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अध्याय तामसी गुण किंचित् राजसी गुण भी उसमें हो, चारों ओर वैर और विरोध हो तो ऐसा व्यक्ति कलियुगीन है| तामसी गुण कार्य करता है तो मनुष्य में आलस्य, निद्रा , प्रमाद का बाहुल्य होता है| वह कर्त्तव्य जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त नहीों हो सकता , निषिद्ध कर्म जानते हुए भो उससे निवृत्त नहीं हो सकता| इस प्रकार का उतार - चढ़ाव को आन्तरिक योग्यता पर निर्भर है| किसीं ने इन्हों योग्यताओं को चार युग कहा है, तो कोई इन्हें ही चार वर्ण का नाम देता है, तो कोई इन्हें ही अति उत्तम , उत्तम मध्यम और चार श्रेणी के साधक कहकर सम्बोधित करता है| प्रत्येक युग में इष्ट साथ देते हैं| हाँ, उच्चश्रेणी में अनुकूलता की भरपूरता प्रतीत होती है निम्न युगों में सहयोग क्षीण प्रतीत होता है| संक्षेप में, श्रीकृष्ण कहते हैं- साध्य वस्तु दिलानेवाले विवेक , वैराग्य इत्यादि को निर्विघ्न प्रवाहित करने के लिये तथा दूषण के कारक काम-क्रोध राग- द्वेष इत्यादि का पूर्ण विनाश करने के लिये, परमधर्म परमात्मा में स्थिर रखने के लिये मैं युग-्युग में अर्थात् हर परिस्थिति, हर श्रेणी में प्रकट होता हूँ बशर्ते कि ग्लानि हो| जब तक इष्ट समर्थन न दें, तब तक आप समझ ही नहों सकेंगे कि विकारों का विनाश हुआ अथवा अभी कितना शेष है? प्रवेश से पराकाष्ठापर्यन्त इष्ट हर श्रेणी में हर योग्यता के साथ रहते हैं| उनका प्राकट्य अनुरागी के हृदय में होता है| भगवान प्रकट होते हैं, तब तो सभी दर्शन करते होंगे? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहों , जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः| त्यक्त्वा देहं नैति मामेति सोउर्जुनत१९१| अर्जुन ! मेरा वह जन्म अर्थात् ग्लानि के साथ स्वरूप को रचना तथा मेरा अर्थात् दुष्कृतियों के कारणों का विनाश , साध्य वस्तु को दिलानेवाली क्षमताओं का निर्दोष संचार, धर्म को स्थिरता, यह कर्म और जन्म दिव्य अर्थात् अलौकिक है, लौकिक नहों है| इन चर्मचक्षुओं से उसे देखा नहों जा सकता मन और बुद्धि से उसे मापा नहों जा सकता| जब इतना गूढ़ है तो उसे देखता कौन है? केवल यो वेत्ति तत्त्वतः तत्त्वदर्शी ही मेरे इस जन्म और भरपूर हो, जब युगधर्मों मनुष्यों निकृष्ट पुनर्जन्म कर्म
२० २ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता कर्म को देखता है और मेरा साक्षात् करके वह को नहों प्राप्त होता , बल्कि मुझे प्राप्त होता है| ज/ढ तत्त्वदर्शी ही भगवान का जन्म और कार्य देख पाता है तो लोग लाखों को संख्या में भीड क्यों खड़े हैं कि कहों अवतार होगा तो दर्शन करेंगे? क्या आप तत्त्वदर्शी हैं? महात्मा-वेष में आज भी विविध तरीकों से, मुख्यतः महात्मा -वेष की आड़ में बहुत से लोग प्रचार करते फिरते हैं कि वे अवतार हैं या उनके दलाल प्रचार कर देते हैं| लोग भेड को तरह अवतार को देखने टूट पडते हैं; श्रीकृष्ण कहते हैं कि केवल तत्त्वदर्शी ही देख पाता है| अब तत्त्वदर्शी किसे कहते हैं? अध्याय २ में सत् असत् का निर्णय देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया- अर्जुन ! असत् वस्तु का अस्तित्व नहों है और सत् का तीनों कालों में कभी अभाव नहों है॰ तो क्या आप ऐसा कहते हैं? उन्होंने बताया- ' नहों , तत्त्वदर्शियों ने इसे देखा ' न किसी भाषाविद् ने देखा , न किसी समृद्धिशाली ने देखा| यहाँ पुनः बल देते हैं कि मेरा आविर्भाव तो होता है लेकिन उसे तत्त्वदर्शी ही देख पाता है| तत्त्वदर्शी एक प्रश्न है| ऐसा कुछ नहीों कि पाँच तत्त्व हैं , पचीस तत्त्व हैं - इनकी गणना सीख ली और हो गये तत्त्वदर्शी| श्रीकृष्ण ने आगे बताया कि आत्मा हीं परमतत्त्व है॰ आत्मा परम से संयुक्त होकर परमात्मा हो जाता है आत्मसाक्षात्कार करनेवाला ही इस आविर्भाव को समझ पाता है| सिद्ध है कि अवतार किसी विरही अनुरागी के हृदय में होता है| आरम्भ में उसे वह समझ नहों पाता कि हमें कौन संकेत देता है? कौन मार्गदर्शन करता है? परमतत्त्व परमात्मा के दर्शन के साथ हीं वह देख पाता है, समझ पाता है और फिर शरीर को त्यागकर को प्राप्त नहों होता| श्रीकृष्ण ने कहा कि मेरा जन्म दिव्य है , इसे देखनेवाला मुझे प्राप्त होता है, तो लोगों ने उनको मूर्ति बना ली॰ पूजा करने लगे| आकाश में कहों उनके निवास को कल्पना कर लीड ऐसा कुछ नहों है॰ उन महापुरुष का आशय केवल इतना है कि यदि आप निर्धारित कर्म करें तो पायेंगे कि आप भी दिव्य पुनर्जन्म लगाये किन्तु किन्तु पुनर्जन्म
अध्याय ०३ हैं| आप जो हो सकते हैं , वह मैं हो गया हूँ॰ मैं आपकी सम्भावना आपका ही भविष्य हूँ| अपने भीतर आप जिस दिन ऐसी पूर्णता पा लेेंगे तो आप भी वही होंगे जो श्रीकृष्ण हैं| जो श्रीकृष्ण का स्वरूप है, वही आपका भी हो सकता है| अवतार कहों बाहर नहों होता| हाँ, यदि अनुरागपूरित हृदय हो तो आपके भीतर भी अवतार की अनुभूति सम्भव है| वे आपको प्रोत्साहित करते हैं कि बहुत से लोग इस मार्ग पर चलकर मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं- वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ११०१| राग और विराग, दोनों से परे वीतराग तथा इसी प्रकार भय ्अभय क्रोध अक्रोध दोनों से परे , अनन्य भाव से अर्थात् अहंकाररहित मेरी शरण हुए बहुत से लोग ज्ञान - तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं| अब ऐसा होने लगा हो- ऐसी बात नहों है , यह विधान सदैव रहा है| बहुत से पुरुष इसी प्रकार से मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं| किस प्रकार? जिन-जिन का हृदय अधर्म की वृद्धि देखकर परमात्मा के लिये ग्लानि से भर गया , उस स्थिति में मैं अपने स्वरूप को रचता हूँ॰वे मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं| जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने तत्त्वदर्शन कहा , उसे ही अब ज्ञान कहते हैं| परमतत्त्व है परमात्मा , उसे प्रत्यक्ष दर्शन के साथ जानना ज्ञान है| ऐसी जानकारीवाले ज्ञानी मेरे स्वरूप को प्राप्त करते हैं| यहाँ यह प्रश्न पूरा हो गया| अब वे योग्यता के आधार पर भजनेवालों का श्रेणी- विभाजन करते हैं- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः| ११११| पार्थ ! जो मुझे जितनी लगन से जैसा भजते हैं, मैं भी उनको वैसा ही भजता हूँ| उतनो ही मात्रा में सहयोग देता हूँ॰ साधक को श्रद्धा हीं कृपा बनकर उसे मिलती है| इस रहस्य को जानकर सुधीजन सम्पूर्ण भावों से मेरे मार्ग के अनुसार ही बरतते हैं| जैसा मैं बरतता हूँ॰जो मुझे प्रिय है वैसा ही आचरण करते हैं| जो मैं कराना चाहता हूँ, वहीं करते हैं|
२०४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता भगवान कैसे भजते हैं? वे रथी बनकर खड़े हो जाते हैं साथ चलने लगते हैं , यहीं उनका भजना है| दूषित जिनसे पैदा होते हैं , उनका विनाश करने के लिये वे खड़े हो जाते हैं| सत्य में प्रवेश दिलानेवाले सद्गुणों का परित्राण करने के लिये वे खड़े हो जाते हैं| जब तक इष्टदेव हृदय से पूर्णतः रथी न हों और हर कदम पर सावधान न करें, तब तक कोई कैसा ही भजनानन्दी क्यों न हो, लाख आँख मूँदे , लाख प्रयत्न करे , वह इस प्रकृति के द्वन्द्व से पार नहीं हो सकता| वह कैसे समझेगा कि वह कितनी दूरी तय कर चुका , कितनी शेष है| इष्ट ही आत्मा से अभिन्न होकर खड़े हो जाते हैं और उसका मार्गदर्शन करते हैं कि तुम यहाँ पर हो , ऐसे करो , ऐसे चलो| इस प्रकार को खाईं पाटते हुए, शनैः - शनैः आगे बढ़ाते हुए स्वरूप में प्रवेश दिला देंगे| भजन तो साधक को ही करना पड़ता है; किन्तु उसके द्वारा इस पथ में जो दूरी तय होती है, वह इष्ट की देन है| ऐसा जानकर सभी मनुष्य सर्वतोभावेन मेरा अनुसरण करते हैं| किस प्रकार वे बरतते हैं?- काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः = क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा|११२१ | वे पुरुष इस शरीर में कर्मों को सिद्धि चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं| कौन-सा कर्म? श्रीकृष्ण ने कहा, ' अर्जुन! तू नियत कर्म नियत कर्म क्या है? यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है| यज्ञ क्या है? साधना को विधि-विशेष , जिसमें श्वास- प्रश्वास का हवन , इन्द्रियों के बहिर्मुखी प्रवाह को संयमाग्नि में हवन किया जाता है, जिसका परिणाम है परमात्मा| कर्म का शुद्ध अर्थ है आराधना , जिसका स्वरूप इसी अध्याय में आगे मिलेगा| इस आराधना का परिणाम क्या है? संसिद्धिम् ' परमसिद्धि परमात्मा , यान्ति बह्म सनातनम् - शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश, परम नैष्कर्म्य की स्थिति| श्रीकृष्ण कहते हैं- मेरे अनुसार बरतनेवाले लोग इस मनुष्य- लोक में कर्म के परिणाम परम नैष्कर्म्य- सिद्धि के लिये देवताओं को पूजते हैं अर्थात् दैवीं सम्पद् को बलवती बनाते हैं| तीसरे अध्याय में उन्होंने बताया कि इस यज्ञ द्वारा तुम देवताओं की वृद्धि करो, दैवीं सम्पद् को बलवती बनाओ| ज्यों-्ज्यों हृदय-्देश में दैवीं प्रकृति कर॰ '
अध्याय ० ८ सम्पद् को उन्नति होगी , त्यों -त्यों तुम्हारी उन्नति होगो| इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परमश्रेय को प्राप्त हो जाओ| अन्त तक उन्नति करते जाने की यह अन्तःक्रिया है| इसी पर बल देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं - मेरे अनुकूल बरतनेवाले लोग इस मनुष्य - शरीर में कर्मों को सिद्धि चाहते हुए दैवी सम्पद् को बलवती बनाते हैं , जिससे वह नैष्कर्म्य-्सिद्धि शीघ्र होतीं है| वह असफल नहीं होती , सफल ही होती है| शीघ्र का तात्पर्य? क्या कर्म में प्रवृत्त होते ही तत्क्षण यह परमसिद्धि मिल जाती है? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं , इस सोपान पर क्रमशः चढ़ने का विधान है| कोई छलांग लगाकर भावातीत ध्यान-्जैसा चमत्कार नहों होता| इस पर देखें- मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः तम्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ११३१ | अर्जुन! ' चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम् - चार वर्णों की रचना मैंने की॰ तो क्या मनुष्यों को चार भागों में बाँट दियाः श्रीकृष्ण कहते हैं - नहों , गुणकर्म- विभागशः ' - गुणों के माध्यम से कर्म को चार भागों में बाँटा| गुण एक पैमाना है, मापदण्ड है| तामसी गुण होगा तो आलस्य , निद्रा , प्रमाद , कर्म में न प्रवृत्त होने का स्वभाव , जानते हुए भी अकर्त्तव्य से निवृत्ति न हो पाने की विवशता रहेगी| ऐसी अवस्था में साधन आरम्भ कैसे करें? दो घण्टे आप आराधना में बैठते हैं, इस कर्म के लिये प्रयत्नशील होना चाहते हैं किन्तु दस मिनट भो अपने पक्ष में नहों पाते| शरीर अवश्य बैठा है, लेकिन जिस मन को बैठना चाहिये वह हवा से बातें कर रहा है , का जाल बुन रहा है, तरंग पर तरंग छायो है , तो आप बैठे क्यों हैं? समय क्यों नष्ट करते हैं? उस समय केवल ' परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ' ( १८ /४४ )- जो महापुरुष अव्यक्त को स्थितिवाले हैं , अविनाशी तत्त्व में स्थित हैं उनकी तथा इस पथ पर अग्रसर अपने से उन्नत लोगों को सेवा में लग जाओ| इससे दूषित संस्कार शमन होते जायेंगे , साधना में प्रवेश दिलानेवाले संस्कार सबल होते जायेंगे| क्रमशः तामसी गुण न्यून होने पर राजसी गुणों की प्रधानता तथा सात्त्विक गुण के स्वल्प संचार के साथ साधक को क्षमता वैश्य श्रेणी को हो चातुर्वर्ण्यं कुतर्कों
२०६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता जाती है॰ उस समय वहीं साधक इन्द्रिय-्संयम, आत्मिक सम्पत्ति का संग्रह स्वभावतः करने लगेगा| कर्म करते-करते उसी साधक में सात्त्विक गुणों का बाहुल्य हो जायेगा , राजसी गुण कम रह जायेंगे , तामसी गुण शान्त रहेंगे| उस समय वही साधक क्षत्रिय श्रेणी में प्रवेश पा लेगा| शौर्य, कर्म में प्रवृत्त रहने की क्षमता, पीछे न हटने का स्वभाव, सब भावों पर स्वामिभाव , प्रकृति के तीनों गुणों को काटने की क्षमता उसके स्वभाव में ढल जायेगी| वही कर्म और सूक्ष्म होने पर, मात्र सात्त्विक गुण कार्यरत रह जाने पर मन का शमन , इन्द्रियों का दमन एकाग्रता , सरलता, ध्यान, समाधि, ईश्वरीय निर्देश, आस्तिकता इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली स्वाभाविक क्षमता के साथ वही साधक ब्राह्मण श्रेणी का कहा जाता है| यह ब्राह्मण श्रेणी के कर्म को निम्नतम सीमा है| जब वही साधक ब्रह्म में स्थित हो जाता है , उस अन्तिम सीमा में वह स्वयं में न ब्राह्मण रहता है न क्षत्रिय , न वैश्य न शूद्रः के मार्गदर्शनहेतु वही ब्राह्मण है| कर्म एक ही है- नियत कर्म , आराधना| अवस्था - भेद से इसी कर्म को ऊँची- नीची चार सीढ़ियों में बाँटाा किसने बाँटा? किसी योगेश्वर ने बाँटा , अव्यक्त स्थितिवाले महापुरुष ने बाँटाा उसके कर्त्ता मुझ अविनाशी को अकर्त्ता ही जान| क्यों?- न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा| इति मां योउभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते१ ११४१ | क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहों है| कर्मों का फल क्या है? श्रीकृष्ण ने पीछे बताया कि यज्ञ जिससे पूरा होता है, उस क्रिया का नाम कर्म है और पूर्तिकाल में यज्ञ जिसकीं रचना करता है उस ज्ञानामृत का पान करनेवाला शाश्वत, सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा लेता है| कर्म का परिणाम है परमात्मा , उस परमात्मा को चाह भी अब मुझे नहों है; क्योंकि वह मुझसे भिन्न नहीं है| मैं अव्यक्त स्वरूप हूँ॰ उसी की स्थितिवाला हूँ| अब आगे कोई सत्ता नहीं , जिसके लिये इस कार्य पर स्नेह रखूँ| इसलिये कर्म मुझे लिपायमान नहीं करते और इसी स्तर सेजो भी मुझे जानता है अर्थात् जो कर्मों के परिणाम परमात्मा ' को प्राप्त कर लेता है , उसे भी कर्म नहों बाँधते| जैसे श्रीकृष्ण , वैसे उस स्तर से जाननेवाले महापुरुष| किन्तु दूसरों
अध्याय ०७७ एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ११५| | अर्जुन ! पहले होनेवाले मोक्ष को इच्छावाले पुरुषों द्वारा भी यहीं जानकर कर्म किया गया| क्या जानकर? यहो किजब कर्मों का परिणाम परमात्मा भिन्न न रह जाय , कर्मों के परिणाम परमात्मा की स्पृहा न रह जाने पर उस पुरुष को कर्म नहों बाँधते| श्रोकृष्ण इसीं स्थितिवाले हैं इसलिये वे कर्म में लिपायमान नहों होते और उसीं स्तर से हम जान लेंगे तो हमें भी कर्म नहों बाँधेगा| जैसे श्रीकृष्ण , ठीक उसी स्तर से जो भी जान लेेगा , वैसा ही वह पुरुष भी कर्मबन्धन हो जायेगा| अब श्रीकृष्ण भगवान' महात्मा अव्यक्त योगेश्वर' या महायोगेश्वर जो भी रहे हों, वह स्वरूप सबके लिये है| यही समझकर पहले के मुमुक्षु पुरुषों ने, मोक्ष की इच्छावाले ने कर्म पर कदम रखा| इसलिये अर्जुन! पूर्वजों द्वारा सदा से किये हुए इसी कर्म को करा यहीं कल्याण का एकमात्र मार्ग है| अभी तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कर्म करने पर बल दिया; किन्तु यह स्पष्ट नहों किया कि कर्म क्या है? अध्याय दो में उन्होंने कर्म का नाम मात्र लिया कि अब इसी को तू निष्काम कर्म के विषय में सुनः उसकी विशेषताओं का वर्णन किया कि यह जन्म-्मरण के महान् भय से रक्षा करता है| कर्म करते समय सावधानी का वर्णन किया, लेकिन यह नहों बताया कि कर्म क्या है? अध्याय तीन में उन्होंने कहा कि ज्ञानमार्ग अच्छा लगे या निष्काम कर्मयोग , कर्म तो करना ही पड़ेगा| न तो कर्मों को त्यागने से कोई ज्ञानी होता है और न तो कर्मों को न आरम्भ करने से कोई निष्कर्मी| हठवश जो नहों करते , वे दम्भी हैं॰ इसलिये मन से इन्द्रियों को वश में करके कर्म करढ कौन-्सा कर्म करे? तो बताया- नियत कर्म कर| अब यह निर्धारित कर्म है क्या? तो बोले- यज्ञ की प्रक्रिया हीं नियत कर्म है| एक नवीन प्रश्न दिया कि यज्ञ क्या है , जिसे करें तो कर्म हो जायः बहाँ भी यज्ञ को उत्पत्ति को बताया , उसको विशेषताओं का वर्णन किया; किन्तु यज्ञ नहीों बताया, जिससे कर्म को समझा जा सके| अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ कि कर्म क्या है? अब कहते हैं - अर्जुन ! कर्म क्या है, से मुक्त पुरुषों तू भी
२०८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता अकर्म क्या है? इस विषय में बड़े -बड़े विद्वान् भी मोहित हैं, उसे भली प्रकार समझ लेना चाहिये| किं कर्म किमकर्मेति कवयोउप्यत्र मोहिताः| तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेउशुभात् १६१ | कर्म क्या है और अकर्म क्या है?- इस विषय में बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हैं| इसलिये मैं वह कर्म तेरे लिये अच्छी तरह से कहूँगा , जिसे जानकर तू अशुभात् मोक्ष्यसे ' - अशुभ अर्थात् संसार- बन्धन से भली प्रकार छूट जायेगा| कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो संसार - बन्धन से मुक्ति दिलाती है| इसी कर्म को जानने के लिये श्रीकृष्ण पुनः बल देते हैं- कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः१११७१| कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये, अकर्म का स्वरूप भी समझना चाहिये और विकर्म अर्थात् विकल्पशून्य विशेष कर्म जो आप्तपुरुषों द्वारा होता है, उसे भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्म की गति गहन है| कतिपय लोगों ने विकर्म का अर्थ निषिद्ध कर्म' मन लगाकर किया गया कर्म' इत्यादि किया है| वस्तुतः यहाँ वि' उपसर्ग विशिष्टता का द्योतक है॰ प्राप्ति के पश्चात् महापुरुषों के कर्म विकल्पशून्य होते हैं| आत्मस्थित , आत्मतृप्त, आप्तकाम महापुरुषों को न तो कर्म करने से कोई लाभ है और न छोड़ने से कोई हानि ही है, फिर भी वे पीछेवालों के हित के लिये कर्म करते हैं| ऐसा कर्म विकल्पशून्य है , विशुद्ध है और यही कर्म विकर्म कहलाता है| उदाहरणार्थ गीता में जहाँ भी किसीं कार्य में वि' उपसर्ग लगा है उसकी विशेषता का द्योतक है, निकृष्टता का नहों| यथा ' योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ' ( गीता ५४७ )- जो योग से युक्त है वह विशेष आत्मावाला , विशेष रूप से जीते अन्तःकरणवाला इत्यादि विशेषता के ही द्योतक हैं| इसी प्रकार गीता में स्थान-स्थान पर 'वि' का प्रयोग हुआ है जो विशेष पूर्णता का द्योतक है| इसी प्रकार विकर्म' भी विशिष्ट कर्म का रूप से शुद्ध
अध्याय द्योतक है जो प्राप्ति के पश्चात् महापुरुषों के द्वारा सम्पादित होता है, शुभाशुभ संस्कार नहों डालता| अभी आपने विकर्म देखा| रहा कर्म औरे अकर्म , जिसे अगले श्लोक में समझने का प्रयास करें| यदि यहाँ कर्म और अकर्म का विभाजन नहों समझ सके तो कभी नहों समझ सकेंगे- कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः| स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ११८१| कर्म में अकर्म देखे , कर्म माने आराधना अर्थात् आराधना करे और यह भी समझे कि करनेवाला मैं नहों हूँ बल्कि गुणों को अवस्था ही चिन्तन में हमें नियुक्त करतीं है, संचालित हूँ - ऐसा देखे और जब इस प्रकार अकर्म देखने को क्षमता आजाय और धारावाहिक रूप से कर्म होता रहे, तभी समझना चाहिये कि कर्म सही दिशा में हो रहा है| वहीं पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान् है, में योगी है, योग से युक्त बुद्धिवाला है और सम्पूर्ण कर्मों को करनेवाला है| उसके द्वारा कर्म करने में लेशमात्र भी त्रुटि नहों रह जाती| सारांशतः आराधना ही कर्म है, उस कर्म को करें और करते हुए अकर्म देखें कि मैं तो यन्त्रमात्र हूँ , करानेवाला इष्ट है और मैं गुणों से उत्पन्न अवस्था के अनुसार ही चेष्टा कर पाता हूँ॰ जब अकर्म की यह क्षमता आ जाय और धारावाहिक कर्म होता रहे , तभी परमकल्याण की स्थिति दिलानेवाला कर्म हो पाता है॰ ' पूज्य महाराज जी' कहा करते थे कि॰ ' जब तक इष्ट रथी न हो जाय रोकथाम न करने लगे, तब तक सही मात्रा में साधना का आरम्भ ही नहीं होता " इसके पूर्व जो कुछ भी किया जाता है, कर्म में प्रवेश के प्रयास से अधिक कुछ भी नहीं है॰| हल का सारा भार बैलों के कन्धों पर ही रहता है फिर भी खेत को हलवाहे को देन है| ठीक इसीं प्रकार साधन का सारा भार साधक के ऊपर हीं रहता है; वास्तविक साधक तो इष्ट है जो उसके पीछे लगा जो उसका मार्गदर्शन करता है| जब तक इष्ट निर्णय न दें, तब तक आप समझ ही नहों सकेंगे कि हमसे हुआ क्या? हम प्रकृति में भटक रहे हैं या परमात्मा में? इस प्रकार इष्ट के निर्देशन में जो साधक इस आत्मिक जो पुरुष मैं इष्ट द्वारा = मनुष्यों जुताई किन्तु हुआ है ,
२२० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता पथ पर अग्रसर होता है , अपने को अकर्त्ता समझकर धारावाहिक कर्म करता है वहीं बुद्धिमान् है , उसकी यथार्थ है, वहीं योगी है| श्रीकृष्ण के अनुसार जो कुछ किया जाता है, कर्म नहीं है| कर्म एक निर्धारित को हुई क्रिया है| नियतं कुरु कर्म त्वम् - अर्जुन! तू निर्धारित कर्म को करत निर्धारित कर्म है क्याः तब बताया, यज्ञार्थात्कर्मणोउन्यत्र लोकोउ्यं कर्मबन्धनः| यज्ञ को कार्यरूप देना हीं कर्म है॰ तो इसके अतिरिक्त जो कुछ किया जाता है, क्या वह कर्म नहों है? श्रीकृष्ण कहते हैं अन्यत्र लोकोउ्यं कर्मठन्धनः - इस यज्ञ को कार्यरूप देने के सिवाय जो कुछ किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है , न कि कर्म॰ ' तदर्थं कर्म ' - अर्जुन ! उस यज्ञ की पूर्ति के लिये भली प्रकार आचरण कर| और जब यज्ञ का स्वरूप बताया तो वह शुद्ध रूप से आराधना की एक विधि-विशेष है , जो उस आराध्य देव तक पहुँचाकर उसमें विलय दिलाता है| इस यज्ञ में इन्द्रियों का दमन, मन का शमन, दैवी सम्पद् का अर्जन इत्यादि बताते हुए अन्त में कहा- बहुत से योगी प्राण और अपान को गति का निरोध करके प्राणायाम के परायण हो जाते हैं| जहाँ न भीतर से संकल्प उठता है और न बाह्य वातावरण का संकल्प मन के अन्दर प्रविष्ट हो पाता है , ऐसी स्थिति में चित्त का सर्वथा निरोध और निरुद्ध चित्त के भी विलयकाल में वह पुरुष ' यान्ति ब्रह्म सनातनम् शाश्वत सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है॰ यही सब यज्ञ है , जिसे कार्यरूप देने का नाम कर्म है| अतः कर्म का शुद्ध अर्थ है आराधना कर्म का अर्थ है भजन' कर्म का अर्थ है योग-्साधना को भली प्रकार सम्पादित करना - जिसका विशद वर्णन इसी अध्याय में आगे आ रहा है| यहाँ कर्म और अकर्म का केवल विभाजन किया गया जिससे कर्म करते समय उसे सहीं दिशा दी जा सके और उस पर चला जा सके॰ जिज्ञासा स्वाभाविक है कि कर्म करते हीं रहेंगे या कभी कर्मों से छुटकारा भी मिलेगा? इस पर योगेश्वर कहते हैं- यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः| ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः१११९१| जानकारी
अध्याय १२ अर्जुन! यस्य सर्वे समारम्भाः जिस पुरुष के द्वारा सम्पूर्णता से आरम्भ का हुई क्रिया ( जिसे पिछले श्लोक में कहा कि अकर्म देखने की क्षमता आ जाने पर कर्म में प्रवृत्त रहनेवाला पुरुष सम्पूर्ण कर्मों का करनेवाला है| जिसके करने में लेशमात्र भी त्रुटि नहों है॰) ' कामसङ्कल्पवर्जिताः क्रमशः उत्थान होते-होते इतनी सूक्ष्म हो गयी कि वासना और मन के संकल्प - विकल्प से ऊपर उठ गयी (कामना और संकल्पों का निरोध होना मन की विजितावस्था है| अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है,जो इस मन को कामना और संकल्प-विकल्प से ऊपर उठा देता है॰ ) , उस समय ' ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम् ' अन्तिम संकल्प के भी शमन के साथ, जिसे हम नहों जानते , जिसे जानने के लिये हम इच्छुक थे उस परमात्मा को प्रत्यक्ष जानकारीं हो जाती है| क्रियात्मक पथ पर चलकर परमात्मा को प्रत्यक्ष जानकारीं का नाम ही ज्ञान है| उस ज्ञान के साथ ही ' दग्धकर्माणम् - कर्म सदा के लिये दग्ध हो जाते हैं| जिसे पाना था पा लिया , आगे कोई सत्ता नहों जिसको शोध करें| इसलिये कर्म करके भी तो किसे? उस जानकारीं के साथ कर्म को आवश्यकता समाप्त हो जाती है| ऐसी स्थितिवालों को ही बोधस्वरूप महापुरुषों ने ' पण्डित' कहकर सम्बोधित किया है| उनकी जानकारी पूर्ण है| ऐसी स्थितिवाला महापुरुष करता क्या है? रहता कैसे है? उसको रहनी पर प्रकाश डालते हैं- त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः कर्मण्यभिप्रवृत्तोउपि नैव किञ्चित्करोति सः| १२०| | अर्जुन ! वह पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित होकर , नित्यवस्तु परमात्मा में ही तृप्त रहकर, कर्मों के फल परमात्मा की आसक्ति को भी त्यागकर (क्योंकि परमात्मा भी अब भिन्न नहीं है) कर्म में अच्छी प्रकार बरतता हुआ भी कुछ नहों करता| निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् १२११ | जिसने अन्तःकरण और शरीर को जीत लिया है, भोगों की सम्पूर्ण सामग्री जिसने त्याग दी है , ऐसे आशारहित पुरुष का शरीर केवल कर्म करता
१२२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता दिखायी भर पड़ता है| वस्तुतः वह करता- धरता कुछ नहों , इसलिये पाप को प्राप्त नहों होता| वह पूर्णत्व को प्राप्त है, इसीलिये आवागमन को प्राप्त नहों होता| यदृच्छालाभसन्तुष्टो विमत्सरः समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते११२२१ | अपने आप जो कुछ भी प्राप्त हो उसी में सन्तुष्ट रहनेवाला , सुख-दुःख, राग- द्वेष और हर्ष- शोकादि द्वन्द्वों से परे , विमत्सरः - ईर्ष्यारहित तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाववाला पुरुष कर्मों को करके भी नहों बँधता| सिद्धि अर्थात् जिसे पाना था वह अब भिन्न नहों है और वह कभी विलग भी नहों होगा , इसलिये असिद्धि का भी भय नहीं है| इस प्रकार सिद्धि और असिद्धि में समभाववाला पुरुष कर्म करके भी नहीं बँधता| कौन-सा कर्म वह करता है? वही नियत कर्म यज्ञ को प्रक्रिया| इसी को दुहराते हुए कहते हैं - गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते १२३१ | अर्जुन ! यज्ञायाचरतः कर्म - यज्ञ का आचरण ही कर्म है और साक्षात्कार का नाम ही ज्ञान है| इस यज्ञ का आचरण करके साक्षात्कार के साथ ज्ञान में स्थित , संगदोष और आसक्ति से रहित मुक्त पुरुष के सम्पूर्ण कर्म भली प्रकार विलीन हो जाते हैं॰ वे कर्म कोई परिणाम उत्पन्न नहों कर पाते; क्योंकि कर्मों का फल परमात्मा उनसे भिन्न नहों रह गया| अब फल में कौन- सा फल लगेगा? इसलिये उन मुक्त पुरुषों को अपने लिये कर्म की आवश्यकता समाप्त हो जाती है| फिर भी लोकसंग्रह के लिये वे कर्म करते हीो हैं और करते हुए भी वे इन कर्मों में लिप्त नहीं होते| जब करते हैं तो लिप्त क्यों नहीं होते? इस पर कहते हैं- ब्रह्यार्पणं ब्रह्म हविर्बह्याग्नौ बह्मणा हुतम्| बह्मैव तेन गन्तव्यं बह्यकर्मसमाधिना| १२४१| पुरुष का समर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, अग्नि भी ब्रह्म ही है अर्थात् ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूपी कर्त्ता द्वारा जो हवन किया जाता है वह भी द्वद्वातीतो ऐसे मुक्त
अध्याय १३ ब्रह्म है॰ ' बह्यकर्मसमाधिना ' ~ जिसके कर्म ब्रह्म का स्पर्श करके समाधिस्थ हो चुके हैं, उसमें विलय हो चुके हैं, ऐसे महापुरुष के लिये जो प्राप्त होने योग्य है वह भी ब्रह्म ही है| वह करता - धरता कुछ नहीं , केवल लोकसंग्रह के लिए कर्म में बरतता है| यह तो प्राप्तिवाले महापुरुष के लक्षण हैं; किन्तु कर्म में प्रवेश लेनेवाले प्रारम्भिक साधक कौन-्सा यज्ञ करते हैं? पिछले अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! कर्म करा कौन-सा कर्म? उन्होंने बताया _ नियतं कुरु कर्म ' - निर्धारित किये हुए कर्म को करा निर्धारित कर्म कौन-सा है? , तो ` यज्ञार्थात्कर्मणोउन्यत्र लोकोउयं कर्मबन्धनः| ' ( ३/९ )- अर्जुन ! यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है| इस यज्ञ के अतिरिक्त अन्यत्र किया जाता है, वह इसी लोक का बन्धन है न कि कर्मा कर्म तो संसार बन्धन से मोक्ष दिलाता है| अतः ' तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर | - उस यज्ञ की पूर्ति के लिये संगदोष से अलग रहकर भली प्रकार यज्ञ का आचरण करढ यहाँ योगेश्वर ने एक नवीन प्रश्न दिया कि वह यज्ञ है क्या जिसे करें और कर्म हमसे पार लगे? उन्होंने कर्म की विशेषताओं पर बल दिया, बताया कि यज्ञ आया कहाँ से? यज्ञ देता क्या है? उसकी विशेषताओं का चित्रण कियाः किन्तु अभी तक यह नहों बताया कि यज्ञ है क्याः अब यहाँ उसी यज्ञ को स्पष्ट करते हैं- दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते| बह्याग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वतित २५ | गतश्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने परमात्मस्थित महापुरुष के यज्ञ का निरूपण कियाः किन्तु दूसरे योगी जो अभी उस तत्त्व में स्थित नहों हुए हैं, क्रिया में प्रवेश करनेवाले हैं, वे आरम्भ कहाँ से करें? इस पर कहते हैं कि दूसरे योगी लोग ' दैवम् यज्ञम्' अर्थात् दैवी सम्पद् को अपने हृदय में बलवती बनाते हैं| जिसके लिये ब्रह्मा का निर्देश था कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग देवताओं कोी उन्नति करो| ज्यों-ज्यों हृदय-्देश में दैवीं सम्पद् अर्जित होगी , वही तुम्हारी प्रगति होगी और क्रमशः परस्पर उन्नति करके परमश्रेय को प्राप्त जो कुछ
१२४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता करो| दैवीं सम्पद् को हृदय-्देश में बलवती बनाना प्रवेशिका श्रेणी के योगियों का यज्ञ है| वह दैवी सम्पद् अध्याय १६ के आरम्भिक तीन श्लोकों में वर्णित है, जो है तो सबमें , केवल महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य समझकर उसकी जागृति करें , उसमें लगें| इन्हों को इंगित करते हुए योगेश्वर ने कहा- अर्जुन ! तू शोक मत करः क्योंकि सम्पद् को प्राप्त हुआ है, तू मुझमें निवास करेगा , मेरे ही शाश्वत स्वरूप को प्राप्त करेगाः क्योंकि यह दैवीं सम्पद् परमकल्याण के लिये ही है और इसके विपरीत आसुरी सम्पद् नीच और अधम योनियों का कारण है| इसी आसुरी सम्पद् का हवन होने लगता है इसलिये यह यज्ञ है और यहों से यज्ञ का आरम्भ है॰ दूसरे योगी ` ब्ह्याग्नौ ' - परब्रह्म परमात्मरूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं| श्रीकृष्ण ने आगे बताया - इस शरीर में अधियज्ञ मैं हूँ॰ यज्ञों का अधिष्ठाता अर्थात् यज्ञ जिसमें विलय होते हैं, वह पुरुष मैं हूँ| श्रीकृष्ण एक योगी थे , सद्गुरु थे| इस प्रकार दूसरे योगीजन ब्रह्मरूपी अग्नि में यज्ञ अर्थात् यज्ञस्वरूप सद्गुरु को उद्देश्य बनाकर यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं सारांशतः सद्गुरु के स्वरूप का ध्यान करते हैं| श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति1 शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु १२६| | अन्य योगीजन श्रोत्रादिक श्रोत्र , नेत्र, त्वचा जिह्वा और नासिका ) इन्द्रियों को संयमरूपी अग्नि में हवन करते हैं अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से समेटकर संयत कर लेते हैं॰ यहाँ आग नहों जलती| जैसे अग्नि में डालने से हर वस्तु भस्मसात् हो जाती है, ठीक इसी प्रकार संयम भी एक अग्नि है जो इन्द्रियों के सम्पूर्ण बहिर्मुखो प्रवाह को दग्ध कर देता है| दूसरे योगी लोग शब्दादिक ( शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध ) विषयों को इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर देते हैं अर्थात् उनका आशय बदलकर साधनापरक बना लेते हैं| साधक को संसार में रहकर ही तो भजन करना है| सांसारिक लोगों के तू दैवी जुह्वति|
अध्याय १५ भले-बुरे शब्द उससे टकराते हीं रहते हैं| विषयोत्तेजक ऐसे शब्दों को सुनते ही साधक उनके आशय को योग , वैराग्य सहायक , वैराग्योत्तेजक भावों में बदलकर इन्द्रियरूपी अग्नि में हवन कर देते हैं| जैसा कि एक बार अर्जुन अपने चिन्तन में रत था, अकस्मात् उसके कर्ण - कुहरों में संगीत - लहरी झनझना उठी| उसने सिर उठाकर देखा तो उर्वशी खडी थी, जो एक अप्सरा थो| सभी उसके रूप पर मुग्ध हो झूम रहे थे; किन्तु अर्जुन ने उसे स्नेहिल दृष्टि से मातृवत् देखा| उस शब्द , रूप से मिलनेवाले विकार विलीन हो गये| इन्द्रियों के अन्तराल में हीं समाहित हा गये| यहाँ इन्द्रिय ही अग्नि है| अग्नि में डाली हुई वस्तु जैसे भस्मसात् हो जाती है , इसी प्रकार आशय बदलकर इष्ट के अनुकूल ढाल लेने पर विषयोत्तेजक रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द भी भस्म हो जाते हैं , साधक पर कुप्रभाव नहों डाल पाते| साधक इन शब्दादिकों में रुचि नहों लेता , इन्हें ग्रहण नहों करता| इन श्लोकों में अपरे , अन्ये' शब्द एक हीं साधक कोी ऊँची-नीचीं अवस्थाएँ हैं , एक ही यज्ञकर्त्ता का ऊँचा - नीचा स्तर है , न कि अपरे , अपरे' कहने से कोई अलग ्अलग यज्ञ| सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे| आत्मसंयमयोगाग्नौ ज्ञानदीपिते = १२७| | अभी तक योगेश्वर ने जिस यज्ञ को चर्चा को, उसमें क्रमशः दैवीं सम्पद् को अर्जित किया जाता है , इन्द्रियों की सम्पूर्ण चेष्टाओं का संयम किया जाता है बलात् विषयोत्तेजक शब्दादिकों के टकराने पर भी उनका आशय बदलकर उनसे बचा जाता है| इससे उन्नत अवस्था होने पर दूसरे योगीजन सम्पूर्ण इन्द्रियों की चेष्टाओं तथा प्राण के व्यापार को साक्षात्कारसहित ज्ञान से प्रकाशित परमात्मस्थितिरूपी योगाग्नि में हवन करते हैं| जब संयम की पकड़ आत्मा के साथ तद्रूप हो जाती है, प्राण और इन्द्रियों का व्यापार भो शान्त हो जाता है , उस समय विषयों को उद्दीप्त करनेवाली और इष्ट में प्रवृत्ति दिलानेवाली दोनों धाराएँ आत्मसात् हो जाती हैं| परमात्मा में स्थिति मिल जाती है| यज्ञ का परिणाम निकल आता है| यह है यज्ञ को पराकाष्ठा| जिस परमात्मा को पाना जुह्वति
१२६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता था , उसी में स्थिति आ गयो तो शेष क्या रहा? पुनः योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञ को भली प्रकार समझाते हैं- द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे| स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितत्रताः १२८| | अनेक लोग द्रव्ययज्ञ करते हैं अर्थात् आत्मपथ में , महापुरुषों की सेवा में पत्र- पुष्प अर्पित करते हैं| वे समर्पण के साथ महापुरुषों को सेवा लगाते हैं| श्रीकृष्ण आगे कहते हैं- भक्तिभाव से पत्र, पुष्प, फल, जल जो कुछ भी मुझे देता है, उसे मैं खाता हूँ और उसका परमकल्याण - सृजन करनेवाला होता हूँ॰ यह भी यज्ञ है| हर आत्मा की सेवा करना , भूले आत्मपथ पर लाना द्रव्ययज्ञ है; क्योंकि प्राकृतिक संस्कारों को जलाने में समर्थ है| प्रकार कई पुरुष तपोयज्ञाः स्वधर्म पालन में इन्द्रियों को तपाते हैं अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न क्षमता के अनुसार यज्ञ को निम्न और उन्नत अवस्थाओं के बीच तपते हैं| इसो पथ की अल्पज्ञता में पहली श्रेणी का साधक शूद्र परिचर्या द्वारा, वैश्य दैवी सम्पद् के संग्रह द्वारा, क्षत्रिय काम- क्रोधादि के उन्मूलन द्वारा और ब्राह्मण ब्रह्म में प्रवेश की योग्यता के स्तर से इन्द्रियों को तपाता है| सबको एक-्जैसा परिश्रम करना पड़ता है| वास्तव में यज्ञ एक ही है| अवस्था के अनुसार ऊँची-नीची श्रेणियाँ गुजरती जाती हैं| पूज्य महाराज जी कहते थे- ' मनसहित इन्द्रियों और शरीर को लक्ष्य के अनुरूप तपाना ही तप कहलाता है॰ ये लक्ष्य से दूर भागेंगे , इन्हें समेटकर उधर हो लगाओ अनेक पुरुष योगयज्ञ का आचरण करते हैं| भटकती हुई आत्मा का प्रकृति से परे परमात्मा से मिलन का नाम योग' है॰ योग की परिभाषा अध्याय ६/२३ में द्रष्टव्य है| सामान्यतः दो वस्तुओं का मिलन योग कहलाता है॰ कागज से कलम मिल गया, थाली और मेज मिल गये तो क्या योग हो गया? नहों , ये तो पंचभूतों से निर्मित पदार्थ हैं| एक ही हैं, दो कहाँ? दो प्रकृति और पुरुष हैं| प्रकृति में स्थित आत्मा अपने ही शाश्वत रप परमात्मा में प्रवेश पा जाता है तो प्रकृति पुरुष में विलीन हो जाती है| यही योग में द्रव्य हुए को इसो प्रकृति में
अध्याय १७ है अतः अनेक पुरुष इस मिलन में सहायक शम, दम इत्यादि नियमों का भली प्रकार आचरण करते हैं॰ योगयज्ञ करनेवाले तथा अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष ' स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च - स्वयं का अध्ययन, स्व रूप का अध्ययन करनेवाले ज्ञानयज्ञ के कर्त्ता हैं॰ यहाँ योग के अंगों ( यम नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि ) को अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से निर्दिष्ट किया गया है| अनेक लोग स्वाध्याय करते हैं| पुस्तक पढ़ना तो स्वाध्याय का आरम्भिक स्तर मात्र है| स्वाध्याय है स्वयं का अध्ययन , जिससे स्वरूप की उपलब्धि होती है जिसका परिणाम है ज्ञान अर्थात् साक्षात्कार| यज्ञ का अगला चरण बताते हैं- अपाने प्राणं प्राणेउपानं तथापरे| प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः १२९| | बहुत से योगी अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं और उसी प्रकार प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते हैं| इससे सूक्ष्म अवस्था हो जाने पर अन्य योगीजन प्राण और अपान दोनों को गति रोककर प्राणायामपरायण हो जाते हैं| जिसे श्रीकृष्ण प्राण-अपान कहते हैं, उसी को महात्मा बुद्ध अनापान' कहते हैं॰ इसीं को उन्होंने श्वास- प्रश्वास भी कहा है| प्राण वह श्वास है जिसे आप भीतर खीँचते हैं और अपान वह श्वास है जिसे आप बाहर छोड़ते हैं| योगियों की अनुभूति है कि आप श्वास के साथ बाह्य वायुमण्डल के संकल्प भी ग्रहण करते हैं और प्रश्वास में इसी प्रकार आन्तरिक भले-बुरे चिन्तन की लहर फेँकते रहते हैं| बाह्य किसीं संकल्प का ग्रहण न करना प्राण का हवन है तथा भीतर संकल्पों को न उठने देना अपान का हवन है॰न भीतर से किसी संकल्प का स्फुरण हो और न हीं बाह्य दुनिया में चलनेवाले चिन्तन अन्दर क्षोभ उत्पन्न कर पायें , इस प्रकार प्राण और अपान दोनों को गति सम हो जाने पर प्राणों का याम अर्थात् निरोध हो जाता है, यही प्राणायाम है॰ यह मन की विजितावस्था है| प्राणों का रुकना और मन का रुकना एक हीं बात है| विशुद्ध जुह्वति
१२८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ प्रत्येक महापुरुष ने इस प्रकरण को लिया है| वेदों में इसका उल्लेख है- चत्वारि वाक् परिमिता पदानि ' ( ऋग्वेद १/१६४/४५ , अथर्ववेद ९/१५/२७ ) इसी को ' पूज्य महाराज जो' कहा करते थे- " हो ! एक ही नाम चार श्रेणियों से जपा जाता है ~ बैखरी , मध्यमा , पश्यन्ती और परा| बैखरी उसे कहते हैं जो व्यक्त हो जाय| नाम का इस प्रकार उच्चारण हो कि आप सुनें और बाहर कोई बैठा हो तो उसे भी सुनायी पड़े| मध्यमा अर्थात् मध्यम स्वर में जप , जिसे केवल आप ही सुनें , बगल में बैठा हुआ व्यक्ति भी उस उच्चारण को सुन न सके| यह उच्चारण कण्ठ से होता है| धोरे -धोरे नाम को धुन बन जाती है, डोर लग जाती है| साधना हो जाने पर पश्यन्ती अर्थात् नाम देखने की अवस्था आ जाती है| फिर नाम को जपा नहों जाता , यहीं नाम श्वास में ढल जाता है॰ मन को द्रष्टा बनाकर खडा कर दें, देखते भर रहें कि साँस आती है कब? बाहर निकलती है कब? कहती है क्या? " महापुरुषों का कहना है कि यह साँस नाम के सिवाय और कुछ कहतीं ही नहों| साधक नाम का जप नहीं करता, केवल उससे उठनेवाली धुन को सुनता है| साँस को देखता भर है, इसलिये इसे पश्यन्ती' कहते हैं| पश्यन्ती में मन को द्रष्टा के रूप में खडा करना पड़ता है; साधन और उन्नत हो जाने पर सुनना भी नहीं पड़ता| एक बार सुरत लगा भर दें , स्वतः देगा| जपै न जपावै , अपने से आवै॰ - न स्वयं जपें , न मन को के बाध्य करें और जप चलता रहे, इसी का नाम है अजपा| ऐसा नहों कि जप प्रारम्भ ही न करें और आ गयी अजपा| यदि किसी ने जप नहों आरम्भ किया, तो अजपा नाम की कोई भी वस्तु उसके पास नहीं होगी| अजपा का अर्थ है , हम न जपें किन्तु जप हमारा साथ न छोड़े| एक बार सुरत का काँटा लगा भर दें तो जप प्रवाहित हो जाय और अनवरत चलता रहे| इस स्वाभाविक जप का नाम है अजपा और यहीं है परावाणी का जप| यह प्रकृति से परे तत्त्व परमात्मा में प्रवेश दिलाती है| इसके आगे वाणी में कोई परिवर्तन नहों है॰ परम का दिग्दर्शन कराके उसी में विलीन हो जाती है इसीलिये इसे परा कहते हैं| गीता और सूक्ष्म किन्तु सुनायो सुनने लिए
अध्याय १९ प्रस्तुत श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने केवल श्वास पर ध्यान रखने को कहा जबकि आगे स्वयं ओम् के जप पर बल देते हैं॰ गौतम बुद्ध भी अनापान सती' में श्वास- प्रश्वास की ही चर्चा करते हैं| अन्ततः वे महापुरुष कहना क्या चाहते हैं? वस्तुतः प्रारम्भ में बैखरी , उससे मध्यमा और उससे उन्नत होने पर जप की पश्यन्ती अवस्था में श्वास पकड़ में आता है| उस समय जप तो श्वास में ढला मिलेगा, फिर जपें क्याः फिर तो केवल श्वास को देखना भर है| इसलिये प्राण- अपान मात्र कहा, नाम जपो॰ - ऐसा नहों कहा कारण कि कहने को आवश्यकता नहों है| यदि कहते हैं तो गुमराह होकर नीचे को श्रेणियों में चक्कर काटने लगेगा महात्मा बुद्ध, गुरुदेव भगवान' तथा प्रत्येक महापुरुष जो इस रास्ते से गुजरे हैं , सभी एक ही बात कहते हैं| बैखरी और मध्यमा नाम-्जप के प्रवेशनद्वार मात्र हैं| पश्यन्ती से ही नाम में प्रवेश मिलता है| परा में नाम धारावाही हो जाता है , जिससे जप साथ नहीं छोड़ता| मन श्वास के साथ जुड़ा है| जब श्वास पर दृष्टि है , श्वास में नाम ढल चुका है , भीतर से न तो किसी संकल्प का उत्थान है और न बाह्य वायुमण्डल के संकल्प भोतर प्रवेश कर पाते हैं , यही मन पर विजय की अवस्था है| इसी के साथ यज्ञ का परिणाम निकल आता है| अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु सर्वेउप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा :१ १३०१ | दूसरे नियमित आहार करनेवाले प्राण को प्राण में ही हवन करते हैं| पूज्य महाराज जी' कहा करते थे कि॰ ' योगी का आहार दृढ़़ , आसन निद्रा दृढ़ होनी चाहिये आहार-विहार पर नियन्त्रण बहुत आवश्यक है| ऐसे अनेक योगी प्राण को प्राण में हीं हवन कर देते हैं अर्थात् श्वास लेने पर ही ध्यान केन्द्रित रखते हैं, प्रश्वास पर ध्यान नहों देते| साँस आयी ओम् , पुनः साँस आयो तो ओम् सुनते रहें| इस प्रकार यज्ञों द्वारा नष्ट पापवाले ये सभो पुरुष यज्ञ के जानकार हैं| इन निर्दिष्ट विधियों में से यदि कहों से भी करते हैं तो वे सभी यज्ञ के ज्ञाता हैं| अब यज्ञ का परिणाम बताते हैं- जुह्वति| दृढ़ और तो सुना
श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति बह्य सनातनम्| नायं लोकोउस्त्ययज्ञस्य कुतोउन्यः कुरुसत्तम| १३११ | कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! ' यज्ञशिष्टामृतभुजो ' यज्ञ जिसको सृष्टि करता है जिसे अवशेष छोड़ता है , वह है अमृत| उसकी प्रत्यक्ष जानकारी ज्ञान है| उस ज्ञानामृत को भोगने अर्थात् प्राप्त करनेवाले योगीजन ` यान्ति ब्रह्म सनातनम् - शाश्वत सनातन परब्रह्म को प्राप्त होते हैं| यज्ञ कोई ऐसी वस्तु है, जो पूर्ण होते ही सनातन परब्रह्म में प्रवेश दिला देती है॰ यज्ञ न करें तो आपत्ति क्या है? श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञरहित पुरुष यह मनुष्यलोक अर्थात् मानव- शरीर भी सुलभ नहीं होता, फिर अन्य लोक कैसे सुखदायी होँगे? उसके लिये तो तिर्यक् योनियाँ सुरक्षित हैं, इससे अधिक कुछ नहों| अतः यज्ञ करना मनुष्य मात्र के लिये नितान्त आवश्यक है| एवं बहुविधा यज्ञा वितता बह्मणो मुखे| कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे| ३२१ | इस प्रकार उपर्युक्त बहुत प्रकार के यज्ञ वेद की वाणी में कहे गये हैं, ब्रह्म के मुख से विस्तारित हैं| प्राप्ति के पश्चात् महापुरुषों के शरीर को परब्रह्म धारण कर लेता है| ब्रह्म से अभिन्न अवस्थावाले उन महात्माओं को बुद्धि मात्र यन्त्र होती है| उनके द्वारा वह ब्रह्म ही बोलता है| उनकी वाणी में इन यज्ञों का विस्तार किया गया है| इन सब यज्ञों को तू कर्मजान् विद्धि' कर्म से उत्पत्र हुआ जान| यही पहले भी कह आये हैं- यज्ञः कर्मसमुद्भवः ' ( ३/१४ )१ उन्हें इस प्रकार क्रियात्मक चलकर जान लेने पर ( अभी बताया था, यज्ञ करके जिनका पाप नष्ट हो चुका हो, वही यज्ञ के यथार्थ ज्ञाता हैं) अर्जुन! तू ' विमोक्ष्यसे ' संसार - बन्धन से पूर्णतः छूट जायेगा| यहाँ योगेश्वर ने कर्म स्पष्ट कर दिया| वह हरकत कर्म है , जिससे उपर्युक्त यज्ञ पूर्ण होते हैं| अब यदि दैवीं सम्पद् का अर्जन , सद्गुरु का ध्यान , इन्द्रियों का संयम , श्वास का प्रश्वास में हवन , प्रश्वास का श्वास में हवन , प्राण- अपान को गति को पुनः
अध्याय २ २२ का निरोध खेती करने से होता हो; व्यापार , नौकरी या राजनीति करने से होता हो तो आप करिये| यज्ञ तो ऐसी क्रिया है, जो पूर्ण होते ही तत्क्षण परब्रह्म में प्रवेश दिला देती है| बाह्य किसी भी कार्य से आप तत्क्षण ब्रह्म में प्रवेश पा जाते हों तो कोजिये| वस्तुतः यह सब-के-सब यज्ञ चिन्तन को अन्तःक्रियाएँ हैं आराधना का चित्रण है , जिससे आराध्यदेव विदित होता है| यज्ञ उस आराध्य तक को दूरी तय करने को निर्धारित प्रक्रिया-विशेष है| यह यज्ञ श्वास प्रश्वास प्राणायाम इत्यादि जिस क्रिया से सम्पन्न होते हैं, उस कार्य-प्रणाली का नाम कर्म है| कर्म का शुद्ध अर्थ है- आराधना चिन्तन | प्रायः लोग कहते हैं कि संसार भी किया जाय, हो गया कर्म कामना से रहित होकर कुछ भी करते जाओ , हो गया निष्काम कर्मयोग| कोई कहता है कि अधिक लाभ के लिये विदेशी वस्त्र बेचते हैं तो आप सकामी हैं| देश-्सेवा के लिये स्वदेशी बेचें तो हो गया निष्काम कर्मयोगा निष्ठापूर्वक नौकरी करें, हानि-्लाभ को चिन्ता होकर व्यापार करें, हो गया निष्काम कर्मयोग| जय- पराजय को भावना से मुक्त हो युद्ध करें , चुनाव लड़ें , हो गये निष्कर्मी॰ मरोगे तो मुक्ति हो जायेगी| वस्तुतः ऐसा कुछ भी नहों है| योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में बताया कि इस निष्काम कर्म में निर्धारित क्रिया एक हीं है- व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन| अर्जुन! तू निर्धारित कर्म को करढ यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है॰ यज्ञ क्या है? श्वास- प्रश्वास का हवन इन्द्रियों का संयम , यज्ञस्वरूप महापुरुष का ध्यान , प्राणायाम - प्राणों का निरोध| यही मन की विजितावस्था है॰ मन का ही प्रसार जगत् है| श्रीकृष्ण के ही शब्दों में, इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः| (५/१९ )- उन द्वारा चराचर जगत् यहों जीत लिया गया , जिनका मन समत्व में स्थित है| भला मन के समत्व और जगत् के जीतने से क्या सम्बन्ध है? यदि जगत् को जीत ही लिया तो रुका कहाँ पर? तब कहते हैं- वह ब्रह्म निर्दोष और सम है , इधर मन भी निर्दोष और समत्व को स्थितिवाला हो अतः वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है| में कुछ से मुक्त पुरुषों गया ,
२२२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता सारांशतः मन का प्रसार ही जगत् है| चराचर जगत् ही हवन-्सामग्री के रूप में है॰ मन के सर्वथा निरोध होते ही जगत् का निरोध हो जाता है| मन के निरोध के साथ ही यज्ञ का परिणाम निकल आता है| यज्ञ जिसको सृष्टि करता है, उस ज्ञानामृत का पान करनेवाला पुरुष सनातन ब्रह्म में प्रविष्ट हो जाता है| यह सभी यज्ञ ब्रह्मस्थित महापुरुषों की वाणी द्वारा कहे गये हैं| ऐसा नहों कि अलग अलग सम्प्रदायों के साधक अलग ्अलग प्रकार के यज्ञ करते हैं , बल्कि ये सभी यज्ञ एक ही साधक को ऊँची - नीचीं अवस्थाएँ हैं| यह यज्ञ जिससे होने लगे , उस क्रिया का नाम कर्म है| सम्पूर्ण गीता में एक भी श्लोक ऐसा नहों है,जो सांसारिक कार्य-्व्यापारों का समर्थन करता हो| प्रायः यज्ञ का नाम आने पर लोग बाहर एक यज्ञ- वेदी बनाकर तिल जौ लेकर स्वाहा बोलते हुए हवन प्रारम्भ कर देते हैं| यह एक धोखा है| द्रव्ययज्ञ दूसरा है, जिसे श्रीकृष्ण ने कई बार कहा| पशुबलि , वस्तु- दाह इत्यादि से इसका कोई सम्बन्ध नहों है| श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप| सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते११३३१| अर्जुन ! सांसारिक द्रव्यों से सिद्ध होनेवाले यज्ञ कोी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ पजिसका परिणाम ( साक्षात्कार ) है यज्ञ जिसकीं सृष्टि करता है उस अमृततत्त्व को जानकारीं का नाम ज्ञान है, ऐसा यज्ञ] श्रेयस्कर है परमकल्याणकारी है॰ हे पार्थ! सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में शेष हो जाते हैं " परिसमाप्यते भली प्रकार समाहित हो जाते हैं| ज्ञान यज्ञ की पराकाष्ठा है| उसके पश्चात् कर्म किये जाने से न कोई लाभ है और न छोड़ देने से उस महापुरुष को कोई क्षति ही होती है| इस प्रकार भौतिक द्रव्यों से होनेवाले यज्ञ भी यज्ञ हैं; किन्तु उस यज्ञ को तुलना में, जिसका परिणाम साक्षात्कार है उस ज्ञानयज्ञ को अपेक्षा अत्यन्त अल्प हैं आप करोड़ों का हवन करें , सैकड़ों यज्ञवेदी बना लें , सत्पथ पर द्रव्य लगावें , साधु - सन्त- महापुरुषों की सेवा में द्रव्य लगावें; किन्तु इस ज्ञानयज्ञ की अपेक्षा अत्यन्त अल्प हैं| वस्तुतः यज्ञ श्वास- प्रश्वास का है , इन्द्रियों के संयम ज्ञान
अध्याय २ २३ का है मन के निरोध का है॰ जैसा अभी बता आये हैं| इस यज्ञ को प्राप्त कहाँ से किया जायः उसकी विधि कहाँ से सीखें? मन्दिरों , मस्जिदों , गिरजाघरों में मिलेगा या में? तीर्थयात्राओं में मिलेगा या स्नान करने से मिलेगा? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहों, उसका तो एक ही स्रोत है तत्त्वस्थित महापुरुष| तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया| उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः १३४| | इसलिये अर्जुन! तू तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर भली प्रकार प्रणत होकर ( दण्डवत् ्प्रणाम करके, अहंकार त्यागकर , शरण होकर ) भली प्रकार सेवा करके, निष्कपट भाव से प्रश्न करके तू उस ज्ञान को जान| वे तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानीजन तेरे लिये उस ज्ञान का उपदेश करेंगे , साधना- पथ पर चलायेंगे| समर्पित भाव से सेवा करने के उपरान्त ही इस ज्ञान को सीखने की क्षमता आती है| तत्त्वदर्शी महापुरुष परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दिग्दर्शन करनेवाले हैं॰ वे यज्ञ की विधि-विशेष के ज्ञाता हैं और वहीं आपको भो सिखायेंगे| यदि अन्य यज्ञ होता, तो ज्ञानी तत्त्वदर्शी की क्या आवश्यकता थी? स्वयं भगवान के सामने ही तो अर्जुन खडा था, भगवान उसे तत्त्वदर्शी के पास क्यों भेजते हैं? वस्तुतः श्रीकृष्ण एक योगी थे| उनका आशय है कि आज तो अर्जुन मेरे समक्ष उपस्थित है, भविष्य में अनुरागियों को कहों भ्रम न हो जाय कि श्रीकृष्ण तो चले गये, अब किसकी शरण जायँ? इसलिये उन्होंने स्पष्ट किया कि तत्त्वदर्शी के पास जाओ| वे ज्ञानीजन तुझे उपदेश करेंगे| और- यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव| येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि|१३५ | उस ज्ञान को उनके द्वारा समझकर तू इस प्रकार फिर कभी मोह को प्राप्त नहों होगा| उनसे दी गयो के द्वारा उस पर चलते हुए तू अपनो आत्मा के अन्तर्गत सम्पूर्ण भूतों को देखेगा अर्थात् सभी प्राणियों में इसी श्रीकृष्ण पुस्तकों अनुरागी जानकारी
१२४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता आत्मा का प्रसार देखेगा| जब सर्वत्र एक हीं आत्मा के प्रसार को देखने की क्षमता आ जायेगी , उसके पश्चात् तू मुझमें प्रवेश करेगा| अतः उस परमात्मा को पाने का साधन ' तत्त्वस्थित महापुरुष है| ज्ञान के सम्बन्ध में , धर्म और शाश्वत सत्य के सम्बन्ध में श्रीकृष्ण के अनुसार किसी तत्त्वदर्शी से ही पूछन का विधान है| अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि| १३६|| यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है तब भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा सभी पापों से निःसन्देह भली प्रकार तर जायेगा| इसका आशय आप यह न लगा लें कि अधिक से-अधिक पाप करके कभी भी तर जायेंगे| श्रीकृष्ण का आशय मात्र यही है कि कहों आप भ्रम में न रहें कि हम तो बड़े पापी हैं॰ , हमसे पार नहों लगेगा' - ऐसी कोई गुंजाइश न निकालें , इसलिये श्रीकृष्ण प्रोत्साहन और आश्वासन देते हैं कि सब पापियों के पापों के समूह से भी अधिक पाप करनेवाला हो, फिर भी तत्त्वदर्शियों से प्राप्त ज्ञानरूपी नौका द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पापों को अच्छी प्रकार पार कर जायेगा| किस प्रकार? - यथैधांसि समिद्धोउग्निर्भस्मसात्कुरुते उर्जुन| ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा| १३७१ | अर्जुन ! जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है , ठीक उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है| यह ज्ञान की प्रवेशिका नहों है जहाँ से यज्ञ में प्रवेश मिलता है वरन् यह ज्ञान अर्थात् साक्षात्कार की पराकाष्ठा का चित्रण है , जिसमें पहले विजातीय कर्म भस्म होते हैं और फिर प्राप्ति के साथ चिन्तन कर्म भी उसी में विलय हो जाते हैं| जिसे पाना था पा लिया , अब आगे चिन्तन कर किसे ऐसा साक्षात्कारवाला ज्ञानी सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों का अन्त कर लेेगा| वह साक्षात्कार होगा कहाँ? बाहर होगा अथवा भीतरः इस पर कहते हैं- न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते| तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दतित १३८१| के द्वारा
अध्याय २ २५ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करनेवाला निःसन्देह कुछ भी नहों है॰ इस ज्ञान ( साक्षात्कार) को तू स्वयं ( दूसरा नहों ) योग को परिपक्व अवस्था में ( आरम्भ में नहों ) अपनी आत्मा के अन्तर्गत हृदय-्देश में ही अनुभव करेगा , बाहर नहीं| इस ज्ञान के लिये कौन-्सी योग्यता अपेक्षित है? योगेश्वर के ही शब्दों में- श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः| ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति| १३९१ | श्रद्धावान्, तत्पर तथा संयतेन्द्रिय पुरुष हीं ज्ञान प्राप्त कर पाता है| जिज्ञासा नहों है तो तत्त्वदर्शी की शरण जाने पर भी ज्ञान नहों प्राप्त होता| केवल श्रद्धा ही पर्याप्त नहीं है, श्रद्धावान् शिथिल प्रयत्न भी हो सकता है| अतः महापुरुष द्वारा निर्दिष्ट पथ पर तत्परता से अग्रसर होने को लगन आवश्यक है॰ साथ ही सम्पूर्ण इन्द्रियों का संयम अनिवार्य है॰ जो वासनाओं से विरत नहों है, उसके लिये साक्षात्कार ( ज्ञान की प्राप्ति ) कठिन है| केवल श्रद्धावान् , आचरणरत संयतेन्द्रिय पुरुष ही ज्ञान प्राप्त करता है| ज्ञान को प्राप्त कर वह तत्क्षण परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है, जिसके पश्चात् कुछ भी पाना शेष नहों रहता| यही अन्तिम शान्ति है| फिर वह कभी अशान्त नहों होता| और जहाँ श्रद्धा नहों है- अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति| नायं लोकोउस्ति न परो न सुखां संशयात्मनः| |४०| | अज्ञानीं , जो यज्ञ कोी विधि-विशेष से अनभिज्ञ है एवं श्रद्धारहित तथा संशययुक्त पुरुष इस परमार्थ पथ से भ्रष्ट हो जाता है| उनमें भो संशययुक्त पुरुष के लिये न तो सुख है, न पुनः मनुष्य शरीर है और न परमात्मा ही| अतः तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर इस पथ के संशयों का निवारण कर लेना चाहिये अन्यथा वे वस्तु का परिचय कभी नहीं पायेंगे| फिर पाता कौन है? - योगसन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम् आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय| १४१|| भावपूर्वक इसके
१२६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता जिसके कर्म योग द्वारा भगवान में समाहित हो चुके हैं, जिसका सम्पूर्ण संशय परमात्मा को प्रत्यक्ष जानकारीं द्वारा नष्ट हो गया है परमात्मा से संयुक्त ऐसे पुरुष को कर्म नहीं बाँधते| योग के द्वारा हीं कर्मों का शमन होगा , ज्ञान से ही संशय नष्ट होगा| अतः श्रीकृष्ण कहते हैं- तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः| छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत| १४२१| इसलिये भरतवंशी अर्जुन! तू योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए हृदय में स्थित अपने इस संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट| लिये खडा हो| जब साक्षात्कार में बाधक संशयरूपी शत्रु मन के भीतर है तो बाहर कोई किसी से क्यों लड़ेगा? वस्तुतः जब आप चिन्तन- पथ पर अग्रसर होते हैं , तब संशय से उत्पन्न बाह्य प्रवृत्तियाँ बाधा के रूप में स्वाभाविक हैं॰ ये रूप में भयंकर आक्रमण करतीं हैं| संयम के साथ यज्ञ को विधि- विशेष का आचरण करते हुए इन विकारों का पार पाना ही युद्ध है, जिसका परिणाम परमशान्ति है॰ यही अन्तिम विजय है, जिसके पीछे हार नहों है| निष्कर्ष - इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि इस योग को आरम्भ में मैंने सूर्य के प्रति कहा , सूर्य ने मनु से और मनु ने इक्ष्वाकु के प्रति कहा और उनसे राजर्षियों ने जाना| मैंने अथवा अव्यक्त स्थितिवाले ने कहा| महापुरुष भी अव्यक्त स्वरूपवाला ही है| शरीर तो उसके रहने का मकान मात्र है॰ ऐसे महापुरुष की वाणी में परमात्मा ही प्रवाहित होता है॰ ऐसे किसीं महापुरुष से योग सूर्य द्वारा संचारित होता है| उस परम प्रकाशरूप का प्रसार सुरा के अन्तराल में होता है इसलिये सूर्य के प्रति कहा| श्वास में संचारित होकर वे संस्काररूप में आ गये| सुरा में संचित रहने पर, समय आने पर वही मन में संकल्प बनकर आ जाता है| उसकीं महत्ता समझने पर मन में उस वाक्य के प्रति इच्छा जागृत होतीं है और योग कार्यरूप ले लेता है| क्रमशः उत्थान करते- करते यह योग ऋद्धियों - सिद्धियों को राजर्षित्व श्रेणी तक युद्ध के शत्रु के पहुँचने
अध्याय २७ पर नष्ट होने को स्थिति में जा पहुँचता है; जो प्रिय भक्त है , अनन्य सखा है उसे महापुरुष ही सँभाल लेते हैं| अर्जुन के प्रश्न करने पर कि आपका जन्म तो अब हुआ है| योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया - अव्यक्त , अविनाशी , अजन्मा और सम्पूर्ण भूतों में प्रवाहित होने पर भी आत्ममाया , योग-्प्रक्रिया द्वारा अपनी त्रिगुणमयी प्रकृति को वश में करके मैं प्रकट होता हूँ॰ प्रकट होकर करते क्या हैं? साध्य को परित्राण देने तथा जिनसे दूषित उत्पत्र होते हैं उनका विनाश करने के लिये, परमधर्म परमात्मा को स्थिर करने के लिये मैं आरम्भ से पूर्तिपर्यन्त पैदा होता हूँ॰ मेरा वह जन्म और कर्म दिव्य है| उसे केवल तत्त्वदर्शी ही जान पाते हैं| भगवान का आविर्भाव तो कलियुग को अवस्था से ही हो जाता है , यदि सच्ची लगन हो; किन्तु आरम्भिक साधक समझ ही नहीं पाता कि यह भगवान बोल रहे हैं या योंहीं संकेत मिल रहे हैं| आकाश से कौन बोलता है? महाराज जो' बताते थे कि जब भगवान कृपा करते हैं , आत्मा से रथी हो जाते हैं तो खम्भे से, वृक्ष से, पत्ते से, शून्य से हर स्थान से बोलते और सँभालते हैं॰ उत्थान होते-्होते जब परमतत्त्व परमात्मा विदित हो जाय , तभी स्पर्श के साथ ही वह स्पष्ट समझ पाता है| इसलिये अर्जुन ! मेरे उस स्वरूप को तत्त्वदर्शियों ने देखा जानकर वे तत्क्षण ही प्रविष्ट हो जाते हैं , जहाँ से पुनः आवागमन में नहों आते| इस प्रकार उन्होंने भगवान के आविर्भाव को विधि को बताया कि वह किसी अनुरागी के हृदय में होता है, बाहर कदापि नहों| श्रीकृष्ण ने बताया- मुझे कर्म नहों बाँधते और इस स्तर से जो जानता है , उसे भी कर्म नहों बाँधते| यहीं समझकर मुमुक्षु ने कर्म का आरम्भ किया था कि उस स्तर से जानेंगे तो जैसे श्रीकृष्ण वैसा ही उस स्तर से जाननेवाला वह पुरुष , और जान लेने पर वैसा ही वह मुमुक्षु अर्जुनः यह उपलब्धि निश्चित है, यदि यज्ञ किया जाय| यज्ञ का स्वरूप बताया| यज्ञ का परिणाम परमतत्त्व , परमशान्ति बताया| इस ज्ञान को पाया कहाँ जायः इस पर किसी तत्त्वदर्शीो के पास जाने और उन्हों विधियों से पेश आने को कहा, जिससे वे महापुरुष अनुकूल हो जायँॅ किन्तु वस्तुओं और मुझे मुझमें पुरुषों
१ २८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता योगेश्वर ने स्पष्ट किया कि वह ज्ञान तू स्वयं आचरण करके पायेगा , दूसरे के आचरण से तुझे नहों मिलेगा| वह भी योग को सिद्धि के काल में प्राप्त होगा , प्रारम्भ में नहों| वह ज्ञान ( साक्षात्कार ) हृदय- देश में होगा , बाहर नहीं| श्रद्धालु , तत्पर , संयतेन्द्रिय एवं संशयरहित पुरुष हो उसे प्राप्त करता है| अतः हृदय में स्थित अपने संशय को वैराग्य को तलवार से काट| यह हृदय-्देश को लड़ाई है| बाह्य गीतोक्त युद्ध का कोई प्रयोजन नहीं है| इस अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण रूप से यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट किया और बताया कि यज्ञ जिससे पूरा होता है, उसे करने ( कार्य- प्रणाली ) का नाम कर्म है| कर्म को भली प्रकार इसी अध्याय में स्पष्ट किया, अतः- ३ँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे ' यज्ञकर्मस्पष्टीकरणम् ' नाम चतुर्थोषध्यायः १४| | इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्वाद में यज्ञकर्म- स्पष्टोकरण नामक चौथा अध्याय पूर्ण होता है| श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्गीतायाः ' यथार्थगीता ' भाष्ये ' यज्ञकर्मस्पष्टीकरणम् ' नाम चतुर्थोडध्यायः १४| इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्द जो के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रीमद्भगवद्गीता' के भाष्य यथार्थ गीता में यज्ञकर्म-स्पष्टीकरण नामक चौथा अध्याय पूर्ण होता है| हरिः ३>ँ तत्सत् 1१ युद्ध से ने मुख्य इति
३ँँ श्री परमात्मने नमः ( | १ अथ पश्चमोडध्यायः /| अध्याय तीन में अर्जुन ने प्रश्न रखा कि- भगवन ! जब ज्ञानयोग आपको श्रेष्ठ मान्य है, तो आप मुझे भयंकर कर्मों में क्यों लगाते हैं? अर्जुन को निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा ज्ञानयोग कुछ सरल प्रतीत हुआ लगता है; क्योंकि ज्ञानयोग में हारने पर देवत्व और विजय में महामहिम स्थिति , दोनों हीं दशाओं में लाभ ही लाभ प्रतीत हुआ| अब तक अर्जुन ने भली प्रकार समझ लिया है कि दोनों ही मार्गों में कर्म तो करना ही पड़ेगा ( योगेश्वर उसे संशयरहित होकर तत्त्वदर्शी महापुरुष को शरण लेने के लिये भी प्रेरित करते हैं; क्योंकि समझने के लिये वही एक स्थान है॰ ) अतः दोनों मार्गों में से एक से पूर्व उसने निवेदन किया- अर्जुन उवाच सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण च शंससि| यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे बूहि सुनिश्चितम्ढ़१११| हे श्रीकृष्ण आप कभी संन्यास माध्यम से किये जानेवाले कर्म की और कभी निष्काम - दृष्टि से किये जानेवाले कर्म की प्रशंसा करते हैं| इन दोनों में से एक, जो भली प्रकार आपका निश्चय किया हुआ हो, जो परमकल्याणकारी हो उसे मेरे लिये कहिये| कहों जाने के लिये आपको दो मार्ग बताये जायँ तो आप सुविधाजनक मार्ग अवश्य पूछेंगे| यदि नहों पूछते तो आप जानेवाले नहों हैं| इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- श्रीभगवानुवाच सत्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ| कर्मसत्र्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते११२१| अर्जुन ! संन्यास माध्यम से किया जानेवाला अर्थात् ज्ञानमार्ग से किया जानेवाला कर्म और कर्मयोगः निष्काम- भावना से किया जानेवाला चुनने पुनर्योगं तयोस्तु कर्म
१२० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता कर्म - ये दोनों ही परमश्रेय को दिलानेवाले हैं; परन्तु इन दोनों मार्गों से संन्यास अथवा ज्ञानदृष्टि से किये जानेवाले कर्म की अपेक्षा निष्काम कर्मयोग श्रेष्ठ है| प्रश्न स्वाभाविक है कि श्रेष्ठ क्यों है? ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति| निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते| १३१| महाबाहु अर्जुन ! जो न किसों से द्वेष करता है, न किसो को आकांक्षा करता है वह सदैव संन्यासीं ही समझने योग्य है| चाहे वह ज्ञानमार्ग से या निष्काम कर्ममार्ग से ही क्यों न हो| राग, द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित वह पुरुष भवबन्धन हो जाता है| साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम|१४ | निष्काम कर्मयोग तथा ज्ञानयोग इन दोनों को वहीं अलग-्अलग बताते हैं जिनको समझ इस पथ में अभी बहुत हल्को है, न कि पूर्णज्ञाता पण्डित लोगः क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी प्रकार स्थित हुआ पुरुष दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है| दोनों का फल एक है , इसलिये दोनों एक ही समान हैं| यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते| एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति1 १५ / | जहाँ सांख्य- दृष्टि से कर्म करनेवाला पहुँचता है , वहीं निष्काम- माध्यम से कर्म करनेवाला भी पहुँचता है| इसलिये जो दोनों को फल को दृष्टि से एक देखता है , वही यथार्थ जाननेवाला है| जब दोनों एक ही स्थान पर पहुँचते हैं निष्काम कर्मयोग विशेष क्यों? श्रीकृष्ण बताते हैं- सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः योगयुक्तो मुनिर्बह्य नचिरेणाधिगच्छति १६म| अर्जुन ! निष्काम कर्मयोग का आचरण किये बिना ' सन्र्यासः अर्थात् सर्वस्व का न्यास प्राप्त होना दुःखप्रद है| जब योग का आचरण प्रारम्भ हो नहों किया असम्भव-्सा है| इसलिये भगवत्स्वरूप का मनन करनेवाला मुनि, से मुक्त सुखपूर्वक
पञ्चम अध्याय २३२ जिसकीं मनसहित इन्द्रियाँ मौन हैं, निष्काम कर्मयोग का आचरण करके परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है| स्पष्ट है कि ज्ञानयोग में निष्काम कर्मयोग का ही आचरण करना पड़ेगा; क्योंकि क्रिया दोनों में एक ही है- वही यज्ञ को क्रिया , जिसका शुद्ध हे आराधना | दोनों मार्गों में अन्तर केवल कर्त्ता के दृष्टिकोण का है| एक अपनी शक्ति को समझकर हानि-लाभ देखते हुए इसी कर्म में प्रवृत्त होता है और दूसरा निष्काम कर्मयोगी इष्ट पर निर्भर होकर इसी क्रिया में प्रवृत्त होता है| उदाहरणार्थ , एक प्राइवेट पढ़ता है दूसरा नॉमिनेट| दोनों का पाठ्यक्रम एक है , परीक्षा एक है , परीक्षक - निरीक्षक दोनों में एक हीं हैं| ठीक इसीं प्रकार दोनों के सद्गुरु तत्त्वदर्शी हैं और डिग्री एक ही है| केवल दोनों के पढ़ने का दृष्टिकोण भिन्न है| हाँ, संस्थागत छात्र को सुविधाएँ अधिक रहती हैं| पोछे श्रीकृष्ण ने कहा कि काम और क्रोध दुर्जय शत्रु हैं, अर्जुन ! इन्हें तू मार| अर्जुन को लगा कि यह तो बड़ा कठिन है; किन्तु श्रीकृष्ण ने कहा- नहीं , शरीर से परे इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों से परे मन है, मन से परे बुद्धि है, बुद्धि से परे तुम्हारा स्वरूप है| तुम बहाँ से प्रेरित हो| इस प्रकार अपनी हस्ती समझकर , अपनी शक्ति को सामने रखकर, स्वावलम्बी होकर कर्म में प्रवृत्त होना ज्ञानयोग है॰ श्रीकृष्ण ने कहा है- चित्त को ध्यानस्थ करते हुए, कर्मों को मुझमें समर्पण करके आशा, ममता और सन्तापरहित होकर युद्ध करढ समर्पण के साथ इष्ट पर निर्भर होकर उसी कर्म में प्रवृत्त होना निष्काम कर्मयोग है| दोनों को क्रिया एक है और परिणाम भी एक है| इसी पर बल देकर योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि योग का आचरण किये बिना संन्यास अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के अन्त की स्थिति का प्राप्त होना असम्भव है| श्रीकृष्ण के अनुसार ऐसा कोई योग नहों है कि हाथ- पर-्हाथ रखकर बैठे बैठे कहें कि- ' मैं परमात्मा हूँ॰ शुद्ध हूँ॰ बुद्ध हूँ॰ मेरे लिये न तो कर्म है न बन्धनः मैं भला-बुरा कुछ करता दिखायो पड़ता भी हूँ तो इन्द्रियाँ अपने अर्थों में बरत रही हैं ऐसा पाखण्ड श्रीकृष्ण के शब्दों में कदापि नहों है| साक्षात् योगेश्वर भी अपने अनन्य सखा अर्जुन को बिना कर्म के यह स्थिति नहों दे सके॰ यदि ऐसा वे कर सकते तो गीता की आवश्यकता अर्थ
१३२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता हीं क्या थीः कर्म तो करना ही पड़ेगा| कर्म करके ही संन्यास को स्थिति को पाया जा सकता है और योगयुक्त पुरुष शीघ्र ही परमात्मा को प्राप्त हो जाता है| योगयुक्त पुरुष के लक्षण क्या हैं? इस पर कहते हैं - योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः सर्वभूतात्मभूतात्मा न लिप्यते११७| | विजितात्मा विशेष रूप से जीता हुआ है शरीर जिसका , ' जितेन्द्रियः ' जीती हुई हैं इन्द्रियाँ जिसको और विशुद्धात्मा ' विशेष रूप है अन्तःकरण जिसका , ऐसा पुरुष ' सर्वभूतात्मभूतात्मा सम्पूर्ण भूतप्राणियों के आत्मा के मूल उद्गम परमात्मा से एकोभाव हुआ योग है| वह कर्म करता हुआ भी उससे लिप्त नहों होता| तो करता क्यों है? पीछेवालों में परमकल्याणकारी बीज का संग्रह करने के लिये| लिप्त क्यों नहों होताः क्योंकि सम्पूर्ण प्राणियों काजो मूल उद्गम है, जिसका नाम परमतत्त्व है उस तत्त्व में वह स्थित हो गया| आगे कोई वस्तु नहों जिसकी शोध करे| पीछेवाली वस्तुएँ छोटीं पड़ गयों तो भला आसक्ति किसमें करे? इसलिये वह कर्मों से आवृत्त नहों होता| यह योगयुक्त को पराकाष्ठा का चित्रण है| पुनः योगयुक्त पुरुष को रहनी स्पष्ट करते हैं कि वह करते हुए भी उससे लिप्त क्यों नहों होता? - नैव किञ्चित्करोमीति मन्येत तत्त्ववित्| पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्चिघन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन् १८१| प्रलपन्विसृजन्गृहनन्नुन्मिषन्रिमिषन्नपि इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्१९१| परमतत्त्व परमात्मा को साक्षात्कारसहित जाननेवाले योगयुक्त पुरुष को यह मनःस्थिति अर्थात् अनुभूति है कि मैं किंचित् मात्र भी कुछ नहों करता हूँ| यह उसकी कल्पना नहों, बल्कि यह स्थिति उसने कर्म करके पायी है॰ यथा युक्तो मन्येत - अब प्राप्ति के पश्चात् वह सब कुछ देखता हुआ, सुनता हुआ , स्पर्श करता , सूँघता, भोजन करता, गमन करता, सोता, श्वास लेता , बोलता त्याग करता , ग्रहण करता, आँखों को खोलता और मींचता हुआ भी इन्द्रियाँ अपने अर्थों में बरतती हैं - ऐसी धारणावाला होता है| परमात्मा से बढ़कर कुछ है ही नहीं और जब उसमें वह स्थित ही है तो उससे बढ़कर किस कुर्वन्रपि से शुद्घ से युक्त युक्तो
पञ्चम अध्याय १३३ सुख की कामना से वह किसका दर्शन, स्पर्श इत्यादि करेगा? यदि कोई श्रेष्ठ वस्तु आगे होतीं तो आसक्ति अवश्य प्राप्ति के बाद अब और आगे जायेगा कहाँ और पीछे त्यागेगा क्या? इसलिये पुरुष लिप्त नहों होता| इसी को एक उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं- ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः लिप्यते न स पापेन पदपत्रमिवाम्भसा| ११०| | कमल कोीचड़ में होता है| उसका पत्ता पानी के ऊपर तैरता है| लहरें रात-दिन उसके ऊपर से गुजरती हैं; किन्तु आप पत्ते को देखें , सूखा मिलेगा| जल को एक बूँद भो उस पर टिक नहों पाती| कोचड़ और जल में रहते हुए भो वह उनसे लिप्त नहों होता| ठीक इसी प्रकार , सब कर्मों को परमात्मा में विलय करके ( साक्षात्कार के साथ ही कर्मों का विलय होता है , इससे पूर्व नहों ) , आसक्ति को त्याग करके ( अब आगे कोई वस्तु नहों अतः आसक्ति नहों रहती , इसलिये आसक्ति त्यागकर ) कर्म करता है, वह भी इसी प्रकार लिप्त नहों होता| फिर वह करता क्यों है? आपलोगों के लिये, समाज के कल्याण- साधन के लिये, पीोछेवालों के मार्गदर्शन के लिये| इसी पर बल देते हैं- कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि| योगिनः कर्म सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये१११११| योगोजन केवल इन्द्रिय , मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भो आसक्ति त्यागकर आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं| जब कर्म ब्रह्म में विलीन हो चुके तो क्या अब भी आत्मा अशुद्ध हीं है? नहीं , वे सर्वभूतात्मभूतात्मा हो चुके हैं| सम्पूर्ण प्राणियों में वे अपनी ही आत्मा का प्रसार पाते हैं॰ उन समस्त आत्माओं की शुद्धि के लिये, आप सबका मार्गदर्शन करने के लिये वे कर्म में बरतते हैं| शरीर , मन, बुद्धि तथा केवल इन्द्रियों से वह कर्म करता है स्वरूप से वह कुछ भी नहों करता, स्थिर है| बाहर से वह सक्रिय दिखायी देता है; भीतर उसमें असीम शान्ति है॰ रस्सी जल चुकी , मात्र ऐंठन ( आकार ) शेष है, जिससे बँध नहों सकता| युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्| अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते१११२१| रहती| किन्तु योगयुक्त जो पुरुष कुर्वन्ति किन्तु
१३४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता योगयुक्त' अर्थात् योग के परिणाम को प्राप्त पुरुष , जो सब प्राणियों के आत्मा के मूल परमात्मा में स्थित है, ऐसा योगी कर्म के फल को त्यागकर (कर्मों का फल परमात्मा उससे भिन्न नहों है, इसलिये अब कर्मफल को त्यागकर ) नैष्ठिकीम् शान्तिम् आप्रनोति - शान्ति की अन्तिम अवस्था को प्राप्त होता है, जिसके आगे कोई शान्ति शेष नहों है , जिसके पश्चात् वह कभी अशान्त नहों होगा| किन्तु अयुक्त पुरुष, जो योग के परिणाम से युक्त नहों है, अभी रास्ते में है ऐसा पुरुष फल में आसक्त हुआ ( फल है परमात्मा , उसमें उसका आसक्त होना आवश्यक है| इसलिये फल में आसक्त होने पर भी ) 'कामकारेण निबध्यते ' - कामना करके बँध जाता है अर्थात् पूर्तिपर्यन्त कामनाएँ जागृत होती हैं, अतः साधक को पूर्तिपर्यन्त सावधान रहना चाहिये| महाराज जी' कहा करें- हो तनिकौ हम अलग , भगवान अलग हैं तो माया कामयाब हो सकती है॰ ' कल ही प्राप्ति होनी हो आज तो वह अज्ञानी ही है| अतः पूर्तिपर्यन्त साधक को असावधान नहीं होना चाहिये| इसी पर आगे देखें- सर्वकर्माणि मनसा सन्यस्यास्ते सुखं वशी| पुरे देहीं नैव कारयन्१११३| | जो सम्पूर्ण रूप से स्ववश है,जो शरीर , मन, बुद्धि और प्रकृति से परे स्वयं में स्थित है, ऐसा वशी पुरुष निःसन्देह न कुछ करता है न कराता है पीछेवालों से कराना भी उसकी आन्तरिक शान्ति का स्पर्श नहों कर पाता| ऐसा स्वरूपस्थ पुरुष शब्दादि विषयों को उपलब्ध करानेवाले नौ द्वारों ( दो कान, दो नेत्र , दो नासिका छिद्र , एक मुख, उपस्थ एवं पायु ) वाले शरीररूपीं घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर स्वरूपानन्द में ही स्थित रहता है| यथार्थतः वह न कुछ करता है और न कराता है| इसो को पुनः श्रीकृष्ण दूसरे शब्दों में कहते हैं कि वह प्रभु न करता है, न कराता है| सद्गुरु, भगवान , प्रभु , स्वरूपस्थ महापुरुष , युक्त इत्यादि एक- पर्याय हैं॰ अलग से कोई भगवान कुछ करने नहों आता| वह जब करता है तो इन्हों स्वरूपस्थ इष्ट के माध्यम से कराता है| महापुरुष के लिये शरीर एक मकान मात्र है| अतः परमात्मा का करना और महापुरुष का करना एक ही बात है; क्योंकि वह उनके द्वारा है| वस्तुतः बह पुरुष करते हुए भी किन्तु नवद्वारे कुर्वन्न दूसरे के
पञ्चम अध्याय २२५ कुछ नहीं करता| इसी पर अगला श्लोक देखें- न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ११४१ | वह प्रभु न तो भूतप्राणियों के कर्त्तापन को , न कर्मों को और न कर्मफलों का संयोग ही बैठाता है , बल्कि स्वभाव में स्थित प्रकृति के दबाव के अनुसार ही सभी बरतते हैं| जैसी जिसकी प्रकृति- सात्त्विकी , राजसी अथवा तामसी है, उसी स्तर से वह बरतता है| प्रकृति तो लम्बो-चौड़ी है , लेकिन आपके ऊपर उतना ही प्रभाव डाल पाती है जितना आपका स्वभाव विकृत अथवा विकसित है| प्रायः लोग कहते हैं कि करने ्करानेवाले तो भगवान हैं हम तो यन्त्रमात्र हैं| हमसे वे भला करावें अथवा बुरा| किन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि न वह प्रभु स्वयं करता है, न कराता है और न वह जुगाड़ ही बैठाता है| लोग अपने स्वभाव में स्थित प्रकृति के अनुरूप बरतते हैं| स्वतः कार्य करते हैं| वे अपने आदत से मजबूर होकर करते हैं भगवान नहोीं करते| तब लोग कहते क्यों हैं कि भगवान करते हैं? इस पर योगेश्वर बताते हैं- नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन जन्तवः| ११५| | जिसे अभी प्रभु कहा, उसी को यहाँ कहा गया है; क्योंकि वह वैभव से संयुक्त है| प्रभुता एवं वैभव से संयुक्त वह परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न किसी के पुण्यकर्मों को ही ग्रहण करता है; फिर भी लोग कहते क्यों हैं? इसलिये कि अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है| उन्हें अभी साक्षात्कारसहित ज्ञान तो हुआ नहीं , वे अभी जन्तु हैं| मोहवश वे कुछ भी कह सकते हैं| ज्ञान से क्या होता है? इसे स्पष्ट करते हैं- ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ११६१ | जिसके अन्तःकरण का वह अज्ञान (जिसने ज्ञान को ढँक रखा था ) आत्मसाक्षात्कार द्वारा नष्ट हो गया है और इस प्रकार जिसने ज्ञान प्राप्त कर सृजति प्रभुः| विभुः| मुह्यन्ति विभु सम्पूर्ण
१३६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता लिया है , उसका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस परमतत्त्व परमात्मा प्रकाशित करता है॰ तो परमात्मा किसी अन्धकार का नाम है? नहीं , वह तो प्रकास रूप दिन राती| ( रामचरितमानस , ७/११९/३ )- परम प्रकाशरूप है| है तो, हमारे उपभोग के लिये तो नहों है , दिखायी तो नहों देताः जब ज्ञान द्वारा अज्ञान का आवरण हट जाता है तो उसका वह ज्ञान सूर्य के सदृश परमात्मा को अपने में प्रवाहित कर लेता है| फिर उस पुरुष के लिये कहों अन्धकार नहों रह जाता| उस ज्ञान का स्वरूप क्या है?- तदषुद्वयस्तदात्मानस्तान्रष्ठास्तत्परायणाः गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्ध्ूतकल्मषाः ११७| | जब उस परमतत्त्व परमात्मा के अनुरूप बुद्धि हो, तत्त्व के अनुरूप प्रवाहित मन हो, परमतत्त्व परमात्मा में एकोभाव से उसको रहनी हो और उसी के परायण हो , इसी का नाम है॰ ज्ञान कोई बकवास या बहस नहों है| इस ज्ञान द्वारा पापरहित हुआ पुरुष पुनरागमनरहित परमगति को प्राप्त होता है| परमगति को प्राप्त, पूर्ण जानकारी से युक्त पुरुष ही पण्डित कहलाते हैं॰ आगे देखें- विद्याविनयसम्पन्ने बाह्यमणे गवि हस्तिनि| चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः१ ११८|| ज्ञान के द्वारा जिनका पाप शमन हो चुका है,जो अपुनरावर्ती परमगति को प्राप्त हैं, ऐसे ज्ञानीजन विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण तथा चाण्डाल में, गाय और कुत्ते में तथा हाथी में समान दृष्टिवाले होते हैं| उनकी दृष्टि में विद्या- विनययुक्त ब्राह्मण न तो कोई विशेषता रखता है और न चाण्डाल कोई हीनता रखता है॰ न गाय धर्म है , न कुत्ता अधर्म और न हाथी विशालता ही रखता है| ऐसे पण्डित, ज्ञाताजन समदर्शी और समवर्ती होते हैं| उनकी दृष्टि चमड़ी पर नहीों रहतीं , बल्कि आत्मा पर पड़ती है॰ अन्तर केवल इतना है, विद्या - विनयसम्पन्न स्वरूप के समीप है और शेष कुछ पीछे हैं॰ कोई एक मंजिल आगे है, तो कोई पिछले पड़ाव परढ शरीर तो वस्त्र है| उनकी दृष्टि वस्त्र को महत्त्व नहों देती अपितु उनके हृदय में स्थित आत्मा पर पड़ती है, इसलिये वे कोई भेद नहों रखते 'परम क्या किन्तु ज्ञान
पञ्चम अध्याय ३७ श्रीकृष्ण ने पर्याप्त गो-सेवा को थो| उन्हें गाय के प्रति गौरवपूर्ण शब्द कहना चाहिये थाः किन्तु उन्होंने ऐसा कुछ भी नहों कहा| श्रीकृष्ण ने गाय को धर्म में कोई स्थान नहों दिया| उन्होंने केवल इतना माना कि अन्य जीवात्माओं कोी तरह उसमें भी आत्मा है॰ गाय का आर्थिक महत्त्व जो भी हो, उसका धार्मिक परवर्ती लोगों को देन है| श्रीकृष्ण ने पीछे बताया कि अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओंवाली होती है, इसलिये वे अनन्त क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं| दिखावटी शोभायुक्त वाणी में वे उसे व्यक्त भी करते हैं| उनकी वाणी की छाप जिनके चित्त पर पड़ती है , उनकी भी बुद्धि नष्ट हो जाती है॰ पाते नहों , नष्ट हो जाते हैं| जबकि निष्काम कर्मयोग में अर्जुन! निर्धारित क्रिया एक हीं है- यज्ञ की प्रक्रिया आराधना गाय, कुत्ता, हाथी , पीपल , नदी का धार्मिक महत्त्व इन अनन्त शाखावालों की देन है| यदि इनका कोई धार्मिक महत्त्व होता तो श्रीकृष्ण अवश्य कहते| हाँ, मन्दिर, मस्जिद इत्यादि पूजा के स्थल आरम्भिक काल में अवश्य हैं॰ वहाँ प्रेरणादायक सामूहिक उपदेश हैं तो उनकी उपयोगिता अवश्य है,वे धर्मोपदेश केन्द्र हैं| प्रस्तुत श्लोक में दो पण्डितों कोी चर्चा है| एक पण्डित तो वह है जो पूर्णज्ञाता है वह जो विद्या-विनयसम्पन्न है| वे दो कैसे? वस्तुतः प्रत्येक श्रेणी को दो सीमाएँ होती हैं - एक तो अधिकतम सोमा पराकाष्ठा और प्रवेशिका अथवा निम्नतम सीमा| उदाहरण केलिये भक्ति को निम्नतम सीमा वह है जहाँ से भक्ति आरम्भ को जाती है; विवेक , वैराग्य और लगन के साथ जब आराधना करते हैं और अधिकतम सीमा वह है जहाँ भक्ति अपना परिणाम देने की स्थिति में होती है| ठीक इसी प्रकार ब्राह्मण-श्रेणी है| जब ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली क्षमताएँ आती हैं , उस समय विद्या होती है , विनय होता है॰ मन का शमन, इन्द्रियों का दमन , अनुभवी सूत्रपात का संचार , धारावाही चिन्तन , ध्यान और समाधि इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली सारी योग्यताएँ उसके अन्तराल में स्वाभाविक कार्यरत रहती हैं| यह ब्राह्मणत्व की निम्नतम सीमा है| उच्चतम सीमा तब आती है जब क्रमशः उत्रत होते-्होत़े वह ब्रह्म का दिग्दर्शन करके उसमें विलय पा जाता है| जिसे जानना था, जान लिया| वह पूर्णज्ञाता है| अपुनरावृत्तिवाला ऐसा महापुरुष उस विद्या - विनयसम्पन्न वैशिष्ट्य वे कुछ और दूसरा दूसरी
१३८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता ब्राह्मण , चाण्डाल , कुत्ता , हाथी और गाय सब पर समान दृष्टिवाला होता है; क्योंकि उसकी दृष्टि हृदयस्थित आत्म-स्वरूप पर पडती है| ऐसे महापुरुष को परमगति में क्या मिला है और कैसे? इस पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण बताते हैं- इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः| निर्दोषं हि समं बह्म तस्माद्बह्मणि ते स्थिताः१ ११९१ | उन द्वारा जोवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जोत लिया गया जिनका मन समत्व में स्थित है॰ मन के समत्व का संसार जीतने से क्या सम्बन्धः संसार मिट हीं गया, तो वह पुरुष रहा कहाँ? श्रीकृष्ण कहते हैं निर्दोषं हि समं ब्रह्म - वह ब्रह्म निर्दोष और सम है , इधर उसका मन भी निर्दोष और सम स्थितिवाला हो गया| तस्मात् बह्मणि ते स्थिताः इसलिये वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है| इसीं का नाम अपुनरावर्ती परमगति है| यह कब मिलती है? जब संसाररूपी शत्रु जीतने में आ जाय| संसार कब जीतने में आता है? जब मन का निरोध हो जाय, समत्व में प्रवेश पा जाय ( क्योंकि मन का प्रसार ही जगत् है)| जब वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है तब ब्रह्मविद् का लक्षण क्या है? उसकी रहनीं स्पष्ट करते हैं- प्रहृष्येत्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् स्थिरबुद्धिरसम्मूढो बह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः २०| उसका कोई प्रिय-्अप्रिय होता नहों| इसलिये जिसे लोग प्रिय समझते हैं, उसे पाकर वह हर्षित नहों होता और जिसे लोग अप्रिय समझते हैं ( जैसा धर्मावलम्बी चिह्न लगाते हैं) , उसे पाकर वह उद्वेगवान् नहों होता है॰ ऐसा स्थिरबुद्धि , असम्मूढः संशयरहित , बह्मवित् ' ब्रह्म से संयुक्त ब्रह्मवेत्ता बह्मणि स्थितः परात्पर ब्रह्म में सदैव स्थित है| बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्| स बाह्ययोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते|१२१|| बाहर संसार के विषय- भोगों में अनासक्त पुरुष अन्तरात्मा में स्थित जो सुख है , उस सुख को प्राप्त होता है| वह पुरुष ' बह्मयोगयुक्तात्मा परब्रह्म पुरुषों
पञ्चम अध्याय १३९ परमात्मा साथ मिलन से युक्त आत्मावाला है इसलिये अक्षय आनन्द का अनुभव करता है, जिस आनन्द का कभी क्षय नहों होता| इस आनन्द का उपभोग कौन कर सकता है? जो बाहर के विषय- भोगों में अनासक्त है॰ तो क्या भोग बाधक हैं? भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते१ आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः १२२१| केवल त्वचा ही नहीं , सभी इन्द्रियाँ स्पर्श करतीं हैं॰ देखना आँख का स्पर्श है, सुनना कान का स्पर्श है| इसी प्रकार इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्पन्न होनेवाले सभी भोग यद्यपि भोगने में प्रिय प्रतीत होते हैं; किन्तु निःसन्देह वे सब दुःखयोनयः दुःखद योनियों के ही कारण हैं| वे भोग ही योनियों के कारण हैं| इतना ही नहों , वे भोग पैदा होने और मिटनेवाले हैं, नाशवान् हैं| इसलिये कौन्तेय! विवेको पुरुष उनमें नहों फँसते| इन्द्रियों के इन स्पर्शों में रहता क्या है? काम और क्रोध , राग और द्वेष| इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्| कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः१ १२३१| इसलिये जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पत्र को सहन करने में ( मिटा देने में ) सक्षम है, वह नर (न रमन करनेवाला ) है| वही इस लोक में योग से युक्त है और वही सुखी है| जिसके नहीं है , उस सुख में अर्थात् परमात्मा में स्थितिवाला है| जीते-जी ही इसकीं प्राप्ति का विधान है, मरने पर नहीं| सन्त कबीर ने इसी को स्पष्ट किया- अवधू! जीवत में कर आसा॰ ' तो क्या मरने के बाद मुक्ति नहों होती? वे कहते हैं -' मुए मुक्ति गुरु कहे स्वार्थी , विश्वासा ' यही योगेश्वर श्रीकृष्ण का कथन है कि शरीर रहते , मरने से पहले ही जो काम- क्रोध के वेग को मिटा देने में सक्षम हो गया, वही पुरुष इस लोक में योगी है, वही सुखी है| काम, क्रोध , बाह्य स्पर्श ही शत्रु हैं| इन्हें आप जोतें| इसी पुरुष के लक्षण पुनः बता रहे हैं- योउन्तःसुखोउन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः| स योगी बह्मनिर्वाणं बह्यभूतो उधिगच्छतित २४१ | हुए वेग पीछे दुःख झूठा दे
१४० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता अन्तरात्मा में ही सुखवाला, अन्तरारामः अन्तरात्मा में ही आरामवाला तथा जो अन्तरात्मा में ही प्रकाशवाला ( साक्षात्कारवाला ) है वही योगी ' बह्यमभूतः ब्रह्म के साथ एक होकर बह्मनिर्वाणम् ' वाणी से परे ब्रह्म, शाश्वत ब्रह्म को प्राप्त होता है| अर्थात् पहले विकारों काम ्क्रोध ) का अन्त, फिर दर्शन, फिर प्रवेश| आगे देखें- लभन्ते ब्रह्यनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः| १२५| | परमात्मा का साक्षात्कार करके जिनका पाप नष्ट हो गया है, जिनकीं दुविधाएँ नष्ट हो गयी हैं , सम्पूर्ण प्राणियों के हित में जो लगे हुए हैं ( प्राप्तिवाले ही ऐसा कर सकते हैं| जो स्वयं गड्ढे में पड़ा है, वह दूसरों को क्या बाहर निकालेगा? इसीलिये करुणा महापुरुष का स्वाभाविक जाता है ) तथा यतात्मानः जितेन्द्रिय ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त परब्रह्म को प्राप्त होते हैं| उसी महापुरुष की स्थिति पर पुनः प्रकाश डालते हैं कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्| अभितो बह्यनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् |२६१ | काम और क्रोध से रहित, जीते हुए चित्तवाले , परमात्मा का साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषों के लिये सब ओर से शान्त परब्रह्म ही प्राप्त है| बार-बार योगेश्वर श्रीकृष्ण उस पुरुष की रहनी पर बल दे रहे हैं, जिससे प्रेरणा मिलेआ प्रश्न लगभग पूर्ण हुआ| अब वे पुनः बल देते हैं कि इस स्थिति को प्राप्त करने का आवश्यक अंग श्वास प्रश्वास का चिन्तन है॰ यज्ञ को प्रक्रिया में प्राण में अपान का हवन , अपान में प्राण का हवन , प्राण और अपान दोनों को गति का निरोध उन्होंने बताया है, उसीं को समझा रहे हैं- स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः| प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ २७| | यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः११२८१| अर्जुन ! बाहर के विषयों , का चिन्तन न करते हुए, उन्हें त्यागकर नेत्रों को दृष्टि को के बीच में स्थिर करके , भ्रुवोः अन्तरे' का ऐसा अर्थ गुण हो दृश्यों = भृकुटीं
पञ्चम अध्याय १४२ नहों कि आँखों के बीच या भौंह के बीच कहों देखने की भावना से दृष्टि लगायें के बीच का शुद्ध अर्थ इतना ही है कि सीधे बैठने पर दृष्टि भृकुटी के ठीक मध्य से सीधे आगे पडे़े| दाहिने-बायें , इधर - उधर चकपक न देखें| नाक को डाँड़ीं पर सोधो दृष्टि रखते हुए ( कहों नाक ही न देखने लगें ) नासिका के अन्दर विचरण करनेवाले प्राण और अपान वायु को सम करके अर्थात् दृष्टि तो वहाँ स्थिर करें और सुरत को श्वास में लगा दें कि कब श्वास भीतर गयो? कितना रुकीः ( लगभग आधा सेकण्ड रुकतीं है प्रयास करके न रोकें ) कब श्वास बाहर निकली? कितनी देर तक बाहर रहो? कहने को आवश्यकता नहों कि श्वास में उठनेवाली नामध्वनि पडती रहेगी| इस प्रकार श्वास- प्रश्वास पर जब सुरत टिक जायेगी तो धीरे - धीरे श्वास अचल स्थिर ठहर जायेगी , सम हो जायेगी| न भीतर से संकल्प उठेंगे और न बाह्य संकल्प अन्दर टकराव कर पायेंगे| बाहर के भोगों का चिन्तन तो बाहर ही त्याग दिया गया था , भीतर भी संकल्प नहों जाग्रत होंगे| सुरत एकदम खड़ी हो जाती है तैलधारावत्| तेल को धारा पानी की तरह टप-्टप नहों गिरतीं , जब तक गिरेगी धारा ही गिरेगी| इसी प्रकार प्राण और अपान को गति एकदम सम, स्थिर करके इन्द्रियों , मन और बुद्धि को जिसने जीत लिया है; इच्छा, भय और क्रोध से रहित , मननशीलता को चरम सीमा पर पहुँचा हुआ मोक्षपरायण मुनि सदा मुक्त ही है| मुक्त होकर वह कहाँ जाता है? क्या पाता है? इस पर कहते हैं- भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्| सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छतित १२९१| वह मुक्त पुरुष मुझे यज्ञ और तपों का भोगनेवाला , सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर, सम्पूर्ण प्राणियों का स्वार्थरहित हितैषी , ऐसा साक्षात् जानकर शान्ति को प्राप्त होता है| कहते हैं कि॰ उस पुरुष के श्वास- प्रश्वास के यज्ञ और तप का भोक्ता मैं हूँ॰ यज्ञ और तप अन्त में जिसमें विलय होते हैं, वह मैं हूँ॰ वह मुझे प्राप्त होता है| यज्ञ के अन्त में जिसका नाम शान्ति है , वह मेरा ही स्वरूप है| वह मुक्त पुरुष मुझे जानता है और जानते ही मुझे प्राप्त हो जाता है| इसो का नाम शान्ति है| जैसे मैं ईश्वरों का भो ईश्वर हूँ , वैसे ही वह भी है| भृकुटीं सुनायी श्रीकृष्ण
१४२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता निष्कर्ष - इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने प्रश्न किया कि कभी तो आप निष्काम कर्मयोग को प्रशंसा करते हैं और कभी आप संन्यास-मार्ग से कर्म करने की प्रशंसा करते हैं, अतः दोनों में एक को, जो आपका सुनिश्चित किया हो, परमकल्याणकारी हो, उसे कहिये| श्रीकृष्ण ने बताया - अर्जुन ! परमकल्याण तो दोनों में है| दोनों में वही निर्धारित यज्ञ कोी क्रिया ही की जाती है, फिर भी निष्काम कर्मयोग विशेष है| बिना इसे किये संन्यास ( शुभाशुभ कर्मों का अन्त ) नहों होता| संन्यास मार्ग नहों , मंजिल का है| ही संन्यासी है॰ योगयुक्त के लक्षण बताये कि वही प्रभु है| वह न करता है, न कुछ कराता है; बल्कि स्वभाव में प्रकृति के दबाव के अनुरूप लोग व्यस्त हैं| जो साक्षात् मुझे जान लेता है वहीं ज्ञाता है, वही पण्डित है| यज्ञ के परिणाम में लोग मुझे जानते हैं| श्वास- प्रश्वास का जप और यज्ञ-्तप जिसमें विलय होते हैं , मैं ही हूँ॰ यज्ञ के परिणामस्वरूप मेरे को जानकर वे जिस शान्ति को प्राप्त होते हैं, वह भी मैं ही हूँ अर्थात् श्रीकृष्ण - जैसा , महापुरुष - जैसा स्वरूप उस प्राप्तिवाले को भी मिलता है| वह भी ईश्वरों का ईश्वर , आत्मा का भी आत्मस्वरूपमय हो जाता है, उस परमात्मा के साथ एकीभाव पा लेता है (एक होने में जन्म चाहे जितने लगें॰)| इस अध्याय में स्पष्ट किया कि यज्ञ-्तपों का भोक्ता , महापुरुषों के भो अन्दर रहनेवाली शक्ति महेश्वर है अतः ३>ँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्यविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे यज्ञभोक्तामहापुरुषस्थमहेश्वरः नाम पञ्चमाउध्यायः| १५ / | इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्वाद में ' यज्ञभोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर' नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण होता है| इति श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्गीतायाः यथार्थगीता ' भाष्ये यज्ञभोक्तामहापुरुषस्थमहेश्वरः नाम पञ्चमोधध्यायः|१५/| इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजो के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य यथार्थ गीता में यज्ञभोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण होता है| हरिः ३४ँ तत्सत् |१ योगयुक्त नाम
३ँँ श्री परमात्मने नमः #१ अथ षष्ठोडध्यायः | संसार में धर्म के नाम पर रीति रिवाज, पूजा- पद्धतियाँ , सम्प्रदायों का बाहुल्य होने पर कुरीतियों का शमन करके एक ईश्वर को स्थापना एवं उसको प्राप्ति की प्रक्रिया को प्रशस्त करने के लिये किसी महापुरुष का आविर्भाव होता है| क्रियाओं को छोड़कर बैठ जाने और ज्ञानी कहलाने की रूढ़ि कृष्णकाल में अत्यन्त व्यापक थी| इसलिये इस अध्याय के प्रारम्भ में ही योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस प्रश्न को चौथी बार स्वयं उठाया कि ज्ञानयोग तथा निष्काम कर्मयोग दोनों के अनुसार कर्म करना हीं होगा| अध्याय दो में उन्होंने कहा- अर्जुन! क्षत्रिय के लिये युद्ध से बढ़कर कल्याणकारी कोई रास्ता नहों है| इस युद्ध में हारोगे तो भी देवत्व है और जीतने पर महामहिम स्थिति है ही - ऐसा समझकर युद्ध कर| अर्जुन ! यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोग के विषय में कहीं गयी| कौन-सी बुद्धि? यही कि युद्ध करा ज्ञानयोग में ऐसा नहों है कि हाथ- पर- हाथ रखकर बैठे रहें| ज्ञानयोग में केवल अपने हानि- लाभ का स्वयं निश्चय करके , अपनी शक्ति समझकर कर्म में प्रवृत्त होना है, जबकि प्रेरक महापुरुष ही हैं| ज्ञानयोग करना अनिवार्य है॰ अध्याय तीन में अर्जुन ने प्रश्न किया- भगवन् निष्काम कर्मयोग कोी अपेक्षा ज्ञान आपको श्रेष्ठ मान्य है, तो मुझे घोर कर्मों में क्यों लगाते हैं? अर्जुन को निष्काम कर्मयोग कठिन प्रतीत हुआ| इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि दोनों निष्ठाएँ मेरे द्वारा कही गयी हैं; किन्तु किसीं भी पथ के अनुसार कर्म को त्यागकर चलने का विधान नहों है॰ न तो ऐसा ही है कि कर्म को न आरम्भ करने से कोई परम नैष्कर्म्य की सिद्धि पा ले और न आरम्भ को हुई क्रिया को त्याग देने से कोई उस परमसिद्धि को पाता है॰ दोनों मार्गों में नियत कर्म यज्ञ की प्रक्रिया को करना हो होगा| में युद्ध
१४४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता अब अर्जुन ने भली प्रकार समझ लिया कि ज्ञानमार्ग अच्छा लगे अथवा निष्काम कर्मयोग , दोनों दृष्टियों में कर्म करना ही है; फिर भी पाँचवें अध्याय में उसने प्रश्न किया कि फल को दृष्टि से कौन श्रेष्ठ है? कौन सुविधाजनक है? श्रीकृष्ण ने कहा - अर्जुन ! दोनों ही परमश्रेय को देनेवाले हैं| एक ही स्थान पर दोनों पहुँचाते हैं, फिर भी सांख्य की अपेक्षा निष्काम कर्मयोग श्रेष्ठ है; क्योंकि निष्काम कर्म का आचरण किये बिना कोई संन्यासी नहों हो सकता| दोनों में कर्म एक ही है| अतः स्पष्ट है कि वह निर्धारित कर्म किये बिना कोई संन्यासीं नहों हो सकता और न कोई योगी ही हो सकता है| केवल इस पर चलनेवाले पथिकों को दो दृष्टियाँ हैं, जो पोछे बतायो गयो हैं| श्रीभगवानुवाच अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः| स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः११११| श्रीकृष्ण महाराज बोले- अर्जुन ! कर्मफल के आश्रय से रहित होकर अर्थात् कर्म करते समय किसी प्रकार की कामना न रखते हुए जो ' कार्यम् कर्म - योग्य प्रक्रिया- विशेष को करता है वहीं संन्यासी है, वहीं योगी है॰ केवल अग्नि को त्यागनेवाला तथा केवल क्रिया को त्यागनेवाला न संन्यासी है न योगी| क्रियाएँ बहुत-सी हैं| उनमें से ' कार्यम् कर्म ' - करने योग्य क्रिया नियत कर्म - निर्धारित की हुई कोई क्रिया-विशेष है| वह है यज्ञ की प्रक्रिया| जिसका शुद्ध अर्थ है आराधना, जो आराध्य देव में प्रवेश दिला देनेवाली विधि-विशेष है| उसको कार्यरूप देना कर्म है|जो उसे करता है वहीं संन्यासी है , वही योगी होता है| केवल अग्नि को त्यागनेवाला कि हम अग्नि नहों छूते या कर्म त्यागनेवाला कि मेरे लिए कर्म है ही नहीं , मैं तो आत्मज्ञानी हूँ॰ - केवल ऐसा कहे और कर्म आरम्भ ही न करे, करने योग्य क्रिया -विशेष न करे तो वह न संन्यासी है न योगी| इस पर और देखें- यं सत्र्यासमिति तं विद्धि पाण्डव| न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चनत१२१| अर्जुन ! जिसे संन्यास' ऐसा कहते हैं , उसी को तू योग जानः क्योंकि संकल्पों का त्याग किये बिना कोई भी पुरुष न योगी होता है और न ही करने प्राहुर्योगं
षष्ठम अध्याय १४५ संन्यासीं होता है अर्थात् कामनाओं का त्याग दोनों ही मार्गियों के लिये आवश्यक है| तब तो सरल है कि कह दें कि हम संकल्प नहीं करते और हो गये योगी - संन्यासी| श्रीकृष्ण कहते हैं, ऐसा कदापि नहों है- आरुरुक्षोर्मुनेर्योंगं कर्म कारणमुच्यते| योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते| १३१| योग पर आरूढ़ होने की इच्छावाले मननशील पुरुष के लिये योग की प्राप्ति में कर्म करना ही कारण है और योग का अनुष्ठान करते-करते जब वह परिणाम देने की अवस्था में आ जाय, उस योगारूढ़ता में शमः कारणम् उच्यते सम्पूर्ण संकल्पों का अभाव कारण है| इससे पहले संकल्प पिण्ड नहों छोड़ते| और- यरा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते| सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते१ १४१| जिस काल में पुरुष न तो इन्द्रियों के भोगों में आसक्त होता है और न कर्मों में ही आसक्त है (योग की परिपक्वावस्था में पहुँच जाने पर आगे कर्म करके ढूँढ़े किसे? अतः नियत कर्म आराधना को आवश्यकता नहों रह जाती| इसोलिये वह कर्मों में भो आसक्त नहों है ) , उस काल में ' सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी ' - सर्वसंकल्पों का अभाव है॰ वहीं संन्यास है, वहीं योगारूढ़ता है॰ रास्ते में संन्यास को कोई वस्तु नहों है| इस योगारूढ़ता से लाभ क्या है?- उद्द्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः१ १५१| अर्जुन ! मनुष्य को चाहिये कि अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपने आत्मा को अधोगति में न पहुँचावे; क्योंकि यह जोवात्मा स्वयं ही अपना मित्र है और यही अपना शत्रु भी है| कब यह शत्रु होता है और कब मित्रः इस पर कहते हैं- बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः| अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्| ६१| नाम
१४६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता जिस पुरुष द्वारा मन और इन्द्रियोंसहित शरीर जीता हुआ है , उसके लिये उसी का आत्मा मित्र है और जिसके द्वारा मन और इन्द्रियोंसहित शरीर नहों जीता गया है , उसके लिये वह स्वयं शत्रुता में बरतता है| इन दो श्लोकों में श्रीकृष्ण एक ही बात कहते हैं कि अपने द्वारा अपने आत्मा का उद्धार करें , उसे अधोगति में न पहुँचावें; क्योंकि आत्मा ही मित्र है| सृष्टि में न दूसरा कोई शत्रु है, न मित्र| किस प्रकार? जिसके द्वारा मनसहित इन्द्रियाँ जीती उसके लिये उसी का आत्मा मित्र बनकर मित्रता में बरतता है , परमकल्याण करनेवाला होता है और जिसके द्वारा मनसहित इन्द्रियाँ नहों जीती गयी हैं, उसके लिये उसी का आत्मा शत्रु बनकर शत्रुता में बरतता है अनन्त योनियों और यातनाओं को ओर ले जाता है| प्रायः लोग कहते हैं- मैं तो आत्मा हूँ गीता में लिखा है॰ न इसे शस्त्र काट सकता है न अग्नि जला है न वायु सुखा सकता है| यह नित्य है , अमृतस्वरूप है, न बदलनेवाला है शाश्वत है और वह आत्मा है ही॰" वे गीता को इन पंक्तियों पर ध्यान नहोीं देते कि आत्मा अधोगति में भी जाता है॰ आत्मा का उद्धार भी होता है, जिसके लिये ' कार्यम् कर्म - करने योग्य प्रक्रिया- विशेष करके ही उपलब्धि बतायी गयी है| अब अनुकूल आत्मा के लक्षण देखें जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः११७१| सर्दी - गर्मी , सुख- दुःख और मान-अपमान में जिसके अन्तःकरण को वृत्तियाँ भली प्रकार शान्त हैं , ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुष में परमात्मा सदैव स्थित है, कभी विलग नहों होता| ' जितात्मा' अर्थात् जिसने मनसहित इन्द्रियों को जीत लिया है, वृत्ति परमशान्ति में प्रवाहित हो गयो है॰ ( यही आत्मा के उद्धार की अवस्था है) आगे कहते हैं - ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा विजितेन्द्रियः युक्त योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः११८१| जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है , जिसकों स्थिति अचल, स्थिर और विकाररहित है, जिसने इन्द्रियों को विशेष रूप से जीत लिया है, हुई हैं, सकती मुझमें कूटस्थो इत्युच्यते
षष्म अध्याय ४७ जिसकी दृष्टि में मिट्टी , पत्थर और सुवर्ण एक समान हैं- ऐसा योगी ' युक्त कहा जाता है॰ युक्त' का अर्थ है योग से संयुक्त| यह योग को पराकाष्ठा है जिसे योगेश्वर पाँचवें अध्याय में श्लोक सात से बारह तक चित्रित कर आये हैं परमतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार और उसके साथ होनेवाली जानकारीं ज्ञान है| एक इञ्च भी इष्ट से दूरी है, जानने की इच्छा बनी है, तब तक वह अज्ञानी है| वह प्रेरक कैसे सर्वव्याप्त है? कैसे प्रेरणा देता है? कैसे अनेक आत्माओं का एक साथ पथ- प्रदर्शन करता है? कैसे वह भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञाता है? उस प्रेरक इष्ट को इस कार्य- प्रणाली का ज्ञान ही ' विज्ञान है| जिस दिन से हृदय में इष्ट का आविर्भाव होता है, उसीं दिन से वह निर्देश देने लगता है; प्रारम्भ में साधक समझ नहों पाता| पराकाष्ठाकाल में ही योगी उसकी आन्तरिक कार्य-प्रणाली को पूर्णतः समझ पाता है| यहीं समझ विज्ञान है| योगारूढ़ अथवा युक्तपुरुष का अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान रहता है| इसी प्रकार योगयुक्त पुरुष की स्थिति का निरूपण करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु साधुष्वपि च समबुद्धि्विशिष्यते| १९१ | प्राप्ति के पश्चात् महापुरुष समदर्शी और समवर्ती होता है| जैसे पिछले अध्याय (५/१८ ) में उन्होंने बताया कि जो पूर्णज्ञाता या पण्डित है , वह विद्या- विनयसम्पन्न ब्राह्मण में, चाण्डाल में, गाय-्कुत्ता- हाथी में समान दृष्टिवाला होता है- उसी का पूरक यह श्लोक है॰ वह हृदय से सहायता करनेवाले सहृदय, मित्र , बैरी , उदासीन , द्वेषी , बन्धुगणों , धर्मात्मा तथा पापियों में भी समान दृष्टिवाला योगयुक्त पुरुष अतिश्रेष्ठ है| वह उनके कार्यों पर दृष्टि नहों डालता बल्कि उनके भोतर आत्मा के संचार पर ही उसकी दृष्टि पड़ती है| इन सबमें वह केवल इतना हो अन्तर देखता है कि कोई कुछ नीचे को सोढ़ो पर खडा है, तो कोई निर्मलता के समीपः वह क्षमता सबमें है॰ यहाँ के लक्षण पुनः दुहराये गये| कोई योगयुक्त कैसे बनता है? वह कैसे यज्ञ करता है? यज्ञस्थली कैसी हो? आसन कैसा हो? उस समय कैसे बैठा जायः कर्त्ता के द्वारा पालन किये किन्तु से तृप्त पापेषु किन्तु योगयुक्त
१४८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता जानेवाले नियम , आहार- विहार , सोने- जागने का संयम तथा कर्म पर कैसी चेष्टा हो? - इत्यादि बिन्दुओं पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अगले पाँच श्लोकों में प्रकाश डाला है, जिससे आप भी उस यज्ञ को सम्पन्न कर सकें| अध्याय तीन में उन्होंने यज्ञ का नाम लिया और बताया कि यज्ञ की प्रक्रिया ही वह नियत कर्म है| अध्याय चार में उन्होंने यज्ञ का स्वरूप विस्तार से बताया, जिसमें प्राण में अपान का हवन, अपान में प्राण का हवन, प्राण- अपान को गति रोककर मन का निरोध इत्यादि किया जाता है| सब मिलाकर यज्ञ का शुद्ध अर्थ है आराधना तथा उस आराध्य देव तक को दूरी तय करानेवाली प्रक्रिया , जिस पर पाँचवें अध्याय में भी कहा| किन्तु उसके लिये आसन , भूमि , करने की विधि इत्यादि का चित्रण शेष था, उसी पर योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ प्रकाश डालते हैं- योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः| एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ११०|| चित्त को जीतने में लगा हुआ योगी मन , इन्द्रियों और शरीर को वश में रखकर , वासना और संग्रहरहित होकर एकान्त स्थान में अकेला ही चित्त को आत्मोपलब्धि करानेवाली ) योग-क्रिया में लगावे| उसके लिये स्थान कैसा हो? आसन कैसा रहे?- देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः नात्युच्छितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ११११| शुद्ध भूमि में कुश, मृगछाल अथवा इससे भी उत्तरोत्तर ( रेशमी , ऊनो वस्त्र तख्त इत्यादि कुछ भी ) बिछाकर अपने आसन को न अति ऊँचा, न नोचा , स्थिर स्थापित करे| शुद्ध भूमि का तात्पर्य उसे झाड़ने- बुहारने , सफाई करने से है| जमीन पर कुछ बिछा लेना चाहे मृगछाल होया चटाई अथवा कोई भी वस्त्र , तख्त़ जो भी उपलब्ध हो| आसन हिलने - डुलनेवाला हो| न जमीन से बहुत ऊँचा हो और न एकदम नीचाा पूज्य महाराज जो' लगभग पाँच इञ्च ऊँचे आसन पर बैठते थे| एक बार भाविकों ने लगभग एक फीट ऊँचा संगमरमर का एक तख्त मँगा दिया| महाराज जी एक दिन तो बैठे , शुचौ चाहिये-
षष्ठम अध्याय ४९ फिर बोले- " नहों हो ! बहुत ऊँचा हो गया| ऊँचे नहों बैठे के चाहीं साधू को, अभिमान होइ जावा करत है| नीचेहू न बैठे के चाही , हीनता आवत है , अपने आवत है॰ ' बस , उसको उठवाया और जंगल में एक बगीचा था , वहाँ रखवा दिया| वहाँ न कभी महाराज जाते थे और न अब ही कोई जाता है| यह था उन महापुरुष का क्रियात्मक शिक्षण| इसी प्रकार साधक के लिये ऊँचा आसन नहों होना चाहिये, नहों तो भजनपूर्ति बाद में होगी , अहंकार पहले चढ़ बैठेगा| इसके पश्चात्- तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये१११२१| उस आसन पर बैठकर ( बैठकर ही ध्यान करने का विधान है ) मन को एकाग्र करके , चित्त और इन्द्रियों को क्रियाओं को वश में रखते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योगाभ्यास करे| अब बैठने का तरीका बताते हैं समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ११३१ | शरीर , गर्दन और सिर को सीधा , अचल- स्थिर करके ( जैसे कोई पटरीं खडीं कर दी गयो हो, इस प्रकार सोधा) दृढ़ होकर बैठ जाय और अपनी नासिका के अग्रभाग को देखकर ( नासिका की नोंक देखते रहने का निर्देश नहीं है बल्कि सीधे बैठने पर नाक के सामने जहाँ दृष्टि पडती है , वहाँ दृष्टि रहे| दाहिने - बायें देखते रहने को चंचलता न रहे) अन्य दिशाओं को न देखता हुआ स्थिर होकर बैठे और - प्रशान्तात्मा विगतभीर्बह्यचारित्रते स्थितः| मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः१११४१| ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर ( प्रायः लोग कहते हैं कि जननेन्द्रिय का संयम ब्रह्मचर्य है; को अनुभूति है कि मन से विषयों का स्मरण करके, आँखों से वैसे दृश्य देखकर, त्वचा से स्पर्श कर, कानों से विषयोत्तेजक शब्द सुनकर जननेन्द्रिय-्संयम सम्भव नहों है| ब्रह्मचारी का वास्तविक अर्थ है- बह्य आचरति स बह्यचारी | ब्रह्म का आचरण है से घृणा भी बहुत महापुरुषों किन्तु
२५ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता नियत यज्ञ को प्रक्रिया, जिसे करनेवाले यान्ति बह्म सनातनम् सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाते हैं| इसे करते समय स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान् - बाहर के स्पर्श , मन और सभी इन्द्रियों के स्पर्श बाहर ही त्यागकर चित्त को ब्रह्म- चिन्तन में , श्वास - प्रश्वास में , ध्यान में लगाना है| मन ब्रह्म में लगा है तो बाह्य स्मरण कौन करे? यदि बाह्य स्मरण होता है तो अभी मन लगा कहाँ? विकार शरीर में नहीं , मन को तरंगों में रहते हैं| मन ब्रह्माचरण में लगा है तो जननेन्द्रिय-्संयम ही नहों , सकलेन्द्रियन्संयम तक स्वाभाविक हो जाता है| अतः ब्रह्म के आचरण में स्थित रहकर ) भयरहित और अच्छी प्रकार शान्त अन्तःकरणवाला मन को संयत रखते हुए, लगे हुए चित्त से युक्त मेरे परायण होकर स्थित हो| ऐसा करने का परिणाम क्या होगा? - सदात्मानं योगी नियतमानसः शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति१११५| | इस प्रकार अपने आपको निरन्तर उसी चिन्तन में लगाता हुआ संयत मनवाला योगी मेरे में स्थितिरूपीं पराकाष्ठावाली शान्ति को प्राप्त होता है॰ इसलिये अपने को निरन्तर कर्म में लगाएँॅ यहाँ यह प्रश्न पूर्णप्राय है| अगले दो श्लोकों में वे बताते हैं कि परमानन्दवाली शान्ति के लिये शारीरिक संयम, युक्ताहार विहार भी आवश्यक हैं- नात्यश्नतस्तु योगोउस्ति न चैकान्तमनश्रतः न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुना११६१| अर्जुन! यह योग न तो बहुत खानेवाले का सिद्ध होता है और न खानेवाले का सिद्ध होता है, न अत्यन्त सोनेवाले का और न अत्यन्त जागनेवाले का ही सिद्ध होता है| तब किसका सिद्ध होता है? - युक्ताहारविहारस्य युक्तचष्टस्य कर्मसु| युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहाा | १७१ | का नाश करनेवाला यह योग उचित आहार-विहार, कर्मों में उपयुक्त चेष्टा और संतुलित शयन-्जागरण करनेवाले का ही पूर्ण होता है| कर्म मुझमें युञ्जचन्नेवं बिल्कुल दुःखों
षष्म अध्याय २५२ अधिक भोजन करने से आलस्य, निद्रा और प्रमाद घेरेंगे , तब साधना नहीं होगी| भोजन छोड़ देने से इन्द्रियाँ क्षीण हो जायेंगीं , अचल-स्थिर बैठने की क्षमता नहीं रहेगी| पूज्य महाराज जो' कहते थे कि खुराक से डेढ़ ्दो रोटी कम खाना चाहिये| विहार अर्थात् साधन के अनुकूल विचरण , कुछ परिश्रम भी करते रहना चाहिये, कोई कार्य ढूँढ़ लेना चाहिये अन्यथा रक्त-संचार शिथिल पड़ जायेगा, रोग घेर लेेंगे| आयु सोना और जागना, आहार और अभ्यास से घटता- बढ़ता है॰ महाराज जो' कहा करते थे- ' योगी को चार घण्टे सोना चाहिये और अनवरत चिन्तन में लगे रहना चाहिये| हठ करके न सोनेवाले शीघ्र पागल हो जाते हैं॰ ' कर्मों में उपयुक्त चेष्टा भी हो अर्थात् नियत कर्म आराधना के अनुरूप निरन्तर प्रयत्नशील हो| बाह्य विषयों का स्मरण न कर सदैव उसी में लगे रहनेवाले का हीं योग सिद्ध होता है| साथ ही- यरा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते| सर्वकामेभ्यो युक्त तदा ११८| | इस प्रकार योग के अभ्यास से रूप से वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में भली प्रकार स्थित हो जाता है , विलीन-्सा हो जाता है , उस काल में सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हुआ पुरुष कहा जाता है| अब विशेष जीते हुए चित्त के लक्षण क्या हैं?- यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता| योगिनो यतचित्तस्य योगमात्मनः१११९१ | जिस प्रकार वायुरहित स्थान में रखा गया दीपक चलायमान नहों होता , लौ सीधे ऊपर जाती है , उसमें कम्पन नहों होता , यही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की दी गयी है| दीपक तो उदाहरण मात्र है आजकल दीपक का प्रचलन शिथिल पड़ रहा है| अगरबत्तीं ही जलाने पर सीधे ऊपर जाता है, यदि वायु में वेग न हो| यह योगी के जीते हुए चित्त का एक उदाहरण मात्र है| अभी चित्त भले ही जीता गया है , निरोध हो गया है; अभी चित्त है| जब निरुद्ध चित्त का भी विलय हो जाता है, तब कौन- सी विभूति मिलती है? देखें- इत्युच्यते निःस्पृहः विशेष योगयुक्त युञ्जतो धुआँ किन्तु
१५ २ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया| चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यतित १२०१| जिस अवस्था में योग के अभ्यास से हुआ चित्त भी उपराम हो जाता है , विलीन हो जाता है , मिट जाता है , उस अवस्था में आत्मना - अपने आत्मा के द्वारा आत्मानम परमात्मा को देखता हुआ आत्मनि एव अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट होता है| देखता तो परमात्मा को है लेकिन सन्तुष्ट अपने ही आत्मा से होता है| क्योंकि प्राप्तिकाल में तो परमात्मा का साक्षात्कार होता है, किन्तु दूसरे ही क्षण वह अपने हीं आत्मा को उन शाश्वत ईश्वरीय विभूतियों से ओतप्रोत पाता है| ब्रह्म अजर, अमर, शाश्वत, अव्यक्त और अमृतस्वरूप है, तो इधर आत्मा भी अजर, अमर, शाश्वत , अव्यक्त और अमृतस्वरूप है| है तो, किन्तु अचिन्त्य भी है॰ जब तक चित्त और चित्त की लहर है , तब तक वह आपके उपभोग के लिये नहों है| चित्त का निरोध और निरुद्ध चित्त के विलयकाल में परमात्मा का साक्षात्कार होता है और दर्शन के ठीक दूसरे क्षण उन्हों ईश्वरीय अपने ही आत्मा को पाता है इसलिये वह अपने ही आत्मा में सन्तुष्ट होता है| यही उसका स्वरूप है| यहीं पराकाष्ठा है| इसी का पूरक अगला श्लोक देखें- सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्| वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः१ २११| तथा इन्द्रियों से अतीत केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य जो अनन्त आनन्द है, उसको जिस अवस्था में अनुभव करता है और जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी भगवत्स्वरूप को तत्त्व से जानकर चलायमान नहों होता, सदैव उसी में प्रतिष्ठित रहता है तथा- यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः यस्मिन्स्थितो न दुःखेन विचाल्यते| १२२१ | परमेश्वर की प्राप्तिरूपी जिस लाभ को, पराकाष्ठा की शान्ति को प्राप्त कर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और भगवत्प्राप्तिरूपी जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी भारी दुःख से भी चलायमान नहों होता , यत्र निरुद्ध गुणधर्मों से युक्त गुरुणापि
षष्म अध्याय १५३ दुःख का उसे भान भी नहों होताः क्योंकि भान करनेवाला चित्त तो मिट गया| इस प्रकार- तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ितम् स निश्चयेन योक्तव्यो योगोउनिर्विण्णचेतसा| १२३/ | जो संसार के संयोग और वियोग से रहित है , उसी का नाम योग है| जो आत्यन्तिक सुख है , उसके मिलन का नाम योग है| जिसे परमतत्त्व परमात्मा कहते हैं, उसके मिलन का नाम योग है| वह योग न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्त्तव्य है| धैर्यपूर्वक लगा रहनेवाला ही योग में सफल होता है| सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्त्ततः २४ | इसलिये मनुष्य को चाहिये कि संकल्प से उत्पन्न होनेवाली सम्पूर्ण कामनाओं को वासना और आसक्ति सहित सर्वथा त्यागकर, मन के द्वारा इन्द्रियों के समुदाय को सब ओर से अच्छी प्रकार वश में करके , शनै : शनैरुपरमेद्गुद्ध्या धृतिगृहीतया आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् २५ | क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरामता को प्राप्त हो जाय| चित्त का निरोध और क्रमशः विलय हो जाय| तदनन्तर वह बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके अन्य कुछ भो चिन्तन न करे| निरन्तर लगकर पाने का विधान है| आरम्भ में मन लगता नहों , इसी पर योगेश्वर कहते हैं- यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्| ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं १२६| | यह स्थिर न रहनेवाला चंचल मन जिस-जिस कारण से सांसारिक पदार्थों में विचरता है, उस-्उस से रोककर बारम्बार अन्तरात्मा में ही निरुद्ध करे| प्रायः लोग कहते हैं कि मन जहाँ भी जाता है जाने दो , प्रकृति में हीं तो धैर्ययुक्त किन्तु नयेत्
१५४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता जायेगा और प्रकृति भी उस ब्रह्म के ही अन्तर्गत है में विचरण करना ब्रह्म के बाहर नहीं है; श्रीकृष्ण के अनुसार यह गलत है| गीता में इन मान्यताओं का किंचित् भो स्थान नहों है| श्रीकृष्ण का कथन है कि मन जहाँ- जहाँ जाय , जिन माध्यमों से जाय , उन्हों माध्यमों से रोककर परमात्मा में हीं लगावें| मन का निरोध सम्भव है| इस निरोध का परिणाम क्या होगा? - प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्| उपैति शान्तरजसं बह्मभूतमकल्मषम् २७१| जिसका मन पूर्णरूपेण शान्त है, जो पाप से रहित है, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे ब्रह्म से एकीभूत योगी को सर्वोत्तम आनन्द प्राप्त होता है , जिससे उत्तम कुछ भी नहीं है| इसी पर पुनः बल देते हैं- सदात्मानं योगी विगतकल्मषः बह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते|१२८१| पापरहित योगी इस प्रकार आत्मा को निरन्तर उस परमात्मा में लगाता हुआ परब्रह्म परमात्मा को प्राप्ति के अनन्त आनन्द को अनुभूति करता है वह ब्रह्मसंस्पर्श अर्थात् ब्रह्म के स्पर्श और प्रवेश के साथ अनन्त आनन्द का अनुभव करता है| अतः भजन अनिवार्य है| इसी पर आगे कहते हैं- सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि| ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः १२९१| योग के परिणाम से युक्त आत्मावाला, सबमें समभाव से देखनेवाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त देखता है और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में हीं प्रवाहित देखता है॰ इस प्रकार देखने से लाभ क्या है? - यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति| १३० | सम्पूर्ण भूतों में मुझ परमात्मा को देखता है व्याप्त देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ परमात्मा के ही अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं प्रकृति किन्तु युञ्चन्रेवं सुखेन सुखपूर्वक जो पुरुष
षष्ठम अध्याय १५५ अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता| यह प्रेरक का आमने-सामने मिलन है, सख्यभाव है, सामीप्य मुक्ति है| सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः| सर्वथा वर्तमानोउपि स योगी मयि वर्तते११३११| जो पुरुष अनेकता से परे उपर्युक्त एकत्व भाव परमात्मा को भजता है वह योगी सब प्रकार के कार्यों में बरतता हुआ भो मेरे में ही बरतता है; क्योंकि मुझे छोड़कर उसके लिये कोई बचा भी तो नहों| उसका तो सब मिट गया , इसलिये वह अब उठता , बैठता भो करता है , मेरे संकल्प से करता है| आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योउर्जुन| वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः११३२१| हे अर्जुन! जो योगी अपने ही समान सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है अपने - जैसा देखता है , सुख भी सबमें समान देखता है, वह योगी (जिसका समाप्त हो गया है) परमश्रेष्ठ माना गया है| प्रश्न पूरा हुआ| इस पर अर्जुन ने प्रश्न किया- अर्जुन उवाच योउयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन| एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्| १३३१ | हे मधुसूदन ! यह योग जो आप पहले बता आये हैं, जिससे समत्व भावदृष्टि मिलती है, मन के चञ्चल होने से बहुत समय तक इसमें ठहरनेवाली स्थिति में मैं अपने को नहीं देखता| चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्| तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ३४१| हे श्रीकृष्ण ! यह मन बडा चंचल है , प्रमथन स्वभाववाला ( प्रमथन अर्थात् दूसरे को मथ डालनेवाला ) , हठी तथा बलवान् है , इसलिये इसे वश में करना मैं वायु को भाँति अतिदुष्कर मानता हूँ हवा और इसको रोकना बराबर है| इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- से मुझ जो कुछ सुखं और दुःख भेदभाव तूफानी
१५६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता श्रीभगवानुवाच असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च १३५ | | महान् कार्य करने के लिये प्रयत्नशील अर्थात् महाबाहु अर्जुन ! निःसन्देह मन चंचल है बड़ी कठिनाई से वश में होनेवाला है; परन्तु कौन्तेय! यह अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में होता है| जहाँ चित्त को लगाना है, वहाँ स्थिर करने के लिये बार-बार प्रयत्न का नाम अभ्यास है तथा देखी - सुनी विषय- वस्तुओं में ( संसार या स्वर्गादि भोगों में ) राग अर्थात् लगाव का त्याग वैराग्य है| कहते हैं कि मन को वश में करना कठिन है, अभ्यास और वैराग्य यह वश में हो जाता है| असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः| वश्यात्मना तु यतता शक्योउवाप्तुमुपायतः१ १३६१| अर्जुन ! मन को वश में न करनेवाले पुरुष के लिये योग प्राप्त होना कठिन है; किन्तु स्ववश मनवाले प्रयत्नशील पुरुष के लिये योग सहज है, ऐसा मेरा अपना मत है| जितना कठिन तू मान बैठा है, उतना कठिन नहीं है| अतः इसे कठिन मानकर छोड़ मत दो| प्रयत्नपूर्वक लगकर योग को प्राप्त करः क्योंकि मन वश में करने पर ही योग सम्भव है| इस पर अर्जुन ने प्रश्न किया- अर्जुन उवाच अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः| अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छतित ३७| | हे श्रीकृष्ण योग करते-्करते यदि किसी का मन चलायमान होे जाय अभो योग में उसको श्रद्धा है ही, तो ऐसा पुरुष भगवत्सिद्धि को प्राप्त न होकर किस गति को पाता है? कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति| अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो बह्मणः पथि||३८|| महाबाहु श्रीकृष्ण भगवत्प्राप्ति के मार्ग से विचलित हुआ वह मोहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल को भाँति दोनों ओर से नष्ट- भ्रष्ट तो नहों हो जाता? गृह्यते| श्रीकृष्ण किन्तु के द्वारा यद्यपि
षष्ठम अध्याय १५७ छोटी-सीं बदली आकाश में छाये , तो वह न बरस पाती है न लौटकर मेघों से ही मिल पातीं है; बल्कि हवा के झोंकों से देखते देखते नष्टप्राय हो जाती है| इसी प्रकार शिथिल प्रयत्नवाला , कुछ काल तक साधन करके स्थगित करनेवाला नष्ट तो नहों हो जाता? वह न आपमें प्रवेश कर सका और न भोग हीं भोग पाया| उसकी कौन-सीं गति होती है? एतन्मे संशयां कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः[ त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते| १३९१| हे श्रीकृष्ण मेरे इस संशय को से मिटाने के लिये आप हीं सक्षम हैं| आपके अतिरिक्त दूसरा कोई इस संशय को मिटानेवाला मिलना सम्भव नहों है| इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- श्रीभगवानुवाच पार्थ नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते| न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दर्गतिं तात गच्छतित १४०१| पार्थिव शरीर को ही रथ बनाकर लक्ष्य की ओर अग्रसर अर्जुन ! उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है; क्योंकि हे तात उस परमकल्याणकारी नियत कर्म को करनेवाला को प्राप्त नहों होता उसका होता क्या है?- प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती : समाः श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोषभिजायते 0 मन चलायमान होने से योगभ्रष्ट हुआ वह पुरुष के लोकों में वासनाओं को भोगकर (जिन वासनाओं को लेकर वह योगभ्रष्ट हुआ था भगवान उसे थोड़े में सब दिखा-सुना देते हैं, उन्हें भोगकर ) वह ' शुचीनां श्रीमताम् ' शुद्ध आचरणवाले श्रीमान् के घर में जन्म लेता है॰ (जो शुद्ध आचरणवाले हैं , वही श्रीमान् हैं॰ ) अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्| एतद्धि लोके जन्म यदीदृशम्||४२१| सम्पूर्णता नैवेह दुर्गति शुचीनां ११४१| | पुण्यवानों - पुरुषों दुर्लभतरं
१५८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता अथवा वहाँ जन्म न मिलने पर भी स्थिरबुद्धि योगियों में वह प्रवेश पा जाता है| श्रीमानों के घर में पवित्र संस्कार बचपन से ही मिलने लगते हैं; किन्तु वहाँ जन्म न हो पाने पर वह योगियों के कुल में (घर में नहीं ) शिष्य - परम्परा में प्रवेश पा जाता है| कबीर , तुलसी , रैदास , बाल्मीकि इत्यादि आचरण और श्रीमानों का घर नहों , योगियों के कुल में प्रवेश मिला| सद्गुरु के कुल में संस्कारों का परिवर्तन भी एक जन्म है और ऐसा जन्म संसार में निःसन्देह अतिदुर्लभ है| योगियों के यहाँ जन्म का अर्थ उनके शरीर से पुत्ररूप में उत्पन्न होना नहों है| गृहत्याग से पूर्व पैदा होनेवाले लड़के मोहवश महापुरुष को भी भले ही पिता मानते रहे; किन्तु महापुरुष के लिये घरवालों के नाम पर कोई नहों होता| जो शिष्य उनकी मर्यादाओं का अनुष्ठान करते हैं उनका महत्त्व लड़कों से कई गुना अधिक मानते हैं| वही उनके सच्चे जो योग के संस्कारों नहीं हैं, उन्हें महापुरुष नहीं अपनाते| ' पूज्य महाराज जो' यदि साधु बनाते तो हजारों विरक्त उनके शिष्य होते| उन्होंने किसी को किराया-भाड़ा देकर, किसी के घर सूचना भेजकर, पत्र समझा - बुझाकर सबको उनके घर लौटा दिया| बहुत लोग हठ करने लगे तो उन्हें अपशकुन हो| भीतर से मना हो कि इसमें साधु बनने का एक भी लक्षण नहीं है| इसे रखने में भलाई नहों है, यह पार नहों होगा| निराश होकर दो-एक ने पहाड़ से गिरकर अपनो जान भो दे दीः किन्तु महाराज जी ने उन्हें अपने यहाँ नहों रखा| बाद में पता चलने पर बोले- रहेउँ कि बड़ा विकल है लेकिन ई सोचते कि सचहूँ के मरि जाई तो रखी लेते| पतितै रहत, अउर का होत ममत्व उनमें भी विकट था, फिर भी नहों रखा| छः सात को, जिनके लिये आदेश हुआ कि- ' आज एक योगभ्रष्ट आ रहा है, जन्म- जन्म से भटका हुआ चला आ रहा है, इस नाम और इस रूप का कोई आनेवाला है, उसे रखो, ब्रह्मविद्या का उपदेश करो, उसे आगे बढ़ाओ केवल उन्हों को रखा| तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्| यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दनतत४३१| के कुल को शुद्ध पुत्र हैं| से युक्त किन्तु भेजकर , ( जानत एक ठो
षष्ठम अध्याय १५९ वहाँ वह पूर्वशरीर में साधन किये हुए बुद्धि के संयोग को अर्थात् पूर्वजन्म के साधन - संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता ा है और हे कुरुनन्दन ! उसके प्रभाव से वह फिर ' संसिद्धौ ' भगवत्प्राप्तिरूपी परमसिद्धि के निमित्त प्रयत्न करने लगता है| पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशो उपि सः| जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दबह्यातिवर्तते १४४१| श्रीमानों के घर विषयों के वश में रहने पर भी वह पूर्वजन्म के अभ्यास भगवत्पथ को ओर आकर्षित हो जाता है और योग में शिथिल प्रयत्नवाला वह भी वाणी के विषय को पार करके निर्वाण पद को पा जाता है| उसकी प्राप्ति का यहीं तरीका है| कोई एक जन्म में पाता भी नहीं| प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः [ अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां १४५ | अनेक जन्मों से प्रयत्न करनेवाला योगी परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाला योगी सभी पापों से अच्छी प्रकार शुद्ध होकर परमगति को प्राप्त हो जाता है| प्राप्ति का यहीं क्रम है| पहले शिथिल प्रयत्न से वह योग आरम्भ करता है मन चलायमान होने पर जन्म लेता है सद्गुरु के कुल में प्रवेश पाता है और प्रत्येक जन्म में अभ्यास करते हुए वहों पहुँच जाता है, जिसका नाम परमगति परमधाम है॰ श्रीकृष्ण ने कहा कि स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य ' ( २/४० )~ इस धर्म का स्वल्प अभ्यास भी महान जन्म-्मृत्यु के भय से उद्धार करनेवाला होता है| धर्म बदलता नहों है| इस योग में बोज का नाश नहों होता| आप दो कदम चल भर दें, उस साधन का कभी नाश नहों होता| हर परिस्थिति में रहते हुए पुरुष ऐसा कर सकता है| कारण कि थोड़ा साधन तो परिस्थितियों से घिरनेवाला व्यक्ति ही कर पाता है; क्योंकि उसके पास समय नहों है| आप काले हों , गोरे हों अथवा कहों के हों , गोता सबके लिये है| आपके लिये भी है, बशर्ते आप मनुष्य हों| उत्कट प्रयत्नवाला चाहे जो हो, शिथिल प्रयत्नवाला गृहस्थ हीं होता है| गीता गृहस्थ-विरक्त, शिक्षित अशिक्षित , सर्वसाधारण मनुष्य मात्र के लिये है| जिज्ञासु गतिम्| किन्तु
२६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता किसी साधु' नामक विचित्र प्राणी के लिये ही हो , ऐसा नहों| अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण निर्णय देते हैं- तपस्विभ्योउधिको योगी ज्ञानिभ्योउपि मतोउधिकः| कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन||४६१ | तपस्वियों से योगी श्रेष्ठ है , ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है , कर्मियों से भी योगी श्रेष्ठ है; इसलिये अर्जुन! तू योगी बन| तपस्वीं - तपस्वी मनसहित इन्द्रियों को उस योग में ढालने के लिये तपाता है, अभी योग उसमें ढला नहीं| कर्मी - कर्मी इस नियत कर्म को जानकर उसमें प्रवृत्त होता है| न तो वह अपनी शक्ति समझकर ही प्रवृत्त है और न वह समर्पण करके ही प्रवृत्त है, करता भर है॰ ज्ञानमार्गी उसी नियत कर्म यज्ञ को प्रक्रिया-विशेष को भलीं प्रकार समझते हुए अपनो शक्ति को सामने रखकर उसमें प्रवृत्त होता है| उसके लाभ- हानि की जिम्मेदारी उसी पर है| उस पर दृष्टि रखकर चलता है| योगी - निष्काम कर्मयोगी इष्ट पर निर्भर होकर पूरे समर्पण के साथ उसी नियत कर्म योग-्साधना होता है , जिसके योगक्षेम को जिम्मेदारी भगवान अर्थात् योगेश्वर वहन करते हैं| पतन की परिस्थितियाँ होते हुए भी उसके लिये पतन का भय नहों है; क्योंकि जिस परमतत्त्व को चाहता है, वहीं उसे सँभालने को जिम्मेदारी भी ले लेता है| तपस्वी अभी योग को ढालने में प्रयत्नशील है॰ कर्मी केवल कर्म जानकर करता भर है|ये गिर भी सकते हैं; क्योंकि इन दोनों में न समर्पण है और न अपनी हानि- लाभ देखने की क्षमताः किन्तु ज्ञानी योग की परिस्थितियों को जानता है अपनी शक्ति समझता है, उसकी जिम्मेदारीं उसीं पर है और निष्काम कर्मयोगी तो इष्ट के ऊपर अपने को फेंक चुका है , वह इष्ट सँभालेगा| परमकल्याण के पथ पर ये दोनों ठीक चलते हैं जिसका भार वह इष्ट सँभालता वह इन सबसे श्रेष्ठ है; क्योंकि ग्रहण कर लिया है| उसका हानि- लाभ वह प्रभु देखता है| इसलिये योगी श्रेष्ठ है| अतः अर्जुन ! तू योगी बन समर्पण के साथ योग का आचरण करा ज्ञानी - में प्रवृत्त किन्तु प्रभु ने उसे
षष्ठम अध्याय १६२ योगी श्रेष्ठ है; किन्तु उनसे भी वह योगी सर्वश्रेष्ठ है, जो अन्तरात्मा से लगता है| इसी पर कहते हैं- योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना| श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतःा१४७१ | सम्पूर्ण निष्काम कर्मयोगियों में भीजो श्रद्धाविभोर होकर अन्तरात्मा से, अन्तर्चिन्तन से मुझे निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परमश्रेष्ठ मान्य है| भजन दिखावे या प्रदर्शन की वस्तु नहों है॰ इससे समाज भले हीं अनुकूल हो किन्तु प्रभु प्रतिकूल हो जाते हैं| भजन अत्यन्त गोपनीय है और वह अन्तःकरण से होता है| उसका उतार - चढ़ाव अन्तःकरण के ऊपर है| निष्कर्ष - इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि फल के आश्रय से रहित होकर जो कार्यम् अर्थात् करने योग्य प्रक्रिया विशेष का आचरण करता है , वहीं संन्यासी है और उसी कर्म को करनेवाला हो योगी है केवल क्रियाओं अथवा अग्नि को त्यागनेवाला योगी अथवा संन्यासी नहों होता| संकल्पों का त्याग किये बिना कोई भी पुरुष संन्यासी अथवा योगी नहों होता| हम संकल्प नहीं करते- ऐसा कह देने मात्र से संकल्प पिण्ड नहों छोड़ते| योग में आरूढ़ होने को इच्छावाले पुरुष को चाहिये कि कार्यम् कर्म' करे| कर्म करते-करते योगारूढ़ हो जाने पर हीं सर्वसंकल्पों का अभाव होता है पूर्व नहीं| सर्वसंकल्पों का अभाव हीं संन्यास है| योगेश्वर ने पुनः बताया कि आत्मा अधोगति में जाता है और उसका उद्धार भी होता है| जिस पुरुष द्वारा मनसहित इन्द्रियाँ जीत ली गयी हैं , उसका आत्मा उसके लिये मित्र बनकर मित्रता में बरतता है तथा परमकल्याण करनेवाला होता है| जिसके द्वारा ये नहों जीती गयों, उसके लिये उसी का आत्मा शत्रु बनकर शत्रुता में बरतता है, यातनाओं का कारण बनता है| अतः मनुष्य को चाहिये कि अपने आत्मा को अधोगति में न पहुँचावे , अपने द्वारा अपनी आत्मा का उद्धार करे| उन्होंने प्राप्तिवाले योगी की रहनीं बतायी यज्ञस्थली , बैठने का आसन तथा बैठने के तरीके पर उन्होंने कहा कि स्थान एकान्त और स्वच्छ हो| वस्त्र , कर्म' इससे
१६२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता मृगचर्म अथवा कुश की चटाई में से कोई एक आसन हो| कर्म के अनुरूप युक्ताहार- विहार , सोने - जागने के संयम पर उन्होंने बल दिया| योगी के निरुद्ध चित्त को उपमा उन्होंने वायुरहित स्थान में दीपक की अकम्पित लौ से दी| और इस प्रकार उस निरुद्ध चित्त का भो जब विलय हो जाता है , उस समय वह योग को पराकाष्ठा अनन्त आनन्द को प्राप्त होता है॰ संसार के संयोग- वियोग से रहित अनन्त सुख का नाम योग है| योग का अर्थ है उससे मिलन| जो योगी इसमें प्रवेश पा जाता है , वह सम्पूर्ण भूतों में समदृष्टिवाला हो जाता है| जैसे अपनी आत्मा वैसे हो सबको आत्मा को देखता है| वह परम पराकाष्ठा की शान्ति को प्राप्त होता है| अतः योग आवश्यक है॰ मन जहाँ-जहाँ जाय वहाँ-वहाँ से घसोटकर बारम्बार इसका निरोध करना चाहिये| श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया कि मन बड़ी कठिनाई से वश में होनेवाला है, लेकिन होता है| यह अभ्यास और वैराग्य द्वारा वश में हो जाता है| शिथिल प्रयत्नवाला व्यक्ति भी अनेक जन्म के अभ्यास से वहीं पहुँच जाता है, जिसका नाम परमगति अथवा परमधाम है| तपस्वियों , ज्ञानमार्गियों तथा केवल कर्मियों से भी योगी श्रेष्ठ है , इसलिये अर्जुन ! बन| समर्पण के साथ अन्तर्मन से योग का आचरण करा प्रस्तुत अध्याय में योगेश्वर श्रोकृष्ण ने प्रमुख रूप से योग को प्राप्ति के लिये अभ्यास पर बल दिया है| अतः- ३४ँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्यविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे ' अभ्यासयोगो नाम षष्ठोधध्यायः १६|| इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपीं उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्रविषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्वाद में अभ्यास योग' नामक छठाँ अध्याय पूर्ण होता है| इति श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्गीतायाः यथार्थगीता ' भाष्ये अभ्यासयोगो नाम षष्ठोउध्यायः| १६|| इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य यथार्थ गीता' में अभ्यासयोग नामक छठाँ अध्याय पूर्ण होता है| 1 हरिः ३>ँ तत्सत् " 1 चेष्टा, तू योगी
३ँँ० श्री परमात्मने नमः | ढ़ अथ सप्तमोडध्यायः | गत अध्यायों में गीता के मुख्य- मुख्य प्रायः सभी प्रश्न पूर्ण हो गये हैं| निष्काम कर्मयोग , ज्ञानयोग , कर्म तथा यज्ञ का स्वरूप और उसको विधि , योग का वास्तविक स्वरूप और उसका परिणाम तथा अवतार , वर्णसंकर , सनातन आत्मस्थित महापुरुष के लिये भी लोकहितार्थ कर्म करने पर बल, युद्ध इत्यादि पर विशद चर्चा की गयी| अगले अध्यायों में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इन्हों से सन्दर्भित अनेक पूरक प्रश्नों को लिया है, जिनका समाधान तथा अनुष्ठान आराधना में सहायक सिद्ध होगा| छठें अध्याय के अन्तिम श्लोक में योगेश्वर ने यह कहकर प्रश्न का स्वयं बीजारोपण कर दिया कि जो योगी ' मद्गतेनान्तरात्मना ' - मुझमें अच्छी प्रकार स्थित अन्तःकरणवाला है, उसे मैं अतिशय श्रेष्ठ योगी मानता हूँ| परमात्मा में अच्छी प्रकार स्थिति क्या है? बहुत से योगी परमात्मा को प्राप्त तो होते हैं फिर भी कहों कोई कमी उन्हें खटकतीं है| लेशमात्र भी कसर न रह जाय , ऐसीं अवस्था कब आयेगी? सम्पूर्णता से परमात्मा को जानकारी कब आयेगी? कब होती है? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- श्रीभगवानुवाच मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जचन्मदाश्रयः असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छणु११११ | पार्थ आसक्त हुए मनवाला , बाहरी नहों अपितु ' मदाश्रयः परायण होकर योग में लगा हुआ ( छोड़कर नहों ) मुझको जिस प्रकार संशयरहित जानेगा , उसको सुन| जिसे जानने के पश्चात् भी संशय न रह जाय, विभूतियों को उस समग्र जानकारी पर पुनः बल देते हैं- तू मुझमें लेशमात्र
१६४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता तेउहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः यज्ज्ञात्वा नेह भूयोउन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते| १२१ | मैं तेरे लिये इस विज्ञानसहित ज्ञान को सम्पूर्णता से कहूँगा| पूर्तिकाल में यज्ञ जिसकी सृष्टि करता है, उस अमृत-्तत्त्व की प्राप्ति के साथ मिलनेवाली जानकारीं का नाम ज्ञान है| परमतत्त्व परमात्मा को प्रत्यक्ष जानकारीं का नाम ज्ञान है| महापुरुष को एक साथ सर्वत्र कार्य करने की जो क्षमता मिलती है, वह विज्ञान है| कैसे वह प्रभु एक साथ सबके हृदय में कार्य करता है? किस प्रकार वह उठाता , बैठाता और प्रकृति के द्वन्द्व से निकालकर स्वरूप तक की दूरी तय करा लेता है? उसको इस कार्य-प्रणाली का नाम विज्ञान है॰ इस विज्ञानसहित ज्ञान को सम्पूर्णता से कहूँगा, जिसे जानकर ( सुनकर नहों ) संसार में और कुछ भी जानने योग्य नहों रह जायेगा| जाननेवालों को संख्या बहुत कम है- मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये| यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः १३१ | हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियों में भी कोई विरला ही पुरुष मुझे तत्त्व ( साक्षात्कार ) के साथ जानता है| अब समग्र तत्त्व है कहाँ? एक स्थान पर पिण्डरूप में है अथवा सर्वत्र व्याप्त है? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- भूमिरापोउनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च| अहङ्कार मे भित्रना प्रकृतिरष्टथा| १४१ | अर्जुन ! भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार - ऐसे यह आठ प्रकार के भेदोंवाली मेरी प्रकृति है| यह अष्टधा मूल प्रकृति है| अपरेयमितस्त्वन्यां मे पराम्| जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्याते जगत्|१५/| ज्ञानं इतीयं प्रकृतिं विद्वि
सप्तम अध्याय १६५ इयम् अर्थात् यह आठ प्रकारोंवाली तो मेरी अपरा प्रकृति है अर्थात् जड़ प्रकृति है| महाबाहु अर्जुन ! इससे को जीवरूप परा' अर्थात् चेतन प्रकृति जान, जिससे सम्पूर्ण जगत् धारण किया हुआ है| वह है जीवात्मा| जीवात्मा भी प्रकृति के सम्बन्ध में रहने के कारण प्रकृति ही है| एतद्योनीनि सर्वाणीत्युपधारय| अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा| १६१ | अर्जुन ! ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत ' एतद्योनीनि - इन महाप्रकृतियों से, परा और अपरा प्रकृतियों से ही उत्पन्न होनेवाले हैं| यहीं दोनों एकमात्र योनि हैं| मैं सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति तथा प्रलय रूप हूँ अर्थात् मूल कारण हूँ जगत् की उत्पत्ति मुझसे है और ( प्रलय ) विलय भी मुझमें है॰ जब तक प्रकृति विद्यमान है, तब तक मैं ही उसकी उत्पत्ति हूँ और जब कोई महापुरुष का पार पा लेता है, तब मैं ही महाप्रलय भी हूँ॰जो अनुभव में आता है| सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय के प्रश्न को मानव समाज ने कौतूहल से देखा है| विश्व के अनेक शास्त्रों में इसे किसी-्न-किसी तरह समझाने का प्रयास चला आ रहा है| कोई कहता है कि प्रलय में संसार डूब जाता है, तो किसी के अनुसार सूर्य इतना नीचे आ जाता है कि पृथ्वी जल जाती है| कोई इसी को कयामत कहता है कि इसी दिन सबका फैसला सुनाया जाता है, तो कोई नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय की गणना में व्यस्त है| योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार प्रकृति अनादि है| परिवर्तन होते रहे हैं, किन्तु यह नष्ट कभी नहों हुई| भारतीय धर्मग्रन्थों के अनुसार मनु ने प्रलय देखा था| इसके साथ ग्यारह ऋषियों ने मत्स्य की सींग में नाव बाँधकर हिमालय के एक उत्तुंग शिखर को शरण ली थी| लीलाकार श्रीकृष्ण के उपदेशों एवं जीवन से सम्बन्धित उनके समकालीन शास्त्र भागवत में मृकण्डु मुनि मार्कण्डेय जी द्वारा प्रलय का आँखों देखा हाल प्रस्तुत है| वे हिमालय के उत्तर में पुष्पभद्रा नदी के किनारे रहते थे| दूसरी भूतानि प्रकृति किन्तु के पुत्र
१६६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता भागवत के द्वादश स्कन्ध के आठवें और नौवें अध्याय के अनुसार शौनकादि ऋषियों ने सूत कि मार्कण्डेय जी ने महाप्रलय में वट के पत्ते पर भगवान बालमुकुन्द के दर्शन किये थे; किन्तु वे तो हमारे ही वंश के थे, हमसे कुछ ही समय पूर्व हुए थे| उनके जन्म के बाद न कोई प्रलय हुआ और न सृष्टि हीं डूबीं| सब कुछ यथावत् है, तब उन्होंने कैसा प्रलय देखा? जी ने बताया कि मार्कण्डेय जी को प्रार्थना से प्रसन्न होकर नर- नारायण ने उन्हें दर्शन दिया| मार्कण्डेय जी ने कहा कि मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ , जिससे प्रेरित होकर यह आत्मा अनन्त योनियों में भ्रमण करता है| भगवान ने स्वीकार किया| एक दिन जब मुनि अपने आश्रम में भगवान के चिन्तन में तन्मय होे रहे थे, तब उन्हें दिखायी पडा कि चारों ओर से समुद्र उमड़कर उनके ऊपर आ रहा है| उसमें मगर' छलाँगे लगा रहे थे| उनको चपेट में ऋषि मार्कण्डेय भी आ रहे थे| वे इधर - उधर बचने के लिये भाग रहे थे| आकाश, सूर्य, पृथ्वी , चन्द्रमा, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल सभी उस समुद्र में डूब गये| इतने में मार्कण्डेय जी को बरगद का पेड़ और उसके पत्ते पर एक दिखायी दिया| श्वास के साथ मार्कण्डेय जी भी उस शिशु के उदर में चले गये और अपना आश्रम , सूर्यमण्डलसहित सृष्टि को जीवित पाया श्वास के साथ उस शिशु के उदर से वे बाहर आ गये| नेत्र खुलने पर मार्कण्डेय जी ने अपने को उसी आश्रम में अपने ही आसन पर पाया| स्पष्ट है कि करोड़ों वर्ष के भजन के पश्चात् उन मुनि ने ईश्वरीय दृश्य को अपने हृदय में देखा , अनुभव में देखा| बाहर सब कुछ ज्यों-का-त्यों था| अतः प्रलय योगी के हृदय में ईश्वर से मिलनेवाली अनुभूति है॰ भजन के पूर्तिकाल में योगी के हृदय में संसार का प्रवाह मिटकर अव्यक्त परमात्मा ही शेष बचता है , यहीं प्रलय है॰ बाहर प्रलय नहों होता| महाप्रलय शरीर रहते ही अद्वैत को अनिर्वचनीय स्थिति है| यह क्रियात्मक है| बुद्धि से निर्णय लेनेवाले भ्रम का ही सृजन करते हैं, चाहे हम हों या आप| इसी पर आगे देखें- जो से पूछा शिशु और पुनः केवल
सप्तम अध्याय ६७ मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय| मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॰१७१| धनंजय मेरे सिवाय किंचिन्मात्र भी दूसरीं वस्तु नहों है| यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मेरे में गुँथा हुआ है| है तो; परन्तु जानेंगे कब? जव (इसी अध्याय के प्रथम श्लोक के अनुसार ) अनन्य आसक्ति ( भक्ति ) से मेरे परायण होकर योग में उसी रूप से लग जायँॅ इसके बिना नहीं| योग में लगना आवश्यक है| रसोउहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खोे पौरुषं नृषु|१८१ कौन्तेय जल में मैं रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ- ( ओ+्अहं+्कार ) स्वयं का आकार हूँ, आकाश में शब्द और में पुरुषत्व हूँ| तथा मैं- गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ| जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु|१९१| में पवित्र गन्ध और अग्नि में तेज हूँ॰ सम्पूर्ण जीवों में उनका जोवन हूँ और तपस्वियों में उनका तप हूँ| बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्| बुद्धिर्षुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् १०१| पार्थ ! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन कारण अर्थात् बीज मुझे ही जान| मैं बुद्धिमानों को बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ| इसी क्रम में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्| धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोउस्मि भरतर्षभात१११| हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! मैं बलवानों की कामना और आसक्तिरहित बल हूँ संसार में सब बलवान् हीं तो बनते हैं| कोई दण्ड - बैठक लगाता है, तो कोई परमाणु इकट्ठा करता है; नहों , श्रीकृष्ण कहते हैं- काम और राग से पुरुषों पुण्यो पृथ्वी किन्तु
१६८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता परे जो बल है वह मैं हूँ| वही वास्तविक बल है| सब भूतों में धर्म के अनुकूल कामना मैं हूँ॰ परब्रह्म परमात्मा ही एकमात्र धर्म है , जो सबको धारण है॰| जो शाश्वत आत्मा है वही धर्म है| जो उससे अविरोध रखनेवाली कामना है, मैं हूँ| आगे भी श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ! मेरी प्राप्ति के लिये इच्छा करा सब कामनाएँ तो वर्जित हैं; किन्तु उस परमात्मा को पाने को कामना आवश्यक है अन्यथा आप साधन कर्म में प्रवृत्त नहों होँगे| ऐसी कामना भी मेरी हीं देन है| ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये| मत्त एवेति तान्चिद्धि न त्वहं तेषु ते मयित११२१| और भी जो सत्त्वगुण से उत्पन्न होनेवाले भाव हैं, जो रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होनेवाले भाव हैं, उन सबको तू मुझसे ही उत्पन्न होनेवाले हैं ऐसा जान| परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मेरे में नहों हैं| क्योंकि न मैं उनमें खोया हुआ हूँ और न वे ही मुझमें प्रवेश कर पाते हैं; क्योंकि मुझे कर्म से स्पृहा नहों है| मैं निर्लेप हूँ॰ मुझे इनमें कुछ पाना नहों है| इसलिये प्रवेश नहों कर पाते| ऐसा होने पर भी- जिस प्रकार आत्मा की उपस्थिति से ही शरीर को भूख-प्यास लगती है आत्मा को अन्र अथवा जल से कोई प्रयोजन नहों है, उसी प्रकार प्रकृति परमात्मा की उपस्थिति में हीं अपना कार्य कर पातीं है| परमात्मा उसके गुण और कार्यों से निर्लेप रहता है॰ त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्| मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् १३१ | सात्त्विक , राजस और तामस इन तीन गुणों के कार्यरूप भावों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है इसलिये लोग इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को तत्त्व से भली प्रकार नहों जानते मैं इन तीनों गुणों से परे हूँ अर्थात् जब तक अंशमात्र भी गुणों का आवरण विद्यमान है, तब तक कोई मुझे नहों जानता| उसे अभी चलना है, वह राही है और- दैवी ह्येषा मम माया दुरत्यया| मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते१११४१| किये हुए मुझमें गुणमयी
सप्तम अध्याय १६९ यह त्रिगुणमयी मेरी अद्भुत माया दुस्तर है; किन्तु जो पुरुष मुझे ही निरन्तर भजते हैं , माया का पार पा जाते हैं| यह माया है तो दैवी , परन्तु अगरबत्ती जलाकर इसकी पूजा न करने लगें| इससे पार पाना है| न मां मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ११५ | | जो मुझे निरन्तर भजते हैं, वे जानते हैं| फिर भो लोग नहों भजते| माया जिनके ज्ञान का अपहरण कर लिया गया है, जो आसुरी स्वभाव को धारण मनुष्यों में अधम, काम-क्रोधादि दुष्कृतियों को करनेवाले मुझे नहों भजते| तो भजता कौन है? - चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनो उर्जुन| आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभा११६१| हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन सुकृतिनः उत्तम अर्थात् नियत कर्म (जिसके परिणाम में श्रेय की प्राप्ति हो, उसको ) करनेवाले अर्थार्थी' अर्थात् सकाम , ' आर्तः ' अर्थात् दुःख से छूटने की इच्छावाले , अर्थात् प्रत्यक्ष रूप से जानने की इच्छावाले और ज्ञानी ' अर्थात्जो प्रवेश को स्थिति में हैं- ये चार प्रकार के भक्तजन मुझे भजते हैं| अर्थ' वह वस्तु है, जिससे हमारे शरीर अथवा सम्बन्धों को पूर्ति हो| इसलिये अर्थ , कामनाएँ सब कुछ पहले तो भगवान द्वारा पूर्ण होती हैं| श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही पूर्ण करता हूँ इतना ही वास्तविक अर्थ' नहीं है| आत्मिक सम्पत्ति हीं स्थिर सम्पत्ति है, यहीं अर्थ है| सांसारिक अर्थ' को पूर्ति करते- करते भगवान वास्तविक आत्मिक सम्पत्ति की ओर बढ़ा देते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि इतने हो से मेरा भक्त सुखी नहों होगा इसलिये वे आत्मिक सम्पत्ति भी उसे देने लगते हैं॰ ' लोक लाहु परलोक रामचरितमानस , १/१९/२ )- लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह ये दोनों भगवान को अपने भक्त को खाली नहों छोड़ते वे इस दुष्कृतिनो के द्वारा किये हुए, मूढ़लोग जिज्ञासुः किन्तु अर्थ निबाहू| वस्तुएँ हैं|
१७ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता आर्तः - जो दुःखो हो, समग्रता से जानने की इच्छावाले जिज्ञासु मुझे भजते हैं| साधना की परिपक्व अवस्था में दिग्दर्शन ( प्रत्यक्ष दर्शन ) की अवस्थावाले ज्ञानी भी मुझे भजते हैं| इस प्रकार चार प्रकार के भक्त मुझे भजते हैं , जिनमें ज्ञानीं श्रेष्ठ है अर्थात् ज्ञानी भी भक्त ही है| इन सबमें भो- तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते| प्रियो हि ज्ञानिनोउत्यर्थमहं स च मम प्रियः१ ११७१ | अर्जुन ! उनमें भी नित्य एकोभाव में स्थित अनन्य भक्तिवाला ज्ञानीं विशिष्ट हैः क्योंकि साक्षात्कार के सहित जाननेवाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी भी मुझे अत्यन्त प्रिय है| वह ज्ञानी मेरा ही स्वरूप है| उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्| आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्११८१| यद्यपि ये चारों प्रकार के भक्त उदार हीं हैं ( कौन-सीं उदारता कर दी? क्या आपके भक्ति करने से भगवान को कुछ मिल जाता है? क्या भगवान में कोई कमी है जिसे आपने पूरा कर दिया? नहों , वस्तुतः वही उदार है जो अपनी आत्मा को अधोगति में न पहुँचाये, जो उसके उद्धार के लिये अग्रसर है| इस प्रकार यह सब उदार हैं ) परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है, ऐसी मेरी मान्यता है; क्योंकि वह स्थिरबुद्धि ज्ञानी भक्त सर्वोत्तम गतिस्वरूप मुझमें हीं स्थित है| अर्थात् वह मैं हूँ॰ वह मुझमें है| मुझमें और उसमें कोई अन्तर नहों है| इसी पर पुनः बल देते हैं- जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा १११९| | अभ्यास करते- करते बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में , प्राप्तिवाले जन्म में साक्षात्कार को प्राप्त हुआ ज्ञानी ' सब कुछ वासुदेव ही है' - इस प्रकार मेरे को भजता है| वह महात्मा अतिदुर्लभ है| वह किसी वासुदेव को प्रतिमा नहों गढ़वाता बल्कि अपने भीतर हीं उस परमदेव का वास पाता है॰ उसी ज्ञानी महात्मा को श्रीकृष्ण तत्त्वदर्शी भी कहते हैं| इन्हों महापुरुषों से बाहर समाज में जिज्ञासुः मुझमें बहूनां सुदुर्लभः
सप्तम अध्याय १७२ कल्याण सम्भव है| इस प्रकार के प्रत्यक्ष तत्त्वदर्शी महापुरुष श्रीकृष्ण के शब्दों में अतिदुर्लभ हैं| जवब श्रेय और प्रेय ( मुक्ति और भोग ) दोनों ही भगवान से मिलते हैं तब तो सभी को एकमात्र भगवान का भजन करना चाहिये , फिर भी लोग उन्हें नहों भजते| क्यों? श्रीकृष्ण के ही शब्दों में- कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेउन्यदेवताः तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वयात १२०| | तत्त्वदर्शी महात्मा अथवा परमात्मा ही सब कुछ है॰ ' -लोग ऐसा समझ नहों पातेः क्योंकि भोगों की कामनाओं द्वारा लोगों के विवेक का अपहरण कर लिया गया है इसलिये वे अपनी प्रकृति अर्थात् जन्म- जन्मान्तरों से अर्जित संस्कारों के स्वभाव से प्रेरित होकर मुझ परमात्मा से भिन्न अन्य देवताओं और उनके लिये प्रचलित नियमों की शरण लेते हैं| यहाँ अन्य देवता' का प्रसंग पहली बार आया है| यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति| तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् २११ | जो-जो सकामी भक्त जिस-्जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, मैं उसी देवता के प्रति उसकोी श्रद्धा को स्थिर करता हूँ॰ मैं स्थिर करता हूँ; क्योंकि देवता नाम को कोई वस्तु होती तब तो वह देवता ही श्रद्धा को स्थिर करता| स तया श्रद्द्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते| लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् २२१| वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देव विग्रह के पूजन में तत्पर होता है और देवता के माध्यम से मेरे हो द्वारा निर्मित उन इच्छित भोगों को निःसन्देह प्राप्त होता है| भोग कौन देता है? मैं ही देता हूँ॰ उसकी श्रद्धा का परिणाम है भोग, न कि किसी देवता की देन| किन्तु वह फल तो पा ही लेता है फिर इसमें बुराई क्या है? इस पर कहते हैं- * वह
१७२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि|१२३१ | परन्तु उन अल्पबुद्धिवालों का वह फल नाशवान् है| आज फल है तो भोगते- भोगते नष्ट हो जायेगा इसलिये नाशवान् है| देवताओं को पूजनेवाले देवताओं को प्राप्त होत़े हैं अर्थात् देवता भी नाशवान् हैं॰ देवताओं से लेकर यावन्मात्र जगत् परिवर्तनशील और मरणधर्मा है| मेरा भक्त मुझे ही प्राप्त होता है, जो अव्यक्त है नैष्ठिकों परमशान्ति पाता है| अध्याय तीन में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि इस यज्ञ द्वारा देवताओं अर्थात् दैवीं सम्पद् की उन्नति करो| ज्यों-ज्यों दैवीं सम्पद् की उन्नति होगी , वही उन्रति है॰ क्रमशः उन्नति करते करते परमश्रेय को प्राप्त कर लो| यहाँ देवता उस दैवी सम्पद् का समूह है, जिससे परमदेव परमात्मा का देवत्व अर्जित किया जाता है॰ दैवीं सम्पद् मोक्ष के लिये है, जिसके छब्बीस लक्षणों का निरूपण गीता के सोलहवें अध्याय में किया गया है| देवता हृदय के अन्तराल में परमदेव परमात्मा के देवत्व को अर्जित करानेवाले सद्गुणों का नाम है| थी तो यह अन्दर की वस्तुः किन्तु कालान्तर में लोगों ने भीतर की वस्तु को बाहर देखना प्रारम्भ कर दिया| मूर्तियाँ गढ़ लों , कर्मकाण्ड रच डाले और वास्तविकता से दूर खड़े हो गये| श्रीकृष्ण ने इस भ्रान्ति का निराकरण उपर्युक्त चार श्लोकों में किया| गीता में पहली बार अन्य देवताओं का नाम लेते हुए उन्होंने कहा कि देवता होते ही नहीं| लोगों को श्रद्धा जहाँ है , वहाँ मैं ही खडा होकर उनको श्रद्धा करता हूँ और मैं ही वहाँ फल भी देता हूँ॰ वह फल भी नश्वर है| फल नष्ट हो जाते हैं देवता नष्ट हो जाते हैं और देवताओं को पूजनेवाला भी नष्ट हो जाता है| जिनका विवेक नष्ट हो गया है, वे मूढ़बुद्धि ही अन्य देवताओं को पूजते हैं॰ श्रीकृष्ण तो यहाँ तक कहते हैं कि अन्य देवताओं को का विधान ही अयुक्तिसंगत है ( आगे देखेंगे , अध्याय ९/२३)| अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् २४१ | तुमलोग तुम्हारी झुकतीं को पुष्ट पूजने
सप्तम अध्याय १७३ यद्यपि जब देवताओं के नाम पर देवता नाम की कोई वस्तु है ही नहों , जो फल मिलता है वह भी नाशवान् है, फिर भी सब लोग मेरा भजन नहीं करतेः क्योंकि बुद्धिहीन पुरुष ( जैसा पिछले श्लोक में आया कि कामनाओं द्वारा जिनका ज्ञान अपहृत हो गया है वे ) मेरे सर्वोत्तम , अविनाशी और परमप्रभाव को भली प्रकार नहीं जानते , इसलिये अव्यक्त पुरुष को व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते हैं, मनुष्य मानते हैं| अर्थात् श्रीकृष्ण भी मनुष्य शरीरधारी योगी थे, योगेश्वर थे| जो स्वयं योगी हों और दूसरों को भी योग प्रदान करने को जिनमें क्षमता हो, उन्हें योगेश्वर कहते हैं साधना के सही दौर में पड़कर क्रमशः उत्थान होते-्होते महापुरुष भी उसी परमभाव में स्थित हो जाते हैं शरीरधारी भी वे उसी अव्यक्त स्वरूप में स्थित हो जाते हैं फिर भी कामनाओं विवश मन्दबुद्धि के लोग उन्हें साधारण व्यक्ति ही मानते हैं| वे सोचते हैं कि हमारीं हो तरह तो यह भो पैदा हुए हैं , भगवान कैसे हो सकते हैं? उन बेचारों का दोष भी क्या है? दृष्टिपात करते हैं तो शरीर ही दिखायो पडता है॰ वे महापुरुष के वास्तविक स्वरूप को देख क्यों नहों पातेः इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण से हो सुनें - नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः मूढोउ्यं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् |२५| | सामान्य मनुष्य के लिये माया एक परदा है, जिसके द्वारा परमात्मा सर्वथा छिपा है॰ योग-्साधना समझकर वह प्रवृत्त होता है॰ इसके पश्चात् योगमाया अर्थात् योगक्रिया भी एक आवरण ही है॰ योग का अनुष्ठान करते - करते उसकी पराकाष्ठा योगारूढ़ता आ जाने पर वह छिपा हुआ परमात्मा विदित होता है| योगेश्वर कहते हैं- मैं अपनी योगमाया से ढँका हुआ हूँढ़ केवल योग की परिपक्व अवस्थावाले ही मुझे यथार्थ देख सकते हैं| मैं सबके लिये प्रत्यक्ष नहीं हूँ इसलिये यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित (जिसे अब जन्म नहों लेना है) , अविनाशी ( जिसका नाश नहों होना है) , अव्यक्त स्वरूप (जिसे पुनः व्यक्त नहों होना है) को नहों जानता| अर्जुन भी श्रीकृष्ण को अपनी ही तरह मनुष्य मानता था| आगे उन्होंने दृष्टि दी तो अर्जुन गिड़गिड़ाने वे मुझ होते हुए इसमें
१७४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता लगा प्रार्थना करने लगा वस्तुतः अव्यक्तस्थित महापुरुष को पहचानने में हमलोग प्रायः अन्धे हीं हैं॰ आगे कहते हैं वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन| भविष्याणि च मां तु वेद न कश्चन| |२६१ | अर्जुन ! मैं अतीत , वर्तमान और भविष्य में होनेवाले प्राणियों जानता हूँ परन्तु मुझे कोई नहों जानता| क्यों नहों जान पाता? - इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत| सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप| १२७१ | भरतवंशी अर्जुन इच्छा और द्वेष अर्थात् राग द्वेषादि द्वन्द्व के मोह से संसार के सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त मोह को प्राप्त हो रहे हैं इसलिये मुझे नहों जान पाते| तो क्या कोई जानेगा ही नहीं? योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्| ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढत्रताः १२८| | परन्तु (जो संसृति का अन्त करनेवाला है, जिसका नाम कार्यम् कर्म , नियत कर्म, यज्ञ को प्रक्रिया कहकर बारम्बार समझाया है, उस कर्म को ) करनेवाले जिन भक्तों का पाप नष्ट हो गया है , वे राग- द्वेषादि द्वन्द्व के मोह से भली प्रकार मुक्त होकर , त्रत रहकर मुझे भजते हैं| किसलिये भजते हैं? - जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये| ते बरह्य तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् २९| | जो मेरी शरण होकर जरा और मरण से मुक्ति पाने के लिये प्रयत्न करते हैं , वे पुरुष उस ब्रह्म को , सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं| और इसी क्रम में- साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये प्रयाणकालेउपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः११३०१| भूतानि सम्पूर्ण पुण्यकर्म में दृढ़ विढुः
सप्तम अध्याय १ ७५ जो पुरुष अधिभूत, अधिदैव तथा अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं, समाहित चित्तवाले अन्तकाल में भी मुझको ही जानते हैं , मुझमें ही स्थित रहते हैं और सदैव मुझे प्राप्त रहते हैं| छब्बोसवें सत्ताइसवें श्लोक में उन्होंने कहा-्मुझे कोई नहों जानता; क्योंकि वे मोहग्रस्त हैं| किन्तु जो उस मोह से छूटने के लिये प्रयत्नशील हैं, वे (१) सम्पूर्ण ब्रह्म, ( २) सम्पूर्ण अध्यात्म , (३) सम्पूर्ण कर्म, (४) सम्पूर्ण अधिभूत, (५) सम्पूर्ण अधिदैव और ( ६ ) सम्पूर्ण अधियज्ञसहित मुझको जानते हैं अर्थात् इन सबका परिणाम मैं ( सद्गुरु ) हूँ| वहीं मुझे जानता है, ऐसा नहों कि कोई नहीं जानता| निष्कर्ष - इस सातवें अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि- अनन्य भाव से समर्पित होकर , मेरे आश्रित होकर जो योग में लगता है वह समग्र रूप से मुझे जानता है| मुझे जानने के लिये हजारों में कोई विरला ही प्रयत्न करता है और प्रयत्न करनेवालों में विरला ही कोई जानता है| वह मुझे पिण्डरूप में एकदेशीय नहीं वरन् सर्वत्र व्याप्त देखता है| आठ भेदोंवाली मेरी जड़ प्रकृति है और इसके अन्तराल में जीवरूप मेरी चेतन प्रकृति है| इन्हों दोनों के संयोग जगत खडा है| तेज और बल मेरे ही द्वारा हैं॰ राग और काम से रहित बल तथा धर्मानुकूल कामना भी मैं ही हूँ॰ जैसा कि सब कामनाएँ तो वर्जित हैं , लेकिन मेरी प्राप्ति के लिये कामना करढ ऐसी इच्छा का अभ्युदय होना मेरा ही प्रसाद है| केवल परमात्मा को पाने की कामना हीं ' धर्मानुकूल कामना' है| श्रीकृष्ण ने बताया कि॰ मैं तीनों गुणों से अतीत हूँ॰ परम का स्पर्श करके परमभाव में स्थित हूँ किन्तु भोगासक्त मूढ़ पुरुष सीधे मुझे न भजकर अन्य देवताओं की उपासना करते हैं , जबकि वहाँ देवता नाम का कोई है हीं नहों| पत्थर, पानी , पेड़ जिसको चाहते हैं, उसी में उनकी श्रद्धा को मैं ही पुष्ट करता हूँ उसको आ़ड़ में खडा होकर मैं ही फल देता हूँ क्योंकि न वहाँ कोई देवता है, न किसी देवता के पास कोई भोग ही है| लोग मुझे साधारण व्यक्ति समझकर नहीं भजते; क्योंकि मैं योग- प्रक्रिया द्वारा ढँका हुआ मुझमें वे पुरुष मुझमें से पूरा भी वे पूजना
१७६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ अनुष्ठान करते - करते योगमाया का आवरण पार करनेवाले ही मुझ शरीरधारी को भी अव्यक्त रूप में जानते हैं , अन्य स्थितियों में नहीं| मेरे भक्त चार प्रकार के हैं - अर्थार्थी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी| चिन्तन करते - करते अनेक जन्मों के अन्तिम जन्म में प्राप्तिवाला ज्ञानी मेरा हीं स्वरूप है अर्थात् अनेक जन्मों से चिन्तन करके उस भगवत्स्वरूप को प्राप्त किया जाता है| राग-द्वेष के मोह से आक्रान्त मनुष्य मुझे कदापि नहों जान सकते; किन्तु राग- द्वेष के मोह से रहित होकर जो नियतकर्म ( जिसे संक्षेप में आराधना कह सकते हैं ) का चिन्तन करते हुए जरा- मरण से छूटने के लिये प्रयत्नशील हैं, रूप से मुझे जान लेते हैं| वे सम्पूर्ण ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को , सम्पूर्ण अधिभूत को, सम्पूर्ण अधिदैव को, सम्पूर्ण कर्म को और सम्पूर्ण यज्ञ के सहित मुझे जानते हैं| वे मुझमें प्रवेश करते हैं और अन्तकाल में भी मुझको ही जानते हैं अर्थात् फिर कभी वे विस्मृत नहीं होते| इस अध्याय में परमात्मा को समग्र जानकारी का विवेचन है॰ अतः- ३४ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्यविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे ` समग्रबोधः नाम सप्तमोउध्यायः १७| | इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में समग्र जानकारो' नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण होता है| इति श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्गीतायाः यथार्थगीता भाष्ये ' समग्रबोधः नाम सप्तमोउध्यायः १७| | इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रीमद्भगवद्गीता' के भाष्य यथार्थ गीता' में जानकारी' नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण होता है| हरिः ३>ँ तत्सत् " 1 गीता वे पुरुष सम्पूर्ण समग्र
३ँँ श्री परमात्मने नमः || अथाष्टमोडध्यायः /१ सातवें अध्याय के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि पुण्यकर्म (नियत कर्म, आराधना ) को करनेवाले योगी सम्पूर्ण पापों से छूटकर उस व्याप्त ब्रह्म को जानते हैं अर्थात् कर्म कोई ऐसीं वस्तु है, जो व्याप्त ब्रह्म की जानकारीं दिलाता है| उस कर्म को करनेवाले व्याप्त ब्रह्म को, सम्पूर्ण कर्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण अधिदैव , और अधियज्ञसहित जानते हैं| अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो इन सबसे परिचय कराता है॰ वे अन्तकाल में भी ही जानते हैं| उनकी कभी नहों होती है| इस पर अर्जुन अध्याय के प्रारम्भ में ही उन्हीं शब्दों को हुए प्रश्न रखा- अर्जुन उवाच किं तद्बह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम| अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते११११| ह ! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? तथा अधिदैव किसे कहा जाता है? अधियज्ञः कथं कोउत्र देहेउस्मिन्मधुसूदन| प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोउसि नियतात्मभिः| १२१| हे मधुसूदन ! यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस शरीर में कैसे है? सिद्ध है कि अधियज्ञ अर्थात् यज्ञ का अधिष्ठाता कोई ऐसा पुरुष है, शरीर के आधारवाला है॰ समाहित चित्तवाले द्वारा अन्त समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं? इन सातों प्रश्नों का क्रम से निर्णय देने के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण बोले- अधिभूत मुझको मुझको जानकारी विस्मृत ने इस दुहराते पुरुषोत्तम अधिभूत जो मनुष्य पुरुषों
१७८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता श्रीभगवानुवाच अक्षरं बह्ा परमं स्वभावोषध्यात्ममुच्यते| भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः१ १३१| अक्षरं बह्म परमम् - जो अक्षय है, जिसका क्षय नहीं होता , वही परम ब्रह्म है॰ स्वभावः अध्यात्मम उच्यते - स्वयं में स्थिर भाव ही अध्यात्म अर्थात् आत्मा का आधिपत्य है| इससे पहले सभी माया के आधिपत्य में रहते हैं; किन्तु जब 'स्व - भाव अर्थात् स्वरूप में स्थिरभाव ( स्वयं में स्थिरभाव ) मिल जाता है तो आत्मा का ही आधिपत्य उसमें प्रवाहित हो जाता है॰ यहीं अध्यात्म है अध्यात्म को पराकाष्ठा है॰ भूतभावोद्भवकरः भूतों केवे भाव जो कुछ-्न-कुछ उद्भव करते हैं अर्थात् प्राणियों के वे संकल्प जो भले अथवा बुरे संस्कारों की संरचना करते हैं उनका विसर्ग अर्थात् विसर्जन, उनका मिट जाना ही कर्म की पराकाष्ठा है| यही सम्पूर्ण कर्म है , जिसके लिये योगेश्वर ने कहा- वह सम्पूर्ण कर्म को जानता है॰' वहाँ कर्म पूर्ण है , आगे आवश्यकता नहीं है ( नियत कर्म ) इस अवस्था में जबकि भूतों के वे भाव जो कुछ-्न-कुछ रचते हैं, भले अथवा बुरे संस्कार - संग्रह करते हैं , बनाते हैं , वे जब सर्वथा शान्त हो जायँ , यहों कर्म की सम्पूर्णता है| इसके आगे कर्म करने की आवश्यकता नहों रह जाती| अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो भूतों के सम्पूर्ण संकल्पों को, जिनसे कुछ-्न-कुछ संस्कार बनते हैं उनका शमन कर देती है॰ कर्म का अर्थ है ( आराधना ) चिन्तन, जो यज्ञ में है| अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्| अधियज्ञो उहमेवात्र देहे देहभृतां वर११४ | जब तक अक्षय भाव नहों मिलता , तब तक नष्ट होनेवाले सम्पूर्ण क्षर भाव अर्थात् भूतों के अधिष्ठान हैं| वहीं भूतों की उत्पत्ति के कारण हैं| पुरुषः च अधिदैवतम् ' प्रकृति से परे जो परम पुरुष है, वहीं अधिदैव अर्थात् सम्पूर्ण देवों ( दैवी सम्पद् ) का अधिष्ठाता है| दैवी सम्पद् उसी परमदेव में विलोन हो जाती है| देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस मनुष्य-्तन में मैं ही अधियज्ञ' हूँ अर्थात् यज्ञों का अधिष्ठाता हूँ| अतः इसी शरीर में, अव्यक्त स्वरूप में स्थित महापुरुष ही अधियज्ञ है| श्रीकृष्ण एक योगी थे| जो सम्पूर्ण अधिभूत
अष्म अध्याय १७९ यज्ञों का भोक्ता है , अन्त में यज्ञ उसमें प्रवेश पा जाते हैं| वहीं परमस्वरूप मिल जाता है| इस प्रकार अर्जुन के छः प्रश्नों का समाधान हुआ| अब अन्तिम प्रश्न कि अन्तकाल में कैसे आप जानने में आते हैं, जो कभी विस्मृत नहों होते? अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्| यः प्रयाति स याति नास्त्यत्र संशयः १५ | | योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं किजो पुरुष अन्तकाल में अर्थात् मन के निरोध और विलयकाल में मेरा ही स्मरण करते हुए शरीर के सम्बन्ध को छोड़ अलग हो जाता है, वह मद्भावम् - साक्षात् मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, संशय नहों है| शरीर का निधन शुद्ध अन्तकाल नहों है॰ मरने के बाद भी शरीरों का क्रम पीछे लगा रहता है॰ संचित संस्कारों को सतह के मिट जाने के साथ ही मन का निरोध हो जाता है| और वह मन भी जब विलीन हो जाता है तो वहीं पर अन्तकाल है, जिसके शरीर धारण नहों करना पडता| यह क्रियात्मक है| केवल कहने से, वार्त्ताक्रम से समझ में नहों आता| जब तक वस्त्रों की तरह शरीर का परिवर्तन हो रहा है, तब तक शरीरों का अन्त कहाँ हुआ? मन के निरोध और निरुद्ध मनके भी विलयकाल में जीते-्जी शरीर के सम्बन्धों का विच्छेद हो जाता है| यदि मरने के बाद ही यह स्थिति मिलती तो श्रीकृष्ण भी पूर्ण न होते| उन्होंने कहा कि अनेक जन्मों के अभ्यास से प्राप्तिवाला ज्ञानो साक्षात मेरा स्वरूप है| मैं वह हूँ और वह मुझमें है| लेशमात्र भी उसमें और अन्तर नहों है| यह जीते-जी प्राप्ति है| जब फिर कभी शरीर न मिले , वहीं शरीरों का अन्त है॰ यह तो वास्तविक शरीरान्त का चित्रण हुआ , जिसके पश्चात् जन्म नहों लेना पड़ता है| दूसरा शरीरान्त मृत्यु है जो लोक-प्रचलित है; किन्तु इस शरीरान्त के पश्चात् पुनः जन्म लेना पड़ता है- यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्| तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः१ १६१| कौन्तेय ! मृत्यु के समय मनुष्य जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है , उस- उस को ही प्राप्त होता है| तब तो बडा सस्ता सौदा है , मद्दावं इसमें बाद मुझमें
१८० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता आजीवन मौज करें और मरने लगें तो भगवान का स्मरण कर लेेंगे| किन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं - ऐसा होता नहों , सदा तद्भावभावितः - उस ही भाव का चिन्तन कर पाता है॰ जैसा जीवन भर किया है| वही विचार बरबस आ जाता है जिसका जीवन भर अभ्यास किया गया है, अन्यथा नहीं हो पाता| अतः- तस्मात्सर्वेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् १७| | इसलिये अर्जुन! तू हर समय मेरा स्मरण कर कर अर्पित मन और बुद्धि से युक्त होकर तू निःसन्देह मुझे हीं प्राप्त होगा| निरन्तर चिन्तन एक साथ कैसे सम्भव है? हो सकता है कि निरन्तर चिन्तन और युद्ध का यही स्वरूप हो कि कन्हेयालाल को' _ जय भगवान् की' कहते रहें और बाण चलाते रहें स्मरण का स्वरूप अगले श्लोक में स्पष्ट करते हुए योगेश्वर कहते हैं - अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्१८१| हे पार्थ! उस स्मरण के लिये योग के अभ्यास से युक्त हुआ ( मेरा चिन्तन और योग का अभ्यास पर्याय है) मेरे सिवाय ओर न जानेवाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करनेवाला परम प्रकाशस्वरूप दिव्यपुरुष अर्थात् परमात्मा को प्राप्त होता है| मान लोजिये कि यह पेन्सिल भगवान है, तो इसके सिवाय अन्य किसी वस्तु का स्मरण नहों आना चाहिये| इसके अगल-बगल आपको पुस्तक दिखायो पड़ती है या अन्य कुछ भो, तो आपका स्मरण खण्डित हो गया| स्मरण जब इतना कि इष्ट के अतिरिक्त वस्तु का स्मरण भो न हो, मन में तरंगें भो न आयें, तो स्मरण और युद्ध दोनों एक साथ कैसे होँगे? वस्तुतः जब आप चित्त को सब ओर से समेटकर अपने एक आराध्य के स्मरण होंगे तो उस समय मायिक प्रवृत्तियाँ काम-क्रोध, राग-द्वेष बाधा के रूप में सामने प्रकट ही हैं| आप स्मरण करेंगे; किन्तु वे आपके अन्दर उद्वेग पैदा करेंगी , आपका मन स्मरण से चलायमान करना चाहेंगी| उन बाह्य प्रवृत्तियों का पार पाना ही युद्ध है| निरन्तर चिन्तन के साथ सम्भव है| गीता का एक भी श्लोक बाह्य मारकाट का समर्थन नहों करता| चिन्तन किसका करें? इस पर कहते हैं- कालेषु और युद्ध मुझमें और युद्ध जय किन्तु पुरुषं दूसरी सूक्ष्म है दूसरी में प्रवृत्त ही युद्ध
अष्म अध्याय १८२ कविं पुराणमनुशासितार- मणोरणी यांसमनुस्मरेद्यः सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप- मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्१९१| उस युद्ध के साथ वह पुरुष सर्वज्ञ , अनादि , सबके नियन्ता , सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म , सबके धारण- पोषण करनेवाले अचिन्त्य (जब तक चित्त और चित्त की लहर है , तब तक वह दिखायी नहों देता| चित्त के निरोध और विलयकाल में ही जो विदित होता है) , नित्य प्रकाशस्वरूप और अविद्या से परे उस परमात्मा का स्मरण करता है| पीछे बताया- मेरा चिन्तन करता है, यहाँ कहते हैं- परमात्मा का॰ अतः उस परमात्मा के चिन्तन ( ध्यान) का माध्यम तत्त्वस्थित महापुरुष है| इसी क्रम में- प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या योगबलेन चैव| प्राणमावेश्य सम्यक स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् १०१| निरन्तर उस परमात्मा का स्मरण करता है वह भक्तियुक्त पुरुष प्रयाणकाले मन के विलीन अवस्थाकाल में योगबल से अर्थात् उसी नियत कर्म के आचरण द्वारा भृकुटीं के मध्य में प्राण को भली प्रकार स्थापित करके ( प्राण-् अपान को भली प्रकार सम करके , न अन्दर से उद्वैग पैदा हो न बाह्य संकल्प कोई लेनेवाला हो, सत्- रज- तम भली प्रकार शान्त हों , सुरत इष्ट में ही स्थित हो, उस काल में ) वह अचल मन अर्थात् स्थिर बुद्धिवाला पुरुष उस दिव्यपुरुष परमात्मा को प्राप्त होता है| सतत स्मरणीय है कि उसी एक परमात्मा कोी प्राप्ति का विधान योग है| उसके लिये नियत क्रिया का आचरण ही योगक्रिया है, जिसका सविस्तार वर्णन योगेश्वर ने चौथे छठें अध्याय में किया है| अभी उन्होंने कहा- ' निरन्तर मेरा ही स्मरण कर" कैसे करे? तो इसी योग- धारणा में स्थिर रहते हुए करना है| ऐसा करनेवाला दिव्यपुरुष को ही प्राप्त होता है , जो कभी विस्मृत नहीं होता| यहाँ इस प्रश्न का समाधान हुआ किन्तु युक्तो भ्रुवोर्मध्ये
१८२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता कि आप प्रयाणकाल में किस प्रकार जानने में आते हैं? पाने योग्य पद का चित्रण देखें , जो गीता में स्थान-स्थान पर आया है- यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो बह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्येढ़११११| वेदविद् अर्थात् अविदित तत्त्व को प्रत्यक्ष जाननेवाले लोग जिस परमपद को अक्षरम् - अक्षय कहते हैं , वीतराग महात्मा जिसमें प्रवेश के लिये यत्नशील रहते हैं , जिस परमपद को चाहनेवाले ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं ( ब्रह्मचर्य का अर्थ जननेन्द्रिय मात्र का निरोध नहों , बल्कि ' बह्म आचरति स बह्याचारी - बाह्य स्पर्शों को मन से त्यागकर ब्रह्म का निरन्तर चिन्तन- स्मरण ही ब्रह्मचर्य है,जो ब्रह्म का दर्शन करा उसी में स्थान दिला शान्त हो जाता है| इस आचरण से इन्द्रियन्संयम हीं नहों , बल्कि सकलेन्द्रिय-्संयम स्वतः हो जाता है| इस प्रकार जो ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं) , जो हृदय में संग्रह करने योग्य है , धारण करने योग्य है उस पद को मैं तेरे लिये कहूँगा| वह पद है क्या, कैसे पाया जाता है? इस पर योगेश्वर कहते हैं- सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॰ ११२१| सब इन्द्रियों के दरवाजों को रोककर अर्थात् वासनाओं से अलग रहकर मन को हृदय में स्थित करके ( ध्यान हृदय में ही धरा जाता है, बाहर नहीं| पूजा बाहर नहों होती ) , प्राण अर्थात् अन्तःकरण के व्यापार को मस्तिष्क में निरोधकर योग- धारणा में स्थित होकर ( योग को धारण किये रहना है, दूसरा तरीका नहों है)- ओमित्योकाक्षरं बह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्| १३१ | जो पुरुष ओम् इति - ओम् इतना ही, जो अक्षय ब्रह्म का परिचायक है , इसका जप तथा मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग कर जाता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है| श्रीकृष्ण
अष्म अध्याय १८३ एक योगेश्वर , परमतत्त्व में स्थित महापुरुष , सद्गुरु थे| योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि ओम् अक्षय ब्रह्म का परिचायक है, तू इसका जप कर और ध्यान मेरा करा प्राप्ति के हर महापुरुष का नाम वही होता है जिसे वह प्राप्त है, जिसमें वह विलय है इसलिये नाम ओम् बताया और रूप अपना| योगेश्वर ने कृष्ण ्कृष्ण जपने का निर्देश नहों दिया लेकिन कालान्तर में ने उनका भी नाम जपना आरम्भ कर दिया और अपनी श्रद्धा के अनुसार उसका फल भी पाते हैं; जैसा कि, मनुष्य को श्रद्धा जहाँ टिक जाती है वहाँ मैं ही उसको श्रद्धा को पुष्ट करता तथा मैं हीं फल का विधान भो करता हूँ भगवान शिव ने राम' शब्द के जपने पर बल दिया॰ रमन्ते योगिनो यस्मिन् स रामः रा और म के बीच में कबिरा रहा लुकाय ' रा और म इन दो अक्षरों के अन्तराल में कबीर अपने मन को रोकने में सक्षम हो गये| श्रीकृष्ण ओम् पर बल देते हैं| ओ अहं स ओम् अर्थात् वह सत्ता मेरे भीतर है, कहों बाहर न ढूँढ़ने लगे| यह ओम् भी उस परम सत्ता का परिचय देकर शान्त हो जाता है| वास्तव में उन प्रभु के अनन्त नाम हैं; किन्तु जप के लिये वहीं नाम सार्थक है जो छोटा हो , श्वास में ढल जाय और एक परमात्मा का ही बोध कराता हो| उससे भिन्न अनेक देवी- देवताओं को अविवेकपूर्ण कल्पना में उलझकर लक्ष्य से दृष्टि न हटा दें| पूज्य महाराज जी' कहा करते थे कि॰ " मेरा रूप देखें और श्रद्धानुसार कोई भी दो ्ढाई अक्षर का नाम ३ँ० राम , शिव में से कोई एक लें, उसका चिन्तन करें और उसी के अर्थस्वरूप इष्ट के स्वरूप का ध्यान करें ध्यान सद्गुरु का ही किया जाता है| आप राम , अथवा ' वीतराग विषयं वा चित्तम्| महात्माओं अथवा ' यथाभिमतध्यानाद्वा१ ' ( पातंजल योग॰ , १/३७ , ३९ अभिमत अर्थात् योग के अभिमत , अनुकूल किसी का भी स्वरूप पकड़ें , वे अनुभव में आपको मिलेंगे और आपके समकालीन किसी सद्गुरु की ओर बढ़ा देंगे , जिनके मार्गदर्शन से आप शनैः - शनैः के क्षेत्र से पार होते जायेंगे| मैं भी प्रारम्भ में एक देवता ( कृष्ण के विराट् रूप ) के चित्र का ध्यान करता थाः पूज्य महाराज जी के प्रवेश के साथ वह शान्त हो गया श्रीकृष्ण भावुकों कृष्ण वीतराग प्रकृति अनुभवी किन्तु
१८४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता प्रारम्भिक साधक नाम तो जपते हैं; महापुरुष के स्वरूप का ध्यान करने में हिचकते हैं| वे अपनी अर्जित मान्यताओं का पूर्वाग्रह छोड़ नहों पाते| वे किसी अन्य देवता का ध्यान करते हैं, जिसका योगेश्वर श्रीकृष्ण ने निषेध किया है| अतः पूर्ण समर्पण के साथ किसी महापुरुष को शरण लें| पुण्य - पुरुषार्थ सबल होते हो कुतर्कों का शमन और यथार्थ क्रिया में प्रवेश मिल जायेगा| योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार इस प्रकार ३ँ के जप और परमात्मस्वरूप सद्गुरु के स्वरूप का निरन्तर स्मरण करने से मन का निरोध और विलय हो जाता है और उसी क्षण शरीर के सम्बन्ध का त्याग हो जाता है| केवल मरने से शरीर पीछा नहीं छोड़ता| अनन्यचेताः सततं या मां स्मरति नित्यशः तस्याहं सुलभः नित्ययुक्तस्य योगिनः१ ११४१| "मेरे अतिरिक्त और कोई चित्त में है ही नहों - अन्य किसी का चिन्तन न करता हुआ अर्थात् अनन्य चित्त से स्थिर हुआ जो अनवरत मेरा स्मरण करता है उस नित्य युक्त योगी के लिये मैं सुलभ हूँ॰ आपके सुलभ होने से क्या मिलेगा? - मामुपेत्य दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः| ११५|| मुझे प्राप्त कर वे दुःखों के स्थानस्वरूप क्षणभंगुर को प्राप्त नहों होते , बल्कि परमसिद्धि को प्राप्त होते हैं अर्थात् मुझे प्राप्त होना अथवा परमसिद्धि को प्राप्त होना एक ही बात है| केवल भगवान ही ऐसे हैं , जिन्हें पाकर उस पुरुष का नहों होता| फिर को सीमा कहाँ तक है? आबह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनो उर्जुन| मामुपेत्य तु कौन्तेय विद्यते|११६| | अर्जुन ! ब्रह्मा से लेकर कोट- पतंगादि सभी लोक हैं जन्म लेने और मरने तथा पुनः - पुनः इसी क्रम में चलनेवाले हैं; कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होकर उस पुरुष का नहों होता धर्मग्रन्थों में लोक- लोकान्तरों को परिकल्पना ईश्वर - पथ को विभूतियों का बोध कराने के आन्तरिक अनुभव या रूपक मात्र हैं| अन्तरिक्ष में न तो किन्तु अनुभवी पार्थ मुझमें पुनर्जन्म पुनर्जन्म पुनर्जन्म पुनर्जन्म पुनर्जन्म पुनरावर्ती किन्तु = पुनर्जन्म
अष्म अध्याय १८५ कोई ऐसा गड्ढा है जहाँ कोड़़े काटते हों और न ऐसा महल जिसे स्वर्ग कहा जाता हो| दैवी सम्पद् पुरुष देवता और आसुरी सम्पद् से युक्त मनुष्य ही श्रीकृष्ण के ही सगे - सम्बन्धी कंस राक्षस और थे| देव , मानव, तिर्यक् योनियाँ ही विभिन्न लोक हैं॰ श्रीकृष्ण के अनुसार यह जोवात्मा मन और पाँचों इन्द्रियों को लेकर जन्म जन्मान्तर के संस्कारों के अनुरूप नया शरीर धारण कर लेता है| अमर कहे जानेवाले देवता भी मरणधर्मा हैं- क्षीणे मर्त्यलोकं विशन्ति इससे बड़ीं क्षति क्या होगी? वह देव-्तन ही किस काम का जिसमें संचित पुण्य भी समाप्त हो जायः देवलोक, कीट- पतंगादि लोक भोगलोक मात्र हैं| केवल मनुष्य ही कर्मों का रचयिता है, जिसके द्वारा वह उस परमधाम तक को प्राप्त कर सकता है , जहाँ से पुनरावर्तन नहों होता| यथार्थ कर्म का आचरण करके मनुष्य देवता बन जाय , ब्रह्मा की स्थिति प्राप्त कर लेः किन्तु वह से तब तक नहों बच सकता जब तक कि मन के निरोध और विलय के साथ परमात्मा का साक्षात्कार करके उसी परमभाव में स्थित न हो जाय| उदाहरणार्थ उपनिषदें भी इस सत्य का उद्घाटन करतीं हैं- यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येउस्य हृदि श्रिताः अथ मर्त्योउमृतो भवत्यत्र बह्म समश्नुते| | बृहदारण्यकोपनिषद् , ४/४/७; कठोपनिषद् , २/३/१४ ) जब हृदय में स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और यहीं, इसी संसार में, इसी मनुष्य- शरीर में परब्रह्म का भलीभाँति साक्षात् अनुभव कर लेता है| प्रश्न उठता है कि ॰क्या ब्रह्मा भी मरणधर्मा है? अध्याय तीन में तो योगेश्वर श्रोकृष्ण ने प्रजापति ब्रह्मा के प्रसंग में कहा कि प्राप्ति के पश्चात् बुद्धि मात्र यन्त्र है , उसके द्वारा परमात्मा ही व्यक्त होता है| ऐसे के द्वारा ही यज्ञ की संरचना हुई है और यहाँ कहते हैं कि ब्रह्मा की स्थिति प्राप्त करनेवाला भो पुनरावर्ती है| योगेश्वर श्रीकृष्ण कहना क्या चाहते हैं? वस्तुतः जिन महापुरुषों के द्वारा परमात्मा ही व्यक्त होता है, उन महापुरुषों को बुद्धि भी ब्रह्मा नहों है; लेकिन लोगों को उपदेश देने के कारण , कल्याण से युक्त असुर हैं| बाणासुर दैत्य पुण्ये पशुलोक , पुनर्जन्म महापुरुषों
१८६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता का सूत्रपात करने के कारण ब्रह्मा कहे जाते हैं| स्वयं में वे ब्रह्मा भी नहीं हैं| उनके पास अपनी बुद्धि रह हीं नहों जाती| किन्तु इसके पूर्व साधनाकाल में बुद्धि ही ब्रह्मा है- अहंकार सिव बुद्धि अज, मन ससि चित्त महान| रामचरितमानस , ६/१५क ) साधारण मनुष्य की बुद्धि ब्रह्मा नहों है| बुद्धि जब इष्ट में प्रवेश करने लगती है तभी से ब्रह्मा को रचना होने लगती है, जिसके चार सोपान मनोषियों ने कहे हैं| पोछे अध्याय तीन में बता आये हैं , स्मरण के देख सकते हैं- ब्रह्मविद्, ब्रह्मविद्वर, ब्रह्मविद्वरीयान्, ब्रह्मविद्वरिष्ठ| ब्रह्मविद् वह बुद्धि है, जो ब्रह्मविद्या से संयुक्त हो| ब्रह्मविद्वर वह है, जिसे ब्रह्मविद्या में श्रेष्ठता प्राप्त होे| ब्रह्मविद्वरीयान् वह बुद्धि है जिससे वह ब्रह्मविद्या में दक्ष ही नहों वरन् उसका नियन्त्रक, संचालक बन जाता है| ब्रह्मविद्वरिष्ठ बुद्धि का वह अन्तिम छोर है जिसमें इष्ट प्रवाहित है॰ यहाँ तक बुद्धि का अस्तित्व है; क्योंकि प्रवाहित होनेवाला इष्ट अभो कहों अलग है और ग्रहणकर्त्ता बुद्धि अलग है| अभी वह प्रकृति को सीमा में है| अब स्वयं प्रकाशस्वरूप में जब बुद्धि ( ब्रह्मा) रहती है, जागृत है तो सम्पूर्ण भूत ( चिन्तन का प्रवाह जागृत हैं और जब अविद्या में रहती है तो अचेत हैं॰ इसी को प्रकाश और अन्धकार , रात्रि और दिन कहकर सम्बोधित किया जाता है| देखें- ब्रह्मा अर्थात् ब्रह्मविद्वेत्ता की वह श्रेणी , जिसमें इष्ट प्रवाहित है , उसको प्राप्त सर्वोत्कृष्ट बुद्धि में भी विद्या ( जो स्वयं प्रकाशस्वरूप है , उसमें मिलाती का दिन और अविद्या को रात्रि , प्रकाश और अन्धकार का क्रम लगा रहता है, यहाँ तक साधक में माया कामयाब होती है| प्रकाशकाल में अचेत भूत सचेत हो जाते हैं, उन्हें लक्ष्य दिखायी पड़ने लगता है तथा बुद्धि के अन्तराल में अविद्या की रात्रि के प्रवेशकाल में सभी भूत अचेत हो जाते हैं॰ बुद्धि निश्चय नहों कर पाती| स्वरूप की ओर बढ़़ना बन्द हो जाता है| यही ब्रह्मा का दिन और यही ब्रह्मा की रात्रि है| दिन के प्रकाश में बुद्धि की सहस्रों प्रवृत्तियों में ईश्वरीय प्रकाश छा जाता है और अविद्या को रात्रि में इन्हीं सहस्रों परतों में अचेतावस्था का अन्धकार आ जाता है| शुभ और अशुभ, विद्या और अविद्या- इन दोनों प्रवृत्तियों के सर्वथा शान्त होने पर अर्थात् अचेत और सचेत , रात्रि में विलीन और दिन में उत्पन्न लिये पुनः
अष्म अध्याय १८७ दोनों प्रकार के भूतों ( संकल्प प्रवाह के मिट जाने पर उस अव्यक्त बुद्धि से भी अति परे शाश्वत अव्यक्त भाव मिलता है, जो फिर कभी नष्ट नहों होता| भूतों को अचेत और सचेत दोनों स्थितियों के मिटने पर ही वह सनातन भाव मिलता है| बुद्धि को उपर्युक्त चार अवस्थाओं के बादवाला पुरुष ही महापुरुष है| उसके अन्तराल में बुद्धि नहीं है, बुद्धि परमात्मा का यन्त्र-्जैसी हो गयी है किन्तु लोगों को वह उपदेश करता है , निश्चय से प्रेरणा देता है अतः उसमें बुद्धि प्रतीत होती है; किन्तु वह बुद्धि के स्तर से परे है| वह परम अव्यक्त भाव में स्थित है, उसका नहीं होना है; किन्तु इस अव्यक्त स्थिति से पूर्व जब तक उसके पास अपनी बुद्धि है , जब तक वह ब्रह्मा है वह पुनर्जन्म की परिधि में ही है| इन्हीं तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- सहस्रायुगपर्यन्तमहर्यद्बह्मणो रात्रिं युगसहस्रान्तां तेउहोरात्रविदो जनाः१११७१| जो हजार चतुर्युगों की ब्रह्मा की रात्रि और हजार चतुर्युगों के उसके दिन को साक्षात् जानते हैं, समय के तत्त्व को यथार्थ जानते हैं| प्रस्तुत श्लोक में दिन और रात विद्या और अविद्या के रूपक हैं| ब्रह्मविद्या से संयुक्त बुद्धि ब्रह्मा की प्रवेशिका तथा ब्रह्मविद्वरिष्ठ बुद्धि ब्रह्मा की पराकाष्ठा है| विद्या से संयुक्त बुद्धि ही ब्रह्मा का दिन है| जब विद्या कार्यरत होती है, उस समय योगी स्वरूप कोी ओर अग्रसर होता है, अन्तःकरण की सहस्रों प्रवृत्तियों में ईश्वरीय प्रकाश का संचार हो उठता है| इसी प्रकार अविद्या की रात्रि आने पर अन्तःकरण की सहस्रों प्रवृत्तियों में माया का द्वन्द्व प्रवाहित होता है॰ प्रकाश और अन्धकार कोी यहों तक सीमा है| पश्चात न तो अविद्या रह जाती है और न विद्या ही| वह परमतत्त्व परमात्मा विदित हो जाता है|जो इसे तत्त्व से भली प्रकार जानते हैं , वे योगीजन काल के तत्त्व को जाननेवाले हैं कि कब अविद्या की रात होती है, कब विद्या का दिन आता है काल का प्रभाव कहाँ तक है अथवा समय कहाँ तक पीछा करता है? प्रारम्भिक मनीषी अन्तःकरण को चित्त अथवा कभी-कभी केवल कहकर सम्बोधित करते थे| कालान्तर में अन्तःकरण का विभाजन पुनर्जन्म विढुः | वे पुरुष इसके मन,
१८८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता बुद्धि , चित्त और अहंकार को चार प्रमुख वृत्तियों में किया गया, वैसे अन्तःकरण की प्रवृत्तियाँ अनन्त हैं| बुद्धि के अन्तराल में हीं अविद्या को रात्रि होती है और उसी बुद्धि में विद्या का दिन भी होता है| यही ब्रह्मा की रात्रि और दिन है| जगत्रूपी रात्रि में सभी अचेत पडे़े हैं| प्रकृति में विचरण करती हुई उनको बुद्धि उस प्रकाशस्वरूप को नहों देख पाती; किन्तु योग का आचरण करनेवाले योगी इससे जग जाते हैं, वे स्वरूप की ओर बढ़ते हैं, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है- कबहुँ दिवस महँ निबिड तम , कबहुँक प्रगट पतंग| उपजइ ज्ञान जिमि, पाइ कुसंग सुसंगा | ( रामचरितमानस , ४/१५ ख ) विद्या बुद्धि कुसंग पाकर अविद्या में परिणत हो जाती है , पुनः सुसंग से विद्या का संचार उसी बुद्धि में हो जाता है| यह उतार - चढ़ाव पूर्तिपर्यन्त लगा रहता है| पूर्ति के पश्चात् न बुद्धि है न ब्रह्मा, न रात रहती है न दिनः यही ब्रह्मा के दिन-रात के रूपक हैं॰ न हजारों साल की लम्बी रात होतीं है, न हजारों चतुर्युग का दिन ही होता है और न कहीं कोई चार मुँहवाला ब्रह्मा ही है| बुद्धि को उपर्युक्त चार क्रमिक अवस्थाएँ ही ब्रह्मा के चार मुख और अन्तःकरण कोी चार प्रमुख प्रवृत्तियाँ ही उसके चतुर्युग हैं॰ रात और दिन इन्हों प्रवृत्तियों में होते हैं| जो पुरुष इसके भेद को तत्त्व से जानते हैं, वे योगोजन काल के भेद को जानते हैं कि काल कहाँ तक पीछा करता है और कौन पुरुष काल से भी अतीत हो जाता है| रात्रि और दिन, अविद्या और विद्या में होनेवाले कार्य को योगेश्वर स्पष्ट करते हैं - अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे| रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञ्ज्ञके १८|| ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अर्थात् विद्या ( दैवीं सम्पद् ) के प्रवेशकाल में सम्पूर्ण प्राणी अव्यक्त जागृत हो जाते हैं और रात्रि के प्रवेशकाल में उसी अव्यक्त, अदृश्य बुद्धि में जागृति के सूक्ष्म तत्त्व अचेत हो जाते हैं| वे प्राणी अविद्या की रात्रि में स्वरूप को स्पष्ट देख नहों पाते; उनका अस्तित्व रहता है| जागृत होने और अचेत होने का माध्यम यह बुद्धि है, जो सबमें अव्यक्त रहती है , दृष्टिगोचर नहीं है| बिनसइ से संयुक्त श्रीकृष्ण बुद्धि में किन्तु
अष्म अध्याय ८९ भूतग्रामः स भूत्वा भूत्वा प्रलीयते| रात्र्यागमेउवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे| ११९१ | हे पार्थ सब प्राणी इस प्रकार जागृत होकर प्रकृति से विवश होकर अविद्यारूपी रात्रि के आने पर अचेत हो जाते हैं॰ वे नहों देख पाते कि उनका लक्ष्य क्या है? दिन के प्रवेशकाल में वे पुनः जागृत हो जाते हैं| जब तक बुद्धि है तब तक इसके अन्तराल में विद्या और अविद्या का क्रम चलता रहता है| तब तक वह साधक ही है , महापुरुष नहीं| परस्तस्मात्तु भावोउन्योउव्यक्तोउव्यक्तात्सनातनः यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यातित २०|| एक तो ब्रह्मा अर्थात् बुद्धि अव्यक्त है, इन्द्रियों से दिखायो नहों पड़ती और इससे भी परे सनातन अव्यक्त भाव है,जो भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता अर्थात् विद्या में सचेत और अविद्या में अचेत , दिन में उत्पन्न और रात्रि में विलीन भावोंवाले अव्यक्त ब्रह्मा के भी मिट जाने पर वह सनातन अव्यक्त भाव मिलता है, जो नष्ट नहीं होता| बुद्धि में होनेवाले उक्त दोनों उतार - चढ़ाव जब मिट जाते हैं तब सनातन अव्यक्त भाव मिलता है , जो मेरा परमधाम है| जब सनातन अव्यक्त भाव प्राप्त हो गया तो बुद्धि भी उसी भाव में रंग जाती है, उसी भाव को धारण कर लेती है| इसलिये वह बुद्धि स्वयं तो मिट जाती है और उसके स्थान पर सनातन अव्यक्त भाव हीं शेष बचता है| अव्यक्तोडक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्| यं प्राप्य निवर्तन्ते तद्धाम परमं ममत१२१ | उस सनातन अव्यक्त भाव को अक्षर अर्थात् अविनाशी कहा जाता है| उसी को परमगति कहते हैं| वही मेरा परमधाम है, जिसे प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहों आते, उनका नहों होता| इस सनातन अव्यक्त भाव की प्राप्ति का विधान बताते हैं- पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया| यस्यान्तःस्थानि येन सर्वमिदं ततम्| २२ | पार्थ ! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सम्पूर्ण जिससे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, सनातन अव्यक्त भाववाला वह परमपुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त एवायं पुनर्जन्म भूतानि भूत हैं ,
१९० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता होने योग्य है| अनन्य भक्ति का तात्पर्य है कि परमात्मा सिवाय अन्य किसी कास्मरण न करते हुए उनसे जुड़ जाय| अनन्य भाव से लगनेवाले पुरुष भी कब तक की सीमा में हैं और कब वे का अतिक्रमण कर जाते हैं? इस पर योगेश्वर कहते हैं यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः| प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभत २३१| हे अर्जुन ! जिस काल में शरीर त्यागकर योगीजन पुनर्जन्म को नहीं पाते और जिस काल में शरीर त्यागने पर पाते हैं, मैं अब उस काल का वर्णन करता हूँ अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्| तत्र प्रयाता गच्छन्ति बह्मा बह्मविदो जनाः १२४१| शरीर सम्बन्ध का त्याग करते समय जिनके समक्ष ज्योतिर्मय अग्नि जल रही हो , दिन का प्रकाश फैला हो , सूर्य चमक रहा हो , शुक्लपक्ष का चन्द्र रहा हो, उत्तरायण का निरभ्र आकाश हो , उस काल में प्रयाण करनेवाले ब्रह्मवेत्ता योगीजन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं| अग्नि ब्रह्मतेज का प्रतीक है॰ दिन विद्या का प्रकाश है शुक्लपक्ष निर्मलता का द्योतक है| विवेक , वैराग्य , शम , दम , तेज और प्रज्ञा ये षडैश्वर्य ही षण्मास हैं| ऊर्ध्वरेता स्थिति ही उत्तरायण है॰ प्रकृति से सर्वथा परे इस अवस्था में जानेवाले ब्रह्मवेत्ता योगीजन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, उनका पुनर्जन्म नहों होता; किन्तु अनन्य चित्त से लगे हुए योगीजन यदि इस आलोक को प्राप्त नहों कर पाये , जिनकी साधना अभी पूर्ण नहों है, उनका क्या होता है? इस पर कहते हैं- धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्| तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योंगी प्राप्ट निवर्तते||२५ | जिसके प्रयाणकाल में फैल रहा हो, योगाग्नि हो ( अग्नि यज्ञ- प्रक्रिया में पायी जानेवाली अग्नि का स्वरूप है ) धुएँ से आच्छादित हो , अविद्या की रात्रि हो, अँधेरा हो, कृष्णपक्ष का चन्द्रमा क्षीण हो रहा हो, कालिमा का बाहुल्य हो, षड्विकारों ( काम , क्रोध, लोभ, मोह , मद और मत्सर ) पुनर्जन्म पुनर्जन्म गये हुए पुनर्जन्म और सुन्दर बढ धुआँ किन्तु
अष्म अध्याय २९२ दक्षिणायन अर्थात् बहिर्मुखी हो (जो परमात्मा के प्रवेश से अभी बाहर है॰ ) उस योगी को पुनः जन्म लेना पड़ता है| तो क्या शरीर के साथ उस योगी को साधना नष्ट हो जाती है? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते| एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः११२६१| उपर्युक्त शुक्ल और कृष्ण दोनों प्रकार को गतियाँ जगत् में शाश्वत हैं अर्थात् साधन का कभी विनाश नहों होता| एक ( शुक्ल) अवस्था में प्रयाण करनेवाला पीछे न आनेवाली परमगति को प्राप्त होता है और अवस्था में, जिसमें क्षीण प्रकाश तथा अभी कालिमा है ऐसी अवस्था को गया हुआ पीछे लौटता है , जन्म लेता है| जब तक पूर्ण प्रकाश नहों मिलता , तब तक उसे भजन करना है| प्रश्न पूर्ण हुआ| अब इसके लिये साधन पर पुनः बल देते हैं - नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन| तस्मात्सर्वेषु योगयुक्तो भवार्जुनतत२७१| हे पार्थ! इस प्रकार इन मार्गों को जानकर कोई भी योगी मोहित नहों होता| वह जानता है कि पूर्ण प्रकाश पा लेने पर ब्रह्म को प्राप्त होगा और क्षीण प्रकाश रहने पर भी पुनर्जन्म में साधन का नाश नहों होता| दोनों गतियाँ शाश्वत हैं| अतः अर्जुन! तू सब काल में योग से युक्त हो अर्थात् निरन्तर साधन करा बेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्| अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् २८१| साक्षात्कारसहित जानकर ( मानकर नहों ) योगी वेद, यज्ञ, तप और दान के पुण्यफलों का निःसन्देह अतिक्रमण कर जाता है और सनातन परमपद को प्राप्त होता है| अविदित परमात्मा की साक्षात् जानकारीं का नाम वेद है| वह अविदित तत्त्व जब विदित हो गया तो अब कौन किसे जाने? अतः होने के पश्चात् वेदों से भी प्रयोजन समाप्त हो जाता हैः क्योंकि जाननेवाला भिन्न नहों है॰ यज्ञ अर्थात् आराधना की नियत क्रिया आवश्यक से युक्त दूसरी कालेषु इसको विदित
१९२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता थी; जब वह तत्त्व विदित हो गया, तो किसके लिये भजन करे? मनसहित इन्द्रियों को लक्ष्य के अनुरूप तपाना तप है| लक्ष्य प्राप्त होने पर किसके लिये तप करे? मन, वचन और कर्म से सर्वतोभावेन समर्पण का नाम दान है॰ इन सबका पुण्यफल है परमात्मा की प्राप्ति| फल भी अब विलग नहीं है अतः इन सबकी अब आवश्यकता ही न रही| वह योगी यज्ञ, तप दान इत्यादि के फल को भी पार कर जाता है| वह परमपद को प्राप्त होता है| निष्कर्ष - इस अध्याय में पाँच प्रमुख बिन्दुओं पर विचार किया गया जिनमें सर्वप्रथम अध्याय सात के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा बीजारोपित प्रश्नों को स्पष्ट को जिज्ञासा से इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने सात प्रश्न किये कि॰ भगवन् ! जिसे आपने कहा, वह ब्रह्म क्या है? वह अध्यात्म क्या है? वह सम्पूर्ण कर्म क्या है? अधिदैव , अधिभूत और अधियज्ञ क्या हैं और अन्तकाल में आप किस प्रकार जानने में आते हैं कि कभी विस्मृत नहीं होतेः योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि जिसका विनाश नहों होता , वहीं परब्रह्म है॰ स्वयं को उपलब्धिवाला परमभाव हीो अध्यात्म है॰ जिससे जीव माया के आधिपत्य से निकलकर आत्मा के आधिपत्य में हो जाता है , वही अध्यात्म है और भूतों के वे भाव जो शुभ अथवा अशुभ संस्कारों को उत्पन्न करते हैं उन भावों का रुक जाना, विसर्गः मिट जाना ही कर्म की सम्पूर्णता है| इसके आगे कर्म करने की आवश्यकता नहीों रह जाती| अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है जो संस्कारों के उद्गम को ही मिटा देता है| इसी प्रकार क्षरभाव अधिभूत हैं अर्थात् नष्ट होनेवाले ही भूतों को उत्पन्न करने में माध्यम हैं| वे ही भूतों के अधिष्ठाता हैं| परमपुरुष ही अधिदैव है| उसमें दैवीं सम्पद् विलीन होती है| इस शरीर में अधियज्ञ मैं ही हूँ अर्थात् जिसमें यज्ञ विलय होते हैं वह मैं हूँ, यज्ञ का अधिष्ठाता हूँ| वह मेरे स्वरूप को ही प्राप्त होता है अर्थात् श्रोकृष्ण एक योगी थे| अधियज्ञ कोई ऐसा पुरुष है जो इस शरीर में रहता है , बाहर नहों| अन्तिम प्रश्न कि अन्त समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं? उन्होंने बताया कि॰जो मेरा निरन्तर स्मरण करते हैं, किन्तु समझाने
अष्म अध्याय १९३ मेरे सिवाय किसीं दूसरे विषय- वस्तु का चिन्तन नहीं आने देते और ऐसा करते हुए शरीर का सम्बन्ध त्याग देते हैं, वे मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होते हैं, जिसे अन्त में भी वहीं प्राप्त रहता है शरीर को मृत्यु के साथ यह उपलब्धि होती हो ऐसी बात नहों है| मरने पर ही मिलता तो श्रीकृष्ण पूर्ण न होते , अनेक जन्मों में चलकर पानेवाला ज्ञानी उनका स्वरूप न होता| मन का सर्वथा निरोध और मन का भी विलय ही अन्तकाल है जहाँ फिर शरीरों को उत्पत्ति का माध्यम शान्त हो जाता है॰ उस समय वह परमभाव में प्रवेश पा जाता है उसका नहों होता| इस प्राप्ति के लिये उन्होंने स्मरण का विधान बताया- अर्जुन निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध करा दोनों एक साथ कैसे होगें? कदाचित् ऐसा हो कि जय गोपाल, हे कृष्ण कहते रहें, लाठी भी चलाते रहें| स्मरण का स्वरूप स्पष्ट किया कि योग- धारणा में स्थिर मेरे सिवाय अन्य किसी भी वस्तु का स्मरण न करते हुए निरन्तर स्मरण कर| जब स्मरण इतना सूक्ष्म है तो युद्ध कौन करेगा? मान लोजिये, यह पुस्तक भगवान है, तो इसके अगल- बगल की वस्तु, सामने बैठे हुए लोग या अन्य देखी-सुनी कोई वस्तु संकल्प में भी न आये , दिखायो न पडे़े| यदि दिखायी पडती है तो स्मरण नहों है| ऐसे स्मरण कैसा? वस्तुतः जब आप इस प्रकार निरन्तर स्मरण में प्रवृत्त होंगे , तो उसी क्षण युद्ध का सहीं स्वरूप खडा होता है| उस समय मायिक प्रवृत्तियाँ बाधा के रूप में प्रत्यक्ष ही हैं| काम , क्रोध , राग, द्वेष दुर्जय शत्रु हैं| ये शत्रु स्मरण करने नहों देंगे| इनसे पार पाना ही युद्ध है| इन शत्रुओं के मिट जाने पर ही व्यक्ति परमगति को प्राप्त होता है| इस परमगति को पाने के लिये अर्जुन! तू जप तो ओम्' का और ध्यान मेरा कर अर्थात् श्रीकृष्ण एक योगी थे| नाम और रूप आराधना की कुंजी है| योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस प्रश्न को भी लिया कि पुनर्जन्म क्या है? उसमें कौन-कौन आते हैं? उन्होंने बताया कि ब्रह्मा से लेकर यावन्मात्र जगत् पुनरावर्ती है और इन सबके समाप्त होने पर भी मेरा परम अव्यक्त भाव तथा उसमें स्थिति समाप्त नहों होती| निरुद्ध पुनर्जन्म रहते हुए, में युद्ध
१९४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता इस योग में प्रविष्ट पुरुष को दो गतियाँ हैं॰ जो पूर्ण प्रकाश को प्राप्त षडैश्वर्यसम्पन्न ऊर्ध्वरेता है, जिसमें लेशमात्र भी कमी नहीं है, वह परमगति को प्राप्त होता है| यदि उस योगकर्त्ता में लेशमात्र भी कमी है , कृष्णपक्ष-सी कालिमा का संचार है, ऐसीं अवस्था में शरीर का समय समाप्त होनेवाले योगी को जन्म लेना पड़ता है| वह सामान्य जीव की तरह जन्म-्मरण के चक्कर में नहों फँसता बल्कि जन्म लेकर उससे आगे को शेष साधना को पूरा करता है| इस प्रकार आगे के जन्म में उसी क्रिया से चलकर वह भी वहों पहुँच जाता है जिसका नाम परमधाम है| पहले भी श्रीकृष्ण कह आये हैं कि इसका थोड़ा भी साधन जन्म-्मरण के महान् भय से उद्धार कराके हीं छोड़ता है| दोनों रास्ते शाश्वत हैं, अमिट हैं - इस बात को समझकर कोई भी पुरुष योग से चलायमान नहों होता| अर्जुन ! तू योगी बन| योगी वेद , तप, यज्ञ और दान के भी पुण्यफलों का उल्लंघन कर जाता है, परमगति को प्राप्त होता है| इस अध्याय में स्थान-स्थान पर परमगति का चित्रण किया गया है जिसे अव्यक्त , अक्षय और अक्षर कहकर सम्बोधित किया गया , जिसका कभी क्षय अथवा विनाश नहों होता| अतः- ३० तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु बह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्बादे ' अक्षरब्रह्मयोगो ' नामाष्टमो उध्यायः११८ १| इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्वाद में अक्षर- ब्रह्मयोग नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण होता है| इत श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्गीतायाः यथार्थगीता ' भाष्ये अक्षरबह्मयोगो ' नामाष्टमो उध्यायः /१८ || इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रोमद्भगवद्गीता' के भाष्य यथार्थ गीता में अक्षर- ब्रह्मयोग नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण होता है| १ | हरिः ३४ँ तत्सत् |१
३ँँ श्री परमात्मने नमः /| ढ़! अथ नवमोडध्यायः | अध्याय छः तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग का क्रमबद्ध विश्लेषण जिसका शुद्ध अर्थ है यज्ञ की प्रक्रिया| यज्ञ उस परम में प्रवेश दिला देनेवाली आराधना की विधि-विशेष का चित्रण है, जिसमें चराचर जगत् हवन- सामग्री के रूप में है| मन के निरोध और निरुद्ध मन के भी विलयकाल में वह अमृत-्तत्त्व विदित हो जाता है| पूर्तिकाल में यज्ञ जिसकी सृष्टि करता है , उसको पान करनेवाला ज्ञानी है और वह सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाता है| उस मिलन का नाम हीं योग है| उस यज्ञ को कार्यरूप देना कर्म कहलाता है| सातवें अध्याय में उन्होंने बताया कि इस कर्म को करनेवाले व्याप्त ब्रह्म, सम्पूर्ण कर्म , सम्पूर्ण अध्यात्म , सम्पूर्ण अधिदैव , अधिभूत और अधियज्ञसहित मुझको जानते हैं| आठवें अध्याय में उन्होंने कहा कि यही परमगति है, यही परमधाम है॰ प्रस्तुत अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं चर्चा को कि योगयुक्त पुरुष का ऐश्वर्य कैसा है? सबमें व्याप्त रहने पर भी वह कैसे निर्लेप है? करते हुए भी वह कैसे अकर्त्ता है? उस पुरुष के स्वभाव एवं प्रभाव पर प्रकाश डाला, योग को आचरण में ढालने पर आनेवाले देवतादिक विघ्नों से सतर्क किया और उस पुरुष की शरण होने पर बल दिया| श्रीभगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्टानसूयवे| ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेउशुभात् १११ | योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! असूया ( डाह, ईर्ष्या) रहित तेरे लिये मैं इस परमगोपनीय ज्ञान को विज्ञानसहित कहूँगा अर्थात् प्राप्ति के पश्चात् महापुरुष को रहनी के साथ कहूँगा कि कैसे वह महापुरुष सर्वत्र एक किया ,
१९६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता साथ करता है, कैसे वह जागृति प्रदान करता है, रथी बनकर आत्मा के साथ कैसे सदैव रहता है? ' यत् ज्ञात्वा जिसे साक्षात् जानकर तू दुःखरूपी संसार से मुक्त हो जायेगा| वह ज्ञान कैसा है? इस पर कहते हैं- राजविद्या राजगुहृयं पवित्रमिदमुत्तमम्| प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् २१| विज्ञान से संयुक्त यह ज्ञान सभी विद्याओं का राजा है| विद्या का भाषा - ज्ञान अथवा शिक्षा नहीं है॰ ' विद्या हि का बह्मगति प्रदाया| सा विद्या या विमुक्तये१ ' विद्या उसे कहते हैं कि जिसके पास आये , उसे उठाकर ब्रह्म-पथ पर चलाते हुए मोक्ष प्रदान कर दे|यदि रास्ते में ऋद्धियों सिद्धियों अथवा प्रकृति में कहों उलझ गया तो सिद्ध है कि अविद्या सफल हो गयी| वह विद्या नहों है| यह राजविद्या ऐसी है, जो निश्चित कल्याण करनेवाली है| यह सभी गोपनीयों का राजा है| अविद्या और विद्या के अवगुण्ठन का अनावरण होने पर योगयुक्तता के पश्चात् ही मिलन होता है| यह अति पवित्र, उत्तम और प्रत्यक्ष फलवाला है॰ इधर करो , उधर लो' - ऐसा प्रत्यक्ष फलवाला है| यह अन्धविश्वास नहों है कि इस जन्म में साधन करो, फल कभी दूसरे जन्म में मिलेगा| यह परमधर्म परमात्मा से संयुक्त है| विज्ञानसहित यह ज्ञान करने में सरल और अविनाशी है॰ अध्याय दो में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ! इस योग में बीज का नाश नहों होता| इसका थोड़ा भी साधन जन्म-्मरण के महान् भय से उद्धार कर देता है| छठें अध्याय में अर्जुन ने पूछा- भगवन शिथिल प्रयत्नवाला साधक नष्ट - भ्रष्ट तो नहों हो जाता? श्रीकृष्ण ने बताया - अर्जुन ! पहले तो कर्म समझना आवश्यक है और समझने के बाद थोड़ा भी साधन पार लग गया तो उसका किसी जन्म में कभी विनाश नहों होता , बल्कि उस थोड़े से अभ्यास के प्रभाव से हर जन्म में वहीं करता है| अनेक जन्मों के परिणाम में वहों पहुँच जाता है, जिसका परमगति अर्थात् परमात्मा है| उसी को योगेश्वर यहाँ भी कहते हैं कि यह साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है; परन्तु इसके लिये श्रद्धा नितान्त आवश्यक है| कर्म अर्थ इससे श्रीकृष्ण नाम
नवम अध्याय ९७ अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप| अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनित ३१| परंतप अर्जुन! इस धर्म में ( जिसका थोड़ा भी साधन करने पर विनाश नहों होता ) श्रद्धारहित पुरुष ( एक इष्ट में मन को केन्द्रित न रखनेवाला पुरुष ) मुझे न प्राप्त होकर संसार- क्षेत्र में भ्रमण करता हीं रहता है| अतः श्रद्वा अनिवार्य है॰ क्या आप संसार से परे हैं? इस पर कहते हैं- मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना| मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः११४१ | मुझ अव्यक्त स्वरूप से यह सब जगत् व्याप्त है अर्थात् मैं जिस स्वरूप में स्थित हूँ॰ वह सर्वत्र व्याप्त है॰ सभी प्राणी मुझमें स्थान पाये हैं किन्तु मैं उनमें स्थित नहों हूँ क्योंकि मैं अव्यक्त स्वरूप में स्थित हूँ॰ महापुरुष जिस अव्यक्त स्वरूप में स्थित हैं , वहीं से ( शरीर छोड़कर उसी अव्यक्त स्तर से ही ) बात करते हैं| इसी क्रम में आगे कहते हैं - नच मत्स्थानि पश्य मे योगमैश्वरम्| भूतभृन्न च ममात्मा भूतभावनः१५|| वस्तुतः सब भूत भी स्थित नहीं हैं क्योंकि वे मरणधर्मा हैं प्रकृति के आश्रित हैं; किन्तु मेरी योगमाया के ऐश्वर्य को देख कि जीवधारियों को उत्पन्न और पोषण करनेवाला मेरा आत्मा भूतों में स्थित नहों है॰ मैं आत्मस्वरूप हूँ , इसलिये मैं उन भूतों में स्थित नहीं हूँ| यही योग का प्रभाव है| इसको स्पष्ट करने के लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण दृष्टान्त देते हैं- यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्| तथा सर्वाणि मत्स्थानीत्युपधारय| १६४ | जैसे आकाश से ही उत्पन्न होनेवाला महान् वायु आकाश में सदैव स्थित है किन्तु उसे मलिन नहों कर पाता, ठीक वैसे ही सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं , ऐसा जान| ठीक इसी प्रकार मैं आकाशवत् निर्लेप हूँ|वे मुझे मलिन नहों कर पाते| प्रश्न पूरा हुआ| यहीं योग का प्रभाव है| अब योगी क्या करता है? इस पर कहते हैं- भूतानि भूतस्थो मुझमें भूतानि
१९८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता सर्वभूतानि कौन्तेय यान्ति मामिकाम्| पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्| १७१ | अर्जुन ! कल्प के विलयकाल में सब मेरी प्रकृति अर्थात् मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं और कल्प के आदि में मैं उनको बार-बार ' विसृजामि विशेष रूप से सृजन करता हूँ॰ थे तो वे पहले से किन्तु विकृत थे, उन्हों को रचता हूँ, सजाता हूँ॰ जो अचेत हैं उन्हें जागृत करता हूँ॰ कल्प के लिये प्रेरित करता हू कल्प का तात्पर्य है उत्थानोन्मुख परिवर्तन| आसुरी सम्पद् से निकलकर जैसे-जैसे पुरुष दैवी सम्पद् में प्रवेश पाता है, यहों से कल्प का आरम्भ है और जब ईश्वरभाव को प्राप्त हो जाता है , वहों कल्प का क्षय है| अपना कर्म पूरा करके कल्प भी विलीन हो जाता है| भजन का आरम्भ कल्प का आदि है और भजन की पराकाष्ठा, जहाँ लक्ष्य विदित होता है, कल्प का अन्त है| जब यह क्षर आत्मा योनियों के कारणभूत राग- द्वेषादि से मुक्ति पाकर अपने शाश्वत स्वरूप में स्थिर हो जाय , इसी को श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह मेरी प्रकृति को प्राप्त होता है| जो महापुरुष प्रकृति का विलय करके स्वरूप में प्रवेश पा गया उसको प्रकृति कैसी? क्या उसमें प्रकृति शेष ही है? नहों , अध्याय ३३३ में योगेश्वर श्रीकृष्ण कह चुके हैं कि सभी प्राणी अपनी प्रकृति को प्राप्त होते हैं॰ जैसा उनके ऊपर प्रकृति के गुणों का दबाव है, वैसा करते हैं और ' ज्ञानवानपि प्रत्यक्ष दर्शन के साथ जानकारीवाला ज्ञानी भी अपनो प्रकृति के सदृश चेष्टा करता है| वह पीछेवालों के कल्याण के लिये करता है| पूर्णज्ञानी तत्त्वस्थित महापुरुष को रहनी ही उसको प्रकृति है| वह अपने इसी स्वभाव में बरतता है| कल्प के क्षय में लोग महापुरुष की इसी रहनी को प्राप्त होते हैं| महापुरुष के इसी कृतित्व पर पुनः प्रकाश डालते हैं- स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः| भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्१८१| अपनो प्रकृति अर्थात् महापुरुष को रहनी स्वीकार करके ' प्रकृतेर्वशात् - अपने अपने स्वभाव में स्थित प्रकृति के गुणों से परवश हुए इस सम्पूर्ण प्रकृतिं कल्पक्षये प्रकृतिं
नवम अध्याय ९९ भूतसमुदाय को मैं बारम्बार विसृजामि विशेष सृजनः विशेष रूप से सजाता हूँ॰ उन्हें अपने स्वरूप की ओर बढ़ने के लिये प्रेरित करता हूँ तब तो आप इस कर्म से बँधे हैं? - न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय| उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसुढ़१९१| अध्याय ४/९ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि महापुरुष को कार्य- प्रणाली अलौकिक है अध्याय ९४४ में बताया - मैं अव्यक्त रूप से करता हूँ यहाँ भी वही कहते हैं - धनंजय ! जिन कर्मों को मैं अदृश्य रूप से करता हूँ, उनमें मेरी आसक्ति नहों है| उदासीन के सदृश स्थित रहनेवाले मुझ परमात्म- स्वरूप को वे कर्म नहों बाँधते; क्योंकि कर्म के परिणाम में जो लक्ष्य मिलता है उसमें मैं स्थित हूँ , इसलिये उन्हें करने के लिये मैं विवश नहों हूँ| यह तो स्वभाव के साथ जुड़ी प्रकृति के कार्यों का प्रश्न था, महापुरुष को रहनी थी , उनकी रचना थी| अब मेरे अध्यास से जो माया रचती है , वह क्या है? वह भी एक कल्प है- मयाध्यक्षेण सचराचरम्| हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ११०१ | अर्जुन ! मेरी अध्यक्षता में अर्थात् मेरी उपस्थिति में सर्वत्र व्याप्त मेरे अध्यास से यह माया (त्रिगुणमयो प्रकृति, अष्टधा मूल प्रकृति और चेतन दोनों ) चराचर सहित जगत् को रचतीं है , कल्प है और इसी कारण से यह संसार आवागमन के चक्र रहता है| प्रकृति का यह क्षुद्र कल्प जिसमें काल का परिवर्तन है, मेरे अध्यास से प्रकृति ही करती है, मैं नहीं करताः किन्तु सातवें श्लोक में निर्दिष्ट कल्प आराधना का संचार एवं पूर्तिपर्यन्त मार्गदर्शनवाला कल्प महापुरुष स्वयं करते हैं॰ एक स्थान पर वे स्वयं कर्त्ता हैं , जहाँ वे विशेष रूप से सृजन करते हैं| यहाँ कर्त्ता प्रकृति है, जो केवल मेरे अध्यास से यह क्षणिक परिवर्तन करती है; जिसमें शरीरों का परिवर्तन , काल- परिवर्तन, युग-परिवर्तन इत्यादि आते हैं॰ ऐसा व्याप्त प्रभाव होने पर भी मुझे नहीं जानते| तथा- सूयते = प्रकृतिः जो क्षुद्र में घूमता मूढ़लोग
श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता अवजानन्ति मां मूढा तनुमाश्रितम्| परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्१११| सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्वररूप मेरे परमभाव को न जाननेवाले मूढ़लोग मुझे मनुष्य- शरीर के आधारवाला और तुच्छ समझते हैं| सम्पूर्ण प्राणियों के ईश्वरों का भी जो महान् ईश्वर है, उस परमभाव में मैं स्थित हूँड़ हूँ मनुष्य- शरीरधारी , मूढ़लोग इसे नहों जानते| वे मुझे मनुष्य कहकर सम्बोधित करते हैं| उनका दोष भी क्या है? जब वे दृष्टिपात करते हैं तो महापुरुष का शरीर ही तो दिखायो पडता है| कैसे वे समझें कि आप महान् ईश्वरभाव में स्थित हैं? वे क्यों नहीं देख पाते? इस पर कहते हैं- मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः| राक्षसीमासुरीं चैव मोहिनीं श्रिताः१११२१| वे वृथा आशा ( जो कभी पूर्ण न हो ऐसी आशा ) , वृथा कर्म ( बन्धनकारी कर्म) , वृथा ज्ञान (जो वस्तुतः अज्ञान है), विचेतसः विशेष रूप से अचेत हुए, राक्षसों और असुरों के-से मोहित होनेवाले स्वभाव को धारण किये होते हैं अर्थात् आसुरी स्वभाववाले होते हैं इसलिये मनुष्य समझते हैं| असुर और राक्षस मन का एक स्वभाव है, न कि कोई जाति या योनिः आसुरी स्वभाववाले मुझे नहों जान पाते; महात्माजन मुझे जानते और भजते हैं- महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः| भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्११३१| परन्तु हे पार्थ ! दैवी प्रकृति अर्थात् दैवी सम्पद् के आश्रित हुए महात्माजन मुझे सब भूतों का आदिकारण , अव्यक्त और अक्षर जानकर अनन्य मन से अर्थात् मन के अन्तराल में किसी अन्य को स्थान न देकर केवल श्रद्घा रखकर निरन्तर मुझे भजते हैं| किस प्रकार भजते हैं? इस पर कहते हैं - सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढत्रताः| नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते१ ११४१| वे निरन्तर चिन्तन के व्रत में अचल रहते हुए मेरे नाम और गुणों का चिन्तन करते हैं , प्राप्ति के यत्न करते हैं और मुझे बारम्बार नमस्कार मानुषीं किन्तु प्रकृतिं किन्तु मुझमें करते हुए