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३४० श्री परमात्मने नमः अथ श्रीमद्भगवद्गीता ११ यथार्थ गीता १ अथ प्रथमोडध्यायः / धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जया१११ | धृतराष्ट्र ने पूछा- "हे संजय! धर्मक्षेत्र, में एकत्र युद्ध को इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? ' अज्ञानरूपी धृतराष्ट्र और संयमरूपी संजय| अज्ञान मन के अन्तराल में रहता है| अज्ञान से आवृत्त मन धृतराष्ट्र जन्मान्ध है; संयमरूपी संजय के माध्यम से वह देखता है , सुनता है और समझता है कि परमात्मा ही सत्य है फिर भी जब तक उत्पन्न मोहरूपी दुर्योधन जीवित है इसकी दृष्टि सदैव कौरवों पर रहतीं है, विकारों पर हीं रहतीं है| शरीर एक क्षेत्र है| जब हृदय- देश में दैवी सम्पत्ति का बाहुल्य होता है तो यह शरीर धर्मक्षेत्र बन जाता है और जब इसमें आसुरी सम्पत्ति का बाहुल्य होता है तो यह शरीर कुरुक्षेत्र बन जाता है॰ कुरु अर्थात् करो- यह शब्द आदेशात्मक है| श्रीकृष्ण कहते हैं- प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों द्वारा परवश होकर मनुष्य कर्म करता है| वह क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहों रह सकता| गुण उससे करा लेते हैं॰ सो जाने पर भी कर्म बन्द नहों होता, वह भी स्वस्थ कुरुक्षेत्रे कुरुक्षेत्र किन्तु इससे |
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श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता शरीर की आवश्यक खुराक मात्र है| तीनों गुण मनुष्य को से कीटपर्यन्त शरीरों में ही बाँधते हैं॰ जब तक प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न गुण जीवित हैं तब तक कुरु' लगा रहेगा| अतः जन्म-्मृत्युवाला क्षेत्र, विकारोंवाला क्षेत्र है और परमधर्म परमात्मा में प्रवेश दिलानेवाली पुण्यमयी प्रवृत्तियों ( पाण्डवों ) का क्षेत्र धर्मक्षेत्र है| पुरातत्त्वविद् पंजाब में , काशी - प्रयाग के मध्य तथा अनेकानेक स्थलों पर कुरुक्षेत्र की शोध में लगे हैं गीताकार ने स्वयं बताया है कि जिस क्षेत्र में यह युद्ध हुआ , वह कहाँ है| ' इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ' अ॰ १३/१ ) अर्जुन! यह शरीर ही क्षेत्र है और जो इसको जानता है इसका पार पा लेता है, वह क्षेत्रज्ञ है॰ ' आगे उन्होंने क्षेत्र का विस्तार बताया जिसमें दस इन्द्रियाँ , मन, बुद्धि, अहंकार, पाँचों विकार और तीनों गुणों का वर्णन है| शरीर ही क्षेत्र है , एक अखाड़ा है| इसमें लड़नेवाली प्रवृत्तियाँ दो हैं- दैवी सम्पद् और आसुरी सम्पद् , को सन्तान' और धृतराष्ट्र को सन्तान सजातीय और विजातीय प्रवृत्तियाँ | महापुरुष की शरण जाने पर इन दोनों प्रवृत्तियों में संघर्ष का सूत्रपात होता है| यह क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का संघर्ष है और यहीं वास्तविक युद्ध है| विश्वयुद्धों से इतिहास भरा पड़ा है; उनमें जीतनेवालों को भी शाश्वत विजय नहीं मिलती| ये तो आपसी बदले हैं| प्रकृति का सर्वथा शमन करके प्रकृति से परे को सत्ता का दिग्दर्शन करना और उसमें प्रवेश पाना ही वास्तविक विजय है| यही एक ऐसी विजय है, जिसके पीछे हार नहीं है| यही मुक्ति है जिसके पीछे जन्म-्मृत्यु का बन्धन नहीं है| इस प्रकार अज्ञान से आच्छादित प्रत्येक मन संयम के द्वारा जानता है कि क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के युद्ध में क्या हुआ? अब जैसा जिसके संयम का उत्थान है वैसे-वैसे उसे दृष्टि आती जायेगी| सञ्जय उवाच दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा| आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमबवीत् १२१| देवता = कुरुक्षेत्र किन्तु पाण्डु अनुभवी किन्तु |
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प्रथम अध्याय उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा- द्वैत का आचरण ही द्रोणाचार्य है| जब जानकारी हो जाती है कि हम परमात्मा से अलग हो गये हैं ( यही द्वैत का भान है) , वहाँ उसको प्राप्ति के लिये तड़प पैदा हो जाती है, तभी हम गुरु को तलाश में निकलते हैं॰ दोनों प्रवृत्तियों के बीच यही प्राथमिक गुरु है; यद्यपि बाद के सद्गुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण होंगे , जो योग को स्थितिवाले होंगे| राजा आचार्य के पास जाता है| मोहरूपीं दुर्योधन| मोह सम्पूर्ण व्याधियों का मूल है, राजा है| दुर्योधन - दुर् अर्थात् दूषित , यो धन अर्थात् वह धन| आत्मिक सम्पत्ति हीं स्थिर सम्पत्ति है| उसमें जो दोष उत्पन्न करता है , वह है मोह| यही प्रकृति को ओर खींचता है और वास्तविक जानकारी के लिये प्रेरणा भी प्रदान करता है| मोह है तभी तक पूछने का प्रश्न भी है, अन्यथा सभी पूर्ण ही हैं| अतः व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों को सेना को देखकर अर्थात् पुण्य से प्रवाहित सजातीय को संगठित देखकर मोहरूपी प्रथम गुरु द्रोण के पास जाकर यह कहा- पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता| |३१| हे आचार्य ! अपने बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद- पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खडीं को हुई पाण्डुपुत्रों को इस भारी सेना को देखियेे शाश्वत अचल पद में आस्था रखनेवाला दृढ़ मन ही धृष्टद्युम्न' है| यही पुण्यमयी प्रवृत्तियों का नायक है| साधन कठिन न मन कहुँ टेका| ( रामचरितमानस , ७/४४/३ )- साधन कठिन नहों , मन की दृढ़ता कठिन होनी चाहिये अब देखें सेना का विस्तार - अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि| युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः १४| | दुर्योधन वृत्तियों दुर्योधन ने व्यूढां |
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श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता इस सेना में महेष्वासाः महान् ईश में वास दिलानेवाले , भावरूपी भीम' , अनुरागरूपी अर्जुन' के समान बहुत से शूरवीर , जैसे- सात्त्विकतारूपीं सात्यकि विराटः सर्वत्र ईश्वरीय प्रवाह की धारणा , महारथी राजा द्रुपद अर्थात् अचल स्थिति तथा- धृष्टकेतुश्चेकितान: काशिराजश्च वीर्यवान्' पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः १५म| धृष्टकेतुः दृढ़कर्त्तव्य, चेकितानः जहाँ भी जाय, वहाँ से चित्त को खोंचकर इष्ट में स्थिर करना , काशिराजः कायारूपी काशी में हीं वह साम्राज्य है, पुरुजित् ' स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों पर विजय दिलानेवाला पुरुजित् ` कुन्तिभोजः कर्त्तव्य से भव पर विजय, नरों में श्रेष्ठ शैब्य अर्थात् सत्य व्यवहार - युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्| सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः| १६१| और पराक्रमी युधामन्युः - युद्ध के अनुरूप मन को धारणा उत्तमौजाः शुभ को मस्ती, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु- जब शुभ आधार आ जाता है तो मन भय से रहित हो जाता है- ऐसा शुभ आधार से उत्पन्न अभय मन, ध्यानरूपी द्रौपदी के पाँचों पुत्र- वात्सल्य , लावण्य , सहृदयता , सौम्यता , स्थिरता सब ्केन्सब हैं| साधन-्पथ पर सम्पूर्ण योग्यता के साथ चलने की क्षमताएँ हैं| इस प्रकार दुर्योधन ने पाण्डव- पक्ष के पन्द्रह-बीस नाम गिनाये, जो दैवी सम्पद् के महत्त्वपूर्ण अंग हैं| विजातीय प्रवृत्तियों का राजा होते हुए भी मोह ही सजातीय प्रवृत्तियों को समझने के लिये बाध्य करता है| दुर्योधन अपना पक्ष संक्षेप में कहता है| यदि कोई बाह्य युद्ध होता तो अपनी फौज बढा- चढाकर गिनाता| विकार कम गिनाये गये; क्योंकि उन पर विजय पाना है, वे नाशवान् हैं॰ केवल पाँच-्सात विकार बताये गये, जिनके अन्तराल में सम्पूर्ण बहिर्मुखी प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं| जैसे अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम| नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्बवीमि ते११७१| महारथी |
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प्रथम अध्याय द्विजोत्तम ! हमारे पक्ष में जो-जो प्रधान हैं, उन्हें भी आप समझ लें| आपको जानने के लिये मेरी सेना के जो-जो नायक हैं, उनको कहता हूँ| बाह्य युद्ध में सेनापति के लिये द्विजोत्तम' सम्बोधन असामयिक है| वस्तुतः गीता' में अन्तःकरण को दो प्रवृत्तियों का संघर्ष है| जिसमें द्वैत का आचरण ही द्रोण है| जब तक हम लेशमात्र भी आराध्य से अलग हैं, तब तक प्रकृति विद्यमान है , द्वैत बना है| इस द्वि पर जय पाने को प्रेरणा प्रथम गुरु द्रोणाचार्य से मिलती है| अधूरी शिक्षा ही पूर्ण जानकारी के लिये प्रेरणा प्रदान करती है| वह पूजास्थली नहीं , वहाँ शौर्यसूचक सम्बोधन होना चाहिये विजातीय प्रवृत्ति के नायक कौन-्कौन हैं? - भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव चढ८१| एक तो स्वयं आप (द्वैत के आचरणरूपी द्रोणाचार्य ) हैं॰ भ्रमरूपी पितामह ' भीष्म' हैं॰ भ्रम इन विकारों का उद्गम है| अन्त तक जीवित रहता है इसलिये पितामह है| समूची सेना मर गयी, यह जीवित था| शरशय्या पर अचेत था, फिर भी जीवित था| यह है भ्रमरूपी भीष्म भ्रम अन्त तक रहता है| इसी प्रकार विजातीय कर्मरूपी कर्ण तथा संग्रामविजयी कृपाचार्य हैं साधनावस्था में साधक द्वारा कृपा का आचरण ही कृपाचार्य है॰ भगवान कृपाधाम हैं और प्राप्ति के पश्चात् सन्त का भी वही स्वरूप है| साधनकाल में जब तक हम अलग हैं परमात्मा अलग है, विजातीय प्रवृत्ति जीवित है मोहमयी घिराव है- ऐसी परिस्थिति में साधक यदि कृपा का आचरण करता है तो वह नष्ट हो जाता है| सीता ने दया को तो कुछ काल लंका में प्रायश्चित करना पडा| विश्वामित्र दयार्द्र हुए तो पतित होना पडा| योगसूत्रकार महर्षि पतंजलि भी यही कहते हैं- 'ते समाधाबुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः ' ( योगदर्शन , ३/३७ ) व्युत्थानकाल में सिद्धियाँ प्रकट होती हैं| वे वास्तव में सिद्धियाँ हैं; किन्तु कैवल्यप्राप्ति के लिये उतनी ही बड़ी विघ्न हैं जितने काम क्रोध , लोभ , मोह इत्यादि| गोस्वामी तुलसीदास का भी यही निर्णय है- किन्तु |
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श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता छोरत ग्रन्थि जानि खगराया बिघ्न अनेक करड तब माया| | सिद्धि प्रेरइ बहु भाई| बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई॰| ( रामचरितमानस , ७/११७/६-७ ) माया अनेक विघ्न करतीं है, ऋद्धियाँ प्रदान करतीं है, यहाँ तक कि सिद्ध बना देती है॰ ऐसीं अवस्थावाला साधक बगल से निकल भर जाय मरणासन्न रोगी भी जी उठेगा| वह भले ठीक हो जाय, किन्तु साधक उसे अपनी देन मान बैठे तो नष्ट हो जायेगा| एक रोगी के स्थान पर हजारों रोगी घेर लेंगे , भजन- चिन्तन का क्रम अवरुद्ध हो जायेगा और उधर बहकते- बहकते का बाहुल्य हो जायेगा| यदि लक्ष्य दूर है और साधक कृपा करता है तो कृपा का अकेला आचरण हीं समितिञ्जयः समूची सेना को जीत लेगा| इसलिये साधक को पूर्तिपर्यन्त सतर्क रहना चाहियेत दया कसाई , दया करी तो आफत आई॰ ' लेकिन अधूरी अवस्था में यह विजातीय प्रवृत्ति योद्धा है| इसी प्रकार आसक्तिरूपी अश्वत्थामा| सृष्टि में कहों भी वस्तुओं में लगाव ही आसक्ति है| द्वैत का आचरण द्रोणाचार्य है॰ द्वैत हीं आसक्ति का जन्मदाता है| शस्त्र हाथ में रहते आचार्य द्रोण को मृत्यु नहों हो सकती थी , वह अजेय थे| भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, ' कौरव-्पक्ष में एक हाथी का नाम अश्वत्थामा है॰ भीम उस हाथी को मारकर अश्वत्थामा मारा गया' - ऐसा उद्घोष करें| इस अप्रिय सूचना से आचार्य मर्माहत हो शिथिल पड़ जायेंगे| उसी समय उनका अन्त कर दिया जाया ' भीम ने हाथी को मार डाला , प्रचार किया कि अश्वत्थामा मारा गया| आचार्य द्रोण ने समझा कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया| वे शिथिल पड़ गये, धनुष हाथ से गिर गया| वह हताश निश्चेष्ट होकर युद्धभूमि में बैठ गये| उनका गला कट गया अत्यधिक आसक्ति उनको मृत्यु का कारण बनी| अश्वत्थामा दोर्घजीवी था| निवृत्ति के अन्तिम क्षणों तक यह बाधा के रूप में विद्यमान रहता है, इसोलिये अमर कहलाया| विकल्परूपी विकर्ण| साधना को उन्नत अवस्था में विशिष्ट कल्पनाएँ उठने लगती हैं| मन में संकल्प विकल्प होने लगता है कि स्वरूप- प्राप्ति के साथ भगवान को ओर से कौन-्सी सिद्धियाँ, अलौकिक शक्तियाँ प्रदान की रिद्धि प्रकृति इससे बिनु सन्त का दुर्धर्ष पुत्र में - |
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प्रथम अध्याय जायेंगी? भगवान के चिन्तन के स्थान पर विभूतियों का चिन्तन होने लगता है[ साधक की दृष्टि केवल कर्म पर होनी चाहिये , उसे फल कोी वासनावाला नहों होना चाहिये; किन्तु जब वह ऋद्धियों सिद्धियों का चिन्तन करने लगता है यह विकल्प ही विकर्ण है॰ये कल्पनाएँ विशिष्ट हैं, साधना में भयंकर बाधक हैं॰ भ्रममयी श्वास ही भूरिश्रवा है| साधन का स्तर उन्नत होने पर उसकी प्रशंसा होने लगती है कि वह महात्मा है, सिद्ध है, उसमें दिव्य शक्तियाँ हैं उसके समक्ष लोकपाल भी नतमस्तक हो जाते हैं॰ इस आवभाव , प्रशस्ति से साधक प्रसन्न होने लगे , गद्गद होकर बहकने लगे- यह भ्रममयी श्वास ही भूरिश्रवा है| पूज्य गुरुदेव का कथन था- "संसार पुष्पवृष्टि करे, प्रशंसा करे, विश्व जगद्गुरु कहे - तुम्हें कुछ भी नहों मिलेगा , रोने को आँसू नहों मिलेगा यदि भगवान साधु कह दें तो सब कुछ पा जाओगे| दुनिया कहे चाहे कभी न कहे, फिर भी तुम सर्वस्व प्राप्त कर लोगे॰ ' इस प्रकार सांसारिक प्रशंसा जाना भ्रममयो श्वास है, यही भूरिश्रवा है| प्रशंसा भूरि-भूरि है, अत्यधिक है , अतिरंजित है; साधना में स्राव ( घटाव , क्षय ) होने लगता है| अस्तु , भ्रममयो श्वास भूरिश्रवा है| संयम का स्तर उन्नत होने पर आयो हुई विकृतियों केये नाम हैं, बाह्य प्रवृत्ति के अंग- उपांग हैं| अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः१ १९१| और भी बहुत से शूरवीर अनेक शस्त्रों से युक्त मेरे लिये जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में डटे हैं| सभो मेरे लिये प्राण त्यागनेवाले हैं उनकी कोई ठोस गणना नहीं है| अब कौन-सी सेना किन भावों द्वारा सुरक्षित है? इस पर कहते हैं अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्| पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्| ११०|| भोष्म द्वारा रक्षित हमारी सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की सेना जीतने में सुगम है| पर्याप्त और अपर्याप्त जैसे श्लिष्ट शब्द का प्रयोग दुर्योधन को आशंका को व्यक्त करता है| अतः देखना किन्तु तुम्हें में बह इससे किन्तु |
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श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता है कि भीष्म कौन-्सी सत्ता है, जिस पर कौरव निर्भर करते हैं तथा भीम कौन-सी सत्ता है, जिस पर ( दैवीं सम्पद् ) सम्पूर्ण पाण्डव निर्भर हैं| दुर्योधन अपनी व्यवस्था देता है कि- अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि१११११| इसलिये सब मोर्चों पर अपनी- अपनी जगह स्थित आप लोग सब-के-सब भीष्म को ही सब ओर से रक्षा करें| यदि भीष्म जोवित हैं तो हम अजेय हैं| इसलिये आप पाण्डवों से न लड़कर केवल भोष्म को ही रक्षा करें| कैसा योद्धा है भीष्म , जो स्वयं अपनी रक्षा नहों कर पा रहा है , कौरवों को उसकीं रक्षा-्व्यवस्था करनी पड़ रही है? यह कोई बाह्य योद्धा नहों , भ्रम ही भीष्म है| जब तक भ्रम जोवित है, तब तक विजातीय प्रवृत्तियाँ ( कौरव ) अजेय हैं| अजेय का यह अर्थ नहीं कि जिसे जीता ही नजा सकेः बल्कि अजेय का अर्थ दुर्जय है, जिसे कठिनाई से जीता जा सकता हो| महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीरा| ( रामचरितमानस , ६/८० क ) यदि भ्रम समाप्त हो जाय तो अविद्या अस्तित्वहीन हो जाय| मोह इत्यादि जो आंशिक रूप से बचे भी हैं , शोघ्र ही समाप्त हो जायेंगे| भीष्म को इच्छा मृत्यु थी| इच्छा ही भ्रम है| इच्छा का अन्त और भ्रम का मिटना एक हीं बात है| इसी को सन्त कबीर ने सरलता से कहा- इच्छा काया इच्छा माया , इच्छा जग उपजाया| कह कबीर विवर्जित , ताका पार न पाया| | जहाँ भ्रम नहीं होता , वह अपार और अव्यक्त है| इस शरीर के जन्म का कारण इच्छा है| इच्छा ही माया है और इच्छा हीं जगत् की उत्पत्ति का कारण है॰ [ सोउकामयत ' ( तैत्तिरीय उप॰ बह्यानन्द बल्ली अनुवाक् ६ ), बहु स्यां प्रजायेयेति ' ( छान्दोग्य उप॰ , ६/२/३ )] कबोर कहते हैं - जो इच्छाओं से सर्वथा रहित हैं , ताका पार न पाया - वे अपार, अनन्त , असीम तत्त्व में प्रवेश पा जाते हैं| [योउकामो निष्काम आप्तकाम रहते हुए जे इच्छा तदैक्षत |
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प्रथम अध्याय आत्मकामो तस्टा प्राणा उत्रामन्ति बहौव सन् बह्माप्येति ' बृहदारण्यक उप॰ ४/४/६ )-जो कामनाओं से रहित आत्मा में स्थिर आत्मस्वरूप है , उसका कभी पतन नहों होता| वह ब्रह्म के साथ एक हो जाता है॰] आरम्भ में इच्छाएँ अनन्त होती हैं और अन्ततोगत्वा परमात्म- प्राप्ति की इच्छा शेष रहती है| जब यह इच्छा भी पूरी हो जाती है, तब इच्छा भी मिट जाती है| यदि उससे भी बड़ीं कोई वस्तु होती तो आप उसको इच्छा अवश्य करते| जब उससे आगे कोई वस्तु है ही नहों तो इच्छा किसको होगो? जब प्राप्त होने योग्य कोई वस्तु अप्राप्य न रह जाय तो इच्छा भी समूल नष्ट हो जाती है और इच्छा के मिटते ही भ्रम का सर्वथा अन्त हो जाता है| यहीं भोष्म की इच्छा- मृत्यु है| इस प्रकार भीष्म द्वारा रक्षित हमलोगों की सेना सब प्रकार से अजेय है| जब तक भ्रम है, तभी तक अविद्या का भी अस्तित्व है॰ भ्रम शान्त हुआ तो अविद्या भी समाप्त हो जाती है| भीम द्वारा रक्षित इन लोगों को सेना जीतने है॰ भावरूपी भीम| भावे विद्यते देवः भाव में वह क्षमता है कि अविदित परमात्मा भी विदित होे जाता है॰ भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन| रामचरितमानस , ७/९२ख ) श्रीकृष्ण ने इसे श्रद्धा कहकर सम्बोधित किया है| भाव में वह क्षमता है कि भगवान को भी वश में कर लेता है| भाव से ही सम्पूर्ण पुण्यमयी प्रवृत्तियों का विकास है| यह पुण्य का संरक्षक है| है तो इतना बलवान् कि परमदेव परमात्मा को संभव बनाता हैः साथ ही इतना कोमल भी है कि आज भाव है तो कल अभाव में बदलते देर नहों लगती| आज आप कहते हैं कि महाराज बहुत अच्छे हैं, कल कह सकते हैं कि नहों , हमने तो देखा महाराज खोर खाते हैं| घास पात जो खात हैं , तिनहि सतावे काम| दूध मलाई खात जे, तिनकी जाने राम|| इष्ट में लेशमात्र भो त्रुटि प्रतीत होने पर भाव डगमगा जाता है , पुण्यमयो प्रवृत्तियाँ विचलित हो उठती हैं, इष्ट से सम्बन्ध टूट जाता है| इसलिये भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की सेना जीतने में सुगम है| महर्षि पतंजलि का भी यही निर्णय है- स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराउउसेवितो में सुगम किन्तु दृढभूमिः| |
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श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता योगदर्शन, १/१४ )- दीर्घकाल तक निरन्तर श्रद्धा- भक्तिपूर्वक हुआ साधन ही दृढ़ हो पाता है| तस्य सञ्चनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः| सिंहनादं विनद्योच्चै : शङ्खं प्रतापवान्११२१ | इस प्रकार अपने बलाबल का निर्णय लेकर शंखध्वनि हुई| शंखध्वनि पात्रों के पराक्रम को घोषणा है कि जीतने पर कौन ्सा पात्र आपको क्या देगाः कौरवों प्रतापवान् पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहनाद के समान भयप्रद शंख बजाया| सिंह के भयावह पहलू का प्रतीक है| घोर जंगल के नीरव एकान्त में शेर कोी दहाड़ कान जाय तो रोंगटे खड़े हो जायेंगे , हृदय काँपने लगेगा , यद्यपि शेर आपसे मीलों भय प्रकृति में होता है, परमात्मा में नहों; वह तो अभय सत्ता है| भ्रमरूपी भीष्म यदि विजयी होता है तो प्रकृति के जिस भयारण्य में आप हैं उससे भी अधिक भय के आवरण में बाँध देगा| भय की एक परत और बढ़ जायेगी , भय का आवरण घना हो उठेगा| यह भ्रम अतिरिक्त और कुछ नहों दे सकेगा| अतः प्रकृति से निवृत्ति ही गन्तव्य का मार्ग है| संसार में प्रवृत्ति तो भवाटवी है , घोर अन्धकार की है| इसके आगे कौरवों की कोई घोषणा नहों है| कौरवों की ओर से कई बाजे एक साथ बजे; किन्तु कुल मिलाकर वे भी भय हीं प्रदान करते हैं, अधिक कुछ नहों| प्रत्येक विकार कुछ-्न-्कुछ भय तो देता ही है , इसलिये उन्होंने भी घोषणा को- ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोडभवत्| ११३१| तदनन्तर अनेक शंख , नगाड़े , ढोल और नरसिंघादि बाजे एक साथ ही बजे| उनका शब्द भी बड़ा भयंकर हुआ| भय का संचार करने के अतिरिक्त कौरवों की कोई घोषणा नहीं है| बहिर्मुखी विजातीय प्रवृत्ति सफल होने पर मोहमयी बन्धन और घना कर देती है| अब पुण्यमयी प्रवृत्तियों की ओर से घोषणाएँ हुईं , जिनमें पहली घोषणा योगेश्वर श्रीकृष्ण को है- किया दध्मौ में वृद्ध प्रकृति = में पड़ दूर है| इसके छाया इससे |
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प्रथम अध्याय ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ| माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः१११४१ | इसके उपरान्त श्वेत घोड़ों ( जिनमें लेशमात्र कालिमा , दोष नहों है- श्वेत सात्त्विक , निर्मलता का प्रतीक है) ' महति स्यन्दने ' महान् रथ पर बैठे हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये| अलौकिक का अर्थ है, लोकों से परे| मृत्युलोक , देवलोक, ब्रह्मलोक , जहाँ तक जन्म- मरण का भय है उन समस्त लोकों से परे पारलौकिक, पारमार्थिक स्थिति प्रदान करने की घोषणा योगेश्वर श्रीकृष्ण को है| सोने , चाँदी या काठ का रथ नहीं; रथ अलौकिक, शंख अलौकिक , अतः घोषणा भी अलौकिक हीं है| लोकों से परे एकमात्र ब्रह्म है, सीधा उससे सम्पर्क स्थापित कराने को घोषणा है॰वे कैसे यह स्थिति प्रदान करेंगे? - पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः| ११५| | हृषीकेशः जो हृदय के सर्वज्ञाता हैं उन श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य शंख बजाया| पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को पंच तन्मात्राओं ( शब्द, स्पर्श , रूप, रस गन्ध) के रसों से समेटकर अपने जन ( भक्त) को श्रेणी में ढालने को घोषणा की| विकराल रूप से बहकती हुई इन्द्रियों को समेटकर उन्हें अपने सेवक की श्रेणी में खडा कर देना हृदय से प्रेरक सद्गुरु को देन है| श्रीकृष्ण एक योगेश्वर , सद्गुरु थे| शिष्यस्तेउ्हम् भगवन ! मैं आपका शिष्य हूँ| बाह्य विषय- को छोड़कर ध्यान में इष्ट के अतिरिक्त दूसरा न देखें , दूसरा न सुनें , न दूसरे का स्पर्श करें, यह सद्गुरु के अनुभव-संचार पर निर्भर करता है| देवदत्तं धनञ्जयः - दैवीं सम्पत्ति को अधीन करनेवाला अनुराग ही अर्जुन है| इष्ट के अनुरूप लगाव - जिसमें वैराग्य , अश्रुपात हो , गदगद गिरा नयन बह नीरा१ ' ( रामचरितमानस , ३/१५ /११ )- रोमांच हो , इष्ट के अतिरिक्त अन्य विषय ्वस्तु का लेशमात्र टकराव न होने पाये, उसी को अनुराग कहते हैं॰ यदि यह सफल होता है तो परमदेव परमात्मा में प्रवेश दिलानेवाली दैवीं सम्पद् पर आधिपत्य प्राप्त कर लेता है| इसी का दूसरा नाम धनंजय भी है| एक धन तो बाहरीं सम्पत्ति है जिससे शरीर- निर्वाह को व्यवस्था से युक्त वस्तुओं विरह , |
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२२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता होती है आत्मा से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है॰ इससे परे स्थिर आत्मिक सम्पत्ति ही निज सम्पत्ति है| बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को यहीं समझाया कि धन से सम्पन्न के स्वामित्व से भी अमृतत्व की प्राप्ति नहों हो सकती| उसका उपाय आत्मिक सम्पत्ति है| भयानक कर्मवाले भीमसेन ने अर्थात् प्रीति नामक महाशंख बजाया भाव का उद्गम और निवास-्स्थान हृदय है, इसलिये इसका नाम वृकोदर है| आपका भाव, लगाव बच्चे में होता है; किन्तु वस्तुतः वह लगाव आपके हृदय में है जो बच्चे में जाकर मूर्त होता है| यह भाव अथाह और महान् बलशाली है| उसने प्रीति नामक महाशंख बजाया| भाव में ही प्रीति है, भीम ने पौण्ड्र (प्रीति) नामक महाशंख बजाया| भाव महान बलवान है; प्रीति संचार के माध्यम से| हरि ब्यापक सर्बत्र समाना| प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जानाा| ( रामचरितमानस , १/१८४/५ ) अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ| ११६१ | कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक शंख बजाया| कर्त्तव्यरूपी और धर्मरूपी युधिष्ठिर| धर्म पर स्थिरता रहेगी तो ' अनन्तविजयम् ' अनन्त परमात्मा में स्थिति दिलायेगा| युद्धे स्थिरः सः युधिष्ठिरः| प्रकृति - पुरुष क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के संघर्ष में स्थिर रहता है महान् दुःख से भी विचलित नहों होता तो एक दिन जो अनन्त है, जिसका अन्त नहों है वह है परमतत्त्व परमात्मा , उस पर विजय दिला देता है| नियमरूपी नकुल ने सुघोष नामक शंख बजाया| ज्यों-ज्यों नियम उन्नत होगा , अशुभ का शमन होता जायेगा , शुभ घोषित होता जायेगा| सत्संगरूपी सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख बजाया मनीषियों ने प्रत्येक श्वास को बहुमूल्य मणि को संज्ञा दी है- ' हीरा जैसी स्वाँस बातों में बीती जाय| ) एक सत्संग तो वह है जो आप की वाणी से सुनते हैं यथार्थ सत्संग आन्तरिक है| श्रोकृष्ण के अनुसार आत्मा ही सत्य है सनातन है चित्त सब ओर से सिमटकर आत्मा को संगत करने लगे, यही पृथ्वी पौण्ड्र इसोलिये निहित किन्तु कुन्तीं ( बिन्दु' सत्पुरुषों किन्तु |
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प्रथम अध्याय १३ वास्तविक सत्संग है| यह सत्संग चिन्तन, ध्यान और समाधि के अभ्यास से सम्पत्रन होता है| ज्यों -ज्यों सत्य के सान्निध्य में सुरत टिकतीं जायेगी , त्यों -त्यों एक-एक श्वास पर नियंत्रण मिलता जायेगा , मनसहित इन्द्रियों का निरोध होता जायेगा| जिस दिन सर्वथा निरोध होगा , वस्तु प्राप्त हो जायेगी| वाद्ययन्त्रों की तरह चित्त का आत्मा के स्वर-में-स्वर मिलाकर संगत करना हीं सत्संग है| बाह्यमणि कठोर है श्वासमणि पुष्प से भी कोमल है| पुष्प तो विकसित होने या पर कुम्हलाता है; आप अगले श्वास तक जीवित रहने की गारण्टी नहों दे सकते| सत्संग सफल होने पर प्रत्येक श्वास पर नियंत्रण दिलाकर परम लक्ष्य की प्राप्ति करा देता है॰ इसके आगे पाण्डवों की कोई घोषणा नहों है; प्रत्येक साधन कुछ-्न-्कुछ निर्मलता के पथ में दूरी तय कराता है| आगे कहते हैं - काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः१११७१| कायारूपी काशी| पुरुष जब सब ओर से मनसहित इन्द्रियों को समेटकर काया में ही केन्द्रित करता है, तो परमेष्वासः परम ईश में वास का अधिकारी हो जाता है| परम ईश में वास दिलाने में सक्षम काया हीं काशी है| काया में ही परम ईश का निवास है॰ ' परमेष्वास का अर्थ श्रेष्ठ धनुषवाला नहों बल्कि परम+्ईश+्वास है| शिखा-सूत्र का त्याग ही शिखण्डी' है| आजकल लोग सिर के बाल कटा लेते हैं और सूत्र के नाम पर गले को जनेऊ हटा लेते हैं , अग्नि जलाना छोड़ देते हैं , हो गया संन्यास उनका| नहीं , वस्तुतः शिखा लक्ष्य का प्रतीक है, जिसे आपको पाना है और सूत्र है संस्कारों का॰ जब तक आगे परमात्मा को पाना शेष है, पीछे संस्कारों का सूत्रपात लगा हुआ है, तब तक त्याग कैसा? संन्यास कैसाः अभी तो चलनेवाले पथिक हैं| जब प्राप्तव्य प्राप्त हो जाय पीछे लगे हुए संस्कारों को डोर कट जाय, ऐसी अवस्था में भ्रम सर्वथा शान्त हो जाता है॰ इसलिये शिखण्डी ही भ्रमरूपी भोष्म का विनाश करता है| शिखण्डी चिन्तन- पथ की विशिष्ट योग्यता है, महारथी है| किन्तु टूटने किन्तु किन्तु किन्तु धृष्टद्युम्नो |
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१४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता धृष्टद्युम्नः दृढ़ और अचल मन तथा ' विराटः सर्वत्र विराट् ईश्वर का प्रसार देखने को क्षमता इत्यादि दैवी सम्पद् के प्रमुख गुण हैं| सात्त्विकता ही सात्यकि है| सत्य के चिन्तन कोी प्रवृत्ति अर्थात् सात्त्विकता यदि बनी है तो कभी गिरावट नहों आने पायेगी| इस संघर्ष में पराजित नहों होने देगी| द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते| सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्१११८१ | अचल पददायक द्रुपद और ध्यानरूपी द्रौपदी के पाँचों पुत्र - सहृदयता , वात्सल्य , लावण्य , सौम्यता , स्थिरता इत्यादि साधन में महान् सहायक महारथी हैं तथा बड़ी भुजावाला अभिमन्यु - इन सबने पृथक्- पृथक् शंख बजाये| भुजा कार्य- क्षेत्र का प्रतीक है| जब मन भय से रहित हो जाता है तो उसकी पहुँच दूर तक हो जाती है| हे राजन इन सबने अलग ्अलग शंख बजाये| कुछन्न-्कुछ सभी तय कराते हैं| इनका पालन आवश्यक है इसलिये इनके नाम गिनाये| इसके अतिरिक्त कुछ दूरी ऐसी भी है जो मन- बुद्धि से परे है , भगवान स्वयं ही अन्तःकरण में विराजकर तय कराते हैं| इधर दृष्टि बनकर आत्मा से खड़े हो जाते हैं और सामने स्वयं खड़े होकर अपना परिचय करा लेते हैं| स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्| नभश्च पृथिवीं चैव व्यनुनादयन् १९| | उस घोर शब्द ने आकाश और को भी शब्दायमान करते हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के हृदय विदोर्ण कर दिये| सेना तो पाण्डवों को ओर भी थी, हृदय विदीर्ण हुए धृतराष्ट्र पुत्रों के| वस्तुतः पाञ्चजन्य, दैवीं शक्ति पर आधिपत्य , अनन्त पर विजय , अशुभ का शमन को घोषणा धारावाही होने लगे तो कुरुक्षेत्र, आसुरी सम्पद् , बहिर्मुखी प्रवृत्तियों का हृदय विदीर्ण हो जायेगा| उनका बल शनेः - शनैः क्षीण होने लगता है| सर्वथा सफलता मिलने पर मोहमयो प्रवृत्तियाँ सर्वथा शान्त हो जाती हैं| अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः १२०| | हृषीकेशं तरा वाक्यमिदमाह महीपते| द्रुपदो तुमुलो पृथ्वी किन्तु और शुभ |
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प्रथम अध्याय अजुन उवाच सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय १२११ | संयमरूपी संजय ने अज्ञान से आवृत्त मन को समझाया कि हे राजन्! इसके उपरान्त ' कपिध्वजः वैराग्यरूपी हनुमान , वैराग्य ही ध्वज है जिसका ( ध्वज राष्ट्र का प्रतीक माना जाता है| कुछ लोग कहते हैं- ध्वजा चंचल थी, इसलिये कपिध्वज कहा गया| किन्तु नहों , यहाँ कपि साधारण बन्दर नहों स्वयं हनुमान थे, जिन्होंने मान ्अपमान का हनन किया था- सम मानि निरादर आदरही १ ' ( मानस , ७/१३ छन्द ) प्रकृति की देखी- सुनी वस्तुओं से, विषयों से राग का त्याग हीं वैराग्य है| अतः वैराग्य हीं जिसकी ध्वजा है ) उस अर्जुन ने व्यवस्थित रूप से धृतराष्ट्र - पुत्रों को खड़े देखकर शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर ' हृषिकेशम् -जो हृदय के सर्वज्ञाता हैं, उन योगेश्वर श्रीकृष्ण से यह वचन कहा- हे अच्युत! (जो कभी च्युत नहों होता ) मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच खडा करिये ' यहाँ सारथी को दिया गया आदेश नहों , इष्ट ( सद्गुरु ) से की गयी प्रार्थना है| किसलिये खडा करें? - यावदेतान्निरीक्षे हं योद्धकामानवस्थितान्| कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसामुद्यमे १२२| | जब तक मैं इन स्थित हुए युद्ध को कामनावालों को अच्छो प्रकार देख न लूँ कि इस युद्ध के उद्योग में मुझे किन- किन के साथ युद्ध करना योग्य है- इस युद्ध व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना है| योत्स्यमानानवेक्षेष्हं य एतेउत्र समागताः| धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः १२३१| दुर्बुद्धि दुर्योधन का कल्याण चाहनेवाले जो-जो राजा लोग इस सेना में आये हैं, उन युद्ध करनेवालों को मैं देखूँगा, इसलिये खडा करें मोहरूपी दुर्योधन| मोहमयी प्रवृत्तियों का कल्याण चाहनेवाले जो-जो राजा इस युद्ध में आये हैं, उनको मैं देख लूँ| सञ्जचय उवाच एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत| सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्1 २४१ | मेउच्युत युद्ध में |
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१६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्| उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनितित २५| | संजय बोला - निद्राजयी अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृदय के ज्ञाता श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच भोष्म, द्रोण और ' महीक्षिताम् - शरीरूूपी पर अधिकार जमाये हुए सम्पूर्ण राजाओं के बीच उत्तम रथ को खडा करके कहा- पार्थ ! इन इकट्ठे हुए कौरवों को देख| यहाँ उत्तम रथ सोने-चाँदी का रथ नहों है॰ संसार में उत्तम को परिभाषा नश्वर के प्रति अनुकूलता प्रतिकूलता से की जाती है॰ यह परिभाषा अपूर्ण है| जो हमारे आत्मा हमारे स्वरूप का सदैव साथ दे , वही उत्तम है| जिसके पीछे अनुत्तम - मलिनता न हो| तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितामहान्| आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा १२६| | श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि| इसके उपरान्त अचूक लक्ष्यवाले , पार्थिव शरीर को रथ बनानेवाले पार्थ ने उन दोनों सेनाओं में स्थित पिता के भाइयों को , पितामहों को , आचार्यों को , मामाओं को , भाइयों को , पुत्रों को , पौत्रों को , मित्रों को , श्वसुरों को और को देखा| दोनों सेनाओं में अर्जुन को केवल अपना परिवार, मामा का परिवार, ससुराल का परिवार, सुहृद् और गुरुजन दिखायो पडे़े| महाभारतकाल को गणना के अनुसार अठारह अक्षौहिणी लगभग चालीस लाख के समकक्ष होता है; किन्तु प्रचलित गणना के अनुसार अठारह अक्षौहिणी साढ़े छः अरब के लगभग होता है, जो आज के विश्व की जनसंख्या के समकक्ष है| इतने मात्र के लिये यदा-कदा विश्वस्तर पर आवास एवं खाद्य समस्या बन जाती है| इतना बड़ा जनसमूह अर्जुन के तोन- चार रिश्तेदारों का परिवार मात्र था| क्या इतना बड़ा भी किसीं का परिवार होता है? कदापि नहीं ! यह हृदय-्देश का चित्रण है| तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् २७१| वृ्पया परयाविष्टो विषीदन्निदमबवीत्| पृथ्वी पितृनथ सुहृदों |
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प्रथम अध्याय १७ इस प्रकार खड़े हुए उन सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर अत्यन्त करुणा से आवृत्त वह कुन्तीपुत्र अर्जुन शोक करता हुआ बोला| अर्जुन शोक करने लगा; क्योंकि उसने देखा कि यह सब तो अपना परिवार हीं है, अतः बोला- अर्जुन उवाच दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्| २८| | सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति| शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते१ २९| | हे कृष्ण ! युद्ध को इच्छावाले खड़े हुए इस स्वजन - समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हैं , मुख सूखा जाता है और मेरे शरीर में कम्प तथा हो रहा है| इतना ही नहों - गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते| नच शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः१ १३०१ | हाथ से गाण्डीव गिरता है, त्वचा भी जल रही है| अर्जुन को ज्वर-सा हो आया| संतप्त हो उठा कि यह कैसा युद्ध है जिसमें स्वजन ही खड़े हैं? अर्जुन को भ्रम हो गया| वह कहता है- अब मैं खडा रह पाने में भी अपने को असमर्थ पा रहा हूँ, अब आगे देखने की सामर्थ्य नहों है| निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव| नच श्रेयोउनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे११३११| हे केशव ! इस युद्ध का लक्षण भो विपरीत ही देखता हूँ॰ युद्ध में अपने कुल को मारकर परमकल्याण भी नहों देखता हूँ॰ कुल को मारने से कल्याण कैसे होगा? न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च| किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वाढ१३२१| सम्पूर्ण परिवार युद्ध के मुहाने पर है| इन्हें युद्ध में मारकर विजय, विजय से मिलनेवाला राज्य और राज्य से मिलनेवाला सुख अर्जुन को नहों चाहिये वह कहता है- कृष्ण ! मैं विजय नहीं चाहता| राज्य तथा सुख भी नहीं चाहता गोविन्द ! हमें राज्य या भोग अथवा जीवन से भी क्या प्रयोजन है? क्यों? इस पर कहता है वेपथुश्च हुए जाते रोमाञ्च |
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२८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि चढ त इमेउवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि चा१३३१| हमें जिनके लिये राज्य , भोग और सुखादिक इच्छित हैं, वे ही परिवार जीवन की आशा त्यागकर युद्ध के मैदान में खड़े हैं| हमें राज्य इच्छित था तो परिवार को लेकरः भोग , सुख और धन को पिपासा थो तो स्वजन और परिवार के साथ उन्हें भोगने की थी| किन्तु जब सब-के-सब प्राणों को आशा त्यागकर खड़े हैं तो मुझे सुख, राज्य या भोग नहों चाहिये| यह सब इन्हों के लिये प्रिय थे| इनसे अलग होने पर हमें इनकी आवश्यकता नहों है| जब तक परिवार रहेगा, तभी तक ये वासनाएँ भी रहती हैं| झोपड़ीं में रहनेवाला भी अपने परिवार , मित्र और स्वजन को मारकर विश्व का साम्राज्य स्वीकार नहों करेगा| अर्जुन भी यही कहता है कि हमें भोग प्रिय थे, विजय प्रिय थी; किन्तु जिनके लिये थी , जब वे ही नहों रहेंगे तो भोगों से क्या प्रयोजनः इस युद्ध में मारना किसे है?- आचार्या : पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा११३४१ | इस युद्ध में आचार्य , ताऊ- चाचे , लड़के और इसी प्रकार दादा, मामा श्वसुर , पोते, साले तथा समस्त सम्बन्धी ही हैं| एतात्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोउपि मधुसूदन| अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते| १३५| | हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहों चाहता, फिर के लिये कहना हीं क्या है? अठारह अक्षौहिणी सेना में अर्जुन को अपना परिवार ही दिखायी पडा| इतने अधिक स्वजन वास्तव में क्या हैं? वस्तुतः अनुराग ही अर्जुन है| भजन के आरम्भ में प्रत्येक अनुरागी के समक्ष यही समस्या रहती है| सभी चाहते हैं कि॰वे भजन करें, उस परमसत्य को पा लें; किसी अनुभवी सद्गुरु के संरक्षण में कोई अनुरागी जब क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के संघर्ष को समझता है कि उसे किनसे लड़ना है , तो वह हताश हो जाता है| वह चाहता है कि उसके पिता का परिवार , ससुराल का परिवार , मामा का परिवार , सुहृद मित्र और गुरुजन साथ पृथ्वी किन्तु |
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प्रथम अध्याय रहें, सभी सुखी रहें और इन सबकी व्यवस्था करते हुए वह परमात्म - स्वरूप की प्राप्ति भी कर लेे| किन्तु जब वह समझता है कि आराधना में अग्रसर होने के लिये परिवार छोड़ना होगा , इन सम्बन्धों का मोह समाप्त करना होगा तो वह अधोर हो उठता है॰ पूज्य महाराज जी' कहा करते थे- ' मरना और साधु होना बराबर है| साधु के लिये सृष्टि में दूसरा कोई जीवित है भी; किन्तु घरवालों के नाम पर कोई नहीं है| यदि कोई है तो लगाव है, मोह समाप्त कहाँ हुआ? जहाँ तक लगाव है उसका पूर्ण त्याग , उस लगाव के सहअस्तित्व मिटने पर ही उसको विजय है| इन सम्बन्धों का प्रसार ही तो जगत् है , अन्यथा जगत् में हमारा क्या है? ' तुलसिदास कह चिद-बिलास जग छूझत छूझत बूझै| ' विनयपत्रिका , १२४ ) मन का प्रसार ही जगत् है| योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी मन के प्रसार को ही जगत् कहकर सम्बोधित किया है| जिसने इसके प्रभाव को रोक लिया, उसने चराचर जगत् हीं जीत लिया- इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः१ ' ( गीता , ५/१९ ) केवल अर्जुन ही अधीर था , ऐसीं बात नहों है| अनुराग सबके हृदय में है॰ प्रत्येक अनुरागी अधीर होता है, उसे सम्बन्धी याद आने लगते हैं| पहले वह सोचता था कि भजन से कुछ लाभ होगा तो ये सब सुखी होँगे| इनके साथ रहकर उसे भोगेंगे| जब ये साथ ही नहों रहेंगे तो सुख लेकर क्या करेंगे? अर्जुन को दृष्टि राज्यसुख तक ही सीमित थो| वह त्रिलोकी के साम्राज्य को ही सुख की पराकाष्ठा समझता था| इसके आगे भी कोई सत्य है, इसकी जानकारी अर्जुन को अभी नहों है| का प्रीतिः स्याज्जनार्दन| पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ११३६| | हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर भी हमें क्या प्रसन्नता होगी? जहाँ धृतराष्ट्र अर्थात् धृष्टता का राष्ट्र है, उससे उत्पन्न मोहरूपी दुर्योधन इत्यादि को मारकर भो हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर हमें पाप ही तो लगेगा| जो जोवनयापन के तुच्छ लाभ के लिये अनोति अपनाता है, वह आततायो कहलाता है; वस्तुतः इससे भी बड़ा आततायी वह है, जो निहत्य धार्तराष्ट्रन्नः किन्तु |
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२ ० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता आत्मा के पथ में अवरोध उत्पन्न करता है| आत्मदर्शन में बाधक काम , क्रोध , लोभ , मोह आदि का समूह ही आततायो है| तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव| १३७१ | इससे हे माधव ! अपने बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहों हैं| स्व-बान्धव कैसे? वे तो शत्रु थे न! वस्तुतः शरीर के रिश्ते अज्ञान से उत्पन्न होते हैं| यह मामा हैं , ससुराल है , स्वजन- समुदाय है- यह सब अज्ञान हीं तो है| जब शरीर हीं नश्वर है , तब रिश्ते हीं कहाँ रहेंगे? मोह है तभी तक सुहृद् हैं , हमारा परिवार है , हमारी दुनिया है| मोह नहों तो कुछ भो नहीं| इसीलिये वे शत्रु भी अर्जुन को स्वजन दिखायो पडे़े| वह कहता है कि अपने कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होँगे? यदि अज्ञान और मोह न रहे तो कुटुम्ब का अस्तित्व न हो| यह अज्ञान ज्ञान का प्रेरक भी है| भर्तृहरि, इत्यादि अनेक महानुभावों को वैराग्य को प्रेरणा पत्नी से मिली , तो कोई सौतेली माँ के व्यवहार से खिन्न होकर वैराग्य- पथ पर अग्रसर हुआ दिखायो देता है| यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्| |३८१| यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुलनाश के दोष और मित्रद्रोह के पाप को नहीं देखते हैं यह उनकी कमी है; फिर भी- कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन| १३९|| हे जनार्दन ! कुलनाश से होनेवाले दोषों को जाननेवाले हमलोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहों विचार करना चाहिये? मैं ही पाप करता हूँ॰ ऐसीं बात नहों , आप भी भूल करने जा रहे हैं- श्रीकृष्ण पर भी आरोप लगाया| अभी वह समझ में अपने को श्रीकृष्ण से कम नहीं मानता| प्रत्येक नया साधक सद्गुरु की शरण जाने पर इसी प्रकार तर्क करता है और अपने को जानकारी में कम नहीं समझता| यही अर्जुन भी कहता है कि॰ये भले न समझें , हम-्आप तो समझदार हैं॰ कुलनाश के दोषों पर हमें विचार करना चाहिये| कुलनाश में दोष क्या है? - इसके तुलसी किन्तु |
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प्रथम अध्याय प्रणश्यन्ति सनातनाः धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोउभिभवत्युता १४०१| कुल के नाश होने से सनातन नष्ट हो जाते हैं| अर्जुन कुलधर्म , कुलाचार को ही सनातन- धर्म समझ रहा था| धर्म के नाश होने पर सम्पूर्ण कुल को पाप दबा लेता है| अधर्माभिभवात्कृष्ण स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करःा ४११| हे कृष्ण पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल को स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं| हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है| अर्जुन को मान्यता थी कि कुल को स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर होता है; किन्तु श्रीकृष्ण ने इसका खण्डन करते हुए आगे बताया कि मैं अथवा स्वरूप में स्थित महापुरुष यदि आराधना- क्रम में भ्रम उत्पन्न कर दें, तब वर्णसंकर होता है| वर्णसंकर के दोषों पर अर्जुन प्रकाश डालता है- नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च॰ पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः| १४२१ | वर्णसंकर कुलघातियों और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है| लुप्त हुई पिण्डोदक क्रियावाले इनके पितर लोग भी गिर जाते हैं| वर्तमान नष्ट हो जाता है , अतीत के पितर गिर जाते हैं और भविष्यवाले भी गिरेंगे| इतना ही नहों , दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः उत्साद्यन्ते जातिधर्मा : कुलधर्माश्च शाश्वताः| १४३१ | इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुल और कुलघातियों के सनातन और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं| अर्जुन मानता था कि सनातन है, ही शाश्वत है| श्रीकृष्ण ने इसका खण्डन किया और आगे बताया कि आत्मा ही सनातन शाश्वत धर्म है॰ वास्तविक सनातन- धर्म को जानने से पहले मनुष्य धर्म के नाम पर किसी-न-किसी रूढ़ि को जानता है| ठीक इसी प्रकार अर्जुन भी जानता है, जो श्रीकृष्ण के शब्दों रूढ़ि है| कुलक्षये कुलधर्मा : कुलधर्म = भी बहुत प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः सङ्करो कुलधर्म कुलधर्म कुलधर्म किन्तु में एक |
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२२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता उत्सन्रकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन| नरकेडनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम| १४४ | हे जनार्दन ! नष्ट हुए कुलधर्मवाले मनुष्यों का अनन्तकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हमने सुना है| केवल ही नहों नष्ट होता, बल्कि शाश्वत - सनातन धर्म भी नष्ट हो जाता है| जब धर्म हीं नष्ट हो गया, तब ऐसे पुरुष का अनन्तकाल तक नरक में निवास होता है, ऐसा हमने सुना है| देखा नहीं , अहो बत कर्तुं व्यवसिता वयम्| यद्राज्यासुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः १४५/ | अहो ! शोक है कि हमलोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करने को तैयार राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिये उद्यत हुए हैं| अभी अर्जुन अपने को कम ज्ञाता नहीं समझता| आरम्भ में प्रत्येक साधक इसी प्रकार बोलता है| महात्मा बुद्ध का कथन है कि मनुष्य जब अधूरी जानकारीं रखता है तो अपने को महान् ज्ञानीं समझता है और जब आधे से आगे की जानकारी हासिल करने लगता है तो अपने को महान् मूर्ख समझता है| ठीक इसी प्रकार अर्जुन भो अपने को ज्ञानी ही समझता है| वह श्रीकृष्ण को ही समझाता है कि इस पाप से परमकल्याण हो- ऐसी बात भी नहीं , केवल राज्य और सुख के लोभ में पड़कर हमलोग कुलनाश करने को उद्यत हुए हैं - महान् भूल कर रहे हैं| हम ही भूल कर रहे हैं - ऐसी बात नहीं , आप भी भूल कर रहे हैं| एक धक्का श्रीकृष्ण को भी दिया| अन्त में अर्जुन अपना निर्णय देता है- यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः धार्तराष्ट्रा रणे क्षेमतरं १४६ | | शस्त्ररहित , सामना न करनेवाले को शस्त्रधारी धृतराष्ट्र रण में मारें तो उनका वह मारना भी मेरे लिये अतिकल्याणकारी होगा| इतिहास तो कहेगा कि अर्जुन समझदार था, जिसने अपनी बलि देकर युद्ध बचा लिया| लोग प्राणों की आहुति दे डालते हैं कि भोले-भाले मासूम बच्चे सुखी रहें, कुल तो बचा रहे| मनुष्य विदेश चला जाय, वैभवपूर्ण प्रासाद में रहे; किन्तु दो दिन बाद उसे अपनी छोड़ी हुई झोपड़ी याद आने लगती है| मोह कुलधर्म सुना है| महत्पापं हुए हैं| हन्युस्तन्मे भवेत् के पुत्र यदि मुझ |
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प्रथम अध्याय २३ इतना प्रबल होता है| इसोलिये अर्जुन कहता है कि शस्त्रधारी धृतराष्ट्र मुझ न प्रतिकार करनेवाले को रण में मार दें, तब भी वह मेरे लिये अतिकल्याणकारी होगा ताकि लड़के तो सुखी रहें| सञ्जचय उवाच एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्| सशरं चापं शोकसंविग्रनमानसः १४७| | संजय बोला कि रणभूमि में शोक से उद्विग्न मनवाला अर्जुन इस प्रकार कहकर बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गया अर्थात् क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के संघर्ष में भाग लेने से पीछे हट गया| निष्कर्ष - गीता क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के युद्ध का निरूपण है| यह ईश्वरीय विभूतियों से सम्पन्न भगवत् स्वरूप को दिखानेवाला गायन है| यह गायन जिस क्षेत्र में होता है वह युद्धक्षेत्र शरीर है| जिसमें दो प्रवृत्तियाँ हैं - धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र| उन सेनाओं का स्वरूप और उनके बल का आधार बताया , शंखध्वनि से उनके पराक्रम को जानकारीं मिलो| तदनन्तर जिस सेना से लड़ना है , उसका निरीक्षण हुआ| जिसको गणना अठारह अक्षौहिणी ( लगभग साढ़े छः अरब कही जाती है; किन्तु वस्तुतः वे अनन्त हैं| प्रकृति के दृष्टिकोण दो हैं - एक इष्टोन्मुखी प्रवृत्ति दैवी सम्पद् बहिर्मुखी प्रवृत्ति आसुरी सम्पद्| दोनों प्रकृति ही हैं| एक इष्ट की ओर उन्मुख करती है , परमधर्म परमात्मा की ओर लेे जाती है और प्रकृति में विश्वास दिलाती है॰ पहले दैवी सम्पद् को साधकर आसुरी सम्पद का अन्त किया जाता है॰ फिर शाश्वत सनातन परब्रह्म के दिग्दर्शन और उसमें स्थिति के साथ दैवीं सम्पद् को आवश्यकता शेष हो जातीं है, युद्ध का परिणाम निकल आता है| अर्जुन को सैन्य निरीक्षण में अपना परिवार ही दिखायी पड़ता है , जिसे मारना है| जहाँ तक सम्बन्ध है उतना ही अनुराग के प्रथम चरण में पारिवारिक मोह बाधक बनता है| साधक जब देखता है कि मधुर सम्बन्धों से इतना विच्छेद हो जायेगा , जैसे वे थे ही नहों , तो उसे घबराहट होने लगती है| स्वजनासक्ति को मारने में उसे अकल्याण दिखायो देने लगता है वह प्रचलित के पुत्र विसृज्य दूसरी दूसरी जगत् है| |
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२४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता रूढ़ियों में अपना बचाव लगता है, जैसा अर्जुन ने किया| उसने कहा- ही सनातन- धर्म है| इस युद्ध से सनातन- धर्म नष्ट हो जायेगा , कुल की स्त्रियाँ दूषित होंगी , वर्णसंकर पैदा होगा , और कुलघातियों को अनन्तकाल तक नरक में ले जाने के लिये ही होता है॰ अर्जुन अपनी समझ से सनातन- धर्म को रक्षा के लिये विकल है| उसने श्रीकृष्ण से अनुरोध किया कि हमलोग समझदार होकर भी यह महान् पाप क्यों करें? अर्थात् श्रीकृष्ण भी पाप करने जा रहे हैं| अन्ततोगत्वा पाप से बचने के लिये मैं युद्ध नहीं करूँगा - ऐसा कहता हुआ हताश अर्जुन रथ के पिछले भाग में बैठ गया| क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के संघर्ष से पीछे हट गया| टीकाकारों ने इस अध्याय को अर्जुन-विषाद योग' कहा है| अर्जुन अनुराग का प्रतीक है| सनातन- धर्म के लिये विकल होनेवाले अनुरागी का विषाद योग का कारण बनता है| यही विषाद हुआ था- ' हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति ( रामचरितमानस , १/१४२ ) संशय ही मनुष्य विषाद करता है| उसे सन्देह था कि वर्णसंकर पैदा होगा, जो नरक में ले जायेगा| सनातन- धर्म के नष्ट होने का भी उसे विषाद था| अतः संशय-विषाद योग' का सामान्य नामकरण इस अध्याय के लिये उपयुक्त है| अतः- ३४ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु बह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्बादे ' संशयविषादयोगो ' नाम प्रथमो 5ध्यायः१११|| इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में संशय-विषाद योग' नामक प्रथम अध्याय पूर्ण होता है| इति श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्गीताया: यथार्थगीता भाष्ये ' संशयविषादयोगो नाम प्रथमो उध्यायः ११|| इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रीमद्भगवद्गीता' के भाष्य यथार्थ गीता में संशय-विषाद योग' नामक पहला अध्याय पूर्ण होता है| १त हरिः ३>ँ तत्सत् | ढूढ़न कुलधर्म जो कुल मनु को बिनु| ' में पड़कर |
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३ँँ श्री परमात्मने नमः /| १ अथ द्वितीयोडध्यायः / प्रथम अध्याय गीता की प्रवेशिका है, जिसमें आरम्भ में पथिक को प्रतीत होनेवाली उलझनों का चित्रण है| लड़नेवाले सम्पूर्ण कौरव और पाण्डव संशय का पात्र मात्र अर्जुन है| अनुराग ही अर्जुन है| इष्ट के अनुरूप राग ही पथिक को क्षेत्र क्षेत्रज्ञ के संघर्ष के लिये प्रेरित करता है| अनुराग आरम्भिक स्तर है| ' पूज्य महाराज जो' कहते थे॰ ' सद्गृहस्थ आश्रम में रहते हुए ग्लानि होने लगे , अश्रुपात होता हो, कण्ठ अवरुद्ध होता हो तो समझना कि यहों से भजन आरम्भ हो गया| अनुराग में यह सब कुछ आ जाता है| उसमें धर्म , नियम , सत्संग , भाव सभी विद्यमान होंगे| अनुराग के प्रथम चरण में पारिवारिक मोह बाधक बनता है॰ पहले मनुष्य चाहता है कि वह उस परम सत्य को प्राप्त कर ले; आगे बढ़ने पर वह देखता है कि इन मधुर सम्बन्धों का उच्छेद करना होगा , तब हताश हो जाता है| वह पहले से धर्म ्कर्म मानकर करता था उतने में हीं सन्तोष करने लगता है| अपने मोह की पुष्टि के लिये वह प्रचलित रूढ़ियों का प्रमाण भी प्रस्तुत करता है - जैसा अर्जुन ने किया कि सनातन से सनातन- धर्म का लोप होगा , कुलक्षय होगा , स्वैराचार फैलेगा| यह अर्जुन का उत्तर नहों था, बल्कि सद्गुरु के सान्निध्य से पूर्व अपनायी गयी एक कुरीति मात्र थी| इन्हीं कुरीतियों में फँसकर मनुष्य पृथक् पृथक् धर्म , अनेक सम्प्रदाय छोटे -बड़े गुट और असंख्य जातियों कोी रचना कर लेता है| कोई नाक दबाता है, तो कोई कान फाड़ता है| किसी के छूने से धर्म नष्ट होता है, तो कहों रोटी- पानी से धर्म नष्ट होता है| तो क्या अछूत या छूनेवालों का दोष है? कदापि किन्तु किन्तु जो कुछ है| युद्ध कुलधर्म |
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२६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता नहीं ! दोष हमारे भ्रमदाताओं का है| धर्म के नाम पर हम के शिकार हैं इसलिये दोष हमारा है| महात्मा समय में केश- कम्बल एक सम्प्रदाय था , जिसमें केश को बढ़ाकर कम्बल की तरह प्रयोग करने को पूर्णता का मानदण्ड माना जाता था| कोई गोव्रतिक ( गाय की भाँति रहनेवाला ) था, तो कोई कुक्कुरव्रतिक (कुत्ते को तरह खाने-पीने , रहनेवाला) था| ब्रह्मविद्या का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है| सम्प्रदाय और कुरीतियाँ पहले भी थों, आज भी हैं| ठीक इसी प्रकार कृष्णकाल में भी सम्प्रदाय थे, थों| उनमें से एकाध कुरीति का शिकार अर्जुन भो था| उसने चार तर्क प्रस्तुत किये- १. ऐसे युद्ध से सनातन- धर्म नष्ट हो जायेगा , २. वर्णसंकर पैदा होगा , ३. पिण्डोदक क्रिया लुप्त होगी , और ४. हमलोग कुलक्षय द्वारा महान् पाप करने को उद्यत हुए हैं| सञ्जय उवाच तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्| विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः११११| संजय ने कहा- करुणा से व्याप्त, अश्रुपूर्ण व्याकुल नेत्रोंवाले उस अर्जुन के प्रति मधुसूदन मद का विनाश करनेवाले भगवान ने यह वचन कहा- श्रीभगवानुवाच कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्| अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ११२| | अर्जुन ! इस विषम स्थल में तुझे यह अज्ञान कहाँ से हो गया? विषम स्थल अर्थात् जिसकी समता का सृष्टि में कोई स्थल है ही नहों , पारलौकिक है लक्ष्य जिसका, ऐसे निर्विवाद स्थल पर तुझे अज्ञान कहाँ से हुआ? अज्ञान क्यों , अर्जुन तो सनातन- धर्म को रक्षा के लिये कटिबद्ध है| क्या सनातन-धर्म को रक्षा के लिये प्राण- पण से तत्पर होना अज्ञान है? श्रीकृष्ण कहते हैं - हाँ, यह अज्ञान है॰ नतो सम्भावित द्वारा इसका आचरण किया गया है, न कुरीति बुद्ध के कुरीतियाँ पुरुषों |
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द्वितीय अध्याय २७ यह ही देनेवाला है और न यह कोीर्ति को हीं करनेवाला है पर जो दृढ़तापूर्वक आरूढ़ है , उसे आर्य कहते हैं| गीता आर्यसंहिता है| परिवार के लिये मरना-मिटना यदि अज्ञान न होता तो महापुरुष उस पर अवश्य चले होते| यदि कुलधर्म ही सत्य होता तो स्वर्ग और कल्याण की निःश्रेणी अवश्य बनतीं| यह कोर्तिदायक भी नहीं है| मीरा भजन करने लगी, तो लोग कहें मीरा भई बावरी , सास कहे कुलनाशी रे१ ' जिस परिवार , कुल और मर्यादा के लिये मीरा की सास बिलख रही थी, आज उस सास को कोई नहों जानता , मीरा को विश्व जानता है| ठीक इसीं प्रकार परिवार के लिये जो परेशान हैं , उनकी भी कीर्ति कब तक रहेगी? जिसमें कीर्ति नहों , कल्याण नहीं श्रेष्ठ पुरुषों ने भूलकर भी जिसका आचरण नहीं किया तो सिद्ध है कि वह अज्ञान है| अतः- क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते| क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तपत१३१| अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो| क्या अर्जुन नपुंसक थाः क्या आप पुरुष हैं? नपुंसक वह है,जो पौरुष से हीन हो| सब अपनी समझ से ही तो करते हैं| किसान रात-दिन खून-पसीना एक करके खेत में ही तो करता है| कोई व्यापार में पुरुषार्थ समझता है, तो कोई पद का करके बनता है| जीवनभर करने पर भी खाली हाथ जाना पडता है| स्पष्ट है कि यह पुरुषार्थ नहीं है| शुद्ध है आत्मदर्शन गार्गी ने याज्ञवल्क्य से कहा- नपुंसकः पुमान् ज्ञेयो यो न वेत्ति हृदि स्थितम्| स्वप्रकाशं तमानन्दात्मानमव्ययम्| ( आत्मपुराण वह पुरुष होते हुए भी नपुंसक है , जो हृदयस्थ आत्मा को नहों पहचानता| वह आत्मा ही पुरुषस्वरूप , स्वयंप्रकाश , उत्तम , आनन्दयुक्त और अव्यक्त है| उसे पाने का प्रयास हीं पौरुष है| अर्जुन ! तू नपुंसकता को न प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहों है| हे परंतप ! हृदय दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिये खडा हो| आसक्ति का सन्मार्ग स्वर्ग कुलवन्ती पुरुषार्थ पुरुषार्थ पुरुषार्थी पुरुषार्थ दुरुपयोग पुरुषार्थ पुरुषं को क्षुद्र |
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२८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता त्याग करो| यह हृदय को दुर्बलता मात्र है| इस पर अर्जुन ने तीसरा प्रश्न प्रस्तुत किया - अर्जुन उवाच कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन| इषुभिः प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन| १४१ | अहंकार का शमन करनेवाले मधुसूदन ! मैं रणभूमि में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण से किस प्रकार बाणों करूँगा? क्योंकि अरिसूदन ! वे दोनों ही पूजनीय हैं| द्वैत ही द्रोण है| प्रभु अलग हैं हम अलग हैं- द्वैत का यह भान ही प्राप्ति को प्रेरणा का आरम्भिक स्रोत है| यही द्रोणाचार्य का गुरुत्व है| भ्रम हीं भीष्म है| जब तक भ्रम है तभी तक बच्चे, परिवार , रिश्तेदार सभी अपने लगते हैं| अपना लगने में भ्रम हीं माध्यम है| आत्मा इन्हों को पूज्य मानकर इनके साथ रहता है कि यह पिता हैं , दादा हैं , कुलगुरु हैं इत्यादि| साधन के पूर्तिकाल में ' गुरु न चेला , पुरुष अकेला| न बन्धुर्न मित्रं शिष्यः चिदानन्दरूपः शिवोषहम् शिवोउहम्| आत्मषट्क , ५ जब चित्त उस परम आनन्द में विलीन हो जाता है, तब न गुरु ज्ञानदाता और न शिष्य ग्रहणकर्त्ता ही रह जाता है| यही परम की स्थिति है| गुरु का गुरुत्व प्राप्त कर लेने पर गुरुत्व एक-जैसा हो जाता है॰ श्रीकृष्ण कहते हैं, ' अर्जुन ! तू मुझमें निवास करेगा " जैसे श्रीकृष्ण वैसा ही अर्जुन, और ठीक वैसा हीं प्राप्तिवाला महापुरुष हो जाता है| ऐसी अवस्था भी विलय हो जाता है, गुरुत्व हृदय में प्रवाहित हो जाता है| अर्जुन गुरु-पद की ढाल बनाकर इस संघर्ष में प्रवृत्त होने से कतराना चाहता है| वह कहता है- गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके| हत्वार्थकामांस्तु भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्| १५/ | से युद्ध गुरुर्नैव में गुरु का गुरूनिहैव भुञ्चजीय |
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द्वितीय अध्याय इन महानुभाव को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी श्रेयस्कर समझता हूँ॰ यहाँ भिक्षा का अर्थ उदर- पोषण के लिये भीख माँगना नहों बल्कि कोी टूटी-्फूटी सेवा द्वारा उनसे कल्याण को याचना ही है| अन्नं बह्येति व्यजानात् ' ( तैत्तिरीय उप॰ , भृगुबल्ली २ ) अन्न एकमात्र परमात्मा है, जिसे प्राप्त करके आत्मा सदा के लिये तृप्त हो जाता है, कभी अतृप्त नहीं रहता| हम महापुरुषों को सेवा और याचना द्वारा शनैः - शनैः ब्रह्मपीयूष प्राप्त करें; यह परिवार न छूटे , यही अर्जुन के भिक्षान्न को कामना है| संसार में अधिकांश लोग ऐसा हीं करते हैं॰ वे चाहते हैं कि पारिवारिक स्नेह- सम्बन्ध न मारना पडे़े और मुक्ति भी शनैः - शनैः मिल जाय| चलनेवाले पथिक के लिये, जिसके संस्कार इनसे ऊपर हैं जिसमें संघर्ष को क्षमता है , स्वभाव में क्षत्रियत्व प्रवाहित है , उसके लिये इस भिक्षान्र का विधान नहों है॰ स्वयंन करके याचना करना भिक्षान्र है॰ गौतम भी मज्झिम निकाय के धम्मदायाद सुत्त ( १/१/३ ) में इस भिक्षान्न को आमिष दायाद कहकर हेय माना है, जबकि शरीरयापन से सभी भिक्षु थे| इन गुरुजनों को मारकर मिलेगा क्या? इस लोक में रुधिर से सने अर्थ और काम के भोग हीं तो भोगने को मिलेंगे| अर्जुन कदाचित् सोचता था कि भजन से भौतिक सुखों को मात्रा में अभिवृद्धि होगी| इतना संघर्ष झेलने के बाद भी इस शरीर के पोषक अर्थ और काम के भोग ही तो मिलेंगे| वह पुनः तर्क देता है- न कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः| यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेउवस्थिताः ११६| | यह भी निश्चित नहों है कि वह भोग मिलेगा ही| यह भी हम नहीं जानते कि हमारे लिये क्या करना श्रेयस्कर है; क्योंकि जो कुछ हमने कहा , वह अज्ञान प्रमाणित हो गया| यह भी ज्ञात नहों है कि हम जीतेंगे अथवा वे ही जीतेंगे| जिन्हें मारकर हम जीना भी नहों चाहते, वे ही धृतराष्ट्र हमारे गुरुजनों सत्पुरुषों भिक्षा किन्तु किन्तु बुद्ध ने चैतद्विदाः प्रमुखे धार्तराष्ाः के पुत्र |
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श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता सामने खड़े हैं| जब अज्ञानरूपी धृतराष्ट्र से उत्पन्न मोह इत्यादि स्वजन- समुदाय मिट ही जायेंगे , तब हम जी कर ही क्या करेंगे? अर्जुन पुनः सोचता है कि जो कुछ हमने कहा, कदाचित् यह भो अज्ञान हो; अतः प्रार्थना करता है- कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं बूहि तन्मे शिष्यस्तेउहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् १७७ | | कायरता के दोष से नष्ट स्वभाववाला के विषय में सर्वथा मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ| जो कुछ निश्चित परम कल्याणकारी हो , वह साधन मेरे लिये कहिये| मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में हूँ॰ मुझे साधिये| केवल शिक्षा न दीजिये बल्कि जहाँ लड़खड़ाऊँ वहाँ सँभालिये| लाद दे लदाय दे और लदानेवाला साथ चले- कदाचित् गट्ठर गिर पडा, तब कौन लदवायेगा? ' - ऐसा ही समर्पण अर्जुन का है| यहाँ अर्जुन ने पूर्ण समर्पण कर दिया| अभी तक वह श्रीकृष्ण को अपने स्तर का ही समझता था, अनेक विद्याओं में अपने को कुछ आगे हो मानता था| यहाँ उसने अपनी बागडोर श्रीकृष्ण को वस्तुतः सौंप दी| सद्गुरु पूर्तिपर्यन्त हृदय में रहकर साधक के साथ चलते हैं॰ यदि वे साथ न रहें तो साधक पार न हो| युवा कन्या के परिवारवाले जिस प्रकार शादी-विवाह तक उसको संयम को शिक्षा देते हुए सँभाल ले जाते हैं, ठीक इसी प्रकार सद्गुरु अपने शिष्य को अन्तरात्मा से रथी होकर उसे को घाटियों से निकालकर पार कर देते हैं| अर्जुन निवेदन करता है कि॰ भगवन्! एक बात और है- न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्| अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्याम्७१८१| पर निष्कण्टक धन धान्यसम्पत्रन राज्य को और देवताओं के स्वामीपन इन्द्रपद को पाकर भो मैं उस उपाय को नहों देखता , जो मेरी इन्द्रियों धर्म प्रकृति |
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द्वितीय अध्याय २ < को सुखानेवाले शोक को दूर कर सके| जब शोक बना हो है तो यह सब लेकर ही मैं क्या करूँगा? यदि इतना ही मिलना है तो क्षमा करें| अर्जुन ने सोचा , अब इसके आगे बतायेंगे भो क्याः सञ्जय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकशः परन्तप| न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा = बभूव हढ़१९१ | संजय बोला - हे राजन् ! मोहनिशाजयो अर्जुन ने हृदय के सर्वज्ञ श्रीकृष्ण से यह कहकर कि॰ गोविन्द नहीं करूँगा गया| अभी तक अर्जुन को दृष्टि पौराणिक है, जिसमें कर्मकाण्डों के साथ भोगों की उपलब्धि का विधान है, जिसमें स्वर्ग ही सब कुछ माना जाता है- जिस पर श्रीकृष्ण प्रकाश डालेंगे कि यह विचारधारा भी गलत है॰ तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत| सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः१११०१ | उसके उपरान्त हे राजन् ! अन्तर्यामी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकयुक्त अर्जुन को हँसते हुए-से यह वचन कहा- श्रीभगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे1 गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः११११११ अर्जुन ! तू न शोक करने योग्यों के लिये शोक करता है और पण्डितों के-से वचन कहता हैः बुद्धिसम्पन्न पण्डितजन जिनके प्राण चले गये हैं उनके लिये तथा जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी शोक नहों करते; क्योंकि वे भी मर जायेंगे तू पण्डितों - जैसी बातें भर करता है, वस्तुतः ज्ञाता है नहीं; क्योंकि- न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् १११२| | तूष्णीं = मैं युद्ध चुप हो किन्तु |
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३२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता न तो ऐसा ही है कि मैं अर्थात् सद्गुरु किसी काल में नहों था अथवा तू अनुरागी अधिकारी अथवा जनाधिपाः राजा लोग अर्थात् राजसी वृत्ति में पाया जानेवाला अहं नहों था और न ऐसा हीं है कि आगे हम सब नहों रहेंगे| सद्गुरु सदैव रहता है, सदैव रहते हैं| यहाँ योगेश्वर ने योग की अनादिता पर प्रकाश डालते हुए भविष्य में भी उसकी विद्यमानता पर बल दिया| मरनेवालों के लिये शोक न करने के लिये कारण बताते हुए उन्होंने कहा - देहिनोउस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा| तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति| ११३१| जैसे जीवात्मा की इस देह में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्था होती है, वैसे हो अन्य-्अन्य शरीरों को प्राप्ति में धीर पुरुष मोहित नहों होता है| कभी आप बालक थे, शनैः - शनैः युवा हुए, तब आप मर तो नहों गये? पुनः वृद्ध हुए| पुरुष एक ही है , उसी प्रकार लेशमात्र भी दरार नये देह को प्राप्ति पर नहों कलेवर का यह परिवर्तन तब तक चलेगा, जब तक परिवर्तन से परे को वस्तु नहीं मिल जातो| मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः आगमापायिनोउनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत१ ११४१ | हे कुन्तीपुत्र! सुख, दुःख, सर्दी और गर्मी को देनेवाले इन्द्रियों और विषयों के संयोग तो अनित्य हैं , क्षणभंगुर हैं| अतः भरतवंशी अर्जुन ! तू इनका त्याग कर अर्जुन इन्द्रिय और विषय के संयोगजन्य सुख का स्मरण करके ही विकल था| कुलधर्म , कुलगुरुओं को पूज्यता इत्यादि इन्द्रियों के लगाव के अन्तर्गत हैं| ये क्षणिक हैं, झूठे हैं, नाशवान् हैं| विषयों का संयोग न सदैव मिलेगा और न सदैव इन्द्रियों में क्षमता ही रहेगी| अतः अर्जुन ! तू इनका त्याग कर सहन करढ क्यों? क्या हिमालय को लड़ाई थी जो अर्जुन सर्दी सहन करता अथवा क्या यह रेगिस्तान को लड़ाई है जहाँ अर्जुन गर्मी सहन करे? कुरुक्षेत्र जैसा कि लोग बाहर बताते हैं, समशीतोष्ण स्थली है| कुल अठारह दिन तो लड़ाई हुई, इतने में कहाँ जाड़ा गर्मी बीत गया? वस्तुतः सर्दी- गर्मी, अनुरागी पडती| |
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द्वितीय अध्याय ३३ दुःख- सुख, मान- अपमान को सहन करना एक योगी पर निर्भर करता है| यह हृदय- देश को लड़ाई का चित्रण है बाहर युद्ध के लिये गीता नहों कहती| यह क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का संघर्ष है , जिसमें आसुरी सम्पद् का सर्वथा शमन कर परमात्मा में स्थिति दिलाकर दैवीं सम्पद् भी शान्त हो जाती है| जब विकार हैं ही नहीं तो सजातीय प्रवृत्तियाँ किस पर आक्रमण करें? अतः पूर्णत्व के साथ वे भी शान्त हो जाती हैं, इससे पहले नहों| गीता अन्तर्देश की लड़ाई का चित्रण है| इस त्याग से मिलेगा क्याः इससे लाभ क्या है? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं यं हि न व्यथयन्त्येते समदुःखसुखं धीरं सोउमृतत्वाय कल्पते|११५/ | क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुःख-सुख को समान समझनेवाले जिस धीर पुरुष को इन्द्रियों और विषयों के संयोग व्यथित नहों कर पाते , , वह मृत्यु से परे अमृत-् तत्त्व की प्राप्ति के योग्य हो जाता है॰ यहाँ श्रीकृष्ण ने एक उपलब्धि अमृत की चर्चा को| अर्जुन सोचता था के परिणाम में स्वर्ग मिलेगा या श्रीकृष्ण कहते हैं कि न स्वर्ग मिलेगा और न पृथ्वी , बल्कि अमृत मिलेगा| अमृत क्या है?- नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः| उभयोरपि दृष्टोउन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः| ११६१| अर्जुन ! असत् वस्तु का अस्तित्व नहों है , वह है ही नहों , उसे रोका नहों जा सकता और सत्य का तीनों काल में अभाव नहों है , उसे मिटाया नहों जा सकता | अर्जुन ने पूछा - क्या भगवान होने के नाते आप कहते हैं? श्रीकृष्ण ने बताया - मैं तो कहता हीं हूँ॰ इन दोनों का यह अन्तर हमारे साथ-साथ तत्त्वदर्शियों द्वारा भी देखा गया है| श्रीकृष्ण ने वहीं सत्य दोहराया , जो तत्त्वदर्शियों ने कभी देख लिया था| श्रीकृष्ण भी एक तत्त्वदर्शी महापुरुष थे| परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन करके उसमें स्थितिवाले तत्त्वदर्शी कहलाते हैं| सत् और असत् हैं क्या? इस पर कहते हैं- अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् विनाशमव्ययस्यास्य कश्चित्कर्तुमर्हति1 ११७१ | पुरुषं पुरुषर्षभ| कि युद्ध पृथ्वी; किन्तु |
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३४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता नाशरहित तो वह है , जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है॰ इस अव्ययस्य अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहों है| किन्तु इस अविनाशी , अमृत का नाम क्या है? वह है कौन? - अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः अनाशिनोउप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत१११८ | अविनाशी , अप्रमेय , नित्यस्वरूप आत्मा केये सभी शरीर नाशवान् कहे गये हैं भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध करढ आत्मा हो अमृत है| आत्मा हो अविनाशी है , जिसका तीनों काल में नाश नहों होता| आत्मा हो सत् है॰ शरीर नाशवान् है यहीं असत् है , जिसका तीनों काल में अस्तित्व नहों है॰ शरीर नाशवान् है , इसलिये तू युद्ध कर - इस आदेश से यह स्पष्ट नहों होता कि अर्जुन केवल कौरवों को मारे| पाण्डव-पक्ष में भी तो शरीर ही खड़े थे, क्या पाण्डवों के शरीर अविनाशी थे? यदि शरीर नाशवान् है तो किसकीं रक्षा में खड़े थे? क्या अर्जुन कोई शरीरधारी थाः शरीर जो असत् है, जिसका अस्तित्व नहों है , जिसे रोका नहों जा सकता क्या श्रीकृष्ण उस शरीर की रक्षा में खड़े हैं? यदि ऐसा है तो वे भी अविवेकी और मूढ़ हैं; क्योंकि आगे श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि जो केवल शरीर के लिये ही पचता है, श्रम करता है वह अविवेको और मूढ़बुद्धि है| वह पापायु पुरुष व्यर्थ ही जोता है| (३/ १३ ) अन्ततः अर्जुन कौन था? वस्तुतः अनुराग ही अर्जुन है| अनुरागी के लिये इष्ट सदैव रथी बनकर साथ में रहते हैं| सखा की भाँति उसका मार्गदर्शन करते हैं| आप शरीर नहीं हैं| शरीर तो आवरण है , रहने का मकान है| उसमें रहनेवाला अनुरागपूरित आत्मा है भौतिक युद्ध, मारने-काटने से शरीरों का अन्त नहों होता| यह शरीर छूटेगा तो आत्मा दूसरा शरीर धारण कर लेगा| इसी सन्दर्भ में श्रीकृष्ण कह कि जिस प्रकार बाल्यकाल या वृद्धावस्था आती है , उसी प्रकार देहान्तर की प्राप्ति होती है| शरीर काटेंगे तो जीवात्मा नया वस्त्र बदल लेेगा| शरीर संस्कारों के आश्रित है और संस्कार मन पर आधारित हैं॰' मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ( पंचदशी , ५/६० ) मन का इसलिये श्रीकृष्ण चुके हैं से युवा |
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द्वितीय अध्याय २५ सर्वथा निरोध होना , अचल स्थिर ठहरना और अन्तिम संस्कार का विलय एक ही क्रिया है| संस्कारों को सतह का टूट जाना ही शरीरों का अन्त है| इसे तोड़ने के लिये आपको आराधना करनी होगी, जिसे श्रीकृष्ण ने कर्म या निष्काम कर्मयोग को संज्ञा दी है॰ श्रीकृष्ण ने स्थान-स्थान पर अर्जुन की प्रेरणा दी; किन्तु एक भी श्लोक ऐसा नहों है जो भौतिक युद्ध या मारकाट का समर्थन करता हो| यह युद्ध सजातीय- विजातीय प्रवृत्तियों का है , अन्तर्देश में है॰ य एनं वेत्ति यश्चैनं मन्यते हतम्| उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते१११९१ | आत्मा को मारनेवाला मानता है तथा आत्मा को मरा हुआ समझता है, वे दोनों हो आत्मा को नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा न तो मारता है और न मारा ही जाता है| पुनः इसी पर बल देते हैं- न जायते प्रियते वा कदाचि- त्रायं भूत्वा भविता वा न भूयः अजो नित्यः शाश्वतोउयं हन्यते हन्यमाने शरीरे १२०|| यह आत्मा किसीं काल में न तो जन्मता है और न मरता हैः क्योंकि यह वस्त्र हीं तो बदलता है| न यह आत्मा होकर अन्य कुछ होनेवाला है; क्योंकि यह अजन्मा है, नित्य है , शाश्वत और पुरातन है| शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहों होता| आत्मा ही सत्य है, आत्मा ही पुरातन है, आत्मा ही शाश्वत और सनातन है| आप कौन हैं? सनातन- धर्म के अनुयायी| सनातन कौन है? आत्मा| आप आत्मा के हैं| आत्मा , परमात्मा और ब्रह्म एक दूसरे के पर्याय हैं| आप कौन हैं? शाश्वत - धर्म के उपासका शाश्वत कौन है? आत्मा| अर्थात् हम-्आप आत्मा के उपासक हैं| यदि आप आत्मिक पथ को नहोीं जानते तो आपके पास शाश्वत सनातन नाम को कोई वस्तु नहों है| उसके लिये आप आहें भरते हैं तो प्रत्याशी अवश्य हैं; सनातनधर्मी नहीं हैं॰ सनातन- धर्म के नाम पर किसी के शिकार हैं| को युद्ध हन्त्तारं जो इस जो इस पुराणो अनुयायी किन्तु कुरीति |
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३६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता देश- विदेश में , मानवमात्र में आत्मा एक ही जैसा है| इसलिये विश्व में कहों भी कोई आत्मा की स्थिति दिलानेवाली क्रिया जानता है और उस पर चलने के लिये प्रयत्नशील है तो वह सनातनधर्मी है, चाहे वह अपने को ईसाई , मुसलमान , यहूदी या कुछ भी क्यों न कह ले| वेदाविनाशिनं नित्यं या एनमजमव्ययम्| कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्| |२११ | पार्थिव शरीर को रथ बनाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य पर अचूक लगानेवाला पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित , नित्य , अजन्मा और अव्यक्त जानता है , वह पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किसी को मारता है? अविनाशी का विनाश असम्भव है| अजन्मा जन्म नहीं लेता| अतः शरीर के लिये शोक नहीं करना चाहिये| इसीं को उदाहरण से स्पष्ट करते हैं- वासांसि जीर्णानि यथा नवानि गृह्णाति नरोउपराणि| तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही १२२१| जैसे मनुष्य ' जीर्णानि वासांसि ' - जीर्ण - शीर्ण पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को धारण करता है| जीर्ण होने पर ही नया शरीर धारण करना है तो शिशु क्यों मर जाते हैं? यह वस्त्र तो और विकसित होना चाहिये| वस्तुतः यह शरीर संस्कारों पर आधारित है| जब संस्कार जीर्ण होते हैं तो शरीर छूट जाता है| यदि संस्कार दो दिन का है तो दूसरे दिन ही शरीर जोर्ण हो गया| इसके मनुष्य एक श्वास भी अधिक नहों जीता| संस्कार ही शरीर है| आत्मा संस्कारों के अनुसार नया शरीर धारण कर लेता है| अथ खलु ऋतुमयः यथा क्रतुरस्मिँल्लोके भवति तथेतः प्रेत्य भवति१ ' ( छान्दोग्योपनिषद् , ३/१४ ) अर्थात् यह पुरुष निश्चय ही संकल्पमय है| इस लोक जैसा निश्चयवाला होता है , वैसा ही यहाँ से मरकर जाने निशाना विहाय बाद पुरुषो पुरुषो में पुरुष |
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द्वितीय अध्याय २७ पर होता है| अपने संकल्प से बनाये हुए शरीरों में पुरुष उत्पन्न होता है| इस प्रकार मृत्यु शरीर का परिवर्तन मात्र है| आत्मा नहों मरताा पुनः अजरता अमरता पर बल देते हैं- नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः २३१| अर्जुन ! इस आत्मा को शस्त्रादि नहों काटते, अग्नि इसे जला नहों सकती , जल इसे गीला नहों कर सकता और न वायु इसे सुखा हीं सकता है| अच्छेद्योउ्यमदाह्योउ्यमक्लेद्योउशोष्य एव च| नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोउ्यं सनातनः २४१ | यह आत्मा अच्छेद्य है- इसे छेदा नहों जा सकता यह अदाह्य है- इसे जलाया नहों जा सकता , यह अक्लेद्य है- इसे गीला नहों किया जा सकता , आकाश इसे अपने में समाहित नहों कर सकता| यह आत्मा निःसन्देह अशोष्य सर्वव्यापक , अचल , स्थिर रहनेवाला और सनातन है| अर्जुन ने कहा कि सनातन है , ऐसा युद्ध करने से सनातन- धर्म नष्ट हो जायेगा; किन्तु श्रीकृष्ण ने इसे अज्ञान माना और आत्मा को ही सनातन बताया| आप कौन हैं? सनातन - धर्म के अनुयायी| सनातन कौन है? आत्मा| यदि आप आत्मपर्यन्त दूरी तय करानेवाली विधि- विशेष से अवगत नहों हैं तो आप सनातन धर्म नहों जानते| इसका साम्प्रदायिकता में फँसे धर्मभीरु लोगों को भोगना पड़ रहा है| मध्यकालीन भारत में बाहर से आनेवाले मुसलमान मात्र बारह हजार थे, आज अट्ठाइस करोड़ हैं| बारह हजार से बढ़कर लाखों हो जाते , अधिक से-अधिक करोड़ के लगभग हो जाते , और कितने हो जाते? यह अट्ठाइस करोड़ से भी आगे बढ रहे हैं| सब हिन्दू हीं तो हैं॰ आपके सगे भाई हैं, जो छूने और खाने से नष्ट हो गये| वे नष्ट नहों हुए बल्कि उनका सनातन अपरिवर्तनशील धर्म नष्ट हो गया| ज|५ मैटर ( दशऐ९ ) क्षेत्र में पैदा होनेवाली कोई वस्तु इस सनातन का स्पर्श नहीं कर सकतीं , तो छूने- खाने से सनातन- धर्म नष्ट कैसे हो सकता है? यह धर्म नहों, एक कुरीति- परिस्थिति थी, जिससे भारत में साम्प्रदायिक इसकी कुलधर्म कुपरिणाम |
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३८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता बढ़ा , देश का विभाजन हुआ और राष्ट्रीय एकता कोी आज भी समस्या बनी हुई है| इन कुरीतियों के कथानक इतिहास में भरे पडे़े हैं॰ हमीरपुर जिले में पचास साठ परिवार क्षत्रिय थे| आज वे सब मुसलमान हैं॰ न उन पर तोप का हमला हुआ , न तलवार काढ हुआ क्या? अर्द्धरात्रि में दो-एक मौलवीं उस गाँव के एकमात्र कुएँ के समीप छिप गये कि कर्मकाण्डी ब्राह्मण सबसे पहले यहाँ स्नान करने आयेगा| जहाँ वे आये तो उन्हें पकड़ लिया , उनका मुँह बन्द कर दिया| उनके सामने उन्होंने कुएँ से पानी निकाला , मुँह लगाकर पिया और बचा हुआ पानी कुएँ में डाल दिया॰ रोटी का एक टुकड़ा भी डाल दिया| पण्डितजी देखते ही रह गये, विवश थे| तत्पश्चात् पण्डितजी को भी साथ लेकर वे चले गये| अपने घर में उन्हें बन्द कर दिया| दूसरे दिन उन्होंने हाथ जोड़कर पण्डितजी से भोजन के लिये निवेदन किया तो वे पड़े- ' अरे , तुम यवन हो मैं ब्राह्मण , भला कैसे खा सकता उन्होंने कहा- ' महाराज हमें आप-जैसे विचारवान् लोगों की बड़ी आवश्यकता है क्षमा करें " पण्डितजी को छोड़ दिया गया| पण्डितजी अपने गाँव आये| देखा , लोग कुएँ का प्रयोग पूर्ववत् कर रहे थे| वे अनशन करने लगे॰ लोगों ने कारण पूछा तो बोले - यवन इस कुएँ की जगत पर चढ गये थे॰ मेरे सामने उन्होंने इस कुएँ को जूठा किया और इसमें रोटी का टुकड़ा भी डाल दिया| गाँव के लोग स्तब्ध रह गये| पूछा- क्या होगा२ ' पण्डित जी ने बताया- क्या? धर्म तो नष्ट हो गयाा' उस समय लोग शिक्षित नहों थे| स्त्रियों और शूद्रों से पढ़ने का अधिकार न जाने कब से छीन लिया गया था| वैश्य धनोपार्जन ही अपना धर्म मान बैठे थे| क्षत्रिय चारणों के प्रशस्ति-गायन में खोये थे कि अन्नदाता की तलवार चमकी तो बिजली कौंधने लगी , दिल्ली का तख्त डगमगाने लगा सम्मान वैसे ही प्राप्त है तो पढ़़ें क्यों? धर्म से उन्हें क्या लेना - देना? धर्म केवल ब्राह्मणों की वस्तु बनकर रह गया था|वे हीं धर्मसूत्रों के रचयिता , वे हीं उसके व्याख्याकार और वही उसके झूठ-्सच के निर्णायक थे- जबकि प्राचीनकाल में स्त्रियों , वैमनस्य कुलीन बिगड़ *अब " अब |
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द्वितीय अध्याय शूद्रों , वैश्यों , क्षत्रियों और ब्राह्मणों को, सबको वेद पढ़़ने का अधिकार था| प्रत्येक वर्ग के ऋषियों ने वैदिक मन्त्रों की रचना को है, शास्त्रार्थ निर्णय में भाग लिया है| प्राचीन राजाओं ने धर्म के नाम पर आडम्बर फैलानेवालों को दण्ड दिया, धर्मपरायणों का समादर किया था| मध्यकालीन भारत में सनातन- धर्म की यथार्थ जानकारी न रखने से उपर्युक्त गाँव के निवासी भेड़ को तरह एक कोने में खड़े होते गये कि धर्म नष्ट हो गया| कई लोगों ने इस अप्रिय शब्द को सुनकर आत्महत्या कर ली; किन्तु सब कहाँ तक प्राणान्त करते| अटूट श्रद्धा के पश्चात् भी विवश होकर अन्य हल खोजना पडा| आज भी वे बाँस गाड़कर , मूसल रखकर हिन्दुओं की तरह विवाह करते हैं , बाद में एक मौलवी निकाह पढ़ाकर चला जाता है| सब- के-सब शुद्ध हिन्दू हैं, सब- के-सब मुसलमान बन गये| हुआ क्या था? पानी पिया था, अनजाने में मुसलमानों का छुआ खा लिया था इसलिये धर्म नष्ट हो गया| धर्म तो हो गया छुईमुई ( लाजवन्ती )| यह एक पौधा होता है| आप छू दें तो उसको पत्तियाँ संकुचित हो जाती हैं और हाथ हटाते ही पुनः विकसित हो जाती हैं| यह पौधा हाथ हटाने पर विकसित हो जाता हैः धर्म तो ऐसा मुरझाया कि कभी विकसित नहों होगा| वे मर गये, सदा के लिये उनके राम, कृष्ण और परमात्मा मर गये| जो शाश्वत थे वे मर गये| वास्तव में वह शाश्वत के नाम पर कोई कुरीति थो , जिसे लोग धर्म मान बैठे थे| धर्म की शरण हम क्यों जाते हैं? क्योंकि हम मरणधर्मा ( मरने- जीनेवाले ) हैं और धर्म कोई ठोस चीज है , जिसकीं शरण जाकर हम भी अमर हो जायँ| हम तो मारने से मरेंगे और यह धर्म केवल छूने और खाने से मर जायेगा , तो हमारी क्या रक्षा करेगा? धर्म तो आपकी रक्षा करता है , आपसे शक्तिशाली है| आप तलवार से मरेंगे और धर्मः वह छूने से नष्ट हो गया| कैसा है आपका धर्मः कुरीतियाँ नष्ट होती हैं, न कि सनातन| सनातन तो ऐसीं ठोस वस्तु है जिसे शस्त्र नहों काटते , अग्नि जला नहों सकती , जल इसे गीला नहों कर सकता| खानपान प्रकृति में उत्पन्न कोई वस्तु उसका स्पर्श भी नहों कर पाती तो वह सनातन नष्ट कैसे हो गया? किन्तु किन्तु तो दूर , |
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४० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता ऐसी ही कतिपय कुरीतियाँ अर्जुनकाल में भी थों| उनका शिकार अर्जुन भी था| उसने विलाप करते हुए गिड़गिड़ाकर कहा कि सनातन है| युद्ध से सनातन-्धर्म नष्ट हो जायेगा| नष्ट होने से हम अनन्तकाल तक नरक में चले जायेंगे| श्रोकृष्ण ने कहा- " तुझे यह अज्ञान कहाँ से उत्पत्न हो गया२ ' सिद्ध है कि वह कोई कुरीति थी , तभी तो श्रीकृष्ण ने उसका निराकरण किया और बताया कि आत्मा ही सनातन है॰ यदि आप आत्मिक पथ नहों जानते तो सनातन- धर्म में आपका अभी तक प्रवेश नहीं हुआ है| जब यह सनातन शाश्वत आत्मा सबके अन्दर व्याप्त है तो खोजा किसे जायः इस पर कहते हैं- अव्यक्तोउयमचिन्त्योउयामविकार्योउयमुच्यते| तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि| १२५ || यह आत्मा अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों का विषय नहीं है| इन्द्रियों के द्वारा इसे समझा नहों जा सकता जब तक इन्द्रियों और विषयों का संयोग है, तब तक आत्मा है तो; किन्तु उसे समझा नहों जा सकता| वह अचिन्त्य है| जब तक चित्त और चित्त की लहर है, तब तक वह शाश्वत है तो; किन्तु हमारे दर्शन , उपभोग और प्रवेश के लिये नहों है| अतः चित्त का निरोध करें| श्रीकृष्ण बता आये हैं कि असत् वस्तु का अस्तित्व नहों है और सत् का तीनों काल में अभाव नहों है| वह सत् है आत्मा| आत्मा ही अपरिवर्तनशील , शाश्वत , सनातन और अव्यक्त है| तत्त्वदर्शियों ने आत्मा को इन विशेष गुणधर्मों से युक्त देखा| न दस भाषाओं के ज्ञाता ने देखा, न किसीं समृद्धिशाली ने देखा , बल्कि तत्त्वदर्शियों ने देखा| श्रीकृष्ण ने आगे बताया कि तत्व है परमात्मा| मन के निरोधकाल में साधक उसका दर्शन और उसमें प्रवेश पाता है॰ प्राप्तिकाल में भगवान मिलते हैं और दूसरे ही क्षण वह अपनी आत्मा को ईश्वरीय से विभूषित देखता है| वह देखता है कि आत्मा हो सत्य , सनातन और परिपूर्ण है| यह आत्मा अचिन्त्य है| यह विकाररहित अर्थात् न बदलनेवाला कहा जाता है| अतः अर्जुन आत्मा को ऐसा जानकर कुलधर्म कुलधर्म किन्तु श्रीकृष्ण गुणधर्मों |
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द्वितीय अध्याय ४२ तू शोक करने योग्य नहीं है| अब श्रीकृष्ण अर्जुन के विचारों में विरोधाभास दिखाते हैं , जो सामान्य तर्क है- अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्| तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि| १२६१| यदि तू इसे सदैव जन्मनेवाला और सदा मरनेवाला माने तब भी तुझे शोक नहों करना चाहिये; क्योंकि- जातस्य हि धरुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य चढ तस्मादपरिहार्येउर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि| |२७१ | ऐसा मान लेने पर भी जन्मनेवाले को निश्चित मरनेवाले का निश्चित जन्म सिद्ध होता है| इसलिये भी तू बिना उपायवाले इस विषय में शोक करने लायक नहों है| जिसका कोई इलाज नहों , उसके लिये शोक करना एक अन्य दुःख को आमन्त्रित करना है| अव्यक्तादीनि व्यक्तमध्यानि भारत अव्य क्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना| २८|| अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले बिना शरीरवाले और मरने के बाद भी बिना शरीरवाले हैं| जन्म के पूर्व और मृत्यु के पश्चात् भी दिखायी नहीं पडते , केवल जन्म- मृत्यु के बोच में हो शरीर धारण दिखायी देते हैं| अतः इस परिवर्तन के लिये व्यर्थ को चिन्ता क्यों करते हो? इस आत्मा को देखता कौन है? इस पर कहते हैं- आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः | आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् १२९१ | पहल श्रीकृष्ण ने कहा था कि इस आत्मा को तत्त्वदर्शियों ने देखा है अब तत्त्वदर्शन को दुर्लभता पर प्रकाश डालते हैं कि कोई विरला महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य को तरह देखता है| सुनता नहीं , प्रत्यक्ष देखता है और मृत्यु और भूतानि किये हुए |
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४२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता कोई महापुरुष ही आश्चर्य की तरह इसके तत्त्व को कहता है| जिसने देखा है, वहीं यथार्थ कह सकता है| दूसरा कोई विरला साधक इसे आश्चर्य को भाँति सुनता है| सब भी नहों; क्योंकि यह अधिकारीं के लिये ही है| हे अर्जुन ! कोई - कोई तो सुनकर भी इस आत्मा को नहों जान पाते; क्योंकि साधन पार नहों लगता| आप लाख ज्ञान को बातें सुनें , समझें - बाल की खाल निकालकर समझें, लालायित भी रहें; मोह बड़ा प्रबल है थोड़ी देर बाद ही आप अपनी सांसारिक व्यवस्थाओं में लिप्त मिलेंगे| अन्त में श्रीकृष्ण निर्णय देते हैं- देहीं नित्यमवध्योउयं देहे सर्वस्टा भारत| तस्मात्सर्वाणि न त्वं शोचितुमर्हसि| |३०१ | अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदैव अवध्य है, अकाट्य है| इसलिये सम्पूर्ण के लिये तू शोक करने योग्य नहों है| ही सनातन है - इस तथ्य का प्रतिपादन करके , इसका प्रभुतासहित वर्णन करके यह प्रश्न यहीं पूरा हो जाता है| अब प्रश्न खडा होता है कि इसकी प्राप्ति कैसे हो? सम्पूर्ण गीता में इसके लिये दो ही मार्ग हैं- पहला निष्काम कर्मयोग और दूसरा ज्ञानयोगा दोनों मार्गों में किया जानेवाला कर्म एक हीं है| उस कर्म को अनिवार्यता पर बल योगेश्वर श्रीकृष्ण ज्ञानयोग के विषय में कहते हैं - स्वधर्ममपि न विकम्पितुमर्हसि| धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोउन्यत्क्षत्रियस्य विद्यते१ १३११| अर्जुन ! स्वधर्म देखकर भी तू भय करने योग्य नहों है; क्योंकि धर्मसंयुक्त युद्ध से बढ़कर अन्य कोई परमकल्याणकारी मार्ग क्षत्रिय के लिये नहों है| अभी तक तो शाश्वत है आत्मा सनातन है , वही एकमात्र धर्म है कहा गया है| अब यह स्वधर्म कैसाः धर्म तो एकमात्र आत्मा हीो है| वह तो अचल स्थिर है तो धर्माचरण क्याः वस्तुतः इस आत्मपथ होने की क्षमता हर व्यक्ति को अलग ्अलग होती है| स्वभाव से उत्पन्न इस क्षमता को स्वधर्म कहा गया है| वैसे हो दूसरा सुनते किन्तु भूतानि भूतप्राणियों आत्मा देते हुए चावेक्ष्य आत्मा में प्रवृत्त |
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द्वितीय अध्याय ४२ इसी एक सनातन आत्मिक पथ पर चलनेवाले साधकों को महापुरुष ने स्वभाव को क्षमता के अनुसार चार श्रेणियों में बाँटा- शूद्र , वैश्य , क्षत्रिय और ब्राह्मण| साधना को प्रारम्भिक अवस्था में प्रत्येक साधक शूद्र अर्थात् अल्पज्ञ होता है| घण्टों भजन में बैठने पर वह दस मिनट भी अपने पक्ष में नहीं पाता वह प्रकृति के मायाजाल को काट नहों पाता| इस अवस्था में महापुरुष की सेवा से उसके स्वभाव में सद्गुण आते हैं| वह वैश्य श्रेणी का साधक बन जाता है| आत्मिक सम्पत्ति हीं स्थिर सम्पत्ति है॰ इसका वह शनैः - शनैः संग्रह और गोपालन अर्थात् इन्द्रियों की सुरक्षा करने में सक्षम हो जाता है| काम क्रोध इत्यादि से इन्द्रियों को हिंसा होती है तथा विवेक , वैराग्य से इनको सुरक्षा होती है; किन्तु प्रकृति को निर्बीज करने की क्षमता उसमें नहीं होती| क्रमशः उन्नति करते- करते साधक के अन्तःकरण में तीनों गुणों को काटने की क्षमता अर्थात् क्षत्रियत्व आ जाता है| इसी स्तर पर प्रकृति और उसके विकारों को नाश की क्षमता आ जाती है, इसलिये युद्ध यहों से आरम्भ होता है| क्रमशः साधन करके साधक ब्राह्मणत्व की श्रेणी में बदल जाता है| इस समय मन का शमन इन्द्रियों का दमन, धारावाही चिन्तन , सरलता , अनुभव , ज्ञान इत्यादि लक्षण साधक में स्वाभाविक प्रवाहित होते हैं॰ इन्हीं के अनुष्ठान से चलकर क्रमशः वह ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है, जहाँ वह ब्राह्मण भी नहीं रह जाता| विदेह राजा जनक की सभा में महर्षि याज्ञवल्क्य ने चाक्रायण , उषस्ति कहोल, आरुणि , उद्दालक और गार्गी के प्रश्नों का समाधान करते हुए बताया कि आत्मसाक्षात्कार का पूर्णतया सम्पादन करनेवाला ही ब्राह्मण होता है| यह आत्मा हो परलोक और समस्त प्राणियों को भीतर से नियमित करता है| सूर्य, चन्द्रमा जल , वायु, तारागण , अन्तरिक्ष, आकाश एवं प्रत्येक क्षण इस आत्मा के ही प्रशासन में हैं॰ यह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है| आत्मा अक्षर है , इससे भिन्न सब जो कोई इसी लोक में इस अक्षर को न जानकर हवन करता है तप करता है , हजारों वर्षों तक यज्ञ करता है उसका यह सब कर्म नाशवान् है|जो कोई भी इस अक्षर को जाने बिना इस लोक से मरकर जाता है वह दयनीय है , कृपण है और जो इस अक्षर करने लोक, पृथ्वी , अग्नि , नाशवान् हैं| |
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श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता को जानकर इस लोक से मरकर जाता है वह ब्राह्मण है| ( बृहदारण्यकोपनिषद् , तृतीय अध्याय , अष्टम ब्राह्मण ) अर्जुन क्षत्रिय श्रेणी का साधक है॰ श्रीकृष्ण कहते हैं कि क्षत्रिय श्रेणी के साधक के लिये युद्ध के अतिरिक्त कोई कल्याणकारी रास्ता है ही नहों| प्रश्न उठता है कि क्षत्रिय है क्याः प्रायः लोग इसका आशय समाज में जन्मना उत्पत्र ब्राह्मण , क्षत्रिय , शूद्र जातियों से लेते हैं| इन्हें ही चार वर्ण मान लिया जाता है॰ नहीं , शास्त्रकार ने स्वयं बताया है कि क्षत्रिय क्या है, वर्ण क्या है? यहाँ उन्होंने केवल क्षत्रिय का नाम लिया और आगे अठारहवें अध्याय तक इस प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया कि वस्तुतः ये वर्ण हैं क्या और कैसे इनमें परिवर्तन होता है? श्रीकृष्ण ने कहा, ' चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम् ' गीता , ४/१३ )- चार वर्णों की सृष्टि मैंने को॰ तो क्या मनुष्यों को बाँटा? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं , गुणकर्मविभागशः ' - गुणों के माध्यम से कर्म को चार भागों में बाँटाा अब यह देखना है कि वह कर्म क्या है, जिसे बाँटा गया? गुण परिवर्तनशील हैं॰ साधना को उचित प्रक्रिया द्वारा तामसी से राजसी और राजसीं से सात्त्विक गुणों में प्रवेश मिलता जाता है| अन्ततः ब्राह्मण स्वभाव बन जाता है॰ उस समय ब्रह्म में प्रवेश दिला देनेवाली सारीं योग्यताएँ उस साधक में रहतीं हैं| वर्ण ्सम्बन्धी प्रश्न यहाँ से आरम्भ होकर अठारहवें अध्याय में जाकर पूर्ण होता है| श्रीकृष्ण को मान्यता है- श्रेयान्स्वधर्मों परधर्मात्स्व नुष्ठितात् ' ( गीता , १८ /४७ ) स्वभाव से उत्पन्न इस धर्म में प्रवृत्त होने को क्षमता जिस स्तर को हो, भले ही वह गुणरहित शूद्र श्रेणो को हो, तब भी परमकल्याण करती है; क्योंकि आप क्रमशः वहों से उत्थान करते हैं॰ उससे ऊपरवालों को नकल करके साधक नष्ट हो जाता है| अर्जुन क्षत्रिय श्रेणी का साधक था इसलिये श्रीकृष्ण कहते हैं कि॰ अर्जुन ! अपने स्वभाव से उत्पन्न इस युद्ध में प्रवृत्त होने की अपनी क्षमता को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है| इससे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कार्य क्षत्रिय के लिये नहीं है इसी पर प्रकाश डालते हुए पुनः योगेश्वर कहते हैं - वैश्य, किन्तु विगुणः |
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