जननहेतुत्वं कन्दर्पस्यासाधारणोऽतिशय उक्तः। स मदायत्त इत्यर्थः। अप्रजार्थकन्दर्पव्यवच्छेदार्थो वा प्रजनशब्दः। पर्याययोः सर्पनागशब्दयोः कथं पृथग्व्यपदेश इत्यत्राह -- सर्पा एकशिरसः नागा बहुशिरस इति। यादश्शब्देन वरुणस्यापि सङग्रहार्थमाह -- यादांसि जलवासिन इति। यद्वा जलजन्तुमात्रं विवक्षितम् तेषां पतित्वेन सम्बन्धो वरुणस्य तत्साजात्याभावाद्ग्राह्यः। अर्यमा पितृराजः। संयमतां संयच्छतामित्यर्थः। तदाहदण्डयतामिति।
।।10.28।।आयुधानां शस्त्राणां मध्ये वज्रं अस्मि। धेनूनां दोग्ध्रीणां कामधुक् कामधेनुरस्मि। प्रजनः प्रजोत्पादकः कन्दर्पश्च कामोऽस्मि। चकारेण केवलसम्भोगहेतुर्निवारितः। सर्पाणां विषधराणां गतिमतां वा वासुकिरस्मि।
।।10.28।।प्रजनोऽपत्यजनयिता कंदर्पः कामो न तु वृथामैथुनरूपः।
।।10.28।।वज्रं दधीच्यस्थिसंभवम्। प्रजनश्च पुत्रप्रजननहेतुः कामः।
10.28 आयुधानम् among weapons? अहम् I? वज्रम् the thunderbolt? धेनूनाम् among cows? अस्मि (I) am? कामधुक् kamadhenu? the heavenly cow which yiedls all desires? प्रजनः the progenitro? च and? अस्मि (I) am? कन्दर्पः Kandarpa (Kamadeva)? सर्पाणाम् among serpents? अस्मि (I) am? वासुकिः Vasuki.Commentary Vajram the thunderbolt weapon made of the bones of Dadhichi an implement of warfare which can only be handled by Indra who has fininshed a hundred sacrifices.Kamadhuk The cow Kamadhenu of the great sage Vasishtha which yielded all the desired objects? also born of the ocean of milk.Kandarpa Cupid.Vasuki The Lord of hoodless or ordinary serpents.Sarpa (serpent) has only one head. Vasuki is yellowcoloured. Nagas have many heads. Ananta is firecoloured.Sridhara says that the Sarpa is poisonous and the Naga is nonpoisonous. Sri Ramanuja says that Sarpa has only one head and Naga has many heads.
10.28 Among weapons I am the thunderbolt; among cows I am the wish-fulfilling cow called Kamadhenu; I am the progenitor, the god of love; among serpents I am Vasuki.
10.28 I am the Thunderbolt among weapons; of cows I am the Cow of Plenty, I am Passion in those who procreate, and I am the Cobra among serpents.
10.28 Among weapons I am the thunderbolt; among cows I am kamadhenu. I am Kandarpa, the Progenitor, and among serpents I am Vasuki.
10.28 Ayudhanam, among weapons; I am the vajram, thunderbolt, made of the bones of (the sage) Dadhici. Dhenunam, among milch cows; I am kama-dhuk, Kamadhenu, which was the yielder of all desires of (the sage) Vasistha; or it means a cow in general which gives milk at all times. I am Kandarpa, prajanah, the Progenitor, (the god) Kama (Cupid). Sarpanam, among serpents, among the various serpents, I am Vasuki, the kind of serpents.
10.28. Of the weapons, I am the Vajra [of Indra]; of the cows, I am the Wish-fullfilling Cow [of the heaven]; of the progenitors, I am Kandarpa (the god-of-love); of the serpents, I am Vasuki.
10.28 See Comment under 10.42
10.26 - 10.29 Of trees I am Asvattha which is worthy of worship. Of celestial seers I am Narada. Kamadhuk is the divine cow. I am Kandarpa, the cause of progeny. Sarpas are single-headed snakes while Nagas are many-headed snakes. Aatic creatures are known as Yadamsi. Of them I am Varuna. Of subdures, I am Yama, the son of the sun-god.
10.28 Of weapons, I am Vajra (thnderbolt). Of cows, I am Kamadhuk. I am Kandarpa, the cause of progeny. Of serpents, I am Vasuki.
।।10.28।।शस्त्रोंमें मैं दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे बना हुआ वज्र हूँ। दूध देनेवाली गौओंमें कामधेनु -- वसिष्ठको सब कामनारूप दूध देनेवाली अथवा सामान्य भावसे जो भी कामधेनु है वह मैं हूँ। प्रजाको उत्पन्न करनेवाला कामदेव मैं हूँ और सर्पोंमें अर्थात् सर्पोके नाना भेदोंमें सर्पराज वासुकि मैं हूँ।
।।10.28।। --,आयुधानाम् अहं वज्रं दधीच्यस्थिसंभवम्। धेनूनां दोग्ध्रीणाम् अस्मि कामधुक् वसिष्ठस्य सर्वकामानां दोग्ध्री? सामान्या वा कामधुक्। प्रजनः प्रजनयिता अस्मि कंदर्पः कामः सर्पाणां सर्पभेदानाम् अस्मि वासुकिः सर्पराजः।।
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आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्। प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः।।10.28।।
আযুধানামহং বজ্রং ধেনূনামস্মি কামধুক্৷ প্রজনশ্চাস্মি কন্দর্পঃ সর্পাণামস্মি বাসুকিঃ৷৷10.28৷৷
আযুধানামহং বজ্রং ধেনূনামস্মি কামধুক্৷ প্রজনশ্চাস্মি কন্দর্পঃ সর্পাণামস্মি বাসুকিঃ৷৷10.28৷৷
આયુધાનામહં વજ્રં ધેનૂનામસ્મિ કામધુક્। પ્રજનશ્ચાસ્મિ કન્દર્પઃ સર્પાણામસ્મિ વાસુકિઃ।।10.28।।
ਆਯੁਧਾਨਾਮਹਂ ਵਜ੍ਰਂ ਧੇਨੂਨਾਮਸ੍ਮਿ ਕਾਮਧੁਕ੍। ਪ੍ਰਜਨਸ਼੍ਚਾਸ੍ਮਿ ਕਨ੍ਦਰ੍ਪ ਸਰ੍ਪਾਣਾਮਸ੍ਮਿ ਵਾਸੁਕਿ।।10.28।।
ಆಯುಧಾನಾಮಹಂ ವಜ್ರಂ ಧೇನೂನಾಮಸ್ಮಿ ಕಾಮಧುಕ್. ಪ್ರಜನಶ್ಚಾಸ್ಮಿ ಕನ್ದರ್ಪಃ ಸರ್ಪಾಣಾಮಸ್ಮಿ ವಾಸುಕಿಃ৷৷10.28৷৷
ആയുധാനാമഹം വജ്രം ധേനൂനാമസ്മി കാമധുക്. പ്രജനശ്ചാസ്മി കന്ദര്പഃ സര്പാണാമസ്മി വാസുകിഃ৷৷10.28৷৷
ଆଯୁଧାନାମହଂ ବଜ୍ରଂ ଧେନୂନାମସ୍ମି କାମଧୁକ୍| ପ୍ରଜନଶ୍ଚାସ୍ମି କନ୍ଦର୍ପଃ ସର୍ପାଣାମସ୍ମି ବାସୁକିଃ||10.28||
āyudhānāmahaṅ vajraṅ dhēnūnāmasmi kāmadhuk. prajanaścāsmi kandarpaḥ sarpāṇāmasmi vāsukiḥ৷৷10.28৷৷
ஆயுதாநாமஹஂ வஜ்ரஂ தேநூநாமஸ்மி காமதுக். ப்ரஜநஷ்சாஸ்மி கந்தர்பஃ ஸர்பாணாமஸ்மி வாஸுகிஃ৷৷10.28৷৷
ఆయుధానామహం వజ్రం ధేనూనామస్మి కామధుక్. ప్రజనశ్చాస్మి కన్దర్పః సర్పాణామస్మి వాసుకిః৷৷10.28৷৷