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10.29
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।।10.29।। नागोंमें अनन्त (शेषनाग) और जल-जन्तुओंका अधिपति वरुण मैं हूँ। पितरोंमें अर्यमा और शासन करनेवालोंमें यमराज मैं हूँ।
।।10.29।। मैं नागों में अनन्त (शेषनाग) हूँ और जल देवताओं में वरुण हूँ; मैं पितरों में अर्यमा हँ और नियमन करने वालों में यम हूँ।।
।।10.29।। मैं नागों में शेषनाग (अनन्त) हूँ अनेक फणों वाले सर्प नाग कहलाते हैं। उन नागों में सहस्र फनों वाले शेषनाग को भगवान् विष्णु की शय्या कहा गया है जिस पर वे अपनी योगनिद्रा में विश्राम या शयन करते हैं। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि? अनेक फणों वाले नागों में? वे सर्वाधिक शक्तिशाली और दिव्य नाग हैं? क्योंकि वे एकमात्र अधिष्ठान है जिस पर सृष्टकर्ता ब्रह्मा और पालनकर्ता विष्णु विश्राम और कार्य करते हैं।मैं जल देवताओं में वरुण हूँ पंच महाभूतों में चौथे तत्त्व जल का अधिष्ठाता देवता वरुण है। वैदिक काल में दृश्य जगत् की प्राकृतिक शक्तियों को दैवी आकृति प्रदान कर उनकी पूजा और उपासना की जाती थी। यह तो काफी समय पश्चात् हमने देवताओं के मानवीकरण की पौराणिक परम्परा प्रारम्भ की और फिर हम धार्मिक मतभेदों की कीचड़ और सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों में फँस गये। जेरुसलम के मसीहा? वृन्दावन के गोपबाल और मक्का के पैगम्बर के अज्ञानी भक्त आपस में लड़ने लगे। वरुण का शरीर अर्धमत्स्य और अर्धमनुष्य का वर्णन किया गया है जो प्राय अरनाल्ड के मरमन (मत्स्यपुरुष) के समान है वरुण समुद्र का शासक और जल का अधिष्ठाता देवता है।मैं पितरों में अर्यमा हूँ हिन्दू धर्म में? मृत्यु भी? जीवन का ही एक अनुभव है। इसमें सूक्ष्म शरीर सदैव के लिए अपने वर्तमान निवास स्थान रूपी स्थूल देह को त्याग कर चला जाता है। इस सूक्ष्म शरीर (या जीव) का अपना अलग अस्तित्व बना रहता है? जिसे पितर कहते हैं।ये पितर (अथवा प्रेतात्माएं) एक साथ किसी लोक विशेष में रहते हैं? जिसे पितृलोक कहा जाता है। इसके पूर्व हम बारह आदित्यों के संबंध में वैदिक सिद्धांत को देख चुके हैं? जो बारह महीनों के अधिष्ठाता हैं। उनमें से एक अर्यमा नामक आदित्य को इस पितृलोक का शासक कहा गया है।मैं नियामकों में यम हूँ यमराज मृत्यु के देवता हैं। भारत में? हम भयंकरता उदासी और दुखान्त को भी पूजते हैं? क्योंकि हम जानते हैं कि ईश्वर शुभ और अशुभ आनन्दप्रद और दुखप्रद सभी वस्तुओं का अधिष्ठान है। हम समझौते के किसी ऐसे सिद्धांत से सन्तुष्ट नहीं होते? जिसमें हम ईश्वर का उन वस्तुओं से कोई संबंध स्वीकार नहीं करते? जो हमें अप्रिय हों।हमें प्रिय प्रतीत हो या न हो? मृत्यु तत्त्व ही हमारे जीवन का नियन्त्रक और नियामक है। मृत्यु ही? प्रत्येक क्षण? रचनात्मक विकास के लिए प्रगतिशील क्षेत्र तैयार करती है। युवावस्था की अभिव्यक्ति के लिए बाल्यावस्था का अन्त होना आवश्यक है। महाविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए उच्चतर माध्यमिक विद्यालय को त्यागना पड़ता है। प्रगति अपने आप में जीवन का मात्र आंशिक चित्र और जीवन की सम्पूर्ण गति का एकांगी दर्शन है। प्रत्येक विकास के पूर्व नाश अवश्य होता है। इस प्रकार? नाश का रचनात्मक प्रगति में योगदान मृत्यु की सृजनात्मक कला कहलाती है।किसी भौतिक वस्तु की वर्तमान अवस्था का नाश किये बिना नवीन वस्तु की निर्मिति नहीं की जा सकती। भौतिक जगत् के इस नियम को समझने से ही हम इस युक्तिसंगत निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। निरीक्षित नियम यह है कि कोई दो वस्तुएँ एक ही समय एक ही स्थान पर साथसाथ नहीं रह सकती हैं। जब एक चित्रकार पट पर फूल का चित्र बना रहा होता है? तब वह न केवल विभिन्न रंगों का प्रयोग ही करता है? वरन् उसकी रचनात्मक कला निरन्तर उस पट के सतह की पूर्वावस्था को नष्ट भी करती जाती है। इस प्रकार? जब जीवन को उसकी सम्पूर्णता में देखा जाता है? तब ज्ञात होता है कि मृत्यु के देवता का भी उतना ही महत्व है? जितना कि सृष्टि के देवता का।सृष्टि के साथसाथ उसी गति से यदि मृत्यु बुद्धिमत्तापूर्वक कार्य नहीं कर रही होती? तो जगत् में वस्तुओं की असीम और अनियन्त्रित बाढ़ आ गई होती। उस स्थिति में मात्र वस्तुओं की संख्या एवं परिमाण के कारण ही जीवन असंभव हो गया होता। यदि मृत्यु नहीं होती? तो हमारे पूर्व के असंख्य पीढ़ियों के प्रपितामह आदि अभी भी हमारे दो कमरों वाले घरों में रह रहे होते जब कुछ ही मात्रा में जनसंख्या में वृद्धि होने पर प्रकृति का सन्तुलन और जगत् की राजनीतिक शान्ति अस्तव्यस्त हो जाती है? यदि सृष्टिकर्ता के समान मृत्यु देवता भी कार्य नहीं कर रहे होते? तो जगत् की क्या स्थिति होती निश्चय ही? सभी नियामकों में यमराज प्रमुख्ा हैं और यह दिया हुआ उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त एवं अनन्य है।भगवान् आगे कहते हैं
।।10.29।। व्याख्या--'अनन्तश्चास्मि नागानाम्'--शेषनाग सम्पूर्ण नागोंके राजा हैं (टिप्पणी प0 560)। इनके एक हजार फण हैं। ये क्षीरसागरमें सदा भगवान्की शय्या बनकर भगवान्को सुख पहुँचाते रहते हैं। ये अनेक बार भगवान्के साथ अवतार लेकर उनकी लीलामें शामिल हुए हैं। इसलिये भगवान्ने इनको अपनी विभूति बताया है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.29।।नागा बहुशिरसः? यादांसि जलवासिनः? तेषां वरुणः अहम्? अत्र अपि न निर्धारणे षष्ठी? दण्डयतां वैवस्वतः अहम्।
।।10.29।।प्रजनयतीति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- प्रजनयितेति। सर्पा नागाश्च जातिभेदाद्भिद्यन्ते।
।।10.29।।अनन्त इति। शेषोऽहम्। वरुणोऽधिकृतो लोकपालः। पितृ़णां मुख्योऽर्यमाऽहम्। श्राद्धान्नभोजी भगवत्स्वरूपतया श्राद्धे तदादिः पितृगणो यजनीयश्चिन्तनीयो भगवदीयेनेति भावः।
।।10.29।।नागानां जातिभेदानां मध्ये तेषां राजाऽनन्तश्च शेषाख्योऽहमस्मि। यादसां जलचराणां मध्ये तेषां राजा वरुणोऽहमस्मि। पितृ़णां मध्येऽर्यमा नाम पितृराजश्चाहमस्मि। संयमतां संयमं धर्माधर्मफलदानेनानुग्रहं निग्रहं च कुर्वतां मध्ये यमोऽहमस्मि।
।।10.29।। अनन्त इति। नागानां निर्विषाणां राजा अनन्तः शेषोऽस्मि। यादसां जलचराणां राजा वरुणोऽस्मि। पितृ़णां राजा अर्यमास्मि। संयमतां नियमनं कुर्वतां मध्ये यमोऽस्मि।
।। 10.29 आयुधानाम् इत्यर्वाचीनायुधपरं? सुदर्शनाद्यपेक्षया दधीचेरस्थिसम्भवस्य वज्रस्यापि निकृष्टत्वात्। धेनूनां दोग्ध्रीणाम्।दिव्या सुरभिरिति यौगिकः कामधुक्शब्दोऽत्र व्यक्तिविशेषनिष्ठ इति भावः। प्रजनशब्देन जननहेतुत्वं कन्दर्पस्यासाधारणोऽतिशय उक्तः। स मदायत्त इत्यर्थः। अप्रजार्थकन्दर्पव्यवच्छेदार्थो वा प्रजनशब्दः। पर्याययोः सर्पनागशब्दयोः कथं पृथग्व्यपदेश इत्यत्राह -- सर्पा एकशिरसः नागा बहुशिरस इति। यादश्शब्देन वरुणस्यापि सङग्रहार्थमाह -- यादांसि जलवासिन इति। यद्वा जलजन्तुमात्रं विवक्षितम् तेषां पतित्वेन सम्बन्धो वरुणस्य तत्साजात्याभावाद्ग्राह्यः। अर्यमा पितृराजः। संयमतां संयच्छतामित्यर्थः। तदाहदण्डयतामिति।
।।10.29।।नागानां अविषाणां स्थिराणां मध्ये अनन्तस्तेषामधीशः शेषोऽस्मि। यादसां जलचराणां पतिर्वरुणोऽस्मि। पितृ़णां मुख्यः अर्यमा चास्मि। चकारेण सर्वेषां पितृरूपत्वमपि ज्ञापितम्। संयमतां नियमं कुर्वतां मुख्यो यमोऽस्मि।
।।10.29।।नागानां सर्पावान्तरभेदानाम्। यादसां जलचराणाम्। संयमतां नियमनकर्तृ़णाम्।
।।10.29।।अनन्तः शेषः। यादसां जलदेवतानाम्। संयमतां सम्यङ्नियमनं कर्वेताम्।
10.29 अनन्तः Ananta? च and? अस्मि (I) am? नागानाम् among Nagas? वरुणः Varuna? यादसाम् among watergods? अहम् I? पितृ़णाम् among the Pitris or ancestors? अर्यमा Aryaman? च and? अस्मि (I) am? यमः Yama? संयमताम् among governors? अहम् I.Commentary Ananta is the king of hooded serpents or cobras. He is firecoloured.Varuna is the king of the watergods.Waterdeities The gods connected with waters.Aryaman is the king of the manes.I am Yama? the witness of the acts of all living beings? who keeps account of the good and bad actions of the people.
10.29 I am Ananta among the Nagas; I am Varuna among water-deities; Aryaman among the Manes I am; I am Yama among the governors.
10.29 I am the King-python among snakes, I am the Aqueous Principle among those that live in water, I am the Father of fathers, and among rulers I am Death.
10.29 Among snakes I am Ananta, and Varuna among gods of the waters. Among the manes I am Aryama, and among the maintainers of law and order I am Yama (King of death).
10.29 Naganam, among snakes, of a particular species of snakes; asmi, I am Ananta, the King of snakes. And Varuna, the King yadasam, of the gods of the waters. Pitrnam, among the manes; I am the King of the manes, named Aryama. And samyamatam, among the maintainers of law and order I am Yama.
10.29. Of the snakes, I am Ananta; of the water-beings (water-deities), I am varuna; of the manes, I am Aryaman; of the controllers, I am Yama (the Death-god).
10.29 See Comment under 10.42
10.26 - 10.29 Of trees I am Asvattha which is worthy of worship. Of celestial seers I am Narada. Kamadhuk is the divine cow. I am Kandarpa, the cause of progeny. Sarpas are single-headed snakes while Nagas are many-headed snakes. Aatic creatures are known as Yadamsi. Of them I am Varuna. Of subdures, I am Yama, the son of the sun-god.
10.29 Of snakes, I am Ananta. Of aatic-beings I am Varuna. Of manes, I am Aryama. Of subduers, I am Yama.
।।10.29।।नागोंके नाना भेदोंमें मैं अनन्त हूँ अर्थात् नागराज शेष हूँ और जलसम्बन्धी देवोंमें उनका राजा वरुण मैं हूँ। मैं पितरोंमें अर्यमा नामक पितृराज हूँ और शासन करनेवालोंमें यमराज हूँ।
।।10.29।। --,अनन्तश्च अस्मि नागानां नागविशेषाणां नागराजश्च अस्मि। वरुणो यादसाम् अहम् अब्देवतानां राजा अहम्। पितृ़णाम् अर्यमा नाम पितृराजश्च अस्मि। यमः संयमतां संयमनं कुर्वताम् अहम्।।
null
null
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्। पितृ़णामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्।।10.29।।
অনন্তশ্চাস্মি নাগানাং বরুণো যাদসামহম্৷ পিতৃ়ণামর্যমা চাস্মি যমঃ সংযমতামহম্৷৷10.29৷৷
অনন্তশ্চাস্মি নাগানাং বরুণো যাদসামহম্৷ পিতৃ়ণামর্যমা চাস্মি যমঃ সংযমতামহম্৷৷10.29৷৷
અનન્તશ્ચાસ્મિ નાગાનાં વરુણો યાદસામહમ્। પિતૃ઼ણામર્યમા ચાસ્મિ યમઃ સંયમતામહમ્।।10.29।।
ਅਨਨ੍ਤਸ਼੍ਚਾਸ੍ਮਿ ਨਾਗਾਨਾਂ ਵਰੁਣੋ ਯਾਦਸਾਮਹਮ੍। ਪਿਤਰਿ਼ਣਾਮਰ੍ਯਮਾ ਚਾਸ੍ਮਿ ਯਮ ਸਂਯਮਤਾਮਹਮ੍।।10.29।।
ಅನನ್ತಶ್ಚಾಸ್ಮಿ ನಾಗಾನಾಂ ವರುಣೋ ಯಾದಸಾಮಹಮ್. ಪಿತೃಾಮರ್ಯಮಾ ಚಾಸ್ಮಿ ಯಮಃ ಸಂಯಮತಾಮಹಮ್৷৷10.29৷৷
അനന്തശ്ചാസ്മി നാഗാനാം വരുണോ യാദസാമഹമ്. പിതൃാമര്യമാ ചാസ്മി യമഃ സംയമതാമഹമ്৷৷10.29৷৷
ଅନନ୍ତଶ୍ଚାସ୍ମି ନାଗାନାଂ ବରୁଣୋ ଯାଦସାମହମ୍| ପିତୃ଼ଣାମର୍ଯମା ଚାସ୍ମି ଯମଃ ସଂଯମତାମହମ୍||10.29||
anantaścāsmi nāgānāṅ varuṇō yādasāmaham. pitṛṇāmaryamā cāsmi yamaḥ saṅyamatāmaham৷৷10.29৷৷
அநந்தஷ்சாஸ்மி நாகாநாஂ வருணோ யாதஸாமஹம். பிதரி஀ணாமர்யமா சாஸ்மி யமஃ ஸஂயமதாமஹம்৷৷10.29৷৷
అనన్తశ్చాస్మి నాగానాం వరుణో యాదసామహమ్. పితృామర్యమా చాస్మి యమః సంయమతామహమ్৷৷10.29৷৷
10.30
10
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।।10.30।। दैत्योंमें प्रह्लाद और गणना करनेवालोंमें काल मैं हूँ । पशुओंमें सिंह और पक्षियोंमें गरुड मैं हूँ।
।।10.30।। मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों में काल हूँ, मैं 'पशुओं' में सिंह (मृगेन्द्र) और पक्षियों में गरुड़ हूँ।।
।।10.30।। मैं दैत्यों में प्रह्लाद हूँ हिन्दुओं में बालक भक्त प्रह्लाद की कथा अत्यन्त प्रसिद्ध है। प्रह्लाद हिरण्यकश्यिपु नामक दैत्य राजा का पुत्र था? जिसे भगवान् हरि में अटूट श्रद्धा और दृढ़ भक्ति थी। इसके लिए उसे ईश्वरद्वेषी हिरण्यकश्यिपु ने अनेक प्रकार की यातनाएं दीं? जिन सबको प्रह्लाद ने सहन किया? परन्तु भक्ति को नहीं त्यागा।मैं गणना करने वालों में काल हूँ भारत के दार्शनिकों में नैय्यायिकों का अपना विशेष स्थान है। वे सृष्टि की विविधता को सत्य स्वीकार करते हुए ईश्वर के अस्तित्व का निषेध करते हैं। केवल बौद्धिक तर्कों के द्वारा वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि काल ही नित्य तत्त्व है। व्यष्टि मन और बुद्धि ही काल के विभाजक हैं? जो उसमें भूत? वर्तमान और भविष्य की कल्पनायें करते हैं। उनके मत के अनुसार मन का यह खेल ही काल का विभाजन इस प्रकार करता है कि मानो काल कोई खण्डित और परिच्छिन्न तत्त्व हो। सम्भवत? इसी सिद्धांत को ध्यान में रखकर? महर्षि व्यास ने बहुविध सृष्टि के अनन्त अधिष्ठान को दर्शाते के लिए इस उदाहरण को यहाँ दिया है।कुछ व्याख्याकार हैं? जो प्राय इसे एक सरल कथन के रूप में स्वीकार करते हैं उनके अनुसार? अनादि अनन्त काल ही इस जगत् की वस्तुओं की अन्तिम गति है।सिंह अपनी महानता? प्रतिष्ठा एवं पौरुषता के कारण मृगराज कहलाता है। गरुड़ को पक्षियों का राजपद मिलने का कारण है? उसकी सूक्ष्मदर्शिता एवं सर्वाधिक ऊँचाई तक उड़ान भरने की क्षमता। गरुड़ को भगवान् विष्णु का वाहन कहा गया है।
।।10.30।। व्याख्या--'प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानाम्'-- जो दितिसे उत्पन्न हुए हैं, उनको दैत्य कहते हैं। उन दैत्योंमें प्रह्लादजी मुख्य हैं और श्रेष्ठ हैं। ये भगवान्के परम विश्वासी और निष्काम प्रेमी भक्त हैं। इसलिये भगवान्ने इनको अपनी विभूति बताया है।प्रह्लादजी तो बहुत पहले हो चुके थे, पर भगवान्ने 'दैत्योंमें प्रह्लाद मैं हूँ' ऐसा वर्तमानका प्रयोग किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान्के भक्त नित्य रहते हैं और श्रद्धा-भक्तिके अनुसार दर्शन भी दे सकते हैं। उनके भगवान्में लीन हो जानेके बाद अगर कोई उनको याद करता है और उनके दर्शन चाहता है, तो उनका रूप धारण करके भगवान् दर्शन देते हैं।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.30।।अनर्थप्रेप्सुतया गणयतां मध्ये कालः मृत्युः अहम्।
।।10.30।।प्रजनयतीति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- प्रजनयितेति। सर्पा नागाश्च जातिभेदाद्भिद्यन्ते।
।।10.30।।प्रह्लादश्चास्मीति महाभागवततया चिन्तनीयः। अनिमिषतया भूतानामायुगेणयतां संवत्सरादीनां मध्ये कालोऽहं भगवदुपयोगित्वाच्चिन्तनीयः। मृगाणामिति। मृगेन्द्रो नृसिंहो वराहश्चाहं मृगेन्द्रगरुडयोर्वाहनप्रतिकृतिरूपतया वा भगवत्सेवासने क्रीडोपयोगित्वेन चिन्तनंअनुकृत्य रूतैर्जन्तूंश्चेरतुः प्राकृतौ यथा [भाग.10।11।40] इत्युक्तेः भगवदनुकरणविषयत्वेन वा।
।।10.30।।दैत्यानां दितिवंश्यानां मध्ये प्रकर्षेण ह्लादयत्यानन्दयति परमसात्त्विकत्वेन सर्वानिति प्रह्लादश्चास्मि। कलयतां संख्यानं गणनं कुर्वतां मध्ये कालोऽहम्। भृगेन्द्रः सिंहः मृगाणां पशूनां मध्येऽहम्। वैनतेयश्च पक्षिणां विनतापुत्रो गरुडः।
।।10.30।।प्रह्लाद इति। कलयतां वशीकुर्वतां गणयतां वा मध्ये कालोऽहम्। मृगेन्द्रः सिंहः। पक्षिणां मध्ये गरुडोऽस्मि।
।।10.30।।उपमानमशेषाणां साधूनां यः सदाऽभवत् [वि.पु.1।15।155] इत्यादिना प्रह्लादोत्कर्षः।अहमेवाक्षयः कालः [10।33] इति नित्यस्य कालतत्त्वस्य परस्ताद्वक्ष्यमाणत्वात् यमस्य च पूर्वमुक्तत्वात्तद्व्यतिरिक्तः पुरुषविशेष इह कालशब्देन विवक्षितः अचेतनस्य च कालस्य गणयितृत्वं न युज्यतेकलयताम् इत्यस्य विज्ञातृमात्रपरत्वे तेषु कालस्य निर्धारणमयुक्तम् अतस्तदुचितमर्थविशेषं दर्शयति -- अनर्थेति। नहि मरणातिरिक्तोऽनर्थ इति भावः। मृगेन्द्रशब्देनैव सिंहस्यातिशयः सिद्धः। पक्षिषु वैनतेयस्य वेगातिशयाद्वेदमयत्वादिना चोत्कर्षः।
।।10.30।।दैत्यानां च असम्भावितत्वात् मध्ये दैत्यकुलोद्धारकः प्रह्लादोऽस्मि। कलयतां व्याकुर्वतां,कालोऽहमस्मि। मृगाणां मृगेन्द्रः सिंहः। पक्षिणां पक्षवतां मध्ये वैनतेयस्तेषां राजा गरुडोऽस्मि।
।।10.30।।कलयतां गणनं कुर्वताम्।
।।10.30।।पवतां पावजितृ़णाम्। रामः श्रीरामचन्द्रः। झषाणां मत्स्यादीनां मकरो नाम जातिविशेषः। स्त्रोतसां स्त्रवन्तीनां नदीनां जाह्नवी गङ्गा।
10.30 प्रह्लादः Prahlada? च and? अस्मि (I) am? दैत्यानाम् among demons? कालः time? कलयताम् among reckoners? अहम् I? मृगाणाम् among beasts? च and? मृगेन्द्रः lion? अहम् I? वैनतेयः son of Vinata (Garuda)? च and? पक्षिणाम् among birds.Commentary Prahlada? though he was the son of a demon (Hiranyakasipu)? was a great devotee of the Lord.
10.30 And, I am Prahlada among the demons, among the reckoners I am time; among beasts I am the lion, and Vainateya (Garuda) among birds.
10.30 And I am the devotee Prahlad among the heathen; of Time I am the Eternal Present; I am the Lion among beasts and the Eagle among birds.
10.30 Among demons I am Prahlada, and I am Time among reckoners of time. And among animals I am the loin, and among birds I am Garuda.
10.30 Daityanam, among demons, the descendants of Diti, I am the one called Prahlada. And I am kalah, Time; kalayatam, among reckoners of time, of those who calculate. And mrganam, among animals; I am mrgendrah, the loin, or the tiger. And paksinam, among birds; (I am) vainateyah, Garuda, the son of Vinata.
10.30. No such translation is available for this sloka.
10.30 See Comment under 10.42
10.30 Of those who reckon with the desire to cause evil, I am the god of death - (here an emissary of his who records the time of death of creatures is meant).
10.30 Of Daityas, I am Prahlada. Of reckoners, I am Death. Of beasts, I am the lion, and of birds I am Garuda the son of Vinata.
।।10.30।।दैत्योंमें अर्थात् दितिके वंशजोंमें मैं प्रह्लाद नामक दैत्य हूँ और कलना -- गणना करनेवालोंमें मैं काल हूँ। पशुओंमें पशुओंका राजा सिंह या व्याघ्र और पक्षियोंमें विनतापुत्र -- गरुड़ मैं हूँ।
।।10.30।। --,प्रह्लादो नाम च अस्मि दैत्याना दितिवंश्यानाम्। कालः कलयतां कलनं गणनं कुर्वताम् अहम्। मृगाणां च मृगेन्द्रः सिंहो व्याघ्रो वा अहम्। वैनतेयश्च गरुत्मान् विनतासुतः पक्षिणां पतत्रिणाम्।।
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प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्। मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्।।10.30।।
প্রহ্লাদশ্চাস্মি দৈত্যানাং কালঃ কলযতামহম্৷ মৃগাণাং চ মৃগেন্দ্রোহং বৈনতেযশ্চ পক্ষিণাম্৷৷10.30৷৷
প্রহ্লাদশ্চাস্মি দৈত্যানাং কালঃ কলযতামহম্৷ মৃগাণাং চ মৃগেন্দ্রোহং বৈনতেযশ্চ পক্ষিণাম্৷৷10.30৷৷
પ્રહ્લાદશ્ચાસ્મિ દૈત્યાનાં કાલઃ કલયતામહમ્। મૃગાણાં ચ મૃગેન્દ્રોહં વૈનતેયશ્ચ પક્ષિણામ્।।10.30।।
ਪ੍ਰਹ੍ਲਾਦਸ਼੍ਚਾਸ੍ਮਿ ਦੈਤ੍ਯਾਨਾਂ ਕਾਲ ਕਲਯਤਾਮਹਮ੍। ਮਰਿਗਾਣਾਂ ਚ ਮਰਿਗੇਨ੍ਦ੍ਰੋਹਂ ਵੈਨਤੇਯਸ਼੍ਚ ਪਕ੍ਸ਼ਿਣਾਮ੍।।10.30।।
ಪ್ರಹ್ಲಾದಶ್ಚಾಸ್ಮಿ ದೈತ್ಯಾನಾಂ ಕಾಲಃ ಕಲಯತಾಮಹಮ್. ಮೃಗಾಣಾಂ ಚ ಮೃಗೇನ್ದ್ರೋಹಂ ವೈನತೇಯಶ್ಚ ಪಕ್ಷಿಣಾಮ್৷৷10.30৷৷
പ്രഹ്ലാദശ്ചാസ്മി ദൈത്യാനാം കാലഃ കലയതാമഹമ്. മൃഗാണാം ച മൃഗേന്ദ്രോഹം വൈനതേയശ്ച പക്ഷിണാമ്৷৷10.30৷৷
ପ୍ରହ୍ଲାଦଶ୍ଚାସ୍ମି ଦୈତ୍ଯାନାଂ କାଲଃ କଲଯତାମହମ୍| ମୃଗାଣାଂ ଚ ମୃଗେନ୍ଦ୍ରୋହଂ ବୈନତେଯଶ୍ଚ ପକ୍ଷିଣାମ୍||10.30||
prahlādaścāsmi daityānāṅ kālaḥ kalayatāmaham. mṛgāṇāṅ ca mṛgēndrō.haṅ vainatēyaśca pakṣiṇām৷৷10.30৷৷
ப்ரஹ்லாதஷ்சாஸ்மி தைத்யாநாஂ காலஃ கலயதாமஹம். மரிகாணாஂ ச மரிகேந்த்ரோஹஂ வைநதேயஷ்ச பக்ஷிணாம்৷৷10.30৷৷
ప్రహ్లాదశ్చాస్మి దైత్యానాం కాలః కలయతామహమ్. మృగాణాం చ మృగేన్ద్రోహం వైనతేయశ్చ పక్షిణామ్৷৷10.30৷৷
10.31
10
31
।।10.31।। पवित्र करनेवालोंमें वायु और शास्त्रधारियोंमें राम मैं हूँ। जल-जन्तुओंमें मगर मैं हूँ। बहनेवाले स्त्रोतोंमें गङ्गाजी मैं हूँ।
।।10.31।। मैं पवित्र करने वालों में वायु हूँ और शस्त्रधारियों में राम हूँ; तथा मत्स्यों (जलचरों) में मैं मगरमच्छ और नदियों में मैं गंगा हूँ।।
।।10.31।। मैं पवित्र कर्त्ताओं में वायु हूँ किसी स्थान की स्वच्छता के लिए सूर्य और वायु के समान प्रभावशाली अन्य कोई स्वास्थयकर और अपूतिक (घाव को सड़ने से रोकने वाली औषधि) साधऩ उपलब्ध नहीं है। यदि यहाँ केवल वायु का ही उल्लेख किया गया है? तो उसका कारण यह है कि महर्षि व्यास जानते थे कि सूर्य की उष्णता में ही वायु की गति हो सकती है। जहाँ सदा वायु बहती है? वहाँ सूर्य का होना भी सिद्ध होता है। किसी गुफा में न सूर्य का प्रकाश होता है और न वायु का स्पन्दन।मैं शस्त्रधारियों में राम हूँ भारत के आदि कवि महर्षि बाल्मीकि ने एक सम्पूर्ण काव्य की छन्दबद्ध रचना के लिए रामायण के नायक मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्री रामचन्द्र का चित्रण किया है। यह चित्रण अत्यन्त विस्तृत एवं विशुद्ध है? जिसमें श्री राम को जीवन के समस्त क्षेत्रों में एक पूर्ण पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। श्रीराम एक पूर्ण एवं आदर्श पुत्र? पति? भ्राता? मित्र? योद्धा? गुरु? शासक और पिता थे। सामान्य जनता के दोषों तथा अत्यन्त उत्तेजना और भ्रम उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में श्रीराम की सार्वपाक्षिक पूर्णता और भी अधिक चमक उठती है। ऐसे सर्वश्रेष्ठ आदर्श पुरुष के हाथ में ही वह योग्यता है? जो उस धनुष को धारण करे? जिसमें से सदैव अमोघ बाणों की ही वर्षा होती है।मैं मत्स्यों में मकर तथा नदियों में जाह्नवी हूँ जह्नु ऋषि की पुत्री जाह्नवी कहलाती है? जो गंगानदी का एक नाम हैं। आख्यायिका यह है कि एक बार जह्नु ऋषि ने सम्पूर्ण गंगा नदी का पान कर उसे सुखा दिया? और तत्पश्चात्? लोककल्याण के लिए उसे अपने कानों के द्वार से बाहर बहा दिया हम पहले भी देख चुके हैं कि गंगा नदी का यह रूप सांकेतिक है। हिन्दू लोग गंगा को अध्यात्म ज्ञान अथवा भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का प्रतीक मानते हैं। अपने गुरु से प्राप्त ऋषियों की ज्ञान सम्पदा को? साधक शिष्य ध्यानाभ्यास के द्वारा आत्मसात् कर लेता है यही नदी का आचमन है। ज्ञान के झरने से पान कर ज्ञानपिपासा को शान्त करना आदि वाक्यों का प्रयोग प्राय सभी भाषाओं में होता है? जिनका मूल संस्कृत भाषा है।आख्यायिका में कहा गया है कि इस नदी का उद्गम ऋषि के कानों से हुआ। वास्तव में? यह अत्यन्त सुन्दर काव्यात्मक कल्पना है? जो कान का संबंध श्रुति से स्थापित करती है। उपनिषद् ही श्रुति हैं? जिसमें गुरु शिष्य के संवाद द्वारा आत्मज्ञान का बोध कराया गया है। भारत में? समयसमय पर आचार्यों का अवतरण होता है? जो अपने युग के सन्दर्भ से प्राचीन ज्ञान की पुर्नव्यवस्था करते हैं परन्तु यह प्रचार कार्य वे तभी प्रारम्भ करते हैं? जब उन्होंने स्वयं वैदिक सत्य का साक्षात् अनुभव कर लिया हो। इस स्वानुभूति के बिना कोई भी श्रेष्ठ आचार्य जगत् में आकर इस प्राचीन सत्य का नवीन भाषा में प्रचार करने का साहस नहीं करेगा।गंगा के अनेक पर्यायवाची नामों में से जाह्नवी का यहाँ उल्लेख उपर्युक्त विशेष अभिप्राय को दर्शाने के लिए ही किया गया है।समुद्री मत्स्यों में मकर सर्वाधिक भयंकर होने के कारण यहाँ भगवान् ने उसे अपनी विभूति कहा है।आगे कहते है
।।10.31।। व्याख्या--पवनः पवतामस्मि-- वायुसे ही सब चीजें पवित्र होती हैं। वायुसे ही नीरोगता आती है। अतः भगवान्ने पवित्र करनेवालोंमें वायुको अपनी विभूति बताया है।'रामः शस्त्रभृतामहम्'--ऐसे तो राम अवतार हैं, साक्षात् भगवान् हैं, पर जहाँ शस्त्रधारियोंकी गणना होती है, उन सबमें राम श्रेष्ठ हैं। इसलिये भगवान्ने रामको अपनी विभूति बताया है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.31।।पवतां गमनस्वभावानां पवनः अहम्। शस्त्रभृतां रामः अहम्। शस्त्रभृत्त्वम् अत्र विभूतिः? अर्थान्तराभावात्। आदित्यादयः च क्षेत्रज्ञा आत्मत्वेन अवस्थितस्य भगवतः शरीरतया धर्मभूता इति शस्त्रभृत्त्वस्थानीयाः।
।।10.31।।अहमादिश्चेत्यादावुक्तमेव पुनरिहोच्यते। तथाच न पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याह -- भूतानामिति। सर्गशब्देन सृज्यन्त इति सर्वाणि कार्याणि गृह्यन्ते -- अध्यात्मविद्येति। आत्मन्यन्तःकरणपरिणतिरविद्यानिवर्तिका गृहीता। प्रवदतां संबन्धी वादो वीतरागकथा तत्त्वनिर्णयावसाना। यदा प्रवदतामिति लक्षणया कथाभेदोपादानं तदा निर्धारणे षष्ठीत्याह -- प्रवक्त्रिति।
।।10.31।।पवन इति। त्रिविधगुणवान् भगवदुपयोगितया चिन्तनीयः। शस्त्रभृतां मध्ये रामो नाम्ना जामदग्न्योऽहंरामः शस्त्रभृतां वरः इति सर्वैः स्तुतत्वात्। दाशरथिस्तु न भगवतोंऽशः किन्तु पूर्णपुरुषोत्तम एवांशीति ब्रह्मशुकाचार्यचरणानामाशयः? अतो न विभूतित्वं तस्य युज्यते इति वयं ब्रूमः। झषाणां मध्ये मकरोऽहं बलवत्त्वान्मत्स्यरूपो वा कुण्डलगतत्वनिरूपणाद्वा चिन्तनीयः। गङ्गा भगवत्पदीति चिन्त्या।
।।10.31।।पवतां पावयितृ़णां वेगवतां वा मध्ये पवनो वायुरहमस्मि। शस्त्रभृतां शस्त्रधारिणां युद्धकुशलानां मध्ये रामो दाशरथिरखिलराक्षसकुलक्षयकरः परमवीरोऽहमस्मि। साक्षात्स्वरूपस्याप्यनेन रूपेण चिन्तनार्थं वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मीतिवदत्र पाठ इति प्रागुक्तम्। झषाणां मत्स्यानां मकरो नाम तज्जातिविशेषः। स्रोतसां वेगेन चलज्जलानां नदीनां मध्ये सर्वनदीश्रेष्ठा जाह्नवी गङ्गाहमस्मि।
।।10.31।। पवन इति। पवतां पावयितृ़णां वेगवतां वा मध्ये वायुरस्मि। शस्त्रभृतां वीराणां रामो दाशरथिः। यद्वा परशुरामः। झषाणां मत्स्यानां मकरो मत्स्यविशेषस्तिमिंगिलः। स्रोतसां प्रवाहोदकानां मध्ये भागीरथी।
।।10.31।।पवताम् इत्यनेन पवनासाधारणक्रिया विवक्षिता चेन्निर्धारणं नोपपद्येतेति तदुपपत्तयेगमनस्वभावानामित्युक्तम्। अजस्रगमनशीलानामित्यर्थः। पवनप्रेरिता एव हि तारकादयोऽप्यजस्रं परिभ्रमन्ति। सोमपवनादिष्विवात्र शोधनान्वयिगमनमिहाविवक्षितम्।रामः शस्त्रभृतामहम् इति परशुरामस्यापि जेता रावणहन्ता रामो विवक्षित इति तदुचितममोघशस्त्रत्वलक्षणमतिशयमाह -- शस्त्रभृत्त्वमत्र विभूतिरिति। पूर्वोत्तरेष्विव राम एव विभूतिः किं न स्यात् इत्यत्राहअर्थान्तराभावादिति। अचिद्विशेषस्य चेतनान्तरस्य वा शस्त्रमृच्छब्दवाच्यस्यात्रासम्भवादित्यर्थः। अर्थान्तराणां मध्ये स्वासाधारणधर्मविशेषनिर्देशे रीतिभङ्गः स्यादित्यत्राहआदित्यादयश्चेति। शस्त्रभृत्त्वस्यान्येषां च भगवन्तं धर्मिणं प्रति धर्मत्वमविशिष्टमित्येकैव रीतिः निर्धारणानिर्धारणभेदवन्मुखभेदमात्रं न दोष इति भावः। तत्रादित्यशब्देनज्योतिषां रविरंशुमान् [10।21] इत्युक्तो रविर्विवक्षितः।आदित्यानामहं विष्णुः [10।21] इत्युक्तस्त्वादित्यो रामतुल्यः। मकरो मत्स्यराजः। स्रोतस्सु जाह्नव्याः विष्णुपदोद्भवत्वसर्वज्ञशिरोधृतत्वत्रैलोक्यप्रवृत्तत्वादिभिरतिशयः।
।।10.31।।पवतां वेगवतां मध्ये पवनः वायुरस्मि। शस्त्रभृतां रामः दशरथात्मजोऽस्मि। झषाणां मध्ये मकरः मत्स्यजातिविशेषोऽस्मि। स्रोतसां प्रवहज्जलानां मध्ये जाह्नवी गङ्गाऽस्मि।
।।10.31।।पवतां पावयितृ़णां वेगवतां वा। रामो दाशरथिः। रामादीनां परमेश्वराणामपि विभूतिमध्ये गणनं ध्यानार्थम्। झषाणां मत्स्यादीनां मकरो जातिभेदः। स्रोतसां नदीनाम्।
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10.31 पवनः the wind? पवताम् among purifiers or the speeders? अस्मि (I) am? रामः Rama? शस्त्रभृताम् among wielders of weapons (warriors)? अहम् I? झषाणाम् among fishes? मकरः Makara (shark)? च and? अस्मि (I) am? स्रोतसाम् among streams? अस्मि (I) am? जाह्नवी the Ganga.Commentary The holy river Ganga (spelt Ganges in English) was swallowed by Jahnu when she was being brought down by Bhagiratha from heaven. Hence the name Jahnavi for Ganga.
10.31 Among the purifiers (or the speeders) I am the wind; Rama among the warriors am I; among the fishes I am the shark; among the streams I am the Ganga.
10.31 I am the Wind among purifiers, the King Rama among warriors; I am the Crocodile among the fishes, and I am the Ganges among rivers.
10.31 Of the purifiers I am air; among the wielders of weapons I am Rama. Among fishes, too, I am the shark; I am Ganga among rivers.
10.31 Pavatam, of the purifiers; I am pavanah, air. Sastra-bhrtam, among weilders of weapons, I am Rama, son of Dasaratha. Jhasanam, among fishes etc; I am the particular species of fish called makarah shark. I am jahnavi, Ganga; srotasam, among rivers, among streams of water.
10.31. Of the progenies of Diti (the demons), I am Prahlada; of the measuring ones, I am the shark; of rivers, I am the daughter of Jahnu (the Ganga).
10.31 See Comment under 10.42
10.31 Of moving things, namely, of things whose nature is to move, I am the wind. Of those who bear weapons, I am Rama. Here the ality of bearing weapons is the Vibhuti, as no other sense is possible. Aditya etc., being individual selves, constitute attributes of the Lord, who is their Self as they constitute His body. Therefore they stand in the same position of the attribute as that of bearing weapons.
10.31 Of moving things, I am the wind. Of those who bear weapons, I am Rama. Of fishers, I am Makara, and of rivers, I am Ganga.
।।10.31।।पवित्र करनेवालोंमें वायु और शस्त्रधारियोंमें दशरथपुत्र राम मैं हूँ? मछली आदि जलचर प्राणियोंमें मकर नामक जलचरोंकी जातिविशेष मैं हूँ? स्रोतोंमें -- नदियोंमें मैं जाह्नवी -- गङ्गा हूँ।
।।10.31।। --,पवनः वायुः पवतां पावयितृ़णाम् अस्मि। रामः शस्त्रभृताम् अहं शस्त्राणां धारयितृ़णां दाशरथिः रामः अहम्। झषाणां मत्स्यादीनां मकरः नाम जातिविशेषः अहम्। स्रोतसां स्रवन्तीनाम् अस्मि जाह्नवी गङ्गा।।
।।10.31।।रामः शस्त्रभृतामहं इति रामशब्दं व्याख्याति -- आनन्देति। आनन्दरूपत्वात्पूर्णत्वादित्येकोऽर्थः। रमत इति रः।रमु क्रीडायां [धा.पा.1।878] इत्यतो अमन्ताड्ड इति डः। न विद्यते मा प्रमा परिच्छेदोऽस्येत्यमः लोक इत्यपरोऽर्थः। रमतेर्घञ्। अत्र श्रुतिमाह -- आनन्देति। आद्येऽर्थे विग्रहं दर्शयति -- रश्चेति। रश्चासावमश्चेत्यर्थः।
।।10.31।।आनन्दरूपत्वात्पूर्णत्वाल्लोकरमणत्वाच्च रामः। आनन्दरूपो निष्परिमाण एष लोकश्चैतस्माद्रमते तेन रामः इति शाण्डिल्यशाखायाम्। रश्च अमश्चेति व्युत्पत्तिः।
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्। झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी।।10.31।।
পবনঃ পবতামস্মি রামঃ শস্ত্রভৃতামহম্৷ ঝষাণাং মকরশ্চাস্মি স্রোতসামস্মি জাহ্নবী৷৷10.31৷৷
পবনঃ পবতামস্মি রামঃ শস্ত্রভৃতামহম্৷ ঝষাণাং মকরশ্চাস্মি স্রোতসামস্মি জাহ্নবী৷৷10.31৷৷
પવનઃ પવતામસ્મિ રામઃ શસ્ત્રભૃતામહમ્। ઝષાણાં મકરશ્ચાસ્મિ સ્રોતસામસ્મિ જાહ્નવી।।10.31।।
ਪਵਨ ਪਵਤਾਮਸ੍ਮਿ ਰਾਮ ਸ਼ਸ੍ਤ੍ਰਭਰਿਤਾਮਹਮ੍। ਝਸ਼ਾਣਾਂ ਮਕਰਸ਼੍ਚਾਸ੍ਮਿ ਸ੍ਰੋਤਸਾਮਸ੍ਮਿ ਜਾਹ੍ਨਵੀ।।10.31।।
ಪವನಃ ಪವತಾಮಸ್ಮಿ ರಾಮಃ ಶಸ್ತ್ರಭೃತಾಮಹಮ್. ಝಷಾಣಾಂ ಮಕರಶ್ಚಾಸ್ಮಿ ಸ್ರೋತಸಾಮಸ್ಮಿ ಜಾಹ್ನವೀ৷৷10.31৷৷
പവനഃ പവതാമസ്മി രാമഃ ശസ്ത്രഭൃതാമഹമ്. ഝഷാണാം മകരശ്ചാസ്മി സ്രോതസാമസ്മി ജാഹ്നവീ৷৷10.31৷৷
ପବନଃ ପବତାମସ୍ମି ରାମଃ ଶସ୍ତ୍ରଭୃତାମହମ୍| ଝଷାଣାଂ ମକରଶ୍ଚାସ୍ମି ସ୍ରୋତସାମସ୍ମି ଜାହ୍ନବୀ||10.31||
pavanaḥ pavatāmasmi rāmaḥ śastrabhṛtāmaham. jhaṣāṇāṅ makaraścāsmi srōtasāmasmi jāhnavī৷৷10.31৷৷
பவநஃ பவதாமஸ்மி ராமஃ ஷஸ்த்ரபரிதாமஹம். ஀ஷாணாஂ மகரஷ்சாஸ்மி ஸ்ரோதஸாமஸ்மி ஜாஹ்நவீ৷৷10.31৷৷
పవనః పవతామస్మి రామః శస్త్రభృతామహమ్. ఝషాణాం మకరశ్చాస్మి స్రోతసామస్మి జాహ్నవీ৷৷10.31৷৷
10.32
10
32
।।10.32।। हे अर्जुन ! सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका(तत्त्व-निर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ।
।।10.32।। हे अर्जुन ! सृष्टियों का आदि, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ, मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या और विवाद करने वालों में (अर्थात् विवाद के प्रकारों में) मैं वाद हूँ।।
।।10.32।। मैं सृष्टियों का आदि? अन्त और मध्य भी हूँ अपनी विभूतियों का वर्णन प्रारम्भ करने के पूर्व भगवान् श्रीकृष्ण का सामान्य कथन ही यहाँ प्रतिध्वनित होता है। वहाँ उन्होंने यह बताया है कि वे किस प्रकार प्रत्येक वस्तु और प्राणी की आत्मा हैं जबकि यहाँ वे सम्पूर्ण सृष्टि के अधिष्ठान के रूप में स्वयं का परिचय करा रहे हैं।कोई भी पदार्थ अपने मूल उपादानस्वरूप ऋ़ा त्याग करके नहीं रह सकता। स्वर्ण के बिना आभूषण? समुद्र के बिना तरंग और मिट्टी के बिना घट का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। समस्त नाम और रूपों में उनके उपादान कारण का होना अपरिहार्य है। उपर्युक्त कथन के द्वारा भगवान् अपने सर्वभूतात्म भाव की दृष्टि से कहते हैं कि वे सृष्टियों के आदि? मध्य और अवसान हैं। विश्व की उत्पत्ति? स्थिति और लय ये सब उनमें ही होते हैं।जिस ज्ञानस्वरूप (चित्स्वरूप) के बिना अन्य वस्तुओं के ज्ञान कदापि संभव नहीं हो सकते? उस चैतन्यस्वरूप का ज्ञान सब ज्ञानों का राजा होना उपयुक्त ही है। सूर्यप्रकाश में ही समस्त वस्तुयें प्रकाशित होती हैं। वस्तुओं पर सूर्यप्रकाश के परावर्तित होने से ही वे दर्शन के योग्य बन जाती हैं। स्वाभाविक ही? भौतिक वस्तुओं के दर्शन में सूर्य सब नेत्रों का नेत्र है। उसी प्रकार? सब विद्याओं में अध्यात्मविद्या को राजविद्या या सर्वविद्याप्रतिष्ठा कहा गया है।मैं विवाद करने वालों में वाद हूँ श्रीशंकराचार्य के अनुसार? यहाँ प्रयुक्त प्रवदताम् (विवाद करने वालों में) शब्द से तात्पर्य विवाद के प्रकारों से है? व्यक्तियों से नहीं। जीवन के सभी क्षेत्रों में विवाद के तीन प्रकार हैं जल्प? वितण्डा और वाद। जल्प में? एक व्यक्ति प्रमाण और तर्क के द्वारा अपने पक्ष की स्थापना तथा विरोधी पक्ष का छल आदि प्रकारों से खण्डन करता है। जब कोई एक व्यक्ति अपने पक्ष को स्थापित करता है? और अन्य व्यक्ति छल आदि से केवल उसका खण्डन ही करता रहता है? परन्तु अपना कोई पक्ष स्थापित नहीं करता? तब उसे वितण्डा कहते हैं। गुरु शिष्य के मध्य अथवा अन्यों के मध्य तत्त्वनिर्णय के लिए जो युक्तियुक्त विवाद होता है उसे वाद कहते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जल्प और वितण्डा में उभय पक्ष का लक्ष्य केवल जयपराजय अथवा शक्ति परीक्षा मात्र होता है? जब कि वाद का लक्ष्य तथा फल तत्त्व निर्णय है। अत? भगवान् कहते हैं कि? मैं विवादों के प्रकारों में वाद हूँ।आगे
।।10.32।। व्याख्या--'सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहम्'--जितने सर्ग और महासर्ग होते हैं अर्थात् जितने प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है, उनके आदिमें भी मैं रहता हूँ, उनके मध्यमें भी मैं रहता हूँ और उनके अन्तमें (उनके लीन होनेपर) भी मैं रहता हूँ। तात्पर्य है कि सब कुछ वासुदेव ही है। अतः मात्र संसारको, प्राणियोंको देखते ही भगवान्की याद आनी चाहिये। 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्'--जिस विद्यासे मनुष्यका कल्याण हो जाता है, वह अध्यात्मविद्या कहलाती है (टिप्पणी प0 562)। दूसरी सांसारिक कितनी ही विद्याएँ पढ़ लेनेपर भी पढ़ना बाकी ही रहता है परन्तु इस अध्यात्मविद्याके प्राप्त होनेपर पढ़ना अर्थात् जानना बाकी नहीं रहता। इसलिये भगवान्ने इसको अपनी विभूति बताया है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि,न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.32।।सृज्यन्ते इति सर्गाः? तेषाम् आदिः कारणम् सर्वदा सृज्यमानानां सर्वेषां प्राणिनां तत्र तत्र स्रष्टारः अहम् एव इत्यर्थः। तथा अन्तः सर्वदा संह्रियमाणानां तत्र तत्र संहर्तारः अपि अहम् एव। तथा च मध्यं पालनं सर्वदा पाल्यमानानां पालयितारश्च अहम् एव इत्यर्थः। श्रेयःसाधनभूतानां विद्यानां मध्ये परमनिःश्रेयससाधनभूता अध्यात्मविद्या अहम् अस्मि। जल्पवितण्डादि कुर्वतां तत्त्वनिर्णयाय प्रवृत्तो वादः यः सः अहम्।
।।10.32।।अहमादिश्चेत्यादावुक्तमेव पुनरिहोच्यते। तथाच न पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याह -- भूतानामिति। सर्गशब्देन सृज्यन्त इति सर्वाणि कार्याणि गृह्यन्ते -- अध्यात्मविद्येति। आत्मन्यन्तःकरणपरिणतिरविद्यानिवर्तिका गृहीता। प्रवदतां संबन्धी वादो वीतरागकथा तत्त्वनिर्णयावसाना। यदा प्रवदतामिति लक्षणया कथाभेदोपादानं तदा निर्धारणे षष्ठीत्याह -- प्रवक्त्रिति।
।।10.32।।सर्गाणां पुष्टिप्रवाहमर्यादारूपाणां चाहमादिः कारणं? उत्तमाङ्गकायरूपः पुष्टेः प्रवाहस्यान्तरमनोरूपः मर्यादायाः मध्यं हृदयं वेदरूपः कारणम्। स्पष्टमन्यत्।
।।10.32।।सर्गाणामचेतनसृष्टीनामादिरन्तश्च मध्यं चोत्पत्तिस्थितिलया अहमेव। हे अर्जुन? भूतानां जीवाविष्टानां चेतनत्वेन प्रसिद्धानामेवादिरन्तश्च मध्यं चेत्युक्तमुपक्रमे। इह त्वचेतनसर्गाणामिति न पौनरुक्त्यम्। विद्यानां मध्येऽध्यात्मविद्या मोक्षहेतुरात्मतत्त्वविद्याहम्। प्रवदतां प्रवदत्संबन्धिनां कथाभेदानां वादजल्पवितण्डात्मकानां मध्ये वादोऽहम्। भूतानामस्मि चेतनेत्यत्र यथा भूतशब्देन तत्संबन्धिनः परिणामा लक्षितास्तथेह प्रवदच्छब्देन तत्संबन्धिनः कथाभेदा लक्ष्यन्ते। अतो निर्धारणोपपत्तिः। यथाश्रुतेतूभयत्रापि संबन्धे षष्ठी। तत्र तत्त्वबुभुत्स्वोर्वीतरागयोः सब्रह्मचारिणोर्गुरुशिष्ययोर्वा प्रमाणेन तर्केण च साधनदूषणात्मा सपक्षप्रतिपक्षपरिग्रहस्तत्त्वनिर्णयपर्यन्तो वादः। तदुक्तंप्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः इति। वादफलस्य तत्त्वनिर्णयस्य दुर्दुरूढवादिनिराकरणेन संरक्षणार्थं विजिगीषुकथे जल्पवितण्डे जयपराजयमात्रपर्यन्ते। तदुक्तंतत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थं जल्पवितण्डे बीजप्ररोहसंरक्षणार्थं कण्टकशाखाप्रावरणवत् इति छलजातिनिग्रहस्थानैः परपक्षो दूष्यत इति जल्पे वितण्डायां च समानम्। तत्र वितण्डायामेकेन स्वपक्षः स्थाप्यत एव। अन्येन च स दूष्यत एव। जल्पेतूभाभ्यामपि स्वपक्षः स्थाप्यत उभाभ्यामपि परपक्षो दूष्यत इति विशेषः। तदुक्तंयथोक्तोपपन्नछलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः?स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा इति? अतो वितण्डाद्वयशरीरत्वाज्जल्पोनाम नैका कथा किंतु शक्त्यतिशयज्ञानार्थं समयबन्धमात्रेण प्रवर्तत इति खण्डनकाराः। तत्त्वाध्यवसायपर्यवसायित्वेन तु वादस्य श्रेष्ठत्वमुक्तमेव।
।।10.32।।सर्गाणामिति। सृज्यन्त इति सर्गा आकाशादयस्तेषामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहम्। अहमादिश्च मध्यं चेत्यत्र सृष्ट्यादिकर्तृत्वं पारमैश्वर्यमुक्तम्। अत्र तूत्पत्तिस्थितिलया मद्विभूतित्वेन ध्येया इत्युच्यत इति विशेषः। अध्यात्मविद्या आत्मविद्या प्रवदतां वादिनां संबन्धिन्यो वादजल्पवितण्डाख्यास्तिस्रः कथाः प्रसिद्धास्तासां मध्ये वादोऽहम्। यत्र द्वाभ्यामपि प्रमाणतस्तर्कतश्च स्वपक्षः स्थाप्यते? परपक्षश्छलजातिनिग्रहस्थानैर्दूष्यते स जल्पो नाम। यत्र त्वेकः स्वपक्षं स्थापयत्यन्यस्तु छलजातिनिग्रहस्थानैस्तत्पक्षं दूषयति नतु स्वपक्षं साधयति सा वितण्डा नाम कथा। तत्र जल्पवितण्डे विजिगीषमाणयोर्वादिनोः शक्तिपरीक्षामात्रफले? वादस्तु वीतरागयोः शिष्याचार्ययोरन्ययोर्वा तत्त्वनिर्णयफलश्च। अतोऽसौ श्रेष्ठत्वान्मद्विभूतिरित्यर्थः।
।।10.32।।सर्गशब्देन सृष्टिमात्रविवक्षायांआदिरन्तश्च इत्यादिनाऽन्वयायोगात्कर्मार्थोऽत्र सर्गशब्द इत्याह -- सृज्यन्त इति सर्गा इति। आदिमध्यान्तशब्दानामत्रावयवविशेषाद्यर्थता न युक्ता? अनतिशयितार्थत्वात्। नापि कालविशेषार्थता? कालस्य वक्ष्यमाणत्वेनात्र पृथग्व्यपदेशप्रयोजनाभावात्। न चोत्पत्त्यादिक्रियामात्रार्थता?उद्भवश्च भविष्यताम्। [10।34] इति वक्ष्यमाणेन पौनरुक्त्यप्रसङ्गात्। न चेश्वरस्यैव कारणत्वादिकमिहोच्यतेअहमादिश्च मध्यं च [10।20] इत्युपक्रमेण कृतकरत्वात्। न चेदं सामान्यतस्तन्निगमनम्? उपर्युपरि वचनात्। तस्माल्लोकसिद्धोत्पत्त्यादिहेतुपरत्वमेवोचितं लक्षणया। तत्राप्युपादानकारणस्यबीजं मां सर्वभूतानाम् [7।10] इति वक्ष्यमाणत्वात् () निमित्तकारणमात्रमिह विवक्षितम्।सर्गाणाम् इत्यविशेषवचनेन सर्वदेशकालवर्तिसृज्यप्रतियोगिकसर्वनिमित्तकारणवर्गस्य स्वाधीनत्वमभिप्रेतम्। तदेतदखिलमभिसंहितंसर्वदेत्यादिवाक्यत्रयेण। अध्यात्मविद्या जीवपरमात्मयाथात्म्यविद्या? सा विषयतः फलतश्च विद्यान्तरेभ्य उत्कृष्टा।प्रवदताम् इति नान्योन्यविवादमात्रं विवक्षितम्? तत्र वादाख्यविशेषस्यास्मरणात्अध्यात्मविद्या विद्यानाम् इति विद्याप्रसङ्गात्तदर्थकथाविषयत्वोपपत्तेः। न चसत्त्वं सत्त्ववताम् [10।36] इतिवद्वादाख्यकथाविशेषवत्त्वमभिप्रेतम् अन्यापेक्षयाऽतिशयसूचनसम्भवे तत्परित्यागायोगात्। अतःप्रवदताम् इति कथात्रयसाधारणरूपमिह विवक्षितम् तदाहजल्पवितण्डादि कुर्वतामिति।तत्त्वनिर्णयाय प्रवृत्त इत्यनेन स्वल्पफलविजिगीषुकथातोऽतिशयितापवर्गपर्यवसितफलत्वेन वादस्योत्कर्षप्रदर्शनम्।
।।10.32।।सर्गाणामिति। सृज्यन्त इति सर्गा भूतादयश्च। स त्रिविधः कार्यसर्गः कारणसर्गः लीलात्मकश्च। तत्र कार्यसर्गो लौकिको बहिस्सृष्टिरूपः? स च जीवनाशरूपत्वात् प्रलयात्मकः। कारणसर्गस्तु मोक्षात्मकत्वादलौकिकः। तृतीयो भगवल्लीलात्मकः। तत्राऽप्यवान्तरभेदास्तत्त्वकालजीवादिरूपाः सन्ति तेषां सर्गाणां मध्ये आदिः कारणरूपोऽहम्। च पुनः। अन्तः रजोगुणात्मकब्रह्मकृतोऽन्तात्मकोऽप्यहम्। मध्यं लीलात्मसर्गोऽहमेव? च मत्स्वरूपमेवेत्यर्थः। हे अर्जुन मुक्त्यधिकारजातीय असताममुक्त्यर्थमेव सर्गत्रयं मद्रूपत्वेन चिन्तयेत्यर्थः।अध्यात्मेति। विद्यानां सर्वासां मध्ये अध्यात्मविद्याऽहमस्मि। प्रवदतां वादिनां वादः? वितण्डाजल्पपक्षत्रयमध्ये वादस्तत्त्वस्वरूपनिर्णयात्मकोऽहमस्मि।
।।10.32।।सर्गाणां भौतिकानां भूतानामादिरन्त इति प्रागेवोक्तत्वात्। विद्यानां चतुर्दशसंख्यानां मध्ये अध्यात्मविद्या बन्धच्छेदहेतुत्वात्। प्रवदतां प्रवक्तृद्वारेण वदनभेदा एव वादजल्पवितण्डा इह गृह्यन्ते। तेषां मध्ये वादस्तत्त्वनिर्णयार्थत्वादहम्।
।।10.32।।सर्गाणां सृष्टीनामुत्पत्तिस्थिति प्रलयानाम्। अहं एतादृशोऽपि परमार्थतः शुद्ध एवेति द्योतयन्नाह -- हे अर्जुनेति। एतज्ज्ञानं शुद्धात्मज्ञानसाधनमिति वा संबोधनाशयः।अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च इत्युपक्रमे भूतानां जीवविष्टानामहमाद्यादिरित्युक्तम्। इह तु सर्वस्यैव सर्गमात्रस्येति न पौनरुक्त्यम्। नन्वहमादिश्च मध्यं चेत्यत्र सृष्ट्यादिकर्तुत्वं परमैश्वर्यमुक्तं? अत्र तूत्प्तिप्रलयस्थितयो मद्विभूतित्वेन ध्येया इत्युत्यते इति विशेष इत्यनेन प्रकारेण विशेष आचार्यैः कुतो नोक्त इतिचेत् अद्यादिशब्दानामुभयत्रैकरुपत्वेन विशेषाश्रुतत्वात्। उपक्रमे पर्वार्धभूतशब्दानुरोधेन भूतशब्दस्य जीवाविष्टभूतबोधकत्वेन सृज्यमात्रबोधकसर्गशब्दे च विशेषस्य श्रुतत्वात् श्रुतहान्यश्रुतकल्पनाभयादिति गृहाण। विद्यानामध्यात्मविद्याहमस्मि मोक्षार्थत्कदध्यात्मविद्यायाः। प्रवतदामित्यनेन वादजल्पवितण्डानां ग्रहणम्। वादादिस्वरुपबोधकामि गौतमसूत्राणि। प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञचावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः। यथोक्तोपन्नः छलजातिनिग्रहस्थासाधनोपालम्भो जल्पः। सपक्षस्थापनहीना वितण्डेति। पक्षप्रतिपक्षौ विप्रतिपत्तिकोटी तयोः परिग्रहो वादः साधनोद्देश्यकोक्तिप्रत्युक्तिरुपवचनसंदर्भः। ननु तावन्मात्रं कथान्तरसाधारणमत आह -- प्रमाणेत्यादिना। प्रत्यपादूह इत्यन्वयः। उपालम्भः दूषणं प्रमाणतर्काभ्यां तद्रूपेण ज्ञाताभ्यां साधनोपालम्भौ यत्र स तथा। ज्ञानमत्रानाहार्यं विवक्षितं सिद्धान्तेनाविरुद्धः पञ्चावयवैरुपपन्न इत्येदाद्विशेषणद्वयं निग्रहस्थानविशेषनियमार्थम्। जल्पं लक्षयति -- यथेति। यथोक्तेषु यदुपपन्नं तेनोपपन्न इत्यर्थः। तथाच प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रह इत्यस्य योग्यतया परामर्शः। प्रमाणतर्काभ्यां तद्रूपेण ज्ञाताब्यां नतु ज्ञानेऽनाहार्यत्वं विवक्षितम्। आरोपितप्रमाणभावेनापि जल्पस्य निर्वाहात्। छलदिभिः साधनस्य परकीयानुमानस्योपालम्भो यत्रेत्यर्थः। छलेत्यादिना विजगीषुकथात्वं बोध्यते। विजिगीषुर्हि छलादिकं करोति। तथा चोभयपक्षस्थापनवती विजगीषुकथा जल्प इत्यर्थः। वितण्डां लक्षयति -- सेति। स जल्पः स्थापनद्वयवत्त्वं विहाय जल्पैकदेशः। प्रतिपक्षोद्वितीयः पक्षस्थाच प्रतिपक्षस्थापनहीना विजिगीषुकथा वितण्डेति। तथाचार्थनिर्णयहेतुत्वाद्वादस्य श्रेष्ठत्वाद्वादोऽहमस्मि।
10.32 सर्गाणाम् among creations? आदिः the beginning? अन्तः the end? च and? मध्यम् the middle? च and? एव also? अहम् I? अर्जुन O Arjuna? अध्यात्मविद्या the science of the Self? विद्यानाम् among sciences? वादः logic? प्रवदताम् among controversialists? अहम् I.Commentary I am the metaphysics among all sciences. I am knowledge of the Self among all branches of knowledge. I am the argument of dators. I am the logic of disputants. I am the speech of orators.In verse 20 above the Lord says? I am the beginning? the middle and the end of the whole movable and immovable creation. Here the whole creation in general is referred to.As the knowledge of the Self leads to the attainment of the final beatitude of life or salvation? it is the chief among all branches of knowledge.Pravadatam By the word controversialists? we should here understand the various kinds of people using various kinds of argumentation in logic such as Vada? Jalpa and Vitanda. Yada is a way of arguing by which one gets at the truth of a certain estion. The aspirants who are free from RagaDvesha and jealousy raise amongst themselves estions and answers and enter into discussions on philosophical problems in order to ascertain and understand the nature of the Truth. They do not argue in order to gain victory over one another. This is Vada. Jalpa is wrangling in which one asserts his own opinion and refutes that of his opponent. Vitanda is idle carping at the arguments of ones opponents. No attempt is made to establish the other side of the estion. In Jalpa and Vitanda one tries to defeat another. There is desire for victory.
10.32 Among creations I am the beginning, the middle and also the end, O Arjuna; among the sciences I am the science of the Self; and I am the logic among controversialists.
10.32 I am the Beginning, the Middle and the End in creation; among sciences, I am the science of Spirituality; I am the Discussion among disputants.
10.32 O Arjuna, of creations I am the beginning and the end as also the middle, I am the knowledge of the Self among knowledge; of those who date I am vada.
10.32 O Arjuna sarganam, of creations; I am the adih, beginning; ca, and ; he antah, end; ca eva, as also; the madhyam, middle-I am the origin, continuance and dissolution. At the commencement (verse 20) origin, end, etc. only of things possessed of souls were spoken of, but here the mention is of all creations in general. This is the difference. Vidyanam, among knowledges; I am the adhyatma-vidya, knowledge of the Self, it being the foremost because of its leading to liberation. Pravadatam, of those who date; aham, I; am vadah, Vada, which is preeminent since it is a means to determining true purport. Hence I am that . By the word pravadatam are here meant the different kinds of date held by dators, viz Vada, Jalpa, and Vitanda. [Vada: discussion with open-mindedness, with a veiw to determining true purport; jalpa: pointless date; Vitanda: wrangling discussion. [Jalpa is that mode of date by which both parties establish their own viewpoint through direct and indirect proofs, and refute the view of the opponent through circumvention (Chala) and false generalization (Jati) and by pointing out unfitness (of the opponent) tobe argued with (Nigraha-sthana). But where one party establishes his viewpoint, and the other refutes it through circumvention, false generalization and showing the unfitness of the opponent to be argued with, without establishing his own views, that is termed Vitanda. Jalpa and Vitanda result only in a trial of streangth between the opponents, who are both desirous of victory, But the result of Vada is the ascertainment of truth between the teacher and the disciple or between others, both unbiased.-Gloss of Sridhara Swami on this verse.]-Tr.]
10.32. Of the creations, I am the beginning, the end and also the middle, O Arjuna ! Of the sciences, [I am] the science of the Self; of arguers, I am the argument.
10.32 See Comment under 10.42
10.32 Those that undergo creation are 'creatures'. Their beginning is the cause. The meaning is that, of the creatures which are being created at all times, I am Myself the creator. Similarly, I am the end, namely the destroyer of everyone of those who are being destroyed at all times. Similarly I am the middle, namely, the sustentation. The meaning is, I am the sustainer of those who are being sustained at all times. Of those who indulge in Jalpa (argument) and Vitanda (perverse criticism) etc., I am the fair reasoning which determines the truth.
10.32 Of creatures, I am the beginning and the end, and also the middle, O Arjuna. Of sciences I am the science of self (of the individual and Universal Self). Of those who argue, I am the fair reasoning.
।।10.32।।हे अर्जुन सृष्टियोंका आदि? अन्त और मध्य अर्थात् उत्पत्ति? स्थिति और प्रलय मैं हूँ। आरम्भमें तो भगवान्ने अपनेको केवल चेतनाधिष्ठित प्राणियोंका ही आदि? मध्य और अन्त बतलाया है? परन्तु यहाँ समस्त जगत्मात्रका आदि? मध्य और अन्त बतलाते हैं? यह विशेषता है। समस्त विद्याओंमें जो कि मोक्ष देनेवाली होनेके कारण प्रधान है? वह अध्यात्मविद्या मैं हूँ। शंकासमाधान करनेके समय बोले जानेवाले वाक्योंमें जो अर्थनिर्णयका हेतु होनेसे प्रधान है वह वाद नामक वाक्य मैं हूँ। यहाँ प्रवदताम् इस पदसे वक्ताद्वारा बोले जानेवाले वाद? जल्प और वितण्डा -- इन तीन प्रकारके वचनभेदोंका ही ग्रहण है ( बोलनेवालोंका नहीं )।
।।10.32।। --,सर्गाणां सृष्टीनाम् आदिः अन्तश्च मध्यं चैव अहम् उत्पत्तिस्थितिलयाः अहम् अर्जुन। भूतानां जीवाधिष्ठितानामेव आदिः अन्तश्च इत्याद्युक्तम् उपक्रमे? इह तु सर्वस्यैव सर्गमात्रस्य इति विशेषः। अध्यात्मविद्या विद्यानां मोक्षार्थत्वात् प्रधानमस्मि। वादः अर्थनिर्णयहेतुत्वात् प्रवदतां प्रधानम्? अतः सः अहम् अस्मि। प्रवक्तृद्वारेण वदनभेदानामेव वादजल्पवितण्डानाम् इह ग्रहणं प्रवदताम् इति।।
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सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन। अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।10.32।।
সর্গাণামাদিরন্তশ্চ মধ্যং চৈবাহমর্জুন৷ অধ্যাত্মবিদ্যা বিদ্যানাং বাদঃ প্রবদতামহম্৷৷10.32৷৷
সর্গাণামাদিরন্তশ্চ মধ্যং চৈবাহমর্জুন৷ অধ্যাত্মবিদ্যা বিদ্যানাং বাদঃ প্রবদতামহম্৷৷10.32৷৷
સર્ગાણામાદિરન્તશ્ચ મધ્યં ચૈવાહમર્જુન। અધ્યાત્મવિદ્યા વિદ્યાનાં વાદઃ પ્રવદતામહમ્।।10.32।।
ਸਰ੍ਗਾਣਾਮਾਦਿਰਨ੍ਤਸ਼੍ਚ ਮਧ੍ਯਂ ਚੈਵਾਹਮਰ੍ਜੁਨ। ਅਧ੍ਯਾਤ੍ਮਵਿਦ੍ਯਾ ਵਿਦ੍ਯਾਨਾਂ ਵਾਦ ਪ੍ਰਵਦਤਾਮਹਮ੍।।10.32।।
ಸರ್ಗಾಣಾಮಾದಿರನ್ತಶ್ಚ ಮಧ್ಯಂ ಚೈವಾಹಮರ್ಜುನ. ಅಧ್ಯಾತ್ಮವಿದ್ಯಾ ವಿದ್ಯಾನಾಂ ವಾದಃ ಪ್ರವದತಾಮಹಮ್৷৷10.32৷৷
സര്ഗാണാമാദിരന്തശ്ച മധ്യം ചൈവാഹമര്ജുന. അധ്യാത്മവിദ്യാ വിദ്യാനാം വാദഃ പ്രവദതാമഹമ്৷৷10.32৷৷
ସର୍ଗାଣାମାଦିରନ୍ତଶ୍ଚ ମଧ୍ଯଂ ଚୈବାହମର୍ଜୁନ| ଅଧ୍ଯାତ୍ମବିଦ୍ଯା ବିଦ୍ଯାନାଂ ବାଦଃ ପ୍ରବଦତାମହମ୍||10.32||
sargāṇāmādirantaśca madhyaṅ caivāhamarjuna. adhyātmavidyā vidyānāṅ vādaḥ pravadatāmaham৷৷10.32৷৷
ஸர்காணாமாதிரந்தஷ்ச மத்யஂ சைவாஹமர்ஜுந. அத்யாத்மவித்யா வித்யாநாஂ வாதஃ ப்ரவததாமஹம்৷৷10.32৷৷
సర్గాణామాదిరన్తశ్చ మధ్యం చైవాహమర్జున. అధ్యాత్మవిద్యా విద్యానాం వాదః ప్రవదతామహమ్৷৷10.32৷৷
10.33
10
33
।।10.33।। अक्षरोंमें अकार और समासोंमें द्वन्द्व समास मैं हूँ। अक्षयकाल अर्थात् कालका भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला धाता भी मैं हूँ।
।।10.33।। मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ; मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।
।।10.33।। मैं अक्षरों में अकार हूँ यह सर्वविदित तथ्य है कि भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता। सभी भाषाओं में संस्कृत की विशेष मधुरता उसमें किये जाने वाले अकार के प्रयोग की प्रचुरता के कारण है। वस्तुत? प्रत्येक व्यंजन में अ जोड़कर ही उसका उच्चारण किया जाता है। यह अ मानो उसमें स्निग्ध पदार्थ का काम करता है? जिसके कारण नाद की कर्कशता दूर हो जाती है। इस अ के सहज प्रवाह के कारण शब्दों के मध्य एक राग और वाक्यों में एक प्रतिध्वनि सी आ जाती है। किसी सभागृह में संस्कृत मन्त्रों के दीर्घकालीन पाठ के उपरान्त? संवेदनशील लोगों के लिए एक ऐसे संगीतमय वातावरण का अनुभव होता है? जो मानव मन के समस्त विक्षेपों को शान्त कर सकता है।प्रत्येक अक्षर का सारतत्त्व अकार है वह शब्दों और वाक्यों की सीमाओं को लांघकर वातावरण में गूंजता है? और सभी भाषाओं की वर्णमालाओं में वह प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित है। अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है।मैं समासों में द्वन्द्व हूँ संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं। समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है। द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है? जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है। अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता? परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद।मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ। वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ?जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है। अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है। अत मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ।मैं धाता हूँ श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। संस्कारों के अनुसार मनुष्य कर्म करता है जिसका नियमानुसार उसे फल प्राप्त होता है।विश्वतोमुख इस शब्द की विस्तृत व्याख्या पहले भी की जा चुकी है? जहाँ यह कहा गया था कि आत्मा न केवल सब में एक है? किन्तु सबसे विलक्षण भी है? और वह प्रत्येक प्राणी में स्थित हुआ? सर्वत्र देखता है। इस सम्पूर्ण भाव को केवल एक शब्द विश्वतोमुख में व्यक्त किया गया है। सभी ऐन्द्रिक मानसिक और बौद्धिक ग्रहणों के लिए चैतन्य आत्मा की कृपा आवश्यक है? और इसलिए? यह शब्द अर्थाभिव्यंजक है।भगवान् कहते हैं
।।10.33।। व्याख्या--'अक्षराणामकारोऽस्मि'--वर्णमालामें सर्वप्रथम अकार आता है। स्वर और व्यञ्जन--दोनोंमें अकार मुख्य है। अकारके बिना व्यञ्जनोंका उच्चारण नहीं होता। इसलिये अकारको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.33।।अक्षराणां मध्येअकारो वै सर्वा वाक् (ऐ0 पू0 3।6) इति श्रुतिसिद्धः? सर्ववर्णानां प्रकृतिः अकारः अहम्? सामासिकः समासमूहः? तस्य मध्ये द्वन्द्वसमासः अहम् स हि उभयपदार्थप्रधानत्वेन उत्कृष्टः। कलामुहूर्तादिमयः अक्षयः कालः अहम् एव सर्वस्य स्रष्टा हिरण्यगर्भः चतुर्मुखः अहम्।
।।10.33।।सर्वहरशब्दस्य मुख्यमर्थान्तरमाह -- अथवेति। भाविकल्याणानामित्युक्तमेव स्पष्टयति -- उत्कर्षेति। कीर्तिर्धार्मिकत्वनिमित्ता ख्यातिः। श्रीर्लक्ष्मीः? कान्तिः शोभा? वाग्वाणी सर्वस्य प्रकाशिका? स्मृतिश्चिरानुभूतस्मरणशक्तिः? मेधा ग्रन्थधारणशक्तिः? धृतिर्धैर्यम्? क्षमा मानापमानयोरविकृतचित्तता। स्त्रीषु कीर्त्यादीनामुत्तमत्वमुपपादयति -- यासामिति।
।।10.33।।अक्षराणामिति। अकारो वासुदेववाचकः।अकारो वै सर्वा वाक् [ऐ.पू.3।6] इति श्रुतेः। समासगणस्य मध्ये द्वन्द्वोऽहं उभयपदार्थप्रधानत्वान्मुख्यः? रामकृष्णावित्यादिसमासोऽस्मि इति स चिन्तनीयः। अहमेव कालः प्रवाहरूपः। धाता चाहम्।
।।10.33।।अक्षराणां सर्वेषां वर्णानां मध्ये अकारोऽहमस्मि।अकारो वै सर्वा वाक् इति श्रुतेस्तस्य श्रेष्ठत्वं प्रसिद्धम्। द्वन्द्वः समास उभयपदार्थप्रधानः सामासिकस्य समाससमूहस्य मध्येऽहमस्मि। पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावः? उत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषः? अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिरिति तेषामुभयपदार्थसाम्याभावेनापकृष्टत्वात्। क्षयिकालाभिमानी अक्षयः परमेश्वराख्यः कालःज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद्यः इत्यादिश्रुतिप्रसिद्धोऽहमेव। कालः कलयतामहमित्यत्र तु क्षयी काल इति उक्तभेदः। कर्मफलविधातृ़णां मध्ये विश्वतोमुखः सर्वतोमुखो धाता सर्वकर्मफलदातेश्वरोऽहमित्यर्थः।
।।10.33।। अक्षरेति। अक्षराणां वर्णानां मध्येऽकारोऽस्मि? तस्य सर्ववाङ्मयत्वेन श्रेष्ठत्वात्। तथाच श्रुतिःअकारो हि सर्वा वाक्सैषा स्पर्शोष्मभिर्व्यज्यमाना बह्वी नानारूपा भवति इति। सामासिकस्य समाससमूहस्य मध्ये द्वन्द्वः रामकृष्णावित्यादिसमासोऽस्मि? उभयपदप्रधानत्वेन श्रेष्ठत्वात्। अक्षयः प्रवाहरूपः कालोऽहमेव। कालः कलयतामित्यत्रायुर्गणनात्मकः संवत्सरशताद्यायुःस्वरूपकाल उक्तः स च तस्मिन्नायुषि क्षीणे सति क्षीयते? अत्र तु प्रवाहात्मकोऽक्षयः काल उच्यत इति विशेषः। कर्मफलविधातृ़णां मध्ये विश्वतोमुखो धाता। सर्वकर्मफलविधाताहमित्यर्थः।
।।10.33।।बह्वृचोपनिषदि श्रूयते -- अ इति ब्रह्म [ऋ.आ.2।2] इति। तथा अकारो वै सर्वा वाक्सैषा स्पर्शोष्मभिर्व्यज्यमाना बह्वी नानारूपा भवति [ऐ.पू.3।6] इति श्रुत्यैव प्रपञ्चितं प्रकृतित्वमाहसर्ववर्णानां प्रकृतिरिति। निर्धारणौपयिकबहुत्वसिद्ध्यर्थं प्रत्ययार्थं दर्शयतिसामासिक समाससमूह इति। पूर्वोत्तरान्यपदार्थप्रधानेभ्योऽव्ययीभावः तत्पुरुषबहुव्रीहिभ्यो द्वन्द्वस्योत्कर्षमाहस ह्युभयेति। अक्षयशब्देन कला मुहूर्ताः काष्ठाश्च [तै.ना.1।8]कलामुहूर्तादिमयश्च कालः [वि.पु.4।1।26] इति श्रुतिस्मृत्यादिसिद्धबहुविधविकाररूपलोकक्षयहेतुभूतानन्तावच्छेदे सत्यपि स्वरूपतोऽनाद्यन्तत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह -- कलेति।अनादिर्भगवान्कालो नान्तोऽस्य द्विज विद्यते [वि.पु.1।2।26]कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृत्तो (द्धो) नान्तो न चादिर्न न मेऽस्ति मध्यम् [11।32] इत्यादिभिरिदं कालाधिष्ठातृत्वं व्यक्तम्। धातृशब्दरूढ्या विश्वतोमुखत्वविशेषणेन च हिरण्यगर्भ एवात्रोच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- सर्वस्येति। धातृशब्देनैवाण्डान्तर्वर्तिसमस्तविधातत्वलक्षण उत्कर्षः सिद्ध इति प्रदर्शनायसर्वस्य स्रष्टेत्युक्तम्। एतेन कर्मफलविधातृत्वेन व्याख्यान्तरं निरस्तम्।विश्वतः इति दिक्चतुष्टयमात्रमिह विवक्षितमिति ज्ञापनायोक्तंचतुर्मुख इति। वेदचतुष्टयप्रवर्तनादिकं चानेन सूचितम्।
।।।10.33।।अक्षराणां वर्णानां मध्ये अकारोऽस्मि? सर्वाक्षरगतत्वात्। सामासिकस्य समाससमूहस्य मध्ये द्वन्द्वःगोपीमाधवौ इत्यादिरस्मि। अक्षयः लीलात्मकोऽलौकिकः कालोऽहमेवास्मि। एवकारेण तस्य साक्षात्स्वरूपात्मकत्वाद्विभूतित्वे किं वाच्यमिति ज्ञापितम्। विधातृ़णां मध्ये विश्वतोमुखः सर्वतोमुखश्चतुर्मुखो धाता अलौकिकसृष्टिकर्त्ताऽहमस्मीत्यर्थः।
।।10.33।।अक्षराणां मध्ये अकारः।अकारो वै सर्वा वाक् इति श्रुतेः। सामासिकस्य समाससमुदायस्य मध्येऽहं द्वन्द्वोऽस्मि। उभयपदार्थप्रधानत्वादिति प्राञ्चः। समं एकत्रासनं समासो विदुषां वा गुरुशिष्याणां वा मन्त्रार्थकथनार्थं वा एकत्रावस्थानं तत्र विदितमर्थजातं सामासिकम्। चातुरर्थिकष्ठक्ठस्येकः इतीकादेशः।यस्येति च इत्यलोपः। तस्य मध्ये द्वन्द्वो रहस्योऽर्थोऽहम्।द्वन्द्वं रहस्य -- इति सूत्रे द्वन्द्वशब्दस्य रहस्यवाचित्वं शाब्दिकप्रसिद्धम्। अक्षयः क्षयहीनः कालः क्षणादिः परो वा ईश्वरः कालस्यापि कालोऽस्मि। धाता कर्मफलप्रदः। विश्वतोमुखः। सर्वप्राणितृप्त्यातृप्यामीत्यर्थः।
।।10.33।।अक्षराणामकारोर्णोऽस्मिअकारो वै सर्वा वाक्?आकारो स्यात् इत्युक्तेः। सामासिकस्याव्ययीभावतत्पुरुषबहुब्रीहिद्वन्द्वसमाससमुदायस्य द्वन्द्वः समासोऽस्मि। तस्योभयपदप्रधानत्वेन श्रेष्ठत्वात्। ननु सममेकत्र आसनं समासो विदुषां वा गुरुशिष्याणां वा मन्त्रार्थ कतार्थं वा एकत्रावस्थानं तत्र विदितमर्थजातं सामासिकं चातुर्थिकष्ठक्।ठस्येकः इतीकादेशः।यस्येति च इत्यलोपः। तस्य मध्ये द्वन्द्वो रहस्योर्थोऽहंद्वन्द्वं रहस्य -- इति सूत्रे द्वन्दव्शब्दस्य रहस्यवाचित्वं शाब्दिकप्रसिद्धमिति भाष्कारैः कुतो न व्याख्यातमितिचेत् समासशब्दस्याव्यायीभावादौ द्वन्द्वशब्दस्य द्वन्द्वसमा्से च योगरुढेः केवलं योगापेक्षया प्रबलत्वात् प्रकृते द्वन्द्वशब्दस्य पंस्त्वेन निर्देशात्। अक्षराणाभकारोऽस्मीतिसमभिव्याहाराच्चेति गृहाण। अन्यथाक्षाराणांअक्षय्यं ह वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति?प्राणा वै सत्यम् इत्यादिनाऽक्षयत्वेन प्रतिपादितानां न करोतीत्यकारः कर्तृत्वादिवर्जितः परमात्माहं तस्य परमार्थसत्यत्वात्। यद्वाक्षराणां व्यापकानां करोतीति करः कर एव कारः स्वार्थकः प्रज्ञाद्यण्प्रत्ययः नकोरोऽकारः आकाशोऽहम्। एकत्र रणभूमौ आसनमासोऽवस्थानं तत्र भवं युद्धजातं सामासिकं तस्य मध्ये द्वन्द्वः द्वन्द्वयुद्धमहं इत्यादि आकाशोऽहम्। एकत्र रणभूमौ आसनमासोऽवस्थानं तत्र भवं युद्धजातं सामासिकं तस्य मध्ये द्वन्द्वः द्वन्द्वयुद्धमहं इत्यादि यत्किंचित्कल्पयितुं शक्यम्। तस्मादाचार्योक्तमेव सम्यक् इति दिक्। अक्षयः क्षयवर्जितः कालोऽहमेव। यद्वा कालस्यापि कालः परमेस्वरोऽहमेव। फलदातृृणां मध्ये सर्वस्य विश्वस्य कर्मफलस्य विधाता सर्वतोमुखोऽहमेवेत्यर्थः।
10.33 अक्षराणाम् among letters? अकारः the letter A? अस्मि (I) am? द्वन्द्वः the dual? सामासिकस्य among all compounds? च and? अहम् I? एव verily? अक्षयः the inexhaustible or everlasting? कालः time? धाता the dispenser? अहम् I? विश्वतोमुखः the Allfaced (or having faces in all directions).Commentary Among the alphabets I am the letter A. Among the various kinds of compounds used in Sanskrit language I am the Dvandva (union of the two)? the copulative.Time here refers to the moment? the ultimate element of time or to Paramesvara? the Supreme Lord Who is the time of even time? since He is beyond time.As the Supreme Being is allpervading it is said that He has faces in all directions.
10.33 Among the letters of the alphabets, the letter 'A' I am and the dual among the compounds. I am verily the inexhaustible or everlasting time; I am the dispenser (of the fruits of actions) having faces in all directions.
10.33 Of letters I am A; I am the copulative in compound words; I am Time inexhaustible; and I am the all-pervading Preserver.
10.33 Of the letters I am the letter a, and of the group of compund words I am (the compound called) Dvandva. [Dvandva: A compound of two or more words which, if not compounded, would stand in the same case and be connected by the conjunction 'and'.-Tr.] I Mayself am the infinite time; I am the Dispenser with faces everywhere.
10.33 Aksaranam, of the letters; I am the akarah, letter a. Samasikasya, of the group of compound words, I am the compund (called) Dvandva. Besieds, aham eva, I Myself; am the aksayah, infinite, endless; kalah, time, well known as 'moment' etc.; or, I am the supreme God who is Kala (Time, the measurer) even of time. I am the dhata, Dispenser, the dispenser of the fruits of actions of the whole world; visvatomukhah, with faces everwhere.
10.33. Of the syllables, I am A; of the compounds, the Dvandva; none but Me, is the immortal Time; I am the dispenser [of fruits actions] facing on all sides.
10.33 See Comment under 10.42
10.33 Of letters I am the alphabet 'a', which is the base of all letters as established in the Sruti: 'The letter 'a' itself is all speech' (Ai. Ai., 3.2.3). Samasika means collection of compound words. In it, I am the Dvandva compound; it is eminent because the meanings of both constituent terms are important. I am Myself imperishable Time composed of (divisions like) Kala, Muhurta etc. I am the four-faced Hiranyagarbha who is the creator of all.
10.33 Of letters, I am the alphabet 'a'. Of compound words, I am the Dvandva (copulative). I am Myself imperishable Time. I am the Creator, facing every side.
।।10.33।।अक्षरोंमें -- वर्णोंमें अकार -- अ वर्ण मैं हूँ। समास -- समूहमें द्वन्द्व नामक समास मैं हूँ तथा मैं ही अविनाशी काल -- जो क्षणघड़ी आदि नामोंसे प्रसिद्ध है वह समय? अथवा कालका भी काल परमेश्वर हूँ और मैं ही विधाता -- सब जगत्के कर्मफलका विधान करनेवाला तथा सब ओर मुखवाला परमात्मा हूँ।
।।10.33।। --,अक्षराणां वर्णानाम् अकारः वर्णः अस्मि। द्वन्द्वः समासः अस्मि सामासिकस्य च समाससमूहस्य। किञ्च अहमेव अक्षयः अक्षीणः कालः प्रसिद्धः क्षणाद्याख्यः? अथवा परमेश्वरः कालस्यापि कालः अस्मि। धाता अहं कर्मफलस्य विधाता सर्वजगतः विश्वतोमुखः सर्वतोमुखः।।
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अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।।
অক্ষরাণামকারোস্মি দ্বন্দ্বঃ সামাসিকস্য চ৷ অহমেবাক্ষযঃ কালো ধাতাহং বিশ্বতোমুখঃ৷৷10.33৷৷
অক্ষরাণামকারোস্মি দ্বন্দ্বঃ সামাসিকস্য চ৷ অহমেবাক্ষযঃ কালো ধাতাহং বিশ্বতোমুখঃ৷৷10.33৷৷
અક્ષરાણામકારોસ્મિ દ્વન્દ્વઃ સામાસિકસ્ય ચ। અહમેવાક્ષયઃ કાલો ધાતાહં વિશ્વતોમુખઃ।।10.33।।
ਅਕ੍ਸ਼ਰਾਣਾਮਕਾਰੋਸ੍ਮਿ ਦ੍ਵਨ੍ਦ੍ਵ ਸਾਮਾਸਿਕਸ੍ਯ ਚ। ਅਹਮੇਵਾਕ੍ਸ਼ਯ ਕਾਲੋ ਧਾਤਾਹਂ ਵਿਸ਼੍ਵਤੋਮੁਖ।।10.33।।
ಅಕ್ಷರಾಣಾಮಕಾರೋಸ್ಮಿ ದ್ವನ್ದ್ವಃ ಸಾಮಾಸಿಕಸ್ಯ ಚ. ಅಹಮೇವಾಕ್ಷಯಃ ಕಾಲೋ ಧಾತಾಹಂ ವಿಶ್ವತೋಮುಖಃ৷৷10.33৷৷
അക്ഷരാണാമകാരോസ്മി ദ്വന്ദ്വഃ സാമാസികസ്യ ച. അഹമേവാക്ഷയഃ കാലോ ധാതാഹം വിശ്വതോമുഖഃ৷৷10.33৷৷
ଅକ୍ଷରାଣାମକାରୋସ୍ମି ଦ୍ବନ୍ଦ୍ବଃ ସାମାସିକସ୍ଯ ଚ| ଅହମେବାକ୍ଷଯଃ କାଲୋ ଧାତାହଂ ବିଶ୍ବତୋମୁଖଃ||10.33||
akṣarāṇāmakārō.smi dvandvaḥ sāmāsikasya ca. ahamēvākṣayaḥ kālō dhātā.haṅ viśvatōmukhaḥ৷৷10.33৷৷
அக்ஷராணாமகாரோஸ்மி த்வந்த்வஃ ஸாமாஸிகஸ்ய ச. அஹமேவாக்ஷயஃ காலோ தாதாஹஂ விஷ்வதோமுகஃ৷৷10.33৷৷
అక్షరాణామకారోస్మి ద్వన్ద్వః సామాసికస్య చ. అహమేవాక్షయః కాలో ధాతాహం విశ్వతోముఖః৷৷10.33৷৷
10.34
10
34
।।10.34।। सबका हरण करनेवाली मृत्यु और उत्पन्न होनेवालोंका उभ्दव मैं हूँ तथा स्त्री-जातिमें कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ।
।।10.34।। मैं सर्वभक्षक मृत्यु और भविष्य में होने वालों की उत्पत्ति का कारण हूँ; स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक (वाणी), स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हूँ।।
।।10.34।। मैं सर्वभक्षक मृत्यु हूँ समानता की समर्थक मृत्यु? शासक के राजदण्ड और मुकुट को भी भिक्षु के भिक्षापात्र और दण्ड के स्तर तक ले आती है। प्रत्येक प्राणी केवल अपने जीवन काल में अनेक वस्तुओं और व्यक्तियों के संबंधों के द्वारा अपना एक भिन्न अस्तित्व बनाये रखता है। मृत्यु के पश्चात् विद्वान और मूढ़? पुण्यात्मा और पापात्मा? बलवान और दुर्बल? शासक और शासित ये सब धूलि में मिल जाते हैं? एक समानरूप बन जाते हैं जिनमें किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता।भविष्य में होने वालों का मैं उत्पत्ति कारण हूँ परमात्मा केवल सर्वभक्षक ही नहीं? सृष्टिकर्ता भी है। हम देख चुके हैं कि वस्तुत एक अवस्था के नाश के बिना अन्य अवस्था का जन्म नहीं हो सकता है। किसी पक्ष को ही देखना माने जीवन का एकांगी दर्शन करना ही हैं। वस्तु के नाश से शून्यता नहीं शेष रहती? वरन् अन्य वस्तु की उत्पत्ति होती है। समुद्र में उठती लहरों को अलगअलग देंखे ंतो सदा नाश ही होता दिखाई देगा? परन्तु एक के लय के साथ ही समुद्र में कितनी ही लहरें उत्पन्न होती रहती हैं? जिसका हमे ध्यान भी नहीं रहता है।इस सम्पूर्ण विवेचन का बल इसी पर है कि अनन्त परमात्मा अपने में ही रचना और संहार की क्रीड़ा निरन्तर कर रहा है जिस क्रीड़ा को हम विश्व कहते हैं।मैं स्त्रियों में कीर्ति? श्री? वाक्? स्मृति? मेधा? धृति और क्षमा हूँ ये सात देवताओं की स्त्रियां और स्त्रीवाचक नाम गुण के रूप में भी प्रसिद्ध हंै? इसलिए दोनों प्रकार से ही ये भगवान् की विभूतियां है? दार्शनिक दृष्टिकोण से इस कथन का अर्थ सब आलोचनाओं के परे है। यहाँ यह नहीं कहा गया है कि इन गुणों से सम्पन्न पुरुष दिव्य है। तात्पर्य यह है कि जिस किसी पुरुष में जिसका भूतकाल का जीवन कैसा भी हो जब कभी इनमें से किसी गुण के दर्शन होते हैं? तब हम उसके माध्यम से ईश्वर की विभूति के स्पष्ट दर्शन कर सकते हैं। गुण के प्रत्यारोपण की भाषा में भगवान् कहते हैं? स्त्रियों में मैं कीर्ति? श्री आदि गुण हूँ।अपने परिचय को और अधिक स्पष्ट करने के लिए अगले श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण चार और दृष्टान्त देते हैं
।।10.34।। व्याख्या--'मृत्युः सर्वहरश्चाहम्'--मृत्युमें हरण करनेकी ऐसी विलक्षण सामर्थ्य है कि मृत्युके बाद यहाँकी स्मृतितक नहीं रहती, सब कुछ अपहृत हो जाता है। वास्तवमें यह सामर्थ्य मृत्युकी नहीं है, प्रत्युत परमात्माकी है।अगर सम्पूर्णका हरण करनेकी, विस्मृत करनेकी भगवत्प्रदत्त सामर्थ्य मृत्युमें न होती तो अपनेपनके सम्बन्धको लेकर जैसी चिन्ता इस जन्ममें मनुष्यको होती है, वैसी ही चिन्ता पिछले जन्मके सम्बन्धको लेकर भी होती। मनुष्य न जाने कितने जन्म ले चुका है। अगर उन जन्मोंकी याद रहती तो मनुष्यकी चिन्ताओंका, उसके मोहका कभी अन्त आता ही नहीं। परन्तु मृत्युके द्वारा विस्मृति होनेसे पूर्वजन्मोंके कुटुम्ब, सम्पत्ति आदिकी चिन्ता नहीं होती। इस तरह मृत्युमें जो चिन्ता, मोह मिटानेकी सामर्थ्य है, वह सब भगवान्की है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.34।।सर्वप्राणहरः मृत्युः च अहम् उत्पत्स्यमानानाम् उद्भवाख्यं कर्म च अहम्? नारीणां श्रीः अहं कीर्तिः च अहं वाक् च अहं स्मृतिः च अहं मेधा च अहं धृतिः च अहं क्षमा च अहम्।
।।10.34।।सर्वहरशब्दस्य मुख्यमर्थान्तरमाह -- अथवेति। भाविकल्याणानामित्युक्तमेव स्पष्टयति -- उत्कर्षेति। कीर्तिर्धार्मिकत्वनिमित्ता ख्यातिः। श्रीर्लक्ष्मीः? कान्तिः शोभा? वाग्वाणी सर्वस्य प्रकाशिका? स्मृतिश्चिरानुभूतस्मरणशक्तिः? मेधा ग्रन्थधारणशक्तिः? धृतिर्धैर्यम्? क्षमा मानापमानयोरविकृतचित्तता। स्त्रीषु कीर्त्यादीनामुत्तमत्वमुपपादयति -- यासामिति।
।।10.34।।मृत्युरिति स्पष्टम्। भगवदीयविरोधिजनान् सर्वान् संहरति तथाभूतो मृत्युर्मद्विभूतिः। एवमुद्भवोऽपि। नारीणां मध्ये कीर्त्यादयः सप्ताहम्। अथवा कीर्त्तिर्वृषभानुपत्नी मद्विभूतिः। तत्र श्रीश्चाहम्। वाक्सरस्वतीयमवताररूपा चाहं श्रीपरिचारिका वा निर्दिष्टा।
।।10.34।।संहारकारिणां मध्ये सर्वहरः सर्वसंहारकारी मृत्युरहम्। भविष्यतां भाविकल्याणानां य उद्भव उत्कर्षः स चाहमेव। नारीणां मध्ये कीर्तिः श्रीर्वाक् स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमेति च सप्त धर्मपत्न्योऽहमेव। तत्र कीर्तिर्धार्मिकत्वनिमित्ता प्रशस्तत्वेन नानादिग्देशीयलोकज्ञानविषयतारूपा ख्यातिः। श्रीर्धर्मार्थकामसंपत् शरीरशोभा वा कान्तिर्वा। वाक् सरस्वती सर्वस्यार्थस्य प्रकाशिका संस्कृता वाणी। चकारान्मूर्त्यादयोऽपि धर्मपत्न्यो गृह्यन्ते। स्मृतिश्चिरानुभूतार्थस्मरणशक्तिः। अनेकग्रन्थार्थधारणाशक्तिर्मेधा। धृतिरवसादेऽपि शरीरेन्द्रियसंघातोत्तम्भनशक्तिः। उच्छृङ्खलप्रवृत्तिकारणेन चापलप्राप्तौ तन्निवर्तनशक्तिर्वा। क्षमा हर्षविषादयोरविकृतचित्तता। यासामाभासमात्रसंबन्धेनापि जनः सर्वलोकादरणीयो भवति तासां,सर्वस्त्रीषूत्तमत्वमिति प्रसिद्धमेव।
।।10.34।। मृत्युरिति। संहारकारिणां मध्ये सर्वहरो मृत्युरहम्। भविष्यतां भाविकल्याणानां प्राणिनामुद्भवोऽभ्युदयोऽहम्। नारीणां स्त्रीणां मध्ये कीर्त्याद्याः सप्त देवतारूपाः स्त्रियोऽहम्। यासामाभासमात्रयोगेन प्राणिनः श्लाघ्या भवन्ति ताः कीर्त्याद्याः स्त्रियो मद्विभूतयः।
।।10.34।।कर्मानुरूपदण्डकालावच्छेदाधिकृतयोर्यमकालाख्यपुरुषयोरुक्तत्वाद्यमादेशकारिप्राणहरणाधिकृतपुरुषविशेष इहमृत्युः सर्वहरः इत्युच्यत इति ज्ञापनायसर्वप्राणहर इत्युक्तम्।प्रलये सर्वसंहर्तेश्वर इह मृत्युः इति कैश्चिदुक्तं मन्दम्?भूतानामन्त एव च [10।20] इत्युक्तत्वात्। उद्भवसहपाठादत्र मृत्युशब्दो मरणपर इति केचित्। उद्भवशब्दः स्वरसत उत्पत्तिक्रियापरः। उद्भवस्थानादि निमित्तोपादानादिकं चात्र पृथगेव निर्दिष्टमिति क्रियापरत्वमेवोचितमित्यभिप्रायेणउद्भवाख्यं कर्मेत्युक्तम्। कीर्त्यादयो नेह गुणविशेषा विवक्षिताः तेषां पुरुषेष्वपि च उद्भूतत्वेननारीणाम् इति विशेषणायोगात्। न च नारीशब्दोऽत्र स्त्रीलिङ्गपदार्थमात्रपरः? मुख्यबाधाभावात्। अतो नारीविशेषनिर्धारणमेव क्रियते। तत्र च श्रिय एव सर्वनारीभ्योऽतिशयितत्वात्सैव प्रथमं वक्तव्याकीर्तिः श्रीः इति तु पाठक्रमोऽर्थक्रमेण बाध्यत इत्यभिप्रायेणश्रीरहं कीर्तिश्चाहमित्युक्तम्। एताश्च भगवदसाधारणशक्तयः। अन्यत्र तु तत्तदभिमानविशेषात्तत्तच्छब्दः।
।।10.34।।मृत्युरिति। संहारिणां मध्ये सर्वसंहारकोऽहम्। च पुनः मृत्युरपि। भविष्यतां निखिलानां प्राणिनां पदार्थानां उद्भवोऽभ्युदयः भाग्यरूपोऽहम्।कीर्तिरिति। कीर्तिः धर्मस्य स्त्री? श्रीः लक्ष्मीः? वाक् सरस्वती श्रीभागवतादिरूपा? स्मृतिर्भगवत्स्मरणात्मिका? मेधा बुद्धिः भगवद्गुणैकनिष्ठा? धृतिः आपत्सु धर्मैकनिष्ठता? क्षमा सर्वातिक्रमसहनरूपा? नारीणां मध्ये एता मद्विभूतिरूपाः।
।।10.34।।सर्वहरः प्रलयकालिको मृत्युरस्मि। भविष्यतां भाविकल्याणानामुद्भव ऐश्वर्योत्कर्षोऽहम्। कीर्त्यादिसप्तकमप्यहं यासां संश्रयमात्रेण मनुष्येषु कृतार्थताबुद्धिर्भवति।
।।10.34।।मृत्युः सर्वहरः प्राणहरस्तस्य सर्वहरत्वात्। धनादिहरस्तु न सर्वहरः। यद्वा प्रलयकाले सर्वहरः। यद्वा प्रलयकाले,सर्वहरः परमेश्वरुपो मृत्युहरम्। भविष्यतां भाविकल्याणानामुत्कर्षप्राप्तियोग्यानां मध्ये उत्कर्षाभ्युदयप्राप्तिहेतुरहम्। नारीणां कीर्त्यादयो नार्योऽहं यामामाभासमात्रेणापि लोकः कृतार्थमात्मानं मन्यते।
10.34 मृत्युः death? सर्वहरः alldevouring? च and? अहम् I? उद्भवः the prosperity? च and? भविष्यताम् of those who are to be prosperous? कीर्तिः frame? श्रीः prosperity? वाक् speech? च and? नारीणाम् of the feminine? स्मृतिः the memory? मेधा intelligence? धृतिः firmness? क्षमा forgiveness.Commentary I am also the allsnatching death that destroys everything. Death is of two kinds? viz.? he who seizes wealth and he who seizes life. Of them he who seizes life is the allseizer and,hence he is called Sarvaharah. I am he.Or? there is another interpretation. I am the Supreme Lord Who is the allseizer? because I destroy everything at the time of the cosmic dissolution.I am the origin of all the beings to be born in the future. I am the prosperity and the means of achieving it of those who are fit to attain it.Beauty is Sri. Lustre is Sri. I am fame? the best of the feminine alities. People who have attained slight fame think that they have achieved great success in life and that they have become very big or great men. I am speech which adorns the throne of justice. I am memory which recalls objects and pleasures of the past.The power of the mind which enables one to hold the teachings of the scriptures is Medha. Firmness or Dhriti is the power to keep the body and the senses steady even amidst various kinds of sufferings. The power to keep oneself unattached even while doing actions is Dhriti. It also means courage. Kshama also means endurance.Fame? prosperity? memory? intelligence and firmness are the daughters of Daksha. They had been given in marriage to Dhrama and so they are all called Dharmapatnis.
10.34 And I am the all-devouring Death, and the prosperity of those who are to be prosperous; among the feminine alities (I am) fame, prosperity, speech, memory, intelligence, firmness and forgiveness.
10.34 I am all-devouring Death; I am the Origin of all that shall happen; I am Fame, Fortune, Speech, Memory, Intellect, Constancy and Forgiveness.
10.34 And I am Death, the destroyer of all; and the prosperity of those destined to be prosperous. Of the feminine [Narinam may mean 'of the feminine alities'. According to Sridhara Swami and S., the words fame etc. signify the goddesses of the respective alities. According to M.S. these seven goddesses are the wives of the god Dharma.-Tr.] (I am) fame, beauty, speech, memory, intelligence, fortitude and forbearance.
10.34 Death which is of two kinds-one destroying wealth, and the other destroying life-, [Here Ast. adds: tatra yah prana-harah sah (sarva-harah ucyate)-Among them, that which destroys life (is called sarva-harah).-Tr.] is called sarva-harah, the destroyer of all. I am that. This is the meaning. Or, the supreme God is the all-destroyer because He destroys everything during dissolution. I am He. And I am udbhavah, prosperity, eminence, and the means to it. Of whom? Bhavisyatam, of those destined to be prosperous, i.e. of those who are fit for attaining eminence. Narinam, of the feminine alities; I am kirtih, fame; srih, beauty; vak, speech; smrtih, memory; medha, intelligence dhrtih, fortitude; and ksama, forbearance. I am these excellent feminine ialities, by coming to possess even a trace of which one considers himself successful.
10.34. I am the Death that carries away all and also the Birth of all that are to be born; of the wives of men, I am the Fame, Fortune, Speech, Memory, Wisdom, Constancy and Patience.
10.34 See Comment under 10.42
10.34 I am also death which snatches away the life of all. Of those that shall be born I am that called birth. Of women (i.e., of goddesses who are the powers of the Lord) I am prosperity (Sri); I am fame (Kirti); I am speech (Vak); I am memory (Smrti); I am intelligence (Medha); I am endurance (Dhrti); and I am forgiveness (Ksama).
10.34 I am also death which snatches all away. I am the origin of all that shall be born. Among women, I am fame, prosperity, speech, memory, intelligence, endurance and forgiveness.
।।10.34।।धनादिका नाश करनेवाला और प्राणोंका नाश करनेवाला ऐसे दो प्रकारका मृत्यु सर्वहर कहलाता है? वह सर्वहर मृत्यु मैं हूँ। अथवा परम ईश्वर प्रलयकालमें सबका नाश करनेवाला होनेसे सर्वहर है? वह मैं हूँ। भविष्यत्में जिनका कल्याण होनेवाला है अर्थात् जो उत्कर्षताप्राप्तिके योग्य हैं उनका उद्भव अर्थात् उत्कर्ष -- उन्नतिकी प्राप्तिका कारण मैं हूँ। स्त्रियोंमें जो कीर्ति? श्री? वाणी? स्मृति? बुद्धि? घृति और क्षमा ये उत्तम स्त्रियाँ हैं? जिनके आभासमात्र सम्बन्धसे भी लोग अपनेको कृतार्थ मानते हैं वे मैं हूँ।
।।10.34।। --,मृत्युः द्विविधः धनादिहरः प्राणहरश्च तत्र यः प्राणहरः? स सर्वहरः उच्यते सः अहम् इत्यर्थः। अथवा? परः ईश्वरः प्रलये सर्वहरणात् सर्वहरः? सः अहम्। उद्भवः उत्कर्षः अभ्युदयः तत्प्राप्तिहेतुश्च अहम्। केषाम् भविष्यतां भाविकल्याणानाम्? उत्कर्षप्राप्तियोग्यानाम् इत्यर्थः। कीर्तिः श्रीः वाक् च नारीणां स्मृतिः मेधा धृतिः क्षमा इत्येताः उत्तमाः स्त्रीणाम् अहम् अस्मि? यासाम् आभासमात्रसंबन्धेनापि लोकः कृतार्थमात्मानं मन्यते।।
null
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मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्। कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा।।10.34।।
মৃত্যুঃ সর্বহরশ্চাহমুদ্ভবশ্চ ভবিষ্যতাম্৷ কীর্তিঃ শ্রীর্বাক্চ নারীণাং স্মৃতির্মেধা ধৃতিঃ ক্ষমা৷৷10.34৷৷
মৃত্যুঃ সর্বহরশ্চাহমুদ্ভবশ্চ ভবিষ্যতাম্৷ কীর্তিঃ শ্রীর্বাক্চ নারীণাং স্মৃতির্মেধা ধৃতিঃ ক্ষমা৷৷10.34৷৷
મૃત્યુઃ સર્વહરશ્ચાહમુદ્ભવશ્ચ ભવિષ્યતામ્। કીર્તિઃ શ્રીર્વાક્ચ નારીણાં સ્મૃતિર્મેધા ધૃતિઃ ક્ષમા।।10.34।।
ਮਰਿਤ੍ਯੁ ਸਰ੍ਵਹਰਸ਼੍ਚਾਹਮੁਦ੍ਭਵਸ਼੍ਚ ਭਵਿਸ਼੍ਯਤਾਮ੍। ਕੀਰ੍ਤਿ ਸ਼੍ਰੀਰ੍ਵਾਕ੍ਚ ਨਾਰੀਣਾਂ ਸ੍ਮਰਿਤਿਰ੍ਮੇਧਾ ਧਰਿਤਿ ਕ੍ਸ਼ਮਾ।।10.34।।
ಮೃತ್ಯುಃ ಸರ್ವಹರಶ್ಚಾಹಮುದ್ಭವಶ್ಚ ಭವಿಷ್ಯತಾಮ್. ಕೀರ್ತಿಃ ಶ್ರೀರ್ವಾಕ್ಚ ನಾರೀಣಾಂ ಸ್ಮೃತಿರ್ಮೇಧಾ ಧೃತಿಃ ಕ್ಷಮಾ৷৷10.34৷৷
മൃത്യുഃ സര്വഹരശ്ചാഹമുദ്ഭവശ്ച ഭവിഷ്യതാമ്. കീര്തിഃ ശ്രീര്വാക്ച നാരീണാം സ്മൃതിര്മേധാ ധൃതിഃ ക്ഷമാ৷৷10.34৷৷
ମୃତ୍ଯୁଃ ସର୍ବହରଶ୍ଚାହମୁଦ୍ଭବଶ୍ଚ ଭବିଷ୍ଯତାମ୍| କୀର୍ତିଃ ଶ୍ରୀର୍ବାକ୍ଚ ନାରୀଣାଂ ସ୍ମୃତିର୍ମେଧା ଧୃତିଃ କ୍ଷମା||10.34||
mṛtyuḥ sarvaharaścāhamudbhavaśca bhaviṣyatām. kīrtiḥ śrīrvākca nārīṇāṅ smṛtirmēdhā dhṛtiḥ kṣamā৷৷10.34৷৷
மரித்யுஃ ஸர்வஹரஷ்சாஹமுத்பவஷ்ச பவிஷ்யதாம். கீர்திஃ ஷ்ரீர்வாக்ச நாரீணாஂ ஸ்மரிதிர்மேதா தரிதிஃ க்ஷமா৷৷10.34৷৷
మృత్యుః సర్వహరశ్చాహముద్భవశ్చ భవిష్యతామ్. కీర్తిః శ్రీర్వాక్చ నారీణాం స్మృతిర్మేధా ధృతిః క్షమా৷৷10.34৷৷
10.35
10
35
।।10.35।। गायी जानेवाली श्रुतियोंमें बृहत्साम और वैदिक छन्दोंमें गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनोंमें मार्गशीर्ष और छः ऋतुओंमें वसन्त मैं हूँ।
।।10.35।। सामों (गेय मन्त्रों) में मैं बृहत्साम और छन्दों में गायत्री छन्द हूँ; मैं मासों में मार्गशीर्ष (दिसम्बरजनवरी के भाग) और ऋतुओं में वसन्त हूँ।।
।।10.35।। मैं सामों में बृहत्साम हूँ भगवान् ने पहले कहा था कि? वेदों में सामवेद मैं हूँ। अब यहाँ सामवेद में भी विशेषता बताते हैं कि मैं सामों में बृहत्साम हूँ। ऋग्वेद की जिन ऋचाओं को सामवेद में गाया जाता है? उन्हें साम कहते हैं। उनमें एक साम वह है? जिसमें इन्द्र की सर्वेश्वर के रूप में स्तुति की गई है? जिसे बृहत्साम कहते हैं? जिसका उल्लेख भगवान ने यहाँ किया है। साममन्त्रों का गायन विशिष्ट पद्धति का होने के कारण अत्यन्त कठिन है? जिन्हें सीखने के लिए वर्षों तक गुरु के पास रहकर साधना करनी पड़ती है।मैं छन्दों में गायत्री हूँ वेद मन्त्रों की रचना विविध छन्दों में की गई है। इन छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूँ। जन्मत सभी मनुष्य संस्कारहीन होते हैं। हिन्दू धर्म में बालक का उपनयन संस्कार गायत्री मन्त्र के द्वारा ही होता है? जिसकी रचना गायत्री छन्द में है। अत इस छन्द को विशेष महत्व प्राप्त है। गायत्री में चौबीस अक्षर हैं और इस मन्त्र के द्वारा सविता देवता की उपासना की जाती है। ब्राह्मण लोग प्रातकाल और सांयकाल संध्यावन्दन के समय इस मन्त्रोच्चार के द्वारा सूर्य को अर्ध्य प्रदान करते हैं।विश्व के किसी भी धर्म में किसी एक मन्त्र का जप इतने अधिक भक्तों द्वारा निरन्तर इतने अधिक काल से नहीं किया गया है जितना कि गायत्री छन्द में बद्ध गायत्री मन्त्र का। यह मन्त्र अत्यन्त शक्तिशाली एवं प्रभावशाली माना जाता है।मैं मासों में मार्गशीर्ष हूँ अंग्रेजी महीनों के अनुसार दिसम्बर और जनवरी के भाग मार्गशीर्ष हैं। भारत में? इस मास को पवित्र माना गया है। जलवायु की दृष्टि से भी यह सुखप्रद होता है? क्योंकि इस मास में न वर्षा की आर्द्रता या सांद्रता होती है और न ग्रीष्म ऋतु की उष्णता।मैं ऋतुओं में बसन्त हूँ प्रकृति को सुस्मित करने वाली बसन्त ऋतु मैं हूँ। समस्त सृष्टि की दृश्यावलियों को अपने सतरंगी सन्देश और सुरभित संगीत से हर्ष विभोर करने वाला ऋतुराज पर्वत पुष्पों के परिधान पहनते हैं। भूमि हरितवसना होती है। सरोवर एवं जलाशय उत्फुल्ल कमलों की हंसी से खिलखिला उठते हैं। मैदानों में हरीतिमा के गलीचे बिछ जाते हैं। सभी हृदय किसी उत्सव की उमंग से परिपूर्ण हो जाते हैं। सृष्टि के हर्षातिरेक को राजतिलक करने के लिए चन्द्रिका स्वयं को और अधिक सावधानी से सँवारती है।मुझे न केवल भव्य और दिव्य में ही देखना है और न केवल सुन्दर और आकर्षक में? वरन् हीनतम से हीन में भी मुझे पहचानना है मैं हूँ? जो हूँ सुनो
।।10.35।। व्याख्या--'बृहत्साम तथा साम्नाम्'--सामवेदमें बृहत्साम नामक एक गीति है। इसके द्वारा इन्द्ररूप परमेश्वरकी स्तुति की गयी है। अतिरात्रयागमें यह एक पृष्ठस्तोत्र है। सामवेदमें सबसे श्रेष्ठ होनेसे इस बृहत्सामको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है (टिप्पणी प0 564)।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N --,विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.35।।साम्नां बृहत्साम अहम्? छन्दसां गायत्रीं अहम्? ऋतूनां कुसुमाकरः वसन्तः।
।।10.35।।वेदानां सामवेदोऽस्मीत्युक्तं तत्रावान्तरविशेषमाह -- बृहदिति। छन्दसां मध्ये गायत्री नाम यच्छन्दस्तदहमित्ययुक्तं छन्दसामृग्भ्योऽतिरेकेण स्वरूपभावादित्याशङ्क्याह -- गायत्र्यादीति।,द्विजातेर्द्वितीयजन्मजननीत्वादित्यर्थः। मार्गशीर्षो मृगशीर्षेण युक्ता पौर्णमास्यस्मिन्निति मार्गशीर्षो मासः सोऽहं पक्वसस्याढ्यत्वादित्याह -- मासानामिति। वसन्तो रमणीयत्वादिति शेषः।
।।10.35।।बृहत्सामेति। त्वामिद्धि हवामहे [ऋक्सं.4।7।21।1] इत्यस्यां ऋचि गीयमानं बृहत्साम तेन चेन्द्रः सर्वेश्वरत्वेन स्तूयत इति श्रैठ्यं दर्श्यते। छन्दसां वेदमन्त्राणां वा मध्ये गायत्री मे विभूतिः? मत्स्वरूपप्रतिपादकत्वाद्भगवत्सेवकैश्चिन्तनीया। मासानां मध्ये मार्गशीर्षोऽहं कुमारिकाकामपूरणकालत्वात् भोगयोग्यत्वाच्च मे विभूतिः। ऋतूनां मध्ये कुसुमाकरो वसन्तोऽहं वसन्तेऽग्नीनादधीत [ ] इति श्रुतौ प्राशस्त्यत्वाज्जडेष्वपि प्रमोदापादकत्वाद्वृन्दावनाविरतवृत्तित्वाच्च मे विभूतिः।
।।10.35।।वेदानां सामवेदोऽस्मीत्युक्तं तत्रायमन्यो विशेषः। साम्रामृगक्षरारूढानां गीतिविशेषाणां मध्येत्वामिद्धि हवामहे इत्यस्यामृचि गीतिविशेषो बृहत्साम। तच्चातिरात्रे पृष्ठस्तोत्रं सर्वेश्वरत्वेनेन्द्रस्तुतिरूपमन्यतः श्रेष्ठत्वादहम्। छन्दसां नियताक्षरपादत्वरूपच्छन्दोविशिष्टानामृचां मध्ये द्विजातेर्द्वितीयजन्महेतुत्वेन प्रातःसवनादिसवनत्रयव्यापित्वेन त्रिष्टुब्जगतीभ्यां सोमाहरणार्थं गताभ्यां सोमो न लब्धोऽक्षराणि च हारितानि जगत्या त्रीणि त्रिष्टुभैकमिति चत्वारि तैरक्षरैः सह सोमस्याहरणेन च सर्वश्रेष्ठा गायत्री ऋगहम्।चतुरक्षराणि हवा अग्रे छन्दांस्यासुस्ततो जगती सोममच्छापतत्सा त्रीण्यक्षराणि हित्वा जगाम ततस्त्रिष्टुप्सोममच्छापतत्सैकमक्षरं हित्वापतत्ततो गायत्रीसोममच्छापतत्सा तानि चाक्षराणि हरन्त्यागच्छत्सोमं च तस्मादष्टाक्षरा गायत्री त्युपक्रम्यतदाहुर्गायत्राणि वै सर्वाणि सवनानि गायत्री ह्येवैतदुपसृजामो नैतत् इति शतपथश्रुतेःगायत्री वा इदं सर्वं भूतम् इत्यादिछान्दोग्यश्रुतेश्च। मासानां द्वादशानां मध्येऽभिनवशालिवास्तूकशाकादिशाली शीतातपशून्यत्वेन च सुखहेतुर्मार्गशीर्षोऽहम्। ऋतूनां षण्णां मध्ये कुसुमाकरः सर्वसुगन्धिकुसुमानामाकरोऽतिरमणीयो वसन्तः।वसन्ते ब्राह्मण्यमुपनयीत?वसन्ते ब्राह्मणोऽग्नीनादधीत?वसन्तेवसन्ते ज्योतिषा यजेत?तद्वै वसन्त एवाभ्यारभेत?वसन्तो वै ब्राह्मणस्यर्तुः इत्यादिशास्त्रप्रसिद्धोऽहमस्मि।
।।10.35।।बृहत्सामेति।त्वामिद्धि हवामहे इत्यस्यामृचि गीयमानं बृहत्साम तेन चेन्द्रः सर्वेश्वरत्वेन स्तूयत इति श्रैष्ठ्यं दर्शितम्। छन्दोविशिष्टानां मन्त्राणां मध्ये गायत्र्यहम्? द्विजत्वापादकत्वेन सोमाहरणेन च श्रेष्ठत्वात्। कुसुमाकरो वसन्तः।
।।10.35।।सामसु बृहत्साम्न उत्कृष्टत्वं श्रुत्यैव सिद्धंबृहच्च वा इदमग्र रथन्तरं च आस्तां वाक्च वै तन्मनञ्चास्तां वाग्वै रथन्तरं मनो बृहत्तद्बृहत्पूर्वं ससृजानं रथन्तरमत्यमन्यत तद्रथन्तरं गर्भमधत्त [म.ता. ] इति। गायत्र्याश्छन्दसां मातृत्वेनोत्कर्षः श्रुतिषु च्छन्दोविचित्यां च प्रपञ्चितः। यथा बह्वचोपनिषदि अग्रं वै छन्दसां गायत्री इति। मासेषु मार्गशीर्षस्यातिशयः वर्षगर्भाधानकालत्वान्मासाधिदेवेषु केशवादिषु प्रथमस्य केशवस्य मासत्वाद्ब्रतवर्गारम्भकालत्वाच्च। कुसुमाकरशब्देनैव वसन्तस्य प्रत्यक्षसिद्धः सर्वप्राणिसुखहेतुरतिशयो द्योतितः। वसन्ते वसन्ते ज्योतिषा यजेत वसन्ते दीक्षयेद्विप्रं ग्रीष्मै राजन्यमेव च इत्यादिभिश्च।
।।10.35।।साम्नां सामऋचां मध्ये बृहत्साम मद्विभूतिरित्यर्थः। छन्दसां मध्ये गायत्री मद्विभूतिः। मासानां मध्ये मार्गशीर्षोऽहम्। ऋतूनां मध्ये कुसुमाकरो वसन्तोऽस्मि।
।।10.35।।बृहत्सामत्वामिद्धि हवामहे इत्यस्यामृचि गीयमानं साम पृष्ठ्यस्तोत्रे विनियुक्तमिन्द्रदेवत्यं तत् साम्नां मध्येऽहमस्मि। छन्दसां मध्ये गायत्री द्विजत्वसंपादनात्सोमाहरणाच्च श्रेष्ठाहमस्मि। कुसुमाकरो वसन्तः।
।।10.35।।साम्नां गीतिविशेषाणआं वृहत्सामत्वामिद्धि हवामहे इत्यस्यामृचि गीतिविशेषे सर्वेश्वरत्वेनेन्द्रस्तुत्निरुपं अतिरात्रे पृष्ठस्तोत्रं श्रेष्ठत्वादहम्। नियताक्षरपादरुपच्छन्दोविशिष्ठानामृचां मध्ये द्विजत्वादिहेतुर्गायत्री ऋगहम्। मासानां मार्गशीर्षः सस्यादिसंपन्नत्वेन सुखजनकत्वात्। कुसुमाकरो वसन्तः पुषापकत्वेन शोभनत्वात्।
10.35 बृहत्साम Brihatsaman? तथा also? साम्नाम् among Sama hymns? गायत्री Gayatri? छन्दसाम् among metres? अहम् I? मासानाम् among months? मार्गशीर्षः Margasirsha? अहम् I? ऋतूनाम् among seasons? कुसुमाकरः the flowery season (spring).Commentary Brihatsaman is the chief of the hymns of the SamaVeda. Brihat means big.Margasirsha From the middle of December to the middle of January. This has a temperate climate. In olden days it was usual to start with this month in counting the months of the year. The first place was given to this month.Kusumakara The beautiful flowery season? the spring.
10.35 Among the hymns also I am the Brihatsaman; among metres Gayatri am I; among the montsh I am the Margasirsha; among the seasons (I am) the flowery season.
10.35 Of hymns I am Brihatsama, of metres I am Garatri, among the months I am Margasheersha (December), and I am the Spring among seasons.
10.35 I am also the Brhat-sama of the Sama (-mantras); of the metres, Gayatri. Of the months I am Marga-sirsa, and of the seasons, spring.
10.35 I am tatha, also; the Brhat-sama, the foremost samnam, of the Sama-mantras. Chandasam, of the metres, of the Rk-mantras having the metres Gayatri etc.; I am the Rk called Gayatri. This is meaning. Masanam, of the months, I am Marga-sirsa (Agrahayana, November-December). Rtunam, of the seasons; kusumakarah, spring.
10.35. Likewise, of the modes of singing [of the hymns], I am the Brhatsaman; of the metres, I am the Gayatri; of the months, I am the Margasirsa; of the seasons, I am the season abounding with flowers.
10.35 See Comment under 10.42
10.35 Of Saman hymns, I am the Brhatsaman. Of meters, I am the Gayatri. Of seasons, I am the season of flowers (spring).
10.35 Of Saman hymns, I am the Brhatsaman. Of meters, I am the Gayatri. Of months, I am Margasira (Nov-Dec). And of seasons I am the season of flowers.
।।10.35।।तथा सामवेदके प्रकरणोंमें जो बृहत्साम नामक प्रधान प्रकरण है वह मैं हूँ। छन्दोंमें मैं गायत्री छन्द हूँ अर्थात् जो गायत्री आदि छन्दोबद्ध ऋचाएँ हैं उनमें गायत्री नामक ऋचा मैं हूँ। महीनोंमें मार्गशीर्ष नामक महीना और ऋतुओंमें बसन्त ऋतु मैं हूँ।
।।10.35।। --,बृहत्साम तथा साम्नां प्रधानमस्मि। गायत्री च्छन्दसाम् अहं गायत्र्यादिच्छन्दोविशिष्टानामृचां गायत्री ऋक् अहम् अस्मि इत्यर्थः। मासानां मार्गशीर्षः अहम्? ऋतूनां कुसुमाकरः वसन्तः।।
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बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्। मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।10.35।।
বৃহত্সাম তথা সাম্নাং গাযত্রী ছন্দসামহম্৷ মাসানাং মার্গশীর্ষোহমৃতূনাং কুসুমাকরঃ৷৷10.35৷৷
বৃহত্সাম তথা সাম্নাং গাযত্রী ছন্দসামহম্৷ মাসানাং মার্গশীর্ষোহমৃতূনাং কুসুমাকরঃ৷৷10.35৷৷
બૃહત્સામ તથા સામ્નાં ગાયત્રી છન્દસામહમ્। માસાનાં માર્ગશીર્ષોહમૃતૂનાં કુસુમાકરઃ।।10.35।।
ਬਰਿਹਤ੍ਸਾਮ ਤਥਾ ਸਾਮ੍ਨਾਂ ਗਾਯਤ੍ਰੀ ਛਨ੍ਦਸਾਮਹਮ੍। ਮਾਸਾਨਾਂ ਮਾਰ੍ਗਸ਼ੀਰ੍ਸ਼ੋਹਮਰਿਤੂਨਾਂ ਕੁਸੁਮਾਕਰ।।10.35।।
ಬೃಹತ್ಸಾಮ ತಥಾ ಸಾಮ್ನಾಂ ಗಾಯತ್ರೀ ಛನ್ದಸಾಮಹಮ್. ಮಾಸಾನಾಂ ಮಾರ್ಗಶೀರ್ಷೋಹಮೃತೂನಾಂ ಕುಸುಮಾಕರಃ৷৷10.35৷৷
ബൃഹത്സാമ തഥാ സാമ്നാം ഗായത്രീ ഛന്ദസാമഹമ്. മാസാനാം മാര്ഗശീര്ഷോഹമൃതൂനാം കുസുമാകരഃ৷৷10.35৷৷
ବୃହତ୍ସାମ ତଥା ସାମ୍ନାଂ ଗାଯତ୍ରୀ ଛନ୍ଦସାମହମ୍| ମାସାନାଂ ମାର୍ଗଶୀର୍ଷୋହମୃତୂନାଂ କୁସୁମାକରଃ||10.35||
bṛhatsāma tathā sāmnāṅ gāyatrī chandasāmaham. māsānāṅ mārgaśīrṣō.hamṛtūnāṅ kusumākaraḥ৷৷10.35৷৷
பரிஹத்ஸாம ததா ஸாம்நாஂ காயத்ரீ சந்தஸாமஹம். மாஸாநாஂ மார்கஷீர்ஷோஹமரிதூநாஂ குஸுமாகரஃ৷৷10.35৷৷
బృహత్సామ తథా సామ్నాం గాయత్రీ ఛన్దసామహమ్. మాసానాం మార్గశీర్షోహమృతూనాం కుసుమాకరః৷৷10.35৷৷
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।।10.36।। छल करनेवालोंमें जूआ और तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ। जीतनेवालोंकी विजय, निश्चय करनेवालोंका निश्चय और सात्त्विक मनुष्योंका सात्त्विक भाव मैं हूँ।
।।10.36।। मैं छल करने वालों में द्यूत हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ, मैं विजय हूँ; मैं व्यवसाय (उद्यमशीलता) हूँ और सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ।।
।।10.36।। मैं द्यूत हूँ गीता का उपदेश अपने समय के एक क्षत्रिय राजा योद्धा अर्जुन को दिया गया था। इसका उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने? धर्मप्रचारक के महान् उत्साह के साथ? अर्जुन को उसके अपने ही धर्म का बोध कराने के लिए किया था इसलिए गीता का प्रयत्न हिन्दुओं को ही हिन्दू बनाने का है? उन्हें स्वधर्म का पुनर्बोध कराने का है। यह पुनर्बोध का कार्य तब तक सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता जब तक हमारे धर्मशास्त्रों का मर्म सामान्य जनता को उसकी ही भाषा में समझाया नहीं जाता। यहाँ दिया हुआ उदाहरण अर्जुन को तत्क्षण ही समझ में आने जैसा है। कारण यह है कि उसका सम्पूर्ण जीवन दुखों की एक शृंखला थी? जिसे उसे सहन करना पड़ा था? केवल अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की द्यूत खेलने के व्यसन के कारण। कोई अन्य दृष्टान्त अर्जुन के लिए इतना सुबोध नहीं हो सकता था।आधुनिक पीढ़ी को सम्भवत यह उदाहरण इतना अधिक सुबोध न प्रतीत होता हो? क्योंकि अब द्यूत का खेल अधिक लोकप्रिय नहीं रहा है। किन्तु उसके स्थान पर अन्य उदाहरण सरलता से पहचाने जा सकते हैं।मैं तेजस्वियों का तेज हूँ विभूति के इस दृष्टान्त का उपयोग जो साधक ध्यानाभ्यास के लिए करना चाहेगा? उसे ज्ञात होगा कि यहाँ शास्त्र ने कुछ कहा ही नहीं है। तेजस्वी वस्तुओं का जो तेज है? उसमें उस वस्तु के गुण नहीं होते हैं। उस तेज में अपने स्वयं के गुण भी नहीं होते तेज केवल एक अनुभव है। इस अनुभव को सहज सुगम बनाने के लिए? मन उस वस्तु के परिमाण और वैभव को प्रकाशित करता है? परन्तु अनुभूति तेज में उस वस्तु के उपादान भूत पदार्थ के कुछ भी गुण नहीं होते। संक्षेप में जैसा कि श्रीरामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था निसन्देह सत्य एक प्रकाश है? परन्तु वह गुणरहित प्रकाश है।मैं विजय हूँ उद्यमशीलता हूँ और मैं साधुओं की साधुता हूँ जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है? यहाँ भी ये गुण मन की उस स्थिति या दशा को बताते हैं? जो इस प्रकार के निरन्तर चिन्तन से निर्मित होती है। जब उद्यमशीलता और साधुता जैसे गुणों को बनाये रखा जाता है? तब मन अत्यन्त शान्त और स्थिर हो जाता है जिसमें चैतन्य आत्मा का प्रतिबिम्वित वैभव इतना स्पष्टऔर तेजस्वी होता है कि मानो वही स्वयं सत्य है। अत पूर्वकथित गुणों की प्रत्यारोपण की भाषा में भगवान् कहते हैं कि ये गुण ही मैं हूँ? जबकि वस्तुत ये अन्तकरण के धर्म हैं।हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ अनेकता में एक परमात्मा की विद्यमानता दर्शाने के लिए जो 54 उदाहरण दिये गये हैं? वे सब एक निष्ठावान साधक को ध्यान के लिए बताये हुए अभ्यास हैं। यह कोई दृश्य पदार्थ का वर्णन नहीं समझना चाहिए। इन श्लोकों के तात्पर्यार्थ को जब तक साधक अपने निज के अनुभव से नहीं समझता? तब तक उसकी शिक्षा पूर्ण नहीं कही जा सकती।भगवान् और भी दृष्टान्त देते हुए कहते हैं
।।10.36।। व्याख्या--'द्यूतं छलयतामस्मि'--छल करके दूसरोंके राज्य, वैभव, धन, सम्पत्ति आदिका (सर्वस्वका) अपहरण करनेकी विशेष सामर्थ्य रखनेवाली जो विद्या है, उसको जूआ कहते हैं। इस जूएको भगवान्ने अपनी विभूति बताया है।  शङ्का--यहाँ भगवान्ने छल करनेवालोंमें जूएको अपनी विभूति बताया है तो फिर इसके खेलनमें क्या दोष है? अगर दोष नहीं है तो फिर शास्त्रोंने इसका निषेध क्यों किया है।  समाधान --'ऐसा करो और ऐसा मत करो'-- यह शास्त्रोंका विधि-निषेध कहलाता है। ऐसे विधि-निषेधका वर्णन यहाँ नहीं है। यहाँ तो विभूतियोंका वर्णन है। मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ?' -- अर्जुनके इस प्रश्नके अनुसार भगवान्ने विभूतियोंके रूपमें अपने चिन्तनकी बात ही बतायी है अर्थात् भगवान्का चिन्तन सुगमतासे हो जाय, इसका उपाय विभूतियोंके रूपमें बताया है। अतः जिस समुदायमें मनुष्य रहता है, उस समुदायमें जहाँ दृष्टि पड़े, वहाँ संसारको न देखकर भगवान्को ही देखे; क्योंकि भगवान् कहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् मेरेसे व्याप्त है अर्थात् इस जगत्में मैं ही व्याप्त हूँ, परिपूर्ण हूँ (गीता 9। 4)।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.36।।छलं कुर्वतां छलास्पदेषु अक्षादिलक्षणम् द्यूतम् अहम्। जेतृ़णां जयः अस्मि? व्यवसायिनां व्यवसायः,अस्मि? सत्त्वतां सत्त्वं महामनस्त्वम्।
।।10.36।।द्यूतमुक्तलक्षणं सर्वस्वापहारकारणमन्यापदेशेन पराभिप्रेतं निघ्नतां स्वाभिप्रेतं वा संपादयतामित्याह -- छलस्येति। तेजोऽप्रतिहताज्ञा? उत्कर्षो जयः? व्यवसायः फलहेतुरुद्यमः? धर्मज्ञानवैराग्यादि सत्त्वकार्यं सत्त्वम्।
।।10.36।।द्यूतमिति। छलयतां सम्बन्धि धर्मद्यूतं छलमहम् यथा युधिष्ठिरे भगवत्सेवोपयोगिक्रीडासाधनेष्वक्षलक्षणेषु द्यूतं वा भगवद्विभूतिः। तत्र च तेजस्विनां मध्येऽहङ्काररूपं तेजो मद्विभूतिः। दासोऽस्मीति वा भागवतं वा तत् तत्र जयोऽपि चाहं रुक्मीकालिङ्गप्रसङ्गेऽक्षगोष्ठ्यां [भाग.10] बलभद्रनिष्ठः सत्यवागुदितो जयो मे विभूतिः। अन्योऽपि तथा भावनीयः व्यवसाय इत्यादिः।
।।10.36।।छलयतां छलस्य परवञ्चनस्य कर्तृ़णां संबन्धि द्यूतमक्षदेवनादिलक्षणं सर्वस्वापहारकारणमहमस्मि। तेजस्विनामत्युग्रप्रभावानां संबन्धि तेजोऽप्रतिहताज्ञत्वमहमस्मि। जेतृ़णां पराजितापेक्षयोत्कर्षलक्षणो जयोऽस्मि। व्यवसायिनां व्यवसायः फलाव्यभिचार्युद्यमोऽहमस्मि। सत्त्ववतां सात्त्विकानां धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यलक्षणं सत्त्वकार्यमेवात्र सत्त्वमहम्।
।।10.36।। द्यूतमिति। छलयतामन्योन्यवञ्चनपराणां संबन्धि द्यूतमस्मि। तेजस्विनां प्रभावतां तेजः प्रभावोऽस्मि। जेतृ़णां जयोऽस्मि। व्यवसायिनामुद्यमवतां व्यवसाय उद्यमोऽस्मि। सत्त्ववतां सात्त्विकानां सत्त्वमहम्।
।।10.36।।छलयताम् इत्यत्रतत्करोति इति णिजित्यभिप्रायेणछलं कुर्वतामित्युक्तम्। अक्षसञ्चारादिमात्रेण जयपराजयारोपादिह च्छलत्ववाचोयुक्तिरित्यभिप्रायेणअक्षादिलक्षणमित्युक्तम्।तेजस्तेजस्विनाम् इत्यादिवत्दीव्यतां द्यूतमहम् इत्यनभिधानात्छलयताम् इति छलकरणमात्रवचनाच्च छलस्थानान्तरेभ्यः क्रयविक्रयऋणदायसंवित्सङ्गरादिभ्यो द्यूतस्यातिशयितत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणछलास्पदेष्वित्युक्तम्। वञ्चनास्पदेष्वित्यर्थः। अक्षादीत्यादिशब्देन सजीवनिर्जीवसमस्तद्यूतवर्गसङ्ग्रहः। यद्वा निर्जीवमात्रग्रहणायअक्षादिलक्षणमित्युक्तम्। तस्य चातिशयितत्वमनायासेन धर्माविरोधेनाभ्युपगमादेव समस्तधनहरणादेःशक्यत्वात्। तेजस्विसत्त्ववच्छब्दयोः पूर्वोत्तरयोस्तेजस्सत्त्वाभ्यामवरुद्धत्वात्तत्र जयव्यवसायशब्दयोरन्वयानौचित्यात्तदुचितौ जेतृव्यवसायिशब्दौ पूर्वापरच्छाययार्थाक्षिप्तावित्यभिप्रायेणजेतृ़णां व्यवसायिनामिति चोक्तम्।द्रव्यासुव्यवसायेषु सत्त्वमस्त्री तु जन्तुषु [अमरः3।3।212] इत्यादिभिः सत्त्वशब्दस्यानेकार्थसिद्धेर्व्यवसायस्य चोक्तत्वात्सत्त्ववच्छब्दप्रसिद्ध्यनुरोधेनार्थविशेषं दर्शयतिसत्त्वं महामनस्त्वमिति। एतेन पराभिभवसामर्थ्यादिलक्षणात्तेजसोऽपि सत्त्वस्यात्र भेद उक्तः।
।।10.36।।द्यूतमिति। छलयतां वञ्चकानां मध्ये द्यूतमस्मि? येन क्रीडाक्षात्त्रादिधर्मज्ञानेन मोहितो जानन्नपि वञ्चति। तेजस्विनां प्रभावतां मध्ये तेजः प्रभा अहमस्मि। जयतां मध्ये जयोऽस्मि। व्यवसायिनामुद्यमवतां निश्चयवतां वा व्यवसायः उद्यमः निश्चयो वाऽस्मि। सत्त्ववतां सात्त्विकानां मध्ये सत्त्वमहम्।
।।10.36।।व्यवसायो निश्चय उद्यमो वा।
।।10.36।।छलस्य परवञ्चनस्य कर्तृ़णां मध्ये द्यूतं अक्षदेवनादिरुपम्। जेतृ़णां जयस्य कर्तृ़णाम्। व्यवसायो निश्चयः फलहेतुरुद्यमो वा।
10.36 द्यूतम् the gambling? छलयताम् of the fraudulent? अस्मि (I) am? तेजः splendour? तेजस्विनाम् of the splendid? अहम् I? जयः victory? अस्मि (I) am? व्यवसायः determination? अस्मि (I) am? सत्त्वम् the goodness? सत्त्ववताम् of the good? अहम् I.Commentary Of the methods of defrauding others I am gambling such as diceplay. Gambling is My manifestation. I am the power of the powerful. I am the victoyr of the victorious. I am the effort of those who make that effort.I am Sattva which assumes the forms of Dharma (virtue)? Jnana (knowledge)? Vairagya (dispassion)? and Aisvarya (wealth or lordship) in Sattvic persons.
10.36 I am the gambling of the fraudulent; I am the splendour of the splendid; I am victory; I am determination (of those who are determined); I am the goodness of the good.
10.36 I am the Gambling of the cheat and the Splendour of the splendid; I am Victory; I am Effort; and I am the Purity of the pure.
10.36 Of the fraudulent I am the gambling; I am the irresistible ?nd of the mighty. I am excellene, I am effort, I am the sattva ality of those possessed of sattva.
10.36 Chalayatam, of the fraudulent, of the deceitful; I am the dyutam, gambling, such as playing with dice. I am the tejah, irresistible ?nd; tejasvinam, of the mighty. [Some translate this as 'the splendour of the splendid'.-Tr.] I am the jayah, excellence of the excellent. [Some translate this as 'the victory of the victorious'.-Tr.] I am the vyavasayah, effort of the persevering. I am the sattvam, sattva ality; [The result of sattva, viz virtue, knowledge, detachment, etc.] sattvavatam, of those possessed of sattva.
10.36. I am gambling of the fradulent; I am the brilliance of the brilliant; I am the victory; I am the resolution; I am the energy of the energetic.
10.36 See Comment under 10.42
10.36 Of those who practise fraud with a view to defeat each other, I am gambling such a dice-play etc., I am the victory of those who achieve victory. I am the effort of those who make effort. I am the magnanimity of those who possess magnanimity of mind.
10.36 Of the fraudulent, I am gambling. I am the brilliance of the brilliant. I am victory, I am effort. I am the magnanimity of the magnanimous.
।।10.36।।छल करनेवालोंमें जो पासोंसे खेलना आदि द्यूत है वह मैं हूँ। तेजस्वियोंका मैं तेज हूँ। जीतनेवालोंका मैं विजय हूँ। निश्चय करनेवालोंका निश्चय ( अथवा उद्यमशीलोंका उद्यम ) हूँ और सत्त्वयुक्त पुरुषोंका अर्थात् सात्त्विक पुरुषोंका मैं सत्त्वगुण हूँ।
।।10.36।। --,द्यूतम् अक्षदेवनादिलक्षणं छलयतां छलस्य कर्तृ़णाम् अस्मि। तेजस्विनां तेजः अहम्। जयः अस्मि जेतृ़णाम्? व्यवसायः अस्मि व्यवसायिनाम्? सत्त्वं सत्त्ववतां सात्त्विकानाम् अहम्।।
null
null
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्। जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।10.36।।
দ্যূতং ছলযতামস্মি তেজস্তেজস্বিনামহম্৷ জযোস্মি ব্যবসাযোস্মি সত্ত্বং সত্ত্ববতামহম্৷৷10.36৷৷
দ্যূতং ছলযতামস্মি তেজস্তেজস্বিনামহম্৷ জযোস্মি ব্যবসাযোস্মি সত্ত্বং সত্ত্ববতামহম্৷৷10.36৷৷
દ્યૂતં છલયતામસ્મિ તેજસ્તેજસ્વિનામહમ્। જયોસ્મિ વ્યવસાયોસ્મિ સત્ત્વં સત્ત્વવતામહમ્।।10.36।।
ਦ੍ਯੂਤਂ ਛਲਯਤਾਮਸ੍ਮਿ ਤੇਜਸ੍ਤੇਜਸ੍ਵਿਨਾਮਹਮ੍। ਜਯੋਸ੍ਮਿ ਵ੍ਯਵਸਾਯੋਸ੍ਮਿ ਸਤ੍ਤ੍ਵਂ ਸਤ੍ਤ੍ਵਵਤਾਮਹਮ੍।।10.36।।
ದ್ಯೂತಂ ಛಲಯತಾಮಸ್ಮಿ ತೇಜಸ್ತೇಜಸ್ವಿನಾಮಹಮ್. ಜಯೋಸ್ಮಿ ವ್ಯವಸಾಯೋಸ್ಮಿ ಸತ್ತ್ವಂ ಸತ್ತ್ವವತಾಮಹಮ್৷৷10.36৷৷
ദ്യൂതം ഛലയതാമസ്മി തേജസ്തേജസ്വിനാമഹമ്. ജയോസ്മി വ്യവസായോസ്മി സത്ത്വം സത്ത്വവതാമഹമ്৷৷10.36৷৷
ଦ୍ଯୂତଂ ଛଲଯତାମସ୍ମି ତେଜସ୍ତେଜସ୍ବିନାମହମ୍| ଜଯୋସ୍ମି ବ୍ଯବସାଯୋସ୍ମି ସତ୍ତ୍ବଂ ସତ୍ତ୍ବବତାମହମ୍||10.36||
dyūtaṅ chalayatāmasmi tējastējasvināmaham. jayō.smi vyavasāyō.smi sattvaṅ sattvavatāmaham৷৷10.36৷৷
த்யூதஂ சலயதாமஸ்மி தேஜஸ்தேஜஸ்விநாமஹம். ஜயோஸ்மி வ்யவஸாயோஸ்மி ஸத்த்வஂ ஸத்த்வவதாமஹம்৷৷10.36৷৷
ద్యూతం ఛలయతామస్మి తేజస్తేజస్వినామహమ్. జయోస్మి వ్యవసాయోస్మి సత్త్వం సత్త్వవతామహమ్৷৷10.36৷৷
10.37
10
37
।।10.37।। वृष्णिवंशियोंमें वासुदेव और पाण्डवोंमें धनञ्जय मैं हूँ। मुनियोंमें वेदव्यास और कवियोंमें कवि शुक्राचार्य भी मैं हूँ।
।।10.37।। मैं वृष्णियों में वासुदेव हूँ और पाण्डवों में धनंजय, मैं मुनियों में व्यास और कवियों में उशना कवि हूँ।।
।।10.37।। मैं वृष्णियों में वासुदेव हूँ यादवों के पूर्वज यदु के वृष्णि नामक एक पुत्र था। इन वृष्णियों के वंश में वसुदेव का जन्म हुआ था। उनका विवाह मथुरा के क्रूर कंस ऋ़ी बहन देवकी के साथ सम्पन्न हुआ। इनके पुत्र थे श्रीकृष्ण। वसुदेव के पुत्र होने के कारण वे वासुदेव के नाम से विख्यात हुए।मैं पाण्डवों में धनंजय हूँ जिस प्रकार श्रीकृष्ण के पराक्रम से यादव कुल और वृष्णि वंश कृतार्थ और विख्यात होकर मनुष्य की स्मृति में बने रहे? उसी प्रकार पाण्डवों में धनंजय अर्जुन का स्थान था? जिसके बिना पाण्डवों को कुछ भी उपलब्धि नहीं हो सकती थी। धनंजय का वाच्यार्थ है धन को जीतने वाला। अर्जुन को अपने पराक्रम के कारण यह नाम उपाधि स्वरूप प्राप्त,हुआ था।मैं मुनियों में व्यास हूँ गीता के रचयिता स्वयं व्यास जी होने के कारण कोई इसे आत्मप्रशंसा का भाग नहीं समझे। व्यास एक उपाधि अथवा धारण किया हुआ नाम है। उस युग में दार्शनिक एवं धार्मिक लेखन के क्षेत्र में जो एक नयी शैली का अविष्कार तथा प्रारम्भ किया गया उसे व्यास नाम से ही जाना जाने लगा अर्थात् व्यास शब्द उस शैली का संकेतक बन गया। यह नवीन शैली क्रान्तिकारी सिद्ध हुई? क्योंकि उस काल तक दार्शनिक साहित्य सूत्र रूप मन्त्रों में लिखा हुआ था पुराणों की रचना के साथ एक नवीन पद्धति का आरम्भ और विकास हुआ? जिसमें सिद्धांतों को विस्तृत रूप से समझाने का उद्देश्य था। इसके साथ ही उसमें मूलभूत सिद्धांतों को बारम्बार दाेहरा कर उस पर विशेष बल दिया जाता था। इस पद्धति का प्रारम्भ और विकास कृष्ण द्वैपायन जी ने व्यास नाम धारण करके किया। व्यास शब्द का वाच्यार्थ है? विस्तार।इस प्रकार समस्त मुनियों में अपने को व्यास कहने में भगवान् का अभिप्राय यह है कि सभी मननशील पुरुषों में? भगवान् वे हैं जो पुराणों की अपूर्व और अतिविशाल रचना के रचयिता हैं।मैं कवियों में उशना कवि हूँ उशना शुक्र का नाम है। शुक्र वेदों में विख्यात हैं। कवि का अर्थ है क्रान्तिदर्शी अर्थात् सर्वज्ञ।उपनिषदों में कवि शब्द का अर्थ मन्त्रद्रष्टा भी है। आत्मानुभूति से अनुप्राणित हुए जो ज्ञानी पुरुष अहंकार के रंचमात्र भान के बिना? अपने स्वानुभवों को उद्घोषित करते थे? वे कवि कहलाते थे। कालान्तर में इस शब्द के मुख्यार्थ का शनैशनै लोप होकर वर्तमान में कविता के रचयिता को ही कवि कहा जाने लगा। ये कवि भी भव्य एवं आश्चर्यपूर्ण विश्व को देखकर लौकिक स्तर से ऊपर उठकर अपने उत्स्फूर्त तेजस्वी भावनाओं या विचारों के जगत् में प्रवेश कर जातें हैं? और अपने हृदय की अन्तरतम गहराई से काव्य का सस्वर गान करते हैं। यहाँ कवि शब्द उसके मुख्यार्थ में प्रयुक्त है।अपनी विभूतियों के विस्तार को बताते हुए भगवान् कहते हैं
।।10.37।। व्याख्या--'वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि--यहाँ भगवान् श्रीकृष्णके अवतारका वर्णन नहीं है, प्रत्युत वृष्णिवंशियोंमें अपनी जो विशेषता है, उस विशेषताको लेकर भगवान्ने अपना विभूतिरूपसे वर्णन किया है।यहाँ भगवान्का अपनेको विभूतिरूपसे कहना तो' संसारकी दृष्टिसे है, स्वरूपकी दृष्टिसे तो वे साक्षात् भगवान् ही हैं। इस अध्यायमें जितनी विभूतियाँ आयी हैं, वे सब संसारकी दृष्टिसे ही हैं। तत्त्वतः तो वे,परमात्मस्वरूप ही हैं।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.37।।वसुदेवसूनुत्वम् अत्र विभूतिः? अर्थान्तराभावाद् एव। पाण्डवानां धनञ्जयः अर्जुनः अहम्? मुनयो मननेन अर्थयाथात्म्यदर्शिनः? तेषां व्यासः अहम् कवयो विपश्चितः।
।।10.37।।उशना शुक्रः? कविशब्दोऽत्र यौगिको न रूढः पौनरुक्त्यात्।
।।10.37।।यदुष्वपि स्वस्य विभूतिव्याप्तिमाह -- वृष्णीनामिति। यादवानां मध्ये वासुदेवत्वधर्ममयो भगवान् चिन्त्योऽहं (जातोऽहम्)। तेन वासुदेवो मे पुरुषोत्तमस्य विभूतिः। व्यवसायिनां फलाव्यभिचार्युद्यमविभूतिर्वसुदेवगृहे जातो धर्ममयोऽहमन्यत्र केवल इत्यभियुक्तपादाः। यद्वा वसुदेवसुतो यो बलभद्रः स मे विभूतिरिति सोऽहम्। पाण्डवानां पञ्चानां मध्ये त्वं त्वहमेव नरो हि नाम नारायणांशः प्रसिद्धः। मुनीनां मननशीलानां वेदार्थमननशीलानां मध्ये कृष्णद्वैपायनोऽहम्। उशना शुक्रः।
।।10.37।।साक्षादीश्वरस्यापि विभूतिमध्ये पाठस्तेन रूपेण चिन्तनार्थ इति प्रागेवोक्तम्। वृष्णीनां मध्ये वासुदेवो वसुदेवपुत्रत्वेन प्रसिद्धस्त्वदुपदेष्टायमहम्। तथा पाण्डवानां मध्ये धनंजयस्त्वमेवाहम्। मुनीनां मननशीलानामपि मध्ये वेदव्यासोऽहम्। कवीनां क्रान्तदर्शिनां सूक्ष्मार्थविवेकिनां मध्ये उशना कविरिति ख्यातः शुक्रोऽहम्।
।।10.37।। वृष्णीनामिति। वासुदेवो योऽहं त्वामुपदिशामि। धनंजयस्त्वमेव मद्विभूतिः। मुनीनां वेदार्थमननशीलानां वेदव्यासोऽहमस्मि। कवीनां काव्यदर्शिनां मध्ये उशनानाम कविः शुक्रः।
।।10.37।।वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि इत्यत्रापि रामवत्साक्षात्स्वावतारत्वादाहवसुदेवसूनुत्वमत्र विभूतिरिति।अर्थान्तराभावादेवेत्येवकारेण रामप्रसङ्गे हेतोः प्रागेवोक्तत्वं सूचितम्। ननु वसुदेवसूनुत्वमिति केयं विभूतिः नहि सूनुत्वमात्रेणातिशयः? अतिप्रसङ्गात् नच वसुदेवाख्यपितृविशेषसूनुत्वेन? तस्याप्यनेकसाधारणत्वेन निर्धारणायोगात् नच वासुदेवशब्दप्रसिद्धिमात्रेण? तावन्मात्रस्य अतिशयं प्रत्यप्रयोजकत्वात् नचेह वसुदेवसूनुत्वमुपदेश्यम्? अर्जुनस्य सम्प्रतिपन्नत्वादेव अतः साक्षादवतारत्वं नोचितम् अत एववृष्णीनामहमस्मि इति नोक्तमित्यत्रोच्यते -- वासुदेवशब्दोऽत्र लक्षणया वसुदेवगृहे चतुर्भुजतयाऽवतारप्रभृति अतिमानुषगुणविग्रहपराक्रमादिरूपमागोपालं प्रसिद्धमतिशयं लक्षयति। तस्य चार्जुनं प्रत्यभिधानं दृष्टान्तार्थम्। सर्वनाम्नो युष्मदस्मच्छब्दादपि साक्षान्नाम्नोऽत्यन्तासन्नत्वादिभिरतिशयोऽत्र विवक्षितः। धर्मे युधिष्ठिरस्य सर्वातिशायित्वात्? बले च भीमसेनस्य? आभिरूप्यादिषु च माद्रीसुतयोःअर्जुन इति प्रसिद्धनामधेयेन विशदीकरणम्। तेन स्वाभिमुखमर्जुनं प्रति त्वमिति निर्देशाभावात् किं धनञ्जयाख्योऽन्य इति शङ्काव्युदासः। नह्यत्र पारोक्ष्यप्रसङ्गः? अपरोक्षस्यैव सर्वस्यात्र सर्वदर्शिना वचनादिति। ऋषित्वं ह्यदृष्टविशेषादतीन्द्रियार्थदर्शित्वम् तच्च प्रायशः प्रागेवोक्तम् अतोमुनीनां इत्यनेन तदतिरिक्तो निर्वचनबलात् एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति [ ] इतिश्रुत्यनुसाराच्च विवक्षित इत्यभिप्रायेणाहमुनयो मननेनात्मयाथात्म्यदर्शिन इति। तथाविधश्च भगवतो व्यासस्यातिशयस्तद्वाक्यैरेव सिद्धःआलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः। इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा [गा.पु.पू.खं.222।1] इत्यादिभिःतपोविशिष्टादपि वै वसिष्ठान्मुनिसक्त्मात्। मन्ये श्रेष्ठतमं त्वाद्य रहस्यज्ञानवेदनात् इति च। अयमपि,कश्चिद्विभवावतारो गण्यतेवेदविद्भगवान् कल्की पातालशयनः प्रभुः इति। कवीनामिति न निबन्धृत्वं विवक्षितम्? तथा सति वाल्मीकिप्रभृतेः सर्वातिशायित्वात् अतः क्रान्तदर्शी कविरिति विवक्षित इत्यभिप्रायेणाहकवयो विपश्चित इति। उशनसो विपश्चित्सु वैलक्षण्यं नीतिनिपुणत्वादिभिः। प्रसिद्धं ह्येतत्न कश्चिन्नोपनयते पुमानन्यत्र भार्गवात्। शेषसम्प्रतिपत्तिस्तु बुद्धिमत्स्ववतिष्ठते इत्यादिषु।
।।10.37।।वृष्णीनामिति। वृष्णीनां यादवानां सर्वेषां मध्ये हृदये वासुदेवः सर्वमोक्षदाता क्रीडार्थम् अंशैरस्मि? सर्वे यादवा मद्विभूतिरूपा इत्यर्थः। पाण्डवानां मध्ये धनञ्जयस्त्वमेवास्मि। मुनीनां ब्रह्ममननशीलानां मध्ये व्यासः कृष्णद्वैपायनोऽस्मि। कवीनां निर्दुष्टस्वरशब्दप्रदर्शिनां मध्ये उशना कविः शुक्रोऽस्मि।
।।10.37।।वृष्णीनां यादवानाम्। उशना शुक्रः।
।।10.37।।मुनीनां मौनशीलानां सकलपदार्थविदां कवीनां क्रान्तदर्शिनां उशना शुक्रः।
10.37 वृष्णीनाम among the Vrishnis? वासुदेवः Vaasudeva? अस्मि (I) am? पाण्डवानाम् among the Pandavas? धनञ्जयः Dhananjaya? मुनीनाम् among the sages? अपि also? अहम् I? व्यासः Vyasa? कवीनाम् among poets? उशनाः Usanas? कविः the poet.Commentary Vrishnis are Yadavas or the descendants of Yadu. I am the foremost among them.Usanas is Sukracharya? the preceptor of the demons.
10.37 Among the Vrishnis I am Vaasudeva; among the Pandavas I am Arjuna; among the sages I am Vyasa; among the Poets I am Usanas, the poet.
10.37 I am Shri Krishna among the Vishnu-clan and Arjuna among the Pandavas; of the saints I am Vyasa, and I am Shukracharya among the sages.
10.37 Of the vrsnis [The clan to which Sri krsna belonged, known otherwise as the Yadavas.] I am Vasudeva; of the Pandavas, Dhananjaya (Arjuna). And of the wise, I am Vyasa; of the omniscient, the omniscient Usanas.
10.37 Vrsninam, of the Vrsnis, [Here Ast. adds yadavanam, of the Yadavas.-Tr.] I am Vasudeva- I who am this person, your friend. Pandavanam, of the Pandavas, (I am) Dhananjaya, you yourself. Api, and; muninam, of the wise, of the thoughtful, of those who know of all things, I am Vyasa. kavinam, of the omniscient (i.e. of the those who know the past, present and future), I am the omniscient Usanas (Sukracarya).
10.37. Of the Vrsnis (the members of the Vrsni clan), I am the son of Vasudeva; of the sons of Pandu, Dhananjaya (Arjuna) [I am]; of the sages too, I am Vyasa; of the seers, the seer Usanas.
10.37 See Comment under 10.42
10.37 Here the Supreme Vibhuti (manifestation) is that of being the son of Vasudeva, because no other meaning is possible. Of sons of Pandu, I am Dhananjaya or Arjuna. Of sages who perceive truth by meditation, I am Vyasa. The seers are those who are wise.
10.37 Of Vrsnis I am Vasudeva. Of Pandavas, I am Arjuna. Of sages I am Vyasa and of seers, I am Usana (Sukra).
।।10.37।।वृष्णिवंशियोंमें यह तुम्हारा सखा वासुदेव मैं हूँ। पाण्डवोंमें धनंजय अर्थात् तू ही मैं हूँ। मुनियोंमें अर्थात् मनन करनेवालोंमें और सब पदार्थोंको जाननेवालोंमें भी मैं व्यास हूँ। कविवोंमें अर्थात्,त्रिकालदर्शियोंमें मैं शुक्राचार्य हूँ।
।।10.37।। --,वृष्णीनां यादवानां वासुदेवः अस्मि अयमेव अहं त्वत्सखा। पाण्डवानां धनंजयः त्वमेव। मुनीनां मननशीलानां सर्वपदार्थज्ञानिनाम् अपि अहं व्यासः? कवीनां क्रान्तदर्शिनाम् उशना कविः अस्मि।।
।।10.37।।वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि इति वासुदेवशब्दं व्याचिकीर्षुर्वासुशब्दार्थं तावदाह -- आच्छादयतीति।वस आच्छादने [धा.पा.2।13] इत्यत उण्। वासयति सर्वमिति वर्तते।वस निवासे [धा.पा.1।1030] इत्यतो ण्यन्तादुण्। वसति चेति केवलादुणेव वा। ततः किमायातं वासुदेवशब्दस्य इत्यत आह -- देवेति। तथाहि,देवशब्दार्थमित्यत्र ततः कर्मधारयः। विश्वं समस्तं भूत्वा प्राप्यभू प्राप्तावात्मनेपदी [धा.पा.10।311] इति वचनात् सर्वभूताधिवासश्चेति तत्पुरुषो बहुव्रीहिश्च। अत्रापि देवशब्दार्थो ग्राह्यः।मुनीनामप्यहं व्यासः इति व्यासशब्दं व्याचष्टे -- विशिष्ट इति। सर्वस्माद्विशिष्ट इति विशब्दार्थः। आ इत्यनुवादेन समन्तादिति व्याख्यानम्। स इत्यस्य एवेति।सृ गतौ [धा.पा.1।860]सृप्लृ गतौ [धा.पा.1।1008] इत्यतो वा डे रूपमेतत्? न तु तदः? व्यासमित्याद्यनुपपत्तेः। समन्ताद्गतः सर्वगत इत्यर्थः? स व्यासः। कुतः वीति हेतोः। कोऽर्थः तमपोऽर्थो हि विशब्दः उत्तरत उपरिष्टात् यच्च किञ्चिदिति भगवतः सर्वगतत्वे प्रमाणम्।
।।10.37।।आच्छादयति सर्वं वासयति वसति चेति सर्वत्र वासुदेवः। देवशब्दार्थ उक्तः पुरस्तात् -- छन्दयामि जगद्विश्वं भूत्वा सूर्य इवांशुभिः। सर्वभूताधिवासश्च वासुदेवस्ततोऽस्म्यहम् इति मोक्षधर्मे। विशिष्टः सर्वस्मादा समन्तात्स एवेति व्यासः। तथा चाग्निवेश्यशाखायाम् सव्यासो वीति तमप् वै विः सोऽधस्तात्स उत्तरतः स पश्चात्स पूर्वस्मात्स दक्षिणतः स उत्तरत इति इति यच्च किञ्चिज्जगत्सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा। अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः इति च।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः। मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।10.37।।
বৃষ্ণীনাং বাসুদেবোস্মি পাণ্ডবানাং ধনংজযঃ৷ মুনীনামপ্যহং ব্যাসঃ কবীনামুশনা কবিঃ৷৷10.37৷৷
বৃষ্ণীনাং বাসুদেবোস্মি পাণ্ডবানাং ধনংজযঃ৷ মুনীনামপ্যহং ব্যাসঃ কবীনামুশনা কবিঃ৷৷10.37৷৷
વૃષ્ણીનાં વાસુદેવોસ્મિ પાણ્ડવાનાં ધનંજયઃ। મુનીનામપ્યહં વ્યાસઃ કવીનામુશના કવિઃ।।10.37।।
ਵਰਿਸ਼੍ਣੀਨਾਂ ਵਾਸੁਦੇਵੋਸ੍ਮਿ ਪਾਣ੍ਡਵਾਨਾਂ ਧਨਂਜਯ। ਮੁਨੀਨਾਮਪ੍ਯਹਂ ਵ੍ਯਾਸ ਕਵੀਨਾਮੁਸ਼ਨਾ ਕਵਿ।।10.37।।
ವೃಷ್ಣೀನಾಂ ವಾಸುದೇವೋಸ್ಮಿ ಪಾಣ್ಡವಾನಾಂ ಧನಂಜಯಃ. ಮುನೀನಾಮಪ್ಯಹಂ ವ್ಯಾಸಃ ಕವೀನಾಮುಶನಾ ಕವಿಃ৷৷10.37৷৷
വൃഷ്ണീനാം വാസുദേവോസ്മി പാണ്ഡവാനാം ധനംജയഃ. മുനീനാമപ്യഹം വ്യാസഃ കവീനാമുശനാ കവിഃ৷৷10.37৷৷
ବୃଷ୍ଣୀନାଂ ବାସୁଦେବୋସ୍ମି ପାଣ୍ଡବାନାଂ ଧନଂଜଯଃ| ମୁନୀନାମପ୍ଯହଂ ବ୍ଯାସଃ କବୀନାମୁଶନା କବିଃ||10.37||
vṛṣṇīnāṅ vāsudēvō.smi pāṇḍavānāṅ dhanaṅjayaḥ. munīnāmapyahaṅ vyāsaḥ kavīnāmuśanā kaviḥ৷৷10.37৷৷
வரிஷ்ணீநாஂ வாஸுதேவோஸ்மி பாண்டவாநாஂ தநஂஜயஃ. முநீநாமப்யஹஂ வ்யாஸஃ கவீநாமுஷநா கவிஃ৷৷10.37৷৷
వృష్ణీనాం వాసుదేవోస్మి పాణ్డవానాం ధనంజయః. మునీనామప్యహం వ్యాసః కవీనాముశనా కవిః৷৷10.37৷৷
10.38
10
38
।।10.38।। दमन करनेवालोंमें दण्डनीति और विजय चाहनेवालोंमें नीति मैं हूँ। गोपनीय भावोंमें मौन और ज्ञानवानोंमें ज्ञान मैं हूँ।
।।10.38।। मैं दमन करने वालों का दण्ड हूँ और विजयेच्छुओं की नीति हूँ; मैं गुह्यों में मौन हूँ और ज्ञानवानों का ज्ञान हूँ।।
।।10.38।। मैं दमन करने वालों का दण्ड हूँ शासक राजा और शासित प्रजा इन दोनों को ही अपने राज्य के विभिन्न जन समुदायों के रहनसहन के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए साथसाथ परिश्रम करना होता है। शासक को यह देखना चाहिए कि वह विधिनियमों को लागू करके उनके द्वारा शासन करे। इस प्रकार के शासन के कार्य में उन असामाजिक तत्त्वों को दण्डित करना भी आवश्यक होता हैं? जो अपने स्वार्थ के वश में समाज के विद्यमान नियमों की अवहेलना करते हैं। सामान्य प्रजा शासन के प्रति आदर और निष्ठा होने के कारण शासकों के नियमों और दण्ड के अधीन द्मरहती है। परन्तु प्रश्न यह है कि वह कौन है? जो दुराचारियों को दण्डित करने का अधिकार राजा अथवा राष्ट्रपति को प्रदान करता है आधुनिक शासन प्रणालियों में व्यक्तियों को अपने हाथों में कानून लेने का कोई अधिकार नहीं है।राजा राजदण्ड को धारण करता है? जो उसकी सत्ता और दमन के अधिकार का चिह्न है। प्रजातान्त्रीय शासन प्रणाली में राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री को यह अधिकार जनता का बहुमत प्राप्त होने से मिलता है। मार्ग में खड़े हुए आरक्षी (पुलिसमेन) का गणवेश अपराधियों को गिरफ्तार करने के उसके अधिकार का सूचक होता है। राजदण्ड से रहित राजा? जनमत के बिना राष्ट्रपति और एक निलम्बित आरक्षी अपने पूर्व के अधिकारों से वंचित हो जाते हैं। अत यहाँ भगवान् कहते हैं कि मैं दमन करने वालों का दण्ड हूँ। समाज अनुमति सूचक चिह्न के बिना किसी भी एक व्यक्ति का समाज पर कोई अधिकार नहीं होता। क्योंकि? आखिर? राजा या राष्ट्रपति? पुलिस य्ाा न्यायाधीश ये सभी वस्तुत समाज के ही सदस्य होते हैं? परन्तु वे समाज के संरक्षक के रूप में जो कार्य करते हैं? वह विशेष अधिकार उन्हें अपने पद के कारण प्राप्त होता है।मैं विजयेच्छुओं की नीति हूँ यहाँ नीति शब्द का अर्थ राजनीति से है । इतिहास के ग्रन्थों में यह तथ्य बारम्बार दोहराया गया है कि केवल शारीरिक शक्ति से शत्रु पर प्राप्त की गई विजय वास्तविक विजय कदापि नहीं होती। वस्तुत किसी भी राष्ट्र? समाज? समुदाय या व्यक्ति को केवल इसलिए विजयी नहीं मानना चाहिए कि उसने अपनी सैनिक तथा शारीरिक शक्ति से शत्रुओं को परास्त कर दिया है। वास्तविक व पूर्ण विजय वही है जिसमें विजेता पक्ष बुद्धिमत्तापूर्वक लागू की गई शासन की नीतियों के द्वारा पराजित पक्ष को अपनी संस्कृति एवं विचारधारा में परिवर्तित कर देता है। यदि विजेता? पराजित लोगों का सांस्कृतिक परिवर्तन कराने में अथवा स्वयं उनकी संस्कृति को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है? तो उसकी विजय कदापि पूर्ण नहीं कही जा सकती। इतिहास के प्रत्येक विद्यार्थी के लिए यह एक खुला रहस्य है। सैनिक विजय के पश्चात् कुशल राजनीति के द्वारा ही पराजित पक्ष का वास्तविक धर्मान्तरण हो सकता है? और केवल तभी पराजित पक्ष पूर्णत विजेता के वश में हुआ कहा जा सकता है। अत यहाँ कहा गया है कि? विजयेच्छुओं की नीति मैं हूँ।मैं गोपनीय में मौन हूँ किसी तथ्य की गोपनीयता बनाये रखने का एकमात्र उपाय है मौन। किसी तथ्य के विषय में खुली चर्चा करने पर उसकी गोपनीयता ही समाप्त हो जाती है। इस प्रकार? किसी रहस्य का सारतत्त्व ही मौन है। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि अध्यात्मशास्त्र में आत्मज्ञान का वर्णन भी गुह्यतम अथवा राजगुह्य के रूप में किया गया है? क्योंकि सामान्यत यह ज्ञात नहीं है। इस महान् सत्य की अनुभूति की निरन्तरता बनाये रखने का उपाय भी आन्तरिक मौन ही है। सब गुह्यों में? भगवान् गहन गम्भीर और अखण्ड मौन हैंज्ञानवान का ज्ञान मैं हूँ बुद्धिमानों में बुद्धिमत्ता ही स्वयं बुद्धिमान् नहीं हैं? किन्तु वह उससे भिन्न भी नहीं है। आत्मा यह देह नहीं? परन्तु हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि देह सर्वव्यापी आत्मा से कोई भिन्न वस्तु है। जड़ उपाधियां और उसके अनुभव ये सब विभूति की आभा हैं? जो आत्मा के आसपास आलोकवलय में चमकती रहती हैं। ज्ञाता का ज्ञान या बुद्धिमान् की बुद्धिमत्ता परमात्मा की विभूति की अभिव्यक्ति है? जो उन पुरुषों के संस्कारों का परिणाम है।अब तक विवेचन किये गये विषय का अत्यन्त सुन्दर उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
।।10.38।। व्याख्या--'दण्डो दमयतामस्मि'--दुष्टोंको दुष्टतासे बचाकर सन्मार्गपर लानेके लिये दण्डनीति मुख्य है। इसलिये भगवान्ने इसको अपनी विभूति बताया है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.38।।नियमातिक्रमणे दण्डं कुर्वतां दण्डः अहम्। विजिगीषूणां जयोपायभूता नीतिः अस्मि। गुह्यानां सम्बन्धिषु गोपनेषु मौनम् अस्मि? ज्ञानवतां ज्ञानं च अहम्।
।।10.38।।अदान्तानुत्पथान्पथि प्रवर्तयतां दण्डोऽहमुत्पथप्रवृत्तौ निग्रहहेतुरित्यर्थः। नीतिर्न्यायो धर्मस्य जयोपायस्य प्रकाशकः। मौनं वाचंयमत्वमुत्तमा वा चतुर्थाश्रमप्रवृत्तिः। श्रवणादिद्वारा परिपक्वसमाधिजन्यं,सम्यग्ज्ञानं ज्ञानम्।
।।10.38।।दण्ड इति। कालीयेन्द्रादिषु कृतो दण्डो भगवद्रूप उक्तः। स्पष्टमन्यत्।
।।10.38।।दमयतामदान्तानुत्पथान्पथि प्रवर्तयतामुत्पथप्रवृत्तौ निग्रहहेतुर्दण्डोऽहमस्मि। जिगीषतां जेतुमिच्छतां नीतिर्न्यायो जयोपायस्य प्रकाशकोऽहमस्मि। गुह्यानां गोप्यानां गोपनहेतुर्मौनं वाचंयमत्वमहमस्मि। नहि तूष्णींस्थितस्याभिप्रायो ज्ञायते। गुह्यानां गोप्यानां मध्ये संन्यासश्रवणमननपूर्वकमात्मनो निदिध्यासनलक्षणं मौनं वाहमस्मि। ज्ञानवतां ज्ञानिनां यच्छ्रवणमनननिदिध्यासनपरिपाकप्रभवमद्वितीयात्मसाक्षात्काररूपं सर्वाज्ञानविरोधि ज्ञानं तदहमस्मि।
।।10.38।। दण्ड इति। दमयतां दमनकर्तृ़णां संबन्धी दण्डोऽस्मि येनासंयता अपि संयता भवन्ति स दण्डो मद्विभूतिः। जेतुमिच्छतां संबन्धिनी सामाद्युपायरूपा नीतिरस्मि। गुह्यानां गोप्यानां गोपनहेतुर्मौनमवचनमहमस्मि? नहि तूष्णींस्थितस्याभिप्रायो ज्ञायते। ज्ञानवतां तत्त्वज्ञानिनां यज्ज्ञानं तदहम्।
।।10.38।।नियमातिक्रमण इति दण्डयोग्यत्वकथनम्? अदण्ड्यविषयदण्डस्यातिशयेन नरकहेतुत्वात्। नीतिरस्मि नीतिमतामिति वक्तव्यम्? जिगीषतामित्यनेन तु कीदृशोऽन्वय इत्यत्राह -- विजिगीषूणां जयोपायभूता नीतिरिति बुद्धिव्यापारविशेषो विवक्षितः। लोकविदितस्य वाङ्नियमनरूपस्य मौनस्य गुह्यत्वाभावान्न निर्धारणमुचितम् मौनशब्दस्यात्मविद्याविषयत्वे तु प्रसिद्धित्यागः स्यात् नच गुह्यधर्मत्वं मौनस्य? येनसत्त्वं सत्त्ववताम् [10।36] इतिवत्स्यादित्यत्राह -- गुह्यानां सम्बन्धिषु गोपनेषु मौनमस्मीति। गुह्यानां गोपनीयत्वं मौनस्य चाषट्कर्णत्वमन्त्रणादपि गोपनोपायत्वं सम्प्रतिपन्नम् ततश्चात्र सम्बन्धमात्रे षष्ठी गोप्यगोपकभावरूपविशेषे विश्रान्ता।भूतानामस्मि चेतना [10।22] इति चैतन्यमात्रस्य पूर्वमुक्तत्वादत्रज्ञानं ज्ञानवताम् इति पुरुषार्थौपयिकातिशयितज्ञानविशेषोऽभिमतः?तज्ज्ञानमज्ञानमतोऽन्यदुक्तम् (तज्ज्ञानमेवाह तपोऽन्यरूपं) [वि.पु.6।5।87] इतिवत्।
।।10.38।।दण्ड इति। दमयतां दमकारिणां मध्ये दण्डोऽस्मि? सर्वदोषहरत्वेनेति भावः। जिगीषतां जेतुमिच्छतां नीतिरस्मि। गुह्यानां गोप्यानां मध्ये मौनमवचनमस्मि। ज्ञानवतां ज्ञानिनां मध्ये ज्ञानमहमस्मि।
।।10.38।।दमयतां राजादीनां दमनसाधनं दण्डोऽहमस्मि। जिगीषतां जेतुमिच्छतां जयसाधनं नीतिरस्मि। मौनं वाचोनिग्रहः।
।।10.38।।दण्डोऽदान्तदमनकारणं दमयतां दमनकर्तृ़णाम्। जिगीषतां चेतुमिच्छतां जयहेतुर्नीतिरहम्। गुह्यानां गोप्यानां मौनं तूष्णींभावोऽहम्।
10.38 दण्डः the sceptre? दमयताम् among punishers? अस्मि (I) am? नीतिः statesmanship? अस्मि (I) am? जिगीषताम् among thoese who seek victory? मौनम् silence? च and? एव also? अस्मि (I) am? गुह्यानाम् among secrets? ज्ञानम् the knowledge? ज्ञानवताम् among the knowers? अहम् I.Commentary Niti Diplomacy? polity.Maunam The silence produced by constant meditation on Brahman or the Self.Jnanam Knowledge of the Self.
10.38 Of those who punish, I am the sceptre; among those who seek victory, I am statesmanship; and also among secrets, I am silence; knowledge among knowers I am.
10.38 I am the Sceptre of rulers, the Strategy of the conquerors, the Silence of mystery, the Wisdom of the wise.
10.38 Of the punishers I am the rod; I am the righteous policy of those who desire to coner. And of things secret, I am verily silence; I am knowledge of the men of knowledge৷৷
10.38 Damayatam, of the punishers; I am dandah, the rod, which is the means of controlling the lawless. I am the nitih, righteous policy; jagisatam, of those who desire to coner. And guhyanam, of things secret; I am verily maunam, silence. I am jnanam, knowledge; jnanavatam, of the men of knowledge.
10.38. I am the punishment [at the hands] of the punishers; I am the political wisdom of those who seek victory; I am also silence of the secret ones; I am the knowledge of the knowers.
10.38 See Comment under 10.42
10.38 I am the power of punishment of those who punish, if law is transgressed. In regard to those who seek victory I am policy which is the means of getting victory. Of factors associated with secrecy. I am silence. I am the wisdon of those who are wise.
10.38 Of those that punish, I am the principle of punishment. Of these that seek victory, I am policy. Of secrets, I am also silence. And of those who are wise, I am wisdom.
।।10.38।।दमन करनेवालोंका दण्ड अर्थात् उन्मार्गमें चलनेवालोंको दमन करनेकी शक्ति मैं हूँ। विजय चाहनेवालोंका न्याय मैं हूँ। गुप्त रखने योग्य भावोंमें मौन मैं हूँ। ज्ञानवानोंका ज्ञान मैं हूँ।
।।10.38।। --,दण्डः दमयतां दमयितृ़णाम् अस्मि अदान्तानां दमनकारण्। नीतिः अस्मि जिगीषतां जेतुमिच्छताम्। मौनं चैव अस्मि गुह्यानां गोप्यानाम्। ज्ञानं ज्ञानवताम् अहम्।।
null
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दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्। मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।।10.38।।
দণ্ডো দমযতামস্মি নীতিরস্মি জিগীষতাম্৷ মৌনং চৈবাস্মি গুহ্যানাং জ্ঞানং জ্ঞানবতামহম্৷৷10.38৷৷
দণ্ডো দমযতামস্মি নীতিরস্মি জিগীষতাম্৷ মৌনং চৈবাস্মি গুহ্যানাং জ্ঞানং জ্ঞানবতামহম্৷৷10.38৷৷
દણ્ડો દમયતામસ્મિ નીતિરસ્મિ જિગીષતામ્। મૌનં ચૈવાસ્મિ ગુહ્યાનાં જ્ઞાનં જ્ઞાનવતામહમ્।।10.38।।
ਦਣ੍ਡੋ ਦਮਯਤਾਮਸ੍ਮਿ ਨੀਤਿਰਸ੍ਮਿ ਜਿਗੀਸ਼ਤਾਮ੍। ਮੌਨਂ ਚੈਵਾਸ੍ਮਿ ਗੁਹ੍ਯਾਨਾਂ ਜ੍ਞਾਨਂ ਜ੍ਞਾਨਵਤਾਮਹਮ੍।।10.38।।
ದಣ್ಡೋ ದಮಯತಾಮಸ್ಮಿ ನೀತಿರಸ್ಮಿ ಜಿಗೀಷತಾಮ್. ಮೌನಂ ಚೈವಾಸ್ಮಿ ಗುಹ್ಯಾನಾಂ ಜ್ಞಾನಂ ಜ್ಞಾನವತಾಮಹಮ್৷৷10.38৷৷
ദണ്ഡോ ദമയതാമസ്മി നീതിരസ്മി ജിഗീഷതാമ്. മൌനം ചൈവാസ്മി ഗുഹ്യാനാം ജ്ഞാനം ജ്ഞാനവതാമഹമ്৷৷10.38৷৷
ଦଣ୍ଡୋ ଦମଯତାମସ୍ମି ନୀତିରସ୍ମି ଜିଗୀଷତାମ୍| ମୌନଂ ଚୈବାସ୍ମି ଗୁହ୍ଯାନାଂ ଜ୍ଞାନଂ ଜ୍ଞାନବତାମହମ୍||10.38||
daṇḍō damayatāmasmi nītirasmi jigīṣatām. maunaṅ caivāsmi guhyānāṅ jñānaṅ jñānavatāmaham৷৷10.38৷৷
தண்டோ தமயதாமஸ்மி நீதிரஸ்மி ஜிகீஷதாம். மௌநஂ சைவாஸ்மி குஹ்யாநாஂ ஜ்ஞாநஂ ஜ்ஞாநவதாமஹம்৷৷10.38৷৷
దణ్డో దమయతామస్మి నీతిరస్మి జిగీషతామ్. మౌనం చైవాస్మి గుహ్యానాం జ్ఞానం జ్ఞానవతామహమ్৷৷10.38৷৷
10.39
10
39
।।10.39।। हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।
।।10.39।। हे अर्जुन ! जो समस्त भूतों की उत्पत्ति का बीज (कारण) है, वह भी में ही हूँ, क्योंकि ऐसा कोई चर और अचर भूत नहीं है, जो मुझसे रहित है।।
।।10.39।। मैं समस्त भूतों का बीज हूँ स्थूल विषयों तथा सूक्ष्म भावनाओं और विचारों के अनुभूयमान जगत में आत्मा के स्वरूप? स्थान एवं कार्य को दर्शाने वाले उपर्युक्त वर्णनात्मक वाक्यों तथा उपमाओं के द्वारा निरन्तर यह सूचित किया गया है कि आत्मा ही सम्पूर्ण सृष्टि का स्रोत है। भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से? महर्षि व्यास? इस सारभूत सत्य को बारम्बार विविध प्रकारों से प्रतिपादित कराते हैं? जिससे कि गीता का कोई मन्दबुद्धि विद्यार्थी भी इसकी उपेक्षा न कर सके।साधकों को मननचिन्तन करने के लिए बीज और वृक्ष का दृष्टान्त एक अक्षय विषय है। भूमि में बीजारोपण करने के पश्चात् अनुकूल परिस्थितियों में बीज में स्थित अव्यक्त जीवन तत्त्व स्वत व्यक्त हो सकता है। वह अंकुरित बीज शीघ्र ही विकसित होकर कल्पनातीत ऊँचाई का वृक्ष बन जाता है? और तत्पश्चात् ऐसा प्रतीत हो सकता है? मानो उस वृक्ष का अपने कारणभूत बीज से कोई संबंध ही न हो। निरन्तर होने वाले परिवर्तन रूपी घन के प्रहारों से शोकाकुल हुए? केवल अनित्य जगत् को देखने वाले पुरुषों को ही सम्भवत? इस संसार में सृष्टि के कारणभूत दिव्य? अनन्त आनन्दस्वरूप सत्य का स्मरण कराने वाली कोई वस्तु ही दिखाई नहीं देती है।विश्व की बीजावस्था? बीज में वृक्ष की अव्यक्त अवस्था के तुल्य है। अनुकूल परिस्थितियों को पाकर बीज से अंकुर फूटकर ऊपर की ओर तने का रूप ले लेता है? और उसी प्रकार भूमि के अन्दर उसका मूल उतनी गहराई तक पहुँचता है। नाम और रूपमय यह सम्पूर्ण विश्व जब अपनी अव्यक्त अवस्था में होता है? तब वह उपनिषदों के अनुसार? प्रलय की स्थिति कहलाती है। यह समष्टि प्रलय का सिद्धांत व्यष्टि की दृष्टि से विचार करने पर बुद्धिगम्य हो जाता है। हमारी सुषुप्ति अवस्था में? हमारे व्यक्तिगत स्वभाव? चरित्र? क्षमता? शिक्षा? संस्कृति? सद्व्यवहार आदि सब अव्यक्त स्थिति में विद्यमान रहते हैं। संक्षेप में? निद्रावस्था में हमारे व्यक्तित्व की विशेषताएं बीजाव्ास्था में रहती हैं। विश्राम काल के अन्तराल के बाद? जब ये वासनाएं स्वयं को व्यक्त करने के लिए अधीर हो उठती हैं? तब यदि अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हो जायें? तो वे पूर्णरूप से व्यक्त होती हैं।इसी प्रकार? समष्टि मन की विश्राम की अवस्था में सम्पूर्ण जीवों की वासनाओं के साथ यह विश्व बीजावस्था में विद्यमान रहता है। यह एक अत्यन्त सुन्दर एवं तत्त्वबोधक उदाहरण हमारे प्राचीन ऋषियों ने दिया है। गर्भावस्था से? कालान्तर में अनुकूल परिस्थितियों में? यह अव्यक्त सृष्टि व्यक्त होती है और उसकी इस प्रथम अभिव्यक्ति को ऋषियों ने सुन्दर नाम दिया है हिरण्यगर्भ। इस अपूर्व और अद्भुत शब्द का पाश्चात्य विद्वानों ने गोल्डन एग अर्थात् स्वर्णअण्ड कहकर अनुवाद करके अनजाने ही हमारे धर्मशास्त्र की निन्दा की है और? इस प्रकार? उसके सौन्दर्य को भी कलुषित कर दिया है। वस्तुत? इस शब्द का अर्थ है? चराचर जगत् का गर्भ।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण समष्टि कारण शरीर अर्थात् समस्त प्राणियों की वासनाओं के साथ तादात्म्य करके? सर्वज्ञ ईश्वर के रूप में कहते हैं कि वे वह महान् बीज हैं? जिससे यह संसार वृक्ष फलीभूत हुआ है तथा भविष्य में भी असंख्य बार ऐसा ही होता रहेगा।लौकिक अनुभव यह है कि बीज से वृक्ष की उत्पत्ति होने की प्रक्रिया में स्वत बीज का नाश हो जाता है। अत? भगवान् के कथन से गीता का कोई विद्यार्थी यह न समझ ले कि इस विश्व की उत्पत्ति में स्वयं भगवान् नष्ट हो जाते हैं इस प्रकार की विपरीत धारणा की निवृत्ति के लिए? श्रीकृष्ण कहते हैं? ऐसा कोई चर या अचर भूत नहीं है? जो मेरे बिना रहता है।परमात्मा का बीजत्व ऐसे ही है? जैसे समुद्र तरंगों का बीज है। तरंगों की उत्पत्ति और विकास समुद्र से भिन्न स्थान पर नहीं होते। जहाँ समुद्र नहीं? वहाँ तरंगों का भी अस्तित्व नहीं हो सकता। उसी प्रकार? असंख्य तरंगों की उत्पत्ति में स्वयं समुद्र कभी नष्ट नहीं होता।यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस अविद्या से प्रकट होता है? जो मानों सत्य को आच्छादित कर देती है। इस अविद्या का अस्तित्व और उसकी भ्रमोत्पादक शक्ति ये दोनों ही प्रक्षेपित जगत् के स्रोतभूत ब्रह्म में ही स्थित होते हैं। यह आत्म अज्ञान ही सृष्टि का कारण है। चैतन्य आत्मा के बिना यह अविद्या और अविद्याजनित हमारे संसार के दुख प्रकाशित नहीं होते और हमें उनका भान तक नहीं होता।जैसे तरंगों का जनक? धारक और पोषक जल ही है? वैसे ही चैतन्य आत्मा इस संसार वृक्ष का जनक और पोषक है।यदि हमसे यह कहा जाता है कि कोई दस आभूषण स्वर्ण से बने हैं तथा स्वर्ण के बिना उनका अस्तित्व नहीं हो सकता है? तो स्पष्ट है कि वर्तमान में भी वे आभूषण स्वर्ण रूप ही हैं। इसी प्रकार? भगवान् यहाँ कहते हैं कि वे इस संसार बीज के वृक्ष हैं इस आंशिक कथन में वे इस बात को भी जोड़ते हैं कि मेरे बिना कोई भूतवस्तु नहीं रह सकती। इसलिए यह विश्व भगवत्स्वरूप ही है।अब तक किये गये सम्पूर्ण विवेचन का उपसंहार? भगवान् अगले तीन श्लोकों में करते हैं
।।10.39।। व्याख्या--'यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदमहर्जुन'--यहाँ भगवान् समस्त विभूतियोंका सार बताते हैं कि सबका बीज अर्थात् कारण मैं ही हूँ। बीज कहनेका तात्पर्य है कि इस संसारका निमित्त कारण भी मैं हूँ और उपादान कारण भी मैं हूँ अर्थात् संसारको बनानेवाला भी मैं हूँ और संसाररूपसे बननेवाला भी मैं हूँ।भगवान्ने सातवें अध्यायके दसवें श्लोकमें अपनेको 'सनातन बीज', नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें 'अव्यय बीज' और यहाँ केवल 'बीज' बताया है। इसका तात्पर्य है कि मैं ज्योंकात्यों रहता हुआ ही संसाररूपसे प्रकट हो जाता हूँ और संसाररूपसे प्रकट होनेपर भी मैं उसमें ज्यों-का-त्यों व्यापक रहता हूँ।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन --,विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.39।।सर्वभूतानां सर्वावस्थावस्थितानां तत्तदवस्थाबीजभूतं प्रतीयमानम् अप्रतीयमानं च यत् तद् अहम् एव। चराचरसर्वभूतजातं मया आत्मतया अवस्थितेन विना यत् स्यात् न तद् अस्तिअहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशायस्थितः। (गीता 10।20) इति प्रक्रमात्न तदस्ति विनायत्स्यान्मया भूतं चराचरम्। इति अत्र अपि आत्मतया अवस्थानम् एव विवक्षितम्।सर्ववस्तुजातं सर्वावस्थं मया आत्मभूतेन युक्तं स्याद् इत्यर्थः। अनेन सर्वस्य अस्य सामानाधिकरण्यनिर्देशयस्य आत्मतया अवस्थितिः एव हेतुः इति प्रकटयति।
।।10.39।।जाड्यमात्रप्रतिबिम्बितं चैतन्यं बीजम्। किमिति स्थावरं जङ्गमं वा त्वदतिरेकेण न भवति तत्राह -- मयेति। तस्यापि स्वरूपेण सत्त्वमाशङ्क्योक्तं -- शून्यं हीति। आत्मनोऽपकर्षादित्यर्थः। मयैव सच्चिदानन्दस्वरूपेण सर्वस्य सिद्धेरित्यतःशब्दार्थः।
।।10.39।।यच्चापीति। अन्यत् किं वाच्यं मया विना किमपि नास्तीत्याह -- न तदस्ति विना मयेति। मत्प्रकृतिद्वयकार्यभूततया तथेति भावः।
।।10.39।।यदपि च सर्वभूतानां प्ररोहकारणं बीजं तन्मायोपाधिकं चैतन्यमहमेव। हे अर्जुन? मया विना यत्स्याद्भवेच्चरमचरं वा भूतं वस्तु तन्नास्त्येव। यतः सर्वं मत्कार्यमेवेत्यर्थः।
।।10.39।। यदिति। यदपि च सर्वभूतानां बीजं प्ररोहकारणं तदहम्। तत्र हेतुः मया विना यत्स्याद्भवेत् तच्चराचरं भूतं नास्त्येवेति।
।।10.39।।सर्वभूतानां बीजम् इति न प्रधानादिमात्रमुच्यते? तस्य साक्षात्सर्वभूतबीजत्वाभावात् नापि व्रीह्यादिलक्षणं बीजं? तस्य सर्वभूतशब्दसङ्गृहीतेषु जङ्गमेष्वनन्वयात् ततश्चाविशेषेण तत्तत्कार्यावस्थद्रव्यापेक्षया तत्तत्कारणावस्थोपादानद्रव्यमात्रमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहसर्वावस्थेति। एतेन प्राकृतनैमित्तिकसृष्ट्यादेःअहमादिश्च [10।20] इत्यादिनोक्तत्वादिह नित्यसृष्टिहेतुभूततत्तद्द्रव्यशरीरकत्वेन तद्धेतुत्वमपि प्रदर्शितम्।यच्चापि इत्यनेनाभिप्रेतमाहप्रतीयमानमप्रतीयमानं चेति। अप्रतीयमानमनुमानादिवेद्यमित्यर्थः।न तदस्ति इत्यादौ स्वव्यतिरिक्तासत्त्वादिविधिपरत्वभ्रमव्युदासायाविनाभावार्थतोक्तिः उपक्रमविरोध्युपसंहारो नोदेतुमलमित्यभिप्रायेणाहभूतजातमिति। आत्मतयावस्थितेन अविनाभावमुपपादयतिअहमात्मेति। व्यतिरेकोक्तिफलितमन्वयविशेषं दर्शयतिसर्वमिति। उपक्रमोपसंहारयोरविनाभावकथनस्य भगवदभिप्रेतं प्रयोजनमाहअनेनेति। क्वचित्क्वचिद्द्रव्यव्यतिरिक्तैः सामानाधिकरण्यमपि तदाश्रयद्रव्यस्य भगवच्छरीरत्वादिति प्रागेव प्रपञ्चितमस्माभिः।
।।10.39।।यदिति। यत्सर्वभूतानां बीजमुत्पत्तिकारणं तदपि अहमेव। अपिशब्देन योनिस्तद्रूपं चाऽहमेवेति व्यञ्जितम्। यत् चराचरं भूतं तज्जातं तन्मया विना किञ्चिन्नास्ति।
।।10.39।।सर्वभूतानां बीजमित्यनेन सर्वभूतानि मद्विभूतिरिति दर्शितम्? तदेवोपपादयति -- न तदस्तीति। मया विना भूतां किमपि नास्ति। उपादेयस्योपादानमन्तरेण स्थित्यसंभवात्।
।।10.39।।बीजं प्ररोहकारणम्। एतन्मद्विभूतिज्ञानमन्तःकरणशोधकमिति सचयन्नाह -- हे अर्जुनेति। प्रकृतपसंहरन्विभूतिसंक्षेपमाह -- नेति। स्थावरजंगमं भूतं मयाविना यद्भवेत् तन्नास्ति मया त्यक्तस्य निरात्मकस्य शून्यत्वापत्तेर्मदात्मकं सर्वमित्यर्थः।
10.39 यत् which? च and? अपि also? सर्वभूतानाम् among all beings? बीजम् seed? तत् that? अहम् I? अर्जुन O Arjuna? न not? तत् that? अस्ति is? विना without? यत् which? स्यात् may be? मया by Me? भूतम् being? चराचरम् moving or unmoving.Commentary I am the primeval seed from which all creation has come into existence. I am the seed of everything. I am the Self of everything. Nothing can exist without Me. Everything is of My nature. I am the essence of everything. Without Me all things would be mere void. I am the soul of everything.
10.39 And whatever is the seed of all beings, that also am I, O Arjuna; there is no being, whether moving or unmoving, that can exist without Me.
10.39 I am the Seed of all being, O Arjuna! No creature moving or unmoving can live without Me.
10.39 Moreover, O Arjuna, whatsoever is the seed of all beings, that I am. There is no thing moving or non-moving which can exist without Me.
10.39 Ca, moreover; O Arjuna, yat api, whatsoever; is the bijam, seed, the source of growth ; sarva-bhutanam, of all beings; tat, that I am. As a conclusion of the topic the Lord states in brief His divine manifestations: Na tat asti bhutam, there is no thing; cara-acaram, moving or non-moving; yat, which; syat, can exist; vina maya, without Me. For whatever is rejected by Me, from whatever I withdraw Myself will have no substance, and will become a non-entity. Hence the meaning is that everything has Me as its essence.
10.39. Further, O Arjuna, I am that which is the seed of all beings; there is no being, whether moving or non-moving, that could exist without Me.
10.39 See Comment under 10.42
10.39 Of all beings, in whatever condition they may exist, whether manifest or not, I alone am that state. Whatever host of beings are said to exist, they do not exist without Me as their Self. In the statement, 'Nothing that moves or does not move exists without Me', it is taught that the Lord exists as the Self, as said in the beginning: 'I am the Self, seated in the hearts of all beings' (10.20). The purport is that the entire host of beings in every state, is united with Me, their Self. By this He makes it clear that He, being the Self of all things, is the ground for His being denoted by everything in co-ordinate predication.
10.39 I am also that which is the seed of all beings, O Arjuna. Nothing that moves or does not move, exists without Me.
।।10.39।।हे अर्जुन सर्वभूतोंका जो बीज अर्थात् उत्पत्तिका कारण है? वह मैं हूँ। प्रकरणका उपसंहार करनेके लिये समस्त विभूतियोंका सार कहते हैं -- ऐसा वह चर या अचर कोई भी भूत प्राणी नहीं है जो मेरे बिना हो। क्योंकि जो मुझसे रहित होगा वह सत्तारहित -- शून्य होगा? अतः यह सिद्ध हुआ कि सब कुछ मेरा ही स्वरूप है।
।।10.39।। --,यच्चापि सर्वभूतानां बीजं प्ररोहकारणम्? तत् अहम् अर्जुन। प्रकरणोपसंहारार्थं विभूतिसंक्षेपमाह -- न तत् अस्ति भूतं चराचरं चरम् अचरं वा? मया विना यत् स्यात् भवेत्। मया अपकृष्टं परित्यक्तं निरात्मकं शून्यं हि तत् स्यात्। अतः मदात्मकं सर्वमित्यर्थः।।
।।10.39।।न तदस्ति विना इत्यत्र पदानां व्यवहितत्वादन्वयमाह -- मयेति। भगवतोऽनन्तै रूपैः सर्वपदार्थव्यापित्वे प्रमाणमाह -- विश्वेति। विश्वं रूपं प्रतिमा यस्यासौ विश्वरूपः। अनन्तानां गतिराश्रयोऽनन्तगतिः। अनन्ता भागा अवतारा यस्यासावनन्तभागः। अनन्तान्पदार्थान् गतः अनन्तगः। अनन्तः कालाद्यपरिच्छिन्नः।
।।10.39।।मया विना यद्भूतं स्यात् तन्नास्ति। विश्वरूप अनन्तगते अनन्तभाग अनन्तग अनन्त अनादे इत्यादि मोक्षधर्मे [म.भा.शां.अ.338]।
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन। न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।10.39।।
যচ্চাপি সর্বভূতানাং বীজং তদহমর্জুন৷ ন তদস্তি বিনা যত্স্যান্মযা ভূতং চরাচরম্৷৷10.39৷৷
যচ্চাপি সর্বভূতানাং বীজং তদহমর্জুন৷ ন তদস্তি বিনা যত্স্যান্মযা ভূতং চরাচরম্৷৷10.39৷৷
યચ્ચાપિ સર્વભૂતાનાં બીજં તદહમર્જુન। ન તદસ્તિ વિના યત્સ્યાન્મયા ભૂતં ચરાચરમ્।।10.39।।
ਯਚ੍ਚਾਪਿ ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਨਾਂ ਬੀਜਂ ਤਦਹਮਰ੍ਜੁਨ। ਨ ਤਦਸ੍ਤਿ ਵਿਨਾ ਯਤ੍ਸ੍ਯਾਨ੍ਮਯਾ ਭੂਤਂ ਚਰਾਚਰਮ੍।।10.39।।
ಯಚ್ಚಾಪಿ ಸರ್ವಭೂತಾನಾಂ ಬೀಜಂ ತದಹಮರ್ಜುನ. ನ ತದಸ್ತಿ ವಿನಾ ಯತ್ಸ್ಯಾನ್ಮಯಾ ಭೂತಂ ಚರಾಚರಮ್৷৷10.39৷৷
യച്ചാപി സര്വഭൂതാനാം ബീജം തദഹമര്ജുന. ന തദസ്തി വിനാ യത്സ്യാന്മയാ ഭൂതം ചരാചരമ്৷৷10.39৷৷
ଯଚ୍ଚାପି ସର୍ବଭୂତାନାଂ ବୀଜଂ ତଦହମର୍ଜୁନ| ନ ତଦସ୍ତି ବିନା ଯତ୍ସ୍ଯାନ୍ମଯା ଭୂତଂ ଚରାଚରମ୍||10.39||
yaccāpi sarvabhūtānāṅ bījaṅ tadahamarjuna. na tadasti vinā yatsyānmayā bhūtaṅ carācaram৷৷10.39৷৷
யச்சாபி ஸர்வபூதாநாஂ பீஜஂ ததஹமர்ஜுந. ந ததஸ்தி விநா யத்ஸ்யாந்மயா பூதஂ சராசரம்৷৷10.39৷৷
యచ్చాపి సర్వభూతానాం బీజం తదహమర్జున. న తదస్తి వినా యత్స్యాన్మయా భూతం చరాచరమ్৷৷10.39৷৷
10.40
10
40
।।10.40।। हे परंतप अर्जुन ! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है, यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।
।।10.40।। हे परन्तप ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है; अपनी विभूतियों का यह विस्तार मैंने एक देश से अर्थात् संक्षेप में कहा है।।
।।10.40।। मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है अपनी विभूतियों के वर्णन के प्रारम्भ में ही भगवान् श्रीकृष्ण ने इस विशाल कार्य को सम्पन्न करने में भाषा की असमर्थता प्रकट की था। किन्तु? फिर भी? शिष्य के लिए केवल स्नेहवश भगवान् श्रीकृष्ण ने इस असम्भव कार्य को यथासम्भव सम्पन्न करने के लिए अपने हाथों में लिया। कोई भी घटकार किसी भी जिज्ञासु व्यक्ति को समस्त घटों में व्याप्त उनके सारतत्त्व मिट्टी को नहीं दर्शा सकता और न अन्त में यह कहकर स्वयं का अभिनन्दन कर सकता है कि उसने समस्त भूत? वर्तमान और भविष्य के घटों को बता दिया है। ऐसा करना न सम्भव है और न आवश्यक ही। योग्य अधिकारी पुरुष को कुछ वस्तुएं दिखाकर उनके स्ाारतत्त्व का ज्ञान करा दिया जाये? तो वह पुरुष उसी तत्त्व की अन्य वस्तुओं को देखकर उस तत्त्व को पहचान सकता है।इस अध्याय में? भगवान् ने अर्जुन को तथा उसके निमित्त से समस्त भावी पीढ़ियों के जिज्ञासुओं के लिए? इन 54 विभूतियों के द्वारा? असंख्य उपाधियों के आवरण या परिधान में गुप्त वास कर रहे? अनन्त परमात्मा की क्रीड़ा को दर्शाया है। जो साधक इन विभूतियों का ध्यान करके अपने मन को पूर्णत प्रशिक्षित कर लेगा? वह इस बहुविध सृष्टि के पीछे स्थित एक अनन्त परमात्मा को सरलता से सर्वत्र पहचानेगा।दृश्य जगत् की अनन्त विभूतियों के विस्तार का वर्णन करने में अपनी असमर्थता को व्यक्त करते हुए भगवान् कहते हैं? सूर्यस्थानीय मुझ स्वयंप्रकाश? स्वस्वरूप की पूर्णता में स्थित परमात्मा की असंख्य रश्मिरूपी विभूतियों का कोई अन्त नहीं है।यदि भगवान् श्रीकृष्ण इस असमर्थता को पहले से जानते थे? तो क्यों उन्होंने एक गुरु होने के नाते? व्यर्थ ही अपने शिष्य को अपनी विभूतियों के द्वारा स्वयं का दर्शन कराने का आश्वासन दिया यह ऐसा छल भगवान् ने क्यों किया दीर्घ काल तक शिष्य को थकाकर अन्त में उसे निराश करना क्या उचित है क्या यह सभी धार्मिक गुरुओं? ऋषियों और मुनियों का सामान्य स्वभाव ही हैआध्यात्मिक साधनाओं पर लगाये जाने वाले इन सभी आरोपों का केवल एक ही उत्तर है कि इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। शल्य चिकित्सा के विद्यार्थियों को? सर्वप्रथम एक सप्ताह के मृत देह पर शल्यक्रिया करने को कहा जाता है यह कोई असत्य नहीं है यह सत्य है कि कितनी ही कुशलता से शल्यक्रिया करने पर भी वह मृत रोगी पुनर्जीवित होने वाला नहीं है? परन्तु इस प्रकार के अभ्यास का प्रयोजन विद्यार्थी को उस अनुभव को कराना है? जो अपना स्वतन्त्र व्यवसाय करने के लिए जीवन में आवश्यक होता है। इसी प्रकार? भगवान् यहाँ अर्जुन को दृश्य के द्वारा अदृश्य का दर्शन करने की कला को सिखाने के लिए अपनी कुछ विशेष विभूतियों का वर्णन करते हैं।उनका यह उद्देश्य उनकी इस स्वीकारोक्ति में स्पष्ट होता है? किन्तु मैंने अपनी विभूतियों का विस्तार संक्षेप से कहा है। भगवान् द्वारा किया गया वर्णन पूर्ण नहीं कहा जा सकता। साधकों को प्रशिक्षित करने के लिए उन्होंने कुछ विशेष उदाहरण ही चुन कर दिये हैं। जिन्होंने इन विभूतियों पर उत्साहपूर्वक ध्यान किया है? वे अनित्य रूपों में क्रीड़ा कर रहे स्वयं प्रकाश स्वरूप को सरलता से पहचान सकते हैं।संक्षेप में? भगवान् के कथन का सार यह है कि
।।10.40।। व्याख्या--'मम दिव्यानां (टिप्पणी प0 568.2) विभूतीनाम्'--'दिव्य' शब्द अलौकिकता, विलक्षणताका द्योतक है। साधकका मन जहाँ चला जाय, वहीं भगवान्का चिन्तन करनेसे यह दिव्यता वहीं प्रकट हो जायगी; क्योंकि भगवान्के समान दिव्य कोई है ही नहीं। देवता जो दिव्य कहे जाते हैं, वे भी नित्य ही भगवान्के दर्शनकी इच्छा रखते हैं, --
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.40।।मम दिव्यानां कल्याणीनां विभूतीनाम् अन्तो न अस्ति। एष तु विभूतेः विस्तरो मया कैश्चिद् उपाधिभिः संक्षेपतः प्रोक्तः।
।।10.40।।दिव्यानां विभूतीनां परिमितत्वशङ्कां वारयति -- नेत्यादिना। तदेवोपपादयति -- नहीति। कथं तर्हि विभूतेर्विस्तरो दर्शितस्तत्राह -- एष त्विति।
।।10.40।।प्रकरणार्थमुपसंहरति -- नान्तोऽस्तीति। एता दिव्या मे विभूतयः प्राधान्यतः उक्तास्ता अप्यनन्ता इति। एष तूद्देशतः प्रोक्तः -- नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्त्तनमुद्देशः -- तस्मात्सङ्क्षेपत इत्यर्थः।
।।10.40।।प्रकरणार्थमुपसंहरन् विभूतिं संक्षिपति -- हे परंतप परेषां शत्रूणां कामक्रोधलोभादीनां तापजनक? मम दिव्यानां विभूतीनामन्त इयत्ता नास्ति। अतः सर्वज्ञेनापि सा शक्यते ज्ञातुं वक्तुं वा। सन्मात्रविषयत्वात्सर्वज्ञतायाः। एष तु त्वां प्रत्युद्देशत एकदेशेन प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो विस्तारो मया।
।।10.40।।प्रकरणार्थमुपसंहरति -- नान्त इति। अनन्तत्वाद्विभूतीनां ताः साकल्येन वक्तुं न शक्यन्ते? एष तु विभूतेर्विस्तर उद्देशतः संक्षेपतः प्रोक्तः।
।।10.40।।निश्शेषवचनाशक्यतां प्रागुक्तामेव स्मारयति -- नान्तोऽस्ति इति। दिव्यशब्देन देशविशेषवर्तित्वादिविवक्षायां पूर्वमनियतदेशवर्तिनामदिव्यानां प्रपञ्चनं विरुध्येतेत्यत उक्तंकल्याणीनामिति।विभूतीरात्मनः शुभाः [10।19] इति ह्युपक्रान्तम्। उद्देशतः एकदेशतः प्रयोजकाकारैः विभूत्युद्धारेणेत्यर्थः। तदभिप्रायेणाहकैश्चिदुपाधिभिः सङ्क्षेपत इति।
।।10.40।।एवं विभूतिमुक्त्वोपसंहरति -- नान्तोऽस्तीति। मम स्वच्छन्दचारिणो दिव्यानां क्रीडात्मिकानां विभूतीनामन्तो नास्ति। परन्तपेति सम्बोधनं विश्वासार्थम्। नन्वन्ताभावे कथमेता एवोक्ताः इत्याकाङ्क्षायामाह -- एष इति। एष तूद्देशतः सङ्क्षेपतो विभूतेर्विस्तरो मया प्रोक्तः। प्रोक्तत्वेनान्येषामेतावज्ज्ञानेऽप्यसामर्थ्यं,द्योतितम्।
।।10.40।।नान्तोऽस्तीति। उद्देशत एकदेशेन विभूतेर्विस्तरो विस्तारो मया प्रोक्तः।
।।10.40।।मम दिव्यानामन्तो नास्ति परमेश्वरविभूतीनामियत्तारहितानामियत्ता केनचिद्वक्तुं ज्ञातुं वा न शक्या। एष तद्देशत एकदेशेन विभूतीनां विस्तरो मया प्रोक्तः। उक्तविभूतिपरिचिन्तनेन परान् रागद्वेषादीन् शत्रून्तापयेति संबोधनाशयः।
10.40 न not? अन्तः end? अस्ति is? मम My? दिव्यानाम् of divine? विभूतीनाम् glories? परंतप O scorcher of foes? एषः this? तु indeed? उद्देशतः briefly? प्रोक्तः has been stated? विभूतेः of glory? विस्तरः particulars? मया by Me.Commentary It is impossible for anyone to describe or know the exact extent of the divine gloreis of the Lord. There is no limit to His powers or glories. What could be expressed of Him is nothing when compared to His infinte glories.Parantapa Scorcher of foes -- he who burns the internal enemies? lust? anger? greed? deluion? etc.
10.40 There is no end to My divine gloreis, O Arjuna, but this is a brief statement by Me of the particulars of My divine glories.
10.40 O Arjuna! The aspects of My divine life are endless. I have mentioned but a few by way of illustration.
10.40 O destroyer of enemies, there is no limit to My divine manifestations. This description of (My) manifestations, however, has been stated by Me by way illustration.
10.40 Parantapa, O destroyer of enemies; asti, there is; na, no; antah, limit; to mama, My; divyanam, divine; vibhutinam, manifestations. Indeed, it is not possible for anyone to speak or know of the limit of the divine manifestations of the of the all-pervading God. Esah, this; vistarah, description; vibhuteh, of (My) manifestations; tu, however; prokatah, has been stated; maya, by Me; uddesatah, by way of illustration, partially.
10.40. O scorcher of foes ! There is no end to My extraordinary manifesting Power. The above details of [My] manifesting power have been declared by Me only by way of examples.
10.40 See Comment under 10.42
10.40 There is no limit to the divine and auspicious manifestations of My will to rule. But it has been described to some extent by Me in brief by means of a few illustrations.
10.40 There is no limit to My divine mannifestations. Here the extent of such manifestations has been made in brief by Me.
।।10.40।।हे परन्तप मेरी दिव्य विभूतियोंका अर्थात् विस्तारका अन्त नहीं है। क्योंकि सर्वात्मरूप ईश्वरकी दिव्य विभूतियाँ इतनी ही है इस प्रकार किसीके द्वारा भी जाना या कहा नहीं जा सकता। यह तो अपनी विभूतियोंका विस्तार मेरेद्वारा संक्षेपसे अर्थात् एक अंशसे ही कहा गया है।
।।10.40।। --,न अन्तः अस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां विस्तराणां परंतप। न हि ईश्वरस्य सर्वात्मनः दिव्यानां विभूतीनाम् इयत्ता शक्या वक्तुं ज्ञातुं वा केनचित्। एष तु उद्देशतः एकदेशेन प्रोक्तः विभूतेः विस्तरः मया।।
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नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप। एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।10.40।।
নান্তোস্তি মম দিব্যানাং বিভূতীনাং পরংতপ৷ এষ তূদ্দেশতঃ প্রোক্তো বিভূতের্বিস্তরো মযা৷৷10.40৷৷
নান্তোস্তি মম দিব্যানাং বিভূতীনাং পরংতপ৷ এষ তূদ্দেশতঃ প্রোক্তো বিভূতের্বিস্তরো মযা৷৷10.40৷৷
નાન્તોસ્તિ મમ દિવ્યાનાં વિભૂતીનાં પરંતપ। એષ તૂદ્દેશતઃ પ્રોક્તો વિભૂતેર્વિસ્તરો મયા।।10.40।।
ਨਾਨ੍ਤੋਸ੍ਤਿ ਮਮ ਦਿਵ੍ਯਾਨਾਂ ਵਿਭੂਤੀਨਾਂ ਪਰਂਤਪ। ਏਸ਼ ਤੂਦ੍ਦੇਸ਼ਤ ਪ੍ਰੋਕ੍ਤੋ ਵਿਭੂਤੇਰ੍ਵਿਸ੍ਤਰੋ ਮਯਾ।।10.40।।
ನಾನ್ತೋಸ್ತಿ ಮಮ ದಿವ್ಯಾನಾಂ ವಿಭೂತೀನಾಂ ಪರಂತಪ. ಏಷ ತೂದ್ದೇಶತಃ ಪ್ರೋಕ್ತೋ ವಿಭೂತೇರ್ವಿಸ್ತರೋ ಮಯಾ৷৷10.40৷৷
നാന്തോസ്തി മമ ദിവ്യാനാം വിഭൂതീനാം പരംതപ. ഏഷ തൂദ്ദേശതഃ പ്രോക്തോ വിഭൂതേര്വിസ്തരോ മയാ৷৷10.40৷৷
ନାନ୍ତୋସ୍ତି ମମ ଦିବ୍ଯାନାଂ ବିଭୂତୀନାଂ ପରଂତପ| ଏଷ ତୂଦ୍ଦେଶତଃ ପ୍ରୋକ୍ତୋ ବିଭୂତେର୍ବିସ୍ତରୋ ମଯା||10.40||
nāntō.sti mama divyānāṅ vibhūtīnāṅ paraṅtapa. ēṣa tūddēśataḥ prōktō vibhūtērvistarō mayā৷৷10.40৷৷
நாந்தோஸ்தி மம திவ்யாநாஂ விபூதீநாஂ பரஂதப. ஏஷ தூத்தேஷதஃ ப்ரோக்தோ விபூதேர்விஸ்தரோ மயா৷৷10.40৷৷
నాన్తోస్తి మమ దివ్యానాం విభూతీనాం పరంతప. ఏష తూద్దేశతః ప్రోక్తో విభూతేర్విస్తరో మయా৷৷10.40৷৷
10.41
10
41
।।10.41।। जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी तथा वस्तु है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज-(योग-) के अंशसे उत्पन्न हुई समझो।
।।10.41।। जो कोई भी विभूतियुक्त, कान्तियुक्त अथवा शक्तियुक्त वस्तु (या प्राणी) है, उसको तुम मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुई जानो।।
।।10.41।। इस अध्याय में कथित उदाहरणों के द्वारा भगवान् की विभूतियों को दर्शाने का अल्पसा प्रयत्न किया गया है? परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने सत्य को पूर्णतया परिभाषित किया है। हमें यह बताया गया है कि हम विवेक के द्वारा इसी अनित्य जगत् में नित्य और दिव्य तत्त्व को पहचान सकते हैं। उपर्युक्त दृष्टान्तों से यह स्पष्ट होता है कि जगत् की चराचर वस्तुओं में स्वयं भगवान् अपने को ऐश्वर्ययुक्त? कान्तियुक्त अथवा शक्तियुक्त रूप में अभिव्यक्त करते हैं। वे समस्त नाम और रूपों में विद्यमान हैं।यहाँ श्रीकृष्ण अत्यन्त स्पष्ट रूप से यह बताते हैं कि बहुविध जगत् में दिव्य उपस्थिति क्या है? तथा उसे पहचानने की परीक्षा क्या है। जहाँ कहीं भी महानता? कान्ति या शक्ति की अभिव्यक्ति है? वह परमात्मा के असीम तेज की एक रश्मि ही है। इस में कोई सन्देह नहीं कि उपर्युक्त विस्तृत विवेचन का यह सारांश अपूर्व है। इन समस्त उदाहरणों में भगवान् का या तो ऐश्वर्य झलकता है? या कान्ति या फिर शक्ति।सर्वत्र परमात्मदर्शन करने के लिए अर्जुन को दिये गये इस संकेतक का उपयोग गीता के सभी विद्यार्थियों के लिए समान रूप से लाभप्रद होगा।अब अन्त में भगवान् कहते हैं
।।10.41।। व्याख्या--'यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा'--संसारमात्रमें जिस-किसी सजी-वनिर्जीव वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, गुण, भाव, क्रिया आदिमें जो कुछ ऐश्वर्य दीखे, शोभा या सौन्दर्य दीखे, बलवत्ता दीखे, तथा जो कुछ भी विशेषता, विलक्षणता, योग्यता दीखे, उन सबको मेरे तेजके किसी एक अंशसे उत्पन्न हुई जानो। तात्पर्य है कि उनमें वह विलक्षणता मेरे योगसे, सामर्थ्यसे, प्रभावसे ही आयी है -- ऐसा तुम समझो -- 'तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्'। मेरे बिना कहीं भी और कुछ भी विलक्षणता नहीं है।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.41।।यद् यद् विभूतिमद् ईशितव्यसंपन्नं भूतजातं श्रीमत् कान्तिमद् धनधान्यसमृद्धं वा ऊर्जितं कल्याणारम्भेषु उद्युक्तं तत् तद् मम तेजोंऽशसंभवम् इति अवगच्छ।तेजः पराभिभवनसामर्थ्यम्? मम अचिन्त्यशक्तेः नियमनशक्त्या एकदेशसंभवम् इत्यर्थः।
।।10.41।।अनुक्ता अपि परस्य विभूतीः संग्रहीतुं लक्षणमाह -- यद्यदिति। वस्तु प्राणिजातं? श्रीमत्समृद्धिमद्वा कान्तिमद्वा। सप्राणं बलवदूर्जितं तदाह -- उत्साहेति। संभवत्यस्मादिति संभवः। तेजसश्चैतन्यस्येश्वरशक्तेर्वांशस्तेजोंशः संभवोऽस्येति तेजोंशसंभवम्। तदाह -- तेजस इति।
।।10.41।।पुनश्च साकाङंक्षप्रति कथञ्चित्साकल्येन कथयन्सर्वसङ्ग्रहार्थमाह -- यद्यदिति। सत्त्वं चेतनाचेतनवस्तुमात्रं श्रीमत् शोभादिमच्च ऊर्जितं अन्नसमृद्धिमत् अतिशयितं वा तन्मम तेजोंशसम्भवं जडजीवान्तर्यामिष्वेकैकांशप्राकट्यात् ममाचिन्त्ययोगशक्तेः सच्चिदानन्दैकदेशसम्भवं जानीहीत्यर्थः।
।।10.41।।अनुक्ता अपि भगवतो विभूतीः संग्रहीतुमुपलक्षणमिदमुच्यते। यद्यत्सत्त्वं प्राणि विभूतिमदैश्वर्ययुक्तं तथा श्रीमत् श्रीर्लक्ष्मीः संपत् शोभा कान्तिर्वा तया युक्तं तथा ऊर्जितं बलाद्यतिशयेन युक्तं तत्तदेव मम तेजसः शक्तेरंशेन संभूतं त्वमवगच्छ जानीहि।
।।10.41।। पुनश्चा साकाङ्क्षं प्रति कथंचित्साकल्येन कथयति -- यद्यदिति। विभूतिमदैश्वर्ययुक्तम् श्रीमत्संपत्तियुक्तम् ऊर्जितं केनचित्प्रभावबलादिना गुणेनातिशयितं यद्यत्सत्त्वं वस्तुमात्रं तत्तदेव मम तेजसः प्रभावस्यांशेन संभूतं जानीहि।
।।10.41।।प्राधान्यतः [10।19] इत्युपक्रम्य प्रपञ्चितमर्थमनुक्तानामवश्यकर्तव्यप्रधानविभूतीनां सङ्ग्रहाभिप्रायेणोपसंहरतियद्यत् इतिश्लोकेन। विभूतिशब्दस्य प्राकरणिकमर्थमनुसन्धायोक्तंईशितव्यसम्पन्नमिति। सत्त्वशब्दोऽत्र जन्तुपरः। वीप्साभिप्रायव्यञ्जनाय जातशब्दः। विभूतिमच्छ्रीमच्छब्दयोः पौनरुक्त्यं परिहरतिकान्तिमदिति। नियन्तव्यविशेषविवक्षया वा गोबलीवर्दन्यायात्पौनरुक्तिपरिहार इत्यभिप्रायेणाहधनधान्यसमृद्धं वेति। ऊर्जितमित्युत्कृष्टत्वादिसामान्यविवक्षायामितरपाठवैयर्थ्यात् विशिष्टमर्थमाहकल्याणेति। ऊर्जशब्दो ह्यदीनत्वेन सन्नाहशीलत्वपरः।विभूतिमदित्यादि बलादिमतां प्रदर्शनम्।मम तेजोंशसम्भवम् इत्युक्ते विग्रहगततेजोद्रव्यैकदेशोपादानत्वं प्रतीयेतेति तन्निरासाय प्रकृतौपयिकं तेजश्शब्दार्थमाहतेजः पराभिभवनसामर्थ्यमिति। कोऽयमत्राभिभवो नाम? तत्र च कथमंशसद्भावः इत्यत्राहममेति।अचिन्त्यशक्तेरित्यनेन चिन्तायोग्यांशनिष्कर्षाय ममेत्यस्याभिप्रायो विवृतः। तेन सर्वगोचरत्वाभङ्गुरत्वाघटितघटनत्वादिसिद्धिः। यथा शैलान्दोलिनश्चण्डमारुतस्य तृणप्रेरणादिकं वेगलेशमात्रभवम्? तद्वदिहेति भावः। तेजसोंशः सम्भवो यस्य तत्तेजोंऽशसम्भवम्।
।।10.41।।ननु मया सर्वस्वरूपज्ञानेन सर्वत्र त्वच्चिन्तनार्थं विभूतिविस्तारः पृष्टः? तस्यान्ताभावोक्त्या मया कुत्र कथं चिन्तनीयः इत्याकाङ्कायामाह -- यद्यदिति। यत् यत् सत्त्वं वस्तुमात्रं विभूतिमत् ऐश्वर्ययुक्तं श्रीमत् सम्पत्तियुक्तं ऊर्जितमेव केनापि प्रकारेणोत्कृष्टतां प्राप्तं रमणीयतरं वा तत्तदेवं मम तेजोंशसम्भवं ममानुभावसम्भूतं अवगच्छ जानीहि।
।।10.41।।सर्वभूतानां बीजमहमित्युक्त्या स्वस्य सार्वात्म्योक्तेः सर्वं स्वविभूतिरित्युक्तमेव तथापि तद्ग्रहणाशक्तं प्रति प्राह -- यद्यदिति। यद्यत्सत्त्वं प्राणि विभूतिमदैश्वर्ययुक्तम्। श्रीर्लक्ष्मीः शोभा वा तद्युक्तम्। ऊर्जितं बलाद्यतिशययुक्तम्। तत्तत्सर्वं मम तेजसश्चिच्छक्तेरंशसंभवमंशात्संभूतं त्वमवगच्छ जानीहि। लोके यदतिरमणीयं तद्भगवतो रूपमिति ध्यायेदित्यर्थः।
।।10.41।।इदं त्ववधेयमित्याह। यद्यत्सत्त्वं वस्तु विभूतिश्वर्यं तद्युक्तं? श्रीर्लक्ष्मीस्तया युक्तं? ऊर्जितमेव वा उत्साहयुक्तमेव वा तत्तन्मत्तेजसोंश एकदेशः संभवो यस्य तदवगच्छ त्वं विजानीहि।
10.41 यत् यत् whatever? विभूतिमत् glorious? सत्त्वम् being? श्रीमत् prosperous? ऊर्जितम् powerful? एव also? वा or? तत् तत् that? एव only? अवगच्छ know? त्वम् thou? मम My? तेजोंऽशसंभवम् a manifestation of a part of My splendour.No Commentary.
10.41 Whatever being there is glorious, prosperous or powerful, that know thou to be a manifestation of a part of My splendour.
10.41 Whatever is glorious, excellent, beautiful and mighty, be assured that it comes from a fragment of My splendour.
10.41 Whatever object [All living beings] is verily endowed with majesty, possessed of prosperity, or is energetic, you know for certain each of them as having a part of My power as its source.
10.41 Yat yat, whatever; sattvam, object in the world; is eva, verily; vibhutimat, endowed with majesty; srimad, possessed of prosperity; va, or; is urjitam, energetic, possessed of vigour; tvam, you; avagaccha, know; eva, for certain; tat tat, each of them; as mama tejomsa-sambhavam, having a part (amsa) of My (mama), of God's, power (teja) as its source (sambhavam).
10.41. Whatsoever being exists with the manifesting power, and with beauty and vigour, be sure that it is born only of a bit of My illuminant.
10.41 See Comment under 10.42
10.41 Whatever host of beings has 'power', namely the capacity and means to rule over; has 'splendour', has beauty or prosperity in wealth, grains etc., has 'energy,' namely, is engaged in auspicious undertakings - know such manifestations as coming fro a fragment of My 'power'. Power (Tejas) is the capacity to overcome opposition. The meaning is, know them as arising from a fraction of My inconceivable power of subduing.
10.41 Whatever being is possessed of power, or of splendour, or of energy, know that as coming from a fragment of My power.
।।10.41।।संसारमें जोजो भी पदार्थ विभूतिमान् -- विभूतियुक्त हैं तथा श्रीमान् और ऊर्जित ( शक्तिमान् ) अर्थात् श्री -- लक्ष्मी? उससे युक्त और उत्साहयुक्त हैं उनउनको तू मुझ ईश्वरके तेजोमय अंशसे उत्पन्न हुए ही जान। अर्थात् मेरे तेजका एक अंश -- भाग ही जिनकी उत्पत्तिका कारण है? इन सब वस्तुओंको ऐसी जान।
।।10.41।। --,यद्यत् लोके विभूतिमत् विभूतियुक्तं सत्त्वं वस्तु श्रीमत् ऊर्जितमेव वा श्रीर्लक्ष्मीः तया सहितम् उत्साहोपेतं वा? तत्तदेव अवगच्छ त्वं जानीहि मम ईश्वरस्य तेजोंऽशसंभवं तेजसः अंशः एकदेशः संभवः यस्य तत् तेजोंऽशसंभवमिति अवगच्छ त्वम्।।अथवा बहुना एतेन एवमादिना किं ज्ञातेन तव अर्जुन स्यात् सावशेषेण। अशेषतः त्वम् उच्यमानम् अर्थं श्रृणु -- विष्टभ्य विशेषतः स्तम्भनं दृढं कृत्वा इदं कृत्स्नं जगत् एकांशेन एकावयवेन एकपादेन? सर्वभूतस्वरूपेण इत्येतत् तथा च मन्त्रवर्णः -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि (तै0 आर0 3।12) इति स्थितः अहम् इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येदशमोऽध्यायः।।,प
।।10.41।।एष तूद्देशतः [10।40] इत्येतच्छब्दोऽनुक्रान्तपरामर्शीति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- यद्यदिति। वक्ष्यमाणं बुद्धिस्थमेतच्छब्देन परामृश्यते। शृङ्गग्राहिकयोक्तेरपि लक्षणोक्तेर्विस्तरत्वादिति भावः। विभूतिमदादिकं मम तेजोरूपेणांशेन सह भवतीत्युक्त्या विष्ण्वादीनामपि भगवदंशयुक्तत्वं प्रतीयते। तेषामप्येतल्लक्षणोपेतत्वात्तन्निवृत्त्यर्थमाह -- विष्ण्वादीनीति। तर्हि किंविषयमेतद्वाक्यं इत्यत आह -- अन्यानि त्विति। कुत एतत् इत्यत आह -- तथा चेति। विशेषकाः गरुडानन्तविरिञ्चाः। वैन्यः पृथुः। राजन्यग्रहणेन गृहीतस्यापि पुनरुक्तिः साक्षादवतारत्वविशेषोक्तिबोधनार्थम्। कृष्णो धर्मसूनुरपि। रामो भार्गवोऽपि। अंशयुक्तत्वेनोक्त्वाकला इत्यनेन कला इव कलाः? न स्वरूपत्वेन।एते स्वांशकलाः इत्यनेन स्वरूपांशरूपा एव कलाः? न तु पूर्ववदुपचारेणेति। नन्वत्रैते वराहाद्याः परमपुरुषस्यांशा एव? कृष्णस्त्वंशी भगवान् स्वयमिति प्रतीयते? तत्कथमुक्तव्याख्यानमन्यथा तुशब्दानुपपत्तेरित्यत आह -- तुशब्द इति। ततश्चायमर्थः -- एतेवराहाद्याः पुंसः स्वांशकलाः। कोऽर्थः कृष्णः परमपुरुषो भगवान् स्वयमेवैते इति। कुत एतत् इति चेत् उदाहृतश्रुतिसंवादात्। अर्थान्तरस्य संवादाभावाच्चेत्याह -- अन्यस्त्विति। वराहादयोऽप्यंशाः कृष्णोंऽशीत्येवंरूपः। इतोऽप्ययं विशेषो न युक्त इत्याह -- अंशत्वमिति। तत्रापि कृष्णेऽपि किञ्चास्मिन् व्याख्याने कृष्णस्यैकस्यैव प्रकृतत्वात्।इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे [भाग.1।3।28] इत्युत्तरवाक्ये बहुवचनं नोपपन्नमित्याह -- मृडयन्तीति। ननु बहुवचनं पूर्वोक्तैर्वराहादिभिः सम्बध्यते? न कृष्णेनेति चेत्? नकृष्णस्तु भगवान् स्वयं इति वाक्यार्थेन व्यवहितत्वात्? व्यवहितस्यापि पुनः सन्निधानाय परामर्शाभावात्। सति गत्यन्तरेऽध्याहारायोगात्। असन्निहितेनान्वयबोधस्य क्वाप्यदर्शनादिति भावेनाह -- न हीति। क्रियेति प्रकृतापेक्षयोक्तम्। ननु सन्निधेरपि योग्यता बलवतीति चेत्? सत्यम् सन्निधिमनतिक्रम्य योग्यान्वयस्तूक्तः।
।।10.41।।यद्यद्विभूतमदिति विस्तरः। विष्ण्वादीनि ततस्वरूपाण्येव। अन्यानि तु तेजोयुक्तानि। तथा च पैङ्गिखिलेषु -- विशेषका रुद्रवैन्येन्द्रदेवा राजन्याद्या अंशयुतान्यजीवाः। कृष्णव्यासौ रामकृष्णौ च रामकपिलयज्ञप्रमुखः स्वयं सः इति।स एवैको भार्गवदाशरथिकृष्णाद्यास्त्वंशयुतान्यजीवाः इति गौतमखिलेषु।ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः। कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयः स्मृताः। एते स्वांशकलाः (चांशकलाः) पुंसः कृष्णस्तु भगवान्स्वयम् इति भागवते [1।3।2728] ऋष्यादीनंशयुतत्वेनोक्त्वा वराहादीन्स्वरूपत्वेनाह। तुशब्द एवार्थे। अन्यस्तु विशेषो न कुत्राप्यवगतः। अंशत्वं तत्राप्यवगतम्उद्बबर्हात्मनः केशौ इति। मृडयन्तीति च बहुवचनं चायुक्तम्। न ह्यन्तराऽन्यदुक्त्वा पूर्वमपरामृश्य तत्क्रियोच्यमाना दृष्टा कुत्रचित्।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।10.41।।
যদ্যদ্বিভূতিমত্সত্ত্বং শ্রীমদূর্জিতমেব বা৷ তত্তদেবাবগচ্ছ ত্বং মম তেজোংশসংভবম্৷৷10.41৷৷
যদ্যদ্বিভূতিমত্সত্ত্বং শ্রীমদূর্জিতমেব বা৷ তত্তদেবাবগচ্ছ ত্বং মম তেজোংশসংভবম্৷৷10.41৷৷
યદ્યદ્વિભૂતિમત્સત્ત્વં શ્રીમદૂર્જિતમેવ વા। તત્તદેવાવગચ્છ ત્વં મમ તેજોંશસંભવમ્।।10.41।।
ਯਦ੍ਯਦ੍ਵਿਭੂਤਿਮਤ੍ਸਤ੍ਤ੍ਵਂ ਸ਼੍ਰੀਮਦੂਰ੍ਜਿਤਮੇਵ ਵਾ। ਤਤ੍ਤਦੇਵਾਵਗਚ੍ਛ ਤ੍ਵਂ ਮਮ ਤੇਜੋਂਸ਼ਸਂਭਵਮ੍।।10.41।।
ಯದ್ಯದ್ವಿಭೂತಿಮತ್ಸತ್ತ್ವಂ ಶ್ರೀಮದೂರ್ಜಿತಮೇವ ವಾ. ತತ್ತದೇವಾವಗಚ್ಛ ತ್ವಂ ಮಮ ತೇಜೋಂಶಸಂಭವಮ್৷৷10.41৷৷
യദ്യദ്വിഭൂതിമത്സത്ത്വം ശ്രീമദൂര്ജിതമേവ വാ. തത്തദേവാവഗച്ഛ ത്വം മമ തേജോംശസംഭവമ്৷৷10.41৷৷
ଯଦ୍ଯଦ୍ବିଭୂତିମତ୍ସତ୍ତ୍ବଂ ଶ୍ରୀମଦୂର୍ଜିତମେବ ବା| ତତ୍ତଦେବାବଗଚ୍ଛ ତ୍ବଂ ମମ ତେଜୋଂଶସଂଭବମ୍||10.41||
yadyadvibhūtimatsattvaṅ śrīmadūrjitamēva vā. tattadēvāvagaccha tvaṅ mama tējōṅ.śasaṅbhavam৷৷10.41৷৷
யத்யத்விபூதிமத்ஸத்த்வஂ ஷ்ரீமதூர்ஜிதமேவ வா. தத்ததேவாவகச்ச த்வஂ மம தேஜோஂஷஸஂபவம்৷৷10.41৷৷
యద్యద్విభూతిమత్సత్త్వం శ్రీమదూర్జితమేవ వా. తత్తదేవావగచ్ఛ త్వం మమ తేజోంశసంభవమ్৷৷10.41৷৷
10.42
10
42
।।10.42।। अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है?  मैं अपने किसी एक अंशसे  सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
।।10.42।। अथवा हे अर्जुन ! बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है? मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।।
।।10.42।। यद्यपि मित्रता और स्नेह के उत्स्फूर्त भावावेश में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपनी विभूति (समष्टि रूप) और योग ( व्यष्टि रूप) को वर्णन करने का वचन दिया था? परन्तु एकएक उदाहरण देते समय उन्होंने अपने को इस कार्य के लिए सर्वथा असमर्थ पाया। अनन्त तत्त्व के अनन्त विस्तार का वर्णन कैसे संभव हो सकता है असमर्थता के कारण उन्हें विषाद है किन्तु पुन अपने शिष्य के प्रति अत्यन्त प्रेम के कारण? भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण अध्याय का सार इस अन्तिम श्लोक में बताते हैं।इस बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है वास्तव मे देखा जाय? तो अनन्त तत्त्व को प्रत्येक परिच्छिन्न रूप में दर्शाने का प्रयत्न व्यर्थ ही है? क्योंकि वह असंभव है। मिट्टी को समस्त विद्यमान घटों में तथा जल को सम्पूर्ण तरंगों में एकएक करके दिखाना असंभव है। केवल इतना ही किया जा सकता है कि कुछ उदाहरणों के द्वारा विद्यार्थियों को तत्त्व का दर्शन करने की कला को सिखाया जाय। गणित के अध्यापन में इसी पद्धति का उपयोग किया जाता है।मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ वेदान्त में जगत् शब्द में वे समस्त अनुभव समाविष्ट है? जो हम अपनी इन्द्रियों? मन और बुद्धि के द्वारा प्राप्त करते हैं। संक्षेप में जिन वस्तुओं को हम दृश्य रूप में जानते हैं? वे सभी जगत् शब्द की परिभाषा में आते हैं। इसमें दृश्य पदार्थ? भावनाएं? विचार और उनको ग्रहण करने वाली इन्द्रियादि उपाधियाँ भी सम्मिलित हैं।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण आत्मस्वरूप की दृष्टि से कहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् उनके एक अंश मात्र में धारण किया हुआ है। इस कथन का एक और दार्शनिक अभिप्राय यह है कि सत्य का अधिकांश भाग इस जगत् तथा उसके विकारों से सर्वथा निर्लिप्त है यद्यपि सर्वत्र समान रूप से व्याप्त अखण्ड सत्य में इस प्रकार अंशों का भेद नहीं किया जा सकता? तथापि लौकिक परिच्छिन्न भाषा के शब्दों द्वारा पारमार्थिक सत्य को निर्देशित करने की यह एक औपनिषदीय पद्धति है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे,श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का विभूतियोग नामक दंसवा अध्याय समाप्त होता है।
।।10.42।। व्याख्या --'अथवा'--यह अव्यय-पद देकर भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि तुमने जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने उत्तर दिया ही है; अब मैं अपनी तरफसे तेरे लिये एक विशेष महत्त्वकी सार बात बताता हूँ।
।।10.19 -- 10.42।।हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन? निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति? तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो -- 41) इत्यनेनाभिधाय? पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन -- विष्टभ्याहमिदं -- एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो -- 42) इति। उक्तं हि -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।इति -- RV? X? 90? 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं (S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ? N -- विचित्ररूपै -- ) सकलस्य (S?N सकलमस्य) विषयतां यातीति।
।।10.42।।बहुना ऐतेन उच्यमानेन ज्ञानेन किं प्रयोजनम् इदं चिदचिदात्मकं कृत्स्नं जगत् कार्यावस्थं कारणावस्थं स्थूलं सूक्ष्मं च स्वरूपसद्भावे स्थितौ प्रवृत्तिभेदे च यथा मत्संकल्पं न अतिवर्तेत तथा मम महिम्नः अयुतायुतांशेन विष्टभ्य अहम् अवस्थितः। यथा उक्तं भगवता पराशरेण -- यस्यायुतायुतांशांशे विश्वशक्तिरियं स्थिता। (वि0 पु0 1।9।53) इति।
।।10.42।।सर्वेषां सुगमत्वायावयवशो विभूतिमुक्त्वा भक्तानुग्रहार्थं साकल्येन तामाह -- अथवेति। पक्षान्तरपरिग्रहार्थमथवेत्युक्तम्। बहुधा विस्तीर्णेनैतेन संज्ञातेन सावशेषेण तव शक्तस्य न किंचित्फलं स्यादित्याह -- बहुनेति। नहि विभूतिषूक्तासु ज्ञातासु सर्वं ज्ञायते कासांचिदेव विभूतीनामुक्तत्वादित्यर्थः। तर्हि केनोपदेशेनाल्पाक्षरेण सर्वोऽर्थो ज्ञातुं शक्यते तत्राह -- अशेषत इति। विशेषतः स्तंभनं विधरणं सर्वभूतस्वरूपेण सर्वप्रपञ्चोपादानशक्त्युपाधिकेनैकेन पादेन कृत्स्नं जगद्विधृत्य स्थितोऽस्मीति संबन्धः। तत्रैव श्रुतिं प्रमाणयति -- तथाचेति। तदनेन भगवतो नानाविधा विभूतीर्ध्येयत्वेन ज्ञेयत्वेन चोपदिश्यन्ते। सर्वप्रपञ्चात्मकं ध्येयं रूपं दर्शयित्वात्रिपादस्यामृतं दिवि इति प्रपञ्चाधिकं निरुपाधिकं तत्त्वमुपदिशता परिपूर्णसच्चिदानन्दैकतानस्तत्पदलक्ष्योऽर्थो निर्धारितः।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ दशमोऽध्यायः।।10।।
।।10.42।।एवं विभूतिप्रक्रियां योगे निपात्योसंहरति -- अथवेति। अथवा बहुनैतेनोच्यमानेनेह ज्ञातेन विशेषेण तव किं अहं पुरुषोत्तमोऽधिदेव एकांशेनाक्षरमहिम्नाऽध्यात्मरूपेण कृत्स्नमिदं चेतनाचेतनात्मकं जगदधिभूतं कार्यशरीरावस्थं सूक्ष्मं च विष्टभ्य विधृत्य व्याप्य नियम्य च स्थितोऽस्मीति योगं ममैश्वर्यं जानीहि। एतेन स्वस्यैकांशेन जगद्विष्टम्भकथनात् कृत्स्नप्रसक्तिरपि वारिता। तेन माहात्म्यं सूचितम्।
।।10.42।।एवमवयवशो विभूतिमुक्त्वा साकल्येन तामाह -- अथवेति पक्षान्तरे। बहुनैतेन सावशेषेण ज्ञातेन किं,तव स्यात् हे अर्जुन्? इदं कृत्स्नं सर्वं जगदेकांशेन एकदेशमात्रेण विष्टभ्य विधृत्य व्याप्य वाहमेव स्थितो न,मद्व्यतिरिक्तं किंचिदस्तिपादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि इति श्रुतेः। तस्मात्किमनेन परिच्छिन्नदर्शनेन सर्वत्र मद्दृष्टिमेव कुर्वित्यभिप्रायः।कुर्वन्ति केऽपि कृतिनः क्वचिदप्यनन्ते स्वान्तं विधाय विषयान्तरशान्तिमेव।त्वत्पादपद्मविगलन्मकरन्दबिन्दुमास्वाद्य माद्यति मुहुर्मधुभिन्मनो मे।।
।।10.42।। अथवा किमनेन परिच्छिन्नज्ञानेन सर्वत्र समदृष्टिमेव कुर्वित्याह -- अथवेति। बहुना पृथग्ज्ञातेन किं तव कार्यं। यदिदं सर्वं जगदेकांशेनैकदेशमात्रेण विष्टभ्य धृत्वा व्याप्येति वाहमेव स्थितः न मद्व्यतिरिक्तं किंचिदस्तिपादोऽस्य विश्वा भूतानि इति श्रुतेः।
।।10.42।।प्राधान्यतः [10।19] इत्युपक्रान्तमुपसंहृतम् अथ सङ्क्षेपादपि सङ्क्षेपेण प्रधानाप्रधानसमस्तविभूतिसंग्रहमाहअथवा इति श्लोकेन।उच्यमानेनेति एतच्छब्द उक्त्यवसानराहित्यपर इति भावः। विभूतिपर्यवसानज्ञानरूपं प्रयोजनं न सिध्येदित्यभिप्रायेणाह -- किं प्रयोजनमिति। इदमित्यनेन तत्तत्प्रमाणप्रतिपन्नवैचित्र्यं सूचितमित्यभिप्रायेणचिदचिदात्मकमित्युक्तम्।कार्येत्यादिना कृत्स्नशब्दाभिप्रेतविवरणम्।स्थूलं सूक्ष्मं चेति कार्यकारणावस्थयोर्यथाक्रममन्वयः।स्वरूपेत्यादिना विष्टम्भनप्रयोजनकथनम्। अनित्येषु स्वरूपसद्भाव उत्पत्तिः नित्येषु त्वसद्व्यतिरेकः। नित्यानां स्वरूपमपि हि भगवतो नित्येच्छासिद्धम्। इदं च प्रागेव प्रपञ्चितम्। अत्र स्वरूपैकदेशावतारादिरूपांशव्युदासाय नियमनप्रकरणबलाच्चमम महिम्न इत्युक्तम्। अत्र महिमशब्देन प्रकृतं नियमनसामर्थ्यमेव विवक्षितम्। अत एवतेजोंशसम्भवम् इत्यनेनैकार्थ्यम्। एकशब्दोऽत्रातिक्षुद्रत्वपर इत्यभिप्रायेणोक्तंअयुतायुतांशेनेति। स्तम्भनमत्र स्वैरान्निवारणम् स्ववशीकरणरूपमधिष्ठानं वा।एकांशेन इत्यत्र स्वोक्तमर्थं संवादयतियथोक्तमिति। विश्वशक्तिः विश्वमेव शक्तिः? तत्तत्कार्योपयुक्तविशेषभूतं विश्वमित्यर्थः।तेजोंशसम्भवम् [10।41] इत्यनन्तरं अभिधानात्एकांशेन इत्यस्याप्यंशशब्दस्य तद्विषयत्वमेव न्याय्यमिति भावः।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु
।।10.42।।एवं विभूत्यादिमत्सु भगवदंशज्ञानेनान्यत्र हेयत्वादिबुद्धौ सर्वस्य भगवदात्मकत्वं भज्येतेत्यन्यं प्रकारमाह -- अथवेति। अथवा पक्षान्तरेण। हे अर्जुन तव बहुना नानाविधेन ज्ञातेन किं कार्यम् न किमपीत्यर्थः। यत एतेन नानाज्ञानेन न किञ्चित् कार्यम्? अतः कार्योपयोगिस्वरूपमाह -- इदं परिदृश्यमानं जगत् कृत्स्नं सम्पूर्णं एकांशेन क्रीडात्मकेन विष्टभ्य धृत्वा स्थितोऽस्म्यहमेवेत्यर्थः। अनेन सर्वं मत्क्रीडारूपमेव चिन्तयेति भावो बोधितः।प्रतीयते जगन्नानाविधं स्वाज्ञानभावतः।विभूतिरूपं श्रीकृष्णस्तन्नाशायाऽब्रवीन्नरम्।।10।।इति श्रीभगवद्गीतामृततरङ्गिण्यां दशमोऽध्यायः।।10।।
।।10.42।।उत्तमाधिकारिणमुद्दिश्याह -- अथवेति। मूढान्प्रत्येतदुक्तं? त्वं तु एतावदेव विद्धि। एकांशेन एकदेशेनाहमिदं विष्टभ्य व्याप्य स्थितोऽस्मि।पादोऽस्य विश्वा भूतानि इति श्रुतेः। तस्मात्परिच्छिन्नं दर्शनं त्यक्त्वा सर्वत्र ब्रह्मबुद्धिमेव कुर्वित्याशयः।
।।10.42।।एवं संक्षेपविस्तराभ्यां विभूतीरुक्त्वाऽशक्तं प्रत्याह -- अथवेति। एतेन बहुन ज्ञातेन तव किं चित्तशोधकस्यैतज्ज्ञानस्य शुद्धचित्ते शक्ते त्वयि प्रयोजनाभावादिति ध्वनयन्त्संबोधयति -- हे अर्जुनेति। तर्हि मया किं चिन्तनीयमित्यपेक्षायामाह। इदं सर्व जगत् एकांशेनावष्टभ्य स्तम्भनं कृत्वाहं स्थितः। तथाच श्रुतिःपादोऽस्य विश्वा भूतानीति। अथवाऽनेन श्लोकेनार्जनपृष्टो योग उक्तः। एवं दशमाध्यायेन ज्ञेयं ज्ञानोपायभूतं योगविभूतिमत् ध्येयज्ञानं प्रदर्शयता तत्पदार्थो निरुपितः।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचित्तायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां दशमोऽध्यायः।।10।।
10.42 अथवा or? बहुना (by) many? एतेन (by) this? किम् what? ज्ञातेन known? तव to thee? अर्जुन O Arjuna? विष्टभ्य supporting? अहम् I? इदम् this? कृत्स्नम् all? एकांशेन by one part? स्थितः exist? जगत् the world.Commentary The Lord concludes Having established or pervaded this whole world with one fragment of Myself? I remain.This verse is based on the declaration in the Purusha Sukta (RigVeda10.90.3) that One arter of Him is all the cosmos the three arters are the divine transcendent Reality.I exist supporting this whole world by one part? by one limit? or by one foot. One part of Myself constitutes all beings.All beings form His foot (Taittiriya Aranyaka 3.12). The whole world is one Pada or foot of the Lord. Amsa (part) or Pada (foot) is mere Kalpana or imagination or account of our own ignorance,or limiting adjunct. In reality Brahman is without any such parts or limbs and is formless.Arjuna has now a knowledge of the glories of the Lord. He is fit to behold the magnificent cosmic form of the Lord. Lord Krishna prepares Arjuna for this grand vision by giving him a description of His glories.Arjuna says O Lord? I now realise that the whole world is filled by Thee. I now wish to behold the whole universe in Thee with my eye of intuition.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the tenth discourse entitledThe Yoga of the Divine Glories.,
10.42 But, of what avail to thee is the knowledge of all these details, O Arjuna? I exist, supporting this whole world by one part of Myself.
10.42 But what is the use of all these details to thee? O Arjuna! I sustain this universe with only small part of Myself."
10.42 Or, on the other hand, what is the need of your knowing this extensively, O Arjuna? I remain sustaning this whole creation in a special way with a part (of Myself).
10.42 Athava, or, on the other hand; kim, what is the need; of tava jnatena, your knowing; etena bahuna, this extensively-but imcompletely-in the above manner, O Arjuna? You listen to this subject that is going to be stated in its fullness: Aham, I; sthitah, remain; vistabhya, sustaining, supporting, holding firmly, in a special way; idam, this; krtsnam, whole; jagat, creation; ekamsena, by a part, by a foot [The Universe is called a foot of His by virtue of His having the limiting adjunct of being its efficient and material cause.] (of Myself), i.e. as the Self of all things [As the material and the efficient cause of all things]. The Vedic text, 'All beings form a foot of His' (Rg., Pu. Su. 10.90.3; Tai. Ar. 3.12.3) support this. [A Form constituted by the whole of creation has been presented in this chapter for meditation. Thery the unalified transcendental Reality, implied by the word tat (in tattva-masi) and referred to by the latter portion of the Commentator's otation (viz tripadasyamrtam divi: The immortal three-footed One is established in His own effulgence), becomes established.]
10.42. Or, O Arjuna ! Why this detailed statement ? I remain, pervading this entire universe with a single fraction [of Myself].
10.19-42 Hanta te etc. upto jagat sthitah. I am the Soul etc. (verse 20) : By this [the Bhagavat] wards off the exclusion [of any being as different form Him]. Otherwise the sentences like 'Of the immovable [I am] the the Himalayas' (verse 25) etc., would amount to the exclusive statement that the Himalayan range is the Bhagavat and not any other one. In that case, the indiscriminateness of the Brahman is not established and hence the realisation of the Brahman would be a partial (or conditioned) one. For, the [present] text of exposition is intended for that seeker whose mind cannot contemplate on the all-pervasiveness [of the Brahman], but who [at the same time] is desirous of realising that [all-pervasiveness]. Hence, while concluding, [the Bhagavat] teaches the theory of duality-cumunity by saying 'whatsoever being exists with the manifesting power' etc., and then concludes the topic with the theory of absolute unity, as 'Or what is the use of this elaboration;৷৷৷৷.I remain pervading this [universe] by a single fraction [of Myself] This has been declared indeed [in the scriptures] as : 'All beings constitute [only] His one-fourth; His [other] immortal three-forths are in the heaven.' (Rgveda, X, xc, 3). Thus, all this and the prime cause of creatures, are nothing but the Bhagavat (Absolute). And hence, He Himself becomes the object of knowledge of all, but being comprehended with the different strange alities.
10.42 What is the use to you of this detailed knowledge taught by Me? I sustain this universe with an infinitesimal fraction of My power - this universe consisting of sentient and non-sentient entities, whether in effect or causal condition, whether gross or subtle - in such a manner that it does not violate My will in preserving its proper form, existence and various activities. As said by Bhagavan Parasara: 'On an infinitesimal fraction of this energy, this universe rests' (V. P., 1.9.53).
10.42 But of what use to you is all this extensive knowledge O Arjuna? I stand sustaining this whole universe with a fragment of Mine (of My power).
।।10.42।।अथवा हे अर्जुन इस उपर्युक्त प्रकारसे वर्णन किये हुए अधूरे विभूतिविस्तारके जाननेसे तेरा क्या ( प्रयोजन सिद्ध ) होगा? ( तू तो बस? ) यह सम्पूर्णतासे कहा जानेवाला अभिप्राय ही सुन ले -- मैं एक अंशसे अर्थात् सर्व भूतोंका आत्मरूप जो मेरा एक अवयव है उससे? इस सारे जगत्को विशेष रूपसे दृढ़तापूर्वक धारण करके स्थित हो रहा हूँ। ऐसा ही वेदमन्त्र भी कहते हैं कि समस्त भूत इस परमेश्वरका एक पाद है। इत्यादि।
।।10.42।। --,अथवा बहुना एतेन एवमादिना किं ज्ञातेन तव अर्जुन स्यात् सावशेषेण। अशेषतः त्वम् उच्यमानम् अर्थं श्रृणु -- विष्टभ्य विशेषतः स्तम्भनं दृढं कृत्वा इदं कृत्स्नं जगत् एकांशेन एकावयवेन एकपादेन? सर्वभूतस्वरूपेण इत्येतत् तथा च मन्त्रवर्णः -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि (तै0 आर0 3।12) इति स्थितः अहम् इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येदशमोऽध्यायः।।,
।।10.42।।अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन इति पूर्वोक्तव्यस्तज्ञानाक्षेपात् तस्य निष्फलत्वमिति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- किमिति। किमित्ययमाक्षेपो वक्ष्यमाणसर्वव्याप्तरूपज्ञानस्योक्तरविप्रभृतिपरिच्छिन्नवस्तुस्वरूपज्ञानापेक्षया प्राधान्यज्ञापनार्थमेव? न तूक्तविशेषज्ञानस्य निष्फलत्वज्ञापनार्थम्। निष्फलत्वे तदुक्तिवैयर्थ्यापत्तिरित्यर्थः। ननु व्याप्तिज्ञानेनैव मुक्तिसम्भवाद्विशेषज्ञानं व्यर्थमेव किं न स्यात् इत्यत आह -- अज्ञात्वेति।प्रियशिरस्त्वाद्यप्राप्तिः इत्यादिकं ध्यानापेक्षयोक्तं ज्ञानापेक्षया तु श्रुतिरित्यविरोधः? अथवा विशिष्टाधिकारिविषयेयं श्रुतिः। ननु व्याप्तज्ञानयोग्यानां विशेषज्ञानं निष्फलमेव?अन्यान्प्रति तु तदुक्तिः इति व्यवस्थाऽस्तु? तवेति विशेषणसामर्थ्यादित्यत आह -- त्वं त्विति। अतो न तव विशेषज्ञानमात्रेणालमिति ज्ञापयितुमिति शेषः। विशेषणस्यान्यथासिद्धत्वान्नोक्तव्यवस्थाकल्पकत्वमिति भावः। ननु किं ज्ञातेन न किमपीति शब्दादुक्तस्य नैष्फल्ये,प्रतीते तदुक्तिवैयर्थ्यप्रसङ्गात् बाधकान्निष्फलाल्पफलयोर्महाफलत्वाभावसादृश्याद्गौण्या वृत्त्योक्तस्याप्राधान्यप्रतीतावर्थाद्वक्ष्यमाणस्य प्राधान्यप्रतीतिरित्युक्तम्? तत्र गौणप्रयोगे प्रयोजनं वाच्यमिति चेत्? न रूढोपचारत्वादिति भावेनाह -- अन्येति। स्तुतिः प्रशस्तताज्ञापनम्। अर्थः प्रयोजनम्। स्यादिदं व्याख्यानं यदि परिच्छिन्नज्ञानाद्व्याप्तिज्ञानस्य प्राधान्यं प्रमितं स्यात्। तदेव कुतः इत्यत आह -- प्राधान्यं चेति।यो मां इति विशिष्टफलकथनात्। न्यायसिद्धोऽप्यर्थो वाक्यसम्मत्या दृढो भवतीत्येतदुक्तम्।
।।10.42।।किमिति वक्ष्यमाणप्राधान्यज्ञापनार्थं? न तूक्तनिष्फलत्वज्ञानाय। तथा सति नोच्येत। अज्ञात्वैनं सविशेषयुक्तं देवं वरं को विमुच्येत बन्धात् इत्यृग्वेदखिलेषु। त्वं तु बहुफलप्राप्तियोग्य इति तवेति विशेषणम्। अन्यस्तुत्यर्थत्वेन प्रसिद्धश्चैवात्र किंशब्दः।रागद्वेषौ यदि स्यातां तपसा किं प्रयोजनम्। तावुभौ यदि न स्यातां तपसा किं प्रयोजनम् इत्यादौ। प्राधान्यं च सिद्धमेकत्र दर्शनात्सर्वत्र भगवद्दर्शनस्य।यो मां पश्यति सर्वत्र [6।30] इत्यादौ।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन। विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।10.42।।
অথবা বহুনৈতেন কিং জ্ঞাতেন তবার্জুন৷ বিষ্টভ্যাহমিদং কৃত্স্নমেকাংশেন স্থিতো জগত্৷৷10.42৷৷
অথবা বহুনৈতেন কিং জ্ঞাতেন তবার্জুন৷ বিষ্টভ্যাহমিদং কৃত্স্নমেকাংশেন স্থিতো জগত্৷৷10.42৷৷
અથવા બહુનૈતેન કિં જ્ઞાતેન તવાર્જુન। વિષ્ટભ્યાહમિદં કૃત્સ્નમેકાંશેન સ્થિતો જગત્।।10.42।।
ਅਥਵਾ ਬਹੁਨੈਤੇਨ ਕਿਂ ਜ੍ਞਾਤੇਨ ਤਵਾਰ੍ਜੁਨ। ਵਿਸ਼੍ਟਭ੍ਯਾਹਮਿਦਂ ਕਰਿਤ੍ਸ੍ਨਮੇਕਾਂਸ਼ੇਨ ਸ੍ਥਿਤੋ ਜਗਤ੍।।10.42।।
ಅಥವಾ ಬಹುನೈತೇನ ಕಿಂ ಜ್ಞಾತೇನ ತವಾರ್ಜುನ. ವಿಷ್ಟಭ್ಯಾಹಮಿದಂ ಕೃತ್ಸ್ನಮೇಕಾಂಶೇನ ಸ್ಥಿತೋ ಜಗತ್৷৷10.42৷৷
അഥവാ ബഹുനൈതേന കിം ജ്ഞാതേന തവാര്ജുന. വിഷ്ടഭ്യാഹമിദം കൃത്സ്നമേകാംശേന സ്ഥിതോ ജഗത്৷৷10.42৷৷
ଅଥବା ବହୁନୈତେନ କିଂ ଜ୍ଞାତେନ ତବାର୍ଜୁନ| ବିଷ୍ଟଭ୍ଯାହମିଦଂ କୃତ୍ସ୍ନମେକାଂଶେନ ସ୍ଥିତୋ ଜଗତ୍||10.42||
athavā bahunaitēna kiṅ jñātēna tavārjuna. viṣṭabhyāhamidaṅ kṛtsnamēkāṅśēna sthitō jagat৷৷10.42৷৷
அதவா பஹுநைதேந கிஂ ஜ்ஞாதேந தவார்ஜுந. விஷ்டப்யாஹமிதஂ கரித்ஸ்நமேகாஂஷேந ஸ்திதோ ஜகத்৷৷10.42৷৷
అథవా బహునైతేన కిం జ్ఞాతేన తవార్జున. విష్టభ్యాహమిదం కృత్స్నమేకాంశేన స్థితో జగత్৷৷10.42৷৷
11.1
11
1
।।11.1।। अर्जुन बोले -- केवल मेरेपर कृपा करनेके लिये ही आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मतत्तव जाननेका वचन कहा, उससे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है।
।।11.1।। अर्जुन ने कहा -- मुझ पर अनुग्रह करने के लिए जो परम गोपनीय, अध्यात्मविषयक वचन (उपदेश) आपके द्वारा कहा गया, उससे मेरा मोह दूर हो गया है।।
।।11.1।। पूर्व अध्याय में वर्णित भगवान् की विभूतियों को जानते से हुए अपने परम सन्तोष को? अर्जुन इस प्रारम्भिक श्लोक में व्यक्त करता है। अपने शिष्य पर केवल अनुग्रह करने और उसे मोहदशा से बाहर निकालने के लिए भगवान् ने जो इतना अधिक परिश्रम किया? अर्जुन उसकी भी प्रशंसा करता है। अनेकता में एकता का दर्शन करने का अर्थ संसार के दुख से सुरक्षित रहने के लिए रोग निरोधक टीका लगवाना है। अर्जुन की इस स्वीकारोक्ति से कि? मेरा मोह दूर हो गया है? व्यासजी? एक उत्तम विद्यार्थी पर पड़ने वाले पूर्व अध्याय के प्रभाव को बड़ी सुन्दरता से हमारे ध्यान में लाते हैं।मोह निवृत्ति? सत्य के ज्ञान का एक पक्ष है? न कि वह अपने आप में ज्ञान की प्राप्ति। अर्जुन अज्ञान के कारण नामरूपमय इस सृष्टि में अपना अलग और स्वतन्त्र अस्तित्व अनुभव कर रहा था। वह अब इस भेद के मोह से मुक्त हो चुका था। उसे वह दृष्टि मिल गयी? जिसके द्वारा वह इस भेदात्मक दृश्य जगत् में ही व्याप्त एक सत्ता को देख पाने में समर्थ हो जाता है। परन्तु फिर भी उसने अनेकता में एकता का प्रात्यक्षिक दर्शन नहीं किया था। यद्यपि सिद्धान्तत उसे इस एकत्व का ज्ञान स्वीकार्य था।राजपुत्र अर्जुन यह भलीभांति जानता है कि श्रीकृष्ण ने विभूतियोग का इतना विस्तृत वर्णन केवल उसके ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही किया था। यह हमें इस बात का स्मरण कराता है कि किस प्रकार भगवान् अपने भक्तों के हृदय में स्थित उनके अज्ञानजनित अंधकार को नष्ट कर देते हैं।ये अध्यात्मविषयक वचन क्या थे अर्जुन कहता है
।।11.1।। व्याख्या--'मदनुग्रहाय'--मेरा भजन करनेवालोंपर कृपा करके मैं स्वयं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारका नाश कर देता हूँ (गीता 10। 11) -- यह बात भगवान्ने केवल कृपा-परवश होकर कही। इस बातका अर्जुनपर बड़ा प्रभाव प़ड़ा, जिससे अर्जुन भगवान्की स्तुति करने लगे (10। 12 -- 15)। ऐसी स्तुति उन्होंने पहले गीतामें कहीं नहीं की। उसीका लक्ष्य करके अर्जुन यहाँ कहते हैं कि केवल मेरेपर कृपा करनेके लिये ही आपने ऐसी बात कही है (टिप्पणी प0 573.2)।
null
।।11.1।।अर्जुन उवाच -- देहात्माभिमानरूपमोहेन मोहितस्य मम अनुग्रहैकप्रयोजनाय परमं गुह्यं परमं रहस्यम् अध्यात्मसंज्ञितम् आत्मनि वक्तव्यं वचःन त्वेवाहं जातु नासम् (गीता 2।12) इत्यादितस्माद्योगी भवार्जुन (गीता 6।46) इत्येतदन्तं यत् त्वया उक्तम्? तेन अयं मम आत्मविषयो मोहः सर्वो विगतः दूरतो निरस्तः।
।।11.1।।तेन तेनात्मना भगवदनुसंधानार्थमुक्ता विभूतीरनुवदति -- भगवत इति। परस्य सोपाधिकं निरुपाधिकं च चिद्रूपं ध्येयत्वेन ज्ञेयत्वेन चोक्तमित्यर्थः। सोपाधिकमैश्वरं रूपमशेषजगदात्मकं विश्वरूपाख्यमधिकृत्याध्यायन्तरमवतारयन्ननन्तरप्रश्नोपयोगित्वेन वृत्तं कीर्तयति -- तत्र चेति। यदेतदशेषप्रपञ्चात्मकमखिलस्यैतस्य जगतः कारणं सर्वज्ञं सर्वैश्वर्यवद्रूपमुक्तं तदिदं श्रुत्वा तस्य साक्षात्कारं यियाचिषुरादौ पृष्टवानित्याह -- श्रुत्वेति। मयि करुणां निमित्तीकृत्योपकारोऽनुग्रहस्तदर्थमिति वचसो विशेषणम्। निरतिशयत्वं परमपुरुषार्थसाधनत्वम्। अशोच्यानित्यादित्वंपदार्थप्रधानं वाक्यम्। मोहस्यायमित्यात्मसाक्षिकत्वं दर्शयति। अविवेकबुद्धिरज्ञानविपर्यासात्मिका।
।।11.1।।अथातोऽष्टभिरध्यायैर्गुणैराश्रयधर्मतः। पुष्ट्यात्मना भगवता मोचितः स इतीर्यते।।1।।स्वनिगमवचसा महिमज्ञाने भक्त्या स्वधर्ममर्यादा। कुण्डलावृतमुखभगवत्समाश्रयेणैव धर्मतः पुष्टिः।।2।।मर्यादावचने पुष्टिः स्वकार्यार्थप्रदर्शने। इति मर्यादया मिश्रं पुष्टिरूपं प्रदर्श्यते।।3।।पूर्वाध्यायान्ते परमासाधारणयोगः विभूतेरक्षरैश्वर्यस्य स्वस्य विष्टभ्याहमिति श्लोके योगाख्यमैश्वर्यमुदीरितं तद्विशिष्टरूपं दिदृक्षुः पूर्वोक्तमभिनन्दयन्नर्जुन उवाच मदनुग्रहायेति चतुर्भिः। गुह्यमध्यात्मसंज्ञितंअहं सर्वस्य प्रभवः [10।8] इति स्वमाहात्म्यनिरूपकं मर्यादारूपं यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मम गतो मोहः ऐश्वर्याज्ञानरूपः। माहात्म्यनिरूपकं वाक्यमेव ते श्रुतं? न तु तथा स्वरूपं दृष्टं तवेति भावः।
।।11.1।।न नेत्राकृतिर्यत्र यस्या न चान्तो न चादिश्च तैरन्यता नो विभूतेः।ममाभेदता येन दत्ताऽव्यवाया गुरुं काशिराजं भजेऽजं स्वराजम्।।पूर्वाध्याये नानाविभूतीरुक्त्वाविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् इति विश्वात्मकं पारमेश्वरं रूपं भगवतान्तेऽभिहितं श्रुत्वा परमोत्कण्ठितस्तत्साक्षात्कर्तुमिच्छन्पूर्वोक्तमभिनन्दन्नर्जुन उवाच -- मदनुग्रहायेति। ममानुग्रहाय शोकनिवृत्त्युपकाराय परमं निरतिशयपुरुषार्थपर्यवसायि गुह्यं गोप्यं यस्मैकस्मैचिद्वक्तुमनर्हमपि अध्यात्मसंज्ञितं अध्यात्ममिति शब्दितमात्मानात्मविवेकविषयमशोच्यानन्वशोचस्त्वमित्यादिषष्ठाध्यायपर्यन्तं त्वंपदार्थप्रधानं यत्त्वया परमकारुणिकेन सर्वज्ञेनोक्तं वचो वाक्यं तेन वाक्येनाहमेषां हन्ता मयैते हन्यन्त इत्यादिविविधविपर्यासलक्षणो मोहोऽयमनुभवसाक्षिको विगतो विनष्टो मम। तत्रासकृदात्मनः सर्वविक्रियाशून्यत्वोक्तेः।
।।11.1।। विभूतिवैभवं प्रोच्य कृपया परया हरिः। दिदृक्षोरर्जुनस्याथ विश्वरूपमदर्शयत्।।1।।पूर्वाध्यायान्तेविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् इति विश्वात्मकं पारमेश्वरं रूपमुपक्षिप्तं तद्दिदृक्षुः पूर्वोक्तमभिनन्दन्नर्जुन उवाच -- मदनुग्रहायेति चतुर्भिः। ममानुग्रहाय शोकनिवृत्तये परमं परमार्थनिष्ठं गुह्यं गोप्यमप्यध्यात्ममितिसंज्ञितमात्मानात्मविवेकविषयं यत्त्वयोक्तं वचःअशोच्यानन्वशोचस्त्वम् इत्यादि षष्ठाध्यायपर्यन्तं यद्वाक्यं तेन ममायं मोहोऽहं हन्ता एते हन्यन्त इत्यादिलक्षणो भ्रमो विगतो विनष्टः? आत्मनः कर्तृत्वाद्यभावोक्तेः।
।।11.1।।विश्वरूपाध्यायभवतारयितुं विभूत्यध्यायार्थं सङ्गृह्याह -- एवमिति।भक्तियोगनिष्पत्तये तद्विवृद्धये चेति प्रयोजनकथनेनानन्तरमर्जुनस्य दिदृक्षा भक्तिविवृद्ध्यधीनेति सूचितम्।सकलेतरविलक्षणनेति सकलेतरवैलक्षण्यरूपेणेत्यर्थः यद्वा सकलेतरस्वभावविलक्षणेनेत्यर्थः। एतेनानवधिकातिशयत्वमुक्तं भवति।अनन्यसाधारणं स्वाभाविकमनवधिकातिशयम् इति पूर्वोक्तस्यात्र प्रातिलोम्येन प्रत्यभिज्ञानात्सकलेतरविलक्षणेन भगवदसाधारणेनेत्यनयोर्यथेष्टं हेतुसाध्यभावेन अन्वयात्समाधिकराहित्यतात्पर्याच्च नानर्थक्यम्। श्रुतार्थनिश्चयाधीनभक्तिविवृद्धिफलभूतदिदृक्षामूलमुत्तराध्यायोपोद्धातरूपमर्जुनवाक्यमवतारयति -- तमेतमिति। तं सर्वातिशायिनम्? एतं उक्तप्रकारम्।भगवत्सकाशादित्यनेन निश्चयहेतुभूतमाप्तत्वं सूचितम् नह्याचार्यान्तरसकाशादुपश्रवणे दिदृक्षायां सत्यामपि दर्शनप्रार्थनं घटत इति च भावः।एवमेतत् इत्यादिश्लोकार्थाभिप्रायेणाह -- एवमेवेति निश्चित्येति। ननुएवमेतद्यथात्थ इति पूर्वोक्तमभ्युपगम्यद्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरम् [11।3] इत्यर्थान्तरस्य रूपविशेषस्य दिदृक्षावचनमिव भाति ततश्च कथं तथाभूतं भगवन्तं साक्षात्कर्तुकाम इत्युच्यते तत्राह -- तथैवेति। श्रुतप्रकारेणेत्यर्थः। तद्विवृणोति -- सर्वाश्चर्येति।अहं सर्वस्य प्रभवः [10।8] इत्यादिनाविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् [10।42] इत्यन्तेन प्रतिपादितो ह्यर्थोऽत्र विग्रहविशेषानुबन्धेन प्रत्यक्षं प्रत्यभिज्ञायत इति भावः। अत्र साक्षात्कारं प्रार्थयितुंमदनुग्रहाय इत्यादिभिस्त्रिभिः श्लोकैः कृतज्ञतामास्तिक्यं भक्तिमत्त्वं च दर्शयति।तत्र प्रथमेन अध्यात्मशब्दादिस्वारस्यात्भवाप्ययौ इत्यादेः सप्तमाद्यर्थस्य पृथग्वचनाच्चात्मतत्त्वतदवलोकनोपायश्रवणतत्फलानुवादः क्रियत इत्यभिप्रायेणाह -- देहात्मेति।मोहो विगतः इत्यनन्तरमभिधानात् मच्छब्देन मोहविशिष्टस्वरूपं विवक्षितमित्यभिप्रायेणमोहितस्येत्यन्तमुक्तम्।मदनुग्रहाय इत्यनेन न ह्यन्यत्तेनानवाप्तमवाप्तव्यमस्तीत्यभिप्रेतमित्याहमामनुग्रहैकप्रयोजनायेति। युद्धप्रोत्साहनमात्रशङ्काप्यनेन निरस्ता। परमशब्दविशेषितगुह्यशब्देनमौनं चैवास्मि गुह्यानाम् [10।38] इत्युक्तगुह्यत्वप्रतीतिव्युदासाय रहस्यशब्देन व्याख्या। गुह्यतमभक्तियोगशेषत्वात्परमत्वविशेषणमित्यादृत्य परमशब्दपाठेन सूचितम्। आत्मनि प्रतिपादकत्वेनाधिवसनाद्वचसोऽध्यात्मत्वमित्यभिप्रेत्यआत्मनि वक्तव्यमित्युक्तम्। उपोद्धातान्मध्यमषट्कप्रस्तावश्लोकार्थाच्चावच्छिद्य जीवात्मप्रधानमंशमध्यात्मशब्दानूदितमाह -- न त्वेवाहमिति।अध्यात्मसंज्ञितम् इत्येतदनुसारात्अयम् इत्यपरोक्षनिर्देशाभिप्रेतमुक्तंममात्मविषय इति।विगतः इत्यनेन सोपसर्गेण सवासनं निश्शेषविनाशो विवक्षित इति प्रदर्शनायसर्वशब्दः।दूरतो निरस्त इति संस्कारस्यापि तिरस्कारादपुनरङ्कुरं विनष्ट इत्यर्थः।
।।11.1।।कृष्णात्मत्वं हि जगतो विभूतिकथनान्नरः। अवगत्य च तद्रूपं द्रष्टुं हरिमथाऽब्रवीत्।।1।।पूर्वाध्यायान्तेविष्टम्याहं [10।42] इत्यनेन स्वक्रीडात्मकत्वेन विश्वस्य स्वात्मकत्वं प्रतिपादितम्? तद्रूपदर्शनेच्छुरर्जुनो भगवन्तं विज्ञापयति -- मदनुग्रहायेति चतुर्भिः। मदनुग्रहाय मम स्वीयत्वेन ग्रहणाय परमं परः पुरुषोत्तमो मीयते अनुमीयते यस्मात्तादृशम्। अतएव गुह्यं सर्वेषामनाख्येयम्। अध्यात्मसंज्ञितं आत्मानात्मविवेकविषयत्वेन सर्वात्मरूपं यत् त्वया वचोविष्टभ्याहं इत्युक्तं? तेन ममाऽयं रूपे मोहो विशेषेण गतो नष्ट इत्यर्थः।
।।11.1।।पूर्वस्मिन्नध्याये योगो विभूतिश्च व्याख्येयत्वेन प्रतिज्ञातौएतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति इति।आत्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन। भूयः कथय इतीतरेण च श्रोतव्यत्वेन प्रार्थितौ। तत्रअहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः इति संक्षेपेण योगो भगवता सर्वभूताधारत्वलक्षण उक्तः प्राग्विभूतिकथनात्। तदन्ते चविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् इति कुसूलेन धान्यमिव मयेदं जगद्विष्टब्धमित्युक्त्या स एव स्मारितस्तदेव भगवतः सर्वभूताधारत्वं साक्षात्कर्तुकामोऽर्जुन उवाच -- मदनुग्रहायेति। मयि अनुग्रहोऽनुकम्पा तदर्थं मदनुग्रहाय। परमं सद्यः शोकमोहनिवर्तकत्वेनोत्कृष्टं गुह्यं गोप्यं अध्यात्मसंज्ञितमात्मानात्मविवेकार्थं शास्त्रमध्यात्मं तत्संज्ञितं यत्त्वया वचःअशोच्यानन्वशोचः इत्यादिना षष्ठाध्यायपर्यन्तं त्वंपदार्थशुद्धिप्रधानंनायं हन्ति न हन्यते इत्यात्मनोऽकर्तृत्वाभोक्तृत्वप्रतिपादकं तेन मम मोहोऽविवेकोऽयं विशेषेण गतो नष्टः। अत्र प्रथमे पादेऽक्षराधिक्यमार्षम्।
।।11.1।।एवं विभूतीर्निरतिशयैश्वर्य च श्रुत्वा साक्षात्कर्तुमिच्छन्नर्जुन उवाच मदनुग्रहार्थ परममुत्कृष्टं परमपुरुषार्थसाधनत्वात् गोप्यमध्यात्मसंक्षितं वजस्त्वंपदार्थप्रधानमशोच्यानित्यादि यत्त्वयोक्तं तेन ममायं मोहोऽहंममेतिप्रत्ययजनकः कर्तृत्वादिहहितात्मस्वरुपावरको विगतो विशेषेण निवृत्तः।
11.1 मदनुग्रहाय for the sake of blessing me? परमम् the highest? गुह्यम् the secret? अध्यात्मसंज्ञितम् called Adhyatma? यत् which? त्वया by Thee? उक्तम् spoken? वचः word? तेन by that? मोहः delusion? अयम् this? विगतः gone? मम my.Commentary After hearing the glories of the Lord? Arjuna has an intense longing to have the wonderful vision of the Cosmic Form with his own eyes. His bewilderment and delusion have now vanished.Adhyatma That which treats of the discrimination between the Self and the notSelf metaphysics.I was worried about the sin involved in killing my relations and preceptors. I had the ideas? I am the agent in killing them they are to be killed by me.This delusion has vanished now after receiving Thy most profound and valuable instructions. Thou hast dispelled this delusion of ignorance from me.The vision of the Cosmic Form is not the ultimate goal. If that were so? the Gita would have ended with this chapter. The vision of the Cosmic Form is also one more in a series of graded experiences. It is a terrible experience too. That is the reason why Arjuna said to the Lord? stammering with fear What an awful form Thou hast I have seen that which none hath seen before. My heart is glad? yet faileth me on account of fear. Show me? O God? Thine other form again. O God of gods? support of all the worlds? let me see Thy form with the diadem? and with the mace and discus in Thy hands. Again I wish to see Thee as before assume Thy fourarmed form? O Lord of thousand arms and of forms innumerable.Arjuna heard the Lords statement? viz.? Having pervaded this whole universe with one fragment of Myself? I remain. This induced him to have the vision of the Lords Cosmic Form. He says? O Lord of compassion? Thou hast taught me the spiritual wisdom which can hardly be found in the Vedas. Thou hast saved me. My delusion has disappeared. Thou hast disclosed to me the nature of the Supreme Self? the secrets of Nature and Thy divine glories. My greatest ambition at the present moment is that I should behold with my own eyes Thy entire Cosmic Form.
11.1 Arjuna said By this word (explanation) of the highest secret concerning the Self which Thou hast spoken, for the sake of blessing me, my delusion is gone.
11.1 "Arjuna said: My Lord! Thy words concerning the Supreme Secret of Self, given for my blessing, have dispelled the illusions which surrounded me.
11.1 Arjuna said This delusion of mine has departed as a result of that speech which is most secret and known as pertaining to the Self, and which was uttered by You for my benefit.
11.1 Ayam, this; mahah, delusion; mama, of mine; vigatah, has departed, i.e., my non-discriminating idea has been removed; tena, as a result of that; vacah, speech of Yours; which is paramam, most, supremely; guhyam, secret; and adhyatma-sanjnitam, known as pertaining to the Self-dealing with discrimination between the Self and the non-Self; and yat, which; was uktam, uttered; tvaya, by You; madanugrahaya, for my benefit, out of favour for me. Further,
11.1. Arjuna said My delusion has completely gone thanks to the great and mysterious discourse which is termed as a science governing the Soul and which You have delivered by way of favouring me.
11.1 Now Arjuna seeks to perceive, with his own sense-organ (11.eye), what has been taught in the last chapter. The subject matter, learnt through the [teacher's] instructions, becomes ite clear if it is grasped by the knowledge of perception. For that end only the following conversation is made -
11.1 Arjuna said To show favour to me, who is deluded by the misconception that the body is the self, these words of supreme mystery concerned with the self, i.e., which is a proper description of the self, have been spoken by You in words beginning from 'There was never a time when I did not exist' (2.12) and ending with, 'Therefore, O Arjuna, become a Yogin' (6.46). By that this delusion of mine about the self is entirely removed.
11.1 Arjuna said To show favour to Me, You have told me that most profound mystery concerning the self; by that, this delusion of mine is dispelled.
।।11.1।।( पूर्वाध्यायमें जो ) भगवान्की विभूतियोंका वर्णन किया गया है उसमें भगवान्से कहे हुए मैं इस सारे जगत्को एक अंशसे व्याप्त करके स्थित हूँ इन वचनोंको सुनकर ईश्वरका जो जगदात्मक आदि स्वरूप है उसका प्रत्यक्ष दर्शन करनेकी इच्छासे अर्जुन बोला --, मुझपर अनुग्रह करनेके लिये आपने जो परम -- अत्यन्त श्रेष्ठ? गुह्य -- गोपनीय? अध्यात्य नामक अर्थात् आत्माअनात्माके विवेचनविषयक वाक्य कहे हैं? उन आपके वचनोंसे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है अर्थात् मेरी अविवेकबुद्धि नष्ट हो गयी है।,
।।11.1।। --,मदनुग्रहाय ममानुग्रहार्थं परमं निरतिशयं गुह्यं गोप्यम् अध्यात्मसंज्ञितम् आत्मानात्मविवेकविषयं यत् त्वया उक्तं वचः वाक्यं तेन ते वचसा मोहः अयं विगतः मम? अविवेकबुद्धिः अपगता इत्यर्थः।।किञ्च --,
।।11.1।।एतदध्यायप्रतिपाद्यमर्थमाह -- यथेति। दशमान्ते [42]विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् इति व्याप्तोपासनं सङ्क्षेपेणोक्तम्। न च सङ्क्षेपोक्तस्य ध्यानं शक्यम्? बुद्धावनारोहात्। अतो यथाभूते व्याप्तरूपे विस्तरेण श्रुते ध्यानं शक्यं भवति? तथाभूतस्वरूपस्थितिरर्जुनाय प्रदर्शितस्यानुवादेन अनेनैकादशेनाध्यायेनोच्यते। स्वरूपग्रहणेन विश्वरूपस्य मायादिना तदैव निर्माय विसृष्टत्वं निवारयति।
।।11.1।।म्। यथा श्रुते ध्यानं शक्यं तथा स्वरूपस्थितिरनेनाध्यायेनोच्यते।
अर्जुन उवाच मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्। यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम।।11.1।।
অর্জুন উবাচ মদনুগ্রহায পরমং গুহ্যমধ্যাত্মসংজ্ঞিতম্৷ যত্ত্বযোক্তং বচস্তেন মোহোযং বিগতো মম৷৷11.1৷৷
অর্জুন উবাচ মদনুগ্রহায পরমং গুহ্যমধ্যাত্মসংজ্ঞিতম্৷ যত্ত্বযোক্তং বচস্তেন মোহোযং বিগতো মম৷৷11.1৷৷
અર્જુન ઉવાચ મદનુગ્રહાય પરમં ગુહ્યમધ્યાત્મસંજ્ઞિતમ્। યત્ત્વયોક્તં વચસ્તેન મોહોયં વિગતો મમ।।11.1।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਮਦਨੁਗ੍ਰਹਾਯ ਪਰਮਂ ਗੁਹ੍ਯਮਧ੍ਯਾਤ੍ਮਸਂਜ੍ਞਿਤਮ੍। ਯਤ੍ਤ੍ਵਯੋਕ੍ਤਂ ਵਚਸ੍ਤੇਨ ਮੋਹੋਯਂ ਵਿਗਤੋ ਮਮ।।11.1।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಮದನುಗ್ರಹಾಯ ಪರಮಂ ಗುಹ್ಯಮಧ್ಯಾತ್ಮಸಂಜ್ಞಿತಮ್. ಯತ್ತ್ವಯೋಕ್ತಂ ವಚಸ್ತೇನ ಮೋಹೋಯಂ ವಿಗತೋ ಮಮ৷৷11.1৷৷
അര്ജുന ഉവാച മദനുഗ്രഹായ പരമം ഗുഹ്യമധ്യാത്മസംജ്ഞിതമ്. യത്ത്വയോക്തം വചസ്തേന മോഹോയം വിഗതോ മമ৷৷11.1৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ମଦନୁଗ୍ରହାଯ ପରମଂ ଗୁହ୍ଯମଧ୍ଯାତ୍ମସଂଜ୍ଞିତମ୍| ଯତ୍ତ୍ବଯୋକ୍ତଂ ବଚସ୍ତେନ ମୋହୋଯଂ ବିଗତୋ ମମ||11.1||
arjuna uvāca madanugrahāya paramaṅ guhyamadhyātmasaṅjñitam. yattvayōktaṅ vacastēna mōhō.yaṅ vigatō mama৷৷11.1৷৷
அர்ஜுந உவாச மதநுக்ரஹாய பரமஂ குஹ்யமத்யாத்மஸஂஜ்ஞிதம். யத்த்வயோக்தஂ வசஸ்தேந மோஹோயஂ விகதோ மம৷৷11.1৷৷
అర్జున ఉవాచ మదనుగ్రహాయ పరమం గుహ్యమధ్యాత్మసంజ్ఞితమ్. యత్త్వయోక్తం వచస్తేన మోహోయం విగతో మమ৷৷11.1৷৷
11.2
11
2
।।11.2।।  हे कमलनयन ! सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलय मैंने विस्तारपूर्वक आपसे ही सुना है और आपका अविनाशी माहात्म्य भी सुना है।
।।11.2।। हे कमलनयन ! मैंने भूतों की उत्पत्ति और प्रलय आपसे विस्तारपूर्वक सुने हैं तथा आपका अव्यय माहात्म्य (प्रभाव) भी सुना है।।
।।11.2।। गुरु और शिष्य के संवाद में? यह स्वाभाविक है कि किसी कठिन विषय की समाप्ति पर शिष्य के मन में कुछ शंका या प्रश्न उठें। उस शंका की निवृत्ति के लिए वह गुरु के पास जा सकता है? परन्तु प्रश्न करने के पूर्व उसे यह सिद्ध करना होगा कि वह विवेचित विषय को स्पष्टत समझ चुका है। तत्पश्चात्? उसे अपनी नवीन शंका का समाधान कराने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस पारम्परिक पद्धति का अनुसरण करते हुए अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण को यह बताने का प्रयत्न करता है कि वह पूर्व अध्याय का विषय समझ चुका है। उसने श्रवण के द्वारा भूतों की उत्पत्ति और प्रलय तथा भगवान् की असंख्य विभूतियों को समझ लिया है।फिर भी? एक संदेह रह ही जाता है? जिसका निवारण तभी होगा जब प्रात्यक्षिक दर्शन से उसकी बुद्धि को तत्त्व का निश्चयात्मक ज्ञान हो जायेगा। यह श्लोक विश्वरूप दर्शन की इच्छा को प्रगट करने की पूर्व तैयारी है। जब शिष्य अपनी योग्यता सिद्ध करने के पश्चात् कोई युक्तिसंगत प्रश्न पूछता है अथवा किसी संभावित विघ्न की निवृत्ति का उपाय जानना चाहता है?तो गुरु को उसकी सभी सम्भव सहायता करनी चाहिये। हम देखेंगे कि योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ अपनी वरिष्ठता को भी त्याग कर केवल असीम अनुकम्पावशात् अर्जुन को अपना विराट् रूप दर्शाते हैं? केवल इसलिए कि उनके शिष्य ने उसे देखने का आग्रह किया था।अर्जुन अपनी इच्छा को अगले श्लोक में व्यक्त करता है।
।।11.2।। व्याख्या --भवाप्ययौ हि भूतानां त्वत्तः श्रुतौ विस्तरशो मया -- भगवान्ने पहले कहा था-- मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव और प्रलय हूँ, मेरे सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है (7। 6 7); सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरेसे ही होते हैं (7। 12); प्राणियोंके अलग-अलग अनेक तरहके भाव मेरेसे ही होते हैं (10। 4 5); सम्पूर्ण प्राणी मेरेसे ही होते हैं और मेरेसे ही सब चेष्टा करते हैं (10। 8); प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ (10। 20); और सम्पूर्ण सृष्टियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ (10। 32)। इसीको लेकर अर्जुन यहाँ कहते हैं कि मैंने आपसे प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयका वर्णन विस्तारसे सुना है। इसका तात्पर्य प्राणियोंकी उत्पत्ति और विनाश सुननेसे नहीं है, प्रत्युत इसका तात्पर्य यह सुननेसे है कि सभी प्राणी आपसे ही उत्पन्न होते हैं, आपमें ही रहते हैं और आपमें ही लीन हो जाते हैं अर्थात् सब कुछ आप ही हैं।
null
।।11.2।।तथा सप्तमप्रभृति दशमपर्यन्तं त्वद्व्यतिरिक्तानां सर्वेषां भूतानां त्वत्तः परमात्मानो भवाप्ययौ उत्पत्तिप्रलयौ विस्तरशः मया श्रुतौ। हे कमलपत्राक्ष तव अव्ययं नित्यं सर्वचेतनाचेतनवस्तुशेषित्वं ज्ञानबलादिकल्याणगुणगणैः तव एव परतरत्वं सर्वाधारत्वं चिन्तितनिमिषितादिसर्वप्रवृत्तिषु तव एव प्रवर्तयितृत्वम्? इत्यादि अपरिमितं माहात्म्यं च श्रुतम् हि शब्दो वक्ष्यमाणदिदृक्षाद्योतनार्थः।
।।11.2।।सप्तमादारभ्य तत्पदार्थनिर्णयार्थमपि भगवदुक्तं वचो मया श्रुतमित्याह -- किञ्चेति। त्वत्तो भूतानामुत्पत्तिप्रलयौ त्वत्तः श्रुतावित्याभ्यां संबध्यते? महात्मनस्तव भावो माहात्म्यं पारमार्थिकं सोपाधिकं वा सर्वात्मत्वादिरूपं श्रुतमिति परिणम्यानुवृत्तिं द्योतयितुमपिचेत्युक्तम्।
।।11.2।।भवाप्ययाविति। जगत्कारणत्वं तव मया श्रुतं? माहात्म्यमपि च सर्वं तदिदं विभूतिरूपं तव मयेति।
।।11.2।।तथा सप्तमादारभ्य दशमपर्यन्तं तत्पदार्थनिर्णयप्रधानमपि भगवतो वचनं मया श्रुतमित्याह -- भूतानां भवाप्ययावुत्पत्तिप्रलयौ त्वत्त एव भवन्तौ त्वत्त एव विस्तरशो मया श्रुतौ नतु संक्षेपेणासकृदित्यर्थः। कमलस्य पत्रे इव दीर्घे रक्तान्ते परममनोरमे अक्षिणी यस्य तव स त्वं हे कमलपत्राक्ष। अतिसौन्दर्यातिशयोल्लेखोयं प्रेमातिशयात्। न केवलं भवाप्ययौ त्वत्तः श्रुतौ। महात्मनस्तव भावो माहात्म्यमनतिशयैश्वर्यं विश्वसृष्ट्यादिकर्तृत्वेऽप्यविकारित्वं शुभाशुभकर्मकारयितृत्वेऽप्यवैषम्यं बन्धमोक्षादिविचित्रफलदातृत्वेऽप्यसङ्गौदासीन्यमन्यदपि सर्वात्मत्वादि सोपाधिकं निरुपाधिकमपि चाव्ययमक्षयं मया श्रुतमिति परिणतमनुवर्तते चकारात्।
।।11.2।। किंच -- भवाप्ययाविति। भूतानां भवाप्ययौ सृष्टिप्रलयौ त्वत्तः सकाशादेव भवत इति श्रुतौ मयाअहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा इत्यादौ विस्तरशः पुनः पुनः। कमलपत्रे इव सुप्रसन्ने विशाले अक्षिणी यस्य सः हे कमलपत्राक्ष? माहात्म्यमपि चाव्ययमक्षयं श्रुतम्। विश्वसृष्ट्यादिकर्तृत्वेऽपि शुभाशुभकर्मकारयितृत्वेऽपि बन्धमोक्षादिविचित्रफलदातृत्वेऽप्यविकारावैषम्यासङ्गौदासीन्यादिलक्षणमपरिमितं महत्त्वं श्रुतम्अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते?मया ततमिदं सर्वं?न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति?समोऽहं सर्वभूतेषु इत्यादिना। अतस्त्वत्परतन्त्रत्वादपि जीवानामहं कर्तेत्यादिर्मदीयो मोहो विगत इति भावः।
।।11.2।।भवाप्ययौ हि इत्यादेः प्रकृतहेत्वर्थत्वव्युदासेन पृथगर्थत्वव्यञ्जनायाह -- तथाचेति।सप्तमप्रभृति दशमपर्यन्तं इति। भाष्यकारः स्वानुसंहिताध्यायोक्त्या तत्रत्यवचनमुपलक्षयति। बहुवचनासङ्कोचसूचितम्अहं कृत्स्नस्य [7।6] इत्यादिनोक्तमाह -- त्वद्व्यतिरिक्तानामिति। निवृत्तमानुषत्वभ्रमस्यार्जुनस्य वचनत्वात्त्वत्तः इत्यनेन भवाप्ययौपयिकरूपत्वं विवक्षितमित्यभिप्रायेणपरमात्मन इत्युक्तम्। अप्ययशब्दस्य पञ्चम्यनन्वयाद्भवाप्ययशब्देन संसारमोक्षादिप्रतीतिः स्यादिति तद्व्युदासायोक्तं -- उत्पत्तिप्रलयाविति। निमित्तोपादानसाधारणहेतुमात्रे पञ्चमीत्यप्ययान्वयः।त्वत्तः श्रुतौ इत्यन्वयस्तु मन्दप्रयोजन इति भावः। विस्तरशः विस्तरेणेत्यर्थः।कमलपत्राक्ष इत्यनेनान्तरादित्यविद्यादिप्रतिपादितपुण्डरीकाक्षत्वविशिष्टाप्राकृतविग्रहवत्त्वमस्मिन्नवतारेऽपि स्पष्टमुपलभ्यत इति सूचितम्। पुण्डरीकाक्षस्यैव हि सर्वलोककामेशत्वादिकमव्ययं माहात्म्यं तत्र श्रूयते।माहात्म्यमित्यत्रतव इति विपरिणतानुषङ्गः। अव्ययशब्देन कालतो विषयतः सङ्ख्यातः प्रकर्षतश्चानवधिकत्वं प्राक्सिद्धमिहाभिप्रेतमित्यभिप्रायेणोक्तंनित्यमित्यादि अपरिमितमित्यन्तम्।भूमिरापः [7।4]मत्तः परतरं नान्यत् [7।7]मयि सर्वं [7।7]बुद्धिर्ज्ञानम् [10।4] इत्यादिभिरिदं शेषित्वादिकं प्राक्प्रपञ्चितम्।हिशब्दो वक्ष्यमाणदिदृक्षाद्योतनार्थ इति। हेतुत्वप्रसिद्ध्याद्यानुगुण्याभावात्प्रकृतानुगुणोऽयमर्थ इति भावः।
।।11.2।।किञ्च -- भवाप्ययाविति। भूतानां भवाप्ययौ उत्पत्तिनाशौअहमादिश्च [10।20] इत्यादिना हे कमलपत्राक्ष दृष्ट्यैव तापनाशक त्वत्तो मया विस्तरशः श्रुतौ। अव्ययं स्थितिरूपं पालनरूपं माहात्म्यं महत्त्वं नाशानन्तरपालनरूपं चापि श्रुतं?तेन मोहो नष्टः इति पूर्वेणैवान्वयः।
।।11.2।।भवेति। तथा सप्तमाध्यायमारभ्य दशमपर्यन्तं त्वया भूतानां भवाप्ययावप्युक्तौअहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते इति तावपि मया विस्तरशरस्त्वत्तः श्रुतौ। हे कमलपत्राक्ष? अव्ययं माहात्म्यमपिन च मां तानि कर्माणि लिम्पन्ति इति विषमसृष्टिकर्तुरपि वैषम्यनैर्घृण्यदोषो नास्ति जगत्कर्तुरपि विकारगन्धो नास्ति इत्येवमादिरूपतत्पदार्थशुद्धिप्रधानं श्रुतमित्यनुषङ्गः।
।।11.2।।किंचायं वासुदेवो मम मातुलेय इति त्वयि मनुष्यत्वप्रतीत्युत्पादकल्येश्वरस्वरुपावरकस्य मोहस्य निवर्तकमपि वचो मया श्रुतमित्याशयवानाह। भवाप्ययौ उत्पत्तिप्रलयौ भूतानां त्वत्तो भवति इति त्वत्तो मया श्रुतौ।अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते इत्यादिना तदपि न संक्षेपतोऽपि त्वसकृदित्याह -- विस्तरश इति। कमलपत्रे इव विशाले रक्तान्ते अक्षिणी यस्य सः कमपपत्राक्ष इत्यङ्गीकृतकमलपत्राक्षरुपात्त्वत्तएव भूतानां पालनमिति द्योतनाय तथा संबोधयनम्। महात्मो भावो माहात्म्यमपि त्वदीयमव्ययमपक्षयरहितमैश्वर्यं मया श्रुतमिति विपरिणोमेनानुषज्जाते।
11.2 भवाप्ययौ the origin and the dissolution? हि indeed? भूतानाम् of beings? श्रुतौ hav been heard? विस्तरशः in detail? मया by me? त्वत्तः from Thee? कमलपत्राक्ष O lotuseyed? माहात्म्यम् greatness? अपि also? च and? अव्ययम् inexhaustible.Commentary Kamalapatraksha Lotuseyed or having eyes like lotuspetals. Kamalapatra also means knowledge of the Self. He who can be obtained by knowledge of the Self is Kamalapatraksha.
11.2 The origin and the destruction of beings verily have been heard by me in detail from Thee, O lotus-eyed Lord, and also Thy inexhaustible greatness.
11.2 O Lord, whose eyes are like the lotus petal! Thou hast described in detail the origin and the dissolution of being, and Thine own Eternal Majesty.
11.2 O you with eyes like lotus leaves, the origin and dissolution of beings have been heard by me in detail from You. ['From You have been heard the origin and dissolution of beings in You.'] And (Your) undecaying glory, too, (has been heard).
11.2 Kamala-partraksa, O You with eyes like lotus leaves; bhava-apyayau, the origin and dissolution- these two; bhutanam, of beings; srutau, have been heard; maya, by me; vistarasah, in detail-not in brief; tvattah, from You. Ca, and; (Your) avyayam, undecaying; mahatmyam, glory, too;-has been heard-(these last words) remain understood.
11.2. The origin and the dissolution of beings have been listened to in detail by me from You, O Lotus-eyed One, and also to [Your] inexhaustible greatness.
11.2 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.2 Likewise, beginning from the seventh, and ending with the tenth discourse, the origination and dissolution of all beings other than You, as issuing from You, the Supreme Self, have been heard at length by me. Your unlimited greatness, immutable and eternal, Your principalship (Sesitva) over all sentient and non-sentient things, Your supreme greatness consisting of the host of auspicious attributes like knowledge, strength etc., Your being the supporter of all things and actuator of all activities like thinking, blinking etc., have also been heard. Here the term, 'hi' (verily) expresses the desire to have the vision which is going to be revealed.
11.2 The origination and dissolution of all beings, O Krsna, (as issuing from You) have been heard verily by me at length as also Your immutable greatness.
।।11.2।।तथा --, मैंने आपसे प्राणियोंके भव -- उत्पत्ति और अप्यय -- प्रलय? ये दोनों संक्षेपसे नहीं? विस्तारपूर्वक सुने हैं और हे कमलपत्राक्ष अर्थात् कमलपत्रके सदृश नेत्रोंवाले कृष्ण आपका अविनाशी -- अक्षय माहात्म्य भी मैं सुन चुका हूँ। श्रुतम् यह क्रियापद पूर्ववाक्यसे लिया गया है।
।।11.2।। --,भवः उत्पत्तिः अप्ययः प्रलयः तौ भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशः मया? न संक्षेपतः? त्वत्तः त्वत्सकाशात्? कमलपत्राक्ष कमलस्य पत्रं कमलपत्रं तद्वत् अक्षिणी यस्य तव स त्वं कमलपत्राक्षः हे कमलपत्राक्ष? महात्मनः भावः माहात्म्यमपि च अव्ययम् अक्षयम् श्रुतम् इति अनुवर्तते।।
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भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्।।11.2।।
ভবাপ্যযৌ হি ভূতানাং শ্রুতৌ বিস্তরশো মযা৷ ত্বত্তঃ কমলপত্রাক্ষ মাহাত্ম্যমপি চাব্যযম্৷৷11.2৷৷
ভবাপ্যযৌ হি ভূতানাং শ্রুতৌ বিস্তরশো মযা৷ ত্বত্তঃ কমলপত্রাক্ষ মাহাত্ম্যমপি চাব্যযম্৷৷11.2৷৷
ભવાપ્યયૌ હિ ભૂતાનાં શ્રુતૌ વિસ્તરશો મયા। ત્વત્તઃ કમલપત્રાક્ષ માહાત્મ્યમપિ ચાવ્યયમ્।।11.2।।
ਭਵਾਪ੍ਯਯੌ ਹਿ ਭੂਤਾਨਾਂ ਸ਼੍ਰੁਤੌ ਵਿਸ੍ਤਰਸ਼ੋ ਮਯਾ। ਤ੍ਵਤ੍ਤ ਕਮਲਪਤ੍ਰਾਕ੍ਸ਼ ਮਾਹਾਤ੍ਮ੍ਯਮਪਿ ਚਾਵ੍ਯਯਮ੍।।11.2।।
ಭವಾಪ್ಯಯೌ ಹಿ ಭೂತಾನಾಂ ಶ್ರುತೌ ವಿಸ್ತರಶೋ ಮಯಾ. ತ್ವತ್ತಃ ಕಮಲಪತ್ರಾಕ್ಷ ಮಾಹಾತ್ಮ್ಯಮಪಿ ಚಾವ್ಯಯಮ್৷৷11.2৷৷
ഭവാപ്യയൌ ഹി ഭൂതാനാം ശ്രുതൌ വിസ്തരശോ മയാ. ത്വത്തഃ കമലപത്രാക്ഷ മാഹാത്മ്യമപി ചാവ്യയമ്৷৷11.2৷৷
ଭବାପ୍ଯଯୌ ହି ଭୂତାନାଂ ଶ୍ରୁତୌ ବିସ୍ତରଶୋ ମଯା| ତ୍ବତ୍ତଃ କମଲପତ୍ରାକ୍ଷ ମାହାତ୍ମ୍ଯମପି ଚାବ୍ଯଯମ୍||11.2||
bhavāpyayau hi bhūtānāṅ śrutau vistaraśō mayā. tvattaḥ kamalapatrākṣa māhātmyamapi cāvyayam৷৷11.2৷৷
பவாப்யயௌ ஹி பூதாநாஂ ஷ்ருதௌ விஸ்தரஷோ மயா. த்வத்தஃ கமலபத்ராக்ஷ மாஹாத்ம்யமபி சாவ்யயம்৷৷11.2৷৷
భవాప్యయౌ హి భూతానాం శ్రుతౌ విస్తరశో మయా. త్వత్తః కమలపత్రాక్ష మాహాత్మ్యమపి చావ్యయమ్৷৷11.2৷৷
11.3
11
3
।।11.3।। हे पुरुषोत्तम ! आप अपने-आपको जैसा कहते हैं, यह वास्तवमें ऐसा ही है। हे परमेश्वर ! आपके ईश्वर-सम्बन्धी रूपको मैं देखना चाहता हूँ।
।।11.3।। हे परमेश्वर ! आप अपने को जैसा कहते हो, यह ठीक ऐसा ही है। (परन्तु) हे पुरुषोत्तम ! मैं आपके ईश्वरीय रूप को प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ।।
।।11.3।। संस्कृत से वाक्प्रचार एवमेतत् (यह ठीक ऐसा ही है) के द्वारा अर्जुन तत्त्वज्ञान के सैद्धान्तिक पक्ष को स्वीकार करता है। समस्त नाम और रूपों में ईश्वर की व्यापकता की सिद्धि बौद्धिक दृष्टि से संतोषजनक थी। फिर भी बुद्धि को अभी भी प्रत्यक्षीकरण की प्रतीक्षा थी। इसलिए अर्जुन कहता है कि? मैं आपके ईश्वरीय रूप को देखना चाहता हूँ। हमारे शास्त्रों में ईश्वर का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि वह ज्ञान? ऐश्वर्य? शक्ति? बल? वीर्य और तेज इन छ गुणों से सम्पन्न है।इस अवसर पर भगवान् ने अर्जुन को यह दर्शाने का निश्चय किया कि वे न केवल समस्त व्यष्टि रूपों में व्याप्त हैं वरन् वे वह समष्टिरूपी पात्र हैं? जिसमें ही समस्त नाम और रूपों का अस्तित्व है। भगवान् सर्वव्यापक होने के साथहीसाथ सर्वातीत भी हैं।यद्यपि कट्टर बुद्धिवाद के अत्युत्साह में आकर अर्जुन ने विश्वरूप दर्शन की अपनी मांग भगवान् के समक्ष रखी? किन्तु उसे तत्काल यह भान हुआ कि उसकी यह धृष्टता है और उसने सद्व्यवहार की मर्यादा का उल्लंघन किया है।अगले श्लोक में वह अधिक नम्रता से कहता है
।।11.3।। व्याख्या --'पुरुषोत्तम'--यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि हे भगवन् !मेरी दृष्टिमें इस संसारमें आपके समान कोई उत्तम, श्रेष्ठ नहीं है अर्थात् आप ही सबसे उत्तम, श्रेष्ठ हैं। इस बातको आगे पन्द्रहवें अध्यायमें भगवान्ने भी कहा है कि मैं क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम हूँ; अतः मैं शास्त्र और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ (15। 18)।
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।।11.3।।हे परमेश्वर एवम् एतद् इति अवधृतं यथा आत्थ त्वम् आत्मानं ब्रवीषि। पुरुषोत्तम आश्रितवात्सल्यजलधे तव ऐश्वरं त्वदसाधारणं सर्वस्य प्रशासितृत्वे पालयितृत्वे स्रष्ट्टत्वे संहर्तृत्वे भर्तृत्वे कल्याणगुणाकरत्वे परतरत्वे सकलेतरविसजातीयत्वे च अवस्थितं रूपं द्रष्टुम् साक्षात्कर्तुम् इच्छामि।
।।11.3।।त्वदुक्तेऽर्थे विश्वासाभावान्न तस्य दिदृक्षा किंतु कृतार्थीबुभूषयेत्याह -- एवमेतदिति। येन प्रकारेण सोपाधिकेन निरुपाधिकेन चेत्यर्थः। यदि ममाप्तत्वं निश्चित्य मद्वाक्यं ते मानं तर्हि किमिति मदुक्तं दिदृक्षते कृतार्थीबुभूषयेत्युक्तं मत्वाह -- तथापीति। चतुर्भुजादिरूपनिवृत्त्यर्थमाह -- ऐश्वरमिति। तद्व्याचष्टे -- ज्ञानेत्यादिना।
।।11.3।।एवमेतदिति। सत्यमेवैतत्? अत्राविश्वासो मम नास्तीति। परं तादृश्यैश्वर्यं योगाख्यं यत्र तत्तवैश्वरं रूपं द्रष्टुमिच्छामि। हे पुरुषोत्तम नहि मादृशस्त्वयि सति न सिद्धमनोरथो भवितुमर्हतीति भावः।
।।11.3।।एवमेतदिति। हे परमेश्वर? यथा येन प्रकारेण सोपाधिकेन निरुपाधिकेन च निरतिशयैश्वर्येणात्मानं त्वमात्थ कथयसि त्वं एवमेतन्नान्यथा। त्वद्वचसि कुत्रापि ममाविश्वासशङ्का नास्त्येवेत्यर्थः। यद्यप्येवं तथापि कृतार्थीबुभूषया द्रष्टुमिच्छामि ते तव रूपमैश्वरं ज्ञानैश्वर्यशक्तिबलवीर्यतेजोभिः संपन्नमद्भुतम्। हे पुरुषोत्तमेति संबोधनेन त्वद्वचस्यविश्वासो मम नास्ति दिदृक्षा च महती वर्तत इति सर्वज्ञत्वात्त्वं जानासि सर्वान्तर्यामित्वाच्चेति सूचयति।
।।11.3।। किंच -- एवमिति।भवाप्ययौ हि भूतानाम् इत्यादि मया श्रुतं यथा चेदानीमात्मानं त्वमात्थविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नम् इत्येवं कथयसि हे परमेश्वर? एवमेतत्। अत्राप्यविश्वासो मम नास्तीत्यर्थः। तथापि हे पुरुषोत्तम्? तवैश्वरं ज्ञानैश्वर्यशक्तिबलवीर्यतेजोभिः संपन्नं त्वद्रूपं कौतूहलादहं द्रष्टुमिच्छामि।
।।11.3।।परमेश्वर इत्यनेन वाक्यार्थविश्वासहेतुभूतं परमाप्तत्वादिकं विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह -- हे परमेश्वरेति। तद्व्यञ्जनाय स्वसंवादमात्रार्थत्वव्युदासेन श्रुतप्रतिष्ठापनाय चाहएवमेतदित्यवधृतमिति। आश्रितजने दोषदर्शिनः कापुरुषा इति ह्याहुः। अतोऽत्र दिदृक्षमाणे स्वस्मिन् दोषानादररूपनिरतिशयपौरुषं पुरुषोत्तमशब्देन विवक्षितमित्यभिप्रायेणआश्रितवात्सल्यैकजलध इत्युक्तम्। पुरु सनोतीति वा व्युत्पत्तिरिहाभिप्रेताआविश्य बिभति [15।17] इति वक्ष्यमाणं वा ज्ञापितम्। एवं परत्वसौलभ्ये समाख्याभ्यामुक्ते।ते इति निर्देशे सत्यपिऐश्वरम् इति वचनमीश्वरत्वस्वभावाभिव्यञ्जकत्वपरमित्यभिप्रायेणत्वदसाधारणमित्युक्तम्। तस्यैव प्राक्प्रपञ्चितप्रक्रियया विवरणंसर्वस्येत्यादि। एवं स्वभावविशिष्टो हीश्वरशब्दार्थ इति भावः। प्रशासितृत्वादौ रूपस्यावस्थानं नाम तदनुरूपैर्गुणसन्नहनचेष्टितैस्तत्तदभिव्यञ्जकत्वम्। यद्वा प्रशासितृत्वेऽवस्थानंयथार्हं केशवे वृत्तिमवशाः प्रतिपेदिरे [म.भा.2।68।11] इति न्यायेन स्वदर्शनमात्रेण विपरीताध्यवसायं विनिवर्त्य सम्यक्प्रवृत्तिहेतुत्वात्। कल्याणगुणाकरत्वेऽवस्थानं नाम अवतारविग्रहवदज्ञत्वाद्यभिनयानर्हत्वम्। पालयितृत्वेऽवस्थानं तु सत्त्वप्रर्वतनादिमुखेन। स्रष्ट्टत्वेऽवस्थानं स्वावयवेभ्यो ब्रह्मरुद्रादीनां चातुर्वर्ण्यादीनां च प्रसूतेः। संहर्तृत्वेऽवस्थानं तु वक्ष्यमाणग्रसनादिना। भर्तृत्वेऽवस्थितिस्तुतत्रैकस्थम् [11।13] इत्यादिभिः स्फुटीभविष्यति। परत्वेन शङ्कितानां ब्रह्मरुद्रादीनां स्वैकदेशेऽवस्थानस्यब्रह्माणमीशम् [11।15] इत्यादिना वक्ष्यमाणतया परतरत्वेऽवस्थानं युक्तम्।सकलेतरविसजातीयत्व इति तूक्तसमस्तनिगमनम् तत्फलितं वा परमेश्वरपुरुषोत्तमसम्बुध्यभिप्रेतकथनं वा।पश्य मे योगमैश्वरम् इति गुह्यतमारम्भे स्वयमुक्तस्यापातप्रतीतार्थस्य दर्शनप्रार्थनानुसारेणरूपमैश्वरम् इति। स्वरूपपरतया योजनायाम्ऐश्वरम् इत्येकमौपचारिकम् इतरत्सर्वं मुख्यम्। स्वरूपानुबन्धेन तु विग्रहदिदृक्षा गर्भिता। रूपशब्दः स्वरूपरूपादिसमस्तासाधारणाकारपरो वा। रूपं प्रकारमित्यर्थः।द्रष्टुम् इत्युक्ते दर्शनसमानाकारेऽपि ज्ञाने दर्शनशब्दप्रयोगात्तद्व्यवच्छेदार्थं चाक्षुषज्ञानमात्रपरत्वं च व्यवच्छेत्तुंसाक्षात्कर्तुमित्युक्तम्।
।।11.3।।कथं ज्ञातव्यं मोहो नष्ट इति इत्याशङ्कृय नष्टमोहानां भगवद्वाक्ये विश्वासो नियत इति तदाह -- एवमिति। हे परमेश्वर सर्वाधीश यथा त्वमात्मानं स्वस्वरूपमात्थ वदसिन मे विदुः [10।2] इत्यनेन सर्वाज्ञातत्वं?विष्टभ्याहम् [10।42] इत्यनेन सर्वात्मत्वंददामि बुद्धियोगं तं [10।10] इत्यादिना स्वकृपयैव ज्ञातत्वम्? एवमेतत् यथार्थमेवेत्यर्थः। यथार्थत्वोक्त्या पूर्वमज्ञातस्वरूपोऽहम्? अधुना विभूतिनिरूपणेनविष्टभ्याहं इति कृपोक्त्या च तच्चिन्तनेन सर्वात्मत्वज्ञानयुक्तो जात इति स्वानुभवो व्यञ्जितः। अथातो ज्ञातस्वरूपस्तद्रूपं दर्शयेत्याह -- द्रष्टुमिति। हे पुरुषोत्तम ते तवैव तत्सम्बन्धिनामैश्वरं नानाविलासकं रूपं द्रष्टुमिच्छामि।
।।11.3।।एवमिति। यच्च त्वंविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् इति आत्मानं जगदाधारमात्थ तदपि इत्थमेव न ममात्रासंभावनास्ति। हे परमेश्वर? ते तव रूपं ऐश्वरमीश्वरस्येदं विश्वात्मकं मायामयमित्यर्थः। हे पुरुषोत्तम क्षराक्षरातीत? विश्वरूपं मायामयं? वास्तवं तु रूपं मायातीतमित्यैश्वरमिति पुरुषोत्तमेति च पदाभ्यां लभ्यते। तथाच वक्ष्यतिमाया ह्येषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद। सर्वभूतगुणैर्युक्तं नैवं मां ज्ञातुमर्हसि इति। उक्तं च शुद्धं रूपमभिप्रेत्यअव्यक्तोऽयमिन्त्योऽयम् इति।
।।11.3।।त्वदुक्तं सर्वं यथार्थमित्यभिनन्दन् अभीष्टमाविष्करोति -- एवमिति। यथा येन प्रकारेणं त्वं कथयसि एतदेवमेव न ममासंभावनाविपरीतभावना वा परमेश्वरे त्वयि वक्तरि असंभावनादेरसंभवादिति सूचयन्संबोधयति -- हे परमेश्वररेति। यद्यप्येवं तथापि कृतार्थीबुभूषया ते रुपं द्रस्टुमिच्छामि। निरुपाधिकदर्शनासंभवमभिप्रेत्य रुपं विशिनष्टि। ऐश्वरं ऐश्वर्यशक्त्यादिसंपन्नम्। पुरुषोत्तमेतिसंबोधयन् वस्तुतः क्षराक्षरातीतस्य तव क्षराक्षरात्मकमैश्वरं रुपमत्यद्भुत्मिति तद्दर्शने ममोत्कण्ठा महती वर्तत इति ध्वनयति।
11.3 एवम् thus? एतत् this? यथा as? आत्थ hast declared? त्वम् Thou? आत्मानम् Thyself? परमेश्वर O Supreme Lord? द्रष्टुम् to see? इच्छामि (I) desire? ते Thy? रूपम् form? ऐश्वरम् sovereign? पुरुषोत्तम O Supreme Purusha.Commentary Some commentators take the two halves of this verse as two independent sentences and interpret it thusSo it is? O Supreme Lord? as Thou hast declared Thyself to be. (But still) I desire to see Thy form as Isvara? O Supreme Person.Rupamaisvaram Thy form as Isvara? that of Vishnu as possessed of infinite knowledge? sovereignty? power? strength? prowess and splendour.
11.3 (Now) O Supreme Lord, as Thou hast thus described Thyself, O Supreme Person, I wish to see Thy divine form.
11.3 I believe all as Thou hast declared it. I long now to have a vision of thy Divine Form, O Thou Most High!
11.3 O supreme Lord, so it is, as You speak about Yourself. O supreme Person, I wish to see the divine form of Yours.
11.3 Parama-isvara, O supreme Lord; evam, so; etat, it is-not otherwise; yatha, as; tvam, You; attha, speak; atmanam, about Yourself. Still, purusottama, O supreme Person; iccahmi, I wish; drastum, to see; the aisvaram, divine; rupam, form; te, of Yours, of Visnu, endowed with Knowledge, Sovereignty, Power, Strength, Valour and Formidability.
11.3. As You describe Yourself as the Supreme Lord [of all], it must be so. [Hence], O Supreme Self, I desire to perceive Your Lordly form.
11.3 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.3 O Supreme Lord, it is certain that it is even as you have described Yourself. O Supreme Person, O ocean of compassion for your dependants! I, however, wish to see or wish to realise directly, Your Lordly form peculiar to you - the form as the sovereign, protector, creator, destroyer, supporter of all, the mine of auspicious attributes, supreme and distinct from all other entities.
11.3 O Supreme Lord, how You described Yourself, even so are You. I wish to see Your Lordly form, O Supreme Person.
।।11.3।।हे परमेश्वर आप अपनेको जिस प्रकारसे बतलाते हैं? आप ठीक वैसे ही हैं अन्यथा नहीं। तथापि हे पुरुषोत्तम ज्ञान? ऐश्वर्य? शक्ति? बल? वीर्य और तेजसे युक्त आपके ऐश्वर्यमय वैष्णवरूपको मैं देखना चाहता हूँ।
।।11.3।। --,एवमेतत् नान्यथा यथा येन प्रकारेण आत्थ कथयसि त्वम् आत्मानं परमेश्वर। तथापि द्रष्टुमिच्छामि ते तव ज्ञानैश्वर्यशक्तिबलवीर्यतेजोभिः संपन्नम् ऐश्वरं वैष्णवं रूपं पुरुषोत्तम।।
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एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम।।11.3।।
এবমেতদ্যথাত্থ ত্বমাত্মানং পরমেশ্বর৷ দ্রষ্টুমিচ্ছামি তে রূপমৈশ্বরং পুরুষোত্তম৷৷11.3৷৷
এবমেতদ্যথাত্থ ত্বমাত্মানং পরমেশ্বর৷ দ্রষ্টুমিচ্ছামি তে রূপমৈশ্বরং পুরুষোত্তম৷৷11.3৷৷
એવમેતદ્યથાત્થ ત્વમાત્માનં પરમેશ્વર। દ્રષ્ટુમિચ્છામિ તે રૂપમૈશ્વરં પુરુષોત્તમ।।11.3।।
ਏਵਮੇਤਦ੍ਯਥਾਤ੍ਥ ਤ੍ਵਮਾਤ੍ਮਾਨਂ ਪਰਮੇਸ਼੍ਵਰ। ਦ੍ਰਸ਼੍ਟੁਮਿਚ੍ਛਾਮਿ ਤੇ ਰੂਪਮੈਸ਼੍ਵਰਂ ਪੁਰੁਸ਼ੋਤ੍ਤਮ।।11.3।।
ಏವಮೇತದ್ಯಥಾತ್ಥ ತ್ವಮಾತ್ಮಾನಂ ಪರಮೇಶ್ವರ. ದ್ರಷ್ಟುಮಿಚ್ಛಾಮಿ ತೇ ರೂಪಮೈಶ್ವರಂ ಪುರುಷೋತ್ತಮ৷৷11.3৷৷
ഏവമേതദ്യഥാത്ഥ ത്വമാത്മാനം പരമേശ്വര. ദ്രഷ്ടുമിച്ഛാമി തേ രൂപമൈശ്വരം പുരുഷോത്തമ৷৷11.3৷৷
ଏବମେତଦ୍ଯଥାତ୍ଥ ତ୍ବମାତ୍ମାନଂ ପରମେଶ୍ବର| ଦ୍ରଷ୍ଟୁମିଚ୍ଛାମି ତେ ରୂପମୈଶ୍ବରଂ ପୁରୁଷୋତ୍ତମ||11.3||
ēvamētadyathāttha tvamātmānaṅ paramēśvara. draṣṭumicchāmi tē rūpamaiśvaraṅ puruṣōttama৷৷11.3৷৷
ஏவமேதத்யதாத்த த்வமாத்மாநஂ பரமேஷ்வர. த்ரஷ்டுமிச்சாமி தே ரூபமைஷ்வரஂ புருஷோத்தம৷৷11.3৷৷
ఏవమేతద్యథాత్థ త్వమాత్మానం పరమేశ్వర. ద్రష్టుమిచ్ఛామి తే రూపమైశ్వరం పురుషోత్తమ৷৷11.3৷৷
11.4
11
4
।।11.4।। हे प्रभो ! मेरे द्वारा आपका वह परम ऐश्वर रूप देखा जा सकता है -- ऐसा अगर आप मानते हैं, तो हे योगेश्वर ! आप अपने उस अविनाशी स्वरूपको मुझे दिखा दीजिये।
।।11.4।। हे प्रभो ! यदि आप मानते हैं कि मेरे द्वारा वह आपका रूप देखा जाना संभव है, तो हे योगेश्वर ! आप अपने अव्यय रूप का दर्शन कराइये।।
।।11.4।। पूर्व श्लोक में व्यक्त की गई इच्छा को ही यहाँ पूर्ण नम्रता एवं सम्मान के साथ दोहराया गया है। अपने सामान्य व्यावहारिक जीवन में भी हम सम्मान पूर्वक प्रार्थना अथवा नम्र अनुरोध करते समय इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हैं? जैसे यदि मुझे कुछ कहने की अनुमति दी जाये? मुझ पर बड़ी कृपा होगी? मुझे प्रस्तुत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है इत्यादि। पाण्डव राजपुत्र अर्जुन? मानो? पुनर्विचार के फलस्वरूप पूर्व प्रयुक्त अपनी सैनिकी भाषा को त्यागकर नम्रभाव से अनुरोध करता है कि? यदि आप मुझे योग्य समझें? तो अपने अव्यय रूप का मुझे दर्शन कराइये।यहाँ बतायी गयी नम्रता एवं सम्मान किसी निम्न स्तर की इच्छा को पूर्ण कराने के लिए झूठी भावनाओं का प्रदर्शन नहीं है। भगवान् को सम्बोधित किये गये विशेषणों से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है। प्रथम पंक्ति में अर्जुन भगवान् को प्रभो कहकर और फिर? योगेश्वर के नाम से सम्बोधित करता है। यह इस बात का सूचक है कि अर्जुन को अब यह विश्वास होने लगा था कि श्रीकृष्ण केवल कोई मनुष्य नहीं हैं? जो अपने शिष्य को मात्र बौद्धिक सन्तोष अथवा आध्यात्मिक प्रवचन देने में ही समर्थ हों। वह समझ गया है कि श्रीकृष्ण तो स्वयं प्रभु अर्थात् परमात्मा और योगेश्वर हैं। इसलिए यदि वे यह समझते हैं कि उनका शिष्य अर्जुन विराट् के दर्शन से लाभान्वित हो? तो वे उसकी इच्छा को पूर्ण करने में सर्वथा समर्थ हैं।यदि कोई उत्तम अधिकारी शिष्य एक सच्चे गुरु से कोई नम्र अनुरोध करता है? तो वह कभी भी गुरु के द्वारा अनसुना नहीं किया जाता है अत
।।11.4।। व्याख्या--'प्रभो'-- 'प्रभु' नाम सर्वसमर्थका है, इसलिये इस सम्बोधनका भाव यह मालूम देता है कि यदि आप मेरेमें विराट्रूप देखनेकी सामर्थ्य मानते हैं, तब तो ठीक है; नहीं तो आप मेरेको ऐसी सामर्थ्य दीजिये, जिससे मैं आपका वह ऐश्वर (ईश्वरसम्बन्धी) रूप देख सकूँ।
null
।।11.4।।तत् सर्वस्य स्रष्ट्ट सर्वस्य प्रशासितृ सर्वस्य आधारभूतं त्वद्रूपं मया द्रष्टुं शक्यम् इति यदि मन्यसे? ततो योगेश्वर योगो ज्ञानादिकल्याणगुणयोगःपश्य मे योगमैश्वरम् (गीता 11।8) इति हि वक्ष्यते। त्वद्व्यतिरिक्तस्य कस्य अपि असंभावितानां ज्ञानबलैश्वर्यवीर्यशक्तितेजसां निधे आत्मानं त्वाम् अव्ययं मे दर्शय त्वम् अव्ययम् इति क्रियाविशेषणम् त्वां सकलं मे दर्शय इत्यर्थः।एवं कौतूहलान्वितेन हर्षगद्गद्कण्ठेन पार्थेन प्रार्थितो भगवान् उवाच --
।।11.4।।द्रष्टुमयोग्ये कुतो दिदृक्षेत्याशङ्क्याह -- मन्यस इति। प्रभवति सृष्टिस्थितिसंहारप्रवेशप्रशासनेभ्य इति प्रभुः। लक्षणया योगशब्दार्थमाह -- योगिन इति। तत इत्यादि व्याचष्टे -- यस्मादिति।
।।11.4।।तत्रापि न मत्कृत्या लभ्यमिदं किन्तु त्वदिच्छयैवेत्याह -- मन्यसे यदीति। योगेश्वरेति साधारणो यो योगी भवति सोऽपि स्वमाहात्म्यं दर्शयति? त्वं तु योगेश्वरः सर्वसमर्थ इति दर्शय। अथवा ननु तव सारथ्ये निषण्णं वसुदेवसुतं मां किमित्येवं स्तौषीति चन्मैवं भ्रामयितव्यं? त्वदादिमुनिवाक्यविश्वासतः पुरुषोत्तमं परमेश्वरमेव त्वां जानन्नपीत्याशयेनाह योगेश्वरेति। न च तवैश्वर्यदर्शने कश्चित्प्रयासो योगेश्वरत्वादिति भावः।
।।11.4।।द्रष्टुमयोग्ये कुतस्ते दिदृक्षेत्याशङ्क्याह -- मन्यस इति। प्रभवति सृष्टिस्थितिसंहारप्रवेशप्रशासनेष्विति प्रभुः हे प्रभो सर्वस्वामिन्? तत्तवैश्वरं रूपं मयार्जुनेन द्रष्टुं शक्यमिति यदि मन्यसे जानासीच्छसि वा हे योगेश्वर सर्वेषामणिमादिसिद्धिशालिनां योगानां योगिनामीश्वर? ततस्त्वदिच्छावशादेव मे मह्यमत्यर्थमर्थिने त्वं परमकारुणिको दर्शय चाक्षुषज्ञानविषयीकारय आत्मानमैश्वररूपविशिष्टमव्ययमक्षयम्।
।।11.4।। न चाहं द्रष्टुमिच्छामीत्येतावतैव त्वया तद्रूपं दर्शयितव्यम्। किं तर्हि -- मन्यस इति। योगिन एव योगास्तेषामीश्वर? मयार्जुनेन तद्रूपं द्रष्टुं शक्यमिति यदि मन्यसे ततस्तर्हि तद्रूपवन्तमात्मानमव्ययं नित्यं मम दर्शय।
।।11.4।।सर्वस्य स्रष्ट्टत्वादिना तच्छब्दपरामृष्टश्रुताकारोक्तिः। अत्रापि स्वरूपपरत्वे मुख्यता रूपपरत्वे? प्रकारमात्रपरत्वे च प्राग्वदनुसन्धेयम्।योगो ज्ञानादिकल्याणगुणयोग इति -- अत्राणिमाद्यैश्वर्यशक्तिरपि गुणानुप्रविष्टा? योगनिर्वाहकत्वादिमात्रं तु दिदृक्षिताकारान्तरङ्गत्वाभावादत्र न विवक्षितमिति भावः। दर्शयिष्यमाणो ह्याकारोऽत्र दिदृक्षितः। न चार्जुनायाष्टाङ्गयोगाद्यर्थान्तरं प्रदर्श्यते? योगशब्दश्च प्रत्यभिज्ञायत इत्यभिप्रायेणाहपश्येति। प्रभुशब्देन यदि त्वं मन्यसे? तदा न किञ्चित्ते दुष्करमित्यभिप्रेतं गुणविशेषवत्त्वं दर्शयति -- त्वद्व्यतिरिक्तस्येत्यादिना। अथवा योगेश्वरशब्दाभिप्रेतोक्तिरियम्।अश्वपतिर्धनपतिः इत्यादिवद्गुणभूयस्त्वापेक्षया गुणानामपि नियमनेन वा योगेश्वरशब्द इति भावः।त्वाम् इति आत्मशब्दस्यार्थान्तरं त्वयुक्तम्?माम् इति च वक्ष्यत इति भावः। अव्ययशब्दस्यात्र निष्प्रयोजनत्वशङ्काव्युदासाय? क्षरप्रपञ्चाख्यतद्रूपप्रदर्शनविरोधपरिहाराय? विशेषतो दिदृक्षोरपेक्षितार्थपरत्वं दर्शयतिअव्ययमिति।क्रियाविशेषणमिति। ततः किमित्यत्राहत्वां सकलमिति। समस्तगुणविभूतिविग्रहादिविशिष्टरूपमित्यर्थः।
।।11.4।।स्वेच्छायां सत्यामपि भगवदिच्छाभावे च द्रष्टुमपि निर्बन्धेन न फलतीति विज्ञापयति -- मन्यस इति। हे प्रभो सर्वकरणसमर्थ यदि तद्रूपं मया द्रष्टुं शक्यं दर्शनानन्तरं फलरूपं भवति तथा चेन्मन्यसे फलरूपं भवत्विति? तदा योगेश्वर योगिनः स्वयोगबलेन सामर्थ्यं प्रकटयन्ति तेषां योग आगन्तुको धर्मः त्वं तु योगस्यापीश्वरस्तेन मम दर्शनसामर्थ्यमपि कृपया दत्त्वा दर्शय। एवं प्रार्थनायां प्रभुस्तद्रूपं दर्शयित्वा तत्रैव लीनं कुर्यात् तदा भक्तिरसानुभूतपुरुषोत्तमरूपानुभवो न भवेदतो विज्ञापयति -- तत इति। तत एतन्मनोरथपूर्त्यनन्तरम्। अव्ययमविनाशिनं आत्मानं पुरुषोत्तममानन्दमयं दर्शयेति भावः।
।।11.4।।मन्यस इति। हे योगेश्वर योगानां योगिनामीश्वर? तद्रूपं यदि मया द्रष्टुं शक्यमिति मन्यसे यदि मयि तद्दर्शनाधिकारं पश्यसि ततस्तर्हि मे मह्यमव्ययं मायामयमात्मानं दर्शय। मायामयत्वादेवास्याव्ययत्वम्। मायायां हि सर्वं सर्वात्मकं सर्वदास्तीति प्रसिद्धम्। यथोक्तं वसिष्ठेनवर्तमानमतीतं च भविष्यत्स्थूलमण्वपि। तथा दूरमदूरं च निमेषः कल्प इत्यपि। चिदात्मनि स्थितान्येव पश्य मायाविजृम्भितम् इति। नहि मरुमरीचिसरसी क्रमशः शुष्यति। अतो मायामयत्वादेवास्यैश्वरस्य रूपस्याप्यव्ययत्वम्।
।।11.4।।यदि मया द्रष्टुं शक्यं त्वं मन्यसे चिन्तयसि ततो मे मह्यं मदर्थमात्मानमव्ययमपक्षयरहितं दर्शय दृष्टिगोचरं कुरु। नत्वाज्ञां करोमि किंतु प्रार्थयामि। ब्रह्मादिप्रभौ त्वय्याज्ञाया अयुक्तत्वादिति सूचयन्नाह -- हे प्रभो इति। मम दर्शनासामर्थ्येऽपि त्वं दर्शियितुं समर्थोऽसीति वा संबोधनाशयः। यतो योगानां मत्वर्थलक्षणया योगिनामैश्वरुपदर्शने समर्थानां त्वमीश्वरस्तस्मान्मामपि योगिनं विधायात्मानं दर्शयेति ध्वनयन्संबोधयति -- हे योगेश्वरेति।
11.4 मन्यसे Thou thinkest? यदि if? तत् that? शक्यम् possible? मया by me? द्रष्टुम् to see? इति thus? प्रभो O Lord? योगेश्वर O Lord of Yogins? ततः then? मे me? त्वम् Thou? दर्शय show? आत्मानम् (Thy) Self? अव्ययम् imperishable.Commentary Arjuna is very keen and eager to see the Cosmic Form of the Lord. He prays to Him to grant him the vision. This supreme vision can be obtained only through His grace.Yogesvara also means the Lord of Yoga. A Yogi is one who is endowed with the eight psychic powers (Siddhis). The Lord of the Yogins is Yogesvara. And? Yoga is identity of the individual soul with the Absolute. He who is able to bestow this realisation of identity on the deserving spiritual aspirant is Yogesvara.He Who is able to create? preserve? destroy? veil and graciously release is the Lord. (These five actions? Panchakriyas? are known respectively as Srishti? Sthiti? Samhara? Tirodhana and Anugraha.)
11.4 If Thou, O Lord, thinkest it possible for me to see it, do Thou, then, O Lord of the Yogins, show me Thy imperishable Self.
11.4 If Thou thinkest that it can be made possible for me to see it, show me, O Lord of Lords, Thine own Eternal Self.
11.4 O Lord, if You think that it is possible to be seen by me, then, O Lord of Yoga, You show me Your eternal Self.
11.4 Prabho, O Lord, Master; yadi, if; manyase, You think; iti, that; tat sakyam, it is possible; drastum, to be see; maya, by me, by Arjuna; tatah, then, since I am very eager to see, therefore; yogeswara, O Lord of Yoga, of yogis-Yoga stands for yogis; their Lord is yogeswara; tvam, You; darsaya, show; me, me, for my sake; atmanam avyayam, Your eternal Self. Being thus implored by Arjuna,
11.4. O Master ! If you think that it is possible for me to see that form, then, O Lord of the Yogins, please show me Your Immortal Self.
11.4 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.4 If You think that Your form as all-creator, as all-ruler and as all-supporter, can be seen by me, then, O Lord of Yoga - Yoga is the property of having knowledge and other auspicious attributes, for it will be said later on: 'Behold My Lordly Yoga' (11.8) - O treasure of knowledge, strength, sovereignty, valour, power and glory which are inconceivable in any one else! Reveal Yourself to me completely. 'Avyayam' (completely) is an adverb. The meaning is, 'Reveal everything about Yourself to me.' Thus, prayed to by Arjuna, who was desirous to know, and whose voice was therefore choked with fervour, the Lord said as follows to him:
11.4 If you think, O Lord, that it can be seen by me, then, O Lord of Yoga, reveal Yourself to me completely.
।।11.4।।हे स्वामिन् यदि मुझ अर्जुनद्वारा आप अपना वह रूप देखा जाना सम्भव समझते हैं? तो हे योगेश्वर अर्थात् योगियोंके ईश्वर मैं आपके उस रूपका दर्शन करनेकी उत्कट इच्छा करता हूँ? इसलिये आप मुझे अपना वह अविनाशी स्वरूप दिखलाइये।,
।।11.4।। --,मन्यसे चिन्तयसि यदि मया अर्जुनेन तत् शक्यं द्रष्टुम् इति प्रभो? स्वामिन्? योगेश्वर योगिनो योगाः? तेषां ईश्वरः योगेश्वरः? हे योगेश्वर। यस्मात् अहम् अतीव अर्थी द्रष्टुम्? ततः तस्मात् मे मदर्थं दर्शय त्वम् आत्मानम् अव्ययम्।।एवं चोदितः अर्जुनेन श्री भगवान् उवाच --,
।।11.4।।मन्यसे यदि इत्यत्र प्रभुशब्दो न स्वामित्वमात्रार्थः किन्तु तवातिसामर्थ्यात् त्वत्सामर्थ्येनैवातीन्द्रियस्यापि दर्शनमिति भावेन प्रयुक्त इत्याशयेनाह -- प्रभुरिति। ईश्वरस्य निरतिशयसामर्थ्ये प्रमाणमाह -- नास्तीति। भूतं समर्थम्। प्रभुशब्दस्य समर्थार्थत्वेऽभिधानमाह -- प्रभुरिति।
।।11.4।।प्रभुः समर्थःनास्ति तस्मात्परं भूतं पुरुषाद्वै सनातनात् इति मोक्षधर्मे ()प्रभुरीशः समर्थश्च इत्याद्यभिधानम्।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो। योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयाऽत्मानमव्ययम्।।11.4।।
মন্যসে যদি তচ্ছক্যং মযা দ্রষ্টুমিতি প্রভো৷ যোগেশ্বর ততো মে ত্বং দর্শযাত্মানমব্যযম্৷৷11.4৷৷
মন্যসে যদি তচ্ছক্যং মযা দ্রষ্টুমিতি প্রভো৷ যোগেশ্বর ততো মে ত্বং দর্শযাত্মানমব্যযম্৷৷11.4৷৷
મન્યસે યદિ તચ્છક્યં મયા દ્રષ્ટુમિતિ પ્રભો। યોગેશ્વર તતો મે ત્વં દર્શયાત્માનમવ્યયમ્।।11.4।।
ਮਨ੍ਯਸੇ ਯਦਿ ਤਚ੍ਛਕ੍ਯਂ ਮਯਾ ਦ੍ਰਸ਼੍ਟੁਮਿਤਿ ਪ੍ਰਭੋ। ਯੋਗੇਸ਼੍ਵਰ ਤਤੋ ਮੇ ਤ੍ਵਂ ਦਰ੍ਸ਼ਯਾਤ੍ਮਾਨਮਵ੍ਯਯਮ੍।।11.4।।
ಮನ್ಯಸೇ ಯದಿ ತಚ್ಛಕ್ಯಂ ಮಯಾ ದ್ರಷ್ಟುಮಿತಿ ಪ್ರಭೋ. ಯೋಗೇಶ್ವರ ತತೋ ಮೇ ತ್ವಂ ದರ್ಶಯಾತ್ಮಾನಮವ್ಯಯಮ್৷৷11.4৷৷
മന്യസേ യദി തച്ഛക്യം മയാ ദ്രഷ്ടുമിതി പ്രഭോ. യോഗേശ്വര തതോ മേ ത്വം ദര്ശയാത്മാനമവ്യയമ്৷৷11.4৷৷
ମନ୍ଯସେ ଯଦି ତଚ୍ଛକ୍ଯଂ ମଯା ଦ୍ରଷ୍ଟୁମିତି ପ୍ରଭୋ| ଯୋଗେଶ୍ବର ତତୋ ମେ ତ୍ବଂ ଦର୍ଶଯାତ୍ମାନମବ୍ଯଯମ୍||11.4||
manyasē yadi tacchakyaṅ mayā draṣṭumiti prabhō. yōgēśvara tatō mē tvaṅ darśayā.tmānamavyayam৷৷11.4৷৷
மந்யஸே யதி தச்சக்யஂ மயா த்ரஷ்டுமிதி ப்ரபோ. யோகேஷ்வர ததோ மே த்வஂ தர்ஷயாத்மாநமவ்யயம்৷৷11.4৷৷
మన్యసే యది తచ్ఛక్యం మయా ద్రష్టుమితి ప్రభో. యోగేశ్వర తతో మే త్వం దర్శయాత్మానమవ్యయమ్৷৷11.4৷৷
11.5
11
5
।।11.5।। श्रीभगवान् बोले -- हे पृथानन्दन ! अब मेरे अनेक तरहके, अनेक अनेक वर्णों और आकृतियोंवाले सैकड़ों-हजारों दिव्यरूपोंको तू देख।
।।11.5।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे पार्थ ! मेरे सैकड़ों तथा सहस्रों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा आकृति वाले दिव्य रूपों को देखो।।
।।11.5।। यदि समस्त आभूषण का मूल तत्त्व स्वर्ण है? तो विश्व का प्रत्येक आभूषण समष्टि स्वर्ण में उपलब्ध होना चाहिए। आभूषण में स्वर्ण को देखना अपेक्षत सरल है? क्योंकि वह इन्द्रियों के द्वारा किया जाने वाला दर्शन? है अर्थात् वह इन्द्रियगोचर है। परन्तु नाना आकार प्रकार तथा वर्णों के समस्त आभूषणों को समष्टि स्वर्ण में देख पाना अधिक कठिन है? क्योंकि वह बुद्धि द्वारा दिया जाने वाला दर्शन है अर्थात बुद्धिगम्य दर्शन है।इस बात को ध्यान में रखकर भगवान् के कथन को पढ़ने पर उनका अभिप्राय स्वत स्पष्ट हो जाता है। मेरे शतश और सहस्रश नाना प्रकार आकार तथा वर्णों के अलौकिक रूपों को देखो। भगवान् श्रीकृष्ण को अपना विराट् स्वरूप धारण करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि अर्जुन को केवल इतना ही करना था कि अपने समक्ष स्थित रूप को वह देखे। परन्तु दुर्भाग्य से? द्रष्टव्य रूप को देखने के लिए उपयुक्त दर्शन का उपकरण उसके पास नहीं था? और इसलिए? अर्जुन उन सबको नहीं देख सका? जो भगवान् श्रीकृष्ण में पहले से ही विद्यमान था।सुदूर स्थित कोई नक्षत्र या किसी अन्य वस्तु को देखने के लिए दूरदर्शी यन्त्र का उपयोग किया जाता है। परन्तु उस यन्त्र की अक्षरेखा पर होने मात्र से वह वस्तु दिखाई नहीं दे सकती। उसे देखने के लिये दूरदर्शी यन्त्र को समायोजित करना पड़ता है? जिससे कि वह वस्तु सूक्ष्म निरीक्षक के दृष्टिपथ में आ जाये। इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने स्वयं को विराट् रूप में परिवर्तित नहीं किया? परन्तु अर्जुन को केवल आन्तरिक समायोजन करने में सहायता प्रदान की जिससे कि वह भगवान् श्रीकृष्ण में विद्यमान विश्वरूप का अवलोकन कर सके। इसीलिये? भगवान् कहतें हैं कि? देखो। वे इस श्लोक में उन दर्शनीय वस्तुओं को गिनाते हैं।वे दिव्य रूप कौनसे हैं अगले श्लोक में बताते हैं
।।11.5।। व्याख्या--'पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः'--अर्जुनकी संकोचपूर्वक प्रार्थनाको सुनकर भगवान् अत्यधिक प्रसन्न हुए; अतः अर्जुनके लिये 'पार्थ' सम्बोधनका प्रयोग करते हुए कहते हैं कि तू मेरे रूपोंको देख। रूपोंमें भी तीन-चार नहीं, प्रत्युत सैकड़ों-हजारों रूपोंको देख अर्थात् अनगिनत रूपोंको देख। भगवान्ने जैसे विभूतियोंके विषय कहा है कि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं आ सकता, ऐसे ही यहाँ भगवान्ने,अपने रूपोंकी अनन्तता बतायी है।
null
।।11.5।।श्री भगवानुवाच -- पश्य मे सर्वाश्रयाणि रूपाणि अथ शतशः सहस्रशः च नानाविधानि नानाप्रकाराणि दिव्यानि अप्राकृतानि नानावर्णाकृतीनि शुक्लकृष्णादिनानावर्णानि नानाकाराणि च पश्य।
।।11.5।।अर्जुनमतिभक्तं सखायं प्रार्थितप्रतिश्रवणेनाश्वासयितुमाह -- एवमिति।
।।11.5।।एवं प्रार्थितः सन्नद्भुतमक्षरस्वरूपं दर्शयिष्यन्सावधानो भव इत्येवं अर्जुनमभिमुखीकरोति पश्येतिचतुर्भिः।पश्य मे पार्थ रूपाणि इति कूटस्थत्वादक्षरे स्वरूपे बहूनि रूपाणि सन्तीति बहुवचनम्।
।।11.5।।एवमत्यन्तभक्तेनार्जुनेन प्रार्थितः सन् श्रीभगवानुवाच -- पश्येति। अत्र क्रमेण श्लोकचतुष्टयेऽपि पश्येत्यावृत्त्यात्यद्भुतरूपाणि दर्शयिष्यामि त्वं सावधानो भवेत्यर्जुनमभिमुखीकरोति भगवान्। शतशोऽथ सहस्रश इत्यपरिमितानि। तानि च नानाविधान्यनेकप्रकाराणि दिव्यान्यत्यद्भुतानि नाना विलक्षणा वर्णा नीलपीतादिप्रकारास्तथा आकृतयश्चावयवसंस्थानविशेषा येषां तानि नानावर्णाकृतीनि च मम रूपाणि पश्य। अर्हे लोट्। द्रष्टुमर्हो भव हे पार्थ।
।।11.5।। एवं प्रार्थितः सन्नत्यद्भुतं रूपं दर्शयिष्यन्सावधानो भवेत्येवमर्जुनमभिमुखीकरोति -- श्रीभगवानुवाच। पश्येति चतुर्भिः। रूपस्यैकत्वेऽपि नानाविधत्वाद्रूपाणीति बहुवचनम्। अपरिमितान्यनेकप्रकाराणि देव्यान्यलौकिकानि मम रूपाणि पश्य। वर्णाः शुक्लकृष्णादयः। आकृतयोऽवयवसन्निवेशविशेषाः। नाना अनेकवर्णा आकृतयश्च येषां तानि नानावर्णाकृतीनि।
।।11.5।।अर्जुनस्य भगवत आत्मप्रदर्शने हेतुं प्रश्नादिप्रकारफलितमवस्थाविशेषं दर्शयन्पश्य इत्यादिभगवद्वाक्यस्य सङ्गतिमाहएवमिति। वक्ष्यमाणप्रकारमनुसन्धायाहसर्वाश्रयाणीति। बहुव्रीहित्वान्नपुंसकत्वम्। आदित्यमण्डलादीन्यनन्तान्यधिकरणानि। यद्वा? आश्रयशब्द उपचाराद्विवक्षाभेदेन वा आश्रितपरः।शतशः सहस्रशश्चेत्यनेन परव्यूहविभवाद्यवच्छेदक्रोडीकृतानन्ताप्राकृतविग्रहवत्त्वं दर्शितम्। यदेकादित्यमण्डलवर्ति रूपं? तत्समानमनन्तब्रह्माण्डेष्वादित्यमण्डलवर्त्यसङ्ख्यातं रूपम्। एवं श्रीविश्वरूपादिरूपान्तरेष्वपि।रूपं रूपं प्रतिरूपः [कठो.5।910] इत्यादिश्रुत्याऽयमप्यर्थो विवक्षित इति केचित्। यथा द्रक्ष्यसि? तथा करिष्यामीत्यभिप्रायेण पश्येत्युक्तिः।नानाविधानि इत्यनेन प्रत्येकंभूषणायुधलाञ्छनभुजसङ्ख्यादिप्रकारविशेषानन्त्यमत्र विवक्षितमित्याह -- नानाप्रकाराणीति।अप्राकृतानीति -- अत्र दिव्यशब्देन दिवि वर्तमानत्वादिकं न विवक्षितं? पृथिव्यादिव्याप्तेरपि वक्ष्यमाणत्वात्,द्रव्यवैलक्षण्यं चावश्यवक्तव्यमित्यभिप्रायः। वासुदेवादिषु चतुर्षु युगभेदेन सितरक्तपीतकृष्णरूपपरिवृत्तेरवतारान्तरेषु च तत्तत्फलार्थिध्यानानुगुण्याच्च नानावर्णत्वम्। आकृतिशब्देन सुरनरतिर्यगादिसमानसंस्थानविशेषो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाह -- नानाकाराणीति।
।।11.5।।एवं प्रार्थितः सन् तद्रूपं दर्शयिष्यन्नर्जुनं सावधानं करोति भगवान् -- पश्येत्यादिचतुर्भिः। हे पार्थ भक्तपुत्र कृपया दर्शयामीति सम्बोधनम्। अन्यथा पुरुषोत्तमदर्शनतोऽन्यदर्शनेच्छायामेतद्रसानुभवमपि न कारयेदिति भावः। मे मम शतशः सहस्रशः असङ्ख्यातानि? शतशः सहस्रशः यावदिच्छसि तावद्वा? नानाविधानि नानाफलकारकाणि रूपाणि यस्य नानाविधान्यपि दिव्यानि अलौकिकानि क्रीडात्मकानि? न तु प्रदर्शनार्थमेव कृतानि च पुनः तथैव नानावर्णाकृतीनि नाना अनेके वर्णाः शुक्ललोहितादयः आकृतयः अवयवादिविशेषाश्च येषां तानि।
।।11.5।।एवं प्रार्थितः सन् भगवानुवाच -- पश्येति। शतश इत्यादिनानन्तानीत्युक्तम्। नानावर्णानि नानाकृतीनि च।
।।11.5।।एवं प्रेरितो भगवानुवाच। पश्य मम शतशोऽथ सहस्त्रशः असंख्यातानि रुपाणि नानाविधानि अनेकप्रकारणि दिव्यानि अप्राकृतानि नाना नीलपीतादिप्रकारा वर्णस्तथा आकृतयोऽवयवसन्निवेशविशेषा येषां तानि यतस्त्वं पृथापुत्रः मम प्रेमास्पदः सखा अतः पश्येत द्योतयन् संबोधयति हे पार्थेति।
11.5 पश्य behold? मे My? पार्थ O Partha? रूपाणि forms? शतशः by hundreds? अथ and? सहस्रशः by thousands? नानाविधानि of different sorts? दिव्यानि divine? नानावर्णाकृतीनि of various colours and shapes? च and.Commentary Divyani Divine supernatural.Satasah? Sahasrasah By the hundreds and thousands -- countless.O Arjuna? I want you to behold the Cosmic Form. All beings and entities are there. The fat and the lean? the short and the tall? the red and the black? the active and the passive? the rich and the poor? the intelligent and the dull? the healthy and the sick? the noisy and the silent? those that are awake? those that are asleep? the beautiful and the ugly? and all grades of beings with their distinctive marks are all there. The blueness of the sky? the yellowness of the silk? the redness of the twilight? the blackness of the coal? the whiteness of the snow? and the greenness of the leaves will be seen by you. You will also behold the objects of various shapes.
11.5 The Blessed Lord said Behold, O Arjuna, forms of Mine, by the hundreds and thousands, of different sorts, divine, and of various colours and shapes.
11.5 Lord Shri Krishna replied: Behold, O Arjuna! My celestial forms, by hundred and thousands, various in kind, in colour and in shape.
11.5 The Blessed Lord said O son of Prtha, behold My forms in (their) hundreds and in thousands, of different kinds, celestial, and of various colours and shapes.
11.5 O son of Prtha, pasya, behold; me, My; rupani, forms; satasah, in (their) hundreds; atha, and; sahasrasah, in thousands, i.e. in large numbers. And they are nana-vidhani, of different kinds; divyani, celestial, supernatural; and nana-varna-akrtini, of various colours and shapes-forms which have different (nana) colours (varna) such as blue, yellow, etc. as also (different) shapes (akrtayah), having their parts differently arranged.
11.5. The Bhagavat said Behold, O son of Prtha, My divine forms in hundreds and in thousands and of varied nature and of varied colours and varied shapes.
11.5 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.5 The Lord said Behold My forms which are the foundation of all, hundreds upon thousands, varied and possessing manifold modes. They are divine, i.e., supernatural. They are multi-formed and multi-coloured like white, black etc. And they are of varied configurations. Behold that form!
11.5 The Lord said Behold My forms, O Arjuna, hundreds upon thousands, manifold, divine, varied in hue and shape.
।।11.5।।अर्जुन इस प्रकार प्रेरित हुए श्रीभगवान् बोले --, हे पार्थ तू मेरे सैकड़ोंहजारों अर्थात् अनेकों रूपोंको देख? जो कि नाना प्रकारके भेदवाले और दिव्य अर्थात् देवलोकमें होनेवाले -- अलौकिक हैं तथा नाना प्रकारके वर्ण और आकृतिवाले हैं अर्थात् जिनके नील? पीत आदि नाना प्रकारके वर्ण और अनेक आकारवाले अवयव हैं? ऐसे रूपोंको देख।
।।11.5।। --,पश्य मे पार्थ? रूपाणि शतशः अथ सहस्रशः? अनेकशः इत्यर्थः। तानि च नानाविधानि अनेकप्रकाराणि दिवि भवानि दिव्यानि अप्राकृतानि नानावर्णाकृतीनि च नाना विलक्षणाः नीलपीतादिप्रकाराः वर्णाः तथा आकृतयश्च अवयवसंस्थानविशेषाः येषां रूपाणां तानि नानावर्णाकृतीनि च।।
null
null
श्री भगवानुवाच पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।11.5।।
শ্রী ভগবানুবাচ পশ্য মে পার্থ রূপাণি শতশোথ সহস্রশঃ৷ নানাবিধানি দিব্যানি নানাবর্ণাকৃতীনি চ৷৷11.5৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ পশ্য মে পার্থ রূপাণি শতশোথ সহস্রশঃ৷ নানাবিধানি দিব্যানি নানাবর্ণাকৃতীনি চ৷৷11.5৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ પશ્ય મે પાર્થ રૂપાણિ શતશોથ સહસ્રશઃ। નાનાવિધાનિ દિવ્યાનિ નાનાવર્ણાકૃતીનિ ચ।।11.5।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਪਸ਼੍ਯ ਮੇ ਪਾਰ੍ਥ ਰੂਪਾਣਿ ਸ਼ਤਸ਼ੋਥ ਸਹਸ੍ਰਸ਼। ਨਾਨਾਵਿਧਾਨਿ ਦਿਵ੍ਯਾਨਿ ਨਾਨਾਵਰ੍ਣਾਕਰਿਤੀਨਿ ਚ।।11.5।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಪಶ್ಯ ಮೇ ಪಾರ್ಥ ರೂಪಾಣಿ ಶತಶೋಥ ಸಹಸ್ರಶಃ. ನಾನಾವಿಧಾನಿ ದಿವ್ಯಾನಿ ನಾನಾವರ್ಣಾಕೃತೀನಿ ಚ৷৷11.5৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച പശ്യ മേ പാര്ഥ രൂപാണി ശതശോഥ സഹസ്രശഃ. നാനാവിധാനി ദിവ്യാനി നാനാവര്ണാകൃതീനി ച৷৷11.5৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ପଶ୍ଯ ମେ ପାର୍ଥ ରୂପାଣି ଶତଶୋଥ ସହସ୍ରଶଃ| ନାନାବିଧାନି ଦିବ୍ଯାନି ନାନାବର୍ଣାକୃତୀନି ଚ||11.5||
śrī bhagavānuvāca paśya mē pārtha rūpāṇi śataśō.tha sahasraśaḥ. nānāvidhāni divyāni nānāvarṇākṛtīni ca৷৷11.5৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச பஷ்ய மே பார்த ரூபாணி ஷதஷோத ஸஹஸ்ரஷஃ. நாநாவிதாநி திவ்யாநி நாநாவர்ணாகரிதீநி ச৷৷11.5৷৷
శ్రీ భగవానువాచ పశ్య మే పార్థ రూపాణి శతశోథ సహస్రశః. నానావిధాని దివ్యాని నానావర్ణాకృతీని చ৷৷11.5৷৷
11.6
11
6
।।11.6।। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! तू बारह आदित्योंको, आठ वसुओंको, ग्यारह रुद्रोंको और दो अश्विनीकुमारोंको तथा उनचास मरुद्गणोंको देख। जिनको तूने पहले कभी देखा नहीं, ऐसे बहुत-से आश्चर्यजनक रूपोंको भी तू देख।
।।11.6।। हे भारत ! (मुझमें) आदित्यों, वसुओं, रुद्रों तथा अश्विनीकुमारों और मरुद्गणों को देखो, तथा और भी अनेक इसके पूर्व कभी न देखे हुए आश्चर्यों को देखो।।
।।11.6।। द्रष्टव्य रुपों में भगवान् केवल महत्त्वपूर्ण देवताओं की ही गणना करते हैं। लौकिक जगत् में भी किसी जनसमुदाय का वर्णन करने में उसमें उपस्थित समाज के उन कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों का ही नाम निर्देश किया जाता है? जो उस समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं।यहाँ भी भगवान् के शब्दों में इस विश्वरूप का वर्णन करने में अपनी असमर्थता के प्रति कुछ निराशा छलकती है? जब वे कहते हैं कि? और भी अनेक अदृष्टपूर्व (पूर्व न देखे हों) आश्चर्यों को तुम देखो। यहाँ उल्लिखित अनेक नामों का वर्णन पूर्व अध्यायों में किया जा चुका है। यहाँ नवीन नाम केवल अश्विनी कुमारों का है। ये सूर्य के दो पुत्र माने गये हैं? जिनके मुख अश्व के हैं तथा ये अश्विनीकुमार के नाम से प्रसिद्ध दो बन्धु देवताओं के वैद्य कहे जाते हैं। किसी स्थान पर वे उषकाल और सन्ध्याकाल के प्रतीक माने गये हैं? तो किसी अन्य स्थल पर इन्हें इन दो समयों के तारों का प्रतीक कहा गया है।विराट् रूप में द्रष्टव्य रूपों का सारांश में निर्देश करके भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन की जिज्ञासा को और अधिक बढ़ा दिया। इसलिए वह जानना चाहता है कि इन रूपों को वह कहां देखे इस पर कहते हैं
।।11.6।। व्याख्या--'पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा'-- अदितिके पुत्र धाता, मित्र, अर्यमा, शुक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु -- ये बारह 'आदित्य' हैं (महा0 आदि0 65। 15 16)। धर, ध्रुव, सोम, अहः, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास --ये आठ वसु हैं (महा0 आदि0 66। 18)।हर, बहुरूप, त्रयम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवतमृगव्याध, शर्व और कपाली -- ये ग्यारह 'रुद्र' हैं (हरिवंश0 1। 3। 51 52)।'अश्विनीकुमार' दो हैं। ये दोनों भाई देवताओंके वैद्य हैं।सत्त्वज्योति, आदित्य, सत्यज्योति, तिर्यग्ज्योति, सज्योति, ज्योतिष्मान्, हरित, ऋतजित्, सत्यजित्, सुषेण, सेनजित्, सत्यमित्र, अभिमित्र, हरिमित्र, कृत, सत्य, ध्रुव, धर्ता, विधर्ता, विधारय, ध्वान्त, धुनि, उग्र, भीम, अभियु, साक्षिप, ईदृक्, अन्यादृक्, यादृक्, प्रतिकृत्, ऋक्, समिति, संरम्भ, ईदृक्ष, पुरुष, अन्यादृक्ष, चेतस, समिता, समिदृक्षप्रतिदृक्ष, मरुति, सरत, देव, दिश, यजुः, अनुदृक्, साम, मानुष और विश् -- ये उनचास 'मरुत' हैं (वायुपुराण 67। 123 -- 130) -- इन सबको तू मेरे विराट्रूपमें देख।बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार -- ये तैंतीस कोटि (तैंतीस प्रकारके) देवता सम्पूर्ण देवताओंमें मुख्य हैं। देवताओंमें मरुद्गणोंका नाम भी आता है, पर वे उनचास मरुद्गण इन तैंतीस प्रकारके देवताओंसे अलग माने जाते हैं; क्योंकि वे सभी दैत्योंसे देवता बने हैं। इसलिये भगवान्ने भी 'तथा' पद देकर मरुद्गणोंको अलग बताया है।
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।।11.6।।मम एकस्मिन् रूपे पश्य आदित्यान् द्वादश? वसून् अष्टौ? रुद्रान् एकादश? अश््विनौ द्वौ? मरुतः च एकोनपञ्चाशतम् प्रदर्शनार्थमिदम् इह जगति प्रत्यक्षदृष्टानि शास्त्रदृष्टानि च यानि वस्तूनि तानि सर्वाणि अन्यानि अपि सर्वेषु लोकेषु सर्वेषु च शास्त्रेषु अदृष्टपूर्वाणि बहूनि आश्चर्याणि पश्य।
।।11.6।।दिव्यानि रूपाणि पश्येत्युक्तं तान्येव लेशतोऽनुक्रामति -- पश्यादित्यानिति। तान्मरुतस्तथा पश्येति संबन्धः। नानाविधानीत्युक्तं तदेव स्फुटयति -- बहूनीति। अदृष्टपूर्वाणि पूर्वमदृष्टानि। नानावर्णाकृतीनीत्युक्तं व्यनक्ति -- आश्चर्याणीति।
।।11.6।।किञ्चात्रैव पश्यादित्यानिति। आश्चर्याणि बहूनि पश्य एकत्रान्योन्यविरुद्धर्मसमावेशरूपाणि तत्राश्चर्याणि पश्य।
।।11.6।।दिव्यानि रूपाणि पश्येत्युक्त्वा तान्येव लेशतोऽनुक्रामति द्वाभ्याम् -- पश्यादित्यानित्यादिना। पश्यादित्यान्द्वादश वसूनष्टौ रुद्रानेकादश अश्िवनौ द्वौ मरुतः सप्तसप्तकानेकोनपञ्चाशत् तथान्यानपि देवानित्यर्थः। बहून्यन्यान्यदृष्टपूर्वाणि पूर्वमदृष्टानि मनुष्यलोके त्वया त्वत्तोऽन्येन वा केनचित्पश्याश्चर्याण्यद्भुतानि हे भारत? अत्र शतशोऽथसहस्रशः नानाविधानीत्यस्य विवरणं बहूनीति आदित्यानित्यादि च? अदृष्टपूर्वाणीति दिव्यानीत्यस्य? आश्चर्याणीति नानावर्णाकृतीनीत्यस्येति द्रष्टव्यम्।
।।11.6।।तान्येवाह -- पश्येति। आदित्यादीन्मम देहे पश्य। मरुत एकोनपञ्चाशद्देवविशेषान्। अदृष्टपूर्वाणि त्वया वान्येन वा पूर्वमदृष्टानि रूपाणि आश्चर्याण्यत्यद्भुतानि।
।।11.6।।शतशोऽथ सहस्रशः [11।5] इति स्वासाधारणानन्तरूपप्रसङ्गेऽपि प्रकृतोपयोगायइहैकस्थम् [11।7] इत्येकस्यैव रूपस्य विशेषतः प्रदर्शयिष्यमाणत्वमनुसन्धायाह -- ममैकस्मिन्निति।पश्यादित्यान् इत्यादिना प्रधानदेवास्त्रयस्त्रिंशत्प्रथमं निर्दिश्यन्त इत्यभिप्रायेण द्वादशेत्यादि सङ्ख्याविशेषप्रदर्शनम्। वक्ष्यमाणानुसारेण दृष्टमात्राश्रयत्वव्युदासायाहप्रदर्शनार्थमिति। अर्जुनेन अन्यैश्चाप्रतिपन्नानामिति शेषः।अदृष्टपूर्वाणि इत्येतदश्रुतपूर्वाणामप्युपलक्षणम्? अनवगतत्वमात्रेण वा सामान्यतः सङ्ग्रह इत्यभिप्रायेणाहसर्वेषु च शास्त्रेष्वदृष्टपूर्वाणीति। एतेनातीन्द्रिये वस्तुनि सामान्यतः शास्त्रावगतेऽपि साक्षात्कारैकसमधिगम्या बहवो विशेषाः सन्तीति सूचितम्।
।।11.6।।तान्येव पश्येति नामभिर्विशेषेणाह -- पश्येति। आदित्यान् द्वादशात्मकान्? वसून् अष्टसङ्ख्याकान्? रुद्रानेकादशसङ्ख्यान्? अश्िवनौ अश्िवनीकुमारौ? मरुतः देवगणविशेषान् तथा बहून्यसङ्ख्येयानि अदृष्टपूर्वाणि सर्वैः? आश्चर्याणि अलौकिकानि हे भारत उत्तमवंशोद्भव योग्यत्वात् पश्य।
।।11.6।।दिव्यानि तावदाह -- पश्यादित्यानिति। अदृष्टपूर्वाण्याश्चर्याणि अद्भुतानि चतुर्मुखपञ्चमुखषण्मुखादीनि।
।।11.6।।आदित्यान्द्वादश? त्रसूनष्ठौ? रूद्रानेकादश? अश्विनौ द्वौ? मरुत एकोनपञ्चाशत्। तथा बहून्यन्यानि मनुष्यलोके त्वया अन्येन वा पूर्वं न दृष्टानि। उत्तमवंशोद्भवत्वात्तव दर्शनेऽधिकार िति सूचयन्नाह -- भारतेति। यस्मिन् वंशे त्वमुत्पन्नः तत्रोत्पन्नैः कैश्चिदप्येतन्न दृष्टमिति वा संबोधनाशयः।
11.6 पश्य behold? आदित्यान् the Adityas? वसून् the Vasus? रुद्रान् the Rudras? अश्िवनौ the (two) Asvins? मरुतः the Maruts? तथा also? बहूनि many? अदृष्टपूर्वाणि never seen before? पश्य see? आश्चर्याणि wonders? भारत O Bharata.Commentary Adityas? Vasus? Rudras and Maruts have already been described in the previous chapter.Not these alone Behold also many other wonders never seen before by you or anybody else in this world.
11.6 Behold the Adityas, the Vasus, the Rudras, the two Asvins and also the Maruts; behold many wonders never seen before, O Arjuna.
11.6 Behold thou the Powers of Nature: fire, earth, wind and sky; the sun, the heavens, the moon, the stars; all forces of vitality and of healing; and the roving winds. See the myriad wonders revealed to none but thee.
11.6 See the Adiyas, the Vasus, the Rudras, the two Asvins and the Maruts. O scion of the Bharata dynasty, behold also the many wonders not seen before.
11.6 Pasya, see; adityan, the twelve Adityas; vasun, the eight Vasus; rudran, the eleven Rudras; asvinau, the two Asvins; and amarutah, the Maruts, who are divided into seven groups of seven each. Bharata, O scion of the Bharata dynasty; pasya, behold; tatha, also; bahuni, the many other; ascaryani, wonders; adrstapurvani, not seen before-by you or anyone else in the human world. Not only this much,-
11.6. Behold the Adityas, the Vasus, the Rudras, the twin Asvins, and the Maruts; O son of Pandu, behold also many wonders that had never been seen before.
11.6 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.6 Behold in My single form (i.e., the many forms in the one form revealed to Arjuna), the twelve Adityas, eight Vasus, eleven Rudras, the two Asvins and forty-nine Maruts. This is just illustrative. Behold all those things directly perceived in this world and those described in the Sastras, and also many marvels, not seen before in all the worlds and in all the Sastras.
11.6 Behold the Adityas, the Vasus, the Rudras, the two Asvins and the Maruts. Behold, O Arjuna, many marvels never seen before.
।।11.6।।हे भारत तू द्वादश आदित्योंको? आठ वसुओंको ? एकादश रुद्रोंको? दोनों अश्विनीकुमारोंको और उनचास मरुद्गणोंको देख। तथा और भी जिन्हें मनुष्यलोकमें तूने अथवा और किसीने भी कभी नहीं देखा? ऐसे बहुतसे आश्चर्यमय -- अद्भुत दृश्य देख।
।।11.6।। --,पश्य आदित्यान् द्वादश? वसून् अष्टौ? रुद्रान् एकादश? अश्विनौ द्वौ? मरुतः सप्त सप्त गणाः ये तान्। तथा च बहूनि अन्यान्यपि अदृष्टपूर्वाणि मनुष्यलोके त्वया?त्वत्तः अन्येन वा केनचित्? पश्य आश्चर्याणि अद्भुतानि भारत।।न केवलम् एतावदेव --,
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पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्िवनौ मरुतस्तथा। बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याऽश्चर्याणि भारत।।11.6।।
পশ্যাদিত্যান্বসূন্রুদ্রানশ্িবনৌ মরুতস্তথা৷ বহূন্যদৃষ্টপূর্বাণি পশ্যাশ্চর্যাণি ভারত৷৷11.6৷৷
পশ্যাদিত্যান্বসূন্রুদ্রানশ্িবনৌ মরুতস্তথা৷ বহূন্যদৃষ্টপূর্বাণি পশ্যাশ্চর্যাণি ভারত৷৷11.6৷৷
પશ્યાદિત્યાન્વસૂન્રુદ્રાનશ્િવનૌ મરુતસ્તથા। બહૂન્યદૃષ્ટપૂર્વાણિ પશ્યાશ્ચર્યાણિ ભારત।।11.6।।
ਪਸ਼੍ਯਾਦਿਤ੍ਯਾਨ੍ਵਸੂਨ੍ਰੁਦ੍ਰਾਨਸ਼੍ਿਵਨੌ ਮਰੁਤਸ੍ਤਥਾ। ਬਹੂਨ੍ਯਦਰਿਸ਼੍ਟਪੂਰ੍ਵਾਣਿ ਪਸ਼੍ਯਾਸ਼੍ਚਰ੍ਯਾਣਿ ਭਾਰਤ।।11.6।।
ಪಶ್ಯಾದಿತ್ಯಾನ್ವಸೂನ್ರುದ್ರಾನಶ್ಿವನೌ ಮರುತಸ್ತಥಾ. ಬಹೂನ್ಯದೃಷ್ಟಪೂರ್ವಾಣಿ ಪಶ್ಯಾಶ್ಚರ್ಯಾಣಿ ಭಾರತ৷৷11.6৷৷
പശ്യാദിത്യാന്വസൂന്രുദ്രാനശ്ിവനൌ മരുതസ്തഥാ. ബഹൂന്യദൃഷ്ടപൂര്വാണി പശ്യാശ്ചര്യാണി ഭാരത৷৷11.6৷৷
ପଶ୍ଯାଦିତ୍ଯାନ୍ବସୂନ୍ରୁଦ୍ରାନଶ୍ିବନୌ ମରୁତସ୍ତଥା| ବହୂନ୍ଯଦୃଷ୍ଟପୂର୍ବାଣି ପଶ୍ଯାଶ୍ଚର୍ଯାଣି ଭାରତ||11.6||
paśyādityānvasūnrudrānaśivanau marutastathā. bahūnyadṛṣṭapūrvāṇi paśyā.ścaryāṇi bhārata৷৷11.6৷৷
பஷ்யாதித்யாந்வஸூந்ருத்ராநஷ்ிவநௌ மருதஸ்ததா. பஹூந்யதரிஷ்டபூர்வாணி பஷ்யாஷ்சர்யாணி பாரத৷৷11.6৷৷
పశ్యాదిత్యాన్వసూన్రుద్రానశ్ివనౌ మరుతస్తథా. బహూన్యదృష్టపూర్వాణి పశ్యాశ్చర్యాణి భారత৷৷11.6৷৷
11.7
11
7
।।11.7।। हे नींदको जीतनेवाले अर्जुन! मेरे इस शरीरके एक देशमें चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् को अभी देख ले। इसके सिवाय तू और भी जो कुछ देखना चाहता है, वह भी देख ले।
।।11.7।। हे गुडाकेश ! आज (अब) इस मेरे शरीर में एक स्थान पर स्थित हुए चराचर सहित सम्पूर्ण जगत् को देखो तथा और भी जो कुछ तुम देखना चाहते हो, उसे भी देखो।।
।।11.7।। प्रथम तो भगवान् उत्साही साधक के साहसी मन को इसके लिए प्रशिक्षित करते हैं कि उसमें जानने की उत्सुकता रूपी अक्षय धन का विकास हो। तत्पश्चात् उनका प्रयत्न है कि यह उत्सुकता तीव्र उत्कण्ठा या जिज्ञासा में परिवर्तित हो जाये। इसके लिए ही वे विश्वरूप में दर्शनीय रूपों का उल्लेख करते हैं। इस युक्ति से साधक का मन पूर्ण उत्कटता से एक ही स्थान पर केन्द्रित हो जाता है। यही इस श्लोक का प्रयोजन है। ध्यानपूर्वक इस श्लोक पर विचार करने से ज्ञात होगा कि यहाँ व्यासजी ने भक्तिशास्त्र में वर्णित भक्ति की रूपरेखा दी है।इहैकस्थम् का अर्थ है यहाँ इसी एक स्थान पर। इन शब्दों के द्वारा श्रीकृष्ण सम्पूर्ण चराचर (जड़ चेतन) जगत को अपने शरीर में दर्शाते हैं। श्रीकृष्ण स्वयं ही इह शब्द को स्पष्ट करते हुए कहते हैं? मेरे शरीर में। सम्पूर्ण चराचर सहित भौतिक जगत् को दबाकर श्रीकृष्ण की देहाकृति में स्थित हुआ दिखलाना था। जैसा कि हम इस अध्याय की प्रस्तावना में देख चुके हैं कि अर्जुन के मन से देश की कल्पना को सर्वथा मुक्त नहीं किया गया था? किन्तु केवल भगवान् श्रीकृष्ण के परिच्छिन्न देह के तुल्य समष्टि आकाश की कल्पना को उसके मन में शेष रखा था। इस मन के द्वारा जब अर्जुन बाहर देखता है? तो उसे भगवान् के शरीर में ही सम्पूर्ण विश्व अपने व्ाविध विस्तार को यथावत् रखते हुए लघु रूप में दिखाई देता है।यद्यपि चराचर शब्द का अर्थ इतना व्यापक है कि उसके उल्लेख से सम्पूर्ण विश्व का निर्देश हो जाता है? किन्तु फिर भी अर्जुन का उत्साह बढ़ाने के लिए वे कहते हैं? और भी जो कुछ तुम देखना चाहते हो? उसे भी देखो। मानव के विशिष्ट स्वभाव के अनुसार अर्जुन का मन अपनी तात्कालिक समस्याओं से चिन्तातुर था? अत स्वाभाविक ही है कि उसकी उत्सुकता भविष्य की घटनाओं को जानने की थी। प्रारम्भ मे उसका प्रयत्न समस्या के समाधान को देखने के लिए अधिक था और अनेकता में व्याप्त एकत्व का साक्षात्कार करने के लिए कम।विभूतियोग के अध्याय में एक परमात्मा को सब में दिखाया गया था? और यहाँ सब को एक परमात्मा में दिखाया जानेवाला है
।।11.7।। व्याख्या--गुडाकेश'--निद्रापर अधिकार प्राप्त करनेसे अर्जुनको 'गुडाकेश' कहते हैं। यहाँ यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि तू निरालस्य होकर सावधानीसे मेरे विश्व-रूपको देख।
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।।11.7।।इह माम एकस्मिन् देहे तत्र अपि एकस्थम् एकदेशस्थं सचराचरं कृत्स्नं जगत् पश्य। यत् च अन्यद् द्रष्टुम् इच्छसि तद् अपि एकदेहैकदेशे एव पश्य।
।।11.7।।न केवलमादित्यवस्वाद्येव मद्रूपं त्वया द्रष्टुं शक्यं किंतु समस्तं जगदपि मद्देहस्थं द्रष्टुमर्हसीत्याह -- नेत्यादिना। सप्तमीद्वयं मिथः संबध्यते। समासान्तर्गतापि सप्तमी तत्रैवान्विता। यदीच्छसि तर्हीहैव पश्येति संबन्धः।
।।11.7।।किञ्चेहास्मिन्नक्षरस्वरूपे कृत्स्नं जगदेकस्थं पश्येत्यनेनविष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् [10।42] इति समर्थितम्। मम स्वरूपभूतेऽक्षरे देहे जगत्कृत्स्नमित्युक्त्वा प्रत्यक्षजगद्दर्शनेनालीकत्वं च निरस्तम्। नहि तदो(दु) पदेष्टुर्भ्रमः कदाचिद्वक्तुं शक्यते? आनर्थक्यप्रसङ्गात् अतएव व्यास आह -- नाभाव उपलब्धेःवैधर्म्याच्च न स्वप्नादिवत् [ब्र.सू.2।2।28?29] इति।मम देहे इति स्वदेहभूतस्य भूतस्य प्रपञ्चाश्रयत्वमुक्तं यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि तत्सर्वं पश्य।
।।11.7।।न केवलमेतावदेव समस्तं जगदपि मद्देहस्थं द्रष्टुमर्हसीत्याह -- इहेति। इहास्मिन्मम देहे एकस्थं एकस्मिन्नेवावयवरूपेण स्थितं जगत् कृत्स्नं समस्तं सचराचरं जङ्गमस्थावरसहितं तत्र तत्र परिभ्रमता वर्षकोटिसहस्रेणापि द्रष्टुमशक्यं अद्याधुनैव पश्य। हे गुडाकेश? यच्चान्यज्जयपराजयादिकं द्रष्टुमिच्छसि तदपि संदेहोच्छेदाय पश्य।
।।11.7।। किंच -- इहेति। तत्र तत्र परिभ्रमता वर्षकोटिभिरपि द्रष्टुमशक्यं कृत्स्नमपि चराचरसहितं जगदिहास्मिन्मम देहेऽवयवरूपेणैकत्रैव स्थितमद्याधुनैव पश्य। यच्चान्यज्जगदाश्रयभूतं कारणस्वरूपम्। जगतश्चावस्थाविशेषादिकम्। जयपराजयादिकं च यदप्यन्यद्द्रष्टुमिच्छसि तत्सर्वं पश्य।
।।11.7।।इहदेहे इत्येकवचनान्तनिर्देशेनैव प्रदर्शयिष्यमाण एको देहो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाह -- इह ममैकस्मिन्देह इति। एकवचनेन प्रदर्शयिष्यमाणविशेषनिर्देशेन च देहैकत्वस्याभिमतत्वादेकस्थपदेन तदेकदेशे स्थितिर्विवक्षिता। एकस्यावयविनोऽवयवभूतमिति कैश्चिदुक्तं तु भगवद्विग्रहस्य अप्राकृतत्वसमर्थनाच्च निरस्तमित्यभिप्रायेणोक्तंतत्राप्येकस्थमेकदेशस्थमिति। यद्वा कृत्स्नस्य एकस्थत्ववचनात्तदेकदेशस्थितिः फलिता।यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि इत्यनेन पाण्डवधार्तराष्ट्रजयादिकमपि गर्भितम्। तत्रापि समुच्चयसामर्थ्याद्देहैकदेशाश्रितत्वमाह -- तदपीति।
।।11.7।।किञ्च -- इहेति। कोटिजन्मभिरपि सम्पूर्णं द्रष्टुमशक्यं कृत्स्नं समस्तं जगत् विरुद्धत्वेन परिदृश्यमानमपि मम देहे एकस्थमेकत्र स्थितं सचराचरं जडजीवसहितं इह अस्मिन्नेव जन्मनि। अद्य तत्कालमेव यच्च अन्यत् सर्वेषां विभूतित्वेन कथं मारयामीति विचारेण मरणमारणादिरूपं यत् द्रष्टुमिच्छसि तत्पश्य।
।।11.7।।हे गुडाकेश जितनिद्र? इह मम देहे एकस्थं एकस्मिन्नेवावयवे नखाग्रमात्रे स्थितं कृत्स्नं वर्तमानं जगत्पश्य। यच्चान्यत् अतीतमनागतं विप्रकृष्टं व्यवहितं स्थूलं सूक्ष्मं वा तत्सर्वमिह पश्य।
।।11.7।।न केवलमेतावदेवापितु इह मम देहे एकस्थं एकस्मिन्नवयवे स्थितं सर्वं जगत्स्थावरजंगमसहितमद्येदानीं पश्य। यच्चान्यज्जयपराजयादि द्रष्टुमिच्छति तदपि। यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुरिति संदेहापनुत्तये पश्य। यच्चान्यज्जगदाश्रय भूतं कारणस्वरुपं जगतश्चावस्थाविशेषादिकं अतीतमनागतं विप्रकृष्टं व्यवहितं स्थूलं सूक्ष्मं चेति आदिशब्दार्थः। हे गुडाकेशेति संबोधयन् द्रष्टुं सावधानो भवेति सूचयति।
11.7 इह in this? एकस्थम् centred in one? जगत् the universe? कृत्स्नम् whole? पश्य behold? अद्य now? सचराचरम् with the moving and the unmoving? मम My? देहे in body? गुडाकेश O Gudakesa? यत् whatever? च and? अन्यत् other? द्रष्टुम् to see? इच्छसि (thou) desirest.Commentary Anyat Other whatever else. Your success or defeat in the war? about which you,have entertained a doubt. (Cf.II.6)
11.7 Now behold, O Arjuna, in this, My body, the whole universe centred in one including the moving and the unmoving and whatever else thou desirest to see.
11.7 Here in Me living as one, O Arjuna, behold the whole universe, movable and immovable, and anything else that thou wouldst see!
11.7 See now, O gudakesa, O Gudakesa (Arjuna), the entire Universe together with the moving and the non-moving, concentrated at the same place here in My body, as also whatever else you would like to see.
11.7 Pasya, see; adya, now; O Gudakesa, the krtsnam, entire; jagat, Universe; sa-cara-acaram, existing together with the moving and the non-moving; ekastham, concentrated at the same place; iha, here; mama dehe, in My body; ca, as also; yat anyat, whatever else-even those victory, defeat, etc. with regard to which you expressed doubt in, 'whether we shall win, or whether they shall coner us' (2.6); if icchasi, you would like; drastum, to see them.
11.7. Now, behold the entire universe, including the moving and the unmoving, and whatsoever else you desire to see-all established in one here, in My body, O Gudakesa (Arjuna) !
11.7 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.7 'Here', in this one body of Mine, and even there, gathered together in a single spot, behold the universe with all mobile and immobile entities. Whatever else you desire to see (i.e., Arjuna's chances of victory), behold that also in one part of this single body.
11.7 Behold here, O Arjuna, the whole universe with its mobile and immobile things centred in My body and whatever else you desire to see.
।।11.7।।केवल इतना ही नहीं --, हे गुडाकेश अब तू मेरे इस शरीरमें एक ही स्थानमें स्थित चराचरसहित सारे जगत्को देख ले। तथा और भी जो कुछ जयपराजय आदि दृश्य जिसके लिये तू हम उनको जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे इस प्रकार शङ्का करता था? वह सब या अन्य जो कुछ यदि देखना चाहता हो तो देख ले।
।।11.7।। -- इह एकस्थम् एकस्मिन्नेव स्थितं जगत् कृत्स्नं समस्तं पश्य अद्य इदानीं सचराचरं सह चरेण अचरेण च वर्तते मम देहे गुडाकेश। यच्च अन्यत् जयपराजयादि? यत् शङ्कसे? यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः (गीता 2।6) इति यत् अवोचः? तदपि द्रष्टुं यदि इच्छसि।।किन्तु --,
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इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि।।11.7।।
ইহৈকস্থং জগত্কৃত্স্নং পশ্যাদ্য সচরাচরম্৷ মম দেহে গুডাকেশ যচ্চান্যদ্দ্রষ্টুমিচ্ছসি৷৷11.7৷৷
ইহৈকস্থং জগত্কৃত্স্নং পশ্যাদ্য সচরাচরম্৷ মম দেহে গুডাকেশ যচ্চান্যদ্দ্রষ্টুমিচ্ছসি৷৷11.7৷৷
ઇહૈકસ્થં જગત્કૃત્સ્નં પશ્યાદ્ય સચરાચરમ્। મમ દેહે ગુડાકેશ યચ્ચાન્યદ્દ્રષ્ટુમિચ્છસિ।।11.7।।
ਇਹੈਕਸ੍ਥਂ ਜਗਤ੍ਕਰਿਤ੍ਸ੍ਨਂ ਪਸ਼੍ਯਾਦ੍ਯ ਸਚਰਾਚਰਮ੍। ਮਮ ਦੇਹੇ ਗੁਡਾਕੇਸ਼ ਯਚ੍ਚਾਨ੍ਯਦ੍ਦ੍ਰਸ਼੍ਟੁਮਿਚ੍ਛਸਿ।।11.7।।
ಇಹೈಕಸ್ಥಂ ಜಗತ್ಕೃತ್ಸ್ನಂ ಪಶ್ಯಾದ್ಯ ಸಚರಾಚರಮ್. ಮಮ ದೇಹೇ ಗುಡಾಕೇಶ ಯಚ್ಚಾನ್ಯದ್ದ್ರಷ್ಟುಮಿಚ್ಛಸಿ৷৷11.7৷৷
ഇഹൈകസ്ഥം ജഗത്കൃത്സ്നം പശ്യാദ്യ സചരാചരമ്. മമ ദേഹേ ഗുഡാകേശ യച്ചാന്യദ്ദ്രഷ്ടുമിച്ഛസി৷৷11.7৷৷
ଇହୈକସ୍ଥଂ ଜଗତ୍କୃତ୍ସ୍ନଂ ପଶ୍ଯାଦ୍ଯ ସଚରାଚରମ୍| ମମ ଦେହେ ଗୁଡାକେଶ ଯଚ୍ଚାନ୍ଯଦ୍ଦ୍ରଷ୍ଟୁମିଚ୍ଛସି||11.7||
ihaikasthaṅ jagatkṛtsnaṅ paśyādya sacarācaram. mama dēhē guḍākēśa yaccānyaddraṣṭumicchasi৷৷11.7৷৷
இஹைகஸ்தஂ ஜகத்கரித்ஸ்நஂ பஷ்யாத்ய ஸசராசரம். மம தேஹே குடாகேஷ யச்சாந்யத்த்ரஷ்டுமிச்சஸி৷৷11.7৷৷
ఇహైకస్థం జగత్కృత్స్నం పశ్యాద్య సచరాచరమ్. మమ దేహే గుడాకేశ యచ్చాన్యద్ద్రష్టుమిచ్ఛసి৷৷11.7৷৷
11.8
11
8
।।11.8।। परन्तु तू अपनी इस आँखसे अर्थात् चर्मचक्षुसे मेरेको देख ही नहीं सकता, इसलिये मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरी ईश्वर-सम्बन्धी सामर्थ्यको देख।
।।11.8।। परन्तु तुम अपने इन्हीं (प्राकृत) नेत्रों के द्वारा मुझे देखने में समर्थ नहीं हो; (इसलिए) मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे तुम मेरे ईश्वरीय 'योग' को देखो।।
।।11.8।। हम पहले ही वर्णन कर चुके हैं कि एक सारतत्व को उससे बनी विभिन्न वस्तुओं में देख पाना अपेक्षत सरल कार्य है? किन्तु इसके विपरीत अनेक को एक तत्त्व में देखने के लिए दर्शनशास्त्र के सम्यक् ज्ञान से सम्पन्न सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता होती है। किसी कविता को पढ़ने मात्र के लिए केवल वर्णमाला का ज्ञान होना आवश्यक है परन्तु उसके सूक्ष्म सौन्दर्य को समझने के लिए तथा उसी के समान अन्य कविताओं के साथ उसका तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए एक ऐसे प्रवीण मन की आवश्यकता होती है? जिसने सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं के रसास्वादन के आनन्द में अपने आप को डुबो दिया हो। इसी प्रकार? एक को अनेक में देखना श्रद्धा से परिपूर्ण हृदय का कार्य है परन्तु अनेक को एक में अनुभव करने के लिए हृदय के अतिरिक्त ऐसी शिक्षित बुद्धि की आवश्यकता होती है? जिसे दार्शनिकों की युक्तियों को समझने की योग्यता प्राप्त हुई हो। जानने और अनुभव करने की क्षमता का विकास होने पर ही एक शिक्षित बुद्धि को असाधारण का दर्शन करने की विशिष्ट सार्मथ्य प्राप्त होती है।एक सर्वविदित प्रत्यक्ष तथ्य को बताते हुए भगवान् कहते हैं? तुम मुझे अपने इन्हीं नेत्रों के द्वारा नहीं देख सकते मैं तुम्हें दिव्यचक्षु देता हूँ। अनेक समालोचक या व्याख्याकार हैं? जो इस दिव्यचक्षु का वर्णन अनेक हास्यास्पद कल्पनाओं तथा असंभव सिद्धांतों के द्वारा करने का प्रयत्न करते हैं। इससे प्रतीत होता है कि इन व्याख्याकारों ने हिन्दू शास्त्रोंउपनिषदों की शैली का भलीभाँति अध्ययन नहीं किया है। सभी उपनिषदों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बारम्बार इस बात पर बल दिया गया है कि मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा सूक्ष्म वस्तुओं का अवलोकन नहीं कर सकता है। इन्द्रियां केवल बाह्य जगत् की स्थूल वस्तुओं को ही ग्रहण कर सकती हैं। सामान्य व्यवहार में जब हम कहते हैं? इस विचार को देखो तो यह देखना इन दो नेत्रों से नहीं होता है। वहाँ देखने से तात्पर्य बौद्धिक ग्रहण से है तथा ऐसे सूक्ष्म विषय का ग्रहण करने की बौद्धिक क्षमता को ही दिव्यचक्षु कहा गया है।अर्जुन को यह दिव्यचक्षु भगवान् के ईश्वरीय योग को देखने के लिए प्रदान किया गया है। इस योग के द्वारा सम्पूर्ण विश्व भगवान् के रूप में धारण किया गया है। इसके पूर्व भी इस योगशक्ति का उल्लेख प्राय समान शब्दों में दो विभिन्न स्थानों पर आ चुका है।अब दृश्य परिवर्तन होता है। हस्तिनापुर के राजमहल में बैठा संजय धृतराष्ट्र से कहता है
।।11.8।। व्याख्या--'न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा'--तुम्हारे जो चर्मचक्षु हैं, इनकी शक्ति बहुत अल्प और सीमित है। प्राकृत होनेके कारण ये चर्मचक्षु केवल प्रकृतिके तुच्छ कार्यको ही देख सकते हैं अर्थात् प्राकृत मनुष्य, पशु, पक्षी आदिके रूपोंको, उनके भेदोंको तथा धूप-छाया आदिके रूपोंको ही देख सकते हैं। परन्तु वे मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे अतीत मेरे रूपको नहीं देख सकते।
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।।11.8।।अहं मम देहैकदेशे सर्वं जगद् दर्शयिष्यामि? त्वं तु अनेन नियमितपरिमितवस्तुग्राहिणा प्राकृतेन स्वचक्षुषा मां तथाभूतं सकलेतरविसजातीयम् अपरिमेयं द्रष्टुं न शक्यसे। तव दिव्यम् अप्राकृतं मद्दर्शनसाधनं,चक्षुः ददामि। पश्य मे योगम् ऐश्वरं मदसाधारणं योगं पश्य? मम अनन्तज्ञानादियोगम् अनन्तविभूतियोगं च पश्य इत्यर्थः।
।।11.8।।मन्यसे यदीत्युक्तमनुवदति -- किंत्विति। सप्रपञ्चमनवच्छिन्नं मां स्वचक्षुषा न शक्नोषि द्रष्टुमित्याह -- नत्विति। कथं तर्हि त्वां द्रष्टुं शक्नुयामित्याशङ्क्याह -- येनेति। दिव्यस्य चक्षुषो वक्ष्यमाणयोगशक्त्यतिशयदर्शने विनियोगं दर्शयति -- तेनेति।
।।11.8।।यदुक्तमर्जुनेनमन्यसे यदि तच्छक्यं [11।4] इति तत्राह -- न तु मामिति। अनेनैव तु स्वीयेन नियमतः परिमितग्राहिणा प्राकृतेन चक्षुषा मामक्षरैश्वर्यरूपं द्रष्टुं न शक्यसे? अतोऽहं दिव्यमप्राकृतज्ञानात्मकदर्शनसाधनं चक्षुर्ददामि? तेन ममैश्वरं योगं मत्स्वरूपगतं सर्व विभिन्नधर्माश्रयणं पश्य साक्षात्कुरु।
।।11.8।।यत्तूक्तं मन्यसे यदि तच्छक्यं द्रष्टुमिति तत्र विशेषमाह -- नत्विति। अनेनैव प्राकृतेन स्वचक्षुषा स्वभावसिद्धेन चक्षुषा मां दिव्यरूपं द्रष्टुं नतु शक्यसे न शक्नोषि तु एव।शक्ष्यस इति पाठे शक्तो न भविष्यसीत्यर्थः। भौवादिकस्यापि शक्नोतेर्दैवादिकः श्यन् छान्दस इति वा दिवादौ पाठोवेत्येव सांप्रदायिकम्। तर्हि त्वां द्रष्टुं कथं शक्नुयामत आह -- दिव्यमिति। दिव्यमप्राकृतं मम दिव्यरूपदर्शनक्षमं ददामि ते तुभ्यं चक्षुस्तेन दिव्येन चक्षुषा पश्य मे योगमघटनघटनासामर्थ्यातिशयमैश्वरमीश्वरस्य ममासाधारणम्।
।।11.8।।यदुक्तमर्जुनेनमन्यसे यदि तच्छक्यम् इति तत्राह -- नत्विति। अनेनैव तु स्वीयेन चर्मचक्षुषा मां द्रष्टुं न शक्यसे शक्तो न भविष्यसि। अतोऽहं दिव्यमलौकिकं ज्ञानात्मकं चक्षुस्तुभ्यं ददामि। ममैश्वरमसाधारणं योगं युक्तिमघटितघटनासामर्थ्यं पश्य।
।।11.8।।न तु मां शक्ष्यसे इत्यत्र तुशब्दद्योतितमशक्तिहेतुं पूर्वश्लोकोक्तमाकृष्य दर्शयति -- अहमिति। अनेनैवेत्यस्य विवक्षितमाहनियतेति। दिव्यप्रतिपक्षत्वात्प्राकृतेनेत्युक्तम्।तथाभूतमित्यादि।माम् इत्यनेनात्र विग्रहादिविशिष्टत्वं विवक्षितमिति भावः। अत्र दिव्यशब्दविवक्षितमाहअप्राकृतमिति।मद्दर्शनसाधनमित्यप्राकृतत्वफलितोक्तिः। ऐश्वरपदाभिप्रेतमाहमदसाधारणमिति। प्रकरणादिफलितमैश्वरपदानुगृहीतं च योगशब्दार्थमाहअनन्तेति। नियमनशक्तिरीश्वरत्वम् तदनुबन्धी च योगस्तदुचितगुणविभूतियोग एव। चक्षुषो दिव्यत्वाज्ज्ञानादिगुणदर्शनम्। अनन्तवीर्यत्वादिविशिष्टविशेषेणपश्यामि [11।6] इति वक्ष्यतीति भावः।
।।11.8।।एवमुक्ते दर्शनोद्यतं प्रत्याह -- नत्विति। तु पुनः एवमेव द्रष्टुं न शक्यसे न शक्तोऽसि। अतस्ते दिव्यमलौकिकं चक्षुर्ददामि। तेन स्वचक्षुषा मत्कृपादृष्ट्या मां पुरुषोत्तमं पश्य। अतो दृष्टपुरुषोत्तमेन अनेनैव मे ऐश्वरं करणाकरणान्यथाकरणसामर्थ्यरूपं योगयुक्तं पश्य। पुरुषोत्तमस्वरूपज्ञानदर्शनाभावे सर्वस्वरूपदर्शनं न स्यात्? पुरुषोत्तमदर्शनं चासाधारणदृष्ट्या भवेदिति भावः।
।।11.8।।यत्तूक्तंमन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुम् इति तत्राह -- नत्विति। शक्यसे शक्नोषि। पदविकरणव्यत्यय आर्षः। अनेन प्राकृतेन। दिव्यमप्राकृतम्। ऐश्वरं ईश्वरसंबन्धिनं योगं विश्वाश्रयत्वलक्षणं सामर्थ्यम्।
।।11.8।। एवमुक्ते स्वचक्षुषा द्रष्टुं प्रवृत्तं न किमपि दृष्टवन्तं अतो खिन्नमर्जुनमालक्ष्याह -- नेति। मां विश्वरुपधरं परमप्राकृतनेमैव प्राकृतेन स्वचक्षुषा द्रष्टुं नतु शक्यसे तर्हि किमर्थ पश्येति त्वयोक्तमिति तत्राह। दिव्यमप्राकृतं ऐश्वररुपदर्शनयोग्यं चक्षुस्तुभ्यं ददामि तेन चक्षुषा ममैश्वरं योगं शक्त्यतिशयं पश्य।
11.8 न not? तु but? माम् Me? शक्यसे (thou) canst? द्रष्टुम् to see? अनेन with this? एव even? स्वचक्षुषा with own eyes? दिव्यम् divine? ददामि (I) give? ते (to) thee? चक्षुः the eye? पश्य behold? मे My? योगम् Yoga? ऐश्वरम् lordly.Commentary No fleshly eyes can behold Me in My Cosmic Form. One can see It through the divine eye or the eye of intuition. It should not be confused with seeing through the eye or the mind. It is an inner experience.Lord Krishna says to Arjuna I give thee the divine eye? by which you will be able to behold My sovereign form. By it see My marvellous power of Yoga.Anena With this the fleshly eye or the physical eye? the earthly eye. (Cf.VII.25IX.5X.7)
11.8 But thou art not able to behold Me with these thine own eyes; I give thee the divine eye; behold My lordly Yoga.
11.8 Yet since with mortal eyes thou canst not see Me, lo! I give thee the Divine Sight. See now the glory of My Sovereignty."
11.8 But you are not able to see Me merely with this eye of yours. I grant you the supernatural eye; bhold My divine Yoga.
11.8 Tu, but; na sakyase, you are not able; drastum, to see; mam, Me, who have assumed the Cosmic form; eva, merely; anena, with this natural; sva-caksusa, eye of yours. However, dadami, I grant; te, you; the divyam, supernatural; caksuh, eye, by which supernatural eye you shall be able to see Pasya, behold with that; me, My, God's aisvaram, divine; yogam, Yoga, i.e. the superabundance of the power of Yoga [The power of accomplishing the impossible.-M.S.].
11.8. But, you cannot see Me simply with this eye of yours [Hence], I give you the divine eye. [Now] behold the Lordly form of Mine.
11.8 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.8 I shall reveal to you the whole universe in one part of my body. But, with your physical eye, which can see only limited and conditioned things, you cannot behold Me, such as I am, different in kind from everything else and illimitable. So I bestow on you, a divine, namely, supernatural, eye by which you may perceive Me. Behold My Lordly Yoga' (sovereign endowment)! Behold My unie Yoga (special power)! The meaning is, 'Behold My Yoga such as infinite knowledge and such other attributes and endless manifestations of lordly power!'
11.8 But you will not be able to see Me with your own eye. I give you a divine eye. Behold My Lordly Yoga!
।।11.8।।किंतु --, तू मुझ विश्वरूपधारी परमेश्वरको अपने इन प्राकृत नेत्रोंसे नहीं देख सकेगा। जिन दिव्य नेत्रोंद्वारा तू मुझे देख सकेगा? वे दिव्य नेत्र ( मैं ) तुझे देता हूँ? उनके द्वारा तू मुझ ईश्वरके ऐश्वर्य और योगको अर्थात् अतिशय योगसामर्थ्यको देख।,
।।11.8।। --,न तु मां विश्वरूपधरं शक्यसे द्रष्टुम् अनेनैव प्राकृतेन स्वचक्षुषा स्वकीयेन चक्षुषा। येन तु शक्यसे द्रष्टुं दिव्येन? तत् दिव्यं ददामि ते तुभ्यं चक्षुः। तेन पश्य मे योगम् ऐश्वरम् ईश्वरस्य मम ऐश्वरं योगं योगशक्त्यतिशयम् इत्यर्थः।।संजय उवाच --,
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न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।।
ন তু মাং শক্যসে দ্রষ্টুমনেনৈব স্বচক্ষুষা৷ দিব্যং দদামি তে চক্ষুঃ পশ্য মে যোগমৈশ্বরম্৷৷11.8৷৷
ন তু মাং শক্যসে দ্রষ্টুমনেনৈব স্বচক্ষুষা৷ দিব্যং দদামি তে চক্ষুঃ পশ্য মে যোগমৈশ্বরম্৷৷11.8৷৷
ન તુ માં શક્યસે દ્રષ્ટુમનેનૈવ સ્વચક્ષુષા। દિવ્યં દદામિ તે ચક્ષુઃ પશ્ય મે યોગમૈશ્વરમ્।।11.8।।
ਨ ਤੁ ਮਾਂ ਸ਼ਕ੍ਯਸੇ ਦ੍ਰਸ਼੍ਟੁਮਨੇਨੈਵ ਸ੍ਵਚਕ੍ਸ਼ੁਸ਼ਾ। ਦਿਵ੍ਯਂ ਦਦਾਮਿ ਤੇ ਚਕ੍ਸ਼ੁ ਪਸ਼੍ਯ ਮੇ ਯੋਗਮੈਸ਼੍ਵਰਮ੍।।11.8।।
ನ ತು ಮಾಂ ಶಕ್ಯಸೇ ದ್ರಷ್ಟುಮನೇನೈವ ಸ್ವಚಕ್ಷುಷಾ. ದಿವ್ಯಂ ದದಾಮಿ ತೇ ಚಕ್ಷುಃ ಪಶ್ಯ ಮೇ ಯೋಗಮೈಶ್ವರಮ್৷৷11.8৷৷
ന തു മാം ശക്യസേ ദ്രഷ്ടുമനേനൈവ സ്വചക്ഷുഷാ. ദിവ്യം ദദാമി തേ ചക്ഷുഃ പശ്യ മേ യോഗമൈശ്വരമ്৷৷11.8৷৷
ନ ତୁ ମାଂ ଶକ୍ଯସେ ଦ୍ରଷ୍ଟୁମନେନୈବ ସ୍ବଚକ୍ଷୁଷା| ଦିବ୍ଯଂ ଦଦାମି ତେ ଚକ୍ଷୁଃ ପଶ୍ଯ ମେ ଯୋଗମୈଶ୍ବରମ୍||11.8||
na tu māṅ śakyasē draṣṭumanēnaiva svacakṣuṣā. divyaṅ dadāmi tē cakṣuḥ paśya mē yōgamaiśvaram৷৷11.8৷৷
ந து மாஂ ஷக்யஸே த்ரஷ்டுமநேநைவ ஸ்வசக்ஷுஷா. திவ்யஂ ததாமி தே சக்ஷுஃ பஷ்ய மே யோகமைஷ்வரம்৷৷11.8৷৷
న తు మాం శక్యసే ద్రష్టుమనేనైవ స్వచక్షుషా. దివ్యం దదామి తే చక్షుః పశ్య మే యోగమైశ్వరమ్৷৷11.8৷৷
11.9
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।।11.9।। सञ्जय बोले -- हे राजन् ! ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको परम ऐश्वर-रूप दिखाया।
।।11.9।। संजय ने कहा -- हे राजन् ! महायोगेश्वर हरि ने इस प्रकार कहकर फिर अर्जुन के लिए परम ऐश्वर्ययुक्त रूप को दर्शाया।।
।।11.9।। बहुमुखी प्रतिभा के धनी महर्षि व्यासजी ने साहित्य के जिस किसी पक्ष को स्पर्श किया उसे पूर्णत्व के सर्वोत्कृष्ट शिखर तक उठाये बिना नहीं छोड़ा। व्यासजी की प्रतिभा का वर्णन कौन कर सकता है उनमें अतुलनीय काव्य रचना की कल्पनातीत क्षमता? अनुपम गध शैली? विशुद्ध वर्णन? कलात्मक साहित्यिक रचना? आकृति और विचार दोनों में ही मौलिक नव निर्माण की सार्मथ्य? ये सब गुण पूर्ण मात्रा में थे। तेजस्वी दार्शनिक? पूर्ण ज्ञानी और व्यावहारिक ज्ञान में कुशल व्यासजी कभी राजभवनों में तो कभी युद्धभूमि में दिखाई देते? कभी बद्रीनाथ में तो कभी पुन शान्त एकान्त हिमशिखरों का मार्ग तय करते विशाल मूर्ति महर्षि व्यास? हिन्दू परम्परा और आर्य संस्कृति में जो कुछ सर्वश्रेष्ठ है? उस सबके साक्षात् मूर्तरूप थे। ऐसा सर्वगुण सम्पन्न प्रतिभाशाली पुरुष विश्व के इतिहास में कभी किसी अन्य काल में नहीं जन्मा होगा? जिसने अपने जीवन काल में व्यासजी के समान इतनी अधिक उपलब्धियां प्राप्त की हों।भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संकेत किया कि विश्वरूप में वह क्या देखने की अपेक्षा रख सकता है तथा विराट् स्वरूप का यह दर्शन उसे कहां होगा। अब? व्यासजी एक अत्यन्त अल्प से प्रकरण का उल्लेख करते हैं? जिसमें संजय? दुष्ट कौरवों के अन्ध पिता धृतराष्ट्र के लिए युद्धभूमि के वृतान्त का वर्णन करता है।साहित्य की दृष्टि से इस श्लोक का प्रयोजन केवल यह बताना है कि श्रीकृष्ण ने अपने दिये हुए वचनों के अनुसार? वास्तव में? अर्जुन को अपना विश्वरूप दर्शाया। परन्तु इसके साथ ही? महाभारत के कुशल रचयिता व्यासजी? हमारे लिए? संजय के मन के भावों को तथा पाण्डवों के प्रति उसकी सहानुभूति का चित्रण भी करना चाहते हैं। हम पहले ही कह चुके हैं कि संजय हमारा विशेष संवाददाता है। स्पष्ट है कि उसकी सहानुभूति भगवान् के मित्र पांडवों के साथ है। उसकी यह प्रवृत्ति निसंशय रूप से यहाँ स्पष्ट झलकती है? जब वह धृतराष्ट्र को केवल राजन् शब्द से संबोधित करता है जब कि श्रीकृष्ण को महायोगेश्वर तथा हरि के नाम से। हरण करने वाला हरि कहलाता है?अर्थात् जो मिथ्या का नाश करके सत्य की स्थापना करने वाला है।संजय के इन शब्दों के साथ श्रोतृसमुदाय तथा गीता के अध्येतृ वर्ग का ध्यान युद्ध की भूमि से हटाकर राजप्रासाद की ओर आकर्षित किया जाता है। पाठकों को यह स्मरण कराने के लिए कि गीता के तत्त्वज्ञान का व्यावहारिक जीनव से घनिष्ठ संबंध है तथा उसकी जीवन में उपयोगिता भी है? सम्भवत ऐसे दृश्य परिवर्तन की आवश्यकता है। संजय धृतराष्ट्र को सूचना देता है कि महायोगेश्वर हरि ने अर्जुन को अपना ईश्वरीय रूप दिखाया। संजय के मन में अभी भी कहीं क्षीण आशा है कि यह सुनकर कि विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ हैं? सम्भवत अन्धराजा अपने पुत्रों की भावी पराजय को देखें? और विवेक से काम लेकर? विनाशकारी युद्ध को रोक दें।अगले श्लोकों में संजय विश्वरूप में दर्शनीय वस्तुओं का वर्णन करने का प्रयत्न करता है
।।11.9।। व्याख्या--'एवमुक्त्वा ततो ৷৷. परमं रूपमैश्वरम्'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने जो यह कहा था कि 'तू अपने चर्मचक्षुओंसे मुझे नहीं देख सकता, इसलिये मैं तेरेको दिव्यचक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरे ईश्वर-सम्बन्धी योगको देख' उसीका संकेत यहाँ सञ्जयने 'एवमुक्त्वा' पदसे किया है।चौथे श्लोकमें अर्जुनने भगवान्को 'योगेश्वर' कहा और यहाँ सञ्जय भगवान्को 'महायोगेश्वर' कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान्ने अर्जुनकी प्रार्थनासे बहुत अधिक अपना विश्वरूप दिखाया। भक्तकी थोड़ी-सी भी वास्तविक रुचि भगवान्की तरफ होनेपर भगवान् अपनी अपार शक्तिसे उसकी पूर्ति कर देते हैं। तीसरे श्लोकमें अर्जुनने जिस रूपके लिये 'रूपमैश्वरम्' कहा, उसी रूपके लिये यहाँ सञ्जय 'परमं रूपमैश्वरम्' कहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भगवान्का विश्वरूप बहुत ही विलक्षण है। सम्पूर्ण योगोंके महान् ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णने ऐसा विलक्षण, अलौकिक, अद्भुत विश्वरूप दिखाया, जिसको धैर्यशाली, जितेन्द्रिय, शूरवीर और भगवान्से प्राप्त दिव्यदृष्टिवाले अर्जुनको भी दुर्निरीक्ष्य कहना प़ड़ा (11। 17) और भयभीत होना पड़ा (11। 45), तथा भगवान्को भी 'व्यपेतभीः' कहकर अर्जुनको आश्वासन देना पड़ा (11। 49)।  सम्बन्ध--अब सञ्जय भगवान्के उस परम ऐश्वर-रूपका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
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।।11.9।।संजय उवाच -- एवम् उक्त्वा सारथ्ये अवस्थितः पार्थमातुलजो महायोगेश्वरो हरिः महाश्चर्य योगानाम् ईश्वरः परब्रह्मभूतो नारायणः परमम् ऐश्वरं स्वासाधारणं रूपं पार्थाय पितृष्वसुः पृथायाः पुत्राय दर्शयामास तद् विविधविचित्रनिखिलजगदाश्रयं विश्वस्य प्रशासितृ च रूपम्।तत् च ईदृशम् --
।।11.9।।इमं वृत्तान्तं धृतराष्ट्राय संजयो निवेदितवानित्याह -- संजय इति। मदीयं विश्वरूपाख्यं रूपं न प्राकृतेन चक्षुषा निरीक्षितुं क्षमं किंतु दिव्येनेत्यादि यथोक्तप्रकारः। अनन्तरं दिव्यचक्षुषः प्रदानादिति शेषः। हरत्यविद्यां सकार्यामिति हरिः। यदीश्वरस्य मायोपहितस्य परममुत्कृष्टं रूपं तद्दर्शयांबभूवेत्याह -- परममिति।
।।11.9।।एवं सञ्जय उवाच राजन्निति। एवमुक्त्वा महायोगेश्वरः सर्वसमर्थः परमं ऐश्वरं रूपं पार्थाय दर्शयामास।
।।11.9।।भगवानर्जुनाय दिव्यं रूपं दर्शितवान् स च तद्दृष्ट्वा विस्मयाविष्टो भगवन्तं विज्ञापितवानितीमं वृत्तान्तमेवमुक्त्वेत्यादिभिः षड्भिः श्लोकैर्धृतराष्ट्रं प्रति संजय उवाच -- एवमिति। एवं नतु मां शक्यसे द्रष्टुमनेन चक्षुषाऽतो दिव्यं ददामि ते चक्षुरित्युक्त्वा ततो दिव्यचक्षुःप्रदानादनन्तरं हे राजन् धृतराष्ट्र? स्थिरो भव श्रवणाय। महान्सर्वोत्कृष्टश्चासौ योगेश्वरश्चेति महायोगेश्वरो हरिभक्तानां सर्वक्लेशापहारी भगवान् दर्शनायोग्यमपि दर्शयामास पार्थाय एकान्तभक्ताय परमं दिव्यं रूपमैश्वरम्।
।।11.9।। एवमुक्त्वा भगवानर्जुनाय रूपं दर्शितवान्। तच्च रूपं दृष्ट्वार्जुनः श्रीकृष्णं विज्ञापितवानितीममर्थं एवमुक्त्वेत्यादिभिः ष़ड्भिः श्लोकैर्धृतराष्ट्रं प्रति संजय उवाच -- एवमिति। हे राजन् धृतराष्ट्र? महांश्चासौ योगेश्वरश्च हरिः परममैश्वरं रूपं दर्शितवान्।
।।11.9।।महायोगेश्वरो हरिः इत्यनयोस्तिरस्कारकं पूर्वप्रतिपन्नं रूपमाह -- सारथ्येऽवस्थितः पार्थमातुलज इति। एतेन दिव्यरूपप्रकाशनहेतुभूतवात्सल्यादिसूचनं च। महत्त्वेन विशेषणादाश्चर्यत्वम्। महच्छब्दस्य च योगेश्वरविशेषणत्वादपि योगविशेषत्वमत्रोचितमित्यभिप्रायेणाहमहाश्चर्ययोगानामिति। अन्येष्वप्याश्चर्ययोगस्य तदधीनत्वमीश्वरशब्देन विवक्षितम्।महायोगेश्वरो हरिः इति पदद्वयाभिप्रेतं सामान्यविशेषवाक्यार्थं दर्शयतिपरब्रह्मभूतो नारायण इति।पश्य मे योगमैश्वरं [11।8]परमं रूपमैश्वरम् इत्यनयोरदूरविप्रकर्षेण घटनादैकार्थ्यम्।ऐश्वरं रूपं दर्शयामास इत्युक्ते स्वेतरस्य कस्यचिद्रूपमिति धीः स्यादिति तद्व्युदासायोक्तंस्वासाधारणमिति। रूपशब्दस्यात्रापि सानुबन्धस्वरूपपरतया तदभिव्यञ्जकविग्रहपरतया स्वरूपादिसमस्तासाधारणाकारमात्रपरतया वा निर्वाहो ग्राह्यः। अत्र पार्थशब्देन स्वस्वरूपप्रदर्शनार्थः प्रीतिहेतुः सम्बन्धोऽभिप्रेत इति प्रदर्शनायाहपितृष्वसुः पृथायाः पुत्रायेति। परममैश्वरं रूपमित्युक्तं विवृणोति -- तद्विविधेति। निखिलजगदाश्रयत्वं स्वरूपतो विग्रहद्वारा च। यद्वाअनेक -- [11।10] इत्यादेरुत्थानप्रदर्शनमिदम्। तत एव हितच्चेदृशम् इति संहितम्।इहैकस्थम् [11।7] इत्यादिभिः सिद्धोऽयमर्थः। प्रशासितृशब्देनाधिष्ठातृत्वं विवक्षितम्।
।।11.9।।एवमुक्त्वा अर्जुनाय स्वरूपं दर्शयामास भगवानिति धृतराष्ट्रं प्रति सञ्जय उवाच -- एवमिति। राजन्याभिमानेन दिव्यदृष्ट्यसुरावेशिभीष्मादिमारणेन सर्वदुःखनिराकरणार्थं महायोगेश्वरः सर्वकरणसमर्थः सर्वात्मकयोगबलेन एवमुक्त्वा अलौकिकीं दृष्टिं दत्त्वा पार्थाय स्वाङ्गीकृताय परमं रूपं पुरुषोत्तमरूपं दर्शयामास। ततस्तद्दर्शनानन्तरं ऐश्वरं रूपं दर्शयामास।
।।11.9।।एवमुक्त्वा भगवानर्जुनाय दिव्यं रूपं दर्शितवान्? सच दृष्ट्वा विस्मयाविष्टो भगवन्तं,विज्ञापितवानितीमं वृत्तान्तमेवमुक्त्वेत्यादिषड्भिः श्लोकैर्धृतराष्ट्रं प्रति संजय उवाच -- एवमुक्त्वेत्यादि। ततः दिव्यचक्षुःप्रदानानन्तरम्। राजन् हे धृतराष्ट्र? महांश्चासौ योगेश्वरश्चेति विग्रहः। महतो योगस्य वा ईश्वरः। परमं दिव्यं रूपं ऐश्वरं मायाविसंबन्धि नतु मायातीतं दर्शयामास।
।।11.9।।एतादृशो भगवतो वासुदेवस्य महिमार्जुनपक्षपातश्चेति सूचयन् धृतराष्ट्रं प्रति संजय उवाच। एवं यथोक्तेन प्रकारेणोक्त्वा ततोऽनन्तरं महांश्चासौ योगेश्वरो हरिः पार्थाय परमप्रेमास्पदाय परममैश्वररुपं दर्शयामास। हरिरित्यनेन स्वभक्तानां पार्थानां दुःखहरण उद्यत इत्युक्तम्। महायोगेश्वर इत्यनेन विश्वरुपप्रदर्शनादिना येनकेनापि प्रकारेण तद्धरणेऽतिसमर्थ इति सूचितम्। एतादृशकृष्णानुगृहीतैः पाण्जवैस्त्वं संधिं न कृतवान् न करोष चातो चाजनीतिहीनो नाममात्रेण राजासीति हे राजन्निति संबोधनेन ध्वनितम्।
11.9 एवम् thus? उक्त्वा having spoken? ततः then? राजन् O king? महायोगेश्वरः the great Lord of Yoga? हरिः Hari? दर्शयामास showed? पार्थाय to Arjuna? परमम् Supreme? रूपम् form? ऐश्वरम् Sovereign.Commentary King This verse is addressed by Sanjaya to Dhritarashtra.Supreme Form The Cosmic Form.
11.9 Sanjaya said Having thus spoken, O king, the great Lord of Yoga, hari (Krishna), showed to Arjuna His supreme form as the Lord.
11.9 Sanjaya continued: "Having thus spoken, O King, the Lord Shri Krishna, the Almighty Prince of Wisdom, showed to Arjuna the Supreme Form of the Great God.
11.9 Sanjaya said O King, having spoken thus, thereafter, Hari [Hari: destroyer of ignorance along with its conseences.] (Krsna) the great Master of Yoga, showed to the son of Prtha the supreme divine form:
11.9 Rajan, O King, Dhrtarastra; uktva, having spoken evam, thus, in the manner stated above; tatah, thereafter; harih, Hari, Narayana; maha-yogeswarah, the great Master of Yoga-who is great (mahan) and also the master (isvara) of Yoga; darasyamasa showed; parthaya, to the son of Prtha; the paramam, supreme; aisvaram, divine; rupam, form, the Cosmic form:
11.9. Sanjaya said O king ! Having thus stated, Hari (Krsna), the mighty Lord of the Yogins, showed to the son of Prtha [His own] Supreme Lordly form;
11.9 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.9 Sanjaya said Having thus spoken, Sri Krsna, who is the great Lord of Yoga, namely, the Lord of supremely wonderful attributes - Sri Krsna who is Narayana, the Supreme Brahman now incarnated as the son of Arjuna's maternal uncle and seated as a charioteer in his chariot - showed Arjuna, the son of Pritha His paternal aunt, that Lordly form uniely His own, which is the ground of the entire universe, which is manifold and wonderful, and which rules over everything. And that form was like this:
11.9 Sanjaya said Having spoken, O King, Sri Krsna, the gread Lord of Yoga, then revealed to Arjuna the supreme Lordly Form.
।।11.9।।संजय बोला -- हे राजा धृतराष्ठ्र इस प्रकार कहनेके अनन्तर महायोगेश्वर श्रीहरिने यानी जो अति महान् और योगेश्वर भी हैं उन नारायणने पृथापुत्र अर्जुनको अपना ईश्वरीय परम रूप -- विराट्स्वरूप दिखलाया।
।।11.9।। --,एवं यथोक्तप्रकारेण उक्त्वा ततः अनन्तरं राजन् धृतराष्ट्र? महायोगेश्वरः महांश्च असौ योगेश्वरश्च हरिः नारायणः दर्शयामास दर्शितवान् पार्थाय पृथासुताय परमं रूपं विश्वरूपम् ऐश्वरम्।।
।।11.9 -- 11.10।।महायोगेश्वरो हरिः इत्यत्र हरिशब्दस्य प्रकृतोपयुक्तमर्थमाह -- हरिरिति। गेहेषु इष्टिगृहेषु। हरतेरिकारप्रत्ययः। श्रेष्ठोऽप्राकृतः। अप्राकृतविग्रहस्य साकारस्यैवानन्तपूजास्थानेषु स्वरूपेणैव युगपत्सन्निधाने किं वक्तव्यं महायोगेश्वरत्वं इति।
।।11.9 -- 11.10।।हरिः सर्वयज्ञभागहारित्वात्।इडोपहूतं गेहेषु हरे भागं क्रतुष्वहम्। वर्णो मे हरितः श्रेष्ठस्तस्माद्धरिरिति स्मृतः इति हि मोक्षधर्मे ()।
सञ्जय उवाच एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः। दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।11.9।।
সঞ্জয উবাচ এবমুক্ত্বা ততো রাজন্মহাযোগেশ্বরো হরিঃ৷ দর্শযামাস পার্থায পরমং রূপমৈশ্বরম্৷৷11.9৷৷
সঞ্জয উবাচ এবমুক্ত্বা ততো রাজন্মহাযোগেশ্বরো হরিঃ৷ দর্শযামাস পার্থায পরমং রূপমৈশ্বরম্৷৷11.9৷৷
સઞ્જય ઉવાચ એવમુક્ત્વા તતો રાજન્મહાયોગેશ્વરો હરિઃ। દર્શયામાસ પાર્થાય પરમં રૂપમૈશ્વરમ્।।11.9।।
ਸਞ੍ਜਯ ਉਵਾਚ ਏਵਮੁਕ੍ਤ੍ਵਾ ਤਤੋ ਰਾਜਨ੍ਮਹਾਯੋਗੇਸ਼੍ਵਰੋ ਹਰਿ। ਦਰ੍ਸ਼ਯਾਮਾਸ ਪਾਰ੍ਥਾਯ ਪਰਮਂ ਰੂਪਮੈਸ਼੍ਵਰਮ੍।।11.9।।
ಸಞ್ಜಯ ಉವಾಚ ಏವಮುಕ್ತ್ವಾ ತತೋ ರಾಜನ್ಮಹಾಯೋಗೇಶ್ವರೋ ಹರಿಃ. ದರ್ಶಯಾಮಾಸ ಪಾರ್ಥಾಯ ಪರಮಂ ರೂಪಮೈಶ್ವರಮ್৷৷11.9৷৷
സഞ്ജയ ഉവാച ഏവമുക്ത്വാ തതോ രാജന്മഹായോഗേശ്വരോ ഹരിഃ. ദര്ശയാമാസ പാര്ഥായ പരമം രൂപമൈശ്വരമ്৷৷11.9৷৷
ସଞ୍ଜଯ ଉବାଚ ଏବମୁକ୍ତ୍ବା ତତୋ ରାଜନ୍ମହାଯୋଗେଶ୍ବରୋ ହରିଃ| ଦର୍ଶଯାମାସ ପାର୍ଥାଯ ପରମଂ ରୂପମୈଶ୍ବରମ୍||11.9||
sañjaya uvāca ēvamuktvā tatō rājanmahāyōgēśvarō hariḥ. darśayāmāsa pārthāya paramaṅ rūpamaiśvaram৷৷11.9৷৷
ஸஞ்ஜய உவாச ஏவமுக்த்வா ததோ ராஜந்மஹாயோகேஷ்வரோ ஹரிஃ. தர்ஷயாமாஸ பார்தாய பரமஂ ரூபமைஷ்வரம்৷৷11.9৷৷
సఞ్జయ ఉవాచ ఏవముక్త్వా తతో రాజన్మహాయోగేశ్వరో హరిః. దర్శయామాస పార్థాయ పరమం రూపమైశ్వరమ్৷৷11.9৷৷
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।।11.10 -- 11.11।। जिसके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तहरके अद्भुत दर्शन हैं, अनेक दिव्य आभूषण हैं, हाथोंमें उठाये हुए अनेक दिव्य आयुध हैं तथा जिनके गलेमें दिव्य मालाएँ हैं, जो दिव्य वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीरपर दिव्य चन्दन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्तरूपवाले तथा चारों तरफ मुखवाले देव-(अपने दिव्य स्वरूप-) को भगवान् ने दिखाया।
।।11.10।। उस अनेक मुख और नेत्रों से युक्त तथा अनेक अद्भुत दर्शनों वाले एवं बहुत से दिव्य भूषणों से युक्त और बहुत से दिव्य शस्त्रों को हाथों में उठाये हुये।।
।।11.10।। See commentary under 11.11
।।11.10।। व्याख्या--'अनेकवक्त्रनयनम्'--विराट्रूपसे प्रकट हुए भगवान्के जितने मुख और नेत्र दीख रहे हैं, वे सब-के-सब दिव्य हैं। विराट्रूपमें जितने प्राणी दीख रहे हैं, उनके मुख, नेत्र, हाथ, पैर आदि सबकेसब अङ्ग विराट्रूप भगवान्के हैं। कारण कि भगवान् स्वयं ही विराट्रूपसे प्रकट हुए हैं।
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।।11.10।।देवं द्योतमानम् अनन्तं कालत्रयवर्तिनिखिलजगदाश्रयतया देशकालपरिच्छेदानर्हं विश्वतोमुखं विश्वदिग्वर्तिमुखं स्वोचितदिव्याम्बरगन्धमाल्याभरणायुधान्वितम्।ताम् एव देवशब्दनिर्दिष्टां द्योतमानतां विशिनष्टि --
।।11.10।।तदेव रूपं विशिनष्टि -- अनेकेति। दिव्यान्याभरणादीनि हारकेयूरादीनि भूषणानि उद्यतान्युच्छ्रितानि।
।।11.10 -- 11.11।।तच्च कीदृशमिति तच्छृणु -- अनेकवक्त्रनयनं इत्यारभ्यविश्वतोमुखं इत्यन्तं रूपविशेषणानि। इदं च महाकालपुरुषरूपवद्दर्शितं मर्यादामार्गपरैरुपास्यं सर्वतः पाणिपादं चालौकिकमेतत्समष्टिभूतपुरुषस्वरूपभूतं कूटस्थं सर्वकारणकारणं निर्गुणभूतमित्यवसेयम्। दिव्यमिति स्पष्टार्थः। अम्बरं छन्दोमायारूपं किरीटाद्याभरणानि च पारमेष्ठ्यादिरूपाणि? आयुधानि पञ्चभूततत्त्वस्वरूपाणि? इत्येवंविधं विश्वरूपं विश्वतोमुखं निरुपमतेजस्कं स्वं दर्शितम्।
।।11.10।।तदेव रूपं विशिनष्टि -- अनकेति। अनेकानि वक्त्राणि नयनानि च यस्मिन्रूपे। अनेकानामद्भुतानां विस्मयहेतूनां दर्शनं यस्मिन्। अनेकानि दिव्यान्याभरणानि भूषणानि यस्मिन्। दिव्यान्यनेकान्यद्भुतान्यायुधानि अस्त्राणि यस्मिन् तत्तथा रूपम्।
।।11.10।।कथंभूतं तदित्यत आह -- अनेकेति। अनेकानि वक्राणि नयनानि च यस्मिंस्तत्? अनेकानामद्भुतानां दर्शनं यस्मिंस्तत्? अनेकानि दिव्याभरणानि यस्मिंस्तत्? दिव्यान्यनेकानि उद्यतान्यायुधानि च यस्मिंस्तत्।
।।11.10।।वस्त्राभरणायुधेष्वनेकत्वं जातिवैचित्र्यादपि द्रष्टव्यम्। नानाजातीयबहुवक्त्रयोगो हि श्रीविश्वरूपध्याने भगवच्छास्त्रेषु पठ्यते अन्यथाऽनेकनयनत्वनिर्देशो निरर्थकः स्यात्? वक्त्रानेकत्वेनैव तत्सिद्धेः। अनेकमद्भुतं दर्शनं यस्य तदनेकाद्भुतदर्शनम्? अनवधिकातिशयाश्चर्यतया दृश्यमानमित्यर्थः। दिव्यत्वमप्राकृतत्वम्।सर्वाश्चर्यमयम् आश्चर्यभूतसर्वतत्त्वाश्रयभूतमित्यर्थः। अत एवअनेकाद्भुतदर्शनम् इत्यनेनापुनरुक्तिः।जगदेतन्महाश्चर्यं रूपं यस्य महात्मनः [वि.पु.5।19।7] इत्यादि भाव्यम्। देवशब्दस्यात्रानुपयुक्तजातिविशेषादिमात्रनिष्ठताव्युदासार्थं विग्रहविशिष्टविषयत्वप्रदर्शनार्थं चद्योतमानमित्युक्तम्। आनन्त्यप्रकारं तद्धेतुं चाह?निखिलेत्यादिना। कृत्स्नजगदाश्रयत्वस्य कण्ठोक्तत्वात्फलितं कालत्रयवर्त्याश्रयत्वमपि। तदुभयफलितं देशकालपरिच्छेदानर्हत्वमत्र यथासम्भवं विग्रहद्वारमद्वारकं च। आनन्त्यं तु स्वरूपगतम्। विग्रहविशेषणवर्गमध्यवर्तित्वादनन्तशब्दोऽपि विग्रहविषयः।दृष्ट्वाद्भुतम् [11।20] इत्यत्रअनन्तायामविस्तारमित्यद्भुतमत्युग्रम् इति रूपविषयमेव वक्ष्यति। ततश्चात्यन्तपृथुत्वादिमात्रप्रदर्शने तात्पर्यमित्यन्ये। एवंअनन्तायामविस्तारे इति वक्ष्यमाण एतदनुवादोऽपि निर्वाह्यः। विश्वव्यापिनोऽप्यस्य विग्रहस्य शक्तिविशेषात्सर्वत्राप्रतिघातो युक्तः। अष्टैश्वर्यशालिनां योगिनामपि भूमावुन्मज्जति निमज्जतीति सिद्धिविशेषोऽभिधीयते। अतोऽस्य प्रकृत्यादिकृत्स्नजगदाश्रयत्वं वक्ष्यमाणं नानुपपन्नम्। अत एवास्त्रभूषणरूपेण सर्वाश्रयत्वमिहोच्यत इत्येतदपि नाशङ्कनीयम्? तत्रदेवदेवस्य शरीरं इत्यत्र शरीरविशेषणतयाऽनन्तायामविस्तारत्वाद्युक्तेः। न च वटपत्रशायिविग्रहवदधटितघटनाशक्त्या सूक्ष्मरूपेण वाऽल्पीयस्यपि सर्वान्तर्भावप्रकाशनमित्यपि वाच्यम्? तथाऽनुक्तेस्तद्विपरीतोक्तेश्च। अतो यथाश्रुत एवार्थः। एतच्चारम्भभाष्य एव अचिन्त्यशब्देन स्थापितमिति।अनेकवक्त्र -- इत्युक्तमेवात्र विश्वतोमुखशब्देन विशेष्यत इत्यभिप्रायेणाह -- विश्वदिग्वर्तिमुखमिति। साक्षाद्विग्रहविषयत्वात् विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः [ऋक्सं.4।7।27।1श्वे.उ.3।3यजुस्सं.17।19] इत्यादिष्विव नात्र सर्वत्र मुखशक्तियोगोऽपि विवक्षितः। सर्वत्र मुखयुक्तमिति च परोक्तं (शं.) अयुक्तम्? पाणिपादादिषु मुखाभावादिति भावः। अविशदविशदोपलम्भक्रमेण पाठक्रममनादृत्यदेवम् इत्यादिकं पूर्वं व्याख्यातम्। स्वगताकारप्रतीतेः परस्ताद्धि पृथक्सिद्धद्रव्यविशिष्टताप्रतीतिः तथैव च प्रदर्शनमुचितमित्यभिप्रायेणाम्बरादिकं पूर्वमुक्तमपि परस्ताद्दर्शितं -- स्वोचितेत्यादिना। अत्रापि पाठक्रमोल्लङ्घनेनाम्बरादिक्रमेण निर्देशोऽन्तरङ्गत्वबहिरङ्गत्वतारतम्यप्रदर्शनाय। अत्रदर्शयामास इति पूर्वेणान्वयः।
।।11.10।।उभयोः स्वरूपमाह -- अनेकेति। अनेकानि वक्त्राणि नयनानि च यस्मिंस्तत्? निखिललीलात्मकरूपसहितम्। अनेकाद्भुतदर्शनं अनेकानि अलौकिकानि लीलामयानि दर्शनानि यस्मिंस्तत्। अनेकानि दिव्यानि अलौकिकानि आभरणानि यस्मिंस्तत्। दिव्यानि अलौकिकानि अनेकानि उद्यतानि सकलदुःखनिवारकाणि आयुधानि शङ्खगदादीनि यस्मिंस्तत्।
।।11.10।।तदेव रूपं विशिनष्टि द्वाभ्याम् -- अनेकेत्यादिना। अनेकान्यनन्तानि वक्त्राणि नयनानि च यस्मिंस्तदनेकवक्त्रनयनम्। अनेकान्यद्भुतानि दर्शनानि यस्मिंस्तदनेकाद्भुतदर्शनम्। अनेकानि दिव्यान्याभरणानि यस्मिन्। दिव्यान्यनेकानि चोद्यतान्यायुधानि चक्रादीनि यस्मिन्।
।।11.10।।परममैश्वरं रुपं विशिनष्टि। अनेकानि मुखानि नेत्राणि च यस्मिस्तत्। अनेकानि विस्मापकानि दर्शनानि यस्मिन्,तत्। तथानेकानि दिव्यान्यलौकिकानि भूषणान्यङ्गदादीनि यस्मिन्तत्। तथा दिव्यान्यनेकान्युद्यतान्यायुधानि दर्शनानि यस्मिन् तत्। तथानेकानि दिव्यान्यलौकिकानि भूषणान्यङ्गदादीनि यस्मिन्तत्। तथा दिव्यान्यनेकान्युद्यतान्यायुधानि यस्मिंतत्। दर्शयामासेति पूर्वेण संबन्धः।
11.10 अनेकवक्त्रनयनम् with numerous mouthsand eyes? अनेकाद्भुतदर्शनम् with numerous wonderful sights? अनेकदिव्याभरणम् with numerous divine ornaments? दिव्यानेकोद्यतायुधम् with numerous divine weapons uplifted.Commentary Countless faces appeared there. Arjuna looked at this Cosmic Form in all its magnificence. He saw the Lord everywhere and in everything. The whole manifestation appeared as one gigantic body of the Lord. He saw the Lord as the allinall.
11.10 With numerous mouths and eyes, with numerous wonderful sights, with numerous divine ornaments, with numerous divine weapons uplifted (such a form He showed).
11.10 There were countless eyes and mouths, and mystic forms innumerable, with shining ornaments and flaming celestial weapons.
11.10 Having many faces and eyes, possessing many wonderful sights, adorned with numerous celestial ornaments, holding many uplifted heavenly weapons;
11.10 A form aneka-vaktra-nayanam, having many faces and eyes; aneka-adbhuta-darsanam, possessing many wonderful sights; as also aneka-divya-abharanam, adorned with numerous celestial ornaments; and divya-aneka-udyata-ayudham, holding many uplifted heavenly weapons. This whole portion is connected with the verb '(He) showed' in the earlier verse. Moreover,
11.10. That has many mouths and eyes, many wondrous sights, many heavenly ornaments, and many heavenly weapons held ready;
11.10 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.10 - 11.11 'Divyam' means resplendent. 'Anantam' (boundless) means that form is not limited by time and space because of its being the foundation of the entire universe in the past, present and future. 'Visvatomukham' means facing in all directions. This form is adorned with divine raiments, perfumes, garlands, ornaments and weapons appropriate to it. He explains the same resplendence expressed by the term 'Divyam':
11.10 With innumerable mouths and eyes, many marvellous aspects, many divine ornaments and many divine weapons.
।।11.10।।जो अनेक मुख और नेत्रोंवाला है अर्थात् जिस रूपमें अनेक मुख और नेत्र हैं? तथा अनेक अद्भुत दृश्योंवाला है अर्थात् जिसमें आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले अनेक दृश्य हैं? जो अनेक दिव्य भूषणोंसे युक्त है यानी जिसमें अनेक दिव्य आभूषण हैं और जो हाथमें उठाये हुए अनेक दिव्य शस्त्रोंसे युक्त है यानी जिस रूपके हाथोंमें अनेक दिव्य शस्त्र उठाये हुए हैं? ऐसा वह रूप भगवान्ने अर्जुनको दिखलाया। इस श्लोकका पूर्वश्लोकके दर्शयामास शब्दसे सम्बन्ध है।,
।।11.10।। --,अनेकवक्त्रनयनम् अनेकानि वक्त्राणि नयनानि च यस्मिन् रूपे तत् अनेकवक्त्रनयनम्? अनेकाद्भुतदर्शनम् अनेकानि अद्भुतानि विस्मापकानि दर्शनानि यस्मिन् रूपे तत् अनेकाद्भुतदर्शनं रूपम्? तथा अनेकदिव्याभरणम् अनेकानि दिव्यानि आभरणानि यस्मिन् तत् अनेकदिव्याभरणम्? तथा दिव्यानेकोद्यतायुधं दिव्यानि अनेकानि अस्यादीनि उद्यतानि आयुधानि यस्मिन् तत् दिव्यानेकोद्यतायुधम्? दर्शयामास इति पूर्वेण संबन्धः।।किञ्च --,
।।11.9 -- 11.10।।महायोगेश्वरो हरिः इत्यत्र हरिशब्दस्य प्रकृतोपयुक्तमर्थमाह -- हरिरिति। गेहेषु इष्टिगृहेषु। हरतेरिकारप्रत्ययः। श्रेष्ठोऽप्राकृतः। अप्राकृतविग्रहस्य साकारस्यैवानन्तपूजास्थानेषु स्वरूपेणैव युगपत्सन्निधाने किं वक्तव्यं महायोगेश्वरत्वं इति।
।।11.9 -- 11.10।।हरिः सर्वयज्ञभागहारित्वात्।इडोपहूतं गेहेषु हरे भागं क्रतुष्वहम्। वर्णो मे हरितः श्रेष्ठस्तस्माद्धरिरिति स्मृतः इति हि मोक्षधर्मे ()।
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्। अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्।।11.10।।
অনেকবক্ত্রনযনমনেকাদ্ভুতদর্শনম্৷ অনেকদিব্যাভরণং দিব্যানেকোদ্যতাযুধম্৷৷11.10৷৷
অনেকবক্ত্রনযনমনেকাদ্ভুতদর্শনম্৷ অনেকদিব্যাভরণং দিব্যানেকোদ্যতাযুধম্৷৷11.10৷৷
અનેકવક્ત્રનયનમનેકાદ્ભુતદર્શનમ્। અનેકદિવ્યાભરણં દિવ્યાનેકોદ્યતાયુધમ્।।11.10।।
ਅਨੇਕਵਕ੍ਤ੍ਰਨਯਨਮਨੇਕਾਦ੍ਭੁਤਦਰ੍ਸ਼ਨਮ੍। ਅਨੇਕਦਿਵ੍ਯਾਭਰਣਂ ਦਿਵ੍ਯਾਨੇਕੋਦ੍ਯਤਾਯੁਧਮ੍।।11.10।।
ಅನೇಕವಕ್ತ್ರನಯನಮನೇಕಾದ್ಭುತದರ್ಶನಮ್. ಅನೇಕದಿವ್ಯಾಭರಣಂ ದಿವ್ಯಾನೇಕೋದ್ಯತಾಯುಧಮ್৷৷11.10৷৷
അനേകവക്ത്രനയനമനേകാദ്ഭുതദര്ശനമ്. അനേകദിവ്യാഭരണം ദിവ്യാനേകോദ്യതായുധമ്৷৷11.10৷৷
ଅନେକବକ୍ତ୍ରନଯନମନେକାଦ୍ଭୁତଦର୍ଶନମ୍| ଅନେକଦିବ୍ଯାଭରଣଂ ଦିବ୍ଯାନେକୋଦ୍ଯତାଯୁଧମ୍||11.10||
anēkavaktranayanamanēkādbhutadarśanam. anēkadivyābharaṇaṅ divyānēkōdyatāyudham৷৷11.10৷৷
அநேகவக்த்ரநயநமநேகாத்புததர்ஷநம். அநேகதிவ்யாபரணஂ திவ்யாநேகோத்யதாயுதம்৷৷11.10৷৷
అనేకవక్త్రనయనమనేకాద్భుతదర్శనమ్. అనేకదివ్యాభరణం దివ్యానేకోద్యతాయుధమ్৷৷11.10৷৷
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।।11.10 -- 11.11।। जिसके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तहरके अद्भुत दर्शन हैं, अनेक दिव्य आभूषण हैं, हाथोंमें उठाये हुए अनेक दिव्य आयुध हैं तथा जिनके गलेमें दिव्य मालाएँ हैं, जो दिव्य वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीरपर दिव्य चन्दन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्त रूपोंवाले तथा चारों तरफ मुखवाले देव-(अपने दिव्य स्वरूप-) को भगवान् ने दिखाया।
।।11.11।। दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किये हुये और दिव्य गन्ध का लेपन किये हुये एवं समस्त प्रकार के आश्चर्यों से युक्त अनन्त, विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) परम देव (को अर्जुन ने देखा)।।
।।11.11।। जब कोई चित्रकार अपने कलात्मक विचार को रंगों के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयत्न करता है? तो वह प्रारम्भ में एक पट्ट पर अपने विषयवस्तु की अस्पष्ट रूपरेखा खींचता है। तत्पश्चात्? एकएक इंच में वह रंगों को भर कर चित्र को और अधिक स्पष्ट करता जाता है। अन्त में वह चित्र उस चित्रकार के सन्देश का गीत गाते हुये प्रतीत होता है। इसी प्रकार? साहित्य के कुशल चित्रकार व्यासजी के द्वारा चित्रित इस शब्दचित्र का यह श्लोक संजय के शब्दों में भगवान् के विश्वरूप की रूपरेखा खींचता है।संजय के समक्ष जो दृश्य प्रस्तुत हुआ है? वह सामान्य बुद्धि के पुरुष के द्वारा सरलता से ग्रहण करने योग्य कदापि नहीं कहा जा सकता। इस वैभवपूर्ण एवं शक्तिशाली दृश्य को देखकर सामान्य पुरुष तो भय और विस्मय से भौचक्का ही रह जायेगा। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कोई मन के द्वारा कल्पना किया जाने योग्य विषय नहीं है और न ही बुद्धि उसको ग्रहण कर सकती है। इसलिए? जब गीतोपदेश के मध्य यह दृश्य उपस्थित हो जाता है? तब संजय भी वर्णन करते हुए कुछ हकलाने लगता है।दिव्य माला और वस्त्रों को धारण किये हुए? दिव्य गन्ध का लेपन किये हुए? सर्वाश्चर्यमय? विश्वतोमुख भगवान् इत्यादि शब्द चित्रकार के उन वक्र चिह्नों के प्रतीक हैं जिनके लगाने पर विराट् रूप का चित्र उसकी रूपरेखा में पूर्ण होता है।संजय आगे वर्णन करता है
।।11.11।। व्याख्या--'अनेकवक्त्रनयनम्'--विराट्रूपसे प्रकट हुए भगवान्के जितने मुख और नेत्र दीख रहे हैं, वे सब-के-सब दिव्य हैं। विराट्रूपमें जितने प्राणी दीख रहे हैं, उनके मुख, नेत्र, हाथ, पैर आदि सब-के-सब अङ्ग विराट्रूप भगवान्के हैं। कारण कि भगवान् स्वयं ही विराट्रूपसे प्रकट हुए हैं।
null
।।11.11।।देवं द्योतमानम् अनन्तं कालत्रयवर्तिनिखिलजगदाश्रयतया देशकालपरिच्छेदानर्हं विश्वतोमुखं विश्वदिग्वर्तिमुखं स्वोचितदिव्याम्बरगन्धमाल्याभरणायुधान्वितम्।ताम् एव देवशब्दनिर्दिष्टां द्योतमानतां विशिनष्टि --
।।11.11।।उक्तरूपवन्तं भगवन्तं प्रकारान्तरेण विशिनष्टि -- किञ्चेति।अर्जुन इति अध्याहारेऽपि पदसंघटनासंभवात्।
।।11.10 -- 11.11।।तच्च कीदृशमिति तच्छृणु -- अनेकवक्त्रनयनं इत्यारभ्यविश्वतोमुखं इत्यन्तं रूपविशेषणानि। इदं च महाकालपुरुषरूपवद्दर्शितं मर्यादामार्गपरैरुपास्यं सर्वतः पाणिपादं चालौकिकमेतत्समष्टिभूतपुरुषस्वरूपभूतं कूटस्थं सर्वकारणकारणं निर्गुणभूतमित्यवसेयम्। दिव्यमिति स्पष्टार्थः। अम्बरं छन्दोमायारूपं किरीटाद्याभरणानि च पारमेष्ठ्यादिरूपाणि? आयुधानि पञ्चभूततत्त्वस्वरूपाणि? इत्येवंविधं विश्वरूपं विश्वतोमुखं निरुपमतेजस्कं स्वं दर्शितम्।
।।11.11।।दिव्येति। दिव्यानि माल्यानि पुष्पमयानि रत्नमयानि च तथा दिव्यान्यम्बराणि वस्त्राणि च ध्रियन्ते येन तद्दिव्यमाल्याम्बरधरं। दिव्यो गन्धोऽस्येति दिव्यगन्धस्तदनुलेपनं यस्य तत्। सर्वाश्चर्यमयमनेकाद्भुतप्रचुरं देवं द्योतनात्मकं अनन्तमपरिच्छिन्नं विश्वतः सर्वतो मुखानि यस्मिन् तद्रूपं दर्शयामासेति पूर्वेण संबन्धः। अर्जुनो ददर्शेत्यध्याहारो वा।
।।11.11।।किंच -- दिव्येति। दिव्यानि माल्याम्बराणि च धारयन्तीति तथा? दिव्यो गन्धो यस्य तादृशमनुलेपनं यस्य तत्? सर्वाश्चर्यमयमनेकाश्चर्यप्रायम्? देवं द्योतनात्मकम्? अनन्तमपरिच्छिन्नम्? विश्वतः सर्वतो मुखानि यस्मिंस्तत्।
।। 11.11 वस्त्राभरणायुधेष्वनेकत्वं जातिवैचित्र्यादपि द्रष्टव्यम्। नानाजातीयबहुवक्त्रयोगो हि श्रीविश्वरूपध्याने भगवच्छास्त्रेषु पठ्यते अन्यथाऽनेकनयनत्वनिर्देशो निरर्थकः स्यात्? वक्त्रानेकत्वेनैव तत्सिद्धेः। अनेकमद्भुतं दर्शनं यस्य तदनेकाद्भुतदर्शनम्? अनवधिकातिशयाश्चर्यतया दृश्यमानमित्यर्थः। दिव्यत्वमप्राकृतत्वम्।सर्वाश्चर्यमयम् आश्चर्यभूतसर्वतत्त्वाश्रयभूतमित्यर्थः। अत एवअनेकाद्भुतदर्शनम् इत्यनेनापुनरुक्तिः।जगदेतन्महाश्चर्यं रूपं यस्य महात्मनः [वि.पु.5।19।7] इत्यादि भाव्यम्। देवशब्दस्यात्रानुपयुक्तजातिविशेषादिमात्रनिष्ठताव्युदासार्थं विग्रहविशिष्टविषयत्वप्रदर्शनार्थं चद्योतमानमित्युक्तम्। आनन्त्यप्रकारं तद्धेतुं चाह?निखिलेत्यादिना। कृत्स्नजगदाश्रयत्वस्य कण्ठोक्तत्वात्फलितं कालत्रयवर्त्याश्रयत्वमपि। तदुभयफलितं देशकालपरिच्छेदानर्हत्वमत्र यथासम्भवं विग्रहद्वारमद्वारकं च। आनन्त्यं तु स्वरूपगतम्। विग्रहविशेषणवर्गमध्यवर्तित्वादनन्तशब्दोऽपि विग्रहविषयः।दृष्ट्वाद्भुतम् [11।20] इत्यत्रअनन्तायामविस्तारमित्यद्भुतमत्युग्रम् इति रूपविषयमेव वक्ष्यति। ततश्चात्यन्तपृथुत्वादिमात्रप्रदर्शने तात्पर्यमित्यन्ये। एवंअनन्तायामविस्तारे इति वक्ष्यमाण एतदनुवादोऽपि निर्वाह्यः। विश्वव्यापिनोऽप्यस्य विग्रहस्य शक्तिविशेषात्सर्वत्राप्रतिघातो युक्तः। अष्टैश्वर्यशालिनां योगिनामपि भूमावुन्मज्जति निमज्जतीति सिद्धिविशेषोऽभिधीयते। अतोऽस्य प्रकृत्यादिकृत्स्नजगदाश्रयत्वं वक्ष्यमाणं नानुपपन्नम्। अत एवास्त्रभूषणरूपेण सर्वाश्रयत्वमिहोच्यत इत्येतदपि नाशङ्कनीयम्? तत्रदेवदेवस्य शरीरं इत्यत्र शरीरविशेषणतयाऽनन्तायामविस्तारत्वाद्युक्तेः। न च वटपत्रशायिविग्रहवदधटितघटनाशक्त्या सूक्ष्मरूपेण वाऽल्पीयस्यपि सर्वान्तर्भावप्रकाशनमित्यपि वाच्यम्? तथाऽनुक्तेस्तद्विपरीतोक्तेश्च। अतो यथाश्रुत एवार्थः। एतच्चारम्भभाष्य एव अचिन्त्यशब्देन स्थापितमिति।अनेकवक्त्र -- इत्युक्तमेवात्र विश्वतोमुखशब्देन विशेष्यत इत्यभिप्रायेणाह -- विश्वदिग्वर्तिमुखमिति। साक्षाद्विग्रहविषयत्वात् विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः [ऋक्सं.4।7।27।1श्वे.उ.3।3यजुस्सं.17।19] इत्यादिष्विव नात्र सर्वत्र मुखशक्तियोगोऽपि विवक्षितः। सर्वत्र मुखयुक्तमिति च परोक्तं (शं.) अयुक्तम्? पाणिपादादिषु मुखाभावादिति भावः। अविशदविशदोपलम्भक्रमेण पाठक्रममनादृत्यदेवम् इत्यादिकं पूर्वं व्याख्यातम्। स्वगताकारप्रतीतेः परस्ताद्धि पृथक्सिद्धद्रव्यविशिष्टताप्रतीतिः तथैव च प्रदर्शनमुचितमित्यभिप्रायेणाम्बरादिकं पूर्वमुक्तमपि परस्ताद्दर्शितं -- स्वोचितेत्यादिना। अत्रापि पाठक्रमोल्लङ्घनेनाम्बरादिक्रमेण निर्देशोऽन्तरङ्गत्वबहिरङ्गत्वतारतम्यप्रदर्शनाय। अत्रदर्शयामास इति पूर्वेणान्वयः।
।।11.11।।दिव्यानि क्रीडोपयुक्तानि माल्यानि अम्बराणि बिभर्तीति तथा। दिव्यः क्रीडोद्भूतो गन्धो यस्य तादृशमनुलेपनं यस्य तत्। सर्वाश्चर्यमयं दुर्वितर्क्यं देवं सर्वपूज्यम्? अनन्तमपरिच्छन्नम् व्यापकम्। विश्वतोमुखं सर्वं पश्यन्तं सर्वसन्मुखम्।
।।11.11।।विश्वतोमुखमिति पूर्वोक्तस्यएकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् इत्यस्यायं परामर्शः। अनन्तं सर्वतः परिच्छेदरहितम्।
।।11.11।।उक्तरुपवन्तं भगवन्तं विशिनष्टि। दिव्यानि पुष्पाणि वस्त्राणि ध्रियन्ते येन तं दिव्यगन्धस्यानुलेपनं यस्य तं सर्वाश्चर्यप्रायं देवमनन्तं सर्वभूतात्मकत्वात्सर्वतोमुखं दर्शयामासार्जुनो ददर्शेत्यध्याहाहो वा। अत्र यद्यप्येतानि रुपविशेषणानि प्रतिभान्ति तथापि देवशब्दस्येश्वरवाचकस्य विशेष्यत्वभिप्रेत्याचार्यैरित्थं व्याख्यातम्।
11.11 दिव्यमाल्याम्बरधरम् wearing divine garlands (necklaces) and apparel? दिव्यगन्धानुलेपनम् anointed with divine unguents? सर्वाश्चर्यमयम् the allwonderful? देवम् resplendent? अनन्तम् endless? विश्वतोमुखम् with faces on all sides.Commentary Visvatomukham With faces on all sides? as He is the Self of all beings.Devam God. Also means resplendent.Anantam Endless. He Who is free from the three kinds of limitations? viz.? DesaKalaVastuPariccheda (limitations of space? time? and thing respectively) is Anantam. He is Brahman. This philosophical concept is explained below.The pot is here. This is spacelimitatio. The pot is now here. This is timelimitation. The pot is not a cloth. This is thing(material) limitation. There is saffron in Kashmir only. This is limitation of space and thing. You can have apples only in September. This is limitation of time and thing. But Brahman is everywhere? as It is allpervading. It exists in the past? the present and the future. It dwells in all parts. Hence It is beyond these three limitations. It is therefore endless.
11.11 Wearing divine garlands (necklaces) and apparel, anointed with divine unguents, the all-wonderful, resplendent (Being) endless with faces on all sides.
11.11 Crowned with heavenly garlands, clothed in shining garments, anointed with divine unctions, He showed Himself as the Resplendent One, Marvellous, Boundless, Omnipresent.
11.11 Wearing heavenly garlands and apparel, anointed with heavenly scents, abounding in all kinds of wonder, resplendent, infinite, and with faces everywhere.
11.11 Divya-malya-ambara-dharam, wearing heavenly garlands and apparel-the God wearing celestial flowers and clothings; divya-gandha-anulepanam, anointed with heavenly scents; sarva-ascaryamayam, abounding in all kinds of wonder; devam, resplendent; anantam, infinite, boundless; and visvato-mukham, with faces everywhere-He being the Self of all beings. 'He showed (to Arjuna)', or 'Arjuna saw', is to be supplied. An illustration is once more being given of the effulgence of the Cosmic form of the Lord:
11.11. That wears heavenly garlands and garments; has the unguent of heavenly sandal paste; it is all wonderful, shining (or godly), infinite; and it has faces in all directions.
11.11 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.10 - 11.11 'Divyam' means resplendent. 'Anantam' (boundless) means that form is not limited by time and space because of its being the foundation of the entire universe in the past, present and future. 'Visvatomukham' means facing in all directions. This form is adorned with divine raiments, perfumes, garlands, ornaments and weapons appropriate to it. He explains the same resplendence expressed by the term 'Divyam':
11.11 Wearing celestial garlands and raiments, anointed with divine perfumes, full of all wonders, resplendent, boundless and facing all directions.
।।11.11।।तथा --, जिस ईश्वरने दिव्य पुष्पमालाओं और वस्त्रोंको धारण कर रक्खा है? जिसने दिव्य गन्धका अनुलेपन कर रक्खा है? जो समस्त आश्चर्यमय दृश्योंसे युक्त है? जो सब भूतोंका आत्मा होनेके कारण सब ओर मुखवाला है तथा जिसका अन्त नहीं है ऐसा अनन्त और दिव्य विराट्रूप भगवान्ने अर्जुनको दिखलाया? इस प्रकार पूर्वश्लोकसे अन्वय कर लेना चाहिये अथवा अर्जुनने ऐसा रूप देखा इस प्रकार अध्याहार कर लेना चाहिये।,
।।11.11।। --,दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यानि माल्यानि पुष्पाणि अम्बराणि वस्त्राणि च ध्रियन्ते येन ईश्वरेण तं दिव्यमाल्याम्बरधरम्? दिव्यगन्धानुलेपनं दिव्यं गन्धानुलेपनं यस्य तं दिव्यगन्धानुलेपनम्? सर्वाश्चर्यमयं सर्वाश्चर्यप्रायं देवम् अनन्तं न अस्य अन्तः अस्ति इति अनन्तः तम्? विश्वतोमुखं सर्वतोमुखं सर्वभूतात्मभूतत्वात्? तं दर्शयामास। अर्जुनः ददर्श इति वा अध्याह्रियते।।या पुनर्भगवतः विश्वरूपस्य भाः? तस्या उपमा उच्यते --,
।।11.11।।सर्वाश्चर्यमयमिति केनचित्प्राचुर्यार्थो मयड्व्याख्यातः। तदसत्? सर्वशब्देन गतार्थत्वादिति भावेनाह -- सर्वेति। मयटस्तादात्म्यार्थत्वे प्रमाणमुक्तमेव।
।।11.11।।सर्वाश्चर्यमयं सर्वाश्चर्यात्मकम्।
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्। सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्।।11.11।।
দিব্যমাল্যাম্বরধরং দিব্যগন্ধানুলেপনম্৷ সর্বাশ্চর্যমযং দেবমনন্তং বিশ্বতোমুখম্৷৷11.11৷৷
দিব্যমাল্যাম্বরধরং দিব্যগন্ধানুলেপনম্৷ সর্বাশ্চর্যমযং দেবমনন্তং বিশ্বতোমুখম্৷৷11.11৷৷
દિવ્યમાલ્યામ્બરધરં દિવ્યગન્ધાનુલેપનમ્। સર્વાશ્ચર્યમયં દેવમનન્તં વિશ્વતોમુખમ્।।11.11।।
ਦਿਵ੍ਯਮਾਲ੍ਯਾਮ੍ਬਰਧਰਂ ਦਿਵ੍ਯਗਨ੍ਧਾਨੁਲੇਪਨਮ੍। ਸਰ੍ਵਾਸ਼੍ਚਰ੍ਯਮਯਂ ਦੇਵਮਨਨ੍ਤਂ ਵਿਸ਼੍ਵਤੋਮੁਖਮ੍।।11.11।।
ದಿವ್ಯಮಾಲ್ಯಾಮ್ಬರಧರಂ ದಿವ್ಯಗನ್ಧಾನುಲೇಪನಮ್. ಸರ್ವಾಶ್ಚರ್ಯಮಯಂ ದೇವಮನನ್ತಂ ವಿಶ್ವತೋಮುಖಮ್৷৷11.11৷৷
ദിവ്യമാല്യാമ്ബരധരം ദിവ്യഗന്ധാനുലേപനമ്. സര്വാശ്ചര്യമയം ദേവമനന്തം വിശ്വതോമുഖമ്৷৷11.11৷৷
ଦିବ୍ଯମାଲ୍ଯାମ୍ବରଧରଂ ଦିବ୍ଯଗନ୍ଧାନୁଲେପନମ୍| ସର୍ବାଶ୍ଚର୍ଯମଯଂ ଦେବମନନ୍ତଂ ବିଶ୍ବତୋମୁଖମ୍||11.11||
divyamālyāmbaradharaṅ divyagandhānulēpanam. sarvāścaryamayaṅ dēvamanantaṅ viśvatōmukham৷৷11.11৷৷
திவ்யமால்யாம்பரதரஂ திவ்யகந்தாநுலேபநம். ஸர்வாஷ்சர்யமயஂ தேவமநந்தஂ விஷ்வதோமுகம்৷৷11.11৷৷
దివ్యమాల్యామ్బరధరం దివ్యగన్ధానులేపనమ్. సర్వాశ్చర్యమయం దేవమనన్తం విశ్వతోముఖమ్৷৷11.11৷৷
11.12
11
12
।।11.12।। अगर आकाशमें एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जायँ, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा-(विराट् रूप परमात्मा-) के प्रकाशके समान शायद ही हो।
।।11.12।। आकाश में सहस्र सूर्यों के एक साथ उदय होने से उत्पन्न जो प्रकाश होगा, वह उस (विश्वरूप) परमात्मा के प्रकाश के सदृश होगा।।
।।11.12।। अन्ध राजा धृतराष्ट्र को शीघ्रता में विश्वरूप की रूपरेखा का वर्णन करने के पश्चात्? अब संजय उस विराट् पुरुष की महिमा का वर्णन करता है। अपने विराट् रूप में भगवान् अपने ही दिव्य प्रकाश से चमक रहे थे और उनका यह तेजस्वी वैभव नेत्रों को चकाचौंध कर रहा था और सम्भवत? इस एक और कारण से संजय पूर्व के दो श्लोकों में अधिक विस्तृत जानकारी नहीं दे पाया। भगवान् के इस प्रकाश का वर्णन करने के लिए संजय? एक विचित्र किन्तु प्रभावशाली उपमा यहाँ देता है।विराट् पुरुष के उस गौरवमय पुरुष का तेज ऐसा था? मानो? आकाश में सहस्र सूर्य एक साथ प्रकाशित हो रहे हों। उपनिषदों में भी आत्मा का वर्णन कुछ इसी प्रकार किया गया है? परन्तु? यह स्वीकार करना पड़ेगा कि संजय के मुख से? और विशेषकर जब वह भगवान् श्रीकृष्ण के ईश्वरीय रूप का वर्णन कर रहा है? इस उपमा को विशेष ही आकर्षण और गौरव प्राप्त होता है।और अधिक विवरण देकर इस दृश्य को और अधिक सुन्दर बनाते हुए संजय कहता है
।।11.12।। व्याख्या--'दिवि सूर्यसहस्रस्य ৷৷. तस्य महात्मनः'--जैसे आकाशमें हजारों तारे एक साथ उदित होनेपर भी उन सबका मिला हुआ प्रकाश एक चन्द्रमाके प्रकाशके सदृश नहीं हो सकता और हजारों चन्द्रमाओंका मिला हुआ प्रकाश एक सूर्यके प्रकाशके सदृश नहीं हो सकता, ऐसे ही आकाशमें हजारों सूर्य एक साथ उदित होनेपर भी उन सबका मिला हुआ प्रकाश विराट् भगवान्के प्रकाशके सदृश नहीं हो सकता। तात्पर्य यह हुआ कि हजारों सूर्योंका प्रकाश भी विराट् भगवान्के प्रकाशका उपमेय नहीं हो सकता। इस प्रकर जब हजारों सूर्योंके प्रकाशको उपमेय बनानेमें भी दिव्यदृष्टिवाले सञ्जयको संकोच होता है, तब वह प्रकाश विराट्रूप भगवान्के प्रकाशका उपमान हो ही कैसे सकता है! कारण कि सूर्यका प्रकाश भौतिक है, जब कि विराट् भगवान्का प्रकाश दिव्य है। भौतिक प्रकाश कितना ही बड़ा क्यों न हो,,दिव्य प्रकाशके सामने वह तुच्छ ही है। भौतिक प्रकाश और दिव्य प्रकाशकी जाति अलग-अलग होनेसे उनकी आपसमें तुलना नहीं की जा सकती। हाँ, अङ्गुलिनिर्देशकी तरह भौतिक प्रकाशसे दिव्य प्रकाशका संकेत किया जा सकता है। यहाँ सञ्जय भी हजारों सूर्योंके भौतिक प्रकाशकी कल्पना करके विराट्रूप भगवान्के प्रकाश-(तेज-) का लक्ष्य कराते हैं।
null
।।11.12।।तेजसः अपरिमितत्वदर्शनार्थम् इदम्। अक्षयतेजःस्वरूपम् इत्यर्थः।
।।11.12।।ननु प्रकृष्टस्य भगवतो रूपस्य दीप्तिरस्ति न वा? न चेत्काष्ठादिसाम्यं? यद्यस्ति कीदृशी सेत्याशङ्क्याह -- या पुनरिति। सा यदि स्यात्तद्भासः सदृशी सेति योजना। असंभाविताभ्युपगमार्थो यदिशब्दः। स्याच्छब्दो निश्चयार्थः। सा कथंचित्सदृशी संभवति ननु भवत्येवेति विवक्षित्वाह -- यदि वेति।
।।11.12।।एवं सञ्जयो दर्शनं रूपं वर्णयित्वा तस्याऽलौकिकत्वमभूतोपमावर्णनेनाह -- दिवीत्यादि। एवमभूतोपमया लोकविलक्षणत्वमुक्तम्।
।।11.12।।देवमित्युक्तं विवृणोति -- दिवीति। दिवि अन्तरिक्षे सूर्याणां सहस्रस्य अपरिमितसूर्यसमूहस्य युगपदुदितस्य युगपदुत्थिता भाः प्रभा यदि भवेत् तदा सा तस्य महात्मनो विश्वरूपस्य भासो दीप्तेः सदृशी तुल्या यदि स्याद्यदि वा न स्यात् ततोपि नूनं विश्वरूपस्यैव भा अतिरिच्येतेत्यहं मन्ये। अन्या तूपमा नास्त्येवेत्यर्थः। अत्राविद्यमानाध्यवसायात्तदभावेनोपमाभावपरादभूतोपमारूपेयमतिशयोक्तिरुत्प्रेक्षां व्यञ्जती सर्वथा निरुपमत्वमेव व्यनक्ति।उभौ यदि व्योम्नि पृथक्प्रवाहौ इत्यादिवत्।
।।11.12।। विश्वरूपदीप्तेर्निरुपमत्वमाह -- दिवीति। दिव्याकाशे सूर्यसहस्रस्य युगपदुत्थितस्य यदि युगपदुत्थिता भाः प्रभा भवेत् तर्हि सा तदा महात्मनो विश्वरूपस्य भासः प्रभायाः कथंचित्सृदशी स्यात्। नान्योपमास्तीत्यर्थः। तथाभूतं रूपं दर्शयामासेति पूर्वेणान्वयः।
।।11.12।।दिवि इत्यादिश्लोकस्य सङ्गतिमाह -- तामेवेति। निर्दिष्टस्य भास्वरत्वस्य निरतिशयत्वलक्षणो विशेष उच्यत इत्यर्थः। सङ्ख्याविशेषेण परिच्छिन्नत्वशङ्काव्युदासायाहतेजस इति।
।।11.12।।तस्य स्वरूपस्याऽप्रमेयं तेजस्स्वरूपमाह -- दिवीति। दिवि स्वर्गे सूर्यसहस्रस्य युगपत् एकदैव उदितस्य युगपदेव उत्थिता भाः प्रभा यदि भवेत् सा तस्य महात्मनः पुरुषोत्तमस्य अनेकात्मरूपस्य भासः सदृशी स्यात्। किन्तु न स्यादेवेति काकूक्तिः। एतादृशं स्वरूपम्।
।।11.12।।दिवि अन्तरिक्षे। भाः दीप्तिः। भासः दीप्तेः। अभूतोपमेयम्। निरुपमतामेव तस्य दीप्तेर्दर्शयतिउभौ यदि व्योम्नि पृथक्प्रवाहौ इत्यादिवत्।
।।11.12।।तत्र दृष्टान्ताकाङ्क्षयामाह। दिवि अन्तरिक्षे स्वर्गे वा सूर्याणआं सहस्त्रस्य युगपदुत्थितस्य युगपदुत्थिता भा यदि भवेत् सा तस्य महात्मनो विश्वरुपस्य भासः दीप्तेः सदृशी तुल्या स्यात् यदि वा न स्यादिति विश्वरुपस्य भा अतिरित्यत इत्याशयः।
11.12 दिवि in the sky? सूर्यसहस्रस्य of a thousand suns? भवेत् were? युगपत् at once (simultaneously)? उत्थिता arisen? यदि if? भाः splendour? सदृशी like? सा that? स्यात् would be? भासः splendour? तस्य of that? महात्मनः of the mighty Being (great soul).Commentary Divi here means in the Antariksha or the sky.Mahatma here refers to the great Soul or the mighty Being? the Cosmic Form.
11.12 If the splendour of a thousand suns were to blaze out at once (simultaneously) in the sky, that would be the splendour of that mighty Being (great Soul).
11.12 Could a thousand suns blaze forth together it would be but a faint reflection of the radiance of the Lord God.
11.12 Should the effulgence of a thousand suns blaze forth simultaneously in the sky, that might be similar to the radiance of that exalted One.
11.12 Should the bhah, effulgence; surya-sahasrasya, of a thousand suns; utthita bhavet, blaze forth; yugapat, simultaneously; divi, in the sky, or in heaven which is the third as counted (from this earth);sa, that; yadi syat, might be-or it might not be-; sadrsi, similar; to the bhasah, radiance; tasya, of that; mahat-manah, exalted One, the Cosmic Person Himself. The idea is that the brillinace of the Cosmic Person surely excels even this! Further,
11.12. If the splendour of a thousand suns were to burst forth at once in the sky, would that be eal to the splendour of that Mighty Self ?
11.12 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.12 This is for illustrating that His splendour is infinite. The meaning is that it is of the nature of inexhaustible radiance.
11.12 If a thousand suns were to rise at once in the sky, the resulting splendour may be like the splendour of that mighty One.
।।11.12।।भगवान्के विराट्रूपकी जो प्रभा -- प्रकाश है? उसकी उपमा कहते हैं --, द्युलोकमें अर्थात् आकाशमें या तीसरे स्वर्गलोकमें एक साथ उदय हुए हजारों सूर्योंका जो एक साथ उत्पन्न हुआ प्रकाश हो? वह प्रकाश उस महात्मन् -- विश्वरूपके प्रकाशके सदृश कदाचित् हो तो हो? अथवा सम्भव है कि न भी हो अर्थात् उससे भी विश्वरूपका प्रकाश ही अधिक हो सकता है।
।।11.12।। --,दिवि अन्तरिक्षे तृतीयस्यां वा दिवि सूर्याणां सहस्रं सूर्यसहस्रं तस्य युगपदुत्थितस्य सूर्यसहस्रस्य या युगपदुत्थिता भाः? सा यदि? सदृशी स्यात् तस्य महात्मनः विश्वरूपस्यैव भासः। यदि वा न स्यात्? ततः विश्वरूपस्यैव भाः अतिरिच्यते इत्यभिप्रायः।।किञ्च --,
।।11.12।।दिवि सूर्यसहस्रस्य इति विश्वरूपस्य सहस्रसूर्योपमप्रभत्वमुच्यते तत्र सहस्रशब्दो दशशतवाचीति प्रतीतिनिरासार्थमाह -- सहस्रेति। अनन्तसूर्योपमप्रभत्वमपि भगवतो न वास्तवं? निरुपमत्वात् किं तर्हि इत्यत आह -- तदपीति। प्रत्यायनार्थं बुद्धिप्रवेशनार्थमेवोच्यते। यथा भगवतो दाशरथेः पाकशासनोपमपराक्रमत्वमित्यर्थः। सहस्रशब्दस्य प्रसिद्धार्थपरित्यागः कुतः इत्यत आह -- तथा हीति। ततस्ततः सूर्यादेरपि। विलक्षण इति शेषः। कुतः श्रुत्या गीतावाक्यस्य बाधः इति चेत्? शतं सहस्रमिति अपरिमितनामानीति? गीतावाक्यस्य सावकाशत्वेन दौर्बल्यात्? श्रुतेर्निरवकाशत्वेन प्राबल्यात् इतश्च श्रुतेः प्राबल्यमित्याह -- महातात्पर्याच्चेति। समस्तागमानां महाप्रयोजनाय यद्भगवति महातात्पर्यं श्रुतेस्तदानुकूल्यात्? गीतावाक्यस्य तत्प्रातिकूल्यादित्यर्थः। कथं गीतावाक्यस्य तत्प्रातिकूल्यं इति चेत्? किं भगवतः परिमितप्रभत्वमेव वस्तुतः उतापरिमितप्रभस्याप्यत्र सहस्रसूर्योपमप्रभत्वमुच्यते नाद्यः -- सकलश्रुतिस्मृतीतिहासपुराणविरोधात्। द्वितीये त्वपरिमितस्य परिमाणोक्त्या किञ्चिदपि प्रयोजनं न सिध्यति। कुतो महत् इत्याह -- न चेति।
।।11.12।।सहस्रशब्दोऽनन्तवाची। तदपि पाकशासनविक्रम इत्यादिवत्प्रत्यायनार्थमेव। तथा हि ऋग्वेदखिलेषु -- अनन्तशक्तिः परमोऽनन्तवीर्यः सोऽनन्ततेजाश्च ततस्ततोऽपि इति महातात्पर्याच्च प्राबल्यं? न च परिमाणोक्त्या किञ्चित्प्रयोजनम्।
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता। यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः।।11.12।।
দিবি সূর্যসহস্রস্য ভবেদ্যুগপদুত্থিতা৷ যদি ভাঃ সদৃশী সা স্যাদ্ভাসস্তস্য মহাত্মনঃ৷৷11.12৷৷
দিবি সূর্যসহস্রস্য ভবেদ্যুগপদুত্থিতা৷ যদি ভাঃ সদৃশী সা স্যাদ্ভাসস্তস্য মহাত্মনঃ৷৷11.12৷৷
દિવિ સૂર્યસહસ્રસ્ય ભવેદ્યુગપદુત્થિતા। યદિ ભાઃ સદૃશી સા સ્યાદ્ભાસસ્તસ્ય મહાત્મનઃ।।11.12।।
ਦਿਵਿ ਸੂਰ੍ਯਸਹਸ੍ਰਸ੍ਯ ਭਵੇਦ੍ਯੁਗਪਦੁਤ੍ਥਿਤਾ। ਯਦਿ ਭਾ ਸਦਰਿਸ਼ੀ ਸਾ ਸ੍ਯਾਦ੍ਭਾਸਸ੍ਤਸ੍ਯ ਮਹਾਤ੍ਮਨ।।11.12।।
ದಿವಿ ಸೂರ್ಯಸಹಸ್ರಸ್ಯ ಭವೇದ್ಯುಗಪದುತ್ಥಿತಾ. ಯದಿ ಭಾಃ ಸದೃಶೀ ಸಾ ಸ್ಯಾದ್ಭಾಸಸ್ತಸ್ಯ ಮಹಾತ್ಮನಃ৷৷11.12৷৷
ദിവി സൂര്യസഹസ്രസ്യ ഭവേദ്യുഗപദുത്ഥിതാ. യദി ഭാഃ സദൃശീ സാ സ്യാദ്ഭാസസ്തസ്യ മഹാത്മനഃ৷৷11.12৷৷
ଦିବି ସୂର୍ଯସହସ୍ରସ୍ଯ ଭବେଦ୍ଯୁଗପଦୁତ୍ଥିତା| ଯଦି ଭାଃ ସଦୃଶୀ ସା ସ୍ଯାଦ୍ଭାସସ୍ତସ୍ଯ ମହାତ୍ମନଃ||11.12||
divi sūryasahasrasya bhavēdyugapadutthitā. yadi bhāḥ sadṛśī sā syādbhāsastasya mahātmanaḥ৷৷11.12৷৷
திவி ஸூர்யஸஹஸ்ரஸ்ய பவேத்யுகபதுத்திதா. யதி பாஃ ஸதரிஷீ ஸா ஸ்யாத்பாஸஸ்தஸ்ய மஹாத்மநஃ৷৷11.12৷৷
దివి సూర్యసహస్రస్య భవేద్యుగపదుత్థితా. యది భాః సదృశీ సా స్యాద్భాసస్తస్య మహాత్మనః৷৷11.12৷৷
11.13
11
13
।।11.13।। उस समय अर्जुनने देवोंके देव भगवान् के उस शरीरमें एक जगह स्थित अनेक प्रकारके विभागोंमें विभक्त सम्पूर्ण जगत् को देखा।
।।11.13।। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से विभक्त हुए सम्पूर्ण जगत् को देवों के देव श्रीकृष्ण के शरीर में एक स्थान पर स्थित देखा।।
।।11.13।। अर्जुन ने भगवान के उस ईश्वरीय रूप में देखा कि किस प्रकार सम्पूर्ण जगत् अपनी विविधता के साथ लाकर एक स्थान पर स्थित कर दिया गया था। हम देख चुके हैं कि विराट् पुरुष की संकल्पना ऐसे मन के द्वारा देखा गया दृश्य है जो देश और काल के माध्यम में कार्य नहीं कर रहा है अर्थात् देश और काल की कल्पना लोप हो चुकी है।अनेक को एक में देखने का जो दृश्य है? वह उतना इन्द्रियगोचर नहीं है जितना कि बुद्धिग्राह्य है। यह नहीं कि सम्पूर्ण विश्व संकुचित होकर भगवान् श्रीकृष्ण के देह परिमाण का हो गया है। यदि अर्जुन को जगत् के एकत्व का अपेक्षित बोध हो और यदि वह उस ज्ञान की दृष्टि से विश्व को देख सके? तो यही पर्याप्त है।आधुनिक विज्ञान से भी इसके समान दृष्टांत उद्धृत किया जा सकता है। रसायनशास्त्र में द्रव्यों का वर्गीकरण करके उनका अध्ययन किया जाता है। जगत् की रसायन वस्तुओं का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि जगत् में लगभग एक सौ तीन तत्व है। और अधिक सूक्ष्म अध्ययन से वैज्ञानिक लोग परमाणु तक पहँचे? अब उसका भी विभाजन करके पाया गया कि परमाणु भी इलेक्ट्रॉन? प्रोटॉन और न्यूट्रॉन से बना है। परमाणु के इस स्वरूप से सुपरिचित वैज्ञानिक जब बहुविध जगत् की ओर देखता है? तब उसे यह जानना सरल होता है कि ये सभी पदार्थ परमाणुओं से बने हैं। इसी प्रकार? यहाँ जब अर्जुन को श्रीकृष्ण की अहैतुकी कृपाप्रसाद से यह विशेष ज्ञान्ा प्राप्त हुआ? तब वह भगवान् के शरीर में ही सम्पूर्ण विश्व को देखने में समर्थ हो गया।इस दृश्य को देखकर अर्जुन के शरीर और मन पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को संजय ने ध्यानपूर्वक देखा और उनका विवरण सुनाते हुए वह कहता है
।।11.13।। व्याख्या--'तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा'--अनेक प्रकारके विभागोंमें विभक्त अर्थात् ये देवता हैं, ये मनुष्य हैं, ये पशु-पक्षी हैं, यह पृथ्वी है, ये समुद्र हैं, यह आकाश है, ये नक्षत्र हैं, आदि-आदि विभागोंके सहित (संकुचित नहीं, प्रत्युत विस्तारसहित) सम्पूर्ण चराचर जगत्को भगवान्के शरीरके भी एक देशमें अर्जुनने भगवान्के दिये हुए दिव्यचक्षुओंसे प्रत्यक्ष देखा। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान् श्रीकृष्णके छोटे-से शरीरके भी एक अंशमें चर-अचर, स्थावर-जङ्गमसहित सम्पूर्ण संसार है। वह संसार भी अनेक ब्रह्माण्डोंके रूपमें, अनेक देवताओंके लोकोंके रूपमें, अनेक व्यक्तियों और पदार्थोंके रूपमें विभक्त और विस्तृत है -- इस प्रकार अर्जुनने स्पष्ट रूपसे देखा (टिप्पणी प0 582)।
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।।11.13।।तत्र अनन्तायामविस्तारे अनन्तबाहूदरवक्त्रनेत्रे अपरिमिततेजस्के अपरिमितदिव्यायुधोपेते स्वोचितापरिमितदिव्यभूषणे दिव्यमाल्याम्बरधरे दिव्यगन्धानुलेपने अनन्ताश्चर्यमये देवदेवस्य दिव्ये शरीरे अनेकधा प्रविभक्तं ब्रह्मादिविविधविचित्रदेवतिर्यङ्मनुष्यस्थावरादिभोक्तृवर्गपृथिव्यन्तरिक्षस्वर्गपातालातलवितलसुतलादिभोगस्थानभोग्यभोगोपकरणभेदभिन्नं प्रकृतिपुरुषात्मकं कृत्स्नं जगत्अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। (गीता 10।8)हन्त ते कथयिष्यामि विभूतीरात्मनः शुभाः। (गीता 10।19)अहमात्मा गु़डाकेश सर्वभूताशयस्थितः। (गीता 10।20)आदित्यानामहं विष्णुः (गीता 10।21) इत्यादिनान तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्। (गीता 10।39)विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।। (गीता 10।42) इत्यन्तेन उदितम् एकस्थम् एकदेशस्थं पाण्डवः भगवत्प्रसादलब्धतद्दर्शनानुगुणदिव्यचक्षुः अपश्यत्।
।।11.13।।न केवलमुक्तमेवार्जुनो दृष्टवान्किंतु तत्रैव विश्वरूपे सर्वं जगदेकस्मिन्नवस्थितमनुभूतवानित्याह -- किञ्चेति। तदा विश्वरूपस्य भगवद्रूपस्य दर्शनदशायामित्यर्थः।
।।11.13।।ततः किं वृत्तं इत्यपेक्षायामाह सञ्जयः -- तत्रेति। अनेकधा योनिबीजाशयेन्द्रियाकृतिभेदेन प्रविभक्तं चेतनाचेतनात्मकं चतुर्दशलोकसहितं सर्वं जगत् देवदेवस्याक्षरैश्वर्यस्य पुरुषोत्तमस्य शरीरभूते स्वरूपे मृत्स्नाभक्षणप्रसङ्गेश्रीयशोदावत्तदेकस्थं तदवयवैकदेशत्थं पाण्डवो ददर्श कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत् [कठो.4।1] इति श्रुतेर्दर्शनं श्रुतिसिद्धम्। न हि माहात्म्यदर्शनं विना भक्त्या भगवदाश्रयणदार्ढ्यं भवतीति दर्शयामास हरिस्ततस्तदनुग्रहेणैव ददर्श पार्थ इत्यंशे पुष्टिः। श्रीयशोदायां तु दर्शितस्वैश्वर्यजन्यमाहात्म्यज्ञानस्य वैष्णव्या स्वशक्त्या तिरोधानमेव कृतं प्रेमभावदार्ढ्याय तत्र मोक्षाद्यनुपयोगाय चेति शुद्धपुष्टिमाहात्म्यम्। अत्र तु न तथा इति मर्यादापुष्ट्यधिकृताः पार्थाः इत्युक्तिः समञ्जसैव। विशेषस्तु भाष्ये द्रष्टव्यः।
।।11.13।।इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरमिति भगवदाज्ञप्तमप्यनुभूतवानर्जुन इत्याह -- तत्रेति। एकस्थमेकत्र स्थितं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा देवपितृमनुष्यादिनानाप्रकारैः अपश्यद्देवदेवस्य भगवतः तत्र विश्वरूपे शरीरे पाण्डवोऽर्जुनस्तदा विश्वरूपाश्चर्यदर्शनदशायाम्।
।।11.13।।ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायामाह संजयः -- तत्रेति। अनेकधा प्रविभक्तं नानाविभागेनावस्थितं कृत्स्नं जगद्देवदेवस्य शरीरे तदवयवत्वेनैकत्रैव स्थितं तदा पाण्डवोऽर्जुनोऽपश्यत्।
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।।11.13।।तत्र तस्मिन्नेव रूपे? एकस्थमेकत्र स्थितं कृत्स्नं सम्पूर्णं जगत्? अनेकधा प्रविभक्तं नानाप्रकारविभागयुक्तं दर्शयामासेति पूर्वेणैवान्वयः। यदा दर्शितं तदा देवदेवस्य पूज्यानामपि पूज्यस्य शरीरे पूर्वप्रतीयमानसूक्ष्मरूप एव पाण्डवः अर्जुनः अपश्यत् दृष्टवान्।
।।11.13।।इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्येति यत्प्राक् भगवतोक्तं तदप्यपश्यदित्याह -- तत्रेति। अनेकधा प्रविभक्तमित्येतद्वर्षासूत्थिततिंतिणीबीजे सूक्ष्मरूपेण तरुर्दृश्यते तद्वन्माभूदिति दर्शयितुं सावकाशं अनेकधा विभागयुक्तं विविक्तमपश्यत्। एकस्थमेकावयवस्थम्। अयमर्थः -- यदा भगवतश्चतुर्भुजं रूपं चिन्त्यते तत्र च चेतसि लब्धपदे सति क्रमशस्तदीयावयवांस्त्यक्त्वा मुखे स्मिते वा पदनखे वा चित्तं ध्रियते। तत्रापि लब्धपदे तस्मिंस्तदपि त्यक्त्वा विश्वरूपमारोहति। दिव्यं चक्षुरपि एवं सूक्ष्मतामापादितं मन एव।मनोऽस्य दैवं चक्षुः स एतेन दैवेन चक्षुषा मनसैतान्कामान्पश्यन्रमते इति श्रुतेः। कामान्विषयान् एतान्हार्दाकाशाख्यसगुणब्रह्मगतानिति श्रुतिपदयोरर्थः। यथोक्तं श्रीभागवतेतत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्। नान्यानि चिन्तयेद्भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्। तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्। तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत् इति। तत्र मूर्तौ एकत्र अङ्गे। व्योम्नि कारणे। मदारोहो निर्विकल्पे ब्रह्मण्यारूढः। तदिदमुक्तं देवदेवस्य शरीरे कृत्स्नं जगदेकस्थं पाण्डवोऽपश्यदिति।
।।11.13।।न केवलं विश्वरुपधरं देवमर्जुनो दृष्टवानपि तु देवस्य देहे एकस्थं सर्वं जगद्देवपितृमनुष्यादिभेदैरनेकप्रकारेण प्रकर्षेण विभागयुक्तं पाण्डवोऽर्जुनो दृष्ठवान्। अहो भगवद्भक्तस्यार्जुनस्य पुतः पाण्डोर्भाग्यातिशयः ईश्वविमुख्स्य दुर्योधनस्य पितुस्तवाभाग्यातिशयश्चेति पाण्डवपदेन ध्वनितम्।
11.13 तत्र there? एकस्थम् resting in one? जगत् the universe? कृत्स्नम् the whole? प्रविभक्तम् divided? अनेकधा in many groups? अपश्यत् saw? देवदेवस्य of the God of gods? शरीरे in the body? पाण्डवः son of Pandu? तदा then.Commentary Tatra There -- in the Cosmic Form.Anekadha Many groups -- gods? manes? men and other species of beings.Arjuna beheld all forms as the forms of the Lord? all heads as His heads? all eyes as His eyes? all hands as His hands? all feet as His feet? every part of every body as the limb of the Lords divine form. Wherever he looked he beheld nothing but the Lord. He got mystic divine knowledge.Sanjaya has given a truly graphic description of the Cosmic Form. Yet? it would be futile to grasp it with the finite mind. It is a transcendental vision? beyond the reach of the mind and senses. It has to be realised in Samadhi.
11.13 There, in the body of the God of gods, Arjuna then saw the whole universe resting in one, with its many groups.
11.13 In that vision Arjuna saw the universe, with its manifold shapes, all embraced in One, its Supreme Lord.
11.13 At that time, Pandava saw there, in the body of the God of gods, the whole diversely differentiated Universe united in the one (Cosmic form).
11.13 Tada, at that time; pandavah, Pandava, Arjuna; apasyat, saw; tatra, there, in that Cosmic form; sarire, in the body; devadevasya, of the God of gods, of Hari; krtsnam, the whole; jagat, Universe; anekadha, deversely; pravibhaktam, differentiated-into groups of gods, manes, human beings, and others; ekastham, united in the one (Consmic form).
11.13. At that time the son of Pandu beheld there in the body of the God-of-gods, the entire universe, united in one and [yet] divided into many groups.
11.13 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.13 'There', in that unie and divine body of the God of gods - infinite in length and breadth, with innumerable hands, stomachs, faces and eyes, of immeasurable splendour, eipped with innumerable divine weapons, adorned with innumerable divine ornaments appropriate to itself and with divine garlands and raiments, fragrant with celestial perfumes and full of wonders , there Arjuna beheld with the appropriate divine eyes granted by the grace of the Lord, the 'entire universe' consisting of Prakrti (material Nature) and the selves, all remaining in 'one single spot,' namely, at one single point. He beheld 'the whole universe' with all its sub-divisions, differentiated into varied and wonderful classes of experiencing beings like Brahma, gods, animals, men, immovables etc., and the places, objects and means of experiences such as earth, ether, Rasatala, Atala, Vitala, Sutala etc. He beheld thus the entire universe as depicted in such texts as those starting with 'I am the origin of all; from Me proceed everything' (10.8), 'Indeed I shall tell you, O Arjuna, My glorious self-manifestations' (10.9), 'I am the Self, O Arjuna, dwelling in the hearts of all beings' (10.20), and 'Of Adityas, I am Visnu' (10.21), and ending with 'Nothing that moves or does not move exists without Me' (10.39), and 'I remain, with a single fraction of Myself sustaining this whole universe' (10.42).
11.13 There (in that form) Arjuna beheld the whole universe, with its manifold divisions gathered together in one single spot within the body of the God of gods.
।।11.13।। तथा --, उस समय पाण्डुपुत्र अर्जुनने देव? पितृ और मनुष्यादि भेदसे अनेक प्रकार विभक्त हुए समस्त जगत्को उस विश्वरूप देवाधिदेव हरिके शरीरमें ही एकत्र स्थित देखा।
।।11.13।। --,तत्र तस्मिन् विश्वरूपे एकस्मिन् स्थितम् एकस्थं जगत् कृत्स्नं प्रविभक्तम् अनेकधा देवपितृमनुष्यादिभेदैः अपश्यत् दृष्टवान् देवदेवस्य हरेः शरीरे पाण्डवः अर्जुनः तदा।।
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तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा। अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।।11.13।।
তত্রৈকস্থং জগত্কৃত্স্নং প্রবিভক্তমনেকধা৷ অপশ্যদ্দেবদেবস্য শরীরে পাণ্ডবস্তদা৷৷11.13৷৷
তত্রৈকস্থং জগত্কৃত্স্নং প্রবিভক্তমনেকধা৷ অপশ্যদ্দেবদেবস্য শরীরে পাণ্ডবস্তদা৷৷11.13৷৷
તત્રૈકસ્થં જગત્કૃત્સ્નં પ્રવિભક્તમનેકધા। અપશ્યદ્દેવદેવસ્ય શરીરે પાણ્ડવસ્તદા।।11.13।।
ਤਤ੍ਰੈਕਸ੍ਥਂ ਜਗਤ੍ਕਰਿਤ੍ਸ੍ਨਂ ਪ੍ਰਵਿਭਕ੍ਤਮਨੇਕਧਾ। ਅਪਸ਼੍ਯਦ੍ਦੇਵਦੇਵਸ੍ਯ ਸ਼ਰੀਰੇ ਪਾਣ੍ਡਵਸ੍ਤਦਾ।।11.13।।
ತತ್ರೈಕಸ್ಥಂ ಜಗತ್ಕೃತ್ಸ್ನಂ ಪ್ರವಿಭಕ್ತಮನೇಕಧಾ. ಅಪಶ್ಯದ್ದೇವದೇವಸ್ಯ ಶರೀರೇ ಪಾಣ್ಡವಸ್ತದಾ৷৷11.13৷৷
തത്രൈകസ്ഥം ജഗത്കൃത്സ്നം പ്രവിഭക്തമനേകധാ. അപശ്യദ്ദേവദേവസ്യ ശരീരേ പാണ്ഡവസ്തദാ৷৷11.13৷৷
ତତ୍ରୈକସ୍ଥଂ ଜଗତ୍କୃତ୍ସ୍ନଂ ପ୍ରବିଭକ୍ତମନେକଧା| ଅପଶ୍ଯଦ୍ଦେବଦେବସ୍ଯ ଶରୀରେ ପାଣ୍ଡବସ୍ତଦା||11.13||
tatraikasthaṅ jagatkṛtsnaṅ pravibhaktamanēkadhā. apaśyaddēvadēvasya śarīrē pāṇḍavastadā৷৷11.13৷৷
தத்ரைகஸ்தஂ ஜகத்கரித்ஸ்நஂ ப்ரவிபக்தமநேகதா. அபஷ்யத்தேவதேவஸ்ய ஷரீரே பாண்டவஸ்ததா৷৷11.13৷৷
తత్రైకస్థం జగత్కృత్స్నం ప్రవిభక్తమనేకధా. అపశ్యద్దేవదేవస్య శరీరే పాణ్డవస్తదా৷৷11.13৷৷
11.14
11
14
।।11.14।। भगवान् के विश्वरूपको देखकर अर्जुन बहुत चकित हुए और आश्चर्यके कारण उनका शरीर रोमाञ्चित हो गया। वे हाथ जोड़कर विश्वरूप देवको मस्तकसे प्रणाम करके बोले।
।।11.14।। उसके उपरान्त वह आश्चर्यचकित हुआ हर्षित रोमों वाला (जिसे रोमांच का अनुभव हो रहा हो) धनंजय अर्जुन विश्वरूप देव को (श्रद्धा भक्ति सहित) शिर से प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोला।।
।।11.14।। इस सर्वोत्कृष्ट भव्य दृश्य को देखकर अर्जुन के मन में विस्मय की भावना और शरीर पर हो रहे रोमांच स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। यद्यपि संजय घटनास्थल से दूर है? फिर भी अपनी दिव्य दृष्टि से न केवल समस्त योद्धाओं के शरीर ही? वरन् उनकी मनस्थिति को भी जानने में सक्षम प्रतीत होता है। अर्जुन की विस्मय की भावना उसे उतनी ही स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है? जितने कि उसके रोमांच। शिर से प्रणाम करते हुये दोनों हाथ जोड़कर अर्जुन कुछ कहने के लिए अपना मुख खोलता है। अब तक अर्जुन कुछ नहीं बोला था? जो उसके कण्ठावरोध का स्पष्ट सूचक है। प्रथम बार जब उसने उस दृश्य को देखा? जो मधुरतापूर्वक साहस तोड़ने वाला प्रतीत होता था? तब भावावेश के कारण अर्जुन का कण्ठ अवरुद्ध हो गया था।
।।11.14।। व्याख्या--ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः--अर्जुनने भगवान्के रूपके विषयमें जैसी कल्पना भी नहीं की थी, वैसा रूप देखकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। भगवान्ने मेरेपर कृपा करके विलक्षण आध्यात्मिक बातें अपनी ओरसे बतायीं और अब कृपा करके मेरेको अपना विलक्षण रूप दिखा रहे हैं-- इस बातको लेकर अर्जुन प्रसन्नताके कारण रोमाञ्चित हो उठे।
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।।11.14।।ततः धनञ्जयः महाश्चर्यस्य कृत्स्नस्य जगतः स्वदेहैकदेशेन आश्रयभूतं कृत्स्नस्य प्रवर्तयितारं च आश्चर्यतमानन्तज्ञानादिकल्याणगुणगणं देवं दृष्ट्वा विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा शिरसा दण्डवत् प्रणम्य कृताञ्जलि अभाषत।
।।11.14।।विश्वरूपधरस्य भगवतस्तस्मिन्नेकीभूतजगतश्चोक्तविशेषणस्य दर्शनानन्तरं किमकरोदित्यपेक्षायामाह -- तत इति। आश्चर्यबुद्धिर्विस्मयः? रोम्णां हृष्टत्वं पुलकितत्वं? प्रकर्षो भक्तिश्रद्धयोरतिशयः।
।।11.14।।तत इति दर्शनानन्तरं धनञ्जयः अभाषत। स्पष्टमन्यत्।
।।11.14।।एवमद्भुतदर्शनेऽप्यर्जुनो न बिभयांचकार? नापि नेत्रे संचचार? नापि संभ्रमात्कर्तव्यं विसस्मार? नापि तस्माद्देशादपससार? किंत्वतिधीरत्वात्तत्कालोचितमेव व्यवजहार महति चित्तक्षोभेपीत्याह -- तत इति। ततस्तद्दर्शनादनन्तरं विस्मयेनाद्भुतदर्शनप्रभवेनालौकिकचित्तचमत्कारविशेषेणाविष्टो व्याप्तः अतएव हृष्टरोमा पुलकितः सन् स प्रख्यातमहादेवसंग्रामादिप्रभावः धनंजयः युधिष्ठिरराजसूये उत्तरगोग्रहे च सर्वान्वीरान् जित्वा धनमाहृतवानिति प्रथितमहापराक्रमोऽतिवीरः साक्षादग्निरिति वा महातेजस्वित्वात् देवं तमेव विश्वरूपधरं नारायणं शिरसा भूमिलग्नेन प्रणम्य प्रकर्षेण भक्तिश्रद्धातिशयेन नत्वा नमस्कृत्य कृताञ्जलिः संपुटीकृतहस्तयुगः,सन्नभाषतोक्तवान्। अत्र विस्मयाख्यस्थायिभावस्यार्जुनगतस्यालम्बनविभावेन भगवता विश्वरूपेणोद्दीपनविभावेनासकृत्तद्दर्शनेनानुभावेन सात्त्विकरोमहर्षेण नमस्कारेणाञ्जलिकरणेन चाव्यभिचारिणा चानुभावाक्षिप्तेन वा धृतिमतिहर्षवितर्कादिना परिपोषात्सववासनानां श्रोतृ़णां तादृशश्चित्तचमत्कारोऽपि तद्भेदानध्यवसायात्परिपोषं गतः परमानन्दास्वादरूपेणाद्भुतरसो भवतीति सूचितम्।
।।11.14।।एवं दृष्ट्वा किं कृतवानित्यत आह -- तत इति। ततो दर्शनानन्तरं विस्मयेनाविष्टो व्याप्तः सन्हृष्टान्युत्पुलकितानि रोमाणि यस्य स धनंजयो देवं तमेव शिरसा प्रणम्य कृताञ्जलिः संपुटीकृतहस्तो भूत्वाभाषत उक्तवान्।
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।।11.14।।दर्शनानन्तरं किं कृतवानित्यत आह -- तत इति। ततस्तदनन्तरं स पूर्वोक्तः प्राप्तदिव्यदृष्टिः विस्मयाविष्टः। आश्चर्यरसनिमग्नः हृष्टरोमा उत्पुलकिताङ्गः अन्तरानन्दयुक्तः धनञ्जयः प्रादुर्भूतविभूतिरूपः शिरसा मस्तकेन देवं पूज्यं नमस्करणीयं प्रणम्य नमस्कृत्य कृताञ्जलिः विनीतः सन् अभाषत विज्ञप्तिं कृतवान्।
।।11.14।।हृष्टरोमा रोमाञ्चितगात्रः।
।।11.14।।ततः किमकरोदित्यपेक्षायामाह। तत एकस्थकृत्स्त्रजगद्दर्शनानन्तरं सः प्रथितप्रभावो धनंजयोऽर्जुनो विस्मयाविष्टः। आश्यर्यबुद्धियुक्तः। तल्लिङ्गमाह। हृष्टानि पुलकितानि रोमाणि यस्य। पणभ्य प्रकर्षणोत्कटभक्त्या नमनं कृत्वा शिरसा देवं विश्वरुपधरं नमस्करार्थं संपुटीकृतहस्तः सन् उक्तवान्। विश्वरुपदर्शनात्पूर्वमपि खाण्डवदाहादिना प्रथितप्रभावो राजसूये गोग्रहे च राजभ्यो धनस्य भीष्मादिभ्यो गोधनस्य च हरणात् धनंजयोऽधुना पुनर्दृष्टविश्वरुप इति राज्याशां त्वं मा कुर्विति स धनंजय इति पदाभ्यां धनस्य भीष्मादिभ्यो गोधनस्य च हरणात् धनंजयोऽधुना पुनर्दृष्टविश्वरुप इति राज्याशां त्वं मा कुर्विति स धनंजय इति पदाभ्यां ध्वनितम्।
11.14 ततः then? सः he? विस्मयाविष्टः filled with wonder? हृष्टरोमा with hair standing on end? धनञ्जयः Arjuna? प्रणम्य having prostrated? शिरसा with (his) head? देवम् the God? कृताञ्जलिः with joined palms? अभाषत spoke.Commentary Tatah Then? having seen the Cosmic Form.Arjuna joined his palms in order to do prostration to the Cosmic Form. The great hero had attained true humility which the bowed head and joined palms represented? and which is the essential ingredient of devotion.
11.14 Then, Arjuna, filled with wonder and with his hair standing on end, bowed down his head to the God and spoke with joined palms.
11.14 Thereupon Arjuna, dumb with awe, his hair on end, his head bowed, his hands clasped in salutation, addressed the Lord thus:
11.14 Then, filled with wonder, with hairs standing on end, he, Dhananjaya, (Arjuna), bowing down with his head to the Lord, said with folded hands:
11.14 Tatah, then, having seen Him; sah, he, Dhananjaya; became vismaya-avistah, filled with wonder; and hrsta-roma, had his hairs standing on end. Becoming filled with humility, pranamya, bowing down, bowing down fully; [With abundant respect and devotion.] sirasa, with his head; devam, to the Lord, who had assumed the Cosmic form; abhasata, he said; krta-anjalih, with folded hands, with palms joined in salutation: How? 'I am seeing the Cosmic form that has been revealed by You'-thus expressing his own experience,
11.14. Then, possessed by amazement and with his bodily hair thrilled, Dhananjaya (Arjuna) with his head bowed to the God and with folded palms spoke [to Him].
11.14 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.14 Then Arjuna became overcome with amazement on seeing the Lord, at a point of whose being this wonderful universe in its entirely stands supported, who enables all things to act, and who is the possesor of a host of auspicious attributes like omniscience. With his hairs standing erect, he bowed down like a stick, and with folded hands, he spoke thus:
11.14 Then he, Arjuna, overcome with amazement, his hairs standing erect, bowed his head to the Lord, and with folded hands spoke.
।।11.14।।फिर? उसको देखकर वह धनंजय आश्चर्ययुक्त और प्रफुल्लित रोमवाला हो गया अर्थात् उसके रोंगटे खड़े हो गये? फिर वह विश्वरूपधारी परमात्मदेवको शिरसे प्रणाम करके अर्थात् नम्रतापूर्वक भली प्रकार नमस्कार करके पुनः नमस्कारके लिये हाथ जोड़कर बोला।,
।।11.14।। --,ततः तं दृष्ट्वा सः विस्मयेन आविष्टः विस्मयाविष्टः हृष्टानि रोमाणि यस्य सः अयं हृष्टरोमा च अभवत् धनंजयः। प्रणम्य प्रकर्षेण नमनं कृत्वा प्रह्वीभूतः सन् शिरसा देवं विश्वरूपधरं कृताञ्जलिः नमस्कारार्थं संपुटीकृतहस्तः सन् अभाषत उक्तवान्।।कथम् यत् त्वया दर्शितं विश्वरूपम्? तत् अहं पश्यामीति स्वानुभवमाविष्कुर्वन् अर्जुन उवाच --,अर्जुन उवाच --,
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ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः। प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत।।11.14।।
ততঃ স বিস্মযাবিষ্টো হৃষ্টরোমা ধনঞ্জযঃ৷ প্রণম্য শিরসা দেবং কৃতাঞ্জলিরভাষত৷৷11.14৷৷
ততঃ স বিস্মযাবিষ্টো হৃষ্টরোমা ধনঞ্জযঃ৷ প্রণম্য শিরসা দেবং কৃতাঞ্জলিরভাষত৷৷11.14৷৷
તતઃ સ વિસ્મયાવિષ્ટો હૃષ્ટરોમા ધનઞ્જયઃ। પ્રણમ્ય શિરસા દેવં કૃતાઞ્જલિરભાષત।।11.14।।
ਤਤ ਸ ਵਿਸ੍ਮਯਾਵਿਸ਼੍ਟੋ ਹਰਿਸ਼੍ਟਰੋਮਾ ਧਨਞ੍ਜਯ। ਪ੍ਰਣਮ੍ਯ ਸ਼ਿਰਸਾ ਦੇਵਂ ਕਰਿਤਾਞ੍ਜਲਿਰਭਾਸ਼ਤ।।11.14।।
ತತಃ ಸ ವಿಸ್ಮಯಾವಿಷ್ಟೋ ಹೃಷ್ಟರೋಮಾ ಧನಞ್ಜಯಃ. ಪ್ರಣಮ್ಯ ಶಿರಸಾ ದೇವಂ ಕೃತಾಞ್ಜಲಿರಭಾಷತ৷৷11.14৷৷
തതഃ സ വിസ്മയാവിഷ്ടോ ഹൃഷ്ടരോമാ ധനഞ്ജയഃ. പ്രണമ്യ ശിരസാ ദേവം കൃതാഞ്ജലിരഭാഷത৷৷11.14৷৷
ତତଃ ସ ବିସ୍ମଯାବିଷ୍ଟୋ ହୃଷ୍ଟରୋମା ଧନଞ୍ଜଯଃ| ପ୍ରଣମ୍ଯ ଶିରସା ଦେବଂ କୃତାଞ୍ଜଲିରଭାଷତ||11.14||
tataḥ sa vismayāviṣṭō hṛṣṭarōmā dhanañjayaḥ. praṇamya śirasā dēvaṅ kṛtāñjalirabhāṣata৷৷11.14৷৷
ததஃ ஸ விஸ்மயாவிஷ்டோ ஹரிஷ்டரோமா தநஞ்ஜயஃ. ப்ரணம்ய ஷிரஸா தேவஂ கரிதாஞ்ஜலிரபாஷத৷৷11.14৷৷
తతః స విస్మయావిష్టో హృష్టరోమా ధనఞ్జయః. ప్రణమ్య శిరసా దేవం కృతాఞ్జలిరభాషత৷৷11.14৷৷
11.15
11
15
।।11.15।। अर्जुन बोले -- हे देव ! मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण देवताओंको, प्राणियोंके विशेष-विशेष समुदायोंको कमलासनपर बैठे हुए ब्रह्माजीको, शङ्करजीको, सम्पूर्ण ऋषियोंको और सम्पूर्ण दिव्य सर्पोंको देख रहा हूँ।
।।11.15।। अर्जुन ने कहा -- हे देव! मैं आपके शरीर में समस्त देवों को तथा अनेक भूतविशेषों के समुदायों को और कमलासन पर स्थित सृष्टि के स्वामी ब्रह्माजी को, ऋषियों को और दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ।।
।।11.15।। जब अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण को देव (प्रकाशस्वरूप) शब्द से सम्बोधित करता है? तब वह संजय की दी हुयी उपमा की ही पुष्टि करता है? जिसमें कहा गया था कि सहस्र सूर्यों के प्रकाश के समान विराट् पुरुष का तेज है। विश्वरूप में दृष्ट वस्तुओं को गिनाते हुये अर्जुन कहता है? मैं आपके शरीर में समस्त देवताओं और अनेक भूतविशेषों के समुदायों को देख रहा हूँ। इन सबका उल्लेख संजय भी पहले कर चुका है।दोनों के किये गये वर्णनों से ज्ञात होता है कि उस विराट् रूप में न केवल लौकिक वस्तुयें? वरन् अलौकिक दिव्य देवताओं को भी पहचाना जा सकता था। अर्जुन को उसमें ब्रह्मा? विष्णु महेश के भी दर्शन होते हैं। और इन सबके साथ अनेक ऋषिगण भी हैं।अर्जुन अनेक दिव्य सर्पों को भी देखता है। काव्य की यह एक शैली है कि प्राय श्रेष्ठ महान् कविजन सर्वोत्कृष्ठ का वर्णन करते समय अचानक किसी विद्रूप व उपहासास्पद के स्तर की वस्तुओं का वर्णन करने लगते हैं। इसका एकमात्र प्रयोजन यह होता है कि पाठकों को कुछ चौंकाकर उनका ध्यान विषय वस्तु की ओर आकर्षित किया जाय। इस विश्वरूप में ब्रह्माजी से लेकर सर्पों तक को प्रतिनिधित्व मिला है। वेदान्त का सिद्धान्त है कि जो पिण्ड में है? वही ब्रह्माण्ड में है? अथवा व्यष्टि ही समष्टि है। विश्व के महान् तत्त्वचिन्तकों ने इसी का वर्णन किया और अनुभव भी किया है। परन्तु इसके पूर्व किसी ने भी इस दार्शनिक सिद्धान्त का स्पष्ट एवं वस्तुनिष्ट प्रदर्शन नहीं किया था। इस कला के अग्रणी व्यासजी थे और अब तक इस कठिन कार्य में उनका अनुकरण करने का साहस किसी को नहीं हुआ है।अर्जुन? अब ऐसे रूप का वर्णन करता है जिसके विवरण से अत्यन्त साहसी पुरुष को भी अपना साहस खोते हुए अनुभव होगा
।।11.15।। व्याख्या--पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्--अर्जुनकी भगवत्प्रदत्त दिव्य दृष्टि इतनी विलक्षण है कि उनको देवलोक भी अपने सामने दीख रहे हैं। इतना ही नहीं, उनको सब-की-सब त्रिलोकी दिख रही है। केवल त्रिलोकी ही नहीं, प्रत्युत त्रिलोकीके उत्पादक (ब्रह्मा), पालक (विष्णु) और संहारक (महेश) भी प्रत्यक्ष दीख रहे हैं। अतः अर्जुन वर्णन करते हैं कि मैं सम्पूर्ण देवोंको, प्राणियोंके समुदायोंको और ब्रह्मा तथा शङ्करको देख रहा हूँ।
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।।11.15।।अर्जुन उवाच -- देव तव देहे सर्वान् देवान् पश्यामि? तथा सर्वान् प्राणिविशेषाणां संघान्? तथा ब्रह्माणं चतुर्मुखम् अण्डाधिपतिम्? तथा ईशं कमलासनस्थं कमलासने ब्रह्मणि स्थितम् ईशं तन्मते अवस्थितं तथा देवर्षिप्रमुखान् सर्वान् ऋषीन्? उरगान् च वासुकितक्षकादीन् दीप्तान्।
।।11.15।।कथं भगवन्तं प्रत्यर्जुनो भाषितवानिति पृच्छति -- कथमिति। तत्प्रश्नमपेक्षितं पूरयन्नवतारयति -- यत्त्वयेति। भूतविशेषसङ्घेषु देवानामन्तर्भावेऽपि पृथक्करणमुत्कर्षात्। ब्रह्मणः सर्वदेवतात्मत्वेऽपि तेभ्यो भेदकथनं तदुत्पादकत्वादिति मत्वाह -- किञ्चेति। ऋषीणामुरगाणां च किंचिद्वैषम्यात्पृथक्त्वम्। दिव्यानित्युभयेषां विशेषणम्।
।।11.15।।तदेवाह पश्यामीति सप्तदशभिः षोडशकलारूपैः एकेन प्रार्थनं च। हे देव श्रीकृष्णेन्दो तव देहे एतस्मिन्विश्वरूपे सर्वान्पश्यामि। भूतविशेषसङ्घान् जरायुजादिभेदविशेषान्।
।।11.15।।यद्भगवता दर्शितं विश्वरूपं तद्भगवद्दत्तेन दिव्येन चक्षुषा सर्वलोकादृश्यमपि पश्याम्यहो मम भाग्यप्रकर्ष इति स्वानुभवमाविष्कुर्वन् अर्जुन उवाच -- पश्यामीति। पश्यामि चाक्षुषज्ञानविषयीकरोमि। हे देव? तव देहे विश्वरूपे देवान्वस्वादीन्सर्वान्। तथा भूतविशेषाणां स्थावराणां जङ्गमानां च नानासंस्थानानां संघान्समूहान्। तथा ब्रह्माणं चतुर्मुखमीशमीशितारं सर्वेषां कमलासनस्थं पृथिवीपद्ममध्ये मेरुकर्णिकासनस्थं? भगवन्नाभिकमलासनस्थमिति वा। तथा ऋषींश्च सर्वान्वसिष्ठादीन्ब्रह्मपुत्रान्। उरगांश्च दिव्यानप्राकृतान्वासुकिप्रभृतीन्पश्यामीति सर्वत्रान्वयः।
।।11.15।। भाषणमेवाह -- पश्यामीति सप्तदशभिः। हे देव? तव देहे? देवानादित्यादीन्पश्यामि। तथा सर्वान्भूतविशेषाणां जरायुजाण्डजादीनां सङ्घांश्च? तथा दिव्यानृषीन्वसिष्ठादीन्? उरगांश्च तक्षकादीन्? तथा देवानामीशं स्वामिनं ब्रह्माणं च। कथंभूतम्। कमलासनस्थं पृथ्वीपद्मकर्णिकायां मेरौ स्थितम्? यद्वा त्वन्नाभिपद्मासनस्थम्।
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।।11.15।।तद्वाक्यमेवाह -- पश्यामीति सप्तदशभिः। हे देव पूज्य तव देहे उपचितस्वरूपे देवान् इन्द्रादीन् क्री़डामयान्? तथा क्रीडात्मकानेव सर्वान् भूतविशेषाणां चतुर्विधानां सङ्घान् समूहान्। दिव्यान् क्रीडार्थप्रकटितान्? ऋषीन् नारदादीन्? पुनस्तामसान् उरगान् शेषादीन्? तन्मूलभूतं कमलासनस्थं नाभिपद्मस्थं? ब्रह्माणम्? ईशं महादेवम्? एवमेतान् सर्वान् पश्यामि।
।।11.15।।देवानादित्यादीन्। भूतविशेषाश्चतुर्विधा जरायुजादयस्तेषां संघान्समूहान्। ब्रह्माणं चतुर्मुखम्। ईशमीशितारम्। कमलासनस्थमित्यनेन दूरदर्शनमुक्तम्। उरगान्पातालस्थाननन्तादीन्। दिव्यान्कैलासादौ स्थितान्वासुकिप्रमुखान्। एतेन व्यवहितदर्शनमुक्तम्।
।।11.15।।स्वानुभवमाविष्कुर्वन्नर्जुन उवाच। हे देव? तव देहे देवानिन्द्रादीन्सर्वान्पश्यामि। तथा भूतविशेषाणां समूहान्पश्यामि। किंच ब्रह्माणं प्रजानां नियन्तरां पद्मासनस्थं ऋषींश्च वसिष्ठादीन् सर्वानुरगांश्च वासुकिप्रभृतीन् दिव्यान पश्यामीति सर्वत्र संबन्धनीयम्। देवादीनां भूतविशेषान्तत्वेऽपि तेषामुत्कर्षात्पृथगुपादानम्। ब्रह्मणो देवत्वेऽपि तज्जनकत्वात्पृथग्ग्रहणम्।
11.15 पश्यामि (I) see? देवान् the gods? तव Thy? देव O God? देहे in the body? सर्वान् all? तथा also? भूतविशेषसङ्घान् hosts of various classes of beings? ब्रह्माणम् Brahma? ईशम् the Lord? कमलासनस्थम् seated on the lotus? ऋषीन् sages? च and? सर्वान् all? उरगान् serpents? च and? दिव्यान् divine.Commentary Arjuna describes his own experience of the Cosmic Form in this and the following verses? 15 to 31.Bhutaviseshasanghan Hosts of various classes of beings? both animate and inanimate. These numerous entities are in Thy Cosmic Form? like hairs on the human body.Brahma? the fourfaced? the Lord of all creatures? is seated in the centre of the earthlotus on the Meru which forms the thalamus as it were of the earthlotus.Sages? such as Vasishtha. Serpents? such as Vasuki.Moreover --
11.15 Arjuna said I see all the gods, O God, in Thy body, and (also) hosts of various classes of beings, Brahma, the Lord, seated on the lotus, all the sages and the celestial serpents.
11.15 Arjuna said: O almighty God! I see in Thee the powers of Nature, the various creatures of the world, the Progenitor on his lotus throne, the Sages and the shining angels.
11.15 Arjuna said O God, I see in Your body all the gods as also hosts of (various) classes of beings; Brahma the ruler, sitting on a lotus seat, and all the heavely sages and serpents.
11.15 Deva, O God; pasyami, I see, perceive; tava dehe, in Your body; sarvan, all; the devan, gods; tatha, as also; bhuta-visesa-sanghan, hosts of (various) classes of beings, groups of moving and non-moving living things having different shapes; and besides, brahmanam, Brahma, with four faces; isam, the Ruler of creatures; kamalasana-stham, sitting on a lotus seat, i.e. sitting on Mount Meru which forms the pericarp of the lotus that is the earth; and sarvan, all; the divyan, heavenly; rsin, sages-Vasistha and others; and (the heavenly) uragan, serpents-Vasuki and others.
11.15. Arjuna said O God ! In Your body I behold all gods and also hosts of different kinds of beings-the Lord Brahma seated on the lotus-seat; and all the seers and all the glowing serpents.
11.15 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.15 Arjuna said O Lord! I behold in Your body all gods and all classes of living beings as also Brahma, the four-faced ruler of the cosmic egg. So too Siva (Isa) who is seated in the lotus-seated Brahma, meaning that Siva abides by the directions of Brahma. So also all the seers of whom the divine seers are the foremost; and lustrous snakes like Vasuki, Taksaka etc.
11.15 Arjuna said I behold, O Lord, in Your body all the gods and all the diverse hosts of beings. Brahma, Siva (Isa) who is in Brahma, the seers and the lustrous snakes.
।।11.15।।जो विश्वरूप आपने मुझे दिखलाया है उसे मैं किस प्रकार देख रहा हूँ -- ऐसा अपना अनुभव प्रकट करता हुआ अर्जुन बोला --, हे देव मैं आपके शरीरमें समस्त देवोंको तथा स्थावरजङ्गमरूप नाना प्रकारकी विभक्त आकृतिवाले समस्त भूतविशेषोंके समूहोंको एवं कमलासनपर विराजमान अर्थात् पृथ्वीरूप कमलमें सुमेरुरूप कर्णिकापर बैठे हुए प्रजाके शासनकर्ता चतुर्मुख ब्रह्माको? वसिष्ठादि ऋषियोंको और वासुकि प्रभृति समस्त दिव्य अर्थात् देवलोकमें होनेवाले सर्पोंको देख रहा हूँ।
।।11.15।। --,पश्यामि उपलभे हे देव? तव देहे देवान् सर्वान्? तथा भूतविशेषसंघान् भूतविशेषाणां स्थावरजङ्गमानां नानासंस्थानविशेषाणां संघाः भूतविशेषसंघाः तान्? किञ्च -- ब्रह्माणं चतुर्मुखम् ईशम् ईशितारं प्रजानां कमलासनस्थं पृथिवीपद्ममध्ये मेरुकर्णिकासनस्थमित्यर्थः? ऋषींश्च वसिष्ठादीन् सर्वान्? उरगांश्च वासुकिप्रभृतीन् दिव्यान् दिवि भवान्।।
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अर्जुन उवाच पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्। ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्।।11.15।।
অর্জুন উবাচ পশ্যামি দেবাংস্তব দেব দেহে সর্বাংস্তথা ভূতবিশেষসঙ্ঘান্৷ ব্রহ্মাণমীশং কমলাসনস্থ- মৃষীংশ্চ সর্বানুরগাংশ্চ দিব্যান্৷৷11.15৷৷
অর্জুন উবাচ পশ্যামি দেবাংস্তব দেব দেহে সর্বাংস্তথা ভূতবিশেষসঙ্ঘান্৷ ব্রহ্মাণমীশং কমলাসনস্থ- মৃষীংশ্চ সর্বানুরগাংশ্চ দিব্যান্৷৷11.15৷৷
અર્જુન ઉવાચ પશ્યામિ દેવાંસ્તવ દેવ દેહે સર્વાંસ્તથા ભૂતવિશેષસઙ્ઘાન્। બ્રહ્માણમીશં કમલાસનસ્થ- મૃષીંશ્ચ સર્વાનુરગાંશ્ચ દિવ્યાન્।।11.15।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਪਸ਼੍ਯਾਮਿ ਦੇਵਾਂਸ੍ਤਵ ਦੇਵ ਦੇਹੇ ਸਰ੍ਵਾਂਸ੍ਤਥਾ ਭੂਤਵਿਸ਼ੇਸ਼ਸਙ੍ਘਾਨ੍। ਬ੍ਰਹ੍ਮਾਣਮੀਸ਼ਂ ਕਮਲਾਸਨਸ੍ਥ- ਮਰਿਸ਼ੀਂਸ਼੍ਚ ਸਰ੍ਵਾਨੁਰਗਾਂਸ਼੍ਚ ਦਿਵ੍ਯਾਨ੍।।11.15।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಪಶ್ಯಾಮಿ ದೇವಾಂಸ್ತವ ದೇವ ದೇಹೇ ಸರ್ವಾಂಸ್ತಥಾ ಭೂತವಿಶೇಷಸಙ್ಘಾನ್. ಬ್ರಹ್ಮಾಣಮೀಶಂ ಕಮಲಾಸನಸ್ಥ- ಮೃಷೀಂಶ್ಚ ಸರ್ವಾನುರಗಾಂಶ್ಚ ದಿವ್ಯಾನ್৷৷11.15৷৷
അര്ജുന ഉവാച പശ്യാമി ദേവാംസ്തവ ദേവ ദേഹേ സര്വാംസ്തഥാ ഭൂതവിശേഷസങ്ഘാന്. ബ്രഹ്മാണമീശം കമലാസനസ്ഥ- മൃഷീംശ്ച സര്വാനുരഗാംശ്ച ദിവ്യാന്৷৷11.15৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ପଶ୍ଯାମି ଦେବାଂସ୍ତବ ଦେବ ଦେହେ ସର୍ବାଂସ୍ତଥା ଭୂତବିଶେଷସଙ୍ଘାନ୍| ବ୍ରହ୍ମାଣମୀଶଂ କମଲାସନସ୍ଥ- ମୃଷୀଂଶ୍ଚ ସର୍ବାନୁରଗାଂଶ୍ଚ ଦିବ୍ଯାନ୍||11.15||
arjuna uvāca paśyāmi dēvāṅstava dēva dēhē sarvāṅstathā bhūtaviśēṣasaṅghān. brahmāṇamīśaṅ kamalāsanastha- mṛṣīṅśca sarvānuragāṅśca divyān৷৷11.15৷৷
அர்ஜுந உவாச பஷ்யாமி தேவாஂஸ்தவ தேவ தேஹே ஸர்வாஂஸ்ததா பூதவிஷேஷஸங்காந். ப்ரஹ்மாணமீஷஂ கமலாஸநஸ்த- மரிஷீஂஷ்ச ஸர்வாநுரகாஂஷ்ச திவ்யாந்৷৷11.15৷৷
అర్జున ఉవాచ పశ్యామి దేవాంస్తవ దేవ దేహే సర్వాంస్తథా భూతవిశేషసఙ్ఘాన్. బ్రహ్మాణమీశం కమలాసనస్థ- మృషీంశ్చ సర్వానురగాంశ్చ దివ్యాన్৷৷11.15৷৷
11.16
11
16
।।11.16।। हे विश्वरूप ! हे विश्वेश्वरव ! आपको मैं अनेक हाथों, पेटों, मुखों और नेत्रोंवाला तथा सब ओरसे अनन्त रूपोंवाला देख रहा हूँ। मैं आपके न आदिको, न मध्यको और न अन्तको ही देख रहा हूँ।
।।11.16।। हे विश्वेश्वर! मैं आपकी अनेक बाहु, उदर, मुख और नेत्रों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ और न मध्य को और न आदि को।।
।।11.16।। विश्वरूप के अनन्त वैभव को एक ही दृष्टिक्षेप में देख पाने के लिए मानव की परिच्छिन्न बुद्धि उपयुक्त साधन नहीं है। इस रूप के परिमाण की विशालता और उसके गूढ़ अभिप्राय से ही मनुष्य की? बुद्धि निश्चय ही? लड़खड़ाकर रह जाती है। भगवान् ही वह एकमेव सत्य तत्त्व हैं जो सभी प्राणियों की कर्मेन्द्रियों के पीछे चैतन्य रूप से विद्यमान हैं। अर्जुन इसे इन शब्दों में सूचित करता है कि मैं आपको अनेक बाहु? उदर? मुख और नेत्रों से युक्त सर्वत्र अनन्तरूप में देखता हूँ। इसे सत्य का व्यंग्यचित्र नहीं समझ लेना चाहिये। सावधानी की सूचना उन शीघ्रता में काम आने वाले चित्रकारों के लिए आवश्यक है? जो इस विषयवस्तु से स्फूर्ति और प्रेरणा पाकर इस विराट् रूप को अपने रंगों और तूलिका के द्वारा चित्रित करना चाहते हैं और अपने प्रयत्न में अत्यन्त दयनीय रूप से असफल होते हैं।विश्व की एकता कोई दृष्टिगोचर वस्तु नहीं है यह साक्षात्कार के योग्य एक सत्य तथ्य है। इस तथ्य की पुष्टि अर्जुन के इन शब्दों से होती है कि मैं न आपके अन्त को देखता हूँ? और न मध्य को और न आदि को। विराट् पुरुष का वर्णन इससे और अधिक अच्छे प्रकार से नहीं किया जा सकता था।उपर्युक्त ये श्लोक सभी परिच्छिन्न वस्तुओं के और मरणशील प्राणियों में सूत्र रूप से व्याप्त उस एकत्व का दर्शन कराते हैं? जिसने उन्हें इस विश्वरूपी माला के रूप मे धारण किया हुआ हैअर्जुन आगे कहता है
।।11.16।। व्याख्या--'विश्वरूप',विश्वेश्वर'--इन दो सम्बोधनोंका तात्पर्य है कि मेरेको जो कुछ भी दीख रहा है, वह सब आप ही हैं और इस विश्वके मालिक भी आप ही हैं। सांसारिक मनुष्योंके शरीर तो जड होते हैं और उनमें शरीरी चेतन होता है; परन्तु आपके विराट्रूपमें शरीर और शरीरी-- ये दो विभाग नहीं हैं। विराट्रूपमें शरीर और शरीरीरूपसे एक आप ही हैं। इसलिये विराट्रूपमें सब कुछ चिन्मय-ही-चिन्मय है। तात्पर्य यह हुआ कि अर्जुन विश्वरूप सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप ही शरीर हैं और 'विश्वेश्वर' सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप ही शरीरी (शरीरके मालिक) हैं।
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।।11.16।।अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् अनन्तरूपं त्वां सर्वतः पश्यामि। विश्वेश्वर विश्वस्त नियन्तः विश्वरूप विश्वशरीर यतः त्वम् अनन्तः? अतः तव न अन्तं न मध्यं न पुनः तव आदिं च पश्यामि।
।।11.16।।यत्र भगवद्देहे सर्वमिदं दृष्टं तमेव विशिनष्टि -- अनेकेति। आदिशब्देन मूलमुच्यते। नान्तं न मध्यमित्यत्रापि पश्यामीत्यस्य प्रत्येकं संबन्धं सूचयति -- नान्तं पश्यामीति।
।।11.16।।अनेकेति। कूटस्थत्वात्।
।।11.16।।यत्र भगवद्देहे सर्वमिदं दृष्टवान् तमेव विशिनष्टि -- अनेकेति। बाहव उदराणि वक्त्राणि नेत्राणि चानेकानि यस्य तमनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतः सर्वत्र। अनन्तानि रूपाणि यस्येति तम्। तव तु पुनर्नान्तमवसानं न मध्यं नाप्यादिं पश्यामि सर्वगतत्वात्। हे विश्वेश्वर हे विश्वरूप। संबोधनद्वयमतिसंभ्रमात्।
।।11.16।। किंच -- अनेकेति। अनेकानि बाह्वादीनि यस्य तादृशं पश्यामि। अनन्तानि रूपाणि यस्य तं त्वां सर्वतः पश्यामि। तव तु अन्तं मध्यमादिं च न पश्यामि सर्वगतत्वात्।
।।11.16।।सर्वतोऽनन्तरूपम् इत्यन्वयेसर्वतः इति शब्दस्य वैय्यर्थ्यं स्यात्सर्वतः पश्यामि इत्यन्वयस्तु दिव्यचक्षुर्लाभानुगुणत्वाद्युक्तः। विश्वरूपत्वे हेतुपरो विश्वेश्वरशब्द इत्यभिप्रायेणाहविश्वस्य नियन्तरिति। व्याप्यनियन्ता हि शरीरी।नान्तं न मध्यम् इत्यादौ विद्यमानस्यादर्शनं न विवक्षितम् अर्जुनस्य दिव्यचक्षुर्लाभेन तदयोगात्? अन्यत्रअनन्तरूपम् इति हेतुगर्भविशेषणाद्विषयाभावादेव शशश्रृङ्गादेरिवादर्शनमुक्तमित्यभिप्रायेणाहयत इति। इदं चविश्वरूप इत्यनेनापि विवक्षितम्। अत्र देशतः कालतश्चादिमध्यान्तनिषेधो भाव्यः। आद्यन्तरूपावच्छेदाभावात्तदुभयनिरूपणीयमध्याभावोऽपि सिद्धः।
।।11.16।।यस्य देहे न एतान् पश्यामि तादृशं त्वां च पश्यामीत्याह भ्रमाभावाय -- अनेकेति। अनेकानि बाह्वादीनि यस्य। सर्वतोऽनन्तानि रूपाणि यस्यैतादृशं त्वां पश्यामि। तादृशानेकरूपस्यापि तव अन्तं पूर्णभावं?,मध्यं स्थितिस्थानम्? आदिमुत्पत्तिस्थानं न पश्यामि। विश्वेश्वर विश्वपरिपालक किं बहुना विश्वरूपं पश्यामि।
।।11.16।।अनेके अनन्ता बाहव उदराणि वक्त्राणि नेत्राणि च यस्मिंस्तदनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम्। सर्वतश्चतुर्दिक्षूपर्यधश्चानन्तमपरिच्छिन्नं रूपमस्य तम्। अनन्तत्वमेवाह -- नान्तमिति। दीर्घरज्ज्वा इव तवाद्यन्तौ दैशिकौ न स्त इत्यर्थः।
।।11.16।।यस्य देहे सर्वं दृष्टं तं देहवन्तं विशिनष्टि। अनेकानि बाह्वदीनि यस्य तं त्वां? सर्वत्रानन्तानि रुपाण्यस्येति तं पश्यामि। तवादिमन्तं मध्यं पुनर्न पश्यामि विश्वदर्शनं तव देहे युक्तं विश्वरुपत्वात्तवेति सूचनार्थम्। हे विश्वरुपेतिसंबोधनम्। विश्वस्याद्यन्तमध्यवत्त्वेऽपि तव तद्वत्त्वं नास्ति विश्वरुपत्वेऽपि विश्वेश्वरत्वात्तवेति द्योतनार्थ विश्वेश्वरेति संबोधनम्।
11.16 अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् with manifold arms? stomachs? mouths and eyes? पश्यामि (I) see? त्वाम् Thee? सर्वतः on every side? अनन्तरूपम् of boundless form? न not? अनत्म् end? न not? मध्यम् middle? न not? पुनः,again? तव Thy? आदिम् origin? पश्यामि (I) see? विश्वेश्वर O Lord of the universe? विश्वरूप O Cosmic Form.Commentary A thing that is limited by space and time has a begining? a middle and an end? but the Lord is omnipresent and eternal. He exists in the three periods of time -- past? present and future? but is not limited by time and space. Therefore He has neither a beginning nor middle nor end.Arjuna could have this divine vision only with the help of the divine eye bestowed upon him by the Lord. He who has supreme devotion to the Lord and on whom the Lord showers His grace can enjoy this wondrous vision.
11.16 I see Thee of boundless form on every side with many arms, stomachs, mouths and eyes: neither the end nor the middle nor also the beginning do I see, O Lord of the universe, O Cosmic Form.
11.16 I see Thee, infinite in form, with, as it were, faces, eyes and limbs everywhere; no beginning, no middle, no end; O Thou Lord of the Universe, Whose Form is universal!
11.16 I see You as possessed of numerous arms, bellies, mouths and eyes; as having infinite forms all around. O Lord of the Universe, O Cosmic Person, I see not Your limit nor the middle, nor again the beginning!
11.16 Pasyami, I see; tvam, You; aneka-bahu-udara-vaktra-netram, as possessed of numerous arms, bellies, mouths and eyes; ananta-rupam, having infinite forms; sarvatah, all around. Visveswara, O Lord of the Universe; visva-rupa, O Cosmic Person; na pasyami, I see not; ['I do not see-because of Your all-pervasiveness.'] tava, Your; antam, end; na madhyam, nor the middle-what lies between two extremities; na punah, nor again; the adim, beginning-I see not the limit (end) nor the middle, nor again the beginning, of You who are God! Furthermore,
11.16. I behold You of many arms, bellies, mouths and eyes and of infinite forms on all sides; of You, I find neither the end, nor the centre, nor the beginnng too, O Lord of the universe, O Universal-formed One !
11.16 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.16 I behold Your infinite form on all sides with many arms, stomachs, mouths and eyes. O Lord of the universe, namely, the controller of the universe, O Universal Form having the universe as Your body! As You are infinite, therefore, I see no end, no middle and no beginning for You.
11.16 With manifold arms, stomachs, mouths and eyes, I behold Your infinite form on all sides. I see no end, no middle nor the beginning too of You, O Lord of the universe, O You of Universal Form.
।।11.16।।मैं आपको अनेकों भुजा? उदर? मुख और नेत्रोंवाला अर्थात् आपके जिस स्वरूपमें अनेकों भुजा? उदर? मुख और नेत्र हैं ऐसे रूपवाला तथा सब ओरसे अनन्त रूपवाला अर्थात् जिसके सर्वत्र अनन्त रूप हैं ऐसा? देख रहा हूँ। हे विश्वेश्वर हे विश्वरूप मैं आपका न तो अन्त अर्थात् समाप्ति? न मध्य अर्थात् आदि और अन्तके बीचकी अवस्था और न आदि ही देखता हूँ? अभिप्राय यह कि मुझे आप परमात्मदेवका न अन्त दिखलायी देता है? न मध्य दीखता है और न आपका आदि ही दिखलायी देता है।
।।11.16।। --,अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् अनेके बाहवः उदराणि वक्त्राणि नेत्राणि च यस्य तव सः त्वम् अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रः तम् अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम्। पश्यामि त्वा त्वां सर्वतः सर्वत्र अनन्तरूपम् अनन्तानि रूपाणि अस्य इति अनन्तरूपः तम् अनन्तरूपम्।,न अन्तम्? अन्तः अवसानम्? न मध्यम्? मध्यं नाम द्वयोः कोट्योः अन्तरम्? न पुनः तव आदिम् -- न देवस्य अन्तं पश्यामि? न मध्यं पश्यामि? न पुनः आदिं पश्यामि? हे विश्वेश्वर विश्वरूप।।किञ्च --,
।।11.16।।अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं इत्यत्रानेकशब्दस्य द्व्यादौ पर्यवसानात् विवक्षितमर्थमाह -- अनेकेति। अनेनानेकवक्त्रनयनमित्यपि व्याख्यातम्। कुत एतत् इत्यत आह -- अनन्तेति।सर्वत इत्यस्यार्थस्तात्पर्यनिर्णयेऽवगन्तव्यः इत्यादि च वक्ष्यति। बाहुभ्यां प्रधानाभ्यां? पतत्त्रैः पतत्त्रसदृशैरितरबाहुभिः? सन्धमति अग्न्यादिभूतानि संयोजयतीति प्रत्येकमन्वयः। सन्नमतीत्यस्याप्ययमेवार्थः। एतयोर्मन्त्रयोः प्रकृतानुपयोगादयुक्तमुदाहरणमित्यत आह -- विश्वशब्दश्चेति। तथा च प्रथमार्थे तसिरित्युक्तं भवति। स्पष्टार्थो चात्र श्रुतिमाह -- अनन्तबाहुमिति। यदि भगवाननन्तबाह्वादिस्तद्य परममहत्परिमाणः स्यात्। अन्यथा तदयोगात्। न च तद्युक्तम्।रूपं महत्ते [11।23] इति महत्त्वमात्रोक्तेः। तथाबहुवक्त्रनेत्र [11।23] इति बहुत्वमात्रोक्तेरनन्तबाह्वादित्वोक्तिश्चानुपपन्नेत्यत आह -- महत्त्वादिति। स्यादयं विरोधो यदि भगवद्रूपस्य महत्त्वमात्रं तदवयवानां च बहुत्वमात्रमुच्येत्। न चैवम्? अवच्छेदकाश्रवणात्। महत्त्वबहुत्वोक्तिस्तु परममहत्त्वात्मकत्वेनानन्तावयत्वेन च सह सम्भवति। परममहति महत्त्वस्यानन्ते बहुत्वस्यान्तर्भावादित्यर्थः।अवच्छेदकानुक्तावप्यवान्तरमहत्त्वादिग्रहणे को दोषः इत्यत आह -- अन्यथेति। तत्र परममहत्त्वस्यानन्तावयवत्वस्य चोक्तेरिति भावः।पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपंत्वया ततं विश्वमनन्तरूप [11।38] इत्यनन्तशब्दद्वयस्य माहात्म्यातिशयसूचनायार्थभेदमाह -- एकत्र त्विति। अपरिमाणोऽपरिच्छिन्न इत्यनन्तरूप इति सम्बन्धः। स्यादिदं व्याख्यानं यदीदं द्वयं प्रामाणिकं स्यादित्यत आह -- उक्तं हीति। महान्तं महत्।महतो महान्तं इत्यनन्तमपरिच्छिन्नपरिमाणं रूपमस्येत्युक्तार्थे प्रमाणम्। एकं भिन्नमपि अनन्तरूपमित्यनन्तसङ्ख्यान्यस्य रूपाणीत्यत्र। ननुमहतो महान्तं इति महत्तत्त्वान्महत्त्वमेवोच्यते? न त्वन्तत्वम्। ततश्चयदेकमव्यक्तं इत्यव्यक्तव्यापित्ववचनात्तत्साम्यमेव सिध्यतीत्यत आह -- अव्यक्तस्येति। महतो महत्त्वेऽव्यक्तव्यापित्वे चेत्यपि ग्राह्यम्। अव्यक्तस्यानन्तत्वं कुतः इत्यत आह -- महान्तं चेति। अनन्तस्य विष्णोः प्रतिमाभूतस्य तस्यान्तः परिमाणं परिच्छेदः? कार्यतः सङ्ख्यानं सङ्ख्यापरिच्छेदोऽपि न विद्यते। प्रकारान्तरेणानन्तरूपशब्दद्वयस्यार्थभेदमाह -- तानि चेति। एकस्यानन्तरूपशब्दस्यानन्तसङ्ख्यारूपार्थत्वे स्थिते सत्येकत्रानन्तरूपशब्दे तानि चानन्तसङ्ख्यानि रूपाणि प्रत्येकमपरिच्छिन्नपरिमाणानीत्यर्थो भवतीत्यर्थः। अत्र प्रमाणमाह -- असङ्ख्याता इति। ज्ञानकाः ज्ञानानन्दात्मकाः। अयं बहिर्व्याप्त आकाशः परमात्मा यावान् यावत्परिमाणस्तावानेवैषोऽन्तर्हृदये स्थितः परमात्मेत्यर्थः। गर्भे जठरे जगद्यस्यासौ तथोक्तः। अवसन्नोऽवनतः। गर्भजगत्त्वेनापरिच्छिन्नपरिमाणत्वं लभ्यते। कृष्णादीनामप्यपरिच्छिन्नपरिमाणत्वं वदन्तो वक्तव्याः। तत्राल्पपरिमाणप्रतीतिर्या सा किं भ्रान्तिरुत प्रमितिः इति। आद्ये क्रियादेर्द्विभुजचतुर्भुजादेश्च मिथ्यात्वं स्यात्। न द्वितीयः? युगपदेकत्राल्पानल्पपरिमाणसमावेशस्यायुक्तत्वात्। अतोऽपरिच्छिन्नपरिमाणोक्तिरुपचारमात्रमिति चेत्? किमिदमनेकपरिमाणत्वस्यायुक्तत्वं किमन्यत्रादर्शनेनासम्भावितत्वम् उत नायमल्पानल्पपरिमाणोपेतो द्रव्यत्वात्। नायं परममहत्परिमाणः? अल्पपरिमाणत्वात् पटवदित्यादियुक्तिविरुद्धत्वम्।अथातिप्रसङ्गदुष्टत्वं किंवाऽप्रामाणिकत्वम् नाद्य इत्याह -- न चेति। अघटितघटनाशक्त्युपेते किं नामासम्भावितमिति भावः। न द्वितीयः? ईश्वरस्य युक्त्यगोचरत्वेन तदनवकाशादिति भावेनाह -- अचिन्त्या इति। एषा ब्रह्मविषया। अपनेया निराकार्या। अतिप्रसङ्गोऽपि किं यदीश्वरो विरुद्धपरिमाणद्वयोपेतः स्यात् तदा निर्दुःखो दुःखी स्यादितीश्वरमधिकृत्य स्यात् उत प्राणादयोऽपि तथा स्युः तथा चाणुश्चेत्यादिका तद्विषयवाक्यव्यवस्था नाङ्गीक्रियेतेत्यन्यदधिकृत्य स्यात्। आद्यं दूषयति -- अतिप्रसङ्गस्त्विति। अविशेषमाश्रित्य ह्ययमतिप्रसङ्गः? नचासावस्ति निर्दोषानन्तगुणत्वे हरेः श्रुतीनां महातात्पर्येण दुःखादेस्तद्विरोधात्? परिमाणद्वयस्य तु तदविरोधात्? दुःखादेरप्रामाणिकत्वात्? परिमाणद्वयस्य तूक्तवक्ष्यमाणवाक्यसिद्धत्वादिति भावः। विपर्ययापर्यवसायी चायं प्रसङ्ग इति भावेनाह -- न हीति। यदि घटः पृथुबुध्नोदराकारः स्यात्तर्हि पदार्थो न स्यात् तथाविधस्य पदार्थस्य कस्याप्यदृष्टत्वादिति प्रसङ्गो यथा न युक्तः? भवति च पदार्थस्तस्मात्पृथुबुध्नोदराकारः? न भवतीति विपर्ययस्य प्रमाणबाधितत्वेनापर्यवसानात्? तथात्वेन तस्य धर्मिग्राहकप्रमाणदृष्टत्वात्। तथा प्रकृतेऽपीति। एतेनानुमानानां कालात्ययापदिष्टत्वं चोक्तं भवति। प्राणादिकमधिकृत्यातिप्रसङ्ग इति द्वितीयं निराकरोति -- केषुचिदिति। अत्रापि सम्भावनाहेतुभावाभावाभ्यां विशेषादविशेषोऽसिद्ध इति भावः।चतुर्थं निरस्यति -- गुणा इति। श्रुता अश्रुता अपि सुविरुद्धा अन्यत्र सहादृष्टा अविरुद्धाश्च। तथा गुणा इव दोषाः श्रुता अश्रुताश्च नैव सन्ति? किन्त्वज्ञैर्मिथ्यादृष्टिभिर्हि तथा सन्तीति प्रतीताः। एवं परे ईश्वरे स्थितिः? ततोऽन्यत्र तु श्रुतानां प्रमाणान्तरसिद्धानां च गुणदोषाणां व्यवस्थावस्थानम्। तच्च क्रमादुत्तमेषु गुणबाहुल्यं दोषाल्पत्वं? मध्यमेषूभयसाम्यम्? अवरेषु दोषबाहुल्यं गुणाल्पत्वमिति। तदेवमसम्भावनाद्यभावान्न भगवति अपरिच्छिन्नपरिमाणत्वोक्तेरुपचरितत्वं कल्प्यम्। अर्जुनेनापि तन्निराकृतमिति भावेनाह -- उपचारत्वेति।नान्तं न पुनस्तवादिं पश्यामि इत्याद्यन्ताभावोक्तेरुपचरितत्वपरिहाराय न मध्यमित्युक्तम्। मध्यनिराकरणार्थमेव तत्किं न स्यात् इत्यत आह -- अन्यथेति। उपचारत्वपरिहारार्थत्वाभावे तद्वैयर्थ्यं स्यादिति शेषः। कुतः आद्यन्तसापेक्षत्वात् मध्यस्य तदभावोक्त्यैव तदभावसिद्धेः। विश्वं महदादिकं रूपं स्वरूपमस्येति प्रतीतिं सप्रमाणकं निवायरति -- विश्वरूप इति। एतच्चाभ्यासरूपमिति मन्तव्यम्।
।।11.16।।अनेकशब्दोऽनन्तवाची?अनन्तबाहुं [11।19] इति स्वयं वक्ष्यतिसर्वतः पाणिपादं तत् इत्यादि च। विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्। सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्त्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः [ऋक्सं.2।2।4।24म.ना.2।2श्वे.उ.3।3] इति ऋग्वेदखिलेषु। विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्यात्। सं बाहुभ्यां नमति सं पतत्त्रद्यौर्वाभूमी जनयन्देव एकः इति यजुर्वेदे च। विश्वशब्दश्चानन्तवाची।सर्वं समस्तं विश्वं च अनन्तं पूर्ण(र्व)मेव च इत्यभिधानात्। अनन्तबाहुमनन्तपादमनन्तरूपं पुरुवक्त्रमेकम् इति च (सामवेदस्य) बाभ्रव्यशाखायाम्। महत्त्वाद्युक्तिस्तु तदात्मकत्वेनापि भवति।अन्यथाअनादिमत्परं ब्रह्म [13।12] इत्याद्ययुक्तं स्यात्। एकत्र त्वनन्तान्यस्य रूपाणीत्यनन्तरूपः। अन्यत्र त्वपरिमाण इति। उक्तं ह्युभयमपि -- परात्परं यन्महतो महान्तं यदेकमव्यक्तमनन्तरूपम् इति यजुर्वेदे। अव्यक्तस्यानन्तत्वादेव महतो महत्त्वे अपरिमितत्वं सिध्यति।महान्तं च समावृत्य प्रधानं समव(समुप)स्थितम्। अनन्तस्य न तस्यान्तस्सङ्ख्यानं चापि विद्यते इत्यादित्यपुराणे। तानि चैकैकानि रूपाण्यनन्तानीति चैकत्र भवति। असंख्याता ज्ञानकास्तस्य देहाः सर्वे परिमाणविवर्जिताश्च इत्यृग्वेदखिलेषु। यावान्वा अयमाकाशस्तावानेषोन्तर्हृदय आकाश उभे अस्मिन् द्यावापृथिवी अन्तरेव समाहिते। उभावग्निश्च वायुश्च सूर्याचन्द्रमसावुभौ [छा.उ.8।1।3] इति च।कृष्णस्य गर्भजगतोऽतिभरावसन्नं पार्ष्णिप्रहारपरिरुग्णफणातपत्रम्,[10।16।31] इति च भागवते।न चैतदयुक्तम्? अचिन्त्यशक्तित्वादीश्वरस्य।अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत् इति च श्रीविष्णुपुराणे [ ]। नैषा तर्केण मतिरापनेया [कठो.2।9] इति श्रुतिः। अतिप्रसङ्गस्तु महातात्पर्यवशात् वाक्यबलाच्चापनेयः। न हि घटवत्कश्चित्पदार्थो न दृष्ट इत्येतावता प्रमाणदृष्टः सन्निराक्रियते। केषुचित्पदार्थेषु वाक्यव्यवस्था अचिन्त्यशीकृत्वा भावादङ्गीक्रियते।गुणाः श्रुताः सुविरुद्धाश्च देवे सन्त्यश्रुता अपि नैवात्र शङ्का। चिन्त्या अचिन्त्याश्च तथैव दोषाः श्रुताश्च नाज्ञैर्हि तथा प्रतीताः। एवं परेऽन्यत्र श्रुताश्रुतानां गुणागुणानां च क्रमाद्व्यवस्था इति जाबालिखिले श्रुतेश्च। उपचारत्वपरिहाराय न मध्यमिति। अन्यथा आद्यन्तभावेनैव तत्सिद्धेः। विश्वरूपः पूर्णरूपः स विश्वरूपो अनूनरूपो अतोऽयं सोऽनन्तरूपो न हि नाशोऽस्ति तस्य इति शाण्डिल्यशाखायाम्।
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्। नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।।11.16।।
অনেকবাহূদরবক্ত্রনেত্রং পশ্যামি ত্বাং সর্বতোনন্তরূপম্৷ নান্তং ন মধ্যং ন পুনস্তবাদিং পশ্যামি বিশ্বেশ্বর বিশ্বরূপ৷৷11.16৷৷
অনেকবাহূদরবক্ত্রনেত্রং পশ্যামি ত্বাং সর্বতোনন্তরূপম্৷ নান্তং ন মধ্যং ন পুনস্তবাদিং পশ্যামি বিশ্বেশ্বর বিশ্বরূপ৷৷11.16৷৷
અનેકબાહૂદરવક્ત્રનેત્રં પશ્યામિ ત્વાં સર્વતોનન્તરૂપમ્। નાન્તં ન મધ્યં ન પુનસ્તવાદિં પશ્યામિ વિશ્વેશ્વર વિશ્વરૂપ।।11.16।।
ਅਨੇਕਬਾਹੂਦਰਵਕ੍ਤ੍ਰਨੇਤ੍ਰਂ ਪਸ਼੍ਯਾਮਿ ਤ੍ਵਾਂ ਸਰ੍ਵਤੋਨਨ੍ਤਰੂਪਮ੍। ਨਾਨ੍ਤਂ ਨ ਮਧ੍ਯਂ ਨ ਪੁਨਸ੍ਤਵਾਦਿਂ ਪਸ਼੍ਯਾਮਿ ਵਿਸ਼੍ਵੇਸ਼੍ਵਰ ਵਿਸ਼੍ਵਰੂਪ।।11.16।।
ಅನೇಕಬಾಹೂದರವಕ್ತ್ರನೇತ್ರಂ ಪಶ್ಯಾಮಿ ತ್ವಾಂ ಸರ್ವತೋನನ್ತರೂಪಮ್. ನಾನ್ತಂ ನ ಮಧ್ಯಂ ನ ಪುನಸ್ತವಾದಿಂ ಪಶ್ಯಾಮಿ ವಿಶ್ವೇಶ್ವರ ವಿಶ್ವರೂಪ৷৷11.16৷৷
അനേകബാഹൂദരവക്ത്രനേത്രം പശ്യാമി ത്വാം സര്വതോനന്തരൂപമ്. നാന്തം ന മധ്യം ന പുനസ്തവാദിം പശ്യാമി വിശ്വേശ്വര വിശ്വരൂപ৷৷11.16৷৷
ଅନେକବାହୂଦରବକ୍ତ୍ରନେତ୍ରଂ ପଶ୍ଯାମି ତ୍ବାଂ ସର୍ବତୋନନ୍ତରୂପମ୍| ନାନ୍ତଂ ନ ମଧ୍ଯଂ ନ ପୁନସ୍ତବାଦିଂ ପଶ୍ଯାମି ବିଶ୍ବେଶ୍ବର ବିଶ୍ବରୂପ||11.16||
anēkabāhūdaravaktranētraṅ paśyāmi tvāṅ sarvatō.nantarūpam. nāntaṅ na madhyaṅ na punastavādiṅ paśyāmi viśvēśvara viśvarūpa৷৷11.16৷৷
அநேகபாஹூதரவக்த்ரநேத்ரஂ பஷ்யாமி த்வாஂ ஸர்வதோநந்தரூபம். நாந்தஂ ந மத்யஂ ந புநஸ்தவாதிஂ பஷ்யாமி விஷ்வேஷ்வர விஷ்வரூப৷৷11.16৷৷
అనేకబాహూదరవక్త్రనేత్రం పశ్యామి త్వాం సర్వతోనన్తరూపమ్. నాన్తం న మధ్యం న పునస్తవాదిం పశ్యామి విశ్వేశ్వర విశ్వరూప৷৷11.16৷৷
11.17
11
17
।।11.17।। मैं आपको किरीट, गदा, चक्र (तथा शङ्ख और पद्म) धारण किये हुए देख रहा हूँ। आपको तेजकी राशि, सब ओर प्रकाश करनेवाले, देदीप्यमान अग्नि तथा सूर्यके समान कान्तिवाले, नेत्रोंके द्वारा कठिनतासे देखे जानेयोग्य और सब तरफसे अप्रमेयस्वरूप देख रहा हूँ।
।।11.17।। मैं आपका मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रधारण किये हुये तथा सब ओर से प्रकाशमान् तेज का पुंज, दीप्त अग्नि और सूर्य के समान ज्योतिर्मय, देखने में अति कठिन और अप्रमेयस्वरूप सब ओर से देखता हूँ।।
।।11.17।। विश्वरूप का और अधिक वर्णन करते हुये अर्जुन बताता है कि उस अचिन्त्य अग्राह्य दिव्य रूप में उसने क्या देखा। उसने वहाँ मुकुट धारण किए शंखचक्रगदाधारी भगवान् विष्णु को देखा। पुराणों में किये गये वर्णनों के अनुसार शंख? चक्र आदि भगवान् विष्णु के पदक या प्रतीत हैं।हिन्दू शास्त्रों में देवताओं को कूछ विशेष शस्त्रास्त्रयुक्त या चिह्नयुक्त बताया गया है जिनका विशेष अर्थ भी है। ये विशेष पदक जगत् पर उनके शासकत्व एवं प्रभुत्व को दर्शाने वाले हैं। जो व्यक्ति बाह्य परिस्थितियों का स्वामी तथा मन की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का शासक है? वही वास्तव में? प्रभु या ईश्वर कहलाने योग्य होता है। जो व्यक्ति अपने मन का और बाह्य आकर्षणों का दास बना होता है? वह दुर्बल है यदि वह राजमुकुट भी धारण किये हुये है तब भी उसका राजत्व भी उतना ही अनित्य है जितना कि रंगमंच पर बनावटी मुकुट धारण कर राजा की भूमिका कर रहे अभिनेता का होता है। सत्तारूढ़ पुरुष को इन्द्रिय संयम और मनसंयम के बिना व्ाास्तविक अधिकार या प्रभावशीलता प्राप्त नहीं हो सकती। निम्न स्तर की कामुक प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर अपने मन रूपी राज्य पर स्वयं ही स्वयं का राजतिलक किये बिना कोई भी व्यक्ति सुखी और शक्तिशाली जीवन नहीं जी सकता। संयमी पुरुष ही विष्णु है और वही राजमुकुट का अधिकारी है।चतुर्भुज विष्णु अपने हाथों में शंख? चक्र? गदा और पद्म (कमल) धारण किये रहते हैं। यह एक सांकेतिक रूपक है। भारत में कमल पुष्प शान्ति? आनन्द? शुभ और सुख का प्रतीक है। शंखनाद मनुष्य को अपने कर्तव्य के लिये आह्वान करता है। यदि मनुष्यों की कोई पीढ़ी अपने हृदय के इस उच्च आह्वान को नहीं सुनती है? तब सर्वत्र अशान्ति? युद्ध? महामारी? अकाल? तूफान और साम्प्रादायिक विद्वेष तथा सामाजिक दुर्व्यवस्था फैल जाती है। यही उस पीढ़ी पर गदा का आघात है जो उसे सुव्यवस्थित और अनुशासित करने के लिए उस पर किया जाता है। यदि कोई ऐसी पीढ़ी हो? जो इतना दण्ड पाकर भी उससे कोई पाठ नहीं सीखती है? तो फिर उसके लिए आता है चक्र कालचक्र जो सुधार के अयोग्य उस पीढ़ी को नष्ट कर देता है।अर्जुन द्वारा किये गये वर्णन से ज्ञात होता है कि एक ही परम सत्य ब्रह्मादि से पिपीलिका तक के लिए अधिष्ठान है। वह सत्य सदा? सर्वत्र एक ही है केवल उसकी अभिव्यक्ति ही विविध प्रकार की है। उसकी दिव्यता की अभिव्यक्ति में तारतम्य का कारण विभिन्न स्थूल और सूक्ष्म उपाधियां हैं जिनके माध्यम से वह सत्य व्यक्त होता है।यह विश्वरूप सब ओर से प्रकाशमान तेज का पुञ्ज? प्रदीप्त अग्नि और सूर्य के समान ज्योतिर्मय और देखने में अति कठिन है। इस श्लोक में किये गये वर्णन में यह पंक्ति सर्वाधिक अभिव्यंजक है जो हमें शुद्ध चैतन्यस्वरूप पुरुष का स्पष्ट बोध कराती है। इसे भौतिक प्रकाश नहीं समझना चाहिये। यद्यपि लौकिक भाषा से यह शब्द लिया गया है? तथापि उसका प्रयोग साभिप्राय है। चैतन्य ही वह प्रकाश है? जिसमें हम अपने मन की भावनाओं और बुद्धि के विचारों को स्पष्ट देखते हैं। यही चैतन्य? चक्षु और श्रोत्र के द्वारा क्रमश रूप वर्ण और शब्द को प्रकाशित करता है। इसलिए स्वाभाविक ही है कि अनन्त चैतन्यस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण के विश्वरूप का वर्णन? अर्जुन को लड़खड़ाती भाषा में इसी प्रकार करना पड़ा कि वह विश्वरूप तेजपुञ्ज है? जो इन्द्रिय? मन और बुद्धि को अन्ध बना दे रहा है? अर्थात् ये उपाधियां उसका ग्रहण नहीं कर पा रहीं हैं।अप्रमेय (अज्ञेय) यद्यपि अब तक अर्जुन ने अपनी ओर से सर्वसंभव प्रयत्न करके विराट्स्वरूप का तथा उसके दर्शन से उत्पन्न हुई मन की भावनाओं का वर्णन किया है? परन्तु इन समस्त श्लोकों में निराशा की एक क्षीण धारा प्रवाहित हो रही प्रतीत होती है। अर्जुन यह अनुभव करता है कि वह विषयवस्तु की पूर्णता को भाषा की मर्यादा में व्यक्त नहीं कर पाया है। भाषा केवल उस वस्तु का वर्णन कर सकती है? जो इन्द्रियों द्वारा देखी गयी हो? या मन के द्वारा अनुभूत हो अथवा बुद्धि से समझी गयी हो। यहाँ अर्जुन के समक्ष ऐसा दृश्य उपस्थित है? जिसे वह अनुभव कर रहा है? देख रहा है और स्वयं बुद्धि से समझ पा रहा है और फिर भी? कैसा विचित्र अनुभव है कि जब वह उसे भाषा की बोतल में बन्द करने का प्रयत्न करता है? तो वह मानो वाष्परूप में उड़ जाता है अर्जुन? इन्द्रियगोचर वस्तुओं के अनुभव की तथा भावनाओं की भाषा में वर्णन करने का प्रयत्न करता है? किन्तु उस वर्णन से स्वयं ही सन्तुष्ट नहीं होता है।आश्चर्यचकित मानव उस वैभव का गान अपनी बुद्धि की भाषा में करने का प्रयत्न कर रहा है। परन्तु यहाँ भी केवल निराश होकर यही कह सकता है कि? हे प्रभो आप सर्वदा अप्रमेय हैं अज्ञेय है। यद्यपि कवि ने विराट् स्वरूप का चित्रण दृश्यरूप में किया है? तथापि वे हमें समझाना चाहते हैं कि सत्स्वरूप आत्मा? वास्तव में? द्रष्टा है? और वह बुद्धि का भी ज्ञेय विषय नहीं बन सकता है। आत्मा द्रष्टा और प्रमाता है? और न कि दृश्य और प्रमेय वस्तु।आपके इस ईश्वरीय योग के दर्शन से मैं अनुमान करता हूँ कि
।।11.17।। व्याख्या--'किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च'--आपको मैं किरीट, गदा और चक्र धारण किये हुए देख रहा हूँ। यहाँ 'च' पदसे शङ्क और पद्मको भी ले लेना चाहिये। इसका तात्पर्य ऐसा मालूम देता है कि अर्जुनको विश्वरूपमें भगवान् विष्णुका चतुर्भुजरूप भी दीख रहा है। 'तेजोराशिम्'--आप तेजकी राशि हैं, मानो तेजका समूह-का-समूह (अनन्त तेज) इकट्ठा हो गया हो। इसका पहले सञ्जयने वर्णन किया है कि आकाशमें हजारों सूर्य एक साद उदित होनेपर भी भगवान्के तेजकी बराबरी नहीं कर सकते (11। 12)। ऐसे आप प्रकाशस्वरूप हैं।
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।।11.17।।तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तं समन्ताद् दुर्निरीक्ष्यं दीप्तानलार्कद्युतिम् अप्रमेयं त्वां किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च पश्यामि।
।।11.17।।विश्वरूपवन्तं भगवन्तमेव प्रकारान्तरेण प्रपञ्चयति -- किञ्चेति। परिच्छिन्नत्वं व्यावर्तयति -- सर्वत इति। दुर्निरीक्ष्यं पश्यामीत्यधिकारिभेदादविरुद्धम्। पुरतो वा पृष्ठतो वा पार्श्वतो वा नास्य दर्शनं किंतु सर्वत्रेत्याह -- समन्तत इति। दीप्तिमत्त्वं दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- दीप्तेति।
।।11.17।।किरीटिनमिति। अत्र बहव एव पारमेष्ठ्यपदभूताः किरीटादयो ज्ञेयाः? नैकाङ्गत्वात्।
।।11.17।।तमेव विश्वरूपं भगवन्तं प्रकारान्तरेण विशिनष्टि -- किरीटिनमिति। किरीटगदाचक्रधारिणं च सर्वतो दीप्तिमन्तं तेजोराशिं च अतएव दुर्निरीक्षं दिव्येन चक्षुषा विना निरीक्षितुमशक्यम्। सयकारपाठे दुःशब्दोऽपह्नववचनः। अनिरीक्ष्यमिति यावत्। दीप्तयोरनलार्कयोर्द्युतिरिव द्युतिर्यस्य तमप्रमेयमित्थमयमिति परिच्छेत्तुमशक्यं त्वां समन्तात्सर्वतः पश्यामि दिव्येन चक्षुषा। अतोऽधिकारिभेदाद्दुर्निरीक्ष्यं पश्यामीति न विरोधः।
।।11.17।। किंच -- किरीटिनमिति। किरीटिनं मुकुटवन्तं गदिनं गदावन्तं चक्रिणं चक्रवन्तं सर्वतो दीप्तिमन्तं तेजःपुञ्जरूपम्? तथा दुर्निरीक्ष्यं द्रष्टुमशक्यम्। तत्र हेतुःदीप्तयोरनलार्कयोर्द्युतिरिव द्युतिस्तेजो यस्य तम्। अत एवाप्रमेयमेवंभूत इति निश्चेतुमशक्यं त्वां समंततः पश्यामि।
।।11.17।।किरीटिनमिति।किरीटिनम् इत्यादेः पाठक्रममनादृत्य उपलम्भार्थक्रमानुरोधेनान्वयमाह -- तेजोराशिमित्यादिना।तेजोराशिं इति धर्मिस्वरूपनिर्देशः। सर्वतोदीप्तिमन्तं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति [कठो.1।5।15] इत्यादिवत्सर्वव्यापिप्रभायोगिनम्।समन्तात् इति कृत्स्नविग्रहप्रदेशविवक्षयाऽभिहितम्।दीप्तानलार्कद्युतिम् इति दुर्निरीक्षत्वे हेतुः। अत्र द्युतिशब्देन किरणरूपं तेजो विवक्षितम् अतोदीप्तिमन्तम् इत्यनेनापौनरुक्त्यम्। यद्वा पूर्वत्र सर्वव्यापित्वे तात्पर्यम् इह तु दुष्प्रेक्षत्वहेतुभूतातितीव्रत्वे। अप्रमेयं ईदृक्त्वेयत्ताभ्यां परिच्छेत्तुमशक्यम्। एतावता सामान्योपलम्भकथनमित्यभिप्रायेणअप्रमेयं त्वामित्यवच्छिद्योक्तम्। अदृष्टपूर्वरूपदर्शनेऽपि त्वदसाधारणचिह्नैः त्वां प्रत्यभिजानामीत्यभिप्रायेणाहकिरीटिनं गदिनं चक्रिणं,पश्यामि इति। किरीटिनमिति भूषणवर्गोपलक्षणम्। तत्रापि किरीटनिर्देशस्तस्य सर्वेश्वरत्वव्यञ्जकत्वात्। किरीटकरण्डिकाभेदेन द्विधा हि मुकुटजातिः तत्र किरीट उत्कृष्टधार्यः।गदिनं चक्रिणं इत्यायुधवर्गोपलक्षणम्। तत्रापि चक्रादेर्व्यपदेशो भगवदसाधारणत्वेन प्रसिद्धत्वात्।
।।11.17।।किञ्च किरीटिनं मुकुटालङ्कारयुक्तं रसात्मकम्। गदिनं सकलप्राणाधिदैविकधर्मधारिणम्। चक्रिणं तेजोरूपसुदर्शनधारिणम्। चकारेण तद्वत् मोक्षदानार्थमपि चक्रधारित्वं ज्ञापितम्। तेजोराशिं तेजःपुञ्जात्मकम्। सर्वतो दीप्तिमन्तं परित उद्दीपककिरणयुक्तम्। तेजोयुक्तत्वे दीप्तियुक्तत्वे च दृष्टान्तमाह -- दीप्तानलार्कद्युर्ति दीप्तौ यावनलार्कौ तयोर्द्युतिरिव द्युतिर्यस्य तादृशम्। अप्रमेयं प्रमातुमयोग्यं त्वां समन्तात् दुर्निरीक्ष्यं पश्यामि।
।।11.17।।किरीटगदाचक्रधारिणम्। दीप्तिमत्त्वादेव दुर्निरीक्ष्यं द्रष्टुमशक्यम्। समन्तात्सर्वतो ये दीप्ता अनला अर्काश्च तद्वद्द्युतिर्यस्य तं? समन्ताद्दीप्तानर्लाकद्युतिमित्येकं पदम्। अतएवाप्रमेयं द्रष्टुमशक्यपरिच्छेदम्।
।।11.17।।किंच किरीटिनं शिरोभूषणविशेषवन्तम्। गदास्यास्तीति गदी तम्। चक्रमस्यास्तीति चक्री तम्। अतएव समन्ततः सर्वत्र दीप्ताग्निसूर्ययोः कान्तिरिव कान्तिर्यस्य तम्। अतएव दुर्निरीक्ष्यं दुःखेन निरीक्ष्यं किरीटादिमत्त्वेऽप्यप्रेमयमशक्यपरिच्छेदं त्वां पश्यामि।
11.17 किरीटिनम् one with diadem? गदिनम् with club? चक्रिणम् with discus? च and? तेजोराशिम् a mass of radiance? सर्वतः everywhere? दीप्तिमन्तम् shining? पश्यामि (I) see? त्वाम् Thee? दुर्निरीक्ष्यम् very hard to look at? समन्तात् all round? दीप्तानलार्कद्युतिम् blazing like burning fire and sun? अप्रमेयम् immeasurable.Commentary Kiritam is a special ornament for the head? the crown.Arjuna had worshipped the Lord as having a crown? club and discus and the Lord showed him the same form now. He is in all forms and He is beyond all forms as the transcendental Reality. Who can comprehend His GloryTejorasim A mass of splendour that cannot be perceived without the inner divine eye of intuition.Aprameyam Immeasurable? whose limits cannot be fixed.I infer from this vision of Thy power of Yoga that Thu art the Imperishable? etc.
11.17 I see Thee with the diadem, the club and the discus, a mass of radiance shining everywhere, very hard to look at, blazing all round like burning fire and the sun, and immeasurable.
11.17 I see thee with the crown, the sceptre and the discus; a blaze of splendour. Scarce can I gaze on thee, so radiant thou art, glowing like the blazing fire, brilliant as the sun, immeasurable.
11.17 I see You as wearing a diadem, wielding a mace, and holding a disc; a mass of brilliance glowing all around, difficult to look at from all sides, possessed of the radiance of the blazing fire and sun, and immeasurable.
11.17 Pasyami, I see; tvam, You; as kiritinam, wearing a diadem-kirita is a kind of decoration for the head; one having it is kiriti; gadinam, wielding a mace; and also cakrinam, holding a disc; tejorasim, a mass of brilliance; sarvatah diptimantam, glowing all around; durniriksyam, difficult to look at; samantat, from all sides, at every point; as though dipta-analarka-dyutim, possessed of the radiance (dyuti) of the blazing (dipta) fire (anala) and sun (arka); and aprameyam, immeasurable, i.e. beyond limitation. 'For this reason also, i.e., by seeing Your power of Yoga, I infer' that-
11.17. I behold You as having crowns, clubs and discs; as a mass of radiance, shining on all sides, hard to look at and on each side blazing like burning fire and the sun; and as an immeasurable one.
11.17 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.17 I behold you a mass of light shining everywhere, hard to look at, blazing like a burning fire and the sun. You, who are identifiable with Your divine diadem, mace and discus, are indefinable and immeasurable.
11.17 I behold You as a mass of light shining everywhere, with diadem, mace and discus, hard to behold, blazing like a burning fire and the sun, and immeasurable.
।।11.17।। तथा --, शिरके भूषणविशेषका नाम किरीट है? वह जिसके शिरपर हो उसे किरीटी कहते हैं। जिसके पास गदा हो वह गदी है। जिसके हाथमें चक्र हो वह चक्री है। इस प्रकार? मैं आपको किरीटी -- किरीटयुक्त? गदीगदायुक्त? चक्रीचक्रयुक्त? तेजोराशि -- तेजका समूह और सर्वतोदीप्तिमान् -- सब ओरसे दीप्तिशाली देख रहा हूँ। तथा आपको दुर्निरीक्ष्य -- जो कठिनतासे देखा जा सके ऐसा? एवं सब ओरसे प्रज्वलित अग्नि और सूर्यके समान प्रकाशमय और बुद्धि आदिसे जिसका ग्रहण न हो सके? ऐसा अप्रमेयस्वरूप देखता हूं? प्रदीप्त यानी प्रकाशित अग्नि और अर्क यानी सूर्य इन दोनोंके समान जिसका प्रकाश -- तेज हो उसका नाम दीप्तानलार्कद्युति है।,
।।11.17।। --,किरीटिनं किरीटं नाम शिरोभूषणविशेषः तत् यस्य अस्ति सः किरीटी तं किरीटिनम्? तथा गदिनं गदा अस्य विद्यते इति गदी तं गदिनम्? तथा चक्रिणं चक्रम् अस्य अस्तीति चक्री तं चक्रिणं च? तेजोराशिं तेजःपुञ्जं सर्वतोदीप्तिमन्तं सर्वतोदीप्तिः अस्य अस्तीति सर्वतोदीप्तिमान्? तं सर्वतोदीप्तिमन्तं पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं दुःखेन निरीक्ष्यः दुर्निरीक्ष्यः तं दुर्निरीक्ष्यं समन्तात् समन्ततः सर्वत्र दीप्तानलार्कद्युतिम् अनलश्च अर्कश्च अनलार्कौ दीप्तौ अनलार्कौ दीप्तानलार्कौ तयोः दीप्तानलार्कयोः द्युतिरिव द्युतिः तेजः यस्य तव स त्वं दीप्तानलार्कद्युतिः? तं त्वां दीप्तानलार्कद्युतिम् अप्रमेयं न प्रमेयम् अशक्यपरिच्छेदम् इत्येतत्।।इत एव ते योगशक्तिदर्शनात् अनुमिनोमि --,
।।11.17।।नन्वनलार्कद्युतिमित्युक्तत्वात् सहस्रशब्दोऽनन्तवाचीत्याद्युक्तमयुक्तमिति चेत्? न एतदेवाशङ्क्य प्रत्यायनार्थमेवैतदुक्तम्? वस्तुतस्त्वपरिच्छिन्नद्युतिरेव भगवानिति स्वयमेवोक्तत्वादित्याह -- अनलेति। इत्युक्ते जातां द्युतेर्मित त्वशङ्काम्। एतच्च सविशेषणविशेषत्वात् द्युत्या सम्बध्यते।
।।11.17।।अनलार्कद्युतिमित्युक्ते मितत्वशङ्कामपाकरोति -- अप्रमेयमिति।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतोदीप्तिमन्तम्। पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।।11.17।।
কিরীটিনং গদিনং চক্রিণং চ তেজোরাশিং সর্বতোদীপ্তিমন্তম্৷ পশ্যামি ত্বাং দুর্নিরীক্ষ্যং সমন্তা- দ্দীপ্তানলার্কদ্যুতিমপ্রমেযম্৷৷11.17৷৷
কিরীটিনং গদিনং চক্রিণং চ তেজোরাশিং সর্বতোদীপ্তিমন্তম্৷ পশ্যামি ত্বাং দুর্নিরীক্ষ্যং সমন্তা- দ্দীপ্তানলার্কদ্যুতিমপ্রমেযম্৷৷11.17৷৷
કિરીટિનં ગદિનં ચક્રિણં ચ તેજોરાશિં સર્વતોદીપ્તિમન્તમ્। પશ્યામિ ત્વાં દુર્નિરીક્ષ્યં સમન્તા- દ્દીપ્તાનલાર્કદ્યુતિમપ્રમેયમ્।।11.17।।
ਕਿਰੀਟਿਨਂ ਗਦਿਨਂ ਚਕ੍ਰਿਣਂ ਚ ਤੇਜੋਰਾਸ਼ਿਂ ਸਰ੍ਵਤੋਦੀਪ੍ਤਿਮਨ੍ਤਮ੍। ਪਸ਼੍ਯਾਮਿ ਤ੍ਵਾਂ ਦੁਰ੍ਨਿਰੀਕ੍ਸ਼੍ਯਂ ਸਮਨ੍ਤਾ- ਦ੍ਦੀਪ੍ਤਾਨਲਾਰ੍ਕਦ੍ਯੁਤਿਮਪ੍ਰਮੇਯਮ੍।।11.17।।
ಕಿರೀಟಿನಂ ಗದಿನಂ ಚಕ್ರಿಣಂ ಚ ತೇಜೋರಾಶಿಂ ಸರ್ವತೋದೀಪ್ತಿಮನ್ತಮ್. ಪಶ್ಯಾಮಿ ತ್ವಾಂ ದುರ್ನಿರೀಕ್ಷ್ಯಂ ಸಮನ್ತಾ- ದ್ದೀಪ್ತಾನಲಾರ್ಕದ್ಯುತಿಮಪ್ರಮೇಯಮ್৷৷11.17৷৷
കിരീടിനം ഗദിനം ചക്രിണം ച തേജോരാശിം സര്വതോദീപ്തിമന്തമ്. പശ്യാമി ത്വാം ദുര്നിരീക്ഷ്യം സമന്താ- ദ്ദീപ്താനലാര്കദ്യുതിമപ്രമേയമ്৷৷11.17৷৷
କିରୀଟିନଂ ଗଦିନଂ ଚକ୍ରିଣଂ ଚ ତେଜୋରାଶିଂ ସର୍ବତୋଦୀପ୍ତିମନ୍ତମ୍| ପଶ୍ଯାମି ତ୍ବାଂ ଦୁର୍ନିରୀକ୍ଷ୍ଯଂ ସମନ୍ତା- ଦ୍ଦୀପ୍ତାନଲାର୍କଦ୍ଯୁତିମପ୍ରମେଯମ୍||11.17||
kirīṭinaṅ gadinaṅ cakriṇaṅ ca tējōrāśiṅ sarvatōdīptimantam. paśyāmi tvāṅ durnirīkṣyaṅ samantā- ddīptānalārkadyutimapramēyam৷৷11.17৷৷
கிரீடிநஂ கதிநஂ சக்ரிணஂ ச தேஜோராஷிஂ ஸர்வதோதீப்திமந்தம். பஷ்யாமி த்வாஂ துர்நிரீக்ஷ்யஂ ஸமந்தா- த்தீப்தாநலார்கத்யுதிமப்ரமேயம்৷৷11.17৷৷
కిరీటినం గదినం చక్రిణం చ తేజోరాశిం సర్వతోదీప్తిమన్తమ్. పశ్యామి త్వాం దుర్నిరీక్ష్యం సమన్తా- ద్దీప్తానలార్కద్యుతిమప్రమేయమ్৷৷11.17৷৷
11.18
11
18
।।11.18।। आप ही जाननेयोग्य परम अक्षर (अक्षरब्रह्म) हैं, आप ही इस सम्पूर्ण विश्वके परम आश्रय हैं, आप ही सनातनधर्मके रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं -- ऐसा मैं मानता हूँ।
।।11.18।। आप ही जानने योग्य (वेदितव्यम्) परम अक्षर हैं; आप ही इस विश्व के परम आश्रय (निधान) हैं ! आप ही शाश्वत धर्म के रक्षक हैं और आप ही सनातन पुरुष हैं,ऐसा मेरा मत है।।
।।11.18।। सभी बुद्धिमान् पुरुष अपने प्रत्येक अनुभव से किसी निष्कर्ष तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं? जो उनका ज्ञान कहलाता है। अर्जुन को भी ऐसा ही एक अनुभव हो रहा था? जो अपनी सम्पूर्णता में बुद्धि से अग्राह्य और शब्दों से अनिर्वचनीय था। परन्तु उसने जो कुछ देखा? उससे वह कुछ निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करता है। इस अनुभव को समझकर वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि इस विराट्स्वरूप के पीछे जो शक्ति या चैतन्य है? वही अविनाशी परम सत्य है।समुद्र में उत्पत्ति? स्थिति और लय को प्राप्त होने वाली समस्त तरंगांे का प्रभव या स्रोत समुद्र होता है। वही उन तरंगों का निधान है। निधान का अर्थ है जिसमें वस्तुएं निहित हों अर्थात् उनका आश्रय। इसी प्रकार अर्जुन भी इस बुद्धिमत्तापूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचता है कि विराट् पुरुष ही सम्पूर्ण विश्व का निधान अर्थात् अधिष्ठान है। विश्व शब्द से केवल यह दृष्ट भौतिक जगत् ही नहीं समझना चाहिये। वेदान्त के अनुसार जो वस्तु दृष्ट अनुभूत या ज्ञात है? वह विश्व शब्द की परिभाषा में आती है? इस परिभाषा के अनुसार विषय तथा उनके ग्राहक करण इन्द्रिय? मन आदि सब विश्व है और पुरुष उसका निधान है।विकारी वस्तुओं के विकारों अर्थात् परिवर्तनों के लिए एक अविकारी अधिष्ठान की आवश्यकता होती है। यह परिवर्तनशील जगत् सदैव देश और काल की धुन पर नृत्य करता रहता है। परन्तु? घटनाओं की निरंतरता का अनुभव कर उनका एक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक नित्य अपरिवर्तनशील ज्ञाता का होना अत्यावश्यक है। वह ज्ञाता किसी भी प्रकार से स्वयं उन घटनाओं में लिप्त नहीं होता है। ऐसा यह अविकारी चेतन तत्त्व ही वह सत्य आत्मा है? जो इतने विशाल विश्वरूप को धारण कर सकता है। इन विचारों को ध्यान में रखकर अर्जुन यह घोषणा करता है कि वह चेतन तत्त्व? जिसने स्वयं को इस आश्चर्यमय रूप में परिवर्तित कर लिया है? वही एकमेव अविनाशी अपरिवर्तनशील सत्य है? जो इस विकारी जगत् में सर्वत्र व्याप्त है।हिन्दुओं के मत के अनुसार धर्म का रक्षक स्वयं परमेश्वर है? और न कि एक र्मत्य राजा या पुरोहित वर्ग। हिन्दू लोग किसी ऐसे आकस्मिक देवदूत के अनुयायी नहीं हैं? जिसका क्षणिक ऐतिहासिक अस्तित्त्व था और जिसके जीवन का कार्य तत्कालीन पीढ़ी की यथासंभव सेवा करना था। हिन्दुओं के लिए सनातन सत्य पुरुष ही लक्ष्य है? गुरु है और मार्ग भी है। धर्म की रक्षा के लिए हमें विषैली गैस अथवा अणुबम जैसी किसी लौकिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है।आप ही सनातन पुरुष हैं? ऐसा मेरा मत है वेदान्त के एक रूपक के अनुसार स्थूल शरीर को एक राजनगरी के समान माना गया है और जिसके नौ द्वार हैं। प्रत्येक का नियंत्रण तथा रक्षण एकएक अधिष्ठातृ देवता के द्वारा किया जाता है। इस नवद्वार पुरी में निवास करने वाला चैतन्य तत्त्व पुरुष कहलाता है।इस श्लोक के संदर्भ में इसका अभिप्राय यह है कि हमारे जीवन की पहेली का समाधान इस सनातन पुरुष की प्राप्ति में ही है? न कि बाह्य जगत् के विषयों में। यह पुरुष ही विश्व का अधिष्ठान है? जो विश्वरूप को धारण कर सकता है? जिसको अर्जुन विस्मय भरी दृष्टि से देख रहा है।
।।11.18।। व्याख्या--'त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्'-- वेदों, शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों, सन्तोंकी वाणियों और तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंद्वारा जाननेयोग्य जो परमानन्दस्वरूप अक्षरब्रह्म है, जिसको निर्गुण-निराकार कहते हैं, वे आप ही हैं।
।।11.18।।समनन्तरेणाध्यायेन य एवार्थ उक्तस्तमेव प्रत्यक्षीकर्तुमर्जुनः पृच्छति (S?N?K (n) add स एव चायमुद्यमः after पृच्छति)। यो ह्युपदेशक्रमेणार्थोऽवगतः स एव प्रत्यक्षसंविदोपारुह्यमाणः स्फुटीभवति। तदर्थमेवेमे उक्तिप्रत्युक्ती उच्येते -- त्वमक्षरमिति। सात्वतधर्मगोप्तेति। सत् सत्यं क्रियाज्ञानयोरुभयोरपि भेदाप्रतिभासात्मकं तथा,(S??N?K (n) add परमगुरौ महादेवेऽर्पणम् before तथा See Ag. XII? 11 and our note No. 13 thereon) सत्तात्मकं प्रकाशरूपं (S?K (n) प्रकाशशीलम्) तत्त्वं विद्यते येषां ते सात्वताः। तेषां धर्मः अनवरतग्रहणसंन्यासपरत्वात् सृष्टिसंहारविषयः सकलमार्गोत्तीर्णः? तं गोपायत्रे। एतदेवात्राध्याये रहस्यं प्रायशो देवीस्तोत्रविवृतौ मयप्रकाशितम्। तत् सहृदयैः सोपदेशैः स्वयमेवावगम्यते इति किं पुनः पुनः स्फुटतरप्रकाशनवाचालतया।
।।11.18।।उपनिषत्सुद्वे विद्ये वेदितव्ये (मु0 उ0 1।1।4) इत्यादिषु वेदितव्यतया निर्दिष्टं परमम् अक्षरं त्वम् एव। अस्य विश्वस्य परं निधानं विश्वस्य अस्य परमाधारभूतः त्वम् एव? त्वम् अव्ययः व्ययंरहितः? यत्स्वरूपो यद्गुणो यद्विभवश्च त्वं तेन एव रूपेण सर्वदा अवतिष्ठसे? शाश्वतधर्मगोप्ता शाश्वतस्य नित्यस्य वैदिकस्य धर्मस्य एवमादिभिः अवतारैः त्वम् एव गोप्ता। सनातनः त्वं पुरुषो मतो मेवेदामहेतं पुरुषं महान्तम् (तै. आ. 3।12।7)परात्परं पुरुषम् (मु0 उ0 3।2।8) इत्यादिषु उदितः सनातनपुरुषः त्वम् एव इति मे मतो ज्ञातः।,यदुकुलतिलकः त्वम् एवंभूत इदानीं साक्षात्कृतो मया इत्यर्थः।
।।11.18।।सप्रपञ्चे भगवद्रूपे प्रकृते प्रकरणविरुद्धं त्वमक्षरमित्यादिनिरुपाधिकवचनमित्याशङ्क्याह -- इतएवेति। योगशक्तिरैश्वर्यातिशयः। न क्षरतीति निष्प्रपञ्चत्वमुच्यते। परमपुरुषार्थत्वात्परमार्थत्वाच्च ज्ञातव्यत्वम्। यस्मिन्द्यौः पृथिवीत्यादौ प्रपञ्चायतनस्यैव ततो निकृष्टस्य ज्ञातव्यत्वश्रवणात्। कुतो ब्रह्मणो ज्ञातव्यत्वं तत्राह -- त्वमस्येति। निष्प्रपञ्चस्य ब्रह्मणो ज्ञेयत्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। अविनाशित्वात्तवैव ज्ञातव्यत्वादतिरिक्तस्य नाशित्वेन हेयत्वादित्यर्थः। ज्ञानकर्मात्मनो धर्मस्य नित्यत्वं वेदप्रमाणकत्वं धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामीत्युक्तत्वाद् गोप्ता रक्षिता।
।।11.18।।यस्मादेवं तस्मात् -- त्वमक्षरमिति। ब्रह्मविशेषणतया व्याख्येयं ज्ञानिभिर्वेदितव्यं यदुक्तं तत्त्वमसि [छा.उ.6।8।715]सनातनः पुरुषः इति समष्टिभूतस्याप्यव्यक्तः कारणभूतः पुरुषलिङ्गकः। न तु स्त्रीलिङ्गाव्यक्ताप्रकृतिरेवम्भूता सर्वत्र निर्वक्तुं शक्या अव्यक्तस्याक्षरस्य पुरुषत्वेन निर्द्देशात्।
।।11.18।।एवं तवातर्क्यनिरतिशयैश्वर्यदर्शनादनुमिनोमि -- त्वमिति। त्वमेवाक्षरं परमं ब्रह्म वेदितव्यं मुमुक्षुभिर्वेदान्तश्रवणादिना। त्वमेवास्य विश्वस्य परं प्रकृष्टं निधीयतेऽस्मिन्निति निधानमाश्रयः। अतएव त्वमव्ययो नित्यः शाश्वतस्य नित्यवेदप्रतिपाद्यतयाऽस्य धर्मस्य गोप्ता पालयिता। शाश्वतेति संबोधनं वा। तस्मिन्पक्षेऽव्ययो विनाशरहितः। अतएव सनातनश्चिरन्तनः पुरुषो यः परमात्मा स एव त्वं मे मतो विदितोसि।
।।11.18।। यस्मादेवं तवातर्क्यमैश्वर्यं तस्मात् -- त्वमिति। त्वमेवाक्षरं परमं ब्रह्म। कथंभूतम्। वेदितव्यं मुमुक्षुभिर्ज्ञातव्यम्। त्वमेवास्य विश्वस्य परं निधानं निधीयतेऽस्मिन्निति निधानं प्रकृष्टाश्रयः। अतएव त्वमव्ययो नित्यः शाश्वतस्य नित्यस्य धर्मंस्य गोप्ता पालकः सनातनश्चिरंतनः पुरुषो मे मतः संमतोऽसि।
।।11.18।।त्वमक्षरमिति।त्वमक्षरम् इत्यादिना भगवत्प्रभावदर्शनादेवमक्षरवेदितव्याव्ययसनातनपुरुषादिशब्दैर्मुण्डकोपनिषदादिस्मारणमित्यभिप्रायेणाह -- उपनिषत्स्विति।निर्दिष्टमिति -- अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते [मुं.उ.1।9।5] इत्यादिनेति शेषः।विष्णुसंज्ञं सर्वाधारं धाम् इत्याद्यनुसन्धानेनाह -- विश्वस्यास्य परमाधारभूत इति। निधीयतेऽस्मिन्निति निधानम् निधानानामपि निधानत्वात्परं निधानम्।आधारभूतं विश्वस्य इत्याद्युक्तजीवव्यवच्छेदार्थः परशब्दः। भूतमात्राः प्रज्ञामात्रास्वर्पिताः। प्रज्ञामात्राः प्राणेऽर्पिताः [कौ.उ.3।9] इति हि श्रूयते। अनन्याधारत्वाय परमशब्देन व्याक्रिया। अव्ययशब्देन तदव्ययम् [मुं.उ.1।1।6] अनन्तमव्ययं कविम् [म.ना.9।6] इत्यादिकं स्मारितम्। स्वरूपस्य गुणस्य विभवस्य वा यदा कदाचित्प्रच्युतिर्हि व्ययः स सर्वोऽप्यस्य नास्तीत्यविशेषिताव्ययशब्देनोच्यते? दृश्यमानाकारानुवादित्वं शब्दनिर्दिष्टविशेषकत्वादव्ययशब्दस्य जीवादिसाधारणस्वरूपमात्रनित्यतोक्तावतिशयाभावादित्यभिप्रायेणाह -- यत्स्वरूपो यद्गुणो यद्विभवश्चेति। अत्र विभवशब्देन नित्यविभूतिर्विवक्षिता विभूतियुगलविवक्षायां तु द्रव्यस्वरूपस्यान्यूनानतिरिक्तत्वमात्रमिह विवक्षितमिति भाव्यम्। शश्वद्भवः शाश्वतः। शाश्वतत्वे हेतुः नित्यागममूलत्वमित्यभिप्रायेण -- वैदिकस्येत्युक्तम्।नारायणः शाश्वतधर्मगोप्ता इत्यादिष्वपि वैदिक एव विशेषधर्म उच्यत इत्यभिप्रायः। प्रत्यक्षशास्त्राभ्यामवगतोऽयमर्थ उच्यत इत्यभिप्रायेण -- एवमादिभिरवतारैरित्युक्तम्। पुरुषविषयेण श्रुतिद्वयेनोपास्यत्वप्राप्यत्वप्रदर्शनम्। आदिशब्देन येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यम् [मुं.उ.1।2।13] इत्यादिकं क्रोडीकृतम्। सनातनशब्देन सत्यशब्दोपबृंहणम्।मतः इति स्वाभिमानमात्रप्रतीतिव्युदासायाहज्ञात इति। अत्र श्लोकेत्वम् इति प्राचीनमांसचक्षुःप्रतिपन्नाकारानुवादः। शेषेण तु दिव्यचक्षुर्लाभसाक्षात्कृताकारकथनम्। प्रभावमात्रज्ञानस्य प्रागेव सिद्धत्वादित्यभिप्रायेणाहयदुकुलेति। मतशब्दोऽत्र सामान्यरूपःपश्यामि इत्युक्तसाक्षात्काराख्यविशेषपर्यवसित इत्यभिप्रायेण -- इदानीं साक्षात्कृत इत्युक्तम्।
।।11.18।।एवम्भूतस्वरूपदर्शनेन स्वज्ञानार्थं निवेदयति -- त्वमिति। अक्षरं अक्षरस्वरूपं त्वमेव परमं ब्रह्म। त्वं वेदितव्यं भक्तानां ज्ञानिनां ज्ञेयरूपस्त्वमेव। अक्षरत्वेन सर्वोत्पत्तिकारणता निरूपिता। लयस्वरूपमाह -- त्वमस्यविश्वस्य परमुत्कृष्टं मोक्षरूपं निधानं निधीयतेऽस्मिन्निति लयस्थानम्। पालकत्वमाह -- शाश्वतस्य नित्यस्य धर्मस्य गोप्ता पालको रक्षकस्त्वम्। एवमपि न गुणात्मकः? किन्तु अव्ययोऽविनाशी नित्यः। एवं सर्वधर्मानुक्त्वा मुख्यं स्वनिश्चिततामाह -- सनातनः पुरुषः पुरुषोत्तमो मे मम मतः सम्मत इत्यर्थः।
।।11.18।।एवं तव योगैश्वर्यदर्शनात्त्वामेवमवैमीति वदन्नप्रमेयत्वमेव विवृणोति -- त्वमिति। परममक्षरमस्थूलादिलक्षणम्।अक्षरं ब्रह्म परमम् इत्यत्र प्रागुक्तं निष्कलं ब्रह्म तदेव त्वमसि। एतेन सगुणरूपस्य निर्गुणज्ञापकत्वमुक्तम्। शाखाग्रस्येव चन्द्रज्ञापकत्वम्। अतएव वेदितव्यं वेदान्तप्रमाणेन ज्ञातुं योग्यं नतूपासनीयम्। सगुणं ब्रह्मापि त्वमेवेत्याह -- त्वमस्येति। निधानं लयस्थानम्। एतेन कारणत्वमुक्तम्। अव्ययः अमृतः देवत्वात्। शाश्वतस्य वैदिकस्य धर्मस्य गोप्तेत्यनेन कार्यब्रह्मभूतहिरण्यगर्भरूपत्वमुक्तम्।,सनातनश्चिरन्तनोऽनादिपुरुषो जीवात्मा सोऽपि त्वमेव मे मम मतः। एवं विश्वरूपदर्शने जीवब्रह्मणोरैक्यं शाखया चन्द्र इवाधिगम्यत इत्युक्तम्।
।।11.18।।दृष्ट्वा चानुमिनोमि। त्वमक्षरं न क्षरतीत्यक्षरं परमं ब्रह्म श्रुवणादिना मुमुक्षुभिर्वेदितव्यं ज्ञातव्यं त्वमेव। यतोऽस्य विश्वस्य परं प्रकृष्टं निधानं निधीयतेऽस्मिन्निति निधानं परः आश्रयस्त्वमेव। किंच त्वमव्ययो विनाशरहितः पुनश्च शश्वदभवस्य नित्यस्य नित्यवेदबोधितस्य धर्मस्य गोप्ता रक्षकोऽतस्त्वं चिरंतनः पुरुषो ममाभिमतः।
11.18 त्वम् Thou? अक्षरम् imperishable? परमम् the Supreme Being? वेदितव्यम् worthy to be known? त्वम् Thou? अस्य (of) this? विश्वस्य of universe? परम् the great? निधानम् treasurehouse? त्वम् Thou? अव्ययः imperishable? शाश्वतधर्मगोप्ता Protector of the Eternal Dharma? सनातनः ancient? त्वम् Thou? पुरुषः Purusha? मतः thought? मे of me.Commentary VisvasyaNidhaanam Treasurehouse of this universe? also means abode or refuge or the substratum of this universe. It is because of this that all the beings in the universe are preserved and protected. He is the inexhaustibel source to Whom the devotee turns at all times. Deluded indeed are they that ignore this divine treasurehouse and runa fter the shadow of the objects of the senses which do not contain even an iota of pleasure.Veditavyam To be known by the aspirants or seekrs of liberation? through Sravana (hearing of the scriptures)? Manana (reflection) and Nididhyasana (meditation).Avyayah means inexhaustible? unchanging? undying.
11.18 Thou art the Imperishable, the Supreme Being, worthy to be known. Thou art the great treasure-house of this universe; Thou art the imperishable protector of the eternal Dhrama; Thou art the Primal Person, I deem.
11.18 Imperishable art Thou, the Sole One worthy to be known, the priceless Treasure-house of the universe, the immortal Guardian of the Life Eternal, the Spirit Everlasting.
11.18 You are the Immutable, the supreme One to be known; You are the most perfect repository of this Universe. You are the Imperishable, the Protector of the ever-existing religion; You are the eternal Person. This is my belief.
11.18 Tvam, You; are the aksaram, Immutable; the paramam, supreme One, Brahman; veditavyam, to be known-by those aspiring for Liberation. You are the param, most perfect; nidhanam, repository-where things are deposited, i.e. the ultimate resort; asya visvasya, of this Universe, of the entire creation. Further. You are the avyayah, Imperishable-there is no decay in You; the sasvata-dharma-gopta, Protector (gopta) of the ever-existing (sasvata) religion (dharma). You are the sanatanah, eternal; transcendental purusah, Person. This is me, my; matah, belief-what is meant by me. Moreover,
11.18. You are the imperishable, the Supreme Being to be known; You are the ultimate place of rest for this universe; You are changeless and the guardian of the pious act of the Satvatas; You are the everlasting Soul, I believe.
11.18 Tvam aksaram etc. Guardian of the pious acts of the Satvatas. Satvatas are the same as the Satvatas i.e. those who are established in the Truth that does not take cognizance of any difference between the Action (11.Spanda) and the Consciousness; the Truth which is nothing but Existentiality and is in the form of Awarenes. Their pious act is that act [of meditation] of theirs which - on account of its being continously engaged in the process of undertaking and rejecting [things] - consists of the act of emanation and absorption, and is the most superior of all the paths [leading to salvation]. The Lord protects that pious act. This is the secret in this chapter and it has been made almost clear by me (11.Ag.) in my (11.Ag.'s) Vivrti (11.Commentary) on the Devistotra (11.Goddess-Hymn). That is self-evident to the learned readers, with critical accuman, and initiation. Hence, why to take recourse to the verbiage of explaining again and again what is already known very clearly.
11.18 You alone are the Supreme 'Imperishable Person' indicated as that which ought to be realised in such Upanisadic passages as: 'Two sciences are to be known' (Mun. U., 1.1.4). You alone are the 'Supreme Substratum' of the universe, i.e., supreme support of this universe. You are 'immutable', namely, not liable to mutation. Whatever might be your attributes and divine manifestations, You remain unchanged in Your form. You alone are the guardian of 'the eternal law' - You who protect the eternal Dharma of the Veda by incarnations like this. I know you are the everlasting Person. I know You are the eternal Person, described in such passages as, 'I know this great Purusa' (Tai. A., 3.12.7) and 'Person who is higher than the high' (Mun. U., 3.2.8). You, who were till now known to me as the most distinguished of the race of Yadu, have been realised by me now through direct perception as of this nature, i.e., of a nature unknown to me before. Such is the meaning.
11.18 You are the Imperishable, Supreme One to be realised. You are the Supreme Substratum of this universe. You are immutable, the guardian of the eternal law, I know You are the Supreme Person who is everlasting.
।।11.18।।इसीलिये अर्थात् आपकी योगशक्तिको देखकर ही मैं अनुमान करता हूँ --, आप मुमुक्षु पुरुषोंद्वारा जाननेयोग्य परमअक्षर अर्थात् जिसका कभी नाश न हो ऐसे परमब्रह्म परमात्मा हैं। आप ही इस समस्त जगत्के परम उत्तम निधान हैं -- जिसमें कोई वस्तु रक्खी जाय उसे निधान कहते हैं? सो आप इस संसारके परम आश्रय हैं। इसके सिवा आप अविनाशी हैं अर्थात् आपका कभी नाश नहीं होता? इसलिये आप नाशरहित हैं और सनातनधर्मके रक्षक हैं अर्थात् जो सदासे है? ऐसे नित्यधर्मके आप रक्षक हैं और आप ही सनातन परमपुरुष हैं -- यह मेरा मत है।
।।11.18।। --,त्वम् अक्षरं न क्षरतीति? परमं ब्रह्म वेदितव्यं ज्ञातव्यं मुमुक्षुभिः। त्वम् अस्य विश्वस्य समस्तस्य जगतः परं प्रकृष्टं निधानं निधीयते अस्मिन्निति निधानं परः आश्रयः इत्यर्थः। किञ्च? त्वम् अव्ययः न तव व्ययो विद्यते इति अव्ययः? शाश्वतधर्मगोप्ता शश्वद्भवः शाश्वतः नित्यः धर्मः तस्य गोप्ता शाश्वतधर्मगोप्ता। सनातनः चिरंतनः त्वं पुरुषः परमः मतः अभिप्रेतः मे मम।।किञ्च --,
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त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।।11.18।।
ত্বমক্ষরং পরমং বেদিতব্যং ত্বমস্য বিশ্বস্য পরং নিধানম্৷ ত্বমব্যযঃ শাশ্বতধর্মগোপ্তা সনাতনস্ত্বং পুরুষো মতো মে৷৷11.18৷৷
ত্বমক্ষরং পরমং বেদিতব্যং ত্বমস্য বিশ্বস্য পরং নিধানম্৷ ত্বমব্যযঃ শাশ্বতধর্মগোপ্তা সনাতনস্ত্বং পুরুষো মতো মে৷৷11.18৷৷
ત્વમક્ષરં પરમં વેદિતવ્યં ત્વમસ્ય વિશ્વસ્ય પરં નિધાનમ્। ત્વમવ્યયઃ શાશ્વતધર્મગોપ્તા સનાતનસ્ત્વં પુરુષો મતો મે।।11.18।।
ਤ੍ਵਮਕ੍ਸ਼ਰਂ ਪਰਮਂ ਵੇਦਿਤਵ੍ਯਂ ਤ੍ਵਮਸ੍ਯ ਵਿਸ਼੍ਵਸ੍ਯ ਪਰਂ ਨਿਧਾਨਮ੍। ਤ੍ਵਮਵ੍ਯਯ ਸ਼ਾਸ਼੍ਵਤਧਰ੍ਮਗੋਪ੍ਤਾ ਸਨਾਤਨਸ੍ਤ੍ਵਂ ਪੁਰੁਸ਼ੋ ਮਤੋ ਮੇ।।11.18।।
ತ್ವಮಕ್ಷರಂ ಪರಮಂ ವೇದಿತವ್ಯಂ ತ್ವಮಸ್ಯ ವಿಶ್ವಸ್ಯ ಪರಂ ನಿಧಾನಮ್. ತ್ವಮವ್ಯಯಃ ಶಾಶ್ವತಧರ್ಮಗೋಪ್ತಾ ಸನಾತನಸ್ತ್ವಂ ಪುರುಷೋ ಮತೋ ಮೇ৷৷11.18৷৷
ത്വമക്ഷരം പരമം വേദിതവ്യം ത്വമസ്യ വിശ്വസ്യ പരം നിധാനമ്. ത്വമവ്യയഃ ശാശ്വതധര്മഗോപ്താ സനാതനസ്ത്വം പുരുഷോ മതോ മേ৷৷11.18৷৷
ତ୍ବମକ୍ଷରଂ ପରମଂ ବେଦିତବ୍ଯଂ ତ୍ବମସ୍ଯ ବିଶ୍ବସ୍ଯ ପରଂ ନିଧାନମ୍| ତ୍ବମବ୍ଯଯଃ ଶାଶ୍ବତଧର୍ମଗୋପ୍ତା ସନାତନସ୍ତ୍ବଂ ପୁରୁଷୋ ମତୋ ମେ||11.18||
tvamakṣaraṅ paramaṅ vēditavyaṅ tvamasya viśvasya paraṅ nidhānam. tvamavyayaḥ śāśvatadharmagōptā sanātanastvaṅ puruṣō matō mē৷৷11.18৷৷
த்வமக்ஷரஂ பரமஂ வேதிதவ்யஂ த்வமஸ்ய விஷ்வஸ்ய பரஂ நிதாநம். த்வமவ்யயஃ ஷாஷ்வததர்மகோப்தா ஸநாதநஸ்த்வஂ புருஷோ மதோ மே৷৷11.18৷৷
త్వమక్షరం పరమం వేదితవ్యం త్వమస్య విశ్వస్య పరం నిధానమ్. త్వమవ్యయః శాశ్వతధర్మగోప్తా సనాతనస్త్వం పురుషో మతో మే৷৷11.18৷৷
11.19
11
19
।।11.19।। आपको मैं आदि, मध्य और अन्तसे रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओंवाले, चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोवाले, प्रज्वलित अग्निके समान मुखोंवाले और अपने तेजसे संसारको संतप्त करते हुए देख रहा हूँ।
।।11.19।। मैं आपको आदि, अन्त और मध्य से रहित तथा अनंत सार्मथ्य से युक्त और अनंत बाहुओं वाला तथा चन्द्रसूर्यरूपी नेत्रों वाला और दीप्त अग्निरूपी मुख वाला तथा अपने तेज से इस विश्व को तपाते हुए देखता हूँ।।
।।11.19।। अर्जुन की सूक्ष्म दृष्टि ने जैसा देखा और बुद्धि ने जैसा समझा? उसे वह जगत् की वस्तुओं की भाषा में वर्णन करने का प्रयत्न करता है। मैं आपको आदि? अन्त और मध्य से रहित? अनन्त सार्मथ्य से युक्त? अनन्त बाहुओं वाला देखता हूँ। व्यास के प्रभावशाली काव्य द्वारा चित्रित यह शब्दचित्र ऐसा आभास निर्माण करता है कि मानों इस कविता की विषयवस्तु बाह्यजगत् की कोई दृश्य वस्तु हैं। अनेक चित्रकार उसे कागज पर रंगों के द्वारा चित्रित करना चाहते हैं। परन्तु वेदान्त के बुद्धिमान् विद्यार्थी को उनका अज्ञान स्पष्ट दिखाई देता है। आदि? मध्य और अन्त रहित ऐसी अनन्त वस्तु कभी सीमित फलक वाले चित्र की मर्यादा में व्यक्त नहीं की जा सकती। परन्तु? अनन्तबाहु इस शब्द को सुनकर प्रेरित हुए चित्रकार उसे तत्काल चित्रित करने का प्रयत्न करते हैं। वस्तुत? कवि के इन्द्रियातीत अनुभव की दृष्टि के समक्ष जगत् की सभी दृश्यावलियों से सर्वथा भिन्न और अनुपम जो विराट् दृश्य उपस्थित है? वास्तव में उसे केवल गम्भीर अध्ययनकर्ता सूक्ष्मदर्शी विद्यार्थी ही समझ,सकते हैं।यहाँ अनन्तबाहु का अर्थ केवल यह है कि परमात्मा ही वह चेतन तत्त्व है? जो समस्त बाहुओं को कार्य करने और सफलता पाने की आवश्यक सार्मथ्य प्रदान करता है।जो प्रकाश तत्त्व बाह्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है वही हमारे नेत्रों पर भी अनुग्रह करता हुआ उन्हें वस्तु के दर्शन करने की योग्यता प्रदान करता है। यहाँ किया गया वर्णन समष्टि की दृष्टि से है? क्योंकि जगत् में हम सूर्य या चन्द्रमा के प्रकाश में वस्तुओं को देखते हैं? उन्हें यहाँ वेदान्त की शास्त्रीय भाषा में विराटपुरुष के नेत्र कहा गया है। हुताशवक्त्रम् (दीप्त अग्निरूपी मुखवाला) हुताश का अर्थ है अग्नि। वाणी का अधिष्ठाता देवता अग्नि है। इसीलिए? सभी भाषाओं में इस प्रकार के वाक्प्रचार प्रसिद्ध हैं कि उनमें गरमागरम बहस हुई? उसके उस वाक्य ने चिनगारी का काम किया इत्यादि। मुख ही भक्षण का तथा वाणी का स्थान होने से यहाँ अग्नि को विराटपुरुष का मुख कहा गया है।अपने तेज से विश्व को तपाते हुए आत्मा चैतन्य स्वरूप ही हो सकता है? क्योंकि प्राणीमात्र के समस्त अनुभवों को सर्वदा चैतन्य ही प्रकाशित करता है। यह चैतन्य न केवल वस्तुओं को प्रकाशित करता है? वरन् सूर्य के द्वारा समस्त विश्व के जीवन के लिए आवश्यक उष्णता भी प्रदान करता है। इस कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि बाह्य जगत् का निरीक्षण और अध्ययन करने के पश्चात् ही हिन्दू ऋषियों ने अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी बनाया था। ऐसा प्रतीत होता है कि वे यह जानते थे कि किसी एक विशेष तापमान पर ही पृथ्वी पर जीवन संभव है उससे न्यून या अधिक तापमान होने पर जीवन लुप्त हो जायेगा।सत्य का यह प्रकाश उसका स्वस्वरूप है? और न कि किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया हुआ है। स्वतेजसा शब्द से यह बात स्पष्ट की गई है। उसी से जीवन धारण किया हुआ है।अर्जुन आगे कहता है
।।11.19।। व्याख्या--'अनादिमध्यान्तम्'--आप आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं अर्थात् आपकी कोई सीमा नहीं है।सोलहवें श्लोकमें भी अर्जुनने कहा है कि मैं आपके आदि, मध्य और अन्तको नहीं देखता हूँ। वहाँ तो,देशकृत अनन्तताका वर्णन हुआ है और यहाँ कालकृत अनन्तताका वर्णन हुआ है। तात्पर्य है कि 'देशकृत' 'कालकृत' वस्तुकृत आदि किसी तरहसे भी आपकी सीमा नहीं है। सम्पूर्ण देश, काल आदि आपके अन्तर्गत हैं, फिर आप देश, काल आदिके अन्तर्गत कैसे आ सकते हैं? अर्थात् देश, काल आदि किसीके भी आधारपर आपको मापा नहीं जा सकता।
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।।11.19।।अनादिमध्यान्तम् आदिमध्यान्तरहितम्? अनन्तवीर्यम् अनवधिकातिशयवीर्यम्? वीर्यशब्दः प्रदर्शनार्थः? अनवधिकातिशयज्ञानबलैश्वर्यशक्तितेजसां निधिम् इत्यर्थः। अनन्तबाहुम् असंख्येयबाहुम्? सोऽपि प्रदर्शनार्थः? अनन्तबाहूदरपादवक्त्रादिकम्? शशिसूर्यनेत्रं शशिवत् सूर्यवत् च प्रसादप्रतापयुक्तसर्वनेत्रम्? देवादीन् अनुकूलान् नमस्कारादि कुर्वाणान् प्रति प्रसादः? तद्विपरीतान् असुरराक्षसादीन् प्रति प्रतापःरक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः।। (गीता 11।36) इति हि वक्ष्यते।दीप्तहुताशवक्त्रं प्रदीप्तकालानलवत् संहारानुगुणवक्त्रम्? स्वतेजसा विश्वम् इदं तपन्तम् -- तेजः पराभिभवनसामर्थ्यम्? स्वकीयेन तेजसा विश्वम् इदं तपन्तं त्वां पश्यामि। एवंभूतं सर्वस्य स्रष्टारम्? सर्वस्य आधारभूतं सर्वस्य प्रशासितारम्? सर्वस्य संहर्तारम्? ज्ञानाद्यपरिमितगुणसागरम्? आदिमध्यान्तरहितम् एवंभूतदिव्यदेहं त्वां यथोपदेशं साक्षात्करोमि इत्यर्थः।एकस्मिन् दिव्यदेहे अनेकोदरादिकं कथम्इत्थम् उपपद्यतेएकस्मात् कटिप्रदेशाद् अनन्तपरिमाणाद् ऊर्ध्वम् उद्गता यथोदितदिव्योदरादयः? अधश्च यथोदितदिव्यपादाः? तत्र एकस्मिन् मुखे नेत्रद्वयम् इति च न विरोधः।एवंभूतं त्वां दृष्ट्वा देवादयः अहं च प्रव्यथिता भवामि इति आह --
।।11.19।।भगवतो विश्वरूपाख्यं रूपमेव पुनर्विवृणोति -- किञ्चेति। हुतमश्नातीति हुताशो वह्निः।
।।11.19।।किञ्च अनादिमध्यान्तमिति। कालरूपमेतदाधिदैविकं तदाह -- शशिसूर्यनेत्रमिति। कालाभिमानिनौ शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य। तथा सायङ्कालाभिमानी दीप्तो हुताशश्च वक्त्रेषु यस्य तं त्वां पश्यामि।
।।11.19।।किंच -- अनादीति। आदिरुत्पत्तिर्मध्यं स्थितिरन्तो विनाशस्तद्रहितं अनादिमध्यान्तं। अनन्तं वीर्यं प्रभावो यस्य तं। अनन्ता बाहवो यस्य तं। उपलक्षणमेतन्मुखादीनामपि। शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य तं। दीप्तो हुताशो वक्त्रं यस्य? वक्त्रेषु यस्येति वा तं। स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तं संतापयन्तं त्वा त्वां पश्यामि।
।।11.19।। किंच -- अनादीति। अनादिमध्यान्तमुत्पत्तिस्थितिप्रलयरहितम्। अनन्तं वीर्यं प्रभावो यस्य तम्। अनन्तबाहुं अनन्ता बाहवो यस्य तम्। शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य तम् तादृशं त्वां पश्यामि। तथा दीप्तो हुताशोऽग्निर्वक्त्रेषु यस्य तम् स्वतेजसा इदं विश्वं तपन्तं संतापयन्तं पश्यामि।
।।11.19।।अनादिमध्यान्तम् इति नञस्तदन्यपरत्वेसर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन [10।32]अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च [10।20] इत्यादिभिर्विरुध्येत अतो निषेधपरतामाहआदिमध्यान्तरहितमिति।नान्तं न मध्यम् [11।16] इत्यादिकं स्वरूपविषयम् इदं तु विग्रहविषयमित्यपौनरुक्त्यम्। यद्वा उत्पत्तिस्थितिनाशरूपविकारनिषेधः क्वचित् अन्यत्र तत्तद्धेतुनिषेध इत्यादिरूपेण विभजनीयम्। अथवाऽत्र कालाभिमानिरूपदर्शनात्।अनादिर्भगवान्कालः [वि.पु.1।2।26] इत्यादिवत् कालाख्यविभूतिनित्यत्वविवक्षा। वीर्यस्यानन्त्यं नाम तारतम्यप्रयुक्तावच्छेदनिवृत्तिरित्यभिप्रायेणाह -- अनवधिकातिशयवीर्यमिति। निर्दिष्टमात्रपरत्वव्युदासाय सन्नियोगशिष्टानामन्यतरोक्तावितरदपि सिद्ध्यतीत्यभिप्रायेणाहवीर्यशब्दः प्रदर्शनार्थ इति।अनेकबाहुम् [11।16] इति बाहुनानात्वमात्रं पूर्वमुक्तम्अनन्तबाहुम् इति तु सङ्ख्यानिवृत्तिरुच्यत इत्यपौनरुक्त्यमित्यभिप्रायेणाहअसङ्ख्येयबाहुमिति।अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् [11।16] इति पूर्वसमादिष्टसमुदाये कस्यचिदसङ्ख्येयत्वविधानमितरेषामपि प्रदर्शनार्थमित्यभिप्रायेणाहसोऽपीति।शशिसूर्यनेत्रम् इत्यत्र चन्द्रसूर्ययोरेव न नेत्रत्वरूपणम्? रूपणप्रकरणाद्यभावात्? अस्य च रूपस्यानन्तनयनविशिष्टत्वात् अतः साधर्म्यमेव विवक्षितम्। तत्रापि केषाञ्चिच्छशितुल्यत्वं केषाञ्चित्सूर्यतुल्यत्वमिति विभाजकाभावात्सर्वेषामुभयतुल्यत्वं विवक्षितमित्याहशशिवदिति। युगपत्प्रसादप्रतापयोर्विरुद्धयोर्विषयं व्यवस्थापयतिदेवादीनिति। तदेव वक्ष्यमाणेन स्थापयतिरक्षांसीति।दीप्तानलार्कद्युतिम् [11।16] इति प्रागभिधानेऽपि पुनःदीप्तहुताशवक्त्रम् इति विशेषतोऽभिधानं वक्त्रसाध्यजगद्ग्रसनाख्यविशेषतात्पर्येणेत्यभिप्रायेणाहप्रदीप्तकालानलवदिति।संहारानुगुणेति। साधर्म्यकथनम्। अत्रहुताश एव वक्त्रं इति परोक्तनिरसनायकालानलसन्निभानि [11।25] इति वक्ष्यमाणानुसन्धानेनकालानलवदित्युक्तम्। पावकश्च वसुगणेऽन्तर्भूतः पृथगुक्तः।विश्वमिदं तपन्तम् इति वचनादत्र तेजश्शब्देन अन्यानपेक्षत्वं न विवक्षितम्? प्रकृतानुपयोगात् अतस्तदुचितमर्थमाहतेजस इति। कालः पचति भूतानि इत्यादेः इदं निदानसूचनमित्यभिप्रायेणाहस्वकीयेनेति। पूर्वं श्रुतमनन्तरं दिव्यचक्षुषा साक्षात्कृतं सर्वमाकारं सङ्कलय्याहएवमिति। एकस्य देहस्य अनेकबाहुमुखादियोगः श्रुतपूर्वो दृष्टपूर्वश्च उदरादेरनेकत्वं तु कथं इति चोदयतिएकस्मिन्निति। परिहरतिइत्थमिति। श्रुतानुरूपं सर्वमुपपादनीयमिति भावः।एकस्मादित्यादि। अयमभिप्रायः -- अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् इत्यवयवानेकत्वमात्रवचनाद्रूपमेकमिति गम्यते एकविग्रहविषयपूर्वापरपरामर्शाच्च। नचपश्य मे पार्थ रूपाणि [11।5] इत्युपक्रमादिहाष्यनेकविग्रहविषयमनेकोदरत्वादिकमिति वाच्यम्? तथा सतिअनेकविग्रहम् इत्येतावतो वक्तव्यत्वात्। नह्यनेकेषु शरीरेष्वनेकबाहूदरत्वादिकं विशेषतो वक्तव्यम् न च भगवच्छास्त्रे अनेकोदरादिमद्रूपं न दृष्टमिति वाच्यं? तस्य शास्त्रस्येदानीं निश्शेषप्रवृत्त्यभावात् नारदादिदृष्टरूपाण्यपि तत्रेदानीं न पश्यामः इतोऽन्यथापि श्रीविश्वरूपं नारदेन दृष्टम् ततोऽन्यदेव धृतराष्ट्रेण दृष्टम् अतो यथा संहिताभेदेन वराहनारसिंहादेरन्यथान्यथासन्निवेशवर्णभुजादिवैचित्र्यं? तद्वच्छ्रीविश्वरूपविग्रहेऽपि वचनबलादेव तथातथा वैचित्र्यमङ्गीकुर्मः अतः शाखामूलनानात्वेऽपि काण्डैक्याद्वृक्षैक्यवद्बाहूदरादिभेदेऽपि भेदोक्तिरहितकटिप्रदेशैक्यादिह रूपैक्यम् -- इति। एतच्च सर्वं यथोदितशब्देन सूचितम्।एकस्मिन्मुखे नेत्रद्वयमिति। एकैकस्मिन्नित्यर्थः।
।।11.19।।एवं पुरुषोत्तममुक्त्वा दृष्टं विश्वरूपमाह -- अनादीत्यादिना। अनादिमध्यान्तं न विद्यते आदिर्मध्यं अन्तश्च यस्य उत्पत्तिस्थितिप्रलयरहितम्? -- अनन्तं वीर्यं पराक्रमो यस्य तम्। अनन्तबाहुं अनन्ताः क्रियाशक्तयो यस्य? शशिसूर्यनेत्रं शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य? दीप्तहुताशवक्त्रं दीप्तो धूमादिरहितो हुताशः अग्निर्वक्त्रेषु यस्य तम्? स्वतेजसा इदं परिदृश्यमानं विश्वं तपन्तं तेजोयुक्तं त्वां पश्यामि।
।।11.19।।एतदेवाह -- अनादीति। देशतः कालतश्चादिमध्यान्तहीनत्वादनादिमध्यान्तम्। दीप्तो हुताशो वक्त्रे यस्येति भास्वरदन्तत्वं व्यज्यते। स्वतेजसा चैतन्यज्योतिषा इदं विश्वं विश्वरूपं तपन्तं प्रकाशयन्तम्। अनादित्वादिसर्वविशेषणविशिष्टं विश्वं तपिकर्मीभूतं तापयन्तं त्वां परज्योतीरूपं पश्यामि जानामि। चित्रपटस्थानीयं विश्वरूपं सकलकारकात्मकधीवासनोपेतं येन ज्योतिषा प्रकाशते तदेव त्वमसीति जानामीति भावः।
।।11.19।।भगवतः परमरुपुषत्वं प्रकारान्तरेण निरुपयति -- अनादीति। आदिमध्यान्तवर्जितं अनन्ववीर्यं अपरिमितपराक्रमं यतोऽनन्ता बाहवो यस्य चन्द्रसूर्यौ नेत्रे दीप्तश्चासौ वह्निश्च वक्रं यस्य तम्। अतः स्वतेजसा इदं विश्वं संतापयन्तं त्वां पश्यामि।
11.19 अनादिमध्यान्तम् without beginning? middle or end? अनन्तवीर्यम् infinite in power? अनन्तबाहुम् of endless arms? शशिसूर्यनेत्रम् Thy eyes as the sun and the moon? पश्यामि (I) see? त्वाम् Thee? दीप्तहुताशवक्त्रम् Thy mouth as the burning fire? स्वतेजसा with Thy radiance? विश्वम् the universe? इदम् this? तपन्तम् heating.Commentary Anantabahu Having endless arms. This denotes that the multiplicity of His limbs are endless.
11.19 I see Thee without beginning, middle or end, infinite in power, of endless arms, the sun and the moon being Thy eyes, the burning fire Thy mouth, heating the whole universe with Thy radiance.
11.19 Without beginning, without middle and without end, infinite in power, Thine arms all-embracing, the sun and moon Thine eyes, Thy face beaming with the fire of sacrifice, flooding the whole universe with light.
11.19 I see You as without beginning, middle and end, possessed of infinite valour, having innumerable arms, having the sun and the moon as eyes, having a mouth like a blazing fire, and heating up this Universe by Your own brilliance.
11.19 Pasyami, I see; tvam, You; as anadi-madhya-antam, without beginning, middle and end; ananta-viryam, possessed of infinite valour; and also ananta-bahum, having innumerable arms; sasi-surya-netram, having the sun and the moon as the eyes; dipta-hutasavakram, having a mouth like a blazing fire; tapantam, heating up; idam, this; visvam, Universe; sva-tejasa, by Your own birlliance.
11.19. I observe You having to beginning, no middle and no end; having infinite creative power, and infinite arms; as havig the moon and the sun for Your eyes, and the blazing fire for Your mouth; [and] as acorching this universe with Your rediance.
11.19 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.19 I behold You as without beginning, middle and end. Your might is infinite, of unsurpassed excellence. Here the term 'might' is used for illustration. The meaning is that You are the sole repository of knowledge, strength, sovereignty, valour, power and glory, one whose excellence cannot be surpassed. Your arms are infinite, i.e., they are countless. This is also for illustration, implying that You have an infinite number of arms, stomachs, feet, mouths etc. The sun and moon are Your eyes; all Your eyes are like the moon and the sun, beaming with grace and power. The grace is directed towards the devotees like the gods who offer salutations etc., and power is directed against Asuras, Raksasas etc., who are opposed to these. For it will be said later on: 'The Raksasas flee on all sides in fear, and all the hosts of Siddhas bow down to You' (11.36). Your mouth is emitting fire, namely, the fire appropriate for destroying all things, as the Fire of Time consumes the world at the time of dissolution. With Your own radiance You are warming the universe. By radiance (Tejas) is meant the poweer to vanish others. I behold You warming (or governing) the universe with Your own radiance. The meaning is this: 'I directly realise You' as taught before as the Creator of all, as the supporter of everything, as the sovereign over everything, as the destroyer of everything, as the ocean of knowledge and other infinite attributes, as without beginning, middle and end, and as possessing a divine body of this nature. How, in one divine body, can there be many stomachs etc.? This is possible in the following way: From a hip of infinite extent, stomachs etc., as described, branc off upwards. The divine feet etc., branch off downwards. So there is no contradiction in attributing a pair of eyes for each face. 'On perceiving You to be thus, the gods etc., and myself, have become frightened - says Arjuna in the following words:
11.19 I behold You as without beginning, middle and end. Your might is infinite. You are endowed with an endless number of arms. The sun and moon are Your eyes. Your mouth is emitting burning fire. With Your own radiance You are warning the whole universe.
।।11.19।। तथा --, ( मैं ) आपको आदि? मध्य और अन्तसे रहित अर्थात् जिसका आदि? मध्य और अन्त नहीं है? ऐसे रूपवाला और अनन्तवीर्य -- अनन्त सामर्थ्यसे युक्त देखता हूँ? आपकी सामर्थ्यका अन्त नहीं है? इसलिये आप अनन्तवीर्य हैं तथा मैं आपको अनन्त भुजाओंसे युक्त? चन्द्रमा और सूर्यरूप नेत्रोंवाला? प्रज्वलित अग्निरूप मुखोंवाला और अपने तेजसे इस जगत्को तपायमान करते हुए देखता हूँ अर्थात् जिस रूपके अनन्त हाथ हों? चन्द्रमा और सूर्य ही जिसके नेत्र हों? प्रज्वलित अग्नि ही जिसका मुख हो और जो अपने तेजसे इस सारे विश्वको तपायमान करता हो? ऐसा रूप धारण किये आपको देख रहा हूँ।
।।11.19।। --,अनादिमध्यान्तम् आदिश्च मध्यं च अन्तश्च न विद्यते यस्य सः अयम् अनादिमध्यान्तः तं त्वां अनादिमध्यान्तम्? अनन्तवीर्यं न तव वीर्यस्य अन्तः अस्ति इति अनन्तवीर्यः तं त्वाम् अनन्तवीर्यम्? तथा अनन्तबाहुम् अनन्ताः बाहवः यस्य तव सः त्वम्? अनन्तबाहुः तं त्वाम् अनन्तबाहुम्? शशिसूर्यनेत्रं शशिसूर्यौ नेत्रे यस्य तव सः त्वं शशिसूर्यनेत्रः तं त्वां शशिसूर्यनेत्रं चन्द्रादित्यनयनम्? पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं दीप्तश्च असौ हुताशश्च वक्त्रं यस्य तव सः त्वं दीप्तहुताशवक्त्रः तं त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्? स्वतेजसा विश्वम् इदं समस्तं तपन्तम्।।
।।11.19।।शशिसूर्यनेत्रं इत्युक्तत्वात् कथं विश्वरूपशब्दस्यान्यथाव्याख्यानं इत्यत आह -- शशीति। इत्यादिवद्व्याख्येयम्। जन्यजनकभावेनाश्रयाश्रयिभावेन वाऽभेदोक्तिरित्यर्थः। कुत एतदित्यत आह -- तदङ्गजा इति। तदङ्गेत्यविभक्तिको निर्देशः सम्बुद्धिर्वा। अभेदे बाधकं चाह -- चन्द्रमा इति। चक्षोश्चक्षुषः। नन्वत्र चन्द्रमसो मनोजातत्वं तदाश्रयत्वं चोच्यते? गीतायां तु नेत्राश्रयत्वादि? तथाऽन्यत्रदंष्ट्राऽर्यमेन्दू इति? तत्कुतो न विरोधः इत्यत आह -- बह्विति।
।।11.19।।शशिसूर्यनेत्रं इत्यपिअहं क्रतुः [9।16] इत्यादिवत्। तदङ्गजाः सर्वसुरादयोऽपि तस्मात्तदङ्गेत्यृषिभिः स्तुतास्ते इत्यृग्वेदखिलेषु। चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत [ऋक्सं.8।4।19।3यजुस्सं.31।12] इति च। बहुरूपत्वाद्बह्वाश्रयत्वं तेषां युक्तम्।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्। पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम् स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11.19।।
অনাদিমধ্যান্তমনন্তবীর্য- মনন্তবাহুং শশিসূর্যনেত্রম্৷ পশ্যামি ত্বাং দীপ্তহুতাশবক্ত্রম্ স্বতেজসা বিশ্বমিদং তপন্তম্৷৷11.19৷৷
অনাদিমধ্যান্তমনন্তবীর্য- মনন্তবাহুং শশিসূর্যনেত্রম্৷ পশ্যামি ত্বাং দীপ্তহুতাশবক্ত্রম্ স্বতেজসা বিশ্বমিদং তপন্তম্৷৷11.19৷৷
અનાદિમધ્યાન્તમનન્તવીર્ય- મનન્તબાહું શશિસૂર્યનેત્રમ્। પશ્યામિ ત્વાં દીપ્તહુતાશવક્ત્રમ્ સ્વતેજસા વિશ્વમિદં તપન્તમ્।।11.19।।
ਅਨਾਦਿਮਧ੍ਯਾਨ੍ਤਮਨਨ੍ਤਵੀਰ੍ਯ- ਮਨਨ੍ਤਬਾਹੁਂ ਸ਼ਸ਼ਿਸੂਰ੍ਯਨੇਤ੍ਰਮ੍। ਪਸ਼੍ਯਾਮਿ ਤ੍ਵਾਂ ਦੀਪ੍ਤਹੁਤਾਸ਼ਵਕ੍ਤ੍ਰਮ੍ ਸ੍ਵਤੇਜਸਾ ਵਿਸ਼੍ਵਮਿਦਂ ਤਪਨ੍ਤਮ੍।।11.19।।
ಅನಾದಿಮಧ್ಯಾನ್ತಮನನ್ತವೀರ್ಯ- ಮನನ್ತಬಾಹುಂ ಶಶಿಸೂರ್ಯನೇತ್ರಮ್. ಪಶ್ಯಾಮಿ ತ್ವಾಂ ದೀಪ್ತಹುತಾಶವಕ್ತ್ರಮ್ ಸ್ವತೇಜಸಾ ವಿಶ್ವಮಿದಂ ತಪನ್ತಮ್৷৷11.19৷৷
അനാദിമധ്യാന്തമനന്തവീര്യ- മനന്തബാഹും ശശിസൂര്യനേത്രമ്. പശ്യാമി ത്വാം ദീപ്തഹുതാശവക്ത്രമ് സ്വതേജസാ വിശ്വമിദം തപന്തമ്৷৷11.19৷৷
ଅନାଦିମଧ୍ଯାନ୍ତମନନ୍ତବୀର୍ଯ- ମନନ୍ତବାହୁଂ ଶଶିସୂର୍ଯନେତ୍ରମ୍| ପଶ୍ଯାମି ତ୍ବାଂ ଦୀପ୍ତହୁତାଶବକ୍ତ୍ରମ୍ ସ୍ବତେଜସା ବିଶ୍ବମିଦଂ ତପନ୍ତମ୍||11.19||
anādimadhyāntamanantavīrya- manantabāhuṅ śaśisūryanētram. paśyāmi tvāṅ dīptahutāśavaktram svatējasā viśvamidaṅ tapantam৷৷11.19৷৷
அநாதிமத்யாந்தமநந்தவீர்ய- மநந்தபாஹுஂ ஷஷிஸூர்யநேத்ரம். பஷ்யாமி த்வாஂ தீப்தஹுதாஷவக்த்ரம் ஸ்வதேஜஸா விஷ்வமிதஂ தபந்தம்৷৷11.19৷৷
అనాదిమధ్యాన్తమనన్తవీర్య- మనన్తబాహుం శశిసూర్యనేత్రమ్. పశ్యామి త్వాం దీప్తహుతాశవక్త్రమ్ స్వతేజసా విశ్వమిదం తపన్తమ్৷৷11.19৷৷
11.20
11
20
।।11.20।। हे महात्मन् ! यह स्वर्ग और पृथ्वीके बीचका अन्तराल और सम्पूर्ण दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं। आपके इस अद्भुत और उग्ररूपको देखकर तीनों लोक व्यथित (व्याकुल) हो रहे हैं।
।।11.20।। हे महात्मन् ! स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का यह आकाश तथा समस्त दिशाएं अकेले आप से ही व्याप्त हैं; आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक अतिव्यथा (भय) को प्राप्त हो रहे हैं।।
।।11.20।। विराट् पुरुष समस्त जगत् को व्याप्त किये हुए है? और देशकाल का भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। वे भी इस सत्य पर ही आश्रित हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ वर्णित विषयवस्तु अनन्त है? सनातन है। इसीलिए यहाँ अर्जुन कहता है? अकेले आपके द्वारा स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य का आकाश और समस्त दिशाएं व्याप्त हैं।विश्व की एकता को सरलता से ग्रहण नहीं किया जा सकता। जो जितना ही अधिक उसे समझता है? उसका वर्णन करने में उतना ही अधिक वह लड़खड़ाता है। इतने विशाल और भव्य सत्य को देखकर परिच्छिन्न बुद्धि का कम्पित हो जाना स्वाभाविक ही है।अर्जुन कहता है? इस अद्भुत और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक भय कम्पित हो रहे हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य जगत् को उसी रूप में देखता है जैसा कि वह स्वयं होता है। यथा दृष्टि तथा सृष्टि। विराट् का दर्शन करके अर्जुन भयभीत हुआ और उस मनस्थिति में जब वह जगत् को देखता है? तो तीनों लोक भी विस्मित और भय कम्पित दिखाई देते हैं। व्यासजी की यह विशेषता है कि विशाल और गम्भीर विषयवस्तु के वर्णन में व्यस्त होते हुए भी वे मनुष्य के मूलभूत आचरण को भूलते नहीं हैं और उनके ये सूक्ष्म निरीक्षण ही इस अतुलनीय सौन्दर्य और अपरिमेय गम्भीर चित्र को वास्तविकता की आभा प्रदान करते हैं।
।।11.20।। व्याख्या--'महात्मन्'-- इस सम्बोधनका तात्पर्य है कि आपके स्वरूपके समान किसीका स्वरूप हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। इसलिये आप महात्मा अर्थात् महान् स्वरूपवाले हैं।
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।।11.20।।द्युशब्दः पृथिवीशब्दश्च उभौ उपरितनानाम् अधस्तनानां च लोकानां प्रदर्शनार्थौ? द्यावापृथिव्योः अन्तरम् अवकाशः? यस्मिन् अवकाशे सर्वे लोकाः तिष्ठन्ति? सर्वः अयम् अवकाशः दिशश्च सर्वाः त्वया एकेन व्याप्ताः।दृष्ट्वा अद्भूतं रूपम् उग्रं तव इदम् अनन्तायामविस्तारम् अत्यद्भुतम् अति उग्रं तव रूपं दृष्ट्वा लोकत्रयं प्रव्यथितम् -- युद्धदिदृक्षया आगतेषु ब्रह्मादिदेवासुरपितृगणसिद्धगन्धर्वयक्षराक्षसेषु प्रतिकूलानुकूलमध्यस्थरूपं लोकत्रयं सर्वं प्रव्यथितम्? अत्यन्तभीतम् महात्मन् अपरिच्छेद्यमनोवृत्ते।ऐतेषाम् अपि अर्जुनस्य इव विश्वाश्रयरूपसाक्षात्कारसाधनं दिव्यं चक्षुः भगवता दत्तम्। किमर्थम् इति चेत् अर्जुनाय स्वैश्वर्यं सर्वं प्रदर्शयितुम् अत इदम् उच्यते -- दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् इति।
।।11.20।।प्रकृतभगवद्रूपस्य व्याप्तिं व्यनक्ति -- द्यावापृथिव्योरिति। तस्यैव भयंकरत्वमाचष्टे -- दृष्ट्वेति।
।।11.20।।द्यावापृथिव्योः इत्यारभ्यचूर्णितैरुत्तमाङ्गैः [11।27] इत्यन्तं स्पष्टार्थम्।
।।11.20।।प्रकृतस्य भगवद्रूपस्य व्याप्तिमाह -- द्यावेति। द्यावापृथिव्योरिदमन्तरिक्षं हि एव त्वयैवैकेन व्याप्तं। दिशश्च सर्वा व्याप्ताः। दृष्ट्वाद्भुतमत्यन्तविस्मयकरमिदमुग्रं दुरधिगमं महातेजस्वित्वात्तव रूपमुपलभ्य लोकत्रयं प्रव्यथितं अत्यन्तभीतं जातं। हे महात्मन्साधूनामभयदायक? इतः परमिदमुपसंहरेत्यभिप्रायः।
।।11.20।।किंच -- द्यावापृथिव्योरिति। द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि अन्तरिक्षं त्वयैकेन व्याप्तम्। दिशश्च सर्वा व्याप्ताः। अद्भुतमदृष्टपूर्वं त्वदीयमिदमुग्नं घोरं रूपं दृष्ट्वा लोकत्रयं प्रव्यथितमतिभीतं पश्यामीति पूर्वस्यैवानुषङ्गः।
।।11.20।।एवम्भूतमिति अत्युग्ररूपमित्यर्थः। प्रव्यथितविशेषणानुसारेण लोकशब्दोऽत्र जनविषय इत्याह -- देवादय इति।दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाऽहम् [11।23] इति वक्ष्यमाणावेक्षणेनअहं चेत्युक्तम्। अनन्तत्वस्य बहुशोऽभिहितत्वादवच्छिन्नलोकद्वयव्याप्तिवचनं तदुपलक्षितलोकवर्गद्वयप्रदर्शनार्थमित्यभिप्रायेणाहद्युशब्द इति।अन्तरमवकाशावधिपरिधानान्तर्धिभेदतादर्थ्ये [अमरः3।3।186] इत्यनेकार्थान्तरशब्दस्य प्रस्तुतानुगुणमर्थमाहअवकाश इति। शक्तिविशेषादिवशात्सप्रतिघत्वविरोधाद्यभावाभिप्रायेणावकाशं विवृण्वन्विपण्डितार्थमाहयस्मिन्निति।अनन्तायामविस्तारमिति पूर्वोक्तस्यानुकर्षणम्। अयमभिप्रायः -- पूर्वापरवाक्ययोर्विग्रहेकविषयतया मध्ये स्वरूपव्याप्तिकथनप्रयोजनाभावाद्विग्रहस्य चातिमहत्त्वेन कण्ठोक्तत्वात्तद्विषयोऽयं व्याप्तिव्यपदेश इति। नात्र लोकत्रयशब्देन पृथिव्यादिकं विवक्षितम्? तत्र प्रव्यथितत्ववचनायोगात्। अतोमञ्चाः क्रोशन्ति इतिवत्तद्वर्तिनः प्राणिनो वक्तव्याः। ततश्च लक्षणातोऽपि लोकशब्दस्यैव मुख्यत्वेन जनविषयत्वं वरम्। जनस्य त्रित्वं च शत्रुमित्रोदासीनरूपेण सुप्रसिद्धम् तस्य च सर्वस्य जनस्यात्र समवायो युद्धदिदृक्षया सिद्धः अत एव लोकत्रयवर्तिकतिपयपुरुषव्यथादर्शनेन लोकत्रयनिर्देश इति न भ्रमितव्यम् नापीदमर्जुनस्योत्प्रेक्षणं? दृष्टस्यैव सर्वस्य वचनात् तदेतदाह -- युद्धेति। अत्र देवासुरादिग्रहणं मानुषव्यवच्छेदार्थं? युद्धायागतानां सर्वेषां भगवद्विग्रहादर्शनात्। सोपसर्गस्य धातोर्विवक्षितमाह -- अत्यन्तभीतमिति। महात्मशब्दस्य गम्भीरबुद्धिविशेषवत्सु प्रसिद्धत्वात्? विग्रहस्योग्रत्ववदाशयापरिच्छेदस्यापि भयहेतुत्वादत्रायमेवार्थ उचित इत्यभिप्रायेणाहअपरिच्छेद्येति। ननुदर्शयामास पार्थाय [11।9] इति ह्युपक्रान्तम् तत्कथं देवासुरादीनामपि मानुषवन्मांसचक्षुषां भगवद्विग्रहसाक्षात्कार उच्यते इत्यत्राह -- एतेषामपीति। अर्जुनस्य शिष्यभूतस्यात्यन्तोपसन्नस्य निरतिशयभक्तेः स्वविग्रहप्रकाशनं प्राप्तम् तदर्थं च तस्यैव दिव्यचक्षुर्दत्तम् वक्ष्यति चदेवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः [11।52] इति अतः सामान्येन सर्वस्य जनस्य दिव्यचक्षुःप्रदाने कारणं न पश्याम इत्यभिप्रायेण शङ्कते -- किमर्थमिति। परिहरति -- अर्जुनायेति। देवादीनामपि दिदृक्षासम्भवात्सर्वेषामवतारसाक्षात्कारवत्सुकृतविपाकसन्निपातात्क्षुद्राणामिव महतामपि भयावहत्वादिना निरङ्कुशैश्वर्यप्रकाशनेन प्रकृतोपयोगाच्च दिव्यचक्षुर्दानमिति भावः। तदेवार्जुनवाक्येन संवादयति -- अत इदमिति।
।।11.20।।किञ्चद्यावापृथिव्योरिति। इदं द्यावापृथिव्योः अन्तरमन्तरिक्षं एकेन त्वया व्याप्तम्। च पुनः? दिशः सर्वास्त्वया व्याप्ताः पश्यामि। किञ्च हे महात्मन् इतोऽप्यधिकप्रकटनसमर्थ तव इदमद्भुतमलौकिकं उग्रं अदृष्टं रूपं दृष्ट्वा लोकत्रयं प्रव्यथितं प्रकर्षेण व्यथितं भीतं पश्यामीति पूर्वेणान्वयः।
।।11.20।।एवं स्वयंकृतविश्वरूपदर्शनेन कृतकृत्यो भूत्वा तदुपसंहारमिच्छन्स्तौति -- द्यावापृथिव्योरिति। हे महात्मन्? हि प्रत्यक्षं त्वयैकेनेदं द्यावापृथिव्योरन्तरं मध्यं सर्वाः दिशश्च व्याप्ताः। अतस्तवेदमद्भुतमुग्रं रूपं दृष्ट्वा लोकत्रयं प्रकर्षेण व्यथितम्। अतः परमिदमुपसंहरेत्यभिप्रायः।
।।11.20।।द्यावुृथिव्योरन्तमन्तरिक्षं त्वयैकेन विश्वरुपधरेण व्याप्तं दिशश्च सर्वाः त्वया व्याप्ताः। हि यस्मात्तस्मात्तवेदमुघ्रं,रुपं दृष्ट्वा लोकत्रयं प्रव्यथितं पीडितम्। अत इदमुपसंहर। महात्मनोऽक्षुद्रस्वभावस्य तव निर्दोषलोकपीडनं नोचितमित्याशयेनाह -- हे महात्मन्निति।
11.20 द्यावापृथिव्योः of heaven and earth? इदम् this? अन्तरम् interspace? हि indeed? व्याप्तम् is filled? त्वया by Thee? एकेन alone? दिशः arters? च and? सर्वाः all? दृष्ट्वा having seen? अद्भुतम् wonderful? रूपम् form? उग्रम् terrible? तव Thy? इदम् this? लोकत्रयम् the three worlds? प्रव्यथितम् are trembling with fear? महात्मन् O greatsouled Being.Commentary Thee In Thy Cosmic Form.The space and the arters This denotes that the Lord has filled the whole universe of animate and inanimate objects.In order to remove the doubt entertained by Arjuna as to his success (Cf.II.6) Lord Krishna makes him feel now that victoyr for the Pandavas is certain.
11.20 This space between the earth and the heaven and all the arters are filled by Thee alone; having seen this, Thy wonderful and teriible form, the three worlds are trembling with fear, O great-souled Being.
11.20 Alone thou fillest all the quarters of the sky, earth and heaven, and the regions between. O Almighty Lord! Seeing Thy marvellous and awe-inspiring Form, the spheres tremble with fear.
11.20 Indeed, this intermediate space between heaven and earth as also all the directions are pervaded by You alone. O exalted One, the three worlds are struck with fear by seeing this strange, fearful form of Yours.
11.20 Hi, indeed; idam, this; antaram, intermediate space; dyavaprthivyoh, between heaven and earth; ca, as also; sarvah, all; the disah, direction; vyaptam, are pervaded; tvaya, by You; ekena, alone, who have assumed the Cosmic form. Mahatman, O exalted One, who by nature are high-minded; the lokatrayam, three worlds; pravyathitam, are struck with fear, or are perturbed; drstva, by seeing; idam, this; abdhutam, strange, astonishing; ugram, fearful, terrible; rupam, form; tava, of Yours. Therefore, now, in order to clear that doubt which Arjuna earlier had-as in, 'whether we shall win, or whether they shall coner' (2.6)-, the Lord proceeds with the idea, 'I shall show the inevitable victory of the Pandavas.' Visualizing that, Arjuna said: 'Moreover-'.
11.20. This space in between the heaven and the earth as well as all the directions are pervaded singly by You; seeing this wondrous form of Yours as such, O Exalted Soul, the triple world is very much frightened.
11.20 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.20 The terms, 'heaven and earth,' imply all the upper and lower worlds. The 'Antara', or that between heaven and earth, denotes the space between them in which are located all the worlds. You alone pervade all the space and all the arters. 'Beholding Your marvellous and teriible form,' beholding Your form of infinite length and extent, marvellous and terrible, the three worlds are trembling. Gods headed by Brahma, the Asuras, the manes, the Siddhas, the Gandharvas, the Yaksas, and Raksasas have come with a desire to see the battle. All the 'three worlds' consisting of these friendly, antagonistic and neutral beings are extremely frightened. 'Mahatman' means one, the dimension of whose mind has no limits. It has to be understood that like Arjuna, other beings also were granted by the Lord the divine eye capable of directly perceiving the Form which supports the universe. If it be asked why, the reply is that it was for demonstrating to Arjuna His sovereignty. Hence it is stated here: 'Beholding Your marvellous and terrible form, O Mahatman, the three worlds are greatly overwhelmed with fear.'
11.20 You alone have pervaded the interspace between heaven and earth, and all the arters. Beholding Your marvellous and terrible form, O Mahatman, the three worlds are greatly overwhelmed with fear.
।।11.20।।एकमात्र आप विश्वरूपधारी परमेश्वरसे ही यह स्वर्ग और पृथिवीके बीचका सारा आकाश और समस्त दिशाएँ भी परिपूर्ण हो रही हैं। हे महात्मन् अर्थात् हे अक्षुद्र स्वभाववाले कृष्ण आपके इस अद्भुत -- आश्चर्यजनक? भयंकर -- क्रूर रूपको देखकर तीनों लोक व्यथित हो रहे हैं अर्थात् भयभीत या विचलित हो रहे हैं।,
।।11.20।। --,द्यावापृथिव्योः इदम् अन्तरं हि अन्तरिक्षं व्याप्तं त्वया एकेन विश्वरूपधरेण दिशश्च सर्वाः व्याप्ताः। दृष्ट्वा उपलभ्य अद्भुतं विस्मापकं रूपम् इदं तव उग्रं क्रूरं लोकानां त्रयं लोकत्रयं प्रव्यथितं भीतं प्रचलितं वा हे महात्मन् अक्षुद्रस्वभाव।।अथ अधुना पुरा यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः (गीता 2।6) इति अर्जुनस्य यः संशयः आसीत्? तन्निर्णयाय पाण्डवजयम् ऐकान्तिकं दर्शयामि इति प्रवृत्तो भगवान्। तं पश्यन् आह --,किञ्च --,
।।11.20।।द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि इत्यत्रत्वया इत्यनेनैवैकत्वस्य सिद्धत्वात्एकेन इति व्यर्थमित्यतः प्रमाणपूर्वकं तदभिप्रायमाह -- मातापित्रोरिति। बहुत्वेऽपि स एकोऽभिन्नः अनेनदिशश्च सर्वाः रूपान्तरैरित्युक्तं भवति। तदयुक्तम्। विश्वरूपस्यद्रष्टुमिच्छामि ते रूपं [11।3] इत्यादिना एकत्वावगतेरित्यत आह पश्येति। ऐक्यापेक्षयैकवचनमिति भावः। मातापित्रोः इति श्रुतिः प्रकृतानुपयोगिनी कथमुदाहृताद्यावापृथिव्योः इत्यनभिधानादित्यत आह -- मातापितरौ चेति। माता पृथिवी? नोऽस्मान्दुर्मतौ माधात् न दध्यात्। नोऽस्माकं मधु सुखहेतुरस्तु।दृष्ट्वाऽद्भुतं इत्यादिना विश्वरूपदर्शनस्य भयहेतुत्वमुच्यते। तन्न सर्वेषां सर्वदा? किन्तु केषाञ्चित्कारणविशेषात्कदाचिदेवेति सप्रमाणकं तदभिप्रायमाह -- न त्विति। अभ्यसेऽभ्यासे सति सर्वेषां तृप्तिरानन्द एवेत्यर्थः। एवं तद्दर्शनस्य भयहेतुत्वनियमाभावमभिधाय लोकत्रयस्य दर्शनाभावं चाह -- न त्विति। किन्तु त्रिलोकेषु स्थितैर्भक्तैरित्युक्तप्रकारेण कैश्चिदेव। तदभिप्रायश्च लोकत्रयशब्द इति भावः। प्रकारान्तरेणलोकत्रयं इत्यस्याभिप्रायमाह -- अदृष्ट्वाऽपीति। विश्वरूपदर्शनार्थं यतमानानां लोकत्रयस्थानां पुंसां तददृष्ट्वाऽपि चेतसि निरूप्य स्थितानां भये जाते सति तद्द्रष्टुरर्जुनस्य तथाऽहमिवैतेऽपि दृष्ट्वा बिभ्यतीति प्रतिभातीत्यतःलोकत्रयं दृष्ट्वा प्रव्यथितं इत्याहेत्यर्थः। अत्र श्रुतिसम्मतिमाह -- दृष्ट्वेति। देवं विश्वरूपं दृष्ट्वा मोदमानास्त एतेऽर्जुनादयस्तद्ध्यायिनः पश्यन्ति। कथम्भूतान् अदृष्ट्वापि तन्निरूप्यैतद्भयाद्बिभ्यतो भयचिह्नवतस्तस्मिन्नेव विश्वरूपे मनसो गतत्वात्तन्न्यस्तचक्षुर्मुखांश्च दृष्टवत् दृष्टवन्त इवेत्यर्थः।
।।11.20।।मातापित्रोरन्तरङ्गः स एकः? रूपेण चान्यैः सर्वगतः स एकः इति वारुणश्रुतेरेकेनैव द्यावापृथिव्योरन्तरं व्याप्तो भवति।पश्य मे पार्थ रूपाणि [1।6।18] इति बहूनि रूपाणि प्रतिज्ञातानि मातापितरौ च पृथिवीद्यावौ। मा नो माता पृथिवी दुर्मतौ धात् मधु द्यौरस्तु नः पिता [ऋक्सं.बृ.उ.6।3।6] इत्यादिप्रयोगात्। न तु नियमतो भयप्रदं तत्स्वरूपम्। नारदस्य तदभावात्। केषाञ्चित्तथा दर्शयति भगवान् -- प्रियन्ति केचित्तस्य रूपस्य दृष्टौ बिभेति कश्चिदभ्यसे सर्वतृप्तिः इति वारुणशाखायाम्। न तु तं सर्वे पश्यन्ति। अदृष्ट्वाऽपि तान्निरूप्य भयेन द्रष्टुस्तथा प्रतिभाति। तथा च गौतमखिलेषु -- दृष्ट्वा देवं मोदमाना अदृष्ट्वाऽप्येतद्भयाद्बिभ्यतो दृष्टवत्ते। पश्यन्ति ते न्यस्तचक्षुर्मुखांस्तु तस्मिन्नेवैते मनसो गतत्वात् इति।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः। दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।।11.20।।
দ্যাবাপৃথিব্যোরিদমন্তরং হি ব্যাপ্তং ত্বযৈকেন দিশশ্চ সর্বাঃ৷ দৃষ্ট্বাদ্ভুতং রূপমুগ্রং তবেদং লোকত্রযং প্রব্যথিতং মহাত্মন্৷৷11.20৷৷
দ্যাবাপৃথিব্যোরিদমন্তরং হি ব্যাপ্তং ত্বযৈকেন দিশশ্চ সর্বাঃ৷ দৃষ্ট্বাদ্ভুতং রূপমুগ্রং তবেদং লোকত্রযং প্রব্যথিতং মহাত্মন্৷৷11.20৷৷
દ્યાવાપૃથિવ્યોરિદમન્તરં હિ વ્યાપ્તં ત્વયૈકેન દિશશ્ચ સર્વાઃ। દૃષ્ટ્વાદ્ભુતં રૂપમુગ્રં તવેદં લોકત્રયં પ્રવ્યથિતં મહાત્મન્।।11.20।।
ਦ੍ਯਾਵਾਪਰਿਥਿਵ੍ਯੋਰਿਦਮਨ੍ਤਰਂ ਹਿ ਵ੍ਯਾਪ੍ਤਂ ਤ੍ਵਯੈਕੇਨ ਦਿਸ਼ਸ਼੍ਚ ਸਰ੍ਵਾ। ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵਾਦ੍ਭੁਤਂ ਰੂਪਮੁਗ੍ਰਂ ਤਵੇਦਂ ਲੋਕਤ੍ਰਯਂ ਪ੍ਰਵ੍ਯਥਿਤਂ ਮਹਾਤ੍ਮਨ੍।।11.20।।
ದ್ಯಾವಾಪೃಥಿವ್ಯೋರಿದಮನ್ತರಂ ಹಿ ವ್ಯಾಪ್ತಂ ತ್ವಯೈಕೇನ ದಿಶಶ್ಚ ಸರ್ವಾಃ. ದೃಷ್ಟ್ವಾದ್ಭುತಂ ರೂಪಮುಗ್ರಂ ತವೇದಂ ಲೋಕತ್ರಯಂ ಪ್ರವ್ಯಥಿತಂ ಮಹಾತ್ಮನ್৷৷11.20৷৷
ദ്യാവാപൃഥിവ്യോരിദമന്തരം ഹി വ്യാപ്തം ത്വയൈകേന ദിശശ്ച സര്വാഃ. ദൃഷ്ട്വാദ്ഭുതം രൂപമുഗ്രം തവേദം ലോകത്രയം പ്രവ്യഥിതം മഹാത്മന്৷৷11.20৷৷
ଦ୍ଯାବାପୃଥିବ୍ଯୋରିଦମନ୍ତରଂ ହି ବ୍ଯାପ୍ତଂ ତ୍ବଯୈକେନ ଦିଶଶ୍ଚ ସର୍ବାଃ| ଦୃଷ୍ଟ୍ବାଦ୍ଭୁତଂ ରୂପମୁଗ୍ରଂ ତବେଦଂ ଲୋକତ୍ରଯଂ ପ୍ରବ୍ଯଥିତଂ ମହାତ୍ମନ୍||11.20||
dyāvāpṛthivyōridamantaraṅ hi vyāptaṅ tvayaikēna diśaśca sarvāḥ. dṛṣṭvā.dbhutaṅ rūpamugraṅ tavēdaṅ lōkatrayaṅ pravyathitaṅ mahātman৷৷11.20৷৷
த்யாவாபரிதிவ்யோரிதமந்தரஂ ஹி வ்யாப்தஂ த்வயைகேந திஷஷ்ச ஸர்வாஃ. தரிஷ்ட்வாத்புதஂ ரூபமுக்ரஂ தவேதஂ லோகத்ரயஂ ப்ரவ்யதிதஂ மஹாத்மந்৷৷11.20৷৷
ద్యావాపృథివ్యోరిదమన్తరం హి వ్యాప్తం త్వయైకేన దిశశ్చ సర్వాః. దృష్ట్వాద్భుతం రూపముగ్రం తవేదం లోకత్రయం ప్రవ్యథితం మహాత్మన్৷৷11.20৷৷
11.21
11
21
।।11.21।। वे ही देवताओंके समुदाय आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमेंसे कई तो भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नामों और गुणोंका कीर्तन कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्धोंके समुदाय 'कल्याण हो ! मङ्गल हो !' ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रोंके द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं।
।।11.21।। ये समस्त देवताओं के समूह आप में ही प्रवेश कर रहे हैं और कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आप की स्तुति करते हैं; महर्षि और सिद्धों के समुदाय 'कल्याण होवे' (स्वस्तिवाचन करते हुए) ऐसा कहकर, उत्तम (या सम्पूर्ण) स्रोतों द्वारा आपकी स्तुति करते हैं।।
।।11.21।। अब तक अर्जुन ने विश्व रूप का जो वर्णन किया वह स्थिर था और एक साथ अद्भुत और उग्र भी था। यहाँ अर्जुन विश्वरूप में दिखाई दे रही गति और क्रिया का वर्णन करता है। ये सुरसंघ विराट् पुरुष में प्रवेश करके तिरोभूत हो रहे हैं।यदि सुधार के अयोग्य हुए कई लोग बलात् विश्वरूप की ओर खिंचे चले जाकर उसमें लुप्त हो जा रहे हों? और अन्य लोग प्रतीक्षा करते हुऐ इस प्रक्रिया को देख रहे हों? तो अवश्य ही वे भय से आतंकित हो जायेंगे। किसी निश्चित आपत्ति से आशंकित पुरुष? जब सुरक्षा का कोई उपाय नहीं देखता है? तब निराशा के उन क्षणों में वह सदा प्रार्थना की ओर प्रवृत्त होता है। इस मनोवैज्ञानिक सत्य को बड़ी ही सुन्दरता से यहाँ इन शब्दों में व्यक्त किया गया है कि कई एक भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपकी स्तुति करते हैं।और यही सब कुछ नहीं है। महर्षियों और सिद्ध पुरुषों ऋ़े समूह? अपने ज्ञान की परिपक्वता से प्राप्त दैवी और आन्तरिक शान्ति के कारण? इस विराट् के दर्शन से अविचलित रहकर इस विविध रूपमय विराट् पुरुष का उत्तम (बहुल) स्तोत्रों के द्वारा स्तुतिगान करते हैं। वे सदा स्वस्तिवाचन अर्थात् सब के कल्याण की कामना करते हैं। अपने पूर्ण ज्ञान के कारण वे जानते हैं कि ईश्वर इस प्रकार का अति उग्र भयंकर रूप केवल उसी समय धारण करता है जब वह विश्व का सम्पूर्ण पुनर्निर्माण करना चाहता है। सिद्ध पुरुष यह भी जानते हैं कि विनाश के द्वारा निर्माण करने की इस योजना में किसी प्रकार की हानि नहीं होती है। इसलिए? वे इस विनाश की प्रक्रिया का स्वागत करते हुये जगत के लिये स्वर्णयुग की कामना करते हैं? जो इस सम्पूर्ण विनाश के पश्चात् निश्चय ही आयेगा।इस श्लोक में जगत् के प्राणियों का वर्गीकरण तीन भागों में किया गया है उत्तम? मध्यम और अधम। अधम प्राणी ऐसे ही नष्ट हो जाते हैं। वे मृत्यु की प्रक्रिया के सर्वप्रथम शिकार होते हैं और दुर्भाग्य से उन्हें इस क्रिया का भान तक नहीं होता कि वे उसका किसी प्रकार से विरोध कर सकें। मध्यम प्रकार के लोग विचारपूर्वक इस क्षय और नाश की प्रक्रिया को देखते हैं और उसके प्रति जागरूक भी होते हैं। वे अपने भाग्य के विषय में सोचकर आशंकित हो जाते हैं। वे यह नहीं जानते कि विनाश से वस्तुत कोई हानि नहीं होती? और समस्त प्राणियों के अपरिहार्य अन्त से भयकम्पित हो जाते हैं।परन्तु इनसे भिन्न उत्तम पुरुषों का एक वर्ग और भी है? जिन्हें समष्टि के स्वरूप एवं व्यवहार अर्थात् कार्यप्रणाली का पूर्ण ज्ञान होता है। उन्हें इस बात का भय कभी स्पर्श नहीं करता कि दैनिक जीवन में होने वाली घटनाएं उनके साथ भी घट सकती हैं। समुद्र के स्वरूप को पहचानने वालों को तरंगों के नाश से चिन्तित होने का कारण नहीं रहता है। इसी प्रकार? जब सिद्ध पुरुष उस महान विनाश को देखते हैं? जो एक मरणासन्न संस्कृति के पुनर्निमाण के पूर्व होता है? तब वे सत्य की इस महान शक्ति को पहचान कर ईश्वर निर्मित भावी जगत् के लिए शान्ति और कल्याण की कामना करते हैं। जिस किसी भी दृष्टि से हम इस काव्य का अध्ययन करते हैं? हम पाते हैं कि स्वयं व्यासजी कितने महान् मनोवैज्ञानिक हैं और उन्होंने कितनी सुन्दरता से यहाँ मानवीय व्यवहार के ज्ञान को एकत्र किया है? जिससे कि मनुष्य शीघ्र विकास करके अपने पूर्णत्व के लक्ष्य तक पहुँच सके।इस दर्शनीय दृश्य को देखकर स्वर्ग के देवताओं की क्या प्रतिक्रया हुई अर्जुन उसे बताते हुए कहता है
।।11.21।। व्याख्या--'अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति'--जब अर्जुन स्वर्गमें गये थे, उस समय उनका जिन देवताओंसे परिचय हुआ था, उन्हीं देवताओंके लिये यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि वे ही देवतालोग आपके स्वरूपमें प्रविष्ट होते हुए दीख रहे हैं। ये सभी देवता आपसे ही उत्पन्न होते हैं, आपमें ही स्थित रहते हैं और आपमें ही प्रविष्ट होते हैं।
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।।11.21।।अमी सुरसंघाः उत्कृष्टाः त्वां विश्वाश्रयम् अवलोक्य हृष्टमनसः त्वत्समीपं विशन्ति। तेषु एव केचिद् अति उग्रम् अति अद्भुतं च तव आकारम् आलोक्य भीताः प्राञ्जलयः स्वज्ञानानुगुणं स्तुतिरूपाणि वाक्यानि गृणन्ति उच्चारयन्ति। अपरे महर्षिसंघाः सिद्धसंघाः चपरावरतत्त्वयाथात्म्यविदः स्वस्ति इति उक्त्वा पुष्कलाभिः भगवदनुरूपाभिः स्तुतिभिः स्तुवन्ति।
।।11.21।।अमी हीत्यादि समनन्तरग्रन्थस्य तात्पर्यमाह -- अथेति। तं भगवन्तं पाण्डवजयमैकान्तिकं दर्शयन्तं पश्यन्नर्जुनो ब्रवीतीत्याह -- तं पश्यन्निति। विश्वरूपस्यैव प्रपञ्चनार्थमनन्तरग्रन्थजातमिति दर्शयति -- किञ्चेति। असुरसङ्घा इति पदं छित्त्वा भूभारभूता दुर्योधनादयस्त्वां विशन्तीत्यपि च वक्तव्यम्। उभयोरपि,सेनयोरवस्थितेषु योद्धुकामेष्ववान्तरविशेषमाह -- तत्रेति। समरभूमौ समागतानां द्रष्टुकामानां नारदप्रभृतीनां विश्वविनाशमाशङ्कमानानां तं परिजिहीर्षतां स्तुतिपदेषु भगवद्विषयेषु प्रवृत्तिप्रकारं दर्शयति -- युद्ध इति।
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।।11.21।।अधुना भूभारसंहारकारित्वमात्मनः प्रकटयन्तं भगवन्तं पश्यन्नाह -- अमी इति। अमी हि सुरसङ्गा वस्वादिदेवगणा भूभारावतारार्थं मनुष्यरूपेणावतीर्णा युध्यमानाः सन्तस्त्वा त्वां विशन्ति प्रविशन्तो दृश्यन्ते। एवमसुरसङ्घा इति पदच्छेदेन भूभारभूता दुर्योधनादयस्त्वां विशन्तीत्यपि वक्तव्यम्। एवमुभयोरपि सेनयोः केचिद्भीताः पलायनेऽप्यशक्ताः सन्तः प्राञ्जलयो गृणन्ति स्तुवन्ति त्वाम्। एवं प्रत्युपस्थिते युद्धे उत्पातादिनिमित्तान्युपलक्ष्य स्वस्त्यस्तु सर्वस्य जगत इत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा नारदप्रभृतयो युद्धदर्शनार्थमागता विश्वविनाशपरिहाराय स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिर्गुणोत्कर्षप्रतिपादिकाभिर्वाग्भिः पुष्कलाभिः परिपूर्णार्थाभिः।
।।11.21।। किंच -- अमी हीति। अमी सुरसङ्घा भीताः सन्तः त्वां विशन्ति शरणं प्रविशन्ति। तेषां मध्ये केचिदतिभीताः दूरत एव स्थित्वा कृतसंपुटकरयुगुलाः सन्तो गृणन्ति जयजय रक्षरक्षेति प्रार्थयन्ते। स्पष्टमन्यत्।
।।11.21।।अमी हि त्वा विशन्ति इत्यत्र न संहारादिकं विवक्षितं? स्तुत्यादिभिः सहपाठाद्धार्तराष्ट्रादिवदासन्नोपसहाराभावात् परोक्तस्यावतीर्णसुरसङ्घविषयत्वस्यवीक्षन्ते [11।22] इत्यादिभिर्विरोधाच्च अतोऽत्र समीपगमनरूपसेवाप्रकारोऽभिधीयत इत्यभिप्रायेणाह -- अमी सुरसङ्घा इत्यादिना।केचिद्गीताः इत्यनेन धार्ष्ट्यरहितानां पृथगभिधानादनेन वाक्येन अक्षोभ्याशया हर्षवन्तो विवक्षिता इति व्यञ्जनाय ब्रह्मादीनां सर्वेषां देवानां सेवार्थागमनं प्रथममुच्यते।उत्कृष्टा इति तु सुरशब्दव्यञ्जितोक्तिः। विनाशार्थप्रवेशव्यवच्छेदायहृष्टमनस इत्युक्तम्। वक्ष्यमाणवक्त्रप्रवेशव्यवच्छेदायाह -- त्वत्समीपमिति। केचित् इति पृथक्करणस्य समुदायविशेषसाकाङ्क्षत्वात्सुरसङ्घाः इति च प्रसक्तत्वाज्जात्यन्तरानवादाच्चतेष्वेवेत्युक्तम्।अत्युग्रमत्यद्भुतं चेति भीत्यादिहेतुभूतप्रकृताकारकथनम्।पुष्कलाभिः इति वक्ष्यमाणत्वादिह तदभावो विवक्षित इत्यभिप्रायेण -- स्वज्ञानानुगुणमित्युक्तम्।स्तुतिरूपाणीत्यादिनागृणन्ति इत्यस्यापेक्षितकर्माध्याहारः। श्रुत्यादिसिद्धस्तुतिपाठमात्रपरत्वायाह -- उच्चारयन्तीति। एतेनापिकेचित् इत्यस्य देवविशेषविषयत्वं सिद्धम् अन्येषां तु भूतानां पलायनस्य वक्ष्यमाणत्वात्।महर्षि -- इत्यादिना पृथग्व्यपदेशविशेषणादिफलितमपरशब्देन व्यञ्जितम्। महर्षिसङ्घाः भृग्वादिगणाः? सिद्धसङ्घाः सनकमुख्याः। महर्षित्वादिसूचितं पुषकलस्तुतिहेतुमाह -- परावरतत्त्वयाथात्म्यविद इति।जितं ते [भाग.3।13।344।24।33] इत्यादिवत् भक्तिपरवशानां मङ्गलाशासनं वा? सेव्यसन्दर्शनमात्रे सेवकस्य वक्तव्यः स्वस्तिशब्दः स्तुतिस्तु तदनन्तरं गुणप्रकर्षोक्तिः। अत एव गोब्राह्मणेभ्यो जगतो वा स्वस्तीति परोक्तं प्रकृतासङ्गतम्। अत्र स्तुतेः पौष्कल्यं प्रामाणिकसर्वेश्वरत्वादिकथनमित्यभिप्रायेणाह -- भगवदनुरूपाभिरिति।
।।11.21।।किञ्चअमी हीति। अमी सुरसङ्घाः देवसमूहाः त्वां त्वत्समीपे विशन्ति शरणमागच्छन्तीत्यर्थः। हीति युक्तमेव पुरुषोत्तमशरणागमनं देवानाम्। केचित् इतरे असुरा इत्यर्थः? भीताः सन्तः प्राञ्जलयो बद्धाञ्जलिपुटाः गृणन्ति? रक्षेति वदन्तीत्यर्थः। महर्षिसिद्धसङ्घाः महर्षीणां सिद्धानां च समूहाःस्वस्ति अस्माकमस्तु इत्युक्त्वा पुष्कलाभिः पूर्णाभिः स्तुतिभिस्त्वां स्तुवन्ति।
।।11.21।।व्यथामेवाह -- अमीति। हि यतः अमी त्वा त्वां असुरसङ्घा असुरांशा दुर्योधनादयस्त्वां पतङ्गाः पावकमिवादृष्टप्रेरिता विशन्ति मरणायेत्यर्थः। केचिद्भीताः प्राञ्जलयो बद्धाञ्जलयो गृणन्ति स्तुवन्ति।
।।11.21।।इदानीं यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुरित्यर्जुनसंशयनिर्णयाय पाण्डवानां जयमैकान्तिकं दर्शयितुं प्रवृत्तं भूभारहरणार्थिनं भगवन्तं पश्यन्नाह। अमी हि यध्यमानाः भूभारहरणार्थं मनुष्यरुपेणावतीर्णा वस्वीदिदेवसङ्घास्त्वां प्रविशन्तीति त्वमिति पाठ आचार्यैर्व्याख्यात इति भाति। अन्यथा त्वा त्वामिति भाष्यपाठोऽपेक्षितः। असुरसङ्गा इति पदं च्छित्वा भूभारभूता दुर्योधनादयस्तवां विशन्तीत्यपि वक्तव्यमिति तट्टीकाकारोक्तिस्तु त्वेतिपाठे संगच्छत इति ज्ञेयम्। तत्र केचिद्भीताः पलायनेऽप्यशक्ताः सन्तः प्राञ्जलयः सन्तो गृणन्तः स्तुवन्ति। किंच युद्धदर्शनार्थमागता महर्षिसिद्धसङ्घा नारदातयो युद्धे प्रत्युपस्थिते तु जगत्क्षयहेतूत्पादादीनि उपलक्ष्य स्वस्तयस्तु जगत इत्युक्त्वा संपूर्णाभिः स्तुतिभूः स्तुवन्ति।
11.21 अमी these? हि verily? त्वाम् Thee? सुरसङ्घाः hosts of gods? विशन्ति enter? केचित् some? भीताः in fear? प्राञ्जलयः with joined palms? गृणन्ति extol? स्वस्ति may it be well? इति thus? उक्त्वा having said? महर्षिसिद्धसङ्घाः bands of great Rishis and Siddhas? स्तुवन्ति paise? त्वाम् Thee? स्तुतिभिः with hymns? पुष्कलाभिः complete.Commentary Pushkalabhih means complete or wellworded praises or praises full of deep meanings.Great sages like Narada and perfected ones like Kapila praise Thee with inspiring hymns.
11.21 Verily, into Thee enter these hosts of gods; some extol Thee in fear with joined palms; saying 'may it be well', bands of great sages and perfected ones praise Thee with hymns complete.
11.21 The troops of celestial beings enter into Thee, some invoking Thee in fear, with folded palms; the Great Seers and Adepts sing hymns to Thy Glory, saying All Hail.'
11.21 Those very groups of gods enter into You; struck with fear, some extol (You) with joined palms. Groups of great sages and perfected beings praise You with elaborate hymns,saying 'May it be well!'
11.21 Ami hi, those very; sura-sanghah, groups of gods, the soldiers engaged in battle-groups of gods such as the Vasus who have descended here in the form of human beings for eliminating the burden of the earth; visanti, enter-are seen to be entering; tvam, You. Bhitah, struck with fear, and unable to flee; kecit, some among them; grnanti, extol You; pranjalayah, with their palms joined. Maharsi-siddha [Siddha: A semi-divine being supposed to be of great purity and holiness, and said to be particularly characterized by eight supernatural faculties called siddhis.-V.S.A.]-sanghah, groups of great sages and perfected beings; seeing protents foroding evil, etc. as the battle became imminent; stuvanti, praise; tvam, You; puskalabhih, with elaborate, full; stutibhih, hymns; uktva, saying; 'svasti iti, May it be well!' And further,
11.21. These hosts of gods enter into You; some frightened ones recite [hymns] with folded palms; simply crying 'Hail !', the hosts of great seers praise You with the excellent praising hymns.
11.21 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.21 These hosts of superior Devas beholding You as the foundation of the universe, rejoice and move towards You. Among them, some in fear, on seeing Your extremely terrible and wonderful form, 'extol,' namely pronounce sentences in the form of praise, according to their knowledge. Others, the bands of seers and Siddhas, knowers of the truth, higher and lower, saying 'Hail,' glorify You in hymns of abounding praise which are suitable to the Lord.
11.21 Verily into You the hosts of Devas enter. Some in fear extol You with clasped hands. Crying 'Hail' the bands of great seers and Siddhas praise You with meaningful hymns.
।।11.21।।अर्जुनके मनमें जो पहले ऐसा संशय था कि हम उनको जीतेंगे या वे हमको जीतेंगे उसका निर्णय करनेके लिये मैं पाण्डवोंकी निश्चित विजय दिखलाऊँगा इस भावसे प्रवृत्त हुए भगवान् अपना वैसा रूप दिखाने लगे? उस रूपको देखकर अर्जुन बोला --, यह युद्ध करनेवाले योद्धास्वरूप देवगण? यानी जो भूमिका भार उतारनेके लिये यहाँ अवतीर्ण हुए हैं? वे मनुष्योंकीसी आकृतिवाले वस्वादि देवसमुदाय आपमें ( दौड़दौड़कर ) प्रवेश कर रहे हैं अर्थात् प्रवेश करते हुए दिखलायी दे रहे है। उनमेंसे अन्य कोईकोई तो भागनेमें असमर्थ होनेके कारण भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपकी स्तुति कर रहे हैं। तथा महर्षियों और सिद्धोंके समुदाय युद्ध आरम्भ होनेपर उत्पात आदि अशुभ चिह्नोंको देखकर संसारका कल्याण हो ऐसा कहकर अनेकों अर्थात् सम्पूर्ण स्तोत्रोंद्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं।
।।11.21।। --,अमी हि युध्यमाना योद्धारः त्वा त्वां सुरसंघाः ये अत्र भूभारावताराय अवतीर्णाः वस्वादिदेवसंघाः मनुष्यसंस्थानाः त्वां विशन्ति प्रविशन्तः दृश्यन्ते। तत्र केचित् भीताः प्राञ्जलयः सन्तो गृणन्ति स्तुवन्ति त्वाम् अन्ये पलायनेऽपि अशक्ताः सन्तः। युद्धे प्रत्युपस्थिते उत्पातादिनिमित्तानि उपलक्ष्य स्वस्ति अस्तु जगतः इति उक्त्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः महर्षीणां सिद्धानां च संघाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः संपूर्णाभिः।।किं चान्यत् --,
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अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति। स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः।।11.21।।
অমী হি ত্বাং সুরসঙ্ঘাঃ বিশন্তি কেচিদ্ভীতাঃ প্রাঞ্জলযো গৃণন্তি৷ স্বস্তীত্যুক্ত্বা মহর্ষিসিদ্ধসঙ্ঘাঃ স্তুবন্তি ত্বাং স্তুতিভিঃ পুষ্কলাভিঃ৷৷11.21৷৷
অমী হি ত্বাং সুরসঙ্ঘাঃ বিশন্তি কেচিদ্ভীতাঃ প্রাঞ্জলযো গৃণন্তি৷ স্বস্তীত্যুক্ত্বা মহর্ষিসিদ্ধসঙ্ঘাঃ স্তুবন্তি ত্বাং স্তুতিভিঃ পুষ্কলাভিঃ৷৷11.21৷৷
અમી હિ ત્વાં સુરસઙ્ઘાઃ વિશન્તિ કેચિદ્ભીતાઃ પ્રાઞ્જલયો ગૃણન્તિ। સ્વસ્તીત્યુક્ત્વા મહર્ષિસિદ્ધસઙ્ઘાઃ સ્તુવન્તિ ત્વાં સ્તુતિભિઃ પુષ્કલાભિઃ।।11.21।।
ਅਮੀ ਹਿ ਤ੍ਵਾਂ ਸੁਰਸਙ੍ਘਾ ਵਿਸ਼ਨ੍ਤਿ ਕੇਚਿਦ੍ਭੀਤਾ ਪ੍ਰਾਞ੍ਜਲਯੋ ਗਰਿਣਨ੍ਤਿ। ਸ੍ਵਸ੍ਤੀਤ੍ਯੁਕ੍ਤ੍ਵਾ ਮਹਰ੍ਸ਼ਿਸਿਦ੍ਧਸਙ੍ਘਾ ਸ੍ਤੁਵਨ੍ਤਿ ਤ੍ਵਾਂ ਸ੍ਤੁਤਿਭਿ ਪੁਸ਼੍ਕਲਾਭਿ।।11.21।।
ಅಮೀ ಹಿ ತ್ವಾಂ ಸುರಸಙ್ಘಾಃ ವಿಶನ್ತಿ ಕೇಚಿದ್ಭೀತಾಃ ಪ್ರಾಞ್ಜಲಯೋ ಗೃಣನ್ತಿ. ಸ್ವಸ್ತೀತ್ಯುಕ್ತ್ವಾ ಮಹರ್ಷಿಸಿದ್ಧಸಙ್ಘಾಃ ಸ್ತುವನ್ತಿ ತ್ವಾಂ ಸ್ತುತಿಭಿಃ ಪುಷ್ಕಲಾಭಿಃ৷৷11.21৷৷
അമീ ഹി ത്വാം സുരസങ്ഘാഃ വിശന്തി കേചിദ്ഭീതാഃ പ്രാഞ്ജലയോ ഗൃണന്തി. സ്വസ്തീത്യുക്ത്വാ മഹര്ഷിസിദ്ധസങ്ഘാഃ സ്തുവന്തി ത്വാം സ്തുതിഭിഃ പുഷ്കലാഭിഃ৷৷11.21৷৷
ଅମୀ ହି ତ୍ବାଂ ସୁରସଙ୍ଘାଃ ବିଶନ୍ତି କେଚିଦ୍ଭୀତାଃ ପ୍ରାଞ୍ଜଲଯୋ ଗୃଣନ୍ତି| ସ୍ବସ୍ତୀତ୍ଯୁକ୍ତ୍ବା ମହର୍ଷିସିଦ୍ଧସଙ୍ଘାଃ ସ୍ତୁବନ୍ତି ତ୍ବାଂ ସ୍ତୁତିଭିଃ ପୁଷ୍କଲାଭିଃ||11.21||
amī hi tvāṅ surasaṅghāḥ viśanti kēcidbhītāḥ prāñjalayō gṛṇanti. svastītyuktvā maharṣisiddhasaṅghāḥ stuvanti tvāṅ stutibhiḥ puṣkalābhiḥ৷৷11.21৷৷
அமீ ஹி த்வாஂ ஸுரஸங்காஃ விஷந்தி கேசித்பீதாஃ ப்ராஞ்ஜலயோ கரிணந்தி. ஸ்வஸ்தீத்யுக்த்வா மஹர்ஷிஸித்தஸங்காஃ ஸ்துவந்தி த்வாஂ ஸ்துதிபிஃ புஷ்கலாபிஃ৷৷11.21৷৷
అమీ హి త్వాం సురసఙ్ఘాః విశన్తి కేచిద్భీతాః ప్రాఞ్జలయో గృణన్తి. స్వస్తీత్యుక్త్వా మహర్షిసిద్ధసఙ్ఘాః స్తువన్తి త్వాం స్తుతిభిః పుష్కలాభిః৷৷11.21৷৷
11.22
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।।11.22।। जो ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, बारह साध्यगण, दस विश्वेदेव और दो अश्विनीकुमार, उनचास मरुद्गण, सात पितृगण तथा गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धोंके समुदाय हैं, वे सभी चकित होकर आपको देख रहे हैं।
।।11.22।। रुद्रगण, आदित्य, वसु और साध्यगण, विश्वेदेव तथा दो अश्विनीकुमार, मरुद्गण और उष्मपा, गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धगणों के समुदाय- ये सब ही विस्मित होते हुए आपको देखते हैं।।
।।11.22।। अर्जुन और आगे वर्णन करते हुए कहता है कि इस ईश्वरीय रूप को देखने वालों में प्राकृतिक नियमों या शक्तियों के वे सब अधिष्ठातृ देवतागण भी सम्मिलित हैं? जिनकी वैदिककाल में पूजा और उपासना की जाती थी। वे सभी विस्मयचकित होकर इस रूप को देख रहे थे।इस श्लोक में उल्लिखित प्राय सभी देवताओं के विषय में हम पूर्व अध्याय में वर्णन कर चुके हैं। जिन नवीन नामों का यहाँ उल्लेख किया गया है? वे हैं साध्या ? विश्वेदेवा? और ऊष्मपा ।इन शब्दों के अर्थों से आज हम अनभिज्ञ होने के कारण? यह श्लोक सम्भवत हमें अर्थपूर्ण प्रतीत नहीं होगा। परन्तु? अर्जुन वैदिक युग का पुरुष तथा वेदों का अध्येता होने के कारण इन सबसे सुपरिचित था? अत उसकी भाषा भी यही हो सकती थी। हमें केवल यही देखना है कि इस विराट् पुरुष के दर्शन का अर्जुन पर क्या प्रभाव पड़ा और विभिन्न प्रकार के देवताओं? ऋषियों? आदि की प्रतिक्रिया क्या हुई। इस आकाररहित आकार के विशाल विश्वरूप को प्रत्येक ने अपनेअपने मन के अनुसार देखा और समझा।अधिकाधिक विवरण देकर अर्जुन श्रोताओं के मनपटल पर विराट् पुरुष के चित्र को स्पष्ट करने का प्रयत्न करता है
।।11.22।। व्याख्या--'रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च'--ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, दो अश्विनीकुमार और उनचास मरुद्गण -- इन सबके नाम इसी अध्यायके छठे श्लोककी व्याख्यामें दिये गये हैं, इसलिये वहाँ देख लेना चाहिये। मन, अनुमन्ता, प्राण, नर, यान, चित्ति, हय, नय, हंस, नारायण, प्रभव और विभु -- ये बारह 'साध्य' हैं (वायुपुराण 66। 15 16)। क्रतु, दक्ष, श्रव, सत्य, काल, काम, धुनि, कुरुवान्, प्रभवान् और रोचमान -- ये दस 'विश्वेदेव' हैं (वायुपुराण 66। 31 32)। कव्यवाह अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निष्वात्त और बर्हिषत् -- ये सात 'पितर' हैं (शिवपुराण, धर्म0 63। 2)। ऊष्म अर्थात् गरम अन्न खानेके कारण पितरोंका नाम 'ऊष्मपा' है।
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।।11.22।।ऊष्मपाः पितरःऊष्मभागा हि पितरः (तै. ब्रा. 1।3।10) इति श्रुतेः। एते सर्वे विस्मयम् आपन्नाः त्वां वीक्षन्ते।
।।11.22।।दृश्यमानस्य भगवद्रूपस्य विस्मयकरत्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। त एवोक्ता रुद्रादयः सर्वे विस्मयमापन्नास्त्वां पश्यन्तीति संबन्धः।
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।।11.22।।रुद्रादित्या इति। किंचान्यत् रुद्राश्चादित्याश्च वसवो ये च साध्या नाम देवगणा,विश्वतुल्यविभक्तिकविश्वेदेवशब्दाभ्यामुच्यमाना देवगणा अश्िवनौ नासत्यदस्रौ मरुत एकोनपञ्चाशद्देवगणा ऊष्मपाश्च पितरो गन्धर्वाणां यक्षाणामसुराणां सिद्धानां च जातिभेदानां सङ्घाः समूहा वीक्षन्ते पश्यन्ति त्वा त्वां। तादृशाद्भुतदर्शनात्ते सर्व एव विस्मिताश्च। विस्मयलौकिकचमत्कारविशेषमापद्यन्ते च।
।।11.22।। किंच -- रुद्रेति। रुद्राश्चादित्याश्च वसवश्च ये च साध्यानाम देवाः? विश्वेदेवा अश्िवनौ देवौ? मरुतो मरुद्गणाः? ऊष्माणं पिबन्तीत्यूष्मपाः पितरः?ऊष्मभागा हि पितरः इत्यादिश्रुतेः। स्मृतिश्चयावदुष्णं भवेदन्नं यावदश्नन्ति वाग्यताः। पितरस्तावदश्नन्ति यावन्नोक्ता हविर्गुणाः।। इति। गन्धर्वाश्च यक्षाश्चासुराश्च विरोचनादयः? सिद्धानां सङ्घाश्च ते सर्व एव विस्मिताः सन्तः त्वां वीक्षन्त इत्यन्वयः।
।।11.22।।देवजातिभेदसमभिव्याहारानुगुणमूष्मपशब्दार्थमाह -- पितर इति।
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।।11.22।।किं च ये त्वदनुगृहीता रुद्रादयस्तेऽपि विस्मिताः सन्तः सर्वे त्वां वीक्षन्त इत्याह -- रुद्रादित्या इति। साध्याः विश्वे च देवगणविशेषौ रुद्रादित्यवज्ज्ञेयौ। उष्मपाः पितरः। गन्धर्वाणां यक्षाणामसुराणां सिद्धानां जातिभेदानां सङ्घाः समूहाः। शेषं स्पष्टम्।
।।11.22।।किंचैद्रूपं दृष्ट्वा नाहमेव विस्मयाविष्टः? अपि तु रुद्रादयोऽपीत्याह -- रूद्रेति। ऊष्माणं पिबन्तीत्ययूष्मपाः पितरः।ऊष्मभागा हि पितरः।यावदुष्णं भवेदन्नं यावदश्चन्ति वाग्यताः। पितरस्तावदश्रन्ति यावन्नोक्ता हविर्गुणाः इति श्रुतिस्मृतभ्याम्। गन्धर्वा हाहाहूहूप्रभृतयः? यक्षाः कुबेरादयः? असुरा विरोचनादयः? सिद्धाः कपिलादयः? तेषां सङ्घाः समूहास्त्वां पश्यन्ति। सर्वे विस्मिता विस्मयं प्राप्ता एव च।
11.22 रुद्रादित्याः Rudras and Adityas? वसवः Vasus? ये these? च and? साध्याः Sadhyas? विश्वे Visvedevas? अश्िवनौ the two Asvins? मरुतः Maruts? च and? उष्मपाः Pitris? च and? गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घाः hosts of Gandharvas? Yakshas? Asuras and Siddhas? वीक्षन्ते are looking at? त्वाम् Thee? विस्मिताः astonished? च and? एव even? सर्वे all.Commentary Sadhyas are a class of gods of whom Brahma is the chief.Visvedevas are ten gods who in Vedic times were considered as protectors of human beings. They were called guardians of the world. They were givers of plenty to the human beings. Their names are Krata? Daksha? Vasu? Satya? Kama? Kala? Dhvani? Rochaka? Adrava and Pururava.The two Asvins? born of Prabha (light)? daughter of Tushta and the Sun? are the physicians of the gods.Rudras? Adityas? Vasus and Maruts -- see tenth chapter? verses 21 and 23.Ushmapa A class of manes. They accept the food offered in the Sraaddha (anniversary) ceremony or the obseies? while it is hot. Hence they are called Ushmapas. There are seven groups of manes.Gandharvas are celestial singers such as Haha and Huhu.Yakshas such as Kubera (the god of wealth) Asuras such as Virochana perfected ones such as Kapila.
11.22 The Rudras, Adityas, Vasus, Sadhyas, Visvedevas, the two Asvins, Maruts, the manes and the hosts of celestial singers, Yakshas, demons and the perfected ones, are all looking at Thee, in great amazement.
11.22 The Vital Forces, the Major stars, Fire, Earth, Air, Sky, Sun, Heaven, Moon and Planets; the Angels, the Guardians of the Universe, the divine Healers, the Winds, the Fathers, the Heavenly Singers; and hosts of Mammon-worshippers, demons as well as saints, are amazed.
11.22 Those who are the Rudras, the Adityas, the Vasus and the Sadhyas [sadhyas: A particular class of celestial beings.-V.S.A.], the Visve (-devas), the two Asvins, the Maruts and the Usmapas, and hosts of Gandharvas, Yaksas, demons and Siddhas-all of those very ones gaze at You, being indeed struck with wonder.
11.22 Ye, those who are; the rudra-adityah, Rudras and Adityas; vasavah, the Vasus; and sadhyah, the Sadhyas-the groups of Rudras and other gods; the gods visve, Visve-devas; and asvinau, the two Asvins; marutah, the Maruts; and usmapah, the Usmapas, (a class of) manes; and gandharva-yaksa-asura-siddha-sanghah, hosts of Gandharvas-viz Haha, Huhu and others-, Yaksas-viz Kubera and others-, demons-Virocana and others-, and Siddhas-Kapila and others; sarve eva, all of those very ones; viksante, gaze; tva, (i.e.) tvam, at You; vismitah eva, being indeed struck with wonder. For,
11.22. The Rudras, the Adityas, the Vasus, the Sadhyas, the Visvas (Visvadevas), the twin Asvins and the Maruts, and the Steam-drinkers (Manes) and the hosts of the Gandharvas, the Yoksas, the demons and the perfected ones - all gaze on You and are ite amazed.
11.22 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.22 Usmapa means manes, because the Sruti declares: 'Verily the manes receive the hot portions of the offerings' (Tai. Br., 1.3.10). All these, struck with amazement, behold You.
11.22 The Rudras, the Adityas, the Vasus, the Sadhyas, the Visvas, the Asvins, the Maruts and the manes, and the hosts of Gandharvas, Yaksas, Asuras, and Siddhas - all gaze upon You in amazement.
।।11.22।।तथा और भी --, जो रुद्र? आदित्य? वसु और साध्य आदि देवगण हैं? एवं जो विश्वेदेव? दोनों अश्विनीकुमार? वायुदेव और ऊष्मपा नामक पितृगण हैं तथा जो गन्धर्व? यक्ष? असुर और सिद्धोंके समुदाय हैं यानी हाहाहूहू आदि गन्धर्व? कुबेरादि यक्ष? विरोचनादि असुर और कपिलादि सिद्ध इन सबके समुदाय हैं? वे सभी आश्चर्ययुक्त हुए आपको देख रहे हैं।,
।।11.22।। --,रुद्रादित्याः वसवो ये च साध्याः रुद्रादयः गणाः विश्वेदेवाः अश्विनौ च देवौ मरुतश्च ऊष्मपाश्च पितरः? गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघाः गन्धर्वाः हाहाहूहूप्रभृतयः यक्षाः कुबेरप्रभृतयः असुराः विरोचनप्रभृतयः सिद्धाः कपिलादयः तेषां संघाः गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघाः? ते वीक्षन्ते पश्यन्ति त्वा त्वां विस्मिताः विस्मयमापन्नाः सन्तः ते एव सर्वे।।यस्मात् --,
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रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्िवनौ मरुतश्चोष्मपाश्च। गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे।।11.22।।
রুদ্রাদিত্যা বসবো যে চ সাধ্যা বিশ্বেশ্িবনৌ মরুতশ্চোষ্মপাশ্চ৷ গন্ধর্বযক্ষাসুরসিদ্ধসঙ্ঘা বীক্ষন্তে ত্বাং বিস্মিতাশ্চৈব সর্বে৷৷11.22৷৷
রুদ্রাদিত্যা বসবো যে চ সাধ্যা বিশ্বেশ্িবনৌ মরুতশ্চোষ্মপাশ্চ৷ গন্ধর্বযক্ষাসুরসিদ্ধসঙ্ঘা বীক্ষন্তে ত্বাং বিস্মিতাশ্চৈব সর্বে৷৷11.22৷৷
રુદ્રાદિત્યા વસવો યે ચ સાધ્યા વિશ્વેશ્િવનૌ મરુતશ્ચોષ્મપાશ્ચ। ગન્ધર્વયક્ષાસુરસિદ્ધસઙ્ઘા વીક્ષન્તે ત્વાં વિસ્મિતાશ્ચૈવ સર્વે।।11.22।।
ਰੁਦ੍ਰਾਦਿਤ੍ਯਾ ਵਸਵੋ ਯੇ ਚ ਸਾਧ੍ਯਾ ਵਿਸ਼੍ਵੇਸ਼੍ਿਵਨੌ ਮਰੁਤਸ਼੍ਚੋਸ਼੍ਮਪਾਸ਼੍ਚ। ਗਨ੍ਧਰ੍ਵਯਕ੍ਸ਼ਾਸੁਰਸਿਦ੍ਧਸਙ੍ਘਾ ਵੀਕ੍ਸ਼ਨ੍ਤੇ ਤ੍ਵਾਂ ਵਿਸ੍ਮਿਤਾਸ਼੍ਚੈਵ ਸਰ੍ਵੇ।।11.22।।
ರುದ್ರಾದಿತ್ಯಾ ವಸವೋ ಯೇ ಚ ಸಾಧ್ಯಾ ವಿಶ್ವೇಶ್ಿವನೌ ಮರುತಶ್ಚೋಷ್ಮಪಾಶ್ಚ. ಗನ್ಧರ್ವಯಕ್ಷಾಸುರಸಿದ್ಧಸಙ್ಘಾ ವೀಕ್ಷನ್ತೇ ತ್ವಾಂ ವಿಸ್ಮಿತಾಶ್ಚೈವ ಸರ್ವೇ৷৷11.22৷৷
രുദ്രാദിത്യാ വസവോ യേ ച സാധ്യാ വിശ്വേശ്ിവനൌ മരുതശ്ചോഷ്മപാശ്ച. ഗന്ധര്വയക്ഷാസുരസിദ്ധസങ്ഘാ വീക്ഷന്തേ ത്വാം വിസ്മിതാശ്ചൈവ സര്വേ৷৷11.22৷৷
ରୁଦ୍ରାଦିତ୍ଯା ବସବୋ ଯେ ଚ ସାଧ୍ଯା ବିଶ୍ବେଶ୍ିବନୌ ମରୁତଶ୍ଚୋଷ୍ମପାଶ୍ଚ| ଗନ୍ଧର୍ବଯକ୍ଷାସୁରସିଦ୍ଧସଙ୍ଘା ବୀକ୍ଷନ୍ତେ ତ୍ବାଂ ବିସ୍ମିତାଶ୍ଚୈବ ସର୍ବେ||11.22||
rudrādityā vasavō yē ca sādhyā viśvē.śivanau marutaścōṣmapāśca. gandharvayakṣāsurasiddhasaṅghā vīkṣantē tvāṅ vismitāścaiva sarvē৷৷11.22৷৷
ருத்ராதித்யா வஸவோ யே ச ஸாத்யா விஷ்வேஷ்ிவநௌ மருதஷ்சோஷ்மபாஷ்ச. கந்தர்வயக்ஷாஸுரஸித்தஸங்கா வீக்ஷந்தே த்வாஂ விஸ்மிதாஷ்சைவ ஸர்வே৷৷11.22৷৷
రుద్రాదిత్యా వసవో యే చ సాధ్యా విశ్వేశ్ివనౌ మరుతశ్చోష్మపాశ్చ. గన్ధర్వయక్షాసురసిద్ధసఙ్ఘా వీక్షన్తే త్వాం విస్మితాశ్చైవ సర్వే৷৷11.22৷৷
11.23
11
23
।।11.23।। हे महाबाहो! आपके बहुत मुखों और नेत्रोंवाले, बहुत भुजाओं, जंघाओं और चरणोंवाले, बहुत उदरोंवाले, बहुत विकराल दाढ़ोंवाले महान् रूपको देखकर सब प्राणी व्यथित हो रहे हैं तथा मैं भी व्यथित हो रहा हूँ।
।।11.23।। हे महाबाहो! आपके बहुत मुख तथा नेत्र वाले, बहुत बाहु, उरु (जंघा) तथा पैरों वाले, बहुत-ंंसी उदरों वाले तथा बहुतसी विकराल दाढ़ों वाले महान् रूप को देखकर सब लोग व्यथित हो रहे हैं और उसी प्रकार मैं भी (व्याकुल हो रहा हूँ)।।
।।11.23।। See commentary under 11.24
।।11.23।। व्याख्या--[पन्द्रहवेंसे अठारहवें श्लोकतक विश्वरूपमें 'देव'-रूपका, उन्नीसवेंसे बाईसवें श्लोकतक 'उग्र'-रूपका और तेईसवेंसे तीसवें श्लोकतक 'अत्यन्त उग्र'-रूपका वर्णन हुआ है।]
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।।11.23।।बह्वीभिः दंष्ट्राभिः अतिभीषणाकारं लोकाः पूर्वोक्ताः प्रतिकूलानुकूलमध्यस्थाः त्रिविधाः सर्व एव अहं च तव इदम् ईदृशं रूपं दृष्ट्वा अतीव व्यथिता भवामः।
।।11.23।।लोकत्रयं प्रव्यथितमित्युक्तमुपसंहरति -- यस्मादिति। ईदृशं यस्मात्ते रूपं तस्मात्तं दृष्ट्वेति योजना। भयेन लौकिकवदहमपि व्यथितो व्यथां पीडां देहेन्द्रियप्रचलनं प्राप्तोऽस्मीत्याह -- तथेति।
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।।11.23।।लोकत्रयं प्रव्यथितमित्युक्तमुपसंहरति -- रूपमिति। हे महाबाहो? ते तव रूपं दृष्ट्वा लोकाः सर्वेऽपि प्राणिनः प्रव्यथितास्तथाऽहं प्रव्यथितो भयेन। कीदृशं ते रूपम्। महत् अतिप्रमाणम्। बहूनि वक्त्राणि नेत्राणि च यस्मिंस्तत्। बहवो बाहवः ऊरवः पादाश्च यस्मिंस्तत्। बहून्युदराणि यस्मिंस्तत्। बहुभिर्दंष्ट्राभिः करालमतिभयानकम्। दृष्ट्वैव मत्सहिताः सर्वे लोका भयेन पीडिता इत्यर्थः।
।।11.23।।किंच -- रूपमिति। हे महाबाहो? महदत्यूर्जितं तव रूपं दृष्ट्वा लोकाः सर्वे प्रव्यथिता अतिभीताः? तथाहं प्रव्यथितोऽस्मि। कीदृशं रूपं दृष्ट्वा। बहूनि वक्त्राणि नेत्राणि च यस्मिंस्तत्? बहवो बाहव ऊरवः पादाश्च यस्मिंस्तत्? बहूनि उदराणि यस्मिंस्तत्? बहुभिर्दंष्ट्राभिः करालं विकृतं। रौद्रमित्यर्थः।
।।11.23।।रुद्रादित्याः [11।22] इत्यादिना विस्मय उक्तःरूपं महत्ते इति भीतिरुच्यते पूर्वोक्तलोकत्रयशब्दस्यात्रत्यलोकशब्दस्य च प्रत्यभिज्ञयैकविषयत्वं दर्शयति -- लोकाः पूर्वोक्ता इति।इदमीदृशं इति प्रकारिणः प्रकाराणां च निर्देशः। प्रस्थानप्रस्मरणादिषु प्रशब्दस्य निषेधपरत्वदर्शनात्प्रव्यथिताः इत्यत्र तद्व्युदासायाह -- अतीवेति।व्यथिताः चलिताः? भीता वा।
।।11.23।।किञ्चरूपमिति। हे महाबाहो महत्कृपाशक्तियुक्त ते रूपं दृष्ट्वा लोकास्त्वत्स्वरूप एव स्थिताः प्रव्यथिताः? भीता इत्यर्थः। तथाऽहं च प्रव्यथितः। भयजनकत्वेन रूपं वर्णयति -- बह्वित्यादिविशेषणैः। बहूनि वक्त्राणि नेत्राणि च यस्मिन्। बहवः बाहव ऊरवः पादाश्च यस्मिन्। बहूनि उदराणि यस्मिन्। बह्वीभिर्द्रंष्ट्राभिः करालं भयानकम्। वक्त्रबाहुल्येन गिलनसामर्थ्यं? नेत्रबाहुल्येन सर्वतो दर्शनसामर्थ्यं? तेन निलायनाद्यशक्यत्वम्? क्रियाबाहुल्येन ग्रहणसामर्थ्यम्? ऊरुपादबाहुल्येन धावनसामर्थ्यं? तेन पलायनाद्यशक्तत्वम् उदरबाहुल्येन जारणसामर्थ्यम्? दंष्ट्राबाहुल्येन चर्वणसामर्थ्यं द्योतितम्। अत एवंविधं दृष्ट्वा त्वद्रूपस्थाश्चेल्लोकाः प्रव्यथितास्तदा मम कः सन्देह इति तथेति पदेन द्योतितम्।
।।11.23।।पुनर्लोकानामात्मनश्च व्यथामाह -- रूपमिति। महत् आदिमध्यान्तहीनम्। हे महाबाहो? ते तव करालं महारूपं दृष्ट्वा लोका व्यथितास्तथाहं च व्यथित इति योजना।
।।11.23।।रूद्रादयः किमर्थ विस्मयापन्ना इति चेत् यस्मात्सर्वे लोकाः करालं तव रुपं दृष्ट्वा पीडिता इत्याह -- रुपमिति। तव रुपं महदतिप्रमाणम्। तदेवाह। बहूनि मुखानि चक्षूंषि च यस्मिन् तत्? बहूनि बाह्वदीनि प्रव्यथिता भयेन प्रचलिताः। ननु प्रव्यथितैर्लोकैः किं तव त्वं तु न व्यथि इत्यत आह। तथाहमपि व्यथितः।
11.23 रूपम् form? महत् immeasurable? ते Thy? बहुवक्त्रनेत्रम् with many mouths and eyes? महाबाहो O,mightyarmed? बहुबाहूरुपादम् with many arms? thighs and feet? बहूदरम् with many stomachs. बहुदंष्ट्राकरालम् fearful with many teeth? दृष्ट्वा having seen? लोकाः the worlds? प्रव्यथिताः are terrified? तथा also? अहम् I.Commentary Lokah The worlds -- all living beings in the world. Here is the cause of my fear. Arjuna describes below the nature of the Cosmic Form which has caused terror in his heart.
11.23 Having seen Thy immeasurable form with many mouths and eyes, O mighty-armed, with many arms, thighs and feet, with many stomachs and fearful with many teeth the worlds are terrified and so am I.
11.23 Seeing Thy stupendous Form, O Most Mighty, with its myriad faces, its innumerable eyes and limbs and terrible jaws, I myself and all the worlds are overwhelmed with awe.
11.23 O mighty-armed One, seeing Your immense form with many mouths and eyes, having numerous arms, thighs and feet, with many bellies, and fearful with many teeth, the creatures are struck with terror, and so am I.
11.23 Mahabaho, O mighty-armed One; drstva, seeing; te, Your; mahat, immence, very vast; upam, form of this kind; bahu-vaktra-netram, with many mouths and eyes; bahu-bahu-uru-padam, having many arms, thighs and feet; and further, bahu-udaram, with many bellies; and bahu-damstra-karalam, fearful with many teeth; lokah, the creatures in the world; are pravya-thitah, struck with terror; tatha, and so also; am even aham, I. The reason of that is this:
11.23. O Mighty-armed One ! Having seen Your mighty form that has many faces and eyes, many arms, thighs and feet, and many bellies, and is terrible with many tusks; the worlds are frightened and so also myself.
11.23 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.23 Beholding Your mighty form, as described earlier, which is an exceedingly terrifying figure because of the large teeth - all the worlds, described earlier and containing three kinds of beings, friendly, antagonistic and neutral, and I myself too have become panic-stricken.
11.23 Beholding Your great form with many mouths and eyes, with many arms, thights, and feet, witth many stomachs and terrible with many teeth, the worlds tremble, and I too ake, O mighty-armed.
।।11.23।।क्योंकि --, हे महाबाहो आपका यह रूप अति महान् -- बहुत लंबाचौड़ा? अनेकों मुख और नेत्रोंवाला -- जिसके अनेकों मुख और नेत्र हैं ऐसा? बहुतसी भुजाओं? जंघाओं और चरणोंवाला -- जिसके बहुतसी भुजाएँ? जंघाएँ और चरण हैं ऐसा? तथा बहुतसे पेटोंवाला -- जिसके बहुतसे पेट हैं ऐसा और बहुतसी दाढ़ोंसे अति विकराल आकृतिवाला है अर्थात् बहुतसी दाढ़ोंके कारण जिसकी आकृति अति भयंकर हो गयी है? ऐसा है। आपके ऐसे ( विकट ) रूपको देखकर संसारके समस्त प्राणी भयसे व्याकुल हो रहे हैं -- काँप रहे हैं? और मैं भी उन्हींकी भाँति भयभीत हो रहा हूँ।,
।।11.23।। --,रूपं महत् अतिप्रमाणं ते तव बहुवक्त्रनेत्रं बहूनि वक्त्राणि मुखानि नेत्राणि चक्षूंषि च यस्मिन् तत् रूपं बहुवक्त्रनेत्रम्? हे महाबाहो? बहुबाहूरुपादं बहवो बाहवः ऊरवः पादाश्च यस्मिन् रूपे तत् बहुबाहूरुपादम्? किञ्च? बहूदरं बहूनि उदराणि यस्मिन्निति बहूदरम्? बहुदंष्ट्राकरालं बह्वीभिः दंष्ट्राभिः करालं विकृतं तत् बहुदंष्ट्राकरालम्? दृष्ट्वा रूपम् ईदृशं लोकाः लौकिकाः प्राणिनः प्रव्यथिताः प्रचलिताः भयेन तथा अहमपि।।तत्रेदं कारणम् --,
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रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम्। बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाऽहम्।।11.23।।
রূপং মহত্তে বহুবক্ত্রনেত্রং মহাবাহো বহুবাহূরুপাদম্৷ বহূদরং বহুদংষ্ট্রাকরালং দৃষ্ট্বা লোকাঃ প্রব্যথিতাস্তথাহম্৷৷11.23৷৷
রূপং মহত্তে বহুবক্ত্রনেত্রং মহাবাহো বহুবাহূরুপাদম্৷ বহূদরং বহুদংষ্ট্রাকরালং দৃষ্ট্বা লোকাঃ প্রব্যথিতাস্তথাহম্৷৷11.23৷৷
રૂપં મહત્તે બહુવક્ત્રનેત્રં મહાબાહો બહુબાહૂરુપાદમ્। બહૂદરં બહુદંષ્ટ્રાકરાલં દૃષ્ટ્વા લોકાઃ પ્રવ્યથિતાસ્તથાહમ્।।11.23।।
ਰੂਪਂ ਮਹਤ੍ਤੇ ਬਹੁਵਕ੍ਤ੍ਰਨੇਤ੍ਰਂ ਮਹਾਬਾਹੋ ਬਹੁਬਾਹੂਰੁਪਾਦਮ੍। ਬਹੂਦਰਂ ਬਹੁਦਂਸ਼੍ਟ੍ਰਾਕਰਾਲਂ ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵਾ ਲੋਕਾ ਪ੍ਰਵ੍ਯਥਿਤਾਸ੍ਤਥਾਹਮ੍।।11.23।।
ರೂಪಂ ಮಹತ್ತೇ ಬಹುವಕ್ತ್ರನೇತ್ರಂ ಮಹಾಬಾಹೋ ಬಹುಬಾಹೂರುಪಾದಮ್. ಬಹೂದರಂ ಬಹುದಂಷ್ಟ್ರಾಕರಾಲಂ ದೃಷ್ಟ್ವಾ ಲೋಕಾಃ ಪ್ರವ್ಯಥಿತಾಸ್ತಥಾಹಮ್৷৷11.23৷৷
രൂപം മഹത്തേ ബഹുവക്ത്രനേത്രം മഹാബാഹോ ബഹുബാഹൂരുപാദമ്. ബഹൂദരം ബഹുദംഷ്ട്രാകരാലം ദൃഷ്ട്വാ ലോകാഃ പ്രവ്യഥിതാസ്തഥാഹമ്৷৷11.23৷৷
ରୂପଂ ମହତ୍ତେ ବହୁବକ୍ତ୍ରନେତ୍ରଂ ମହାବାହୋ ବହୁବାହୂରୁପାଦମ୍| ବହୂଦରଂ ବହୁଦଂଷ୍ଟ୍ରାକରାଲଂ ଦୃଷ୍ଟ୍ବା ଲୋକାଃ ପ୍ରବ୍ଯଥିତାସ୍ତଥାହମ୍||11.23||
rūpaṅ mahattē bahuvaktranētraṅ mahābāhō bahubāhūrupādam. bahūdaraṅ bahudaṅṣṭrākarālaṅ dṛṣṭvā lōkāḥ pravyathitāstathā.ham৷৷11.23৷৷
ரூபஂ மஹத்தே பஹுவக்த்ரநேத்ரஂ மஹாபாஹோ பஹுபாஹூருபாதம். பஹூதரஂ பஹுதஂஷ்ட்ராகராலஂ தரிஷ்ட்வா லோகாஃ ப்ரவ்யதிதாஸ்ததாஹம்৷৷11.23৷৷
రూపం మహత్తే బహువక్త్రనేత్రం మహాబాహో బహుబాహూరుపాదమ్. బహూదరం బహుదంష్ట్రాకరాలం దృష్ట్వా లోకాః ప్రవ్యథితాస్తథాహమ్৷৷11.23৷৷
11.24
11
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।।11.24।। हे विष्णो ! आपके अनेक देदीप्यमान वर्ण हैं, आप आकाशको स्पर्श कर रहे हैं, आपका मुख फैला हुआ है आपके नेत्र प्रदीप्त और विशाल हैं। ऐसे आपको देखकर भयभीत अन्तःकरणवाला मैं धैर्य और शान्तिको प्राप्त नहीं हो रहा हूँ।
।।11.24।। हे विष्णो! आकाश के साथ स्पर्श किये हुए देदीप्यमान अनेक रूपों से युक्त तथा विस्तरित मुख और प्रकाशमान विशाल नेत्रों से युक्त आपको देखकर भयभीत हुआ मैं धैर्य और शान्ति को नहीं प्राप्त हो रहा हूँ।।
।।11.24।। अर्जुन द्वारा अनुभव किया गया यह आसाधारण अद्भुत और उग्र दृश्य किसी एक स्थान पर केन्द्रित नहीं किया जा सकता था। वस्तुत? वह सर्वव्यापकता की सीमा तक फैला हुआ था। परन्तु? अर्जुन ने अपनी आन्तरिक दृष्टि में उसे एक परिच्छिन्न रूप और निश्चित आकार में देखा। अरूप गुणों (जैसे स्वतन्त्रता? प्रेम? राष्ट्रीयता इत्यादि) को जब भी हम बौद्धिक दृष्टि से समझते हैं? तब हम उसे एक निश्चित आकार प्रदान करते हैं? जो स्वयं के ज्ञान के लिए ही होता है? परन्तु कदापि इन्द्रियगोचर नहीं होता। इसी प्रकार? यद्यपि विराट् रूप तो विश्वव्यापी है? परन्तु अर्जुन को ऐसा अनुभव होता है? मानो? उसका कोई आकार विशेष है। किन्तु? पुन जब वह इस अनुभूत दृश्य का वर्णन करने का प्रयत्न करता है? तो उसके वचन उसकी ही भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाते और उसका अपना प्रयोजन ही सिद्ध नहीं हो पाता है।अर्जुन देखता है कि समस्त लोक उस विराट् पुरुष को देखकर भयभीत हो रहे हैं? जिसमें? बहुत मुख? नेत्र? बहुत बाहु? उरु और पैरों वाले? बहुत उदरों वाले आदि रूप हैं और वह कहता है? मैं भी भयभीत हो रहा हूँ। यह भी सबने अनुभव किया होगा कि यदि हम किसी उत्तेजित जनसमुदाय के मध्य अथवा सत्संग में होते हैं? तब वहाँ के वातावरण का हमारे मन पर भी उसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है। सब लोक भयभीत हुये हैं? और अर्जुन स्वीकार करता है कि? मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ।अपनी ही स्वीकारोक्ति के बाद उसे यह भय लगना एक क्षत्रिय पुरुष के लिए अपमानजनक और कायरता का लक्षण जान पड़ा। इसलिए? अपने भय को उचित सिद्ध करने के लिए वह उस भयंकर रूप को अनन्तरूप अर्थात् रूपविहीन बताते हुए कहता है कि विश्वरूप अपने में सबको समेटे हुए है। यह विराट् रूप आकाश को स्पर्श कर रहा है। असंख्य वर्णों से वह दीप्तमान हो रहा है। उसके विशाल आग्नेय नेत्र चमक रहे हैं। उसका मुख सबका भक्षण कर रहा है। यह सब सम्मिलित रूप में देवताओं के साहस को भी डगमगा देने वाला है। अर्जुन यह भी स्वीकार करता है कि इस रूप के दर्शन से मैं भयभीत हूँ मुझे न धैर्य प्राप्त हो रहा है और न शान्ति। यहाँ ध्यान देने की बात है कि इस प्रकार के संवेदनाशून्य भय की स्थिति में वह विश्वरूप को? हे विष्णो कहकर सम्बोधित करता है।जैसा कि मैनें प्रारम्भ में कहा है अर्जुन की अर्न्तदृष्टि में अत्यन्त स्पष्ट अनुभव हो रहा विराट् रूप? वस्तुत अनन्त परमात्मा का इस विश्व के नाम और रूपों के असीम विस्तार की दृष्टि से किया गया वर्णन है। गीता के विद्यार्थियों को इन सूक्ष्म विचारधाराओं का विस्मरण नहीं होने देना चाहिए जिन्हें व्यासजी ने परिश्रमी और लगनशील साधकों के लाभ के लिए गुप्त रख छोड़ा है अपने भय का कारण बताते हुए अर्जुन कहता है
।।11.24।। व्याख्या--[बीसवें श्लोकमें तो अर्जुनने विराट्रूपकी लम्बाई-चौड़ाईका वर्णन किया, अब यहाँ केवल लम्बाईका वर्णन करते हैं।]
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।।11.24।।नभःशब्दःतदक्षरे परमे व्योमन् (महाना0 1।2)आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् (श्वे0 उ0 3।8 यजुः सं0 31।18)क्षयन्तमस्य रजसः पराके (ऋक्स0 2।6।25।5)यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् (ऋक्सं0 8।9।17।7 इत्यादिश्रुतिसिद्धत्रिगुणप्रकृत्यतीत -- परमव्योमवाची? सविकारस्य प्रकृतितत्त्वस्य पुरुषस्य च सर्वावस्थस्य? कृत्स्नस्य आश्रयतया नभःस्पृशम् इति वचनात्।द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तम् (गीता 11।20) इति पूर्वोक्तत्वात् च।दीप्तम् अनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रं त्वां दृष्ट्वा प्रव्यथितान्तरात्मा अत्यन्तभीतमना धृतिं न विन्दामि? देहस्य धारणं न लभे। मनसः च इन्द्रियाणां च शमं न लभे।विष्णो व्यापिन् सर्वव्यापिनम् अतिमात्रम् अत्यद्भुतम् अतिघोरं च त्वां दृष्ट्वा प्रशिथिलसर्वावयवो व्याकुलेन्द्रियः च भवामि इत्यर्थः।
।।11.24।।अर्जुनस्य विश्वरूपदर्शनेन व्यथितत्वे हेतुमाह -- तत्रेति।
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।।11.24।।भयानकत्वमेव प्रपञ्चयति -- नभःस्पृशमिति। न केवलं प्रव्यथित एवाहं त्वां दृष्ट्वा किंतु प्रव्यथितोऽन्तरात्मा मनो यस्य सोहं धृतिं धैर्यं देहेन्द्रियादिधारणसामर्थ्यं शमं च मनःप्रसादं न विन्दामि न लभे। हे विष्णो? त्वां कीदृशम्। नभःस्पृशमन्तरिक्षवव्यापिनं दीप्तं ज्वलितं अनेकवर्णं भयंकरनानासंस्थानयुक्तम् व्यात्ताननं विवृतमुखं दीप्तविशालनेत्रं प्रज्वलितविस्तीर्णचक्षुषं त्वां दृष्ट्वा हि एव प्रव्यथितान्तरात्माहं धृतिं शमं च न विन्दामीत्यन्वयः।
।।11.24।। न केवलं भीतोऽहमित्येतावदेव अपि तु -- नभःस्पृशमिति। नभः स्पृशतीति नभःस्पृक्तं। अन्तरिक्षव्यापिनमित्यर्थः। दीप्तं तेजोयुक्तम्। अनेके वर्णा यस्य तमनेकवर्णम्? व्यात्तानि विवृतान्याननानि यस्य तम्? दीप्तानि विशालानि नेत्राणि यस्य तम् एवंभूतं त्वां दृष्ट्वा प्रव्यथितोऽन्तरात्मा मनो यस्य सोऽहम् धृतिं धैर्यमुपशमं च न लभे।
।।11.24।।आकाशपर्यायाणामनेकेषां परस्मिन् पदे प्रयोगमभिप्रेत्याह -- नभश्शब्द इति।त्रिगुणेति विशेषणात् परमव्योम्नः शुद्धसत्त्वमयत्वसूचनम् अत्र प्रसिद्धप्राकृताकाशपरत्वे? गार्गिविद्योक्ताकाशशब्दवन्मूलप्रकृतिविषयत्वे वा को दोषः इत्यत्राह -- सविकारस्येति।इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं ৷৷. यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि [11।7]बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्य [11।6] इत्यादिकं ह्युक्तमिति भावः। हेत्वन्तरमाह -- द्यावापृथिव्योरिति। प्रसिद्धद्युपृथिव्यादिसर्वलोकव्यापकत्वं हि तत्रोक्तम् अन्यथा पुनरुक्तिः स्यात् अतः प्रकृतिपुरुषादिसर्वाश्रयवेषेण? नभस्स्पृक्त्वोक्तिः प्राकृतव्योमस्पर्शित्वविषयेति भावः। अनेकवर्णत्वमिह प्रतिनियतानन्तावयवविशेषवर्तिभिः सितरक्तादिभिर्वर्णैः किर्म्मीरत्वम् तथैव ह्यन्यत्र श्रीविश्वरूपविग्रहस्यानेकवर्णत्वमुक्तम् अन्नमयाद्यपेक्षया मनोमयस्यान्तरत्वाच्चेतनस्वरूपविषयत्वे प्रव्यथितशब्दानतिरिक्तप्रयोजनत्वादत्रान्तरात्मशब्देन मनो विवक्षितमित्यभिप्रायेणोक्तंअत्यन्तभीतमना इति। अचेतनेऽप्यन्तःकरणे भीतिव्यपदेशश्चेतनत्वारोपेण भीत्यतिशयद्योतनार्थः।न लभे च शर्म इति सुखस्य वक्ष्यमाणत्वात् धृतिशब्दोऽत्र न प्रीतिपर्यायसुखविशेषविषयः? धारणे च प्रसिद्धोऽयम् अतो धार्यानिर्देशेऽपि प्रकरणादर्थस्वभावाच्च देहविषयमिदं धारणमित्यभिप्रायेणदेहस्य धारणमित्युक्तम्।मनसश्चेन्द्रियाणां चेत्यपि सामर्थ्याच्छमशब्दप्रसिद्ध्या च लब्धम् अन्यथा तत्रापि पुनरुक्तिः स्यादिति भावः। विष्णुशब्दस्यात्र संज्ञामात्रपरत्वादप्युपयुक्तनिर्वचनसिद्धार्थपरत्वमुचितमित्यभिप्रायेणाह -- व्यापिन्निति। पिण्डितार्थमाहसर्वव्यापिनमिति।अतिमात्रं महापरिमाणमित्यर्थः।
।।11.24।।किञ्च केवलस्वाधिष्ठितदेहाध्यासेन जीवस्यैव न भयं? किन्तु त्वदंशस्यान्तरात्मनोऽपि भयं समुत्पन्नमित्याह -- नभस्स्पृशमिति। नभ आकाशं स्पृशति तदाकाशव्यापि ज्ञातुमशक्यम्। दीप्तं प्रज्वलत्तेजोराशिं ध्यानैकयोग्यम्। अनेकवर्णम् अनेके शुक्ललोहितादयो वर्णा यस्य तं निश्चययोग्यम्। व्यात्ताननं व्यात्तानि प्रसारितानि आननानि यस्य तं प्रार्थनायोग्यम्? दीप्तविशालनेत्रंदीप्तानि ज्वलद्रूपाणि विशालानि नेत्राणि यस्य तं दर्शनायोग्यम्। एतादृशं त्वां दृष्ट्वा प्रव्यथितः अतरात्मा यस्य तादृशो हि निश्चयेन धृतिं धैर्यं शमं च शान्तिं? न विन्दामि न प्राप्नोमीत्यर्थः। स्वरक्षणार्थं विष्णो इति सम्बोधनम्।
।।11.24।।करालत्वप्रपञ्चनेन स्वव्यथामेवाह -- नभ इति। नभःस्पृशं व्योमव्यापिनम्। दीप्तमग्निवज्जाज्वल्यमानम्। व्यात्ताननं विस्तारितमुखम्। दीप्तविशालनेत्रं रक्तनेत्रमित्यर्थः। हि प्रत्यक्षं त्वा त्वां दृष्ट्वा प्रव्यथितान्तरात्मा प्रकर्षेण व्यथितचित्तो धृतिं धैर्यं न विन्दामि न लभे शमं च शान्तिं स्वास्थ्यं च न लभे हे विष्णो व्यापक? भयानकं त्वदाक्रान्तं देशं त्यक्त्वान्यत्र गन्तुमशक्यं तव व्यापकत्वादिति भावः।
।।11.24।।स्वव्यथायां कारणमाह -- नभ इति। नभःस्पृशं द्युस्पृशं? दीप्तं ज्वलितं? अनेके नाना भयंकरा वर्णा यस्मिन् तं? व्याक्तानि विवृतानि भयंकराणि मुखानि यस्मिन्तं प्रज्वलितानि विस्तीर्णानि नेत्राणि यस्मिन्तं? त्वां दृष्ट्वा प्रव्यथितश्चलितोऽन्तरात्मा मनो यस्य सोऽयं धैर्यं न लभे अतएव शमं मनस्तुष्टिं न लभे। व्यापनशीलता तव मया दृष्टाऽधुना द्रष्टुमसमर्थोऽस्मीति सूचयन्नाह हे विष्णो इति? व्यापनशीलस्त्वं मनोगतमपि जानासीति वा संबोधनाशयः।
11.24 नभःस्पृशम् touching the sky? दीप्तम् shining? अनेकवर्णम् in many colours? व्यात्ताननम् with mouths wide open? दीप्तविशालनेत्रम् with larve fiery eyes? दृष्ट्वा having seen? हि verily? त्वाम् Thee? प्रव्यथितान्तरात्मा terrified at heart? धृतिम् courage? न not? विन्दामि (I) find? शमम् peace? च and? विष्णो O Vishnu.Commentary Dhriti also means patience and strength. Sama also means control.The vision of the Cosmic Form has frightened Arjuna considerably.
11.24 On seeing Thee (the Cosmic Form) touching the sky, shining in many colours, with mouths wide open, with large fiery eyes, I am terrified at heart and find neither courage nor peace, O Vishnu.
11.24 When I see Thee, touching the Heavens, glowing with colour, with open mouth and wide open fiery eyes, I am terrified. O My Lord! My courage and peace of mind desert me.
11.24 O Visnu, verily, seeing Your form touching heaven, blazing, with many colours, open-mouthed, with fiery large eyes, I , becoming terrified in my mind, do not find steadiness and peace.
11.24 O Visnu, hi, verily; drstva, seeing; tvam, You; nabhah-sprsam, touching heaven; diptam, blazing; aneka-varnam, with many colours, (i.e.) possessed of many frightening forms; vyatta-ananam, open-mouthed; dipta-visala-netram, with firey large eyes; I, pravyathita-antara-atma, becoming terrified in my mind; na vindami, do not find; dhrtim, steadiness; ca, and; samam, peace, calmness of mind. Why?
11.24. As I observe You [with form] touching the sky; blazing; having many colours, mouths wide open, eyes blazing and large; I am terrified in my inner soul (mind); and I do not get courage and peace, O Visnu !
11.24 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.24 The term 'Nabhas' denotes the Supreme Heaven (Parama-Vyoman), which is beyond the Prakrti composed of the three Gunas as established by the Sruti passages such as: 'That is in the Imperishable Supreme Heaven' (Ma. Na. U., 1.2), 'Him, sun-coloured and beyond Tamas' (Sve., 3.8) 'The dweller beyond the Rajas' (Rg. S., 2.6.25.5) and 'He who is the president in the Supreme Heaven' (Rg. S., 8.9.17.7). This can be understood as implied in the statement that 'the form touches the Supreme Heaven.' It expresses the idea that it is the foundation of all - of the principle of the Prakrti with its conditions, and of the individual selves in all states. It has also been initially declared: 'For by You alone are pervaded the interspace of heaven and earth ৷৷.' (11.20). 'Beholding Your form shining, multicoloured, and with yawning mouths and large and resplendent eyes, my inner being trembles in fear. I am unable to find support, namely, I am unable to find support for the body. I am unable to get peace of mind and of the senses. O Visnu, namely, O Pervader, beholding You pervading everything, incomparable in magnitude, extremely wonderful and terrible, I find my limbs ivering and my senses agitated.' Such is the meaning.
11.24 When I behold You touching the Supreme Heaven, shining, multicoloured, with yawning mouths and large resplendent eyes, my inner being trembles in fear. I am unable to find support or peace, O Visnu.
।।11.24।।उसमें यह कारण है कि --, आपके आकाशका स्पर्श किये हुए यानी स्वर्गतक व्याप्त? प्रदीप्त -- प्रकाशमान और अनेक वर्णोंवाले अर्थात् अनेक भयंकर आकृतियोंसे युक्त देखकर तथा फैलाये हुए मुखोंवाले -- जिस शरीरमें फैलाये हुए बहुतसे मुख हैं ऐसे और दीप्त विशाल नेत्रोंवाले -- जिसके बड़ेबड़े नेत्र प्रज्वलित हो रहे हैं ऐसे? देखकर हे विष्णो प्रव्यथितअन्तरात्मा -- अत्यन्त भयभीत अन्तःकरणवाला मैं अर्थात् जिसका मन भयसे व्याकुल हो रहा है ऐसा? मैं धैर्य और उपशमको अर्थात् मनकी तृप्तिरूप शान्तिको नहीं पा रहा हूँ।,
।।11.24।। --,नभःस्पृशं द्युस्पर्शम् इत्यर्थः? दीप्तं प्रज्वलितम्? अनेकवर्णम् अनेके वर्णाः भयंकराः नानासंस्थानाः यस्मिन् त्वयि तं त्वाम् अनेकवर्णम्? व्यात्ताननं व्यात्तानि विवृतानि आननानि मुखानि यस्मिन् त्वयि तं त्वां व्यात्ताननम्? दीप्तविशालनेत्रं दीप्तानि प्रज्वलितानि विशालानि विस्तीर्णानि नेत्राणि यस्मिन् त्वयि तं त्वां दीप्तविशालनेत्रं दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा प्रव्यथितः प्रभीतः अन्तरात्मा मनः यस्य मम सः अहं प्रव्यथितान्तरात्मा सन् धृतिं धैर्यं न विन्दामि न लभे शमं च उपशमनं मनस्तुष्टिं हे विष्णो।।कस्मात् --,
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नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्। दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो।।11.24।।
নভঃস্পৃশং দীপ্তমনেকবর্ণং ব্যাত্তাননং দীপ্তবিশালনেত্রম্৷ দৃষ্ট্বা হি ত্বাং প্রব্যথিতান্তরাত্মা ধৃতিং ন বিন্দামি শমং চ বিষ্ণো৷৷11.24৷৷
নভঃস্পৃশং দীপ্তমনেকবর্ণং ব্যাত্তাননং দীপ্তবিশালনেত্রম্৷ দৃষ্ট্বা হি ত্বাং প্রব্যথিতান্তরাত্মা ধৃতিং ন বিন্দামি শমং চ বিষ্ণো৷৷11.24৷৷
નભઃસ્પૃશં દીપ્તમનેકવર્ણં વ્યાત્તાનનં દીપ્તવિશાલનેત્રમ્। દૃષ્ટ્વા હિ ત્વાં પ્રવ્યથિતાન્તરાત્મા ધૃતિં ન વિન્દામિ શમં ચ વિષ્ણો।।11.24।।
ਨਭਸ੍ਪਰਿਸ਼ਂ ਦੀਪ੍ਤਮਨੇਕਵਰ੍ਣਂ ਵ੍ਯਾਤ੍ਤਾਨਨਂ ਦੀਪ੍ਤਵਿਸ਼ਾਲਨੇਤ੍ਰਮ੍। ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵਾ ਹਿ ਤ੍ਵਾਂ ਪ੍ਰਵ੍ਯਥਿਤਾਨ੍ਤਰਾਤ੍ਮਾ ਧਰਿਤਿਂ ਨ ਵਿਨ੍ਦਾਮਿ ਸ਼ਮਂ ਚ ਵਿਸ਼੍ਣੋ।।11.24।।
ನಭಃಸ್ಪೃಶಂ ದೀಪ್ತಮನೇಕವರ್ಣಂ ವ್ಯಾತ್ತಾನನಂ ದೀಪ್ತವಿಶಾಲನೇತ್ರಮ್. ದೃಷ್ಟ್ವಾ ಹಿ ತ್ವಾಂ ಪ್ರವ್ಯಥಿತಾನ್ತರಾತ್ಮಾ ಧೃತಿಂ ನ ವಿನ್ದಾಮಿ ಶಮಂ ಚ ವಿಷ್ಣೋ৷৷11.24৷৷
നഭഃസ്പൃശം ദീപ്തമനേകവര്ണം വ്യാത്താനനം ദീപ്തവിശാലനേത്രമ്. ദൃഷ്ട്വാ ഹി ത്വാം പ്രവ്യഥിതാന്തരാത്മാ ധൃതിം ന വിന്ദാമി ശമം ച വിഷ്ണോ৷৷11.24৷৷
ନଭଃସ୍ପୃଶଂ ଦୀପ୍ତମନେକବର୍ଣଂ ବ୍ଯାତ୍ତାନନଂ ଦୀପ୍ତବିଶାଲନେତ୍ରମ୍| ଦୃଷ୍ଟ୍ବା ହି ତ୍ବାଂ ପ୍ରବ୍ଯଥିତାନ୍ତରାତ୍ମା ଧୃତିଂ ନ ବିନ୍ଦାମି ଶମଂ ଚ ବିଷ୍ଣୋ||11.24||
nabhaḥspṛśaṅ dīptamanēkavarṇaṅ vyāttānanaṅ dīptaviśālanētram. dṛṣṭvā hi tvāṅ pravyathitāntarātmā dhṛtiṅ na vindāmi śamaṅ ca viṣṇō৷৷11.24৷৷
நபஃஸ்பரிஷஂ தீப்தமநேகவர்ணஂ வ்யாத்தாநநஂ தீப்தவிஷாலநேத்ரம். தரிஷ்ட்வா ஹி த்வாஂ ப்ரவ்யதிதாந்தராத்மா தரிதிஂ ந விந்தாமி ஷமஂ ச விஷ்ணோ৷৷11.24৷৷
నభఃస్పృశం దీప్తమనేకవర్ణం వ్యాత్తాననం దీప్తవిశాలనేత్రమ్. దృష్ట్వా హి త్వాం ప్రవ్యథితాన్తరాత్మా ధృతిం న విన్దామి శమం చ విష్ణో৷৷11.24৷৷
11.25
11
25
।।11.25।। आपके प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित और दाढ़ोंके कारण विकराल (भयानक) मुखोंको देखकर मुझे न तो दिशाओंका ज्ञान हो रहा है और न शान्ति ही मिल रही है। इसलिये हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये।
।।11.25।। आपके विकराल दाढ़ों वाले और प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर, मैं न दिशाओं को जान पा रहा हूँ और न शान्ति को प्राप्त हो रहा हूँ; इसलिए हे देवेश!  हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हो जाइए।।
।।11.25।। जैसा कि श्लोक में वर्णन किया गया है? अर्जुन ऐसे भयंकर रूप को देखकर अपना धैर्य और सुख खो रहा है। सर्वभक्षी? सबको एक रूपकर देने वाले काल का यह चित्र है। जब दृष्टि के समक्ष ऐसा विशाल दृश्य उपस्थित हो जाता है? और वह भी इतने आकस्मिक रूप से? तो विशालता का उसका परिमाण ही विवेकशक्ति का मानो गला घोंट देता है और क्षणभर के लिए वह व्यक्ति संवेदनाशून्य हो जाता है। भ्रान्तिजन्य दुर्व्यवस्था की दशा को यहाँ इन शब्दों में व्यक्त किया गया है कि? मैं दिशाओं को नहीं जान पा रहा हूँ। बात यहीं पर नहीं समाप्त होती। मैं न धैर्य रख पा रहा हूँ और न शान्ति,को भी।आत्यन्तिक विस्मय की इस स्थिति में आश्चर्यचकित मानव यह अनुभव करता है कि उसकी शारीरिक शक्ति? मानसिक क्षमतायें और बुद्धि की सूक्ष्मदर्शिता अपने भिन्नभिन्न रूप में तथा सामूहिक रूप में भी वस्तुत महत्त्वशून्य साधन हैं। छोटा सा अहंकार अपने मिथ्या अभिमान के आवरण और मिथ्या शक्ति के कवच को त्यागकर पूर्ण विवस्त्र हुआ स्वयं को नम्र भाव से समष्टि की शक्ति के समक्ष समर्पित कर देता है। परम दिव्य? समष्टि शक्ति के सम्मुख जिस व्यक्ति ने पूर्णरूप से अपने खोखले अभिमानों की अर्थशून्यता समझ ली है? उसके लिए केवल एक आश्रय रह जाता है? और वह है प्रार्थना।इस श्लोक के अन्त में अर्जुन प्रार्थना करता है? हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न हो जाइये। इस प्रार्थना के द्वारा व्यासजी यह दर्शाते हैं कि मान और दम्भ से पूर्ण हृदय वाले व्यक्ति के द्वारा कभी भी वास्तविक प्रार्थना नहीं की जा सकती है। जब व्यक्ति इस विशाल समष्टि विश्व में अपनी तुच्छता समझता है? केवल तभी वह सच्चे हृदय से स्वत प्रार्थना करता है।अर्जुन इस युद्ध में अपनी विजय के प्रति सशंक था। 21वें श्लोक से प्रारम्भ किये गये इस प्रकरण का मुख्य उद्देश्य अर्जुन को भावी घटनाओं का कुछ बोध कराना है। उसे युद्ध के परिणाम के प्रति आश्वस्त करते हुए? अब भगवान् सीधे ही सेनाओं के योद्धाओं को काल के मुख में प्रवेश करते हुए दिखाते हैं
।।11.25।। व्याख्या--'दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि'-- महाप्रलयके समय सम्पूर्ण त्रिलोकीको भस्म करनेवाली जो अग्नि प्रकट होती है? उसे संवर्तक अथवा कालाग्नि कहते हैं। उस कालाग्निके समान आपके मुख है, जो भयंकर-भयंकर दाढ़ोंके कारण बहुत विकराल हो रहे हैं। उनको देखनेमात्रसे ही बड़ा भय लग रहा है। अगर उनका कार्य देखा जाय तो उसके सामने किसीका टिकना ही मुश्किल है। 'दिशो न जाने न लभे च शर्म'-- ऐसे विकराल मुखोंको देखकर मुझे दिशाओंका भी ज्ञान नहीं हो रहा है। इसका तात्पर्य है कि दिशाओंका ज्ञान होता है सूर्यके उदय और अस्त होनेसे। पर वह सूर्य तो आपके नेत्रोंकी जगह है अर्थात् वह तो आपके विराट्रूपके अन्तर्गत आ गया है। इसके सिवाय आपके चारों ओर महान् प्रज्वलित प्रकाश-ही-प्रकाश दीख रहा है (11। 12), जिसका न उदय और न अस्त हो रहा है। इसलिये मेरेको दिशाओंका ज्ञान नहीं हो रहा है और विकराल मुखोंको देखकर भयके कारण मैं किसी तरहका सुख और शान्ति भी प्राप्त नहीं कर रहा हूँ।'प्रसीद देवेश जगन्निवास'--आप सब देवताओंके मालिक हैं और सम्पूर्ण संसार आपमें ही निवास कर रहा है। अतः कोई भी देवता, मनुष्य भयभीत होनेपर आपको ही तो पुकारेगा! आपके सिवाय और किसको पुकारेगा? तथा और कौन सुनेगा? इसलिये मैं भी आपको पुकारकर कह रहा हूँ कि हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये।भगवान्के विकराल रूपको देखकर अर्जुनको ऐसा लगा कि भगवान् मानो बड़े क्रोधमें आये हुए हैं। इस भावनाको लेकर ही भयभीत अर्जुन भगवान्से प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना कर रहे हैं।  सम्बन्ध --अब अर्जुन आगेके दो श्लोकोंमें मुख्य-मुख्य योद्धाओंका विराट्रूपमें प्रवेश होनेका वर्णन करते हैं।
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।।11.25।।युगान्तकालानलवत् सर्वसंहारे प्रवृत्तानि अतिघोराणि तव मुखानि दृष्ट्वा दिशो न जाने सुखं च न लभे। जगतां निवास देवेश ब्रह्मादीनाम् ईश्वराणाम् अपि परममहेश्वरं मां प्रति प्रसन्नो भव यथा अहं प्रकृतिं गतो भवामि? तथा कुरु इत्यर्थः।एवं सर्वस्य जगतः स्वायत्तस्थितिप्रवृत्तित्वं दर्शयन् पार्थसारथी राजवेषच्छद्मना अवस्थितानां धार्त्तराष्ट्राणां यौधिष्ठिरेषु अनुप्रविष्टानां च असुरांशानां संहारेण भूभारावतरणं स्वमनीषितं स्वेन एव करिष्यमाणं पार्थाय दर्शयामास। स च पार्थो भगवतः स्रष्टृत्वादिकं सर्वैश्वर्यं साक्षात्कृत्य तस्मिन् एव भगवति सर्वात्मनि धार्तराष्ट्रादीनाम् उपसंहारम् अनागतम् अपि तत्प्रसादलब्धेन दिव्येन चक्षुषा पश्यन् इदं प्रोवाच --
।।11.25।।दृश्यमानेऽपि भगवद्देहे परितोषाद्यभावे कारणान्तरं प्रश्नपूर्वकमाह -- कस्मादिति। दृष्ट्वैवेत्येवकारेण प्राप्तिर्व्यावर्त्यते।
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।।11.25।।दंष्ट्रेति। दंष्ट्राभिः करालानि विकृतत्वेन भयंकराणि प्रलयकालानलसदृशानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव नतु तानि प्राप्य भयवशेन दिशः पूर्वापरादिविवेकेन न जाने। अतो न लभे च शर्म सुखं त्वद्रूपदर्शनेऽपि। अतो हे देवेश हे जगन्निवास? प्रसीद प्रसन्नो भव मां प्रति यथा भयाभावेन त्वद्दर्शनजं सुखं प्राप्नुयामिति शेषः।
।।11.25।। किंच -- दंष्ट्रेति। भो देवेश? तव मुखानि दृष्ट्वा भयावेशेन दिशो न जानामि। शर्म च सुखं न लभे। भो जगन्निवास प्रसन्नो भव। कीदृशानि मुखानि। दंष्ट्राभिः करालानि कालानलः प्रलयाग्निस्तत्सदृशानि।
।।11.25।।अवयवान्तरेभ्यो मुखानामतिभीषणत्वव्यञ्जनायदंष्ट्रा इति श्लोकः स्वस्यातिभीतत्वप्रदर्शनेन प्रसादनार्थं च।सर्वसंहारे प्रवृत्तानीति कालानलसाधर्म्योक्तिः। कालाभिमानिरूपतया तद्व्यापारानुबन्धसूचनं च।अतिघोराणीतिदंष्ट्राकरालानि इत्यस्यार्थः। करालशब्दो दन्तुरत्वं? विकृतत्वं? भीषणत्वं वाऽऽह। जगन्निवासशब्दे बहुव्रीहिविवक्षायांइहैकस्थम् [11।7] इत्यादिप्रकृतसर्वाधारत्वानुवादो न स्यात् तत्पुरुषविवक्षायां तु प्रकृतैकार्थ्यमित्यभिप्रायेणाह -- जगतां निवासेति। देवेशशब्देन तमीश्वराणां परमं महेश्वरम् [श्वे.उ.6।7] इति श्रुतिप्रसिद्धसर्वेश्वरेश्वरत्वं यथोपदेशं साक्षात्कृतमिति सूचितमित्यभिप्रायेणाहब्रह्मादीनामित्यादि। अनेन ब्रह्मादयोऽपि त्वां वीक्षितुं न शक्नुवन्ति? किमुताहं क्षुद्रजन्तुरित्यभिप्रेतमिति व्यञ्जयति।मां प्रतीति। किमर्जुने भगवतः क्रोधः येन प्रसादः प्रार्थ्यते इत्यत्र प्रसादफलमाहयथाहमिति।
।।11.25।।किञ्च भयाधिक्येन पुनर्विज्ञापयति -- दंष्ट्राकरालानीति। हे देवेश सर्वपूज्य ते मुखानि दंष्ट्राभिः करालानि भयोत्पादकानि। च पुनः कालानलसन्निभानि प्रलयाग्निसन्निभानि दृष्ट्वैव भयाद्दिशो न जाने गत्वा प्राप्यस्थानं न जानामि। शर्म त्वदवलोकनरूपं च सुखं न लभे। अतो हे जगन्निवास जगत्पालक जगतः सुखस्थितिरूप प्रसन्नो भव प्राप्यं स्थानं दर्शयेति भावः।
।।11.25।।कालानलः प्रलयाग्निस्तत्तुल्यानि। प्रसीद प्रसन्नः सुखदो भवेत्यर्थः।
।।11.25।।दंष्ट्राभिः करानि विकृतानि प्रलयकालाग्निसदृशानि च दृष्टैव नतु प्राप्य दिशः पूर्वापरविवेकेन न जानामि। शर्म सुखं च न लभे अतो हे देवेश हे जगन्निवास? प्रसीद प्रसन्नो भव। तव देवेशत्वं जगन्निवासत्वं च प्रत्यक्षेण मयोपलब्धं यदर्थं मम प्रार्थना आसीदिति द्योतनार्थं संबोधनद्वयम्।
11.25 दंष्ट्राकरालानि fearful with teeth? च and? ते Thy? मुखानि mouths? दृष्ट्वा having seen? एव even? कालानलसन्निभानि blazing like Pralayafires? दिशः the four arters? न not? जाने know? न not? लभे do (I) obtain? च and? शर्म peace? प्रसीद have mercy? देवेश O Lord of the gods? जगन्निवास O abode of the universe.Commentary Jagannivasa The substratum of the universe.Kalanala The fires which consume the worlds during the final dissolution of the worlds (Pralaya). Time (Kala) is the consumer of all that is manifest.Diso no jane I do not know the four arters. I cannot distinguish the east from the west? nor the north from the south.
11.25 Having seen Thy mouths fearful with teeth (blazing) like the fires of cosmic dissolution, I know not the four arters, nor do I find peace. Have mercy, O Lord of the gods, O abode of the universe.
11.25 When I see Thy mouths with their fearful jaws like glowing fires at the dissolution of creation, I lose all sense of place; I find no rest. Be merciful, O Lord in whom this universe abides!
11.25 Having merely seen Your mouths made terrible with (their) teeth and resembling the fire of Dissolution, I have lost the sense of direction and find no comfort. Be gracious, O Lord of gods, O Abode of the Universe.
11.25 Drstva eva, having merely seen; te, Your; mukhani, mouths; damstra-karalani, made terrible with (their) teeth; and kala-anala-sannibhani, resembling the fire of Dissolution is kalanala; similar to that; na jane, I have lost; the sense of disah, direction-I do not know the directions as to which is East or which is West; and hence, na labhe, find no; sarma, comfort. Therefore, prasida, be gracious; devesa, O Lord of gods; jagannivasa, O Abode of the Universe! 'The apprehension which was there of my getting defeated by those offers, that too has cleared away, since-'
11.25. By merely seeing Your faces that are frightening with tusks and are looking like the fire of destruction, I do not know the arters and get no peace. Have mercy, O Lord of gods ! O Abode of the Universe !
11.25 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.25 Looking at Your mouths, extremely terrifying and like cosmic fire at the end of the universe, and operating for the destruction of everything, I have lost the sense of recognising the arters of the sky, nor do I feel happy and peaceful. O Abode of all the worlds, O Lord of all the Devas, namely, O Overlord of even gods like Brahma! Be gracious unto me. The meaning is: 'Do act in such a way that I may attain my natural condition. Arjuna's charioteer (Parthasarathi), thus showing that all the worlds depend upon Him for their existence and activities, showed to the son of Prtha (Arjuna) that what He wanted to do, making Arjuna a mere instrument of His, was to lighten the burden of the earth through the destruction of all those who were of Asuric manifestations and who, in the guise of kings, were presenting themselves as the sons of Dhrtarastra and their followers. Many such embodiments of Asuras were present also in the ranks of Yudhisthira's followers. And Arjuna, after having realised with the divine eyes, received through His grace, the complete manifestation of the Lord as the Creator etc., witnessed also the slaughter of the followers of the sons of Dhrtarastra etc., in that Lord Himself, who is the Self of all, even though it (the slaughter) had not happened actually according to human calculations. Arjuna continues:
11.25 Viewing Your mouths, presenting awe-generating fangs and looking like the consuming fire of final destruction, I know not the arters of the globe nor do I find repose. Be gracious, O Lord of the Devas! O Abode of the universe!
।।11.25।।क्योंकि --, दाढ़ोंसे युक्त भयंकर -- विकराल आकृतिवाले और कालाग्निके समान अर्थात् प्रलयकालमें लोकोंको भस्मीभूत करनेवाली जो कालाग्नि है? उसके समान आपके मुखोंको देखकर मैं इन दिशाओंको पूर्व और पश्चिमके विवेकपूर्वक नहीं जानता हूँ अर्थात् मुझे दिग्भ्रम हो गया है। इसीसे ( आपके स्वरूपका दर्शन करते हुए भी ) मुझे विश्राम -- सुख नहीं मिल रहा है? सो हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न होइये।,
।।11.25।। --,दंष्ट्राकरालानि दंष्ट्राभिः करालानि विकृतानि ते तव मुखानि दृष्ट्वैव उपलभ्य कालानलसंनिभानि प्रलयकाले लोकानां दाहकः अग्निः कालानलः तत्सदृशानि कालानलसंनिभानि मुखानि दृष्ट्वेत्येतत्। दिशः पूर्वापरविवेकेन न जाने दिङ्मूढो जातः अस्मि। अतः न लभे च न उपलभे च शर्म सुखम्। अतः प्रसीद प्रसन्नो भव हे देवेश? जगन्निवास।।येभ्यो मम पराजयाशङ्का या आसीत् सा च अपगता।,यतः --,
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दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि। दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.25।।
দংষ্ট্রাকরালানি চ তে মুখানি দৃষ্ট্বৈব কালানলসন্নিভানি৷ দিশো ন জানে ন লভে চ শর্ম প্রসীদ দেবেশ জগন্নিবাস৷৷11.25৷৷
দংষ্ট্রাকরালানি চ তে মুখানি দৃষ্ট্বৈব কালানলসন্নিভানি৷ দিশো ন জানে ন লভে চ শর্ম প্রসীদ দেবেশ জগন্নিবাস৷৷11.25৷৷
દંષ્ટ્રાકરાલાનિ ચ તે મુખાનિ દૃષ્ટ્વૈવ કાલાનલસન્નિભાનિ। દિશો ન જાને ન લભે ચ શર્મ પ્રસીદ દેવેશ જગન્નિવાસ।।11.25।।
ਦਂਸ਼੍ਟ੍ਰਾਕਰਾਲਾਨਿ ਚ ਤੇ ਮੁਖਾਨਿ ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵੈਵ ਕਾਲਾਨਲਸਨ੍ਨਿਭਾਨਿ। ਦਿਸ਼ੋ ਨ ਜਾਨੇ ਨ ਲਭੇ ਚ ਸ਼ਰ੍ਮ ਪ੍ਰਸੀਦ ਦੇਵੇਸ਼ ਜਗਨ੍ਨਿਵਾਸ।।11.25।।
ದಂಷ್ಟ್ರಾಕರಾಲಾನಿ ಚ ತೇ ಮುಖಾನಿ ದೃಷ್ಟ್ವೈವ ಕಾಲಾನಲಸನ್ನಿಭಾನಿ. ದಿಶೋ ನ ಜಾನೇ ನ ಲಭೇ ಚ ಶರ್ಮ ಪ್ರಸೀದ ದೇವೇಶ ಜಗನ್ನಿವಾಸ৷৷11.25৷৷
ദംഷ്ട്രാകരാലാനി ച തേ മുഖാനി ദൃഷ്ട്വൈവ കാലാനലസന്നിഭാനി. ദിശോ ന ജാനേ ന ലഭേ ച ശര്മ പ്രസീദ ദേവേശ ജഗന്നിവാസ৷৷11.25৷৷
ଦଂଷ୍ଟ୍ରାକରାଲାନି ଚ ତେ ମୁଖାନି ଦୃଷ୍ଟ୍ବୈବ କାଲାନଲସନ୍ନିଭାନି| ଦିଶୋ ନ ଜାନେ ନ ଲଭେ ଚ ଶର୍ମ ପ୍ରସୀଦ ଦେବେଶ ଜଗନ୍ନିବାସ||11.25||
daṅṣṭrākarālāni ca tē mukhāni dṛṣṭvaiva kālānalasannibhāni. diśō na jānē na labhē ca śarma prasīda dēvēśa jagannivāsa৷৷11.25৷৷
தஂஷ்ட்ராகராலாநி ச தே முகாநி தரிஷ்ட்வைவ காலாநலஸந்நிபாநி. திஷோ ந ஜாநே ந லபே ச ஷர்ம ப்ரஸீத தேவேஷ ஜகந்நிவாஸ৷৷11.25৷৷
దంష్ట్రాకరాలాని చ తే ముఖాని దృష్ట్వైవ కాలానలసన్నిభాని. దిశో న జానే న లభే చ శర్మ ప్రసీద దేవేశ జగన్నివాస৷৷11.25৷৷
11.26
11
26
।।11.26 -- 11.27।। हमारे मुख्य योद्धाओंके सहित भीष्म, द्रोण और वह कर्ण भी आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। राजाओंके समुदायोंके सहित धृतराष्ट्रके वे ही सब-के-सब पुत्र आपके विकराल दाढ़ोंके कारण भयंकर मुखोंमें बड़ी तेजीसे प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमेंसे कई-एक तो चूर्ण हुए सिरोंसहित आपके दाँतोंके बीचमें फँसे हुए दीख रहे हैं।
।।11.26।। और ये समस्त धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश करते हैं। भीष्म, द्रोण तथा कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित.।।
।।11.26।। च्ड्ढड्ढ क्दृथ्र्थ्र्ड्ढदद्यठ्ठद्धन्र् द्वदड्डड्ढद्ध 11.27
।।11.26।। व्याख्या--'भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः'--हमारे पक्षके धृष्टद्युम्न, विराट्, द्रुपद आदि जो मुख्य-मुख्य योद्धालोग हैं, वे सब-के-सब धर्मके पक्षमें हैं और केवल अपना कर्तव्य समझकर युद्ध करनेके लिये आये हैं। हमारे इन सेनापतियोंके साथ पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और वह प्रसिद्ध सूतपुत्र कर्ण आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। यहाँ भीष्म, द्रोण और कर्णका नाम लेनेका तात्पर्य है कि ये तीनों ही अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये युद्धमें आये थे (टिप्पणी प0 591)। 'अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः'--दुर्योधनके पक्षमें जितने राजालोग हैं, जो युद्धमें दुर्योधनका प्रिय करना चाहते हैं (गीता 1। 23) अर्थात् दुर्योधनको हितकी सलाह नहीं दे रहे हैं, उन सभी,राजाओंके समूहोंके साथ धृतराष्ट्रके दुर्योधन, दुःशासन आदि सौ पुत्र विकराल दाढ़ोंके कारण अत्यन्त भयानक आपके मुखोंमें बड़ी तेजीसे प्रवेश कर रहे हैं--'वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि'।विराट्रूपमें वे चाहे भगवान्में प्रवेश करें, चाहे भगवान्के मुखोंमें जायँ, वह एक ही लीला है। परन्तु भावोंके अनुसार उनकी गतियाँ अलग-अलग प्रतीत हो रही हैं। इसलिये भगवान्में जायँ अथवा मुखोंमें जायँ, वे हैं तो विराट्रूपमें ही।
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।।11.26।।अमी धृतराष्ट्रस्य पुत्राः दुर्योधनादयः सर्वे भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रः कर्णश्च तत्पक्षीयैः अवनिपालसमूहैः सर्वैः अस्मदीयैः अपि कैश्चिद् योधमुख्यैः सह त्वरमाणा दंष्ट्राकरालनि भयानकानि तव वक्त्राणि विनाशाय विशन्ति। तत्र केचित् चूर्णितैः उत्तमाङ्गैः दशनान्तरेषु विलग्नाः संदृश्यन्ते।
।।11.26। अस्माकं जयं परेषां पराजयं च दिदृक्षन्तं [दिदृक्षुं] दिदृक्षुं त्वां पश्यामीत्याह -- येभ्य इति। तत्र हेतुत्वेन श्लोकमवतारयति -- यत इति। न केवलं दुर्योधनादीनामेव पराजयः किंतु भीष्मादीनामपीत्याह -- किञ्चेति।
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।।11.26।।अस्माकं जयं परेषां पराजयं च सर्वदा द्रष्टुमिष्टं पश्य। मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसीति भगवदादिष्टमधुना पश्यामीत्याह पञ्चभिः -- अमीचेत्यादिना। अमी च धृतराष्ट्रस्य पुत्रा दुर्योधनप्रभृतयः शतं सोदरा युयुत्सुं विना सर्वे त्वां त्वरमाणा विशन्तीत्यग्रेतनेनान्वयः। अतिभयसूचकत्वेन क्रियापदन्यूनत्वमत्र गुण एव। सहैवावनिपालानां शल्यादीनां राज्ञां सङ्घैस्त्वां विशन्ति। न केवलं दुर्योधनादय एव विशन्ति किंतु अजेयत्वेन सर्वैः संभावितोऽपि भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रः कर्णस्तथासौ सर्वदा मम विद्वेष्टा। सहास्मदीयैरपि परकीयैरिव धृष्टद्युम्नप्रभृतिर्योधमुख्यैस्त्वां विशन्तीत्यन्वयः।
।।11.26।।यच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसीत्यनेनास्मिन्संग्रामे भाविजयपराजयादिकं च मम देहे पश्येति यद्भगवतोक्तं तदिदानीं पश्यन्नाह -- अमी चेति पञ्चभिः। अमी धृतराष्ट्रस्य पुत्रा दुर्योधनादयः सर्वे अवनिपालानां जयद्रथादीनां राज्ञां सहैव तव वक्त्राणि विशन्तीत्युत्तरेणान्वयः। तथा भीष्मश्च द्रोणश्चासौ सूतपुत्रः कर्णश्च। न केवलं त एव विशन्ति अपितु प्रतियोद्वारो येऽस्मदीया योधमुख्याः शिखण्डिधृष्टद्युम्नादयः तैः सह।
।।11.26।।अमी इत्यादिश्लोकपञ्चकार्थोत्थानहेतुं तस्य पूर्वेण सङ्गतिं चाह -- एवमिति। अवश्यम्भावितयास्वमनीषितमित्युक्तम्। स्वमनीषितभारावतरणज्ञापनाय भीषणरूपाविष्कारः तेन च युद्धप्रोत्साहनं सिध्येदिति भावः। वक्ष्यमाणमर्जुनादेरुपकरणमात्रत्वं तद्व्यापाराभावेऽपि शक्यत्वं चाभिप्रेत्यस्वेनैव करिष्यमाणमित्युक्तम्। तदानीं युद्धभूमौ स्थितानां वक्ष्यमाणभगवद्वक्त्रप्रवेशस्याघटिततया इन्द्रजालादिशङ्कां परिहरति -- स च पार्थ इति। भगवतः सर्वगोचरस्रष्ट्टत्वादिसाक्षात्कारे धार्तराष्ट्रादिकतिपयजन्तुसंहारो नात्यद्भुत इत्यभिप्रायेणाहतस्मिन्नेवेति।सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः [11।40] इति वक्ष्यमाणप्रकारेण सर्वशरीरतया सर्वभूतः सत्यसङ्कल्पो भगवानेव धार्तराष्ट्रादिविलयेऽपि सर्वविधं कारणम्? लौकिकातीन्द्रियेण रूपेण ग्रसन् भगवानेव प्रधानतमो हेतुः? दृष्टास्त्वर्जुनशरादयः काकतालीयवन्निमित्तमात्रमिति भावः।अनागतमपीत्यादि लौकिकं हि प्रत्यक्षं वर्तमाननियतमिति भावः।इदमिति -- धार्तराष्ट्रादिविशेषविषयमित्यर्थः। यद्वा वर्तिष्यमाणमपि साक्षात्काराद्वर्तमानवद्व्यपदिशतीति भावः। अस्मदीयैरिति पृथगभिधानादवनिपालसङ्घैरित्येतत्परपक्षविषयमिति व्यञ्जनायतत्पक्षीयैरित्युक्तम्। दुर्योधनादीनां सर्वेषामिव तत्पक्षीयाणामपि सर्वेषां वधस्य युद्धे करिष्यमाणत्वात्सर्वैरित्युक्तम्।अस्मदीयैरिति वचनात्स्वपक्षस्थानामपि वधः स्वेषां चावस्थानं विवक्षितम्। परेषु सर्वैरिति विशेषणात्स्वकीयेषु योधमुख्यैरित्युपादानाच्च पाण्डवपक्षीयाणां युद्धे निश्शेषवधाभावःकैश्चिदित्युक्तः। शीघ्रं संहरणस्य तत्तदपराधत्वरामूलत्वंत्वरमाणपदेन विवक्षितम्। यद्वा समरसंरम्भादिः सर्वोऽपि व्यापारस्तेषां स्ववधार्थ इति भावः।भयानकानि इति पृथगुक्तत्वात्करालशब्दोऽत्र सान्तरालत्वविकृतत्वपरः? दन्तुरत्वपरो वाकरालं दन्तुरे वक्रे इत्यादि।अमी च त्वा [11।21] इत्यत्र क्रियानिर्देशाभावेऽपिमा भवन्तमनलः पवनो वा इत्यादिष्विवाध्याहारेणैव क्रियान्वयो गुण एव। यद्वाविशन्ति इति वक्ष्यमाणपदमत्रापि पठितव्यम्।अथवादृष्ट्वा प्रव्यथितान्तरात्मानो धृतिं न विन्दन्ति इति वा विपरिणतानुषङ्गेण वाक्यसमाप्तिः न पुनः श्लोकद्वयमप्येकवाक्यतया विवक्षितम्? पूर्वश्लोके त्वेति कर्मतया निर्देशात्परत्रवक्त्राणि ते [11।27] इत्युक्तेःअमी सर्वे धृतराष्ट्रस्य पुत्राः इति भाष्याभिप्रेतः पाठः?दुर्योधनादयः सर्वे इत्युक्तेः अत एव हिविशन्ति इत्यनेनैकवाक्यतया व्याख्यातम् रक्षणार्थं भगवति प्रवेशव्युदासाय वक्ष्यमाणपरामर्शात्विनाशायेत्युक्तम्।तत्र धार्तराष्ट्रादिष्वित्यर्थः। यद्वा तेषु वक्त्रेष्वित्यर्थः। केचिद्विनाशाय विशन्ति केचित्तु विनष्टाः सन्दृश्यन्ते इत्युक्तं भवति।विद्ध्येनमिह वैरिणम् [3।37] इत्यस्यानन्तरं यादवप्रकाशीयैरिह केचित्पञ्चश्लोकान्पठन्तीति विलिख्य व्याख्यातम् -- अर्जुन उवाच --,भवत्येष कथं कृष्ण कथं चैष विवर्धते।किमात्मकः किमाचारस्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।।1।।भगवानुवाच --,एष सूक्ष्मः परः शत्रुर्देहिनामिन्द्रियैः सह।सुखं तत्र इवासीनो मोहयन्पार्थ तिष्ठति।।2।।कामक्रोधमयो घोरः स्तम्भहर्षसमुद्भवः।अहङ्कारोऽभिमानात्मा दुस्तरः पापकर्मभिः।।3।।हर्षमस्य निवर्त्यैष शोकमस्य ददाति च।भयं चास्य करोत्येष मोहयंश्च मुहुर्मुहुः।।4।।स एष कलुषी क्षुद्रश्छिद्रापेक्षी धनञ्जय।रजःप्रवर्तितो मोहान्मानुषाणामुपद्रवः।।5।।इति।अत्र च --,नानारूपैः पुरुषैर्वध्यमाना विशन्ति ते वक्त्रमचिन्त्यरूपम्।यौधिष्ठिरा धार्तराष्ट्राश्च योधाः शस्त्रैः कृत्ता विविधैः सर्व एव।।1।।दिव्यानि कर्माणि तवाद्भुतानि पूर्वाणि पूर्वेऽप्यृषयः स्तुवन्ति।नान्योऽस्ति कर्ता जगतस्त्वमेको धाता विधाता च विभुर्भुवश्च।।2।।तवाद्भुतं किं न भवेदसह्यं किं वा शक्यं परतः कीर्तयिष्ये।कर्तासि लोकस्य यतः स्वयं विभो त्वत्तः सर्वं त्वयि सर्वं त्वमेव।।3।।अत्यद्भुतं कर्म न दुष्करं ते कर्मोन्मानं न च विद्यते ते।न ते गुणानां परिमाणमस्ति न तेजसो नापि बलस्य नर्द्धेः।।4।। -- इति। अत्रदिव्यानि इत्यादयः श्लोका नारायणार्यैरपि लिखिताः।प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च [11।39] इत्यस्यानन्तरमन्यश्च श्लोकः -- अनादिमानप्रतिमप्रभावः सर्वेश्वरः सर्वमहाविभूतिः।न हि त्वदन्यः कश्चिदस्तीह देव लोकत्रये दृश्यतेऽचिन्त्यकर्मा इत्येते श्लोकाः सन्ति न वेति देवो जानाति। पूर्वव्याख्यातृभिरनुदाहृतत्वादध्ययनप्रसिद्ध्यभावाच्च भाष्यकारैरनादृताः। न च गीताशास्त्रस्य श्लोकसङ्ख्या व्यासादिभिरुक्ता। अर्वाचीनास्त्वविश्वसनीया इति।
।।11.26।।एवं भगवत्स्वरूपस्थं जगद्दृष्ट्वा विज्ञाप्ययच्चान्यद्द्रष्टुमिच्छसि [11।7] इति भगवतोक्तं तदर्थं बाह्यस्थः स्वपरसैन्यस्वरूपज्ञानदर्शनेच्छया दृष्ट्वा विज्ञापयति -- अमी चेति पञ्चभिः। च पुनः। बाह्यस्थाः अमी परिदृश्यमानाः धृतराष्ट्रस्य पुत्रा आलोचनरहिताः सर्वे अवनिपालसङ्घैः जयद्रथादिसमूहैः सह? भीष्मो योद्धा च? द्रोणः शास्त्रविशारदः? सूतपुत्रः कर्णः अस्मदीयैरपि योधमुख्यैः घृष्टद्युम्नादिभिः सह।
।।11.26।।अमी त्वां विशन्तीत्यग्रिमश्लोकादपकृष्यते।
।।11.26।।पराजयाशङ्कापि मम निवृत्ता इत्याशयेनाह। अभी च त्वा त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्रा दुर्योधनादयस्त्वरमाणा विशन्तीति परेणान्वयः। सर्वे युयुत्सुव्यतिरिक्ता अवनिपालानां राज्ञां जयद्रथादीनां समूहैः सहैव। किंच येषु परेषां जयाशा तेऽपि भाष्मादयः सूतपुत्रः कर्णोऽसौ ममातीव शत्रुः अस्मदीयैरपि योधानां प्रधानैः शिखण्डिधृष्टद्युम्नदिभूः सहैव।
11.26 अमी these? च and? त्वाम् Thee? धृतराष्ट्रस्य of Dhritarashtra? पुत्राः sons? सर्वे all? सह with? एव even? अवनिपालसङ्घैः hosts of kings? भीष्मः Bhishma? द्रोणः Drona? सूतपुत्रः Karana? तथा also? असौ this? सह with? अस्मदीयैः with (those) of ours? अपि also? योधमुख्यैः (with) warrior chiefs.Commentary Karna? though he was the son of Kunti? the mother of the Pandavas? was brought up by a charioteer and hence came to be regarded as his son.
11.26 All the sons of Dhritarashtra, with the hosts of kings of the earth, Bhishma, Drona and Karna, with the chief among our warriors.
11.26 All these sons of Dhritarashtra, with the hosts of princes, Bheeshma, Drona and Karna, as well as the other warrior chiefs belonging to our side;
11.26 And into You (enter) all those sons of Dhrtarastra along with multitudes of the rulers of the earth; (also) Bhisma, Drona and that son of a Suta (Karna), together with even our prominent warriors.
11.26 Ca, and; tvam, into You-this is to be connected with 'rapidly enter' in the next verse; sarve, all; ami, those; putrah, sons-Duryodhana and others; dhrtarastrasya, of Dhrtarastra; saha, along with; avanipala-sanghaih, multitudes of the rulers (pala) of the earth (avani); also Bhisma, Drona, tatha, and; asau, that; suta-putrah, son of a Suta, Karna; saha, together with; api, even; asmadiyaih, our; yodha-mukhyaih, prominent warriors, the ?nders-Dhrstadyumna and others. Moreover,
11.26. All these sons of Dhrtarastra along with the entire hosts of kings, this Bhisma, this Drona and this son of the charioteer (Karna), together with the chief warriors of ours too;
11.26 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.26 11.27 All these sons of Dhrtarastra like Duryodhana and others like Bhisma, Drona, and Suta's son Karna together with the hosts of monarchs on their side and also the leading warriors on our side, are hastening to their destruction; they enter Your fearful mouths with terrible fangs; some, caught between the teeth are seen with their heads crushed to powder.
11.26 All these sons of Dhrtarastra together with the hosts of monarchs, Bhisma, Drona and Karna along with the leading warriors of our side,
।।11.26।।जिन शूरवीरोंसे मुझे पहले पराजयकी आशङ्का थी? वह भी अब चली गयी क्योंकि --, ये दुर्योधन आदि धृतराष्ट्रके समस्त पुत्र अवनिपालोंके दलोंसहित -- अवनि यानी पृथ्वीका जो पालन करें उनका नाम अवनिपाल है। उनके दलोंसहित इकट्ठे होकर बड़े वेगसे आपके मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं। यही नहीं? किंतु भीष्म? द्रोण और यह सूतपुत्र -- कर्ण एवं हमारी ओरके भी धृष्टद्युम्नादि प्रधान योद्धाओंके सहित ( सबसेसब )।
।।11.26।। --,अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः दुर्योधनप्रभृतयः -- त्वरमाणाः विशन्ति इति व्यवहितेन संबन्धः -- सर्वे सहैव सहिताः अवनिपालसंघैः अवनिं पृथ्वीं पालयन्तीति अवनिपालाः तेषां संघैः? किञ्च भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रः कर्णः तथा असौ सह अस्मदीयैरपि धृष्टद्युम्नप्रभृतिभिः योधमुख्यैः योधानां मुख्यैः प्रधानैः सह।।किञ्च --,
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अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः। भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथाऽसौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः।।11.26।।
অমী চ ত্বাং ধৃতরাষ্ট্রস্য পুত্রাঃ সর্বে সহৈবাবনিপালসঙ্ঘৈঃ৷ ভীষ্মো দ্রোণঃ সূতপুত্রস্তথাসৌ সহাস্মদীযৈরপি যোধমুখ্যৈঃ৷৷11.26৷৷
অমী চ ত্বাং ধৃতরাষ্ট্রস্য পুত্রাঃ সর্বে সহৈবাবনিপালসঙ্ঘৈঃ৷ ভীষ্মো দ্রোণঃ সূতপুত্রস্তথাসৌ সহাস্মদীযৈরপি যোধমুখ্যৈঃ৷৷11.26৷৷
અમી ચ ત્વાં ધૃતરાષ્ટ્રસ્ય પુત્રાઃ સર્વે સહૈવાવનિપાલસઙ્ઘૈઃ। ભીષ્મો દ્રોણઃ સૂતપુત્રસ્તથાસૌ સહાસ્મદીયૈરપિ યોધમુખ્યૈઃ।।11.26।।
ਅਮੀ ਚ ਤ੍ਵਾਂ ਧਰਿਤਰਾਸ਼੍ਟ੍ਰਸ੍ਯ ਪੁਤ੍ਰਾ ਸਰ੍ਵੇ ਸਹੈਵਾਵਨਿਪਾਲਸਙ੍ਘੈ। ਭੀਸ਼੍ਮੋ ਦ੍ਰੋਣ ਸੂਤਪੁਤ੍ਰਸ੍ਤਥਾਸੌ ਸਹਾਸ੍ਮਦੀਯੈਰਪਿ ਯੋਧਮੁਖ੍ਯੈ।।11.26।।
ಅಮೀ ಚ ತ್ವಾಂ ಧೃತರಾಷ್ಟ್ರಸ್ಯ ಪುತ್ರಾಃ ಸರ್ವೇ ಸಹೈವಾವನಿಪಾಲಸಙ್ಘೈಃ. ಭೀಷ್ಮೋ ದ್ರೋಣಃ ಸೂತಪುತ್ರಸ್ತಥಾಸೌ ಸಹಾಸ್ಮದೀಯೈರಪಿ ಯೋಧಮುಖ್ಯೈಃ৷৷11.26৷৷
അമീ ച ത്വാം ധൃതരാഷ്ട്രസ്യ പുത്രാഃ സര്വേ സഹൈവാവനിപാലസങ്ഘൈഃ. ഭീഷ്മോ ദ്രോണഃ സൂതപുത്രസ്തഥാസൌ സഹാസ്മദീയൈരപി യോധമുഖ്യൈഃ৷৷11.26৷৷
ଅମୀ ଚ ତ୍ବାଂ ଧୃତରାଷ୍ଟ୍ରସ୍ଯ ପୁତ୍ରାଃ ସର୍ବେ ସହୈବାବନିପାଲସଙ୍ଘୈଃ| ଭୀଷ୍ମୋ ଦ୍ରୋଣଃ ସୂତପୁତ୍ରସ୍ତଥାସୌ ସହାସ୍ମଦୀଯୈରପି ଯୋଧମୁଖ୍ଯୈଃ||11.26||
amī ca tvāṅ dhṛtarāṣṭrasya putrāḥ sarvē sahaivāvanipālasaṅghaiḥ. bhīṣmō drōṇaḥ sūtaputrastathā.sau sahāsmadīyairapi yōdhamukhyaiḥ৷৷11.26৷৷
அமீ ச த்வாஂ தரிதராஷ்ட்ரஸ்ய புத்ராஃ ஸர்வே ஸஹைவாவநிபாலஸங்கைஃ. பீஷ்மோ த்ரோணஃ ஸூதபுத்ரஸ்ததாஸௌ ஸஹாஸ்மதீயைரபி யோதமுக்யைஃ৷৷11.26৷৷
అమీ చ త్వాం ధృతరాష్ట్రస్య పుత్రాః సర్వే సహైవావనిపాలసఙ్ఘైః. భీష్మో ద్రోణః సూతపుత్రస్తథాసౌ సహాస్మదీయైరపి యోధముఖ్యైః৷৷11.26৷৷
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।।11.26 -- 11.27।। हमारे मुख्य  योद्धाओंके सहित भीष्म, द्रोण और वह कर्ण भी आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। राजाओंके समुदायोंके सहित धृतराष्ट्रके वे ही सब-के-सब पुत्र आपके विकराल दाढ़ोंके कारण भयंकर मुखोंमें बड़ी तेजीसे प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमेंसे कईएक तो चूर्ण हुए सिरोंसहित आपके दाँतोंके बीचमें फँसे हुए दीख रहे हैं।
।।11.27।। तीव्र वेग से आपके विकराल दाढ़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश करते हैं और कई एक चूर्णित शिरों सहित आपके दांतों के बीच में फँसे हुए दिख रहे हैं।।
।।11.27।। सत्य के अन्वेषण के अपने उद्देश्य के प्रति दृढ़ रहकर जो दर्शनशास्त्र? समष्टि को बिना किसी भय या पक्षपात के समझना चाहता है? वह प्रकृति के विनाशकारी पक्ष की उपेक्षा नहीं कर सकता। उपादान (कच्चे माल) के विनाश अर्थात् विकार के बिना किसी भी नवीन वस्तु का निर्माण नहीं हो सकता है। विश्व में जहाँ कहीं भी कोई अस्तित्व हैं वह परिवर्तन की पुनरावृत्ति मात्र है और इस परिवर्तन को निर्मित वस्तु की दृष्टि से देखने पर सृष्टि कहा जाता है और उपादान की दृष्टि से उसे ही विनाश कहते हैं।इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दू धर्म के साहसी आर्य ऋषियों ने परम सत्य के सौन्दर्य की स्तुति के समय? केवल उसे सर्वज्ञ सृष्टिकर्ता या सर्वशक्तिमान पालनकर्त्ता के रूप में ही नहीं देखा? वरन् समस्त नामरूपों के सर्व समर्थ संहारकर्त्ता के रूप में भी उसका दर्शन और स्तुतिगान किया है। जिन धार्मिक मतों में अभी तक जीवन का उसकी सम्पूर्णता में निरीक्षण और विश्लेषण नहीं किया गया है? उन्हें उपर्युक्त कथन भयंकर प्रतीत हो सकता है।अर्जुन के वचन अर्थपूर्ण हैं। वह विश्वरूप को समस्त नामरूपों को स्वाहा करते हुए नहीं देखता? बल्कि उन नामरूपों को शीघ्रता से विराट् पुरुष के मुख में प्रवेश करते हुए देखता है। समुद्र को यदि हम देखें तो ज्ञात होगा कि तरंगों को अपने में समा लेने के लिए समुद्र स्वस्थान से ऊपर नहीं उठता? किन्तु वे तरंगें ही क्षणभर की क्रीड़ा के पश्चात् स्वत ही शीघ्रता से समुद्र में लुप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार सत्य से व्यक्त हुई यह विविधता की सृष्टि सत्य की सतह पर अपनी क्रीड़ा के पश्चात् अवश्य ही? अपने प्रभवस्थान पूर्ण पुरुष में शीघ्र गति से लीन हो जायेगी।अर्जुन? प्रकृति के विनाशकारी तत्त्व के जम्हाई लेते मुख में भीष्मद्रोणादि कौरवपक्षीय योद्धागणों तथा स्वपक्ष के भी प्रमुख योद्धाओं को वेग से प्रवेश करते हुये देखता है। यह दृश्य न केवल अर्जुन को उसके साहस को तोड़ते हुए भयभीत ही करता है? अपितु उसे भविष्य में झांककर देखने का आत्मविश्वास भी प्रदान करता है। यद्यपि सैनिक संख्या तथा शस्त्रास्त्रों की आपूर्ति की दृष्टि से कौरव अधिक शक्तिशाली थे? किन्तु उनका विनाश देखकर अर्जुन को धैर्य प्राप्त होता है। यह भावी घटनाओं का संकेत ही था। जब भगवान् विश्वरूप में प्रकट होते हैं? तब उस एकत्व की संकल्पना में न केवल आकाश (देश) संकुचित हो जाता है? बल्कि काल भी हमारे निरीक्षण का विषय बन जाता है।इसलिए? यदि अर्जुन ने उस विराट् रूप में? भूतकाल को वर्तमान से मिलकर भविष्य की ओर अग्रसर होते हुए देखा हो? तो इसमें कोई आश्चर्य़ नहीं है। सम्पूर्ण गीता ग्रन्थ में से प्रथम दो पृष्ठ पढ़ना अथवा उन्हें छोड़कर तीसरा पृष्ठ पढ़ना मेरी इच्छा पर निर्भर करता है। इसी प्रकार? जब अर्जुन के समक्ष सम्पूर्ण विश्वरूप ही उपस्थित था? तो वह एक दृष्टि में यत्रतत्रसर्वत्र देख सकता था और भूतवर्तमानभविष्य को भी। आधुनिक वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि वस्तुत देश काल एक ही हैं? और वे परस्पर की दृष्टि से व्यक्त होते हैं।सत्यनिष्ठ एवं सत्य के साधक पुरुषों को इस बात का भय नहीं होता कि उनका सत्यान्वेषण उन्हें कौनसे सत्य तक पहुँचायेगा। यदि वह सत्य भयंकर है? तो वे उसे भी स्वीकार करते हैं। यह जगत् दो विरुद्ध धर्मियों का एक मिश्रण है। इसमें सुरूपता और कुरूपता? शुभ और अशुभ? कोमल और कठोर तथा मधुर और कटु सब कुछ विद्यमान है। इन समस्त रूपों में परमात्मा ही व्यक्त हो रहा है। अत? यदि हम अपनी रुचि के अनुसार परमात्मा के केवल सुन्दर? शुभ? कोमल और मधुर भावों को ही स्वीकार करते हैं? तो ईश्वर की यह पूजा अथवा सत्य का यह मूल्यांकन पूर्ण नहीं कहा जा सकता। पूर्वाग्रहरहित और अनासक्त व्यक्ति को ईश्वर के कुरूप? अशुभ? कठोर और कटु भावों को मान्यता देनी ही होगी। वह दर्शनशास्त्र ही पूर्ण है? जो यह बोध कराए कि यद्यपि परमात्मा ही इन सब नाम? रूप और गुणों में व्यक्त हो रहा है? तथापि वह अपने पारमार्थिक स्वरूप से? इन सब गुणों से सर्वथा अतीत है।इसलिए? शुद्ध वैज्ञानिक पद्धति से अर्जुन को विश्वरूप का विस्तृत विवरण देना पड़ता है? फिर वह विवरण कितना ही भयंकर और रक्त को जमाने वाला ही क्यों न हो। निसन्देह गीता में वास्तविकता का बोध है। काल के मुख को यहाँ भयानक और विकराल दाढ़ों वाला कहकर उसका यथार्थ चित्रण किया गया है।वे किस प्रकार प्रवेश कर रहे हैं अर्जुन कहता है
।।11.27।। व्याख्या--'भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः'--हमारे पक्षके धृष्टद्युम्न, विराट्, द्रुपद आदि जो मुख्य-मुख्य योद्धालोग हैं, वे सब-के-सब धर्मके पक्षमें हैं और केवल अपना कर्तव्य समझकर युद्ध करनेके लिये आये हैं। हमारे इन सेनापतियोंके साथ पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और वह प्रसिद्ध सूतपुत्र कर्ण आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। यहाँ भीष्म, द्रोण और कर्णका नाम लेनेका तात्पर्य है कि ये तीनों ही अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये युद्धमें आये थे (टिप्पणी प0 591)। 'अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः'-- दुर्योधनके पक्षमें जितने राजालोग हैं, जो युद्धमें दुर्योधनका प्रिय करना चाहते हैं (गीता 1। 23) अर्थात् दुर्योधनको हितकी सलाह नहीं दे रहे हैं, उन सभी,राजाओंके समूहोंके साथ धृतराष्ट्रके दुर्योधन, दुःशासन आदि सौ पुत्र विकराल दाढ़ोंके कारण अत्यन्त भयानक आपके मुखोंमें बड़ी तेजीसे प्रवेश कर रहे हैं --
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।।11.27।।अमी धृतराष्ट्रस्य पुत्राः दुर्योधनादयः सर्वे भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रः कर्णश्च तत्पक्षीयैः अवनिपालसमूहैः सर्वैः अस्मदीयैः अपि कैश्चिद् योधमुख्यैः सह त्वरमाणा दंष्ट्राकरालनि भयानकानि तव वक्त्राणि विनाशाय विशन्ति। तत्र केचित् चूर्णितैः उत्तमाङ्गैः दशनान्तरेषु विलग्नाः संदृश्यन्ते।
।।11.27।।भगवद्रूपस्योग्रत्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। प्रविष्टानां मध्ये केचिदिति संबन्धः।
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।।11.27।।वक्त्राणीति। अमी धृतराष्ट्रपुत्रप्रभृतयः सर्वेपि ते तव दंष्ट्राकरालानि भयानकानि वक्त्राणिव त्वरमाणा विशन्ति। तत्र च केचिच्चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः शिरोभिर्विशिष्टा दशनान्तरेषु विलग्ना विशेषेण संलग्ना दृश्यन्ते मया सम्यगसंदेहेन।
।।11.27।।वक्त्राणीति। एते सर्वे त्वरमाणा धावन्त इव दंष्ट्राभिः करालानि भयंकराणि वक्त्राणि विशन्ति। तेषां मध्ये केचिच्चूर्णीकृतैरुत्तमाङ्गैः शिरोभिरुपलक्षिता दन्तसंधिषु संश्लिष्टाः संदृश्यन्ते।
।। 11.27 अमी इत्यादिश्लोकपञ्चकार्थोत्थानहेतुं तस्य पूर्वेण सङ्गतिं चाह -- एवमिति। अवश्यम्भावितयास्वमनीषितमित्युक्तम्। स्वमनीषितभारावतरणज्ञापनाय भीषणरूपाविष्कारः तेन च युद्धप्रोत्साहनं सिध्येदिति भावः। वक्ष्यमाणमर्जुनादेरुपकरणमात्रत्वं तद्व्यापाराभावेऽपि शक्यत्वं चाभिप्रेत्यस्वेनैव करिष्यमाणमित्युक्तम्। तदानीं युद्धभूमौ स्थितानां वक्ष्यमाणभगवद्वक्त्रप्रवेशस्याघटिततया इन्द्रजालादिशङ्कां परिहरति -- स च पार्थ इति। भगवतः सर्वगोचरस्रष्ट्टत्वादिसाक्षात्कारे धार्तराष्ट्रादिकतिपयजन्तुसंहारो नात्यद्भुत इत्यभिप्रायेणाहतस्मिन्नेवेति।सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः [11।40] इति वक्ष्यमाणप्रकारेण सर्वशरीरतया सर्वभूतः सत्यसङ्कल्पो भगवानेव धार्तराष्ट्रादिविलयेऽपि सर्वविधं कारणम्? लौकिकातीन्द्रियेण रूपेण ग्रसन् भगवानेव प्रधानतमो हेतुः? दृष्टास्त्वर्जुनशरादयः काकतालीयवन्निमित्तमात्रमिति भावः।अनागतमपीत्यादि लौकिकं हि प्रत्यक्षं वर्तमाननियतमिति भावः।इदमिति -- धार्तराष्ट्रादिविशेषविषयमित्यर्थः। यद्वा वर्तिष्यमाणमपि साक्षात्काराद्वर्तमानवद्व्यपदिशतीति भावः। अस्मदीयैरिति पृथगभिधानादवनिपालसङ्घैरित्येतत्परपक्षविषयमिति व्यञ्जनायतत्पक्षीयैरित्युक्तम्। दुर्योधनादीनां सर्वेषामिव तत्पक्षीयाणामपि सर्वेषां वधस्य युद्धे करिष्यमाणत्वात्सर्वैरित्युक्तम्।अस्मदीयैरिति वचनात्स्वपक्षस्थानामपि वधः स्वेषां चावस्थानं विवक्षितम्। परेषु सर्वैरिति विशेषणात्स्वकीयेषु योधमुख्यैरित्युपादानाच्च पाण्डवपक्षीयाणां युद्धे निश्शेषवधाभावःकैश्चिदित्युक्तः। शीघ्रं संहरणस्य तत्तदपराधत्वरामूलत्वंत्वरमाणपदेन विवक्षितम्। यद्वा समरसंरम्भादिः सर्वोऽपि व्यापारस्तेषां स्ववधार्थ इति भावः।भयानकानि इति पृथगुक्तत्वात्करालशब्दोऽत्र सान्तरालत्वविकृतत्वपरः? दन्तुरत्वपरो वाकरालं दन्तुरे वक्रे इत्यादि।अमी च त्वा [11।21] इत्यत्र क्रियानिर्देशाभावेऽपिमा भवन्तमनलः पवनो वा इत्यादिष्विवाध्याहारेणैव क्रियान्वयो गुण एव। यद्वाविशन्ति इति वक्ष्यमाणपदमत्रापि पठितव्यम्।अथवादृष्ट्वा प्रव्यथितान्तरात्मानो धृतिं न विन्दन्ति इति वा विपरिणतानुषङ्गेण वाक्यसमाप्तिः न पुनः श्लोकद्वयमप्येकवाक्यतया विवक्षितम्? पूर्वश्लोके त्वेति कर्मतया निर्देशात्परत्रवक्त्राणि ते [11।27] इत्युक्तेःअमी सर्वे धृतराष्ट्रस्य पुत्राः इति भाष्याभिप्रेतः पाठः?दुर्योधनादयः सर्वे इत्युक्तेः अत एव हिविशन्ति इत्यनेनैकवाक्यतया व्याख्यातम् रक्षणार्थं भगवति प्रवेशव्युदासाय वक्ष्यमाणपरामर्शात्विनाशायेत्युक्तम्।तत्र धार्तराष्ट्रादिष्वित्यर्थः। यद्वा तेषु वक्त्रेष्वित्यर्थः। केचिद्विनाशाय विशन्ति केचित्तु विनष्टाः सन्दृश्यन्ते इत्युक्तं भवति।विद्ध्येनमिह वैरिणम् [3।37] इत्यस्यानन्तरं यादवप्रकाशीयैरिह केचित्पञ्चश्लोकान्पठन्तीति विलिख्य व्याख्यातम् -- अर्जुन उवाच -- भवत्येष कथं कृष्ण कथं चैष विवर्धते।किमात्मकः किमाचारस्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।।1।।भगवानुवाच -- एष सूक्ष्मः परः शत्रुर्देहिनामिन्द्रियैः सह।सुखं तत्र इवासीनो मोहयन्पार्थ तिष्ठति।।2।।कामक्रोधमयो घोरः स्तम्भहर्षसमुद्भवः।अहङ्कारोऽभिमानात्मा दुस्तरः पापकर्मभिः।।3।।हर्षमस्य निवर्त्यैष शोकमस्य ददाति च।भयं चास्य करोत्येष मोहयंश्च मुहुर्मुहुः।।4।।स एष कलुषी क्षुद्रश्छिद्रापेक्षी धनञ्जय।रजःप्रवर्तितो मोहान्मानुषाणामुपद्रवः।।5।।इति।अत्र च -- नानारूपैः पुरुषैर्वध्यमाना विशन्ति ते वक्त्रमचिन्त्यरूपम्।यौधिष्ठिरा धार्तराष्ट्राश्च योधाः शस्त्रैः कृत्ता विविधैः सर्व एव।।1।।दिव्यानि कर्माणि तवाद्भुतानि पूर्वाणि पूर्वेऽप्यृषयः स्तुवन्ति।नान्योऽस्ति कर्ता जगतस्त्वमेको धाता विधाता च विभुर्भुवश्च।।2।।तवाद्भुतं किं न भवेदसह्यं किं वा शक्यं परतः कीर्तयिष्ये।कर्तासि लोकस्य यतः स्वयं विभो त्वत्तः सर्वं त्वयि सर्वं त्वमेव।।3।।अत्यद्भुतं कर्म न दुष्करं ते कर्मोन्मानं न च विद्यते ते।न ते गुणानां परिमाणमस्ति न तेजसो नापि बलस्य नर्द्धेः।।4।। -- इति। अत्रदिव्यानि इत्यादयः श्लोका नारायणार्यैरपि लिखिताः।प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च [11।39] इत्यस्यानन्तरमन्यश्च श्लोकः -- अनादिमानप्रतिमप्रभावः सर्वेश्वरः सर्वमहाविभूतिः।न हि त्वदन्यः कश्चिदस्तीह देव लोकत्रये दृश्यतेऽचिन्त्यकर्मा इत्येते श्लोकाः सन्ति न वेति देवो जानाति। पूर्वव्याख्यातृभिरनुदाहृतत्वादध्ययनप्रसिद्ध्यभावाच्च भाष्यकारैरनादृताः। न च गीताशास्त्रस्य श्लोकसङ्ख्या व्यासादिभिरुक्ता। अर्वाचीनास्त्वविश्वसनीया इति।
।।11.27।।त्वरमाणा वेगवत्तराः दंष्ट्राकरालानि स्वतोऽपि भयानकानि वक्त्राणि विशन्ति प्रविशन्ति। प्रवेशानन्तरं दृष्टमाह। केचित् एके दशनान्तरेषु दन्तच्छिद्रेषु विलग्ना लम्बमानाः चूर्णितैः चूर्णीकृतैः उत्तमाङ्गैः सन्दृश्यन्ते।
।।11.27।।ते भीष्मादयः। उत्तमाङ्गैः शिरोभिः। अयं भावः -- धृतराष्ट्रस्य पुत्राः पापिष्ठाः भवन्तमेव त्रैलोक्यशरीरं विशन्ति। पापानुरूपं तस्य पायुस्थानस्थितान्नरकानेव गच्छन्तीति तत्र त्वां विशन्तीत्येवोक्तम्। भीष्मादयस्तु भक्ता यतोऽग्निर्ब्राह्मणा वेदाश्च प्रसूतास्तद्भगवतो मुखं प्रविशन्तीति वैषम्यगतिसूचनार्थं त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्रा विशन्ति भीष्मादयस्ते वक्त्राणि विशन्तीति विभागदर्शनं युक्तमिति।
।।11.27।।किंच तव मुखानि दंष्ट्राकरालानि अतएव भयंकराणि त्वरायुक्ता विशन्ति। तत्र प्रविष्टनां मध्ये किंचिद्दन्तान्तरेषु चूर्णितैः शिरोभिर्विलग्ना भक्षितमांसमिव संदृश्यन्ते उपलभ्यन्ते।
11.27 वक्त्राणि mouths? ते Thy? त्वरमाणाः hurrying? विशन्ति enter? दंष्ट्राकरालानि terribletoothed? भयानकानि fearful to behold? केचित् some? विलग्नाः sticking? दशनान्तरेषु in the gaps between the teeth? संदृश्यन्ते are found? चूर्णितैः crushed to powder? उत्तमाङ्गैः with (their) heads.Commentary How do they enter into the mouth Arjuna continues
11.27 Some hurriedly enter Thy mouths with their terrible teeth, fearful to behold. Some are found sticking in the gaps between the teeth with their heads crushed to powder.
11.27 1 see them all rushing headlong into Thy mouths, with terrible tusks, horrible to behold. Some are mangled between thy jaws, with their heads crushed to atoms.
11.27 They rapidly enter into Your terrible mouths with cruel teeths! Some are seen sticking in the gaps between the teeth, with their heads crushed!
11.27 Visanti, they enter; tvarmanah, rapidly, in great haste; into te, Your; vaktrani, mouths;-what kind of mouths?-bhayanakani, terrible; damstra-karalani, with cruel teeth. Besides, among these who have entered the mouths, kecit, some; samdrsyante, are see; vilagna, sticking, like meat eaten; dasanantaresu, in the gaps between the teeth; uttamangaih, with their heads; curnitaih, crushed. As to how they enter, he says:
11.27. They enter, hastening, into Your terrible mouths, frightening with tusks; some [of them], sticking in between Your teeth, are clearly visible with their heads powered.
11.27 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.26 11.27 All these sons of Dhrtarastra like Duryodhana and others like Bhisma, Drona, and Suta's son Karna together with the hosts of monarchs on their side and also the leading warriors on our side, are hastening to their destruction; they enter Your fearful mouths with terrible fangs; some, caught between the teeth are seen with their heads crushed to powder.
11.27 Hasten to enter Your fearful mouths with terrible fangs. Some, caught between the teeth are seen with their heads crushed to powder.
।।11.27।। तथा --, शीघ्रतासे -- बड़ी जल्दीके साथ आपके मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं। किस प्रकारके मुखोंमें दाढ़ोंवाले विकराल भयंकर मुखोंमें। तथा उन मुखोंमें प्रविष्ट हुए पुरुषोंमेंसे भी कितने ही विचूर्णित मस्तकोंसहित दाँतोंके बीचमें भक्षण किये हुए मांसकी भाँति चिपके हुए दीख रहे हैं।
।।11.27।। --,वक्त्राणि मुखानि ते तव त्वरमाणाः त्वरायुक्ताः सन्तः विशन्ति? किंविशिष्टानि मुखानि दंष्ट्राकरालानि भयानकानि भयंकराणि। किञ्च? केचित् मुखानि प्रविष्टानां मध्ये विलग्नाः दशनान्तरेषु मांसमिव भक्षितं संदृश्यन्ते उपलभ्यन्ते चूर्णितैः चूर्णीकृतैः उत्तमाङ्गैः शिरोभिः।।कथं प्रविशन्ति मुखानि इत्याह --,
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वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि। केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः।।11.27।।
বক্ত্রাণি তে ত্বরমাণা বিশন্তি দংষ্ট্রাকরালানি ভযানকানি৷ কেচিদ্বিলগ্না দশনান্তরেষু সংদৃশ্যন্তে চূর্ণিতৈরুত্তমাঙ্গৈঃ৷৷11.27৷৷
বক্ত্রাণি তে ত্বরমাণা বিশন্তি দংষ্ট্রাকরালানি ভযানকানি৷ কেচিদ্বিলগ্না দশনান্তরেষু সংদৃশ্যন্তে চূর্ণিতৈরুত্তমাঙ্গৈঃ৷৷11.27৷৷
વક્ત્રાણિ તે ત્વરમાણા વિશન્તિ દંષ્ટ્રાકરાલાનિ ભયાનકાનિ। કેચિદ્વિલગ્ના દશનાન્તરેષુ સંદૃશ્યન્તે ચૂર્ણિતૈરુત્તમાઙ્ગૈઃ।।11.27।।
ਵਕ੍ਤ੍ਰਾਣਿ ਤੇ ਤ੍ਵਰਮਾਣਾ ਵਿਸ਼ਨ੍ਤਿ ਦਂਸ਼੍ਟ੍ਰਾਕਰਾਲਾਨਿ ਭਯਾਨਕਾਨਿ। ਕੇਚਿਦ੍ਵਿਲਗ੍ਨਾ ਦਸ਼ਨਾਨ੍ਤਰੇਸ਼ੁ ਸਂਦਰਿਸ਼੍ਯਨ੍ਤੇ ਚੂਰ੍ਣਿਤੈਰੁਤ੍ਤਮਾਙ੍ਗੈ।।11.27।।
ವಕ್ತ್ರಾಣಿ ತೇ ತ್ವರಮಾಣಾ ವಿಶನ್ತಿ ದಂಷ್ಟ್ರಾಕರಾಲಾನಿ ಭಯಾನಕಾನಿ. ಕೇಚಿದ್ವಿಲಗ್ನಾ ದಶನಾನ್ತರೇಷು ಸಂದೃಶ್ಯನ್ತೇ ಚೂರ್ಣಿತೈರುತ್ತಮಾಙ್ಗೈಃ৷৷11.27৷৷
വക്ത്രാണി തേ ത്വരമാണാ വിശന്തി ദംഷ്ട്രാകരാലാനി ഭയാനകാനി. കേചിദ്വിലഗ്നാ ദശനാന്തരേഷു സംദൃശ്യന്തേ ചൂര്ണിതൈരുത്തമാങ്ഗൈഃ৷৷11.27৷৷
ବକ୍ତ୍ରାଣି ତେ ତ୍ବରମାଣା ବିଶନ୍ତି ଦଂଷ୍ଟ୍ରାକରାଲାନି ଭଯାନକାନି| କେଚିଦ୍ବିଲଗ୍ନା ଦଶନାନ୍ତରେଷୁ ସଂଦୃଶ୍ଯନ୍ତେ ଚୂର୍ଣିତୈରୁତ୍ତମାଙ୍ଗୈଃ||11.27||
vaktrāṇi tē tvaramāṇā viśanti daṅṣṭrākarālāni bhayānakāni. kēcidvilagnā daśanāntarēṣu saṅdṛśyantē cūrṇitairuttamāṅgaiḥ৷৷11.27৷৷
வக்த்ராணி தே த்வரமாணா விஷந்தி தஂஷ்ட்ராகராலாநி பயாநகாநி. கேசித்விலக்நா தஷநாந்தரேஷு ஸஂதரிஷ்யந்தே சூர்ணிதைருத்தமாங்கைஃ৷৷11.27৷৷
వక్త్రాణి తే త్వరమాణా విశన్తి దంష్ట్రాకరాలాని భయానకాని. కేచిద్విలగ్నా దశనాన్తరేషు సందృశ్యన్తే చూర్ణితైరుత్తమాఙ్గైః৷৷11.27৷৷
11.28
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28
।।11.28।। जैसे नदियोंके बहुत-से जलके प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्रके सम्मुख दौड़ते हैं, ऐसे ही वे संसारके महान् शूरवीर आपके प्रज्वलित मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं।
।।11.28।। जैसे नदियों के बहुत से जलप्रवाह समुद्र की ओर वेग से बहते हैं, वैसे ही मनुष्यलोक के ये वीर योद्धागण आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश करते हैं।।
।।11.28।। समुद्र से मिलन के लिए आतुर? उसकी ओर वेग से बहने वाली नदियों की उपमा इस श्लोक में दी गई है। जिस स्रोत से नदी का उद्गम होता है? वहीं से उसे अपना विशेष व्यक्तित्व प्राप्त हो जाता है। किसी भी एक बिन्दु पर वह नदी न रुकती है और न आगे बढ़ने से कतराती ही है। अल्पमति का पुरुष यह कह सकता है कि नदी की प्रत्येक बूँद समीप ही किसी स्थान विशेष की ओर बढ़ रही है। परन्तु यथार्थवादी पुरुष जानता है कि सभी नदियां समुद्र की ओर ही बहती जाती हैं? और वे जब तक समुद्र से मिल नहीं जाती तब तक मार्ग के मध्य न कहीं रुक सकती हैं और न रुकेंगी। समुद्र के साथ एकरूप हो जाने पर विभिन्न नदियों के समस्त भेद समाप्त हाे जाते हैं।नदी के जल की प्रत्येक बूंद समुद्र से ही आयी है। प्रथम मेघ के रूप में वह ऊपर पर्वतशिखरों तक पहुंची और वहाँ वर्षा के रूप में प्रकट हुईनदी तट के क्षेत्रों को जल प्रदान करके खेतों को जीवन और पोषण देकर वे बूंदें वेगयुक्त प्रवाह के साथ अपने उस प्रभव स्थान में मिल जाती हैं? जहाँ से उन्होंने यह करुणा की उड़ान भरी थी। इसी प्रकार अपने समाज की सेवा और संस्कृति का पोषण करने तथा विश्व के सौन्दर्य की वृद्धि में अपना योगदान देने के लिए समष्टि से ही सभी व्यष्टि जीव प्रकट हुए हैं? परन्तु उनमें से कोई भी व्यक्ति अपनी इस तीर्थयात्रा के मध्य नहीं रुक सकता है। सभी को अपने मूल स्रोत की ओर शीघ्रता से बढ़ना होगा। सम्ाुद्र को प्राप्त होने से नदी की कोई हानि नहीं होती है। यद्यपि मार्ग में उसे कुछ विशेष गुण प्राप्त होते हैं? जिनके कारण उसे एक विशेष नाम और आकार प्राप्त हो जाता है? तथपि उसका यह स्वरूप क्षणिक है। यह समुद्र के जल द्वारा शुष्क भूमि को बहुलता से समृद्ध करने के लिए लिया गया सुविधाजनक रूप है।इस श्लोक पर जितना अधिक हम विचार करेंगे उतना अधिक उसमें निहित आनन्द हमें प्राप्त होगा।किसलिये वे प्रवेश करते हैं अर्जुन बताता है कि
।।11.28।। व्याख्या--'यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति'--मूलमें जलमात्र समुद्रका है। वही जल बादलोंके द्वारा वर्षारूपमें पृथ्वीपर बरसकर झरने, नाले आदिको लेकर नदियोंका रूप धारण करता है। उन नदियोंके जितने वेग हैं, प्रवाह हैं, वे सभी स्वाभाविक ही समुद्रकी तरफ दौड़ते हैं। कारण कि जलका उद्गम स्थान समुद्र ही है। वे सभी जल-प्रवाह समुद्रमें जाकर अपने नाम और रूपको छोड़कर अर्थात् गङ्गा, यमुना, सरस्वती आदि नामोंको और प्रवाहके रूपको छोड़कर समुद्ररूप ही हो जाते हैं। फिर वे जल-प्रवाह समुद्रके सिवाय अपना कोई अलग, स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते। वास्तवमें तो उनका स्वतन्त्र अस्तित्व पहले भी नहीं था? केवल नदियोंके प्रवाहरूपमें होनेके कारण वे अलग दीखते थे।
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।।11.28।।एते राजलोका बहवो नदीनाम् अम्बुप्रवाहाः समुद्रम् इव प्रदीप्तज्वलनम् इव च शलभाः तव वक्त्राणि अभिविज्वलन्ति स्वयम् एव त्वरमाणा आत्मनाशाय विशन्ति।
।।11.28।।उभयोरपि सेनयोरवस्थितानां राज्ञां भगवन्मुखप्रवेशं निदर्शनेन विशदयति -- कथमित्यादिना।
।।11.28 -- 11.29।।यथा नदीनामिति। अम्बुवेगाः समुद्रमिव ते वक्त्राण्यभिमुखं तत्रैव चेमे नरलोकवीरा नाशाय विशन्ति।
।।11.28।।राज्ञां भगवन्मुखप्रवेशने निदर्शनमाह -- यथेति। यथा नदीनामनेकमार्गप्रवृत्तानां बहवोऽम्बूनां जलानां वेगा वेगवन्तः प्रवाहाः समुद्राभिमुखाः सन्तः समुद्रमेव द्रवन्ति विशन्ति तथा ते तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभितः सर्वतो ज्वलन्ति।अभिविज्वलन्ति इति वा पाठः।
।।11.28।।प्रवेशमेव दृष्टान्तेनाह -- यथेति। नदीनामनेकमार्गप्रवृत्तानां बहवोऽम्बूनां वारीणां वेगाः प्रवाहाः समुद्राभिमुखाः सन्तो यथा समुद्रमेव द्रवन्ति प्रविशन्ति तथा अमी ये नरलोकवीरास्तेऽभिविज्वलन्ति सर्वतः प्रदीप्यमानानि वक्त्राणि प्रविशन्ति।
।।11.28।।त्वरमाणाः [11।27] इत्युक्तस्वव्यापारमूलविनाशत्वे? सर्वेषां चैकस्मिन्नेवोपसंहारे तस्य चैकस्य सर्वसंहारानुगुणसामान्याकारेणावस्थानमात्रे च दृष्टान्तद्वयं श्लोकद्वयेनोच्यते -- यथेति। पाण्डवादीनां सर्वेषामपि विनाशानभिधानाज्जगत्प्रतपन्तीत्येतावन्मात्रस्य चानन्तरमुक्तेःनरलोकवीराः इत्युक्त एवार्थोलोकाः इत्युक्त इत्यभिप्रायेणएते राजलोका इति सङ्कलय्य कथितम्।अम्बुवेगाः इत्यत्र वेगशब्दस्यात्र वेगवद्विषयत्वव्यञ्जनाय प्रवाहशब्दः। पतङ्गशब्दस्यानेकार्थस्यात्र शकुन्तादिविषयत्वव्यावर्तनायशलभा इत्युक्तम्।अभिविज्वलन्ति इति पदं पूर्वश्लोकस्थमपि समनन्तरश्लोकगतज्वलनदृष्टान्तौपयिकमिति व्यञ्जनाय ज्वलनदृष्टान्तादनन्तरं पठितम्।समृद्धवेगाः इत्येतत्प्रागुक्तत्वरमाणपदसमानार्थमित्यभिप्रेत्यस्वयमेव त्वरमाणा इत्युक्तम्। पतङ्गानां प्रदीपादिषु पक्षवेगादिभिर्नाशकत्वस्यापि सम्भवात्तद्व्यवच्छेदःप्रदीप्तज्वलनम् इति वचनेन विवक्षित इति व्यञ्जनायआत्मनाशायेत्युक्तम्। नदीप्रवाहस्य नाशो नाम पृथग्भूतप्रवाहाकारत्यागः येन नदीप्रवाहव्यपदेशस्तस्मिन्नेव द्रव्ये निवर्तते पतङ्गानां तु द्रव्यान्तरव्यपदेशयोग्यभस्मताद्यापत्तिरिति प्रकारभेदप्रदर्शनाय दृष्टान्तद्वयाभिधानम्। यद्वा स्वेच्छया निवर्तितुमशक्यमित्येवमभिप्रायः प्रवाहदृष्टान्तः तथाविधस्य विनाशस्य स्वेच्छामूलव्यापारहेतुकत्वव्यञ्जनाय पतङ्गदृष्टान्तः। ईश्वरस्यापि च सर्वप्रवेशेऽप्यपरिपूर्णत्वविवक्षया समुद्रनिदर्शनम्? सहसा विध्वंसनाय तु ज्वलनोदाहरणम्।
।।11.28।।प्रवेशे दृष्टान्तमाह -- यथेति। यथा नदीनां बहुधा प्रसरन्तीनां बहवोऽम्बुवेगाः जलप्रवाहाः समुद्रमेव स्वलयस्थानमेव अभिमुखाः सन्मुखाः सन्तो द्रवन्ति प्रविशन्ति तथा अमी नरलोकवीराः अभिविज्वलन्ति परितो दीप्यमानानि तव वक्त्राणि विशन्ति।
।।11.28।।इदमेव सदृष्टान्तमाह -- यथेति। तव वक्त्राणि विशन्तीति संबन्धः। अभिविज्वलन्ति सर्वतः जाज्वल्यमानानि।
।।11.28।।तत्र दृष्टान्तमाह। यथा नदीनां स्त्रवन्तीनां बहवो जलानां वेगाः समुद्रमेवाभिमुखाः प्रतिमुखा द्रवन्ति विशन्ति तथामी नरलोकवीरास्तव मुखान्यभिविज्वन्ति प्रकाशभानानि विशन्ति।
11.28 यथा as? नदीनाम् of rivers? बहवः many? अम्बुवेगाः watercurrents? समुद्रम् to the ocean? एव verily? अभिमुखाः towards? द्रवन्ति flow? तथा so? तव Thy? अमी these? नरलोकवीराः heroes in the world of men? विशन्ति enter? वक्त्राणि mouths? अभिविज्वलन्ति flaming.Commentary Ami These warriors such as Bhishma. Arjuna is now seeing all these warriors,whom he did not wish to kill? rushing to death. His delusion has vanished. He thinks now This battle cannot be avoided. It has the sanction of the Supreme Lord. Why should I worry about the inevitable The Lord has already destroyed these warriors. I am only an instrument in His hands. No sin can touch me even if I kill them. This is a just cause also.Why and how do they enter Arjuna says --
11.28 Verily, just as many torrents of rivers flow towards the ocean, even so these heroes in the world of men enter Thy flaming mouths.
11.28 As rivers in flood surge furiously to the ocean, so these heroes, the greatest among men, fling themselves into Thy flaming mouths.
11.28 As the numerous currents of the waters of rivers rush towards the sea alone so also do those heroes of the human world enter into Your blazing mouths.
11.28 Yatha, as; the bahavah, numerous; ambu-vegah, currents of the waters, particularly the swift ones; nadinam, of flowing rivers; dravanti abhimukhah, rush towards, enter into; the samudram, sea; eva, alone; tatha, so also; do ami, those; nara-loka-virah, heroes of the human world-Bhisma and others; visanti, enter into; tava, Your; abhi-vijvalanti, blazing, glowing; vaktrani, mouths. Why do they enter, and how? In answer Arjuna says:
11.28. Just as many water-rapids of the rivers race heading towards the ocean alone, in the same manner these heroes of the world of men do enter into Your mouths flaming all around.
11.28 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.28 - 11.29 These innumerable kings rush to their destruction in Your flaming mouths, even as many torrents of rivers flow towards the ocean and moths rush into a blazing fire.
11.28 As many torrents of rivers flow towards the ocean, so do these heroes of the world of men enter Your flaming mouths.
।।11.28।।वे किस प्रकार मुखोंमें प्रवेश करते हैं? सो कहते हैं --, जैसे चलती हुई नदियोंके बहुतसे जलप्रवाह बड़े वेगसे समुद्रके सम्मुख हुए ही दौड़ते हैं -- समुद्रमें ही प्रवेश करते हैं? वैसे ही यह मनुष्यलोकके शूरवीर भीष्मादि आपके प्रज्वलित प्रकाशमान मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं।
।।11.28।। --,यथा नदीनां स्रवन्तीनां बहवः अनेके अम्बूनां वेगाः अम्बुवेगाः त्वराविशेषाः समुद्रमेव अभिमुखाः प्रतिमुखाः द्रवन्ति प्रविशन्ति? तथा तद्वत? तव अमी भीष्मादयः नरलोकवीराः मनुष्यलोके शूराः विशन्ति वक्त्राणि अभिविज्वलन्ति प्रकाशमानानि।।ते किमर्थं प्रविशन्ति कथं च इत्याह --,
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यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति।।11.28।।
যথা নদীনাং বহবোম্বুবেগাঃ সমুদ্রমেবাভিমুখাঃ দ্রবন্তি৷ তথা তবামী নরলোকবীরা বিশন্তি বক্ত্রাণ্যভিবিজ্বলন্তি৷৷11.28৷৷
যথা নদীনাং বহবোম্বুবেগাঃ সমুদ্রমেবাভিমুখাঃ দ্রবন্তি৷ তথা তবামী নরলোকবীরা বিশন্তি বক্ত্রাণ্যভিবিজ্বলন্তি৷৷11.28৷৷
યથા નદીનાં બહવોમ્બુવેગાઃ સમુદ્રમેવાભિમુખાઃ દ્રવન્તિ। તથા તવામી નરલોકવીરા વિશન્તિ વક્ત્રાણ્યભિવિજ્વલન્તિ।।11.28।।
ਯਥਾ ਨਦੀਨਾਂ ਬਹਵੋਮ੍ਬੁਵੇਗਾ ਸਮੁਦ੍ਰਮੇਵਾਭਿਮੁਖਾ ਦ੍ਰਵਨ੍ਤਿ। ਤਥਾ ਤਵਾਮੀ ਨਰਲੋਕਵੀਰਾ ਵਿਸ਼ਨ੍ਤਿ ਵਕ੍ਤ੍ਰਾਣ੍ਯਭਿਵਿਜ੍ਵਲਨ੍ਤਿ।।11.28।।
ಯಥಾ ನದೀನಾಂ ಬಹವೋಮ್ಬುವೇಗಾಃ ಸಮುದ್ರಮೇವಾಭಿಮುಖಾಃ ದ್ರವನ್ತಿ. ತಥಾ ತವಾಮೀ ನರಲೋಕವೀರಾ ವಿಶನ್ತಿ ವಕ್ತ್ರಾಣ್ಯಭಿವಿಜ್ವಲನ್ತಿ৷৷11.28৷৷
യഥാ നദീനാം ബഹവോമ്ബുവേഗാഃ സമുദ്രമേവാഭിമുഖാഃ ദ്രവന്തി. തഥാ തവാമീ നരലോകവീരാ വിശന്തി വക്ത്രാണ്യഭിവിജ്വലന്തി৷৷11.28৷৷
ଯଥା ନଦୀନାଂ ବହବୋମ୍ବୁବେଗାଃ ସମୁଦ୍ରମେବାଭିମୁଖାଃ ଦ୍ରବନ୍ତି| ତଥା ତବାମୀ ନରଲୋକବୀରା ବିଶନ୍ତି ବକ୍ତ୍ରାଣ୍ଯଭିବିଜ୍ବଲନ୍ତି||11.28||
yathā nadīnāṅ bahavō.mbuvēgāḥ samudramēvābhimukhāḥ dravanti. tathā tavāmī naralōkavīrā viśanti vaktrāṇyabhivijvalanti৷৷11.28৷৷
யதா நதீநாஂ பஹவோம்புவேகாஃ ஸமுத்ரமேவாபிமுகாஃ த்ரவந்தி. ததா தவாமீ நரலோகவீரா விஷந்தி வக்த்ராண்யபிவிஜ்வலந்தி৷৷11.28৷৷
యథా నదీనాం బహవోమ్బువేగాః సముద్రమేవాభిముఖాః ద్రవన్తి. తథా తవామీ నరలోకవీరా విశన్తి వక్త్రాణ్యభివిజ్వలన్తి৷৷11.28৷৷
11.29
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29
।।11.29।। जैसे पतंगे मोहवश अपना नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए प्रज्वलित अग्निमें प्रविष्ट होते हैं, ऐसे ही ये सब लोग भी मोहवश अपना नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए आपके मुखोंमें प्रविष्ट हो रहे हैं।
।।11.29।। जैसे पतंगे अपने नाश के लिए प्रज्वलित अग्नि में अतिवेग से प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये लोग भी अपने नाश के लिए आपके मुखों में अतिवेग से प्रवेश करते हैं।।
।।11.29।। अव्यक्त से व्यक्त हुई सृष्टि के बीच की एकता को? समुद्र से उत्पन्न हुई नदियों की उपमा के द्वारा अत्यन्त सुन्दर शैली द्वारा पूर्व श्लोक में दर्शाया गया है। समुद्र से उत्पन्न होकर समस्त नदियां पुन उसी में समा जाती हैं।कोई भी उपमा अपने आप में पूर्ण नहीं हो सकती है। नदियों के दृष्टान्त में एक अपूर्णता यह रह जाती है कि नदी को स्वयं की चेतना नहीं होने के कारण समुद्र मिलन में उसकी स्वेच्छा नहीं प्रदर्शित होती। कोई शंका कर सकता है कि सम्भवत चेतन प्राणी अपने स्वतन्त्र विवेक के कारण अचेतन जल के समान व्यवहार नहीं करेंगे। यहाँ यह दर्शाने के लिए कि जीवधारी प्राणी भी अपने स्वभाव से विवश हुए मृत्यु के मुख की ओर बरबस खिंचे चले जाते हैं? यह दृष्टान्त दिया गया है कि जैसे पतंगें अत्यन्त वेग से स्वनाश के लिए प्रज्वलित अग्नि के मुख में प्रवेश करते हैं। व्यासजी को सम्पूर्ण प्रकृति ही धर्मशास्त्र की खुली पुस्तक प्रतीत होती है। वे अनेक घटनाओं एवं उदाहरणों के द्वारा इन्हीं मूलभूत तथ्यों को समझाते हैं कि अव्यक्त का व्यक्त अवस्था में प्रक्षेपण ही सृष्टि की प्रक्रिया है? और व्यक्त का अपने अव्यक्त स्वरूप में मिल जाना ही नाश या मृत्यु है। जब हम इस भयंकर या राक्षसी प्रतीत होने वाली मृत्यु को यथार्थ दृष्टिकोण से समझने का प्रयत्न करते हैं? तब वह छद्मवेष को त्यागकर अपने प्रसन्न और प्रफुल्ल मुख को प्रकट,करती है।अर्जुन के मानसिक तनाव का मुख्य कारण यह था कि उसने कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर होने वाले बहुत बड़े नाश का शीघ्रतावश त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन कर लिया था। उसके उपचार का एकमात्र उपाय यही था कि उसकी दृष्टि उस ऊँचाई तक उठाई जाये? जहाँ से वह? एक ही दृष्टिक्षेप में? मृत्यु की इस अपरिहार्य प्रकृतिक घटना को देख और समझ सके। श्रीकृष्ण ने उसका यही उपचार किया। किसी भी घटना का समीप से पूर्ण अध्ययन करने पर उसके भयानक फनों के विषदन्त दूर हो जाते हैं जब मनुष्य की विवेकशील बुद्धि अज्ञान से आवृत्त हो जाती है? केवल तभी उसके आसपास होने वाली घटनाएं उसका गला घोंटकर उसे धराशायी कर देती हैं। जैसे नदियां समुद्र में तथा पतंगे अग्नि के मुख में तेजी से प्रवेश करते हैं? वैसे ही सभी रूप अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं। मृत्यु की घटना को इस प्रकार समझ लेने पर मनुष्य उससे भयमुक्त होकर अपने जीवन का सामना कर सकता है? क्योंकि उसके लिए सम्पूर्ण जीवन का अर्थ परिवर्तनों की एक अखण्ड धारा हो जाती है।इसलिए? काल की क्रीड़ा के रूप में मृत्यु एक डंकरहित घटना बन जाती है। अगले श्लोक में इस मृत्यु को उसके सम्पूर्ण भयंकर सौन्दर्य के साथ गौरवान्वित किया गया है
।।11.29।। व्याख्या--यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः--जैसे हरी-हरी घासमें रहनेवाले पतंगे चातुर्मासकी अँधेरी रात्रिमें कहींपर प्रज्वलित अग्नि देखते हैं, तो उसपर मुग्ध होकर (कि बहुत सुन्दर प्रकाश मिल गया, हम इससे लाभ ले लेंगे, हमारा अँधेरा मिट जायगा) उसकी तरफ बड़ी तेजीसे दौड़ते हैं। उनमेंसे कुछ तो प्रज्वलित अग्निमें स्वाहा हो जाते हैं; कुछको अग्निकी थोड़ी-सी लपट लग जाती है तो उनका उड़ना बंद हो जाता है और वे तड़पते रहते हैं। फिर भी उनकी लालसा उस अग्निकी तरफ ही रहती है! यदि कोई पुरुष दया करके उस अग्निको बुझा देता है तो वे पंतगे बड़े दुःखी हो जाते हैं कि उसने हमारेको बड़े लाभसे वञ्चित कर दिया! तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समुद्धवेगाः --भोग भोगने और संग्रह करनेमें ही तत्परतापूर्वक लगे रहना और मनमें भोगों और संग्रहका ही चिन्तन होते रहना -- यह बढ़ा हुआ सांसारिक वेग है। ऐसे वेगवाले दुर्योधनादि राजालोग पंतगोंकी तरह बड़ी तेजीसे कालचक्ररूप आपके मुखोंमें जा रहे हैं अर्थात् पतनकी तरफ जा रहे हैं--चौरासी लाख योनियों और नरकोंकी तरफ जा रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि प्रायः मनुष्य सांसारिक भोग, सुख, आराम, मान, आदर आदिको प्राप्त करनेके लिये रात-दिन दौड़ते हैं। उनको प्राप्त करनेमें उनका अपमान होता है, निन्दा होती है, घाटा लगता है, चिन्ता होती है, अन्तःकरणमें जलन होती है और जिस आयुके बलपर वे जी रहे हैं, वह आयु भी समाप्त होती जाती है, फिर भी वे नाशवान् भोग और संग्रहकी प्राप्तिके लिये भीतरसे लालायित रहते हैं (टिप्पणी प0 593)।  सम्बन्ध--पीछेके दो श्लोकोंमें दो दृष्टान्तोंसे दोनों समुदायोंका वर्णन करके अब सम्पूर्ण लोकोंका ग्रसन करते हुए विश्वरूप भगवान्के भयानक रूपका वर्णन करते हैं।
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।।11.29।।एते राजलोका बहवो नदीनाम् अम्बुप्रवाहाः समुद्रम् इव प्रदीप्तज्वलनम् इव च शलभाः तव वक्त्राणि अभिविज्वलन्ति स्वयम् एव त्वरमाणा आत्मनाशाय विशन्ति।
।।11.29।।प्रवेशप्रयोजनं तत्प्रकारविशेषं चोदाहरणान्तरेण स्फोरयति -- ते किमर्थमित्यादिना।
।।11.28 -- 11.29।।यथा नदीनामिति। अम्बुवेगाः समुद्रमिव ते वक्त्राण्यभिमुखं तत्रैव चेमे नरलोकवीरा नाशाय विशन्ति।
।।11.29।।अबुद्धिपूर्वकप्रवेशे नदीवेगं दृष्टान्तमुक्त्वा बुद्धिपूर्वकप्रवेशे दृष्टान्तमाह -- यथा प्रदीप्तमिति। यथा पतङ्गाः शलभाः समृद्धवेगाः सन्तो बुद्धिपूर्वं प्रदीप्तं ज्वलनं विशन्ति नाशाय मरणायैव तथैव नाशाय विशन्ति लोका एते दुर्योधनप्रभृतयः सर्वेऽपि तव वक्त्राणि समृद्धवेगाः बुद्धिपूर्वमनायत्या।
।।11.29।। अवशत्वेन प्रवेशे नदीवेगो दृष्टान्त उक्तः। बुद्धिपूर्वकप्रवेशे दृष्टान्तमाह -- यथेति। प्रदीप्तं ज्वलनमग्निं पतङ्गाः सूक्ष्मपक्षिविशेषाः बुद्धिपूर्वकं समृद्धो वेगो येषां ते यथा नाशाय मरणायैव विशन्ति तथैव लोका एते जना अपि तव मुखानि प्रविशन्ति।
।। 11.29 त्वरमाणाः [11।27] इत्युक्तस्वव्यापारमूलविनाशत्वे? सर्वेषां चैकस्मिन्नेवोपसंहारे तस्य चैकस्य सर्वसंहारानुगुणसामान्याकारेणावस्थानमात्रे च दृष्टान्तद्वयं श्लोकद्वयेनोच्यते -- यथेति। पाण्डवादीनां सर्वेषामपि विनाशानभिधानाज्जगत्प्रतपन्तीत्येतावन्मात्रस्य चानन्तरमुक्तेःनरलोकवीराः इत्युक्त एवार्थोलोकाः इत्युक्त इत्यभिप्रायेणएते राजलोका इति सङ्कलय्य कथितम्।अम्बुवेगाः इत्यत्र वेगशब्दस्यात्र वेगवद्विषयत्वव्यञ्जनाय प्रवाहशब्दः। पतङ्गशब्दस्यानेकार्थस्यात्र शकुन्तादिविषयत्वव्यावर्तनायशलभा इत्युक्तम्।अभिविज्वलन्ति इति पदं पूर्वश्लोकस्थमपि समनन्तरश्लोकगतज्वलनदृष्टान्तौपयिकमिति व्यञ्जनाय ज्वलनदृष्टान्तादनन्तरं पठितम्।समृद्धवेगाः इत्येतत्प्रागुक्तत्वरमाणपदसमानार्थमित्यभिप्रेत्यस्वयमेव त्वरमाणा इत्युक्तम्। पतङ्गानां प्रदीपादिषु पक्षवेगादिभिर्नाशकत्वस्यापि सम्भवात्तद्व्यवच्छेदःप्रदीप्तज्वलनम् इति वचनेन विवक्षित इति व्यञ्जनायआत्मनाशायेत्युक्तम्। नदीप्रवाहस्य नाशो नाम पृथग्भूतप्रवाहाकारत्यागः येन नदीप्रवाहव्यपदेशस्तस्मिन्नेव द्रव्ये निवर्तते पतङ्गानां तु द्रव्यान्तरव्यपदेशयोग्यभस्मताद्यापत्तिरिति प्रकारभेदप्रदर्शनाय दृष्टान्तद्वयाभिधानम्। यद्वा स्वेच्छया निवर्तितुमशक्यमित्येवमभिप्रायः प्रवाहदृष्टान्तः तथाविधस्य विनाशस्य स्वेच्छामूलव्यापारहेतुकत्वव्यञ्जनाय पतङ्गदृष्टान्तः। ईश्वरस्यापि च सर्वप्रवेशेऽप्यपरिपूर्णत्वविवक्षया समुद्रनिदर्शनम्? सहसा विध्वंसनाय तु ज्वलनोदाहरणम्।
।।11.29।।नदीदृष्टान्ते प्रकटतया नाशो न दृश्यत इति नाशार्थप्रवेशे दृष्टान्तान्तरमाह -- यथेति। यथा पतङ्गाः सूक्ष्मकीटाः शलभाः स्वपक्षवेगमदावलिप्ताः नाशाय मरणार्थं प्रदीप्यमानं ज्वलनमग्निं विशन्ति तथैव समृद्धवेगाः मदावलिप्ता एते लोकाः पूर्वोक्ता नाशाय मरणाय तवापि वक्त्राणि विशन्ति।
।।11.29।।बुद्धिपूर्वकमेव ते त्वद्वक्त्राणि प्रविशन्तीति सदृष्टान्तमाह -- यथा प्रदीप्तमिति।
।।11.29।।अम्बुवेगाः समुद्रं विशन्ति नतु जलभावविनाशं प्राप्नुवन्ति। एते तु नाशाय प्रविशन्तीत्यतो दृष्टान्तान्तरमाह। यथा प्रदीप्तमग्निं पतङ्गाः क्षुद्रपक्षिविशेषाः समृद्धवेगा विनाशाय विशन्ति तथैव समृद्धवेगा लोकाः प्राणिनः तवापि मुखानि विनाशाय विशन्ति।
11.29 यथा as? प्रदीप्तम् blazing? ज्वलनम् fire? पतङ्गाः moths? विशन्ति enter? नाशाय to destruction? समृद्धवेगाः with ickened speed? तथा so? एव only? नाशाय to destruction? विशन्ति enter? लोकाः creatures? तव Thy? अपि also? वक्त्राणि mouths? समृद्धवेगाः with ickened speed.No Commentary.
11.29 As moths hurriedly rush into a blazing fire for (their own) destruction, so also these creatures hurriedly rush into Thy mouths for (their own) destruction.
11.29 As moths fly impetuously to the flame only to be killed, so these men rush into Thy mouths to court their own destruction.
11.29 As moths enter with increased haste into a glowing fire for destruction, in that very way do the creatures enter into Your mouths too, with increased hurry for destruction.
11.29 Yatha, as; patangah, moths, flying insects; visanti, enter; samrddha-vegah, with increased haste; into a pradiptam, glowing; jvalanam, fire; nasaya, for destruction; tatha eva, in that very way; do the lokah, creatures; visanti, enter into; tava, Your; vaktrani, mouths; api, too; samrddha-vegah, with increased hurry; nasaya, for destruction. You, again-
11.29. Just as with full speed, the moths enter into the flaming fire for their own destruction, in the same manner the worlds also do enter, for their own destruction with full speed, into the mouths of Yours.
11.29 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.28 - 11.29 These innumerable kings rush to their destruction in Your flaming mouths, even as many torrents of rivers flow towards the ocean and moths rush into a blazing fire.
11.29 As moths rush swiftly into a blazing fire to their destruction, so do these men swiftly rush into Your mouths to meet their destruction.
।।11.29।।वे किसलिये और किस प्रकार प्रवेश कर रहे हैं? सो कहते हैं --, जैसे पतंग -- पक्षीगण अपने नाशके लिये दौड़दौड़कर अत्यन्त वेगसे प्रदीप्त अग्निमें प्रवेश करते हैं? वैसे ही ( ये सब ) प्राणी भी नष्ट होनेके लिये दौड़दौड़कर अत्यन्त वेगके साथ आपके मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं। जिनका वेग -- गति बढ़ी हुई हो? वे समृद्धवेग कहलाते हैं।,
।।11.29।। --,यथा प्रदीप्तं ज्वलनम् अग्निं पतङ्गाः पक्षिणः विशन्ति नाशाय विनाशाय समृद्धवेगाः समृद्धः उद्भूतः वेगः गतिः येषां ते समृद्धवेगाः? तथैव नाशाय विशन्ति लोकाः प्राणिनः तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः।।त्वं पुनः --,
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यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। तथैव नाशाय विशन्ति लोका स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः।।11.29।।
যথা প্রদীপ্তং জ্বলনং পতঙ্গা বিশন্তি নাশায সমৃদ্ধবেগাঃ৷ তথৈব নাশায বিশন্তি লোকা- স্তবাপি বক্ত্রাণি সমৃদ্ধবেগাঃ৷৷11.29৷৷
যথা প্রদীপ্তং জ্বলনং পতঙ্গা বিশন্তি নাশায সমৃদ্ধবেগাঃ৷ তথৈব নাশায বিশন্তি লোকা- স্তবাপি বক্ত্রাণি সমৃদ্ধবেগাঃ৷৷11.29৷৷
યથા પ્રદીપ્તં જ્વલનં પતઙ્ગા વિશન્તિ નાશાય સમૃદ્ધવેગાઃ। તથૈવ નાશાય વિશન્તિ લોકા- સ્તવાપિ વક્ત્રાણિ સમૃદ્ધવેગાઃ।।11.29।।
ਯਥਾ ਪ੍ਰਦੀਪ੍ਤਂ ਜ੍ਵਲਨਂ ਪਤਙ੍ਗਾ ਵਿਸ਼ਨ੍ਤਿ ਨਾਸ਼ਾਯ ਸਮਰਿਦ੍ਧਵੇਗਾ। ਤਥੈਵ ਨਾਸ਼ਾਯ ਵਿਸ਼ਨ੍ਤਿ ਲੋਕਾ- ਸ੍ਤਵਾਪਿ ਵਕ੍ਤ੍ਰਾਣਿ ਸਮਰਿਦ੍ਧਵੇਗਾ।।11.29।।
ಯಥಾ ಪ್ರದೀಪ್ತಂ ಜ್ವಲನಂ ಪತಙ್ಗಾ ವಿಶನ್ತಿ ನಾಶಾಯ ಸಮೃದ್ಧವೇಗಾಃ. ತಥೈವ ನಾಶಾಯ ವಿಶನ್ತಿ ಲೋಕಾ- ಸ್ತವಾಪಿ ವಕ್ತ್ರಾಣಿ ಸಮೃದ್ಧವೇಗಾಃ৷৷11.29৷৷
യഥാ പ്രദീപ്തം ജ്വലനം പതങ്ഗാ വിശന്തി നാശായ സമൃദ്ധവേഗാഃ. തഥൈവ നാശായ വിശന്തി ലോകാ- സ്തവാപി വക്ത്രാണി സമൃദ്ധവേഗാഃ৷৷11.29৷৷
ଯଥା ପ୍ରଦୀପ୍ତଂ ଜ୍ବଲନଂ ପତଙ୍ଗା ବିଶନ୍ତି ନାଶାଯ ସମୃଦ୍ଧବେଗାଃ| ତଥୈବ ନାଶାଯ ବିଶନ୍ତି ଲୋକା- ସ୍ତବାପି ବକ୍ତ୍ରାଣି ସମୃଦ୍ଧବେଗାଃ||11.29||
yathā pradīptaṅ jvalanaṅ pataṅgā viśanti nāśāya samṛddhavēgāḥ. tathaiva nāśāya viśanti lōkā- stavāpi vaktrāṇi samṛddhavēgāḥ৷৷11.29৷৷
யதா ப்ரதீப்தஂ ஜ்வலநஂ பதங்கா விஷந்தி நாஷாய ஸமரித்தவேகாஃ. ததைவ நாஷாய விஷந்தி லோகா- ஸ்தவாபி வக்த்ராணி ஸமரித்தவேகாஃ৷৷11.29৷৷
యథా ప్రదీప్తం జ్వలనం పతఙ్గా విశన్తి నాశాయ సమృద్ధవేగాః. తథైవ నాశాయ విశన్తి లోకా- స్తవాపి వక్త్రాణి సమృద్ధవేగాః৷৷11.29৷৷
11.30
11
30
।।11.30।। आप अपने प्रज्वलित मुखोंद्वारा सम्पूर्ण लोकोंका ग्रसन करते हुए उन्हें चारों ओरसे बार-बार चाट रहे हैं और हे विष्णो ! आपका उग्र प्रकाश अपने तेजसे सम्पूर्ण जगत् को परिपूर्ण करके सबको तपा रहा है।
।।11.30।। हे विष्णो! आप प्रज्वलित मुखों के द्वारा इन समस्त लोकों का ग्रसन करते हुए आस्वाद ले रहे हैं, आपका उग्र प्रकाश सम्पूर्ण जगत् को तेज के द्वारा परिपूर्ण करके तपा रहा है।।
।।11.30।। महाऊर्मि के कुछ श्लोकों की रचना के बाद व्यासजी पुन अपने पूर्व के विषय को प्रारम्भ करते हैं। जगत् के समस्त प्राणीवर्ग काल के मुख में प्रवेश करके नष्ट हुए जा रहे हैं। इस काल तत्त्व की क्षुधा कभी न शान्त होने वाली है। समस्त लोकों का ग्रसन करते हुए आप उनका आस्वाद ले रहे हैं।वस्तुत? यह श्लोक सृष्टि? स्थिति और संहार के तीन कर्ताओं के पीछे के सिद्धान्त को स्पष्ट करता है। यद्यपि हम इन तीनों की भिन्नभिन्न रूप से कल्पना करते हैं? किन्तु वास्तव में ये तीनों एक ही प्रक्रिया के तीन पहलू मात्र हैं। हम पहले भी विस्तार से देख चुके हैं कि सर्वत्र विद्यमान अस्तित्त्व का मूल रहस्य है रचनात्मक विध्वंस।चलचित्र गृह में विभिन्न चित्रों की एक रील को प्रकाशवृत्त के सामने चलाया जाता है। उसके सामने से दूर हुये चित्र को हम मृत कह सकते हैं और सम्मुख उपस्थित हुये को जन्मा हुआ मान सकते हैं। निरंतर हो रही जन्ममृत्यु की इस धारा के कारण सामने के परदे पर एक अखण्ड कथानक का आभास निर्माण होता है। देश और काल से अवच्छिन्न होकर वस्तुएं? प्राणी मात्र? घटनाएं और परिस्थितियाँ हमारे अनुभव में आकर चली जाती हैं और उनके इस आवागमन के सातत्य को हम अस्तित्त्व या जीवन कहते हैं।उपर्युक्त विचार को पारस्परिक त्रिमूर्ति ब्रह्मा? विष्णु और महेश की भाषा में पुराणों में व्यक्त किया गया है।इस ज्ञान की दृष्टि से जब अर्जुन उस प्रकाशस्वरूप देदीप्यमान समष्टि रूप को देखता है? तब वह उस विराट् के उग्र प्रकाश से प्राय अन्धवत् हो जाता है।क्योंकि आप उग्ररूप हैं? इसलिए
।।11.30।। व्याख्या--'लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान् समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः'--आप सम्पूर्ण प्राणियोंका संहार कर रहे हैं और कोई इधर-उधर न चला जाय, इसलिये बार-बार जीभके लपेटेसे अपने प्रज्वलित मुखोंमें लेते हुए उनका ग्रसन कर रहे हैं। तात्पर्य है कि कालरूप भगवान्की जीभके लपेटसे कोई भी प्राणी बच नहीं सकता।'तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो'--विराट्रूप भगवान्का तेज बड़ा उग्र है। वह उग्र तेज सम्पूर्ण जगत्में परिपूर्ण होकर सबको संतप्त कर रहा है, व्यथित कर रहा है।  सम्बन्ध--विराट्रूप भगवान् अपने विलक्षणविलक्षण रूपोंका दर्शन कराते ही चले गये। उनके भयंकर और अत्यन्त उग्ररूपके मुखोंमें सम्पूर्ण प्राणी और दोनों पक्षोंके योद्धा जाते देखकर अर्जुन बहुत घबरा गये। अतः अत्यन्त उग्ररूपधारी भगवान्का वास्तविक परिचय जाननेके लिये अर्जुन प्रश्न करते हैं।
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।।11.30।।राजलोकान् समग्रान् ज्वलद्भिः वदनैः ग्रसमानः कोपवेगेन तद्रुधिरावसिक्तम् ओष्ठपुटादिकं लेलिह्यसे पुनः पुनः लेहनं करोषि। तव अतिघोरा भासो रश्मयः तेजोभिः स्वकीयैः प्रकाशैः जगत् समग्रम् आपूर्य प्रतपन्ति।दर्शयात्मानमव्ययम् (गीता 11।4) इति तव ऐश्वर्यं निरङ्कुशं साक्षात्कर्तुं प्रार्थितेन भवता निरङ्कुशम् ऐश्वर्यं दर्शयता अतिघोररूपम् इदम् आविष्कृतम् --
।।11.30।।योद्धुकामानां राज्ञां भगवन्मुखप्रवेशप्रकारं प्रदर्श्य तस्यां दशायां भगवतस्तद्भासां च प्रवृत्तिप्रकारं प्रत्याययति -- त्वं पुनरिति। भगवत्प्रवृत्तिमेव प्रत्याय्य तदीयभासां प्रवृत्तिं प्रकटयतिं -- किञ्चेति।
।।11.30।।तान् लेलिह्यसे। हे विष्णो व्यापनशील अन्यत् स्पष्टम्।
।।11.30।।योद्धुकामानां राज्ञां भगवन्मुखप्रवेशप्रकारमुक्त्वा तदा भगवतस्तद्भासां च प्रवृत्तिप्रकारमाह -- लेलिह्यस इति। एवं वेगेन प्रविशतो लोकान्दुर्योधनादीन्समग्रान्सर्वान्ग्रसमानोऽन्तःप्रवेशयन्ज्वलद्भिर्वदनैः समन्तात्सर्वतस्त्वं लेलिह्यसे आस्वादयसि। तेजोभिर्भाभिरापूर्य जगत्समग्रं। यस्मात्त्वं भाभिर्जगदापूरयसि तस्मात्तवोग्रास्तीव्रा भासो दीप्तयः प्रज्वलतो ज्वलनस्येव प्रतपन्ति संतापं जनयन्ति। हे विष्णो व्यापनशील।
।।11.30।। ततः किमत आह -- लेलिह्यस इति। ग्रसमानो गिलन् समग्रांल्लोकान्सर्वानेतान्वीरान् समन्तात्सर्वतो लेलिह्यसेऽतिशयेन भक्षयसि। कैः ज्वलद्भिर्वदनैः। किंच हे विष्णो? तव भासो दीप्तयस्तेजोभिर्विस्फुरणैः समस्तं जगद्व्याप्योग्रास्तीव्राः सत्यः प्रतपन्ति संतापयन्ति।
।।11.30।।ईश्वरः किं संहरणेऽत्यन्तनिर्व्यापारः? येनस्वयमेव त्वरमाणाः इत्युच्यते इत्यस्योत्तरंलेलिह्यसे इति श्लोकेनोच्यते। संहरणादेर्निदानं तत्तच्चेतनानां व्यापारविशेषः तत्तदुपाधिककोपादिविशिष्टस्तु भगवान् संहृत्यादिकं करोतीति भावः।राजलोकान् इति पूर्ववद्भाव्यम्। समग्रान् युद्धाय समवेतानित्यर्थः।लेलिह्यसे,इत्यस्य सञ्जिहीर्षोनुभावत्वव्यञ्जनायकोपवेगेनेत्युक्तम्।तद्रुधिरेत्यादिना ग्रसनलेहनाभ्यामर्थसिद्धमुच्यते। क्रियासमभिहारे हि यङो विधानम् पौनःपुन्यं भृशार्थो वा क्रियासमभिहार इत्यभिप्रायेणाहपुनः पुनर्लेहनमिति। भास्तेजश्शब्दयोः पौनरुक्त्यशङ्काव्युदासायरश्मय इति?स्वकीयैः प्रकाशैरिति चोक्तम्।समग्रं सर्वमित्यर्थः।प्रतपन्ति सन्तापयन्ति? ग्रसनार्थं पचन्ति इति भावः। यद्वा ब्रह्मादीनामपि पश्यतां दुस्सहत्वमात्रे तात्पर्यम्।
।।11.30।।ननु भगवान् न नाशयेत्तदा किं तत्प्रवेशेन इत्यत आह -- लेलिह्यस इति। ग्रसमानः ग्रासं कुर्वन् समन्तात् सर्वतः समग्रान् लोकान् ज्वलद्भिः देदीप्यमानैर्वदनैः लेलिह्यसे भक्षयसि। तवापि तन्नाशेच्छैव दृश्यत इति भावः। भगवानेवं कथं कुर्यात् अत आह। हे विष्णो सर्वपालक सात्त्विकरक्षणार्थमेव। उग्राः प्रतपनसमर्थाः तव भासः किरणाः तेजोभिः स्फुरत्कान्तिभिः समग्रं जगदापूर्य प्रतपन्ति सन्तापयन्ति। अत्रायं भावः -- विष्णुः सात्त्विकाधिष्ठाता सात्त्विकरक्षणार्थमेव दुष्टनाशं करोत्यत उचितमेव तथाकरणम्।
।।11.30।।ये च पतन्तस्तांस्त्वं करुणावानपि न वारयसि प्रत्युत ग्रसितुमिच्छस्येवेत्याह -- लेलिह्यसे,भूयोभूयोऽतिशयेन वा आस्वादयसि। कीदृशस्त्वम्। समन्ताज्ज्वलद्भिर्वदनैर्लोकान्समग्रान्ग्रसमानः। एवं निर्घृणस्यापि तव तेजो न हीयते प्रत्युत वर्धत एवेत्याह -- तेजोभिरिति। हे विष्णो व्यापनशील? समग्रं जगत्तेजोभिरापूर्य तव उग्राः स्प्रष्टुमशक्या भासो दीप्तयः प्रतपन्तीति योजना। पदार्थः स्पष्टः।
।।11.30।।सर्वे स्वनाशाय तव वक्राणि विशन्ति त्वं पुनः समन्ततः समग्रांल्लोकाञ्जवलद्भिर्वदनैर्ग्रसमानोऽन्तः प्रवेशयन् लेलिह्यसे आस्वादयसि। किंच तवोग्रा अतिक्रूरा भासो दीप्तयः सर्वं जगत्तेजोभिरापूर्य संव्याप्य प्रतपन्ति प्रतापं कुर्वन्ति। यतस्त्वं व्यापनशीलोऽतस्ता अपि तादृशा इति द्योतयन्संबोधयति -- हे विष्णो इति।
11.30 लेलिह्यसे (Thou) lickest? ग्रसमानः devouring? समन्तात् on every side? लोकान् the worlds? समग्रान् all? वदनैः with mouths? ज्वलद्भिः flaming? तेजोभिः with radiance? आपूर्य filling? जगत् the world? समग्रम् the whole? भासः rays? तव Thy? उग्राः fierce? प्रतपन्ति are burning? विष्णो O VishnuCommentary Vishnu means allpervading? Vyapanasila.
11.30 Thou lickest up, devouring all the worlds on every side with Thy flaming mouths. Thy fierce rays, filling the whole world with radiance, are burning, O Vishnu!
11.30 Thou seemest to swallow up the worlds, to lap them in flame. Thy glory fills the universe. Thy fierce rays beat down upon it irresistibly.
11.30 You lick Your lips while devouring all the creatures from every side with flaming mouths which are completely filling the entire world with heat.
11.30 O Visnu, Your fierce rays are acorching. [M.S., S., and S.S. construe 'completely৷৷.heat' to alify 'fierce rays' in the second sentence. However, the use of kim ca (moreover) in the Comm. suggests the translation as above.-Tr.] Lelihyase, You lick Your lips, You taste; grasamanah, while devouring, while taking in; samagran, all; lokan, the creatures; samantat, from all sides; jvaladbhih, with flaming; vadanaih, mouths; which are apurya, completely filling; samagram, the whole- together (saha) with the foremost (agrena); jagat, world; tejobhih, with heat. Moreover, O Visnu, the all-pervading One, tava, Your; ugrah, fierce; bhasah, rays; are pratapanti, scorching. Since You are of such a terrible nature, therefore-
11.30. Devouring, on all sides with Your blazing mouths, the entire worlds, You are licking up; Your terrible rays scroch the entire universe filling it with their radiance, O Visnu !
11.30 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.30 Devouring all these kings with Your flaming mouths, You lick them up, namely, lick up again and again in great anger. Your lips etc., are wet with their blood. Your fiery rays scorch the universe by the brilliant flow of radiance filling the whole universe. You have manifested Yourself in this terrible form for revealing Your limitless sovereignty as reested by me thus: 'Reveal Yourself to me completely'(11.4), so that I may realise Your limitless sovereignty.
11.30 Devouring all the worlds on every side with your flaming mouths, You lick them up. Your fiery rays, filling the whole universe with their radiance, scorch it, O Visnu.
।।11.30।।और आप --, ( उन ) समस्त लोकोंको देदीप्यमान मुखोंद्वारा सब ओरसे निगलते हुए चाट रहे हैं अर्थात् उनका आस्वादन कर रहे हैं। तथा हे विष्णो -- व्यापनशील परमात्मन् आपकी उग्र -- कठोर प्रभाएँ समग्र जगत्को अर्थात् समस्त जगत्को अपने तेजसे व्याप्त करके तप रही हैं -- तेज फैला रही हैं।,
।।11.30।। --,लेलिह्यसे आस्वादयसि ग्रसमानः अन्तः प्रवेशयन् समन्तात् समन्ततः लोकान् समग्रान् समस्तान् वदनैः वक्त्रैः ज्वलद्भिः दीप्यमानैः तेजोभिः आपूर्य संव्याप्य जगत् समग्रं सह अग्रेण समस्तम् इत्येतत्। किञ्च? भासः दीप्तयः तव उग्राः क्रूराः प्रतपन्ति प्रतापं कुर्वन्ति हे विष्णो व्यापनशील।।यतः एवमुग्रस्वभावः? अतः --,
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लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ता ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः। तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो।।11.30।।
লেলিহ্যসে গ্রসমানঃ সমন্তা- ল্লোকান্সমগ্রান্বদনৈর্জ্বলদ্ভিঃ৷ তেজোভিরাপূর্য জগত্সমগ্রং ভাসস্তবোগ্রাঃ প্রতপন্তি বিষ্ণো৷৷11.30৷৷
লেলিহ্যসে গ্রসমানঃ সমন্তা- ল্লোকান্সমগ্রান্বদনৈর্জ্বলদ্ভিঃ৷ তেজোভিরাপূর্য জগত্সমগ্রং ভাসস্তবোগ্রাঃ প্রতপন্তি বিষ্ণো৷৷11.30৷৷
લેલિહ્યસે ગ્રસમાનઃ સમન્તા- લ્લોકાન્સમગ્રાન્વદનૈર્જ્વલદ્ભિઃ। તેજોભિરાપૂર્ય જગત્સમગ્રં ભાસસ્તવોગ્રાઃ પ્રતપન્તિ વિષ્ણો।।11.30।।
ਲੇਲਿਹ੍ਯਸੇ ਗ੍ਰਸਮਾਨ ਸਮਨ੍ਤਾ- ਲ੍ਲੋਕਾਨ੍ਸਮਗ੍ਰਾਨ੍ਵਦਨੈਰ੍ਜ੍ਵਲਦ੍ਭਿ। ਤੇਜੋਭਿਰਾਪੂਰ੍ਯ ਜਗਤ੍ਸਮਗ੍ਰਂ ਭਾਸਸ੍ਤਵੋਗ੍ਰਾ ਪ੍ਰਤਪਨ੍ਤਿ ਵਿਸ਼੍ਣੋ।।11.30।।
ಲೇಲಿಹ್ಯಸೇ ಗ್ರಸಮಾನಃ ಸಮನ್ತಾ- ಲ್ಲೋಕಾನ್ಸಮಗ್ರಾನ್ವದನೈರ್ಜ್ವಲದ್ಭಿಃ. ತೇಜೋಭಿರಾಪೂರ್ಯ ಜಗತ್ಸಮಗ್ರಂ ಭಾಸಸ್ತವೋಗ್ರಾಃ ಪ್ರತಪನ್ತಿ ವಿಷ್ಣೋ৷৷11.30৷৷
ലേലിഹ്യസേ ഗ്രസമാനഃ സമന്താ- ല്ലോകാന്സമഗ്രാന്വദനൈര്ജ്വലദ്ഭിഃ. തേജോഭിരാപൂര്യ ജഗത്സമഗ്രം ഭാസസ്തവോഗ്രാഃ പ്രതപന്തി വിഷ്ണോ৷৷11.30৷৷
ଲେଲିହ୍ଯସେ ଗ୍ରସମାନଃ ସମନ୍ତା- ଲ୍ଲୋକାନ୍ସମଗ୍ରାନ୍ବଦନୈର୍ଜ୍ବଲଦ୍ଭିଃ| ତେଜୋଭିରାପୂର୍ଯ ଜଗତ୍ସମଗ୍ରଂ ଭାସସ୍ତବୋଗ୍ରାଃ ପ୍ରତପନ୍ତି ବିଷ୍ଣୋ||11.30||
lēlihyasē grasamānaḥ samantā- llōkānsamagrānvadanairjvaladbhiḥ. tējōbhirāpūrya jagatsamagraṅ bhāsastavōgrāḥ pratapanti viṣṇō৷৷11.30৷৷
லேலிஹ்யஸே க்ரஸமாநஃ ஸமந்தா- ல்லோகாந்ஸமக்ராந்வதநைர்ஜ்வலத்பிஃ. தேஜோபிராபூர்ய ஜகத்ஸமக்ரஂ பாஸஸ்தவோக்ராஃ ப்ரதபந்தி விஷ்ணோ৷৷11.30৷৷
లేలిహ్యసే గ్రసమానః సమన్తా- ల్లోకాన్సమగ్రాన్వదనైర్జ్వలద్భిః. తేజోభిరాపూర్య జగత్సమగ్రం భాసస్తవోగ్రాః ప్రతపన్తి విష్ణో৷৷11.30৷৷
11.31
11
31
।।11.31।। मुझे यह बताइये कि उग्ररूपवाले आप कौन हैं? हे देवताओंमें श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइये। आदिरूप आपको मैं तत्त्वसे जानना चाहता हूँ; क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्तिको नहीं जानता।
।।11.31।। (कृपया) मेरे प्रति कहिये, कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? हे देवों में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार है, आप प्रसन्न होइये। आदि स्वरूप आपको मैं (तत्त्व से) जानना चाहता हूँ, क्योंकि आपकी प्रवृत्ति (अर्थात् प्रयोजन को) को मैं नहीं समझ पा रहा हूँ।।
।।11.31।। इस अवसर पर अर्जुन? भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति की पवित्रता एवं दिव्यता को समझ पाता है। उससे अनुप्रमाणित हुआ सम्मान के साथ नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम करता है? जिन्हें अब तक वह केवल वृन्दावन के गोपाल के रूप में ही पहचानता था। यद्यपि वह बुद्धिमान था? परन्तु उसके समक्ष उपस्थित हुआ यह दृश्य उसके लिए बहुत अधिक विशाल था। उसे पूर्णरूप से देखना और उसका विश्लेषण करके उसे आत्मसात् करना अत्यन्त कठिन था। अब केवल वह यही कर सकता है कि अपने आप को भगवान् के चरणों में समर्पित करके उन्हीं से विनती करे कि? आप मुझे बताइये कि आप कौन हैंअपनी जिज्ञासा को और अधिक ठोस आकार देकर अर्जुन सूचित करता है कि वह अपने प्रश्न का उत्तर शीघ्र ही चाहता है? मैं आपको जानना चाहता हूँ। यह सुविदित तथ्य है कि अध्यात्मशास्त्र के ग्रन्थों में सत्य के ज्ञान के लिए प्रखर जिज्ञासा को अत्यन्त महत्व का स्थान दिया गया है? क्योंकि वही वास्तव में साधकों की प्रेरणा होती है। परन्तु यहाँ अर्जुन का मन अपनी तात्कालिक समस्या या चुनौती के कारण व्याकुल था? इसलिये ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि वह? वास्तव में? इस दृश्य के वास्तविक दिव्य सत्य को जानना चाहता है। उसकी यह जिज्ञासा अपनी भावनाओं से अतिरंजित है और उसके साथ ही उसमें युद्ध परिणाम को जानने की व्याकुलता भी है। यह बात्ा उसके इन शब्दों में स्पष्ट होती है कि? मैं आपके प्रयोजन को नहीं जान पा रहा हूँ। उसकी जिज्ञासा का अभिप्राय यह है कि? इस भयंकर रूप को धारण करके अर्जुन को कौरवों का विनाश दिखाने में भगवान् का क्या उद्देश्य है जब वह किसी घटना के घटने की तीव्रता से कामना कर रहा है और उसके समक्ष ऐसे लक्षण उपस्थित होते हैं? जो युद्ध में उसकी निश्चित विजय की भविष्यवाणी कर रहे हैं?तो वह दूसरों से उसकी पुष्टि चाहता है। यहाँ अर्जुन उसी घटना को देख रहा है? जिसे वह घटित होते देखना चाहता है अत वह स्वयं भगवान् के मुख से ही उसकी पुष्टि चाहता है। इसलिये उसका यह प्रश्न है।सत्य की ही एक अभिव्यक्ति है विनाश। भगवान् उसी रूप में अपना परिचय कराते हुए घोषणा करते हैं कि
।।11.31।। व्याख्या--'आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद'--आप देवरूपसे भी दीख रहे हैं और उग्ररूपसे भी दीख रहे हैं; तो वास्तवमें ऐसे रूपोंको धारण करनेवाले आप कौन हैं?
।।11.31।।आख्याहि इति। तव प्रवृत्तिं न वेद्मि -- केनाशयेन ईदृशी इयमुग्रता इति।
।।11.31।।अतिघोररूपः को भवान् किं कर्तुं प्रवृत्तः इति भवन्तं ज्ञातुम् इच्छामि। तव अभिप्रेतां प्रवृत्तिं न जानामि। एतद् आख्याहि मे नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद -- नमः ते अस्तु सर्वेश्वर एवं कर्तुम् अनेन अभिप्रायेण इदं संहर्तृरूपम् आविष्कृतम् इति उक्त्वा प्रसन्नरूपश्च भव।आश्रितवात्सल्यातिरेकेण विश्वैश्वर्यं दर्शयतो भवतो घोररूपाविष्कारे कः अभिप्रायः इति पृष्टो भगवान् पार्थसारथिः स्वाभिप्रायम् आह -- पार्थोद्योगेन विना अपि धार्तराष्ट्रप्रमुखम् अशेषं राजलोकं निहन्तुम् अहम् एव प्रवृत्तः? इति ज्ञापनाय मम घोररूपाविष्कारः? तज्ज्ञापनं च पार्थम् उद्योजयितुम् इति --
।।11.31।।भगवद्रूपस्यार्जुनेन दृष्टपूर्वत्वात्तस्य तस्मिन्न जिज्ञासेत्याशङ्क्याह -- यत इति। उपदेशं शुश्रूषमाणेनोपदेशकर्तुः प्रह्वीभवनं कर्तव्यमिति सूचयति -- नमोस्त्विति। क्रौर्यत्यागमर्थयते -- प्रसादमिति। त्वमेव मां जानीषे किमर्थमित्थमिदानीमर्थयसे मदीयां चेष्टां दृष्ट्वा तथैव प्रतिपद्यस्वेत्याशङ्क्याह -- न हीति।
।।11.31।।अतस्त्वमाख्याहि। को भवानुग्ररूपो दृश्यसे हे देववर प्रसीदेति स्वस्य भीतत्वं सूचयति। एवं च त्वामाद्यं पुरुषं भयङ्कराकारेण वर्तमानं सर्वविलक्षणं विज्ञातुमिच्छामि यतस्तव प्रवृत्तिं च न जानामि ततो ब्रूहि।
।।11.31।।आख्याहीति। यस्मादेवं तस्मात् एवमुग्ररूपः क्रूराकारः को भवानित्याख्याहि कथय मे मह्यमत्यन्तानुग्राह्याय। अतएव नमोस्तु ते तुभ्यं सर्वगुरवे। हे देववर? प्रसीद प्रसादं क्रौर्यत्यागं कुरु। विज्ञातुं विशेषेण ज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं सर्वकारणम् न हि यस्मात्तव सखापि सन् प्रजानामि तव प्रवृत्तिं चेष्टाम्।
।।11.31।।यत एवं तस्मात् -- आख्याहीति। भवानुग्ररूपः क इत्याख्याहि कथय। तुभ्यं नमोऽस्तु। हे देववर? प्रसीद प्रसन्नो भव। भवन्तमाद्यं पुरुषं विशेषेण ज्ञातुमिच्छामि। यतस्तव प्रवृत्तिं चेष्टां किमर्थमेवं प्रवृत्तोऽसीति न जानामि। एवंभूतस्य तव प्रवृत्तिं वार्तामपि न जानामीति वा।
।।11.31।।एवमत्यन्तघोराकारदर्शनं सोढुमशक्तो धनञ्जयः स्वसर्वैश्वर्यप्रकाशनप्रवृत्तस्य तादृशघोररूपाविष्कारे तात्पर्यकथनं पुनः प्रसन्नरूपपरिग्रहार्थं प्रसादं चापेक्षतेआख्याहि इति श्लोकेन। भक्तस्य मे भयानकरूपप्रदर्शने कोऽभिप्रायः इत्यज्ञानात्प्रश्न इत्याहदर्शयेत्यादिना। उपदेशसाक्षात्काराभ्यां भगवतः प्रतिपन्नत्वात्को भवान् इति प्रश्नो न स्वरूपसंज्ञादिविषयः?नहि प्रजानामि तव प्रवृत्तिं इति प्रवृत्तिप्रश्नाभिप्रायेणाज्ञातांशश्चात्रैव निर्दिश्यत इति तद्विषयजिज्ञासयैवायं प्रश्नो युक्त इत्यभिप्रायेण -- किं कर्तुं प्रवृत्त इत्युक्तम्। कृष्णरूपप्रच्छन्नागतदैत्याभिव्यक्तस्वरूपान्तरादिशङ्कयाऽयं प्रश्न इति कैश्चिदुक्तमेतेन निरस्तम्। तदानीं परिदृश्यमानविग्रहादिप्रवृत्तिमात्रव्युदासायअभिप्रेतामित्युक्तम्। देववरशब्देन ब्रह्मरुद्राद्यपेक्षयाऽपि समुत्कृष्टत्वं वदताऽत्यन्तोत्कृष्टविषये स्वरसभावित्वं नमस्कारस्य द्योत्यत इत्यभिप्रायेणसर्वेश्वरशब्दः। यथोक्तमहिर्बुध्न्येननन्तव्यः परमः शेषी शेषा नन्तार ईरिताः। नन्तृनन्तव्यभावोऽयं न प्रयोजनपूर्वकः [अ.सं.52।7] इति। श्लोकस्य पिण्डितार्थमाहएवं कर्तुमिति।प्रसीद इत्यनेन फलितमुच्यतेप्रसन्नरूपश्चेति। एतदेव हि पश्चात्तदेव मे दर्शय रूपम् [11।45] इत्यादौ प्रपञ्चयिष्यते।
।।11.31।।एवं समग्रजगत्तापनेन ममाऽपि सन्तापो भवत्यतो मयि प्रसन्नो भवेत्याह -- आख्याहीति। भवान् पूर्वरूपेण परिदृश्यमानः कः उग्ररूपः कः एतत् मे मह्यं हि निश्चयेन आख्याहि वद। तवाख्याने किं साधनं इत्यत आह। हे देववर देवश्रेष्ठ देवाः पूजनेन तुष्यन्ति? त्वं तु तेषामपि श्रेष्ठः प्रभुरतस्ते नमोऽस्तु।किमासनं ते गरुडासनाय इत्यादिवाक्यैस्तव प्रसादे नमस्कार एव साधनमित्यर्थः। अतः प्रसीद प्रसन्नो भव। ननु प्रसादे स्वरूपाख्यानं किम्प्रयोजनकं इत्यत आह -- विज्ञातुमिति। आद्यं पुरुषोत्तमं मूलभूतं भवन्तं विज्ञातुं विशेषेण सलीलं ज्ञातुमिच्छामि वाञ्छामि। यतस्तव प्रवृत्तिं अत्र प्राकट्यरूपां चेष्टां लीलां हि निश्चयेन न प्रजानामि स्वरूपज्ञाने सति तज्ज्ञानमपि भविष्यतीत्यर्थः। एवं सलीलं त्वज्ज्ञानेन भजनं करिष्याम्यतो विज्ञातुमिच्छामीति भावः।
।।11.31।।एवं दीप्त्याकुलीभूतोऽर्जुनो भगवानयमिति विस्मृत्याह -- आख्याहीति। एवमुग्ररूपः क्रूरकर्मा भवान् कोऽसीत्याख्याहि अमुकोऽस्मीति कथय। प्रसीद शान्तो भव। त्वामहं विज्ञातुमिच्छामि। यतस्तव प्रवृत्तिं चेष्टां न जानामि।
।।11.31।।यतएवमुग्रस्वभावोऽत आख्याहि कथय को भवान् शुद्धसत्त्वप्रधानः सौम्यस्वभावस्त्वं विष्णुर्मया पूर्वं ज्ञात इदानीं तमःप्रधान उग्रस्वभाववान क इत्यर्थः। नाहमाज्ञां करोमि अपितु नम्रीभूय पृच्छामीत्याशयवान्नमस्करोति। ते तुभ्यं नमोऽस्तु हे देववर दवानां मुख्य? प्रसीद प्रसादं कुरु। देववरस्य तवैव प्रसादो ममापेक्षितो नतु देवानामिति संबोधनाशयः। भवन्तमाद्यं आदिकारणं विशेषेण ज्ञातुमिच्छामि। ननु स्वयमेव जानीहि किमर्थं पृच्छसीति तत्राह। हि यस्मात्त्वदीयां चेष्टां न जानामि।
11.31 आख्याहि tell? मे me? कः who (art)? भवान् Thou? उग्ररूपः fierce in form? नमः salutation? अस्तु be? ते to Thee? देववर O God Supreme? प्रसीद have mercy? विज्ञातुम् to know? इच्छामि (I) wish? भवन्तम् Thee? आद्यम् the original Being? न not? हि indeed? प्रजानामि (I) know? तव Thy? प्रवृत्तिम् doing.No Commentary.
11.31 Tell me, who Thou art, so fierce of form. Salutations to Thee, O God Supreme: have mercy. I desire to know Thee, the original Being. I know not indeed Thy working.
11.31 Tell me then who Thou art, that wearest this dreadful Form? I bow before Thee, O Mighty One! Have mercy, I pray, and let me see Thee as Thou wert at first. I do not know what Thou intendest.
11.31 Tell me who You are, fierce in form. Salutation be to you, O supreme God; be gracious. I desire to fully know You who are the Prima One. For I do not understand Your actions!
11.31 Akhyahi, tell; me; kah, who; bhavan, You are; ugrarupah, fierce in form. Namah, salutation; astu, be; te, to You; deva-vara, O supreme God, foremost among the gods. Prasida, be gracious. Icchami, I desire; vijnatum, to fully know; bhavantam, You; adyam, who are the Primal One, who exist in the beginning. Hi, for; na prajanami, I do not understand; tava, Your; pravrttim, actions!
11.31. Please, tell me who You are with a terrible form; O the Best of gods ! Salutation to You, please be merciful. I am desirious of knowing You, the Primal One in detail; for I do not clearly comprehend Your behaviour.
11.31 Akhyahi etc. I do not clearly comprehend Your behaviour : I.e. with what intention this terrific nature of this sort [has been assumed by You].
11.31 Who are You of this terrible form, what do You intend to do? I wish to know. For I do not know Your intended actions. Tell me this. Salutations to You, O Supreme God! Salutations to You, Lord of everything! Say with what object and for what purpose You have assumed this form of the destroyer. Assume a pleasing form. The Lord, the charioteer of Arjuna, being estioned, 'What is Your intention in assuming a terrible form when revealing Your cosmic sovereignty out of overflowing love for Your proteges?' - He spoke to the following effect: The manifestation of a terrible form by Me is to point out that I Myself am operative for the annihilation of the entire world of kings headed by the sons of Dhrtarastra, without any effort on your (Arjuna's) part. Reminding Arjuna of this, is to goad him to fight:
11.31 Tell me who You are with this terrible form? Salutation to You, O Supreme God. Be gracious. I desire to know You, the Primal One. I do not know Your activity.
।।11.31।।क्योंकि आप ऐसे उग्र स्वभाववाले हैं? इसलिये --, मुझे बतलाइये कि भयंकर आकारवाले आप कौन हैं हे देववर अर्थात् देवोंमें प्रधान आपको नमस्कार हो? आप कृपा करें। सृष्टिके आदिसे होनेवाले आप परमेश्वरको मैं भली प्रकार जानना चाहता हूँ? क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति अर्थात् चेष्टाको नहीं समझ रहा हूँ।,
।।11.31।। --,आख्याहि कथय मे मह्यं कः भवान् उग्ररूपः क्रूराकारः? नमः अस्तु ते तुभ्यं हे देववर देवानां प्रधान? प्रसीद प्रसादं कुरु। विज्ञातुं विशेषेण ज्ञातुम् इच्छामि भवन्तम् आद्यम् आदौ भवम् आद्यम्? न हि यस्मात् प्रजानामि तव त्वदीयां प्रवृत्तिं चेष्टाम्।।श्रीभगवानुवाच --,
।।11.31।।स्वरूपमेवाज्ञात्वा तद्धर्मान्वाऽयं पृच्छतीत्यन्यथा प्रतीतिनिरासायार्थमाह -- धर्मान्तरेति। तर्हि किं धर्मान्तरो भवान् इति प्रश्नेन भाव्यम्।को भवान् इति तु न युज्यत इत्यत आह -- यथेति। अन्येषां व्यवहारान्नाम प्रत्यक्षेण रूपादिकं च जानन्नपि जातिज्ञानार्थं यथा कश्चित्कञ्चित्कस्त्वमित्येवं पृच्छति? तथाऽर्जुनो भगवन्तं तद्धर्मांश्च जानन्नपि धर्मान्तरज्ञानार्थंको भवान् इत्येव पृच्छतीत्यर्थः। प्रश्नव्याख्यानस्य वर्तमानत्वाद्वर्तमाननिर्देशः। उग्रं रूपं दृष्ट्वा रुद्रो वा यमो वाऽयमिति स्वरूप एव सन्दिहानस्य प्रश्नः किं न स्यात् इत्यत आह -- यदीति। तत्स्वरूपमेवेत्यर्थः।भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो [11।33] इति। तर्हि ननु धर्मविषयोऽयं प्रश्नोऽस्तु? ततश्चान्तरशब्दो न युक्त इत्यत आह -- त्वमिति। यदि भगवद्धर्मान्न जानीयात्तर्हित्वमक्षरं परमं [11।18] इत्यादिवर्णनं न स्यात्। अतो भगवन्तं तद्धर्मांश्चाक्षरत्वादीन् ज्ञात्वा तदन्यधर्मज्ञानार्थमेव प्रश्न इत्येवमुक्तमित्यर्थः।
।।11.31।।धर्मान्तरज्ञानार्थमेव को भवानिति पृच्छति -- आख्याहीति। यथा कश्चित्कञ्चिन्नामादिकं जानन्नपि जातिज्ञानार्थं पृच्छति कस्त्वमिति। यदि त्वमेव न जानाति तर्हिविष्णो [11।30] इत्येव सम्बोधनं न स्यात्त्वमक्षरं [11।18] इत्यादि च।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद। विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।11.31।।
আখ্যাহি মে কো ভবানুগ্ররূপো নমোস্তু তে দেববর প্রসীদ৷ বিজ্ঞাতুমিচ্ছামি ভবন্তমাদ্যং ন হি প্রজানামি তব প্রবৃত্তিম্৷৷11.31৷৷
আখ্যাহি মে কো ভবানুগ্ররূপো নমোস্তু তে দেববর প্রসীদ৷ বিজ্ঞাতুমিচ্ছামি ভবন্তমাদ্যং ন হি প্রজানামি তব প্রবৃত্তিম্৷৷11.31৷৷
આખ્યાહિ મે કો ભવાનુગ્રરૂપો નમોસ્તુ તે દેવવર પ્રસીદ। વિજ્ઞાતુમિચ્છામિ ભવન્તમાદ્યં ન હિ પ્રજાનામિ તવ પ્રવૃત્તિમ્।।11.31।।
ਆਖ੍ਯਾਹਿ ਮੇ ਕੋ ਭਵਾਨੁਗ੍ਰਰੂਪੋ ਨਮੋਸ੍ਤੁ ਤੇ ਦੇਵਵਰ ਪ੍ਰਸੀਦ। ਵਿਜ੍ਞਾਤੁਮਿਚ੍ਛਾਮਿ ਭਵਨ੍ਤਮਾਦ੍ਯਂ ਨ ਹਿ ਪ੍ਰਜਾਨਾਮਿ ਤਵ ਪ੍ਰਵਰਿਤ੍ਤਿਮ੍।।11.31।।
ಆಖ್ಯಾಹಿ ಮೇ ಕೋ ಭವಾನುಗ್ರರೂಪೋ ನಮೋಸ್ತು ತೇ ದೇವವರ ಪ್ರಸೀದ. ವಿಜ್ಞಾತುಮಿಚ್ಛಾಮಿ ಭವನ್ತಮಾದ್ಯಂ ನ ಹಿ ಪ್ರಜಾನಾಮಿ ತವ ಪ್ರವೃತ್ತಿಮ್৷৷11.31৷৷
ആഖ്യാഹി മേ കോ ഭവാനുഗ്രരൂപോ നമോസ്തു തേ ദേവവര പ്രസീദ. വിജ്ഞാതുമിച്ഛാമി ഭവന്തമാദ്യം ന ഹി പ്രജാനാമി തവ പ്രവൃത്തിമ്৷৷11.31৷৷
ଆଖ୍ଯାହି ମେ କୋ ଭବାନୁଗ୍ରରୂପୋ ନମୋସ୍ତୁ ତେ ଦେବବର ପ୍ରସୀଦ| ବିଜ୍ଞାତୁମିଚ୍ଛାମି ଭବନ୍ତମାଦ୍ଯଂ ନ ହି ପ୍ରଜାନାମି ତବ ପ୍ରବୃତ୍ତିମ୍||11.31||
ākhyāhi mē kō bhavānugrarūpō namō.stu tē dēvavara prasīda. vijñātumicchāmi bhavantamādyaṅ na hi prajānāmi tava pravṛttim৷৷11.31৷৷
ஆக்யாஹி மே கோ பவாநுக்ரரூபோ நமோஸ்து தே தேவவர ப்ரஸீத. விஜ்ஞாதுமிச்சாமி பவந்தமாத்யஂ ந ஹி ப்ரஜாநாமி தவ ப்ரவரித்திம்৷৷11.31৷৷
ఆఖ్యాహి మే కో భవానుగ్రరూపో నమోస్తు తే దేవవర ప్రసీద. విజ్ఞాతుమిచ్ఛామి భవన్తమాద్యం న హి ప్రజానామి తవ ప్రవృత్తిమ్৷৷11.31৷৷
11.32
11
32
।।11.32।। श्रीभगवान् बोले -- मैं सम्पूर्ण लोकोंका क्षय करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगोंका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। तुम्हारे प्रतिपक्षमें जो योद्धालोग खड़े हैं, वे सब तुम्हारे युद्ध किये बिना भी नहीं रहेंगे।
।।11.32।। श्रीभगवान् ने कहा -- मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। इस समय, मैं इन लोकों का संहार करने में प्रवृत्त हूँ। जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा हैं, वे सब तुम्हारे बिना भी नहीं रहेंगे।।
।।11.32।। किसी वस्तु की एक अवस्था का नाश किये बिना उसका नवनिर्मांण नहीं हो सकता। निरन्तर नाश की प्रक्रिया से ही जगत् का निर्माण होता है। बीते हुये काल के शवागर्त से ही वर्तमान आज की उत्पत्ति हुई है। इस रचनात्मक विनाश के पीछे जो शक्ति दृश्य रूप में कार्य कर रही है वही मूलभूत शक्ति है जो प्राणियों के जीवन के ऊपर शासन कर रही है। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्वयं का परिचय लोक संहारक महाकाल के रूप में कराते हैं। इस रूप को धारण करने का उनका प्रयोजन उस पीढ़ी को नष्ट करना है? जो अपने जीवन लक्ष्य के सम्बन्ध में विपरीत धारणाएं तथा दोषपूर्ण जीवन मूल्यों को रखने के कारण जीर्णशीर्ण हो गई है।भगवान् का लोकसंहारकारी भाव उनके लोककल्याणकारी भाव का विरोधी नहीं है। कभीकभी विनाश करने में दया ही होती है। एक टूटे हुए पुल को या जीर्ण बांध को अथवा प्राचीन इमारत को तोड़ना उक्त बात के उदाहरण हैं। उन्हें तोड़कर गिराना दया का ही एक कार्य है? जो कोई भी विचारशील शासन समाज के लिए कर सकता है। यही सिद्धांत यहाँ पर लागू होता है।इस उग्र रूप को धारण करने में भगवान् का उद्देश्य उन समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश करना है जो राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। भगवान् के इस कथन से अर्जुन के विजय की आशा विश्वास में परिवर्तित हो जाती है। परन्तु भगवान् इस बात को भी स्पष्ट कर देते हैं कि पुनर्निर्माण के इस कार्य को करने के लिए वे किसी एक व्यक्ति या समुदाय पर आश्रित नहीं है। इस कार्य को करने में एक अकेला काल ही समर्थ है। वही समाज में इस पुनरुत्थान और पुनर्जीवन को लायेगा। सार्वभौमिक पुनर्वास के इस अतिविशाल कार्य में व्यष्टि जीवमात्र भाग्य के प्राणी हैं। उनके होने या नहीं होने पर भी काल की योजना निश्चित ही काय्ार्ान्वित होकर रहेगी। राष्ट्र के लिए यह पुनर्जीवन आवश्यक है मानव के पुनर्वास की मांग जगत् की है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि? तुम्हारे बिना भी इन भौतिकवादी योद्धाओं में से कोई भी इस निश्चित विनाश में जीवित नहीं रह पायेगा।महाभारत की कथा के सन्दर्भ में? भगवान् के कथन का यह तात्पर्य स्पष्ट होता है कि कौरव सेना तो काल के द्वारा पहले ही मारी जा चुकी है? और पुनरुत्थान की सेना के साथ सहयोग करके अर्जुन? निश्चित सफलता का केवल साथ ही दे रहा है।इसलिए सर्वकालीन मनुष्य के प्रतिनिधि अर्जुन को यह उपदेश दिया जाता है कि वह निर्भय होकर अपने जीवन में कर्तव्य का पालन करे।
।।11.32।। व्याख्या --[भगवान्का विश्वरूप विचार करनेपर बहुत विलक्षण मालूम देता है; क्योंकि उसको देखनेमें अर्जुनकी दिव्यदृष्टि भी पूरी तरहसे काम नहीं कर रही है और वे विश्वरूपको कठिनतासे देखे जानेयोग्य बताते हैं --'दुर्निरीक्ष्यं समन्तात्' (11। 17)। यहाँ भी वे भगवान्से पूछ बैठते हैं कि उग्र रूपवाले आप कौन हैं? ऐसा मालूम देता है कि अगर अर्जुन भयभीत होकर ऐसा नहीं पूछते तो भगवान् और भी अधिक विलक्षणरूपसे प्रकट होते चले जाते। परन्तु अर्जुनके बीचमें ही पूछनेसे भगवान्ने और आगेका रूप दिखाना बन्द कर दिया और अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देने लगे।]
null
।।11.32।।श्री भगवानुवाच -- कलयति गणयति इति कालः? सर्वेषां धार्तराष्ट्रप्रमुखानां राजलोकानाम् आयुरवसानं गणयन् अहं तत्क्षयकृत् घोररूपेण प्रवृद्धो राजलोकान् समाहर्तुम् आभिमुख्येन संहर्तुम् इह प्रवृत्तः अस्मि। अतो मत्संकल्पाद् एव त्वाम् ऋते अपि त्वदुद्योगम् ऋतेऽपि एते धार्तराष्ट्रप्रमुखाः तव प्रत्यनीकेषु ये अवस्थिता योधाः? ते सर्वे न भविष्यन्ति विनङ्क्ष्यन्ति।
।।11.32।।स्वयं यदर्था च स्वप्रवृत्तिः तत्सर्वं भगवानुक्तवानित्याह -- श्रीभगवानिति। कालः क्रियाशक्त्युपहितः परमेश्वरः? अस्मिन्निति वर्तमानयुद्धोपलक्षितत्वं कालस्य विवक्षितम्। लोकसंहारार्थं त्वत्प्रवृत्तावपि नासावर्थवती प्रतिपक्षाणां भीष्मादीनां मत्प्रवृत्तिं विना संहर्तुमशक्यत्वादित्याशङ्क्याह -- ऋतेऽपीति।
।।11.32।।एवं प्रार्थितः श्रीभगवानुवाच -- कालोऽस्मीति त्रिभिः। योऽधुनाऽऽविर्भूतः स कालोऽहम्। चतुर्धा ह्यहं अक्षरकालकर्मस्वभावभेदादित्यक्षरमपि लेलिहानत्वादिधर्मवत्त्वेन लिङ्गेन मां कालरूपमवेहि। यथोक्तं श्रीभागवते -- अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः। समन्वेत्येष सत्त्वेन (सत्त्वानां) भगवानात्ममायया। तथावीर्याणि तस्याखिलदेहभाजामन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः। प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन् [भाग.10।1।7] कालरूपतयाऽसुरावेशिनां मृत्युहेतुरित्याह -- लोकानसुरावेशिन इह समाहर्त्तुं प्रवृत्त इति। अयमेव सङ्कर्षणभावः प्रदर्श्यते भगवता। संहारको हि सङ्कर्षणव्यूहः तत्केशस्य भगवत्स्वरूपेऽवतरणं भूमौ भारहरणार्थमिति भारते निरूप्यते। तथा च भूभारभूतानामेव संहारकः कालः प्रवृत्तोऽस्मि।ऋतेऽपि त्वां इत्युपलक्षणं मदनुगृहीतान्विना सर्वान्समाहर्तुं प्रवृत्तोऽस्मीत्यर्थः। त्वा हनननिमित्तभूतं विना न जीविष्यन्तीति वा सम्बन्धः। हे पार्थ त्वया न हन्तव्याश्चेन्मया कालरूपेण तु ग्रस्ताः तिरोभावं यास्यन्तीत्यभिप्रायेणन भविष्यन्ति इति प्रत्युक्तम्।
।।11.32।।एवमर्जुनेन प्रार्थितो य स्वयं यदर्था च स्वप्रवृत्तिस्तत्सर्वं त्रिभिः श्लोकैः श्रीभगवानुवाच -- कालोऽस्मीत्यादिना। कालः क्रियाशक्त्युपहितः सर्वस्य संहर्ता परमेश्वरोऽस्मि भवामीदानीं प्रवृद्धो वृद्धिं गतः। यदर्थं प्रवृत्तस्तच्छृणु। लोकान्दुर्योधनादीन्समाहर्तुं सम्यगाहर्तुं भक्षयितुं प्रवृत्तोऽहमिहास्मिन्काले। मत्प्रवृत्तिं विना कथमेवं स्यादिति चेन्नेत्याह -- ऋतेऽपीति। ऋतेऽपि त्वा त्वामर्जुनं योद्धारं विनापि त्वद्व्यापारं विनापि मद्व्यापारेणैव नभविष्यन्ति विनंक्ष्यन्ति। सर्वे भीष्मद्रोणकर्णप्रभृतयो योद्धुमनर्हत्वेन संभाविता अन्येऽपि येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु प्रतिपक्षसैन्येषु योधा योद्धारः सर्वेऽपि मया हतत्वादेव नभविष्यन्ति। तत्र तव व्यापारोऽकिंचित्कर इत्यर्थः।
।।11.32।।एवं प्रार्थितः सन् श्रीभगवानुवाच -- कालोऽस्मीति त्रिभिः। लोकानां क्षयकर्ता प्रवृद्धोऽत्युग्रः कालोऽस्मि। लोकान्प्राणिनः संहर्तुमिह लोके प्रवृत्तोऽस्मि। अतः। ऋतेऽपि त्वामिति। त्वां हन्तारं विनापि न भविष्यन्ति न जीविष्यन्ति। यद्यपि त्वया न हन्तव्या एते तथापि मया कालात्मना ग्रस्ताः सन्तो मरिष्यन्त्येव। के ते। प्रत्यनीकेषु अनीकान्यनीकानि प्रति भीष्मद्रोणादीनां सर्वासु सेनासु ये योद्धारोऽवस्थितास्ते सर्वेऽपि।
।।11.32।।कालोऽस्मि इत्यादिश्लोकत्रयस्यार्थं सङ्कलय्यादौ सङ्गमयति -- आश्रितेत्यादिना।आश्रितवात्सल्यातिरेकेणेत्यनेन घोररूपाविष्कारानौचित्यं द्योत्यते।एवं कर्तुमनेनाभिप्रायेण इति निर्दिष्टयोर्निश्श्रेणिकाक्रमेणोत्तरं ददातिपार्थोद्योगेनेत्यादिना। कालशब्दस्यात्र कलामुहूर्तादिमयकालद्रव्यमात्रपरत्वे भगवता सामानाधिकरण्यायोगादिन्द्रप्राणाधिकरणन्यायेन तदन्तर्यामिविषयत्वं वा? आकाशप्राणाधिकरणन्यायेन यौगिकार्थत्वं वा? सृष्टिस्थितिकालव्यावृत्तसंहर्तृकालाभिमानित्वविशिष्टभगवत्स्वरूपानुसन्धानासाधारणं ध्येयविग्रहविशेषनिष्ठतापरत्वं वा स्वीकार्यम्। तत्र त्रिष्वपि कालशब्दस्य यौगिकोऽर्थः प्रतीयमानः प्रकृतापेक्षितत्वादपरित्याज्य इत्यभिप्रायेणाहकलयतीति। सम्बन्धाद्यर्थादपि गणनस्यात्र संहरणानुगुणत्वात्गणयतीत्युक्तम्। प्रकृतविशेषपरतया योजयतिसर्वेषामिति। लोकशब्दस्य राजलोकशब्देन व्याख्यानं पूर्ववत्।प्रवृद्धः इति रूपमहत्त्वं विवक्षितमित्याहघोररूपेण प्रवृद्ध इति। यद्वा ग्रसनोन्मुखावस्थ इति भावः।समाहर्तुम् इति पदेन समुदायकरणादिकं न विवक्षितम्? प्रस्तुतासङ्गतत्वात् नापि संहरणमात्रंलोकक्षयकृत् इत्यनेन पुनरुक्तिप्रसङ्गात् अतः संहरणमेव मध्यनिविष्टेनाप्युपसर्गान्तरेण विशेष्यत इत्याहआभिमुख्येनेति। अपरोक्षत इत्यर्थः। भृत्यैः शत्रुनिरसनवन्न परोक्षः संहारोऽयमिति भावः। आभिमुख्यमात्रमेव वा संहारहेतुरिति भावः।मनसैव जगत्सृष्टिं संहारं च करोति यः। तस्यारिपक्षक्षपणे कियानुद्यमविस्तरः [वि.पु.5।22।15] इत्याद्यनुसारेणाहअतो मत्सङ्कल्पादेवेति। निमित्तभूतव्याप्रियमाणाकारस्त्वमिति विवक्षित इत्यभिप्रायेणत्वदुद्योगमृतेऽपीत्युक्तम्।न भविष्यन्ति इत्युक्ते नोत्पत्स्यन्त इति प्रतीतिः स्यादिति। तद्व्यवच्छेदायोत्तरकालसत्तानिषेधपरतामाह -- विनङ्क्ष्यन्तीति।
।।11.32।।एवं विज्ञप्तः सन् श्रीभगवान् उवाच -- कालोऽस्मीति त्रयेण। लोकक्षयकृत् लोकानां विनाशकः प्रवृद्धः ऊर्जितः? लोकान् प्राणिनः? इह बाह्यतः समाहर्तुं संहर्तुं स्वलीनान् कर्तुं प्रवृत्तः कालोऽस्मि। यद्दशनान्तरेषु योधास्त्वया दृष्टास्तत्कालात्मकं मत्स्वरूपमिति भावः। त्वां द्रष्टारं मत्कृपापात्रं ऋते विना प्रत्यनीकेषु अनीकानि प्रत्यवस्थिताः ये योधास्ते सर्वेऽपि न भविष्यन्ति न स्थास्यन्तीति। यतोऽहं कालरूपः सर्वसंहारार्थं प्रवृत्तोऽस्मि। त्वां ऋते सर्वे न भविष्यन्तीत्युक्त्या त्वदर्थमेवैते मारिता इति ज्ञापितम्।
।।11.32।।एवमर्जुनेन प्रार्थितो भगवानुवाच -- काल इति। इहास्मिन्संग्रामे लोकान्समाहर्तुं भक्षितुं प्रवृत्तः प्रवृद्धो महान् लोकक्षयकृत् कालो नाम परमेश्वरोऽस्मि। यस्मादेवं तस्मात् ऋतेऽपि त्वा त्वां विनापि सर्वे न भविष्यन्ति मरिष्यन्ति। के ते सर्वे। ये प्रत्यनीकेषु शत्रुसैन्येषु योधाः शूरा भीष्मादयोऽवस्थितास्ते।
।।11.32।।एवं पृष्टः श्रीभगवानुवाच। लोकक्षयं करोतीति लोकक्षयकृत्कालोऽस्मि। प्रवृद्धिं प्राप्तः। इहास्मिन्काले। नन्विहास्मिंल्लोके संग्रामे वेत्याचार्यैः कुतो न व्याख्यातमितिचेत् कालस्यैव प्रकृतत्वात् प्रधानत्वाच्च सर्वनाम्रश्च प्रधानपरामर्शित्वनियमात् लोकान्सहर्तुं प्रवृत्तः। किं सर्वे लोका न भविष्यन्तीत्यत आह। ये सैन्यं प्रत्यवस्थिता भीष्मद्रोणादयस्ते सर्वे न भविष्यन्ति। ननु मां युद्धकर्तारं विना कथं सर्वेषां नाश इतिचेत्तत्राह। ऋतेऽपि त्वां त्वां त्वयि त्यक्तयुद्धव्यापारे सत्यपि मया कालरुपेणावश्यं विनाशनीया इति भावः।
11.32 कालः time? अस्मि (I) am? लोकक्षयकृत् worlddestroying? प्रवृद्धः fullgrown? लोकान् the worlds? समाहर्तुम् to destroy? इह here? प्रवृत्तः engaged? ऋते without? अपि also? त्वाम् thee? न not? भविष्यन्ति shall live? सर्वे all? ये these? अवस्थिताः arrayed? प्रत्यनीकेषु in hostile armies? योधाः warriors.Commentary Even without thee Even if thou? O Arjuna? wouldst not fight? these warriors are doomed to die under My dispensation. I am the alldestroying Time. I have already slain them. You have seen them dying. Therefore thy instrumentality is not of much importance.Such being the case? therefore? stand up and obtain fame.
11.32 The Blessed Lord said I am the full-grown world-destroying Time, now engaged in destroying the worlds. Even without thee, none of the warriors arrayed in the hostile armies shall live.
11.32 Lord Shri Krishna replied: I have shown myself to thee as the Destroyer who lays waste the world and whose purpose is destruction. In spite of thy efforts, all these warriors gathered for battle shall not escape death.
11.32 The Blessed Lord said I am the world-destroying Time, [Time: The supreme God with His limiting adjunct of the power of action.] grown in stature [Pravrddhah, mighty-according to S.-Tr.] and now engaged in annihilating the creatures. Even without you, all the warriors who are arrayed in the confronting armies will cease to exist!
11.32 Asmi, I am; the loka-ksaya-krt, world-destroying; kalah, Time; pravrddhah, grown in stature. Hear the purpose for which I have grown in stature: I am iha, now; pravrttah, engaged; samahartum, in annihilating; lokan, the creatures. Api, even; rte tva, without you; sarve, all-from whom your apprehension had arisen; the yodhah, warriors-Bhisma, Drona, Karna and others; ye, who are; avasthitah, arrayed; pratyanikesu, in the connfronting armies-in every unit of the army confronting the other; na bhavisyanti, will cease to exist. Since this is so-
11.32. The Bhagavat said I am the Time, the world-destroyer, engaged here in withdrawing the worlds that are overgrown; even without you (your fighting) all the warriors, standing in the rival armies, would cease to be.
11.32 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.32 The Lord said Kala (Time) is the calculator which calculates (Kalayati). Calculating the end of the lives of all those under the leadership of Dhrtarastra's sons, I am causing their destruction. Fully manifesting Myself with this fierce form, I have begun to destroy the hosts of kings. Therefore, by My will, even without you, namely, even without your effort, all these hostile warriors under the leadership of Dhrtarastra's sons, shall cease to be, i.e., will be destroyed.
11.32 The Lord said I am the world-destroying Time. Manifesting Myself fully, I have begun to destroy the worlds here. Even without You, none of the warriors arrayed in the hostile ranks shall survive.
।।11.32।।श्रीभगवान् बोले -- मैं लोकोंका नाश करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ। मैं जिसलिये बढ़ा हूँ वह सुन? इस समय मैं लोकोंका संहार करनेके लिये प्रवृत्त हुआ हूँ? इससे तेरे बिना भी ( अर्थात् तेरे युद्ध न करनेपर भी ) ये सब भीष्म? द्रोण और कर्ण प्रभृति शूरवीर -- योद्धालोग जिनसे तुझे आशङ्का हो रही है एवं जो प्रतिपक्षियोंकी प्रत्येक सेनामें अलगअलग डटे हुए हैं -- नहीं रहेंगे।,
।।11.32।। --,कालः अस्मि लोकक्षयकृत् लोकानां क्षयं करोतीति लोकक्षयकृत् प्रवृद्धः वृद्धिं गतः। यदर्थं प्रवृद्धः तत् श्रृणु -- लोकान् समाहर्तुं संहर्तुम् इह अस्मिन् काले प्रवृत्तः। ऋतेऽपि विनापि त्वा त्वां न भविष्यन्ति भीष्मद्रोणकर्णप्रभृतयः सर्वे? येभ्यः तव आशङ्का? ये अवस्थिताः प्रत्यनीकेषु अनीकमनीकं प्रति प्रत्यनीकेषु प्रतिपक्षभूतेषु अनीकेषु योधाः योद्धारः।।यस्मात् एवम् --,
।।11.32।।एवं तर्हिकालोऽस्मि इत्युत्तरमयुक्तं धर्मानुक्तेरित्यत आह -- कालेति। धर्मविशिष्टभगवद्वाचीत्यर्थः। कुत एतत् इत्यत आह -- कलेति। यथा कामधेनुः सर्वार्थान् ददाति तथाऽयमपि धातुः सर्वार्थवाचीत्यर्थः। तथा चास्मादण् कर्तरि घञ् वा। जगदिति योग्यतया सम्बध्यते। भवत्वयं बन्धनादिधर्मवद्वाची? भगवद्वाची तु कुतः अन्यत्र रूढत्वादित्यत आह -- प्रसिद्धश्चेति। बद्धं मां प्रति विकत्थसे आत्मानं तु श्लाघसे। कः कालः। अयं कथम् श्यामः प्रजा हरति। बद्ध्वा तिष्ठति रौद्रश्चेति। अत्र कथं विष्णुवाचित्वनिश्चयः इत्यत आह -- विष्णुनेति। कालनामाविग्रहो यस्यासौ तथोक्तः। प्रवृद्ध इति कादाचित्की वृद्धिः प्रतीयतेऽत आह -- प्रवृद्ध इति। वृद्धिर्धात्वर्थः। सा च प्रशब्देन देशतः कालतश्च सदातनी विवक्षितेति भावः। अनादिरिति नित्यत्वस्याप्युपलक्षणम्। भूताधिकारे विहितस्य क्तस्य कुतः सार्वकालिकत्वं प्रयोगदर्शनादिति भावेनाह -- ऋतं चेति। इद्धाद्भूतमितिवदित्यर्थः।अत्रापि सार्वकालिकत्वानिश्चय इत्यतो भगवतो दीप्तेः सत्तायाश्च सदातनत्वे श्रुतिसद्भावादित्याह -- प्रविष्णुरिति। विष्णुः -- तवसो देशकालपरिच्छिन्नात् सूर्यादेस्तेजसः स्तवीयान् अतिशयिततेजोरूपो भवति? अत एव ह्यस्य स्थविरस्यानादिकालीनस्य त्वेषमिति नाम असाधारण्येन हि व्यपदेशा भवन्तीत्यर्थः। अस्त्वेवं तथापि प्रागल्पः सन्निदानीं वृद्धिङ्गत इत्यत्रार्थः किं न स्यात् इत्यत आह -- नत्विति। तुशब्दो विशेषणार्थः। विक्रियारूपं वर्धन प्रवृद्धशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं न भवति। भगवति भावविकाराणां प्रतिषिद्धत्वात्। भगवतो विक्रियारूपवृद्ध्यभावेऽपि तद्रूपस्य भवत्विति तत्राह -- यस्येति। ननु न कर्मणा वर्धते नो कनीयान् इति श्रुतौ कर्मनिमित्तवृद्धिप्रतिषेधनात् वृद्धिमात्रमस्तीति ज्ञायते? अन्यथा विशेषणवैयर्थ्यात्। तथा च सत्प्रतिपक्षमुक्तवाक्यमित्यत आह -- नेति।न कर्मणा इति विशेषनिषेधस्तु वृद्धिलक्षणविक्रियाकारणत्वेन सम्भावितेन कर्मणाऽपि यदा न वर्धते? तदा स्वयं कर्मण विना न वर्धत इति किमु वक्तव्यम् इति वृद्धिलक्षणविक्रियाकारणत्वमात्रनिषेधाय कैमुत्यप्रदर्शनार्थमित्यन्यथोपपन्नमित्यर्थः। ननु सर्वत्र भगवानेव लोकानां संहर्ता तस्मात्इह इति व्यर्थमित्यत आह -- लोकानिति। युगपद्बहून्प्रत्यक्षत एवेति विशेषेण युधिष्ठिरादीनामवशिष्टत्वात् कथंत्वामृते इत्येवोक्तं इत्यत आह -- भ्रात्रादींश्चेति। अपिशब्दो द्योतयतीति शेषः। अस्मत्प्रतिकूलेष्वनीकेषु अवस्थिता योधा न भविष्यन्तीत्युक्ते का पाण्डवादीनां प्राप्तिर्येनऋतेऽपि त्वा इत्युच्यत इत्यत आह -- प्रत्यनीकत्वमिति। सेनाद्वयस्यापीति शेषः। कुत एवं व्याख्यानं इत्यत आह -- सर्वेऽपीति। सेनाद्वयगता अपीत्यर्थः। प्रत्यनीकेष्विति बहुवचनं कथं इत्यत आह -- अक्षौहिणीति। भेदेन बहुत्वेन।
।।11.32।।कालशब्दो जगद्बन्धनच्छेदनज्ञानादिसर्वभगवद्धर्मवाची। कल बन्धने? कल च्छेदने? कल ज्ञाने?,कल कामधेनुरिति पठन्ति। प्रसिद्धश्च स शब्दो भगवति।नियतं कालपाशेन बद्धं शक्र विकत्थसे। अयं स पुरुषः श्यामो लोकस्य हरति प्रजाः। बद्ध्वा तिष्ठति मां रौद्रः पशुं रशनया यथा इति मोक्षधर्मे। विष्णुना बद्धो बलिर्वक्तिविष्णौ चाधीश्वरे (त्र्यधीश्वरे) चित्तं धारयन् (येत्) कालविग्रहे [11।15।15] इति भागवते। प्रवृद्धः परिपूर्णोऽनादिर्वा। ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् [ऋक्सं.8।8।49।1म.ना.6।1] इति हि श्रुतिः। एतत् (इदं) महद्भूतम् [बृ.उ.2।4।12] इति च।प्र विष्णुरस्तु तवसः स्तवीयांस्त्वेषं ह्यस्य स्थविरस्य नाम [ऋक्सं.5।6।25।3] इति च? न तु वर्धनम्।नासौ जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ इति हि भागवते।यस्य दिव्यं हि तद्रूपं हीयते वर्धते न च इति मोक्षधर्मे। न कर्मणा [बृ.उ.4।4।23] इति तु कर्मणाऽपि न? किमु स्वयं इति। लोकान्समाहर्तुमिह विशेषेण प्रवृत्तः। भ्रात्रादींश्च ऋते इत्यपिशब्दः। प्रत्यनीकत्वं तु परस्परतया। सर्वेऽपि न भविष्यन्ति? अक्षौहिण्यादिभेदेन बहुवचनं युक्तम्।
श्री भगवानुवाच कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।11.32।।
শ্রী ভগবানুবাচ কালোস্মি লোকক্ষযকৃত্প্রবৃদ্ধো লোকান্সমাহর্তুমিহ প্রবৃত্তঃ৷ ঋতেপি ত্বাং ন ভবিষ্যন্তি সর্বে যেবস্থিতাঃ প্রত্যনীকেষু যোধাঃ৷৷11.32৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ কালোস্মি লোকক্ষযকৃত্প্রবৃদ্ধো লোকান্সমাহর্তুমিহ প্রবৃত্তঃ৷ ঋতেপি ত্বাং ন ভবিষ্যন্তি সর্বে যেবস্থিতাঃ প্রত্যনীকেষু যোধাঃ৷৷11.32৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ કાલોસ્મિ લોકક્ષયકૃત્પ્રવૃદ્ધો લોકાન્સમાહર્તુમિહ પ્રવૃત્તઃ। ઋતેપિ ત્વાં ન ભવિષ્યન્તિ સર્વે યેવસ્થિતાઃ પ્રત્યનીકેષુ યોધાઃ।।11.32।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਕਾਲੋਸ੍ਮਿ ਲੋਕਕ੍ਸ਼ਯਕਰਿਤ੍ਪ੍ਰਵਰਿਦ੍ਧੋ ਲੋਕਾਨ੍ਸਮਾਹਰ੍ਤੁਮਿਹ ਪ੍ਰਵਰਿਤ੍ਤ। ਰਿਤੇਪਿ ਤ੍ਵਾਂ ਨ ਭਵਿਸ਼੍ਯਨ੍ਤਿ ਸਰ੍ਵੇ ਯੇਵਸ੍ਥਿਤਾ ਪ੍ਰਤ੍ਯਨੀਕੇਸ਼ੁ ਯੋਧਾ।।11.32।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಕಾಲೋಸ್ಮಿ ಲೋಕಕ್ಷಯಕೃತ್ಪ್ರವೃದ್ಧೋ ಲೋಕಾನ್ಸಮಾಹರ್ತುಮಿಹ ಪ್ರವೃತ್ತಃ. ಋತೇಪಿ ತ್ವಾಂ ನ ಭವಿಷ್ಯನ್ತಿ ಸರ್ವೇ ಯೇವಸ್ಥಿತಾಃ ಪ್ರತ್ಯನೀಕೇಷು ಯೋಧಾಃ৷৷11.32৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച കാലോസ്മി ലോകക്ഷയകൃത്പ്രവൃദ്ധോ ലോകാന്സമാഹര്തുമിഹ പ്രവൃത്തഃ. ഋതേപി ത്വാം ന ഭവിഷ്യന്തി സര്വേ യേവസ്ഥിതാഃ പ്രത്യനീകേഷു യോധാഃ৷৷11.32৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ କାଲୋସ୍ମି ଲୋକକ୍ଷଯକୃତ୍ପ୍ରବୃଦ୍ଧୋ ଲୋକାନ୍ସମାହର୍ତୁମିହ ପ୍ରବୃତ୍ତଃ| ଋତେପି ତ୍ବାଂ ନ ଭବିଷ୍ଯନ୍ତି ସର୍ବେ ଯେବସ୍ଥିତାଃ ପ୍ରତ୍ଯନୀକେଷୁ ଯୋଧାଃ||11.32||
śrī bhagavānuvāca kālō.smi lōkakṣayakṛtpravṛddhō lōkānsamāhartumiha pravṛttaḥ. ṛtē.pi tvāṅ na bhaviṣyanti sarvē yē.vasthitāḥ pratyanīkēṣu yōdhāḥ৷৷11.32৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச காலோஸ்மி லோகக்ஷயகரித்ப்ரவரித்தோ லோகாந்ஸமாஹர்துமிஹ ப்ரவரித்தஃ. றதேபி த்வாஂ ந பவிஷ்யந்தி ஸர்வே யேவஸ்திதாஃ ப்ரத்யநீகேஷு யோதாஃ৷৷11.32৷৷
శ్రీ భగవానువాచ కాలోస్మి లోకక్షయకృత్ప్రవృద్ధో లోకాన్సమాహర్తుమిహ ప్రవృత్తః. ఋతేపి త్వాం న భవిష్యన్తి సర్వే యేవస్థితాః ప్రత్యనీకేషు యోధాః৷৷11.32৷৷
11.33
11
33
।।11.33।। इसलिये तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ और यशको प्राप्त करो तथा शत्रुओंको जीतकर धन-धान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन् !  तुम निमित्तमात्र बन जाओ।
।।11.33।। इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो।।
।।11.33।। See commentary under 11.34
।।11.33।। व्याख्या--'तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व'--हे अर्जुन ! जब तुमने यह देख ही लिया कि तुम्हारे मारे बिना भी ये प्रतिपक्षी बचेंगे नहीं, तो तुम कमर कसकर युद्धके लिये खड़े हो जाओ और मुफ्तमें ही यशको प्राप्त कर लो। इसका तात्पर्य है कि यह सब होनहार है, जो होकर ही रहेगी और इसको मैंने तुम्हें प्रत्यक्ष दिखा भी दिया है। अतः तुम युद्ध करोगे तो तुम्हें मुफ्तमें ही यश मिलेगा और लोग भी कहेंगे कि अर्जुनने विजय कर ली? 'यशो लभस्व' कहनेका यह अर्थ नहीं है कि यशकी प्राप्ति होनेपर तुम फूल जाओ कि 'वाह' ! मैंने विजय प्राप्त कर ली', प्रत्युत तुम ऐसा समझो कि जैसे ये प्रतिपक्षी मेरे द्वारा मारे हुए ही मरेंगे, ऐसे ही यश भी जो होनेवाला है, वही होगा। अगर तुम यशको अपने पुरुषार्थसे प्राप्त मानकर राजी होओगे, तो तुम फलमें बँध जाओगे -- 'फले सक्तो निबध्यते' (गीता 5। 12)। तात्पर्य यह हुआ कि लाभ-हानि, यश-अपयश सब प्रभुके हाथमें है। अतः मनुष्य इनके साथ अपना सम्बन्ध न जो़ड़े; क्योंकि ये तो होनहार हैं।     'जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्'--समृद्ध राज्यमें दो बातें होती हैं -- (1) राज्य निष्कण्टक हो अर्थात् उसमें बाधा देनेवाला कोई भी शत्रु या प्रतिपक्षी न रहे और (2) राज्य धन-धान्यसे सम्पन्न हो अर्थात् प्रजाके पास खूब धन-सम्पत्ति हो; हाथी, घोड़े, गाय, जमीन, मकान, जलाशय आदि आवश्यक वस्तुएँ भरपूर हों प्रजाके खाने के लिये भरपूर अन्न हो। इन दोनों बातोंसे ही राज्यकी समृद्धता, पूर्णता होती है। भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि शत्रुओंको जीतकर तुम ऐसे निष्कण्टक और धन-धान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो।यहाँ राज्यको भोगनेका अर्थ अनुकूलताका सुख भोगनेमें नहीं है, प्रत्युत यह अर्थ है कि साधारण लोग जिसे भोग मानते हैं, उस राज्यको भी तुम अनायास प्राप्त कर लो।
।।11.33 -- 11.34।।तस्मादिति। द्रोणमिति। तदत्र भगवता (S तदनु भवता ? N तदत्रभवता) उत्तरं जगतो विद्याविद्यात्मनः शुद्धाशुद्धमिश्रसंविद्बलग्रासीकारात् अभिधीयते इति प्रायशः सूत्रितमत्राध्याये रहस्यम्। उट्टङ्कितमात्र (N -- मात्रं) -- संवित्तिसमर्थेभ्योऽस्तु कियत्पङ्क्ितलेखनायासदौःस्थित्यमालम्भेमहि (K आलम्भेमहि)।अत्र च यदुक्तं मया हतेषु त्वं निमित्तं यशस्वी भव इति भगवता तत् प्रत्युक्तं यदुक्तं प्रागर्जुनेन नैतद्विद्मः,(?N नचैतद्विद्मः) कतरन्नो वरीयः इत्यादि।
।।11.33।। तस्मात् त्वं तान् प्रति युद्धाय उत्तिष्ठ? तान् शत्रून् जित्वा यशो लभस्व? धर्म्यं राज्यं च समृद्धं भुङ्क्ष्व। मया एव एते कृतापराधाः पूर्वम् एव निहताः? हनने विनियुक्ताः? त्वं तु तेषां हनने निमित्तमात्रं भव। मया हन्यमानानां शस्त्रादिस्थानीयो भव? सव्यसाचिन्षच समवाये (धा0 पा0 1।1022) सव्येन शरसचनशीलः सव्यसाची सव्येन अपि करेण शरसमवायकरः? करद्वयेन योद्धुं समर्थ इत्यर्थः।
।।11.33।।तवौदासीन्येऽपि प्रतिकूलानीकस्था मत्प्रातिकूल्यादेव न भविष्यन्तीत्येवं यस्मान्निश्चितं तस्मात्त्वदौदासीन्यमकिंचित्करमित्याह -- यस्मादिति। उत्तिष्ठ युद्धायोन्मुखीभवेत्यर्थः। यशोलाभमभिनयति -- भीष्मेति। किं तेनापुमर्थेनेत्याशङ्क्याह -- पुण्यैरिति। राज्यभोगेऽपेक्षिते किमनपेक्षितेनेत्याशङ्क्याह -- जित्वेति। भीष्मादिष्वतिरथेषु सत्सु कुतो जयाशङ्केत्याशङ्क्याह -- मयैवैत इति। तर्हि मृतमारणार्थं न मे प्रवृत्तिस्तत्राह -- निमित्तेति। सव्यसाचीपदं विभजते -- वामेनेति।
।।11.33।।तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ निमित्तमात्रं तु भव।
।।11.33।।यस्मादेवं तस्मात्त्वद्व्यापारमन्तरेणापि यस्मादेते विनङ्क्ष्यन्त्येव तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ उद्युक्तो भव युद्धाय। देवैरपि दुर्जया भीष्मद्रोणादयोऽतिरथा झटित्येवार्जुनेन निर्जिता इत्येवंभूतं यशो लभस्व। महद्भिः पुण्यैरेव हि यशो लभ्यते। अत्यन्ततश्च जित्वा शत्रून्दुर्योधनादीन् भुङ्क्ष्व स्वोपसर्जनत्वेन भोग्यतां प्रापय समृद्धं राज्यमकण्टकम्। एते च तव शत्रवो मयैव कालात्मना निहताः संहतायुषः त्वदीययुद्धात्पूर्वमेव। केवलं तव यशोलाभाय रथान्न पातिताः। अतस्त्वं निमित्तमात्रं अर्जुनेनैते निर्जिता इति सार्वलौकिकव्यपदेशास्पदं भव। हे सव्यसाचिन् सव्येन वामेन हस्तेनापि शरान्सचितुं संधातुं शीलं यस्य तादृशस्य तव भीष्मद्रोणादिजयो नासंभावितस्तस्मात्त्वद्व्यापारानन्तरं मया रथात्पात्यमानेष्वेतेषु तवैव कर्तृत्वं लोकाः कल्पयिष्यन्तीत्यभिप्रायः।
।।11.33।। तस्मादिति। यस्मादेवं तस्मात्त्वं युद्धायोत्तिष्ठ। देवैरपि दुर्जयाः भीष्मद्रोणादयोऽर्जुनेन निर्जिता इत्येवंभूतं यशो लभस्व प्राप्नुहि। अयत्नेन शत्रूञ्जित्वा समृद्धं राज्यं भुङ्क्ष्व। एते च तव शत्रवस्त्वदीययुद्धात्पूर्वमेव मयैव कालात्मना निहतप्रायास्तथापि त्वं निमित्तमात्रं भव। हे सव्यसाचिन् सव्येन वामहस्तेन सचितुं शरान्संधातुं शीलं यस्येति व्युत्पत्त्या वामेनापि बाणक्षेपात्सव्यसाचीत्युच्यते।
।।11.33।।यदि मदुद्योगमृतेऽपि धार्तराष्ट्रादयो न भविष्यन्ति तर्हि किमर्थं मामुद्योजयसि इत्यत्रोत्तरंतस्मात्त्वम् इति श्लोकः। मद्भक्तस्य ते जययशोराज्यादिलाभार्थं त्वदुद्योजनमिति परिहाराशयः।जित्वा शत्रून् इति यशोराज्ययोः साधारणहेतुः। वैषम्यनैर्घृण्यपरिहारेण जिघांसाहेतुप्रदर्शनार्थंकृतापराधा इत्युक्तम्। ननु पूर्वमेव निहता इति प्रत्यक्षविरुद्धम् तथा सति तद्धननार्थं निमित्तमात्रं भवेत्युद्योजनं च व्यर्थमित्यत्राहहनने विनियुक्ता इति। हनने विनियोगस्तदर्थसङ्कल्पः हन्तव्यत्वेन सङ्कल्पिता इत्यर्थः। सङ्कल्पस्यामोघत्वात्फलसिद्ध्यविनाभावेन निहतत्वोक्तिः एवमपि निष्ठार्थो घटते ईश्वरसङ्कल्पप्रभृति फलपर्यन्ते क्रियासमुदाये सङ्कल्पांशस्य निष्पन्नत्वादेकदेशे च समुदायशब्दप्रयोगोपपत्तेः,स्थालीकाष्ठादिव्यापारेषु प्रत्येकं पचतिप्रयोगवत्। अत्राशंसायामादिकर्मणि क्त इत्येकेनिमित्तमात्रम् इत्युपादानत्वनिषेधः प्रतीयते तत्र च प्रसङ्गाभावात्प्रतिषेधोऽपि नोचित इत्यत्राहमया हन्यमानानामिति। मयैवोपकरणीकृतेन तत्प्रतिपत्तिमता भवता पापनैर्घृण्यपराजयादिशङ्का न कार्येति भावः। मात्रशब्दः प्राधान्यव्यवच्छेदार्थ इत्यभिप्रायेणाह -- शस्त्रादिस्थानीय इति। सव्यसाचिपदेन सम्बोधनं युद्धौपयिकासाधारणातिशयद्योतनार्थमित्यभिप्रायेण व्युत्पादयतिषच समवाय इत्यादिना। सव्यशब्दस्य करणार्थतां धातोः प्रकृतोचितं कर्मविशेषं ताच्छील्यार्थतां च प्रत्ययस्य दर्शयतिसव्येनेति। समवायोऽत्र शरसन्धानम्। परिसङ्ख्यान्यायात् दक्षिणेन शरसमवायं कर्तुमशक्त इति शङ्कामपनयन् सव्यशब्दस्य पादादिसाधारणस्य प्रस्तुतौपयिकं विशेष्यमप्याहसव्येनापि करेणेति। अयोगव्यवच्छेदार्थं सव्योपादानम्? न त्वन्ययोगव्यवच्छेदार्थमिति भावः। फलितमाह -- करद्वयेनेति। भूभारनिर्हरणार्थं तवेदृशं सामर्थ्यं मया सङ्कल्पितमिति समर्थशब्दाभिप्रायः।
।।11.33।।अत एव त्वमनायासेन यशो गृहाणेत्याह -- तस्मादिति। हे सव्यसाचिन् सव्येन वामेन हस्तेन सचितुं सन्धातुं शीलं यस्य तादृशस्त्वमुत्तिष्ठ युद्धार्थं सज्जो भव। यशो लभस्व सव्यहस्तेनैव सर्वे मारिता इत्यादिरूपम्। शत्रून् दुर्योधनादीन् जित्वा समृद्धं राज्यं भुङ्क्ष्व। एते मया पूर्वमेव त्वन्मारणात् प्रथममेव निहताः मारिताः? अतो निमित्तमात्रं भव लोककथनार्थमर्जुनेन सर्वे मारिता इति।
।।11.33।।तस्मादिति। यस्मात्त्वां विनाप्येते मरिष्यन्ति तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ युद्धाय। शेषं स्पष्टम्।
।।11.33।।यस्मात्त्वां विनाप्येते न भविष्यन्त्येव तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ स्थित्वा युध्यस्व। ननु मामृतेऽपि कार्यनिर्वाहे किमर्थं युद्धाय मां नियोजयसीतिचेत् त्वदीययशःप्रख्यापनोयेत्याशयेनाह। यशो लभस्व देवैरपि जेतुमशक्या भीष्मादयोऽतिरथा अर्जुनेन जिता इति यशः मदाराधनादिजन्यपुण्यजनितं लभस्व। शत्रून्दुर्योधनादीन् जित्वा समृद्धं असपत्नमकण्टकं राज्यं बुङ्क्ष्व। एतेषां विजये तव परिश्रमो नास्तीत्याशयेनाह। एते तव शत्रुवः पूर्वमेव मयैव निश्चयेन हताः। ननु कथं स्थिता इतिचेत्तव यशोदानाय त्वां निमित्तीकर्तुमित्याशयेनाह। निमित्तमात्रं त्वं भव। हे स्व्यासाचिन् सव्येन वामेन हस्तेनापि बाणन्सचित्तुं संधातुं शीलमस्येति तथा तं संबोधयन्। निमित्तमात्रं भूत्वा सव्यसाचित्वं सार्थकं कुर्विति सूचयति।
11.33 तस्मात् therefore? त्वम् thou? उत्तिष्ठ stand up? यशः fame? लभस्व obtain? जित्वा having conered? शत्रून् enemies? भुङ्क्ष्व enjoy? राज्यम् the kingdom? समृद्धम् the unrivalled? मया by Me? एव even? एते these? निहताः have been slain? पूर्वम् before? एव even? निमित्तमात्रम् a mere instrument? भव be? सव्यसाचिन् O ambidexterous one.Commentary Be thou merely an apparent or nominal cause. I have already killed them in advance. I have destroyed them long ago.Fame People will think that Bhishma? Drona and the other great warriors whom even the gods cannot kill have been defeated by you and so you will obtain great fame. Such fame is due to virtuous Karma only.Satrun Enemies such as Duryodhana.Savyasachi Arjuna who could shoot arrows even with the left hand.
11.33 Therefore, stand up and obtain fame. Coner the enemies and enjoy the unrivalled kingdom. Verily by Me have they been already slain; be thou a mere instrument, O Arjuna.
11.33 Then gird up thy loins and conquer. Subdue thy foes and enjoy the kingdom in prosperity. I have already doomed them. Be thou my instrument, Arjuna!
11.33 Therefore you rise up, (and) gain fame; and defeating the enemies, enjoy a prosperous kingdom. These have been killed verily by Me even earlier; be you merely an instrument, O Savyasacin (Arjuna).
11.33 Tasmat, therefore; tvam, you; uttistha, rise up; (and) labhasva, gain; the yasah, fame, that Arjuna has conered the Atirathas [Atiratha-see note under 1.4.6.-Tr.], Bhisma, Drona and others, who are unconerable even by the gods. Such fame can be acired only by virtuous actions. Jitva, by defeating; satrun, the enemies, Duryodhana and others; bhunksva, enjoy; a rajyam, kingdom; that is samrddham, propersous, free from enemies and obstacles. Ete, these; nihatah, have been definitely killed, made lifeless; eva maya, verily by Me; eva purvam, even earlier. Bhava, be you; nimitta-matram, merely an instrument, O Savyasachin. Arjuna was called so because he could shoot arrows even with his left hand.
11.33. Therefore, stand up, win glory, and vanishing foes, enjoy the rich kingdom; these [foes] have already been killed by Myself; [hence] be a mere token cause [in their destruction], O ambidextrous archer !
11.33 See comment under 11.34.
11.33 Therefore, arise for fighting against them. Conering your enemies, win glory and enjoy a prosperous and righteous kingdom. All those who have sinned have been already annihilated by Me. Be you merely an instrument (Nimitta) of Mine in destroying them - just like a weapon in my hand, O Savyasacin! The root 'Sac' means 'fastening'. A 'savyasacin' is one who is capable of fixing or fastening the arrow even with his left hand. The meaning is that he is so dexterous that he can fight with a bow in each hand.
11.33 Therefore airse, win glory. Conering your foes, enjoy a prosperous kingdom. By Me they have been slain already. You be merely an instrument, O Arjuna, you great bowman!
।।11.33।।क्योंकि ऐसा है --, इसलिये तू खड़ा हो और देवोंसे भी न जीते जानेवाले भीष्म? द्रोण आदि महारथियोंको अर्जुनने जीत लिया ऐसे निर्मल यशको लाभ कर। ऐसा यश पुण्योंसे ही मिलता है। दुर्योधनादि शत्रुओंको जीतकर समृद्धिसम्पन्न निष्कण्टक राज्य भोग। ये सब ( शूरवीर ) मेरेद्वारा निःसन्देह पहले ही मारे हुए हैं अर्थात् प्राणविहीन किये हुए हैं। हे सव्यसाचिन् तू केवल निमित्तमात्र बन जा। बायें हाथसे भी बाण चलानेका अभ्यास होनेके कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है।
।।11.33।। --,तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ भीष्मप्रभृतयः अतिरथाः अजेयाः देवैरपि? अर्जुनेन जिताः इति यशः लभस्व केवलं पुण्यैः हि तत् प्राप्यते। जित्वा शत्रून् दुर्योधनप्रभृतीन् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् असपत्नम् अकण्टकम्। मया एव एते निहताः निश्चयेन हताः प्राणैः वियोजिताः पूर्वमेव। निमित्तमात्रं भव त्वं हे सव्यसाचिन्? सव्येन वामेनापि हस्तेन शराणां क्षेप्ता सव्यसाची इति उच्यते अर्जुनः।।
null
null
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्। मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।11.33।।
তস্মাত্ত্বমুত্তিষ্ঠ যশো লভস্ব জিত্বা শত্রূন্ ভুঙ্ক্ষ্ব রাজ্যং সমৃদ্ধম্৷ মযৈবৈতে নিহতাঃ পূর্বমেব নিমিত্তমাত্রং ভব সব্যসাচিন্৷৷11.33৷৷
তস্মাত্ত্বমুত্তিষ্ঠ যশো লভস্ব জিত্বা শত্রূন্ ভুঙ্ক্ষ্ব রাজ্যং সমৃদ্ধম্৷ মযৈবৈতে নিহতাঃ পূর্বমেব নিমিত্তমাত্রং ভব সব্যসাচিন্৷৷11.33৷৷
તસ્માત્ત્વમુત્તિષ્ઠ યશો લભસ્વ જિત્વા શત્રૂન્ ભુઙ્ક્ષ્વ રાજ્યં સમૃદ્ધમ્। મયૈવૈતે નિહતાઃ પૂર્વમેવ નિમિત્તમાત્રં ભવ સવ્યસાચિન્।।11.33।।
ਤਸ੍ਮਾਤ੍ਤ੍ਵਮੁਤ੍ਤਿਸ਼੍ਠ ਯਸ਼ੋ ਲਭਸ੍ਵ ਜਿਤ੍ਵਾ ਸ਼ਤ੍ਰੂਨ੍ ਭੁਙ੍ਕ੍ਸ਼੍ਵ ਰਾਜ੍ਯਂ ਸਮਰਿਦ੍ਧਮ੍। ਮਯੈਵੈਤੇ ਨਿਹਤਾ ਪੂਰ੍ਵਮੇਵ ਨਿਮਿਤ੍ਤਮਾਤ੍ਰਂ ਭਵ ਸਵ੍ਯਸਾਚਿਨ੍।।11.33।।
ತಸ್ಮಾತ್ತ್ವಮುತ್ತಿಷ್ಠ ಯಶೋ ಲಭಸ್ವ ಜಿತ್ವಾ ಶತ್ರೂನ್ ಭುಙ್ಕ್ಷ್ವ ರಾಜ್ಯಂ ಸಮೃದ್ಧಮ್. ಮಯೈವೈತೇ ನಿಹತಾಃ ಪೂರ್ವಮೇವ ನಿಮಿತ್ತಮಾತ್ರಂ ಭವ ಸವ್ಯಸಾಚಿನ್৷৷11.33৷৷
തസ്മാത്ത്വമുത്തിഷ്ഠ യശോ ലഭസ്വ ജിത്വാ ശത്രൂന് ഭുങ്ക്ഷ്വ രാജ്യം സമൃദ്ധമ്. മയൈവൈതേ നിഹതാഃ പൂര്വമേവ നിമിത്തമാത്രം ഭവ സവ്യസാചിന്৷৷11.33৷৷
ତସ୍ମାତ୍ତ୍ବମୁତ୍ତିଷ୍ଠ ଯଶୋ ଲଭସ୍ବ ଜିତ୍ବା ଶତ୍ରୂନ୍ ଭୁଙ୍କ୍ଷ୍ବ ରାଜ୍ଯଂ ସମୃଦ୍ଧମ୍| ମଯୈବୈତେ ନିହତାଃ ପୂର୍ବମେବ ନିମିତ୍ତମାତ୍ରଂ ଭବ ସବ୍ଯସାଚିନ୍||11.33||
tasmāttvamuttiṣṭha yaśō labhasva jitvā śatrūn bhuṅkṣva rājyaṅ samṛddham. mayaivaitē nihatāḥ pūrvamēva nimittamātraṅ bhava savyasācin৷৷11.33৷৷
தஸ்மாத்த்வமுத்திஷ்ட யஷோ லபஸ்வ ஜித்வா ஷத்ரூந் புங்க்ஷ்வ ராஜ்யஂ ஸமரித்தம். மயைவைதே நிஹதாஃ பூர்வமேவ நிமித்தமாத்ரஂ பவ ஸவ்யஸாசிந்৷৷11.33৷৷
తస్మాత్త్వముత్తిష్ఠ యశో లభస్వ జిత్వా శత్రూన్ భుఙ్క్ష్వ రాజ్యం సమృద్ధమ్. మయైవైతే నిహతాః పూర్వమేవ నిమిత్తమాత్రం భవ సవ్యసాచిన్৷৷11.33৷৷
11.34
11
34
।।11.34।। द्रोण, भीष्म, जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य सभी मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मारो। तुम व्यथा मत करो और युद्ध करो। युद्धमें तुम निःसन्देह वैरियोंको जीतोगे।
।।11.34।। द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा और भी बहुत से मेरे द्वारा मारे गये वीर योद्धाओं को तुम मारो; भय मत करो; युद्ध करो; तुम युद्ध में शत्रुओं को जीतोगे।।
।।11.34।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को सीधे और स्पष्ट शब्दों में आश्वस्त करते हैं कि उसको उठ खड़े होकर काल के आश्रय से सफलता और वैभव को प्राप्त करना चाहिए। अधर्मियों की शक्ति और सार्मथ्य कितनी ही अधिक क्यों न हो? लोक क्षयकारी महाकाल की शक्ति ने पहले ही उन्हें मार दिया है। अर्जुन को केवल आगे बढ़कर एक वीर पुरुष की भूमिका निभाते हुए विजय के मुकुट को प्राप्त कर लेना है। हे सव्यसाचिन् मेरे द्वारा ये मारे ही हुए हैं? तुम केवल निमित्त बनो।वस्तुत? प्रत्येक विचारशील पुरुष को इस तथ्य का स्पष्ट ज्ञान होता है कि जीवन में वह ईश्वर के हाथों में केवल एक निमित्त ही है। परन्तु? सामान्यत हम इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते? क्योंकि हमारा गर्वभरा अभिमान इतनी सरलता से निवृत्त नहीं होता कि हमारा शुद्ध दिव्य स्वरूप अपनी सर्वशक्ति से हमारे द्वारा कार्य कर सके। जीवन के सभी कार्य क्षेत्रों में प्राप्त की गयी उपलब्धियों पर यदि हम विचार करें? तो हमें ज्ञात होगा कि प्रत्येक उपलब्धि में प्रकृति के योगदान की तुलना में हमारा योगदान अत्यन्त क्षुद्र और नगण्य है। अधिकसेअधिक हम केवल उन वस्तुओं का संयोग या मिश्रण ही कर सकते हैं? जो पहले से ही विद्यमान हैं? और इस संयोग के फलस्वरूप उनमें पूर्व निहित गुणों को व्यक्त करा सकते हैं। फिर भी हमारा अभिमान यह होता है कि हमने उस फल को उत्पन्न किया हैरेडियो? वायुयान? इंजिन? जीवन संरक्षक औषधयां? संक्षेप में? यह सम्पूर्ण नवीन जगत्? और प्रगति में इसकी उपलब्धियां ये सब ईश्वर की गोद में बैठे बच्चों के खेल के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। ईश्वर ने ही हमारे लिए विद्युत्? लोहा? आकाश? वायु इत्यादि उपलब्ध कराये और हमें उसका उपयोग करने के लिए स्वीकृति और स्वतन्त्रता प्रदान की। इन मूलभूत वस्तुओं के बिना कोई भी उपलब्धि संभव नहीं हो सकती और उपलब्धि का अर्थ है? ईश्वर प्रदत्त वस्तुओं का बुद्धिमत्तापूर्वक समायोजन करना।शरणागति तथा ईश्वर का अखण्ड स्मरण करते हुए जगत् की सेवा करने के सिद्धांतों को ऐसी व्यर्थ की कल्पनाएं नहीं समझना चाहिए जो जगत् की भौतिक सत्यता से पलायन करने के लिए विधान की गयी हों। जगत् में कुशलतापूर्वक कार्य करके सफलता पाने के लिए मनुष्य़ को अपनी योग्यता और स्वभाव को ऊँचा उठाना आवश्यक है। अखण्ड ईश्वर स्मरण वह साधन है? जिसके द्वारा हम अपने मन को सदा अथक उत्साह और आनन्दपूर्ण प्रेरणा के भाव में रख सकते हैं।अहंकारी के लिए यह जगत् एक बोझ या समस्या बना होता है। जिस सीमा तक अहंकार स्वयं को किसी महान् और श्रेष्ठ आदर्श के प्रति समर्पित कर देता है? उसी सीमा में यह जगत् और उसकी उपलब्धियां प्राप्त करना सरल और निश्चित सफलता का खेल बन जाता है। इसके पूर्व भी गीता में अनेक स्थलों पर स्पष्टत सूचित किया गया है कि अहंकार के समर्पण से हममें स्थित महानतर क्षमताओं को व्यक्त किया जा सकता है। उसी विचार को यहाँ दोहराया गया है। सम्पूर्ण सेना को यहाँ अपनी वीरता की भूमिका निभाने के लिए आमन्त्रित किया गया है। ईश्वर के हाथों में वे निमित्त बने और राजमुकुट तथा वैभव को वेतन के रूप में प्राप्त करें। अर्जुन को कौरव पक्ष के कुछ प्रधान और श्रेष्ठ पुरुषों से विशेष भय था। यहाँ भगवान् उनका नामोल्लेख करके बताते हैं कि ये वीर पुरुष भी सर्वभक्षक काल के द्वारा मारे जा चुके हैं।द्रोणाचार्य अर्जुन के गुरु थे? जिन्होंने उसे धनुर्विद्या सिखायी थी। उसके पास कुछ विशेष शस्त्रास्त्र थे और अर्जुन उनका विशेष रूप से आदर और सम्मान करता था। भीष्मपितामह को स्वेच्छा से मरण प्राप्ति का वरदान मिला हुआ था? तथा उनके पास भी अत्यन्त शक्तिशाली दिव्यास्त्र थे। एक बार उन्होंने वीर परशुराम तक को धूल चटा दी थी। जयद्रथ की अजेयता का कारण उसके पिता द्वारा किया जा रहा तप था। उन्होंने यह दृढ़ निश्चय किया था कि जो कोई भी व्यक्ति मेरे पुत्र जयद्रथ का शिर पृथ्वी पर गिरायेगा? उस व्यक्ति का शिर भी नीचे गिर पड़ेगा। कर्ण से भय का कारण यह था कि उसे भी इन्द्र से दिव्यास्त्र प्राप्त हुआ था। उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट होता है कि भगवान् ने इन चारों पुरुषों का ही विशेषत उल्लेख क्यों किया है। ये महारथी लोग भी काल का ग्रास बन चुके थे? अत अर्जुन को चाहिए कि वह राजसिंहासन की ओर अग्रसर हो और सम्पूर्ण वैभव का स्वामी बन जाये।यह स्वाभाविक है कि जब मनुष्य की किसी तीव्र इच्छा को पूर्ण कर दिया जाता है? तो वह अकस्मात् अपने दयालु संरक्षक की स्तुति और प्रशंसा करने लगता है
।।11.34।। व्याख्या--'द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् मया हतांस्त्वं जहि'--तुम्हारी दृष्टिमें गुरु द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य जितने प्रतिपक्षके नामी शूरवीर हैं, जिनपर विजय करना बड़ा कठिन काम है (टिप्पणी प0 597), उन सबकी आयु समाप्त हो चुकी है अर्थात् वे सब कालरूप मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। इसलिये हे अर्जुन ! मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मार दो। भगवान्के द्वारा पूर्वश्लोकमें 'मयैवैते निहताः पूर्वमेव' और यहाँ 'मया हतांस्त्वं जहि' कहनेका तात्पर्य यह है कि तुम इनपर विजय करो, पर विजयका अभिमान मत करो; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं।'मा व्यथिष्ठा युध्यस्व'--अर्जुन पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्यको मारनेमें पाप समझते थे, यही अर्जुनके मनमें व्यथा थी। अतः भगवान् कह रहे हैं कि वह व्यथा भी तुम मत करो अर्थात् भीष्म और द्रोण आदिको मारनेसे हिंसा आदि दोषोंका विचार करनेकी तुम्हें किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। तुम अपने क्षात्रधर्मका अनुष्ठान करो अर्थात् युद्ध करो। इसका त्याग मत करो। 'जेतासि रणे सपत्नान्'--इस युद्धमें तुम वैरियोंको जीतोगे। ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि पहले (गीता 2। 6 में) अर्जुनने कहा था कि हम उनको जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे -- इसका हमें पता नहीं। इस प्रकार अर्जुनके मनमें सन्देह था। यहाँ ग्यारहवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने अर्जुनको विश्वरूप देखनेकी आज्ञा दी, तो उसमें भगवान्ने कहा कि तुम और भी जो कुछ देखना चाहो, वह देख लो (11। 7) अर्थात् किसकी जय होगी और किसकी पराजय होगी -- यह भी तुम देख लो। फिर भगवान्ने विराट्रूपके अन्तर्गत भीष्म, द्रोण और कर्णके नाशकी बात दिखा दी और इस श्लोकमें वह बात स्पष्टरूपसे कह दी कि युद्धमें निःसन्देह तुम्हारी विजय होगी। विशेष बात साधकको अपने साधनमें बाधकरूपसे नाशवान् पदार्थोंका, व्यक्तियोंका जो आकर्षण दीखता है, उससे वह घबरा जाता है कि मेरा उद्योग कुछ भी काम नहीं कर रहा है; अतः यह आकर्षण कैसे मिटे ! भगवान्,'मयैवैते निहताः पूर्वमेव' और 'मया हतांस्त्वं जहि' पदोंसे ढाढ़स बँधाते हुए मानो यह आश्वासन देते हैं कि तुम्हारेको अपने साधनमें जो वस्तुओँ आदिका आकर्षण दिखायी देता है और वृत्तियाँ खराब होती हुई दीखती हैं, ये सब-के-सब विघ्न नाशवान् हैं और मेरे द्वारा नष्ट किये हुए हैं। इसलिये साधक इनको महत्त्व न दे।
।।11.33 -- 11.34।।तस्मादिति। द्रोणमिति। तदत्र भगवता (S तदनु भवता ? N तदत्रभवता) उत्तरं जगतो विद्याविद्यात्मनः शुद्धाशुद्धमिश्रसंविद्बलग्रासीकारात् अभिधीयते इति प्रायशः सूत्रितमत्राध्याये रहस्यम्। उट्टङ्कितमात्र (N -- मात्रं) -- संवित्तिसमर्थेभ्योऽस्तु कियत्पङ्क्ितलेखनायासदौःस्थित्यमालम्भेमहि (K आलम्भेमहि)।अत्र च यदुक्तं मया हतेषु त्वं निमित्तं यशस्वी भव इति भगवता तत् प्रत्युक्तं यदुक्तं प्रागर्जुनेन नैतद्विद्मः,(?N नचैतद्विद्मः) कतरन्नो वरीयः इत्यादि।
।।11.34।।द्रोणभीष्मकर्णादीन् कृतापराधतया मया एव हनने विनियुक्तान् त्वं जहि? त्वं हन्याः एतान् गुरून् बन्धून् च अन्यान् अपि भोगसक्तान् कथं हनिष्यामि इति मा व्यथिष्ठाः? तान् उद्दिश्य धर्माधर्मभयेन बन्धुस्नेहेन कारुण्येन च मा व्यथां कृथाः। यतः ते कृतापराधाः? मया एव हनने विनियुक्ताः? अतो निर्विशङ्को युध्यस्व? रणे सपत्नान् जेतासि? जेष्यसि? न एतेषां वधे नृशंसतागन्धः? अपि तु जय एव लभ्यते इत्यर्थः।
।।11.34।।मयैवेत्यादिनोक्तं प्रपञ्चयति -- द्रोणं चेति। किमिति कतिचिदेवात्र द्रोणादयो गण्यन्ते तत्राह -- येष्विति। द्रोणादिषु कुतः शङ्केत्याशङ्क्य द्वयोः शङ्कानिमित्तमाह -- तत्रेत्यादिना। जयद्रथेऽपि,शङ्कानिमित्तमाह -- तथेति। दिव्यास्त्रसंपन्न इति संबन्धः। तत्र शङ्कायां कारणान्तरमाह -- यस्येति। कर्णेऽपि तत्कारणत्वं कथयति -- कर्णोऽपीति। पूर्ववदेव संबन्धः। हेत्वन्तरमाह -- वासवेति। सा खल्वमोघा पुरुषमेकमत्यन्तसमर्थं घातयित्वैव निवर्तते। जन्मनापि तस्य शङ्कनीयत्वमाह -- सूर्येति। कुन्ती हि कन्यावस्थायांमन्त्रप्रभावं ज्ञातुमादित्यमाजुहाव ततस्तस्यामेवावस्थायामयमुद्बभूव तदाह -- कानीन इति। एतदेवाभिप्रेत्य कर्णग्रहणमित्याह -- यत इति। उक्तेष्वन्येषु च न त्वया शङ्कितव्यमित्याह -- मयेति।
।।11.34।।पूर्वशङ्काऽधुना न कार्येत्याह -- द्रोणमिति। येभ्यस्त्वं पूर्वमशङ्किथास्तानेतान् मया हतप्रायान्कालदृष्ट्या प्रारब्धकर्मणा जीवितशेषान् जहि। एवं रणे सपत्नान् जेष्यसि। ततो युद्धधर्मं कुरु।
।।11.34।।ननु द्रोणो ब्राह्मणोत्तमो धनुर्वेदाचार्यो मम गुरुर्विशेषेण च दिव्यास्त्रसंपन्नः। तथा भीष्मः स्वच्छन्दमृत्युर्दिव्यास्त्रसंपन्नश्च परशुरामेण द्वन्द्वयुद्धमुपगम्यापि न पराजितः। तथा यस्य पिता वृद्धक्षत्रस्तपश्चरति मम पुत्रस्य शिरो यो भूमौ पातयिष्यति तस्यापि शिरस्तत्कालं भूमौ पतिष्यतीति स जयद्रथोऽपि जेतुमशक्यः स्वयमपि महादेवाराधनपरो दिव्यास्त्रसंपन्नश्च। तथा कर्णोऽपि स्वयं सूर्यसमस्तदाराधनेन दिव्यास्त्रसंपन्नश्च वासवदत्तया चैकपुरुषघातिन्या मोघीकर्तुमशक्यया शक्त्या विशिष्टः। तथा कृपाश्वत्थामभूरिश्रवःप्रभृतयो महानुभावाः सर्वथा दुर्जया एव एतेषु सत्सु कथं जित्वा शत्रून्राज्यं भोक्ष्ये कथं वा यशो लप्स्य इत्याशङ्कामर्जुनस्यापनेतुमाह तदाशङ्काविषयान्नामभिः कथयन् -- द्रोणं चेति। वीरान् द्रोणादींस्त्वदाशङ्काविषयीभूतान्सर्वानेव योधवीरान्कालात्मना मया हतानेवं त्वं जहि। हतानां हनने को वा परिश्रमः। अतो माव्यथिष्ठाः कथमेवं शक्ष्यामीति व्यथां भयनिमित्तां पीडां मागाः। भयं त्यक्त्वा युध्यस्व। जेतासि जेष्यस्यचिरेणैव रणे संग्रामे सपत्नान् सर्वानपि शत्रून्। अत्र द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं चेति चकारत्रयेण पूर्वोक्ताजेयत्वशङ्कानूद्यते। तथाशब्देन कर्णोऽपि अन्यानपि योधवीरानित्यत्रापिशब्देन तस्मात् कुतोपि स्वस्य पराजयं वधनिमित्तं पापं च माशङ्किष्ठा इत्यभिप्रायः।कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हौ इत्यत्रेवात्रापि समुदायान्वयानन्तरं प्रत्येकान्वयो द्रष्टव्यः।
।।11.34।। न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयः इत्यादिर्या शङ्का सापि न कार्येत्याह -- द्रोणं चोति। येभ्यस्त्वं शङ्कसे तान्द्रोणादीन्मयैव हतांस्त्वं जहि घातय। मा व्यथिष्ठाः शोकं मा कार्षीः। सपत्नान् शत्रूत्रणे युद्धे निश्चितं जेतासि जेष्यसि।
।।11.34।।अर्जुनस्यास्थानस्नेहकारुण्यधर्माधर्मभयमूलंकथं भीष्मम् [2।4] इत्यादिकं साक्षात्प्रतिवक्तिद्रोणं चेति।मा व्यथिष्ठाः इत्यत्र पूजाद्यर्हान् मन्वान इति वाक्यशेषाभिप्रायेणाहगुरूनिति।गुरून् बन्धून् भोगसक्तानिति। पदैर्धर्माधर्मभयबन्धुस्नेहकारुण्यानां हेतुप्रदर्शनम्। अत्र च धर्माधर्मभयादिव्यर्थताहेतुरित्याहतानुद्दिश्येति। धर्माधर्मभयादिकं तु पृष्ठतः करोमि द्रोणादयो हि तैस्तैर्हेतुभिर्दुर्जयाः शत्रवः युद्धसिद्धिश्च चञ्चलेति भीरुरस्मीति यदि ब्रवीषि? तर्हि मा भैषीरित्यभिप्रायेणमा व्यथिष्ठाःयुध्यस्व इत्यादिकमुच्यत इत्याहयतस्त इति।जेतासि इत्यत्र द्वितीयया तृजन्तायोगात्तृनश्च भविष्यदर्थत्वासिद्धेर्लुडन्ततयैकपद्यम् तत्रानद्यतनविवक्षापि नास्तीत्यभिप्रायेणाहजेष्यसीति। शङ्कितानिष्टनिवृत्ताविष्टप्राप्तौ च श्लोकतात्पर्यमित्याहनैतेषामिति। अर्जुनस्यापजयशङ्काभावात्मा व्यथिष्ठाः इत्यादिकमारम्भोक्तनृशंसत्वशङ्कापरिहारार्थमिति भावः। अनुकूलेषु ह्यानृशंस्यमित्यभिप्रायेण सपत्नशब्द इति चाभिप्रेतम्।
।।11.34।।द्रोणो ब्राह्मणत्वाद्भगवता कथं वध्यः तथा भीष्मो भक्तः? तथैव जयद्रथः शिवात्प्राप्तप्रसादः? कर्णः कुन्तीपुत्रः? एतेषाममारणे कथं जयो भवेत् अतस्तन्नाम्ना प्राह -- द्रोणं चेति। च पुनः। ब्राह्मणमपि द्रोणं? भीष्मं च भक्तमपि? जयद्रथं चकारेण प्राप्तवरमपि? कर्णं च कुन्तीपुत्रमपि तथाभूतानन्यानपि योधवीरान् युद्धविशारदान् मया हतांस्त्वं जहि मारय। स्वहतत्वोक्त्याइषुभिः कथं पूजार्हान् प्रति योत्स्यामि [2।4] इति यत् पूर्वमुक्तं स दोषोऽत्रानुकूल्यकरणेन निवारितः। यत एते मया हता अतो निश्शङ्कं युद्ध्यस्वः रणे सपत्नान् शत्रून् जेतासि जेष्यसि।
।।11.34।।मा व्यथिष्ठाः एते महान्तः कथं हन्तुं शक्या इत्याकुलीभावं मागा इत्यर्थः। जेतासि जेष्यसि सपत्नाञ्शत्रून्।
।।11.34।।येषु येषु योधेष्वर्जुनस्याशङ्का तांस्तान्वयपदिशति। द्रोणं च धनुर्वेदाचार्यं दिव्यास्त्रसंपन्न आत्मनश्च विशेषतो गुरुं? भीष्मं च स्वच्छन्द मृत्युं दिव्यास्त्रसंपन्नं परशुरामेणापि द्वन्द्वयुद्धेऽपराजितं? जयद्रथं च यस्य पिता तपश्चरति मम पुत्रस्य शिरो भूमौ यः पातयिष्यति तस्यापि शिरः पतिष्यतीति तं? कर्णं च कल्यया कुन्त्या संतुष्टाद्दुर्वाससो लब्धेन मन्त्रेणाहूतात्सूर्यादुत्पादितं इन्द्रदत्तया शक्त्या त्वमोघया दिव्यास्त्रैश्च संपन्नं? तथान्यानपि योधमुख्यान्भगदत्तादीन्मया कालरुपेण हतान् निमित्तमात्रेण त्वं जहि। अतो मा व्यथिष्ठास्तेभ्यो भयं मा कार्षीः। भयं त्यक्त्वा च युध्यस्व। यतः सपत्नान्? शत्रून्दुर्योधनादीन् रणे युद्धे निःसंशयं जेतासि।
11.34 द्रोणम् Drona? च and? भीष्मम् Bhishma? च and? जयद्रथम् Jayadratha? च and? कर्णम् Karna? तथा also? अन्यान् others? अपि also? योधवीरान् brave warriors? मया by Me? हतान् slain? त्वम् thou? जहि do kill? मा not? व्यथिष्ठाः be distressed with fear? युध्यस्व fight? जेतासि shall coner? रणे in the battle? सपत्नान् the enemies.Commentary Already slain by Me Therefore? O Arjuna? you need not be afraid of incurring sin by killing them.Drona had celestial weapons. He was Arjunas teacher in the science of archery. He was Arjunas beloved and greatest Guru. Bhishma also possessed celetial weapons. He could die only if and when he wanted to die. He once faught singlehanded with Lord Parasurama and was not defeated. So powerful was he.The father of Jayadratha performed penance with a resolve the head of the man who may cause the head of my son to fall on the ground? shall also fall. During the war? however? Arjunas arrow cuts the head and drops it on the lap of the father who? inadvertently? makes it fall on the ground he too dies at once. Karna? the son of the Sungod? had obtained an unerring missile from Indra.
11.34 Drona, Bhishma, Jayadratha, Karna and other brave warriors these are already slain by Me: do thou kill; be not distressed with fear; fight and thou shalt coner thy enemies in battle.
11.34 Drona and Bheeshma, Jayadratha and Karna, and other brave warriors - I have condemned them all. Destroy them; fight and fear not. Thy foes shall be crushed."
11.34 You destroy Drona and Bhisma, and Jayadratha and Karna as also the other heroic warriors who have been killed by Me. Do not be afraid. Fight! You shall coner the enemies in battle.
11.34 By saying, 'who have been killed by Me,' the Lord names Drona and those very warriors with regard to whom Arjuna had (his) doubts. Now then, uncertainty with regard to Drona and Bhisma is well-founded. Drona was the teacher of the science of archery, and was eipped with heavenly weapons; and particularly, he was his (Arjuna's) own teacher and most respected. Bhisma was destined to die at will, and possessed heavenly weapons. He fought a duel with Parasurama and remained unvanished. So also Jayadratha-whose father was performing an austerity with the idea that anyone who made his son's head fall on the ground would have even his own head fall. Since Karna also was eipped with an unerring spear given by Indra, and was a son of the Sun, born of a maiden (Kunti), therefore he is referred to by his own name itself. As a mere instrument, tvam, you; jahi, destory them; who have been hatan, killed; maya, by Me. Ma, do not; vyathisthah, be afraid of them. Yuddhyasva, fight. Jetasi, you shall coner; the sapatnan, enemies-Duryodhana and others; rane, in battle.
11.34. Slay Drona and Bhisma, and Jayadratha, and Karna as well as the other heroes of the world-all already slain by Me. Do not get distressed; fight; you shall vanish enemies in the battle.
11.33-34 Tasmat etc. Drona etc. The world is of the nature of perfect and imperfect knowledge and it is swallowed (11.completely controlled) by the power of the perfect, imperfect and mixed Consciousness. Hence, here an answer is given accordingly by the Bhagavat. This secret is a almost indicated in this chapter. Yet for the benefit of those persons who are capable of understanding only what has been clearly marked, let us (11.Ag.) assume the misfortune of taking the trouble of writing a few lines. What is declared by the Bhagavat - viz., 'As the foes have been slain [by Me], be a token cause and win glory', this is by way of answering to what Arjuna has said earlier viz., 'We do not know who, amongst both of us, is more powerful than the other etc. (11.II, 6)'.
11.34 Say Drona, Bhisma, Karna, etc., who have ben chosen for destruction by me alone, as they have transgressed the law of righteousness. Be not distressed, considering, 'How can I slay these teachers, relations and others who are attached to enjoyments?' Do not be thus distressed by thinking about the right and wrong of it, or out of love and compassion for them. These persons are guilty of unrighteousness by siding with the evil-minded Duryodhana. They have been chosen by Me alone for destruction. Therefore fight without doubt. You shall conqer your enemies in battle. In slaying them, there is not the slighest trace of cruelty. The purport is that victory is the sure result.
11.34 Slay Drona, Bhisma, Jayadratha, Karna as well as other mighty warriors, who have been doomed by Me. Do not feel distressed. Fight, You shall coner your rivals in the battle.
।।11.34।।द्रोण आदि जिनजिन शूरवीरोंसे अर्जुनको आशङ्का थी ( जिनके कारण पराजय होनेका डर था ) उनउनका नाम लेकर भगवान् कहते हैं कि तू मुझसे मारे हुओंको मार इत्यादि। उनमेंसे द्रोण और भीष्मसे भय होनेका कारण प्रसिद्ध ही है क्योंकि द्रोण तो धनुर्वेदके आचार्य दिव्य अस्त्रोंसे युक्त और विशेषरूपसे अपने सर्वोत्तम गुरु हैं तथा भीष्म सबसे बड़े स्वेच्छामृत्यु और दिव्य अस्त्रोंसे सम्पन्न हैं जो कि परशुरामजीके साथ द्वन्द्व युद्ध करनेपर भी उनसे पराजित नहीं हुए। वैसा ही जयद्रथ भी है जिसका पिता इस उद्देश्यसे तप कर रहा है कि जो कोई मेरे पुत्रका शिर भूमिपर गिरावेगा? उसका भी शिर गिर जायगा। कर्ण भी ( बड़ा शूरवीर है ) क्योंकि वह इन्द्रद्वारा दी हुई अमोघ शक्ितसे युक्त है और कन्यासे जन्मा हुआ सूर्यका पुत्र है? इसलिये उसके नामका भी निर्देश किया गया है। ( अभिप्राय यह कि द्रोण? भीष्म? जयद्रथ और कर्ण? तथा अन्यान्य शूरवीर योद्धा ) जो कि मेरेद्वारा मारे हुए,हैं? उनको तू निमित्तमात्रसे मार? उनसे भय मत कर। युद्ध कर? तू संग्राममें दुर्योधनादि शत्रुओंको जीतेगा।
।।11.34।। --,द्रोणं च? येषु येषु योधेषु अर्जुनस्य आशङ्का तांस्तान् व्यपदिशति भगवान्? मया हतानिति। तत्र द्रोणभीष्मयोः तावत् प्रसिद्धम् आशङ्काकारणम्। द्रोणस्तु धनुर्वेदाचार्यः दिव्यास्त्रसंपन्नः? आत्मनश्च विशेषतः गुरुः गरिष्ठः। भीष्मश्च स्वच्छन्दमृत्युः दिव्यास्त्रसंपन्नश्च परशुरामेण द्वन्द्वयुद्धम् अगमत्? न च पराजितः। तथा जयद्रथः? यस्य पिता तपः चरति मम पुत्रस्य शिरः भूमौ निपातयिष्यति यः? तस्यापि शिरः पतिष्यति इति। कर्णोऽपि वासवदत्तया शक्त्या त्वमोघया संपन्नः सूर्यपुत्रः कानीनः यतः? अतः तन्नाम्नैव निर्देशः। मया हतान् त्वं जहि निमित्तमात्रेण। मा व्यथिष्ठाः तेभ्यः भयं मा कार्षीः। युध्यस्व जेतासि दुर्योधनप्रभृतीन् रणे युद्धे सपत्नान् शत्रून्।।संजय उवाच --,
।।11.34।।यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः [2।6] इत्यस्य सन्देहेऽपि प्रवृत्तिर्युक्ता? पक्षद्वयेऽपि फललाभादितिहतो वा [2।37] इत्युत्तरमुक्तम्? इदानीं तव पराजयशङ्काऽपि नास्तीत्युच्यते -- द्रोणं चेति। तत्र द्रोणस्य धनुर्विद्याचार्यत्वेन? भीष्मस्य स्वच्छन्दमृत्युत्वेन चाशङ्काविषयत्वाद्युक्तं योधवीरसमुदायात् पृथक्कृत्य स्वशब्देन ग्रहणम्। जयद्रथस्य कर्णस्य च कुतः इत्यत आह -- योऽस्येति। अस्य जयद्रथस्य। तच्छिरस्तस्य पातयितुः शिरः। भेत्स्यति भेत्स्यते। तत्पितुर्जयद्रथपितुः। शक्तिरस्ति कर्णस्येति शेषः। कर्णो विशेषेणोक्त इति वर्तते।
।।11.34।।योऽस्य शिरश्छिन्नं भूमौ पातयति तच्छिरो भेत्स्यतीति तत्पितुर्वराज्जयद्रथोऽपि विशेषेणोक्तः।प्रवरा वासवी शक्तिः इति कर्णः।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथाऽन्यानपि योधवीरान्। मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।11.34।।
দ্রোণং চ ভীষ্মং চ জযদ্রথং চ কর্ণং তথান্যানপি যোধবীরান্৷ মযা হতাংস্ত্বং জহি মা ব্যথিষ্ঠা যুধ্যস্ব জেতাসি রণে সপত্নান্৷৷11.34৷৷
দ্রোণং চ ভীষ্মং চ জযদ্রথং চ কর্ণং তথান্যানপি যোধবীরান্৷ মযা হতাংস্ত্বং জহি মা ব্যথিষ্ঠা যুধ্যস্ব জেতাসি রণে সপত্নান্৷৷11.34৷৷
દ્રોણં ચ ભીષ્મં ચ જયદ્રથં ચ કર્ણં તથાન્યાનપિ યોધવીરાન્। મયા હતાંસ્ત્વં જહિ મા વ્યથિષ્ઠા યુધ્યસ્વ જેતાસિ રણે સપત્નાન્।।11.34।।
ਦ੍ਰੋਣਂ ਚ ਭੀਸ਼੍ਮਂ ਚ ਜਯਦ੍ਰਥਂ ਚ ਕਰ੍ਣਂ ਤਥਾਨ੍ਯਾਨਪਿ ਯੋਧਵੀਰਾਨ੍। ਮਯਾ ਹਤਾਂਸ੍ਤ੍ਵਂ ਜਹਿ ਮਾ ਵ੍ਯਥਿਸ਼੍ਠਾ ਯੁਧ੍ਯਸ੍ਵ ਜੇਤਾਸਿ ਰਣੇ ਸਪਤ੍ਨਾਨ੍।।11.34।।
ದ್ರೋಣಂ ಚ ಭೀಷ್ಮಂ ಚ ಜಯದ್ರಥಂ ಚ ಕರ್ಣಂ ತಥಾನ್ಯಾನಪಿ ಯೋಧವೀರಾನ್. ಮಯಾ ಹತಾಂಸ್ತ್ವಂ ಜಹಿ ಮಾ ವ್ಯಥಿಷ್ಠಾ ಯುಧ್ಯಸ್ವ ಜೇತಾಸಿ ರಣೇ ಸಪತ್ನಾನ್৷৷11.34৷৷
ദ്രോണം ച ഭീഷ്മം ച ജയദ്രഥം ച കര്ണം തഥാന്യാനപി യോധവീരാന്. മയാ ഹതാംസ്ത്വം ജഹി മാ വ്യഥിഷ്ഠാ യുധ്യസ്വ ജേതാസി രണേ സപത്നാന്৷৷11.34৷৷
ଦ୍ରୋଣଂ ଚ ଭୀଷ୍ମଂ ଚ ଜଯଦ୍ରଥଂ ଚ କର୍ଣଂ ତଥାନ୍ଯାନପି ଯୋଧବୀରାନ୍| ମଯା ହତାଂସ୍ତ୍ବଂ ଜହି ମା ବ୍ଯଥିଷ୍ଠା ଯୁଧ୍ଯସ୍ବ ଜେତାସି ରଣେ ସପତ୍ନାନ୍||11.34||
drōṇaṅ ca bhīṣmaṅ ca jayadrathaṅ ca karṇaṅ tathā.nyānapi yōdhavīrān. mayā hatāṅstvaṅ jahi mā vyathiṣṭhā yudhyasva jētāsi raṇē sapatnān৷৷11.34৷৷
த்ரோணஂ ச பீஷ்மஂ ச ஜயத்ரதஂ ச கர்ணஂ ததாந்யாநபி யோதவீராந். மயா ஹதாஂஸ்த்வஂ ஜஹி மா வ்யதிஷ்டா யுத்யஸ்வ ஜேதாஸி ரணே ஸபத்நாந்৷৷11.34৷৷
ద్రోణం చ భీష్మం చ జయద్రథం చ కర్ణం తథాన్యానపి యోధవీరాన్. మయా హతాంస్త్వం జహి మా వ్యథిష్ఠా యుధ్యస్వ జేతాసి రణే సపత్నాన్৷৷11.34৷৷
11.35
11
35
।।11.35।। सञ्जय बोले -- भगवान् केशवका यह वचन सुनकर भयसे कम्पित हुए किरीटी अर्जुन हाथ जोड़कर नमस्कार करके और अत्यन्त भयभीत होकर फिर प्रणाम करके गद्गदं वाणीसे भगवान् कृष्णसे बोले।
।।11.35।। संजय ने कहा -- केशव भगवान् के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़े हुए, कांपता हुआ नमस्कार करके पुन: भयभीत हुआ श्रीकृष्ण के प्रति गद्गद् वाणी से बोला।।
।।11.35।। नाटककार के रूप में व्यासजी अपनी सहज स्वाभाविक कलाकुशलता से दृश्य को युद्धभूमि से शान्त और मौन राजप्रासाद में ले जाते हैं? जहाँ संजय अन्ध धृतराष्ट्र को युद्धभूमि का वृतान्त सुना रहा था। इसी अध्याय में तीन बार पाठक को कुरुक्षेत्र के भयोत्पादक वातावरण से दूर ले जाकर? व्यासजी न केवल इन दृश्यों की प्रभावी गति को बढ़ाते हैं? वरन् पाठकों के मन को आवश्यक विश्राम भी देते हैं? जो निरन्तर भयंकर सौन्दर्य के सूक्ष्म विषय में तनाव अनुभव करने लगता है।यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि गीता में संजय हमारा विशेष संवाददाता है जिसे पाण्डवों के न्यायपक्ष से पूर्ण सहानुभूति है। स्वाभाविक ही है कि जैसे ही वह भगवान् के शब्दों द्वारा भीष्म द्रोणादि के नाश का वृतान्त सुनाता है? वैसे ही वह उस अन्ध? वृद्ध व्यक्ति को आसन्न घोर विध्वंस के प्रति जागरूक कराना चाहता है। जैसा कि हम पहले भी देख चुके हैं कि केवल धृतराष्ट्र ही इस समय भी युद्ध को रोक सकता था? और संजय यह देखने को अत्यन्त उत्सुक है कि किसी प्रकार यह युद्ध रुक जाये। इस प्रकार? इस श्लोक में प्रयुक्त भाषा से ही संजय का मन्तव्य स्पष्ट हो जाता है।अकस्मात् यहाँ संजय अर्जुन को किरीटी अर्थात् मुकुटधारी कहता है। सम्भवत यह एक साहसपूर्ण भविष्यवाणी है? जिसके द्वारा संजय यह अपेक्षा करता है कि धृतराष्ट्र इस विनाशकारी युद्ध की निरर्थकता देखे। परन्तु एक अन्ध पुरुष कदापि देख नहीं सकता? और यदि उसकी बुद्धि पर भी मोह का आवरण पड़ा हो? तो देखने का प्रश्न ही नहीं उठता है।अत्यधिक पुत्रासक्ति के कारण यदि राजा धृतराष्ट्र की सद्बुद्धि को नहीं जगाया जा सकता है? तो संजय एक मनोवैज्ञानिक उपचार का प्रयोग करके देखना चाहता है। यदि इस बात का विस्तृत वर्णन किया जाये कि किसी दृश्य को देखकर सब लोग किस प्रकार भय से कांप रहे हैं? तो निश्चित ही सामान्यत साहसी पुरुषों के मन में भी आतंक फैल जाता है। यदि कृष्ण का घनिष्ठ मित्र अर्जुन भी भय़ से कांपता हुआ गद्गद् वाणी में भगवान् से कहता है? तो इस वर्णन से संजय यह अपेक्षा करता है कि कोई भी विवेकी पुरुष आसन्न युद्ध की भयानकता को तथा पराजित पक्ष के लोगों को प्राप्त होने वाले भयंकर परिणामों को भी पहचान सकेगा। परन्तु संजय के इन शब्दों का भी धृतराष्ट्र के मन पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा? जो अपने पुत्रों के प्रति मूढ़ प्रेम के अतिरिक्त अन्य सब के प्रति पूर्ण अन्ध हो गया था।अर्जुन विश्वरूप भगवान् को सम्बोधित करके कहता है।
।।11.35।। व्याख्या--'एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी'-- अर्जुन तो पहलेसे भयभीत थे ही, फिर भगवान्ने मैं काल हूँ, सबको खा जाऊँगा -- ऐसा कहकर मानो डरे हुएको और डरा दिया। तात्पर्य है कि 'कालोऽस्मि'--यहाँसे लेकर 'मया हतांस्त्वं जहि'--यहाँतक भगवान्ने नाश-ही-नाशकी बात बतायी। इसे सुनकर अर्जुन डरके मारे काँपने लगे और हाथ जोड़कर बार-बार नमस्कार करने लगे। अर्जुनने इन्द्रकी सहायताके लिये जब काल, खञ्ज आदि राक्षसोंको मारा था, तब इन्द्रने प्रसन्न होकर अर्जुनको सूर्यके समान प्रकाशवाला एक दिव्य 'किरीट' (मुकुट) दिया था। इसीसे अर्जुनका नाम किरीटी पड़ गया (टिप्पणी प0 598)। यहाँ 'किरीटी' कहनेका तात्पर्य है कि जिन्होंने बड़े-बड़े राक्षसोंको मारकर इन्द्रकी सहायता की थी,वे अर्जुन भी भगवान्के विराट्रूपको देखकर कम्पित हो रहे हैं।'नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं गद्गद भीतभीतः प्रणम्य'-- काल सबका भक्षण करता है किसीको भी छोड़ता नहीं। कारण कि यह भगवान्की संहारशक्ति है, जो हरदम संहार करती ही रहती है। इधर अर्जुनने जब भगवान्के अत्युग्र विराट्रूपको देखा तो उनको लगा कि भगवान् कालके भी काल-- महाकाल हैं। उनके सिवाय दूसरा कोई भी कालसे बचानेवाला नहीं है। इसलिये अर्जुन भयभीत होकर भगवान्को बारबार प्रणाम करते हैं।'भूयः' कहनेका तात्पर्य है; कि पहले पंद्रहवेंसे इकतीसवें श्लोकतक अर्जुनने भगवान्की स्तुति और नमस्कार किया, अब फिर भगवान्की स्तुति और नमस्कार करते हैं।हर्षसे भी वाणी गद्गद होती है और भयसे भी। यहाँ भयका विषय है। अगर अर्जुन बहुत ज्यादा भयभीत होते तो वे बोल ही न सकते। परन्तु अर्जुन गद्गद वाणीसे बोलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वे इतने भयभीत नहीं हैं।  सम्बन्ध--अब आगेके श्लोकसे अर्जुन भगवान्की स्तुति करना आरम्भ करते हैं।
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।।11.35।।संजय उवाच -- एतद् आश्रितवात्सल्यजलधेः केशवस्य वचनं श्रुत्वा अर्जुनः तस्मै नमस्कृत्य भीतभीतः अतिभीतः भूयः तं प्रणम्य कृताञ्जलिः वेपमानः किरीटी सगद्गदम् आह।
।।11.35।।पराजयभयात्करिष्यति सन्धिमिति बुद्ध्या संजयो राज्ञे वृत्तान्तमुक्तवानित्याह -- संजय इति। पूर्वोक्तवचनं कालोऽस्मीत्यादि। विश्वरूपदर्शनदशायामर्जुनस्य भगवता संवादवचनं किमिति संजयो राज्ञे व्यजिज्ञपदित्याशङ्क्य तदुक्तेस्तात्पर्यमाह -- अत्रेति। तमेवाभिप्रायं प्रश्नद्वारा विशदयति -- कथमित्यादिना। तर्हि संजयवचनं श्रुत्वा किमिति राजा संधिं न कारयामासेति तत्राह -- तदपीति।
।।11.35।।ततो यत् जातं तदवसन्नाय धृतराष्ट्राय सञ्जय उवाच -- एतदिति। श्रुत्वा अर्जुन उवाचेति।
।।11.35।।द्रोणभीष्मजयद्रथकर्णेषु जयाशाविषयेषु हतेषु निराश्रयो दुर्योधनो हत एवेत्यनुसंधाय जयाशां परित्यज्य यदि धृतराष्ट्रः संधिं कुर्यात्तदा शान्तिरुभयेषां भवेदित्यभिप्रायवान् ततः किं वृत्तमित्यपेक्षायां संजय,उवाच -- एतदिति। एतत्पूर्वोक्तं केशवस्य वचनं श्रुत्वा कृताञ्जलिः किरीटी इन्द्रदत्तकिरीटः परमवीरत्वेन प्रसिद्धः वेपमानः परमाश्चर्यदर्शनजनितेन संभ्रमेण कम्पमानोऽर्जुनः कृष्णं भक्ताघकर्षणं भगवन्तं नमस्कृत्य भूयः पुनरप्याह उक्तवान्। सगद्गदं भयेन हर्षेण चाश्रुपूर्णनेत्रत्वे सति कफरुद्धकण्ठतया यो वाचो मन्दत्वसकम्पत्वादिर्विकारः सगद्गदस्तद्युक्तं यथा स्यात्। भीतभीतः अतिशयेन भीतः सन् पूर्वं नमस्कृत्य पुनरपि प्रणम्यात्यन्तनम्रो भूत्वाहेति संबन्धः।
।।11.35।। ततो यद्वृत्तं तद्धृतराष्ट्रं प्रति संजय उवाच -- एतदिति। एतत्पूर्वश्लोकत्रयात्मकं केशवस्य वचनं श्रुत्वा वेपमानः कम्पमानः किरीट्यर्जुनः कृताञ्जलिः संपुटीकृतहस्तः कुष्णं नमस्कृत्य पुनरप्याह उक्तवान्। कथमाह भयहर्षाद्यावेशवशाद्गद्गदेन कण्ठकम्पनेन सह वर्तत इति सगद्गदं यथा भवति तथा। किंच भीतादपि भीतः सन्प्रणम्यावनतो भूत्वा।
।।11.35।।एतच्छ्रुत्वा इति श्लोके नमस्कारद्वयहेतुं विप्रकीर्णानां पदानामुचितान्वयप्रकारं च दर्शयति -- एतदाश्रितेति। वचनश्रवणमात्रादवशस्य प्रथमो नमस्कारः भीतभीतस्य वक्ष्यमाणवाक्यप्रारम्भार्थौ पुनः प्रणामाञ्जली? अपेक्षामात्रेण स्वविग्रहादिप्रकाशनवत्स्वाभिप्रायस्याविष्कारमपि वात्सल्येनैव कृतवानित्यभिप्रायेणाह -- आश्रितवात्सल्यजलधेरिति। ब्रह्मेशरक्षकत्वादिभिः केशवः आश्रितसंसारकर्षणादिभिः कृष्णः। भगवच्चरणारविन्दवन्दनेन किरीटजुष्टं शिरः कृतार्थतां गतमित्यभिप्रायेणात्र किरीटिपदप्रयोगः।भारः परं पट्टकिरीटजुष्टमप्युत्तमाङ्गं न नमेन्मुकुन्दम् इति हि महर्षिणोक्तम्। ,
।।11.35।।ततोऽर्जुनः किं कृतवान् इत्याकाङ्क्षायां सञ्जयो धृतराष्ट्रं प्रत्याह -- एतदिति। एतत् पूर्वोक्तं केशवस्य ब्रह्मशिवयोरपि मोक्षदातुः वचनं श्रुत्वा किरीटी अर्जुनः वेपमानः भगवता राजभोगे विनियुक्तस्तदयुक्तं मन्वानो मोक्षाभिलाषवत्त्वात् कम्पमानो जातः। ततो विज्ञापनार्थं कृताञ्जलिः भीतभीत इति भगवदाज्ञायां पुनर्विज्ञापने कदाचिदप्रसन्नो भवेदिति महाभीतः सन् प्रणम्य प्रकर्षेण मनसा नमस्कृत्य कृष्णं सदानन्दं सगद्गदं प्रेमोपरुद्धकण्ठं यथा तथा भूयः पुनः नमस्कृत्यैव अतीव दीनो भूत्वा आह विज्ञप्तिं कृतवानित्यर्थः।
।।11.35।।भगवतैवमुक्ते सति पश्चात्किंवृत्तमित्यपेक्षायां संजय उवाच। अत्र कृताञ्जलित्वादिना चिह्नेन भगवद्वाक्योल्लङ्घनं किरीटी न करिष्यतीति सूच्यते। सगद्गदं भयहर्षाद्यावेशेन गद्गदेन कण्ठकम्पनेन सह वर्तत इति सगद्गदं यथा भवति तथा आह उक्तवान्। भीतभीतोऽत्यन्तं भीतः सन्नाहेति संबन्धः। अत्राहेति पदच्छेदे पुनरर्जुन उवाचेति पुनरुक्तं स्यात्। अतः प्रणम्य अर्जुन उवाचेत्येव संबन्धो नतु प्रणम्य आहेति। का तर्हि आहेति क्रियाया गतिः। नेयं क्रिया किंतु अहेति प्रसिद्ध्यर्थमव्ययमित्यदोषः।
।।11.35।।भीष्मस्य पतनमुक्तमेव द्रोणादीनामपि ईश्वरेण निहतानां पतनं भविष्यत्येवेति श्रुत्वा द्रोणादिषु जयाशाविषयभूतेषु चतुर्षु अजेयेध्वपि अर्जुनेन निहतेषु दुर्योधनो निहत एवेति मत्वा धृतराष्ट्रः जयंप्रति निराशः सन् संधि करिष्यति ततः शान्तिरुभयेषां भविष्यतीत्याशयेन संजय उवाच -- एतदिति। एतत्पूर्वोक्तं केशवस्य वचनं श्रुत्वा वेपमानः कम्पमानः किरीटी अर्जुनः कृताञ्जलिः सन् नमस्कृत्वा भयाविष्टस्य दुःखेनाभिघातात्स्नेहा विष्टस्य हर्षोद्भवात् अश्रुपूर्णनेत्रत्वे सति श्लेष्मणा कण्ठावरोधात् गद्गदया मन्दया वाचा सह वर्तते इत सगद्गदं यथा स्यात्तथा भूय एव कृष्णमाह उक्तवान्। भीतभीतः पुनः पुनर्भयाविष्टचित्तः प्रणभ्य नम्रीभूयाहेति संबन्धः। यत्तु अत्राहेति पदच्छेदे पुनरर्जुन उवाचेति पुनरुक्तं स्यात् अतः प्रणम्यार्जुन उवाचेत्येव संबन्धः नतु प्रणम्याहेतु। का तर्हि आहेति क्रियायाः गतिः। नेयं क्रिया अहेति प्रसिद्य्धर्थमव्ययमित्यदोषः इत तत्प्रामादिकम्।ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः। प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत। अर्जुनउवाच इत्यादौ एवमेव शैलीदर्शनेन पुनरुक्त्यापादनस्य तत्समाधानस्य चाकिंचित्कत्वात्।
11.35 एतत् that? श्रुत्वा having heard? वचनम् speech? केशवस्य of Kesava? कृताञ्जलिः with joined palms? वेपमानः trembling? किरीटि Arjuna? नमस्कृत्वा prostrating (himself)? भूयः again? एव even? आह addressed? कृष्णम् to Krishna? सगद्गदम् in a choked voice? भीतभीतः overwhelmed with fear? प्रणम्य having prostrated.Commentary When anyone is in a state of extreme terror or joy he sheds tears on account of pain or exhilaration of spirits. Then his throat is choked and he stammers or speaks indistinctly or in a dull? choked voice. Arjuna was extremely frightened when he saw the Cosmic Form and so he spoke in a stammering tone.There is great significane in Sanjayas words. He thought that Dhritarashtra might come to terms or make peace with the Pandavas when he knew that his sons would certainly be killed for want of proper support when Drona and Karna would be killed by Arjuna. He hoped that conseently there would be peace and happiness to both the parties. But Dhritarashtra was obstinate he did not listen to this suggestion on account of the force of destiny.
11.35 Sanjaya said Having heard that speech of Lord Krishna, Arjuna, with joined palms, trembling, prostrating himself, again addressed Krishna, in a choked voice, bowing down, overwhelmed with fear.
11.35 Sanjaya continued: "Having heard these words from the Lord Shri Krishna, the Prince Arjuna, with folded hands trembling, prostrated himself and with choking voice, bowing down again and again, and overwhelmed with awe, once more addressed the Lord.
11.35 Sanjaya said Hearing this utterance of Kesava, Kiriti (Arjuna), with joined palms and trembling, protrating himself, said again to Krsna with a faltering voice, bowing down overcome by fits of fear:
11.35 Srutva, hearing; etat, this, aforesaid; vacanam, utterance; kesavasya, of Kesava; Kiriti, krtanjalih, with joined palms; and vepamanah, trembling; nama-skrtva, prostrating himself; aha, said; bhuyah eva, again; krsnam, to Krsna; sa-gadgadam, with a faltering voice-. A person's throat becomes choked with phlegm and his eyes full of tears when, on being struck with fear, he is overcome by sorrow, and when, on being overwhelmed with affection, he is filled with joy. The indistinctness and feleness of sound in speech that follows as a result is what is called faltering (gadgada). A speech that is accompanied with (saha) this is sa-gadgadam. It is used adverbially to the act of utterance. Pranamya, bowing down with humility; bhita-bhitah, overcome by fits of fear, with his mind struck again and again with fear-this is to be connected with the remote word aha (said). At this juncture the words of Sanjaya have a purpose in view. How? It is thus: Thinking that the helpless Duryodhana will be as good as dead when the four unconerable ones, viz Drona and others, are killed, Dhrtarastra, losing hope of victory, would conclude a treaty. From that will follow peace on either side. Under the influence of fate, Dhrtarastra did not even listen to that!
11.35. Sanjaya said On hearing this speach of Kesava, the crowned-prince (Arjuna) had his palms folded; and trembling he protstrated himself to Krsna; and stammering, and being very much afraid and bowing down, he spoke to Him again.
11.35 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.35 Sanjaya said Having heard the speech of Krsna, ocean of affection for the seekers of refuge in Him, Arjuna did obeisance to Him. Trembling with fear, he bowed again and again before Him. With folded palms, and trembling, Arjuna spoke in a choked voice with emotion.
11.35 Sanjaya said Having heard this speech of Krsna, Arjuna did Him obeisance; and trembling with awe, he bowed down again, and with folded palms, and trembling, he spoke to Krsna in a choked voice.
।।11.35।।संजय बोला -- केशवके इनउपर्युक्त वचनोंको सुनकर अर्जुन काँपता हुआ हाथ जोड़कर नमस्कार करके फिर श्रीकृष्णसे इस प्रकार गद्गद वाणीसे बोला। जब दुःख प्राप्त होनेके कारण भयभीत पुरुषके और हर्षोत्पत्तिके कारण स्नेहयुक्त पुरुषके नेत्र आँसुओंसे परिपूर्ण हो जाते हैं और कण्ठ कफसे रुक जाता है? उस समय जो वाणीमें अपटुता और शब्दमें मन्दता हो जाती है? उसका नाम गद्गद है? जो उससे युक्थ थे ऐसे सगद्गद वचन बोला। यहाँ सगद्गद शब्द बोलनारूप क्रियाका विशेषण है। इस प्रकार भयभीतभयसे बारंबार विह्वलचित्त हुआ प्रणाम करके अत्यन्त नम्र होकर बोला। यहाँपर संजयके वचन इस गूढ़ अभिप्रायसे भरे हुए हैं कि द्रोणादि चार अजेय शूरवीरोंका अर्जुनके द्वारा नाश हो जानेपर आश्रयरहित दुर्योधन तो मरा हुआ ही है? ऐसा मानकर विजयसे निराश हुआ धृतराष्ट्र सन्धि कर लेगा और उससे दोनों पक्षवालोंकी शान्ति हो जायगी। परंतु भावीके वशमें होकर धृतराष्ट्रने ऐसे वचन भी नहीं सुने।,
।।11.35।। --,एतत् श्रुत्वा वचनं केशवस्य पूर्वोक्तं कृताञ्जलिः सन् वेपमानः कम्पमानः किरीटी नमस्कृत्वा? भूयः पुनः एव आह उक्तवान् कृष्णं सगद्गदं भयाविष्टस्य दुःखाभिघातात् स्नेहाविष्टस्य च हर्षोद्भवात्? अश्रुपूर्णनेत्रत्वे सति श्लेष्मणा कण्ठावरोधः ततश्च वाचः अपाटवं मन्दशब्दत्वं यत् स गद्गदः तेन सह वर्तत इति सगद्गदं वचनम् आह इति वचनक्रियाविशेषणम् एतत्। भीतभीतः पुनः पुनः भयाविष्टचेताः सन् प्रणम्य प्रह्वः भूत्वा? आह इति व्यवहितेन संबन्धः।।अत्र अवसरे संजयवचनं साभिप्रायम्। कथम् द्रोणादिषु अर्जुनेन निहतेषु अजेयेषु चतुर्षु? निराश्रयः दुर्योधनः निहतः एव इति मत्वा धृतराष्ट्रः जयं प्रति निराशः सन् संधिं करिष्यति? ततः शान्तिः उभयेषां भविष्यति इति। तदपि न अश्रौषीत् धृतराष्ट्रः भवितव्यवशात्।।अर्जुन उवाच --,
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सञ्जय उवाच एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी। नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य।।11.35।।
সঞ্জয উবাচ এতচ্ছ্রুত্বা বচনং কেশবস্য কৃতাঞ্জলির্বেপমানঃ কিরীটী৷ নমস্কৃত্বা ভূয এবাহ কৃষ্ণং সগদ্গদং ভীতভীতঃ প্রণম্য৷৷11.35৷৷
সঞ্জয উবাচ এতচ্ছ্রুত্বা বচনং কেশবস্য কৃতাঞ্জলির্বেপমানঃ কিরীটী৷ নমস্কৃত্বা ভূয এবাহ কৃষ্ণং সগদ্গদং ভীতভীতঃ প্রণম্য৷৷11.35৷৷
સઞ્જય ઉવાચ એતચ્છ્રુત્વા વચનં કેશવસ્ય કૃતાઞ્જલિર્વેપમાનઃ કિરીટી। નમસ્કૃત્વા ભૂય એવાહ કૃષ્ણં સગદ્ગદં ભીતભીતઃ પ્રણમ્ય।।11.35।।
ਸਞ੍ਜਯ ਉਵਾਚ ਏਤਚ੍ਛ੍ਰੁਤ੍ਵਾ ਵਚਨਂ ਕੇਸ਼ਵਸ੍ਯ ਕਰਿਤਾਞ੍ਜਲਿਰ੍ਵੇਪਮਾਨ ਕਿਰੀਟੀ। ਨਮਸ੍ਕਰਿਤ੍ਵਾ ਭੂਯ ਏਵਾਹ ਕਰਿਸ਼੍ਣਂ ਸਗਦ੍ਗਦਂ ਭੀਤਭੀਤ ਪ੍ਰਣਮ੍ਯ।।11.35।।
ಸಞ್ಜಯ ಉವಾಚ ಏತಚ್ಛ್ರುತ್ವಾ ವಚನಂ ಕೇಶವಸ್ಯ ಕೃತಾಞ್ಜಲಿರ್ವೇಪಮಾನಃ ಕಿರೀಟೀ. ನಮಸ್ಕೃತ್ವಾ ಭೂಯ ಏವಾಹ ಕೃಷ್ಣಂ ಸಗದ್ಗದಂ ಭೀತಭೀತಃ ಪ್ರಣಮ್ಯ৷৷11.35৷৷
സഞ്ജയ ഉവാച ഏതച്ഛ്രുത്വാ വചനം കേശവസ്യ കൃതാഞ്ജലിര്വേപമാനഃ കിരീടീ. നമസ്കൃത്വാ ഭൂയ ഏവാഹ കൃഷ്ണം സഗദ്ഗദം ഭീതഭീതഃ പ്രണമ്യ৷৷11.35৷৷
ସଞ୍ଜଯ ଉବାଚ ଏତଚ୍ଛ୍ରୁତ୍ବା ବଚନଂ କେଶବସ୍ଯ କୃତାଞ୍ଜଲିର୍ବେପମାନଃ କିରୀଟୀ| ନମସ୍କୃତ୍ବା ଭୂଯ ଏବାହ କୃଷ୍ଣଂ ସଗଦ୍ଗଦଂ ଭୀତଭୀତଃ ପ୍ରଣମ୍ଯ||11.35||
sañjaya uvāca ētacchrutvā vacanaṅ kēśavasya kṛtāñjalirvēpamānaḥ kirīṭī. namaskṛtvā bhūya ēvāha kṛṣṇaṅ sagadgadaṅ bhītabhītaḥ praṇamya৷৷11.35৷৷
ஸஞ்ஜய உவாச ஏதச்ச்ருத்வா வசநஂ கேஷவஸ்ய கரிதாஞ்ஜலிர்வேபமாநஃ கிரீடீ. நமஸ்கரித்வா பூய ஏவாஹ கரிஷ்ணஂ ஸகத்கதஂ பீதபீதஃ ப்ரணம்ய৷৷11.35৷৷
సఞ్జయ ఉవాచ ఏతచ్ఛ్రుత్వా వచనం కేశవస్య కృతాఞ్జలిర్వేపమానః కిరీటీ. నమస్కృత్వా భూయ ఏవాహ కృష్ణం సగద్గదం భీతభీతః ప్రణమ్య৷৷11.35৷৷
11.36
11
36
।।11.36।। अर्जुन बोले -- हे अन्तर्यामी भगवन् ! आपके नाम, गुण, लीलाका कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग(-प्रेम-) को प्राप्त हो रहा है। आपके नाम, गुण आदिके कीर्तनसे भयभीत होकर राक्षसलोग दसों दिशाओंमें भागते हुए जा रहे हैं और सम्पूर्ण सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह सब होना उचित ही है।
।।11.36।। अर्जुन ने कहा -- यह योग्य ही है कि आपके कीर्तन से जगत् अति हर्षित होता है और अनुराग को भी प्राप्त होता है। भयभीत राक्षस लोग समस्त दिशाओं में भागते हैं और समस्त सिद्धगणों के समुदाय आपको नमस्कार करते हैं।।
।।11.36।। कविता के भावव्यंजय आकर्षण के द्वारा? एक बार पुन? हमें सम्पत्ति और वैभव से सम्पन्न सुखद राजप्रासाद से उठाकर युद्धभूमि के कोलाहल और आश्चर्यमय विराटरूप की ओर ले जाया जाता है। दृश्य यह है कि अर्जुन दोनों हाथ जोड़े हुए? भयकम्पित और विस्मय से अवरुद्ध कण्ठ से भगवान् की स्तुति कर रहा है। यह चित्र अर्जुन की मनस्थिति का स्पष्ट परिचायक है। ग्यारह श्लोकों के स्तुतिगान का यह खण्ड हिन्दू धर्म में उपलब्ध सर्वोत्तम प्रार्थनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। वस्तुत सामान्य लोगों को यह विदित है कि संकल्पना? सुन्दरता? लय और अर्थ की गम्भीरता की दृष्टि से इससे अधिक श्रेष्ठ किसी सार्वभौमिक प्रार्थना की कल्पना नहीं की जा सकती है।इस खण्ड में? हम देखते हैं कि अर्जुन की तत्त्वदर्शन की क्षमता शनैशनै इस विराट रूप के पीछे दिव्य अनन्त सत्य को पहचान रही है। जब कोई व्यक्ति दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देख रहा होता है? तब सामान्यत उसे दर्पण की सतह का भान भी नहीं होता है? परन्तु यदि वह ध्यान उस सतह पर केन्द्रित करे तो उसके लिए वह प्रतिबिम्ब प्राय लुप्तसा ही हो जाता है। यहाँ भी? अर्जुन जब तक उस विश्वरूप के प्रत्येक रूप को ही देखने में व्यस्त रहा? तब तक इस विशाल रूप के सारतत्त्व अनन्त स्वरूप को वह नहीं पहचान सका। अब इस खण्ड से यह स्पष्ट होता है कि अर्जुन ने विराट रूप के वास्तविक सत्य और अर्थ को पहचानना प्रारम्भ कर दिया था।
।।11.36।। व्याख्या--[संसारमें यह देखा जाता है कि जो व्यक्ति अत्यन्त भयभीत हो जाता है, उससे बोला नहीं जाता। अर्जुन भगवान्का अत्युग्र रूप देखकर अत्यन्त भयभीत हो गये थे। फिर उन्होंने इस (छत्तीसवें) श्लोकसे लेकर छियालीसवें श्लोकतक भगवान्की स्तुति कैसे की? इसका समाधान यह है कि यद्यपि अर्जुन भगवान्के अत्यन्त उग्र (भयानक) विश्वरूपको देखकर भयभीत हो रहे थे, तथापि वे भयभीत होनेके साथ-साथ हर्षित भी हो रहे थे, जैसा कि अर्जुनने आगे कहा है -- 'अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे' (11। 45)। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन इतने भयभीत नहीं हुए थे, जिससे कि वे भगवान्की स्तुति भी न कर सकें।]
।।11.36।।स्थाने इति। प्रकीर्त्यां (S प्रकीर्तिः प्रकीर्तनम्) ? प्रकीर्तनेन।
।।11.36।।अर्जुन उवाच -- स्थाने युक्तम्? यद् एतद् युद्धदिदृक्षया आगतम् अशेषं देवगन्धर्वसिद्धयक्षविद्याधरकिन्नरकिंपुरुषादिकं जगत् त्वत्प्रसादात् त्वां सर्वेश्वरम् अवलोक्य तव प्रकीर्त्या सर्वं प्रहृष्यति अनुरज्यते च। यत् च त्वाम् अवलोक्य रक्षांसि भीतानि सर्वा दिशः प्रद्रवन्ति सर्वे सिद्धसंघाः सिद्धाद्यनुकूलसंघाः नमस्यन्ति च तद् एतत् सर्वं युक्तम् इति पूर्वेण सम्बन्धः।युक्ततां एव उपपादयति --
।।11.36।।किं तदर्जुनो भगवन्तं प्रति सगद्गदं वचनमुक्तवानिति तदाह -- अर्जुन इति। विषयविशेषणत्वमेव व्यनक्ति -- युक्त इति। भगवतो हर्षादिविषयत्वं युक्तमित्यत्र हेतुमाह -- यत इति। तव प्रकीर्त्या हर्षवदनुरागं च गच्छति जगदित्याह -- तथेति। तच्चेत्यनुरागगमनम्। रक्षःसु जगदेकदेशभूतेषु प्रतिपक्षेषु कुतो जगतो भवति हर्षानुरागावित्याशङ्क्याह -- किञ्चेति। इतश्च जगतो भगवति हर्षादि युक्तमित्याह -- सर्व इति।
।।11.36।।स्थाने इत्येकादशभिः प्रार्थयन्नाह फाल्गुनः। षड्भिर्गुणैस्त्रिभिर्युक्तं भगवन्तं गुणातिगम्।।स्थाने इत्यत्र प्रकीर्त्या युतं प्रार्थयति।स्थाने इत्यव्ययम्। युक्तमित्यर्थः। जगत्सर्वमनुरज्यते प्रहृष्यति च तव प्रकीर्त्या। अहं त्वधुना बिभेमीति द्योतयति। अयं श्लोको रक्षोघ्नमन्त्रशास्त्रे प्रसिद्धः।
।।11.36।।अर्जुन उवाच एकादशभिः -- स्थाने इत्यादिना। स्थाने इत्यव्ययं युक्तमित्यर्थे। हे हृषीकेश सर्वेन्द्रियप्रवर्तक? यतस्त्वमेवमत्यन्ताद्भुतप्रभावो भक्तवत्सलश्च ततस्तव प्रकीर्त्या प्रकृष्टया कीर्त्या निरतिशयप्राशस्त्यस्य कीर्तनेन श्रवणेन च न केवलमहमेव प्रहृष्यामि किंतु सर्वमेव जगच्चेतनमात्रं रक्षोविरोधि प्रहृष्यति प्रकृष्टं हर्षमाप्नोति इति यत्तत् स्थाने युक्तमेवेत्यर्थः। तथा सर्वं जगदनुरज्यते च तद्विषयमनुरागमुपैतीति च यत्तदपि युक्तमेव। तथा रक्षांसि भीतानि। भयाविष्टानि सन्ति दिशो द्रवन्ति सर्वासु दिक्षु पलायन्त इति यत्तदपि युक्तमेव। तथा सर्वे सिद्धानां कपिलादीनां सङ्घा नमस्यन्ति चेति यत्तदपि युक्तमेव। सर्वत्र तव प्रकीर्त्येत्यस्यान्वयः स्थाने इत्यस्य च। अयं श्लोको रक्षोघ्नमन्त्रत्वेन मन्त्रशास्त्रे प्रसिद्धः।
।।11.36।। स्थान इत्येकादशभिरर्जुनस्योक्तिः। स्थान इत्यव्ययं युक्तमित्यस्मिन्नर्थे। हे हृषीकेश? यत एवं त्वमद्भुतप्रभावो भक्तवत्सलश्च अतस्तव प्रकीर्त्या माहात्म्यसंकीर्तनेन न केवलमहमेव प्रहृष्यामि किंतु जगत्सर्वं प्रहृष्यति प्रकर्षेण हर्षं प्राप्नोति एतत्तु स्थाने युक्तमित्यर्थः। तथा जगदनुरज्यतेऽनुरागं चोपैति इति यत्? तथा रक्षांसि भीतानि सन्ति? दिशःप्रति द्रवन्ति पलायन्त इति यत्? सर्वे योगतपोमन्त्रादिसिद्धानां सङ्घा नमस्यन्ति प्रणमन्तीति यत्? एतच्च स्थाने युक्तमेव। न चित्रमित्यर्थः।
।।11.36।।स्थाने हृषीकेष इति श्लोकः श्रीविष्णुपञ्जरादिषु विनियुक्तो मन्त्रः प्रसिद्धः।स्थाने इत्यस्य अधिकरणार्थताप्रतीतिव्युदासायाहयुक्तमिति। अत्र जगच्छब्दविवक्षितार्थं तस्य प्रकीर्तिमूलप्रहर्षनिदानं च व्यनक्तियदेतदिति।प्रहृष्यति इत्यनेन प्रियातिथिलाभादाविवाक्षिमनः प्रीतिर्विवक्षिता।अनुरज्यते इति तु पित्रादिषु पुत्रादेरिव स्नेह इत्यपुनरुक्तिः।त्वामवलोक्येत्यनेन रक्षसां भीतिहेतुप्रदर्शनम्।प्रकीर्त्या इत्यस्यानुषङ्गस्तु विरुद्धत्वादयुक्तः। अन्यकर्तृकप्रकीर्त्येति तु कल्पनागौरवम्। अवलोकनं तुवीक्षन्ते त्वा [11।22] इति देवासुरादीनां सर्वेषामुक्तमिति भावः। सिद्धशब्दोऽत्रानुकूलवर्गप्रदर्शनार्थ इत्यभिप्रायेणसिद्धाद्यनुकूलसङ्घा इत्युक्तम्।
।।11.36।।किमर्जुनो विज्ञापितवान् इत्याकाङ्क्षायामर्जुनवाक्यान्याह -- अर्जुन उवाचस्थाने इत्येकादशभिः। एकादशेन्द्रियैरपि शुद्धैर्विज्ञाप्यमित्येकादशभिर्विज्ञापयति। हे हृषीकेश यतस्त्वं सर्वेन्द्रियप्रेरकस्तस्मात् स्थाने स्थितौ तव प्रकीर्त्या तव गुणसङ्कीर्तनेन जगत् प्रहृष्यति हर्षमाप्नोति। च पुनः।अन्यत् कीर्तनश्रवणेन अनुरज्यते अनुरागयुक्तं भवति ननु बाधकेषु विद्यमानेषु कीर्तनं कर्तुं कथं शक्यं इत्याशङ्क्य कीर्तनेनैव बाधनाशो भवतीत्याह -- रक्षांसीति। तव कीर्तनेनैव भीतानि सन्ति रक्षांसि दिशः प्रति द्रवन्ति पलायन्ते। तथा सिद्धसङ्घाः सिद्धानां प्राप्तज्ञानानां समूहाः नमस्यन्ति प्रणमन्तीत्यर्थः।
।।11.36।।एकादशभिः श्लोकैरर्जुन उवाच -- स्थाने इति। हे हृषीकेश सर्वेन्द्रियप्रवर्तक अन्तर्यामिन्? तव प्रकीर्त्या नामसंकीर्तनेन जगत्प्रहृष्यति यत्तत् स्थाने युक्तम्। स्थाने इत्यव्ययं युक्तमित्यर्थे। यत्तव प्रकीर्त्या जगदनुरज्यते तदपि स्थाने युक्तम्। यत्तव प्रकीर्त्या रक्षांसि भीतानि सन्ति दिशो द्रवन्ति पलायन्ते तदपि स्थाने युक्तम्। यच्च त्वां सर्वे सिद्धसङ्घाः कपिलादीनां समुदायाः नमस्यन्ति तदपि स्थाने। अयं श्लोको रक्षोघ्नमन्त्रत्वेन मन्त्रशास्त्रे प्रसिद्धः। स च नारायणाष्टाक्षरसुदर्शनास्त्रमन्त्राभ्यां संपुटितो ज्ञेय इति रहस्यम्।
।।11.36।।हे हृषीकेश? तव माहात्म्यप्रकीर्तनेन यज्जगत् प्रहर्षं प्राप्नोत्यनुरागं चोपैति तत्स्थाने युक्तमित्यर्थः। यद्वा तव प्रकीर्त्या यज्जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च तत् स्थाने हर्षादिस्थितयोग्यविषये। यतस्त्वं हृषीकेशः सर्वेन्द्रियनियन्ता सर्वान्तर्यामी सर्वसुहृदिति सूचनार्थ संबोधनम्। किंच यद्रक्षांसि भयाविष्टानि दिशो द्रवन्ति पलाय गच्छन्ति यच्च सिद्धानां कपिलादीनां समुदायाः नमस्कुर्वन्ति तच्च स्थाने इति पूर्ववत्।
11.36 स्थाने it is meet? हृषीकेश O Krishna? तव Thy? प्रकीर्त्या by praise? जगत् the world? प्रहृष्यति is delighted? अनुरज्यते rejoices? च and? रक्षांसि the demons? भीतानि in fear? दिशः to all arters? द्रवन्ति fly? सर्वे all? नमस्यन्ति bow (to Thee)? च and? सिद्धसङ्घाः the hosts of the perfected ones.Commentary Praise description of the glory of the Lord. The Lord is the object worthy of adortion? love and delight? because He is the Self and friend of all beings.The Lord is the object of adoration? love and delight for the following reason also. He is the primal cause even of Brahma? the Creator of the universe.
11.36 Arjuna said It is meet, O Krishna, that the world delights and rejoices in Thy praise; demons fly in fear to all arters and the hosts of the perfected ones bow to Thee.
11.36 Arjuna said: My Lord! It is natural that the world revels and rejoices when it sings the praises of Thy glory; the demons fly in fear and the saints offer Thee their salutations.
11.36 Arjuna said It is proper, O Hrsikesa, that the world becomes delighted and attracted by Your praise; that the Raksasas, stricken with fear, run in all directions; and that all the groups of the Siddhas bow down (toYou).
11.36 Sthane, it is proper; -what is that?-that the jagat, world; prahrsyati, becomes delighted; tava prakirtya, by Your praise, by reciting Your greatness and hearing it. This is befitting. This is the idea. Or, the word sthane may be taken as alifying the word 'subject' (understood) : It is proper that the Lord is the subject of joy etc. since the Lord is the Self of all beings and the Friend of all. So also it (the world) anurajyate, becomes attracted, becomes drawn (by that praise). That also is with regard to a proper subject. This is how it is to be explained. Further, that the raksamsi, Raksasas; bhitani, stricken with fear; dravanti, run; disah, in all directions-that also is with regard to a proper subject. And that sarve, all; the siddha-sanghah, groups of the Siddhas-Kapila and others; namasyanti, bow down-that also is befitting. He points out the reason for the Lord's being the object of delight etc.:
11.36. Arjuna said O Lord of sense-organs (Krsna) ! It is appropriate that the universe rejoices and feels exceedingly delighted by the high glory of yours; that in fear the demons fly on all directions; and that the hosts of the perfected ones bow down [to You].
11.36 Sthane etc. By high glory : by highly singing the glory.
11.36 Arjuna said: 'Sthane' means rightly or it is but proper. It is but proper that the whole world of gods, Gandharvas, Siddhas, Yaksas, Kinnaras, Kimpurusas, etc., who have foregathered with a desire to see the battle, should be delighted with You and love You after beholding You by Your grace. You are the Lord of all. Rightly after beholding You, the Raksasas flee in fear on all sides, and rightly all the host of Siddhas, namely, the host of Siddhas who are favourable to You, pay their homage to You. The connection with what was said earlier is that all this is as it ought to be. He further proceeds to explain how all this is right:
11.36 Arjuna said Rightly it is, O Krsna, that Your praise should move the world to joy and love. The Raksasas flee in fear on all sides, and all the hosts of Siddhas bow down to You.
।।11.36।।अर्जुन बोला -- यह उचित ही है। वह क्या कि हे हृषीकेश आपकी कीर्तिसे अर्थात् आपकी महिमाका कीर्तन और श्रवण करनेसे जो जगत् हर्षित हो रहा है सो उचित ही है। अथवा स्थाने यह शब्द विषयका विशेषण भी समझा जा सकता है। भगवान् हर्ष आदिके विषय हैं? यह मानना भी ठीक ही है? क्योंकि ईश्वर सबका आत्मा और सब भूतोंका सुहृद् है। यहाँ ऐसी व्याख्या करनी चाहिये कि जगत् जो भगवान्में अनुराग -- प्रेम करता है? यह उसका अनुराग करना उचित विषयमें ही है तथा राक्षसगण भयसे युक्त हुए सब दिशाओंमें भाग रहे हैं? यह भी ठीकठिकानेकी ही बात है। एवं समस्त कपिलादि सिद्धोंके समुदाय जो नमस्कार कर रहे हैं? यह भी उचित विषयमें ही है।
।।11.36।। --,स्थाने युक्तम्। किं तत् तव प्रकीर्त्या त्वन्माहात्म्यकीर्तनेन श्रुतेन? हे हृषीकेश? यत् जगत् प्रहृष्यति प्रहर्षम् उपैति? तत् स्थाने युक्तम्? इत्यर्थः। अथवा विषयविशेषणं स्थाने इति। युक्तः हर्षादिविषयः भगवान्? यतः ईश्वरः सर्वात्मा सर्वभूतसुहृच्च इति। तथा अनुरज्यते अनुरागं च उपैति तच्च विषये इति व्याख्येयम्। किञ्च? रक्षांसि भीतानि भयाविष्टानि दिशः द्रवन्ति गच्छन्ति तच्च,स्थाने विषये। सर्वे नमस्यन्ति नमस्कुर्वन्ति च सिद्धसंघाः सिद्धानां समुदायाः कपिलादीनाम्? तच्च स्थाने।।भगवतो हर्षादिविषयत्वे हेतुं दर्शयति --,
।।11.36।।स्थाने इत्येतत्युक्तं इत्यर्थेऽव्ययं चास्ति? अस्ति च सप्तम्यन्तं पदं? तत्किमत्राभिप्रेतं कथं चास्यान्वयः इत्यत आह -- यदिति। स्थाने विषये एवेति वा? बहुमानस्थाने त्वयीति वा योजनायां साध्याहारत्वमिति भावः। हृषीकेशशब्दस्य प्रकृतोपयुक्तमपूर्वमर्थमाह -- अग्नीति। अत्राद्येनादिशब्देन सूर्यो गृह्यते? द्वितीयेन बोधनस्थापने अग्न्याद्यंशुभिः स्वकेशैरिति शेषः। जगद्धर्षणादेरिति बोधनस्थापनाभ्यां जगद्धर्षणादित्यर्थः। सूर्याद्यंशूनां कथं भगवत्केशत्वं इत्यत आह -- केशत्वं त्विति। तन्नियतत्वतज्जन्यत्वादिना तादात्म्योक्तिरित्यत्र किं प्रमाणं इत्यत आह -- प्रमाणं त्विति। इत्यत्रैतद्व्याख्यानावसरे। अनेन वक्ष्यमाणं वाक्यं विवृतं भवति। तथा चाग्न्याद्रिषु स्थित्वा स्वकेशनियतैस्तदंशुभिर्जगतो बोधनस्थापनाभ्यां हर्षणादित्युक्तं भवति। हृष्यतेः कीप्रत्ययः। हृष्यो हर्षहेतवः केशा अस्येति हृषीकेशः। नानेन प्रसिद्धोऽर्थस्त्यज्यत इति भावेन तमप्याह -- हृषीकाणामिति। ननु जगदीशस्य विशेषत इन्द्रियेशत्वं कथं इत्यत आह -- तेषामिति। पुरुषार्थोपयुक्तज्ञानक्रियाशक्तिप्रेरकत्वेनेति भावः। हृषीकशब्दस्येन्द्रियवाचित्वं कुतः इत्यत आह -- नेति। पूर्वेण समुचितस्यास्य व्याख्यानसमर्थनहेतुत्वाच्चशब्दः। आद्येऽर्थे प्रमाणमाह -- इतरोऽर्थ इति। अग्निश्च। जगद्बोधयन्तः स्थापयन्तश्च पृथक् स्वावसरे उत्पद्यन्ते उदयं गच्छन्ति सूर्यकृतैश्च। अत्रापि पूर्ववद्बोधनादेर्हेतुहेतुमद्भावो ज्ञातव्यः। ईशानत्वादावप्युक्तो हेतुः।
।।11.36।।यदेतद्वक्ष्यमाणं तत्स्थाने युक्तमेवेत्यर्थः। अग्नीषोमाद्यन्तर्यामितया जगद्धर्षणादेर्हृषीकेशः? केशत्वं त्वंशूनां तन्नियतत्वादेः? प्रमाणं तुशशिसूर्यनेत्रं [11।19] इत्यत्रोक्तम्? हृषीकाणामिन्द्रियाणामीशत्वाच्च हृषीकेशः? तेषां विशेषतः ईशत्वं च यः प्राणे तिष्ठन् [बृ.उ.3।7।16] इत्यादौ प्रसिद्धम्।न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे इत्यादिप्रयोगाच्च। इतरोऽर्थो मोक्षधर्मे सिद्धःसूर्याचन्द्रमसौ शश्वत्केशैर्मे अंशुसंज्ञितैः। बोधयन् स्थापयंश्चैव जगदुत्पद्यते पृथक्। बोधनात्स्थापनाच्चैव जगतो हर्षसम्भवात्। अग्नीषोमकृतैरेभिः कर्मभिः पाण्डुनन्दन। हृषीकेशो महेशानो वरदो लोकभावनः इति च।
अर्जुन उवाच स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च। रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।11.36।।
অর্জুন উবাচ স্থানে হৃষীকেশ তব প্রকীর্ত্যা জগত্ প্রহৃষ্যত্যনুরজ্যতে চ৷ রক্ষাংসি ভীতানি দিশো দ্রবন্তি সর্বে নমস্যন্তি চ সিদ্ধসঙ্ঘাঃ৷৷11.36৷৷
অর্জুন উবাচ স্থানে হৃষীকেশ তব প্রকীর্ত্যা জগত্ প্রহৃষ্যত্যনুরজ্যতে চ৷ রক্ষাংসি ভীতানি দিশো দ্রবন্তি সর্বে নমস্যন্তি চ সিদ্ধসঙ্ঘাঃ৷৷11.36৷৷
અર્જુન ઉવાચ સ્થાને હૃષીકેશ તવ પ્રકીર્ત્યા જગત્ પ્રહૃષ્યત્યનુરજ્યતે ચ। રક્ષાંસિ ભીતાનિ દિશો દ્રવન્તિ સર્વે નમસ્યન્તિ ચ સિદ્ધસઙ્ઘાઃ।।11.36।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਸ੍ਥਾਨੇ ਹਰਿਸ਼ੀਕੇਸ਼ ਤਵ ਪ੍ਰਕੀਰ੍ਤ੍ਯਾ ਜਗਤ੍ ਪ੍ਰਹਰਿਸ਼੍ਯਤ੍ਯਨੁਰਜ੍ਯਤੇ ਚ। ਰਕ੍ਸ਼ਾਂਸਿ ਭੀਤਾਨਿ ਦਿਸ਼ੋ ਦ੍ਰਵਨ੍ਤਿ ਸਰ੍ਵੇ ਨਮਸ੍ਯਨ੍ਤਿ ਚ ਸਿਦ੍ਧਸਙ੍ਘਾ।।11.36।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಸ್ಥಾನೇ ಹೃಷೀಕೇಶ ತವ ಪ್ರಕೀರ್ತ್ಯಾ ಜಗತ್ ಪ್ರಹೃಷ್ಯತ್ಯನುರಜ್ಯತೇ ಚ. ರಕ್ಷಾಂಸಿ ಭೀತಾನಿ ದಿಶೋ ದ್ರವನ್ತಿ ಸರ್ವೇ ನಮಸ್ಯನ್ತಿ ಚ ಸಿದ್ಧಸಙ್ಘಾಃ৷৷11.36৷৷
അര്ജുന ഉവാച സ്ഥാനേ ഹൃഷീകേശ തവ പ്രകീര്ത്യാ ജഗത് പ്രഹൃഷ്യത്യനുരജ്യതേ ച. രക്ഷാംസി ഭീതാനി ദിശോ ദ്രവന്തി സര്വേ നമസ്യന്തി ച സിദ്ധസങ്ഘാഃ৷৷11.36৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ସ୍ଥାନେ ହୃଷୀକେଶ ତବ ପ୍ରକୀର୍ତ୍ଯା ଜଗତ୍ ପ୍ରହୃଷ୍ଯତ୍ଯନୁରଜ୍ଯତେ ଚ| ରକ୍ଷାଂସି ଭୀତାନି ଦିଶୋ ଦ୍ରବନ୍ତି ସର୍ବେ ନମସ୍ଯନ୍ତି ଚ ସିଦ୍ଧସଙ୍ଘାଃ||11.36||
arjuna uvāca sthānē hṛṣīkēśa tava prakīrtyā jagat prahṛṣyatyanurajyatē ca. rakṣāṅsi bhītāni diśō dravanti sarvē namasyanti ca siddhasaṅghāḥ৷৷11.36৷৷
அர்ஜுந உவாச ஸ்தாநே ஹரிஷீகேஷ தவ ப்ரகீர்த்யா ஜகத் ப்ரஹரிஷ்யத்யநுரஜ்யதே ச. ரக்ஷாஂஸி பீதாநி திஷோ த்ரவந்தி ஸர்வே நமஸ்யந்தி ச ஸித்தஸங்காஃ৷৷11.36৷৷
అర్జున ఉవాచ స్థానే హృషీకేశ తవ ప్రకీర్త్యా జగత్ ప్రహృష్యత్యనురజ్యతే చ. రక్షాంసి భీతాని దిశో ద్రవన్తి సర్వే నమస్యన్తి చ సిద్ధసఙ్ఘాః৷৷11.36৷৷
11.37
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।।11.37।। हे महात्मन् ! गुरुओंके भी गुरु और ब्रह्माके भी आदिकर्ता आपके लिये (वे सिद्धगण) नमस्कार क्यों नहीं करें? क्योंकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप अक्षरस्वरूप हैं; आप सत् भी हैं, असत् भी हैं, और सत्-असत् से पर भी जो कुछ है, वह भी आप ही हैं।
।।11.37।। हे महात्मन् ! ब्रह्मा के भी आदि कर्ता और सबसे श्रेष्ठ आपके लिए वे कैसे नमस्कार नहीं करें? (क्योंकि) हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! जो सत् असत् और इन दोनों से परे अक्षरतत्त्व है, वह आप ही हैं।।
।।11.37।। वे सिद्ध संघ आपको नमस्कार कैसे नहीं करें क्योंकि आप तो सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के भी आदिकर्त्ता हैं। आदिकारण वह है जो सम्पूर्ण कार्यजगत् को व्याप्त करके समस्त नाम और रूपों को धारण करता है? जैसे घटों का कारण मिट्टी और आभूषणों का कारण स्वर्ण है। अनन्तस्वरूप परमात्मा न केवल यह विश्व है? बल्कि समस्त देवों का ईश्वर भी है? क्योंकि उसी सर्वशक्तिमान् परमात्मा से समस्त देवताओं को तथा प्राकृतिक शक्तियों को सार्मथ्य प्राप्त होती है।इस चराचर जगत् को दो भागों सत् और असत् में विभाजित किया जा सकता है। यहाँ सत् शब्द से अर्थ उन वस्तुओं से है? जो इन्द्रिय? मन और बुद्धि के द्वारा जानी जा सकती हैं? अर्थात् जो स्थूल और सूक्ष्म रूप में व्यक्त हैं। स्थूल विषय? भावनाएं और विचार व्यक्त (सत्) कहलाते हैं। इस व्यक्त का जो कारण है? उसे असत् अर्थात् अव्यक्त कहते हैं। व्यक्ति की जीवन पद्धति को नियन्त्रित करने वाला यह अव्यक्त कारण उस व्यक्ति के संस्कार या वासनाएं ही हैं। यहाँ परमात्मा की दी हुई परिभाषा के अनुसार वह सत् और असत् दोनों ही है। और वह इन दोनों से परे भी है।आप इनसे परे भी हैं नाट्यगृह के रंगमंच पर हो रहा नाटक सुखान्त अथवा दुखान्त हो सकता है? परन्तु उन्हें प्रकाशित करने वाला प्रकाश उन दोनों से ही परे होता है। अंगूठी और कण्ठी ये दोनों? निसन्देह स्वर्ण के बने हैं? किन्तु स्वर्ण की परिभाषा यह नहीं दी जा सकती है कि वह अंगूठी या कण्ठी है। वह ये दोनों आभूषण तो हैं ही? परन्तु इन दोनों से परे भी है। इस दृष्टि से? समस्त नामरूपों का सारतत्त्व होने से परमात्मा व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही है और अपने स्वरूप की दृष्टि से इन दोनों से परे अक्षर स्वरूप है। वह? अक्षरतत्त्व चैतन्य स्वरूप है? जो स्थूल और सूक्ष्म दोनों का ही प्रकाशक है। इसी अक्षर ने ही यह विराट्रूप धारण किया है? जिसकी स्तुति अर्जुन कर रहा है।प्रस्तुत खण्ड? विश्व के सभी धर्मों में उपलब्ध सार्वभौमिक प्रार्थनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। किसी भी धर्म या जाति के लोगों को इसके प्रति कोई आक्षेप नहीं हो सकता? क्योंकि सनातन सत्य के विषय में जो कुछ भी प्रतिपादित सिद्धांत है? उसका ही सार यह खण्ड है। यह भक्त के हृदय को प्राय अप्रमेय की सीमा तक ऊँचा उठा सकता है। भक्त उसे साक्षात् अनुभव कर सकता है। अर्जुन भगवान् की स्तुति करते हुए कहता है
।।11.37।। व्याख्या--'कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे'--आदिरूपसे प्रकट होनेवाले महान् स्वरूप आपको (पूर्वोक्त सिद्धगण) नमस्कार क्यों न करें? नमस्कार दोको किया जाता है -- (1) जिनसे मनुष्यको शिक्षा मिलती है, प्रकाश मिलता है; ऐसे आचार्य, गुरुजन आदिको नमस्कार किया जाता है और (2) जिनसे हमारा जन्म हुआ है, उन माता-पिताको तथा आयु, विद्या आदिमें अपनेसे बड़े पुरुषोंको नमस्कार किया जाता है। अर्जुन कहते हैं कि आप गुरुओंके भी गुरु हैं--'गरीयसे' (टिप्पणी प0 600.1) और आप सृष्टिकी रचना करनेवाले पितामह ब्रह्माजीको भी उत्पन्न करनेवाले हैं -- 'ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।' अतः सिद्ध महापुरुष आपको नमस्कार करें, यह उचित ही है।
।।11.37।।कस्मादिति। सत् पदार्थत्वेन। अशत् उपलम्भं प्रत्यविषयत्वात्। अथ वा अभावोऽपि धियि निजनिजविशिष्टवाचकसंश्लेषितो (?N -- वाचकवचसंश्लेषितो) ज्ञानाकारमश्नुवानो न (S? omit न) परब्रह्मसत्ताव्यतिरिक्तः। सदसद्रूपाभ्यां च परम्? तदुभयबुद्धितिरोधाने तद्रूपोपलब्धेः।
।।11.37।।महात्मन् ते तुभ्यं गरीयसे ब्रह्मणः हिरण्यगर्भस्य अपि आदिभूताय कर्त्रे? हिरण्यगर्भादयः कस्माद् हेतोः न नमस्कुर्युः? अनन्त देवेश जगन्निवास त्वम् एव अक्षरम् न क्षरति इति अक्षरम् जीवात्मतत्त्वम्न जायते म्रियते वा विपश्चित् (कठ0 1।2।18) इत्यादिश्रुतिसिद्धो जीवात्मा हि न क्षरति।सद् असत् च त्वम् एव? सदसच्छब्दनिर्दिष्टं कार्यकारणभावेन अवस्थितं प्रकृतितत्त्वम्? नामरूपविभागवत्तया कार्यावस्थं सच्छब्दनिर्दिष्टं तदनर्हतया कारणावस्थम् असच्छब्दनिर्दिष्टं च त्वम् एव? तत्परं यत् तस्मात् प्रकृतेः प्रकृतिसम्बन्धिनः च जीवात्मनः परम् अन्यत् मुक्तात्मतत्त्वं यत् तद् अपि त्वम् एव।अतः --
।।11.37।।उक्तेऽर्थे हेत्वर्थत्वेनोत्तरश्लोकमवतारयति -- भगवत इति। महात्मत्वमक्षुद्रचेतस्त्वम्। गुरुतरत्वान्नमस्कारादियोग्यत्वमाह -- गुरुतरायेति। तत्रैव हेत्वन्तरमाह -- यत इति। महात्मत्वादिहेतूनां मुक्तानां फलमाह -- अत इति। तत्रैव हेत्वन्तराणि सूचयति -- हे अनन्तेति। अनवच्छिन्नत्वं सर्वदेवनियन्तृत्वं सर्वजगदाश्रयत्वं च तव नमस्कारादियोग्यत्वे कारणमित्यर्थः। तत्रैव हेत्वन्तरमाह -- त्वमिति। तत्र मानमाह -- यदिति। कथमेकस्यैव सदसद्रूपत्वं तत्राह -- ते इति। कथं सतोऽसतश्चाक्षरं प्रत्युपाधित्वं तदाह -- यद्द्वारेणेति। तत्परं यदित्येतद्व्याचष्टे -- परमार्थतस्त्विति। अनन्तत्वादिना भगवतो नमस्कारादियोग्यत्वमुक्तम्।
।।11.37।।कस्माच्चेति। ऐश्वर्यं वैराग्यं वा ब्रह्मणः समष्टिपुरुषजीवस्यादिकर्तृत्वेनालिप्तत्वात्सदसत्परमक्षरं इति नित्यत्वेन क्षरणाभावान्निरतिशयैश्वर्यं सर्वविभिन्नधर्माश्रयं त्वमेव ब्रह्मेत्याह। परं कारणम्।
।।11.37।।भगवतो हर्षादिविषयत्वे हेतुमाह -- कस्मादिति। कस्माच्च हेतोस्ते तुभ्यं न नमेरन्न नमस्कुर्युः सिद्धसङ्घाः सर्वेऽपि। हे महात्मन्परमोदारचित्त? हे अनन्त सर्वपरिच्छेदशून्य? हे देवेश हिरण्यगर्भादीनामपि देवानां नियन्तः? हे जगन्निवास सर्वाश्रय तुभ्यं कीदृशाय। ब्रह्मणोऽपि गरीयसे गुरुतराय आदिकर्त्रे ब्रह्मणोऽपि जनकाय। नियन्तृत्वमुपदेष्टृत्वं जनकत्वमित्यादिरेकैकोऽपि हेतुर्नमस्कार्यताप्रयोजकः। किं पुनर्महात्मत्वानन्तत्वजगन्निवासत्वादिनानाकल्याणगुणसमुच्चित इत्यनाश्चर्यतासूचनार्थं नमस्कारस्य। कस्माच्चेति वाशब्दार्थश्चकारः। किंच सत् विधिमुखेन प्रतीयमानमस्तीति? असन्निषेधमुखेन प्रतीयमानं नास्तीति? अथवा सत् व्यक्तं असत् अव्यक्तं त्वमेव। तथा तत्परं ताभ्यां सदसद्भ्यां परं मूलकारणं यदक्षरं ब्रह्म तदपि त्वमेव। त्वद्भिन्नं किमपि नास्तीत्यर्थः। तत्परं यदित्यत्र यच्छब्दात्प्राक्चकारमपि केचित्पठन्ति। एतैर्हेतुभिस्त्वां सर्वे नमन्तीति न किमपि चित्रमित्यर्थः।
।।11.37।।तत्र हेतुमाह -- कस्मादिति। हे महात्मन्? हे अनन्त? हे देवेश? हे जगन्निवास। कस्माद्धेतोस्ते तुभ्यं न नमेरन्नमस्कारं न कुर्युः। कथंभूताय। ब्रह्मणोऽपि गरीयसे गुरुतराय आदिकर्त्रे च ब्रह्मणोऽपि जनकाय। किंच सत्। व्यक्तं असदव्यक्तं च ताभ्यां परं मूलकारणं यदक्षरं ब्रह्म तच्च त्वमेव। एतैर्नवभिर्हेतुभिस्त्वां सर्वे नमस्यन्तीति न चित्रमित्यर्थः।
।।11.37।।कस्मात् इत्यादिकं पूर्वेण सङ्गमयति -- युक्ततामिति।ते इत्यस्य प्रथमाबहुवचनत्वभ्रमव्युदासायतुभ्यमित्युक्तिः। प्रणतिकर्तारस्त्वर्थसिद्धा अनुक्ता एवेति भावः। ब्रह्मशब्दस्यानेकार्थेषु प्रयोगादिह सर्वप्रणन्तव्यत्वोपयोगाय हिरण्यगर्भपदेन व्याख्या।आदिकर्त्रे इति सविशेषणनिर्देशेन व्यवच्छेद्यभूतनूतनहिरण्यगर्भकर्तृसम्भावनाभ्रमव्युदासायआदिभूतायेति व्यस्योक्तम्। कर्तृशब्देन निमित्तत्वस्योक्तत्वात् आदिशब्द उपादानत्वपरः? र्स्वस्य कारणान्तरनिषेधार्थौ वा। नमश्शब्दयोगवन्नमनमात्रयोगेऽपि चतुर्थी विद्यत इति ज्ञापनायनमस्कुर्युरित्युक्तम्।पञ्चशिखाय तथेश्वरकृष्णायैते नमस्यामः इत्यादिवत्।।त्वमक्षरम्[ [11।18] इति प्रागप्युक्तत्वादत्र त्वमक्षरम् इति तदतिरिक्तार्थपरत्वमुचितम्तत्परम् इत्यस्य सामर्थ्याच्चात्राक्षरसदसच्छब्दानामवरतत्त्वविषयत्वं न्याय्यम् तत्र च भावाभावशब्दाभिलप्यविकारयोगितया सदसच्छब्दयोरचित्परत्वं निर्विकारतयाऽक्षरशब्दस्य जीवात्मविषयत्वं चोचितमित्यभिप्रायेणाह -- न क्षरतीति। जीवस्वरूपस्य निर्विकारत्वे श्रुतिं दर्शयति -- न जायत इति। कार्यकारणयोरसच्छब्देन व्यपदेशः असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत [तै.उ.2।7।1] इत्यादिश्रुतिसिद्ध इत्यभिप्रायेण कार्यकारणभावकथनम्। एकस्मिन्नेव द्रव्ये सद सच्छब्दप्रयोगनिदानमाहनामरूपेति।अक्षरं सदसत् इति निर्दिष्टोभयपरामर्शी तच्छब्दः। विशेषकाभावात्तिलतैलदारु वह्न्यादिवत् परस्परमिलिततदुभयापेक्षया परत्वं च मुक्तात्मनः प्रसिद्धमितिसदसत्तत्परं यत् इत्यनूद्यत इत्यभिप्रायेण -- मुक्तात्मतत्त्वमित्युक्तम्। प्रकृतिपुरुषशरीरकत्वं मुक्तात्मनस्तादधीन्यं च कारणत्वसाधकमित्याह -- अत इति। सर्वतत्त्वात्मकत्वादित्यर्थः। जगन्निवासशब्देन जगन्निवासो यस्येति विग्रहः। अतो निधानशब्देनात्राधारत्वमेवानुक्तं विवक्षितमिति प्रदर्शनायाधिकरणव्युत्पत्तिं दर्शयतिनिधीयते त्वयीति। तेनत्वमक्षरम् इत्यादिसामानाधिकरण्यकारणं विश्वशरीरित्वं विवक्षितमित्याहविश्वस्य शरीरभूतस्येति। एतेन निधानशब्दस्यात्राव्यक्तपरत्वं कैश्चिदुक्तं निरस्तम्।वेत्तासि इत्यादौ परमात्मनो वेदितृत्वादिमात्रविधानेऽतिशयाभावात् कारणावस्थद्रव्यान्तर्यामित्वस्य चोक्तत्वात्? कार्यावस्थज्ञातृज्ञेयान्तर्यामित्वमेवात्र विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहजगति सर्वो वेदिता वेद्यं चेति। धामशब्दस्यानेकार्थस्यापि स्थाने प्रसिद्धिप्रकर्षात्स एवार्थ उचितः। स्थानं च प्राप्यमिति प्रसिद्धम्। अतः परत्वेन विशेषितप्राप्यत्वमेवात्र विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह -- प्राप्यस्थानमिति। यद्वा परमप्राप्यमिति भगवदसाधारणं स्थानं विवक्षितं स्यात् तेनापि पूर्ववत्सामानाधिकरण्यव्यपदेशः। आमनन्ति च तदप्राकृतस्थानम् अरश्च ह वै ण्यश्चार्णवौ ब्रह्मलोके तृतीयस्यामितो दिवि। तदैरंमदीयं सरस्तदश्वत्थः सोमसवनस्तदपराजिता पूर्ब्रह्मणः प्रभुविमितं हिरण्मयं [छा.उ.8।5।3] इति? तथा सहस्रस्थूणे विमिते दृढ उग्रे यत्र देवानामधिदेव आस्ते इति। सामान्यतो विशेषतश्च प्रवृत्तयोः पूर्वोत्तरसामानाधिकरण्योर्मध्यस्थेनत्वया ततम् इत्यादिना शरीरात्मभाव एव निबन्धनमिति स्पष्टमुच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- त्वयात्मत्वेनेति।
।।11.37।।ननु सिद्धाः किमिति नमन्ति इत्यत आह -- कस्मादिति। हे महात्मन् महतामात्मस्वरूप यस्मांत्तषां भक्तानां स्वरूपं त्वमेवातस्ते तुभ्यं कस्मान्न नमेरन् न नमस्कुर्युः। कीदृशाय गरीयसे गुरवे। ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे जनकाय। किञ्च। हे अनन्तदेवेश अनन्तानां देवानामीश प्रभो हे जगन्निवास सकलाश्रय अक्षरं त्वमेव? सत् असच्च सर्वं त्वमेव? यत् परं पुरुषोत्तमाख्यं ब्रह्मतत्त्वम् अतो नमन्तीत्यर्थः।
।।11.37।।कुतो मां सिद्धसङ्घा नमस्यन्ति यतस्तेप्यहमिव ब्रह्माण्डशतानि स्रष्टुमर्हन्तीत्यत आह -- कस्मादिति। हे महात्मन् कस्माद्धेतोस्ते त्वां न नमेरन्नपितु नमेरन्नेव। तत्र हेतुः गरीयसे। तेऽपि गुरवस्त्वमपि गुरुस्तथापि त्वमतिशयितो गुरुरसीत्यर्थः। कुतो ममैवातिशयस्तेषां मम च समानेऽपि सत्यसंकल्पत्वादौ सत्यतश्चाह। ब्रह्मणो हिरण्यगर्भस्याप्यादिकर्त्रे पितामहाय पञ्चमहाभूतसृष्टिद्वारा ब्रह्माणं सृजत इत्यर्थः।जगद्व्यापारवर्जं प्रकरणादसन्निहितत्वाच्च इतिन्यायेन नित्यसिद्धेश्वरस्य तवाज्ञया ते सर्वेऽप्यैश्वर्यभाजो भवन्ति नतु त्वत्समास्ते। अतएव हे अनन्त हे देवानां ईश जगन्निवास जगतामालयभूत? त्वं अक्षरं शुद्धं ब्रह्म। कीदृशमक्षरम्। यत् सदसत्तत्परं सच्च असच्च सदसती ताभ्यां परं च सदसत्तत्परम् कार्यं कारणं तदुभयातीतं चेति त्रिविधमित्यर्थः।
।।11.37।।इदं भगवतो हर्षादिविषयत्वं युक्तमेवेत्याशयेनाह। कस्माच्च ते तुभ्यं न नमेरन् न नमस्कुर्युः। नमस्काराकरणे हेतुर्नास्तीत्यर्थः। नमस्करादिकरणे तु हेतुर्वर्तते इत्याशयेनाह। हे माहत्मन् परमात्मन्? महात्मत्वं लक्षयति। गहीयते गुरुतराय यतो ब्रह्मणो हिरण्यगर्भस्यादिकर्त्रे आदिकारणाय अभिन्ननिमित्तोपादानत्वद्योतनायादिपदं। भगवतो गुरुतरत्वं ब्रह्मण आदिकर्तुत्वं च प्रतिपादयन्नाह। हे अनन्त? यस्य देशकालवस्तुकृतः परिच्छेदो नास्ति तस्य तवैव गुरुतरत्वमुपपद्यत इत भावः।,हे देवेश देवानां ब्रह्मादिनामीश? जगन्निवास जगदधिष्ठान। तथाच सर्वनियन्ता सर्वाधिष्ठानं त्वमेवादिकर्तेत्याशयः। एवं तत्पदवाच्यं निरुप्य लक्ष्यं निरुपयति -- त्वमक्षरमिति। यद्वेदान्तप्रतिपाद्यं किं तत्। सदसत्। सद्यद्विद्यमानं विद्यत इत विधिमुखेन प्रतीयमानं व्यक्तं कार्यमिति यावत्। असच्च यन्नास्तीति बुद्धिः निषेधमुखेन प्रतीयमाना अव्यक्तविषया कारणबुद्धिरिति यावत्। सदसदुपाधिकत्वादक्षरत्वमपि सदसत्। तत्त्वतस्तु सदसद्यभां परं तत्वमेवातः ते कस्मान्न नमेरन्नित्यर्थः।
11.37 कस्मात् why? च and? ते they? न not? नमेरन् may prostrate? महात्मन् O greatsouled One? गरीयसे greater? ब्रह्मणः of Brahma? अपि also? आदिकर्त्रे the primal cause? अनन्त O Infinite Being? देवेश O Lord of the gods? जगन्निवास O Abode of the universe? त्वम् Thou? अक्षरम् Imperishable? सत् the Being? असत् nonbeing? तत् That? परम् the Supreme? यत् which.Commentary The Lord is Mahatma. He is greater than all else. He is the imperishable. So He is the proper object of worship? love and delight.That which exists in the three periods of time is Sat. Brahman is Sat. That which does not exist in the three periods of time is Asat. This world is Asat. This body is Asat.The words Sat and Asat mean here the manifested and the unmanifested which form the adjuncts of the Akshara (imperishable). In reality the Akshara transcends both these. The word Akshara is applied in the Gita sometimes to the Unmanifest (Nature) and sometimes to the Supreme Being.Ananta is He Who is free from the three kinds of limitations (of time? space and thing) which have already been explained.Arjuna again praises the Lord thus
11.37 And why should they not, O great Soul, bow to Thee Who art greater (than all else), the primal cause even of the Creator (Brahma), O Infinite Being, O Lord of the gods, O Abode of the universe; Thou art the imperishable, the Being, the non-being and That which is the supreme (that which is beyond the Being and the non-being).
11.37 How should they do otherwise? O Thou Supremest Self, greater than the Powers of creation, the First Cause, Infinite, the Lord of Lords, the Home of the universe, Imperishable, Being and Not-Being, yet transcending both.
11.37 And why should they not bow down to You, O exalted [i.e. not narrow-minded.] One, who are greater (than all) and who are the first Creator even of Brahma! O infinite One, supreme God, Abode of the Universe, You are the Immutable,being and non-being, (and) that which is Transcendental.
11.37 Ca, and; since You are the Primal Creator, the Cause, api, even; brahmanah, of Brahma, of Hiranyagarbha; therefore, kasmat, why, for what reason; should they na nameran, not bow down; te, to You; mahatman, O exalted One; gariyase, who are greater (than all)! Hence, why should these not bow down adi-karte, to the first Creator? Therefore You are fit for, i.e. the fit object of, delight etc. and salutation as well. Ananta, O infinite One; devesa, supreme God; jagannivasa, Abode of the Universe; tvam, You; are the aksaram, Immutable; tat param yat, that which is Transcendental, which is heard of in the Upanisads;-what is that?-sad-asat, being and nonbeing. Being is that which exists, and non-being is that with regard to which the idea of nonexistence arises. (You are) that Immutable of which these two-being and non-being-become the limiting adjuncts; which (Immutable), as a result, is metaphorically referred to as being and non-being. But in reality that Immutable is transcendental to being and non-being. 'That Immutable which the knowers of the Vedas declare' (8.11; cf. Ka. 1.2.15)-that is You Yourself, nothing else. This is the idea. He praises again:
11.37. O Mighty One ! Why should they not bow down to You, the Primal Creater, Who are greater than even Brahma (personal god) ? O Endless One, O Lord of gods, O Abode of the universe ! You are unalterable, existent, non-existent and also that which is beyond both.
11.37 Kasmat etc. Existent (11.Sat) : i.e. as a purport of words (11.or as material object). Non-existent (11.Asat) : Because, the Absolute does not become an object of perception. Or Asat signifies negation; [in fact] it is also well connected with the words which denote it directly, or indicate it indirectly by denoting what contains it; it also enjoys a form (11.becomes an object) of knowledge (11.of its own); and [hence] is has no separate existence other than the existence of the Absolute Brahman ? (11.It is) beyond both the existent and non-existent : For, It is realised when the knowledge of both of them disappears. (11.38)
11.37 O Mahatman, for what reason should Brahma and others not bow down to You, who are great and are the First Being and the Creator even of Brahma, namely, Hiranyagarbha? O Infinite, O Lord of the gods, O You who have the universe for Your abode! You are the 'Aksara'. What does not perish, is the Aksara, here, the 'principle of individual self'; for the individual self does not perish as established in Sruti passages: 'The intelligent self is not born, nor dies' (Ka. U., 1.2.18). You alone are the 'existent and the non-existent,' the principle of Prakrti, in its condition as effect and in its condition as cause. This is denoted by the terms 'Sat' (existent) and 'Asat' (non-existent). You alone are the state of effect denoted by the term 'Sat', which is the state of diversification by names and forms, and also the state of cause, denoted by the tetm 'Asat', which is the state incapable of such divisions and diversities. 'What is beyond both' - what is beyond Prakrti and the individual self associated with the Prakrti, as also from the principle of liberated selves who are different from those associated with Prakrti, i.e., bound souls. You alone are that also. Therefore:
11.37 (a) And why should they not, O Mahatman, bow down to You who are great, being the first Creator, even of Brahma? (b) O Infinite, Lord of gods, O You who have the universe for Your abode! You are the imperishable individual self, the existent and the non-existent, and that which is beyond both.
।।11.37।।भगवान् हर्षादि भावोंके योग्य स्थान किस प्रकार हैं इसमें कारण दिखाते हैं --, हे महात्मन् आप जो अतिशय गुरुतर हैं अर्थात् सबसे बड़े हैं? उनको ये सब किसलिये नमस्कार न करें क्योंकि आप हिरण्यगर्भके भी आदिकर्ता -- कारण हैं? अतः आप आदिकर्ताको कैसे नमस्कार न करें। अभिप्राय यह कि उपर्युक्त कारणसे आप हर्षादिके और नमस्कारके योग्य पात्र हैं। हे अनन्त हे देवेश हे जगन्निवास वह परम अक्षर ( ब्रह्म ) आप ही हैं? जो वेदान्तोंमें सुना जाता है। वह क्या है सत् और असत् -- जो विद्यमान है वह सत् और जिसमें नहीं है ऐसी बुद्धि होती है वह असत् है। वे दोनों सत् और असत् जिस अक्षरकी उपाधि हैं? जिनके कारण वह ब्रह्म उपचारसे सत् और असत् कहा जाता है परंतु वास्तवमें जो सत् और असत् दोनोंसे परे है? जिसको वेदवेत्ता लोग अक्षर कहते हैं वह ब्रह्म भी आप ही हैं। अभिप्राय यह कि आपसे अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है।,
।।11.37।। --,कस्माच्च हेतोः ते तुभ्यं न नमेरन् नमस्कुर्युः हे महात्मन्? गरीयसे गुरुतराय यतः ब्रह्मणः हिरण्यगर्भस्य अपि आदिकर्ता कारणम् अतः तस्मात् आदिकर्त्रे। कथम् एते न नमस्कुर्युः अतः हर्षादीनां नमस्कारस्य च स्थानं त्वं अर्हः विषयः इत्यर्थः। हे अनन्त देवेश हे जगन्निवास त्वम् अक्षरं तत् परम्? यत् वेदान्तेषु श्रूयते। किं तत् सदसत् इति। सत् विद्यमानम्? असत् च यत्र नास्ति इति बुद्धिः ते उपधानभूते सदसती यस्य अक्षरस्य? यद्द्वारेण सदसती इति उपचर्यते। परमार्थतस्तु सदसतोः परं तत् अक्षरं यत् अक्षरं वेदविदः वदन्ति। तत् त्वमेव? न अन्यत् इति अभिप्रायः।।पुनरपि स्तौति --,
।।11.37 -- 11.40।।सर्वे नमस्यन्ति [11।36] इत्येतद्युक्तमिति स्वयमेवोक्त्वाकस्माच्च ते न नमेरन् इति विरुद्धं कथं पृच्छति इत्यत आक्षेप एवायमिति ज्ञापयन् तन्निवर्त्याशङ्काप्रदर्शनपूर्वकमवतारयति -- कथमिति। इति शङ्कायामिति शेषः तत्तस्या उत्तरम्। महात्मन्नक्षुद्रचित्तेत्यल्पार्थप्रतीतिनिरासार्थमाह -- पूर्णश्चेति। आत्मा जीव इति प्रतीतिं वारयितुमाह -- आत्मेति। उक्तो निरुक्तः। यद्यस्मात्। आप्नोतेर्मन्। पकारस्य च तकारः। आङ्पूर्वाद्दाञः स एव प्रत्ययः आकारलोपस्तत्वम्। आङ्पूर्वाददो मन्। तत्वं च। इह देहे। सन्ततो भावो नित्या सत्ता। आङ्पूर्वात्तनोतेर्ङ्मन्। सदसद्भावात्मकं विश्वं त्वमेवेति सत्तादिप्रदत्वादेवोच्यते। नत्वन्यथा? तथा सति उत्तरवाक्यविरोधात्? इति भावेन तत्पठित्वा सप्रमाणकं व्याचष्टे -- तत्परमिति।
।।11.37 -- 11.40।।कथं स्थाने इति तदाह -- कस्मादित्यादिना। पूर्णश्चासावात्मा चेति महात्मा। आत्मशब्दश्चोक्तो भारते -- यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह। यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति भण्यते इति। तत्परं सदसतः परम्।असच्च सच्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम्। [म.भा.1।1।23] इति भारते।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे। अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्।।11.37।।
কস্মাচ্চ তে ন নমেরন্মহাত্মন্ গরীযসে ব্রহ্মণোপ্যাদিকর্ত্রে৷ অনন্ত দেবেশ জগন্নিবাস ত্বমক্ষরং সদসত্তত্পরং যত্৷৷11.37৷৷
কস্মাচ্চ তে ন নমেরন্মহাত্মন্ গরীযসে ব্রহ্মণোপ্যাদিকর্ত্রে৷ অনন্ত দেবেশ জগন্নিবাস ত্বমক্ষরং সদসত্তত্পরং যত্৷৷11.37৷৷
કસ્માચ્ચ તે ન નમેરન્મહાત્મન્ ગરીયસે બ્રહ્મણોપ્યાદિકર્ત્રે। અનન્ત દેવેશ જગન્નિવાસ ત્વમક્ષરં સદસત્તત્પરં યત્।।11.37।।
ਕਸ੍ਮਾਚ੍ਚ ਤੇ ਨ ਨਮੇਰਨ੍ਮਹਾਤ੍ਮਨ੍ ਗਰੀਯਸੇ ਬ੍ਰਹ੍ਮਣੋਪ੍ਯਾਦਿਕਰ੍ਤ੍ਰੇ। ਅਨਨ੍ਤ ਦੇਵੇਸ਼ ਜਗਨ੍ਨਿਵਾਸ ਤ੍ਵਮਕ੍ਸ਼ਰਂ ਸਦਸਤ੍ਤਤ੍ਪਰਂ ਯਤ੍।।11.37।।
ಕಸ್ಮಾಚ್ಚ ತೇ ನ ನಮೇರನ್ಮಹಾತ್ಮನ್ ಗರೀಯಸೇ ಬ್ರಹ್ಮಣೋಪ್ಯಾದಿಕರ್ತ್ರೇ. ಅನನ್ತ ದೇವೇಶ ಜಗನ್ನಿವಾಸ ತ್ವಮಕ್ಷರಂ ಸದಸತ್ತತ್ಪರಂ ಯತ್৷৷11.37৷৷
കസ്മാച്ച തേ ന നമേരന്മഹാത്മന് ഗരീയസേ ബ്രഹ്മണോപ്യാദികര്ത്രേ. അനന്ത ദേവേശ ജഗന്നിവാസ ത്വമക്ഷരം സദസത്തത്പരം യത്৷৷11.37৷৷
କସ୍ମାଚ୍ଚ ତେ ନ ନମେରନ୍ମହାତ୍ମନ୍ ଗରୀଯସେ ବ୍ରହ୍ମଣୋପ୍ଯାଦିକର୍ତ୍ରେ| ଅନନ୍ତ ଦେବେଶ ଜଗନ୍ନିବାସ ତ୍ବମକ୍ଷରଂ ସଦସତ୍ତତ୍ପରଂ ଯତ୍||11.37||
kasmācca tē na namēranmahātman garīyasē brahmaṇō.pyādikartrē. ananta dēvēśa jagannivāsa tvamakṣaraṅ sadasattatparaṅ yat৷৷11.37৷৷
கஸ்மாச்ச தே ந நமேரந்மஹாத்மந் கரீயஸே ப்ரஹ்மணோப்யாதிகர்த்ரே. அநந்த தேவேஷ ஜகந்நிவாஸ த்வமக்ஷரஂ ஸதஸத்தத்பரஂ யத்৷৷11.37৷৷
కస్మాచ్చ తే న నమేరన్మహాత్మన్ గరీయసే బ్రహ్మణోప్యాదికర్త్రే. అనన్త దేవేశ జగన్నివాస త్వమక్షరం సదసత్తత్పరం యత్৷৷11.37৷৷
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।।11.38।। आप ही आदिदेव और पुराणपुरुष हैं तथा आप ही इस संसारके परम आश्रय हैं। आप ही सबको जाननेवाले, जाननेयोग्य और परमधाम हैं। हे अनन्तरूप ! आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।
।।11.38।। आप आदिदेव और पुराण (सनातन) पुरुष हैं। आप इस जगत् के परम आश्रय, ज्ञाता, ज्ञेय, (जानने योग्य) और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप आपसे ही यह विश्व व्याप्त है।।
।।11.38।। आदिदेव आत्मा ही आदिकर्ता है। चैतन्यस्वरूप आत्मा से ही सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई है। समष्टि मन और बुद्धि से अविच्छिन्न (मर्यादित? सीमित) आत्मा ही ब्रह्माजी कहलाता है।विश्व के परम आश्रय सम्पूर्ण विश्व परमात्मा में निवास करता है? इसलिए उसे यहाँ विश्व का परम आश्रय कहा गया है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है? विश्व शब्द से केवल स्थूल जगत् ही नहीं समझना चाहिए? वरन् पूर्व श्लोक में वर्णित सत् और असत् (व्यक्त और अव्यक्त) का सम्मिलित रूप ही विश्व कहलाता है।विश्व शब्द को इस प्रकार समझ लेने पर वेदान्त के विद्यार्थियों को इस जीवन का सम्पूर्ण अर्थ समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। हम शरीर? मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के द्वारा जगत् का अनुभव करते हैं। ये स्वत जड़ होने के कारण उनमें अपना चैतन्य नहीं है। आत्म चैतन्य के सम्बन्ध से ही वे चेतनवत् व्यवहार करने में सक्षम होती हैं।वस्तुत? इन जड़ पदार्थों अथवा उपाधियों की उत्पत्ति आत्मा से नहीं हो सकती? क्योंकि आत्मा अविकारी है। हम यह भी नहीं कह सकते कि जड़ जगत् की उत्पत्ति किसी अन्य स्वतन्त्र कारण से हुई है? क्योंकि आत्मा ही सर्वव्यापी? एकमेव अद्वितीय सत्य है। इसलिए? वेदान्त में कहा गया है कि यह विश्व परम सत्य ब्रह्म पर अध्यस्त (अध्यारोपित) है? जैसे भ्रान्तिकाल में प्रेत स्तम्भ में अध्यस्त होता है। इस प्रकार की भ्रान्ति में? वह स्तम्भ ही प्रेत और उसकी गति का तथा उससे उत्पन्न हुई प्रतिक्रियायों का विधान कहलायेगा। वस्तुत? स्तम्भ के अतिरिक्त भूत का कोई अस्तित्व या सत्यत्व नहीं है। इसी प्रकार यहाँ अर्जुन परमात्मा का निर्देश अत्यन्त सुन्दर प्रकार से विश्व के विधान कहकर करता है।आप ज्ञाता और ज्ञेय हैं चैतन्य ही वह तत्त्व है? जो हमारे अनुभवों को सत्यत्व प्रदान करता है। चैतन्य से प्रकाशित हुए बिना इस जड़ जगत् का ज्ञान सम्भव नहीं होता? इसलिए यहाँ चैतन्यस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को ज्ञाता कहा गया है। आत्म साक्षात्कार हेतु उपदिष्ट सभी साधनाओं की प्रक्रिया यह है कि इन्द्रियादि के द्वारा विचलित होने वाला मन का ध्यान बाह्य विषयों से निवृत्त कर उसे आत्मस्वरूप में स्थिर किया जाय। जब यह मन वृत्तिशून्य हो जाता है? तब शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा का साक्षात् अनुभवगम्य बोध होता है। इसलिए आत्मा को यहाँ वेद्य अर्थात् जानने योग्य तत्त्व कहा गया है।सम्पूर्ण विश्व आपके द्वारा व्याप्त है जैसे समस्त मिष्ठानों में मधुरता व्याप्त है या तरंगों में जल व्याप्त है? वैसे ही विश्व में परमात्मा व्याप्त है। अभी कहा गया था कि अधिष्ठान के अतिरिक्त अध्यस्त वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं होता। आत्मा ही वह अधिष्ठान है? जिस पर यह नानाविश्व सृष्टि की प्रतीति हो रही है। इसलिए यहाँ उचित ही कहा गया है कि आपके द्वारा यह विश्व व्याप्त है। यह केवल उपनिषद् प्रतिपादित उस सत्य की ही पुनरुक्ति है कि अनन्त ब्रह्म सबको व्याप्त करता है? परन्तु उसे कोई व्याप्त नहीं कर सकता है।
।।11.38।। व्याख्या--'त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः'-- आप सम्पूर्ण देवताओंके आदिदेव हैं; क्योंकि सबसे पहले आप ही प्रकट होते हैं। आप पुराणपुरुष हैं; क्योंकि आप सदासे हैं और सदा ही रहनेवाले हैं।
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।।11.38।।त्वम् आदिदेवः पुरुषः पुराणः त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानम्? निधीयते त्वयि विश्वम् इति त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानम्? विश्वस्य शरीरभूतस्य आत्मतया परमाधारभूतः त्वम् एव इत्यर्थः।जगति सर्वो वेदिता वेद्यं च सर्वं त्वम् एव? एवं सर्वात्मतया अवस्थितः त्वम् एव परं च धाम स्थानं प्राप्यस्थानम् इत्यर्थः।त्वया ततं विश्वम् अनन्तरूप त्वया आत्मत्वेन विश्वं चिदचिन्मिश्रं जगत् ततं व्याप्तम्।अतस्त्वम् एव वाय्वादिशब्दवाच्य इति आह --
।।11.38।।संप्रति जगत्स्रष्टृत्वादिनापि तद्योग्यत्वमस्तीति स्तुतिद्वारा दर्शयति -- पुनरपीति। जगतः स्रष्टा पुरुषो हिरण्यगर्भ इति पक्षं प्रत्याह -- पुराण इति। स्रष्टृत्वं निमित्तमेवेति तटस्थेश्वरवादिनस्तान्प्रत्युक्तं -- त्वमेवेति। महाप्रलयादावित्यादिपदमवान्तरप्रलयार्थम्। ईश्वरस्योभयथा कारणत्वं सर्वज्ञत्वेन साधयति -- किञ्चेति। वेद्यवेदितृभावेनाद्वैतानुपपत्तिमाशङक्याह -- यच्चेति। मुक्त्यालम्बनस्य ब्रह्मणोऽर्थान्तरत्वमाशङ्कित्वोक्तं -- परं चेति। यत्परमं पदं तदपि च त्वमेवेति संबन्धः। तस्य पूर्णत्वमाह -- त्वयेति। व्याप्यव्यापकत्वेन भेदं शङ्कित्वा कल्पितत्वात्तस्य मैवमित्याह -- अनन्तेति।
।।11.38।।त्वमिति। ज्ञानं वेत्तासि वेद्यं चेति विरुद्धधर्माश्रयत्वमक्षरत्वं च पुनः स्फोटयति -- परं धामेति।तद्धाम परमं मम [8।2115।6] इत्यनेनैकार्थ्यमेति।त्वया ततं विश्वं इति व्याख्यानभूतंमया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना [9।4] इत्यादेः।
।।11.38।।भक्त्युद्रेकात्पुनरपि स्तौति -- त्वमिति। त्वमादिदेवो जगतः सर्गहेतुत्वात् पुरुषः पूरयिता पुराणोऽनादिः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानं लयस्थानत्वात् निधीयते सर्वमस्मिन्निति। एवं सृष्टिप्रलयस्थानत्वेनोपादानत्वमुक्त्वा सर्वज्ञत्वेन प्रधानं व्यावर्तयन्निमित्ततामाह -- वेत्तेति। वेत्ता वेदिता। सर्वस्यापि द्वैतापत्तिं वारयति। यच्च वेद्यं तदपि त्वमेवासि। वेदनरूपे वेदितरि परमार्थसंबन्धाभावेन सर्वस्य वेद्यस्य कल्पितत्वात् अतएव परं च धाम यत्सच्चिदानन्दघनमविद्यातत्कार्यनिर्मुक्तं विष्णोः परमं पदं तदपि त्वमेवासि। त्वया सद्रूपेण स्फुरणरूपेण च कारणेन ततं व्याप्तमिदं स्वतः सत्तास्फूर्तिशून्यं विश्वं कार्यं मायिकसंबन्धेनैव स्थितिकाले। हे अनन्तरूप अपरिच्छिन्नस्वरूप।
।।11.38।।किंच -- त्वमिति। त्वमादिदेवो देवानामादिः। यतः पुराणोऽनादिः पुरुषवस्त्वम्। अतएव त्वमस्य विश्वस्य परं निधानं लयस्थानम्? तथा विश्वस्य वेत्ता वेदिता ज्ञाता च त्वम्? यच्च वेद्यं वस्तुजातं परं च धाम वैष्णवं पदं तदपि त्वमेवासि। अतएव हे अनन्तरूप? त्वयैव विश्वमिदं ततं व्याप्तम्। एतैश्च सप्तभिर्हेतुभिस्त्वमेव नमस्कार्य इति भावः।
।। 11.38 कस्मात् इत्यादिकं पूर्वेण सङ्गमयति -- युक्ततामिति।ते इत्यस्य प्रथमाबहुवचनत्वभ्रमव्युदासायतुभ्यमित्युक्तिः। प्रणतिकर्तारस्त्वर्थसिद्धा अनुक्ता एवेति भावः। ब्रह्मशब्दस्यानेकार्थेषु प्रयोगादिह सर्वप्रणन्तव्यत्वोपयोगाय हिरण्यगर्भपदेन व्याख्या।आदिकर्त्रे इति सविशेषणनिर्देशेन व्यवच्छेद्यभूतनूतनहिरण्यगर्भकर्तृसम्भावनाभ्रमव्युदासायआदिभूतायेति व्यस्योक्तम्। कर्तृशब्देन निमित्तत्वस्योक्तत्वात् आदिशब्द उपादानत्वपरः? र्स्वस्य कारणान्तरनिषेधार्थौ वा। नमश्शब्दयोगवन्नमनमात्रयोगेऽपि चतुर्थी विद्यत इति ज्ञापनायनमस्कुर्युरित्युक्तम्।पञ्चशिखाय तथेश्वरकृष्णायैते नमस्यामः इत्यादिवत्।।त्वमक्षरम्[ [11।18] इति प्रागप्युक्तत्वादत्र त्वमक्षरम् इति तदतिरिक्तार्थपरत्वमुचितम्तत्परम् इत्यस्य सामर्थ्याच्चात्राक्षरसदसच्छब्दानामवरतत्त्वविषयत्वं न्याय्यम् तत्र च भावाभावशब्दाभिलप्यविकारयोगितया सदसच्छब्दयोरचित्परत्वं निर्विकारतयाऽक्षरशब्दस्य जीवात्मविषयत्वं चोचितमित्यभिप्रायेणाह -- न क्षरतीति। जीवस्वरूपस्य निर्विकारत्वे श्रुतिं दर्शयति -- न जायत इति। कार्यकारणयोरसच्छब्देन व्यपदेशः असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत [तै.उ.2।7।1] इत्यादिश्रुतिसिद्ध इत्यभिप्रायेण कार्यकारणभावकथनम्। एकस्मिन्नेव द्रव्ये सद सच्छब्दप्रयोगनिदानमाहनामरूपेति।अक्षरं सदसत् इति निर्दिष्टोभयपरामर्शी तच्छब्दः। विशेषकाभावात्तिलतैलदारु वह्न्यादिवत् परस्परमिलिततदुभयापेक्षया परत्वं च मुक्तात्मनः प्रसिद्धमितिसदसत्तत्परं यत् इत्यनूद्यत इत्यभिप्रायेण -- मुक्तात्मतत्त्वमित्युक्तम्। प्रकृतिपुरुषशरीरकत्वं मुक्तात्मनस्तादधीन्यं च कारणत्वसाधकमित्याह -- अत इति। सर्वतत्त्वात्मकत्वादित्यर्थः। जगन्निवासशब्देन जगन्निवासो यस्येति विग्रहः। अतो निधानशब्देनात्राधारत्वमेवानुक्तं विवक्षितमिति प्रदर्शनायाधिकरणव्युत्पत्तिं दर्शयतिनिधीयते त्वयीति। तेनत्वमक्षरम् इत्यादिसामानाधिकरण्यकारणं विश्वशरीरित्वं विवक्षितमित्याहविश्वस्य शरीरभूतस्येति। एतेन निधानशब्दस्यात्राव्यक्तपरत्वं कैश्चिदुक्तं निरस्तम्।वेत्तासि इत्यादौ परमात्मनो वेदितृत्वादिमात्रविधानेऽतिशयाभावात् कारणावस्थद्रव्यान्तर्यामित्वस्य चोक्तत्वात्? कार्यावस्थज्ञातृज्ञेयान्तर्यामित्वमेवात्र विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहजगति सर्वो वेदिता वेद्यं चेति। धामशब्दस्यानेकार्थस्यापि स्थाने प्रसिद्धिप्रकर्षात्स एवार्थ उचितः। स्थानं च प्राप्यमिति प्रसिद्धम्। अतः परत्वेन विशेषितप्राप्यत्वमेवात्र विवक्षितमित्यभिप्रायेणाह -- प्राप्यस्थानमिति। यद्वा परमप्राप्यमिति भगवदसाधारणं स्थानं विवक्षितं स्यात् तेनापि पूर्ववत्सामानाधिकरण्यव्यपदेशः। आमनन्ति च तदप्राकृतस्थानम् अरश्च ह वै ण्यश्चार्णवौ ब्रह्मलोके तृतीयस्यामितो दिवि। तदैरंमदीयं सरस्तदश्वत्थः सोमसवनस्तदपराजिता पूर्ब्रह्मणः प्रभुविमितं हिरण्मयं [छा.उ.8।5।3] इति? तथा सहस्रस्थूणे विमिते दृढ उग्रे यत्र देवानामधिदेव आस्ते इति। सामान्यतो विशेषतश्च प्रवृत्तयोः पूर्वोत्तरसामानाधिकरण्योर्मध्यस्थेनत्वया ततम् इत्यादिना शरीरात्मभाव एव निबन्धनमिति स्पष्टमुच्यत इत्यभिप्रायेणाह -- त्वयात्मत्वेनेति।
।।11.38।।किञ्च -- त्वमादिदेव इति। त्वं देवानामादिः तथा त्वं ब्रह्मणोऽप्यसीत्यत आह -- पुरुषः। तत् त्वमक्षरेऽपि वर्तस इत्यतः पुराणः पुरुषोत्तम इत्यर्थः। पुरुषोत्तमधर्मानेवाह -- त्वमस्य परिदृश्यमानस्य विश्वस्य परमुत्कृष्टं आधिदैविकरूपेण स्वस्मिन् स्थानं स्वरतीच्छारूपं निधानं लयस्थानं परं विश्वस्य क्रीडाप्रकटितस्वरूपज्ञानेन सर्वत्र रमणकर्ता त्वमसि विश्वस्य विश्वस्मिन् वा। वेद्यं ज्ञेयं त्वं च त्वमेवेत्यर्थः। च पुनः परं धाम वैकुण्ठाख्यं तेजोरूपं पुरुषोत्तमगृहात्मकं वा त्वम्। हे अनन्तरूप इदं विश्वं त्वया ततं व्याप्तं त्वद्रूपमेवेत्यर्थः।अनन्तरूपमिति।
।।11.38।।पुनरपि स्तौति -- त्वमिति। आदिदेवो जगतः स्रष्टृत्वात्। पुरुषः सर्वशरीरशायी। पुराणः शरीरनाशादिनाप्यविनश्यन्। विश्वस्यास्य त्वं परं निधानं निधीयतेऽस्मिन्निति लयस्थानम्। सांख्यानां जडां प्रकृतिं वारयति। वेत्ता ज्ञाता। वेद्यं तद्दृश्यं च त्वमेव। परं वेत्तृवेद्याभ्यामन्यत् धाम चैतन्यम्। त्वया विश्वं ततं व्याप्तं स्वसत्तास्फूर्तिभ्याम्। हे अनन्तरूप त्रिविधपरिच्छेदशून्यस्वरूप।
।।11.38।।पुनरपि स्तौति। त्वमादिदेवः ब्रह्मादिजनकत्वात्। भगवतस्ताटस्थ्यं वारयति। पुरि शयनात्पुरुष इति। पुरि विनाशान्नाशाशङ्कां वारयति। पुराणः चिरंतनः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानं महाप्रलयादौ सर्वं जगन्निधीयतेऽस्मिन्निति परं प्रकृष्टं निधानं लयस्थानमतो न कर्तृमात्रमपि तु प्रकृतिरपीति भावः। किंच वेत्तासि ज्ञातासि। सर्वस्यैव वेद्यंजातस्य भेदं वारयति। वेद्यं च यच्च ज्ञातुं योग्यं वस्तु तच्चासि। प्राप्यमपि परं त्वमेवेत्याह। परं च धाम परमं वैष्णवपदं मोक्षाख्यं सच मोक्षाख्यस्त्वं न क्वचिन्मेरुपृष्ठदौ तिष्ठसि किंतु त्वया परमधाम्ना ततं व्यापतं समस्तं विश्वं यतस्त्व रुपाणां कैवल्यादीनामन्तः परिच्छेदो न विद्यते इति हेऽनन्तरुप।
11.38 त्वम् Thou? आदिदेवः the primal God? पुरुषः Purusha? पुराणः the ancient? त्वम् Thou? अस्य of (this)? विश्वस्य of Universe? परम् the Supreme? निधानम् Refuge? वेत्ता Knower? असि (Thou) art? वेद्यम् to be known? च and? परम् the Supreme? च and? धाम abode? त्वया by Thee? ततम् is pervaded? विश्वम् the Universe? अनन्तरूप O Being of infinite forms.Commentary Primal God? because the Lord is the creator of the universe.Purusha? because the Lord lies in the body (Puri Sayanat).Nidhaanam That in which the world rests during the great deluge or cosmic dissolution.The pot comes out of the clay and gets merged in clay. Even so the world has come out of the Lord and gets dissolved or involved in the Lord. So the Lord is the material cause of the world. Therefore? He is the primal God and the supreme refuge also.Vetta Knower of the knowable things. As the Lord is omniscient? He knows all about the world? and He is the instrumental or the efficient cause of this world.Param Dhama Supreme Abode of Vishnu. Just as the rope (the substratum for the superimposed snake) pervades the snake? so also Brahman or Vishnu through His Nature as ExistenceKnowledgeBliss Absolute pervades the whole universe.Moreover --
11.38 Thou art the primal God, the ancient Purusha, the supreme refuge of this universe, the knower, the knowable and the supreme Abode. By Thee is the universe pervaded, O Being of infinite forms.
11.38 Thou art the Primal God, the Ancient, the Supreme Abode of this universe, the Knower, the Knowledge and the Final Home. Thou fillest everything. Thy form is infinite.
11.38 You are the primal Deity, the ancient Person; You are the supreme Resort of this world. You are the knower as also the object of knowledge, and the supreme Abode. O You of infinite forms, the Universe is pervaded by You!
11.38 You are the adi-devah, primal Deity, because of being the creator of the Universe; the puranah, ancient, eternal; purusah, Person-(derived) in the sense of 'staying in the town (pura) that is the body'. You verily are the param, suprem; nidhanam, Resort, in which this entire Universe comes to rest at the time of final dissolution etc. Besides, You are the vetta, knower of all things to be known. You are also the vedyam, object of knowledge-that which is fit to be known; and the param, supreme; dhama, Abode, the supreme State of Visnu. Anantarupa, O You of infinite forms, who have no limit to Your own forms; the entire visvam, Universe; tatam, is pervaded; tvaya, by You. Further,
11.38. You are the Primal God; You are the Ancient Soul; You are the transcending place of rest for this universe; You are the knower and the knowable; You are the Highest Abode; and the universe with its infinite forms is pervaded by You.
11.38 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.38 You alone are all the knowers and all that must be known. You alone, abiding thus as the Self of all, are the 'Dhaman' (abode), namely, the goal to be attained. By You, O infinite of form, is the universe pervaded. By You the universe, composed of conscient beings and non-conscient matter, is 'Tatam', pervaded. You are the Primal God, the Ancient Person. You are the supreme resting place of the universe. The meaning is that You are the supreme foundation of the universe which constitutes Your body, as You are its Self. [It is to be noted how Ramanuja derives here the meaning of 'individual self' for the word Aksara, which helps him to explain 'Kutasth'oksara ucchyate' in 15.16] Arjuna says: 'Therefore You alone are expressed by the terms Vayu etc.'
11.38 (a) You are the Primal God and the Ancient Person. You are the Supreme resting place of the universe৷৷. (b)৷৷.You are the knower and that which must be known, and the Supreme abode. By You, O infinite of form, is this universe pervaded.
।।11.38।।अर्जुन फिर भी स्तुति करता है --, आप जगत्के रचयिता होनेके कारण आदिदेव हैं और शरीररूप पुरमें रहनेके कारण सनातन पुरुष हैं तथा आप ही इस विश्वके परम उत्तम स्थान हैं अर्थात् महाप्रलयादिमें समस्त जगत् जिसमें स्थित होता है वह ( जगत्का आश्रय ) आप ही हैं। तथा समस्त जाननेयोग्य वस्तुओंके आप जाननेवाले हैं और जो जाननेयोग्य हैं वह भी आप ही हैं। आप ही परम धाम -- परम वैष्णवपद हैं। हे अनन्तरूप समस्त विश्व आपसे परिपूर्ण है -- व्याप्त है। आपके रूपोंका अन्त नहीं है।,
।।11.38।। --,त्वम् आदिदेवः? जगतः स्रष्ट्टत्वात्। पुरुषः? पुरि शयनात् पुराणः चिरंतनः त्वम् एव अस्य विश्वस्य परं प्रकृष्टं निधानं निधीयते अस्मिन् जगत् सर्वं महाप्रलयादौ इति। किञ्च? वेत्ता असि? वेदिता असि सर्वस्यैव वेद्यजातस्य। यत् च वेद्यं वेदनार्हं तच्च असि परं च धाम परमं पदं वैष्णवम्। त्वया ततं व्याप्तं विश्वं समस्तम्? हे अनन्तरूप अन्तो न विद्यते तव रूपाणाम्।।किञ्च --,
।।11.37 -- 11.40।।सर्वे नमस्यन्ति [11।36] इत्येतद्युक्तमिति स्वयमेवोक्त्वाकस्माच्च ते न नमेरन् इति विरुद्धं कथं पृच्छति इत्यत आक्षेप एवायमिति ज्ञापयन् तन्निवर्त्याशङ्काप्रदर्शनपूर्वकमवतारयति -- कथमिति। इति शङ्कायामिति शेषः तत्तस्या उत्तरम्। महात्मन्नक्षुद्रचित्तेत्यल्पार्थप्रतीतिनिरासार्थमाह -- पूर्णश्चेति। आत्मा जीव इति प्रतीतिं वारयितुमाह -- आत्मेति। उक्तो निरुक्तः। यद्यस्मात्। आप्नोतेर्मन्। पकारस्य च तकारः। आङ्पूर्वाद्दाञः स एव प्रत्ययः आकारलोपस्तत्वम्। आङ्पूर्वाददो मन्। तत्वं च। इह देहे। सन्ततो भावो नित्या सत्ता। आङ्पूर्वात्तनोतेर्ङ्मन्। सदसद्भावात्मकं विश्वं त्वमेवेति सत्तादिप्रदत्वादेवोच्यते। नत्वन्यथा? तथा सति उत्तरवाक्यविरोधात्? इति भावेन तत्पठित्वा सप्रमाणकं व्याचष्टे -- तत्परमिति।
।।11.37 -- 11.40।।कथं स्थाने इति तदाह -- कस्मादित्यादिना। पूर्णश्चासावात्मा चेति महात्मा। आत्मशब्दश्चोक्तो भारते -- यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह। यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति भण्यते इति। तत्परं सदसतः परम्।असच्च सच्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम्। [म.भा.1।1।23] इति भारते।
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप।।11.38।।
ত্বমাদিদেবঃ পুরুষঃ পুরাণ- স্ত্বমস্য বিশ্বস্য পরং নিধানম্৷ বেত্তাসি বেদ্যং চ পরং চ ধাম ত্বযা ততং বিশ্বমনন্তরূপ৷৷11.38৷৷
ত্বমাদিদেবঃ পুরুষঃ পুরাণ- স্ত্বমস্য বিশ্বস্য পরং নিধানম্৷ বেত্তাসি বেদ্যং চ পরং চ ধাম ত্বযা ততং বিশ্বমনন্তরূপ৷৷11.38৷৷
ત્વમાદિદેવઃ પુરુષઃ પુરાણ- સ્ત્વમસ્ય વિશ્વસ્ય પરં નિધાનમ્। વેત્તાસિ વેદ્યં ચ પરં ચ ધામ ત્વયા તતં વિશ્વમનન્તરૂપ।।11.38।।
ਤ੍ਵਮਾਦਿਦੇਵ ਪੁਰੁਸ਼ ਪੁਰਾਣ- ਸ੍ਤ੍ਵਮਸ੍ਯ ਵਿਸ਼੍ਵਸ੍ਯ ਪਰਂ ਨਿਧਾਨਮ੍। ਵੇਤ੍ਤਾਸਿ ਵੇਦ੍ਯਂ ਚ ਪਰਂ ਚ ਧਾਮ ਤ੍ਵਯਾ ਤਤਂ ਵਿਸ਼੍ਵਮਨਨ੍ਤਰੂਪ।।11.38।।
ತ್ವಮಾದಿದೇವಃ ಪುರುಷಃ ಪುರಾಣ- ಸ್ತ್ವಮಸ್ಯ ವಿಶ್ವಸ್ಯ ಪರಂ ನಿಧಾನಮ್. ವೇತ್ತಾಸಿ ವೇದ್ಯಂ ಚ ಪರಂ ಚ ಧಾಮ ತ್ವಯಾ ತತಂ ವಿಶ್ವಮನನ್ತರೂಪ৷৷11.38৷৷
ത്വമാദിദേവഃ പുരുഷഃ പുരാണ- സ്ത്വമസ്യ വിശ്വസ്യ പരം നിധാനമ്. വേത്താസി വേദ്യം ച പരം ച ധാമ ത്വയാ തതം വിശ്വമനന്തരൂപ৷৷11.38৷৷
ତ୍ବମାଦିଦେବଃ ପୁରୁଷଃ ପୁରାଣ- ସ୍ତ୍ବମସ୍ଯ ବିଶ୍ବସ୍ଯ ପରଂ ନିଧାନମ୍| ବେତ୍ତାସି ବେଦ୍ଯଂ ଚ ପରଂ ଚ ଧାମ ତ୍ବଯା ତତଂ ବିଶ୍ବମନନ୍ତରୂପ||11.38||
tvamādidēvaḥ puruṣaḥ purāṇa- stvamasya viśvasya paraṅ nidhānam. vēttāsi vēdyaṅ ca paraṅ ca dhāma tvayā tataṅ viśvamanantarūpa৷৷11.38৷৷
த்வமாதிதேவஃ புருஷஃ புராண- ஸ்த்வமஸ்ய விஷ்வஸ்ய பரஂ நிதாநம். வேத்தாஸி வேத்யஂ ச பரஂ ச தாம த்வயா ததஂ விஷ்வமநந்தரூப৷৷11.38৷৷
త్వమాదిదేవః పురుషః పురాణ- స్త్వమస్య విశ్వస్య పరం నిధానమ్. వేత్తాసి వేద్యం చ పరం చ ధామ త్వయా తతం విశ్వమనన్తరూప৷৷11.38৷৷
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।।11.39।। आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्माजीके भी पिता) हैं। आपको हजारों बार नमस्कार हो! नमस्कार हो ! ! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !
।।11.39।। आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजापति (ब्रह्मा) और प्रपितामह (ब्रह्मा के भी कारण) हैं; आपके लिए सहस्र बार नमस्कार, नमस्कार है, पुन: आपको बारम्बार नमस्कार, नमस्कार है।।
।।11.39।। अब तक अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के पर? अक्षर और निर्गुण स्वरूप का स्तुतिगान कर रहा था। एक उपासक के मन में यह प्रश्न आ सकता है कि इस सर्वातीत निर्गुण स्वरूप सत्य का उसके अपने इष्ट देवता (उपास्य) के साथ निश्चित रूप से क्या सम्बन्ध है। प्राचीनकाल में प्राय प्राकृतिक शक्तियों के अधिष्ठातृ देवताओं की श्रद्धापूर्वक आराधना? प्रार्थना और उपासना की जाती थी।वेदकालीन साधकगण अन्तकरण की शुद्धि तथा एकाग्रता के लिए जिन देवताओं की उपासना करते थे? उनमें प्रमुख वायु? यम? अग्नि? वरुण (जल का देवता)? शशांङ्क (चन्द्रमा) और सृष्टिकर्ता प्रजापति। इन देवताओं का आह्वान स्त्रोतगान? पूजा तथा यज्ञयागादि के द्वारा किया जाता था। उस काल के शिक्षित वर्ग के लोगों के मन को भी ईश्वर के यही रूप इष्ट थे। प्राय सर्वत्र? लोग साधन को ही साध्य (लक्ष्य) समझने की गलती करते हैं। परन्तु? यहाँ अर्जुन प्रामाणिक ज्ञान के आधार पर यह दर्शाता है कि वस्तुत अनन्त तत्त्व ही समस्त देवताओं का मूल स्वरूप है। तथापि उस अनन्त को अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में देखता है।वेदान्त का यह सिद्धांत है कि एक ही परमात्मा विविध उपाधियों के द्वारा व्यक्त होकर इन देवताओं के रूप में प्राप्त होता है। वर्तमान काल में भी भक्तगण अपने इष्ट देवता के रूप में परमेश्वर का आह्वान कर अपने इष्ट को ही देवाधिदेव कहते हैं। इस देवेश को ही अर्जुन प्रणाम करता है।
।।11.39।। व्याख्या--वायुः--जिससे सबको प्राण मिल रहे हैं, मात्र प्राणी जी रहे हैं, सबको सामर्थ्य मिल रही है, वह वायु आप ही हैं।
।।11.39।।नमो नम इति। नमोनम इत्यनेन पौनःपुन्यं भक्त्यतिशयाविष्कारकम्। यदेव भगवता अतिक्रान्ताध्यायैरभ्यधायि स्वस्वरूपम्? तदेव अर्जुनः प्रत्यक्षोपलम्भविषयापन्नं स्तोत्रद्वारेण प्रकटयति इति तद्व्याख्यानं केवलं पौनरुक्त्यप्रसङ्गायेति विरम्यते।
।।11.39।।सर्वेषां प्रपितामहः त्वम् एव? पितामहादयः च। सर्वासां प्रजानां पितरः प्रजापतयः प्रजापतीनां पिता हिरण्यगर्भः प्रजानां पितामहः? हिरण्यगर्भस्य अपि पिता त्वं प्रजानां प्रपितामहः पितामहादीनाम् आत्मतया तत्तच्छब्दवाच्यः त्वम् एव इत्यर्थः।अत्यद्भुताकारं भगवन्तं दृष्ट्वा हर्षोत्फुल्लनयनः अत्यन्तसाध्वसावनतः सर्वतो नमस्करोति --
।।11.39।।तस्य सर्वात्मत्वे हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। कश्यपादिरित्यादिशब्देन विराड्दक्षादयो गृह्यन्ते। पितामहो ब्रह्मा तस्य पिता सूत्रात्मान्तर्यामी चेत्याह -- ब्रह्मणोऽपीति। सर्वदेवतास्त्वमेवेत्युक्ते फलितमाह -- नम इति। सहस्रकृत्व इति कृत्वसुचो विवक्षितमर्थमाह -- बहुश इति। पुनरुक्तितात्पर्यमाह -- पुनश्चेति। श्रद्धाभक्त्योरतिशयात्कृतेऽपि नमस्कारे परितोषाभावो बुद्धेरात्मनोऽलंप्रत्ययराहित्यं तद्दर्शनार्थं पुनरुक्तिरित्यर्थः।
।।11.39।।वायुर्यम इति सर्वरूपत्वेऽप्येकस्याव्ययत्वमित्यैश्वर्यं वैराग्यं वा अतस्ते सहस्रकृत्वो नमो नम इति सभयं प्रणमति।
।।11.39।।वायुरिति। वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः। सूर्यादीनामप्युपलक्षणमेतत्। प्रजापतिर्विराट् हिरण्यगर्भश्च। प्रपितामहश्च पितामहस्य हिरण्यगर्भस्यापि पिता च त्वम्। यस्मादेवं सर्वदेवात्मकत्वात्त्वमेव सर्वैर्नमस्कार्योसि तस्मान्ममापि वराकस्य नमो नमस्ते तुभ्यमस्तु सहस्रकृत्वः। पुनश्च भूयोपि पुनरपि नमो नमस्ते। भक्तिश्रद्धातिशयेन नमस्कारेष्वलंप्रत्ययाभावोऽनया नमस्कारवृत्त्या सूच्यते।
।।11.39।।इतश्च त्वमेव सर्वैर्नमस्कार्यः सर्वदेवात्मकत्वादिति स्तुवन्स्वयमपि नमस्करोति -- वायुरिति। वाय्वादिरूपस्त्वमिति सर्वदेवतात्मकत्वोपलक्षणार्थमुक्तम्। प्रजापतिः पितामहस्तस्यापि जनकत्वात्प्रपितामहस्त्वम्। अतस्ते तुभ्यं सहस्रकृत्वः सहस्रशो नमोऽस्तु। भूयोपि पुनरपि सहस्रकृत्वो नमो नम इति भक्तिश्रद्धाभरातिरेकेण नमस्कारेषु तृप्तिमनधिगच्छन्बहुशः प्रणमति।
।।11.39।।इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वन्दन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः [ऋक्सं.2।3।22।6तै.ब्रा.3।7।9।3] तदेवाग्निस्तद्वायुस्तत्सूर्यस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रममृतं तद्ब्रह्म तदापः स प्रजापतिः [तै.ना.1।7] इत्यादिश्रुत्युपबृंहणाभिप्रायेणत्वया ततं विश्वम् [11।38] इति निर्दिष्टं शरीरात्भावंवायुर्यमोऽग्निः इत्यादिसामानाधिकरण्यहेतुत्वेनाहअतस्त्वमेवेति। सम्बन्धिविशेषानुपादानात्प्रपितामहत्वं सर्वप्रतिसम्बन्धिकमित्यभिप्रायेणाहसर्वेषां प्रपितामहस्त्वमेवेति। चशब्दः पितामहादिसमुच्चयार्थक इत्यभिप्रयन्नाहपितामहादयश्चेति। सर्वप्रपितामहस्य कस्यचिदभापेन तच्छरीरकत्वेन प्रपितामहत्वायोगादन्यथा तदाहसर्वासां प्रजानां पितर इत्यादिना। प्रजापतयः दक्षादयः। चशब्दसमुच्चितपितामहत्वं तु तच्छरीरकतयेत्याहपितामहादीनामात्मतयेति। नमो नमस्तेऽस्तु इत्यादिनोक्तनमने विश्वरूपप्रदर्शनप्रकटितपरत्वसौलभ्यानुभवजनितभयहर्षावेव हेतुरित्यभिप्रायेणाह -- अत्यद्भुताकारमिति।अनन्तस्य वीर्यमिव वीर्यं यस्येत्यन्यथाप्रतिपत्तिवारणायाहअपरिमितवीर्येति। अमितशब्दस्याप्रमितपरत्वे शास्त्रादिसिद्धिनिरोधात्अपरिमितपराक्रम इत्युक्तम्।सर्वं समाप्नोपि इत्यत्राकाशादिवद्व्याप्तिव्युदासाय अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा [चित्यु.11।1] इत्यादिश्रुत्युक्तात्मत्वपर्यवसितनियमनार्थव्याप्तिर्विवक्षितेत्यभिप्रयन्नाह -- सर्वमात्मतयेति। पुरुष एवेदं सर्वम् [ऋक्सं.8।4।17।2यजुस्सं.31।2]आत्मैवेदं सर्वं [छां.उ.7।25।2]नारायण एवेदं सर्वम् [ना.उ.2] इत्यादिश्रुतिस्थसर्वशब्दसामानाधिकरण्योपबृंहणायसर्वत एव सर्व इति पूर्वोक्तसर्वशब्दसामानाधिकरण्यं न बाधाद्यर्थम्? अपितु शरीरात्मभावनिबन्धनविशिष्टैक्यपरमित्युक्तमित्यभिप्रायेणाह -- यतस्त्वमित्यादि।,सकलवेदवेदान्ततदुपबृंहणेषु भगवद्वाचिशब्दानां सर्वचिदचिद्वस्तुवाचिसामान्यविशेषसकलशब्दसामानाधिकरण्यस्यापि शरीरात्मभाव एव निबन्धनमित्येतत्प्रघट्टफलितमित्यभिप्रायेणाहत्वमक्षरं सदसदित्यादि।
।।11.39।।वायुरिति। वायुः सर्वप्रेरकः सर्वप्राणरूपः? यमः सर्वनियमनः? अग्निः सर्वाधारः वरुणः जलाधिपः सर्वरसपूरकः? शशाङ्कः सर्वानन्दकरः? प्रजापतिः सर्वोत्पादकः। च पुनः प्रपितामहः ब्रह्मणोऽपि पिता अतः सर्वरूपस्त्वं तस्मात् पूर्वोक्ताः कथं तुभ्यं न नमस्कुर्युः। अतः सर्वरूपत्वादाधिदैविकत्वात् त्वमेव नमस्यः। अतोऽहमपि नमस्करोमि सहस्रकृत्वः सहस्रशः ते तुभ्यं नमो नमोऽस्तु। अस्त्वितिपदेन त्वमङ्गीकुर्विति ज्ञापितम्। पुनश्चाङ्गीकारानन्तरमपि भूयः वारंवारं ते नमो नमः करोमीत्यर्थः।
।।11.39।।सर्वदेवतात्मत्वेन स्तौति -- वायुरिति। प्रजापतिर्दक्षादिश्चतुर्मुखो वा। प्रपितामहश्चतुर्मुखपिता।
।।11.39।।किंच वाय्वादिस्त्वं शशाङ्कश्चन्द्रः प्रजापतिः कश्यादिर्हिरण्यगर्भान्तः पितामहस्य हिरण्यगर्भस्यापि पिता। तथाचइन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः इत्यादिमन्त्रब्राह्मणवादाः। यत एतादृशस्त्वं जगदुत्पत्त्यादिकर्ता सर्वेश्वरः सर्वज्ञः सर्वगम्यः सर्वात्माऽपरिच्छिन्नः सर्वनमस्कार्योऽपरिमितनमस्करोणापि मम तृप्तिर्नास्तीत्याशयेनाह -- नमोनमस्त इत्यादिना।
11.39 वायुः Vayu? यमः Yama? अग्निः Agni? वरुणः Varuna? शशाङ्कः moon? प्रजापतिः Prajapati? त्वम् Thou? प्रपितामहः greatgrandfather? च and? नमःनमः salutations? ते to Thee? अस्तु be? सहस्रकृत्वः thousand times? पुनः again? च and? भूयः again? अपि also ? नमःनमः salutations? ते to Thee.Commentary Prajapati Marichi and others were the seven mindborn sons of Brahma. Kasyapa descended from Marichi and from Kasyapa came all other progeny. Therefore? Marichi? Kasyapa and others are known as Prajapatis or the gods or progeny. The word Prajapati here is interpreted by some as Kasyapa and other Prajapatis. But as the word has been used here in the singular number it is appropriate to take Brahma as Prajapati. Brahma is the grandfather (Pitamaha) of Kasyapa. Brahma or the Hiranyagarbha is the Karya Brahman (effect). Isvara is the Karana Brahman (the cause for Brahma). Therefore? Isvara is the greatgrandfather. He is the father of,even Brahma.Isvara has Maya as the limiting adjunct. Maya is His causal body. Isvara has no plane. Maya is in an undifferentiated state. She is in a state where the alities of Nature (Gunas) are in eilibrium. When the eilibrium is disturbed through the will of Isvara? the three Gunas? Brahma? Vishnu and Siva manifest.Thou art the moon alludes to and includes the sun also.Punah? Bhuyah Again. Salutations a thousand times and again salutations. This indicates that Arjuna had intense faith in and boundless devotion for Lord Krishna. He was not satisfied even if he prostrated himself a thousand times.
11.39 Thou art Vayu, Yama, Agni, Varuna, the moon, the Creator, and the great-grandfather. Salutations, salutations unto Thee, a thousand times, and again salutations, salutations unto Thee.
11.39 Thou art the Wind, Thou art Death, Thou art the Fire, the Water, the Moon, the Father and the Grandfather. Honour and glory to Thee a thousand and a thousand times! Again and again, salutation be to Thee, O my Lord!
11.39 You are Air, Death, Fire, the god of the waters, the moon, the Lord of the creatures, and the Greater-grandfather. Salutations! Salutation be to You a thousand times; salutation to You again and again! Salutation!
11.39 You are vayuh, Air; yamah, Death; and agnih, Fire; varunah, the god of the waters; sasankah, the moon; prajapatih, the Lord of the creatures- Kasyapa and others [See note on p.2.-Tr.]; and pra-pitamahah, the Great-grandfather, i.e. the Father ever of Brahma (Hiranyagarbha). Namo, salutations; namah, salutation; astu, be; te, to You; sahasra-krtvah, a thousand times. Punah ca bhuyah api namo te, salutation to You again and again; namah, salutation! The suffix krtvasuc (after sahasra) indicates performance and repetition of the act of salutation a number of times. The words punah ca bhuyah api (again and again) indicate his own dissatisfaction [Dissatisfaction with only a few salutations.] owing to abundance of reverence and devotion. So also,
11.39. You are Vayu, Yama, Agni, Varuna, the Moon, Prajapati and the Great-paternal-grand-father; Salutation and salutation thousand times to You; and again also more salutation and salutation to You.
11.39 See comment under 11.40.
11.39 You alone are the great-grandsire of all and also grandfather etc. The Prajapatis are the fathers of all creatures. Hiranyagarbha (Brahma), the father of the Prajapatis, is the grandsire of all creatures. You, being the father of even Hiranyagarbha, are great grandfather of all creatures. You alone are denoted by the several terms by which these beings are known. Such is the meaning. Beholding the Lord in a most marvellous form, Arjuna, bent with great awe, saluted Him from all sides with his eyes widely open from joy.
11.39(a) You are Vayu, Yama, Agni, Varuna, Sasanka, Prajapati and the great-grandsire.... 39(b). ...Hail, Hail unto You, a thousand times! Hail unto You again and yet again!
।।11.39।।तथा --, आप ही वायु? यम? अग्नि? जलके राजा वरुण? चन्द्रमा और कश्यपादि प्रजापति हैं और आप ही पितामहके भी पिता प्रपितामह हैं अर्थात् ब्रह्माके भी पिता हैं। आपको हजारों बार नमस्कार हो? नमस्कार हो फिर भी बारंबार आपको नमस्कार हो? नमस्कार हो। सहस्र शब्दसे कृत्वसुच् प्रत्यय कर देनेसे अनेकोंबार नमस्कार क्रियाके अभ्यास और आवृत्तिकी गणनाका प्रतिपादन हो जाता है परंतु फिर भी पुनश्च भूयोऽपि इन शब्दोंसे अर्जुन अतिशय श्रद्धा और भक्तिके कारण नमस्कार करताकरता मैं तृप्त नहीं हुआ हूँ ऐसा अपना भाव दिखलाता है।,
।।11.39।। --,वायुः त्वं यमश्च अग्निः वरुणः अपां पतिः शशाङ्कः चन्द्रमाः प्रजापतिः त्वं कश्यपादिः प्रपितामहश्च पितामहस्यापि पिता प्रपितामहः? ब्रह्मणोऽपि पिता इत्यर्थः। नमो नमः ते तुभ्यम् अस्तु सहस्रकृत्वः। पुनश्च भूयोऽपि नमो नमः ते। बहुशो नमस्कारक्रियाभ्यासावृत्तिगणनं कृत्वसुचा उच्यते। पुनश्च भूयोऽपि इति श्रद्धाभक्त्यतिशयात् अपरितोषम् आत्मनः दर्शयति।।तथा --,
।।11.37 -- 11.40।।सर्वे नमस्यन्ति [11।36] इत्येतद्युक्तमिति स्वयमेवोक्त्वाकस्माच्च ते न नमेरन् इति विरुद्धं कथं पृच्छति इत्यत आक्षेप एवायमिति ज्ञापयन् तन्निवर्त्याशङ्काप्रदर्शनपूर्वकमवतारयति -- कथमिति। इति शङ्कायामिति शेषः तत्तस्या उत्तरम्। महात्मन्नक्षुद्रचित्तेत्यल्पार्थप्रतीतिनिरासार्थमाह -- पूर्णश्चेति। आत्मा,जीव इति प्रतीतिं वारयितुमाह -- आत्मेति। उक्तो निरुक्तः। यद्यस्मात्। आप्नोतेर्मन्। पकारस्य च तकारः। आङ्पूर्वाद्दाञः स एव प्रत्ययः आकारलोपस्तत्वम्। आङ्पूर्वाददो मन्। तत्वं च। इह देहे। सन्ततो भावो नित्या सत्ता। आङ्पूर्वात्तनोतेर्ङ्मन्। सदसद्भावात्मकं विश्वं त्वमेवेति सत्तादिप्रदत्वादेवोच्यते। नत्वन्यथा? तथा सति उत्तरवाक्यविरोधात्? इति भावेन तत्पठित्वा सप्रमाणकं व्याचष्टे -- तत्परमिति।
।।11.37 -- 11.40।।कथं स्थाने इति तदाह -- कस्मादित्यादिना। पूर्णश्चासावात्मा चेति महात्मा। आत्मशब्दश्चोक्तो भारते -- यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह। यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति भण्यते इति। तत्परं सदसतः परम्।असच्च सच्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम्। [म.भा.1।1।23] इति भारते।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च। नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।।11.39।।
বাযুর্যমোগ্নির্বরুণঃ শশাঙ্কঃ প্রজাপতিস্ত্বং প্রপিতামহশ্চ৷ নমো নমস্তেস্তু সহস্রকৃত্বঃ পুনশ্চ ভূযোপি নমো নমস্তে৷৷11.39৷৷
বাযুর্যমোগ্নির্বরুণঃ শশাঙ্কঃ প্রজাপতিস্ত্বং প্রপিতামহশ্চ৷ নমো নমস্তেস্তু সহস্রকৃত্বঃ পুনশ্চ ভূযোপি নমো নমস্তে৷৷11.39৷৷
વાયુર્યમોગ્નિર્વરુણઃ શશાઙ્કઃ પ્રજાપતિસ્ત્વં પ્રપિતામહશ્ચ। નમો નમસ્તેસ્તુ સહસ્રકૃત્વઃ પુનશ્ચ ભૂયોપિ નમો નમસ્તે।।11.39।।
ਵਾਯੁਰ੍ਯਮੋਗ੍ਨਿਰ੍ਵਰੁਣ ਸ਼ਸ਼ਾਙ੍ਕ ਪ੍ਰਜਾਪਤਿਸ੍ਤ੍ਵਂ ਪ੍ਰਪਿਤਾਮਹਸ਼੍ਚ। ਨਮੋ ਨਮਸ੍ਤੇਸ੍ਤੁ ਸਹਸ੍ਰਕਰਿਤ੍ਵ ਪੁਨਸ਼੍ਚ ਭੂਯੋਪਿ ਨਮੋ ਨਮਸ੍ਤੇ।।11.39।।
ವಾಯುರ್ಯಮೋಗ್ನಿರ್ವರುಣಃ ಶಶಾಙ್ಕಃ ಪ್ರಜಾಪತಿಸ್ತ್ವಂ ಪ್ರಪಿತಾಮಹಶ್ಚ. ನಮೋ ನಮಸ್ತೇಸ್ತು ಸಹಸ್ರಕೃತ್ವಃ ಪುನಶ್ಚ ಭೂಯೋಪಿ ನಮೋ ನಮಸ್ತೇ৷৷11.39৷৷
വായുര്യമോഗ്നിര്വരുണഃ ശശാങ്കഃ പ്രജാപതിസ്ത്വം പ്രപിതാമഹശ്ച. നമോ നമസ്തേസ്തു സഹസ്രകൃത്വഃ പുനശ്ച ഭൂയോപി നമോ നമസ്തേ৷৷11.39৷৷
ବାଯୁର୍ଯମୋଗ୍ନିର୍ବରୁଣଃ ଶଶାଙ୍କଃ ପ୍ରଜାପତିସ୍ତ୍ବଂ ପ୍ରପିତାମହଶ୍ଚ| ନମୋ ନମସ୍ତେସ୍ତୁ ସହସ୍ରକୃତ୍ବଃ ପୁନଶ୍ଚ ଭୂଯୋପି ନମୋ ନମସ୍ତେ||11.39||
vāyuryamō.gnirvaruṇaḥ śaśāṅkaḥ prajāpatistvaṅ prapitāmahaśca. namō namastē.stu sahasrakṛtvaḥ punaśca bhūyō.pi namō namastē৷৷11.39৷৷
வாயுர்யமோக்நிர்வருணஃ ஷஷாங்கஃ ப்ரஜாபதிஸ்த்வஂ ப்ரபிதாமஹஷ்ச. நமோ நமஸ்தேஸ்து ஸஹஸ்ரகரித்வஃ புநஷ்ச பூயோபி நமோ நமஸ்தே৷৷11.39৷৷
వాయుర్యమోగ్నిర్వరుణః శశాఙ్కః ప్రజాపతిస్త్వం ప్రపితామహశ్చ. నమో నమస్తేస్తు సహస్రకృత్వః పునశ్చ భూయోపి నమో నమస్తే৷৷11.39৷৷
11.40
11
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।।11.40।। हे सर्व ! आपको आगेसे भी नमस्कार हो !  पीछेसे भी नमस्कार हो ! सब ओरसे ही नमस्कार हो ! हे अनन्तवीर्य ! अमित विक्रमवाले आपने सबको समावृत कर रखा है; अतः सब कुछ आप ही हैं।
।।11.40।। हे अनन्तसार्मथ्य वाले भगवन्! आपके लिए अग्रत: और पृष्ठत: नमस्कार है, हे सर्वात्मन्! आपको सब ओर से नमस्कार है। आप अमित विक्रमशाली हैं और आप सबको व्याप्त किये हुए हैं, इससे आप सर्वरूप हैं।।
।।11.40।। परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है अन्तर्बाह्य? अधउर्ध्व? समस्त दिशाओं में व्याप्त है। उससे रिक्त कोई स्थान नहीं है। यह कोई अकेले अर्जुन का मौलिक विचार नहीं है। उपनिषद् के महान् ऋषिगण तो इस अनुभव में अखण्ड वास करते थे।जिस परमात्मा को अर्जुन अपने मन से सब दिशाओं में प्रणाम करता है? वह परमात्मा न केवल आकाश के समान सर्वव्यापक ही है? वरन् वह सम्पूर्ण सार्मथ्य एवं विक्रम का स्रोत भी है। जहाँ कहीं भी कार्य़ करने की प्रेरणा या सफलता पाने की क्षमता दृष्टिगोचर होती हैं? वह सब अनन्तवीर्य और अमितविक्रम परमात्मा की ही एक झलक है? किरण है। परमात्मा सत्स्वरूप से सर्वत्र समस्त वस्तुओं और प्राणियों में विद्यमान है क्योंकि सत् के बिना किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता? इसलिए? वस्तुत परमात्मा ही सर्वरूप है। जल ही सब तरंगें हैं और मिट्टी ही सब घट है।क्योंकि आपके महात्म्य के अज्ञान के कारण? पूर्व में मैंने आपके प्रति अपराध किया है? इसलिए
।।11.40।। व्याख्या--'नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व'--अर्जुन भयभीत हैं। मैं क्या बोलूँ-- यह उनकी समझमें नहीं आ रहा है। इसलिये वे आगेसे, पीछेसे सब ओरसे अर्थात् दसों दिशाओंसे केवल नमस्कारहीनमस्कार कर रहे हैं।
null
।।11.40।।अनन्तवीर्यामितविक्रमः त्वं सर्वम् आत्मतया समाप्नोषि ततः सर्वः असि? यतः त्वं सर्वं चितचिद्वस्तुजातम् आत्मतया समाप्नोषि। अतः सर्वस्य चिदचिद्वस्तुजातस्य त्वच्छरीरतया त्वत्प्रकारत्वात् सर्वप्रकारः त्वम् एव सर्वशब्दवाच्यः असि इत्यर्थः।त्वमक्षरं सदसत् (गीता 11।37)वायुर्यमोऽग्निः (गीता 11।39) इत्यादिसर्वसामानाधिकरण्यनिर्देशस्य आत्मतया व्याप्तिः एव हेतुः इति सुव्यक्तम् उक्तम्।त्वया ततं विश्मनन्तरूप (गीता 11।38) सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।।इति च।
।।11.40।।विधान्तरेण भगवन्तं स्तुत्या नमस्कुर्वन्नभिमुखीकरोति -- तथेति। यस्यां दिशि सवितोदेति सा पूर्वा दिगुच्यते। तस्यां व्यवस्थितं सर्वं त्वमेव तस्मै ते तुभ्यं ननोऽस्त्वित्याह -- नम इति। अथशब्दः समुच्चये। पश्चादपि स्थितं सर्वं त्वमेव तस्मै ते तुभ्यं नमोऽस्त्वित्याह -- अथेति। किं बहुना यावन्त्यो दिशस्तत्र सर्वत्र यद्वर्तते तदशेषं त्वमेव तस्मै तुभ्यं प्रह्वीभावः स्यादित्याह -- नमोऽस्त्विति। फलितं सर्वात्मत्वं सूचयति -- हे सर्वेति। वीर्यविक्रमयोर्न पौनरुक्त्यमित्याह -- वीर्यमित्यादिना। वीर्यवतो विक्रमाव्यभिचारादर्थपौनरुक्त्यमाशङ्क्याह -- वीर्यवानिति। भगवति लोकतो विशेषमाह -- त्वं त्विति। उक्तं सर्वात्मत्वं प्रपञ्चयति -- सर्वमिति। सप्रपञ्चत्वं वारयति -- त्वयेति।
।।11.40।।सर्वरूपत्वेन वीर्यं तस्योपपादयति -- परं ब्रह्म तु कृष्णो हि सच्चिदानन्दकं बृहत्। द्विरूपं तद्धि सर्वं स्यादेकं तस्माद्विलक्षणम् इति वाक्यैरेकमपि तत्सर्वमित्याशयेनानन्तवीर्य हे सर्वेति सम्बोधयति। विश्वं व्याप्नोषि सर्वप्रपञ्चरूपस्त्वमेवेत्यर्थः।
।।11.40।।तुभ्यं पुरस्तात् अग्रभागे नमोस्तु? तुभ्यं पुरो नमःस्तादिति वा। अथशब्दः समुच्चये। पृष्ठतोऽपि तुभ्यं नमःस्तात् नमोस्तु। ते तुभ्यं सर्वत एव सर्वासु दिक्षु स्थिताय। हे सर्व? वीर्यं शारीरबलं विक्रमः शिक्षा शस्त्रप्रयोगकौशलंएकं वीर्याधिकं मन्य उतैकं शिक्षयाधिकम् इत्युक्तेर्भीमदुर्योधनयोरन्येषु च एकैकं व्यवस्थितं। त्वं तु अनन्तवीर्यश्चामितविक्रमश्चेति समस्तमेकं पदं। अनन्तवीर्येति संबोधनं वा। सर्वं समस्तं जगत्समाप्नोषि सम्यगेकेन सद्रूपेणाप्नोषि सर्वात्मना व्याप्नोषि ततस्तस्मात्सर्वोऽसि। त्वदतिरिक्तं किमपि नास्तीत्यर्थः।
।।11.40।।किंच -- नम इति। हे सर्व सर्वात्मन्? सर्वास्वपि दिक्षु तुभ्यं नमोऽस्तु। सर्वात्मकत्वमुपपादयन्नाह। अनन्तं वीर्यं सामर्थ्यं यस्य? तथाप्यमितो विक्रमः पराक्रमो यस्य सः? एंवभूतस्त्वं सर्वं विश्वं सम्यगन्तर्बहिश्च सर्वात्मधापि समाप्नोषि व्याप्नोषि सुवर्णमिव कटककुण्डलादि स्वकार्यं व्याप्य वर्तसे सर्वरूपोऽसि।
।। 11.40 इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वन्दन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः [ऋक्सं.2।3।22।6तै.ब्रा.3।7।9।3] तदेवाग्निस्तद्वायुस्तत्सूर्यस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रममृतं तद्ब्रह्म तदापः स प्रजापतिः [तै.ना.1।7] इत्यादिश्रुत्युपबृंहणाभिप्रायेणत्वया ततं विश्वम् [11।38] इति निर्दिष्टं शरीरात्भावंवायुर्यमोऽग्निः इत्यादिसामानाधिकरण्यहेतुत्वेनाहअतस्त्वमेवेति। सम्बन्धिविशेषानुपादानात्प्रपितामहत्वं सर्वप्रतिसम्बन्धिकमित्यभिप्रायेणाहसर्वेषां प्रपितामहस्त्वमेवेति। चशब्दः पितामहादिसमुच्चयार्थक इत्यभिप्रयन्नाहपितामहादयश्चेति। सर्वप्रपितामहस्य कस्यचिदभापेन तच्छरीरकत्वेन प्रपितामहत्वायोगादन्यथा तदाहसर्वासां प्रजानां पितर इत्यादिना। प्रजापतयः दक्षादयः। चशब्दसमुच्चितपितामहत्वं तु तच्छरीरकतयेत्याहपितामहादीनामात्मतयेति। नमो नमस्तेऽस्तु इत्यादिनोक्तनमने विश्वरूपप्रदर्शनप्रकटितपरत्वसौलभ्यानुभवजनितभयहर्षावेव हेतुरित्यभिप्रायेणाह -- अत्यद्भुताकारमिति।अनन्तस्य वीर्यमिव वीर्यं यस्येत्यन्यथाप्रतिपत्तिवारणायाहअपरिमितवीर्येति। अमितशब्दस्याप्रमितपरत्वे शास्त्रादिसिद्धिनिरोधात्अपरिमितपराक्रम इत्युक्तम्।सर्वं समाप्नोपि इत्यत्राकाशादिवद्व्याप्तिव्युदासाय अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा [चित्यु.11।1] इत्यादिश्रुत्युक्तात्मत्वपर्यवसितनियमनार्थव्याप्तिर्विवक्षितेत्यभिप्रयन्नाह -- सर्वमात्मतयेति। पुरुष एवेदं सर्वम् [ऋक्सं.8।4।17।2यजुस्सं.31।2]आत्मैवेदं सर्वं [छां.उ.7।25।2]नारायण एवेदं सर्वम् [ना.उ.2] इत्यादिश्रुतिस्थसर्वशब्दसामानाधिकरण्योपबृंहणायसर्वत एव सर्व इति पूर्वोक्तसर्वशब्दसामानाधिकरण्यं न बाधाद्यर्थम्? अपितु शरीरात्मभावनिबन्धनविशिष्टैक्यपरमित्युक्तमित्यभिप्रायेणाह -- यतस्त्वमित्यादि। सकलवेदवेदान्ततदुपबृंहणेषु भगवद्वाचिशब्दानां सर्वचिदचिद्वस्तुवाचिसामान्यविशेषसकलशब्दसामानाधिकरण्यस्यापि शरीरात्मभाव एव निबन्धनमित्येतत्प्रघट्टफलितमित्यभिप्रायेणाहत्वमक्षरं सदसदित्यादि।
।।11.40।।किञ्च -- नम इति। हे सर्व सर्वात्मन् पुरस्तात् पूर्वदिशि पृष्ठतः पश्चिमायां सर्वतः दक्षिणोत्तरकोणादिषु सर्वासु दिक्षु ते नमो नम एवाऽस्तु।किमासनं ते गरुडासनाय इत्यादिवाक्यैर्नान्यत्किञ्चिदपि कर्तुं शक्यमिति भावः। इदमेवैवकारेण व्यञ्जितम्। यद्वा पृष्ठतः पश्चात् सर्वतः दक्षिणोत्तरादिभागेषु नमः कृतो नमस्कारः ते पुरस्तादेव पूर्वभाग एव सन्मुख एवाऽस्त्विति वाऽर्थः। ननु पश्चाद्भागकृतो नमस्कारः कथं पूर्वभागीयः स्यादत् आह -- अनन्तेति। अनन्तं वीर्यं सामर्थ्यम्? अभितो बहुतरः पराक्रमो यस्य तादृशस्त्वं सर्वं जगत् समाप्नोषि तत्तद्रूपनामभेदेन सर्वरूपो भूत्वा वर्तसे? ततः सर्वः सर्वरूपस्त्वमसि? अतः पृष्ठतोऽपि नमस्कृतौ पूर्वभागो न बाध्यत इत्यर्थः।
।।11.40।।हे अनन्तवीर्य? यतः सर्वं समाप्नोषि एकीभावेनासमन्ताद्व्याप्नोषि ततो हेतोः सर्व इति तव नाम। पुरस्तात्कर्मणामादौ। पृष्ठतस्तेषां समाप्तौ। सर्वतो मध्येऽपि ते नमोऽस्तु।
।।11.40।।पुरस्तात् पूर्वस्यां दिशि तत्तद्रूपेण स्थिताय ते तुभ्यम्। अथ पृष्ठस्ते तुभ्यं नमोस्तु। सर्वत एव सर्वासु दिक्षु स्थिताय। हे सर्व। यद्वा पुरस्तात्कर्मणमादौ पृष्ठस्तेषां समाप्तौ सर्वतः मध्येऽपि ते नमोस्ित्वति। अस्मिन्पक्षे कर्मणामित्यध्याहारदोषः सर्वत इत्यादि संकोचे मानाभावश्च बोध्यः। हे सर्वेत्युक्तं निरुपयति। अनन्तं सामर्थ्य यस्य? अमितः पराक्रमः शस्त्रादिविषये यस्य अनन्तवीर्यश्चासौ अमितविक्रमश्च सः त्वं हेऽनन्तवीर्येति व्यस्तपक्षस्त्वाचार्यैः गौरवात् विशेषाभावाच्च न प्रदर्शितः। सर्वमखिलं विश्वं सम्यगाप्नोषि व्याप्नोषि। यतस्ततोऽसि सर्वः। त्वया विना भूतं न किंचिदस्तीत्यर्थः।
11.40 नमः salutation? पुरस्तात् (from) front? अथ also? पृष्ठतः (from) behind? ते to Thee? नमः salutation? अस्तु be? ते to Thee? सर्वतः on every side? एव even? सर्व O all? अनन्तवीर्य infinite power? अमितविक्रमः infinite in prowess? त्वम् Thou? सर्वम् all? समाप्नोषि pervadest? ततः wherefore? असि (Thou) art? सर्वः all.Commentary The words I prostrate myself before Thee? behind Thee and on every side indicate the allpervading nature of the Lord. How can the allpervading Self have front and back Finite objects only have front and back sides Arjuna imagined that there were front and back sides to the Lord and so prostrated himself in his extreme faith and devotion.O All Nothing exists without Thee. As the Self is allpervading? He is called the All. There is nothing except the Self.On every side? as Thou art present everywhere or in all arters.One may be powerful but may not possess the courage to kill the enemies or he may be endowed with a mild form of courge but the Lord is infinite in courage and infinite in power.Pervadest by Thy One Self.
11.40 Salutations to Thee, in front and behind! Salutations to Thee on every side! O All!! Thou infinite in power and prowess, pervadest all; wherefore Thou art all.
11.40 Salutations to Thee in front and on every side, Thou who encompasseth me round about. Thy power is infinite; Thy majesty immeasurable; thou upholdest all things; yea,Thou Thyself art All.
11.40 Salutation to You in the East and behind. Salutation be to You on all sides in deed, O All! You are possessed of infinite strength and infinite heroism. You pervade everything; hence You are all!
11.40 Namah, salutation to You; purastat, in the East; atha, and; even prsthatah, behind. Salutation be sarvatah, on all sides; eva, indeed; te, to You who exist everywhere; sarva, O All! Tvam, You; are ananta-virya-amita-vikramah, possessed of infinite strength and infinite heroism. virya is strength, and vikramah is heroism. Someone though possessing strength for the use of weapons etc. [Ast. reads 'satru-vadha-visaye, in the matter of killing an enemy'.-Tr.] may lack heroism or have little heroism. But You are possessed of infinite strength and infinite heroism. Samapnosi, You pervade, interpenetrate; sarvam, everything, the whole Universe, by Your single Self. Tatah, hence; asi, You are; sarvah, All, i.e., no entity exists without You. 'Since I am guilty of not knowing Your greatness, therefore,'-
11.40. Salutation to You in the front and behind; salutation to You, just on all sides, O One Who are All ! You are of infinite might and of immeasurable powers; and You pervade all and hence You are all.
11.39-40 Namo namah etc. Salutation and salutation : This repetition reveals the intensity of the devotion. What has been taught by the past chapters by the Bhagavat regarding His own intrinsic nature, Arjuna - witnessing the same by perception - declares it openly by way of devotional hymn. Hence, to comment on the hymn would symply amount to the repetition [of what has already been said by us]. Hence, let me (11.Ag.) abstain [from commenting on it].
11.40 You, of infinite prowess and measureless heroic action, pervade all beings as their very Self and therefore, are, in reality all of them. Terms, naming all other entities, are truly naming You; for they, both sentient as well as non-sentient, constitute Your body, and as such are just Your modes. Therefore You alone, having them all as Your modes, are signified by all terms standing for them. In the texts, 'O by You of infinite form, is the cosmos pervaded' (11.38) and 'You pervade all, and hence are all' (11.40), it is clearly stated that the pervasion as the Self is the only rationale for speaking of them as one with You, in the sense of co-ordinate predication as in the text, 'You are the imperishable and also being and non-being' (11.37) and 'You are Vayu, Yama and Agni' (11.39).
11.40 (a) Salutation to You from before and behind! Salutation to You from all sides, O All!৷৷. (b) ৷৷. O You of infinite prowess and heroic action which are measureless! You pervade all beings and therefore are all.
।।11.40।।तथा --, आपको आगसे अर्थात् पूर्वदिशामें और पीछेसे भी नमस्कार है। हे सर्वरूप आपको सब ओरसे नमस्कार है अर्थात् सर्वत्र स्थित हुए आपको सब दिशाओंमें नमस्कार है। आप अनन्तवीर्य और अपार पराक्रमवाले हैं। वीर्य सामर्थ्यको कहते हैं और विक्रम पराक्रमको। कोई व्यक्ति सामर्थ्यवान् होकर भी शस्त्रादि चलानेमें पराक्रम नहीं दिखा सकता? अथवा मन्दपराक्रमी होता है। परन्तु आप तो अनन्तवीर्य और अमित पराक्रमसे युक्त हैं। इसलिये आप अनन्तवीर्य और अमितपराक्रमी हैं। आप अपने एक स्वरूपसे सारे जगत्को व्याप्त किये हुए स्थित हैं? इसलिये आप सर्वरूप हैं? अर्थात् आपसे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।,
।।11.40।। --,नमः पुरस्तात् पूर्वस्यां दिशि तुभ्यम्? अथ पृष्ठतः ते पृष्ठतः अपि च ते नमोऽस्तु? ते सर्वत एव सर्वासु दिक्षु सर्वत्र स्थिताय हे सर्व। अनन्तवीर्यामितविक्रमः अनन्तं वीर्यम् अस्य? अमितः विक्रमः अस्य। वीर्यं सामर्थ्यं विक्रमः पराक्रमः। वीर्यवानपि कश्चित् शत्रुवधादिविषये न पराक्रमते? मन्दपराक्रमो वा। त्वं तु अनन्तवीर्यः अमितविक्रमश्च इति अनन्तवीर्यामितविक्रमः। सर्वं समस्तं जगत् समाप्नोषि सम्यक् एकेन आत्मना व्याप्नोषि यतः? ततः तस्मात् असि भवसि सर्वः त्वम्? त्वया विनाभूतं न किञ्चित् अस्ति इति अभिप्रायः।।यतः अहं त्वन्माहात्म्यापरिज्ञानात् अपराद्धः? अतः --,
।।11.37 -- 11.40।।सर्वे नमस्यन्ति [11।36] इत्येतद्युक्तमिति स्वयमेवोक्त्वाकस्माच्च ते न नमेरन् इति विरुद्धं कथं पृच्छति इत्यत आक्षेप एवायमिति ज्ञापयन् तन्निवर्त्याशङ्काप्रदर्शनपूर्वकमवतारयति -- कथमिति। इति शङ्कायामिति शेषः तत्तस्या उत्तरम्। महात्मन्नक्षुद्रचित्तेत्यल्पार्थप्रतीतिनिरासार्थमाह -- पूर्णश्चेति। आत्मा जीव इति प्रतीतिं वारयितुमाह -- आत्मेति। उक्तो निरुक्तः। यद्यस्मात्। आप्नोतेर्मन्। पकारस्य च तकारः। आङ्पूर्वाद्दाञः स एव प्रत्ययः आकारलोपस्तत्वम्। आङ्पूर्वाददो मन्। तत्वं च। इह देहे। सन्ततो भावो नित्या सत्ता। आङ्पूर्वात्तनोतेर्ङ्मन्। सदसद्भावात्मकं विश्वं त्वमेवेति सत्तादिप्रदत्वादेवोच्यते। नत्वन्यथा? तथा सति उत्तरवाक्यविरोधात्? इति भावेन तत्पठित्वा सप्रमाणकं व्याचष्टे -- तत्परमिति।
।।11.37 -- 11.40।।कथं स्थाने इति तदाह -- कस्मादित्यादिना। पूर्णश्चासावात्मा चेति महात्मा। आत्मशब्दश्चोक्तो भारते -- यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह। यच्चास्य सन्ततो भावस्तस्मादात्मेति भण्यते इति। तत्परं सदसतः परम्।असच्च सच्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम्। [म.भा.1।1।23] इति भारते।
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व। अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।।11.40।।
নমঃ পুরস্তাদথ পৃষ্ঠতস্তে নমোস্তু তে সর্বত এব সর্ব৷ অনন্তবীর্যামিতবিক্রমস্ত্বং সর্বং সমাপ্নোষি ততোসি সর্বঃ৷৷11.40৷৷
নমঃ পুরস্তাদথ পৃষ্ঠতস্তে নমোস্তু তে সর্বত এব সর্ব৷ অনন্তবীর্যামিতবিক্রমস্ত্বং সর্বং সমাপ্নোষি ততোসি সর্বঃ৷৷11.40৷৷
નમઃ પુરસ્તાદથ પૃષ્ઠતસ્તે નમોસ્તુ તે સર્વત એવ સર્વ। અનન્તવીર્યામિતવિક્રમસ્ત્વં સર્વં સમાપ્નોષિ તતોસિ સર્વઃ।।11.40।।
ਨਮ ਪੁਰਸ੍ਤਾਦਥ ਪਰਿਸ਼੍ਠਤਸ੍ਤੇ ਨਮੋਸ੍ਤੁ ਤੇ ਸਰ੍ਵਤ ਏਵ ਸਰ੍ਵ। ਅਨਨ੍ਤਵੀਰ੍ਯਾਮਿਤਵਿਕ੍ਰਮਸ੍ਤ੍ਵਂ ਸਰ੍ਵਂ ਸਮਾਪ੍ਨੋਸ਼ਿ ਤਤੋਸਿ ਸਰ੍ਵ।।11.40।।
ನಮಃ ಪುರಸ್ತಾದಥ ಪೃಷ್ಠತಸ್ತೇ ನಮೋಸ್ತು ತೇ ಸರ್ವತ ಏವ ಸರ್ವ. ಅನನ್ತವೀರ್ಯಾಮಿತವಿಕ್ರಮಸ್ತ್ವಂ ಸರ್ವಂ ಸಮಾಪ್ನೋಷಿ ತತೋಸಿ ಸರ್ವಃ৷৷11.40৷৷
നമഃ പുരസ്താദഥ പൃഷ്ഠതസ്തേ നമോസ്തു തേ സര്വത ഏവ സര്വ. അനന്തവീര്യാമിതവിക്രമസ്ത്വം സര്വം സമാപ്നോഷി തതോസി സര്വഃ৷৷11.40৷৷
ନମଃ ପୁରସ୍ତାଦଥ ପୃଷ୍ଠତସ୍ତେ ନମୋସ୍ତୁ ତେ ସର୍ବତ ଏବ ସର୍ବ| ଅନନ୍ତବୀର୍ଯାମିତବିକ୍ରମସ୍ତ୍ବଂ ସର୍ବଂ ସମାପ୍ନୋଷି ତତୋସି ସର୍ବଃ||11.40||
namaḥ purastādatha pṛṣṭhatastē namō.stu tē sarvata ēva sarva. anantavīryāmitavikramastvaṅ sarvaṅ samāpnōṣi tatō.si sarvaḥ৷৷11.40৷৷
நமஃ புரஸ்தாதத பரிஷ்டதஸ்தே நமோஸ்து தே ஸர்வத ஏவ ஸர்வ. அநந்தவீர்யாமிதவிக்ரமஸ்த்வஂ ஸர்வஂ ஸமாப்நோஷி ததோஸி ஸர்வஃ৷৷11.40৷৷
నమః పురస్తాదథ పృష్ఠతస్తే నమోస్తు తే సర్వత ఏవ సర్వ. అనన్తవీర్యామితవిక్రమస్త్వం సర్వం సమాప్నోషి తతోసి సర్వః৷৷11.40৷৷
11.41
11
41
।।11.41 -- 11.42।। आपकी महिमा और स्वरूपको न जानते हुए 'मेरे सखा हैं' ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) 'हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे !' इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत ! हँसी-दिल्लगीमें, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समयमें अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदिके सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है;  वह सब अप्रमेयस्वरुप आपसे मैं क्षमा माँगता हूँ।
।।11.41।। हे भगवन्! आपको सखा मानकर आपकी इस महिमा को न जानते हुए मेरे द्वारा प्रमाद से अथवा प्रेम से भी "हे कृष्ण हे! यादव हे सखे!" इस प्रकार जो कुछ बलात् कहा गया है।।
।।11.41।। See commentary under 11.42
।।11.41।। व्याख्या--[जब अर्जुन विराट् भगवान्के अत्युग्र रूपको देखकर भयभीत होते हैं, तब वे भगवान्के कृष्णरूपको भूल जाते हैं और पूछ बैठते हैं कि उग्ररूपवाले 'आप', कौन हैं परन्तु जब उनको भगवान् श्रीकृष्णकी स्मृति आती है कि वे ये ही हैं, तब भगवान्के प्रभाव आदिको देखकर उनको सखाभावसे किये हुए पुराने व्यवहारकी याद आ जाती है और उसके लिये वे भगवान्से क्षमा माँगते हैं।] 'सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति'--जो बड़े आदमी होते हैं, श्रेष्ठ पुरुष होते हैं, उनको साक्षात् नामसे नहीं पुकारा जाता। उनके लिये तो आप, महाराज आदि शब्दोंका प्रयोग होता है। परन्तु मैंने आपको कभी 'हे कृष्ण' कह दिया, कभी 'हे यादव' कह दिया और कभी 'हे सखे' कह दिया। इसका कारण क्या था? 'अजानता महिमानं तवेदम' (टिप्पणी प0 603.1) इसका कारण यह था कि मैंने आपकी ऐसी महिमाको और स्वरूपको जाना नहीं कि आप ऐसे विलक्षण हैं। आपके किसी एक अंशमें अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं -- ऐसा मैं पहले नहीं जानता था। आपके प्रभावकी तरफ मेरी दृष्टि ही नहीं गयी। मैंने कभी सोचा-समझा ही नहीं कि आप कौन हैं और कैसे हैं।
null
।।11.41।। तव अनन्तवीर्यत्वामितविक्रमत्वसर्वान्तरात्मत्वस्रष्टृत्वादिको यो महिमा तम् इमम् अजानतया मया प्रमादात् मोहात् प्रणयेन चिरपरिचयेन वा सखा इतिमम वयस्यः इति मत्वा हे कृष्ण हे यादव हे सखे इति त्वयि प्रसभं विनयापेतं यद् उक्तं यत् च परिहासार्थं सर्वदा एव सत्कारार्हः त्वम् असत्कृतः असि? विहारशय्यासनभोजनेषु च सहकृतेषु एकान्ते वा समक्षं वा यद् असत्कृतः असि? तत् सर्वं त्वाम् अप्रमेयम् अहं क्षामये।
।।11.41।।अज्ञाननिमित्तमपराधं क्षमापयति -- यत इति। इदं शब्दार्थमाह -- विश्वरूपमिति। नहीदमित्यस्य महिमानमित्यस्य च सामानाधिकरण्यं लिङ्गव्यत्ययादित्याह -- तवेति। पाठान्तरसंभावनायां सामानाधिकरण्योपपत्तिमाह -- तवेत्यादिना। यदुक्तवानस्मि तदहं क्षामये त्वामिति संबन्धः।
।।11.41।।अक्षरैश्वर्यादिगुणमहिमानं परमं तं दृष्ट्वा क्षमापयति -- सखेति। तव महिमानं अलौकिकमाहात्म्यश्रियं अतिशयेनाजानता मया यदुक्तं हे यादव हे सखेति तत्क्षामये त्वामित्यग्रिमेणान्वयः।
।।11.41।।यतोऽहं त्वन्माहात्म्यापरिज्ञानादपराधानजस्रमकार्षं ततः परमकारुणिकं त्वां प्रणम्यापराधक्षमां कारयामीत्याह द्वाभ्यां -- सखेतीत्यादिना। त्वं मम सखा समानवया इति मत्वा प्रसभं,स्वोत्कर्षख्यापनरूपेणाभिभवेन यदुक्तं मया तदेवं विश्वरूपं। तथा महिमानमैश्वर्यातिशयमजानता। पुंलिङ्गपाठे इमं विश्वरूपात्मकं महिमानमजानता। प्रमादाच्चित्तविक्षेपात्प्रणयेन स्नेहेन वापि। किमुक्तमित्याह। हे कृष्ण हे यादव हे सखे इति।
।।11.41।।इदानीं भगवन्तं क्षमापयति -- सखेति द्वाभ्याम्। त्वां प्राकृतः सखेति मत्वा प्रसभं हठेन तिरस्कारेण यदुक्तं तत्क्षामये त्वामित्युत्तरेणान्वयः। किं तत्। हे कृष्ण? हे यादव? हे सखेति। संधिरार्षः। प्रसभोक्तौ हेतुःतव महिमानमिदं च विश्वरूपमजानता मया प्रमादात्प्रणयेन स्नेहेनापि वा यदुक्तमिति।
।।11.41।।इदंशब्दविशेषितमहिमशब्दः प्रकृतमहिमानुवादीत्यभिप्रयन्नाह -- अनन्तवीर्यत्वामितविक्रमत्वेत्यादि। प्रमादशब्दस्याज्ञानपरत्वेअजानता इत्यनेन पौनरुक्त्यात् सजातीयत्वभ्रमपरत्वमभिप्रेत्यप्रमादान्मोहादित्युक्तम्। सखेति बुद्धिहेतुत्वस्वारस्यात्प्रीतिवाचिनापि प्रणयशब्देन तदौपयिकचिरपरिचयोपचारो युक्त इत्याशयेनाहप्रणयेन चिरपरिचयेनेति सयुजा सखाया [ऋक्सं.2।3।17।5मुं.उ.3।1श्वे.उ.4।6] इति श्रुतिप्रतिपन्नसखित्वबुद्धेर्मोहादिजन्यत्वासम्भवेनसखेति मत्वा इत्येतल्लौकिकवयस्यत्वबुद्धिपरमित्याशयेनाहमम वयस्य इति मत्वेति।हे कृष्ण इत्यादिकं प्रसभोक्त्याकारसमर्पकमित्याशयेनान्वयं दर्शयन् प्रकृतोचितविनयाभावपरत्वमाहहे कृष्णेत्यादि।यच्च इत्यत्र चशब्दाभिप्रेतासत्कारबहुत्वसिद्ध्यर्थंयदसत्कृतोऽसि इत्यस्यावृत्त्या वाक्यभेदमङ्गीकृत्य अर्थमाहयच्च परिहासार्थमित्यादिना। तत एवतत्सर्वम् इति तस्य बहुत्वमुच्यते। परिहासार्थमप्यसत्कारो महद्विषयेऽपराध एवेत्यभिप्रायेण मध्यमपुरुषाक्षिप्तार्थमाहसर्वदैव सत्कारार्हस्त्वमिति। एकशब्दफलितोक्तिःएकान्त इति।
।।11.41।।एवं नमस्कृत्य पूर्वाज्ञानजापराधान् क्षमापयति -- सखेति द्वयेन। मया तव इदं पुरुषोत्तमत्वेन सर्वरूपात्मकरूपं महिमानमजानता प्रमादादनवधानतया प्रणयेन स्नेहेन वाऽपि प्रसभं बलात्कारेण अकार्येषु योजनार्थं हे कृष्ण इति नामत्वेन? न तु सदात्मकत्वेन हे यादव इति तत्कुलोद्भवत्वेन? न तु तदुद्धारार्थप्रकटत्वेन हे सखेति मित्रत्वेन लौकिकबुद्ध्या? न तु परमात्मत्वेन यदुक्तम्।
।।11.41।।एवं स्तुत्वा स्वापराधान्क्षमापयते -- सखेतीति। अयं मम सखा इति मत्वा प्रसभं स्वोत्कर्षाविष्करणपूर्वकं यत् मयोक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखे इति। इतिशब्देन संधिरार्षः। कुत उक्तम्। तव इदमेवंविधं महिमानं माहात्म्यमजानता कदाचित्प्रमादाच्चित्तविक्षेपात्कदाचित्प्रणयेन स्नेहेन च।
।।11.41।।एवं स्तुत्वा स्वापराधमज्ञानकृतं क्षमापयते। सखा समानवया इति मत्वा ज्ञात्वा विपरीतबुद्य्धा प्रसभं प्रसह्यंभिभूय यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। सखेति संधिरार्षः। तत्त्वां क्षामये इत्युत्तरेण संबन्धः। क्षमायोग्यतां सूचयन् अपराधस्याज्ञानपूर्वकत्वमाह। अजानता तव महिमानं माहात्म्यं तवेदमीश्वरस्य विश्वरुपजानता अज्ञानिना मूढेन। इममिति पाठे तु इमं महिमानमिति सामानधिकरण्यम्। आविर्भूतैश्वर्यस्याप्यज्ञाने हेतुमाह। प्रमादात् विक्षिप्तचित्ततया प्रणयेन स्नेहनिमित्तविश्रम्भेण वापि मया यदुक्तमिति संबन्धः।
11.41 सखा friend? इति as? मत्वा regarding? प्रसभम् presumptuously? यत् whatever? उक्तम् said? हे कृष्ण O Krishna? हे यादव O Yadava? हे सखा O friend? इति thus? अजानता unknowing? महिमानम् greatness? तव Thy? इदम् this? मया by me? प्रमादात् from carelessness? प्रणयेन due to love? वा or? अपि even.No Commentary.
11.41 Whatever I have presumptuously said from carelessness or love, addressing Thee as O Krishna! O Yadava! O Friend! regarding Thee merely as a friend, unknowing of this, Thy greatness.
11.41 Whatever I have said unto Thee in rashness, taking Thee only for a friend and addressing Thee as O Krishna! O Yadava! O Friend!' in thoughtless familiarity, no understanding Thy greatness;
11.41 Without knowing this greatness of Yours, whatever was said by me (to You) rashly, through inadvertence or even out of intimacy, thinking (You to be) a friend, addressing (You) as 'O krsna,' 'O Yadava,' 'O friend,' etc.-.
11.41 Like a fool, ajanata, without knowing-. Not knowing what? In answer he says: idam, this; mahimanam, greatness-the Cosmic form; tava, of Yours, of God; yat, whatever; uktam, was said; maya, by me (to You); prasabham, rashly, slightingly; pramadat, through inadvertence, being in a distracted state of mind; va api, or even; pranayena, out of intimacy-itimacy is the familiarity arising out of love; whatever I have said because of that reason; erroneously matva, thinking (You); sakha iti, to be a friend, of the same age; iti, addressing You as, 'O Krsna,' 'O Yadava,' 'O friend,'-. In the clause, 'tava idam mahimanam, ajanata, without knowing this greatness of Yours,' idam (this) (in the neutor gender) is connected with mahimanam (greatness) (in masculine gender) by a change of gender. If the reading be tava imam, then both the words would be in the same gender.
11.41. Taking You for a [mere] companion, not knowing this greatness of Yours, and out of my carelessness or through even affection, whatever I have importunately called You as O Krsna, O Yadava, O Comrade; and,
11.41 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.41 - 11.42 Infinite power, boundless valour, being the Inner Self of everything, being the creator etc., these constitute Your majesty. Being ignorant of this, and considering You only as a friend, and out of conseent love, or negligence born of life-long familiarity, whatever has been said rudely, without showing courtesy, such as 'O Krsna, O Yadava, O Comrade'; and whatever disrespect has been shown to You in jest, while playing or resting, while sitting or eating, while alone or in the sight of others - for all these I beseech forgiveness of You who are in incomprehensible.
11.41 Unaware of this majesty of Yours, and either from negligence or love, or considering You to be a friend, whatever I have rudely said as 'O Krsna, O Yadava, O Comrade.'
।।11.41।।क्योंकि मैं आपकी महिमाको न जाननेका अपराधी रहा हूँ? इसलिये --, आपकी महिमाको अर्थात् आप ईश्वरके इस विश्वरूपको न जाननेवाले मुझ मूढ़द्वारा विपरीत बुद्धिसे आपको मित्रसमान अवस्थावाला समझकर जो अपमानपूर्वक हठसे हे कृष्ण हे यादव हे सखे इत्यादि वचन कहे गये हैं -- तव इदं महिमानम् अजानता इस पाठमें इदम् शब्द नपुंसक लिङ्ग है और महिमानम् शब्द पुंल्लिङ्ग है? अतः इनका आपसमें वैयधिकरण्यसे विशेष्यविशेषणभावसम्बन्ध है। यदि इदम् की जगह इमम् पाठ हो तो सामानाधिकरण्यसे सम्बन्ध हो सकता है। इसके सिवा प्रमादसे यानी विक्षिप्तचित्त होनेके कारण अथवा प्रणयसे भी -- स्नेहनिमित्तक विश्वासका नाम प्रणय है? उसके कारण भी मैंने जो कुछ कहा है।
।।11.41।। --,सखा समानवयाः इति मत्वा ज्ञात्वा विपरीतबुद्ध्या प्रसभम् अभिभूय प्रसह्य यत् उक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति च अजानता अज्ञानिना मूढेन किम् अजानता इति आह -- महिमानं माहात्म्यं तव इदम् ईश्वरस्य विश्वरूपम्। तव इदं महिमानम् अजानता इति वैयधिकरण्येन संबन्धः। तवेमम् इति पाठः यदि अस्ति? तदा सामानाधिकरण्यमेव। मया प्रमादात् विक्षिप्तचित्ततया? प्रणयेन वापि? प्रणयो नाम स्नेहनिमित्तः विस्रम्भः? तेनापि कारणेन यत् उक्तवान् अस्मि।।
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सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।11.41।।
সখেতি মত্বা প্রসভং যদুক্তং হে কৃষ্ণ হে যাদব হে সখেতি৷ অজানতা মহিমানং তবেদং মযা প্রমাদাত্প্রণযেন বাপি৷৷11.41৷৷
সখেতি মত্বা প্রসভং যদুক্তং হে কৃষ্ণ হে যাদব হে সখেতি৷ অজানতা মহিমানং তবেদং মযা প্রমাদাত্প্রণযেন বাপি৷৷11.41৷৷
સખેતિ મત્વા પ્રસભં યદુક્તં હે કૃષ્ણ હે યાદવ હે સખેતિ। અજાનતા મહિમાનં તવેદં મયા પ્રમાદાત્પ્રણયેન વાપિ।।11.41।।
ਸਖੇਤਿ ਮਤ੍ਵਾ ਪ੍ਰਸਭਂ ਯਦੁਕ੍ਤਂ ਹੇ ਕਰਿਸ਼੍ਣ ਹੇ ਯਾਦਵ ਹੇ ਸਖੇਤਿ। ਅਜਾਨਤਾ ਮਹਿਮਾਨਂ ਤਵੇਦਂ ਮਯਾ ਪ੍ਰਮਾਦਾਤ੍ਪ੍ਰਣਯੇਨ ਵਾਪਿ।।11.41।।
ಸಖೇತಿ ಮತ್ವಾ ಪ್ರಸಭಂ ಯದುಕ್ತಂ ಹೇ ಕೃಷ್ಣ ಹೇ ಯಾದವ ಹೇ ಸಖೇತಿ. ಅಜಾನತಾ ಮಹಿಮಾನಂ ತವೇದಂ ಮಯಾ ಪ್ರಮಾದಾತ್ಪ್ರಣಯೇನ ವಾಪಿ৷৷11.41৷৷
സഖേതി മത്വാ പ്രസഭം യദുക്തം ഹേ കൃഷ്ണ ഹേ യാദവ ഹേ സഖേതി. അജാനതാ മഹിമാനം തവേദം മയാ പ്രമാദാത്പ്രണയേന വാപി৷৷11.41৷৷
ସଖେତି ମତ୍ବା ପ୍ରସଭଂ ଯଦୁକ୍ତଂ ହେ କୃଷ୍ଣ ହେ ଯାଦବ ହେ ସଖେତି| ଅଜାନତା ମହିମାନଂ ତବେଦଂ ମଯା ପ୍ରମାଦାତ୍ପ୍ରଣଯେନ ବାପି||11.41||
sakhēti matvā prasabhaṅ yaduktaṅ hē kṛṣṇa hē yādava hē sakhēti. ajānatā mahimānaṅ tavēdaṅ mayā pramādātpraṇayēna vāpi৷৷11.41৷৷
ஸகேதி மத்வா ப்ரஸபஂ யதுக்தஂ ஹே கரிஷ்ண ஹே யாதவ ஹே ஸகேதி. அஜாநதா மஹிமாநஂ தவேதஂ மயா ப்ரமாதாத்ப்ரணயேந வாபி৷৷11.41৷৷
సఖేతి మత్వా ప్రసభం యదుక్తం హే కృష్ణ హే యాదవ హే సఖేతి. అజానతా మహిమానం తవేదం మయా ప్రమాదాత్ప్రణయేన వాపి৷৷11.41৷৷
11.42
11
42
।।11.41 -- 11.42।। आपकी  महिमा और स्वरूपको न जानते हुए 'मेरे सखा हैं' ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे भी हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) 'हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखे !' इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत ! हँसी-दिल्लगीमें, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समयमें अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदिके सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है, वह सब अप्रमेस्वरूप आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ ।
।।11.42।। और, हे अच्युत! जो आप मेरे द्वारा हँसी के लिये बिहार, शय्या, आसन और भोजन के समय अकेले में अथवा अन्यों के समक्ष भी अपमानित किये गये हैं, उन सब के लिए अप्रमेय स्वरूप आप से मैं क्षमायाचना करता हूँ।।
।।11.42।। जब कोई सामान्य व्यक्ति अकस्मात् ही परमात्मा के महात्म्य का परिचय पाता है? तब उसके मन में जिन भावनाओं का निश्चित रूप से उदय होता है? उन्हें इन दो सुन्दर श्लोकों के द्वारा नाटकीय यथार्थता के साथ सामने लाया गया है। अब तक अर्जुन? भगवान् श्रीकृष्ण को एक बुद्धिमान् गोपाल से अधिक कुछ नहीं समझता था? जिसे उसने बड़ी उदारता से अपनी राजमैत्री का आश्रय लाभ दिया था। परन्तु? अब श्रीकृष्ण के अनन्तस्वरूप का वास्तविक परिचय पाकर अर्जुन में स्थित जीवभाव उनके समक्ष दृढ़ निष्ठा एवं सम्मान के साथ प्रणिपात करके उनसे दया और क्षमा की याचना करता है।इन दो श्लोकों में अत्यन्त घनिष्ठता का स्पर्श है। यहाँ बौद्धिक दार्शनिक चिन्तन का घनिष्ठ परिचय के भावुक पक्ष के साथ सुन्दर संयोग हुआ है। गीता का प्रयोजन ही यह है कि वेद प्रतिपादित सत्यों की सुमधुर ध्वनि का व्यावहारिक जगत् की सुखद लय के साथ मिलन कराया जाये। घनिष्ठ परिचय के इन भावुक स्पर्शों के द्वारा व्यासजी की कुशल लेखनी? वेदान्त के विचारोत्तेजक महान् सत्यों को? अचानक? अपने घर की बैठक में होने वाले वार्तालाप के परिचित वातावरण में ले आती है। एक घनिष्ठ मित्र के रूप में प्रमाद या प्रेमवश अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा को न जानते हुए उन्हें प्रिय नामों से सम्बोधित किया होगा? जिसके लिए उनसे अब्ा वह क्षमायाचना करता है।क्योंकि
।।11.42।। व्याख्या--[जब अर्जुन विराट् भगवान्के अत्युग्र रूपको देखकर भयभीत होते हैं, तब वे भगवान्के कृष्णरूपको भूल जाते हैं और पूछ बैठते हैं कि उग्ररूपवाले आप कौन हैं परन्तु जब उनको भगवान् श्रीकृष्णकी स्मृति आती है कि वे ये ही हैं, तब भगवान्के प्रभाव आदिको देखकर उनको सखाभावसे किये हुए पुराने व्यवहारकी याद आ जाती है और उसके लिये वे भगवान्से क्षमा माँगते हैं।]   'सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति'--जो बड़े आदमी होते हैं, श्रेष्ठ पुरुष होते हैं, उनको साक्षात् नामसे नहीं पुकारा जाता। उनके लिये तो 'आप', महाराज आदि शब्दोंका प्रयोग होता है। परन्तु मैंने आपको कभी 'हे कृष्ण' कह दिया, कभी 'हे यादव' कह दिया और कभी हे सखे कह दिया। इसका कारण क्या था? 'अजानता महिमानं तवेदम्' (टिप्पणी प0 603.1) इसका कारण यह था कि मैंने आपकी ऐसी महिमाको और स्वरूपको जाना नहीं कि आप ऐसे विलक्षण हैं। आपके किसी एक अंशमें अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं--ऐसा मैं पहले नहीं जानता था। आपके प्रभावकी तरफ मेरी दृष्टि ही नहीं गयी। मैंने कभी सोचा-समझा ही नहीं कि आप कौन हैं और कैसे हैं।
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।।11.42।। तव अनन्तवीर्यत्वामितविक्रमत्वसर्वान्तरात्मत्वस्रष्टृत्वादिको यो महिमा तम् इमम् अजानतया मया प्रमादात् मोहात् प्रणयेन चिरपरिचयेन वा सखा इतिमम वयस्यः इति मत्वा हे कृष्ण हे यादव हे सखे इति त्वयि प्रसभं विनयापेतं यद् उक्तं यत् च परिहासार्थं सर्वदा एव सत्कारार्हः त्वम् असत्कृतः असि? विहारशय्यासनभोजनेषु च सहकृतेषु एकान्ते वा समक्षं वा यद् असत्कृतः असि? तत् सर्वं त्वाम् अप्रमेयम् अहं क्षामये।
।।11.42।।यदयुक्तमुक्तं तत्क्षन्तव्यमित्येव न किंतु यत्परीहासार्थं क्रीडादिषु त्वयि तिरस्करणं कृतं तदपि सोढव्यमित्याह -- यच्चेति। विहरणं क्रीडा व्यायामो वा। शयनं तल्पादिकमासनमास्थायिका सिंहासनादेरुपलक्षणम्। एतेषु विषयभूतेष्विति यावत्। एकशब्दो रहसि स्थितमेकाकिनं कथयतीत्याह -- परोक्षः सन्निति। प्रत्यक्षं परोक्षं वा तदसत्करणं परिभवनं यथा स्यात्तथा यन्मया त्वमसत्कृतोऽसि तत्सर्वमिति योजनामङ्गीकृत्याह -- तच्छब्द इति। क्षमा कारयितव्येत्यत्रापरिमितत्वं हेतुमाह -- अप्रमेयमिति।
।।11.42।।किञ्च तामसकर्मसु मृगयाविहारादिषु स्थितं त्वां तमोगुणयुक्तं पूर्वं ज्ञात्वा मया यदसत्कृतोऽसि तदप्येकोऽहं त्वां साम्प्रतं क्षमां कारयामि।
।।11.42।।यच्चावहासार्थं परिहासार्थं विहारशय्यासनभोजनेषु विहारः क्रीडा व्यायामो वा? शय्या तूलिकाद्यास्तरणविशेषः? आसनं सिंहासनादि? भोजनं बहूनां पङ्क्तावशनं तेषु विषयभूतेषु असत्कृतोऽसि मया परिभूतोऽसि। एकः सखीन्विहाय रहसि स्थितो वा त्वं। अथवा तत्समक्षं तेषां सखीनां परिहसतां समक्षं वा। हे अच्युत सर्वदा निर्विकार? तत्सर्ववचनरूपमसत्करणरूपं चापराधजातं क्षामये क्षमयामि। त्वामप्रमेयं अचिन्त्यप्रभावं। अचिन्त्यप्रभावेन निर्विकारेण च परमकारुणिकेन भगवता त्वन्माहात्म्यानभिज्ञस्य ममापराधाः क्षन्तव्या इत्यर्थः।
।।11.42।।किंच -- यच्चेति। हे अच्युत? यच्च परिहासार्थं क्रीडादिषु तिरस्कृतोऽसि। एकः केवलः। सखीन्विना रहसि स्थित इत्यर्थः। अथवा तत्समक्षं तेषां परिहसतां सखीनां समक्षं पुरतोऽपि तत्सर्वमपराधजातं त्वामप्रमेयचिन्त्यप्रभावं क्षामये क्षमां कारयामि।
।। 11.42 इदंशब्दविशेषितमहिमशब्दः प्रकृतमहिमानुवादीत्यभिप्रयन्नाह -- अनन्तवीर्यत्वामितविक्रमत्वेत्यादि। प्रमादशब्दस्याज्ञानपरत्वेअजानता इत्यनेन पौनरुक्त्यात् सजातीयत्वभ्रमपरत्वमभिप्रेत्यप्रमादान्मोहादित्युक्तम्। सखेति बुद्धिहेतुत्वस्वारस्यात्प्रीतिवाचिनापि प्रणयशब्देन तदौपयिकचिरपरिचयोपचारो युक्त इत्याशयेनाहप्रणयेन चिरपरिचयेनेति सयुजा सखाया [ऋक्सं.2।3।17।5मुं.उ.3।1श्वे.उ.4।6] इति श्रुतिप्रतिपन्नसखित्वबुद्धेर्मोहादिजन्यत्वासम्भवेनसखेति मत्वा इत्येतल्लौकिकवयस्यत्वबुद्धिपरमित्याशयेनाहमम वयस्य इति मत्वेति।हे कृष्ण इत्यादिकं प्रसभोक्त्याकारसमर्पकमित्याशयेनान्वयं दर्शयन् प्रकृतोचितविनयाभावपरत्वमाहहे कृष्णेत्यादि।यच्च इत्यत्र चशब्दाभिप्रेतासत्कारबहुत्वसिद्ध्यर्थंयदसत्कृतोऽसि इत्यस्यावृत्त्या वाक्यभेदमङ्गीकृत्य अर्थमाहयच्च परिहासार्थमित्यादिना। तत एवतत्सर्वम् इति तस्य बहुत्वमुच्यते। परिहासार्थमप्यसत्कारो महद्विषयेऽपराध एवेत्यभिप्रायेण मध्यमपुरुषाक्षिप्तार्थमाहसर्वदैव सत्कारार्हस्त्वमिति। एकशब्दफलितोक्तिःएकान्त इति।
।।11.42।।च पुनः। सखेति मत्वा अवहासार्थं मिथ्यावादादिभिः एकः केवलो मां विहाय विहारादिकं करोषीत्यादिभिः। अथवा मत्समक्षं विहारे द्यूतमृगयादिषु स्वजनत्वमुद्भावयता? शय्यायां सहशयनेन? आसने सहोपवेशेन? भोजने सहभुञ्जता? इत्यादिषु यत् असत्कृतोऽसि अवमानितोऽसि हे अच्युत च्युतिरहित स्वाङ्गीकृतपरिपालक। अहं त्वामप्रमेयं प्रमातुमयोग्यं तत्सर्वं क्षामये क्षमां कारयामि अप्रमेयत्वेनाऽज्ञानजापराधनिवृत्तिः सूचिता।
।।11.42।।तथा यच्च अवहासार्थं विहारादिष्वसत्कृतोऽसि परिभूतोऽसि। एको वा सखीनां वियोगकाले वा तत्समक्षं सखिजनसमक्षं वाऽसत्कृतोऽसि तत्क्षामये क्षमापये। यतस्त्वमप्रमेयोऽचिन्त्यस्वभावः करुणापरः। यतः शत्रुभ्योऽपि शिशुपालादिभ्य उत्तमां गतिं दत्तवानसीत्यर्थः।
।।11.42।।यच्चावहासार्थं परिहासप्रयोजनायासत्कृतोऽसि परिभूतोऽसि। विहरणं विहारः क्रीडा पादव्यायमो वा? शयनं शय्या? आसनमास्थायिका सिंहासनादि? भोजनमदनमित्येतेषु विहारदिषु असत्करणं चोत्कृष्टेन सह निकृष्टस्य समानतया प्रवृत्तिः। एक परोक्षः रहसि सन्नसत्कृतोऽसि। अथवा समक्षं प्रत्यक्षमपि यत् असत्कृतोसि परोक्षं वा प्रत्यक्षं वा तदसत्करणं यन्मया परिभूतोऽसि तत्सर्वमपराधजाते त्वामहं क्षामये क्षमां कारये। पूर्वं मातुलोयं स्वसमानं ज्ञात्वाऽसत्कृत्येदानीमप्रमेयं बुद्ध्वा क्षामय इत्याशयेनाह -- अप्रमेयमिति। असत्कृतोऽहं क्षमां न करोमीति न वाच्यम्। यतोऽसत्करणएन स्वपदात्सर्वोत्तमात् सदैवाप्रच्युत इति ध्वनयन् संबोधयति -- हेऽच्युतेति।
11.42 यत् whatever? च and? अवहासार्थम् for the sake of fun? असत्कृतः disrespected? असि (Thou) art? विहारशय्यासनभोजनेषु while at play? on bed? while sitting or at meals? एकः (when) one? अथवा or? अपि even? अच्युत O Krishna? तत् so? समक्षम् in company? तत् that? क्षामये implore to forgive? त्वाम् Thee? अहम् I? अप्रमेयम् immeasurable.Commentary Arjuna? beholding the Cosmic Form of Lord Krishna? seeks forgiveness for his past familiar conduct. He says? I have been stupid. I have treated Thee with familiarity? not knowing Thy greatness. I have taken Thee as my friend on account of misconception. I have behaved badly with Thee. Thou art the origin of this universe and yet I have joked with Thee. I have taken undue liberties with Thee. Kindly forgive me? O Lord.Tat All those offences.Achyuta He who is unchanging.In company In the presence of others.Aprameyam Immeasurable. He Who has unthinkable glory and splendour.
11.42 In whatever way I may have insulted Thee for the sake of fun, while at play, reposing, sitting or at meals, when alone (with Thee), O Krishna, or in company that I implore Thee, immeasurable one, to forgive.
11.42 Whatever insult I have offered to Thee in jest, in sport or in repose, in conversation or at the banquet, alone or in a multitude, I ask Thy forgiveness for them all, O Thou Who art without an equal!
11.42 And that You have been discourteously treated out of fun-while walking, while on a bed, while on a seat, while eating, in privacy, or, O Acyuta, even in public, for that I beg pardon of You, the incomprehensible One.
11.42 And, yat, that; asi, You have been; asatkrtah, discourteously treated, slighted; avahasa-artham, out of fun, with a veiw to mocking;-where?-in these, Acyuta, viz vihara-sayya-asana-bhojanesu, while walking [Walking, i.e. sports or exercise], while on a bed, while on a seat, and while eating;-that You have been insulted ekah, in privacy, in the absence of others; adhava, or; that You have been insulted api, even; tat-samaksam, in public, in the very presence of others-(-tat being used as an adverb); tat, for that, for all those offences; O Acyuta, aham, I; ksamaye, beg pardon; tvam, of You; aprameyam, the incomprehensible One, who are beyond the means of knowledge. (I beg Your pardon) because,
11.42. Whatever disrespect was shown by me to You, to make fun of You in the course of play, or while on the bed, or on the seat, or at meals, either alone, or in the presence of repectable persons - for that I beg pardon of You, the Unconceivable One, O Acyuta !
11.42 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.41 - 11.42 Infinite power, boundless valour, being the Inner Self of everything, being the creator etc., these constitute Your majesty. Being ignorant of this, and considering You only as a friend, and out of conseent love, or negligence born of life-long familiarity, whatever has been said rudely, without showing courtesy, such as 'O Krsna, O Yadava, O Comrade'; and whatever disrespect has been shown to You in jest, while playing or resting, while sitting or eating, while alone or in the sight of others - for all these I beseech forgiveness of You who are in incomprehensible.
11.42 And whatever disrespect has been shown to You in jest, while playing, resting, while sitting or eating, while alone or in the sight of others, O Acyuta - I implore You for forgiveness, You who are incomprehensible.
।।11.42।।तथा जो हँसीके लिये भी आप मुझसे असत्कृत -- अपमानित हुए हैं कहाँ विहार? शय्या? आसन और भोजनादिमें। विचरनारूप पैरोंसे चलनेफिरनेकी क्रियाका नाम विहार है? शयनका नाम शय्या है? स्थित होनेबैठनेका नाम आसन है और भक्षण करनेका नाम भोजन है। इन सब क्रियाओंके करते समय ( मुझसे ) अकेलेमें -- आपके पीछे अथवा आपके सामने आपका जो कुछ अपमान -- तिरस्कार हुआ है हे अच्युत उस समस्त अपराधोंके समुदायको मैं आप अप्रमेयसे अर्थात् प्रमाणातीत परमेश्वरसे क्षमा कराता हूँ। समक्षम् शब्दके पहलेका तत् शब्द क्रियाविशेषण है।,
।।11.42।। --,यच्च अवहासार्थं परिहासप्रयोजनाय असत्कृतः परिभूतः असि भवसि क्व विहारशय्यासनभोजनेषु? विहरणं विहारः पादव्यायामः? शयनं शय्या? आसनम् आस्थायिका? भोजनम् अदनम्? इति एतेषु विहारशय्यासनभोजनेषु? एकः परोक्षः सन् असत्कृतः असि परिभूतः असि अथवापि हे अच्युत? तत् समक्षम्? तच्छब्दः क्रियाविशेषणार्थः? प्रत्यक्षं वा असत्कृतः असि तत् सर्वम् अपराधजातं क्षामये क्षमां कारये त्वाम् अहम् अप्रमेयं प्रमाणातीतम्।।यतः त्वम् --,
।।11.42।।एकः परोक्ष इति क्लिष्टं व्याख्यानमिति ज्ञापयितुं तदर्थमन्वयं च दर्शयति -- एक इति। आद्याक्षरग्रहणेन एशब्दः एकस्य द्योतकः। कशब्दः कारयितृत्वद्योतकः। अन्तर्णीतण्यर्थात्करोतेर्डः। अथापि एवमसत्कारानर्होऽप्यसत्कृतोऽसि।
।।11.42।।एकस्त्वमेव कारयिता? नान्योऽस्त्यथापि।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु। एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्।।11.42।।
যচ্চাবহাসার্থমসত্কৃতোসি বিহারশয্যাসনভোজনেষু৷ একোথবাপ্যচ্যুত তত্সমক্ষং তত্ক্ষামযে ত্বামহমপ্রমেযম্৷৷11.42৷৷
যচ্চাবহাসার্থমসত্কৃতোসি বিহারশয্যাসনভোজনেষু৷ একোথবাপ্যচ্যুত তত্সমক্ষং তত্ক্ষামযে ত্বামহমপ্রমেযম্৷৷11.42৷৷
યચ્ચાવહાસાર્થમસત્કૃતોસિ વિહારશય્યાસનભોજનેષુ। એકોથવાપ્યચ્યુત તત્સમક્ષં તત્ક્ષામયે ત્વામહમપ્રમેયમ્।।11.42।।
ਯਚ੍ਚਾਵਹਾਸਾਰ੍ਥਮਸਤ੍ਕਰਿਤੋਸਿ ਵਿਹਾਰਸ਼ਯ੍ਯਾਸਨਭੋਜਨੇਸ਼ੁ। ਏਕੋਥਵਾਪ੍ਯਚ੍ਯੁਤ ਤਤ੍ਸਮਕ੍ਸ਼ਂ ਤਤ੍ਕ੍ਸ਼ਾਮਯੇ ਤ੍ਵਾਮਹਮਪ੍ਰਮੇਯਮ੍।।11.42।।
ಯಚ್ಚಾವಹಾಸಾರ್ಥಮಸತ್ಕೃತೋಸಿ ವಿಹಾರಶಯ್ಯಾಸನಭೋಜನೇಷು. ಏಕೋಥವಾಪ್ಯಚ್ಯುತ ತತ್ಸಮಕ್ಷಂ ತತ್ಕ್ಷಾಮಯೇ ತ್ವಾಮಹಮಪ್ರಮೇಯಮ್৷৷11.42৷৷
യച്ചാവഹാസാര്ഥമസത്കൃതോസി വിഹാരശയ്യാസനഭോജനേഷു. ഏകോഥവാപ്യച്യുത തത്സമക്ഷം തത്ക്ഷാമയേ ത്വാമഹമപ്രമേയമ്৷৷11.42৷৷
ଯଚ୍ଚାବହାସାର୍ଥମସତ୍କୃତୋସି ବିହାରଶଯ୍ଯାସନଭୋଜନେଷୁ| ଏକୋଥବାପ୍ଯଚ୍ଯୁତ ତତ୍ସମକ୍ଷଂ ତତ୍କ୍ଷାମଯେ ତ୍ବାମହମପ୍ରମେଯମ୍||11.42||
yaccāvahāsārthamasatkṛtō.si vihāraśayyāsanabhōjanēṣu. ēkō.thavāpyacyuta tatsamakṣaṅ tatkṣāmayē tvāmahamapramēyam৷৷11.42৷৷
யச்சாவஹாஸார்தமஸத்கரிதோஸி விஹாரஷய்யாஸநபோஜநேஷு. ஏகோதவாப்யச்யுத தத்ஸமக்ஷஂ தத்க்ஷாமயே த்வாமஹமப்ரமேயம்৷৷11.42৷৷
యచ్చావహాసార్థమసత్కృతోసి విహారశయ్యాసనభోజనేషు. ఏకోథవాప్యచ్యుత తత్సమక్షం తత్క్షామయే త్వామహమప్రమేయమ్৷৷11.42৷৷
11.43
11
43
।।11.43।। आप ही इस चराचर संसारके पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओंके महान् गुरु हैं। हे अनन्त प्रभावशाली भगवन् ! इस त्रिलोकीमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो हो ही कैसे सकता है !
।।11.43।। आप इस चराचर जगत् के पिता, पूजनीय और सर्वश्रेष्ठ गुरु हैं। हे अप्रितम प्रभाव वाले भगवन्! तीनों लोकों में आपके समान भी कोई नहीं हैं, तो फिर आपसे अधिक श्रेष्ठ कैसे होगा?।।
।।11.43।। हम यहाँ देखते हैं कि भावावेश के कारण अवरुद्ध कण्ठ से अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति अत्यादर के साथ कहता है कि आप इस चराचर जगत् के पिता हैं। निसन्देह ही? जाग्रत् स्वप्न? और सुषुप्ति अवस्थाओं के अनुभव लोक भी? आत्मतत्त्व की स्थूल? सूक्ष्म और कारण उपाधियों के द्वारा अभिव्यक्ति से ही विद्यमान प्रतीत होते हैं। उन सबका प्रकाशक आत्मचैतन्य सर्वत्र एक ही है।स्वाभाविक है कि अर्जुन के कथन के अनुसार भगवान् अप्रतिम प्रभाव से सम्पन्न हैं और उनके समान भी जब कोई नहीं है? तो उनसे अधिक श्रेष्ठ कौन हो सकता हैक्योंकि वास्तविकता ऐसी है
।।11.43।। व्याख्या--'पितासी लोकस्य चराचरस्य'--अनन्त ब्रह्माण्डोंमें मनुष्य, शरीर, पशु, पक्षी आदि जितने जङ्गम प्राणी हैं, और वृक्ष, लता आदि जितने स्थावर प्राणी हैं, उन सबको उत्पन्न करनेवाले और उनका पालन करनेवाले पिता भी आप हैं, उनके पूजनीय भी आप हैं तथा उनको शिक्षा देनेवाले महान् गुरु भी आप ही हैं -- 'त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।'
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।।11.43।।अप्रितमप्रभाव त्वम् अस्य चराचरस्य लोकस्य पिता असि अस्य लोकस्य गुरुः च असि। अतः त्वम् अस्य चराचरस्य लोकस्य गरीयान् पूज्यतमः। न त्वत्समः अस्ति अभ्यधिकः कुतः अन्यः लोकत्रये अपि त्वदन्यः कारुण्यादिना केन अपि गुणेन न त्वत्समः अस्ति कुतः अभ्यधिकः।यस्मात् त्वं सर्वस्य पिता पूज्यतमो गुरुः च कारुण्यादिगुणैः च सर्वाधिकः असि --
।।11.43।।वाचनिकं मदीयमपराधजातं त्वया क्षन्तव्यमित्युक्तमिदानीं मदीयोऽपराधो न त्वया गृहीतव्यो गृहतोऽपि सोढव्य इत्याह -- यत इति। गुणाधिक्यात्पूजार्हत्वं धर्मात्मज्ञानसंप्रदायप्रवर्तकत्वेन शिक्षयितृत्वाद्गुरुत्वं गुरूणामपि सूत्रादीनां गुरुत्वाद्गरीयस्त्वं तदेव प्रश्नद्वारा साधयति -- कस्मादिति। ईश्वरान्तरं तुल्यं भविष्यतीत्याशङ्क्याह -- नहीति। ईश्वरभेदे प्रत्येकं स्वातन्त्र्यात्तदैकमत्ये हेत्वभावान्नानामतित्वे चैकस्य सिसृक्षायामन्यस्य संजिहीर्षासंभवाद्व्यवहारलोपादयुक्तमीश्वरनानात्वमित्यर्थः। अभ्यधिकासत्त्वं कैमुतिकन्यायेन दर्शयति -- त्वत्सम इति। तत्र हेतुमवतार्य व्याकरोति -- अप्रतिमेत्यादिना।
।।11.43।।पिताऽसीति। पूज्यो गुरुश्चेति सात्त्विकोऽश्वमेधे राजसूये च विदितस्त्वं सात्त्विकधर्माणां त्वयि निरूपितत्वात्तथाभूतं त्वां जानन् क्षमापयेऽहं प्राकृतः।
।।11.43।।अचिन्त्यप्रभावतामेव प्रपञ्चयति -- पितासीति। अस्य चराचरस्य लोकस्य पिता जनकस्त्वमसि। पूज्यश्चासि सर्वेश्वरत्वात्। गुरुश्चासि शास्त्रोपदेष्टा। अतः सर्वैः प्रकारैर्गरीयान् गुरुतरोऽसि। अतएव न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽपि। हे अमितप्रभाव? यस्य समोऽपि नास्ति द्वितीयस्य परमेश्वरस्याभावात्तस्याधिकोऽन्यः कुतः स्यात्। सर्वथा न संभाव्यत एवेत्यर्थः।
।।11.43।।अचिन्त्यप्रभावमेवाह -- पितेति। न विद्यते उपमा यस्य सोऽप्रतिमः तथाविधः प्रभावो यस्य तव हे अप्रतिमप्रभाव? त्वमस्य चराचरस्य लोकस्य पिता जनकोऽसि। अतएव पूज्यश्च गुरुश्च गुरोरपि गरीयान् गुरुतरः अतो लोकत्रयेऽपि त्वत्सम एव तावदन्यो नास्ति परमेश्वरस्यान्यस्याभावात्? त्वत्तोऽभ्यधिकः पुनः कुतः स्यात्।
।।11.43।।त्वया क्षामणे कृतेऽपि क्षमेऽहमिति केन निश्चितम् मदन्यः कश्चिदाश्रीयतामिति भगवदभिप्रायमुन्नीय तदुत्तरत्वेन हेतुफलभावेन प्रवृत्ते श्लोकद्वये प्रथमश्लोकस्थविशेषणान्यप्रतिमप्रभावत्वोपपादकानीत्यभिप्रायेणअप्रतिमप्रभावेति प्रथममुक्तम्। पितृगुरुपूज्यशब्दानां सम्बन्धिसापेक्षत्वेन लोकशब्दस्य सर्वत्रान्वयमाहअस्य लोकस्य पिताऽसीत्यादिना। निरुपाधिकपितृत्वगुरुत्वे पूज्यतमत्वहेतुरित्यभिप्रायेणअत इति। पूज्यत्वे गरीयस्त्वमनवच्छिन्नमिति ज्ञापनाय प्रवृत्तंन त्वत्समोऽस्ति इति वाक्यं व्याख्यास्यन् प्रयोजनातिशयसत्त्वाल्लोकत्रयशब्दस्यात्रान्वयमाहलोकत्रयेऽपि त्वदन्य इति। अत्र लोकत्रयशब्देन कृतकमकृतकं कृतकाकृतकमित्युक्तलोकत्रयं वा? लोक्यतेऽनेन प्रमाणान्तराप्राप्तार्थ इति व्युत्पत्त्या वेदत्रयं वा विवक्षितम्। साम्यस्य भेदघटितत्वात्न त्वत्समोऽस्ति इत्यनेनैव अन्यस्मिन् भगवत्साम्यनिषेधलाभादन्यपदानर्थक्यं इत्याशङ्कापरिहारायअन्यस्त्वत्समो नास्ति? त्वमेव तव समः इत्यर्थलाभार्थंत्वदन्यः इत्युद्देश्यसमर्पकत्वेनान्यशब्दस्यान्वय उक्तः। तेन कार्यत्वकर्मवश्यत्वादिना भगवदन्यत्वेन प्रसिद्धानां विधिशिवादीनां हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे [ऋक्सं.8।7।3।1वा.सं.20।10।10।14] अजस्य नाभावध्येकमर्पितं [यजुः4।6।2] यदा तमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्न चासच्छिव एव केवलः [श्वे.उ.4।18] इत्यादिषु तत्तद्वाचिशब्दश्रवणेन? कारणत्वादिना भगवत्साम्यापातप्रतीतावपिआकाशस्तल्लिङ्गात् [ब्र.सू.1।1।22]प्राणस्तथानुगमात् [ब्र.सू.1।1।28]शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् [ब्रू.सू.1।1।30]साक्षादप्यविरोधं जैमिनिः [ब्र.सू.1।2।28] इत्यादिन्यायानुरोधेन एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः [सुबालो.7] एको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानः [महो.1।1] इत्यादिश्रुतिसिद्धसर्वान्तरात्मत्वापहतपाप्मत्वादिविशिष्टभगवदसाधारणधर्मप्रतिपादकवाक्यस्थहिरण्यगर्भाजशिवादिशब्दानां भगवत्परतया न तेषां भगवत्साम्यगन्धोऽपीति लभ्यते।केनापि गुणेनेति -- किमुत सकलकल्याणगुणैर्जगत्कारणत्वमोक्षप्रदत्वादिना चेति भावः। अनेन साम्यैक्योत्तीर्णव्यक्त्यन्तरत्वपक्षा निरस्ता वेदितव्याः।
।।11.43।।क्षमापने सन्बन्धस्यावश्यकत्वायाह -- पितेति। अस्य चराचरस्य स्थावरजङ्गमात्मकस्य ब्राह्मणक्षत्रिययोर्वापिता उत्पादकः? च पुनः गरीयान् पूज्यः देवोत्तमः तद्द्रष्टा गुरुः त्वमसि। तर्हि त्वत्समो भविष्यतीति नेत्याह। हे अप्रतिमप्रभाव उपमारहितानुभाव लोकत्रये अन्यस्त्वत्समोऽपि नास्ति कुतोऽभ्यधिको भवेत् येन त्वं तत्समः स्याः।
।।11.43।।अप्रमेयत्वमेवाह -- पितासीति। यतस्त्वमस्माकं पितासि अतोऽस्माभिः शिशुभिः कृता अपराधास्त्वया क्षन्तव्या एवेति भावः।
।।11.43।।मयातीवानुचितमेव कुतं क्षमापनं च कर्तव्यमेव त्वया च क्षन्तव्यमेव। यतस्त्वं प्राणिनिकायस्य स्थावरजंगमस्य पिता जनकोऽसि पूज्यः पूजार्हश्चासि। यतो गुरुर्धर्मब्रह्मोपदेष्टा गरीयान् गुरुतरोसि। भगवतो गुरुतरत्वे हेतुमाह। न त्वत्समस्तुल्योऽस्ति द्वितीयस्येस्वरस्याभावात् ईश्वरसत्वे प्रत्येकमैकमत्ये कारणाभावात् नानामतित्वे चैकस्य संजिहीर्षायामपरस्य सिसृक्षासंभवात् अपरस्य पालनेच्छायामेकस्य संजिहीर्षासंभवात् व्यवहारलोपप्रसङ्गापत्त्यानेकेश्वरवादस्यायुक्तत्वादिति भावः। त्वत्तुल्य एवान्यो न संभवति। कुतएव लोकत्रयेऽपि सर्वस्मिन्लोकेऽन्योऽभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽपीति वा हेतुहेतुमद्भावः। भाष्यस्योपलक्षणार्थत्वादविरोधः। हेऽप्रतिप्रभाव? प्रतिमीयते यया सा प्रतिमा उपमा न विद्यते उपमा यस्य स चौसौ प्रभावो यस्य स तथा। असस्त्वमेव सर्वेषां पित्रादिरिति भावः।
11.43 पिता Father? असि (Thou) art? लोकस्य of the world? चराचरस्य of the moving and unmoving? त्वम् Thou? अस्य of this? पूज्यः to be reserved? च and? गुरुः the Guru? गरीयान् weightier? न not? त्वत्समः eal to Thee? अस्ति is? अभ्यधिकः surpassing? कुतः whence? अन्यः other? लोकत्रये in the three worlds? अपि also? अप्रतिमप्रभाव O Being of unealled power.Commentary There exists none who is eal to Thee There cannot be two or more Isvaras. If there were? the world will not get on as it does now. All the Isvaras may not be of one mind? as they would all be independent of one another. What one wishes to create? another may wish to destroyWhen there does not exist one who is eal to Thee? how could there be one superior to TheeFather Creator. As the Lord is the creator of this world He is fit to be adored. He is the greatest Guru also. Therefore there is no one who is eal to the Lord.
11.43 Thou art the Father of this world, moving and unmoving. Thou art to be adored by this world, Thou, the greatest Guru; (for) none there exists who is eal to Thee; how then could there be another superior to Thee in the three worlds, O Being of unealled power?
11.43 For Thou art the Father of all things movable and immovable, the Worshipful, the Master of Masters! In all the worlds there is none equal to Thee, how then superior, O Thou who standeth alone, Supreme.
11.43 You are the Father of all beings moving and non-moving; to this (world) You are worthy of worship, the Teacher, and greater (than a teacher). There is none eal to You; how at all can there be anyone greater even in all the three worlds, O You or unrivalled power?
11.43 Asi, You are; pita, the Father, the Progenitor; lokasya, off all beings; cara-acarasya, moving and nonmoving. Not only are Yur are Father of this world, You are also pujyah, worthy of worship; since You are the guruh, Teacher; [He is the Teacher since He introduce the line of teachers of what is virtue and vice, and of the knowledge of the Self. And He is greater than a teacher because He is the teacher even of Hiranyagarbha and others.] gariyan, greater (than a teacher). How are You greater? In answer he says: Asti, there is; na, none other; tvat-samah, eal to You; for there is no possibility of two Gods. Because all dealings will come to naught if there be many Gods! When there is no possibility of another being eal toYou, kutah eva, how at all; can there be anyah, anyone; abhyadhikah, greater; api, even; loka-traye, in all the three worlds; apratima-prabhavah, O you of unrivalled power? That by which something is measured is pratima. You who have no measure for Your power (prabhava) are a pratima-prabhavah. Apratima-prabhava means 'O You of limitless power!' Since this is so,
11.43. You are the father of the world of the moving and unmoving; You are the great preceptor of this universe; in the triad of worlds there is no one eal to You-How can there be anyone else superior ? - having greatness not comprehended.
11.43 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.43 O Being of matchless greatness! You are the father of this world, of all that moves and does not move. You are the teacher of this world. Therefore You are the one most worthy of reverence in this world of mobile and immobile entities. There is none eal to You. How then could there be in the three worlds another greater than You? No other being is eal to You in point of any attribute like compassion etc. How could there be any one greater? Inasmuch as You are the father of all, the most worthy of reverence, teacher and exalted over all by virtue of attributes like compassion etc.,
11.43 You are the father of this world, of all that moves and that does not move. You are its teacher and the one most worthy of reverence. There is none eal to You. How then could there be in the three worlds another greater than You, O Being of matchless greatness?
।।11.43।।क्योंकि आप --, इस स्थावरजंगमरूप समस्त जगत्के यानी प्राणिमात्रके उत्पन्न करनेवाले पिता हैं। केवल पिता ही नहीं? आप पूजनीय भी हैं? क्योंकि आप बड़ेसेबड़े गुरु हैं। आप कैसे गुरुतर हैं सो ( अर्जुन ) बतलाता है -- हे अप्रतिमप्रभाव सारी त्रिलोकीमें आपके समान दूसरा कोई नहीं है क्योंकि अनेक ईश्वर मान लेनेपर व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये ईश्वर दो नहीं हो सकते। जब कि सारे त्रिभुवनमें आपके समान ही दूसरा कोई नहीं है? फिर अधिक तो कोई हो ही कैसे सकता है जिससे किसी वस्तुकी समानता की जाय उसका नाम प्रतिमा है? जिन आपके प्रभावकी कोई प्रतिमा नहीं है? वह आप अप्रतिमप्रभाव हैं। इस प्रकार हे अप्रतिमप्रभाव अर्थात् हे निरतिशयप्रभाव ।,
।।11.43।। --,पिता असि जनयिता असि लोकस्य प्राणिजातस्य चराचरस्य स्थावरजङ्गमस्य। न केवलं त्वम् अस्य जगतः पिता? पूज्यश्च पूजार्हः? यतः गुरुः गरीयान् गुरुतरः। कस्मात् गुरुतरः त्वम् इति आह -- न त्वत्समः त्वत्तुल्यः अस्ति। न हि ईश्वरद्वयं संभवति? अनेकेश्वरत्वे व्यवहारानुपपत्तेः। त्वत्सम एव तावत् अन्यः न संभवति कुतः एव अन्यः अभ्यधिकः स्यात् लोकत्रयेऽपि सर्वस्मिन् अप्रतिमप्रभाव प्रतिमीयते यया सा प्रतिमा? न विद्यते प्रतिमा यस्य तव प्रभावस्य सः त्वम् अप्रतिमप्रभावः? हे अप्रतिमप्रभाव निरतिशयप्रभाव इत्यर्थः।।यतः एवम् --,
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पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्। न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।।11.43।।
পিতাসি লোকস্য চরাচরস্য ত্বমস্য পূজ্যশ্চ গুরুর্গরীযান্৷ ন ত্বত্সমোস্ত্যভ্যধিকঃ কুতোন্যো লোকত্রযেপ্যপ্রতিমপ্রভাব৷৷11.43৷৷
পিতাসি লোকস্য চরাচরস্য ত্বমস্য পূজ্যশ্চ গুরুর্গরীযান্৷ ন ত্বত্সমোস্ত্যভ্যধিকঃ কুতোন্যো লোকত্রযেপ্যপ্রতিমপ্রভাব৷৷11.43৷৷
પિતાસિ લોકસ્ય ચરાચરસ્ય ત્વમસ્ય પૂજ્યશ્ચ ગુરુર્ગરીયાન્। ન ત્વત્સમોસ્ત્યભ્યધિકઃ કુતોન્યો લોકત્રયેપ્યપ્રતિમપ્રભાવ।।11.43।।
ਪਿਤਾਸਿ ਲੋਕਸ੍ਯ ਚਰਾਚਰਸ੍ਯ ਤ੍ਵਮਸ੍ਯ ਪੂਜ੍ਯਸ਼੍ਚ ਗੁਰੁਰ੍ਗਰੀਯਾਨ੍। ਨ ਤ੍ਵਤ੍ਸਮੋਸ੍ਤ੍ਯਭ੍ਯਧਿਕ ਕੁਤੋਨ੍ਯੋ ਲੋਕਤ੍ਰਯੇਪ੍ਯਪ੍ਰਤਿਮਪ੍ਰਭਾਵ।।11.43।।
ಪಿತಾಸಿ ಲೋಕಸ್ಯ ಚರಾಚರಸ್ಯ ತ್ವಮಸ್ಯ ಪೂಜ್ಯಶ್ಚ ಗುರುರ್ಗರೀಯಾನ್. ನ ತ್ವತ್ಸಮೋಸ್ತ್ಯಭ್ಯಧಿಕಃ ಕುತೋನ್ಯೋ ಲೋಕತ್ರಯೇಪ್ಯಪ್ರತಿಮಪ್ರಭಾವ৷৷11.43৷৷
പിതാസി ലോകസ്യ ചരാചരസ്യ ത്വമസ്യ പൂജ്യശ്ച ഗുരുര്ഗരീയാന്. ന ത്വത്സമോസ്ത്യഭ്യധികഃ കുതോന്യോ ലോകത്രയേപ്യപ്രതിമപ്രഭാവ৷৷11.43৷৷
ପିତାସି ଲୋକସ୍ଯ ଚରାଚରସ୍ଯ ତ୍ବମସ୍ଯ ପୂଜ୍ଯଶ୍ଚ ଗୁରୁର୍ଗରୀଯାନ୍| ନ ତ୍ବତ୍ସମୋସ୍ତ୍ଯଭ୍ଯଧିକଃ କୁତୋନ୍ଯୋ ଲୋକତ୍ରଯେପ୍ଯପ୍ରତିମପ୍ରଭାବ||11.43||
pitāsi lōkasya carācarasya tvamasya pūjyaśca gururgarīyān. na tvatsamō.styabhyadhikaḥ kutō.nyō lōkatrayē.pyapratimaprabhāva৷৷11.43৷৷
பிதாஸி லோகஸ்ய சராசரஸ்ய த்வமஸ்ய பூஜ்யஷ்ச குருர்கரீயாந். ந த்வத்ஸமோஸ்த்யப்யதிகஃ குதோந்யோ லோகத்ரயேப்யப்ரதிமப்ரபாவ৷৷11.43৷৷
పితాసి లోకస్య చరాచరస్య త్వమస్య పూజ్యశ్చ గురుర్గరీయాన్. న త్వత్సమోస్త్యభ్యధికః కుతోన్యో లోకత్రయేప్యప్రతిమప్రభావ৷৷11.43৷৷
11.44
11
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।।11.44।। इसलिये शरीरसे लम्बा पड़कर स्तुति करनेयोग्य आप ईश्वरको मैं प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। जैसे पिता पुत्रके, मित्र मित्रके और पति पत्नीके अपमानको सह लेता है, ऐसे ही हे देव ! आप मेरे द्वारा किया गया अपमान सहनेमें समर्थ हैं।
।।11.44।। इसलिये हे भगवन्! मैं शरीर के द्वारा साष्टांग प्रणिपात करके स्तुति के योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ। हे देव! जैसे पिता पुत्र के, मित्र अपने मित्र के और प्रिय अपनी प्रिया के(अपराध को क्षमा करता है), वैसे ही आप भी मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये।।
।।11.44।। अर्जुन स्वयं को सर्वशक्तिमान भगवान् के समक्ष पाकर अपने में वाक्कौशल और तर्क करने की सूक्ष्म क्षमता को व्यक्त हुआ पाता है। यद्यपि हिन्दुओं में पूजनीय व्यक्ति का चरणस्पर्श करके अभिवादन किया जाता है? जो कि शारीरिक कर्म है किन्तु उसका जो वास्तविक अभिप्राय है उसे हृदय के आन्तरिक भाव के रूप में प्राप्त करना होता है। अहंकार के समर्पण के द्वारा आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करना ही वास्तविक प्रणाम या साष्टांग प्रणिपात है। अनात्म जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य से उत्पन्न अहंकार और तत्केन्द्रित मिथ्या कल्पनाओं के कारण अपने ही हृदयस्थ आत्मा का हमें साक्षात् अनुभव नहीं हो पाता है। जिस मात्रा में ये मिथ्या धारणाएं नष्ट हो जाती हैं? उस्ाी मात्रा में निश्चित ही? हम आत्मा के शान्त सौन्दर्य का अनुभव कर सकते हैं जो हमारा शुद्ध स्वरूप ही है। वास्तव में देखा जाये? तो अहंकार के इस समर्पण में हम अपनी अशुद्ध पाशविक वासनाओं की उस गठरी को ही अर्पित कर रहे होते हैं? जो हमारी मूढ़ता और कामुकता के कारण दुर्गन्धित होती हैअत स्वाभाविक है कि? जब कोई भक्त? भक्ति और प्रपत्ति की भावना से भगवान् के चरणों के समीप पहुँचता है? तो अपनी अशुद्धियों के लिए क्षमा याचना करता है।यहाँ अर्जुन भगवान् से अनुरोध करता है कि वे उसके किए अपराधों को ऐसे ही सहन करे? जैसे पिता पुत्र के? मित्र अपने मित्र के? प्रिय अपने प्रिया के अपराधों को सहन करता है। इन तीन उदाहरणों में वे सब घृष्टतापूर्ण अपराध सम्मिलित हो जाते हैं? जो एक मनुष्य अज्ञानवश अपने प्रभु भगवान् के प्रति कर सकता है।अर्जुन भगवान् से सामान्य रूप धारण करने तथा इस सर्वातीत? सार्वभौमिक भयंकर रूप का त्याग करने के लिए प्रार्थना करता है
।।11.44।। व्याख्या--'तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीषमीड्यम्'--आप अनन्त ब्रह्माण्डोंके ईश्वर हैं। इसलिये सबके द्वारा स्तुति करनेयोग्य आप ही हैं। आपके गुण, प्रभाव, महत्त्व आदि अनन्त हैं; अतः ऋषि, महर्षि, देवता, महापुरुष आपकी नित्य-निरन्तर स्तुति करते रहें, तो भी पार नहीं पा सकते। ऐसे स्तुति करनेयोग्य आपकी मैं क्या स्तुति कर सकता हूँ? मेरेमें आपकी स्तुति करनेका बल नहीं है, सामर्थ्य नहीं है। इसलिये मैं तो केवल आपके चरणोंमें लम्बा पड़कर दण्डवत् प्रणाम ही कर सकता हूँ और इसीसे आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। 'पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्'-- किसीका अपमान होता है तो उसमें मुख्य तीन कारण होते हैं -- (1) प्रमाद-(असावधानी-) से, (2) हँसी, दिल्लगी, विनोदमें खयाल न रहनेसे और (3) अपनेपनकी घनिष्ठता होनेपर अपने साथ रहनेवालेका महत्त्व न जाननेसे। जैसे, गोदीमें बैठा हुआ छोटा बच्चा अज्ञानवश पिताकी दाढ़ी-मूँछ खींचता है, मुँहपर थप्पड़ लगाता है, कभी कहीं लात मार देता है तो बच्चेकी ऐसी चेष्टा देखकर पिता राजी ही होते हैं. प्रसन्न ही होते हैं। वे अपनेमें यह भाव लाते ही नहीं कि पुत्र मेरा अपमान कर रहा है। मित्र मित्रके साथ चलते-फिरते, उठते-बैठते आदि समय चाहे जैसा व्यवहार करता है, चाहे जैसा बोल देता है, जैसे -- तुम ब़ड़े सत्य बोलते हो जी तुम तो बड़े सत्यप्रतिज्ञ हो अब तो तुम बड़े आदमी हो गये हो तुम तो खूब अभिमान करने लग गये हो आज मानो तुम राजा ही बन गये हो आदि, पर उसका मित्र उसकी इन बातोंका खयाल नहीं करता। वह तो यही समझता है कि हम बराबरीके मित्र हैं, ऐसी हँसी-दिल्लगी तो होती ही रहती है। पत्नीके द्वारा आपसके प्रेमके कारण उठने-बैठने, बातचीत करने आदिमें पतिकी जो कुछ अवहेलना होती है, उसे पति सह लेता है। जैसे, पति नीचे बैठा है तो,वह ऊँचे आसनपर बैठ जाती है, कभी किसी बातको लेकर अवहेलना भी कर देती है, पर पति उसे स्वाभाविक ही सह लेता है। अर्जुन कहते हैं कि जैसे पिता पुत्रके, मित्र मित्रके और पति पत्नीके अपमानको सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता है, ऐसे ही हे भगवन् आप मेरे अपमानको सहनेमें समर्थ हैं अर्थात् इसके लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।
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।।11.44।।तस्मात् त्वाम् ईशम् ईड्यम् प्रणम्य प्रणिधाय च कायं प्रसादये। यथा कृतापराधस्य अपि पुत्रस्य यथा च सख्युः प्रणामपूर्वकम् प्रार्थितः पिता सखा वा प्रसीदति? तथा त्वं परमकारुणिकः प्रियः प्रियाय मे सर्वं सोढुम् अर्हसि।
।।11.44।।निरतिशयप्रभावं हेतूकृत्याप्रतिमेत्यादिना प्रसादये प्रणामपूर्वकं त्वामित्याह -- यत इति। प्रसादनानन्तरं भगवता कर्तव्यं प्रार्थयते -- त्वं पुनरिति। प्रिय इव प्रियाया इतीवकारोऽनुषज्यते। प्रियायार्हसीति छान्दसः सन्धिः। क्षन्तुं मदपराधजातमिति शेषः।
।।11.44।।यस्मादेवं? तस्मादिति। त्वामीशं सर्वेषां राजानं नियन्तारं रजोभावमाश्रितं भक्तवात्सल्येन सारथ्ये कर्मणि स्थितं प्रणम्य प्रसादये। त्वं च पितेव पुत्रस्य? सखेव सख्युः? प्रिय इव प्रियाय सर्वं सोढुमर्हसि।
।।11.44।।तस्मादिति। यस्मादेवं तस्मात्प्रणम्य नमस्कृत्य त्वां प्रणिधाय प्रकर्षेण नोचैर्धृत्वा कायं। दण्डवद्भूमौ पतित्वेति यावत्। प्रसादये त्वामीशमीड्यं सर्वस्तुत्यमहमपराधी। अतो हे देव? पितेव पुत्रस्यापराधं सखेव सख्युरपराधं प्रियः पतिरिव प्रियायाः पतिव्रताया अपराधं ममापराधं त्वं सोढुं क्षन्तुमर्हसि। अनन्यशरणत्वान्मम प्रियायार्हसीत्यत्रेवशब्दलोपः सन्धिश्च छान्दसः।
।।11.44।।यस्मादेवं -- तस्मादिति। तस्मात्त्वामीशं जगतः स्वामिनमीड्यं स्तुत्यं प्रसादये प्रसादयामि। कथम्। कायं प्रणिधाय दण्डवन्निपात्य प्रणम्य प्रकर्षेण नत्वा। अतस्त्वं ममापराधं सोढुं क्षन्तुमर्हसि। कस्य क इव। पुत्रस्यापराधं कृपया पिता यथा सहते? सख्युर्मित्रस्यापराधं सखा निरुपाधिबन्धुर्यथा? प्रियश्च प्रियाया अपराधं तत्प्रियार्थं यथा तद्वत्।
।।11.44।।तस्मात् इति पूर्वश्लोकोक्तनिरुपाधिकपितृत्वपूज्यतमत्वगुरुत्वादिकं हेतुत्वेन परामृशतीत्यभिप्रायेणाहयस्मात्त्वं सर्वस्य पितेत्यादिना।प्रणम्य इति प्रपदनमुच्यते पूर्वोक्तपितृत्वादिपरामर्शिनातस्मात् इत्यनेनअहम् इत्यनेन चानुकूल्यसङ्कल्पाद्यङ्गानि सूचितानि।प्रणिधाय कायम् इत्यनेन यद्धि मनसा ध्यायति [यजुः6।9।7] इत्युक्तरीत्या करणपूर्तिः सूचिता। प्रणम्य प्रसादये प्रसादार्थं प्रणमामीत्यर्थः।प्रसादये? सोढुम् इत्याभ्यामर्थसिद्धं वदन् दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोः साधर्म्यमुपपादयतियथा कृतापराधस्यापीत्यादिना।
।।11.44।।यतः सर्वेषां पिता गुरुः पूज्यश्च त्वमेवाऽतो ममापि सर्वं त्वमेवेति मदपराधं क्षन्तुमर्हसीति विज्ञापयति -- तस्मादिति। तस्मात्कारणात् अहं त्वां ईशं प्रभुं ईड्यं स्तुत्यं कायं प्रणिधाय दण्डवत् पतित्वा प्रणम्य नत्वा प्रसादये प्रसादयामि। हे देव जगत्पूज्य त्वं पूर्वोक्तान् ममापराधान् सोढुम् अर्हसि। क इव पुत्रस्य पितेव सख्युर्मित्रस्य सखा इव? प्रियायाः प्रीतियोग्यायाः स्त्रियाः प्रिय इव।
।।11.44।।एतदेवाह -- तस्मादिति। यस्मात्त्वं पिता गुरुश्च तस्मात्कायं शरीरं प्रणिधाय भूमौ कृत्वा दण्डवत्प्रणम्य त्वां प्रसादये। ईड्यं स्तुत्यम्। स्पष्टमन्यत्।
।।11.44।।यस्मादेवं तस्मात्कायं शरीरं प्रणिधाय प्रकर्षेण नीचैः कृत्वा दण्डबद्भूमौ पातयित्वा प्रणभ्य त्वामहं प्रसादये। प्रसादं कारये। इदमत्यावश्यकमित्यत्रान्मदपि हेतुद्वयमाह। ईशं ईशितारं सर्वनियतन्तारमीड्यं स्तोतुं योग्यं त्वं च पिता यता पुत्रस्यापराधं क्षमते यथाच सख्युः सखा यथाच प्रियायाः भार्यायाः प्रियः भर्तेति तद्वित्क्षन्तुं योग्येसि जगज्जनक्तवात् पितृत्वम्। सयुजौ सखायाविति मन्त्रवर्षात्सखित्वं निखिलप्रपञ्चपोषकत्वात् भर्तृत्वं च तवास्तीति पित्रादिवन्मुख्यपित्रादिस्त्वं अवश्यं सोढुमर्हसीति सूचयन्द्रष्टान्तत्रयोपादानाम्। प्रियायार्हसीति संधिरार्षः। किंच नरनाट्यात्मकक्रीडाविधानार्थं मम बद्य्धावर्णं त्वयैव कृतमिति ध्वनयन्संबोधयति -- हे देवेति।
11.44 तस्मात् therefore? प्रणम्य saluting? प्रणिधाय having bent? कायम् body? प्रसादये crave forgiveness? त्वाम् Thee? अहम् I? ईशम् the Lord? ईड्यम् adorable? पिता father? प्रियः beloved? प्रियायाः to the beloved? अर्हसि (Thou) shouldst? देव O God? सोढुम् to bear.Commentary O Lord? take me to Thy bosom as a mother does her child. Forgive me for all tht I have hitherto spoken or done. Forgive my faults. Please overlook my past mistakes. I have done this through ignorance. Now I have come to Thee in submission. I beg Your pardon now.
11.44 Therefore, bowing down, prostrating my body, I crave Thy forgiveness, O adorable Lord. As a father forgives his son, a friend his (dear) friend, a lover his beloved, even so shouldst Thou forgive me, O God.
11.44 Therefore I prostrate myself before Thee, O Lord! Most Adorable! I salute Thee, I ask Thy blessing. Only Thou canst be trusted to bear with me, as father to son, as friend to friend, as lover to his beloved.
11.44 Therefore, by bowing down and prostrating the body, I seek to propitate You who are God and are adorable. O Lord, You should [The elision of a (in arhasi of priyayarhasi) is a metrical licence.] forgive (my faults) as would a father (the faults) of a son, as a friend, of a friend, and as a lover of a beloved.
11.44 Tasmat, therefore; pranamya, by bowing down; and pranidhaya kayam, prostrating, laying, the body completely down; prasadaye, I seek to propitiate; tvam, You; who are isam, God, the Lord; and are idyam, adorable. Deva, O God; You are Your part, arhasi, should; sodhum, bear with, i.e. forgive (my faults); iva, as would; a pita, father; forgive all the faults putrasya, of a son; and as a sakha, friend; the fautls sakhyuh, of a friend; or as a priyah, lover; forgives the faults priyayah, of a beloved.
11.44. Hence, paying homage, and prostrating may body, I solicit grace of You, the Lord praisworthy. O God ! Be pleased to bear with me, just as a beloved father with his beloved son and just as a dear friend with his dear friend.
11.44 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.44 Therefore, bowing down and prostrating, I implore You, O adorable Lord, for Your mercy. Just as, when entreated with salutation, a father will show mercy to his son, or a friend to a friend, even if he has been at fault, even so it is meet that You, most compassionate and dear to me, should bear with me, who is dear to You in all respects.
11.44 Therefore, bowing down, prostrating the body. I implore Your mercy, O adorable Lord. As a father hears with his son or a friend with his friend, it is meet, O Lord, that You, who are dear to me, should bear with me who am dear to You.
।।11.44।।जब कि यह बात है --, इसीलिये मैं अपने शरीरको भली प्रकार नीचा करके अर्थात् आपके चरणोंमें रखकर प्रणाम करके स्तुति करनेयोग्य शासनकर्ता आप ईश्वरको प्रसन्न करता हूँ। अर्थात् आपसे अनुग्रह कराता हूँ। जैसे पुत्रका समस्त अपराध पिता क्षमा करता है तथा जैसे मित्रका अपराध मित्र अथवा प्रियाका अपराध प्रिय ( पति ) क्षमा करता है -- सहन करता है? वैसे ही हे देव आपको भी ( मेरे समस्त अपराधोंको सर्वथा ) सहन करना अर्थात् क्षमा करना उचित है।
।।11.44।। --,तस्मात् प्रणम्य नमस्कृत्य? प्रणिधाय प्रकर्षेण नीचैः धृत्वा कायं शरीरम्? प्रसादये प्रसादं कारये त्वाम् अहम् ईशम् ईशितारम्? ईड्यं स्तुत्यम्। त्वं पुनः पुत्रस्य अपराधं पिता यथा क्षमते? सर्वं सखा इव सख्युः अपराधम्? यथा वा प्रियः प्रियायाः अपराधं क्षमते? एवम् अर्हसि हे देव सोढुं प्रसहितुम् क्षन्तुम् इत्यर्थः।।
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तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्। पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।11.44।।
তস্মাত্প্রণম্য প্রণিধায কাযং প্রসাদযে ত্বামহমীশমীড্যম্৷ পিতেব পুত্রস্য সখেব সখ্যুঃ প্রিযঃ প্রিযাযার্হসি দেব সোঢুম্৷৷11.44৷৷
তস্মাত্প্রণম্য প্রণিধায কাযং প্রসাদযে ত্বামহমীশমীড্যম্৷ পিতেব পুত্রস্য সখেব সখ্যুঃ প্রিযঃ প্রিযাযার্হসি দেব সোঢুম্৷৷11.44৷৷
તસ્માત્પ્રણમ્ય પ્રણિધાય કાયં પ્રસાદયે ત્વામહમીશમીડ્યમ્। પિતેવ પુત્રસ્ય સખેવ સખ્યુઃ પ્રિયઃ પ્રિયાયાર્હસિ દેવ સોઢુમ્।।11.44।।
ਤਸ੍ਮਾਤ੍ਪ੍ਰਣਮ੍ਯ ਪ੍ਰਣਿਧਾਯ ਕਾਯਂ ਪ੍ਰਸਾਦਯੇ ਤ੍ਵਾਮਹਮੀਸ਼ਮੀਡ੍ਯਮ੍। ਪਿਤੇਵ ਪੁਤ੍ਰਸ੍ਯ ਸਖੇਵ ਸਖ੍ਯੁ ਪ੍ਰਿਯ ਪ੍ਰਿਯਾਯਾਰ੍ਹਸਿ ਦੇਵ ਸੋਢੁਮ੍।।11.44।।
ತಸ್ಮಾತ್ಪ್ರಣಮ್ಯ ಪ್ರಣಿಧಾಯ ಕಾಯಂ ಪ್ರಸಾದಯೇ ತ್ವಾಮಹಮೀಶಮೀಡ್ಯಮ್. ಪಿತೇವ ಪುತ್ರಸ್ಯ ಸಖೇವ ಸಖ್ಯುಃ ಪ್ರಿಯಃ ಪ್ರಿಯಾಯಾರ್ಹಸಿ ದೇವ ಸೋಢುಮ್৷৷11.44৷৷
തസ്മാത്പ്രണമ്യ പ്രണിധായ കായം പ്രസാദയേ ത്വാമഹമീശമീഡ്യമ്. പിതേവ പുത്രസ്യ സഖേവ സഖ്യുഃ പ്രിയഃ പ്രിയായാര്ഹസി ദേവ സോഢുമ്৷৷11.44৷৷
ତସ୍ମାତ୍ପ୍ରଣମ୍ଯ ପ୍ରଣିଧାଯ କାଯଂ ପ୍ରସାଦଯେ ତ୍ବାମହମୀଶମୀଡ୍ଯମ୍| ପିତେବ ପୁତ୍ରସ୍ଯ ସଖେବ ସଖ୍ଯୁଃ ପ୍ରିଯଃ ପ୍ରିଯାଯାର୍ହସି ଦେବ ସୋଢୁମ୍||11.44||
tasmātpraṇamya praṇidhāya kāyaṅ prasādayē tvāmahamīśamīḍyam. pitēva putrasya sakhēva sakhyuḥ priyaḥ priyāyārhasi dēva sōḍhum৷৷11.44৷৷
தஸ்மாத்ப்ரணம்ய ப்ரணிதாய காயஂ ப்ரஸாதயே த்வாமஹமீஷமீட்யம். பிதேவ புத்ரஸ்ய ஸகேவ ஸக்யுஃ ப்ரியஃ ப்ரியாயார்ஹஸி தேவ ஸோடும்৷৷11.44৷৷
తస్మాత్ప్రణమ్య ప్రణిధాయ కాయం ప్రసాదయే త్వామహమీశమీడ్యమ్. పితేవ పుత్రస్య సఖేవ సఖ్యుః ప్రియః ప్రియాయార్హసి దేవ సోఢుమ్৷৷11.44৷৷
11.45
11
45
।।11.45।। मैंने ऐसा रुप पहले कभी नहीं देखा। इस रूपको देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और (साथ-ही-साथ) भयसे मेरा मन अत्यन्त व्यथित हो रहा है। अतः आप मुझे अपने उसी देवरूपको (सौम्य विष्णुरूपको)  दिखाइये। हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये।
।।11.45।। मैं आपके इस अदृष्टपूर्व रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अतिव्याकुल भी हो रहा हैं। इसलिए हे देव! आप उस पूर्वकाल को ही मुझे दिखाइये। हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये।।
।।11.45।। प्रत्येक भक्त अपने इष्ट देवता के रूप में भगवान् से प्रेम करता है। जब उस आकार के द्वारा वह भगवान् के अनन्त? परात्पर? निराकार स्वरूप का साक्षात्कार करता है? तब निसन्देह वह परमानन्द का अनुभव करता है? किन्तु उसी क्षण वह भय से भी अभिभूत हो जाता है। अध्यात्म साधना करने वाले साधकों का प्रारम्भिक अवस्था में यही अनुभव होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि? साधना के फलस्वरूप प्राप्त आन्तरिक शान्ति परमानन्द दायक होती है? परन्तु अचानक साधक के मन में विचित्र भय समा जाता है? जो उसे पुन देहभाव को प्राप्त कराकर मन के विक्षेपों का कारण बनता है।आत्मानुभव के उदय पर यह परिच्छिन्न जीव अपने बन्धनों से मुक्त होकर? अदृष्टपूर्व आनन्दलोक में प्रवेश करता है? जहाँ वह अपनी ही विशालता और प्रभाव का अनुभव कर प्रसन्न हो जाता है। इसी बात को अर्जुन दर्शाता है कि ऐसे रूप को देखकर? जो मैंने पूर्व कभी देखा नहीं था? मैं हर्षित हो रहा हूँ। परन्तु प्रारम्भिक प्रयत्नों में एक साधक में यह सार्मथ्य नहीं होती कि वह अपने मन को दीर्घकाल तक वृत्तिशून्य स्थिति में रख सके। ध्यान में निश्चल प्रतीत हो रहा उसका मन पुन जाग्रत होकर क्रियाशील हो जाता है। साधकों का यह अनुभव है कि ऐसे समय मन में सर्वप्रथम जो वृत्ति उठती है वह भय की ही होती है। निराकार अनुभव से भयभ्ाीत होकर मन पुन शरीर भाव में स्थित हो जाता है। ऐसे अवसरों पर भक्तजन प्रेम और भक्ति के साथ अपने साकार इष्टदेव को अपने चंचल मन्दस्मित के रूप में व्यक्त होने के लिए प्रार्थना करते हैं। वे अपने इष्टदेव को पुन सस्मित और कोमल तथा प्रेमपूर्ण दृष्टि और संगीतमय शब्दों के साथ देखना चाहते हैं।अर्जुन श्रीकृष्ण को जिस रूप में देखना चाहता था? उसका वर्णन अगले श्लोक में करता है
।।11.45।। व्याख्या--[जैसे विराट्रूप दिखानेके लिये मैंने भगवान्से प्रार्थना की तो भगवान्ने मुझे विराट्रूप दिखा दिया, ऐसे ही देवरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करनेपर भगवान् देवरूप दिखायेंगे ही -- ऐसी आशा होनेसे अर्जुन भगवान्से देवरूप दिखानेके लिये प्रार्थना करते हैं।]
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।।11.45।।अदृष्टपूर्वम् अत्यद्भुतम् अत्युग्रं च तव रूपं दृष्ट्वा हृषितः अस्मि प्रीतः अस्मि? भयेन प्रव्यथितं च मे मनः? अतः तद् एव तव सुप्रसन्नं रूपं मे दर्शय।प्रसीद देवेश जगन्निवास मयि प्रसादं कुरु देवानां ब्रह्मादीनाम् अपि ईश निखिलजगदाश्रयभूत।
।।11.45।।हेतूक्तिपूर्वकं विश्वरूपोपसंहारं प्रार्थयते -- अदृष्टेति। हृषितो हृष्टस्तुष्ट इति यावत्। भयेन तद्धेतुविकृतदर्शनेनेत्यर्थः।
।।11.45।।एवं क्षमापयित्वा गुणातिगं प्रति प्रार्थयते -- अदृष्टेति। वस्तुतस्तु त्वं गुणातीत इति भक्ताय तदेव गुणातीतं रूपं प्रदर्शय। इदं चादृष्टपूर्वं ते रूपं दृष्ट्वा? पूर्वं दृष्टः पश्चाल्लोकान् ग्रसमानं ज्ञात्वा मनो मे प्रव्यथितं यतः? अतस्तदेव चतुर्भुजं वा दृष्टपूर्वं रूपं मे प्रदर्शय। अस्माकं तु चतुर्भुजं मर्यादामयं शुद्धसत्त्वात्मकं ते रूपं श्रेष्ठं शान्तत्वादित्याशयेनाह तद्दर्शने प्रसीदेति। अनेनाक्षरब्रह्मोपासकेभ्यः शुद्धसत्त्वमयचतुर्भुजोपासकामर्यादया गुणज्ञाः उत्तमा इति लभ्यते।
।।11.45।।एवमपराधक्षमां प्रार्थ्य पुनः प्राग्रूपदर्शनं विश्वरूपोपसंहारेण प्रार्थयते द्वाभ्यां -- अदृष्टेत्यादिना। कदाप्यदृष्टपूर्वं पूर्वमदृष्टं विश्वरूपं दृष्ट्वा हृषितो हृष्टोऽस्मि। तद्विकृतरूपदर्शनजेन भयेन च प्रव्यथितं व्याकुलीकृतं मनो मे। अतस्तदेव प्राचीनमेव मम प्राणापेक्षयापि प्रियं रूपं मे दर्शय। हे देव हे देवेश? हे जगन्निवास? प्रसीद प्राग्रूपदर्शनरूपं प्रसादं मे कुरु।
।।11.45।।एवं क्षमापयित्वा प्रार्थयते -- अदृष्टपूर्वमिति द्वाभ्याम्। हे देव? पूर्वमदृष्टं तव रूपं दृष्ट्वा हृषितो हृष्टोऽस्मि। तथा भयेन च मे मनः प्रव्यथितं प्रचलितं। तस्मान्मम व्यथानिवृत्तये तदेव रूपं दर्शय। हे देवेश? हे जगन्निवास? प्रसन्नो भव।
।।11.45।।विचित्रस्याप्यदृष्टपूर्वस्यैवाश्चर्यविषयत्वदर्शनात्अदृष्टपूर्वम् इत्यनेन फलितमाह -- अत्यद्भुतमिति।भयेन च प्रव्यथितं मनो मे इत्यनेनाक्षिप्तंआख्याहि मे को भवानुग्ररूपः [11।31] इत्यत्रोक्तं विशेषणमाहअत्युग्रं चेति।भयेन च इत्यत्र चशब्दस्य निष्प्रयोजनत्वादुक्तव्यथाहेत्वन्तरसमुच्चयार्थत्वमयुक्तमित्युक्तप्रीतिसमुच्चयार्थत्वमभिप्रेत्य व्यवहितान्वयमाहप्रव्यथितं च मे मन इति। पूर्वार्धोक्तस्य व्यथासहितप्रीतिजनकत्वस्योत्तरार्धार्थहेतुत्वमभिप्रेत्याहअत इति। तच्छब्दस्य पूर्वप्रसिद्धाकारपरामर्शित्वेन तदभिप्रेतमाकारमाहसुप्रसन्नमिति। अनेन केवलप्रीतिहेतुत्वं सूचितम्। प्रपन्नस्य रक्षणमवश्यं कार्यमित्यभिप्रायेणमे दर्शयेत्युक्तम्।देवदेवेश इति सम्बोधनद्वयेन तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं दैवतानां परमं च दैवतम् [श्वे.उ.6।7] इति श्रुत्यर्थोऽभिप्रेत इत्याशयेन -- देवानां ब्रह्मादीनामपीशेत्युक्तम्। दृश्यमानरूपस्यतत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा [11।13] इति जगदाश्रयत्वेन दृश्यमानत्वात्जगन्निवास इत्यनेन तदुच्यत इत्यभिप्रयन्नाह -- जगदाश्रयभूतेति।
।।11.45।।एवं क्षमाप्य विज्ञापयति -- अदृष्टपूर्वमिति द्वयेन। अदृष्टपूर्वं तव रूपं विश्वात्मकं अनेकलीलायुतं दृष्ट्वा हृषितोऽस्मि हर्षं प्राप्तोऽस्मि। च पुनः मे मनः भयेन प्रव्यथितं प्रकर्षेण व्यथां प्राप्तम्। अयं भावः -- द्रष्टुकामस्य तादृशं रूपं दर्शयित्वा पुरुषोत्तमदर्शनवतोऽन्यरूपदर्शनाभिलाषापराधिनः पुनः पुरुषोत्तमरूपं दर्शयिष्यति न वेति भयमभूत्? अतः प्रसादं प्रार्थयित्वा तद्दर्शनं प्रार्थयति। देवेश देवानामपीन्द्रादीनामीश नियामक जगन्निवास प्रसीद प्रसन्नो भव। प्रसन्नो भूत्वा हे देव सेवनार्थं तदेव पुरुषोत्तमरूपं दर्शय।
।।11.45।।एवं स्तुत्वा स्वेष्टं प्रार्थयते -- अदृष्टपूर्वमिति। हे देव? कदाचिदपि पूर्वं न दृष्टं तादृशमदृष्टपूर्वं तव रूपं दृष्ट्वा हृषित उत्फुल्लोऽस्मि। तथा विकरालरूपदर्शनजेन भयेन च मे मम मनः प्रव्यथितम्। अतस्तदेव धारणाविषयभूतं रूपं मे मह्यं दर्शय।
।।11.45।।एवमपराधक्षमां प्रार्थ्याभिलषितं प्रार्थयते -- अदृष्टेति द्वाभ्याम्। मयान्यैवी कदाचिदपि न दृष्टपूर्वं इदं तव विश्वरुपं दृष्ट्वा हृषितोस्मि हर्षं प्राप्तोस्मि। अदृष्टपूर्वत्वादेव भयेन च व्यथितं दुःखितं मे मनः। अतो यस्मिन्निदं विश्वरुपं त्वया प्रदर्शितं तदेव मुख्यरुपं मम प्रदर्शय। प्रदर्शनं चैतद्रूपाधिष्ठानत्वेन स्थितस्यैव प्रद्योतनमात्रं त्वया कर्तव्यमस्ति नतत्पाद्य प्रदर्शयितव्यमिति देवेति संबोधनस्य गूढाभिसंधिः। देवरुपं द्योतनात्मकं रुपमित्येकं वा पदं। तव देवेश त्वं जगन्निवास त्वं च मया प्रत्यक्षीकृतमतो मज्जिज्ञासासमाप्त्या मदर्थस्यैतद्रूपस्य तिरोधानमेवोचितमिति द्योतनार्थं संबोधनद्वयं हे देवेश हे जगन्निवासेति।
11.45 अदृष्टपूर्वम् what was never seen before? हृषितः delighted? अस्मि (I) am? दृष्ट्वा having seen? भयेन with fear? च and? प्रव्यथितम् is distressed? मनः mind? मे my? तत् that? एव only? मे to me? दर्शय show? देव O God? रूपम् form? प्रसीद have mercy? देवेश O Lord of the gods? जगन्निवास O Aboe of the universe.Commentary For an ordinary man the Cosmic Form (Vision) is overwhelming and terrifying but for a Yogi it is encouraging? strengthening and soulelevating.Arjuna says The Cosmic Form was never before seen by me. Show me only that form which Thou wearest as my friend.
11.45 I am delighted, having seen what has never been seen before; and yet my mind is distressed with fear. Show me that (previous) form only, O God; have mercy, O God of gods, O Abode of the universe.
11.45 I rejoice that I have seen what never man saw before; yet, O Lord! I am overwhelmed with fear. Please take again the Form I know. Be merciful, O Lord! thou Who are the Home of the whole universe.
11.45 I am delighted by seeing something not seen heretofore, and my mind is stricken with fear. O Lord, show me that very form; O supreme God, O Abode of the Universe, be gracious!
11.45 Asmi, I am; hrsitah, delighted; drstva, by seeing; adrsta-purvam, something not seen heretofore-by seeing this Cosmic form of Yours which has never been seen before by me or others. And me, my; manah, mind; is pravyathitam, stricken; bhayena, with fear. Therefore, deva, O Lord; darsaya, show; me, to me; tat eva, that very; rupam, form, which is of my friend. Devesa, O supreme God; jagan-nivasa, Abode of the Universe; prasida, be gracious!
11.45. I am thrilled by seeing what has not been seen earlier; and my mind is very much distressed with fear; show me the same (usual) form of Yours; kindly be appeased O God ! Lord of gods ! O Abode of the worlds !
11.45 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.45 Seeing Your form, never seen before, extremely marvellous and awe-inspiring, I am delighted, transported with love. But my mind is also troubled with awe. Hence reveal to me only Your most gracious form. Be gracious, O Lord of all gods! O Abode of the universe! Show me that form, O gracious Lord of all the gods headed by Brahma, and the foundation of the entire universe!
11.45 Seeing what was never seen before, I am delighted. But my mind is also agog with awe. Show me, O Lord! Your other form. O Lord of the gods! Be gracious, O Abode of the universe!
।।11.45।।आपके जिस विश्वरूपको मैंने या अन्य किसीने पहले कभी नहीं देखा? ऐसे पहले न देखे हुए इस रूपको देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ। तथा साथ ही मेरा मन भयसे व्याकुल भी हो रहा है। इसलिये हे देव मुझे अपना वही रूप दिखलाइये जो मेरा मित्ररूप है। हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न होइये। जगत्के निवासस्थानका नाम जगन्निवास है।
।।11.45।। --,अदृष्टपूर्वं न कदाचिदपि दृष्टपूर्वम् इदं विश्वरूपं तव मया अन्यैर्वा? तत् अहं दृष्ट्वा हृषितः अस्मि। भयेन च प्रव्यथितं मनः मे। अतः तदेव मे मम दर्शय हे देव रूपं यत् मत्सखम्। प्रसीद देवेश? जगन्निवास जगतो निवासो जगन्निवासः? हे जगन्निवास।।
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अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे। तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.45।।
অদৃষ্টপূর্বং হৃষিতোস্মি দৃষ্ট্বা ভযেন চ প্রব্যথিতং মনো মে৷ তদেব মে দর্শয দেব রূপং প্রসীদ দেবেশ জগন্নিবাস৷৷11.45৷৷
অদৃষ্টপূর্বং হৃষিতোস্মি দৃষ্ট্বা ভযেন চ প্রব্যথিতং মনো মে৷ তদেব মে দর্শয দেব রূপং প্রসীদ দেবেশ জগন্নিবাস৷৷11.45৷৷
અદૃષ્ટપૂર્વં હૃષિતોસ્મિ દૃષ્ટ્વા ભયેન ચ પ્રવ્યથિતં મનો મે। તદેવ મે દર્શય દેવ રૂપં પ્રસીદ દેવેશ જગન્નિવાસ।।11.45।।
ਅਦਰਿਸ਼੍ਟਪੂਰ੍ਵਂ ਹਰਿਸ਼ਿਤੋਸ੍ਮਿ ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵਾ ਭਯੇਨ ਚ ਪ੍ਰਵ੍ਯਥਿਤਂ ਮਨੋ ਮੇ। ਤਦੇਵ ਮੇ ਦਰ੍ਸ਼ਯ ਦੇਵ ਰੂਪਂ ਪ੍ਰਸੀਦ ਦੇਵੇਸ਼ ਜਗਨ੍ਨਿਵਾਸ।।11.45।।
ಅದೃಷ್ಟಪೂರ್ವಂ ಹೃಷಿತೋಸ್ಮಿ ದೃಷ್ಟ್ವಾ ಭಯೇನ ಚ ಪ್ರವ್ಯಥಿತಂ ಮನೋ ಮೇ. ತದೇವ ಮೇ ದರ್ಶಯ ದೇವ ರೂಪಂ ಪ್ರಸೀದ ದೇವೇಶ ಜಗನ್ನಿವಾಸ৷৷11.45৷৷
അദൃഷ്ടപൂര്വം ഹൃഷിതോസ്മി ദൃഷ്ട്വാ ഭയേന ച പ്രവ്യഥിതം മനോ മേ. തദേവ മേ ദര്ശയ ദേവ രൂപം പ്രസീദ ദേവേശ ജഗന്നിവാസ৷৷11.45৷৷
ଅଦୃଷ୍ଟପୂର୍ବଂ ହୃଷିତୋସ୍ମି ଦୃଷ୍ଟ୍ବା ଭଯେନ ଚ ପ୍ରବ୍ଯଥିତଂ ମନୋ ମେ| ତଦେବ ମେ ଦର୍ଶଯ ଦେବ ରୂପଂ ପ୍ରସୀଦ ଦେବେଶ ଜଗନ୍ନିବାସ||11.45||
adṛṣṭapūrvaṅ hṛṣitō.smi dṛṣṭvā bhayēna ca pravyathitaṅ manō mē. tadēva mē darśaya dēva rūpaṅ prasīda dēvēśa jagannivāsa৷৷11.45৷৷
அதரிஷ்டபூர்வஂ ஹரிஷிதோஸ்மி தரிஷ்ட்வா பயேந ச ப்ரவ்யதிதஂ மநோ மே. ததேவ மே தர்ஷய தேவ ரூபஂ ப்ரஸீத தேவேஷ ஜகந்நிவாஸ৷৷11.45৷৷
అదృష్టపూర్వం హృషితోస్మి దృష్ట్వా భయేన చ ప్రవ్యథితం మనో మే. తదేవ మే దర్శయ దేవ రూపం ప్రసీద దేవేశ జగన్నివాస৷৷11.45৷৷
11.46
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।।11.46।।  मैं आपको वैसे ही किरीटधारी, गदाधारी और हाथमें चक्र लिये हुए देखना चाहता हूँ। इसलिये हे सहस्रबाहो ! हे विश्वमूर्ते ! आप उसी चतुर्भुजरूपसे हो जाइये।
।।11.46।। मैं आपको उसी प्रकार मुकुटधारी, गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूँ। हे विश्वमूर्ते! हे सहस्रबाहो! आप उस चतुर्भुजरूप के ही बन जाइए।।
।।11.46।। यहाँ अर्जुन अपनी इच्छा को स्पष्ट शब्दों में प्रदर्शित करता है कि? मैं आपको पूर्ववत् देखना चाहता हूँ। वह भगवान् के विराट् रूप को देखकर भयभीत हो गया है? जो उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के साथ अपने एकत्व को दर्शाने के लिए धारण किया था।वेदान्त द्वारा प्रतिपादित निर्गुण? निराकार तत्त्व या समष्टि के सिद्धांत का जब प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है? तो विरले लोगों में ही वह बौद्धिक धारणाशक्ति होती है कि वे उस सत्य को उसकी पूर्णता में समझकर उसका ध्यान कर सकते हैं। यदि कभी बुद्धि उसे धारण कर भी पाती है? तो प्राय भक्त का हृदय उसके साथ अधिक काल तक तादात्म्य नहीं बनाये रख पाता है। मन के स्तर पर सत्य को केवल रूपकों के द्वारा ही समझकर उसका आनन्द अनुभव किया जा सकता है? सीधे ही उसके पूर्ण वैभव के द्वारा कभी नहीं।इस श्लोक में अर्जुन भगवान् वासुदेव के सौम्य रूप को बताता है? जो भागवत के भगवान् विष्णु का पारम्परिक रूप है। सब पुराणों में ईश्वर का वर्णन रूपक की भाषा में करते हुए उसे चतुर्भुज के रूप में चितित्र किया गया है। शरीर शास्त्र के विद्यार्थियों को यह कोई प्रकृति की आसाधारण निर्मिति ही प्रतीत हो सकती है। हम भूल जाते हैं कि वास्तव में यह सत्य का केवल एक सांकेतिक रूपक है।भगवान् की ये चार भुजाएं अन्तकरण चतुष्टय अर्थात् मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं।पुराणों में ही चतुर्भुजधारी भगवान् का वर्ण नील कहा गया है तथा वे पीताम्बरधारी हैं अर्थात् वे पीत वस्त्र धरण किये हुए हैं। नीलवर्ण से अभिप्राय उनकी अनन्तता से है असीम वस्तु सदा नीलवर्ण प्रतीत होती है? जैसे ग्रीष्म ऋतु का निरभ्र आकाश अथवा गहरा सागर। पृथ्वी का वर्ण है पीत। इस प्रकार भगवान् विष्णु के रूप का अर्थ यह हुआ कि अनन्त परमात्मा परिच्छिन्नता को धारण कर अन्तकरण चतुष्टय के द्वारा जीवन का खेल खेलता है।यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि सभी धर्मों में ईश्वर का वर्णन एक ही प्रकार से किया गया है। वह परमेश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् है। ईश्वर के बाहुबल से ही मनुष्य सफलता प्राप्त करता है? इसलिए सर्वशक्तिमान् भगवान् का निर्देश चतुर्भुजधारी के रूप में ही किया जा सकता है। भगवान् विष्णु शंखचक्रगदापद्मधारी हैं। शंखनाद के द्वारा भगवान् सब को अपने समीप आने का आह्वान करते हैं। यदि मनुष्य अपने हृदय के श्रेष्ठ भावनारूपी शंखनाद को अनसुना कर देता है? तो दुख के रूप में उस पर गदा का आघात होता है। इतने पर भी यदि मनुष्य अपने में सुधार नहीं लाता है? तो अन्तिम परिणाम है चक्र के द्वारा शिरच्छेद अर्थात् परमपुरुषार्थ की अप्राप्ति रूप नाश। इसके विपरीत? यदि कोई मनुष्य दिव्य जीवन का आह्वान सुनकर उसका पूर्ण अनुकरण करता है? तो उसे पद्म अर्थात् कमल की प्राप्ति होती है। हिन्दू धर्म में कमल पुष्प आध्यात्मिक पूर्णता एव शान्ति का प्रतीत है। भारतीय संस्कृति में यह सुखसमृद्धि का भी प्रतीक है। पाश्चात्य देशों में शान्ति का प्रतीक शुभ्र कपोत माना जाता है।संक्षेप में? अर्जुन चाहता है कि भगवान् अपने सौम्यरूप और शान्तभाव में प्रकट हों। वेदान्त के प्रारम्भिक और नवदीक्षित विद्यार्थियों के लिए सतत सूक्ष्म दार्शनिक विचारों की गति बनाये रख पाना कठिन होता है। बुद्धि की ऐसी थकान भरी अवस्था में? उत्साही साधकों के लिए ऐसे विश्वसनीय विश्रामस्थल की आवश्यकता होती है? जहाँ विश्राम करके वे पुन नवचैतन्य से युक्त हो सकते हों। यह शान्ति की शय्या है भगवान् का सगुण? साकार और सौम्यरूप।अर्जुन को भयभीत देखकर? भगवान् अपने विराट रूप का उपसंहार करके मधुर वचनों में उसे आश्वस्त करते हुए कहते हैं
।।11.46।। व्याख्या--'किरीटनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव--जिसमें आपने सिरपर दिव्य मुकुट तथा हाथोंमें गदा और चक्र धारण कर रखे हैं, उसी रूपको मैं देखना चाहता हूँ। 'तथैव' कहनेका तात्पर्य है कि मेरे द्वारा 'द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम्' (11। 3) ऐसी इच्छा प्रकट करनेसे आपने विराट्रूप दिखाया। अब मैं अपनी इच्छा बाकी क्यों रखूँ? अतः मैंने आपके विराट्रूपमें जैसा सौम्य चतुर्भुजरूप देखा है, वैसा-का-वैसा ही रूप मैं अब देखना चाहता हूँ -- 'इच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
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।।11.46।।तथा एव पूर्ववत् किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तं त्वां द्रष्टुम् इच्छामि? अतः तेन एव पूर्वसिद्धेन चतुर्भुजेन रूपेण युक्तो भव सहस्रबाहो विश्वमूर्ते इदानीं सहस्रबाहुत्वेन विश्वशरीरत्वेन दृश्यमानरूपः त्वं तेन एव रूपेण युक्तो भव इत्यर्थः।
।।11.46।।तदेव दर्शयेत्युक्तं किं तदित्यपेक्षायामाह -- किरीटिनमिति। चक्रं हस्ते यस्य तमिति व्युत्पत्तिं गृहीत्वाह -- चक्रेति। मदीयेच्छा फलपर्यन्ता कर्तव्येत्याह -- यत इति। चतुर्भुजत्वे कथं सहस्रबाहुत्वं तत्राह -- वार्तमानिकेनेति। सति विश्वरूपे कथं पूर्वरूपभाक्त्वं तत्राह -- उपसंहृत्येति।
।।11.46।।तदेव रूपं विशेषयन् भगवन्तं प्रार्थयते -- किरीटिनमिति। तदनेन श्रीकृष्णं अर्जुन एवमेव षड्गुणगणालङ्कृतं चतुर्भुजं पश्यति स्मेति गम्यते। द्विभुजं तु सदैवेति। न पुष्टिमिश्रमभक्तस्य जायते निर्भया रुचिः। स्वतः प्रवृत्तिजनिकाक्षरमात्रैकदर्शने। क्षराक्षरातीतहरे रसानन्दमहोदधेः। स्वरूपामृतमग्नानां नान्यत्र स्याद्रतिः क्वचित्। इत्यभिप्रायमाज्ञाय गोपानामिव तस्य च। आश्वासयन् भीतमेनमुवाच भगवान्पुनः।
।।11.46।।तदेव रूपं विवृणोति -- किरीटिनमिति। किरीटवन्तं गदावन्तं चक्रहस्तं च त्वा त्वां द्रष्टुमिच्छाम्यहं। तथैव पूर्ववदेव। अतस्तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन वसुदेवात्मजत्वेन भव। हे इदानीं सहस्रबाहो? हे विश्वमूर्ते? उपसंहृत्य विश्वरूपं पूर्वरूपेणैव प्रकटो भवेत्यर्थः। एतेन सर्वदा चतुर्भुजादिरूपमर्जुनेन भगवतो दृश्यत इत्युक्तम्।
।।11.46।। तदेव रूपं विशेषयन्नाह -- किरीटिनमिति। किरीटिनं गदावन्तं चक्रहस्तं च त्वां द्रष्टुमिच्छामि पूर्वं यथा दृष्टोऽस्मि तथैव। अतो हे सहस्रबाहो? विश्वमूर्ते? इदं विश्वरूपं संहृत्य तेनैव किरीटादियुक्तेन चतुर्भुजेन रूपेण भवाविर्भव। तदनेन श्रीकृष्णमर्जुनः पूर्वमपि किरीटादियुक्तमेव पश्यतीति गम्यते। यत्तु पूर्वमुक्तं विश्वरूपदर्शनेकिरीटिनं गदिनं चक्रिणं च पश्यामि इति तद्बहुकिरीटाद्यभिप्रायेण। यद्वा। एतावन्तं कालं यं त्वां किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च सुप्रसन्नमपश्यं तमेवेदानीं तेजोराशिं दुर्निरीक्ष्यं पश्यामीत्येवं तत्र बहुवचनव्यक्तिरित्यविरोधः।
।।11.46।।तथैव इत्यस्य पूर्वं जगदाश्रयमत्यद्भुतं रूपं द्रष्टुमिच्छन् तथैव पूर्वरूपं द्रष्टुमिच्छामीत्यर्थभ्रमं व्युदस्यन् अतीतावस्थाविशिष्टस्य कथं प्रदर्शनं इति शङ्कां चार्थात्परिहरन् अन्वयभेदेन तद्व्याचष्टे -- तथैव पूर्ववत्किरीटिनमिति। पूर्वदृष्टसजातीयमेव द्रष्टुमिच्छामीत्यर्थः।रूपेण इत्यत्र तृतीयायाः करणार्थत्वासम्भवात्रूपेण युक्तो भवेत्युक्तम्। सहस्रबाहूदरविश्वमूर्तिविशिष्टस्य चतुर्भुजरूपयुक्तत्वासम्भवं कालभेदेन परिहरतिइदानीमिति।
।।11.46।।रूपं विशिनष्टि -- किरीटिनमिति। किरीटवन्तं गदावन्तं चक्रहस्तं त्वामहं तथैव पूर्ववदेव द्रष्टुमिच्छामि। अतो हे सहस्रबाहो अगणितक्रियाशक्तिमन् विश्वमूर्ते तेनैव चतुर्भुजेन रूपेण भव प्रकटो भवेत्यर्थः।
।।11.46।।तदेव रुपमाह -- किरीटिनमिति। एतेनार्जुनस्य चक्रगदाकिरीटोपेतं चतुर्भुजं भगवतो रूपं धारणाविषय इति दर्शितम्। हे सहस्रबाहो हे विश्वमूर्ते सहस्रबाहुत्वादिकमुपसंहृत्य तेनैव रूपेण भव प्रकटो भव।
।।11.46।।तदेवेत्युक्तं विशदयति। किरीटवन्तं तथा गदावन्तं चक्रं सुदर्शनं हस्ते यस्य तादृशं त्वामहं द्रष्टुमिच्छामि तस्मान्मदिच्छानुसारेणैव हे सहस्त्रबाहो? हे विस्वमूर्ते? मदिच्छापरिसमाप्त्या पुनरपि विश्वमूर्तित्वं तिरोधाय तेनैव रुपेण वसुदेवपुत्रमूर्तिरुपेण सहस्त्रबाहुत्वं तिरोधाय चतुर्भुजेन तथैव पूर्वरुपेण प्रकटीभवेत्यर्थः।
11.46 किरीटिनम् wearing crown? गदिनम् bearing a mace? चक्रहस्तम् with a discus in the hand? इच्छामि (I) desire? त्वाम् Thee? द्रष्टुम् to see? अहम् I? तथैव as before? तेनैव that same? रूपेण of form? चतुर्भुजेन (by) fourarmed? सहस्रबाहो O thousandarmed? भव be? विश्वमूर्ते O Universal Form.Commentary Arjuna says O Lord in the Cosmic Form I do not know where to turn and to whom to address myself. I am frightened. I am longing to see Thee with conch? discus? mace and lotus. Withdraw Thy Cosmic Form. Assume that same fourarmed form as before.Spiritual aspirants are ofen impatient to have the highest spiritual experiences immediately they begin their Sadhana. This is wrong. They will not be able to withstand the great power that will,surge into them. Be patientO thousandarmed refers to the Cosmic Form.
11.46 I desire to see Thee as before, crowned, bearing a mace, with the discus in hand, in Thy former form only, having four arms, O thousand-armed, Cosmic Form (Being).
11.46 I long to see Thee as thou wert before, with the crown, the sceptre and the discus in Thy hands; in Thy other Form, with Thy four hands, O Thou Whose arms are countless and Whose forms are infinite.
11.46 I want to see You just as before, wearing a crown, wielding a mace, and holding a disc in hand. O You with thousand arms, O You of Cosmic form, appear with that very form with four hands.
11.46 Aham, I; icchami, want; drastum, to see; tvam, You; kiritinam, wearing a crown; as also gadinam, wielding a mace; and cakra-hastam, holding a disc in hand; i.e., tatha eva, just as before. Since this is so, therefore, sahasra-baho, O You with a thousand arms-in Your present Cosmic form; visva-murte, O you of Cosmic form; bhava, apeear; tena eva rupena, with that very form-with the form of the son of Vasudeva; caturbhujena, with four hands. The idea is: withdrawing the Cosmic form, appear in that very form as the son of Vasudeva. Noticing Arjuna to have become afraid, and withdrawing the Cosmic form, reassuring him with sweet words-
11.46. I desire to see You in the same manner, wearing crown, holding the club and the discuss in hand; please be with the same form having four hands, O Thousand-armed One ! O Universal Form !
11.46 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.46 I wish to see You thus, as before, with a crown, and with a mace and discus in hand. Hence assume again that four-armed shape, shown to me before, O thousand-armed one of Universal Form! Assume that shape in place of what You have now revealed with thousand arms and a cosmic body. Such is the meaning.
11.46 I wish to see You ever as before, with crown and with mace and discus in hand. Assume again that four-armed shape, O Thou the thosand armed, of Universal Form!
।।11.46।।मैं आपको वैसे ही अर्थात् पहलेहीकी भाँति शिरपर मुकुट धारण किये? हाथोंमें गदा और चक्र लिये हुए देखना चाहता हूँ। जब कि यह बात है तो हे सहस्रबाहो हे विश्वमूर्ते अर्थात् वर्तमानविश्वरूपसे ( युक्त ) भगवन् आप उसी अपने वसुदेवपुत्ररूप चतुर्भुजस्वरूपसे युक्त होइये। अर्थात् इस विश्वरूपका उपसंहार करके आप वसुदेवपुत्र -- श्रीकृष्णके स्वरूपसे स्थित होइये।,
।।11.46।। --,किरीटिनं किरीटवन्तं तथा गदिनं गदावन्तं चक्रहस्तम् इच्छामि त्वां प्रार्थये त्वां द्रष्टुम् अहं तथैव? पूर्ववत् इत्यर्थः।।यतः एवम्? तस्मात् तेनैव रूपेण वसुदेवपुत्ररूपेण चतुर्भुजेन? सहस्रबाहो वार्तमानिकेन विश्वरूपेण? भव विश्वमूर्ते उपसंहृत्य विश्वरूपम्? तेनैव रूपेण भव इत्यर्थः।।अर्जुनं भीतम् उपलभ्य? उपसंहृत्य विश्वरूपम्? प्रियवचनेन आश्वासयन् श्रीभगवान् उवाच --,श्रीभगवानुवाच --,
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किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव। तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।11.46।।
কিরীটিনং গদিনং চক্রহস্ত- মিচ্ছামি ত্বাং দ্রষ্টুমহং তথৈব৷ তেনৈব রূপেণ চতুর্ভুজেন সহস্রবাহো ভব বিশ্বমূর্তে৷৷11.46৷৷
কিরীটিনং গদিনং চক্রহস্ত- মিচ্ছামি ত্বাং দ্রষ্টুমহং তথৈব৷ তেনৈব রূপেণ চতুর্ভুজেন সহস্রবাহো ভব বিশ্বমূর্তে৷৷11.46৷৷
કિરીટિનં ગદિનં ચક્રહસ્ત- મિચ્છામિ ત્વાં દ્રષ્ટુમહં તથૈવ। તેનૈવ રૂપેણ ચતુર્ભુજેન સહસ્રબાહો ભવ વિશ્વમૂર્તે।।11.46।।
ਕਿਰੀਟਿਨਂ ਗਦਿਨਂ ਚਕ੍ਰਹਸ੍ਤ- ਮਿਚ੍ਛਾਮਿ ਤ੍ਵਾਂ ਦ੍ਰਸ਼੍ਟੁਮਹਂ ਤਥੈਵ। ਤੇਨੈਵ ਰੂਪੇਣ ਚਤੁਰ੍ਭੁਜੇਨ ਸਹਸ੍ਰਬਾਹੋ ਭਵ ਵਿਸ਼੍ਵਮੂਰ੍ਤੇ।।11.46।।
ಕಿರೀಟಿನಂ ಗದಿನಂ ಚಕ್ರಹಸ್ತ- ಮಿಚ್ಛಾಮಿ ತ್ವಾಂ ದ್ರಷ್ಟುಮಹಂ ತಥೈವ. ತೇನೈವ ರೂಪೇಣ ಚತುರ್ಭುಜೇನ ಸಹಸ್ರಬಾಹೋ ಭವ ವಿಶ್ವಮೂರ್ತೇ৷৷11.46৷৷
കിരീടിനം ഗദിനം ചക്രഹസ്ത- മിച്ഛാമി ത്വാം ദ്രഷ്ടുമഹം തഥൈവ. തേനൈവ രൂപേണ ചതുര്ഭുജേന സഹസ്രബാഹോ ഭവ വിശ്വമൂര്തേ৷৷11.46৷৷
କିରୀଟିନଂ ଗଦିନଂ ଚକ୍ରହସ୍ତ- ମିଚ୍ଛାମି ତ୍ବାଂ ଦ୍ରଷ୍ଟୁମହଂ ତଥୈବ| ତେନୈବ ରୂପେଣ ଚତୁର୍ଭୁଜେନ ସହସ୍ରବାହୋ ଭବ ବିଶ୍ବମୂର୍ତେ||11.46||
kirīṭinaṅ gadinaṅ cakrahasta- micchāmi tvāṅ draṣṭumahaṅ tathaiva. tēnaiva rūpēṇa caturbhujēna sahasrabāhō bhava viśvamūrtē৷৷11.46৷৷
கிரீடிநஂ கதிநஂ சக்ரஹஸ்த- மிச்சாமி த்வாஂ த்ரஷ்டுமஹஂ ததைவ. தேநைவ ரூபேண சதுர்புஜேந ஸஹஸ்ரபாஹோ பவ விஷ்வமூர்தே৷৷11.46৷৷
కిరీటినం గదినం చక్రహస్త- మిచ్ఛామి త్వాం ద్రష్టుమహం తథైవ. తేనైవ రూపేణ చతుర్భుజేన సహస్రబాహో భవ విశ్వమూర్తే৷৷11.46৷৷
11.47
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47
।।11.47।। श्रीभगवान् बोले -- हे अर्जुन ! मैंने प्रसन्न होकर अपनी सामर्थ्यसे यह अत्यन्त श्रेष्ठ, तेजोमय, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दिखाया है, जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसीने नहीं देखा है।
।।11.47।। हे अर्जुन! तुम पर प्रसन्न होकर मैंने अपनी योगशक्ति (आत्मयोगात्) के प्रभाव से यह अपना परम तेजोमय, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दर्शाया है, जिसे तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है।।
।।11.47।। स्वयं भगवान् यहाँ स्वीकार करते हैं कि उनके विश्वरूप का दर्शन कर पाना कोई सभी भक्तों का विशेषाधिकार नहीं है। असीम कृपा के सागर भगवान् श्रीकृष्ण के विशेष अनुग्रह के रूप में अर्जुन इस विरले लाभ का आनन्द अनुभव कर सका है। वे यह भी विशेष रूप से कहते हैं कि? यह मेरा तेजोमय अनन्त विश्वरूप तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है।इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि गीता के रचियता महर्षि व्यास? यहाँ किसी नये दर्शन की स्थापना और व्याख्या कर रहे हैं? जिसकी सत्यता वे भगवान् से प्रमाणित कराना चाहते है। इस कथन का अभिप्राय केवल इतना ही है कि सार्वभौमिक एकता का यह बौद्धिक परिचय या अनुभव किसी व्यक्ति को उन परिस्थितियों में नहीं हुआ? जैसे कि अर्जुन को युद्धभूमि पर हुआ था। बिखरा हुआ मन? थका हुआ शरीर और मानसिक रूप से पूर्णतया विचलित यह थी अर्जुन की विषादपूर्ण दयनीय दशा। विविध नामरूपमय सृष्टि की अनेकता में एकता को देख समझ सकने के लिए बुद्धि की एकाग्रता की जो अनुकूल स्थिति आवश्यक होती है? उससे अर्जुन मीलों दूर था। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने अलौकिक योगशक्ति के प्रभाव से उसे आवश्यक दिव्यचक्षु प्रदान करके? संयोग के एक शान्त क्षण में? उसे विश्वरूप का दर्शन करा दिया।भगवान् अपने अभिप्राय को अगले श्लोक में स्पष्ट करते हैं
।।11.47।। व्याख्या --'मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं दर्शितम्'--हे अर्जुन ! तू बार-बार यह कह रहा है कि आप प्रसन्न हो जाओ (11। 25? 31? 45), तो प्यारे भैया ! मैंने जो यह विराट्रूप तुझे दिखाया है, उसमें विकरालरूपको देखकर तू भयभीत हो गया है, पर यह विकरालरूप मैंने क्रोधमें आकर या तुझे भयभीत करनेके लिये नहीं दिखाया है। मैंने तो अपनी प्रसन्नतासे ही यह विराट्रूप तुझे दिखाया है। इसमें तेरी कोई योग्यता, पात्रता अथवा भक्ति कारण नहीं है। तुमने तो पहले केवल विभूति और योगको ही पूछा था। विभूति और योगका वर्णन करके मैंने अन्तमें कहा था कि तुझे जहाँ-कहीं जो कुछ विलक्षणता दीखे, वहाँ-वहाँ मेरी ही विभूति समझ। इस प्रकार तुम्हारे प्रश्नका उत्तर सम्यक् प्रकारसे मैंने दे ही दिया था। परन्तु वहाँ मैंने,(अथवा पदसे) अपनी ही तरफसे यह बात कही कि तुझे बहुत जाननेसे क्या मतलब? देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ संसार आता है, उस सम्पूर्ण संसारको मैं अपने किसी अंशमें धारण करके स्थित हूँ। दूसरा भाव यह है कि तुझे मेरी विभूति और योगशक्तिको जाननेकी क्या जरूरत है? क्योंकि सब विभूतियाँ मेरी योगशक्तिके आश्रित हैं और उस योगशक्तिका आश्रय मैं स्वयं तेरे सामने बैठा हूँ। यह बात तो मैंने विशेष कृपा करके ही कही थी। इस बातको लेकर ही तेरी विश्वरूप-दर्शनकी इच्छा हुई और मैंने दिव्यचक्षु देकर तुझे विश्वरूप दिखाया। यह तो मेरी कोरी प्रसन्नता-ही-प्रसन्नता है। तात्पर्य है कि इस विश्वरूपको दिखानेमें मेरी कृपाके सिवाय दूसरा कोई हेतु नहीं है। तेरी देखनेकी इच्छा तो निमित्तमात्र है।
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।।11.47।।श्रीभगवानुवाच -- यत् मे तेजोमयं तेजोराशिं विश्वं सर्वात्मभूतम् अनन्तम् अन्तरहितम् प्रदर्शनार्थम् इदम्? आदिमध्यान्तरहितम्? आद्यं मद्व्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्य आदिभूतं त्वदन्येन केन अपि न दृष्टपूर्वं रूपं तद् इदं प्रसन्नेन मया मद्भक्ताय ते दर्शितम् आत्मयोगात् आत्मनः सत्यसंकल्पत्वयोगात्।अनन्यभक्तिव्यतिरिक्तैः सर्वैः अपि उपायैः यथावद् अवस्थितः अहं द्रष्टुं न शक्य इति आह --
।।11.47।।अर्जुनेन स्थाने हृषीकेशेत्यादिनोक्तस्य भगवतो वचनमवतारयति -- अर्जुनमिति। भगवत्प्रसादैकोपायलभ्यं तद्दर्शनमित्याशयेत्यानाह -- मयेति।
।।11.47।।श्रीभगवानुवाच -- मयेति त्रिभिः। मया सर्वमूलरूपेण स्वयं भगवतांऽशिना कृष्णेन स्वोपनिषत्प्रतिपाद्यस्वरूपेण द्विभुजेन लावण्यजलधिना महामनोरमेन गुणातीतेन सर्ववेदान्तवेद्यचरणेन परतत्त्वेन स्वाश्रितवात्सल्यकरुणावरुणालयेनाचिन्त्यैश्वरयोगेन प्रसन्नेन स्वात्मयोगबलात् परमुत्तमेततदक्षरं विश्वरूपं दर्शितम्। अनेन सदानन्दरूपे श्रीकृष्णे तस्मिन् द्विभुज एवेदं सामर्थ्यं यत्स्वरूपान्तरदर्शनमिति मूलरूपतयाऽवतारित्वादिति ज्ञापितम्। इत्थमेवोक्तभियुक्तैः -- नान्यावतारे सामर्थ्यं यत्कृष्णतनुदर्शनम्। श्रीकृष्ण एव सामर्थ्यं यद्रूपान्तरदर्शनम् इति।
।।11.47।।इतीति। एवमर्जुनेन प्रसादितो भयबाधितमर्जुनमुपलभ्योपसंहृत्य विश्वरूपमुचितेन वचनेन तमाश्वासयत् त्रिभिः -- मयेत्यादिना। हे अर्जुन? माभैषीः। यतो मया प्रसन्नेन त्वद्विषयकृपातिशयवता इदं विश्वरूपात्मकं परं श्रेष्ठं रूपं तव दर्शितमात्मयोगात् असाधारणान्निजसामर्थ्यात्। परत्वं विवृणोति। तेजोमयं तेजःप्रचुरं विश्वं समस्तमनन्तमाद्यं च यन्मम रूपं त्वदन्येन केनापि न दृष्टपूर्वं पूर्वं न दृष्टम्।
।।11.47।।एवं प्रार्थितः सन् तमाश्वासयन् श्रीभगवानुवाच -- मयेति त्रिभिः। हे अर्चुन? किमिति बिमेषि। यतो मया प्रसन्नेन कृपया तवेदं परमुत्तमं रूपं दर्शितम्। आत्मनो मम योगाद्योगमायासामर्थ्यात्। परत्वमेवाह। तेजोमयं विश्वं विश्वात्मकनन्तमाद्यं च यन्मम रूपं त्वदन्येन त्वादृशाद्भक्तादन्येन न पूर्वं दृष्टं तत्।
।।11.47।।तेजोमयम् इत्यत्र मयटः प्राचुर्यार्थत्वमभिप्रेत्याहतेजसां राशिमिति।विश्वात्मभूतमिति विश्वव्यापकमित्यर्थः। अचेतनस्य हि नात्मत्वं सम्भवति।अनादिमध्यान्तम् [11।19] इति पूर्वमुक्तत्वात्अनन्तम् इत्येतदितरोपलक्षणमित्याह -- प्रदर्शनार्थमिदमिति।आद्यम् इत्यत्र प्रतिसम्बन्धिविशेषानिर्देशात्कृत्स्नस्यादिभूतमित्युक्तम्।त्वदन्येन इत्यनेनार्थसिद्धमाहकेनापीति। प्रसादस्य निर्हेतुकत्वे वैषम्यनैर्घृण्यप्रसङ्गात्?ते इत्यनेनाभिप्रेतं प्रसादहेतुमाहमदभक्ताय त इति। योगशब्दस्य ध्यानपरत्वभ्रमव्युदासाय व्याचष्टेआत्मनः सत्यसङ्कल्पत्वयोगादिति।
।।11.47।।एवं प्रार्थितोऽर्जुनमाश्वासयन् स्वरूपं दर्शयामास? तत्र पूर्वमाश्वासनमाह -- श्री भगवानुवाच मयेति। हे अर्जुन मया सर्वदा त्वयि प्रसन्नेन आत्मयोगात् स्वकीयत्वयोगाच्च तव परं इच्छया इदं रूपं दर्शितम्। कीदृशं तेजोमयं? विश्वं विश्वात्मकम्? अनन्तमन्तरहितम्? आद्यं सनातनं? यत् मे रूपं त्वदन्येन त्वां,विना केनाऽपि दृष्टपूर्वं न। तादृशं रूपं त्वदिच्छया दर्शितमित्यर्थः।
।।11.47।।एवमर्जुनेन प्रार्थितस्तं स्तुवन्भगवानुवाच -- मयेति त्रिभिः। हे अर्जुन? प्रसन्नेन मया तव तुभ्यमिदं परं रूपं दर्शितम्। आत्मयोगात्स्वसामर्थ्यात्। करुणया नतु तद्दर्शनेऽधिकारोऽस्ति। तथाच प्रागुक्तम् कर्मण्येवाधिकारस्ते इति। तेजोमयं चिद्रूपं दिव्यं विश्वं विश्वात्मकं आद्यमनादि अनन्तं च यत् रूपं त्वदन्येन कदाचिदपि न पूर्वं दृष्टं दृष्टपूर्वम्।
।।11.47।।अर्जुनं भीतमुपलक्ष्य विश्वरुपं तिरोधाय प्रियवचसा आश्वसयन् श्रीभगवानुवाच -- मया प्रश्न्नेन त्वय्यनुग्रहबुद्धिमता इदं परं पारमेश्वरं रुपं तव दर्शितं। यतस्त्वं फलाभिसंधिरहितत्वात् शुद्धो मद्भक्त इति ध्वनयन्संबोधयति हेऽर्जुनेति। आत्मनो योगैश्वर्यस्य सामर्थ्योत्तेजोमयं तेजःप्रायं विश्वं समस्तं सर्वात्मकं अनन्तमन्तविधुरं आदिभवमाद्यं सर्वादौ सत् यन्मे विश्वरुपमिदं त्वदन्येन केनजित्पर्वं न दृष्टम्।
11.47 मया by Me? प्रसन्नेन gracious? तव to thee? अर्जुन O Arjuna? इदम् this? रूपम् form? परम् supreme? दर्शितम् has been shown? आत्मयोगात् by My own Yogic power? तेजोमयम् full of splendour? विश्वम् universal? अनन्तम् endless? आद्यम् primeval? यत् which? मे of Me? त्वत् from thee? अन्येन by another? न not? दृष्टपूर्वम् seen before.Commentary Lord Krishna eulogises the Cosmic Form because Arjuna should be regarded to have achieved all his ends by seeing this Cosmic Form.It is also an inducement to all spiritual aspirants to strive to attain this sublime vision. What they should do is explained by the Lord in verse 53 to 55.
11.47 The Blessed Lord said O Arjuna, this Cosmic Form has graciously been shown to thee by Me by My own Yogic power; full of splendour, primeval, and infinite, this Cosmic Form of Mine has never been seen before by anyone other than thyself.
11.47 Lord Shri Krishna replied: My beloved friend! It is only through My grace and power that thou hast been able to see this vision of splendour, the Universal, the Infinite, the Original. Never has it been seen by any but thee.
11.47 The Blessed Lord said Out of grace, O Arjuna, this supreme, radiant, Cosmic, infinite, primeval form-which (form) of Mine has not been seen before by anyone other than you, has been shown to you by Me through the power of My own Yoga.
11.47 Prasannena, out of grace-grace means the intention of favouring you; O Arjuna, idam, this; param, supreme; tejomayam, abundantly radiant; visvam, Cosmic, all-comprehensive; anantam, infinite, limitless; adyam, primeval-that which existed in the beginning; rupam, form, the Cosmic form; yat which form; me, of Mine; na drsta-purvam, has not been seen before; tvat-anyena, by anyone other than you; daristam, has been shown; tava, to you; maya, by Me-who am racious, being possessed of that (intention of favouring you); atma-yogat, through the power of My own Yoga, through the power of My own Godhood. 'You have certainly got all your ends accomplished by the vision of the form of Mine who am the Self [The word atmanah (who am the Self) does not occur in some editions.-Tr.] .' Saying so, He eulogizes that (vision):
11.47. The Bhagavat said Being gracious towards you, I have shown you, O Arjuna, this supreme form, as a result of [Your] concentration on the Self; this form of Mine full of splendour universal , unending and primal, has been never seen before by anybody other than your-self.
11.47 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.47 The Lord said The 'luminous' form of Mine is a mass of luminosity. It is 'universal' i.e., constitutes the Self of the universe. It is 'infinite', endless. This is illustrated by describing it as having no beginning, middle or end. It is 'primeval,' namely, it constitutes the foundation of all beings other than Myself. It has nevr been seen before by any one other than you. Such a form is now revealed to you, who are My devotee, by Me who am gracious, by My own Yoga, namely, by the power of willing the truth associated with Me. Sri Krsna proceeds to say, 'It is not possible that I can be realised as I am, through any means except exclusive Bhakti.'
11.47 The Lord said By My grace, O Arjuna this Supreme Form, luminous, universal, infinite, primal, never seen before by anyone but you, has been revealed to you through My own free will.
।।11.47।।अर्जुनको भयभीत देखकर? विश्वरूपका उपसंहार करके प्रिय वचनोंसे धैर्य देते हुए श्रीभगवान् बोले --, हे अर्जुन प्रसन्न हुए मुझ परमात्माने -- तुझपर जो अनुग्रहबुद्धि है उसका नाम प्रसाद है उससे युक्त मुझ परमेश्वरने -- अपने ऐश्वर्यकी सामर्थ्यसे यह परम श्रेष्ठ तेजोमय -- तेजसे परिपूर्ण अनन्त -- अन्तरहित सबसे पहले होनेवाला अनादि विश्वरूप तुझे दिखाया है? जो मेरा रूप तेरे सिवा पहले और किसीसे भी नहीं देखा गया।
।।11.47।। --,मया प्रसन्नेन? प्रसादो नाम त्वयि अनुग्रहबुद्धिः? तद्वता प्रसन्नेन मया तव हे अर्जुन? इदं परं रूपं विश्वरूपं दर्शितम् आत्मयोगात् आत्मनः ऐश्वर्यस्य सामर्थ्यात्। तेजोमयं तेजःप्रायं विश्वं समस्तम् अनन्तम् अन्तरहितं आदौ भवम् आद्यं यत् रूपं मे मम त्वदन्येन त्वत्तः अन्येन केनचित् न दृष्टपूर्वम्।।आत्मनः मम रूपदर्शनेन कृतार्थ एव त्वं संवृत्तः इति तत् स्तौति --,
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श्री भगवानुवाच मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्। तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।11.47।।
শ্রী ভগবানুবাচ মযা প্রসন্নেন তবার্জুনেদং রূপং পরং দর্শিতমাত্মযোগাত্৷ তেজোমযং বিশ্বমনন্তমাদ্যং যন্মে ত্বদন্যেন ন দৃষ্টপূর্বম্৷৷11.47৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ মযা প্রসন্নেন তবার্জুনেদং রূপং পরং দর্শিতমাত্মযোগাত্৷ তেজোমযং বিশ্বমনন্তমাদ্যং যন্মে ত্বদন্যেন ন দৃষ্টপূর্বম্৷৷11.47৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ મયા પ્રસન્નેન તવાર્જુનેદં રૂપં પરં દર્શિતમાત્મયોગાત્। તેજોમયં વિશ્વમનન્તમાદ્યં યન્મે ત્વદન્યેન ન દૃષ્ટપૂર્વમ્।।11.47।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਮਯਾ ਪ੍ਰਸਨ੍ਨੇਨ ਤਵਾਰ੍ਜੁਨੇਦਂ ਰੂਪਂ ਪਰਂ ਦਰ੍ਸ਼ਿਤਮਾਤ੍ਮਯੋਗਾਤ੍। ਤੇਜੋਮਯਂ ਵਿਸ਼੍ਵਮਨਨ੍ਤਮਾਦ੍ਯਂ ਯਨ੍ਮੇ ਤ੍ਵਦਨ੍ਯੇਨ ਨ ਦਰਿਸ਼੍ਟਪੂਰ੍ਵਮ੍।।11.47।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಮಯಾ ಪ್ರಸನ್ನೇನ ತವಾರ್ಜುನೇದಂ ರೂಪಂ ಪರಂ ದರ್ಶಿತಮಾತ್ಮಯೋಗಾತ್. ತೇಜೋಮಯಂ ವಿಶ್ವಮನನ್ತಮಾದ್ಯಂ ಯನ್ಮೇ ತ್ವದನ್ಯೇನ ನ ದೃಷ್ಟಪೂರ್ವಮ್৷৷11.47৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച മയാ പ്രസന്നേന തവാര്ജുനേദം രൂപം പരം ദര്ശിതമാത്മയോഗാത്. തേജോമയം വിശ്വമനന്തമാദ്യം യന്മേ ത്വദന്യേന ന ദൃഷ്ടപൂര്വമ്৷৷11.47৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ମଯା ପ୍ରସନ୍ନେନ ତବାର୍ଜୁନେଦଂ ରୂପଂ ପରଂ ଦର୍ଶିତମାତ୍ମଯୋଗାତ୍| ତେଜୋମଯଂ ବିଶ୍ବମନନ୍ତମାଦ୍ଯଂ ଯନ୍ମେ ତ୍ବଦନ୍ଯେନ ନ ଦୃଷ୍ଟପୂର୍ବମ୍||11.47||
śrī bhagavānuvāca mayā prasannēna tavārjunēdaṅ rūpaṅ paraṅ darśitamātmayōgāt. tējōmayaṅ viśvamanantamādyaṅ yanmē tvadanyēna na dṛṣṭapūrvam৷৷11.47৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச மயா ப்ரஸந்நேந தவார்ஜுநேதஂ ரூபஂ பரஂ தர்ஷிதமாத்மயோகாத். தேஜோமயஂ விஷ்வமநந்தமாத்யஂ யந்மே த்வதந்யேந ந தரிஷ்டபூர்வம்৷৷11.47৷৷
శ్రీ భగవానువాచ మయా ప్రసన్నేన తవార్జునేదం రూపం పరం దర్శితమాత్మయోగాత్. తేజోమయం విశ్వమనన్తమాద్యం యన్మే త్వదన్యేన న దృష్టపూర్వమ్৷৷11.47৷৷
11.48
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48
।।11.48।। हे कुरुप्रवीर! मनुष्यलोकमें इस प्रकारके विश्वरूपवाला मैं न वेदोंके पढ़नेसे, न यज्ञोंके अनुष्ठानसे, न दानसे, न उग्र तपोंसे और न मात्र क्रियाओंसे तेरे (कृपापात्रके) सिवाय और किसीके द्वारा देखा जाना शक्य हूँ।
।।11.48।। हे कुरुप्रवीर! तुम्हारे अतिरिक्त इस मनुष्य लोक में किसी अन्य के द्वारा मैं इस रूप में, न वेदाध्ययन और न यज्ञ, न दान और न (धार्मिक) क्रियायों के द्वारा और न उग्र तपों के द्वारा ही देखा जा सकता हूँ।।
।।11.48।। यहाँ भगवान् यह स्पष्ट करते हैं कि किस कारण से अर्जुन इस असाधारण अनुभव को प्राप्त करने में विशेष अभिनन्दन का पात्र है। वे कहते हैं कि केवल वेदों का अध्ययन या यज्ञादि के अनुष्ठान से ही किसी में इस विश्वरूप को देख सकते की पात्रता नहीं आती। उसी प्रकार? दान धर्म या तप के आचरण से प्राप्त पुण्य भी इस दर्शन का अधिकार नहीं प्राप्त करता है। संक्षेप में? कठिन? साधनाओं के अभ्यास से भी जिसे पाना दुर्लभ है? उसे अर्जुन ने प्राप्त कर लिया? और इस कारण वह विशेष अभिनन्दन का पात्र है।भगवान् द्वारा यहाँ कहे गये वचनों का विपरीत अर्थ करके कोई यह नहीं समझे कि उन्होंने वेदाध्ययनादि की निन्दा की है अथवा ये समस्त साधन अनुपयोगी होने के कारण त्याज्य हैं। तात्पर्य यह है कि अध्ययन? यज्ञ? दान और तप ये सब अन्तकरण की शुद्धि तथा एकाग्रता प्राप्ति के साधन हैं? जो अनेकता में एकता के दर्शन करने के लिए अत्यावश्यक है। परन्तु कोई यह भी नहीं समझे कि यज्ञदानादि साधन अपने आप में ही पूर्ण हैं या वे ही साध्य हैं। केवल वेदाध्ययन आदि से ही एकत्व का बोध और साक्षात् अनुभव नहीं हो सकता। जब साधन सम्पन्न मन वृत्तिशून्य हो जाता है केवल तभी उसकी उस अन्तर्मुखी स्थिति में यह दर्शन सम्भव होता है। तात्पर्य यह है कि भोजन पाक सिद्धि अपने आप में क्षुधा शान्ति नहीं कर सकती? किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि पाकसिद्धि अनावश्यक है। इस दृष्टि से हमें इस श्लोक का अर्थ समझना चाहिए।भगवान् आगे कहते हैं
।।11.48।। व्याख्या--'कुरुप्रवीर'--यहाँ अर्जुनके लिये 'कुरुप्रवीर' सम्बोधन देनेका अभिप्राय है कि सम्पूर्ण कुरुवंशियोंमें मेरेसे उपदेश सुननेकी, मेरे रूपको देखनेकी और जाननेकी तेरी जिज्ञासा हुई, तो यह,कुरुवंशियोंमें तुम्हारी श्रेष्ठता है। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्को देखनेकी, जाननेकी इच्छा होना ही वास्तवमें मनुष्यकी श्रेष्ठता है।
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।।11.48।।एवंरूपः यथावस्थितः अहं मयि भक्तिमतः त्वत्तः अन्येन ऐकान्तिकात्यन्तिकभक्तिरहितेन केन अपि पुरुषेण केवलैः वेदयज्ञादिभिः द्रष्टुं न शक्यः।
।।11.48।।तच्छब्देन प्रकृतं दर्शनं परामृश्यते। वेदाध्ययनात्पृथग्यज्ञाध्ययनग्रहणं पुनरुक्तेरयुक्तमित्याशङ्क्याह -- न वेदेति। नच वेदाध्ययनग्रहणादेव यज्ञविज्ञानमपि गृहीतमध्ययनस्यार्थावबोधान्तत्वादिति वाच्यं? तस्याक्षरग्रहणान्ततया वृद्धैः साधितत्वादिति भावः। श्लोकपूरणार्थमसंहितकरणं? त्वत्तोऽन्येन मदनुग्रहविहीनेनेति शेषः।
।।11.48।।मदनुग्रहैकलभ्यभक्तिव्यतिरिक्तैस्तु सर्वैरप्युपायैरेवमपि द्रष्टुमशक्य इत्याह -- न वेदेति। अहं पुरुषोत्तमः कृष्ण एवंरूपमैश्वरं यस्य स विशिष्टो नृलोके द्रष्टुमशक्यः केवलोऽक्षरादिस्तु स्वोपासकानां वेदप्रवचनादिसाधनैर्द्रष्टुं शक्योऽपि भवति? नाहं पुरुषोत्तमः अनन्यभक्तिलभ्यत्वात्भक्त्याऽहमेकया ग्राह्यः इति [11।14।21] भागवतवाक्यात्। तत्रापि त्वत्तो मदनुगृहीताद्भक्तादन्ये नैवमपि द्रष्टुं न शक्ताः एतद्दर्शनस्यापि मदनुग्रहलभ्यत्वात् त्वं तु केवलं मदनुग्रहात् दृष्टवानसि। इयमेव पुष्टिःपोषणं तदनुग्रहः इति [2।10।4] भागवतवाक्यात्।तद्रहितानामपि स्वप्रमेयबलेन स्वप्रापणं पुष्टिः इति भाष्यकारः। दैवस्य निग्रहणमनु सर्वसाधनकरणेनापि पुरुषोत्तमस्वरूपालाभे दैन्येनार्त्ततया च दृढतरबीजरूपासक्तिभावमनुग्रहणं भगवता यत्र भवति सोऽनुग्रहश्च पुष्टिरिति सङ्क्षेपः। तदिदं प्रमेयवर्त्म भागवतषष्ठस्कन्धे -- सध्रीचीनो ह्ययं पन्था लोके,क्षेमोऽकुतोऽभयः [अ.1।17] इति शुकेन धर्मविष्णुदूतसंवादोपाख्यानद्वारा स्पष्टमेव दर्शितमिति ततोऽवसेयम्। अत्रोपपत्तिर्भक्तिहेतुग्रन्थेऽनेकधा निरूपिता द्रष्टव्या।
।।11.48।।एतद्रूपदर्शनात्मकमतिदुर्लभं मत्प्रसादं लब्ध्वा कृतार्थ एवासि त्वमित्याह -- न वेदेति। वेदानां चतुर्णामपि अध्ययनैरक्षरग्रहणरूपैः? तथा मीमांसाकल्पसूत्रादिद्वारा यज्ञानां वेदबोधितकर्मणामध्ययनैरर्थविचाररूपैर्वेदयज्ञाध्ययनैः? दानैस्तुलापुरुषादिभिः? क्रियाभिरग्निहोत्रादिश्रौतकर्मभिः? तपोभिः कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिरुग्रैः कायेन्द्रियशोषकत्वेन दुष्करैः? एवंरूपोऽहं न शक्यः नृलोके मनुष्यलोके द्रष्टुं त्वदन्येन मदनुग्रहहीनेन। हे कुरुप्रवीर? शक्योहमिति वक्तव्ये विसर्गलोपश्छान्दसः। प्रत्येकं नकाराभ्यासो निषेधदार्ढ्याय। नच क्रियाभिरित्यत्र चकारादनुक्तसाधनान्तरसमुच्चयः।
।।11.48।।एतद्दर्शनमतिदुर्लभं लब्ध्वा त्वं कृतार्थोऽसीत्याह -- नेति। वेदाध्ययनातिरेकेण यज्ञाध्ययनस्याभावात्। यज्ञशब्देन यज्ञविद्यायाः कल्पसूत्राद्या लक्ष्यन्ते। वेदानां यज्ञविद्यानां चाध्ययनैरित्यर्थः। नच दानैर्न च क्रियाभिरग्निहोत्रादिभिर्न चोग्रैस्तपोभिश्चान्द्रायणादिभिरेवंरूपोऽहं त्वदन्येन मनुष्यलोके द्रष्टुं शक्यः? अपितु त्वमेव केवलं मत्प्रसादेन दृष्ट्वा कृतार्थोऽसि।
।।11.48।।कथमेतद्रूपस्य मदन्येन केनाप्यदृष्टपूर्वत्वम् येनकेनचिदुपायेनान्यैरपि दर्शनसम्भवादित्यत्र एतदुपपादकत्वेनोत्तरश्लोकमवतारयति -- अनन्यभक्तिव्यतिरिक्तैरित्यादिना।एवंरूपः इत्यस्याप्राकृतरूपविशिष्टपरत्वे कृष्णावताररूपस्य सर्वैदृश्यमानत्वानुपपत्त्या मनुष्यादिविसजातीयत्वाप्राकृतत्वारूपपरत्वमभिप्रेत्याहयथावस्थितोऽहमिति। एकान्तभक्तिरहितानामवताररूपदर्शनं तु मनुष्यादिसजातीयत्वप्राकृतत्वादिरूपेणायथावस्थितदर्शनमेवेति भावः।त्वत् इत्येतत्पृथक्पदं भक्तिमत्परं चेत्यभिप्रयन्नाहमयि भक्तिमतस्त्वत्तोऽन्येनेति। अत्रान्यपदेन अर्जुनान्यत्वविवक्षायांभक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन [11।54] इत्युत्तरग्रन्थविरोधापत्त्याभक्तिमदन्यत्वमात्रं विवक्षितमित्याहएकान्तभक्तिरहितेन केनापीति। वेदशब्दोऽर्थवत्तया श्रुतवेदपरः। तेनश्रोतव्यः [2।4।5] इत्युक्तश्रवणं लभ्यते इत्यध्ययनस्य पृथगुक्तत्वात्क्रियाशब्देन गोबलीवर्दनयाद्यज्ञाध्ययनादिव्यतिरिक्तहोमादिक्रिया उच्यन्त इत्यभिप्रेत्यवेदयज्ञादिभिरित्युक्तम्। तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन [बृ.उ.4।4।22] इति श्रुत्या वेदयज्ञादीनां भक्तिद्वारा दर्शनसाधनत्वप्रतीतेः कथमयं निषेधः इति शङ्कावारणायकेवलैरित्युक्तम्।
।।11.48।।एवं त्वदिच्छयैवेदं रूपं दर्शितं? इदानीं च पूर्वतनमेव रूपं पश्य? दर्शनीयस्य रूपस्य दुर्लभत्वायाऽर्जुने कृपाधिक्यमाह -- न वेदेति। न वेदयज्ञाध्ययनैः वेदानां सार्थकशब्दात्मकानां यज्ञानामानुपूर्व्यादिसहितविद्याक्रियाणां अध्ययनैः? न दानैः तुलापुरुषादिभिः? न च क्रियाभिरग्निहोत्रादिरूपाभिः? न तपोभिरुग्रैः कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः नृलोके मनुष्यलोके एवंरूपः अहं पुरुषोत्तमः हे कुरुप्रवीर भक्तकुलश्रेष्ठ त्वदन्येन त्वामपहायान्येन द्रष्टुं पूर्वोक्तैः साधनैरपि न शक्यः न समर्थः।
।।11.48।।योगैकगम्यमेतत्कर्मिणां दुष्प्रापमित्याह -- न वेदेति। वेदानां यज्ञानां चाध्ययनैरधिगमैः नच दानैर्नच क्रियाभिः स्मृत्युक्ताभिरापूर्तादिभिर्वापीकूपारामादिभिस्तपोभिः कृच्छ्रचान्द्रयणाद्यैः। उग्रैर्मासोपवासाद्यैः। नृलोके एवंरूपोऽहं द्रष्टुं न शक्यः। रोरुत्वाभाव आर्षः। त्वदन्येन कुरुप्रवीर।
।।11.48।।मम विश्वरुपदर्शनेन कृतार्थ एव त्वं संपन्न इत्याशयेनाह -- नेति। न वेदानां चतुर्णामप्यध्ययनैः गुरुच्चारणानुच्चारणलक्षणैः। यज्ञाध्ययनैर्यज्ञविज्ञानस्य भीमांसाकल्पसूत्रादेरध्ययनैर्न दानैर्गोदानादिभिर्न च क्रियाभिः श्रौतस्मार्थक्रियाकलापैर्न तपोभिश्चान्द्रायणादिभिरुग्रैः घोरैर्देहशोषणैरेवं यथा प्रदर्शितं विश्वरुपं यस्य स एवंरुपाऽहं त्वदन्येन मदनुग्रहवर्जितेन द्रष्टुं शक्यः। अन्ये कुरवः केचित्कुरुवीराश्च। त्वं तु मे तद्रूपदर्शनलब्धप्रकर्षः कुरुप्रवीरः संपन्न इत सूचयन्नाह हे कुरुप्रवीर।
11.48 न not? वेदयज्ञाध्ययनैः by the study of the Vedas and of Yajnas? न not? दानैः by gifts? न not? च and? क्रियाभिः by rituals? न not? तपोभिः by austerities? उग्रैः severe? एवंरूपः in such form? शक्यः (am) possible? अहम् I? नृलोके in the world of men? द्रष्टुम् to be seen? त्वत् than thee? अन्येन by another? कुरुप्रवीर O great hero of the Kurus.Commentary Mere cramming of the texts of the Vedas without knowing the meaning will not do. A study of the sacrifices also is necessary. One should know the meaning of these? also.Dana Charity such as a Tula Purusha (gift of gold eal in weight of a man) Kanyadana (gift of ones daughther in marriage)? gift of a cow? rice? etc.Kriya Rituals such as Agnihotra.Tapas Such as the Chandrayana Vrata. (This is a kind of Vrata or observance. The daily consumption of food is reduced by one mouthful every day for the dark half of the month beginning with the fullmoon. Then the food is increased by one mouthful every day during the bright fortnight during the increase of the moon. This Vrata (observance) is a great purifier of the mind. It destroys sins.)
11.48 Neither by the study of the Vedas and sacrifices, nor by gifts nor by rituals nor by severe austerities can I be seen in this form in the world of men by any other than thyself, O great hero of the Kurus (Arjuna).
11.48 Not by study of the scriptures, not by sacrifice or gift, not by ritual or rigorous austerity, is it possible for man on earth to see what thou hast seen, O thou foremost hero of the Kuru-clan!
11.48 Not by the study of the Vedas and sacrifices, not by gifts, not even by rituals, not by severe austerities can I, in this form, be perceived in the human world by anyone ['By anyone who has not received My grace'. other than you, O most valiant among the Kurus.
11.48 Na veda-yajna-adhyayanaih, not by the study of the Vedas and sacrifices, (i.e.) not by the methodical study of even the four Vedas and the study of the sacrifices-since the study of the sacrifices is achieved by the very study of the Vedas, the separate mention of the study of sacrifices is for suggesting detailed knowledge of sacrifices; [This separate mention of the study of sacrifices is necessary because the ancients understood the study of Vedas to mean learing them by rote.] so also, na danaih, not by gifts-in such forms as distributing wealth eal to the weight of the giver; na ca kriyabhih, not even by rituals-by Vedic and other rituals like Agnihotra etc.; nor even ugraih tapobhih, by severe austerities such a Candrayana [A religious observance or expiatory penance regulated by the moon's phases. In it the daily antity of food, which consists of fifteen mouthfuls at the full-moon, is curtailed by one mouthful during the dark fornight till it is reduced to nothing at the new moon; and it is increased in a like manner during the bright fortnight.-V.S.A.] etc. which are frightful; sakyah aham, can I; evam rupam, in this form-possessing the Cosmic form as was shown; drastum, be perceived; nrloke, in the human world; tvad-anyena, by anyone other than you; kuru-pravira, O most valiant among the Kurus.
11.48. Not by the knowledge of the Vedas and sacrifices, nor by making gifts, nor by the rituals, nor by severe austerities, can I be seen in this form in the world of men, by anybody other than yourself, O the great hero of the Kurus !
11.48 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.48 In this form, which represents My real nature, I cannot be realised by such means as study of the Vedas, sacrifices etc., by anyone who is bereft of exclusive Bhakti towards Me or by any one other than yourself who has complete devotion towards Me.
11.48 Neither through the study of the Vedas, nor by sacrifices, nor by recitals of the scriptures, nor by gifts, nor by rituals, nor by strict austerities can I be realised in a form like this in the world of men by any one else but you. O Arjuna!
।।11.48।। मेरे रूपका दर्शन करके तू निःसंदेह कृतार्थ हो गया है। इस प्रकार उस रूपदर्शनकी स्तुति करते हैं --, न तो वेद और यज्ञोंके अध्ययनद्वारा अर्थात् न तो चारों वेदोंका यथावत् अध्ययन करनेसे और न यज्ञोंका अध्ययन करनेसे ही ( मैं दर्शन दे सकता हूँ )। वेदोंके अध्ययनसे ही यज्ञोंका अध्ययन सिद्ध हो सकता था? उसपर भी जो अलग यज्ञोंके अध्ययनका ग्रहण है? वह यज्ञविषयक विशेष विज्ञानके उपलक्षणके लिये है। वैसे ही न मनुष्यके बराबर तोलकर सुवर्णादि दान करनेसे? न श्रौतस्मार्तादि अग्निहोत्ररूप क्रियाओंसे और न चान्द्रायण आदि उग्र तपोंसे ही मैं अपने ऐसे रूपका दर्शन दे सकता हूँ। हे कुरुप्रवीर जैसा विश्वरूप तुझे दिखाया गया है वैसा मैं तेरे सिवा इस मनुष्यलोकमें और किसीके द्वारा नहीं देखा जा सकता।
।।11.48।। --,न वेदयज्ञाध्ययनैः चतुर्णामपि वेदानाम् अध्ययनैः यथावत् यज्ञाध्ययनैश्च -- वेदाध्ययनैरेव यज्ञाध्ययनस्य सिद्धत्वात् पृथक् यज्ञाध्ययनग्रहणं यज्ञविज्ञानोपलक्षणार्थम् -- तथा न दानैः तुलापुरुषादिभिः? न च क्रियाभिः अग्निहोत्रादिभिः श्रौतादिभिः? न अपि तपोभिः उग्रैः चान्द्रायणादिभिः उग्रैः घोरैः? एवंरूपः यथादर्शितं विश्वरूपं यस्य सोऽहम् एवंरूपः न शक्यः अहं नृलोके मनुष्यलोके द्रष्टुं त्वदन्येन त्वत्तः अन्येन कुरुप्रवीर।।
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न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः। एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।11.48।।
ন বেদযজ্ঞাধ্যযনৈর্ন দানৈ- র্ন চ ক্রিযাভির্ন তপোভিরুগ্রৈঃ৷ এবংরূপঃ শক্য অহং নৃলোকে দ্রষ্টুং ত্বদন্যেন কুরুপ্রবীর৷৷11.48৷৷
ন বেদযজ্ঞাধ্যযনৈর্ন দানৈ- র্ন চ ক্রিযাভির্ন তপোভিরুগ্রৈঃ৷ এবংরূপঃ শক্য অহং নৃলোকে দ্রষ্টুং ত্বদন্যেন কুরুপ্রবীর৷৷11.48৷৷
ન વેદયજ્ઞાધ્યયનૈર્ન દાનૈ- ર્ન ચ ક્રિયાભિર્ન તપોભિરુગ્રૈઃ। એવંરૂપઃ શક્ય અહં નૃલોકે દ્રષ્ટું ત્વદન્યેન કુરુપ્રવીર।।11.48।।
ਨ ਵੇਦਯਜ੍ਞਾਧ੍ਯਯਨੈਰ੍ਨ ਦਾਨੈ- ਰ੍ਨ ਚ ਕ੍ਰਿਯਾਭਿਰ੍ਨ ਤਪੋਭਿਰੁਗ੍ਰੈ। ਏਵਂਰੂਪ ਸ਼ਕ੍ਯ ਅਹਂ ਨਰਿਲੋਕੇ ਦ੍ਰਸ਼੍ਟੁਂ ਤ੍ਵਦਨ੍ਯੇਨ ਕੁਰੁਪ੍ਰਵੀਰ।।11.48।।
ನ ವೇದಯಜ್ಞಾಧ್ಯಯನೈರ್ನ ದಾನೈ- ರ್ನ ಚ ಕ್ರಿಯಾಭಿರ್ನ ತಪೋಭಿರುಗ್ರೈಃ. ಏವಂರೂಪಃ ಶಕ್ಯ ಅಹಂ ನೃಲೋಕೇ ದ್ರಷ್ಟುಂ ತ್ವದನ್ಯೇನ ಕುರುಪ್ರವೀರ৷৷11.48৷৷
ന വേദയജ്ഞാധ്യയനൈര്ന ദാനൈ- ര്ന ച ക്രിയാഭിര്ന തപോഭിരുഗ്രൈഃ. ഏവംരൂപഃ ശക്യ അഹം നൃലോകേ ദ്രഷ്ടും ത്വദന്യേന കുരുപ്രവീര৷৷11.48৷৷
ନ ବେଦଯଜ୍ଞାଧ୍ଯଯନୈର୍ନ ଦାନୈ- ର୍ନ ଚ କ୍ରିଯାଭିର୍ନ ତପୋଭିରୁଗ୍ରୈଃ| ଏବଂରୂପଃ ଶକ୍ଯ ଅହଂ ନୃଲୋକେ ଦ୍ରଷ୍ଟୁଂ ତ୍ବଦନ୍ଯେନ କୁରୁପ୍ରବୀର||11.48||
na vēdayajñādhyayanairna dānai- rna ca kriyābhirna tapōbhirugraiḥ. ēvaṅrūpaḥ śakya ahaṅ nṛlōkē draṣṭuṅ tvadanyēna kurupravīra৷৷11.48৷৷
ந வேதயஜ்ஞாத்யயநைர்ந தாநை- ர்ந ச க்ரியாபிர்ந தபோபிருக்ரைஃ. ஏவஂரூபஃ ஷக்ய அஹஂ நரிலோகே த்ரஷ்டுஂ த்வதந்யேந குருப்ரவீர৷৷11.48৷৷
న వేదయజ్ఞాధ్యయనైర్న దానై- ర్న చ క్రియాభిర్న తపోభిరుగ్రైః. ఏవంరూపః శక్య అహం నృలోకే ద్రష్టుం త్వదన్యేన కురుప్రవీర৷৷11.48৷৷
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।।11.49।। यह इस प्रकारका मेरा घोररूप देखकर तेरेको व्यथा नहीं होनी चाहिये और मूढ़भाव भी नहीं होना चाहिये। अब निर्भय और प्रसन्न मनवाला होकर तू फिर उसी मेरे इस (चतुर्भुज) रूपको अच्छी तरह देख ले।
।।11.49।। इस प्रकार मेरे इस घोर रूप को देखकर तुम व्यथा और मूढ़भाव को मत प्राप्त हो। निर्भय और प्रसन्नचित्त होकर तुम पुन: मेरे उसी (पूर्व के) रूप को देखो।।
।।11.49।। जब कभी अवसर प्राप्त होता है? व्यासजी की नाट्यप्रतिभा अपनी पूर्णता को पाने में कभी विफल नहीं होती। यहाँ ऐसे ही एक कलात्मक चित्र का उदाहरण प्रस्तुत है? जो गीतारूपी पटल पर व्यासजी ने शब्दों के द्वारा चित्रित किया है। अर्जुन के मानसिक विक्षेपों को यहाँ नाटकीय ढंग से भगवान् के इन शब्दों में दर्शाते हैं कि? तुम मेरे इस घोर रूप को देखकर भय और मोह को मत प्राप्त हो।भगवान् अपने मधुर वचनों एवं व्यवहार से अर्जुन को सांत्वना देते हुए उसके मन को पुन शान्त और प्रसन्न करते हैं। भगवान् पुन अपने मूलरूप को धारण करते हैं? जिसकी सूचना देते हुए वे कहते हैं कि? पुन मेरे उसी रूप को देखो।यह खण्ड जो भगवान् का अपने पूर्व के सौम्य और शान्त रूप में पुनर्प्रवेश का वर्णन करता है? उससे वेदान्त के विद्यार्थियों को किसी एक महावाक्य का तो स्मरण होना ही चाहिए। समष्टि के घोर विश्वरूप तथा श्रीकृष्ण के सौम्य दिव्य व्यष्टि रूप का एकत्व इस वाक्य द्वारा कि मेरा वही यह रूप,हैअत्यन्त सुन्दर प्रकार से दर्शाया गया है। वस्तुत जो परम सत्य श्रीकृष्ण की व्यष्टि उपाधि में व्यक्त हो रहा है? वही सत्य विराटरूप में भी है? जहाँ वह समस्त नामरूपों के अधिष्ठान के रूप में स्थित है। तरंगों का अधिष्ठान समुद्र है। यदि समुद्र शक्तिशाली? भयंकर घोर और विशाल है तो स्वयं तरंग लज्जालु और सौम्य? प्रिय तथा आकर्षक होती है।एक बार फिर दृश्य है हस्तिनापुर का? जहाँ राजभवन में अन्ध वृद्ध धृतराष्ट्र को संजय बताता है कि
।।11.49।। व्याख्या--'मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्'--विकराल दाढ़ोंके कारण भयभीत करनेवाले मेरे मुखोंमें योद्धालोग बड़ी तेजीसे जा रहे हैं, उनमेंसे कई चूर्ण हुए सिरोंसहित दाँतोंके बीचमें फँसे हुए दीख रहे हैं और मैं प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित मुखोंद्वारा सम्पूर्ण लोगोंका ग्रसन करते हुए उनको चारों ओरसे चाट रहा हूँ -- इस प्रकारके मेरे घोर रूपको देखकर तेरेको व्यथा नहीं होनी चाहिये, प्रत्युत प्रसन्नता होनी चाहिये। तात्पर्य है कि पहले (11। 45 में) तू जो मेरी कृपाको देखकर हर्षित हुआ था, तो मेरी कृपाकी तरफ दृष्टि होनेसे तेरा हर्षित होना ठीक ही था, पर यह व्यथित होना ठीक नहीं है। अर्जुनने जो पहले कहा है --'प्रव्यथितास्तथाहम्' (11। 23) और 'प्रव्यथितान्तरात्मा' (11। 24)। उसीके उत्तरमें भगवान् यहाँ कहते हैं -- 'मा ते व्यथा।',मैं कृपा करके ही ऐसा रूप दिखा रहा हूँ। इसको देखकर तेरेको मोहित नहीं होना चाहिये -- 'मा च विमूढभावः'। दूसरी बात? मैं तो प्रसन्न ही हूँ और अपनी प्रसन्नतासे ही तेरेको यह रूप दिखा रहा हूँ; परन्तु तू जो बार-बार यह कह रहा है कि 'प्रसन्न हो जाओ; प्रसन्न हो जाओ', यही तेरा विमूढ़भाव है। तू इसको छोड़ दे। तीसरी बात, पहले तूने कहा था कि मेरा मोह चला गया (11। 1), पर वास्तवमें तेरा मोह अभी नहीं गया है। तेरेको इस मोहको छोड़ देना चाहिये और निर्भय तथा प्रसन्न मनवाला होकर मेरा वह देवरूप देखना चाहिये। तेरा और मेरा जो संवाद है, यह तो प्रसन्नतासे, आनन्दरूपसे, लीलारूपसे होना चाहिये। इसमें भय और मोह बिलकुल नहीं होने चाहिये। मैं तेरे कहे अनुसार घोड़े हाँकता हूँ, बातें करता हूँ, विश्वरूप दिखाता हूँ आदि सब कुछ करनेपर भी तूने मेरेमें कोई विकृति देखी है क्या (टिप्पणी प0 611.1) मेरेमें कुछ अन्तर आया है क्या? ऐसे ही मेरे विश्वरूपको देखकर तेरेमें भी कोई विकृति नहीं आनी चाहिये।
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।।11.49।।ईदृशघोररूपदर्शनेन ते या व्यथा? यः च विमूढभावो वर्तते? तद् उभयं मा भूत्? त्वया अभ्यस्तपूर्वम् एव सौम्यरूपं दर्शयामि? तद् एव इदं मम रूपं प्रपश्य।
।।11.49।।विश्वरूपदर्शनमेवं स्तुत्वा यद्यस्माद्दृश्यमानाद्बिभेषि तर्हि तदुपसंहरामीत्याह -- मा ते व्यथेति। बहुविधमनुभूतत्वमभिप्रेत्येदृगित्युक्तमिदमिति प्रत्यक्षयोग्यत्वम्। तदेवेत्युक्तं इदमिति।
।।11.49।।किञ्च मा ते व्यथादिर्भवतु। घोरमिदं रूपं? कालरूपत्वात्। तव पुष्टिमिश्रमर्यादाभक्तस्य भयावहमिति तदेव पूर्वं दृष्टभूतं ममेदं पश्य।
।।11.49।।एवं त्वदनुग्रहार्थमाविर्भूतेन रूपेणानेन चेत्तवोद्वेगस्तर्हि -- मात इति। इदं घोरं ईदृक् अनेकबाह्वादियुक्तत्वेन भयंकरं मम रूपं दृष्ट्वा स्थितस्य ते तव या व्यथा भयनिमित्ता पीडा सा माभूत्। तथा,मद्रूपदर्शनेऽपि यो विमूढभावो व्याकुलचित्तत्वपरितोषः सोपि माभूत्। किंतु व्यपेतभीरपगतभयः प्रीतमनाश्च सन् पुनस्त्वं तदेव चतुर्भुजं वासुदेवत्वादिविशिष्टं त्वया सदा पूर्वदृष्टं रूपमिदं विश्वरूपोपसंहारेण प्रकटीक्रियमाणं,प्रपश्य प्रकर्षेण भयराहित्येन संतोषेण च पश्य।
।।11.49।। एवमपि चेत्तवेदं रूपं घोरं दृष्ट्वा व्यथा भवति तर्हि तदेव रूपं दर्शयामीत्याह -- मा त इति। ईदृगीदृशं मदीयं घोरं रूपं दृष्ट्वा ते व्यथा मास्तु। विमूढभावो विमूढत्वं च मास्तु। व्यपगतभयः प्रीतमनाश्च सन्पुनस्त्वं तदेवेदं मम रूपं प्रकर्षेण पश्य।
।।11.49।।दृष्ट्वा रूपंमा ते व्यथा मा च विमूढभावः इत्यत्र क्रियापदविशेषाश्रवणादेतद्रूपदर्शनेन व्यथा? तेन न च विमूढभाव इति प्रतीतिः स्यात्अभूत् इत्यध्याहारेऽपि एतद्रूपदर्शनस्य व्यथाद्यभावहेतुत्वप्रतीतिः स्यात् तद्वारणाय व्याचष्टेईदृशघोररूपदर्शनेनेत्यादिना।तदेवेदं मे रूपं पुनः पश्य इत्युक्त्या भीत्यादिहेतुभूतमेवेदं पुनः पश्येत्यर्थभ्रमः स्यात् अतस्तच्छब्दमन्यथा व्याचष्टे -- अभ्यस्तपूर्वमेव सौम्यं रूपमिति। वर्तमानत्वात्तदेवेदंशब्देन रूपद्वयस्यैककालीनत्वभ्रमव्युदासाय वर्तमानसामीप्यपरं तदित्यभिप्रायेण --,दर्शयामीत्यध्याहृतम्। तथाचेदंशब्दः प्रदर्श्यमानपर इति भावः।
।।11.49।।यदन्येन न शक्यस्ततः पूर्वोक्तभयाशङ्कादिरहितस्तदेव रूपं पश्येत्याह -- मा त इति। ते व्यथा न दर्शयिष्यामीत्यादिरूपा माऽस्तु। च पुनः मम घोरं भयानकम्? ईदृक् सर्वग्रसनादिधर्मयुक्तम्? इदं परिदृश्यमानं दृष्ट्वा विमूढभावः मोहरूपो माऽस्तु। व्यपेतभीः विगतभयः प्रीतमनाः संस्तदेव पूर्वदृष्टमेव मे इदं रूपं प्रपश्य प्रकर्षेण यथाभिलाषं भक्तियुतः पश्येत्यर्थः।
।।11.49।।इदमतिदुर्लभदर्शनं रूपं दृष्ट्वापि चेद् व्यथसे तर्ह्युपसंहरामीदमित्याशयेनाह -- मा ते इति। ममेदं ईदृक् घोरं रूपं दृष्ट्वा ते तव व्यथा माभूदिति शेषः। विमूढभावो मोहश्च ते माभूत्। व्यपेतभीर्निर्भयः प्रीतमनाश्च पुनस्त्वं भूत्वा तदेव यत्त्वया द्रष्टुं प्रार्थितं मे ममेदं रूपं प्रपश्य।
।।11.49।।तव प्रसन्नतायै प्रदर्शितेन विश्वरुपेण तव व्यथादिकं चेत्तर्हि तदेव मे रुपं पश्येत्याह -- मा त इति। ईदृक् घोरं ममेदं रुपं दृष्ट्वा तव व्यथा भयं माभूत। मा च विमूढभावो व्याकुलचित्तता। तथाच व्यपेतभीः व्यथारहितः प्रीतमनाश्च सन् तदेव स्वेष्टं चतुर्भुजं शङ्खचक्रगदापद्मधरं शयामघनं मम रुपमिदं मया प्रत्यक्षीकृतं प्रकर्षेण विश्वरुपदर्शनजनितव्यथादिनिवृत्त्यर्थं पश्य।
11.49 मा not? ते thee? व्यथा fear? मा not? च and? विमूढभावः bewildered state? दृष्ट्वा having seen? रूपम् form? घोरम् terrible? ईदृक् such? मम My? इदम् this? व्यपेतभीः with (thy) fear dispelled? प्रीतमनाः with gladdened heart? पुनः again? त्वम् thou? तत् that? एव even? मे My? रूपम् form? इदम् this? प्रपश्य behold.Commentary Former form is the form with four hands with conch? discus? club or mace and lotus.The Lord was Arjuna in a state of terror. Therefore? He withdrew the Cosmic Form and assumed His usual gentle form. He consoled Arjuna and spoke sweet? loving words.
11.49 Be not afraid, nor bewildered on seeing such a teriible form of Mine as this; with thy fear dispelled and with a gladdened heart, now behold again this former form of Mine.
11.49 Be not afraid or bewildered by the terrible vision. Put away thy fear and, with joyful mind, see Me once again in My usual Form."
11.49 May you have no fear, and may not there be bewilderment by seeing this form of Mine so terrible Becoming free from fear and gladdened in mind again, see this very earlier form of Mine.
11.49 Ma te vyatha, may you have no fear; and ma vimudha-bhavah, may not there be bewilderment of the mind; drstva, by seeing, perceiving; idam, this rupam, form; mama, of Mine; idrk ghoram, so terrible, as was revealed. Vyapetabhih, becoming free from fear; and becoming prita-manah, gladdened in mind; punah, again; prapasya, see; idam, this; eva, very; tat, earlier; rupam, form; me, of Mine, with four hands, holding a conch, a discus and a mace, which is dear to you.
11.49. Let there be no distress and no bewilderment in you by seeing this terrific and violent form of Mine; being free from fear, cheerful at heart, behold again this form of Mine which is the same [as before].
11.49 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.49 Whatever fear and whatever perlexity have been caused to you by seeing My terrible form, may it cease now. I shall show you the benign form to which you were accustomed before. Behold now that form of Mine.
11.49 You need not fear any more, nor be perplexed, looking on this awesome form of Mine. Free from fear and with a gladdened heart, behold again that other form of Mine.
।।11.49।।जैसा पहले दिखाया जा चुका है? वैसे मेरे इस घोर रूपको देखकर तुझे भय न होना चाहिये और विमूढभाव अर्थात् चित्तकी मूढावस्था भी नहीं होनी चाहिये। तू भयरहित और प्रसन्नमन हुआ वही अपना इष्ट यह शङ्खचक्रगदाधारी चतुर्भुजरूप फिर भी देख।,
।।11.49।। --,मा ते व्यथा मा भूत् ते भयम्? मा च विमूढभावः विमूढचित्तता? दृष्ट्वा उपलभ्य रूपं घोरम् ईदृक् यथादर्शितं मम इदम्। व्यपेतभीः विगतभयः? प्रीतमनाश्च सन् पुनः भूयः त्वं तदेव चतुर्भुजं रूपं शङ्खचक्रगदाधरं तव इष्टं रूपम् इदं प्रपश्य।।संजय उवाच --,
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मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्। व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।।11.49।।
মা তে ব্যথা মা চ বিমূঢভাবো দৃষ্ট্বা রূপং ঘোরমীদৃঙ্মমেদম্৷ ব্যপেতভীঃ প্রীতমনাঃ পুনস্ত্বং তদেব মে রূপমিদং প্রপশ্য৷৷11.49৷৷
মা তে ব্যথা মা চ বিমূঢভাবো দৃষ্ট্বা রূপং ঘোরমীদৃঙ্মমেদম্৷ ব্যপেতভীঃ প্রীতমনাঃ পুনস্ত্বং তদেব মে রূপমিদং প্রপশ্য৷৷11.49৷৷
મા તે વ્યથા મા ચ વિમૂઢભાવો દૃષ્ટ્વા રૂપં ઘોરમીદૃઙ્મમેદમ્। વ્યપેતભીઃ પ્રીતમનાઃ પુનસ્ત્વં તદેવ મે રૂપમિદં પ્રપશ્ય।।11.49।।
ਮਾ ਤੇ ਵ੍ਯਥਾ ਮਾ ਚ ਵਿਮੂਢਭਾਵੋ ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵਾ ਰੂਪਂ ਘੋਰਮੀਦਰਿਙ੍ਮਮੇਦਮ੍। ਵ੍ਯਪੇਤਭੀ ਪ੍ਰੀਤਮਨਾ ਪੁਨਸ੍ਤ੍ਵਂ ਤਦੇਵ ਮੇ ਰੂਪਮਿਦਂ ਪ੍ਰਪਸ਼੍ਯ।।11.49।।
ಮಾ ತೇ ವ್ಯಥಾ ಮಾ ಚ ವಿಮೂಢಭಾವೋ ದೃಷ್ಟ್ವಾ ರೂಪಂ ಘೋರಮೀದೃಙ್ಮಮೇದಮ್. ವ್ಯಪೇತಭೀಃ ಪ್ರೀತಮನಾಃ ಪುನಸ್ತ್ವಂ ತದೇವ ಮೇ ರೂಪಮಿದಂ ಪ್ರಪಶ್ಯ৷৷11.49৷৷
മാ തേ വ്യഥാ മാ ച വിമൂഢഭാവോ ദൃഷ്ട്വാ രൂപം ഘോരമീദൃങ്മമേദമ്. വ്യപേതഭീഃ പ്രീതമനാഃ പുനസ്ത്വം തദേവ മേ രൂപമിദം പ്രപശ്യ৷৷11.49৷৷
ମା ତେ ବ୍ଯଥା ମା ଚ ବିମୂଢଭାବୋ ଦୃଷ୍ଟ୍ବା ରୂପଂ ଘୋରମୀଦୃଙ୍ମମେଦମ୍| ବ୍ଯପେତଭୀଃ ପ୍ରୀତମନାଃ ପୁନସ୍ତ୍ବଂ ତଦେବ ମେ ରୂପମିଦଂ ପ୍ରପଶ୍ଯ||11.49||
mā tē vyathā mā ca vimūḍhabhāvō dṛṣṭvā rūpaṅ ghōramīdṛṅmamēdam. vyapētabhīḥ prītamanāḥ punastvaṅ tadēva mē rūpamidaṅ prapaśya৷৷11.49৷৷
மா தே வ்யதா மா ச விமூடபாவோ தரிஷ்ட்வா ரூபஂ கோரமீதரிங்மமேதம். வ்யபேதபீஃ ப்ரீதமநாஃ புநஸ்த்வஂ ததேவ மே ரூபமிதஂ ப்ரபஷ்ய৷৷11.49৷৷
మా తే వ్యథా మా చ విమూఢభావో దృష్ట్వా రూపం ఘోరమీదృఙ్మమేదమ్. వ్యపేతభీః ప్రీతమనాః పునస్త్వం తదేవ మే రూపమిదం ప్రపశ్య৷৷11.49৷৷
11.50
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।।11.50।। सञ्जय बोले -- वासुदेवभगवान् ने अर्जुनसे ऐसा कहकर फिर उसी प्रकारसे अपना रूप (देवरूप) दिखाया और महात्मा श्रीकृष्णने पुनः सौम्यवपु (द्विभुजरूप) होकर इस भयभीत अर्जुनको आश्वासन दिया।
।।11.50।। संजय ने कहा -- भगवान् वासुदेव ने अर्जुन से इस प्रकार कहकर, पुन: अपने (पूर्व) रूप को दर्शाया, और फिर, सौम्यरूप महात्मा श्रीकृष्ण ने इस भयभीत अर्जुन को आश्वस्त किया।।
।।11.50।। यहाँ संजय अन्ध वृद्ध राजा से इस बात की पुष्टि करता है कि भगवान् ने अपने दिये हुए वचन के अनुसार पुन सौम्य रूप को धारण किया। वासुदेव शब्द से यह स्पष्ट करते हैं कि पूर्व का रूप कौन सा था वह रूप जिसमें श्रीकृष्ण ने वसुदेव के घर जन्म लिया था। भगवान् ने पुन? अर्जुन के परिचित मित्र और गोपियों के घनश्याम कृष्ण का सौम्य और प्रिय रूप धारण किया। भयभीत अर्जुन को वे मधुर वचनों से आश्वस्त करते हैं।यहाँ फिर एक बार हम संजय के शब्दों में उसकी व्याकुलता देखते हैं। वह चाहता है कि धृतराष्ट्र यह देखें कि श्रीकृष्ण ही विश्वेश्वर हैं और वे पाण्डवों के साथ हैं। किन्तु कैसे क्या कभी एक अन्धा व्यक्ति देख सकता हैफिर रणभूमि का दृश्य है। संजय अर्जुन के शब्दों में सूचित करता है कि
।।11.50।। व्याख्या--'इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः'--अर्जुनने जब भगवान्से चतुर्भुजरूप होनेके लिये प्रार्थना की, तब भगवान्ने कहा कि मेरे इस विश्वरूपको देखकर तू व्यथित और भयभीत मत हो। तू प्रसन्न मनवाला होकर मेरे इस रूपको देख (11। 49)। भगवान्के इसी कथनको सञ्जयने यहाँ 'इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा' पदोंसे कहा है।
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।।11.50।।संजय उवाच -- एवं पाण्डुतनयं भगवान् वसुदेवसूनुः उक्त्वा भूयः स्वकीयम् एव चतुर्भुजरूपं दर्शयामास? अपरिचितस्वरूपदर्शनेन भीतम् एनं पुनः अपि परिचितसौम्यवपुः भूत्वा आश्वासयामास च? महात्मा सत्यसंकल्पः।अस्य सर्वेश्वरस्य परमपुरुषस्य परस्य ब्रह्मणो जगदुपकृतिमर्त्यस्य वसुदेवसूनोः चतुर्भुजम् एव स्वकीयं रूपम् कंसाद् भीतवसुदेवप्रार्थनेन आकंसवधात् पूर्वं भुजद्वयम् उपसंहृतं पश्चाद् आविष्कृतं च।जातोऽसि देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधर। दिव्यरूपमिदं देव प्रसादेनोपसंहर।। (वि0 पु0 5।3।10)उपसंहर विश्वात्मन् रूपमेतच्चतुर्भुजम् (वि0 पु0 5।3।13) इति हि प्रार्थितम्।शिशुपालस्य अपि द्विषतःअनवरतभावनाविषयं चतुर्भुजम् एव वसुदेवसूनो रूपम्उदारपीवर चतुर्बाहुं शङ्खचक्रगदाधरम्। (वि0 पु0 4।15।10) इति अतः पार्थेन अत्रतेनैव रूपेण चतुर्भुजेन (गीता 11।46) इति उच्यते।
।।11.50।।तदिदं वृत्तं राज्ञे सूतो निवेदितवानित्याह -- संजय इति। तथाभूतं वचनं मया प्रसन्नेनेत्यादिचतुर्भुजं रूपं। किं तस्य रूपस्य परिचितपूर्वस्य प्रदर्शनेन प्रसन्नदेहत्वेन चार्जुनं प्रत्याश्वासनं भगवतो युक्तमित्यत्र हेतुमाह -- महात्मेति।
।।11.50।।एवं सञ्जय उवाच -- इतीति। स्वकं पूर्वं प्रदर्शितरूपं चतुर्भुजं दर्शयामास। तथापि सख्यसारथ्यादिकमनुचितं मत्वा रथादुत्तीर्य स्तोतुकामं पार्थमवलोक्य पुनः सौम्यवपुर्द्विभुज एव लोके सम्मत -- (संभवत्) -- स्वरूप एव भक्तप्रार्थनया भूत्वा पुरुषोत्तमोऽचिन्त्ययोगेश्वरो विभुर्महात्मा भीतमेनं आश्वासयामास। अत्र सौम्यपदमेव सर्वापेक्षया भयाभावसूचकं द्विभुजरूपं प्रत्याययति। अन्यथाभूयः पुनश्च इति पौनरुक्त्यं स्यात्। वदति चाग्रेदृष्ट्वेदं मानुषं रूपं [11।51] इति।
।।11.50।।इतीति। वासुदेवोऽर्जुनमिति प्रागुक्तमुक्त्वा यथा पूर्वमासीत्तथा स्वकं रूपं किरीटमकरकुण्डलगदाचक्रादियुक्तं चतुर्भुजं श्रीवत्सकौस्तुभवनमालापीताम्बरादिशोभितं दर्शयामास भूयः पुनः आश्वासयामास च भीतमेनमर्जुनं भूत्वा पुनः पूर्ववत्सौम्यवपुरनुग्रशरीरः महात्मा परमकारुणिकः सर्वेश्वरः सर्वज्ञ इत्यादिकल्याणगुणाकरः।
।।11.50।।एवमुक्त्वा प्राक्तनमेव रूपं दर्शितवानिति संजय उवाच -- इतीति। श्रीवासुदेवोऽर्जुनमेवमुक्त्वा यथा पूर्वमासीत्तथैव किरीटादियुक्तं चतुर्भुजं स्वीयं रूपं पुनर्दर्शयामास। एनमर्जुनं भीतमेव प्रसन्नवपुर्भूत्वा पुनरप्याश्वासितवान्। महात्मा विश्वरूपः कृपालुरिति वा।
।।11.50।।सहजप्रीतिद्योतनायाह -- एवं पाण्डुतनयं वसुदेवसूनुरिति।स्वकम् इत्यत्र स्वपदं कृष्णावतारपरमित्यभिप्रेत्यस्वकीयमेव चतुर्भुजं रूपमित्युक्तम्।भीतमेनम् इत्यत्र इदानीं प्रदर्शितचतुर्भुजरूपदर्शनेन भीतत्वभ्रमव्युदासायाहअपरिचितस्वरूपदर्शनेनेति। कथमस्य इच्छामात्रेण नानारूपपरिग्रहादिकं इत्यतस्तदुपपादकत्वेनोक्तंमहात्मा इत्येतत्प्रकृतोपयोगितया व्याचष्टेसत्यसङ्कल्प इति। अप्रतिहतसङ्कल्पत्वात्सर्वमुपपन्नमिति भावः। कृष्णस्य द्विभुजतया नन्दव्रजे अवस्थानाच्चतुर्भुजं रूपं कथमेतस्य स्वकीयं इत्यतः सप्रमाणं तदुपपादयति अस्य सर्वेश्वरस्येत्यादिना। सभाश्रयणीयतौपयिकपरत्वसौलभ्यव्यञ्जनायअस्य सर्वेश्वरस्येत्यादिविशेषणानि। स्वकीयं रूपमिति कृष्णावतारस्य सहजं रूपमित्यर्थः।
।।11.50।।एवमुक्त्वा स्वरूपं दर्शयामासेति सञ्जय आह -- इतीति। अमुना प्रकारेण वासुदेवो मोक्षदाता परमकृपालुः अर्जुनं तथा पूर्वप्रकारेणोक्त्वा स्वकं स्वीयं पुरुषोत्तमरूपं भूयः पुनः दर्शयामास। एवं दर्शयित्वा सौम्यवपुर्भूत्वा च पुनः पूर्वरूपदर्शनभीतं एनं अर्जुनं पुनराश्वासयामास। नन्वेवं वारं वारं कथं कृतवान् इत्यत आह -- महात्मेति। महांश्चासौ आत्मा च तेन कृपया तथा कृतवानिति भावः। यद्वा महतां भक्तानां आत्मा अतो भक्तत्वात्तथा कृतवानित्यर्थः।
।।11.50।।संजय उवाच -- इतीति। वासुदेवोऽर्जुनं प्रति इति पूर्वोक्तरीत्योक्त्वा यथा पूर्वमासीत्तथा स्वकं मानुषं रूपं भूयः पुनर्दर्शयामास। यदर्जुनेन प्रार्थितं चतुर्भुजं धारणाविषयं रूपं तदपि तिरोदधे इत्यर्थः। तथा महात्मा व्यापकोऽपि सन् सौम्यवपुरनुग्रदेहो भूत्वा भीतमेनमाश्वासयामास च।
।।11.50।।एतद्वृत्तान्तं धृतराष्ट्राय संजयो निवेदितवानित्याह -- संजय उवाच। इत्येवमर्जुनं वासुदेवस्तथाभूतं वचनमुक्तवा। वासुदेव इत्यनेन स्वकमित्यस्य वसुदेवगृहे जातं स्वकीयं रुपमित्यर्थ सूचयति। दर्शयामास दर्शितवान् पुनःपुनराश्वसितवान्।,च पुनः सौम्यवपुः प्रसन्नदेहो भूत्वा। नन्वेवं क्षणिकचित्तेऽर्जुने क्षोभं कुतो न कृतवानित्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह। महात्मा कारुण्यादिगुणगणाकरस्तस्य भगवतो युक्तमेव पूर्वपरिचितसौम्यवपुःप्रदर्शनेनार्जुनाश्वासनमिति भावः।
11.50 इति thus? अर्जुनम् to Arjuna? वासुदेवः Vaasudeva? तथा so? उक्त्वा having spoken? स्वकम् His own? रूपम् form? दर्शयामास showed? भूयः again? आश्वासयामास consoled? च and? भीतम् who was terrified? एनम् him? भूत्वा having become? पुनः again? सौम्यवपुः of gentle form? महात्मा the greatsouled One.Commentary His own form His form as the son of Vasudeva.
11.50 Sanjaya said Having thus spoken to Arjuna, Krishna again showed His own form and the great Soul (Krishna), assuming His gentle form, consoled him (Arjuna) who was terrified.
11.50 Sanjaya continued: "Having thus spoken to Arjuna, Lord Shri Krishna showed Himself again in His accustomed form; and the Mighty Lord, in gentle tones, softly consoled him who lately trembled with fear.
11.50 Sanjaya said Thus, having spoken to Arjuna in that manner, Vasudeva showed His own form again. And He, the exalted One, reassured this terrified one by again becoming serene in form.
11.50 Iti, thus; uktva, having spoken; arjunam, to Arjuna; tatha, in that manner, the words as stated above; Vasudeva darsayamasa, showed; svakam, His own; rupam, form, as was born in the house of Vasudeva; bhuyah, again. And the mahatma, exalted One; asvasayamasa, reassured; enam, this; bhitam, terrified one; bhutva, by becoming; punah, again; saumya-vapuh, serene in form, graceful in body.
11.50. Having said to Arjuna as above, Vasudeva revealed His own tiny form; assuming His gentle body once again, the Mighty Soul (Krsna) consoled the frightened Arjuna.
11.51 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.50 Sanjaya said Having spoken thus to Arjuna, the Lord, the son of Vasudeva, revealed His own four-armed form. And the Mahatman, i.e., one whose resolves are always treu, reassured him who was terror-stricken on seeing ann unfamiliar form, by resuming the familiar pleasant form. Possession of His own four-armed form alone is proper to this Lord of all, the Supreme Person, the Supreme Brahman, when he has assumed the human form for blessing this world as the son of Vasudeva. But in answer to the prayer of Vasudeva, who was terrified by Kamsa, the two extra arms were withdrawn till the destruction of Kamsa. These became manifest again. For He was prayed to thus: 'You are born, O Lord, O Lord of gods, withdraw this form bearing conch, discus and mace out of grace ৷৷. withdraw this form of four arms, O Self of all' (V. P., 5.3.10 and 13). Even to Sisupala, who hated Him, this form of four arms of Sri Krsna was the object of constant thought, as described in: 'Him who is of four long and robust arms, bearing the conch, discus and the mace' (V. P., 4.15.10). Hence Arjuna also exclaimed here; 'Assume again that four-armed shape' (11.46).
11.50 Sanjaya said Having spoken thus to Arjuna, Sri Krsna revealed to him once more His own form. The Mahatman, assuming again a benign form, reassured him who had been struck with awe.
।।11.50।। संजय बोला -- इस प्रकार भगवान् वासुदेवने पूर्वोक्त वचन कहकर अर्जुनको अपनावसुदेवके घरमें प्रकट हुआ रूप दिखलाया। फिर सौम्यमूर्ति होकर अर्थात् प्रसन्न देहसे युक्त होकर महात्मा कृष्णने इस भयभीत अर्जुनको पुनःपुनः धैर्य दिया।,
।।11.50।। --,इति एवम् अर्जुनं वासुदेवः तथाभूतं वचनम् उक्त्वा? स्वकं वसुदेवस्य गृहे जातं रूपं दर्शयामास दर्शितवान् भूयः पुनः। आश्वासयामास च आश्वासितवान् भीतम् एनम्? भूत्वा पुनः सौम्यवपुः प्रसन्नदेहः महात्मा।।अर्जुन उवाच --,
।।11.50।।स्वकं रूपं दर्शयामासेति कृष्णरूपत्वस्य स्वकत्वविशेषणात्। विश्वरूपं न स्वकमिति प्रतीतिः स्यादत आह -- स्वकमिति। कृष्णः स्वकं रूपं न विश्वरूपमिति भ्रान्तप्रतीत्यनुवादेनोच्यत इत्यर्थः। कुत एतत् इत्यत आह -- अन्यथेति। प्रमाणप्रतीत्येत्यर्थः। कानि तानि प्रमाणानि इत्यत आह -- प्रमाणानीति। द्वितीयान्ते।
।।11.50।।स्वकं रूपं तु भ्रान्तिप्रतीत्या। अन्यथा तदपि स्वकमेव। प्रमाणानि तूक्तानि पुरस्तात्।
सञ्जय उवाच इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः। आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।।11.50।।
সঞ্জয উবাচ ইত্যর্জুনং বাসুদেবস্তথোক্ত্বা স্বকং রূপং দর্শযামাস ভূযঃ৷ আশ্বাসযামাস চ ভীতমেনং ভূত্বা পুনঃ সৌম্যবপুর্মহাত্মা৷৷11.50৷৷
সঞ্জয উবাচ ইত্যর্জুনং বাসুদেবস্তথোক্ত্বা স্বকং রূপং দর্শযামাস ভূযঃ৷ আশ্বাসযামাস চ ভীতমেনং ভূত্বা পুনঃ সৌম্যবপুর্মহাত্মা৷৷11.50৷৷
સઞ્જય ઉવાચ ઇત્યર્જુનં વાસુદેવસ્તથોક્ત્વા સ્વકં રૂપં દર્શયામાસ ભૂયઃ। આશ્વાસયામાસ ચ ભીતમેનં ભૂત્વા પુનઃ સૌમ્યવપુર્મહાત્મા।।11.50।।
ਸਞ੍ਜਯ ਉਵਾਚ ਇਤ੍ਯਰ੍ਜੁਨਂ ਵਾਸੁਦੇਵਸ੍ਤਥੋਕ੍ਤ੍ਵਾ ਸ੍ਵਕਂ ਰੂਪਂ ਦਰ੍ਸ਼ਯਾਮਾਸ ਭੂਯ। ਆਸ਼੍ਵਾਸਯਾਮਾਸ ਚ ਭੀਤਮੇਨਂ ਭੂਤ੍ਵਾ ਪੁਨ ਸੌਮ੍ਯਵਪੁਰ੍ਮਹਾਤ੍ਮਾ।।11.50।।
ಸಞ್ಜಯ ಉವಾಚ ಇತ್ಯರ್ಜುನಂ ವಾಸುದೇವಸ್ತಥೋಕ್ತ್ವಾ ಸ್ವಕಂ ರೂಪಂ ದರ್ಶಯಾಮಾಸ ಭೂಯಃ. ಆಶ್ವಾಸಯಾಮಾಸ ಚ ಭೀತಮೇನಂ ಭೂತ್ವಾ ಪುನಃ ಸೌಮ್ಯವಪುರ್ಮಹಾತ್ಮಾ৷৷11.50৷৷
സഞ്ജയ ഉവാച ഇത്യര്ജുനം വാസുദേവസ്തഥോക്ത്വാ സ്വകം രൂപം ദര്ശയാമാസ ഭൂയഃ. ആശ്വാസയാമാസ ച ഭീതമേനം ഭൂത്വാ പുനഃ സൌമ്യവപുര്മഹാത്മാ৷৷11.50৷৷
ସଞ୍ଜଯ ଉବାଚ ଇତ୍ଯର୍ଜୁନଂ ବାସୁଦେବସ୍ତଥୋକ୍ତ୍ବା ସ୍ବକଂ ରୂପଂ ଦର୍ଶଯାମାସ ଭୂଯଃ| ଆଶ୍ବାସଯାମାସ ଚ ଭୀତମେନଂ ଭୂତ୍ବା ପୁନଃ ସୌମ୍ଯବପୁର୍ମହାତ୍ମା||11.50||
sañjaya uvāca ityarjunaṅ vāsudēvastathōktvā svakaṅ rūpaṅ darśayāmāsa bhūyaḥ. āśvāsayāmāsa ca bhītamēnaṅ bhūtvā punaḥ saumyavapurmahātmā৷৷11.50৷৷
ஸஞ்ஜய உவாச இத்யர்ஜுநஂ வாஸுதேவஸ்ததோக்த்வா ஸ்வகஂ ரூபஂ தர்ஷயாமாஸ பூயஃ. ஆஷ்வாஸயாமாஸ ச பீதமேநஂ பூத்வா புநஃ ஸௌம்யவபுர்மஹாத்மா৷৷11.50৷৷
సఞ్జయ ఉవాచ ఇత్యర్జునం వాసుదేవస్తథోక్త్వా స్వకం రూపం దర్శయామాస భూయః. ఆశ్వాసయామాస చ భీతమేనం భూత్వా పునః సౌమ్యవపుర్మహాత్మా৷৷11.50৷৷
11.51
11
51
।।11.51।। अर्जुन बोले -- हे जनार्दन ! आपके इस सौम्य मनुष्यरूपको देखकर मैं इस समय स्थिरचित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थितिको प्राप्त हो गया हूँ।
।।11.51।। अर्जुन ने कहा -- हे जनार्दन! आपके इस सौम्य मनुष्य रूप को देखकर अब मैं शांतचित्त हुआ अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया हूँ।।
।।11.51।। देशकालातीत वस्तु को ग्रहण तथा अनुभव करने के लिए आवश्यक पूर्व तैयारी के अभाव के कारण अकस्मात् समष्टि के इतने विशाल विराट् रूप को देखकर स्वाभाविक है कि अर्जुन भय और मोह से ग्रस्त हो गया था। परन्तु यहाँ वह स्वीकार करता है कि भगवान् के शान्त? सौम्य मनुष्य रूप को देखकर वह शान्तचित्त होकर अपने स्वभाव को प्राप्त हो गया है।अब भगवान् स्वयं ही ईश्वर की भक्ति का वर्णन अगले श्लोक में करते हैं।
।।11.51।। व्याख्या--'दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन'--आपके मनुष्यरूपमें प्रकट होकर लीला करनेवाले रूपको देखकर गायें, पशु-पक्षी, वृक्ष, लताएँ आदि भी पुलकित हो जाती हैं (टिप्पणी प0 613), ऐसे सौम्य द्विभुजरूपको देखकर मैं होशमें आ गया हूँ, मेरा चित्त स्थिर हो गया है--'इदानीमस्मि संवृत्तः' 'सचेताः', विराट्रूपको देखकर जो मैं भयभीत हो गया था, वह सब भय अब मिट गया है, सब व्यथा चली गयी है और मैं अपनी वास्तविक स्थितिको प्राप्त हो गया हूँ -- 'प्रकृतिं गतः।' यहाँ सचेताः कहनेका तात्पर्य है कि जब अर्जुनकी दृष्टि भगवान्की कृपाकी तरफ गयी, तब अर्जुनको होश आया और वे सोचने लगे कि कहाँ तो मैं और कहाँ भगवान्का विस्मयकारक विलक्षण विराट्रूप ! इसमें मेरी कोई योग्यता, अधिकारिता नहीं है। इसमें तो केवल भगवान्की कृपा-ही-कृपा है।  सम्बन्ध--अर्जुनकी कृतज्ञताका अनुमोदन करते हुए भगवान् कहते हैं --
।।11.51।।दृष्ट्वेति। सकलोपसंहारान्ते (S सकलः संहारान्ते) परमप्रशान्तरूपां ब्रह्म तत्त्वस्थितिं ददाति इत्युपसंहारे भगवतः सौम्यता।
।।11.51।।अर्जुन उवाच -- अनवधिकातिशयसौन्दर्यसौकुमार्यलावण्यादियुक्तं तव एव असाधारणं मनुष्यत्वसंस्थानसंस्थितम् अतिसौम्यम् इदं तव रूपं दृष्ट्वा सचेताः संवृत्तः अस्मि? प्रकृतिं गतः च।
।।11.51।।एवं भगवदाश्वासितः सन्नर्जुनस्तं प्रत्युक्तवानित्याह -- अर्जुन इति।
।।11.51।।ततो यथावदवस्थितः सन् अर्जुन उवाच -- दृष्ट्वेदमिति। निरवधिकातिशयसौन्दर्यसौकुमार्यलावण्यसौशील्यादियुक्तं सदानन्दमात्रकरपादमुखोदरादिरूपं सौम्यं मानुषं मनुष्यत्वसंस्थानस्थितं दृष्ट्वा सचेताः जातोऽस्मि। तदा तु विचेताः अमनाः अपाणिपादं तदमूर्त्तमव्ययम् इति वाक्यात्। इदानीं तु प्रकृतिं स्वभावं प्राप्तोऽस्मि।
।।11.51।।ततो निर्भयः सन् अर्जुन उवाच -- दृष्ट्वेति। इदानीं सचेताः भयकृतव्यामोहाभावेनाव्याकुलचित्तः संवृत्तोऽस्मि। तथा प्रकृतिं भयकृतव्यथाराहित्येन स्वास्थ्यं गतोस्मि स्पष्टमन्यत्।
।।11.51।।ततो निर्भयः सन्नर्जुन उवाच -- दृष्ट्वेति। सचेताः प्रसन्नचित्त इदानीं संवृत्तः जातोऽस्मि। प्रकृतिं स्वास्थ्यं च प्राप्तोऽस्मि। शेषं स्पष्टम्।
।।11.51।।मानुषं रूपम् इत्यस्य कर्मजन्यप्राकृतरूपपरत्वभ्रमव्युदासायेदंशब्दाभिप्रेतं वदंस्तद्व्याचष्टेअनवधिकातिशयसौन्दर्येत्यादिना।
।।11.51।।दर्शितस्वरूपं दृष्ट्वाऽर्जुनो विज्ञापयति -- दृष्ट्वेति। हे जनार्दन अविद्यानाशक इदं पुरतो दृश्यमानं मानुषं मनुष्यैर्द्रष्टुं योग्यं सौम्यं दयापरीतं दयायुक्तं तव रूपं दृष्ट्वा इदानीमधुना सचेताः सावधानचित्तः संवृत्तः जातोऽस्मि। प्रकृतिं भक्तिरूपां गतः प्राप्तोऽस्मि (च)।
।।11.51।।ततो निर्भयः सन्नर्जुन उवाच -- दृष्ट्वेति। सचेता अव्याकुलः। प्रकृतिं गतः स्वास्थ्यं प्राप्तः। संवृत्तो जातोऽस्मि।
।।11.51।।स्वभिलषितं रुपं दृष्ट्वार्जुन उवाच। दृष्ट्वेदं प्रत्यक्षं मानुषं नराकारं मत्सखं सौभ्यं प्रसन्नं तव रुपं इदानीं सचेताः प्रसन्नमनाः प्रकृतिं स्वभावं गतः प्राप्तः संवृत्तः संजातोऽस्मि। जनार्दनेति संबोधयन् जनानसुरानर्दयति पीडयतीति जनार्दनस्तद्दर्शनजन्यं भियमिदानीं सौम्यरुपदर्शनेन निवृत्तामिति सूचयति।
11.51 दृष्ट्वा having seen? इदम् this? मानुषम् human? रूपम् form? तव Thy? सौम्यम् gentle? जनार्दन O Krishna? इदानीम् now? अस्मि (I) am? संवृत्तः composed? सचेताः with mind? प्रकृतिम् to nature? गतः restored.Commentary Arjuna says to Lord Krishna O Lord? I now behold Thy human form. Now my thoughts are collected and I am serene. I can speak. My senses perform their proper functions. My fear has vanished. Thou hast treated me as a mother would treat her erring child whom she embraces and nurses. Just as the calf rejoices when it beholds its mother who was missing for some days? so also I rejoice now when I behold Thy gentle form. I have drunk the nectar. Now I am alive.
11.51 Arjuna said Having seen this Thy gentle human form, O Krishna, now I am composed and am restored to my own nature.
11.51 Arjuna said: Seeing Thee in Thy gentle human form, my Lord, I am myself again, calm once more.
11.51 Arjuna said O Janardana, having seen this serene human form of Yours, I have now become calm in mind and restored to my own nature.
11.51 O Janardana, drstva, having seen; idam, this; saumyam, serene; manusam, human; rupam, form; tava, of Yours-gracious, as of my friend; asmi, I have; idanim, now; samvrttah, become;-what?-sacetah, calm in mind; and gatah, restored; prakrtim, to my own nature.
11.51. Arjuna said On seeing this gentle human form of Yours, O Janardana, now I have regained my nature and have now collected my thinking faculty.
11.51 Drstva etc. At the end of the act of withdrawing all, the Brahman assumes the highly tranil stage of the tattva. Hence at the stage of withdrawl, gentleness is in the Bhagavat.
11.51 Arjuna said Having beheld this pleasing and unie form of Yours, human in configuration, endowed with grace, tenderness, beauty etc., the excellence of which is infinite, I have now become composed, and I am restored to my normal nature.
11.51 Arjuna said Having behold the human and pleasing form of Yours, O Krsna, I have now become composed in mind and I am restored to my normal nature.
।।11.51।।अर्जुन बोला -- हे जनार्दन अब मैं अपने मित्रकी आकृतिमें आपके इस प्रसन्नमुख सौम्य मानुषरूपको देखकर सचेता यानी प्रसन्नचित्त हुआ हूँ और अपनी प्रकृतिको -- वास्तविक स्थितिको प्राप्त हुआ हूँ।,
।।11.51।। --,दृष्ट्वा इदं मानुषं रूपं मत्सखं प्रसन्नं तव सौम्यं जनार्दन? इदानीम्? अधुना अस्मि संवृत्तः संजातः। किम् सचेताः प्रसन्नचित्तः प्रकृतिं स्वभावं गतश्च अस्मि।।श्रीभगवानुवाच --,
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अर्जुन उवाच दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तवसौम्यं जनार्दन। इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः।।11.51।।
অর্জুন উবাচ দৃষ্ট্বেদং মানুষং রূপং তবসৌম্যং জনার্দন৷ ইদানীমস্মি সংবৃত্তঃ সচেতাঃ প্রকৃতিং গতঃ৷৷11.51৷৷
অর্জুন উবাচ দৃষ্ট্বেদং মানুষং রূপং তবসৌম্যং জনার্দন৷ ইদানীমস্মি সংবৃত্তঃ সচেতাঃ প্রকৃতিং গতঃ৷৷11.51৷৷
અર્જુન ઉવાચ દૃષ્ટ્વેદં માનુષં રૂપં તવસૌમ્યં જનાર્દન। ઇદાનીમસ્મિ સંવૃત્તઃ સચેતાઃ પ્રકૃતિં ગતઃ।।11.51।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਦਰਿਸ਼੍ਟ੍ਵੇਦਂ ਮਾਨੁਸ਼ਂ ਰੂਪਂ ਤਵਸੌਮ੍ਯਂ ਜਨਾਰ੍ਦਨ। ਇਦਾਨੀਮਸ੍ਮਿ ਸਂਵਰਿਤ੍ਤ ਸਚੇਤਾ ਪ੍ਰਕਰਿਤਿਂ ਗਤ।।11.51।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ದೃಷ್ಟ್ವೇದಂ ಮಾನುಷಂ ರೂಪಂ ತವಸೌಮ್ಯಂ ಜನಾರ್ದನ. ಇದಾನೀಮಸ್ಮಿ ಸಂವೃತ್ತಃ ಸಚೇತಾಃ ಪ್ರಕೃತಿಂ ಗತಃ৷৷11.51৷৷
അര്ജുന ഉവാച ദൃഷ്ട്വേദം മാനുഷം രൂപം തവസൌമ്യം ജനാര്ദന. ഇദാനീമസ്മി സംവൃത്തഃ സചേതാഃ പ്രകൃതിം ഗതഃ৷৷11.51৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ଦୃଷ୍ଟ୍ବେଦଂ ମାନୁଷଂ ରୂପଂ ତବସୌମ୍ଯଂ ଜନାର୍ଦନ| ଇଦାନୀମସ୍ମି ସଂବୃତ୍ତଃ ସଚେତାଃ ପ୍ରକୃତିଂ ଗତଃ||11.51||
arjuna uvāca dṛṣṭvēdaṅ mānuṣaṅ rūpaṅ tavasaumyaṅ janārdana. idānīmasmi saṅvṛttaḥ sacētāḥ prakṛtiṅ gataḥ৷৷11.51৷৷
அர்ஜுந உவாச தரிஷ்ட்வேதஂ மாநுஷஂ ரூபஂ தவஸௌம்யஂ ஜநார்தந. இதாநீமஸ்மி ஸஂவரித்தஃ ஸசேதாஃ ப்ரகரிதிஂ கதஃ৷৷11.51৷৷
అర్జున ఉవాచ దృష్ట్వేదం మానుషం రూపం తవసౌమ్యం జనార్దన. ఇదానీమస్మి సంవృత్తః సచేతాః ప్రకృతిం గతః৷৷11.51৷৷
11.52
11
52
।।11.52।। श्रीभगवान् बोले -- मेरा यह जो रूप तुमने देखा है, इसके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ हैं। इस रूपको देखनेके लिये देवता भी नित्य लालायित रहते हैं।
।।11.52।। श्रीभगवान् ने कहा -- मेरा यह रूप देखने को मिलना अति दुर्लभ है, जिसको कि तुमने देखा है। देवतागण भी सदा इस रूप के दर्शन के इच्छुक रहते हैं।।
।।11.52।। See Commentary under 11.53.
।।11.52।। व्याख्या--'सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम'--यहाँ 'सुदुर्दर्शम्' पद चतुर्भुजरूपके लिये ही आया है, विराट्रूप या द्विभुजरूपके लिये नहीं। कारण कि विराट्रूपकी तो देवता भी कल्पना क्यों करने लगे ! और मनुष्यरूप जब मनुष्योंके लिये सुलभ था, तब देवताओंके ल,ये वह दुर्लभ कैसे होता ! इसलिये 'सुदुर्दर्शम्' पदसे भगवान् विष्णुका चतुर्भुजरूप ही लेना चाहिये, जिसके लिये 'देवरूपम्' (11। 45) और स्वकं रूपम् (11। 50) पद आये हैं।
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।।11.52।।श्रीभगवानुवाच -- मम इदं सर्वस्य प्रशासने अवस्थितं सर्वाश्रयं सर्वकारणभूतं रूपं यत् दृष्टवान् असि? तत् सुदुर्दर्शं न केन अपि द्रष्टुं शक्यम् अस्य रूपस्य देवा अपि नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः? न तु दृष्टवन्तः।कुतः इत्यत्र आह --
।।11.52।।उपास्यत्वाय विश्वरूपं स्तोतुं भगवदुक्तिमुत्थापयति -- भगवानिति। त्वद्व्यतिरिक्तानामिदं रूपं द्रष्टुमशक्यमित्येतद्विशदयति -- देवादय इति।
।।11.52।।ततः एवं स्थितौ स्वरूपस्य सुदुर्दर्शत्वं निरूपयन्प्रसङ्गादनुग्रहभक्त्यैकगम्यत्वं स्वस्य निगमयति त्रिभिः -- सुदुर्दर्शमिति। इदं मत्सम्बन्धि रूपमक्षरं विश्वरूपं यत्त्वं दृष्टवानसि? यतोऽहं सुदुर्दर्शस्तदा किं वाच्यं मत्सम्बन्धिरूपमिदमिति तदेवाह -- देवा अपीति। सात्विका अपि ते नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः? न तु दृष्टवन्तोऽपि अनुग्रहबीजभावाभावात्।
।।11.52।।स्वकृतस्यानुग्रहस्यातिर्दुलभत्वं दर्शयन् चतुर्भिः श्रीभगवानुवाच -- सुदुर्दर्शमिति। मम यद्रूपमिदानीं त्वं दृष्टवानसि इदं विश्वरूपं सुदुर्दर्शं अत्यन्तं द्रष्टुमशक्यं। यतो देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं सर्वदा दर्शनकाङ्क्षिणो नतु त्वमिव पूर्वं दृष्टवन्तो न वाऽग्रे द्रक्ष्यन्तीत्यभिप्रायः। दर्शनाकाङ्क्षया नित्यत्वोक्तिः।
।।11.52।।स्वकृतस्यानुग्रहस्यातिदुर्लभत्वं दर्शयन् श्रीभगवानुवाच -- सुदुर्दर्शमिति। यन्मम विश्वरूपं त्वं दृष्टवानसि इदं सुदुर्दर्शमत्यन्तं द्रष्टुमशक्यम्। अतो देवा अप्यस्य रूपस्य सर्वदा दर्शनमिच्छन्ति न केवलं पुनरिदं पश्यन्ति।
।।11.52।।यच्छब्दस्य प्रसिद्धपरामर्शित्वेन प्रसिद्धाकारानाहसर्वस्य प्रशासनेऽवस्थितमित्यादिना।नित्यम् इत्यस्य पदार्थैकदेशदर्शनान्वयस्यागतिकस्य आश्रयणमनुचितमित्यभिप्रेत्याकाङ्क्षाया नित्यत्वं दर्शनाभावमवगमयतीत्याशयेनाहन तु दृष्टवन्त इति।
।।11.52।।स्वस्य रूपस्य स्वानुग्रहैकसाध्यत्वेन परमदुर्लभत्वमाह -- श्रीभगवानुवाच सुदुर्दर्शमिति। इदं परिदृश्यमानं मम रूपं सुदुर्दर्शं सुष्ठु दुःखेनाऽपि द्रष्टुमशक्यं यत् त्वं दृष्टवानसि। देवा अपि मत्क्रीडायोग्या मदंशा अपि अस्य नित्यं प्रत्यहं दर्शनकाङ्क्षिणः दर्शनेच्छवस्तिष्ठन्तीत्यर्थः।अत्रायं भावः -- ब्रह्मादयो देवाः श्रीदेवकीगृहे स्तुत्वा गतास्तदा गर्भ एव प्राकट्यं? न बहिः बहिः प्राकट्यानन्तरं तु मातृप्रार्थनया तिरोहितं कृत्वा ध्यानास्पदत्वेन स्थापितं देवादीनां तु तद्वृत्तान्ताज्ञानाद्वेदोक्तरीत्या भजनात्तादृक्स्वरूपदर्शनमेव भवति इदं च स्वरूपं भावात्मकं वेदाद्यगम्यं भक्तमुखात् श्रुतत्वाच्चाकाङ्क्षिणस्तिष्ठन्तीति तथा।
।।11.52।।अस्य विश्वरूपदर्शनस्य दौर्लभ्यं दर्शयन् श्रीभगवानुवाच सुदुर्दर्शमिति। दर्शनकाङ्क्षिणः दर्शनं काङ्क्षन्ते एव न तु लभन्ते।
।।11.52।।एवं श्रुत्वा स्वकृतस्यातिदर्लभस्यानुग्रहस्य वैयर्थ्यपरिहाराय श्रीभगवानुवाच। यन्मम रुपं मदनुग्रहेण त्वं दृष्टवानसि तदिदमन्येषां सुष्ठु दुःखेनात्यन्तकष्टेन दर्शनमस्येति सुदुर्द्सं यतोत्युत्तमाः सात्विकास्तिद्दर्शनार्थिनश्च देवा इन्द्रादयोऽपि न तत्त्वमिव दृष्टवन्तो न च द्रक्ष्यन्तीत्याशयेनाह -- देवा इति।
11.52 सुदुर्दर्शम् very hard to see? इदम् this? रूपम् form? दृष्टवानसि thou hast seen? यत् which? मम My? देवाः gods? अपि also? अस्य (of) this? रूपस्य of form? नित्यम् ever? दर्शनकाङ्क्षिणः (are) desrious to behold.Commentary Lord Krishna says to Arjuna Though the gods long to behold the Cosmic Form yet they have not seen it as you have done. THey can never behold it.Just as the Chataka (a bird) longs for a drop of rain? eagerly turning its eyes towards the clouds? so also do gods yearn to behold the Cosmic Form but their wishes have not been gratified even in their dreams. Such is that marvellous vision which thou hast easily seen.
11.52 The Blessed Lord said Very hard indeed it is to see this form of Mine which thou hast seen. Even the gods are ever longing to behold it.
11.52 Lord Shri Krishna replied: It is hard to see this vision of Me that thou hast seen. Even the most powerful have longed for it in vain.
11.52 The Blessed Lord said This form of Mine which you have seen is very difficult to see; even the gods are ever desirous of a vision of this form.
11.52 Idam, this; rupam, form; mama, of Mine; yat, which; drstavan, asi, you have seen is; sudur-darsam, very difficult to see. Api, even; the devah, gods; are nityam, ever; darsana-kanksinah, desirous of a vision; asya, of this; rupasya, form of Mine. The idea is that though they want to see, they have not seen in the way you have, nor will they see! Why so?
11.52. The Bhagavat said This form of Mine, which you have just observed is extremely difficult to observe; even gods are always curious of observing this form.
11.52 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.52 The Lord said This form of Mine which you have seen, and which has the whole universe under control, which is the foundation of all and which forms the origin of all - this cannot be beheld by any one. Even the gods ever long to see this form; but they have not seen it. Why? Sri Krsna says:
11.52 The Lord said It it very hard to behold this form of Mine which you have seen. Even the gods ever long to behold this form.
।।11.52।।श्रीभगवान् बोले -- मेरे जिस रूपको तूने देखा है? वह बड़ा दुर्दर्श है अर्थात् जिसका दर्शन बड़ी कठिनतासे हो? ऐसा है। देवता लोग भी मेरे इस रूपका दर्शन करनेकी सदा इच्छा करते हैं। अभिप्राय यह है कि दर्शनकी इच्छा करते हुए भी उन्होंने तेरी भाँति ( मेरा रूप ) देखा नहीं है और देखेंगे भी नहीं।,
।।11.52।। --,सुदुर्दर्शं सुष्ठु दुःखेन दर्शनम् अस्य इति सुदुर्दर्शम्? इदं रूपं दृष्टवान् असि यत् मम? देवाः अपि अस्य मम रूपस्य नित्यं सर्वदा दर्शनकाङ्क्षिणः दर्शनेप्सवोऽपि न त्वमिव दृष्टवन्तः? न द्रक्ष्यन्ति च इति अभिप्रायः।।कस्मात् --,
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श्री भगवानुवाच सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम। देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।11.52।।
শ্রী ভগবানুবাচ সুদুর্দর্শমিদং রূপং দৃষ্টবানসি যন্মম৷ দেবা অপ্যস্য রূপস্য নিত্যং দর্শনকাঙ্ক্ষিণঃ৷৷11.52৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ সুদুর্দর্শমিদং রূপং দৃষ্টবানসি যন্মম৷ দেবা অপ্যস্য রূপস্য নিত্যং দর্শনকাঙ্ক্ষিণঃ৷৷11.52৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ સુદુર્દર્શમિદં રૂપં દૃષ્ટવાનસિ યન્મમ। દેવા અપ્યસ્ય રૂપસ્ય નિત્યં દર્શનકાઙ્ક્ષિણઃ।।11.52।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਸੁਦੁਰ੍ਦਰ੍ਸ਼ਮਿਦਂ ਰੂਪਂ ਦਰਿਸ਼੍ਟਵਾਨਸਿ ਯਨ੍ਮਮ। ਦੇਵਾ ਅਪ੍ਯਸ੍ਯ ਰੂਪਸ੍ਯ ਨਿਤ੍ਯਂ ਦਰ੍ਸ਼ਨਕਾਙ੍ਕ੍ਸ਼ਿਣ।।11.52।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಸುದುರ್ದರ್ಶಮಿದಂ ರೂಪಂ ದೃಷ್ಟವಾನಸಿ ಯನ್ಮಮ. ದೇವಾ ಅಪ್ಯಸ್ಯ ರೂಪಸ್ಯ ನಿತ್ಯಂ ದರ್ಶನಕಾಙ್ಕ್ಷಿಣಃ৷৷11.52৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച സുദുര്ദര്ശമിദം രൂപം ദൃഷ്ടവാനസി യന്മമ. ദേവാ അപ്യസ്യ രൂപസ്യ നിത്യം ദര്ശനകാങ്ക്ഷിണഃ৷৷11.52৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ସୁଦୁର୍ଦର୍ଶମିଦଂ ରୂପଂ ଦୃଷ୍ଟବାନସି ଯନ୍ମମ| ଦେବା ଅପ୍ଯସ୍ଯ ରୂପସ୍ଯ ନିତ୍ଯଂ ଦର୍ଶନକାଙ୍କ୍ଷିଣଃ||11.52||
śrī bhagavānuvāca sudurdarśamidaṅ rūpaṅ dṛṣṭavānasi yanmama. dēvā apyasya rūpasya nityaṅ darśanakāṅkṣiṇaḥ৷৷11.52৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச ஸுதுர்தர்ஷமிதஂ ரூபஂ தரிஷ்டவாநஸி யந்மம. தேவா அப்யஸ்ய ரூபஸ்ய நித்யஂ தர்ஷநகாங்க்ஷிணஃ৷৷11.52৷৷
శ్రీ భగవానువాచ సుదుర్దర్శమిదం రూపం దృష్టవానసి యన్మమ. దేవా అప్యస్య రూపస్య నిత్యం దర్శనకాఙ్క్షిణః৷৷11.52৷৷
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।।11.53।। जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकारका (चतुर्भुजरूपवाला) मैं न तो वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ।
।।11.53।। न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही मैं इस प्रकार देखा जा सकता हूँ, जैसा कि तुमने मुझे देखा है।।
।।11.53।। भगवान् के इस विश्वरूप का दर्शन मिलना किसी के लिए भी सुलभ नहीं है। दर्शन का यह अनुभव न वेदाध्ययन से और न तप से? न दान से और न यज्ञ से ही प्राप्त हो सकता है। यहाँ तक कि स्वर्ग के निवासी देवतागण भी अपनी विशाल बुद्धि? दीर्घ जीवन और कठिन साधना के द्वारा भी इस रूप को नहीं देख पाते और सदा उसके लिए लालायित रहते हैं। ऐसा होने पर भी भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने इस विराट् और आश्चर्यमय रूप को अपने मित्र अर्जुन को केवल अनुग्रह करके दर्शाया जैसा कि स्वयं उन्होंने ही स्वीकार किया था।हम इस बात पर आश्चर्य़ करेंगे कि किस कारण से भगवान् अपनी कृपा की वर्षा किसी एक व्यक्ति पर तो करते हैं और अन्य पर नहीं निश्चय ही यह एक सर्वशक्तिमान् द्वारा किया गया आकस्मिक वितरण नहीं हो सकता? जो स्वच्छन्दतापूर्वक? निरंकुश होकर बिना किसी नियम या कारण के कार्य करता रहता हो क्योंकि उस स्थिति में भगवान् पक्षपात तथा निरंकुशता के दोषी कहे जायेंगे? जो कि उपयुक्त नहीं है।श्लोक में इसका युक्तियुक्त स्पष्टीकरण किया गया है कि किस कारण से बाध्य होकर भगवान् अपनी विशेष कृपा की वर्षा कभी किसी व्यक्ति पर करते हैं? और सदा सब के ऊपर नहीं
।।11.53।। व्याख्या--'दृष्टवानसि मां यथा'--तुमने मेरा चतुर्भुजरूप मेरी कृपासे ही देखा है। तात्पर्य है कि मेरे दर्शन मेरी कृपासे ही हो सकते हैं, किसी योग्यतासे नहीं।
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।।11.53।।वेदैः अध्यापनप्रवचनाध्ययनश्रवणजपविषयैः यागदानहोमतपोभिः च मद्भक्तिरहितैः केवलैः यथावद् अवस्थितः अहं द्रष्टुं न शक्यः। अनन्यया तु भक्त्या तत्त्वतः शास्त्रैः ज्ञातुं तत्त्वतः साक्षात्कर्तुं तत्त्वतः प्रवेष्टुं च शक्यः।तथा च श्रुतिःनायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्। (कठ0 2।23) इति।
।।11.53।।दर्शनोपायाभावाद्दुर्दर्शत्वमिति शङ्क्यते -- कस्मादिति। वेदादिषूपायेषु सत्स्वपि भगवानुक्तरूपो न शक्यो द्रष्टुमित्याह -- नाहमिति। तर्हि दर्शनायोग्यत्वाद्द्रष्टुमशक्यत्वमित्याशङ्क्याह -- दृष्टवानिति।
।।11.53।।एवं विश्वरूपस्य सुदुर्दर्शत्वं निरूप्य तदादिदृष्टस्य स्वस्यापि तदाह -- नाहं वेदैरिति। निरतिशयाक्षरैश्वर्योऽहमात्मा नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुत (सः) तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा (वि) वृणुते तनूं स्वाम् [कठो.2।22मुंडको.3।2।2] इति वरणेतरसाधनैरशक्यः श्रुतोऽस्मि। एवंविधं मां त्वं यत् वरणेन सत्प्रकारेण स्वरूपयोग्यो दृष्टवानसि तथा च प्रवचनादिसाधनानां केवलात्मसाक्षात्कारपरतया जीवे स्वरूपयोग्यतासम्पादकत्वं? न साक्षात्पुरुषोत्तमनिरोधकत्वमिति सिद्धम्।
।।11.53।।कस्माद्देवा एतद्रूपं न दृष्टवन्तो न वा द्रक्ष्यन्ति मद्भक्तिशून्यत्वादित्याह -- नाहमिति। न वेदयज्ञाध्ययनैरित्यादिना। गतार्थः श्लोकः परमदुर्लभत्वख्यापनायाभ्यस्तः।
।।11.53।।तत्र हेतुः -- नाहमिति। स्पष्टार्थः।
।।11.53।।उत्तरश्लोकस्यैतदुपपादकतया न पौनरुक्त्यमित्याशयेन तमवतारति -- कुत इत्यत्राहेति। वेदानां स्वरूपेण साधनत्वाप्रसक्त्या तन्निषेधोऽनुपपन्न इत्यतस्तदभिप्रेतमाहवेदैरध्यापनप्रवचनेति। दानेज्याकथनं होमस्याप्युपलक्षणमित्यभिप्रयन्नाहयागदानहोमतपोभिश्चेति। भक्तिद्वारा साधनत्वस्य तमेतं वेदानुवचनेन [बृ.उ.4।4।22] इत्यादिश्रुत्यवगतत्वात्मद्भक्तिविरहितैरित्युक्तम्। एवंविधशब्दो मानुषत्वादिभ्रमानर्हत्वाप्राकृतत्वादिपर इत्याहयथावदवस्थितोऽहमिति। न केवलं साक्षात्कारमात्रे साधनत्वेन भक्तिरपेक्षिता किन्तुशुद्धभावं गतो भक्त्या शास्त्राद्वेद्मि जनार्दनम् [म.भा.5।69।5] इत्यादिवच्छास्त्रतोऽर्थनिर्णये साक्षात्कारानन्तरभाविन्यां प्राप्तावपीत्यभिप्रायेणज्ञातुंप्रवेष्टुम् इत्युभयं पूर्वश्लोकाप्रसक्तमिह प्रसञ्जितम्।तत्त्वतः इत्येतत्ित्रष्वप्यविशेषादपेक्षितत्वाच्चान्वितम्। तत्त्वतः प्रवेशः परिपूर्णप्राप्तिः? यथावस्थितसर्वाकारेणानुभव इत्यर्थः। तेन व्यूहविभवादिमात्रप्राप्तिव्यवच्छेदः। स्मर्यन्ते च साक्षान्मुक्तैरर्वाञ्चः प्राप्तिपर्वभेदाः -- लोकेषु विष्णोर्निवसन्ति केचित्समीपमृच्छन्ति च केचिदन्ये। अन्ये तु रूपं सदृशं भजन्ते सायुज्यमन्ये स तु मोक्ष उक्तः इति।एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् [6।42] इत्यस्य व्याख्याने यादवप्रकाशैश्चोक्तम् -- इदमल्पीयसीं योगसिद्धिं गतस्य मृतस्य फलं? यदि प्रथमां योगसिद्धिं गतो म्रियते? त्यजति वा योगं? श्वेतद्वीपे जायते भगवत्सालोक्यं वा याति यदि ततोऽप्यधिकां योगसिद्धिं गतो म्रियते विष्णुपार्षदो भवति यदि ततोऽप्यधिकां? पार्षदेश्वरो भवति यदि ततोऽप्यधिकां? द्वारपालो भवति यदि ततोऽप्यधिकां? भगवतोऽङ्गसंवाहको भवति यदि ततोऽप्यधिकां? मन्त्रिस्थानीयः पृथगैश्वर्ययुक्तो भवति यदि पूर्णां योगसिद्धिं गतो म्रियते? भगवत्सायुज्यं गतो मुक्तः परमैश्वर्ययुक्तो भवति इति वैष्णवेषु योगशास्त्रेषु मर्यादा। तदेतत्सर्वमिह सूचितं भगवता अथवा योगिनाम् [6।42] इत्यादीनीति। ज्ञानदर्शनप्राप्तिहेतुत्वे भक्तेः पर्वभेदान्नान्योन्याश्रयणादिदोषः। पूर्वजन्मसुकृतमूलसात्त्विकजनसंवादादिजनितं यथावच्छ्रवणानुगुणं किञ्चिदानुकूल्यरूपं भक्तिमात्रं शास्त्रजन्यज्ञानोत्पत्तौ सहकारि भवति। उत्कटदिदृक्षागर्भा तु परभक्तिः साक्षात्कारहेतुः साक्षात्कृते तु परिपूर्णानुभवाभिनिवेशलक्षणा परमभक्तिः प्रवेशहेतुरिति। अत्रअनन्यया इति पदं प्रागुक्तप्रक्रियया अनन्यप्रयोजनयेति भाव्यम्। अनन्यदेवताकयेत्येके। ऐक्यानुसन्धानविवक्षा तु प्रागेव दूषिता प्रत्यक्षादिविरुद्धा च। तदेतदखिलमभिप्रेत्य सङ्गृहीतम्एकादशे स्वमाहात्म्यसाक्षात्कारावलोकनम्। दत्तमुक्तं विदिप्राप्त्योर्भक्त्येकोपायता तथा [गी.सं.15] इति। भक्तिप्रशंसापरत्वशङ्कामपाकरोति -- तथा चेति। नायमात्मा इत्यादौ न पृथिव्यामग्निश्चेतव्यः [यजुः5।2।7।2] इत्यादाविव केवलानां निषेधः। यच्छब्दानूदितो वरणीयताहेतुगुणविशेषो भक्तिरेवेत्यर्थस्वभावादुपबृंहणबलाच्च सिद्धम्। अत्र तनुशब्दस्य विग्रहपरत्वे स्वरूपादिकं,तत्परत्वे च विग्रहादिकमर्थलब्धम्।
।।11.53।।ननु ते वेदाद्युक्तसाधनैः कथं न पश्यन्ति इत्यत आह -- नाहमिति। यथा त्वं मां दृष्टवानसि एवंविधः पुरुषोत्तमोऽहं परिदृश्यमानवेदैः वेदोक्तसाधनैः वेदैरेव वा न अतएव यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सह [तै.उ.2।4।12।9।1] इत्युक्तम्। तपसा क्लेशात्मकेनाऽपि न? दानेन सर्वस्वदक्षिणात्मकेन न? इज्यया यागेन न द्रष्टुं शक्यः।
।।11.53। नाहमिति। न वेदयज्ञाध्ययनैरित्यनेनोक्त एवार्थः पुनरुच्यते विश्वरूपदर्शनस्यातिदौर्लभ्यसूचनाय। स्पष्टार्थश्च श्लोकः।
।।11.53।।तत्र हेत्वाकाङ्क्षायामाह -- नेति। यथा विश्वरुपं मां त्वं दृष्टवानसि। एवंविधोऽहं न वेदैः ऋगादिभिः न तपसोग्रेण चान्द्रायणादिना न दानेन गोदानादिना नचेज्यया जज्ञेन पूजया वाऽन्यैर्मदत्यन्तानुग्रहरहितैर्द्रष्टुं शक्यः।
11.53 न not? अहम् I? वेदैः by the Vedas? न not? तपसा by austerity? न not? दानेन by gift? न not? च and? इज्यया by sacrifice? शक्यः (am) possible? एवंविधः like this? द्रष्टुम् to be seen? दृष्टवानसि (thou) hast seen? माम् Me? यथा as.Commentary This Cosmic Form which thou hast seen so easily cannot be obtained either by the study of the Vedas and the six modes of philosophy? nor by the practice of manifold austerities (penances)? nor by charity? nor by sacrifices of various kinds.Arjuna was indeed very fortunate in seeing the Cosmic Form.How can the Lord be seen Listen The heart must be overflowing with true devotion to Him. (Cf.XI.48)
11.53 Neither by the Vedas nor by austerity, nor by gift, nor by sacrifice can I be seen in this form as thou hast seen Me (so easily).
11.53 Not by study of the scriptures, or by austerities, not by gifts or sacrifices, is it possible to see Me as thou hast done.
11.53 Not through the Vedas, not by austerity, not by gifts, nor even by sacrifice can I be seen in this form as you have seen Me.
11.53 Na vedaih, not through the Vedas, not even through the four Vedas-Rk, Yajus, Sama and Atharvan; na tapasa, not by austerity, not by severe austerities like the Candrayana; not danena, by gifts, by gifts of cattle, land, gold, etc.; na ca, nor even; ijyaya, by sacrifices or worship; sakyah aham, can I; drastum, be seen evamvidhah, in this form, in the manner as was shown; yatha, as; drstavan asi, you have seen mam, Me. 'How again, can You be seen? This is being answered:
11.53. Neither by reciting Vedas, no by obseving austerity, nor by offering gifts, nor by performing sacrifice, can I be observed in this manner as you have see Me now.
11.53 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
11.53 - 11.54 Sri Krsna says By Vedas, i.e., by mere study, teaching etc., of these sacred texts, it is not possible to know Me truly. It is also not possible through meditation, sacrifices, gifts and austerities, destitute of devotion towards Me. But by single-minded devotion i.e., by devotion characterised by extreme ardour and intensity, it is possible to know Me in reality through scriptures, to behold Me directly in reality, and enter into Me in reality. So describes a Sruti passage: 'This Self cannot be obtained by instruction, nor by intellect nor by much hearing. Whomsoever He chooses, by him alone is He obtained. To such a one He reveals His own form' (Ka. U., 2.2.23) and (Mun. U., 3.2.3).
11.53 Sri Krsna says Not by the Vedas, nor by austerities, nor by gifts, nor by sacirifce, can I seen in such a form as You have seen Me.
।।11.53।।किस लिये --, जिस प्रकार मुझे तूने देखा है ऐसे पहले दिखलाये हुए रूपवाला मैं न तो ऋक्? यजु? साम और अथर्व आदि चारों वेदोंसे? न चान्द्रायण आदि उग्र तपोंसे? न गौ? भूमि तथा सुवर्ण आदिके दानसे और न यजनसे ही देखा जा सकता हूँ अर्थात् यज्ञ या पूजासे भी मैं ( इस प्रकार ) नहीं देखा जा सकता।
।।11.53।। --,न अहं वेदैः ऋग्यजुःसामाथर्ववेदैः चतुर्भिरपि? न तपसा उग्रेण चान्द्रायणादिना? न दानेन गोभूहिरण्यादिना? न च इज्यया यज्ञेन पूजया वा शक्यः एवंविधः यथादर्शितप्रकारः द्रष्टुं दृष्टवान् असि मां यथा त्वम्।।कथं पुनः शक्यः इति उच्यते --,
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नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।11.53।।
নাহং বেদৈর্ন তপসা ন দানেন ন চেজ্যযা৷ শক্য এবংবিধো দ্রষ্টুং দৃষ্টবানসি মাং যথা৷৷11.53৷৷
নাহং বেদৈর্ন তপসা ন দানেন ন চেজ্যযা৷ শক্য এবংবিধো দ্রষ্টুং দৃষ্টবানসি মাং যথা৷৷11.53৷৷
નાહં વેદૈર્ન તપસા ન દાનેન ન ચેજ્યયા। શક્ય એવંવિધો દ્રષ્ટું દૃષ્ટવાનસિ માં યથા।।11.53।।
ਨਾਹਂ ਵੇਦੈਰ੍ਨ ਤਪਸਾ ਨ ਦਾਨੇਨ ਨ ਚੇਜ੍ਯਯਾ। ਸ਼ਕ੍ਯ ਏਵਂਵਿਧੋ ਦ੍ਰਸ਼੍ਟੁਂ ਦਰਿਸ਼੍ਟਵਾਨਸਿ ਮਾਂ ਯਥਾ।।11.53।।
ನಾಹಂ ವೇದೈರ್ನ ತಪಸಾ ನ ದಾನೇನ ನ ಚೇಜ್ಯಯಾ. ಶಕ್ಯ ಏವಂವಿಧೋ ದ್ರಷ್ಟುಂ ದೃಷ್ಟವಾನಸಿ ಮಾಂ ಯಥಾ৷৷11.53৷৷
നാഹം വേദൈര്ന തപസാ ന ദാനേന ന ചേജ്യയാ. ശക്യ ഏവംവിധോ ദ്രഷ്ടും ദൃഷ്ടവാനസി മാം യഥാ৷৷11.53৷৷
ନାହଂ ବେଦୈର୍ନ ତପସା ନ ଦାନେନ ନ ଚେଜ୍ଯଯା| ଶକ୍ଯ ଏବଂବିଧୋ ଦ୍ରଷ୍ଟୁଂ ଦୃଷ୍ଟବାନସି ମାଂ ଯଥା||11.53||
nāhaṅ vēdairna tapasā na dānēna na cējyayā. śakya ēvaṅvidhō draṣṭuṅ dṛṣṭavānasi māṅ yathā৷৷11.53৷৷
நாஹஂ வேதைர்ந தபஸா ந தாநேந ந சேஜ்யயா. ஷக்ய ஏவஂவிதோ த்ரஷ்டுஂ தரிஷ்டவாநஸி மாஂ யதா৷৷11.53৷৷
నాహం వేదైర్న తపసా న దానేన న చేజ్యయా. శక్య ఏవంవిధో ద్రష్టుం దృష్టవానసి మాం యథా৷৷11.53৷৷
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।।11.54।। परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार (चतुर्भुजरूपवाला) मैं अनन्यभक्तिसे ही तत्त्वसे जाननेमें, सगुणरूपसे देखनेमें और प्राप्त करनेमें शक्य हूँ।
।।11.54।। परन्तु हे परन्तप अर्जुन! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं तत्त्वत: 'जानने', 'देखने' और 'प्रवेश' करने के लिए (एकी भाव से प्राप्त होने के लिए) भी, शक्य हूँ!।।
।।11.54।।,भक्ति के विषय में आचार्य शंकर कहते हैं कि? सभी मोक्ष साधनों में भक्ति ही श्रेष्ठ है और यह भक्ति स्वस्वरूप के अनुसंधान के द्वारा आत्मस्वरूप बन जाती है।प्रिय के साथ तादात्म्य ही प्रेम का वास्तविक मापदण्ड है। भक्त अपने व्यक्तिगत जीवभाव के अस्तित्व को विस्मृत कर? जब प्रेम में अपने प्रिय भगवान् के साथ तादात्म्य को प्राप्त हो जाता है? तब उस प्रेम की परिसमाप्ति पराभक्ति या अनन्य भक्ति कहलाती है। आत्मज्ञान का जिज्ञासु आध्यात्मिक विधान के अनुसार उपाधियों के साथ अपने निम्नस्तर को त्यागने के लिए बाध्य होता है। अनात्मा के तादात्म्य को त्यागने पर ही शुद्ध आत्मस्वरूप की पहचान हो सकती है।केवल वे साधकगण? जो इस जगत् को एक सूत्र में धारण करने वाले सत्य के साथ तादात्म्य कर सकते हैं? वे ही मुझे इस रूप में अर्थात् विराटरूप में अनुभव कर सकते हैं।जिन तीन क्रमिक सोपानों में सत्य का साक्षात्कार होता है? उसका निर्देश भगवान् इन तीन शब्दों से करते हैं जानना देखना और प्रवेश करना। सर्व प्रथम एक साधक को अपने साध्य तथा साधन का बौद्धिक ज्ञान आवश्यक होता है? जिसे यहां जानना शब्द से सूचित किया गया है और इसका साधन है श्रवण।इस प्रकार कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मन में सन्देह उत्पन्न होते हैं इन सन्देहों की निवृत्ति के लिए प्राप्त ज्ञान पर युक्तिपूर्वक मनन करना अत्यावश्यक होता है। सन्देहों की निवृत्ति होने पर तत्त्व का दर्शन (देखना) होता है। तत्पश्चात् निदिध्यासन के अभ्यास से मिथ्या उपाधियों के साथ तादात्म्य को सर्वथा त्यागकर आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाना ही उसमें प्रवेश करना है। आत्मा का यह अनुभव स्वयं से भिन्न किसी वस्तु का नहीं? वरन् अपने स्वस्वरूप का है। प्रवेश शब्द से साधक और साध्य के एकत्व का बोध कराया गया है। स्वप्नद्रष्टा के स्वाप्निक दुखों का तब अन्त हो जाता है? जब वह जाग्रत पुरुष में प्रवेश करके स्वयं जाग्रत पुरुष बन जाता है।स्वयं भगवान् ही अपनी प्राप्ति का उपाय बताते हैं
।।11.54।। व्याख्या--'भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन'--यहाँ 'तु' पद पहले बताये हुए साधनोंसे विलक्षण साधन बतानेके लिये आया है। भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन ! तुमने मेरा जैसा शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुजरूप देखा है, वैसा रूपवाला मैं यज्ञ, दान, तप आदिके द्वारा नहीं देखा जा सकता, प्रत्युत अनन्यभक्तिके द्वारा ही देखा जा सकता हूँ। अनन्यभक्तिका अर्थ है -- केवल भगवान्का ही आश्रय हो, सहारा हो, आशा हो, विश्वास हो (टिप्पणी प0 616)। भगवान्के सिवाय किसी योग्यता, बल, बुद्धि आदिका किञ्चिन्मात्र भी सहारा न हो। इनका अन्तःकरणमें किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व न हो। यह अनन्यभक्ति स्वयंसे ही होती है, मनबुद्धिइन्द्रियों आदिके द्वारा नहीं। तात्पर्य है कि केवल स्वयंकी व्याकुलता पूर्वक उत्कण्ठा हो, भगवान्के दर्शन बिना एक क्षण भी चैन न पड़े। ऐसी जो भीतरमें स्वयंकी बैचेनी है, वही भगवत्प्राप्तिमें खास कारण है। इस बेचैनी में, व्याकुलतामें अनन्त जन्मोंके अनन्त पाप भस्म हो जाते हैं। ऐसी अनन्यभक्तिवालोंके लिये ही भगवान्ने कहा है -- जो अनन्यचित्तवाला भक्त नित्यनिरन्तर मेरा चिन्तन करता है, उसके लिये मैं सुलभ हूँ (गीता 8। 14) और जो अनन्यभक्त मेरा चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ (गीता 9। 22)।अनन्यभक्तिका दूसरा तात्पर्य यह है कि अपनेमें भजनस्मरण करनेका, साधन करनेका, उत्कण्ठापूर्वक पुकारनेका जो कुछ सहारा है, वह सहारा किञ्चिन्मात्र भी न हो। फिर साधन किसलिये करना है केवल अपना अभिमान मिटानेके लिये अर्थात् अपनेमें जो साधन करनेके बलका भान होता है, उसको मिटानेके लिये ही साधन करना है। तात्पर्य है कि भगवान्की प्राप्ति साधन करनेसे नहीं होती, प्रत्युत साधनका अभिमान गलनेसे होती है। साधनका अभिमान गल जानेसे साधकपर भगवान्की शुद्ध कृपा असर करती है अर्थात् उस कृपाके आनेमें कोई आड़ नहीं रहती और (उस कृपासे) भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।
।।11.54 -- 11.55।।भक्त्येति। मत्कर्मेति। अविद्यमानान्यज्ञेयरमणीया येषां भक्तिः परिस्फुरति तेषां [ ज्ञानवान् ] मां प्रपद्यते (? N omit मां प्रपद्यते)। वासुदेवः सर्वम् (Gita VII? 19 ) इत्यादिपूर्वाभिहितोपदेशचमत्कारात् विश्वात्मकं वासुदेवतत्त्वम् अयत्नत एव बोधपदवीमवतरति इति।
।।11.54।।वेदैः अध्यापनप्रवचनाध्ययनश्रवणजपविषयैः यागदानहोमतपोभिः च मद्भक्तिरहितैः केवलैः यथावद् अवस्थितः अहं द्रष्टुं न शक्यः। अनन्यया तु भक्त्या तत्त्वतः शास्त्रैः ज्ञातुं तत्त्वतः साक्षात्कर्तुं तत्त्वतः प्रवेष्टुं च शक्यः। तथा च श्रुतिःनायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्। (कठ0 2।23) इति।
।।11.54।।केनोपायेन तर्हि द्रष्टुं शक्यो भगवानिति पृच्छति -- कथमिति। शास्त्रीयज्ञानद्वारा तद्दर्शनं सफलं सिध्यतीत्याह -- उच्यत इति। न भक्तिमात्रं तत्र हेतुरिति तुशब्दार्थं स्फुटयति -- किमित्यादिना। अन्यां। भक्तिमेव व्यनक्ति -- सर्वैरिति।
।।11.54।।तादृशे जीवे स्वीयत्वेन वरणे सञ्जातया भक्त्याऽहं भगवान् ग्राह्य इति तदाह -- भक्त्येति। अथवा ननु तर्हि सर्वैः कथमेवं दृश्यसे इति चेत्तत्राह -- भक्त्येति। सर्वनिरोधार्थमवतीर्णस्यापि मम दर्शनं ज्ञानं च केषाञ्चिन्मानुषत्वेनांशत्वादिना च भवति? न तु तत्त्वेन यतोऽहं तत्त्वेन ज्ञातुं द्रष्टुं हृदि प्रवेष्टुं च भक्त्यैव शक्यः। किम्भूतया अनन्ययेति। वेदप्रवचनादिसाधननिरपेक्षया मदनुग्रहिसङ्गैकलभ्यया रागानुगयेति यावत्।केचित्केवलया भक्त्या इति वाक्यात् प्रमेयरूपया तथेति। यतोऽहमेवंविधः। भक्त्या ग्राह्यःअस्वतन्त्र इव द्विजः इति। अथवा विश्वरूपाद्यक्षरैश्वर्यादियोगयुक्त एवाक्लिष्टकर्मा प्रवाहमर्यादापुष्टिप्रणेताऽलौकिकगुणगणो महामनोरमवपुर्महाकरुणोऽहं पुरुषोत्तमोऽपि।
।।11.54।।यदि वेदतपोदानेज्यादिभिर्द्रष्टुमशक्यस्त्वं तर्हि केनोपायेन द्रष्टुं शक्योऽसीत्यत आह -- भक्त्येति। साधनान्तरव्यावृत्त्यर्थस्तुशब्दः। भक्त्यैवानन्यया मदेकनिष्ठया निरतिशयप्रीत्या एवंविधो दिव्यरूपधरोऽहं ज्ञातुं शक्यः शास्त्रतो हे अर्जुन? शक्य अहमिति छान्दसो विसर्गलोपः पूर्ववत्। न केवलं शास्त्रज्ञो ज्ञातुं शक्योऽनन्यया भक्त्या किंतु तत्त्वेन द्रष्टुं च स्वरूपेण साक्षात्कर्तुं च शक्यो वेदान्तवाक्यश्रवणमनननिदिध्यासनपरिपाकेण ततश्च स्वरूपसाक्षात्कारादविद्यातत्कार्यनिवृत्तौ तत्त्वेन प्रवेष्टुं च मद्रूपतयैवाप्तुं चाहं शक्यो हे परंतप? अज्ञानशत्रुदमनेऽतिप्रवेशयोग्यतां सूचयति।
।।11.54।। केनोपायेन तर्हि द्रष्टुं शक्य इति तत्राह -- भक्त्येति। अनन्यया मदेकनिष्ठया भक्त्या त्वेवंभूतो विश्वरूपोऽहं तत्त्वेन परमार्थतो ज्ञातुं शक्यः शास्त्रतो द्रष्टुं प्रत्यक्षतः प्रवेष्टुं च तादात्म्येन शक्यः नान्यैरुपायैः।
।। 11.54 उत्तरश्लोकस्यैतदुपपादकतया न पौनरुक्त्यमित्याशयेन तमवतारति -- कुत इत्यत्राहेति। वेदानां स्वरूपेण साधनत्वाप्रसक्त्या तन्निषेधोऽनुपपन्न इत्यतस्तदभिप्रेतमाहवेदैरध्यापनप्रवचनेति। दानेज्याकथनं होमस्याप्युपलक्षणमित्यभिप्रयन्नाहयागदानहोमतपोभिश्चेति। भक्तिद्वारा साधनत्वस्य तमेतं वेदानुवचनेन [बृ.उ.4।4।22] इत्यादिश्रुत्यवगतत्वात्मद्भक्तिविरहितैरित्युक्तम्। एवंविधशब्दो मानुषत्वादिभ्रमानर्हत्वाप्राकृतत्वादिपर इत्याहयथावदवस्थितोऽहमिति। न केवलं साक्षात्कारमात्रे साधनत्वेन भक्तिरपेक्षिता किन्तुशुद्धभावं गतो भक्त्या शास्त्राद्वेद्मि जनार्दनम् [म.भा.5।69।5] इत्यादिवच्छास्त्रतोऽर्थनिर्णये साक्षात्कारानन्तरभाविन्यां प्राप्तावपीत्यभिप्रायेणज्ञातुंप्रवेष्टुम् इत्युभयं पूर्वश्लोकाप्रसक्तमिह प्रसञ्जितम्।तत्त्वतः इत्येतत्ित्रष्वप्यविशेषादपेक्षितत्वाच्चान्वितम्। तत्त्वतः प्रवेशः परिपूर्णप्राप्तिः? यथावस्थितसर्वाकारेणानुभव इत्यर्थः। तेन व्यूहविभवादिमात्रप्राप्तिव्यवच्छेदः। स्मर्यन्ते च साक्षान्मुक्तैरर्वाञ्चः प्राप्तिपर्वभेदाः -- लोकेषु विष्णोर्निवसन्ति केचित्समीपमृच्छन्ति च केचिदन्ये। अन्ये तु रूपं सदृशं भजन्ते सायुज्यमन्ये स तु मोक्ष उक्तः इति।एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् [6।42] इत्यस्य व्याख्याने यादवप्रकाशैश्चोक्तम् -- इदमल्पीयसीं योगसिद्धिं गतस्य मृतस्य फलं? यदि प्रथमां योगसिद्धिं गतो म्रियते? त्यजति वा योगं? श्वेतद्वीपे जायते भगवत्सालोक्यं वा याति यदि ततोऽप्यधिकां योगसिद्धिं गतो म्रियते विष्णुपार्षदो भवति यदि ततोऽप्यधिकां? पार्षदेश्वरो भवति यदि ततोऽप्यधिकां? द्वारपालो भवति यदि ततोऽप्यधिकां? भगवतोऽङ्गसंवाहको भवति यदि ततोऽप्यधिकां? मन्त्रिस्थानीयः पृथगैश्वर्ययुक्तो भवति यदि पूर्णां योगसिद्धिं गतो म्रियते? भगवत्सायुज्यं गतो मुक्तः परमैश्वर्ययुक्तो भवति इति वैष्णवेषु योगशास्त्रेषु मर्यादा। तदेतत्सर्वमिह सूचितं भगवता अथवा योगिनाम् [6।42] इत्यादीनीति। ज्ञानदर्शनप्राप्तिहेतुत्वे भक्तेः पर्वभेदान्नान्योन्याश्रयणादिदोषः। पूर्वजन्मसुकृतमूलसात्त्विकजनसंवादादिजनितं यथावच्छ्रवणानुगुणं किञ्चिदानुकूल्यरूपं भक्तिमात्रं शास्त्रजन्यज्ञानोत्पत्तौ सहकारि भवति। उत्कटदिदृक्षागर्भा तु परभक्तिः साक्षात्कारहेतुः साक्षात्कृते तु परिपूर्णानुभवाभिनिवेशलक्षणा परमभक्तिः प्रवेशहेतुरिति। अत्रअनन्यया इति पदं प्रागुक्तप्रक्रियया अनन्यप्रयोजनयेति भाव्यम्। अनन्यदेवताकयेत्येके। ऐक्यानुसन्धानविवक्षा तु प्रागेव दूषिता प्रत्यक्षादिविरुद्धा च। तदेतदखिलमभिप्रेत्य सङ्गृहीतम्एकादशे स्वमाहात्म्यसाक्षात्कारावलोकनम्। दत्तमुक्तं विदिप्राप्त्योर्भक्त्येकोपायता तथा [गी.सं.15] इति। भक्तिप्रशंसापरत्वशङ्कामपाकरोति -- तथा चेति। नायमात्मा इत्यादौ न पृथिव्यामग्निश्चेतव्यः [यजुः5।2।7।2] इत्यादाविव केवलानां निषेधः। यच्छब्दानूदितो वरणीयताहेतुगुणविशेषो भक्तिरेवेत्यर्थस्वभावादुपबृंहणबलाच्च सिद्धम्। अत्र तनुशब्दस्य विग्रहपरत्वे स्वरूपादिकं तत्परत्वे च विग्रहादिकमर्थलब्धम्।
।।11.54।।तदा कथं द्रष्टुं शक्यः इत्यत आह -- भक्त्येति। हे अर्जुन हे परन्तप इति स्नेहेन वीप्सया सम्बोधनम्। एवंविधोऽहं अनन्यया न विद्यते अन्यः पारलौकिकैएहिकयत्नो यस्यां तादृश्या भक्त्या तत्त्वेन याथार्थ्यस्वरूपेण ज्ञातुं च पुनरलौकिकभावदृष्ट्या द्रष्टुं च पुनः प्रवेष्टुं अलौकिकरूपेण लीलासु सेवनार्थं शक्यः? अस्मीति शेषः।
।।11.54।।कथं तर्हि द्रष्टुं शक्यस्त्वमत आह -- भक्त्येति। भक्त्या आराधनेन। अनन्ययाव्यभिचरितया। अखण्डयेत्यर्थः। अहमेवंविधो ज्ञातुं शक्यस्त्वंपदार्थशोधकशास्त्रतः। द्रष्टुं शक्यो ध्यानतः। तत्त्वेन याथात्म्येन प्रवेष्टुं शक्यस्तत्त्वमसिवाक्यार्थजज्ञानतः। हे परमज्ञानशत्रुं तापयतीति परंतप।
।।11.54।।उक्तसाधनैस्त्वं द्रष्टुमशक्यस्तर्हि केनोपायेन द्रष्टुं शक्य इत्यत आह। भक्त्या तु भक्तीतरसाधनव्यवच्छेदार्थस्तुशब्दः। किं भक्तिमात्रं त्वद्दर्शनहेतुरित्यतस्तां विशिनष्टि। अनन्यया भगवतो वासुदेवादन्यत्र पृथक्वदाचिदपि या न भवति तया ईश्वरे परानुरक्तिलक्षणया वासुदेवादन्यत्र सर्वकरणप्रवृत्तिनिवारकया अहमेवंविधो विश्वरुपधरः शास्त्रेणासंभावनादिनिवृत्तिपुरःसरं द्रष्टुं च त्वमिव साक्षात्कर्तुं च तत्त्वेन तत्त्वतः प्रवेष्टुं च। श्रवणादिना तत्त्वसाक्षात्कारेण मोक्षमेकीभावलक्षणं जीवन्मुक्तिं विदेहकैवल्याख्यं च गन्तुमित्यर्थः। ननुतमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्या साधनत्वेन बोधितानां वेदानुवचनादीनां का गतिरित्याशङ्क्य साङ्गैस्तैरेतज्जन्मनि जन्मान्तरे वा कृतैश्चित्तशुद्य्धामप्यनन्या मनआदिशत्रुतापनशमदमादिसंपन्ना भक्तिस्ततो मत्स्वरुपज्ञानादीति भक्तिद्वारा तेषां साधनत्वाददोष इत्याशयेन संर्बोधनाभ्यां समाधत्ते हेऽर्जुने हे परंतपेति।
11.54 भक्त्या by devotion? तु indeed? अनन्यया singleminded? शक्यः (am) possible? अहम् I? एवंविधः of this form? अर्जुन O Arjuna? ज्ञातुम् to know? दृष्टुम् to see? च and? तत्त्वेन in reality? प्रवेष्टुम् to enter into? च and? परंतप O Parantapa (O scorcher of the foes).Commentary Devotion is the sole means to the realisation of the Cosmic Form.AnanyaBhakti Singleminded devotion. Onepointed unbroken devotion the devotion which does not seek any other object but the Lord alone. In this type of devotion no object other than the Lord is experienced by any of the senses. Egoism and dualism totally vanish.Of this form refers to the Cosmic Form.By singleminded devotion it is possible not only to know Me as declared in the scriptures but also to realise Me? i.e.? to attain liberation. The devotee realises that the Lord is all this and He alone is the ultimate Reality. When he gets this experience of illumination he gets merged in Him. (Cf.VIII.22X.10)
11.54 But by single-minded devotion can I, of this Form, be known and seen in reality and also entered into, O Arjuna.
11.54 Only by tireless devotion can I be seen and known; only thus can a man become one with Me, O Arjuna!
11.54 But, O Arjuna, by single-minded devotion am I-in this form-able to be known and seen in reality, and also be entered into, O destroyer of foes.
11.54 Tu, but, O Arjuna; bhaktya, by devotion-. Of what kind? To this the Lord says: Ananyaya, by (that devotion which is ) single-minded. That is called single-minded devotion which does not turn to anything else other than the Lord, and owing to which nothing else but Vasudeva is perceived by all the organs. With that devotion, aham sakyah, am I able; evamvidhah, in this form-in the aspect of the Cosmic form; jnatum, to to known-from the scriptures; not merely to be known from the scriptures, but also drastum, to be seen , to be realized directly; tattvena, in reality; and also pravestum, to be entered into-for attaining Liberation; parantapa, O destroyer of foes. Now the essential purport of the whole scripture, the Gita, which is meant for Liberation, is being stated by summing it up so that it may be practised:
11.54. But, through an undeviating devotion, it is possible to know, and to observe and also to enter into Me as such, O Arjuna ! O scorcher of foes !
11.54 See comment under 11.55
11.53 - 11.54 Sri Krsna says By Vedas, i.e., by mere study, teaching etc., of these sacred texts, it is not possible to know Me truly. It is also not possible through meditation, sacrifices, gifts and austerities, destitute of devotion towards Me. But by single-minded devotion i.e., by devotion characterised by extreme ardour and intensity, it is possible to know Me in reality through scriptures, to behold Me directly in reality, and enter into Me in reality. So describes a Sruti passage: 'This Self cannot be obtained by instruction, nor by intellect nor by much hearing. Whomsoever He chooses, by him alone is He obtained. To such a one He reveals His own form' (Ka. U., 2.2.23) and (Mun. U., 3.2.3).
11.54 But by single-minded devotion, O Arjuna, it is possible to truly know, to see and to enter into Me, who am of this form, O harasser of foes.
।।11.54।।तो फिर आपके दर्शन किस प्रकार हो सकते हैं इस पर कहते हैं --, भक्ितसे दर्शन हो सकते हैं? सो किस प्रकारकी भक्ितसे हो सकते हैं? यह बतलाते हैं --, हे अर्जुन अनन्य भक्ितसे अर्थात् जो भगवान्को छोड़कर अन्य किसी पृथक् वस्तुमें कभी भी नहीं होती वह अनन्य भक्ति है एवं जिस भक्तिके कारण ( भक्ितमान् पुरुषको ) समस्त इन्द्रियोंद्वारा एक वासुदेव परमात्माके अतिरिक्त अन्य किसीकी भी उपलब्धि नहीं होती? वह अनन्य भक्ित है। ऐसी अनन्य भक्ितद्वारा इस प्रकारके रूपवाला अर्थात् विश्वरूपवाला मैं परमेश्वर शास्त्रोंद्वारा जाना जा सकता हूँ। केवल शास्त्रोंद्वारा जाना जा सकता हूँ इतना ही नहीं? हे परन्तप तत्त्वसे देखा भी जा सकता हूँ अर्थात् साक्षात् भी किया जा सकता हूँ और प्राप्त भी किया जा सकता हूँ अर्थात् मोक्ष भी प्राप्त करा सकता हूँ। ,
।।11.54।। --,भक्त्या तु किंविशिष्टया इति आह -- अनन्यया अपृथग्भूतया? भगवतः अन्यत्र पृथक् न कदाचिदपि या भवति सा त्वनन्या भक्तिः। सर्वैरपि करणैः वासुदेवादन्यत् न उपलभ्यते यया? सा अनन्या भक्तिः? तया भक्त्या शक्यः अहम् एवंविधः विश्वरूपप्रकारः हे अर्जुन? ज्ञातुं शास्त्रतः। न केवलं ज्ञातुं शास्त्रतः? द्रष्टुं च साक्षात्कर्तुं तत्त्वेन तत्त्वतः? प्रवेष्टुं च मोक्षं च गन्तुं परंतप।।अधुना सर्वस्य गीताशास्त्रस्य सारभूतः अर्थः निःश्रेयसार्थः अनुष्ठेयत्वेन समुच्चित्य उच्यते --,
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भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।11.54।।
ভক্ত্যা ত্বনন্যযা শক্যমহমেবংবিধোর্জুন৷ জ্ঞাতুং দৃষ্টুং চ তত্ত্বেন প্রবেষ্টুং চ পরংতপ৷৷11.54৷৷
ভক্ত্যা ত্বনন্যযা শক্যমহমেবংবিধোর্জুন৷ জ্ঞাতুং দৃষ্টুং চ তত্ত্বেন প্রবেষ্টুং চ পরংতপ৷৷11.54৷৷
ભક્ત્યા ત્વનન્યયા શક્યમહમેવંવિધોર્જુન। જ્ઞાતું દૃષ્ટું ચ તત્ત્વેન પ્રવેષ્ટું ચ પરંતપ।।11.54।।
ਭਕ੍ਤ੍ਯਾ ਤ੍ਵਨਨ੍ਯਯਾ ਸ਼ਕ੍ਯਮਹਮੇਵਂਵਿਧੋਰ੍ਜੁਨ। ਜ੍ਞਾਤੁਂ ਦਰਿਸ਼੍ਟੁਂ ਚ ਤਤ੍ਤ੍ਵੇਨ ਪ੍ਰਵੇਸ਼੍ਟੁਂ ਚ ਪਰਂਤਪ।।11.54।।
ಭಕ್ತ್ಯಾ ತ್ವನನ್ಯಯಾ ಶಕ್ಯಮಹಮೇವಂವಿಧೋರ್ಜುನ. ಜ್ಞಾತುಂ ದೃಷ್ಟುಂ ಚ ತತ್ತ್ವೇನ ಪ್ರವೇಷ್ಟುಂ ಚ ಪರಂತಪ৷৷11.54৷৷
ഭക്ത്യാ ത്വനന്യയാ ശക്യമഹമേവംവിധോര്ജുന. ജ്ഞാതും ദൃഷ്ടും ച തത്ത്വേന പ്രവേഷ്ടും ച പരംതപ৷৷11.54৷৷
ଭକ୍ତ୍ଯା ତ୍ବନନ୍ଯଯା ଶକ୍ଯମହମେବଂବିଧୋର୍ଜୁନ| ଜ୍ଞାତୁଂ ଦୃଷ୍ଟୁଂ ଚ ତତ୍ତ୍ବେନ ପ୍ରବେଷ୍ଟୁଂ ଚ ପରଂତପ||11.54||
bhaktyā tvananyayā śakyamahamēvaṅvidhō.rjuna. jñātuṅ dṛṣṭuṅ ca tattvēna pravēṣṭuṅ ca paraṅtapa৷৷11.54৷৷
பக்த்யா த்வநந்யயா ஷக்யமஹமேவஂவிதோர்ஜுந. ஜ்ஞாதுஂ தரிஷ்டுஂ ச தத்த்வேந ப்ரவேஷ்டுஂ ச பரஂதப৷৷11.54৷৷
భక్త్యా త్వనన్యయా శక్యమహమేవంవిధోర్జున. జ్ఞాతుం దృష్టుం చ తత్త్వేన ప్రవేష్టుం చ పరంతప৷৷11.54৷৷
11.55
11
55
।।11.55।। हे पाण्डवन ! जो मेरे लिये ही कर्म करनेवाला, मेरे ही परायण और मेरा ही भक्त है तथा सर्वथा आसक्तिरहित और प्राणिमात्रके साथ निर्वैर है, वह भक्त मेरेको प्राप्त होता है।
।।11.55।। हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है।।
।।11.55।। अर्जुन ने यह सुना कि अनन्यभक्ति के द्वारा कोई भी भक्त? भगवान् के समष्टि वैभव को न केवल पहचान ही सकता है? वरन् स्वयं में ही उसका साक्षात् अनुभव भी कर सकता है। तब पाण्डव राजपुत्र के मुख पर उस अनुभव या पद को प्राप्त करने की उत्सुकता दिखाई दी। यद्यपि उसने स्पष्ट प्रश्न नहीं किया तथापि उसके मुख के भाव से ही उसे समझकर भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ वर्णन करते हैं कि कोई साधक जीवन में इस पूर्णत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है।किसी जीव को ईश्वरत्व प्राप्त करने का श्रीकृष्ण द्वारा उपदिष्ट योजना के पांच अंग हैं। उन पांच अंगों या आवश्यक गुणों को इस श्लोक में बताया गया है। वे गुण हैं (1) जो ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करता है? (2) जिसका परम लक्ष्य ईश्वर ही है? (3) जो ईश्वर का भक्त है? (4) जो आसक्तियों से रहित है? तथा (5) जो भूतमात्र के प्रति वैरभाव से रहित है।इन पांच आवश्यक गुणों में आत्मसंयम की सम्पूर्ण साधना का सारांश दिया गया है। ईश्वर के अखण्ड स्मरण से ही समस्त उपाधियों के कर्मों में अनासक्ति का भाव दृढ़ होता है। किसी व्यक्ति के प्रति वैरभाव तभी होता है? जब हम उसे पराया समझते हैं। मेरे ही दोनों हाथों के मध्य कोई वैरभाव नहीं हो सकता। आत्मैकत्व के बोध से जब सर्वत्र एकता का दर्शन और अनुभव होता है? केवल तभी समस्त भूतों के प्रति पूर्ण निर्वैरभाव प्राप्त हो सकता है।मन और बुद्धि के स्तर पर सर्वथा अनासक्ति होना असंभव है। मन और बुद्धि किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति के बिना नहीं रह सकते हैं। इसलिए एक साधक? सर्वप्रथम? ईश्वरार्पण की भावना के द्वारा विषयासक्ति को त्यागना सीखता है? और तत्पश्चात् अपने मन को भक्ति के साथ ईश्वर में स्थित कर देता है। इस अंग की पूर्णता के लिए पूर्व कथित गुण निश्चय ही सहायक होते हैं।इस प्रकार? सम्पूर्ण योजना का पुनरावलोकन करने पर ज्ञात होगा कि वह पूर्ण मनोवैज्ञानिक होने के कारण सर्वथा स्वीकार्य है। प्रत्येक उत्तर अंग अपने पूर्व अंग से पोषित होता है। इस श्लोक से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि अध्यात्म के साधक की महान् पवित्र तीर्थयात्रा ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म करने से प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात् स्वयं ईश्वर ही उसके जीवन का परम लक्ष्य बन जाता है। इसका परिणाम होगा ईश्वर के प्रति परम प्रेम। स्वाभाविक है कि जगत् की अनित्य? परिच्छिन्न वस्तुओं के साथ उसकी आसक्ति समाप्त हो जायेगी और वह आत्मा का दर्शन कर सकेगा। जब स्वयं आत्मस्वरूप ही बनकर वह स्वयं को सर्वत्र? सब भूतों में पहचानेगा? तब उसका किसी भी प्राणी से किसी प्रकार का वैर नहीं होगा।गीता के अनुसार साधना के द्वारा प्राप्त आत्मसाक्षात्कार की पूर्णता की कसौटी है सबसे प्रेम और किसी से द्वेष नहीं होना।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नाम एकादशोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का विश्वरूप दर्शनयोग नामक ग्यारहवां अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय का विश्वरूपदर्शनयोग यह नाम सार्थक है। वेदान्तशास्त्र की परिभाषिक शब्दावली के अनुसार यहाँ प्रयुक्त विश्वरूप शब्द का वास्तविक अर्थ विराट्रूप है। आत्मा एक व्यष्टि स्थूल देह के साथ तादात्म्य को प्राप्त होकर जाग्रत् अवस्था की घटनाओं का अनुभव करता है। इस अवस्था में स्थित आत्मा को वेदान्त में विश्व कहा जाता है। वही आत्मा समष्टि स्थूल देह अर्थात् ब्रह्माण्ड के साथ तादात्म्य प्राप्त कर विराट् कहलाता है। यद्यपि यहाँ भगवान् ने अपना विराट्रूप दिखाया है? तथापि इस अध्याय का नाम विश्वरूपदर्शनयोग है। इससे विश्व और विराट् के पारमार्थिक एकत्व का बोध होता है।
।।11.55।। व्याख्या--[इस श्लोकमें पाँच बातें आयी हैं। इन पाँचोंको 'साधनपञ्चक' भी कहते हैं। इन पाँचों बातोंके दो विभाग हैं। (1) भगवान्के साथ घनिष्ठता और (2) संसारके साथ सम्बन्ध-विच्छेद। पहले विभागमें 'मत्कर्मकृत्', 'मत्परमः' और 'मद्भक्तः' -- ये तीन बातें हैं; और दूसरे विभागमें 'सङ्गवर्जितः' और'निर्वैरः सर्वभूतेषू'--ये दो बातें हैं।
।।11.54 -- 11.55।।भक्त्येति। मत्कर्मेति। अविद्यमानान्यज्ञेयरमणीया येषां भक्तिः परिस्फुरति तेषां [ ज्ञानवान् ] मां प्रपद्यते (? N omit मां प्रपद्यते)। वासुदेवः सर्वम् (Gita VII? 19 ) इत्यादिपूर्वाभिहितोपदेशचमत्कारात् विश्वात्मकं वासुदेवतत्त्वम् अयत्नत एव बोधपदवीमवतरति इति।
।।11.55।।वेदाध्ययनादीनि सर्वाणि कर्माणि मदाराधनरूपाणि इति यः करोति स मत्कर्मकृत मत्परमः -- सर्वेषाम् आरम्भाणां अहम् एव परमोद्देश्यो यस्य स मत्परमः मद्भक्तः -- अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मत्कीर्तनस्तुतिध्यानार्चनप्रणामादिभिः विना आत्मधारणम् अलभमानो मदेकप्रयोजनतया यः सततं तानि करोति स मद्भक्तः।सङ्गवर्जितः -- मदेकप्रियत्वेन इतरसङ्गम् असहमानः निर्वैरः सर्वभूतेषु -- मत्संश्लेषवियोगैकसुखदुःखस्वभावत्वात् स्वदुःखस्य स्वापराधनिमित्तत्वानुसंधानात् च सर्वभूतानां परमपुरुषपरतन्त्रत्वानुसंधानात् च सर्वभूतेषु वैरनिमित्ताभावात् तेषु निर्वैरः।यः एवंभूतः स माम् एति? मां यथावद् अवस्थितं प्राप्नोति। निरस्ताविद्याद्यशेषदोषगन्धो मदेकानुभवो भवति इत्यर्थः।
।।11.55।।भक्त्या त्विति विशेषणादन्येषामहेतुत्वमाशङ्क्याह -- अधुनेति। समुच्चित्य संक्षिप्य पुञ्जीकृत्येति यावत्। मत्कर्मकृदित्युक्ते मत्परमत्वमार्थिकमिति पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याह -- करोतीति। भगवानेव परमा गतिरिति निश्चयवतस्तत्रैव निष्ठा सिध्यतीत्याह -- तथेति। न तत्रैव सर्वप्रकारैर्भजनं धनादिस्नेहाकृष्टत्वादित्याशङ्क्याह -- सङ्गेति। द्वेषपूर्वकानिष्टाचरणं वैरमनपकारिषु तदभावेऽपि भवत्येवापकारिष्विति शङ्कित्वाह -- आत्मन इति। एतच्च सर्वं संक्षिप्यानुष्ठानार्थमुक्तमेवमनुतिष्ठतो भगवत्प्राप्तिरवश्यंभाविनीत्युपसंहरति -- अयमिति। तदेवं भगवतो विश्वरूपस्य सर्वात्मनः सर्वज्ञस्य सर्वेश्वरस्य मत्कर्मकृदित्यादिन्यायेन क्रममुक्तिफलमभिध्यानमभिवदता तत्पदवाच्योऽर्थो व्यवस्थापितः।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ एकादशोऽध्यायः।।11।।
।।11.55।।यद्यप्येवं तथापि त्वादृशस्य मन्निगममर्यादायामनुगृहीतत्वान्मदाज्ञया मद्भक्तिपूर्वकमेव स्वधर्मकरणे मत्प्राप्तिरित्याह -- मत्कर्मकृदिति। भगवदीयस्य भगवत्सेवापूर्वककर्मकरणं विहितंमम कर्मकरणे प्रभोरिच्छाऽस्तीति यो निर्द्धारयति स करोति? य एतद्विपरीतं स न करोति? यथा शुकजडादिः। एतन्निर्द्धारश्च भगवदधीनोऽतो भक्तेष्वपि तन्निर्द्धारणानियम इत्यतः कर्म कर्त्तव्यमेव अतन्निर्द्धारणे त्वाधुनिकानाम् एवं सतीच्छाज्ञानवता तत्सन्देहवता च कर्त्तव्यं इति।तन्निर्द्धारणानियमः पृथग्यः प्रतिबन्धः फलं इत्यादि सूत्रभाष्ये निर्णीतमवगन्तव्यम्। मत्परम इति अहमेव परम उद्देश्यो यस्य परमो मद्भक्तः स मामेति पुरुषोत्तमाप्तिस्तस्य फलं भवतीत्यर्थः।
।।11.55।।अधुना सर्वस्य गीताशास्त्रस्य सारभूतोऽर्थो निःश्रेयसार्थिनामनुष्ठानाय पुञ्जीकृत्योच्यते -- मत्कर्मकृदिति। मदर्थं कर्म वेदविहितं करोतीति मत्कर्मकृत्। स्वर्गादिकामनायां सत्यां कथमेवमिति नेत्याह। मत्परमः अहमेव परमः प्राप्तव्यत्वेन निश्चितो नतु स्वर्गादिर्यस्य सः। अतएव मत्प्राप्त्याशया मद्भक्तः सर्वै प्रकारैर्मम भजनपरः। पुत्रादिषु स्नेहे सति कथमेवं स्यादिति नेत्याह -- सङ्गेति। सङ्गवर्जितः बाह्यवस्तुस्पृहाशून्यः। शत्रुषु द्वेषे सति कथमेवं स्यादिति नेत्याह -- निर्वैर इति। निर्वैरः सर्वभूतेषु अपकारिष्वपि द्वेषशून्यो यः स मामेत्यभेदेन। हे पाण्डव? अयमर्थस्त्वया ज्ञातुमिष्टो मयोपदिष्टो नातःपरं किंचित्कर्तव्यमस्तीत्यर्थः।दृशः कर्मभूतं हि यत्तच्च विश्वं स्वयं रूप्यते नान्यतस्तच्च रूपम्।जगद्यः स्वभासा निरस्यात्मरूपं ददावादरात्काशिराजं भजे तम्।।1।।
।।11.55।। अतः सर्वशास्त्रसारं परमं रहस्यं शृण्वित्याह -- मत्कर्मकृदिति। मदर्थं कर्म करोतीति मत्कर्मकृत्? अहमेव परमः पुरुषार्थो यस्य सः? ममैव भक्तो मामेवाश्रितः? पुत्रादिषु सङ्गवर्जितो? निर्वैरश्च सर्वभूतेषु एवंभूतो यः स मां प्राप्नोति नान्य इति।
।।11.55।।नाहं वेदैः इत्यादेः वेदानुवचनेन [बृ.उ.4।4।22] इत्यादिश्रुतिविरोधपरिहाराय भक्त्यङ्गभावेन वेदानुवचनादीनामुपयोगं वदन्प्रवेष्टुम् इत्युक्तं प्राप्तिहेतुं भक्त्यवस्थाविशेषं विविनक्ति -- मत्कर्मकृदिति।नाहं वेदैः इत्यादिनोक्तान्येव कर्माणि भगवति समर्पणान्मत्कर्मशब्देनोच्यन्ते? कीर्तनादीनि तु प्रागुक्तानि भक्त्यन्तर्गतत्वान्मद्भक्तशब्देऽनुप्रवेशमर्हन्तीत्यभिप्रायेणाहवेदाध्ययनेति। कर्मप्रसङ्गात्तत्साध्यतया बुद्धिस्थं फलमिह मत्परमशब्देनोच्यत इत्याहसर्वेषामिति। लौकिकानामन्नपानादिस्थानेऽस्य कीर्तनादिकमित्यभिप्रायेणाहआत्मधारणमलभमान इति। भक्तेः काष्ठाप्राप्तिदशायां यादृशी निस्सङ्गता? तां सहेतुकां दर्शयतिमदेकप्रियत्वेनेति। तृषितस्यामृतधारायां तृणादिनिरोधवन्मन्यमानं सङ्गमेवैनं यथा स्वयं विरक्तो वर्जयति? तथा स्वयं सङ्गे जातोद्वेग इत्यभिप्रायेणइतरसङ्गमसहमान इत्युक्तम्। तादृश्यां भक्तिकाष्ठायां न केवलं शास्त्रवश्यत्वेन निर्वैरता अपितु कारणाभावात् कार्याभाव इत्याहमत्संश्लेषेति। परमात्मनि रक्ततया तदितरविरक्तस्य सांसारिकक्षुद्रसुखदुःखयोरुपेक्षकत्वात्तन्निवर्तकेषु तत्प्रवर्तकेषु च नास्य वैरसम्भवः। नच स्वापराधं जानतः परो द्वेषविषयः नच कशादिवत्परतन्त्रतयाऽवगताय कश्चिदनुन्मत्तः कुप्येत् आत्मन इव परेषामपि विश्वरूपभगवद्रूपत्वानुसन्धाने कथं वैरावकाशः इति भावः।एवम्भूतः एवंविधः।प्रवेष्टुम् [11।54] इति प्रागुक्तानुसन्धानेनाह -- मां यथावदवस्थितमिति। प्रवेशप्राप्त्यादिशब्दानामन्यार्थतां कुदृष्ट्यभिमतां निराकर्तुं परमनिश्श्रेयसरूपायाः प्राप्तेः स्वरूपं शोधयतिनिरस्तेति। निरस्तत्वमपुनरङ्कुरविनष्टत्वम्। अविद्या अज्ञानान्यथाज्ञानतत्कारणकर्मादिरूपा। पूर्वावस्थायामपि कतिपयाविद्यादिनिवृत्तिरस्तीति तद्व्यवच्छेदायाशेषपदम्। सवासननिरासद्योतनाय गन्धशब्दः।मदेकानुभव इति -- सर्वं ह पश्यः पश्यति [छां.उ.7।26।2] इत्युक्तं सर्वमपि सर्वशरीरोऽहमेव। तथाच श्रुत्यन्तरं ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तात्मानः सर्वमेवाविशन्ति [मुं.उ.3।3।5] इति -- इति भावः।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषुश्रीमद्गीताभाष्यटीकायां तात्पर्यचन्द्रिकायां एकादशोऽध्यायः।।11।।
।।11.55।।नन्वनन्यभक्तः कथं ज्ञेयः इत्याकाङ्क्षायामाह -- मत्कर्मकृदिति। मदर्थं स्वस्य सहजदासत्वेन? न तु कामनया? कर्म सेवादिरूपं करोति स तथा। मत्परमः अहमेव परमः सर्वस्वं यस्य। मद्भक्तः मद्भजनकृत् मदाश्रितो वा। सङ्गवर्जितः पुत्रादिलौकिकावैष्णवादिसङ्गवर्जितः। सर्वभूतेषु निर्वैरः द्वेषरहितः। हे पाण्डव,उत्पत्त्यैव भक्त एवंविधो यः स मामेति प्राप्नोति? सोऽनन्यो ज्ञातव्य इति भावः।प्रदर्श्य विश्वरूपं स्वं दृढीकृत्याऽर्जुनाय वै।श्रीकृष्णः साधनासाध्यं स्वस्वरूपमदर्शयत्।।1।।
।।11.55।।शास्त्रसर्वस्वं संगृह्णाति -- मत्कर्मकृदिति। मदर्थमेव कर्माणि करोतीति मत्कर्मकृत्। अहमेव परमो निष्कलः प्राप्यो यस्येति स मत्परमः। एतेन कृत्स्नः कर्मयोगो ध्यानयोगश्च त्वंपदार्थशोधक उक्तः। मम भक्त आराधनकृदित्युपासनाकाण्डार्थसंग्रहः। सङ्गवर्जित इत्यनेन एकान्तभगवद्ध्याननिष्ठ इत्युक्तम्। निर्वैर इति विश्वं भगवदात्मना पश्येदित्युक्तम्। अन्यथा भेदबुद्धिमतो निर्वैरत्वासंभवात्। एवंभूतो यः स मां तत्पदलक्ष्यार्थभूतमखण्डानन्दैकघनमेति प्राप्नोति प्रत्यगभेदेन। हे पाण्डव विशुद्धवंशज। त्वमेवैतज्ज्ञातुं शक्नोषीति भावः।
।।11.55।।इदानीं शास्त्रसारभूतस्य गीताशास्त्रस्य सारभूतमर्थं निःश्रेयसप्रयोजनकं संगृह्यावश्यमुष्ठानायातिकारुणिको भगवानाह। मदर्थं मत्पीत्यर्थं वेदविहितं कर्म करोतीति मत्कर्मकृत्। यतोऽहमेव परमः प्रकृष्टः प्राप्यो यस्य नतु स्वर्गादिः स तथा मत्प्राप्तिसाधनेन सर्वात्मना सर्वप्रकारैः सर्वोत्साहेन मद्भजनेन युक्तः धनाद्यासक्त्या भगवद्भजनं न सिध्यत्यत आह। धनपुत्रमित्रकलत्रादिषु सङ्गवर्जित आसक्तिरहितः भूतेषु सवैरस्य मदनन्या भक्तिरतिदूरतरेत्याह। सर्वभूतेषु निर्वैरः साधारणेषु स्वस्यात्यन्तापकारकेषु अपि शत्रुभाववर्जितः य ईदृशो दम्भरहितो मद्भक्तः स मामेति। अभेदेन साक्षात्करोति। अहमेव तस्य परा गतिर्नान्येत्यर्थः। अयं सारसंग्रहो मया तवोपदिष्टः। यतो भवान् मत्पितृभामापत्यत्वादतिप्रेमास्पद इत्याशयेनाह -- पाण्डवेति।तदनेनैकादशाध्यायेन विश्वरुपप्रतिपादकेन सर्वेश्वरस्य सर्वात्मानः सर्वज्ञस्यानन्यता भक्त्या तत्स्वरुपज्ञानादिप्रदर्शकेन तत्पदवाच्योऽर्थो निरुपितः।।चिदानन्दे यत्रादितिजनरयक्षासुरयुतं विभातं त्रैलोक्यं सति भवति नाश्चर्यजनकम्।अनन्ताण्डाधारे तमजमजरात्मानममृतं शिवं कृष्णं वन्दे निखिलहृदिगं द्रष्टुमभयम्।।1।।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां एकादशोऽध्यायः।।11।।
11.55 मत्कर्मकृत् does actions for Me? मत्परमः looks on Me as the Supreme? मद्भक्तः is devoted to Me? सङ्गवर्जितः is freed from attachment? निर्वैरः without enmity? सर्वभूतेषु towards all creatures? यः who? सः he? माम् to Me? एति goes? पाण्डव O Arjuna.Commentary This is the essence of the whole teaching of the Gita. He who practises this teaching will attain Supreme Bliss and Immortality. This verse contains the summary of the entire philosophy of the Gita.He who performs actions (duties) for the sake of the Lord? who consecrates all his actions to Him? who serves the Lord with his heart and soul? who regards the Lord as his supreme goal? who lives for Him alone? who works for Him alone? who sees the Lord in everything? who sees the whole world as the Cosmic Form of the Lord and therefore cherishes no feeling of hatred or enmity towards any creature even when great injury has been done by others to him? who has no attachment or love to wealth? children? wife? friends and relatives? and who seeks nothing else but the Lord? realises Him and enters into His Being. He becomes one with Him.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the eleventh discourse entitledThe Yoga of the Vision of the Cosmic Form.,
11.55 He who does all actions for Me, who looks upon Me as the Supreme, who is devoted to Me, who is free from attachment, who bears enmity towards no creature, he comes to Me, O Arjuna.
11.55 He whose every action is done for My sake, to whom I am the final goal, who loves Me only and hates no one - O My dearest son, only he can realize Me!"
11.55 O son of Pandu, he who works for Me, accepts Me as the supreme Goal, is devoted to Me, is devoid of attachment and free from enmity towards all beings-he attains Me.
11.55 Pandava, O son of Pandu; yah, he who; mat-karma-krt, works for Me: work for Me is mat-karma; one who does it is mat-karma-krt-. Mat-paramah, who accepts Me as the supreme Goal: A servant does work for his master, but does not accept the master as his own supreme Goal to be attained after death; his one, however, who does work for Me, accepts Me alone as the supreme Goal. Thus he is matparamah-one to whom I am the supreme Goal-. So also he who is madbhaktah, devoted to me: He adores Me alone in all ways, with his whole being and full enthusiasm. Thus he is madbhaktah-. Sanga-varjitah, who is devoid of attachment for wealth, sons, friends, wife and relatives, Sanga means fondness, love; devoid of them-. Nirvairah, who is free from enmity; sarva-bhutesu, towards all beings-berefit of the idea of enmity even towards those engaged in doing unmost harm to him-. Sah, he who is such a devotee of Mine; eti, attains; mam, Me. I alone am his supreme Goal; he does not attain any other goal. This is the advice for you, given by Me as desired by you.
11.55. He, who performs actions for [attaining] Me; who regards Me as his supreme goal; who is devoted to Me; who is free from attachment; and who is free from hatred towards all beings-he attains me, O son of Pandu !
11.54-55 Bhaktya etc. Mat-karma etc. Those, whose devotion, charming by the absence of any other object in it, bursts forth-to the field of realisation of those persons descends the Vasudea - tattva, the Absolute being, without any effort (on their part) just on account of their appreciation of the advice given earlier as 'Having the realisation that Vasudeva is all, one takes refuge in Me. etc.'
11.55 Whosoever performs all acts like the study of the Vedas described above, considering them as several modes of worship, 'he works for Me.' He who 'looks upon Me as the highest,' namely, one to whom I alone am the highest purpose in all his enterprises, has Me as 'the highest end.' He who is 'devoted to me,' i.e., is greatly devoted to me and hence unable to sustain himself without reciting My names, praising Me, meditating upon Me, worshipping Me, saluting Me etc., he who performs these always considering Me as the supreme end - he is My devotee. He is 'free from attachments,' as he is attached to me alone, and is therefore unable to have attachment to any other entity. He who is without hatred towards any being, is one who fulfils all the following conditions: his nature is to feel pleasure or pain solely on account of his union or separation from Me; he considers his own sins to be the cause of his sufferings (and not the work of others); he is confirmed in his faith that all beings are dependent on the Parama-purusa. For all these reasons he has no hatred for any one.
11.55 Whosoever works for Me, looks upon Me as the highest and is devoted to Me, free from attached and without enmity towards any creature, he comes to Me, O Arjuna.
।।11.55।।अब समस्त गीताशास्त्रका सारभूत अर्थ संक्षेपमें कल्याणप्राप्तिके लिये कर्तव्यरूपसे बतलाया जाता है --, जो मुझ परमेश्वरके लिये कर्म करनेवाला है और मेरे ही परायण है -- सेवक स्वामीके लिये कर्म करता है परंतु मरनेके पश्चात् पानेयोग्य अपनी परमगति उसे नहीं मानता और यह तो मेरे लिये ही कर्म करनेवाला,और मुझे ही अपनी परमगति समझनेवाला होता है? इस प्रकार परमगति मैं ही हूँ ऐसा जो मत्परायण है। तथा मेरा ही भक्त है अर्थात् जो सब प्रकारसे सब इन्द्रियोंद्वारा सम्पूर्ण उत्साहसे मेरा ही भजन करता है? ऐसा मेरा भक्त है। तथा जो धन? पुत्र? मित्र? स्त्री और बन्धुवर्गमें सङ्ग -- प्रीति -- स्नेहसे रहित है। तथा सब भूतोंमें वैरभावसे रहित है अर्थात् अपना अत्यन्त अनिष्ट करनेकी चेष्टा करनेवालोंमें भी जो शत्रुभावसे रहित है। ऐसा जो मेरा भक्त है? हे पाण्डव वह मुझे पाता है अर्थात् मैं ही उसकी परमगति हूँ? उसकी दूसरी कोई गति कभी नहीं होती। यह मैंने तुझे तेरे जाननेके लिये इष्ट उपदेश दिया है।
।।11.55।। --,मत्कर्मकृत् मदर्थं कर्म मत्कर्म? तत् करोतीति मत्कर्मकृत्। मत्परमः -- करोति भृत्यः स्वामिकर्म? न तु आत्मनः परमा प्रेत्य गन्तव्या गतिरिति स्वामिनं प्रतिपद्यते अयं तु मत्कर्मकृत् मामेव परमां गतिं प्रतिपद्यते इति मत्परमः? अहं परमः परा गतिः यस्य सोऽयं मत्परमः। तथा मद्भक्तः मामेव सर्वप्रकारैः सर्वात्मना सर्वोत्साहेन भजते इति मद्भक्तः। सङ्गवर्जितः धनपुत्रमित्रकलत्रबन्धुवर्गेषु सङ्गवर्जितः सङ्गः प्रीतिः स्नेहः तद्वर्जितः। निर्वैरः निर्गतवैरः सर्वभूतेषु शत्रुभावरहितः आत्मनः अत्यन्तापकारप्रवृत्तेष्वपि। यः ईदृशः मद्भक्तः सः माम् एति? अहमेव तस्य परा गतिः? न अन्या गतिः काचित् भवति। अयं तव उपदेशः इष्टः मया उपदिष्टः हे पाण्डव इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येएकादशोऽध्यायः।।
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मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।11.55।।
মত্কর্মকৃন্মত্পরমো মদ্ভক্তঃ সঙ্গবর্জিতঃ৷ নির্বৈরঃ সর্বভূতেষু যঃ স মামেতি পাণ্ডব৷৷11.55৷৷
মত্কর্মকৃন্মত্পরমো মদ্ভক্তঃ সঙ্গবর্জিতঃ৷ নির্বৈরঃ সর্বভূতেষু যঃ স মামেতি পাণ্ডব৷৷11.55৷৷
મત્કર્મકૃન્મત્પરમો મદ્ભક્તઃ સઙ્ગવર્જિતઃ। નિર્વૈરઃ સર્વભૂતેષુ યઃ સ મામેતિ પાણ્ડવ।।11.55।।
ਮਤ੍ਕਰ੍ਮਕਰਿਨ੍ਮਤ੍ਪਰਮੋ ਮਦ੍ਭਕ੍ਤ ਸਙ੍ਗਵਰ੍ਜਿਤ। ਨਿਰ੍ਵੈਰ ਸਰ੍ਵਭੂਤੇਸ਼ੁ ਯ ਸ ਮਾਮੇਤਿ ਪਾਣ੍ਡਵ।।11.55।।
ಮತ್ಕರ್ಮಕೃನ್ಮತ್ಪರಮೋ ಮದ್ಭಕ್ತಃ ಸಙ್ಗವರ್ಜಿತಃ. ನಿರ್ವೈರಃ ಸರ್ವಭೂತೇಷು ಯಃ ಸ ಮಾಮೇತಿ ಪಾಣ್ಡವ৷৷11.55৷৷
മത്കര്മകൃന്മത്പരമോ മദ്ഭക്തഃ സങ്ഗവര്ജിതഃ. നിര്വൈരഃ സര്വഭൂതേഷു യഃ സ മാമേതി പാണ്ഡവ৷৷11.55৷৷
ମତ୍କର୍ମକୃନ୍ମତ୍ପରମୋ ମଦ୍ଭକ୍ତଃ ସଙ୍ଗବର୍ଜିତଃ| ନିର୍ବୈରଃ ସର୍ବଭୂତେଷୁ ଯଃ ସ ମାମେତି ପାଣ୍ଡବ||11.55||
matkarmakṛnmatparamō madbhaktaḥ saṅgavarjitaḥ. nirvairaḥ sarvabhūtēṣu yaḥ sa māmēti pāṇḍava৷৷11.55৷৷
மத்கர்மகரிந்மத்பரமோ மத்பக்தஃ ஸங்கவர்ஜிதஃ. நிர்வைரஃ ஸர்வபூதேஷு யஃ ஸ மாமேதி பாண்டவ৷৷11.55৷৷
మత్కర్మకృన్మత్పరమో మద్భక్తః సఙ్గవర్జితః. నిర్వైరః సర్వభూతేషు యః స మామేతి పాణ్డవ৷৷11.55৷৷
12.1
12
1
।।12.1।।जो भक्त इस प्रकार निरन्तर आपमें लगे रहकर आप-(सगुण भगवान्-) की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निराकारकी ही उपासना करते हैं, उनमेंसे उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?
।।12.1।। अर्जुन ने कहा -- जो भक्त, सतत युक्त होकर इस (पूर्वोक्त) प्रकार से आपकी उपासना करते हैं और जो भक्त अक्षर, और अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन उत्तम योगवित् है।।
।।12.1।। यद्यपि भगवद्गीता के दार्शनिक प्रवचन संवाद की शैली में लिखे गये हैं? तथापि उनमें विचारों के क्रमिक विकास की कभी भी उपेक्षा नहीं की गई है। उसमें न केवल एक अध्याय के अन्तर्गत विचारों में संगति है? वरन् एक अध्याय से अन्य अघ्यायों के मध्य भी यही संगति देखने को मिलती है। पूर्व अध्याय की समाप्ति भगवान् के इस आश्वासन के साथ हुई थी कि कोई भी साधक भक्त अनन्यभक्ति के द्वारा ईश्वर के विराट् वैभव का स्वयं में साक्षात् अनुभव कर सकता है। इस चुनौती भरे वाक्य ने क्षत्रिय राजपुत्र अर्जुन की महत्त्वाकांक्षा को जगा दिया। जगत् के एक व्यावहारिक पुरुष के रूप में वह जानना चाहता है कि वह परमात्मा के कौन से रूप की उपासना करे।यहाँ प्रश्न बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक रखा गया है। यह सुविदित तथ्य है कि जगत् में दो प्रकार के साधक होते हैं? जो वस्तुत एक ही साध्य को प्राप्त करने के लिए साधनारत होते हैं। कोई साधक परमात्मा के सगुण? साकार व्यक्त रूप की आराधनाउपासना करते हैं? जबकि अन्य साधक निर्गुण? निराकार अव्यक्त का ध्यान करते हैं। दोनों ही निष्ठावान् हैं और अपनेअपने मार्ग पर प्रगति की ओर अग्रसर होते हैं। परन्तु? प्रश्न यह है कि इन दोनों में कौन उत्तम योगवित् या योगनिष्ठ है।दर्शनशास्त्र में इन्द्रियगोचर वस्तु को व्यक्त कहते हैं तथा जो वस्तु प्रमाण गोचर नहीं होती? उसे अव्यक्त कहा जाता है। विद्यार्थी दशा में अर्जुन को यह बताया गया था कि परमात्मा अव्यक्त और सर्वव्यापी है। परन्तु? पूर्व अध्याय में ही उसने ईश्वरी विराट रूप का साक्षात् दर्शन किया था। वह उसका व्यक्तिगत अनुभव था। स्वाभाविक ही है कि आध्यात्मिक विकास के लिए मार्गदर्शन का इच्छुक अर्जुन एक उचित प्रश्न पूछता है कि सगुण और निर्गुण के इन दो उपासकों में कौन साधक श्रेष्ठ है सगुण और निर्गुण में श्रेष्ठता का प्रश्न आज भी विवाद का विषय बना हुआ है। क्या मूर्तिपूजा के द्वारा ईश्वर का ध्यान और साक्षात्कार किया जा सकता है क्या कोई भी प्रतीक परमात्मा का सूचक हो सकता है क्या एक तरंग समुद्र का प्रतीक या प्रतिनिधि बन सकती है प्रथम? भगवान् श्रीकृष्ण सगुणोपासना का वर्णन करते हुए कहते हैं
।।12.1।। व्याख्या--'एवं सततयुक्ता ये भक्ताः'--ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें भगवान्ने 'यः' और 'सः' पद जिस साधकके लिये प्रयुक्त किये हैं, उसी साधकके लिये अर्थात् सगुण-साकार भगवान्की उपासना करनेवाले सब साधकोंके लिये यहाँ 'ये भक्ताः' पद आये हैं।
।।12.1।।एवमिति। एवम् उक्तेन नयेन ये सेश्वरब्रह्मोपासका ये च (S omits ये च) केवलं आत्ममात्रमुपासते? तेषां विशेषाख्यानाय प्रश्नः।
।।12.1।।अर्जुन उवाच -- एवंमत्कर्मकृत् (गीता 11।55) इत्यादिना उक्तेन प्रकारेण सततयुक्ताः भगवन्तं त्वाम् एव परं प्राप्यं मन्वाना ये भक्ताः त्वां सकलविभूतियुक्तम् अनवधिकातिशयसौन्दर्यसौशील्यसार्वज्ञ्यसत्यसंकल्पत्वाद्यनन्दगुणसागरं परिपूर्णम् उपासते? ये च अपि अक्षरं प्रत्यगात्मस्वरूपं तद् एव च अव्यक्तं चक्षुरादिकरणेन अनभिव्यक्तस्वरूपम् उपासते? तेषाम् उभयेषां के योगवित्तमाः के स्वसाध्यं प्रति शीघ्रगामिनः इत्यर्थः।भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।। (गीता 12।7) इति उत्तरत्र योगवित्तमत्वं शैघ्र्यविषयम् इति हि व्यञ्जयिष्यते।
।।12.1।।अशोच्यानित्यादिषु विभूत्यध्यायावसानेष्वध्यायेषु निरुपाधिकस्य ब्रह्मणो ज्ञेयत्वेनानुसंधानमुक्तमिति वृत्तं कीर्तयति -- द्वितीयेति। अतिक्रान्तेषु तत्तदध्यायेषु सोपाधिकस्यापि ब्रह्मणो ध्येयत्वेन प्रतिपादनं कृतमित्याह -- सर्वेति। सर्वस्यापि प्रपञ्चस्य योगो घटना जन्मस्थितिभङ्गप्रवेशनियमनाख्या तत्रैश्वर्यं सामर्थ्यं तेन सर्वत्र ज्ञेये प्रतिबन्धविधुरया ज्ञानशक्त्या विशिष्टस्य सत्त्वाद्युपहितस्य भगवतो ध्यानं तत्र तत्र प्रसङ्गमापाद्य मन्दमध्यमयोरनुग्रहार्थमुक्तमित्यर्थः। एकादशे वृत्तमनुवदति -- विश्वरूपेति। अध्यायान्ते भगवदुपदेशमनुवदति -- तच्चेति। (अतीतानन्तरश्लोकेनोक्तमर्थं परामृशति -- मत्कर्मकृदिति।) यथाधिकारं तारतम्योपेतानि साधनानि नियन्तुमध्यायान्तरमवतारयन्नादौ प्रश्नमुत्थापयति -- अत इति। सोपाधिकध्यानस्य निरुपाधिकज्ञानस्य चोक्तत्वादित्यर्थः। एवं शब्दार्थमुक्त्वा तमनूद्य सततयुक्ता इति भागं विभजते -- एवमिति। ये भक्ता इत्यनूद्य व्याचष्टे -- अनन्येति। मन्दमध्यमाधिकारिणः सगुणशरणानुक्त्वा निर्गुणनिष्ठानुत्तमाधिकारिणो निर्दिशति -- ये चेति। यथा विशेषितमनिर्देश्यं सर्वत्रगमचिन्त्यं कूटस्थमित्यादिवक्ष्यमाणविशेषणविशिष्टमित्यर्थः। न क्षरत्यश्नुते वेत्यक्षरम्। अव्यक्तमित्येतद्व्याचष्टे -- निरस्तेति। करणागोचरत्वं व्यतिरेकद्वारा स्फोरयति -- यद्धीति। यथा विशेषितमित्युक्तं स्पष्टयति -- शिष्टैश्चेति। पूर्वार्धगतक्रियापदस्यानुषङ्गं सूचयति -- तदिति। सर्वे तावदेते योगं समाधिं विन्दन्तीति योगविदः। के पुनरतिशयेनैषां मध्ये योगविदो योगिन इति पृच्छति -- केऽतिशयेनेति।
।।12.1।।प्रमेयरूपा तद्भक्तिः प्रमेयः पुरुषोत्तमः। अतः प्रमेयमार्गे तु हरिः सेव्यो न चापरः।।1।।अथ पूर्वत्रयदक्षरं वेदविदो वदन्ति [8।11] इत्यादिना विश्वरूपादेरप्यक्षरत्वेन निरूपणश्रवणादक्षरस्य च भगवद्धामपदत्वोक्तौ भेदमिवालक्ष्य तदुभयोपासकविशेषजिज्ञासया भगवन्तमर्जुन उवाच -- एवमिति।मत्कर्मकृत् [11।55] इत्यादिनोक्तप्रकारेण सततं युक्ता योगिनोऽर्पितात्मानो वा भक्ता ये त्वां पुरुषोत्तमं सौम्यरूपं भक्तानुग्रहविग्रहं सर्वविभूतिमूलं निरवधिकातिशयसौन्दर्यसौशील्यसर्वज्ञत्वसत्यसङ्कल्पत्वाद्यनन्तगुणनिधिं सदानन्दमात्रकरपादमुखोदगङ्गं परिपूर्णं स्वेच्छयाऽधिदैविकश्रीभूलीलादिशक्तिभिः सह भुवि प्रादुर्भूतं स्वमायया मानुषाकारं पर्युपासते परिरत्र वर्जनेअपपरी वर्जने [अष्टा.1।4।88] इत्यनुशासनात्। अन्योपासनं परिवर्ज्य त्वत्समीप आसते आसक्ता ये भक्ताः। ये चापि समनन्तरोक्तरूपमक्षरमव्यक्तं पर्युपासते। तेषामुभयेषां मध्ये तव मताः के युक्ततमाः इति प्रश्नः।
।।12.1।।पूर्वाध्यायान्तेमत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव इत्युक्तं तत्र मच्छब्दार्थे संदेहः किं निराकारमेव सर्वस्वरूपं वस्तु मच्छब्देनोक्तं भगवता किं साकारमिति। उभयत्रापि प्रयोगदर्शनात्बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः इत्यादौ निराकारं वस्तु व्यपदिष्टं। विश्वरूपदर्शनानन्तरं चनाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा इति साकारं वस्तु। उभयोश्च भगवदुपदेशयोरधिकारिभेदेनैव व्यवस्थया भवितव्यम्। अन्यथा विरोधात्। तत्रैवं सति मया मुमुक्षुणा किं निराकारमेव वस्तु चिन्तनीयं किंवा साकारमिति स्वाधिकारनिश्चयाय सगुणनिर्गुणविद्ययोर्विशेषबुभुत्सया अर्जुन उवाच -- एवमिति। एवं मत्कर्मकृदित्याद्यनन्तरोक्तप्रकारेण सततयुक्ता नैरन्तर्येण भगवत्कर्मादौ सावधानतया प्रवृत्ता भक्ताः साकारवस्त्वेकशरणाः सन्तस्त्वामेवंविधं साकारं ये पर्युपासते सततं चिन्तयन्ति? ये चापि सर्वतो विरक्तास्त्यक्तसर्वकर्माणोऽक्षरं न क्षरत्यश्नुते वेत्यक्षरंएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् इत्यादिश्रुतिप्रतिषिद्धसर्वोपाधिरहितं निर्गुणं ब्रह्म अतएवाव्यक्तं सर्वकरणागोचरं निराकारं त्वां पर्युपासते तेषामुभयेषां मध्ये के योगवित्तमा अतिशयेन योगविदो योगं समाधिं विदन्तीति वा योगविद उभयेऽपि। तेषां मध्ये के श्रेष्ठा योगिनः। केषां ज्ञानं मयानुसरणीयमित्यर्थः।
।।12.1।।निर्गुणोपासनस्यैवं सगुणोपासनस्य च। श्रेयः कतरदित्येवं निर्णेतुं द्वादशोद्यमः।।1।।पूर्वाध्यायान्तेमत्कर्मकृन्मत्परमः इत्येवं भक्तिनिष्ठस्य श्रेष्ठत्वमुक्तम्।कौन्तेय प्रतिजानीहि इत्यादिना तत्र तस्यैव श्रेष्ठत्वं वर्णितम्? तथातेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते इत्यादिनासर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि इत्यादिना च ज्ञाननिष्ठस्य श्रेष्ठत्वमुक्तम्। एवमुभयोः श्रैष्ठ्येऽपि विशेषजिज्ञासया भगवन्तं प्रत्यर्जुन उवाच -- एवमिति। एवं सर्वकर्मार्पणादिना सततं युक्तास्त्वनिष्ठाः सन्तो ये भक्तास्त्वां विश्वरूपं सर्वज्ञं सर्वशक्तिं पर्युपासते ध्यायन्ति? ये चाप्यक्षरं ब्रह्माव्यक्तं निर्विशेषमुपासते तेषामुभयेषां मध्ये अतिशयेन के योगविदः। श्रेष्ठा इत्यर्थः।
।।12.1।।प्रसक्ताया भक्तेः श्रैष्ठ्यादिकमुच्यत इति द्वादशाध्यायार्थसङ्गतिं वक्तुं पूर्वोक्तमनुवदन् भक्तियोगप्रकरणे वैश्वरूप्यप्रदर्शनसङ्गतिमप्यर्थाद्विविनक्ति -- भक्तियोगनिष्ठानामिति। साक्षात्कृते हि पूर्णोपासनं शक्यम्? उपास्यत्वफलत्वोपयुक्ताकारेण तत्प्रकाशनं च युक्तमिति भावः। प्रस्तुतसाक्षात्कारादिकारणप्रधानसङ्गतिस्थलमाहउक्तं चेति। स्वप्रकाशनहेतुः कारुण्यादिकम्। तदैव कार्यसिद्ध्यर्थं सत्यसङ्कल्पत्वोक्तिः। उपायफलनिर्देशानन्तरं फलाविलम्बाद्युक्तिरिति सङ्गतिमाहअनन्तरमिति। एतेनभक्तिशैघ्र्यमुपायोक्तिरशक्तस्यात्मनिष्ठता। तत्प्रकारास्त्वतिप्रीतिर्भक्ते द्वादश उच्यते [गी.सं.16] इति सङ्ग्रहश्लोकोऽपि व्याख्यातः।अतिप्रीतिः इत्यादिना संगृहीतस्य द्वादशाध्यायान्तिमश्लोकार्थस्य भाष्ये चकारेण सङ्ग्रहः। उपक्रान्तोपसंहारमात्ररूपत्वात्तस्य पृथगनुक्तिः। अस्मिन्नध्याये योगवित्तमयुक्ततमादिशब्दैः प्रश्नोत्तरगतैस्तारतम्यमात्रमुच्यते। तच्चोपास्यप्रकर्षहैतुकफलतारतम्यनिबन्धनं किं न स्यात् इत्यत्राह -- भगवदुपासनस्येति। सम्प्रतिपन्नांशे पुनः प्रश्नो न युक्त इति भावः। अव्यवहितवाक्यसङ्गतिव्यञ्जनार्थमासक्तिवशादौचित्याच्चैवंशब्दानूदितमाहमत्कर्मकृदित्यादिनोक्तेन प्रकारेणेति। सततयुक्तशब्दोऽत्र सततयोगाशंसापर इत्यभिप्रायेणाहभगवन्तं त्वामेव परं प्राप्यं मन्वाना इति।मत्परमः [11।55] इति हि पूर्वश्लोकोक्तम्। सुग्रहत्वानुगुणाकारसूचनार्थंसकलेत्यादिनात्वाम् इति निर्देशस्य प्रागुपदेशदिव्यचक्षुर्भ्यां प्रतिपन्नविभूत्यादिवैशिष्ट्यपरत्वं दर्शितम्। यद्वापर्युपासते इत्यत्रोपसर्गाभिप्रेतोक्तिरियम्। तदाहपरिपूर्णमिति। अक्षरशब्दस्य प्रकृतावीश्वरे च प्रयोगादिह तद्व्यावृत्त्यर्थमाहप्रत्यगात्मस्वरूपमिति। अव्यक्तशब्दस्याक्षरशब्दसमभिव्याहृताचिद्विशेषपरत्वव्युदासायाहतदेव चाव्यक्तमिति। यच्छब्दत्रयाभावादुत्तरे च,विशेषणविशेष्यव्यक्तेरत्रोपास्यत्रयपरत्वमनुचितमिति भावः।पञ्चविंशकमव्यक्तं ष़ड्विंशः पुरुषोत्तमः। एतज्ज्ञात्वा विमुच्यन्ते यतयः शान्तबुद्धयः इति यमस्मृतिवचनेऽपि पुरुषोत्तमादर्वाचीन एवाव्यक्तशब्दः। अत्र योगवित्तमशब्दाभिप्रेतमाधिक्यं दर्शयतिके स्वसाध्यमिति। प्रश्नस्योपास्याधिक्यादिपरत्वं मा भूत् उक्तार्थपरत्वे किं प्रमाणं इत्यत्राहभवामीति। प्रश्नान्यथानुपपत्त्यैव पारिशेष्यादयमर्थः सिद्धः उत्तरवाक्ये तु स्पष्टः।क्लेशोऽधिकतरस्तेषाम् इति चाक्षरनिष्ठात्प्रकर्ष उच्यत इति भावः।
।।12.1।।पुरुषोत्तमभक्तानामक्षराभिनिवेशिनाम्। स्वरूपतारतम्यार्थं श्रीकृष्णं ह्यर्जुनोऽब्रवीत्।।1।।पूर्वाध्यायान्तेमत्कर्मकृत् [11।55] इत्यनेन भक्तानां स्वभजनैकनिष्ठानां स्वप्राप्तिरुक्ता? पूर्वं चाष्टमाध्यायेयदक्षरं वेदविदो वदन्ति [11] इत्यारभ्यस याति परमां गतिम् [8।13] इत्यन्तमक्षरोपासकानां परमगतिरुक्ता? एतदुभयोस्तारतम्यजिज्ञासुरर्जुनो भगवन्तं विज्ञापयति -- एवमिति। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सर्वसङ्गपरित्यागेन अनन्यभक्ता ये त्वां प्रकटमानन्दरूपं पर्युपासते ध्यायन्ति तेषामुभयेषां मध्ये के योगवित्तमाः अतिशयितत्वत्संयोगविदः श्रेष्ठा इत्यर्थः। तान् कृपया आज्ञापयेति भावः।
।।12.1।।सप्तममारभ्यैतावता ग्रन्थेन तत्पदवाच्यार्थो निरूपितः। इदानीं तत्पदार्थशोधनमुपासनाकाण्डं च समापयिष्यन्निहार्थतः प्राधान्येन तत्पदलक्ष्यमर्थं तद्विदां लक्षणानि च प्रदर्श्यन्ते। शब्दतस्तु लौकिकबुद्ध्यनुसारेण तत्पदवाच्यस्यैवोपासनादिकं प्रपञ्च्यते। तत्र पूर्वाध्यायान्तेमत्कर्मकृन्मत्परमः इत्यादिना स्वभजनमुक्तम्। तत्र मच्छब्दार्थः किं सगुणमुत निर्गुणं ब्रह्म। उभयत्राप्यस्मच्छब्दस्य पूर्वं प्रयोगदर्शनात्संदिहानः पृच्छति -- एवमिति। एवमित्यव्यवहितं मत्कर्मकृदित्यादिनोक्तं प्रकारं परामृशति। अनेन प्रकारेण ये सततयुक्ता नित्यं समाहितचित्ता भक्ताः सगुणवेदिनस्त्वां पर्युपासते? ये चाप्यक्षरमस्थूलादिलक्षणमव्यक्तं बुद्ध्याद्यगोचरमुपासते तेषां मध्ये योगवित्तमाः के कतरे इत्यर्थः।
।।12.1।।यत्कृपालवमात्रेण मूर्खो भवति पण्डितः। तं वन्दे परमानन्दं विष्णुं जिष्णु शिवं गुरुम्।।1।।द्वितीयाद्यध्यायेषु विभूत्यध्यायान्वेषुत्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्योः भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्ववस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्। याननर्थ उदपाने सर्वतः संल्पुतोदके। तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः। यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते। नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः। यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्मस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा। नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति। तद्धुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः। गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः। योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः। स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति। यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्माहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति। सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते। तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते। प्रियो हि ज्ञाननिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्। परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्योक्तो व्यक्तात्सनातनः 7यः सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति। अव्यक्तोक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम 8राजविद्या रागुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुशुखं कर्तुमव्ययम्। अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप। अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि 9न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः। अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः। यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्। असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते 10 इत्यादिना परमात्मनो ब्रह्मणोऽक्षरस्य विध्वस्तसर्वविषस्योपासनमुक्तम्।एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। अहं कृत्स्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा। मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव 11कविं पुराणमनुशासितारणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः। सर्वस्य धातारमचिन्त्यरुपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् 8अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः। मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च 10 इत्यादिना तत्रतत्र सर्वयोगैश्वर्यादिमत्सत्त्वोपाधिकस्येश्वरस्योपासनमुक्तम्। विश्वरुपाध्याये च ऐश्वर्य परमेश्वरस्योपासनार्थं प्रदर्शितम्। तच्च दर्शयित्वामत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डवइत्युक्तम्। अतः अनयोर्निविशेषसविशेषोपासनरुपयोः पक्षयोः को वा विशिष्टतर इति ज्ञातुकामोऽर्जुन उवाच -- एवमिति। एवं मत्कर्मकृदित्याद्युक्तप्रकारेण सततयुक्ताः नैरन्तर्येण भगवत्कर्मादौ समाधानतया प्रवृत्ता ये भक्ता अनन्यशरणआः सन्तस्त्वां तत्र तत्र प्रदर्शितं सर्वयोगैश्वर्यज्ञानशक्तिमत्सत्वोपाधिमीश्वरं विश्वरुपं पर्युपासते ध्यायन्ति ये च त्यक्तपुत्रवित्तलोकैषणाः संन्यस्तसर्वकर्माणो द्वितीयप्रभतिष्वध्यायेषूक्तमक्षरं न क्षरतीत्यश्रुते वेत्यक्षरं ब्रह्माद्वयं परमात्मानं विध्यस्तसर्वविशेषमव्यक्तं इन्द्रियैर्न व्यज्यत इति अव्यक्तमकरणगोचरं पर्युपासते प्रत्यगभिन्नत्वेनानुसंधानं कुर्वन्ति तेषामुभयेषां मध्ये केऽतिशयेन योगज्ञा इत्यर्थः। अत्र केचित्पर्वाध्यायान्ते मत्कर्मकृदित्युक्तं तत्र मच्छब्दार्थे संदेहः किं निराकारमेव सर्वस्वरुपं वस्तु मच्छब्देनोक्तं भगवता? किंवा साकारमिति। उभयत्रापि पूर्वं प्रयोगदर्शनात्। उभयोश्च भगवदुपदेशयोरधिकारीभेदेनैव व्यवस्थया भवितव्यम्। तत्रैवंसति मया मुमुक्षुणा किं निराकारमेव वस्तु चिन्तनीयं किंवा साकारमिति निश्चयाय सगुणनिर्गुणविद्ययोर्विशेषबुबुत्सयाऽर्जुन आह -- एवमिति। एवं मतकर्मकृदित्यद्यनन्तरोक्तप्रकारेणेत्यादि वर्णयन्ति तद्विचार्यम्। एवं सततयुक्ता ये भक्ता इत्यत्र एवमित्यव्यवहितं मत्कर्मकृदित्यानिनोक्तं प्रकारं परामृशन्नर्जुनः मच्छब्दार्थे संदेहवानिति वक्तुमशक्यत्वात्। नचैवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां सगुणं पर्युपासते? ये चाप्येवं सततयुक्ता अक्षरमव्यक्तं पर्युपासते तेषामुभयेषां के योगवित्तमाः। मत्कर्मकृदित्यत्र भगवतो मच्छब्दार्थः को वाभिप्रेत इत्यर्थेनादोष इति वाच्यम्। येऽपि सर्वतो विरक्तास्त्यक्तसर्वकर्माणोऽक्षरमिति स्वपरग्रन्थविरोधात् एवमित्योत्तरार्थोनान्वेतुतशक्यत्वात्। किंच संनिहितेन सगुणप्रतिपादकप्रकरणेन मत्कर्मकृदिति लिङ्गेन च निर्णयस्य सत्तवात्संदेह एव न घटते प्रत्युत्तरं चैतत्संशयानुरुपं न भवतीतिदिक्।
12.1 एवम् thus? सततयुक्ताः ever steadfast? ये who? भक्ताः devotees? त्वाम् Thee? पर्युपासते worship? ये who? च and? अपि also? अक्षरम् the imperishable? अव्यक्तम् the unmanifested? तेषाम् of them? के who? योगवित्तमाः better versed in Yoga.Commentary The twelfth discourse goes to prove that Bhakti Yoga or the Yoga of devotion is much easier than Jnana Yoga or the Yoga of knowledge. In Bhakti Yoga the devotee establishes a near and dear relationship with the Lord. He cultivates slowly and one of the five Bhavas (attitudes) according to his temperament? taste and capacity. The five attitudes are the Santa Bhava (the attitutde of peaceful adoration) Dasya Bhava (the attitude of servant towards the master) Sakhya Bhava (the attitude of a friend) Vatsalya Bhava (the attitude of a parent to the child) and Madhurya Bhava (the attitutde of the lover towards the beloved). The devotee adopts these attitudes towards the Lord. The last (Madhurya Bhava) is the culmination of devotion. It is merging or absorption in the Lord.The devotee adores the Lord. He constantly remembers Him (Smarana). He sings His Name (Kirtana). He speaks of His glories. He repeats His Name. He chants His Mantra (Japa). He prays and prostrates himself. He hears His Lilas (divine plays). He does total? ungrudging and unconditional selfsurrender? obtains His grace? hols communion wih? and eventually gets absorbed in Him.The devotee begins by worshipping the idols or the symbols of God. Then he performs internal worship of the Form. Ultimately he is led to the supreme worship of the allpervading Brahman (Para Puja).Thus As declared in the last verse of the previous chapter.Avyaktam The unmanifested? i.e.? incomprehensible to the senses? transcending all limiting adjuncts. The unmanifested Brahman is beyond all limitations. That which is visible to the senses is called Vyakta or manifest.The hearts of the devotees are wholly fixed on Thee. They worship Thee with all their heart and soul.There are others who worship the unmanifested Brahman which is beyond time? space and causation? which is attributeless? which is eternal and indefinable? which is beyond the reach of speech and mind. These are the wise sages.Of these two? the devotees and the men of knowledge -- who are the better knowers of Yoga (Cf.XI.55)
12.1 Arjuna said Those devotees who, ever steadfast, thus worship Thee and those also who worship the imperishable and the unmanifested which of them are better versed in Yoga?
12.1 "Arjuna asked: My Lord! Which are the better devotees who worship Thee, those who try to know Thee as a Personal God, or those who worship Thee as Impersonal and Indestructible?
12.1 Arjuna said Those devotees who, being thus ever dedicated, meditate on You, and those again (who meditate) on the Immutable, the Unmanifested-of them, who are the best experiencers of yoga [(Here) yoga means samadhi, spiritual absorption.] ?
12.1 The subject-matter stated in the immediately preceding verse, '৷৷.he who works for Me,' etc. is referred to by the word evam (thus). Ye bhaktah, those devotees who, seeking no other refuge; evam, thus; satata-yuktah, being ever-devoted, i.e., remaining unceasingly engaged in the works of the Lord, etc., intent on the aforesaid purpose; paryupasate, meditate; tvam, on You, in the Cosmic form as revealed earlier; ye ca api, and those others, again, who have renounced all desires, who have given up all actions; who meditate on Brahman as described (below), aksaram, on the Immutable; avyaktam, on the Unmanifested, which is so on account of being bereft of all limiting adjuncts, (and) which is beyond the comprehension of the organs-in the world, whatever comes within the range of the organs is said to be manifest, for the root anj conveys that sense; but this Immutable is the opposite of that and is endowed with alifications that are spoken of by the great ones; those again, who meditate on that-; tesam, of them, among the two (groups); ke, who; are the yoga-vit-tamah, best experiencers of yoga, i.e., who are those that are surpassingly versed in yoga? But leave alone those who meditate on the Immutable, who are fully enlightened and are free from desires. Whatever has to be said with regard to them, we shall say later on. As for those others-
12.1. Arjuna said Those devotees who, being constantly attached [to You], worship You thus; and also those who [worship] the motionless Unmanifest-of these who who are the best knowers of Yoga ?
12.1 Evam etc. The estion is for getting an explanation regarding the superiority among those who are the worshippers of the Absolute with Sovereign power, by the said method and those who worship the Self alone [without any attribute].
12.1 Arjuna said These are two types of spiritual aspirants who are contrasted thus: (1) On the one hand there are those devotees who adore You 'thus'; namely, in the way taught in such text as 'Whosoever works for Me' (11.55), and who are desirous of being ever 'integrated' with You, namely, considering You as the supreme end. They adore You in utter devotion - You, the ocean of boundless attributes of limitless excellence like grace, affability, omniscience, true resolve etc., and endowed with all glory. (2) On the other hand there are those who meditate on the 'Imperishable', (Aksara) namely, the individual self in Its true nature, which is the same as the 'Unmanifest' (Avyakta), namely that whose nature cannot be grasped by organs such as the eye etc. The question posed is: Which of these two classes of devotees have greater knowledge of Yoga? Who would reach their respective goals sooner? Such is the meaning of the question. Sri Krsna clearly states later on, 'O Arjuna, I become before long their redeemer from the fatal sea of recurring births and deaths' (12.7), with reference to the speed with which the latter kind of devotees reach Him.
12.1 Arjuna said Those devotees, who, ever integrated, thus meditate on You, and those again, who meditate on the Imperishable and the Unmanifest - which or these have greater knowledge of Yoga?
।।12.1।।तथा विश्वरूप ( एकादश ) अध्यायमें आपने उपासनाके लिये ही मुझे सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त? सबका आदि और समस्त जगत्का आत्मारूप अपना विश्वरूप भी दिखलाया है और वह रूप दिखलाकर आपने मेरे ही लिये कर्म करनेवाला हो इत्यादि वचन भी कहे हैं। इसलिये इन दोनों पक्षोंमें कौनसा पक्ष श्रेष्ठतर है? यह जाननेकी इच्छासे मैं आपसे पूछता हूँ। इस प्रकार अर्जुन बोला --, एवम् शब्दसे जिसके आदिमें मत्कर्मकृत् यह पद है? उस पासमें ही कहे हुए श्लोकके अर्थका अर्थात् एकादश अध्यायके अन्तिम श्लोकमें कहे हुए अर्थका ( अर्जुन ) निर्देश करता है। इस प्रकार निरन्तरतासे उपर्युक्त साधनोंमें अर्थात् भगवदर्थ कर्म करने आदिमें दत्तचित्त हुए -- लगे हुए जो भक्त? अनन्य भावसे शरण होकर पूर्वदर्शित विश्वरूपधारी आप परमेश्वरकी उपासना करते हैं -- उसीका ध्यान किया करते हैं। तथा दूसरे जो समस्त वासनाओंका त्याग करनेवाले? सर्वकर्मसंन्यासी ( ज्ञानीजन ) उपर्युक्त विशेषणोंसे युक्त परम अक्षर? जो समस्त उपाधियोंसे रहित होनेके कारण अव्यक्त है? ऐसे इन्द्रियादि करणोंसे अतीत ब्रह्मकी उपासना किया करते हैं। संसारमें जो इन्द्रियादि करणोंसे जाननेमें आनेवाला पदार्थ है वह व्यक्त कहा जाता है क्योंकि अञ्ज धातुका अर्थ इन्द्रियगोचर होना ही है और यह अक्षर उससे विपरीत अकरणगोचर हैं एवं महापुरुषोंद्वारा कहे हुए विशेषणोंसे युक्त हैं? ऐसे ब्रह्मकी जो उपासना करते हैं। उन दोनोंमें श्रेष्ठतर योगवेत्ता कौन हैं अर्थात् अधिकतासे योग जाननेवाले कौन हैं।
।।12.1।। --,एवम् इति अतीतानन्तरश्लोकेन उक्तम् अर्थं परामृशति मत्कर्मकृत् इत्यादिना। एवं सततयुक्ताः? नैरन्तर्येण भगवत्कर्मादौ यथोक्ते अर्थे समाहिताः सन्तः प्रवृत्ता इत्यर्थः। ये भक्ताः अनन्यशरणाः सन्तः त्वां यथादर्शितं विश्वरूपं पर्युपासते ध्यायन्ति ये चान्येऽपि त्यक्तसर्वैषणाः संन्यस्तसर्वकर्माणः यथाविशेषितं ब्रह्म अक्षरं निरस्तसर्वोपाधित्वात् अव्यक्तम् अकरणगोचरम्। यत् हि करणगोचरं तत् व्यक्तम् उच्यते? अञ्जेः धातोः तत्कर्मकत्वात् इदं तु अक्षरं तद्विपरीतम्? शिष्टैश्च उच्यमानैः विशेषणैः विशिष्टम्? तत् ये चापि पर्युपासते? तेषाम् उभयेषां मध्ये के योगवित्तमाः के अतिशयेन योगविदः इत्यर्थः।।श्रीभगवान् उवाच -- ये तु अक्षरोपासकाः सम्यग्दर्शिनः निवृत्तैषणाः? ते तावत् तिष्ठन्तु तान् प्रति यत् वक्तव्यम्? तत् उपरिष्टात् वक्ष्यामः। ये तु इतरे --,श्रीभगवानुवाच --,
।।12.1।।एतदध्यायप्रतिपाद्यमर्थमाह -- अव्यक्तेति। अव्यक्तं श्रीः? तदुपायं भगवदुपासनोपायम्। तदुपायप्रदर्शनं च भगवदुपासनाधिक्यसमर्थनार्थमित्येकार्थता? षट्कान्तर्भावश्च। अर्जुनस्य प्रश्नसङ्गतिप्रदर्शनेनैवानन्तर्यलक्षणाऽपि सङ्गतिर्ज्ञायते। ननु भगवदुपासनमिवाव्यक्तोपासनमपि यदि मोक्षसाधनत्वेन प्रमितं स्यात्? तदा तत्साधकाधिक्यविषयः संशयः स्यात्। तदेव कुतः तथा च कथमयं संशयमूलोऽर्जुनस्य प्रश्नः नहि भिन्नफलसाधनसाधकानां निर्धारणार्थः प्रश्नो युज्यते? किन्तु साध्यनिर्धारणार्थ एव न च तथा प्रकृतोयावानर्थः [2।46] इत्यादिना निरस्तत्वादित्यत आह तदुपासनमपीति। श्रियं प्रति वसाना वसन्तस्तामाच्छाद्य स्थिताः? उपासीना इति यावत्। तेषां समिथा समीहितानि सत्यानि भवन्ति। मितद्रौ समुद्रे क्षीराब्धौ। श्रीशब्दस्यान्यतोऽपि प्रवृत्तेः अव्यक्तविषयामेव श्रुतिं पठति -- अनादीति। निचाय्य सम्पूज्य निशाम्य वा। अत्रापि नाव्यक्तं श्रूयत इत्यत आह -- अव्यक्तं चेति। चोऽवधारणे। कुत एतत् परमात्मनोऽपि तत्सम्भवादित्यत आह -- महत इति। अत्र हि तं महतः परमिति परमर्शो दृश्यते? स चोक्तस्यैव भवति? अव्यक्तमेव च महतः परमव्यक्तं [कठो.3।11] इति महतः परत्वेनोक्तम् अतोऽत्राप्यव्यक्तग्रहणे तमित्ययंमहतः परमव्यक्तं इत्युक्तस्य परामर्श इत्युपपद्यते। अन्यथाऽनुक्तपरामर्शः प्रसज्यते। परमात्मा तु न महतः पर इत्युक्तः किन्तु अव्यक्तात्पुरुषः परः [कठो.3।11] इत्येवेत्यर्थः।श्रुतिद्वयार्थसंग्राहिकां स्पष्टां चात्र श्रुतिमुदाहरति -- उपास्येति। नन्वेवं प्रतीयमानमपि अव्यक्तोपासनस्य मोक्षसाधनत्वमुपचरितमेवअन्तवत्तु फलं तेषां [7।23] इत्युक्तन्यायात् अतो नास्य सन्देहहेतुत्वमित्यत आह -- महच्चेति। तस्याः श्रियः युक्तं ब्रह्माद्युपासनस्य मोक्षसाधनतायां उपचरितत्वकल्पनम्? तेषां जननमरणादिमत्त्वेनासम्भवात्। श्रियस्तु महामाहात्म्यवत्त्वेन वेदोक्तत्वादसम्भवाभावात्। वास्तवमेव तदुपासनस्य मोक्षसाधनत्वमित्यर्थः। सुपेशा सुरूपा घृतप्रतीका दीप्ताङ्गी वयुनानि ज्ञानानि वस्ते आच्छादयति? ज्ञानालंकृतेति यावत्। सुपर्णा सुष्ठु परमानन्दौ? वृषणा सेवकौ? द्विरूपो भगवानेव। यत्र यस्यां विषये। अत्र नित्ययौवनं ज्ञानमयत्वं सर्वदेवतापूज्यत्वं च प्रतीयते। एवमुत्तरत्र।रुद्राद्यैः परिवृता राष्ट्री राज्ञी यज्ञियानां यज्ञार्हाणां वसूनां पदार्थानां देवानां वा सङ्गमनी सङ्गमयित्री। प्रथमा चिकितुषी अनादितः सर्वत्र कृतनिवासा। पुरुत्रा पुरुस्थानेषु व्यदधुः कृतवन्तः पूजार्थं प्रतिष्ठापितवन्तः। भूरिस्थात्रां स्वतो भूरिस्थानेषु स्थिताम्। भूरिस्थानेषु देवानावेशयन्तीम्। योऽन्नमत्ति स मयैवात्तीत्यादि। ये अमन्तवो निरपराधास्ते मामुपक्षियन्ति मत्समीपे वसन्ति। श्रुधि शृणु। श्रुत प्रसिद्ध। श्रद्धिवं श्रद्धेयम्। यमुग्रं रुद्रं कर्तुं कामये तं तमुग्रं कृणोमि करोमीत्यादि। सुमेधां सुमेधसम्। रुद्रायेत्यादिचतुर्थी द्वितीयार्थे। ब्रह्मद्विषे संहारकाले ब्राह्मणादिसर्वप्राणिद्विषम्। यद्वा ब्रह्मद्विषां शरवे हिंसकं हन्तवा उ हन्तुमेव। अस्य जगतः पितरं हिरण्यगर्भं मूर्धनि सर्वाधिक्ये। योनिः कारणम्। दिवेत्यादितृतीया पञ्चम्यर्थे। एना एतस्याः महिना महिम्नाऽहमेतावतो सम्बभूवेत्यादिनोच्यते। भवत्वेवं ततः किं असन्दिग्धतया भगवन्तमेवोपासीनस्यार्जुनस्य कथमयं संशयो येनैवं पृच्छति इत्यत आह -- इतीति। यत एवं भगवदुपासनस्येवाव्यक्तोपासनस्यापि विनोपचारेण मोक्षसाधनत्वं प्रतीयत इति। तस्मान्मार्गद्वयेनैकमेव फलं प्राप्नुवतां मध्ये के श्रेष्ठा इति साधकबाधकप्रमाणाभावेन शङ्कासंशयः कस्यचिदविदिततत्त्वस्य भवति? अतस्तदनुजिघृक्षया भगवदुपासका एव श्रेष्ठा इति जानन्नप्यर्जुनः पृच्छतीत्यर्थः। अथवा जानन्नपि तत्र स्वाविदितयुक्तिज्ञानार्थं संशयमाहृत्य पृच्छतीत्याह -- सूक्ष्मेति। योग्यतावशादेवम्भूतं त्वामेवं प्रकारेणोपासत इत्युभयत्रैवं शब्दस्यान्वय इत्याशयवानाह -- एवमिति। दृष्टं श्रुतं च रूपं यस्य ब्रह्मणस्तत्तथा।अव्यक्ताक्षरशब्दयोरपव्याख्यानं निराकर्तुमर्थं तावदाह -- अव्यक्तमिति। प्रकृतिश्चेतना त्रिगुणं त्रिगुणाभिमानित्वात्। सदसदात्मकं कार्यकारणाभिमानित्वात्। अविशेषं अकार्यं ततः प्रधानं प्राहुः विशेषवत् कार्यवत्। ततः प्रकृतिं प्राहुः तत्प्रकृत्याख्यं तत्त्वम्। परतः परोऽत्युत्तमः। अत्राव्यक्तमिति विशेष्यवाची। अक्षरमिति विशेषणवाची अव्यक्तासक्तचेतसाम्।अव्यक्ता हि गतिः [12।5] इत्यादिवचनात्। अतो व्युत्क्रमेण व्याख्यानम्। विशेषणोपादानं च देवतान्तरवैलक्षण्यप्रदर्शनेन प्रश्नसम्भावनार्थम्। एतदेव भाष्यकृता महच्चेत्यादिना प्रपञ्चितम्। अन्ये तुये त्वां भगवन्तं वासुदेवमुपासते? ये चाप्यक्षरमव्यक्तं परं ब्रह्म तेषां के योगवित्तमाः इति व्याचक्षते तदसदित्याह -- परं त्विति।आनन्दं इत्यादेः पूर्वेणोत्तरेण चान्वयो द्रष्टव्यः। तथा च ये त्वां,पर्युपासते ये च त्वामित्युक्तं स्यात्। तथा चोन्मत्तप्रलापत्वप्रसङ्ग इति भावः। ननु भगवान्करचरणादिमद्रूपवान्? परं ब्रह्म तु नेदृशरूपवत्। अशब्दमस्पर्शमरूपम् [कठो.3।15] इत्यादिश्रुतेः। अतः कथमेतत् इत्यत आह -- रूपं चेति। पराभ्युपगतस्य ब्रह्मणोऽपीति शेषः। अस्तु भगवानेव परं ब्रह्म? किन्तु ये त्वामेवं साकारमुपासते ये चाव्यक्तं निराकारं तेषां के योगवित्तमा इति प्रश्नार्थ इत्यत आह -- उपासनं चेति। तथैव रूपवत्तयैव। स्यादयं प्रश्नार्थो यदि रूपवत्त्वारूपवत्त्वाभ्यां भगवदुपासनं कार्यं स्यात् न त्वेतदस्ति? किन्तु रूपवत्तयैवान्यस्य मिथ्योपासनत्वेनानर्थहेतुत्वादिति भावः। कुत एतत् इत्यत आह -- सहस्रेति। आरभ्येत्यनेन ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् [ऋक्सं.8।4।19।2] इत्यादेः आदित्यवर्णं तमसस्तु पारे [चित्यु.12।7] इत्यादेश्च ग्रहणम्। अभ्यासशब्देन तत्फलनियमो लक्ष्यते। श्रुतिः साकारोपासनं मोक्षसाधनमाहेति शेषः। नन्वत्रोच्यमान आदित्यवर्णत्वादिराकारः अतमस्कत्वादिसादृश्यादुपचरित एवेत्यत आह -- आदित्येति। वृथा बाधकेन विना उपचर्यत इत्युपचारः। केचित् सहस्रशीर्षा इत्यादिकं हिरण्यगर्भविषयमिति मन्यन्ते अतस्तद्विधूय ईश्वरविषयतया स्वमतं गृहीतुमादित्येत्यादीत्युक्तम्। उपचारानर्ही चात्र श्रुतिमाह -- तथा चेति। स्थाणुः? रुद्रः प्राजापत्यः? प्रजापतेरपत्यम्। साधुभिः साधकैः तारकं संसारस्य। तारः ङ्कारः आप्तरुचेर्व्याप्ततेजसः। लोमेति केशवचनम्। लोमपादेति द्वन्द्वः। न विद्यन्ते लोमान्तपादाद्यवयवा यस्यासावलोमपादः? तं स्थाणुमुवाच प्रजापतिः। सुवर्णः सुवर्णवर्णः। अत्र मुमुक्षुभिः को ध्येय प्रश्नः। इत्यकः तारावाच्यं तारकं वस्तु किमिति द्वितीयः। तस्य ध्यानं कथं स्यात् किं साकारतयोत निराकारत्वेन नाद्यः? अलोमपादो ह्यसावुच्यते। न द्वितीयः? बुद्धावनारोहात् इति तृतीयः? तत्राद्यद्वितीययोरर्थतो न भेदः। तारकस्यैव मुमुक्षुध्येयत्वादित्यभिप्रेत्य द्वयोरेकमेवोत्तरमाह यस्त्वया मुमुक्षुध्येयः तारकः पृष्टः एष विष्णुरिति। यद्यप्यसावलोमपाद उच्यते तथापि तस्य साकारतयैव ध्यानं वदामीति तृतीयस्य यदि ब्रह्म साकारमेव तद्ध्यानं च तथैव कार्यम्। तर्हि अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम् [कठो.3।15] इत्यादेः का गतिः इत्यत आह -- अरूपत्वादेस्त्विति। लौकिकरूपाद्यभावरूपा एतेनालोमपाद इत्यस्याभिप्रायोऽप्युक्तो भवति। इतोऽपि न परोक्तः प्रश्नार्थ इत्याह -- पुरुषेति। एवं हि व्याख्याने ध्येयस्यैव ध्यानं द्वेधेत्युक्तं स्यात्। अत्र तु ध्येयौ पुरुषौ द्वौ प्रतीयेते। अतश्च नैवमित्यर्थः। प्रश्नस्यैकध्येयविषयतया कथञ्चिद्व्याख्यानेऽप्युत्तरं निरवकाशमित्याशयेनादिग्रहणं कृतम्। किञ्च साकारोपासनेन विशुद्धाशये निराकारमुपास्त इत्येकस्यैव क्रमेण ध्येयद्वयमिति परेषां सिद्धान्तः? अत्र तूपासकपुरुषभेदः प्रतीयते ततोऽपि नान्योऽर्थ इत्याह -- पुरुषेति। उत्तरापव्याख्याननिराकरणं तु तात्पर्यनिर्णय इत्युक्तमेव व्याख्यानमिति स्थितम्।
।।12.1।।उपासनाप्रियाय नमः। । अव्यक्तोपासनाद्भगवदुपासनस्योत्तमत्वं प्रदर्श्य तदुपायं प्रदर्शयत्यस्मिन्नध्याये तदुपासनमपि मोक्षसाधनं प्रतीयते श्रियं वसाना अमृतत्वमायन्भवन्ति सत्या समिथा मितद्रौ [ऋक्सं.7।4।4।4] इति। अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते [कठो.3।15] इति च। अव्यक्तं च महतः परम्। महतः परमव्यक्तम् [कठो.3।11] इत्युक्तपरामर्शोपपत्तेः।उपास्य तां श्रियमव्यक्तसंज्ञां भक्त्या मर्त्यो मुच्यते सर्वबन्धैः इति सामवेदे आग्निवेश्यशाखायाम्। महच्च माहात्म्यं तस्या वेदेषूच्यते -- चतुष्कपर्दा युवतिः सुपेशा घृतप्रतीका वयुनानि वस्ते। तस्यां सुपर्णा वृषणा निषेदतुर्यत्र देवा दधिरे भागधेयम्। [ऋक्सं.8।6।16।3] चतुःशिखण्डा युवतिः सुपेशा घृतप्रतीका वयुनानि वस्ते इति च।अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः इत्यारभ्य अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्। मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं श्रृणोत्युक्तम्। अमन्तवो मां त उपक्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि। यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्। अहं रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।।अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वान्तस्समुद्रे। परो दिवा पर एना पृथिव्यै तावती महिना सम्बभूव [ऋक्सं.8।7व.11?12] इत्यादि च। त्वया जुष्ट ऋषिर्भवति देवि त्वया ब्रह्म गतश्रीरुत त्वया [म.ना.13।2] इति च। इति शङ्का कस्यचिद्भवति? अतो जानन्नपि सूक्ष्मयुक्तिज्ञानार्थं पृच्छति -- एवमिति। एवंशब्देन दृष्टश्रुतरूपंमत्कर्मकृत् [11।55] इत्यादिप्रकारश्च परामृश्यते।अव्यक्तं प्रकृतिः।महतः परमव्यक्तं [कठो.3।12] इति प्रयोगात्।यत्तत् त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम्।प्रधानं प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत् [3।26।10] इति च भागवते। अक्षरं च तत्। अक्षरात्परतः परः [मु.उ.2।1।2] इति श्रुतेः। परं तु ब्रह्म न हि भगवतोऽन्यत्।आनन्दमानन्दमयेऽवसाने सर्वात्मके ब्रह्मणि वासुदेवे [ ] इति भागवते। रूपं चेदृशं साधितं पुरस्तात्। उपासनं च तथैव कार्यम्। सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् [ऋक्सं.8।4।17।1श्वे.उ.3।14] इत्यारभ्य तमेवं विद्वानमृत इह भवति [नृ.पू.ता.1।6] नान्यः पन्था अयनाय विद्यते [श्वे.उ.3।8] इति साम्यासा।आदित्यवर्णत्वादिश्च न वृथोपचारत्वेनाङ्गीकार्यः। तथा च सामवेदे सौकरायणश्रुतिः -- स्थाणुर्ह वै प्राजापत्यः स प्रजापतिं पितरमेत्योवाच। मुमुक्षुभिः साधुभिः पूतपापैः किमु ह वै तारकं तारवाच्यम्। ध्यानं च तस्याप्तरुचेः कथं स्याद्ध्येयश्च कः पुरुषोऽलोमपादः इति। तं होवाचैष वै विष्णुस्तारकोऽलोमपादो ध्यानं च तस्याप्तरुचेर्वदामि। सोऽनन्तशीर्षो बहुवर्णः सुवर्णो ध्येयः स वै लोहितादित्यवर्णः। श्यामोऽथ वा हृदये सोऽष्टबाहुरनन्तवीर्योऽनन्तबलः पुराणः इति। अरूपत्वा देस्तु गतिरुक्ता। पुरुषभेदश्च प्रश्नादौ प्रतीयते। त्वां पर्युपासतेये चाप्यक्षरमव्यक्तं इत्यादौ।
अर्जुन उवाच एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।12.1।।
অর্জুন উবাচ এবং সততযুক্তা যে ভক্তাস্ত্বাং পর্যুপাসতে৷ যেচাপ্যক্ষরমব্যক্তং তেষাং কে যোগবিত্তমাঃ৷৷12.1৷৷
অর্জুন উবাচ এবং সততযুক্তা যে ভক্তাস্ত্বাং পর্যুপাসতে৷ যেচাপ্যক্ষরমব্যক্তং তেষাং কে যোগবিত্তমাঃ৷৷12.1৷৷
અર્જુન ઉવાચ એવં સતતયુક્તા યે ભક્તાસ્ત્વાં પર્યુપાસતે। યેચાપ્યક્ષરમવ્યક્તં તેષાં કે યોગવિત્તમાઃ।।12.1।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਏਵਂ ਸਤਤਯੁਕ੍ਤਾ ਯੇ ਭਕ੍ਤਾਸ੍ਤ੍ਵਾਂ ਪਰ੍ਯੁਪਾਸਤੇ। ਯੇਚਾਪ੍ਯਕ੍ਸ਼ਰਮਵ੍ਯਕ੍ਤਂ ਤੇਸ਼ਾਂ ਕੇ ਯੋਗਵਿਤ੍ਤਮਾ।।12.1।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಏವಂ ಸತತಯುಕ್ತಾ ಯೇ ಭಕ್ತಾಸ್ತ್ವಾಂ ಪರ್ಯುಪಾಸತೇ. ಯೇಚಾಪ್ಯಕ್ಷರಮವ್ಯಕ್ತಂ ತೇಷಾಂ ಕೇ ಯೋಗವಿತ್ತಮಾಃ৷৷12.1৷৷
അര്ജുന ഉവാച ഏവം സതതയുക്താ യേ ഭക്താസ്ത്വാം പര്യുപാസതേ. യേചാപ്യക്ഷരമവ്യക്തം തേഷാം കേ യോഗവിത്തമാഃ৷৷12.1৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ଏବଂ ସତତଯୁକ୍ତା ଯେ ଭକ୍ତାସ୍ତ୍ବାଂ ପର୍ଯୁପାସତେ| ଯେଚାପ୍ଯକ୍ଷରମବ୍ଯକ୍ତଂ ତେଷାଂ କେ ଯୋଗବିତ୍ତମାଃ||12.1||
arjuna uvāca ēvaṅ satatayuktā yē bhaktāstvāṅ paryupāsatē. yēcāpyakṣaramavyaktaṅ tēṣāṅ kē yōgavittamāḥ৷৷12.1৷৷
அர்ஜுந உவாச ஏவஂ ஸததயுக்தா யே பக்தாஸ்த்வாஂ பர்யுபாஸதே. யேசாப்யக்ஷரமவ்யக்தஂ தேஷாஂ கே யோகவித்தமாஃ৷৷12.1৷৷
అర్జున ఉవాచ ఏవం సతతయుక్తా యే భక్తాస్త్వాం పర్యుపాసతే. యేచాప్యక్షరమవ్యక్తం తేషాం కే యోగవిత్తమాః৷৷12.1৷৷
12.2
12
2
।।12.2।।मेरेमें मनको लगाकर नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।
।।12.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं।।
।।12.2।। अपने उत्तर के प्रारम्भ में ही भगवान् उन तीन अत्यावश्यक गुणों को बताते हैं? जिनके होने पर ही ईश्वर की भक्ति का निश्चित लाभ मिल सकता है। सामान्यत? लोगों की यह धारणा है कि भक्तिमार्ग अत्यन्त सरल है। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जो साधक अपना जो मार्ग स्वयं चुनता है? उसके लिए वह मार्ग कठिन नहीं होता है। मार्गों की भिन्नता केवल प्रयुक्त साधनों अर्थात् उपाधियों के कारण ही है। एक नौका के द्वारा ग्राँडट्रंक रोड् की यात्रा नहीं की जा सकती है और न हवाई जहाज के द्वारा समुद्र यात्रा? और न ही साइकिल से साठ मील प्रति घंटे की गति से मार्ग तय किया जा सकता है प्रत्येक वाहन की अपनी सीमाएं हैं। परन्तु किसी भी साधन का बुद्धिमत्ता तथा सावधानीपूर्वक उपयोग करने से गन्तव्य तक पहुँचा जा सकता है। इसी प्रकार आत्मविकास के लिए भी प्रत्येक साधक उपलब्ध शरीर? मन और बुद्धि की उपाधियों में से किसी एक की प्रधानता से कर्मयोग या भक्तियोग या ज्ञानयोग के मार्ग को चुनता है। प्रत्येक साधक को अपना चुना हुआ मार्ग सबसे सरल प्रतीत होता है।मन को मुझमें एकाग्र करके मन और बुद्धि दोनों ही वृत्तिरूप हैं? जिन्हें सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। यह पर्याप्त नहीं है कि मन की वृत्तियां आराम से भगवान् के रूप के आसपास विचरण करती रहें। उन्हें वास्तव में? उस रूप का भेदन करके? गहराई में प्रवेश कर अन्त में? पूर्णत्व के आदर्श के साथ एकरूप हो जाना चाहिए। वह रूप तो पूर्णत्व का केवल प्रतीक होता है।इस प्रक्रिया को यहाँ आवेश्य शब्द से सूचित किया गया है। इसका अर्थ रूप के साथ वृत्ति का स्पर्श मात्र नहीं? वरन् रूप का भेदन है। वस्तुत मनुष्य का मन अपने ध्येय विषय का आकार? सुगन्ध और गुणों की आभा भी धारण करता है? इस प्रकार जब कोई भक्त पूर्ण लगन और प्रेम के साथ भगवान् का ध्यान करता है? तब वह एक व्यक्ति के रूप में क्षणभर के लिए लुप्त हो जाता है और अपने हृदयकेइष्ट भगवान् की सुन्दरता और आभा को प्राप्त होता है।नित्ययुक्त हुए मेरी पूजा (उपासना) करते हैं भक्तिमार्ग के द्वारा आत्मविकास के सम्पादन के लिए जो दूसरा गुण भक्त में होना आवश्यक है? वह नित्ययुक्तता है। नित्ययुक्त होने का अर्थ है नित्य नियमित उपासना के समय आत्मसंयम का होना। मन अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण ध्येय को त्यागकर अन्य विषयों में ही विचरण करने लगता हैं। ऐसे मन का ध्यान ध्येय में ही स्थिर करने की कला का ही नाम है? आत्मसंयम। यद्यपि संस्कृत शब्द उपासना का अनुवाद पूजा किया जा सकता है? तथापि उससे अत्यन्त सतही अर्थ नहीं लेना चाहिए। उस शब्द से हम सामान्यत यन्त्रवत् कर्मकाण्डीय पूजा समझते हैं। वास्तविक उपासना तो परमात्मा के साथ तादात्म्य करने की आन्तरिक क्रिया है? जिसके द्वारा हम परमात्मस्वरूप बन जाते हैं।परा श्रद्धा से युक्त हुए साधारणत श्रद्धा शब्द का अर्थ अन्धविश्वास समझा जाता है? परन्तु वह अनुचित है। श्रद्धा का अर्थ है किसी अज्ञात वस्तु में मेरा वह विश्वास जिसके द्वारा मुझे वह वस्तु यथार्थ रूप से ज्ञात होती है? जिसमें मेरा पहले केवल विश्वास ही था। ऐसी श्रद्धा के बिना साधक भक्त? वर्षों के अभ्यास के बाद भी पर्याप्त मात्रा में चित्तशुद्धि और स्वयं का दैवीकरण सम्पादित नहीं कर सकता है।इस प्रकार? एक सच्चा भक्त बनने के लिए इस श्लोक में जिस तीन आवश्यक एवं अपरिहार्य गुणों को बताया गया है? वे हैं (1) परम श्रद्धा (2) उपासना में नित्ययुक्तता और (3) ध्येयस्वरूप में मन की एकाग्रता। इन तीन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को भगवान् युक्ततम मानते हैं।तो क्या अन्य भक्त युक्ततम नहीं हैं ऐसी बात नहीं है? किन्तु उनके विषय में जो कहना है? उसे सुनो
।।12.2।। व्याख्या--[भगवान्ने ठीक यही निर्णय अर्जुनके बिना पूछे ही छठे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें दे दिया था। परन्तु उस विषयमें अपना प्रश्न न होनेके कारण अर्जुन उस निर्णयको पकड़ नहीं पाये। कारण कि स्वयंका प्रश्न न होनेसे सुनी हुई बात भी प्रायः लक्ष्यमें नहीं आती। इसलिये उन्होंने इस अध्यायके पहले श्लोकमें ऐसा प्रश्न किया।
।।12.2।।मयीति। माहेश्वर्यविषयो येषां समावेशः अकृत्रिमस्तन्मयीभावः (?N तन्मयो भावः) ते युक्ततमा मम (S omits मम) मताः इत्यनेन प्रतिज्ञा क्रियते।
।।12.2।।श्रीभगवानुवाच -- अत्यर्थमत्प्रियत्वेन मनो मयि आवेश्य श्रद्धया परया उपेता नित्ययुक्ता नित्ययोगं काङ्क्षमाणा ये माम् उपासते? प्राप्यविषयं मनो मयि आवेश्य ये माम् उपासते इत्यर्थः ते युक्ततमा मे मताः। मां सुखेन अचिरात् प्राप्नुवन्ति इत्यर्थः।
।।12.2।।किमनयोर्योगयोर्मध्ये सुशक्यो योगो वा पृच्छ्यते किं वा साक्षान्मोक्षहेतुरिति विकल्प्य क्रमेणोत्तरं भगवानुक्तवानित्याह -- श्रीभगवानिति। यदि द्वितीयस्तथाविधयोगस्य वक्ष्यमाणत्वान्न प्रष्टव्यतेत्याह -- ये त्वक्षरेति। यद्याद्यस्तत्राह -- ये त्विति। सर्वयोगेश्वराणां सर्वेषां योगमधितिष्ठतां योगिनामित्यर्थः। विमुक्ता त्यक्ता रागाद्याख्या क्लेशनिमित्तभूता तिमिरशब्दितानाद्यज्ञानकृता दृष्टिरविद्या मिथ्या धीर्यस्य तमिति विशिनष्टि -- विमुक्तेति। नित्ययुक्तत्वं साधयति -- अतीतेति। तत्रोक्तो योऽर्थो मत्कर्मकृदित्यादि,तस्मिन्निश्चयेनायनमायो गमनं तस्य नियमेनानुष्ठानं तेनेत्यर्थः। उपासते मयि स्मृतिं सदा कुर्वन्तीत्यर्थः। उक्तोपासकानां युक्ततमत्वं व्यनक्ति -- नैरन्तर्येणेति। तदेव स्फुटयति -- अहोरात्रमिति। अह्नि च रात्रौ चातिमात्रमतिशयेन मामेव विषयान्तरविमुक्ताश्चिन्तयन्तीत्यर्थः।
।।12.2।।तत्र सिद्धान्तं वदन् श्रीभगवानुवाच -- मयीति। सर्वनियन्तरि सकलालौकिकगुणे साक्षान्मन्मथमन्मथे निरवद्या(ध्य)नन्तनित्यलोके करुणाशीले परमानन्दे लोकोत्तरनामरूपाङ्गेऽसङ्ख्येयसर्वधर्माश्रये परतत्त्वे रसात्मके पूर्णपुरुषोत्तमे साक्षात्कर्त्तरि परदेवतायां भगवति सर्वमूलभूते मयि ये प्रेममात्रसम्बन्धेन (येनकेन च सम्बन्धेन) नित्ययुक्ता मन आवेश्य मामुपासते।अयमेवास्माकं भजनीयगुणालयः परः प्रेयानात्मा? नान्यः इति परया श्रद्धयोपेतास्ते युक्ततमा मे मताः।
।।12.2।।तत्र सर्वज्ञो भगवानर्जुनस्य सगुणविद्यायामेवाधिकारं पश्यंस्तं प्रति तां विधास्यति? यथाधिकारं तारतम्योपेतानि च साधनानि। अतः प्रथमं साकारब्रह्मविद्यां प्ररोचयितुं स्तुवन् प्रथमाः श्रेष्ठा इत्युत्तरं श्रीभगवानुवाच -- मयीति। मयि भगवति वासुदेवे परमेश्वरे सगुणे ब्रह्मणि मन आवेश्यानन्यशरणतया निरतिशयप्रियतया च प्रवेश्य। हिङ्गुलरङ्ग इव जतु तन्मयं कृत्वा ये मां सर्वयोगेश्वराणामीश्वरं सर्वज्ञं समस्तकल्याणगुणनिलयं साकारं नित्ययुक्ताः सततोद्युक्ताः श्रद्धया परया प्रकृष्टया सात्त्विक्योपेताः सन्त उपासते सदा चिन्तयन्ति ते युक्ततमा मे मम मता अभिप्रेताः। ते हि सदा मदासक्तचित्ततया मामेव विषयान्तरविमुखाश्चिन्तयन्तोऽहोरात्राण्यतिवाहयन्ति। अतस्त एव युक्ततमा मता अभिमताः।
।।12.2।। तत्र प्रथमाः श्रेष्ठा इत्युत्तरं श्रीभगवानुवाच -- मयीति। मयि परमेश्वरे सर्वज्ञत्वादिगुणविशिष्टे मन आवेश्यैकाग्रं कृत्वा नित्ययुक्ता मदर्थकर्मानुष्ठानादिना मन्निष्ठाः सन्तः श्रेष्ठया श्रद्धया युक्ता ये मामाराधयन्ति ते युक्ततमा ममाभिमताः।
।।12.2।।मयीति।मय्यावेश्य इत्यत्रोपासनान्यथानुपपत्तिलभ्यविषयीकरणमात्रपरत्वे निष्प्रयोजनत्वादक्षरनिष्ठस्याप्युपायतया भगवति चित्तावेशसाम्यात्तद्व्यवच्छेदार्थमाहप्राप्यविषयमिति।
।।12.2।।तत्र ये प्रकटपुरुषोत्तमरूपमद्भजनकर्तारस्त उत्तमा इत्याशयेनोत्तरमाह श्रीभगवान् -- मयीति। मयि प्रकटरूपे सम्यक् निष्कामतया मनः सर्वदैकरूपमावेश्य आसमन्तात् सर्वात्मभावेन निवेश्य ये भाग्यवन्तो नित्ययुक्ताः मत्सेवैकतत्पराः परया प्रेमैकलक्षणया श्रद्धया उपेताः युक्तास्ततो मामुपासते सेवन्ते ते युक्ततमा उत्तमाः मे मताः सम्मता इत्यर्थः।
।।12.2।।निर्गुणस्य दुष्प्रापत्वोक्त्यैव श्रेष्ठत्वं सूचयन् सगुणप्राशस्त्यं च शब्दतो दर्शयन् श्रीभगवानुवाच -- मयीति। मयि सगुणे ब्रह्मणि मन आवेश्य प्रवेश्य ये नित्ययुक्ताः सदोद्युक्ता मां परमेश्वरमुपासते चिन्तयन्ति श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या परया सात्विक्या अवश्यं परमात्मायमाराधितोऽस्मांस्तारयिष्यतीत्येवं निश्चयरूपया श्रद्धया उपेतास्ते मे ममज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इति ज्ञानिनमात्मत्वेनैव पश्यतो मूर्खेष्वपि कारुण्यात्पक्षपातवतः सर्वज्ञस्य युक्ततमा मताः।
।।12.2।।सविशेषानिर्विशेषोपासनयोः सुशकत्वगुणेन किमुपासनं श्रष्ठमिति पृच्छते किंवा साक्षान्मोक्षहेतुत्वेन गुणेनेति विकल्प्य? साक्षान्मोक्षहेतुत्वेन श्रैष्ठ्यं निर्विशेषोपासनस्योक्तं वक्ष्यमाणं च सुशकत्वेन तु प्रथमस्य श्रृण्वित्याशयवान् श्रीभगवानुवाच। मयि विश्वरुपे परमेश्वरं त्रिगुणमायानदीनर्तके सर्वात्मनि परमप्रमास्पदे ये मन आवेश्य समाधाय भक्तः सन्तो मां समस्तयोगादीश्वराधीश्वरं सर्वज्ञं त्यक्तरागादिरुपक्लेशनिमित्तभूतानाद्यज्ञानाविद्यालक्षणमिध्यादृष्टिं नित्ययुक्ताःमत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः सस मामेति पाण्डव इत्येवं सततयुक्ताः श्रद्धया परया प्रकृष्टया ईश्वरभजनादेवोद्धार इति निश्चयापन्ना उपासते ते मम युक्ततमाः श्रेष्ठतमा मता अभिप्रेताः यतो विषान्तरविमुखा नैरन्तर्येण मयि मन आवेश्य मामेवाहर्निशं चिन्तयन्तीत्यत इति भावः। येतु मे मतमिति ज्ञानिनमात्मत्वेनैव पश्यतो मर्खेष्वपि,कारुण्यात्पक्षपातवतः सर्वज्ञस्य युक्ततमा मता इति वदन्ति तेषां पक्षेऽस्मिन्प्रकरणे एतदुक्ते सामञ्जस्यं चिन्त्यम्। भगवता कारुण्यात्पक्षापातेन युक्ततमत्वेनाभिमतानां भगवद्भक्तानां सुशकोपासने प्रवृत्ता अतो युक्तातमा इति वस्तुवृत्त्याऽभिप्रेतस्य श्रेष्ठतमत्वस्यासिद्धेः स्पष्टत्वात्।
12.2 मयि on Me? आवेश्य fixing? मनः the mind? ये who? माम् Me? नित्ययुक्ताः ever steadfast? उपासते worship? श्रद्धया with faith? परया supreme? उपेताः endowed? ते those? मे of Me? युक्ततमाः the best versed in Yoga? मताः (in My) opinion.Commentary Those devotees who fix their minds on Me in the Cosmi Form? the Supreme Lord and worship Me? ever harmonised and with intense and supreme faith? regarding Me as the Lord of all the masters of Yoga? who are free from attachment and other evil passions -- these? in My opinion? are the best versed in Yoga.They spend their days and nights in worshipping Me. They have no other thoughts except those,of Myself. They live for Me only. Therefore it is indeed proper to say that they are the best Yogins.Are not the others? those who contemplate the imperishable? formless? attributeless? alityless Supreme Brahman? the best of Yogins Listen now to what I have to say regarding them.
12.2 The Blessed Lord said Those who, fixing their mind on Me, worship Me, ever steadfast and endowed with supreme faith, are the best in Yoga in My opinion.
12.2 Lord Shri Krishna replied: Those who keep their minds fixed on Me, who worship Me always with unwavering faith and concentration; these are the very best.
12.2 The Blessed Lord said Those who meditate on Me by fixing their minds on Me with steadfast devotion (and) being endowed with supreme faith-they are considered to be the most perfect yogis according to Me.
12.2 Ye, those who, being devotees; upasate, meditate; mam, on Me, the supreme Lord of all the masters of yoga, the Omniscient One whose vision is free from purblindness caused by such defects as attachment etc.; avesya,by fixing, concentrating; their manah, minds; mayi, on Me, on God in His Cosmic form; nitya-yuktah, with steadfast devotion, by being ever-dedicated in accordance with the idea expressed in the last verse of the preceding chapter; and being upetah, endowed; paraya, with supreme; sraddhaya faith;-te, they; matah, are considered; to be yukta-tamah, most perfect yogis; me, according to Me, for they spend days and nights with their minds constantly fixed on Me. Therefore, it is proper to say with regard to them that they are the best yogis. 'Is it that the others do not become the best yogis?' No, but listen to what has to be said as regards them:'
12.2. The Bhagavat said Those, who, causing their mind to enter well into Me, and being permanently attached [to Me], and endowed with an extraordinary faith, worship Me - they are considered by Me to be the best among the masters of Yoga.
12.2 Mayi etc. Those are considered by Me to be the best among the masters of Yoga, whose act of entering into (fixing the mind in) the Supreme Lordship is a spontaneous (unartificial) act of becoming one with Him. By this [statement] a solemn declaration is made [by the Lord].
12.2 The Lord said I consider them to be the highest among the Yogins (i.e., among those striving for realisation) - them who worship Me focusing their minds upon Me as one exceedingly dear to them, who are endowed with supreme faith, and who are ever 'integrated' with Me, namely ever desirous of constant union with Me. Those who thus worship Me, focusing their minds on Me as their supreme goal, attain Me soon and easily. Such is the meaning.
12.2 The Lord said Those who, ever integrated with Me and possessed of supreme faith, worship Me, focusing their minds on Me - these are considered by Me the highest among the Yogins.
।।12.2।।श्रीभगवान् बोले -- जो कामनाओंसे रहित पूर्णज्ञानी अक्षरब्रह्मके उपासक हैं उनको अभी रहने दो? उनके प्रति जो कुछ कहना है वह आगे कहेंगे? परंतु जो दूसरे हैं -- जो भक्त मुझ विश्वरूप परमेश्वरमें मनको समाधिस्थ करके सर्व योगेश्वरोंके अधीश्वर रागादि पञ्चक्लेशरूप अज्ञानदृष्टिसे रहित मुझ सर्वज्ञ परमेश्वरकी पिछले ( एकादश ) अध्यायके अन्तिम श्लोकके अर्थानुसार निरन्तर तत्पर हुए उत्तम श्रद्धासे युक्त होकर उपासना करते हैं? वे श्रेष्ठतम योगी हैं? यह मैं मानता हूँ। क्योंकि वे लगातार मुझमें ही चित्त लगाकर रातदिन व्यतीत करते हैं? अतः उनको युक्ततम कहना उचित ही है। ,
।।12.2।। --,मयि विश्वरूपे परमेश्वरे आवेश्य समाधाय मनः? ये भक्ताः सन्तः? मां सर्वयोगेश्वराणाम् अधीश्वरं सर्वज्ञं विमुक्तरागादिक्लेशतिमिरदृष्टिम्? नित्ययुक्ताः अतीतानन्तराध्यायान्तोक्तश्लोकार्थन्यायेन सततयुक्ताः सन्तः उपासते श्रद्धया परया प्रकृष्टया उपेताः? ते मे मम मताः अभिप्रेताः युक्ततमाः इति। नैरन्तर्येण हि ते मच्चित्ततया अहोरात्रम् अतिवाहयन्ति। अतः युक्तं तान् प्रति युक्ततमाः इति वक्तुम्।।किमितरे युक्ततमाः न भवन्ति न किंतु तान् प्रति यत् वक्तव्यम्? तत् श्रृणु --,
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श्री भगवानुवाच मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।12.2।।
শ্রী ভগবানুবাচ ময্যাবেশ্য মনো যে মাং নিত্যযুক্তা উপাসতে৷ শ্রদ্ধযা পরযোপেতাস্তে মে যুক্ততমা মতাঃ৷৷12.2৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ ময্যাবেশ্য মনো যে মাং নিত্যযুক্তা উপাসতে৷ শ্রদ্ধযা পরযোপেতাস্তে মে যুক্ততমা মতাঃ৷৷12.2৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ મય્યાવેશ્ય મનો યે માં નિત્યયુક્તા ઉપાસતે। શ્રદ્ધયા પરયોપેતાસ્તે મે યુક્તતમા મતાઃ।।12.2।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਮਯ੍ਯਾਵੇਸ਼੍ਯ ਮਨੋ ਯੇ ਮਾਂ ਨਿਤ੍ਯਯੁਕ੍ਤਾ ਉਪਾਸਤੇ। ਸ਼੍ਰਦ੍ਧਯਾ ਪਰਯੋਪੇਤਾਸ੍ਤੇ ਮੇ ਯੁਕ੍ਤਤਮਾ ਮਤਾ।।12.2।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಮಯ್ಯಾವೇಶ್ಯ ಮನೋ ಯೇ ಮಾಂ ನಿತ್ಯಯುಕ್ತಾ ಉಪಾಸತೇ. ಶ್ರದ್ಧಯಾ ಪರಯೋಪೇತಾಸ್ತೇ ಮೇ ಯುಕ್ತತಮಾ ಮತಾಃ৷৷12.2৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച മയ്യാവേശ്യ മനോ യേ മാം നിത്യയുക്താ ഉപാസതേ. ശ്രദ്ധയാ പരയോപേതാസ്തേ മേ യുക്തതമാ മതാഃ৷৷12.2৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ମଯ୍ଯାବେଶ୍ଯ ମନୋ ଯେ ମାଂ ନିତ୍ଯଯୁକ୍ତା ଉପାସତେ| ଶ୍ରଦ୍ଧଯା ପରଯୋପେତାସ୍ତେ ମେ ଯୁକ୍ତତମା ମତାଃ||12.2||
śrī bhagavānuvāca mayyāvēśya manō yē māṅ nityayuktā upāsatē. śraddhayā parayōpētāstē mē yuktatamā matāḥ৷৷12.2৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச மய்யாவேஷ்ய மநோ யே மாஂ நித்யயுக்தா உபாஸதே. ஷ்ரத்தயா பரயோபேதாஸ்தே மே யுக்ததமா மதாஃ৷৷12.2৷৷
శ్రీ భగవానువాచ మయ్యావేశ్య మనో యే మాం నిత్యయుక్తా ఉపాసతే. శ్రద్ధయా పరయోపేతాస్తే మే యుక్తతమా మతాః৷৷12.2৷৷
12.3
12
3
।।12.3।।जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।
।।12.3।। परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं।।
।।12.3।। See Commentary under 12.4
।।12.3।। व्याख्या--'तु'--यहाँ 'तु' पद साकार-उपासकोंसे निराकार-उपासकोंकी भिन्नता दिखानेके लिये आया है। 'संनियम्येन्द्रियग्रामम्'--'सम्' और 'नि'-- दो उपसर्गोंसे युक्त 'संनियम्य' पद देकर भगवान्ने यह बताया है कि सभी इन्द्रियोंको सम्यक् प्रकारसे एवं पूर्णतः वशमें करे, जिससे वे किसी अन्य विषयमें न जायँ। इन्द्रियाँ अच्छी प्रकारसे पूर्णतः वशमें न होनेपर निर्गुण-तत्त्वकी उपासनामें कठिनता होती है। सगुण-उपासनामें तो ध्यानका विषय सगुण भगवान् होनेसे इन्द्रियाँ भगवान्में लग सकती हैं; क्योंकि भगवान्के सगुण स्वरूपमें इन्द्रियोंको अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण-उपासनामें इन्द्रिय-संयमकी आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण-उपासनामें है। निर्गुण-उपासनामें चिन्तनका कोई आधार न रहनेसे इन्द्रियोंका सम्यक् संयम हुए बिना (आसक्ति रहनेपर) विषयोंमें मन जा सकता है और विषयोंका चिन्तन होनेसे पतन होनेकी अधिक सम्भावना रहती है (गीता 2। 62 -- 63)। अतः निर्गुणोपासकके लिये सभी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाते हुए सम्यक् प्रकारसे पूर्णतः वशमें करना आवश्यक है। इन्द्रियोंको केवल बाहरसे ही वशमें नहीं करना है? प्रत्युत विषयोंके प्रति साधकके अन्तःकरणमें भी राग नहीं रहना चाहिये; क्योंकि जबतक विषयोंमें राग है, तबतक ब्रह्मकी प्राप्ति कठिन है (गीता 15। 11)।
।।12.3 -- 12.5।।येत्वित्यादि अवाप्यते इत्यन्तम्। ये पुनरक्षरं (S ये त्वक्षरम्) ब्रह्म उपास्ते आत्मानं [ तैरपि ] सर्वत्रगम् इत्यादिभिर्विशेषणैः आत्मनः सर्वे ईश्वरधर्मा आरोप्यन्ते। अतो ब्रह्मोपासका अपि मामेव यद्यपि यान्ति तथापि अधिकतरस्तेषां क्लेशः। आत्मनि किल अपहतपाप्मत्वादिगुणाष्टकारोपं विधाय पश्चात्तमेव उपासते इति स्वतः सिद्धगुणग्रामगरिमणि ईश्वरे ( ईश्वरेऽपि) अयत्नसाध्ये स्थितेऽपि द्विगुणमायासं विन्दन्ति।
।।12.3।।ये तु अक्षरं प्रत्यगात्मस्वरूपं अनिर्देश्यं देहाद् अन्यतया देवादिशब्दानिर्देश्यम् अतएव चक्षुरादिकरणानभिव्यक्तं सर्वत्रगम् अचिन्त्यं च सर्वत्र देवादिदेहेषु वर्तमानम् अपि तद्विसजातीयतया तेन तेन रूपेण चिन्तयितुम् अनर्हम्? तत एव कूटस्थं सर्वसाधारणं तत्तद्देवाद्यसाद्यारणाकारासंबन्धम् इत्यर्थः। अपरिणामित्वेन स्वासाधारणाकारात् न चलति? न च्यवते इति अचलं तत एव ध्रुवं नित्यम् सन्नियम्य इन्द्रियग्रामं चक्षुरादिकम् इन्द्रियग्रामं सर्वस्वव्यापारेभ्यः सम्यक् नियम्य सर्वत्र समबुद्धयः सर्वत्र देवादिविषमाकारेषु देहेषु अवस्थितेषु आत्मसु ज्ञानैकाकारतया समबुद्धयः तत एव सर्वभूतहिते रताः सर्वभूताहितरतित्वात् निवृत्ताः? सर्वभूताहितरतित्वं हि आत्मनो देवादिविषमाकाराभिमाननिमित्तम्? ये एवम् अक्षरम् उपासते ते अपि मां प्राप्नुवन्ति एव। मत्समानाकारम् असंसारिणम् आत्मानं प्राप्नुवन्ति एव इत्यर्थः।मम साधर्म्यमागताः (गीता 14।2) इति वक्ष्यते श्रूयते च -- निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति (मु0 उ0 3।1।3) इति।तथा अक्षरशब्दनिर्दिष्टात् कूटस्थाद् अन्यत्वं परस्य ब्रह्मणो वक्ष्यते।कूटस्थोऽक्षर उच्यते। (गीता 15।16)उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः (गीता 15।17) इति। अथपरा यथा तदक्षरमधिगम्यते (मु0 उ0 1।1।5) इति अक्षरविद्यायां तु अक्षरशब्दनिर्दिष्टं परम् एव ब्रह्म? भूतयोनित्वाद् एव।
।।12.3।।वक्ष्यामस्तदुपरिष्टादित्युक्तं प्रश्नपूर्वकं प्रकटयति -- किमित्यादिना। पूर्वेभ्यः फलतो विशेषार्थस्तुशब्दः। अव्यक्तत्वमनिर्देश्यत्वे हेतुरित्याह -- अव्यक्तत्वादिति। यतोऽव्यक्तमतोऽनिर्देश्यमिति योजना। निरुपाधिकेऽक्षरे कथमुपासनेति पृच्छति -- उपासनमिति। शास्त्रतोऽक्षरं ज्ञात्वा तदुपेत्यात्मत्वेनोपगम्योपासते तथैव तिष्ठन्ति पूर्णचिदेकतानमक्षरमात्मानमेव सदा भावयन्तीत्येतदिह विवक्षितमित्याह -- यथेति। अव्यक्तत्वमेवाचिन्त्यत्वेऽपि हेतुरित्याह -- यद्धीति। कूटस्थशब्दस्योक्तार्थत्वं वृद्धप्रयोगतः साधयति -- कूटरूपमिति। आदिपदमनृतार्थम्। प्रकृते किं तदनृतं कूटशब्दितमित्याशङ्क्याह -- तथाचेति। उक्तरीत्या कूटशब्दस्यानृतार्थत्वे सिद्धे यदनेकस्य संसारस्य बीजं निरूप्यमाणं नानाविधदोषोपेतंतद्धेदं तर्ह्यव्याकृतं?मायां तुं प्रकृतिंमम माया इत्यादौ मायाशब्दिततया प्रसिद्धमविद्यादि तदिह कूटशब्दितमित्यर्थः। तत्रावस्थानं केन रूपेणेत्याशङ्कायामाह -- तदध्यक्षतयेति। कूटस्थशब्दस्य निष्क्रियत्वमर्थान्तरमाह -- अथवेति। पूर्वमुपजीव्यानन्तरविशेषणद्वयप्रवृत्तिमाह -- अतएवेति।
।।12.3 -- 12.4।।येत्विति। तुशब्दो भेदं द्योतयति। ये त्वक्षरमन्तर्यामिस्वरूपांशं पूर्वोक्तमनामरूपत्वादव्यक्तं गणितानन्दं बृहत्स्वरूपं पर्युपासते। स्वष्ट एव भेदः। अक्षरोऽव्यक्तः? अहं तु व्यक्तः। सोऽनिर्देश्यः? अहं तु स्वेच्छयाऽलौकिकनिर्देशार्हः। स सर्वत्रगः? अहं तु भक्तैकगम्यः। स चाचिन्त्यः अहं तु भक्तैश्चिन्त्यः। स तु कूटस्थः सर्वसाधारणः अहमसाधारणः। स त्वचलः स्थिरात्मा? अहं चलः तत्रतत्र विहरन् चलामि। स तु ध्रुवं पदरूपमैश्वर्यमध्यात्मं? अहं त्वीश्वरस्तन्निलयन इति। तदुपासका मां ब्रह्मानन्दात्मिकां श्रियमेव ध्रुवात्मानं वा मां प्राप्नुवन्ति।
।।12.3 -- 12.4।।निर्गुणब्रह्मविदपेक्षया सगुणब्रह्मविदां कोऽतिशयो येन त एव युक्ततमास्तएवाभिमता इत्यपेक्षायां तमतिशयं वक्तुं तन्निरूपकान्निर्गुणब्रह्मविदः प्रस्तौति द्वाभ्यां -- येत्वित्यादिना। येऽक्षरं मामुपासते तेऽपि मामेव प्राप्नुवन्तीति द्वितीयगतेनान्वयः। पूर्वेभ्यो वैलक्षण्यद्योतनाय तुशब्दः। अक्षरं निर्विशेषं ब्रह्म वाचक्नवीब्राह्मणे प्रसिद्धं तस्य समर्पणाय सप्त विशेषणानि। अनिर्देश्यं शब्देन व्यपदेष्टुमशक्यं। यतोऽव्यक्तं शब्दप्रवृत्तिनिमित्तैर्जातिगुणक्रियासंबन्धै रहितं जातिं गुणं क्रियां संबन्धं वा द्वारीकृत्य शब्दप्रवृत्तेर्निर्विशेषे प्रवृत्त्ययोगात् कुतो जात्यादिराहित्यमत आह -- सर्वत्रगमिति। सर्वत्रगं सर्वव्यापि सर्वकारणं अतो जात्यादिशून्यं परिच्छिन्नस्य कार्यस्यैव जात्यादियोगदर्शनात्? आकाशादीनामपि कार्यात्वाभ्युपगमाच्च। अतएवाचिन्त्यं शब्दप्रवृत्तेरिव मनोवृत्तेरपि न विषयः। तस्या अपि परिच्छिन्नविषयत्वात्यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इति श्रुतेः। तर्हि कथंतं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि इति?दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या इति च श्रुतिःशास्त्रयोनित्वात् इति सूत्रं च। उच्यते। अविद्याकल्पितसंबन्धेन शब्दजन्यायां बुद्धिवृत्तौ चरमायां परमानन्दबोधरूपे शुद्धे वस्तुनि प्रतिबिम्बितेऽविद्यातत्कार्ययोः कल्पितयोर्निवृत्त्युपपत्तेरुपचारेण विषयत्वाभिधानात्। अतस्तत्र कल्पितमविद्यासंबन्धं प्रतिपादयितुमाह -- कूटस्थमिति। कूटस्थं यन्मिथ्याभूतं सत्यतया प्रतीयते तत्कूटमिति लोकैरुच्यते। यथा कूटकार्षापणः कूटसाक्षित्वमित्यादौ। अज्ञानमपि मायाख्यं सहकार्यप्रपञ्चेन मिथ्याभूतमपि लौकिकैः सत्यतया प्रतीयमानं कूटं तस्मिन्नाध्यासिकेन संबन्धेनाधिष्ठानतया तिष्ठतीति कूटस्थमज्ञानतत्कार्याधिष्ठानमित्यर्थः। एतेन सर्वानुपपत्तिपरिहारः कृतः। अतएव सर्वविकाराणामविद्याकल्पितत्वात्तदधिष्ठानं साक्षिचैतन्यं निर्विकारमित्याह -- अचलमिति। अचलं चलनं विकारः अचलत्वादेव ध्रुवं अपरिणामि नित्यं एतादृशं शुद्धं ब्रह्म मां पर्युपासते श्रवणेन प्रमाणगतामसंभावनामपोद्य मननेन च प्रमेयगतामनन्तरं विपरीतभावनानिवृत्तये ध्यायन्ति। विजातीयप्रत्ययतिरस्कारेण तैलधारावदविच्छिन्नसमानप्रत्ययप्रवाहेण निदिध्यासनसंज्ञकेन ध्यानेन विषयीकुर्वन्तीत्यर्थः। कथं पुनर्विषयेन्द्रियसंयोगे सति विजातीयप्रत्ययतिरस्कारोऽत आह -- संनियम्येति। संनियम्य स्वविषयेभ्य उपसंहृत्येन्द्रियग्रामं करणसमुदायम्। एतेन शमदमादिसंपत्तिरुक्ता। विषयभोगवासनायां सत्यां कुत इन्द्रियाणां,ततो निवृत्तिस्तत्राह -- सर्वत्रेति। सर्वत्र विषये समा तुल्या हर्षविषादाभ्यां रागद्वेषाभ्यां च रहिता मतिर्येषाम्। सम्यग्ज्ञानेन तत्कारणस्याज्ञानस्यापनीतत्वाद्विषयेषु दोषदर्शनाभ्यासेन स्पृहाया निरसनाच्च ते सर्वत्र समबुद्धयः। एतेन वशीकारसंज्ञावैराग्यमुक्तं। अतएव सर्वत्रात्मदृष्ट्या हिंसाकारणद्वेषरहितत्वात्सर्वभूतहिते रताःअभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहा इति मन्त्रेण दत्तसर्वभूताभयदक्षिणाः। कृतसंन्यासा इति यावत्।अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा संन्यासमाचरेत् इति स्मृते। एवंविधाः सर्वसाधनसंपन्नाः सन्तः स्वयं ब्रह्मभूता निर्विचिकित्सेन साक्षात्कारेण सर्वसाधनफलभूतेन मामक्षरं ब्रह्मैव ते प्राप्नुवन्ति। पूर्वमपि मद्रूपा एव सन्तोऽविद्यानिवृत्त्या मद्रूपा एव तिष्ठन्तीत्यर्थः।ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येतिब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इत्यादि श्रुतिभ्य इहापि चज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इत्युक्तम्।
।।12.3।। तर्हि इतरे किं न श्रेष्ठा इत्यत आह -- ये त्विति द्वाभ्याम्। ये त्वक्षरं पर्युपासते ध्यायन्ति तेऽपि मामेव प्राप्नुवन्तीति द्वयोरन्वयः। अक्षरस्य लक्षणमनिर्देश्यमित्यादि। अनिर्देश्यं शब्देन निर्देष्टुमशक्यम्? यतोऽव्यक्तं रूपादिहीनं? सर्वत्रगं सर्वव्यापि? अव्यक्तत्वादेवाचिन्त्यं कूटस्थं कूटे मायाप्रपञ्चे स्थितमधिष्ठानत्वेन स्थितम्? अचलं स्पन्दनरहितं? अतएव ध्रुवं नित्यम् वृद्ध्यादिरहितम्।
।।12.3।।अक्षरनिष्ठस्यापकर्षमाह -- ये त्वक्षरम् इत्यादिश्लोकत्रयेण। सर्वप्रकारनिर्देशनिषेधस्य स्ववचनविरोधादिदुष्टत्वाद्यथावस्थितस्वरूपे निषेध्यतया विवक्षितं निर्देशविशेषं सहेतुकमाहदेहादन्यतयेति। यद्यपि देहादन्यस्मिन्नपि देहिनि देहद्वारा देवादिशब्दाः प्रवर्तन्ते तथापि विविच्य निर्देष्टव्ये प्रकृतिसम्बन्धरहिते चापवृक्तात्मस्वरूपे तावत्तादृशवृत्तिरपि न सम्भवतीत्यभिप्रायः।तत एव देहादन्यतयैवेत्यर्थः। अत्यन्तानभिव्यक्तत्वविवक्षायांउपासते इति स्ववाक्येनापि विरोध इत्यभिप्रायेणाह -- चक्षुरादिकरणानभिव्यक्तमिति।सर्वत्रगम् इत्यत्राणुत्व श्रुतिविरोधपरिहारायाहदेवादिदेहेष्विति। यद्वा निषेध्यस्य चिन्त्यत्वस्य प्रसङ्गार्थंसर्वत्रगम् इत्युक्तमित्याह -- देवादिदेहेषु वर्तमानमपीति।तेन तेन रूपेणेति आत्मचिन्ताविधिविरोधाच्चिन्त्यमात्रनिषेधो न शक्यत इति भावः।तत एव कूटस्थमिति तत्तद्विलक्षणत्वादित्यर्थः। अनेकेषां सन्तन्यमानानां पुरुषाणां साधारणो हि पूर्वः पुरुषः कूटस्थः अत्र तु साधारण्यमात्रं लक्ष्यत इत्याहसर्वसाधारणमिति। एतेन कूटशब्दनिर्दिष्टमायाध्यक्षत्वं वा राशिवत्स्थितत्वं वा वदन्तः प्रसिद्धार्थपरित्यागादिभिर्निरस्ताः। अतः कूट इव निश्चलं वृद्धिक्षयादिरहितमित्यप्यत्र मन्दम्। नन्वेकदा सर्वसाधारणत्वमसिद्धं? कालभेदेन सर्वजातीयशरीरपरिग्रहेऽपि सर्वव्यक्तिपरिग्रहो नास्ति? अतः कथं सर्वसाधारणत्वमित्यत आहदेवादीति। नह्यसाधारणा देवत्वादय आत्मन्यव्यवधानेन सम्बध्यन्त इति भावः।उत्क्रान्त्यादिमतो जीवस्य स्पन्दनिषेधादेरनुपपन्नत्वादत्राचलशब्दविवक्षितमाह -- अपरिणामित्वेनेति। अनित्यत्वं हि परिणामेन व्याप्तम्। ततश्च व्यापकाभावाद्व्याप्याभावो विवक्षित इत्यपुनरुक्तिरित्याह -- तत एव ध्रुवमिति।उपासते [12।2] इत्यनेनैव मनोनियमनस्य सिद्धत्वात्तदुपयुक्तबाह्येन्द्रियव्यापारनियमनपरतया व्याचष्टेसम्यङ्नियम्येति।अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यपरिग्रहः [वि.ध.104।3बृ.ना.31।76] इत्यादिकमभिप्रेत्योक्तंसर्वत्रेति।शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः [5।18] इत्यादिकमभिप्रेत्यआत्मसु ज्ञानैकाकारतया समबुद्धय इत्युक्तम्।तत एव -- समबुद्धित्वादेव।य एवमक्षरमुपासते अक्षरशब्दवाच्यं प्रत्यगात्मानं प्राप्यतया निश्चित्य परमात्मानं तत्प्रापकतयोपासते।तेऽपीति मद्व्यतिरिक्तप्राप्यान्तरनिश्चयवन्तोऽपीत्यर्थः।मां प्राप्नुवन्त्येव -- विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता [वि.पु.6।7।61] इत्युक्तप्रकारेणअविभागेन दृष्टत्वात् [ब्र.सू.4।4।3] इत्यपृथक्सिद्धविशेषणभूतं मुक्तस्वरूपं मत्समानाकारं प्राप्नुवन्तीत्यर्थ इत्यर्थः।प्रमेयशरीरं साधीयः? यदि प्रमाणमुपलभामह इत्याशङ्क्य सोपबृंहणश्रुतिमुदाहरतिपरमं साम्यमुपैतीति। ननु अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते [मुं.उ.1।1।5]अक्षरमम्बरान्तधृतेः [ब्र.सू.1।3।10] इत्यादिषु परब्रह्मसाधारणतया प्रयुज्यमानमक्षरपदं कथं जीवात्मवाचकम् उच्यते अमृताक्षरं हरः [श्वे.उ.1।10]कूटस्थोऽक्षर उच्यते [15।16] इत्यादिषूक्तत्वादित्याहतथाक्षरशब्दनिर्दिष्टादित्यादिना।पञ्चविंशकमव्यक्तं षड्विंशः पुरुषोत्तमः। एतज्ज्ञात्वा विमुच्यन्ते यतयः शान्तबुद्धयः [य.स्मृ.] इत्युक्तप्रकारेणाव्यक्तजीवात्मासक्तचेतसां क्लेशस्त्वधिकतरः? मय्यावेशितचेतस्त्वाभावात्। अव्यक्तविषया मनोवृत्तिः सर्वेन्द्रियोपरतिरूपा। ननु देहवत्त्वं सनकादीनामपि सम्भवतीत्याशङ्क्यदेहात्माभिमानयुक्तैरित्युक्तम्।
।।12.3।।एवं स्वभक्तानामुत्तमत्वमुक्त्वा अक्षरोपासकानां स्वरूपमाह -- ये त्वक्षरमिति द्वयेन। ये तु? तुशब्देन स्वाभिमतत्वं निराकृतम् ये अनिर्देश्यं शब्दाविवेच्यं? अव्यक्तमप्रकटरूपं सर्वत्रगं ध्यानादिदशायामपि हृदयेऽस्थिरस्वभावम्। अतएव अचिन्त्यं चिन्तनायोग्यं रूपाद्यभावादस्थिरत्वाच्च? कूटस्थं प्रपञ्चाधिष्ठितम्? अचलं मच्चरणात्मकं अतएव ध्रुवं नित्यं एतादृशम् अक्षरम्।
।।12.3।।एवमुपासकांस्तुत्वा अव्यक्तविदां ज्ञानिनां दौर्लभ्यं श्लोकत्रयेणाह -- येत्विति। तुशब्दः सगुणाद्वैलक्षण्यार्थः। अक्षरंएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम् इत्यादिश्रुत्या सर्वधर्मशून्यं निरूपितम्। अतएवानिर्देश्यं निर्देष्टुमशक्यं वाचा। अव्यक्तं च वाचामगोचरत्वाद्बुद्धेरप्यविषय इत्यर्थः। तथा च श्रुतिःयतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इति। ब्रह्मणो वाङ्मनसातीतत्वं दर्शयति। पर्युपासते सर्वप्रकारेणोपासते। उपासनमिहानात्मनामदर्शनमेव। यथोक्तंअनात्मादर्शनेनैव परात्मानमुपास्महे इति। ननु तर्ह्येवंविधस्य शून्यकल्पस्य सत्त्वे किं मानमत आह -- सर्वत्रगमिति। सत्तारूपेण स्फुरणरूपेण च सर्वत्र गतम्। यत्सत्तया सर्वं सत्तावद्भवति कथं तस्यासत्त्वं वाच्यमिति भावः। नन्वेवं तार्किकाभिमतं सत्तासामान्यमुक्तं स्यात्। तद्धि घटः सन्पटः सन्निति सर्वत्रानुगतं दृश्यत इत्याशङ्क्याह -- अचिन्त्यमिति। सत्तासामान्यं हि प्रत्यक्षं तदपि ब्रह्मसत्तानुवेधेनैवात्मानं लभते न स्वतःसिद्धं सामान्यं सत् जातिः सती घटत्वं सदिति प्रत्ययात् सामान्यस्य। सदिति प्रत्ययागोचरत्वे तु तस्यासत्त्वापत्त्या पदार्थत्वमेव न स्यात्। तस्मात्सर्वाधिष्ठानभूतं ब्रह्मरूपादिहीनत्वाच्चिन्तयितुमशक्यं? दूरे तस्य सर्वगतत्वेन प्रत्यक्षगोचरत्वमित्यर्थः। ननु सत्सदिति प्रत्ययस्यान्यथाप्युपपत्तौ सत्तासामान्यवादिनं प्रति तेनाधिष्ठानभूतं ब्रह्म न साधयितुं शक्यमत आह -- कूटस्थमिति। वस्तुतोऽसदपि सदिवावभासमानं कूटम्। यथा कूटकार्षापणं कूटतुलेति तद्वत्कूटः अहंकारः प्रतीच्यभेदेन भासमानत्वे सति कादाचित्कत्वाद्यो यदभेदेन कदाचिद्भाति स तत्र मिथ्याकल्पितो यथा रज्जूरगस्तथा चायमहंकारो मिथ्यात्वात् कूटसंज्ञस्तत्र तिष्ठति तद्भासकत्वेनेति कूटस्थं चैतन्यम्। अहमनुभवे हि अहंकारो दृश्यतया भाति तद्भासकं च चैतन्यं ततोऽन्यत्। यथा घटभासकोऽर्को घटादन्यस्तद्वत्। एतेन नित्यापरोक्षत्वं ब्रह्मणः साधितम्। नन्वहमनुभव एवात्मविषयोऽतोऽहमर्थ एवात्मा न ततोऽन्य आत्मास्तीत्याशङ्क्याह -- अचलमिति। अहमर्थो हि सुखी दुःखी परिणाम्याविर्भावतिरोभावशीलश्चातश्चञ्चलः। आत्मा तु न तथा। तस्य तथात्वेऽनिर्मोक्षापत्तेः वह्न्यौष्ण्यवद्दुःखादिधर्मिण आत्यन्तिकदुःखनाशस्य मोक्षस्य धर्मिनाशमन्तरेणासंभवात्। घटे यावद्रूपनाशादर्शनात्। आत्मनस्तिरोभावे च जगदान्ध्यं प्रसज्येत। सुषुप्तावपि तत्रत्यसुखाज्ञानसाक्षित्वेनाविर्भूतस्वरूप एवात्मास्ति। अन्यथा सुप्तोत्थितस्य सुखमहमस्वाप्समिति परामर्शायोगात्। ननु सुषुप्तौ सन्नप्यात्मा न प्रकाशते तत्प्रकाशकस्य मनःसंयोगस्याभावात्। कर्त्रा व्याप्रियमाणं हि करणं क्रियां साधयति। न च सुषुप्तौ करणव्यापारोऽस्ति। तस्मान्न्यस्तवास्यस्तक्षेवात्मा सुषुप्तौ ज्ञानादिगुणहीनोऽप्रकाशमानोऽस्त्येवेत्याशङ्क्याह -- ध्रुवमिति। ननु आत्मा किं सत्तामात्रेणायस्कान्तवत्करणानि प्रवर्तयति उत व्यापाराविष्टः सन्। नाद्यः। इष्टापत्तेः। त्वन्मते च आत्मनः कर्तृत्वासिद्धेः। नान्त्यः। अनित्यत्वापत्तेः। व्यापारो हि स्पन्दः। स च परिच्छिन्नस्यैव युज्यते न विभोः। विभुत्वहाने चाणुत्वानभ्युपगमात्। मध्यमपरिमाणत्वे घटादिवदनित्यतापत्तिः। तस्माद्ध्रुवमप्रच्युतस्वभावमक्षरमित्यर्थः।
।।12.3।।निर्गुणोपासनस्य साक्षान्मोक्षहेतुत्वेनातिश्रैष्ठ्यं बोधयन् सुशकत्वेन सगुणोपासनस्य श्रेष्ठतां बोधयति -- येत्विति। तुशब्दो निर्विशेषोपासनस्य सविशेषोपासनफलत्वात्पूर्वेभ्यः श्रैष्ठ्यद्योतनार्थः। ये तु अक्षरं न क्षरत्यश्रुते वेत्यक्षरंएतद्वै तदक्षरं गार्गि ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थूलमनण्वह्नस्वमदीर्घमपूर्वमनपरम इत्यादिश्रुत्या सर्वधर्मशून्येत्वेन बोधितं ब्रह्मणो निर्विशेषं स्वरुपं लक्षयति। निर्देष्टुं न शक्यते। शब्दाप्रतिपाद्यमित्यर्थः। यतोऽव्यक्तं प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्न व्यज्यत इत्यवक्तं रुपादिभिः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तैः संज्ञाजातिगुणक्रियासंबन्धैश्च रहितत्वादित्यर्थः। यतोऽनिर्देश्यमतोऽव्यक्तं रुपादिहीनमिति वा। अस्मिन्पक्षे हेतुहेतुमद्भावासामञ्जस्यमभिप्रेत्यायं पक्ष आचार्यैरुपेक्षिः। अव्यक्तत्वं कुत इत्य आह। सर्वत्रगं सर्वाधिष्ठानत्वात्सर्वस्मिन्नाकाशवद्य्वापकमतः केनापि प्रमाणेन परिच्छेत्तुमशक्यमव्यक्तमित्यर्थः। यद्वा ननु एं तर्हि शून्यत्वमेव ब्रह्मण आगतमिति तत्राह। सर्वत्रगं सर्वेषु व्यभिचरत्सु घटपटादिष्वव्यभिचरितसद्रूपेण व्यापकं सर्वस्य सत्तास्फूर्तिप्रदातुः शून्यत्वासंभवादिति भावः। अव्यक्तत्वादचिन्त्यं करणागोचरस्य मनसा चिन्तयितुमशक्यत्वात्। तथाच श्रुतिःयतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा मह इति। एतेन सर्वत्रगं चेत्यसर्वैः कुतो नावगम्यत इति शङ्का निरस्ता। सर्वप्रमाणापरिच्छेद्यस्यातिकुशलेनापि चिन्तयुतुमप्यशक्यस्य सर्वावगतिविषयताया दुरनिरस्तत्वात्। नन्वेवं चेत्तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि?दृश्यते त्वग्र्यया बुद्य्धा सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः?मनसैवानुद्रष्टव्यं?आत्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यःअनन्याश्चिन्तयन्तो मां?शास्त्रयोनित्वात् इत्यादिश्रुतिस्मृतिसूत्राणां का गतिरितिचेत्तत्राह। कूटस्थं दृश्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्योःअनन्याश्चिन्तयन्तो मां?शास्त्रयोनित्वात् इत्यादिश्रुतिस्मृतिसूत्राणां का गतिरितिचेत्तत्राह। कूटस्थं दृश्यमानगुणकमन्तर्दोषं वस्तु कूटशब्दप्रतिपाद्यम्। कूटरुपकं कोटसाक्ष्यं कूटकार्षापण इत्यादौ तथाभूते कूटशब्दस्य प्रयोगदर्शनात्।तद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत्?मायाचावित्या च स्वयमेव भवति?मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरं?तैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया इत्यादौ मायादिशब्दिततया प्रसिद्धमविद्यादि तदिहानेकसंसारबीजमन्तर्दोषं कूटशब्देन ग्राह्यम्। तस्मिन्कूटेऽध्यक्षतयाधिष्ठानतया तिष्ठतीति कूटस्थम्। भाष्येऽविद्यादीति आदिपदात् अहंकारदिकं ग्राह्यम्। तथाच ब्रह्मण्यारोपितस्याविद्यादेर्निवृत्तये उपचारेण निर्विशेषस्य शास्त्रविषयत्वमिति भावः। यद्वा अतएव राशिरिव स्थितं कुटस्थं निर्विकारण्। एतएवाचलं अध्यस्तस्याविद्यादेर्गुणदोषाभ्यां गुणदोषवत्त्वेन स्वस्वरुपान्न चलतीत्यचलमित्यर्थः। अतएव ध्रुवं नित्यम्। सदैकरसमिति यावत्। एतादृशं अक्षरं ये पर्युपासते परि समन्तादुपासते श्रवणमननाभ्यां उपास्यस्यार्थस्य विषयीकरणेन सामीप्यमुपगम्यानवच्छिन्नतैलधारावत्समानप्रत्ययप्रवाहेण दीर्घकालमासनं निदिध्यासनं कुर्वन्तीत्यर्थः।
12.3 ये who? तु verily? अक्षरम् the imperishable? अनिर्देश्यम् the indefinable? अव्यक्तम् the unmanifested? पर्युपासते worship? सर्वत्रगम् the omnipresent? अचिन्त्यम् the unthinkable? च and? कूटस्थम् the unchangeable? अचलम् the immovable? ध्रुवम् the eternal.Commentary Anirdesyam That which cannot be actually shown or which cannot be defined -- the Akshaa or Satchidananda Para Brahman is beyond the reach of the mind and speech. Why can It not be defined Because It is unmanifested. It does not have the four alities of manifested beings? vi.z? Jati (caste such as Brahmana? Kshatriya? etc.)? Guna (attributes such as blueness? whiteness? tallness? shortness? etc.)? Kriya (reading? walking? etc.)? and Sambandha (like the relation between father and son).The unmanifest Incomprehensible by any of the organs of knowledge not manifest to any of the organs of knowledge.Upasana (worship) means sitting near. It is approaching the chosen ideal or object of worship by meditating on it? in accordance with the teachings of the scriptures and the spiritual preceptor? and dwelling steadily in the current of that one thought like a threat of oil poured from one vessel to another. It means continous and uninterrupted contemplation of God.The imperishable Brahman is omnipresent? pervading everything like the ether. It is unthinkable? because It is unmanifest. Whatever is visible to the senses can be thought of by the mind also. That which can be grasped by the organs of knowledge can be thought of by the mind also. But the Supreme Being is invisible to the senses and so cannot be grasped by the organs of knowledge and is? therefore? unthinkable. All thoughts of God ultimately lead the aspirant to iescent meditation.It is Kutastha (unchangeable). Kutastha means remaining like a mass or a heap. Therefore It is immutable and eternal. Just as the anvil remains unchanged though the ironpieces which are beaten on the anvil change their shape? so also Brahman is unchanging though the forms are changing. Hence Brahman is called Kutastha. Kuta also means a thing which appears to be good externally but which is full of evil within. Hence it refers to that seed of Samsara? viz.? ignorance? which is full of evil within and which is known as the Avyakrita (undifferentiated) in the Svetasvataropanishad (Mayam tu prakritim vidyat? Mayinam tu mahesvaram) and in the Gita (Mama maya duratyaya -- The illusion of Mine is hard to pierce -- VII.14). Another interpretation for Kutastha is that which is at the root of everything. He Who is seated in Maya as its witness? as its Lord? is Kutastha.Achalam Immovable? that which is free from change. Therefore the imperishable Brahman is Dhruvam? eternal. (Cf.VIII.21)
12.3 Those who worship the imperishable, the indefinable, the unmanifest, the omnipresent, the unthinkable, the immovable and the eternal.
12.3 Those who worship Me as the Indestructible, the Undefinable, the Omnipresent, the Unthinkable, the Primeval, the Immutable and the Eternal;
12.3 Those, however, who meditate in every way on the Immutable, the Indefinable, the Unmanifest, which is all-pervading, incomprehensible, change-less, immovable and constant.-
12.3 Ye, those; tu, however; who, pari-upasate, meditate in every way; aksaram, on the Immutable; anirdesyam, the Indefinable-being unmanifest, It is beyond the range of words and hence cannot be defined; avyaktam, the Unmanifest-It is not comprehensible thrugh any means of knowledge-. Upasana, meditation, means approaching an object of meditation as presented by the scriptures, and making it an object of one's own thought and dwelling on it uniterruptedly for long by continuing the same current of thought with regard to it-like a line of pouring oil. This is what is called upasana. The Lord states the characteristics of the Immutable [Here Ast. adds 'upasyasya, which is the object of meditation'.-Tr.] : Sarvatragam, all-pervading, pervasive like space; and acintyam, incomprehensible-becuase of Its being unmanifest. For, whatever comes within the range of the organs can be thought of by the mind also. Being opposed to that, the Immutable is inconceivable. It is kutastham, changeless. Kuta means something apparently good, but evil inside. The word kuta (deceptive) is well known in the world in such phrases as, 'kuta-rupam, deceptive in appearance,' 'kuta-saksyam, false evidence', etc. Thus, kuta is that which, as ignorance etc., is the seed of many births, full of evil within, referred to by such words as maya, the undifferentiated, etc., and well known from such texts as, 'One should know Maya to be Nature, but the Lord of Maya to be the supreme God' (Sv. 4.10), 'The divine Maya of Mine is difficult to cross over' (7.14), etc. That which exists on that kuta as its controller (or witness) is the kuta-stha. Or, kutastha may mean that which exists like a heap [That is, motionless.]. Hence it is acalam, immovable. Since It is immovable, therefore It is dhruvam, constant, i.e. eternal.
12.3. Those, who contemplate on the Unmanifest, Which is motionless, undefinable, all-pervading, unthinkable, peaklike, unmoving and fixed;
12.3 See Comment under 12.5
12.3 - 12.5 The individual self meditated upon by those who follow the path of the 'Aksara' (the Imperishable) is thus described: It cannot be 'defined' in terms indicated by expressions like gods and men etc., for It is different from the body; It is 'imperceptible' through the senses such as eyes; It is 'omnipresent and unthinkable,' for though It exists everywhere in bodies such as those of gods and others, It cannot be conceived in terms of those bodies, as It is an entity of an altogether different kind; It is 'common to all beings' i.e., alike in all beings but different from the bodily forms distinguishing them; It is 'immovable' as It does not move out of Its unie nature, being unmodifiable, and therefore eternal. Such aspirants are further described as those who, 'subduing their senses' like the eye from their natural operations, look upon all beings of different forms as 'eal' by virtue of their knowledge of the sameness of the nature of the selves as knowers in all. Therefore they are not given 'to take pleasure in the misfortune of others,' as such feelings proceed from one's identification with one's own special bodily form. Those who meditate on the Imperishable Principle (individual self) in this way, even they come to Me. It means that they also realise their essential self, which, in respect of freedom from Samsara, is like My own Self. So Sri Krsna will declare later on: 'Partaking of My nature' (14.2). Also the Sruti says: 'Untainted, he attains supreme eality' (Mun. U., 3.1.3). Likewise He will declare the Supreme Brahman as being distinct from the freed self which is without modification and is denoted by the term 'Imperishable' (Aksara), and is described as unchanging (Kutastha). 'The Highest Person is other than this Imperishable' (15.16 - 17). But in the teaching in Aksara-vidya 'Now that higher science by which that Aksara is known' (Mun. U., 1.5) the entity that is designated by the term Aksara is Supreme Brahman Himself; for He is the source of all beings, etc. Greater is the difficulty of those whose minds are attached to the unmanifest. The path of the unmanifest is a psychosis of the mind with the unmanifest as its object. It is accomplished with difficulty by embodied beings, who have misconceived the body as the self. For, embodied beings mistake the body for the self. The superiority of those who adore the Supreme Being is now stated clearly:
12.3 But those who meditate on the Imperishable (i.e., the self) the indefinable, the unmanifest, omnipresent, unthinkable, common to all beings, immovable and constant;
।।12.3।।तो क्या दूसरे युक्ततम नहीं हैं यह बात नहीं? किंतु उनके विषयमें जो कुछ कहना है सो सुन --, परंतु जो पुरुष उस अक्षरकीजो कि अव्यक्त होनेके कारण शब्दका विषय न होनेसे किसी प्रकार भी बतलाया नहीं जा सकता इसलिये अनिर्देश्य है और किसी भी प्रमाणसे प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता इसलिये अव्यक्त है -- सब प्रकारसे उपासना करते हैं। उपास्य वस्तुको शास्त्रोक्त विधिसे बुद्धिका विषय बनाकर उसके समीप पहुँचकर तैलधाराके तुल्य समान वृत्तियोंके प्रवाहसे जो दीर्घकालतक उसमें स्थित रहना है? उसको उपासना कहते हैं -- उस अक्षरके विशेषण बतलाते हैं -- वह आकाशके समान सर्वव्यापक है और अव्यक्त होनेसे अचिन्त्य है क्योंकि जो वस्तु इन्द्रियादि करणोंसे जाननेमें आती है उसीका मनसे भी चिन्तन किया जा सकता है। परंतु अक्षर उससे विपरीत होनेके कारण अचिन्त्य और कूटस्थ है। जो वस्तु ऊपरसे गुणयुक्त प्रतीत होती हो और भीतर दोषोंसे भरी हो उसका नाम कूट है। संसारमें भी कूटरूप कूटसाक्ष्य इत्यादि प्रयोगोंमें कूट शब्द ( इसी अर्थमें ) प्रसिद्ध है। वैसे ही जो अविद्यादि अनेक संसारोंकी बीजभूत अन्तर्दोषोंसे युक्त प्रकृति मायाअव्याकृत आदि शब्दोंद्वारा कही जाती है एवं प्रकृतिको तो माया और महेश्वरको मायापति समझना चाहिये मेरी माया दुस्तर है इत्यादि श्रुतिस्मृतिके वचनोंमें जो माया नामसे प्रसिद्ध है? उसका नाम कूट है। उस कूट ( नामक माया ) में जो उसका अधिष्ठातारूपसे स्थित हो रहा हो उसका नाम कूटस्थ है। अथवा राशि -- ढेरकी भाँति जो ( कुछ भी क्रिया न करता हुआ ) स्थित हो उसका नाम कूटस्थ है। इस प्रकार कूटस्थ होनेके कारण जो अचल है और अचल होनेके कारण ही जो ध्रुव अर्थात् नित्य है ( उस ब्रह्मकी जो लोग उपासना करते हैं )।
।।12.3।। -- ये तु अक्षरम् अनिर्देश्यम्? अव्यक्तत्वात् अशब्दगोचर इति न निर्देष्टुं शक्यते? अतः अनिर्देश्यम्? अव्यक्तं न केनापि प्रमाणेन व्यज्यत इत्यव्यक्तं पर्युपासते परि समन्तात् उपासते। उपासनं नाम यथाशास्त्रम् उपास्यस्य अर्थस्य विषयीकरणेन सामीप्यम् उपगम्य तैलधारावत् समानप्रत्ययप्रवाहेण दीर्घकालं यत् आसनम्? तत् उपासनमाचक्षते। अक्षरस्य विशेषणमाह उपास्यस्य -- सर्वत्रगं व्योमवत् व्यापि अचिन्त्यं च अव्यक्तत्वादचिन्त्यम्। यद्धि करणगोचरम्? तत् मनसापि चिन्त्यम्? तद्विपरीतत्वात् अचिन्त्यम् अक्षरम्? कूटस्थं दृश्यमानगुणम् अन्तर्दोषं वस्तु कूटम्। कूटरूपम् कूटसाक्ष्यम् इत्यादौ कूटशब्दः प्रसिद्धः लोके। तथा च अविद्याद्यनेकसंसारबीजम् अन्तर्दोषवत् मायाव्याकृतादिशब्दवाच्यतया मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् (श्वे0 उ0 4।10) मम माया दुरत्यया (गीता 7।14) इत्यादौ प्रसिद्धं यत् तत् कूटम्? तस्मिन् कूटे स्थितं कूटस्थं तदध्यक्षतया। अथवा? राशिरिव स्थितं कूटस्थम्। अत एव अचलम्। यस्मात् अचलम्? तस्मात् ध्रुवम्? नित्यमित्यर्थः।।
।।12.3 -- 12.4।।एवं तर्हिमय्यावेश्य [12।2] इत्यनेनैव मदुपासका एवोत्तमा इति प्रश्नस्योत्तरं जातं? किमुत्तरेण वाक्येन इत्यत आह -- भवन्त्विति। आक्षेपगर्भोऽयमभ्युपगमः। न युक्तं त्वदुपासकानामेवोत्तमत्वमिति भावः। तदुपपादनाय पृच्छति -- इतरेषामिति। अव्यक्तोपासकानां किं फलं मोक्षोऽस्ति? न वा नोचेदुदाहृतवाक्यविरोधः। आद्ये कथं त्वदुपासकानामुत्तमत्वम् फलसाम्यादिति भावः। नन्वेषां विशेषणानां ब्रह्मणोऽन्यत्रासम्भवात् कथमितरेषां किं फलं इत्यस्योत्तरत्वेन एतदवतार इत्यतोऽक्षराव्यक्तत्वयोर्मायायामुपपादितत्वात् तदन्यानि तत्रोपपादयन्ननिर्देश्यत्वं तावदुपपादयति -- अनिर्देश्यत्वं चेति शब्दागोचरम् धर्मस्य मम पादभङ्ग इत्यन्वयः। नन्वत्रापीश्वरोऽस्त्वनिर्देश्य इत्यत आह -- ईश्वरस्त्विति। दैवं पादभङ्गकारणमाहुः। तथा च पुनरुक्तिः स्यादिति भावः। न च दैवशब्दोऽदृष्टवाची। तस्यअपरे कर्म इति पृथगुक्तत्वात्। मायाया अनिर्देश्यत्वे स्पष्टं च प्रमाणमाह -- उक्तं चेति। महाभूतमाकाशवायुरूपम्। उपभूतं तेजोब्भूलक्षणम्। तदा प्रलये। अजरमित्यादिकं प्रलयेऽवस्थानस्योपपादकम्। नचैतत् ब्रह्मेति प्रदर्शनायएषा ह्येव प्रकृतिः इत्युदाहृतम्।इदानींसर्वत्रगं इत्यादिकं मायायामुपपादयितुमाह -- सर्वगेति। भावप्रधानो निर्देशः। स्वरूपवाची वा लक्षणशब्दः नारायणगुणस्तदिच्छादिलक्षण आश्रयो यस्य तत्तथोक्तम्। अनेन ब्रह्मणो व्यावृत्तिः। अजरादमरादिति जडप्रधानादेः? तस्य तत्प्राप्त्यभावात्। अग्राह्यान्मनसोऽप्यगोचरादित्यनेनाचिन्त्यमिति,सिद्ध्यति। असम्भवतोऽक्षयादक्षरादिति ध्रुवत्वसिद्धिः। असति प्रलये भवमसत्त्यम्। ललामं प्रधानम्। द्वितीया भगवदेकाधीना प्रवृत्तिर्विशेषो यस्य तत्तथा। अमूर्तितः प्राकृतदेहरहितात्। सर्वस्याः सर्वगाया इति छान्दसो लिङ्गव्यत्ययः? अनाद्यविद्याभिमानित्वात्। शाश्वततमसः पुरुषोऽभूदित्यन्वयः। इदं प्रसिद्धं तमो मायाख्यं प्रलये सर्वतः प्रसुप्तमिव निर्व्यापारमासीत्। अभूतमजातम्।अप्रज्ञातं इत्यादिना प्रत्यक्षानुमानागमवेद्यत्वाभाव उच्यते। अवेद्यलक्षणत्वादप्रतर्क्यम्। अनेन सर्वत्रगमचिन्त्यं ध्रुवमिति सिध्यति। गीतावाक्येन कूटस्थत्वं नित्यत्वं चेत् ध्रुवमिति पुनरुक्तिः। कूटमनृतं तिष्ठत्यस्मिन्नित्यसम्भवीत्यत आह -- कूट इति। कूटशब्दस्याकाशवाचित्वेऽभिधानं प्राक् पठितम्। तथापि दार्ढ्याय श्रुत्युदाहरणम्। श्रुत्यनुसारेण स्त्रीलिङ्गम्। सा सर्वगैत्युक्तार्थे स्पष्टं प्रमाणम्। निश्चला स्वपदादभ्रष्टा। विश्वं गतमाश्रितमस्यामिति विश्वगा। एतानि चोक्तविशेषणानि तदुपासनस्य मोक्षसाधनत्वाङ्गीकारसमर्थनार्थानीति ज्ञेयम्।
।।12.3 -- 12.4।।भवन्तु त्वदुपासका एवोत्तमाः? इतरेषां तु किं फलं इत्यत आह -- ये त्वित्यादिना। अनिर्देश्यत्वं चोक्तं भागवते मायायाः -- अप्रतर्क्यादनिर्देश्यादिति केष्वपि निश्चयः [ ] इति। ईश्वरस्तु देवशब्देनोक्तःदैवमन्ये परे [4।25] इत्यत्र। उक्तं च सामवेदे काषायणश्रुतौ -- नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम् [ऋक्सं.8।7।18।1] इति। न महाभूतं नोपभूतं तदासीत् इत्याद्यारभ्य तम आसीत्तमसा गूढमग्रे [ऋक्सं.8।7।17।3] इति। तमो ह्यव्यक्तमजरमनिर्द्देश्यमेषा ह्येव प्रकृतिः इति।सर्वगाऽचिन्त्यादिलक्षणा हि सा। तथाहि मोक्षधर्मे -- नारायणगुणाश्रयादजरामरादतीन्द्रियादग्राह्यादसम्भवतः। असत्यादहिंस्राल्ललामाद्वितीयप्रवृत्तिविशेषादवैरादक्षयादमरादक्षरादमूर्तितः। सर्वस्याः सर्वस्य सर्वकर्त्तुः,शाश्वततमसः [म.भा.12।342।6] इतिआसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः इति मानवे [1।5]।कूटस्थोऽक्षर उच्यते [15।16] वक्ष्यति इति। कूटे आकाशे स्थिता कूटस्था। आकाशे संस्थिता त्वेषा ततः कूटस्थिता मता इति ह्यग्वेदखिलेषु। सा सर्वगा निश्चला लोकयोनिः सा चाक्षरा विश्वगा विरजस्का इति सामवेदे गौपवनशाखायाम्।
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्।।12.3।।
যে ত্বক্ষরমনির্দেশ্যমব্যক্তং পর্যুপাসতে৷ সর্বত্রগমচিন্ত্যং চ কূটস্থমচলং ধ্রুবম্৷৷12.3৷৷
যে ত্বক্ষরমনির্দেশ্যমব্যক্তং পর্যুপাসতে৷ সর্বত্রগমচিন্ত্যং চ কূটস্থমচলং ধ্রুবম্৷৷12.3৷৷
યે ત્વક્ષરમનિર્દેશ્યમવ્યક્તં પર્યુપાસતે। સર્વત્રગમચિન્ત્યં ચ કૂટસ્થમચલં ધ્રુવમ્।।12.3।।
ਯੇ ਤ੍ਵਕ੍ਸ਼ਰਮਨਿਰ੍ਦੇਸ਼੍ਯਮਵ੍ਯਕ੍ਤਂ ਪਰ੍ਯੁਪਾਸਤੇ। ਸਰ੍ਵਤ੍ਰਗਮਚਿਨ੍ਤ੍ਯਂ ਚ ਕੂਟਸ੍ਥਮਚਲਂ ਧ੍ਰੁਵਮ੍।।12.3।।
ಯೇ ತ್ವಕ್ಷರಮನಿರ್ದೇಶ್ಯಮವ್ಯಕ್ತಂ ಪರ್ಯುಪಾಸತೇ. ಸರ್ವತ್ರಗಮಚಿನ್ತ್ಯಂ ಚ ಕೂಟಸ್ಥಮಚಲಂ ಧ್ರುವಮ್৷৷12.3৷৷
യേ ത്വക്ഷരമനിര്ദേശ്യമവ്യക്തം പര്യുപാസതേ. സര്വത്രഗമചിന്ത്യം ച കൂടസ്ഥമചലം ധ്രുവമ്৷৷12.3৷৷
ଯେ ତ୍ବକ୍ଷରମନିର୍ଦେଶ୍ଯମବ୍ଯକ୍ତଂ ପର୍ଯୁପାସତେ| ସର୍ବତ୍ରଗମଚିନ୍ତ୍ଯଂ ଚ କୂଟସ୍ଥମଚଲଂ ଧ୍ରୁବମ୍||12.3||
yē tvakṣaramanirdēśyamavyaktaṅ paryupāsatē. sarvatragamacintyaṅ ca kūṭasthamacalaṅ dhruvam৷৷12.3৷৷
யே த்வக்ஷரமநிர்தேஷ்யமவ்யக்தஂ பர்யுபாஸதே. ஸர்வத்ரகமசிந்த்யஂ ச கூடஸ்தமசலஂ த்ருவம்৷৷12.3৷৷
యే త్వక్షరమనిర్దేశ్యమవ్యక్తం పర్యుపాసతే. సర్వత్రగమచిన్త్యం చ కూటస్థమచలం ధ్రువమ్৷৷12.3৷৷
12.4
12
4
।।12.4।।जो अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें रत और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।
।।12.4।। इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।।
।।12.4।। पूर्व श्लोकों में सगुणोपासक भक्तों के लिए आवश्यक गुणों का वर्णन करने के पश्चात् अब भगवान् श्रीकृष्ण निर्गुण के उपासकों का वर्णन उपर्युक्त दो श्लोकों में करते हैं।अक्षर रूप और गुणों से युक्त सभी वस्तुएं द्रव्य हैं और सभी द्रव्य क्षर अर्थात् नाशवान होते हैं। इन्द्रियों के द्वारा केवल इन द्रव्यों का ही ज्ञान हो सकता है। अत अक्षर शब्द से यह सूचित किया गया है कि इन्द्रियों के द्वारा परमतत्त्व का ज्ञान कदापि संभव नहीं है।अनिर्देश्य जो परिभाषित नहीं किया जा सकता है उसे अनिर्देश्य कहते हैं। सभी परिभाषाएं दृश्य वस्तु के सन्दर्भ में ही दी जा सकती हैं। अत जो इन्द्रियों का दृश्य नहीं होता? उसकी न परिभाषा दी जा सकती है और न ही उसे अन्य वस्तुओं से भिन्न करके जाना जा सकता है।सर्वत्रगम् जो अनन्त तत्त्व गुण रहित होने से व्यक्त नहीं हैं? और इसी कारण अनिर्देश्य है? उसको सर्वव्यापी होना आवश्यक है। यदि परमात्मा से कोई स्थान रिक्त हो? तो परमात्मा को आकार विशेष प्राप्त हो जायेगा। और साकार वस्तु विनाशी भी होगी।अचिन्त्यम् मन के द्वारा जिस वस्तु का चिन्तन किया जा सकता है? वह दृश्य पदार्थ होने के कारण नाशवान् होगी। इसलिए अविनाशी तत्त्व निश्चित ही अकल्पनीय? अग्राह्य और अचिन्त्य होगा।कूटस्थम् (अविकारी) यद्यपि चैतन्यस्वरूप आत्मा वह अधिष्ठान है? जिसके ऊपर सब विकार और परिवर्तन होते रहते हैं? परन्तु वह स्वयं अपरिवर्तनशील और अविकारी ही रहता है। कूट शब्द का अर्थ है निहाई। एक लुहार की दुकान में निहाई पर अन्य लौह खण्डों को रखकर उन पर आघात करके उन्हें विभिन्न आकार दिये जाते हैं? परन्तु निहाई स्वयं अपरिवर्तित ही रहती है। उसी प्रकार चैतन्य के सम्बन्ध से उपाधियों तथा व्यक्तित्व में विकार होता है? किन्तु चैतन्य तत्त्व कूट के समान अविकारी रहता है।अचलम् चलन का अर्थ है वस्तु का देश और काल की मर्यादा में परिवर्तन होना। कोई वस्तु अपने में ही चल नहीं सकती उसका चलन वही पर संभव है? जहाँ पर वह पहले से विद्यमान नहीं है। यहाँ? इस क्षण मैं कुर्सी पर बैठा हूँ। मैं दूसरे क्षण दूसरा स्थान ग्रहण करने जा सकता हूँ। परन्तु? यहीं और इसी क्षण अपनी कुर्सी पर बैठा मैं अपने में ही चल फिर नहीं सकता? क्योंकि मैं स्वयं को पूर्णत व्याप्त किये हुए हूँ। परमात्मा सर्वव्यापी है? और इसलिए? देश या काल में ऐसा कोई स्थान या क्षण नहीं है? जहाँ वह विद्यमान न हो? अत वह अचल कहलाता है। वह यत्र? तत्र? सर्वत्र है उसमें ही भूत? वर्तमान और भविष्य का अस्तित्व है।ध्रुवम् (शाश्वत् सनातन) विकारी वस्तु देश और काल से अवच्छिन्न होती है। परन्तु जो देश और काल का भी अधिष्ठान है? वह परमात्मा इन दोनों से परिच्छिन्न नहीं हो सकता है। अनन्त स्वरूप चैतन्य आत्मा सर्वत्र? सब काल में एक ही है। शैशव? यौवन और वृद्धावस्था में? सर्वत्र? सब काल और सुखदुख? लाभहानि की समस्त परिस्थितियों में आत्मा एक समान ही रहता है। जब हम अपने शरीर? मन और बुद्धि के स्तर पर आते हैं? केवल तभी हम आइन्स्टीन के द्वारा वर्णित देश और काल की सापेक्षता के जगत् में प्रवेश करते हैं। परमात्मा कालविच्छिन्न नहीं है वह काल का भी शासक है। वह ध्रुव है।यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन दो श्लोकों में प्रयुक्त शब्द उपनिषदों से लिये गये हैं। इन शब्दों के द्वारा उस परमात्मा का निर्देश किया जाता है? जो इस नित्य परिवर्तनशील नाम और रूपों? कर्म और घटनाओं? विषय ग्रहण और भावनाओं? विचारों तथा अनुभवों के जगत् का एकमेव सनातन अधिष्ठान है। सभी उपासकों में निम्नलिखित तीन गुणों का होना आवश्यक है।इन्द्रियसंयम इन्द्रियों के द्वारा अपनी शक्तियों का अपव्यय करना अविचारी एवं निम्न स्तर की रुचि वाले मनुष्यों का कार्य़ होता है। पूर्णत्व के शिखर पर पहुँचकर परमानन्द का अनुभव करने की जिस साधक की महत्त्वाकांक्षा है? उसको चाहिए कि वह इस अपव्यय में कटौती करे? और इस प्रकार उपार्जित शक्तियों का सदुपयोग ध्यान में आत्मानुभव को प्राप्त करने के लिए करे। पांच ज्ञानेन्द्रियां ही वे द्वार हैं? जिनके माध्यम से मन को विचलित करने वाले बाह्य जगत् के विषय चोरी छिपे मन में प्रवेश करके हमारी आन्तरिक शान्ति को नष्ट कर देते हैं। और फिर हमारा मन कर्मेन्द्रियों के द्वारा बाह्य जगत् में अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने को दौड़ पड़ता है। इस प्रकार? विषयग्रहण और प्रतिक्रिया रूप यह व्यवहार मन के सामंजस्य और सन्तुलन को तोड़ देता है। इसलिए? यहाँ श्रीकृष्ण का इन्द्रियसंयम पर बल देना उचित ही है? क्योंकि ध्यानमार्ग की सफलता इसी पर निर्भर करती है।सर्वत्र समबुद्धि सफलता के लिए आवश्यक यह दूसरा गुण है। समस्त प्रकार की परिस्थितियों और अनुभवों में बुद्धि की समता होनी चाहिए। बाह्य विक्षेपरहित दशा की आशा और प्रतीक्षा करना मूर्खता का लक्षण ही है। ऐसी आदर्श परिस्थिति का होना असम्भव है। जगत् की वस्तुएं अपने में ही तथा विशिष्ट संरचनाओं के रूप में भी निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं। इसलिए ऐसे नित्य परिवर्तनशील रचना वाले जगत् में किसी ऐसी इष्ट स्थिति की अपेक्षा रखना जो साधक के ध्यानाभ्यास के लाभ के लिए निरन्तर एक समान बनी रहे? वास्तव में अविवेकपूर्ण ही कहा जा सकता है। यह सर्वथा असंभव है। इसलिए? ऐसे परिवर्तनशील जगत् में साधक को ही चाहिए कि व्ाह अपने बौद्धिक मूल्यांकनों? मन की आसक्तियों तथा बाह्य जगत् के साथ होने वाले सम्पर्कों को विवेकपूर्ण संयमित करके बुद्धि की समता और मन का सन्तुलन बनाये रखे। दृष्टि के समक्ष मन में विकार या विक्षेप उत्पन्न करने वाले विषयों या परिस्थितियों के होने पर भी जो पुरुष अपना सन्तुलन नहीं खोता है? वही समबुद्धि कहलाता है। जिस पुरुष ने अपनी विवेकशक्ति का विकास किया है? वह बड़ी सरलता से सौन्दर्य के उस स्वर्णिम तार को देख और पहचान सकता है? जो इस जगत् की उन समस्त वस्तुओं को धारण किये हुए है? जो सुन्दर और आकर्षक तथा कुरूप और प्रतिकर्षक है। इस क्षमता से सम्पन्न साधक को ही यहाँ समबुद्धि कहा गया है।किसी व्यक्ति का शिशु पुत्र किसी समय मैला है तो दुसरे समय अत्यन्त चंचल प्रात रुदन कर रहा होता है? तो दोपहर में हंसता है संध्याकाल में तंग करता है और रात में उन्मत्त और फिर भी? उसकी इन सब दशाओं में उसका पिता एक पुत्र को ही देखता है? और इसलिए उसके भिन्नभिन्न रूपों में भी उसे समान रूप से ही प्रेम करता है। यह उस प्रेमपूर्ण पिता की समबुद्धि है। इसी प्रकार एक सच्चा साधक अपने जीवन के भयानक दुखान्तों और आनन्ददायक सुखान्तों में तथा अभूतपूर्व सफलताओं और निराशाजनक विफलताओं में भी अपने हृदय के इष्ट देव को पहचानना सीखता है। इसलिए? वह बौद्धिक समता को प्राप्त हो जाता है।भूतमात्र के हित में रत होते हैं सफलता के लिए आवश्यक तीसरे गुण को बताते हुए भगवान् कहते हैं कि साधक को अर्पण की भावना से सदैव यथाशक्ति भूतमात्र की सेवा में रत रहना चाहिए। जब तक मनुष्य इस शरीर को धारण किये जीवित रहता है? तब तक उसके लिये यह सर्वथा असंभव है कि नित्य निरन्तर प्रत्येक समय अपने मन और बुद्धि को आत्मचिन्तन में ही स्थिर कर सके। जगत् के साथ उसे सामान्य व्यवहार करना ही होगा। इस प्रकार के व्यवहारों में उसे निरन्तर अथक प्रय़त्न करके प्राणीमात्र की सेवा करनी चाहिए। यह तो इस ज्ञान का स्वरूप ही है। भूतमात्र को प्रेम करना तो उसका धर्म ही है।इस प्रकार उक्त तीन गुणों से सम्पन्न होकर जो साधकगण अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं? वे भी मुझे ही प्राप्त होते हैं यह भगवान् श्रीकृष्ण की घोषणा है।अर्जुन द्वारा पूछा गया प्रश्न वास्तव में विवादास्पद है? जबकि भगवान् द्वारा दिया गया उसका उत्तर एक अविवादास्पद सत्य की घोषणा है। यहाँ महान् दार्शनिक भगवान् श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि किस प्रकार दोनों ही उपासक एक ही लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। दोनों में ही सफलता के लिए कौन से समान गुणों का होना आवश्यक है। यहाँ वर्णित साधना पद्धतियों का निष्ठापूर्वक और पूर्णतया पालन करने पर सगुणसाकार अथवा निर्गुणनिराकार की उपासना के द्वारा एक ही परमात्मा की प्राप्ति होगी।परन्तु? सामान्यत? बहुसंख्यक साधकों के विषय में वे कहते हैं
।।12.4।। व्याख्या --'तु'--यहाँ 'तु' पद साकार-उपासकोंसे निराकार-उपासकोंकी भिन्नता दिखानेके लिये आया है। 'संनियम्येन्द्रियग्रामम्' -- 'सम्' और 'नि' -- दो उपसर्गोंसे युक्त 'संनियम्य' पद देकर भगवान्ने यह बताया है कि सभी इन्द्रियोंको सम्यक् प्रकारसे एवं पूर्णतः वशमें करे? जिससे वे किसी अन्य विषयमें न जायँ। इन्द्रियाँ अच्छी प्रकारसे पूर्णतः वशमें न होनेपर निर्गुणतत्त्वकी उपासनामें कठिनता होती है। सगुण-उपासनामें तो ध्यानका विषय सगुण भगवान् होनेसे इन्द्रियाँ भगवान्में लग सकती हैं; क्योंकि भगवान्के सगुण स्वरूपमें इन्द्रियोंको अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण-उपासनामें इन्द्रिय-संयमकी आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण-उपासनामें है। निर्गुण-उपासनामें चिन्तनका कोई आधार न रहनेसे इन्द्रियोंका सम्यक् संयम हुए बिना (आसक्ति रहनेपर) विषयोंमें मन जा सकता है और विषयोंका चिन्तन होनेसे पतन होनेकी अधिक सम्भावना रहती है (गीता 2। 62 -- 63)। अतः निर्गुणोपासकके लिये सभी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाते हुए सम्यक् प्रकारसे पूर्णतः वशमें करना आवश्यक है। इन्द्रियोंको केवल बाहरसे ही वशमें नहीं करना है, प्रत्युत विषयोंके प्रति साधकके अन्तःकरणमें भी राग नहीं रहना चाहिये; क्योंकि जबतक विषयोंमें राग है, तबतक ब्रह्मकी प्राप्ति कठिन है (गीता 15। 11)।
।।12.3 -- 12.5।।येत्वित्यादि अवाप्यते इत्यन्तम्। ये पुनरक्षरं (S ये त्वक्षरम्) ब्रह्म उपास्ते आत्मानं [ तैरपि ] सर्वत्रगम् इत्यादिभिर्विशेषणैः आत्मनः सर्वे ईश्वरधर्मा आरोप्यन्ते। अतो ब्रह्मोपासका अपि मामेव यद्यपि यान्ति तथापि अधिकतरस्तेषां क्लेशः। आत्मनि किल अपहतपाप्मत्वादिगुणाष्टकारोपं विधाय पश्चात्तमेव उपासते इति स्वतः सिद्धगुणग्रामगरिमणि ईश्वरे ( ईश्वरेऽपि) अयत्नसाध्ये स्थितेऽपि द्विगुणमायासं विन्दन्ति।
।।12.4।।ये तु अक्षरं प्रत्यगात्मस्वरूपं अनिर्देश्यं देहाद् अन्यतया देवादिशब्दानिर्देश्यम् अतएव चक्षुरादिकरणानभिव्यक्तं सर्वत्रगम् अचिन्त्यं च सर्वत्र देवादिदेहेषु वर्तमानम् अपि तद्विसजातीयतया तेन तेन रूपेण चिन्तयितुम् अनर्हम्? तत एव कूटस्थं सर्वसाधारणं तत्तद्देवाद्यसाद्यारणाकारासंबन्धम् इत्यर्थः। अपरिणामित्वेन स्वासाधारणाकारात् न चलति? न च्यवते इति अचलं तत एव ध्रुवं नित्यम् सन्नियम्य इन्द्रियग्रामं चक्षुरादिकम् इन्द्रियग्रामं सर्वस्वव्यापारेभ्यः सम्यक् नियम्य सर्वत्र समबुद्धयः सर्वत्र देवादिविषमाकारेषु देहेषु अवस्थितेषु आत्मसु ज्ञानैकाकारतया समबुद्धयः तत एव सर्वभूतहिते रताः सर्वभूताहितरतित्वात् निवृत्ताः? सर्वभूताहितरतित्वं हि आत्मनो देवादिविषमाकाराभिमाननिमित्तम्? ये एवम् अक्षरम् उपासते ते अपि मां प्राप्नुवन्ति एव। मत्समानाकारम् असंसारिणम् आत्मानं प्राप्नुवन्ति एव इत्यर्थः।मम साधर्म्यमागताः (गीता 14।2) इति वक्ष्यते श्रूयते च -- निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति (मु0 उ0 3।1।3) इति।तथा अक्षरशब्दनिर्दिष्टात् कूटस्थाद् अन्यत्वं परस्य ब्रह्मणो वक्ष्यते।कूटस्थोऽक्षर उच्यते। (गीता 15।16)उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः (गीता 15।17) इति। अथपरा यथा तदक्षरमधिगम्यते (मु0 उ0 1।1।5) इति अक्षरविद्यायां तु अक्षरशब्दनिर्दिष्टं परम् एव ब्रह्म? भूतयोनित्वाद् एव।
।।12.4।।कथमक्षरमुपासते तदुपासने वा किं स्यादिति तदाह -- संनियम्येति। तुल्या हर्षविषादरागद्वेषादिरहिता सम्यग्ज्ञानेनाज्ञानस्यापनीतत्वात्। क्रमपरम्परापेक्षयोरसंभवं विवक्षित्वाह -- ते य इति। सर्वेभ्यो भूतेभ्यो हिते रताः सर्वेभ्यो भूतेभ्यो हितमेव चिन्तयन्तस्तदेवाचरन्ति। ज्ञानवतां यथाज्ञानं भगवत्प्राप्तेरर्थसिद्धत्वादनुवादमात्रमित्याह -- नत्विति। ज्ञानिनो भगवत्प्राप्तिः सिद्धैवेत्यत्र प्रमाणमाह -- ज्ञानी,त्विति। ज्ञानवतां भगवत्प्राप्तौ त एव युक्ततमा वक्तव्याः कथं सगुणब्रह्मोपासकान्युक्ततमानुक्तवानसीत्याशङ्क्याह -- नहीति।
।।12.3 -- 12.4।।येत्विति। तुशब्दो भेदं द्योतयति। ये त्वक्षरमन्तर्यामिस्वरूपांशं पूर्वोक्तमनामरूपत्वादव्यक्तं गणितानन्दं बृहत्स्वरूपं पर्युपासते। स्वष्ट एव भेदः। अक्षरोऽव्यक्तः? अहं तु व्यक्तः। सोऽनिर्देश्यः? अहं तु स्वेच्छयाऽलौकिकनिर्देशार्हः। स सर्वत्रगः? अहं तु भक्तैकगम्यः। स चाचिन्त्यः अहं तु भक्तैश्चिन्त्यः। स तु कूटस्थः सर्वसाधारणः अहमसाधारणः। स त्वचलः स्थिरात्मा? अहं चलः तत्रतत्र विहरन् चलामि। स तु ध्रुवं पदरूपमैश्वर्यमध्यात्मं? अहं त्वीश्वरस्तन्निलयन इति। तदुपासका मां ब्रह्मानन्दात्मिकां श्रियमेव ध्रुवात्मानं वा मां प्राप्नुवन्ति।
।।12.3 -- 12.4।।निर्गुणब्रह्मविदपेक्षया सगुणब्रह्मविदां कोऽतिशयो येन त एव युक्ततमास्तएवाभिमता इत्यपेक्षायां तमतिशयं वक्तुं तन्निरूपकान्निर्गुणब्रह्मविदः प्रस्तौति द्वाभ्यां -- येत्वित्यादिना। येऽक्षरं मामुपासते तेऽपि मामेव प्राप्नुवन्तीति द्वितीयगतेनान्वयः। पूर्वेभ्यो वैलक्षण्यद्योतनाय तुशब्दः। अक्षरं निर्विशेषं ब्रह्म वाचक्नवीब्राह्मणे प्रसिद्धं तस्य समर्पणाय सप्त विशेषणानि। अनिर्देश्यं शब्देन व्यपदेष्टुमशक्यं। यतोऽव्यक्तं शब्दप्रवृत्तिनिमित्तैर्जातिगुणक्रियासंबन्धै रहितं जातिं गुणं क्रियां संबन्धं वा द्वारीकृत्य शब्दप्रवृत्तेर्निर्विशेषे प्रवृत्त्ययोगात् कुतो जात्यादिराहित्यमत आह -- सर्वत्रगमिति। सर्वत्रगं सर्वव्यापि सर्वकारणं अतो जात्यादिशून्यं परिच्छिन्नस्य कार्यस्यैव जात्यादियोगदर्शनात्? आकाशादीनामपि कार्यात्वाभ्युपगमाच्च। अतएवाचिन्त्यं शब्दप्रवृत्तेरिव मनोवृत्तेरपि न विषयः। तस्या अपि परिच्छिन्नविषयत्वात्यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इति श्रुतेः। तर्हि कथंतं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि इति?दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या इति च श्रुतिःशास्त्रयोनित्वात् इति सूत्रं च। उच्यते। अविद्याकल्पितसंबन्धेन शब्दजन्यायां बुद्धिवृत्तौ चरमायां परमानन्दबोधरूपे शुद्धे वस्तुनि प्रतिबिम्बितेऽविद्यातत्कार्ययोः कल्पितयोर्निवृत्त्युपपत्तेरुपचारेण विषयत्वाभिधानात्। अतस्तत्र कल्पितमविद्यासंबन्धं प्रतिपादयितुमाह -- कूटस्थमिति। कूटस्थं यन्मिथ्याभूतं सत्यतया प्रतीयते तत्कूटमिति लोकैरुच्यते। यथा कूटकार्षापणः कूटसाक्षित्वमित्यादौ। अज्ञानमपि मायाख्यं सहकार्यप्रपञ्चेन मिथ्याभूतमपि लौकिकैः सत्यतया प्रतीयमानं कूटं तस्मिन्नाध्यासिकेन संबन्धेनाधिष्ठानतया तिष्ठतीति कूटस्थमज्ञानतत्कार्याधिष्ठानमित्यर्थः। एतेन सर्वानुपपत्तिपरिहारः कृतः। अतएव सर्वविकाराणामविद्याकल्पितत्वात्तदधिष्ठानं साक्षिचैतन्यं निर्विकारमित्याह -- अचलमिति। अचलं चलनं,विकारः अचलत्वादेव ध्रुवं अपरिणामि नित्यं एतादृशं शुद्धं ब्रह्म मां पर्युपासते श्रवणेन प्रमाणगतामसंभावनामपोद्य मननेन च प्रमेयगतामनन्तरं विपरीतभावनानिवृत्तये ध्यायन्ति। विजातीयप्रत्ययतिरस्कारेण तैलधारावदविच्छिन्नसमानप्रत्ययप्रवाहेण निदिध्यासनसंज्ञकेन ध्यानेन विषयीकुर्वन्तीत्यर्थः। कथं पुनर्विषयेन्द्रियसंयोगे सति विजातीयप्रत्ययतिरस्कारोऽत आह -- संनियम्येति। संनियम्य स्वविषयेभ्य उपसंहृत्येन्द्रियग्रामं करणसमुदायम्। एतेन शमदमादिसंपत्तिरुक्ता। विषयभोगवासनायां सत्यां कुत इन्द्रियाणां ततो निवृत्तिस्तत्राह -- सर्वत्रेति। सर्वत्र विषये समा तुल्या हर्षविषादाभ्यां रागद्वेषाभ्यां च रहिता मतिर्येषाम्। सम्यग्ज्ञानेन तत्कारणस्याज्ञानस्यापनीतत्वाद्विषयेषु दोषदर्शनाभ्यासेन स्पृहाया निरसनाच्च ते सर्वत्र समबुद्धयः। एतेन वशीकारसंज्ञावैराग्यमुक्तं। अतएव सर्वत्रात्मदृष्ट्या हिंसाकारणद्वेषरहितत्वात्सर्वभूतहिते रताःअभयं सर्वभूतेभ्यो मत्तः स्वाहा इति मन्त्रेण दत्तसर्वभूताभयदक्षिणाः। कृतसंन्यासा इति यावत्।अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा संन्यासमाचरेत् इति स्मृते। एवंविधाः सर्वसाधनसंपन्नाः सन्तः स्वयं ब्रह्मभूता निर्विचिकित्सेन साक्षात्कारेण सर्वसाधनफलभूतेन मामक्षरं ब्रह्मैव ते प्राप्नुवन्ति। पूर्वमपि मद्रूपा एव सन्तोऽविद्यानिवृत्त्या मद्रूपा एव तिष्ठन्तीत्यर्थः।ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्येतिब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति इत्यादि श्रुतिभ्य इहापि चज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इत्युक्तम्।
।।12.4।। संनियम्येति। स्पष्टम्।
।। 12.4 अक्षरनिष्ठस्यापकर्षमाह -- ये त्वक्षरम् इत्यादिश्लोकत्रयेण। सर्वप्रकारनिर्देशनिषेधस्य स्ववचनविरोधादिदुष्टत्वाद्यथावस्थितस्वरूपे निषेध्यतया विवक्षितं निर्देशविशेषं सहेतुकमाहदेहादन्यतयेति। यद्यपि देहादन्यस्मिन्नपि देहिनि देहद्वारा देवादिशब्दाः प्रवर्तन्ते तथापि विविच्य निर्देष्टव्ये प्रकृतिसम्बन्धरहिते चापवृक्तात्मस्वरूपे तावत्तादृशवृत्तिरपि न सम्भवतीत्यभिप्रायः।तत एव देहादन्यतयैवेत्यर्थः। अत्यन्तानभिव्यक्तत्वविवक्षायांउपासते इति स्ववाक्येनापि विरोध इत्यभिप्रायेणाह -- चक्षुरादिकरणानभिव्यक्तमिति।सर्वत्रगम् इत्यत्राणुत्व श्रुतिविरोधपरिहारायाहदेवादिदेहेष्विति। यद्वा निषेध्यस्य चिन्त्यत्वस्य प्रसङ्गार्थंसर्वत्रगम् इत्युक्तमित्याह -- देवादिदेहेषु वर्तमानमपीति।तेन तेन रूपेणेति आत्मचिन्ताविधिविरोधाच्चिन्त्यमात्रनिषेधो न शक्यत इति भावः।तत एव कूटस्थमिति तत्तद्विलक्षणत्वादित्यर्थः। अनेकेषां सन्तन्यमानानां पुरुषाणां साधारणो हि पूर्वः पुरुषः कूटस्थः अत्र तु साधारण्यमात्रं लक्ष्यत इत्याहसर्वसाधारणमिति। एतेन कूटशब्दनिर्दिष्टमायाध्यक्षत्वं वा राशिवत्स्थितत्वं वा वदन्तः प्रसिद्धार्थपरित्यागादिभिर्निरस्ताः। अतः कूट इव निश्चलं वृद्धिक्षयादिरहितमित्यप्यत्र मन्दम्। नन्वेकदा सर्वसाधारणत्वमसिद्धं? कालभेदेन सर्वजातीयशरीरपरिग्रहेऽपि सर्वव्यक्तिपरिग्रहो नास्ति? अतः कथं सर्वसाधारणत्वमित्यत आहदेवादीति। नह्यसाधारणा देवत्वादय आत्मन्यव्यवधानेन सम्बध्यन्त इति भावः।उत्क्रान्त्यादिमतो जीवस्य स्पन्दनिषेधादेरनुपपन्नत्वादत्राचलशब्दविवक्षितमाह -- अपरिणामित्वेनेति। अनित्यत्वं हि परिणामेन व्याप्तम्। ततश्च व्यापकाभावाद्व्याप्याभावो विवक्षित इत्यपुनरुक्तिरित्याह -- तत एव ध्रुवमिति।उपासते [12।2] इत्यनेनैव मनोनियमनस्य सिद्धत्वात्तदुपयुक्तबाह्येन्द्रियव्यापारनियमनपरतया व्याचष्टेसम्यङ्नियम्येति।अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यपरिग्रहः [वि.ध.104।3बृ.ना.31।76] इत्यादिकमभिप्रेत्योक्तंसर्वत्रेति।शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः [5।18] इत्यादिकमभिप्रेत्यआत्मसु ज्ञानैकाकारतया समबुद्धय इत्युक्तम्।तत एव -- समबुद्धित्वादेव।य एवमक्षरमुपासते अक्षरशब्दवाच्यं प्रत्यगात्मानं प्राप्यतया निश्चित्य परमात्मानं तत्प्रापकतयोपासते।तेऽपीति मद्व्यतिरिक्तप्राप्यान्तरनिश्चयवन्तोऽपीत्यर्थः।मां प्राप्नुवन्त्येव -- विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता [वि.पु.6।7।61] इत्युक्तप्रकारेणअविभागेन दृष्टत्वात् [ब्र.सू.4।4।3] इत्यपृथक्सिद्धविशेषणभूतं मुक्तस्वरूपं मत्समानाकारं प्राप्नुवन्तीत्यर्थ इत्यर्थः।प्रमेयशरीरं साधीयः? यदि प्रमाणमुपलभामह इत्याशङ्क्य सोपबृंहणश्रुतिमुदाहरतिपरमं साम्यमुपैतीति। ननु अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते [मुं.उ.1।1।5]अक्षरमम्बरान्तधृतेः [ब्र.सू.1।3।10] इत्यादिषु परब्रह्मसाधारणतया प्रयुज्यमानमक्षरपदं कथं जीवात्मवाचकम् उच्यते अमृताक्षरं हरः [श्वे.उ.1।10]कूटस्थोऽक्षर उच्यते [15।16] इत्यादिषूक्तत्वादित्याहतथाक्षरशब्दनिर्दिष्टादित्यादिना।पञ्चविंशकमव्यक्तं षड्विंशः पुरुषोत्तमः। एतज्ज्ञात्वा विमुच्यन्ते यतयः शान्तबुद्धयः [य.स्मृ.] इत्युक्तप्रकारेणाव्यक्तजीवात्मासक्तचेतसां क्लेशस्त्वधिकतरः? मय्यावेशितचेतस्त्वाभावात्। अव्यक्तविषया मनोवृत्तिः सर्वेन्द्रियोपरतिरूपा। ननु देहवत्त्वं सनकादीनामपि सम्भवतीत्याशङ्क्यदेहात्माभिमानयुक्तैरित्युक्तम्।
।।12.4।।इन्द्रियग्रामं सन्नियम्य वशीकृत्य सर्वत्र मयि देवादिषु लौकिकेषु सुखदुःखेषु वा समबुद्धयः सर्वभूतहिते रताः सन्तो ये पर्युपासते ध्यायन्ति ते मामेव प्राप्नुवन्ति। एवकारेणाक्षरसम्बन्धव्यवहिताः। प्राप्नुवन्तीति भावः? स्वयुक्ततमत्वाभावश्च ज्ञापितः।
।।12.4।।एवंविधमक्षरं कथमुपासनीयमित्यत आह -- संनियम्येति। सर्वत्र काले सर्वदा। एतेन ध्यानस्य,नैरन्तर्यमुक्तम्। इन्द्रियग्रामं समनस्कानीन्द्रियाणि संनियम्य एकीभावेनात्मनि वशे कृत्वा। स्वकारणे प्रविलाप्येत्यर्थः। समा चाञ्चल्यहीना बुद्धिर्येषां ते समबुद्धयो ये भवन्ति तेऽपि मामेव निर्विकल्पं परं ब्रह्म परां काष्ठां प्राप्नुवन्ति। श्रुतिश्चयदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्। इति। सर्वभूतहिते रता इत्यनेन सर्वभूताभयदानेन संन्यासोऽपि ध्यानाङ्गमिति विधीयते।
।।12.4।।उपासनस्य प्रकारं फलं चाह। इन्द्रियग्राममिन्द्रियसमूहं संनियम्य स्वविषयेभ्य उपसंहृत्य सर्वत्र समबुद्धयः सर्वस्मिन्काले इष्टानिष्टप्राप्तौ सभा रागद्वेषरहिता बुद्धिर्येषां ते? अतएव सर्वेषां भूतानां हिते रताः प्रीतिमन्तः ये एवंप्रकारेणाक्षरमुपासते ते मां परमात्मानं प्राप्नुवन्ति। एवकारेणैषामेव साक्षान्मोक्षप्राप्तियोग्यतां बोधयति। प्राप्तिप्यत्र विस्मृतग्रैवकस्य प्राप्तस्य प्राप्तिरेव बोध्या नत्वप्राप्तस्य ग्रामादेः प्राप्तिरिव।विमुक्तश्च विमुच्यते इति श्रुतेः।ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इति स्मृतेश्च।
12.4 संनियम्य having restrained? इन्द्रियग्रामम् the aggregate of the senses? सर्वत्र everywhere? समबुद्धयः evenminded? ते they? प्राप्नुवन्ति obtian? माम् Me? एव only? सर्वभूतहिते in the welfare of all beings? रताः rejoicers.Commentary Those who are free from likes and dislikes (attraction and repulsion) can possess,eanimity of mind. Those who have destroyed ignorance which is the cause for exhilaration and grief? through the knowledge of the Self? those who are free from all kinds of sensual cravings through the constant practice of finding the defects or the evil in sensual pleasures can have evenness of mind. Those who are neither elated nor troubled when they get desirable or undesirable objects can possess evenness of mind.The two currents of love and hatred (likes and dislikes) make a man think of harming others. When these two are destroyed through meditation on the Self? the Yogi is intent on the welfare of others. He rejoices in doing service to the people. He plunges himself in service. He works constantly for the solidarity or wellbeing of this world. He gives fearlessness (Abhayadana) to all creatures. No creature is afraid of him. He becomes a Paramahamsa Sannyasi who gives shelter to all in his heart. He attains Selfrealisation. He becoes a knower of Brahman. The knower of Brahman becomes Brahman.By means of the control of the senses the Yogi closes the ten doors (the senses) and withdraws the senses from the sensual objects and fixes the mind on the innermost Self. Those who meditate on the imperishable transcendental Brahman? restraining and subduing the senses? regarding everything eally? rejoicing in the welfare of all beings -- these also come to Me. It needs no saying that they reach Myself? because I hold the wise as verily Myself (Cf.VII.18). Further it is not necessary to say that they are the best Yogins as they are one with Brahman Himself. (Cf.V.25XI.55)But --
12.4 Having restrained all the senses, even-minded everywhere, intent on the welfare of all beings verily they also come unto Me.
12.4 Subduing their senses, viewing all conditions of life with the same eye, and working for the welfare of all beings, assuredly they come to Me.
12.4 By fully controlling all the organs and always being even-minded, they, engaged in the welfare of all beings, attain Me alone.
12.4 Samniyamya, by fully controlling, withdrawing; indriya-gramam, all the organs; and sarvatra, always at all times; sama-buddhayah, being even-minded-the even-minded are those whose minds remain eipoised in getting anything desirable or undesirable; te, they, those who are of this kind; ratah, engaged; sarva-bhuta-hite, in the welfare of all beings prapnuvanti, attain; mam, Me; eva, alone. As regards them it needs no saying that they attain Me, for it has been said, '৷৷.but the man of Knowledge is the very Self. (This is) My opinion' (7.18). It is certainly not proper to speak of being or not being the best among the yogis with regard to those who have attained identity with the Lord. But,
12.4. Who, by restraining properly the group of sense-organs have eanimity at all stages, and find pleasure in the welfare of all beings - they attain nothing but Me.
12.4 See Comment under 12.5
12.3 - 12.5 The individual self meditated upon by those who follow the path of the 'Aksara' (the Imperishable) is thus described: It cannot be 'defined' in terms indicated by expressions like gods and men etc., for It is different from the body; It is 'imperceptible' through the senses such as eyes; It is 'omnipresent and unthinkable,' for though It exists everywhere in bodies such as those of gods and others, It cannot be conceived in terms of those bodies, as It is an entity of an altogether different kind; It is 'common to all beings' i.e., alike in all beings but different from the bodily forms distinguishing them; It is 'immovable' as It does not move out of Its unie nature, being unmodifiable, and therefore eternal. Such aspirants are further described as those who, 'subduing their senses' like the eye from their natural operations, look upon all beings of different forms as 'eal' by virtue of their knowledge of the sameness of the nature of the selves as knowers in all. Therefore they are not given 'to take pleasure in the misfortune of others,' as such feelings proceed from one's identification with one's own special bodily form. Those who meditate on the Imperishable Principle (individual self) in this way, even they come to Me. It means that they also realise their essential self, which, in respect of freedom from Samsara, is like My own Self. So Sri Krsna will declare later on: 'Partaking of My nature' (14.2). Also the Sruti says: 'Untainted, he attains supreme eality' (Mun. U., 3.1.3). Likewise He will declare the Supreme Brahman as being distinct from the freed self which is without modification and is denoted by the term 'Imperishable' (Aksara), and is described as unchanging (Kutastha). 'The Highest Person is other than this Imperishable' (15.16 - 17). But in the teaching in Aksara-vidya 'Now that higher science by which that Aksara is known' (Mun. U., 1.5) the entity that is designated by the term Aksara is Supreme Brahman Himself; for He is the source of all beings, etc. Greater is the difficulty of those whose minds are attached to the unmanifest. The path of the unmanifest is a psychosis of the mind with the unmanifest as its object. It is accomplished with difficulty by embodied beings, who have misconceived the body as the self. For, embodied beings mistake the body for the self. The superiority of those who adore the Supreme Being is now stated clearly:
12.4 Having subdued all the senses, being even-minded, engaged in the welfare of all beings - they too come to Me only.
।।12.4।।तथा जो इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार संयम करके -- उन्हें विषयोंसे रोककर? सर्वत्र -- सब समय समबुद्धिवाले होते हैं अर्थात् इष्ट और अनिष्टकी प्राप्तिमें जिनकी बुद्धि समान रहती है? ऐसे वे समस्त भूतोंके हितमें तत्पर अक्षरोपासक मुझे ही प्राप्त करते हैं। उन अक्षरउपासकोंके सम्बन्धमें वे मुझे प्राप्त होते हैं इस विषयमें तो कहना ही क्या है क्योंकि ज्ञानीको तो मैं अपना आत्मा ही समझता हूँ यह पहले ही कहा जा चुका है। जो भगवत्स्वरूप ही हैं उन संतजनोंके विषयमें युक्ततम या अयुक्ततम कुछ भी कहना नहीं बन सकता।,
।।12.4।। -- संनियम्य सम्यक् नियम्य उपसंहृत्य इन्द्रियग्रामम् इन्द्रियसमुदायं सर्वत्र सर्वस्मिन् काले समबुद्धयः समा तुल्या बुद्धिः येषाम् इष्टानिष्टप्राप्तौ ते समबुद्धयः। ते ये एवंविधाः ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः। न तु तेषां वक्तव्यं किञ्चित् मां ते प्राप्नुवन्ति इति ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् (गीता 7।18) इति हि उक्तम्। न हि भगवत्स्वरूपाणां सतां युक्ततमत्वमयुक्ततमत्वं वा वाच्यम्।।किं तु --,
।।12.3 -- 12.4।।एवं तर्हिमय्यावेश्य [12।2] इत्यनेनैव मदुपासका एवोत्तमा इति प्रश्नस्योत्तरं जातं? किमुत्तरेण वाक्येन इत्यत आह -- भवन्त्विति। आक्षेपगर्भोऽयमभ्युपगमः। न युक्तं त्वदुपासकानामेवोत्तमत्वमिति भावः। तदुपपादनाय पृच्छति -- इतरेषामिति। अव्यक्तोपासकानां किं फलं मोक्षोऽस्ति? न वा नोचेदुदाहृतवाक्यविरोधः। आद्ये कथं त्वदुपासकानामुत्तमत्वम् फलसाम्यादिति भावः। नन्वेषां विशेषणानां ब्रह्मणोऽन्यत्रासम्भवात् कथमितरेषां किं फलं इत्यस्योत्तरत्वेन एतदवतार इत्यतोऽक्षराव्यक्तत्वयोर्मायायामुपपादितत्वात् तदन्यानि तत्रोपपादयन्ननिर्देश्यत्वं तावदुपपादयति -- अनिर्देश्यत्वं चेति शब्दागोचरम् धर्मस्य मम पादभङ्ग इत्यन्वयः। नन्वत्रापीश्वरोऽस्त्वनिर्देश्य इत्यत आह -- ईश्वरस्त्विति। दैवं पादभङ्गकारणमाहुः। तथा च पुनरुक्तिः स्यादिति भावः। न च दैवशब्दोऽदृष्टवाची। तस्यअपरे कर्म इति पृथगुक्तत्वात्। मायाया अनिर्देश्यत्वे स्पष्टं च प्रमाणमाह -- उक्तं चेति। महाभूतमाकाशवायुरूपम्। उपभूतं तेजोब्भूलक्षणम्। तदा प्रलये। अजरमित्यादिकं प्रलयेऽवस्थानस्योपपादकम्। नचैतत् ब्रह्मेति प्रदर्शनायएषा,ह्येव प्रकृतिः इत्युदाहृतम्।इदानींसर्वत्रगं इत्यादिकं मायायामुपपादयितुमाह -- सर्वगेति। भावप्रधानो निर्देशः। स्वरूपवाची वा लक्षणशब्दः नारायणगुणस्तदिच्छादिलक्षण आश्रयो यस्य तत्तथोक्तम्। अनेन ब्रह्मणो व्यावृत्तिः। अजरादमरादिति जडप्रधानादेः? तस्य तत्प्राप्त्यभावात्। अग्राह्यान्मनसोऽप्यगोचरादित्यनेनाचिन्त्यमिति सिद्ध्यति। असम्भवतोऽक्षयादक्षरादिति ध्रुवत्वसिद्धिः। असति प्रलये भवमसत्त्यम्। ललामं प्रधानम्। द्वितीया भगवदेकाधीना प्रवृत्तिर्विशेषो यस्य तत्तथा। अमूर्तितः प्राकृतदेहरहितात्। सर्वस्याः सर्वगाया इति छान्दसो लिङ्गव्यत्ययः? अनाद्यविद्याभिमानित्वात्। शाश्वततमसः पुरुषोऽभूदित्यन्वयः। इदं प्रसिद्धं तमो मायाख्यं प्रलये सर्वतः प्रसुप्तमिव निर्व्यापारमासीत्। अभूतमजातम्।अप्रज्ञातं इत्यादिना प्रत्यक्षानुमानागमवेद्यत्वाभाव उच्यते। अवेद्यलक्षणत्वादप्रतर्क्यम्। अनेन सर्वत्रगमचिन्त्यं ध्रुवमिति सिध्यति। गीतावाक्येन कूटस्थत्वं नित्यत्वं चेत् ध्रुवमिति पुनरुक्तिः। कूटमनृतं तिष्ठत्यस्मिन्नित्यसम्भवीत्यत आह -- कूट इति। कूटशब्दस्याकाशवाचित्वेऽभिधानं प्राक् पठितम्। तथापि दार्ढ्याय श्रुत्युदाहरणम्। श्रुत्यनुसारेण स्त्रीलिङ्गम्। सा सर्वगैत्युक्तार्थे स्पष्टं प्रमाणम्। निश्चला स्वपदादभ्रष्टा। विश्वं गतमाश्रितमस्यामिति विश्वगा। एतानि चोक्तविशेषणानि तदुपासनस्य मोक्षसाधनत्वाङ्गीकारसमर्थनार्थानीति ज्ञेयम्।
।।12.3 -- 12.4।।भवन्तु त्वदुपासका एवोत्तमाः? इतरेषां तु किं फलं इत्यत आह -- ये त्वित्यादिना। अनिर्देश्यत्वं चोक्तं भागवते मायायाः -- अप्रतर्क्यादनिर्देश्यादिति केष्वपि निश्चयः [ ] इति। ईश्वरस्तु देवशब्देनोक्तःदैवमन्ये परे [4।25] इत्यत्र। उक्तं च सामवेदे काषायणश्रुतौ -- नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम् [ऋक्सं.8।7।18।1] इति। न महाभूतं नोपभूतं तदासीत् इत्याद्यारभ्य तम आसीत्तमसा,गूढमग्रे [ऋक्सं.8।7।17।3] इति। तमो ह्यव्यक्तमजरमनिर्द्देश्यमेषा ह्येव प्रकृतिः इति।सर्वगाऽचिन्त्यादिलक्षणा हि सा। तथाहि मोक्षधर्मे -- नारायणगुणाश्रयादजरामरादतीन्द्रियादग्राह्यादसम्भवतः। असत्यादहिंस्राल्ललामाद्वितीयप्रवृत्तिविशेषादवैरादक्षयादमरादक्षरादमूर्तितः। सर्वस्याः सर्वस्य सर्वकर्त्तुः शाश्वततमसः [म.भा.12।342।6] इतिआसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः इति मानवे [1।5]।कूटस्थोऽक्षर उच्यते [15।16] वक्ष्यति इति। कूटे आकाशे स्थिता कूटस्था। आकाशे संस्थिता त्वेषा ततः कूटस्थिता मता इति ह्यग्वेदखिलेषु। सा सर्वगा निश्चला लोकयोनिः सा चाक्षरा विश्वगा विरजस्का इति सामवेदे गौपवनशाखायाम्।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः।।12.4।।
সংনিযম্যেন্দ্রিযগ্রামং সর্বত্র সমবুদ্ধযঃ৷ তে প্রাপ্নুবন্তি মামেব সর্বভূতহিতে রতাঃ৷৷12.4৷৷
সংনিযম্যেন্দ্রিযগ্রামং সর্বত্র সমবুদ্ধযঃ৷ তে প্রাপ্নুবন্তি মামেব সর্বভূতহিতে রতাঃ৷৷12.4৷৷
સંનિયમ્યેન્દ્રિયગ્રામં સર્વત્ર સમબુદ્ધયઃ। તે પ્રાપ્નુવન્તિ મામેવ સર્વભૂતહિતે રતાઃ।।12.4।।
ਸਂਨਿਯਮ੍ਯੇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਗ੍ਰਾਮਂ ਸਰ੍ਵਤ੍ਰ ਸਮਬੁਦ੍ਧਯ। ਤੇ ਪ੍ਰਾਪ੍ਨੁਵਨ੍ਤਿ ਮਾਮੇਵ ਸਰ੍ਵਭੂਤਹਿਤੇ ਰਤਾ।।12.4।।
ಸಂನಿಯಮ್ಯೇನ್ದ್ರಿಯಗ್ರಾಮಂ ಸರ್ವತ್ರ ಸಮಬುದ್ಧಯಃ. ತೇ ಪ್ರಾಪ್ನುವನ್ತಿ ಮಾಮೇವ ಸರ್ವಭೂತಹಿತೇ ರತಾಃ৷৷12.4৷৷
സംനിയമ്യേന്ദ്രിയഗ്രാമം സര്വത്ര സമബുദ്ധയഃ. തേ പ്രാപ്നുവന്തി മാമേവ സര്വഭൂതഹിതേ രതാഃ৷৷12.4৷৷
ସଂନିଯମ୍ଯେନ୍ଦ୍ରିଯଗ୍ରାମଂ ସର୍ବତ୍ର ସମବୁଦ୍ଧଯଃ| ତେ ପ୍ରାପ୍ନୁବନ୍ତି ମାମେବ ସର୍ବଭୂତହିତେ ରତାଃ||12.4||
saṅniyamyēndriyagrāmaṅ sarvatra samabuddhayaḥ. tē prāpnuvanti māmēva sarvabhūtahitē ratāḥ৷৷12.4৷৷
ஸஂநியம்யேந்த்ரியக்ராமஂ ஸர்வத்ர ஸமபுத்தயஃ. தே ப்ராப்நுவந்தி மாமேவ ஸர்வபூதஹிதே ரதாஃ৷৷12.4৷৷
సంనియమ్యేన్ద్రియగ్రామం సర్వత్ర సమబుద్ధయః. తే ప్రాప్నువన్తి మామేవ సర్వభూతహితే రతాః৷৷12.4৷৷
12.5
12
5
।।12.5।।अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले उन साधकोंको (अपने साधनमें) कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियोंके द्वारा अव्यक्त-विषयक गति कठिनतासे प्राप्त की जाती है।
।।12.5।। परन्तु उन अव्यक्त में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों को क्लेश अधिक होता है, क्योंकि देहधारियों से अव्यक्त की गति कठिनाईपूर्वक प्राप्त की जाती है।।
।।12.5।। सगुण और निर्गुण दोनों के ही उपासकों को एक ही लक्ष्य की प्राप्ति बताने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण दोनों मार्गों की तुलना करने का प्रय़त्न करते हैं जबकि वास्तव में वे अतुलनीय हैं तथा समान प्रभाव और गुण वाले हैं। भगवान् कहते हैं? अव्यक्त के उपासकों को सगुणोपासकों की अपेक्षा अधिक कष्ट होता है। इस कथन को इतना ही और इसी रूप में समझने पर ऐसा प्रतीत होगा कि यह कथन न केवल सगुणोपासना का समर्थन ही करता है? बल्कि निर्गुणोपासना की निश्चयात्मक रूप से निन्दा भी करता है। इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण और पथभ्रष्टक व्याख्या गीता को उपनिषत्प्रतिपादित सनातन ज्ञान का खण्डन करने वाला शास्त्र बना देगी। भक्ति मार्ग के कुछ वाचाल समर्थक ऐसे हैं? जो श्रद्धालु धर्मप्राण जनता को छलने के लिए इस श्लोकार्थ को ही उद्धृत करते हैं स्वयं भगवान् ही प्रथम पंक्ति के तात्पर्य को दूसरी पंक्ति में स्पष्ट करते हैं। अव्यक्त के उपासकों को अधिक क्लेश क्यों होता है भगवान् बताते हैं कि देहधारियों के द्वारा अव्यक्त की गति कठिनाई से प्राप्त की जाती है। इस श्लोक में परीक्षणीय शब्द है देहवद्भि अर्थात् देहधारियों के द्वारा। प्राय इस शब्द का यही वाच्यार्थ स्वीकार किया जाता है। परन्तु यदि हम इस प्रकार की व्याख्या के दूसरे स्वाभाविक पक्ष को देखें? तो ऐसे अर्थ की असंगति स्पष्ट हो जायेगी। यदि सभी देहधारी मनुष्य केवल सगुणसाकार की ही उपासना कर सकते हैं? तो इसका अर्थ यह होगा कि निराकार का ध्यान करना केवल देहत्याग के बाद ही संभव होगा।इसलिए? श्रीशंकराचार्य इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि देहवद्भि का अर्थ है देहाभिमानवद्भि अर्थात् देहधारी से तात्पर्य उन लोगों से है? जिन्हें देहाभिमान बहुत दृढ़ है। जो देह को ही अपना स्वरूप समझते हैं? वे लोग उनमें आसक्त होकर सदा विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। ऐसे विषयासक्त पुरषों के लिए अनन्त निराकार और सर्वव्यापी तत्त्व का ध्यान करना प्राय असंभव होता है। जिसकी दृष्टि मन्द हो और हाथ काँपते हों? ऐसे वृद्ध व्यक्ति को सुई में धागा डालने में बड़ी कठिनाई हो सकती है। इसी प्रकार? जो मन और बुद्धि क्षुब्ध हैं? चंचल और विषयोपभोग में लालायित रहती है? ऐसे अन्तकरण से युक्त पुरुष समस्त नाम और रूपों के अतीत अनन्त आत्मवैभव को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि स्वयं अव्यक्तोपासना में कष्ट नहीं है? वरन् देहाभिमानियों के लिए वह कष्टप्रद प्रतीत होती है।संक्षेप में बहुसंख्यक साधकों के लिए विश्व में व्यक्त भगवान् के सगुण साकार रूप का ध्यान करना अधिक सरल और लाभदायक है। यदि मनुष्य जगत् की सेवा को ही ईश्वर की पूजा समझकर करे? तो शनैशनै उसकी देहासक्ति तथा विषयोपभोग की तृष्णा समाप्त हो जाती है। और मन इतना शुद्ध और सूक्ष्म हो जाता है कि फिर वह निराकार? अव्यक्त और अविनाशी तत्त्व का ध्यान करने में समर्थ हो जाता है।अक्षरोपासकों के जीवनवर्तन के विषय को इसी अध्याय के अन्तिम भाग में वर्णन किया जायेगा। तथापि अब? सगुण की उपासना करने वालों के लिए उपयोगी साधनाओं का वर्णन किया जा रहा है
।।12.5।। व्याख्या--'क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्'--अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले-- इस विशेषणसे यहाँ उन साधकोंकी बात कही गयी है, जो निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ तो मानते हैं, पर जिनका चित्त निर्गुणतत्त्वमें आविष्ट नहीं हुआ है। तत्त्वमें आविष्ट होनेके लिये साधकमें तीन बातोंकी आवश्यकता होती है -- रुचि, विश्वास और योग्यता। शास्त्रों और गुरुजनोंके द्वारा निर्गुण-तत्त्वकी महिमा सुननेसे जिनकी (निराकारमें आसक्त चित्तवाला होने और निर्गुण-उपासनाको श्रेष्ठ माननेके कारण) उसमें कुछ रुचि तौ पैदा हो जाती है और वे विश्वासपूर्वक साधन आरम्भ भी कर देते हैं; परन्तु वैराग्यकी कमी और देहाभिमानके कारण जिनका चित्त तत्त्वमें प्रविष्ट नहीं होता-- ऐसे साधकोंके लिये यहाँ 'अव्यक्तासक्तचेतसाम्' पदका प्रयोग हुआ है।
।।12.3 -- 12.5।।येत्वित्यादि अवाप्यते इत्यन्तम्। ये पुनरक्षरं (S ये त्वक्षरम्) ब्रह्म उपास्ते आत्मानं [ तैरपि ] सर्वत्रगम् इत्यादिभिर्विशेषणैः आत्मनः सर्वे ईश्वरधर्मा आरोप्यन्ते। अतो ब्रह्मोपासका अपि मामेव यद्यपि यान्ति तथापि अधिकतरस्तेषां क्लेशः। आत्मनि किल अपहतपाप्मत्वादिगुणाष्टकारोपं विधाय पश्चात्तमेव उपासते इति स्वतः सिद्धगुणग्रामगरिमणि ईश्वरे ( ईश्वरेऽपि) अयत्नसाध्ये स्थितेऽपि द्विगुणमायासं विन्दन्ति।
।।12.5।।तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसां क्लेशः तु अधिकतरः? अव्यक्ता हि गतिः अव्यक्तविषया मनोवृत्तिः देहवद्भिः देहात्माभिमानयुक्तैः दुःखेन अवाप्यते देहवन्तो हि देहम् एव आत्मानं मन्यन्ते।भगवन्तम् उपासीनानां युक्ततमत्वं सुव्यक्तम् आह --
।।12.5।।सगुणोपासकेष्वपि कथमित्याह -- किंत्विति। अक्षरोपासनस्य दुष्करत्वादुपासनान्तरस्य सुकरत्वादित्यभिप्रेत्याह -- क्लेश इति। अधिक एवेतरेभ्यो द्वैतदर्शिभ्यः कामिभ्य इति शेषः। तेषां क्लेशस्याधिकतरत्वे हेतुं मत्वा विशिनष्टि -- देहेति। अव्यक्तमत्यन्तसूक्ष्मं निर्विशेषमक्षरं तस्मिन्नासक्तमभिनिविष्टं चेतो येषां तेषामिति यावत्। अक्षरोपासकानां क्लेशस्याधिकतरत्वे भगवानेव हेतुमाह -- अव्यक्तेति। दुःखं दुःखेन कृच्छ्रेणेति यावत्? अतो देहाभिमानत्यागादित्यर्थः। ते कथं वर्तन्ते तत्राह -- अक्षरेति।
।।12.5।।तेषां तथाऽव्यक्ततया प्राप्तिरेव मत्स्वरूपस्य? न च तदधिगमपूर्वकं सुखमपीत्याह -- इह क्लेशोऽधिकतरो दुःखमव्यक्ता गतिरिति। तत्रापि सर्वभूतहिते रता एव तदा तथा मां प्राप्नुवन्ति। अनेन भागवतैकादशस्कन्धे भक्तस्वरूपनिरूपणे सर्वभूतहिते रतस्य भगवदात्माप्तिरुक्ता? नान्यस्य? तथेहापीत्युक्तं भवति। ततो देह इव देहवतां मदव्यक्तदेहासक्तचेतसां न तदन्तस्थितस्यात्मनो मम प्राप्तिः साक्षाद्रसानन्दरूपा? किन्तु दुःखमव्यक्तगतिरेव स्वरूपसहानिरैक्यं लवणस्य सलिल इवेति भावः। किञ्च तदुपासनकालेऽपि साधनक्लेशोऽधिकतरः? निर्विशेषे तस्मिन्नभेदेन भावनाया दुःखसम्भवात्। अतएवोक्तं -- श्रेयस्सृतिं भक्तिमुदस्य ते विभो क्लिशयन्ति ये केवलबोधलब्धये [भाग.10।14।14] इति। ते पुरुषोत्तमस्य भक्तिमुदस्य केवलस्याक्षरात्मनो बोधलब्ध्यै क्लिश्यन्तीति क्लेशोऽधिकःश्रम एव हि केवलं इत्याशयेन तरप् च। मद्भजनमार्गे त्वारम्भत एव परमानन्दः अक्षरज्ञानमार्गे त्वन्तत इत्यपि विशेषः।
।।12.5।।इदानीमेतेभ्यः पूर्वेषामतिशयं दर्शयन्नाह -- क्लेशोऽधिकतर इति। पूर्वेषामपि विषयेभ्य आहृत्य सगुणे ब्रह्मणि मनआवेशेन सततं तत्कर्मपरायणत्वे च परश्रद्धोपेतत्वे च क्लेशोऽधिको भवत्येव किंतु अव्यक्तासक्तचेतसां निर्गुणब्रह्मचिन्तनपराणां तेषां पूर्वोक्तसाधनवतां क्लेश आयासोऽधिकतरः अतिशयेनाधिकः। अत्र स्वयमेव हेतुमाह भगवान् -- अव्यक्तेति। अव्यक्ता हि गतिः। हि यस्मादक्षरात्मकं गन्तव्यं फलभूतं ब्रह्म,दुःखं यथा स्यात्तथा कृच्छ्रेण देहवद्भिर्देहमानिभिरवाप्यते सर्वकर्मसंन्यासं कृत्वा गुरुमुपसृत्य वेदान्तवाक्यानां तेन तेन विचारेण तत्तद्भ्रमनिराकरणे महान् प्रयासः प्रत्यक्षसिद्धस्ततः क्लेशोऽधिकतरस्तेषामित्युक्तं। यद्यप्येकमेव फलं तथापि ये दुष्करेणोपायेन प्राप्नुवन्ति तदपेक्षया सुकरेणोपायेन प्राप्नुवन्तो भवन्ति श्रेष्ठा इत्यभिप्रायः।
।।12.5।। ननु च तेऽपि त्वामेव प्राप्नुवन्ति तर्हीतरेषां युक्ततमत्वं कुत इत्यपेक्षायां क्लेशाक्लेशकृतं विशेषमाह -- क्लेश इति त्रिभिः। अव्यक्ते निर्विशेष अक्षर आसक्तं चेतो येषां तेषां क्लेशोऽधिकतरः। हि यस्मादव्यक्तविषया गतिर्निष्ठा देहाभिमानिभिः दुःखं यथाभवत्येवमवाप्यते। देहाभिमानिनां नित्यं प्रत्यक्प्रवणत्वस्य दुर्घटत्वादिति भावः।
।। 12.5 अक्षरनिष्ठस्यापकर्षमाह -- ये त्वक्षरम् इत्यादिश्लोकत्रयेण। सर्वप्रकारनिर्देशनिषेधस्य स्ववचनविरोधादिदुष्टत्वाद्यथावस्थितस्वरूपे निषेध्यतया विवक्षितं निर्देशविशेषं सहेतुकमाहदेहादन्यतयेति। यद्यपि देहादन्यस्मिन्नपि देहिनि देहद्वारा देवादिशब्दाः प्रवर्तन्ते तथापि विविच्य निर्देष्टव्ये प्रकृतिसम्बन्धरहिते चापवृक्तात्मस्वरूपे तावत्तादृशवृत्तिरपि न सम्भवतीत्यभिप्रायः।तत एव देहादन्यतयैवेत्यर्थः। अत्यन्तानभिव्यक्तत्वविवक्षायांउपासते इति स्ववाक्येनापि विरोध इत्यभिप्रायेणाह -- चक्षुरादिकरणानभिव्यक्तमिति।सर्वत्रगम् इत्यत्राणुत्व श्रुतिविरोधपरिहारायाहदेवादिदेहेष्विति। यद्वा निषेध्यस्य चिन्त्यत्वस्य प्रसङ्गार्थंसर्वत्रगम् इत्युक्तमित्याह -- देवादिदेहेषु वर्तमानमपीति।तेन तेन रूपेणेति आत्मचिन्ताविधिविरोधाच्चिन्त्यमात्रनिषेधो न शक्यत इति भावः।तत एव कूटस्थमिति तत्तद्विलक्षणत्वादित्यर्थः। अनेकेषां सन्तन्यमानानां पुरुषाणां साधारणो हि पूर्वः पुरुषः कूटस्थः अत्र तु साधारण्यमात्रं लक्ष्यत इत्याहसर्वसाधारणमिति। एतेन कूटशब्दनिर्दिष्टमायाध्यक्षत्वं वा राशिवत्स्थितत्वं वा वदन्तः प्रसिद्धार्थपरित्यागादिभिर्निरस्ताः। अतः कूट इव निश्चलं वृद्धिक्षयादिरहितमित्यप्यत्र मन्दम्। नन्वेकदा सर्वसाधारणत्वमसिद्धं? कालभेदेन सर्वजातीयशरीरपरिग्रहेऽपि सर्वव्यक्तिपरिग्रहो नास्ति? अतः कथं सर्वसाधारणत्वमित्यत आहदेवादीति। नह्यसाधारणा देवत्वादय आत्मन्यव्यवधानेन सम्बध्यन्त इति भावः।उत्क्रान्त्यादिमतो जीवस्य स्पन्दनिषेधादेरनुपपन्नत्वादत्राचलशब्दविवक्षितमाह -- अपरिणामित्वेनेति। अनित्यत्वं हि परिणामेन व्याप्तम्। ततश्च व्यापकाभावाद्व्याप्याभावो विवक्षित इत्यपुनरुक्तिरित्याह -- तत एव ध्रुवमिति।उपासते [12।2] इत्यनेनैव मनोनियमनस्य सिद्धत्वात्तदुपयुक्तबाह्येन्द्रियव्यापारनियमनपरतया व्याचष्टेसम्यङ्नियम्येति।अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यपरिग्रहः [वि.ध.104।3बृ.ना.31।76] इत्यादिकमभिप्रेत्योक्तंसर्वत्रेति।शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः [5।18] इत्यादिकमभिप्रेत्यआत्मसु ज्ञानैकाकारतया समबुद्धय इत्युक्तम्।तत एव -- समबुद्धित्वादेव।य एवमक्षरमुपासते अक्षरशब्दवाच्यं प्रत्यगात्मानं प्राप्यतया निश्चित्य परमात्मानं तत्प्रापकतयोपासते।तेऽपीति मद्व्यतिरिक्तप्राप्यान्तरनिश्चयवन्तोऽपीत्यर्थः।मां प्राप्नुवन्त्येव -- विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता [वि.पु.6।7।61] इत्युक्तप्रकारेणअविभागेन दृष्टत्वात् [ब्र.सू.4।4।3] इत्यपृथक्सिद्धविशेषणभूतं मुक्तस्वरूपं मत्समानाकारं प्राप्नुवन्तीत्यर्थ इत्यर्थः।प्रमेयशरीरं साधीयः? यदि प्रमाणमुपलभामह इत्याशङ्क्य सोपबृंहणश्रुतिमुदाहरतिपरमं साम्यमुपैतीति। ननु अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते [मुं.उ.1।1।5]अक्षरमम्बरान्तधृतेः [ब्र.सू.1।3।10] इत्यादिषु परब्रह्मसाधारणतया प्रयुज्यमानमक्षरपदं कथं जीवात्मवाचकम् उच्यते अमृताक्षरं हरः [श्वे.उ.1।10]कूटस्थोऽक्षर उच्यते [15।16] इत्यादिषूक्तत्वादित्याहतथाक्षरशब्दनिर्दिष्टादित्यादिना।पञ्चविंशकमव्यक्तं षड्विंशः पुरुषोत्तमः। एतज्ज्ञात्वा विमुच्यन्ते यतयः शान्तबुद्धयः [य.स्मृ.] इत्युक्तप्रकारेणाव्यक्तजीवात्मासक्तचेतसां क्लेशस्त्वधिकतरः? मय्यावेशितचेतस्त्वाभावात्। अव्यक्तविषया मनोवृत्तिः सर्वेन्द्रियोपरतिरूपा। ननु देहवत्त्वं सनकादीनामपि सम्भवतीत्याशङ्क्यदेहात्माभिमानयुक्तैरित्युक्तम्।
।।12.5।।किञ्च मदभिमता भावात्परम्पराप्राप्तावपि तेषां क्लेशः? अप्रकटरूपासक्तचित्तानां सेवार्थप्रकटितसर्वेन्द्रियवैकल्यात् क्लेशः अधिकतरो भवति? आसक्तचित्तत्वाद्दर्शनाद्यभिलाषे सति तदभावादाधिक्यं भवति साधनदशायामपि? अत एवाधिकतरत्वमुक्तम्। फलमपि दुःखेन प्राप्यत इत्याह -- अव्यक्तेति। देहवद्भिः देहात्मसेवमानवद्भिः अव्यक्ता गतिः अव्यक्तनिष्ठा गतिः दुःखं दुःखेन अवाप्यते प्राप्यते। हीति युक्तत्वाय। भगवत्सेवैकयोग्यदेहस्य व्यर्थगमनेन सा गतिर्दुःखेनैव प्राप्यते। प्राप्त्यनन्तरमप्यलौकिकदेहाद्यभावादव्यक्ततया प्रवेशे तदात्मकांशस्य पूर्वानुभूतलौकिकेन्द्रियरसस्मरणेन जले निमग्नस्य जलपानवद्दुःखं प्राप्यत इति भावः।
।।12.5।।अस्या गतेर्दुष्प्रापत्वमाह -- क्लेश इति। यद्यपि सगुणविदामधिकः क्लेशोऽस्त्येव तथापि ते सालम्बना ध्यायन्ति सोपानारोहक्रमेण परां काष्ठां प्रविशन्ति। येषां तु निरालम्बं ध्यानमाकाशयुद्धसमं तेषां निर्विषये चेतःस्थिरीकरणेऽधिकतरः क्लेशोऽस्ति। तत्र क्रमिकध्यानप्रयोगः शुद्धे चिन्मात्रे विश्वरूपं माययाध्यस्तम्। तत्र च केवलमातिवाहिकं कृत्स्नं जडमाधिभौतिकमध्यस्तम्। यथोक्तं वसिष्ठेनआतिवाहिक एवायं त्वादृशैश्चित्तदेहकः। आधिभौतिकया बुद्ध्या गृहीतश्चिरभावनात्।। इति। अतिक्रम्य पाषाणादीन्वहति इष्टदेशं नयत्यभिमानिनमित्यतिवाहि सर्वत्राप्रतिहतगतिकं भूतसूक्ष्मं तेन निर्वत्त आतिवाहिकोऽयं कृत्स्नः प्रपञ्चो यतश्चित्तदेहकः चित्तमेव देहः स्वरूपमस्येति स्वप्नतुल्य एव सन् चिरभावनात् वज्रपञ्जरवत्काठिन्येनोपेत आधिभौतिकया स्थूलभूतप्रभवया बुद्ध्या गृहीत इति श्लोकार्थः। एवं च यथा तीव्राभिनिवेशेन निरीक्ष्यमाणो रज्जूरगः स्वयं शाम्यति तदधिष्ठानभूता रज्जुश्चाविर्भवति तथा वस्तुतश्चिद्रूपायामपि माधवादिमूर्तौ जाड्यमध्यस्तं तामेवाभिनिवेशेन चिरकालं चर्मचक्षुषैव पश्यतस्तस्या मूर्तेर्जाड्यं तिरोधीयते चैतन्यमाविर्भवति। अतएव बाणादयः स्वाराध्यैः सार्धं स्वामिभृत्यन्यायेन व्यवहरन्तीति सर्वत्रोपाख्यायते। एवमचेतनाया मूर्तेरपि तत्त्वं विश्वरूपमेवेति मूर्तिमेवात्यादरेण पश्यंस्तस्यास्तत्त्वं विश्वरूपमवगच्छति यदपश्यदर्जुनो वासुदेवदेहे एतदेव वितर्कजं प्रत्यक्षं प्रकृत्योक्तं भगवता योगभाष्यकारेण बादरायणेनतत्परं प्रत्यक्षं तच्च श्रुतानुमानयोर्बीजम् इति। स्थूलालम्बनः समाधिर्वितर्कः। विश्वरूपस्याप्यस्मितामात्रेऽध्यासात्तस्यावलोकनेऽस्मितामात्रमवशिष्यते। अस्मिताया अपि शुद्धायां चितावध्यस्तत्वात्तस्यामपि समाहिते मनसि सहैव मनसाऽस्मिता तिरोधीयते शुद्धा चितिरेवावशिष्यते इति। एवं व्यक्तासक्ताः सोपानारोहक्रमेण परां काष्ठां प्रतिपद्यन्ते। ये तु अव्यक्तासक्ताः पक्षिवदकस्मादूर्ध्वं पदमारुरुक्षन्ति ते लयेन विक्षेपेण च भृशं बाध्यन्ते। लयमेव च कदाचित्समाधित्वेनाभ्युपगच्छन्तीति तेषां पराभवसंभावनाप्यस्तीत्यत उक्तं क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसामिति। हि यस्मादव्यक्ता निरालंबना गतिः पदप्राप्तिर्देहवद्भिर्देहाभिमानिभिर्दुःखं यथास्यात्तथा अवाप्यते न तु सा सुखप्राप्येति भावः।
।।12.5।।एवं चेत्तर्हि एतेषां सत्तमतां कुतो न ब्रूषे कुतश्च सगुणोपासकान् सत्तमानुक्तवानसीत्याशङ्क्य स्वस्वरुपाणां सतां युक्ततमत्वस्यायुक्ततमव्वस्य वा वक्तव्यत्वात्सगुणोपासने क्लेशाधिकतराभावच्चेत्याशयेनाह -- क्लेश इति। यद्यपि सगुणोपासकानां मत्कर्मपरायणतादौ क्लेशोऽधिकोऽस्त्येव तथाप्यक्षरोपासकानां देहाभिमानपरित्यागनिबन्धोऽधिकतरः क्लेशः अव्यक्ते करणागोचरे तत्प्राप्त्यर्थमासक्तं चेतश्चित्तं येषां तेषामव्यक्तासक्तचेतसां हि यस्मादव्यक्ताक्षरात्मिका गतिर्देहवद्भिर्देहाभिमानवद्भिर्दुःखं यथा स्यात्तथा। अतिकष्टेनेति यावत्। अवाप्यतेऽतः क्लेशोऽधिकतर इत्युक्तम्।
12.5 क्लेशः the trouble? अधिकतरः (is) greater? तेषाम् of those? अव्यक्तासक्तचेतसाम् whose minds are set on the unmanifested? अव्यक्ता the unmanifested? हि for? गतिः goal? दुःखम् pain? देहवद्भिः by the embodied? अवाप्यते is reached.Commentary Worshippers of the Saguna (alified) and the Nirguna (unalified) Brahman reach the same goal. But the latter path is very hard and arduous? because the aspirant has to give up attachment to the body from the very beginning of his spiritual practice.The embodied Those who identify themselves with their bodies. Identification with the body is Dehabhimana. The imperishable Brahman is very hard to reach for those who are attached to their bodies. Further? it is extremely difficult to fix the resltess mind on the formless and attributeless Brahman. Contemplation on the imperishable? attributeless Brahman demands a very sharp? onepointed and subtle intellect. The Upanishad says Drisyate tu agraya buddhya sukshmaya sukshmadarsibhih -- It is seen by subtle seers through their subtle intellect.He who meditates on the unmanifested should possess the four means. Then he will have to approach a Guru who is well versed in the scriptures and who is also established in Brahman. He will have to hear the Truth from him? then reflect and meditate on It.He who realises the Nirguna (attributeless) Brahman attains eternal bliss or Selfrealisation or Kaivalya (Moksha) which is preceded by the destruction of ignorance with its effects. He who realises the Saguna Brahman (Brahman with attributes) goes to Brahmaloka and enjoys all the wealth and powers of the Lord. He then gets initiation into the mysteries of the Absolute from Hiranyagarbha and without any effort and without the practice of hearing? reflection and meditation attains? through the grace of the Lord alone? the same state as attained by those who have realised the Nirguna Brahman. Through the knowledge of the Self? ignorance and its effects,are destroyed in the case of the worshippers of the Saguna Brahman also.
12.5 Greater is their trouble whose minds are set on the unmanifested; for the goal; the unmanifested, is very hard for the embodied to reach.
12.5 But they who thus fix their attention on the Absolute and Impersonal encounter greater hardships, for it is difficult for those who possess a body to realise Me as without one.
12.5 For them who have their minds attached to the Unmanifested the struggle is greater; for, the Goal which is the Unmanifest is attained with difficulty by the embodied ones.
12.5 Tesam, for them; avyakta-asakta-cetasam, who have their minds attached to the Unmanifest; klesah,the struggle; is adhika-tarah, greater. Although the trouble is certainly great for those who are engaged in works etc. for Me, still owing to the need of giving up self-identification with the body, it is greater in the case of those who accept the Immutable as the Self and who kept in view the supreme Reality. Hi, for; avyakta gatih, the Goal which is the Unmanifest-(the goal) which stands in the form of the Immutable; that is avapyate, attained; duhkham, with difficulty; dehavadbhih, by the embodied ones, by those who identify themselves with the body. Hence the struggle is greater. We shall speak later of the conduct of those who meditate on the Unmanifest.
12.5. (But) the trouble is much more for them, who have their mind fixed on the Unmanifest; for the Unmanifest-goal is attained with difficulty by men, bearing body.
12.3-5 Ye tu etc. upto avapyate. On the other hand, those, who contemplate on the Self as the motionless Brahman - by them also all the attributes of Absolute Lord are superimposed on the Self - the attributes that are indicated by the adjectives 'omni-present' etc. Therefore even the contemplators of the [attributeless] Brahman reach nothing but Me, of course. However, the trouble they undergo, is much more. For, they [first] superimposed on the Self the actonary of attributes like absence-of-sin etc., and then comtemplate on It. Thus, while without any effort [on the part of the contemplator] the Lord is readily available with the greatness due to the host of self-accomplished attributes, these persons undergo two-fold trouble.
12.3 - 12.5 The individual self meditated upon by those who follow the path of the 'Aksara' (the Imperishable) is thus described: It cannot be 'defined' in terms indicated by expressions like gods and men etc., for It is different from the body; It is 'imperceptible' through the senses such as eyes; It is 'omnipresent and unthinkable,' for though It exists everywhere in bodies such as those of gods and others, It cannot be conceived in terms of those bodies, as It is an entity of an altogether different kind; It is 'common to all beings' i.e., alike in all beings but different from the bodily forms distinguishing them; It is 'immovable' as It does not move out of Its unie nature, being unmodifiable, and therefore eternal. Such aspirants are further described as those who, 'subduing their senses' like the eye from their natural operations, look upon all beings of different forms as 'eal' by virtue of their knowledge of the sameness of the nature of the selves as knowers in all. Therefore they are not given 'to take pleasure in the misfortune of others,' as such feelings proceed from one's identification with one's own special bodily form. Those who meditate on the Imperishable Principle (individual self) in this way, even they come to Me. It means that they also realise their essential self, which, in respect of freedom from Samsara, is like My own Self. So Sri Krsna will declare later on: 'Partaking of My nature' (14.2). Also the Sruti says: 'Untainted, he attains supreme eality' (Mun. U., 3.1.3). Likewise He will declare the Supreme Brahman as being distinct from the freed self which is without modification and is denoted by the term 'Imperishable' (Aksara), and is described as unchanging (Kutastha). 'The Highest Person is other than this Imperishable' (15.16 - 17). But in the teaching in Aksara-vidya 'Now that higher science by which that Aksara is known' (Mun. U., 1.5) the entity that is designated by the term Aksara is Supreme Brahman Himself; for He is the source of all beings, etc. Greater is the difficulty of those whose minds are attached to the unmanifest. The path of the unmanifest is a psychosis of the mind with the unmanifest as its object. It is accomplished with difficulty by embodied beings, who have misconceived the body as the self. For, embodied beings mistake the body for the self. The superiority of those who adore the Supreme Being is now stated clearly:
12.5 Greater is the difficulty of those whose minds are thus attached to the unmanifest. For the way of the unmanifest is hard to reach by embodied beings.
।।12.5।।किंतु --, ( उनको ) क्लेश अधिकतर होता है। यद्यपि मेरे ही लिये कर्मादि करनेमें लगे हुए साधकोंको भी बहुत क्लेश होता है? परंतु जिनका चित्त अव्यक्तमें आसक्त है? उन अक्षरचिन्तक परमार्थदर्शियोंको तो देहाभिमानका परित्याग करना पड़ता है? इसलिये उन्हें और भी अधिक क्लेश उठाना पड़ता है। क्योंकि जो अक्षरात्मिका अव्यक्तगति है वह देहाभिमानयुक्त पुरुषोंको बड़े कष्टसे प्राप्त होती है? अतः उनको अधिकतर क्लेश होता है। उन अक्षरोपासकोंका जैसा आचारविचारव्यवहार होता है वह आगे ( अद्वेष्टाइत्यादि श्लोकोंसे बतलायेंगे।
।।12.5।। --,क्लेशः अधिकतरः? यद्यपि मत्कर्मादिपराणां क्लेशः अधिक एव क्लेशः अधिकतरस्तु अक्षरात्मनां परमात्मदर्शिनां देहाभिमानपरित्यागनिमित्तः। अव्यक्तासक्तचेतसाम् अव्यक्ते आसक्तं चेतः येषां ते अव्यक्तासक्तचेतसः तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्ता हि यस्मात् या गतिः अक्षरात्मिका दुःखं सा देहवद्भिः देहाभिमानवद्भिः अवाप्यते? अतः क्लेशः अधिकतरः।।अक्षरोपासकानां यत् वर्तनम्? तत् उपरिष्टाद्वक्ष्यामः --,
।।12.5।।नन्वितरेषां किं फलं इत्यस्य प्रश्नस्यते प्राप्नुवन्ति मामेव [12।4] इत्युत्तरं दत्तम्? तत्किमुत्तरेण इत्यत आह -- कथमिति। पूर्ववाक्ये पक्षग्रहणमात्रं कृतम्? न तु तत्राभिप्रेतस्य दोषस्य परिहारः। अतः पूर्वपक्षिणाऽभिप्रायोद्धाटने कृते तत्समाधानमाहेति भावः। तर्ह्युभयेषां फलसाम्ये। यद्यप्येषा शङ्का पूर्ववाक्ये परिहृता? पर्यादिपदप्रयोगात्। तथा च वक्ष्यति। तथापि साध्यस्यानुक्तत्वाद्धेतुवचनं स्वरूपकथनं मन्यमानस्य भवत्येव पुनः शङ्का। उत्तरार्धे पदानां व्यवहितत्वादन्वयाप्रतीतौ तमाह -- अव्यक्तेति। अनेनदुःखं इत्यस्य क्रियाविशेषणत्वमुक्तम्। गतिशब्दस्याकर्तरि कारके भावे च प्रयोगादत्र विवक्षितमर्थमाह -- गतिरिति। गम्यतेऽनेनेति व्युत्पादनादुपायो गतिरित्यर्थः। ननु मार्गस्याव्यक्तत्वं कथमुच्यते कुतश्च गम्यार्थता गतिशब्दस्य त्यज्यत इत्यत आह -- अव्यक्तेति। अव्यक्तोपासनं द्वारं उपायो यस्यासौ तथोक्तः। अव्यक्तोपासनानन्तरभावि,यद्भगवदुपासनं तदेवमुच्यते अनेनाव्यक्तशब्दस्तदुपासनं लक्षयति। तेन च तद्द्वारकत्वं लक्ष्यते गम्यार्थतायां च गतिशब्दस्याव्यक्ताख्यं गम्यमित्युक्तं स्यात्। न च तद्युक्तम्।ते प्राप्नुवन्ति मामेव इति भगवत्प्राप्तेरुक्तत्वादित्युक्तं भवति। अत्र पूर्वार्धेऽस्य मार्गस्याधिकतरक्लेशवत्त्वं प्रतिज्ञाय कथमित्यतस्तत्प्रसिद्धमित्युत्तरार्धेनोक्तम्। तत्प्रसिद्धिं विवृणोति -- अतिशयेति।षष्ठोक्तप्रकारेण सर्वसमबुद्धिः? ततः किं इत्यत आह -- तदृते चेति। अयोगव्यवच्छेद एवायमुक्तः? न तु तावन्मात्रेणेत्याह -- सत्यपीति। तस्मिन्नव्यक्तापरोक्ष्ये सति विष्णुप्रसाद इति वर्तते। ततोऽपि किं इत्यत आह -- नर्ते चेति। तं विष्णुप्रसादम्। अस्त्वेवमव्यक्तोपासनद्वारकभगवत्प्राप्तिमार्गप्रकारः। तथापि कथमत्राधिकतरः क्लेश इत्यत आह -- विनेति। अव्यक्तोपासनमार्गं अयमव्यक्तोपासनद्वारकः। एवं तर्हि किमिति प्रवृत्तो येनार्जुनेनाशङ्कितः इत्यत आह -- तथापीति। एवं तर्हि मार्गयोः साम्यमेव। अनेन प्रयोजनेन क्लेशस्य समाधानादित्यत आह -- तत्रापीति। अव्यक्तोपासनद्वारकेमार्गेऽपि द्वितीयं भगवदुपासने दुःखं पाक्षिकमेतत्? ऊनेन वेत्युक्तत्वात् इतश्चाव्यक्तोपासनद्वारके मार्गे भगवदुपासनात्क्लेशोऽधिकतर इत्याह -- इन्द्रियेति। नातिप्रसादमेतीत्यतः परमेक इति शब्दः। द्वावपि हेतौ प्रकारार्थौ वा।कुतोऽयं भगवतो भावः इत्यत आह -- तदेतदिति। उपलक्षणमेतत्। सर्वत्र समबुद्धय इत्यादिनेत्यपि द्रष्टव्यम्? तत्र परीत्यनेनोपासकस्यातिशयः। समित्यनेनेन्द्रियनियमस्यातिशयः। सर्वत्रेत्यादिना सर्वेत्यादिकम्। तरपाऽतिसुष्ट्वाचारादिकम्।अव्यक्ता गतिः इत्यनेन तदृते चेत्यादिव्यवधानम्। मामेवेत्यवधारणेन तथापीत्यादिकं प्राप्नुवन्तीति स्वातन्त्र्योक्त्येन्द्रियसंयमादिति देवतासहायाभावः। भगवदुपासने त्वेतदभावो यथा गीतोक्तस्तदुत्तरत्र प्रदर्शयिष्यते। आगमान्तरसिद्धत्वाच्चायं भवति। भगवदभिप्राय इत्याह -- सामवेद इति। तेषामित्यादिषष्ठी तृतीयार्थे। विदित्वा साक्षात्कृत्य ततो वेदनात्प्रसन्नात्ततो वासुदेवात्। यावता प्रयासेन तत्प्रसादोऽव्यक्तप्रसादः। सर्वस्यापीति द्वितीयस्तुशब्दोऽपिशब्दार्थे आधिक्यशब्देन न्यूनत्वमप्युलक्ष्यते। न्यूनाधिकयोरन्यत्र प्रत्यवायहेतुत्वात्। नाव्यक्तादेरिति पाठे मध्ये इत्युपस्कारः। ममोपासनेनात्मभावं कैवल्यं परमात्मने तमुद्दिश्यअस्य वाक्यस्य कथं प्रकृतोपयोग इत्यत उक्तम् -- श्रीवचनमिति। नित्ये नियते ब्रह्मण्ये ब्रह्मणि साधौ निवसामि प्रसन्ना भवामीति च श्रीवचनमिति सम्बन्धः।पूर्वं शङ्काहेतुत्वेन श्रियं वसाना [ऋक्सं.7।4।4।4] इत्यादीनि वाक्यान्युदाहृतानि तेष्विदमेकं नाव्यक्तविषयमिति वस्तुस्थितिमाह -- महत इति। अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं [कठो.3।15] इति वाक्यप्रतिपाद्यमिति यावत्। अत्राभ्युच्चययुक्तिं चाह -- तमिति। ननूक्तपरामर्शोपपत्तेरितिपूर्वपक्षेऽपि युक्तिरुक्तेत्यतः साऽन्यथासिद्धेत्याह -- महत इति। तथा चोक्तवक्ष्यमाणबलात् अव्यक्तात्पुरुषः परः [कठो.3।11] इत्युक्तस्यायं परामर्श इति भावः। श्रुत्यन्तरेणैवं व्याख्यातत्वाच्च एतद्वाक्यं तत्परमित्याह -- तथाचेति। पुरुभिर्हूतः पुरुहूतः। नन्वव्यक्तं नाम तत्त्वमेव नास्तीति सूत्रकृतोक्तं ततस्तदभिमानिन्यव्यक्ताख्या देवताऽपि नास्ति तत्कथं तद्विषयतया व्याख्यानं इत्यत आह -- न चेति। तर्हि कथं तत्सूत्रं इत्यत आह -- शरीरेति। साङ्ख्यप्रसिद्धं प्रधानमिति स्वतन्त्रं मुख्यतः शब्दवाच्यमित्यर्थः। वैदिकमिति भगवदधीनं तत्सम्बन्धेन शब्दवाच्यमित्यर्थः। अत्र श्रुतिं चाह तथा चेति। प्राक् तथाऽप्यपरोक्षीकृताव्यक्तानामित्यादिनैकं प्रयोजनमुक्तम्। अपरं च सप्रमाणकमाह -- सुव्रतानामिति। बुद्ध्येत्युक्तप्रकारेणोपासीना य इति शेषः। एतत्प्रयोजनं गीतायां न सूचितमिति न तत्रैवोक्तम्।
।।12.5।।कथं तर्हि त्वदुपासकानामुत्तमत्वं इत्यत आह -- क्लेश इति। अव्यक्ता गतिर्दुःखं ह्यवाप्यते। गतिर्मार्गः। अव्यक्तोपासनद्वारको मत्प्राप्तिमार्गो दुःखमवाप्यत इत्यर्थः। अतिशयोपासनसर्वेन्द्रियातिनियमनसर्वसमबुद्धिसर्वभूतहितेरतत्वातिसुष्ट्वाचारसम्यग्विष्णुभक्त्यादिसाधनसन्दर्भमृते नाव्यक्तापरोक्षम्।तदृते च न विष्णुप्रसादः। सत्यपि तस्मिन्नसम्यग्भगवदुपासनमृते नर्ते च तं मोक्षः? विनाऽव्यक्तोपासनं भवत्येव भगवदुपासकानां मोक्ष इति क्लेशिष्ठो़ऽयं मार्ग इति भावः। तथाप्यपरोक्षीकृताव्यक्तानां सुकरं भगवदुपासनमित्येव प्रयोजनम्। तत्रापि योऽव्यक्तापरोक्षे प्रयासस्तावता प्रयासेन यदि भगवन्तमुपास्ते? ऊनेन वा? तदा भगवदपरोक्षमेव भवतीति द्वितीयमधिकम्। इन्द्रियसंयमाद्यूनभावे अत्युपासकस्यापि देवी नातिप्रसादमेति। देवस्तु तानि साधनानि भक्तिमतः स्वयमेव प्रयत्नेन ददातीति सौकर्यमिति भक्तानां भगवुपासने। इतरत्र च क्लेशोऽधिकतरः।तदेतत्सर्वं पर्युपासते सन्नियम्याधिकतर इति परिसन्तरप्शब्दैः प्रतीयते। सामवेदे माधुच्छन्दशाखायां चोक्तम् -- भक्ताश्च येऽतीव विष्णावतीव जितेन्द्रियाः सम्यगाचारयुक्ताः। उपासते तां समबुद्धयश्च तेषां देवी दृश्यते नेतरेषाम्। दृष्टा च सा भक्तिमतीव विष्णौ दत्त्वोपास्ते सर्वविघ्नांश्छिनत्ति। उपास्य तं वासुदेवं विदित्वा ततस्ततः शान्तिमत्यन्तमेति इति। उक्तं च सामवेदे अयास्यशाखायाम् -- प्रसन्नो भविता देवः सोऽव्यक्तेन सहैव तु। यावता तत्प्रसादो हि तावतैव न संशयः। न तत्प्रसादमात्रेण प्रीयते स महेश्वरः। तस्मिन्प्रीते तु सर्वस्य प्रीतिस्त भवति ध्रुवम्।।यद्यप्युपासनाधिक्यं तथापि गुणदो हि सः। मुक्तिदश्च स एवैको नाव्यक्तादिस्तु कश्चन इति।ममात्मभावमिच्छन्तो यतन्ते परमात्मने [म.भा.12।228।20] इति मोक्षधर्मे श्रीवचनम्।धर्मनित्ये महाबुद्धौ ब्रह्मण्ये सत्यवादिनि। प्रश्रिते दानशीले च सदैव निवसाम्यहम् [म.भा.12।228।26] इति च।महतः परं तु ब्रह्मैव। तथा हि भगवता सयुक्तिकमभिहितम्।वदतीति चेन्न प्राज्ञो हि त्रयाणामेव चैवमुपन्यासः प्रश्नश्चेत्यादि। तमिति पुल्लिङ्गाच्चैतत्सिद्धिः। महतः परत्वं तु अव्यक्तपरस्य भवत्येव। तथा चाग्निवेश्यशाखायाम् -- अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवम् [कठो.3।15] इति। परो हि देवः पुरुहूतो महत्तः इति। न चाव्यक्तरूपं भगवता निषिद्धं भारतादौ साधितत्वात्। शरीररूपकविन्यस्तगृहीतेरित्यादौ तु साङ्ख्यप्रसिद्धं,प्रधानं निषिध्य वैदिकमव्यक्तमेवोक्तम्। तथा च सौकरायणश्रुतिः -- शरीररूपिका अशरीरस्य विष्णोर्यतः प्रिया सा जगतः प्रसूतिः इति। सुव्रतानां क्षिप्रं महदैश्वर्यं ददाति देवी न देव इति विशेषः। सुवर्णवर्णां पद्मकरां च देवीं सर्वेश्वरीं व्याप्तजडां च बुद्ध्वा। सैवेति वै सुव्रतानां तु मासान्महाविभूतिं श्रीस्तु दद्यान्न देवः इत्यृग्वेदखिलेषु।
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।12.5।।
ক্লেশোধিকতরস্তেষামব্যক্তাসক্তচেতসাম্৷ অব্যক্তা হি গতির্দুঃখং দেহবদ্ভিরবাপ্যতে৷৷12.5৷৷
ক্লেশোধিকতরস্তেষামব্যক্তাসক্তচেতসাম্৷ অব্যক্তা হি গতির্দুঃখং দেহবদ্ভিরবাপ্যতে৷৷12.5৷৷
ક્લેશોધિકતરસ્તેષામવ્યક્તાસક્તચેતસામ્। અવ્યક્તા હિ ગતિર્દુઃખં દેહવદ્ભિરવાપ્યતે।।12.5।।
ਕ੍ਲੇਸ਼ੋਧਿਕਤਰਸ੍ਤੇਸ਼ਾਮਵ੍ਯਕ੍ਤਾਸਕ੍ਤਚੇਤਸਾਮ੍। ਅਵ੍ਯਕ੍ਤਾ ਹਿ ਗਤਿਰ੍ਦੁਖਂ ਦੇਹਵਦ੍ਭਿਰਵਾਪ੍ਯਤੇ।।12.5।।
ಕ್ಲೇಶೋಧಿಕತರಸ್ತೇಷಾಮವ್ಯಕ್ತಾಸಕ್ತಚೇತಸಾಮ್. ಅವ್ಯಕ್ತಾ ಹಿ ಗತಿರ್ದುಃಖಂ ದೇಹವದ್ಭಿರವಾಪ್ಯತೇ৷৷12.5৷৷
ക്ലേശോധികതരസ്തേഷാമവ്യക്താസക്തചേതസാമ്. അവ്യക്താ ഹി ഗതിര്ദുഃഖം ദേഹവദ്ഭിരവാപ്യതേ৷৷12.5৷৷
କ୍ଲେଶୋଧିକତରସ୍ତେଷାମବ୍ଯକ୍ତାସକ୍ତଚେତସାମ୍| ଅବ୍ଯକ୍ତା ହି ଗତିର୍ଦୁଃଖଂ ଦେହବଦ୍ଭିରବାପ୍ଯତେ||12.5||
klēśō.dhikatarastēṣāmavyaktāsaktacētasām. avyaktā hi gatirduḥkhaṅ dēhavadbhiravāpyatē৷৷12.5৷৷
க்லேஷோதிகதரஸ்தேஷாமவ்யக்தாஸக்தசேதஸாம். அவ்யக்தா ஹி கதிர்துஃகஂ தேஹவத்பிரவாப்யதே৷৷12.5৷৷
క్లేశోధికతరస్తేషామవ్యక్తాసక్తచేతసామ్. అవ్యక్తా హి గతిర్దుఃఖం దేహవద్భిరవాప్యతే৷৷12.5৷৷
12.6
12
6
।।12.6।।परन्तु जो कर्मोंको मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्ययोगसे मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं।
।।12.6।। परन्तु जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्ययोग के द्वारा मेरा (सगुण का) ही ध्यान करते हैं।।
।।12.6।। See Commentary under 12.7
।।12.6।। व्याख्या--[ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें भगवान्ने अनन्य भक्तके लक्षणोंमें तीन विध्यात्मक '(मत्कर्मकृत्, मत्परमः और मद्भक्तः)' और दो निषेधात्मक '(सङ्गवर्जितः' और 'निर्वैरः') पद दिये थे। उन्हीं पदोंका संकेत इस श्लोकमें इस प्रकार किया गया है --
।।12.6 -- 12.8।।येत्वित्यादि आस्थित इत्यन्तम्। प्रागुक्तोपदेशेन (S प्रागुपदेशेन) तु ये सर्वं मयि संन्यस्यन्ति? तेषामहं समुद्धर्त्ता सकलविघ्नादिक्लेशेभ्यः। चेतस आवेशनं व्याख्यातम्। तथा च एष एवोत्तमो योगः? अकृत्रिमत्त्वात्। तथा च मम स्तोत्रे -- विशिष्टकरणासनस्थितिसमाधिसंभावना विभाविततया यदा कमपि बोधमुल्लासयेत्।न सा तव सदोदिता स्वरसवाहिनी या चिति र्यतस्त्रितयसन्निधो स्फुटमिहापि संवेद्यते।।यदा तु विगतेन्धनः स्ववशवर्त्तितां संश्रय न्नकृत्रिमसमुल्लसत्पुलककम्पबाष्पानुगः।शरीरनिरपेक्षतां स्फुटमुपाददानश्चितः स्वयं झगिति बुध्यते युगपदेव बोधानलः।तदैव तव देवि तद्वपुरुपाश्रयैर्वर्जितं ( -- वपुरुपाशयैर्वर्जितं N -- वपुरुपाशयैर्वर्जितं (श्रितैर्वर्जितं) महेशमवबुध्यते विवशपाशसंक्षोभकम्।।इत्यादि।
।।12.6।।ये तु लौकिकानि देहयात्राशेषभूतानि देहधारणार्थानि च अशनादीनि कर्माणि? वैदिकानि च यागदानहोमतपःप्रभृतीनि सर्वाणि सकारणानि सोद्देश्यानि अध्यात्मचेतसा मयि संन्यस्य? मत्पराः मदेकप्राप्याः,अनन्येन एव योगेन मां ध्यायन्तः उपासते? ध्यानार्चनप्रणामस्तुतिकीर्तनादीनि स्वयम् एव अत्यर्थप्रियाणि प्राप्यसमानि कुर्वन्तो माम् उपासते इत्यर्थः। तेषां मत्प्राप्तिविरोधितया मृत्युभूतान् संसाराख्यात् सागराद् अहम् अचिरेण एव कालेन समुद्धर्ता भवामि।
।।12.6।।यद्यक्षरोपासका मामेवाप्नुवन्तीति विशिष्यन्ते तत्किं सगुणोपासकास्त्वां नाप्नुवन्ति न तेषामपि क्रमेण मत्प्राप्तेरित्याह -- ये त्विति। तुशब्दः शङ्कानिवृत्त्यर्थः।
।।12.6।।एवमक्षरोपासकानां गतिमुक्त्वा स्वभक्तानामाह द्वाभ्याम् -- ये त्विति। तुशब्दः पूर्वेभ्यो भेदनिर्देशार्थः।,मयि स्वामिनि सेव्ये स्वस्य सर्वकर्माणि सन्न्यस्य लौकिकानि वैदिकानि च समर्प्य अनन्येनोक्तलक्षणैकभक्तियोगेन मां ध्यायन्त उपासते ध्यानार्चनसेवनप्रणामश्रुतिकीर्तनादीनि स्वयमेवात्यन्तप्रियाणि प्राप्य सरूपाणि कुर्वन्तो,मामुपासत इत्यर्थः। तेषां मत्प्राप्तिविरोधिमृत्युसंसारसागरादहमचिरेणैव समुद्धर्त्ताऽस्मि। अथवा मयि परमात्मनि नित्यप्रिये सति मन्निमित्तं वा लौकिकवैदिकानि सर्वाणि कर्माणि सन्त्यज्य बहिरन्तश्च त्यक्त्वा सद्व्रजप्रिया यच्छब्दवाच्यास्तु मत्पराः अनन्येनैव सर्वनिरपेक्षेणैव योगेन अनुवृत्तिमात्रसम्बन्धेनैव मां परमात्मप्रियं चिन्तयन्तो मत्समीप आसते।
।।12.6 -- 12.7।।ननु फलैक्ये क्लेशाल्पत्वाधिक्याभ्यामुत्कर्षनिष्कर्षौ स्यातां तदेव तु नास्ति। निर्गुणब्रह्मविदां हि फलमविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या निर्विशेषपरमानन्दबोधब्रह्मरूपता सगुणब्रह्मविदां त्वधिष्ठानप्रमाया अभावेनाविद्यानिवृत्त्यभावादैश्वर्यविशेषः कार्यब्रह्मलोकगतानां फलम्। अतः फलाधिक्यार्थमायासाधिक्यं न न्यूनतामापादयतीति चेत् न। सगुणोपासनया निरस्तसर्वप्रतिबन्धानां विना गुरूपदेशं विना च श्रवणमनननिदिध्यासनाद्यावृत्तिक्लेशं स्वयमाविर्भूतेन वेदान्तवाक्येनेश्वरप्रसादसहकृतेन तत्त्वज्ञानोदयादविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या ब्रह्मलोक ऐश्वर्यभोगान्ते निर्गुणविद्याफलपरमकैवल्योपपत्तेःस एतस्माज्जीवघनात्परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते इति श्रुतेः संप्राप्तहिरण्यगर्भैश्वर्यः भोगान्ते एतस्माज्जीवघनात्ससर्वजीवसमष्टिरूपात्पराच्छ्रेष्ठात् हिरण्यगर्भात्परं विलक्षणं श्रेष्ठं च पुरिशयं स्वहृदयगुहानिविष्टं पुरुषं पूर्णं प्रत्यगभिन्नमद्वितीयं परमात्मानमीक्षते स्वयमाविर्भूतेन वेदान्तप्रमाणेन साक्षात्करोति तावता च मुक्तो भवतीत्यर्थः। तथाच विनापि प्रागुक्तक्लेशेन सगुणब्रह्मविदामीश्वरप्रसादेन निर्गुणब्रह्मविद्याफलप्राप्तिरितीममर्थमाह द्वाभ्याम् -- ये त्वित्यादिना। तुशब्द उक्ताशङ्कानिवृत्त्यर्थः। ये सर्वाणि कर्माणि मयि सगुणे वासुदेवे संन्यस्य समर्प्य मत्परा अहं भगवान् वासुदेव एव परः प्रकृष्टप्रीतिविषयो येषां ते तथा सन्तोऽनन्येनैव योगेन न विद्यते मां भगवन्तं मुक्त्वाऽन्यदालम्बनं यस्य तादृशेनैव योगेन समाधिना एकान्तभक्तियोगापरनाम्ना मां भगवन्तं वासुदेवं सकलसौन्दर्यसारनिधानमानन्दघनविग्रहं द्विभुजं चतुर्भुजं वा समस्तजनमनोमोहिनीं मुरलीमतिमनोहरैः सप्तभिः स्वरैरापूरयन्तं वा,दरकमलकौमोदकीरथाङ्गसङ्गिपाणिपल्लवं वा नरसिंहत्वादिरूपं वा परमकारुणिकं सुन्दरसुन्दरं श्रीमद्रघुनन्दनरूपं वराहादिरूपं वा यथादर्शितविश्वरूपं वा ध्यायन्तश्चिन्तयन्त उपासते समानाकारमविच्छिन्नं चित्तवृत्तिप्रवाहं संतन्वते समीपवर्तितया आसते तिष्ठन्ति वा तेषां मय्याववेशितचेतसां मयि यथोक्ते आवेशितमेकाग्रतया प्रवेशितं चेतो यैस्तेषामहं सततोपासितो भगवान् मृत्युसंसारसागरात् मृत्युयुक्तो यः संसारः मिथ्याज्ञानतत्कार्यप्रपञ्चः स एव सागर इव दुरुत्तरस्तस्मात्समुद्धर्ता सम्यगनायासेन उदूर्ध्वे सर्वबाधावधिभूते शुद्धे ब्रह्मणि धर्ता धारयिता ज्ञानावष्टम्भदानेन भवामि नचिरात् क्षिप्रमेव तस्मिन्नेव जन्मनि। हे पार्थेति संबोधनमाश्वासार्थम्।
।।12.6।। मद्भक्तानां मत्प्रसादादनायासत एव सिद्धिर्भवतीत्याह -- ये त्विति द्वाभ्याम्। मयि परमेश्वरे सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य समर्प्य मत्परा भूत्वा मां ध्यायन्त अनन्येन न विद्यतेऽन्यो भजनीयो यस्मिंस्तेनैव। एकान्तभक्तियोगेनोपासत इत्यर्थः।
।।12.6।।ये तु सर्वाणि इति।देहयात्राशेषभूतानि कृष्यादीनिसकारणानि? सन्ध्यावन्दनसहितानिसोद्देश्यानि स्वर्गाद्युद्देशेन चोदितानि।अध्यात्मचेतसा आत्मनि परमात्मनि यच्चेतः? तदध्यात्मम् तेन चेतसा। मत्पराः अहं परः परमप्राप्यं येषां ते मत्परा इति हृदि निधायमदेप्राकप्या इत्युक्तम्।अनन्यप्रयोजनेनेति उपलक्षणं भगवद्ध्यानंसततं कीर्तयन्तः [9।14] इत्याद्युक्तानाम्। भगवत्प्राप्त्युपाये प्रयोजनत्वधीर्भवति तद्बुद्धेर्विधिरिति भावः।स्वयमेवेति -- न तु फलापेक्षयेत्यर्थः।मृत्युभूतात्संसाराख्यादिति -- निषादस्थपतिन्यायात्समानाधिकरणसमास उचितः। हेयत्वार्थं च विशेषणमत्रोपयुक्तमिति भावः।मत्प्राप्तिविरोधितयेति मृत्युत्वोपचारनिमित्तम्। सत्यां हि भगवत्प्राप्तौ अमृतत्वम्।न इत्यस्य व्यस्ततया क्रियान्वयभ्रमव्युदासायअचिरेणैव कालेन समुद्धर्तेत्यन्वय उक्तः।
।।12.6।।अक्षरोपासकानां साक्षात्कारेऽपि क्लेशः? मद्भक्तानां तु मत्स्वरूपध्यानेन मत्प्रतिमादिसेवतामप्यहमुद्धारं करोमीत्याह -- ये त्विति द्वाभ्याम्। ये तु सर्वाणि लौकिकवैदिकादीनि मयि मन्निमित्तं सन्न्यस्य त्यागं कृत्वा? मत्पराः अहमेव पर उत्कृष्टः प्राप्यो येषां तादृशाः सन्तोऽनन्येनैव योगेन? नैव अन्यो भजनीयो यस्मिंस्तादृशेन भक्तियोगेन मां ध्यायन्तः मद्ध्यानं कुर्वन्त उपासते सेवन्ते मूर्त्यादिष्विति शेषः।
।।12.6।।ननु अव्यक्तासक्तचेतसां क्लेशाधिक्येऽपि क्लेशान्ते सद्यः कैवल्यसिद्धिरस्तीति किं विलम्बसाध्येन व्यक्तभावनेनेत्याशङ्क्याह -- ये त्विति द्वाभ्याम्। सर्वाणि नित्यनैमित्तिकस्वाभाविकादीनि संन्यस्य समर्प्य मत्परा अहमेव परः सर्वकर्मभिः प्राप्यो येषां ते मत्पराः मद्ध्यानपरा वा। अनन्येन भेदशून्येन अहमेव भगवान्वासुदेव इति परमेश्वरेऽहंग्रहलक्षणेन योगेन चेतःसमाधानेन मां ध्यायन्त उपासते तत्रैव ध्याने स्थैर्यं लभन्ते।
।।12.6 -- 12.7।।अक्षरोपासका मामेव प्राप्नुवन्तीत्युक्त्या तेषां साक्षात्स्वप्राप्तियोग्यत्वमुक्तं ये तु पूर्वे ते तु बहुश्रवणादिनाधिकतरक्लेशमन्तरेणैव मद्दत्तज्ञानेन संसारान्मुच्यन्त इत्याशयेनाह -- ये त्विति द्वाभ्याम्। ये तु सगुणोपासकाः सर्वाणि कर्माणि मय परमेश्वरे संन्यस्य समर्प्य अहं परः परमपुरुषार्थत्वेनोपास्यो येषां ते मत्पराः न स्वर्गादिपरा एतादृशाः सन्तोऽनन्येनैव योगेन न विद्यते विश्वरुपं देवमात्मानमीश्वरमनन्तगुणनिधिं तत्तद्रूपेण भूतलेऽवतीर्णं मुक्त्वान्यदालम्बनं यस्य तेन योगेन समाधिना मां ध्यायन्तश्चिन्तयन्त उपासते मयि परमेश्वरे विश्वरुपे आवेशितं प्रवेशितं चित्तं येषां तेषां नचिरात् शीघ्रमेव मृत्युयुक्तात्संसारसमुद्रादहमुद्धर्ता भवामि। अनन्यभक्त्या संतुष्टः मन् बुद्धियोगं दत्त्वा,मूलाज्ञानसहिततत्कार्यरुपात्संसारादुद्धरामीत्यभिप्रायः। तदुक्तंमच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते। हे पार्थेति संबोधयन् यथा पृथासुतानां भवतां भक्त्या वशीकृतस्तत्तत्संकटादुद्धर्ता तथेति ध्वनयति।
12.6 ये who? तु but? सर्वाणि all? कर्माणि actions? मयि in Me? संन्यस्य renouncing? मत्पराः regarding Me as the supreme goal? अनन्येन singleminded? एव even? योगेन with the Yoga? माम् Me? ध्यायन्तः meditating? उपासते worship.Commentary Ananya Yoga Unswerving Yoga exclusive? having no other objects of worship or support save the Lord Samadhi.Even in Bhakti Yoga one should not abandon actions. He must perform actions but he will have to dedicate the merits or the fruits to the Lord. (Cf.IX.27)
12.6 But to those who worship Me, renouncing all actions in Me, regarding Me as the supreme gaol, meditating on Me with single-minded Yoga.
12.6 Verily, those who surrender their actions to Me, who muse on Me, worship Me and meditate on Me alone, with no thought save of Me,
12.6 As for those who, having dedicated all actions to Me and accepted Me as the supreme, meditate by thinking of Me with single-minded concentration only-.
12.6 Tu, as for; ye, those who; sannyasya, having dedicated; sarvani, all; karmani, actions; mayi, to Me who am God; and matparah, having accepted Me as the supreme; upasate, meditate; dhyayantah, by thinking; mam, of Me; ananyena, with single-minded; yogena, concentration; eva, only-. That (yoga) is single-minded which has no other object than the Cosmic Deity, the Self. By thinking exclusively with that single-minded [The Ast. and the A.A. read 'kena, what?' in place of 'kevalena, exclusively'.-Tr.] (yoga)-. What comes to them?
12.6. On the other hand, those who, having renounced all their actions in Me, have Me [alone] their goal; and revere Me, meditating on Me by that Yoga alone, which admits no other element but Me in it;
12.6 See Comment under 12.8
12.6 - 12.7 But those who, with a mind 'focused on Me,' the Supreme Self, and 'intent upon Me,' namely, holding Me as their sole object, dedicating to Me all their actions - i.e., including all worldly actions like eating which are meant for supporting the body, as also Vedic rites like sacrifices, gifts, fire-offerings, austerities etc., generally done by worldly-minded people for other purposes - worship Me and meditate on Me with exclusive devotion, namely, with devotion without any other purpose, adoring Me by all such acts as meditation, worship, prostration, praises and hymns which are by themselves exceedingly dear to them and are eal to the end itself - to these I become soon their saviour from the sea of Samsara which, on account of its being antagonistic to the attainment of Myself, is deadly.
12.6 For, those who dedicate all actions to Me, hold Me as their supreme goal, intent on Me, and worship Me meditating on Me with exclusive devotion;
।।12.6।।परंतु जो समस्त कर्मोंको मुझ ईश्वरके समर्पण करके मेरे परायण होकर अर्थात् मैं ही जिनकी परमगति हूँ ऐसे होकर केवल अनन्ययोगसे अर्थात् विश्वरूप आत्मदेवको छोड़कर जिसमें अन्य अवलम्बन नहीं है? ऐसे अनन्य समाधियोगसे ही मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं।
।।12.6।। --,ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि ईश्वरे संन्यस्य मत्पराः अहं परः येषां ते मत्पराः सन्तः अनन्येनैव अविद्यमानम् अन्यत् आलम्बनं विश्वरूपं देवम् आत्मानं मुक्त्वा यस्य सः अनन्यः तेन अनन्येनैव केन योगेन समाधिना मां ध्यायन्तः चिन्तयन्तः उपासते।।तेषां किम् --,
।।12.6 -- 12.7।।नन्वव्यक्तोपासकानां क्लेशातिशयो गीतायां प्रतीयते? भगवदुपासकानां तु तदभावो न प्रतीयते? अतस्तदेतत्सर्वमिति कथमुक्तं इत्यत आह -- मदुपासकानामिति।भक्तानां इत्यनेन नान्यत्रात्यन्तमादर इति सूचयति। अत्रअनन्येनैव योगेन इत्यादिनाविनाऽव्यक्तोपासनम् इत्येतत्प्रतीयते। उपासन इत्येवोक्त्याऽतिशयोपासनाद्यभावः।न चिरात् इत्यनेन तत्रापीत्यादिकम्।तेषामहं समुद्धर्ता भवामि [12।1] इत्यनेन देवस्त्वित्यादिकं आगामिगीतावाक्यमपेक्ष्य प्राग्बुद्ध्यारोहाय तदुक्तमिति। अत्र श्रुत्यादिसम्मतिं चाह -- उक्तं चेति। तेषामार्तादीनां मध्ये गतिः साधनादिसम्पादकः।
।।12.6 -- 12.7।।मदुपासकानां भक्तानां न कश्चित्क्लेश इति दर्शयति -- ये त्वित्यादिना। उक्तं च सौकरायणश्रुतौ -- उपासते ये पुरुषं वासुदेवमव्यक्तादेरीप्सितं किन्नु तेषाम् इति।तेषामेकान्तिनः श्रेष्ठास्ते चैवानन्यदेवताः। अहमेव गतिस्तेषां निराशीः कर्मकारिणाम् इति च मोक्षधर्मे [म.भा.12]।
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः। अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।12.6।।
যে তু সর্বাণি কর্মাণি মযি সংন্যস্য মত্পরাঃ৷ অনন্যেনৈব যোগেন মাং ধ্যাযন্ত উপাসতে৷৷12.6৷৷
যে তু সর্বাণি কর্মাণি মযি সংন্যস্য মত্পরাঃ৷ অনন্যেনৈব যোগেন মাং ধ্যাযন্ত উপাসতে৷৷12.6৷৷
યે તુ સર્વાણિ કર્માણિ મયિ સંન્યસ્ય મત્પરાઃ। અનન્યેનૈવ યોગેન માં ધ્યાયન્ત ઉપાસતે।।12.6।।
ਯੇ ਤੁ ਸਰ੍ਵਾਣਿ ਕਰ੍ਮਾਣਿ ਮਯਿ ਸਂਨ੍ਯਸ੍ਯ ਮਤ੍ਪਰਾ। ਅਨਨ੍ਯੇਨੈਵ ਯੋਗੇਨ ਮਾਂ ਧ੍ਯਾਯਨ੍ਤ ਉਪਾਸਤੇ।।12.6।।
ಯೇ ತು ಸರ್ವಾಣಿ ಕರ್ಮಾಣಿ ಮಯಿ ಸಂನ್ಯಸ್ಯ ಮತ್ಪರಾಃ. ಅನನ್ಯೇನೈವ ಯೋಗೇನ ಮಾಂ ಧ್ಯಾಯನ್ತ ಉಪಾಸತೇ৷৷12.6৷৷
യേ തു സര്വാണി കര്മാണി മയി സംന്യസ്യ മത്പരാഃ. അനന്യേനൈവ യോഗേന മാം ധ്യായന്ത ഉപാസതേ৷৷12.6৷৷
ଯେ ତୁ ସର୍ବାଣି କର୍ମାଣି ମଯି ସଂନ୍ଯସ୍ଯ ମତ୍ପରାଃ| ଅନନ୍ଯେନୈବ ଯୋଗେନ ମାଂ ଧ୍ଯାଯନ୍ତ ଉପାସତେ||12.6||
yē tu sarvāṇi karmāṇi mayi saṅnyasya matparāḥ. ananyēnaiva yōgēna māṅ dhyāyanta upāsatē৷৷12.6৷৷
யே து ஸர்வாணி கர்மாணி மயி ஸஂந்யஸ்ய மத்பராஃ. அநந்யேநைவ யோகேந மாஂ த்யாயந்த உபாஸதே৷৷12.6৷৷
యే తు సర్వాణి కర్మాణి మయి సంన్యస్య మత్పరాః. అనన్యేనైవ యోగేన మాం ధ్యాయన్త ఉపాసతే৷৷12.6৷৷
12.7
12
7
।।12.7।।हे पार्थ ! मेरेमें आविष्ट चित्तवाले उन भक्तोंका मैं मृत्युरूप संसार-समुद्रसे शीघ्र ही उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ।
।।12.7।। हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ।।
।।12.7।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण सगुणोपासकों के लिए श्रद्धापूर्वक अनुष्ठेय गुणों अथवा नियमों का वर्णन करते हुए यह आश्वासन देते हैं कि निष्ठावान् साधकों का? इस संसारसागर से? उद्धार स्वयं भगवान् ही करेंगे। इन नियमों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करने पर यह ज्ञात होगा कि किस प्रकार साधक के मन का शनैशनै विकास होकर वह दिव्य और श्रेष्ठ पद को प्राप्त होता है? जिसके पश्चात् उसे किसी प्रकार की बाह्य सहायता की अपेक्षा नहीं रह जाती है। प्रारम्भ में? साधक को साधनाभ्यास करने के लिए आवश्यक आत्मविश्वास को पाने के लिए अपने गुरु से आश्वासन तथा प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है।जो समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करते हैं किसी संस्था? या आदर्श अथवा राजसत्ता के लिए समस्त कर्मों को अर्पण करने या संन्यास करने का अर्थ है? अपनी व्यक्तिगत सीमाओं को नष्ट करना तथा अपने आदर्श से तादात्म्य रखना। इस प्रकार? एक अन्य नागरिक? विदेशों में स्वराष्ट्र के राजदूत के रूप में एक शक्तिशाली व्यक्तित्व रखता है क्योंकि वह अपने भाषण? कर्म और विचारों के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार? जब कोई भक्त अपने आप को पूर्णत ईश्वर के चरणों में अर्पण कर देता है? और फिर ईश्वर के दूत अथवा ईश्वरी संकल्प के प्रतिनिधित्व के रूप में कार्य करता है? तब वह दैवी शक्ति से सम्पन्न हो जाता है। उसे अपने प्रत्येक कार्य में ही परमात्मा की उपस्थिति और अनुग्रह का भान बना रहता है।जो मुझे ही परम लक्ष्य समझता है एक नर्तकी को कभी साथ के मृदंग के ताल और लय का विस्मरण नहीं होता। एक संगीतज्ञ को तानपूरे की श्रुति का भान सदा बना रहता है। इसी प्रकार? एक भक्त को उपदेश दिया जाता है कि वह ईश्वर को ही अपने जीवन का परम लक्ष्य माने और जीवन में सदैव उसे ही प्राप्त करने का प्रयत्न करे। धर्म को अतिरिक्तसमय का एक मनोरंजन अथवा दैनिक कार्यों से क्षणभर की मुक्ति का साधन नहीं समझना चाहिए। सारांश में? हमें यह उपदेश दिया जाता है कि सांस्कृतिक पूर्णत्व के उच्चतर शिखरों पर आरोहण करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन के सम्पर्कों? व्यवहारों एवं अनुभवों का उपयोग उस परमात्मा की उपल्ाब्धि के लिए करे जिसकी उपासना हम उसके सगुण साकार रूप में करते हैं।अनन्ययोग के द्वारा वे सभी प्रयत्न योग कहलाते हैं? जिनके द्वारा हम अपने मन का तादात्म्य अपने पूर्णत्व के लक्ष्य के साथ स्थापित कर सकते हैं। अपने मन को उसके वर्तमान विक्षेपों तथा अपव्ययी प्रवृत्तियों से ऊँचा उठाकर विशाल आनन्द और पूर्ण ज्ञान के श्रेष्ठतर लक्ष्य की ओर प्रवृत्त करना ही योग है। यह शक्ति हम सबमें निहित है और उसका सदैव हम उपयोग भी कर रहे हैं। परन्तु योग का परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि कौनसे लक्ष्य की ओर हम अग्रसर हो रहे हैं। दुर्भाग्य से? प्राय हमारा लक्ष्य दिव्य नहीं होता है केवल वैषयिकआनन्द के लिए ही प्रयत्न करना भोग है? योग नहीं।सामान्यत? हमारा लक्ष्य निरन्तर परिवर्तित होता रहता है? और इस कारण सतत संघर्षरत होने पर भी हम किसी भी निश्चित स्थान को नहीं पहुंचते हैं। यदि छुट्टियां बिताने के लिए किसी व्यक्ति के मन में दो स्थान हैं? परन्तु वह अपना गन्तव्य ही निश्चित नहीं कर पाता है? तो वह कहीं भी नहीं पहुंच सकता । वह व्यर्थ ही अपनी शक्ति और समय का अपव्यय करेगा। यहाँ प्रयुक्त अनन्ययोग शब्द का तात्पर्य यह है कि जिसमें साधक का लक्ष्य निश्चित और स्थिर है तथा उसके मन में लक्ष्य के प्रति अन्य भाव नहीं है अर्थात् जिसमें साधक और साध्य का एकत्व है।यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे मन का विघटन लक्ष्य के प्रति अन्य भाव के कारण हो सकता है? और ध्येय को त्यागकर अन्य विषयों में मन के विचरण के कारण भी हो सकता है।इस प्रकार जो भक्तजन (क) सब कर्मों का संन्यास मुझमें करते हैं? (ख) जो मुझे ही परम लक्ष्य मानते हैं? और (ग) जो अनन्ययोग से उपासना ध्यान करते हैं? वे मेरे उत्तम भक्त हैं। यह पहले भी कहा जा चुका है कि उपासना का वास्तविक अर्थ है लक्ष्य के साथ तादात्म्य करने का प्रयत्न करके तत्स्वरूप ही बन जाना। यही साधक का लक्ष्य है और इसी में उसकी कृत्कृत्यता है।भगवान् श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि उक्त गुणों से सम्पन्न साधकों को ध्यानाभ्यास के समय इस बात की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है कि किस प्रकार वे अपने दुख विक्षेप और अपूर्णताओं के परे जा सकते हैं क्योंकि? मैं उनका उद्धारकर्ता बनूंगा। यह स्वयं भगवान् का दिया हुआ वचन है। यह संभव है कि वर्षों की दीर्घकालीन साधना के पश्चात् भी यदि साधक आत्मानुभव के कहीं समीप भी नहीं पहुंचे? तो वे अधीर हो जायेंगे। अत भगवान् का आश्वासन आवश्यक है। भगवान् यहाँ यह भी वचन देते हैं कि शीघ्र ही मैं उनका उद्धारकर्ता बनूंगा।जिनका मन मुझमें स्थित है सामान्यत मन अपनी ध्येय वस्तु का आकार ग्रहण करता है। जब निरन्तर साधना के फलस्वरूप विजातीय प्रवृत्तियों का सर्वथा त्यागकर सजातीय वृत्ति प्रवाह को बनाये रखने की क्षमता साधक में आ जाती है? तब उसका मन अनन्त ब्रह्मरूप ही बन जाता है। यह मन ही है? जो हमारे जीवभाव के परिच्छेदों का आभास निर्माण करता है? और यही मन अपने अनन्तत्व का आत्मरूप से साक्षात् अनुभव भी करता है। बन्धन और मोक्ष दोनों मन के ही हैं। आत्मा तो नित्यमुक्त है? कदापि बद्ध नहीं।
।।12.7।। व्याख्या--'तेषामहं समुद्धर्ता ৷৷. मय्यावेशितचेतसाम्'--जिन साधकोंका लक्ष्य, उद्देश्य, ध्येय,भगवान् ही बन गये हैं और जिन्होंने भगवान्में ही अनन्य प्रेमपूर्वक अपने चित्तको लगा दिया है तथा जो स्वयं भी भगवान्में ही लग गये हैं, उन्हींके लिये यहाँ 'मय्यावेशितचेतसाम्' पद आया है।
।।12.6 -- 12.8।।येत्वित्यादि आस्थित इत्यन्तम्। प्रागुक्तोपदेशेन (S प्रागुपदेशेन) तु ये सर्वं मयि संन्यस्यन्ति? तेषामहं समुद्धर्त्ता सकलविघ्नादिक्लेशेभ्यः। चेतस आवेशनं व्याख्यातम्। तथा च एष एवोत्तमो योगः? अकृत्रिमत्त्वात्। तथा च मम स्तोत्रे -- विशिष्टकरणासनस्थितिसमाधिसंभावना विभाविततया यदा कमपि बोधमुल्लासयेत्।न सा तव सदोदिता स्वरसवाहिनी या चिति र्यतस्त्रितयसन्निधो स्फुटमिहापि संवेद्यते।।यदा तु विगतेन्धनः स्ववशवर्त्तितां संश्रय न्नकृत्रिमसमुल्लसत्पुलककम्पबाष्पानुगः।शरीरनिरपेक्षतां स्फुटमुपाददानश्चितः स्वयं झगिति बुध्यते युगपदेव बोधानलः।तदैव तव देवि तद्वपुरुपाश्रयैर्वर्जितं ( -- वपुरुपाशयैर्वर्जितं N -- वपुरुपाशयैर्वर्जितं (श्रितैर्वर्जितं) महेशमवबुध्यते विवशपाशसंक्षोभकम्।।इत्यादि।
।।12.7।।ये तु लौकिकानि देहयात्राशेषभूतानि देहधारणार्थानि च अशनादीनि कर्माणि? वैदिकानि च यागदानहोमतपःप्रभृतीनि सर्वाणि सकारणानि सोद्देश्यानि अध्यात्मचेतसा मयि संन्यस्य? मत्पराः मदेकप्राप्याः,अनन्येन एव योगेन मां ध्यायन्तः उपासते? ध्यानार्चनप्रणामस्तुतिकीर्तनादीनि स्वयम् एव अत्यर्थप्रियाणि प्राप्यसमानि कुर्वन्तो माम् उपासते इत्यर्थः। तेषां मत्प्राप्तिविरोधितया मृत्युभूतान् संसाराख्यात् सागराद् अहम् अचिरेण एव कालेन समुद्धर्ता भवामि।
।।12.7।।तेषां भगवद्ध्यायिनां किं फलतीति शङ्कामनुभाष्य फलमाह -- तेषामित्यादिना। समुद्धर्ता सम्यगूर्ध्वं नेता ज्ञानावष्टम्भदानेनेत्यर्थः। मृत्युरज्ञानं मरणाद्यनर्थहेतुत्वात्तेन कार्यतया युक्तः संसारः।
।।12.7।।तेषां तादृशानामहं तत्सन्बध्येवाहमित्यर्थःअहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज। वशे कुर्वन्ति मां भक्त्या सत्िस्त्रयः सत्पतिं यथा [भाग.9।4।63] इति वाक्यात्। न च तादृशानां कथं समुद्धारः सोपाधिभावनिदर्शनादिति वाच्यम् मन्निष्ठत्वेन निर्गुणत्वादित्याह -- मय्यावेशितचेतसामचिरेण समुद्धर्त्ता भवामीति मयि तथा भावकारणे वस्तुशक्तिरेवोद्धारिकान मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते इति वाक्यात्। न च तथात्वे तथाभूतानां सोपाधिकभक्तिमत्त्वं सगुणत्वापादकमिति शङ्क्यम् भगवद्रूपत्वेन तत्कामस्य निर्बीजत्वनिदर्शनात्। अतएवोक्तं भगवता -- केवलेन हि भावेन गोप्या गावो नगा मृगाः। येऽन्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरञ्जसा [भाग.11।12।8] इतिमन्निष्ठं निर्गुणं मतं इति च। अन्यथा सोपाधिकत्वेन विघातकत्वेन च कामस्य तत्र सत्त्वाद्भगवत्प्राप्तिर्नोक्ता स्यादित्युपरम्यते। इदं च विशेषतः श्रीमत्प्रभुचरणैः स्पष्टीकृतमेवेति ततोऽवसेयम्।
।।12.6 -- 12.7।।ननु फलैक्ये क्लेशाल्पत्वाधिक्याभ्यामुत्कर्षनिष्कर्षौ स्यातां तदेव तु नास्ति। निर्गुणब्रह्मविदां हि फलमविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या निर्विशेषपरमानन्दबोधब्रह्मरूपता सगुणब्रह्मविदां त्वधिष्ठानप्रमाया अभावेनाविद्यानिवृत्त्यभावादैश्वर्यविशेषः कार्यब्रह्मलोकगतानां फलम्। अतः फलाधिक्यार्थमायासाधिक्यं न न्यूनतामापादयतीति चेत् न। सगुणोपासनया निरस्तसर्वप्रतिबन्धानां विना गुरूपदेशं विना च श्रवणमनननिदिध्यासनाद्यावृत्तिक्लेशं स्वयमाविर्भूतेन वेदान्तवाक्येनेश्वरप्रसादसहकृतेन तत्त्वज्ञानोदयादविद्यातत्कार्यनिवृत्त्या ब्रह्मलोक ऐश्वर्यभोगान्ते निर्गुणविद्याफलपरमकैवल्योपपत्तेःस एतस्माज्जीवघनात्परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते इति श्रुतेः संप्राप्तहिरण्यगर्भैश्वर्यः भोगान्ते एतस्माज्जीवघनात्ससर्वजीवसमष्टिरूपात्पराच्छ्रेष्ठात् हिरण्यगर्भात्परं विलक्षणं श्रेष्ठं च पुरिशयं स्वहृदयगुहानिविष्टं पुरुषं पूर्णं प्रत्यगभिन्नमद्वितीयं परमात्मानमीक्षते स्वयमाविर्भूतेन वेदान्तप्रमाणेन साक्षात्करोति तावता च मुक्तो भवतीत्यर्थः। तथाच विनापि प्रागुक्तक्लेशेन सगुणब्रह्मविदामीश्वरप्रसादेन निर्गुणब्रह्मविद्याफलप्राप्तिरितीममर्थमाह द्वाभ्याम् -- ये त्वित्यादिना। तुशब्द उक्ताशङ्कानिवृत्त्यर्थः। ये सर्वाणि कर्माणि मयि सगुणे वासुदेवे संन्यस्य समर्प्य मत्परा अहं भगवान् वासुदेव एव परः प्रकृष्टप्रीतिविषयो येषां ते तथा सन्तोऽनन्येनैव योगेन न विद्यते मां भगवन्तं मुक्त्वाऽन्यदालम्बनं यस्य तादृशेनैव योगेन समाधिना एकान्तभक्तियोगापरनाम्ना मां भगवन्तं वासुदेवं सकलसौन्दर्यसारनिधानमानन्दघनविग्रहं द्विभुजं चतुर्भुजं वा समस्तजनमनोमोहिनीं मुरलीमतिमनोहरैः सप्तभिः स्वरैरापूरयन्तं वा,दरकमलकौमोदकीरथाङ्गसङ्गिपाणिपल्लवं वा नरसिंहत्वादिरूपं वा परमकारुणिकं सुन्दरसुन्दरं श्रीमद्रघुनन्दनरूपं वराहादिरूपं वा यथादर्शितविश्वरूपं वा ध्यायन्तश्चिन्तयन्त उपासते समानाकारमविच्छिन्नं चित्तवृत्तिप्रवाहं संतन्वते समीपवर्तितया आसते तिष्ठन्ति वा तेषां मय्याववेशितचेतसां मयि यथोक्ते आवेशितमेकाग्रतया प्रवेशितं चेतो यैस्तेषामहं सततोपासितो भगवान् मृत्युसंसारसागरात् मृत्युयुक्तो यः संसारः मिथ्याज्ञानतत्कार्यप्रपञ्चः स एव सागर इव दुरुत्तरस्तस्मात्समुद्धर्ता सम्यगनायासेन उदूर्ध्वे सर्वबाधावधिभूते शुद्धे ब्रह्मणि धर्ता धारयिता ज्ञानावष्टम्भदानेन भवामि नचिरात् क्षिप्रमेव तस्मिन्नेव जन्मनि। हे पार्थेति संबोधनमाश्वासार्थम्।
।।12.7।। तेषामिति। एवं मय्यावेशितं चेतो यैस्तेषां मृत्युयुक्तात्संसारसागरादहं सम्यगुद्धर्ता अचिरेणैव भवामि।
।। 12.7 ये तु सर्वाणि इति।देहयात्राशेषभूतानि कृष्यादीनिसकारणानि? सन्ध्यावन्दनसहितानिसोद्देश्यानि स्वर्गाद्युद्देशेन चोदितानि।अध्यात्मचेतसा आत्मनि परमात्मनि यच्चेतः? तदध्यात्मम् तेन चेतसा। मत्पराः अहं परः परमप्राप्यं येषां ते मत्परा इति हृदि निधायमदेप्राकप्या इत्युक्तम्।अनन्यप्रयोजनेनेति उपलक्षणं भगवद्ध्यानंसततं कीर्तयन्तः [9।14] इत्याद्युक्तानाम्। भगवत्प्राप्त्युपाये प्रयोजनत्वधीर्भवति तद्बुद्धेर्विधिरिति भावः।स्वयमेवेति -- न तु फलापेक्षयेत्यर्थः।मृत्युभूतात्संसाराख्यादिति -- निषादस्थपतिन्यायात्समानाधिकरणसमास उचितः। हेयत्वार्थं च विशेषणमत्रोपयुक्तमिति भावः।मत्प्राप्तिविरोधितयेति मृत्युत्वोपचारनिमित्तम्। सत्यां हि भगवत्प्राप्तौ अमृतत्वम्।न इत्यस्य व्यस्ततया क्रियान्वयभ्रमव्युदासायअचिरेणैव कालेन समुद्धर्तेत्यन्वय उक्तः।
।।12.7।।हे पार्थ मद्भक्त मयि आ समन्तात् सर्वभावेनाऽऽवेशितं चेतो येषां तेषां मृत्युसंसारसागरात् वारंवारं मरणधर्मयुक्तशरीरप्रापकरूपात् अलौकिकभजनौपयिक स्वरूपदानेन उद्धर्ता। न चिरात् शीघ्रमेवाऽहं भवामि?,ध्याने मूर्तौ वा प्रकटो भवामीत्यर्थः।
।।12.7।।तेषां ध्यायिनां नचिराच्छीघ्रमेवाहं समुद्धर्ता समुद्धरणकर्ता। यतस्ते मयि सगुणे विश्वरूपे आवेशितचेतसो भवन्ति अतो व्यक्तासक्ता अपि शीघ्रमेव परं पदमारोढुमर्हा इति नाव्यक्तेऽत्यन्ताभिनिवेष्टव्यमिति भावः।
।।12.6 -- 12.7।।अक्षरोपासका मामेव प्राप्नुवन्तीत्युक्त्या तेषां साक्षात्स्वप्राप्तियोग्यत्वमुक्तं ये तु पूर्वे ते तु बहुश्रवणादिनाधिकतरक्लेशमन्तरेणैव मद्दत्तज्ञानेन संसारान्मुच्यन्त इत्याशयेनाह -- ये त्विति द्वाभ्याम्। ये तु सगुणोपासकाः सर्वाणि कर्माणि मय परमेश्वरे संन्यस्य समर्प्य अहं परः परमपुरुषार्थत्वेनोपास्यो येषां ते मत्पराः न स्वर्गादिपरा एतादृशाः सन्तोऽनन्येनैव योगेन न विद्यते विश्वरुपं देवमात्मानमीश्वरमनन्तगुणनिधिं तत्तद्रूपेण भूतलेऽवतीर्णं मुक्त्वान्यदालम्बनं यस्य तेन योगेन समाधिना मां ध्यायन्तश्चिन्तयन्त उपासते मयि परमेश्वरे विश्वरुपे आवेशितं प्रवेशितं चित्तं येषां तेषां नचिरात् शीघ्रमेव मृत्युयुक्तात्संसारसमुद्रादहमुद्धर्ता भवामि। अनन्यभक्त्या संतुष्टः मन् बुद्धियोगं दत्त्वा मूलाज्ञानसहिततत्कार्यरुपात्संसारादुद्धरामीत्यभिप्रायः। तदुक्तंमच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते। हे पार्थेति संबोधयन् यथा पृथासुतानां भवतां भक्त्या वशीकृतस्तत्तत्संकटादुद्धर्ता तथेति ध्वनयति।
12.7 तेषाम् for them? अहम् I? समुद्धर्ता the saviour? मृत्युसंसारसागरात् out of the ocean of the mortal Samsara? भवामि (I) become? नचिरात् ere long? पार्थ O Arjuna? मयि in Me? आवेशितचेतसाम् of those whose minds are set.Commentary Mortal Samsara The round of birth and death. The devotee who does total? unconditional? and ungrudging selfsurrender to the Lord? who places himself completely at the mercy of the Lord? and who fixes of actions by offering them to the Lord and who thus destroys any power in the actions to bear fruit? and who has abandoned even the idea of liberation? is soon lifted by the Lord from the mortal plane to the abode of Immortality.I redeem such persons who have become Macchitta i.e.? mind united with Me? from the ocean of the mortal world or worldly life? without delay. (Cf.X.10.11XII.6and7)
12.7 To those whose minds are set on Me, O Arjuna, verily I become ere long the saviour out of the ocean of Samsara.
12.7 O Arjuna! I rescue them from the ocean of life and death, for their minds are fixed on Me.
12.7 O son of Prtha, for them who have their minds absorbed in Me, I become, without delay, the Deliverer from the sea of the world which is fraught with death.
12.7 O son of Prtha, tesam, for them who are solely devoted to meditating on Me; avesita-cetasam mayi, who have their minds absorbed in, fixed on, merged in, Me who am the Cosmic Person; aham, I, God; bhavami, become; na cirat, without delay;-what then? soon indeed-the samuddharta, Deliverer-. Wherefrom? In answer the Lord says, mrtyu-samsara-sagarat, from the sea of the world which is fraught with death. Samsara (world) fraught with mrtyu (death) is mrtyu-samsara. That itself is like a sea, being difficult to cross. I become their deliverer from that sea of transmigration which is fraught with death. Since this is so, therefore,
12.7. Of them, having their mind completely entered in Me, I become, before long, a redeemer from the ocean of the death-cycle, O son of Prtha !
12.7 See Comment under 12.8
12.6 - 12.7 But those who, with a mind 'focused on Me,' the Supreme Self, and 'intent upon Me,' namely, holding Me as their sole object, dedicating to Me all their actions - i.e., including all worldly actions like eating which are meant for supporting the body, as also Vedic rites like sacrifices, gifts, fire-offerings, austerities etc., generally done by worldly-minded people for other purposes - worship Me and meditate on Me with exclusive devotion, namely, with devotion without any other purpose, adoring Me by all such acts as meditation, worship, prostration, praises and hymns which are by themselves exceedingly dear to them and are eal to the end itself - to these I become soon their saviour from the sea of Samsara which, on account of its being antagonistic to the attainment of Myself, is deadly.
12.7 Of those whose minds are thus focused on Me, I become soon their saviour from the ocean of mortal life.
।।12.7।।उनका क्या होता है --, हे पार्थ मुझ विश्वरूप परमेश्वरमें ही जिनका चित्त समाहित है ऐसे केवल एक मुझ परमेश्वरकी उपासनामें ही लगे हुए उन भक्तोंका मैं ईश्वर उद्धार करनेवाला होता हूँ। किससे ( उनका उद्धार करते हैं ) सो कहते हैं कि मृत्युयुक्त संसारसमुद्रसे। मृत्युयुक्त संसारका नाम मृत्युसंसार है? वही पार उतरनेमें कठिन होनेके कारण सागरकी भाँति सागर है? उससे मैं उनका विलम्बसे नहीं? किंतु शीघ्र ही उद्धार कर देता हूँ।
।।12.7।। --,तेषां मदुपासनैकपराणाम् अहम् ईश्वरः समुद्धर्ता। कुतः इति आह -- मृत्युसंसारसागरात् मृत्युयुक्तः संसारः मृत्युसंसारः? स एव सागर इव सागरः? दुस्तरत्वात्? तस्मात् मृत्युसंसारसागरात् अहं तेषां समुद्धर्ता भवामि न चिरात्। किं तर्हि क्षिप्रमेव हे पार्थ? मयि आवेशितचेतसां मयि विश्वरूपे आवेशितं समाहितं चेतः येषां ते मय्यावेशितचेतसः तेषाम्।।यतः एवम्? तस्मात् --,
।।12.6 -- 12.7।।नन्वव्यक्तोपासकानां क्लेशातिशयो गीतायां प्रतीयते? भगवदुपासकानां तु तदभावो न प्रतीयते? अतस्तदेतत्सर्वमिति कथमुक्तं इत्यत आह -- मदुपासकानामिति।भक्तानां इत्यनेन,नान्यत्रात्यन्तमादर इति सूचयति। अत्रअनन्येनैव योगेन इत्यादिनाविनाऽव्यक्तोपासनम् इत्येतत्प्रतीयते। उपासन इत्येवोक्त्याऽतिशयोपासनाद्यभावः।न चिरात् इत्यनेन तत्रापीत्यादिकम्।तेषामहं समुद्धर्ता भवामि [12।1] इत्यनेन देवस्त्वित्यादिकं आगामिगीतावाक्यमपेक्ष्य प्राग्बुद्ध्यारोहाय तदुक्तमिति। अत्र श्रुत्यादिसम्मतिं चाह -- उक्तं चेति। तेषामार्तादीनां मध्ये गतिः साधनादिसम्पादकः।
।।12.6 -- 12.7।।मदुपासकानां भक्तानां न कश्चित्क्लेश इति दर्शयति -- ये त्वित्यादिना। उक्तं च सौकरायणश्रुतौ -- उपासते ये पुरुषं वासुदेवमव्यक्तादेरीप्सितं किन्नु तेषाम् इति।तेषामेकान्तिनः श्रेष्ठास्ते चैवानन्यदेवताः। अहमेव गतिस्तेषां निराशीः कर्मकारिणाम् इति च मोक्षधर्मे [म.भा.12]।
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्। भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।12.7।।
তেষামহং সমুদ্ধর্তা মৃত্যুসংসারসাগরাত্৷ ভবামি নচিরাত্পার্থ ময্যাবেশিতচেতসাম্৷৷12.7৷৷
তেষামহং সমুদ্ধর্তা মৃত্যুসংসারসাগরাত্৷ ভবামি নচিরাত্পার্থ ময্যাবেশিতচেতসাম্৷৷12.7৷৷
તેષામહં સમુદ્ધર્તા મૃત્યુસંસારસાગરાત્। ભવામિ નચિરાત્પાર્થ મય્યાવેશિતચેતસામ્।।12.7।।
ਤੇਸ਼ਾਮਹਂ ਸਮੁਦ੍ਧਰ੍ਤਾ ਮਰਿਤ੍ਯੁਸਂਸਾਰਸਾਗਰਾਤ੍। ਭਵਾਮਿ ਨਚਿਰਾਤ੍ਪਾਰ੍ਥ ਮਯ੍ਯਾਵੇਸ਼ਿਤਚੇਤਸਾਮ੍।।12.7।।
ತೇಷಾಮಹಂ ಸಮುದ್ಧರ್ತಾ ಮೃತ್ಯುಸಂಸಾರಸಾಗರಾತ್. ಭವಾಮಿ ನಚಿರಾತ್ಪಾರ್ಥ ಮಯ್ಯಾವೇಶಿತಚೇತಸಾಮ್৷৷12.7৷৷
തേഷാമഹം സമുദ്ധര്താ മൃത്യുസംസാരസാഗരാത്. ഭവാമി നചിരാത്പാര്ഥ മയ്യാവേശിതചേതസാമ്৷৷12.7৷৷
ତେଷାମହଂ ସମୁଦ୍ଧର୍ତା ମୃତ୍ଯୁସଂସାରସାଗରାତ୍| ଭବାମି ନଚିରାତ୍ପାର୍ଥ ମଯ୍ଯାବେଶିତଚେତସାମ୍||12.7||
tēṣāmahaṅ samuddhartā mṛtyusaṅsārasāgarāt. bhavāmi nacirātpārtha mayyāvēśitacētasām৷৷12.7৷৷
தேஷாமஹஂ ஸமுத்தர்தா மரித்யுஸஂஸாரஸாகராத். பவாமி நசிராத்பார்த மய்யாவேஷிதசேதஸாம்৷৷12.7৷৷
తేషామహం సముద్ధర్తా మృత్యుసంసారసాగరాత్. భవామి నచిరాత్పార్థ మయ్యావేశితచేతసామ్৷৷12.7৷৷
12.8
12
8
।।12.8।।तू मेरेमें मनको लगा और मेरेमें ही बुद्धिको लगा; इसके बाद तू मेरेमें ही निवास करेगा -- इसमें संशय नहीं है।
।।12.8।। तुम अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है।।
।।12.8।। ध्यान कोई शारीरिक क्रिया नहीं? वरन् मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व के द्वारा विकसित की गई एक सूक्ष्म कला है। प्रत्येक साधक का यह अनुभव होता है कि उसकी बुद्धि जिसे स्वीकार करती है? उसका हृदय उसे समझ नहीं पाता या उसमें रुचि नहीं लेता और जिसके प्रति हृदय लालायित रहता है? बुद्धि उस पर हँसती है। अत बुद्धि और हृदय इन दोनों को परम आनन्द के उसी एक आकर्षक रूप में स्थिर करना ही आन्तरिक व्यक्तित्व को आध्यात्मिक प्रयत्न के साथ युक्त करने का रहस्य है। इस श्लोक में इस कला की साधना का सुन्दरता से वर्णन किया गया है।अपने मन को मुझमें ही स्थिर करो हमारा मन इन्द्रिय अगोचर वस्तु का ध्यान कदापि नहीं कर सकता है। इसलिए? मुरलीधर गोपाल के आकर्षक रूप पर ध्यान करके मन को सरलता से भगवान् के चरणों में लीन किया जा सकता है। भगवान् सर्वव्यापी होने के कारण एक ही समय में समस्त नाम और रूपों का दिव्य अधिष्ठान है। अत भक्त का ध्यान किसी ऐसे स्थान पर भटक ही नहीं सकता जो उसे मयूरपंख का मुकुट धारण किये गोपाल कृष्ण की मन्द स्मित का स्मरण न कराये।बालकृष्ण की विभूषित संगमरमर की मूर्ति का ही चिन्तन करते रहना मात्र मनुष्य के आन्तरिक व्यक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। यद्यपि भगवान् के चरणकमलों के समीप बैठने से हृदय तो सन्तुष्ट हो जाता है? परन्तु बुद्धि की जिज्ञासा शान्त नहीं होती। किसी एक अंगविशेष का ही विकास होना कुरुपता को ही जन्म देता है समन्वय और एक समान विकास ही पूर्णता है। इसलिए? शास्त्रीय दृष्टि से गीता का यह उपदेश उचित है कि भक्त को चाहिए कि वह अपनी विवेकवती बुद्धि के द्वारा पाषाण की मूर्ति का भेदन करके उस चैतन्य तत्त्व का साक्षात्कार करे जिसकी प्रतीक वह मूर्ति है।अपनी बुद्धि को मुझमें स्थापित करो इसका अर्थ यह है कि अपनी व्यष्टि बुद्धि का तादात्म्य समष्टि बुद्धि के साथ करो? जो भगवान् की उपाधि है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति? किसी एक क्षण विशेष में? अपनी समस्त भावनाओं एवं विचारों का कुल योग रूप होता है। यदि हमारा मन भगवान् में स्थिर हुआ है तथा बुद्धि अनन्त की गहराइयों में प्रवेश कर जाती है? तो हमारा व्यक्तिगत अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और हम सर्वव्यापी? अनन्त परमात्मा में विलीन होकर तत्स्वरूप बन जाते हैं। इसलिए भगवान् ने कहा है कि? तदुपरान्त? तुम मुझमें ही निवास करोगे।सत्यकेमन्दिर के द्वार पर मन में विक्षेप और संकोच के साथ खड़े हुए एक र्मत्य जीव को भगवान् का यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत हो सकता है। उसका तो अपना नित्य का अनुभव यह है कि वह एक परिच्छिन्न र्मत्य व्यक्ति है? जो सहस्रों मर्यादाओं से घिरा? असंख्य दोषों से दुखी और निराशाओं की सेना के द्वारा उत्पीड़ित किया जा रहा जीव है। इसलिए? उसे विश्वास नहीं होता कि वास्तव में वह कभी अपने ईश्वरत्व के स्वरूप का साक्षात्कार भी कर सकता है। अत? एक दयालु गुरु के रूप में? भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट आश्वासन देते हैं कि? इसमें संशय की कोई बात नहींेहै।यदि यह साधना कठिन प्रतीत हो तो उपायान्तर बताते हुए भगवान् कहते हैं
।।12.8।। व्याख्या--'मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय'-- भगवान्के मतमें वे ही पुरुष उत्तम योगवेत्ता हैं, जिनको भगवान्के साथ अपने नित्ययोगका अनुभव हो गया है। सभी साधकोंको उत्तम योगवेत्ता बनानेके उद्देश्यसे भगवान् अर्जुनको निमित्त बनाकर यह आज्ञा देते हैं कि मुझ परमेश्वरको ही परमश्रेष्ठ और परम प्रापणीय मानकर बुद्धिको मेरेमें लगा दे और मेरेको ही अपना परम प्रियतम मानकर मनको मेरेमें लगा दे।
।।12.6 -- 12.8।।येत्वित्यादि आस्थित इत्यन्तम्। प्रागुक्तोपदेशेन (S प्रागुपदेशेन) तु ये सर्वं मयि संन्यस्यन्ति? तेषामहं समुद्धर्त्ता सकलविघ्नादिक्लेशेभ्यः। चेतस आवेशनं व्याख्यातम्। तथा च एष एवोत्तमो योगः? अकृत्रिमत्त्वात्। तथा च मम स्तोत्रे -- विशिष्टकरणासनस्थितिसमाधिसंभावना विभाविततया यदा कमपि बोधमुल्लासयेत्।न सा तव सदोदिता स्वरसवाहिनी या चिति र्यतस्त्रितयसन्निधो स्फुटमिहापि संवेद्यते।।यदा तु विगतेन्धनः स्ववशवर्त्तितां संश्रय न्नकृत्रिमसमुल्लसत्पुलककम्पबाष्पानुगः।शरीरनिरपेक्षतां स्फुटमुपाददानश्चितः स्वयं झगिति बुध्यते युगपदेव बोधानलः।तदैव तव देवि तद्वपुरुपाश्रयैर्वर्जितं ( -- वपुरुपाशयैर्वर्जितं N -- वपुरुपाशयैर्वर्जितं (श्रितैर्वर्जितं) महेशमवबुध्यते विवशपाशसंक्षोभकम्।।इत्यादि।
।।12.8।।अतः अतिशयितपुरुषार्थत्वात् सुलभत्वाद् अचिरलभ्यत्वात् च मयि एव मन आधत्स्व -- मयि मनः समाधानं कुरु? मयि बुद्धिं निवेशय -- अहम् एव परमप्राप्य इति अध्यवसायं कुरु। अत ऊर्ध्वं मयि एव निवसिष्यसि। अहम् एव परमप्राप्य इति अध्यवसायपूर्वकमनोनिवेशनानन्तरम् एव मयि निवसिष्यसि इत्यर्थः।
।।12.8।।भगवदुपासना विशिष्टफलेत्येवं यतः सिद्धमतो भगवन्निष्ठायां प्रयतितव्यमित्याह -- यत इति। असंहिताकरणं श्लोकपूरणार्थम्। मनोबुद्ध्योर्भगवत्यवस्थापने प्रश्नपूर्वकं फलमाह -- तत इति। भगवन्निष्ठस्य तत्प्राप्तौ प्रतिबन्धाभावं सूचयति -- संशयोऽत्रेति।
।।12.8।।यस्मादेवं तस्मात् मय्येवेति। असाधारणवस्तुशक्त्याश्रये येन केन च सम्बन्धेन मनोनिवेशमात्रेण तन्निर्गुणत्वापादके प्रकटरूपे एव पुरुषोत्तमे परमात्मप्रिये मन आदिकं निवेशय सङ्कल्पविकल्पविषयकमपि मदीयमेव कुरु। व्यवसायोऽयमेव परं प्राप्यो नान्य इति बुद्धिर्धमस्तद्वृत्तीश्च मय्येव निवेशयैव। अत्रैवकारोऽन्यसर्वधर्मव्यावृत्त्यर्थकत्वाद्वक्ष्यमाणसर्वधर्मपरित्यागे बीजभूत उक्तः। अत ऊर्ध्वं एवम्भावानन्तरं मय्येव निवसिष्यसि? न त्वक्षरादौ धाम्नि? किन्तु मद्रूप इति भावः।
।।12.8।।तदेवमियता प्रबन्धेन सगुणोपासनां स्तुत्वेदानीं साधनातिरेकं विधत्ते -- मय्येवेति। मय्येव सगुणे ब्रह्मणि मनः संकल्पविकल्पात्मकमाधत्स्व स्थापय सर्वा मनोवृत्तीर्मद्विषया एव कुरु। एवकारानुषङ्गेण मय्येव बुद्धिमध्यवसायलक्षणां निवेशय सर्वा बुद्धिवृत्तीर्मद्विषया एव कुरु। विषयान्तरपरित्यागेन सर्वदा मां चिन्तयेत्यर्थः। ततः किं स्यादित्यत आह -- निवसिष्यसीति। निवसिष्यसि निवत्स्यसि। लब्धज्ञानः सन्मदात्मना मय्येव शुद्धे ब्रह्मण्येव। अत ऊर्ध्वं एतद्देहान्ते। न संशयः नात्र प्रतिबन्धशङ्का कर्तव्येत्यर्थः। एव अत ऊर्ध्वमित्यत्र संध्यभावः श्लोकपूरणार्थः।
।।12.8।।यस्मादेवं तस्मात्। मय्येवेति। मय्येव संकल्पविकल्पात्मकं मन आधत्स्व स्थिरीकुरु। बुद्धिमपि व्यवसायात्मिकां मय्येव निवेशय। एवं कुर्वन्मत्प्रसादेन लब्धज्ञानः सन्नत ऊर्ध्वं देहान्ते मरणान्तरं मय्येव निवसिष्यसि निवत्स्यसि मदात्मना वासं करिष्यसि नात्र संशयः। तथाच श्रुतिःदेहान्ते देवस्तारकं परब्रह्म व्याचष्टे इति।
।।12.8।।सामान्येनोक्तं कर्तव्यमर्थंमय्येव इत्यादिना श्रोतर्यर्जुने निवेशयतीति सङ्गतिप्रदर्शनायाह -- अत इति। प्रागुक्तमत्रत्यं च समुच्चित्य हेतुत्रयमुक्तम्अतिशयितपुरुषार्थत्वादित्यादिना। समाध्युपक्रमपरत्वव्यक्त्यर्थंमयि मनस्समाधानं कुर्वित्युक्तम्। उपायभूतमनस्समाधानेन पुनरुक्तिपरिहाराय बुद्धिशब्दार्थं प्राप्यभूतं तद्विषयविशेषं चाहअहमेवेति।अत ऊर्ध्वम् इत्युपदेशकालानन्तर्यपरत्वव्युदासायाहअध्यवसायपूर्वकमनोनिवेशनानन्तरमिति। अव्यवधानविषयेणअत ऊर्ध्वम् इत्यनेन अवधारणं फलितमिति वा तत्रैवकारस्यान्वयमभिप्रेत्य वाअनन्तरमेवेत्युक्तम्।मयि निवसिष्यसि निवत्स्यसीति यावत्। अत्राधारत्वमात्रं सर्वदास्ति? तद्बुद्धिश्च श्रवणत एव जातेति न तत्परत्वमत्रोचितम् अतो मनोनिवेशनानन्तरमेव मुक्तवद्भविष्यसीत्यर्थः। यद्वा दृष्टादृष्टसर्वप्रकाररक्षके मयि? आचार्ये शिष्यवत् पितरि पुत्रवदवस्थित इति निर्भयो भवेत्यभिप्रायः। भगवदुपासनस्य स्वसाध्यनिष्पादने शैघ्र्यात्सुसुखोपादानत्वाच्च श्रैष्ठ्यमुक्तम्। तस्मिन्मय्यध्यवसायं कुरुष्वेति चार्जुनं प्रत्यनुशिष्टम्।
।।12.8।।यतो ध्यानादिभिः सेवतामप्युत्तमफलप्राप्तिर्भवति? तत्र साक्षान्मद्भजनकर्तृ़णां किं वाच्यं अतस्त्वं मत्परो भवेत्याह -- मयीति। मय्येव प्रकटरूप एव मनः सङ्कल्पविकल्पात्मकमाधत्स्व आ समन्तात् स्थैर्येण सर्वत आकृष्य स्थापय। बुद्धिं व्यवसायात्मिकां मय्येव निवेशय। अत ऊर्ध्वं बुद्धिप्रवेशानन्तरं मय्येव पुरुषोत्तमे निवसिप्यसि नितरां सेवादियोग्यतया निकट एव स्थास्यसि। न संशयः अत्र न सन्देहः। संशयं मा कुर्य्या इत्यर्थः।
।।12.8।।यस्मादेवं तस्मान्मय्येव विश्वरूपे ईश्वरे मनः संकल्पविकल्पात्मकमाधत्स्व स्थापय। मय्येवाध्यवसायं कुर्वतीं बुद्धिं निवेशय तत्फलं च। निवसिष्यसि निवत्स्यसि निश्चयेन मदात्मना मयि वासं करिष्यसि। अतः शरीरपातादूर्ध्वं। न संशयः कर्तव्यः।
।।12.8।।यतोऽधिकतरक्लेशमन्तरेण भगवदुपासकानामुद्धारस्तस्मान्मय्येव विश्वरुपे परमात्मनि एवकारेणोपास्यान्तरस्य फलस्य च व्यवच्छेदः। मनः संकल्पविकल्पात्मकं स्थापय। मय्येव निश्चयं कुर्वन्तीं बुद्धिं निवेशय। ततः किं स्यादत आह। अतः शरीरपातादूर्ध्वं मय्येव निवसिष्यसि निवत्स्यसि निश्चयेन मदात्मना मयि वासं करिष्यस्येव। अस्मिन्नर्थे संशयो न कर्तव्यः।
12.8 मयि in Me? एव only? मनः the mind? आधत्स्व fix? मयि in Me? बुद्धिम् (thy) intellect? निवेशय place? निवसिष्यसि thou shalt live? मयि in Me? एव alone? अतः ऊर्ध्वम् hereafter? न not? संशयः doubt.Commentary Fix thy mind means thy purposes and thoughts in Me the Lord in the Cosmic Form. Give up entirely all thoughts of sensual objects. Fix in Me thy intellect also -- the faculty which resolves and determines.What will be the result then Thou shalt undoubtedly live in Me as Myself. O Arjuna? of this there is no doubt whatsoever.The Yoga of meditation is described in this verse. (Cf.VIII.7X.9XI.34XVIII.65)
12.8 Fix thy mind in Me only, thy intellect in Me, (then) thou shalt no doubt live in Me alone hereafter.
12.8 Then let thy mind cling only to Me, let thy intellect abide in Me; and without doubt thou shalt live hereafter in Me alone.
12.8 Fix the mind on Me alone; in Me alone rest the intellect. There is no doubt that hereafter you will dwell in Me alone. [For the sake of metre, eva and atah (in the second line of the verse) are not joined together (to form evatah).]
12.8 Adhatsva, fix manah, the mind-possessed of the power of thinking and doubting; mayi, on Me, on God as the Cosmic Person; eva, alone. Mayi, in Me; eva, alone; nivesaya, rest; the buddhim, intellect, which engages in determining (things). Listen to what will happen to you thery: Na samsayah, there is no doubt-no doubt should be entertained with regard to this; that atah urdhvam, hereafter, after the fall of the body; nivasisyasi, you will dwell; mayi, in Me, live in identity withMe; eva, alone.
12.8. [Hence], fix your mind on nothing but Me; cuase your taught to settle in Me. Thus resorting to the best Yoga, you will dwell in Me alone.
12.6-8 Ye tu etc. upto asthitah. Those who renounce all (all actions) in Me according to the instruction related above - of them I am the redeemer from all the afflictions like obstacles [on the way to realisation] etc. The act of causing the mind to enter [into the Supreme] has been explained (under XII, 2 above). Therefore, this alone is the highest form of Yoga, because it is natural. Hence [I have said] in my Hymn : 'If, during [one's] concentration, reflecting with high esteem and remaining in a [particular] posture, and the best process (karana), a person causes a certain awakening to shine forth, that is not the Consciousness of Yours (i.e. of the Goddess) that rises up perennially and flows with its own (unadulterated) taste; for, here (in the former) too the presence of the triad is distinctly felt. On the other hand, when [glowing] without fuel; holding to its independence; following horripilation, [bodily] shake and tears, [all] breaking forth spontaneously; and clearly assuming the indifference [even] to the body; the awakening fire of Consciousness suddely shines, on its own accord simultaneously; then alone, O Goddess, that body of Yours, the mightly Lord (Mahesa) is realised - a body which is devoid of [all] supports, and which breaks the bondage of the dependent.' And so on.
12.8 'Focus your mind on Me alone,' on account of My being the unsurpassed end of human endeavour and on My being easily attainable without delay. Focus your mind in meditation on Me alone. Let your Buddhi 'enter into Me,' strengthened by the conviction that I alone am the supreme object to be attained. Then you will 'live in Me alone,' i.e., You will live in Me alone immediately after focusing your mind on Me by forming the conviction that I alone am the supreme object to be attained.
12.8 Focus your mind on Me alone; and let your Buddhi enter into Me. Then, you will live in Me alone; there is no doubt.
।।12.8।।जब कि यह बात है तो --, तू मुझ विश्वरूप ईश्वरमें ही अपने संकल्प विकल्पात्मक मनको स्थिर कर और मुझमें ही निश्चय करनेवाली बुद्धिको स्थिर कर -- लगा। उससे तेरा क्या ( लाभ ) होगा सो सुन -- इसके पश्चात् अर्थात् शरीरका पतन होनेके उपरान्त तू निःसन्देह एकात्मभावसे मुझमें ही निवास करेगा? इसमें कुछ भी संशय नहीं है अर्थात् इस विषयमें संशय नहीं करना चाहिये।
।।12.8।। --,मयि एव विश्वरूपे ईश्वरे मनः संकल्पविकल्पात्मकं आधत्स्व स्थापय। मयि एव अध्यवसायं कुर्वतीं बुद्धिम् आधत्स्व निवेशय। ततः ते किं स्यात् इति श्रृणु -- निवसिष्यसि निवत्स्यसि निश्चयेन मदात्मना मयि निवासं करिष्यसि एव अतः शरीरपातात् ऊर्ध्वम्। न संशयः संशयः अत्र न कर्तव्यः।।
null
null
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय। निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।12.8।।
ময্যেব মন আধত্স্ব মযি বুদ্ধিং নিবেশয৷ নিবসিষ্যসি ময্যেব অত ঊর্ধ্বং ন সংশযঃ৷৷12.8৷৷
ময্যেব মন আধত্স্ব মযি বুদ্ধিং নিবেশয৷ নিবসিষ্যসি ময্যেব অত ঊর্ধ্বং ন সংশযঃ৷৷12.8৷৷
મય્યેવ મન આધત્સ્વ મયિ બુદ્ધિં નિવેશય। નિવસિષ્યસિ મય્યેવ અત ઊર્ધ્વં ન સંશયઃ।।12.8।।
ਮਯ੍ਯੇਵ ਮਨ ਆਧਤ੍ਸ੍ਵ ਮਯਿ ਬੁਦ੍ਧਿਂ ਨਿਵੇਸ਼ਯ। ਨਿਵਸਿਸ਼੍ਯਸਿ ਮਯ੍ਯੇਵ ਅਤ ਊਰ੍ਧ੍ਵਂ ਨ ਸਂਸ਼ਯ।।12.8।।
ಮಯ್ಯೇವ ಮನ ಆಧತ್ಸ್ವ ಮಯಿ ಬುದ್ಧಿಂ ನಿವೇಶಯ. ನಿವಸಿಷ್ಯಸಿ ಮಯ್ಯೇವ ಅತ ಊರ್ಧ್ವಂ ನ ಸಂಶಯಃ৷৷12.8৷৷
മയ്യേവ മന ആധത്സ്വ മയി ബുദ്ധിം നിവേശയ. നിവസിഷ്യസി മയ്യേവ അത ഊര്ധ്വം ന സംശയഃ৷৷12.8৷৷
ମଯ୍ଯେବ ମନ ଆଧତ୍ସ୍ବ ମଯି ବୁଦ୍ଧିଂ ନିବେଶଯ| ନିବସିଷ୍ଯସି ମଯ୍ଯେବ ଅତ ଊର୍ଧ୍ବଂ ନ ସଂଶଯଃ||12.8||
mayyēva mana ādhatsva mayi buddhiṅ nivēśaya. nivasiṣyasi mayyēva ata ūrdhvaṅ na saṅśayaḥ৷৷12.8৷৷
மய்யேவ மந ஆதத்ஸ்வ மயி புத்திஂ நிவேஷய. நிவஸிஷ்யஸி மய்யேவ அத ஊர்த்வஂ ந ஸஂஷயஃ৷৷12.8৷৷
మయ్యేవ మన ఆధత్స్వ మయి బుద్ధిం నివేశయ. నివసిష్యసి మయ్యేవ అత ఊర్ధ్వం న సంశయః৷৷12.8৷৷
12.9
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9
।।12.9।।अगर तू मनको मेरेमें अचलभावसे स्थिर (अर्पण) करनेमें समर्थ नहीं है, तो हे धनञ्जय ! अभ्यासयोगके द्वारा तू मेरी प्राप्तिकी इच्छा कर।
।।12.9।। हे धनंजय ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो।।
।।12.9।। आत्म विकास की जो साधना भगवान् ने पूर्व श्लोक में बतायी है वह अपरिवर्तनीय है। साधक को अपना मन भगवान् के चरणों में स्थिर करके बुद्धि के द्वारा उस सगुण रूप के पारमार्थिक स्वरूप को पहचानना चाहिए। इन दोनों प्रक्रियाओं का सम्पादन करने के लिए अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि और मन की एकाग्रता की आवश्यकता होती है। सम्भवत एक सामान्य पुरुष के समान अर्जुन को यह अनुभव हुआ कि इस मार्ग का सफलतापूर्वक अनुकरण करना उसके लिए असंभव ही है। करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण अपने शिष्य के मुख के भावों को समझकर यहाँ एक अन्य उपाय का वर्णन करते हैं।यदि तुम स्थिरतापूर्वक अपने चित्त को मुझमें समाहित नहीं कर सकते हो? तब एक उपाय यह है कि तुम अभ्यासयोग का पालन करो। इस अभ्यासयोग को पूर्व में इस प्रकार बताया गया था कि? जहाँ कहीं यह चंचल और अस्थिर मन विचरण करता है? उसे वहीं संयमित करके आत्मा के ही वश में लाना चाहिए। संक्षेप में? जब कभी कोई साधक अपने मन को चुने हुए ध्येय विषय में समाहित करना चाहता है? तो उसका चंचल मन ध्येय से हटकर विजातीय प्रवृत्तियों के प्रवाह में विचरण करने लगता है। यहाँ उपदेश यह दिया गया है कि जब कभी मन इस प्रकार विचरण करना प्रारम्भ करे साधक उसी क्षण उसके ध्यान को एकत्र कर पुन भगवान् के दिव्य रूप में स्थिर करने का प्रयत्न करे।प्रत्येक साधक को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ध्यानाभ्यास के समय? किसी एक अवधि तक भी? मन सर्वथा ध्येय वस्तु का ही चिन्तन करने में सफल नहीं होता है। कुछ ही क्षणों में मन का अपने कल्पना जगत् में विहार करना प्रारम्भ हो जाता है। उसका यह विहार करना अपने आप में इतनी बड़ी समस्या नहीं हैं? जितनी बड़ी वह बन जाती है? जब यह साधक भी मन के द्वारा अपहृत हुआ उसी कल्पना लोक में ले जाया जाता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण केवल यही उपदेश देते हैं कि हमको अपने दिव्य पथ को त्यागकर मन के लुभाने में नहीं आना चाहिए।यत्रतत्र विचरण करने वाले उपद्रवी मन का ध्यान ध्येय बिन्दु में ही समाहित करने के लिए साधक में मन से अलग रहकर उसे साक्षीभाव से देखते रहने की क्षमता होनी चाहिए। मन के साथ तादात्म्य हो जाने पर तो जहाँ मन वहाँ हम? ऐसी स्थिति हो ही जायेगी। इसलिए? मन को संयमित करने के लिए साधक को मन से अलग होकर अपने में ही निहित उस क्षमता के साथ तादात्म्य करना चाहिए? जो मन से भी श्रेष्ठ है और उस पर शासन करके उसे अनुशासित कर सकती है। मन से श्रेष्ठ उसका शासक है? विवेक अर्थात् बुद्धि। बुद्धि की विवेकसार्मथ्य के द्वारा ही हम उससे निम्नतर मन को अनुशासित कर सकते हैं।यह उपाय उन लोगों को लिए बताया गया है जो पूर्व श्लोक में वर्णित विहंगम मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते हैं। दीर्घकाल तक अभ्यासयोग की साधना करने पर हमारा मन इस प्रकार अनुशासित हो जायेगा कि हम आत्मविकास के साक्षात् साधन का अभ्यास करने में समर्थ हो जायेंगे? जिसका वर्णन पूर्व के श्लोक में किया गया है।यदि यह भी सम्भव न हो तो
।।12.9।। व्याख्या--अथ चित्तं समाधातुं ৷৷. मामिच्छाप्तुं धनञ्जय--यहाँ 'चित्तम्' पदका अर्थ 'मन' है। परन्तु इस श्लोकका पीछेके श्लोकमें वर्णित साधनसे सम्बन्ध है, इसलिये 'चित्तम्' पदसे यहाँ मन और बुद्धि दोनों ही लेना युक्तिसंगत है।
।।12.9।।अथेति। तीव्रतरभगवच्छक्तिपातं (N adds समाधातुं आवेशयितुं obviously accepting the reading अथ चित्तं समाधातुं as found in the Vulgate ) ( शक्तिपातचिरतर -- ) चिरतरप्रसादितगुरुचरणानुग्रहं च विना दुर्लभ आवेश इत्यभ्यासः।
।।12.9।।अथ सहसा एव मयि स्थिरं समाधातुं न शक्नोषि? ततः अभ्यासयोगेन माम् आप्तुम् इच्छ। स्वाभाविकानवधिकातिशयसौन्दर्यसौशील्यसौहार्दवात्सल्यकारुण्यमाधुर्यगाम्भीर्यौदार्यशौर्यवीर्यपराक्रमसर्वज्ञत्वसत्यकामत्वसत्यसंकल्पत्वसर्वेश्वरत्वसकलकारणत्वाद्यसंख्येयकल्याणगुणसागरे निखिलहेयप्रत्यनीके मयि निरतिशयप्रमेगर्भस्मृत्यभ्यासयोगेन स्थिरं चित्तसमाधानं लब्ध्वा मां प्राप्तुम् इच्छ।
।।12.9।।मतप्रदर्शनपूर्वकं भगवत्प्राप्तावुपायान्तरमाह -- अथेत्यादिना। एकमालम्बनं स्थूलं प्रतिमादि समाधानं ततोऽभ्यन्तरे विश्वरूपे चित्तैकाग्र्यम्।
।।12.9।।अथेति पक्षान्तरे। मुख्यकल्पासम्भवेऽनुकल्पमुपदिशति। चेन्मयि चित्तं स्थिरं समाधातुं न शक्तोऽसि अनिषिद्धो योगो न निष्पद्यते तर्हि अभ्यासयोगेन तत्स्थिरीकृत्य मामाप्तुमिच्छ।
।।12.9।।इदानीं सगुणब्रह्मध्यानाशक्तानामशक्तितारतम्येन प्रथमं प्रतिमादौ बाह्ये भगवद्ध्यानाभ्यासस्तदशक्तौ भागवतधर्मानुष्ठानं तदशक्तौ सर्वकर्मफलत्याग इति त्रीणि साधनानि त्रिभिः श्लोकैर्विधत्ते -- अथेत्यादिना। अथ पक्षान्तरे। स्थिरं यथास्यात्तथा चित्तं समाधातुं स्थापयितुं मयि न शक्नोषि चेत्तत एकस्मिन्प्रतिमादावालम्बने सर्वतः समाहृत्य चेतसः पुनः पुनः स्थापनमभ्यासस्तत्पूर्वको योगः समाधिस्तेनाभ्यासयोगेन मामाप्तुमिच्छ यतस्व। हे धनंजय बहून् शत्रून् जित्वा धनमाहृतवानसि राजसूयाद्यर्थमेवं मनःशत्रुं जित्वा तत्त्वज्ञानधनमाहरिष्यसीति न तवाश्चर्यमिति संबोधनार्थः।
।।12.9।।अत्राशक्तं प्रति सुगमोपायमाह -- अथेति। स्थिरं यथाभवत्येवं मयि चित्तं धारयितुं यदि शक्तो न भवसि तर्हि विक्षिप्तं चित्तं पुनः प्रत्याहृत्य ममानुस्मरणलक्षणो योगाभ्यासस्तेन मां प्राप्तुमिच्छ प्रयत्नं कुरु।
।।12.9।।अथ शब्दादिविषयवासनाकृष्टचेतसोऽत्यन्तादृष्टपूर्वे त्वयि कथं स्थिरं चित्तसमाधानं शक्यं इत्यर्जुनाशयमुन्नीय तदुपायमुपदिशति -- अथ चित्तमिति। कदाचिदप्यशक्यत्वेऽप्यनुपदेश्यत्वमेव? तदुपायोपदेशश्च व्यर्थः स्यादित्यत्राहसहसैवेति।स्थिरमिति क्रियाविशेषणम् मनसश्चलस्वभावत्वान्न तद्विशेषणत्वमुचित्तम्।अथेति प्रश्नार्थः यद्यर्थविश्रान्तो वा।तत इति साक्षाच्चित्तसमाधानाशक्तत्वादित्यर्थः। एवमुत्तरत्राप्यथततश्शब्दयोरर्थो ग्राह्यः। किंविषयोऽभ्यासः कथं च तस्यापि शक्यत्वं कथं वा तेन त्वत्प्राप्तिः,इत्यत्राहस्वाभाविकेति। इतरपरिहारहेतुभूतगुणवति तु विशेषेण सज्जन्त इत्यभिप्रायेण गुणगणग्रहणम्। अयमेवाभिप्रायोमद्गुणानुसन्धानकृत इत्यत्र व्यक्तो भविष्यति। तत्तद्गुणानां प्रत्येकं चित्ताकर्षकत्वप्रकारो यथासम्भवमनुसन्धेयः।सकलकारणत्ववचनं पितृत्वेन प्रीत्यर्थमाश्चर्यत्वार्थं च। गुणवत्यपि यत्किञ्चिद्दोषदर्शनेऽपि मात्रया विरज्येरन्निति तत्परिहाराय निखिलहेयप्रत्यनीकत्वोक्तिः। हिरण्यादिवद्विपरीताभ्यासपरिहारायनिरतिशयप्रेमगर्भेत्युक्तम्। आलम्बने पुनः पुनः स्थापनमभ्यासः स एव योगः। अभ्यासवैराग्याभ्यां चित्तनिरोधश्च योगानुशासनेऽस्मिन्नपि शास्त्रे पूर्वमेवोक्तः। अभ्यासमात्रस्याव्यवधानेन प्राप्तिहेतुत्वव्युदासायस्थिरं चित्तसमाधानं लब्ध्वेत्युक्तम्।
।।12.9।।ननु मनश्च़ञ्जलत्वात् कथं त्वयि स्थिरं स्यात् अत आह -- अथेति।धनञ्जय इति सावधानार्थे सम्बोधनम्। अथ चेत् मयि स्थिरं चित्तं समाधातुं न शक्नोषि समर्थो न भवसि? तदा अभ्यासयोगेन मच्छ्रवणानुस्मरणादिरूपेण मामाप्तुं प्राप्तुं इच्छ यतस्व। विचार्य प्रयत्नपरो भवेत्यर्थः।
।।12.9।।विश्वरूपधारणायामशक्तं प्रति प्राह -- अथेति। मयि विश्वेश्वरे अथ यदि चित्तं समाधातुं निवेशितुमचलं धारयितुं न शक्नोषि ततस्तर्ह्यभ्यासयोगेन चित्तस्यैकस्मिन्नाभ्यन्तरे बाह्ये वा प्रतिमादावालम्बने सर्वतः समाहृत्य पुनःपुनःस्थापनमभ्यासस्तत्पूर्वको योगः समाधानलक्षणस्तेनाभ्यासयोगेन मां विश्वरूपमाप्तुं प्राप्तुमिच्छ प्रार्थयस्व हे धनंजय।
।।12.9।।एतत्कर्तुमशक्तस्य स्वप्राप्तावुपायान्तरमाह। अथैवबुक्तप्रकारेण मयि चित्तमचलं यथा स्यात्तथा समाधातुं स्थापयितुमसमर्थोऽसि चेत्ततश्चित्तस्यैकस्मिन्नालम्बने आभ्यन्तरे बाह्ये वा प्रतिमादौ सर्वतः समाहृत्य पुनः पुनः स्थापनमभ्यासस्तत्पूर्वकोः योगः समाधानलक्षणस्तेन मां विश्वरुपमाप्तुं प्राप्तुं इच्छ प्रार्थयस्व। धनंजयेति संबोधयन् यथा धनुर्विद्याभ्यासबलाद्राजभ्यो धनं भीष्मादिभ्यो गोधनं जाहृतवानसि तथाभ्यासयोगेन मामप्याहर्तुं योग्योऽसीति।
12.9 अथ if? चित्तम् the mind? समाधातुम् to fix? न not? शक्नोषि (thou) art able? मयि in Me? स्थिरम् steadily? अभ्यासयोगेन by the Yoga of constant practice? ततः them? माम् Me? इच्छ wish? आप्तुम् to reach? धनञ्जय O Arjuna.Commentary Abhyasa Yoga Abhyasa is constant practice to steady the mind and fix it on one point the practice of repeatedly withdrawing the mind from all sorts of sensual objects and fixing it again and again on one particular object or the Self. The constant effort to separate or detach oneself from the illusory five sheaths and identify oneself with the Atman is also Abhyasa. If you are not able to fix your mind and intellect wholly on the Lord all the time? then do it for some time at least. If your mind wanders much? try to fix it on the Lord through the continous practice of remembrance. Resort to the worship of the images of God? feeling His Living Presence in them. This will also help you.Why did Lord Krishna address Arjuna by the name Dhananjaya here Surely there is some significance. Arjuna conered many people and brought immense wealth for the Rajasuya Yajna performed by Yudhishthira. For such a man of great powers and splendour? it is not difficult to coner this mind? and obtain the spiritual wealth of knowledge of the Self. This is what Lord Krishna meant when He addressed Arjuna by the name Dhananjaya.
12.9 If thou art unable to fix thy mind steadily on Me, then by the Yoga of constant practice do thou seek to reach Me, O Arjuna.
12.9 But if thou canst not fix thy mind firmly on Me, then, My beloved friend, try to do so by constant practice.
12.9 If, however, you are unable to establish the mind steadily on Me, then, O Dhananjaya, seek to attain Me through the Yoga of Practice.
12.9 Atha, if, however; na saknosi, you are unable; samadhatum, to establish, in this way as I have described; cittam, the mind; sthiram, steadily, unwaveringly; mayi, on Me; tatah, then; O Dhananjaya, iccha, seek, pray; aptum, to attain; mam, Me, as the Cosmic person; abhyasa-yogena, through the Yoga of Practice. Practice consists in repeatedly fixing the mind on a single object by withdrawing it from everything else. The yoga following from this, and consisting in concentration of the mind, is abhyasa-yoga.
12.9. In case you are not able to cause your mind to enter completley into Me, then, O Dhananjaya ! seek to attain Me by the practice-Yoga.
12.9 Atha etc. to cause the mind [to enter into the Lord] is hard to achieve without the descent of the Lord's Grace with greater force, and without the favour of the revered preceptors, pleased [by services etc.] for a considerable period of time. Hence, practice [is prescribed].
12.9 Now, if you are unable to focus your mind immediately on Me in deep meditation, then seek to reach Me by the 'practice of repetition (Abhyasa Yoga)'. By the repeated practice of remembrance full of immense love, concentrate your mind on Me the ocean of manifold attributes innate to Me like, beauty, affability, friendliness, affection, compassion, sweetness, majesty, magnanimity, heroism, valour, might, omniscience, freedom from wants, unfailing resolves, sovereignty over all, being the cause of all etc., and being antagonistic to all that is evil. All these attributes are of unlimited excellence in the Supreme Person.
12.9 If now you are unable to focus your mind on Me, then seek to reach Me, O Arjuna, by the practice of repetition.
।।12.9।।यदि इस प्रकार यानी जैसे मैंने बतलाया है उस प्रकार तू मुझमें चित्तको अचल स्थापित नहीं कर सकता? तो फिर हे धनंजय तू अभ्यासयोगके द्वारा -- चित्तको सब ओरसे खींचकर बारंबार एक अवलम्बनमें लगानेका नाम अभ्यास है उससे युक्त जो समाधानरूप योग है? ऐसे अभ्यासयोगके द्वारा -- मुझ -- विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त करनेकी इच्छा कर।
।।12.9।। --,अथ एवं यथा अवोचं तथा मयि चित्तं समाधातुं स्थापयितुं स्थिरम् अचलं न शक्नोषि चेत्? ततः पश्चात् अभ्यासयोगेन? चित्तस्य एकस्मिन् आलम्बने सर्वतः समाहृत्य पुनः पुनः स्थापनम् अभ्यासः? तत्पूर्वको योगः समाधानलक्षणः तेन अभ्यासयोगेन मां विश्वरूपम् इच्छ प्रार्थयस्व आप्तुं प्राप्तुं हे धनंजय।।
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अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्। अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।12.9।।
অথ চিত্তং সমাধাতুং ন শক্নোষি মযি স্থিরম্৷ অভ্যাসযোগেন ততো মামিচ্ছাপ্তুং ধনঞ্জয৷৷12.9৷৷
অথ চিত্তং সমাধাতুং ন শক্নোষি মযি স্থিরম্৷ অভ্যাসযোগেন ততো মামিচ্ছাপ্তুং ধনঞ্জয৷৷12.9৷৷
અથ ચિત્તં સમાધાતું ન શક્નોષિ મયિ સ્થિરમ્। અભ્યાસયોગેન તતો મામિચ્છાપ્તું ધનઞ્જય।।12.9।।
ਅਥ ਚਿਤ੍ਤਂ ਸਮਾਧਾਤੁਂ ਨ ਸ਼ਕ੍ਨੋਸ਼ਿ ਮਯਿ ਸ੍ਥਿਰਮ੍। ਅਭ੍ਯਾਸਯੋਗੇਨ ਤਤੋ ਮਾਮਿਚ੍ਛਾਪ੍ਤੁਂ ਧਨਞ੍ਜਯ।।12.9।।
ಅಥ ಚಿತ್ತಂ ಸಮಾಧಾತುಂ ನ ಶಕ್ನೋಷಿ ಮಯಿ ಸ್ಥಿರಮ್. ಅಭ್ಯಾಸಯೋಗೇನ ತತೋ ಮಾಮಿಚ್ಛಾಪ್ತುಂ ಧನಞ್ಜಯ৷৷12.9৷৷
അഥ ചിത്തം സമാധാതും ന ശക്നോഷി മയി സ്ഥിരമ്. അഭ്യാസയോഗേന തതോ മാമിച്ഛാപ്തും ധനഞ്ജയ৷৷12.9৷৷
ଅଥ ଚିତ୍ତଂ ସମାଧାତୁଂ ନ ଶକ୍ନୋଷି ମଯି ସ୍ଥିରମ୍| ଅଭ୍ଯାସଯୋଗେନ ତତୋ ମାମିଚ୍ଛାପ୍ତୁଂ ଧନଞ୍ଜଯ||12.9||
atha cittaṅ samādhātuṅ na śaknōṣi mayi sthiram. abhyāsayōgēna tatō māmicchāptuṅ dhanañjaya৷৷12.9৷৷
அத சித்தஂ ஸமாதாதுஂ ந ஷக்நோஷி மயி ஸ்திரம். அப்யாஸயோகேந ததோ மாமிச்சாப்துஂ தநஞ்ஜய৷৷12.9৷৷
అథ చిత్తం సమాధాతుం న శక్నోషి మయి స్థిరమ్. అభ్యాసయోగేన తతో మామిచ్ఛాప్తుం ధనఞ్జయ৷৷12.9৷৷
12.10
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।।12.10।।अगर तू अभ्यास-(योग-) में भी असमर्थ है, तो मेरे लिये कर्म करनेके परायण हो जा। मेरे लिये कर्मोंको करता हुआ भी तू सिद्धिको प्राप्त हो जायगा।
।।12.10।। यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बनो; इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे।।
।।12.10।। आत्मविकास के विविध और विस्तृत उपायों का वर्णन करने के कारण ही हिन्दू धर्मशास्त्रों में पूर्णता है। उसमें बतायी गई साधनाओं का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से? जो कोई पुरुष जितना ही अधिक अध्ययन करेगा वह उतना ही इस अध्यात्म मार्ग की उपादेयता को दृढ़ विश्वास के साथ स्वीकार करेगा। हमारे महान् धर्म ग्रन्थों में कहीं भी इस प्रकार की धमकी नहीं दी गई है कि? इसे स्वीकार करो? अन्यथा नरक में जाओ। जो कोई भी पुरुष बौद्धिक निश्चय और वैज्ञानिक मूल्यांकन के लिए तत्पर है? वह हिन्दू जीवन पद्धति की श्रेष्ठता के प्रति पूर्णतया आश्वस्त हो जायेगा।यदि कोई साधक मानसिक दृष्टि से विक्षुब्ध और असंयमित है? तो वह अभ्यासयोग का पालन करने में समर्थ नहीं हो सकता। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश है कि ऐसे साधकों को ध्यानाभ्यास में व्यर्थ संघर्ष नहीं करते रहना चाहिए। बलपूर्वक मन को शान्त करने के कारण वे मानसिक दमन और निग्रह के शिकार हो सकते हैं। मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व फूल की एक अनखिली कली की अपेक्षा लक्षगुना अधिक कोमल है। उसके खिलने में शीघ्रता करने का अर्थ है उसकी सुन्दरता और सुरभि का नाश करना। निदिध्यासन में हमारा प्रयत्न तो केवल ऐसे अनुकूल वातावरण को निर्मित करने के लिए है? जिसमें हमारा आन्तरिक व्यक्तित्व शीघ्र किन्तु स्वत खिल उठे। स्वाभाविक है कि यदि कोई व्यक्ति एक प्रकार की साधना करने में असमर्थ है? तो उसके विकास के लिए अन्य उपाय बताना आवश्यक होता है।यदि साधक का मन पूर्वाजित वासनाओं के कारण यदाकदा ही तुच्छ विषयों की ओर जाता है? तो उसे संयमित करना कुछ सरल कार्य है। परन्तु यदि किसी पुरुष का मन इन विषयवासनाओं से पूर्ण है तथा अत्यन्त बहिर्मुखी है? तो उसका ध्यानाभ्यास केवल ध्यानाभास ही होगा भगवान् कहते हैं कि ऐसे पुरुष को ध्यान छोड़कर कर्म करना चाहिये। परन्तु वे कर्म ईश्वर के लिए अर्पण की भावना से होने चाहिये। यही? मत्कर्मपरमो भव वाक्य का अर्थ है। इस प्रकार के कर्मानुष्ठान से? अत्यन्त बहिर्मुखी प्रवृत्ति के पुरुष को भी अपने समस्त दैनिक कर्मों में ईश्वर का अखण्ड स्मरण बना रह सकता है।सभी पिता अपने नवजात शिशु के प्रति इसी पद्धति को ग्रहण कर उसका पालन करते हैं। प्रत्येक पुत्र का जन्म पिता के लिये एक अपरिचित शिशु के रूप में ही होता है। परन्तु कुछ ही दिनों में उस पिता का अपने शिशु के प्रति प्रेम बढ़ता जाता है। व्यतीत होते हुये समय के साथ उस प्रेम का परिणाम इतना विशाल हो जाता है कि वह पिता शब्दश अपने पुत्र में ही जीता है। इसका कारण यह है पुत्र के जन्म के पश्चात्? वह पिता जब कोई कर्म करता है या अनुभव प्राप्त करता है? तो वे सब मन की पार्श्वभूमि में स्थित पुत्र की स्मृति से भयभीत होते रहते हैं? और यही है पुत्र के प्रति अर्पण की भावना।योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ सामान्य पुरुषों के लिए अत्यन्त व्यावहारिक उपाय का उपदेश देते हैं। उनका उपदेश हममें से अत्यधिक बहिर्मुखी पुरुष के लिए भी आशा का संदेश देने वाला है। बहुसंख्यक साधकों के लिए यह? निश्चित ही? राजमार्ग है। जिस प्रकार किसी व्यवसाय संस्था प्रतिष्ठान का प्रतिनिधि व्यवहार में कहता है कि? हम वस्तु पूर्ति का प्रयत्न करेंगे? हम इन वस्तुओं का निर्माण कर रहे हैं? हम इसके लिए उत्तरदायी नहीं है इत्यादि। वह अपने प्रतिष्ठान के साथ तादात्म्य करके ऐसे व्यवहार करता है? मानो वह प्रतिष्ठान का प्रबन्धकर्ता या संचालक हो? जबकि वास्तव में वह एक प्रतिनिधि मात्र होता है। इसी प्रकार यदि हममें से कोई व्यक्ति निश्चयात्म्ाक रूप से स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर ईश्वर के ही संकल्प को अपने कर्मों के द्वारा पूर्ण करने का प्रयत्न करे? तो उसे सदैव ईश्वर का स्मरण बना रहेगा और वह स्वयं में कर्मकुशलता की अलौकिक शक्ति? संगठनसार्मथ्य और आत्मविश्वासपूर्ण साहस को पायेगा।प्राचीन वैदिक विद्या के विद्यार्थी को? जैसा कि अर्जुन था? इस सरल से प्रतीत होने वाले उपदेश को सुनकर उसके वास्तविक प्रभाव के विषय में संदेह हो सकता है। रूढ़िवादी लोग किसी मौलिक विचार को सन्देह की दृष्टि से ही देखते हैं? भले ही वह विचार उस युग के सबसे महान् जीवित पुरुष के द्वारा अथवा ईश्वर के अवतार के द्वारा ही क्यों न प्रतिपादित किया गया हो। इस कारण से? यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण साधकों को इस मार्ग के प्रभाव के प्रति आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि? मेरे लिए कर्म करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त होओगे।लोकव्यवहार में भी जब हम चाय बनाने के उद्देश्य से जल को उबलने के लिए रखते हैं? तब किसी के प्रश्न करने पर हम यही कहते हैं कि? मैं चाय बना रहा हूँ। वस्तुस्थिति की दृष्टि से यह कथन असत्य है? परन्तु लक्ष्य की दृष्टि से पूर्ण सत्य है? क्योंकि एक बार जल के उबल जाने पर चाय बनाने में न परिश्रम की आवश्यकता होती है और न अधिक समय की। इसी प्रकार? ईश्वर को समस्त कर्म अर्पण करने की कला के द्वारा? हम अपने दैनिक? व्यावहारिक कर्म करते हुए भी मन में दैवी संस्कारों का विकास करते रहेंगे। इसा प्रक्रिया में हमारी पूर्वार्जित वासनाओं का क्षय़ भी होता रहेगा। इस प्रकार चित्त की शुद्धि प्राप्त हो जाने पर हम अभ्यासयोग के अधिकारी हो जायेंगे और शीघ्र ही पर्याप्त समता और सन्तुलन को प्राप्त कर सत्य आत्मा का ध्यान कर तत्स्वरूप बन जायेंगे।यदि कोई व्यक्ति इसे भी करने में असमर्थ हो? तो उसके लिए भी उपाय अगले श्लोक में बताते हैं
।।12.10।। व्याख्या--'अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव'-- यहाँ 'अभ्यासे' पदका अभिप्राय पीछेके (नवें) श्लोकमें वर्णित अभ्यासयोग से है। गीताकी यह शैली है कि पहले कहे हुए विषयका आगे संक्षेपमें वर्णन किया जाता है। आठवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेमें मन-बुद्धि लगानेके साधनको नवें श्लोकमें पुनः 'चित्तं समाधातुम्' पदोंसे कहा अर्थात् 'चित्तम्' पदके अन्तर्गत मन-बुद्धि दोनोंका समावेश कर लिया। इसी प्रकार नवें श्लोकमें आये हुए अभ्यासयोगके लिये यहाँ (दसवें श्लोकमें) 'अभ्यासे' पद आया है।भगवान् कहते हैं कि अगर तू पूर्वश्लोकमें वर्णित अभ्यासयोगमें भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिये ही सम्पूर्ण कर्म करनेके परायण हो जा। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण कर्मों-(वर्णाश्रमधर्मानुसार) शरीरनिर्वाह और आजीविका-सम्बन्धी लौकिक एवं भजन, ध्यान, नाम-जप आदि पारमार्थिक कर्मों-) का उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो। जो कर्म भगवत्प्राप्तिके लिये भगवदाज्ञानुसार किये जाते हैं, उनको 'मत्कर्म' कहते हैं। जो साधक इस प्रकार कर्मोंके परायण हैं, वे 'मत्कर्मपरम' कहे जाते हैं। साधकका अपना सम्बन्ध भी भगवान्से हो और कर्मोंका सम्बन्ध भी भगवान्के साथ रहे, तभी मत्कर्मपरायणता सिद्ध होगी। साधकका ध्येय जब संसार (भोग और संग्रह) नहीं रहेगा, तब निषिद्ध क्रियाएँ सर्वथा छूट जायँगी; क्योंकि निषिद्ध क्रियाओंके अनुष्ठानमें संसारकी 'कामना' ही हेतु है (गीता 3। 37)। अतः भगवत्प्राप्तिका ही उद्देश्य होनेसे साधककी सम्पूर्ण क्रियाएँ शास्त्रविहित और भगवदर्थ ही होंगी।'मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि' -- भगवान्ने जिस साधनकी बात इसी श्लोकके पूर्वार्धमें 'मत्कर्मपरमो भव' पदोंसे कही है, वही बात इन पदोंमें पुनः कही गयी है। भाव यह है कि केवल परमात्माका उद्देश्य होनेसे उस साधककी और जगह स्थिति हो ही कैसे सकती है?
।।12.10।।अभ्यासेऽपीति। अभ्यासोऽपि न शक्यते विघ्नाद्यभिभवात्? अतस्तन्नाशाय कर्म पूजाजपस्वाध्यायहोमादीन् कुरु।
।।12.10।।अथ एवंविधस्मृत्यभ्यासे अपि असमर्थः असि मत्कर्मपरमो भव मदीयानि कर्माणि आलयनिर्माणोद्यानकरणप्रदीपारोपणमार्जनाभ्युक्षणोपलेपनपुष्पापहरणपूजनोद्वर्तनना मकीर्तनप्रदक्षिणनमस्कारस्तुत्यादीनि? तानि अत्यर्थप्रियत्वेन आचर। अत्यर्थप्रियत्वेन मदर्थं कर्माणि कुर्वन् अपि अचिराद् अभ्यासयोगपूर्विकां मयि स्थिरां चित्तस्थितिं लब्ध्वा मत्प्राप्तिरूपां सिद्धिम् अवाप्स्यसि।
।।12.10।।द्वैताभिनिवेशादभ्यासाधीने योगेऽपि सामर्थ्याभावे पुनरुपायान्तरमाह -- अभ्यासेऽपीति। अभ्यासयोगेन विना भगवदर्थं कर्माणि कुर्वाणस्य किं स्यादित्याशङ्क्याह -- अभ्यासेनेति। सिद्धिर्ब्रह्मभावः। अपिरुक्तव्यवधिसूचनार्थः।
।।12.10।।यदि पुनः अभ्यासेऽप्यसङ्गसाधनेऽसमर्थोऽसि तर्हि पूजायां मत्सेवापरो भव? सेवापूर्वं मदर्थं कर्माणि कुरु।
।।12.10।।अभ्यासेऽपीति। मत्प्रीणनार्थं कर्म मत्कर्म श्रवणकीर्तनादिभागवतधर्मस्तत्परमस्तदेकनिष्ठो भव। अभ्यासासामर्थ्ये मदर्थं भागवतधर्मसंज्ञकानि कर्माण्यपि कुर्वन्सिद्धिं ब्रह्मभावलक्षणां सत्त्वशुद्धिं ज्ञानोत्पत्तिद्वारेणावाप्स्यसि।
।।12.10।।यदि पुनर्नैवं तत्राह -- अभ्यास इति। अभ्यासेऽति यद्यशक्तोऽसि तर्हि मत्प्रीत्यार्थानि यानि कर्माण्येकादश्युपवासव्रतचर्यानामसंकीर्तनादीनि तदनुष्ठानमेव परमं यस्य तादृशो भव। एवंभूतानि कर्माण्यपि मदर्थं कुर्वन्मोक्षं प्राप्स्यसि।
।।12.10।।चिराभ्यस्तेषु प्रत्यक्षेषु शीघ्रलभ्येषु भोग्येषु प्रसक्तस्य मनसो दुर्निग्रहत्वाद्गुणवति विशुद्धेऽपि त्वय्यभ्यासो न शक्यः कर्मस्वेव हि तेषुतेषु वासना ततः कर्मस्वेव मनः प्रवर्तेतेत्यर्जुनाभिप्रायमुन्नीय शीलितसजातीयमभ्यासोपायमुपदिशतिअभ्यासेऽपि इति। अथशब्दोऽत्रानुषक्तः। एवंविधत्वं निरतिशयप्रेमगर्भत्वम्।सर्वकर्म -- [12।1118।2] इति परस्ताद्यज्ञादिकर्मणां पर्वान्तरत्वेन वक्ष्यमाणत्वादत्र चमत्कर्म इति विशेषतो निर्देशाच्च भगवदसाधारणं भक्त्यनन्तरङ्गंसततं कीर्तयन्तो माम् [9।14] इत्यादिभिः प्राक्प्रपञ्चितमितिहासपुराणभगवच्छास्त्रादिप्रसिद्धं कर्मात्र विवक्षितमित्यभिप्रायेणआलयनिर्माणेत्यादिकमुक्तम्। परमशब्दाभिप्रेतमाहतान्यत्यर्थप्रियत्वेनाचरेति।मामिच्छाप्तुम् [12।9] इति पूर्वश्लोकोक्ता प्राप्तिरेवात्रापि सिद्धिशब्देन विवक्षितेति तत्स्थानप्राप्त्या प्रतीयते। तत्र पूर्वप्रक्रियया परम्परयैवास्यापि कर्मणः साधकत्वमित्यपिशब्देन द्योत्यत इति ज्ञापनायाह -- अभ्यासयोगपूर्विकामिति। तत्तत्कर्मणामतिपवित्रत्वात्प्रतिकर्म तच्चिन्तनाच्च तत्स्मृत्यभ्यासोऽचिरात्सिध्यतीत्यर्थसिद्धमित्यभिप्रायेणअचिरादित्युक्तम्।
।।12.10।।एवं चित्तधारणार्थमभ्यासः साधनत्वेनोक्तस्तत्साधनमप्याह -- अभ्यास इति। अभ्यासे निरन्तरानुस्मरणे अपि चेत् असमर्थोऽसि तदा मत्कर्मपरमः मत्प्रीति हेतुपूजादिरूपाणि यानि तदनुष्ठानमेव परममुत्कृष्टं यस्य? तादृशो भव। एवं मदर्थं मत्प्रीत्यर्थं? न तु फलकामनया कर्माण्यपि कुर्वन् सिद्धिमभ्याससिद्धिं प्राप्स्यसि।
।।12.10।।अभ्यासेऽपीति। अभ्यासे पूर्वश्लोकोक्ते। मत्कर्मश्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् इति नवविधभजनात्मकं भगवत्प्रीत्यर्थं कर्म मत्कर्मशब्दितं तदेव परममावश्यकं यस्य तादृशो भव। कर्माणि श्रवणादीनि। सिद्धिं सत्वशुद्धिम्।
।।12.10।।सर्वतश्चित्तमाहृत्यैकात्मालम्बने पुनः पुनः स्थापनेऽशक्तं प्रत्यपायान्तरमाह। अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि चेत् मदर्थमपि कर्म मत्प्रीत्यर्थं यत्कर्म तत्परमस्तत्प्रधानो भव। अभ्यासने विना मदर्थमपि केवलं कुर्वन् सिद्धिं ब्रह्मस्वभावं मोक्षं सत्त्वशुद्धियोगज्ञानप्राप्तिद्वारा प्राप्स्यसीत्यर्थः।
12.10 अभ्यासे in practice? अपि also? असमर्थः not capable? असि (thou) art? मत्कर्मपरमः intent on doing actions for My sake? भव be? मदर्थम् for My sake? अपि also? कर्माणि actions? कुर्वन् by doing? सिद्धिम् perfection? अवाप्स्यसि thou shalt attain.Commentary Even if thou doest mee actions for My sake without practising Yoga thou shalt attain perfection. Thou shalt first attain purity of mind? then Yoga (concentration and meditation)? then knowledge and then ultimately perfection (Moksha or liberation). Serving humanity with Narayana Bhava (feeling that one is serving the Lord in all) is also doing actions for the sake of the Lord. such service should go hand in hand with worship of God and meditation.If you are not able to practise the Yoga of meditation mentioned in verse 8 or the Yoga of constant practice mentioned in verse 9? hear the glorious stories connected with the Lord by attending religious discourses? conducted by the devotees of the Lord? sing Kirtan and the praises of the Lord.Practise the nine kinds of Bhagavata Dharma (the nine modes of devotion). viz.? (1) hearing the Lilas (glorious and divine sports) of the Lord (Sravana)? (2) singing His Names (Kirtana)? (3) constant remembrance of the Lord and constant repetition of His Names or Mantras (Smarana)? (4) service of His feet (Padasevana)? (5) offering flowers in worship (Archana)? (6) doing prostrations to the Lord (Vandana)? (7) becoming His servant (Dasya)? (8) friendship with Him (Sakhya)? and (9) doing total selfsurrender to the Lord (Atmanivedana). (Cf.III.19XI.55)
12.10 If thou art unable to practise even this Abhyasa Yoga, be thou intent on doing actions for My sake; even by doing actions for My sake, thou shalt attain perfection.
12.10 And if thou are not strong enough to practise concentration, then devote thyself to My service, do all thine acts for My sake, and thou shalt still attain the goal.
12.10 If you are unable even to practise, be intent on works for Me. By undertaking works for Me as well, you will attain perfection. [Identity with Brahman.]
12.10 If asamarthah asi, you are unable; api, even; abhyase, to practise; then, bhava, be; mat-karma-paramah, intent on works for Me-works (karma) meant for Me (mat) are mat-karma-i.e., you be such that works meant for Me become most important to you. In the absence of Practice, api, even; kurvan, by undertaking; karmani, works alone; madartham, for Me; avapsyasi, you will attain; siddhim, perfection-by gradually aciring purification of mind, concentration and Knowledge.
12.10. If you are incapable of doing a [steady] practice, then have, your chief aim, of performing actions for Me. Even by performing actions for Me, You shall attain success.
12.10 Abhyase'pi etc. The constant practice too becomes impossible due to the predominance of the obstacles etc. In that case, in order to eradicate them, you should perform actions like worship, repetition [of the Lord's name etc.], recitation [of scriptures], offering oblations, etc.
12.10 If you are incapable of practising remembrance in the above manner, then devote yourself to 'My deeds.' Such devotional acts consist in the construction of temples, laying out temple gardens, lighting up lamps therein, sweeping, sprinkling water and plastering the floor of holy shrines, gathering flowers, engaging in My worship, chanting My names, circumambulating My temples, praising Me, prostrating before Me etc. Do these with great affection. Even performing such works which are exceedingly dear to Me, you will, before long, get your mind steadily focused on Me as through the practice of repetitions, and will gain perfection through attaining Me.
12.10 If you are incapable of even this practice of repetition, then devote yourself to My deeds (service). For even by working for My sake, you will attain perfection.
।।12.10।।( यदि तू ) अभ्यासमें भी असमर्थ है तो मेरे लिये कर्म करनेमें तत्पर हो -- मदर्थकर्मका नाम मत्कर्म है? उसमें तत्पर हो अर्थात् मेरे लिये कर्म करनेको ही प्रधान समझनेवाला हो। अभ्यासके बिना केवल मेरे लिये कर्म करता हुआ भी तू अन्तःकरणकी शुद्धि और ज्ञानयोगकी प्राप्तिद्वारा परमसिद्धि प्राप्त कर लेगा।
।।12.10।। --,अभ्यासे अपि असमर्थः असि अशक्तः असि? तर्हि मत्कर्मपरमः भव मदर्थं कर्म मत्कर्म तत्परमः मत्कर्मपरमः? मत्कर्मप्रधानः इत्यर्थः। अभ्यासेन विना मदर्थमपि कर्माणि केवलं कुर्वन् सिद्धिं सत्त्वशुद्धियोगज्ञानप्राप्तिद्वारेण अवाप्स्यसि।।
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अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।12.10।।
অভ্যাসেপ্যসমর্থোসি মত্কর্মপরমো ভব৷ মদর্থমপি কর্মাণি কুর্বন্ সিদ্ধিমবাপ্স্যসি৷৷12.10৷৷
অভ্যাসেপ্যসমর্থোসি মত্কর্মপরমো ভব৷ মদর্থমপি কর্মাণি কুর্বন্ সিদ্ধিমবাপ্স্যসি৷৷12.10৷৷
અભ્યાસેપ્યસમર્થોસિ મત્કર્મપરમો ભવ। મદર્થમપિ કર્માણિ કુર્વન્ સિદ્ધિમવાપ્સ્યસિ।।12.10।।
ਅਭ੍ਯਾਸੇਪ੍ਯਸਮਰ੍ਥੋਸਿ ਮਤ੍ਕਰ੍ਮਪਰਮੋ ਭਵ। ਮਦਰ੍ਥਮਪਿ ਕਰ੍ਮਾਣਿ ਕੁਰ੍ਵਨ੍ ਸਿਦ੍ਧਿਮਵਾਪ੍ਸ੍ਯਸਿ।।12.10।।
ಅಭ್ಯಾಸೇಪ್ಯಸಮರ್ಥೋಸಿ ಮತ್ಕರ್ಮಪರಮೋ ಭವ. ಮದರ್ಥಮಪಿ ಕರ್ಮಾಣಿ ಕುರ್ವನ್ ಸಿದ್ಧಿಮವಾಪ್ಸ್ಯಸಿ৷৷12.10৷৷
അഭ്യാസേപ്യസമര്ഥോസി മത്കര്മപരമോ ഭവ. മദര്ഥമപി കര്മാണി കുര്വന് സിദ്ധിമവാപ്സ്യസി৷৷12.10৷৷
ଅଭ୍ଯାସେପ୍ଯସମର୍ଥୋସି ମତ୍କର୍ମପରମୋ ଭବ| ମଦର୍ଥମପି କର୍ମାଣି କୁର୍ବନ୍ ସିଦ୍ଧିମବାପ୍ସ୍ଯସି||12.10||
abhyāsē.pyasamarthō.si matkarmaparamō bhava. madarthamapi karmāṇi kurvan siddhimavāpsyasi৷৷12.10৷৷
அப்யாஸேப்யஸமர்தோஸி மத்கர்மபரமோ பவ. மதர்தமபி கர்மாணி குர்வந் ஸித்திமவாப்ஸ்யஸி৷৷12.10৷৷
అభ్యాసేప్యసమర్థోసి మత్కర్మపరమో భవ. మదర్థమపి కర్మాణి కుర్వన్ సిద్ధిమవాప్స్యసి৷৷12.10৷৷
12.11
12
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।।12.11।।अगर मेरे योग-(समता-) के आश्रित हुआ तू इस(पूर्वश्लोकमें कहे गये साधन-) को भी करनेमें असमर्थ है, तो मन-इन्द्रियोंको वशमें करके सम्पूर्ण कर्मोंके फलका त्याग कर।
।।12.11।। और यदि इसको भी करने के लिए तुम असमर्थ हो, तो आत्मसंयम से युक्त होकर मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर, तुम समस्त कर्मों के फल का त्याग करो।।
।।12.11।। पूर्व श्लोक में? हमें अहंकार का सर्वथा त्याग करके जगत् में कर्म करने का उपदेश दिया गया था। अत्यन्त अहंकारी और मानी पुरुष के लिए यह कार्य़ इतना सरल नहीं है। ऐसा पुरुष रजोगुण के कारण अत्यन्त क्षुब्ध रहता है तथा तमोगुण की निम्नस्तरीय प्रवृत्तियों के कारण उसका व्यक्तित्व विषाक्त रहता है। ऐसे निम्न स्तर के व्यक्ति के लिए भी गीता में साधन मार्ग बताया गया है। प्राय ऐसा पुरुष सभी धर्मों के लिए निराशा का ही विषय बन जाता है। परन्तु? गीता में ऐसे दीर्घस्थायी रोग से पीड़ित रोगियों के लिये भी विचारपूर्वक उपचार बताया गया है। वह उपचार सरल किन्तु ऐसा प्रभावी है कि उसके द्वारा उस रोगी को रोग से सर्वथा मुक्त कर उस्ो सर्वोच्च व्यक्तित्व की आभा तथा कार्यकुशलता प्रदान की जा सकती है।यदि समस्त कर्मों को ईश्वरार्पण बुद्धि से कर पाना असंभव है? तो उस साधक के लिए उतना ही प्रभावी अन्य उपाय यहाँ बताया गया है कि? आत्मसंयम से युक्त होकर? मेरी प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर? तुम समस्त कर्मों के फलों का त्याग करो।ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण को वे लोग अप्रिय हैं? जो केवल वेतनार्थी होते हैं। परन्तु उनका यह द्वेष मध्यमवर्गीय अथवा उच्चवर्गीय लोगों के मन में पसीना बहाने वाले मजदूरों के प्रति तिरस्कार नहीं समझना चाहिए। समाजवाद की प्रणाली वाले राष्ट्र में प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति के मन में श्रीकृष्ण की यह अधीरता उठती है। वे अपने राष्ट्र में ऐसे लोगों को सहन नहीं कर सकते? जो केवल वेतन या व्यक्तिगत लाभ के लिए ही कर्म करते हैं। ऐसे समादवादी राष्ट्र में ऐसा प्रत्येक कर्मचारी दण्ड के योग्य अपराधी माना जायेगा जो अधिकतम अकुशलता से किये गये? न्यूनतम समय के कार्य के लिए उच्चतम वेतन की मांग करता है। इस प्रकार के वेतनार्थियों के प्रति भगवान् श्रीकृष्ण की अप्रियता उनके उपदेशों में स्पष्ट दिखाई देती है।वर्तमान क्षण में किया गया कर्म ही परिपक्व होकर भविष्य के क्षण में फल बनकर प्रकट होता है। आज? यदि कोई कृषक भूमि को जोतकर बीज बोता है? तो उसे वह फसल दोतीन महीनों के पश्चात् ही प्राप्त होगी। और यदि वह कृषक वर्तमान में करने योग्य कार्य को त्यागकर भविष्य में आने वाले फल की ही चिन्ता करने में समय का अपव्यय करे? तो निश्चय ही उसे कभी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। यद्यपि यह एक सुविदित तथ्य है? तथापि बहुसंख्यक लोग वर्तमान में प्राप्त अवसरों को केवल भविष्य की चिन्ता करने में ही खो देते हैं। भविष्य की चिन्ता एवं भय के कारण हमारी समस्त क्षमताएं नष्ट हो जाती हैं? और वह मनकल्पित अन्धकारमय भविष्य तो अभी आया ही नहीं हैं? और सम्भवत कभी आये भी नहीं यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण केवल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम भविष्य विषयक इन व्यर्थ कल्पनाओं को त्याग दें और वर्तमान काल में ही सजग परिपूर्ण और प्रभावी जीवन जियें। इस प्रकार का जीवन जीने से भी हमारा व्यक्तित्व सुगठित और मन एकाग्र और समर्थ बन सकता है।उपर्युक्त तीन श्लोकों में तीन प्रकार के साधकों के लिए तीन भिन्नभिन्न साधनाएं बतायी गयी हैं। सभी मनुष्य किसी सीमा तक बहिर्मुखी होते ही हैं। दो मनुष्यों के बीच जो अन्तर होता है? वह उन दोनों के अन्तकरण में स्थित वासनाओं की परतों की मोटाई के कारण होता है। यदि एक पीतल का पात्र हल्कासा मैला हुआ हो? तो उसे चमकाने के लिए केवल राख से मांजना ही पर्याप्त होता है यदि वह मैल अधिक घना हो तो उसकी स्वच्छता के लिए कुछ अम्ल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार? यदि मन में वासनाओं की पतली परत ही है तो उससे उत्पन्न होने वाले विक्षेपों को अभ्यासयोग के द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है। परन्तु वासनाधिक्य होने पर कर्मयोग की आवश्यकता होगी? जिसमें साधक को समस्त कर्म ईश्वर को अर्पण करने का उपदेश दिया गया है। यदि किसी पुरुष के अन्तकरण में वासनाओं की परतें और भी घनी हों? तो उसे कर्मफल का त्याग करने को कहा जाता है। यहाँ कर्मफल त्याग का अर्थ यह है कि भविष्य में आने वाले फलों की व्यर्थ की चिन्ताओं और कल्पनाओं का सर्वथा त्याग कर देना और वर्तमान में कर्म करते रहना। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है? विश्व के किसी भी आध्यात्मिक ग्रन्थ में आत्मविकास के लिए इतने विविध और विस्तृत मार्गों का विवेचन नहीं किया गया है? जितना भगवद्गीता में हैं।उपर्य़ुक्त तीन साधनों का अभ्यास एक साथ नहीं हो सकता है। उन्हें क्रमवार करना है। इस बात को दर्शाते हुए? अगले श्लोक में? भगवान् सर्वकर्मफल त्याग की प्रशंसा करते हैं
।।12.11।। व्याख्या--'अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः'--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने अपने लिये ही सम्पूर्ण कर्म करनेसे अपनी प्राप्ति बतायी और अब इस श्लोकमें वे सम्पूर्ण कर्मोंके फलत्यागरूप साधनकी बात बता रहे हैं। वहाँ भगवान्के लिये समस्त कर्म करनेमें भक्तिकी प्रधानता होनेसे उसे 'भक्तियोग' कहेंगे और यहाँ सर्वकर्मफलत्यागमें केवल फलत्यागकी मुख्यता होनेसे इसे 'कर्मयोग' कहेंगे। इस प्रकार भगवत्प्राप्तिके ये दोनों ही स्वतन्त्र (पृथक्-पृथक्) साधन हैं।
।।12.11।।अथेति। यदि च भगवत्कर्म कर्तुं न शक्तोऽसि? (N न शक्नोषि) ? अज्ञत्वात्,शास्त्रोक्तक्रमावेदनात् तत् सर्वं मयि संन्यसेः (N संन्यस्येः) आत्मनिवेदनद्वारेणेत्याशयः। अमुमेवाशयमाश्रित्य लघुप्रक्रियायां मयैवोक्तम् -- ऊनाधिकमविज्ञातं पौर्वापर्यविवर्जितम्।यच्चावधानरहितं बुद्धेर्विस्खलितं च यत्।।तत्सर्वं मम सर्वेश भक्तस्यार्तस्य दुर्मतेः।क्षन्तव्यं कृपया शम्भो यतस्त्वं करुणापरः।।अनेन स्तोत्रयोगेन तवात्मानं निवेदये (S निवेदयेत)।पुनर्निष्कारणमहं दुःखानां नैमि पात्रताम्।।इतिपारमेश्वरेषु हि सिद्धान्तशास्त्रेषु आत्मनिवेदने अयमेवाभिप्रायः।
।।12.11।।अथ मद्योगम् आश्रित्य एतद् अपि कर्तुं न शक्नोषि? मद्गुणानुसंधानकृतं मदेकप्रियत्वाकारं भक्तियोगम् आश्रित्य भक्तियोगाङ्गरूपम् एतद् मत्कर्म अपि कर्तुं न शक्नोषि ततः अक्षरयोगम् आत्मस्वभावानुसंधानरूपं परभक्तिजननं पूर्वषट्कोदितम् आश्रित्य तदुपायतया सर्वकर्मफलत्यागं कुरु। मत्प्रियत्वेन मदेकप्राप्यताबुद्धिः हि प्रक्षीणाशेषपापस्य एव जायते यतात्मवान् यतमनस्कः। ततः अनभिसंहितफलेन मदाराधनरूपेण अनुष्ठितेन कर्मणा सिद्धेन आत्मज्ञानेन निवृत्ताविद्यादिसर्वतिरोधाने मच्छेषतैकस्वरूपे प्रत्यगात्मनि साक्षात्कृते सति मयि परा भक्तिः स्वयम् एव उत्पद्यते।तथा च वक्ष्यते -- स्वकर्मणा तमभ्यर्चय सिद्धिं विन्दति मानवः। (गीता 18।46) इत्यारभ्यविमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।।समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।। (18।5354) इति।
।।12.11।।भगवत्कर्मपरत्वमप्यशक्यमिति शङ्कते -- अथेति। बहिर्विषयाकृष्टचेतस्त्वादित्यर्थः। तर्हि भगवत्प्राप्त्युपायत्वेन संयतचित्तो भूत्वा कर्मफलसंन्यासं कुर्वित्याह -- मद्योगमिति।
।।12.11।।अथैतदपि न कर्त्तुं त्वं शक्तोसि चेत्तर्हि मद्योगं मत्सम्बन्धसेव्यसेवकत्वरूपमाश्रितः सन् सर्वकर्मफलत्यागं कुरु। एतदुक्तं भवति -- ईश्वराज्ञया परमाचार्योपदिष्टशरणमार्गतः यथाशक्ति स्वधर्माचरणं फलादित्यागपूर्वकं सुखावहमिति मयि भारमारोप्य अन्यज्ञानयोगधर्मपरित्यागेन मदाश्रये कृतार्थतेति। विशेषस्त्वग्रे स्पष्टीकरिष्यते।
।।12.11।।अथेति। अथ बहिर्विषयाकृष्टचेतस्त्वादेतन्मत्कर्मपरत्वमपि कर्तुं न शक्नोषि ततो मद्योगं मदेकशरणत्वमाश्रितः मयि सर्वकर्मसमर्पणं मद्योगस्तं वाश्रितः सन् यतात्मवान् यतः संयतसर्वेन्द्रियः आत्मवान् विवेकी च सन् सर्वकर्मफलत्यागं कुरु फलाभिसन्धिं त्यजेत्यर्थः।
।।12.11।। अत्यन्तं भगवद्धर्मपरिनिष्ठायामशक्तस्य पक्षान्तरमाह -- अथैतदपीति। अथैतदपि कर्तुमशक्तोऽसि तर्हि मद्योगं मदेकशरणत्वमाश्रितः सर्वेषां दृष्टादृष्टार्थानामावश्यकानां चाग्निहोत्रादिकर्मणां फलानि नियतचित्तो भूत्वा परित्यज। एतदुक्तं भवति। मया तावदीश्वराज्ञया यथाशक्ति कर्माणि कर्तव्यानि? फलं पुनर्दृष्टमदृष्टं वा परमेश्वराधीनमित्येवं मयि भारमारोप्य फलासक्तिं परित्यज्य वर्तमानो मत्प्रसादेन कृतार्थो भविष्यसीति तात्पर्यम्।
।।12.11।।स्वार्थेष्वेव कर्मसु निबद्धचित्तस्य कथं त्वदर्थेषु कर्मस्वत्यर्थप्रियत्वेन प्रवृत्तिः सम्भवेदित्यत्र तदुपायपरम्पराकाष्ठाभूतं कर्मयोगं प्रत्यभिज्ञापयतिअथैतदिति।मद्योगमाश्रितः इत्यस्याक्षरयोगविषयेणोत्तरार्धेन अन्वयव्युदासाय पूर्वार्धान्वयमाहअथ मद्योगमिति। तस्याशक्यत्वज्ञापनायाह -- मद्गुणेति। भक्तियोगावस्थाविशेषेष्वतः पूर्वावस्था नास्तीति व्यञ्जनायभक्तियोगाङ्कुररूपमित्युक्तम्।मद्योगम् इत्यनेन जीवात्मयोगव्यवच्छेदः। ततश्च मद्योगमाश्रित्य तदङ्कुरे कर्मण्यसमर्थश्चेज्जीवात्मयोगमाश्रित्य तदङ्कुरे कर्मयोगे प्रवर्तस्वेति वाक्यार्थः। तदेतदभिप्रेत्याहततोऽक्षरेति। अक्षरयोगस्याप्यव्यवधानेन मोक्षोपायत्वव्युदासायपरभक्तिजननमित्युक्तम्। सप्रकाराक्षरयोगप्रत्यभिज्ञापनार्थं? मध्यमषट्कोदिताक्षरयोगव्यवच्छेदार्थं चपूर्वषट्कोदितमित्युक्तम्। सर्वकर्मफलत्यागस्याव्यवधानेन भक्तियोगजनकत्वव्युदासायतदुपायतयेत्युक्तम्।कर्मयोगपूर्वकात्मसाक्षात्कारस्य भक्त्युत्पत्त्युपयोगित्वप्रकारं प्रकरणान्तरोक्तं दर्शयति -- मत्प्रियत्वेनेति।मय्येव मन आधत्स्व [12।8] इति पूर्वं परमात्मनि मनस्समाधानं विहितम् तदशक्तं प्रत्युपदिश्यमानाक्षरयोगांकुररूपे कर्मणि प्रवृत्तस्य तु पूर्वषट्कप्रपञ्चितैर्हेतुभिः मनोनियमनशक्यत्वंयतात्मवान् इत्युक्तमित्यभिप्रायेणयतमनस्क इत्युक्तम्। कर्मयोगस्यानन्तरश्लोकेऽभिधास्यमानक्रमेण परम्परया भक्तियोगजनकत्वप्रकारमाहततोऽनभिसंहितेति।फलत्यागं कुरु इति साध्यांशत्यागवचनेन तत्पूर्वकसाधनानुष्ठानं विवक्षितमिति ज्ञापनायअनभिसंहितफलेनेत्यादिकमुक्तम्। अनन्तराभिधास्यमानमनश्शान्तिद्वारात्मध्यानसिद्धिः। अविद्या संसारकारणं कर्म?अविद्या कर्मसंज्ञा इत्युपक्रम्ययया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा वेष्टिता [वि.पु.6।7।61] इति वचनात्। आदिशब्देनअनात्मन्यात्मबुद्धिर्या त्वस्वे स्वमिति या मतिः। अविद्यातरुसम्भूतिबीजमेतद्द्विधा स्थितम् [वि.पु.6।7।11] इत्याद्युक्तसङ्ग्रहः। यद्वाऽत्र अविद्या देहात्मभ्रमादिः आदिशब्देन कर्मवासनादिसङ्ग्रहः। परभक्तिजनकत्वसिद्ध्यर्थमुक्तंमच्छेषतैकस्वरूप इति। यथा बाल्ये बालक्रीडाप्रसङ्गेन नरेन्द्रभवनान्निष्क्रान्तस्य मार्गाद्भ्रष्टस्य व्याधगृहीतस्य पक्कणे वर्तमानस्य राजकुमारस्याप्तोपदेशात्स्वात्मनस्तथात्वं मत्वा विमृशतः स्वात्मनि राजसाम्यमङ्गप्रत्यङ्गादिषु पश्यतस्तस्मिन् यथा पितृत्वप्रीतिर्निरतिशया जायते एवमस्यापि यथोपदेशं भगवच्छेषभूते स्वात्मनि तत्साम्याकारेण साक्षात्कृते भक्तिसिद्ध्यर्थं न किञ्चित्कर्तव्यमस्तीत्यभिप्रायेण -- मयि परा भक्तिः स्वयमेवोत्पद्यत इत्युक्तम्। एतेनाध्यायारम्भेये चाप्यक्षरमव्यक्तम् [12।1] इत्युक्ताक्षरयोगोऽप्यक्षरसाक्षात्कारद्वारा परभक्तिमुत्पाद्य परमात्मप्राप्तौ विश्राम्यतीति सिद्धम्। स एव ह्यत्रापि प्रथमषट्कोक्तोऽक्षरयोगः प्रस्पष्टमुच्यते।ननु यदशक्तं प्रति यदुपदिश्यते? तत्तत्तुल्यफलमशक्ताधिकारं साधनान्तरं दृष्टम् यथावगाहना शक्तस्य स्नानान्तराणि। उच्यते चान्यत्र क्रियायोगस्य साक्षान्मोक्षसाधनत्वंमोक्षकारणमव्यक्तमचिन्त्यमपरिग्रहम्। तमाराध्य जगन्नाथं क्रियायोगेन मुच्यते इति। तथात्रापि किं न स्यादिति शङ्कायां कर्मयोगस्य भक्तियोगसाधनत्वं अष्टादशाध्याये वक्ष्यमाणं दर्शयतितथाचेति। अन्यत्र चाप्ययं क्रमः स्फुटः -- तत्र चित्तं समावेष्टुं न शक्नोति भवान्यदि। तदभ्यासपरस्तस्मिन् कुरु योगं दिवानिशम्। तत्राप्यसामर्थ्यवतः क्रियायोगो महात्मनः। ब्रह्मणा यः समाख्यातस्तत्परः सततं भव। करोषि यानि कर्माणि देवदेवे जगत्पतौ। समर्पयस्व भद्रं ते ततः कर्म प्रहास्यसि। प्रधानं कारणं योगो विमुक्तेर्दितिजेश्वर। क्रियायोगश्च योगस्य परमं तस्य साधनम् इति।मद्भक्तिं लभते पराम् [18।54] इति वक्ष्यमाणफलस्य कर्मयोगहेतुकत्वं प्रकरणसिद्धमिति ज्ञापनायस्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः [18।46]इत्यारभ्येत्युक्तम्।
।।12.11।।एतत्प्राप्त्यर्थमतिसुगमोपायमाह -- अथैतदिति। अथ चेत् एतदपि मदर्थकं कर्तुमशक्तोऽसि न समर्थोऽसि? स्वरूपाज्ञानात् तदा मद्योगं मम योगः संयोगो यस्मिन् यस्य वा तादृशं भक्तमाश्रितः सन् यतात्मवान् तदेकपरचित्तो भूत्वा सर्वकर्मफलत्यागं सन्ध्यावन्दनाग्निहोत्रादीनां स्वर्गादिरूपफलानां त्यागं कुरु? चिन्तनं त्यजेत्यर्थः। तत्फलानभिलाषे मदाज्ञया करणात् कर्मभिश्चित्तशुद्ध्या मद्भक्तोपदिष्टं ज्ञानं स्थिरीभविष्यति? तेन मत्कर्मसिद्धिर्भविष्यतीति भावः।
।।12.11।।मद्योगं श्रवणादौ निष्ठाम्। तर्हि पूर्वोक्तं श्रौतस्मार्तसर्वकर्मफलत्यागं कुर्वित्यर्थः। यतात्मवान् यतश्च नियमादिमांश्च आत्मवान् जितचित्तश्चेति यतात्मवान्।
।।12.11।।तर्हि विषयाकृष्टचित्तत्वाद्भगवत्कर्मपरतायामशक्तं प्रत्युपायान्तरमाह -- अथैतदपि कर्तुमशक्तोऽसि चेत्तर्हि मद्योगमाश्रितः मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य तेषामुनुष्ठानं मद्योगस्तमाश्रितः मदेकशरणत्वमाश्रितः सन् तदनन्तरं सर्वेषां कर्मणां फलसंन्यासं कुरु विवेकसंयतचित्तः सन्नित्यर्थः।
12.11 अथ if? एतत् this? अपि also? अशक्तः unable? असि (thou) art? कर्तुम् to do? मद्योगम् My Yoga? आश्रितः resorting to? सर्वकर्मफलत्यागम् the renunciation of the fruits of all actions? ततः then? कुरु do? यतात्मवान् selfcontrolled.Commentary This is the easiest path. If thou art unable to perform actions for My sake? if thou canst not even be intent on My service? if thou art unable to practise the Bhagavata Dharmas? if thous wishest to do actions impelled by personal desires? then do thou perform them (for your sake from a sense of duty) renouncing them all in Me and also abandon the fruits of all actions? at the same time practising selfcontrol.In verse 8 the Yoga of meditation is prescribed for advanced students in verse 9 the Yoga of constant practice if one finds that? too? to be difficult? the performance of actions for the sake of the Lord alone has been taught in verse 10 and those who cannot do even this are asked to abandon the fruits of all actions.Madyogam My Yoga. Surrendering all actions and their fruits to Me is My Yoga.Yatatmavan The man of discrimination who has controlled all the senses? who has withdrawn the senses from sound? touch? form? taste and smell.Now the Lord eulogises the renunciation of the fruits of all actions in order to encourage the aspirants to practise the Yoga of renunciation of the fruits of actions.
12.11 If thou art unable to do even this, then, resorting to union with Me, renounce the fruits of all actions with the self controlled.
12.11 And if thou art too weak even for this, then seek refuge in union with Me, and with perfect self-control renounce the fruit of thy action.
12.11 If you are unable to do even this, in that case, having resorted to the Yoga for Me, thereafter renounce the results of all works by becoming controlled in mind.
12.11 Atha, if, again; asaktah asi, you are unable; kartum, to do; etat api, even this-what was stated as being 'intent on doing works for Me'; in that case, mad-yogam-asritah, having resorted to the Yoga for Me-the performance of those works that are being done by dedicating them to Me is madyogah; by resorting to that Yoga for Me; tatah, thereafter; sarva-karma-phala-tyagam kuru, renounce, give up, the results of all works; by becoming yata-atmavan, controlled in mind. [In the earlier verse it was enjoined that all works, be they Vedic or secular, are to be considered as belonging to God and should be done for Him-not for oneself-, as a soldier would do for his king. In the present verse it is stated that the attitude should be, 'May this work of mine please God.' This very attitude involves dedicating of results to God. See S. According to M.S., mat-karma in the earlier verse means bhagavata-dharma, i.e. hearing, singing, etc. about God. In the present verse, sarva-karma means all works in general.-Tr.] Now the Lord praises the renunciation of the results of all works:
12.11. Now, if you are not capable of doing this too, then taking resort to My Yoga renounce the fruit of all action, with your self (mind) subdued.
12.11 Atha etc. In case due to ignorance, you do not know the method, enjoined in the scriptures and hence you are not able to perform actions for the Lord, then renounce (dedicate) all that to Me, through offering your own self [to Me]. This is the intention [here]. Holding the same intention, I have myself declared in the Laghuprakriya as : 'Whatever action I have done, whether it is incomplete or superfluous, not properly understood, bereft of a proper order of precedence, devoid of [good] care, and full of slip of intellect; O Lord of All ! Please, with mercy forgive all these of me, the afflicted and foolish devotee of Yours; for you are compassionate; With this prayer-Yoga, I offer myself to You [so that] I do not become a receptacle of miseries again unnecessarily.' the same idea may be observed in the scriptural texts of the Siddhanta [system] - that have the Supreme Lord as their subject matter - while they speak of offering oneself [to the Lord]. The same purport is summed up -
12.11 If you are unable to do even this 'taking refuge in My Yoga,' i.e., if you are unable even to do actions for My sake, which forms the sprout of Bhakti Yoga, wherein through meditation I am made the exclusive and sole object of love - then you should resort to Aksara Yoga described in the first six chapters. It consists in contemplation on the nature of the individual self. This engenders devotion to the Lord. As a means for practice of this (Aksara Yoga), renounce the fruit of every action. The state of mind that holds Me as the only worthy object of attainment and love arises only when all the sins of an aspirant are destroyed without exception. 'One with a controlled mind' means one with the mind subdued. When the individual self is visualised to be of the nature of a Sesa (subsidiary) to the Lord, and when the veil of nescience consisting in identifying the self with the body is removed by contemplation on the self generated through the performance of works without attachment to the fruits and with My propitiation as the sole objective - then supreme Bhakti to Me will originate by itself. [The point driven home is this: It is nescience that stands between the Jiva and the Lord. This nescience consists in identification of the self with the body. It is through works done without an eye on their fruits but exclusively as an offering to the Lord, that this nescience is removed. Thus Karma Yoga is the sprout of self-realisation, and of Bhakti. On the nescience being removed, the knowledge that one (i.e., the Jiva) is a Sesa (an absolutely dependent liege) of the Lord, dawns on the Jiva. Such knowledge generates exclusive devotion or Bhakti accompanied by Prapatti. Or if the Jiva gets immersed in Its own bliss, It will attain Kaivalya.] In the same manner, Sri Krsna will further show in the text beginning with 'By worshipping Him with his work will a man reach perfection' (18.46) and ending with 'Forsaking the feeling of "I" and with no feeling of "mine" and tranil, one becomes worthy of the state of Brahman. Having realised the state of Brahman, tranil, he neither grieves nor craves. Regarding all beings alike, he attains supreme devotion to Me' (18.53-54).
12.11 If you are unable to do even this, i.e., taking refuge in My Yoga, then, with your self controlled, renounce the fruits of every action.
।।12.11।।परंतु यदि तू ऐसा करनेमें भी अर्थात् जैसा ऊपर कहा है? उस प्रकार मेरे लिये कर्म करनेके परायण होनेमें भी असमर्थ है तो फिर मद्योगके आश्रित होकर -- किये जानेवाले समस्त कर्मोंको मुझमें समर्पण करके उनका अनुष्ठान करना मद्योग है। उसके आश्रित होकरऔर संयतात्मा होकर अर्थात् वशीभूत मनवाला होकर समस्त कर्मोंके फलका त्याग कर।,
।।12.11।। --,अथ पुनः एतदपि यत् उक्तं मत्कर्मपरमत्वम्? तत् कर्तुम् अशक्तः असि? मद्योगम् आश्रितः मयि क्रियमाणानि कर्माणि संन्यस्य यत् करणं तेषाम् अनुष्ठानं सः मद्योगः? तम् आश्रितः सन्? सर्वकर्मफलत्यागं सर्वेषां कर्मणां फलसंन्यासं सर्वकर्मफलत्यागं ततः अनन्तरं कुरु यतात्मवान् संयतचित्तः सन् इत्यर्थः।।इदानीं सर्वकर्मफलत्यागं स्तौति --,
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अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्।।12.11।।
অথৈতদপ্যশক্তোসি কর্তুং মদ্যোগমাশ্রিতঃ৷ সর্বকর্মফলত্যাগং ততঃ কুরু যতাত্মবান্৷৷12.11৷৷
অথৈতদপ্যশক্তোসি কর্তুং মদ্যোগমাশ্রিতঃ৷ সর্বকর্মফলত্যাগং ততঃ কুরু যতাত্মবান্৷৷12.11৷৷
અથૈતદપ્યશક્તોસિ કર્તું મદ્યોગમાશ્રિતઃ। સર્વકર્મફલત્યાગં તતઃ કુરુ યતાત્મવાન્।।12.11।।
ਅਥੈਤਦਪ੍ਯਸ਼ਕ੍ਤੋਸਿ ਕਰ੍ਤੁਂ ਮਦ੍ਯੋਗਮਾਸ਼੍ਰਿਤ। ਸਰ੍ਵਕਰ੍ਮਫਲਤ੍ਯਾਗਂ ਤਤ ਕੁਰੁ ਯਤਾਤ੍ਮਵਾਨ੍।।12.11।।
ಅಥೈತದಪ್ಯಶಕ್ತೋಸಿ ಕರ್ತುಂ ಮದ್ಯೋಗಮಾಶ್ರಿತಃ. ಸರ್ವಕರ್ಮಫಲತ್ಯಾಗಂ ತತಃ ಕುರು ಯತಾತ್ಮವಾನ್৷৷12.11৷৷
അഥൈതദപ്യശക്തോസി കര്തും മദ്യോഗമാശ്രിതഃ. സര്വകര്മഫലത്യാഗം തതഃ കുരു യതാത്മവാന്৷৷12.11৷৷
ଅଥୈତଦପ୍ଯଶକ୍ତୋସି କର୍ତୁଂ ମଦ୍ଯୋଗମାଶ୍ରିତଃ| ସର୍ବକର୍ମଫଲତ୍ଯାଗଂ ତତଃ କୁରୁ ଯତାତ୍ମବାନ୍||12.11||
athaitadapyaśaktō.si kartuṅ madyōgamāśritaḥ. sarvakarmaphalatyāgaṅ tataḥ kuru yatātmavān৷৷12.11৷৷
அதைததப்யஷக்தோஸி கர்துஂ மத்யோகமாஷ்ரிதஃ. ஸர்வகர்மபலத்யாகஂ ததஃ குரு யதாத்மவாந்৷৷12.11৷৷
అథైతదప్యశక్తోసి కర్తుం మద్యోగమాశ్రితః. సర్వకర్మఫలత్యాగం తతః కురు యతాత్మవాన్৷৷12.11৷৷
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।।12.12।।अभ्याससे शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफलत्यागसे तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।
।।12.12।। अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है त्याग; से तत्काल ही शान्ति मिलती है।।
।।12.12।। भ्रमित शिष्य को उपदेश देते समय गुरु के लिए यह पर्याप्त नहीं है कि वह केवल दार्शनिक सत्यों का नाम निर्देश कर उनकी गणना करें। आवश्यकता होती है उन विचारों के एक ऐसी सुन्दर संयोजना की? जिससे विद्यार्थी को सभी विचार पुष्पगुच्छ के समान एक ही स्थान पर प्राप्त हो जायें। इससे तत्त्व को समझने में सहायता मिलती है। भगवान् श्रीकृष्ण के प्रवचन का विचाराधीन श्लोक एक ऐसा ही उदाहरण विशेष है? जिसमें अब तक किये सैद्धांतिक विवेचन को एक सुसंयोजित विचार पद्धति से प्रस्तुत किया गया है।इस श्लोक में सैद्धांतिक विचारों को उनके महत्त्व की दृष्टि से उतरते क्रम में रखा गया है। एक बार यदि साधना के इस सोपान को साधक भली भाँति समझ लेता है और इस सोपान पर आरोहण व अवरोहण की कला भी सीख लेता है? तो यह माना जा सकता है कि उसने इस अध्याय के विवेचित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों को पूर्णरूप से समझ लिया है।अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है आध्यात्मिक साधनाएं केवल शारीरिक क्रियायें नहीं हैं? वरन् उनका प्रय़ोजन हमारे मन और बुद्धि को अर्थात् हमारे आन्तरिक व्यक्तित्व को सुगठित करना है। शरीर से की जाने वाली भक्ति साधना को अन्तकरण का सहयोग तब तक नहीं मिलेगा? जब तक कि साधक को उसके द्वारा की जा रही साधना का सम्यक् ज्ञान नहीं होता। शारीरिक क्रियाओं को मन का भक्तिभावनापूर्ण सहयोग प्राप्त कराने के पूर्व बुद्धि का परिवर्तन अत्यावश्यक होता है। हम जिसका अभ्यास कर रहे हैं और उसका प्रयोजन क्या है? इसका पूर्ण ज्ञान होना योग को सफल बनाने के लिए अपरिहार्य है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि केवल यन्त्रवत् साधनाभ्यास करने की अपेक्षा उसके मनोवैज्ञानिक? बौद्धिक और आध्यात्मिक आशयों का ज्ञान होना अधिक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है।ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है श्रवणादि साधनों से प्राप्त किये गये ज्ञान पर ध्यान करना उस ज्ञान से अधिक श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक साधनाओं की प्रक्रिया और प्रय़ोजन के शास्त्रीय ज्ञान को समझने की अपेक्षा उन्हें सीखना अधिक सरल होता है। श्रवण से प्राप्त ज्ञान को आत्मसात् करने के लिए उस पर विचारपूर्वक मनन और ध्यान की आवश्यकता होती है। शास्त्रवाक्यों के केवल शाब्दिक अर्थ को जानने से यह कार्य सम्पादित नहीं हो सकता। इसलिए मनन और निदिध्यासन अनिवार्य़ होते हैं। केवल श्रवण से किये गये ज्ञान से आत्मसात् किया हुआ ज्ञान निश्चित ही अधिक श्रेष्ठ होता है उसे आत्मसात् करने का साधन ध्यान है? इसलिए महत्व के अनुक्रम में ध्यान को ज्ञान की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ कहा गया है।ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है वर्तमान में प्राप्त ज्ञान की परिसीमा के परे सुदूर स्थित श्रेष्ठतर ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उड़ान भरने का बुद्धि का प्रयत्न ही ध्यान कहलाता है। इस उड़ान के लिए बुद्धि के पास शक्ति और सन्तुलन का होना आवश्यक है। उस व्यक्ति के लिए ध्यान का अभ्यास असंभव है? जिसके मन की शक्ति और स्थिरता? भावी फलों की चिन्ता व कल्पना के कारण छिन्नभिन्न हो गयी होती हैं। पूर्व श्लोक की व्याख्या में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार भविष्य के प्रति हमारी चिन्ता और व्याकुलता? वर्तमान में कार्य करने की हमारी क्षमता को नष्ट कर देती हैं। सभी कर्मफल भविष्य में ही आते हैं और इनकी चिन्ता करने का अर्थ है? असंख्य म्ाानसिक विक्षेपों को आमन्त्रित करना। इस प्रकार विक्षुब्ध अन्तकरण से कोई भी साधक शास्त्र प्रतिपादित सत्य पर न मनन कर सकता है और न ध्यान। इसलिए यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कर्मफल त्याग को श्रेष्ठ स्थान प्रदान करते हैं।अपने कथन पर टिप्पणी को जोड़ते हुए भगवान् कहते हैं कि? त्याग से तत्काल शान्ति मिलती है। हिन्दू धर्म में संन्यास का वास्तविक अर्थ यह है कि इन्द्रियों का विषयों के साथ सम्पर्क होने से उत्पन्न होने वाले सुख भोग की बन्धनकारक आसक्तियों को त्याग देना।इस त्याग के परिणामस्वरूप साधक को अन्तकरण की प्रभावशाली शान्ति और स्थिरता प्राप्त होती है। ऐसे शान्त वातावरण में बुद्धि शास्त्र के ज्ञान पर मनन करके उसमें वर्णित आत्मविकास के साधनों को सम्यक् प्रकार से समझ पाती है और इस प्रकार ज्ञानपूर्वक ध्यान का अभ्यास करने पर साधक को निश्चित ही सफलता मिलती है।अब? अक्षर और अव्यक्त की उपासना करने वाले ज्ञानी भक्तजनों के आंतरिक लक्षण? अगले श्लोक में बताये जा रहे हैं? जो साधकों के लिए पूर्णत्व प्राप्ति के उपायभूत साक्षात् साधन हैं
।।12.12।। व्याख्या--[भगवान्ने आठवें श्लोकसे ग्यारहवें श्लोकतक एक-एक साधनमें असमर्थ होनेपर क्रमशः समर्पण-योग, अभ्यासयोग, भगवदर्थ कर्म और कर्मफल-त्याग--ये चार साधन बताये। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि क्रमशः पहले साधनकी अपेक्षा आगेका साधन नीचे दर्जेका है, और अन्तमें कहा गया कर्मफलत्यागका साधन सबसे नीचे दर्जेका है। इस बातकी पुष्टि इससे भी होती है कि पहलेके तीन साधनोंमें भगवत्प्राप्तिरूप फलकी बात ('निवसिष्यसि मय्येव' , मामिच्छाप्तुम्' तथा 'सिद्धिमवाप्स्यसि' -- इन पदोंद्वारा) साथ-साथ कही गयी; परन्तु ग्यारहवें श्लोकमें जहाँ कर्मफलत्याग करनेकी आज्ञा दी गयी है, वहाँ उसका फल भगवत्प्राप्ति नहीं बताया गया।
।।12.12।।तदिदं तात्पर्यमुपसंह्रियते -- श्रेय इति। ज्ञानम् आवेशात्म अभ्यासाच्छ्रेयः (S??N आवेशात्मा -- श्रेयान्) ? अभ्यासस्य तत्फलत्वात्। तस्मादेवावेशात् ध्यानं भगवन्मयत्वं विशिष्यते याति? अभिमतप्राप्त्या। सति ध्याने (S सति ध्यानेन ?N प्राप्त्यासत्तिव्यानेन) भगवन्मयत्वे कर्मफलानि संन्यसितुं युज्यन्ते। अन्यथा अज्ञातरूपे (?N रूपत्वे) क्व संन्यासः कर्मफलत्यागे च आत्यन्तिकी शान्तिः। अतः सर्वमूलत्वात् आवेशात्मकं ज्ञानमेव प्रधानम्।
।।12.12।।अत्यर्थप्रीतिविरहितात् कर्कशरूपात् स्मृत्यभ्यासाद् अक्षरयाथात्म्यानुसंधानपूर्वकं तदापरोक्ष्यज्ञानम् एव आत्महितत्वे विशिष्यते आत्मापरोक्ष्यज्ञानाद् अपि अनिष्पन्नरूपात् तदुपायभूतात्मध्यानम् एव आत्महितत्वे विशिष्यते? तद्ध्यानाद् अपि अनिष्पन्नरूपात् तदुपायभूतं फलत्यागेन अनुष्ठितं कर्म एव विशिष्यते।अनभिसंहितफलाद् अनुष्ठितात् कर्मणः अनन्तरम् एव निरस्तपापतया मनसः शान्तिः भविष्यति शान्ते मनसि आत्मध्यानं संपत्स्यते ध्यानाद् ज्ञानं ज्ञानात् च तदापरोक्ष्यं तदापरोक्ष्यात् परा भक्तिः इति भक्तियोगाभ्यासाशक्तस्य आत्मनिष्ठा एव श्रेयसी। आत्मनिष्ठस्य अपि अशान्तमनसो निष्ठाप्राप्तये अन्तर्गतात्मज्ञानानभिसंहितफलकर्मनिष्ठा एव श्रेयसी इत्यर्थः।।अनभिसंहितफलकर्मनिष्ठस्य उपादेयान् गुणान् आह --
।।12.12।।उत्तरश्लोकतात्पर्यमाह -- इदानीमिति। ज्ञानं शब्दयुक्तिभ्यामात्मनिश्चयः। अभ्यासो ज्ञानार्थश्रवणाभ्यासो निश्चयपूर्वको ध्यानाभ्यासो वा। तस्य विशिष्यमाणत्वे साक्षात्कारहेतुत्वं हेतुः। त्यागस्य विशिष्टत्वे हेतुमाह -- एवमिति। प्रीणातु भगवानिति तस्मिन्कर्मसंन्यासपूर्वकमित्यर्थः। पूर्वविशेषणवतो नियतचित्तस्य पुंसो यथोक्तत्यागादित्यर्थः। अनन्तरमेवेत्युक्तं व्यनक्ति -- नत्विति। नतु कर्मफलत्यागस्य सद्यःशान्तिकरत्वे सम्यग्धीरेव तथेति श्रुतिस्मृतिप्रसिद्धिर्विरुध्येत तत्राह -- अज्ञस्येति। दीर्घेण कालेनादरनैरन्तर्यानुष्ठिताद्ध्यानाद्वस्तुसाक्षात्कारद्वारा संसारदुःखोपशान्तेस्तथाविधाद्ध्यानात्त्यागस्य विशिष्टत्वोक्तेस्तदीयस्तुतिरत्रेष्टेत्याह -- अतश्चेति। तत्र हेतुमाह -- संपन्नेति। संपन्नानि प्राप्तानिसाधनान्यक्षरोपासनादीनि तेषां मध्ये पूर्वपूर्वस्यानुष्ठानाशक्तावुत्तरोत्तरस्यानुष्ठेयत्वेनोपदेशात्त्यागे चोपदेशपर्यवसानादित्यर्थः। त्यागे विशिष्टत्ववचनस्य केन साधर्म्येण तं प्रति स्तुतित्वमिति पृच्छति -- केनेति। उत्तरमाह -- यदेति। अमृतत्वमुक्तम्अथ मर्त्योऽमृतो भवति इति शेषादिति शेषः। कामप्रहाणस्यामृतत्वार्थत्वमथाकामयमान इत्यादावपि सिद्धमित्याह -- तदिति। कामत्यागस्यामृतत्वहेतुत्वेऽपि कथं कर्मफलत्यागस्य तद्धेतुत्वमित्याशङ्क्याह -- कामाश्चेति। कर्मफलत्यागादेव शान्तिश्चेज्ज्ञाननिष्ठोपेक्षितेत्याशङ्क्याह -- तत्त्यागे चेति। तथापि कथमज्ञस्य कर्मफलत्यागस्तुतिरित्याशङ्क्याह -- इति सर्वेति। विद्यावतस्त्यागवदविद्वत्त्यागस्यापि त्यागत्वाविशेषाद्विशिष्टत्वोक्तिर्युक्तेति स्तुतिमुपसंहरति -- इति,तत्सामान्यादिति। किमर्था स्तुतिरित्याशङ्क्य त्यागे रुचिमुत्पाद्य प्रवर्तयितुमित्याह -- प्ररोचनार्थेति। त्यागस्तुतिं दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- यथेति। फलत्यागः श्रेयोहेतुश्चेत्कर्मत्यागादपि फलत्यागसिद्धेरलं कर्मानुष्ठानेनेत्याशङ्क्याह -- एवं कर्मेति। फलाभिलाषं त्यक्त्वा कर्मानुष्ठानस्यार्पितस्येश्वरे श्रेयोहेतुतया विवक्षितत्वान्नानुष्ठानानर्थक्यमित्यर्थः।
।।12.12।।तमिमं फलादित्यागं स्तौति -- श्रेयो हीति। अभ्यासादुक्तपूर्वात् युक्तिसहितोपदेशपूर्वकं सर्वज्ञानं श्रेष्ठं? ततो ध्यानं निषेवणं? ततश्च फलत्यागः? ततोऽनन्तरं शान्तिः स्वास्थ्यमेव भवतीति विशिष्यते। शान्तिर्हि लाभेऽलाभे जये़ऽजये च मनस उपशमस्वरूपा? ततश्च कृतार्थतेत्यर्थसिद्धम्।
।।12.12।।इदानीमत्रैव साधनविधानपर्यवसानादिमं सर्वकर्मफलत्यागं स्तौति -- श्रेयोहीति। श्रेयः प्रशस्यतरं हि एव ज्ञानं शब्दयुक्तिभ्यामात्मनिश्चयः अभ्यासाज्ज्ञानार्थश्रवणाभ्यासाज्ज्ञानाच्छ्रवणमननपरिनिष्पन्नादपि ध्यानं निदिध्यासनसंज्ञं विशिष्यते अतिशयितं भवति। साक्षात्काराव्यवहितहेतुत्वात्। तदेवं सर्वसाधनश्रेष्ठं ध्यानं ततोऽप्यतिशयितत्वेनाज्ञकृतः कर्मफलत्यागः स्तूयते -- ध्यानादिति। ध्यानात्कर्मफलत्यागो विशिष्यत इत्यनुषज्यते। त्यागान्नियतचित्तेन पुंसा कृतात्सर्वकर्मफलत्यागात् शान्तिरुपशमः सहेतुकस्य संसारस्यानन्तरं अव्यवधानेन नतु कालान्तरमपेक्षते। अत्रयदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते इत्यादि श्रुतिषु? प्रजहाति यदा कामान्सर्वानित्यादिस्थितप्रज्ञलक्षणेषु च सर्वकामत्यागस्यामृतत्वसाधनत्वमन्तर्गतं कर्मफलानि च कामास्तत्त्यागोऽपि कामत्यागत्वसामान्यात्सर्वकामत्यागफलेन स्तूयते। यथागस्त्येन ब्राह्मणेन समुद्रः पीत इति यथा वा जामदग्न्येन ब्राह्मणेन निःक्षत्रा पृथिवी कृतेति ब्राह्मणत्वसामान्यादिदानींतना अपि ब्राह्मणा अपरिमेयपराक्रमत्वेन स्तूयन्ते तद्वत्।
।।12.12।। तमिमं फलत्यागं स्तौति -- श्रेयो हीति। सम्यग्ज्ञानरहितादभ्यासाद्युक्तिसहितोपदेशपूर्वकं ज्ञानं श्रेष्ठं। तस्मादपि तत्पूर्वकं ध्यानं श्रेष्ठं।ततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः इति श्रुतेः। तस्मादप्युक्तलक्षणः कर्मफलत्यागः श्रेष्ठः? तस्मादेवं,भूतात्कर्मफलत्यागात्कर्मसु तत्फलेषु चासक्तिनिवृत्त्या मत्प्रसादेन च समनन्तरमेव संसारशान्तिर्भवति।
।।12.12।।अथाव्यवहितोपायानधिकारनिमित्तखेदनिवृत्त्यर्थं रजनीकरबिम्बलिप्सोदस्तहस्तस्तनन्धयवदशक्ये प्रवृत्तिपरिहारार्थं च व्यवहितानेवोपायान्यथाधिकारं सौकर्यातिशयेन प्रशंसन्नुक्तमुपपादयति -- श्रेयो हि इति। यथावस्थितवेषेणाभ्यासात्तदुपायस्य श्रेयस्त्वं वक्तुमयुक्तं वैपरीत्यात् अतोऽनधिकारिणा क्रियमाणो भगवदभ्यासः परिपक्वफलरसलोलुपबटुकरमृदितशलाटुवद्विरस एव स्यादिति तदपेक्षया यथावस्थितसरसाभ्यासहेतोः श्रेयस्त्वमुचितमेव भवेदित्यभिप्रायेणअत्यर्थप्रीतिरहितादित्युक्तम्। त एव च पित्तोपहतपयःपानवदक्षीणपापस्य दुष्करतामाहकर्कशरूपादिति। अत्र परमात्माभ्यासोपायत्वेन विहितं ज्ञानं जीवात्मविषयमेव युक्तम् तच्च ध्यानसाध्यत्वेन विवक्षितत्वादपरोक्षाकारमित्यभिप्रायेणअक्षरयाथात्म्यानुसन्धानपूर्वकं तदापरोक्ष्यज्ञानमित्युक्तम्।श्रेयः इत्यस्यविशिष्यते इत्यस्य च समानार्थत्वज्ञापनायहितत्वे विशिष्यत इत्युक्तम्। व्यवहितोपायस्यापि सौकर्यातिशयलक्षणमत्र हितत्वम् न तु मुख्यत्वादिरूपम्।अनिष्पन्नरूपादित्यस्यापि पूर्ववदभिप्रायः। कर्मणो रजस्तमोमूलरागद्वेषादिनिवृत्तिरूपशान्तिजनकत्वेऽवान्तरव्यापारमाहनिरस्तपापतयेति। ननुत्यागाच्छान्तिः इत्यत्रापि पूर्ववच्छ्रेयस्त्वविधानमेवोचितम्? अन्यथा रीतिभङ्गप्रसङ्गात्? ध्यानस्य कर्मसाध्यतया विवक्षितत्वेन ततोऽन्यस्य कर्मसाध्यत्वनिर्देशायोगात् शान्तिव्यवहितस्य च कथं वैशिष्ट्यमित्यत्राह -- शान्ते मनसीति।अयमभिप्रायः -- अनन्तरम् इति निर्देशेनैव रीतिस्त्यक्तेति प्रतीयते यतश्च यदनन्तरं यद्दृश्यते? तस्य तत्कार्यत्वमेव व्यक्तम् ध्यानं प्रति शान्तेर्हेतुतया ध्यानस्य कर्मसाध्यत्वात्तद्वैशिष्ट्याभिप्रायानुरूपमेव चेदम् इति। अत्रत्यागाच्छान्तिंरनन्तरम् इति हेतुकार्यभावनिर्देश उपलक्षणतया ध्यानादिष्वप्यभिमत इति ज्ञापनायध्यानाच्चेत्यादिकमुक्तम्। ननुश्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् इत्यत्र स्वारस्येन अभ्यासप्रभृत्युत्तरोत्तरमन्तरङ्गत्वाकारेण प्रकृष्टं ज्ञानादिकमिति किं नाङ्गीक्रियते इत्यत्र पिण्डितार्थं वदन् व्यवहितनिष्ठाश्रैष्ठ्यं निगमयतिइति भक्तियोगाभ्यासाशक्तस्येति।अयमभिप्रायः -- अथ चित्त समाधातुं न शक्नोषि [12।9] इति ह्युपक्रान्तम्अथैतदप्यशक्तोऽसि [12।11] इत्यनेन च भक्तियोगाङ्कुरेऽप्यशक्तस्य कर्मफलत्यागो विहितः स चात्रध्यानात्कर्मफलत्यागः इति प्रत्यभिज्ञायते ततश्चाभ्यासापेक्षया तस्याशक्तविषयत्वे सिद्धे तदुभयमध्यगतयोरपि ज्ञानध्यानयोरभ्यासात्पूर्वभावित्वेन कर्मणः परत्वेन च प्रतीयमानयोस्तत्तदशक्ताधिकारिविशेषविषयत्वं सिद्धम् -- इति।
।।12.12।।एवमुक्तानामुत्तरोत्तरकर्त्तव्यानां स्वरूपमाह -- श्रेय इति। अभ्यासात् केवलचित्ताकर्षणेनाऽनुस्मरणरूपात् ज्ञानं श्रेयः? श्रेष्ठमित्यर्थः। अतो ज्ञानयुक्तोऽभ्यास उत्तम इति भावः। ज्ञानात् केवलात् ध्यानं मत्स्वरूपानुचिन्तनात्मकं विशिष्टं भवतीत्यर्थः। तेन ज्ञानाभ्यासयुक्तं ध्यानमुत्तममिति भावः। ध्यानात् केवलात् कर्मफलत्याग उत्तमः। तेन ज्ञानाभ्यासध्यानसहितमदर्थकमत्कर्मकरणमुत्तममित्यर्थः। यत एवमतस्तादृशत्यागादनन्तरं शीघ्रमेव शान्तिर्मद्भक्ितस्थितिरूपा भवेदिति शेषः।
।।12.12।।इममेव त्यागं सर्वपुरुषार्थमूलत्वात्स्तौति -- श्रेयो हीति। अभ्यासान्निदिध्यासनाज्ज्ञानं श्रवणमननजं परोक्षं श्रेयः। ज्ञानादपि ध्यानं विष्णोः श्रवणकीर्तनादि विशिष्यते। ततोऽपि कर्मफलत्यागः श्रेयान्। यस्मादनन्तरमव्यवधानेन शान्तिर्मोक्षोऽस्ति चित्तशुद्ध्याद्युत्पादनद्वारेण। अत्र बाह्यं साधनं सुकरत्वात्पूर्वपूर्वापेक्षया प्रशस्तमित्युच्यते तत्रैव प्रवृत्त्यतिशयाय। यद्वा श्रवणाद्यभ्यासात्तज्जं ज्ञानं तत्त्वनिश्चयात्मकं श्रेयः। ततोऽपि ज्ञातस्यार्थस्य साक्षात्कारार्थं ध्यानं श्रेयः। ततोऽपि कर्मफलत्यागः। योगी हि सर्वकर्मत्यागीप्रजहाति यदा कामान् इति प्रोक्तः। अयमपि कर्मफलत्यागेन कामाञ्जहात्येवेति तेन सम इति स्तूयते।
।।12.12।।इदानीमवश्यकर्तव्यतायै सर्वकर्मफलसंन्यासं स्तौति -- श्रेयो हीति। विवेकपूर्वकाज्ज्ञानार्थाच्छ्रवणभ्यासाच्छ्रुतियुक्तिभ्यामानिश्चयरुपं ज्ञानं श्रेयः प्रशस्यतरं? ज्ञानादपि निदिध्यासनशून्याज्ज्ञानपूर्वकं ध्यानं विशिष्यते पशस्यं भवति? ध्यानादपि कर्मफलत्यागो विशिष्यते। यद्वाभ्यासान्निदिध्यासनाज्ज्ञानं श्रवणमननजं परोक्षं श्रेयः? ज्ञानादपि ध्यानं विष्णोः श्रवणकीर्तनादि विशिष्यते ततोऽपि कर्मफलत्याग इति तदेतदरुचिग्रस्तम्। अरुजिबीजं तु परोक्षादेर्निदिध्यासनस्य श्रैष्ठ्यप्रसिद्धिः। एवं मद्योगमाश्रितस्यात्मवतः सर्वकर्मफलत्यागात्सहेतुकस्य संसारस्य शान्तिरुपशमोऽनन्तरमेव स्यान्नतु कालान्तरमपेक्षते। नन्वेवंतरति शोकमात्मवित्?तमेव विदित्वादिमृत्युमेति। नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय?ज्ञानदेव तु कैवल्यं?ऋते ज्ञानान्न मोक्षः?यदा चर्मवदाकाशं विष्टयिष्यन्ति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति?नहि ज्ञानेन सदृशं पविन्नमिह विद्यते?ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति इत्यादिश्रुतिस्मृतिप्रसिद्धिर्विरुध्यत इतिचेन्न। प्रकृतवचनस्य स्तुतुपरत्वात्। अक्षरोपासनादीनां साधनानां मध्ये पूर्वपूर्वानुष्ठानाशक्तावुत्तरोत्तरस्यानुष्ठेयत्वेनोपदेशात्त्यागे चोपदेशपर्यवसानादज्ञस्य कर्मणि प्रवृत्तस्य पूर्वपूर्वोपदिष्टसाधनेऽशक्तस्य सर्वकर्मफलत्याग उपदिष्टः स्तूयते प्रवृत्त्यर्थम्।यदा सर्वे प्रमुच्यते कामा येऽस्य हृदि स्थिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्रुते?प्रजहाति यदा कामान्त्सर्वान्पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यां विदुषो ध्याननिष्ठस्य कामानां सर्वकर्मफलानां त्यागादनन्तरं,शान्तेरुपक्तत्वादज्ञकृतसर्वकर्मत्यागस्यापि सर्वकाम्यकर्मत्यागसामान्यात्कर्मफलसंन्यासस्तुतिः प्ररोचनार्था। यथागस्त्येन ब्राह्मणेन समुद्रः पीतः। यथा वा परशुरामेण ब्राह्मणेनैकविंशतिवारं निःक्षत्रा पृथिवी कृतेति ब्राह्मणत्वसामान्यादितादींतना ब्राह्मणाः स्तूयन्ते।
12.12 श्रेयः better? हि indeed? ज्ञानम् knowledge? अभ्यासात् than practice? ज्ञानात् than knowledge? ध्यानम् meditation? विशिष्यते excels? ध्यानात् than meditation? कर्मफलत्यागः the renunciation of the fruits of actions? त्यागात् from renunciation? शान्तिः peace? अनन्तरम् immediately.Commentary Theoretical or indirect knowledge of Brahman gained from the scriptures is better than the practice (of restraining the modifications of the mind or worship of idols or selfmortification for the purpose of control of the mind and the senses) accompained with ignorance. Meditation is better than theoretical knowledge. Renunciation of the fruits of actions is bettern than meditation. Renunciation of the fruits of all actions as a means to the attainment of supreme peace or Moksha is merely eulogised here by the declaration of the superiority of one over the other to encourage Arjuna (and other spiritual aspirants) to practise Nishkama Karma Yoga? to create a strong desire in them to take up the Yoga of selfless action? in the same manner as by saying that the ocean was drunk by the Brahmana sage Agastya even the Brahmanas of this age are extolled because they are also Brahmanas.Desire is an enemy of peace. Desire causes restlessness of the mind. Desire is the source of all human miseries? sorrows and troubles. Stop the play of desire through discrimination? dispassion and eniry into the nature of the Self then you will enjoy supreme peace.Renunciation of the fruits of actions? is prescribed for the purification of the aspirants heart. It annihlates desire? the enemy of wisdom. The sage? too? renounces the fruits of actions. It has become natural to him to do so.
12.12 Better indeed is knowledge than practice; than knowledge meditation is better; than meditation the renunciation of the fruits of actions: peace immediately follows renunciation.
12.12 Knowledge is superior to blind action, meditation to mere knowledge, renunciation of the fruit of action to meditation, and where there is renunciation peace will follow.
12.12 Knowledge is surely superior to practice; meditation surpasses knowledge. The renunciation of the results of works (excels) meditation. From renunciation, Peace follows immediately.
12.12 Jnanam, knowledge; [Firm conviction about the Self arrived at through Vedic texts and reasoning.] is hi, surely; sreyah, superior; -to what?-abhyasat, to practice [Practice-repeated effort to ascertain the true meaning of Vedic texts, in order to acire knowledge.] which is not preceded by discrimination. Dhyanam, meditation, undertaken along with knowledge; visisyate, surpasses even jnanat, that knowledge. Karma-phala-tyagah, renunciation of the results of works; excels even dhyanat, meditation associated with knowledge. ('Excels' has to be supplied.) Tyagat, from this renunciation of the results of actions, in the way described before; [By dedicating all actions to God with the idea, 'May God be pleased.'] santih, Peace, the cessation of transmigratory existence together with its cause; follows anantaram, immediately; not that it awaits another accasion. Should the unenlightened person engaged in works be unable to practise the disciplines enjoined earlier, then, for him has been enjoined renunciation of the results of all works as a means to Liberation. But this has not been done at the very beginning. And for this reason renunciation of the results of all works has been praised in, 'Knowledge is surely superior to practice,' etc. by teaching about the successive excellence. For it has been taught as being fit to be adopted by one in case he is unable to practise the disciplines already presented [Presented from verse 3 onwards.] Objection: From what similarly does the eulogy follow? Reply: In the verse, 'When all desires clinging to one's heart fall off' (Ka, 2.3.14), it has been stated that Immortality results from the rejection of all desires. That is well known. And 'all desires' means the 'result of all rites and duties enjoined in the Vedas and Smrtis'. From the renunciation of these, Peace surely comes immediately to the enlightened man who is steadfast in Knowledge. There is a similarity between renunciation of all desires and renunciation of the results of actions by an unenlightened person. Hence, on account of that similarity this eulogy of renunciation of the results of all actions is meant for rousing interest. As for instance, by saying that the sea was drunk up by the Brahmana Agastya, the Brahmanas of the present day are also praised owing to the similarity of Brahminhood. In this way it was been said that Karma-yoga becomes a means for Liberation,since it involves renunciaton of the rewards of works. Here, again, the Yoga consisting in the concentration of mind on God as the Cosmic Person, as also the performance of actions etc. for God, have been spoken of by assuming a difference between God and Self. In, 'If you are unable to do even this' (11) since it has been hinted that it (Karma-yoga) is an effect of ignorance, therefore the Lord is pointing out that Karma-yoga is not suitable for the meditator on the Immutable, who is aware of idenity (of the Self with God). The Lord is similarly pointing out the impossibility of a karma-yogin's meditation on the Immutable. In (the verse), 'they৷৷.attain Me alone' (4), having declared that those who meditate on the Immutable are independent so far as the attainment of Liberation is concerned, the Lord has shown in, '৷৷.I become the Deliverer' (7), that others have no independence; they are dependent on God. For, if they (the former) be considered to have become identified with God, they would be the same as the Immutable on account of (their) having realized non-difference. Conseently, speaking of them as objects of the act of deliverance will become inappropriate! And, since the Lord in surely the greatest well-wisher of Arjuna, He imparts instructions only about Karma-yoga, which involves perception of duality and is not associated with full Illumination. Also, no one who has realized his Self as God through valid means of knowledge would like subordination to another, since it involves a contradiction. Therefore, with the idea, 'I shall speak of the group of virtues (as stated in), "He hwo is not hateful towards any creature," etc. which are the direct means to Immortality, to those monks who meditate on the Immutable,who are steadfast in full enlightenment and have given up all desires,' the Lord proceeds:
12.12. For, knowledge is superior to practice; because of knowledge, meditation becomes pre-eminent; from meditation issues the renunciation of fruits of actions; and to renunciation, peace remains next.
12.12 Sreyah etc. Knowledge in the form of entering into [the Lord] is superior to practice; for practice bears that result. Due to the entering into the Lord, the meditation i.e., getting absorbed in the Bhagavat, becomes pre-eminent i.e., attains superiority, because of the achievement of what is desired. When meditation i.e., getting absorbed in the Bhagavat is accomplished, then it is possible to renounce fruits of actions. Otherwise how can there be a renunciation in what is unknown ? When renunciation of fruits of actions is achieved, there arises an uninterrupted peace. Therefore, being the root of all [these], the knowledge a'one, in the form of fixing the mind in the Lord is important.
12.12 More than the practice of remembrance (of the Lord), which is difficult in the absence of love for the Lord, the direct knowledge of the self, arising from the contemplation of the imperishable self (Aksara), is conducive to the well-being of the self. Better than the imperfect knowledge of the self, is perfect meditation on the self, as it is more conducive to the well-being of the self. More conducive than imperfect meditation (i.e., meditation unaccompanied with renunciation), is the activity performed with renunciation of the fruits. It is only after the annihilation of sins, through the performance of works accompanied by renounciation of fruits, that peace of mind is attained. When the mind is at peace, perfect meditation on the self is possible. From meditation results the direct realisation of the self. From the direct realisation of the self results supreme devotion. It is in this way that Atmanistha or devotion to the individual self becomes useful for a person who is incapable of practising loving devotion to the Supreme Being. And for one practising the discipline for attaining the self (Jnana Yoga) without acisition of perfect tranillity of mind, disinterested activity (Karma Yoga), including in it meditation on the self, is the better path for the knowledge of the self. [Thus the steps are performance of works without desire for fruits, eanimity of mind, meditation on the self, self-realisation, and devotion to the Lord.] Now Sri Krsna enumerates the attributes reired of one intent on performance of disinterested activity:
12.12 Far better is knowledge of the self then the repeated practice (of remembrance of the Lord). Better is meditation than this knowledge; Better is renunciation of fruits of action than meditation. From such renunciation, peace ensues.
।।12.12।।अब सर्व कर्मोंके फलत्यागकी स्तुति करते हैं --, निःसंन्देह ज्ञान श्रेष्ठतर है। किससे अविवेकपूर्वक किये हुए अभ्याससे उस ज्ञानसे भी ज्ञानपूर्वक ध्यान श्रेष्ठ है? और ( इसी प्रकार ) ज्ञानयुक्त ध्यानसे भी कर्मफलका त्याग अधिक श्रेष्ठ है। पहले बतलाये हुए विशेषणोंसे युक्त पुरुषको इस कर्मफलत्यागसे तुरंत ही शान्ति हो जाती है? अर्थात् हेतुसहित समस्त संसारकी निवृत्ति तत्काल ही हो जाती है। कालान्तरकी अपेक्षा नहीं रहती। कर्मोंमें लगे हुए अज्ञानीके लिये? पूर्वोक्त उपायोंका अनुष्ठान करनेमें असमर्थ होनेपर ही? सर्वकर्मोंके फलत्यागरूप कल्याणसाधनका उपदेश किया गया है? सबसे पहले नहीं। इसलिये श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् इत्यादिसे उत्तरोत्तर श्रेष्ठता बतलाकर सर्वकर्मोंके फलत्यागकी स्तुति करते हैं क्योंकि उत्तम साधनोंका अनुष्ठान करनेमें असमर्थ होनेपर यह साधन भी अनुष्ठान करने योग्य माना गया है। पू0 -- कौनसी समानताके कारण यह स्तुति की गयी हैं उ0 -- जब ( इसके हृदयमें स्थित ) समस्त कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं इस श्रुतिसे समस्त कामनाओंके नाशसे अमृतत्वकी प्राप्ति बतलायी गयी है? यह प्रसिद्ध है। समस्त श्रौतस्मार्तकर्मोंके फलोंका नाम काम है? उनके त्यागसे ज्ञाननिष्ठ विद्वान्को तुरंत ही शान्ति मिलती है।अज्ञानीके कर्मफलत्यागमें भी सर्व कामनाओंका त्याग है ही? अतः इस सर्व कामनाओंके त्यागकी समानताके कारण रुचि उत्पन्न करनेके लिये यह सर्वकर्मफलत्यागकी स्तुति की गयी। जैसे अगस्त्य ब्राह्मणने समुद्र पी लिया था इसलिये आजकलके ब्राह्मणोंके भी ब्राह्मणत्वकी समानताके कारण स्तुति की जाती है। इस प्रकार कर्मफलके त्यागसे कर्मयोगकी कल्याणसाधनता बतलायी गयी है। यहाँ आत्मा और ईश्वरके भेदको स्वीकार करके विश्वरूप ईश्वरमें चित्तका समाधान करनारूप योग कहा है और ईश्वरके लिये कर्म करने आदिका भी उपदेश किया है। परंतु अथैतदप्यशक्तोऽसि इस कथनके द्वारा ( कर्मयोगको ) अज्ञानका कार्य सूचित करते हुए भगवान् यह दिखलाते हैं कि जो अव्यक्त अक्षरकी उपासना करनेवाले अभेददर्शी हैं उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। साथ ही कर्मयोगियोंके लिये अक्षरकी उपासना असम्भव दिखलाते हैं। इसके सिवाय ( उन्होंने ) ते प्राप्नुवन्ति मामेव इस कथनसे अक्षरकी उपासना करनेवालोंके लिये मोक्षप्राप्तिमें स्वतन्त्रता बतलाकर तेषामहं समुद्धर्ता इस कथनसे दूसरोंके लिये परतन्त्रता अर्थात् ईश्वराधीनता दिखलायी है। क्योंकि यदि वे ( कर्मयोगी भी ) ईश्वरके स्वरूप ही माने गये हैं तब तो अभेददर्शी होनेके कारण वे अक्षरस्वरूप ही हुए? फिर उनके लिये उद्धार करनेका कथन असंगत होगा। भगवान् अर्जुनके अत्यन्त ही हितैषी हैं? इसलिये उसको सम्यक्ज्ञानसे जो मिश्रित नहीं है? ऐसे भेददृष्टियुक्त केवल कर्मयोगका ही उपदेश करते हैं। ( ज्ञानकर्मके समुच्चयका नहीं )। तथा ( यह भी युक्तिसिद्ध है कि ) ईश्वरभाव और सेवकभाव परस्परविरुद्ध है इस कारण प्रमाणद्वारा आत्माको साक्षात् ईश्वररूपजान लेनेके बाद? कोई भी? किसीका सेवक बनना नहीं चाहता।,
।।12.12।। --,श्रेयः हि प्रशस्यतरं ज्ञानम्। कस्मात् अविवेकपूर्वकात् अभ्यासात्। तस्मादपि ज्ञानात् ज्ञानपूर्वकं ध्यानं विशिष्यते। ज्ञानवतो ध्यानात् अपि कर्मफलत्यागः? विशिष्यते इति अनुषज्यते। एवं कर्मफलत्यागात् पूर्वविशेषणवतः शान्तिः उपशमः सहेतुकस्य संसारस्य अनन्तरमेव स्यात्? न तु कालान्तरम् अपेक्षते।।अज्ञस्य कर्मणि प्रवृत्तस्य पूर्वोपदिष्टोपायानुष्ठानाशक्तौ सर्वकर्मणां फलत्यागः श्रेयःसाधनम् उपदिष्टम्? न प्रथममेव। अतश्च श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासात् इत्युत्तरोत्तरविशिष्टत्वोपदेशेन सर्वकर्मफलत्यागः स्तूयते? संपन्नसाधनानुष्ठानाशक्तौ अनुष्ठेयत्वेन श्रुतत्वात्। केन साधर्म्येण स्तुतित्वम् यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते (क0 उ0 6।14) इति सर्वकामप्रहाणात् अमृतत्वम् उक्तम् तत् प्रसिद्धम्। कामाश्च सर्वे श्रौतस्मार्तकर्मणां फलानि। तत्त्यागे च विदुषः ध्याननिष्ठस्य अनन्तरैव शान्तिः इति सर्वकामत्यागसामान्यम् अज्ञकर्मफलत्यागस्य अस्ति इति तत्सामान्यात् सर्वकर्मफलत्यागस्तुतिः इयं प्ररोचनार्था। यथा अगस्त्येन ब्राह्मणेन समुद्रः पीतः इति इदानींतनाः अपि ब्राह्मणाः ब्राह्मणत्वसामान्यात् स्तूयन्ते? एवं कर्मफलत्यागात् कर्मयोगस्य श्रेयःसाधनत्वमभिहितम्।।अत्र च आत्मेश्वरभेदमाश्रित्य विश्वरूपे ईश्वरे चेतःसमाधानलक्षणः योगः उक्तः? ईश्वरार्थं कर्मानुष्ठानादि च। अथैतदप्यशक्तोऽसि (गीता 12।11) इति अज्ञानकार्यसूचनात् न अभेददर्शिनः अक्षरोपासकस्य कर्मयोगः उपपद्यते इति दर्शयति तथा कर्मयोगिनः अक्षरोपासनानुपपत्तिम्। ते प्राप्नुवन्ति मामेव (गीता 12।4) इति अक्षरोपासकानां कैवल्यप्राप्तौ स्वातन्त्र्यम् उक्त्वा? इतरेषां पारतन्त्र्यात् ईश्वराधीनतां दर्शितवान् तेषामहं समुद्धर्ता (गीता 12।7) इति। यदि हि ईश्रवस्य आत्मभूताः ते मताः अभेददर्शित्वात्? अक्षरस्वरूपाः एव ते इति समुद्धरणकर्मवचनं तान् प्रति अपेशलं स्यात्। यस्माच्च अर्जुनस्य अत्यन्तमेव हितैषी भगवान् तस्य सम्यग्दर्शनानन्वितं कर्मयोगं भेददृष्टिमन्तमेव उपदिशति। न च आत्मानम् ईश्वरं प्रमाणतः बुद्ध्वा कस्यचित् गुणभावं जिगमिषति कश्चित्? विरोधात्। तस्मात् अक्षरोपासकानां सम्यग्दर्शननिष्ठानां संन्यासिनां त्यक्तसर्वैषणानाम् अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् (गीता 12।13) इत्यादिधर्मपूतं साक्षात् अमृतत्वकारणं वक्ष्यामीति प्रवर्तते --
।।12.12।।ननु ज्ञानमभ्यासस्य साधनं? तत्कथं ततः श्रेयः इत्यत आह -- अज्ञानेति। एवेति केवलम्। ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते इत्यसत्? सध्यानस्यापि ज्ञानस्य सम्भवात्। अज्ञानपूर्वस्य ध्यानस्य सम्भवाच्चेत्यत आह -- ज्ञानमात्रादिति। उपपत्तिलब्धमर्थं श्रुत्याऽपि द्रढयति -- तथा चेति। तत्सहितं ज्ञानसहितं ध्यानम्। ततो ज्ञानमात्रादधिकम्। ध्यानात्कर्मफलत्यागो विशिष्यत इत्येतदन्यथाप्रतीतिनिरासाय व्याख्याति -- ध्यानादिति। त्यागस्य प्रशस्तत्वमेवानेन लक्ष्यते? न प्रतीतार्थे तात्पर्यमित्यर्थः। कुतः इत्यत आह -- अन्यथेति।अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं [12।11] इति। ध्यानात्प्रत्यवरे कर्मयोगेऽप्यशक्तस्य कर्मफलत्यागः कथमन्यथाध्यानादाधिक्ये सत्युपदिश्यते इत्यर्थः। कर्मसन्न्यासात्कर्मफलरागसन्न्यासात् कर्मयोगोऽपि विशिष्यते किमुत ध्यानयोगः वक्ष्यमाणकर्मादिसर्वाधिकम्। परात्मन् परमात्मविषये। विरागः शोभनाध्यासाभावः।ननु तयोस्त्विति सर्वाधिकमिति चेत्तयोरपि वाक्यत्वात्कथं तद्विरोधेन ध्यानादिति वाक्यस्य स्वार्थे तात्पर्याभावो व्याख्यातः इत्यत आह -- वाक्येति। वाक्यत्वेन साम्येऽप्युपपत्तिसाहित्येन प्राबल्यादित्यर्थः। इतरत्र ध्यानादिति वाक्यस्य प्रतीतेऽर्थे युक्त्यनन्तरं चाह -- ध्यानादीति। त्यागो हि ध्यानज्ञाननिवृत्तकर्मानुष्ठानप्राप्तौ कारणत्वेनपरीक्ष्य लोकान् इत्यादौ उच्यते। न च फलात्साधनं श्रेयः। अतोऽपीयं स्तुतिरेवेत्यर्थः। अनेन लक्ष्यार्थोऽपि निष्कृष्योक्तो भवति। प्रकारान्तरेण व्याख्याति -- केवलेति। त्यागरहितात् ध्यानात्। ननु कुतो ध्यानादिति केवलस्य निर्धारणं कुतश्च कर्मफलत्यागः इति तत्सहितध्यानलक्षणात्यागस्य वा ध्यानसाहित्येनोपस्कार इत्यतः प्रतिज्ञापूर्वकमाह -- ध्यानेति। त्यागयुक्तं ध्यानं? ध्यानयुक्तस्त्याग इति द्विविधोक्त्योक्तं प्रकारद्वयं सूचयति। अन्यथा केवलत्यागाङ्गीकारे कथं चेत्यत्राप्यन्यथेति वर्तते। न केवलमन्यथानुपपत्त्याऽयमर्थः सिद्धः? किं तर्हि श्रुत्याऽपीत्याह -- तथा चेति। आद्यामन्यथानुपपत्तिमुपपादयति -- न हीति। ततश्चापरोक्ष्यमित्युक्तश्रुतिविरोधादिति भावः। उक्ताङ्गीकारे कथमेतत् अनुपपत्त्यभाव इत्यत आह -- भवति चेति। त्यागादिति सम्बन्धः। ज्ञानमात्रव्यवधानेनेति भावः। द्वितीयानुपपत्तिस्तुतयोस्तु [15।2] इत्युपपादितैव। ननुअथैतदप्यशक्तोऽसि [12।11] इत्यनेन केवलत्यागो विहितः? तत्प्ररोचनायश्रेयो हि [12।12] इति तस्य स्तुतिरुपक्रान्ता। न च केवलध्यानात् तत्फलत्यागयुक्तं ध्यानमधिकमिति व्याख्याने केवलत्यागस्तुतिर्लभ्यते? किन्तु तद्युक्तस्य ध्यानस्यैव। अतः पूर्वसङ्गतत्वात्पूर्वमेव व्याख्यानं युक्तम्? न तु द्वितीयं असङ्गतेरित्यत आह -- केवलेति। यथाऽनेन भृत्येन युक्तो राजा रिपूणां जेता? नाऽन्यथेत्युक्ते भृत्यस्य स्तुतिर्लभ्यते तथैवमप्यस्मिन्नपि व्याख्याने केवलत्यागस्तुतिर्युक्ता। ध्यानस्य ध्यानान्तराधिक्ये तत्साहाय्यस्य हेतुत्वेनोक्तत्वादित्यर्थः।
।।12.12।।अज्ञानपूर्वादभ्यासाज्ज्ञानमेव विशिष्यते। ज्ञानमात्रात्सज्ञानं ध्यानम्। तथा च सामवेदे अनभिम्लानशाखायाम् -- अधिकं केवलाभ्यासाज्ज्ञानं तत्सहितं ततः। ध्यानं ततश्चापरोक्षं ततः शान्तिर्भविष्यति इति। ध्यानात्कर्मफलत्यागः इति तु स्तुतिः। अन्यथा कथमसमर्थोऽसीत्युच्यतेतयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते [5।2] इति चोक्तम्। सर्वाधिकं ध्यानमुदाहरन्ति ध्यानाधिके ज्ञानभक्ती परात्मन्। कर्माफलाकाङ्क्षमथो विरागस्त्यागश्च न ज्ञानकलाफलार्हाश्च इति च काषायणशाखायाम्।वाक्यसाम्येऽप्यसमर्थविषयत्वोक्तेस्तात्पर्याभाव इतरत्र प्रतीयते। ध्यानादिप्राप्तिकारणत्वाच्च त्यागस्तुतिर्युक्ता। केवलध्यानात्फलत्यागयुक्तं ध्यानमधिकम्। ध्यानयुक्तत्याग एव चात्रोक्तः। अन्यथा कथंत्यागाच्छान्तिरनन्तरं इत्युच्यते कथं च ध्यानादाधिक्यम् तथा च गौपवनशाखायाम् -- ध्यानात्तु केवलात्त्यागयुक्तं तदधिकं भवेत् इति। न हि त्यागमात्रानन्तरमेव मुक्तिर्भवति भवति च ध्यानयुक्तात्। केवलत्यागस्तुतिरेवमपि भवति। यथाऽनेन युक्तो जेता? नान्यथेत्युक्तेः।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।।12.12।।
শ্রেযো হি জ্ঞানমভ্যাসাজ্জ্ঞানাদ্ধ্যানং বিশিষ্যতে৷ ধ্যানাত্কর্মফলত্যাগস্ত্যাগাচ্ছান্তিরনন্তরম্৷৷12.12৷৷
শ্রেযো হি জ্ঞানমভ্যাসাজ্জ্ঞানাদ্ধ্যানং বিশিষ্যতে৷ ধ্যানাত্কর্মফলত্যাগস্ত্যাগাচ্ছান্তিরনন্তরম্৷৷12.12৷৷
શ્રેયો હિ જ્ઞાનમભ્યાસાજ્જ્ઞાનાદ્ધ્યાનં વિશિષ્યતે। ધ્યાનાત્કર્મફલત્યાગસ્ત્યાગાચ્છાન્તિરનન્તરમ્।।12.12।।
ਸ਼੍ਰੇਯੋ ਹਿ ਜ੍ਞਾਨਮਭ੍ਯਾਸਾਜ੍ਜ੍ਞਾਨਾਦ੍ਧ੍ਯਾਨਂ ਵਿਸ਼ਿਸ਼੍ਯਤੇ। ਧ੍ਯਾਨਾਤ੍ਕਰ੍ਮਫਲਤ੍ਯਾਗਸ੍ਤ੍ਯਾਗਾਚ੍ਛਾਨ੍ਤਿਰਨਨ੍ਤਰਮ੍।।12.12।।
ಶ್ರೇಯೋ ಹಿ ಜ್ಞಾನಮಭ್ಯಾಸಾಜ್ಜ್ಞಾನಾದ್ಧ್ಯಾನಂ ವಿಶಿಷ್ಯತೇ. ಧ್ಯಾನಾತ್ಕರ್ಮಫಲತ್ಯಾಗಸ್ತ್ಯಾಗಾಚ್ಛಾನ್ತಿರನನ್ತರಮ್৷৷12.12৷৷
ശ്രേയോ ഹി ജ്ഞാനമഭ്യാസാജ്ജ്ഞാനാദ്ധ്യാനം വിശിഷ്യതേ. ധ്യാനാത്കര്മഫലത്യാഗസ്ത്യാഗാച്ഛാന്തിരനന്തരമ്৷৷12.12৷৷
ଶ୍ରେଯୋ ହି ଜ୍ଞାନମଭ୍ଯାସାଜ୍ଜ୍ଞାନାଦ୍ଧ୍ଯାନଂ ବିଶିଷ୍ଯତେ| ଧ୍ଯାନାତ୍କର୍ମଫଲତ୍ଯାଗସ୍ତ୍ଯାଗାଚ୍ଛାନ୍ତିରନନ୍ତରମ୍||12.12||
śrēyō hi jñānamabhyāsājjñānāddhyānaṅ viśiṣyatē. dhyānātkarmaphalatyāgastyāgācchāntiranantaram৷৷12.12৷৷
ஷ்ரேயோ ஹி ஜ்ஞாநமப்யாஸாஜ்ஜ்ஞாநாத்த்யாநஂ விஷிஷ்யதே. த்யாநாத்கர்மபலத்யாகஸ்த்யாகாச்சாந்திரநந்தரம்৷৷12.12৷৷
శ్రేయో హి జ్ఞానమభ్యాసాజ్జ్ఞానాద్ధ్యానం విశిష్యతే. ధ్యానాత్కర్మఫలత్యాగస్త్యాగాచ్ఛాన్తిరనన్తరమ్৷৷12.12৷৷
12.13
12
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।।12.13।।सब प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित, सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु, ममतारहित, अहंकाररहित, सुखदुःखकी प्राप्तिमें सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीरको वशमें किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला? मेरेमें अर्पित मनबुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मेरेको प्रिय है।
।।12.13।। भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है; जो ममता और अहंकार से रहित, सुख और दु:ख में सम और क्षमावान् है।।
।।12.13।। See Commentary under 12.14
।।12.13।। व्याख्या --'अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्'-- अनिष्ट करनेवालोंके दो भेद हैं -- (1) इष्टकी प्राप्तिमें अर्थात् धन, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिकी प्राप्तिमें बाधा पैदा करनेवाले और (2) अनिष्ट पदार्थ, क्रिया, व्यक्ति, घटना आदिसे संयोग करानेवाले। भक्तके शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और सिद्धान्तके प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही, किसी प्रकारका व्यवहार करे -- इष्टकी प्राप्तिमें बाधा डाले, किसी प्रकारकी आर्थिक और शारीरिक हानि पहुँचाये, पर भक्तके हृदयमें उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्रमें अपने प्रभुको ही व्याप्त देखता है, ऐसी स्थितिमें वह विरोध करे तो किससे करे --,'निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।' (मानस 7। 112 ख)।इतना ही नहीं; वह तो अनिष्ट करनेवालोंकी सब क्रियाओंको भी भगवान्का कृपापूर्ण मङ्गलमय विधान ही मानता है! प्राणिमात्र स्वरूपसे भगवान्का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणीके प्रति थोड़ा भी द्वेषभाव रहना भगवान्के प्रति ही द्वेष है। इसलिये किसी प्राणीके प्रति द्वेष रहते हुए भगवान्से अभिन्नता तथा अनन्यप्रेम नहीं हो सकता। प्राणिमात्रके प्रति द्वेषभावसे रहित होनेपर ही भगवान्में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिये भक्तमें प्राणिमात्रके प्रति द्वेषका सर्वथा अभाव होता है। 'मैत्रः करुण एव च' (टिप्पणी प0 648)-- भक्तके अन्तःकरणमें प्राणिमात्रके प्रति केवल द्वेषका अत्यन्त अभाव ही नहीं होता, प्रत्युत सम्पूर्ण प्राणियोंमें भगवद्भाव होनेके नाते उसका सबसे मैत्री और दयाका व्यवहार भी होता है। भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं --'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29)। भगवान्का स्वभाव भक्तमें अवतरित होनेके कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् होता है --'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भागवत 3। 25। 21)। इसलिये भक्तका भी सभी प्राणियोंके प्रति बिना किसी स्वार्थके स्वाभाविक ही मैत्री और दयाका भाव रहता है --
।।12.13 -- 12.14।।अद्वेष्टेति। सन्तुष्ट इति। मैत्री अमत्सरता यस्य (N यस्मात् for यस्य) अस्तीति ( omits इति)। एवं करुणः (S?N करुणा)। ममामी इत्यादिः ( ममापीत्यादि) ममकारः अहमुदारः अहं तेजस्वी अहं सहनः (S??N तेजस्वी असहनः) इत्यादिः अहंकारः एतौ यस्य न स्तः। क्षमा अपकारिणं शत्रुं प्रत्य [प्य] द्वेषबुद्धिः। सततं योगी? व्यवहारावस्थायामपि प्रशान्तान्तःकरणत्वात्।
।।12.13।।अद्वेष्टा सर्वभूतानां विद्विषताम् अपकुर्वताम् अपि सर्वेषां भूतानाम् अद्वेष्टा मदपराधानुगुणम् ईश्वरप्रेरितानि एतानि भूतानि द्विषन्ति अपकुर्वन्ति च इति अनुसंदधानः? तेषु द्विषत्सु अपकुर्वत्सु च सर्वभूतेषु मैत्रीं मतिं कुर्वन् मैत्रः? तेषु एव दुःखितेषु करुणां कुर्वन् करुणः? निर्ममः -- देहेन्द्रियेषु तत्सम्बन्धिषु च निर्ममः? निरहंकारः -- देहात्माभिमानरहितः? तत एव समदुःखसुखः सुखदुःखागमयोः सांकल्पिकयोः हर्षोद्वेगरहितः? क्षमी स्पर्शप्रभवयोः अवर्जनीययोः अपि तयोः विकाररहितः? संतुष्टः यद्दच्छोपनतेन,येन केन अपि देहधारणद्रव्येन संतुष्टः? सततं योगी सततं प्रकृतिवियुक्तात्मानुसंधानपरः? यतात्मा नियमितमनोवृत्तिः? दृढनिश्चयः -- अध्यात्मशास्त्रोदितेषु अर्थेषु दृढनिश्चयः? मय्यर्पितमनोबुद्धिः भगवान् वासुदेव एव अनभिसंहितफलेन अनुष्ठितेन कर्मणाआराध्यते आराधितश्च मम आत्मापरोक्ष्यं साधयिष्यति इति मय्यर्पितमनोबुद्धिः? एवंभूतो मद्भक्तः एवंभूतेन कर्मयोगेन मां भजमानो यः स मे प्रियः।
।।12.13।।संप्रत्यद्वेष्टेत्याद्यवतारयितुं वृत्तं कीर्तयति -- अत्र चेति। तथोश्चेदात्यन्तिकोऽभेदो न तर्हीश्वरे मनःसमाधानरूपो योगोऽत्यन्ताभेदे ध्यातृध्येयत्वाभावात् नचात्यन्ताभेदे कर्मानुष्ठानं तत्फलत्यागो वा परस्परं तदयोगादित्यर्थः। भगवदुक्तिसामर्थ्यादपि कर्मयोगादिनाभेददृष्टिमतो भवतीत्याह -- अथेति। अक्षरोपासकस्य कर्मयोगायोगवत्कर्मयोगिनोऽक्षरोपासनानुपपत्तिरपि दर्शितेत्याह -- तथेति। अक्षरोपासकाः सम्यग्धीनिष्ठा यथाज्ञानं भगवन्तमेवाप्नुवन्ति न तथा कर्मिणः साक्षात्तदाप्तावुचितास्तथा च कर्मिणो नाक्षरोपासनसिद्धिरित्यर्थः। इतश्चाक्षरोपासनं कर्मानुष्ठानं न चैकत्र युक्तमित्याह -- अक्षरेति। नन्वक्षरोपासकवदन्येषामपीश्वरात्मत्वाविशेषात्कुतस्तदधीनत्वं तत्राह -- यदीति। कर्मयोगस्याक्षरोपास्तेश्च युगपदेकत्रायोगे हेत्वन्तरमाह -- यस्माच्चेति।कुरु कर्मैवे त्यादाविति शेषः। किंचाक्षरोपासको वाक्यादीश्वरमात्मानं वेत्ति नासौ क्रियायां गुणत्वेन कर्तृत्वमनुभवति गुणत्वेश्वरत्वयोरेकत्र व्याघातादतोऽपि नाक्षरोपासनं कर्मानुष्ठानं चैकत्र युक्तमित्याह -- नचेति। अक्षरोपास्तिकर्मयोगयोरेकत्र पर्यायायोगे फलितमाह -- तस्मादिति। अज्ञानां कर्मिणां वक्ष्यमाणधर्मजातस्य साकल्येनायोगादक्षरनिष्ठानामेवेदमुच्यतेऽविरुद्धांशस्य तु सर्वार्थत्वमिष्टमेवेत्यर्थः। सर्वेषां भूतानां मध्ये यो दुःखहेतुस्तं विद्वानपि द्वेष्ट्येवेत्याशङ्क्याह -- आत्मन इति। तत्र हेतुः -- सर्वाणीति। सर्वभूतानामित्युभयतः संबध्यते। ममप्रत्ययवर्जितो देहेऽपीति शेषः। व्रतस्वाध्यायकृताहंकारान्निष्क्रान्तत्वमाह -- निर्गतेति।
।।12.13।।एवमादिधर्मवतो भक्तस्य द्वात्रिंशल्लक्षणं पुष्टिसूचकमिति तस्य स्वप्रियत्वमाह षड्गुणभगवतोऽनुग्रहात्प्रीतिविषयत्वाच्चैकेन षड्भिः श्लोकैः। यद्यपि भगवन्मार्गे सत्सङ्गादेर्भगवद्भक्तिहेतुत्वं तथापि तं प्रति भगवदनुग्रहस्यैव निर्हेतुकस्य हेतुत्वं सम्भवतिभवापवर्गो भ्रमतो यदा भवेज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागमः इत्यादि भागवते [10।51।54] भगवत्सेवकवाक्ये भवं अपवर्जयतीति तद्व्याख्यानादनुग्रह एव तत्र,हेतुरिति मूलभूततदनुग्रहीतत्वात्। अद्वेष्टेति।
।।12.13।।तदेवं मन्दमधिकारिणं प्रत्यतिदुष्करत्वेनाक्षरोपासननिन्दया सुकरं सगुणोपासनं,विधायाशक्तितारम्यानुवादेनान्यान्यपि साधनानि विदधौ भगवान्वासुदेवः। कथं नु नाम सर्वप्रतिबन्धरहितः सन्नुत्तमाधिकारितया फलभूतायामक्षरविद्यायामवतेरदित्यभिप्रायेण साधनविधानस्य फलार्थत्वात्। तदुक्तंनिर्विशेषं परं ब्रह्म साक्षात्कर्तुमनीश्वराः। ये मन्दास्तेऽनुकम्प्यन्ते सविशेषनिरूपणैः। वशीकृते मनस्येषां सगुणब्रह्मशीलनात्। तदेवाविर्भवेत्साक्षादपेतोपाधिकल्पनम्।। इति। भगवता पतञ्जलिना चोक्तंसमाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् इति।ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च इति च। तत इतीश्वरप्रणिधानादित्यर्थः। तदेवमक्षरोपासननिन्दा सगुणोपासनस्तुतये नतु हेयतया उदितहोमविधावनुदितहोमनिन्दावत्। नहि निन्दा निन्द्यं निन्दितुं प्रवर्ततेऽपि तु विधेयं स्तोतुमिति न्यायात्। तस्मादक्षरोपासका एव परमार्थतो योगवित्तमाःप्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः। उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इत्यादिना पुनः पुनः प्रशस्ततमतयोक्तास्तेषामेव ज्ञानं धर्मजातं चानुसरणीयमधिकारमासाद्य त्वयेत्यर्जुनं बुबोधयिषुः परमहितैषी भगवानभेददर्शिनः कृतकृत्यानक्षरोपासकान्प्रस्तौति सप्तभिः -- अद्वेष्टेत्यादिना। सर्वाणि भूतान्यात्मत्वेन पश्यन्नात्मनो दुःखहेतावपि प्रतिकूलबुद्ध्यभावान्न द्वेष्टा सर्वभूतानां किंतु मैत्रः मैत्री स्निग्धता तद्वान्। यतः करुणः करुणा दुःखितेषु दया तद्वान् सर्वभूताभयदाता। परमहंसपरिव्राजक इत्यर्थः। निर्ममः देहेऽपि ममेति प्रत्ययरहितः निरहंकारः वृत्तस्वाध्यायादिकृताहंकारान्निष्क्रान्तः द्वेषरागयोरप्रवर्तकत्वेन समे दुःखसुखे यस्य सः। अतएव क्षमी आक्रोशनताडनादिनापि न विक्रियामापद्यते।
।।12.13।। एवंभूतस्य भक्तस्य क्षिप्रमेव परमेश्वरप्रसादहेतून्धमानाह -- अद्वेष्टेत्यष्टभिः। सर्वभूतानां यथायथमद्वेष्टा? मैत्रः? करुणश्च उत्तमेषु द्वेषशून्यः? समेषु मित्रतया वर्तत इति मैत्रः। हीनेषु कृपालुरित्यर्थः। निर्ममो निरहंकारश्च। कृपालुत्वादेवान्यैः सह समे दुःखसुखे यस्य सः। क्षमी क्षमावान्।
।।12.13।।एवंभक्तेः श्रैष्ठ्य(भक्तिशैघ्र्य)मुपायोक्तिरशक्तस्यात्मनिष्ठता इत्येतावदुक्तम्तत्प्रकारास्त्वतिप्रीतिर्भक्ते द्वादश उच्यते [गी.सं.16] इत्युक्तमुभयमवशिष्टम् तत्रापिये तु धर्म्यामृतम् [12।20] इत्यध्यायान्तिमश्लोकेनातिप्रीतिरुच्यन्ते? ततः पूर्वैःअद्वेष्टा इत्यादिभिः सप्तभिः श्लोकैरात्मनिष्ठाप्रकारा उच्यते इत्याहअनभिसंहितेति।तत्प्रकाराः इत्यनेनेतिकर्तव्यताविशेषरूपाः प्रकारा विवक्षिता इति ज्ञापनायोक्तम्उपादेयान् गुणानाहेति। ननुकर्मनिष्ठस्योपादेयान् गुणानाह इति कथं सङ्गच्छते तेषु हि श्लोकेषुमय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः [11।14]सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः [11।16]शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः [12।17]अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः [12।19] इति भक्तिनिष्ठ एव प्रियत्वेन पुनः पुनरुच्यते।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः [17] इति सप्तमोक्त एव ज्ञानी प्रियशब्देन प्रत्यभिज्ञायते तत्समानाधिकरणानां चअद्वेष्टा इत्यादीनां तदुपायभक्त्यङ्गपरत्वं युक्तमिति। अत्रोच्यते -- ध्यानात्कर्मफलत्यागः [12।12] इति कर्मप्रसङ्गानन्तरमेव पठितानां तदङ्गत्वं प्रतीयते। अङ्गभूतानां चैषामुपकारःत्यागाच्छान्तिरनन्तरम् [12।12] इत्युक्तः। प्रागपि कर्मयोगाङ्गतया चैते प्रतिपादिताः। या तु स्ववाक्येमद्भक्तः इत्यादिभिः प्रतीता भक्तिः? सा कर्मयोगान्तर्भूतभक्तिरेवेति तत्रतत्र श्लोके व्याख्यास्यति। नहि भक्तिगन्धरहितौ कर्मज्ञानयोगौ यथोक्तं -- त्रयाणामपि योगानां त्रिभिरन्योन्यसङ्गमः [गी.सं.24] इति। साक्षाद्भक्तिनिष्ठास्तुये तु इति श्लोकेन वक्ष्यन्ते। तत्र हि तुशब्देनमत्परमा भक्ताः इति मत्परमशब्दविशेषणेनअतीव मे प्रियाः [12।20] इति प्रियत्वातिशयवर्णनेन च भक्तान्तरप्रतिपत्तिर्दृढतरा जायते। ततश्च तत्पूर्वं प्रियत्वमात्रेण निर्दिष्टास्त्वर्वाचीना एव भक्ता इति सङ्ग्रहविस्तरकृतोराशयः।प्रसक्तप्रतिषेधायसर्वभूतानाम् इति सविशेषणनिर्देशाभिप्रेतमाहविद्विषतामपकुर्वतामपीति। विशेषणे तात्पर्यमिति ज्ञापनायसर्वेषामिति व्यासः।विद्विषतामिति मानसः?अपकुर्वतामिति वाचिकः कायिकश्च व्यापारः। न केवलं तेष्वद्वेषमात्रम्? अपितु मैत्री चेत्याहमैत्र इति। मैत्रीहेतुं दर्शयतिमदपराधेति। अयमेवाद्वेषस्यापि हेतुः।मैत्रीं मतिं कुर्वन्निति सामान्यविषये तद्धिताभिप्रेतविशेषोक्तिः।मैत्रीं हितैषिणीमित्यर्थः। करुणाया निरुपाधिकत्वायाहतेष्वेव दुःखितेष्विति।करुणां कुर्वन्निति करुणशब्दनिर्वचनम्। नामधातोः क्विबन्तात्पचादित्वादच्प्रत्ययः? अर्शआदित्वाद्वा मत्वर्थीयः। एवं मैत्रशब्दे। द्विषत्स्वपकुर्वत्स्वेवेति चैवकाराभिप्रायः। निरहङ्कारत्वं निर्ममत्वे हेतुः। ममकारप्रसङ्गस्थले हि निर्ममत्वं विधेयमित्यभिप्रायेणाहदेहेन्द्रियेषु तत्सम्बन्धिषु चेति। अनात्मन्यात्मबुद्धिर्ह्यत्र निषेध्योऽहङ्कार इत्यभिप्रायेणाह -- देहात्माभिमानरहित इति। एतेननिर्गताहम्प्रत्ययः इति परव्याख्या दूषिता? अहमर्थस्यैवात्मत्वसमर्थनात्।तत एवेति -- निर्ममत्वनिरङ्कारत्वाभ्यामित्यर्थः।क्षमीति -- नापकर्तृषु क्षमा विवक्षिता?अद्वेष्टा इत्यादिना गतार्थत्वात्। ततश्चतांस्तितिक्षस्व [2।14] इति प्रागुक्तावर्जनीयसांस्पर्शिकद्वन्द्वतितिक्षा स्मार्यते। तत्पौनरुक्त्यपरिहारायसमदुःखसुखः इत्येतदाभिमानिकविषयम्। तथा सति निर्ममत्वनिरहङ्कारत्वानन्तरोक्तिश्च सङ्गच्छत इत्यभिप्रायेणसाङ्कल्पिकयोरित्युक्तम्। अहङ्कारममकारप्रयुक्तयोरित्यर्थः।सन्तुष्टो येनकेनचित् [12।19] इति वक्ष्यमाणत्वात्?यदृच्छालाभसन्तुष्टः [4।22] इति प्रागुक्तत्वाच्च।
।।12.13।।तस्य स्वरूपमाह -- अद्वेष्टेति। सर्वभूतानां प्राणिमात्राणां मत्क्रीडात्मकत्वात् अद्वेष्टा आधिक्यादिदर्शने द्वेषरहितः मैत्रः भक्तेषु मित्रतया वर्त्तमानः करुणः भक्तिरहितेषु संसारदुःखनिश्चयात् करुणः उपदेशादिदानार्थं करुणावान्। एकारेण न कदाचित् कर्कशस्तिष्ठेदिति ज्ञापितम्। निर्ममः उपदेशदानानन्तरं तेषु सर्वत्र च ममत्वरहितः? निरहङ्कारः स्वस्योत्तमत्वज्ञानेनाऽहङ्काररहितः समदुःखसुखः समे दुःखसुखे वियोगसंयोगात्मके यस्य? क्षमी क्षमावान् दुष्टकृतावमानादिसहनशीलः।
।।12.13।।परमप्रकृतस्याक्षरस्योपासकं स्तौति तद्गुणकथने हि साधकानां तेषु गुणेष्वादरो भविष्यतीति बुद्ध्याह -- अद्वेष्टेति। अद्वेष्टा चेदुदासीनः स्यान्नेत्याह। मैत्रः मित्रमेव मैत्रो नतूदासीनः कदाचिदपि। नन्वन्यस्मिन् शत्रौ सति कथं मैत्रत्वं स्यात्तत्राह -- करुण इति। दुःखदातारमपि करुणया न बाधितुमीष्टे अपितु त्रातुमेवेच्छति। एतेन सर्वभूताभयप्रदः संन्यासी उक्तः। अतएव तस्य निर्मम इति विशेषणं युज्यते। मुख्यमक्षरविदो लक्षणं निरहंकार इति। अहंकारो हि सर्वानर्थनिदानं स एव निर्गतो यस्मात्स निरहंकारः। अतएव समे दुःखसुखे यस्य।तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः इति श्रुतेः। क्षमी क्षमावान्परिभवप्राप्तावपि स्वस्थचित्तः। अन्योऽपि मुमुक्षुरेतान्धर्माननुतिष्ठेदित्यर्थः।
।।12.13।।ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः इत्यनेनाक्षरोपासकानां मोक्षप्राप्तौ स्वातन्त्र्यमुक्त्वाक्लेशोऽधिकतस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसां इत्यादिनाऽक्षरोपासनायां मन्दमतित्वादनधिकारिणामुद्धाराय करुणानिधिना भगवताऽधिकतरक्लेशं तत्र प्रदर्श्य आत्मेश्वरमेदमाश्रित्य विश्वरुपं परमेश्वरं चित्तसमाधानलक्षणयोगादिकमुक्तम्। तथाचअन्तस्तद्धर्मोपदेशात् इति सूत्रस्ते कल्पतरौनिर्विशेषं परं ब्रह्म साक्षात्कर्तुमनीश्वराः। ये मन्दास्तेऽनुकम्पयन्ते सविशेषनिरुपणऐः।।वशीकृते मनस्येषां सगुणब्रह्मशीलनात्। तदेवाविर्भवेत्साक्षादपेतोपाधिकल्पनम् स्वाधीनं मन्यमान अक्षरोपासनायामधिकारसंपत्त्यर्थं सगुणोपासनां स्तौति नतु मोक्षस्यानन्यसाधनत्वेंन श्रुतिस्मृतिन्यायेतिहासपुराणस्तत्र तत्र प्रतिपादिताया इतरसाधनफलभूताया अक्षरोपासनाया हेयतायै। तस्मादस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा पूर्वपूर्वसाधनानुष्ठानक्रमेण प्राप्ताक्षरोपासनानां सम्यग्ज्ञाननिष्ठानां संन्यासिनां त्यक्तपुत्रदारवित्तैषणानां अद्वेष्टृत्वादिधर्मसमुदायः साक्षात्स्वातन्त्र्येण मोक्षासाधनं वक्तुकाम आह भगवान् -- अद्वेष्टेति। सर्वभूतानां यथायथं स्वस्मादुष्कृष्टेषु स्वस्मिन्द्वेषकर्तृषु च द्वेषवर्जितः समानेषु मित्रतया वर्तत इति मैत्रः। अज्ञेषु दुःखितेषु करुणा दया तद्वान्यतः सर्वाणि भूतान्यात्सत्वेवानुपश्यति। यद्वा सर्वाणि भूतान्यात्मत्वेन पश्यन्नात्मनो दुःखहेतावति प्रतिकूलबुद्य्धभावादद्वेष्टा सर्वभूतानां? न केवलमद्वेष्टा सर्वभूतानां किंतु मैत्रः स्नेहवान्। यतः करुणः। यद्वा सर्वभूतानामद्वेष्टा तर्हि द्वेषवर्जित उदासीनः स्यान्नेत्याह। मैत्रः। तर्हि उपकारमपेक्ष्योपकारकर्ता। बन्धनहेतुस्नेहयुक्तश्च स्यान्नेत्याह। करुणः कृपावान्। सर्वभूताभयप्रदः संन्यासीत्यर्थः। दुःखितेषु कृपया मैत्रः नतु रागादुपकारपेक्षया वा। ममत्वेन गृहीतस्य गेहादेः अहंकारास्पदत्वेन कल्पितस्य च देहादेः प्रतिकूलेषु द्वेषोऽनुकूलेषु रागश्च लोकस्य दृश्यते? तत्त्वविदः संन्यासिनानस्त्वेतन्नास्तीत्याह। निर्ममो निरहंकारः ममेतिप्रत्ययवर्जितः ममतास्पदानां गेहादीनां त्यागात् वृत्तस्वाध्यायकृतादहंकारप्रत्ययान्निर्गतः। अतएव समे द्वेषराग्योरप्रवर्तके सुखदुःखे यस्य। अतएव क्षमी क्षमावान् आकुष्योऽपि ताडितोऽप्यविक्रिय एवास्त इत्यर्थः।
12.13 अद्वेष्टा nonhater? सर्वभूतानाम् of (to) all creatures? मैत्रः friendly? करुणः compassionate? एव even? च and? निर्ममः without mineness? निरहङ्कारः without egoism? समदुःखसुखः balanced in pleasure and pain? क्षमी forgiving.Commentary Lord Krishna gives a description of the nature of a Bhagavata or a sage in the following eight verses. These eight verses are called Amritashtakam.The devotee who is established in God bears illwill to none. He looks on all with love and great compassion. He regards all beings as himself. He does not hate even a single being? not even the creature which gives him intense pain. He who entertains mercy towards suffering people and tries to relieve their sufferings is a man of Karuna. He puts himself in the position of the sufferer and feels the pain himself. Mercy is a divine attribute. God is allmerciful. If you wish to hold communion with the Lord? and if you desire to attain Godhead? you must also become allmerciful.The perfect devotee offers full security of life (Abhayadana) to all beings. He is a Paramahamsa Sannyasi. The devotee only can really understand the mysterious ways of the Lord. He beholds the Lord everywhere. He sees the Lord in all creatures. That is the reason why he has eal vision. He is like the sun or the river. The sun sheds its light eally on a palace or a cottage. Anyone can drink the water of a river. A river enches the thirst of cows as well as tigers and lions. The idea of mineness and Iness never arises in the devotees mind. He has no sense of mine and thine. He is indifferent to pleasure and pain. He is not attached to pleasant objects. He does not hate the objects that give him pain. He is as forgiving as the earth. He is not affected a bit when anybody insults? abuses or beats him.
12.13 He who hates no creature, who is friendly and compassionate to all, who is free from attachment and egoism, balanced in pleasure and pain, and forgiving.
12.13 He who is incapable of hatred towards any being, who is kind and compassionate, free from selfishness, without pride, equable in pleasure and in pain, and forgiving,
12.13 He who is not hateful towards any creature, who is friendly and compassionate, who has no idea of 'mine' and the idea of egoism, who is the same under sorrow and happiness, who is forgiving;
12.13 Advesta, he who is not hateful; sarva-bhutanam, towards any creature: He does not feel repulsion for anything, even for what may be the cause of sorrow to himself, for he sees all beings as his own Self. Maitrah, he who is friendly-behaving like a friend; karunah eva ca, and compassionate: karuna is kindness, compassion towards sorrow-stricken creatures; one possessing that is karunah, i.e. a monk, who grants safety to all creatures. Nirmamah, he who has no idea of 'mine'; nirahankarah, who has no idea of egoism; sama-duhkha-sukhah, who is the same under sorrow and happiness, he in whom sorrow and happiness do not arouse any repulsion or attraction; ksami, who is forgiving, who remains unperturbed even when abused or assaulted;
12.13. He, who is not a hater, [but] only a compassionate friend of every being; who is free from the sense of 'mine, and the sense of 'I'; who is even minded in pain and pleasure and is endowed with forbearance;
12.13 See Comment under 12.14
12.13 - 12.14 In these and succeeding verses the Lord mentions the nature of the Karma Yogi who adores Him through his works. In other words the Bhakti element in Karma Yoga is emphasised. He never hates any being even though they hate him and do him wrong. For he thinks that the Lord impels these beings to hate him and do him wrong for atoning for his transgressions. He is 'friendly', evincing a friendly disposition towards all beings whether they hate him or do him wrong. He is 'compassionate', evincing compassion towards their sufferings. He is free from the 'feeling of mine,' i.e., he is not possessive with regard to his body, senses and all things associated with them. He is free from the feeling of 'I', i.e., is free from the delusion that his body is the self. Therefore, 'pain and pleasure are the same to him,' i.e., he is free from distress and delight resulting from pain and pleasure arising from his deeds. He is 'enduring', unaffected even by those two (i.e., pleasure and pain) due to the inevitable contact of sense-objects. He is 'content', namely, satisfied with whatever chance may bring him for the sustenance of his body. He 'ever meditates,' i.e., is constantly intent on contemplating on the self as separate from the body. He is 'self-restrained', namely, he controls the activities of his mind. He is of 'firm conviction' regarding the meanings taught in the science of the self. His 'mind and reason are dedicated to Me' i.e., his mind and reason are dedicated to Me in the form 'Bhagavan Vasudeva alone is propitiated by disinterested activities, and when duly propitiated, He wil bring about for me the direct vision of the self.' Such a devotee of mine, i.e., who works in this manner as a Karma Yogin, is dear to Me.
12.13 He who never hates any being, who is friendly and compassionate, who is free from the feelings of I and mine, who looks upon all pain and pleasure the same as and who is enduring;
।।12.13।।इसलिये जिन्होंने समस्त इच्छाओंका त्याग कर दिया है? ऐसे अक्षरोपासक यथार्थ ज्ञाननिष्ठ संन्यासियोंका जो साक्षात् मोक्षका कारणरूप अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् इत्यादि धर्मसमूह है उसका वर्णन करूँगा? इस उद्देश्यसे भगवान् कहना आरम्भ करते हैं --, जो सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित है अर्थात् अपने लिये दुःख देनेवाले भी किसी प्राणीसे द्वेष नहीं करता? समस्त भूतोंको आत्मारूपसे ही देखता है। तथा जो मित्रतासे युक्त है अर्थात् सबके साथ मित्रभावसे बर्तता है और करुणामय है -- दीनदुखियोंपर दया करना करुणा है? उससे युक्त है? अभिप्राय यह कि जो सब भूतोंको अभय देनेवाला संन्यासी है। तथा जो ममतासे रहित और अहंकारसे रहित है? एवं सुखदुःखमें सम है अर्थात् सुख और दुःख जिसके अन्तःकरणमें रागद्वेष उत्पन्न नहीं कर सकते। जो क्षमावान् है अर्थात् किसीके द्वारा गाली दी जानेपर या पीटे जानेपर भी जो विकाररहित ही रहता है।
।।12.13।। --,अद्वेष्टा सर्वभूतानां न द्वेष्टा? आत्मनः दुःखहेतुमपि न किञ्चित् द्वेष्टि? सर्वाणि भूतानि आत्मत्वेन हि पश्यति। मैत्रः मित्रभावः मैत्री मित्रतया वर्तते इति मैत्रः। करुणः एव च? करुणा कृपा दुःखितेषु दया? तद्वान् करुणः? सर्वभूताभयप्रदः? संन्यासी इत्यर्थः। निर्ममः ममप्रत्ययवर्जितः। निरहंकारः निर्गताहंप्रत्ययः। समदुःखसुखः समे दुःखसुखे द्वेषरागयोः अप्रवर्तके यस्य सः समदुःखसुखः। क्षमी क्षमावान्? आक्रुष्टः अभिहतो वा अविक्रियः एव आस्ते।।
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अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।12.13।।
অদ্বেষ্টা সর্বভূতানাং মৈত্রঃ করুণ এব চ৷ নির্মমো নিরহঙ্কারঃ সমদুঃখসুখঃ ক্ষমী৷৷12.13৷৷
অদ্বেষ্টা সর্বভূতানাং মৈত্রঃ করুণ এব চ৷ নির্মমো নিরহঙ্কারঃ সমদুঃখসুখঃ ক্ষমী৷৷12.13৷৷
અદ્વેષ્ટા સર્વભૂતાનાં મૈત્રઃ કરુણ એવ ચ। નિર્મમો નિરહઙ્કારઃ સમદુઃખસુખઃ ક્ષમી।।12.13।।
ਅਦ੍ਵੇਸ਼੍ਟਾ ਸਰ੍ਵਭੂਤਾਨਾਂ ਮੈਤ੍ਰ ਕਰੁਣ ਏਵ ਚ। ਨਿਰ੍ਮਮੋ ਨਿਰਹਙ੍ਕਾਰ ਸਮਦੁਖਸੁਖ ਕ੍ਸ਼ਮੀ।।12.13।।
ಅದ್ವೇಷ್ಟಾ ಸರ್ವಭೂತಾನಾಂ ಮೈತ್ರಃ ಕರುಣ ಏವ ಚ. ನಿರ್ಮಮೋ ನಿರಹಙ್ಕಾರಃ ಸಮದುಃಖಸುಖಃ ಕ್ಷಮೀ৷৷12.13৷৷
അദ്വേഷ്ടാ സര്വഭൂതാനാം മൈത്രഃ കരുണ ഏവ ച. നിര്മമോ നിരഹങ്കാരഃ സമദുഃഖസുഖഃ ക്ഷമീ৷৷12.13৷৷
ଅଦ୍ବେଷ୍ଟା ସର୍ବଭୂତାନାଂ ମୈତ୍ରଃ କରୁଣ ଏବ ଚ| ନିର୍ମମୋ ନିରହଙ୍କାରଃ ସମଦୁଃଖସୁଖଃ କ୍ଷମୀ||12.13||
advēṣṭā sarvabhūtānāṅ maitraḥ karuṇa ēva ca. nirmamō nirahaṅkāraḥ samaduḥkhasukhaḥ kṣamī৷৷12.13৷৷
அத்வேஷ்டா ஸர்வபூதாநாஂ மைத்ரஃ கருண ஏவ ச. நிர்மமோ நிரஹங்காரஃ ஸமதுஃகஸுகஃ க்ஷமீ৷৷12.13৷৷
అద్వేష్టా సర్వభూతానాం మైత్రః కరుణ ఏవ చ. నిర్మమో నిరహఙ్కారః సమదుఃఖసుఖః క్షమీ৷৷12.13৷৷
12.14
12
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।।12.14।।सब प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित, सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु, ममतारहित, अहंकाररहित, सुखदुःखकी प्राप्तिमें सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट,योगी, शरीरको वशमें किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला, मेरेमें अर्पित मन-बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मेरेको प्रिय है।
।।12.14।। जो संयतात्मा, दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है, जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है, जो ऐसा मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।।
।।12.14।। प्रस्तुत अध्याय के इस अन्तिम प्रकरण में? भगवान् श्रीकृष्ण छ खण्डों में ज्ञानी भक्त के लक्षण बताते हैं? जो साधकों के लिए सम्यक् आचरण एवं जीवन पद्धति के साधन हैं। अर्जुन की समझ के लिए एक सच्चे भक्त का चित्रण करने में योगेश्वर श्रीकृष्ण पूर्णतया सफल हुए हैं। जिस प्रकार एक कुशल चित्रकार स्वयं के द्वारा बनाये जा रहे चित्र को बारबार विभिन्न् कोणों से देखते हुए उसे और अधिक स्पष्ट और सुन्दर बनाने का प्रयत्न करता है? उसी प्रकार इन सात श्लोकों के खण्ड में भगवान् श्रीकृष्ण? एक ज्ञानी भक्त के मन की सुन्दरता? बुद्धि की समता और जगत् में उसके व्यवहार का अत्यन्त स्पष्ट और सुन्दर चित्रण करते हैं। इस दृष्टि से? सम्भवत द्वितीय अध्याय में वर्णित स्थितप्रज्ञ पुरुष के लक्षणों के प्रकरण के अतिरिक्त? सम्पूर्ण गीता में प्रस्तुत खण्ड के तुल्य अन्य कोई भाग नहीं है।हिन्दू धर्म के अनुयायियों पर सदाचार और नीतिशास्त्र के नियमों को ईश्वर के किसी पुत्र अथवा पैगम्बर ने अपनी स्वैच्छिक आज्ञाओं के रूप में नही थोपा है। इन आचारों एवं नीतियों की नियमावली को उन ईश्वरीय ज्ञानी? संत पुरुषों के व्यवहार को देखकर बनाया गया है? जिन्होंने आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त की थी और समाज में वैसा ही जीवन वास्तव में जिया था। ज्ञानी पुरुषों का सद्व्यवहार उनका स्वभाव बन चुका होता है? जो साधकों को अपनाने के लिए एक सूचक साधन बन जाता है। सर्वप्रथम? ज्ञानी भक्त के बाह्याचरण का अनुकरण करने से एक निष्ठावान साधक को उसकी आन्तरिक दिव्यता का भी अनुभव प्राप्त हो सकता है। इन भक्तजनों के लक्षण ही हमारे धर्म में विधान किये गये सदाचार और नीति के नियम हैं।इस खण्ड के प्रारम्भिक दो श्लोकों में ग्यारह आदर्श गुणों का वर्णन किया गया है। उनमें से प्रत्येक गुण उत्तम भक्त के नैतिक पक्ष को उजागर करता है। जिस भक्त ने यह पहचान लिया है कि भूतमात्र में एक ही आत्मा व्याप्त है? जो उसका स्वयं का ही स्वरूप है? तो ऐसा आत्मैकत्वदर्शी पुरुष किसी से भी द्वेष नहीं कर सकता? क्योंकि उसकी ज्ञान दृष्टि में कोई वस्तु परमात्मा से भिन्न है ही नहीं कोई भी जीवित पुरुष अपने ही दाहिने हाथ से द्वेष नहीं कर सकता? क्योंकि वह उसमें भी व्याप्त है। कोई भी व्यक्ति अपने से ही द्वेष या घृणा नहीं करता।प्राणीमात्र के प्रति उसका भाव मैत्रीपूर्ण होता है? और सबके लिए उसके मन में करुणा होती है। सबको वह अभय प्रदान करता है। वह? अहंकार और वस्तुओं में ममत्व भाव से रहित होता है। सुख और दुख से सम तथा किसी के द्वारा अपशब्द कहे अथवा पीड़ित किये जाने पर भी अविकारी भाव से रहता है। शरीर धारणमात्र के लिए भी वस्तुओं के न होने पर वह सदा सन्तुष्ट एवं निजानन्द में मग्न रहता है। वह आत्मसंयमी तथा तत्त्व के स्वरूप के विषय में दृढ़ निश्चय वाला होता है। भगवान् कहते हैं कि? अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पित करने वाला मेरा भक्त? मुझे प्रिय है।भगवान् ने पहले भी सातवें अध्याय में कहा था कि? ज्ञानी को मैं और मुझे ज्ञानी भक्त अत्यन्त प्रिय है। उसी कथन को यहाँ और अधिक विस्तार से स्पष्ट किया गया है।
।।12.14।। व्याख्या--'अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्'--अनिष्ट करनेवालोंके दो भेद हैं -- (1) इष्टकी प्राप्तिमें अर्थात् धन, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदिकी प्राप्तिमें बाधा पैदा करनेवाले और (2) अनिष्ट पदार्थ, क्रिया, व्यक्ति, घटना आदिसे संयोग करानेवाले। भक्तके शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और सिद्धान्तके प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही, किसी प्रकारका व्यवहार करे -- इष्टकी प्राप्तिमें बाधा डाले, किसी प्रकारकी आर्थिक और शारीरिक हानि पहुँचाये, पर भक्तके हृदयमें उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्रमें अपने प्रभुको ही व्याप्त देखता है, ऐसी स्थितिमें वह विरोध करे तो किससे करे --'निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।' (मानस 7। 112 ख)। इतना ही नहीं वह तो अनिष्ट करनेवालोंकी सब क्रियाओंको भी भगवान्का कृपापूर्ण मङ्गलमय विधान ही मानता है! प्राणिमात्र स्वरूपसे भगवान्का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणीके प्रति थोड़ा भी द्वेषभाव रहना भगवान्के प्रति ही द्वेष है। इसलिये किसी प्राणीके प्रति द्वेष रहते हुए भगवान्से अभिन्नता तथा अनन्यप्रेम नहीं हो सकता। प्राणिमात्रके प्रति द्वेषभावसे रहित होनेपर ही भगवान्में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिये भक्तमें प्राणिमात्रके प्रति द्वेषका सर्वथा अभाव होता है। 'मैत्रः करुण एव च' (टिप्पणी प0 648) -- भक्तके अन्तःकरणमें प्राणिमात्रके प्रति केवल द्वेषका अत्यन्त अभाव ही नहीं होता, प्रत्युत सम्पूर्ण प्राणियोंमें भगवद्भाव होनेके नाते उसका सबसे मैत्री और दयाका व्यवहार भी होता है। भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं -- 'सुहृदं सर्वभूतानाम्' (गीता 5। 29)। भगवान्का स्वभाव भक्तमें अवतरित होनेके कारण भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियोंका सुहृद् होता है -- 'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भागवत 3। 25। 21)। इसलिये भक्तका भी सभी प्राणियोंके प्रति बिना किसी स्वार्थके स्वाभाविक ही मैत्री और दयाका भाव रहता है -- 'हेतु रहित जग जुग उपकारी।' 'तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी।। (मानस 7। 47। 3)अपना अनिष्ट करनेवालोंके प्रति भी भक्तके द्वारा मित्रताका व्यवहार होता है; क्योंकि उसका भाव यह रहता है कि अनिष्ट करनेवालेने अनिष्टरूपमें भगवान्का विधान ही प्रस्तुत किया है। अतः उसने जो कुछ किया है, मेरे लिये ठीक ही किया है। कारण कि भगवान्का विधान सदैव मङ्गलमय होता है। इतना ही नहीं, भक्त यह मानता है कि मेरा अनिष्ट करनेवाला (अनिष्टमें निमित्त बनकर) मेरे पूर्वकृत पापकर्मोंका नाश कर रहा है; अतः वह विशेषरूपसे आदरका पात्र है।साधकमात्रके मनमें यह भाव रहता है और रहना ही चाहिये कि उसका अनिष्ट करनेवाला उसके पिछले पापोंका फल भुगताकर उसे शुद्ध कर रहा है। जब सामान्य साधकमें भी अनिष्ट करनेवालेके प्रति मैत्री और करुणाका भाव रहता है, फिर सिद्ध भक्तका तो कहना ही क्या है? सिद्ध भक्तका तो उसके प्रति ही क्या, प्राणिमात्रके प्रति मैत्री और दयाका विलक्षण भाव रहता है।पातञ्जलयोगदर्शनमें चित्त-शुद्धिके चार हेतु बताये गये हैं --,'मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।' (1। 33)'सुखियोंके प्रति मैत्री, दुःखियोंके प्रति करुणा, पुण्यात्माओंके प्रति मुदिता (प्रसन्नता) और पापात्माओंके प्रति उपेक्षाके भावसे चित्तमें निर्मलता आती है।' परन्तु भगवान्ने इन चारों हेतुओँको दोमें विभक्त कर दिया है -- 'मैत्रः च करुणः।' तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्तका सुखियों और पुण्यात्माओंके प्रति 'मैत्री' का भाव तथा दुःखियों और पापात्माओंके प्रति 'करुणा' का भाव रहता है। दुःख पानेवालेकी अपेक्षा दुःख देनेवाले पर (उपेक्षाका भाव न होकर) दया होनी चाहिये; क्योंकि दुःख पानेवाला तो (पुराने पापोंका फल भोगकर) पापोंसे छूट रहा है, पर दुःख देनेवाला नया पाप कर रहा है। अतः दुःख देनेवाला दयाका विशेष पात्र है। 'निर्ममः'-- यद्यपि भक्तका प्राणिमात्रके प्रति स्वाभाविक ही मैत्री और करुणाका भाव रहता है, तथापि उसकी किसीके प्रति किञ्चिन्मात्र भी ममता नहीं होती। प्राणियों और पदार्थोंमें ममता (मेरेपनका भाव) ही मनुष्यको संसारमें बाँधनेवाली होती है। भक्त इस ममतासे सर्वथा रहित होता है। उसकी अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिमें भी बिलकुल ममता नहीं होती। साधकसे भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थोंसे तो ममताको हटानेकी चेष्टा करता है, पर अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे ममता हटानेकी ओर विशेष ध्यान नहीं देता। इसीलिये वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता। 'निरहंकारः' -- शरीर, इन्द्रियाँ आदि जड-पदार्थोंको अपना स्वरूप माननेसे अहंकार उत्पन्न होता है।भक्तकी अपने शरीरादिके प्रति किञ्चिन्मात्र भी अहंबुद्धि न होनेके कारण तथा केवल भगवान्से अपने नित्य सम्बन्धका अनुभव हो जानेके कारण उसके अन्तःकरणमें स्वतः श्रेष्ठ, दिव्य, अलौकिक गुण प्रकट होने लगते हैं। इन गुणोंको भी वह अपने गुण नहीं मानता, प्रत्युत (दैवी सम्पत्ति होनेसे) भगवान्के ही मानता है। 'सत्'-(परमात्मा-)के होनेके कारण ही ये गुण 'सद्गुण' कहलाते हैं। ऐसी दशामें भक्त उनको अपना मान ही कैसे सकता है! इसलिये वह अहंकारसे सर्वथा रहित होता है। 'समदुःखसुखः' -- भक्त सुख-दुःखोंकी प्राप्तिमें सम रहता है अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलता उसके हृदयमें रागद्वेष, हर्षशोक आदि विकार पैदा नहीं कर सकते।गीतामें सुखदुःख पद अनुकूलता-प्रतिकूलताकी परिस्थिति-(जो सुख-दुःख उत्पन्न करनेमें हेतु है) के लिये तथा अन्तःकरणमें होनेवाले हर्ष-शोकादि विकारोंके लिये भी आया है।अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति मनुष्यको सुखी-दुःखी बनाकर ही उसे बाँधती है। इसलिये सुख-दुःखमें सम होनेका अर्थ है -- अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर अपनेमें हर्ष-शोकादि विकारोंका न होना।भक्तके शरीर, इन्द्रियाँ, मन, सिद्धान्त आदिके अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदिका संयोग या वियोग होनेपर उसे अनुकूलता और प्रतिकूलताका 'ज्ञान' तो होता है, पर उसके अन्तःकरणमें हर्ष-शोकादि कोई 'विकार' उत्पन्न नहीं होता। यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिये कि किसी परिस्थितिका ज्ञान होना अपने-आपमें कोई दोष नहीं है, प्रत्युत उससे अन्तःकरणमें विकार उत्पन्न होना ही दोष है। भक्त राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंसे सर्वथा रहित होता है। जैसे, प्रारब्धानुसार भक्तके शरीरमें कोई रोग होनेपर उसे शारीरिक पीड़ाका ज्ञान (अनुभव) तो होगा; किन्तु उसके अन्तःकरणमें किसी प्रकारका विकार नहीं होगा।'क्षमी' -- अपना किसी तरहका भी अपराध करनेवालेको किसी भी प्रकारका दण्ड देनेकी इच्छा न रखकर उसे क्षमा कर देनेवालेको 'क्षमी' कहते हैं।भक्तके लक्षणोंमें पहले 'अद्वेष्टा' पद देकर भगवान्ने भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति द्वेषका अभाव बताया, अब यहाँ 'क्षमी' पदसे यह बताते हैं कि भक्तमें अपना अपराध करनेवालेके प्रति ऐसा भाव रहता है कि उसको भगवान् अथवा अन्य किसीके द्वारा भी दण्ड न मिले। ऐसा क्षमाभाव भक्तकी एक विशेषता है। 'संतुष्टः सततम्' (टिप्पणी प0 650.1) -- जीवको मनके अनुकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिके संयोगमें और मनके प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदिके वियोगमें एक संतोष होता है। विजातीय और अनित्य पदार्थोंसे होनेके कारण यह संतोष स्थायी नहीं रह पाता। स्वयं नित्य होनेके कारण जीवको नित्य परमात्माकी अनुभूतिसे ही वास्तविक और स्थायी संतोष होता है। भगवान्को प्राप्त होनेपर भक्त नित्य-निरन्तर संतुष्ट रहता है; क्योंकि न तो उसका भगवान्से कभी वियोग होता है और न उसको नाशवान् संसारकी कोई आवश्यकता ही रहती है। अतः उसके असंतोषका कोई कारण ही नहीं रहता। इस संतुष्टिके कारण वह संसारके किसी भी प्राणी-पदार्थके प्रति किञ्चिन्मात्र भी महत्त्वबुद्धि नहीं रखता (टिप्पणी प0 650.2)।'संतुष्टः' के साथ 'सततम्' पद देकर भगवान्ने भक्तके उस नित्य-निरन्तर रहनेवाले संतोषकी ओर ही लक्ष्य कराया है, जिसमें न तो कभी कोई अन्तर पड़ता है और न कभी अन्तर पड़नेकी सम्भावना ही रहती है। कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग -- किसी भी योगमार्गसे सिद्धि प्राप्त करनेवाले महापुरुषमें ऐसी संतुष्टि (जो वास्तवमें है) निरन्तर रहती है।   'योगी' -- भक्तियोगके द्वारा परमात्माको प्राप्त (नित्य-निरन्तर परमात्मासे संयुक्त) पुरुषका नाम यहाँ 'योगी' है।वास्तवमें किसी भी मनुष्यका परमात्मासे कभी वियोग हुआ नहीं, है नहीं, हो सकता नहीं और सम्भव ही नहीं। इस वास्तविकताका जिसने अनुभव कर लिया है, वही 'योगी' है।   'यतात्मा' -- जिसका मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसहित शरीरपर पूर्ण अधिकार है, वह 'यतात्मा' है। सिद्ध भक्तको मन-बुद्धि आदि वशमें करने नहीं पड़ते, प्रत्युत ये स्वाभाविक ही उसके वशमें रहते हैं। इसलिये उसमें किसी प्रकारके इन्द्रियजन्य दुर्गुण-दुराचारी के आनेकी सम्भावना ही नहीं रहती।   वास्तवमें मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ स्वाभाविकरूपसे सन्मार्गपर चलनेके लिये ही हैं; किन्तु संसारसे रागयुक्त सम्बन्ध रहनेसे ये मार्गच्युत हो जाती हैं। भक्तका संसारसे किञ्चिन्मात्र भी रागयुक्त सम्बन्ध नहीं होता, इसलिये उसकी मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ सर्वथा उसके वशमें होती हैं। अतः उसकी प्रत्येक क्रिया दूसरोंके लिये आदर्श होती है।   ऐसा देखा जाता है कि न्याय-पथपर चलनेवाले सत्पुरुषोंकी इन्द्रियाँ भी कभी कुमार्गगामी नहीं होतीं। जैसे, राजा दुष्यन्तकी वृत्ति शकुन्तलाकी ओर जानेपर उन्हें दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह क्षत्रिय-कन्या ही है, ब्राह्मणकन्या नहीं। कवि कालिदासके कथनानुसार जहाँ सन्देह हो, वहाँ सत्पुरुषके अन्तःकरणकी प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है --   'सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः'।।(अभिज्ञानशाकुन्तलम् 1। 21)   जब न्यायशील सत्पुरुषकी इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति भी स्वतः कुमार्गकी ओर नहीं होती, तब सिद्ध भक्त (जो न्यायधर्मसे कभी किसी अवस्थामें च्युत नहीं होता-) की मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ कुमार्गकी ओर जा ही कैसे सकती हैं!   'दृढनिश्चयः' -- सिद्ध महापुरुषकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका सर्वथा अभाव रहता है। उसकी बुद्धिमें एक परमात्माकी ही अटल सत्ता रहती है। अतः उसकी बुद्धिमें विपर्यय-दोष (प्रतिक्षण बदलनेवाले संसारका स्थायी दीखना) नहीं रहता। उसको एक भगवान्के साथ ही अपने नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव होता रहता है। अतः उसका भगवान्में ही दृढ़ निश्चय होता है। उसका यह निश्चय बुद्धिमें नहीं, प्रत्युत 'स्वयं' में होता है, जिसका आभास बुद्धिमें प्रतीत होता है।   संसारकी स्वतन्त्र सत्ता माननेसे अथवा संसारसे अपना सम्बन्ध माननेसे ही बुद्धिमें विपर्यय और संशयरूप दोष उत्पन्न होते हैं। विपर्यय और संशययुक्त बुद्धि कभी स्थिर नहीं होती। ज्ञानी और अज्ञानी पुरुषकी बुद्धिके निश्चयमें ही अन्तर होता है; स्वरूपसे तो दोनों समान ही होते हैं। अज्ञानीकी बुद्धिमें संसारकी सत्ता और उसका महत्त्व रहता है; परन्तु सिद्ध भक्तकी बुद्धिमें एक भगवान्के सिवाय न तो संसारकी किसी वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता रहती है और न उसका कोई महत्त्व ही रहता है। अतः उसकी बुद्धि विपर्यय और संशयदोषसे सर्वथा रहित होती है और उसका केवल परमात्मामें ही दृढ़ निश्चय होता है।   'मय्यर्पितमनोबुद्धिः'--जब साधक एकमात्र भगवत्प्राप्तिको ही अपना उद्देश्य बना लेता है और स्वयं भगवान्का ही हो जाता है (जो कि वास्तवमें है) तब उसके मन-बुद्धि भी अपने-आप भगवान्में लग जाते हैं। फिर सिद्ध भक्तके मन-बुद्धि भगवान्के अर्पित रहें -- इसमें तो कहना ही क्या है  जहाँ प्रेम होता है, वहाँ स्वाभाविक ही मनुष्यका मन लगता है और जिसे मनुष्य सिद्धान्तसे श्रेष्ठ समझता है, उसमें स्वाभाविक ही उसकी बुद्धि लगती है। भक्तके लिये भगवान्से बढ़कर कोई प्रिय और श्रेष्ठ होता ही नहीं। भक्त तो मन-बुद्धिपर अपना अधिकार ही नहीं मानता। वह तो इनको सर्वथा भगवान्का ही मानता है। अतः उसके मन-बुद्धि स्वाभाविक ही भगवान्में लगे रहते हैं। 'यः मद्भक्तः स मे प्रियः' (टिप्पणी प0 651) -- भगवान्को तो सभी प्रिय हैं; परन्तु भक्तका प्रेम भगवान्के सिवाय और कहीं नहीं होता। ऐसी दशामें 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।' (गीता 4। 11) -- इस प्रतिज्ञाके अनुसार भगवान्को भी भक्त प्रिय होता है।  सम्बन्ध--सिद्ध भक्तके लक्षणोंका दूसरा प्रकरण, जिसमें छः लक्षणोंका वर्णन है, आगेके श्लोकमें आया है।
।।12.13 -- 12.14।।अद्वेष्टेति। सन्तुष्ट इति। मैत्री अमत्सरता यस्य (N यस्मात् for यस्य) अस्तीति ( omits इति)। एवं करुणः (S?N करुणा)। ममामी इत्यादिः ( ममापीत्यादि) ममकारः अहमुदारः अहं तेजस्वी अहं सहनः (S??N तेजस्वी असहनः) इत्यादिः अहंकारः एतौ यस्य न स्तः। क्षमा अपकारिणं शत्रुं प्रत्य [प्य] द्वेषबुद्धिः। सततं योगी? व्यवहारावस्थायामपि प्रशान्तान्तःकरणत्वात्।
।।12.14।।अद्वेष्टा सर्वभूतानां विद्विषताम् अपकुर्वताम् अपि सर्वेषां भूतानाम् अद्वेष्टा मदपराधानुगुणम् ईश्वरप्रेरितानि एतानि भूतानि द्विषन्ति अपकुर्वन्ति च इति अनुसंदधानः? तेषु द्विषत्सु अपकुर्वत्सु च सर्वभूतेषु मैत्रीं मतिं कुर्वन् मैत्रः? तेषु एव दुःखितेषु करुणां कुर्वन् करुणः? निर्ममः -- देहेन्द्रियेषु तत्सम्बन्धिषु च निर्ममः? निरहंकारः -- देहात्माभिमानरहितः? तत एव समदुःखसुखः सुखदुःखागमयोः सांकल्पिकयोः हर्षोद्वेगरहितः? क्षमी स्पर्शप्रभवयोः अवर्जनीययोः अपि तयोः विकाररहितः? संतुष्टः यद्दच्छोपनतेन,येन केन अपि देहधारणद्रव्येन संतुष्टः? सततं योगी सततं प्रकृतिवियुक्तात्मानुसंधानपरः? यतात्मा नियमितमनोवृत्तिः? दृढनिश्चयः -- अध्यात्मशास्त्रोदितेषु अर्थेषु दृढनिश्चयः? मय्यर्पितमनोबुद्धिः भगवान् वासुदेव एव अनभिसंहितफलेन अनुष्ठितेन कर्मणाआराध्यते आराधितश्च मम आत्मापरोक्ष्यं साधयिष्यति इति मय्यर्पितमनोबुद्धिः? एवंभूतो मद्भक्तः एवंभूतेन कर्मयोगेन मां भजमानो यः स मे प्रियः।
।।12.14।।अक्षरोपासकस्य ज्ञानवतो विशेषणान्तराण्याह -- संतुष्ट इति। सततमिति सर्वत्र संबध्यते। कार्यकरणसंघातः स्वभावशब्दार्थः। स्थिरत्वं कुतर्कादिनानभिभवनीयत्वम्। मद्भक्तो मद्भजनपरो ज्ञानवानिति यावत्। ज्ञानवतो भगवत्प्रियत्वे प्रमाणमाह -- प्रियो हीति। किमर्थं तर्हि पुनरुच्यते तत्राह -- तदिहेति।
।।12.14।।सन्तुष्ट इति। यथालब्धेन भगवत्सेवोपयोगिना द्रव्येण देहधारणेन सन्तुष्टः। सततं योगी यतात्मा समवृत्तिः निरुद्धचेताः। दृढो भगवदेकसेवायां निश्चयो यस्य सोऽपि न बहिरेव तन्वादिना केवलम्? किन्तु मानसोऽभ्यन्तर इति। तदाह मय्यर्पितमनोबुद्धिरिति। श्रीपुरुषोत्तमेऽर्पिते मनोबुद्धी यस्य सद्बजौकसां यथा तथा स य एवम्भूतो द्विषड्गुणयुतो निर्हेतुकमद्भक्तिमान् स मे प्रियः। यो मद्भक्त इतीरणात्पुष्टिरस्तीति निश्चीयते। नहि भगवत्प्रियत्वं स्वकृति -- (स्वल्प) -- तपस्साध्यम्। अतः प्रवाहाद्भिन्नोऽयं मार्गः? प्रवाहस्य सर्वसाधारणत्वात् भक्तेर्निर्हेतुकानुग्रहैकलभ्यत्वान्महानेव भेदोऽस्तीति मन्तव्यं वेदमर्यादामार्गतोऽपि असङ्कीर्णत्वं चनाहं वेदैर्न तपसा [11।53] इति पूर्वमुक्तं सर्वतो (ऽत्र) वैदिककर्माद्यपेक्षयाऽस्योत्तमत्वकथनात् अभेदे तूत्कर्षवैयर्थ्यादिति सर्वं श्रीमदाचार्यग्रन्थादवसेयम्।
।।12.14।।संतुष्ट इति। तस्यैव विशेषणान्तराणि। सततं शरीरस्थितिकारणस्य लाभेऽलाभे च संतुष्टः उत्पन्नालंप्रत्ययः। तथा गुणवल्लाभे विपर्यये च। सततमिति सर्वत्र संबध्यते। योगी समाहितचित्तः। यतात्मा संयतशरीरेन्द्रियादिसङ्घातः। दृढः कुतार्किकैरभिभवितुमशक्यतया स्थिरो निश्चयोऽहमस्म्यकर्त्रभोक्तृसच्चिदानन्दाद्वितीयब्रह्मेत्यध्यवसायो यस्य स दृढनिश्चयः। स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः। मयि भगवति वासुदेवे शुद्धे ब्रह्मणि अर्पितमनोबुद्धिः समर्पितान्तःकरणः ईदृशो यो मद्भक्तः शुद्धाक्षरब्रह्मवित्स मे प्रियः सदात्मत्वात्।
।।12.14।। संतुष्ट इति। सततं लाभेऽलाभे च संतुष्टः प्रसन्नचित्तो योग्यप्रमत्तो यतात्मा संयतस्वभावः दृढो मद्विषयो निश्चयो यस्य मय्यर्पिते मनोबुद्धी येन एवंभूतो यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
।।12.14।।स एव सन्तोषोऽत्राप्यादरार्थं सङ्ग्रहेणोक्त इत्यभिप्रायेणाह -- यदृच्छोपनतेन येनकेनापीति। अन्यत्रापि ह्युच्यते -- येनकेनचिदाच्छन्नो येनकेनचिदाशितः। यत्रक्वचनशायी स्यात्तं देवा ब्राह्मणं विदुः [म.भा.12।245।12] इति। शास्त्रीयेष्वयत्नोपनतेषु प्रभूताल्पसरसविरसादिवैषम्यं नानुसन्धेयमिति भावः। यथोक्तमजगरेण -- न सन्निपतितं धर्म्यमुपभोगं यदृच्छया। प्रत्याचक्षे न चाप्येनमनुरुन्धे सुदुर्लभम् [ ] इति।सततमिति योगकालोपकारकवासनास्थैर्यार्थम्। योगशब्दश्चात्र योगदर्शनानुग्राहकप्राचीनानुसन्धानपरः? साक्षाद्योगस्य सर्वदा कर्तुमशक्यत्वादित्यभिप्रायेणाह -- सततं प्रकृतिवियुक्तेति। सततमात्मचिन्तनवदनात्मचिन्तननिवृत्तिरपि योगान्तरङ्गमिति यतात्मशब्देनोच्यत इत्याहनियमितमनोवृत्तिरिति। अन्येषां यत्र सन्देहप्रसङ्गः? तत्र ह्यस्य निश्चयो वाच्यः स चात्रानुष्ठानोपकारक एव ग्राह्यः तदाह -- अध्यात्मशास्त्रेति।मयि इत्यनेनअहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च [9।24] इत्युक्तमाराध्यत्वं फलप्रदत्वं चात्र कर्मयोगनिष्ठस्य मनोबुद्ध्यर्पणार्थम्। अपेक्षितमभिसंहितमित्यभिप्रायेणाहभगवानिति। भगवच्छब्देन सकलफलप्रदत्त्वौपयिकोभयलिङ्गत्वोक्तिः। वासुदेवशब्देन सर्वकर्माराध्यत्वौपयिकसर्वदेवतान्तर्यामित्वोक्तिः। वक्तृरूपविवक्षा वा। आराध्यत्वेन चिन्तनमत्र मनसोऽर्पणम्। फलप्रदत्वाध्यवसायो बुद्ध्यर्पणम्। यद्वा द्वयोरपि चिन्ताध्यवसायौ भाव्यौ। मनसाध्यवसायो वा मनोबुद्धिः। उद्देश्यांशं निष्कर्षतिय एवम्भूतो मद्भक्त इति। अशक्तस्य शक्यनिष्ठाप्रतिपादनप्रकरणत्वात् साक्षाद्भक्तियोगनिष्ठाद्व्यवच्छिन्दन् श्लोकद्वयस्य पिण्डितार्थमाहएवम्भूतेन कर्मयोगेनेति। उद्देश्यविशेषणेष्वपि तात्पर्यं मीमांसकैरेवाङ्गीकृतम्? यत्र विशेषणप्रयोगस्य गत्यन्तरं नोपलब्धमिति भावः। प्रियः प्रीतिविषयः? प्रीतोऽहं,तदभिलषितं ददामीति भावः।
।।12.14।।किञ्चसन्तुष्ट इति। सततं सन्तुष्टः निरन्तरं हृदयस्थितमत्स्वरूपेण आनन्दयुक्तः? योगी मच्चिन्तनशीलः? यतात्मा वशीकृतस्वभावः दृढनिश्चयः दृढः कामाद्यनुपहतो मत्परीक्षितदुःखादिष्वचलो मयि सर्वकरणसमर्थत्वेन निश्चयो यस्य? मयि अर्पिते मनोबुद्धी येन? य एतादृशः स मद्भक्तः मे प्रियः मदिङ्गितकरणादिति भावः।
।।12.14।।संतुष्टो यदृच्छालाभेनैव संजातालंप्रत्ययः। सततं सर्वदा। योगी श्रवणादौ समाहितचित्तः। यतात्मा संयतशरीरेन्द्रियादिसंघातः। दृढः स्थिर आत्मतत्त्वविषये निश्चयो यस्य स दृढनिश्चयोऽसंभावनाशून्यो दृढश्रद्धावान्। मयि निर्गुणे ब्रह्मण्यर्पिते निहिते प्रविलापिते वा मनः संकल्पादिरूपं बुद्धिरध्यवसायस्ते उभे येन स मय्यर्पितमनोबुद्धिः। एतादृशो यो मे मम भक्तः स मे मम प्रियः आत्मत्वादेव स परमप्रेमास्पदम्ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इत्युक्तम्। एतेन पूर्वश्लोकोक्ताया निरहंकारतायाः साधनान्युक्तानि।
।।12.14।।अक्षरोपासकं ज्ञानवन्तं विशेषणान्तरैर्विशिनष्टि -- संतुष्ट इति। सततमिति सर्वत्र संबध्यते। तेहस्थितिकारणस्य लाभे अलाभे च सततं संतुष्टः नित्यं जातालंप्रत्ययः। समुपसर्गेण तुष्टेः परिपक्वता बोध्यते। तथा गुणवल्लाभेऽपि तद्विपर्यये च संतुष्टः। यतः सततं योगी योगाभ्यासेन समाहितान्तःकरणः। यतः सततं संयतात्मा संयतकार्यकरणसंघातः अतएव संयतात्मेति वा। यतः सततं योगी योगाभ्यासेन समाहितान्तःकरणः। यतः सततं संयतात्मा संयतकार्यकरणसंघातः अतए दृढनिश्चय इति वा। यतः सततं मयि परमात्मनि संकल्पविकल्पात्मकं मनोऽध्यवसायलक्षणा बुद्धिश्च ते मय्येव स्थापिते यस्य स यतो मय्यर्पितमनोबुद्धिरिति वा। य ईदृशो मद्भक्तः शुद्धाक्षरात्मज्ञानवान् मद्भजनपरो मे मम प्रियः।उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः इत सप्तमाध्याये सूचितस्यार्थस्यायं प्रपञ्चः।
12.14 सन्तुष्टः contented? सततम् ever? योगी Yogi? यतात्मा selfcontrolled? दृढनिश्चयः possessed of firm,conviction? मयि अर्पितमनोबुद्धिः with mind and intellect dedicated to Me? यः who? मद्भक्तः My devotee? सः he? मे to Me? प्रियः dear.Commentary He knows that all that comes to him is the fruit of his own actions in the past and so he is ever contented. He does not endeavour to attain the finite or perishable objects. He fixes his mind and intellect on the Supreme Being or the Absolute? attains eternal satisfaction and stands adamant like yonder rock? amidst the vicissitudes of time.Contentment ever dwells in the heart of My devotee. Like the ocean which is ever full? his heart is ever full as he has no cravings. He is ever cheerful and joyous. He has a feeling of fullness whether or not he gets the means for the bare sustencance of his body. He is satisfied with a little thing and he does not care whether it is good or not. He never grumbles? complains or murmurs when he does not obtain food and clothing which are necessary for the maintenance of the body. His mind is ever filled with Me through constant and steady meditation.Yogi He who has evenness of mind always. He has controlled all the senses and desires. With a firm determination he has fixed his mind and intellect on Me in a spirit of perfect selfsurrender. He is endowed with a firm conviction regarding the essential nature of the Self. He who has the knowledge through Selfrealisation? I am Asanga Akarta Suddha Satchidananda Svayamprakasa Advitiya Brahman (unattached? nondoer? pure? ExistenceKnowledgeBliss Absolute? selfluminous? nondual Brahman) is a sage of firm determination. He has given to Me exclusively his mind (the faculty that wills and doubts) and the intellect (the faculty that determines). He is dear to Me as life itself. Such a comparison falls far short of the reality.The same thing which was said by Lord Krishna to Arjuna in chapter VII. 17? I am very dear to the wise and he is very dear to Me? is here described in detail.
12.14 Ever content, steady in meditation, self-controlled, possessed of firm conviction, with the mind and intellect dedicated to Me, he, My devtoee, is dear to Me.
12.14 Always contented, self-centred, self-controlled, resolute, with mind and reason dedicated to Me, such a devotee of Mine is My beloved.
12.14 He who is ever content, who is a yogi, who has self-control, who has firm conviction, who has dedicated his mind and intellect to Me-he who is such a devotee of Mine is dear to Me.
12.14 Santustah satatam, he who is ever content: who has the sense of contentment irrespective of getting or not getting what is needed for the maintenance of the body; who is similarly ever-satisfied whether he gets or not a good thing. Yogi, who is a yogi, a man of concentrated mind; yata-atma, who has self-control, whose body and organs are under control; drdha-niscayah, who has firm conviction-with regard to the reality of the Self; arpita-mano-buddhih, who has dedicated his mind and intellect; mayi, to Me-(i.e.) a monk whose mind (having hte characteristics of reflection) and intellect (possessed of the faculty of taking decisions) are dedicated to, fixed on, Me alone; sah yah, he who is; such a modbhaktah, devotee of Mine; is priyah, dear; me, to Me. It was hinted in the Seventh Chapter, 'For I am very much dear to the man of Knowledge, and he too is dear to Me' (7.17). That is being elaborated here.
12.14. Who remains well-content and is a man of Yoga at all times; who is self-controlled and is firmly resolute; and who has offered to Me his mind and intellect-that devotee of Mine is dear to Me.
12.13-14 Advesta etc. Santustah etc. [Friend] : he who has friend-liness (or goodwill) i.e. unselfishness. In the same manner 'compassionate' [is to be interpreted]. 'These are mine' etc., is the sence of 'mine' (or sense of possessiveness); 'I am generous', 'I am powerful', 'I am victorious' etc., is the sense of 'I' (or egotism). In whom these two are absent that man is free from the senses of 'mine' and of 'I'. Forbearance : a thought that entertains no enmity even towards an enemy who has [actually] injured. A man of Yoga at all times : because his internal organ remains completely iet even at the stage of his mundane dealings.
12.13 - 12.14 In these and succeeding verses the Lord mentions the nature of the Karma Yogi who adores Him through his works. In other words the Bhakti element in Karma Yoga is emphasised. He never hates any being even though they hate him and do him wrong. For he thinks that the Lord impels these beings to hate him and do him wrong for atoning for his transgressions. He is 'friendly', evincing a friendly disposition towards all beings whether they hate him or do him wrong. He is 'compassionate', evincing compassion towards their sufferings. He is free from the 'feeling of mine,' i.e., he is not possessive with regard to his body, senses and all things associated with them. He is free from the feeling of 'I', i.e., is free from the delusion that his body is the self. Therefore, 'pain and pleasure are the same to him,' i.e., he is free from distress and delight resulting from pain and pleasure arising from his deeds. He is 'enduring', unaffected even by those two (i.e., pleasure and pain) due to the inevitable contact of sense-objects. He is 'content', namely, satisfied with whatever chance may bring him for the sustenance of his body. He 'ever meditates,' i.e., is constantly intent on contemplating on the self as separate from the body. He is 'self-restrained', namely, he controls the activities of his mind. He is of 'firm conviction' regarding the meanings taught in the science of the self. His 'mind and reason are dedicated to Me' i.e., his mind and reason are dedicated to Me in the form 'Bhagavan Vasudeva alone is propitiated by disinterested activities, and when duly propitiated, He wil bring about for me the direct vision of the self.' Such a devotee of mine, i.e., who works in this manner as a Karma Yogin, is dear to Me.
12.14 He who is content, who ever meditates and is self-restrained and who is firm in his convictions, who has his mind and reason dedicated to Me - he is dear to Me.
।।12.14।।तथा जो सदा ही सन्तुष्ट है अर्थात् देह स्थितिके कारणरूप पदार्थोंकी लाभ हानिमें जिसके जो कुछ होता है वही ठीक है ऐसा अलम् भाव हो गया है? इस प्रकार जो गुणयुक्त वस्तुके लाभमें और उसकी हानिमें सदा ही सन्तुष्ट रहता है। तथा जो समाहितचित्त? जीते हुए स्वभाववाला और दृढ़ निश्चयवाला है अर्थात् आत्मतत्त्वके विषयमें जिसका निश्चय स्थिर हो चुका है। तथा जो मुझमें अर्पण किये हुए मनबुद्धिवाला है अर्थात् जिस संन्यासीका संकल्प विकल्पात्मक मन और निश्चयात्मिका बुद्धि ये दोनों मुझमें समर्पित हैं -- स्थापित हैं। जो ऐसा मेरा भक्त है वह मेरा प्यारा है। ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्यारा हूँ और वह मुझे प्रिय है इस प्रकार जो सप्तम अध्यायमें सूचित किया गया था उसीका यहाँ विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता है।
।।12.14।। -- संतुष्टः सततं नित्यं देहस्थितिकारणस्य लाभे अलाभे च उत्पन्नालंप्रत्ययः। तथा गुणवल्लाभे विपर्यये च संतुष्टः। सततं योगी समाहितचित्तः। यतात्मा संयतस्वभावः। दृढनिश्चयः दृढः स्थिरः निश्चयः अध्यवसायः यस्य आत्मतत्त्वविषये स दृढनिश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिः संकल्पविकल्पात्मकं मनः? अध्यवसायलक्षणा बुद्धिः? ते मय्येव अर्पिते स्थापिते यस्य संन्यासिनः सः मय्यर्पितमनोबुद्धिः। यः ईदृशः मद्भक्तः सः मे प्रियः। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः (गीता 7।17) इति सप्तमे अध्याये सूचितम्? तत् इह प्रपञ्चते।।
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सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.14।।
সন্তুষ্টঃ সততং যোগী যতাত্মা দৃঢনিশ্চযঃ৷ ময্যর্পিতমনোবুদ্ধির্যো মদ্ভক্তঃ স মে প্রিযঃ৷৷12.14৷৷
সন্তুষ্টঃ সততং যোগী যতাত্মা দৃঢনিশ্চযঃ৷ ময্যর্পিতমনোবুদ্ধির্যো মদ্ভক্তঃ স মে প্রিযঃ৷৷12.14৷৷
સન્તુષ્ટઃ સતતં યોગી યતાત્મા દૃઢનિશ્ચયઃ। મય્યર્પિતમનોબુદ્ધિર્યો મદ્ભક્તઃ સ મે પ્રિયઃ।।12.14।।
ਸਨ੍ਤੁਸ਼੍ਟ ਸਤਤਂ ਯੋਗੀ ਯਤਾਤ੍ਮਾ ਦਰਿਢਨਿਸ਼੍ਚਯ। ਮਯ੍ਯਰ੍ਪਿਤਮਨੋਬੁਦ੍ਧਿਰ੍ਯੋ ਮਦ੍ਭਕ੍ਤ ਸ ਮੇ ਪ੍ਰਿਯ।।12.14।।
ಸನ್ತುಷ್ಟಃ ಸತತಂ ಯೋಗೀ ಯತಾತ್ಮಾ ದೃಢನಿಶ್ಚಯಃ. ಮಯ್ಯರ್ಪಿತಮನೋಬುದ್ಧಿರ್ಯೋ ಮದ್ಭಕ್ತಃ ಸ ಮೇ ಪ್ರಿಯಃ৷৷12.14৷৷
സന്തുഷ്ടഃ സതതം യോഗീ യതാത്മാ ദൃഢനിശ്ചയഃ. മയ്യര്പിതമനോബുദ്ധിര്യോ മദ്ഭക്തഃ സ മേ പ്രിയഃ৷৷12.14৷৷
ସନ୍ତୁଷ୍ଟଃ ସତତଂ ଯୋଗୀ ଯତାତ୍ମା ଦୃଢନିଶ୍ଚଯଃ| ମଯ୍ଯର୍ପିତମନୋବୁଦ୍ଧିର୍ଯୋ ମଦ୍ଭକ୍ତଃ ସ ମେ ପ୍ରିଯଃ||12.14||
santuṣṭaḥ satataṅ yōgī yatātmā dṛḍhaniścayaḥ. mayyarpitamanōbuddhiryō madbhaktaḥ sa mē priyaḥ৷৷12.14৷৷
ஸந்துஷ்டஃ ஸததஂ யோகீ யதாத்மா தரிடநிஷ்சயஃ. மய்யர்பிதமநோபுத்திர்யோ மத்பக்தஃ ஸ மே ப்ரியஃ৷৷12.14৷৷
సన్తుష్టః సతతం యోగీ యతాత్మా దృఢనిశ్చయః. మయ్యర్పితమనోబుద్ధిర్యో మద్భక్తః స మే ప్రియః৷৷12.14৷৷
12.15
12
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।।12.15।।जिससे किसी प्राणीको उद्वेग नहीं होता और जिसको खुद भी किसी प्राणीसे उद्वेग नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेगसे रहित है, वह मुझे प्रिय है।
।।12.15।। जिससे कोई लोक (अर्थात् जीव, व्यक्ति) उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी व्यक्ति से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष, अमर्ष (असहिष्णुता) भय और उद्वेगों से मुक्त है,वह भक्त मुझे प्रिय है।।
।।12.15।। इस प्रकरण के द्वितीय भागरूप श्लोक में ज्ञानी भक्त के तीन और लक्षण बताये गये हैं। जिस पुरुष से इस लोक को उद्वेग नहीं होता ज्ञानी पुरुष वह है? जो लोक में किसी प्रकार का विक्षेप या उद्वेग उत्पन्न नहीं करता है। जहाँ सूर्य है वहाँ अन्धकार नहीं रह सकता वैसे ही? जहाँ शान्त और आनन्दस्वरूप में स्थित ज्ञानी भक्त होगा? वहाँ अशान्ति और उदासी का प्रश्न ही नहीं उठता है। उसके आसपास शान्ति? प्रेम और आनन्द का ही ऐसा वातावरण निर्मित होता है कि वहाँ पहुँचने पर एक क्षुब्ध और दुखी पुरुष भी उस महात्मा पुरुष से प्रभावित होकर अपने दुख को भूलकर शान्ति का अनुभव करता है। वास्तविकता तो यह है कि सारा जगत् उस सन्त के समीप विवश हुआ सा दौड़ पड़ता है केवल उसके ज्ञान और आनन्द को स्वयं में अनुभव करने के लिए जो स्वयं भी किसी से उद्विग्न नहीं होता है न केवल वह सबको शान्ति प्रदान करता है बल्कि स्वयं अपनी शान्ति और आनन्द को किसी प्रकार से भी नहीं खोता है। जगत् की कोई भी स्थिति उसे उद्विग्न नहीं कर सकती। बाह्य दुर्व्यवस्था विरोध और प्रतिशोध की भावना से पूर्ण उपद्रवी लोगों के होने पर भी उसके मन में विक्षेप नहीं होता। भौतिक वस्तुओं का यह जगत् सदैव परिवर्तित होता रहता है? और सामान्यत सबको विमूढ और दुखी कर देने वाला मृत्यु का यह ताण्डव सन्त पुरुष की मनशान्ति को रंचमात्र भी विचलित नहीं कर सकता। मानो वह अधिक शक्तिशाली धातु का बना होता है और उसका जीवन सुदृढ़ नीव पर निर्मित होता है।समुद्र की सतह पर अनेक लकड़ियाँ इतस्तत बहती और भटकती रहती हैं? किन्तु समुद्री चट्टानों की दृढ़ नींव पर निर्मित दीपस्तम्भ समुद्र में उठने वाले ज्वारभाटे का अवलोकन करते हुये निश्चल और सीधा खड़ा रहता है ज्ञानी पुरुष का व्यक्तित्व जीवन के अधिष्ठानस्वरूप सत्य वस्तु की अनुभूति में स्थित होने के कारण जीवन की सतही परिस्थितियों से कभी विचलित नहीं होता? क्योंकि उसके मन में किसी वस्तु से कोई आसक्ति नहीं होती। संघर्षमय परिस्थितियों के अन्तर्बाह्य भी वह एक नित्य अपरिवर्तनशील अधिष्टान को देखता है? और प्रकृति के शुद्ध संगीत में मनुष्य के द्वारा उत्पन्न किये जा रहे वर्जित स्वरों में भी वह एक अचल और शुद्ध स्वर का ही श्रवण करता है।वह हर्ष? अमर्ष? भय और उद्वेग से मुक्त होता है। इस प्रकार जो भक्त अपने स्वयं के साथ तथा जगत् के साथ भी सदा शान्ति का अनुभव करता है? और जो परिस्थितियों पर शासन करता है? और उनका शिकार नहीं बनता है? जिसने सामान्य मनुष्य के अवगुणों और प्रतिक्रियाओं को पार कर लिया है? ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।इसी विषय में भगवान् आगे कहते हैं
।।12.15।। व्याख्या--'यस्मान्नोद्विजते लोकः'--भक्त सर्वत्र और सबमें अपने परमप्रिय प्रभुको ही देखता है। अतः उसकी दृष्टिमें मन, वाणी और शरीरसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ एकमात्र भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही होती है (गीता 6। 31)। ऐसी अवस्थामें भक्त किसी भी प्राणीको उद्वेग कैसे पहुँचा सकता है? फिर भी भक्तोंके चरित्रमें यह देखनेमें आता है कि उनकी महिमा, आदर-सत्कार तथा कहीं-कहीं उनकी क्रिया, यहाँतक कि उनकी सौम्य आकृतिमात्रसे भी कुछ लोग ईर्ष्यावश उद्विग्न हो जाते हैं और भक्तोंसे अकारण द्वेष और विरोध करने लगते हैं। लोगोंको भक्तसे होनेवाले उद्वेगके सम्बन्धमें विचार किया जाय, तो यही पता चलेगा कि भक्तकी क्रियाएँ कभी किसीके उद्वेगका कारण नहीं होतीं; क्योंकि भक्त प्राणिमात्रमें भगवान्की ही देखता है--'वासुदेवः सर्वम्' (गीता 7। 19)। उसकी मात्र क्रियाएँ स्वभावतः प्राणियोंके परमहितके लिये ही होती हैं। उसके द्वारा कभी भूलसे भी किसीके अहितकी चेष्टा नहीं होती। जिनको उससे उद्वेग होता है, वह उनके अपने राग-द्वेषयुक्त आसुर स्वभावके कारण ही होता है। अपने ही दोषयुक्त स्वभावके कारण उनको भक्तकी हितपूर्ण चेष्टाएँ भी उद्वेगजनक प्रतीत होती हैं। इसमें भक्तका क्या दोष? भर्तृहरिजी कहते हैं--मृगमीनसज्जनानां तृणजलसंतोषविहितवृत्तीनाम्। लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति।।(भर्तृहरिनीतिशतक 61) 'हरिण, मछली और सज्जन क्रमशः तृण, जल और संतोषपर अपना जीवन-निर्वाह करते हैं (किसीको कुछ नहीं कहते); परन्तु व्याध, मछुए और दुष्टलोग अकारण ही इनसे वैर करते हैं।'   वास्तवमें भक्तोंद्वारा दूसरे मनुष्योंके उद्विग्न होनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता, प्रत्युत भक्तोंके चरित्रमें ऐसे प्रसङ्ग देखनेमें आते हैं कि उनसे द्वेष रखनेवाले लोग भी उनके चिन्तन और सङ्ग-दर्शन-स्पर्ष-वार्तालापके प्रभावसे अपना आसुर स्वभाव छोड़कर भक्त हो गये। ऐसा होनेमें भक्तोंका उदारतापूर्ण स्वभाव ही हेतु है।उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।।(मानस 5। 41। 4)   परन्तु भक्तोंसे द्वेष करनेवाले सभी लोगोंको लाभ ही होता हो -- ऐसा नियम भी नहीं है।   अगर ऐसा मान लिया जाय कि भक्तसे किसीको उद्वेग होता ही नहीं अथवा दूसरे लोग भक्तके विरुद्ध कोई चेष्टा करते ही नहीं या भक्तके शत्रुमित्र होते ही नहीं? तो फिर भक्तके लिये शत्रु-मित्र, मान-अपमान, निन्दा-स्तुति आदिमें सम होनेकी बात (जो आगे अठारहवें-उन्नीसवें श्लोकोंमें कही गयी है) नहीं कही जाती। तात्पर्य यह है कि लोगोंको अपने आसुर स्वभावके कारण भक्तकी हितकर क्रियाओंसे भी उद्वेग हो सकता है और वे बदलेकी भावनासे भक्तके विरुद्ध चेष्टा कर सकते हैं तथा अपनेको उस भक्तका शत्रु मान सकते हैं; परन्तु भक्तकी दृष्टिमें न तो कोई शत्रु होता है और न किसीको उद्विग्न करनेका उसका भाव ही होता है।   'लोकान्नोद्विजते च यः'--पहले भगवान्ने बताया कि भक्तसे किसी प्राणीको उद्वेग नहीं होता और अब उपर्युक्त पदोंसे यह बताते हैं कि भक्तको खुद भी किसी प्राणीसे उद्वेग नहीं होता। इसके दो कारण हैं   --(1) भक्तके शरीर, मन, इन्द्रियाँ, सिद्धान्त आदिके विरुद्ध भी अनिच्छा या परेच्छासे क्रियाएँ और घटनाएँ हो सकती हैं। परन्तु वास्तविकताका बोध होने तथा भगवान्में अत्यन्त प्रेम होनेके कारण भक्त भगवत्प्रेममें इतना निमग्न रहता है कि उसको सर्वत्र और सबमें भगवान्के ही दर्शन होते हैं। इसलिये प्राणिमात्रकी क्रियाओंमें (चाहे उनमें कुछ उसके प्रतिकूल ही क्यों न हों) उसको भगवान्की ही लीला दिखायी देती है। अतः उसको किसी भी क्रियासे कभी उद्वेग नहीं होता। (2) मनुष्यको दूसरोंसे उद्वेग तभी होता है, जब उसकी कामना, मान्यता, साधना, धारणा आदिका विरोध होता है। भक्त सर्वथा पूर्णकाम होता है। इसलिये दूसरोंसे उद्विग्न होनेका कोई कारण ही नहीं रहता।   'हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः'--यहाँ हर्षसे मुक्त होनेका तात्पर्य यह है कि सिद्ध भक्त सब प्रकारके हर्षादि विकारोंसे सर्वथा रहित होता है। पर इसका आशय यह नहीं है कि सिद्ध भक्त सर्वथा हर्षरहित (प्रसन्नताशून्य) होता है, प्रत्युत उसकी प्रसन्नता तो नित्य, एकरस,विलक्षण और अलौकिक होती है। हाँ, उसकी प्रसन्नता सांसारिक पदार्थोंके संयोग-वियोगसे उत्पन्न क्षणिक, नाशवान् तथा घटने-बढ़नेवाली नहीं होती। सर्वत्र भगवद्बुद्धि रहनेसे एकमात्र अपने इष्टदेव भगवान्को और उनकी लीलाओंको देख-देखकर वह सदा ही प्रसन्न रहता है।   किसीके उत्कर्ष-(उन्नति-) को सहन न करना 'अमर्ष' कहलाता है। दूसरे लोगोंको अपने समान या अपनेसे अधिक सुख-सुविधा, धन, विद्या, महिमा, आदर-सत्कार आदि प्राप्त हुआ देखकर साधारण मनुष्यके अन्तःकरणमें उनके प्रति ईर्ष्या होने लगती है; क्योंकि उसको दूसरोंका उत्कर्ष सहन नहीं होता।   कई बार कुछ साधकोंके अन्तःकरणमें भी दूसरे साधकोंकी आध्यात्मिक उन्नति और प्रसन्नता देखकर अथवा सुनकर किञ्चित् ईर्ष्याका भाव पैदा हो जाता है। पर भक्त इस विकारसे सर्वथा रहित होता है क्योंकि उसकी दृष्टिमें अपने प्रिय प्रभुके सिवाय अन्य किसीकी स्वतन्त्र सत्ता रहती ही नहीं। फिर वह किसके प्रति अमर्ष करे और क्यों करे?   अगर साधकके हृदयमें दूसरोंकी आध्यात्मिक उन्नति देखकर ऐसा भाव पैदा होता है कि मेरी भी ऐसी ही आध्यात्मिक उन्नति हो, तो यह भाव उसके साधनमें सहायक होता है। परन्तु अगर साधकके हृदयमें ऐसा भाव पैदा हो जाय कि इसकी उन्नति क्यों हो गयी, तो ऐसे दुर्भावके कारण उसके हृदयमें अमर्षका भाव पैदा हो जायगा, जो उसे पतनकी ओर ले जानेवाला होगा।   इष्टके वियोग और अनिष्टके संयोगकी आशङ्कासे होनेवाले विकरालको 'भय' कहते हैं। भय दो कारणोंसे होता है -- (1) बाहरी कारणोंसे; जैसे -- सिंह, साँप, चोर, डाकू आदिसे अनिष्ट होने अथवा किसी प्रकारकी सांसारिक हानि पहुँचनेकी आशङ्कासे होनेवाला भय और (2) भीतरी कारणोंसे; जैसे -- चोरी, झूठ, कपट, व्यभिचार आदि शास्त्रविरुद्ध भावों तथा आचरणोंसे होनेवाला भय। सबसे बड़ा भय मौतका होता है। विवेकशील कहे जानेवाले पुरुषोंको भी प्रायः मौतका भय बना रहता है (टिप्पणी प0 653)। साधकको भी प्रायः सत्सङ्ग-भजन-ध्यानादि साधनोंसे शरीरके कृश होने आदिका भय रहता है। उसको कभी-कभी यह भय भी होता है कि संसारसे सर्वथा वैराग्य हो जानेपर मेरे शरीर और परिवारका पालन कैसे होगा! साधारण मनुष्यको अनुकूल वस्तुकी प्राप्तिमें बाधा पहुँचानेवाले अपनेसे बलवान् मनुष्यसे भय होता है। ये सभी भय केवल शरीर-(जडता-) के आश्रयसे ही पैदा होते हैं। भक्त सर्वथा भगवच्चरणोंके आश्रित रहता है, इसलिये वह सदा-सर्वदा भयरहित होता है। साधकको भी तभीतक भय रहता है, जबतक वह सर्वथा भगवच्चरणोंके आश्रित नहीं हो जाता।   सिद्ध भक्तको तो सदा, सर्वत्र अपने प्रिय प्रभुकी लीला ही दीखती है। फिर भगवान्की लीला उसके हृदयमें भय कैसे पैदा कर सकती है!   मनका एकरूप न रहकर हलचलयुक्त हो जाना 'उद्वेग' कहलाता है। इस (पंद्रहवें) श्लोकमें 'उद्वेग' शब्द तीन बार आया है। पहली बार उद्वेगकी बात कहकर भगवान्ने यह बताया कि भक्तकी कोई भी क्रिया उसकी ओरसे किसी मनुष्यके उद्वेगका कारण नहीं बनती। दूसरी बार उद्वेगकी बात कहकर यह बताया कि दूसरे मनुष्योंकी किसी भी क्रियासे भक्तके अन्तःकरणमें उद्वेग नहीं होता। इसके सिवाय दूसरे कई कारणोंसे भी मनुष्यको उद्वेग हो सकता है; जैसे बार-बार कोशिश करनेपर भी अपना कार्य पूरा न होना, कार्यका इच्छानुसार फल न मिलना, अनिच्छासे ऋतु-परिवर्तन; भूकम्भ, बाढ़ आदि दुःखदायी घटनाएँ घटना; अपनी कामना, मान्यता, सिद्धान्त अथवा साधनमें विघ्न पड़ना आदि। भक्त इन सभी प्रकारके उद्वेगोंसे सर्वथा मुक्त होता है -- यह बतानेके लिये ही तीसरी बार उद्वेगकी बात कही गयी है। तात्पर्य यह है कि भक्तके अन्तःकरणमें 'उद्वेग' नामकी कोई चीज रहती ही नहीं।   उद्वेगके होनेमें अज्ञानजनित इच्छा और आसुर स्वभाव ही कारण है। भक्तमें अज्ञानका सर्वथा अभाव होनेसे कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं रहती, फिर आसुर स्वभाव तो साधना-अवस्थामें ही नष्ट हो जाता है। भगवान्की इच्छा ही भक्तकी इच्छा होती है। भक्त अपनी क्रियाओंके फलरूपमें अथवा अनिच्छासे प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिमें भगवान्का कृपापूर्ण विधान ही देखता है और निरन्तर आनन्दमें मग्न रहता है। अतः भक्तमें उद्वेगका सर्वथा अभाव होता है।   'मुक्तः' पदका अर्थ है --विकारोंसे सर्वथा छूटा हुआ। अन्तःकरणमें संसारका आदर रहनेसे अर्थात् परमात्मामें पूर्णतया मन-बुद्धि न लगनेसे ही हर्ष, अमर्ष, भय, उद्वेग आदि विकार उत्पन्न होते हैं। परन्तु भक्तकी दृष्टमें एक भगवान्के सिवाय अन्य किसीकी स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता न रहनेसे उसमें ये विकार उत्पन्न ही नहीं होते। उसमें स्वाभाविक ही सद्गुण-सदाचार रहते हैं।इस श्लोकमें भगवान्ने 'भक्तः' पद न देकर 'मुक्तः' पद दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि भक्त यावन्मात्र दुर्गुण-दुराचारोंसे सर्वथा रहित होता है। गुणोंका अभिमान होनेसे दुर्गुण अपने-आप आ जाते हैं। अपनेमें किसी गुणके आनेपर अभिमानरूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाय तो उस गुणको गुण कैसे माना जा सकता है ?दैवी सम्पत्ति (सद्गुण) से कभी आसुरी सम्पत्ति (दुर्गुण) उत्पन्न नहीं हो सकती। अगर दैवी सम्पत्तिसे आसुरी सम्पत्तिकी उत्पत्ति होती तो 'दैवी संपद्विमोक्षाय' (गीता 16। 5) -- इन भगवद्वचनोंके अनुसार मनुष्य मुक्त कैसे होता? वास्तवमें गुणोंके,अभिमानमें गुण कम तथा दुर्गुण (अभिमान) अधिक होता है। अभिमानसे दुर्गुणोंकी वृद्धि होती है; क्योंकि सभी दुर्गुण-दुराचार अभिमानके ही आश्रित रहते हैं।   भक्तको तो प्रायः इस बातकी जानकारी ही नहीं होती कि मेरेमें कोई गुण है। अगर उसको अपनेमें कभी कोई गुण दीखता भी है तो वह उसको भगवान्का ही मानता है, अपना नहीं। इस प्रकार गुणोंका अभिमान न होनेके कारण भक्त सभी दुर्गुण-दुराचारों, विकारोंसे मुक्त होता है। भक्तको भगवान् प्रिय होते हैं, इसलिये भगवान्को भी भक्त प्रिय होते हैं, (गीता 7। 17)।  सम्बन्ध--सिद्ध भक्तके छः लक्षण बतानेवाला तीसरा प्रकरण आगेके श्लोकमें आया है।
।।12.15 -- 12.20।।यस्मादित्यादि मे प्रिया इत्यन्तम्। अनिकेतः -- इदमेव मया कर्तव्यम् इति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा। यथाप्राप्तहेवाकितया सुखदुःखादिकमुपभुञ्ज्ञानः परमेश्वरविषयसमावेशितहृदयः सुखेनैव प्राप्नोति परमकैवल्यम् इति।।।शिवम्।।
।।12.15।।यस्मात् कर्मनिष्ठात् पुरुषान्निमित्तभूतात् लोको न उद्विजते? यः लोकोद्वेगकरं कर्म किंचिद् अपि न करोति इत्यर्थः। लोकात् च निमित्तभूताद् यः न उद्विजते? यम् उद्दिश्य सर्वलोको न उद्वेगकरं कर्म करोति? सर्वाविरोधित्वनिश्चयात्। अतएव कंचन प्रतिहर्षेण? कंचन प्रति अमर्षेण? कंचन प्रति भयेन? कंचन प्रति उद्वेगेन मुक्तः एवंभूतः यः सः अपि मे प्रियः।
।।12.15।।उद्वेगादिराहित्यमपि ज्ञानवतो विशेषणमित्याह -- यस्मादिति। न केवलमुद्वेगं प्रत्यपादानत्वमेव संन्यासिनोऽनुपपन्नं किंतु तत्कर्तृत्वमपीत्याह -- तथेति। असहिष्णुता परकीयप्रकर्षस्येति शेषः। त्रासस्तस्करादिदर्शनाधीनः। उद्विग्नत्वमचेतनाच्चेतनाधीनस्य लोकादगतित्वादिति यावत्।
।।12.15।।किञ्च यस्मादिति। भगवत्सेवाकर्मनिष्ठान्मैत्र्यात्तत्तदाचारसंशोधनप्रयोगात् लोको नोद्विजते। यश्च स्वयं तत्तदाचारपराङ्मुखात्तस्माल्लोकाच्च नोद्विजते? किन्तु स्वधर्मे एव निष्ठितो भवति तथा। स्वेष्टप्राप्तौ हर्षः? अप्राप्तौ वाऽमर्षः? कुतश्चिद्भयं प्रतिकूलादुद्वेगश्चिन्ता चेत्येभिर्मुक्तः प्रह्लाद इव स भक्तो मे प्रियः।
।।12.15।।पुनस्तस्यैव विशेषणानि -- यस्मादिति। यस्मात्सर्वभूताभयदायिनः संन्यासिनो हेतोर्नोद्विजते न संतप्यते लोको यः कश्चिदपि जनः तथा लोकान्निरपराधोद्वेजनैकव्रतान् खलजनान्नोद्विजते च यः अद्वैतदर्शित्वात्? परमकारुणिकत्वेन क्षमाशीलत्वाच्च। किंच हर्षः स्वस्य प्रियलाभे रोमाञ्चाश्रुपातादिहेतुरानन्दाभिव्यञ्जकश्चित्तवृत्तिविशेषः? अमर्षः परोत्कर्षासहनरूपश्चित्तवृत्तिविशेषः? भयं व्याघ्रादिदर्शनाधीनश्चित्तवृत्तिविशेषस्त्रासः। उद्वेग एकाकी कथं विजने सर्वपरिग्रहशून्यो जीविष्यामीत्येवंविधो व्याकुलतारूपश्चित्तवृत्तिविशेषस्तैर्हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः अद्वैतदर्शितया तदयोग्यत्वेन तैरेव स्वयं परित्यक्तो नतु तेषां त्यागाय स्वयं व्यापृत इति यावत्। तेन मद्भक्त इत्यनुकृष्यते। ईदृशो मद्भक्तो यः स मे प्रिय इति पूर्ववत्।
।।12.15।। किंच -- यस्मादिति। यस्मात्सकाशाल्लोको जनो नोद्विजते भयशङ्कया संक्षोभं न प्राप्नोति यश्च लोकान्नोद्विजते यश्च स्वाभाविकैर्हर्षादिभिर्मुक्तः। तत्र हर्षः स्वस्येष्टार्थलाभे उत्साहः? अमर्षः परस्य लाभेऽसहनम्? भयं त्रासः?उद्वेगो भयादिनिमित्तचित्तक्षोभः एतैर्विमुक्तो यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
।।12.15।।अथ निर्ममत्वादिफलभूतं लोकोद्वेगकरकर्मत्यागरूपं गुणं विदधत्तत्फलयोगं च दर्शयति -- यस्मात् इति श्लोकेन। यच्छब्दावृत्तिमात्रेणाधिकार्यन्तरत्वशङ्कानिवृत्त्यर्थंयस्मात्कर्मनिष्ठादित्युक्तम्। लोकगताया उद्वेगनिवृत्तेः कर्मनिष्ठं प्रति विधातुमशक्यत्वादुद्वेगकारणभूतकर्मनिवृत्तिर्विधेयत्वेन विवक्षितेति दर्शयतियो लोकोद्वेगकरमिति। अपकाररूपत्वाभावेऽप्यश्लीलभाषणादिमात्रेणापि हि लोकोद्वेगो जायत इत्यभिप्रायेणकञ्चिदपीत्युक्तम्। एतेनअद्वेष्टा [12।13] इत्यादिना पूर्वोक्तात्समः शत्रौ च [12।18] इत्यादिना वक्ष्यमाणाच्च वैषम्यं सिद्धम्।लोकान्नोद्विजते च यः इत्यत्रापि हेत्वभावे तात्पर्यम्? अन्यथा पूर्वोत्तरपौनरुक्त्यप्रसङ्गात्। अस्मिन्नपि श्लोकेहर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः इत्युद्वेगाभावस्य विहितत्वात्यस्मान्नोद्विजते इत्यनेन भिन्नरीतित्वप्रसङ्गाच्चेत्यभिप्रायेणाहयमुद्दिश्येति। लोकगतोद्वेगकरकर्मनिवृत्तिरपि नास्य विधेयेति विधेयं दर्शयितुं लोकस्य तथाविधकर्माकरणे हेतुमाहसर्वेति। यथा सर्वाविरोधित्वेन कर्मनिष्ठं लोको निश्चिनुयात्? तथाऽसौ कर्मनिष्ठो वर्तेतेत्युक्तं भवति।यो न हृष्यति न द्वेष्टि [12।17] इति वक्ष्यमाणादत्र हर्षादेर्विषयभेदेन निवर्तकभेदेन च वैषम्यज्ञापनायाहअत एव कञ्चन प्रतीति।अत एवेति उपकारापकारादिहेतुभेदाभावादित्यर्थः।कञ्चन प्रत्युद्वेगेनेति भयादेः पृथगुक्तत्वाद्भयकार्यभूतं कर्म वा जुगुप्सा वाऽत्रोद्वेगः।यस्मान्नोद्विजते इत्यादिवाक्यत्रयार्थसङ्कलनेनाहय एवम्भूत इति। पूर्वश्लोकोक्तमैत्रत्वकरुणत्वादिगुणगणाभावेऽपि लोकोद्वेगकरकर्मनिवृत्तिमात्रेणापि प्रीतो भवामीतिस च इत्यादिनोच्यत इत्याह -- सोऽपीति।
।।12.15।।किञ्च -- यस्मादिति। यस्मात् सकाशाल्लोकः न उद्विजते ध्रुवादिवत् सकामभजनादिना लोकः क्लेशं नाप्नोति। च पुनः लोकात् स्वस्योत्सादनार्थं तपआदियत्नवतो यो न उद्विजते भयं न प्राप्नोतीत्यर्थः। च पुनः हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः हर्षः स्वेष्टाप्त्या तद्राहित्येन सर्वत्र भगवदात्मकत्वेनेतरास्फूर्त्या सर्वदैव हर्षात्मक,एवेत्यर्थः अमर्षः परोत्कर्षासहिष्णुता? तद्राहित्येन भगवल्लीलात्मकज्ञानवानित्यर्थः। भयं त्रासः? तदभावेन भगवद्रक्षणसामर्थ्यज्ञानवानित्यर्थः। उद्वेगश्चित्तलोभस्तेन सेवादिसमये चित्तचाञ्चल्यरहित इत्यर्थः। एतादृशो यः स मे प्रियः।
।।12.15।।स च निरहंकारो द्विविधः। समाधिस्थो व्युत्थितश्च। तयोर्लक्षणं क्रमेणाह द्वाभ्याम् -- यस्मादिति। यस्मात्समाधिस्थत्वेन काष्ठसमाल्लोको नोद्विजते न त्रस्यति। लोकादपि यो निर्मनस्कत्वान्नोद्विजते। अतएव हर्ष इष्टलाभे सति मनस उत्फुल्लता। अमर्षोऽसहिष्णुता। भयमात्मोच्छेदशङ्का। उद्वेगस्तत्कृतैव व्याकुलता। एतैर्निर्मनस्कत्वादेव स्वयमेव मुक्तस्त्यक्तः। नत्वेतान्स्वयं त्यक्तुं यतते साधकवत्। ईदृशो यो मद्भक्तः स च मे प्रियः।
।।12.15।।तमेव विशेषणान्तरैर्विशिनष्टि। यस्मात्तत्त्वविदः संन्यासिनो लोकः सर्वो जनो नोद्विजते उद्वेगं संतापं संक्षोभं न गच्छति। लोकान्नोद्विजते च यः। अतएव हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः प्रियलाभेऽन्तःकरणस्योत्कर्षो रोमञ्चाश्रुपातादिलिङ्गो हर्षः?अभिलषितप्रतिघातेऽसहिष्णुताऽमर्षः? व्याघ्रादिदर्शननिब्धनस्त्रासो भयं? दुर्जनैराकुष्टे ताटितेऽपि चित्तस्योद्विग्नता उद्वेगस्तैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।
12.15 यस्मात् for whom? न not? उद्विजते is agitated? लोकः the world? लोकात् from the world? न not? उद्विजते is agitated? च and? यः who? हर्षामर्षभयोद्वेगैः by (from) joy? wrath? fear and anxiety? मुक्तः freed? यः who? सः he? च and? मे to Me? प्रियः dear.Commentary Harsha Joy? exhilaration of the mind when one obtains an object of desire. This is indicated by hair standing on end? tears flowing down the face? etc.Amarsha Anger. Some say that it is a mixture of jealousy and anger.Udvega Anxiety? worry? sorrow? discomfiture.The knower of Brahman or the devotee of the Lord never injures any creature in thought? word and deed. He gives security of life to all creatures. Therefore? no creature is afraid of him. The sage feels that the world is his body? his own Self. How can he be afraid of the world then He never hurts others and is not hurt by the words or deeds of others.The mental modifications of joy? envy? fear and anxiety leave the sage or devotee of their own accord? just as the beasts and birds leave the forest when it is on fire.Such a sage or devotee is dear to Me. How can I describe him
12.15 He by whom the world is not agitated and who cannot be agitated by the world, and who is freed from joy, anger, fear and anxiety he is dear to Me.
12.15 He who does not harm the world, and whom the world cannot harm, who is not carried away by any impulse of joy, anger or fear, such a one is My beloved.
12.15 He, too, owing to whom the world is not disturbed, and who is not disturbed by the world, who is free from joy, impatience, fear and anxiety, is dear to Me.
12.15 Sah ca, he too; yasmat, owing to whom owing to which monk; lokah, the world; na udvijate, is not disturbed, not afflicted, not agitated; so also, yah na udvijate, he who is not disturbed; lokat, by the world; muktah, who is free; harsa-amarsa-bhaya-udvegaih, from joy, impatience, fear and anxiety;-harsa is elation of the mind on aciring a thing dear to oneself, and is manifested as horripillation, shedding of tears, etc.; amarsa is non-forbearance; bhaya is fright; udvega is distress; he who is free from them-, is priyah, dear; me, to Me.
12.15. He, on account of whom the world does not get agitated; who too does not feel agitated on account of the world; who is free from joy and impatience, fear and anxiety-he is dear to Me.
12.15 See Comment under 12.20
12.15 That person who is engaged in Karma Yoga does not become the cause of 'fear to the world'; he does nothing to cause fear to the world. He has no cause to 'fear the world,' i.e., no action on the part of others can cause him fear because of the certainty that he is not inimical to the world. Therefore he is not in the habit of showing favour towards someone and intolerance towards others; he has no fear of some or repulsion for others. Such a person is dear to Me.
12.15 He from whom the world has no cause to be frightened, who is not frightened by the world, who is free from joy and impatience, fear and repulsion - he is dear to me.
।।12.15।।जिस संन्यासीसे संसार उद्वेगको प्राप्त नहीं होता अर्थात् संतप्त -- क्षुब्ध नहीं होता और जो स्वयं भी संसारसे उद्वेगयुक्त नहीं होता। जो हर्ष? अमर्ष? भय और उद्वेगसे रहित है -- प्रिय वस्तुके लाभसे अन्तःकरणमें जो उत्साह होता है? रोमाञ्च और अश्रुपात आदि जिसके चिह्न हैं उसका नाम हर्ष है? असहिष्णुताको अमर्ष कहते हैं? त्रासका नाम भय है और उद्विग्नता ही उद्वेग है इन सबसे जो मुक्त है वह मेरा प्यारा है।
।।12.15।। --,यस्मात् संन्यासिनः न उद्विजते न उद्वेगं गच्छति न संतप्यते न संक्षुभ्यति लोकः? तथा लोकात् न उद्विजते च यः? हर्षामर्षभयोद्वेगैः हर्षश्च अमर्षश्च भयं च उद्वेगश्च तैः हर्षामर्षभयोद्वेगैः मुक्तः हर्षः प्रियलाभे अन्तःकरणस्य उत्कर्षः रोमाञ्चनाश्रुपातादिलिङ्गः? अमर्षः असहिष्णुता? भयं त्रासः उद्वेगः उद्विग्नता? तैः मुक्तः यः स च मे प्रियः।।
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यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।12.15।।
যস্মান্নোদ্বিজতে লোকো লোকান্নোদ্বিজতে চ যঃ৷ হর্ষামর্ষভযোদ্বেগৈর্মুক্তো যঃ স চ মে প্রিযঃ৷৷12.15৷৷
যস্মান্নোদ্বিজতে লোকো লোকান্নোদ্বিজতে চ যঃ৷ হর্ষামর্ষভযোদ্বেগৈর্মুক্তো যঃ স চ মে প্রিযঃ৷৷12.15৷৷
યસ્માન્નોદ્વિજતે લોકો લોકાન્નોદ્વિજતે ચ યઃ। હર્ષામર્ષભયોદ્વેગૈર્મુક્તો યઃ સ ચ મે પ્રિયઃ।।12.15।।
ਯਸ੍ਮਾਨ੍ਨੋਦ੍ਵਿਜਤੇ ਲੋਕੋ ਲੋਕਾਨ੍ਨੋਦ੍ਵਿਜਤੇ ਚ ਯ। ਹਰ੍ਸ਼ਾਮਰ੍ਸ਼ਭਯੋਦ੍ਵੇਗੈਰ੍ਮੁਕ੍ਤੋ ਯ ਸ ਚ ਮੇ ਪ੍ਰਿਯ।।12.15।।
ಯಸ್ಮಾನ್ನೋದ್ವಿಜತೇ ಲೋಕೋ ಲೋಕಾನ್ನೋದ್ವಿಜತೇ ಚ ಯಃ. ಹರ್ಷಾಮರ್ಷಭಯೋದ್ವೇಗೈರ್ಮುಕ್ತೋ ಯಃ ಸ ಚ ಮೇ ಪ್ರಿಯಃ৷৷12.15৷৷
യസ്മാന്നോദ്വിജതേ ലോകോ ലോകാന്നോദ്വിജതേ ച യഃ. ഹര്ഷാമര്ഷഭയോദ്വേഗൈര്മുക്തോ യഃ സ ച മേ പ്രിയഃ৷৷12.15৷৷
ଯସ୍ମାନ୍ନୋଦ୍ବିଜତେ ଲୋକୋ ଲୋକାନ୍ନୋଦ୍ବିଜତେ ଚ ଯଃ| ହର୍ଷାମର୍ଷଭଯୋଦ୍ବେଗୈର୍ମୁକ୍ତୋ ଯଃ ସ ଚ ମେ ପ୍ରିଯଃ||12.15||
yasmānnōdvijatē lōkō lōkānnōdvijatē ca yaḥ. harṣāmarṣabhayōdvēgairmuktō yaḥ sa ca mē priyaḥ৷৷12.15৷৷
யஸ்மாந்நோத்விஜதே லோகோ லோகாந்நோத்விஜதே ச யஃ. ஹர்ஷாமர்ஷபயோத்வேகைர்முக்தோ யஃ ஸ ச மே ப்ரியஃ৷৷12.15৷৷
యస్మాన్నోద్విజతే లోకో లోకాన్నోద్విజతే చ యః. హర్షామర్షభయోద్వేగైర్ముక్తో యః స చ మే ప్రియః৷৷12.15৷৷
12.16
12
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।।12.16।।जो आकाङ्क्षासे रहित, बाहर-भीतरसे पवित्र, दक्ष, उदासीन, व्यथासे रहित और सभी आरम्भोंका अर्थात् नये-नये कर्मोंके आरम्भका सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
।।12.16।। जो अपेक्षारहित, शुद्ध, दक्ष, उदासीन, व्यथारहित और सर्वकर्मों का संन्यास करने वाला मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।।
।।12.16।। यह तीसरा भाग है। ज्ञानी भक्त के चरित्र पर यह श्लोक और अधिक प्रकाश डालता है। पूर्व के दो भागों में उसके चौदह लक्षण बताये जा चुके हैं? और अब इन छ गुणों को बताकर भक्त के चित्र को और अधिक स्पष्ट किया जा रहा है।जो अनपेक्ष (अपेक्षारहित) है सामान्य पुरुष अपने सुख और शान्ति के लिए बाह्य देश? काल? वस्तु ? व्यक्ति और परिस्थितियों पर आश्रित होता है। इनमें से प्रिय की प्राप्ति होने पर वह क्षण भर रोमांचित कर देने वाले हर्षोल्लास का अनुभव करता है। परन्तु एक सच्चा भक्त अपने सुख के लिए बाह्य जगत् की अपेक्षा नहीं रखता? क्योंकि उसकी प्रेरणा? समता और प्रसन्नता का स्रोत हृदयस्थ आत्मा ही होता है।जो शुचि अर्थात् शुद्ध है एक सच्चा भक्त शारीरिक शुद्धि तथा उसी प्रकार आन्तरिक शुद्धि से भी सम्पन्न होता है। जो भक्त साधक की स्थिति में भी शरीर मन और जगत् के साथ अपने सम्बन्धों में शुद्धि रखने के प्रति जागरूक रहता है वही फिर सिद्ध भक्त शुचि को प्राप्त होता है। यह एक सुविदित तथ्य है कि कोई पुरुष जिस वातावरण में रहता है? उसे देखकर तथा उसकी वस्तुओं? वस्त्रों आदि की दशा देखकर उस पुरुष के स्वभाव? अनुशासन तथा संस्कृति का अनुमान किया जा सकता है। शारीरिक शुचिता तथा व्यवहार में भी पवित्रता रखने पर भारत में अत्यधिक बल दिया गया है। बाह्य शुद्धि के बिना आन्तरिक शुद्धि मात्र दिवास्वप्न? या व्यर्थ की आशा ही सिद्ध होगी।दक्ष (कुशल) सदा सजगता तो सुगठित पुरुष का स्वभाव ही बन जाता है। किसी भी कार्य़ की सफलता की कुंजी उत्साह है। कुशल और समर्थ व्यक्ति वह नहीं है जो अपने व्यवहार और कार्य में त्रुटियां करता रहता है। दक्ष भक्त मन से सजग और बुद्धि से समर्थ होता है। उसमें मन की शक्ति का अपव्यय नहीं होता अत एक बार किसी कार्य का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लेने के पश्चात् वह उस कार्य का सिद्धि के लिए सदा तत्पर रहता है। जैसा कि हम देख रहे हैं? यदि धार्मिक कहे जाने वाले लोग अपने कार्य में आलसी? असावधान और अशिष्ट हो गये हैं? तो हम समझ सकते हैं कि हिन्दू धर्म अपने प्राचीन वैभव से कितना दूर भटक गया है।उदासीन समाज में ऐसे अनेक भक्त कहे जाने वाले लोगों का मिलना कठिन नहीं हैं? जिन्होंने अपने आप को एक अनभिव्यक्त दुखपूर्ण स्थिति में समर्पित कर दिया है और उसका कारण केवल यह है कि किसी ने उसके साथ विश्वासघात अथवा दुर्व्यवहार किया था। ऐसे मूढ़ भक्त सोचते हैं कि समाज के इन अपराधों के प्रति वे उदासीन रहेंगे। बाद में उनकी भक्ति ही उन्हें एक दुर्भाग्यपूर्ण दायित्व प्रतीत होने लगती है? न कि एक वास्तविक लाभ दर्शनशास्त्र को विपरीत समझने पर उसकी समाप्ति समाज के आत्मघात में ही होती है।उदासीन भाव का प्रयोजन केवल अपने मन की शक्तियों का अपव्यय रोकने के लिए ही है। मनुष्य के जीवन में? छोटीछोटी कठिनाइयाँ? सामान्य बीमारियां सुखसुविधा का अभाव आदि का होना तो स्वाभाविक और सामान्य बात है। उनको ही अत्यधिक महत्व देना और उनकी निवृत्ति के लिए दिन रात प्रयत्न करते रहने का अर्थ जीवन भर परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के संघर्ष में ही डूबे रहना है। यहाँ साधक को यह उपदेश दिया गया है कि जीवन की इन साधारण परिस्थितियों में वह अपनी मानसिक शक्ति को व्यर्थ ही नहीं खोने दे? बल्कि इन घटनाओं में उदासीन भाव से रहकर शक्ति का संचय करे। छोटेमोटे दुख और कष्ट अनित्य होने के कारण स्व्ात ही निवृत्त हो जाते हैं? अत उनके लिए चिन्ता और संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है।व्यथारहित (भयरहित) जब मनुष्य किसी वस्तु विशेष की कामना से अभिभूत हो जाता है? तब उसे मन में यह भय लगा रहता है कि कहीं उसकी इच्छा अतृप्त ही न रह जाये। परन्तु ज्ञानी भक्त सब कामनाओं से मुक्त होने के कारण निर्भय होता है।सर्वारम्भ परित्यागी संस्कृत में आरम्भ शब्द का अर्थ कर्म भी होता है। अत सर्वारम्भ परित्यागी शब्द का अर्थ कोई यह नहीं समझे कि भक्त वह है? जो सब कर्मों का त्याग कर देता है इस प्रकार के शाब्दिक अर्थ के कारण बहुसंख्यक हिन्दू लोग कर्म करने में अकुशल और आलसी हो गये हैं। इन लोगों को देखकर ही अन्य लोग हमारी आलोचना करते हुए कहते हैं कि हिन्दू धर्म में आलस्य को ही दैवी आदर्श के रूप में गौरवान्वित किया गया है परन्तु यह अनुचित है? क्योंकि इस शब्द के आशय की सर्वथा उपेक्षा की गयी है। यदि कोई व्यक्ति किसी कर्म में निश्चित प्रारम्भ देखता है? तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह स्वयं को उस कर्म का आरम्भकर्ता मानता है। उसके मन में यह भाव दृढ़ होना चाहिए कि उसने ही यह कर्म विशेष किसी विशेष फल को प्राप्त करने के लिए प्रारम्भ किया है? जिसे प्राप्त कर वह कोई निश्चित लाभ या सुख प्राप्त करेगा। जो पुरुष भगवान् का भक्त है? और सांस्कृतिक पूर्णत्व को प्राप्त करना चाहता है? उसको इस प्रकार के मान और कर्तृत्व के अभिमान को सर्वथा त्याग कर निरहंकार भाव से जगत् में कर्म करने चाहिए।वास्तविकता यह है कि हमारे जीवन में कोई भी कर्म नया नहीं है? जिसका अपना स्वतन्त्र प्रारम्भ और समाप्ति हो। सम्पूर्ण जगत् के सनातन कर्म व्यापार में ही सभी कर्मों का समावेश हो जाता है। यदि भलीभांति विचार किया जाये तो ज्ञात होगा कि हमारे सभी कर्म जगत् में उपलब्ध वस्तुओं और स्थितियों से नियन्त्रित? नियमित? शासित और प्रेरित होते हैं। ईश्वर के भक्त को विश्व की इस एकता का सदैव भान बना रहता है? और इसलिए? वह जगत् में सदा ईश्वर के हाथों में एक करण या निमित्त के रूप में कर्म करता है? न कि किसी कर्म के स्वतन्त्र कर्ता के रूप में।उपर्युक्त सद्गुणों से सम्पन्न भक्त मुझे प्रिय है। भक्त के कुछ और लक्षण बताते हुए भगवान् कहते हैं
।।12.16।। व्याख्या--'अनपेक्षः'--भक्त भगवान्को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है। उसकी दृष्टिमें भगवत्प्राप्तिसे बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं होता। अतः संसारकी किसी भी वस्तुमें उसका किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव नहीं होता। इतना ही नहीं? अपने कहलानेवाले शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धिमें भी उसका अपनापन नहीं रहता, प्रत्युत वह उनको भी भगवान्का ही मानता है, जो कि वास्तवमें भगवान्के ही हैं। अतः उसको शरीर-निर्वाहकी भी चिन्ता नहीं होती। फिर वह और किस बातकी अपेक्षा करे? अर्थात् फिर उसे किसी भी वस्तुकी इच्छा-वासना-स्पृहा नहीं रहती।   भक्तपर चाहे कितनी ही बड़ी आपत्ति आ जाय, आपत्तिका ज्ञान होनेपर भी उसके चित्तपर प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता। भयंकर-से-भयंकर परिस्थितिमें भी वह भगवान्की लीलाका अनुभव करके मस्त रहता है। इसलिये वह किसी प्रकारकी अनुकूलताकी कामना नहीं करता।  नाशवान् पदार्थ तो रहते नहीं, उनका वियोग अवश्यम्भावी है और अविनाशी परमात्मासे कभी वियोग होता ही नहीं --इस वास्तविकताको जाननेके कारण भक्तमें स्वाभाविक ही नाशवान् पदार्थोंकी इच्छा पैदा नहीं होती।   यह बात खास ध्यान देनेकी है कि केवल इच्छा करनेसे शरीर-निर्वाहके पदार्थ मिलते हों तथा इच्छा न करनेसे न मिलते हों--ऐसा कोई नियम नहीं है। वास्तवमें शरीर-निर्वाहकी आवश्यक सामग्री स्वतः प्राप्त होती है; क्योंकि जीवमात्रके शरीर-निर्वाहकी आवश्यक सामग्रीका प्रबन्ध भगवान्की ओरसे पहले ही हुआ रहता है। इच्छा करनेसे तो आवश्यक वस्तुओंकी प्राप्तिमें बाधा ही आती है। अगर मनुष्य किसी वस्तुको अपने लिये अत्यन्त आवश्यक समझकर वह वस्तु कैसे मिले? कहाँ मिले? कब मिले?' -- ऐसी प्रबल इच्छाको अपने अन्तःकरणमें पकड़े रहता है, तो उसकी उस इच्छाका विस्तार नहीं हो पाता अर्थात् उसकी वह इच्छा दूसरे लोगोंके अन्तःकरणतक नहीं पहुँच पाती। इस कारण दूसरे लोगोंके अन्तःकरणमें उस आवश्यक वस्तुको देनेकी इच्छा या प्रेरणा नहीं होती। प्रायः देखा जाता है कि लेनेकी प्रबल इच्छा रखनेवाले-(चोर आदि) को कोई देना नहीं चाहता। इसके विपरीत किसी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले विरक्त त्यागी और बालककी आवश्यकताओंका अनुभव अपने-आप दूसरोंको होता है, और दूसरे उनके शरीर-निर्वाहका अपने-आप प्रसन्नतापूर्वक प्रबन्ध करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि इच्छा न करनेसे जीवन-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुएँ बिना माँगे स्वतः मिलती हैं। अतः वस्तुओंकी इच्छा करना केवल मूर्खता और अकारण दुःख पाना ही है। सिद्ध भक्तको तो अपने कहे जानेवाले शरीरकी भी अपेक्षा नहीं होती; इसलिये वह सर्वथा निरपेक्ष होता है।   किसी-किसी भक्तको तो इसकी भी अपेक्षा नहीं होती कि भगवान् दर्शन दें! भगवान् दर्शन दें तो आनन्द, न दें तो आनन्द! वह तो सदा भगवान्की प्रसन्नता और कृपाको देखकर मस्त रहता है। ऐसे निरपेक्ष भक्तके पीछे-पीछे भगवान् भी घूमा करते हैं! भगवान् स्वयं कहते हैं --           निरेपक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।          अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः।।                                                                    (श्रीमद्भा0 11। 14। 16)   'जो निरपेक्ष (किसीकी अपेक्षा न रखनेवाला), निरन्तर मेरा मनन करनेवाला, शान्त, द्वेष-रहित और सबके प्रति समान दृष्टि रखनेवाला है, उस महात्माके पीछे-पीछे मैं सदा यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसकी चरण-रज मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ।'   किसी वस्तुकी इच्छाको लेकर भगवान्की भक्ति करनेवाला मनुष्य वस्तुतः उस इच्छित वस्तुका ही भक्त होता है; क्योंकि (वस्तुकी ओर लक्ष्य रहनेसे) वह वस्तुके लिये ही भगवान्की भक्ति करता है, न कि भगवान्के लिये। परन्तु भगवान्की यह उदारता है कि उसको भी अपना भक्त मानते हैं (गीता 7। 16); क्योंकि वह इच्छित वस्तुके लिये किसी दूसरेपर भरोसा न रखकर अर्थात् केवल भगवान्पर भरोसा रखकर ही भजन करता है। इतना ही नहीं, भगवान् भक्त ध्रुवकी तरह उस (अर्थार्थी भक्त) की इच्छा पूरी करके उसको सर्वथा निःस्पृह भी बना देते हैं।   'शुचिः'--शरीरमें अहंता-ममता (मैं-मेरापन) न रहनेसे भक्तका शरीर अत्यन्त पवित्र होता है। अन्तःकरणमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, काम-क्रोधादि विकारोंके न रहनेसे उसका अन्तःकरण भी अत्यन्त पवित्र होता है। ऐसे (बाहर-भीतरसे अत्यन्त पवित्र) भक्तके दर्शन, स्पर्श, वार्तालाप और चिन्तनसे दूसरे लोग भी पवित्र हो जाते हैं। तीर्थ सब लोगोंको पवित्र करते हैं; किन्तु ऐसे भक्त तीर्थोंको भी तीर्थत्व प्रदान करते हैं अर्थात् तीर्थ भी उनके चरण-स्पर्शसे पवित्र हो जाते हैं (पर भक्तोंके मनमें ऐसा अहंकार नहीं होता)। ऐसे भक्त अपने हृदयमें विराजित 'पवित्राणां पवित्रम्' (पवित्रोंको भी पवित्र करनेवाले) भगवान्के प्रभावसे तीर्थोंको भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं -- तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता।।(श्रीमद्भा0 1। 13। 10)महाराज भगीरथ गङ्गाजीसे कहते हैं -- साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः। हरन्त्यघं तेऽङ्गसङ्गात् तेष्वास्ते ह्यघभिद्धरिः।।(श्रीमद्भा0 9। 9। 6)'माता! जिन्होंने लोक-परलोककी समस्त कामनाओंका त्याग कर दिया है, जो संसारसे उपरत होकर अपने-आपमें शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकोंको पवित्र करनेवाले परोपकारी साधु पुरुष हैं, वे अपने अङ्गस्पर्शसे तुम्हारे (पापियोंके अङ्ग-स्पर्शसे आये) समस्त पापोंको नष्ट कर देंगे; क्योंकि उनके हृदयमें समस्त पापोंका नाश करनेवाले भगवान् सर्वदा निवास करते हैं।' 'दक्षः'--जिसने करनेयोग्य काम कर लिया है, वही दक्ष है। मानव-जीवनका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। इसीके लिये मनुष्यशरीर मिला है। अतः जिसने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया अर्थात् भगवान्को प्राप्त कर लिया, वही वास्तवमें दक्ष अर्थात् चतुर है। भगवान् कहते हैं -- एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्। यत्सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्।।(श्रीमद्भा0 11। 29। 22)'विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी पराकाष्ठा इसीमें है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें।' सांसारिक दक्षता (चतुराई) वास्तवमें दक्षता नहीं है। एक दृष्टिसे तो व्यवहारमें अधिक दक्षता होना कलङ्क ही है; क्योंकि इससे अन्तःकरणमें जड पदार्थोंका आदर बढ़ता है, जो मनुष्यके पतनका कारण होता है।सिद्ध भक्तमें व्यावहारिक (सांसारिक) दक्षता भी होती है। परन्तु व्यावहारिक दक्षताको पारमार्थिक स्थितिकी कसौटी मानना वस्तुतः सिद्ध भक्तका अपमान ही करना है।'उदासीनः'--उदासीन शब्दका अर्थ है -- उत्आसीन अर्थात् ऊपर बैठा हुआ, तटस्थ, पक्षपातसे रहित।विवाद करनेवाले दो व्यक्तियोंके प्रति जिसका सर्वथा तटस्थ भाव रहता है, उसको उदासीन कहा जाता है। उदासीन शब्द निर्लिप्तताका द्योतक है। जैसे ऊँचे पर्वतपर खड़े हुए पुरुषपर नीचे पृथ्वीपर लगी हुई आग या बाढ़ आदिका कोई असर नहीं पड़ता, ऐसे ही किसी भी अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिका भक्तपर कोई असर नहीं पड़ता, वह सदा निर्लिप्त रहता है।जो मनुष्य भक्तका हित चाहता है तथा उसके अनुकूल आचरण करता है, वह उसका मित्र समझा जाता है और जो मनुष्य भक्तका अहित चाहता है तथा उसके प्रतिकूल आचरण करता है? वह उसका शत्रु समझा जाता है। इस प्रकार मित्र और शत्रु समझे जानेवाले व्यक्तिके साथ भक्तके बाहरी व्यवहारमें फरक मालूम दे सकता है; परन्तु भक्तके अन्तःकरणमें दोनों मनुष्योंके प्रति किञ्चिन्मात्र भी भेदभाव नहीं होता। वह दोनों स्थितियोंमें सर्वथा उदासीन अर्थात् निर्लिप्त रहता है।भक्तके अन्तःकरणमें अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। वह शरीरसहित सम्पूर्ण संसारको परमात्माका ही मानता है। इसलिये उसका व्यवहार पक्षपातसे रहित होता है।'गतव्यथः'--कुछ मिले या न मिले, कुछ भी आये या चला जाय, जिसके चित्तमें दुःख-चिन्ता-शोकरूप हलचल कभी होती ही नहीं, उस भक्तको यहाँ 'गतव्यथः' कहा गया है।यहाँ 'व्यथा' शब्द केवल दुःखका वाचक नहीं है। अनुकूलताकी प्राप्ति होनेपर चित्तमें प्रसन्नता तथा प्रतिकूलताकी प्राप्ति होनेपर चित्तमें खिन्नताकी जो हलचल होती है, वह भी 'व्यथा' ही है। अतः अनुकूलता तथा प्रतिकूलतासे अन्तःकरणमें होनेवाले राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकारोंके सर्वथा अभावको ही यहाँ 'गतव्यथः' पदसे कहा गया है। 'सर्वारम्भपरित्यागी'--भोग और संग्रहके उद्देश्यसे नयेनये कर्म करनेको 'आरम्भ' कहते हैं; जैसे -- सुखभोगके उद्देश्यसे घरमें नयी-नयी चीजें इकट्ठी करना, वस्त्र खरीदना; रुपये बढ़ानेके उद्देश्यसे नयीनयी दूकानें खोलना, नया व्यापार शुरू करना आदि। भक्त भोग और संग्रहके लिये किये जानेवाले मात्र कर्मोंका सर्वथा त्यागी होता है (टिप्पणी प0 656.1)।जिसका उद्देश्य संसारका है और जो वर्ण, आश्रम, विद्या, बुद्धि, योग्यता, पद, अधिकार आदिको लेकर,अपनेमें विशेषता देखता है, वह भक्त नहीं होता। भक्त भगवन्निष्ठ होता है। अतः उसके कहलानेवाले शरीर, इन्द्रि, मन, बुद्धि, क्रिया फल आदि सब भगवान्के अर्पित होते हैं। वास्तवमें इन शरीरादिके मालिक भगवान् ही हैं। प्रकृति और प्रकृतिका कार्यमात्र भगवान्का है। अतः भक्त एक भगवान्के सिवाय किसीको भी अपना नहीं मानता। वह अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। उसके द्वारा होनेवाले मात्र कर्म भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही होते हैं। धन-सम्पत्ति, सुख-आराम, मान-बड़ाई आदिके लिये किये जानेवाले कर्म उसके द्वारा कभी होते ही नहीं।जिसके भीतर परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिकी ही सच्ची लगन लगी है, वह साधक चाहे किसी भी मार्गका क्यों न हो, भोग भोगने और संग्रह करनेके उद्देश्यसे वह कभी कोई नया कर्म आरम्भ नहीं करता।'यो मद्भक्तः स मे प्रियः' -- भगवान्में स्वाभाविक ही इतना महान् आकर्षण है कि भक्त स्वतः उनकी ओर खिंच जाता है, उनका प्रेमी हो जाता है।आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।(श्रीमद्भा0 1। 7। 10)'ज्ञानके द्वारा जिनकी चित्-जड-ग्रन्थि कट गयी है, ऐसे आत्माराम मुनिगण भी भगवान्की हेतुरहित (निष्काम) भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान्के गुण ही ऐसे हैं कि वे प्राणियोंको अपनी ओर खींच लेते हैं। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि अगर भगवान्में इतना महान् आकर्षण है, तो सभी मनुष्य भगवान्की ओर क्यों नहीं खिंच जाते, उनके प्रेमी क्यों नहीं हो जाते? वास्तवमें देखा जाय तो जीव भगवान्का ही अंश है। अतः उसका भगवान्की ओर स्वतः-स्वाभाविक आकर्षण होता है। परन्तु जो भगवान् वास्तवमें अपने हैं, उनको तो मनुष्यने अपना माना नहीं और जो मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ शरीर-कुटुम्बादि अपने नहीं हैं, उनको उसने अपना मान लिया। इसीलिये वह शारीरिक निर्वाह और सुखकी कामनासे सांसारिक भोगोंकी ओर आकृष्ट हो गया तथा अपने अंशी भगवान्से दूर (विमुख) हो गया। फिर भी उसकी यह दूरी वास्तविक नहीं माननी चाहिये। कारण कि नाशवान् भोगोंकी ओर आकृष्ट होनेसे उसकी भगवान्से दूरी दिखायी तो देती है, पर वास्तवमें दूरी है नहीं; क्योंकि उन भोगोंमें भी तो सर्वव्यापी भगवान् परिपूर्ण हैं। परन्तु इन्द्रियोंके विषयोंमें अर्थात् भोगोंमें ही आसक्ति होनेके कारण उसको उनमें छिपे भगवान् दिखायी नहीं देते। जब इन नाशवान् भोगोंकी ओर उसका आकर्षण नहीं रहता, तब वह स्वतः ही भगवान्की ओर खिंच जाता है। संसारमें किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति न रहनेसे भक्तका एकमात्र भगवान्में स्वतः प्रेम होता है। ऐसे अनन्यप्रेमी भक्तको भगवान् 'मद्भक्तः' कहते हैं।जिस भक्तका भगवान्में अनन्य प्रेम है, वह भगवान्को प्रिय होता है।  सम्बन्ध--सिद्ध भक्तके पाँच लक्षणोंवाला चौथा प्रकरण आगेके श्लोकमें आया है।
।।12.15 -- 12.20।।यस्मादित्यादि मे प्रिया इत्यन्तम्। अनिकेतः -- इदमेव मया कर्तव्यम् इति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा। यथाप्राप्तहेवाकितया सुखदुःखादिकमुपभुञ्ज्ञानः परमेश्वरविषयसमावेशितहृदयः सुखेनैव प्राप्नोति परमकैवल्यम् इति।।।शिवम्।।
।।12.16।।अनपेक्षः -- आत्मव्यतिरिक्ते कृत्स्ने वस्तुनि अनपेक्षः? शुचिः -- शास्त्रविहितद्रव्यवर्धितकायः? दक्षः -- शास्त्रीयक्रियोपादानसमर्थः अन्यत्र उदासीनः? गतव्यथः -- शास्त्रीयक्रियानिर्वृत्तौ अवर्जनीयशीतोष्णपरुषस्पर्शादिदुःखेषु व्यथारहितः? सर्वारम्भपरित्यागी -- शास्त्रीयव्यतिरिक्तसर्वकर्मारम्भपरित्यागी? य एवंभूतो मद्भक्तः स मे प्रियः।
।।12.16।।निरपेक्षत्वादिकमपि ज्ञानिनो विशेषणमित्याह -- अनपेक्ष इति। आदिपदमपेक्षणीयसर्वसंग्रहार्थं? प्रतिपत्तव्येषु प्रतिपत्तुं कर्तव्येषु कर्तुं चेत्यर्थः। परैस्ताडितस्यापि गता व्यथा भयमस्येति व्युत्पत्तिमाश्रित्याह -- गतेति। नच क्षमीत्यनेन पौनरुक्त्यं प्रत्युत्पन्नायामपि व्यथायामपकर्तृष्वनपकर्तृत्वं क्षमित्वमित्यभ्युपगमात्।
।।12.16।।अनपेक्ष इति। मत्सेवातिरिक्तं सालोक्यादिकमपि नापेक्षते। तथासालोक्यसार्ष्टिसारूप्यसामीप्यैकत्वमप्युत। दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः [3।29।13] इति भागवतवचनात्। शुचिराचारवान्आचारप्रभवो धर्मस्तेनैव च सुखी भवेत् इति वाक्यात्। तथा भगवत्सेवायां तत्तच्छृङ्गारयोजने दक्षः चतुरः। तत्प्रतिकूले गृहादावुदासीनः। तत्रापि गतव्यथःभार्यादीनां तथाऽन्येषामसतश्चाक्रमं सहेत् तथा कलत्रादिकं प्रतिकूलं दृष्ट्वा तदीयसर्वविषयारम्भपरित्यागी च। सेवायां हिउद्वेगः प्रतिबन्धो वा भोगो वा स्यात्तु बाधकः इति श्रीमदाचार्यैरप्युच्यते? अतः सर्वारम्भभोगोऽनुचितः घातकत्वात्। य एवम्भूतो भक्तः स मे प्रियः।
।।12.16।।अनपेक्ष इति। किंच निरपेक्षः सर्वेषु भोगोपकरणेषु यदृच्छोपनीतेष्वपि निःस्पृहः? शुचिर्बाह्याभ्यन्तरशौचसंपन्नः? दक्ष उपस्थितेषु ज्ञातव्येषु कर्तव्येषु च सद्य एव ज्ञातुं कर्तुं च समर्थः? उदासीनो न कस्यचिन्मित्रादेः पक्षं भजते? यो गतव्यथः परैस्ताड्यमानस्यापि गता नोत्पन्ना व्यथा पीडा यस्य सः? उत्पन्नायामपि व्यथायामनपकर्तृत्वं क्षमित्वं? व्यथाकारणेषु सत्स्वप्यनुत्पन्नव्यथत्वं गतव्यथत्वमिति भेदः। ऐहिकामुष्मिकफलानि सर्वाणि कर्माणि सर्वारम्भास्तान्परित्युक्तं शीलं यस्य स सर्वारम्भपरित्यागी संन्यासी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
।।12.16।।किंच -- अनपेक्ष इति। अनपेक्षो यदृच्छोपस्थितेऽप्यर्थे निस्पृहः? शुचिर्बाह्याभ्यन्तरशौचसंपन्नः? तक्षोऽनलसः? उदासीनः पक्षपातरहितः? गतव्यथ आधिशून्यः सर्वान्दृष्टादृष्टार्थानारम्भानुद्यमान्परित्यक्तुं शीलं यस्य स एवंभूतः सन् यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
।।12.16।।आत्ममात्रापेक्षत्वेन शास्त्रीयमात्रजागरूकत्वं तद्व्यतिरिक्तेष्वत्यन्तनिरीहत्वं चाह -- अनपेक्षः इति श्लोकेन। प्रस्तुताधिकारविरोधव्युदासाय सामान्यं विशेषे नियमयतिआत्मव्यतिरिक्त इति। अन्येषु सङ्कोचकाभावात्कृत्स्न इत्युक्तम्। फलीभूतस्य शुचित्वस्य स्वरूपेण विधातुमशक्यत्वात्तद्धेतौ तात्पर्यमित्याह -- शास्त्रविहितेति। अन्यविषयसामर्थ्यस्यानुपयुक्तत्वात्तदुपयुक्तानुष्ठानसामर्थ्यं दक्षशब्देनाभिधीयत इत्याहशास्त्रीयेति। विरोधपरिहारायौदासीन्यं विहितव्यतिरिक्तविषयमित्याहअन्यत्रोदासीन इति। अविहिताप्रतिषिद्धेष्वित्यर्थः। अपक्षपातिन्वमिहौदासीन्यं वदन्तःसमः शत्रौ च [12।18] इत्यादिवक्ष्यमाणपौनरुक्त्यान्निरस्ताः। निषिद्ध्यमानव्यथाप्रसङ्गं दर्शयतिशास्त्रीयक्रियानिर्वृत्ताविति। विहितयोगारम्भादिव्यवच्छेदायाहशास्त्रीयव्यतिरिक्तेति। साभिसन्धिकपरित्यागस्यात्र विवक्षितत्वात् माध्यस्थ्यरूपौदासीन्याद्भेदः। यद्वा निष्प्रयत्नतारूपोदासीनत्वफलं सर्वकर्मारम्भपरित्यागः। कर्मात्र वाक्कायव्यापारः। स एवारभ्यमाणत्वादारम्भः। तस्योपादानं वा। एतदखिलमपि मद्भक्तिविशिष्टतयैव प्रियत्वकारणमिति मद्भक्तशब्देन विवक्षितमित्याहय एवम्भूतो मद्भक्त इति।
।।12.16।।किञ्च। अनपेक्षः सेवादौ स्वमनोऽतिरिक्तापेक्षारहितः समर्थ इति यावत्। शुचिः मत्स्मरणवान्? दक्षः भजनस्वरूपज्ञानवान्? उदासीनः लोकेषु? गतव्यथः मानसिकक्लेशरहितः? सर्वारम्भपरित्यागी दृष्टश्रुतफलककर्माऽनुद्यमानस्वभावः। एतादृशो मद्भक्तः मद्भजनकर्त्ता स मे प्रियः।
।।12.16।।अस्यैव व्युत्थानावस्थामाह -- अनपेक्ष इति। सुखप्राप्तौ दुःखहाने वा तत्साधने वा लिप्साशून्योऽनपेक्षः। शुचिः बाह्याभ्यन्तरशौचवान् पुण्यापुण्याभ्यामलिप्तो वा। दक्षः भगवद्भजनादावनलसः। उदासीनो मानापमानादौ समवृत्तिः। अतएव गता व्यथा चेतःपीडा यस्य स गतव्यथः। सर्वारम्भपरित्यागी संन्यासित्वादेव। यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
।।12.16।।निरपेक्षत्वादिकमपि ज्ञानिनो विशेषणमित्याशयेनाह। अनपेक्षः देहेन्द्रियविषयसंबन्धेषु सर्वेष्वपेक्षणीयेषु यदृच्छायोपलब्धेष्वपेक्षाशून्यो निस्पृहः। शुचिः मृदम्ब्वादिनिमित्तेन बाह्येन दयादिनाभ्यन्तरेण च शौचने संपन्नः पुण्यापुण्याभ्यामलिप्य इति वा। अस्मिन्पक्षे प्रकरणाविरोधः। पुण्यापुण्ये न करोत्यस्ताभ्यामलिप्त इत्यर्थे तु शूभाशुभपरित्यागीत्येन पौनरुक्त्यं बोध्यम्। दक्षः प्रत्युत्पन्नेषु कर्तव्येषु यथावज्ज्ञातु कर्तुं न कुशलो नत्वलसः। कस्यचिन्मित्रादेः पक्षपातं न भजत इत्युदासीनः। यत्तु मानापमानादौ समवृत्तिरुदासीन इति तन्न। तथा मानापमानयोरित्यादिना पौनरुक्त्यापत्तेः। ताडितुमुद्यतादपि व्यथानिमित्तं गतं भयं यस्मात्। नच क्षमीत्यनेन पौनरुक्त्यं परैस्ताडितस्य प्रत्युत्पन्नायामापि पीडायां तन्निमित्तं ताडनकर्तृषु ताडनाद्यकर्तुत्वं क्षमित्वमित्यभ्युपगमात्। अतएवैहिकामुष्मकदुःखनिवृत्तितत्सुखप्राप्त्यर्थानि कर्माणि आरभ्यन्त इत्यारम्भास्तान् परियक्तुं शीलमस्य स सर्वारम्भपरित्यागी। यतो भयहेतुभूतसर्वारम्भपरित्यागी अतो गतव्यथ इति वा। यो मद्भक्तः स मे प्रियः।
12.16 अनपेक्षः (he who is) free from wants? शुचिः pure? दक्षः expert? उदासीनः unconcerned? गतव्यथः free from pain? सर्वारम्भपरित्यागी renouncing all undertakings or commencements? यः who? मद्भक्तः My,devotee? सः he? मे to Me? प्रियः dear.CommentarY He is free from dependence. He is indifferent to the body? the senses? the objects of the senses and their mutual connections. He has external and internal purity. External purity is attained through earth and water (washing and bathing). Inner purity is attained by the eradication of likes and dislikes? lust? anger? jealousy? etc.? and through the cultivation of the virtues -- friendship (towards eals)? compassion (towards those who are inferior) and complacency (towards superiors).Daksha Prompt? swift and skilful in all actions expert. He is able to decide rightly and immediately in matters that demand prompt attention and action.Udasina He who does not take up the side of a friend and the like (in a controversy) he who is indifferent to whatever happens.Gatavyathah He who is free from pain. He is not troubled even if he is beaten by a wicked man. He is not pained or afflicted by any result of any action or any happening.Sarvarambhaparityagi He habitually renounces all actions calculated to secure the objects of enjoyment? whether of this world or of the next. He has abandoned all egoistic? personal and mental initiative in all actions? mental and physical. He has merged his will in the cosmic will. He allows the divine will to work through him. He has neither preference nor personal desire and so he is swift? prompt and skilful in all actions. The divine will works through him in a dynamic manner.Such a devotee is My own Self and so he is very dear to Me.
12.16 He who is free from wants, pure, expert, unconcerned, and free from pain, renouncing all undertakings or commencements he who is (thus) devoted to Me, is dear to Me.
12.16 He who expects nothing, who is pure, watchful, indifferent, unruffled, and who renounces all initiative, such a one is My beloved.
12.16 He who has no desires, who is pure, who is dextrous, who is impartial, who is free from fear, who has renounced every undertaking-he who is (such) a devotee of Mine is dear to Me.
12.16 Anapeksah, he who has no desires with regard to covetable things like body, organs, objects, (their inter-) relationship, etc.; sucih, who is pure, endowed with external and internal purity; daksah, who is dextrous, who is able to promptly understand in the right way the duties that present themselves; udasinah, who is impartial, the monk who does not side with anybody-friends and others; gatavyathah, who is free from fear; sarva-arambha-parityagi, who has renounced every undertaking-works under-taken are arambhah; sarva-arambhah means works undertaken out of desire for results to be enjoyed here or hereafter; he who is apt to give them up (pari-tyaga) is sarva-arambha-parityahi; he who is such a madbhaktah, devotee of Mine; he is priyah, dear; me, to Me. Further,
12.16. He, who does not expect [anything]; who is pure, dexterous, unconcerned, untroubled; and who has renonced all his undertakings all around-that devotee of Mine is dear to Me.
12.16 See Comment under 12.20
12.16 He who is free from 'desires', i.e., who has no longing for anything except the self; who is 'pure', namely, whose body is nourished on the food prescribed by the Sastras; who is an 'expert' namely, who is an expert in performing actions prescribed by the Sastras; who is 'indifferent', i.e., not interested in matters other than those enjoined by the Sastras; who is free from 'agony', i.e., of pain caused by heat, cold, contact with coarse things etc., which are inevitably associated with the performance of rites prescribed by the Sastras; who renounces all 'undertakings,' i.e., who renounces all undertakings except those demanded by the Sastras - the devotee who is like this is dear to Me.
12.16 He who is free from desires, who is pure, expert, indifferent and free from agony, who has renounced every undertaking - he is dear to Me.
।।12.16।।जो शरीर? इन्द्रिय? विषय और उनके सम्बन्ध आदि स्पृहाके विषयोंमें अपेक्षारहित -- निःस्पृह है? बाहरभीतरकी शुद्धिसे सम्पन्न है? और चतुर अर्थात् अनेक कर्त्तव्योंके प्राप्त होनेपर उनमेंसे तुरंत ही यथार्थ कर्त्तव्यको निश्चित करनेमें समर्थ है। तथा जो उदासीन अर्थात् किसी मित्र आदिका पक्षपात न करनेवाला संन्यासी है और गतव्यथ यानी निर्भय है। तथा जो समस्त आरम्भोंका त्याग करनेवाला है -- जो आरम्भ किये जायँ उनका नाम आरम्भ है? इसके अनुसार इस लोक और परलोकके फलभोगके लिये किये जानेवाले समस्त कामनाहेतुक कर्मोंका नाम सर्वारम्भ है? उन्हें त्यागनेका जिसका स्वभाव है ऐसा जो मेरा भक्त है वह मेरा प्यारा है।
।।12.16।। --,देहेन्द्रियविषयसंबन्धादिषु अपेक्षाविषयेषु अनपेक्षः निःस्पृहः। शुचिः बाह्येन आभ्यन्तरेण च शौचेन संपन्नः। दक्षः प्रत्युत्पन्नेषु कार्येषु सद्यः यथावत् प्रतिपत्तुं समर्थः। उदासीनः न कस्यचित् मित्रादेः पक्षं भजते यः? सः उदासीनः यतिः। गतव्यथः गतभयः। सर्वारम्भपरित्यागी आरभ्यन्त इति आरम्भाः इहामुत्रफलभोगार्थानि कामहेतूनि कर्माणि सर्वारम्भाः? तान् परित्यक्तुं शीलम् अस्येति सर्वारम्भपरित्यागी यः मद्भक्तः सः मे प्रियः।।किञ्च --,
।।12.16।।पुनरुक्तिदोषमाशङ्क्य परिहरति -- सर्वेति।सर्वारम्भपरितयागीशुभाशुभपरित्यागी [12।17],इत्यादौ सामान्यविशेषभावेनसन्तुष्टः सततं योगी [12।14]सन्तुष्टो येन केनचित् [12।19] इत्यादौ व्याख्यानव्याख्येयभावेनहर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः [12।15]यो न हृष्यति [12।17] इत्यत्र नोक्तं प्रकारद्वयं सम्भवतीत्यत आह -- हर्षादिभिरिति। निष्ठाप्रत्ययेनातीतत्वप्रतीत्या कालान्तरे हर्षादिकं भवतीत्याशङ्क्य क्रियाप्रबन्धे विहितेन लटा प्रतिपादयतीत्यर्थः। तर्हीदमेवास्तु? किं तेन इत्यत आह -- उपचारेति। सिद्धेऽर्थे वचनमुपचारं तात्पर्यद्योतनेन परिहरतीत्यर्थः।यो मद्भक्तः इति भक्तिः पुनःपुनरुच्यते? तत्प्रयोजनमाह -- आधिक्येति।अद्वेष्टा [12।13] इत्यादिनोक्तेषु सर्वधर्मेषु भक्तेरिति शेषः।अद्वेष्टा इत्यादेः सङ्गत्यदर्शनात्तामाह -- ये त्वेति। प्रपञ्चस्तदुपलक्षितस्याभिधानम्। अक्षरोपासकानधिकृत्यैतदुच्यते इत्यसत्। सन्निहितसम्बन्धे सति व्यवहितसम्बन्धप्रहणायोगात्योमद्भक्तः स मे प्रियः इत्यादिवचनाच्च।
।।12.16।।सर्वारम्भपरित्यागी इत्यादेः सामान्यविशेषव्याख्यानव्याख्येयभावेनापुनरुक्तिः। हर्षादिभिर्मुक्त इत्युक्ते कादाचित्कमपि भवतीतियो न हृष्यति [12।17] इत्युक्तम्। उपचारपरिहारार्थं पूर्वम् आधिक्यज्ञानार्थं भक्त्यभ्यासः।ये तु सर्वाणि कर्माणि [12।6] इत्यादेः प्रपञ्च एषः।
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः। सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.16।।
অনপেক্ষঃ শুচির্দক্ষ উদাসীনো গতব্যথঃ৷ সর্বারম্ভপরিত্যাগী যো মদ্ভক্তঃ স মে প্রিযঃ৷৷12.16৷৷
অনপেক্ষঃ শুচির্দক্ষ উদাসীনো গতব্যথঃ৷ সর্বারম্ভপরিত্যাগী যো মদ্ভক্তঃ স মে প্রিযঃ৷৷12.16৷৷
અનપેક્ષઃ શુચિર્દક્ષ ઉદાસીનો ગતવ્યથઃ। સર્વારમ્ભપરિત્યાગી યો મદ્ભક્તઃ સ મે પ્રિયઃ।।12.16।।
ਅਨਪੇਕ੍ਸ਼ ਸ਼ੁਚਿਰ੍ਦਕ੍ਸ਼ ਉਦਾਸੀਨੋ ਗਤਵ੍ਯਥ। ਸਰ੍ਵਾਰਮ੍ਭਪਰਿਤ੍ਯਾਗੀ ਯੋ ਮਦ੍ਭਕ੍ਤ ਸ ਮੇ ਪ੍ਰਿਯ।।12.16।।
ಅನಪೇಕ್ಷಃ ಶುಚಿರ್ದಕ್ಷ ಉದಾಸೀನೋ ಗತವ್ಯಥಃ. ಸರ್ವಾರಮ್ಭಪರಿತ್ಯಾಗೀ ಯೋ ಮದ್ಭಕ್ತಃ ಸ ಮೇ ಪ್ರಿಯಃ৷৷12.16৷৷
അനപേക്ഷഃ ശുചിര്ദക്ഷ ഉദാസീനോ ഗതവ്യഥഃ. സര്വാരമ്ഭപരിത്യാഗീ യോ മദ്ഭക്തഃ സ മേ പ്രിയഃ৷৷12.16৷৷
ଅନପେକ୍ଷଃ ଶୁଚିର୍ଦକ୍ଷ ଉଦାସୀନୋ ଗତବ୍ଯଥଃ| ସର୍ବାରମ୍ଭପରିତ୍ଯାଗୀ ଯୋ ମଦ୍ଭକ୍ତଃ ସ ମେ ପ୍ରିଯଃ||12.16||
anapēkṣaḥ śucirdakṣa udāsīnō gatavyathaḥ. sarvārambhaparityāgī yō madbhaktaḥ sa mē priyaḥ৷৷12.16৷৷
அநபேக்ஷஃ ஷுசிர்தக்ஷ உதாஸீநோ கதவ்யதஃ. ஸர்வாரம்பபரித்யாகீ யோ மத்பக்தஃ ஸ மே ப்ரியஃ৷৷12.16৷৷
అనపేక్షః శుచిర్దక్ష ఉదాసీనో గతవ్యథః. సర్వారమ్భపరిత్యాగీ యో మద్భక్తః స మే ప్రియః৷৷12.16৷৷
12.17
12
17
।।12.17।।जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ-अशुभ कर्मोंमें राग-द्वेषका त्यागी है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
।।12.17।। जो न हर्षित होता है और न द्वेष करता है; न शोक करता है और न आकांक्षा; तथा जो शुभ और अशुभ को त्याग देता है, वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।।
।।12.17।। वह पुरुष परम भक्त कहलाता है जिसने मन और बुद्धि की अनात्म उपाधियों तथा जगत् से अपने तादात्म्य को त्याग कर आनन्दस्वरूप आत्मा में दृढ़ स्थिति प्राप्त कर ली है। अत यह स्वाभाविक ही है कि अनात्म जगत् से होने वाले सुखदुखादिक अनुभव उसे किसी भी प्रकार से न आकर्षित कर सकते हैं और न विचलित। इसे ही इस श्लोक में बताया गया है।सामान्य मनुष्य जगत् की सभी वस्तुओं को वे जैसी हैं? वैसी ही नहीं देखता। उसे कोई वस्तु प्रिय होती है? तो कोई अप्रिय। तत्पश्चात् वह प्रिय वस्तु की आकांक्षा या इच्छा करता है और अप्रिय से द्वेष। इसके पश्चात्? तीसरा द्वन्द्व उत्पन्न होता हैं प्रवृत्ति और निवृत्ति का? अर्थात् इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए और द्वेष्य वस्तु को त्यागने के लिए वह प्रयत्न करता है। इसके परिणामस्वरूप इष्ट की प्राप्ति होने पर वह हर्षित होता है? अन्यथा शोक करता है। ज्ञानी भक्त में इन समस्त विकारों और प्रतिक्रियाओं का यहाँ अभाव बताया गया है। इसका कारण यह है कि वह अपने परम आनन्दस्वरूप में स्थित होने के कारण बाह्य मिथ्या वस्तुओं में सुख और दुख की कल्पना करके उनसे राग या द्वेष नहीं करता। राग और द्वेष के द्वन्द्व के अभाव में हर्ष और शोक का स्वत अभाव हो जाता है। वह भक्त जगत् को अपनी कल्पना की दृष्टि से न देखकर यथार्थ रूप में देखता है।शभाशुभपरित्यागी जब मनुष्य अपने आनन्दस्वरूप को नहीं जानता है वह बाह्य जगत् में सुख और शान्ति की खोज करता रहता है। उस स्थिति में? अपने राग और द्वेष के कारण वस्तुओं की प्राप्ति के लिए शुभ और अशुभ (पुण्य और पाप) दोनों ही प्रकार के कर्म करता है। परन्तु? भक्त के मन में राग और द्वेष नहीं होने के कारण वह शुभ और अशुभ दोनों ही से मुक्त हो जाता है।इस प्रकार हम देखते हैं कि उपर्युक्त श्लोक में प्रयुक्त सभी शब्दों का एक विशेष गूढ़ अभिप्राय है? अन्यथा केवल वाच्यार्थ को ही स्वीकार करने पर ऐसा प्रतीत होगा कि ज्ञानी भक्त कोई शव अथवा पाषाण मात्र है? क्योंकि वह न इच्छा करता है और न द्वेष न हर्षित होता है और न दुखी अर्थात् वह मृत पड़ा रहता है यह श्लोक इस बात का अत्यन्त प्रभावी उदाहरण है कि धर्मशास्त्रों के शब्दों का वाच्यार्थ उसके मर्म या प्रयोजन को स्पष्ट नहीं करता है। अत उनके लक्ष्यार्थ पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।इस श्लोक में वर्णित गुणें से युक्त भक्त भगवान् को प्रिय होता है। यह श्लोक प्रस्तुत प्रकरण का चतुर्थ भाग है? जिसमें ज्ञानी भक्त के और छ लक्षण बताये गये हैं। इस प्रकार अब तक छब्बीस गुणों को बताया गया है? जो भक्त के स्वाभाविक लक्षण होते हैं।
।।12.17।। व्याख्या--'यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति'--मुख्य विकार चार हैं -- (1) राग, (2) द्वेष, (3) हर्ष और (4) शोक (टिप्पणी प0 656.2)। सिद्ध भक्तमें ये चारों ही विकार नहीं होते। उसका यह अनुभव होता है कि संसारका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है और भगवान्से कभी वियोग होता ही नहीं। संसारके साथ कभी संयोग था नहीं, है नहीं, रहेगा नहीं और रह सकता भी नहीं। अतः संसारकी कोई,स्वतन्त्र सत्ता नहीं है -- इस वास्तविकताका अनुभव कर लेनेके बाद (जडताका कोई सम्बन्ध न रहनेपर) भक्तका केवल भगवान्के साथ अपने नित्यसिद्ध सम्बन्धका अनुभव अटलरूपसे रहता है। इस कारण उसका अन्तःकरण राग-द्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त होता है। भगवान्का साक्षात्कार होनेपर ये विकार सर्वथा मिट जाते हैं।   साधनावस्थामें भी साधक ज्यों-ज्यों साधनमें आगे बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उसमें राग-द्वेषादि कम होते चले जाते हैं। जो कम होनेवाला होता है, वह मिटनेवाला भी होता है। अतः जब साधनावस्थामें ही विकार कम होने लगते हैं, तब सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सिद्धावस्थामें भक्तमें ये विकार नहीं रहते, पूर्णतया मिट जाते हैं।   हर्ष और शोक -- दोनों राग-द्वेषके ही परिणाम हैं। जिसके प्रति राग होता है, उसके संयोगसे और जिसके प्रति द्वेष होता है, उसके वियोगसे 'हर्ष' होता है। इसके विपरीत जिसके प्रति राग होता है, उसके वियोग या वियोगकी आशङ्कासे और जिसके प्रति द्वेष होता है, उसके संयोग या संयोगकी आशङ्कासे 'शोक' होता है। सिद्ध भक्तमें राग-द्वेषका अत्यन्ताभाव होनेसे स्वतः एक साम्यावस्था निरन्तर रहती है। इसलिये वह विकारोंसे सर्वथा रहित होता है।   जैसे रात्रिके समय अन्धकारमें दीपक जलानेकी कामना होती है; दीपक जलानेसे हर्ष होता है, दीपक बुझानेवालेके प्रति द्वेष या क्रोध होता है और पुनः दीपक कैसे जले -- ऐसी चिन्ता होती है। रात्रि होनेसे ये चारों बातें होती हैं। परन्तु मध्याह्नका सूर्य तपता हो तो दीपक जलानेकी कामना नहीं होती, दीपक जलानेसे हर्ष नहीं होता, दीपक बुझानेवालेके प्रति द्वेष या क्रोध नहीं होता और (अँधेरा न होनेसे) प्रकाशके अभावकी चिन्ता भी नहीं होती। इसी प्रकार भगवान्से विमुख और संसारके सम्मुख होनेसे शरीरनिर्वाह और सुखके लिये अनुकूल पदार्थ, परिस्थिति आदिके मिलनेकी कामना होती है इनके मिलनेपर हर्ष होता है; इनकी प्राप्तिमें बाधा पहुँचानेवालेके प्रति द्वेष या क्रोध होता है; और इनके न मिलनेपर 'कैसे मिलें' ऐसी चिन्ता होती है। परन्तु जिसको (मध्याह्नके सूर्यकी तरह) भगवत्प्राप्ति हो गयी है, उसमें ये विकार कभी नहीं रहते। वह पूर्णकाम हो जाता है। अतः उसको संसारकी कोई आवश्यकता नहीं रहती।   'शुभाशुभपरित्यागी'--ममता, आसक्ति और फलेच्छासे रहित होकर ही शुभ कर्म करनेके कारण भक्तके कर्म 'अकर्म' हो जाते हैं। इसलिये भक्तको शुभ कर्मोंका भी त्यागी कहा गया है। राग-द्वेषका सर्वथा अभाव होनेके कारण उससे अशुभ कर्म होते ही नहीं। अशुभ कर्मोंके होनेमें कामना, ममता, आसक्ति ही प्रधान कारण हैं, और भक्तमें इनका सर्वथा अभाव होता है। इसलिये उसको अशुभ कर्मोंका भी त्यागी कहा गया है।भक्त शुभ-कर्मोंसे तो राग नहीं करता और अशुभ-कर्मोंसे द्वेष नहीं करता। उसके द्वारा स्वाभाविक शास्त्रविहित शुभ कर्मोंका आचरण और अशुभ (निषिद्ध एवं काम्य) कर्मोंका त्याग होता है, राग-द्वेषपूर्वक नहीं। राग-द्वेषका सर्वथा त्याग करनेवाला ही सच्चा त्यागी है।   मनुष्यको कर्म नहीं बाँधते, प्रत्युत कर्मोंमें राग-द्वेष ही बाँधते हैं। भक्तके सम्पूर्ण कर्म राग-द्वेषरहित होते हैं, इसलिये वह शुभाशुभ सम्पूर्ण कर्मोंका परित्यागी है।   'शुभाशुभपरित्यागी' पदका अर्थ शुभ और अशुभ कर्मोंके फलका त्यागी भी लिया जा सकता है। परन्तु इसी श्लोकके पूर्वार्धमें आये 'न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति' पदोंका सम्बन्ध भी शुभ (अनुकूल) और अशुभ (प्रतिकूल) कर्मफलके त्यागसे ही है। अतः यहाँ 'शुभाशुभपरित्यागी' पदका अर्थ शुभाशुभ कर्मफलका त्यागी माननेसे पुनरुक्ति-दोष आता है। इसलिये इस पदका अर्थ शुभ एवं अशुभ कर्मोंमें राग-द्वेषका त्यागी ही मानना चाहिये।   'भक्तिमान्यः स मे प्रियः'-- भक्तकी भगवान्में अत्यधिक प्रियता रहती है। उसके द्वारा स्वतः-स्वाभाविक भगवान्का चिन्त, स्मरण, भजन होता रहता है। ऐसे भक्तको यहाँ 'भक्तिमान्' कहा गया है।भक्तका भगवान्में अनन्य प्रेम होता है? इसलिये वह भगवान्को प्रिय होता है।  सम्बन्ध--अब आगेके दो श्लोकोंमें सिद्ध भक्तके दस लक्षणोंवाला पाँचवाँ और अन्तिम प्रकरण कहते हैं।
।।12.15 -- 12.20।।यस्मादित्यादि मे प्रिया इत्यन्तम्। अनिकेतः -- इदमेव मया कर्तव्यम् इति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा। यथाप्राप्तहेवाकितया सुखदुःखादिकमुपभुञ्ज्ञानः परमेश्वरविषयसमावेशितहृदयः सुखेनैव प्राप्नोति परमकैवल्यम् इति।।।शिवम्।।
।।12.17।।यो न हृष्यति यद् मनुष्याणां हर्षनिमित्तं प्रियजातं तत् प्राप्य यः कर्मयोगी न हृष्यति? यत च अप्रिय तत् प्राप्य यो न द्वेष्टि? यत् च मनुष्याणां शोकनिमित्तं भार्यापुत्रवित्तक्षयादिकं तत् प्राप्य न शोचति तथाविधम् अप्राप्तं च न काङ्क्षति? यत् च मनुष्याणां हर्षनिमित्तभार्यावित्तादि? तद् अप्राप्तं च न काङ्क्षति इत्यर्थः। शुभाशुभपरित्यागी पापवत् पुण्यस्य अपि बन्धहेतुत्वाविशेषाद् उभयपरित्यागी? यः एवंभूतो भक्तिमान् स मे प्रियः।
।।12.17।।द्वेषहर्षादिराहित्यमपि ज्ञानिनो लक्षणमित्याह -- किञ्चेति। सर्वारम्भपरित्यागीत्यनेन विहितकाम्यत्यागस्योक्तत्वाद्विहितादन्यत्र मासङ्कोचीति विशिनष्टि -- शुभाशुभेति।
।।12.17।।किञ्च यो न हृष्यति न द्वेष्टि च। परस्य दुःखं सुखं वा दृष्ट्वा प्राकृतवत् धनादिव्ययेऽपि न शोचति। न च तत्काङ्क्षति स्वभोगार्थंभगवानेव प्रभुः सर्वं विदधाति? निजेच्छातः करिष्यति इति भावेन न प्रार्थयते? चिन्तां वा न करोतीति। शुभाशुभपरित्यागी यः स भक्तिमान्मे प्रियः।
।।12.17।।य इति। किंच समदुःखसुख इत्येतद्विवृणोति -- यो न हृष्यति इष्टप्राप्तौ? न द्वेष्टि अनिष्टप्राप्तौ? न शोचति प्राप्तेष्टवियोगे? न काङ्क्षति अप्राप्तेष्टसंयोगे। सर्वारम्भपरित्यागीत्येतद्विवृणोति -- शुभेति। शुभाशुभे सुखसाधनदुःखसाधने कर्मणी परित्यक्तुं शीलमस्येति शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।
।।12.17।। किंच -- येनेति। प्रियं प्राप्य यो न हृष्यति? अप्रियं प्राप्य यो न द्वेष्टि? इष्टार्थनाशे सति यो न शोचति? अप्राप्तमर्थं न काङ्क्षति? शुभाशुभे पुण्यपापे परित्यक्तुं शीलं यस्य एवंभूतो भूत्वा यो मद्भक्तिमान्स मे प्रियः।
।।12.17।।अथ दैवादागतेष्वपि प्रियाप्रियेषु शोकहर्षाद्यभावोऽनागतेषु निषिद्धव्यतिरिक्तेष्वपि वाञ्छारहितत्वं तत्कारणत्यागश्चोच्यतेयो न हृष्यति इति श्लोकेन।हर्षामर्ष [12।15] इति पूर्वं पुरुषविशेषनिमित्तं हर्षादिकं निषिद्धम् इह त्वर्थलाभादिनिमित्तमिति विशेष इत्यभिप्रायेणाहयन्मनुव्याणामिति। यच्छब्दव्याख्यानरूपेणकर्मयोगी इत्यनेन हर्षाभावहेतुः सूचितः। आत्मव्यतिरिक्तनिस्स्पृहो ह्ययमिति भावः।अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् [12।13] इत्युक्ताद्विशेषज्ञापनायाहयच्चाप्रियं तत्प्राप्येति। हेत्वनागमने हर्षद्वेषशोकादेरभावस्य सर्वजनसाधारणत्वाद्विकारहेतौ सति निर्विकारत्वं ह्यस्य विधेयो विशेष इति ज्ञापनाय तत्तन्निमित्तकथनम्।मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किञ्चन (ञ्चित्प्र) दह्यते [म.भा.शास्त्रवेद्यमनिष्टसाधनं हि पापम्। श्रुतिश्च -- न सुकृतं न दुष्कृतम् इत्युक्त्वा सर्वे पाप्मानोऽतो निवर्तन्ते [छां.उ.8।4।1] इति निगमनेन सुकृतस्यापि पाप्मतामाह।
।।12.17।।किञ्च -- यो नेति। यः लौकिकप्रियाप्त्या न हृष्यति? तथैवाप्रियादिना न द्वेष्टि तथाच सेवार्थवस्तुनाशे न शोचति? न तदाकाङ्क्षति। शुभाशुभे स्वर्गनरकादिरूपे त्यजति। सर्वत्र भगवदिच्छां ज्ञात्वा लीलात्वेन व्यवहरतीत्यर्थः। एतादृशो यो भक्तिमान् भक्तियुक्तः स मे प्रियः।
।।12.17।।एतमेव श्लोकं व्याचष्टे त्रिभिः श्लोकैः -- यो नेति। इष्टलाभे सति न हृष्यति। अनिष्टप्राप्तौ न द्वेष्टि। इष्टवियोगे सति न शोचति। इष्टसंयोगमनिष्टपरिहारं वा न काङ्क्षति। अनपेक्षत्वात्। शुभं कल्याणं पुण्यं अशुभममङ्गलं पापं च ते उभे परित्युक्तं शीलमस्य स शुभाशुभपरित्यागी। एतेन शुचित्वं व्याख्यातम्।,भक्तिमान्भक्तौ सततोद्युक्त इति दक्ष इत्यर्थः।
।।12.17।।किंच हर्षादिराहित्यमपि तत्त्वविदो विशेषणमित्याशयेनाह -- य इति। यत्तु एतमेव श्लोकं व्याचष्टे त्रिभिः श्लोकैर्य इति तुदपेक्ष्यम्। भाष्योक्तरीत्याऽपौनरुक्त्यसंभवे व्याख्यानव्याख्येयकल्पनाया अन्याय्यत्वात्। यः इष्टप्राप्तौ न हृष्यति हर्ष न प्राप्नोति। अनिष्टप्राप्तौ न द्वेष्टि द्वेषं न करोति। अद्वेष्टा सर्वभूतानामित्यत्र सर्वभूतेषु सामान्यद्वेषाभावः स्वाभाविक उक्तः? अत्र त्वनिष्टप्राप्तौ तत्प्रत्युक्तद्वेषविशेषाभाव इत्यपौनक्त्यम्। प्रियवियोगे न शोचति शोकं मानसं तापं नाङ्गीकरोति। अप्राप्तं च न काङ्क्षति। शुभाशुभे पुण्यतापे कर्मणी परित्युक्तं शीलमस्येति तथा सर्वारम्भपरित्यागीत्यनेन वेदोक्तनित्यनैमित्तिककाम्यकर्मातिरिक्तसर्वारम्भपरित्यागीति सर्वपदसंकोचो माभूदित्यत उक्तं शुभाशुभपरित्यागीत्यनेन वेदोक्तनित्यनैमित्तिककाम्यकर्मातिरिक्तसर्वारम्भपरित्यागीति सर्वपदसंकोचो माभूदित्यत उक्तं शूभाशूभपरित्यागीति। भक्तिमान् यः स मे प्रियः।
12.17 यः who? न not? हृष्यति rejoices? न not? द्वेष्टि hates? न not? शोचति grieves? न not? काङ्क्षति desires? शुभाशुभपरित्यागी renouncing good and evil? भक्तिमान् full of devotion? यः who? सः he? मे to Me? प्रियः dear.Commentary What is described in verse 13 is dealt with at length in this.He does not rejoice when he attains the desirable objects. He does not hate when he gets the undesirable objects. He does not grieve when he parts with his beloved objects. He does not desire the unattained.Subhasubhaparityagi Here is a further description of Sarvarambhaparityagi of verse 16. He who has renounced good and evil actions which produce pleasure and pain is a devotee of the Lord.Such a devotee or knower of Brahman? who is My own Self? is dear to Me. (Cf.VII.17IX.29)
12.17 He who neither rejoices, nor hates, nor grieves, nor desires, renouncing good and evil, and who is full of devotion, is dear to Me.
12.17 He who is beyond joy and hate, who neither laments nor desires, to whom good and evil fortunes are the same, such a one is My beloved.
12.17 He who does not rejoice, does not fret, does not lament, does not hanker; who gives up good and bad, who is filled with devotion-he is dear to Me.
12.17 Yah, he who; na hrsyati, does not rejoice on getting a coveted object; na dvesti, does not fret on getting an undesirable object; na socati, does not lament on the loss of a dear one; and na kanksati, does not hanker after an object not acired; subha-asubha-parityogi, who gives up good and bad, who is apt to give up good and bad actions; bhaktiman, who is full of devotion-he is dear to Me.
12.17. He, who neither delights no hates, nor grieves, nor craves; who has renounced both the good and the bad results [of actions] and is full of devotion [to Me]-he is dear to Me.
12.17 See Comment under 12.20
12.17 He who does not 'rejoice', i.e., that Karma Yogin, who, on obtaining things which cause joy to man, does not rejoice; who does not 'hate', does not hate on obtaining anything undesriable; who is not 'grieved' by common sorrows which cause grief among men, as the loss of wife, son, fortune etc.; who 'does not desire' anything like wife, son, fortune etc.; not already acired by him; who 'renounces good and evil,' i.e., who renounces both merit and demerit because, like demert, merit also causes bondage, there being no difference between them in this respect - he who is like this and devoted to Me is dear to Me.
12.17 He who rejoices not, nor hates, nor grieves, nor desires, who renounces good and evil, who is full of devotion to me - dear to me is such a devotee.
।।12.17।।तथा --, जो इष्ट वस्तुकी प्राप्तिमें हर्ष नहीं मानता? अनिष्टकी प्राप्तिमें द्वेष नहीं करता? प्रिय वस्तुका वियोग होनेपर शोक नहीं करता और अप्राप्त वस्तुकी आकाङ्क्षा नहीं करता? ऐसा जो शुभ और अशुभ कर्मोंका त्याग कर देनेवाला भक्तिमान् पुरुष है वह मेरा प्यारा है।
।।12.17।। --,यः न हृष्यति इष्टप्राप्तौ? न द्वेष्टि अनिष्टप्राप्तौ? न शोचति प्रियवियोगे? न च अप्राप्तं काङ्क्षति? शुभाशुभे कर्मणी परित्यक्तुं शीलम् अस्य इति शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् यः सः मे प्रियः।।
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यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्ितमान्यः स मे प्रियः।।12.17।।
যো ন হৃষ্যতি ন দ্বেষ্টি ন শোচতি ন কাঙ্ক্ষতি৷ শুভাশুভপরিত্যাগী ভক্িতমান্যঃ স মে প্রিযঃ৷৷12.17৷৷
যো ন হৃষ্যতি ন দ্বেষ্টি ন শোচতি ন কাঙ্ক্ষতি৷ শুভাশুভপরিত্যাগী ভক্িতমান্যঃ স মে প্রিযঃ৷৷12.17৷৷
યો ન હૃષ્યતિ ન દ્વેષ્ટિ ન શોચતિ ન કાઙ્ક્ષતિ। શુભાશુભપરિત્યાગી ભક્િતમાન્યઃ સ મે પ્રિયઃ।।12.17।।
ਯੋ ਨ ਹਰਿਸ਼੍ਯਤਿ ਨ ਦ੍ਵੇਸ਼੍ਟਿ ਨ ਸ਼ੋਚਤਿ ਨ ਕਾਙ੍ਕ੍ਸ਼ਤਿ। ਸ਼ੁਭਾਸ਼ੁਭਪਰਿਤ੍ਯਾਗੀ ਭਕ੍ਿਤਮਾਨ੍ਯ ਸ ਮੇ ਪ੍ਰਿਯ।।12.17।।
ಯೋ ನ ಹೃಷ್ಯತಿ ನ ದ್ವೇಷ್ಟಿ ನ ಶೋಚತಿ ನ ಕಾಙ್ಕ್ಷತಿ. ಶುಭಾಶುಭಪರಿತ್ಯಾಗೀ ಭಕ್ಿತಮಾನ್ಯಃ ಸ ಮೇ ಪ್ರಿಯಃ৷৷12.17৷৷
യോ ന ഹൃഷ്യതി ന ദ്വേഷ്ടി ന ശോചതി ന കാങ്ക്ഷതി. ശുഭാശുഭപരിത്യാഗീ ഭക്ിതമാന്യഃ സ മേ പ്രിയഃ৷৷12.17৷৷
ଯୋ ନ ହୃଷ୍ଯତି ନ ଦ୍ବେଷ୍ଟି ନ ଶୋଚତି ନ କାଙ୍କ୍ଷତି| ଶୁଭାଶୁଭପରିତ୍ଯାଗୀ ଭକ୍ିତମାନ୍ଯଃ ସ ମେ ପ୍ରିଯଃ||12.17||
yō na hṛṣyati na dvēṣṭi na śōcati na kāṅkṣati. śubhāśubhaparityāgī bhakitamānyaḥ sa mē priyaḥ৷৷12.17৷৷
யோ ந ஹரிஷ்யதி ந த்வேஷ்டி ந ஷோசதி ந காங்க்ஷதி. ஷுபாஷுபபரித்யாகீ பக்ிதமாந்யஃ ஸ மே ப்ரியஃ৷৷12.17৷৷
యో న హృష్యతి న ద్వేష్టి న శోచతి న కాఙ్క్షతి. శుభాశుభపరిత్యాగీ భక్ితమాన్యః స మే ప్రియః৷৷12.17৷৷
12.18
12
18
।।12.18।।जो शत्रु और मित्रमें तथा मान-अपमानमें सम है और शीत-उष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःखमें सम है एवं आसक्तिसे रहित है, और जो निन्दास्तुतिको समान समझनेवाला, मननशील, जिस-किसी प्रकारसे भी (शरीरका निर्वाह होनेमें) संतुष्ट, रहनेके स्थान तथा शरीरमें ममता-आसक्तिसे रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
।।12.18।। जो पुरुष शत्रु और मित्र में तथा मान और अपमान में सम है; जो शीत-उष्ण व सुखदु:खादिक द्वन्द्वों में सम है और आसक्ति रहित है।।
।।12.18।। See Commentary under 12.19
।।12.18।। व्याख्या --   समः शत्रौ च मित्रे च -- यहाँ भगवान्ने भक्तमें व्यक्तियोंके प्रति होनेवाली समताका वर्णन किया है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने तथा रागद्वेषसे रहित होनेके कारण सिद्ध भक्तका किसीके भी प्रति शत्रुमित्रका भाव नहीं रहता। लोग ही उसके व्यवहारमें अपने स्वभावके अनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलताको देखकर उसमें मित्रता या शत्रुताका आरोप कर लेते हैं। साधारण लोगोंका तो कहना ही क्या है? सावधान रहनेवाले साधकोंका भी उस सिद्ध भक्तके प्रति मित्रता और शत्रुताका भाव हो सकता है। परंतु भक्त अपनेआपमें सदैव पूर्णतया सम रहता है। उसके हृदयमें कभी किसीके प्रति शत्रुमित्रका भाव उत्पन्न नहीं होता।मान लिया जाय कि भक्तके प्रति शत्रुता और मित्रताका भाव रखनेवाले दो व्यक्तियोंमें धनके बँटवारेसे सम्बन्धित कोई विवाद हो जाय और उसका निर्णय करानेके लिये वे भक्तके पास जायँ? तो भक्त धनका बँटवारा करते समय शत्रुभाववाले व्यक्तिको कुछ अधिक और मित्रभाववाले व्यक्तिको कुछ कम धन देगा। यद्यपि भक्तके इस निर्णय(व्यवहार) में विषमता दीखती है? तथापि शत्रुभाववाले व्यक्तिको इस निर्णयमें समता दिखायी देगी कि इसने पक्षपातरहित बँटवारा किया है। अतः भक्तके इस निर्णयमें विषमता (पक्षपात) दीखनेपर भी वास्तवमें यह (समताको उत्पन्न करनेवाला होनेसे) समता ही कहलायेगी।उपर्युक्त पदोंसे यह भी सिद्ध होता है कि सिद्ध भक्तके साथ भी लोग (अपने भावके अनुसार) शत्रुतामित्रताका व्यवहार करते हैं और उसके व्यवहारसे अपनेको उसका शत्रुमित्र मान लेते हैं। इसीलिये उसे यहाँ शत्रुमित्रसे रहित न कहकर शत्रुमित्रमें सम कहा गया है।तथा मानापमानयोः -- मानअपमान परकृत क्रिया है? जो शरीरके प्रति होती है। भक्तकी अपने कहलानेवाले शरीरमें न तो अहंता होती है? न ममता। इसलिये शरीरका मानअपमान होनेपर भी भक्तके अन्तःकरणमें कोई विकार (हर्षशोक) पैदा नहीं होता। वह नित्यनिरन्तर समतामें स्थित रहता है।शीतोष्णसुखदुःखेषु समः -- इन पदोंमें दो स्थानोंपर सिद्ध भक्तकी समता बतायी गयी है -- (1) शीतउष्णमें समता अर्थात् इन्द्रियोंका अपनेअपने विषयोंसे संयोग होनेपर अन्तःकरणमें कोई विकार न होना।(2) सुखदुःखमें समता अर्थात् धनादि पदार्थोंकी प्राप्ति या अप्राप्ति होनेपर अन्तःकरणमें कोई विकार न होना।शीतोष्ण शब्दका अर्थ सरदीगरमी होता है। सरदीगरमी त्वगिन्द्रियके विषय हैं। भक्त केवल त्वगिन्द्रियके विषयोंमें ही सम रहता हो? ऐसी बात नहीं है। वह तो समस्त इन्द्रियोंके विषयोंमें सम रहता है। अतः यहाँ शीतोष्ण शब्द समस्त इन्द्रियोंके विषयोंका वाचक है। प्रत्येक इन्द्रियका अपनेअपने विषयके साथ संयोग होनेपर भक्तको उन (अनुकूल या प्रतिकूल) विषयोंका ज्ञान तो होता है? पर उसके अन्तःकरणमें,हर्षशोकादि विकार नहीं होते। वह सदा सम रहता है।साधारण मनुष्य धनादि अनुकूल पदार्थोंकी प्राप्तिमें सुख तथा प्रतिकूल पदार्थोंकी प्राप्तिमें दुःखका अनुभव करते हैं। परन्तु उन्हीं पदार्थोंके प्राप्त होने अथवा न होनेपर सिद्ध भक्तके अन्तःकरणमें कभी किञ्चिन्मात्र भी रागद्वेष? हर्षशोकादि विकार नहीं होते। वह प्रत्येक परिस्थितिमें सम रहता है।सुखदुःखमें सम रहने तथा सुखदुःखसे रहित होने -- दोनोंका गीतामें एक ही अर्थमें प्रयोग हुआ है। सुखदुःखकी परिस्थिति अवश्यम्भावी है अतः उससे रहित होना सम्भव नहीं है। इसलिये भक्त अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियोंमे सम रहता है। हाँ? अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर अन्तःकरणमें जो हर्षशोक होते हैं? उनसे रहित हुआ जा सकता है। इस दृष्टिसे गीतामें जहाँ सुखदुःखमें सम होनेकी बात आयी है? वहाँ सुखदुःखकी परिस्थितिमें सम समझना चाहिये और जहाँ सुखदुःखसे रहित होनेकी बात आयी है? वहाँ (अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितिकी प्राप्तिसे होनेवाले) हर्षशोकसे रहित समझना चाहिये।सङ्गविवर्जितः -- सङ्ग शब्दका अर्थ सम्बन्ध (संयोग) तथा आसक्ति दोनों ही होते हैं। मनुष्यके लिये यह सम्भव नहीं है कि वह स्वरूपसे सब पदार्थोंका सङ्ग अर्थात् सम्बन्ध छोड़ सके क्योंकि जबतक मनुष्य जीवित रहता है? तबतक शरीरमनबुद्धिइन्द्रियाँ उसके साथ रहती ही हैं। हाँ? शरीरसे भिन्न कुछ पदार्थोंका त्याग स्वरूपसे किया जा सकता है। जैसे किसी व्यक्तिने स्वरूपसे प्राणीपदार्थोंका सङ्ग छो़ड़ दिया? पर उसके अन्तःकरणमें अगर उनके प्रति किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति बनी हुई है? तो उन प्राणीपदार्थोंसे दूर होते हुए भी वास्तवमें उसका उनसे सम्बन्ध बना हुआ ही है। दूसरी ओर? अगर अन्तःकरणमें प्राणीपदार्थोंकी किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति नहीं है? तो पास रहते हुए भी वास्तवमें उनसे सम्बन्ध नहीं है। अगर पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही मुक्ति होती? तो मरनेवाला हरेक व्यक्ति मुक्त हो जाता क्योंकि उसने तो अपने शरीरका भी त्याग कर दिया परन्तु ऐसी बात है नहीं। अन्तःकरणमें आसक्तिके रहते हुए शरीरका त्याग करनेपर भी संसारका बन्धन बना रहता है। अतः मनुष्यको सांसारिक आसक्ति ही बाँधनेवाली है? न कि सांसारिक प्राणीपदार्थोंका स्वरूपसे सम्बन्ध।आसक्तिको मिटानेके लिये पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करना भी एक साधन हो सकता है किंतु खास जरूरत आसक्तिका सर्वथा त्याग करनेकी ही है। संसारके प्रति यदि किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति है? तो उसका चिन्तन अवश्य होगा। इस कारण वह आसक्ति साधकको क्रमशः कामना? क्रोध? मूढ़ता आदिको प्राप्त कराती हुई उसे पतनके गर्तमें गिरानेका हेतु बन सकती है (गीता 2। 62 63)।भगवान्ने दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें परं दृष्ट्वा निवर्तते पदोंसे भगवत्प्राप्तिके बाद आसक्तिकी सर्वथा निवृत्तिकी बात कही है। भगवत्प्राप्तिसे पहले भी आसक्तिकी निवृत्ति हो सकती है? पर भगवत्प्राप्तिके बाद तो आसक्ति सर्वथा निवृत्त हो ही जाती है। भगवत्प्राप्त महापुरुषमें आसक्तिका सर्वथा अभाव होता ही है। परन्तु भगवत्प्राप्तिसे पूर्व साधनावस्थामें आसक्तिका सर्वथा अभाव होता ही नहीं -- ऐसा नियम नहीं है। साधनावस्थामें भी आसक्तिका सर्वथा अभाव होकर साधकको तत्काल भगवत्प्राप्ति हो सकती है। (गीता 5। 21 16। 22)।आसक्ति न तो परमात्माके अंश शुद्ध चेतनमें रहती है और न जड(प्रकृति) में ही। वह जड और चेतनके सम्बन्धरूप मैंपनकी मान्यतामें रहती है। वही आसक्ति बुद्धि? मन? इन्द्रियों और विषयों(पदार्थों) में प्रतीत होती है। अगर साधकके मैंपनकी मान्यतामें रहनेवाली आसक्ति मिट जाय? तो दूसरी जगह प्रतीत होनेवाली आसक्ति स्वतः मिट जायगी। आसक्तिका कारण अविवेक है। अपने विवेकको पूर्णतया महत्त्व न देनेसे साधकमें आसक्ति रहती है। भक्तमें अविवेक नहीं रहता। इसलिये वह आसक्तिसे सर्वथा रहित होता है।अपने अंशी भगवान्से विमुख होकर भूलसे संसारको अपना मान लेनेसे संसारमें राग हो जाता है और राग होनेसे संसारमें आसक्ति हो जाती है। संसारसे माना हुआ अपनापन सर्वथा मिट जानेसे बुद्धि सम हो जाती है। बुद्धिके सम होनेपर स्वयं आसक्ति रहित हो जाता है।मार्मिक बातवास्तवमें जीवमात्रकी भगवान्के प्रति स्वाभाविक अनुरक्ति (प्रेम) है। जबतक संसारके साथ भूलसे माना हुआ अपनेपनका सम्बन्ध है? तबतक वह अनुरक्ति प्रकट नहीं होती? प्रत्युत संसारमें आसक्तिके रूपमें प्रतीत होती है। संसारकी आसक्ति रहते हुए भी वस्तुतः भगवान्की अनुरक्ति मिटती नहीं। अनुरक्तिके प्रकट होते ही आसक्ति (सूर्यका उदय होनेपर अंधकारकी तरह) सर्वथा निवृत्त हो जाती है। ज्योंज्यों संसारसे विरक्ति होती है? त्योंहीत्यों भगवान्में अनुरक्ति प्रकट होती है। यह नियम है कि आसक्तिको समाप्त करके विरक्ति स्वयं भी उसी प्रकार शान्त हो जाती है? जिस प्रकार लकड़ीको जलाकर अग्नि। इस प्रकार आसक्ति और विरक्तिके न रहनेपर स्वतःस्वाभाविक अनुरक्ति(भगवत्प्रेम) का स्रोत प्रवाहित होने लगता है। इसके लिये किञ्चिन्मात्र भी कोई उद्योग नहीं करना पड़ता। फिर भक्त सब प्रकारसे भगवान्के पूर्ण समर्पित हो जाता है। उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान्की प्रियताके लिये ही होती हैं। उससे प्रसन्न होकर भगवान् उस भक्तको अपना प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त उस प्रेमको भी भगवान्के ही प्रति लगा देता है। इससे भगवान् और आनन्दित होते हैं तथा पुनः उसे प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त पुनः उसे भगवान्के प्रति लगा देता है। इस प्रकार भक्त और भगवान्के बीच प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमके आदानप्रदानकी यह लीला चलती रहती है।तुल्यनिन्दास्तुतिः -- निन्दास्तुति मुख्यतः नामकी होती है। यह भी परकृत क्रिया है। लोग अपने स्वभावके अनुसार भक्तकी निन्दा या स्तुति किया करते हैं। भक्तमें अपने कहलानेवाले नाम और शरीरमें लेशमात्र भी अहंता और ममता नहीं होती। इसलिये निन्दास्तुतिका उसपर लेशमात्र भी असर नहीं पड़ता। भक्तका न तो अपनी स्तुति या प्रशंसा करनेवालेके प्रति राग होता है और न निन्दा करनेवालेके प्रति द्वेष ही होता है। उसकी दोनोंमें ही समबुद्धि रहती है।साधारण मनुष्योंके भीतर अपनी प्रशंसाकी कामना रहा करती है? इसलिये वे अपनी निन्दा सुनकर दुःखका और स्तुति सुनकर सुखका अनुभव करते हैं। इसके विपरीत (अपनी प्रशंसा न चाहनेवाले) साधक पुरुष निन्दा सुनकर सावधान होते हैं और स्तुति सुनकर लज्जित होते हैं। परन्तु नाममें किञ्चिन्मात्र भी अपनापन न होनेके कारण सिद्ध भक्त इन दोनों भावोंसे रहित होता है अर्थात् निन्दास्तुतिमें सम होता है। हाँ? वह भी कभीकभी लोकसंग्रहके लिये साधककी तरह (निन्दामें सावधान तथा स्तुतिमें लज्जित होनेका) व्यवहार कर सकता है।भक्तकी सर्वत्र भगवद्बुद्धि होनेके कारण भी उसका निन्दास्तुति करनेवालोंमें भेदभाव नहीं होता। ऐसा भेदभाव न रहनेसे ही यह प्रतीत होता है कि वह निन्दास्तुतिमें सम है।भक्तके द्वारा अशुभ कर्म तो हो ही नहीं सकते और शुभकर्मोंके होनेमें वह केवल भगवान्को हेतु मानता है। फिर भी उसकी कोई निन्दा या स्तुति करे? तो उसके चित्तमें कोई विकार पैदा नहीं होता।मौनी -- सिद्ध भक्तके द्वारा स्वतःस्वाभाविक भगवत्स्वरूपका मनन होता रहता है? इसलिये उसको मौनी अर्थात् मननशील कहा गया है। अन्तःकरणमें आनेवाली प्रत्येक वृत्तिमें उसको वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19) सब कुछ भगवान् ही हैं -- यही दीखता है। इसलिये उसके द्वारा निरन्तर ही भगवान्का मनन होता है।यहाँ मौनी पदका अर्थ वाणीका मौन रखनेवाला नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा माननेसे वाणीके द्वारा भक्तिका प्रचार करनेवाले भक्त पुरुष भक्त ही नहीं कहलायेँगे। इसके सिवाय अगर वाणीका मौन रखनेमात्रसे भक्त होना सम्भव होता? तो भक्त होना बहुत ही आसान हो जाता और ऐसे भक्त अंसख्य बन जाते किंतु संसारमें भक्तोंकी संख्या अधिक देखनेमें नहीं आती। इसके सिवाय आसुर स्वभाववाला दम्भी व्यक्ति भी हठपूर्वक वाणीका मौन रख सकता है। परन्तु यहाँ भगवत्प्राप्त सिद्ध भक्तके लक्षण बताये जा रहे हैं। इसलिये यहाँ मौनी पदका अर्थ भगवत्स्वरूपका मनन करनेवाला ही मानना युक्तिसंगत है।संतुष्टो येन केनचित् -- दूसरे लोगोंको भक्त संतुष्टो येन केनचित् अर्थात् प्रारब्धानुसार शरीरनिर्वाहके लिये जो कुछ मिल जाय? उसीमें संतुष्ट दीखता है परन्तु वास्तवमें भक्तकी संतुष्टिका कारण कोई सांसारिक पदार्थ? परिस्थिति आदि नहीं होती। एकमात्र भगवान्में ही प्रेम होनेके कारण वह नित्यनिरन्तर भगवान्में ही संतुष्ट रहता है। इस संतुष्टिके कारण वह संसारकी प्रत्येक अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिमें सम रहता है क्योंकि उसके अनुभवमें प्रत्येक अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भगवान्के मङ्लमय विधानसे ही आती है। इस प्रकार प्रत्येक परिस्थितिमें नित्यनिरन्तर संतुष्ट रहनेके कारण उसे संतुष्टो येन केनचित् कहा गया है।अनिकेतः -- जिनका कोई निकेत अर्थात् वासस्थान नहीं है? वे ही अनिकेत हों -- ऐसी बात नहीं है। चाहे गृहस्थ हों या साधुसंन्यासी? जिनकी अपने रहनेके स्थानमें ममताआसक्ति नहीं है? वे सभी अनिकेत हैं। भक्तका रहनेके स्थानमें और शरीर (स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीर) में लेशमात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिये उसको अनिकेतः कहा गया है।स्थिरमतिः -- भक्तकी बुद्धिमें भगवत्तत्त्वकी सत्ता और स्वरूपके विषयमें कोई संशय अथवा विपर्यय (विपरीत ज्ञान) नहीं होता। अतः उसकी बुद्धि भगवत्तत्त्वके ज्ञानसे कभी किसी अवस्थामें विचलित नहीं होती। इसलिये उसको स्थिरमतिः कहा गया है। भगवत्तत्त्वको जाननेके लिये उसको कभी किसी प्रमाण या शास्त्रविचार? स्वाध्याय आदिकी जरूरत नहीं रहती क्योंकि वह स्वाभाविकरूपसे भगवत्तत्त्वमें तल्लीन रहता है।स्थिरबुद्धि होनेमें कामनाएँ ही बाधक होती हैं (गीता 2। 44)। अतः कामनाओंके त्यागसे ही स्थिरबुद्धि होना सम्भव है (गीता 2। 55)। अन्तःकरणमें सांसारिक (संयोगजन्य) सुखकी कामना रहनेसे संसारमें आसक्ति हो जाती है। यह आसक्ति संसारको असत्य या मिथ्या जान लेनेपर भी मिटती नहीं जैसे -- सिनेमामें दीखनेवाले दृश्य(प्राणीपदार्थों) को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है अथवा जैसे भूतकालकी बातोंको याद करते समय मानसिक दृष्टिके सामने आनेवाले दृश्यको मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जबतक भीतरमें सांसारिक सुखकी कामना है? तबतक संसारको मिथ्या माननेपर भी संसारकी आसक्ति नहीं मिटती। आसक्तिसे संसारकी स्वतन्त्र सत्ता दृढ़ होती है। सांसारिक सुखकी कामना मिटनेपर आसक्ति स्वतः मिट जाती है। आसक्ति मिटनेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है और एक भगवत्तत्त्वमें बुद्धि स्थिर हो जाती है।भक्तिमान्मे प्रियो नरः -- भक्तिमान् पदमें भक्ति शब्दके साथ नित्ययोगके अर्थमें मतुप् प्रत्यय है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्यमें स्वाभाविकरूपसे भक्ति (भगवत्प्रेम) रहती है। मनुष्यसे भूल यही होती है कि वह भगवान्को छोड़कर संसारकी भक्ति करने लगता है। इसलिये उसे स्वाभाविक रहनेवाली भगवद्भक्तिका रस नहीं मिलता और उसके जीवनमें नीरसता रहती है। सिद्ध भक्त हरदम भक्तिरसमें तल्लीन रहता है। इसलिये उसको भक्तिमान् कहा गया है। ऐसा भक्तिमान् मनुष्य भगवान्को प्रिय होता है।नरः पद देनेका तात्पर्य है कि भगवान्को प्राप्त करके जिसने अपना मनुष्यजीवन सफल (सार्थक) कर लिया है? वही वास्तवमें नर (मनुष्य) कहलानेयोग्य है। जो मनुष्यशरीरको पाकर सांसारिक भोग और संग्रहमें ही लगा हुआ है? वह नर (मनुष्य) कहलानेयोग्य नहीं है।[इन दो श्लोकोंमें भक्तके सदासर्वदा समभावमें स्थित रहनेकी बात कही गयी है। शत्रुमित्र? मानअपमान? शीतउष्ण? सुखदुःख और निन्दास्तुति -- इन पाँचों द्वन्द्वोंमें समता होनेसे ही साधक पूर्णतः समभावमें स्थित कहा जा सकता है।]प्रकरणसम्बन्धी विशेष बातभगवान्ने पहले प्रकरणके अन्तर्गत तेरहवेंचौदहवें श्लोकोंमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंका वर्णन करके अन्तमें यो मद्भक्तः स मे प्रियः कहा? दूसरे प्रकरणके अन्तर्गत पन्द्रहवें श्लोकके अन्तमें यः स च मे प्रियः कहा? तीसरे प्रकरणके अन्तर्गत सोलहवें श्लोकके अन्तमें यो मद्भक्तः स मे प्रियः कहा? चौथे प्रकरणके अन्तर्गत सत्रहवें श्लोकके अन्तमें भक्तिमान् यः स म प्रियः कहा और अन्तिम पाँचवें प्रकरणके अन्तर्गत अठारहवेंउन्नीसवें श्लोकोंके अन्तमें भक्तिमान् मे प्रियो नरः कहा। इस प्रकार भगवान्ने पाँच बार अलगअलग मे प्रियः पद देकर सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको पाँच भागोंमें विभक्त किया है। इसलिये सात श्लोकोंमें बताये गये सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको एक ही प्रकरणके अन्तर्गत नहीं समझना चाहिये। इसका मुख्य कारण यह है कि यदि यह एक ही प्रकरण होता? तो एक लक्षणको बारबार न कहकर एक ही बार कहा जाता? और मे प्रियः पद भी एक ही बार कहे जाते।पाँचों प्रकरणोंके अन्तर्गत सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें रागद्वेष और हर्षशोकका अभाव बताया गया है। जैसे? पहले प्रकरणमें निर्ममः पदसे रागका? अद्वेष्टा पदसे द्वेषका और समदुःखसुखः पदसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। दूसरे प्रकरणमें हर्षामर्षभयोद्वेगैः पदसे रागद्वेष और हर्षशोकका अभाव बताया गया है। तीसरे प्रकरणमें अनपेक्षः पदसे रागका? उदासीनः पदसे द्वेषका और गतव्यथः पदसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। चौथे प्रकरणमें न काङ्क्षति पदोंसे रागका? न द्वेष्टि पदोंसे द्वेषका और न हृष्यति तथा न शोचति पदोंसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। अन्तिम पाँचवें प्रकरणमें सङ्गविवर्जितः पदसे रागका? संतुष्टः पदसे एकमात्र भगवान्में ही सन्तुष्ट रहनेके कारण द्वेषका और शीतोष्णसुखदुःखेषु समः पदोंसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है।अगर सिद्ध भक्तोंके लक्षण बतानेवाला (सात श्लोकोंका) एक ही प्रकरण होता? तो सिद्ध भक्तमें रागद्वेष? हर्षशोकादि विकारोंके अभावकी बात कहीं शब्दोंसे और कहीं भावसे बारबार कहनेकी जरूरत नहीं होती। इसी तरह चौदहवें और उन्नीसवें श्लोकमें सन्तुष्टः पदका तथा तेरहवें श्लोकमें समदुःखसुखः और अठारहवें श्लोकमें शीतोष्णसुखदुःखेषु समः पदोंका भी सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें दो बार प्रयोग हुआ है? जिससे (सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंका एक ही प्रकरण माननेसे) पुनरुक्तिका दोष आता है। भगवान्के वचनोंमें पुनरुक्तिका दोष आना सम्भव ही नहीं। अतः सातों श्लोकोंके विषयको एक प्रकरण न मानकर अलगअलग पाँच प्रकरण मानना ही युक्तिसंगत है।इस तरह पाँचों प्रकरण स्वतन्त्र (भिन्नभिन्न) होनेसे किसी एक प्रकरणके भी सब लक्षण जिसमें हों? वही भगवान्का प्रिय भक्त है। प्रत्येक प्रकरणमें सिद्ध भक्तोंके अलगअलग लक्षण बतानेका कारण यह है कि साधनपद्धति? प्रारब्ध? वर्ण? आश्रम? देश? काल? परिस्थिति आदिके भेदसे सब भक्तोंकी प्रकृति(स्वभाव) में परस्पर थोड़ाबहुत भेद रहा करता है। हाँ? रागद्वेष? हर्षशोकादि विकारोंका अत्यन्ताभाव एवं समतामें स्थिति और समस्त प्राणियोंके हितमें रति सबकी समान ही होती है।साधकको अपनी रुचि? विश्वास? योग्यता? स्वभाव आदिके अनुसार जो प्रकरण अपने अनुकूल दिखायी दे? उसीको आदर्श मानकर उसके अनुसार अपना जीवन बनानेमें लग जाना चाहिये। किसी एक प्रकरणके भी यदि पूरे लक्षण अपनेमें न आयें? तो भी साधकको निराश नहीं होना चाहिये। फिर सफलता अवश्यम्भावी है। सम्बन्ध --   पीछेके सात श्लोकोंमें भगवान्ने सिद्ध भक्तोंके कुल उनतालीस लक्षण बताये। अब आगेके श्लोकमें भगवान् अर्जुनके प्रश्नका स्पष्ट रीतिसे उत्तर देते हैं।
।।12.15 -- 12.20।।यस्मादित्यादि मे प्रिया इत्यन्तम्। अनिकेतः -- इदमेव मया कर्तव्यम् इति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा। यथाप्राप्तहेवाकितया सुखदुःखादिकमुपभुञ्ज्ञानः परमेश्वरविषयसमावेशितहृदयः सुखेनैव प्राप्नोति परमकैवल्यम् इति।।।शिवम्।।
।।12.18।।अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् (गीता 12।13) इत्यादिना शत्रुमित्रादिषु द्वेषादिरहितत्वम् उक्तम्। अत्र तेषु सन्निहितेषु अपि समचित्तत्वम्? ततः अपि अतिरिक्तो विशेष उच्यते।आत्मनि स्थिरमतित्वेन निकेतनादिषु असक्त इति अनिकेतः? तत एव मानापमानादिषु अपि समः? य एवंभूतो भक्तिमान् स मे प्रियः।अस्माद् आत्मनिष्ठात् मद्भक्तियोगनिष्ठस्य श्रैष्ठ्यं प्रतिपादयन् यथोपक्रमम् उपसंहरति --
।।12.18।।सम इति। अद्वेष्टेत्यादिना द्वेषादिविशेषाभाव उक्तः? संप्रति सर्वत्रैवाविकृतचित्तत्वमुच्यते। सर्वत्र चेतने स्त्रयादावचेतने च चन्दनादावित्यर्थः।
।।12.18।।तथा सम इति। शत्रौ मित्रे च मानापमानयोश्च शीतादिषु च स्वयं समः? सेव्ये स्वामिनि श्रीभगवति तु शीतादिकं प्रेम्णा भावयमानस्तत्तत्प्रतीकारसेवां कुर्यादेवेत्याशयेन पुनरुक्तं? अनेवम्भूतानां तु सङ्गेन वर्जितः। एवं भावयतां सङ्गं कुर्वाणः स्यादेव?येऽन्योन्यतो भागवताः इत्यादिवाक्यात्।
।।12.18।।सम इति। किंच पूर्वस्यैव प्रपञ्चः। सङ्गविवर्जितः चेतनाचेतनसर्वविषयशोभनाध्यासरहितः।,सर्वथा हर्षविषादशून्य इत्यर्थः। स्पष्टमन्यत्।
।।12.18।। किंच -- सम इति। शत्रौ च मित्रे च सम एकरूपः? मानापमानयोरपि तथा सम एव। हर्षविषादशून्य इत्यर्थः। शीतोष्णयोः सुखदुःखयोश्च समः सङ्गविवर्जितः क्वचिदप्यनासक्तः।
।।12.18।।समः शत्रौ च इत्यादिना श्लोकद्वयेन बहुविधं सहेतुकं साम्यमुच्यते तत्र पुनरुक्तिमाशङ्क्य परिहरतिअद्वेष्टेति। सन्निहितस्वरूपमानावमानादिद्वन्द्वान्तरसहपाठवशादत्र शत्रुमित्रयोरपि सन्निहितयोर्विवक्षा। सन्निधिर्हि विकारमतिशयेन जनयति।ततोऽप्यतिरिक्त इति दूरस्थासन्नसाधारणात् अद्वेषमात्रादतिरिक्त इत्यर्थः। क्वचिदपि सङ्गवर्जितत्वाच्छीतोष्णादिषु समत्वम्। निन्दास्तुत्योः फलभूतामर्षानुरागादिरहितत्वान्निष्फलत्ववेषेण तुल्यत्वम्।मौनी इति नात्र मननं विवक्षितम्?स्थिरमतिः इत्यनेनैव सिद्धत्वात् मुनिर्मननशीलः? तस्य भावो मित्यप्रसिद्धार्थता च स्यात् नापि समस्तशब्दानुच्चारणं त त्यन्तापेक्षाभावात्? सङ्कीर्तनादिविधेश्च न च कालविशेष देनियतमौनव्रतं? तस्योपयुक्तत्वेऽपि पूर्वोत्तरसङ्गत्यभावात् निन्दन्तं हि निन्दन्ति लौकिकाः? स्तुवन्तं च स्तुवन्ति ततः प्रसक्तनिन्दास्तोत्रप्रतिक्षेपपरत्वमेवोचितम्।सन्तुष्टो येनकेनचित् इति मौनित्वे हेत्वन्तरपरम् अन्यथासन्तुष्टः सततं योगी [12।14] इति पूर्वोक्तत्वेन पुनरुक्तिप्रसङ्गात्। यदृच्छयागतैर्यत्किञ्चिद्द्रव्यैरसन्तुष्टो हि सापेक्षतया स्तुतिपूर्वं कञ्चन याचते? अदातारं च द्विष्यात्। यद्वा अन्यस्तुतितात्पर्येण वा निन्दन्ति। स्थिरमतित्वस्य प्रकरणविशेषितं विषयं दर्शयन् सर्वस्योपरि निर्दिष्टस्य तस्य साक्षात्परम्परया वा पूर्वोक्तसमस्तहेतुत्वं च दर्शयतिआत्मनीति। निकेतननिषेधस्य क्षेत्रादिनिषेधोपलक्षणतया आदिशब्दः। अत्रसमः इति द्वौ परिव्राड्विषयाविति यादवप्रकाशोक्तस्य न लिङ्गं पश्यामः। शत्रुमित्रसाम्यादिगुणानां मुमुक्षौ गृहस्थेऽप्यवश्यम्भावादनिकेतत्वस्य चन शब्दशास्त्राभिरतस्य मोक्षो नचापि रम्यावसथप्रियस्य। न भोजनाच्छादनतत्परस्य न लोकचित्तग्रहणे रतस्य।।एकान्तशीलस्य दृढव्रतस्य पञ्चेन्द्रियाप्रीतिनिवर्तकस्य। अध्यात्मविद्यारतमानसस्य मोक्षो ध्रुवो नित्यमहिंसकस्य [वा.स्मृ.10।7आ.स्मृ.10।67] इत्यादिन्यायेन निस्सङ्गतयाऽपि विर्वाहात्? गृहस्थादिषु निकेतसद्भावनिषेधस्यानुपकारकत्वात्? तत्सद्भावस्य क्वचिद्योगाद्युपकारकैत्वसम्भावनया च तत्सङ्गमात्रमेव निषेव्यतया विवक्षितमिति दर्शयितुंअसक्त इत्युक्तम्। अत एवअद्वेष्टा [12।13] इत्यादीनां सर्वेषामप्यक्षरोपासकसन्न्यासिविषयत्वंशङ्करोक्तं निरस्तम्। क्वचित्सक्तस्य हि स्वरूपतः सुखत्वरहितैर्मानादिभिः प्रीत्यादिकम् अतः क्वचिदपि सङ्गाभावान्मानादिषु समत्वमित्याह -- तत एवेति पूर्वश्लोकेष्विवात्रापि यत्तच्छब्दाध्याहारेणोद्देश्य विधेयांशविभागं दर्शयतिय एवम्भूतो भक्तिमान्स मे प्रिय इति।
।।12.18।।किञ्च -- सम इति। शत्रौ द्वेषकर्तरि? मित्रे अनुरागवति समः? स्वतो द्वेषानुरागरहित इत्यर्थः। तथा मानापमानयोरपि समः। शीतोष्णयोर्दैहिकयोः सुखदुःखयोः पुत्रजन्ममरणादिरूपयोः समः। सङ्गवर्जितः लौकिकासक्तिरहितः।
।।12.18।।उदासीनत्वं व्याचष्टे -- सम इति। गतव्यथत्वमुपपादयति -- सङ्गविवर्जित इति। सङ्गी हि व्यथते न तु तद्वर्जित इत्यर्थः।
।।12.18।।किंच समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः पूजापरिभवयोः शीतोष्णसुखदुःखेषु समः समदुःखसुख इत्यत्र सामान्यसुखदुःखयोर्ग्रहणम्। अत्र तु शीतोष्णनिबन्धयोरित्यपौनरुक्त्यम्। एतत्सर्वं कुत इत्यत आह। यतः सर्वत्र सङ्गेन संसर्गेण विवर्जितः सङ्गस्यैव सर्वदोषजनकत्वान्न कस्यापि सङ्गं करोतीत्यर्थः। अद्वेषटेत्यादिना द्वेषादिविशेषाभाव उक्तः। संप्रति सर्वत्रैवाविकृतचित्तत्वमुच्यते। सर्वत्र चेतने स्त्र्यादावचेतने चन्दनादावित्यर्थ इति भाष्यटीकाकृतः।
12.18 समः (he who is) the same? शत्रौ to foe? च and? मित्रे to friend? च and? तथा also? मानापमानयोः in honour and dishonour? शीतोष्णसुखदुःखेषु in cold and heat? in pleasure and pain? समः the same? सङ्गविवर्जितः free from attachment.Commentary The ordinary man of the world is ruled by the pairs of opposites? honour and dishonour? cold and heat and pleasure and pain but a Yogi or a sage or a devotee (Bhagavata) has a balanced mind. He has poise or eanimity. He is not at all swayed by the blind forces of attraction and repulsion.He who does wrong to others is a foe. He who does good to others is a friend.The devotee or the sage has no attachment for objects of any kind.
12.18 He who is the same to foe and friend, and also in honour and dishonour, who is the same in cold and heat and in pleasure and pain, who is free from attachment.
12.18 He to whom friend and foe are alike, who welcomes equally honour and dishonour, heat and cold, pleasure and pain, who is enamoured of nothing,
12.18 He who is the same towards friend and foe, and so also in honour and dishonour; who is the same under cold, heat, happiness and sorrow, who is free from attachment to everything.
12.18 Samah, who is the same; satrau ca mitre, towards friend and foe; ca tatha, and so also; mana-apamanayoh, in honour and dishonour, in adoration and humiliation; who is the same sita-usna-sukha-duhkhesu, under cold, heat, happiness and sorrow; and sanga-vivar-jitah, free from attachment to everything; Moreover,
12.18. He, who feels alike to the foe and to the friend and also to honour and to dishonour; who feels alike to cold and to heat, to pleasure and to pain; who is totally free from attachment;
12.18 See Comment under 12.20
12.18 - 12.19 The absence of hate etc., towards foes, friends etc., has already been taught in the stanza beginning with, 'He who never hates any being' (11.13). What is now taught is that eanimity to be practised even when such persons mentioned above are present before one who is superior to those having a general eanimous temperament referred to earlier. Who has no 'home', namely, who is not attached to home, etc., as he possesses firmness of mind with regard to the self. Because of this, he is 'same even in honour and dishonour.' He who is devoted to Me and who is like this - he is dear to Me. Showing the superiority of Bhakti-Nistha over Atma-nistha, Sri Krsna now concludes in accordance with what is stated at the beginning of this chapter in Verse 2.
12.18 He who is same to foe and friend, honour and dishonour, who is alike to both cold and heat, pleasure and pain, and who is free from all attachments;
।।12.18।।जो शत्रुमित्रमें और मानापमानमें अर्थात् सत्कार और तिरस्कारमें समान रहता है एवं शीतउष्ण और सुखदुःखमें भी समभाववाला है तथा सर्वत्र आसक्तिसे रहित हो चुका है।
।।12.18।। --,समः शत्रौ च मित्रे च? तथा मानापमानयोः पूजापरिभवयोः? शीतोष्णसुखदुःखेषु समः? सर्वत्र च सङ्गविवर्जितः।।किञ्च --,
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समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः।।12.18।।
সমঃ শত্রৌ চ মিত্রে চ তথা মানাপমানযোঃ৷ শীতোষ্ণসুখদুঃখেষু সমঃ সঙ্গবিবর্জিতঃ৷৷12.18৷৷
সমঃ শত্রৌ চ মিত্রে চ তথা মানাপমানযোঃ৷ শীতোষ্ণসুখদুঃখেষু সমঃ সঙ্গবিবর্জিতঃ৷৷12.18৷৷
સમઃ શત્રૌ ચ મિત્રે ચ તથા માનાપમાનયોઃ। શીતોષ્ણસુખદુઃખેષુ સમઃ સઙ્ગવિવર્જિતઃ।।12.18।।
ਸਮ ਸ਼ਤ੍ਰੌ ਚ ਮਿਤ੍ਰੇ ਚ ਤਥਾ ਮਾਨਾਪਮਾਨਯੋ। ਸ਼ੀਤੋਸ਼੍ਣਸੁਖਦੁਖੇਸ਼ੁ ਸਮ ਸਙ੍ਗਵਿਵਰ੍ਜਿਤ।।12.18।।
ಸಮಃ ಶತ್ರೌ ಚ ಮಿತ್ರೇ ಚ ತಥಾ ಮಾನಾಪಮಾನಯೋಃ. ಶೀತೋಷ್ಣಸುಖದುಃಖೇಷು ಸಮಃ ಸಙ್ಗವಿವರ್ಜಿತಃ৷৷12.18৷৷
സമഃ ശത്രൌ ച മിത്രേ ച തഥാ മാനാപമാനയോഃ. ശീതോഷ്ണസുഖദുഃഖേഷു സമഃ സങ്ഗവിവര്ജിതഃ৷৷12.18৷৷
ସମଃ ଶତ୍ରୌ ଚ ମିତ୍ରେ ଚ ତଥା ମାନାପମାନଯୋଃ| ଶୀତୋଷ୍ଣସୁଖଦୁଃଖେଷୁ ସମଃ ସଙ୍ଗବିବର୍ଜିତଃ||12.18||
samaḥ śatrau ca mitrē ca tathā mānāpamānayōḥ. śītōṣṇasukhaduḥkhēṣu samaḥ saṅgavivarjitaḥ৷৷12.18৷৷
ஸமஃ ஷத்ரௌ ச மித்ரே ச ததா மாநாபமாநயோஃ. ஷீதோஷ்ணஸுகதுஃகேஷு ஸமஃ ஸங்கவிவர்ஜிதஃ৷৷12.18৷৷
సమః శత్రౌ చ మిత్రే చ తథా మానాపమానయోః. శీతోష్ణసుఖదుఃఖేషు సమః సఙ్గవివర్జితః৷৷12.18৷৷
12.19
12
19
।।12.19।।जो शत्रु और मित्रमें तथा मान-अपमानमें सम है और शीतउष्ण (अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःखमें सम है एवं आसक्तिसे रहित है, और जो निन्दा-स्तुतिको समान समझनेवाला, मननशील, जिस-किसी प्रकारसे भी (शरीरका निर्वाह होनेमें) संतुष्ट, रहनेके स्थान तथा शरीरमें ममता-आसक्तिसे रहित और स्थिर बुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
।।12.19।। जिसको निन्दा और स्तुति दोनों ही तुल्य है, जो मौनी है, जो किसी अल्प वस्तु से भी सन्तुष्ट है, जो अनिकेत है, वह स्थिर बुद्धि का भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।।
।।12.19।। जो शत्रु और मित्र में सम है किसी व्यक्ति को शत्रु या मित्र के रूप में देखना मन का काम या खेल है। य़द्यपि ज्ञानी पुरुष किसी से शत्रुता नहीं रखता? परन्तु अन्य लोग उसके प्रति शत्रु या मित्र भाव रख सकते हैं। उन दोनों के साथ एक भक्त समान रूप से व्यवहार करता है।जो मान और अपमान में सम है स्वयं को सम्मानित या अपमानित अनुभव करना बुद्धि का धर्म है। बुद्धि अपने ही मापदण्ड निर्धारित करके लोगों के व्यवहार का मूल्यांकन करती रहती है। जिस किसी प्रकार के व्यवहार से मनुष्य सम्मानित अनुभव करता है? वही उसे अपमान प्रतीत होता है? जब उसके जीवन मूल्य परिवर्तित हो जाते हैं। जो पुरुष बुद्धि के स्तर पर रहता है? उसे ही मान और अपमान प्रभावित कर सकते हैं? आत्मस्वरूप में स्थित भक्त को नहीं।जो शीत और उष्ण में सम रहता है शीत और उष्ण का अनुभव शरीर द्वारा होता है और उसका प्रभाव भी शरीर पर ही पड़ता है। अम्ल? अग्नि या बर्फ का विचार करने मात्र से भावनाएं अथवा विचार उष्ण या शीत नहीं हो जाते वे केवल स्थूल शरीर को ही प्रभावित कर सकते हैं। अत संस्कृत का यह वाक्प्रचार जब वेदान्त में प्रयोग किया जाता है? तब उससे तात्पर्य उन समस्त अनुभवों से होता है? जो स्थूल शरीर के स्तर पर प्राप्त किये जाते हैं और जिनका उत्तरदायी शरीर ही होता है।उपर्युक्त तीन प्रकार के अनुभवों में? वस्तुत? जीवन में शरीर? मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले समस्त अनुभवों का समावेश हो जाता है। इन सबमें परम भक्त पुरुष अक्षुब्ध रहता है? क्योंकि वह आसक्तिरहित होता है। अनात्म उपाधियों से आसक्ति होने के कारण ही हम अपने जीवन में होने वाली प्रत्येक अल्पसी घटना से भी अत्यधिक विचलित हो जाते हैं जबकि संगरहित पुरुष उन सबका शासक बन कर रहता है।तुल्यनिन्दास्तुति इस विशेषण से यह नहीं समझें कि भक्त अपने अपमान निन्दा या स्तुति के प्रति संवेदनशून्य हो जाता है? और उसमें इतनी भी बुद्धिमत्ता नहीं होती कि वह उन्हें ठीक से समझ पाये। एक महान् भक्त जो अपने सर्वोपाधिविनिर्मुक्त सच्चिदानन्द स्वरूप की रसानुभूति में मग्न रहता है? उसे संसारी पुरुषों द्वारा की गई निन्दा और स्तुति अत्यन्त तुच्छ और अर्थहीन प्रतीत होती है। वह भलीभाँति जानता है कि जिस पुरुष की समाज में आज स्तुति और प्रशंसा की जा रही है? उसी पुरुष को यही समाज कल अपमानित भी करेगा और आज का निन्दित पुरुष कल का स्तुत्य नेता भी बनेगा निन्दा और स्तुति दोनों ही संसारी लोगों के मन में क्षणिक तरंग मात्र होती है मौनी ज्ञानी भक्त मौनी होता है। इसका अर्थ है कि वह अतिवादी नहीं होता। मौन का वास्तविक अर्थ है मननशीलता। अत केवल वाचिक मौन वास्तविक मौन नहीं कहा जा सकता। केवल वाणी के मौन से पुरुष का मन तो वाचाल बना रहता है? और उसका परिणाम गम्भीर रूप भी धारण कर सकता है। मौन होकर देंखें? तो ज्ञात होगा कि मौन कितना शान्त हो सकता हैकिसी भी अल्प वस्तु से वह सन्तुष्ट हो जाता है आन्तरिक विकास के निष्ठावान् साधकों का यह सिद्धांत या आदर्श होता है कि उन्हें जो कोई वस्तु संयोग से? बिना मांगे और अनपेक्षित रूप से प्राप्त हो जाती है? उसी से वे सन्तुष्ट रहते हैं। जीवन में अनेक इच्छाएं करके उन्हें पूर्ण करने के लिए दिनरात प्रयत्न करते रहना? एक कभी न समाप्त होने वाला खेल है? क्योंकि निरन्तर तीव्र गति से इच्छाओं को उत्पन्न करते रहने की कला में मनुष्य का मन निपुण होता है। समस्त लगनशील साधकों के लिए सन्तोष की नीति अपनाना ही बुद्धिमत्ता की लाभदायक बात है अन्यथा जीवन के दिव्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसके पास कभी समय नहीं रहेगा। निष्ठा एवं सावधानीपूर्वक की गई साधना का फल व्यक्तित्व का सुगठन और आत्मानुभूति है। महाभारत में कहा गया है कि जिस किसी भी वस्त्र से आवृत? जिस किसी के भी द्वारा भोजन कराये हुए तथा जहाँ कहीं भी शयन करने वाले पुरुष को देवतागण ब्राह्मण समझते हैं।अनिकेत इस शब्द का अर्थ है वह पुरुष जो गृहरहित है। सामान्यत गृह उसे कहते हैं? जो उसमें निवास करने वाले लोगों की बाह्य जलवायु की प्रचण्डताओं से रक्षा करता है। आत्मज्ञान का साधक पुरुष सभी उपाधियों से तादात्म्य को तोड़कर उनके साथ के ममत्वरूपी बन्धनों से विमुक्त होने का प्रयत्न करता है।किसी एक छत के नीचे रहने मात्र से वह गृह नहीं कहलाता। रेलवे स्टेशन पर अथवा विमान स्थल के विश्रामगृह में रात भर निवास करने से वह अपना घर नहीं बन जाता। परन्तु जिस छत के नीचे के निवास स्थान में ममत्व का अभिमान तथा वहाँ रहने से सुख और आराम का अनुभव होता है वह स्थान अपना घर बन जाता है। भक्त का आश्रय और निवास स्थान तो सर्वव्यापी परमात्मा ही होने के कारण इन लौकिक गृहों में वह ममत्व भाव से रहित होता है। उसके मन की स्थिति या भाव को यहाँ सरल किन्तु अत्यन्त उपयुक्त शब्द अनिकेत के द्वारा दर्शाया गया है।भगवत्स्वरूप के विषय में जिसकी मति स्थिर हो गयी है? अर्थात् उसे कोई संशय नहीं रह गया है? ऐसा भक्तिमान पुरुष (नर) मुझे प्रिय है। नर शब्द से यह अभिप्राय प्रतीत होता है कि जो पुरुष कमसेकम इस भक्तिमार्ग पर चलने का प्रयत्न करता है? वही गीताचार्य की दृष्टि से विकसित मनुष्य कहलाने योग्य है।इन दो श्लोकों को मिलाकर यह पांचवा भाग है जिसमें भक्त के दस लक्षण बताये गए हैं। इस प्रकार अब तक छत्तीस गुणों का वर्णन करके भगवान् श्रीकृष्ण ने एक ज्ञानी भक्त का सम्पूर्ण शब्दचित्र चित्रित कर दिया है। इस चित्र में हमें भक्त का व्यवहार? उसका मानसिक जीवन और जगत् के प्राणियों एवं घटनाओं के प्रति उसके बौद्धिक मूल्यांकन आदि का दर्शन होता है।एक उत्तम भक्त के नैतिक एवं सदाचार के गुणों का वर्णन करने वाले इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं
।।12.19।। व्याख्या--'समः शत्रौ च मित्रे च'--यहाँ भगवान्ने भक्तमें व्यक्तियोंके प्रति होनेवाली समताका वर्णन किया है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने तथा राग-द्वेषसे रहित होनेके कारण सिद्ध भक्तका किसीके भी प्रति शत्रु-मित्रका भाव नहीं रहता। लोग ही उसके व्यवहारमें अपने स्वभावके अनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलताको देखकर उसमें मित्रता या शत्रुताका आरोप कर लेते हैं। साधारण लोगोंका तो कहना ही क्या है, सावधान रहनेवाले साधकोंका भी उस सिद्ध भक्तके प्रति मित्रता और शत्रुताका भाव हो सकता है। परंतु भक्त अपने-आपमें सदैव पूर्णतया सम रहता है। उसके हृदयमें कभी किसीके प्रति शत्रु-मित्रका भाव उत्पन्न नहीं होता। मान लिया जाय कि भक्तके प्रति शत्रुता और मित्रताका भाव रखनेवाले दो व्यक्तियोंमें धनके बँटवारेसे सम्बन्धित कोई विवाद हो जाय और उसका निर्णय करानेके लिये वे भक्तके पास जायँ, तो भक्त धनका बँटवारा करते समय शत्रुभाववाले व्यक्तिको कुछ अधिक और मित्र-भाववाले व्यक्तिको कुछ कम धन देगा। यद्यपि भक्तके इस निर्णय-(व्यवहार-) में विषमता दीखती है, तथापि शत्रु-भाववाले व्यक्तिको इस निर्णयमें समता दिखायी देगी कि इसने पक्षपातरहित बँटवारा किया है। अतः भक्तके इस निर्णयमें विषमता (पक्षपात) दीखनेपर भी वास्तवमें यह (समताको उत्पन्न करनेवाला होनेसे) समता ही कहलायेगी।   उपर्युक्त पदोंसे यह भी सिद्ध होता है कि सिद्ध भक्तके साथ भी लोग (अपने भावके अनुसार) शत्रुता-मित्रताका व्यवहार करते हैं और उसके व्यवहारसे अपनेको उसका शत्रु-मित्र मान लेते हैं। इसीलिये उसे यहाँ शत्रु-मित्रसे रहित न कहकर 'शत्रु-मित्रमें' सम कहा गया है।   'तथा मानापमानयोः'-- मान-अपमान परकृत क्रिया है, जो शरीरके प्रति होती है। भक्तकी अपने कहलानेवाले शरीरमें न तो अहंता होती है, न ममता। इसलिये शरीरका मानअपमान होनेपर भी भक्तके अन्तःकरणमें कोई विकार (हर्ष-शोक) पैदा नहीं होता। वह नित्य-निरन्तर समतामें स्थित रहता है।    'शीतोष्णसुखदुःखेषु समः'-- इन पदोंमें दो स्थानोंपर सिद्ध भक्तकी समता बतायी गयी है --    (1) शीत-उष्णमें समता अर्थात् इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयोंसे संयोग होनेपर अन्तःकरणमें कोई विकार न होना।(2) सुख-दुःखमें समता अर्थात् धनादि पदार्थोंकी प्राप्ति या अप्राप्ति होनेपर अन्तःकरणमें कोई विकार न होना।'शीतोष्ण' शब्दका अर्थ 'सरदी-गरमी' होता है। सरदी-गरमी त्वगिन्द्रियके विषय हैं। भक्त केवल त्वगिन्द्रियके विषयोंमें ही सम रहता हो, ऐसी बात नहीं है। वह तो समस्त इन्द्रियोंके विषयोंमें सम रहता है। अतः यहाँ 'शीतोष्ण' शब्द समस्त इन्द्रियोंके विषयोंका वाचक है। प्रत्येक इन्द्रियका अपने-अपने विषयके साथ संयोग होनेपर भक्तको उन (अनुकूल या प्रतिकूल) विषयोंका ज्ञान तो होता है, पर उसके अन्तःकरणमें, हर्ष-शोकादि विकार नहीं होते। वह सदा सम रहता है।    साधारण मनुष्य धनादि अनुकूल पदार्थोंकी प्राप्तिमें सुख तथा प्रतिकूल पदार्थोंकी प्राप्तिमें दुःखका अनुभव करते हैं। परन्तु उन्हीं पदार्थोंके प्राप्त होने अथवा न होनेपर सिद्ध भक्तके अन्तःकरणमें कभी किञ्चिन्मात्र भी राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विकार नहीं होते। वह प्रत्येक परिस्थितिमें सम रहता है।    'सुख-दुःखमें' सम रहने तथा 'सुख-दुःखसे' रहित' होने -- दोनोंका गीतामें एक ही अर्थमें प्रयोग हुआ है। सुख-दुःखकी परिस्थिति अवश्यम्भावी है; अतः उससे रहित होना सम्भव नहीं है। इसलिये भक्त अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियोंमे सम रहता है। हाँ, अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितिको लेकर अन्तःकरणमें जो हर्ष-शोक होते हैं, उनसे रहित हुआ जा सकता है। इस दृष्टिसे गीतामें जहाँ 'सुख-दुःखमें' सम होनेकी बात आयी है, वहाँ सुखदुःखकी परिस्थितिमें सम समझना चाहिये और जहाँ सुखदुःखसे रहित होनेकी बात आयी है, वहाँ (अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितिकी प्राप्तिसे होनेवाले) हर्ष-शोकसे रहित समझना चाहिये।    'सङ्गविवर्जितः'-- सङ्ग शब्दका अर्थ सम्बन्ध (संयोग) तथा आसक्ति दोनों ही होते हैं। मनुष्यके लिये यह सम्भव नहीं है कि वह स्वरूपसे सब पदार्थोंका सङ्ग अर्थात् सम्बन्ध छोड़ सके; क्योंकि जबतक मनुष्य जीवित रहता है, तबतक शरीर-मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ उसके साथ रहती ही हैं। हाँ, शरीरसे भिन्न कुछ पदार्थोंका त्याग स्वरूपसे किया जा सकता है। जैसे किसी व्यक्तिने स्वरूपसे प्राणीपदार्थोंका सङ्ग छो़ड़ दिया, पर उसके अन्तःकरणमें अगर उनके प्रति किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति बनी हुई है, तो उन प्राणीपदार्थोंसे दूर होते हुए भी वास्तवमें उसका उनसे सम्बन्ध बना हुआ ही है। दूसरी ओर, अगर अन्तःकरणमें प्राणीपदार्थोंकी किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति नहीं है, तो पास रहते हुए भी वास्तवमें उनसे सम्बन्ध नहीं है। अगर पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही मुक्ति होती, तो मरनेवाला हरेक व्यक्ति मुक्त हो जाता क्योंकि उसने तो अपने शरीरका भी त्याग कर दिया परन्तु ऐसी बात है नहीं। अन्तःकरणमें आसक्तिके रहते हुए शरीरका त्याग करनेपर भी संसारका बन्धन बना रहता है। अतः मनुष्यको सांसारिक आसक्ति ही बाँधनेवाली है, न कि सांसारिक प्राणीपदार्थोंका स्वरूपसे सम्बन्ध।    आसक्तिको मिटानेके लिये पदार्थोंका स्वरूपसे त्याग करना भी एक साधन हो सकता है; किंतु खास जरूरत आसक्तिका सर्वथा त्याग करनेकी ही है। संसारके प्रति यदि किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति है, तो उसका चिन्तन अवश्य होगा। इस कारण वह आसक्ति साधकको क्रमशः कामना, क्रोध, मूढ़ता आदिको प्राप्त कराती हुई उसे पतनके गर्तमें गिरानेका हेतु बन सकती है (गीता 2। 62 63)।    भगवान्ने दूसरे अध्यायके उनसठवें श्लोकमें 'परं दृष्ट्वा निवर्तते'पदोंसे भगवत्प्राप्तिके बाद आसक्तिकी सर्वथा निवृत्तिकी बात कही है। भगवत्प्राप्तिसे पहले भी आसक्तिकी निवृत्ति हो सकती है, पर भगवत्प्राप्तिके बाद तो आसक्ति सर्वथा निवृत्त हो ही जाती है। भगवत्प्राप्त महापुरुषमें आसक्तिका सर्वथा अभाव होता ही है। परन्तु भगवत्प्राप्तिसे पूर्व साधनावस्थामें आसक्तिका सर्वथा अभाव होता ही नहीं -- ऐसा नियम नहीं है। साधनावस्थामें भी आसक्तिका सर्वथा अभाव होकर साधकको तत्काल भगवत्प्राप्ति हो सकती है। (गीता 5। 21 16। 22)।    आसक्ति न तो परमात्माके अंश शुद्ध चेतनमें रहती है और न जड-(प्रकृति-) में ही। वह जड और चेतनके सम्बन्धरूप 'मैं'-पनकी मान्यतामें रहती है। वही आसक्ति बुद्धि, मन, इन्द्रियों और विषयों-(पदार्थों-) में प्रतीत होती है। अगर साधकके 'मैं'-पनकी मान्यतामें रहनेवाली आसक्ति मिट जाय, तो दूसरी जगह प्रतीत होनेवाली आसक्ति स्वतः मिट जायगी। आसक्तिका कारण अविवेक है। अपने विवेकको पूर्णतया महत्त्व न देनेसे साधकमें आसक्ति रहती है। भक्तमें अविवेक नहीं रहता। इसलिये वह आसक्तिसे सर्वथा रहित होता है।    अपने अंशी भगवान्से विमुख होकर भूलसे संसारको अपना मान लेनेसे संसारमें राग हो जाता है और राग होनेसे संसारमें आसक्ति हो जाती है। संसारसे माना हुआ अपनापन सर्वथा मिट जानेसे बुद्धि सम हो जाती है। बुद्धिके सम होनेपर स्वयं आसक्ति रहित हो जाता है। मार्मिक बात वास्तवमें जीवमात्रकी भगवान्के प्रति स्वाभाविक अनुरक्ति (प्रेम) है। जबतक संसारके साथ भूलसे माना हुआ अपनेपनका सम्बन्ध है, तबतक वह अनुरक्ति प्रकट नहीं होती, प्रत्युत संसारमें आसक्तिके रूपमें प्रतीत होती है। संसारकी आसक्ति रहते हुए भी वस्तुतः भगवान्की अनुरक्ति मिटती नहीं। अनुरक्तिके प्रकट होते ही आसक्ति (सूर्यका उदय होनेपर अंधकारकी तरह) सर्वथा निवृत्त हो जाती है। ज्यों-ज्यों संसारसे विरक्ति होती है, त्यों-ही-त्यों भगवान्में अनुरक्ति प्रकट होती है। यह नियम है कि आसक्तिको समाप्त करके विरक्ति स्वयं भी उसी प्रकार शान्त हो जाती है, जिस प्रकार लकड़ीको जलाकर अग्नि। इस प्रकार आसक्ति और विरक्तिके न रहनेपर स्वतः-स्वाभाविक अनुरक्ति-(भगवत्प्रेम-) का स्रोत प्रवाहित होने लगता है। इसके लिये किञ्चिन्मात्र भी कोई उद्योग नहीं करना पड़ता। फिर भक्त सब प्रकारसे भगवान्के पूर्ण समर्पित हो जाता है। उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान्की प्रियताके लिये ही होती हैं। उससे प्रसन्न होकर भगवान् उस भक्तको अपना प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त उस प्रेमको भी भगवान्के ही प्रति लगा देता है। इससे भगवान् और आनन्दित होते हैं तथा पुनः उसे प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त पुनः उसे भगवान्के प्रति लगा देता है। इस प्रकार भक्त और भगवान्के बीच प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमके आदान-प्रदानकी यह लीला चलती रहती है।    'तुल्यनिन्दास्तुतिः'-- निन्दा-स्तुति मुख्यतः नामकी होती है। यह भी परकृत क्रिया है। लोग अपने स्वभावके अनुसार भक्तकी निन्दा या स्तुति किया करते हैं। भक्तमें अपने कहलानेवाले नाम और शरीरमें लेशमात्र भी अहंता और ममता नहीं होती। इसलिये निन्दास्तुतिका उसपर लेशमात्र भी असर नहीं पड़ता। भक्तका न तो अपनी स्तुति या प्रशंसा करनेवालेके प्रति राग होता है और न निन्दा करनेवालेके प्रति द्वेष ही होता है। उसकी दोनोंमें ही समबुद्धि रहती है।    साधारण मनुष्योंके भीतर अपनी प्रशंसाकी कामना रहा करती है, इसलिये वे अपनी निन्दा सुनकर दुःखका और स्तुति सुनकर सुखका अनुभव करते हैं। इसके विपरीत (अपनी प्रशंसा न चाहनेवाले) साधक पुरुष निन्दा सुनकर सावधान होते हैं और स्तुति सुनकर लज्जित होते हैं। परन्तु नाममें किञ्चिन्मात्र भी अपनापन न होनेके कारण सिद्ध भक्त इन दोनों भावोंसे रहित होता है अर्थात् निन्दास्तुतिमें सम होता है। हाँ, वह भी कभीकभी लोकसंग्रहके लिये साधककी तरह (निन्दामें सावधान तथा स्तुतिमें लज्जित होनेका) व्यवहार कर सकता है।       भक्तकी सर्वत्र भगवद्बुद्धि होनेके कारण भी उसका निन्दा-स्तुति करनेवालोंमें भेदभाव नहीं होता। ऐसा भेदभाव न रहनेसे ही यह प्रतीत होता है कि वह निन्दास्तुतिमें सम है।भक्तके द्वारा अशुभ कर्म तो हो ही नहीं सकते और शुभकर्मोंके होनेमें वह केवल भगवान्को हेतु मानता है। फिर भी उसकी कोई निन्दा या स्तुति करे, तो उसके चित्तमें कोई विकार पैदा नहीं होता।    'मौनी'-- सिद्ध भक्तके द्वारा स्वतःस्वाभाविक भगवत्स्वरूपका मनन होता रहता है, इसलिये उसको 'मौनी' अर्थात् मननशील कहा गया है। अन्तःकरणमें आनेवाली प्रत्येक वृत्तिमें उसको वासुदेवः सर्वम् (गीता 7। 19) सब कुछ भगवान् ही हैं -- यही दीखता है। इसलिये उसके द्वारा निरन्तर ही भगवान्का मनन होता है।    यहाँ 'मौनी' पदका अर्थ वाणीका मौन रखनेवाला नहीं माना जा सकता; क्योंकि ऐसा माननेसे वाणीके द्वारा भक्तिका प्रचार करनेवाले भक्त पुरुष भक्त ही नहीं कहलायेँगे। इसके सिवाय अगर वाणीका मौन रखनेमात्रसे भक्त होना सम्भव होता, तो भक्त होना बहुत ही आसान हो जाता और ऐसे भक्त अंसख्य बन जाते; किंतु संसारमें भक्तोंकी संख्या अधिक देखनेमें नहीं आती। इसके सिवाय आसुर स्वभाववाला दम्भी व्यक्ति भी हठपूर्वक वाणीका मौन रख सकता है। परन्तु यहाँ भगवत्प्राप्त सिद्ध भक्तके लक्षण बताये जा रहे हैं। इसलिये यहाँ 'मौनी' पदका अर्थ 'भगवत्स्वरूपका मनन करनेवाला' ही मानना युक्तिसंगत है।    'संतुष्टो येन केनचित्'-- दूसरे लोगोंको भक्त 'संतुष्टो येन केनचित्' अर्थात् प्रारब्धानुसार शरीरनिर्वाहके लिये जो कुछ मिल जाय, उसीमें संतुष्ट दीखता है परन्तु वास्तवमें भक्तकी संतुष्टिका कारण कोई सांसारिक पदार्थ, परिस्थिति आदि नहीं होती। एकमात्र भगवान्में ही प्रेम होनेके कारण वह नित्यनिरन्तर भगवान्में ही संतुष्ट रहता है। इस संतुष्टिके कारण वह संसारकी प्रत्येक अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिमें सम रहता है क्योंकि उसके अनुभवमें प्रत्येक अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भगवान्के मङ्लमय विधानसे ही आती है। इस प्रकार प्रत्येक परिस्थितिमें नित्यनिरन्तर संतुष्ट रहनेके कारण उसे 'संतुष्टो येन केनचित्' कहा गया है।    'अनिकेतः'-- जिनका कोई निकेत अर्थात् वासस्थान नहीं है, वे ही अनिकेत हों -- ऐसी बात नहीं है। चाहे गृहस्थ हों या साधुसंन्यासी, जिनकी अपने रहनेके स्थानमें ममताआसक्ति नहीं है, वे सभी अनिकेत हैं। भक्तका रहनेके स्थानमें और शरीर (स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर) में लेशमात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिये उसको 'अनिकेतः' कहा गया है।    'स्थिरमतिः'-- भक्तकी बुद्धिमें भगवत्तत्त्वकी सत्ता और स्वरूपके विषयमें कोई संशय अथवा विपर्यय (विपरीत ज्ञान) नहीं होता। अतः उसकी बुद्धि भगवत्तत्त्वके ज्ञानसे कभी किसी अवस्थामें विचलित नहीं होती। इसलिये उसको 'स्थिरमतिः' कहा गया है। भगवत्तत्त्वको जाननेके लिये उसको कभी किसी प्रमाण या शास्त्रविचार, स्वाध्याय आदिकी जरूरत नहीं रहती क्योंकि वह स्वाभाविकरूपसे भगवत्तत्त्वमें तल्लीन रहता है।    स्थिरबुद्धि होनेमें कामनाएँ ही बाधक होती हैं (गीता 2। 44)। अतः कामनाओंके त्यागसे ही स्थिरबुद्धि होना सम्भव है (गीता 2। 55)। अन्तःकरणमें सांसारिक (संयोगजन्य) सुखकी कामना रहनेसे संसारमें आसक्ति हो जाती है। यह आसक्ति संसारको असत्य या मिथ्या जान लेनेपर भी मिटती नहीं जैसे -- सिनेमामें दीखनेवाले दृश्य(प्राणीपदार्थों) को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है अथवा जैसे भूतकालकी बातोंको याद करते समय मानसिक दृष्टिके सामने आनेवाले दृश्यको मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जबतक भीतरमें सांसारिक सुखकी कामना है, तबतक संसारको मिथ्या माननेपर भी संसारकी आसक्ति नहीं मिटती। आसक्तिसे संसारकी स्वतन्त्र सत्ता दृढ़ होती है। सांसारिक सुखकी कामना मिटनेपर आसक्ति स्वतः मिट जाती है। आसक्ति मिटनेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है और एक भगवत्तत्त्वमें बुद्धि स्थिर हो जाती है।    'भक्तिमान्मे प्रियो नरः -- भक्तिमान्' पदमें भक्ति शब्दके साथ नित्ययोगके अर्थमें 'मतुप्' प्रत्यय है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्यमें स्वाभाविकरूपसे भक्ति (भगवत्प्रेम) रहती है। मनुष्यसे भूल यही होती है कि वह भगवान्को छोड़कर संसारकी भक्ति करने लगता है। इसलिये उसे स्वाभाविक रहनेवाली भगवद्भक्तिका रस नहीं मिलता और उसके जीवनमें नीरसता रहती है। सिद्ध भक्त हरदम भक्तिरसमें तल्लीन रहता है। इसलिये उसको 'भक्तिमान्' कहा गया है। ऐसा भक्तिमान् मनुष्य भगवान्को प्रिय होता है।    'नरः'पद देनेका तात्पर्य है कि भगवान्को प्राप्त करके जिसने अपना मनुष्यजीवन सफल (सार्थक) कर लिया है, वही वास्तवमें नर (मनुष्य) कहलानेयोग्य है। जो मनुष्यशरीरको पाकर सांसारिक भोग और संग्रहमें ही लगा हुआ है, वह नर (मनुष्य) कहलानेयोग्य नहीं है।    [इन दो श्लोकोंमें भक्तके सदा-सर्वदा समभावमें स्थित रहनेकी बात कही गयी है। शत्रुमित्र, मानअपमान, शीतउष्ण, सुख-दुःख और निन्दास्तुति -- इन पाँचों द्वन्द्वोंमें समता होनेसे ही साधक पूर्णतः समभावमें स्थित कहा जा सकता है।]प्रकरणसम्बन्धी विशेष बात    भगवान्ने पहले प्रकरणके अन्तर्गत तेरहवेंचौदहवें श्लोकोंमें सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंका वर्णन करके अन्तमें 'यो मद्भक्तः स मे प्रियः' कहा, दूसरे प्रकरणके अन्तर्गत पन्द्रहवें श्लोकके अन्तमें 'यः स च मे प्रियः' कहा, तीसरे प्रकरणके अन्तर्गत सोलहवें श्लोकके अन्तमें 'यो मद्भक्तः स मे प्रियः' कहा, चौथे प्रकरणके अन्तर्गत सत्रहवें श्लोकके अन्तमें 'भक्तिमान् यः स म प्रियः' कहा और अन्तिम पाँचवें प्रकरणके अन्तर्गत अठारहवेंउन्नीसवें श्लोकोंके अन्तमें 'भक्तिमान् मे प्रियो नरः' कहा। इस प्रकार भगवान्ने पाँच बार अलगअलग मे प्रियः पद देकर सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको पाँच भागोंमें विभक्त किया है। इसलिये सात श्लोकोंमें बताये गये सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको एक ही प्रकरणके अन्तर्गत नहीं समझना चाहिये। इसका मुख्य कारण यह है कि यदि यह एक ही प्रकरण होता, तो एक लक्षणको बारबार न कहकर एक ही बार कहा जाता, और 'मे प्रियः' पद भी एक ही बार कहे जाते।पाँचों प्रकरणोंके अन्तर्गत सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें रागद्वेष और हर्षशोकका अभाव बताया गया है। जैसे, पहले प्रकरणमें 'निर्ममः' पदसे रागका,'अद्वेष्टा' पदसे द्वेषका और 'समदुःखसुखः' पदसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। दूसरे प्रकरणमें 'हर्षामर्षभयोद्वेगैः' पदसे रागद्वेष और हर्षशोकका अभाव बताया गया है। तीसरे प्रकरणमें 'अनपेक्षः' पदसे रागका,'उदासीनः' पदसे द्वेषका और 'गतव्यथः' पदसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। चौथे प्रकरणमें 'न काङ्क्षति' पदोंसे रागका,'न द्वेष्टि' पदोंसे द्वेषका और 'न हृष्यति' तथा 'न' 'शोचति' पदोंसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है। अन्तिम पाँचवें प्रकरणमें 'सङ्गविवर्जितः' पदसे रागका,'संतुष्टः' पदसे एकमात्र भगवान्में ही सन्तुष्ट रहनेके कारण द्वेषका और 'शीतोष्णसुखदुःखेषु समः' पदोंसे हर्षशोकका अभाव बताया गया है।अगर सिद्ध भक्तोंके लक्षण बतानेवाला (सात श्लोकोंका) एक ही प्रकरण होता, तो सिद्ध भक्तमें रागद्वेष, हर्षशोकादि विकारोंके अभावकी बात कहीं शब्दोंसे और कहीं भावसे बारबार कहनेकी जरूरत नहीं होती। इसी तरह चौदहवें और उन्नीसवें श्लोकमें 'सन्तुष्टः' पदका तथा तेरहवें श्लोकमें 'समदुःखसुखः' और अठारहवें श्लोकमें शीतोष्णसुखदुःखेषु समः पदोंका भी सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें दो बार प्रयोग हुआ है, जिससे (सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंका एक ही प्रकरण माननेसे) पुनरुक्तिका दोष आता है। भगवान्के वचनोंमें पुनरुक्तिका दोष आना सम्भव ही नहीं। अतः सातों श्लोकोंके विषयको एक प्रकरण न मानकर अलगअलग पाँच प्रकरण मानना ही युक्तिसंगत है।    इस तरह पाँचों प्रकरण स्वतन्त्र (भिन्नभिन्न) होनेसे किसी एक प्रकरणके भी सब लक्षण जिसमें हों, वही भगवान्का प्रिय भक्त है। प्रत्येक प्रकरणमें सिद्ध भक्तोंके अलगअलग लक्षण बतानेका कारण यह है कि साधनपद्धति, प्रारब्ध, वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदिके भेदसे सब भक्तोंकी प्रकृति(स्वभाव) में परस्पर थोड़ाबहुत भेद रहा करता है। हाँ, रागद्वेष, हर्षशोकादि विकारोंका अत्यन्ताभाव एवं समतामें स्थिति और समस्त प्राणियोंके हितमें रति सबकी समान ही होती है।    साधकको अपनी रुचि, विश्वास, योग्यता, स्वभाव आदिके अनुसार जो प्रकरण अपने अनुकूल दिखायी दे, उसीको आदर्श मानकर उसके अनुसार अपना जीवन बनानेमें लग जाना चाहिये। किसी एक प्रकरणके भी यदि पूरे लक्षण अपनेमें न आयें, तो भी साधकको निराश नहीं होना चाहिये। फिर सफलता अवश्यम्भावी है।
।।12.15 -- 12.20।।यस्मादित्यादि मे प्रिया इत्यन्तम्। अनिकेतः -- इदमेव मया कर्तव्यम् इति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा। यथाप्राप्तहेवाकितया सुखदुःखादिकमुपभुञ्ज्ञानः परमेश्वरविषयसमावेशितहृदयः सुखेनैव प्राप्नोति परमकैवल्यम् इति।।।शिवम्।।
।।12.19।।अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् (गीता 12।13) इत्यादिना शत्रुमित्रादिषु द्वेषादिरहितत्वम् उक्तम्। अत्र तेषु सन्निहितेषु अपि समचित्तत्वम्? ततः अपि अतिरिक्तो विशेष उच्यते।आत्मनि स्थिरमतित्वेन निकेतनादिषु असक्त इति अनिकेतः? तत एव मानापमानादिषु अपि समः? य एवंभूतो भक्तिमान् स मे प्रियः।अस्माद् आत्मनिष्ठात् मद्भक्तियोगनिष्ठस्य श्रैष्ठ्यं प्रतिपादयन् यथोपक्रमम् उपसंहरति --
।।12.19।।वाग्यतत्वादिविशेषणमपि ज्ञाननिष्ठस्यास्तीत्याह -- किञ्चेति। निन्दा दोषसंकीर्तनं? स्तुतिर्गुणगणनम्? देहस्थितिमात्रफलेनान्नादिना ज्ञानिनः संतुष्टत्वे स्मृतिं प्रमाणयति -- तथाचेति। नियतनिवासराहित्यमपि ज्ञानवतो विशेषणमित्याह -- किञ्चेति।न कुड्यां नोदके सङ्गो न चैले न त्रिपुष्करे। नागारे नासने नान्ने यस्य वै मोक्षवित्तु सः इति स्मृतिमुक्तेऽर्थे प्रमाणयति -- नेत्यादिना। पुनःपुनर्भक्तेर्ग्रहणमपवर्गमार्गस्य परमार्थज्ञानस्योपायत्वार्थम्।
।।12.19।।तुल्येति। स्वनिन्दास्तुती तुल्ये यस्य? न भगवत इति ()। तथा मौनी संयतवाक्। स्वयं च येनकेनचित् सन्तुष्टः? भगवति तु तेनैवोपभोगं साधयमानः। अनिकेत इतितादृशस्य गृहस्थानं विनाशकं इति सूचयति। एवं बाधराम्भावनयाऽनिकेतत्वमुक्तम्। तत्रापिबाधसम्भावनायां तु नैकान्ते वास इष्यते इत्याशयेनास्य विष्णोर्निकेतने प्रतिमायां मन्दिरे वा भगवदीयेषु तन्निवासेषु वा स्थिरा मतिर्यस्येत्येकं वा पदम्।
।।12.19।।तुल्येति। किंच निन्दा दोषकथनं स्तुतिर्गुणकथनं ते दुःखसुखजनकतया तुल्ये यस्य स तथा। मौनी संयतवाक् नतु शरीरयात्रानिर्वाहाय वाग्व्यापारोऽपेक्षित एव नेत्याह। संतुष्टो येनकेनचित्स्वप्रयत्नमन्तरेणैव बलवत्प्रारब्धकर्मोपनीतेन शरीरस्थितिहेतुमात्रेणाशनादिना संतुष्टः निवृत्तस्पृहः। किंच अनिकेतो नियतनिवासरहितः। स्थिरा परमार्थवस्तुविषया मतिर्यस्य स स्थिरमतिः ईदृशो यो भक्तिमान् स मे प्रियो नरः। अत्र पुनःपुनर्भक्तेरुपादानं भक्तिरेवापवर्गस्य पुष्कलं कारणमिति द्रढयितुम्।
।।12.19।। तुल्य इति। तुल्ये निन्दास्तुती यस्य? मौनी संयतवाक्? येन केनचिद्यथालब्धेन संतुष्टः? अनिकेतो नियतवासशून्यः? स्थिरमतिर्व्यवस्थितचित्तः? एवंभूतो मद्भक्तिमान्यः स मे प्रियो नरः।
।। 12.19 समः शत्रौ च इत्यादिना श्लोकद्वयेन बहुविधं सहेतुकं साम्यमुच्यते तत्र पुनरुक्तिमाशङ्क्य परिहरतिअद्वेष्टेति। सन्निहितस्वरूपमानावमानादिद्वन्द्वान्तरसहपाठवशादत्र शत्रुमित्रयोरपि सन्निहितयोर्विवक्षा। सन्निधिर्हि विकारमतिशयेन जनयति।ततोऽप्यतिरिक्त इति दूरस्थासन्नसाधारणात् अद्वेषमात्रादतिरिक्त इत्यर्थः। क्वचिदपि सङ्गवर्जितत्वाच्छीतोष्णादिषु समत्वम्। निन्दास्तुत्योः फलभूतामर्षानुरागादिरहितत्वान्निष्फलत्ववेषेण तुल्यत्वम्।मौनी इति नात्र मननं विवक्षितम्?स्थिरमतिः इत्यनेनैव सिद्धत्वात् मुनिर्मननशीलः? तस्य भावो मित्यप्रसिद्धार्थता च स्यात् नापि समस्तशब्दानुच्चारणं त त्यन्तापेक्षाभावात्? सङ्कीर्तनादिविधेश्च न च कालविशेष देनियतमौनव्रतं? तस्योपयुक्तत्वेऽपि पूर्वोत्तरसङ्गत्यभावात् निन्दन्तं हि निन्दन्ति लौकिकाः? स्तुवन्तं च स्तुवन्ति ततः प्रसक्तनिन्दास्तोत्रप्रतिक्षेपपरत्वमेवोचितम्।सन्तुष्टो येनकेनचित् इति मौनित्वे हेत्वन्तरपरम् अन्यथासन्तुष्टः सततं योगी [12।14] इति पूर्वोक्तत्वेन पुनरुक्तिप्रसङ्गात्। यदृच्छयागतैर्यत्किञ्चिद्द्रव्यैरसन्तुष्टो हि सापेक्षतया स्तुतिपूर्वं कञ्चन याचते? अदातारं च द्विष्यात्। यद्वा अन्यस्तुतितात्पर्येण वा निन्दन्ति। स्थिरमतित्वस्य प्रकरणविशेषितं विषयं दर्शयन् सर्वस्योपरि निर्दिष्टस्य तस्य साक्षात्परम्परया वा पूर्वोक्तसमस्तहेतुत्वं च दर्शयतिआत्मनीति। निकेतननिषेधस्य क्षेत्रादिनिषेधोपलक्षणतया आदिशब्दः। अत्रसमः इति द्वौ परिव्राड्विषयाविति यादवप्रकाशोक्तस्य न लिङ्गं पश्यामः। शत्रुमित्रसाम्यादिगुणानां मुमुक्षौ गृहस्थेऽप्यवश्यम्भावादनिकेतत्वस्य चन शब्दशास्त्राभिरतस्य मोक्षो नचापि रम्यावसथप्रियस्य। न भोजनाच्छादनतत्परस्य न लोकचित्तग्रहणे रतस्य।।एकान्तशीलस्य दृढव्रतस्य पञ्चेन्द्रियाप्रीतिनिवर्तकस्य। अध्यात्मविद्यारतमानसस्य मोक्षो ध्रुवो नित्यमहिंसकस्य [वा.स्मृ.10।7आ.स्मृ.10।67] इत्यादिन्यायेन निस्सङ्गतयाऽपि विर्वाहात्? गृहस्थादिषु निकेतसद्भावनिषेधस्यानुपकारकत्वात्? तत्सद्भावस्य क्वचिद्योगाद्युपकारकैत्वसम्भावनया च तत्सङ्गमात्रमेव निषेव्यतया विवक्षितमिति दर्शयितुंअसक्त इत्युक्तम्। अत एवअद्वेष्टा [12।13] इत्यादीनां सर्वेषामप्यक्षरोपासकसन्न्यासिविषयत्वंशङ्करोक्तं निरस्तम्। क्वचित्सक्तस्य हि स्वरूपतः सुखत्वरहितैर्मानादिभिः प्रीत्यादिकम् अतः क्वचिदपि सङ्गाभावान्मानादिषु समत्वमित्याह -- तत एवेति पूर्वश्लोकेष्विवात्रापि यत्तच्छब्दाध्याहारेणोद्देश्य विधेयांशविभागं दर्शयतिय एवम्भूतो भक्तिमान्स मे प्रिय इति।
।।12.19।।तुल्ये निन्दास्तुती यस्य? निन्दितो च व्यथति? स्तुतो न हृष्यति स्वयं च न कञ्चन निन्दति न च स्तौति। मौनी वशवाक्। येनकेनचिद्भगवदिच्छाप्राप्तेन सन्तुष्टः। अनिकेतः गृहाद्यासक्तिरहितः। स्थिरमतिः? मयीत्यर्थः। एतादृशो यो भक्तिमान् भक्तियुक्तो नरः स मे प्रियः? प्रियो भवतीत्यर्थः।
।।12.19।।सर्वारम्भपरित्यागीत्येतद्व्याचष्टे -- तुल्येति। शिष्टेषु विगीतो न स्यामिति वा लोकेषु प्रख्यातः स्यामिति वा इदं मे भूयादिति वा कामयमानः किंचिदारभते नत्वयम्। तुल्यनिन्दास्तुतित्वात्संतुष्टत्वाच्च। मौनी संन्यासी। अतएवानिकेतो गृहशून्यः कुटीमपि वासार्थं नारभते। यतः स्थिरमतिः स्थितप्रज्ञो भक्तिमान्योगी मे मम प्रियो नरः पुरुषः।
।।12.19।।किंचैतदपि तत्त्वविदो विशेषणमित्याह -- तुल्येति। दोषानुर्णनं निन्दा। गुणानुकीर्तनं स्तुतिः। तुल्ये निन्दास्तुती यस्य सः निन्दास्तुतिभ्यां विषादं हर्षं च न प्राप्नोतीत्यर्थः। अतएव स्वयमपि कस्यचिन्निन्दां स्तुतिं वा न करोतीत्याह। मौनी यतवाक्। ननु वाग्व्यापारस्य चित्तानुकूलपदार्थलाभार्थमपेक्षितत्वात्कथं मौनीति चेत्तत्राह। संतुष्टो येनकेनचित् प्रारब्धवशादागतेन शरीरस्थिहेतुमात्रेण समीचीनेनासमीचीनेन वा सभ्यक् तुष्टः तदतिरिक्ते तृष्णाशून्यस्तदभावाच्च विषयप्राप्त्यर्थवाग्यव्यापारादिवर्जित इत्यर्थः। तथाच स्मृतिः -- येनकेनचिदाच्छन्नो येनकेनचिदाशितः। यत्रक्वचनशायी स्यात्तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। इति। वासस्थानमपि तस्य नियतं नास्तीत्याह। अनिकेतः निकेत आश्रयो निवासो नियतो न विद्यते यस्यः सः। तथाच स्मृत्यन्तरंन कुड्यां नोदके सङ्गो न चैले न त्रिपष्करे। नागारे नासने नान्ने यस्य वै मोक्षवित्तु सः।।इति। एतत्सर्वं कुत इत्यत आह। स्थिरमतिः। स्थिरमतिः स्थिरा परमार्थविषया मतिर्यस्य सः दृढतया परमात्मनि यस्य मतिः। स्थिता स इति यावत्। यत स्थिरमतिरिति वा। एतादृशो भक्तिमान्नरो मे प्रियः।तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते इति तत्त्वविदो भक्तस्य श्रैष्ठ्यमुपक्षितं तदेव द्रढयितुं पुनःपुनस्ततस्यैवान्येषां विशेषणानां विशेष्यत्वेन स्वप्रमास्पदत्वेन च ग्रहणम्। तथाच भाष्यंउत्तमां परमार्थज्ञानलक्षणां भक्तिमास्थितास्तेऽतीव मे प्रिया इत्यादि। पुनः पुनःर्भक्तर्गहणमपवर्गमार्गस्य परमार्थज्ञानस्योपायत्वार्थमिति तु भाष्यटीकाकृतः।
12.19 तुल्यनिन्दास्तुतिः to whom censure and praise are eal? मौनी -- silent? सन्तुष्टः contented? येनकेनचित् with anything? अनिकेतः homeless? स्थिरमतिः steadyminded? भक्तिमान् full of devotion? मे to Me? प्रियः dear? नरः (that) man.Commentary He is neither elated by praise nor pained by censure. He keeps a balanced state of mind. He has controlled the organ of speech and so he is silent. His mind also is serene and silent as he has controlled the thoughts also. He is ite content with the bare means of bodily sustenance. It is said in the Mahabharata (Santi Parva? Moksha Dharma) Who is dressed in anything? who eats any kind of food? who lies down anywhere? him the gods call a Brahmana or a liberated sage or Jivanmukta.He does not dwell in one place. He has no fixed abode. He is homeless. He regards the world as his dwelling place. His mind is ever fixed on Brahman. (Cf.VII.17IX.29XII.17)
12.19 He to whom censure and praise are eal, who is silent, content with anything, homeless, of a steady mind, and full of devotion that man is dear to Me.
12.19 Who is indifferent to praise and censure, who enjoys silence, who is contented with every fate, who has no fixed abode, who is steadfast in mind, and filled with devotion, such a one is My beloved.
12.19 The person to whom denunciation and praise are the same, who is silent, content with anything, homeless, steady-minded, and full of devotion is dear to Me.
12.19 Narah, the person; tulya-ninda-stutih, to whom denunciation and praise are the same; mauni, who is silent, restrained in speech; santustah, content; yena-kenacit, with anything-for the mere maintenance of the body, as has been said in, 'The gods know him to be a Brahmana who is clad by anyone whosoever' (Mbh. Sa. 245.12); further, aniketah, he who is homeless, who has no fixed place of residence-'without a home' [ The whole verse is 'He,however is certainly the knower of Liberation who has attachment neither for a hut, nor for water, nor cloth, nor the three places of pilgrimage, nor a home, nor a seat, nor food.'], as said in another Smrti; sthira-matih, steady-minded, whose thought is steady with regard to the Reality which is the supreme Goal; and bhaktiman, who is full of devotion-(he) is dear to Me. [There is a repeated mention of Bhakti in this Chapter because it is means to the Knowledge which leads to the supreme Goal.] The group of alities of the monks who meditate on the Immutable, who have renounced all desires, who are steadfast in the knowledge of the supreme Goal-which (alities) are under discussion beginning from 'He who is not hateful towards any creature' (13), is being concluded:
12.19. To whom blame and praise are eal; who is silent (does not over-speak) and is well content with one thing or other [that comes to him]; who has no fixed thought [in the mundane life]; who is [yet] steady-minded [in spiritual practice] and is full of devotion-that man is dear to Me.
12.19 See Comment under 12.20
12.18 - 12.19 The absence of hate etc., towards foes, friends etc., has already been taught in the stanza beginning with, 'He who never hates any being' (11.13). What is now taught is that eanimity to be practised even when such persons mentioned above are present before one who is superior to those having a general eanimous temperament referred to earlier. Who has no 'home', namely, who is not attached to home, etc., as he possesses firmness of mind with regard to the self. Because of this, he is 'same even in honour and dishonour.' He who is devoted to Me and who is like this - he is dear to Me. Showing the superiority of Bhakti-Nistha over Atma-nistha, Sri Krsna now concludes in accordance with what is stated at the beginning of this chapter in Verse 2.
12.19 He who regards alike both blame and praise, who is silent and content with any lot, who has no home, who is firm of mind, and who is devoted to Me - dear to Me is such a man.
।।12.19।। तथा --, जिसके लिये निन्दा और स्तुति दोनों बराबर हो गयी हैं? जो मुनि संयतवाक् है अर्थात् वाणी जिसके वशमें है तथा जो जिस किसी प्रकारसे भी शरीरस्थितिमात्रसे सन्तुष्ट है। कहा भी है कि जो जिस किसी ( अन्य ) मनुष्यद्वारा ही वस्त्रादिसे ढका जाता है? एवं जिस किसी ( दूसरे ) के द्वारा ही जिसको भोजन कराया जाता है और जो जहाँ कहीं भी सोनेवाला होता है उसको देवता लोग ब्राह्मण समझते हैं। तथा जो स्थानसे रहित है अर्थात् जिसका कोई नियत निवासस्थान नहीं है? अन्य स्मृतियोंमें भी अनागारः इत्यादि वचनोंसे यही कहा है? तथा जो स्थिरबुद्धि है -- जिसकी परमार्थविषयक बुद्धि स्थिर हो चुकी है? ऐसा भक्तिमान् पुरुष मेरा प्यारा है।
।।12.19।। -- तुल्यनिन्दास्तुतिः निन्दा च स्तुतिश्च निन्दास्तुती ते तुल्ये यस्य सः तुल्यनिन्दास्तुतिः। मौनी मौनवान् संयतवाक्। संतुष्टः येन केनचित् शरीरस्थितिहेतुमात्रेण तथा च उक्तम् -- येन केनचिदाच्छन्नो येन केनचिदाशितः। यत्र क्वचनशायी स्यात्तं देवा ब्राह्मणं विदुः (महा0 शान्ति0 245।12) इति। किञ्च? अनिकेतः निकेतः आश्रयः निवासः नियतः न विद्यते यस्य सः अनिकेतः? अनागारे इत्यादिस्मृत्यन्तरात्। स्थिरमतिः स्थिरा परमार्थविषया यस्य मतिः सः स्थिरमतिः। भक्ितमान् मे प्रियः नरः।।अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् (गीता 12।13) इत्यादिना अक्षरोपासकानां निवृत्तसर्वैषणानां संन्यासिनां परमार्थज्ञाननिष्ठानां धर्मजातं प्रक्रान्तम् उपसंह्रियते --,
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तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित्। अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्ितमान्मे प्रियो नरः।।12.19।।
তুল্যনিন্দাস্তুতির্মৌনী সন্তুষ্টো যেনকেনচিত্৷ অনিকেতঃ স্থিরমতির্ভক্িতমান্মে প্রিযো নরঃ৷৷12.19৷৷
তুল্যনিন্দাস্তুতির্মৌনী সন্তুষ্টো যেনকেনচিত্৷ অনিকেতঃ স্থিরমতির্ভক্িতমান্মে প্রিযো নরঃ৷৷12.19৷৷
તુલ્યનિન્દાસ્તુતિર્મૌની સન્તુષ્ટો યેનકેનચિત્। અનિકેતઃ સ્થિરમતિર્ભક્િતમાન્મે પ્રિયો નરઃ।।12.19।।
ਤੁਲ੍ਯਨਿਨ੍ਦਾਸ੍ਤੁਤਿਰ੍ਮੌਨੀ ਸਨ੍ਤੁਸ਼੍ਟੋ ਯੇਨਕੇਨਚਿਤ੍। ਅਨਿਕੇਤ ਸ੍ਥਿਰਮਤਿਰ੍ਭਕ੍ਿਤਮਾਨ੍ਮੇ ਪ੍ਰਿਯੋ ਨਰ।।12.19।।
ತುಲ್ಯನಿನ್ದಾಸ್ತುತಿರ್ಮೌನೀ ಸನ್ತುಷ್ಟೋ ಯೇನಕೇನಚಿತ್. ಅನಿಕೇತಃ ಸ್ಥಿರಮತಿರ್ಭಕ್ಿತಮಾನ್ಮೇ ಪ್ರಿಯೋ ನರಃ৷৷12.19৷৷
തുല്യനിന്ദാസ്തുതിര്മൌനീ സന്തുഷ്ടോ യേനകേനചിത്. അനികേതഃ സ്ഥിരമതിര്ഭക്ിതമാന്മേ പ്രിയോ നരഃ৷৷12.19৷৷
ତୁଲ୍ଯନିନ୍ଦାସ୍ତୁତିର୍ମୌନୀ ସନ୍ତୁଷ୍ଟୋ ଯେନକେନଚିତ୍| ଅନିକେତଃ ସ୍ଥିରମତିର୍ଭକ୍ିତମାନ୍ମେ ପ୍ରିଯୋ ନରଃ||12.19||
tulyanindāstutirmaunī santuṣṭō yēnakēnacit. anikētaḥ sthiramatirbhakitamānmē priyō naraḥ৷৷12.19৷৷
துல்யநிந்தாஸ்துதிர்மௌநீ ஸந்துஷ்டோ யேநகேநசித். அநிகேதஃ ஸ்திரமதிர்பக்ிதமாந்மே ப்ரியோ நரஃ৷৷12.19৷৷
తుల్యనిన్దాస్తుతిర్మౌనీ సన్తుష్టో యేనకేనచిత్. అనికేతః స్థిరమతిర్భక్ితమాన్మే ప్రియో నరః৷৷12.19৷৷
12.20
12
20
।।12.20।।जो मेरेमें श्रद्धा रखनेवाले और मेरे परायण हुए भक्त पहले कहे हुए इस धर्ममय अमृतका अच्छी तरहसे सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
।।12.20।। जो भक्त श्रद्धावान् तथा मुझे ही परम लक्ष्य समझने वाले हैं और इस यथोक्त धर्ममय अमृत का अर्थात् धर्ममय जीवन का पालन करते हैं, वे मुझे अतिशय प्रिय हैं।।
।।12.20।। यथोक्त अमृत धर्म उपर्युक्त पंक्तियों में सनातन धर्म का सार दिया गया है। वस्तुत हिन्दू धर्म के अनुयायियों के जीवन का लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार करके उसे जीवन को अपने व्यक्तित्व के सभी स्तरों शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक पर जीने का है। उसके लिये केवल इतना पर्याप्त नहीं है कि वह इस ज्ञान को बौद्धिक स्तर पर समझता है अथवा नियमित रूप से शास्त्रग्रन्थ का पाठ करता है? या उन्हें अच्छी प्रकार दूसरों को समझा भी सकता है। उसे चाहिए कि वह शास्त्रीय ज्ञान को आत्मसात् करके स्वयं पूर्ण पुरुष बन जाये। इसलिए? भगवान् कहते हैं कि उसे श्रद्धावान् होना चाहिए यहाँ श्रद्धा शब्द का अर्थ है स्वयं के अनुभव के द्वारा शास्त्र प्रतिपादित आत्मज्ञान्ा को आत्मसात् करने की क्षमता।ऐसे भक्त मुझे अतिशय प्रिय हैं इस श्लोक के साथ भक्त के लक्षणों का वर्णन करने वाले इस प्रकरण का षष्ठ भाग तथा यह अध्याय भी समाप्त होता है। यद्यपि इसमें और कोई नया लक्षण नहीं बताया गया है? तथपि इसमें भगवान् का समस्त साधकों को दिया हुआ पुनराश्वासन है कि उक्त गुणों से सम्पन्न साधकों को भगवान् की परा भक्ति प्राप्त होगी।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुन संवादे भक्तियोगोनाम द्वादशोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुन संवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का भक्तियोग नामक बारहवां अध्याय समाप्त होता है।
।।12.20।। व्याख्या --   ये तु -- यहाँ ये पदसे भगवान्ने उन साधक भक्तोंका संकेत किया है? जिनके विषयमें अर्जुनने पहले श्लोकमें प्रश्न करते हुए ये पदका प्रयोग किया था। उसी प्रश्नके उत्तरमें भगवान्ने दूसरे श्लोकमें सगुणकी उपासना करनेवाले साधकोंको अपने मतमें (ये और ते पदोंसे) युक्ततमाः बताया था। फिर उसी सगुणउपासनाके साधन बताये और फिर सिद्ध भक्तोंके लक्षण बताकर अब उसी प्रसङ्गका उपसंहार करते हैं।यहाँ ये पद उन परम श्रद्धालु भगवत्परायण साधकोंके लिये आया है। जो सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको आदर्श मानकर साधन करते हैं।तु पदका प्रयोग प्रकरणको अलग करनेके लिये किया जाता है। यहाँ सिद्ध भक्तोंके प्रकरणसे साधक भक्तोंके प्रकरणको अलग करनेके लिये तु पदका प्रयोग हुआ है। इस पदसे ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्ध भक्तोंकी अपेक्षा साधक भक्त भगवान्को विशेष प्रिय हैं।श्रद्दधानाः -- भगवत्प्राप्ति हो जानेके कारण सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें श्रद्धाकी बात नहीं आयी क्योंकि जबतक नित्यप्राप्त भगवान्का अनुभव नहीं होता? तभीतक श्रद्धाकी जरूरत रहती है। अतः इस पदको श्रद्धालु साधक भक्तोंका ही वाचक मानना चाहिये। ऐसे श्रद्धालु भक्त भगवान्के धर्ममय अमृतरूप उपदेशको (जो भगवान्ने तेरहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक कहा है) भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे अपनेमें उतारनेकी चेष्टा किया करते हैं।यद्यपि भक्तिके साधनमें श्रद्धा और प्रेमका तथा ज्ञानके साधनमें विवेकका महत्त्व होता है? तथापि इससे यह नहीं समझना चाहिये कि भक्तिके साधनमें विवेकका और ज्ञानके साधनमें श्रद्धाका महत्त्व नहीं है। वास्तवमें श्रद्धा और विवेककी सभी साधनोंमें बड़ी आवश्यकता है। विवेक होनेसे भक्तिसाधनमें तेजी आती है। इसी प्रकार शास्त्रोंमें तथा परमात्मतत्त्वमें श्रद्धा होनेसे ही ज्ञानसाधनका पालन हो सकता है। इसलिये भक्ति और ज्ञान दोनों ही साधनोंमें श्रद्धा और विवेक सहायक हैं।मत्परमाः -- साधक भक्तोंका सिद्ध भक्तोंमें अत्यन्त पूज्यभाव होता है। उनकी सिद्ध भक्तोंके गुणोंमें श्रेष्ठ बुद्धि होती है। अतः वे उन गुणोंको आदर्श मानकर आदरपूर्वक उनका अनुसरण करनेके लिये भगवान्के परायण होते हैं। इस प्रकार भगवान्का चिन्तन करनेसे और भगवान्पर ही निर्भर रहनेसे वे सब गुण उनमें स्वतः आ जाते हैं।भगवान्ने ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें मत्परमः पदसे और इसी (बारहवें) अध्यायके छठे श्लोकमें,मत्पराः पदसे अपने परायण होनेकी बात विशेषरूपसे कहकर अन्तमें पुनः उसी बातको इस श्लोकमें,मत्परमाः पदसे कहा है। इससे सिद्ध होता है कि भक्तियोगमें भगवत्परायणता मुख्य है। भगवत्परायण होनेपर भगवत्कृपासे अपनेआप साधन होता है और असाधन(साधनके विघ्नों) का नाश होता है।धर्म्यामृतमिदं यथोक्तम् -- सिद्ध भक्तोंके उनतालीस लक्षणोंके पाँचों प्रकरण धर्ममय अर्थात् धर्मसे ओतप्रोत हैं। उनमें किञ्चिन्मात्र भी अधर्मका अंश नहीं है। जिस साधनमें साधनविरोधी अंश सर्वथा नहीं होता? वह साधन अमृततुल्य होता है। पहले कहे हुए लक्षण समुदायके धर्ममय होनेसे तथा उसमें साधनविरोधी कोई बात न होनेसे ही उसे धर्म्यामृत संज्ञा दी गयी है।साधनमें साधनविरोधी कोई बात न होते हुए भी जैसा पहले कहा गया है? ठीक वैसाकावैसा धर्ममय अमृतका सेवन तभी सम्भव है? जब साधकका उद्देश्य किञ्चिन्मात्र भी धन? मान? बड़ाई? आदर? सत्कार? संग्रह? सुखभोग आदि न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो।प्रत्येक प्रकरणमें सब लक्षण धर्म्यामृत हैं। अतः साधक जिस प्रकरणके लक्षणोंको आदर्श मानकर साधन करता है? उसके लिये वही धर्म्यामृत है।धर्म्यामृतके जो अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः ৷৷. आदि लक्षण बताये गये हैं? वे आंशिकरूपसे साधकमात्रमें रहते हैं और इनके साथसाथ कुछ दुर्गुणदुराचार भी रहते हैं। प्रत्येक प्राणीमें गुण और अवगुण दोनों ही रहते हैं? फिर भी अवगुणोंका तो सर्वथा त्याग हो सकता है? पर गुणोंका सर्वथा त्याग नहीं हो सकता। कारण कि साधन और स्वभावके अनुसार सिद्ध पुरुषमें गुणोंका तारतम्य तो रहता है परन्तु उनमें गुणोंकी कमीरूप अवगुण किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता। गुणोंमें न्यूनाधिकता रहनेसे उनके पाँच विभाग किये गये हैं परन्तु अवगुण सर्वथा त्याज्य हैं अतः उनका विभाग हो ही नहीं सकता।साधक सत्सङ्ग तो करता है? पर साथहीसाथ कुसङ्ग भी होता रहता है। वह संयम तो करता है? पर साथहीसाथ असंयम भी होता रहता है। वह साधन तो करता है? पर साथहीसाथ असाधन भी होता रहता है। जबतक साधनके साथ असाधन अथवा गुणोंके साथ अवगुण रहते हैं? तबतक साधककी साधना पूर्ण नहीं होती। कारण कि असाधनके साथ साधन अथवा अवगुणोंके साथ गुण उनमें भी पाये जाते हैं? जो साधक नहीं है। इसके सिवाय जबतक साधनके साथ असाधन अथवा गुणोंके साथ अवगुण रहते हैं? तबतक साधकमें अपने साधन अथवा गुणोंका अभिमान रहता है? जो आसुरी सम्पत्तिका आधार है। इसलिये धर्म्यामृतका यथोक्त सेवन करनेके लिये कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इसका ठीक वैसा ही पालन होना चाहिये? जैसा वर्णन किया गया है। अगर धर्म्यामृतके सेवनमें दोष (असाधन) भी साथ रहेंगे तो भगवत्प्राप्ति नहीं होगी। अतः इस विषयमें साधकको विशेष सावधान रहना चाहिये। यदि साधनमें किसी कारणवश आंशिकरूपसे कोई दोषमय वृत्ति उत्पन्न हो जाय? तो उसकी अवहेलना न करके तत्परतासे उसे हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये। चेष्टा करनेपर भी न हटे? तो व्याकुलतापूर्वक प्रभुसे प्रार्थना करनी चाहिये।जितने सद्गुण? सदाचार? सद्भाव आदि हैं? वे सबकेसब सत्(परमात्मा) के सम्बन्धसे ही होते हैं। इसी प्रकार दुर्गुण? दुराचार? दुर्भाव आदि सब असत्के सम्बन्धसे ही होते हैं। दुराचारीसेदुराचारी पुरुषमें भी सद्गुणसदाचारका सर्वथा अभाव नहीं होता क्योंकि सत्(परमात्मा)का अंश होनेके कारण जीवमात्रका सत्से नित्यसिद्ध सम्बन्ध है। परमात्मासे सम्बन्ध रहनेके कारण किसीनकिसी अंशमें उसमें सद्गुणसदाचार रहेंगे ही। परमात्माकी प्राप्ति होनेपर असत्से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और दुर्गुण? दुराचार? दुर्भाव आदि सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।सद्गुणसदाचारसद्भाव भगवान्की सम्पत्ति है। इसलिये साधक जितना ही भगवान्के सम्मुख अथवा भगवत्परायण होता जायगा? उतने ही अंशमें स्वतः सद्गुणसदाचारसद्भाव प्रकट होते जायँगे और दुर्गुणदुराचारदुर्भाव नष्ट होते जायँगे।रागद्वेष? हर्षशोक? कामक्रोध आदि अन्तःकरणके विकार हैं? धर्म नहीं (गीता 13। 6)। धर्मीके साथ धर्मका नित्यसम्बन्ध रहता है। जैसे? सूर्यरूप धर्मीके साथ उष्णतारूप धर्मका नित्यसम्बन्ध रहता है? जो कभी मिट नहीं सकता। अतः धर्मीके बिना धर्म तथा धर्मके बिना धर्मी नहीं रह सकता। कामक्रोधादि विकार साधारण मनुष्यमें भी हर समय नहीं रहते? साधन करनेवालेमें कम होते रहते हैं और सिद्ध पुरुषमें तो सर्वथा ही नहीं रहते। यदि ये विकार अन्तःकरणके धर्म होते? तो हर समय एकरूपसे रहते और अन्तःकरण(धर्मी) के रहते हुए कभी नष्ट नहीं होते। अतः ये अन्तःकरणके धर्म नहीं? प्रत्युत आगन्तुक (आनेजानेवाले) विकार हैं।,साधक जैसेजैसे अपने एकमात्र लक्ष्य भगवान्की ओर बढ़ता है? वैसेहीवैसे रागद्वेषादि विकार मिटते जाते हैं और भगवान्को प्राप्त होनेपर उन विकारोंका अत्यन्ताभाव हो जाता है।गीतामें जगहजगह भगवान्ने तयोर्न वशमागच्छेत् (3। 34)? रागद्वेषवियुक्तैः (2। 64)? रागद्वेषौ व्युदस्य (18। 51) आदि पदोंसे साधकोंको इन रागद्वेषादि विकारोंका सर्वथा त्याग करनेके लिये कहा है। यदि ये (रागद्वेषादि) अन्तःकरणके धर्म होते तो अन्तःकरणके रहते हुए इनका त्याग असम्भव होता और असम्भवको सम्भव बनानेके लिये भगवान् आज्ञा भी कैसे दे सकते थेगीतामें सिद्ध महापुरुषोंको रागद्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त बताया गया है। जैसे? इसी अध्यायके तेरहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक जगहजगह भगवान्ने सिद्ध भक्तोंको रागद्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त बताया है। इसलिये भी ये विकार ही सिद्ध होते हैं? अन्तःकरणके धर्म नहीं। असत्से सर्वथा विमुख होनेसे उन सिद्ध महापुरुषोंमें ये विकार लेशमात्र भी नहीं रहते। यदि अन्तःकरणमें ये विकार बने रहते? तो फिर वे मुक्त किससे होतेजिसमें ये विकार लेशमात्र भी नहीं हैं? ऐसे सिद्ध महापुरुषके अन्तःकरणके लक्षणोंको आदर्श मानकर भगवत्प्राप्तिके लिये उनका अनुसरण करनेके लिये भगवान्ने उन लक्षणोंको यहाँ धर्म्यामृतम्के नामसे सम्बोधित किया है।पर्युपासते -- साधक भक्तोंकी दृष्टिमें भगवान्के प्यारे सिद्ध भक्त अत्यन्त श्रद्धास्पद होते हैं। भगवान्की तरफ स्वाभाविक आकर्षण (प्रियता) होनेके कारण उनमें दैवी सम्पत्ति अर्थात् सद्गुण (भगवान्के होनेसे) स्वाभाविक ही आ जाते हैं। फिर भी साधकोंका उन सिद्ध महापुरुषोंके गुणोंके प्रति स्वाभाविक आदरभाव होता है और वे उन गुणोंको अपनेमें उतारनेकी चेष्टा करते हैं। यही साधक भक्तोंद्वारा उन गुणोंका अच्छी तरहसे सेवन करना? उनको अपनाना है।इसी अध्यायके तेरहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक? सात श्लोकोंमें धर्म्यामृतका जिस रूपमें वर्णन किया गया है? उसका ठीक उसी रूपमें श्रद्धापूर्वक अच्छी तरह सेवन करनेके अर्थमें यहाँ पर्युपासते पद प्रयुक्त हुआ है। अच्छी तरह सेवन करनेका तात्पर्य यही है कि साधकमें किञ्चिन्मात्र भी अवगुण नहीं रहने चाहिये। जैसे? साधकमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति करुणाका भाव पूर्णरूपसे भले ही न हो? पर उसमें किसी प्राणीके प्रति अकरुणा(निर्दयता) का भाव बिलकुल भी नहीं रहना चाहिये। साधकोंमें ये लक्षण साङ्गोपाङ्ग नहीं होते? इसीलिये उनसे इनका सेवन करनेके लिये कहा गया है। साङ्गोपाङ्ग लक्षण होनेपर वे सिद्धकी कोटिमें आ जायँगे।साधकमें भगवत्प्राप्तिकी तीव्र उत्कण्ठा और व्याकुलता होनेपर उसके अवगुण अपनेआप नष्ट हो जाते हैं क्योंकि उत्कण्ठा और व्याकुलता अवगुणोंका खा जाती है तथा उसके द्वारा साधन भी अपनेआप होने लगता है। इस कारण उसको भगवत्प्राप्ति जल्दी और सुगमतासे हो जाती है।भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः -- भक्तिमार्गपर चलनेवाले भगवदाश्रित साधकोंके लिये यहाँ भक्ताः पद प्रयुक्त हुआ है।भगवान्ने ग्यारहवें अध्यायके तिरपनवें श्लोकमें वेदाध्ययन? तप? दान? यज्ञ आदिसे अपने दर्शनकी दुर्लभता बताकर चौवनवें श्लोकमें अनन्यभक्तिसे अपने दर्शनकी सुलभताका वर्णन किया। फिर पचपनवें श्लोकमें अपने भक्तके लक्षणोंके रूपमें अनन्यभक्तिके स्वरूपका वर्णन किया। इसपर अर्जुनने इसी (बारहवें) अध्यायके पहले श्लोकमें यह प्रश्न किया कि सगुणसाकारके उपासकों और निर्गुणनिराकारके उपासकोंमें श्रेष्ठ कौन है,भगवान्ने दूसरे श्लोकमें इस प्रश्नके उत्तरमें (सगुणसाकारकी उपासना करनेवाले) उन साधकोंको श्रेष्ठ बताया? जो भगवान्में मन लगाकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उनकी उपासना करते हैं। यहाँ उपसंहारमें उन्हीं साधकोंके लिये भक्ताःपद आया है।उन साधक भक्तोंको भगवान् अपना अत्यन्त प्रिय बताते हैं।सिद्ध भक्तोंको प्रिय और साधकोंको अत्यन्त प्रिय बतानेके दो कारण इस प्रकार हैं -- (1) सिद्ध भक्तोंको तो तत्त्वका अनुभव अर्थात् भगवत्प्राप्ति हो चुकी है किन्तु साधक भक्त भगवत्प्राप्ति न होनेपर भी श्रद्धापूर्वक भगवान्के परायण होते हैं। इसलिये वे भगवान्को अत्यन्त प्रिय होते हैं।(2) सिद्ध भक्त भगवान्के बड़े पुत्रके समान हैं।मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी।परन्तु साधक भक्त भगवान्के छोटे? अबोध बालकके समान हैं --,बालक सुत सम दास अमानी।।(मानस 3। 43। 4)छोटा बालक स्वाभाविक ही सबको प्रिय लगता है। इसलिये भगवान्को भी साधस भक्त अत्यन्त प्रिय हैं।(3) सिद्ध भक्तको तो भगवान् अपने प्रत्यक्ष दर्शन देकर अपनेको ऋणमुक्त मान लेते हैं? पर साधक भक्त तो (प्रत्यक्ष दर्शन न होनेपर भी) सरल विश्वासपूर्वक एकमात्र भगवान्के आश्रित होकर उनकी भक्ति करते हैं। अतः उनको अभीतक अपने प्रत्यक्ष दर्शन न देनेके कारण भगवान् अपनेको उनका ऋणी मानते हैं और इसीलिये उनको अपना अत्यन्त प्रिय कहते हैं।इस प्रकार ? तत्? सत् -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें भक्तियोग नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।12।। ,
।।12.15 -- 12.20।।यस्मादित्यादि मे प्रिया इत्यन्तम्। अनिकेतः -- इदमेव मया कर्तव्यम् इति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा। यथाप्राप्तहेवाकितया सुखदुःखादिकमुपभुञ्ज्ञानः परमेश्वरविषयसमावेशितहृदयः सुखेनैव प्राप्नोति परमकैवल्यम् इति।।।शिवम्।।
।।12.20।।धर्म्यं च अमृतं चइति धर्म्यामृतं ये तु प्राप्यसमं प्रापकं भक्तियोगं यथोक्तंमय्यावेश्य मनो ये माम् (गीता 12।2) इत्यादिना उक्तेन प्रकारेण उपासते ते भक्ता अतितरां मे प्रियाः। ,
।।12.20।।अद्वेष्टेत्यादिधर्मजातं ज्ञानवतो लक्षणमुक्तं तदुपपादितमनूद्योपसंहारश्लोकमवतारयति -- अद्वेष्टेत्यादिना। चतुर्थपादस्य तात्पर्यमाह -- प्रियो हीति। यद्यपि यथोक्तं धर्मजातं ज्ञानवतो लक्षणं तथापि जिज्ञासूनां ज्ञानोपायत्वेन यत्नादनुष्ठेयमिति वाक्यार्थमुपसंहरति -- यस्मादिति। तदेवं सोपाधिकाभिध्यानपरिपाकान्निरुपाधिकमनुसंदधानस्याद्वेष्टा सर्वभूतानामित्यादिधर्मविशिष्टस्य मुख्यस्याधिकारिणः श्रवणाद्यावर्तयतस्तत्त्वसाक्षात्कारसंभवात्ततो मुक्त्युपपत्तेस्तद्धेतुवाक्यार्थधीविष(योऽन्व)ययोग्यस्तत्पदार्थोऽनुसंधेय इति सिद्धम्।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छुद्धानन्दपूज्यपादशिष्यानन्दगिरिकृतौ द्वादशोऽध्यायः।।12।।
।।12.20।।एवं मर्यादायामक्षरात्मनिष्ठात्स्वपुष्टिभक्तियोगनिष्ठस्यातीव प्रियत्वं प्रतिपादयन्नुक्तमुपसंहरति -- ये त्विति। ये दैवजीवा इदमेव सेवाधर्मादनपेतमुक्तममृतं यथावत्पर्युपासते निषेवन्ते श्रद्दधाना मदाश्रयास्ते भक्ता अतीव मे प्रिया इति। तथा भवेति भावः।अव्यक्तोपासनामार्गे दुःखं मर्यादयाऽपि हि। सुखं पुष्टया कृष्णभक्तिमार्गे सम्यगुदीरितम्।।1।।
।।12.20।।अद्वेष्टेत्यादिनाऽक्षरोपासकादीनां संन्यासिनां लक्षणभूतं स्वभावसिद्धं धर्मजातमुक्तं। यथोक्तं वार्तिकेउत्पन्नात्मावबोधस्य ह्यद्वेष्टृत्वादयो गुणाः। अयत्नतो भवन्त्येव नतु साधनरूपिणः।। इति। एतदेव च पुरा स्थितप्रज्ञलक्षणरूपेणाभिहितं? तदिदं धर्मजातं प्रयत्नेन संपाद्यमानं मुमुक्षोर्मोक्षसाधनं भवतीति प्रतिपादयन्नुपसंहरति -- येत्विति। ये तु संन्यासिनो मुमुक्षवो धर्म्यामृतं धर्मरूपममृतं अमृतत्वसाधनत्वात् अमृतवदास्वाद्यत्वाद्वा? इदं यथोक्तं अद्वेष्टा सर्वभूतानामित्यादिना प्रतिपादितं पर्युपासतेऽनुतिष्ठन्ति प्रयत्नेन श्रद्दधानाः सन्तो मत्परमाः अहं भगवानक्षरात्मा वासुदेव एव परमः प्राप्तव्यो निरतिशयगतिर्येषां ते मत्परमा भक्ता मां निरुपाधिकं ब्रह्म भजमानास्तेऽतीव मे प्रियाः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः इति पूर्वसूचितस्यायमुपसंहारः। यस्माद्धर्म्यामृतमिदं श्रद्धयानुतिष्ठन्भगवतो विष्णोः परमेश्वरस्यातीव प्रियो भवति तस्मादिदं ज्ञानवतः स्वभावसिद्धतया लक्षणमपि मुमुक्षुणात्मतत्त्वजिज्ञासुनात्मज्ञानोपायत्वेन यत्नादनुष्ठेयं विष्णोः परमं पदं जिगमिषुणेति वाक्यार्थः। तदेवं सोपाधिब्रह्माभिध्यानपरिपाकान्निरुपाधिकं ब्रह्मानुसंदधानस्याद्वेष्टृत्वादिधर्मविशिष्टस्य मुख्यस्याधिकारिणः श्रवणमनननिदिध्यासनान्यावर्तयतो वेदान्तवाक्यार्थतत्त्वसाक्षात्कारसंभवात्ततो मुक्त्युपपत्तेर्मुक्तिहेतुवेदान्तमहावाक्यार्थोन्वययोग्यस्तत्पदार्थोऽनुसंधेय इति मध्यमेन षट्केन सिद्धम्। जीवन्मुक्तेर्निर्विकल्पाद्विशिष्टा निष्ठोक्तातोऽजेन भक्तेर्वरिष्ठा। तत्रानन्दाब्धौ कृता मे प्रतिष्ठा येनातस्तं काशिराजं भजेऽहम्। ,
।।12.20।।उक्तं धर्मजातं सफलमुपसंहरति -- ये त्विति। यथोक्तमुक्तप्रकारं धर्म एवामृतममृतत्वसाधनत्वात्। धर्म्यामृतमिदमिति केचित्पठन्ति। तद्य उपासतेऽनुतिष्ठन्ति श्रद्धां कुर्वन्तो मत्परमाश्च सन्तो मद्भक्ता अतीव मे प्रिया इति।
।।12.20।।अध्यायोपक्रमे प्रश्नपूर्वकं भक्तियोगनिष्ठस्य अक्षरनिष्ठाच्छ्रैष्ठ्यं ह्युक्तम् भक्तियोगाशक्तिप्रसङ्गेन अक्षरयोगस्य परम्परया भक्तियोगसाधनत्वं तदपेक्षितगुणाश्चोक्ताः अथाध्यायारम्भगतप्रश्नस्योत्तरं प्रपञ्चितं निगमयतीत्याह -- अस्मादिति।मय्यावेश्य मनो ये माम् [12।2] इति श्लोकोऽयं चैकार्थ एव ह्युपलभ्यत इत्यभिप्रायेणयथोपक्रममित्युक्तम्। तत्रनित्ययुक्ताः [12।2] इत्युक्त एवार्थोऽत्रमत्परमाः इत्युच्यते। तत्रश्रद्धया परयोपेताः [12।2] इत्युक्तम् अत्र तुश्रद्दधानाः इति। तत्रते मे युक्ततमा मताः [12।2] इत्युक्तम् अत्र तु तत्फलितत्वेनभक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः इत्युच्यते। अतः स एवार्थोऽत्रोपसंह्रियते। अस्य चाधिकार्यन्तरपरत्वे तुशब्दविशेषणादयो हेतवः पूर्वमेवोक्ताः। अनेनैव च श्लोकेन मध्यमषट्कप्रधानार्थभक्तियोगोपसंहारश्च कृतो भवति।धर्म्यामृतम् इत्यनेन विवक्षितमाकारद्वयं वक्तुं तदुपयुक्तं कर्मधारयत्वं दर्शयति -- धर्म्यं चामृतं चेति। धर्मादनपेतं धर्म्यम्। अतोऽत्र धर्म्यशब्देन साधनत्ववचनादमृतशब्देनामृतसाधनत्वस्याविवक्षितत्वात्फलवदेव भोग्यत्वं विवक्षितमित्याहये तु प्राप्यसममिति।यथोक्तमिति व्याख्येयपदोपादानम्। प्रसङ्गागतकर्मयोगोक्तेर्व्युदासायमय्यावेश्येत्यादिकमुक्तम्। पूर्वोक्तानामन्येषामपि भक्तत्वमस्तीति तद्व्यवच्छेदायते भक्ता इति विशेष्यते। पूर्वेषु प्रियत्वमुदारत्वप्रयुक्तम् अस्मिंस्तु स्वाभिमतान्तरात्मत्वप्रयुक्तम्। अतो ह्यतीव प्रियत्वमिहोक्तम्। उक्तं च प्रागेवउदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् [7।18] इत्याद्युपक्रम्यस महात्मा सुदुर्लभः [7।19] इति। एतेनअद्वेष्टा [12।13] इत्यादिना प्रक्रान्तं धर्मजातंये तु धर्म्यामृतम् इति श्लोकेनोपसंह्रियत इति परोक्तं निरस्तम्? भिन्नाधिकारविषयत्वस्य व्यञ्जितत्वात्।इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्रस्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेङ्कटनाथस्य वेदान्ताचार्यस्य कृतिषु,
।।12.20।।उक्तभक्तिरूपमुपसंहरति -- ये त्विति। य इति सामान्योक्त्या नात्र वर्णादिनियमः किन्तु ये केचन भाग्यवन्त इदं पुरत उक्तं धर्म्यामृतम् अक्षयं मत्प्रसादात्मकफलरूपं यथोक्तं श्रद्दधानाः मदुक्तं सत्यमिति ज्ञानवन्तो मत्परमाः मदेकनिष्ठाः सन्तः पर्युपासते मां सेवन्ते ते भक्ता मे अतीव स्वात्मनः प्रिया भवन्तीत्यर्थः।नाऽहमात्मानमाशासे [भाग.9।4।64] इतिवत्।एवमर्जुनमासिञ्चद्भक्तियोगामृतोक्तिभिः। सर्वसंशयमाच्छिद्य लोकोद्धारपरो हरिः।।1।।
।।12.20।।मुक्तलक्षणान्येव मुमुक्षोः साधनत्वेन विधत्ते -- ये त्विति। ये मुमुक्षवः तु पूर्वोक्तमुक्तापेक्षया विलक्षणाः। इदं अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् इत्यादिना ग्रन्थेन प्रतिपादितं धर्मजातं तदेवामृतस्य मोक्षस्य साधनत्वादमृतं धर्मामृतम्। यथोक्तमुक्तानतिक्रमेण पर्युपासते साकल्येनानुतिष्ठन्ति। श्रद्दधानाः श्रद्धायुक्ताः मत्परमाः अहमेव भगवान्वासुदेवोऽक्षराख्यः सर्वविशेषरहितः परमानन्दरूपः परमः पार्यन्तिकः प्राप्यो येषां ते मत्परमाः भक्ताः शान्तिदान्त्यादिमन्तो मद्भजनशीलास्तेऽतीव मे मम प्रियाः। ज्ञानी तु भगवत आत्मैव। परिशेषादतीव प्रियत्वं भक्तेष्वेव पर्यवसन्नम्। यो मुक्तानां स्वाभाविको धर्मः स मुमुक्षुणा यत्नतोऽनुष्ठेय इत्यर्थः। यथोक्तं वार्तिकेउत्पन्नात्मप्रबोधस्य ह्यद्वेष्टृत्वादयो गुणाः। अयत्नतो भवन्त्येव न तु साधनरूपिणः। इति। समाप्त उपासनाप्रधानस्तत्पदार्थविवेकः। अतःपरं वाक्यार्थविचारो जीवब्रह्माभेदप्रतिपादको भविष्यति। ,
।।12.20।।अद्वेष्टा सर्वभूतानामित्यादिनाक्षरोपासकानां निवृत्तसर्वैषणानां संन्यासिनां परमार्थज्ञाननिष्ठानां धर्मजातमुपपाद्यपसंहरति -- ये त्विति। येतु श्रद्दधानाः परया श्रद्धया युक्ताः सन्तो मत्परमा अहमेवाक्षरात्मा परमे निरतिशया गतिर्येषां ते पर्युपासतेऽनुतिष्ठन्ति मद्भक्ताः उत्तमां परमार्थज्ञानलक्षणां भक्तिमास्थितास्ते मे मम वासुदेवस्य परमात्मनोऽतिशयेन प्रियाः।प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं सच मम प्रियः इति यत्सूचितं तत्प्रतिपाद्योपसंहृतं भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया इति। यस्माद्यथोक्तमिदं धर्मामृतमुतिष्ठन् भगवतो वासुदेवस्यातिशयेन प्रियो भवति तस्माद्वासुदेवस्य विष्णोः प्रियं धाम जिगमुषुणा मुमुक्षुणा इदं धर्मामृतं यथावद्यत्नतोऽनुष्ठेयमिति वाक्यार्थः। एवं द्वादशाध्यायेन सोपाधिकध्यानपरिपाकान्निरुपाधिकमक्षरमनुसंदधानस्याद्वेष्टा सर्वभूतानामित्यादिधर्मविशिष्टस्य श्रवणाद्यावर्तनेन परमार्थज्ञानवतो मुख्याधिकारिणः साक्षान्मोक्षप्राप्तियोग्यत्वं निरुपयता सोपाधिकनिरुपाधिकस्तत्पदार्थः प्रदर्शितः।यं संराध्य दुरत्ययां प्रकृतिमुन्मुच्याप्नुवन्त्यक्षरं ध्येयं ज्ञेयमनेकयोगविभवैर्युक्तं परं कारणम्।विश्वाकारमनाद्यनन्तममलं भक्तप्रियं माधवं देवेशं शुभमध्यषट्कविदितं तं तत्पदार्थ भजे।।1।।सुधाधाराधारं विधुरमधराद्यैरघहरं धराधाराधारं निखिलजगदाधारमजरम्।निराधारं सारं जलजजमुखैर्ध्येयचरणं शिवं कृष्णं वन्दे सकलजनकं भक्तिसुलभम्।।2।।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसूनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां द्वादशोऽध्यायः।।12।।
12.20 ये who? तु indeed? धर्म्यामृतम् immortal Dharma (Law)? इदम् this? यथोक्तम् as declared (above)? पर्युपासते follow? श्रद्दधानाः endowed with faith? मत्परमाः regarding Me as their Supreme? भक्ताः devotees? ते they? अतीव exceedingly? मे to Me? प्रियाः dear.Commentary The Blessed Lord has in this verse given a description of His excellent devotee.Amrita Dharma Amrita is the lifegiving nectar. Dharma is righteousness or wisdom. Dharma is that which leads to immortality when practised. The real devotees regard Me as their final or supreme refuge.Above Beginning with verse 13.A great truth that should not go unnoticed is that the devotee? the man of wisdom and the Yogi have all the same fundamental characteristics.Priyo hi Jnaninotyartham (I am exceedingly dear to the wise man) (VII.12) has thus been explained at length and concluded here thus? Te ativa me priyah (they are exceedinlgy dear to Me).He who follows this immortal Dharma as described above becomes exceedingly dear to the Lord. Therefore? every aspirant who thirsts for salvation? and who longs to attain the Supreme Abode of the Lord should follow this immortal Dharma with zeal and intense faith.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita? the science of the Eternal? the scripture of Yoga? the dialogue between Sri Krishna and Arjuna? ends the twelfth discourse entitledThe Yoga of Devotion.
12.20 They verily who follow this immortal Dharma (law or doctrine) as described above, endowed with faith, regarding Me as their supreme goal, they, the devotees, are exceedingly dear to Me.
12.20 Verily those who love the spiritual wisdom as I have taught, whose faith never fails, and who concentrate their whole nature on Me, they indeed are My most beloved."
12.20 But [Tu (but) is used to distinguish those who have attained the highest Goal from the aspirants.-Tr.] those devotees who accept Me as the supreme Goal, and with faith seek for this ambrosia [M.S.'s reading is dharmamrtam-nectar in the form of virtue. Virtue is called nectar because it leads to Immortality, or because it is sweet like nectar.] which is indistinguishable from the virtues as stated above, they are very dear to Me.
12.20 Tu, but; ye bhaktah, those devotees of Mine, the monks who have resorted to the highest devotion consisting in the knowledge of the supreme Reality; mat-paramah, who accept Me as the supreme Goal, to whom I, as mentioned above, who am identical with the Immutable, am the highest (parama), unsurpassable Goal; and sraddadhanah, with faith; paryupasate, seek for, practise; idam, this; dharmyamrtam, ambrosia that is indistinguishable from the virtues-that which is indistinguishable from dharma (virtue) is dharmya, and this is called amrta (ambrosia) since it leads to Immortality-; yatha-uktam, as stated above in, 'He who is not hateful towards any creature,' etc.; te, they; are ativa, very; priyah, dear; me, to Me. After having explained what was hinted in, 'For I am very much dear to the man of Knowledge৷৷.'(7.17), that has been concluded here in, 'Those devotees are very dear to Me.' Since by seeking for this ambrosia which is indistinguishable from the virtues as stated above one becomes very dear to Me, who am theLord Vishnu, the supreme God, therefore this nectar which is indistinguishable from the virtues has to be diligently sought for by one who is a seeker of Liberation, who wants to attain the coveted Abode of Visnu. This is the purport of the sentence. [Thus, after the consummation of meditation on the alified Brahman, one who aspires after the unalified Brahman, who has the alifications mentioned in, 'He who is not hateful towards any creature,' etc., who is pre-eminently fit for this purpose, and who practises sravana etc. has the possibility of realizing the Truth from which his Liberation logically follows. Hence, the conclusion is that the meaning of the word tat (in the sentence tattvamasi) has to be sought for, since his has the power to arouse the comprehension of the meaning of that sentence, which is the means to Liberation.]
12.20. Those, who resort, as instructed above, to this duty [conducive to] immortality, who have faith [in it] and have Me alone their goal - those devotees are exceedingly dear to Me.
12.15-20 Yasmat etc. upto Me priyah. One who has no fixed thought : One who has no resolution, [in his mundane life] like 'This alone must be done by me'. He, who enjoys, with contentment, both pleasure and pain as they come, and has his mind completely absorbed in Supreme Lord - that person happily (or easily) attains the Supreme Isolation (Emancipation)
12.20 But those who follow Bhakti Yoga - 'which is a nectar of virtuous duty,' i.e., which is at once virtuous duty and nectar, and which even as a menas, is eal to its end in conferring bliss on those who follow is as stated above, i.e., in the manner taught in the stanza beginning with 'Those who, focusing their minds on Me' (12.2) - such devotees are exceedingly dear to Me.
12.20 But those devotees who follow this nectar of virtuous-duty as taught above, who are full of faith and who regard Me as the Supreme - they are exceedingly dear to Me.
।।12.20।।समस्त तृष्णासे निवृत्त हुए? परमार्थज्ञाननिष्ठ अक्षरोपासक संन्यासियोंके अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् इस श्लोकद्वारा प्रारम्भ किये हुए धर्मसमूहका उपसंहार किया जाता है --, जो संन्यासी इस धर्ममय अमृतको अर्थात् जो धर्मसे ओतप्रोत है और अमृतत्वका हेतु होनेसे अमृत भी है ऐसे इस अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् इत्यादि श्लोकोंद्वारा ऊपर कहे हुए ( उपदेश ) का श्रद्धालु होकर सेवन करते हैं -- उसका अनुष्ठान करते हैं? वे मेरे परायण अर्थात् मैं अक्षरस्वरूप परमात्मा ही जिनकी निरतिशय गति हूँ ऐसे? यथार्थ ज्ञानरूप उत्तम भक्तिका अवलम्बन करनेवाले मेरे भक्त? मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् इस प्रकार जो विषय सूत्ररूपसे कहा गया था यहाँ उसकी व्याख्या करके भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः इस वचनसे उसका उपसंहार किया गया है। कहनेका अभिप्राय यह है कि इस यथोक्त धर्मयुक्त अमृतरूप उपदेशका अनुष्ठान करनेवाला मनुष्य मुझ साक्षात् परमेश्वर विष्णुभगवान्का अत्यन्त प्रिय हो जाता है? इसलिये विष्णुके प्यारे परमधामको प्राप्त करनेकी इच्छावाले मुमुक्षु पुरुषको इस धर्मयुक्त अमृतका यत्नपूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये।
।।12.20।। --,ये तु संन्यासिनः धर्म्यामृतं धर्मादनपेतं धर्म्यं च तत् अमृतं च तत्? अमृतत्वहेतुत्वात्? इदं यथोक्तम्? अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् इत्यादिना पर्युपासते अनुतिष्ठन्ति श्रद्दधानाः सन्तः मत्परमाः यथोक्तः अहं अक्षरात्मा परमः निरतिशया गतिः येषां ते मत्परमाः? मद्भक्ताः च उत्तमां परमार्थज्ञानलक्षणां भक्तिमाश्रिताः? ते अतीव मे प्रियाः। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् इति यत् सूचितं तत् व्याख्याय इह उपसंहृतम् भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः इति। यस्मात् धर्म्यामृतमिदं यथोक्तमनुतिष्ठन् भगवतः विष्णोः परमेश्वरस्य अतीव प्रियः भवति? तस्मात् इदं धर्म्यामृतं मुमुक्षुणा यत्नतः अनुष्ठेयं विष्णोः प्रियं परं धाम जिगमिषुणा इति वाक्यार्थः।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्येद्वादशोऽध्यायः।।
।।12.20।।ये तु इत्युक्तमेव किमर्थमुच्यते इत्यत आह -- पिण्डीकृत्येति। धर्म्यामृतमित्येतदप्रतीतार्थं व्याख्यातुं धर्मशब्दं तावद्व्याख्याति -- धर्म इति। तद्विषयं तदुपासनाङ्गत्वात् धर्मादनपेतं धर्म्यं? धर्मश्च विष्णुः। नादृष्टं प्रवृत्तस्यासम्भवात्। निवृत्तस्यैतत्साधनत्वात्। इदानीममृतशब्दं व्याकुर्वन् धर्म्यामृतमिति कर्मधारयोऽयमित्याह -- धर्म्यमिति। न मृतं अमृतम्? नञ् विरुद्धार्थेऽमृतशब्दश्चोपलक्षक इत्यर्थः। श्रद्दधाना इत्येतद्व्युत्पादयति -- श्रदिति। श्रच्छब्दस्योपसङ्ख्यानमित्युपसर्गत्वेनोपसङ्ख्यायमानस्याप्यस्य सत्त्ववाचित्वमविरुद्धम्? उपसर्गत्वस्य कार्यविशेषार्थत्वात्।
।।12.20।।पिण्डीकृत्योपसंहरति -- ये तु धर्म्यामृतमिति। धर्मो विष्णुस्तद्विषयं धर्म्यम्। धर्म्यम्? अमृतं,मृत्यादिसंसारनाशकं चेति धर्म्यामृतम्। श्रदास्तिक्यम्?श्रन्नामास्तिक्यमुच्यते इत्यभिधानम्। तद्दधानाः श्रद्दधानाः।
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते। श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।12.20।।
যে তু ধর্ম্যামৃতমিদং যথোক্তং পর্যুপাসতে৷ শ্রদ্দধানা মত্পরমা ভক্তাস্তেতীব মে প্রিযাঃ৷৷12.20৷৷
যে তু ধর্ম্যামৃতমিদং যথোক্তং পর্যুপাসতে৷ শ্রদ্দধানা মত্পরমা ভক্তাস্তেতীব মে প্রিযাঃ৷৷12.20৷৷
યે તુ ધર્મ્યામૃતમિદં યથોક્તં પર્યુપાસતે। શ્રદ્દધાના મત્પરમા ભક્તાસ્તેતીવ મે પ્રિયાઃ।।12.20।।
ਯੇ ਤੁ ਧਰ੍ਮ੍ਯਾਮਰਿਤਮਿਦਂ ਯਥੋਕ੍ਤਂ ਪਰ੍ਯੁਪਾਸਤੇ। ਸ਼੍ਰਦ੍ਦਧਾਨਾ ਮਤ੍ਪਰਮਾ ਭਕ੍ਤਾਸ੍ਤੇਤੀਵ ਮੇ ਪ੍ਰਿਯਾ।।12.20।।
ಯೇ ತು ಧರ್ಮ್ಯಾಮೃತಮಿದಂ ಯಥೋಕ್ತಂ ಪರ್ಯುಪಾಸತೇ. ಶ್ರದ್ದಧಾನಾ ಮತ್ಪರಮಾ ಭಕ್ತಾಸ್ತೇತೀವ ಮೇ ಪ್ರಿಯಾಃ৷৷12.20৷৷
യേ തു ധര്മ്യാമൃതമിദം യഥോക്തം പര്യുപാസതേ. ശ്രദ്ദധാനാ മത്പരമാ ഭക്താസ്തേതീവ മേ പ്രിയാഃ৷৷12.20৷৷
ଯେ ତୁ ଧର୍ମ୍ଯାମୃତମିଦଂ ଯଥୋକ୍ତଂ ପର୍ଯୁପାସତେ| ଶ୍ରଦ୍ଦଧାନା ମତ୍ପରମା ଭକ୍ତାସ୍ତେତୀବ ମେ ପ୍ରିଯାଃ||12.20||
yē tu dharmyāmṛtamidaṅ yathōktaṅ paryupāsatē. śraddadhānā matparamā bhaktāstē.tīva mē priyāḥ৷৷12.20৷৷
யே து தர்ம்யாமரிதமிதஂ யதோக்தஂ பர்யுபாஸதே. ஷ்ரத்ததாநா மத்பரமா பக்தாஸ்தேதீவ மே ப்ரியாஃ৷৷12.20৷৷
యే తు ధర్మ్యామృతమిదం యథోక్తం పర్యుపాసతే. శ్రద్దధానా మత్పరమా భక్తాస్తేతీవ మే ప్రియాః৷৷12.20৷৷
13.1
13
1
।।13.1।। No Translation
।।13.1।। अर्जुन ने कहा -- हे केशव ! मैं, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान और ज्ञेय को जानना चाहता हूँ।।
।।13.1।। गीता की अनेक पाण्डुलिपियों में यह श्लोक नहीं मिलता है? जबकि कुछ अन्य हस्तलिपियों में यह अर्जुन की जिज्ञासा के रूप में दिया हुआ है।प्रकृति और पुरुष भारतीय सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि जी ने जड़ और चेतन तत्त्वों का निर्देश क्रमश प्रकृति और पुरुष इन दो शब्दों से किया है। इन दोनों के संयोग से ही उस सृष्टि का निर्माण हुआ है इन्हें अर्जुन जानना चाहता है।क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ इन दो शब्दों का अर्थ इस अध्याय की प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है।ज्ञान और ज्ञेय इस अध्याय में ज्ञान शब्द से तात्पर्य उस शुद्धान्तकरण से हैं? जिसके द्वारा ही आत्मतत्त्व का अनुभव किया जा सकता है। यह आत्मा ही ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य वस्तु है।अर्जुन की इस जिज्ञासा के उत्तर को जानना सभी साधकों को लाभदायक होगा।
।।13.1।। No Commentary
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।।13.1।।श्रीभगवानुवाच -- इदं शरीरं देवः अहम्? मनुष्यः अहम्? स्थूलः अहम्? कृशः अहम्? इति आत्मना भोक्त्रा सह सामानाधिकरण्येन प्रतीयमानं भोक्तुः आत्मनः अर्थान्तरभूतं तस्य भोगक्षेत्रम् इति शरीरयाथात्म्यविद्भिः अभिधीयते।एतद् अवयवशः संघातरूपेण च इदम् अहं वेद्मि इति यो वेत्ति तं वेद्यभूताद् अस्माद् वेदितृत्वेन अर्थान्तरभूतं क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः -- आत्मयाथात्म्यविदः प्राहुः।यद्यपि देहव्यतिरिक्तघटाद्यर्थानुसंधानवेलायाम् देवः अहम्? मनुष्यः अहम्? घटादिकं जानामि इति देहसामानाधिकरण्येन ज्ञातारम् आत्मानम् अनुसंधत्ते तथापि देहानुभववेलायां देहम् अपि घटादिकम् इव इदम् अहं वेद्मि इति वेद्यतया वेदिता अनुभवति इति वेत्तुः आत्मनो वेद्यतया शरीरम् अपि घटादिवद् अर्थान्तरभूतम् तथा घटादेः इव वेद्यभूतात् शरीराद् अपि वेदिता क्षेत्रज्ञः अर्थान्तरभूतः।सामानाधिकरण्येन प्रतीतिः तु वस्तुतः शरीरस्य गोत्वादिवद् आत्मविशेषणतैकस्वभावतया तदपृथक्सिद्धेः उपपन्ना। तत्र वेदितुः असाधारणाकारस्य चक्षुरादिकरणाविषयत्वाद् योगसंस्कृतमनोविषयत्वात् च? प्रकृतिसन्निधानाद् एव मूढाः प्रकृत्याकारम् एव वेदितारं पश्यन्ति। तथा च वक्ष्यति -- उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानंवा गुणान्वितम्। विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।। (गीता 15।10) इति।
।।13.1।।प्रथममध्यमयोः षट्कयोस्त्वंतत्पदार्थावुक्तौ? अन्तिमस्तु षट्को वाक्यार्थनिष्ठः सम्यग्धीप्रधानोऽधुनारभ्यते। तत्र क्षेत्राध्यायमन्तिमषट्काद्यमवतितारयिषुव्यवहितं वृत्तं कीर्तयति -- सप्तम इति। प्रकृतिद्वयस्य स्वातन्त्र्यं वारयति -- ईश्वरस्येति। भूमिरित्यादिनोक्ता सत्त्वादिरूपा प्रकृतिरपरेत्यत्र हेतुमाह -- संसारेति। इतस्त्वन्यामित्यादिनोक्तां प्रकृतिमनुक्रामति -- परा चेति। परत्वे हेतुं सूचयति -- ईश्वरात्मिकेति। किमर्थमीश्वरस्य प्रकृतिद्वयमित्याशङ्क्य कारणत्वार्थमित्याह -- याभ्यामिति। वृत्तमनूद्य वर्तिष्यमाणाध्यायारम्भप्रकारमाह -- तत्रेति। व्यवहितेन संबन्धमुक्त्वाऽव्यवहितेन तं विवक्षुरव्यवहितमनुवदति -- अतीतेति। निष्ठोक्तेति संबन्धः। निष्ठामेव व्याचष्टे -- यथेति। वर्तन्ते धर्मजातमनुतिष्ठन्ति तथा पूर्वोक्तेन प्रकारेण सर्वमुक्तमिति योजना। अव्यवहितमेवानूद्य तेनोत्तरस्य संबन्धं संगिरते -- केनेति। तत्त्वज्ञानोक्तेरुक्तार्थेन समुच्चयार्थश्चकारः। जीवानां सुखदुःखादिभेदभाजां प्रतिक्षेत्रं भिन्नानां नाक्षरेणैक्यमित्याशङ्क्य संसारस्यात्मधर्मत्वं निराकृत्य संघातनिष्ठत्वं वक्तुं संघातोत्पत्तिप्रकारमाह -- प्रकृतिश्चेति। भोगश्चापवर्गश्चार्थौ तयोरेव कर्तव्यतयेति यावत्। नन्वनन्तरश्लोके शरीरनिर्देशात्तस्योत्पत्तिर्वक्तव्या किमिति संघातस्योच्यते तत्राह -- सोऽयमिति। उक्तेऽर्थे भगवद्वचनमवतारयति -- तदेतदिति। तत्र द्रष्टृत्वेन संघातदृश्यादन्यमात्मानं निर्दिशति -- इदमिति। उक्तं प्रत्यक्षदृश्यविशिष्टं किंचिदिति शेषः। शरीरस्यात्मनोऽन्यत्वं क्षेत्रनामनिरुक्त्या ब्रूते -- क्षतेति। क्षयो नाशः क्षरणमपक्षयः। यथा क्षेत्रे बीजमुप्तं फलति तद्वदित्याह -- क्षेत्रवद्वेति। क्षेत्रपदादुपरिस्थितमितिपदं क्षेत्रशब्दविषयमन्यथा वैयर्थ्यादित्याह -- इतिशब्द इति। क्षेत्रमित्येवमनेन क्षेत्रशब्देनेत्यर्थः। दृश्यं देहमुक्त्वा ततोऽतिरिक्तं द्रष्टारमाह -- एतदिति। स्वाभाविकं मनुष्योऽहमिति ज्ञानमौपदेशिकं देहो नात्मा दृश्यत्वादित्यादिविभागशः स्वतोऽतिरिक्तत्वेनेत्यर्थः। क्षेत्रमित्यत्रेतिशब्दवदत्रापीतिशब्दस्य क्षेत्रज्ञशब्दविषयत्वमाह -- इतिशब्द इति। क्षेत्रज्ञ इत्येवं क्षेत्रज्ञशब्देन तं प्राहुरिति संबन्धः। प्रवक्तृ़न्प्रश्नपूर्वकमाह -- क इत्यादिना।
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।।13.1।।ये यथोक्तप्रकारेण मां भजन्ति विचक्षणाः। अनन्यमनसस्ते मे प्रियास्तानुद्धराम्यम्।।1।। इत्युक्तिं समुपाकर्ण्य तज्जिज्ञासुर्धनञ्जयः। प्रभुं विज्ञापयामास प्रेमविह्वलितः सुधीः।।2।।अथ प्रपञ्चादिसर्वस्वरूपज्ञानाभावे भक्तिः कथं स्यात् इति तज्ज्ञानं पृच्छति -- प्रकृतिमिति। प्रकृतिं पूर्वोक्तां स्वशक्तिरूपां? पुरुषं च स्वांशं जीवं? क्षेत्रं सर्वोत्पत्तिस्थानं? क्षेत्रज्ञं? तत्स्वरूपज्ञं? ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं? ज्ञेयं तेन ज्ञानेन प्राप्यं सर्वं हे केशव ब्रह्मशिवयोरपि मोक्षद अहं भक्त्यर्थं वेदितुमिच्छामि।
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13.1 प्रकृतिम् the Prakriti (matter)? पुरुषम् the Purusha (Spirit or Soul)? च and? एव even? क्षेत्रम् the field? क्षेत्रज्ञम् the knower of the field? एव even? च and? एतत् this? वेदितुम् to know? इच्छामि (I) wish? ज्ञानम् knowledge? ज्ञेयम् what ought to be known? च and? केशव O Kesava.Commentary In some of the books you will not find this verse. If you include this verse also? the number of verses of the Bhagavad Gita will come to 701. Some commentators look upon this verse as an interpolation.We have come to the beginning of the third section of the Gita. Essentially the same knowledge is taught in this section but there are more details.This discourse on Kshetra (matter) is commenced with a view to determine the essential nature of the possessor of the two Prakritis (Natures)? the lower and the higher? described in chapter VII? verses 4 and 5.In the previous discourse a description of the devotee who is dear to the Lord is given from verse 13 to the end. Now the estion arises What sort of knowledge of Truth should he possess The answer is given in this discourse.Nature is composed of the three alities. It transforms itself into the body? senses and the sensual objects to serve the two purposes of the individual soul? viz.? Bhoga (enjoyment) and Apavarga (liberation).The Gita is divided into three sections illustrative of the three words of the Mahavakya or Great Sentence of the Sama Veda -- TatTvamAsi (That thou art). In accordance with this view the first six chapters deal with the path of action or Karma Yoga and the nature of the thou (TvamPada). The next six chapters explain the path of devotion or Bhakti Yoga and the nature of That (TatPada). The last six chapters treat of the path of knowledge or Jnana Yoga and the nature of the middle term art (AsiPada) which establishes the identity of the individual and the Supreme Soul (Jiva Brahma Aikyam).Arjuna now wishes to know in detail the difference between Prakriti and Purusha (Matter and Spirit). He desires to have a discriminative knowledge of the difference between them.
13.1 Arjuna said I wish to learn about Nature (matter) and the Spirit (soul), the field and the knower of the field, knowledge and that which ought to be known, O Kesava.
13.1 "Arjuna asked: My Lord! Who is God and what is Nature; what is Matter and what is the Self; what is that they call Wisdom, and what is it that is worth knowing? I wish to have this explained.
13.1 Swami Gambhirananda has not translated this sloka. Many editions of the Bhagavadgita do not contain this sloka, including the commentary by Sankaracharya. If this sloka is included, the total number of slokas in the Bhagavadgita is 701.
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13.1. No such translation is available for this sloka.
13.1 Inclusion of this sloka, spoken by Arjuna, brings the total number of slokas in the Bhagavadgita to 701. Many versions of the Bhagavadgita, including the current commentary by Dr. S Sankaranarayan, do not include this sloka.
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13.1 There is no such translation for this sloka.
।।13.1।।No translation.
।।13.1।। -- No Commentary
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अर्जुन उवाच प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च। एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।13.1।।
অর্জুন উবাচ প্রকৃতিং পুরুষং চৈব ক্ষেত্রং ক্ষেত্রজ্ঞমেব চ৷ এতদ্বেদিতুমিচ্ছামি জ্ঞানং জ্ঞেযং চ কেশব৷৷13.1৷৷
অর্জুন উবাচ প্রকৃতিং পুরুষং চৈব ক্ষেত্রং ক্ষেত্রজ্ঞমেব চ৷ এতদ্বেদিতুমিচ্ছামি জ্ঞানং জ্ঞেযং চ কেশব৷৷13.1৷৷
અર્જુન ઉવાચ પ્રકૃતિં પુરુષં ચૈવ ક્ષેત્રં ક્ષેત્રજ્ઞમેવ ચ। એતદ્વેદિતુમિચ્છામિ જ્ઞાનં જ્ઞેયં ચ કેશવ।।13.1।।
ਅਰ੍ਜੁਨ ਉਵਾਚ ਪ੍ਰਕਰਿਤਿਂ ਪੁਰੁਸ਼ਂ ਚੈਵ ਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰਂ ਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰਜ੍ਞਮੇਵ ਚ। ਏਤਦ੍ਵੇਦਿਤੁਮਿਚ੍ਛਾਮਿ ਜ੍ਞਾਨਂ ਜ੍ਞੇਯਂ ਚ ਕੇਸ਼ਵ।।13.1।।
ಅರ್ಜುನ ಉವಾಚ ಪ್ರಕೃತಿಂ ಪುರುಷಂ ಚೈವ ಕ್ಷೇತ್ರಂ ಕ್ಷೇತ್ರಜ್ಞಮೇವ ಚ. ಏತದ್ವೇದಿತುಮಿಚ್ಛಾಮಿ ಜ್ಞಾನಂ ಜ್ಞೇಯಂ ಚ ಕೇಶವ৷৷13.1৷৷
അര്ജുന ഉവാച പ്രകൃതിം പുരുഷം ചൈവ ക്ഷേത്രം ക്ഷേത്രജ്ഞമേവ ച. ഏതദ്വേദിതുമിച്ഛാമി ജ്ഞാനം ജ്ഞേയം ച കേശവ৷৷13.1৷৷
ଅର୍ଜୁନ ଉବାଚ ପ୍ରକୃତିଂ ପୁରୁଷଂ ଚୈବ କ୍ଷେତ୍ରଂ କ୍ଷେତ୍ରଜ୍ଞମେବ ଚ| ଏତଦ୍ବେଦିତୁମିଚ୍ଛାମି ଜ୍ଞାନଂ ଜ୍ଞେଯଂ ଚ କେଶବ||13.1||
arjuna uvāca prakṛtiṅ puruṣaṅ caiva kṣētraṅ kṣētrajñamēva ca. ētadvēditumicchāmi jñānaṅ jñēyaṅ ca kēśava৷৷13.1৷৷
அர்ஜுந உவாச ப்ரகரிதிஂ புருஷஂ சைவ க்ஷேத்ரஂ க்ஷேத்ரஜ்ஞமேவ ச. ஏதத்வேதிதுமிச்சாமி ஜ்ஞாநஂ ஜ்ஞேயஂ ச கேஷவ৷৷13.1৷৷
అర్జున ఉవాచ ప్రకృతిం పురుషం చైవ క్షేత్రం క్షేత్రజ్ఞమేవ చ. ఏతద్వేదితుమిచ్ఛామి జ్ఞానం జ్ఞేయం చ కేశవ৷৷13.1৷৷
13.2
13
2
।।13.2।।श्रीभगवान् बोले -- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! 'यह' -- रूपसे कहे जानेवाले शरीरको 'क्षेत्र' कहते हैं और इस क्षेत्रको जो जानता है, उसको ज्ञानीलोग 'क्षेत्रज्ञ' नामसे कहते हैं।
।।13.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे कौन्तेय ! यह शरीर क्षेत्र कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसे तत्त्वज्ञ जन, क्षेत्रज्ञ कहते हैं।।
।।13.2।। पूर्णत्व का अनुभव आत्मरूप से होता है? न कि दृश्य रूप से। हिन्दू ऋषियों का इस विषय में एकमत है कि अन्तर्मुखी होकर आत्मविचार करना ही आत्मबोध तथा उसके साक्षात् अनुभव का साधन मार्ग है। इस अध्याय में आत्मा और उसकी उपाधियों का सुन्दर दार्शनिक पद्धति से विभाजन किया गया है। आत्मानात्मविवेक जनित बोध ही साधक को दर्शायेगा कि किस प्रकार पारमर्थिक सत्य की दृष्टि से जड़ अनात्मा का आत्यन्तिक (सर्वथा) अभाव है।जाग्रत पुरुष ही अपनी किसी एक विशेष मनस्थिति से स्वप्नद्रष्टा बन जाता है? और जब तक स्वप्न बना रहता है तब तक उस स्वप्नद्रष्टा के लिये वह अत्यन्त सत्य प्रतीत होता है। परन्तु जाग जाने पर उस स्वप्न का अभाव हो जाता है? और जाग्रत् पुरुष यह जानता है कि वह स्वप्न उसके ही मन का विभ्रम मात्र था। इसी प्रकार आत्मानुभूति की वास्तविक जागृति में इस दृश्य प्रपंच का अभाव होता है। साधक अपने आत्मस्वरूप से ही आत्मा का अनुभव करता है? जिसमें इस छायारूप जगत् का कोई अस्तित्व ही नहीं है।इस प्रकार? वेदान्त दर्शन के अनुसार विचार करने पर ज्ञात होता है कि समस्त प्राणी दो तत्त्वों से बने हैं। एक तत्त्व है जड़अचेतन और दूसरा है चेतन तत्त्व। प्रस्तुत श्लोक में इन दोनों को परिभाषित किया गया है।यह शरीर क्षेत्र कहलाता है इस यान्त्रिक युग में यह समझना सरल है कि ऊर्जा को व्यक्त होने अथवा कार्य करने के लिए उपयुक्त क्षेत्र की आवश्यकता होती है। तभी वह व्यक्त होकर मानव की सेवा कर सकती है।इंजन के बिना वाष्पशक्ति तथा पंखे के बिना विद्युत् शक्ति हमें क्रमश गति और मन्द समीर प्रदान नहीं कर सकती। इसी प्रकार? जिन शरीरादि उपाधियों के माध्यम से आत्मचैतन्य व्यक्त होता है? उन्हें ही यहाँ क्षेत्र कहा गया है।इसको जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं यह क्षेत्र जड़ पदार्थों से बना हुआ है। तथापि? इसमें चैतन्य की अभिव्यक्ति होने से यह कार्य करता है और विषयों को जानता है। वास्तव में? यह चेतन तत्त्व जो इन उपाधियों से व्यक्त होकर विषयों को प्रकाशित कर रहा है वह क्षेत्रज्ञ है। शास्त्रीय भाषा में कहेंगे कि उपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य ही क्षेत्रज्ञ अथवा जीव कहलाता है।जब तक जीव शरीर धारण किये रहता है? उसकी उपस्थिति जानने की प्रवृत्ति से स्पष्ट ज्ञात होती है। इस जिज्ञासा की प्रवृत्ति की मात्रा विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न तारतम्य में हो सकती है। परन्तु? इसके व्यक्त होने को ही हम जीवन का लक्षण मानते हैं। प्राणी की विषय ग्रहण की तथा उनके प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करने की क्षमता ही जीवन का व्यवहार है? और जब यह ज्ञाता? शरीर का त्याग करके चला जाता है तब हम उस शरीर को मृत घोषित करते हैं। यह ज्ञाता ही क्षेत्रज्ञ है।तद्विद (तत्त्वज्ञजन) यहाँ? भगवान् श्रीकृष्ण हमें आश्वस्त करते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की ये परिभाषाएं उनकी स्वच्छन्द घोषणा नहीं हैं और न ही ये केवल परिकल्पित अनुमान है? अपितु स्वयं ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों द्वारा ही ये प्रमाणित की गई हैं। संक्षेप में? संपूर्ण जड़ जगत् क्षेत्र है? और चैतन्य स्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ कहा जाता है।क्या इस विषय में केवल इतना ही जानना है नहीं? आगे सुनो
।।13.2।। व्याख्या --   इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते -- मनुष्य यह पशु है? यह पक्षी है? यह वृक्ष है आदिआदि भौतिक चीजोंको इदंतासे अर्थात् यहरूपसे कहता है और इस शरीरको कभी मैंरूपसे तथा कभी मेरारूपसे कहता है। परन्तु वास्तवमें अपना कहलानेवाला शरीर भी इदंतासे कहलानेवाला ही है। चाहे स्थूलशरीर हो? चाहे सूक्ष्मशरीर हो और चाहे कारणशरीर हो? पर वे हैं सभी इदंतासे कहलानेवाले ही।जो पृथ्वी? जल? तेज? वायु और आकाश -- इन पाँच तत्त्वोंसे बना हुआ है अर्थात् जो मातापिताके रजवीर्यसे पैदा होता है? उसको स्थूलशरीर कहते हैं। इसका दूसरा नाम अन्नमयकोश भी है क्योंकि यह अन्नके विकारसे ही पैदा होता है और अन्नसे ही जीवित रहता है। अतः यह अन्नमय? अन्नस्वरूप ही है। इन्द्रियोंका विषय होनेसे यह शरीर इदम् (यह) कहा जाता है।पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ? पाँच कर्मेन्द्रियाँ? पाँच प्राण? मन और बुद्धि -- इन सत्रह तत्त्वोंसे बने हुएको सूक्ष्मशरीर कहते हैं। इन सत्रह तत्त्वोंमेंसे प्राणोंकी प्रधानताको लेकर यह सूक्ष्मशरीर प्राणमयकोश? मनकी प्रधानताको लेकर यह मनोमयकोश और बुद्धिकी प्रधानताको लेकर यह विज्ञानमयकोश कहलाता है। ऐसा यह सूक्ष्मशरीर भी अन्तःकरणका विषय होनेसे इदम् कहा जाता है।अज्ञानको कारणशरीर कहते हैं। मनुष्यको बुद्धितकका तो ज्ञान होता है? पर बुद्धिसे आगेका ज्ञान नहीं होता? इसलिये उसे अज्ञान कहते हैं। यह अज्ञान सम्पूर्ण शरीरोंका कारण होनेसे कारणशरीर कहलाता है -- अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणम् (अध्यात्म0 उत्तर0 5। 9)। इस कारणशरीरको स्वभाव? आदत और प्रकृति भी कह देते हैं और इसीको आनन्दमयकोश भी कह देते हैं। जाग्रत्अवस्थामें स्थूलशरीरकी प्रधानता होती है और उसमें सूक्ष्म तथा कारणशरीर भी साथमें रहता है। स्वप्नअवस्थामें सूक्ष्मशरीरकी प्रधानता होती है और उसमें कारणशरीर भी साथमें रहता है। सुषुप्तिअवस्थामें स्थूलशरीरका ज्ञान नहीं रहता? जो कि अन्नमयकोश है और सूक्ष्मशरीर भी ज्ञान नहीं रहता? जो कि प्राणमय? मनोमय एवं विज्ञानमयकोश है अर्थात् बुद्धि अविद्या(अज्ञान)में लीन हो जाती है। अतः सुषुप्तिअवस्था कारणशरीरकी होती है। जाग्रत् और स्वप्नअवस्थामें तो सुखदुःखका अनुभव होता है? पर सुषुप्तिअवस्थामें दुःखका अनुभव नहीं होता और सुख रहता है। इसलिये कारणशरीरको आनन्दमयकोश कहते हैं। कारणशरीर भी स्वयंका विषय होनेसे? स्वयंके द्वारा जाननेमें आनेवाला होनेसे इदम् कहा जाता है।उपर्युक्त तीनों शरीरोंको शरीर कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण नाश होता रहता है (टिप्पणी प0 668.1)। इनको कोश कहनेका तात्पर्य है कि जैसे चमड़ेसे बनी हुई थैलीमें तलवार रखनेसे उसकी म्यान संज्ञा हो जाती है? ऐसे ही जीवात्माके द्वारा इन तीनों शरीरोंको अपना माननेसे? अपनेको इनमें रहनेवाला माननेसे इन तीनों शरीरोंकी कोश संज्ञा हो जाती है।इस शरीरको क्षेत्र कहनेका तात्पर्य है कि यह प्रतिक्षण नष्ट होता? प्रतिक्षण बदलता है (टिप्पणी प0 668.2)। यह इतना जल्दी बदलता है कि इसको दुबारा कोई देख ही नहीं सकता अर्थात् दृष्टि पड़ते ही जिसको देखा? उसको फिर दुबारा नहीं देख सकते क्योंकि वह तो बदल गया।शरीरको क्षेत्र कहनेका दूसरा भाव खेतसे है। जैसे खेतमें तरहतरहके बीज डालकर खेती की जाती है? ऐसे ही इस मनुष्यशरीरमें अहंताममता करके जीव? तरहतरहके कर्म करता है। उन कर्मोंके संस्कार,अन्तःकरणमें पड़ते हैं। वे संस्कार जब फलके रूपमें प्रकट होते हैं? तब दूसरा (देवता? पशुपक्षी? कीटपतङ्ग आदिका) शरीर मिलता है। जिस प्रकार खेतमें जैसा बीज बोया जाता है? वैसा ही अनाज पैदा होता है? उसी प्रकार इस शरीरमें जैसे कर्म किये जाते हैं? उनके अनुसार ही दूसरे शरीर? परिस्थिति आदि मिलते हैं। तात्पर्य है कि इस शरीरमें किये गये कर्मोंके अनुसार ही यह जीव बारबार जन्ममरणरूप फल भोगता है। इसी दृष्टिसे इसको क्षेत्र (खेत) कहा गया है।अपने वास्तविक स्वरूपसे अलग दीखनेवाला यह शरीर प्राकृत पदार्थोंसे? क्रियाओंसे? वर्णआश्रम आदिसे,इदम् (दृश्य) ही है। यह है तो इदम् पर जीवने भूलसे इसको अहम् मान लिया और फँस गया। स्वयं परमात्माका अंश एवं चेतन है? सबसे महान् है। परन्तु जब वह जड (दृश्य) पदार्थोंसे अपनी महत्ता मानने लगता है (जैसे? मैं धनी हूँ? मैं विद्वान् हूँ आदि)? तब वास्तवमें वह अपनी महत्ता घटाता ही है। इतना ही नहीं? अपनी महान् बेइज्जती करता है क्योंकि अगर धन? विद्या आदिसे वह अपनेको बड़ा मानता है? तो धन विद्या आदि ही बड़े हुए उसका अपना महत्त्व तो कुछ रहा ही नहीं वास्तवमें देखा जाय तो महत्त्व स्वयंका ही है? नाशवान् और जड धनादि पदार्थोंका नहीं क्योंकि जब स्वयं उन पदार्थोंको स्वीकार करता है? तभी वे महत्त्वशाली दीखते हैं। इसलिये भगवान् इदं शरीरं क्षेत्रम् पदोंसे शरीरादि पदार्थोंको अपनेसे भिन्न इदंता से देखनेके लिये कह रहे हैं।एतद्यो वेत्ति -- जीवात्मा इस शरीरको जानता है अर्थात् यह शरीर मेरा है? इन्द्रियाँ मेरी हैं? मन मेरा है? बुद्धि मेरी है? प्राण मेरे हैं -- ऐसा मानता है। यह जीवात्मा इस शरीरको कभी मैं कह देता है और कभी,यह कह देता है अर्थात् मैं शरीर हूँ -- ऐसा भी मान लेता है और यह शरीर मेरा है -- ऐसा भी मान लेता है।इस श्लोकके पूर्वार्धमें शरीरको इदम् पदसे कहा है और उत्तरार्धमें शरीरको एतत् पदसे कहा है। यद्यपि ये दोनों ही पद नजदीकके वाचक हैं? तथापि इदम् की अपेक्षा एतत् पद अत्यन्त नजदीकका वाचक है। अतः यहाँ इदम् पद अङ्गुलिनिर्दिष्ट शरीरसमुदायका द्योतन करता है और एतत् पद इस शरीरमें जो मैंपन है? उस मैंपनका द्योतन करता है।तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ (टिप्पणी प0 668.3) इति तद्विदः -- जैसे दूसरे अध्यायके सोलहवें श्लोकमें सत्असत्के तत्त्वको जाननेवालोंको तत्त्वदर्शी कहा है? ऐसे ही यहाँ क्षेत्रक्षेत्रज्ञके तत्त्वको जाननेवालोंको तद्विदः कहा है। क्षेत्र क्या है और क्षेत्रज्ञ क्या है -- इसका जिनको बोध हो चुका है? ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुष इस जीवात्माको क्षेत्रज्ञ नामसे कहते हैं। तात्पर्य है कि क्षेत्रकी तरफ दृष्टि रहनेसे? क्षेत्रके साथ सम्बन्ध रहनेसे ही इस जीवात्माको वे ज्ञानी महापुरुष क्षेत्रज्ञ कहते हैं। अगर यह जीवात्मा क्षेत्रके साथ सम्बन्ध न रखे? तो फिर इसकी क्षेत्रज्ञ संज्ञा नहीं रहेगी? यह परमात्मस्वरूप हो जायगा (गीता 13। 31)।मार्मिक बातयह नियम है कि जहाँसे बन्धन होता है? वहाँसे खोलनेपर ही (बन्धनसे) छुटकारा हो सकता है। अतः मनुष्यशरीरसे ही बन्धन होता है और मनुष्यशरीरके द्वारा ही बन्धनसे मुक्ति हो सकती है। अगर मनुष्यका अपने शरीरके साथ किसी प्रकारका भी अहंताममतारूप सम्बन्ध न रहे? तो वह मात्र संसारसे मुक्त ही है। अतः भगवान् शरीरके साथ माने हुए अहंताममतारूप सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये शरीरको क्षेत्र बताकर उसको इदंता(पृथक्ता) से देखनेके लिये कह रहे हैं? जो कि वास्तवमें पृथक् है ही।शरीरको इदंतासे देखना केवल अपना कल्याण चाहनेवाले साधकोंके लिये ही नहीं? प्रत्युत मनुष्यमात्रके लिये परम आवश्यक है। कारण कि अपना उद्धार करनेका अधिकार और अवसर मनुष्यशरीरमें ही है। यही कारण,है कि गीताका उपदेश आरम्भ करते ही भगवान्ने सबसे पहले शरीर और शरीरीका पृथक्ताका वर्णन किया है।इदम् का अर्थ है -- यह अर्थात् अपनेसे अलग दीखनेवाला। सबसे पहले देखनेमें आता है -- पृथ्वी? जल? तेज? वायु तथा आकाशसे बना यह स्थूलशरीर। यह दृश्य है और परिवर्तनशील है। इसको देखनेवाले हैं -- नेत्र। जैसे दृश्यमें रंग? आकृति? अवस्था? उपयोग आदि सभी बदलते रहते हैं? पर उनको देखनेवाले नेत्र एक ही रहते हैं? ऐसे ही शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्धरूप विषय भी बदलते रहते हैं? पर उनको जाननेवाले कान? त्वचा? नेत्र? जिह्वा और नासिका एक ही रहते हैं। जैसे नेत्रोंसे ठीक दीखना? कम दीखना और बिलकुल न दीखना -- ये नेत्रमें होनेवाले परिवर्तन मनके द्वारा जाने जाते हैं? ऐसे ही कान? त्वचा? जिह्वा और नासिकामें होनेवाले परिवर्तन भी मनके द्वारा जाने जाते हैं। अतः पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ (कान? त्वचा? नेत्र? जिह्वा और नासिका) भी दृश्य हैं। कभी क्षुब्ध और कभी शान्त? कभी स्थिर और कभी चञ्चल -- ये मनमें होनेवाले परिवर्तन बुद्धिके द्वारा जाने जाते हैं। अतः मन भी दृश्य है। कभी ठीक समझना? कभी कम समझना और कभी बिलकुल न समझना -- ये बुद्धिमें होनेवाले परिवर्तन स्वयं(जीवात्मा) के द्वारा जाने जाते हैं। अतः बुद्धि भी दृश्य है। बुद्धि आदिके द्रष्टा स्वयं(जीवात्मा) में कभी परिवर्तन हुआ नहीं? है नहीं? होगा नहीं और होना सम्भव भी नहीं। वह सदा एकरस रहता है अतः वह कभी किसीका दृश्य नहीं हो सकता (टिप्पणी प0 669)।इन्द्रियाँ अपनेअपने विषयको तो जान सकती हैं? पर विषय अपनेसे पर (सूक्ष्म? श्रेष्ठ और प्रकाशक) इन्द्रियोंको नहीं जान सकते। इसी तरह इन्द्रियाँ और विषय मनको नहीं जान सकते मन? इन्द्रियाँ और विषय बुद्धिको नहीं जान सकते तथा बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ और विषय स्वयंको नहीं जान सकते। न जाननेमें मुख्य कारण यह है कि इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि तो सापेक्ष द्रष्टा हैं अर्थात् एकदूसरेकी सहायतासे केवल अपनेसे स्थूल रूपको देखनेवाले हैं किन्तु स्वयं (जीवात्मा) शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धिसे अत्यन्त सूक्ष्म और श्रेष्ठ होनेके कारण निरपेक्ष द्रष्टा है अर्थात् दूसरे किसीकी सहायताके बिना खुद ही देखनेवाला है।उपर्युक्त विवेचनमें यद्यपि इन्द्रियाँ? मन और बुद्धिको भी द्रष्टा कहा गया है? तथापि वहाँ भी यह समझ लेना चाहिये कि स्वयं(जीवात्मा) के साथ रहनेपर ही इनके द्वारा देखा जाना सम्भव होता है। कारण कि मन? बुद्धि आदि जड प्रकृतिका कार्य होनेसे स्वतन्त्र द्रष्टा नहीं हो सकते। अतः स्वयं ही वास्तविक द्रष्टा है। दृश्य पदार्थ (शरीर)? देखनेकी शक्ति (नेत्र? मन? बुद्धि) और देखनेवाला (जीवात्मा) -- इन तीनोंमें गुणोंकी भिन्नता होनेपर भी तात्त्विक एकता है। कारण कि तात्त्विक एकताके बिना देखनेका आकर्षण? देखनेकी सामर्थ्य और देखनेकी प्रवृत्ति सिद्ध ही नहीं होती। यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि स्वयं (जीवात्मा) तो चेतन है? फिर वह जड बुद्धि आदिको (जिससे उसकी तात्त्विक एकता नहीं है।) कैसे देखता है इसका समाधान यह है कि स्वयं जडसे तादात्म्य करके जडके सहित अपनेको मैं मान लेता है। यह मैं न तो जड है और न चेतन ही है। जडमें विशेषता देखकर यह जडके साथ एक होकर कहता है कि मैं धनवान हूँ मैं विद्वान हूँ आदि और चेतनमें विशेषता देखकर यह चेतनके साथ एक होकर कहता है कि मैं आत्मा हूँ मैं ब्रह्म हूँ आदि। यही प्रकृतिस्थ पुरुष है? जो प्रकृतिजन्य गुणोंके सङ्गसे ऊँचनीच योनियोंमें बारबार जन्म लेता रहता है (गीता 13। 21)। तात्पर्य यह निकला कि प्रकृतिस्थ पुरुषमें जड और चेतन -- दोनों अंश विद्यमान हैं। चेतनकी रुचि परमात्माकी तरफ जानेकी है किन्तु भूलसे उसने जडके साथ तादात्म्य कर लिया। तादात्म्यमें जो जडअंश है? उसका आकर्षण (प्रवृत्ति) जडताकी तरफ होनेसे वही सजातीयताके कारण जड बुद्धि आदिका द्रष्टा बनता है। यह नियम है कि देखना केवल सजातीयतामें ही सम्भव होता है अर्थात् दृश्य? दर्शन और द्रष्टाके एक ही जातिके होनेसे देखना होता है? अन्यथा नहीं। इस नियमसे यह पता लगता है कि स्वयं (जीवात्मा) जबतक बुद्धि आदिका द्रष्टा रहता है? तबतक उसमें बुद्धिकी जातिकी जड वस्तु है अर्थात् जड प्रकृतिके साथ उसका माना हुआ सम्बन्ध है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही सब अनर्थोंका मूल है। इसी माने हुए सम्बन्धके कारण वह सम्पूर्ण जड प्रकृति अर्थात् बुद्धि? मन? इन्द्रियाँ? विषय? शरीर और,पदार्थोंका द्रष्टा बनता है। सम्बन्ध --   उस क्षेत्रज्ञका स्वरूप क्या है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।13.2 -- 13.3।।क्वचित् श्रुतौ क्षेत्रज्ञ उपास्यः इति श्रूयते। स च किमात्मा? उत ईश्वरः अथ तृतीयः कश्चिदन्य एव इति प्रश्नाशङ्कायाम् -- श्रीभगवानादिशतिं -- इदमिति? क्षेत्रज्ञमिति। संसारिणां शरीरं क्षेत्रम्? यत्र कर्मबीजप्ररोहः। अत एव तेषामात्मा आगन्तुककालुष्यरूषितः क्षेत्रज्ञ उच्यते। प्रबुद्धानां तदेव क्षेत्रम्। अन्वर्थभेदस्तु तद्यथा -- क्षिणोति कर्मबन्धमुपभोगेन? त्रायते जन्ममरणभयात् इति। तांश्च प्रति परमात्मा वासुदेवः (S? वासुदेवाख्यः) क्षेत्रज्ञः। एतत्क्षेत्रं (S?N यो वेदयति। वेदेत्यन्तर्भा यो वेदयति अन्तर्भा -- ) यो वेद? वेदयति इत्यन्तर्भावितण्यर्थो (N -- ण्यर्थोऽत्र) विदिः। तेन यत्प्रसादादचेतनमिदं चेतनीभावमायाति स एव क्षेत्रज्ञो नान्यः कश्चित्। विशेषस्तु परिमितव्याप्तिकं रूपमालम्ब्य आत्मेति भण्यते अपरिच्छिन्नसर्वक्षेत्रव्याप्त्या परमात्मा भगवान् वासुदेवः। ममेति कर्मणि षष्ठी अहमनेन ज्ञानेन ज्ञेयः इत्यर्थः।
।।13.2।।देवमनुष्यादिसर्वक्षेत्रेषु वेदितृत्वैकाकारं क्षेत्रज्ञं च मां विद्धि -- मदात्मकं विद्धि। क्षेत्रज्ञं च अपि इति अपिशब्दात् क्षेत्रम् अपि मां विद्धि इति उक्तम् इति अवगम्यते।यथा क्षेत्रं क्षेत्रज्ञविशेषणतैकस्वभावतया तदपृथक्सिद्धेः तत्सामानाधिकरण्येन एव निर्देश्यं? तथा क्षेत्रं क्षेत्रज्ञः च मद्विशेषणतैकस्वभावतया मदपृथक्सिद्धेः मत्सामानाधिकरण्येन एव निर्देश्यौ विद्धि।वक्ष्यति हि क्षेत्रात् क्षेत्रज्ञात् च बद्धमुक्तोभयावस्थात् क्षराक्षरशब्दनिर्दिष्टाद् अर्थान्तरत्वं परस्य ब्रह्मणो वासुदेवस्य -- द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।। (गीता 15।1618) इति।पृथिव्यादिसंघातरूपस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रज्ञस्य च भगवच्छरीरतैकस्वभावस्वरूपतया भगवदात्मकत्वं श्रुतयो वदन्ति।यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृह0 उ0 3।7।3) इत्यारभ्यय आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा वेद यस्यात्मा शरीरं यः आत्मानमन्तरो यमयति। स त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृह0 उ0 3।7।22) इत्याद्याः।इदम् एव अन्तर्यामितया सर्वक्षेत्रज्ञानाम् आत्मत्वेन अवस्थानं भगवत्सामानाधिकरण्येन व्यपदेशहेतुः।अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। (गीता 10।20)न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।। (गीता 10।39)विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।। (गीता 10।42) इति। पुरुस्ताद् उपरिष्टात् च अभिधाय मध्ये सामानाधिकरण्येन व्यपदिशति।आदित्यानामहं विष्णुः (गीता 10।21) इत्यादिना।यद् इदं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः विवेकविषयं तयोः मदात्मकत्वविषयं च ज्ञानम् उक्तम्? तद् एव उपादेयं ज्ञानम् इति मम मतम्।केचिद् आहुः -- क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि इति सामानाधिकरण्येन एकत्वं अवगम्यते? ततश्च ईश्वरस्य एव सतः अज्ञानात् क्षेत्रज्ञत्वम् इव भवति इति अभ्युपगन्तव्यम्? तन्निवृत्त्यर्थः च अयम् एकत्वोपदेशः। अनेन च आप्ततमभगवदुपदेशेन रज्जुः इयं न सर्पः? इति आप्तोपदेशेन सर्पत्वभ्रमनिवृत्तिवत् क्षेत्रज्ञत्वभ्रमो निवर्तते इति।ते प्रष्टव्याः अयम् उपदेष्टा भगवान् वासुदेवः परमेश्वरः किम् आत्मयाथात्म्यसाक्षात्कारेण निवृत्ताज्ञानः? उत न इति।निवृत्ताज्ञानः चेत्? निर्विशेषचिन्मात्रैकस्वरूपे आत्मनि अतद्रूपाध्यासासम्भावनया कौन्तेयादिभेददर्शनं तान् प्रति उपदेशादिव्यापारः च न संभवति।अथ आत्मयाथात्म्यसाक्षात्काराभावाद् अनिवृत्ताज्ञानः? तर्हि तस्य अज्ञत्वाद् एव आत्मज्ञानोपदेशारम्भो न संभवतिउपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः। (गीता 4।34) इति हि उक्तम्।अत एवमादिवादा अनाकलित -- श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणन्यायसदाचार -- स्ववाक्यविरोधैः स्ववचः स्थापनदुराग्रहैः अज्ञानिभिः जगन्मोहनाय प्रवर्तिताः? इति अनादरणीयाः।अत्र इदं तत्त्वम् -- अचिद्वस्तुनः चिद्वस्तुनः परस्य ब्रह्मणो भोग्यत्वेन भोक्तृत्वेन ईशितृत्वेन च स्वरूपविवेकम् आहुः काश्चन श्रुतयः -- असमान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः।। (श्वे0 उ0 4।9)मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्। (श्वे0 उ0 4।10)क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः। (श्वे0 उ0 1।10)अमृताक्षरं हरः इति भोक्ता निर्दिश्यते? प्रधानं भोग्यत्वेन हरति इति हरः।स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः।। (श्वे0 उ0 6।9)प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः। (श्वे0 उ0 6।16)पतिं विश्वस्यात्मेश्वरं शाश्वतं शिवमच्युतम्। (तै0 ना0 उ0 1।)ज्ञाज्ञौद्वावजावीशनीशौ। (श्वे0 उ0 1।9)नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।। (श्वे0 उ0 6।13)भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा (श्वे0 उ0 1।12)?पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृत्वमेति (श्वे0 उ0 1।6)तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति। (मु0 उ0 3।1।1)अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजा सृजमानां सरूपाः। अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः।। (श्वे0 उ0 4।5)गौरनाद्यन्तवती सा जनित्री भूतभाविनी। (मु0 उ0 5)समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः। जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः (श्वे0 उ0 4।7) इत्याद्याः।अत्रापि -- अहंकारं इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। (गीता 7।45)सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।। (गीता 9।7?8)मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। (गीता 9।10)प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि। (गीता 23।19)मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्। संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।। (गीता 14।3) इति।कृत्स्नजगद्योनिभूतं महद् ब्रह्म मदीयं प्रकृत्याख्यं भूतसूक्ष्मम् अचिद्वस्तु यत् तस्मिन् चेतनाख्यं गर्भं संयोजयामि? ततो मत्संकल्पकृतात् चिदचित्संसर्गाद् एव देवादिस्थावरान्तानाम् अचिन्मिश्राणां सर्वभूतानां संभवो भवति इत्यर्थः।श्रुतौ अपि भूतसूक्ष्मं ब्रह्म इति निर्दिष्टम्तस्माद् एतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते (मु0 उ0 1।1।9) इति।एवं भोक्तृभोग्यरूपेण अवस्थितयोः सर्वावस्थावस्थितयोः चिदचितोः परमपुरुषशरीरतया तन्नियाम्यत्वेन तदपृथक्स्थितिं परमपुरुषस्य च आत्मत्वम् आहुः काश्चन श्रुतयः -- यः पृथिव्यां तिष्ठन् पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद? यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति (बृ उ0 3।7।3) इत्यारभ्यय आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा न वेद? यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः (बृ0 उ0 3।7।22) इति। तथायस्य पृथिवी शरीरम्? यः पृथिवीमन्तरे संचरयन् यं पृथिवी न वेद इति आरभ्ययस्याक्षरं शरीरं योऽक्षरमन्तरे संचरन् यमक्षरं न वेदयस्य मृत्युः शरीरं यो मृत्युमन्तरे संचरन् यं मृत्युर्न वेद। स एष सर्वभूतान्तरात्मापहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः (सुबालो0 7) अत्र मृत्युशब्देन तमःशब्दवाच्यं सूक्ष्मावस्थम् अचिद्वस्तु अभिधीयते। अस्याम् एव उपनिषदिअव्यक्तमक्षरे लीयते अक्षरं तमसि लीयते। तमः परे देव एकीभूय तिष्ठति (सुबालो0 2) इति वचनात्अन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा (तै0 आ0 3।11) इति च।एवं सर्वावस्थावस्थितचिदचिद्वस्तुशरीरतया तत्प्रकारः परमपुरुष एव कार्यावस्थकारणावस्थजगद्रूपेण अवस्थित इति इमं अर्थं ज्ञापयितुं काश्चन श्रुतयः कार्यावस्थं कारणावस्थं जगत् स एव इति आहु --,यथासदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्। (छा0 उ0 6।2।2)तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत (छा0 उ0 6।2।3) इति आरभ्यसन्मूलाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः (छा0 उ0 6।8।6)ऐतदात्म्यमिदं सर्वं तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो (छा0 उ0 6।8।7) इति।तथासोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत इत्यारभ्यसत्यं चानृतं च सत्यमभवत् (तै0 उ0 2।6।1) इत्याद्याः।अत्र अपि श्रुत्यन्तरसिद्धः चिदचितोः परमपुरुषस्य च स्वरूपविवेकः स्मारितः।हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणीति (छा0 उ0 6।3।2)तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्। तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाभवत्। विज्ञानं चाविज्ञानं च सत्यं चानृतं च सत्यमभवत् (तै0 उ0 2।6।1) इति च।अनेन जीवेन आत्मना अनुप्रविश्य इति जीवस्य ब्रह्मात्मकत्वं? तद्सच्च त्यच्चाभवत् विज्ञानं चाविज्ञानं च इति अनेन ऐकार्थ्याद् आत्मशरीरभावनिबन्धनम् इति विज्ञायते।एवंभूतम् एव यन्नामरूपव्याकरणंतद्धेदं तर्ह्यव्याकृतमासीत् तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियते (बृ0 उ0 1।4।7) इत्यत्र अपि उक्तम्।अतः कार्यावस्थः कारणावस्थः च स्थूलसूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरः परमपुरुष एव? इति कारणात् कार्यस्य अनन्यत्वेन कारणाविज्ञानेन कार्यस्य ज्ञाततया एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानं समीहितम् उपपन्नतरम्।हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि (छा0 उ0 6।3।2) इति तिस्रो देवता इति सर्वम् अचिद् वस्तु निर्दिश्य तत्र स्वात्मकजीवानुप्रवेशेन नामरूपव्याकरणवचनात् सर्वे वाचकाः शब्दाः अचिज्जीवविशिष्टपरमात्मन एव वाचकाः? इति कारणावस्थपरमात्मवाचिना शब्देन कार्यवाचिनः शब्दस्य सामानाधिकरण्यं मुख्यवृत्तम्। अतः स्थूलसूक्ष्मचिदचित्प्रकारं ब्रह्म एव कार्यं कारणं च इति ब्रह्मोपादानं जगत्।सूक्ष्मचिदचिद्वस्तुशरीरं ब्रह्म एव कारणम् इति जगतो ब्रह्मोपादानत्वे अपि संघातस्य उपादानत्वेन चिदचितोः ब्रह्मणः च स्वभावासंकरः अपि उपपन्नतरः।यथा शुक्लकृष्णरक्ततन्तुसंघातोपादानत्वे अपि विचित्रपटस्य तत्तत्तन्तुप्रदेशे एव शौक्ल्यादिसंयोगः? इति कार्यावस्थायाम् अपि न सर्वत्र वर्णसंकरः? कारणवत् सर्वत्र च असंकरः तथा चिदचिदीश्वरसंघातोपादानत्वे अपि जगतः कार्यावस्थायाम् अपि भोक्तृत्वभोग्यत्वनियन्तृत्वनियम्यत्वाद्यसंकरः।तन्तूनां पृथक्स्थितियोग्यानाम् एव पुरुषेच्छया कदाचित्संहतानां कारणत्वं कार्यत्वं च इह तु चिदचितोः सर्वावस्थयोः परमपुरुषशरीरत्वेन तत्प्रकारतया एव पदार्थत्वात् तत्प्रकारः परमपुरुष एव कारणं कार्यं च? स एव सर्वदा सर्वशब्दवाच्य इति विशेषः स्वभावभेदः तदसंकरः च तत्र च अत्र च तुल्यः।एवं च सति परस्य ब्रह्मणः कार्यानुप्रवेशे अपि स्वरूपान्यथाभावाभावाद् अविकृतत्वम् उपपन्नतरम्। स्थूलावस्थस्य नामरूपविभागविभक्तस्य चिदचिद्वस्तुन आत्मतया अवस्थानात् कार्यत्वम् अपि उपपन्नतरम्। अवस्थान्तरापत्तिः एव हि कार्यता। निर्गुणवादाः च परस्य ब्रह्मणो हेयगुणसंबन्धाभावाद्उपपद्यन्ते।अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोकोविजिघत्सोऽपिपासः (छा0 उ0 8।7।1) इति हेयगुणान् प्रतिषिध्यसत्यकामः सत्यसङ्कल्पः (छा0 उ0 8।7।1) इति कल्याणगुणान् विदधती इयं श्रुतिः एव अन्यत्र सामान्येन अवगतं गुणनिषेधं हेयगुणविषयं व्यवस्थापयति।ज्ञानस्वरूपं ब्रह्म इति वादः च सर्वज्ञस्य सर्वशक्तेः निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणगुणाकरस्य परस्य ब्रह्मणः स्वरूपं ज्ञानैकनिरूपणीयं स्वप्रकाशतया ज्ञानस्वरूपं च इति अभ्युपगमाद् उपपन्नतरः।यः सर्वज्ञः सर्ववित् (मु0 उ0 1।1।9)परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च। (श्वे0 उ0 6।8)विज्ञातारमरे केन विजानीयात् (बृ0 उ0 2।4।14) इत्यादिका ज्ञातृत्वम् आवेदयन्ति।सत्यं ज्ञानमनन्तम् (तै0 उ0 2।1।1) इत्यादिकाश्च? ज्ञानैकनिरूपणीयतया स्वप्रकाशतया च ज्ञानस्वरूपत्वम्।सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय। (तै0 उ0 2।6।1)तदैक्षत बहु स्याम् (छा उ0 6।2।3)तन्नामरूपाभ्यामेव व्याक्रियत। (बृ0 उ0 1।4।7)आत्मनि खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्वं विदितं (भवति)। (बृ0 उ0 4।5।6)सर्वं तं परादाद् योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेद। (बृ0 उ0 4।5।7)(तस्य ह वा) अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेद्यदृग्वेदः। (बृ0 उ0 4।5।11) इति ब्रह्म एव स्वसंकल्पाद् विचित्र स्थिरत्रसस्वरूपतया नानाप्रकारम् अवस्थितम् इति। तत्प्रत्यनीकाब्रह्मात्मकवस्तुनानात्वम् अतत्त्वम् इति प्रतिषिध्यते।मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति। (बृ0 उ0 4।4।19)नेह नानास्ति किञ्चन। (क0 उ0 2।1।11)यत्र हि द्वैतमिव भवति। ৷৷. तदितर इतरं पश्यति। ৷৷. यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् तत् केन किं जिघ्रेत् तत्केन कं पश्येत् (बृ0 उ0 2।4।14) इत्यादिना। न पुनःबहु स्यां प्रजायेय (तै0 उ0 2।6) इत्यादिश्रुतिसिद्धस्वसंकल्पकृतं ब्रह्मणो नानानामरूपभाक्त्वेन नानाप्रकारत्वम् अपि निषिध्यते।यत्रत्वस्य सर्वमात्मैवाभूत् (बृ0 उ0 2।4।14) इति निषेधवाक्यारम्भे च तत्स्थापितंसर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेद (बृ0 उ0 4।5।7)तस्य ह वा एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदः (बृ0 उ0 4।5।7) इत्यादिना।एवं चिदचिदीश्वराणां स्वरूपभेदं स्वभावभेदं च वदन्तीनां तासां कार्यकारणभावं कार्यकारणयोः अनन्यत्वं वदन्तीनां च सर्वासां श्रुतीनाम् अविरोधः? चिदचितोः परमात्मनः च सर्वदा शरीरात्मभावं शरीरभूतयोः कारणदशायां नामरूपविभागानर्हसूक्ष्मदशापत्तिं कार्यदशायां च तदर्हस्थूलदशापत्तिं वदन्तीभिः श्रुतिभिः एव,ज्ञायते? इति ब्रह्माज्ञानवादस्य औपाधिकब्रह्मभेदवादस्य अन्यस्य अपि अन्यायमूलकस्य सकलश्रुतिविरुद्धस्य न कथञ्चिद् अपि अवकाशो विद्यते इत्यलम् अतिविस्तरेण।
।।13.2।।दृश्यानां दुःखादीनां भेदकानां यावद्देहभाविनामनात्मधर्मत्वसिद्धये द्रष्टारं देहादन्यमुक्त्वा सांख्यानामिव तन्मात्रेण मुक्तिनिवृत्तये तस्य सर्वदेहेष्वैक्योक्तिपूर्वकं स्वेन परमार्थेनाक्षरेणैक्यं वृत्तमनूद्य प्रश्नद्वारा दर्शयति -- एवमित्यादिना। यथोक्तलक्षणं दृश्याद्देहान्निष्कृष्टं द्रष्टारमित्यर्थः। चापीतिनिपातौ जीवस्याक्षरत्वज्ञानस्य देहादन्यत्वज्ञानेन समुच्चयार्थौ भिन्नक्रर्मौ न क्षेत्रज्ञं सांख्यवद्दृश्यादन्यमेव विद्धि किंतु मां चापि विद्धीति संबध्येते। यः सर्वक्षेत्रेष्वेकः क्षेत्रज्ञस्तं मामेव विद्धीति संबन्धं सूचयति -- सर्वेति। तत्तत्क्षेत्रोपाधिकभेदभाजस्तत्तच्छब्दधीगोचरस्य कथं तद्विपरीतब्रह्मत्वधीरित्याशङ्क्याह -- ब्रह्मादीति। उत्तरार्धं विभजते -- यस्मादिति। तदेव विशिनष्टि -- क्षेत्रेति। न च भेदविषयत्वान्न सम्यग्ज्ञानं तदिति युक्तं? तस्य विवेकज्ञानस्य वाक्यार्थज्ञानद्वारा मोक्षौपयिकत्वेन सम्यक्त्वसिद्धेरिति भावः। जीवेश्वरयोरेकत्वमुक्तमाक्षिपति -- नन्विति। जीवेश्वरयोरेकत्वे जीवस्येश्वरे वा तस्य जीवे वान्तर्भावः। नाद्यः। जीवस्य परस्मादन्यत्वाभावे संसारस्य निरालम्बनत्वानुपपत्त्या परस्यैव तदाश्रयत्वप्रसङ्गादित्यर्थः।अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति इति श्रुतेर्न,तस्य संसारितेत्याशङ्क्य द्वितीयं दूषयति -- ईश्वरेति। जीवे चेदीश्वरोऽन्तर्भवति तदापि ततोऽन्यसंसार्यभावात्तस्य च संसारोऽनिष्ट इति संसारो जगत्यस्तं गच्छेदित्यर्थः। प्रसङ्गद्वयस्येष्टत्वं निराचष्टे -- तच्चेति। संसाराभावेतयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति इत्यादिबन्धशास्त्रस्य तद्धेतुकर्मविषयकर्मकाण्डस्य चानर्थक्यमीश्वराश्रिते च संसारे तदभोक्तृत्वश्रुतेर्ज्ञानकाण्डस्य मोक्षतद्धेतुज्ञानार्थस्यानर्थक्यमतो न प्रसङ्गयोरिष्टतेत्यर्थः। संसाराभावप्रसङ्गस्यानिष्टत्वे हेत्वन्तरमाह -- प्रत्यक्षादीति। तत्र प्रत्यक्षविरोधं प्रकटयति -- प्रत्यक्षेणेति। आदिशब्दोपात्तमनुमानविरोधमाह -- जगदिति। विमतं विचित्रहेतुकं विचित्रकार्यत्वात्प्रासादादिवदित्यर्थः। प्रत्यक्षानुमानागमविरोधादयुक्तमैक्यमित्युपसंहरति -- सर्वमिति। ऐक्येऽपि संसारित्वमविद्यातो विद्यातोऽसंसारित्वमिति विभागान्नानुपपत्तिरित्युत्तरमाह -- नेत्यादिना। तयोः स्वरूपतो,विलक्षणत्वे श्रुतिमाह -- दूरमिति। (अविद्या या च विद्येति प्रसिद्धे एते विद्याविद्ये दूरं विपरीते। अत्यन्तविरुद्धे इत्यर्थः। विषूची नानागती भिन्नफले इत्यर्थः।) स्वरूपतो विरोधवत्फलतोऽपि सोऽस्तीत्याह -- तथेति। फलभेदोक्तिमेव व्यनक्ति -- विद्येति। तयोर्द्विधाविलक्षणत्वे वेदव्यासस्यापि संमतिमाह -- तथाचेति। उक्तेऽर्थे भगवतोऽपि संमतिमुदाहरति -- इहचेति। द्वयोरपि निष्ठयोस्तुल्यमुपादेयत्वमिति शङ्कां शातयति -- अविद्या चेति। अविद्या सकार्या हातव्येत्यत्र श्रुतीरुदाहरति -- श्रुतयस्तावदिति। इहेति जीवदवस्थोच्यते? चेच्छब्दो विद्योदयदौर्लभ्यद्योती? अवेदीदहं ब्रह्मेति विदितवानित्यर्थः। अथ विद्यानन्तरमेव सत्यमवितथं पुनरावृत्तिवर्जितं कैवल्यं स्यादित्याह -- अथेति। अविद्याविषयेऽपि श्रुतिमाह -- न चेदिति। जन्ममरणादिरूपा संसृतिर्विनष्टिस्तस्य महत्त्वं सम्यग्ज्ञानं विना निवर्तयितुमशक्यत्वम्। विद्याविषये श्रुत्यन्तरमाह -- तमेवमिति। परमात्मानं प्रत्यक्त्वेन यः साक्षात्कृतवान्स देही जीवन्नेव मुक्तो भवतीत्यर्थः। विद्यां विनापि हेत्वन्तरतो मुक्तिमाशङ्क्याह -- नेति। भयहेतुमविद्यां निराकुर्वती तज्जं भयमपि निरस्यति -- विद्येति। अत्र वाक्यान्तरमाह -- विद्वानिति। अविद्याविषये वाक्यान्तरमाह -- अविदुष इति। प्रतीच्येकरसे स्वल्पमपि भेदं मन्यमानस्य भेददृष्ट्यनन्तरमेव संसारध्रौव्यमित्यर्थः। तत्रैव श्रुत्यन्तरमाह -- अविद्यायामिति। तन्मध्ये तत्परवशतया स्थितास्तत्त्वमजानन्तो देहाद्यभिमानवन्तो मूढाः संसरन्तीत्यर्थः। विद्याविषये श्रुत्यन्तरमाह -- ब्रह्मेति। अविद्याविषये श्रुत्यन्तरमाह -- अन्योऽसाविति। भेददृष्टिमनूद्य तन्निदानमविद्येत्याह -- नेति। स च मनुष्याणां पशुवद्देवादीनां प्रेष्यतां प्राप्नोतीत्याह -- यथेति। विद्याविषये वाक्यान्तरमाह -- आत्मविदिति। इदं सर्वं प्रत्यग्भूतं पूर्णं ब्रह्मेत्यर्थः। ज्ञानादेव तु कैवल्यमित्यत्र श्रुत्यन्तरमाह -- यदेति। न खल्वाकाशं चर्मवन्मानवो वेष्टयितुमीष्टे तथा परमात्मानं प्रत्यक्त्वेनानुभूय न मुच्यत इत्यर्थः। आदिशब्देनानुक्ता विद्याविद्याफलभेदार्थाः श्रुतयो गृह्यन्ते। तासां भूयस्त्वेन प्रामाण्यं सूचयति -- सहस्रश इति। विद्याविद्याविषये स्मृतीरुदाहरति -- स्मृतयश्चेति। तत्राविद्याविषयं वाक्यमाह -- अज्ञानेनेति। विद्याविषयं वाक्यद्वयं दर्शयति -- इहेत्यादिना। विद्याफलमनर्थध्वस्तिरविद्याफलमनर्थाप्तिरित्येतदन्वयव्यतिरेकाख्यन्यायादपि सिध्यतीत्याह -- न्यायतश्चेति। तत्रैव पुराणसंमतिमाह -- सर्पानिति। उदपानं कूपम्? यथात्मज्ञाने विशिष्टं फलं स्यात्तथा पश्येति योजना। न्यायतश्चेत्यन्वयव्यतिरेकाख्यं न्यायमुक्तं विवृणोति -- तथाचेति। तत्रादावन्वयमाचष्टे -- देहादिष्विति। अनाद्यनिर्वाच्याविद्यावृतश्चिदात्मा देहादावनात्मन्यात्मबुद्धिमादधाति तद्युक्तो रागादिना प्रेर्यते तत्प्रयुक्तश्च कर्मानुतिष्ठति तत्कर्ता च यथाकर्म नूतनं देहमादत्ते पुरातनं त्यजतीत्येवमविद्यावत्त्वे संसारित्वं सिद्धमित्यर्थः। व्यतिरेकमिदानीं दर्शयति -- देहादीति। श्रुतियुक्तिभ्यां भेदे ज्ञाते रागादिध्वस्त्या कर्मोपरमादशेषसंसारासिद्धिरित्यविद्याराहित्ये बन्धध्वस्तिरित्यर्थः। उक्तान्वयादेरन्यथासिद्धिं शिथिलयति -- इति नेति। उक्तमन्वयादिवादिना केनचिदपि न्यायतो न शक्यं प्रत्याख्यातुं तदन्यथासिद्धिसाधकाभावादित्यर्थः। अन्वयादेरनन्यथासिद्धत्वे चोद्यमपि प्राचीनं प्रतिनीतमित्याह -- तत्रेति। ज्ञानाज्ञानयोरुक्तन्यायेन स्वरूपभेदे कार्यभेदे च स्वारस्येन परापरयोरैक्येऽपि बुद्ध्याद्युपाधिभेदादाविद्यकमात्मनः संसारित्वमाभासरूपं प्रातिभासिकं सिध्यतीत्यर्थः। आत्मनो ब्रह्मता स्वतश्चेदहमित्यात्मभावेन ब्रह्मतापि मायादित्याशङ्क्याह -- यथेति। देहाद्यतिरिक्तस्यात्मनो वैदिकपक्षे स्वतस्त्वेऽपि तस्मिन्नहमिति भात्येव तदतिरिक्तत्वं न भाति किं त्वविद्यातो देहाद्यात्मत्वमेव विपरीतं भासते तथात्मनो ब्रह्मत्वे स्वाभाविकेऽपि तस्मिन्भात्येव ब्रह्मत्वं न भात्यविद्यातोऽब्रह्मत्वमेव त्वस्य भास्यतीत्यर्थः। आत्मनो देहाद्यात्मत्वमाविद्यं भातीत्युक्तमनुभवेन स्पष्टयति -- सर्वेति। अतस्मिंस्तद्बुद्धिरविद्याकृतेत्यत्र दृष्टान्तमाह -- यथेति। पुरःस्थिते वस्तुनि स्थाणावविद्यया पुमानिति निश्चयो जायते तथा देहादावनात्मन्यात्मधीरविद्यातो निश्चितेत्यर्थः। देहात्मनोरैक्यज्ञाने देहधर्मस्य जरादेरात्मन्यात्मधर्मस्य च चैतन्यस्य देहे विनियमः स्यादित्याशङ्क्याह -- नचेति। स्थाणौ पुरुषत्वं भ्रान्त्याभातीत्येतावता पुरुषधर्मः शिरःपाण्यादिर्न स्थाणोर्भवति तद्धर्मो वा वक्रत्वादिर्न पुंसो दृश्यते मिथ्याध्यस्ततादात्म्याद्वस्तुतो धर्माव्यतिकरादिति। दृष्टान्तमुक्त्वा दार्ष्टान्तिकमाह -- तथेति।जरादेरनात्मधर्मत्वेऽपि सुखादेरात्मधर्मत्वमिति केचित्तान्प्रत्याह -- सुखेति। कामसंकल्पादिश्रुतेरनात्मधर्मत्वज्ञानादित्यर्थः। किञ्च विमतो नात्मधर्मोऽविद्याकृतत्वाज्जरादिवन्न च हेत्वसिद्धिरतस्मिंस्तद्बुद्धिविषयत्वेन स्थाणौ पुरुषत्ववदविद्याकृतत्वस्योक्तत्वादिति मत्वाह -- अविद्येति। स्थाणौ पुरुषत्ववदाविद्यत्वं देहादेरयुक्तं दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोर्वैषम्यादिति शङ्कते -- नेति। तदेव प्रपञ्चयति -- स्थाण्वित्यादिना। ज्ञेयस्य ज्ञेयान्तरेऽध्यासादत्र चोभयोर्ज्ञेयत्वं व्यापकव्यावृत्त्या व्याप्याध्यासस्यापि,व्यावृत्तिरित्यर्थः। देहात्मबुद्धेर्भ्रमत्वाभावे फलितमाह -- अत इति। उपाधिधर्माणां सुखादीनामुपहिते जीवे वस्तुत्वमयुक्तमतिप्रसङ्गादिति परिहरति -- नेत्यादिना। अतिप्रसङ्गमेव प्रकटयति -- यदीति। सुखादीनामात्मधर्मत्वं चेदुपाधिधर्मत्वादचैतन्यं जरादिकं चात्मनो दुर्वारं स्यादित्यर्थः। सुखादिरात्मधर्मो नेति पक्षेऽपि नास्ति विशेषहेतुरित्याशङ्क्याह -- नेति। तदेवानुमानं साधयति -- अविद्येति। विमतं नात्मधर्मः आगमापायित्वात्संसारवदित्यनुमानान्तरमाह -- हेयत्वादिति। आदिशब्दाद्दृश्यत्वजडत्वादिति गृह्यते। सुखादीनां जरादिवदात्मधर्मत्वाभावे तस्य वस्तुतोऽसंसारितेति फलितमाह -- तत्रेति। आरोपितेनाधिष्ठानस्य वस्तुतोऽस्पर्शे दृष्टान्तमाह -- यथेति। पराभिन्नस्यात्मनः संसारित्वमध्यस्तमिति स्थिते यत्परस्य संसारित्वापादनं तदयुक्तमित्याह -- एवंचेति। आत्मनि संसारस्यारोपितत्वात्तदभिन्ने परस्मिन्नाशङ्कैव तस्यायुक्तेत्येतदुपपादयति -- नहीति। स्थाणौ पुरुषनिश्चयवदात्मनो देहाद्यात्मत्वनिश्चयस्याध्यस्ततेत्ययुक्तम्। दृष्टान्तस्य ज्ञेयमात्रविषयत्वादितरस्य ज्ञेयज्ञातृविषयत्वादित्युक्तमनुवदति -- यत्त्विति। वैषम्यं दूषयति -- तदसदिति। तर्हि केन साधर्म्यमिति पृच्छति -- कथमिति। अभीष्टं साधर्म्यं दर्शयति -- अविद्येति। तस्योभयत्रानुगतिमाह -- तन्नेति। ज्ञेयान्तरे ज्ञेयस्यारोपनियमाज्ज्ञातरि नारोपः स्यादित्याशङ्क्याह -- यत्त्विति। नायं नियमो ज्ञातरि जराद्यारोपस्योक्तत्वादित्याह -- तस्यापीति। ज्ञेयस्यैव ज्ञेयान्तरेऽध्यासनियमस्येति यावत्। अतो ज्ञातरि नारोपव्यभिचारशङ्केत्यर्थः। आत्मन्यविद्याध्यासे तत्राविद्यायाः स्वाभाविकत्वात्तदधीनत्वं संसारित्वमपि तथा स्यादिति शङ्कते -- अविद्यावत्त्वादिति। काऽविद्या विपरीतग्रहादिर्वाऽनाद्यनिर्वाच्याज्ञानं वा? नाद्यो विपरीतग्रहादेस्तमःशब्दितानिर्वाच्याज्ञानकार्यत्वात्तन्निष्ठस्यात्मधर्मत्वायोगादित्याह -- नेत्यादिना। तदेव प्रपञ्चयति -- तामसो हीति। आवरणात्मकत्वं वस्तुनि सम्यक्प्रकाशप्रतिबन्धकत्वम्। विपरीतग्रहणादेरविद्याकार्यत्वं विद्यापोहत्वेन साधयति -- विवेकेति। न च कारणाविद्याऽनाद्यनिर्वाच्यात्मधर्मः स्यादिति युक्तमनिर्वाच्यत्वादेव तस्यास्तद्धर्मत्वस्य दुर्वचत्वादिति भावः। किञ्च विपरीतग्रहादेरन्वयव्यतिरेकाभ्यां दोषजन्यत्वावगमादपि नात्मधर्मतेत्याह -- तामसे चेति। तमःशब्दिताज्ञानोत्थवस्तुप्रकाशप्रतिबन्धकस्तिमिरकाचादिदोषस्तस्मिन्सत्यज्ञानं मिथ्याधीः संशयश्चेति त्रयस्योपलम्भादसति तस्मिन्नप्रतीतेरन्वयव्यतिरेकाभ्यां विपरीतज्ञानादेर्दोषाधीनत्वाधिगमान्न केवलात्मधर्मतेत्यर्थः। दोषस्य निमित्तत्वाद्भावकार्यस्योपादाननियमादनिर्वाच्याविद्यायाश्चासंमतेस्तस्यैव विपर्ययादेरुपादानमिति चोदयति -- अत्राहेति। विपरीतग्रहादेर्दोषोत्थत्वं सप्तम्यर्थः। अग्रहादित्रितयमविद्या। विपर्ययादेः सत्योपादानत्वे सत्यत्वप्रसङ्गान्नात्मा तदुपादानं किंतु दोषस्य चक्षुरादिधर्मकत्वग्रहणादग्रहणादेरपि दोषत्वात्करणधर्मत्वे करणमविद्योत्थमन्तःकरणं न च तद्धेतुरविद्याऽसिद्धेति वाच्यमज्ञोऽहमित्यनुभवात्स्वापे चाज्ञानपरामर्शात्तदवगमात्कार्यलिङ्गकानुमानादागमाच्च तत्प्रसिद्धेरिति परिहरति -- नेत्यादिना। संगृहीतचोद्यपरिहारयोश्चोद्यं विवृणोति -- यत्त्विति। अविद्यावत्त्वेऽपि ज्ञातुरसंसारिऽत्वादुत्खातदंष्ट्रोरगवदविद्या किं करिष्यतीत्याशङ्क्याह -- तदेवेति। मिथ्याज्ञानादिमत्त्वमेवात्मनः संसारित्वमिति स्थिते फलितमाह -- तत्रेति। न कारणे चक्षुषीत्यादिनोक्तमेव परिहारं प्रपञ्चयति -- तन्नेत्यादिना। तिमिरादिदोषस्तत्कृतो विपरीतग्रहादिश्च न ग्रहीतुरात्मनोऽस्तीत्यत्र हेतुमाह -- चक्षुष इति। तद्गतेनाञ्जनादिसंस्कारेण तिमिरादौ पराकृते देवदत्तस्य ग्रहीतुर्दोषाद्यनुपलम्भान्न तस्य तद्धर्मत्वमतो विमतं तत्त्वतो नात्मधर्मो दोषत्वात्तत्कार्यत्वाद्वा संमतवदित्यर्थः। किञ्च विपरीतग्रहादिस्तत्त्वतो नात्मधर्मो वेद्यत्वात्संप्रतिपन्नवदित्याह -- संवेद्यत्वाच्चेति। किञ्च यद्वेद्यं तत्स्वातिरिक्तवेद्यं यथा दीपादीति व्याप्तेर्विपरीतग्रहादीनामपि वेद्यत्वादतिरिक्तवेद्यत्वे संवेदिता न संवेद्यधर्मवान्वेदितृत्वाद्यथा देवदत्तो न स्वसंवेद्यरूपादिमानित्यनुमानान्तरमाह -- संवेद्यत्वादेवेति। किञ्च विपरीतग्रहादयस्तत्त्वतो नात्मधर्मा व्यभिचारित्वात्कृशत्वादिवदित्याह -- सर्वेति। उक्तमेव विवृण्वन्नात्मनो विपरीतग्रहादिः स्वाभाविको वागन्तुको वेति विकल्प्याद्यं दूषयति -- आत्मन इति। अतोनिर्मोक्षोऽविद्यातज्जध्वस्तेरसद्भावादिति भावः। आगन्तुकोऽपि स्वतश्चेदमुक्तिः परतश्चेत्तत्राह -- अविक्रियस्येति। विभुत्वादविक्रियत्वादमूर्तत्वाच्चात्मा व्योमवन्न केनचित्संयोगविभागावनुभवति नहि विक्रियाभावे व्योम्नि वस्तुतः संयोगविभागावसङ्गत्वाच्चात्मनस्तदसंयोगान्न परतोऽपि तस्मिन्विपरीतग्रहादित्यर्थः। तस्यात्मधर्मत्वाभावे फलितमाह -- सिद्धमिति। आत्मनो निर्धर्मकत्वे भगवदनुमतिमाह -- अनादित्वादिति। ईश्वरत्वे सत्यात्मनोऽसंसारित्वे विधिशास्त्रस्याध्यक्षादेश्चानर्थक्यात्तात्त्विकमेव तस्य संसारित्वमिति शङ्कते -- नन्विति। विद्यावस्थायामविद्यावस्थयां वा शास्त्रानर्थक्यमिति विकल्प्याद्यं प्रत्याह -- न सर्वैरिति। विदुषो मुक्तस्य,संसारतदाधारत्वयोरभावस्य सर्ववादिसंमतत्वात्तत्र शास्त्रानर्थक्यादि चोद्यं मयैव न प्रतिविधेयमित्यर्थः। संग्रहवाक्यं विवृणोति -- सर्वैरिति। अभिप्रायाज्ञानात्प्रश्ने स्वाभिप्रायमाह -- कथमित्यादिना। तर्हि मुक्तान्प्रति विधिशास्त्रस्याध्यक्षादेश्चानर्थक्यमित्याशङ्क्याह -- नचेति। नहि व्यवहारातीतेषु तेषु गुणदोषाशङ्केत्यर्थः। द्वैतिनां मते मुक्तात्मस्विवास्मत्पक्षेऽपि क्षेत्रज्ञस्येश्वरत्वे तंप्रति च शास्त्राद्यानर्थक्यं विद्यावस्थायामास्थितमिति फलितमाह -- तथेति। द्वितीयं दूषयति -- अविद्येति। तदेव दृष्टान्तेन विवृणोति -- यथेति। एवमद्वैतिनामपि विद्योदयात्प्रागर्थवत्त्वं शास्त्रादेरिति शेषः। द्वैतिभिरद्वैतिनां न साम्यमिति शङ्कते -- नन्विति। अवस्थयोर्वस्तुत्वे तन्मते शास्त्राद्यर्थवत्त्वं फलितमाह -- अत इति। सिद्धान्ते तु नावस्थयोर्वस्तुतेति वैषम्यमाह -- अद्वैतिनामिति। व्यावहारिकं द्वैतं तन्मतेऽपि स्वीकृतमित्याशङ्क्याह -- अविद्येति। कल्पितद्वैतेन व्यवहारान्न तस्य वस्तुतेत्यर्थः। बन्धावस्थाया वस्तुत्वाभावे दोषान्तरमाह -- बन्धेति। आत्मनस्तत्त्वतोऽवस्थाभेदो द्वैतिनामपि नास्तीति परिहरति -- नेति। अनुपपत्तिं दर्शयितुं विकल्पयति -- यदीति। तत्राद्यं दूषयति -- युगपदिति। द्वितीयेऽपि क्रमभाविन्योरवस्थयोर्निर्निमित्तत्वं सनिमित्तत्वं वेति विकल्प्याद्ये सदा प्रसङ्गाद्बन्धमोक्षयोरव्यवस्था स्यादित्याह -- क्रमेति। कल्पान्तरं निरस्यति -- अन्येति। बन्धमोक्षावस्थे न परमार्थे अस्वाभाविकत्वात्स्फटिकलौहित्यवदिति स्थिते फलितमाह -- तथाचेति। वस्तुत्वमिच्छतावस्थयोर्वस्तुत्वोपगमादित्यर्थः। इतश्चावस्थयोर्न वस्तुत्वमित्याह -- किञ्चेति। अवस्थयोर्वस्तुत्वमिच्छता तयोर्यौगपद्यायोगाद्वाच्ये क्रमे बन्धस्य पूर्वत्वं मुक्तेश्च पाश्चात्यमिति स्थिते बन्धस्यादित्वकृतं दोषमाह -- बन्धेति। तस्याश्चाकृताभ्यागमकृतविनाशनिवृत्तयेऽनादित्वमेष्टव्यमन्तवत्त्वं च मुक्त्यर्थमास्थेयं तच्च यदनादिभावरूपं तन्नित्यं यथात्मेति व्याप्तिविरुद्धमित्यर्थः। मोक्षस्य पाश्चात्त्यकृतं दोषमाह -- तथेति। सा हि ज्ञानादिसाध्यत्वादादिमती पुनरावृत्त्यनङ्गीकारादनन्ता च। तच्च यत्सादिभावरूपं तदन्तवद्यथा पटादीतिव्याप्त्यन्तरविरुद्धमित्यर्थः। किञ्च क्रमभाविनीभ्यामवस्थाभ्यामात्मा संबध्यते न वा? प्रथमे पूर्वावस्थया सहैवोत्तरावस्थां गच्छति चेदुत्तरावस्थायामपि पूर्वावस्थावस्थानादनिर्मोक्षः? यदि पूर्वावस्थां त्यक्त्वोत्तरावस्थां गच्छति तदा पूर्वत्यागोत्तराप्त्योरात्मनः सातिशयत्वान्नित्यत्वानुपपत्तिरित्याह -- नचेति। आत्मनोऽवस्थाद्वयसंबन्धो नास्तीति द्वितीयमनूद्य दूषयति -- अथेत्यादिना। तर्हि पक्षद्वयेऽपि दोषाविशेषान्नाद्वैतमतानुरागे हेतुरित्याशङ्क्याविद्याविषये चेत्युक्तं विवृणोति -- नचेति। तदेव स्फुटयति -- अविदुषां हीति। फलं भोक्तृत्वं कर्तृत्वं हेतुः? यद्वा फलं देहविशेषो हेतुरदृष्टं तयोरनात्मनोर्भोक्ताहं कर्ताहं मनुष्योऽहमित्याद्यात्मदर्शनमधिकारकारकं तेनाविद्वद्विषयं विधिनिषेधशास्त्रमित्यर्थः। विदुषामपि मनुष्योऽहमित्यादिव्यवहारात्तद्विषयं शास्त्रं किं न स्यादित्याशङ्क्याह -- नेति। भोक्तृत्वकर्तृत्वाभ्यां ब्राह्मण्यादिमतो देहाद्धर्माधर्माभ्यां चात्मनोऽन्यत्वं पश्यतो न विधिनिषेधाधिकारित्वमुक्तफलादावात्मीयाभिमानासंभवादित्यर्थः। आत्मनो देहादेरन्यत्वदर्शिनो न देहादावात्मधीरित्येतदुपपादयति -- नहीति। विदुषो न विधिनिषेधाधिकारितेत्युक्तमुपसंहरति -- तस्मादिति। शास्त्रस्याविद्वद्विषयत्वमिव विद्वद्विषयत्वमपि मन्तव्यमुभयोरपि शास्त्रश्रवणाविशेषादित्याशङ्क्याह -- नहीति। तत्रस्थो यस्मिन्देशे देवदत्तः स्थितस्तत्रैव वर्तमानः सन्नित्यर्थः। ननु देवदत्ते नियुक्ते विष्णुमित्रोऽपि कदाचिन्नियुक्तोऽस्मीति प्रतिपद्यते? सत्यं नियोगविषयान्नियोज्यादात्मनो विवेकाग्रहणान्नियोज्यत्वभ्रान्तेरित्याह -- नियोगेति। अविवेकिनो नियोगधीर्भवतीति दृष्टान्तमुक्त्वा फले हेतौ चात्मदृष्टिविशिष्टस्याविदुषः संभवत्येव विधिनिषेधाधिकारित्वमिति दार्ष्टान्तिकमाह -- तथेति। विधिनिषेधशास्त्रमविद्वद्विषयमिति वदता शास्त्रानर्थक्यं समाहितं? संप्रति शास्त्रस्य विद्वद्विषयत्वेनैवार्थवत्त्वं शक्यसमर्थनमिति शङ्कते -- नन्विति। प्रकृतिरविद्या ततो जातो यो देहादावभिमानात्मा संबन्धो विद्योदयात्प्रागनुभूतस्तदपेक्षया विधिना प्रवर्तितोऽस्मि निषेधेन निवर्तितोऽस्मीति विधिनिषेधविषया सत्यामपि विद्यायां धीर्युक्तैवेत्यर्थः। विदुषोऽपि पूर्वमाविद्यं संबन्धमपेक्ष्यविधिनिषेधविषयां धियमुक्तामेव व्यक्तीकरोति -- इष्टेति। नन्वविदुषो मिथ्याभिमानवन्न विदुषः सोऽनुवर्तते तथाचाविद्यासंबन्धापेक्षया न युक्ता विदुषो यथोक्ता धीरिति तत्राह -- यथेति। पिता पुत्रो भ्रातेत्यादीनां मिथोऽन्यत्वदृष्टावप्यन्योन्यनियोगार्थस्य निषेधार्थस्य च धीर्दृष्टा पितरमधिकृत्य विधौ निषेधे वा तस्य तदनुष्ठानाशक्तौ पुत्रस्य तद्विषया धीरिष्टाअथातः संप्रत्तिर्यदा प्रैषन्मन्यतेऽथ पुत्रमाह त्वं ब्रह्म त्वं यज्ञस्त्वं,लोकः इत्यादिसंप्रत्तिश्रुत्याशेषानुष्ठानस्य पुत्रकार्यताप्रतिपादनात्। पुत्रं चाधिकृत्य विधिनिषेधप्रवृत्तौ तस्य तदशक्तौ पितुस्तदर्था धीरुपगता तथा भ्रात्रादिष्वपि द्रष्टव्यम्। एवं विदुषो हेतुफलाभ्यामन्यत्वदर्शनेऽपि प्राक्कालीनाविद्यदेहादिसंबन्धादविरुद्धा विधिनिषेधा धीरित्यर्थः। पुत्रादीनां मिथ्याभिमानान्मिथो नियोगधीर्युक्ता,तत्त्वदर्शिनस्तु तदभावान्न देहादिसंबन्धाधीना नियोगधीरिति परिहरति -- नेत्यादिना। किञ्चसर्वापेक्षया यज्ञादिश्रुतेरश्ववत् इति सर्वापेक्षाधिकरणे सम्यग्ज्ञानस्यादृष्टसाध्यत्वोक्तेर्विधिनिषेधार्थानुष्ठानं सम्यग्ज्ञानात्पूर्वमिति कुतो विदुषस्तदनुष्ठानमित्याह -- प्रतिपन्नेति। सत्यदृष्टे सम्यग्धीदृष्टेरसति चाशुद्धबुद्धेस्तदभावादन्वयव्यतिरेकाभ्यां विविदिषावाक्याच्च विधिनिषेधानुष्ठानात्पूर्वं न सम्यग्धीरित्याह -- न पूर्वमिति। विधिनिषेधयोर्विद्वद्विषयत्वायोगे फलितमाह -- तस्मादिति। शास्त्रस्याविद्वद्विषयत्वेनोक्तमर्थवत्त्वमाक्षेपसमाधिभ्यां प्रपञ्चयितुमाक्षिपति -- नन्विति। चकारादूर्ध्वमप्रवृत्तिरिति संबध्यते। आत्मनो देहाद्व्यतिरेकं पश्यतां देहाद्यभिमानरूपाधिकारहेत्वभावाद्विधितो यागादावप्रवृत्तिर्निषेधाच्चाभक्ष्यभक्षणादेर्न निवृत्तिरतस्तेषां प्रवृत्तिनिवृत्त्योरभावे देहादावात्मत्वमनुभवतामपि न ते युक्ते तेषां पारलौकिकभोक्तृप्रतिपत्त्यभावादित्यर्थः। विदुषामविदुषां च प्रवृत्तिनिवृत्त्यभावे फलितमाह -- अत इति। आत्मनो देहाद्यतिरेकं परोक्षमपरोक्षं च देहाद्यात्मत्वं पश्यतः शास्त्रानुरोधादेव प्रवृत्तिनिवृत्त्युपपत्तेर्न शास्त्रानर्थक्यमित्युत्तरमाह -- नेत्यादिना। प्रसिद्धिरत्र शास्त्रीयाभिमता। एतदेव विवृण्वन्ब्रह्मविदो वा नैरात्म्यवादिनो वा परोक्षज्ञानवतो वा प्रवृत्तिनिवृत्ती विवक्षसीति विकल्प्याद्यं दूषयति -- ईश्वरेति। न निवर्तते चेत्यपि द्रष्टव्यम्। द्वितीयं निरस्यति -- तथेति। पूर्ववदत्रापि संबन्धः। तृतीयमङ्गीकरोति -- यथेति। विधिनिषेधाधीनां प्रसिद्धमनुरुन्धानः सन्निति यावत्। चकारान्निवर्तते चेत्यनुकृष्यते। ब्रह्मविदं नैरात्म्यवादिनं च त्यक्त्वा देहाद्यतिरिक्तमात्मानं परोक्षमपरोक्षं च देहाद्यात्मत्वं पश्यतो विधिनिषेधाधिकारित्वे सिद्धे फलमाह -- अत इति। विधान्तरेण शास्त्रार्थानर्थक्यं चोदयति -- विवेकिनामिति। दृष्टा हि तेषां विधिनिषेधयोरप्रवृत्तिर्नहि देहादिभ्यो निकृष्टमात्मानं दृष्टवतां तयोरधिकारस्तेन तान्प्रति शास्त्रं नार्थवन्न च देहाद्यात्मत्वदृशस्तत्राधिक्रियन्ते तेषां यद्यदाचरतीति न्यायेन विवेकिनोऽनुगच्छतां विध्यादावप्रवृत्तेरतोऽधिकार्यभावाद्विध्यादिशास्त्रस्य तदनुसारिशिष्टाचारस्य चानर्थक्यमित्यर्थः। किं सर्वेषां विवेकित्वादधिकार्यभावादानर्थक्यं शास्त्रस्योच्यते किंवा कस्यचिदेव विवेकित्वेऽपि तदनुवर्तित्वादन्येषामप्रवृत्तेरानर्थक्यं चोद्यते तत्र प्रथमं प्रत्याह -- न कस्यचिदिति। मनुष्याणां सहस्रेष्विति न्यायेनोक्तमेव स्फुटयति -- अनेकेष्विति। तत्रानुभवानुरोधेन दृष्टान्तमाह -- यथेति। द्वितीयं दूषयति -- नचेति। किञ्च विवेकिनामप्रवृत्तावन्येषामप्यप्रवृत्तिरित्याशङ्कां निरसितुं श्येनादौ तदप्रवृत्तावपीतरप्रवृत्तेरित्याह -- अभिचरणादौ चेति। अविवेकिनां रागादिद्वारा प्रवृत्त्यास्पदं सर्वं संग्रहीतुमादिपम्। इतश्च विवेकिनां प्रवृत्त्यभावेऽपि नाज्ञस्याप्रवृत्तिरित्याह -- स्वाभाव्याच्चेति। प्रवृत्तेः स्वभावाख्याज्ञानकार्यत्वे भगवद्वाक्यमनुकूलयति -- स्वभावस्त्विति। प्रवृत्तेरज्ञानजत्वे विधिनिषेधाधीनप्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मकबन्धस्याविद्यामात्रत्वादविद्वद्विषयत्वं शास्त्रस्य सिद्धमिति फलितमाह -- तस्मादिति। दृष्टमेवानुसरन्नविद्वान्यथा दृष्टस्तद्विषयस्तदाश्रयः संसारस्तथाच प्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मकसंसारस्याविद्वद्विषयत्वात्तद्धेतुविधिशास्त्रस्यापि तद्विषयत्वमित्यर्थः। नन्वविद्या क्षेत्रज्ञमाश्रयन्ती स्वकार्यं संसारमपि तस्मिन्नाधत्ते तेन तस्यैव शास्त्राधिकारित्वं नेत्याह -- नेति। अविद्यादेः शुद्धे क्षेत्रज्ञे वस्तुतोऽसंबन्धेऽपि तस्मिन्नारोपितं तमेव दुःखीकरोतीत्यत्राह -- नचेति। तदेव दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- नहीति। क्षेत्रज्ञस्य वस्तुतोऽविद्यासंबन्धे भगवद्वचोऽपि द्योतकमित्याह -- अत इति। क्षेत्रज्ञेश्वरयोरैक्ये किमित्यसावात्मानमहमिति बुध्यमानोऽपि स्वस्येश्वरत्वमीश्वरोऽस्मीति न बुध्यते तत्राह -- अज्ञानेनेति। आत्मनो वस्तुतः संसारासंस्पर्शे विद्वदनुभवविरोधः स्यादिति चोदयति -- अथेति। एवमित्याभिजात्यादिवैशिष्ट्यमुक्तम्? इदमा क्षेत्रकलत्रादि? पण्डितानामपि प्रतीतं संसारित्वमिति शेषः। किं पाण्डित्यं देहादावात्मदर्शनं किंवा कूटस्थात्मदृष्टिराहो संसारित्वादिधीरिति विकल्प्याद्यं निराकुर्वन्नाह -- शृण्विति। तच्च वस्तुतो संसारित्वविरोधि प्रातिभासिकं तु संसारित्वमिष्टमिति शेषः। द्वितीयं दूषयति -- यदीति। नहि कूटस्थात्मविषयं संसारित्वं प्रतीयते येन वस्तुतोऽसंसारित्वं विरुध्येत कूटस्थात्मधीविरुद्धायाः संसारित्वबुद्धेरनवकाशित्वादित्यर्थः। आत्मानमक्रियं पश्यतोऽपि कुतो भोगकर्मणी न स्यातामित्याशङ्क्याह -- विक्रियेति। अविक्रियात्मबुद्धेर्भोगकर्माकाङ्क्षयोरभावे कस्य शास्त्रे प्रवृत्तिरित्याशङ्क्याह -- अथेति। फलार्थित्वाभावाद्विदुषो न कर्मणि प्रवृत्तिरित्येवं स्थिते सत्यनन्तरमविद्वान्फलार्थित्वात्तदुपाये कर्मणि प्रवर्तते शास्त्राधिकारीत्यर्थः। विदुषो वैधप्रवृत्त्यभावेऽपि निषेधाधीननिवृत्तेरपि दुर्वचत्वात्तस्य निवृत्तिनिष्ठत्वासिद्धिरित्याशङ्क्याह -- विदुष इति। तृतीयमुत्थापयति -- इदं चेति। सिद्धान्तादविशेषमाशङ्क्य क्षेत्रस्य क्षेत्रज्ञाद्वस्तुतो भिन्नत्वेन तद्विषयत्वाङ्गीकारान्मैवमित्याह -- क्षेत्रं चेति। अहंधीवेद्यस्यात्मनो वस्तुतः संसारित्वस्वीकाराच्च सिद्धान्ताद्भेदोऽस्तीत्याह -- अहंत्विति। संसारित्वमेव,स्फोरयति -- सुखीति। संसारित्वस्य वस्तुत्वे तदनिवृत्त्या पुमर्थासिद्धिरित्याशङ्क्याह -- संसारेति। कथं तदुपरमस्य हेतुं विना कर्तव्यत्वमित्याशङ्क्याह -- क्षेत्रेति। क्षेत्रं ज्ञात्वा ततो निष्कृष्टस्य क्षेत्रज्ञस्य ज्ञानं कथं संसारोपरतिमुत्पादयेदित्याशङ्क्याह -- ध्यानेनेति। संसारित्वमात्मनो बुध्यमानस्य तद्रहितादीश्वरादन्यत्वमिति वक्तुमितिशब्दः। तदेवान्यत्वमुपपादयति -- यश्चेति। मम संसारिणोऽसंसारीश्वरत्वं कर्तव्यमित्येवं यो बुध्यते यो वा तथाविधं ज्ञानं तव कर्तव्यमित्युपदिशति स क्षेत्रज्ञादीश्वरादन्यो ज्ञेयोऽन्यथोपदेशानर्थक्यादित्यर्थः। आत्मा संसारी परस्मादात्मनोऽन्यस्तस्य ध्यानाधीनज्ञानेनेश्वरत्वं कर्तव्यमित्येतज्ज्ञानं पाण्डित्यमिति मतं दूषयति -- एवमिति।अयमात्मा ब्रह्म इत्यात्मनो ब्रह्मत्वश्रुतिविरोधादित्यर्थः। ननु संसारस्य वस्तुत्वाङ्गीकारात्तत्प्रतीत्यवस्थायां कर्मकाण्डस्यार्थवत्त्वं संसारित्वनिरासेनात्मनो ब्रह्मत्वे ध्यानादिना साधिते मोक्षावस्थायां ज्ञानकाण्डस्यार्थवत्त्वं तत्कथं यथोक्तज्ञानवान्पण्डितापसदत्वेनाक्षिप्यते तत्राह -- संसारेति। करोमीति मन्यमानो यः स पण्डितापसद इति पूर्वेण संबन्धः। कर्मकाण्डं हि कल्पितं संसारित्वमधिकृत्य साध्यसाधनसंबन्धं बोधयदर्थवदिष्टं ज्ञानकाण्डमपि तथाविधं संसारित्वं पराकृत्याखण्डैकरसे प्रत्यग्ब्रह्मणि पर्यवस्यदर्थवद्भवेदित्यर्थः। किंचात्मनः शास्त्रसिद्धं ब्रह्मत्वं त्यक्त्वाऽब्रह्मत्वं कल्पयन्नात्महा भूत्वा लोकद्वयबहिर्भूतः स्यादित्याह -- आत्महेति। ननु क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीत्यनेन सर्वक्षेत्रान्तर्यामी परो जीवादन्यो निरुच्यते न जीवस्येश्वरत्वमत्र प्रतिपाद्यते तत्कथमित्थमाक्षिप्यते तत्राह -- स्वयमिति। किञ्च तत्त्वमसीतिवत्प्रसिद्धक्षेत्रज्ञानुवादेनाप्रसिद्धं तस्येश्वरत्वमिहोपदेशतः श्रुतं तस्य हानिमश्रुतस्य च जीवेश्वरयोस्तात्त्विकभेदस्य कल्पनां कुर्वन्कथं व्यामूढो न स्यादित्याह -- श्रुतेति। ननु केचन व्याख्यातारो यथोक्तं पाण्डित्यं पुरस्कृत्य क्षेत्रज्ञं चापीत्यादिश्लोकं व्याख्यातवन्तस्तत्कथमुक्त पाण्डित्यमास्थातुर्व्यामूढत्वं तत्राह -- तस्मादिति। क्षेत्रज्ञं चापीत्यत्र क्षेत्रज्ञेश्वरयोरैक्यं स्वाभीष्टं स्पष्टयितुं प्रत्युक्तमेव चोद्यमनुद्रवति -- यत्तूक्तमिति। तात्त्विकमेकत्वमतात्त्विकं संसारित्वमित्यङ्गीकृत्योक्तमेव समाधिं स्मारयति -- एताविति। ईश्वरस्य संसारित्वं संसार्यभावेन संसाराभावश्चेत्युक्तौ दोषौ विद्याविद्ययोर्वैलक्षण्येऽपि कथं प्रत्युक्ताविति पृच्छति -- कथमिति। कल्पितसंसारेण कल्पनाधिष्ठानमद्वयं वस्तु वस्तुतो न संबद्धमिति परिहरति -- अविद्येति। तद्विषयं कल्पनास्पदमधिष्ठानमिति यावत्। कल्पितेनाधिष्ठानस्य वस्तुतोऽसंस्पर्शे दृष्टान्तं स्मारयति -- तथाचेति। ईश्वरस्य संसारित्वाप्रसङ्गं प्रकटीकृत्य प्रसङ्गान्तरनिरासमनुस्मारयति -- संसारिण इति। न तावदविद्या संसारं संसारिणं च कल्पयति स्वतन्त्रा तत्त्वव्याघातात्पारतन्त्र्ये चाश्रयान्तराभावात्क्षेत्रज्ञस्य तद्वत्त्वे संसारित्वमिति शङ्कते -- नन्विति। न चाविद्यावत्त्वमविद्याकृतमनवस्थानादिति भावः। यत्तूत्खातदंष्ट्रोरगवदविद्या किं करिष्यतीति तत्राह -- तत्कृतं चेति। अविद्यातज्जयोर्ज्ञेयत्वान्नात्मधर्मतेत्युत्तरमाह -- नेत्यादिना। तदेव प्रपञ्चयति -- यावदिति। ज्ञेयस्य क्षेत्रधर्मत्वेऽपि क्षेत्रद्वारा क्षेत्रज्ञस्य तत्कृतदोषवत्तेत्याशङ्क्याह -- नचेति। क्षेत्रस्यापि ज्ञेयत्वान्न तेन चितो वस्तुतः स्पर्शोऽस्तीत्युपपादयति -- यदीति। धर्मधर्मित्वेन संसर्गेऽपि ज्ञेयत्वे का क्षतिरित्याशङ्क्याह -- यदीति। आत्मधर्मस्यात्मना ज्ञेयत्वे स्वस्यापि ज्ञेयत्वापत्त्या कर्तृकर्मविरोधः स्यादित्यर्थः। किञ्च विमतं न क्षेत्रज्ञाश्रितं तद्वेद्यत्वाद्रूपादिवदित्याह -- कथंवेति। किञ्च महाभूतानीत्यादिना ज्ञेयमात्रस्य क्षेत्रान्तर्भावान्नाविद्यादेर्ज्ञातृधर्मतेत्याह -- ज्ञेयं चेति। किंचैतद्यो वेत्तीत्युक्तत्वात्क्षेत्रज्ञस्य ज्ञातृत्वनिर्णयान्न तत्र ज्ञेयं किंचित्प्रविशतीत्याह -- ज्ञातैवेति। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवंस्वाभाव्ये सिद्धे सिद्धं क्षेत्रधर्मत्वमविद्यादेरिति फलितमाह -- इत्यवधारित इति। विरोधाच्च न क्षेत्रज्ञधर्मत्वमविद्यादेरित्याह -- क्षेत्रज्ञेति। विरुद्धवादित्वे मूलं दर्शयति -- अविद्येति। मात्रपदस्य व्यावर्त्यं मानयुक्त्याख्यमवष्टम्भान्तरमिति वक्तुं केवलपदम्। ययाऽविद्यया विरुद्धमपि निर्वोढुं शक्यते तस्याः स्वातन्त्र्याभावाच्चितोऽन्यस्याविद्यमानत्वेनातदाश्रयत्वात्तस्या विद्यास्वभावतया तदाश्रयत्वव्याघातादाश्रयजिज्ञासया पृच्छति -- अत्राहेति। आश्रयमात्रं पृच्छ्यते तद्विशेषो वा? प्रथमे प्रश्नस्यानवकाशत्वं मत्वाह -- यस्येति। अविद्या दृश्याऽदृश्या वा? दृश्यत्वे पारतन्त्र्यात्किंचिन्निष्ठत्वेनैव तद्दृष्टेर्नाश्रयमात्रं प्रष्टव्यमदृश्यत्वे वाऽप्रकाशत्वादसिद्धिरेव स्यादित्यर्थः। द्वितीयमालम्बते -- कस्येति। अविद्याया दृश्यमानत्वादाश्रयविशेषस्यात्मनोऽपि स्वानुभवसिद्धत्वात्प्रश्नस्य निरवकाशतेत्युत्तरमाह -- अत्रेति। प्रश्नानर्थक्यं प्रश्नद्वारा स्फोरयति -- कथमित्यादिना। तथापि कथं प्रश्नासिद्धिस्तत्राह -- नचेति। तदेव दृष्टान्तेन स्पष्टयति -- नहीति। दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोर्वैषम्यं चोदयति -- नन्विति। अज्ञानाश्रयस्य परोक्षत्वेऽपि प्रश्ननैरर्थक्यमित्याह -- अप्रत्यक्षेणेति। अविद्यावतोऽप्रत्यक्षत्वेऽपि तेनाविद्यासंबन्धे सिद्धेप्रष्टुस्तव प्रश्नानर्थक्यसमाधिर्न कश्चिदित्यर्थः। अबुद्धपराभिसन्धिः शङ्कते -- अविद्याया इति।,अविद्यावतस्तत्परिहारान्नान्येन प्रयतितव्यमित्याह -- यस्येति। ममैवाविद्यावत्त्वात्तत्परिहारे मया प्रयतितव्यमिति शङ्कते -- नन्विति। तर्हि प्रश्नानर्थक्यमिति सिद्धान्ती स्वाभिसंधिमाह -- जानासीति। आत्मानमविद्यावन्तं जानन्नपि तद्विषयाध्यक्षाभावात्पृच्छामीति शङ्कते -- जानामीति। अविद्यावतोऽप्रत्यक्षत्वं वदता तस्याहमविद्यावानविद्याकार्यवत्त्वाद्व्यतिरेकेण मुक्तात्मवदित्यनुमेयत्वमिष्टमित्यभ्युपेत्य दूषयति -- अनुमानेनेति। आत्मनोऽविद्यासंबन्धग्रहे कानुपपत्तिरित्याशङ्क्य ज्ञातैवात्मा स्वस्याविद्यासंबन्धं बुध्यतेऽन्यो वा ज्ञातेति विकल्प्याद्यं दूषयति -- नहीति। तत्काले स्वस्याविद्यां प्रति ज्ञातृत्वावस्थायामिति यावत्। अविद्यां विषयत्वेन गृहीत्वा तज्ज्ञातृत्वेनैवोपयुक्तस्यात्मनस्तस्याः स्वात्मनि कुतः संबन्धज्ञातृत्वमेकस्य कर्मकर्तृत्वविरोधादित्याह -- अविद्याया इति। द्वितीयं निरस्यति -- नचेति। यो ग्रहीता स न संभवतीति संबन्धः। तद्विषयमिति ज्ञातुरविद्यायाश्च संबन्धस्तच्छब्दार्थः। अनवस्थामेव प्रपञ्चयति -- यदीति। आत्मनः स्वपरज्ञेयत्वायोगात्तस्मिन्नविद्यासंबन्धस्याप्रामाणिकत्वान्नित्यानुभवगम्यत्वे स्थिते फलितमाह -- यदि पुनरिति। यदा चैवं तदेत्यध्याहार्यम्। ज्ञातुरात्मनो न किंचिद्दुष्यतीत्येतदमृष्यमाणः शङ्कते -- नन्विति। किं ज्ञातृत्वं ज्ञानक्रियाकर्तृत्वं ज्ञानस्वरूपत्वं वा? नाद्यस्तदनभ्युपगमात्तत्प्रयुक्तदोषाभावात्? द्वितीये ज्ञातृत्वस्यौपचारिकत्वान्न तत्कृतो दोषोऽस्तीत्याह -- नेत्यादिना। असत्यामपि क्रियायां क्रियोपचारं दृष्टान्तेन स्फुटयति -- यथेति। आत्मनि वस्तुतो विक्रियाभावे भगवदनुमतिं दर्शयति -- यथात्रेति। गीताशास्त्रं सप्तम्यर्थः। स्वत एवात्मनि क्रियाद्यात्मत्वाभावो भगवता शास्त्रे यथोक्तस्तथैव व्याख्यातमस्माभिरिति संबन्धः। कथं तर्हि क्रियादिरात्मनि भाति तत्राह -- अविद्येति। यथा वस्तुतो नास्त्यात्मनि क्रियादिरुपचारात्तु भाति तथा तत्र तत्रातीतप्रकरणेषु भगवता कुतो यत्न इत्याह -- तथेति। न केवलमतीतेष्वेव प्रकरणेषु वास्तवक्रियाद्यभावादात्मन्याध्यासिकी तद्धीरुक्ता किंतु वक्ष्यमाणप्रकरणेष्वपि तथैव भगवदभिप्रायदर्शनं भविष्यतीत्याह -- उत्तरेषु चेति। आत्मनि वास्तवक्रियाद्यभावेऽध्यासाच्च तत्सिद्धौ कर्मकाण्डस्याविद्वदधिकारित्वप्राप्तौ विद्वान्यजेत ज्ञात्वा कर्मारभेतेत्यादिशास्त्रविरोधः स्यादिति शङ्कते -- हन्तेति। शास्त्रस्य व्यतिरेकविज्ञानाभिप्रायत्वादशनायाद्यतीतात्मधीविधुरस्यैव कर्मकाण्डाधिकारितेत्यङ्गीकरोति -- सत्यमिति। कथमज्ञस्यैव कर्माधिकारित्वमुपपन्नमित्याशङ्क्याह -- एतदेव चेति। ज्ञानिनो ज्ञाननिष्ठायामेवाधिकारो निष्ठान्तरे त्वज्ञस्यैवेत्युपसंहारप्रकरणे विशेषतो भविष्यतीत्याह -- सर्वेति। तदेवानुक्रामति -- समासेनेति। जीवब्रह्मणोरैक्याभ्युपगमे न किंचिदवद्यमित्युपसंहरति -- अलमिति।
।।13.2।।सूत्रवत्पूर्वमुक्तस्य द्वितीयस्यापि वृत्तिवत्। तृतीयं सर्वनिर्णयं भाष्यमाभाष्यतेऽधुना।।1।।यत्तावत्प्रथममुपपादितं प्रकृतिद्वयं परापरविवेकेन परप्रकृतिस्वरूपं सोपस्करं क्षेत्रम्? अपरप्रकृतिस्वरूपं तु चेतनः क्षेत्रज्ञ इत्यक्षरमूलस्वरूपत्वात् ज्ञेयं तत्साधनभूतं ज्ञानं चोपदिशन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। अन्यथा मध्ये प्रश्नं विना विवरणं नोपपद्येत। अत्र कैश्चिन्मूलेप्रकृतिं पुरुषं च [13।1] इति पद्यान्तरं लिख्यते तत्तूपेक्ष्यं? असम्भवेन सर्वाप्रयुक्तत्वात् पूर्वोक्तविवरणरूपत्वाच्चस्य षट्कस्य। तथाहि यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे इत्याशयात् या पूर्वं प्रकृतिरनात्मा इत्युक्ता तत्परिणामभूतमिदं शरीरं पुरुषस्य निवासभूतत्वाज्जीवनाद्वाक्षेत्रं इत्युच्यते तथाभूतमेतन्न विजानाति पुरुषो विविक्ततया तदा तु क्षेत्रित्वमात्र एव संसारी भवति। एतद्यो वा कश्चिद्विविक्ततया वेत्ति क्षेत्रं जानाति स्वं च द्रष्टारं तं तु क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः प्राहुः।यद्यपि क्षेत्रक्षेत्रज्ञज्ञानं संसारदशायामप्यस्ति तथापि न विविक्ततया? किन्तु क्षेत्रसामानाधिकरण्येन तथापि तद्भोग्यं भोक्तुरात्मनोऽर्थान्तरभूतमेव मृतशरीरे तथा दर्शनात्। किञ्चोभयोः सम्बन्धे तु तत्सम्भवति? न कैवल्ये सम्भवति। यस्य वेत्तृत्वं तस्यैव वेद्यादन्यत्वमर्थसिद्धं दृष्टचरं घटादिनो द्रष्टुरिवदेवोऽहं इत्यतिमन्दानां नाहमितिवदात्मविशेषणतैकस्वभावतया तदपृथक्सिद्धेरुपपन्नं भवति। इदं तु पार्थक्यं स्वात्मानं क्षेत्रज्ञमेव भेदेन विजानतो विदुषो भवति? न सर्वस्येति।
।।13.2।।ध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसा तन्निर्गुणं निष्क्रियं ज्योतिः किंचन योगिनो यदि परं पश्यन्ति पश्यन्तु ते।अस्माकं तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं कालिन्दीपुलिनोदरे किमपि यन्नीलं महो धावति।।प्रथममध्यमषट्कयोस्तत्त्वंपदार्थावुक्तावुत्तरषट्कस्तु वाक्यार्थनिष्ठः सम्यग्धीप्रधानोऽधुनारभ्यते। तत्रतेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागराद्भवामि इति प्रागुक्तं। नचात्मज्ञानलक्षणान्मृत्योरात्मज्ञानं विनोद्धरणं संभवति। अतो यादृशेनात्मज्ञानेन। मृत्युसंसारनिवृत्तिर्येन च तत्त्वज्ञानेन युक्ता अद्वेष्टृत्वादिगुणशालिनः संन्यासिनः प्राग्व्याख्यातास्तदात्मतत्त्वज्ञानं वक्तव्यम्। तच्चाद्वितीयेन परमात्मना सह जीवस्याभेदमेव विषयीकरोति तद्भेदभ्रमहेतुकत्वात्सर्वानर्थस्य। तत्र जीवानां संसारिणां प्रतिक्षेत्रं भिन्नानामसंसारिणैकेन परमात्मना कथमभेदः स्यादित्याशङ्कायां संसारस्य भिन्नत्वस्य चाविद्याकल्पितानात्मधर्मत्वान्न जीवस्य संसारित्वं भिन्नत्वं चेति वचनीयं। तदर्थं देहेन्द्रियान्तःकरणेभ्यः क्षेत्रेभ्यो विवेकेन क्षेत्रज्ञः पुरुषो जीवः प्रतिक्षेत्रमेक एव निर्विकार इति प्रतिपादनाय क्षेत्रक्षेत्रज्ञविवेकः क्रियतेऽस्मिन्नध्याये। तत्र ये द्वे प्रकृती भूम्यादिक्षेत्ररूपतया जीवरूपक्षेत्रज्ञतया चापरपरशब्दवाच्ये सप्तमाध्याये सूचिते तद्विवेकेन तत्त्वं निरूपयिष्यन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। इदं इन्द्रियान्तःकरणसहितं भोगायतनं शरीरं हे कौन्तेय? क्षेत्रमित्यभिधीयते। सस्यस्येवास्मिन्नसकृत्कर्मणः फलस्य निर्वृत्तेः। एतद्यो वेत्ति अहं ममेत्यभिमन्यते तं क्षेत्रज्ञमिति प्राहुः कृषीवलवत्तत्फलभोक्तृत्वात् तद्विदः क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्विवेकविदः। अत्र चाभिधीयत इति कर्मणिप्रयोगेण क्षेत्रस्य जडत्वात्कर्मत्वं क्षेत्रज्ञशब्दस्य द्वितीयां विनैवेति शब्दमाहरन् स्वप्रकाशत्वात्कर्मत्वाभावमभिप्रैति। तत्रापि क्षेत्रं यैः कश्चिदप्यभिधीयते न तत्र कर्तृगतविशेषापेक्षा। क्षेत्रज्ञं तु कर्मत्वमन्तरेणैव विवेकिन एवाहुः स्थूलदृशामगोचरत्वादिति कथयितुं विलक्षणवचनव्यक्त्यैकत्र कर्तृपदोपादानेव च निर्दिशति भगवान्।
।।13.2।।भक्तानामहमुद्धर्ता संसारादित्यवादि यत्। त्रयोदशेऽथ तत्सिद्ध्यै तत्त्वज्ञानमुदीर्यते।।1।।तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्। भवामि इति पूर्वं प्रतिज्ञातं तन्न चात्मज्ञानं विना संसारादुद्धरणं संभवति इत,तत्त्वज्ञानोपदेशार्थं प्रकृतिपुरुषविवेकाध्याय आरभ्यते। तत्र यत्सप्तमेऽध्याये अपरा परा चेति प्रकृतिद्वयमुक्तं तयोरविवेकाज्जीवभावमापन्नस्य चिदंशस्यायं संसारः याभ्यां जीवोपभोगार्थमीश्वरः सृष्ट्यादिषु प्रवर्तते तदेव प्रकृतिद्वयमुक्तं क्षेत्रक्षेत्रज्ञशब्दवाच्यं परस्परं विविक्तं तत्त्वतो निरूपयिष्यन् श्रीभगवानुवाच -- इदमिति। इदं भोगायतनं शरीरं क्षेत्रमित्यभिधीयते? संसारस्य प्ररोहभूमित्वात्। एतद्यो वेत्ति अहं ममेति मन्यते तं क्षेत्रज्ञ इति प्राहुः? कृषीवलवत्तत्फलभोक्तृत्वात्। तद्विदः क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्विवेकज्ञाः।
।।13.2।।अथ तृतीयषट्कसङ्गतिं वक्तुं प्रथमद्वितीयषट्कार्थं सङ्ग्रहेणाह -- पूर्वस्मिन्निति। अत्र पदानां भावः प्राक्प्रपञ्चितः।ज्ञानकर्मात्मिके निष्ठे योगलक्ष्ये सुसंस्कृते। आत्मानुभूतिसिद्ध्यर्थे पूर्वषट्केन चोदिते [गी.सं.2] इति प्रथमषट्कार्थसङ्ग्रहः। सिषाधयिषितपर्यन्ताविच्छिन्नसाधनानुष्ठानमिह निष्ठा।मध्यमे भगवत्तत्त्वयाथात्म्यावाप्तिसिद्धये। ज्ञानकर्माभिनिर्वर्त्यो भक्तियोगः प्रकीर्तितः [गी.सं.3] इति सङ्ग्रहानुसारेण मध्यमषट्कप्रधानार्थमुक्त्वा प्रसङ्गोक्तं चाह -- अतिशयितेति।इतिचेति चकारोऽन्वाचयार्थः। इदं चान्ते सङ्गृहीतं -- भक्तियोगस्तदर्थी चेत्समग्रैश्वर्यसाधनम्। आत्मार्थी चेत्त्रयोऽप्येते तत्कैवल्यस्य साधकाः [गी.सं.27] इति।,प्रधानपुरुषव्यक्तसर्वेश्वरविवेचनम्। कर्मधीर्भक्तिरित्यादिः पूर्वशेषोऽन्तिमोदितः [गी.सं.4] इति सङ्ग्रहश्लोकव्याख्यानाभिप्रायेण तृतीयषट्कं पूर्वोक्तषट्कद्वयेन सङ्गमयति -- इदानीमिति। इदानीं सामान्यतः प्रतिपत्त्या बुभुत्सोदयेन विशोधनावसरे प्राप्त इत्यर्थः।तत्संसर्गरूपप्रपञ्चेति व्यक्तशब्दार्थविवरणम्। संसर्गोऽत्र समुदायः यद्वा?तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्। संभवः सर्वभूतानां ततो भवति [14।3] इति संसर्गविशेषमूलत्वात्संसर्गरूपतोक्ितः। याथात्म्यशब्देन विवेचनशब्दाभिप्रेतकथनम्। विविच्यतेऽनेनेति व्यावर्तकधर्मोऽत्र विवेचनम्।तदुपादानप्रकारा इति आदिशब्दसङ्गृहीतोक्तिः।षट्कद्वयोदिता विशोध्यन्त इत्यनेनपूर्वशेषोऽन्तिमोदितः इत्येतदभिप्रेतसङ्गतिविशेषविवरणम्।विशोध्यन्त इतिवचनं वक्ष्यमाणस्य सर्वस्य सामान्यतः पुनरुक्तिपरिहारार्थम्। आभिप्रायिकानुक्तापेक्षितांशप्रतिपादनेन प्रागुक्तानां सर्वप्रकारेण निस्संशयीकरणं विशोधनम्। अथदेहस्वरूपमात्माप्तिहेतुरात्मविशोधनम्। बन्धहेतुर्विवेकश्च त्रयोदशे [गी.सं.17] इति सङ्ग्रहश्लोकमपि व्याकुर्वंस्त्रयोदशमवतारयति -- तत्र तावदिति।तत्र तृतीयषट्के -- वक्तव्ये?तावत् प्रथममित्यर्थः। तेनाध्यायान्तरेभ्यो वक्ष्यमाणेभ्यः पञ्चभ्योऽस्य पूर्वत्वं सङ्गतिविशेषसिद्धमित्यभिप्रेतम्। तथाहि -- प्रथमषट्कं हि शास्त्रोपोद्धातशास्त्रावतरणहेतुभूतशोकनिवर्तकात्मदर्शनपरद्विकेन आत्मदर्शनस्यैव साधनप्रपञ्चनपरचतुष्केण च भिन्नम्। द्वितीयं च षट्कं साधनाधिकारिफलादिभेदपरिकरितभक्तियोगस्वरूपपरेण तदुत्पत्तिविवृद्ध्यर्थपरेण च त्रिकभेदेन भिन्नम्। तथा तृतीयं च षट्कं त्रिकद्वयात्मकम्। तत्र प्रथमत्रिकं [अ.13।14।15] प्रधानपुरुषव्यक्तसर्वेश्वररूपतत्त्वविवेचनपरम्। तत्र प्रसङ्गेन तु मात्रया कर्तव्यानुप्रवेशः। षोडशादित्रिकं [16।17।18] कर्तव्यादिविवेचनपरम्। तत्रापि तत्तत्प्रसङ्गान्मात्रया तत्त्वानुप्रवेशः शास्त्रवश्यत्वादिविवेकोऽपि हि कर्तव्यसिद्ध्यर्थमेव। एवं त्रिकभेदो विवक्षित इति षोडशारम्भे दर्शयिष्यति -- अतीतेनाध्यायत्रयेण [रा.भा.16।11] इत्यादिना। अत्रप्रधानपुरुषव्यक्तसर्वेश्वरविवेचनम् इति समासपदेन प्रथमत्रिकार्थः संगृहीतः।कर्मधीर्भक्तिरित्यादिः इति तु कर्तव्यरूपद्वितीयत्रिकार्थः संगृहीत इति भाष्यकाराभिप्रायः। एतेनसमाप्तं च पञ्चदशेऽध्याये शास्त्रम् उत्तरैस्त्रिभिः खिलाध्यायैः परिशिष्टा नानाधर्मा निरूपिताः इति यादवप्रकाशकल्पनाऽपि निरस्ता। अत्रच त्रिके त्रयोदशचतुर्दशाभ्यांगतासूनगतासूंश्च [2।11] इत्यादिना क्रमेण देहात्मविवेकादिमुखेन प्रवृत्तप्रथमषट्कार्थशेषभूतदेहात्मयाथात्म्यसंसारतन्निवृत्तितन्निवर्तकादि परिशोध्यते। पञ्चदशेन तु मध्यमषट्कप्रतिपादितद्विविधप्रकृतिशेषिभूतचतुर्विधाधिकारिभजनीयपरमपुरुषपरिशोधनं क्रियते। इमं च भेदं पञ्चदशारम्भे सूचयिष्यति -- क्षेत्राध्याये [रा.भा.15।1] इत्यादिना। क्षेत्राध्यायप्रसक्तबन्धहेतुगुणसङ्गस्य बन्धहेतुताप्रकारतन्निवृत्त्यादिपरतयापरं भूयः इत्यादेः अध्यायस्य पश्चाद्भावित्वं सिद्धम्। ततः क्षेत्राध्यायस्य तृतीयषट्कादित्वं युक्तमिति तदेतदखिलमभिप्रेत्य -- तत्र तावत् त्रयोदशे इत्युक्तम्।देहात्मनोः स्वरूपं देहयाथात्म्यशोधनमिति -- अध्यायशरीरपर्यालोचनेन सङ्ग्रहश्लोकेऽनुक्तस्यापि चकारसमुच्चितस्योक्तिः। देहस्वरूपमिति तत्प्रतिसम्बन्ध्यात्मस्वरूपस्याप्युपलक्षणार्थम्।आत्मविशोधनम् इति सङ्ग्रहश्च देहयाथात्म्यशोधनस्याप्युपलक्षणम्।देहात्मनोः स्वरूपमिति धर्मनिर्देशो विवक्षितः। विवेकशब्देन च न विविच्य प्रतिपादनमात्रं भेदमात्रं वा विवक्षितम्?आत्मविशोधनम् इत्यनेनैव गतार्थत्वात्।ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति [13।25] इत्यादिना द्रष्टव्यत्वेन निर्दिष्टस्यात्मनःसमं सर्वेषु [13।28] इत्यादिना स्वयं विविच्यानुसन्धानप्रकारो हि वक्ष्यते। तदाह -- ततो विवेकानुसन्धानप्रकारश्चेति।अथगतासूनगतासूंश्च [2।11] इतिप्राक्त्वेनैवोपक्षिप्तक्रमेण सप्तमारम्भप्रकृतिद्वयनिर्देशक्रमेण चापृष्टोऽप्यवसरे प्राप्ते स्वयमेव परिशोधयितुं भगवानुवाच -- इदं शरीरम् इति। भ्रान्तिरूपलोकोपलम्भप्रकारनिर्देशपरइदंशब्द इत्यभिप्रायेणदेवोऽहमित्याद्युक्तिः।देवोऽहं मनुष्योऽहम् इत्यनन्तजातिभेदोपलक्षणम्स्थूलोऽहं कृशोऽहम् इत्यनन्तगुणभेदोपलक्षणम्। एवं जातिगुणोदाहरणंगच्छामि इत्यादिक्रियाविशेषोपलक्षणार्थम्। संसारिणां भोक्तृत्वं हि प्रायशो देहात्मभ्रममूलमित्यभिप्रायेणआत्मना भोक्त्रेत्युक्तम्।क्षेत्रमित्यभिधीयते इत्यनेनैव भोग्यत्वं प्रतीतम्। ततश्च केदाराद्देवदत्त इव प्रतिसम्बन्धित्वेनार्थाक्षिप्तो भोक्ताभोक्तृत्वाकारेणार्थान्तरभूतसिद्ध इत्याहभोक्तुरात्मनोऽर्थान्तरभूतस्येति। भोगस्योत्पत्तिस्थानतया क्षेत्रत्ववाचोयुक्तिरित्याह -- भोगक्षेत्रमिति। क्षतत्राणक्षयकरणाद्यप्रसिद्धक्लिष्टार्थग्रहणात्क्षेत्रवत्कर्मबीजफलोत्पत्तिस्थानत्वग्रहणमेवोचितमिति भावः।अभिधीयते इत्यनेनाकाङ्क्षितोचितकर्त्रध्याहारःशरीरयाथात्म्यविद्भिरिति। यद्वातद्विदः इति पदमत्रापि विपरिणामेन प्रकृतविषयतयातद्विद्भिः इति भाव्यम्। विपरिणते च तस्मिन् तच्छब्दः प्रकृतक्षेत्रपर इत्यभिप्रायः।एतद्यो वेत्ति इत्यनेनैव देहाद्व्यतिरेकः स्फुटीक्रियत इत्याह -- एतदवयवशः सङ्घातरूपेण चेदमहं वेद्मीति।अयमभिप्रायः -- इदमहम् इति प्रत्यक्त्वपराक्त्वाभ्यामेव तावद्भेदः प्रतीयते? गृहादिवदेव। नचदेवोऽहं मनुष्योऽहम् इति सामानाधिकरण्यव्यपदेशहेतुभूतदेहात्मबुद्ध्या सा प्रतीतिः भ्रान्तिरिति युक्तम्? तयैव देहात्मबुद्धेर्बाधात्। बलवता हि दुर्बलं बाध्येत। उपपत्तिशास्त्रे च प्राक्प्रपञ्चिते? बलं व्यतिरेकबुद्धेः? देहात्मबुद्धेस्तदुभयमपि प्रतिकूलमिति। प्रागुक्तां प्रत्येकसमुदायादिविकल्पानुपपत्तिमभिप्रेत्यअवयवशः सङ्घातरूपेण चेत्युक्तम्।अवयवश इतिमम मूर्धा? मम हस्तः इत्यादिरूपेणावयवेभ्योऽहमर्थः स्फुटं भिन्नतया प्रतीयते। न तुअहं मूर्धा इत्यादिरूपेणेति भावः।सङ्घातरूपेण चेति -- मम शरीरम् इत्येव हि सङ्घातेऽपि भेदधीरिति भावः।एतद्यो वेत्ति इत्यनेनाभिप्रेतं उपलम्भसिद्धं भेदं दर्शयतिवेद्यभूतादिति।तद्विदः इत्यत्र सामान्यज्ञानमात्रस्य निर्णयानुपयुक्तत्वात्आत्मयाथात्म्यविद इत्युक्तम्।ननु ज्ञाता तावदात्मेति सिद्धम् स च जानामीति प्रतीतिसिद्धः सैव प्रतीतिर्ज्ञा तृत्वमिव देहात्मकत्वमपिदेवोऽहम् इत्यादिरूपेण युगपद्गृह्णाति प्रत्यक्षसिद्धस्य तस्य युक्त्या शास्त्रेण वा देहातिरिक्तत्वसाधने धर्मिग्राहकप्रमाणविरोध इति शङ्काभिप्रायेणाह -- यद्यपीति। यदि ज्ञातुर्देहसमानाधिकरणतयैव प्रतीतिः स्यात्? तदैवं शक्येतापि। न च तदस्ति? देहस्यैव प्रधानतया वेद्यत्वदशायां व्यधिकरणतयैव प्रतीतिसिद्धेः। न च धर्मिग्राहकसिद्धः सर्वोऽप्याकारो नारोपित इति नियमः बुद्बुदमुक्ताफलचषकमुकुरादिसमानपरिमाणान्येव ग्रहनक्षत्रहिमकरमार्तण्डमण्डलानि सर्वैरुपलभ्यन्ते युक्त्या शास्त्रेण च अतिपृथुपरिमाणतया स्थाप्यन्ते तद्वदत्रापीत्यभिप्रायेणाह -- तथापीति। अतो धर्मिग्राहकविरोधरहितश्रुत्युपपत्तिसमानार्थव्यतिरेकप्रत्ययसिद्धं देहात्मनोः परस्परभेदं सनिदर्शनमाह -- इति वेदितुरित्यादिना। इतिर्हेतौ। ननु यद्यतो भिद्यते? न तत्तत्समानाधिकरणतया प्रतीयते यथा घटेन पटः समानाधिकरणश्च मृद्धटादिवद्देहो ज्ञात्रा प्रतीयत इति विपरीतयुक्तिमाशङ्क्याहसामानाधिकरण्येनेति।अयमभिप्रायः -- न तावत्सामानाधिकरण्यमात्रेणाभेदः? जातिगुणादिष्वभावात् न च तानि न सन्तीति सौगती गतिः? अबाधितप्रत्ययबलेन दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणादिभिश्च धर्मधर्मिभेदसमर्थनात्। नचात्र भेदाभेदः? व्याघातादिप्रसङ्गात् अतो यथा जातिगुणक्रियादिष्वपृथक्सिद्धेरेव सम्बन्धविशेषात्सामानाधिकरण्यम्। तद्वदत्रापीति सर्वानुवृत्तं वक्तव्यमित्यन्यथैवान्यथापि वोपपन्नं भेदसाधने सामानाधिकरण्यम् -- इति।विशेषणतैकस्वभावतयेत्यपृथक्सिद्धिविवरणम्।ननु जातिगुणादिवदिह धर्मधर्मिभावः सामानाधिकरण्यदशायां न प्रतीयते यथागौः शुक्लो गच्छति इत्यादिषु गोत्वशुक्लत्वादिविशिष्ट इति बुद्धिः? न तथाऽत्र धीःदेवोऽहं? मनुष्योऽहम् इत्यत्र हिदेवत्वविशिष्टोऽहं?,मनुष्यत्वविशिष्टोऽहम् इति प्रतीतिः न तुदेवशरीरविशिष्टोऽहं? मनुष्यशरीरविशिष्टोऽहम् इति। अतो घट इत्यत्र घटत्वविशिष्टपिण्डमात्रप्रतीतिवत्देवोऽहं? मनुष्योऽहम् इत्यत्र देवत्वादिजातिविशिष्टपिण्डमात्रप्रतीतेर्देहस्य किञ्चित्प्रति विशेषणत्वादर्शनान्नापृथक्सिद्धिनिबन्धनं देहात्मसमानाधिकरण्यमित्यत्राहतत्र वेदितुरिति। ज्ञानत्वनित्यत्वसूक्ष्मत्वादिरत्रासाधारणाकारः।अयमभिप्रायः -- किं बाह्यकरणैर्देहमात्रप्रतीतिरिह विवक्षिता उत मनोमात्रेण अथवा परिशुद्धेन मनसा। नाद्यः? चक्षुरादीनामात्मग्रहणशक्त्यभावेन योग्यानुपलम्भाभावात्। न द्वितीयः? मनस आत्मग्रहणशक्तत्वेऽपि तस्याशुद्धस्य देहव्यावर्तकपरिमाणादिविशिष्टत्वेन ग्रहणाशक्तेः। न तृतीयः? असिद्धेः। अतिरिक्ततया ग्रहणार्थमेव हि योगोपदेशः। तथाच योगिनामुपलम्भः। अतो यथा गृह्यमाणयोरेव क्षीरनीरद्रव्ययोर्न्यूनाधिकसमभावेन संसर्गविशेषेषु क्षीरत्वेन नीरत्वेन वोपलम्भः तद्वदत्रापि गृह्यमाणयोरेव देहात्मनोः सन्निधिविशेषवशेन रजस्तमोवृद्धिहेतुकर्मवशेन च भेदाग्रहादैक्याध्यास इति निर्णीतदोषतादृशोपलम्भवशेन विरोधो च शङ्कनीयः -- इति। मोहहेतुभूतगुणमयप्रकृतिसन्निधानेन मूढतया यथावस्थितात्मादर्शने वशेन तस्य योगसंस्कृतमनोवेद्यत्वे च वक्ष्यमाणमुदाहरतिवक्ष्यति चेति।,
।।13.2।।भगवान् कृपयाऽवोत्तरमाह -- इदमिति। हे कौन्तेय कृपापात्र इदं शरीरं दृश्यमानं मरणादिधर्मयुक्तं क्षेत्रं ज्ञानादिप्ररोहस्थानं लीलार्थं स्वांशजीवोत्पत्तिस्थानं तद्विदा अभिधीयते कथ्यत इत्यर्थः। एतत् याथातथ्येन यो वेत्ति तं तद्विदः क्षेत्रविदो ज्ञानिनः क्षेत्रज्ञं प्राहुः। अन्योक्तिकथनेन तथा न भवतीति ज्ञापितम्।
।।13.2।।ननु अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः इति द्वितीये त्वंपदार्थस्वरूपमुक्तम्। तथा द्वादशे ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् इति तत्पदार्थस्वरूपमुक्तम्। न च तयोर्भेदः संभवति। लक्षणैक्यात्। लक्षणं हि तयोरव्यक्तत्वमचिन्त्यत्वमचलत्वं सर्वगतत्वं चेत्यादि समानम्। न च द्वयोः सर्वगतत्वं संभवति। अन्योन्यव्यावृत्तत्वेनासर्वगतत्वापत्तेः। न च लक्षणभेदाभावेऽपि तत्तदात्मगतविशेषाः सन्ति ये मुक्तात्मनां जीवेशयोश्चान्योन्यं भेदमावहन्ति स्वात्मानं च स्वाश्रयात्स्वयमेव व्यावर्तयन्तीति वाच्यम्। विशेषाणां सत्त्वे प्रमाणाभावात्। ननु मा सन्तु विशेषाः बन्धमोक्षादिव्यवस्थान्यथानुपपत्त्या तु निर्विशेषेष्वपि पुरुषेषु भेदः सिध्यति। यथोक्तं सांख्यवृद्धैःजन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव इति। जन्मादिव्यवस्थातो युगपत्प्रवृत्त्यदर्शनात् सात्विकराजसादिभेदाच्च न पुरुषैक्यमित्यर्थ इति चेन्न। व्यापकानेकात्मवादे भोगसांकर्यप्रसङ्गात्। नह्येकत्रान्तःकरणे सुखादिरूपेण परिणते तत्प्रतिसंवेदी एक एव चेतन इति नियन्तुं शक्यम्। सर्वेषां सान्निध्याविशेषेण प्रतिसंवेदनापत्तेरवर्जनीयत्वात्। श्रोत्रस्यैकस्यापि कर्णशष्कुलीरूपोपाधिभेदादिवान्तःकरणरूपोपाधिभेदादेकस्याप्यात्मनः शब्दग्रहव्यवस्थावज्जन्मादिव्यवस्थापि सेत्स्यतीति न पुरुषबहुत्वं वक्तव्यम्। ततश्च जीवेशयोर्लक्षणैक्यादभेदे सिद्धे किमुत्तरग्रन्थेन तत्प्रतिपादनार्थेनेति चेत्सत्यम्।यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं पश्येत् इति श्रुतेर्विद्यावस्थायां भेदाभावेऽपि अविद्यावस्थायांअन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानाम्एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते इतिव्यवहारदशायां शास्यशासितृभावेन कर्तृकारयितृभावेन च प्रसक्तस्य जीवेश्वरयोर्भेदस्य निरासार्थत्वादुत्तरग्रन्थस्यारम्भ उपपद्यते। तत्रानुपदोक्तेन तत्पदार्थेन सहास्याभेदं वक्तुं योग्यतायै भास्यभासकभावेन क्षेत्रात्क्षेत्रज्ञस्य कुम्भाद्भास्वत इव विवेकं दर्शयति -- इदमिति। इदमनात्मत्वेन भास्यं घटाद्यहंकारान्तं शरीरं विशरणधर्मि हे कौन्तेय? क्षेत्रं क्षिणोत्यात्मानमविद्यया त्रायते च विद्ययेति क्षेत्रं कर्मबीजप्ररोहस्थानं क्षेत्रशब्देनोच्यते। एतद्यो वेत्ति भासयति तं चिदात्मानं क्षेत्रज्ञ इत्यन्वर्थसंज्ञं प्राहुः। के प्राहुः। तद्विदः क्षेत्रक्षेत्रज्ञविदः। एतेन गच्छामि पश्यामि भुञ्जे इत्यनुभवाद्देहेन्द्रियाहंकाराः प्रतीतितो भासककोटिनिविष्टा इव भान्ति तथापि तेषां तत्त्वतो भास्यत्वलक्षणोऽनात्मभावः सिद्धः।
।।13.2।।यो मायां जगदेकमोहनकरीमाश्रित्य सृष्ट्वालयं देहं जीवतयानुविश्य मतिभिः संयाति नानात्मताम्।वन्दे तं परमार्थतः सुखधनं ब्रह्माद्वयं केवलं कृष्णं वेदशिरोभिरेव विदितं श्रीशंकरं शाश्वतम्।।1।।आकाशस्य यथा धटादिभिरसौ भेदो नचास्तत्यर्थत एवं ब्रह्माणि निर्गुणेऽतिविमले बुद्य्धादिभूः कल्पितः।यस्मिन्नेकरसे विमायममितं तं वासुदेवं भजे सत्यानन्दचिदात्मकं गुरुगुरुं शर्वं तमोनाशकम्।।2।।देवीं भक्तजनार्थसार्थजननीं प्रत्हूदैत्यार्दिनीं प्रत्यूहदैत्यार्दिनीं भानुं भानुमृगेन्द्रसूदितमहद्विघ्नौघनागं प्रभुम्।शुण्डावज्रनिरस्तसर्वदुरितागं पावनं मङ्गलं ध्येयं नौमि गजाननं सुरगणैरिन्द्रं गणानां विभुम्।।3।।एवं षट्कद्वयेन त्वंपदार्थ तत्पदार्थं च प्रतिपाद्याखण्डार्थप्रतिपादनाय तृतीयषट्कमारभ्यते। तत्रभूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा। अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्। एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। अहं कृतस्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। इति सप्तमेऽध्याये त्रिगुणात्मिका क्षेत्रलक्षणा संसारहेतुत्वादपरैका? अन्या च जीवभूता क्षेत्रलक्षणा ईश्वरात्मकत्वात्परेतीश्वरस्य द्वे प्रकृती सूचिते। याभ्यामीश्वरो जगदुत्पत्त्यादिहुतुत्वं प्रतिपद्यते। तत्र क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणप्रकृतिद्वयनिरुपणद्वारा तद्वत ईश्वरस्य तत्त्वनिर्णयार्थं द्वादशाध्याये चअद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च इत्यादितत्त्वज्ञविशेषणान्युक्तानि। येन पुनस्तत्त्वज्ञानेन संपन्ना यथोक्तविशेषणविशिष्टा मम प्रिया भवन्तीत्यस्तत्त्वज्ञानावधारणार्थं च श्रीभगवानुवाच -- इदमित्यादिना। इदं प्रत्यक्षादिनोपलभ्यमानं दृश्यम्। इदमोक्तं विशिनष्टि शरीरं। त्रिगुणात्मिका प्रकृतिः सर्वकार्यकारणविषयाकारेण परिणता पुरुषस्य भोगापवर्गयोरर्थयोरेव कर्तव्यतया देहेन्द्रियाद्याकारेण संहन्यते सोयं संघातः शरीरशब्देनोच्यते। इदं शरीरं हे कौन्तेय क्षतात्र्णात्क्षेत्रं? क्षिणोत्यात्मानमविद्यया त्राति तं विद्यया? क्षीयते नश्यति क्षरति अपक्षीयतेऽतोपि क्षेत्रमित्यभिधीयते। क्षेत्रवदस्मिन्कर्मफलं निष्पद्यते इति वा। यथा कुन्ती त्वत्प्रादुर्भावस्थानत्वात्क्षेत्रं तथात्मनोऽभिव्यक्तिस्थानत्वादपीदं क्षेत्रमिति संबोधनाशयः। अनेन शरीरस्यात्मनोऽन्यत्वं बोधितं क्षेत्रशब्दादुपस्थितमितिपदं क्षेत्रशब्दविषयमन्यथावैयर्थ्यात्क्षेत्रमित्येवमनेन क्षेत्रशब्देनाभिधीयते कथ्यत इत्यर्थः। दृश्यं शरीरं प्रदर्श्य ततोऽतिरिक्तं द्रष्टारमात्मानं दर्शयति। एतच्छरीरं क्षेत्रं यो वेत्ति आपदतलमस्तकं मनुष्योऽहं ममेदं शरीरमिति स्वाभाविकेन? शरीरं आत्मा दृश्यत्वात् घटवदित्यौपदेशिकेन स्वातिरिक्तत्वेन वा ज्ञानेन जानाति विषयीकरोति तं तद्विदस्तौ क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ दृश्यत्वेन द्रष्टत्वेन विदन्तीति तथा तं क्षेत्रज्ञ इति प्राहुः क्षेत्रज्ञ इत्येवम्। क्षेत्रज्ञशब्देन तं कथयन्तीत्यर्थः।
13.2 इदम् this? शरीरम् body? कौन्तेय O son of Kunti (Arjuna)? क्षेत्रम् the field? इति thus? अभिधीयते is called? एतत् this? यः who? वेत्ति knows? तम् him? प्राहुः (they) call? क्षेत्रज्ञः the knower of the field? इति thus? तद्विदः the knowers of that.Commentary Kshetra literally means field. The body is so called because the fruits (harvest) of actions in the form of pleasure and pain are reaped in it as in a field. The physical? the mental and the causal bodies go to constitute the totality of the field. It is not the physical body alone that forms the field.He who knows the field and he who beholds it as distinct from himself through knowledge is the knower of the field or matter.Those who know them The sages.
13.2 The Blessed Lord said This body, O Arjuna, is called the field; he who knows it is called the knower of the field, by those who know of them.
13.2 Lord Shri Krishna replied: O Arjuna! The body of man is the playground of the Self; and That which knows the activities of Matter, sages call the Self.
13.2 The Blessed Lord said O son of Kunti, this body is referred to as the 'field'. Those who are versed in this call him who is conscious of it as the 'knower of the field'.
13.2 The Lord specifies the body as the object referred to by the pronoun idam (this). O son of Kunti, (this body) abhidhiyate, is referred to; ksetram iti, as the field-because it is protected (tra) against injury (ksata), or because it perishes (ksi), wastes away (ksar), or because the results of actions get fulfilled in the body as in a field (ksetra). The word iti is used in the sense of 'as'. They-who?-tadvidah, who are versed in this, who know the 'field' and the 'knower of the field'; ahuh, call; tam, him, the knower; yah, who; vetti etat, is concious of, knows, it, the body, the field-makes it, from head to foot, an abject of his knowledge; makes it an object of perception as a separate entity, through knowledg which is spontaneous or is acired through instruction; ksetrajna iti, as the knower of the field. As before, the word iti is used in the sense of 'as'. They call him as the knower of the field. Is it that the field and the knower of the field thus mentioned are to be understood through this much knowledge only? The answer is, no.
13.2. The Bhagavat said O son of Kunti ! This [physical] hody is called 'Field' [and decayer-cum-protector]; He, who sensitiezes it - His knowers call Him properly as 'Field-sensitizer'.
13.2 See Comment under 13.3
13.2 The body which is cognised in identity with the experiencing self by co-ordinate predication (Samanadhikaranya) in the propositions, 'I am a god, 'I am a man,' 'I am fat,' 'I am slender' etc., is described by those who know the real nature of the body as only the Field (Ksetra) of experience for the experiencing self, who is distinct from the body. Those who know this, namely, those who know the exact nature of the self, call It the Field-knower (Ksetrajna). That knower who knows the body, as divided into its different members and as their collectivity, can say 'I know it, the body, as an object.' The person with this perception is the one who is called the Ksetrajna or the Field-knower, who must necessarily be different from the Field (Ksetra), which is the object of this knowledge. It is true that at the time of perceiving an object like a pot which is different from one's body, the seer who thinks 'I am a god who sees it' or 'I am a man who sees it' etc., is putting himself as identical with the body through co-ordinate predication. In the same way he experiences the body as an object of knowledge when he says 'I know this body.' Thus if the body is an object of knowledge, it must be different from the knowing self. Therefore, the Field-knower (Ksetrajna). The knower, is other than the body which is an object of knowledge like a jar, etc. But this knowledge which arises by way of co-ordinate predication is justified on the ground that the body is inseparable from oneself; for it constitutes an attribute of the self like 'cow-ness' of the cow etc. The knowing self is however unie in being an eternal and subtle form of knowledge. But this is inaccessible to the ordinary man's organs of vision; it is accessible only to a mind refined by Yoga. The ignorant see the knower only in the form of Prakrti because of close proximity to or union with Prakrti. Sri Krsna thus declares later on: 'When in identiciation with the Gunas he departs or stays or experiences, the deluded perceive him not. They, who have the eye of knowledge, see' (15.10).
13.2 The Lord said This body, O Arjuna, is called the Field, Ksetra. He who knows it is called the Filed-knower, Ksetrajna, by those who know the self.
।।13.2।।समस्त कार्य? करण और विषयोंके आकारमें परिणत हुई त्रिगुणात्मिका प्रकृति पुरुषके लिये भोग और अपवर्गका सम्पादन करनेके निमित्त देहइन्द्रियादिके आकारसे संहत ( मूर्तिमान् ) होती है? वह संघात ही यह शरीर है? उसका वर्णन करनेके लिये श्रीभगवान् बोले --, इदम् इस सर्वनामसे कही हुई वस्तुको शरीरम् इस विशेषणसे स्पष्ट करते हैं। हे कुन्तीपुत्र शरीरको चोट आदिसे बचाया जाता है इसलिये? या यह शनैःशनैः क्षीण -- नष्ट होता रहता है इसलिये? अथवा क्षेत्रके समान इसमें कर्मफल प्राप्त होते हैं इसलिये? यह शरीर क्षेत्र है इस प्रकार कहा जाता है। यहाँ इति शब्द एवम् शब्दके अर्थमें है। इस शरीररूप क्षेत्रको जो जानता है -- चरणोंसे लेकर मस्तकपर्यन्त ( इस शरीरको ) जो ज्ञानसे प्रत्यक्ष करता है अर्थात् स्वाभाविक या उपदेशद्वारा प्राप्त अनुभवसे विभागपूर्वक स्पष्ट जानता है उस जाननेवालेको क्षेत्रज्ञ कहते हैं। यहाँ भी इति शब्द पहलेकी भाँति एवम् शब्दके अर्थमें ही है? अतः क्षेत्रज्ञ ऐसा कहते हैं। कौन कहते हैं उनको जाननेवाले अर्थात् उन क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनोंको जो जानते हैं वे ज्ञानी पुरुष ( कहते हैं )।
।।13.2।। --,इदम् इति सर्वनाम्ना उक्तं विशिनष्टि शरीरम् इति। हे कौन्तेय? क्षतत्राणात्? क्षयात्? क्षरणात्? क्षेत्रवद्वा अस्मिन् कर्मफलनिष्पत्तेः क्षेत्रम् इति -- इतिशब्दः एवंशब्दपदार्थकः -- क्षेत्रम् इत्येवम् अभिधीयते कथ्यते। एतत् शरीरं क्षेत्रं यः वेत्ति विजानाति? आपादतलमस्तकं ज्ञानेन विषयीकरोति? स्वाभाविकेन औपदेशिकेन वा वेदनेन विषयीकरोति विभागशः? तं वेदितारं प्राहुः कथयन्ति क्षेत्रज्ञः इति -- इतिशब्दः एवंशब्दपदार्थकः एव पूर्ववत् -- क्षेत्रज्ञः इत्येवम् आहुः। के तद्विदः तौ क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ ये विदन्ति ते तद्विदः।।एवं क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ उक्तौ। किम् एतावन्मात्रेण ज्ञानेन ज्ञातव्यौ इति न इति उच्यते --,
।।13.2।।पूर्वसङ्गतत्वेनाध्यायप्रतिपाद्यं दर्शयति -- पूर्वोक्तेति। पूर्वमाषष्ठसमाप्तेर्यत् ज्ञानं ज्ञानसाधनमुक्तम्? यच्च सप्तमादिभिः षड्भिर्ज्ञेयं ब्रह्मस्वरूपमुक्तम्? यदपिभूमिरापः [7।4] इत्यादिना क्षेत्रमुक्तम्? यच्चन त्वेवाहं [2।12] इत्यादिना पुरुषभेद उक्तः? तत्सर्वमनेनाध्यायेन दर्शयति भगवान्। किमर्थं पिण्डीकृत्य विक्षिप्तमेकीकृत्य। गौणोऽत्र क्त्वाप्रत्ययः पिण्डीकरणार्थमित्यर्थः। पिण्डीकरणे मिश्रत्वादप्रतिपत्तिरेवेत्यत उक्तम् -- विविच्येति। प्रकरणशुद्ध्येत्यर्थः।
।।13.2।।श्रीज्ञानदात्रे नमः। पूर्वोक्तज्ञानज्ञेयक्षेत्रपुरुषान् पिण्डीकृत्य विविच्य दर्शयत्यनेनाध्यायेन।
श्री भगवानुवाच इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।13.2।।
শ্রী ভগবানুবাচ ইদং শরীরং কৌন্তেয ক্ষেত্রমিত্যভিধীযতে৷ এতদ্যো বেত্তি তং প্রাহুঃ ক্ষেত্রজ্ঞ ইতি তদ্বিদঃ৷৷13.2৷৷
শ্রী ভগবানুবাচ ইদং শরীরং কৌন্তেয ক্ষেত্রমিত্যভিধীযতে৷ এতদ্যো বেত্তি তং প্রাহুঃ ক্ষেত্রজ্ঞ ইতি তদ্বিদঃ৷৷13.2৷৷
શ્રી ભગવાનુવાચ ઇદં શરીરં કૌન્તેય ક્ષેત્રમિત્યભિધીયતે। એતદ્યો વેત્તિ તં પ્રાહુઃ ક્ષેત્રજ્ઞ ઇતિ તદ્વિદઃ।।13.2।।
ਸ਼੍ਰੀ ਭਗਵਾਨੁਵਾਚ ਇਦਂ ਸ਼ਰੀਰਂ ਕੌਨ੍ਤੇਯ ਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰਮਿਤ੍ਯਭਿਧੀਯਤੇ। ਏਤਦ੍ਯੋ ਵੇਤ੍ਤਿ ਤਂ ਪ੍ਰਾਹੁ ਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰਜ੍ਞ ਇਤਿ ਤਦ੍ਵਿਦ।।13.2।।
ಶ್ರೀ ಭಗವಾನುವಾಚ ಇದಂ ಶರೀರಂ ಕೌನ್ತೇಯ ಕ್ಷೇತ್ರಮಿತ್ಯಭಿಧೀಯತೇ. ಏತದ್ಯೋ ವೇತ್ತಿ ತಂ ಪ್ರಾಹುಃ ಕ್ಷೇತ್ರಜ್ಞ ಇತಿ ತದ್ವಿದಃ৷৷13.2৷৷
ശ്രീ ഭഗവാനുവാച ഇദം ശരീരം കൌന്തേയ ക്ഷേത്രമിത്യഭിധീയതേ. ഏതദ്യോ വേത്തി തം പ്രാഹുഃ ക്ഷേത്രജ്ഞ ഇതി തദ്വിദഃ৷৷13.2৷৷
ଶ୍ରୀ ଭଗବାନୁବାଚ ଇଦଂ ଶରୀରଂ କୌନ୍ତେଯ କ୍ଷେତ୍ରମିତ୍ଯଭିଧୀଯତେ| ଏତଦ୍ଯୋ ବେତ୍ତି ତଂ ପ୍ରାହୁଃ କ୍ଷେତ୍ରଜ୍ଞ ଇତି ତଦ୍ବିଦଃ||13.2||
śrī bhagavānuvāca idaṅ śarīraṅ kauntēya kṣētramityabhidhīyatē. ētadyō vētti taṅ prāhuḥ kṣētrajña iti tadvidaḥ৷৷13.2৷৷
ஷ்ரீ பகவாநுவாச இதஂ ஷரீரஂ கௌந்தேய க்ஷேத்ரமித்யபிதீயதே. ஏதத்யோ வேத்தி தஂ ப்ராஹுஃ க்ஷேத்ரஜ்ஞ இதி தத்விதஃ৷৷13.2৷৷
శ్రీ భగవానువాచ ఇదం శరీరం కౌన్తేయ క్షేత్రమిత్యభిధీయతే. ఏతద్యో వేత్తి తం ప్రాహుః క్షేత్రజ్ఞ ఇతి తద్విదః৷৷13.2৷৷
13.3
13
3
।।13.3।।हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! तू सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ मेरेको ही समझ; और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है, वही मेरे मतमें ज्ञान है।
।।13.3।। हे भारत ! तुम समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही (वास्तव में) ज्ञान है , ऐसा मेरा मत है।।
।।13.3।। पूर्व श्लोक में यह कहा गया है कि जड़ उपाधियाँ क्षेत्र हैं और इनका अधिष्ठान चैतन्य स्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ है। यहाँ सबको चकित कर देने वाला कथन है कि समस्त क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही जानो। यदि? सब क्षेत्रों में ज्ञाता एक ही है ? तो इसका अर्थ यह हुआ कि बहुलता और विविधता केवल जड़ उपाधियों में ही है और उनमें व्यक्त चैतन्य सर्वत्र एक ही है। इस सर्वश्रेष्ठ? सर्वातीत एक सत्य को यहाँ उत्तम पुरुष एक वचन के रूप में निर्देशित किया गया है? क्षेत्रज्ञ मैं हूँ? क्योंकि सभी साधकों को यह इसी रूप में अनुभव करना है कि? वह मैं हूँ? (सोऽहम्)।हम पहले भी इंगित कर चुके हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण गीता का उपदेश योगारूढ़ की स्थिति के विरले क्षणों में कर रहे हैं। वे सर्वव्यापी आत्मस्वरूप से तादात्म्य किये हुये हैं। इस श्लोक का उनका कथन विद्युत् के इस कथन के समान है कि? मैं ही विश्वभर के बल्बों में प्रकाशित हो रही ऊर्जा हूँ।इस सम्पूर्ण विविध नामरूपमय सृष्टि के पीछे विद्यमान एकमेव सत्य का निर्देश करने के पश्चात् भगवान् अपना मत बताते हुये कहते हैं कि क्षेत्रक्षेत्रज्ञ का विवेकजनित ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान कहलाने योग्य है? क्योंकि यही ज्ञान हमें अपने सांसारिक बन्धनों से मुक्त कराने में समर्थ है। इस ज्ञान के अभाव में ही हम जीव भाव के समस्त दुखों को भोग रहे हैं।ज्ञानमार्ग के निष्ठावान् साधकों के लिए यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान उपयोगी और आवश्यक होने के कारण उन्हें उसका विस्तृत अध्ययन करना होगा।
।।13.3।। व्याख्या --   क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत -- सम्पूर्ण क्षेत्रों(शरीरों)में मैं हूँ -- ऐसा जो अहंभाव है? उसमें मैं तो क्षेत्र है (जिसको पूर्वश्लोकमें एतत् कहा है) और हूँ मैंपनका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है (जिसको पूर्वश्लोकमें वेत्ति पदसे जाननेवाला कहा है)। मैं का सम्बन्ध होनेसे ही हूँ है। अगर मैं का सम्बन्ध न रहे तो हूँ नहीं रहेगा? प्रत्युत है रहेगा। कारण कि है ही मैंके साथ सम्बन्ध होनेसे हूँ कहा जाता है। अतः वास्तवमें क्षेत्रज्ञ(हूँ) की परमात्मा(है) के साथ एकता है। इसी बातको भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें मेरेको ही क्षेत्रज्ञ समझो।मनुष्य किसी विषयको जानता है? तो वह जाननेमें आनेवाला विषय ज्ञेय कहलाता है। उस ज्ञेयको वह किसी करणके द्वारा ही जानता है। करण दो तरहका होता है -- बहिःकरण और अन्तःकरण। मनुष्य विषयोंको बहिःकरण(श्रोत्र? नेत्र आदि) से जानता है और बहिःकरणको अन्तःकरण(मन? बुद्धि आदि) से जानता है। उस अन्तःकरणकी चार वृत्तियाँ हैं -- मन? बुद्धि? चित्त और अहंकार। इन चारोंमें भी अहंकार सबसे सूक्ष्म है? जो कि एकदेशीय है। यह अहंकार भी जिससे देखा जाता है? जाना जाता है? वह जाननेवाला प्रकाशस्वरूप क्षेत्रज्ञ है। उस अहंभावके भी ज्ञाता क्षेत्रज्ञको साक्षात् मेरा स्वरूप समझो। यहाँ विद्धि पद कहनेका तात्पर्य है कि हे अर्जुन जैसे तू अपनेको शरीरमें मानता है और शरीरको अपना मानता है? ऐसे ही तू अपनेको मेरेमें जान (मान) और मेरेको अपना मन। कारण कि तुमने शरीरके साथ जो एकता मान रखी है? उसको छोड़नेके लिये मेरे साथ एकता माननी बहुत आवश्यक है।जैसे यहाँ भगवान्ने क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि पदोंसे क्षेत्रज्ञकी अपने साथ एकता बतायी है? ऐसे ही गीतामें अन्य जगह भी एकता बतायी है जैसे -- दूसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें भगवान्ने शरीरी(क्षेत्रज्ञ)के लिये कहा कि जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है? उसको तुम अविनाशी समझो -- अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् और नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें अपने लिये कहा कि मेरेसे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है -- मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। यहाँ तो भगवान्ने क्षेत्रज्ञ(अंश) की अपने (अंशीके) साथ एकता बतायी है और आगे इसी अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें शरीरसंसार(कार्य) की प्रकृति(कारण) के साथ एकता बतायेंगे। तात्पर्य है कि शरीर तो प्रकृतिका अंश है? इसलिये तुम इससे सर्वथा विमुख हो जाओ और तुम मेरे अंश हो? इसलिये तुम मेरे सम्मुख हो जाओ।शरीरकी संसारके साथ स्वाभाविक एकता है। परन्तु यह जीव शरीरको संसारसे अलग मानकर उसके साथ ही अपनी एकता मान लेता है। परमात्माके साथ क्षेत्रज्ञकी स्वाभाविक एकता होते हुए भी शरीरके साथ माननेसे यह अपनेको परमात्मासे अलग मानता है। शरीरको संसारसे अलग मानना और अपनेको परमात्मासे अलग मानना -- ये दोनों ही गलत मान्यताएँ हैं। अतः भगवान् यहाँ विद्धि पदसे आज्ञा देते हैं कि क्षेत्रज्ञ मेरे साथ एक है? ऐसा समझो। तात्पर्य है कि तुमने जहाँ शरीरके साथ अपनी एकता मान रखी है? वहीं मेरे साथ अपनी एकता मान लो? जो कि वास्तवमें है।शास्त्रोंमें प्रकृति? जीव और परमात्मा -- इन तीनोंका अलगअलग वर्णन आता है परन्तु यहाँ अपि पदसे भगवान् एक विलक्षण भावकी ओर लक्ष्य कराते हैं कि शास्त्रोंमें परमात्माके जिस सर्वव्यापक स्वरूपका वर्णन हुआ है? वो तो मैं हूँ ही? इसके साथ ही सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञरूपसे पृथक्पृथक् दीखनेवाला भी मैं ही हूँ। अतः प्रस्तुत पदोंका यही भाव है कि क्षेत्रज्ञरूपसे परमात्मा ही है -- ऐसा जानकर साधक मेरे साथ अभिन्नताका अनुभव करे।स्वयं संसारसे भिन्न और परमात्मासे अभिन्न है। इसलिये यह नियम है कि संसारका ज्ञान तभी होता है? जब उससे सर्वथा भिन्नताका अनुभव किया जाय। तात्पर्य है कि संसारसे रागरहित होकर ही संसारके वास्तविक स्वरूपको जाना जा सकता है। परन्तु परमात्माका ज्ञान उनसे अभिन्न होनेसे ही होता है। इसलिये परमात्माका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करानेके लिये भगवान् क्षेत्रज्ञके साथ अपनी अभिन्नता बता रहे हैं। इस अभिन्नताको यथार्थरूपसे जाननेपर परमात्माका वास्तविक ज्ञान हो जाता है।क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम -- क्षेत्र(शरीर) की सम्पूर्ण संसारके साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ(जीवात्मा) की मेरे साथ एकता है -- ऐसा जो क्षेत्रक्षेत्रज्ञका ज्ञान है? वही मेरे मतमें यथार्थ ज्ञान है।मतं मम कहनेका तात्पर्य है कि संसारमें अनेक विद्याओंका? अनेक भाषाओँका? अनेक लिपियोंका? अनेक कलाओंका? तीनों लोक और चौदह भुवनोंका जो ज्ञान है? वह वास्तविक ज्ञान नहीं है। कारण कि वह ज्ञान सांसारिक व्यवहारमें काममें आनेवाला होते हुए भी संसारमें फँसानेवाला होनेसे अज्ञान ही है। वास्तविक ज्ञान तो वही है? जिससे स्वयंका शरीरसे सम्बन्धविच्छेद हो जाय और फिर संसारमें जन्म न हो? संसारकी परतन्त्रता न हो। यही ज्ञान भगवान्के मतमें यथार्थ ज्ञान है।  सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके ज्ञानको ही अपने मतमें ज्ञान बताकर अब भगवान् क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागको सुननेकी आज्ञा देते हैं।
।।13.2 -- 13.3।।क्वचित् श्रुतौ क्षेत्रज्ञ उपास्यः इति श्रूयते। स च किमात्मा? उत ईश्वरः अथ तृतीयः कश्चिदन्य एव इति प्रश्नाशङ्कायाम् -- श्रीभगवानादिशतिं -- इदमिति? क्षेत्रज्ञमिति। संसारिणां शरीरं क्षेत्रम्? यत्र कर्मबीजप्ररोहः। अत एव तेषामात्मा आगन्तुककालुष्यरूषितः क्षेत्रज्ञ उच्यते। प्रबुद्धानां तदेव क्षेत्रम्। अन्वर्थभेदस्तु तद्यथा -- क्षिणोति कर्मबन्धमुपभोगेन? त्रायते जन्ममरणभयात् इति। तांश्च प्रति परमात्मा वासुदेवः (S? वासुदेवाख्यः) क्षेत्रज्ञः। एतत्क्षेत्रं (S?N यो वेदयति। वेदेत्यन्तर्भा यो वेदयति अन्तर्भा -- ) यो वेद? वेदयति इत्यन्तर्भावितण्यर्थो (N -- ण्यर्थोऽत्र) विदिः। तेन यत्प्रसादादचेतनमिदं चेतनीभावमायाति स एव क्षेत्रज्ञो नान्यः कश्चित्। विशेषस्तु परिमितव्याप्तिकं रूपमालम्ब्य आत्मेति भण्यते अपरिच्छिन्नसर्वक्षेत्रव्याप्त्या परमात्मा भगवान् वासुदेवः। ममेति कर्मणि षष्ठी अहमनेन ज्ञानेन ज्ञेयः इत्यर्थः।
।।13.3।।तत् क्षेत्रं यत् च यद्द्रव्यम्? यादृक् च येषाम् आश्रयभूतम्? यद्विकारि ये च अस्य विकाराः? यतः च यतो हेतोः इदम् उत्पन्नं यस्मै प्रयोजनाय उत्पन्नम् इत्यर्थः। यत् यत्स्वरूपं च इदं सः च यः स च क्षेत्रज्ञो यः यत्स्वरूपो यत्प्रभावः च ये च अस्य प्रभावाः? तत् सर्वं समासेन संक्षेपेण मे मत्तः श्रृणु।
।।13.3।।एवं श्लोकद्वयं व्याख्याय श्लोकान्तरमवतारयति -- इदमिति। कुत्र संग्रहोक्तिरुपयुज्यते -- तत्राह -- व्याचिख्यासितस्येति। प्रतिपत्तिसौकर्यार्थं संग्रहोक्तिरर्थवतीत्यर्थः। वक्ष्यमाणेऽर्थे श्रोतुर्मनःसमाधानार्थं सूत्रितवाक्यार्थोपायविवरणप्रतिज्ञामभिप्रेत्याह -- यन्निर्दिष्टमिति। इदं शरीरमिति यन्निर्दिष्टं तच्छरीरं तच्छब्देन परामृशति प्रकृतार्थत्वात्तस्येति योजना। तत्क्षेत्रं ज्ञातव्यमित्यध्याहारः। यच्चेति येन रूपेण रूपवदिति तदेव क्षेत्रं विशेष्यते। तस्य क्षेत्रस्य स्वकीया धर्मा जन्मादयस्तैर्विशिष्टस्य ज्ञेयत्वे हेयत्वं फलति।चशब्दपञ्चकस्येतरेतरसमुच्चयार्थत्वमाह -- चशब्द इति। विकारित्वेनापि हेयत्वं सूचयति -- यद्विकारीति। यत्कार्यं तत्सर्वं यस्मादुत्पद्यते तत्कारणत्वाज्ज्ञातव्यमित्याह -- यत इति। क्षेत्रमिव क्षेत्रज्ञं ज्ञातव्यं दर्शयति -- स चेति। स ज्ञातव्य इति संबन्धः। चक्षुराद्युपाधिकृतदृष्ट्यादिशक्तिवशात्तस्य ज्ञातव्यत्वं सूचयति -- यत्प्रभाव इति। तेनोक्तेन प्रभावेण तस्य ज्ञातव्यतेति शेषः। कथं यथाविशेषितं क्षेत्रं क्षेत्रज्ञो वा शक्यो ज्ञातुमित्याशङ्क्यभगवद्वाक्यादित्याह -- तदिति।
।।13.3।।यस्य च भवति स क्षेत्रज्ञ इह मत्स्वभावापन्न इत्याह -- क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीति। नहि क्षेत्रिभावेन संसृष्टो जीवः क्षेत्रं स्वतो विविक्तं जानाति? यः कश्चिज्जानाति तं मां विद्धि मदंशत्वान्मद्रूपं पुरुषं जानीहि भगवद्गुणाविर्भावात्तद्गुणसारत्वात्तु तद्व्यपदेशः प्राज्ञवत् [ब्र.सू.2।3।29] इति सूत्रितत्वात्। आदरार्थमेतज्ज्ञानं स्तौतिक्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम इति मदिच्छासम्मतं रक्षेत्।
।।13.3।।एवं देहेन्द्रियादिविलक्षणं स्वप्रकाशं क्षेत्रज्ञमभिधाय तस्य पारमार्थिकं रूपमादाय परमात्मनैक्यमाह -- क्षेत्रज्ञमिति। सर्वक्षेत्रेषु य एकः क्षेत्रज्ञः स्वप्रकाशः चैतन्यरूपो नित्यो विभुश्च तमविद्याध्यारोपितकर्तृत्वभोर्क्तृत्वादिसंसारधर्ममाविद्यकरूपपरित्यागेन मामीश्वरमसंसारिणमद्वितीयब्रह्मानन्दरूपं विद्धि जानीहि। हे भारत? एवंच क्षेत्रं मायाकल्पितं मिथ्या? क्षेत्रज्ञश्च परमार्थसत्यस्तद्भ्रमाधिष्ठानमिति क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्यज्ज्ञानं तदेव मोक्षसाधनत्वाज्ज्ञानं अविद्याविरोधि प्रकाशरूपं मम मतं अन्यत्त्वज्ञानमेव तदविरोधित्वादित्यभिप्रायः। अत्र जीवेश्वरयोराविद्यको भेदः पारमार्थिकस्त्वभेद इत्यत्र युक्तयो भाष्यकृद्भिर्वर्णिताः। अस्माभिस्तु ग्रन्थविस्तरभयात्प्रागेव बहुधोक्तत्वाच्च नोपन्यस्ताः।
।।13.3।। तदेवं संसारिणः स्वरूपमुक्तं? इदानीं तस्यैव पारमार्थिकमसंसारिस्वरूपमाह -- क्षेत्रज्ञमिति। तं च क्षेत्रज्ञं संसारिणं जीवं वस्तुतः सर्वक्षेत्रेष्वनुगतं मामेव विद्धि?तत्त्वमसि इति श्रुत्युपलक्षितेन चिदंशेन मद्रूपस्योक्तत्वात्। आदरार्थमेव तज्ज्ञानं स्तौति। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्यद्वैलक्षण्येन ज्ञानं तदेव मोक्षहेतुत्वान्मम ज्ञानं मतं अन्यत्तु वृथा पाण्डित्यम्। बन्धहेतुत्वादित्यर्थः। तदुक्तं -- तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये। आयासायापरं कर्म विद्यान्याशिल्पनैपुणम् इति।
।।13.3।।अथैवमन्योन्यव्यावर्तकाकारवत्तया निर्दिष्टयोः क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्द्वयोरपि परमात्मव्यावृत्तिसिद्ध्यर्थमुभयानुवृत्तं तच्छेषत्वमुपदिश्य एवं यथावस्थितक्षेत्रक्षेत्रज्ञज्ञानमेव मे मतमित्यभिप्रायेण प्रशंसतिक्षेत्रज्ञं चापि इति श्लोकेन। शरीरातिरिक्तस्य बद्धावस्थस्यात्र क्षेत्रज्ञशब्देनोपादानम्। स च स्वक्षेत्रापेक्षया शरीरी? मदपेक्षया शरीरमिति समानाधिकरणनिर्देशतात्पर्यमित्याहदेवमनुष्यादीति।क्षेत्रज्ञम् इत्येकवचनेन जात्यैक्यमभिप्रेतमिति दर्शयितुंसर्वक्षेत्रेषु वेदितृत्वैकाकारमित्युक्तम्। फलितमाह -- मदात्मकं विद्धीति। अनुक्तसमुच्चयार्थोऽपिशब्दः? अन्यथा निरर्थकत्वप्रसङ्गादित्यभिप्रायेणाहक्षेत्रज्ञं चापीत्यपिशब्दादिति। कण्ठोक्तं समुच्चयागतमाभिप्रायिकं च सङ्कलय्याहयथा क्षेत्रमिति। जीवस्य तच्छरीरेण सामानाधिकरण्ये यो हेतुः? स एवात्रापि विद्यत इति मुख्यमेव सामानाधिकरण्यमिति ज्ञापनायापृथक्सिद्धिकथनम्।ननु क्षेत्रज्ञविशेषणत्वं प्रत्यक्षसिद्धत्वात् स्वीक्रियते क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः परमात्मानं प्रति विशेषणत्वं न प्रतीयते प्रत्युत स्वतन्त्रतयैव क्षेत्रज्ञो घटपटादयश्च प्रतीयन्ते अतो न सामानाधिकरण्यं मुख्यमिति शङ्कायां विशेष्यस्याप्रत्यक्षत्वादश्रुतवेदान्तानां विशेषणत्वाग्रहणमित्यभिप्रायेणाह -- पृथिव्यादिसंघातरूपस्येति। पृथिव्यादेः परमात्मानं प्रति शरीरत्ववचनादेव तत्सङ्घातरूपस्य देवमनुष्यादिपिण्डस्यापि शरीरत्वमुक्तमेव शरीरधातूनां च पृथक्परमात्मशरीरत्वं व्यपदिश्यत इति? ततोऽपि तत्समुदायस्य शरीरत्वमुक्तं भवतीत्यभिप्रायेणपृथिव्यादिसङ्घातरूपस्येत्युक्तम्। जीवं प्रति क्षेत्रस्येव नावस्थाभेदनिबन्धनमनयोर्द्रव्ययोः परमात्मशरीरत्वमिति ज्ञापनाय -- भगवच्छरीरतैकस्वरूपतयेत्युक्तम्। यथा पृथिव्यादेः लोके शरीरत्वेनाप्रसिद्धस्यापि परमात्मशरीरत्वं श्रुतिवशात्स्वीकार्यम्? तथा स्वक्षेत्रं प्रति शरीरिणोऽपि जीवस्येति भावः। एवं स्वरूपभेदेऽन्तर्यामित्वे च सिद्धे श्रुतिषु सामानाधिकरण्यव्यपदेशस्तन्निबन्धनः तदुपबृंहणे चास्यां स्मृतौ स्मृत्यन्तरे च। अस्मिंश्च विभूत्यध्यायेऽन्तर्यामित्वं पुरस्तादुपरिष्टाच्चाभिधाय मध्ये सामानाधिकरण्यनिर्देशादात्मत्वेनावस्थानमेव सामानाधिकरण्ये हेतुरिति श्रुत्युपबृंहणं कृतं भवति। तत्समानतयाऽस्मिन्नपि सामानाधिकरण्ये स एवार्थ इत्यभिप्रायेणाहइदमेवेति। उत्तरार्धं व्याख्याति -- यदिदमिति। प्रस्तुतविविक्ताकारविशिष्टयोरेव हि क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरिह परामर्शः? तप्तायः पिण्डादिवदलीकाकारज्ञानस्य पश्वादिसाधारणत्वात्तस्य चात्र प्रशंसानुपपत्तेरित्यभिप्रायेण विवेकविषयत्वोपादानम्। नहि ज्ञानस्य ज्ञानत्वमात्रं विधेयं? पुनरुक्त्यादिप्रसङ्गात् नचान्येषां ज्ञानानां ज्ञानत्वनिषेधे तात्पर्यं? व्याघातात् न च ज्ञानमित्यनूद्य मतत्वमात्रमत्र विधीयते? ज्ञानशब्दावृत्तिनैरर्थक्यात् अतोऽत्र ज्ञानस्यैव ज्ञानमिति विधानं परिग्राह्यत्वार्थप्रशंसापरमित्यभिप्रायेणाहतदेवोपादेयं ज्ञानमिति।मम मतमिति सर्वभूतसुहृदो मम सर्वशास्त्रार्थोपयोगितया सर्वहितत्वेनेदमेवोपादेयतयाऽभिमतमिति भावः। एवमस्य श्लोकस्य श्रुतिस्मृत्यन्तरपूर्वापरसङ्गतमर्थमभिधाय कुदृष्टिदृष्टिं दूषयितुमनुभाषते --,केचिदित्यादिना।केचिदिति निरूपकाभासत्वमभिप्रेतम्। बहुवचनेन जगद्व्यामोहनम् तद्ग्रन्थकारकुमतिपरम्पराद्योतनम्।सामानाधिकरण्येनैकत्वमवगम्यत इति।भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दानामेकस्मिन्नर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम् इति हि तल्लक्षणमिति भावः। सर्वज्ञत्वाज्ञत्वादिविरुद्धधर्मवतोरेकत्वे कथमवगन्तुं शक्यं इत्यत्राह -- ततश्चेति। श्रुतस्य हानायोगात्तदर्थापत्त्येत्यर्थः। एवकारेण विरोधशङ्काद्योतनम्। संसारस्यौपाधिकत्वेन सर्वाभ्युपगतत्वात्स्वतः क्षेत्रज्ञत्वाभावेऽपि दोषवशात्तत्सम्भव इत्यभिप्रायेणअज्ञानादित्युक्तम्। ननु दोषवशादपि विरुद्धं न सम्भवति? नहि दोषेण तेजसस्तिमिरत्वापादनं सम्भवति? नच क्षितिजलादिसमवधाने शिलाशकलस्याङ्कुरारम्भकत्वमित्यत्राह -- क्षेत्रज्ञत्वमिवेति। विरुद्धाकारसद्भावो ह्यसम्भावितः तदारोपस्तु रज्जुसर्पादिवदुपपन्न इति भावः।अभ्युपगन्तव्यमिति गत्यन्तरादर्शनादिति भावः। यदि परमार्थतः संसारित्वं नास्ति कथं संसारनिराकरणायोपदेशादि क्रियते नहि परमार्थतो व्याध्यभावे तन्निरासाय चिकित्सोपपद्येतेत्यत्राहतन्निवृत्त्यर्थ इति। क्षेत्रज्ञत्वभ्रमनिवृत्त्यर्थं इति यावत्। नह्ययमैक्योपदेशो दृष्टिविध्यादिष्विवान्यशेषतया भाति अपितु आत्मयाथात्म्यज्ञानार्थ इति भवद्भिरप्यभ्युपेतमित्यभिप्रायेणअयमित्युक्तम्। चन्द्रभेदभ्रमनिवर्तकतदैक्योपदेशवदिति भावः। अबाधितात्प्रत्यक्षतो भेदे दृढं प्रतीयमाने कथ तदुपजीवकेन सम्भवदभिप्रायान्तरेण परोक्षेणोपदेशेन बाधः इत्यत्राहअनन चेति। सामान्यवेषेणोपजीवकत्वं न बाधकत्वविरोधि अन्यथा भेदानुमानेन ज्वालैक्यबाधायोगात् अतएव परोक्षत्वमपि न दौर्बल्यप्रयोजकम्। निर्दोषत्वमेव हि प्राबल्यनिदानम्। वाक्यस्य च दोषा वक्तुर्भ्रमविप्रलम्भप्रमादाशक्तयः। अत्र च वक्तुर्वासुदेवस्याप्ततमत्वेन विप्रलम्भगन्धाभावः भगवत्त्वेन भ्रमप्रमादाशक्तीनामसम्भवः अतस्तदुपदेशेन क्षेत्रज्ञत्वभ्रमस्य प्रत्यक्षस्यापि बाध उपपद्यत इति भावः।एवमनुभाषितं दूषयितुमुपक्रमते -- ते प्रष्टव्या इति। सर्वज्ञस्येश्वरस्यैव सतोऽज्ञानात्क्षेत्रज्ञत्वभ्रमो भवति स एव चेश्वरः क्षेत्रज्ञायोपदिशतीति व्याकुलभाषिणः किमभिप्रेतं इत्याशयपरिशोधनेन दूषणं वक्तव्यमिति भावः।अयमिति -- न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः [2।12] इत्युपक्रमे भेदेनैव स्वात्मानमुपदिशन् परस्ताच्च क्षराक्षरपुरुषवैलक्षण्यमेव स्वात्मनोऽभिधास्यन्निष्कृष्टव्यवहारेषु जीवानां परार्थभूत इति भावः।उपदेष्टेति -- यद्यसावप्यज्ञः? तदाऽर्जुनवदस्यापि शिष्यत्वमेवोचित? नतूपदेष्ट्टत्वमिति भावः।भगवानिति -- पराज्ञाननिवृत्त्यर्थमेव ह्ययमुपदिशति? स्वस्य तत्त्वज्ञत्वादित्यभिप्रायः।वासुदेव इत्यत्रान्तर्यामित्वादिविवक्षायांसर्वत्रासौ समस्तं च वसत्यत्र [वि.पु.1।2।12] इति भेद एव व्यक्त इति भावः। वसुदेवतनयत्वाविवक्षायां तु स एव ह्यवतीर्णः।सर्वलोकमहेश्वरम् [5।29]बिभर्त्यव्यय ईश्वरः [15।17]यस्मात्क्षरमतीतोऽहम् [15।18] इत्यादिषु स्वात्मानमीश्वरत्वेनैव मन्यमानो जीवेभ्यः सर्वप्रकारवैलक्षण्यमुपदिशतीन्यभिप्रायेण परमेश्वरशब्दः। ईश्वरस्य भ्रमहेतुभूतमज्ञानं न कदाचिदप्यस्तीति तैर्वक्तुं न शक्यं? तथा सतीशितव्यप्रतिभासाभावादीश्वरत्वस्यैवासिद्धिप्रसङ्गात्? अज्ञानमन्तरेण च मिथ्याभूतभेदप्रतिभासायोगात्? परबुद्धिविषयत्वोल्लेखरूपस्य तु मिथ्यार्थप्रतिभासस्य परसद्भावसापेक्षत्वात्? तस्य च तैरनभ्युपगमात् अत ईश्वरस्यापि पूर्वमज्ञानमस्ति तच्च पश्चाज्ज्ञाननिवर्त्यमित्यभ्युपगन्तव्यम्। तच्चोपदेशदशायां भवदभिमतहेतुविशेषेण निवृत्तं? न वा इत्यभिप्रायेण विकल्पयतिकिमित्यादिना।प्रथमं शिरो दूषयितुमनुवदतिनिवृत्ताज्ञानश्चेदिति।निर्विशेषेत्यादि कारणाभावात्कार्याभाव इति भावः। अभ्युपगताधिष्ठानविशेषस्वभावादेवाध्यासो न सम्भवति? किं पुनर्दोषस्यापि निवृत्तावित्यभिप्रायेण निर्विशेषचिन्मात्रत्वोपादानम्। तथाहि सविशेष वस्तुनि कस्मिंश्चिदसाधारणाकारे तिरोहिते तद्विरुद्धाकारान्तराध्यासः ज्ञाता च कञ्चिदर्थमन्यथा मन्येत न तु ज्ञाप्तिमात्रम्।कौन्तेयादीत्यादिशब्देन जिघांसितधार्तराष्ट्रादि ग्रहणम्।उपदेशादीत्यादिशब्देन सारथ्यादेरपि सङ्ग्रहः।द्वितीयं शिरोऽनुभाषते -- अथेति। निवर्तकसाक्षात्काररहितत्वादिति भावः।न तर्हीति -- नहीन्द्रियलिङ्गशब्दादिवदज्ञत्वेऽपि परज्ञानजनकत्वं सम्भवति? उपदेशवाक्यप्रयोगस्य ज्ञानपूर्वकत्वावश्यम्भावात् अप्रमितोपदेशेऽनाप्तत्वप्रसङ्गादिति भावः। तत्त्वसाक्षात्कारवत एवाध्यात्मोपदेष्ट्टत्वे तस्यैवोक्तिं दर्शयति --,उपदेक्ष्यन्तीति।एवंशङ्करपक्षोक्तं दोषं भास्करादिपक्षेऽप्यतिदिशति -- अत इति।शङ्करमते भेदश्रुतयः सगुणश्रुतयोऽन्तर्यामिश्रुतयः प्रकृतिपुरुषनित्यत्वश्रुतयस्तथाविधाश्च स्मृत्यादयो विरुद्धा एव। अभेदश्रुत्यादयश्च मुख्यार्थपरित्यागेन निर्विशेषलक्षकतया तैरेवाभ्युपगमात् मुख्यार्थप्रतिपादकाकारेण विरुद्धाः। विषयव्यवस्थादिभिर्विरोधपरिहारे सम्भवति बाध्यबाधकभावाद्यभ्युपगमान्न्यायविरोधः। स्ववचनविरोधस्तु ब्रह्म निर्विशेषम्? एवंत्वादित्यत्र हेतुसाध्यधर्मान्वयावश्यम्भावात्।अनुभूतिरवेद्या इत्यत्रानुभूतिशब्दबोध्यत्वादेरवश्याभ्युपगन्तव्यत्वात्। एवंब्रह्म न शब्दप्रतिपाद्यम् इत्यादिष्वपि भाव्यम्। भास्करपक्षे तु भेदगोचरश्रुत्यादिभिस्तत्प्रतिपक्षमभेदमसहमानैर्विरोधो वक्तव्यः। अचितोऽपि ब्रह्मस्वरूपैक्याभ्युपगमात् निर्विकारत्वप्रतिपादकैर्विरोधः। ब्रह्मण एवोपहितस्य जीवत्वान्निर्दोषश्रुतिविरोधः। अभेदश्रुतयोऽपि प्रायशो न मुख्याः। जीवेश्वरसामानाधिकरण्येघटाकाशो महाकाशः इतिवन्निर्दिश्यमानवेषेणैक्यासिद्धेः। एवमेवाचिदीश्वरयोरपि न सामानाधिकरण्यस्वारस्यम्। सर्वज्ञत्वादिगुणगणविशिष्टस्य ब्रह्मणः सर्वतादात्म्ये सर्वदुःखप्रतिसन्धानप्रसङ्गान्निरवद्यश्रुत्यादिविरोधप्रशमनाभावेन न्यायविरोधः। यादवप्रकाशपक्षे तु स्वत एव भिन्नाभिन्नसर्वजीवत्वाभ्युपगमोऽतिशयितः। सर्वानुवृत्तसन्मात्रस्य ब्रह्मत्वाभ्युपगमात् अदृश्यत्वादिश्रुतिविरोधश्च। सत्ताया घटादिधर्मत्वेन प्रतीयमानत्वात् ब्रह्मणो जातिरूपत्वप्रसङ्ग इत्यादयो दोषा द्रष्टव्याः। अनयोः स्ववचनविरोधस्तु सप्तभङ्गीवादिनामिव भेदाभेदाभ्युपगमात्तन्मूलनिर्दोषत्वसदोषत्वसामानाधिकरण्याच्च व्यक्तः।जगन्मोहनाय प्रवर्तिता इति न तेषामभिप्रायेणोच्यते?अज्ञानिभिः इत्युक्तत्वात् अपितु तेषामन्यानां वादो दैवाज्जगन्मोहनाय जात इत्युच्यते।ननु युष्मत्पक्षेऽपि श्रुतिविरोधादिदूषणं समानम्। तथाहि यदि जगद्ब्रह्मणोरत्यन्तभेद एवाभ्युपगतः? तदा तन्नामरूपाभ्यां (एव) व्याक्रियते [बृ.उ.1।4।7] इति कारणस्यैव ब्रह्मणः कार्यनामरूपभाक्त्वश्रुतिविरोधः एकविज्ञानेन सर्वविज्ञानप्रतिज्ञाविरोधः न हि घटज्ञानेन ततोऽत्यन्तभिन्नस्य पटस्य ज्ञातृत्वं सम्भवति अत्यन्तभिन्नयोर्जगद्ब्रह्मणोः सामानाधिकरण्यं च न सम्भवति? घटपटवदेव लक्षणया निर्वाहश्चेत्परपक्षे कः प्रद्वेषः ब्रह्मोपादानत्वं च जगतो न सिद्ध्यति? मृद्धटादिवज्जगद्ब्रह्मणोरेकद्रव्यत्वानभ्युपगमात् अन्यथा सत्कार्यवादविरोधात्। यदि भिन्नैरेव प्रकृतिपुरुषेश्वरैर्जगदारम्भः? ते किमेकीभूताः कार्यमारभन्ते उत पृथगवस्थिता एव पूर्वत्र परस्परस्वभावसङ्करः परपक्षवत्प्रसक्तः उत्तरत्रापि किं पृथक्कार्यकराणि उत न पृथक्कार्यकरत्वे सर्वस्य ब्रह्मकारणत्वमभ्युपगतं पलायते एककार्यकरत्वे कार्यावस्थायां स्वभावसङ्करस्तदवस्थः यदि च ब्रह्म स्वरूपतो निर्विकारं? तदा तस्य कार्यात्मकत्ववादिनीभिः श्रुतिभिर्विरोधः। अथ सविकारत्वाभ्युपगमः? तदा परपक्षप्रसक्तनिर्विकारश्रुतिविरोधस्तदवस्थः यदि च सर्वदा सर्वज्ञत्वादिगुणगणविशिष्टमेव ब्रह्म? तदा निर्गुणश्रुतिभिः ज्ञानमात्रश्रुतिभिश्च व्याघातः सर्वदा भेदश्च यद्यभ्युपगतः तदा भेदनिषेधकश्रुतिविरोधः न्यायविरोधश्च? विधिनिषेधयोरर्थस्वभावलब्धेन पौर्वापर्येणापच्छेदवद्बाध्यबाधकभावस्यानभ्युपगमात् स्ववचनविरोधश्च? सर्वात्मकं ब्रह्म सर्वविलक्षणं चेत्यभ्युपगमात्। अतो दोषसाम्ये कस्य मतं तत्त्वं इति चोद्यमभिप्रायानभिज्ञैः परैः श्वावराहकलहन्यायेन प्रवर्तितं परिहृत्य समीचीनशारीरकन्यायानुगृहीतसर्ववेदान्तसारार्थप्रतिपादनपरतामस्य शास्त्रस्य स्थापयितुमाह -- अत्रेदं तत्त्वमिति।अत्र श्रुतिस्मृतीतिहासाद्यविरुद्धार्थगवेषणायामित्यर्थः श्रुत्यादिष्विति वा।इदं यथाप्रमाणं वक्ष्यमाणम् न तु शङ्कराद्युक्तमित्यर्थः।तत्त्वं प्रामाणिकमित्यर्थः। शङ्कितान् दोषान् परिहरिष्यन् स्वपक्षं तावत्प्रमाणतः स्थापयतिअचिद्वस्तुन इत्यादिनासत्त्यमभवदित्यन्तेन। भोग्यत्वादिकं यथाक्रमम्।भोग्यत्वेन भोक्तृत्वेन चेशितृत्वेन चेति भेदकधर्मान्तराणां उपादास्यमानश्रुतिसिद्धानामुपलक्षणम्। अनुक्तसमुच्चायार्थेन चकारेण वा तत्सङ्ग्रहः।स्वरूपविवेकं स्वरूपाणां भिन्नत्वमित्यर्थः। विवेकशब्दो भ्रमनिराकरणद्योतनार्थः। न हि भेदवादिनीनां श्रुतीनां श्रुतित्वे सर्पमृतिरित्यभिप्रायेणकाश्चन श्रुतय इत्युक्तम्। बहुवचनेन भूयसां न्यायोऽप्यविरुद्ध इति ज्ञापितम्। भेदश्रुत्यविरोधेन सामानाधिकरण्यश्रुत्यर्थं स्थापयितुं प्रथमं भेदश्रुत्युपादानम्।अस्मादित्यनेन साक्षाद्विकाराश्रयत्वमचिद्द्रव्यस्येति सिद्धम् अन्यो मायया सन्निरुद्धः [श्वे.उ.4।9] इत्यनेनोपहितस्य ब्रह्मण एव जीवत्वमित्यादिप्रलापा निर्मूलिताः। नह्यत्र मायया सन्निरोधादन्यत्वमुच्यते अपितु अन्यस्यैव सतो मायया सन्निरोधः। सन्निरुद्धः स्वाभाविकसर्वज्ञत्वनिरतिशयानन्दाद्याविर्भावरहित इत्यर्थः। पराभिमतो मायाशब्दार्थः श्रुत्यैव प्रतिक्षिप्त इति दर्शयितुमाहमायां त्विति।क्षरम् इत्यादौ हरशब्दस्योत्तरपदान्वयेन कुदृष्ट्युन्नीतयोजनान्तरप्रतिक्षेपार्थमाहअमृताक्षरं हर इति भोक्ता निर्विश्यत इति। रुद्रे रूढस्य कथं भोक्तृमात्रसाधारण्यमित्यत्राह -- प्रधानमिति।हरतीति हरः इत्येतावन्निर्वचनम् शेषमर्थसिद्धकथनम्। अयमभिप्रायः -- यदि हरशब्दोदेव एकः इत्यनेनान्वीयते? तदाअमृताक्षरम् इत्यस्य विधेयत्वं न स्यात् अथअमृताक्षरम् इत्यसमस्तं लुप्तविभक्तिकं उद्देश्योपादेयपरमुच्येत? तदा विभक्तिलोपक्लेशो व्युत्क्रमेणोद्देश्योपादेयनिर्देशश्च स्यात्। न चात्र क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या [श्वे.उ.5।1] इतिवदमृतशब्द एवोद्देश्यपरः? क्षराक्षरशब्दयोरेव मिथःप्रतिरूपत्वात्। ऋक्षु च पादभेदेनार्थव्यवस्था सम्भवन्ती न परित्याज्या। एवं क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः इति वाक्यान्तरशैली चानुसृता स्यात्। अन्यथा व्यवहितान्वयश्च। नचदेव एकः इत्यत्र विशेषाकाङ्क्षास्ति। तावता च माहात्म्यमतिशयेन व्यज्यते।क्षरात्मानौ इति पुल्लिङ्गान्तानुवादश्च तल्लिङ्गनिर्दिष्टविषयतायां स्वरसः। शब्दान्तरेणानुवादस्तु पक्षद्वयेऽपि समः। अस्मत्पक्षे तु हरशब्दस्यात्मजातिविषयत्वज्ञापनार्थतया सप्रयोजनश्च।अमृताक्षरम् इति सविशेषणनिर्देशोऽपि तत्स्वभावविशेषज्ञापनेन सार्थः। एवं हरशब्दस्यात्र प्रधानसहपठितपुरुषतत्त्वविषयत्वे अवश्यम्भाविनि लक्षणादेश्चासम्भवे श्रुत्यन्तरस्वप्रकरणादिविरुद्धरूढिपरित्यागेन यौगिकार्थपरत्वमैन्द्र्यादिन्यायेनाङ्गीकार्यमिति। क्षेत्रज्ञश्वरयोः सर्वज्ञत्वकिञ्चिज्ज्ञत्वनियन्तृत्वनियाम्यत्वरूपं भेदं द्वयोरप्यजत्वं च द्विशब्देनैव सङ्ख्यया वदन्तीं श्रुतिं दर्शयति -- ज्ञाज्ञाविति। सुषुप्तिमरणमूर्च्छाप्रलयेषु क्षेत्रज्ञस्यात्यन्ताज्ञत्वम् जागरस्वप्नयोरपि ज्ञानं कतिपयविषयम्? अज्ञानं त्वनन्तगोचरम्। ईश्वरात्पृथग्भूतानामेव जीवानां नित्यत्वं बहुत्वं जीवेश्वरयोश्चैतन्याश्रयत्वमीश्वरस्य चाद्वितीयत्वं सकलफलप्रदत्वं चनित्यो नित्यानाम् इति श्रुत्या सिद्धम्। स्वशब्दादेव भेदस्य वेद्यत्ववादिनीं भेदज्ञानपूर्वकपरमात्मप्रीतिविषयत्वेन मोक्षं च प्रतिपादयन्तीं श्रुतिमाह -- पृथगिति। जीवेश्वरयोरेकशरीरानुप्रविष्टयोरेव कर्मफलभोक्तृत्वाभोक्तृत्वरूपवैधर्म्यपरं वाक्यमाहतयोरन्य इति। तयोरन्यः तयोरेक इत्यर्थः।स्वाद्वत्तीति पुण्यफलोदाहरणमुपलक्षणार्थम्। अभिचाकशीति अभितोऽधिकं प्रकाशते। तादृशजीवनियन्तृत्वलक्षणोऽतिशय एव तदानीमपि सिध्यति न तु ज्ञानसङ्कोचादीत्युक्तं भवति। सत्त्वरजस्तमोमय्याः प्रकृतेः पुरुषस्य च अजत्वं? प्रकृतेः पुरुषकर्मानुरूपपरिणामविशेषभाक्त्वेनाध्यासप्रसङ्गराहित्यं? बद्धमुक्तव्यवस्था मुक्तदशायामपि प्रकृतेर्विश्लेषमात्रं च ज्ञापयति -- अजामिति। उक्तश्रुत्युपबृंहणायास्मिन्नेव प्रतिपादितं नित्यं प्रकृतिपुरुषेश्वरभेदं दर्शयति -- अत्राप्यहङ्कार इतीति।मे प्रकृतिरिति व्यधिकरणनिर्देशादीश्वरात्प्रकृतिपुरुषयोर्भेदः सिद्धः।इतस्त्वन्याम् इत्यनेन प्रधानात्पुरुषस्य भेदः। सृष्टिप्रलययोरध्यासतन्निवृत्तिरूपत्वव्युदासाय परमात्मशरीरभूतप्रकृत्यविभागविभागरूपत्वमाहसर्वभूतानीति। अत्रापिमामिकाम् इत्यादिभिर्भेदः स्फुटः। प्रधानपुरुषयोश्चराचराद्यवस्थापत्तेः परमात्मभ्रममूलत्वव्युदासाय तदधिष्ठानमूलतामाह -- मयेति। जीवानामध्यासाधीनसिद्धित्वव्युदासाय प्रकृतिपुरुषयोरविशेषेणानादित्वं दर्शयति -- प्रकृतिं पुरुषं चेति। प्रकृतेरेव साक्षात्परिणामाश्रयत्वं? सृष्ट्यौपयिकप्रकृतिपुरुषसंसर्गविशेषस्य परमात्मसङ्कल्पाधीनत्वं तत एव जगत्सृष्टिम् एवंप्रकारेण त्रयाणामन्योन्यभेदं चोदाहरति -- मम योनिरिति। जगदपेक्षया योनित्वं? जगत्स्रष्टुरधिष्ठातृतया सम्बन्धः तदाह -- जगद्योनीति। मुख्यब्रह्मणो ममेति व्यधिकरणनिर्देशाद्योनित्वसामर्थ्याच्च ब्रह्मशब्दोपचरितमाह -- प्रकृत्याख्यमिति। चिन्मिश्रभूतोत्पत्तिहेतुतया प्रकृत्याधेयतया च सिद्धं गर्भशब्दार्थमाह -- चेतनाख्यमिति।दधामि इत्याधानं विवक्षितमित्याह -- संयोजयामीति। विस्तरोऽस्य स्थाने भविष्यति। एवं बहुषु प्रदेशेषु प्रकृतिपुरुषजगत्सृष्ट्यादिप्रतिपादनदशायां जीवाध्यासजगन्मिथ्यात्वादिसूचकं न किञ्चिद्दृश्यत इत्यभिप्रायः।एवं चिदचिदीश्वराणां स्वरूपभेदः काणादप्रभृतिभिरभ्युपगत इति ततो विशेषं घटकश्रुतिसिद्धं शरीरात्मभावं सामानाधिकरण्यमुख्यत्वसिद्ध्यर्थमाह -- एवमिति।भोक्ित्रति -- एकीभावावस्थायामपि शरीरत्वं यस्य तमः शरीरम् [बृ.उ.3।7।13] यस्य मृत्युः शरीरम् [सुबालो.7] इत्यादिभिः सिद्धमिति ज्ञापनायसर्वावस्थावस्थितयोरित्युक्तम्। प्रत्यक्षाद्यप्राप्तस्य जगद्ब्रह्मणोः शरीरात्मभावस्य तत्त्वोपदेशतत्परानेकश्रुतिसिद्धत्वान्न तत्परित्यागः शङ्क्यः। तदनुगुणतया च शरीरलक्षणमनुसन्धेयमिति भावः। अन्तर्यामिब्राह्मणे सर्वावस्थप्रकृतिपुरुषयोरविशेषेण परमात्मशरीरत्वं दर्शयतियः पृथिव्यामिति। इममेवार्थमीषदावापोद्वापभेदेन प्रतिपादयन्त्या सुबालोपनिषदाऽन्तर्यामिब्राह्मणोक्तमपहतपाप्मत्वादिगुणयोगमद्वितीयत्वं नारायणत्वं च विशदयतियः पृथिवीमिति। अत्र मृत्युशब्दस्य स्थानप्रमाणन अतिसूक्ष्मदशापन्नमूलप्रकृतिविषयत्वमाहअत्रेति। अत्र अक्षरपर्यायादनन्तरे पर्याये इत्यर्थः। तेजःप्रतिद्वन्द्वितमोव्युदासायसूक्ष्मावस्थमचिद्वस्त्वित्युक्तम्।अस्यामेवेत्यनेन शीघ्रप्रत्यभिज्ञानं सूचितम्। आत्मलक्षणपूर्वकमात्मत्वं दर्शयत्तैत्तिरीयकवाक्यमाह -- अन्तःप्रविष्ट इति। नृपनभोव्यावर्तकाभ्यामन्तःप्रवेशनियमनाभ्यां शरीरित्वसिद्धिः। उक्तभेदश्रुतिघटकश्रुत्यनुसारेण सामानाधिकरण्यश्रुतीनामर्थं मुख्यमेवाहएवं सर्वावस्थेति। अत्रोभयावस्थपरमपुरुषप्रकारद्रव्यैक्यं सामानाधिकरण्यश्रुतीनां विवक्षितमित्यर्थः।इममर्थं ज्ञापयितुमिति न पुनः श्रुत्यन्तरस्वप्रकरणस्ववचनप्रत्यक्षादिविरुद्धं ज्ञापयितुमित्यर्थः।छान्दोग्यवदेव सामानाधिकरण्यं तस्य च चेतनांशेऽप्यनुप्रवेशपूर्वकत्वं तैत्तिरीयके दर्शयतितथेति।स तपोऽतप्यत? आलोचनमकरोदित्यर्थः। तपसा चीयते ब्रह्म इति प्रकरणे यस्य ज्ञानमयं तपः [मुं.उ.1।1।8?9] इति व्याख्यानात्। न केवलं प्रकरणान्तरगतैर्घटकवाक्यैर्भेदाभेदश्रुत्यविरोधः? अपितु स्वप्रकरणस्थैरपीत्याहअत्रापीति। समानाधिकरणनिर्देशवतोः छान्दोग्यतैत्तिरीयकप्रकरणयोरित्यर्थः। जीवेनात्मना जीवेन मयेत्यर्थः।सिंहेन भूत्वा बहवो मयात्ता व्याघ्रेण भूत्वा बहवो मयात्ताः। तथाऽन्यरूपैर्बहवो मयात्ताः सम्भक्षितोऽहं बहुभिस्तथैव।।[वि.ध.98।17] इतिवत्।तिस्रो देवताः अनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य इत्यचिदनुप्रवेशो व्यक्तः। जीवे तु सामानाधिकरण्यमात्रम् तदनुप्रवेशकृतमिति तैत्तिरीयके व्यक्तमित्यभिप्रायेणाहतत्सृष्ट्वेति। एवं जीवशरीरकपरमात्मानुप्रवेशान्नामरूपव्याकरणं नाम्रां च परमपुरुषपर्यन्तत्वं? तत एव सामानाधिकरण्यमुख्यत्वं च सिद्धम्। एतदैकरस्यात्सर्वशाखाप्रत्ययन्यायेन चिदचिदनुप्रवेशोक्तिरहितप्रकरणान्तरेष्वपि नामरूपव्याकरणवचनमेवंप्रकारप्रवेशाभिप्रायपूर्वकमेवेत्याह -- एवम्भूतमेवेति। इत आरभ्य प्रागुक्तचोद्यानां क्रमेण परिहारः। तथाहि कारणविज्ञानेन कार्यस्य ज्ञातत्वं नाम कार्यशब्दनिर्दिष्टस्य द्रव्यस्य कारणविज्ञानेन विषयीकृतत्वम्। पूर्वमासीनं देवदत्तं दृष्ट्वा तमेव गच्छन्तमप्यवलोक्यअसौ पूर्वमेव दृष्टः इति हि वदति अतः कार्यावस्थायाः पूर्वमज्ञातत्वेऽपि नास्य व्यवहारस्यामुख्यत्वमित्यभिप्रायेणाहअतः कार्यावस्थ इति। परपक्षे त्वेतदनुपपन्नतरमिति चाभिप्रेतम्। तथाहि -- एकनिर्विशेषविज्ञानेन सर्वस्य ज्ञातत्वमित्यत्र ज्ञातव्यसर्वशब्दार्थाभावात्? सत्यमिथ्यार्थैक्यप्रसङ्गादिभिश्च सर्वस्य ज्ञातत्वमित्येतन्न घटते सर्वस्य मिथ्यात्वेन ज्ञातत्वमिति योजनायामध्याहारादिदोषः अविद्याविशिष्टैकब्रह्मविज्ञानेन तत्कार्यप्रपञ्चविज्ञानमिति विवक्षायामदूरविप्रकर्षेणास्मत्पक्ष एवानुप्रवेशः सर्वप्रमाणसङ्क्षोभस्त्वधिकः एवमेव पक्षान्तरयोरपि सूक्ष्माचिच्छक्तिवैशिष्टयस्य दुष्परिहरत्वाद्विशिष्टैक्यविज्ञाने तत्कार्यविज्ञानमित्येव निर्वाह्यम् तथाच निर्विकारनिर्दोषश्रुत्यविरुद्धोऽस्मत्पक्ष एवोपपन्नतरः -- इति।परपक्षे सामानाधिकरण्यस्य लाक्षणिकत्वं तैरेवाभ्युपगतमिति न किञ्चित्तत्र वक्तव्यमिति कृत्वा स्वपक्षे तन्मुख्यत्वमुपपादयति -- अहमिमा इति। प्रकरणान्तराधीतानामपि तत्त्वानां सङ्कुचिताभिधानप्रकरणेऽपि शाखान्तरनयेन समाहारमभिप्रेत्याह -- तिस्रो देवता इति सर्वमचिद्वस्तु निर्दिश्येति। जगद्ब्रह्मणोः स्वरूपतोऽत्यन्तभेदेऽपि विशिष्टवेषेण कार्यकारणयोरेकद्रव्यत्वसिद्धेर्जगतो ब्रह्मोपादानत्वं युज्यत इत्याह -- अतः स्थूलेति। सामानाधिकरण्यव्यपदेशस्य मुख्यत्वादित्यर्थः। सत्कार्यवादाविरोधश्च सिद्ध इत्यभिप्रायः उपादानावस्थायामैक्यापत्त्या प्रसक्तं स्वभावसङ्करं परिहरति -- सूक्ष्मेति। बालस्य युवत्वापत्तौ बालशरीरस्य तदभिमानिचेतनस्य च यथा स्वभावसङ्करो नास्ति? तद्वदत्रापीत्यभिप्रायेण -- सङ्घातस्योपादानत्वेनेत्युक्तम्। एककारणारम्भात् कार्यदशायां प्रसक्तसङ्करं निरस्यतियथा शुक्लेति।ननु शुक्लकृष्णरक्ततन्तूपात्तस्य पटस्य न केनचिच्छुक्लेन कृष्णेन रक्तेन वा तन्तुविशेषेण विशेषतः सामानाधिकरण्यं दृश्यतेतन्तवः पटाः इति तु कथञ्चिदुच्येत अतोऽत्रापि प्रकृतिपुरुषेश्वररूपसङ्घातोपात्तस्य जगत ईश्वरेण विशेषतः सामानाधिकरण्यं न स्यादित्यत्राहतन्तूनामिति।अयमभिप्रायः -- न सर्वप्रकारसाधर्म्यमभिप्रेत्य तन्तुपटदृष्टान्तः अपितु स्वरूपतोऽत्यन्तभिन्नानां सम्भूय कार्यदशायामपि स्वभावासङ्करमात्रमभिप्रेत्य सामानाधिकरण्यं तु यत्र,शब्दानामेकविशेष्यपर्यवसानहेतुभूतप्रकारप्रकारिभावोऽस्ति? तत्र स्यात् नान्यत्रेति विशेषः। कस्तर्हि विशेषः इत्यत्रोपजीव्यांशमाहस्वभावेति।उपादानत्वेन कार्यभावेऽपि निर्विकार श्रुत्यविरोधमाह -- एवं च सतीति। एवंविशिष्टस्योपादान त्वात् सर्वदैवासङ्कीर्णस्वभावत्वाच्चेत्यर्थः। निर्विकारश्रुतिस्तु स्वरूपविषया उपादानत्वकार्यत्वश्रुतिर्विशिष्टविषयेति नानयोः परस्परविरोधः। स्वरूपपरिणामपक्षे तु निर्विकारश्रुतेर्न कश्चिद्विषय इति भावः। नहि वयं स्वरूपैकदेशेऽपि विकारं ब्रूम इत्यभिप्रायेणउपपन्नतरमित्युक्तम्। अविकृतस्य कार्यत्व प्रकारमाहस्थूलावस्थस्येति।आत्मतयाऽवस्थानादिति तदातनतत्तन्नियमनधारणावस्थाविशेष एव हि कार्यत्वम् कार्यशब्दोऽत्र नामरूपव्याकरणस्य अन्तर्यामिपर्यन्तत्वश्रुतेस्तत्पर्यन्त इति तस्य मुख्यत्वमिति भावः। तथापि प्राप्ताप्राप्तविवेकेन विशेषणस्यैव कार्यत्वमिति चोद्यं परिहरतिअवस्येति। विशेषणानामवस्थान्तरापत्तौ तदवस्थतत्तन्नियमनविशिष्टत्वलक्षणावस्थान्तरापत्तिर्विशेष्येऽप्यस्तीति भावः। उत्सर्गापवादन्यायेन सगुणश्रुत्यविरोधाय निर्गुणवादानां विषयं व्यवस्थापयति -- निर्गुणवादाश्चेति। एवं व्यवस्थापितं विषयभेदमेकस्मिन्नेव वाक्ये श्रुतिरेव दर्शयतीत्याह -- अपहतेति। अवधारणेन न्यायनैरपेक्ष्यं सूचितम्।आर्थगुणनिषेधं परिहरति -- ज्ञानस्वरूपमिति।सर्वज्ञस्य सर्वशक्तेरित्यादिकं श्रुत्यन्तरसिद्धाविरोधार्थम्।ज्ञानैकनिरूपणीयमिति स्वरूपनिरूपणधर्मशब्दा हि धर्ममुखेन धर्मिणमपि प्रतिपादयन्तीति भावः। सूत्रितं चतद्गुणसारत्वात्तु तद्व्यपदेशः प्राज्ञवत् [ब्र.सू.2।3।29]यावदात्मभावित्वाच्च न दोषस्तद्दर्शनात् [ब्र.सू.2।3।30] इति। अनुक्तसमुच्चयार्थेन सौत्रचकारेण द्योतितं वृत्त्यन्तरमभिप्रेत्याह -- स्वप्रकाशतया ज्ञानस्वरूपं चेति। धर्मभूत ज्ञानवज्ज्ञानशब्दप्रवृत्तिनिमित्तयोगोऽप्यस्तीति भावः। निर्विशेषवादिनो ज्ञातृत्वं परित्यजन्ति वैशेषिकादयस्तु ज्ञानत्वम् उभयेषामपि श्रुतिविरोधमभिप्रेत्य स्वपक्षे तदानुगुण्यमाह -- यः सर्वज्ञ इति। भेदनिषेधकवाक्यानां भेदविधायकवाक्याविरुद्धं विषयमाहसोऽकामयतेति। ब्रह्मगुणविभूतिरूपभेदस्य विहितत्वात्तन्निषेधो न शक्य इति भावः।पराभिमतं श्रुतिविरोधेन प्रतिक्षिपति -- न पुनरिति।यत्र त्वस्य इत्यादेरब्रह्मात्मकनानात्वनिषेधे तात्पर्यं श्रुत्यैव ह्युक्तमित्याह -- निषेधवाक्यारम्भ इति। अन्यथोपक्रमविरोध इति भावः।तत्स्थापितमिति -- बहु स्याम् इत्यादिश्रुत्यन्तरसिद्धं वक्ष्यमाणनिषेधानास्कन्दितत्वेनासञ्जातविरोधदशायां स्थापितमित्यर्थः।अथ स्वपक्षे सर्वप्रकाराविरोधं परपक्षेषु च सर्वप्रकारविरोधं श्रुतहानाश्रुतकल्पनादिरूपं सङ्ग्रहेण वदन्नुपसंहरति -- एवमिति।श्रुतिमिरेवेति -- न्यायेऽपि नात्यन्तापेक्षा स्फुटतरत्वदिस्यार्थस्येति भावः।अन्यस्यापीति -- यादवप्रकाशनैयायिकाद्यभिमतयोजनासङ्ग्रहः।अपन्यायमूलस्य सकलश्रुतिविरुद्धस्येत्युभयं ब्रह्माज्ञानवादिषु सर्वेषु नेतव्यम्।
।।13.3।।अथाऽर्जुनज्ञानार्थं स्वमते यथा तत्स्वरूपमस्ति तथाऽऽह -- क्षेत्रज्ञमिति। क्षेत्रज्ञं बीजम्। अपिशब्देनाणुरूपमपि मां मदंशं रसानुभवार्थं सर्वक्षेत्रेषु चकारेण मद्रूपेषु स्थितं विद्धि जानीहि। भारतेति सम्बोधनं विश्वासार्थम्। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्मदंशत्वेन लीलार्थत्वेन यज्ज्ञानं तत् मम मतं सम्मतमित्यर्थः। एतद्विपरीतं देहादीनां कर्मादिजन्यत्वं तज्ज्ञानवत्त्वं जीवस्य क्षेत्रज्ञत्वं असम्बद्धमित्यर्थः स्वमतोक्त्या ज्ञापितः।
।।13.3।।तमेवंलक्षणमुपाधितो निष्कृष्टं क्षेत्रज्ञं चात्क्षेत्रमपि मां परमेश्वरमेवोभयरूपेण सन्तं विद्धि।तत्त्वमस्यहं ब्रह्मास्मि ब्रह्मैवेदं सर्वं सर्वं खल्विदं ब्रह्म इति शास्त्रात्। यस्मादुभयात्माहं तस्मात्क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्यज्ज्ञानं क्षेत्रस्य बाध्यत्वेन क्षेत्रज्ञस्य सर्वबाधावधिभूतत्वेन च यज्ज्ञानमापरोक्ष्येण तत्त्वनिश्चयस्तदेव ज्ञानं मम मद्विषयं सम्यग्ज्ञानं एतयोरेव ज्ञानं ब्रह्मज्ञानमिति मतं निश्चितं ब्रह्मविद्भिःनेह नानास्ति किंचन इति क्षेत्रस्य बाधात्नान्योतोऽस्ति द्रष्टा इति क्षेत्रज्ञादन्यस्य द्रष्टुर्निषेधाच्च। यद्यपि सर्वस्य ब्रह्माभिन्नत्वाद्यत्किञ्चिदपि ज्ञानं तत्सर्वं ब्रह्मविषयमेव भवति। तथापि रज्जुं सर्पात्मना पश्यतो न तु रज्जुविषयं सर्पविषयं वा सम्यग्ज्ञानमस्ति। नापि तस्य ज्ञानस्य रज्जुव्यतिरेकेण विषयान्तरं वास्तवमस्ति। किंतु यदा सर्पबाधेन रज्जुतत्त्वमधिगच्छति तदैव सर्पं मिथ्यायमिति सम्यग्जानाति रज्जुं च। तद्वदिहाप्युभयविदेव सम्यग्ज्ञानीत्यर्थः। नह्यन्यतरस्य तत्त्वे ज्ञाते कृतकृत्यतास्ति। न हि सांख्यो निर्विशेषात्मविदपि प्रपञ्चमबाधमानः शून्यवादी वा प्रपञ्चं तुच्छत्वेन पश्यन्नधिष्ठानं ब्रह्म नास्तीति ब्रुवाणः कृतकृत्यो भवतीति वक्तुं युक्तम्। अतो द्वयोरपि तत्त्वं बोध्यमेव।
।।13.3।।एवं दृश्यानां दुःखादीनामनात्मधर्मत्वसिद्धये द्रष्टारं शरीराद्य्वतिरिक्तं प्रदर्श्य किमेतावन्मात्रेण ज्ञानेन ज्ञातव्यौ एतावन्मात्रेणऐव ज्ञानेन मोक्षस्य सांख्याभिमतत्वादित्याशङ्कानिरासायात्मनः सर्वदेहेष्वैक्योक्तिपूर्वकं स्वेन परमार्तेनाक्षरेण परब्रह्मणा भेदं दर्शयति -- क्षेत्रज्ञं चापीति। क्षेत्रज्ञं क्षेत्रज्ञातारं दृश्यात्क्षेत्राच्छरीरान्निष्कृष्टं द्रष्टारम्। चापीति निपातौ जीवस्याक्षरत्वज्ञानस्य शरीरादन्यत्वाज्ञानेन समुच्चायार्थौ भिन्नकमौ। न सांख्यवद्दृश्यादन्यमेव क्षेत्रज्ञं विद्धि जानीहि किंतु मां मदभिन्नं चापि क्षेत्रज्ञं विद्धीति संबन्धः। यद्वा चकारः क्षेत्रज्ञज्ञानं समुच्चिनोति। अपिरेवार्थः। सर्वक्षेत्रेषु द्रष्टारं क्षेत्रज्ञमन्यं विद्धि तं च मामसंसारिणं परमेश्वरमेव विद्धीत्यर्थः। सर्वक्षेत्रेषु यः क्षेत्रेज्ञः ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानेकक्षेत्रोपाधिप्रविभक्तस्तं निरस्तसमस्तोपाधिमेदं सदसदादिशब्दप्रत्ययागोचरं मां विद्धीत्यभिप्रायः। यथा भरतवंशोद्भवत्वाद्भारतस्त्वं तथा मयि कल्पितः क्षेत्रज्ञोऽहमेवेति ध्वनयन्संबोधयति -- भारतेति। उत्तमवंश्यत्वादेतज्ज्ञातुं योग्योऽसीति वा संबोधनाशयः। नन्वेतत्किमर्थं ज्ञातव्यमित्यपेक्षायां मोक्षानन्यसाधनसम्यग्ज्ञानत्वेन मदभिप्रेतत्वादित्याह -- क्षेत्रेति। यस्माद्दृश्यद्रष्टृप्रत्यगभिन्नपरमात्मयाथात्म्यव्यतिरेकेण ज्ञानगोचरस्यावशिष्टस्यान्यस्यासत्वात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञेयभूतयोर्यज्ज्ञानं क्षेत्रमात्मनि कल्पितं दृश्यं क्षेत्रज्ञश्च परमेश्वराभिन्नः प्रत्यगात्मा तौ क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ येन ज्ञानेन गोचरीक्रियेते तज्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमिति मम वासुदेवस्य परमेश्वरस्य विष्णोः शास्त्रयोनेभिप्रेतमित्यर्थः। ननु जीवेश्वरयोरेकत्वे सर्वक्षेत्रेष्वेक ईश्वरो नान्यस्तद्य्वतिरिक्तो भोक्तेति जीवस्येश्वरेन्तर्भावो न वक्तुं शक्यः। संसारालम्बनस्य जीवस्येश्वरादन्यस्याभावे संसारस्य निरालम्बनत्वानुपपत्त्या परस्यैव संसारित्वप्रसङ्गात्। संसाररिणि जीवे ईश्वरस्यान्तर्भावोऽपि न शक्यते वक्तुम्। संसारिणोऽन्यस्याभावात् तस्य चापहतपाप्मत्वादिगुणकस्य विपरीतगुणकत्वेन ग्रहणानुपत्त्या संसारित्वस्यानिष्टत्वेन संसाराभावप्रसङ्गात्। नच प्रसङ्गद्वयमपीष्टमिति वाच्यम्। संसारभावेतयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति इत्यादिबन्धशास्त्रस्य,तद्धेतुकर्मविषयककर्मकाण्डस्य चानर्थक्यापत्तेः ईश्वराश्रिते च संसारेअनश्रन्नन्यो अभिचाकशीत इतीश्वरासंसारित्वबोधकस्य शास्त्रस्य मोक्षतद्धेतुज्ञानप्रतिपादकस्य च ज्ञानकाण्डस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गाच्च। किचं प्रत्यक्षादिविरोधादपि संसारभावप्रसङ्गस्यानिष्टत्वं सुखदुःखतद्धेतुलक्षणस्य संसारस्य प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानत्वात्। संसारः विचित्रहेतुकः विचित्रकार्यत्वात् प्रासादादिवदित्यनुमानाच्च संसाराभावप्रसङ्गस्यानिष्टत्वं तस्मादात्मेश्वरैकत्वमनुपपत्तिग्रस्तत्वान्न युक्तम्। अपिच जीवेश्वरयोरैक्यमेव न संभवति परोक्षापरोक्षत्वादिविरुद्धधर्मवत्त्वात् ईश्वराद्भिन्नोऽहं कर्ता भोक्ता चेति सर्वप्रमाणोपजीव्येन ज्येष्ठेन प्रत्यक्षेण गहीतस्य प्रत्ययस्य वाक्यप्रमाणजन्यज्ञानेन बाधायोगाच्च। तस्मात्क्षेत्रज्ञं तापि मां विद्धीत्यादिवदतो भगवतो नात्मेश्वरैकत्वबोधने तात्पर्यं किंतु प्रतिमादिषु विष्ण्वादिदर्शनमिव क्षेत्रज्ञे मद्दृष्टिर्विधेयेति चेन्न। ज्ञानाज्ञानयोः स्वरुपतः फलतश्चान्यत्वोपपत्त्या जीवेश्वरयोरैक्येऽप्यज्ञानकृतं संसारित्वं ज्ञानकृतमसंसारित्वमिति विभागेनानुपपत्त्यभावात् विरुद्धधर्माणां ब्रह्मण्यध्यस्तत्वात् शुद्धचैतन्ययोरभेदस्याविरुद्धत्वाच्च। तथा चदूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता। विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवो लोलुपन्तः। श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ संपरीत्य विविनक्ति धीरः। श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमादृणीते इति श्रुतिभ्यां स्वरुपतः फलतश्च विलक्षणत्वेन विद्याविद्ये निर्दिष्टे। दूरं दूरेण महातन्तरेण विपरीते विवेकाविवेकात्मत्वात् तमःप्रकाशवत्परस्परव्यावृत्तात्मिके विषूची विषूच्यौ नानागती बन्धमोक्षहेतुत्वाद्भिन्नफले। के ते इत्यत आह। अविद्या या च विद्येति। ज्ञातागता पण्डितैस्तत्र विद्याभीप्सितं विद्यार्थिनं नचिकेतसं त्वा त्वामहं मन्ये। यस्मादाविद्वद्विप्रलोभनः कामा अप्सरःप्रभृतयो बहवोऽपि त्वां न लोलुपन्तः श्रेयोमार्गाद्विच्छेदं न कृतवन्तः साधनतः फलतश्च मन्दबुद्धीनां दुर्विवेकरुपत्वात्। व्यामिश्रीभूते इव श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यं आ इतः प्राप्नुतः। अतो हंस इवाम्भसः पयस्तौ श्रेयःप्रेयः पदार्थौ संपरीत्य सम्यक् परिगम्य मनसालोक्य धीरो धीमान् गुरुलाघवं विवनक्ति पृथक्करोति विविच्य च धीरः श्रेयो हि श्रेयो मोक्षलक्षणमेवाभिवृणीते प्रेयसोऽम्यर्हितत्वात्। यस्तु मन्दोऽल्पबुद्धिः सदसद्विवेकासामर्थ्याद्योगक्षेमात् योगक्षेमनिमित्तं शरीराद्युपचयरक्षणनिमित्तं प्रेयः पशुपुत्रादिलक्षणं वृणीते इति श्रुत्योरर्थः। किंचद्वाविमावथ पन्थानौ इत्यादिवदता वेदव्यासेनात्र च निष्ठाद्वयं दर्शयता भगवता ते विलक्षणोऽभिहिते। अत्राविद्या च संसारहेतुभूता सहकार्येण मोक्षहेतुभूतया विद्यया हातव्येति श्रुतिस्मृतिन्यायेभ्योऽवगम्यते। तथाच श्रुतयःइह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति नचेदिहावेदीन्महती विनष्टिःतमेवं विद्वानमृत इह भवतितमेव विदत्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनायविद्वान्न विबेति कुतश्चनउदरमन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवतिमृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यतिअविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितंमन्यमानाः। दंद्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाःअसूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये केचात्महनो जनाःतरति शोकमात्मवित्ब्रह्माविदाप्नोति परम्ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवतिअन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न सवेद यथा गशुरेव स देवानाम्आत्मवित् यः स इदं सर्वं भवतिभिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति इत्याद्याः सहस्त्रशः। स्मृतयश्चअज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवःअन्यथा सन्तमात्मानं योऽन्यथा प्रतिद्यते। किं तेन न कुतं पापं चौरेणात्मापहारिणाज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परं। इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। समं पश्यन्हि सर्वत्र इत्याद्याः अनर्थनिवृत्तिर्ज्ञानफलमनर्थप्राप्तिरज्ञानफलमित्येतदन्वयव्यतिरेकन्यायादपि सिध्यति। तदुक्तं पुरोणेसर्पान्कुशाग्राणि तथोदपानं ज्ञात्वा मनुष्याः परिवर्जयन्ति। अज्ञानतस्तं च पतन्ति केचिज्ज्ञाने फलं पश्य यथा विशिष्टम् इति। इह जीवदवस्थायाम्। चेच्छब्देन विद्योदयतौर्लम्यं द्योत्यते। अवेदीदहं ब्रह्मेति ज्ञातवान्। अथ ज्ञानानन्तरमेव सत्यमवितथमबाध्यं कैवल्यमस्ति स्यात्। नचेदिहावेदीत् इह चेन्न विजानीयात् तर्हि महती विनष्टिः जन्ममरणादिल क्षणा संसृतिरस्ति। तमेव परमात्मानमेव विदत्वा ज्ञात्वा विदत्वैवेति वा अतिमृत्युमेति मृत्युमत्येति अतिक्रामति मुच्यते। अयनाय मोक्षाय। उदरमत्यल्पमपि। अविद्यायामन्तरे मध्ये धनीभूत इव तमसि वर्तमानाः पुत्रधनादितृष्णापशशतैरावेष्ठ्यमानाः स्वयं धीरा धीमन्तो नत्वन्यैर्धीरत्वेनाभिमता अपण्डितमात्मानं पण्डितं शास्त्रकुशलं मन्यमाना ये एतादृशास्ते दंद्रम्यमाणा अत्यन्तं कुटिलामनेकुरुपां गतिं गच्छन्तः परियन्ति जरामरणादिदुःखे परिगच्छन्ति। यतो मूढा अविवेकिनः। तत्र दृष्टान्तः। अन्धेनैव दृष्टिहीनेनैव विषमे पथि नीयमाना यथान्धाः महान्तमनर्थं प्राप्नवन्ति तद्वदिति कठिनश्रुत्यक्षरार्थः। तथाच देहेन्द्रियाद्यनात्मसु आत्मबुद्धिमतोऽज्ञस्य रागद्वेषादिप्रयुक्तस्य धर्माधर्मानुष्ठानकर्तुः जन्ममरणादिलक्षणसंसारभाक्त्वं देहेन्द्रियादिव्यतिरिक्तात्मदर्शिनो रागद्वेषादिप्रहाणापेक्षधर्माधर्मप्रवृत्त्युपशमात् मोक्षभाक्त्वं श्रतिस्मृतिन्यायादवगतं न केनचित् वादिना कयाचिदपि युक्त्या वारयितुं शक्यम्। एवंचोक्तप्रकारेण ज्ञानाज्ञानयोः स्वरुपतः कार्यतश्च भेदे सति वस्तुतः क्षेत्रज्ञस्यैवेश्वरस्य सतोऽविद्याकृतबुद्य्धाद्युपाधिमेदात्संसारित्वमाविद्यकमाभासरुपं प्रातिभासिकं सिध्यति। यथा पुरःस्थिते वस्तुतः स्थाणावविद्याकृतेऽतस्मिंस्तद्वुद्धिलक्षणे पुरुष इति निश्चये जातेपि पुरुषधर्मः शिरःपाण्यादिमत्त्वं न स्थाणोर्भवति तद्धर्मो वक्रत्वादिमत्त्वं वा न पुरुषस्य दृश्यते। तथा देहाद्यनात्मस्वात्मभावनिश्चयेऽविद्याकृते सर्वजन्तुप्रसिद्धे जाते न चैतन्यं देहादिधर्मो देहादेर्धर्मो न वा जाड्यजरामरणादिचैतन्यस्य। ननु जाड्यादेरनात्मधर्मत्वेऽपि सुखादेरात्मधर्मत्वं किं न,स्यादितिचेन्न।कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्नीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मनएव इति श्रुत्या विमतं सुखदुःखमोहात्मकत्वादिरात्मनो धर्मो न भवति। अविद्याकृतत्वाविशेषात् जराभृत्युवदिति युक्त्या च सुखदुःखादीनामनात्मधर्मत्वसिद्धेः। ननु स्थाणुपुरुषयोर्ज्ञेययोरेव सतोर्ज्ञात्राऽविद्ययान्योन्यस्मिन्नध्यस्तत्वोद्देहात्मनोस्तु ज्ञेयज्ञात्रोरेवाध्यासात् दृष्टान्तदार्ष्टन्तिकयोर्वैषम्येण स्थाणौ पुरुषत्ववदाविद्यकत्वं देहादेरयुक्तम्। अध्यासव्यापकस्योभयोर्ज्ञेयत्वस्य व्यावृत्त्या व्याप्यस्याध्यासस्यापि व्यावृत्तेः। तस्माद्देहधर्मो ज्ञेयोऽपि सुखादिरात्मनो भवतीति चेदुच्यते। अविद्याध्यासमात्रं हि दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोः साधर्म्यं विवक्षितं उभयोर्ज्ञेयत्वं तु नाध्यासव्यापकम्। स्वप्ने ज्ञातरि ज्ञेयाध्यासदर्शनात् सुखदुःखमोहेच्छदीनां देहादेः क्षेत्रस्य धर्माणामात्मधर्मत्वं चेत्तर्हि विशेषहेत्वभावादचैतन्यं जरामरणादिकं चात्मनो दर्वारं स्यात्। सुखादेरात्धर्मत्वाभावे तु विमतं सुखादिकमात्मधर्धो न भवति अविद्यारोपितत्वात् आगमापायित्वात् दृश्यत्वाज्जडत्वाज्जरादिवदित्यस्ति हेतुरतःसुखादीनां क्षेत्रधर्मत्वमेव युक्तं नात्मधर्मत्वम्। एवं च सर्वक्षेत्रेष्वपि सतो भगवतः क्षेत्रज्ञात्मकस्येश्वरस्य संसारेण ज्ञेयस्थेन ज्ञातर्यविद्यारोपितेन ज्ञातुर्वस्तुतः स्पर्शाभावात्। नन्वविद्यावत्त्वात्क्षेत्रज्ञस्य तदध्यस्तं संसारित्वामपि स्वाभाविकं स्यादितिचेन्न। तामसे आवरणात्मके तिमिरादिदोषे सत्यग्रहणदेरविद्यात्रस्योपलब्धेर्विवेकप्रकाशात्मके क्षेत्रज्ञे तामसत्वेनावरणात्मिकाया अविद्याया अभावेनाग्रहणविपरीतग्रहणसंशयानामप्यनुपपत्त्या तस्य स्वाभाविकसंसारित्वस्याभावात्। नन्वेवं तर्हि आत्मानं न जानामि मनुष्योऽहमित्यादिप्रत्ययदर्शनात्। ज्ञातुर्धर्मोऽविद्या तद्धर्मवत्वं च ज्ञातुः संसारित्वं तथाचेश्वर एव क्षेत्रज्ञोऽसंसारी चेति विप्रतिषिद्धमितिचेन्न। यतो यथा चक्षुषि तैमिरिकत्वादिदोषे सति विपरीतग्रहणादिकं दृश्यते दोषापगमे च न दृश्यते इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां निमित्तनैमित्तिकं च करणस्य चक्षुषु एव नतु गृहीतृधर्मस्तथा सर्वत्राग्रहणादिप्रत्ययास्तद्धेतवश्च दोषाः कस्यचित्करणस्यैव भवितुर्महन्ति। तता चावरणाद्यात्मिकाविद्या अन्तःकरणस्य धर्मो नतु क्षेत्रज्ञस्य। तथाचायं प्रयोगः -- निमित्तनैमित्तिकाऽविद्या तत्त्वतो न ज्ञातधर्मो दोषत्वात्तत्कार्यत्वाद्वा तिमिरादिदोषवत् तज्जन्यविपरीतग्रहणबद्धा। किंचाग्रहणादिस्तद्धेतुर्दोषश्च तत्त्वतो न ज्ञातृधर्मः ज्ञेयत्वात् प्रदीपप्रकाशवत्। यज्ज्ञेयं तत्स्वातिरिक्तज्ञेयं यथा प्रदीपप्रकाश इति व्यापत्याऽग्रहणादेरपि ज्ञेयत्वेन स्वातिरिक्तज्ञेयत्वावशयंभावात्। ज्ञाता न ज्ञेयधर्मवान् ज्ञातृत्वात् यथा देवदत्तो न स्वज्ञेयधटादिरुपादिमान् सर्वकरणवियोगे च कैवल्ये सर्ववादिभिरविद्यादिदोषत्त्वानभ्युपगमात्। अविद्यादिस्त्त्वतो न ज्ञातृधर्मो व्यमिचारित्वात् स्थूलत्वकृशवत्दिवत्। अपरिचाविद्यारात्मनो ज्ञातुर्धर्मः किमग्नयौष्णयवत्स्वाभाविकः किंवा आगन्तुकः। नाद्यः स्वाभाविकेन धर्मेण कदाचिदपि वियोगाभावेनानिर्मोक्षप्रसङ्गात्। आगन्तुकोऽपि किं स्वतः उत परतः। नाद्यःअनिर्मोक्षप्रसङ्गादेव। न द्वितीयः विभूत्वादविक्रित्वात् निरवयवत्वादसङ्गात्वादद्वयत्वाच्चात्मनः व्योमत्केनचित्क्वचित्संयोगानुपपत्त्या परतस्तस्मिन्नग्रहणादेर्वक्तुमशक्यत्वात्। तस्मादित्सिद्धं क्षेत्रज्ञस्य कालत्रयेऽपीश्वरत्वम्अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः। शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते। यथा सर्वगत् सौक्ष्यादाकाशं नोपलिप्यते। सर्वत्रावस्तितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते?अन्तःकरणव्यतिरिक्तोऽहमितिप्रतीयमाने जीवः परस्मान्न भिद्यते चेतनत्वाद्ब्रह्मवत् इत्यादिश्रुतियुक्तभ्यश्च। ननु सर्वप्रमाणोपजीव्यतया श्रेष्ठेन ज्येष्ठेन नाहमीश्वर इत्येवंरुपेण प्रत्यक्षेण भेदस्योपलभ्यमानत्वात् तद्विपुद्धं क्षेत्रज्ञेयश्वरयोरैक्यं श्रुतियुक्तिभिर्बोधयुतं न श्क्यते। ननु प्रत्यक्षस्य व्याहारिकभेदविषयत्वेन श्रुत्यादिजन्यज्ञानेन बाधसंभवादिविरोध इति चेन्न। भेदग्राहिप्रत्यक्षस्याहमीश्वर इति तद्विरोधिप्रत्ययाभावेन बाधासंभवात्। ननु क्षेत्रज्ञेश्वरभेदप्रत्यक्षे किं बहिरिन्द्रियं चक्षुरादि हेतुः किंवा मनः। नाद्यः बाह्येन्द्रियाणां रूपादिरहितात्मग्रहणसमार्थ्याभावेन तद्गतभेदग्रहणेऽप्यसामर्थ्यात्। न द्वितीयः।प्रमाणान्तरसहकरिणो मनसः पृथक्प्रमाणत्वायोगात्। तस्मात् क्लृप्तकारणाभावाद्भेदप्रत्यक्षं भ्रान्तिरितिचेन्न। सुखादिप्रत्यक्षस्य प्रमाणान्तराजन्यत्वेन मनस एव तत्प्रमाणत्वे आत्मनोऽपि त्प्रमाणत्वेन तद्गतभेदस्यापि तत्प्रमाणत्वात्। नन्वतीन्द्रियेश्वरप्रतियोगकभेदस्याप्यतीन्द्रित्वात् ईश्वरभेदः कथं प्रत्यक्षः अभावप्रत्यक्षस्य प्रतियोगप्रत्यक्षतन्त्रत्वादिचिचेन्न। मनस्तवे घटत्वाभावस्याप्रत्यक्षत्वात् घटत्वे मनस्त्वाभावस्य प्रत्यक्षत्वाच्च प्रतियोगप्रत्यक्षस्याभावप्रत्यक्षे तन्त्रत्वाभावात्। तथाच यत्र घटत्वादौ यस्य मनस्त्वादेः सत्त्वमनुपलब्धिविरोधि तत्र तदभावः प्रत्यक्षः। ततश्च क्षेत्रज्ञे ईश्वाभेदो यदि स्यात्तर्हि उपलभ्येत। यतो नोपलभ्यते तस्मात्तद्भेदः प्रत्यक्षः। नच स्थूलोहमित्यादिप्रत्यगोचरः स्थौल्यादिर्यथा शरीराद्युपाधिकतयात्मनि कल्पितस्तथा शरीरविशिष्टस्यैवेश्वरभेदानुभवात् भेदप्रत्ययोऽप्यौपाधिकत्वात्कल्पित इति वाच्यम्। जाग्रतस्वप्नयोरेकशरीरानभभासेपि योहं स्वप्नेमोहमिदानीं मनुष्यः कद्वारुढ इत्यहंप्रत्ययस्यैकरुपस्यानुवर्तमानत्वेन देहातिक्तात्मनोऽहमिति प्रत्यक्षप्रत्यगोचरत्वाभ्युपगमावश्वकत्वेन तत्र प्रतीयमानस्येश्वरप्रतियोगिकभेदस्यौपाधिकत्वायोगेनाकल्पिततत्वादितिचेदुच्यते। मनो न प्रमाणं किं चित्प्रमाणसहकारित्वात्कालादिवद्य्वतिरेके चक्षुरादिवत्? अनन्यथासिद्धप्रमेयशून्यत्वात् च मनो न प्रमाकरणं तदाश्रयत्वात्प्रमातृवत्। तदुक्तंप्रमाणसहकारित्वाद्विषस्याप्यभावतः। न प्रमाणं मनोऽस्माकं प्रमादेराश्रयत्वतः। तदपि सुखादिप्रत्यक्षस्येत्यादि तदपि न। सुखादिव्यवहारः स्वविषज्ञानजन्यः अर्थज्ञापनेच्छाधीनजडव्यवहारत्वात् संमतवदित्यनुमानात्। किंच मनो न भेदे प्रमाणमसन्निकृष्टत्वात्संमतवत् मनसो भेदेन संयोगसमवायतादात्म्यानामन्यतो न,भवति इति सुप्रसिद्धम्। अन्यश्चेन्द्रियसंनिकर्षोऽप्रसिद्धः असंनिकृष्टं चेन्द्रियमर्थं नैव गृह्णाति। तदुक्तंसंयोगादेरयुक्तत्वात्तदन्यस्याप्रसिद्धितः। संनिकर्षस्य तेनेदं भेदासंग्येव मानसम् इति। युत्तु मनस्त्वे घटत्वप्रतियोगकाभावस्येत्यादि तदपि न। प्रतियोगसत्त्वस्यानुलब्धिविरोधित्वं तत्प्रतियोग्युलब्धिव्याप्यत्नेवैव वक्तव्यम्। एवं चान्यत्र प्रतियोगसत्त्वस्याभावस्थलीयोपलम्भाव्याप्तत्वेन तत्रत्यानुप्रलब्धिविरोधित्वायोगात्। यत्रेत्यादिवक्तुरभावाधिकरण एव प्रतियोगसत्त्वतदुपलम्भयोर्वाच्यत्वापत्तेः। किंच यथा लौकिकोपदेशस्य सहकारिणोऽभावाद्ब्रह्मणत्वाद्यनुपलम्भस्तदभावं विनोपपन्नस्तथाआचार्यावान्पुरुषो वेद?नावेदविनमुनते तं बृहन्तं?श्रोतव्यो मन्तव्यः इत्यादिना बोधितस्य सहकार्यन्तरस्याभावेन क्षेत्रज्ञे ब्रह्माभेदानुपलम्भोऽप्भावं विनोपपद्यते। अपि च तमसावृतस्य घटस्य सत्त्वं यता नानुपलब्धिविरोधि तथानीहारेण प्रावृताजल्प्या च?अनृतेन हि प्रत्मूढाअज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः?भवत्यभेदो भदश्च तस्याज्ञानकृतो भवेत् इत्यादिश्रुतिस्मृतिऽज्ञानेनावृतत्वप्रतीतेर्ज्ञातृब्रह्माभेदसत्त्वं नानुपलब्धिविरोध। किंच यथा मनसानुपलम्भान्न धर्माद्याभावसिद्धिस्तथायन्मनसा न मनुते?तं त्वैपनिषदं पुरुषं पृच्छामि?सर्वेवेदायत्पदमामनन्ति इत्यादिश्रुत्या मनोगम्यस्य प्रत्यगभिन्नस्य ब्रह्मणः मनसानुपलम्भादभावो न सिध्यति। तदपि जाग्रत्स्वप्नयोरित्यादि तदपि न। नाहमीश्वर इति भेदानुभवस्याहमिहेति परिच्छिन्नतयानुभूयमाने जीवेऽनुभूयमानत्वात् निरुपाध्यात्मनश्च परिच्छेदासंभवाद्धटाकाशवत्परिच्छेस्यौपाधिकत्वेन तद्गतभेदस्याप्यौपाधिकत्वात् प्रत्यक्षस्य व्यावहारिकस्त्तामुपजीव्य प्रवत्तं श्रुत्यादि तस्य पारमार्थकसत्तां निराकरोत्यतो नोपजीव्यविरोधः। ज्येष्ठत्वात् रजतज्ञानवत्। ननु क्षेत्रज्ञस्येश्वाभिन्नत्वे सति संसारसंसारित्वाभावे शास्त्रस्य प्रत्यक्षादेश्चानर्थक्यात् वास्तवत्वमेव संसारसंसारित्वयोरिति चेत् किं विद्यावस्थायां शास्त्रद्यानर्थक्यमुताविद्यावस्तायाम्। आद्ये मुक्तात्मनां संसारसंसारित्वव्यवहारस्य सर्वैरप्यात्मवादिभिरनिष्टत्वेन तैर्यथाशास्त्राद्यानर्थक्यदोषो नैवाभ्युपगतस्तथास्माभिरपि? द्वितीयं च यथा सर्वेषां द्वैतिनां मते बन्धावस्थायामेव शास्त्रार्यर्थत्त्वं न मुक्तावस्थायामेवम्। ननु द्वैतिनां मते आत्मनो बन्ध मुक्त्यवस्थयोर्वास्तवत्वेन हेयोपादेयसाधनसद्भावेन शास्त्रादेरर्थवत्त्वं सिध्यति नत्वद्वैतिनामविद्याकृतत्वात् द्वैतस्यापरमार्थत्वेनात्मनो बन्धावस्थाया अवास्तवत्वादितिचेत् आत्मनो वास्तवे बन्धमुक्त्यवस्थे युगपत्सयातां क्रमेण वा। नाद्यः। एककालीनस्थितिगतिवदेकस्मिन् युगपद्विरोधात्। द्वितीयेऽपि तयोर्निर्निमित्तत्वं सनिमित्तत्वं वा। नाद्यः। अनिर्मोक्षप्रसङ्गात्। द्वितीये स्वतोभावादपरमार्थत्वप्रसङ्गेन बन्धमोक्षावस्थे न वास्तवेऽस्वाभाविकत्वात् स्फटिकलौहित्यवदित्यभ्युपगमहानापत्तेः। द्वितीये स्वतोभावदपरमार्थत्वप्रसङ्गेन बन्धमोक्षावस्थे न वास्तवेऽस्वाभाविकत्वात् स्फटिकलौहित्यवदित्यभ्युपगमहानापत्तेः। किंचावस्थयोर्वास्तत्वमिच्छता तयोर्यौगपद्यासंभवेन क्रमनिरुपणार्थं बन्धवास्थापूर्वं प्रकल्प्यानादिमत्यन्तवती तथा मोक्षावस्था पश्चात्प्रकल्प्या आदिमत्यनन्ता तच्च यदनादिभावरुपं तन्नित्यं यथात्मा। यत्सादिभावरुपं तदन्तवद्यथा घटादीति व्याप्तिद्वयविरुद्धम्। अपि च क्रमभाविनीभ्यावस्थाभ्यामात्मा संबध्यते न वा। आद्ये किं पूर्वावस्थया सहैवोत्तरावस्थया संबध्यते किंवा पूर्वावस्थां विहाय। आद्येऽनिर्मोक्षप्रसङ्गः। द्वतीये आत्मनः सातिशयत्वापत्त्या नित्यत्वमुपपादयितुमशक्यम्। अन्त्ये द्वैतिनामपि शास्त्राद्यानर्थक्यदोषस्यापरिहार्यत्वान्नाद्वैतवादिना परिहर्तव्यम्। तर्हि पक्षद्वयेप दोषाविशेषान्नाद्वैतमतांनुरागे हेतुरिति चेन्न। अद्वैतमते शास्त्राद्यानर्थक्याभावात्। भोक्तृत्वकर्तृत्वयोर्देहादृष्टयोर्वा फलहेत्वोरनात्मनोरहं कर्ताहं भोक्ताहं मनुष्य इत्याद्यत्मदर्शनवतोऽविदुशोऽधिकारिणः संभवात् न शास्त्राद्यानर्थक्यम्। ननु विद्वद्विषयं शास्त्रं किं न स्यादितिचेन्न। विदुषां फलहेतुभ्यामात्मनोऽन्यत्वदर्शने सति तयोरहमित्यात्मदर्शनानुपपत्तेः। नहि जलाग्नयोश्छायातपर्योर्वा भेददर्शी अत्यन्तमूढोऽपि तयोरेत्कामतां पश्यति किमुत विवेकी। तस्माद्विधिनिषेधशास्त्रं न विद्वद्विषयम्। नहि देवदत्त त्वमिदं कुर्विति देवदत्ते नियुक्तं तत्रस्थो नियोगं श्रृण्वन्नपि विष्णुमित्रोहं नियुक्त इति नियोगं प्रतिपद्यते। ननु देवदत्ते नियुक्ते कदाचिद्विष्णुमित्रो विनियुक्तोऽस्मीति प्रतिपद्यत इतिचेत्सत्यम्। नियोगविषयान्नियोज्यादात्मनो विवेकाग्रहणात्। भ्रान्त्या प्रतिपत्त्युत्पत्तेः। तथा फलहेत्वोरप्यात्मनो विवेकाग्रहणात् अविद्वान्संभवत्येव विधिनिषेधशास्त्राधिकारी। ननु यो विद्योदयात्पूर्वमनुभूतोऽविद्योत्पन्नदेहाद्यभिमानसंबन्धस्तदपेक्षया सत्यपि फलहेत्वोरात्मान्यत्वदर्शने इष्टफलहेत्वोः प्रवर्तितोऽस्म्यनिष्टफलहेत्वोर्निवर्तितोऽस्मीति शास्त्रार्थविषया प्रवृत्तियुक्तैव। यथा पुतृपुत्रभ्रात्रादीनामितरेतरात्मान्यत्वदशने सत्यपि पितरमधिकृत्य विधौ निषेधे वा तस्य तदनुष्टानाशक्तो पुत्रस्य तद्विषया धीरिष्टा? एवं पुत्रस्यानुष्ठानाशक्तस्य पितुरित्यन्योन्यनियोगप्रतिषेधार्था प्रतिपत्तिरिति चेन्न। पुत्रादीनां मिथ्याभिमानात्। मथो नियोगादिप्रतिपत्तिसत्त्वेऽपि व्यतिरिक्तात्मदर्शनप्रतिपत्तः प्रागेव फलहेत्वोरात्माभिमानस्य प्रसिद्धत्वेन विदुषस्तदयोगात्। किंचसर्वोपेक्षा च यज्ञादिश्रुतेः इत्यधिकरणे सम्यग्ज्ञानस्यादृष्टसाध्यत्वोक्त्या अनुष्ठितविधिनिषेद्यार्था हि फलहेतुभ्यामात्मनोऽन्यत्वं प्रतिपद्यते। सत्यदृष्टे सम्यग्ज्ञानदर्शनात्? असति च तस्मिञ्छुद्धचित्तस्य तददर्शनादन्वव्यतिरेकाभ्यांतमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्णा विवदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसाऽनाशकेन इति श्रुत्या च विधिनिषेधानुष्ठानात्मपूर्वं ताभ्यामात्मनोऽन्यत्वं न प्रतिपद्यते। तस्मादविद्वद्विषयं विधिनिषेधशास्त्रमिति सिद्धम्। ननुस्वर्गकामो यजेत?न कलञ्जं भक्षयेत् इत्यादावात्मनो देहाद्य्वतिरेकं पश्यतां देहाद्यभिमानरुपाधिकारहेत्वभावात् देहादावात्मत्वमनुभवतामपि पारलौकिकप्रतित्त्याभावात् प्रवृत्तिनिवृत्तयभावेन कर्तुरभावात् शास्त्रानर्थक्यमितिचेन्न। प्रत्यगभिन्नब्रह्मविदः ,परलोकाभावविदश्चानात्मवादिनः प्रवृत्तिनिवृत्त्यभावेऽपि विधिनिषेधशास्त्रान्यथानुपपत्त्यानुमितात्मस्तित्वस्य निर्विशेषात्मस्वरुपानभिज्ञस्य कर्मफले स्वर्गादौ नरकादौ च संजाततृष्णस्योत्पन्नत्रासस्य च श्रद्दधानस्य प्रवृत्तिनिवृत्त्योः सर्वप्रत्यक्षसिद्धत्वेन शास्त्रानर्थक्याभावात्। ननु विवेकिनां देहादिभ्यो निष्कृष्टमात्मानं दृष्टवतां विधिनिषेधयोरधिकाराभावेन प्रवृत्तिनिवृत्त्यभावेयद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते इति न्यायेन तदनुगच्छतां तेषां विधिनिषेधशास्त्रेऽप्रवृत्तिदर्शनात्तत्राप्रवृत्तौ शास्त्रानर्थक्यमितिचेत् किं सर्वेषां विवेकित्वाच्छास्त्रानर्थक्यमुच्यत उत कस्यचित्। नाद्यःमनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः इतिन्यायेन सर्वेषां विवेकित्वाभावात्। न द्वितीयः। मूढानां प्रवृत्तिनिवृत्त्यो रागादिदोषाधीनत्वेन विवेक्यनुगामित्वाभावात्। श्येनाद्यभिचारिकर्मणि विवेकनामप्रवृत्तावपि इतरेषां प्रवृत्तिदर्शनेन तदप्रवृत्तावितरेषामप्यप्रवृत्तिरिति नियन्तुमशक्यत्वात्।स्वभावस्तु प्रवर्तते इत्युक्तत्वेन प्रवृत्तेः स्वभावाख्याज्ञानकार्यत्वाद्विवेकिनां प्रवृत्त्यभावेऽप्यज्ञानां प्रवृत्त्यभावायोगात्। तस्मादविद्यामात्रः विधिनिषेधाधीनप्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मको तथा मिथ्याज्ञानस्य परमार्थवस्तुदूषणेऽसामर्थ्यमतो भगवतेदमुक्तंक्षेत्रज्ञं तापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत इति। एवंचोक्तयुक्त्यात्वं वा अहमस्मि भगवो देवते अहं वै त्मसि अहं ब्रह्मास्मि तत्सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि इत्यादिश्रुत्या असकृदुपदेशाच्च प्रतिमायां विष्णुबुद्धिरिव क्षेत्रज्ञ ईश्वरबुद्धिरिति बालविमोहनमात्रं गौणत्वप्रसङ्गात् वाक्यवैरुप्याच्च।अथ योऽन्यां देवतामुपास्तेऽन्योसावन्योऽन्योऽहमस्मीति न स वेद।मृत्योः स मृत्युमाप्राप्नोति य इह नानेव पश्यति।सर्व तं परादाद्योन्यत्रात्मनः सर्वं वेद इत्यादिश्रुतिभिर्भेदर्शनस्य निषिद्धत्वाच्च। यत्पुनरुक्तं विरुद्धधर्मवत्त्वादैक्यं न संभवतीति तदपि न। विरुद्धमर्मताया मिथ्यात्वोपपत्त्या जहदजहल्लक्षणया सोऽयंदेवदत्त इतिवदैक्यस्य सुवचत्वात्। तसमात्क्षेत्रज्ञस्येश्वराभिन्नस्य न संसारसंस्पर्शः। ननु संसारिणामिवाहं ब्राह्मण एवमाभिजात्यादिविशिष्टः इदं पुत्रक्षेत्रकलत्रादकं ममेति पण्डितानामपि संसारित्वप्रतीते क्षेत्रज्ञस्य वस्तुतः संसारासंस्पर्शे विद्वदनुभवो विरुध्येदिति चेन्नेदं पाण्डित्यं कूटस्थासंसार्यात्मदर्शनं कुंतु क्षेत्रज्ञ एवात्मदर्शनं क्षेत्रज्ञ कूटस्थं पश्यतां अयमहं कर्ता ममेदं भोग्यं रयान्ममानेन कर्मणेदं फलं सेत्स्यतीति प्रत्ययो न संभवति। कूटस्थात्मधीविरुद्धत्वादस्य प्रत्ययस्य। नन्वविक्रियात्मदर्शिनो बोगकर्माकाङ्क्षयोरभावे कः शास्त्राधिकारितिचेत् दुर्वचत्वात्तस्य निवृत्तिनिष्ठत्वं न सिध्यतीति चेत्सत्यम्। तथापि कार्यकरणसंघातव्यापारोपरमे निवृत्तिरुपचर्यते। इदं चान्यत्पाण्डित्यं कस्यचित्पण्डितंमन्यस्य। क्षेत्रज्ञ ईश्वर एव क्षेत्रं चान्यत्। क्षेत्रज्ञविषयः अहं तु वस्तुतः संसारी सुखी दुःखी च। ननु संसारित्वस्य वास्तवत्वे तदनिवृत्त्या पुरुषाथासिद्धिरिति चेन्न। क्षेत्रं ज्ञात्वा ततो निष्कृष्टस्य क्षेत्रज्ञस्य ज्ञानेन मम संसारीपरमस्य कर्तव्यत्वात्। ननु क्षेत्रज्ञज्ञानं खतं संसारोपरत्युत्पादकमितिचेत्। ध्यानेनेश्वरं क्षेत्रज्ञं साक्षात्कृत्य तत्स्वरुपावस्थानेनेति गृहाण। तथा चाहं वस्तुतः संसारी असंसारिणः क्षेत्रज्ञादीश्वरादन्यस्तस्मान्मम संसारिणोऽसंसारिश्वरत्वं कर्तव्यभित्येवं यो बुध्यते यो वा तथाविधं ज्ञानं त्वया संपादनीयमिति बोधयति नासौ क्षेत्रज्ञः। अन्यथोपदेशानर्थक्यमित्येवं मन्यमानो पण्डितापसदः। अयमात्मा ब्रह्मेत्याद्यात्मनो ब्रह्मत्वबोधकश्रुत्या प्रतिपादितोपपत्त्या च विरोधात्। ननु संसारस्य वस्तुत्वाभ्युपगमात्संसारावस्थायां कर्मकाण्डस्यार्थवत्त्वं संसारिनिरासेनात्मनो ब्रह्मत्वे ध्यानादिना साधिते मोक्षावस्थायां ज्ञानकाण्डस्यार्थवत्त्वं तत्कथं यथोक्तज्ञानवान्पण्डितापसन इत्युच्यत इति चेत्। उच्यते। संसारमोक्ष्योः शास्त्रस्य चार्थवत्त्वं करोमीति मन्यमानः पण्डितापसद एव। यतः कल्पितं संसारित्वमधिकृत्य साध्यसाधनसंबन्धं बोधयतः कर्मकाण्डस्य तथाविधं संसारित्वं पराकृत्याखण्डैकरसे प्रत्यग्ब्रह्मणि पर्यवस्यतः ज्ञानकाण्डस्य आत्मनः शास्त्रसिद्धं ब्रह्मत्वं च त्यक्त्वा संसारित्वस्य वास्तवत्वमात्मनोऽब्रह्मत्वं च कल्पयन्नात्महा भूत्वा शास्त्रार्थसंप्रदायरहितत्वात् तत्त्वमसीतिवत्प्रसिद्धक्षेत्रज्ञानुवादेनाप्रसिद्धं तस्येश्वरत्वं क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धीत्युपदेशतः श्रुतं तस्य हानिमश्रुत्यस्य जीवेश्वरयोर्भेदस्य कल्पनां च कुर्वनत्स्वयं मूढः क्षेत्रज्ञं तापि मां विद्धीत्यनेन सर्वक्षेत्रान्तर्यामी परो जीवादन्यो निरुप्यते नतु जीवस्येश्वरत्वं बोध्यते इत्यन्यांश्च व्यामोहयति। तस्मादसंप्रदायविद्यथोक्तं पाण्डित्यं पुरुस्कृत्य सर्वशास्त्रार्थविदपि मूर्खवदुपेक्षणीयः। तथाच विद्याविद्यायोर्वैलक्षण्याभ्युपगमात् ईश्वरस्य क्षेत्रज्ञैकत्वे संसारित्वं प्राप्नोति क्षेत्रज्ञानां चेश्वरैकत्वे संसारिणोऽभावात्संसाराभावप्रसङ्ग इत्येतौ दोषौ प्रत्युक्तौ। अविद्यापरिकल्पितदोषेण तद्विषयं वस्तु न दुष्यतीत्यत्र दृष्टान्तस्योक्तत्वात्। संसारसंसारिणोरविद्याकल्पितत्वेनोपपत्तेः। नन्वविद्या संसारसंसारिणौ कल्पयन्ती() आश्रयान्तराभावात्क्षेत्रज्ञाश्रया तस्य त तद्वत्तत्वमेव संसारित्वम्। नचाविद्यावत्त्वमविद्याकृतमनवस्थाप्रसङ्गात्। ननूत्खातदन्तोरगवदविद्या किं करिष्यतीतिचेन्नाहं दुःख्यहं सुखीति तत्कृतस्य दुःखित्वादेः प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति चेन्न। क्षेत्रज्ञ आपाद्यामानस्य दोषजातस्य ज्ञेयत्वोपपत्त्या क्षेत्रधर्मत्वेन क्षेत्रज्ञधर्मात्वाभावात्। नच क्षेत्रद्वारा क्षेत्रज्ञस्तत्कृतदोषवत्तया दुष्यति क्षेयेन ज्ञातुः संसर्गे ज्ञेयत्वाभावप्रसंगेन तेन ज्ञातुः संसर्गानुपपत्तेः। ननु धर्मधर्मित्वेन संसर्गेऽपि ज्ञेयत्वे का क्षतिरितिचेत्। अविद्यावत्त्वदुःखित्वादेरात्मधर्मत्वे स्वधर्मस्य च स्वज्ञेयत्वे स्वस्यापि स्वज्ञेयत्वापत्त्या कर्मकर्तृविरोध इति गृहाण। किंच विमतं नात्माश्रितं तज्ज्ञेयत्वात् रुपादिवदित्यनुमानात्। दुःखित्वादेः प्रत्यक्षेणोपलभ्यमानत्वेन ज्ञेयत्वेनात्मधर्मत्वं न संभवति तद्धर्मत्वे वा ज्ञेयत्वम्। किंच महाभूतानीत्यादिना ज्ञेयमात्रस्य क्षेत्रान्तर्भावकथनात् एतद्यो वेत्तीत्युक्त्या क्षेत्रज्ञस्य ज्ञातृत्वानिर्णयाज्ज्ञेयं सर्वं क्षेत्रं ज्ञातैव क्षेत्रज्ञ इत्यवधार्यते। तस्मात्प्रमाणयुक्त्याख्यावष्टभान्तराभावात् केवलाविद्यावष्टम्भात् अविद्यादुःखित्वादेः,क्षेत्रज्ञधर्मत्वं तस्य च प्रत्यक्षोपलभ्यत्वमिति विरुद्धमुच्यते। ननु यया अविद्या विरुद्धमपि निर्वोढुं शक्यते तस्याः स्वातन्त्र्याभावात् चितोऽन्यस्य वास्तववस्तुनोऽविद्यसानत्वात् आविद्यकस्य च विद्यमानत्वेऽपि तस्य तत्कार्यतया तदाश्रयत्वासंभात् अविद्या कस्येति चेत्। किमाश्रयमात्रं पृच्छसि तद्विशेषं वा। आद्ये तस्यादृश्यत्वेन पारतन्त्र्यात् किंचिन्निष्ठैव दृश्यते। तथाच यमाश्रयते तस्यैव सेत्यतो नाश्यमात्रं प्रष्टव्यं तस्योपलभ्यमानमत्वात्। आश्रयविशेषस्योपलभ्यमानत्वादेव। न द्वितीयः। नहि गोमत्युपलभ्यमाने गावः कस्यति प्रश्नो युज्यते। ननु गवां तद्वतश्च प्रत्यक्षत्वात्तसंबन्धोऽपि प्रत्यक्ष इति तत्प्रश्नो यथा निरर्थकः तथाऽविद्यातद्वतोश्च प्रत्यक्षत्वाभावात्प्रश्नानर्थक्याभावात्। दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोर्वैषम्यमिति चेदप्रत्यक्षेणाविद्यावताऽवित्यासंबन्धे ज्ञाते तव किं स्यात्। नन्वविद्याया अनर्थहेतुत्वात् परिहर्तव्या स्यादितिचेत् यस्यास्ति सा स तां परिहरिष्यति। ननु ममैवाविद्या तत्परिहारे मयैव प्रयतितव्यमितिचेत् तर्ह्यविर्यां तद्वन्तं चात्मानं जानासीत्यतः प्रश्नानर्थक्यम्। ननु जानन्नपि तद्विषयप्रत्यक्षाभावात्पृच्छामीतिचेत् अहमविद्यावानविद्याकार्यवत्त्वात् व्यतिरेकेण मुक्तात्मवदित्यनुमानेन चेज्जानासि तर्हि संबन्धग्रहणं कथं। ज्ञातैवात्मा स्वस्याविद्यासंबन्धं जानाति किंवान्यो ज्ञाता। नाद्यः। स्वस्याविद्यां प्रति ज्ञातृत्वकालेऽविद्याश्रयत्वेन गृहीतत्वात् तज्ज्ञातृत्वेनैवोपयुक्तस्यात्मनः कर्मकर्तृविरोधात्तस्याः स्वात्मनि संबन्धग्रहासंभवात्। न द्वितीयः। अनवस्थाप्रसङ्गात्। तथा चाविद्यादिकं ज्ञेयं ज्ञेयमेव ज्ञाता च ज्ञातैवातोऽविद्यादुःखित्वार्धैर्न ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य किंचिद्दुष्यति। ननु दोषवत्क्षेत्रज्ञातृत्वमेवात्मनो दोष इतिचेत् किं ज्ञातृत्वं ज्ञानक्रियाकर्तृत्वं उत ज्ञानस्वरुपत्वम्। नाद्यः। तदनभ्युपगमेन तत्प्रयुक्तदोषाभावात्। द्वितीयं यथोष्णतामात्रेण व्हनेस्तापे तापयितृत्वोपचारस्तथा विज्ञानस्वरुपस्याऽविक्रियात्मनो विज्ञातृत्वोपचाराददोष इत्यलं विस्तरेण।
13.3 क्षेत्रज्ञम् the knower of the field? च and? अपि also? माम् Me? विद्धि know? सर्वक्षेत्रेषु in all fields? भारत O descendant of Bharata (Arjuna)? क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः of the field and of the knower of the field? ज्ञानम्,knowledge? यत् which? तत् that? ज्ञानम् knowledge? मतम् is considered to be? मम My.Commentary The fields are different but the knower of the field is one. The individual souls (Jivatmas) are different but the Supreme Soul (Paramatma) is one. Wherever there is mind? there are lifreath? egoism and the individual consciousness or reflected intelligence side by side. He who has the sense of duality will take birth again and again. This delusion of dulaity can only be removed by knowledge of the identity of the individual soul and the Absolute. I am happy? I am miserable? I am the doer of this action? and I am the enjoyer of this experience -- these are the experiences of all human beings. Therefore the individual soul is bound to Samsara and is subject to pleasure and pain? and the individual souls are in different bodies. But? the Supreme Soul is free from pleasure and pain. It is not bound to Samsara. It is eternally free. It is one without a second.If there is only one individual soul in all bodies? all should have the same experience at the same time. If Rama suffers from abdominal colic? Krishna also should experience the pain at the same time. If John experiences joy? Jacob also should have a similar experience. If Choudhury is stung by a scorpion? Banerjee also should suffer from the pain. But this is not the case. When Rama suffers? Krishna rejoices. When John is jubilan? Jacob is depressed. When Choudhury suffers from the sting of a scorpion? Banerjee is enjoying his breakfast. Fields are different? bodies are different? minds are different and the individual souls are different from each other. But the knower in all these fields is one. Pleasure and pain are the Dharmas (functions) of the mind only. The individual soul is in essence identical with the Supreme Soul.The knower of the field or the Self is not affected by pleasure and pain? virtue and vice. He is the silent witness only. Pleasure and pain are the functions of the mind. They are ascribed to the Self through ignorance. The ignorant man regards the physical body as the Self. He is swayed by the two currents of likes and dislikes? he does virtuous and vicious actions and reaps the fruits of these actions? viz.? pleasure and pain? and takes birth again and again. But the sage who knows that the Kshetrajna or the knower of the field or the Self is distinct from the body is not swayed by likes and dislikes. He identifies himself with the pure? eternal? Absolute or the Supreme Self and is always happy and actionless? though he performs actions for the welfare of humanity.The disease of Timira (partial blindness) which causes perception of what is contrary to truth pertains to the eye but not to the man who perceives. If the disease is removed by proper treatment he perceives things in their true light. Even so ignorance? doubt? pleasure and pain? virtue and vice? likes and dislikes? false perceptions as well as their cause belong to the instrument (the mind) but not to the silent witness? the knower of the field? the Self.In the state of liberation wherein there is annihilation of the mind? there is no ignorance and the play of the two currents of likes and dislikes does not exist there. If false perception? ignorance? pleasure and pain? doubt? bondage? delusion? sorrow? etc.? were the essential properties of the Self? just as heat is the essential property of fire? they could not be got rid of at any time. But there have been sages of Selfrealisation in the past like Sankara? Dattatreya? Jada Bharata and Yajnavalkya who possessed extraordinary supersensual or intuitional knowledge? who were free from false perception? doubt? fear? delusion? sorrow? etc. They were not conscious of Samsara but they had perfect awareness of the Self. Therefore? we will have to conclude that the Self is ever free? pure? perfect? eternal and that ignorance inheres in the instrument (the mind) and not in the Self.Ignorance born of Tamas acts as a veil and prevents man from knowing his essential nature as,the ExistenceKnowledgeBliss Absolute. It causes perception of what is ite the contrary of truth and causes doubt or nonperception of truth. As soon as knowledge of the Self dawns these three forms of ignorance vanish in toto. Therefore these three forms of ignorance are not the attributes of the Self. They belong to the mind? the organ or the instrument. Mind is only an effect or a product of ignorance.The wheel of Samsara or the worldprocess rotates on account of ignorance. It exists only for the ignorant man who perceives the world as it appears to him.There is no Samsara for a liberated sage. Any disease of the eye cannot in any way effect the sun (the dity presiding over the eye). The breaking of the pot will not in any way affect the ether or space in the pot. The water of the mirage cannot render the earth moist. Even so ignorance and its effecs cannot in the least affect the pure? subtle? attributeless? formless? limbless? partless and selfluminous Kshetrajna or the Self. Ignorance does not touch the Self. (Cf.X.20XIII.32XVIII.61)
13.3 Do thou also know Me as the knower of the field in all fields, O Arjuna. Knowledge of both the field and the knower of the field is considered by Me to be the knowledge.
13.3 I am the Omniscient self that abides in the playground of Matter; knowledge of Matter and of the all-knowing Self is wisdom.
13.3 And, O scion of the Bharata dynasty, under-stand Me to be the 'Knower of the field' in all the fields. In My opinion, that is Knowledge which is the knowlege of th field and the knower of the field.
13.3 Ca api, and; viddhi, understand; mam, Me, the supreme God who is transcendental; to be the ksetrajnam, 'Knower of the field' with the characterisitics noted above; sarva-ksetresu, in all the fields. The idea is this: Know the 'Knower of the field'- who has become diversified by limiting adjuncts in the form of numerous 'fields' ranging from Brahma to a clump of grass-as free from differentiations resulting from all the limiting adjuncts, and as beyond the range of such words and ideas as existece, nonexistence, etc. O scion of the Bharata dynasty, since there remains nothing to be known apart from the true nature of the field, the knower of the field and God, therefore; tat, that; is jnanam, Knowledge, right knowledge; yat, which; is the jnanam, knowledge; ksetra-ksetrajnayoh, of the field and the knower of the field-which are the two knowables-, and by which Knowledge the field and the knower of the field are made objects of knowledge. This is mama, My, God Vishu's; matam, opinion. Objection: Well, if it be that in all the field there exists God alone, and none else other than Him, as the enjoyer, then God will become a mundane being; or, due to the absence of any mundane creature other than God, there will arise the contingency of the negation of mundance existence. And both these are undesirable, since the scriptures dealing with bondage, Liberation and their causes will become useless, and also becuase they contradict such valid means of knowledge as direct perception. In the first place, mundane existence which is characterized by happiness, sorrow and their cause is apprehended through direct perception. Besides, from the perception of variety in the world it can be inferred that mundane existence results from virtue and vice. All this becomes illogical if God and the individual soul be one. Reply: No, because this becomes justifiable owing to the difference between Knowledge and ignorance. 'These two, viz that which is know as Knowledge and that which is known as ignorance are widely contradictory, and they follow divergent courses' (Ka. 1.2.4.); and similarly, the different results, viz Liberation and enjoyment, belonging (respectively) to those Knowledge and ignorance, have also been pointed out to be contrary by saying that Liberation is the goal of Knowledge, and enjoyment is the result of ignorance (see Ka. 1.2.2). Vyasa, also has said so: 'Now, there are these two paths' (Mbh Sa. 241.6) etc. and, 'There are only these two paths,' etc. Here (in the Gita) also, two kinds of steadfastness have been stated. And it is understood from the Vedas, the Smrtis and reason that ignorance together with its effects has to be destroyed by Knowledge. As for the Vedic texts, they are: 'If one has realized here, then there is truth; if he has not realized here, then there is great destruction' (Ke. 2.5); 'Knowing Him in this way, one becomes Immortal here' (Nr. Pu. 6); 'There is no other path to go by' (Sv. 3.8); 'The enlightened man is not afraid of anything' (Tai. 2.9.1). On the other hand, (the texts) with regard to the unenlightened person are: 'Then, he is smitten with fear' (Tai. 2.7.1); 'Living in the midst of ognorance' (Ka. 1.2.5); One who knows Brahman becomes Brahman indeed. In his line is not born anyone who does not know Brahman' (Mu. 3.2.9); '(While he who worships another god thinking,) "He is one, and I am another," does not know. He is like an animal to the gods' (Br. 1.4.10). He who is a knower of the Self, 'He becomes all this (Universe)' (Br. 1.4.10); 'When men will fold up space like (folding) leather, (then) there will be cessation of sorrow, without knowing the Deity' (Sv. 6.9). There are thousands of texts like these. And the Smrti texts (from the Gita) are: 'Knowledge remains covered by ignorance. Thery the creatures become deluded' (5.15); 'Here itself is rirth conered by them whose minds are established on sameness' (5.19); 'Since by seeing eally the God who is present alike everywhere (he does not injure the Self by the Self, therefore he attains the supreme Goal)' (13.28), etc. And as for reason, there is the text, 'Men avoid snakes, tips of kusa-grass as also well when they are aware of them. Some fall into them owing to ignorance. Thus, see the special result arising from knowledge' (Mbh. Sa. 201.17). Similarly, it is known that an unelightened person, who identifies himself with the body etc. and who practises righteousness and unrighteousness under the impulsion of attachment and aversion, takes birth and dies. It cannot be reasonably denied by anyone that, those who see the Self as different from the body etc. become liberated as a result of the cessation of righteous and unrighteous conduct, which depends on the destruction of attachment and aversion. The being so, the Knower of the field, who is reality is God Himself, appears to have become a mundane soul owing to the various adjuncts which are products of ignorance; as for instance the individual soul becomes identified with the body etc. For it is a well-known fact in the case of all creatures that their self-identify with the body etc. which are not-Self is definitely caused by ignorance. Just as, when a stump, of a tree is firmly regarded as a man, the alities of a man do not thery come to exist in the stump, nor do the alities of the stump come to the person, similarly the property ofconsciousness does not come to the body, nor those of the body to consciousness. It is not proper that the Self should be identified with happiness, sorrow, delusion, etc., since they, like decrepitude and death, are eally the products of ignorance. Objection: May it not be said that this is not so, becuase of dissimilarity? The stump and the man, which are verily objects of perception, are superimposed on each other through ignorance by their perceiver. On the other hand, in the case of the body and the Self,, the mutual superimposition occurs verily between a knower and an object of perception. Thus, the illustration is not eally applicable. Therefore, may it not be that the properties of the body, though objects of knowledge, belong to the Self which is the knower? Reply: No, since there arises the contingency of (the Self) becoming devoid of consciousness! If alities such as happiness, sorrow, delusion, desire, etc. of the body etc., which are the field and are objects of knowledge, indeed belong to the knower, then it will be necessary to explain the particular reason why some of the alities of the object of knowledge-the field-superimposed through ignorance belong to the Self, while decrepitude, death, etc. do not. (On the contrary) it is possible to infer that they (happiness etc.) do not pertain to the Self, since, like decrepitude etc., they are superimposed on the Self through ignorance, and because they are either avoidable or acceptable. This being so, the mundane state, consisting of agentship and enjoyership pertaining to the objects of knowledge, is superimposed on the knower through ignorance. Hence, nothing of the knower is affected thery-in the same way as nothing of the sky is affected by the superimposition of surface, diret, etc. (on it) by fools. Such being the case, not the least touch of the mundane state is to be apprehended with regard to the almighty [see footnote on p.5, and p.168.] God, the Knower of the field, even though He exists in all the fields. For it is nowhere seen in the world that anybody is benefitted or harmed by a ality attributed to him through ignorance. As for the statement that the illustration is not eally applicable-that is wrong. Objection: How? Reply: Because what is intended as common between the illustration and the thing illustrated is merely the superimposition through ignorance. There is no disagreement as to that. However, as for your contention that the illustration fails with regard to the Knower, that too has been shown to be inapt by citing the example of decrepitude etc. [If it be held that objects of experience may be superimposed on one another, but they cannot be superimposed on the experiencer, the answer is that this cannot be a universal proposition. For decrepitude and death, which are matters of experience, are superimposed on the Self, the experiencer.] Objection: May it not be that the Knower of the field becomes a mundane being owing to his having ignorance? Reply: No, because ignorance is of the nature of tamas. Since ignorance has the nature of covering, it is indeed a notion born of tamas; it makes one perceive contrarily, or it arouses doubt, or it leads to non-perception. For it disappears with the dawn of discrimination. And the three kind of ignorance, viz non-perception etc. [Etc: false perception and doubt.], are experienced when there are such defects as blindness etc. which are forms of tamas and have the nature of veiling. [It is known through the process of agreement and difference that false perception etc. arise from some defects,and they are not the alities of the Self.] Objection: Here it is asserted that if this be the case, then ignorance is a ality of the knower? Reply: No, for the defects such as blindness are seen to belong to the eye which is an organ. As for your notion that 'ignorance is a ality of the experiencer, and the very fact of being possessed of the ality of ignorance is what constitutes the mundane state of the Knower of the field; the assertion which was made (by the Vedantin) in that connection, "that the Knower of th field is God Himself and not a mundane being, " is improper,'-this is not so. As for example: Since such defects as false perception etc. are seen to belong to the organ eye, therefore false perception etc. or their causes, viz defects like blindness etc., do not belong to the perceiver. Just as blindness of the eyes does not pertain to the perceiver since on being curved through treatment it is not seen in the perceiver, similarly notions like non-perception, false perception, doubt, and their causes should, in all cases, pertain to some organ; not to the perceiver, the Knower of the field. And since they are objects of perception, they are not alities of the Knower in the same way that light is of a lamp. Just because they are objects of perception, they are cognized as different from one's own Self. Besides, it is denied by all schools of thought that in Liberation, when all the organs depart, there is any association with such defects as ignorance etc. If they (the defects) be the alities of the Self Itself, the Knower of the field, as heat is of fire, then there can never be a dissociation from them. Again, since there can be no association with or dissociation from anything for the immutable, formless Self which is all-pervading like space, therefore it is established that the Knower of the field is ever identical with God. This follows alos from the utternance of the Lord, 'Being without beginning and without alities' (31), etc. Objection: Well, if this be so, then, owing to the nonexistence of the world and the mundane creatures, there will arise the defect of the uselessness of the scriptures, etc. Reply: No, since this (defect) is admitted by all. A defect that is admitted by all who believe in the Self is not to be explained by one alone! Objection: How has this been admitted by all? Reply: People of all schools of thought who believe in the Self admit that there is no worldly behaviour or the behaviour of a worldling in the liberated ones. Yet, in their case (i.e. in those various schools), it is not admitted that there is any possibility of such a defect as the scriptures becoming useless, etc. Similarly, in our case let the scriptures be useless when the knowers of the field become identified with God; and purposeful within the sphere of ignorance. This is just as in the case of all the dualists, where it is admitted that the scriptures etc. become useful in the state of bondage, not in the state of Liberation. Objection: Well, for us all dualists, bondage and Liberation of the Self are real in the truest sense. So, when things to be renounced or accepted as also the means thereto are real, the scriptures etc. become meaningful. On the other hand, may it not be that for the non-dualists, since duality deos not exist in truest sense, it being the creation of ignorance, therefore the state of bondage of the Self is not ultimately real, and hence the scriptures etc. become purposeless as they remain shorn of a subject-matter? Reply: No, since it is not logical that the Self should have different states. If this were possible at all, then the states of bondage and freedom of the Self should be simultaneous, or successive. As to that, they cannot occur simultaneously, since they are contradictory-like rest and motion in the same object. Should they occur successively and without being caused, then there will arise the contingency of there being no Liberation; if they occur through some cause, then, since they do not exist inherently, there arises the contingency of their being ultimately unreal. In this case also the assumption becomes falsified. Moreover, when ascertaining the precedence and succession of the states of bondage and Liberation, the state of bondage will have to be considered as being the earlier and having no beginning, but an end. And that is contrary to valid means of knowledge. Similarly it will have to be admitted that the state of Liberation has a beginning, but no end- which is certainly opposed to valid means of knowledge. And it is not possible to established eternality for something that has states nd undergoes a change from one state to another. On the other hand, if for avoiding the defect of non-eternality the different states of bondage and Liberation be not assumed, then, even for the dualists such defects as the purposelessness of the scriptures become certainly unavoidable. Thus, the situation being similar (for both), it is not for the Advaitin (alone) to refute the objection. Nor do the scriptures become purposeless, because the scriptures are applicable to the commonly known unenlightened person. It is indeed in the case of the ignorant person-not in the case of the enlightened one-that there occurs the perception of identity of the Self with the effect (i.e. enjoyership) and the cause (i.e. agentship) which are not-Self. For, in the case of the enlightened persons, it is impossible that, after the dawn of the realization of non-identity of the Self with effect and cause, they can have Self identification with these as 'I'. Surely, not even a downright fool, or a lunatic and such others, see water and fire or shade and light as identical; what to speak of a discriminating person! Therefore, such being the case, the scriptures dealing with injunction and prohibition do not concern a person who sees the distinction of the Self from effect and cause. For, when Devadatta is ordered to do som work with the words, 'You do this,' Visnumitra who happens to be there does not, even on hearing the ?nd, conclude, 'I have been ordered.' But this conclusion is reasonable when the person for whom the order is meant is not understood. So also with regard to cause and effect. Objection: Can it not be that, even after having realized the Self as different from effect and cuase, it is ite reasonable from the standpoint of natural relationship, [Natural relationship-Self-identification with the body through ignorance.] that with regard to the scriptures one should have the understanding, 'I am enjoined to adotp the means that yields a desired result, and am porhibited from adopting the means that leads to an undesirable result'? As for instance, in the case of a father and son, or between others, even though there exists the awareness of the distinction between each other, still there is the comprehension of the implication of the injunctions and prohibitions meant for one as being also meant for the other. [In the (Br. (1.5.17) we read, 'Now therefore the entrusting: When a man thinks he will die, he says to his son, "You are Brahman, you are the sacrifice, and you are the world,"' etc. It has been enjoined here in this manner that the son should accept as his own all the duties thus entrusted to him by the father. Similarly, it is understood that when a son in unable to perform his own duties, the father has to accept them. So also in the case of brothers and others. Thus, in the case of the enlightened person also, though there is a comprehension of his own distinction from effect and cause, still, owing to his earlier relationship with ignorance, body, etc., there is no contradiction in his understanding that the injunctions and prohibitions are meant for him.] Reply: No, since identification of the Self with effect and cause is possible only before attaining the knowledge of the Self as distinct (from them). It is only after one has followed (or eschewed) what is enjoined or prohibited by the scriptures that he comprehends his own distinction from the effect and cause; not before. [In B.S. (3.4.26-7) it is said that the merit earned by the performance of scriptural duties helps to generate knowledge of Brahman. Therefore these duties are not meant for the enlightened. (By following what is enjoined, and avoiding what is prohibited, one's mind becomes purified, and then only one understands he is different from cause and effect-agentship and enjoyership.-Tr.)] Therefore it is established that the scriptures dealing with injunctions and prohibitions are meant for the ignorant. Objection: Well, if (injunctions and prohibitions) such as, 'One who desires heaven shall perform sacrifices', 'One should not eat poisoned meat,' etc. be not observed by those who have realized the Self as distinct and by those who view only the body as the Self, then, from the absence of any observer of those (injunctions etc.) there would follow the uselessness of the scriptures. Reply: No, because engagement in or abstention from actions follows from what is ordained by the scriptures. As for one who has realized the identity of the Lord and the knower of the field, one who has realized Brahman-he does not engage in action. Similarly, even the person who does not believe in the Self does not engage in action, under the idea that the other world does not exist. However, one who has inferred the existence of the Self on the ground of the wellknown fact that study of the scriptures dealing with injunctions and prohibitions becomes otherwise purposeless, who has no knowledge of the essential nature of the Self, and in whom has arisen hankering for the results of actions-he faithfully engages in action. This is a matter of direct perception to all to us. Hence, the scriptures are not purposeless. Objection: May it not be that the scriptures will become meaningless when, by noticing abstention from action in the case of men with discrimination, their followers too will abstain? Reply: No, because discrimination arises in some rare person only. For, as at present, some rare one among many people comes to possess discrimination. Besides, fools do not follow one who has discrimination, because (their) engagement in action is impelled by defects such as attachment etc. And they are seen to get engaged in such acts as black magic. Moreover, engagement in action is natural. Verily has it been said (by the Lord), 'But it is Nature that acts' (5.14). Therefore, the mundane state consists of nothing but ignorance, and is an object of perception (to the ignorant man who sees it) just as it appears to him. Ignorance and its effects do not belong to the Knower of the feild, the Absolute. Moreover, false knowledge cannot taint the supreme Reality. For, water in a mirage cannot taint the supreme Reality. For, water in a mirage cannot make a desert muddy with its moisture. Similarly, ignorance cannot act in any way on the Knower of the field. Hence has this been said, 'And understand Me to be knower of the field,' as also, 'Knowledge remains covered by ignorance' (5.15). Objection: Then, what is this that even the learned say like the worldly people, 'Thus [Possessed of aristorcracy etc.] am I,' 'This [Body, wife, etc.] verily belongs to Me'? Reply: Listen. This is that learnedness which consists in seeing the field as the Self! On the contrary, should they realize the unchanging Knower of the field, then they will not crave for enjoyment or action with the idea, 'May this be mine.' Enjoyment and action are mere perversions. This being so, the ignorant man engages in action owing to his desire for results. On the other hand, in the case of an enlightened person who has realized the changeless Self, engagement in aciton in impossible because of the absence of desire for results. Hence, when the activities of the aggregate of body and organs cease, his withdrawal from action is spoken of in a figurative sense. Some may have this other kind of learnedness: 'The Knower of the field is God Himself; and the field is something different and an object of knowledge to the Knower of the field. But I am a mundane being, happy and sorrowful. And it is my duty to bring about the cessation of worldly existence through the knowledge of the field and the Knower of the field, and by continuing to dwell in His true nature after directly perceiving through meditation God, the Knower of the field,' and he who, understands thus, and he who teaches that 'he (the taught) is not the Knower of the field,' and he who, being under such an idea, thinks, 'I shall render meaningful the scriptures dealing with the worldly state and Liberation'-is the meanest among the learned. That Self-immolator, being devoid of any link with the traditional interpreters of the purport of the scriptures, misinterprets what is enjoined in the scriptures and imagines what is not spoken there, and thery himself becoming deluded, befools others too. Hence, one who is not a knower of the traditional interpretation is to be ignored like a fool, though he may be versed in all the scriptures. As for the objection that, if God be one with the knower of the field, He will then become a mundane being, and that, if the knowers of the fields are one with God, then from the nonexistence of mundane beings will follow the absence of the mundane state, -these two objections have been refuted by admitting Knowledge and ignorance as having different characteristics. Objection: How? Reply: By saying that any defect imagined through ignorance does not affect the supreme Reality which is the substratum of that (imagination). In accordance with this an illustration was cited that a desert is not made muddy by water in a mirage. Even the defect of the possibility of nonexistence of the mundange state, conseent on the nonexistence of individual souls, stands refuted by the explanation that the mundane state and the individual souls are imagined through ignorance. Objection: The defect of mundane existence in the knower of the field consists in his being possessed of ignorance. And sorrowfulness etc. which are its products are matters of direct experience. Reply: No, since whatever is known is an attribute of the field, therefore the knower-the knower of the field-cannot reasonably be tainted by the defects arising from it. Whatsoever blemish-not existing in the knower of the field-you attribute to It is logically an object of experience, and hence it is verily a ality of the field; not the ality of the knower of the field. Nor does the knower of the field become tainted thery, because of knower cannot possibly have any conjunction with an object of knowledge. Should there be a conjunction, then there will be no possibility at all of its (the latter's) becoming a knowable. Oh! Sir, if being ignorant, sorrowful, etc. be alities of the Self, how is it that they are directly perceived? Or how can they be alities of the Knower of the field? If the conclusion be that all that is known consititutes the field, and that the one who knows is verily the knower of the field, then, to say that being ignorant, sorrowful, etc.are the alities of the knower of the field and that they are directly perceived is a contradictory statement having only ignorance as its basis. Here, (the opponent) asks: To whom does ignorance belong? (The answer is that) it belongs verily to him by whom it is experienced! Objection: In whom is it perceived? Reply: Here the answer is: It is pointless to ask, 'In whom is ignorance experienced?' Objection: How? Reply: If ignorance be perceived (by you), then you perceive its possessor as well. Moreover, when that possessor of ignorance is perceived it is not reasonable to ask, 'In whom is it perceived?' For, when an owner of cattle is seen, the estion, 'To whom do the cattle belong', does not become meaningful. Objection: Well, is not the illustration dissimilar? Since, the cattle and their owner are directly perceived, their relation also is directly perceived. Hence the estion is meaningless. Ignorance and its possessor are not directly perceived in that manner, in which case the estion would have been meaningless. Reply: What will it matter to you if you know the relation of ignorance with a person who is not directly perceived as possessed of ignorance? Opponent: Since ignorance is a source of evil, therefore it should be got rid of. Reply: He to whom ignorance belongs will get rid of it! Opponent: Indeed, ignorance belongs to myself. Reply: In that case, you know ignorance as also yourself who possess it? Opponent: I know, but not through direct perception. Reply: If you know through inference, then how is the connection (between yourself and ignorance) known? Surely it is not possible for you the knower to have at that time ['When you are knowing your own ignorance.'] the knowledge of the relation (of the Self) with ignorance which is an object of knowledge; ['After having perceived ignorance as an object of your knowledge, how can you who continue to be the knower cognize yourself as the knower of that ignorance? For this would lead to the contradiction of the same person becoming the subject and the object of cognition.'] because the cognizer is then engaged in cognizing ignorance as an object. Besides, there cannot be someone who is a (separate) cognizer of the relation between the knower and ignorance, and a separate cognition of that (relation), for this would lead to infinite regress. If the knower and the relation between the knower and the thing known be cognizable, then a separate cognizer has to be imagined. Of him, again, another knower has to be imagined; of him again a separate cognizer would have to be imagined! Thus, an infinite regress be comes unavoidable. Again, whether the knowable be ignorance or anything else, a knowable is verily a knowable; similarly, even a knower is surely a knower; he does not become a knowable. And when this is so, [Since the knower cannot be known, therefore his relation with ignorance also cannot be known by himself or by anybody else] nothing of the cognizer-the knower of the field-is tainted by such defects as ignorance, sorrowfulness, etc. Objection: May it not be said that the (Self's) defect is surely this, that the field, which is full of defects, is cognized (by It)? Reply: No, because it is the Immutable, which is consciousness, by nature, that is figuratively spoken of as the cognizer. It is just like figuratively attributing the act of heating to fire merely because of its (natural) heat. Just as it has been shown here by the Lord Himself that identification with action, cause and effect are absent in the Self, and that action, cause, etc. are figuratively attributed to the Self owing to their having been superimposed (on It) through ignorance, so has it been shown by Him in various places: 'He who thinks of this One as the killer৷৷.' (2.19), 'While actions are being done in ever way by the gunas of Nature' (3.27), 'The Omnipresent neither accepts anybody's sin৷৷.' (5.15), etc. It has been explained by us, too, in that very way, and in the following contexts also we shall explain accordingly. Objection: Well, in that case, if identification with action, cause and effect be naturally absent in the Self, and it they be superimpositions through ignorance, then it amounts to this that actions are meant for being undertaken only by the ignorant, not by the enlightened. Reply: It is true that is comes to this. This very fact we shall explain under the verse, 'Since it is not possible for one who holds on to a body৷৷.' (18.11). And, in the context dealing with the conclusion of the purport of the whole Scripture, we shall explain this elaborately under the verse, '৷৷.in brief indeed, O son of Kunti,৷৷.which is the supreme consummation of Knowledge' (ibid. 50) It is needless here to expatiate further, Hence we conclude. The next verse, '(Hear about)৷৷.what that field is,' etc., summarizing the purport of the chapter dealing with the 'field' taught in the verses begining from 'This body৷৷.'etc., is being presented. For it is proper to introduce briefly the subject-matter that is sought to be explained.
13.3. O descendant of Bharata ! You should know Me to be also the Field-sensitizer in the Fields of all. The knowledge of the Field and the Field-sensitizer-that knowledge is [in fact] the understanding of Me.
13.2-3 Somewhere in the scriputures it is heard that 'The Field-sensitizer must be worshipped'. Is He the same as the Soul, or the Lord or an altogether different third entity ? On a doubt regarding this problem - The Bhagavat instructs-Idam etc. Ksetrajnam etc. For persons of wordly life their body is the Ksetra 'Field' where the seeds of action grow. That is why their personal Soul covered with incoming (or foreign, not-natural) dirt, is called Field-sensitizer. In the case of the enlightened persons, the self-same body is [again] the Ksetra, But there is difference in etimological meaning viz : It decays the fetters of the result of action by means of consuming [it]; and it protects [them] from the fear of birth-and-death [cycle]. With reference to these persons, the Supreme Soul, Vasudeva is the Field-sensitizer. He who sensitizes this Field : He who causes it to know. Here the root vid includes within itself, the meaning of the causal suffix ni. Therefore [the meaning is :] He, on account of Whose grace this insentient [body] attains the status of being sentient, He alone, an no one else, is the Field-sensitizer. But, the [only] difference is this : Taking into consideration th aspect of limited pervaisveness, He is taken to be Soul; and on account of [His] unlimited pervasiveness in all the Fields, [He is called] the Supreme Soul, the Bhagavat Vasudeva. Of Me : the Sixth Case here is in the objective sense. Hence the idea is : I may be known by means of this knowledge.
13.3 Know as Myself the Field-knower also who is the only form of the Knower in all the bodies like divinities, men etc., i.e., know them as ensouled by Me. By the expression 'also' (Api) in, 'Know Me also (Api) as the Field-Knower,' it is inferable that 'Know Me as the Field-Knower in all Fields' has also been taught by implication. Just as the body, on account of its being the attribute of the knower, cannot exist separately, and is conseently denoted by way of co-ordinate predication (Samanadhikarnya) with it, in the same manner both the Field and the Field-Knower, on account of their being My attributes, cannot exist as entities separate from Me, and hence can be denoted as 'one with Me' by way of co-ordinate predication. Both the Ksetra (Field) which is an aggregate of earth etc., and the Ksetrajna (the Jiva) have the Lord for their Self, because of their being of the nature of the body of the Lord. Such is the teaching of the Sruti passages beginning from 'He who dwelling in the earth, is within the earth, whom the earth does not know, whose body is the earth, who controls the earth from within - He is your inner Controller and immortal Self' (Br. U., 3.7.3), and ending with 'He who, dwelling in the individual self as the self within, whom the self does not know, whose body the self is, who controls the self from within - He is your inner Controller and immortal Self' (Br. U. Madh., 3.7.22). It is the dwelling in of the Lord as the Self of all the knowers of the bodies (Field-Knowers or the Jivas) on account of His being the inner Controller, that is the justification for describing Him as in co-ordinate predication (Samanadhikaranya) with them. In the beginning and later on, it was taught to the effect, 'I am the self, O Arjuna, dwelling in the hearts of all beings' (10.20), and 'Nothing that moves or does not move exists without Me' (10.39) and 'I, with a single aspect of Myself, am sustaining the whole universe' (10.42). In the middle He describes Himself by way of co-ordinate predication as, 'Of Adityas, I am Visnu' etc. In the teachings concerning the difference between the body and its knower and concerning both of them as having Me for their Self - this knowledge of unity by co-ordinate predication alone is taught as 'My view.' Some (the followers of Advaita and Bhedabheda) say: The sentence 'And know Me as the Knower' should be understood as co-ordinate predication expressing identity between the individual self and the Supreme Self. Thus according to their view, the Lord (Isvara), who is Existence-Knowledge-Bliss Absolute must be admitted to have become the individual self, as it were, through nescience (Ajnana). According to their docrine the teaching of identity given here in the Text seeks to sublate that nescience. Just as teaching by a reliable person to the effect, 'This is a rope, and not a snake,' sublates the erroneous notion of a snake, the teaching of the Lord, who is most reliable, sublates the erroneous notion of the individual self (Ksetrjna) being different from Him. Such interpreters are to be estioned thus: Is this Teacher, Bhagavan Vasudeva, the Supreme Ruler, one whose nescience has been sublated by the exact knowledge of the Self or not? If His nescience has been sublated, then the perception of duality like Arjuna as the taught, and of actions like teaching, becomes impossible, because of the impossibility of superimposing a flase form on the Self which is in reality mere undifferentiated Consciousness. If, however, His nescience has not been sublated on account of His not having realised the Self, then, because of His ignorance, it is utterly impossible for Him to teach the knowledge of the Self. Elsewhere it has been stated: 'The wise, who have realised the truth, will instruct you in knowledge' (4.34). Thus, the polemics of this nature are to be ignored as having been set forth to misguide the world by these ignorant daters whose arguments are contradicted by all Vedas, Smrtis, Itihasas, the Puranas, logic and their own words. The truth is this: Some of the Sruti texts declare that non-conscient matter, the conscient entity (the individual self) and the Supreme Brahman are different in nature from one another in the relation of object of enjoyment, the enjoyer (subject) and the Supreme Ruler as follows: 'From Prakrti, the Possessor of Maya projects this world, in which another (i.e. the individual self) is confined by Maya (Sve. U., 4.9); 'Know then Maya to be the Prakrti and the Possessor of Maya to be the Great Lord' (Sve. U., 4.10); 'The perishable is Prakrti; the immortal and imperishable is Hara (the individual self); and the Lord alone rules over both the perishable Prakrti and the imperishable individual self' (Sve. U., 1.10). Here, the expression, 'The immortal and the imperishable is Hara,' points out the enjoyer (i.e., individual self); It is called Hara because the individual self siezes matter as an object of It own experience. Again, 'He is the cause, the Lord of the lord of senses' (Ibid., 6.9); 'He has no progenitor and no Lord' (Ibid., 6.9); 'He is the ruler of Prakrti, of the individual self, and the Lord of alities' (Ibid., 6.16); 'He is the Lord of the Universe, the Ruler of individual selves, the eternal, the auspicious and the unchanging' (Ma. Na., 13.3); 'The two unborn - the knowing Lord and the unknowing individual self, the omnipotent and the impotent' (Sve. U.,1.9); 'The Constant among inconstants, the Intelligent among the intelligents, the one who grants the desires of the many' (Ibid., 6.13. & Ka. U., 5.13); 'When one knows the enjoyer, the object of enjoyment and Actuater ৷৷.' (Sve. U., 1.12); 'Regarding the individual self and the Actuater to be different, and blessed by Him, It attains immortality' (Ibid., 1.6), and 'Ot these two, the one eats the sweet Pippala fruit, the other shines in his splendour without eating' (Ibid., 4.6 and Mun. U., 3.1.1). Further, 'There is one unborn female, red, white and black, who produces many creatures like herself; there is another unborn being who loves her and is close to her; there is yet another male unborn who after having enjoyed here, gives her up' (Ibid., 4.5); 'The cow (i.e. Prakrti) that has no beginning or end, is the mother and source of all beings' (Cha. U., 4.5) and 'On the self-same tree, the individual self sits sunken in grief, and being ignorant and impotent, It grieves. When It sees the other, the gracious Lord and His glory, It attains freedom from grief (Sve. U., 4.7). The following passages of the Gita are alos to the point: 'This Prakrti, thus divided eightfold, composed of Ahankara etc., is Mine.' 'This is My lower Prakrti. Know My higher Prakrti to be distinct from this - the Life Principle, by which the universe is sustained (7.4-5); 'All beings, O Arjuna, enter into My Nature at the end of a cycle. These I send forth again at the beginning of a cycle. Resorting to Prakrti, which is My own, I send forth again and again all this multitude of beings, helpless under the sway of Prakrti' (9.7-8); 'Under my control, Prakrti gives birth to all that moves, and that which does not move. And because of this, O Arjuna, does the world spin' (9.10); 'Know that Prakrti and the individual self are without beginning' (13.19) 'The great Brahman (or Prakrti) is My womb; in that I lay the germ; from it, O Arjuna, is the birth of all beings' (14.3). The great Brahman of Mine, which is the womb of this world, called Prakti, non-conscient matter, consisting of elements in a subtle state - in it I lay the germ called conscient entity. From that, namely, from the compound between conscient and unconscient entities, which is willed by Me, are born all these beings beginning with the gods and ending with the immobile things mixed up with the unconscient matter. Such is the meaning. In the Sruti also, the subtle original state of material elements is signified as Brahman: 'From Him are produced Brahman as also the world of matter and soul (Anna) having name and form' (Mun. U., 1.1.9). Likewise, Sruti Texts declare that the Supreme Person constitutes the Self of all, and the conscient and non-conscient entities are inseparable from Him; for, those conscient and unconscient entities, which abide in the form of the experiencer and the experienced abiding in all states, form the body of the Supreme Person; conseently they are under His control. These Texts are as follows: 'He who, dwelling in the earth, is within the earth, whom the earth does not know, whose body the earth is, who is the Inner Ruler of the earth' and ending with, 'He who, dwelling in the self, is within the self, whom the self does not know, whose body the self is and who is the Inner Controller of the self' (Br. U. Madh., 3.7.3-22). Likewise another passage declares: 'He who is moving withing the earth, to whom the earth is the body, whom the earth does not know ৷৷. he who is moving within the Mrtyu (Nature), to whom Mrtyu is the body, whom Mrtyu does not know ৷৷. He is the Inner Self of all beings, sinless; He is the divine Lord, He is of the one Narayana' (Sub. U., 7). Here the term Mrtyu denotes the subtle state of non-conscient entity which is expressed by the term Tamas, because in the same Upanisad, it is declared, 'The unmanifest (Avyakta) merges into Aksara (the imperishable), and the Aksara merges into Tamas (Ibid., 2). Elsewhere it is stated thus: 'Entering within, is the Ruler of all creatures, the self of all (Tai. A., 3.21). Therefore, the Supreme Person, who posseses conscient and non-conscient entities abiding in all states as His body, is in the form of the world, whether in the state of cause or of effect. So, with the purpose of making this explicit, some Srutis declare that the world in its states as cause and effect, is He Himself. They begin with, 'This Existence (Sat) alone was in the beginning, one only without a second ৷৷. It thought, "May I become many, may I multiply". It creates Tejas' (Cha. U., 6.2.1.2), and ends with 'All creatures here, my dear, have their root in the Sat (Being), have their home in the Sat, have Sat as their support. All this has Sat for its self. That is Existence. He is the Self. That you are, O Svetaketu' (Cha. U., 6.8.4.6-7). Elsewhere is the following text beginning with, 'He desired, "May I become many"; He performed austerity; having performed austerity, He created all this,' and concluding with, 'He became both the Satya (individual self) and Anrta (matter), He has remained true to His nature' (Tai. U., 2.6.1). The difference in nature between conscient and unconscient entities and the Supreme Person, established in the other Sruti passages, is asserted here also: 'Lo! Entering into these three divinities (i.e. the Tejas, water and earth) in the form of living self (individual self), which is Myself, I distinguish name and form? (Cha. U., 6.3.2) and also in the text, 'Having created it, He entered into it. Having entered it, He became Sat and Tyat ৷৷. He became both conscious and unconscious, both the Satya (individual self) and Anrta (matter). He has remained true to His own nature' (Tai. U., 2.6.1). It is in this way that all the distinctions of names and forms are brought about: The Sruti also declares, 'Then, this was undifferentiated. Now, it has been differentiated by names and forms' (Br. U., 1.4.7). Therefore, He who exists in the states of effect and cause, and who has the conscient and unconscient entities in their gross and subtle states as His body, is the Supreme Person. Because the effect is not other than the cause, the effect becomes known when the cause is known, when the One becomes known, everything is known - thus what is posited by the Srutis stands explained. In the text, 'Entering into these three divinities by way of living self (individual self) which is My self, I distinguish name and form' (Cha. U., 6.3.2) - all the non-conscient entities are pointed out by the expression, 'the three divinities', and then the distinguishing of names and forms arises on account of the individual selves having Him for Their Self, entering into those entities. Thus all expressive terms signify the Supreme Self who is alified by the individual selves and non-conscient matter. Therefore, co-ordinate predication (Samanadhikaranya) of a term denoting an effect with a term denoting the Supreme Self as cause, is ite appropriate. Thus the Supreme Brahman, who has conscient and non-conscient entities in their gross and subtle conditions as His modes, is Himself the effect and the cause; so Brahman is the material cause of the world. Brahman Himself constitutes the material cause of the world, because Brahman, who has the conscient and unconscient entities in their subtle state as His body, forms the cause of all. Still as that material cause is a composite entity (i.e., of individual selves, Prakrti aand Isvara), there is no mixing up of the natures of Brahman, conscient entities and non-conscient entities. This is perfectly tenable. Thus, for example, although the material cause of a multi-coloured cloth is a combination of white, black and red threads, the connection of whiteness etc., with the cloth is to be found only in the place where a particular kind of thread is woven in it; in the state of effect also, there is no mixing up of the colours everywhere. Similarly, although the world has for its material cause a combination of the Lord, conscient and non-conscient entities, still in its condition as an effect also, there is no mixing up of the respective alities of experiencer (subject), the experienced (object) and the Controller (God). Though these threads can exist separately they are brought together at a time by man's will and acire the character and effect as a conseence. But in the case of the world manifestation, there is a unieness. It consists in that the intelligent and insentient entities in both causal and effect conditions derive their existential nature only from, and as, modes of the Supreme Person, by forming His body. Thus the Supreme Person having those entities as His body, is always signified by all these terms indicating them. As for the differences in nature, their respective speciality of character holds good here (i.e., in the production of world as of the coloured cloth). Such being the case, though the Supreme Brahman enters the effect, owing to absence of transformation of His nature, the unchangeability is well established. To signify Brahman as effect is also very appropriate, because He is the Self sustaining the conscient and non-conscient entities from within their gross condition when they are differentiated by name and form: What is called effect is nothing other than the cause passing into another state of existence. The various scriptural statements that the Supreme Brahman is without attributes are also tenable in the sense that He is not associated with evil attributes, as the Sruti text, 'He is free from evil, ageless, deathless, sorrowless, hungerless, thirstless' eliminates all evil attributes, and then says that He is full of auspicious attributes: 'Whose desire is real, whose will is real' (Cha. U., 8.7.1). This Sruti text itself settles here what was generally declared elsewhere that negation of attributes (Guna-nisedha) pertains to evil attributes in Brahman. The doctrine that Brahman is of the nature of knowledge is also ite appropriate, because it amounts to saying that the true nature of Brahman, who is omniscient and omnipotent, who is antagonistic to all that is evil, and who is the mine of all auspicious attributes, can be adeately defined only as Knowledge, as one whose nature is Knowledge, since He possesses self-luminosity. The following texts teach that Brahman is the Knower: 'He who is all-knowing, all wise' (Mun. U., 1.1.9); 'His high power is revealed, indeed, as various and natural, as consisting of knowledge, strength and activity' (Sve.U., 6.8); 'My dear, by what means has one to understand the Knower?' (Br. U., 2.4.14); and the text, 'Brahman is Existence, Knowledge and Infinity' (Tai. U., 2.1.1). All these teach that Brahman is of the nature of Knowledge in as much as He can be defined only as Knowledge, and because also He is self-luminous. In the texts 'He desired, "May I become many" ' (Tai. U., 2.6.1), 'It thought, "May I become many" ' (Cha. U., 6.2.3), 'It became differentiated by names and forms' - it is affirmed that Brahman thus exists of His own Will in a wonderful plurality of modes on account of His having the immovable and movable entities as His body. Conseently it is false to affirm the opposite view that the manifold entities do not have Brahman as their self in a real sense. Thus, it is the unreality of manifold existence (i.e., of entities without Brahman for the Self) that is denied in the following texts: 'He obtains death after death who sees difference here' (Ka. U., 2.4.10), 'There is nothing here that is manifold' (Ka. U., 2.4.11), 'But where there is duality, as it were, there one sees another ৷৷. but where everything has become the self ৷৷. there, by what can one see what ৷৷. who shall know which by what?' (Br. U., 4.5.15). There is also no denial of the manifoldness of modes of the Brahman resulting from His assumption of various names and forms by His will. This is established in Sruti texts such as, 'May I become manifold' (Tai. U., 2.6.1 and Cha. U., 6.2.3) etc. This manifold modality is proved to be existent in the commencement of even that passage which negates multiplicity by asserting. 'But where everything has become the self' (Br. U., 4.5.15). 'Everything deserts Him who knows everything to be apart from Him' (Br. U., 4.5.7), and 'Lo, verily, from this great Being has been breathed forth that which is Rg veda' (Ibid., 2.4.10). Thus there is no contradiction whatsoever among the Srutis which assert difference in essence and in nature between the conscient self, non-conscient matter and the Lord, whose body the former entities are. There is no contradiction also in the scriptural statement that they are identical. The relation of the body and the self exists at all times between the Lord and the conscient and non-conscient entities. The Sruti texts themselves establish that those entities, which constitute the body (of the Lord), acire in causal condition, a subtle state, in which they cannot be differentiated. In the effect condition they are in a gross state with names and forms, and are capable of differentiation into a multiplicity of entities as modes of the Supreme. Thus there is no room whatsoever for entertaining such doctrines which ascribe nescience to Brahman (as in Advaita), for describing the differences in Brahman as due to limiting adjuncts (as in Bhedabheda) and other tenets (Yadavaprakasa's). All these proceed from unsound logic and are in viloation of all Srutis. Let this over-long polemic be terminated here. The object of this long polemical passage is to refute the Advaitic interpretation of the statement Know the Field-Knower in all bodies as Myself' as one of absolute identity between the Jiva and Isvara. The thesis of the author of the commentary is that the relation is not oneof absolute identity but only one of identity of reference of several inseparable entities to a comon substratum known technically as Samandadhikaranya or co-ordinate predication, also translated sometimes as grammatical co-ordination. The literal meaning of the expression is 'the relation of abiding in a common substratum.' The relation of the Jiva and Prakrti to Isvara is as of body and soul or as a mode (Prakara) and its substratum (Prakari). The relation between the body and soul of an ordinary being is, however, separable at death. But it is inseparable in the case of Isvara and this Jiva-cum-Prakrti body. In this sense Isvara is the Field-knower (Ksetrajna) of the Field (Ksetra) constituted of all individual entities conscient and inconscient, just as in each individual personality the Jiva and the body are the field-knower and the field respectively. [Being in co-ordinate predication (Samanadhikaranya), Brahman is an inseparable but mutually distinct complex of Prakrti, Jiva and Isvara. The cosmic mode of body constituted of Prakrti and Purusa is at intervals in alternate states of latency and patency (Pralaya and Srsti or dissolution and manifestation). As the soul of a complex whole, He can be denoed by any of the terms entering into it - Isvara, Prakrti or Jiva. Brahan is sometimes mentioned in the Srutis as Asat when everything is in latency in Pralaya, and as Sat when all entities are in manifestations (Srsti). All these expressions denote Him only. He is described in some texts as attributeless. It means only that He is without any undesriable evil alities. He is on the other hand endowed with countless auspicious attributes. All these contentions are supported by numerous Vedic passages, which are oted in the commentary.]
13.3 And know Me also as the Field-Knower in all Fields, O Arjuna. The knowledge of the Field and its knower is, in My view, the true knowledge.
।।13.3।।इस प्रकार कहे हुए क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या इतने ज्ञानसे ही जाने जा सकते हैं इसपर कहते हैं कि नहीं --, तू समस्त क्षेत्रोंमें उपर्युक्त लक्षणोंसे युक्त क्षेत्रज्ञ भी मुझ असंसारी परमेश्वरको ही जान। अर्थात् समस्त शरीरोंमें जो ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त अनेक शरीररूप उपाधियोंसे विभक्त हुआ क्षेत्रज्ञ है? उसको समस्त उपाधिभेदसे रहित एवं सत् और असत् आदि शब्दप्रतीतिसे जाननेमें न आनेवाला ही समझ। हे भारत जब कि क्षेत्र? क्षेत्रज्ञ और ईश्वरइनके यथार्थ स्वरूपसे अतिरिक्त अन्य कोई ज्ञानका विषय शेष नहीं रहता? इसलिये ज्ञेयस्वरूप क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है -- जिस ज्ञानसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ प्रत्यक्ष किये,जाते हैं? वही ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। मुझ ईश्वर -- विष्णुका यही मत -- अभिप्राय है। पू0 -- यदि समस्त शरीरोंमें एक ही ईश्वर है? उससे अतिरिक्त अन्य कोई भोक्ता नहीं है? ऐसा मानें? तो ईश्वरको संसारी मानना हुआ नहीं तो ईश्वरसे अतिरिक्त अन्य संसारीका अभाव होनेसे संसारके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है। यह दोनों ही अनिष्ट हैं क्योंकि ऐसा मान लेनेपर बन्ध? मोक्ष और उनके कारणका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र व्यर्थ हो जाते हैं और प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे भी इस मान्यताका विरोध है। प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो सुखदुःख और उनका कारणरूप यह संसार दीख ही रहा है। इसके सिवा जगत्की विचित्रताको देखकर पुण्यपापहेतुक संसारका होना अनुमानसे भी सिद्ध होता है? परंतु आत्मा और ईश्वरकी एकता मान लेनेपर ये सबकेसब अयुक्त ठहरते हैं। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि ज्ञान और अज्ञानका भेद होनेसे यह सब सम्भव है। ( श्रुतिमें भी कहा है कि ) प्रसिद्ध जो अविद्या और विद्या हैं वे अत्यन्त विपरीत और भिन्न समझी गयी हैं तथा ( उसी जगह ) उन विद्या और अविद्याका फल भी श्रेय और प्रेय इस प्रकार परस्परविरुद्ध दिखलाया गया है? इनमें विद्याका फल श्रेय ( मोक्ष ) और अविद्याका प्रेय ( इष्ट भोगोंकी प्राप्ति ) है। वैसे ही श्रीव्यासजीने भी कहा है कि यह दोनों ही मार्ग है इत्यादि तथा यह दो ही मार्ग हैं इत्यादि और यहाँ गीताशास्त्रमें भी दो निष्ठाएँ बतलायी गयी हैं। इसके सिवा श्रुति? स्मृति और न्यायसे भी यही सिद्ध होता है कि विद्याके द्वारा कार्यसहित अविद्याका नाश करना चाहिये। इस विषयमें ये श्रुतियाँ यहाँ यदि जान लिया तो बहुत ठीक है और यदि यहाँ नहीं जाना तो बड़ी भारी हानि है उसको इस प्रकार जाननेवाला यहाँ अमृत हो जाता है परमपदकी प्राप्तिके लिये ( विद्याके सिवा ) अन्य मार्ग नहीं है विद्वान् किसीसे भी भयभीत नहीं होता। किन्तु अज्ञानीके विषयमें ( कहा है कि ) उसको भय होता है जो कि अविद्याके बीचमें ही प़ड़े हुए हैं जो ब्रह्मको जानता है वह ब्रह्म ही हो जाता है यह देव अन्य है और मैं अन्य हूँ इस प्रकार जो समझता है वह आत्मतत्त्वको नहीं जानता जैसे ( मनुष्योंका पशु होता है वैसे ही वह देवताओंका पशु है किन्तु जो आत्मज्ञानी है ( उसविषयमें ) वह यह सब कुछ हो जाता है यदि आकाशको चमक समान लपेटा जा सके इत्यादि सहस्रों श्रुतियाँ हैं। तथा ये स्मृतियाँ भी हैं -- ज्ञान अज्ञानसे ढका हुआ है? इसलिये जीव मोहित हो रहे हैं जिनका चित्त समतामें स्थित है उन्होंने यहीं संसारको जीत लिया है सर्वत्र समानभावसे देखता हुआ इत्यादि। युक्तिसे भी यह बात सिद्ध है। जैसे कहा है कि सर्प? कुशकंण्टक और तालाबको जान लेनेपर मनुष्य उनसे बच जाते हैं? किन्तु बिना जाने कई एक उनमें गिर जाते हैं? इस न्यायसे ज्ञानका जो विशेष फल है उसको समझ। इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणोंसे यह ज्ञान होता है कि देहादिमें आत्मबुद्धि करनेवाला अज्ञानी रागद्वेषादि दोषोंसे प्रेरित होकर धर्मअधर्मरूप कर्मोंका अनुष्ठान करता हुआ जन्मता और मरता रहता है? किंतु देहादिसे अतिरिक्त आत्माका साक्षात् करनेवाले पुरुषोंके रागद्वेषादि दोष निवृत्त हो जाते हैं? इससे उनकी धर्माधर्मविषयक प्रवृत्ति शान्त हो जानेसे वे मुक्त हो जाते हैं। इस बातका कोई भी न्यायानुसार विरोध नहीं कर सकता।अतः यह सिद्ध हुआ कि जो वास्तवमें ईश्वर ही है उस क्षेत्रज्ञको अविद्याद्वारा आरोपित उपाधिके भेदसे संसारित्व प्राप्तसा हो जाता है? जैसे कि जीवको देहादिमें आत्मबुद्धि हो जाती है क्योंकि समस्त जीवोंका जो देहादि अनात्मपदार्थोंमें आत्मभाव प्रसिद्ध है? वह निःसंदेह अविद्याकृत ही है। जैसे स्तम्भमें मनुष्यबुद्धि हो जाती है? परंतु इतनेहीसे मनुष्यके धर्म स्तम्भमें और स्तम्भके धर्म मनुष्यमें नहीं आ जाते? वैसे ही चेतनके धर्म देहमें और देहके धर्म चेतनमें नहीं आ सकते। जरा और मृत्युके समान ही अविद्याके कार्य होनेसे सुखदुःख और अज्ञान आदि भी उन्हींकी भाँति आत्माके धर्म नहीं हो सकते। पू0 -- यदि ऐसा मानें कि विषम होनेके कारण यह दृष्टान्त ठीक नहीं है अर्थात् स्तम्भ और पुरुष दोनों ज्ञेय वस्तु हैं? उनमें अविद्यावश ज्ञाताद्वारा एकमें एकका अध्यास किया गया है परंतु देह और आत्मामें तो ज्ञेय और ज्ञाताका ही एक दूसरेमें अध्यास होता है? इसलिये यह दृष्टान्त सम नहीं है? अतः यह सिद्ध होता है कि देहका ज्ञेयरूप ( सुखदुःखादि ) धर्म भी ज्ञाता -- आत्मामें होता है। उ0 -- इसमें आत्माको जड़ मानने आदिका प्रसङ्ग आ जाता है? इसलिये ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि यदि ज्ञेयरूप शरीरादि -- क्षेत्रक सुख? दुःख? मोह और इच्छादि धर्म ज्ञाता ( आत्मा ) के भी होते हैं? तो यह बतलाना चाहिये कि ज्ञेयरूप क्षेत्रके अविद्याद्वारा आरोपित कुछ धर्म तो आत्मामें होते हैं और कुछ -- जरामरणादि नहीं होते? इस विशेषताका कारण क्या है बल्कि? ऐसा अनुमान तो किया जा सकता है कि जरा आदिके समान अविद्याद्वारा आरोपित और त्याज्य तथा ग्राह्य होनेके कारण ये सुखदुःखादि ( आत्माके धर्म ) नहीं हैं। ऐसा होनेसे यह सिद्ध हुआ कि कर्तृत्वभोक्तृत्वरूप यह संसार ज्ञेय वस्तुमें स्थित हुआ ही अविद्याद्वारा ज्ञातामें अध्यारोपित है? अतः उससे ज्ञाताका कुछ भी नहीं बिगड़ता? जैसे कि मूर्खोंद्वारा अध्यारोपित तलमलिनतादिसे आकाशका ( कुछ भी नहीं बिगड़ता )। अतः सब शरीरोंमें रहते हुए भी भगवान्क्षेत्रज्ञ ईश्वरमें संसारीपनके गन्धमात्रकी भी शङ्का नहीं करनी चाहिये क्योंकि संसारमें कहीं भी अविद्याद्वारा आरोपित धर्मसे किसीका भी उपकार या अपकार होता नहीं देखा जाता। तुमने जो यह कहा था कि ( स्तम्भमें मनुष्यके भ्रमका ) दृष्टान्त सम नहीं है सो ( यह कहना ) भूल है। पू0 -- कैसे उ0अविद्याजन्य अध्यासमात्रमें ही दृष्टान्त और दार्ष्टान्तकी समानता विवक्षित है। उसमें कोई दोष नहीं आता। परंतु तुम जो यह मानते हो कि ज्ञातामें दृष्टान्त और दार्ष्टान्तकी विषमताका दोष आता है? तो उसका भी अपवाद? जरामृत्यु आदिके दृष्टान्तसे दिखला दिया गया है। पू0 -- यदि ऐसा कहें कि अविद्यायुक्त होनेसे क्षेत्रज्ञको ही संसारित्व प्राप्त हुआ? तो उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि अविद्या? तामस प्रत्यय है। तामस प्रत्यय? चाहे विपरीत ग्रहण करनेवाला,( विपर्यय ) हो? चाहे संशय उत्पन्न करनेवाला ( संशय ) हो और चाहे कुछ भी ग्रहण न करनेवाला हो? आवरणरूप होनेके कारण वह अविद्या ही है? क्योंकि विवेकरूप प्रकाशके होनेपर वह दूर हो जाता है तथा आवरणरूप तमोमय तिमिरादि दोषोंके रहते हुए ही अग्रहण आदिरूप तीन प्रकारकी अविद्याका अस्तित्व उपलब्ध होता है। पू0 -- यदि यह बात है तब तो अविद्या ज्ञाताका धर्म हुआ उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि तिमिररोगादिजन्य दोष चक्षु आदि करणोंमें ही देखे जाते हैं ( ज्ञाता आत्मामें नहीं )। जो तुम ऐसा मानते हो कि अविद्या ज्ञाताका धर्म है और अविद्यारूप धर्मसे युक्त होना ही उसका संसारित्व है? इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि ईश्वर ही क्षेत्रज्ञ है और वह संसारी नहीं है सो तुम्हारा ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि नेत्ररूप करणमें विपरीत ग्राहकता आदि दोष देखे जाते हैं तो भी वे विपरीतादि ग्रहण या उनके कारणरूप तिमिरादि दोष ज्ञाताके नहीं हो जाते ( उसी प्रकार देहके धर्म भी आत्माके नहीं हो सकते )। तथा जैसे आँखका संस्कार करके तिमिरादि प्रतिबन्धको हटा देनेपर ग्रहीता पुरुषमें वे दोष नहीं देखे जाते? इसलिये वे ग्रहीता पुरुषके धर्म नहीं हैं? वैसे ही अग्रहण? विपरीतग्रहण और संशय आदि प्रत्यय तथा उनके कारणरूप तिमिरादि दोष भी सर्वत्र किसीनकिसी करणके ही हो सकते हैं -- ज्ञाता पुरुषके अर्थात् क्षेत्रज्ञके नहीं। इसके सिवा वे जाननेमें आनेवाले ( ज्ञानके विषय ) होनेसे भी दीपकके प्रकाशकी भाँति ज्ञाताके धर्म नहीं हो सकते क्योंकि वे ज्ञेय हैं? इसलिये अपनेसे अतिरिक्त किसी अन्यद्वारा जाननेमें आनेवाले हैं। सभी आत्मवादी समस्त करणोंसे आत्माका वियोग होनेके उपरान्त कैवल्य अवस्थामें आत्माको अविद्यादि दोषोंसे रहित मानते हैं? इससे भी ( उपर्युक्त सिद्धान्त ही सिद्ध होता है ) क्योंकि यदि अग्निकी उष्णताके समान ये ( सुखदुःखादि दोष ) क्षेत्रज्ञ आत्माके अपने धर्म हों तो उनसे उसका कभी वियोग नहीं हो सकेगा। इसके सिवा आकाशकी भाँति सर्वव्यापक? मूर्तिरहित? निर्विकार आत्माका किसीके साथ संयोगवियोग होना सम्भव नहीं है? इससे भी क्षेत्रज्ञकी नित्य ईश्वरता ही सिद्ध होती है। तथा अनादित्वान्िनर्गुणत्वात् इत्यादि भगवान्के वचनोंसे भी क्षेत्रज्ञका नित्य ईश्वरत्व हि सिद्ध होता है। पू0 -- ऐसा मान लेनेपर तो संसार और संसारित्वका अभाव हो जानेके कारण शास्त्रकी व्यर्थता आदि दोष उपस्थित होंगे उ0 -- नहीं क्योंकि यह दोष तो सभीने स्वीकार किया है। सभी आत्मवादियोंद्वारा स्वीकार किये हुए दोषका किसी एकके लिये ही परिहार करना आवश्यक नहीं है।, पू0 -- इसे सबने कैसे स्वीकार किया है उ0 -- सभी आत्मवादियोंने मुक्त आत्मामें संसार और संसारीपनके व्यवहारका अभाव माना है? परंतु ( इससे ) उनके मतमें शास्त्रकी अनर्थकता आदि दोषोंकी प्राप्ति नहीं मानी गयी। जैसे समस्त द्वैतवादियोंके मतसे बन्धावस्थामें ही शास्त्र आदिकी सार्थकता है मुक्तअवस्थामें नहीं? वैसे ही हमारे मतमें भी जीवोंकी ईश्वरके साथ एकता हो जानेपर यदि शास्त्रकी व्यर्थता होती हो तो हो? अविद्यावस्थामें तो उसकी सार्थकता है ही। पू0 -- हम सब द्वैतवादियोंके सिद्धान्तसे तो आत्माकी बन्धावस्था और मुक्तावस्था वास्तवमें ही सच्ची है। अतः वे हेय? उपादेय हैं और उनके सब साधन भी सत्य हैं। इस कारण शास्त्रकी सार्थकता हो सकती है। परंतु अद्वैतवादियोंके सिद्धान्तसे तो द्वैतभाव अविद्याजन्य और मिथ्या है? अतः आत्मामें बन्धावस्था भी वास्तवमें नहीं है? इसलिये शास्त्रका कोई विषय न रहनेके कारण शास्त्र आदिकी व्यर्थताका दोष आता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्माके अवस्थाभेद सिद्ध नहीं हो सकते? यदि ( आत्मामें इनका होना ) मान भी लें तो आत्माकी ये बन्ध और मुक्त दोनों अवस्थाएँ एक साथ होनी चाहिये या क्रमसे स्थिति और गतिकी भाँति परस्परविरोध होनेके कारण दोनों अवस्थाएँ एक साथ तो एकमें हो नहीं सकतीं। यदि क्रमसे होना मानें तो बिना निमित्तके बन्धावस्थाका होना माननेसे तो उससे कभी छुटकारा न होनेका प्रसङ्ग आ जायगा और किसी निमित्तसे उसका होना मानें तो स्वतः न होनेके कारण वह मिथ्या ठहरती है। ऐसा होनेपर स्वीकार किया हुआ सिद्धान्त कट जाता है। इसके सिवा बन्धावस्था और मुक्तावस्थाका आगापीछा निरूपण किया जानेपर पहले बन्धावस्थाका होना माना जायगा तथा उसे आदिरहित और अन्तयुक्त मानना पड़ेगा सो यह प्रमाणविरुद्ध है? ऐसे ही मुक्तावस्थाको भी आदियुक्त और अन्तरहित प्रमाणविरुद्ध ही मानना पड़ेगा। तथा आत्माकी अवस्थावाला और एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें जानेवाला मानकर उसका नित्यत्व सिद्ध करना भी सम्भव नहीं है। जब कि आत्मामें अनित्यत्वके दोषका परिहार करनेके लिये बन्धावस्था और मुक्तावस्थाके भेदकी कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिये द्वैतवादियोंके मतसे भी शास्त्रकी व्यर्थता आदि दोष अबाध्य ही हैं। इस प्रकार दोनोंके लिये समान होनेके कारण इस दोषका परिहार केवल अद्वैतवादियोंद्वारा ही किया जाना आवश्यक नहीं है। ( हमारे मतानुसार तो वास्तवमें ) शास्त्रकी व्यर्थता है भी नहीं क्योंकि शास्त्र लोकप्रसिद्ध अज्ञानीका ही विषय है। अज्ञानियोंका ही फल और हेतुरूप अनात्मवस्तुओंमें आत्मभाव होता है? विद्वानोंका नहीं। क्योंकि विद्वान्की बुद्धिमें फल और हेतुसे आत्माका पृथक्त्व प्रत्यक्ष है? इसलिये उसका उन (अनात्मपदार्थों ) में यह मैं हूँ ऐसा आत्मभाव नहीं हो सकता। अत्यन्त मूढ़ और उन्मत्त आदि भी जल और अग्निकी? या छाया और प्रकाशकी एकता नहीं मानते? फिर विवेकीकी तो बात ही क्या है सुतरां फल और हेतुसे आत्माको भिन्न समझ लेनेवाले ज्ञानीके लिये विधिनिषेधविषयक शास्त्र नहीं है। जैसे हे देवदत्त तू अमुक कार्य कर इस प्रकार किसी कर्ममें ( देवदत्तके ) नियुक्त किये जानेपर वहीं खड़ा हुआ विष्णुमित्र उस नियुक्तिको सुनकर भी? यह नहीं समझता कि मैं नियुक्त किया गया हूँ। हाँ? नियुक्तिविषयक विवेकका स्पष्ट ग्रहण न होनेसे तो ऐसा समझना ठीक हो सकता है? इसी प्रकार फल और,हेतुमें भी ( अज्ञानियोंकी आत्मबुद्धि हो सकती है )। पू0 -- फल और हेतुसे आत्माके पृथक्त्वका ज्ञान हो जानेपर भी? स्वाभाविक सम्बन्धकी अपेक्षासे शास्त्रविषयक इतना बोध होना तो युक्तियुक्त ही है कि मैं शास्त्रद्वारा अनुकूल फल और उसके हेतुमें तो प्रवृत्त किया गया हूँ और प्रतिकूल फल और उसके हेतुसे निवृत्त किया गया हूँ? जैसे कि पितापुत्र आदिका आपसमें एक दूसरेको भिन्न समझते हुए भी एक दूसरेके लिये किये हुए नियोग और प्रतिषेधको अपने लिये समझना देखा जाता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्माके पृथक्त्वका ज्ञान होनेसे पहलेपहले ही फल और हेतुमें आत्माभिमान होना सिद्ध है। नियोग और प्रतिषेधके अभिप्रायको भली प्रकार जानकर ही मनुष्य फल और हेतुसे आत्माके पृथक्त्वको जान सकता है? उससे पहले नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि विधिनिषेधरूप शास्त्रकेवल अज्ञानीके लिये ही है। पू0 -- (इस सिद्धान्तके अनुसार ) स्वर्गकी कामनावाला यज्ञ करे मांस भक्षण न करे इत्यादि विधिनिषेधबोधक शास्त्रवचनोंमें आत्माका पृथक्तव जाननेवालोंकी और केवल देहात्मवादियोंकी भी प्रवृत्ति न होनेसे कर्ताका अभाव हो जानेके कारण शास्त्रके व्यर्थ होनेका प्रसङ्ग आ जायगा उ0 -- यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि प्रवृत्ति और निवृत्तिका होना लोकप्रसिद्धिसे ही प्रत्यक्ष है। ईश्वर और जीवात्माकी एकता देखनेवाला ब्रह्मवेत्ता कर्मोंमें प्रवृत्त नहीं होता तथा आत्मसत्ताको न माननेवाला देहात्मवादी भी परलोक नहीं है ऐसा समझकर शास्त्रानुसार नहीं बर्तता यह ठीक है परंतु लोकप्रसिद्धिसे यह तो हम सबको प्रत्यक्ष है ही कि विधिनिषेधबोधक शास्त्रश्रवणकी दूसरी तरह उपपत्ति न होनेके कारण जिसने आत्माके अस्तित्वका अनुमान कर लिया है? एवं जो आत्माके असली तत्त्वका ज्ञाता नहीं है जिसकी कर्मोंके फलमें तृष्णा है? ऐसा मनुष्य श्रद्धालुताके कारण ( शास्त्रानुसार कर्मोंमें ) प्रवृत्त होता है। अतः शास्त्रकी व्यर्थता नहीं है। पू0 -- विवेकशील पुरुषोंकी प्रवृत्ति न देखनेसे उनका अनुकरण करनेवालोंकी भी ( शास्त्रविहित कर्मोंमें ) प्रवृत्ति नहीं होगी? अतः शास्त्रव्यर्थ हो जायगा। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि किसी एकको ही विवेकज्ञान प्राप्त होता है। अर्थात् अनेक प्राणियोंमेंसे कोई एक ही विवेकी होता है जैसा कि आजकल ( देखा जाता है )। इसके सिवा मूढ़लोग विवेकियोंका अनुकरण भी नहीं करते क्योंकि प्रवृत्ति रागादि दोषोंके अधीन हुआ करती है। ( प्रतिहिंसाके उद्देश्यसे किये जानेवाले जारणमारण आदि ) अभिचारोंमें भी लोगोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है तथा प्रवृत्ति स्वाभाविक है। यह कहा भी है कि स्वभाव ही बर्तता है। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि संसार अविद्यामात्र ही है और वह अज्ञानियोंका ही विषय है। केवलशुद्ध क्षेत्रज्ञमें अविद्या और उसके कार्य दोनों ही नहीं हैं। तथा मिथ्याज्ञान परमार्थवस्तुको दूषित करनेमें समर्थ भी नहीं है। क्योंकि जैसे ऊसर भूमिको मृगतृष्णिकाका जल अपनी आर्द्रतासे कीचड़युक्त नहीं कर सकता? वैसे ही अविद्या भी क्षेत्रज्ञका कुछ भी ( उपकार या अपकार ) करनेमें समर्थ नहीं है? इसीलिये क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि और अज्ञानेनावृतं ज्ञानम् यह कहा है। पू0 -- तो फिर यह क्या बात है कि संसारी पुरुषोंकी भाँति पण्डितोंको भी मैं ऐसा हूँ यह वस्तु मेरी ही है ऐसी प्रतीत होती है। उ0 -- सुनो? यह पाण्डित्य बस इतना ही है जो कि क्षेत्रमें ही आत्माको देखना है परंतु यदि मनुष्य क्षेत्रज्ञको निर्विकारी समझ ले तो फिर मुझे अमुक भोग मिले या मैं अमुक कर्म करूँ ऐसी आकाङ्क्षा नहीं कर सकता? क्योंकि भोग और कर्म दोनों विकार ही तो हैं। सुतरां यह सिद्ध हुआ कि फलेच्छुक होनेके कारण अज्ञानी कर्मोंमें प्रवृत्त होता है परंतु विकाररहित आत्माका साक्षात् कर लेनेवाले ज्ञानीमें फलेच्छाका अभाव होनेके कारण? उसकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं? अतः कार्यकरणसंघातके व्यापारकी निवृत्ति होनेपर उस ( ज्ञानी ) में निवृत्तिका उपचार किया जाता है। किसीकिसीके मतमें यह एक प्रकारकी विद्वत्ता और भी हो सकती है कि? क्षेत्रज्ञ तो ईश्वर ही है और उस क्षेत्रज्ञके ज्ञानका विषय क्षेत्र उससे अलग है तथा मैं तो ( उन दोनोंसे भिन्न ) संसारी और सुखीदुःखी भी हूँ। मुझे क्षेत्रक्षेत्रज्ञके ज्ञान और ध्यानद्वारा ईश्वररूप क्षेत्रज्ञका साक्षात् करके उसके स्वरूपमें स्थित होनारूप साधनसे संसारकी निवृत्ति करनी चाहिये। जो ऐसा समझता है या दूसरेको ऐसा समझाता है कि वह ( जीव ) क्षेत्रज्ञ ( ब्रह्म ) नहीं है तथा जो यह मानता है कि मैं ( इस प्रकारके सिद्धान्तसे ) संसार? मोक्ष और शास्त्रकी सार्थकता सिद्ध करूँगा? वह पण्डितोंमें अधम है। तथा वह आत्महत्यारा? शास्त्रके अर्थकी सम्प्रदायपरम्परासे रहित होनेके कारण? श्रुतिविहित अर्थका त्याग और वेदविरुद्ध अर्थकी कल्पना करके स्वयं मोहित हो रहा है और दूसरोंको भी मोहित करता है। सुतरां जो शास्त्रार्थकी परम्पराको जाननेवाला नहीं है? वह समस्त शास्त्रोंका ज्ञाता भी हो तो भी मूर्खोंके समान उपेक्षणीय ही है। और जो यह कहा था कि ईश्वरकी क्षेत्रज्ञके साथ एकता माननेसे तो ईश्वरमें संसारीपन आ जाता है और क्षेत्रज्ञोंकी ईश्वरके साथ एकता माननेसे कोई संसारी न रहनेके कारण संसारके अभावका प्रसङ्ग आ जाता है? सो विद्या और अविद्याकी विलक्षणताके प्रतिपादनसे इन दोनों दोषोंका ही परिहार कर दिया गया। पू -- कैसे उ0 -- अविद्याद्वारा कल्पित किये हुए दोषसे तद्विषयक पारमार्थिक ( असली ) वस्तु दूषित नहीं होती? इस कथनसे पहली शङ्काका निराकरण किया गया और वैसे ही यह दृष्टान्त भी दिखलाया कि मृगतृष्णिकाके जलसे ऊसर भूमि पङ्कयुक्त नहीं की जा सकती। तथा संसारीका अभाव होनेसे संसारके अभावके प्रसङ्गका जो दोष बतलाया था? उसका भी संसार संसारित्वकी अविद्याकल्पित उपपत्तिको स्वीकार करके निराकरण कर दिया गया। पू0 -- क्षेत्रज्ञका अविद्यायुक्त होना ही तो संसारित्वरूप दोष है? क्योंकि उससे होनेवाले दुःखित्व आदि दोष प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं? क्योंकि जो कुछ ज्ञेय है -- जाननेमें आता है? वह सब क्षेत्रका ही धर्म है? इसलिये,उसके किये हुए दोष ज्ञाता क्षेत्रज्ञके नहीं हो सकते। तू क्षेत्रज्ञपर वास्तवमें बिना हुए ही जो कुछ भी दोष लाद रहा है? वे सब ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्रके ही धर्म हैं? क्षेत्रज्ञके नहीं। उनसे क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) दूषित नहीं हो सकता? क्योंकि ज्ञेयके साथ ज्ञाताका संसर्ग नहीं हो सकता। यदि उनका संसर्ग मान लिया जाय तो (ज्ञेयका) ज्ञेयत्व ही सिद्ध नहीं हो सकता। अभिप्राय यह है कि यदि अविद्यायुक्त होना और दुखी होना आदि आत्माके धर्म हैं तो वे प्रत्यक्ष कैसे दीखते हैं और वे क्षेत्रज्ञके धर्म हो भी कैसे सकते हैं क्योंकि जो कुछ भी ज्ञेय वस्तु है वह सब क्षेत्र है और क्षेत्रज्ञ ज्ञाता है? ऐसा सिद्धान्त स्थापित किये जानेपर फिर अविद्यायुक्त होना और दुखी होना आदि दोषोंको क्षेत्रज्ञके धर्म बतलाना और उनकी प्रत्यक्ष उपलब्धि भी मानना? यह सब अज्ञानमात्रके आश्रयसे केवल विरुद्ध प्रलाप करना है। पू0 -- वह अविद्या किसमें है उ0 -- जिसमें दीखती है उसीमें। पू0 -- किसमें दीखती है उ0 -- अविद्या किसमें दीखती है -- यह प्रश्न ही निरर्थक है। पू0 -- किस प्रकार उ0 -- यदि अविद्या दीखती है तो उससे जो युक्त है उसको भी तू अवश्य देखता ही होगा फिर अविद्यावान्की उपलब्धि हो जानेपर वह अविद्या किसमें है? यह पूछना ठीक नहीं है। क्योंकि गौवालेको देख लेनेपर यह गौ किसकी है यह पूछना सार्थक नहीं हो सकता। पू0 -- तुम्हारा यह दृष्टान्त विषय है। गौ और उसका स्वामी तो प्रत्यक्ष होनेके कारण उनका सम्बन्ध भी प्रत्यक्ष है इसलिये ( उनके सम्बन्धके विषयमें ) प्रश्न निरर्थक है? परंतु उनकी भाँति अविद्यावान् और अविद्या तो प्रत्यक्ष नहीं हैं? जिससे कि यह प्रश्न निरर्थक माना जाय उ0 -- अप्रत्यक्ष अविद्यावान्के साथ अविद्याका सम्बन्ध जान लेनेसे तुम्हें क्या मिलेगा पू0 -- अविद्या अनर्थकी हेतु है? इसलिये उसका त्याग किया जा सकेगा। उ0 -- जिसमें अविद्या है? वह उसका स्वयं त्याग कर देगा। पू0 -- मुझमें ही तो अविद्या है। उ0 -- तब तो तू अविद्या और उससे युक्त अपने आपको जानता है। पू0 -- जानता तो हूँ परंतु प्रत्यक्षरूपसे नहीं। उ0 -- यदि अनुमानसे जानता है तो ( तुझ ज्ञाता और अविद्याके ) सम्बन्धका ग्रहण कैसे हुआ क्योंकि उस,समय ( अविद्याको अनुमानसे जाननेके कालमें ) तुझ ज्ञाताका ज्ञेयरूप अविद्याके साथ सम्बन्ध ग्रहण नहीं किया जा सकता? कारण यह है कि ज्ञाताका विषय मानकर ही अविद्याका उपयोग किया गया है। तथा ज्ञाता और अविद्याके सम्बन्धको जो ग्रहण करनेवाला है वह तथा उस ( अविद्या और ज्ञाताके सम्बन्ध ) को विषय करनेवाला कोई दूसरा ज्ञान ये दोनों ही सम्भव नहीं हैं। क्योंकि ऐसा होनेसे अनवस्थादोष प्राप्त होता है अर्थात् यदि ज्ञाता और ज्ञेयज्ञाताका सम्बन्ध ये भी ( किसीके द्वारा ) जाने जाते हैं? ऐसा माना जाय तो उसका ज्ञाता किसी औरको मानना होगा। फिर उसका भी दूसरा और उसका भी दूसरा ज्ञाता मानना होगा? इस प्रकार यह अनवस्था अनिवार्य हो जायगी। पंरतु ज्ञेय चाहे अविद्या हो अथवा और कुछ हो? ज्ञेय ज्ञेय ही रहेगा ( ज्ञाता नहीं हो सकता ) वैसे ही ज्ञाता भी ज्ञाता ही रहेगा? ज्ञेय नहीं हो सकता? जब कि ऐसा है तो अविद्या या दुःखित्व आदि दोषोंसे ज्ञाता -- क्षेत्रज्ञका कुछ भी दूषित नहीं हो सकता। पू0 -- यही उसका दोष है जो कि वह दोषयुक्त क्षेत्रका ज्ञाता है। उ0 -- यह कहना ठीक नहीं क्योंकि आत्मा विज्ञानस्वरूप और अविक्रिय है? उसमें ( इस ) ज्ञातापनका उपचारमात्र किया जाता है? जैसे कि उष्णतामात्र स्वभाव होनेसे अग्निमें तपानेकी क्रियाका उपचार किया जाता है। जैसे भगवान्ने यहाँ ( इस प्रकरणमें ) यह दिखाया है कि आत्मामें स्वभावसे ही क्रिया? कारक और फलात्मत्वका अभाव है? केवल अविद्याद्वारा अध्यारोपित होनेके कारण क्रिया? कारक आदि आत्मामें उपचरित होते हैं? वैसे ही? जो इसे मारनेवाला जानता है प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सब कर्म किये जाते हैं ( वह विभु ) किसीके पापपुण्यको ग्रहण नहीं करता इत्यादि प्रकरणोंमें जगहजगह दिखाया गया है और इसी प्रकार हमने व्याख्या भी की है? तथा आगेके प्रकरणोंमें भी हम दिखलायेंगे। पू0 -- तब तो आत्मामें स्वभावसे क्रिया? कारक और फलात्मत्वका अभाव सिद्ध होनेसे तथा ये सब अविद्याद्वारा अध्यारोपित सिद्ध होनेसे यही निश्चय हुआ कि कर्म अविद्वान्को ही कर्तव्य है? विद्वान्को नहीं। उ0 -- ठीक यही सिद्ध हुआ। इसी बातको हम न हि देहभृता शक्यम् इस प्रकरणमें और सारे गीताशास्त्रके उपसंहारप्रकरणमें दिखलायेंगे। तथा सामसेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा इस श्लोकके अर्थमें विशेषरूपसे दिखायेंगे। बस? यहाँ अब और अधिक विस्तारकी आवश्यकता नहीं है? इसलिये उपसंहार किया जाता है।
।।13.3।। --,क्षेत्रज्ञं यथोक्तलक्षणं चापि मां परमेश्वरम् असंसारिणं विद्धि जानीहि। सर्वक्षेत्रेषु यः क्षेत्रज्ञः ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानेकक्षेत्रोपाधिप्रविभक्तः? तं निरस्तसर्वोपाधिभेदं सदसदादिशब्दप्रत्ययागोचरं विद्धि इति अभिप्रायः। हे भारत? यस्मात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञेश्वरयाथात्म्यव्यतिरेकेण न ज्ञानगोचरम् अन्यत् अवशिष्टम् अस्ति? तस्मात् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः ज्ञेयभूतयोः यत् ज्ञानं क्षेत्रक्षेत्रज्ञौ येन ज्ञानेन विषयीक्रियेते? तत् ज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् इति मतम् अभिप्रायः मम ईश्वरस्य विष्णोः।।ननु सर्वक्षेत्रेषु एक एव ईश्वरः? न अन्यः तद्व्यतिरिक्तः भोक्ता विद्यते चेत्? ततः ईश्वरस्य संसारित्वं प्राप्तम् ईश्वरव्यतिरेकेण वा संसारिणः अन्यस्य अभावात् संसाराभावप्रसङ्गः। तच्च उभयमनिष्टम्? बन्धमोक्षतद्धेतुशास्त्रानर्थक्यप्रसङ्गात्? प्रत्यक्षादिप्रमाणविरोधाच्च। प्रत्यक्षेण तावत् सुखदुःखतद्धेतुलक्षणः संसारः उपलभ्यते जगद्वैचित्र्योपलब्धेश्च धर्माधर्मनिमित्तः संसारः अनुमीयते। सर्वमेतत् अनुपपन्नमात्मेश्वरैकत्वे।।न ज्ञानाज्ञानयोः अन्यत्वेनोपपत्तेः -- दूरमेते विपरीते विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता (क0 उ0 1।2।4)। तथा च तयोः विद्याविद्याविषययोः फलभेदोऽपि विरुद्धः निर्दिष्टः -- श्रेयश्च प्रेयश्च इति विद्याविषयः श्रेयः? प्रेयस्तु अविद्याकार्यम् इति। तथा च व्यासः -- द्वाविमावथ पन्थानौ (महा0 शान्ति0 241।6) इत्यादि? इमौ द्वावेव पन्थानौ इत्यादि च। इह च द्वे निष्ठे उक्ते। अविद्या च सह कार्येण हातव्या इति श्रुतिस्मृतिन्यायेभ्यः अवगम्यते। श्रुतयः तावत् -- इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः (के0 उ0 2।5) तमेवं विद्वानमृत इह भवति (नृ0 पू0 उ0 6)। नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय (श्वे0 उ0 3।8) विद्वान्न बिभेति कुतश्चन (तै0 उ0 2।4)। अविदुषस्तु -- अथ तस्य भयं भवति (तै0 उ0 2।7)? अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः (क0 उ0 1।2।5) ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति (मु0 उ0 3।2।9) अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद यथा पशुरेवं स देवानाम् आत्मवित् यः स इदं सर्वं भवति (बृह0 उ0 1।4।10) यदा चर्मवत् (श्वे0 उ0 6।20) इत्याद्याः सहस्रशः। स्मृतयश्च -- अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः (गीता 5।15) इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः (गीता 5।19) समं पश्यन् हि सर्वत्र (गीता 13।28) इत्याद्याः। न्यायतश्च -- सर्पान्कुशाग्राणि तथोदपानं ज्ञात्वा मनुष्याः परिवर्जयन्ति। अज्ञानतस्तत्र पतन्ति केचिज्ज्ञाने फलं पश्य तथाविशिष्टम् (महा0 शा0 201।16)। तथा च -- देहादिषु आत्मबुद्धिः अविद्वान् रागद्वेषादिप्रयुक्तः धर्माधर्मानुष्ठानकृत् जायते म्रियते च इति अवगम्यते देहादिव्यतिरिक्तात्मदर्शिनः रागद्वेषादिप्रहाणापेक्षधर्माधर्मप्रवृत्त्युपशमात् मुच्यन्ते इति न केनचित् प्रत्याख्यातुं शक्यं न्यायतः। तत्र एवं सति? क्षेत्रज्ञस्य ईश्वरस्यैव सतः अविद्याकृतोपाधिभेदतः संसारित्वमिव भवति? यथा देहाद्यात्मत्वमात्मनः। सर्वजन्तूनां हि प्रसिद्धः देहादिषु अनात्मसु आत्मभावः निश्चितः अविद्याकृतः? यथा स्थाणौ पुरुषनिश्चयः? न च एतावता पुरुषधर्मः स्थाणोः भवति? स्थाणुधर्मो वा पुरुषस्य? तथा न चैतन्यधर्मो देहस्य? देहधर्मो वा चेतनस्य सुखदुःखमोहात्मकत्वादिः आत्मनः न युक्तः अविद्याकृतत्वाविशेषात्? जरामृत्युवत्।।न? अतुल्यत्वात् इति चेत् -- स्थाणुपुरुषौ ज्ञेयावेव सन्तौ ज्ञात्रा अन्योन्यस्मिन् अध्यस्तौ अविद्यया देहात्मनोस्तु ज्ञेयज्ञात्रोरेव इतरेतराध्यासः? इति न समः दृष्टान्तः। अतः देहधर्मः ज्ञेयोऽपि ज्ञातुरात्मनः भवतीति चेत्? न अचैतन्यादिप्रसङ्गात्। यदि हि ज्ञेयस्य देहादेः क्षेत्रस्य धर्माः सुखदुःखमोहेच्छादयः ज्ञातुः भवन्ति? तर्हि? ज्ञेयस्य क्षेत्रस्य धर्माः केचित् आत्मनः भवन्ति अविद्याध्यारोपिताः? जरामरणादयस्तु न भवन्ति इति विशेषहेतुः वक्तव्यः। न भवन्ति इति अस्ति अनुमानम् -- अविद्याध्यारोपितत्वात् जरामरणादिवत् इति? हेयत्वात्? उपादेयत्वाच्च इत्यादि। तत्र एवं सति? कर्तृत्वभोक्तृत्वलक्षणः संसारः ज्ञेयस्थः ज्ञातरि अविद्यया अध्यारोपितः इति? न तेन ज्ञातुः किञ्चित् दुष्यति? यथा बालैः अध्यारोपितेन आकाशस्य तलमलिनत्वादिना।।एवं च सति? सर्वक्षेत्रेष्वपि सतः भगवतः क्षेत्रज्ञस्य ईश्वरस्य संसारित्वगन्धमात्रमपि नाशङ्क्यम्। न हि क्वचिदपि लोके अविद्याध्यस्तेन धर्मेण कस्यचित् उपकारः अपकारो वा दृष्टः।।यत्तु उक्तम् -- न समः दृष्टान्तः इति? तत् असत्। कथम् अविद्याध्यासमात्रं हि दृष्टान्तदार्ष्टान्तिकयोः साधर्म्यं विवक्षितम्। तत् न व्यभिचरति। यत्तु ज्ञातरि व्यभिचरति इति मन्यसे? तस्यापि अनैकान्तिकत्वं दर्शितं जरादिभिः।।अविद्यावत्त्वात् क्षेत्रज्ञस्य संसारित्वम् इति चेत्? न अविद्यायाः तामसत्वात्। तामसो हि प्रत्ययः? आवरणात्मकत्वात् अविद्या विपरीतग्राहकः? संशयोपस्थापको वा? अग्रहणात्मको वा विवेकप्रकाशभावे तदभावात्? तामसे च आवरणात्मके तिमिरादिदोषे सति अग्रहणादेः अविद्यात्रयस्य उपलब्धेः।।अत्र आह -- एवं तर्हि ज्ञातृधर्मः अविद्या। न करणे चक्षुषि तैमिरिकत्वादिदोषोपलब्धेः। यत्तु मन्यसे -- ज्ञातृधर्मः अविद्या? तदेव च अविद्याधर्मवत्त्वं क्षेत्रज्ञस्य संसारित्वम् तत्र यदुक्तम् ईश्वर एव क्षेत्रज्ञः? न संसारी इत्येतत् अयुक्तमिति -- तत् न यथा करणे चक्षुषि विपरीतग्राहकादिदोषस्य दर्शनात्। न विपरीतादिग्रहणं तन्निमित्तं वा तैमिरिकत्वादिदोषः ग्रहीतुः? चक्षुषः संस्कारेण तिमिरे अपनीते ग्रहीतुः अदर्शनात् न ग्रहीतुर्धर्मः यथा तथा सर्वत्रैव अग्रहणविपरीतसंशयप्रत्ययास्तन्निमित्ताः करणस्यैव कस्यचित् भवितुमर्हन्ति? न ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य। संवेद्यत्वाच्च तेषां प्रदीपप्रकाशवत् न ज्ञातृधर्मत्वम् -- संवेद्यत्वादेव स्वात्मव्यतिरिक्तसंवेद्यत्वम् सर्वकरणवियोगे च कैवल्ये सर्ववादिभिः अविद्यादिदोषवत्त्वानभ्युपगमात्। आत्मनः यदि क्षेत्रज्ञस्य अग्न्युष्णवत् स्वः धर्मः? ततः न कदाचिदपि तेन वियोगः स्यात्। अविक्रियस्य च व्योमवत् सर्वगतस्य अमूर्तस्य आत्मनः केनचित् संयोगवियोगानुपपत्तेः? सिद्धं क्षेत्रज्ञस्य नित्यमेव ईश्वरत्वम् अनादित्वान्निर्गुणत्वात् (गीता 13।31) इत्यादीश्वरवचनाच्च।।ननु एवं सति संसारसंसारित्वाभावे शास्त्रानर्थक्यादिदोषः स्यादिति चेत्? न सर्वैरभ्युपगतत्वात्। सर्वैर्हि आत्मवादिभिः अभ्युपगतः दोषः न एकेन परिहर्तव्यः भवति। कथम् अभ्युपगतः इति मुक्तात्मनां हि संसारसंसारित्वव्यवहाराभावः सर्वैरेव आत्मवादिभिः इष्यते। न च तेषां शास्त्रानर्थक्यादिदोषप्राप्तिः अभ्युपगता। तथा नः क्षेत्रज्ञानाम् ईश्वरैकत्वे सति? शास्त्रानर्थक्यं भवतु अविद्याविषये च अर्थवत्त्वम् -- यथा द्वैतिनां सर्वेषां बन्धावस्थायामेव शास्त्राद्यर्थवत्त्वम्? न मुक्तावस्थायाम्? एवम्।।ननु आत्मनः बन्धमुक्तावस्थे परमार्थत एव वस्तुभूते द्वैतिनां सर्वेषाम्। अतः हेयोपादेयतत्साधनसद्भावे शास्त्राद्यर्थवत्त्वं स्यात्। अद्वैतिनां पुनः? द्वैतस्य अपरमार्थत्वात्? अविद्याकृतत्वात् बन्धावस्थायाश्च आत्मनः अपरमार्थत्वे निर्विषयत्वात्? शास्त्राद्यानर्थक्यम् इति चेत्? न आत्मनः अवस्थाभेदानुपपत्तेः। यदि तावत् आत्मनः बन्धमुक्तावस्थे? युगपत् स्याताम्? क्रमेण वा। युगपत् तावत् विरोधात् न संभवतः स्थितिगती इव एकस्मिन्। क्रमभावित्वे च? निर्निमित्तत्वे अनिर्मोक्षप्रसङ्गः।,अन्यनिमित्तत्वे च स्वतः अभावात् अपरमार्थत्वप्रसङ्गः। तथा च सति अभ्युपगमहानिः। किञ्च? बन्धमुक्तावस्थयोः पौर्वापर्यनिरूपणायां बन्धावस्था पूर्वं प्रकल्प्या? अनादिमती अन्तवती च तच्च प्रमाणविरुद्धम्। तथा मोक्षावस्था आदिमती अनन्ता च प्रमाणविरुद्धैव अभ्युपगम्यते। न च अवस्थावतः अवस्थान्तरं गच्छतः नित्यत्वम् उपपादयितुं शक्यम्। अथ अनित्यत्वदोषपरिहाराय बन्धमुक्तावस्थाभेदो न कल्प्यते? अतः द्वैतिनामपि शास्त्रानर्थक्यादिदोषः अपरिहार्य एव इति समानत्वात् न अद्वैतवादिना परिहर्तव्यः दोषः।।न च शास्त्रानर्थक्यम्? यथाप्रसिद्धाविद्वत्पुरुषविषयत्वात् शास्त्रस्य। अविदुषां हि फलहेत्वोः अनात्मनोः आत्मदर्शनम्? न विदुषाम् विदुषां हि फलहेतुभ्याम् आत्मनः अन्यत्वदर्शने सति? तयोः अहमिति आत्मदर्शनानुपपत्तेः। न हि अत्यन्तमूढः उन्मत्तादिरपि जलाग्न्योः छायाप्रकाशयोर्वा ऐकात्म्यं पश्यति किमुत विवेकी। तस्मात् न विधिप्रतिषेधशास्त्रं तावत् फलहेतुभ्याम् आत्मनः अन्यत्वदर्शिनः भवति। न हि देवदत्त? त्वम् इदं कुरु इति कस्मिंश्चित् कर्मणि नियुक्ते? विष्णुमित्रः अहं नियुक्तः इति तत्रस्थः नियोगं श्रृण्वन्नपि प्रतिपद्यते। वियोगविषयविवेकाग्रहणात् तु उपपद्यते प्रतिपत्तिः तथा फलहेत्वोरपि।।ननु प्राकृतसंबन्धापेक्षया युक्तैव प्रतिपत्तिः शास्त्रार्थविषया -- फलहेतुभ्याम् अन्यात्मविषयदर्शनेऽपि सति -- इष्टफलहेतौ प्रवर्तितः अस्मि? अनिष्टफलहेतोश्च निवर्तितः अस्मीति यथा पितृपुत्रादीनाम् इतरेतरात्मान्यत्वदर्शने सत्यपि अन्योन्यनियोगप्रतिषेधार्थप्रतिपत्तिः। न व्यतिरिक्तात्मदर्शनप्रतिपत्तेः प्रागेव फलहेत्वोः आत्माभिमानस्य सिद्धत्वात्। प्रतिपन्ननियोगप्रतिषेधार्थो हि फलहेतुभ्याम् आत्मनः अन्यत्वं प्रतिपद्यते? न पूर्वम्। तस्मात् विधिप्रतिषेधशास्त्रम् अविद्वद्विषयम् इति सिद्धम्।।ननु स्वर्गकामो यजेत न कलञ्जं भक्षयेत् इत्यादौ आत्मव्यतिरेकदर्शिनाम् अप्रवृत्तौ? केवलदेहाद्यात्मदृष्टीनां च अतः कर्तुः अभावात् शास्त्रानर्थक्यमिति चेत्? न यथाप्रसिद्धित एव प्रवृत्तिनिवृत्त्युपपत्तेः। ईश्वरक्षेत्रज्ञैकत्वदर्शी ब्रह्मवित् तावत् न प्रवर्तते। तथा नैरात्म्यवाद्यपि नास्ति परलोकः इति न प्रवर्तते। यथाप्रसिद्धितस्तु विधिप्रतिषेधशास्त्रश्रवणान्यथानुपपत्त्या अनुमितात्मास्तित्वः आत्मविशेषानभिज्ञः कर्मफलसंजाततृष्णः श्रद्दधानतया च प्रवर्तते। इति सर्वेषां न प्रत्यक्षम्। अतः न शास्त्रानर्थक्यम्।।विवेकिनाम् अप्रवृत्तिदर्शनात् तदनुगामिनाम् अप्रवृत्तौ शास्त्रानर्थक्यम् इति चेत्? न कस्यचिदेव विवेकोपपत्तेः। अनेकेषु हि प्राणिषु कश्चिदेव विवेकी स्यात्? यथेदानीम्। न च विवेकिनम् अनुवर्तन्ते मूढाः? रागादिदोषतन्त्रत्वात् प्रवृत्तेः? अभिचरणादौ च प्रवृत्तिदर्शनात्? स्वाभाव्याच्च प्रवृत्तेः -- स्वभावस्तु प्रवर्तते (गीता 5।14) इति हि उक्तम्।।तस्मात् अविद्यामात्रं संसारः यथादृष्टविषयः एव। न क्षेत्रज्ञस्य केवलस्य अविद्या तत्कार्यं च। न च मिथ्याज्ञानं परमार्थवस्तु दूषयितुं समर्थम्। न हि ऊषरदेशं स्नेहेन पङ्कीकर्तुं शक्नोति मरीच्युदकम्। तथा अविद्या क्षेत्रज्ञस्य न किञ्चित् कर्तुं शक्नोति। अतश्चेदमुक्तम् -- क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि (गीता 13।2) ? अज्ञानेनावृतं ज्ञानम् (गीता 5।15) इति च।।अथ किमिदं संसारिणामिव अहमेवम् ममैवेदम् इति पण्डितानामपि श्रृणु इदं तत् पाण्डित्यम्? यत् क्षेत्रे एव आत्मदर्शनम्। यदि पुनः क्षेत्रज्ञम् अविक्रियं पश्येयुः? ततः न भोगं कर्म वा आकाङ्क्षेयुः मम स्यात् इति। विक्रियैव भोगकर्मणी। अथ एवं सति? फलार्थित्वात् अविद्वान् प्रवर्तते। विदुषः पुनः अविक्रियात्मदर्शिनः फलार्थित्वाभावात् प्रवृत्त्यनुपपत्तौ कार्यकरणसंघातव्यापारोपरमे निवृत्तिः उपचर्यते।।इदं च अन्यत् पाण्डित्यं केषाञ्चित् अस्तु -- क्षेत्रज्ञः ईश्वर एव। क्षेत्रं च अन्यत् क्षेत्रज्ञस्यैव विषयः। अहं तु संसारी सुखी दुःखी च। संसारोपरमश्च मम कर्तव्यः क्षेत्रक्षेत्रज्ञविज्ञानेन? ध्यानेन च ईश्वरं क्षेत्रज्ञं साक्षात्कृत्वा तत्स्वरूपावस्थानेनेति। यश्च एवं बुध्यते? यश्च बोधयति? नासौ क्षेत्रज्ञः इति। एवं मन्वानः यः सः पण्डितापसदः? संसारमोक्षयोः शास्त्रस्य च अर्थवत्त्वं करोमीति आत्महा स्वयं मूढः अन्यांश्च व्यामोहयति शास्त्रार्थसंप्रदायरहितत्वात्? श्रुतहानिम् अश्रुतकल्पनां च कुर्वन्। तस्मात् असंप्रदायवित् सर्वशास्त्रविदपि मूर्खवदेव उपेक्षणीयः।।यत्तूक्तम् ईश्वरस्य क्षेत्रज्ञैकत्वे संसारित्वं प्राप्नोति? क्षेत्रज्ञानां च ईश्वरैकत्वे संसारिणः अभावात् संसाराभावप्रसङ्गः इति?,एतौ दोषौ प्रत्युक्तौ विद्याविद्ययोः वैलक्षण्याभ्युपगमात् इति। कथम् अविद्यापरिकल्पितदोषेण तद्विषयं वस्तु पारमार्थिकं न दुष्यतीति। तथा च दृष्टान्तः दर्शितः -- मरीच्यम्भसा ऊषरदेशो न पङ्कीक्रियते इति। संसारिणः अभावात् संसाराभावप्रसङ्गदोषोऽपि संसारसंसारिणोः अविद्याकल्पितत्वोपपत्त्या प्रत्युक्तः।।ननु अविद्यावत्त्वमेव क्षेत्रज्ञस्य संसारित्वदोषः। तत्कृतं च सुखित्वदुःखित्वादि प्रत्यक्षम् उपलभ्यते इति चेत्? न ज्ञेयस्य क्षेत्रधर्मत्वात्? ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य तत्कृतदोषानुपपत्तेः। यावत् किञ्चित् क्षेत्रज्ञस्य दोषजातम् अविद्यमानम् आसञ्जयसि? तस्य ज्ञेयत्वोपपत्तेः क्षेत्रधर्मत्वमेव? न क्षेत्रज्ञधर्मत्वम्। न च तेन क्षेत्रज्ञः दुष्यति? ज्ञेयेन ज्ञातुः संसर्गानुपपत्तेः। यदि हि संसर्गः स्यात्? ज्ञेयत्वमेव नोपपद्येत। यदि आत्मनः धर्मः अविद्यावत्त्वं दुःखित्वादि च कथं भोः प्रत्यक्षम् उपलभ्यते? कथं वा क्षेत्रज्ञधर्मः। ज्ञेयं च सर्वं क्षेत्रं ज्ञातैव क्षेत्रज्ञः इति अवधारिते? अविद्यादुःखित्वादेः क्षेत्रज्ञविशेषणत्वं क्षेत्रज्ञधर्मत्वं तस्य च प्रत्यक्षोपलभ्यत्वम् इति विरुद्धम् उच्यते अविद्यामात्रावष्टम्भात् केवलम्।।अत्र आह -- सा अविद्या कस्य इति। यस्य दृश्यते तस्य एव। कस्य दृश्यते इति। अत्र उच्यते -- अविद्या कस्य दृश्यते इति प्रश्नः निरर्थकः। कथम् दृश्यते चेत् अविद्या तद्वन्तमपि पश्यसि। न च तद्वति उपलभ्यमाने सा कस्य इति प्रश्नो युक्तः। न हि गोमति उपलभ्यमाने गावः कस्य इति प्रश्नः अर्थवान् भवति। ननु विषमो दृष्टान्तः। गवां तद्वतश्च प्रत्यक्षत्वात् तत्संबन्धोऽपि प्रत्यक्ष प्रश्नो निरर्थकः। न तथा अविद्या तद्वांश्च प्रत्यक्षौ? यतः प्रश्नः निरर्थकः स्यात्। अप्रत्यक्षेण अविद्यावता अविद्यासंबन्धे ज्ञाते? किं तव स्यात् अविद्यायाः अनर्थहेतुत्वात् परिहर्तव्या स्यात्। यस्य अविद्या? सः तां परिहरिष्यति। ननु ममैव अविद्या। जानासि तर्हि अविद्यां तद्वन्तं च आत्मानम्। जानामि? न तु प्रत्यक्षेण। अनुमानेन चेत् जानासि? कथं संबन्धग्रहणम् न हि तव ज्ञातुः ज्ञेयभूतया अविद्यया तत्काले संबन्धः ग्रहीतुं शक्यते? अविद्याया विषयत्वेनैव ज्ञातुः उपयुक्तत्वात्। न च ज्ञातुः अविद्यायाश्च संबन्धस्य यः ग्रहीता? ज्ञानं च अन्यत् तद्विषयं संभवति अनवस्थाप्राप्तेः। यदि ज्ञात्रापि ज्ञेयसंबन्धो ज्ञायते? अन्यः ज्ञाता कल्प्यः स्यात्? तस्यापि अन्यः? तस्यापि अन्यः इति अनवस्था अपरिहार्या। यदि पुनः अविद्या ज्ञेया? अन्यद्वा ज्ञेयं ज्ञेयमेव। तथा ज्ञातापि ज्ञातैव? न ज्ञेयं भवति। यदा च एवम्? अविद्यादुःखित्वाद्यैः न ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य किञ्चित् दुष्यति।।ननु अयमेव दोषः? यत् दोषवत्क्षेत्रविज्ञातृत्वम् न च विज्ञानस्वरूपस्यैव अविक्रियस्य विज्ञातृत्वोपचारात् यथा उष्णतामात्रेण अग्नेः तप्तिक्रियोपचारः? तद्वत्। यथा अत्र भगवता क्रियाकारकफलात्मत्वाभावः आत्मनि स्वत एव दर्शितः -- अविद्याध्यारोपितैः एव क्रियाकारकादिः आत्मनि उपचर्यते तथा तत्र तत्र य एनं वेत्ति हन्तारम् (गीता 2।19) प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः (गीता 3।27) नादत्ते कस्यचित्पापम् (गीता 5।15) इत्यादिप्रकरणेषु दर्शितः। तथैव च व्याख्यातम् अस्माभिः। उत्तरेषु च प्रकरणेषु दर्शयिष्यामः।।हन्त तर्हि आत्मनि क्रियाकारकफलात्मतायाः स्वतः अभावे? अविद्यया च अध्यारोपितत्वे? कर्माणि अविद्वत्कर्तव्यान्येव? न विदुषाम् इति प्राप्तम्। सत्यम् एवं प्राप्तम्? एतदेव च न हि देहभृता शक्यम् (गीता 18।11) इत्यत्र दर्शयिष्यामः। सर्वशास्त्रार्थोपसंहारप्रकरणे च समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा (गीता 18।50) इत्यत्र विशेषतः दर्शयिष्यामः। अलम् इह बहुप्रपञ्चनेन? इति उपसंह्रियते।।इदं शरीरम् (गीता13।1) इत्यादिश्लोकोपदिष्टस्य क्षेत्राध्यायार्थस्य संग्रहश्लोकः अयम् उपन्यस्यते तत्क्षेत्रं यच्च (गीता 13।3) इत्यादि? व्याचिख्यासितस्य हि अर्थस्य संग्रहोपन्यासः न्याय्यः इति --,
।।13.3।।क्षेत्रज्ञमिति।
।।13.3।।क्षेत्रज्ञमिति।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।13.3।।
ক্ষেত্রজ্ঞং চাপি মাং বিদ্ধি সর্বক্ষেত্রেষু ভারত৷ ক্ষেত্রক্ষেত্রজ্ঞযোর্জ্ঞানং যত্তজ্জ্ঞানং মতং মম৷৷13.3৷৷
ক্ষেত্রজ্ঞং চাপি মাং বিদ্ধি সর্বক্ষেত্রেষু ভারত৷ ক্ষেত্রক্ষেত্রজ্ঞযোর্জ্ঞানং যত্তজ্জ্ঞানং মতং মম৷৷13.3৷৷
ક્ષેત્રજ્ઞં ચાપિ માં વિદ્ધિ સર્વક્ષેત્રેષુ ભારત। ક્ષેત્રક્ષેત્રજ્ઞયોર્જ્ઞાનં યત્તજ્જ્ઞાનં મતં મમ।।13.3।।
ਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰਜ੍ਞਂ ਚਾਪਿ ਮਾਂ ਵਿਦ੍ਧਿ ਸਰ੍ਵਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰੇਸ਼ੁ ਭਾਰਤ। ਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰਜ੍ਞਯੋਰ੍ਜ੍ਞਾਨਂ ਯਤ੍ਤਜ੍ਜ੍ਞਾਨਂ ਮਤਂ ਮਮ।।13.3।।
ಕ್ಷೇತ್ರಜ್ಞಂ ಚಾಪಿ ಮಾಂ ವಿದ್ಧಿ ಸರ್ವಕ್ಷೇತ್ರೇಷು ಭಾರತ. ಕ್ಷೇತ್ರಕ್ಷೇತ್ರಜ್ಞಯೋರ್ಜ್ಞಾನಂ ಯತ್ತಜ್ಜ್ಞಾನಂ ಮತಂ ಮಮ৷৷13.3৷৷
ക്ഷേത്രജ്ഞം ചാപി മാം വിദ്ധി സര്വക്ഷേത്രേഷു ഭാരത. ക്ഷേത്രക്ഷേത്രജ്ഞയോര്ജ്ഞാനം യത്തജ്ജ്ഞാനം മതം മമ৷৷13.3৷৷
କ୍ଷେତ୍ରଜ୍ଞଂ ଚାପି ମାଂ ବିଦ୍ଧି ସର୍ବକ୍ଷେତ୍ରେଷୁ ଭାରତ| କ୍ଷେତ୍ରକ୍ଷେତ୍ରଜ୍ଞଯୋର୍ଜ୍ଞାନଂ ଯତ୍ତଜ୍ଜ୍ଞାନଂ ମତଂ ମମ||13.3||
kṣētrajñaṅ cāpi māṅ viddhi sarvakṣētrēṣu bhārata. kṣētrakṣētrajñayōrjñānaṅ yattajjñānaṅ mataṅ mama৷৷13.3৷৷
க்ஷேத்ரஜ்ஞஂ சாபி மாஂ வித்தி ஸர்வக்ஷேத்ரேஷு பாரத. க்ஷேத்ரக்ஷேத்ரஜ்ஞயோர்ஜ்ஞாநஂ யத்தஜ்ஜ்ஞாநஂ மதஂ மம৷৷13.3৷৷
క్షేత్రజ్ఞం చాపి మాం విద్ధి సర్వక్షేత్రేషు భారత. క్షేత్రక్షేత్రజ్ఞయోర్జ్ఞానం యత్తజ్జ్ఞానం మతం మమ৷৷13.3৷৷
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।।13.4।।वह क्षेत्र जो है, जैसा है, जिन विकारोंवाला है और जिससे जो पैदा हुआ है; तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाववाला है, वह सब संक्षेपमें मेरेसे सुन।
।।13.4।। इसलिये, वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है, और जिस (कारण) से जो (कार्य) हुआ है तथा वह (क्षेत्रज्ञ) भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह संक्षेप में मुझसे सुनो।।
।।13.4।। भगवान् श्रीकृष्ण न केवल क्षेत्र की वस्तुओं का उल्लेख ही करेंगे? वरन् क्षेत्र के गुण धर्म? उसके विकार तथा कौन से कारण से ऋ़ौन सा कार्य उत्पन्न हुआ है? इसका भी वर्णन करेंगे। उसी प्रकार? क्षेत्रज्ञ का स्वरूप तथा उपाधियों से सम्बद्ध उसके प्रभाव को भी इस अध्याय में बतायेंगे। ये सब? मुझसे संक्षेप में सुनो।अनन्त आत्मा के स्वरूप को दर्शाने वाले विशेषणों को पुन दोहराने मात्र से अथवा उस पर विशेष बल देकर कहने से एक निष्ठावान् साधक को कोई विशेष लाभ भी नहीं होता और न उसके विकास में कोई सहायता मिलती है। जिन कारणों से हमारे जीवन की समस्यायें उत्पन्न होती हैं उनकी ओर से दृष्टि फेर लेने का अर्थ है? समस्या को नहीं सुलझाना। हमारे आसपास का यह जगत्? जिसे हमने ही प्रेक्षित किया है? तथा वे ही प्रक्रियायें जिनके द्वारा हम कार्य करते हुये असंख्य विषयों? भावनाओं और विचारों की विविधता को देखते हैं इन सबका हमें सूक्ष्म निरीक्षण तथा अध्ययन करना चाहिये। इसकी उपेक्षा करने का अर्थ स्वयं को विशाल आवश्यक सारभूत ज्ञान से वंचित रखना है। यह अपनी ही प्रवंचना है।शत्रुओं के विरुद्ध युद्धनीति सम्बन्धी योजना बनाने के लिए शत्रुपक्ष की रणनीति का कमसेकम सामान्य ज्ञान होना आवश्यक होता है। इसी प्रकार? क्षेत्र से युद्ध करके उस पर विजय पाकर उसके बन्धनों से स्वयं को मुक्त करने के लिये यह जानना आवश्यक है कि क्षेत्र क्या है तथा परिस्थिति विशेष में ये उपाधियाँ किस प्रकार कार्य और व्यवहार करती हैं।इस प्रकार? शरीरशास्त्र? जीवशास्त्र? मनोविज्ञान तथा अन्य प्राकृतिक विज्ञान की शाखायें भी जीवन को समझने में अपना योगदान देती हैं। अध्यात्म का ज्ञानमार्ग समस्त लौकिक विज्ञानों का चरम बिन्दु है और उसकी पूर्तिस्वरूप है। इस बात की पुष्टि इसी तथ्य से होती है कि? युद्धभूमि पर भी अर्जुन को इस ज्ञान का उपदेश देते समय? भगवान् इस बात पर बल देने के लिए भूलते नहीं कि इस क्षेत्र का सम्पूर्ण ज्ञान होना महत्व की बात है। इसका हमें सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिये।क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के याथात्म्य को देखने? अध्ययन करने और समझने में शिष्य की अभिरुचि उत्पन्न करने के लिए भगवान् इस विषय वस्तु की स्तुति करते हुये कहते हैं
।।13.4।। व्याख्या --   तत्क्षेत्रम् -- तत् शब्द दोका वाचक होता है -- पहले कहे हुए विषयका और दूरीका। इसी अध्यायके पहले श्लोकमें जिसको इदम् पदसे कहा गया है? उसीको यहाँ तत् पदसे कहा है। क्षेत्र सब देशमें नहीं है? सब कालमें नहीं है और अभी भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है -- यह क्षेत्रकी (स्वयंसे) दूरी है।यच्च -- उस क्षेत्रका जो स्वरूप है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें हुआ है।यादृक् च -- उस क्षेत्रका जैसा स्वभाव है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके छब्बीसवेंसत्ताईसवें श्लोकोंमें उसे उत्पन्न और नष्ट होनेवाला बताकर किया गया है।यद्विकारि -- यद्यपि प्रकृतिका कार्य होनेसे इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें आये तेईस तत्त्वोंको भी विकार कहा गया है? तथापि यहाँ उपर्युक्त पदसे क्षेत्रक्षेत्रज्ञके माने हुए सम्बन्धके कारण क्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाले इच्छाद्वेषादि विकारोंको ही विकार कहा गया है? जिनका वर्णन छठे श्लोकमें हुआ है।यतश्च यत् -- यह क्षेत्र जिससे पैदा होता है अर्थात् प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले सात विकार और तीन गुण? जिनका वर्णन इसी अध्यायके उन्नीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें हुआ है।स च -- पहले श्लोकके उत्तरार्धमें जिस क्षेत्रज्ञका वर्णन हुआ है? उसी क्षेत्रज्ञका वाचक यहाँ सः पद है और उसीके विषयमें यहाँ सुननेके लिये कहा जा रहा है।यः -- इस क्षेत्रज्ञका जो स्वरूप है? जिसका वर्णन इसी अध्यायके बीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें और बाईसवें श्लोकमें किया गया है।यत्प्रभावश्च -- वह क्षेत्रज्ञ जिस प्रभाववाला है जिसका वर्णन इसी अध्यायके इकतीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक किया गया है।तत्समासेन मे श्रृणु -- यहाँ तत् पदके अन्तर्गत क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ -- दोनोंको लेना चाहिये। तात्पर्य है कि वह क्षेत्र जो है? जैसा है? जिन विकारोंवाला और जिससे पैदा हुआ है -- इस तरह क्षेत्रके विषयमें चार बातें और वह क्षेत्रज्ञ जो है और जिस प्रभाववाला है -- इस तरह क्षेत्रज्ञके विषयमें दो बातें तू मेरेसे संक्षेपमें सुन।यद्यपि इस अध्यायके आरम्भमें पहले दो श्लोकोंमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञका सूत्ररूपसे वर्णन हुआ है? जिसको भगवान्ने,ज्ञान भी कहा है तथापि क्षेत्रक्षेत्रज्ञके विभागका स्पष्टरूपसे विवेचन (विकारसहित क्षेत्र और निर्विकार क्षेत्रज्ञके स्वरूपका प्रभावसहित विवेचन) इस तीसरे श्लोकसे आरम्भ किया गया है। इसलिये भगवान् इसको सावधान होकर सुननेकी आज्ञा देते हैं।इस श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रके विषयमें तो चार बातें सुननेकी आज्ञा दी है? पर क्षेत्रज्ञके विषयमें केवल दो बातें -- स्वरूप और प्रभाव ही सुननेकी आज्ञा दी है। इससे यह शङ्का हो सकती है कि क्षेत्रका प्रभाव भी क्यों नहीं कहा गया और साथ ही क्षेत्रज्ञके स्वभाव? विकार और जिससे जो पैदा हुआ -- इन विषयोंपर भी क्यों नहीं कहा गया इसका समाधान यह है कि एक क्षण भी एक रूपमें स्थिर न रहनेवाले क्षेत्रका प्रभाव हो ही क्या सकता है प्रकृतिस्थ (संसारी) पुरुषके अन्तःकरणमें धनादि जड पदार्थोंका महत्त्व रहता है? इसीलिये उसको संसारमें क्षेत्रका (धनादि जड पदार्थोंका) प्रभाव दीखता है। वास्तवमें स्वतन्त्ररूपसे क्षेत्रका कुछ भी प्रभाव नहीं है। अतः उसके प्रभावका कोई वर्णन नहीं किया गया।क्षेत्रज्ञका स्वरूप उत्पत्तिविनाशरहित है? इसलिये उसका स्वभाव भी उत्पत्तिविनाशरहित है। अतः भगवान्ने उसके स्वभावका अलगसे वर्णन न करके स्वरूपके अन्तर्गत ही कर दिया। क्षेत्रके साथ अपना सम्बन्ध माननेके कारण ही क्षेत्रज्ञमें इच्छाद्वेषादि विकारोंकी प्रतीति होती है? अन्यथा क्षेत्रज्ञ (स्वरूपतः) सर्वथा निर्विकार ही है। अतः निर्विकार क्षेत्रज्ञके विकारोंका वर्णन सम्भव ही नहीं। क्षेत्रज्ञ अद्वितीय? अनादि और नित्य है। अतः इसके विषयमें कौन किससे पैदा हुआ -- यह प्रश्न ही नहीं बनता। सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें जिसको संक्षेपसे सुननेके लिये कहा गया है? उसका विस्तारसे वर्णन कहाँ हुआ है -- इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।13.4 -- 13.5।।तत्क्षेत्रमिति। ऋषिभिरिति। येन विकारं गच्छति यद्विकारि। समासेनेति अविभागेनैव सर्वान्प्रश्नान् (S??K एतान् (S तान्) प्रश्नान्) साधारणोत्तरेण परिच्छिनत्ति। यद्यपि च ऋषिभिर्बहुधा वेदैश्चोक्तमेतत्। तथापि समासेनाहं व्याचक्षे इति।
।।13.4।।तद् इदं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यम् ऋषिभिः पराशरादिभिः बहुधा बहुप्रकारं गीतम्अहं त्वं च तथान्ये च भूतैरुह्याम पार्थिव। गुणप्रवाहपतितो भूतवर्गोऽपि यात्ययम्।।कर्मवश्या गुणा ह्येते सत्त्वाद्याः पृथिवीपते। अविद्यासञ्चितं कर्म तच्चाशेषेषु जन्तुषु।।आत्मा शुद्धोऽक्षरः शान्तो निर्गुणः प्रकृतेः परः। प्रवृद्ध्यपचयौ नास्य चैकस्याखिलजन्तुषु।। (वि0 पु0 2।13।69 -- 71) तथापिण्डः पृथग्यतः पुंसः शिरःपाण्यादिलक्षणः।।ततोऽहमिति कुत्रैतां संज्ञां राजन्करोम्यहम्।। (वि0 पु0 2।13।89) तथा चकिं त्वमेतच्छिरः किं नु ग्रीवा तव तथोदरम्। किमु पादादिकं त्वं वै तवैतत्किं महीपते।।समस्तावयवेम्यस्त्वं पृथक् भूप व्यवस्थितः। कोऽहमित्येव निपुणो भूत्वा चिन्तय पार्थिव।। (वि0 पु0 2।13।102103) इति।एवं विविक्तयोः द्वयोः वासुदेवात्मकत्वं च आहुः -- इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः। वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।। (महा0 शान्तिपर्व 149।136) इति।छन्दोभिः विविधैः पृथक् पृथग्विधैः छन्दोभिः ऋग्यजुः सामाथर्वभिः देहात्मनोः स्वरूपं पृथग् गीतम् -- तस्माद्वा एतस्माद् आत्मन आकाशः संभूतः आकाशाद् वायुः? वायोरग्निः? अग्नेरापः? अद्भ्यः पृथिवी? पृथिव्या ओषधयः? ओषधीभ्योऽन्नम्? अन्नात् पुरुषः? स वा एष पुरुषः अन्नरसमयः (तै0 उ0 2।1) इति शरीरस्वरूपम् अभिधाय तस्माद् अन्तरं प्राणमयं तस्मात् च अन्तरं मनोमयम् अभिधायतस्माद्वा एतस्मान्मनोमयादन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः (तै0 उ0 2।4) इति क्षेत्रज्ञस्वरूपम् अभिधायतस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात् अन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः (तै0 उ0 2।5) इति क्षेत्रज्ञस्य अपि अन्तरात्मतया आनन्दमयः परमात्मा अभिहितः।एवम् ऋक्सामाथर्वसु च तत्र तत्र क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः पृथग्भावः तयोः ब्रह्मात्मकत्वं च सुस्पष्टं गीतम्।ब्रह्मसूत्रपदैः च एव ब्रह्मप्रतिपादनसूत्राख्यैः पदैः शारीरकसूत्रैः हेतुमद्भिः हेतुयुक्तैः। विनिश्चितैः निर्णयान्तैःन वियदश्रुतेः (ब्र0 सू0 2।3।1) इति आरभ्य क्षेत्रप्रकारनिर्णय उक्तः।नात्माऽश्रुतेर्नित्यत्वाच्च ताभ्यः (ब्र0 सू0 2।3।17) इत्यारभ्यज्ञोऽत एव (ब्र0 सू0 2।3।18) इत्यादिभिः क्षेत्रज्ञयाथात्म्यनिर्णय उक्तः।परात्तु तच्छ्रुतेः (ब्र0 सू0 2।3।41) इति च भगवत्प्रवर्त्यत्वेन भगवदात्मकत्वम् उक्तम्।एवं बहुधा गीतं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं मया संक्षेपेण सुस्पष्टम् उच्यमानं श्रृणु इति अर्थः।
।।13.4।।श्लोकान्तरस्य तात्पर्यमाह -- तदित्यादिना। विवक्षितं जिज्ञासितमित्यर्थः। स्तुतिफलमाह -- श्रोत्रिति। न केवलमाप्तोक्तेरेव क्षेत्रादियाथात्म्यं संभावितं किंतु वेदवाक्यादपीत्याह -- छन्दोभिश्चेति। ऋगादीनां चतुर्णामपि वेदानां नानाप्रकारत्वं शाखाभेदादिष्टम्। न केवलं श्रुतिस्मृतिसिद्धमुक्तं याथात्म्यं किंतु यौक्तिकं चेत्याह -- किञ्चेति। कानि तानि सूत्राणीत्याशङ्क्याह -- आत्मेत्येवेति। आदिपदेनब्रह्मविदाप्नोति परम्?अथ योऽन्यां देवताम् इत्यादीनि विद्याविद्यासूत्राण्युक्तानि। आत्मेति क्षेत्रज्ञोपादानं तच्च क्षेत्रोपलक्षणम्।अथातो ब्रह्मजिज्ञासा इत्यादीन्यपि सूत्राण्यत्र गृहीतान्यन्यथा छन्दोभिरित्यादिना पौनरुक्त्यादिति मत्त्वा विशिनष्टि -- हेतुमद्भिरिति।
।।13.4।।एतत्प्रपञ्चयिष्यन् प्रतिजानीते -- तत्क्षेत्रमिति। यच्च यद्द्रव्यं? यादृक् येषामाश्रयभूतं? ये चात्र विकाराः सन्ति? यतश्चेति यदर्थमुद्भावितं? यत् यत्स्वभावं (स्वरूपं)। स च क्षेत्रज्ञो यः यत्स्वरूपः यत्प्रभावस्तत्सर्वं सङ्क्षेपेण मे मत्तः शृणु।
।।13.4।।संक्षेपेणोक्तमर्थं विवरीतुमारभते -- तत्क्षेत्रमिति। तदिदं शरीरमिति प्रागुक्तं जडवर्गरूपं क्षेत्रं यच्च स्वरूपेण जडदृश्यपरिच्छिन्नादिस्वभावं यादृक् च इच्छादिधर्मकं यद्विकारि यैरिन्द्रियादिविकारैर्युक्तं यतश्च कारणात् यत्कार्यमुत्पद्यत इति शेषः। अथवा यतः प्रकृतिपुरुषसंयोगाद्भवति। यदिति यैः स्थावरजङ्गमादिभेदैर्भिन्नमित्यर्थः। अत्रानियमेन चकारप्रयोगात्सर्वसमुच्चयो द्रष्टव्यः। स च क्षेत्रज्ञोः यः स्वरूपतः स्वप्रकाशचैतन्यानन्दस्वभावः यत्प्रभावश्च ये प्रभावा उपाधिकृताः शक्तयो यस्य तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं सर्वविशेषणविशिष्टं समासेन संक्षेपेण मे मम वचनाच्छृणु। श्रुत्वावधारयेत्यर्थः।
।।13.4।।अत्र यद्यपि चतुर्विंशतिभेदैर्भिन्ना प्रकृतिः क्षेत्रमित्यभिप्रेतं तथापि देहरूपेण परिणतायामेव तस्यामहंभावेनाविवेकः स्फुट इति तद्विवेकार्थमिदं शरीरं क्षेत्रमित्याद्युक्तं? तदेतत्प्रपञ्चयिष्यन्प्रतिजानीते -- तत्क्षेत्रमिति। यदुक्तं मया तत्क्षेत्रं यत्स्वरूपतो जडं दृश्यादिस्वभावं यादृग्यादृशं चेच्छादिधर्मकं यद्विकारि यैरिन्द्रियादिविकारैर्युक्तं यतश्च प्रकृतिपुरुषसंयोगाद्भवति। यदिति यैः स्थावरजङ्गमादिभेदैर्भिन्नमित्यर्थः। स च क्षेत्रज्ञो यः स्वरूपतः? यत्प्रभावश्च अचिन्त्यैश्वर्ययोगेन यैः प्रभावैः संपन्नः तत्सर्वं संक्षेपतो मत्तः शृणु।
।।13.4।।श्रृण्वत एवार्जुनस्य पुनःश्रृणु इत्यवधानार्थमुच्यतेतत्क्षेत्रम् इति।महाभूतानि [13।6] इत्युपक्रम्यसङ्घातः [13।7] इत्यन्तवक्ष्यमाणपरामर्शादाद्यन्तौ यच्छब्दौ जडद्रव्यतत्सङ्घातविषयावित्यपुनरुक्तिरित्यभिप्रायेणाह -- यह्रव्यमिति। वक्ष्यमाणेन्द्रियाद्याश्रयत्वानुसारेण यादृक्शब्दार्थमाह -- येषामाश्रयभूतमिति। ये विकारा अस्य कार्यतया सन्ति? तद्यद्विकारि तत्र यच्छब्दनिर्दिष्टे तात्पर्यमिति प्रकाशनायये चास्य विकारा इत्युक्तम्।यतः इति नोपादानादिपरं? प्रथमं तदुक्तेरित्यभिप्रायेणाह यतो हेतोरिति।चेतना धृतिः [13।7] इति वक्ष्यमाणं हेतुविशेषमाह -- यस्मै प्रयोजनायेति। क्षेत्रकर्तुरीश्वरस्य धीस्थतया प्रयोजनमपि हेतुः प्रयुज्यते चअध्ययनेन वसति इति।यत्स्वरूपमिति -- सङ्घतिपरम्। सन्निवेशविशेषो हि शरीरत्वादि। अतः प्रथमयच्छब्दो जडाजडद्रव्यविशेषनिर्वारणार्थः? द्वितीयस्तु जडत्वनिश्चये जडद्रव्येष्वनेकेष्वन्यतमात्मकत्वसङ्घातात्मकत्वनिश्चयार्थ इति भावः।माम् इति परमात्मात्मनोऽपि प्रसङ्गात्तत्परामर्शभ्रमव्युदासायाह -- स च क्षेत्रज्ञ इति।यो यत्प्रभावः इत्युभाभ्यां स्वरूपप्रकारयोर्निदेशः। प्रभावा आश्चर्यभूताः प्रकृष्टाः स्वभावविशेषाः।
।।13.4।।एवं प्रतिज्ञाय क्षेत्रक्षेत्रज्ञस्वरूपं सभेदकं कथयामि तच्छृण्वित्याह -- तत् क्षेत्रमिति। तन्मदुक्तं क्षेत्रं यत् मत्सत्तात्मकं? जडादिरूपमपि यादृक् यादृशं मल्लीलेच्छात्मकम्। यद्विकारि विचित्रक्रीडेच्छया नानाविकारयुक्तम्। यतश्च मदंशात्मकमत्क्रीडार्थप्रकृतिपुरुषसंयोगजम्। तत्स्थावरजङ्गमपक्ष्यादिविचित्ररूपम्। स च क्षेत्रज्ञः स्वरूपतो मदंशरूपो यत्प्रभावः सूक्ष्मोऽपि व्यापकादिसेवनयोग्याद्यचिन्त्यप्रभाववांस्तदन्यैर्याथातथ्यस्वरूपाज्ञानाद्बहुविधमुक्तं तत्सर्वं समासेन सङ्क्षेपतो मे मत्तः शृणु।
।।13.4।।क्षेत्रक्षेत्रज्ञपदे विवरीतुमारभते -- तदिति। यच्चेदं क्षेत्रं निर्दिष्टं तत् यादृक् यादृशं स्वकीयैर्धर्मैरस्ति। यद्विकारि ये च तस्य विकाराः यतश्च यत् यस्माद्विकाराद्यज्जायत इति प्राञ्चः। तत्पूर्वोक्तं क्षेत्रं यच्च यत्स्वरूपं यादृक् यत्प्रकारकं यद्विकारि ये च तस्य विकाराः यतश्च क्षेत्रावयवाद्यज्जायते तत् शृणु। तथा स च क्षेत्रज्ञः यो यत्स्वरूपः यत्प्रभावश्च तदपि मत्तः शृणु।
।।13.4।।इदं शरीरमित्यादिनोपदिष्टस्य क्षेत्राध्यायार्थस्य संग्रहश्लोकं प्रतिपत्तिसौकर्यार्थमुपन्यस्याति -- तदिति। इदं शरीरमिति यन्निर्दिष्टं तत्तदा परामृशति। यच्चेदं निर्दिष्टं क्षेत्रं स्वरुपतो जडं स्तावरजंगमादिभेबैर्भिन्नं दृश्यत्वादिस्वभावं तत्। यादृक् च स्वकीयैधर्मैः यादृशं यत्प्रकारकं च यद्विकारि ये विकारा अस्य तत्। यतो यस्माच्च यत्कार्यमुत्पद्यत इति शेषः। यतश्च प्रकृतिपुरुषसंयोगाद्भवति। यदिति यैः स्तावरजंगमादिभेदैर्भिन्नमिति त्वाचार्यैर्यच्चेत्यस्मिन्नुक्तस्य यत्पदार्थस्यान्तर्भावाद्यत्पदवैयर्थ्यमभिप्रेत्य न व्याख्यातम्। अत्र चकाराः सर्वे समुच्चायार्थाः। सच क्षेत्रज्ञो यः निर्दिष्टः स्वरुपतः सच्चिदानन्दस्वभावः यत्प्रभावाः प्रभावा शक्तयो यस्य स तद्यथोक्तविशेषणविशिष्टक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं समासेन संक्षेपेण मे मम वाक्यात् श्रृणु श्रुत्वाऽवधारयेत्यर्थः।
13.4 तत् that? क्षेत्रम् field? यत् which? च and? यादृक् what like? च and? यद्विकारि what its modifications? यतः whence? च and? यत् what? सः He? च and? यः who? यत्प्रभावः what His powers? च and? तत् that? समासेन in brief? मे from Me? श्रृणु hear.Commentary I will tell you? O Arjuna? what the field is? why the body is called the field? what are its modifications or changes in other words what transformations it undergoes? what are its properties? what effects arise in it from what causes? to whom it belongs? whether it is cultivated or whether it grows wild.That field refers to the field mentioned in verse 1.Who He is Who is that knower of the field What are His powers (Prabhavas are powers such as the power of seeing? hearing? etc.) which originate from the limiting adjuncts (such as the eys? the ears? etc.) Do thou hear My speech which describes succinctly the real nature of the field and the knower of the field in all these specific aspects.O Arjuna? I am ite sure that thou wilt clearly comprehend the truth on hearing My speech.The body is the field. The ten senses represent the ten bulls. The bulls work unceasingly day and night through the field of the objects of the senses. The mind is the supervisor. The individual soul is the tenant. The five vital airs (Pranas) are the five labourers. The Primordial Nature is the mistress of the field. This field is Her property. She Herself watches over the field vigilantly. She is endowed with the three alities. Rajas sows the seed Sattva guards it Tamas reaps the harvest. On the threshing floor or MahatTattva (the cosmic mind) with the help of the ox called time? She -- Primordial Nature -- thrashes out the corn. If the individual soul does evil actions? it sows the seeds of sin? manures with evil? reaps a crop of sin? and undergoes the pains of Samsara? viz.? birth? decay? old age? sickness? and the three kinds of afflictions. If it does virtuous actions it sows the good seeds of virtue and reaps a crop of happiness.Lord Krishna now speaks very highly in the following verse of the true nature of the field and the knower of the field in order to create interest in the hearer.
13.4 What the field is and of what nature, what are its modifications and whence it is and also who He is and what His powers are hear all that from Me in brief.
13.4 What is called Matter, of what it is composed, whence it came, and why it changes, what the Self is, and what Its power - this I will now briefly set forth.
13.4 Hear from Me in brief about (all) that as to what that field is and how it is; what its changes are, and from what cause arises what effect; and who He is, and what His powers are.
13.4 Srnu, hear, i.e., having heard, understand; me, from Me, from My utterance; samasena, in brief; about (all) tat, that-the true nature of the field and the Knower of the field, as they have been described; as to yat, what; tat, that-tat stands for that which has been indicated as 'This body' (in verse 1); ksetram, field is, which has been referred to as 'this'; ca, and; yadrk, how it is along with its own alities; yadvikari, what its changes are; ca, and; yatah, from what cause; arises yat, what effect (-arises is understood-); sah ca yah, and who He, the Knower of the field indicated above, is; ca, and; yat-prabhavah, what His powers are. Yat-probhavah is He who is possessed of the powers arising from the adjuncts. The word ca has been used (throughout) in the sense of and. For making the intellect of the hearer interested the Lord praises that true nature of the field and the Knower of the field which is intended to be taught:
13.4. What that Field is and of what nature it is; why it modifies, whence and what; and who he (the Field-sensitizer) is; and of what nature He is; listen to [all] that from Me collectively.
13.4 See Comment under 13.5
13.4 What the 'Field is' namely, what its substance is; what it is 'like', namely, what things depend on it; what its 'modifications' are, namely, what its transformations are; what the 'purpose' is for which it has been originated; 'what it is,' namely, what its true nature is; 'who it is,' namely, who the individual self is and what Its nature is like; what Its 'powers', are, namely, what powers It possesses. All this, briefly learn from Me.
13.4 Listen briefly from Me what the Field is, and what it is like, what is modifications are, what purpose it serves, what it is; and who the self is and what Its powers are.
।।13.4।।इदं शरीरम् इत्यादि श्लोकोंद्वारा उपदेश किये हुए क्षेत्राध्यायके अर्थका संक्षेपरूप यह तत्क्षेत्रं यच्च इत्यादि श्लोक कहा जाता है क्योंकि जिस अर्थका विस्तारपूर्वक वर्णन करना हो? उसका संक्षेप पहले कह देना उचित ही है --, जिसका पहले इदं शरीरम् इत्यादि ( वाक्य ) से वर्णन किया गया है? यहाँ तत् शब्दसे उसीका संकेत करते हैं। यह जो पूर्वोवत क्षेत्र है वह जैसा है अर्थात् अपने धर्मोंके कारण वह जिस प्रकारका है तथा जैसे विकारोंवाला है और जिस कारणसे जो कार्य उत्पन्न होता है -- यहाँ च शब्द समुच्चयके लिये है और कार्य उत्पन्न होता है यह वाक्यशेष है। तथा जिसे क्षेत्रज्ञ कहा गया है वह भी जिस प्रभाववाला अर्थात् जिनजिन उपाधिकृत शक्तियोंवाला है? उन क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनोंका उपर्युक्त विक्षेषणोंसे युक्त यथार्थ स्वरूप तू मुझसे संक्षेपसे सुन अर्थात् सुनकर निश्चय कर।
।।13.4।। --,यत् निर्दिष्टम् इदं शरीरम् इति तत् तच्छब्देन परामृशति। यच्च इदं निर्दिष्टं क्षेत्रं तत् यादृक् यादृशं स्वकीयैः धर्मैः। चशब्दः समुच्चयार्थः। यद्विकारि यः विकारः यस्य तत् यद्विकारि? यतः यस्मात् च यत्? कार्यम् उत्पद्यते इति वाक्यशेषः। स च यः क्षेत्रज्ञः निर्दिष्टः सः यत्प्रभावः ये प्रभावाः उपाधिकृताः शक्तयः यस्य सः यत्प्रभावश्च। तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः याथात्म्यं यथाविशेषितं समासेन संक्षेपेण मे मम वाक्यतः शृणु? श्रुत्वा अवधारय इत्यर्थः।।तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं विवक्षितं स्तौति श्रोतृबुद्धिप्ररोचनार्थम् --,
।।13.4।।यो विकारो यस्य तत् यद्विकारि इति कश्चित् (शं.) तदसत्। बहुव्रीहितायामिनेर्वैयर्थ्यात्। किन्तु यश्चासौ विकारश्चेति यद्विकारः सोऽस्यास्तीति यद्विकारीति भावेनाह -- यदिति। अत्रयेन विकारेण इत्यनेन कर्मधारयं सूचयति। युक्तमितीनेरर्थम्। यतश्च यदित्येतत्यस्माच्च यत्कार्यमुत्पद्यते इति कश्चिद्व्याख्यातवान् (शं.) तदयुक्तम्? यद्विकारीत्यनेन गतार्थत्वात् साध्याहारत्वाच्च?विकारांश्च गुणांश्च [13।20] इत्यस्यान्यथोपपत्तेः। अपरस्तु यतश्चामानित्वादिभ्यो यज्ज्ञेयं प्राप्यत इति? तदप्यसत्? अध्याहारादेव।अमानित्वं [13।8] इत्यादेःअनादिमत् [13।13] इत्यादेश्चान्यथासिद्धेरिति भावेनान्यथा व्याचष्टे -- यतश्चेति। यतो यस्य प्रेरणया। यदितीणो लडादेशशत्रन्तस्य रूपम्। इणो यातेश्चानतिभिन्नार्थत्वाद्यातीत्युक्तम्। सर्वस्य क्षेत्रस्य गत्यभावाद्गौणीं वृत्तिमाश्रित्य विवृणोति -- प्रवर्तत इति। स च य इति जीवप्रतिज्ञेति व्याख्यानमसत्? तस्याप्रकृतत्वात् क्षेत्रज्ञशब्दस्यातद्विषयत्वादिति भावेनाह -- स चेति। यतः क्षेत्रं प्रवर्तत इति प्रवर्तकस्य प्रकृतत्वादित्याशयः। नन्वेवं चेदेतद्वक्तव्यम् -- किंयतश्च यत्स च यः इत्येकैव प्रतिज्ञा उत द्वे नाद्यः चशब्दद्वयानुपपत्तेः?तत्समासेन इत्यनेनान्वयात्स च यः इत्यस्य वैयर्थ्याच्च। न द्वितीयः? अर्थभेदाभावादित्यतो द्वितीयमङ्गीकृत्याह -- यतश्चेति।यतश्च यत् इति वचनमस्मादेवंधर्मविशिष्टात् क्षेत्रं प्रवर्तत इति वक्तुं प्रतिज्ञारूपम्।स च यः इति वचनं प्रवर्तकस्य स्वरूपमात्रं वक्तुं प्रतिज्ञारूपमित्यर्थभेद इत्यर्थः।
।।13.4।।यद्विकारि येन विकारेण युक्तम्। यतश्च यत् यतो याति प्रवर्तते। स च प्रवर्तकः। यतश्च यदित्यस्मात्प्रवर्तते क्षेत्रमिति वचनं स च य इति स्वरूपमात्रम्।
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत्। स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।।13.4।।
তত্ক্ষেত্রং যচ্চ যাদৃক্ চ যদ্বিকারি যতশ্চ যত্৷ স চ যো যত্প্রভাবশ্চ তত্সমাসেন মে শ্রৃণু৷৷13.4৷৷
তত্ক্ষেত্রং যচ্চ যাদৃক্ চ যদ্বিকারি যতশ্চ যত্৷ স চ যো যত্প্রভাবশ্চ তত্সমাসেন মে শ্রৃণু৷৷13.4৷৷
તત્ક્ષેત્રં યચ્ચ યાદૃક્ ચ યદ્વિકારિ યતશ્ચ યત્। સ ચ યો યત્પ્રભાવશ્ચ તત્સમાસેન મે શ્રૃણુ।।13.4।।
ਤਤ੍ਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰਂ ਯਚ੍ਚ ਯਾਦਰਿਕ੍ ਚ ਯਦ੍ਵਿਕਾਰਿ ਯਤਸ਼੍ਚ ਯਤ੍। ਸ ਚ ਯੋ ਯਤ੍ਪ੍ਰਭਾਵਸ਼੍ਚ ਤਤ੍ਸਮਾਸੇਨ ਮੇ ਸ਼੍ਰਰਿਣੁ।।13.4।।
ತತ್ಕ್ಷೇತ್ರಂ ಯಚ್ಚ ಯಾದೃಕ್ ಚ ಯದ್ವಿಕಾರಿ ಯತಶ್ಚ ಯತ್. ಸ ಚ ಯೋ ಯತ್ಪ್ರಭಾವಶ್ಚ ತತ್ಸಮಾಸೇನ ಮೇ ಶ್ರೃಣು৷৷13.4৷৷
തത്ക്ഷേത്രം യച്ച യാദൃക് ച യദ്വികാരി യതശ്ച യത്. സ ച യോ യത്പ്രഭാവശ്ച തത്സമാസേന മേ ശ്രൃണു৷৷13.4৷৷
ତତ୍କ୍ଷେତ୍ରଂ ଯଚ୍ଚ ଯାଦୃକ୍ ଚ ଯଦ୍ବିକାରି ଯତଶ୍ଚ ଯତ୍| ସ ଚ ଯୋ ଯତ୍ପ୍ରଭାବଶ୍ଚ ତତ୍ସମାସେନ ମେ ଶ୍ରୃଣୁ||13.4||
tatkṣētraṅ yacca yādṛk ca yadvikāri yataśca yat. sa ca yō yatprabhāvaśca tatsamāsēna mē śrṛṇu৷৷13.4৷৷
தத்க்ஷேத்ரஂ யச்ச யாதரிக் ச யத்விகாரி யதஷ்ச யத். ஸ ச யோ யத்ப்ரபாவஷ்ச தத்ஸமாஸேந மே ஷ்ரரிணு৷৷13.4৷৷
తత్క్షేత్రం యచ్చ యాదృక్ చ యద్వికారి యతశ్చ యత్. స చ యో యత్ప్రభావశ్చ తత్సమాసేన మే శ్రృణు৷৷13.4৷৷
13.5
13
5
।।13.5।।(यह क्षेत्रक्षेत्रज्ञका तत्त्व) ऋषियोंके द्वारा बहुत विस्तारसे कहा गया है तथा वेदोंकी ऋचाओं-द्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है और युक्तियुक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी कहा गया है।
।।13.5।। (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विषय में) ऋषियों द्वारा विभिन्न और विविध छन्दों में बहुत प्रकार से गाया गया है, तथा सम्यक् प्रकार से निश्चित किये हुये युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा (अर्थात् ब्रह्म के सूचक शब्दों द्वारा) भी (वैसे ही कहा गया है)।।
।।13.5।। प्रस्तुत अध्याय में जो विवेचन किया जा रहा है वह कोई व्यर्थ का भाषण अथवा श्रीकृष्ण की बुद्धि की कल्पना मात्र नहीं है। यहाँ भगवान् स्वयं ही स्पष्ट कहते हैं कि ऋषियों द्वारा अनुभूत और प्रतिपादित सत्य की ही वे पुनर्घोषणा कर रहे हैं। संक्षेप में? उपनिषदों के प्रतिपाद्य ब्रह्मतत्त्व का ही निरूपण इस अध्याय का विषय है।कोई व्यक्ति प्रश्न कर सकता है कि क्यों हम उपनिषद् के ऋषियों के कथनों को तत्परता से स्वीकार करें ऐसा प्रश्न केवल वे ही लोग कर सकते हैं? जिन्हें ऋषियों के प्रति अश्रद्धा है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि हमे ऋषियों के प्रति महान् आदर और सम्मान नहीं भी हो? तब भी हमें उनके द्वारा प्रतिपादित सत्य को स्वीकारना ही होगा? क्योंकि वे उपनिषद् के? निश्चित किये हुये युक्तियुक्त कथन हैं। उनके कथन कोई बौद्धिक आलेख अथवा दैवी आज्ञायें नहीं हैं? जो साधारण असहाय जनता पर विशेष दैवी अधिकार प्राप्त किसी देवदूत ने थोप दी हों।जब प्रमाण तर्क एवं अनुभव के द्वारा किसी सत्य को सिद्ध किया जाता है? तब किसी भी बुद्धिमान पुरुष को उसके युक्तियुक्त संगत होने के कारण स्वीकारना ही पड़ता है।अर्जुन के मन में रुचि उत्पन्न करने के पश्चात् भगवान् कहते हैं,
।।13.5।। व्याख्या --   ऋषिभिर्बहुधा गीतम् -- वैदिक मन्त्रोंके द्रष्टा तथा शास्त्रों? स्मृतियों और पुराणोंके रचयिता ऋषियोंने अपनेअपने (शास्त्र? स्मृति आदि) ग्रन्थोंमें जडचेतन? सत्असत्? शरीरशरीरी? देहदेही? नित्यअनित्य आदि शब्दोंसे क्षेत्रक्षेत्रज्ञका बहुत विस्तारसे वर्णन किया है।छन्दोभिर्विविधैः पृथक् -- यहाँ विविधैः विशेषणसहित छन्दोभिः पद ऋक? यजुः? साम और अथर्व -- इन चारों वेदोंके संहिता और ब्राह्मण भागोंके मन्त्रोंका वाचक है। इन्हींके अन्तर्गत सम्पूर्ण उपनिषद् और भिन्नभिन्न शाखाओंको भी समझ लेना चाहिये। इनमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञका अलगअलग वर्णन किया गया है।ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः -- अनेक युक्तियोंसे युक्त तथा अच्छी तरहसे निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी क्षेत्रक्षेत्रज्ञके तत्त्वका वर्णन किया गया है।इस श्लोकमें भगवान्का आशय यह मालूम देता है कि क्षेत्रक्षेत्रज्ञका जो संक्षेपसे वर्णन मैं कर रहा हूँ? उसे अगर कोई विस्तारसे देखना चाहे तो वह उपर्युक्त ग्रन्थोंमें देख सकता है। सम्बन्ध --   तीसरे श्लोकमें क्षेत्रक्षेत्रज्ञके विषयमें जिन छः बातोंको संक्षेपसे सुननेकी आज्ञा दी थी? उनमेंसे क्षेत्रकी दो बातोंका अर्थात् उसके स्वरूप और विकारोंका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
।।13.4 -- 13.5।।तत्क्षेत्रमिति। ऋषिभिरिति। येन विकारं गच्छति यद्विकारि। समासेनेति अविभागेनैव सर्वान्प्रश्नान् (S??K एतान् (S तान्) प्रश्नान्) साधारणोत्तरेण परिच्छिनत्ति। यद्यपि च ऋषिभिर्बहुधा वेदैश्चोक्तमेतत्। तथापि समासेनाहं व्याचक्षे इति।
।।13.5।।महाभूतानि अहंकारो बुद्धिः अव्यक्तम् एव च इति क्षेत्रारम्भकद्रव्याणि? पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशमहाभूतानि? अहंकारो भूतादिः? बुद्धिः महान्? अव्यक्तं प्रकृतिः। इन्द्रियाणि दश एकं च पञ्च च इन्द्रियगोचराः? इति क्षेत्राश्रितानि तत्त्वानि? श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणानि पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायूपस्थानि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि? तानि दश? एकम् इति मनः। इन्द्रियगोचराः च पञ्च शब्दस्पर्शरूपरसगन्धाः।
।।13.5।।क्षेत्रादियाथात्म्यस्तुत्या प्रलोभिताय किं तदिति जिज्ञासवे यथोद्देशं क्षेत्रं निर्दिशति -- स्तुत्येति। महत्त्वे हेतुमाह -- सर्वेति। भूतशब्देन स्थूलानामपि विशेषाभावाद्ग्रहे का हानिरित्याशङ्क्याह -- स्थूलानीति। अहंकारोऽहंप्रत्ययलक्षण इति संबन्धः। भूतानां प्रातीतिकत्वेनाभिमानमात्रात्मत्वं मत्वाहंकारं विशिनष्टि -- महाभूतेति। महतः परमित्यादौ प्रसिद्धं महच्छब्दार्थमहंकारहेतुमाह -- अहंकारेति। ईश्वरशक्तिरित्युक्ते चैतन्यमपि शङ्क्येत तदर्थमाह -- ममेति। अवधारणरूपमर्थमेव स्फुटयति -- एतावत्येवेति। पञ्चतन्मात्राण्यहंकारो महदव्याकृतमित्यष्टधा भिन्नत्वम्। मूलप्रकृत्या सह तन्मात्रादिभेदानां समुच्चयश्चकारार्थः। दशेन्द्रियाण्येव विभज्य व्युत्पादयति -- श्रोत्रेत्यादिना। तदेव प्रश्नद्वारा स्फुटयति -- किं तदिति। शब्दादिविषयशब्देन स्थूलानि भूतानि गृह्यन्ते। उक्तेषु तन्मात्रादिषु तन्त्रान्तरीयसंमतिमाह -- तानीति।मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त। षो़डशकश्च विकारः इति पठन्ति।
।।13.5।।ऋषिभिर्बहुधा गीतमिति। क्षेत्त्रज्ञस्वरूपं बहुधा गीतं बहुप्रकारेण निरूपितस्य विप्रकीर्णस्यार्थस्यैकेन क्रोडीकारासम्भवादिति छन्दोभिर्ध्यानधारणाविषयत्वेन वैराजादिरूपेण नानायजनीयदेवतादिरूपेण क्षेत्रज्ञस्वरूपमुक्तं? तत्र विविधैरनेकैः पृथक् ब्रह्मसूत्रपदैश्च व्यासकृतैः वेदार्थसारग्रथनरूपैरतएव विनिश्चितैः हेतुमद्भिः हेतुः साधकवाक्यंतत्तु समन्वयात् [ब्र.सू.1।14] इतिवदनेकयुक्तिमद्भिरपि च बहुप्रकारेण गीतं मया तत्सर्वतः सारभूतं फलितं संगृह्योच्यते इति भावः।
।।13.5।।कैर्विस्तरेणोक्तस्यायं संक्षेप इत्यपेक्षायां श्रोतृबुद्धिप्ररोचनार्थं स्तुवन्नाह -- ऋषिभिरिति। ऋषिभिर्वसिष्ठादिभिर्योगशास्त्रेषु धारणाध्यानविषयत्वेन बहुधा गीतं निरूपितम्। एतेन धर्मशास्त्रप्रतिपाद्यत्वमुक्तम्। विविधैर्नित्यनैमित्तिककाम्यकर्मादिविषयैः छन्दोभिः ऋगादिमन्त्रैर्ब्राह्मणैश्चः पृथग्विवेकतो गीतम्। एतेन कर्मकाण्डप्रतिपाद्यत्वमुक्तम्। ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव ब्रह्म सूत्र्यते सूच्यते किंचिद्व्यवधानेन प्रतिपाद्यत एभिरिति ब्रह्मसूत्राणि।यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति इत्यादीनि तटस्थलक्षणपराण्युपनिषद्वाक्यानि। तथा पद्यते ब्रह्म साक्षात्प्रतिपाद्यत,एभिरिति पदानि स्वरूपलक्षणपराणिसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इत्यादीनि तैर्ब्रह्मसूत्रैः पदैश्च हेतुमद्भिःसदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् इत्युपक्रम्यतद्धैक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं तस्मादसतः सज्जायेत इति नास्तिकमतमुपन्यस्यकुतस्तु खलु सोम्यैवं स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायेत इत्यादियुक्तीः प्रतिपादयद्भिः। विनिश्चितैः उपक्रमोपसंहारैकवाक्यतया संदेहशून्यार्थप्रतिपादकैः बहुधा गीतं च। एतेन ज्ञानकाण्डप्रतिपाद्यत्वमुक्तम्। एवमेतैरतिविस्तरेणोक्तं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं संक्षेपेण तुभ्यं कथयिष्यामि तच्छृण्वित्यर्थः। अथवा ब्रह्मसूत्राणि च तानि पदानि चेति कर्मधारयः। तत्र विद्यासूत्राणिआत्मेत्येवोपासीत इत्यादीनि? अविद्यासूत्राणिन स वेद यथा पशुः इत्यादीनि तैर्गीतमिति।
।।13.5।।कैर्विस्तरेणोक्तस्यायं संक्षेप इत्यपेक्षायामाह -- ऋषिभिरिति। ऋषिभिर्वसिष्ठादिभिर्योगशास्त्रेषु ध्यानधारणादिविषयत्वेन वैराजादिरूपेण बहुधा गीतं निरूपितम्? विविधैर्विचित्रैश्च नित्यनैमित्तिककाम्यविषयैश्छन्दोभिर्वेदैर्नानायजनीयदेवतादिरूपेण गीतं? ब्रह्मणः सूत्रैः पदैश्च। ब्रह्म सूत्र्यते सूच्यत एभिरिति ब्रह्मसूत्राणियतो वा इमानि भूतानि जायन्ते इत्यादीनि तटस्थलक्षणपराण्युपनिषद्वाक्यानि? तथाच ब्रह्म पद्यते गम्यते साक्षाज्ज्ञायत एभिरिति पदानि स्वरूपलक्षणपराणिसत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म इत्यादीनि तैश्च बहुधा गीतम्। किंच हेतुमद्भिःसदेव सोम्येदमग्र आसीत्कथमसतः सज्जायेत इति तथाको ह्येवान्यात्कः प्राण्यात्? यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्? एष ह्येवानन्दयति इत्यादियुक्तिमद्भिः। अन्यादपानचेष्टां कः कुर्यात्? प्राण्यात्प्राणानां व्यापारं को वा कुर्यात् इति पदयोरर्थः। विनिश्चितैरुपक्रमोपसंहारैकवाक्यतया असंदिग्धार्थप्रतिपादकैरित्यर्थः। तदेवमेतैर्विस्तरेणोक्तं दुःसंग्रहं संक्षेपतस्तुभ्यं कथयिष्यामि तच्छृण्विवत्यर्थः। यद्वाअथातो ब्रह्मजिज्ञासा इत्यादीनि ब्रह्मसूत्राणि गृह्यन्ते? तान्येव ब्रह्म पद्यते निश्चीयत एभिरिति पदानि? तैर्हेतुमद्भिःईक्षतेर्नाशब्दम्आनन्दमयोऽभ्यासात् इत्यादिभिर्युक्तिमद्भिर्विनिश्चितार्थैः। शेषं समानम्।
।।13.5।।स्वेनोपदिश्यमानस्यार्थस्येतिहासपुराणमीमांसानुगृहीतानेकश्रुतिसिद्धत्वमाह -- ऋषिभिः इति श्लोकेन। विशदोपबृंहणवाक्यानुसारेण अविशदवेदवाक्यार्थनिश्चयाय प्रथममृषिभिर्गीतत्वोक्तिः। राजसतामसोपबृंहणव्यवच्छेदाय ऋषिशब्दोक्तान्विशिनष्टि -- पराशरादिभिरिति।बहुप्रकारमिति अर्थस्यैकत्वेऽपि वचनव्यक्तौ रथचक्रनद्यादिकल्पनाप्रकारभेदः। यद्वा सङ्क्षेपविस्तारादिरूपेणेत्यर्थः। अविविक्तदेहात्मस्वरूपस्य राज्ञो वाह्यवाहकत्वोक्तिप्रतिक्षेपार्थं वाक्यम् -- अहं त्वं चेति। अध्यात्मगन्धिवाक्यश्रवणमूलस्य कस्त्वमिति प्रश्नस्योत्तरं -- पिण्ड इति।शिरःपाण्यादिलक्षणः इत्यनेन कृत्स्नैकदेशचेतनत्वविकल्पो द्योतितः। प्रतिपादितार्थस्य श्रोतर्यपि स्वप्रत्ययेन दृढीकरणार्थं वाक्यंकिं त्वमिति। एवम्इदं शरीरम् [13।2] इति श्लोकेनोक्तस्य संवादकमुपात्तम्। ननु द्वासुपर्णा इति मन्त्रे तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति इति कर्मफलभोक्ता जीव उच्यते अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति [मुं.उ.3।1।1] इति परमात्मेति शारीरकेगुहां प्रविष्टावात्मानौ हितद्दर्शनात् [ब्र.सू.1।2।11]स्थित्यदनाभ्यां च [ब्र.सू.1।3।7] इत्यादिषु प्रपञ्चितम्। ब्राह्मणे तुतयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्तीति सत्त्वम् इति जन्तुवाचिना सत्त्वशब्देन जीवमभिधायअनश्नन्नन्यो अभिचाकशीतिअनश्नन्नन्यो अभिपश्यतीति क्षेत्रज्ञः तावेतौ सत्त्वक्षेत्रज्ञौ तदेतत्सत्त्वं येन स्वप्नं पश्यति अथ योऽयं शारीर उपद्रष्टा स क्षेत्रज्ञः इति क्षेत्रज्ञशब्देन परमात्मानमेवाभिधत्ते। तावेवात्र क्षेत्रज्ञोपद्रष्ट्टशब्दौ प्रत्यभिज्ञायेतेतं प्राहुः क्षेत्रज्ञः [13।2] इतिउपद्रष्टानुमन्ता [13।23] इति च। मनुश्चयोऽस्यात्मनः कारयिता तं क्षेत्रज्ञं प्रचक्षते। यः करोति तु कर्माणि परमा(स भूता)त्मोच्यते बुधैः [मनुः12।12] इति क्षेत्रज्ञशब्देन परमात्मानमाह।अतः कथमत्र क्षेत्रज्ञो जीव इत्युच्यते इति शङ्कामर्थात्परिहरन्क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि [13।3] इत्यस्य संवादकं तस्य स्वोक्तार्थानुगुण्यं सूचयन्नवतारयति -- एवं विविक्तयोरिति। तथाच क्षेत्रज्ञशब्दस्य जीवेऽपि प्रयोगदर्शनात्क्षेत्रज्ञो जीव इत्युपपद्यते। प्रत्येकं समुदायेन वाममेदं शिरःममेमौ पाणीममेदं शरीरम् इति क्षेत्रवेदित्वाज्जीवस्य क्षेत्रज्ञत्वम्। परमात्मनस्तुइदं शरीरमेतत्कर्मारम्भायैतत्कर्मफलभोगाय इत्यादिक्षेत्रयाथात्म्यवेदितृत्वेन। एतच्चएतदवयवशः सङ्घातरूपेण च इदमहं वेद्मि इति यो वेत्ति इति [रा.भा.2] भाष्येणयोऽस्यात्मनः कारयिता [12।12] इति मनुवचनेन च ज्ञापितम्। एवमुपद्रष्ट्टत्वमपि जीवस्य स्वशरीरमात्रं प्रति परमात्मनस्तु सर्वचेतनाचेतनान् प्रतीत्युभयोरप्युपद्रष्ट्टत्वमविरुद्धम्। अतो न कस्यापि प्रमाणस्य विरोध इति भावः। स्वरूपवैविध्यस्यछन्दोभिः इति बहुवचनेनैव लाभात् विविधशब्दः प्रकृतप्रतिपाद्यप्रकारवैविध्यपर इत्यभिप्रायेणाह -- पृथग्विधैरिति। पृथग्भूताः विधाः प्रतिपाद्यप्रकारा येषामिति विग्रहः।आम्नायश्छन्दसां दण्डः इत्यादिप्रयोगानुसारेण च्छन्दश्शब्दो वेदपरः? न तु गायत्र्यादिपर इत्यभिप्रयन्नाहऋग्यजुरिति। पृथक्छब्दस्य ऋषिभिरुक्तात्पृथक्त्वपरत्वभ्रमव्युदासायाध्याहारानुषङ्गाभ्यां योजयतिदेहात्मनोः स्वरूपं पृथग्गीतमिति। परस्परविलक्षणं गीतमित्यर्थः। तद्यथा रथस्यारेषु नेमिरर्पिता? नाभावरा अर्पिताः? एवमेवैता भूतमात्राः प्रज्ञामात्रास्वर्पिताः? प्रज्ञामात्राः प्राणेऽर्पिताः [कौ.उ.3।9] एष म आत्माऽन्तर्हृदये एतद्ब्रह्मैतमितः प्रेत्याभिसम्भवितास्मि [छां.उ.3।14।4] दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः। अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतः परः [मुं.उ.2।1।2] स कारणं करणाधिपाधिपः [श्वे.उ.6।9] भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा [श्वे.उ.1।12] जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति [मुं.उ.3।1।1] इत्यादिकमभिप्रेत्याह -- एवमृक्सामाथर्वस्विति।ब्रह्मसूत्र -- इत्यत्र लुप्तषष्ठ्यर्थः सम्बन्धः प्रतिपादकत्वमित्यभिप्रेत्यसूत्रपदैः इत्यत्र षष्ठीसमासभ्रमं वारयतिब्रह्मप्रतिपादनसूत्राख्यैः पदैरिति। फलितमाहशारीरकसूत्रैरिति।हेतुयुक्तैरिति हेतुप्रतिपादकैरित्यर्थः। कर्मणि क्ताश्रयणे प्रयोजनाभावाद्विशेषतो निश्चितं येषामिति भावे क्तं बहुव्रीहिं चाभिप्रेत्याहनिर्णयान्तैरिति? निर्णयफलकैरित्यर्थः।न वियदश्रुतेरित्यारभ्येत्यनेन -- अस्ति तु [ब्र.सू.2।3।2] इत्यादिकं सूत्रषट्कंएतेन मातरिश्वा व्याख्यातः [ब्र.सू.2।3।8]तेजोऽतस्तथा ह्याह [ब्र.सू.2।3।10]आपः [ब्र.सू.2।3।11]पृथिवी [ब्र.सू.2।3।12] इति सूत्रचतुष्टयं च विवक्षितम्।उक्त इति -- अनेनाकाशादीनामुत्पत्तिकथनेन तत्सङ्घातात्मकक्षेत्रयाथात्म्यमुक्तप्रायमिति भावः।नात्मा श्रुतेरित्यारभ्येत्यनेनज्ञोऽत एव? उत्क्रान्तिगत्यागतीनां? स्वात्मना चोत्तरयोः? नाणुरतच्छ्रुतेरिति चेन्नेतराधिकारात्? स्वशब्दोन्मानाभ्यां च? अविरोधश्चन्दनवत्? अवस्थितिवैशेष्यादिति चेन्नाभ्युपगमाद्धृदि हि? गुणाद्वा लोकवत्? व्यतिरेको गन्धवत् तथाच दर्शयति? पृथगुपदेशात्? तद्गुणसारत्वात्तु तद्व्यपदेशः प्राज्ञवत्? यावदात्मभावित्वाच्च न दोषस्तद्दर्शनात्? पुंस्त्वादिवत्त्वस्य सतोऽभिव्यक्तियोगात्? नित्योपलब्ध्यनुपलब्धिप्रसङ्गोऽन्यतरनियमो वाऽन्यथा? कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात्? उपादानाद्विहारोपदेशाच्च? व्यपदेशाच्च क्रियायां न चेन्निदेशविपर्ययः? उपलब्धिवदनियमः? शक्तिविपर्ययात्? समाध्यभावाच्च? यथाच तक्षोभयधा? परात्तु तच्छ्रुतेः [ब्र.सू.2।3।1740] इत्यन्तं सूत्रजातमभिप्रेतम्।इत्यारभ्य ज्ञोऽत एवेत्यादिभिरिति पाठे इत्यादिशब्देनैतद्विवक्षितम्।भगवत्प्रवर्त्यत्वेनेति? चेतनं प्रति नियमेन नियाम्यद्रव्यत्वस्य शरीरलक्षणत्वादिति भावः। श्रुत्यादिभिः प्रतिपादितस्यैव क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यस्य ज्ञातुं शक्यत्वात्त्वत्तः किमर्थं श्रोतव्यमित्याशङ्कापरिहाराय पूर्वोक्तंतत्समासेन मे शृणु [13।4] इत्येतदत्र सङ्गमय्य तत्तात्पर्यमाह -- एवं बहुधा गीतमित्यादि। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यस्य श्रुत्यादिभिरतिविस्तरेण बहुधा गीतत्वात् किञ्चिज्ज्ञेन स्पष्टमवगन्तुमशक्यत्वात्सर्वज्ञेन मया सङ्क्षेपेण सुस्पष्टमुच्यमानं तच्छ्रोतव्यमिति भावः। ,
।।13.5।।बहुधान्योक्तभ्रमाभावाय प्रपञ्चयति -- ऋषिभिरिति। ऋषिभिः स्वानुभवोत्पन्नफलनिरूपणेन बहुधा बहुप्रकारेण गीतम्। किञ्च? छन्दोभिर्वेदैर्विविधैः कर्मज्ञानोपासनकाम्यादिभिः पृथक् भिन्नतया अधिकारपरत्वेन गीतम्। तथैव ब्रह्मसूत्रपदैश्च ब्रह्म सूत्र्यते एभिरिति ब्रह्मसूत्राणिजन्माद्यस्य यतः [ब्र.सू.1।1।2] इत्यादीनि। तथाच ब्रह्म प्रपद्यते गम्यते एभिरिति पदानि एको देवो बहुधा निविष्टः [तै.आ.3।14] इत्यादीनि तैर्बहुधा श्रुत्यनुसारेणैव गीतम्। कीदृशैस्तैः हेतुमद्भिः सहेतुकैः को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात्? यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् [तै.उ.2।7] एष ह्येव तं साधु कर्म कारयति [कौ.उ.3।9] इत्यादिभिः। विनिश्चितैः निस्सन्दिग्धैः स्वानुभवप्रतिपादकैरित्यर्थः। एवं विस्तरेणैतैरुक्तं दुर्बोधं याथातथ्येन तत् समासेन मे मत्तः उक्तं शृणु। कथयामीत्यर्थः।
।।13.5।।वक्ष्यमाणेऽर्थे प्रमाणमाह -- ऋषिभिरिति। ऋषिभिर्वसिष्ठाद्यैर्बहुधा गीतं योगवासिष्ठादौ प्रतिपादितम्। छन्दोभिर्वेदैर्मन्त्रैर्वा पृथक् प्रतिशाखमनेकप्रकारं गीतम्। ब्रह्मसूत्रपदैः ब्रह्मणः सूचकानि पदानि समुच्चित्य वाक्यभावमापन्नानि तैर्ब्रह्मसूचकैर्ब्राह्मणवाक्यैः। तत्त्वमसीत्याद्यैरित्यर्थः। हेतुमद्धिःअन्नेन सोम्य शुङ्गेनापोमूलमन्विच्छ अद्भिः सोम्य शुङ्गेन तेजोमूलमन्विच्छ तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ सन्मूलाः,सोम्येमाः प्रजाः इत्यादिना कार्यलिङ्गान्यनुमानानि ब्रह्माधिगमाय प्रदर्शयन्तो हेतवस्तद्वद्भिः। विनिश्चितैरसकृदभ्यासेन सकलशङ्कापङ्कक्षालनेन निश्चितार्थैः क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः स्वरूपमेतैः सर्वैर्यद्गीतं तच्छृण्विति पूर्वेण संबन्धः।
।।13.5।।श्रोतृप्ररोचनाय क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं स्तौति -- ऋषिभिरिति। ऋषिभिर्वसिष्ठादिभिर्वासिष्ठातौ बहुधा बहुप्रकारं गीतं कथितम्। न केवलमाप्तोक्तमेव क्षेत्रादियाथात्म्ये प्रमाणमपितु छन्दांसीत्याह। छन्दोभिऋःगादिभिर्विविधैः शाखामेदेन नानाप्रकारैः पृथग्विवेकतो गीतम्। उक्तार्थे श्रुतिस्मृती प्रमाणमभिधाय युक्तमाह -- ब्रह्मेति। ब्रह्मणः सूचकानि वाक्यानि ब्रह्मसूत्राणिः तैः पद्यते ज्ञायते ब्रह्मेति तानि पदान्युचयन्ते तैरेवं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यं गीतं इत्यनुवर्तते। आत्मेत्येवोपासीतेत्येवमादिभिर्हि ब्रह्मसूत्रपदैः आत्मा ज्ञायते हेतुमद्भिर्युक्तियुक्तैः विनिश्चितेः न संशयरुपैः निश्चितप्रत्ययोत्पादकैः इति भाष्ये। आदिपदात्यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति? सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म? तत्त्वमसि? ब्रह्मविदाप्नोति परं? न स वेद यथा पशुः इत्यादीनि सूत्रपदानि गृह्यन्ते। तथैच ब्रह्मसूत्राणि च तानि पदानीति भाष्योक्तलघुभूतकर्मधारयं विहाय ब्रह्मसूत्राणि च पदानि चेति समासो न प्रदर्शनीयः फलाभावात्। हेतुमद्भिर्युक्तियुक्तैःसदेव सोभ्येदमग्र आसीत्?कथमसतः सज्जायेत इति। तथाको ह्येवानयात्कः प्राण्यात् यदेश आकाश आनन्दो न स्यात्? एष ह्येवानन्दयति?अन्नेन सोम्य शुङ्गेनापोमूलमन्विच्छ अद्भिः सोभ्य शुङ्गेन तेजोमूलमन्विच्छ तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ सन्मूलाः सोम्येमाः प्रजाः इत्यादिभिः। यद्वाअथातो ब्रह्मजिज्ञासा इत्यादीन्यपि सूत्राण्यत्र गृहीतानि। अन्यथा छन्दोभिरित्यादिना पौनरुक्त्यादिति मत्वा विशिनष्टि। हेतुमद्भिरिति। यत् ऋष्यादिभिर्गीतं तत्सामासेन श्रृण्वित्यन्वयः।
13.5 ऋषिभिः by Rishis? बहुधा in many ways? गीतम् sung? छन्दोभिः in chants? विविधैः various? पृथक् distinctive? ब्रह्मसूत्रपदैः in the suggestive words indicative of Brahman? च and? एव even? हेतुमद्भिः full of reasoning? विनिश्चितैः decisive.Commentary Many sages (such as Vasishtha) have talked about it (the true nature of the field and its knower) since ancient times. The ancient hymns? such as the Rig Veda? have explained this in various ways.The word Brahma Sutras refers to the Vedanta Sutras written by Vyasa or Badarayanacharya in order to reconcile the mutually contradictory passages in the Upanishads. A study of the Brahma Sutras is very necessary in order to comprehend the esoteric significance of the Upanishads. The Braham Sutras are also known by the name Sariraka Sutras because fifteen Sutras in the third Pada of the second chapter deal with the Sarira or Kshetra (body).The true nature of the field and its knower has also been taught in the Brahma Sutras which deal with Brahman such as Atmanyevopasita (only as the Self? let a man meditate on It.) (Brihadaranyaka Upanishad? I.4.7).They are full of reasoning? convincing and decisive. There is no doubt in the words or passages that treat of Brahman.
13.5 Sages have sung in many ways, in various distinctive chants and also in the suggestive words indicative of the Absolute, full of reasoning and decisive.
13.5 Seers have sung of It in various ways, in many hymns and sacred Vedic songs, weighty in thought and convincing in argument.
13.5 It has been sung of in various ways by the Rsis, separately by the different kinds [The different branches of Vedic texts.] of Vedic texts, and also by the rational and convicing sentences themselves which are indicatvie of and lead of Brahman.
13.5 Gitam, It has been sung of, spoken of; bahudha, in various ways; rsibhih, by the Rsis, by Vasistha and others; sung prthak, separately; vividhaih, by the different kinds of; chandobhih, Vedic texts-chandas mean the Rg-veda etc; by them; ca, and; besides, hetumadbhih, by the rational; and viniscitaih, by the convincing, i.e. by those which are productive of certain knowledge-not by those which are in an ambiguous form; brahma-sutra-padaih eva, sentences themselves which are indicative of and lead to Brahman. Brahma-sutras are the sentences indicative of Brahman. They are called padani since Brahman is reached, known, through them. By them indeed has been sung the true nature of the field and the Knower of the field (-this is understood). The Self is verily known through such sentences as, 'The Self alone is to be meditated upon' (Br. 1.4.7), which are indicative of and lead to Brahman. To Arjuna who had become interested as a result of the eulogy, the Lord says:
13.5. This has been sung many times by sages, and also has been clearly decided in the various Vedas in different contexts by means of [their] words that are suggestive of the Brahman (i.e. in the Upanisads) and are full of reasoning.
13.4-5 Tat Ksetram etc. Rsibhih etc. Why it modifies : due to what this [Field] suffers modification. Collectively : not at all separately (one by one). [The Bhagavat] decides all the estions in a general way. Of course, many a time in many a way this has been declared by the seers and by the scritpures. But, let Me (the Bhagavat) explain this collectively (briefly).
13.5 It is this truth regarding the Kestra and Ksetrajna that has been sung in various ways by Parasara and others seers. For example, 'I and you and others are composed of the elements; and the elements, following the stream of alities, assume a shape; these alities, Sattva and the rest, are dependent on Karma; and Karma, accumulated by nescience, influences the condition of all beings. The self is pure, imperishable, tranil, void of alities and is pre-eminent over Prakrti' (V. P., 2.13.69-71). Similarly: 'The body, characterised by head, hands, feet and the like is different from Purusa.' Which of these can I designate by the name I?' (Ibid., 2.13.89). And also: 'Are you the head or the belly? Are you indeed the feet and other limbs, or do they belong to you, O King? You are distinct in your nature from all your members, O King. Know, O King, and understand "Who am I" '. (Ibid., 1.13.102-3). Moreover they state that Vasudeva constitutes the Self of the distinct entities (Ksetra and Ksetrajna): 'The senses, Manas, Buddhi, vigour, splendour, strength, courage, both Ksetra and Ksetrajna have Vasudeva for their self. (Ma. Bha. Sa., 149.136). In various distinctive hymns, namely, in the Vedas, Rg, Yajus, Saman and Atharvan, the distinction of body and the self has been sung. The nature of the body is described in the following text: 'From this Self, verily, ether arose; from the ether, air; from air, fire; from fire, water; from water, the earth; from the earth, herbs; from the herbs, food; from food, the person. The same person, verily, consists of the essence of food' (Tai. U., 2.1.2). Afterwards that which is inner than this (body) and which consists of Prana (or the vital breath), and that which is inner than this and which consists of mind are described. The nature of Ksetrjna is stated in the passage: 'Verily, other than, and within, that one that consists of mind, that (the individual Self) consists of understanding' (Ibid., 2.4.2). Later, the Supreme Brahman is stated in the text; 'Verily, other than, and within, that one consisting of understanding, is the Supreme Self that consists of bliss' (Ibid., 1.5.2). This is stated to be the Surpeme Self, consisting of bliss, as forming the inner Self of the individual self. Similarly in the three Vedas, Rg, Saman and Atharvan, here and there, the distinctive existence of the Ksetra and the Ksetrajna is affirmed with Brahman for their Self. Likewise, the same purpose is taught in the words of the Brahma-sutras, namely, the aphorisms about Brahman, known also as the Sariraka-sutras, which are characterised by reasoning, decision and conclusion. In the Sutras commencing with, 'Not ether, on account of the absence of the Sruti' (B. S., 2.3.1), the nature and the mode of the Ksetra is determined. In the Sutras commencing with 'Not the self, on account of the Sruti and on account of the eternity, (which is made out) from them' (Ibid., 2.3.18), the true nature of the Ksetrajna is determined. In the Sutras 'But from the Supreme, this being declared by Sruti' (Ibid., 2.3.40), that Ksetrajna has the Lord for Its Self on account of Its being under the control of the Lord, is declared. It has been sung in various ways; the meaning of this Sloka is this: Listen about the truths of the Ksetra and the Ksetrajna which have been expounded in numerous ways and declared by Me in a lucid and brief manner.
13.5 It has been sung by seers in various ways, in various distinctive hymns, and also in the well-reasoned and conclusive words of the Brahma-sutras.
।।13.5।।श्रोताकी बुद्धिमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये? उस कहे जानेवाले क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके यथार्थ स्वरूपकी स्तुति करते हैं --, ( यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका तत्त्व ) वसिष्ठादि ऋषियोंद्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है और ऋग्वेदादि नाना प्रकारके श्रुतिवाक्योंद्वारा भी पृथक्पृथक् -- विवेचनपूर्वक कहा गया है। तथा संशयरहित निश्चित ज्ञान उत्पन्न करनेवाले विनिश्चित और युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्रके पदोंसे भी कहा गया है। जो वाक्य ब्रह्मके सूचक हैं उसका नाम ब्रह्मसूत्र है? उनके द्वारा ब्रह्म पाया जाता है -- जाना जाता है? इसलिये उनको पद कहते हैं? उनसे भी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका तत्त्व कहा गया है क्योंकि केवल आत्मा ही सब कुछ है ऐसी उपासना करनी चाहिये इत्यादि ब्रह्मसूचक पदोंसे ही आत्मा जाना जाता है।
।।13.5।। --,ऋषिभिः वसिष्ठादिभिः बहुधा बहुप्रकारं गीतं कथितम्। छन्दोभिः छन्दांसि ऋगादीनि तैः छन्दोभिः विविधैः नानाभावैः नानाप्रकारैः पृथक् विवेकतः गीतम्। किञ्च? ब्रह्मसूत्रपदैश्च एव ब्रह्मणः सूचकानि वाक्यानि ब्रह्मसूत्राणि तैः पद्यते गम्यते ज्ञायते इति तानि पदानि उच्यन्ते तैरेव च क्षेत्रक्षेत्रज्ञयाथात्म्यम् गीतम् इति अनुवर्तते। आत्मेत्येवोपासीत (बृह0 उ0 1।4।7) इत्येवमादिभिः ब्रह्मसूत्रपदैः आत्मा ज्ञायते? हेतुमद्भिः युक्तियुक्तैः विनिश्चितैः निःसंशयरूपैः निश्चितप्रत्ययोत्पादकैः इत्यर्थः।।स्तुत्या अभिमुखीभूताय अर्जुनाय आह भगवान् --,
।।13.5।।ब्रह्मणः सूचकानि वाक्यानि ब्रह्मसूत्राणि (शं.) इति कश्चित्। ततश्च छन्दसामृषिवाक्यानां च तथात्वात् ऋषिभिरित्यादिकं वृथा स्यादित्यतो रूढिमाश्रित्याह -- ब्रह्मेति।
।।13.5।।ब्रह्मसूत्राणि शारीरकम्।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्। ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्िचतैः।।13.5।।
ঋষিভির্বহুধা গীতং ছন্দোভির্বিবিধৈঃ পৃথক্৷ ব্রহ্মসূত্রপদৈশ্চৈব হেতুমদ্ভির্বিনিশ্িচতৈঃ৷৷13.5৷৷
ঋষিভির্বহুধা গীতং ছন্দোভির্বিবিধৈঃ পৃথক্৷ ব্রহ্মসূত্রপদৈশ্চৈব হেতুমদ্ভির্বিনিশ্িচতৈঃ৷৷13.5৷৷
ઋષિભિર્બહુધા ગીતં છન્દોભિર્વિવિધૈઃ પૃથક્। બ્રહ્મસૂત્રપદૈશ્ચૈવ હેતુમદ્ભિર્વિનિશ્િચતૈઃ।।13.5।।
ਰਿਸ਼ਿਭਿਰ੍ਬਹੁਧਾ ਗੀਤਂ ਛਨ੍ਦੋਭਿਰ੍ਵਿਵਿਧੈ ਪਰਿਥਕ੍। ਬ੍ਰਹ੍ਮਸੂਤ੍ਰਪਦੈਸ਼੍ਚੈਵ ਹੇਤੁਮਦ੍ਭਿਰ੍ਵਿਨਿਸ਼੍ਿਚਤੈ।।13.5।।
ಋಷಿಭಿರ್ಬಹುಧಾ ಗೀತಂ ಛನ್ದೋಭಿರ್ವಿವಿಧೈಃ ಪೃಥಕ್. ಬ್ರಹ್ಮಸೂತ್ರಪದೈಶ್ಚೈವ ಹೇತುಮದ್ಭಿರ್ವಿನಿಶ್ಿಚತೈಃ৷৷13.5৷৷
ഋഷിഭിര്ബഹുധാ ഗീതം ഛന്ദോഭിര്വിവിധൈഃ പൃഥക്. ബ്രഹ്മസൂത്രപദൈശ്ചൈവ ഹേതുമദ്ഭിര്വിനിശ്ിചതൈഃ৷৷13.5৷৷
ଋଷିଭିର୍ବହୁଧା ଗୀତଂ ଛନ୍ଦୋଭିର୍ବିବିଧୈଃ ପୃଥକ୍| ବ୍ରହ୍ମସୂତ୍ରପଦୈଶ୍ଚୈବ ହେତୁମଦ୍ଭିର୍ବିନିଶ୍ିଚତୈଃ||13.5||
ṛṣibhirbahudhā gītaṅ chandōbhirvividhaiḥ pṛthak. brahmasūtrapadaiścaiva hētumadbhirviniśicataiḥ৷৷13.5৷৷
றஷிபிர்பஹுதா கீதஂ சந்தோபிர்விவிதைஃ பரிதக். ப்ரஹ்மஸூத்ரபதைஷ்சைவ ஹேதுமத்பிர்விநிஷ்ிசதைஃ৷৷13.5৷৷
ఋషిభిర్బహుధా గీతం ఛన్దోభిర్వివిధైః పృథక్. బ్రహ్మసూత్రపదైశ్చైవ హేతుమద్భిర్వినిశ్ిచతైః৷৷13.5৷৷
13.6
13
6
।।13.6।।मूल प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियोंके पाँच विषय ( -- यह चौबीस तत्त्वोंवाला क्षेत्र है)।
।।13.6।। पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (प्रकृति), दस इन्द्रियाँ, एक मन, इन्द्रियों के पाँच विषय।।
।।13.6।। See Commentary under 13.7
।।13.6।। व्याख्या --   अव्यक्तमेव च -- अव्यक्त नाम मूल प्रकृतिका है। मूल प्रकृति समष्टि बुद्धिका कारण होनेसे और स्वयं किसीका भी कार्य न होनेसे केवल प्रकृति ही है।बुद्धिः -- यह पद समष्टि बुद्धि अर्थात् महत्तत्त्वका वाचक है। इस बुद्धिसे अहंकार पैदा होता है? इसलिये यह प्रकृति है और मूल प्रकृतिका कार्य होनेसे यह विकृति है। तात्पर्य है कि यह बुद्धि प्रकृतिविकृति है।अहंकारः -- यह पद समष्टि अहंकारका वाचक है। इसको अहंभाव भी कहते हैं। पञ्चमहाभूतका कारण होनेसे यह अहंकार प्रकृति है और बुद्धिका कार्य होनेसे यह विकृति है। तात्पर्य है कि यह अहंकार प्रकृतिविकृति है।महाभूतानि -- पृथ्वी? जल? तेज? वायु और आकाश -- ये पाँच महाभूत हैं। महाभूत दो प्रकारके होते हैं -- पञ्चीकृत और अपञ्चीकृत। एकएक महाभूतके पाँच विभाग होकर जो मिश्रण होता है? उसको,पञ्चीकृत महाभूत कहते हैं (टिप्पणी प0 673)। इन पाँच महाभूतोंके विभाग न होनेपर इनको,अपञ्चीकृत महाभूत कहते हैं। यहाँ इन्हीं अपञ्चीकृत महाभूतोंका वाचक महाभूतानि पद है। इन महाभूतोंको पञ्चतन्मात्राएँ तथा सूक्ष्ममहाभूत भी कहते हैं।दस इन्द्रियाँ? एक मन और शब्दादि पाँच विषयोंके कारण होनेसे ये महाभूत प्रकृति हैं और अहंकारके कार्य होनेसे ये विकृति हैं। तात्पर्य है कि ये पञ्चमहाभूत प्रकृतिविकृति हैं।इन्द्रियाणि दश -- श्रोत्र? त्वचा? नेत्र? रसना और घ्राण -- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा वाक्? पाणि? पाद? उपस्थ और पायु -- ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। ये दसों इन्द्रियाँ अपञ्चीकृत महाभूतोंसे पैदा होनेसे और स्वयं किसीका भी कारण न होनेसे केवल विकृति ही हैं।एकं च -- अपञ्चीकृत महाभूतोंसे पैदा होनेसे और स्वयं किसीका भी कारण न होनेसे मन केवल,विकृति ही है।पञ्च चेन्द्रियगोचराः -- शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध -- ये (पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके) पाँच विषय हैं। अपञ्चीकृत महाभूतोंसे पैदा होनेसे और स्वयं किसीके भी कारण न होनेसे ये पाँचों विषय केवल विकृति ही हैं।इन सबका निष्कर्ष यह निकला कि पाँच महाभूत? एक अहंकार और एक बुद्धि -- ये सात प्रकृतिविकृति हैं? मूल प्रकृति केवल प्रकृति है और दस इन्द्रियाँ? एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके विषय -- ये सोलह केवल विकृति हैं। इस तरह इन चौबीस तत्त्वोंके समुदायका नाम क्षेत्र है। इसीका एक तुच्छ अंश यह मनुष्यशरीर है? जिसको भगवान्ने पहले श्लोकमें इदं शरीरम् और तीसरे श्लोकमें तत्क्षेत्रम् पदसे कहा है।
।।13.6 -- 13.7।।महाभूतानीति। इच्छेति। अव्यक्तम् प्रकृतिः। इन्द्रियाणि मनसा सह एकादश। इन्द्रियगोचराः रूपादयः पंच। चेतना दृक्छक्तिः पुरुषः। धृतिरिति -- अन्ते (?N अत्रान्ते किल) किल सर्वस्य आ ब्रह्मणः क्रिमिपर्यन्तस्य प्रारब्धे निष्पन्ने वा कार्ये कामक्रोधादिषु च इयतैव मम पर्याप्तं? किमन्येन ईदृशश्चाहं नित्यमेव भूयासम् इति प्राणसन्धारिणी (S?N -- संधारणी -- साधारणी) धृतिः आश्वासनात्मिका पररहस्यशासनेषु रागशब्दवाच्या जायते।
।।13.6।।इच्छा द्वेषः सुखं दुःखम् इति क्षेत्रकार्याणि क्षेत्रविकाराः उच्यन्ते यद्यपि इच्छाद्वेषसुखदुःखानि आत्मधर्मभूतानि? तथापि आत्मनः क्षेत्रसंबन्धप्रयुक्तानि इति क्षेत्रकार्यतया क्षेत्रविकारा उच्यन्ते। तेषां पुरुष धर्मत्वम्पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते (गीता 13।20) इति वक्ष्यते। संघातः चेतनाधृतिः? आधृतिः आधारः? सुखदुःखे भुञ्जानस्य भोगापवर्गौ साधयतः च चेतनस्य आधारतया उत्पन्नो भूतसंघातः? प्रकृत्यादिपृथिव्यन्तद्रव्यारब्धम् इन्द्रियाश्रयभूतम्? इच्छाद्वेषसुखदुःखविकारिभूतसंघातरूपं,चेतनसुखदुःखोपभोगाधारत्वप्रयोजनं क्षेत्रम् इति उक्तं भवति।एतत् क्षेत्रं समासेन संक्षेपेण सविकारं सकार्यम् उदाहृतम्।अथ क्षेत्रकार्येषु आत्मज्ञानसाधनतया उपादेया गुणाः प्रोच्यन्ते --
।।13.6।।अव्यक्ताहंकारादीनां त्रैगुण्याभिमानादिधर्मकत्वं प्रसिद्धमिति शब्दादीनामेव ग्रहणे कर्मेन्द्रियाणां विषयानुक्तेर्वैरूप्यप्रसङ्गात्क्षेत्रनिरूपणस्य च प्रकृतत्वात्स्वरूपनिर्देशेनैव तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्वेति व्याख्यातमिदानीमिच्छादीनामात्मविकारत्वनिवृत्तये क्षेत्रविकारत्वनिरूपणेन यद्विकारीत्येतन्निरूपयन्मतान्तरनिवृत्तिपरत्वेन श्लोकमवतारयति -- अथेति। सर्वज्ञोक्तिविरोधाद्धेयं वैशेषिकं मतमिति मत्वोक्तं -- भगवानिति। उपलब्धजातीयस्योपलभ्यमानस्यादानेच्छायां हेतुमाह -- सुखेति। इतिशब्दो हेत्वर्थः। सुखहेतुत्वात्तस्मिन्निच्छेत्यर्थः। इच्छां सुखतद्धेतुविषयत्वेन व्याख्यायात्मधर्मत्वं तस्या व्युदस्यति -- सेयमिति। तथापि कथं क्षेत्रान्तर्भूतत्वं तत्राह -- ज्ञेयत्वादिति। इच्छावद्द्वेषोऽपि धर्मो बुद्धेरित्याह -- तथेति। कोऽसौ द्वेषो यस्य बुद्धिधर्मत्वं तत्राह -- यज्जातीयमिति। तस्यापीच्छावत्क्षेत्रान्तर्भावमाह -- सोऽयमिति। इच्छाद्वेषवद्बुद्धिधर्मः सुखमपीत्याह -- तथेति। तस्यापि स्वरूपोक्त्या क्षेत्रान्तःपातित्वमाह -- अनुकूलमिति। दुःखस्यापि स्वरूपोक्त्या क्षेत्रमध्यवर्तित्वमाह -- दुःखमिति। देहेन्द्रियात्मवादौ व्युदसितुं क्षेत्रान्तर्भूतमेव संघातं विभजते -- देहेति। विज्ञानवादं प्रत्याह -- तस्यामिति। तप्ते लोहपिण्डे वह्नेरभिव्यक्तिवदुक्तसंहतौ बुद्धिवृत्तिरभिव्यज्यते। तत्र चाग्निरभिव्यक्तो लोहपिण्डमेवाग्निबुद्ध्या ग्राहयति। तथात्मचैतन्यं बुद्धिवृत्तावभिव्यक्तं तामेवात्मतया बोधयत्यतस्तदाभासानुविद्धा सैव चेतनेत्युच्यते। सा च मुख्यचेतनं प्रति ज्ञेयत्वादतद्रूपत्वात्क्षेत्रमेवेत्यर्थः। धृतिस्वरूपोक्त्या क्षेत्रत्वं तस्या दर्शयति -- धृतिरित्यादिना। नन्वन्येऽपि संकल्पादयो मनोधर्माः सन्ति ते किमित्यत्र क्षेत्रत्वेन नोच्यन्ते तत्राह -- सर्वेति। तस्योपलक्षणार्थत्वे हेतुमाह -- यत इति। इच्छादिवदस्मिन्नवसरे संकल्पादीनामपि दर्शितत्वं सिद्धवत्कृत्य प्रकरणविभागार्थं यतो भगवदुक्तं क्षेत्रमुपसंहरत्यतो युक्तमिच्छादिग्रहस्य सर्वानुक्तबुद्धिधर्मोपलक्षणार्थत्वमित्यर्थः। विरक्तस्य ज्ञानाधिकाराय वैराग्यार्थं क्षेत्रं व्याख्यातमित्यनुवदति -- यस्येति। क्षेत्रभेदजातस्य व्यष्टिदेहविभागस्य सर्वस्येत्यर्थः। संहतिः समष्टिशरीरम्।
।।13.6।।महाभूतेति। तत् क्षेत्रं यद्द्रव्यं तन्महाभूतद्रव्यात्मकं स्थूलं यादृक्च अहङ्कारबुद्धिमहतामेकादशेन्द्रियविषयाणां लिङ्गशरीरसूक्ष्मभूतानां चाश्रयभूतम्।
।।13.6।।एवं प्ररोचितायार्जुनाय क्षेत्रस्वरूपं तावदाहद्वाभ्याम् -- महाभूतानीत्यादिना। महान्ति भूतानि भूम्यादीनि पञ्च? अहंकारस्तत्कारणभूतोऽभिमानलक्षणः? बुद्धिरहंकारकारणं महत्तत्त्वमध्यवसायलक्षणं? अव्यक्तं तत्कारणं सत्त्वरजस्तमोगुणात्मकं प्रधानं सर्वकारणं न कस्यापि कार्यम्। एवकारः प्रकृत्यवधारणार्थः। एतावत्येवाष्टधा प्रकृतिः। चशब्दो भेदसमुच्चयार्थः। तदेवं सांख्यमतेन व्याख्यातम्। औपनिषदानां तु अव्यक्तमव्याकृतमनिर्वचनीयं मायाख्या पारमेश्वरी शक्तिर्मम माया दुरत्ययेत्युक्तम्। बुद्धिः सर्गादौ सद्विषयमीक्षणं? अहंकार ईक्षणानन्तरमहं बहु स्यामिति संकल्पः। तत आकाशादिक्रमेण पञ्चभूतोत्पत्तिरिति। न ह्यव्यक्तमहदहंकाराः सांख्यसिद्धा औपनिषदैरुपगम्यन्ते। अशब्दत्वादिहेतुभिरिति स्थितंमायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम् इति श्रुतिप्रतिपादितमव्यक्तम्। तदैक्षतेतीक्षणरूपा बुद्धिः।बहुस्यां प्रजायेय इति बहुभवनसंकल्परूपोऽहंकारःतस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूत आकाशाद्वायुः वायोरग्निः अग्नेरापः अद्भ्यः पृथिवी इति पञ्चभूतानि श्रौतानि। अयमेव पक्षः साधीयान्। इन्द्रियाणि दशैकं च श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाख्यानि पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि? वाक्पाणिपादपायूपस्थाख्यानि पञ्च कर्मेन्द्रियाणीति। तानि एकं च मनः संकल्पविकल्पाद्यात्मकं? पञ्च चेन्द्रियगोचराः शब्दस्पर्शरूपरसगन्धास्ते बुद्धीन्द्रियाणां ज्ञाप्यत्वेन विषयः कर्मेन्द्रियाणां तु कार्यत्वेन। तान्येतानि सांख्याश्चतुर्विंशतितत्त्वान्याचक्षते।
।।13.6।।तत्र क्षेत्रस्वरूपमाह -- महाभूतानीति द्वाभ्याम्। महाभूतानि भूम्यादीनि पञ्च? अहंकारस्तत्कारणभूतः? बुद्धिर्विज्ञानात्मकं महत्तत्त्वं? अव्यक्तं मूलप्रकृतिः? इन्द्रियाणि बाह्यानि दशश्रोत्रत्वग्घ्राणदृग्जिह्वावाग्दोर्मेढ्राङ्घ्रिपायवः इति? एकं च मनः? इन्द्रियगोचराश्च पञ्चतन्मात्ररूपा एव शब्दादय आकाशादिविशेषगुणतया व्यक्ताः सन्त इन्द्रियविषयाः पञ्च? तदेवं चतुर्विंशतितत्त्वान्युक्तानि।
।।13.6।।तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च [13।4] इत्यादौयच्च इति प्रतिज्ञातस्यमहाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च इत्येतत्प्रतिपादकमित्यभिप्रायेणाहमहाभूतानीत्यारभ्य इतिक्षेत्रारम्भकद्रव्याणीति। भूतशब्दस्य सशरीरचेतनादावपि प्रयोगात्तद्भ्रमव्युदासाय प्रकृतोपयुक्तमर्थमाहपृथिव्यप्तेज इति। अहङ्कारशब्दस्य त्रिविधाहङ्कारवाचित्वेऽपि सात्त्विकाहङ्कारस्येन्द्रियारम्भकत्वात् राजसस्योभयानुग्राहकत्वात्तामसपरत्वमाह -- अहङ्कार इति। बुद्धिशब्दस्याध्यवसायपरत्वभ्रमव्युदासायाह -- बुद्धिर्महानिति। अव्यक्तशब्दस्य अव्यक्तमक्षरे (वि) लीयते [सुबालो.2] इत्युक्ताव्यक्तपरत्वे तत्कारणमपि वक्तव्यं स्यादित्यभिप्रयंस्तद्व्याचष्टे -- अव्यक्तं प्रकृतिरिति।इन्द्रियाणि दशैकं च इत्यादिकंयादृक्च इति प्रतिज्ञातस्य प्रतिपादकमित्यभिप्रायेणाह -- इन्द्रियाणि दशेत्यारभ्य इति क्षेत्राश्रितानि तत्त्वानीति। इन्द्रियाणामेकादशत्वव्यक्तीकरणाय तद्गोचरा इत्युक्तपञ्चसङ्ख्यास्पष्टीकरणाय चत्वक्चक्षुर्नासिका जिह्वा श्रोत्रमत्र च पञ्चमम्। शब्दादीनामवाप्त्यर्थं बुद्धियुक्तानि च द्विज। पायूपस्थौ करौ पादौ वाक्च मैत्रेय पञ्चमी। विसर्गशिल्पगत्युक्ति कर्म तेषां च कथ्यते। एकादशं मनश्चात्र [वि.पु.1।2।48?49] इति पराशरोक्त्यनुसारेण तानि इन्द्रियार्थांश्च विशेषतः कथयतिश्रोत्रत्वगित्यादिना।
।।13.6।।तत्क्षेत्रस्वरूपमाह द्वयेन -- महाभूतानीति। महाभूतानि पृथिव्यादीनि। अहङ्कारस्तत्कारणात्मकः। बुद्धिर्विज्ञानात्मिका। अव्यक्तं मूलप्रकृतिः। इन्द्रियाणि दश। च पुनः एकं मनः। इन्द्रियगोचरास्तन्मात्रात्मकाः शब्दादयः पञ्च। एवं चतुर्विंशतितत्त्वानि प्रतिपादितानि।
।।13.6।।तच्च यच्च यादृक् च यद्विकारि चेत्येतद्व्याचष्टे -- महाभूतानीति। चकारो भिन्नक्रमो बुद्धिश्चेति बुद्धिपदादुपरि द्रष्टव्यः। यत्क्षेत्रं शरीराख्यमुक्तं तदव्यक्तमेव।शरीरं रथमेव तु इति श्रुतौ अव्यक्तपदेन पञ्चतन्मात्रा उच्यन्ते। अहंकारो तत्प्रकारमाह -- महाभूतान्यहंकारो बुद्धिश्चेति सप्तप्रकारैरङ्कुरितम्। महाभूतशब्देन पञ्चतन्मात्रा उच्यन्ते। अहंकारो बुद्धिरिति महत्तत्त्वमुच्यते। स्वप्ने हि एतान्येव करणानि भासन्ते तत्प्रकारक एव भूतगण इति तावत्प्रकारकमेव क्षेत्रमित्युक्तम्। यद्विकारीत्यस्योत्तरमाह -- इन्द्रियाणीति। इन्द्रियाणि दशैकं चेत्येकादश। पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्चक्षुरसनघ्राणानि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायूपस्थाख्यानि मनश्चेत्येकादश। इन्द्रियाणां गोचरा विषयाः स्थूला वियदादयः पञ्च अयं षोडशको विकार एव। एतान्येव सांख्यैश्चतुर्विंशतितत्त्वानि गण्यन्ते। एतावांस्त्वस्माकं विशेषः। तैः स्वतन्त्रा सत्या च प्रकृतिरुच्यते अस्माभिर्मायारूपा मिथ्या ईश्वराधीना चोच्यत इति। तथा च श्रुतिःमायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् इति। तस्मात्सांख्यप्रक्रियात्र भगवताश्रितेति न भ्रमितव्यम्।
।।13.6।।एवं क्षेत्रादियाथात्म्यस्तुत्याभिमुखीकृतायार्जनाय किं तदिति जिज्ञासवे यथोद्देशं क्षेत्रं निर्दिशति -- महाभूतानीति। सर्बविकारव्यापकत्वान्महान्ति च तानि भूतानि सूक्ष्माणि अहंप्रत्ययरुपोहंकारः महाभूतकारण बुद्धिरध्वसायलक्षणाहंकारकारणं न व्यकतव्यक्तं अव्याकृतमीश्वरशक्तिर्मायामायां तु प्रकृतिं विद्यात्?मम माया दुरत्यया इत्युक्ता। एवशब्दोऽवधारणार्थः। एतावत्येवाष्टधा भिन्ना प्रकृतिरित्यर्थः। चकारः मूलप्रकृत्या सह तन्मात्रादिभेदानां समुच्चयार्थः। इन्द्रियाणि दश श्रोत्रत्वक्चक्षूरसनघ्राणाख्यानि ज्ञानोत्पादकत्वाज्ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्च? वाक्पाणिपादपायुपस्थाख्यानि कर्मनिर्वर्तकत्वात्मकर्मेन्द्रियाणि पञ्च एकं एकादशं संकल्पविकल्पात्मकं मनः पञ्चेन्द्रियाणां गोचराः विषयाः शब्दस्पर्शरुपरसगन्धाख्यगुणविशिष्टानि स्थूलभूतानीत्यर्थः। तान्येतानिमूलप्रकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त।,षोडशकस्तु विकारः इति वादिनः सांख्याश्चतुर्विशतितत्त्वानि व्याचक्षते।
13.6 महाभूतानि the great elements? अहङ्कारः egoism? बुद्धिः intellect? अव्यक्तम् the unmanifested (MulaPrakriti)? एव even? च and? इन्द्रियाणि the senses? दश ten? एकम् one? च and? पञ्च five? च and? इन्द्रियगोचराः objects of the senses.Commentary The field and its modifications are described in this verse. The twentyfour principles of the Sankhya school of philosophy are mentioned here.Great elements Earth? water? fire? air and ether are so called because they pervade all modifications of matter. The elements here referred to are the subtle? not the gross ones.Egoism is the cause of the great elements. It is the selfarrogating principle. Intellect is the cause of egoism. The function of the intellect is determination. Buddhi is the faculty of determination. The cause of the intellect is the Unmanifested (which is the undifferentiated energy of the Lord). (Cf.VII.14 Daivi hyesha gunamayi mama maya duratyaya -- This divine illusion of Mine? caused by the alities? is difficult to cross over.) The above Nature is divided eightfold (Cf.VII.4).The ten senses are the five organs of knowledge (ears? skin? eyes? tongue and nose)? so called because they enable the mind to get knowledge of the external world? and the five organs of action (hands? feet? mouth? anus and the generative organ)? so called because they perform actions.The one This is the mind. This is the eleventh sense whose function is thinking and doubting (Sankalpa and Vikalpa).The five objects of the senses are sound? touch? form (colour)? taste and smell. These are the fivefol pastures of the senses.All the great elements? egoism? intellect? the senses and mind are all absorbed in the Unmanifested at the time of the cosmic dissolution.Mind is Maya. Mind is Avidya (ignorance). Mind is at the root of all activities. It gives strength to desires? fosters fear and builds castles in the air. It confers force on egoism and stimultates,aspirations. Every tendency has its origin in the mind. It augments passions? gives strength to hope and awakens the sense of duality. It increases ignorance and plunges the senses in the ocean of senseobjects. It creates distinctions and differences. It separates? divides and limits. It is a strong wall or an iron barrier that stands between the individual soul and the Absolute. It is this mind that has brought Brahman to the condition of the individual soul. It is the storehouse of error? cravings? doubt? delusion and ignorance. It is an everrevolving wheel that generates thoughts. It is a miraculous thoughtproducing machine. It creates at one moment. It destroys at the next moment.
13.6 The great elements, egoism, intellect, and also the Unmanifested Nature, the ten senses and one (mind), and the five objects of the senses.
13.6 The five great fundamentals (earth, fire, air, water and ether), personality, intellect, the mysterious life force, the ten organs of perception and action, the mind and the five domains of sensation;
13.6 The great elements, egoism, intellect and the Unmanifest itself; the ten organs and the one, and the five objects of the senses;
13.6 Mahabhutani, the great elements: Those elements which are great owing to their pervasion of all midifications, and which are subtle. As for the gross elements, they will be spoken of by the word indriya-gocarah, objects of the senses. Ahankarah, egoism, which is the source of the great elements and consists of the idea of 'I'. Buddhih, intellect, the source of egoism and consisting of the faculty of judgement; ca, and; its cause, the avyaktam eva, Unmanifest itself, the Undifferentiated, the power of God spoken of in, 'Maya of Mine৷৷.difficult to cross' (7.14). The word eva (itself) is used for singling out Prakrti (Nature). The Prakrti divided eightfold [The undifferentiated (avyakta), mahat, egoism and the five uncompunded subtle elements] is this much alone. The word ca (and) is used for joining the various categories. The dasa, ten; indriyani, organs : The five, organs ear etc., which are called sense-organs since they produce perception, and the (other) five organs-organ of speech, hands, etc.-which are called motor-organs since they accomplish actions. They are ten. Ekam ca, and the one-which is that?-the mind, the eleventh, possessed of the power of thinking etc. (see fn. on p. 173). Ca, and; the panca, five; indriya-gacarah, objects of the senses-such objects as sound etc. The followers of the Sankhya call these which are such the twenty-four categories. Thereafter, the Lord now says that even those alities which the Vaisesikas speak of as the attributes of the sould are certainly the attributes of the field, but not of the Knower of the field:
13.6. The [five] great elements, the Egotism. The Intellect, the Unmanifest, and also the ten organs and the one (organ and the) five objects of the sense-organs;
13.6 See Comment under 13.7
13.6 - 13.7 The 'great elements, the Ahankara, the Buddhi and the Avyakta' are substances that originate the Ksetra. The 'great elements' are the earth, water, fire, air and ether. The 'Ahankara' here means Bhutadi (primeval element). The 'Buddhi' is called Mahat; the 'Avyakta' is known as the Prakrti. The 'ten senses and the one' and the five objects of senses are principles depending on the Ksetra. The 'five sensorial organs' are ear, skin, eye, tongue and nose. The five motor organs are speech, hands, feet, and the organs of excretion and reproduction. These are the ten senses. The Manas is the additional 'one' moe. The 'objects of the senses' are five - sound, touch, form, taste and smell. Desire, hatred, pleasure and pain, being the transformation of the Ksetra, are said to be the modifications of the Ksetra. Though desire, hatred, pleasure and pain are the alities of the self, yet they originate from the association of the self with the Ksetra. Sri Krsna will state that they are the attributes of the self; 'In the experience of pleasure and pain, the self is said to be the cause' (13.20). The combination of elements serves as the support (Adhrti) of the intelligent self. As such, the word Adhrti means substratum. The combination of material elements has arisen as the substratum for the self to experience pleasure and pain, and for aciring worldly experiences and the final release. The combination of elements is formed by substances commencing from the Prakrti and ending with the earth; it is the basis of senses which are endowed with the modifications of the nature of desire, hatred, pleasure and pain. These form a Sanghata or an association of elements. It serves as the basis of the experience of pleasure and pain by the individual self. This is what is said of the Ksetra. This Ksetra has been explained briefly with its modifications and effects. Now certain alities, the effects of the Ksetra, worthy of being acired as being the means for securing the knowledge of the self, are enumerated.
13.6 The great elements, the Ahankara, the Buddhi, the Avyakta, the ten senses and the one, besides, the five objects of the senses;
।।13.6।।इस प्रकार स्तुति सुनकर सम्मुख हुए अर्जुनसे भगवान् कहते हैं --, महाभूत यानी सूक्ष्मभूत? वे सब विकारोंमें व्यापक होनेके कारण महान् भी हैं और भूत भी हैं? इसलिये वे महाभूत कहे जाते हैं। स्थूल पञ्चभूत तो इन्द्रियगोचरशब्दसे कहे जायँगे? इसलिये यहाँ महाभूतशब्दसे सूक्ष्म पञ्चमहाभूतोंका ग्रहण है। महाभूतोंका कारण अहंप्रत्ययरूप अहंकार तथा अहंकारकी कारणरूपा निश्चयात्मिका बुद्धि और उसकी भी कारणरूपा अव्यक्त प्रकृति अर्थात् जो व्यक्त नहीं है ऐसी अव्यक्त नामक अव्याकृत -- ईश्वरशक्ति जो कि मम माया दुरत्यया इत्यादि वचनोंसे कही गयी है। यहाँ एव शब्द प्रकृतिको विशेषरूपसे बतलानेके लिये है और च शब्द सारे भेदका समुच्चय करनेके लिये है। अभिप्राय यह कि यही आठ प्रकारसे विभक्त हुई अपरा प्रकृति है। तथा दश इन्द्रियाँ अर्थात् श्रोत्रादि पाँच ज्ञान उत्पन्न करनेवाली होनेके कारण ज्ञानेन्द्रियाँ और वाणी आदि पाँच कर्म सम्पादन करनेवाली होनेसे कर्मेन्द्रियाँ और एक ग्यारहवाँ संकल्पविकल्पात्मक मन तथा शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्धये पाँच इन्द्रियोंके विषय। इन सबको ही सांख्यमतावलम्बी चौबीस तत्त्व कहते हैं।
।।13.6।। -- महाभूतानि महान्ति च तानि सर्वविकारव्यापकत्वात् भूतानि च सूक्ष्माणि। स्थूलानि तु इन्द्रियगोचरशब्देन अभिधायिष्यन्ते अहंकारः महाभूतकारणम् अहंप्रत्ययलक्षणः। अहंकारकारणं बुद्धिः अध्यवसायलक्षणा। तत्कारणम् अव्यक्तमेव च? न व्यक्तम् अव्यक्तम् अव्याकृतम् ईश्वरशक्तिः मम माया दुरत्यया (गीता 7।14) इत्युक्तम्। एवशब्दः प्रकृत्यवधारणार्थः एतावत्येव अष्टधा भिन्ना प्रकृतिः। चशब्दः भेदसमुच्चयार्थः। इन्द्रियाणि दश? श्रोत्रादीनि पञ्च बुद्ध्युत्पादकत्वात् बुद्धीन्द्रियाणि? वाक्पाण्यादीनि पञ्च कर्मनिर्वर्तकत्वात् कर्मेन्द्रियाणि तानि दश। एकं च किं तत् मनः एकादशं संकल्पाद्यात्मकम्। पञ्च च इन्द्रियगोचराः शब्दादयो विषयाः। तानि एतानि सांख्याः चतुर्विंशतितत्त्वानि आचक्षते।।
null
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महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च। इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।13.6।।
মহাভূতান্যহঙ্কারো বুদ্ধিরব্যক্তমেব চ৷ ইন্দ্রিযাণি দশৈকং চ পঞ্চ চেন্দ্রিযগোচরাঃ৷৷13.6৷৷
মহাভূতান্যহঙ্কারো বুদ্ধিরব্যক্তমেব চ৷ ইন্দ্রিযাণি দশৈকং চ পঞ্চ চেন্দ্রিযগোচরাঃ৷৷13.6৷৷
મહાભૂતાન્યહઙ્કારો બુદ્ધિરવ્યક્તમેવ ચ। ઇન્દ્રિયાણિ દશૈકં ચ પઞ્ચ ચેન્દ્રિયગોચરાઃ।।13.6।।
ਮਹਾਭੂਤਾਨ੍ਯਹਙ੍ਕਾਰੋ ਬੁਦ੍ਧਿਰਵ੍ਯਕ੍ਤਮੇਵ ਚ। ਇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਾਣਿ ਦਸ਼ੈਕਂ ਚ ਪਞ੍ਚ ਚੇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਗੋਚਰਾ।।13.6।।
ಮಹಾಭೂತಾನ್ಯಹಙ್ಕಾರೋ ಬುದ್ಧಿರವ್ಯಕ್ತಮೇವ ಚ. ಇನ್ದ್ರಿಯಾಣಿ ದಶೈಕಂ ಚ ಪಞ್ಚ ಚೇನ್ದ್ರಿಯಗೋಚರಾಃ৷৷13.6৷৷
മഹാഭൂതാന്യഹങ്കാരോ ബുദ്ധിരവ്യക്തമേവ ച. ഇന്ദ്രിയാണി ദശൈകം ച പഞ്ച ചേന്ദ്രിയഗോചരാഃ৷৷13.6৷৷
ମହାଭୂତାନ୍ଯହଙ୍କାରୋ ବୁଦ୍ଧିରବ୍ଯକ୍ତମେବ ଚ| ଇନ୍ଦ୍ରିଯାଣି ଦଶୈକଂ ଚ ପଞ୍ଚ ଚେନ୍ଦ୍ରିଯଗୋଚରାଃ||13.6||
mahābhūtānyahaṅkārō buddhiravyaktamēva ca. indriyāṇi daśaikaṅ ca pañca cēndriyagōcarāḥ৷৷13.6৷৷
மஹாபூதாந்யஹங்காரோ புத்திரவ்யக்தமேவ ச. இந்த்ரியாணி தஷைகஂ ச பஞ்ச சேந்த்ரியகோசராஃ৷৷13.6৷৷
మహాభూతాన్యహఙ్కారో బుద్ధిరవ్యక్తమేవ చ. ఇన్ద్రియాణి దశైకం చ పఞ్చ చేన్ద్రియగోచరాః৷৷13.6৷৷
13.7
13
7
।।13.7।।इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना (प्राणशक्ति) और धृति -- इन विकारोंसहित यह क्षेत्र संक्षेपसे कहा गया है।
।।13.7।। इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात (स्थूलदेह), चेतना (अन्त:करण की चेतन वृत्ति) तथा धृति -  इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित संक्षेप में कहा गया है।।
।।13.7।। अब यहाँ मुख्य विषय का प्रारम्भ होता है जिसे भगवान् ने पहले केवल यह शरीर कहकर निर्देशित किया था? उस क्षेत्र के तत्त्वों का यहाँ नामोल्लेख करके गणना की गई है।महाभूतानि आकाश? वायु? अग्नि? जल और पृथ्वी ये पंचमहाभूत हैं। ये महाभूत अपने सूक्ष्म रूप में तन्मात्रा कहलाते हैं। इन्हीं तन्मात्राओं के परस्पर मिलन से पाँच स्थूल महाभूत उत्पन्न होते हैं? जिनका निर्देश यहाँ इन्द्रियों के पाँच विषय कहकर किया गया है।अहंकार चैतन्य का उपाधियों के साथ तादात्म्य होने पर अहंभाव या अहंकार की उत्पत्ति होती है। यही उपाधियों द्वारा कर्मों का कर्ता और फलों का भोक्ता बनता है। संसार के सुखदुखादिक इसी के लिए होते हैं।बुद्धि समष्टि की दृष्टि से यहाँ बुद्धि शब्द प्रयुक्त है? जिसे सांख्यदर्शन में महत्तत्त्व कहते हैं। अन्तकरण की निश्चयात्मिका वृत्ति बुद्धि कहलाती है। जीवन में वस्तु की यथार्थता? अनुभवों का शुभ और अशुभ रूप में निर्धारण करना ही बुद्धि का कार्य है।अव्यक्त मनुष्य के मन और बुद्धि जिससे प्रेरित होते हैं? वह अव्यक्त वासनाएं हैं। जगत् में हम जो कर्म करते हैं तथा फल भोगते हैं? उनसे हमारे मन में संस्कार उत्पन्न होते हैं? जो हमारे भावी कर्म? विचार एवं भावनाओं को दिशा प्रदान करते हैं।एक व्यष्टि जीव के समस्त कर्मों का स्रोत उसकी वासनाएं होती हैं। इसलिए स्वाभाविक है कि समष्टि की दृष्टि से सम्पूर्ण चराचर सृष्टि का स्रोत समष्टि वासनाएं ही होनी चाहिए। इसी समष्टि वासना को सांख्यदर्शन में मूलप्रकृति कहा गया है? तो वेदान्त ने इसे माया कहा है। माया या मूलप्रकृति की उपाधि से विशिष्ट परमात्मा ही सृष्टिकर्ता ईश्वर है और वही परमात्मा व्यष्टि वासना की उपाधि (अविद्या) से विशिष्ट जीव बनता है।इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि अव्यक्त ही वह अदृष्ट कारण है? जिससे यह दृश्य जगत् कार्यरूप में व्यक्त हुआ है।दस इन्द्रियाँ पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ ही वे कारण हैं? जिनके द्वारा प्रत्येक मनुष्य क्रमश विषय ग्रहण करके अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता है।एक (मन) प्रस्तुत प्रकरण के सन्दर्भ में एक शब्द से निर्दिष्ट वस्तु मन है। प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय केवल एक ही विषय का ग्रहण करती है। पाँचों इन्द्रियों से सम्बद्ध मन समस्त विषय संवेदनाओं को एकत्र कर बुद्धि के समक्ष निर्णय के लिए प्रस्तुत करता है। तत्पश्चात् उस निर्णय को वह पाँच कर्मेन्द्रियों के द्वारा कार्यान्वित करता है। इस प्रकार? विषय ग्रहण तथा प्रतिक्रिया का व्यक्त होना इन दोनों का कार्य एक मन ही करता है? इसलिए उसे यहाँ एक शब्द से इंगित करते हैं।पाँच इन्द्रियगोचर विषय पंच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले पाँच विषय हैं शब्द? स्पर्श? रूप? रस और गन्ध। यही सम्पूर्ण जगत् है।इस प्रकार? इस श्लोक में सांख्य दर्शन के प्रसिद्ध चौबीस तत्त्वों की गणना की गयी है।क्षेत्र के तत्त्वों को बताने के पश्चात्? भगवान् उसके विकारों को बताते हैं। वे विकार हैं इच्छा? द्वेष? सुख? दुख? स्थूल देह? अन्तकरण वृत्ति तथा धृति अर्थात् धैर्य। संक्षेपत केवल शरीर? इन्द्रियाँ? मन और बुद्धि ही क्षेत्र नहीं है? वरन् उसमें इन उपाधियों द्वारा अनुभूत विषय? भावनाएं और विचार भी समाविष्ट हैं।द्रष्टा से भिन्न जो कुछ भी है? वह सब दृश्य है? क्षेत्र है। इस द्रष्टा आत्मचैतन्य की दृष्टि से जो कुछ भी दृश्य? ज्ञात तथा अनुभूत वस्तु है? वह सब क्षेत्र है। इसे गीता में अत्यन्त संक्षिप्त वाक्य यह शरीर के द्वारा दर्शाया गया है।इस सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करने वाला चैतन्यस्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ कहलाता है। अविद्या दशा में यह जीव? शरीर आदि क्षेत्र को ही अपना स्वरूप अर्थात् क्षेत्रज्ञ समझता है? इस कारण उसे अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का बोध कराने के लिए? सर्वप्रथम? जड़ और चेतन का विवेक कराना आवश्यक है। इसीलिए? यहाँ क्षेत्र को इतने विस्तार पूर्वक बताया गया है।अब अगले पाँच श्लोकीय प्रकरण में ज्ञान को बताया गया है जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है? यहाँ ज्ञान शब्द से तात्पर्य उस अन्तकरण से है? जो आत्मज्ञान के लिए आवश्यक गुणों से सम्पन्न हो? क्योंकि शुद्ध अन्तकरण के द्वारा ही आत्मा का अनुभव सम्भव होता है। अत? अब प्रस्तुत प्रकरण में भगवान् श्रीकृष्ण बीस गुणों को बताते हैं? जो सदाचार और नैतिक नियम हैं।वे गुण हैं
।।13.7।। व्याख्या --   इच्छा -- अमुक वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति आदि मिले -- ऐसी जो मनमें चाहना रहती है? उसको इच्छा कहते हैं। क्षेत्रके विकारोंमें भगवान् सबसे पहले इच्छारूप विकारका नाम लेते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इच्छा मूल विकार है क्योंकि ऐसा कोई पाप और दुःख नहीं है? जो सांसारिक इच्छाओंसे,पैदा न होता हो अर्थात् सम्पूर्ण पाप और दुःख सांसारिक इच्छाओंसे ही पैदा होते हैं।द्वेषः -- कामना और अभिमानमें बाधा लगनेपर क्रोध पैदा होता है। अन्तःकरणमें उस क्रोधका जो सूक्ष्म रूप रहता है? उसको द्वेष कहते हैं। यहाँ द्वेषः पदके अन्तर्गत क्रोधको भी समझ लेना चाहिये।सुखम् -- अनुकूलताके आनेपर मनमें जो प्रसन्नता होती है अर्थात् अनुकूल परिस्थिति जो मनको सुहाती है? उसको सुख कहते हैं।दुःखम् -- प्रतिकूलताके आनेपर मनमें जो हलचल होती है अर्थात् प्रतिकूल परिस्थिति जो मनको सुहाती नहीं है? उसको दुःख कहते हैं।संघातः -- चौबीस तत्त्वोंसे बने हुए शरीररूप समूहका नाम संघात है। शरीरका उत्पन्न होकर सत्तारूपसे दीखना भी विकार है तथा उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहना भी विकार है।चेतना -- चेतना नाम प्राणशक्तिका है अर्थात् शरीरमें जो प्राण चल रहे हैं? उसका नाम चेतना है। इस चेतनामें परिवर्तन होता रहता है जैसे -- सात्त्विकवृत्ति आनेपर प्राणशक्ति शान्त रहती है और चिन्ता? शोक? भय? उद्वेग आदि होनेपर प्राणशक्ति वैसी शान्त नहीं रहती? क्षुब्ध हो जाती है। यह प्राणशक्ति निरन्तर नष्ट होती रहती है। अतः यह भी विकाररूप ही है।साधारण लोग प्राणवालोंको चेतन और निष्प्राणवालोंको अचेतन कहते हैं? इस दृष्टिसे यहाँ प्राणशक्तिको,चेतना कहा गया है।धृतिः -- धृति नाम धारणशक्तिका है। यह धृति भी बदलती रहती है। मनुष्य कभी धैर्यको धारण करता है और कभी (प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर) धैर्यको छोड़ देता है। कभी धैर्य ज्यादा रहता है और कभी धैर्य कम रहता है। मनुष्य कभी अच्छी बातको धारण करता है और कभी विपरीत बातको धारण करता है। अतः धृति भी क्षेत्रका विकार है।[अठारहवें अध्यायके तैंतीसवेंसे पैंतीसवें श्लोकतक धृतिके सात्त्विकी? राजसी और तामसी -- इन तीन भेदोंका वर्णन किया गया है। परमात्माकी तरफ चलनेमें सात्त्विकी धृतिकी बड़ी आवश्यकता है।]एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् -- जैसे पहले श्लोकमें इदं शरीरम् कहकर व्यष्टि शरीरसे अपनेको अलग देखनेके लिये कहा? ऐसे ही दृश्य(क्षेत्र और उसमें होनेवाले विकार) से द्रष्टाको अलग दिखानेके लिये यहाँ एतत् पद आया है।पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने समष्टि संसारका वर्णन किया और यहाँ छठे श्लोकमें व्यष्टि शरीरके विकारोंका वर्णन किया क्योंकि समष्टि संसारमें इच्छाद्वेषादि विकार होते ही नहीं। तात्पर्य यह है कि व्यष्टि शरीर समष्टि संसारसे और समष्टि संसार व्यष्टि शरीरसे अलग नहीं है अर्थात् ये दोनों एक हैं। जैसे इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्रज्ञके साथ अपनी एकता बतायी? ऐसे ही यहाँ व्यष्टि शरीर और उसमें होनेवाले विकारोंकी समष्टि संसारके साथ एकता बताते हैं। आगे इक्कीसवें श्लोकमें भगवान्ने पुरुषकी स्थिति शरीरमें न बताकर प्रकृतिमें बतायी है -- पुरुषः प्रकृतिस्थो हि। इससे भी सिद्ध होता है कि पुरुषकी स्थिति (सम्बन्ध) व्यष्टि शरीरमें हो जानेसे उसकी स्थिति समष्टि प्रकृतिमें हो जाती है क्योंकि व्यष्टि शरीर और समष्टि प्रकृति -- दोनों एक ही हैं। वास्तवमें देखा जाय तो व्यष्टि है ही नहीं? केवल समष्टि ही है। व्यष्टि केवल भूलसे मानी हुई है। जैसे समुद्रकी लहरोंको समुद्रसे अलग मानना भूल है? ऐसे ही व्यष्टि,शरीरको समष्टि संसारसे अलग (अपना) मानना भूल ही है।विशेष बात -- क्षेत्रज्ञ जब अविवेकसे क्षेत्रके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है? तब क्षेत्रमें इच्छाद्वेषादि विकार पैदा हो जाते हैं। क्षेत्रज्ञका वास्तविक स्वरूप तो सर्वथा निर्विकार ही है। क्षेत्रक्षेत्रज्ञके संयोगसे पैदा होनेवाले विकार सर्वथा मिटाये जा सकते हैं क्योंकि क्षेत्रज्ञका क्षेत्रके साथ संयोग केवल माना हुआ है। इस माने हुए संयोगको मिटानेके लिये भगवान् इस अध्यायके पहले श्लोकमें शरीरको अपनेसे पृथक् देखनेके लिये और फिर दूसरे श्लोकमें परमात्मासे अपने नित्यसंयोग(एकता) का अनुभव करनेके लिये कहते हैं। ऐसा अनुभव होनेपर क्षेत्रके साथ मानी हुई एकताका सर्वथा अभाव हो जाता है और फिर विकार उत्पन्न हो ही नहीं सकते।बोध होनेपर अर्थात् क्षेत्र(शरीर) से सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होनेपर इच्छा और द्वेष सदाके लिये सर्वथा मिट जाते हैं। सुख और दुःख अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितिका ज्ञान तो होता है? पर उससे अन्तःकरणमें कोई विकार पैदा नहीं होता अर्थात् अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति प्राप्त होनेपर जीवन्मुक्त महापुरुष सुखीदुःखी नहीं होता। सुखदुःखका ज्ञान होना दोषी नहीं है? प्रत्युत उसका असर पड़ना (विकार होना) दोषी है (टिप्पणी प0 675)।जीवन्मुक्त महापुरुषका संघात अर्थात् शरीरसे किञ्चिन्मात्र भी मैंमेरेपनका सम्बन्ध न रहनेके कारण उसका कहा जानेवाला शरीर यद्यपि महान् पवित्र हो जाता है? तथापि प्रारब्धके अनुसार उसका यह शरीर रहता ही है। जबतक शरीर रहता है? तबतक चेतना (प्राणशक्ति) भी रहती है। परिश्रम होनेपर उसमें चञ्चलता आती है? नहीं तो वह शान्त रहती है। साधनावस्थामें जो सात्त्विकी धृति थी? वह बोध होनेपर भी रहती है। परन्तु अन्तःकरणसे तादात्म्य न रहनेसे तत्त्वज्ञ महापुरुषका चेतना और धृतिरूप विकारोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता।तात्पर्य यह हुआ कि शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे जो विकार होते हैं? वे विकार बोध होनेपर नहीं होते। संघात? चेतना और धृतिरूप विकारोंके रहनेपर भी उनका स्वयंपर कुछ भी असर नहीं पड़ता। सम्बन्ध --   शरीरके साथ तादात्म्य कर लेनेसे ही इच्छा? द्वेष आदि विकार पैदा होते हैं और उन विकारोंका स्वयंपर असर पड़ता है। इसलिये भगवान् शरीरके साथ किये हुए तादात्म्यको मिटानेके लिये आवश्यक बीस साधनोंका ज्ञान के नामसे आगेके पाँच श्लोकोंमें वर्णन करते हैं।
।।13.6 -- 13.7।।महाभूतानीति। इच्छेति। अव्यक्तम् प्रकृतिः। इन्द्रियाणि मनसा सह एकादश। ,इन्द्रियगोचराः रूपादयः पंच। चेतना दृक्छक्तिः पुरुषः। धृतिरिति -- अन्ते (?N अत्रान्ते किल) किल सर्वस्य आ ब्रह्मणः क्रिमिपर्यन्तस्य प्रारब्धे निष्पन्ने वा कार्ये कामक्रोधादिषु च इयतैव मम पर्याप्तं? किमन्येन ईदृशश्चाहं नित्यमेव भूयासम् इति प्राणसन्धारिणी (S?N -- संधारणी -- साधारणी) धृतिः आश्वासनात्मिका पररहस्यशासनेषु रागशब्दवाच्या जायते।
।।13.7।।अमानित्वम् उत्कृष्टजनेषु अवधीरणारहित्वम्। अदम्भित्वं धार्मिकत्वयशःप्रयोजनतया धर्मानुष्ठानं दम्भः तद्रहितत्वम्। अहिंसा वाङ्मनःकायैः परपीडारहित्वम्। क्षान्तिः परैः पीड्यमानस्य अपि तान् प्रति अविकृतचित्तव्यम्। आर्जवं परान् प्रति वाङ्मनःकायवृत्तीनाम् एकरूपता। आचार्योपासनम् आत्मज्ञानप्रदायिनि आचार्ये प्रणिपातपरिप्रश्नसेवादिनिरतत्वम्। शौचम् आत्मज्ञानतत्साधनयोग्यता मनोवाक्कायगता शास्त्रसिद्धा। स्थैर्यम् अध्यात्मशास्त्रोदितेषु अर्थेषु निश्चलत्वम्। आत्मविनिग्रहः -- आत्मस्वरूपव्यतिरिक्तविषयेभ्यो मनसो निवर्तनम्।
।।13.7।।ननूक्ते क्षेत्रे क्षेत्रज्ञो वक्तव्यस्तं हित्वा किमित्यन्यदुच्यते तत्राह -- क्षेत्रज्ञ इति। अनादिमदित्यादिना वक्ष्यमाणविशेषणं क्षेत्रज्ञं स्वयमेव भगवान्विवक्षितविशेषणसहितं ज्ञेयं यत्तदित्यादिना वक्ष्यतीति संबन्धः। किमिति क्षेत्रज्ञो वक्ष्यते तत्राह -- यस्येति। ज्ञेयं यत्तदित्यतः प्राक्तनग्रन्थस्य तात्पर्यमाह -- अधुनेति। अमानित्वादिलक्षणं विदधातीत्युत्तरत्र संबन्धः। ज्ञानसाधनसमुदायबोधनं कुत्रोपयुज्यते तत्राह -- यस्मिन्निति।योग्यमधिकृतमेव विवृणोति -- यत्पर इति। एतज्ज्ञानमिति वचनात्कथमिदं ज्ञानसाधनमित्याशङ्क्याह -- तमिति। तद्विधानस्य वक्तृद्वारा दार्ढ्यं सूचयति -- भगवानिति। अमानित्वादिनिष्ठस्यान्तर्धियो ज्ञानमिति,नियमार्थमाह -- अमानित्वमिति। मानस्तिरोहितोऽवलेपः। स चात्मन्युत्कर्षारोपहेतुः सोऽस्येति मानी न मान्यमानी तस्य भावोऽमानित्वमिति व्याकरोति -- अमानित्वमित्यादिना। प्रतियोगिमुखेनादम्भित्वं विवृणोति -- अदम्भित्वमिति। वाङ्मनोदेहैरपीडनं प्राणिनामहिंसनम्? तदेवाहिंसेत्याह -- अहिंसेति। परापराधस्य चित्तविकारकारणस्य प्राप्तावेवाविकृतचित्तत्वेनापकारसहिष्णुत्वं क्षान्तिरित्याह -- क्षान्तिरिति। अवक्रत्वमकौटिल्यं यथाहृदयव्यवहारः सदैकरूपप्रवृत्तिनिमित्तत्वं चेत्यर्थः।उपनीय तु यः शिष्यम् इत्यादिनोक्तमाचार्यं व्यवच्छिनत्ति -- मोक्षेति। शुश्रूषादीत्यादिपदं नमस्कारादिविषयम्। बाह्यमाभ्यन्तरं च द्विप्रकारं शौचं क्रमेण विभजते --,शौचमित्यादिना। मनसो रागादिमलानामिति संबन्धः। तापनयोपायमुपदिशति -- प्रतिपक्षेति। रागादिप्रतिकूलस्य भावनाविषयेषु दोषदृष्ट्या वृत्तिस्तयेति यावत्। स्थिरभावमेव विशदयति -- मोक्षेति। आत्मनो नित्यसिद्धस्यानाधेयातिशयस्य कुतो विनिग्रहस्तत्राह -- आत्मन इति।
।।13.7।।तस्य यद्विकारितामाह -- इच्छेत्यादि। यद्यपीच्छाद्वेषसुखदुःखान्यात्मधर्मभूतानि तथाप्यात्मनश्चिदंशभूतस्य क्षेत्रसम्बन्धप्रयुक्तानीति क्षेत्राश्रितानीत्युच्यन्ते साङ्ख्ये पुरुषधर्मत्वं चपुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते [13।21] इत्येव वक्ष्यते। सङ्घातः संहननं चेतनाविवेकाद्यात्मिका प्राणादिवृत्तिः धृतिश्चेति विकाराः। सुखदुःखे भुञ्जानस्य भोगापवर्गौ साधयतश्चिदंशभूतस्य वस्तुतोऽव्यक्तस्य पुरुषस्याधारतयोत्पन्नं भूतमयं शरीरं तेषामहङ्कारादीनामाश्रयं तत्तदिच्छासुखदुःखद्वेषसङ्घातादिविकारबहुलं विवेकधैर्यादिकचतुर्वर्गसाधकं मदिच्छयोद्भावितं स्वभक्त्यर्थं दिष्टकृतमन्यैः समुदङ्कितमिति मया तत् विनश्वरस्वभावं क्षेत्रं स्थूलं सूक्ष्मं च मानुषं शरीरं तुभ्यं समासेनोदाहृतम्।
।।13.7।।इच्छा सुखे तत्साधने चेदं मे भूयादिति स्पृहात्मा चित्तवृत्तिः काम इति राग इति चोच्यते। द्वेषो दुःखे तत्साधने चेदं मे भूयादिति स्पृहाविरोधिनी चित्तवृत्तिः क्रोध इतीर्ष्येति चोच्यते। सुखं निरुपधीच्छाविषयीभूता धर्मासाधरणकारणिका चित्तवृत्तिः परमात्मसुखव्यञ्जिका। दुःखं निरुपधिद्वेषविषयीभूता चित्तवृत्तिरधर्मासाधारणकारणिका। संघातः पञ्चमहाभूतपरिणामः। सेन्द्रियं शरीरं चेतना स्वरूपज्ञानव्यञ्जिका प्रमाणासाधारणकारणिका चित्तवृत्तिर्ज्ञानाख्या। धृतिरवसन्नानां देहेन्द्रियाणामवष्टम्भहेतुः प्रयत्नः। उपलक्षणमेतदिच्छादिग्रहणं सर्वान्तःकरणधर्माणाम्। तथाच श्रुतिःकामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति। मृद्धटवदुपादानाभेदेन कार्याणां कामादीनां मनोधर्मत्वमाह -- एतदिति। एतत्परिदृश्यमानं सर्वं महाभूतादिधृत्यन्तं जडं क्षेत्रज्ञेन साक्षिणावभास्यमानत्वात्तदनात्मकं क्षेत्रं भास्यमचेतनं समासेनोदाहृतमुक्तम्। ननु शरीरेन्द्रियसंघात एव चेतनः क्षेत्रज्ञ इति लोकायतिकाः। यचेतना क्षणिकं ज्ञानमेवात्मेति सुगताः। इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति नैयायिकाः। तत्कथं क्षेत्रमेवैतत्सर्वमिति तत्राह -- सविकारमिति। विकारो जन्मादिर्नाशान्तः परिणामो नैरुक्तैः पठितस्तत्सहितं सविकारमिदं महाभूतादिधृत्यन्तमतो न विकारः साक्षी स्वोत्पत्तिविनाशयोः स्वेन द्रष्टुमशक्यत्वात् अन्येषामपि,स्वधर्माणां स्वदर्शनमन्तरेण दर्शनानुपपत्तेः स्वेनैव स्वदर्शने च कर्तृकर्मविरोधात् निर्विकार एव सर्वविकारसाक्षी। तदुक्तंनर्ते स्याद्विक्रियां दुःखी साक्षिता काऽविकारिणः। धीविक्रियासहस्राणां साक्ष्यतोऽहमविक्रियः।। इति। तेन विकारित्वमेव क्षेत्रचिह्नं नतु परिगणनमित्यर्थः।
।।13.7।।इच्छेति। इच्छादयः प्रसिद्धाः? संघातः शरीरं? चेतना ज्ञानात्मिका मनोवृत्तिः? धृतिर्धैर्यम्? एतइच्छादयो दृश्यत्वान्नात्मधर्मा अपितु मनोधर्मा एव अतः क्षेत्रान्तःपातिन? एव। उपलक्षणं चैतत्संकल्पादीनाम्। तथाच श्रुतिःकामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्नीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति। अनेन च यादृगिति प्रतिज्ञाता क्षेत्रधर्मा दर्शिताः। एतत्क्षेत्रं सविकारमिन्द्रियादिविकारसहितं संक्षेपेण तुभ्यं मयोक्तमिति क्षेत्रोपसंहारः।
।।13.7।।इच्छा द्वेषः सुखं दुःखम् इत्येतत्यद्विकारि [13।4] इत्युक्तस्य प्रतिपादकमित्याशयेनाह -- इच्छा द्वेष इति। इच्छादीनां भूतसङ्घातरूपक्षेत्रपरिणामत्वाभावेन कथं क्षेत्रविकारत्वं प्रत्युतात्मधर्मभूतज्ञानविकारत्वमेवेत्याशयेन शङ्कते -- यद्यपीति। तेषां क्षेत्रविकारत्वव्यपदेश औपचारिक इत्याशयेन परिहरतितथापीति। क्षेत्रासाधारणकार्यत्वमुपचारनिमित्तमिति भावः। ननु कथमिच्छादीनां धर्मभूतज्ञानविकारत्वम्? कामः सङ्कल्पः [बृ.उ.1।5।3] इत्यादिना तेषां मनोविकारत्वश्रवणात्।पञ्चवृत्तिर्मनोवद्व्यपदिश्यते [बृ.सू.2।4।12] इति सूत्रभाष्येन कामादिकं मनसस्तत्त्वान्तरम् [रा.भा.] इति भाषितत्वाच्चेत्यत आह -- तेषामिति। नचाश्रयत्वमन्तरेण हेतुत्वमस्त्विति वाच्यम्?कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते [13।21] इति पूर्ववाक्ये क्रियाश्रयत्वरूपकर्तृत्वं प्रति प्रकृतेराश्रयत्वेन हेतुत्वोक्त्या तद्वैरूप्यापत्तेः। न चान्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यरूपजीवस्य पुरुषशब्देन विवक्षितत्वात्? कामः सङ्कल्पः [बृ.उ.1।5।3] इत्यादिश्रुत्यनुसारेण योग्यतयाऽन्तःकरणस्य तदाश्रयत्वपरमेवपुरुषः सुखदुःखानाम् [13।21] इति वाक्यमिति वाच्यं? देहादिवदन्तःकरणस्यापि प्रकृतिपरिणामत्वेन कार्यकारणकर्तृत्वे सुखदुःखानां भोक्तृत्वे च हेतुः प्रकृतिरुच्यत इत्येवोक्त्यापत्तेः। चैतन्यसम्बन्धप्रयुक्तं भोक्तृत्वाश्रयत्वमितिपुरुषः सुखदुःखानाम् इत्युक्तिरिति चेत्? कर्तृत्वाश्रयत्वमपि तत्सम्बन्धायत्तमिति तत्रापि तथोक्तिः स्यात्। नचैवंकामः सङकल्पः इति श्रुतेःपञ्चवृत्तिर्मनोवद्व्यपदिश्यते [ब्र.सू.2।4।12] इति सूत्रभाष्यस्य च कथमुपपत्तिरिति वाच्यम् कामसङ्कल्पादिशब्दवाच्यधर्मभूतज्ञानपरिणामहेतुभूतमनोवृत्तीनां तत्कार्यवाचिशब्देनाभिधानपूर्वकं मनसस्तत्त्वान्तरत्वाभावप्रतिपादनपरत्वेनोपपत्तेः।न भयसम्प्रतिपन्नमनोवृत्तिभिरेव तत्तन्नाम्नीभिः सर्वकार्योपपत्तौ कामादिशब्दवाच्यधर्मभूतज्ञानपरिणामकल्पने प्रमाणाभावात् कामादिशब्दानां मनोवृत्तिषु लाक्षणिकत्वमनुपपन्नमिति चेत्? न सोऽकामयत [तै.उ.2।6] अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामत [ना.उ.1] इति स्थाने तदैक्षत [छां.उ.6।2।3] स ईक्षाञ्चक्रे [प्र.उ.6।3] इत्यन्तःकरणरहितजगत्कारणाश्रितज्ञानविशेषवाचीक्षतिशब्दपाठात् स तपोऽतप्यत [तै.उ.2।6] इति तत्स्थानपठिततपश्शब्दस्य यस्य ज्ञानमयं तपः [मुं.उ.1।1।9] इति ज्ञानशब्देन व्याख्यानात्। स यदि पितृलोककामो भवति सङ्कल्पादेवास्य पितरः समुत्तिष्ठन्ति [छां.उ.8।2।1] इति मुक्ताश्रितत्वेन कामसङ्कल्पयोः श्रवणात् सुखत्वापरपर्यायानन्दत्वस्य रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति [तै.उ.2।7] आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् [तै.उ.2।4?9] इत्यादिषुअनुकूलज्ञानमेव ह्यानन्दः [रा.भा.] इति भाष्यकृदुक्तरीत्या मुक्तब्रह्मसंबन्धिज्ञानवृत्तित्वश्रवणात्निरस्तातिशयाह्लादसुखभावैकलक्षणा। भेषजं भगवत्प्राप्तिरेकान्तात्यन्तिकी मता [वि.पु.5।6।59] इति भगवदनुभवरूपभगवत्प्राप्तेः सुखरूपत्वमृतेश्च कामसङ्कल्पसुखादीनां ज्ञानावस्थाविशेषत्वस्य अवश्याभ्युपगमनीयत्वान्मनोवृत्तीनामज्ञानत्वेनान्याधीनप्रकाशतयानन्याधीनप्रकाशत्वादिरूपव्यापकनिवृत्त्या व्याप्यभूतार्थान्तरप्रकाशादिहेतुत्वासम्भवेन ज्ञानावस्थाविशेषानङ्गीकारे विषयप्रकाशव्यवहारादेरनुपपत्तेः स्वप्रकाशज्ञानावस्थाविशेषाणामावश्यकत्वादनेकशक्तिकल्पने गौरवेण कामसङ्कल्पादिशब्दानां वृत्तिषु लाक्षणिकत्वस्य न्याय्यत्वाच्च।नच वृत्तीनां चैतन्यसम्बन्धेन विषयप्रकाशादिसमर्थत्वमिति वाच्यम्? निर्विशेषचैतन्यस्य सर्वविषयविमुखस्य विषयप्रकाशाद्ययोग्यत्वेन तत्सहायस्यशतमप्यन्धानां न पश्यति इति न्यायेन विषयप्रकाशादिसामर्थ्यानापादकत्वान्निर्विशेषचैतन्यस्य तद्योग्यत्वे तेनैव प्रकाशाद्युपपत्तौ वृत्त्यवच्छेदकल्पना निष्फला स्यात्। नच संसारदशायां सङ्कुचितस्य तस्य विषयव्यवस्थौपयिकतया साफल्यमिति वाच्यम्? तस्य सङ्कोचाङ्गीकारे निर्विकारत्वादिप्रतिपादकश्रुत्यादिविरोधाच्चक्षुरादिवृत्तिभिरेव विषयव्यवस्थोपपत्तेश्च धर्मभूतज्ञानस्य च विकारोऽङ्गीकृत एवेति न किञ्चिदनुपपन्नमस्माकम् -- इति। एतत्सर्वमभिप्रेत्य भाषितंतेषां पुरुषधर्मत्वंपुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते [13।21]इति वक्ष्यत इति।चेतनाधृतिः इत्यत्र न तावत्पदद्वयं? चैतन्यस्य क्षेत्रान्तर्भावात् एकपदत्वेऽपि चेतनाया धृतिरिति न विग्रहः? धृतिशब्दस्याधारपरत्वे शरीरस्य चैतन्याधारत्वासम्भवात् भोगस्थानपरत्वे निर्विशेषचैतन्यस्य भोक्तृत्वानभ्युपगमात् एष हि द्रष्टा श्रोता रसयिता घ्राता मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः [प्र.उ.4।9] इति ज्ञातृत्वकर्तृत्वविशिष्टचेतनस्यैव भोक्तृत्वश्रवणाच्च। चेतनस्याधृतिरिति विग्रहः। चेतनशब्देनात्मा निर्दिश्यते।भूतरुह्याम [वि.पु. ] इतिवत् आधृतिशब्दोऽपिअकर्तरि च कारके संज्ञायाम् [अष्टा.3।3।19] इत्याधारपर इत्याह -- आधृतिराधार इति। अत्रोद्दिष्टार्थक्रमवशाद्व्युत्क्रमेण व्याख्यातम्? आधारत्वस्यात्र भोगायतनत्वरूपत्वान्नाधेयत्वरूपशरीरलक्षणविरोध इत्यभिप्रेत्याह -- सुखेति।महाभूतानि इत्यादेः सुग्रहत्वायमहाभूतानि इत्यादेःतत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च [13।4] इत्यादि यद्वृत्तपञ्चकार्थविषयतां दर्शयन् पिण्डितार्थमाह -- प्रकृत्यादीति।सविकारशब्देनेच्छादीनां क्षेत्रपरिणामत्वशङ्काव्युदासायाह -- सकार्यमिति। ,
।।13.7।।इच्छा अभिलषितार्थरूपा? द्वेषः प्रतीपस्फूर्त्या? सुखं स्वाभिलषितप्राप्त्या? दुःखं स्वाज्ञानकल्पितं?,सङ्घातः शरीरं? चेतना ज्ञानरूपा मनोवृत्तिः? धृतिः धैर्यम्। इच्छादयोऽपि मनोधर्मा अतः सविकारम् इन्द्रियादिविकारसहितं क्षेत्रं सर्वोत्पत्तिस्थानं सङ्क्षेपेण सम्यक्प्रकारेण उदाहृतं लीलार्थं प्रकटितमिति ज्ञानार्थं कथितमित्यर्थः।
।।13.7।।यतश्च विकाराद्यज्जायत इत्युक्तं तदाह -- इच्छेति। इच्छा सुखे तत्साधने वा स्पृहारूपा चित्तवृत्तिरिदं मे भूयादिति सा काम इति राग इति चोच्यते। द्वेषो दुःखे तत्साधने चेदं मे माभूदिति स्पृहाविरोधिनी चेतोवृत्तिः। सुखदुःखे प्रसिद्धे। संघातःआत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः इति श्रुतेरिन्द्रियमनश्चिदात्मनामेकलोलीभावरूपो भोक्ता। चेतना या पूर्वोक्ता बुद्धिः सैव शुद्धा सत्त्वमयत्वाद्विमलादर्शवच्चित्प्रतिबिम्बग्राहिणी तप्तायःपिण्डे वह्नित्वमिव स्वयमचेतनापि चेतनात्वं प्राप्ता यया व्याप्तः स्थूलपिण्डोऽपि चेतन एव प्रतीयते सेयं चेतना मनःसंज्ञिता सैव इच्छादिरूपा परिणमते। तथा च श्रुतिःकामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव इति कामादीनां मनोवृत्तित्वमाह। एतत्क्षेत्रमव्यक्ताख्यं विकारं विकारेण महदादिना तद्विकारेण चेच्छादिना सहितमुदाहृतमुक्तम्। नन्विच्छादयोऽहंप्रत्ययविषयस्यात्मनो धर्मा इति काणादा वदन्ति। सत्यमेव वदन्ति ते परंतु सोऽस्माकं मुख्य आत्मैव न भवति? तस्य शुद्धायां चित्यभेदेनाध्यस्तत्वादिति प्रागेवोक्तम्। अतः क्षेत्रान्तर्गतस्याहमर्थस्य दृश्यस्य तादृशा एव दृश्या इच्छादयो धर्माः सन्तु न नः किञ्चिच्छिन्नम्। आत्मनोऽसङ्गत्वमहंकारस्यानृतत्वं चानुभवसिद्धं श्रुती अप्यनुवदतःअसङ्गो ह्ययं पुरुषः इतिअमृतेन हि प्रत्यूढाः इति।
।।13.7।।एवं क्षेत्रस्वरुपनिर्देशेनैव तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्चेति व्याख्यायेच्छादीनामात्मविकारत्वानिवृत्तये क्षेत्रविकारत्वनिरुपणेन यद्विकारीत्येतन्नरुपयन्नात्मगुणा इति यानाचक्षते वैशेषिकास्तेऽपि क्षेत्रधर्मा एव नतु क्षेत्रज्ञस्येत्याशयेनाह -- इच्छेति। इच्छा पर्वोपलब्धसुखहेतुसजातीये हेतौ उपलभमाने इदं मे स्यादिति स्पृहा। तथानुभूतदुःखहेतुसजातीये हेतावुपलभमाने इदं मे मा भूदिति चित्तवृत्तिर्द्वेषः। तथा प्रसन्नत्वात्मकमनुकूलं सुखं प्रतिकूलात्मकं देहेन्द्रियाणआं संहतिः संघातः। तस्मिन्नभिव्यक्तान्तःकरणवृत्तिरात्मचैतन्याभासानुविद्धा चेतना ययावसादप्राप्तानि देहेन्द्रियाणि ध्रियन्ते सा घृतिः। इच्छादिग्रहणं संकल्पविकल्पाद्यन्तःकरणधर्मोपलक्षणार्थम्। तथाच श्रुतिः -- कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिरधृतिर्ह्नीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन ए इति। तथा चेच्छादीनां ज्ञेयत्वाज्ज्ञेयान्तःकरणधर्मत्वप्रतिपादनेन श्रुत्या सर्वज्ञेन भगवता च वैशेषिकमतस्य हेयत्वं बोधितम्। क्षेत्रनिरुपणमुपसंहरति। एतत्क्षेत्रं सविकारं विकारेण महदादिना तद्विकारेण चेच्छादिना सहितं समासेन सेक्षेपेणोदाहृत्मुक्तं। यस्य क्षेत्रभेदजातस्य संहतिरिदं शरीरं क्षेत्रमित्युक्तं तत्क्षेत्रं महाभूतादिभेदभिन्नं धृत्यन्तं विरक्तस्य ज्ञानाधिकाराय वैराग्यार्थं व्याख्यातमित्यर्थः।
13.7 इच्छा desire? द्वेषः hatred? सुखम् pleasure? दुःखम् pain? सङ्घातः the aggregate? चेतना intelligence? धृतिः fortitude? एतत् this? क्षेत्रम् field? समासेन briefly? सविकारम् with modifications? उदाहृतम् has been described.Commentary These principles form the frame or the skelteton on which the world of forms is built. All these are mental states and treated as properties of the body by the Sankhya school of thought. According to the NyayaYaiseshika schools? these are the inherent alities of the Self. The modifications have a beginning and an end. Only that which is unchanging can be the witness of these modifications. The knower of the field is unchanging. He is the witness of the field and its modifications.Desire is a modification of the mind. It is an earnest longing for an object. It is a Vritti (thoughtwave) born of Rajas which urges a man who has once experienced a certain object of pleasure to get hold of it as conducive to his pleasure when he beholds the same object again. This is the property of the inner sense. It is the field because it is knowable.You enjoy a certain sensual object. The impression of this is produced in the subconscious mind. This impression is vivified or revived through memory or remembrance of the sensual pleasure. Then desire arises to enjoy the object again. Repetition of the sensual enjoyment intensifies the memory and desire. Renunciation of the objects and meditation thin out the impressions and the desires.If anyone gives a description of the beautiful scenery of Badri Narayana or Mount Kailasa at once a desire arises in our minds to vist those places. If a man says that very good sweetmeats and mangoes are available in Bangalore? a desire to get these objects crops up in your mind. Therefore memory of sensual enjoyments and the hearing of the alities of the sensual objects are the root causes of desires. Hope fattens the desires. Hope gives a new lease of life to desires. Desire excites the mind and the senses. Desire makes the mind restless. Desire makes the mind wander in the sensual grooves.An object which is sweet and pleasant to you at one moment produces the very reverse of that sensation at another moment. Everyone of you might have had this experience. Objects are pleasant only when there is a longing for them. But they are unpleasant when there is no longing for them. Therefore desires are the cause of pleasure. If satisfaction arises through enjoyment of the objects? pleasure will cease. If your mind is destitute of desires then you will always enjoy serenity? eanimity? balance or poise in spite of many obstalces or adversities. The foundation of desire is the love of sensual pleasures. Desires run along the path of your inclination? proclivity or tendency or taste. Desire is the fuel. Thought is the fire. If you withdraw the fuel of desire? the fire of thought will be extinguished like an oilless lamp. The intellect becomes impure by association with desires.Hatred is a modification of the mind. It is a negative one. It is a Vritti that impels a man who,experienced pain from a certain object to dislike it when he beholds the same object again. Hatred also is field because it is knowable. The modification that arises in the mind when your desire is not fulfilled is called hatred.Pleasure is agreeable? peaceful? made of Sattva. This is also the field because it is knowable.Pain is disagreeable or unpleasant. It is also the field because it is knowable.Sanghata Aggregate? the combination of the body and the senses or the bundle of the 35 components of the body.Chetana Intelligence is a mental state which manifests itself in the aggregate just as fire manifests itself in a ball of iron. This is also the field because it is knowable. Chetana means consciousness and also the activity of the vital airs.Dhriti Firmness? courage? fortitude. It is a Sattvic modification of the mind. The body? the senses and the mind are sustained by firmness when they are depressed and agitated. The five elements are antagonistic to each other. Water destroys earth. Fire dries up water. Water puts out fire. Wind puts out a lamp (fire). Ether absorbs the wind. The five elements fight amongst themselves and yet they (that have a natural dislike for one another) dwell together ite amicably in the same body. Each element beautifully cooperates with the others in carrying on the common functions of the body harmoniously. Each element nourishes the other elements also with its own alities. Dhriti is firmness or the power by which these fighting elements are held in union and harmony and kept in a state of steadiness and balance. This is also the field because it is knowable.Desire and the other alities that are spoken of in this verse stand for all the alities of the mind. The field that is mentioned in the first verse has been dealth with in all its different forms in the fifth and the sixth verses.
13.7 Desire, hatred, pleasure, pain, the aggregate (the body), intelligence, fortitude the field has thus been briefly described with its modifications.
13.7 Desire, aversion, pleasure, pain, sympathy, vitality and the persistent clinging to life, these are in brief the constituents of changing Matter.
13.7 Desire, repulsion, happiness, sorrow, the aggregate (of body and organs), sentience, fortitude- this field, together with its modifications, has been spoken of briefly.
13.7 Iccha, desire: Having experienced again an object of that kind which had given him the feeling of pleasure earlier, a man wants to have it under the idea that it is a source of pleasure. That is this desire which is an attribute of the internal organ, and is the 'field' since it is an object of knowledge. So also dvesah, repulsion: Having experienced again an object of that kind which he had earlier felt as a cause of sorrow, he hates it. That is this repulsion, and it is surely the 'field' since it is an object of knowledge. Similarly, sukham, happiness- which is favourable, tranil, having the ality of sattva-is the 'field' since it is an object of knowledge. Duhkham, sorrow-which is by nature adverse-, that, too, is the 'field' since it is a knowable. Sanghatah is the aggregate, the combination, of body and organs. Cetana, sentience, is a state of the internal organ, manifest in that aggregate like fire in a heated lump of iron, and pervaded by an essence in the form of a semblance of Consciousness of the Self. That too is the 'field' because it is an object of knowledge. Dhrtih, fortitude, by which are sustained the body and organs when they get exhausted-that too is the 'field' becuase it is an object of knowledge. Desire etc. have been selected as suggestive of all the alities of the internal organ. The Lord concludes what has been said: Etat, this; ksetram, field; savikaram, together with its modifications beginning from mahat (buddhi); has been samasena, briefly; udahrtam, spoken of. That 'field' which was referred to as, 'This body is called the field' (1), and is constituted by the aggregate of the constituents of the field has been explained in its different forms beginning from the great elements etc. ending with fortitude. The Knower of the field whose alities are going to be described, and by realizing which Knower of the field along with His majesty Immortality follows-of Him, togehter with His attributes, the Lord Himself will narrate in the verse, 'I shall speak of that which is to be known' (12). But, for the present, the Lord enjoins the group of disciplines characterized as humility etc. which lead one to the knowledge of That (Knower of the field)-that group of humility etc. which are referred to by the word Knowledge since they lead to Knowledge, and owing to the existence of which one becomes appropriately competent for the realization of that Knowable, and being endued with which a monk is said to be steadfast in Knowledge:
13.7. The desire, the hatred. the pleasure, the pain, the aggregate, the sensibility and the feeling of satisfaction (or self-?nd) : This, together with modification, is what is collectively called 'the Field, together with modification'.
13.6-7 Mahabhutani etc. Iccha etc. The Unmanifest : the [prime] material cause. The organs : together with the mind, they are eleven in number. The object of the snese - organs : the colour etc., that are five in number. Sensibility : the perceiving energy i.e. the Individual Soul. Feeling of satisfaction (or self-?nd) : It is well known that at the last moment, when a given action is [just] begun or accomplished and desire, anger etc. (come up and accomplished) there arises - in the case of everone from Brahma (personal god) down to the worm-a feeling of satisfaction (or self-?nd) as 'This much is ite sufficient for me; what is the use of another one ? Let me always be in this manner',-a feeling which upholds one's life, and is in the form of consolation and which is called by the expression raga in the highly secret ?ndments. (5-6) The Field has been explained as above; so also the Field-sensitizer. Now [what conduces to the true] knowledge is mentioned as-
13.6- 13.7 The 'great elements, the Ahankara, the Buddhi and the Avyakta' are substances that originate the Ksetra. The 'great elements' are the earth, water, fire, air and ether. The 'Ahankara' here means Bhutadi (primeval element). The 'Buddhi' is called Mahat; the 'Avyakta' is known as the Prakrti. The 'ten senses and the one' and the five objects of senses are principles depending on the Ksetra. The 'five sensorial organs' are ear, skin, eye, tongue and nose. The five motor organs are speech, hands, feet, and the organs of excretion and reproduction. These are the ten senses. The Manas is the additional 'one' moe. The 'objects of the senses' are five - sound, touch, form, taste and smell. Desire, hatred, pleasure and pain, being the transformation of the Ksetra, are said to be the modifications of the Ksetra. Though desire, hatred, pleasure and pain are the alities of the self, yet they originate from the association of the self with the Ksetra. Sri Krsna will state that they are the attributes of the self; 'In the experience of pleasure and pain, the self is said to be the cause' (13.20). The combination of elements serves as the support (Adhrti) of the intelligent self. As such, the word Adhrti means substratum. The combination of material elements has arisen as the substratum for the self to experience pleasure and pain, and for aciring worldly experiences and the final release. The combination of elements is formed by substances commencing from the Prakrti and ending with the earth; it is the basis of senses which are endowed with the modifications of the nature of desire, hatred, pleasure and pain. These form a Sanghata or an association of elements. It serves as the basis of the experience of pleasure and pain by the individual self. This is what is said of the Ksetra. This Ksetra has been explained briefly with its modifications and effects. Now certain alities, the effects of the Ksetra, worthy of being acired as being the means for securing the knowledge of the self, are enumerated.
13.7 Desire, hatred, pleasure and pain and the combination that constitutes the basis of consciousness (or the individual self). Thus this Ksetra has been briefly described with its modifications.
।।13.7।।अब जिन इच्छा आदिको वैशेषिकमतावलम्बी आत्माके धर्म मानते हैं वे भी क्षेत्रके ही धर्म हैं आत्माके नहीं यह बात भगवान् कहते हैं --, इच्छा -- जिस प्रकारके सुखदायक विषयका पहले उपभोग किया हो? फिर वैसे ही पदार्थके प्राप्त होनेपर उसको सुखका कारण समझकर मनुष्य उसे लेना चाहता है? उस चाहका नाम इच्छा है? वह अन्तःकरणका धर्म है और ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र है। तथा द्वेष -- जिस प्रकारके पदार्थको दुःखका कारण समझकर पहले अनुभव किया हो? फिर उसी जातिके पदार्थके प्राप्त होनेपर जो उससे मनुष्य द्वेष करता है? उस भावका नाम द्वेष है? वह भी ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है। उसी प्रकार सुख? जो कि अनुकूल? प्रसन्नतारूप और सात्त्विक है? ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है तथा प्रतिकूलतारूप दुःख भी ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है। देह और इन्द्रियोंका समूह संघात कहलाता है। उसमें प्रकाशित हुई जो अन्तःकरणकी वृत्ति है जो कि अग्निसे प्रज्वलित लोहपिण्डकी भाँति आत्मचैतन्यके आभासरूपसे व्याप्त है? वह चेतना भी ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है। व्याकुल हुए शरीर और इन्द्रियादि जिससे धारण किये जाते हैं? वह धृति भी ज्ञेय होनेसे क्षेत्र ही है। अन्तःकरणके समस्त धर्मोंका संकेत करनेके लिये यहाँ इच्छादि धर्मोंका ग्रहण किया गया है। जो कुछ कहा गया है? उसका उपसंहार करते हैं -- महत्तत्त्वादि विकारोंसे सहित क्षेत्रका यह स्वरूप संक्षेपसे कहा गया। अर्थात् जिन समस्त क्षेत्रभेदोंका समूह यह शरीर क्षेत्र है ऐसा कहा गया है? महाभूतोंसे लेकर धृतिपर्यन्त भेदोंसे विभिन्न हुए उस क्षेत्रकी व्याख्या कर दी गयी। जो आगे कहे जानेवाले विशेषणोंसे युक्त क्षेत्रज्ञ है? जिस क्षेत्रज्ञको प्रभावसहित जान लेनेसे ( मनुष्य ) अमृतरूप हो जाता है? उसको भगवान् स्वयं आगे चलकर ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि इत्यादि वचनोंसे विशेषणोंके सहित कहेंगे।
।।13.7।। --,इच्छा? यज्जातीयं सुखहेतुमर्थम्? उपलब्धवान् पूर्वम्? पुनः तज्जातीयमुपलभमानः तमादातुमिच्छति सुखहेतुरिति सा इयं इच्छा अन्तःकरणधर्मः ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम्। तथा द्वेषः? यज्जातीयमर्थं दुःखहेतुत्वेन अनुभूतवान्? पुनः तज्जातीयमर्थमुपलभमानः तं द्वेष्टि सोऽयं द्वेषः ज्ञेयत्वात् क्षेत्रमेव। तथा सुखम् अनुकूलं प्रसन्नसत्त्वात्मकं ज्ञेयत्वात् क्षेत्रमेव। दुःखं प्रतिकूलात्मकम् ज्ञेयत्वात् तदपि क्षेत्रम्। संघातः देहेन्द्रियाणां संहतिः। तस्यामभिव्यक्तान्तःकरणवृत्तिः? तप्त इव लोहपिण्डे अग्निः आत्मचैतन्याभासरसविद्धा चेतना सा च क्षेत्रं ज्ञेयत्वात्। धृतिः यया अवसादप्राप्तानि देहेन्द्रियाणि ध्रियन्ते सा च ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम्। सर्वान्तःकरणधर्मोपलक्षणार्थम् इच्छादिग्रहणम्। यत उक्तमुपसंहरति एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारं सह विकारेण महदादिना उदाहृतम् उक्तम्।।यस्य क्षेत्रभेदजातस्य संहतिः इदं शरीरं क्षेत्रम् इति उक्तम्? तत् क्षेत्रं व्याख्यातं महाभूतादिभेदभिन्नं धृत्यन्तम्। क्षेत्रज्ञः वक्ष्यमाणविशेषणः -- यस्य सप्रभावस्य क्षेत्रज्ञस्य परिज्ञानात् अमृतत्वं भवति? तम् ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि (गीता 13।12) इत्यादिना सविशेषणं स्वयमेव वक्ष्यति भगवान्। अधुना तु तज्ज्ञानसाधनगणममानित्वादिलक्षणम्? यस्मिन् सति तज्ज्ञेयविज्ञाने योग्यः अधिकृतः भवति? यत्परः संन्यासी ज्ञाननिष्ठः उच्यते? तम् अमानित्वादिगणं ज्ञानसाधनत्वात् ज्ञानशब्दवाच्यं विदधाति भगवान् --,
।।13.7।।महाभूतानीत्यनुक्रम्यएतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतं इत्युक्तम्? तत्र न ज्ञायते किं क्षेत्रं के च तद्विकारा इत्यत आह -- इच्छादय इति। पूर्वं क्षेत्रमिति भावः।
।।13.7।।इच्छादयो विकाराः।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः। एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।13.7।।
ইচ্ছা দ্বেষঃ সুখং দুঃখং সঙ্ঘাতশ্চেতনাধৃতিঃ৷ এতত্ক্ষেত্রং সমাসেন সবিকারমুদাহৃতম্৷৷13.7৷৷
ইচ্ছা দ্বেষঃ সুখং দুঃখং সঙ্ঘাতশ্চেতনাধৃতিঃ৷ এতত্ক্ষেত্রং সমাসেন সবিকারমুদাহৃতম্৷৷13.7৷৷
ઇચ્છા દ્વેષઃ સુખં દુઃખં સઙ્ઘાતશ્ચેતનાધૃતિઃ। એતત્ક્ષેત્રં સમાસેન સવિકારમુદાહૃતમ્।।13.7।।
ਇਚ੍ਛਾ ਦ੍ਵੇਸ਼ ਸੁਖਂ ਦੁਖਂ ਸਙ੍ਘਾਤਸ਼੍ਚੇਤਨਾਧਰਿਤਿ। ਏਤਤ੍ਕ੍ਸ਼ੇਤ੍ਰਂ ਸਮਾਸੇਨ ਸਵਿਕਾਰਮੁਦਾਹਰਿਤਮ੍।।13.7।।
ಇಚ್ಛಾ ದ್ವೇಷಃ ಸುಖಂ ದುಃಖಂ ಸಙ್ಘಾತಶ್ಚೇತನಾಧೃತಿಃ. ಏತತ್ಕ್ಷೇತ್ರಂ ಸಮಾಸೇನ ಸವಿಕಾರಮುದಾಹೃತಮ್৷৷13.7৷৷
ഇച്ഛാ ദ്വേഷഃ സുഖം ദുഃഖം സങ്ഘാതശ്ചേതനാധൃതിഃ. ഏതത്ക്ഷേത്രം സമാസേന സവികാരമുദാഹൃതമ്৷৷13.7৷৷
ଇଚ୍ଛା ଦ୍ବେଷଃ ସୁଖଂ ଦୁଃଖଂ ସଙ୍ଘାତଶ୍ଚେତନାଧୃତିଃ| ଏତତ୍କ୍ଷେତ୍ରଂ ସମାସେନ ସବିକାରମୁଦାହୃତମ୍||13.7||
icchā dvēṣaḥ sukhaṅ duḥkhaṅ saṅghātaścētanādhṛtiḥ. ētatkṣētraṅ samāsēna savikāramudāhṛtam৷৷13.7৷৷
இச்சா த்வேஷஃ ஸுகஂ துஃகஂ ஸங்காதஷ்சேதநாதரிதிஃ. ஏதத்க்ஷேத்ரஂ ஸமாஸேந ஸவிகாரமுதாஹரிதம்৷৷13.7৷৷
ఇచ్ఛా ద్వేషః సుఖం దుఃఖం సఙ్ఘాతశ్చేతనాధృతిః. ఏతత్క్షేత్రం సమాసేన సవికారముదాహృతమ్৷৷13.7৷৷
13.8
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।।13.8।।मानित्व-(अपनेमें श्रेष्ठताके भाव-) का न होना, दम्भित्व-(दिखावटीपन-) का न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, स्थिरता और मनका वशमें होना।
।।13.8।। अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जव, आचार्य की सेवा, शुद्धि, स्थिरता और आत्मसंयम।।
।।13.8।। अमानित्व स्वयं को पूजनीय व्यक्ति समझना मान कहलाता है। उसका अभाव अमानित्व है।अदम्भित्व अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन न करने का स्वभाव।अहिंसा शरीर? मन और वाणी से किसी को पीड़ा न पहुँचाना।क्षान्ति किसी के अपराध किये जाने पर भी मन में विकार का न होना क्षान्ति अर्थात् सहनशक्ति है।आर्जव हृदय का सरल भाव? अकुटिलता।आचार्योपासना गुरु की केवल शारीरिक सेवा ही नहीं? वरन् उनके हृदय की पवित्रता और बुद्धि के तत्त्वनिश्चय के साथ तादात्म्य करने का प्रयत्न ही वास्तविक आचार्योपासना है।शौचम् शरीर? वस्त्र? बाह्य वातावरण तथा मन की भावनाओं? विचारों? उद्देश्यों तथा अन्य वृत्तियों की शुद्धि भी इस शब्द से अभिप्रेत है।स्थिरता जीवन के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय और एकनिष्ठ प्रयत्न।आत्मसंयम जगत् के साथ व्यवहार करते समय इन्द्रियों तथा मन पर संयम होना।
।।13.8।। व्याख्या --   अमानित्वम् -- अपनेमें मानीपनके अभावका नाम अमानित्व है। वर्ण? आश्रम? योग्यता? विद्या? गुण? पद आदिको लेकर अपनेमें श्रेष्ठताका भाव होता है कि मैं मान्य हूँ? आदरणीय हूँ? परन्तु यह भाव उत्पत्तिविनाशशील शरीरके साथ तादात्म्य होनेसे ही होता है। अतः इसमें जडताकी ही मुख्यता रहती है। इस मानीपनके रहनेसे साधकको वास्तविक ज्ञान नहीं होता। यह मानीपन साधकमें जितना कम रहेगा? उतना ही जडताका महत्त्व कम होगा। जडताका महत्त्व जितना कम होगा? जडताको लेकर अपनेमें मानीपनका भाव भी उतना ही कम होगा? और साधक उतना ही चिन्मयताकी तरफ तेजीसे लगेगा।उपाय -- जब साधक खुद बड़ा बन जाता है? तब उसमें मानीपन आ जाता है। अतः साधकको चाहिये कि जो श्रेष्ठ पुरुष हैं? साधनमें अपनेसे बड़े हैं? तत्त्वज्ञ (जीवन्मुक्त) हैं? उनका सङ्ग करे? उनके पासमें रहे? उनके अनुकूल बन जाय। इससे मानीपन दूर हो जाता है। इतना ही नहीं? उनके सङ्गसे बहुतसे दोष सुगमतापूर्वक दूर हो जाते हैं।गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं -- सबहि मानप्रद आपु अमानी (मानस 7। 38। 2) अर्थात् संत सभीको मान देनेवाले और स्वयं अमानी -- मान पानेकी इच्छासे रहित होते हैं। इसी तरह साधकको भी मानीपन दूर करनेके लिये सदा दूसरोंको मान? आदर? सत्कार? बड़ाई आदि देनेका स्वभाव बनाना चाहिये। ऐसा स्वभाव तभी बन सकता है? जब वह दूसरोंको किसीनकिसी दृष्टिसे अपनेसे श्रेष्ठ माने। यह नियम है कि प्रत्येक मनुष्य भिन्नभिन्न स्थितिवाला होते हुए भी कोईनकोई विशेषता रखता ही है। यह विशेषता वर्ण? आश्रम? गुण? विद्या? बुद्धि? योग्यता? पद? अधिकार आदि किसी भी कारणसे हो सकती है। अतः साधकको चाहिये कि वह दूसरोंकी विशेषताकी तरफ दृष्टि रखकर उनका सदा सम्मान करे। इस प्रकार दूसरोंको मान देनेका भीतरसे स्वभाव बन जानेसे स्वयं मान पानेकी इच्छाका स्वतः अभाव होता चला जाता है। हाँ? दूसरोंको मान देते समय साधकका उद्देश्य अपनेमें मानीपन मिटानेका होना चाहिये? बदलेमें दूसरोंसे मान पानेका नहीं।विशेष बात गीतामें भगवान्ने भक्तिमार्गके साधकमें सबसे पहले भयका अभाव बताया है -- अभयम् (16। 1)? और अन्तमें मानीपनका अभाव बताया है -- नातिमानिता (16। 3)। परन्तु ज्ञानमार्गके साधनमें मानीपनका अभाव सबसे पहले बताया है -- अमानित्वम् (13। 7) और भयका अभाव सबसे अन्तमें बताया है -- तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् (13। 11)। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे बालक अपनी माँको देखकर अभय हो जाता है? ऐसे ही भक्तिमार्गमें साधक प्रह्लादजीकी तरह आरम्भसे ही सब जगह अपने प्रभुको ही देखता है? इसलिये वह आरम्भमें ही अभय हो जाता है। भक्तमें स्वयं अमानी रहकर दूसरोंको मान देनेकी आदत शुरूसे ही रहती है। अन्तमें उसका देहाध्यास अर्थात् शरीरसे मानी हुई एकता अपनेआप मिट जाती है? तो वह सर्वथा अमानी हो जाता है। परन्तु ज्ञानमार्गमें साधक आरम्भसे ही शरीरके साथ अपनी एकता नहीं मानता (13। 1)? इसलिये वह आरम्भमें ही अमानी हो जाता है क्योंकि शरीरसे एकता माननेसे ही मानीपन आता है। अन्तमें वह तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सब जगह देखकर अभय हो जाता है।अदम्भित्वम् -- दम्भ नाम दिखावटीपनका है। लोग हमारेमें अच्छे गुण देखेंगे तो वे हमारा आदर करेंगे? हमें माला पहनायेंगे? हमारी पूजा करेंगे? हमें ऊँचे आसनपर बैठायेंगे आदिको लेकर अपनेमें वैसा गुण न होनेपर भी गुण दिखाना? अपनेमें गुण कम होनेपर भी उसे बाहरसे ज्यादा प्रकट करना -- यह सब दम्भ है।अपनेमें सदाचार है? शुद्धि है? पवित्रता है? पर अगर लोगोंके सामने हम पवित्रता रखेंगे तो वे हमारी हँसी उड़ायेंगे? हमारी निन्दा करेंगे -- ऐसा सोचकर अपनी पवित्रता छोड़ देना और सामनेवालेकी तरह बन जाना ही दम्भ है। जैसे? आजकल विवाह आदिके अवसरोंपर? क्लबोंहोटलोंके स्वागतसमारोहोंमें अथवा वायुयान आदिपर यात्रा करते समय पवित्र आचरणवाले सज्जन भी मानसत्कार आदिके लिये अपवित्र खाद्य पदार्थ लेते देखे जाते हैं। यह भी दम्भ ही है। इसी तरह दुराचारी पुरुष भी अच्छे लोगोंके समुदायमें आनेपर मान? सत्कार? कीर्ति? प्रतिष्ठा आदिकी प्राप्तिकी इच्छासे अपनेको बाहरसे धर्मात्मा? भक्त? सेवक? दानी आदि प्रकट करने लगते हैं? तो यह भी दम्भ ही है।कोई साधक एकान्तमें? बंद कमरेमें बैठकर जप? ध्यान? चिन्तन कर रहा है और साथमें आलस्य? नींद भी ले रहा है। परन्तु जब बाहरसे उसपर श्रद्धा? पूज्यभाव रखनेवाले आदमीकी आवाज आती है? तब उस आवाजको सुनते ही वह सावधान होकर जपध्यान करने लग जाता है और उसके नींदआलस्य भाग जाते हैं। यह भी एक सूक्ष्म दम्भ है। इसमें भी देखा जाय तो आवाज सुनकर सावधान हो जाना कोई दोष नहीं है? पर उसमें जो दिखावटीपनका भाव आ जाता है कि यह आदमी मेरेमें अश्रद्धा न कर ले? यह भाव आना दोष है। इस भावके स्थानपर ऐसा भाव आना चाहिये कि भगवान्ने बड़ा अच्छा किया कि मेरेको सावधान करके जपध्यानमें लगा दिया। इन सब प्रकारके दम्भोंका अभाव होना अदम्भित्व है।उपाय -- साधकको अपना उद्देश्य एकमात्र परमात्मप्राप्तिका ही रखना चाहिये? लोगोंको दिखानेका किञ्चिन्मात्र भी नही। अगर उसमें दिखावटीपन आ जायगा तो उसके साधनमें शिथिलता आ जायगी? जिससे उद्देश्यकी सिद्धिमें बाधा लग जायेगी। अतः उसको कोई अच्छा? बुरा? ऊँच? नीच जो कुछ भी समझे? इसकी तरफ खयाल न करके वह अपने साधनमें लगा रहे। ऐसी सावधानी रखनेसे दम्भ मिट जाता है।अहिंसा -- मन? वाणी और शरीरसे कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न देनेका नाम अहिंसा है। कर्ताभेदसे हिंसा तीन प्रकारकी होती है -- कृत (स्वयं हिंसा करना)? कारित (किसीसे हिंसा करवाना) और अनुमोदित (हिंसाका अनुमोदनसमर्थन करना)।उपर्युक्त तीन प्रकारकी हिंसा तीन भावोंसे होती है -- क्रोधसे? लोभसे और मोहसे। तात्पर्य है कि क्रोधसे भी कृत? कारित और अनुमोदित हिंसा होती है लोभसे भी कृत? कारित और अनुमोदित हिंसा होती है तथा मोहसे भी कृत? कारित और अनुमोदित हिंसा होती है। इसी तरह हिंसा नौ प्रकारकी हो जाती है।उपर्युक्त नौ प्रकारकी हिंसामें तीन मात्राएँ होती हैं -- मृदुमात्रा? मध्यमात्रा और अधिमात्रा। किसीको थोड़ा दुःख देना मृदुमात्रामें हिंसा है? मृदुमात्रासे अधिक दुःख देना मध्यमात्रामें हिंसा है और बहुत अधिक घायल कर देना अथवा खत्म कर देना अधिमात्रामें हिंसा है। इस तरह मृदु? मध्य और अधिमात्राके भेदसे हिंसा सत्ताईस प्रकारकी हो जाती है।उपर्युक्त सत्ताईस प्रकारकी हिंसा तीन करणोंसे होती है -- शरीरसे? वाणीसे और मनसे। इस तरह हिंसा इक्यासी प्रकारकी हो जाती है। इनमेंसे किसी भी प्रकारकी हिंसा न करनेका नाम अहिंसा है।अहिंसा भी चार प्रकार की होती है -- देशगत? कालगत? समयगत और व्यक्तिगत। अमुक तीर्थमें? अमुक मन्दिरमें? अमुक स्थानमें किसीको दुःख नहीं देना है -- यह देशगत अहिंसा है। अमावस्या? पूर्णिमा? व्यतिपात आदि पर्वोंके दिन किसीको दुःख नहीं देना है -- यह कालगत अहिंसा है। सन्तके मिलनेपर? पुत्रके जन्मदिनपर? पिताके निधनदिवसपर किसीको दुःख नहीं देना है -- यह समयगत अहिंसा है। गाय? हरिण आदिको तथा गुरुजन? मातापिता? बालक आदिको दुःख नहीं देना है -- यह व्यक्तिगत अहिंसा है।किसी भी देश? काल आदिमें क्रोधलोभमोहपूर्वक किसीको भी शरीर? वाणी और मनसे किसी भी प्रकारसे दुःख न देनेसे यह सार्वभौम अहिंसा महाव्रत कहलाती है।उपाय -- जैसे साधारण प्राणी अपने शरीरका सुख चाहता है? ऐसे ही साधकको सबके सुखमें अपना सुख? सबके हितमें अपना हित और सबकी सेवामें अपनी सेवा माननी चाहिये अर्थात् सबके सुख? हित और सेवासे अपना सुख? हित और सेवा अलग नहीं माननी चाहिये। सब अपने ही स्वरूप हैं -- ऐसा विवेक जाग्रत् रहनेसे उसके द्वारा किसीको दुःख देनेकी क्रिया होगी ही नहीं और उसमें अहिंसाभाव स्वतः आ जायगा।क्षान्तिः -- क्षान्ति नाम सहनशीलता अर्थात् क्षमाका है। अपनेमें सामर्थ्य होते हुए भी अपराध करनेवालेको कभी किसी प्रकारसे किञ्चिन्मात्र भी दण्ड न मिले -- ऐसा भाव रखना तथा उससे बदला लेने अथवा किसी दूसरेके द्वारा दण्ड दिलवानेका भाव न रखना ही क्षान्ति है।उपाय -- (1) सहनशीलता अपने स्वरूपमें स्वतःसिद्ध है क्योंकि अपने स्वरूपमें कभी विकृति होती ही नहीं। अतः कभी अमुकने दुःख दिया है? अपराध किया है -- ऐसी कोई वृत्ति आ भी जाय? तो उस समय यह,विचार स्वतः आना चाहिये कि हमारा कोई बिगाड़ कर ही नहीं सकता? हमारेमें कोई विकृति आ ही नहीं सकती? वह हमारे स्वरूपतक पहुँच ही नहीं सकती। ऐसा विचार करनेसे क्षमाभावः स्वतः आ जाता है।(2) जैसे भोजन करते समय अपने ही दाँतोंसे अपनी जीभ कट जाय? तो हम दाँतोंपर क्रोध नहीं करते? दाँतोंको दण्ड नहीं देते। हाँ? जीभ ठीक हो जाय -- यह बात तो मनमें आती है? पर दाँतोंको तोड़ दें -- यह भाव मनमें कभी आता ही नहीं। कारण कि दाँतोंको तोड़ेंगे तो एक नयी पीड़ा और होगी अर्थात् पीड़ा दुगुनी होगी? जिससे हमारेको ही दुःख होगा? हमारा ही अनिष्ट होगा। ऐसे ही बिना कारण कोई हमारा अपराध करता है? हमें दुःख देता है? उसको अगर हम दण्ड देंगे? दुःख देंगे तो वास्तवमें हमारा ही अनिष्ट होगा क्योंकि वह भी तो अपना ही स्वरूप है (गीता 6। 29)।आर्जवम् -- सरलसीधेपनके भावको आर्जव कहते हैं। साधकके शरीर? मन और वाणीमें सरलसीधापन होना चाहिये। शरीरकी सजावटका भाव न होना? रहनसहनमें सादगी तथा चालढालमें स्वाभाविक सीधापन होना? ऐंठअकड़ न होना -- यह शरीरकी सरलता है। छल? कपट? ईर्ष्या? द्वेष आदिका न होना तथा निष्कपटता? सौम्यता? हितैषिता? दया आदिका होना -- यह मनकी सरलता है। व्यंग्य? निन्दा? चुगली आदि न करना? चुभनेवाले एवं अपमानजनक वचन न बोलना तथा सरल? प्रिय और हितकारक वचन बोलना -- यह वाणीकी सरलता है।उपाय -- अपनेको एक देशमें माननेसे अर्थात् स्थूल? सूक्ष्म और कारणशरीरके साथ सम्बन्ध रखनेसे अपनेमें दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता दीखती है। इससे व्यवहारमें भी चलतेफिरते? उठतेबैठते? आदि क्रिया करते हुए कुछ टेढ़ापन? अकड़ आ जाती है। अतः शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे और अपने स्वरूपकी तरफ दृष्टि रखनेसे यह अकड़ मिट जाती है और साधकमें स्वतः सरलता? नम्रता आ जाती है।आचार्योपासनम् -- विद्या और सदुपदेश देनेवाले गुरुका नाम भी आचार्य है और उनकी सेवासे भी लाभ होता है परन्तु यहाँ आचार्य पद परमात्मतत्त्वको प्राप्त जीवन्मुक्त महापुरुषका ही वाचक है। आचार्यको दण्डवत्प्रणाम करना? उनका आदरसत्कार करना और उनके शरीरको सुख पहुँचानेकी शास्त्रविहित चेष्टा करना भी उनकी उपासना है? पर वास्तवमें उनके सिद्धान्तों और भावोंके अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी सच्ची उपासना है। कारण कि देहाभिमानीकी सेवा तो उसके देहकी सेवा करनेसे ही हो जाती है? पर गुणातीत महापुरुषके केवल देहकी सेवा करना उनकी पूर्ण सेवा नहीं है।भगवान्ने दैवी सम्पत्तिके लक्षणोंमें आचार्योपासनम् पद न देकर यहाँ ज्ञानके साधनोंमें उसे दिया है। इसमें एक विशेष रहस्यकी बात मालूम देती है कि ज्ञानमार्गमें गुरुकी जितनी आवश्यकता है? उतनी आवश्यकता भक्तिमार्गमें नहीं है। कारण कि भक्तिमार्गमें साधक सर्वथा भगवान्के आश्रित रहकर ही साधन करता है? इसलिये भगवान् स्वयं उसपर कृपा करके उसके योगक्षेमका वहन करते हैं (गीता 9। 22)? उसकी कमियोंको? विघ्नबाधाओंको दूर कर देते हैं (गीता 18। 58) और उसको तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति करा देते हैं (गीता 10। 11)। परन्तु ज्ञानमार्गमें साधक अपनी साधनाके बलपर चलता है? इसलिये उसमें कुछ सूक्ष्म कमियाँ रह सकती हैं जैसे -- (1) शास्त्रों एवं संतोंके द्वारा ज्ञान प्राप्त करके जब साधक शरीरको (अपनी धारणासे) अपनेसे अलग मानता है? तब उसे शान्ति मिलती है। ऐसी दशामें वह यह मान लेता है कि मेरेको तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया परन्तु जब मानअपमानकी स्थिति सामने आती है अथवा अपनी इच्छाके अनुकूल या प्रतिकूल घटना घटती है? तब अन्तःकरणमें हर्षशोक पैदा हो जाते हैं? जिससे सिद्ध होता है कि अभी तत्त्वज्ञान हुआ नहीं।(2) किसी आदमीके द्वारा अचानक अपना नाम सुनायी पड़नेपर अन्तःकरणमें इस नामवाला शरीर मैं हूँ, -- ऐसा भाव उत्पन्न हो जाता है? तो समझना चाहिये कि अभी मेरी शरीरमें ही स्थिति है।(3) साधनाकी ऊँची स्थिति प्राप्त होनेपर जाग्रत्अवस्थामें तो साधकको जडचेतनका विवेक अच्छी तरह रहता है? पर निद्रावस्थामें उसकी विस्मृति हो जाती है। इसलिये नींदसे जगनेपर साधक उस विवेकको पकड़ता है? जब कि सिद्ध महापुरुषका विवेक स्वाभाविक रूपसे रहता है।(4) साधकमें पूज्यजनोंसे भी मानआदर पानेकी इच्छा हो जाती है जैसे -- जब वह संतों या गुरुजनोंकी सेवा करता है? सत्सङ्ग आदिमें मुख्यतासे भाग लेता है? तब उसके भीतर ऐसा भाव पैदा होता है कि वे संत या गुरुजन मेरेको दूसरोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ मानें। यह उसकी सूक्ष्म कमी ही है।इस प्रकार साधकमें कई कमियोंके रहनेकी सम्भावना रहती है? जिनकी तरफ खयाल न रहनेसे वह अपने अधूरे ज्ञानको भी पूर्ण मान सकता है। इसलिये भगवान् आचार्योपासनम् पदसे यह कह रहे हैं कि ज्ञानमार्गके साधकको आचार्यके पास रहकर उनकी अधीनतामें ही साधन करना चाहिये। चौथे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भी भगवान्ने अर्जुनसे कहा है कि तू तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषोंके पास जा? उनको दण्डवत्प्रणाम कर? उनकी सेवा कर और अपनी जिज्ञासापूर्तिके लिये नम्रतापूर्वक प्रश्न कर तो वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महात्मा तेरेको ज्ञानका उपदेश देंगे। इस प्रकार साधन करनेपर वे महापुरुष उसकी उन सूक्ष्म कमियोंको? जिनको वह खुद भी नहीं जानता? दूर करके उसको सुगमतासे परमात्मतत्त्वका अनुभव करा सकते हैं।साधकको शुरूमें ही सोचसमझकर आचार्य? संतमहापुरुषके पास जाना चाहिये। आचार्य (गुरु) कैसा हो इस सम्बन्धमें ये बातें ध्यानमें रखनी चाहिये -- (1) अपनी दृष्टिमें जो वास्तविक बोधवान्? तत्त्वज्ञ दीखते हों।(2) जो कर्मयोग? ज्ञानयोग? भक्तियोग आदि साधनोंको ठीकठीक जाननेवाले हों।(3) जिनके सङ्गसे? वचनोंसे हमारे हृदयमें रहनेवाली शङ्काएँ बिना पूछे ही स्वतः दूर हो जाती हों।(4) जिनके पासमें रहनेसे प्रसन्नता? शान्तिका अनुभव होता हो।(5) जो हमारे साथ केवल हमारे हितके लिये ही सम्बन्ध रखते हुए दीखते हों।(6) जो हमारेसे किसी भी वस्तुकी किञ्चिन्मात्र भी आशा न रखते हों।(7) जिनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ केवल साधकोंके हितके लिये ही होती हों।(8) जिनके पासमें रहनेसे लक्ष्यकी तरफ हमारी लगन स्वतः बढ़ती हो।(9) जिनके सङ्ग? दर्शन? भाषण? स्मरण आदिसे हमारे दुर्गुणदुराचार दूर होकर स्वतः सद्गुणसदाचाररूप दैवी सम्पत्ति आती हो।(10) जिनके सिवाय और किसीमें वैसी अलौकिकता? विलक्षणता न दीखती हो।ऐसे आचार्य? संतके पास रहना चाहिये और केवल अपने उद्धारके लिये ही उनसे सम्बन्ध रखना चाहिये। वे क्या करते हैं? क्या नहीं करते वे ऐसी क्रिया नहीं करते हैं वे कब किसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं आदिमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिये अर्थात् उनकी क्रियाओंमें तर्क नहीं लगाना चाहिये। साधकको तो उनके अधीन होकर रहना चाहिये? उनकी आज्ञा? रुखके अनुसार मात्र क्रियाएँ करनी चाहिये और श्रद्धाभावपूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिये। अगर वे महापुरुष न चाहते हों तो उनसे गुरुशिष्यका व्यावहारिक सम्बन्ध भी जोड़नेकी आवश्यकता नहीं है। हाँ? उनको हृदयसे गुरु मानकर उनपर श्रद्धा रखनेमें कोई आपत्ति नहीं है।अगर ऐसे महापुरुष न मिलें तो साधकको चाहिये कि वह केवल परमात्माके परायण होकर उनके ध्यान? चिन्तन आदिमें लग जाय और विश्वास रखे कि परमात्मा अवश्य गुरुकी प्राप्ति करा देंगे। वास्तवमें देखा जाय तो पूर्णतया परमात्मापर निर्भर हो जानेके बाद गुरुका काम परमात्मा ही पूर्ण कर देते हैं क्योंकि गुरुके द्वारा भी वस्तुतः परमात्मा ही साधकका मार्गदर्शन करते हैं।उपाय -- जिस साधकका परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य है? उसमें यह भाव रहना चाहिये कि आजतक जिसकिसीको जो कुछ भी मिला है? वह गुरुकी? सन्तोंकी सेवासे उनकी प्रसन्नतासे? उनके अनुकूल बननेसे ही मिला है (टिप्पणी प0 679) अतः मेरेको भी सच्चे हृदयसे सन्तोंकी सेवा करनी है।विशेष बात शिष्यका कर्तव्य है -- गुरुकी सेवा करना। अगर शिष्य अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करे तो उसका संसारसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और वह गुरुतत्त्वके साथ एक हो जाता है अर्थात् उसमें गुरुत्व आ जाता है। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होनेपर मुक्ति और गुरुतत्त्वसे एक होनेपर भक्ति प्राप्त होती है। शिष्यमें गुरुत्व आनेसे उसमें शिष्यत्व नहीं रहता। उसपर शास्त्र आदिका शासन नहीं रहता। अगर शिष्य अपने कर्तव्यका पालन न करे तो उसका नाम तो शिष्य रहेगा? पर उसमें शिष्यत्व नहीं रहेगा। शिष्यत्व न रहनेसे उसका संसारसे सम्बन्धविच्छेद नहीं होगा और उसमें गुरुत्व भी नहीं आयेगा। अतः उसमें संसारकी दासता रहेगी।गुरु केवल मेरा ही कल्याण करे -- ऐसा भाव रखना भी शिष्यके लिये बन्धन है। शिष्यको चाहिये कि वह अपने लिये कुछ भी न चाहकर सर्वथा गुरुके समर्पित हो जाय? उनकी मरजीमें ही अपनी मरजी मिला दे।गुरुका कर्तव्य है -- शिष्यका कल्याण करना। अगर गुरु अपने कर्तव्यका पालन न करे तो उसका नाम तो गुरु रहेगा? पर उसमें गुरुत्व नहीं रहेगा। गुरुत्व न रहनेसे उसमें शिष्यका दासत्व रहेगा। जबतक गुरु शिष्यसे कुछ भी (धन? मान? बड़ाई आदि) चाहता है? तबतक उसमें गुरुत्व न रहकर शिष्यकी दासता रहती है।शौचम् -- बाहरभीतरकी शुद्धिका नाम शौच है। जल? मिट्टी आदिसे शरीरकी शुद्धि होती है और दया? क्षमा? उदारता आदिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है।उपाय -- शरीर बना ही ऐसे पदार्थोंसे है कि इसको चाहे जितना शुद्ध करते रहें? यह अशुद्ध ही रहता है। इससे बारबार अशुद्धि ही निकलती रहती है। अतः इसको बारबार शुद्ध करतेकरते इसकी वास्तविक अशुद्धिका ज्ञान होता है? जिससे शरीरसे अरुचि (उपरामता) हो जाती है।वर्ण? आश्रम आदिके अनुसार सच्चाईके साथ धनका उपार्जन करना झूठ? कपट आदि न करना पराया हक न आने देना खानपानमें पवित्र चीजें काममें लाना आदिसे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है।स्थैर्यम् -- स्थैर्य नाम स्थिरताका? विचलित न होनेका है। जो विचार कर लिया है? जिसको लक्ष्य बना लिया है? उससे विचलित न होना स्थैर्य है। मेरेको तत्त्वज्ञान प्राप्त करना ही है -- ऐसा दृढ़ निश्चय करना और विघ्नबाधाओंके आनेपर भी उनसे विचलित न होकर अपने निश्चयके अनुसार साधनमें तत्परतापूर्वक लगे रहना -- इसीको यहाँ स्थैर्यम् पदसे कहा गया है।उपाय -- (1) सांसारिक भोग और संग्रहमें आसक्त पुरुषोंकी बुद्धि एक निश्चयपर दृढ़ नहीं रहती (गीता 2। 44)। अतः साधकको भोग और संग्रहकी आसक्तिका त्याग कर देना चाहिये।(2) साधक अगर किसी छोटेसेछोटे कार्यका भी विचार कर ले? तो उस विचारकी हिंसा न करे अर्थात् उसपर दृढ़तासे स्थिर रहे। ऐसा करनेसे उसका स्थिर रहनेका स्वभाव बन जायगा।(3) साधकका संतों और शास्त्रोंके वचनोंपर जितना अधिक विश्वास होगा? उतनी ही उसमें स्थिरता आयेगी।आत्मविनिग्रहः -- यहाँ आत्मा नाम मनका है? और उसको वशमें करना ही आत्मविनिग्रहः है। मनमें दो तरहकी चीजें पैदा होती हैं -- स्फुरणा और संकल्प। स्फुरणा अनेक प्रकारकी होती है और वह आतीजाती रहती हैं। पर जिस स्फुरणामें मन चिपक जाता है? जिसको मन पकड़ लेता है? वह संकल्प बन जाती है। संकल्पमें दो चीजें रहती हैं -- राग और द्वेष। इन दोनोंको लेकर मनमें चिन्तन होता है। स्फुरणा तो दर्पणके दृश्यकी तरह होती है। दर्पणमें दृश्य दीखता तो है? पर कोई भी दृश्य चिपकता नहीं अर्थात् दर्पण किसी भी दृश्यको पकड़ता नहीं। परन्तु संकल्प कैमरेकी फिल्मकी तरह होता है? जो दृश्यको पकड़ लेता है। अभ्याससे अर्थात् मनको बारबार ध्येयमें लगानेसे स्फुरणाएँ नष्ट हो जाती हैं और वैराग्यसे अर्थात् किसी वस्तु? व्यक्ति? पदार्थ आदिमें राग? महत्त्व न रहनेसे संकल्प नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार अभ्यास और वैराग्यसे मन वशमें हो जाता है (गीता 6। 35)।उपाय -- (मनको वशमें करनेके उपाय छठे अध्यायके छब्बीसवें श्लोककी व्याख्यामें देखने चाहिये)।
।।13.8 -- 13.12।।एवं क्षेत्रं व्याख्यातम्? क्षेत्रज्ञश्च। इदानीं ज्ञानमुच्यते -- अमानित्वमित्यादि अन्यथा इत्यन्तम्। अनन्ययोगेनेति -- परमात्मनो महेश्वारत् अन्यत् अपरं न किंचिदस्ति इत्यनन्यरूपो यो निश्चयः? स एव योगः तेन निश्चयेन मयि भक्तिः। अत एव सा न कदाचित् व्यभिचरति? व्यभिचारहेतुत्वाभिमतानां (S??N -- त्वाभिगतानाम्) कामनानामभावात्? तासामपि वा चित्तवृत्त्यन्तररूपाणां तदेकमयत्त्वात्। एवं सर्वत्रानुसन्धेयम्। एतद्विपरीतम् अज्ञानम् यथा मानित्वादीनि।
।।13.8।।इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् आत्मव्यतिरिक्तेषु विषयेषु सदोषतानुसंधानेन उद्वेजनम्। अनहंकारः अनात्मनि देहे आत्माभिमानरहितत्वम्? प्रदर्शनार्थम् इदम्? अनात्मीयेषु आत्मीयाभिमानरहित्वं च अपिविवक्षितम्। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् -- सशरीरत्वे जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखस्वरूपस्य दोषस्य अवर्जनीयत्वानुसंधानम्।
।।13.8।।न केवलममानित्वादीन्येव ज्ञानस्यान्तरङ्गसाधनानि किंतु वैराग्यादीन्यपि तथाविधानि सन्तीत्याह -- किञ्चेति। दृष्टादृष्टेष्वनेकार्थेषु रागे तत्प्रतिबद्धं ज्ञानं नोत्पद्येतेति मत्वा व्याकरोति -- इन्द्रियेति। आविर्भूतो गर्वोऽहंकारस्तदभावोऽपि ज्ञानहेतुरित्याह -- अनहंकार इति। इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमुक्तमुपपादयति -- जन्मेति। प्रत्येकं दोषानुदर्शनमित्युक्तं तत्र जन्मनि दोषानुदर्शनं विशदयति -- जन्मनीति। यथा जन्मनि दोषानुसंधानं तथा मृत्यौ दोषस्य सर्वमर्मनिकृन्तनादेरालोचनं कार्यमित्याह -- तथेति। जन्मनि मृत्यौ च दोषानुसंधानवज्जरादिष्वपि दोषानुसंधानं कर्तव्यमित्याह -- तथेति। व्याधिषु दोषस्यासह्यतारूपस्यानुसंधानं? दुःखेषु त्रिविधेष्वपि दोषानुसंधानं प्रसिद्धम्। व्याख्यानान्तरमाह -- अथवेति। यथा जन्मादिषु दुःखान्तेषु दोषदर्शनमुक्तं तथा तेष्वेव दुःखाख्यदोषस्य दर्शनं स्फुटयति -- दुःखमित्यादिना। कथं जन्मादीनां बाह्येन्द्रियग्राह्याणां दुःखत्वं तत्राह -- दुःखेति। जन्मादिषु दोषानुदर्शनकृतं फलमाह -- एवमिति। वैराग्ये सत्यात्मदृष्ट्यर्थं करणानां तदाभिमुख्येन प्रवृत्तिरिति वैराग्यफलमाह -- तत इति। जन्मादिदुःखदोषानुदर्शनं ज्ञानहेतुषु किमित्युपसंख्यातमित्याशङ्क्य वैराग्यद्वारा धीहेतुत्वादित्याह -- एवमिति।
।।13.8।।अथ तस्मिन् क्षेत्रे स्वात्मज्ञानगुणानाह -- अमानित्वमिति सार्धैश्चतुर्भिः। एतेऽमानित्वादयो ज्ञानगुणा उक्ताः।
।।13.8।।एवं क्षेत्रं प्रतिपाद्य तत्साक्षिणं क्षेत्रज्ञं क्षेत्राद्विवेकेन विस्तरांत्प्रतिपादयितुं तज्ज्ञानयोग्यत्वायामानित्वादिसाधनान्याह ज्ञेयं यत्तदित्यतः प्राक्तनैः पञ्चभिः -- अमानित्वमित्यादिना। विद्यमानैरविद्यमानैर्वा गुणैरात्मनः श्लाघनं मानित्वम्। लाभपूजाख्यात्यर्थं स्वधर्मप्रकटीकरणं दम्भित्वम्। कायवङ्मनोभिः प्राणिनां पीडनं हिंसा। तेषां वर्जनममानित्वमदम्भित्वमहिंसेत्युक्तम्। परापराधे चित्तविकारहेतौ,प्राप्तेऽपि निर्विकारचित्ततया तदपराधसहनं क्षान्तिः। आर्जवमकौटिल्यं यथाहृदयं व्यवहरणम् परप्रतारणाराहित्यमिति यावत्। आचार्यो मोक्षसाधनस्योपदेष्टाऽत्र विवक्षितो नतु मनूक्त उपनीयाध्यापकः। तस्य शुश्रूषानमस्कारादिप्रयोगेण सेवनमाचार्योपासनम्। शौचं बाह्यकायमलानां मृज्जलाभ्यां क्षालनमाभ्यन्तरं च मनोमलानां रागादीनां विषयदोषदर्शनरूपप्रतिपक्षभावनयाऽपनयनम्। स्थैर्यं मोक्षसाधने प्रवृत्तस्यानेकविधविघ्नप्राप्तावपि तदपरित्यागेन पुनःपुनर्यत्नाधिक्यम्। आत्मविनिग्रहः आत्मनो देहेन्द्रियसंघातस्य स्वभावप्राप्तां मोक्षप्रतिकूले प्रवृत्तिं निरुध्य मोक्षसाधन एव व्यवस्थापनम्।
।।13.8।।इदानीमुक्तलक्षणात्क्षेत्राद्विविक्ततया ज्ञेयं शुद्धं क्षेत्रज्ञं विस्तरेण वर्णयिष्यंस्तज्ज्ञानसाधनान्याह -- अमानित्वमिति पञ्चभिः। अमानित्वं स्वगुणश्लाघाराहित्यम्? अदम्भित्वं दम्भराहित्यम्? अहिंसा परपीडावर्जनम्? क्षान्तिः सहिष्णुत्वम्?,आर्जवमवक्रता? आचार्योपासनं सद्गुरुसेवा? शौचं बाह्यमाभ्यन्तरं च? तत्र बाह्यं मृज्जलादिना? आभ्यन्तरं च रागादिमलक्षालनम्। तथाच स्मृतिःशौचं तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरं? इति। स्थैर्यं सन्मार्गे प्रवृत्तस्य तदेकनिष्ठता? आत्मविनिग्रहः शरीरसंयमः? एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमिति पञ्चमेनान्वयः।
।।13.8।।पूर्वं क्षेत्रज्ञादपि पश्चाज्ज्ञानोद्देशेऽपि तत्साधनानामनुष्ठेयानामिच्छादिवत्क्षेत्रकार्यत्वात्तदनन्तरमिह तदुक्तिरित्यभिप्रायेणाह -- अथ क्षेत्रकार्येष्विति। विद्याभिजनधनादिसम्पत्तिमूल उत्कृष्टजनावमानहेतुर्गर्वोऽत्र मानः? तद्वान्मानी? तदन्योऽमानी तस्य भावस्तत्त्वम्? मानित्वस्यास्वभावो वाऽत्रामानित्वम् एवमदम्भित्वमपि तदाह -- तद्रहितत्वमिति।धर्मध्वजः इति स्मृत्युनुसारेणाह -- धार्मिकत्वयशःप्रयोजनतयेति। न पुनश्चोदितकर्तव्यताबुद्ध्येति भावः। अनर्थैकफलपीडारूपो व्यापारो हिंसा स च वाङ्मनःकार्यैस्त्रिभिरपि शापादिद्वारा सम्भवतीति सम्भावितसमस्तप्रकारनिषेधस्य वचनात्सिद्धस्य असङ्कोचेन विवक्षितत्वात्वाङ्मनःकायैरित्युक्तम्।परपीडेति प्रायिकत्वाभिप्रायम्? अशास्त्रीयस्वपीडाया अपि हिंसात्वात्।मनस्यन्यद्वचस्यन्यत् इत्येवंरूपं हि कौटिल्यं? तन्निवृत्तिरार्जवमित्यभिप्रायेणाहपरान्प्रति वाङ्मनःकायप्रवृत्तीनामेकरूपतेति। उपकारबुद्ध्या आचार्योपासनस्य स्वरसवाहित्वज्ञापनायाह -- आत्मज्ञानप्रदायिनीति। यद्वा आत्मज्ञानापेक्षितत्वज्ञापनाय तदुक्तिः।तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया [4।34] इति प्राक्प्रपञ्चितमिहोपासनशब्देन सङ्गृहीतमिति ज्ञापनाय प्रणिपाताद्युपादानम्। अशुचित्वं ह्युत्तरकर्माद्ययोग्यत्वरूपम् शुचित्वं च तद्योग्यत्वम् तच्चात्र प्रकरणविशेषितविषयमित्याहआत्मज्ञानेति। रागादयोऽनृतादयो निषिद्धभक्षणादयश्च मनोवाक्कायानामशुद्धयः। प्रत्यक्षाद्यगोचरत्वप्रामाणिकत्वप्रतिपादनाय तत्तद्विशेषावगमाय चशास्त्रसिद्धेत्युक्तम्। स्थैर्यं निश्चलत्वम् तच्च प्रकृते नियच्छति -- अध्यात्मेति। निश्चलत्वं बाह्यकुदृष्टिभिरक्षोभणीयत्वं? निस्सन्देहत्वमित्यर्थः। निग्राह्यत्वसामर्थ्यादत्रात्मशब्दो मनोविषयः। अत एव परोक्तं (शं.) सङ्घातपरत्वमयुक्तम्। स्वभावेन सर्वतः प्रवृत्तस्य निग्रहश्चापथान्निवर्तनं? तदाहआत्मस्वरूपेति।
।।13.8।।एवं क्षेत्रस्वरूपमुक्त्वा ससाधनं ज्ञानस्वरूपमाह पञ्चभिः -- अमानित्वमिति। अमानित्वं स्वगुणोत्कर्षवर्णनप्रबोधराहित्यम्। अदम्भित्वं लोकदर्शनार्थधर्माद्यनुष्ठानाभावत्वम्। अहिंसा परपीडाराहित्यम्। क्षान्तिः दुष्टाद्यतिक्रमसहनम्। आर्जवमकौटिल्यम्। आचार्योपासनं गुरुसेवनम्। शौचं बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधम् बाह्यं मृत्तिकाजलादिना? आभ्यन्तरं भगवत्स्मरणात्मकम्। स्थैर्यं क्लेशादिष्वपि भगवत्परतया स्थितिः। आत्मविनिग्रहः क्षुधाशीतादिसहनेन शरीरसंयमः।
।।13.8।।इदानीं ज्ञानसाधनानि विधत्ते -- अमानित्वमिति। अमानित्वादयोऽपि चेतोवृत्तिविशेषा दृश्यत्वाच्च तत्क्षेत्रविकारा एव सन्तः सत्त्वगुणकार्यत्वात् ज्ञानस्य साधनभूता अप्युपचाराज्ज्ञानपदवाच्या भवन्ति।एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तम् इत्युपसंहारात्। तत्र विद्यमानैरविद्यमानैर्वा गुणैरात्मनः श्लाघित्वं मानित्वम्। लाभपूजाख्यात्यर्थं स्वधर्मस्य प्रकटीकरणं दम्भित्वम्। कायवाङ्मनोभिः प्राणिनां पीडनं हिंसा। तेषां वर्जनममानित्वमदम्भित्वमहिंसा च। परेणापकृतेऽपि चित्तस्य निर्विकारत्वं क्षान्तिः। आर्जवमकौटिल्यम्। आचार्योपासनं स्पष्टम्। शौचं मृज्जलाभ्यां बाह्यं भावशुद्धिरान्तरम्। स्थैर्यं मोक्षसाधने प्रवृत्तस्य विघ्नसद्भावेऽपि तदगणनम्। आत्मविनिग्रहो देहेन्द्रियादिप्रचारसंकोचः।
।।13.8।।सप्रभावं क्षेत्रज्ञं यत्तदित्यादिना निरुपयितुं यस्मिन्त्सत्यममृतत्वसाधनक्षेत्रज्ञज्ञानायोग्योऽधिकृतो भवति तं तत्त्ज्ञानसाधनगणं आयुर्वै घृतमितिवज्ज्ञानममानित्वादिलक्षणं विदधाति -- अमानित्वमित्यादिना। विद्यमानाविद्यमानुणैरात्मनः श्लाघनं मानित्वं तद्वर्जितत्त्वममानित्वं? पूजालाभाद्यर्थ स्वधर्मानुष्ठानप्रकटीकरणं दम्भित्वं तस्याभावोऽदम्भित्वं? कायादिभिः प्राणिनामपीडनं अहिंसा? परापराधप्राप्तौ चित्तस्याविकृतता क्षान्तिः? आर्जवं ऋजुभावोऽवक्रत्वं? आचार्यस्य मोक्षासाधनोपदेष्टुः कायादिना शुश्रूषादिप्रयोगेण सेवनमाचार्योपासनं? शौचं कायमलानां मृज्जलाभ्यां प्रक्षालनं? अन्तश्च रागादिमलानां मोक्षप्रतिपक्षभावनयापनयः शौचम्। तथाच स्मृतिःशौचं हि द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा। मृज्जालाभ्यां स्मृतं बाह्यं भावशुद्धिस्तथान्तरं इति। मोक्षामार्गे प्रवृत्तस्यानेकान्तरायप्राप्तावपि तन्निवृत्त्यर्थं प्रयत्नपुरःसरं तत्रैव कृतव्यवसायित्वं स्थैर्यम्? आत्मोपकारत्वादात्मनो हेहेन्द्रियादिसंघातस्य स्वभावेन सर्वतः प्रवृत्तस्य सर्वस्मान्मोक्षप्रतिकूलमार्गात्प्रतिरुध्य सन्मार्गे स्थापनमात्मविनिग्रहः। अमानित्वादीनामेतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमित्यनेन संबन्धः।
13.8 अमानित्वम् humility? अदम्भित्वम् unpretentiousness? अहिंसा noninjury? क्षान्तिः forgiveness? आर्जवम् uprightness? आचार्योपासनम् service of the teacher? शौचम् purity? स्थैर्यम् steadiness? आत्मविनिग्रहः selfcontrol.Commentary These are the alities that constitute wisdom or lead to wisdom. These are the attributes of the man whose mind is turned towards the inner wisdom. If these characteristics are seen in a man in their entirety? you can infer that the knowledge of the Self has dawned in him.Humility It is the negation of vanity. It is absence of selfesteem or selfpraise. The basis of pride is the consciousness of possessing something (wealth? knowledge? strength? beauty and virtuous alities) in a larger measure than others. A proud man possesses at least something but a man of vanity possesses nothing and yet he thinks he is superior to others. Vanity is exaggerated pride. A humble man dislikes respect? honour and praise. He shuns fame and distinction. He never shows his knowledge? ability? prowess? etc. He never praises himself.Absence of hypocrisy Hypocrisy is the desire to appear what one is not. A Sannyasi has some virtues and a little theoretical knowledge derived from books. He pretends to be a liberated sage. This is religious hypocrisy. A man in whom this is absent is simple and modest. He never advertises his own virtuous alities in order to get respect? name and worship from others. He will never disclose any meritorious or charitable act done by him. He is free from pedantry. He will never sell his knowledge in order to achieve fame.Ahimsa Noninjuring of any living being in thought? word and deed. He who practises Ahimsa places his feet very carefully on the ground and avoids stepping on any living creature. If he perceives any living creature in front of him he stops and turns to the other side. His heart is full of compassion.Kshanti Forbearance? patience? forgiveness. This is a true symptom of knowledge. The man of wisdom puts up with everything. He is not affected a bit when others injure him. He never retaliates. He bears insult and injury calmly.Arjavam Straightforwardness. The man of wisdom is upright or straightforward. He is free from cunningness or diplomacy? doubledealing or crookedness. He is ite frank? candid or openhearted. He does not hide anything. His thoughts and words agree. He speaks his mind openly to the people. He is as simple as a child in his speech. He has a heart as pure as a crystal. He never cheats others.Service of the teacher Devotion to the preceptor? worship of the Guru doing acts of service to him who teaches BrahmaVidya or the means of attaining liberation. Acharya is the Master in whom the divine wisdom is embodied. Service of the Guru enables the aspirant to attain Selfrealisation. The aspirant adores his Guru as Brahman? God Himself. He worships him as Lord Vishnu. He superimposes on him all the attributes of Brahman or Lord Vishnu. He realises Brahman in and through his Guru. This is the fruit of devotion to the Guru. For a student of Vedanta devotion to the Guru is absolutely necessary. Even for a correct understanding of the scriptures the guidance of a Guru is necessary.Purity is of two kinds? external and internal purity. External purity is cleansing of the physical body with earth and water. Internal purity is cleansing of the mind of the dirt of attachment? hatred and other passions? by the method of Pratipaksha Bhavana? i.e.? by cultivating the opposite positive virtues? and by the recognition of the evil in all objects of the senses.Steadfastness The aspirant never leaves his efforts on the path of salvation even though he comes across many stumbling blocks on the path. This is steadfastness or firmness. No meditation on Brahman is possible with a fickle mind.Selfcontrol is control of the aggregate of the body and the senses. The senses and the body which naturally run externally towards the sensual objects are checked and directed on to the path of salvation. No meditation is possible in a body wherein the senses are out of control and distract attention.
13.8 Humility, unpretentiousness, non-injury, forgiveness, uprightness, service of the teacher, purity, steadfastness, self-control.
13.8 Humility, sincerity, harmlessness, forgiveness, rectitude, service of the Master, purity, steadfastness, self-control;
13.8 Humility, unpretentiousness, non-injury, for-bearance, sincerity, service of the teacher, cleanliness, steadiness, control of body and organs;
13.8 Amanitvam, humility-the ality of a vain person is manitvam, boasting about oneself; the absence of that is amanitvam. Adambhitvam, unpretentiousness- proclaming one's own virtues is dambhitvam; the absence of that is adambhitvam. Ahimsa, non-injury, absence of cruely towards creatures; ksantih, for-bearance, remaining undisturbed when offened by others; arjavam, sincerity, uprightness, absence of crookedness; acarya-upasanam, service of the teacher, attending on the teacher who instructs in the disciplines for Liberation, through acts of service etc.; saucam, cleanliness-washing away the dirt from the body with earth and water, and internally, removing the 'dirt' of the mind such as attachment etc. by thinking of their opposites; sthairyam, steadiness, perseverance in the path to Liberation alone; atma-vinigrahah, control of the aggregate of body and organs which is referred to by the word 'self', but which is inimical to the Self; restricting only to the right path that (aggregate) which naturally strays away in all directions. Further,
13.8. Absence of pride; absence of hypocricy; harm-lessness; patience; uprightness; service to the preceptor; purity [of mind and body]; steadfastness; self-control;
13.8 See Comment under 13.12
13.8 'Amanitva' means freedom from superiority complex towards eminent people. 'Adambhitva': 'Dambha' is the practice of Dharma for winning fame as a virtuous person; freedom from it is Adambhitva. 'Ahima' is absence of tendency to injure others by speech, mind and body. 'Ksanti' is the tendency of keeping the mind unmodified even when harmed by others. 'Arjava' means having a uniform disposition towards others in speech, mind and body. 'Acaryopasana' means being intent in prostrating, estioning, performing service etc., in regard to the teacher who imparts the knowledge of the self. 'Sauca' is the competence of the mind, speech and body, as enjoined by the Sastras, for the knowledge of the self and the means of this attainment. 'Sthairya' is possessing unshakable faith in the Sastras concerning the self. 'Atma-vinigraha' means the turning away from all objects that are different in nature from the self.
13.8 Modesty, absence of ostentation, non-injury, patience, sincerity, service of the preceptor, purity, firmness and self-restraint;
।।13.8।।यहाँ पहले उस ( क्षेत्रज्ञ ) के जाननेका उपायरूप जो अमानित्व आदि साधनसमुदाय है? जिसके होनेसे उस ज्ञेयको जाननेके लिये मनुष्य योग्य अधिकारी बन जाता है? जिसके परायण हुआ संन्यासी ज्ञाननिष्ठ कहा जाता है और जो ज्ञानका साधन होनेके कारण ज्ञान नामसे पुकारा जाता है? उस अमानित्वादि गुणसमुदायका भगवान् विधान करते हैं --, अमानित्व -- मानीका भाव अर्थात् अपना बड़प्पन प्रकट करना जो मानित्व है? उसका अभाव अमानित्व कहलाता है। अदम्भित्व -- अपने धर्मको प्रकट करना दम्भित्व है उसका अभाव अदम्भित्व कहा जाता है। अहिंसा -- हिंसा न करना अर्थात् प्राणियोंको कष्ट न देना। क्षमा -- दूसरोंका अपने प्रति अपराध देखकर भी विकाररहित रहना। आर्जव -- सरलता? अकुटिलता। आचार्यकी उपासना -- मोक्षसाधनका उपदेश करनेवाले गुरुका शुश्रूषा आदि प्रयोगोंसे सेवन करना। शौच -- शारीरिक मलोंको मिट्टी और जल आदिसे साफ करना और अन्तःकरणके रागद्वेष आदि मलोंको प्रतिपक्षभावनासे दूर करना। स्थिरता -- स्थिरभाव? मोक्षमार्गमें ही निश्चित निष्ठा कर लेना। आत्मविनिग्रह -- आत्माका अपकार करनेवाला और आत्मा शब्दसे कहे जानेवाला? जो कार्यकरणका संघातरूप यह शरीर है? इसका निग्रह अर्थात् इसे स्वाभाविक प्रवृत्तिसे हटाकर सन्मार्गमें ही नियुक्त कर रखना।
।।13.8।। --,अमानित्वं मानिनः भावः मानित्वमात्मनः श्लाघनम्? तदभावः अमानित्वम्। अदम्भित्वं स्वधर्मप्रकटीकरणं दम्भित्वम्? तदभावः अदम्भित्वम्। अहिंसा अहिंसनं प्राणिनामपीडनम्। क्षान्तिः परापराधप्राप्तौ अविक्रिया। आर्जवम् ऋजुभावः अवक्रत्वम्। आचार्योपासनं मोक्षसाधनोपदेष्टुः आचार्यस्य शुश्रूषादिप्रयोगेण सेवनम्। शौचं कायमलानां मृज्जलाभ्यां प्रक्षालनम् अन्तश्च मनसः प्रतिपक्षभावनया रागादिमलानामपनयनं शौचम्। स्थैर्यं स्थिरभावः? मोक्षमार्गे एव कृताध्यवसायत्वम्। आत्मविनिग्रहः आत्मनः अपकारकस्य आत्मशब्दवाच्यस्य कार्यकरणसंघातस्य विनिग्रहः स्वभावेन सर्वतः प्रवृत्तस्य सन्मार्गे एव निरोधः आत्मविनिग्रहः।।किञ्च --,
।।13.8।।ननु षट्स्वर्थेषु प्रतिज्ञातेषु अमानित्वादिकमनन्तर्भूतं किमित्युच्यते इत्यत आह -- स चेति। इति प्रतिज्ञातमर्थद्वयं वक्तुंज्ञेयं यत्तत् [13।13] इत्यादिना। न यादृशतादृशेन श्रवणेन तदनुभवारूढं भवतीत्याशयेनेति शेषः। मानाहङ्काराभ्यां दम्भं पृथक् दर्शयति -- आत्मेति। आर्जवं ज्ञानसाधनं यथा स्यात्तथा व्याचष्टे -- आर्जवमिति। एतच्च सन्मार्ग इति ज्ञातव्यम्।
।।13.8।।स च यो यत्प्रभावश्च इति वक्तुं तज्ज्ञानसाधनान्याह -- अमानित्वमित्यादिना। आत्माल्पत्वं ज्ञात्वाऽपि महत्त्वप्रदर्शनं दम्भः।ज्ञात्वाऽपि स्वात्मनोऽल्पत्वं दम्भो माहात्म्य(भावनम्)। दर्शनम्इति ह्यभिधानम्। आर्जवं मनोवाक्कायकर्मणामवैपरीत्यम्।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्। आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।13.8।।
অমানিত্বমদম্ভিত্বমহিংসা ক্ষান্তিরার্জবম্৷ আচার্যোপাসনং শৌচং স্থৈর্যমাত্মবিনিগ্রহঃ৷৷13.8৷৷
অমানিত্বমদম্ভিত্বমহিংসা ক্ষান্তিরার্জবম্৷ আচার্যোপাসনং শৌচং স্থৈর্যমাত্মবিনিগ্রহঃ৷৷13.8৷৷
અમાનિત્વમદમ્ભિત્વમહિંસા ક્ષાન્તિરાર્જવમ્। આચાર્યોપાસનં શૌચં સ્થૈર્યમાત્મવિનિગ્રહઃ।।13.8।।
ਅਮਾਨਿਤ੍ਵਮਦਮ੍ਭਿਤ੍ਵਮਹਿਂਸਾ ਕ੍ਸ਼ਾਨ੍ਤਿਰਾਰ੍ਜਵਮ੍। ਆਚਾਰ੍ਯੋਪਾਸਨਂ ਸ਼ੌਚਂ ਸ੍ਥੈਰ੍ਯਮਾਤ੍ਮਵਿਨਿਗ੍ਰਹ।।13.8।।
ಅಮಾನಿತ್ವಮದಮ್ಭಿತ್ವಮಹಿಂಸಾ ಕ್ಷಾನ್ತಿರಾರ್ಜವಮ್. ಆಚಾರ್ಯೋಪಾಸನಂ ಶೌಚಂ ಸ್ಥೈರ್ಯಮಾತ್ಮವಿನಿಗ್ರಹಃ৷৷13.8৷৷
അമാനിത്വമദമ്ഭിത്വമഹിംസാ ക്ഷാന്തിരാര്ജവമ്. ആചാര്യോപാസനം ശൌചം സ്ഥൈര്യമാത്മവിനിഗ്രഹഃ৷৷13.8৷৷
ଅମାନିତ୍ବମଦମ୍ଭିତ୍ବମହିଂସା କ୍ଷାନ୍ତିରାର୍ଜବମ୍| ଆଚାର୍ଯୋପାସନଂ ଶୌଚଂ ସ୍ଥୈର୍ଯମାତ୍ମବିନିଗ୍ରହଃ||13.8||
amānitvamadambhitvamahiṅsā kṣāntirārjavam. ācāryōpāsanaṅ śaucaṅ sthairyamātmavinigrahaḥ৷৷13.8৷৷
அமாநித்வமதம்பித்வமஹிஂஸா க்ஷாந்திரார்ஜவம். ஆசார்யோபாஸநஂ ஷௌசஂ ஸ்தைர்யமாத்மவிநிக்ரஹஃ৷৷13.8৷৷
అమానిత్వమదమ్భిత్వమహింసా క్షాన్తిరార్జవమ్. ఆచార్యోపాసనం శౌచం స్థైర్యమాత్మవినిగ్రహః৷৷13.8৷৷
13.9
13
9
।।13.9।।इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका होना, अहंकारका भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दुःखरूप दोषोंको बार-बार देखना।
।।13.9।। इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन...৷৷.।।
।।13.9।। इन्द्रियों के विषयों के प्रति वैराग्य इसका अर्थ जगत् से पलायन करना नहीं है। विषयों के साथ रहते हुए भी मन से उनका चिन्तन न करना तथा उनमें आसक्त न होना? यह वैराग्य का अर्थ है। जो व्यक्ति विषयों से दूर भागकर कहीं जंगलों में बैठकर उनका चिन्तन करता रहता है? वह तो अपनी वासनाओं का केवल दमन कर रहा होता है? ऐसे पुरुष को भगवान् ने मिथ्याचारी कहा है।अहंकार का अभाव व्यष्टिगत जीवभाव का उदय केवल तभी होता है? जब हम शरीरादि उपाधियों के साथ तथा उनके अनुभवों के साथ तादात्म्य करते हैं। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आवश्यक पूर्व गुण यह है कि हम इस मिथ्या तादात्म्य को विचार के द्वारा नष्ट कर दें। यह प्रक्रिया भूमि जोतने के पूर्व घासपात को दूर करने के तुल्य ही है।दुखदोषानुदर्शनम् वर्तमान दशा से असन्तुष्टि ही हमें नवीन? श्रेष्ठतर और सुखद स्थिति को प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकती है। जब तक किसी राष्ट्र या समाज के लोगों में इस बात की जागरूकता नहीं आती है कि उनकी वर्तमान दशा अत्यन्त घृणित और दुखपूर्ण है? तब तक वे अपने दुखों को भूलकर अपने आप को ही उस दशा में जीने के अनुकूल बना लेते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक राजनीतिक नेता या समाज सेवक? सर्वप्रथम? लोगों को उनकी पतित और दरिद्रता की दशा का बोध कराता है। जब लोगों में इस बात की जागरूकता आ जाती है? तब वे उत्साह के साथ? श्रेष्ठतर आनन्द और समृद्ध जीवन जीने का प्रयत्न करने को तत्पर हो ज्ााते हैं।यही पद्धति सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में भी प्रयोज्य है। जब तक साधक को अपने आन्तरिक व्यक्तित्व के बन्धनों का पूर्णतया भान नहीं होता है? तब तक वह स्वनिर्मित दुख के गर्त में पड़ा रहता है? और उससे बाहर आने के लिए कदापि प्रयत्न नहीं करता है। मानव शरीर और मन में अपने आप को परिस्थिति के अनुकूल बना लेने की अद्भुत् क्षमता है। वे अत्यन्त घृणित अवस्था को भी स्वीकार कर लेते हैं यहाँ तक कि उसी में सुख भी अनुभव करने लगते हैं।इसलिए? यहाँ साधक को अपनी वर्तमान दशा के दोषों को विचारपूर्वक देखने का उपदेश दिया गया है। एक बार जब वह अपनी बद्धावस्था को पूर्णतया समझ लेगा? तब उसमें आवश्यक आध्यात्मिक जिज्ञासा? बौद्धिक सार्मथ्य? मानसिक उत्साह और शारीरिक साहस आदि समस्त गुण आ जायेंगे? जिनके द्वारा वह आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि सरलता से कर सकेगा।जन्ममृत्युजराव्याधि में दोष का दर्शन प्रत्येक शरीर को ये विकार प्राप्त होते हैं। इनमें से प्रत्येक विकार नयेनये दुखों का स्रोत है। इन समस्त विकारों से प्राप्त होने वाले दुखों के प्रति जागरूकता आ जाने पर वह पुरुष उनसे मुक्ति पाने के लिए अधीर हो जाता है। दुख के विरुद्ध विद्रोह का यह भाव ही वह प्रेरक तत्त्व है? जो साधकों को पूर्णत्व के शिखर तक शीघ्रता से पहुँचने के लिए प्रेरित करता है।आगे कहते हैं
।।13.9।। व्याख्या --   इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् -- लोकपरलोकके शब्दादि समस्त विषयोंमें इन्द्रियोंका खिंचाव न होना ही इन्द्रियोंके विषयोंमें रागरहित होना है। इन्द्रियोंका विषयोंके साथ सम्बन्ध होनेपर भी तथा शास्त्रके अनुसार जीवननिर्वाहके लिये इन्द्रियोंद्वारा विषयोंका सेवन करते हुए भी साधकको विषयोंमें राग? आसक्ति? प्रियता नहीं होनी चाहिये।उपाय -- (1) विषयोंमें राग होनेसे ही विषयोंकी महत्ता दीखती है? संसारमें आकर्षण होता है और इसीसे सब पाप होते हैं। अगर हमारा विषयोंमें ही राग रहेगा तो तत्त्वबोध कैसे होगा परमात्मतत्त्वमें हमारी स्थिति कैसे होगी अगर रागका त्याग कर दें तो परमात्मामें स्थिति हो जायगी -- ऐसा विचार करनेसे विषयोंसे वैराग्य हो जाता है।(2) बड़ेबड़े धनी? शूरवीर? राजामहाराजा हुए और उन्होंने बहुतसे भोगोंको भोगा? पर अन्तमें उनका क्या रहा कुछ नहीं रहा। उनके शरीर कमजोर हो गये और अन्तमें सब चले गये। इस प्रकार विचार करनेसे भी वैराग्य हो जाता है।(3) जिन्होंने भोग नहीं भोगे हैं? जिनके पास भोगसामग्री नहीं है? जो संसारसे विरक्त हैं? उनकी अपेक्षा जिन्होंने बहुत भोग भोगे हैं और भोग रहे हैं? उनमें क्या विलक्षणता? विशेषता आयी कुछ नहीं? प्रत्युत भोग भोगनेवाले तो शोकचिन्तामें डूबे हुए हैं। ऐसा विचार करनेसे भी वैराग्य होता है।अनहंकार एव च -- प्रत्येक व्यक्तिके अनुभवमें मैं हूँ -- इस प्रकारकी एक वृत्ति होती है। यह वृत्ति ही शरीरके साथ मिलकर मैं शरीर हूँ -- इस प्रकार एकदेशीयता अर्थात् अहंकार उत्पन्न कर देती है। इसीके कारण शरीर? नाम? क्रिया? पदार्थ? भाव? ज्ञान? त्याग? देश? काल आदिके साथ अपना सम्बन्ध मानकर जीव ऊँचनीच योनियोंमें जन्मतामरता रहता है (गीता 13। 21)। यह अहंकार साधनमें प्रायः बहुत दूरतक रहता है। वास्तवमें इसकी सत्ता नहीं है? फिर भी स्वयंकी मान्यता होनेके कारण व्यक्तित्वके रूपमें इसका भान होता रहता है। भगवान्द्वारा ज्ञानके साधनोंमें इस पदका प्रयोग किये जानेका तात्पर्य शरीरादिमें माने हुए अहंकारका सर्वथा अभाव करनेमें है क्योंकि जडचेतनका यथार्थ बोध होनेपर इसका सर्वथा अभाव हो जाता है। मनुष्यमात्र अहंकाररहित हो सकता है? इसीलिये भगवान् यहाँ अनहंकारः पदसे अहंकारका त्याग करनेकी बात कहते हैं।अभिमान और अहंकारका प्रयोग एक साथ होनेपर उनसे अलगअलग भावोंका बोध होता है। सांसारिक चीजोंके सम्बन्धसे अभिमान पैदा होता है। ऐसे ही त्याग? वैराग्य? विद्या आदिको लेकर अपनेमें विशेषता देखनेसे भी अभिमान पैदा होता है। शरीरको ही अपना स्वरूप माननेसे अंहकार पैदा होता है। यहाँ,अनहंकारः पदसे अभिमान और अहंकार -- दोनोंके सर्वथा अभावका अर्थ लेना चाहिये।मनुष्यको नींदसे जगनेपर सबसे पहले अहम् अर्थात् मैं हूँ -- इस वृत्तिका ज्ञान होता है। फिर मैं अमुक शरीर? नाम? जाति? वर्ण? आश्रम आदिका हूँ -- ऐसा अभिमान होता है। यह एक क्रम है। इसी प्रकार पारमार्थिक मार्गमें भी अहंकारके नाशका एक क्रम है। सबसे पहले स्थूलशरीरसे सम्बन्धित धनादि पदार्थोंका अभिमान मिटता है। फिर कर्मेन्द्रियोंके सम्बन्धसे रहनेवाले कर्तृत्वाभिमानका नाश होता है। उसके बाद बुद्धिकी प्रधानतासे रहनेवाला ज्ञातापनका अहंकार मिटता है। अन्तमें अहम् वृत्तिकी प्रधानतासे जो साक्षीपनका अहंकार है? वह भी मिट जाता है। तब सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन स्वरूप स्वतः रह जाता है।उपाय -- (1) अपनेमें श्रेष्ठताकी भावनासे ही अभिमान पैदा होता है। अभिमान तभी होता है? जब मनुष्य दूसरोंकी तरफ देखकर यह सोचता है कि वे मेरी अपेक्षा तुच्छ है। जैसे? गाँवभरमें एक ही लखपति हो तो दूसरोंको देखकर उसको लखपति होनेका अभिमान होता है। परन्तु अगर दूसरे सभी करोड़पति हों तो उसको अपने लखपति होनेका अभिमान नहीं होता। अतः अभिमानरूप दोषको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह दूसरोंकी कमीकी तरफ कभी न देखे? प्रत्युत अपनी कमियोंको देखकर उनको दूर करे (टिप्पणी प0 681.1)।(2) एक ही आत्मा जैसे इस शरीरमें व्याप्त है? ऐसे ही वह अन्य शरीरोंमें भी व्याप्त है -- सर्वगतः (गीता 2। 24)। परन्तु मनुष्य अज्ञानसे सर्वव्यापी आत्माको एक अपने शरीरमें ही सीमित मानकर शरीरको मैं मान लेता है। जैसे मनुष्य बैंकमें रखे हुए बहुतसे रुपयोंमेंसे केवल अपने द्वारा जमा किये हुए कुछ रुपयोंमें ही ममता करके? उनके साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपनेको धनी मान लेता है? ऐसे ही एक शरीरमें मैं शरीर हूँ -- ऐसी अहंता करके वह कालसे सम्बन्ध मानकर मैं इस समयमें हूँ? देशसे सम्बन्ध मानकर मैं यहाँ हूँ? बुद्धिसे सम्बन्ध मानकर मैं समझदार हूँ? वाणीसे सम्बन्ध मानकर मैं वक्ता हूँ आदि अहंकार कर लेता है। इस प्रकारके सम्बन्ध न मानना ही अहंकार रहित होनेका उपाय है। (3) शास्त्रोंमें परमात्माका सच्चिदानन्दघनरूपसे वर्णन आया है। सत् (सत्ता)? चित् (ज्ञान) और आनन्द (अविनाशी सुख) -- ये तीनों परमात्माके भिन्नभिन्न स्वरूप नही हैं? प्रत्युत एक ही परमात्मतत्त्वके तीन नाम हैं। अतः साधक इन तीनोंमेंसे किसी एक विशेषणसे भी परमात्माका लक्ष्य करके निर्विकल्प (टिप्पणी प0 681.2) हो सकता है। निर्विकल्प होनेसे उसको परमात्मतत्त्वमें अपनी स्वतःसिद्ध स्थितिका,अनुभव हो जाता है और अहंकारका सर्वथा नाश हो जाता है। इसको इस प्रकार समझना चाहिये -- (क) सत् -- परमात्मतत्त्व सदासे ही था? सदासे है और सदा ही रहेगा। वह कभी बनताबिगड़ता नहीं? कमज्यादा भी नहीं होता? सदा ज्योंकात्यों रहता है -- ऐसा बुद्धिके द्वारा विचार करके निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे साधकका बुद्धिसे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और उस सत्तत्त्वमें अपनी वास्तविक स्थितिका अनुभव हो जाता है। ऐसा अनुभव होनेपर फिर अहंकार नहीं रहता।(ख) चित् -- जैसे प्रत्येक व्यक्तिके शरीरादि अहम् के अन्तर्गत दृश्य हैं? ऐसे ही अहम् भी (मैं? तू? यह और वहके रूपमें) एक ज्ञानके अन्तर्गत दृश्य है (टिप्पणी प0 681.3)। उस ज्ञान(चेतन) में निर्विकल्प होकर स्थिर हो जानेसे परमात्मतत्त्वमें स्वतःसिद्ध स्थितिका अनुभव हो जाता है। फिर अहंकार नहीं रहता।(ग) आनन्द -- साधकलोग प्रायः बुद्धि और अहम्को प्रकाशित करनेवाले चेतनको भी बुद्धिके द्वारा ही जाननेकी चेष्टा किया करते हैं। वास्तवमें बुद्धिके द्वारा जाने अर्थात् सीखे हुए विषयको ज्ञान की संज्ञा देना और उससे अपनेआपको ज्ञानी मान लेना भूल ही है। बुद्धिको प्रकाशित करनेवाला तत्त्व बुद्धिके द्वारा कैसे जाना जा सकता है यद्यपि साधकके पास बुद्धिके सिवाय ऐसा और कोई साधन नहीं है? जिससे वह तत्त्व जाना जा सके? तथापि बुद्धिके द्वारा केवल जड संसारकी वास्तविकताको ही जाना जा सकता है। बुद्धि जिससे प्रकाशित होती है? उस तत्त्वको बुद्धि नहीं जान सकती। उस तत्त्वको जाननेके लिये बुद्धिसे भी सम्बन्धविच्छेद करना आवश्यक है। बुद्धिको प्रकाशित करनेवाले परमात्मतत्त्वमें निर्विकल्परूपसे स्थित हो जानेपर बुद्धिसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है। फिर एक आनन्दस्वरूप (जहाँ दुःखका लेश भी नहीं है) परमात्मतत्त्व ही शेष रह जाता है? जो स्वयं ज्ञानस्वरूप और सत्स्वरूप भी है। इस प्रकार तत्त्वमें निर्विकल्प (चुप) हो जानेपर आनन्दहीआनन्द है -- ऐसा अनुभव होता है। ऐसा अनुभव होनेपर फिर अहंकार नहीं रहता।जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् -- जन्म? मृत्यु? वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखनेका तात्पर्य है -- जैसे आँवामें मटका पकता है? ऐसे ही जन्मसे पहले माताके उदरमें बच्चा जठराग्निमें पकता रहता है। माताके खाये हुए नमक? मिर्च आदि क्षार और तीखे पदार्थोंसे बच्चेके शरीरमें जलन होती है। गर्भाशयमें रहनेवाले सूक्ष्म जन्तु भी बच्चेको काटते रहते हैं। प्रसवके समय माताको जो पीड़ा होती है? उसका कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। वैसी ही पीड़ा उदरसे बाहर आते समय बच्चेको होती है। इस तरह जन्मके दुःखरूप दोषोंका बारबार विचार करके इस विचाको दृढ़ करना कि इसमें केवल दुःखहीदुःख है। जो जन्मता है? उसको मरना ही पड़ता है -- यह नियम है। इससे कोई बच ही नहीं सकता। मृत्युके समय जब प्राण शरीरसे निकलते हैं? तब हजारों बिच्छू शरीरमें एक साथ डंक मारते हों -- ऐसी पीड़ा होती है। उम्रभरमें कमाये हुए धनसे? उम्रभरमें रहे हुए मकानसे और अपने परिवारसे जब वियोग होता है और फिर उनके मिलनेकी सम्भावना नहीं रहती? तब (ममताआसक्तिके कारण) बड़ा भारी दुःख होता है। जिस धनको कभी किसीको दिखाना नहीं चाहता था? जिस धनको परिवारवालोंसे छिपाछिपाकर तिजोरीमें रखा था? उसकी चाबी परिवारवालोंके हाथमें पड़ी देखकर मनमें असह्य वेदना होती है। इस तरह मृत्युके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।वृद्धावस्थामें शरीर और अवयवोंकी शक्ति क्षीण हो जाती है? जिससे चलनेफिरने? उठनेबैठनेमें कष्ट होता है। हरेक तरहका भोजन पचता नहीं। बड़ा होनेके कारण परिवारसे आदर चाहता है? पर कोई प्रयोजन न रहनेसे घरवाले निरादर? अपमान करते हैं। तब मनमें पहलेकी बातें याद आती हैं कि मैंने धम कमाया है?,इनको पालापोसा है? पर आज ये मेरा तिरस्कार कर रहे हैं इन बातोंको लेकर बड़ा दुःख होता है। इस तरह वृद्धावस्थाके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।यह शरीर व्याधियोंका? रोगोंका घर है -- शरीरं व्याधिमन्दिरम्। शरीरमें वात? कफ आदिसे पैदा होनेवाले अनेक प्रकारके रोग होते रहते हैं और न रोगोंसे शरीरमें बड़ी पीड़ा होती है। इस तरह रोगोंके दुःखरूप दोषोंको बारबार देखे।यहाँ बारबार देखनेका तात्पर्य बारबार चिन्तन करनेसे नहीं है? प्रत्युत विचार करनेसे है। जन्म? मृत्यु? वृद्धावस्था और रोगोंके दुःखोंको बारबार देखनेसे अर्थात् विचार करनेसे उनके मूल कारण -- उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंमें राग स्वाभाविक ही कम हो जाता है अर्थात् भोगोंसे वैराग्य हो जाता है। तात्पर्य है कि जन्म? मृत्यु आदिके दुःखरूप दोषोंको देखना भोगोंसे वैराग्य होनेमें हेतु है क्योंकि भोगोंके रागसे अर्थात् गुणोंके सङ्गसे ही जन्म होता है -- कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21) और जो जन्म होता है? वह सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है। भगवान्ने पुनर्जन्मको दुःखालय बताया है -- पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् (गीता 8। 15)।शरीर आदि जड पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे? उनको महत्त्व देनेसे? उनका आश्रय लेनेसे ही सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं -- देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति। परमात्माका स्वरूप अथवा उसका ही अंश होनेके ही कारण जीवात्मा स्वयं निर्दोष है -- चेतन अमल सहज सुखरासी (मानस 7। 117। 1)। यही कारण है कि जीवात्माको दुःख और दोष अच्छे नहीं लगते क्योंकि वे इसके सजातीय नहीं हैं। जीव अपने द्वारा ही पैदा किये दोषोंके कारण सदा दुःख पाता रहता है। अतः भगवान् जन्म? मृत्यु आदिके दुःखरूप दोषोंके मूल कारण देहाभिमानको विचारपूर्वक मिटानेके लिये कह रहे हैं।
।।13.8 -- 13.12।।एवं क्षेत्रं व्याख्यातम्? क्षेत्रज्ञश्च। इदानीं ज्ञानमुच्यते -- अमानित्वमित्यादि अन्यथा इत्यन्तम्। अनन्ययोगेनेति -- परमात्मनो महेश्वारत् अन्यत् अपरं न किंचिदस्ति इत्यनन्यरूपो यो निश्चयः? स एव योगः तेन निश्चयेन मयि भक्तिः। अत एव सा न कदाचित् व्यभिचरति? व्यभिचारहेतुत्वाभिमतानां (S??N -- त्वाभिगतानाम्) कामनानामभावात्? तासामपि वा चित्तवृत्त्यन्तररूपाणां तदेकमयत्त्वात्। एवं सर्वत्रानुसन्धेयम्। एतद्विपरीतम् अज्ञानम् यथा मानित्वादीनि।
।।13.9।।असक्तिः आत्मव्यतिरिक्तविषयेषु सङ्गरहितत्वम्? अनभिष्वङ्गःपुत्रदारगृहादिषु तेषु शास्त्रीयकर्मोपकरणत्वातिरेकेण आश्लेषरहितत्वम् नित्यं च समचित्तत्वम् इष्टानिष्टोपपत्तिषु -- संकल्पप्रभवेषु इष्टानिष्टोपनिपातेषु हर्षोद्वेगरहितत्वम्।
।।13.9।।ज्ञानस्यान्तरङ्गमेव हेत्वन्तरमाह -- किञ्चेति। नन्वसक्तिरेवाभिष्वङ्गाभावस्तथाच पुनरुक्तिरित्याशङ्क्याभिष्वङ्गोक्तिद्वारा निरस्यति -- अभिष्वङ्गो नामेति। अन्यस्मिन्नेव पुत्रादावन्यत्वधिया तद्गते सुखादावात्मनि तद्भावनाख्यं शक्तिविशेषमेवोदाहरति -- यथेति। उक्तविशेषणयोराकाङ्क्षाद्वारा विषयमाह -- क्वेत्यादिना। उक्तविशेषणयोर्ज्ञानशब्दस्योपपत्तिमाह -- तच्चेति। सदा हर्षविषादशून्यमनस्त्वमपि ज्ञानहेतुरित्याह -- नित्यं चेति। तदेव विभजते -- इष्टेति। तस्य ज्ञानहेतुत्वं निगमयति -- तच्चैतदिति।
।।13.9।।इन्द्रियार्थेष्विति -- विषयेषु।
।।13.9।।किंचइन्द्रियार्थेष्विति। इन्द्रियार्थेषु शब्दादिषु दृष्टेष्वानुश्रविकेषु वा भोगेषु रागविरोधिन्यस्पृहात्मिका चित्तवृत्तिर्वैराग्यम्। आत्मश्लाघनाभावेऽपि मनसि प्रादुर्भूतोऽहं सर्वोत्कृष्ट इति गर्वोऽहंकारस्तदभावोऽनहंकारः। अयोगव्यवच्छेदार्थ एवकारः। समुच्चयार्थश्चकारः। तेनामानित्वादीनां विंशतिसंख्याकानां समुच्चितो योग एव ज्ञानमिति प्रोक्तं न त्वेकस्याप्यभाव इत्यर्थः। जन्मनो गर्भवासयोनिद्वारा निस्सरणरूपस्य? मृत्योः सर्वमर्मच्छेदनरूपस्य? जरायाः प्रज्ञाशक्तितेजोनिरोधपरपरिभवादिरूपायाः? व्याधीनां ज्वरातिसारादिरूपाणां? दुःखानामिष्टवियोगानिष्टसंयोगजानामध्यात्माधिभूताधिदैवनिमित्तानां दोषस्य वातपित्तश्लेष्ममलमूत्रादिपरिपूर्णत्वेन कायजुगुप्सितत्वस्य चानुदर्शनं पुनःपुनरालोचनम्। जन्मादिदुःखान्तेषु दोषस्यानुदर्शनं? जन्मादिव्याध्यन्तेषु दुःखरूपदोषस्यानुदर्शनमिति वा। इदं च विषयवैराग्यहेतुत्वेनात्मदर्शनस्योपकरोति।
।।13.9।। किंच -- इन्द्रियार्थेष्विति। जन्मादिषु दुःखदोषयोरनुदर्शनं पुनःपुनरालोचनम्। दुःखरूपस्य दोषस्यानुदर्शनमिति वा। स्पष्टमन्यत्।
।।13.9।।बाह्यविषयवैराग्यं हि आत्मरागनिबन्धनमित्यभिप्रायेणाह -- आत्मव्यतिरिक्तेषु विषयेष्विति। विरागस्य भावो वैराग्यम्? तत्प्रकारमाहसदोषतानुसन्धानेनोद्वेजनमिति। दुःखसाध्यत्वदुःखमिश्रत्वनश्वरत्वादिभिस्तेषां दोषमयत्वम्। गर्वरूपस्याहङ्कारस्य पूर्वं निषेधादत्राहङ्कारशब्देन देहात्मभ्रमो निवार्यत इत्याहअनात्मनीति। अहङ्कारस्य निषेधस्तन्मूलस्य सर्वत्र तत्सहपठितस्य ममकारस्यापि निषेधं प्रदर्शयितुमित्याहप्रदर्शनार्थमिति। शरीरप्रयुक्तजन्मादिदोषदर्शनं न ह वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोः [छां.उ.8।12।1] इत्यादिप्रकारेण शरीरस्य हेयताप्रतिपत्त्यर्थमित्यभिप्रायेणाहसशरीरत्व इति। जन्ममृत्युजराव्याधिभिर्जन्यं दुःखं जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखम्? स एव दोष इति समासार्थः। जन्मादय एव वा दुःखान्ताः सर्वे दुःखसाधनत्वाद्दुःखत्वाच्च दोषाः। नहि तुषतण्डुलवच्छरीरमवस्थाप्य दोषाः परिहर्तुं शक्या इति दर्शयितुं अवर्जनीयत्वोक्तिः। अनुदर्शनं भूयोभूयोदर्शनमित्याहअनुसन्धानमिति।
।।13.9।।इन्द्रियार्थेषु इन्द्रियभोगेषु वैराग्यम्। अनहङ्कार एव च? च पुनः अहङ्कारराहित्यम्। एवकारेणाऽस्यावश्यकत्वं ज्ञापितम्। जन्मादिषु दुःखदोषयोरनुदर्शनं विचारः। तथाहि। जन्म -- अजन्मनो ब्रह्मांशस्याऽपि योनिमलादिसम्बन्धः। मृत्युर्भगवद्विस्मरणं? जरा शक्तिह्रासः? व्याधिः रोगादिक्लेशः।
।।13.9।।इन्द्रियार्थेषु दृष्टेषु आनुश्रविकेषु वा शब्दादिषु वैराग्यं रागाभावः। अनहंकारो दर्पराहित्यम्। अयोगव्यवच्छेदार्थ एवकारः। समुच्चयार्थश्चकारः। जन्मादिषु जायमानं दुःखं परस्य व्यथादोषाश्च दैन्यादयस्तेषामनुदर्शनम्।
।।13.9।।किंचैहिकामुष्मिकेन्द्रियार्थेषु शब्दादिविषयेषु रागाभावो वैराग्यम्। अहं सर्वोत्तम इति मनसि प्रादुर्भूतो गर्वोऽहंकारस्तदभावोऽनहंकारः। गर्वस्योक्तानुक्तनाशकत्वादनहंकारस्यावश्यसंपाद्यत्वद्योतनार्थ अयोगव्ययवच्छेदार्थ एवकारः। समुच्चयार्थश्चकारः। तेनामानित्वादीनां विंशतिसंख्याकानां समुच्चितो योग एव ज्ञानमिति प्रोक्तं नत्वेकस्याप्यभाव इत्यर्थ इति केचित्। आचार्यैस्तु सुगमत्वादव्ययार्थः सर्वत्र न प्रदर्श्यते। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुर्दशनं जन्मादिषु दुःखान्तेषु प्रत्येकं दोषानुदर्शनम्। यद्वा दुःखान्येव दोषो दुःखदोषस्तस्य जन्मादिषु दर्शनमालोजनं जन्मादयो दुःखनिमित्तत्वाद्दुःखं दुःखानि पुनः स्वरुपेणैव दुःखमित्येवं जन्मादिषु दुःखदोषानुदर्शनाद्देहेन्द्रियादिविषयाणां भोगेषु वैराग्यमुपजायते। ततश्चात्मदर्शनाय प्रत्यगात्मनि करणानां प्रवृत्तिर्भवतीत्येवं ज्ञानहेतुत्वाज्जन्मादिषु दुःखदषानुदर्शनं ज्ञानमुच्यते। तथाचोक्तं विष्णुपुराणे -- आध्यात्मिकादि मैत्रेय ज्ञात्वा तापत्रयं बुधः। उत्पन्नज्ञानवैराग्यः प्राप्नोत्यात्यन्तिकं लयम्। आध्यात्मिको वै द्विविधः शारीरो मानसस्तथा। शारीरो बहुभिर्मेदैर्भिद्यते श्रयतां च सः। शिरोरोगप्रतिश्यायज्वरशूलभगन्दरैः। गुल्मार्शःश्वासश्वयथुच्छर्द्यादिभिरनेकधा। तथाक्षिरोगातीसारकुष्ठाङ्गमयसंज्ञिकैः। भिद्यते देहजस्तापो मानसं श्रोतुमर्हसि। इत्येवमादिकैर्भेदैस्तापो ह्यात्धात्मिकः स्मृतः। मृगपक्षिमनुष्याद्यैः पिशाचोरगराक्षसैः। सरीसृपाद्यैश्च नृणां जन्यते चाधिभोतिकः। शीतोष्णवातवर्षाम्बुविद्युदादिसमुद्भवः। तापो द्विजवरश्रेष्ठ कथ्यते चाधिदैविकः। गर्भजन्मजराज्ञानमृत्युनारकजं तथा। दुःखं सहस्त्रोशो भेदैर्भिद्यते मुनिसत्तम्। सुकुमारतुनुर्गर्भे जन्तुर्बहुमलावृते। उल्बसंवेष्टितो भग्नपृष्ठग्रीवास्थिसंहतिः। अत्यम्लकटुतीक्ष्णोष्णलवणैर्मार्तुभोजनैः। अतितापिभिरत्यर्थ वर्धमानातिवेदनः। प्रसारणाकुञ्चनादेर्नाङ्गानां प्रभुरात्मनः। शकृन्मूत्रमहापङ्कशायी सर्वत्र पीडितः। निरुच्छ्वासः सचैतन्यः स्मरञ्जन्मशतान्यथ। आस्ते गर्भेऽतिदुःखेन निजकर्मनिबनधनः। जायमानः पुरीषासृङ्यूत्रशुक्राविलाननः। प्राजापत्येन वातेन पीज्यमानावस्थिबन्धनः। अधोमुखो वै क्रियते प्रबलैः सूतिमारुतैः। क्लेशैर्निष्कान्तिमाप्नोति क्रकचैरिव दारितः। पूतिव्रणान्निःपतितो धरायां कृमिको यथा। जराजर्जरदेहश्च शिथिलावयवः पुमान्। विगलच्धीर्णदशनो वलीस्त्रायुशिरावृतः। दुरप्रनष्टनयनो व्योमान्तर्गततारकः। नासाविवरनिर्यातलोमपुञ्जश्र्चलद्वपुः। प्रकटीकृतस्थिर्नतपृष्टास्थिसंहतिः। उत्सन्नजढराग्नित्वाल्पाहारो विचेष्टितः। कृच्छ्रचंक्रमणोत्थानशयनासनचेष्टितः। मन्दीभवच्छ्रोत्रनेत्रः स्त्रवल्लालाविलाननः आपन्नैस्तः समस्थैश्च करणऐर्मरणोन्मुखः। तत्क्षणेऽप्यनुभूतानामस्तार्ताखिलवस्तुनाम्। सकृदुच्चरिते वाक्ये समुद्भूतमहाश्रमः। श्वासकासमहायामममुद्भूतप्रजागरः। अन्येनोत्थाप्यतेऽन्येन तथा संवेश्यते जरी। भृत्यात्मपुत्रदाराणामवमानास्पदीकृतः। संस्मरन्योवने दीर्घं निश्वसत्यतितापितः।,एवमादीनि दुःखानि जरायामनुभूय वै। मरणे यानि दुःखानि जरायामनुभूय वै। मरणै यानि दुःखानि प्राप्नोति श्रृणु तान्यपि। श्वथग्रीवाङ्गिस्तोऽथ व्याप्तो वेपथुना भृशम्। मुहुर्ग्लान्या परवशो मुहुर्ज्ञानलवान्वितः। हिरण्यधान्यकास्योग्रैश्छिद्यमानास्तिबन्धनः। एते कथं भविष्यन्ति ममेति ममताकुलः। मर्मभिद्भिर्महारोगैः क्रकचैरिव दारुणैः। शरैरिवान्तकास्योग्रेश्छिद्यमानास्थिबन्धनः। विवर्तमानताराक्षिर्हस्तं पादं मुहुः क्षिपन्। संशुष्यमाणताल्वौष्ठकण्ठो घुरघुरायते। निरुद्धकण्ठो दोषौघैरुदानश्वासपीडितः। तापेन महता व्याप्तस्तृषा चार्तस्तथा क्षुधा। कल्शादुत्क्रान्तिमाप्नोति याम्यकिंकरपीडितः। ततश्च यातनादेहं क्लेशेन प्रतिपद्यते। एतान्यन्यानि चोग्राणि दुःखानि मरणे नृणाम्।।35।। इत्यादि भाष्यस्योपलक्षणार्थत्वेन जन्मादिषु दुःखदोषयोरनुदर्शनं जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषाणामनुदर्शनमिति वा। दोषश्च वातपित्त श्लेष्ममलमूत्रादिपरिपूर्णत्वेन कायजुगुप्सतत्वरुपः दैन्यादिरुपश्चेत्यपि बोध्यम्।
13.9 इन्द्रियार्थेषु in senseobjects? वैराग्यम् dispassion? अनहङ्कारः absence of egoism? एव even? च and? जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् perception of evil in birth? old age? sickness and pain.Commentary The feeling of renunciation towards the objects of the senses is constant in the man of wisdom. He does not even like to talk about them. His senses do not run towards them.Vairagyam Indifference to the senseobjects such as sound? touch? etc.? for pleasure seen or unseen? heard or unheard (for pleasure in heaven? too).Anahankara The idea that arises in the mind I am superior to all? is egoism. Absence of this idea is Anahankara or absence of egoism.Reflection on the evils and miseries of birth? death? old age and sickness One has to dwell in the womb for nine months and to undergo the pangs of birth. These are the evils of birth. The man of wisdom never forgets the troubles of birth? death? old age? etc. He wants to avoid being born. In old age the intellect becomes dull and the memory is lost and the senses become cold and weak. There is decay of power and strength. The old man is treated with contempt by his relatives. These are the evils of old age. A sick man who suffers from piles? suffers from weakness and anaemia through loss of blood. A man suffering from malaria gets an enlarged spleen. These are the evils caused by sickness.Pain The three types of pain or afflictions are referred to in the Introduction.Pain itself is evil. Birth is painful. Birth is misery. Death is misery. Old age is misery. Sickness is misery. Birth? death? etc.? are all miseries? because they produce misery or pain.By such reflection and perception of the evil in these arises indifference to the pleasures of the body and the sensual pleasures. Then the mind turns within towards the innermost Self to attain knowledge of the Self. As the perception of the evil of pain in birth helps to obtain knowledge of the Self? it is spoken of as knowledge.
13.9 Indifference to the objects of the senses and also absence of egoism; perception of (or reflection on) the evil in birth, death, old age, sickness and pain.
13.9 Renunciation of the delights of sense, absence of pride, right understanding of the painful problem of birth and death, of age and sickness;
13.9 Non-attachment with regard to objects of the senses, and also absence of egotism; seeing the evil in birth, death, old age, diseases and miseries;
13.9 Vairagyam, non-attachment, the attitude of dispassion; indriya-arthesu, with regard to objects of the senses, viz sound etc., with regard to seen or unseen objects of enjoyment; eva ca, and also; anahankarah, absence of egotism, absence of pride; janma-mrtyu-jara-vyadhi-duhkha-dosa-anudarsanam, seeing the evil in birth, death, old age, diseases and miseries-seeing the evil in each one of them from 'birth' to 'miseries'. The evil in birth consists in lying in the womb and coming out of it; seeing, i.e. thinking, of it. Similarly, thinking of the evil in death; so also, seeing in old age the evil in the form of deprivation of intelligence, strength and vigour, and becoming an object of contempt. In the same way, thinking of the evil in diseases like headtache etc.; so also with regard to miseries arising from causes physical, natural and supernatural. Or, duhkha-dosa may mean the miseries themselves which are evil. Seeing, as before, that (evil in the form of miseries) in birth etc.-birth is miserable, death is miserable, old age is miserable, diseases are miserable. Birth etc. are miserable because they cause misery; not that they are miseries in themselves. [Birth etc. are perceivable events, and as such are not miseries in themselves.] Thus, when one thinks of the evil in the form of miseries in birth etc. dispassion arises with regard to the pleasures in the body, organs and objects. From that follows the tendency of the organs towards the indwelling Self for the realization of the Self. The seeing of the evil in the form of misery in birth etc. is called Knowledge because it thus becomes a cuase of the rise of Knowledge. Moreover,
13.9. Absence of desire for sense-objects; and also absence of egotism; pondering over the evils of birth, death, old age, sickness and sorrow;
13.9 See Comment under 13.12
13.9 'Absence of desire' with regard to sense-objects means dispassion towards all objects different from the spiritual self by the constant awareness of the evil in them. 'Absence of egotism' means freedom from the misconception that the self is the body, which is in reality different from the self. This is only an illustration standing for other misconceptions too. It indicates freedom from the feeling of possession towards things which do not belong to one. 'Perception of evil in birth, death, old age, disease and sorrow' means the constant contemplation on the inevitable evil of birth, death, old age and sorrow while in the body.
13.9 Absence of desire with regard to sense-objects, and also absence of egotism, the perception of evil in birth, death, old age, disease and sorrow;
।।13.9।।तथा --, इन्द्रियोंके शब्दादि विषयोंमें वैराग्य अर्थात् ऐहिक और पारलौकिक भोगोंमें आसक्तिका अभाव और,अनहंकार -- अहंकारका अभाव। तथा जन्म? मृत्यु? जरा? रोग और दुःखोंमें अर्थात् जन्मसे लेकर दुःखपर्यन्त प्रत्येकमें अलगअलग दोषोंका देखना। जन्ममें गर्भवास और योनिद्वारा बाहर निकलनारूप जो दोष है उसको देखना -- उसपर विचार करना। वैसे ही मृत्युमें दोष देखना? एवं बुढ़ापेमें प्रज्ञाशक्ति और तेजका तिरोभाव और तिरस्काररूप दोष देखना? तथा शिरपीड़ादि रोगरूप व्याधियोंमें दोषोंका देखना? अध्यात्म? अधिभूत और अधिदैवके निमित्तसे होनेवाले तीनों प्रकारके दुःखोंमें दोष देखना। अथवा ( यह भी अर्थ किया जा सकता है कि ) दुःख ही दोष है? इस दुःखरूप दोषको पहले कहे हुए प्रकारसे जन्मादिमें देखना अर्थात् जन्म दुःखमय है? मरना दुःख है? बुढ़ापा दुःख है और सब रोग दुःख हैं -- इस प्रकार देखना? परंतु ( यह ध्यान रहे कि ) ये जन्मादि दुःखके कारण होनेसे ही दुःख हैं? स्वरूपसे दुःख नहीं हैं। इस प्रकार जन्मादिमें दुःखरूप दोषको बारंबार देखनेसे शरीर? इन्द्रिय और विषयभोगोंमें वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। उससे मनइन्द्रियादि करणोंकी आत्मसाक्षात्कार करनेके लिये अन्तरात्मामें प्रवृत्ति हो जाती है। इस प्रकार ज्ञानका कारण होनेसे जन्मादिमें दुःखरूप दोषकी बारंबार आलोचना करना ज्ञान कहा जाता है।
।।13.9।। --,इन्द्रियार्थेषु शब्दादिषु दृष्टादृष्टेषु भोगेषु विरागभावो वैराग्यम् अनहंकारः अहंकाराभावः एव च जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनं जन्म च मृत्युश्च जरा च व्याधयश्च दुःखानि च तेषु जन्मादिदुःखान्तेषु प्रत्येकं दोषानुदर्शनम्। जन्मनि गर्भवासयोनिद्वारनिःसरणं दोषः? तस्य अनुदर्शनमालोचनम्। तथा मृत्यौ दोषानुदर्शनम्। तथा जरायां प्रज्ञाशक्तितेजोनिरोधदोषानुदर्शनं परिभूतता चेति। तथा व्याधिषु शिरोरोगादिषु दोषानुदर्शनम्। तथा दुःखेषु अध्यात्माधिभूताधिदैवनिमित्तेषु। अथवा दुःखान्येव दोषः दुःखदोषः तस्य जन्मादिषु पूर्ववत् अनुदर्शनम् -- दुःखं जन्म? दुःखं मृत्युः? दुःखं जरा? दुःखं व्याधयः। दुःखनिमित्तत्वात् जन्मादयः दुःखम्? न पुनः स्वरूपेणैव दुःखमिति। एवं जन्मादिषु दुःखदोषानुदर्शनात् देहेन्द्रियादिविषयभोगेषु वैराग्यमुपजायते। ततः प्रत्यगात्मनि प्रवृत्तिः करणानामात्मदर्शनाय। एवं,ज्ञानहेतुत्वात् ज्ञानमुच्यते जन्मादिदुःखदोषानुदर्शनम्।।किञ्च --,
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इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।13.9।।
ইন্দ্রিযার্থেষু বৈরাগ্যমনহঙ্কার এব চ৷ জন্মমৃত্যুজরাব্যাধিদুঃখদোষানুদর্শনম্৷৷13.9৷৷
ইন্দ্রিযার্থেষু বৈরাগ্যমনহঙ্কার এব চ৷ জন্মমৃত্যুজরাব্যাধিদুঃখদোষানুদর্শনম্৷৷13.9৷৷
ઇન્દ્રિયાર્થેષુ વૈરાગ્યમનહઙ્કાર એવ ચ। જન્મમૃત્યુજરાવ્યાધિદુઃખદોષાનુદર્શનમ્।।13.9।।
ਇਨ੍ਦ੍ਰਿਯਾਰ੍ਥੇਸ਼ੁ ਵੈਰਾਗ੍ਯਮਨਹਙ੍ਕਾਰ ਏਵ ਚ। ਜਨ੍ਮਮਰਿਤ੍ਯੁਜਰਾਵ੍ਯਾਧਿਦੁਖਦੋਸ਼ਾਨੁਦਰ੍ਸ਼ਨਮ੍।।13.9।।
ಇನ್ದ್ರಿಯಾರ್ಥೇಷು ವೈರಾಗ್ಯಮನಹಙ್ಕಾರ ಏವ ಚ. ಜನ್ಮಮೃತ್ಯುಜರಾವ್ಯಾಧಿದುಃಖದೋಷಾನುದರ್ಶನಮ್৷৷13.9৷৷
ഇന്ദ്രിയാര്ഥേഷു വൈരാഗ്യമനഹങ്കാര ഏവ ച. ജന്മമൃത്യുജരാവ്യാധിദുഃഖദോഷാനുദര്ശനമ്৷৷13.9৷৷
ଇନ୍ଦ୍ରିଯାର୍ଥେଷୁ ବୈରାଗ୍ଯମନହଙ୍କାର ଏବ ଚ| ଜନ୍ମମୃତ୍ଯୁଜରାବ୍ଯାଧିଦୁଃଖଦୋଷାନୁଦର୍ଶନମ୍||13.9||
indriyārthēṣu vairāgyamanahaṅkāra ēva ca. janmamṛtyujarāvyādhiduḥkhadōṣānudarśanam৷৷13.9৷৷
இந்த்ரியார்தேஷு வைராக்யமநஹங்கார ஏவ ச. ஜந்மமரித்யுஜராவ்யாதிதுஃகதோஷாநுதர்ஷநம்৷৷13.9৷৷
ఇన్ద్రియార్థేషు వైరాగ్యమనహఙ్కార ఏవ చ. జన్మమృత్యుజరావ్యాధిదుఃఖదోషానుదర్శనమ్৷৷13.9৷৷
13.10
13
10
।।13.10।।आसक्तिरहित होना;  पुत्र,  स्त्री, घर आदिमें एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें चित्तका नित्य सम रहना।
।।13.10।। आसक्ति तथा पुत्र, पत्नी, गृह आदि में अनभिष्वङ्ग (तादात्म्य का अभाव); और इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता।।
।।13.10।। असक्ति अर्जित की हुयी वस्तुओं से होने वाली सामान्य प्रीति को सक्ति अर्थात् संग कहते हैं। उसका अभाव असक्ति कहलाता है। हमें जो दुख होता है? वह विषयों के कारण नहीं? हमारे उसके साथ के मानसिक संग के कारण होता है। जैसै? अग्नि स्वयं किसी को नहीं जला सकती? जब तक कि कोई उसे स्पर्श न करे।पुत्र? भार्या और गृहादिक में अनभिष्वंग अति स्नेह को अभिष्वंग कहते हैं। अत उसका अभाव ही अनभिष्वंग कहलाता है। जब किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति सामान्य प्रीति बढ़कर आसक्ति का रूप ले लेती है? तब उसे अभिष्वंग कहते हैं। इस आसक्ति का लक्षण है यह है कि मनुष्य को अपनी प्रिय वस्तु या व्यक्ति के साथ इतना तादात्म्य हो जाता है कि उनके सुखदुख उसे अपने ही अनुभव होते हैं। इसका स्पष्ट उदाहरण है पुत्र के प्रति माता की आसक्ति का। इस प्रकार की आसक्ति के कारण व्यक्ति के मन में सदा विक्षेप बना रहता है और वह कार्य करने में भी अकुशल हो जाता है।हमें अपने आन्तरिक व्यक्तित्व के चारों ओर विवेक की ऐसी दीवार खड़ी करनी चाहिये कि ये सभी विक्षेप हमसे दूर रहें और मन का सन्तुलन सदा बना रहे जिसके बिना किसी प्रकार की प्रगति या समृद्धि कदापि संभव नहीं होती।प्रिय और अप्रिय परिस्थितियों में चित्त की समता को सतत अभ्यास करते रहने से प्राप्त किया जा सकता है। यदि मनुष्य अपनी मूढ़ प्रीति और आसक्ति के बन्धनों से मुक्त हो जाये? तो उसे अपने में ही अतिरिक्त शक्ति का भण्डार प्राप्त होता है? जिसका उसे सही दिशा में सदुपयोग करना चाहिये? अन्यथा वही शक्ति आत्मघातक सिद्ध हो सकती है।वह सही दिशा क्या है इसे अगले श्लोक में बताते हैं
।।13.10।। व्याख्या --   असक्तिः -- उत्पन्न होनेवाली (सांसारिक) वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति आदिमें जो प्रियता है? उसको सक्ति कहते हैं। उस सक्तिसे रहित होनेका नाम असक्ति है।सांसारिक वस्तुओं? व्यक्तियों आदिसे सुख लेनेकी इच्छासे? सुखकी आशासे और सुखके भोगसे ही मनुष्यकी उनमें आसक्ति? प्रियता होती है। कारण कि मनुष्यको संयोगके सिवाय सुख नहीं दीखता? इसलिये उसको संयोगजन्य सुख प्रिय लगता है। परन्तु वास्तविक सुख संयोगके वियोगसे होता है (गीता 6। 23)? इसलिये साधकके लिये सांसारिक आसक्तिका त्याग करना बहुत आवश्यक है।उपाय -- संयोगजन्य सुख आरम्भमें तो अमृतकी तरह दीखता है? पर परिणाममें विषकी तरह होता है (गीता 18। 38)। संयोगजन्य सुख भोगनेवालेको परिणाममें दुःख भोगना ही पड़ता है -- यह नियम है। अतः संयोगजन्य सुखके परिणामपर दृष्टि रखनेसे उसमें आसक्ति नहीं रहती।अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु -- पुत्र? स्त्री? घर? धन? जमीन? पशु आदिके साथ माना हुआ जो घनिष्ठ सम्बन्ध है? गाढ़ मोह है? तादात्म्य है? मानी हुई एकात्मता है? जिसके कारण शरीरपर भी असर पड़ता है? उसका नाम अभिष्वङ्ग है (टिप्पणी प0 683)। जैसे -- पुत्रके साथ माताकी एकात्मता रहनेके कारण जब पुत्र बीमार हो जाता है? तब माताका शरीर कमजोर हो जाता है। ऐसे ही पुत्रके? स्त्रीके मर जानेपर मनुष्य कहता है कि मैं मर गया? धनके चले जानेपर कहता है कि मैं मारा गया? आदि। ऐसी एकात्मतासे रहित होनेके लिये यहाँ अनभिष्वङ्गः पद आया है।उपाय -- जिनके साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध दीखे? उनकी सेवा करे? उनको सुख पहुँचाये? पर उनसे सुख लेनेका उद्देश्य न रखे। उद्देश्य तो उनसे अभिष्वङ्ग (तादात्म्य) दूर करनेका ही रखे। अगर उनसे सेवा,लेनेका उद्देश्य रखेंगे तो उनसे तादात्म्य हो जायगा। हाँ? उनकी प्रसन्नताके लिये कभी उनसे सेवा लेनी भी पड़े तो उसमें राजी न हो क्योंकि राजी होनेसे अभिष्वङ्ग हो जायगा। तात्पर्य है कि किसीके साथ अपनेको लिप्त न करे। इस बातकी बहुत सावधानी रखे।नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु -- इष्ट अर्थात् मनके अनुकूल वस्तु? व्यक्ति? परिस्थिति? घटना आदिके प्राप्त होनेपर चित्तमें राग? हर्ष? सुख आदि विकार न हो और अनिष्ट अर्थात् मनके प्रतिकूल वस्तु? व्यक्ति आदिके प्राप्त होनेपर चित्तमें द्वेष? शोक? दुःख? उद्वेग आदि विकार न हो। तात्पर्य है कि अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके प्राप्त होनेपर चित्तमें निरन्तर समता रहे? चित्तपर उसका कोई असर न पड़े। इसको भगवान्ने सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा (2। 48)। पदोंसे भी कहा है।उपाय -- मनुष्यको जो कुछ अनुकूल सामग्री मिली है? उसको वह अपने लिये मानकर सुख भोगता है -- यह महान् बाधक है। कारण कि संसारकी सामग्री केवल संसारकी सेवामें लगानेके लिये ही मिली है? अपने शरीरइन्द्रियोंको सुख पहुँचानेके लिये नहीं। ऐसे ही मनुष्यको जो कुछ प्रतिकूल सामग्री मिली है? वह दुःख भोगनेके लिये नहीं मिली है? प्रत्युत संयोगजन्य सुखका त्याग करनेके लिये? मनुष्यको सांसारिक राग? आसक्ति? कामना? ममता आदिसे छुड़ानेके लिये ही मिली है। तात्पर्य है कि अनुकूल और प्रतिकूल -- दोनों परिस्थितियाँ मनुष्यको सुखदुःखसे ऊँचा उठाकर (उन दोनोंसे अतीत) परमात्मतत्त्वको प्राप्त करानेके लिये ही मिली हैं -- ऐसा दृढ़तासे मान लेनेसे साधकका चित्त इष्ट और अनिष्टकी प्राप्तिमें स्वतः सम रहेगा।
।।13.8 -- 13.12।।एवं क्षेत्रं व्याख्यातम्? क्षेत्रज्ञश्च। इदानीं ज्ञानमुच्यते -- अमानित्वमित्यादि अन्यथा इत्यन्तम्। अनन्ययोगेनेति -- परमात्मनो महेश्वारत् अन्यत् अपरं न किंचिदस्ति इत्यनन्यरूपो यो निश्चयः? स एव योगः तेन निश्चयेन मयि भक्तिः। अत एव सा न कदाचित् व्यभिचरति? व्यभिचारहेतुत्वाभिमतानां (S??N -- त्वाभिगतानाम्) कामनानामभावात्? तासामपि वा चित्तवृत्त्यन्तररूपाणां तदेकमयत्त्वात्। एवं सर्वत्रानुसन्धेयम्। एतद्विपरीतम् अज्ञानम् यथा मानित्वादीनि।
।।13.10।।मयि सर्वेश्वरे च ऐकान्तिकयोगेन स्थिरा भक्तिः जनवर्जितदेशवासित्वं जनसंसदि च अप्रीतिः।
।।13.10।।साधनान्तरमाह -- किञ्चेति। अनन्ययोगमेव संक्षिप्तं व्यनक्ति -- नेत्यादिना। उक्तधीद्वारा जाताया भक्तेर्भगवति स्थैर्यं दर्शयति -- नेति। तत्रापि ज्ञानशब्दस्तद्धेतुत्वादित्याह -- सा चेति। देशस्य विविक्तत्वं द्विविधमुदाहरति -- विविक्त इति। तदेव स्पष्टयति -- अरण्येति। उक्तदेशसेवित्वं कथं ज्ञाने हेतुस्तत्राह -- विविक्तेष्विति। आत्मादीत्यादिशब्देन परमात्मा वाक्यार्थश्चोच्यते। नन्वरतिविषयत्वेनाविशेषतो जनसंसन्मात्रं किमिति न गृह्यते तत्राह -- तस्या इति। सतः सङ्गस्य भेषजमित्युपालम्भादित्यर्थः।
।।13.10।।असक्ितरिति अमुत्र भोगविरागः।
।।13.10।।असक्तिरिति। किंच सक्तिर्ममेदमित्येतावन्मात्रेण प्रीतिः। अभिष्वङ्गस्त्वहमेवायमित्यनन्यत्वभावनया प्रीत्यतिशयः अन्यस्मिन् सुखिनि दुःखिनि वाऽहमेव सुखीदुःखीचेति तद्राहित्यमसक्तिरनभिष्वङ्ग इति चोक्तम्। कुत्र सक्त्यभिष्वङ्गौ वर्जनीयावत आह -- पुत्रेति। पुत्रदारगृहादिषु पुत्रेषु दारेषु गृहेषु आदिग्रहणादन्येष्वपि भृत्यादिषु सर्वेषु स्नेहविषयेष्वित्यर्थः। नित्यं च सर्वदा समचित्तत्वं हर्षविषादशून्यमनस्त्वम्। इष्टानिष्टोपपत्तिषु उपपत्तिः प्राप्तिः। इष्टोपपत्तिषु हर्षाभावोऽनिष्टोपपत्तिषु विषादाभाव इत्यर्थः। चः समुच्चये।
।।13.10।।किंच -- असक्तिरिति। असक्तिः पुत्रादिपदार्थेषु प्रीतित्यागः? अनभिष्वङ्गः पुत्रादीनां सुखे दुःखे वाऽहमेव सुखी दुःखी चेत्यध्यासातिरेकाभावः? इष्टानिष्टयोरुपपत्तिषु प्राप्तिषु नित्यं सर्वदा समचित्तत्वम्।
।।13.10।।पूर्वम्इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् [13।9] इति सांस्पर्शिकं शब्दादिविषये? विरक्तिरुक्ता? इदानींअसक्तिः इत्याभिमानिकेषु सङ्गरहितत्वमुच्यत इति पुनरुक्तिं परिहर्तुंआत्मव्यतिरिक्तपरिग्रहेष्वित्युक्तम्। तर्हि गृहस्थस्य मुमुक्षोराभिमानिकसर्वधर्मपरित्यागेन कथमाश्रमधर्मो निर्वर्त्येत इत्यत्रोच्यते -- अनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिष्विति। नात्र तेषूपयुक्तानामपि स्वरूपेण त्यागो विवक्षितः? प्रव्रजितस्याप्यवर्जनीयेषु सङ्गमात्रनिषेधात्?न कुड्यां नोदके सङ्गो न चेले न च विष्टरे। नागारे नासने नान्ये यस्य वै मोक्षवित्तु सः इति। अतो धर्मोपयुक्तत्वमात्रेण तु परिग्रह एवेत्यभिप्रायेणाह -- शास्त्रीयेति। सङ्गोऽभिष्वङ्गहेतुः?सङ्गात्सञ्जायते कामः [2।62] इत्युक्तत्वात्। अतः कारणाभावात्कार्याभाव इति भावः। अभिष्वङ्गोऽतिसक्तिः। सांस्पर्शिकेष्टानिष्टयोः समचित्तत्वस्याशक्यत्वादाह -- सङ्कल्पप्रभवेष्विति। पुत्रदारादिप्रसङ्गात्तद्विषयत्वं युक्तमेवेति च भावः।
।।13.10।।किञ्चअसक्तिरिति। पुत्रदारगृहादिपदार्थेष्वसक्तिः आसक्तिराहित्यम्। अनभिष्वङ्गः तेषु समदुःखसुखतया तन्मयत्वाभावः। इष्टानिष्टोपपत्तिषु इष्टानिष्टप्राप्तिषु नित्यं भगवदिच्छाविचारेण समचित्तत्वम्।
।।13.10।।असक्तिरिति। सक्तिः पुत्रादौ ममतामात्रम्। अभिष्वङ्गस्तेन सह तादात्म्याभिमानोऽयमेवाहमिति च। पुत्रादेः सुखेऽहमेव सुखी तस्य दुःखेऽहमेव दुःखीति सङ्गाभिष्वङ्गौ तद्वर्जनमित्यर्थः। समचित्तत्वं हर्षविषादराहित्यम्। कुत्र इष्टानिष्टोपपत्तिषु इष्टप्राप्तौ हर्षाभावोऽनिष्टप्राप्तौ विषादाभावः।
।।13.10।।किंचासक्तिः सङ्निमितेषु विषयेषु प्रीततिमात्रस्याभावः। अनभिष्वङ्गः अन्यस्मिन्पुत्रादौ सुखिनि वा जीवति मृते वाहमेव सुखी दुःखी च जीवामि मरिष्यामीति चेति। पुत्रादिषु तादात्म्यभावनालक्षणस्याभिष्वङ्गस्याभाव। आदिपदादन्यदप्यत्यन्तेषं दासपश्वादिकं गृह्यते। इष्टा नामनिष्टानां चोपपत्तिषु प्राप्तिषु नित्यं सर्वदा समचित्तत्वं इष्टोपपत्तिषु हर्षस्यानिष्टोपपत्तिषु कोपस्य च वर्जनं तच्चैतन्त्रयमपि ज्ञानान्तरङ्गसाधनत्वाज्ज्ञानमित्यर्थः।
13.10 असक्तिः nonattachment? अनभिष्वङ्गः nonidentification of the Self? पुत्रदारगृहादिषु in son? wife? home and the rest? नित्यम् constant? च and?समचित्तत्वम् evenmindedness? इष्टानिष्टोपपत्तिषु on the attainment of the desirable and the undesirable.Commentary When a man thinks? This object is mine? the idea of mineness enters his mind. He develops Abhimana (false identification). Then he begins to love the objects. He clings to them and gets attached to them. Asakti is nonattachment to objects. There is absence of liking for the objects.Anabhishvangah There is intense attachment to wife? son or mother? etc. There is complete identification of the Self with another. He feels happy or miserable when that person is happy or miserable. Govindan feels miserable when his wife is dead because he was very much attached to her but he does not feel anything when his neighbours wife is dead. A man of wisdom has no attachment to his home. He considers his home as a public inn on the side of a public road.And the rest Others who are very dear relatives or other dependants.Constant evenmindedness or eanimity is an index of knowledge. The man of wisdom is neither elated when he gets the desirable or pleasant objects? nor grieves when he attains the undesriable or painful objects.Nonattachment? absence of affection and eanimity are all conducive to the attainment of knowledge of the Self. They are designated as knowledge because they are the means of attaining knowledge.
13.10 Non-attachment, non-identification of the Self with son, wife, home and the rest, and constant even-mindedness on the attainment of the desirable and the undesirable.
13.10 Indifference, non-attachment to sex, progeny or home, equanimity in good fortune and in bad;
13.10 Non-attachment and absence of fondness with regard to sons, wives, homes, etc., and constant eanimity of the mind with regard to the attainment of the desirable and the undesirable;
13.10 Asaktih, non-attachment-attachment means merely the kind for things arising from association; the absence of that is asaktih; and anabhisvangah, absence of fondness-abhisvangah, is in fact a special kind of attachment consisting of the idea of self-identification; as for instance, thinking 'I myself am happy,' or, 'I am sorrowful,' when somody else is happy or unhappy, and thinking 'I live', or, 'I shall die,' when some- body else lives or dies-With regard to what? In answer the Lord says: putra-dara-grhadisu, with regard to sons, wives, homes, etc. From the use of 'etc.' (it is understood that this fondness is) even with regard to others who are liked very much-retinue of sevants and so on. And since both these (absence of attachment and fondness) lead to Knowledge, therefore they are called Knowledge. And nityam, constant; sama-cittatvam, eanimity of mind, mental eipoise;-with regard to what?-ista-anista-upapattisu, the attainment of the desirable and the undesirable; mental eipoise with regard to them, always, without exception. One does not become happy on the attainment of the desirable, nor does he become angry on the attainment of the undesirable. And that constant eanimity of mind which is of this kind is Knowledge Further,
13.10. Non-attachment; detachment towards [one's] children, wives, houses and the like; and a constant eal-mindedness on the occurrence of the desirable and the undesirable things;
13.10 See Comment under 13.12
13.10 'Non-attachment' means freedom from attachment to things other than the self. 'Absecne of clinging' to son, wife, home and the like means absence of excessive affection for these beyond the limits allowed by the Sastras. 'Constant even-mindedness' to all desirable and undesriable events means the state of freedom from joy and grief with regard to occurrences springing from desire.
13.10 Non-attachment, absence of clinging to son, wife, home and the like, and constant even-mindedness to all desirable and undesirable events;
।।13.10।।तथा --, असक्ति -- आसत्तिनिमित्तक विषयोंमें प्रीतिमात्रका नाम सक्ति है? उसका अभाव। अनभिष्वंग -- अभिष्वगंका अभाव। मोहपूर्वक अनन्य आत्मभावनारूप जो विशेष आसक्ति है उसका नाम अभिष्वंग है। जैसे दूसरेके सुखी या दुःखी होनेपर यह मानना कि मैं ही सुखीदुःखी हूँ। अथवा किसी अन्यके जीनेमरनेपर मैं ही जीता हूँ या मर जाऊँगा? ऐसा मानना। ( ऐसा अभिष्वंग ) कहाँ होता है ( सो कहते हैं ) पुत्र? स्त्री और घर आदिमें अर्थात् पुत्रमें? स्त्रीमें? घरमें तथा आदि शब्दका ग्रहण होनेसे अन्य जो कोई दासवर्ग आदि अत्यन्त प्रिय होते हैँ उनमें भी। असक्ति और अनभिष्वंग ये दोनों ही ज्ञानके साधन हैं? इसलिये इनको भी ज्ञान कहते हैं। तथा नित्य समचित्तता अर्थात् निरन्तर चित्तकी समानता -- किसमें इष्ट अथवा अनिष्टकी प्राप्तिमें? अर्थात् प्रिय और अप्रियकी जो बारंबार प्राप्ति होती रहती है उसमें सदा ही चित्तका सम रहना। इस साधनवाला प्रियकी प्राप्तिमें हर्षित नहीं होता और अप्रियकी प्राप्तिमें क्रोधयुक्त नहीं होता। इस प्रकारकी जो चित्तकी नित्य समता है वह भी ज्ञान है।
।।13.10।। --,असक्तिः सक्तिः सङ्गनिमित्तेषु विषयेषु प्रीतिमात्रम्? तदभावः असक्तिः। अनभिष्वङ्गः अभिष्वङ्गाभावः। अभिष्वङ्गो नाम आसक्तिविशेष एव अनन्यात्मभावनालक्षणः यथा अन्यस्मिन् सुखिनि दुःखिनि वा अहमेव सुखी? दुःखी च? जीवति मृते वा अहमेव जीवामि मरिष्यामि च इति। क्व इति आह -- पुत्रदारगृहादिषु? पुत्रेषु दारेषु गृहेषु आदिग्रहणात् अन्येष्वपि अत्यन्तेष्टेषु दासवर्गादिषु। तच्च उभयं ज्ञानार्थत्वात् ज्ञानमुच्यते। नित्यं च समचित्तत्वं तुल्यचित्तता। क्व इष्टानिष्टोपपत्तिषु इष्टानामनिष्टानां च उपपत्तयः संप्राप्तयः तासु इष्टानिष्टोपपत्तिषु नित्यमेव तुल्यचित्तता। इष्टोपपत्तिषु न हृष्यति? न कुप्यति च अनिष्टोपपत्तिषु। तच्च एतत् नित्यं समचित्तत्वं ज्ञानम्।।किञ्च --,
।।13.10।।सक्त्यभिष्वङ्गशब्दयोरर्थभेदमाह -- सक्तिरिति।
।।13.10।।सक्तिः स्नेहः। स एवातिपक्वोऽभिष्वङ्गः।स्नेहः सक्तिः स एवातिपक्वोऽभिष्वङ्ग उच्यते इत्यभिधानम्।
असक्ितरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु। नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।13.10।।
অসক্িতরনভিষ্বঙ্গঃ পুত্রদারগৃহাদিষু৷ নিত্যং চ সমচিত্তত্বমিষ্টানিষ্টোপপত্তিষু৷৷13.10৷৷
অসক্িতরনভিষ্বঙ্গঃ পুত্রদারগৃহাদিষু৷ নিত্যং চ সমচিত্তত্বমিষ্টানিষ্টোপপত্তিষু৷৷13.10৷৷
અસક્િતરનભિષ્વઙ્ગઃ પુત્રદારગૃહાદિષુ। નિત્યં ચ સમચિત્તત્વમિષ્ટાનિષ્ટોપપત્તિષુ।।13.10।।
ਅਸਕ੍ਿਤਰਨਭਿਸ਼੍ਵਙ੍ਗ ਪੁਤ੍ਰਦਾਰਗਰਿਹਾਦਿਸ਼ੁ। ਨਿਤ੍ਯਂ ਚ ਸਮਚਿਤ੍ਤਤ੍ਵਮਿਸ਼੍ਟਾਨਿਸ਼੍ਟੋਪਪਤ੍ਤਿਸ਼ੁ।।13.10।।
ಅಸಕ್ಿತರನಭಿಷ್ವಙ್ಗಃ ಪುತ್ರದಾರಗೃಹಾದಿಷು. ನಿತ್ಯಂ ಚ ಸಮಚಿತ್ತತ್ವಮಿಷ್ಟಾನಿಷ್ಟೋಪಪತ್ತಿಷು৷৷13.10৷৷
അസക്ിതരനഭിഷ്വങ്ഗഃ പുത്രദാരഗൃഹാദിഷു. നിത്യം ച സമചിത്തത്വമിഷ്ടാനിഷ്ടോപപത്തിഷു৷৷13.10৷৷
ଅସକ୍ିତରନଭିଷ୍ବଙ୍ଗଃ ପୁତ୍ରଦାରଗୃହାଦିଷୁ| ନିତ୍ଯଂ ଚ ସମଚିତ୍ତତ୍ବମିଷ୍ଟାନିଷ୍ଟୋପପତ୍ତିଷୁ||13.10||
asakitaranabhiṣvaṅgaḥ putradāragṛhādiṣu. nityaṅ ca samacittatvamiṣṭāniṣṭōpapattiṣu৷৷13.10৷৷
அஸக்ிதரநபிஷ்வங்கஃ புத்ரதாரகரிஹாதிஷு. நித்யஂ ச ஸமசித்தத்வமிஷ்டாநிஷ்டோபபத்திஷு৷৷13.10৷৷
అసక్ితరనభిష్వఙ్గః పుత్రదారగృహాదిషు. నిత్యం చ సమచిత్తత్వమిష్టానిష్టోపపత్తిషు৷৷13.10৷৷
13.11
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।।13.11।।मेरेमें अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्तिका होना, एकान्त स्थानमें रहनेका स्वभाव होना और जन-समुदायमें प्रीतिका न होना।
।।13.11।। अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।।
।।13.11।। संभवत अर्जुन के क्रियाशील स्वभाव से बाध्य होकर या फिर भगवान् श्रीकृष्ण के समाज सुधारक होने से? जो कुछ भी हो? भगवद्गीता हमें जिस रूप में उपलब्ध है? वह आत्मोपलब्धि के विषय का अत्यन्त व्यावहारिक शास्त्रग्रन्थ है। जब कभी भी गीताचार्य अपने शिष्य को किसी मानसिक या बौद्धिक गुणविशेष को विकसित करने का उपदेश देते हैं तब तत्काल ही वे उसके सम्पादन का व्यावहारिक अभ्यसनीय उपाय भी बताते हैं।यदि कोई साधक पूर्व के तीन श्लोकों में वणिर्त गुणों का स्वयं में विकास करता है? तो वह निश्चित ही अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन व्यवहार में बहुत अधिक शक्ति का संचय कर सकता है। यह श्लोक बताता है कि किस प्रकार इस अतिरिक्त शक्ति का वह सही दिशा में सदुपयोग करे? जिससे कि आत्मविकास में उसका लाभ मिल सके।अनन्ययोग से मुझ में अव्यभिचारिणी भक्ति अनन्यता का अर्थ है मन का ध्येय विषय में एकाग्र हो जाना। इसके लिये विजातीय वृत्तियों का सर्वथा त्याग करके ध्येयविषयक वृत्ति को ही बनाये रखने का अभ्यास आवश्यक होता है। ध्यान या भक्ति में इस स्थिरता के नष्ट होने के लिए दो कारण हो सकते हैं या तो साधक के मन की अस्थिरता या फिर ध्येय का ही निश्चित नहीं होना जब तक ये दोनों ही स्थिर नहीं होते? भक्ति या ध्यान सफल नहीं हो सकता। यदि हमारी भक्ति एक मूर्ति से अन्य मूर्ति में परिवर्तित होती रहती है तो एकाग्रता कैसे सम्भव हो सकती है इसलिये? यहाँ कहा गया है कि योग में प्रगति और विकास के लिए अनन्य योग से परमात्मा की भक्ति आवश्यक है। यहाँ लक्ष्य की स्थिरता के विषय में कहा गया है।अविभाजित ध्यान तथा मन में उत्साह के होने पर पर भक्ति में एकाग्रता आना सरल कार्य हो जाता है। अन्यथा मन ही विद्रोह करके स्वकल्पित मिथ्या आकर्षणों में भटकता रह सकता है।ध्यानाभ्यास के समय मन के अत्यन्त निम्न और घृणित कोटि के विषयों में विचरण करने के विषय में जिस प्रतीकात्मक वाक्य का प्रयोग भगवान् ने किया है उससे ही ज्ञात होता है कि वे मन के इस विचरण की कितनी कठोरता से निन्दा करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि साधक की परम्परा में अव्यभिचारी भक्ति होनी चाहिये। व्याभिचार का अर्थ है किसी तुच्छ लाभ के लिये अपनी क्षमताओं एवं सुन्दरता का विक्रय करना। ईश्वर में समाहित चित्त ही ध्यान में एकनिष्ठ हो सकता है। यहाँ अव्यभिचारी शब्द से साधक को यह चेतावनी दी जाती है कि उसका ध्यान अनेक देवीदेवताओं अथवा विचारों में न भटके? वरन् चुने हुये ध्येय के साथ एकनिष्ठ रहे।इस प्रकार का सुगठित जीवन तथा ध्यान की स्थिरता तब सम्भव होती है? जब साधक उनके अनुकूल वातावरण में रहता है। इस बात को इन दो गुणों से दर्शाया गया है (क) एकान्तवास का सेवन? तथा? (ख) जनसमुदाय में अरुचि। मनुष्य का मन जितना अधिक शुद्ध एवं भोगों से विरत होता जाता है? उसकी ज्ञान की जिज्ञासा उतनी ही अधिक बढ़ती जाती है। स्वाभाविक ही है कि फिर वह ज्ञान की पिपासा को शान्त करने के लिए लोगों के समुदाय से दूर जहाँ ज्ञान उपलब्ध हो वहाँ चला जाता है। यह बात कवि? लेखक? वैज्ञानिक आदि लोगों के विषय में भी सत्य है। इन सबको फिर एक ही लक्ष्य दिखाई देता है और इन्हें लौकिक बातों में कोई रुचि नहीं रह जाती।यहाँ जिस समुदाय में अरुचि रखने को कहा गया है वह असंस्कृत? असभ्य? भोगों में आसक्त जनों के समुदाय के सम्बन्ध में कहा गया है? न कि सन्त पुरुषों के संग से। सत्संग तो ज्ञान का साधक होता है बाधक नहीं। एकान्तवास? तथा जनसमुदाय से अरुचि का कोई व्यक्ति यह विपरीत अर्थ न समझे कि यहाँ जगत् से पलायन या समाज से द्वेष करने को कहा,गया है।
।।13.11।। व्याख्या --   मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी -- संसारका आश्रय लेनेके कारण साधकका देहाभिमान बना रहता है। यह देहाभिमान अव्यक्तके ज्ञानमें प्रधान बाधा है। इसको दूर करनेके लिये भगवान् यहाँ तत्त्वज्ञानका उद्देश्य रखकर अनन्ययोगद्वारा अपनी अव्यभिचारिणी भक्ति करनेका साधन बता रहे हैं। तात्पर्य है कि भक्तिरूप साधनसे भी देहाभिमान सुगमतापूर्वक दूर हो सकता है।भगवान्के सिवाय और किसीसे कुछ भी पानेकी इच्छा न हो अर्थात् भगवान्के सिवाय मनुष्य? गुरु? देवता? शास्त्र आदि मेरेको उस तत्त्वका अनुभव करा सकते हैं तथा अपने बल? बुद्धि? योग्यतासे मैं उस तत्त्वको प्राप्त कर लूँगा -- इस प्रकार किसी भी वस्तु? व्यक्ति आदिका सहारा न हो और भगवान्की कृपासे ही मेरेको उस तत्त्वका अनुभव होगा -- इस प्रकार केवल भगवान्का ही सहारा हो -- यह भगवान्में अनन्ययोग होना है।अपना सम्बन्ध केवल भगवान्के साथ ही हो? दूसरे किसीके साथ किञ्चिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न हो -- यह भगवान्में अव्यभिचारिणी भक्ति होना है।तात्पर्य है कि तत्त्वप्राप्तिका साधन (उपाय) भी भगवान् ही हों और साध्य (उपेय) भी भगवान् ही हों -- यही अनन्ययोगके द्वारा भगवान्में अव्यभिचारिणी भक्तिका होना है।जिस साधकमें ज्ञानके साथसाथ भक्तिके भी संस्कार हों? उसके लिये यह साधन बहुत उपयोगी है। भक्तिपरायण साधक अगर तत्त्वज्ञानका उद्देश्य रखकर एकमात्र भगवान्का ही आश्रय ग्रहण करता है? तो केवल इसी साधनसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति कर सकता है। गुणातीत होनेके उपायोंमें भी भगवान्ने अव्यभिचारिणी भक्तिकी बात कही है (गीता 14। 26)। शङ्का -- यहाँ तो भक्तिसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति बतायी गयी है और अठारहवें अध्यायके चौवनवेंपचपनवें श्लोकोंमें ज्ञानसे भक्तिकी प्राप्ति कही गयी है? ऐसा क्योंसमाधान -- जैसे भक्ति दो प्रकारकी होती है -- साधनभक्ति और साध्यभक्ति? ऐसे ही ज्ञान भी दो प्रकारका होता है -- साधनज्ञान और साध्यज्ञान। साध्यभक्ति और साध्यज्ञान -- दोनों तत्त्वतः एक ही हैं। साधनभक्ति और साधनज्ञान -- ये दोनों साध्यभक्ति अथवा साध्यज्ञानकी प्राप्तिके साधन हैं। अतः जहाँ भक्तिसे तत्त्वज्ञान(साध्यज्ञान) की प्राप्तिकी बात कही है? वह भी ठीक है और जहाँ ज्ञानसे पराभक्ति(साध्यभक्ति) की प्राप्तिकी बात कही है? वह भी ठीक है। अतः साधकको चाहिये कि उसमें कर्म? ज्ञान अथवा भक्ति -- जिस संस्कारकी प्रधानता हो? उसीके अनुरूप साधनमें लग जाय। सावधानी केवल इतनी रखे कि उद्देश्य केवल परमात्माका ही हो? प्रकृति अथवा उसके कार्यका नहीं। ऐसा उद्देश्य होनेपर वह उसी साधनसे परमात्माको प्राप्त कर लेता है।शङ्का -- भगवान्ने ज्ञानके साधनोंमें अपनी भक्तिको किसलिये बताया क्या ज्ञानयोगका साधक भगवान्की भक्ति भी करता हैसमाधान -- ज्ञानयोगके साधक (जिज्ञासु) दो प्रकारके होते हैं -- भावप्रधान (भक्तिप्रधान) और विवेकप्रधान (ज्ञानप्रधान)।(1) भावप्रधान जिज्ञासु वह है? जो भगवान्का आश्रय लेकर तत्त्वको जानना चाहता है (गीता 7। 16 13। 18)। इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें माम्? मम्? तीसरे श्लोकमें मे? इस (दसवें) श्लोकमें मयि और अठारहवें श्लोकमें मद्भक्तः तथा मद्भावाय पदोंके आनेसे सिद्ध होता है कि अठारहवें श्लोकतक भावप्रधान जिज्ञासुका प्रकरण है। परन्तु उन्नीसवेंसे चौंतीसवें श्लोकतक एक बार भी अस्मद् (मैं वाचक) पदका प्रयोग नहीं हुआ है? इसलिये वहाँ विवेकप्रधान जिज्ञासुका प्रकरण है। अतः यहाँ भावप्रधान जिज्ञासुका प्रसङ्ग होनेसे ज्ञानके साधनोंके अन्तर्गत भक्तिरूप साधनका वर्णन किया गया है।दूसरी बात? जैसे सात्त्विक भोजनमें पुष्टिके लिये घी या दूधकी आवश्यकता होती है? तो वहाँ घी और दूध सात्त्विक भोजनके साथ मिलकर भी पुष्टि करते हैं और अकेलेअकेले भी पुष्टि करते हैं। ऐसे ही भगवान्की भक्ति ज्ञानके साधनोंमें मिलकर भी परमात्मप्राप्तिमें सहायक होती है और अकेली भी गुणातीत बना देती है (गीता 14। 26)। पातञ्जलयोगदर्शनमें भी परमात्मप्राप्तिके लिये अष्टाङ्गयोगके साधनोंमें सहायकरूपसे ईश्वरप्रणिधान अर्थात् भक्तिरूप नियम कहा है (टिप्पणी प0 684.1) और उसी भक्तिको स्वतन्त्ररूपसे भी कहा है (टिप्पणी प0 684.2)। इससे सिद्ध होता है कि भक्तिरूप साधन अपनी एक अलग विशेषता रखता है। इस विशेषताके कारण भी ज्ञानके साधनोंमें भक्तिका वर्णन किया गया है।(2) विवेकप्रधान जिज्ञासु वह है? जो सत्असत्का विचार करते हुए तीव्र विवेकवैराग्यसे युक्त होकर तत्त्वको जानना चाहता है (गीता 13। 19 -- 34)।विचार करके देखा जाय तो आजकल आध्यात्मिक जिज्ञासाकी कमी और भोगासक्तिकी बहुलताके कारण विवेकप्रधान जिज्ञासु बहुत कम देखनेमें आते हैं। ऐसे साधकोंके लिये भक्तिरूप साधन बहुत उपयोगी है। अतः यहाँ भक्तिका वर्णन करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है।उपाय -- केवल भगवान्को ही अपना मानना और भगवान्का ही आश्रय लेकर श्रद्धाविश्वासपूर्वक भगवन्नामका जप? कीर्तन? चिन्तन? स्मरण आदि करना ही भक्तिका सुगम उपाय है।विविक्तदेशसेवित्वम् -- मैं एकान्तमें रहकर परमात्मतत्त्वका चिन्तन करूँ? भजनस्मरण करूँ? सत्शास्त्रोंका स्वाध्याय करूँ? उस तत्त्वको गहरा उतरकर समझूँ? मेरी वृत्तियोंमें और मेरे साधनमें कोई भी विघ्नबाधा न पड़े? मेरे साथ कोई न रहे और मैं किसीके साथ न रहूँ -- साधककी ऐसी स्वाभाविक अभिलाषाका नाम,विविक्तदेशसेवित्व है। तात्पर्य यह हुआ कि साधककी रुचि तो एकान्तमें रहनेकी ही होनी चाहिये? पर ऐसा एकान्त न मिले तो मनमें किञ्चिन्मात्र भी विकार नहीं होना चाहिये। उसके मनमें यही विचार होना चाहिये कि संसारके सङ्गका? संयोगका तो स्वतः ही वियोग हो रहा है और स्वरूपमें असङ्गता स्वतःसिद्ध है। इस स्वतःसिद्ध असङ्गतामें संसारका सङ्ग? संयोग? सम्बन्ध कभी हो ही नहीं सकता। अतः संसारका सङ्ग कभी बाधक हो ही नहीं सकता।केवल निर्जन वन आदिमें जाकर और अकेले पड़े रहकर यह मान लेना कि मैं एकान्त स्थानमें हूँ वास्तवमें भूल ही है क्योंकि सम्पूर्ण संसारका बीज यह शरीर तो साथमें है ही। जबतक इस शरीरके साथ सम्बन्ध है? तबतक सम्पूर्ण संसारके साथ सम्बन्ध बना ही हुआ है। अतः एकान्त स्थानमें जानेका लाभ तभी है? जब देहाभिमानके नाशका उद्देश्य मुख्य हो।वास्तविक एकान्त वह है? जिसमें एक तत्त्वके सिवाय दूसरी कोई चीज न उत्पन्न हुई? न है और न होगी। जिसमें न इन्द्रियाँ हैं? न प्राण हैं? न मन है और न अन्तःकरण है। जिसमें न स्थूलशरीर है? न सूक्ष्मशरीर है और न कारण शरीर है। जिसमें न व्यष्टि शरीर है और न समष्टि संसार है। जिसमें केवल एक तत्त्वहीतत्त्व है अर्थात् एक तत्त्वके सिवाय और कुछ है ही नहीं। कारण कि एक परमात्मतत्त्वके सिवाय पहले भी कुछ नहीं था और अन्तमें भी कुछ नहीं रहेगा। बीचमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है? वह भी प्रतीतिके द्वारा ही प्रतीत हो रहा है अर्थात् जिनसे संसार प्रतीत हो रहा है? वे इन्द्रियाँ अन्तःकरण आदि भी स्वयं प्रतीति ही हैं। अतः प्रतीतिके द्वारा ही प्रतीति हो रही है। हमारा (स्वरूपका) सम्बन्ध शरीर और अन्तःकरणके साथ कभी हुआ ही नहीं क्योंकि शरीर और अन्तःकरण प्रकृतिका कार्य है और स्वरूप सदा ही प्रकृतिसे अतीत है। इस प्रकार अनुभव करना ही वास्तवमें विविक्तदेशसेवित्व है।अरतिर्जनसंसदि -- साधारण मनुष्यसमुदायमें प्रीति? रुचि न हो अर्थात् कहाँ क्या हो रहा है? कब क्या होगा? कैसे होगा आदिआदि सांसारिक बातोंको सुननेकी कोई भी इच्छा न हो तथा समाचार सुनानेवाले लोगोंसे मिलें? कुछ समाचार प्राप्त करें -- ऐसी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा? प्रीति न हो। परन्तु हमारेसे कोई तत्त्वकी बात पूछना चाहता है? साधनके विषयमें चर्चा करना चाहता है? उससे मिलनेके लिये मनमें जो इच्छा होती है? वह अरतिर्जनसंसदि नहीं है। ऐसे ही जहाँ तत्त्वकी बात होती हो? आपसमें तत्त्वका विचार होता हो अथवा हमारी दृष्टिमें कोई परमात्मतत्त्वको जाननेवाला हो? ऐसे पुरुषोंके सङ्गकी जो रुचि होती है? वह जनसमुदायमें रुचि नहीं कहलाती? प्रत्युत वह तो आवश्यक है। कहा भी गया है -- सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्त्युक्तं न शक्यते। स सद्भिः सह कर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम्।।अर्थात् आसक्तिपूर्वक किसीका भी सङ्ग नहीं करना चाहिये परन्तु अगर ऐसी असङ्गता न होती हो? तो श्रेष्ठ पुरुषोंका सङ्ग करना चाहिये। कारण कि श्रेष्ठ पुरुषोंका सङ्ग असङ्गता प्राप्त करनेकी औषध है।
।।13.8 -- 13.12।।एवं क्षेत्रं व्याख्यातम्? क्षेत्रज्ञश्च। इदानीं ज्ञानमुच्यते -- अमानित्वमित्यादि अन्यथा इत्यन्तम्। अनन्ययोगेनेति -- परमात्मनो महेश्वारत् अन्यत् अपरं न किंचिदस्ति इत्यनन्यरूपो यो निश्चयः? स एव योगः तेन निश्चयेन मयि भक्तिः। अत एव सा न कदाचित् व्यभिचरति? व्यभिचारहेतुत्वाभिमतानां (S??N -- त्वाभिगतानाम्) कामनानामभावात्? तासामपि वा चित्तवृत्त्यन्तररूपाणां तदेकमयत्त्वात्। एवं सर्वत्रानुसन्धेयम्। एतद्विपरीतम् अज्ञानम् यथा मानित्वादीनि।
।।13.11। आत्मनि ज्ञानम् अध्यात्मज्ञानं तन्निष्ठत्वम्? तत्त्वज्ञानार्थदर्शनं तत्त्वज्ञानप्रयोजनं यत् तत्त्वं तन्निरतत्वम् इत्यर्थः। ज्ञायते अनेन आत्मा इति ज्ञानम् आत्मज्ञानसाधनम् इत्यर्थः। क्षेत्रसंबन्धिनः पुरुषस्य अमानित्वादिकम् उक्तं गुणवृन्दम् एव आत्मज्ञानोपयोगि? एतद्व्यतिरिक्तं सर्वं क्षेत्रकार्यम् आत्मज्ञानविरोधि इति अज्ञानम्।अथएतद् यो वेत्ति (गीता 13।1) इति वेदितृत्वलक्षणेन उक्तस्य क्षेत्रज्ञस्य स्वरूपं विशोध्यते --
।।13.11।।साधनान्तरमाह -- किञ्चेति। आत्मादीत्यादिशब्दोऽनात्मार्थस्तद्विषयं ज्ञानं विवेकस्तन्नित्यत्वं तत्रैव निष्ठावत्त्वं? विवेकनिष्ठो हि वाक्यार्थज्ञानसमर्थो भवति। तेषां भावनापरिपाको नाम यत्नेन साधितानां प्रकर्षपर्यन्तत्वं तन्निमित्तं तत्त्वज्ञानमैक्यसाक्षात्कारः। तत्फलालोचनं किमर्थमित्याशङ्क्याह -- तत्त्वेति। प्रवृत्तिः स्यादित्यतस्तत्त्वज्ञानार्थदर्शनमर्थवदिति शेषः। ज्ञानस्यान्तरङ्गहेतुमुक्तमुपसंहरति -- एतदिति। किमिति तस्य विज्ञेयत्वमित्याशङ्क्याह -- परिहरणायेति। तत्र हेतुः -- संसारेति। तस्य प्रवृत्तिरुत्पत्तिस्तद्धेतुत्वान्मानित्वादि त्याज्यं ज्ञाते च त्याज्यत्वे तेन तस्य ज्ञेयतेत्यर्थः। इतिशब्दः साधनाधिकारसमाप्त्यर्थः।
।।13.11।।मयि चेति। अनन्ययोगेन अव्यभिचारिणी निर्हेतुकी भक्तिर्मध्ये हृदयरूपोक्ता।
।।13.11।।मयीति। किंच मयि च भगवति वासुदेवे परमेश्वरे भक्तिः सर्वोत्कृष्टत्वज्ञानपूर्विका प्रीतिः। अनन्ययोगेन नान्यो भगवतो वासुदेवात्परोऽस्त्यतः स एव नो गतिरित्येवं निश्चयेनाव्यभिचारिणी केनापि प्रतिकूलेन हेतुना निवारयितुमशक्या। सापि ज्ञानहेतुः प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे न मुच्यते देहयोगेन तावदित्युक्तेः। विविक्तः स्वभावतः संस्कारतो वा शुद्धोऽशुचिभिः सर्पव्याघ्रादिभिश्च रहितः सुरधुनीपुलिनादिश्चित्तप्रसादकरो देशस्तत्सेवनशीलनत्वं विविक्तदेशसेवित्वम्। तथाच श्रुतिःसमे शुचौ शर्करवह्निवालुकाविवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः। मनोनुकूले न तु चक्षुःपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् इति। जनानामात्मज्ञानविमुखानां विषयभोगलम्पटोपदेशकानां संसदि समवाये तत्त्वज्ञानप्रतिकूलायामरतिररमण्। साधूनां तु संसदि तत्त्वज्ञानानुकूलायां रतिरुचितैव। तथाचोक्तम्सङ्गः सर्वात्मना हेयः स चेत्त्युक्तं न शक्यते। स सद्भिः सह कर्तव्यः सन्तसङ्गो हि भेषजम् इति।
।।13.11।।किंच -- मयि चेति। मयि परमेश्वरे अनन्ययोगेन सर्वात्मदृष्ट्या अव्यभिचारिणी एकान्तभक्तिः? विविक्तः शुद्धिचित्तप्रसादकरः तं देशं सेवितुं शीलं यस्य तस्य भावस्तत्त्वम्? प्राकृतानां जनानां संसदि सभायामरती रत्यभावः।
।।13.11।।मयि इत्यनेनान्यभक्त्युन्मूलनेनाव्यभिचारित्वोपयुक्ताकारविवक्षामाह -- मयि सर्वेश्वर इति।अनन्ययोगेन इति देवतान्तरादिपरित्यागः सङ्गृहीतः। तत एव चाव्यभिचारित्वं तन्मूलं स्थैर्यम्? अन्यथा पुनरुक्तेरित्यभिप्रायेणाहऐकान्त्ययोगेन स्थिरेति।अनन्ययोगेनापृथक्समाधिना इति शङ्करोक्तमेतेन प्रत्युक्तम्। न व्यभिचरितुं शीलमस्या इत्यव्यभिचारिणीति। समाधिविरोधपरिहाराद्यर्थंविविक्तेत्यादिअहेरिव गणाद्भीतः इत्यादिवत्। उक्तं च मोक्षधर्मेनैतादृशं ब्राह्मणस्यास्ति वित्तं यथैकता समता सत्यता च। सत्यं धृति(शीले स्थिति)र्दण्डनिधानमार्जवं ततस्ततश्चोपरमः क्रियाभ्यः [म.भा.12।277।37] इति। जनोऽत्र सत्त्वोत्तरेतरः।
।।13.11।।च पुनः मयि अनन्ययोगेन लौकिकालौकिकेषु मच्छरणतया अव्यभिचारिणी अन्यत्र सद्बुद्धिराहित्येन भक्तिः? विविक्तदेशसेवित्वं भगवत्परिपन्थिरहिततद्देशसेवनशीलत्वम्? अरतिर्जनसंसदि जननादिक्लेशयुक्तलौकिकजीवसभायां अरतिः प्रतिष्ठाद्यनाकाङ्क्षा।
।।13.11।।मयीतिश्लोकः स्पष्टार्थः।
।।13.11।।किंच मयि परमेश्वरेऽनन्ययोगेन नान्यो भगवतो वासुदेवात्परोऽस्त्यतः स एव नो गतिरित्येवं निश्चिताऽव्यभिचारिणी बुद्धिरनन्ययोगोऽपृथक्समाधिस्तेन भजनं भक्तिः केनापि कारणेन न व्यभिचरणशीलाऽव्यभिचारिणई। सा च ज्ञानान्तरङ्गसाधनत्वाज्ज्ञानम्।येषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धियोगं तं येन मानुपयान्ति ते।वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यत्तदहैतुकम् इत्युक्तेः। विविक्तं स्वभावतः संस्कारेण वा अशुच्यादिभिः सर्पव्याघ्रादिभिश्च वर्जितं वननदीतटदेवालयादिदेशं सेव्रितं शीलमस्येति विविक्तदेशसेवी तस्य भावो विविक्तदेशसेवित्वम्। यतो विविक्तात्मभावनाचित्तप्रसादहेतुभूतेषु विविक्तदेशेषु सिध्यत्यतो विविक्तदेशसेवित्वं ज्ञानसाधनत्वाज्ज्ञानम्। तथाच श्रुतिःसमे शुौ शर्करवह्निवालुकाविवर्जिते शब्दजलाशयादिभिः। मनोकूले नतु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत् इति। जनानां प्राकृतानां विषयलम्पटानां अविनीतानां कालहोन्मिषितचित्तानां संसत्समवायस्तत्रारतिरप्रीतिर्नतु संस्कारवतां विनीतानां तत्त्वविदां संसदि। तस्याः ज्ञानोपकारकत्वात्। तथाचोक्तंसङ्गः सर्वात्मना हेयः स चेत्यक्तुं न शक्यते। स सद्भिः सह कर्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भषजम् इति।
13.11 मयि in Me? च and? अनन्ययोगेन by the Yoga of nonseparation? भक्तिः devotion? अव्यभिचारिणी unswerving? विविक्तदेशसेवित्वम् resort to solitary places? अरतिः distaste? जनसंसदि in the society of men.Commentary The man of wisdom is firmly convinced that there is nothing higher than Me and that I am the sole refuge. He has unflinching devotion to Me through Yoga without any thought,for other objects. His mind has merged or entered into Me. Just as a river? when it merges itself in the ocean becomes completely one with it? even so he? being united with Me? worships only Me. This is Ananya Yoga or Aprithak Samadhi (Yoga of nonseparation or the superconscious state in which the devotee feels that he is nondistinct from God). Such devotion is a means of attaining knowledge. Such a devotee will never give up his devotion and worship even when he is under great trials and adversities.Viviktadesasevitvam He lives on the banks of sacred rivers? in caves? in the mountains? on the shores of seas or lakes and in beautiful solitary gardens where there is no fear of serpents? tigers or thieves. In solitary places the mind is ite calm. There are no disturbing elements that can distract ones attention. You can have uninterrupted meditation on the Self and can enter into Samadhi ickly.Society of men Distaste for the society of worldlyminded people? not of the wise? pure and holy. Satsanga or association with the wise is a means to the attainment of the knowledge of the Self.
13.11 Unswerving devotion unto Me by the Yoga of non-separation, resort to solitary places, distaste for the society of men.
13.11 Unswerving devotion to Me, by concentration on Me and Me alone, a love for solitude, indifference to social life;
13.11 And unwavering devotion to Me with single-minded concentration; inclination to repair into a clean place; lack of delight in a crowd of people;
13.11 Ca, and; avyabhicarini, unwavering-not having any tendency to deviate; bhaktih, devotion; mayi, to Me, to God; ananya-yogena, with single-minded concentration, with undivided concentration-ananyayogah is the decisive, unswerving conviction of this kind: 'There is none superior to Lord Vasudeva, and hence He alone is our Goal'; adoration with that. That too is Knowledge. Vivikta-desa-sevitvam, inclination to repair into a clean place-a place (desa) naturally free (vivikta) or made free from impurity etc. and snakes, tigers, etc.; or, place made solitary (vivikta) by being situated in a forest, on a bank of a river, or in a temple; one who is inclined to seek such a place is vivikta-desa-sevi, and the abstract form of that is vivikta-desa-sevitvam. Since the mind becomes calm in places that are indeed pure (or solitary), therefore meditation on the Self etc. occurs in pure (or solitary) places. Hence the inclination to retire into clean (or solitary) places is called Knowledge. Aratih, lack of delight, not being happy; jana-samadi, in crowd of people-an assemblage, a multitude of people without culture, lacking in purity and immodest-, (but) not (so) in a gathering of pure and modest persons since that is conducive to Knowledge. Hence, lack of delight in an assembly of common people is Knowledge since it leads to Knowledge. Besides,
13.11. And an unfailing devotion towards Me, with the Yoga of non-difference; resorting to solitary place; distaste for a crowd of people;
13.11 See Comment under 13.12
13.11 'Constant devotion' means devotion with a single end, namely, Myself the Lord of all; 'remaining in places free from people' means having no love for crowds of people.
13.11 Constant devotion directed to Me alone, resort to solitary places and dislike for crowds:
।।13.11।।तथा --, मुझ ईश्वरमें अनन्य योगसे -- एकत्वरूप समाधियोगसे अव्यभिचारिणी भक्ति। भगवान् वासुदेवसे पर अन्य कोई भी नहीं है? अतः वही हमारी परमगति है? इस प्रकारकी जो निश्चित अविचल बुद्धि है वही अनन्य योग है? उससे युक्त होकर भजन करना ही कभी विचलित न होनेवाली अव्यभिचारिणी भक्ति है? वह भी ज्ञान है। विविक्तदेशसेवित्व -- एकान्त पवित्रदेश -- सेवनका स्वभाव। जो देश स्वभावसे पवित्र हो या झाड़नेबुहारने,आदि संस्कारोंसे शुद्ध किया गया हो तथा सर्पव्याघ्र आदि जन्तुओंसे रहित हो? ऐसे वन? नदी तीर या देवालय आदि विविक्त ( एकान्तपवित्र ) देशको सेवन करनेका जिसका स्वभाव है? वह विविक्तदेशसेवी कहलाता है? उसका भाव विविक्तदेशसेवित्व है। क्योंकि निर्जनपवित्र देशमें ही चित्त प्रसन्न और स्वच्छ होता है? इसलिये विविक्तदेशमें आत्मादिकी भावना प्रकट होती है? अतः विविक्तदेश सेवन करनेके स्वभावको ज्ञान कहा जाता है। तथा जनसमुदायमें अप्रीति। यहाँ विनयभावरहित संस्कारशून्य प्राकृत पुरुषोंके समुदायका नाम ही जनसमुदाय है। विनययुक्त संस्कारसम्पन्न मनुष्योंका समुदाय जनसमुदाय नहीं है क्योंकि वह तो ज्ञानमें सहायक है। सुतरां प्राकृतजनसमुदायमें प्रीतिका अभाव ज्ञानका साधन होनेके कारण ज्ञान है।
।।13.11।। --,मयि च इश्वरे अनन्ययोगेन अपृथक्समाधिना न अन्यो भगवतो वासुदेवात् परः अस्ति? अतः स एव नः गतिः इत्येवं निश्चिता अव्यभिचारिणी बुद्धिः अनन्ययोगः? तेन भजनं भक्तिः न व्यभिचरणशीला अव्यभिचारिणी। सा च ज्ञानम्। विविक्तदेशसेवित्वम्? विविक्तः स्वभावतः संस्कारेण वा अशुच्यादिभिः सर्पव्याघ्रादिभिश्च रहितः अरण्यनदीपुलिनदेवगृहादिभिर्विविक्तो देशः? तं सेवितुं शीलमस्य इति विविक्तदेशसेवी? तद्भावः विवक्तदेशसेवित्वम्। विविक्तेषु हि देशेषु चित्तं प्रसीदति यतः ततः आत्मादिभावना विविक्ते उपजायते। अतः विविक्तदेशसेवित्वं ज्ञानमुच्यते। अरतिः अरमणं जनसंसदि? जनानां प्राकृतानां संस्कारशून्यानाम् अविनीतानां संसत् समवायः जनसंसत् न संस्कारवतां विनीतानां संसत् तस्याः ज्ञानोपकारकत्वात्। अतः प्राकृतजनसंसदि अरतिः ज्ञानार्थत्वात् ज्ञानम्।।किञ्च --,
।।13.11।।मयीति।
।।13.11।।मयीति।
मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।13.11।।
মযি চানন্যযোগেন ভক্িতরব্যভিচারিণী৷ বিবিক্তদেশসেবিত্বমরতির্জনসংসদি৷৷13.11৷৷
মযি চানন্যযোগেন ভক্িতরব্যভিচারিণী৷ বিবিক্তদেশসেবিত্বমরতির্জনসংসদি৷৷13.11৷৷
મયિ ચાનન્યયોગેન ભક્િતરવ્યભિચારિણી। વિવિક્તદેશસેવિત્વમરતિર્જનસંસદિ।।13.11।।
ਮਯਿ ਚਾਨਨ੍ਯਯੋਗੇਨ ਭਕ੍ਿਤਰਵ੍ਯਭਿਚਾਰਿਣੀ। ਵਿਵਿਕ੍ਤਦੇਸ਼ਸੇਵਿਤ੍ਵਮਰਤਿਰ੍ਜਨਸਂਸਦਿ।।13.11।।
ಮಯಿ ಚಾನನ್ಯಯೋಗೇನ ಭಕ್ಿತರವ್ಯಭಿಚಾರಿಣೀ. ವಿವಿಕ್ತದೇಶಸೇವಿತ್ವಮರತಿರ್ಜನಸಂಸದಿ৷৷13.11৷৷
മയി ചാനന്യയോഗേന ഭക്ിതരവ്യഭിചാരിണീ. വിവിക്തദേശസേവിത്വമരതിര്ജനസംസദി৷৷13.11৷৷
ମଯି ଚାନନ୍ଯଯୋଗେନ ଭକ୍ିତରବ୍ଯଭିଚାରିଣୀ| ବିବିକ୍ତଦେଶସେବିତ୍ବମରତିର୍ଜନସଂସଦି||13.11||
mayi cānanyayōgēna bhakitaravyabhicāriṇī. viviktadēśasēvitvamaratirjanasaṅsadi৷৷13.11৷৷
மயி சாநந்யயோகேந பக்ிதரவ்யபிசாரிணீ. விவிக்ததேஷஸேவித்வமரதிர்ஜநஸஂஸதி৷৷13.11৷৷
మయి చానన్యయోగేన భక్ితరవ్యభిచారిణీ. వివిక్తదేశసేవిత్వమరతిర్జనసంసది৷৷13.11৷৷