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पञ्चदश अध्याय २० आना ) होती है॰ ( प्राप्तिकाल का चित्रण स्मृति के साथ हो ज्ञान ( साक्षात्कार ) और अपोहनं अर्थात् बाधाओं का शमन मुझ इष्ट से हीो होता है| सब वेदों द्वारा मैं हीं जानने योग्य हूँ| वेदान्त का कर्त्ता अर्थात् वेदस्य अन्तः सः वेदान्त (अलग था तभी तो जानकारीं हुई| जब जानते ही उसी स्वरूप में प्रतिष्ठित हो गया, तो कौन किसको जाने? _ वेद की अन्तिम स्थिति का कर्त्ता मैं ही हूँ और वेदवित् अर्थात् वेद का ज्ञाता भी मैं ही हूँ| अध्याय के आरम्भ में उन्होंने कहा है कि संसार वृक्ष है| ऊपर परमात्मा मूल और नीचे प्रकृतिपर्यन्त शाखाएँ हैं जो इसे मूल से प्रकृति का विभाजन करके जानता है, जानता है वह वेदवित् है| यहाँ कहते हैं कि मैं वेदवित् हूँ॰ उसे जो जानता है, श्रीकृष्ण ने अपने को उसको तुलना में खडा किया कि वह वेदवित् है, मैं वेदवित् हूँ॰ श्रीकृष्ण भी एक तत्त्वज्ञ महापुरुष , योगियों के भी परमयोगी थे| यहाँ यह प्रश्न पूरा हुआ| अब बताते हैं कि संसार का स्वरूप दो प्रकार का है- द्वाविमौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि कूटस्थोडक्षर उच्यते| ११६/ | अर्जुन ! इस संसार में ' क्षर - क्षय होनेवाले , परिवर्तनशील और ' अक्षर अक्षय , अपरिवर्तनशील ऐसे दो प्रकार के पुरुष हैं| उनमें सम्पूर्ण भूतों ( प्राणियों ) के शरीर तो नाशवान् हैं, क्षर पुरुष हैं , आज हैं तो कल नहों रह जायेंगे और दूसरा कूटस्थ पुरुष अविनाशी कहा जाता है| साधन के द्वारा मनसहित इन्द्रियों का निरोध अर्थात् जिसको इन्द्रिय ्समूह कूटस्थ है, वहीं अक्षर कहलाता है| अब आप स्त्री कहलाते हों अथवा पुरुष , यदि शरीर और शरीर - जन्म के कारण संस्कारों का क्रम लगा है तो आप क्षर पुरुष हैं और जब मनसहित इन्द्रियाँ कूटस्थ हो जाती हैं तब वही अक्षर पुरुष कहलाता है| किन्तु यह भी पुरुष की अवस्था विशेष ही है| इन दोनों से भी परे एक अन्य पुरुष भो है- उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ११७१ | उन दोनों से अति उत्तम पुरुष तो अन्य हीं है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण- पोषण करता है और अविनाशी , परमात्मा , ईश्वर ऐसे कहा गया है| परमात्मा , अव्यक्त , अविनाशी , पुरुषोत्तम इत्यादि उसके परिचायक मूल से में पुरुष पुरुषौ भूतानि |
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२०२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता शब्द हैं , वस्तुतः वह अन्य हीं है अर्थात् अनिर्वचनीय है| यह क्षर-अक्षर से परे महापुरुष को अन्तिम अवस्था है, जिसको परमात्मा इत्यादि शब्दों से इंगित किया गया है; वह अन्य है अर्थात् अनिर्वचनीय है॰ उसीं स्थिति में योगेश्वर श्रीकृष्ण अपना भी परिचय देते हैं॰ यथा- यस्मात्क्षरमतीतो हमक्षरादपि चोत्तमः| अतोउस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः१११८१| मैं उपर्युक्त नाशवान् परिवर्तनशील क्षेत्र से सर्वथा अतीत हूँ और अक्षर - अविनाशी - कूटस्थ पुरुष से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ| मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत१११९|| हे भारत जैसा कि ऊपर कहा गया है कि इस प्रकार जो ज्ञानी पुरुष मुझ को साक्षात् जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार परमात्मा को ही भजता है| वह विलग नहों है| इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ| एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत| |२०१ | हे निष्पाप अर्जुन ! इस प्रकार यह अति गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य पूर्णज्ञाता और हो जाता है| अतः योगेश्वर श्रीकृष्ण की यह वाणी स्वयं में पूर्ण शास्त्र है| श्रीकृष्ण का यह रहस्य अत्यन्त गुप्त था| उन्होंने केवल अनुरागियों को बताया यह अधिकारी के लिये था, सबके लिये नहों| किन्तु जब यहीं रहस्य ( शास्त्र ) लिखने में आ जाता है , सबके सामने पुस्तक रहती है इसलिये लगता है कि श्रीकृष्ण ने सबको कहा; वस्तुतः यह अधिकारी के लिये हीं है| श्रीकृष्ण का यह स्वरूप सबके लिये था भी नहों| कोई उन्हें राजा , तो कोई यादव ही मानता थाः किन्तु अधिकारी अर्जुन से उन्होंने कोई दुराव नहीं रखा| उसने पाया कि वह परमसत्य पुरुषोत्तम हैं| दुराव रखते तो उसका कल्याण ही न होता| किन्तु से मुझ पुरुषोत्तम मुझसे कृतार्थ किन्तु कोई दूत, |
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पञ्चदश अध्याय २०३ विशेषता प्राप्तिवाले प्रत्येक महापुरुष में पायी गयो| रामकृष्ण परमहंसदेव एक बार बहुत प्रसन्न थे| भक्तों ने पूछा- ' आज तो आप बहुत प्रसत्र हैं॰ ' वे बोले- मैं वह परमहंस हो गया१ ' उनके समकालीन कोई अच्छे महापुरुष परमंहस थे, उनकी ओर संकेत किया| कुछ देर बाद वे मन-क्रम ्वचन से विरक्ति की आशा से अपने पीछे लगे साधकों से बोले- 'देखो , अब तुम लोग सन्देह न करना| मैं वही राम हूँ जो त्रेता में हुए थे , वही कृष्ण हू जो द्वापर में हुए थे| मैं उन्हीं की पवित्र आत्मा हूँ, वही स्वरूप हूँ| यदि पाना है तो मुझे देखो ठीक इसी प्रकार ' पूज्य गुरु महाराज' भी सबके सामने कहा करते थे- 'हो हम भगवान हैं| जे सचहूँ का सन्त है, वह भगवान का दूत है| हमारे द्वारा ही उनका सन्देशा मिलता है॰" ईसा ने कहा- ' मैं भगवान का पुत्र हूँ , मेरे पास आओ - इसलिये कि ईश्वर का पुत्र कहलाओगे ' अतः सभी पुत्र हो सकते हैं| हाँ, यह बात अलग है कि पास आने का तात्पर्य उन तक की साधना साधन-क्रम में चलकर पूरी करना है| मुहम्मद कहा- मैं अल्लाह का रसूल हूँ ॰ सन्देशवाहक हूँ॰" पूज्य महाराज जी' सबसे तो इतना हो कहते थे- न किसी विचार का खण्डन, न मण्डन| किन्तु जो विरक्ति में पोछे लगे थे, उनसे कहते थे- " केवल मेरे स्वरूप को देखो| यदि तुम्हें उस परमतत्त्व की चाह है तो मुझे देखो , सन्देह मत करो॰ ' बहुतों ने सन्देह किया तो उनको अनुभव में दिखाकर , डाँट - फटकारकर उन बाह्य विचारों से हटाकर , जिनमें योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार ( अध्याय २४० ४३ ) अनन्त पूजा - पद्धतियाँ हैं , अपने स्वरूप में लगाया| वे अद्यावधि महापुरुष के रूप में अवस्थित हैं| इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अपनी स्थिति गोपनीय तो थी; अपने अनन्य भक्त पूर्ण अधिकारी अनुरागी अर्जुन के प्रति उन्होंने उसे प्रकाशित किया| हर भक्त के लिये सम्भव है , महापुरुष लाखों को उस रास्ते पर चला देते हैं| निष्कर्ष - इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि संसार एक वृक्ष है , पीपल - जैसा पीपल एक उदाहरण मात्र है| ऊपर इसका मूल परमात्मा और नीचे प्रकृतिपर्यन्त इसकीं शाखा- प्रशाखाएँ हैं॰ जो इस वृक्ष को " आज के दूत साहब ने किन्तु वृक्ष है| |
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३०४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ मूलसहित विदित कर लेता है, वह वेदों का ज्ञाता है| इस संसार- वृक्ष की शाखाएँ ऊपर और नीचे सर्वत्र व्याप्त हैं और मूलानि' ~ उसकी जड़ों का जाल भी ऊपर और नोचे सर्वत्र व्याप्त है, क्योंकि वह मूल ईश्वर है और वही बीजरूप से प्रत्येक जीव-्हृदय में निवास करता है| पौराणिक आख्यान है कि एक बार कमल के आसन पर ब्रह्माजी ने विचार किया कि मेरा उद्गम क्या है? जहाँ से वे पैदा हुए थे, उस कमल-्नाल में प्रवेश करते चले गये| अनवरत चलते रहे; किन्तु अपना उद्गम न देख सके॰ तब हताश होकर वे उसी कमल के आसन पर बैठ गये| चित्त का निरोध करने में लग गये और ध्यान के द्वारा उन्होंने अपना मूल उद्गम पा लिया, परमतत्त्व का साक्षात्कार किया, स्तुति को| परमस्वरूप से ही आदेश मिला कि॰ मैं हूँ तो सर्वत्र; किन्तु मेरी प्राप्ति का स्थान मात्र हृदय है| हृदय-् देश में जो ध्यान करता है, वह मुझे प्राप्त कर लेता है| ब्रह्मा एक प्रतीक है॰ योग-्साधना को एक परिपक्व अवस्था स्थिति को जागृति है| ईश्वर की ओर उन्मुख ब्रह्मविद्या से संयुक्त बुद्धि ही ब्रह्मा है| कमल पानो में रहते हुए भी निर्मल और निर्लेप रहता है| बुद्धि जब तक इधर - उधर ढूँढ़तीं है, तब तक नहों पाती और जब वहीं बुद्धि निर्मलता के आसन पर आसीन होकर मनसहित इन्द्रियों को समेटकर हृदय- देश में निरोध कर लेती है उस निरोध के भो विलीनीकरण को अवस्था में अपने ही हृदय में परमात्मा को पा लेती है| यहाँ भी योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार संसार वृक्ष है, जिसका मूल सर्वत्र है और शाखाएँ सर्वत्र हैं॰ ' कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ' - कर्मों के अनुसार केवल मनुष्य- योनि में बन्धन तैयार करता है, बाँधता है| अन्य योनियाँ तो इन्हों कर्मों के अनुसार भोग भोगती हैं| अतः दृढ़ वैराग्यरूपी शस्त्र द्वारा इस संसाररूपी पीपल के वृक्ष को तू काट और उस परमपद को ढूँढ़, जिसमें गये हुए महर्षि पुनर्जन्म को प्राप्त नहों होते| कैसे जाना जाय कि संसार-्वृक्ष कट गया? योगेश्वर कहते हैं किजो मान और मोह से सर्वथा रहित है, जिसने संगदोष जीत लिया है, जिसकी कामनाएँ हो गई हैं और जो द्वन्द्व से मुक्त है, वह पुरुष उस परमतत्त्व को गीता बैठे हुए में इस निवृत्त |
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पञ्चदश अध्याय २०५ प्राप्त होता है॰ उस परमपद को न सूर्य, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर पाते हैं, वह स्वयं प्रकाशरूप है| जिसमें गये हुए पोछे लौटकर नहीं आते , वह मेरा परमधाम है , जिसे पाने का अधिकार सबको है , क्योंकि यह जीवात्मा मेरा ही शुद्ध अंश है| शरीर का त्याग करते समय जीवात्मा मन और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के कार्यकलापों को लेकर नये शरीर को धारण करता है| संस्कार सात्त्विक हैं तो सात्त्विक स्तर पर पहुँच जाता है , राजसी हैं तो मध्यम स्थान पर और तामसी रहने पर जघन्य योनियों तक पहुँच जाता है तथा इन्द्रियों के अधिष्ठाता मन के माध्यम से विषयों को देखता और भोगता है॰| यह दिखायो नहों पड़ता , इसे देखने को दृष्टि ज्ञान है| कुछ याद कर लेने का नाम ज्ञान नहीं है| योगीजन हृदय में चित्त को समेटकर प्रयत्न करते हुए ही उसे देख पाते हैं, अतः ज्ञान साधनगम्य है| हाँ, अध्ययन से उसके प्रति रुझान उत्पन्न होती है| संशययुक्त, अकृतात्मा लोग प्रयत्न करते हुए भी उसे नहीं देख पाते| यहाँ प्राप्तिवाले स्थान का चित्रण है| अतः उस अवस्था की विभूतियों का प्रवाह स्वाभाविक है| उन पर प्रकाश डालते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा में मैं ही प्रकाश हूँ, अग्नि में मैं हो तेज हूँ॰ मैं ही प्रचण्ड अग्निरूप से चार विधियों से परिपक्व होनेवाले अन्न को पचाता हूँज श्रीकृष्ण के शब्दों में अन्न एकमात्र ब्रह्म है| अन्नं बह्मेति व्यजानात्| तैत्तिरीय उपनिषद्, भृगुबल्ली २ ) जिसे प्राप्त कर यह आत्मा तृप्त हो जाती है| बैखरी से परापर्यन्त अन्न पूर्ण परिपक्व होकर पच जाता है, वह पात्र भी खो जाता है इस अन्न को मैं ही पचाता हूँ अर्थात् सद्गुरु जब तक रथी न हों , तब तक यह उपलब्धि नहों होती| इस पर बल योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं कि सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तर्देश में स्थित होकर मैं ही स्मृति दिलाता हूँ॰ जो स्वरूप विस्मृत था उसको स्मृति दिलाता हूँ॰ स्मृति के साथ मिलनेवाला ज्ञान भी मैं ही हूँ॰ उसमें आनेवाली बाधाओं का निदान भी मुझसे होता है| मैं हीं जानने योग्य हूँ और विदित हो जाने के बाद जानकारी का अन्तकर्त्ता भो मैं ही हूँ॰ कौन किसे जाने? मैं वेदवित् हूँ॰ अध्याय के प्रारम्भ में कहा- जो संसार-्वृक्ष को मूलसहित देते हुए |
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३०६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता जानता है वह वेदवित् है; उसको काटनेवाला ही जानता है| यहाँ कहते हैं - मैं भी वेदवित् हूँ| उन वेदविदों में अपनी भी गणना करते हैं| अतः भी यहाँ वेदवित् हैं, जिसे पाने का अधिकार मानवमात्र को है| अन्त में उन्होंने बताया कि लोक में दो प्रकार के पुरुष हैं| भूतादिकों के सम्पूर्ण शरीर क्षर हैं| मन की कूटस्थ अवस्था में यही पुरुष अक्षर है; किन्तु है द्वन्द्वात्मक और इससे भी परे जो परमात्मा , परमेश्वर , अव्यक्त और अविनाशी कहा जाता है, वह वस्तुतः अन्य ही है| यह क्षर और अक्षर से परेवालीं अवस्था है , यहीं परमस्थिति है| इससे संगत करते हुए कहते हैं कि मैं भी क्षर- अक्षर से परे वही हूँ॰ इसलिये लोग मुझे पुरुषोत्तम कहते हैं| इस प्रकार उत्तम पुरुष को जो जानते हैं वे ज्ञानी भक्तजन सदैव , सब ओर से मुझे ही भजते हैं| उनको में अन्तर नहों है| अर्जुन ! यह अत्यन्त गोपनीय रहस्य मैंने तेरे प्रति कहा| प्राप्तिवाले महापुरुष सबके सामने नहीं कहते; अधिकारी भी नहीं रखते| अगर दुराव करेंगे तो वह पायेगा कैसे? इस अध्याय में आत्मा को तीन स्थितियों का चित्रण क्षर, अक्षर और अति उत्तम पुरुष के रूप में स्पष्ट किया गया, जैसा इससे पहले किसी अन्य अध्याय में नहों है| अतः- ३० तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु बह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे ' पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोउध्यायः|११५ || इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्वाद में ' पुरुषोत्तम योग' नामक अध्याय पूर्ण होता है| श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्रीतायाः यथार्थ गीता ' भाष्ये पुरुषोत्तमयोगो ' नाम पञ्चदशोउध्यायः| ११५ || इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य यथार्थ गोता' में पुरुषोत्तम योग' नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण होता है| १| हरिः ३>ँ तत्सत् 1१ किन्तु श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम जानकारी किन्तु से दुराव पन्द्रहवाँ इति |
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३ँँ श्री परमात्मने नमः / | ढ़ अथ षोडशोडध्यायः | योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के प्रश्न प्रस्तुत करने की अपनी विशिष्ट शैली है| पहले वे प्रकरण की विशेषताओं का उल्लेख करते हैं , जिससे पुरुष उसकी ओर आकर्षित हो, तत्पश्चात वे उस प्रकरण को स्पष्ट करते हैं॰ उदाहरण के लिये कर्म को लें| उन्होंने दूसरे अध्याय में ही प्रेरणा दी कि- अर्जुन ! कर्म करढ तोसरे अध्याय में उन्होंने इंगित किया कि निर्धारित कर्म कर निर्धारित कर्म है क्या? तो बताया- यज्ञ को प्रक्रिया ही कर्म है॰ फिर उन्होंने यज्ञ का स्वरूप न बताकर पहले बताया कि यज्ञ आया कहाँ से और देता क्या है? चौथे अध्याय में तेरह-चौदह विधियों से यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट किया, जिसको करना कर्म है॰| यहाँ कर्म स्पष्ट होता है, जिसका शुद्ध अर्थ है योग- चिन्तन , आराधना , जो मन और इन्द्रियों को क्रिया से सम्पन्न होता है| इसी प्रकार उन्होंने अध्याय नौ में दैवी और आसुरी सम्पद् का नाम लिया| उनको विशेषताओं पर बल दिया कि॰ अर्जुन! आसुरी स्वभाववाले मुझे तुच्छ कहकर हैं॰ हूँ तो मैं भी मनुष्य-शरीर के आधारवाला क्योंकि मनुष्य- शरीर में ही मुझे यह स्थिति मिली है; आसुरी स्वभाववाले , मूढ़ स्वभाववाले मुझे नहों भजते , जबकि दैवीं सम्पद् से युक्त भक्तजन अनन्य श्रद्वा से मुझे उपासते हैं| किन्तु इन सम्पत्तियों का स्वरूप , उनका गठन अभी तक नहीं बताया गया| अब अध्याय सोलह में योगेश्वर उनका स्वरूप स्पष्ट करने जा रहे हैं , जिनमें प्रस्तुत है पहले दैवीं सम्पद् के लक्षण - श्रीभगवानुवाच अभयं सत्त्वसंशुद्धि्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः| दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्|/११| भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की शुद्धता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यान में दृढ़ स्थिति अथवा निरन्तर लगन, सर्वस्व का समर्पण, इन्द्रियों का पुकारते किन्तु |
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३०८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता भली प्रकार दमन यज्ञ का आचरण ( जैसा स्वयं श्रीकृष्ण ने अध्याय चार में बताया है- संयमाग्नि में हवन , इन्द्रियाग्नि में हवन , प्राण अपान में हवन और अन्त में ज्ञानाग्नि में हवन अर्थात् आराधना को प्रक्रिया, जो केवल मन और इन्द्रियों की अन्तःक्रिया से सम्पन्न होती है| तिल, जौ , वेदी इत्यादि सामग्रियों से होनेवाले यज्ञ का इस गीतोक्त यज्ञ से कोई सम्बन्ध नहीं है| श्रीकृष्ण ने ऐसे किसी कर्मकाण्ड को यज्ञ नहों माना१ ) , स्वाध्याय अर्थात् स्व-स्वरूप की ओर अग्रसर करानेवाला अध्ययन , तप अर्थात् मनसहित इन्द्रियों को इष्ट के अनुरूप ढालना तथा आर्जवम् ' शरीर और इन्द्रियोंसहित अन्तःकरण की सरलता - अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्| ढया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् २१| अहिंसा अर्थात् आत्मा का उद्धार ( आत्मा को अधोगति में पहुँचाना ही हिंसा है| श्रीकृष्ण कहते हैं- यदि मैं सावधान होकर कर्म में न बरतूँ तो इस सम्पूर्ण प्रजा का हनन करनेवाला और वर्णसंकर का कर्त्ता होऊँ| आत्मा का है परमात्मा , उसका प्रकृति में भटकना वर्णसंकर है , आत्मा की हिंसा है और आत्मा का उद्धार हीं अहिंसा है१ ) , सत्य ( सत्य का अर्थ यथार्थ और प्रिय भाषण नहीं है| आप कहते हैं- यह वस्त्र हमारा है, तो क्या आप सच बोलते हैं? इससे बड़ा झूठ और क्या होगा? जब शरीर आपका नहीं है नश्वर है तो इसे ढाँकने का वस्त्र कब आपका है? वस्तुतः सत्य का स्वरूप योगेश्वर ने स्वयं बताया है कि- अर्जुन! सत्य वस्तु का तीनों कालों में कभी अभाव नहीं है| यह आत्मा ही सत्य है, यही परमसत्य है-इस सत्य पर दृष्टि रखना ) , क्रोध का न होना , सर्वस्व का समर्पण , शुभाशुभ कर्मफलों का त्याग , चित्त को चंचलता का सर्वथा अभाव , लक्ष्य के विपरीत निन्दित कार्यों को न करना, सम्पूर्ण प्राणियों में दयाभाव , इन्द्रियों का विषयों से संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का अभाव , कोमलता , अपने लक्ष्य से होने में लज्जा , व्यर्थ को चेष्टाओं का अभाव तथा तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता| भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत१ १३ | शुद्ध वर्ण विमुख |
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अध्याय तेज (जो एकमात्र ईश्वर में है उसके तेज सेजो कार्य करता है| महात्मा बुद्ध की दृष्टि पडते ही अंगुलिमाल के विचार बदल गये| यह उस तेज का ही परिणाम था जिससे कल्याण का सृजन होता है, जो बुद्ध में था ) , क्षमा , किसी में शत्रुभाव का न होना , अपने में पूज्यता के भाव का सर्वथा अभाव- यह सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पद् को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं| इस प्रकार कुल छब्बीस लक्षण बताये, जो सब-के-सब तो साधना में परिपक्व अवस्थावाले पुरुष में सम्भव हैं और आंशिक रूप में आप में भी निश्चित हैं तथा आसुरी सम्पद् से आप्लावित मनुष्यों में भी ये गुण हैं प्रसुप्त रहते हैं , तभी तो घोर पापी को भी कल्याण का अधिकार है| अब आसुरी सम्पद् के लक्षण बताते हैं- दम्भो दर्पोउभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च| अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् १४१| हे पार्थ पाखण्ड , घमण्ड , अभिमान , क्रोध , कठोर वाणी और अज्ञान - यह सब आसुरी सम्पद् को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं| दोनों सम्पदाओं का कार्य क्या है?- दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता| मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोउसि पाण्डवा१५/| इन दोनों प्रकार की सम्पदाओं में से दैवी सम्पद् तो विमोक्षाय विशेष मोक्ष के लिये है और आसुरी सम्पदा बन्धन के लिये मानी गयी है| हे अर्जुन ! मत करः क्योंकि दैवीं सम्पदा को प्राप्त विशेष मुक्ति को प्राप्त होगा अर्थात् मुझे प्राप्त होगा| ये सम्पदाएँ रहती कहाँ हैं?- द्वो लोकेउस्मिन्दैव आसुर एव चढ दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु| १६४| हे अर्जुन इस लोक में भूतों के स्वभाव दो प्रकार के होते हैं - देवों के जैसा और असुरों के जैसा| जब हृदय में दैवीं सम्पद् कार्यरूप ले लेती है तो मनुष्य ही देवता है और जब आसुरी सम्पद् का बाहुल्य हो तो मनुष्य ही असुर है| सृष्टि में ये दो ही जातियाँ हैं॰ वह चाहे अरब में पैदा हुआ है, चाहे षोडश धैर्य, शुद्धि , किन्तु हुआ है| तू शोक भूतसर्गौ |
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३२० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता आस्ट्रेलिया में; कहीं भी पैदा हुआ हो, बशर्ते है इन दो में से ही| अभी तक देवों का स्वभाव ही विस्तार से कहा गया, अब असुरों के स्वभाव को मुझसे विस्तारपूर्वक सुन| प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः| न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते १७| | हे अर्जुन ! असुर लोग ' कार्यम् कर्म' में प्रवृत्त होने और अकर्त्तव्य कर्म से निवृत्त होना भी नहों जानते| इसलिये उनमें न शुद्धि रहती है, न आचरण और न सत्य ही रहता है| उन पुरुषों के विचार कैसे होते हैं?- असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्॰ अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्| १८१| आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य कहते हैं कि जगत् आश्रयरहित है , सर्वथा झूठा है और बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री - पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है, इसलिये केवल भोगों को भोगने के लिये है| इसके सिवाय और क्या है? दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानो उल्पबुद्धयः प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोउहिताः१ १९१| इस मिथ्या दृष्टिकोण के अवलम्बन से जिनका स्वभाव नष्ट हो चुका है मन्दबुद्धि , अपकारी , मनुष्य केवल जगत् का नाश करने के लिये हीं उत्पन्न होते हैं| काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः मोहादगृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेउशुचित्रताः१ ११०१| मनुष्य दम्भ, मान और मद हुए किसीं भी प्रकार पूर्ण न होनेवाली कामनाओं का आश्रय लेकर , अज्ञान से मिथ्या सिद्धान्तों को ग्रहण करके अशुभ तथा भ्रष्ट व्रतों से युक्त हुए संसार में बरतते हैं| वे व्रत भो करते हैं; भ्रष्ट हैं॰ चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः१११११| अन्तिम श्वास तक अनन्त चिन्ताओं को लिये रहते हैं और विषयों एतां क्रूरकर्मी से युक्त किन्तु |
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षोडश अध्याय ३१२ को भोगने में तत्पर वे बस इतना हीं आनन्द है - ऐसा मानते हैं॰ उनकी मान्यता रहती है कि जितना हो सके भोग संग्रह करो , इसके आगे कुछ नहों है| आशापाशशतैर्बद्वाः कामक्रोधपरायणाः ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्११२१| आशारूपी सैकड़ों फाँसियों से ( एक फाँसी से ही लोग मर जाते हैं, यहाँ सैकड़ों फाँसियों से ) बँधे हुए काम-क्रोध के परायण विषय- भोगों को पूर्ति के लिये वे अन्यायपूर्वक धनादि बहुत से पदार्थों को संग्रह करने को चेष्टा करते हैं| अतः धन के लिये वे रात-्दिन असामाजिक कदम उठाया करते हैं| आगे कहते हैं- इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्| इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ११३१| वे सोचते हैं कि मैंने आज यह पाया है , इस मनोरथ को प्राप्त करूँगा| मेरे पास इतना धन है और फिर कभी इतना हो जायेगा| असौ मया हतः चापरानपि| ईश्वरोष्हमहं भोगी सिद्धो उहं बलवान्सुखी१११४१| वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे को भो मैं मारूँगा| मैं ही ईश्वर और ऐश्वर्य को भोगनेवाला हूँ॰ मैं ही सिद्धियों से युक्त, बलवान् और हू आढ्योउभिजनवानस्मि कोउन्योउस्ति मया| यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः१११५ | धनी और बड़े कुटुम्बवाला हूँ॰ मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, मैं दान दूँगा , मुझे हर्ष होगा- इस प्रकार के अज्ञान से वे विशेष मोहित रहते हैं॰ क्या यज्ञ, दान भी अज्ञान है? इस पर अध्याय १७ में स्पष्ट किया है| इतने पर भी वे नहों रुकते बल्कि अनेक भ्रान्तियों के शिकार रहते हैं| इस पर कहते हैं- अनेकचित्तविश्रान्ता मोहजालसमावृताः प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेउशुचौ| ११६१ | शत्र्हनिष्ये शत्रुओं सुखी सदृशो मैं बड़ा |
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३२ २ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता अनेक प्रकार से भ्रमित हुए चित्तवाले , मोह-जाल विषय- भोगों में अत्यन्त आसक्त वे आसुरी स्वभाववाले मनुष्य अपवित्र नरक में गिरते हैं| आगे स्वयं बतायेंगे कि नरक क्या है? आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ११७१| अपने आपको ही श्रेष्ठ माननेवाले , धन और मान के मद से युक्त होकर वे घमण्डी मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से यजन करते हैं| क्या वहीं यज्ञ करते हैं , जैसा श्रीकृष्ण ने बताया है? नहीं , उस विधि को छोड़कर करते हैं; क्योंकि विधि योगेश्वर ने स्वयं बतायी है| ( अध्याय ४/२४ ३३ तथा अध्याय ६/१०-१७ ) अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तो उभ्यसूयकाः1 ११८१| की निन्दा करनेवाले; अहंकार, बल घमण्ड , कामना और क्रोध के परायण हुए पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी परमात्मा से द्वेष करनेवाले हैं| शास्त्रविधि से परमात्मा का सुमिरन एक यज्ञ है| जो इस विधि को त्यागकर नाममात्र का यज्ञ करते हैं , यज्ञ के नाम पर कुछ- न-कुछ करते ही रहते हैं, वे अपने और दूसरे के शरीर में स्थित मुझ परमात्मा से द्वेष करनेवाले हैं| लोग द्वेष करते ही रहते हैं और बच भी जाते हैं , क्या ये भी बच जायेंगे? इस पर कहते हैं- नहों , तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्| क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु१ ११९१| द्वेष करनेवाले उन पापाचारी , नराधमों को मैं संसार में आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ॰ जो शास्त्रविधि को त्यागकर यजन करते हैं वे पापयोनि हैं , वही मनुष्यों में अधम हैं , इन्हों को कहा गया| अन्य कोई अधम नहीं है| पीछे कहा था, ऐसे अधमों को मैं नरक में गिराता हूँ , उसी को यहाँ कहते हैं कि उन्हें अजस्र आसुरी योनियों में गिराता हूँ| यही नरक है| साधारण जेल की यातना भयंकर होती है और यहाँ अनवरत आसुरी में फँसे हुए, श्रीकृष्ण दूसरों मुझसे क्रूरकर्मी निरन्तर क्रूरकर्मी |
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षोडश अध्याय ३१३ योनियों में गिरने का क्रम कितना दुःखद है॰ अतः दैवी सम्पद् के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि| मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां १२०| | कौन्तेय ! मूर्ख मनुष्य जन्म- जन्मान्तरों तक आसुरी योनि को प्राप्त हुए मुझे न प्राप्त होकर पहले से भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं, जिसका नाम नरक है| अब देखें , नरक का उद्गम क्या है? - त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् २११ | काम, क्रोध और लोभ ये तीन प्रकार के नरक के मूल द्वार हैं॰ ये आत्मा का नाश करनेवाले , उसे अधोगति में ले जानेवाले हैं| अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिये| इन्हों तीनों पर आसुरी सम्पद् टिको इन्हें त्यागने लाभ? एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः| आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् २२१| कौन्तेय नरक के इन तीनों द्वारों से मुक्त हुआ पुरुष अपने परमकल्याण के लिये आचरण कर पाता है , जिससे वह परमगति अर्थात् मेरे को प्राप्त होता है| इन तीनों विकारों को त्यागने पर ही मनुष्य नियत कर्म करता है, जिसका परिणाम परमश्रेय है| यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः न स सिद्धिमवाप्नोति न न परां गतिम् २३१ | उपर्युक्त शास्त्रविधि को त्यागकर [वह शास्त्र कोई अन्य नहों , इति गुहृयातमं शास्त्रम् ' १५/२० ) गीता स्वयं पूर्णशास्त्र है, जिसे स्वयं श्रीकृष्ण ने बताया है उस विधि को त्यागकर ] अपनी इच्छा से बरतता है , वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही प्राप्त होता है| तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ| ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि| २४१| गतिम्| हुई है| सुखं जो पुरुष |
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३१४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता इसलिये अर्जुन! तेरे लिये इस कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को व्यवस्था में कि मैं क्या करूँ , क्या न करूँ? ~ इसकों व्यवस्था में शास्त्र ही एक प्रमाण है| ऐसा जानकर शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्म को हीं तुझे करना योग्य है| अध्याय तीन में भी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने नियतं कुरु कर्म त्वं नियत कर्म पर बल दिया और बताया कि यज्ञ कोी प्रक्रिया हीं वह नियत कर्म है और वह यज्ञ आराधना को विधि-विशेष का चित्रण है, जो मन का सर्वथा निरोध करके शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश दिलाता है॰ यहाँ उन्होंने बताया कि काम , क्रोध और लोभ नरक के तीन प्रमुख द्वार हैं| इन तीनों को त्याग देने पर ही उस कर्म का (नियत कर्म का ) आरम्भ होता है, जिसे मैंने बार-बार कहा, जो परमश्रेय परमकल्याण दिलानेवाला आचरण है| बाहर सांसारिक कार्यों में जो जितना व्यस्त है, उतना ही अधिक काम , क्रोध और लोभ उसके पास सजा- सजाया मिलता है| कर्म कोई ऐसी वस्तु है कि काम , क्रोध और लोभ को त्याग देने पर ही उसमें प्रवेश मिलता है, कर्म आचरण में ढल पाता है| जो उस विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से आचरण करता है उसके लिये सुख, सिद्धि अथवा परमगति कुछ भी नहों है| अब कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को व्यवस्था में शास्त्र ही एकमात्र प्रमाण है| अतः शास्त्रविधि के हीं अनुसार तुझे कर्म करना उचित है और वह शास्त्र है गीता निष्कर्ष - इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दैवी सम्पद् का विस्तार से वर्णन किया| जिसमें ध्यान में स्थिति , सर्वस्व का समर्पण , अन्तःकरण की शुद्धि , इन्द्रियों का दमन, मन का शमन, स्वरूप को स्मरण दिलानेवाला अध्ययन , यज्ञ के लिये प्रयत्न मनसहित इन्द्रियों को तपाना , अक्रोध, चित्त का शान्त प्रवाहित रहना इत्यादि छब्बीस लक्षण बताये, जो सब-के-सब तो इष्ट के समीप पहुँचे हुए योग-साधना में प्रवृत्त किसी साधक में सम्भव हैं| आंशिक रूप से सब में हैं| तदनन्तर उन्होंने आसुरी सम्पद् में प्रधान चार छः विकारों का नाम लियाः जैसे- अभिमान , दम्भ, कठोरता , अज्ञान इत्यादि और अन्त में निर्णय दिया कि अर्जुन! दैवी सम्पद् तो ' विमोक्षाय ' पूर्ण निवृत्ति के लिये है |
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षोडश अध्याय ३१५ परमपद को प्राप्ति के लिये है और आसुरी सम्पद् बन्धन और अधोगति के लिये है| अर्जुन! तू शोक न करः क्योंकि तू दैवीं सम्पद् को प्राप्त ये सम्पदाएँ होती कहाँ हैं? उन्होंने बताया लोक में मनुष्यों के स्वभाव दो प्रकार के होते हैं - देवताओं - जैसा और असुरों- जैसा| जब दैवी सम्पद् का बाहुल्य होता है तो मनुष्य देवताओं - जैसा होता है और जब आसुरी सम्पद् का बाहुल्य होता है तो मनुष्य असुरों - जैसा है| सृष्टि में बस मनुष्यों की दो ही जाति हैं; चाहे वह कहों पैदा हुआ हो, कुछ भी कहलाता हो| तत्पश्चात् उन्होंने आसुरी स्वभाववाले के लक्षणों का विस्तार से उल्लेख किया| आसुरी सम्पद् को प्राप्त पुरुष कर्त्तव्य कर्म में प्रवृत्त होना नहों जानता और अकर्त्तव्य कर्म से निवृत्त होना नहीं जानता| वह कर्म में जब प्रवृत्त ही नहों हुआ तो न उसमें सत्य होता है , न शुद्धि और न आचरण ही होता है| उसके विचार में जगत् आश्रयरहित , बिना ईश्वर के अपने आप के संयोग से उत्पन्न हुआ है, अतः केवल भोग भोगने के लिये है| इससे आगे क्या है?- यह विचार कृष्णकाल में भी था| सदैव रहा है| केवल चार्वाक ने कहा हो, ऐसी बात नहों है| जब तक जनमानस में दैवी आसुरी सम्पद् का उतार चढ़ाव है तब तक रहेगा| श्रीकृष्ण कहते हैं- वे मन्दबुद्धिवाले पुरुष सबका आहत कल्याण का नाश ) करने के लिये ही जगत् में पैदा होते हैं| वे कहते हैं- मेरे द्वारा यह शत्रु मारा गया , उसे मारूँगा| इस प्रकार अर्जुन ! काम- क्रोध के आश्रित को नहों मारते बल्कि अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ परमात्मा से द्वेष करनेवाले हैं॰ तो क्या अर्जुन ने प्रण करके जयद्रथादि को मारा? यदि मारता है तो आसुरी सम्पद्वाला है , उन परमात्मा से द्वेष करनेवाला है; जबकि अर्जुन को श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा कि तू दैवीं सम्पद् को प्राप्त हुआ है, शोक मत करढ यहाँ भी स्पष्ट हुआ कि ईश्वर का निवास सबके हृदय - देश में है| स्मरण रखना चाहिये कि कोई तुम्हें सतत देख रहा है| अतः सदैव शास्त्रनिर्दिष्ट क्रिया का हीं आचरण करना चाहिये अन्यथा दण्ड प्रस्तुत है| योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पुनः कहा कि आसुरी स्वभाववाले क्रूर मनुष्यों को मैं बारम्बार नरक में गिराता हूँ नरक का स्वरूप क्या है? तो बताया , बारम्बार हुआ है| कि इस मनुष्यों स्त्रो- पुरुष शत्रुओं वे पुरुष |
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३१६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता नीच-्अधम योनियों में गिरना एक दूसरे का पर्याय है| यही नरक का स्वरूप है| काम , क्रोध और लोभ नरक के तीन मूल द्वार हैं| इन तीनों पर ही आसुरी सम्पद टिको हुई है| इन तीनों को त्याग देने पर ही उस कर्म का आरम्भ होता है , जिसे मैंने बार- बार बताया है| सिद्ध है कि कर्म कोई ऐसी वस्तु है , जिसका आरम्भ काम , क्रोध और लोभ को त्याग देने पर ही होता है| सांसारिक कार्यों में , मर्यादित ढंग से सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्वाह करने में भी जो जितने व्यस्त हैं काम, क्रोध और लोभ उनके पास उतने अधिक सजे-सजाये मिलते हैं| वस्तुतः इन तीनों को त्याग देने पर ही परम में प्रवेश दिलानेवाले निर्धारित कर्म में प्रवेश मिलता है| इसलिये मैं क्या करूँ, क्या न करूँ? ~ इस कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है| कौन-सा शास्त्र? यहीं गीताशास्त्रः किमन्यै शास्त्रविस्तरैः इसलिये इस शास्त्र द्वारा निर्धारित किये हुए कर्म-विशेष ( यज्ञार्थ कर्म) को ही तू करा इस अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दैवी और आसुरी दोनों सम्पदाओं का विस्तार से वर्णन किया| उनका स्थान मानव-्हृदय बताया| उनका फल बताया| अतः- ३४ँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु बह्याविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोउध्यायः ११६| | इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्वाद में सम्पद विभाग योग नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण होता है| श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्नीतायाः ` यथार्थ गीता भाष्ये ' दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोडध्यायः| ११६|| इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रीमद्भगवद्गीता' के भाष्य यथार्थ गीता' में सम्पद् विभाग योग नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण होता है| हरिः ३>ँ तत्सत् " 1 दैवासुर इति दैवासुर |
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अँँ० श्री परमात्मने नमः| | |अथ सप्तदशोडध्यायः|| अध्याय सोलह के अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा कि काम क्रोध और लोभ के त्यागने पर ही कर्म आरम्भ होता है , जिसे मैंने बार-बार कहा है॰ नियत कर्म को बिना किये न सुख, न सिद्धि और न परमगति ही मिलती है| इसलिये अब लिये कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य की व्यवस्था में कि क्या करूँ , क्या न करूँ? - इस सम्बन्ध में शास्त्र हो प्रमाण है| कोई अन्य शास्त्र नहों; बल्कि इति गुह्यतमं शास्त्रमिदम् ' ( १५ /२० ) गोता स्वयं शास्त्र है| अन्य शास्त्र भी हैं; यहाँ इसो गीताशास्त्र पर दृष्टि रखें , दूसरा न ढूँढ़ने लगें| जगह ढूँढ़ेंगे तो यह क्रमबद्धता नहों मिलेगी , अतः भटक जायेंगे| इस पर अर्जुन ने प्रश्न किया कि भगवन् जो लोग शास्त्रविधि को त्यागकर पूर्ण श्रद्धा होकर यजन्ते - यजन करते हैं, उनकी गति कैसी है? सात्त्विको है, राजसी अथवा तामसी है? क्योंकि पीछे अर्जुन ने सुना था कि सात्त्विक , राजस अथवा तामस , जब तक गुण विद्यमान हैं , किसी -न- किसी योनि के ही कारण होते हैं| इसलिये प्रस्तुत अध्याय के आरम्भ में ही उसने प्रश्न रखा- अर्जुन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः११११| हे कृष्ण जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर श्रद्धासहित यजन करते हैं उनको गति कौन-सीं है? सात्त्विको है, राजसीं है अथवा तामसी है? यजन में देवता , यक्ष , भूत इत्यादि सभी आ जाते हैं| तुम्हारे किन्तु = दूसरी से युक्त |
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३१८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता श्रीभगवानुवाच त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा| सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु११२१| अध्याय दो में योगेश्वर ने बताया कि- अर्जुन ! इस योग में निर्धारित क्रिया एक ही है| अविवेकियों की बुद्धि अनन्त शाखाओंवाली होती है, वे अनन्त क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं| दिखावटीं शोभायुक्त वाणी में उसे व्यक्त भी करते हैं॰ उनकी वाणी कोी छाप जिनके चित्त पर पड़ती है , अर्जुन ! उनकी भी बुद्धि नष्ट हो जाती है, न कि कुछ पाते हैं| ठीक इसी को पुनरावृत्ति यहाँ पर भी है कि जो ' शास्त्रविधिमुत्सृज्य शास्त्रविधि को त्यागकर भजते हैं उनकी श्रद्धा भी तीन प्रकार को होती है| इस पर श्रीकृष्ण ने कहा मनुष्य को आदत से उत्पन्न हुई वह श्रद्धा सात्त्विको , राजसी तथा तामसी - ऐसे तीन प्रकार की होती है, उसे तू मुझसे सुन| मनुष्य के हृदय में यह श्रद्धा अविरल है| सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत| श्रद्धामयोउयं या यच्छ्रद्धः स एव सःख १३१ | हे भारत सभी मनुष्यों को श्रद्धा उनके चित्त को वृत्तियों के अनुरूप होती है| यह पुरुष श्रद्धामय है॰ इसलिये जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वहीं है॰ प्रायः लोग पूछते हैं- मैं कौन हूँ? कोई कहता है- मैं तो आत्मा हूँ| किन्तु नहों, यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसी श्रद्धा , जैसी वृत्ति वैसा पुरुष| गोता योग - दर्शन है| महर्षि पतंजलि भी योगी थे| उनका योग - दर्शन है| योग है क्याः उन्होंने बताया- योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ' ( १/२ ) चित्त को वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना योग है| किसीं ने परिश्रम करके रोक ही लिया, तो लाभ क्या है? ' तदा द्रष्टः स्वरूपे उवस्थानम्॰ ' ( १/३ )- उस समय यह द्रष्टा जोवात्मा अपने ही शाश्वत स्वरूप में स्थित हो जाता है| क्या स्थित इसलिये पुरुषो जो पुरुष |
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सप्तदश अध्याय ३२९ होने से पूर्व यह मलिन थाः पतंजलि कहते हैं- वृत्तिसारूप्यमितरत्र| ( १/४ )- दूसरे समय में जैसा वृत्ति का रूप है, वैसा ही वह द्रष्टा है| यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं - यह पुरुष श्रद्धामय है, श्रद्धा से ओतप्रोत , कहों - न-्कहों श्रद्धा अवश्य होगी और जैसीं श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वहीं है| जैसी वृत्ति, वैसा पुरुष| अब तोनों श्रद्धाओं का विभाजन करते हैं - यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः प्रेतान्भूतगणांश्रान्ये यजन्ते तामसा जनाः११४१| उनमें से सात्त्विक पुरुष देवताओं को पूजते हैं राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को हैं तथा अन्य तामस पुरुष प्रेत और भूतों को पूजते हैं| वे पूजन में अथक परिश्रम भी करते हैं| अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः| दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः१ १५१ | वे मनुष्य शास्त्रविधि से रहित घोर कल्पित ( कल्पित क्रियाएँ रचकर ) तप तपते हैं| दम्भ और अहंकार से युक्त, कामना और आसक्ति के बल से बँधे हुए- कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्धयासुरनिश्चयान्| १६१ | वे शरीररूप से स्थित भूतसमुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ अन्तर्यामी को भी कृश करनेवाले हैं अर्थात् दुर्बल करनेवाले हैं| आत्मा प्रकृति के दरारों में पड़कर विकारों से दुर्बल और यज्ञ- साधनों से सबल होती है| उन अज्ञानियों ( अचेतों ) को निश्चय ही तू असुर जान अर्थात्वे सब-के-सब असुर हैं| प्रश्न पूरा हुआ| शास्त्रविधि को त्यागकर भजनेवाले सात्त्विक पुरुष देवताओं को , राजस पुरुष यक्ष राक्षसों को और तामस पुरुष को पूजते हैं| केवल ही नहीं , घोर तप तपते हैं; अर्जुन ! शरीररूप से भूतों को और अन्तर्यामी पूजते भूत- प्रेतों पूजते किन्तु = |
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३२० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता रूप से स्थित मुझ परमात्मा को दुर्बल करनेवाले हैं करते हैं न कि भजते हैं| उनको तू असुर जान अर्थात् देवताओं को पूजनेवाले भी असुर हीं हैं| अधिक कोई क्या कहेगा? अतः जिसके ये सभी अंशमात्र हैं , उन मूल एक परमात्मा का भजन करें| इसी पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बारम्बार बल दिया है॰ आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः यज्ञस्तपस्तथा तेषां भेदमिमं शृणु|१७१| अर्जुन ! जैसे श्रद्धा तीन प्रकार की होती है, वैसे हीं सबको अपनी- अपनी प्रकृति के अनुसार भोजन भी तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं| उनके भेद को तू मुझसे सुन| पहले प्रस्तुत है आहार - आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः| १८|| आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ानेवाले; रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभाव से ही हृदय को प्रिय लगनेवाले भोज्य पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं| योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार , स्वभाव से हृदय को प्रिय लगनेवाला बल , आरोग्य , बुद्धि और आयु बढ़ानेवाला भोज्य पदार्थ हीं सात्त्विक है| जो भोज्य पदार्थ सात्त्विक है, वहीं सात्त्विक मनुष्य को प्रिय होता है॰ इससे स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी खाद्य वस्तु सात्त्विकी , राजसी अथवा तामसी नहों होती , उसका प्रयोग सात्त्विकोी , राजसी अथवा तामसी हुआ करता सात्त्विक है, न प्याज राजसी और न लहसुन तामसी है| जहाँ तक बल , बुद्धि , आरोग्य और हृदय को प्रिय लगने का प्रश्न है, तो विश्वभर में मनुष्यों को अपनो - अपनी प्रकृति , वातावरण और परिस्थितियों के अनुकूल विभिन्न खाद्य सामग्रियाँ प्रिय होती हैं , जैसे - बंगालियों तथा मद्रासियों को चावल प्रिय होता है और पंजाबियों को रोटीं| एक ओर तो अरबवासियों दूरी पैदा मुझसे इससे दानं है॰ न दूध |
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सप्तदश अध्याय ३२२ को दुम्बा, चीनियों को मेढक, तो दूसरी ओर ध्रुव-जैसे ठंडे प्रदेशों में मांस बिना गुजारा नहीं है| रूस और मंगोलिया के आदिवासी खाद्य में घोड़े इस्तेमाल करते हैं, यूरोपवासी गाय तथा सुअर दोनों खाते हैं; फिर भी विद्या, बुद्धि विकास तथा उन्नति में अमेरिका और यूरोपवासी प्रथम श्रेणी में गिने जा रहे हैं| गीता के अनुसार रसयुक्त, चिकना और स्थिर रहनेवाला भोज्य पदार्थ सात्त्विक है| लम्बी आयु, अनुकूल, बल-बुद्धि बढ़ानेवाला , आरोग्यवर्द्धक सात्त्विक है| स्वभाव से हृदय को प्रिय लगनेवाला भोज्य पदार्थ सात्त्विक है| अतः कहों किसीं खाद्य पदार्थ को घटाना- बढ़ाना नहों है॰ परिस्थिति , परिवेश तथा देशकाल के अनुसार जो भोज्य वस्तु स्वभाव से प्रिय लगे और जीवनी शक्ति प्रदान करे , वहीं सात्त्विको है| वस्तु सात्त्विको , राजसी या तामसी नहीं होती , उसका प्रयोग सात्त्विकोी , राजसी अथवा तामसी होता है| इसी अनुकूलन के लिये जो व्यक्ति घर - परिवार त्यागकर केवल ईश्वर- आराधन में लिप्त हैं , संन्यास आश्रम में हैं , उनके लिये मांस- मदिरा त्याज्य है; क्योंकि अनुभव से देखा गया है कि॰ये पदार्थ आध्यात्मिक मार्ग के विपरीत मनोभाव उत्पन्न करते हैं, अतः इनसे साधन-पथ से भ्रष्ट होने की अधिक सम्भावना है॰ जो एकान्त-्देश का सेवन करनेवाले विरक्त हैं, उनके लिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अध्याय छः में आहार के लिये एक नियम दिया कि युक्ताहार विहारस्य' इसी को ध्यान में रखकर आचरण करना चाहिये| जो भजन में सहायक है उतना ( वही ) आहार ग्रहण करना चाहिये| कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः आहारा राजसस्येष्टा दुःखाशोकामयप्रदाः१९१| कड़वे , खट्टे , अधिक नमकीन , अत्यन्त गर्म , तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख , चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करनेवाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं| यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्| उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्११०|| पदार्थ |
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३२२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता जो भोजन देर का बना हुआ है, गतरसं रसरहित , दुर्गन्धयुक्त, बासी , उच्छिष्ट ( जूठा ) और अपवित्र भी है , वह तामस पुरुष को प्रिय होता है| प्रश्न पूरा हुआ| अब प्रस्तुत है 'यज्ञ - अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते| यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः१११११| जो यज्ञ शास्त्रविधि से निर्धारित किया गया है (जैसा पीछे अध्याय ३ में यज्ञ का नाम लिया , अध्याय ४ में यज्ञ का स्वरूप बताया कि बहुत से योगी प्राण को अपान में , अपान को प्राण में हवन करते हैं| प्राण- अपान की गति निरोध कर प्राणों की गति स्थिर कर लेते हैं , संयमाग्नि में हवन करते हैं॰ इस प्रकार यज्ञ के चौदह सोपान बताये, जो सब-के-सब ब्रह्म तक की दूरी तय करा देनेवाली एक ही क्रिया को ऊँची - नीची अवस्थाएँ हैं| संक्षेप में यज्ञ चिन्तन की प्रक्रिया का चित्रण है, जिसका परिणाम सनातन ब्रह्म में प्रवेश है| जिसका विधान इस शास्त्र में किया गया है ) उसी शास्त्र-विधान पर पुनः बल देते हैं कि अर्जुन! शास्त्रविधि से नियत जिसे करना ही कर्त्तव्य है तथा जो मन का निरोध करनेवाला है,जो फल को न चाहनेवाले द्वारा किया जाता है वह यज्ञ सात्त्विक है॰ अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्| इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं राजसम्| ११२१ | हे अर्जुन ! जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिये ही हा या फल को उद्देश्य बनाकर किया जाता है, उसे राजस यज्ञ जान| यह कर्त्ता यज्ञ को विधि जानता है; दम्भाचरण या फल को उद्देश्य बनाकर करता है कि अमुक वस्तु मिलेगी तथा लोग देखें कि यज्ञ करता है - प्रशंसा करेंगे , ऐसा यज्ञकर्त्ता वस्तुतः राजसी है| अब तामस यज्ञ का स्वरूप बताते हैं- विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्| श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ११३१ | यज्ञ शास्त्रविधि रहित है, जो अन्न ( परमात्मा ) को सृष्टि कर विधिदृष्टः किये हुए, पुरुषों विद्द्वि किन्तु |
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सप्तदश अध्याय ३२३ सकने में असमर्थ है मन के अन्तराल में निरुद्ध करने को क्षमता से रहित है दक्षिणा अर्थात् सर्वस्व के समर्पण से रहित है तथा जो श्रद्धारहित है , ऐसा यज्ञ तामस यज्ञ कहा जाता है| ऐसा पुरुष वास्तविक यज्ञ को जानता ही नहीं| अब प्रस्तुत है तप- देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते१ ११४१ | परमदेव परमात्मा , द्वैत पर जय प्राप्त करनेवाले द्विज, सद्गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन , पवित्रता , सरलता , ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा शरीर - सम्बन्धी तप कहा जाता है| शरीर सदैव वासनाओं की ओर बहकता है , इसे अन्तःकरण की उपर्युक्त वृत्तियों के अनुरूप तपाना शारीरिक तप है| अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्| स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते१ ११५| | उद्वेग न पैदा करनेवाला , प्रिय , हितकारक और सत्य भाषण तथा परमात्मा में प्रवेश दिलानेवाले शास्त्रों के चिन्तन का अभ्यास, नाम जप- यह वाणी- सम्बन्धी तप कहा जाता है॰ वाणी विषयोन्मुख विचारों को भी व्यक्त करती रहती है, इसे उस ओर से समेटकर परमसत्य परमात्मा को दिशा में लगाना वाणी - सम्बन्धी तप है| अब मन-सम्बन्धी तप देखें- मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते१ ११६१| मन की प्रसन्नता , सौम्यभाव , मौन अर्थात् इष्ट के अतिरिक्त अन्य विषयों का स्मरण भी न हो॰ मन का निरोध , अन्तःकरण को सर्वथा पवित्रता- यह मन- सम्बन्धी तप कहा जाता है| उपर्युक्त तोनों शरीर, वाणी और मन का तप मिलाकर एक सात्त्विक तप है| श्रद्द्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः| अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते| १७| | |
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३२४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता फल को न चाहते हुए अर्थात् निष्काम कर्म से युक्त द्वारा परम श्रद्धा से किये हुए उपर्युक्त तीनों तपों को मिलाकर सात्त्विक तप कहते हैं| अब प्रस्तुत है राजस तप- सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्| क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमधरुवम्११८ | तप सत्कार , मान और पूजा के लिये अथवा केवल पाखण्ड से ही किया जाता है वह अनिश्चित एवं चंचल फलवाला तप राजस कहा गया है| मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् १९१| जो तप मूर्खतापूर्वक हठ सेः मन, वाणी और शरीर के पीड़ासहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये बदले को भावना से किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है॰ इस प्रकार सात्त्विक तप में शरीर, मन और वाणी को मात्र इष्ट के अनुरूप ढालना है| राजस तप में तप को क्रिया वहीं है; दम्भमान सम्मान को इच्छा से तपते हैं| प्रायः महात्मा लोग घर- बार छोड़ने के बाद भी इस विकार के शिकार हो जाते हैं और तीसरा तामस तप अविधिपूर्वक होता है , को पीडा़ पहुँचाने के दृष्टिकोण से होता है| अब प्रस्तुत है दान- दातव्यमिति यद्दानं दीयते उनुपकारिणे| देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् २०१ | दान देना ही कर्त्तव्य है- इस भाव सेजो दान देश ( स्थान) , काल समयानुकूल ) और सत्यपात्र के प्राप्त होने पर बदले में उपकार को भावना से रहित होकर दिया जाता है वह दान सात्त्विक कहा गया है| यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः| दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् २११| जो दान क्लेशपूर्वक ( जो देते नहीं बनता लेकिन देना पड़ रहा है ) तथा प्रत्युपकार की भावना से कि यह करूँगा तो यह मिलेगा अथवा फल को पुरुषों किन्तु दूसरों |
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सप्तदश अध्याय ३२५ उद्देश्य बनाकर फिर दिया जाता है वह दान राजस कहा गया है| अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते| असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् २२१| जो दान बिना सत्कार किये अथवा तिरस्कारपूर्वक झिड़ककर अयोग्य देश-काल में अनधिकारियों को दिया जाता है , वह दान तामस कहा गया है| पूज्य महाराज जी' कहा करते थे- ' हो, कुपात्र को दान देने से दाता नष्ट हो जाता है॰ " ठीक इसी प्रकार श्रीकृष्ण का कहना है कि दान देना ही कर्त्तव्य है| देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर बदले में उपकार न चाहने की भावना से उदारता के साथ दिया जानेवाला दान सात्त्विक है| कठिनाई से निकलनेवाला, बदले में फल की भावना से दिया जानेवाला दान राजस है और बिना सत्कार के , झिड़कियों के साथ प्रतिकूल देश-काल को दिया जानेवाला दान तामस है, लेकिन है दान ही; जो देह, गेह इत्यादि सबके ममत्व को त्यागकर एकमात्र इष्ट पर ही निर्भर है , उसके लिये दान का विधान और उन्नत है- वह है सर्वस्व का समर्पण, सम्पूर्ण वासनाओं से हटकर मन का समर्पणः जैसा कि श्रीकृष्ण ने कहा है- ' मय्येव मन आधत्स्व| अतः दान नितान्त आवश्यक है| अब प्रस्तुत है ३ँ४, तत् और सत् का स्वरूप- ३४ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः बाह्यणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा|१२३१| अर्जुन ! ३४ , तत् और सत् - ऐसा तीन प्रकार का नाम बह्मणः निर्देशः स्मृतः - ब्रह्म का निर्देश करता है , स्मृति दिलाता है , संकेत करता है और ब्रह्म का परिचायक है| उसी से ' पुरा - पूर्व में ( आरम्भ में) ब्राह्मण, वेद और यज्ञादि रचे गये हैं| अर्थात् ब्राह्मण, यज्ञ और वेद ओम् से पैदा होते हैं॰ ये योगजन्य हैं| ओम् के सतत चिन्तन से ही इनकी उत्पति है, और कोई तरीका नहों है॰ तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं बह्मवादिनाम् २४१ | में कुपात्र किन्तु इससे |
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३२६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता इसलिये ब्रह्म का कथन करनेवाले की शास्त्रविधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप-क्रियाएँ निरन्तर ओम् इस नाम का उच्चारण करके ही की जाती हैं , जिससे उस ब्रह्म का स्मरण हो जाय| अब तत् शब्द का प्रयोग बताते हैं तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः| | २५/ | अर्थात् वह ( परमात्मा ) ही सर्वत्र है, इस भाव से फल को न चाहकर शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट नाना प्रकार को यज्ञ , तप और दान को क्रियाएँ परम कल्याण की इच्छा करनेवाले द्वारा को जातीं हैं| तत् शब्द परमात्मा के प्रति समर्पणसूचक है| अर्थात् जप तो ओम् का करें तथा यज्ञ , दान और तप को क्रियाएँ उस पर निर्भर होकर करें| अब सत् के प्रयोग का स्थल बताते हैं- साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते| प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते| २६१ | और सत्ः योगेश्वर ने बताया कि सत् है क्याः गीता के आरम्भ में ही अर्जुन ने प्रश्न खडा किया कि हीं शाश्वत है , सत्य है, तो श्रीकृष्ण ने कहा - अर्जुन ! तुझे यह अज्ञान कहाँ से उत्पन्न सत् वस्तु का तीनों कालों में कभी अभाव नहों होता , उसे मिटाया नहों जा सकता और असत् वस्तु का तीनों कालों में अस्तित्व नहों है , उसे रोका नहीं जा सकता| वस्तुतः वह कौन - सी वस्तु है, जिसका तीनों कालों में अभाव नहों है? और वह असत् वस्तु है क्या, जिसका अस्तित्व नहीं है? तो बताया- यह आत्मा ही सत्य है और भूतादिकों के समस्त शरीर नाशवान् हैं| आत्मा सनातन है, अव्यक्त है , शाश्वत और अमृतस्वरूप है- यहीं परमसत्य है| यहाँ कहते हैं , सत् ऐसे परमात्मा का यह नाम सत्य के प्रति भाव में और साधुभाव में प्रयोग किया जाता है और हे पार्थ जब नियत कर्म सांगोपांग भली प्रकार होने लगे , तब सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है| सत् का अर्थ यह नहों है कि यह वस्तुएँ हमारी हैं| जब शरीर ही हमारा नहों है पुरुषों पुरुषों सद्भावे कुलधर्म हुआ? सढ्भावे ' |
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सप्तदश अध्याय ३२७ तो इसके उपभोग में आनेवाली वस्तुएँ हमारी कब हैं| यह सत् नहों है| सत् का प्रयोग केवल एक दिशा में किया जाता है - सद्भाव में| आत्मा ही परम सत्य है- इस सत्य के प्रति भाव हो, उसे साधने के लिये साधुभाव हो और उसकी प्राप्ति करानेवाला कर्म प्रशस्त ढंग से होने लगे, वहों सत् शब्द का प्रयोग जाता है| इसीं पर योगेश्वर अग्रेतर कहते हैं- यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते| कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते| १२७१ | यज्ञ तप और दान को करने में जो स्थिति मिलती है, वह भी सत् है- ऐसा कहा जाता है| तदर्थीयम् - उस परमात्मा की प्राप्ति के लिये किया हुआ कर्म हीं सत् है, ऐसा कहा जाता है| अर्थात् उस परमात्मा की प्राप्तिवाला कर्म ही सत् है| यज्ञ , दान , तप तो इस कर्म के पूरक हैं| अन्त में निर्णय देते हुए कहते हैं कि इन सबके लिये श्रद्धा आवश्यक है| अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह११२८१| हे पार्थ ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है , वह सब असत् है- ऐसा कहा जाता है| वह न तो इस लोक में और न परलोक में ही लाभदायक है| अतः समर्पण के साथ श्रद्धा नितान्त आवश्यक है| निष्कर्ष - अध्याय के आरम्भ में हीं अर्जुन ने प्रश्न किया कि- भगवन् ! जो शास्त्रविधि को त्यागकर और श्रद्धा होकर यजन करते हैं ( लोग भूत, भवानी अन्यान्य पूजते ही रहते हैं) तो उनकी श्रद्धा कैसी है? सात्त्विकी है, राजसी है अथवा तामसी? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! यह पुरुष श्रद्धा का स्वरूप ( पुतला) है, कहों-्न-कहों उनकीं श्रद्धा होगी ही| जैसी श्रद्धा जैसी वृत्ति वैसा पुरुष| उनकी वह श्रद्धा सात्त्विको , किया से युक्त वैसा पुरुष , |
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३२८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता राजसी और तामसी तीन प्रकार की होती है| सात्त्विकी श्रद्धावाले देवताओं को , राजसी श्रद्धावाले यक्ष ( जो यश , शौर्य प्रदान करे ) , राक्षसों ( जो सुरक्षा दे सके ) का पीछा करते हैं और तामसी श्रद्धावाले को पूजते हैं| शास्त्रविधि से रहित इन द्वारा ये तीनों प्रकार के श्रद्धालु शरीर में स्थित भूतसमुदाय अर्थात् अपने संकल्पों और हृदय देश में स्थित मुझ अन्तर्यामी को करते हैं, न कि पूजते हैं॰ उन सबको निश्चय असुर जान अर्थात् भूत, प्रेत , यक्ष , राक्षस तथा देवताओं को पूजनेवाले असुर हैं| देवता - प्रसंग को श्रीकृष्ण ने यहाँ तीसरी बार उठाया है| पहले अध्याय सात में उन्होंने कहा कि॰ अर्जुन ! कामनाओं ने जिनका ज्ञान हर लिया है , वही मूढ़बुद्धि अन्य देवताओं करते हैं| दूसरी बार अध्याय नौ में उसी प्रश्न को हुए कहा- जो अन्यान्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी मुझे ही पूजते हैं किन्तु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् शास्त्र में निर्धारित विधि से भिन्न है, अतः वह नष्ट हो जाता है| यहाँ अध्याय सत्रह में उन्हें आसुरी स्वभाववाला कहकर सम्बोधित किया| श्रीकृष्ण के शब्दों में एक परमात्मा की ही पूजा का विधान है| तदनन्तर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने चार प्रश्न लिये- आहार , यज्ञ , तप और दान| आहार तीन प्रकार के होते हैं| सात्त्विक पुरुष को तो आरोग्य प्रदान करनेवाले , स्वाभाविक प्रिय लगनेवाले, स्निग्ध आहार प्रिय होते हैं॰ राजस पुरुष को कड़वे , तीक्ष्ण , उष्ण , चटपटे , मसालेदार , रोगवर्द्धक आहार प्रिय होते हैं| तामस पुरुष को जूठा , बासी और अपवित्र आहार प्रिय होता है| शास्त्रविधि से निर्दिष्ट यज्ञ ( जो आराधना की अन्तःक्रियाएँ हैं) जो मन का निरोध करता है फलाकांक्षा से रहित वह यज्ञ सात्त्विक है| दम्भ- प्रदर्शन तथा फल के लिये किया जानेवाला वहीं यज्ञ राजस है और शास्त्रविधि से रहित, मन्त्र दान तथा बगैर श्रद्धा से किया हुआ यज्ञ तामस है| परमदेव परमात्मा में प्रवेश दिलानेवाली सारी योग्यताएँ जिनमें हैं , उन प्राज्ञ सद्गुरु की अर्चना, सेवा और अन्तःकरण से अहिंसा , और भूत ्प्रेतों पूजाओं भी कृश ही तू को पूजा दुहराते ब्रह्मचर्य |
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सप्तदश अध्याय ३२९ पवित्रता के अनुरूप शरीर को तपाना शरीर का तप है॰ सत्य, प्रिय और हितकर वाणी का तप है और मन को कर्म में प्रवृत्त रखना , अतिरिक्त विषयों के चिन्तन में मन को मौन रखना मन- सम्बन्धी तप है| मन वाणी और शरीर तीनों मिलाकर इस ओर तपाना सात्त्विक तप है| राजस तप में कामनाओं के साथ उसी को किया जाता है जबकि तामस तप शास्त्रविधि से रहित स्वेच्छाचार है॰ कर्त्तव्य मानकर देश॰ काल और पात्र का विचार करके श्रद्धापूर्वक दिया गया दान सात्त्विक है| किसीं लाभ के लोभ में कठिनाई से दिया जानेवाला दान राजस है और झिड़ककर कुपात्र को दिया जानेवाला दान तामस है| ३ँ , तत् और सत् का स्वरूप योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि ये नाम परमात्मा की स्मृति दिलाते हैं| शास्त्रविधि से निर्धारित तप, दान और यज्ञ आरम्भ करने में ओम् का प्रयोग होता है और पूर्ति में ही ओम् पिण्ड छोड़ता है| तत् का अर्थ है वह परमात्मा , उसके प्रति समर्पित होकर हीं वह कर्म होता है और जब कर्म धारावाही होने लगे , तब सत् का प्रयोग होता है| भजन ही सत् है| सत् के प्रति भाव और साधुभाव में ही सत् का प्रयोग किया जाता हैं परमात्मा की प्राप्ति करा देनेवाले कर्म यज्ञ , दान और तप के परिणाम में भी सत् का प्रयोग है और परमात्मा में प्रवेश दिला देनेवाला कर्म निश्चयपूर्वक सत् है; किन्तु इन सबके साथ श्रद्धा आवश्यक है| श्रद्धा से रहित होकर किया हुआ कर्म, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप न इस जन्म में लाभकारी है, न अगले जन्मों में ही| अतः श्रद्वा अपरिहार्य है| सम्पूर्ण अध्याय में श्रद्धा पर प्रकाश डाला गया और अन्त में ३ँ४ , तत् और सत् की विशद व्याख्या प्रस्तुत की गयी, जो गीता के श्लोकों में पहली बार आया है| अतः ३४ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्यविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे ३४० तत्सत् श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोउध्यायः १७| | इष्ट के बोलना बताते हुए |
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३३ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ३४ तत्सत् श्रद्धात्रय विभाग योग नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण होता है| श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्गगीतायाः यथार्थगीता ' भाष्ये ३४ तत्सत् श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशो उध्यायः१११७१| इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य ' यथार्थ गीता में ३४ तत्सत् श्रद्धात्रय विभाग योग' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण होता है| हरिः ३>ँ तत्सत् |१ इति |
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३ँँ श्री परमात्मने नमः / | || अथाष्टादशोडध्यायः |१ यह गीता का अन्तिम अध्याय है , जिसके पूर्वार्द्ध में योगेश्वर द्वारा प्रस्तुत अनेक प्रश्नों का समाधान है तथा उत्तरार्द्ध गीता का उपसंहार है कि गीता से लाभ क्या है? सत्रहवें अध्याय में आहार , तप, यज्ञ , दान तथा श्रद्धा का विभागसहित स्वरूप बताया गया, उसी सन्दर्भ में त्याग के प्रकार शेष हैं| मनुष्य जो कुछ करता है, उसमें कारण कौन है? कौन कराता है? भगवान कराते हैं या प्रकृतिः यह प्रश्न पहले से आरम्भ है, जिस पर इस अध्याय में पुनः प्रकाश डाला गया| इसो प्रकार वर्ण-व्यवस्था को चर्चा हो चुको है| सृष्टि में व्याप्त उसके स्वरूप का विश्लेषण इस अध्याय में प्रस्तुत है| अन्त में गीता मिलनेवाली विभूतियों पर प्रकाश डाला गया है| गत अध्याय में अनेक प्रकरणों का विभाजन सुनकर अर्जुन ने स्वयं एक प्रश्न रखा कि त्याग और संन्यास को भी विभागसहित बतायें- अर्जुन उवाच सन्र्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि त्यागम्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदना१११| अर्जुन बोला- हे महाबाहो! हे हृदय के सर्वस्व! हे केशिनिषूदन मैं संन्यास और त्याग के यथार्थ स्वरूप को पृथक् पृथक् जानना चाहता हूँ पूर्ण त्याग संन्यास है, जहाँ संकल्प और संस्कारों का भी समापन है और इससे पहले साधना को पूर्ति के लिये उत्तरोत्तर आसक्ति का त्याग ही त्याग है| यहाँ दो प्रश्न हैं कि संन्यास के तत्त्व को जानना चाहता हूँ और दूसरा है कि त्याग के तत्त्व को जानना चाहता हूँ| इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- श्रीकृष्ण वेदितुम् |
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३३२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता श्रीभगवानुवाच काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः१ १२१| अर्जुन ! कितने हो पण्डितजन काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं और कितने ही विचार- कुशल पुरुष सम्पूर्ण कर्मफलों के त्याग को त्याग कहते हैं| त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरेढ़१३१| कई एक विद्वान् ऐसा कहते हैं कि सभी कर्म दोषयुक्त हैं, अतः त्याग देने योग्य हैं और दूसरे विद्वान् ऐसा कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप त्यागने योग्य नहों हैं| इस प्रकार अनेक मत प्रस्तुत करके योगेश्वर अपना भी निश्चित मत देते हैं- निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम| त्यागो हि पुरुषव्याघर त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः११४१ | हे अर्जुन ! उस त्याग के विषय में तू मेरे निश्चय को सुन| हे पुरुषश्रेष्ठ ! वह त्याग तीन प्रकार का कहा गया है॰ यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्| यज्ञो ढानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्| १५/| यज्ञ , दान और तप- ये तीन प्रकार के कर्म त्यागने योग्य नहों हैं , इन्हें तो करना हीं चाहिये; क्योंकि यज्ञ, दान और तप तीनों हीं पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं| श्रीकृष्ण ने चार प्रचलित मतों का उल्लेख किया| पहला- काम्य कर्मों का त्याग, दूसरा- सम्पूर्ण कर्मफलों का त्याग, तीसरा - दोषयुक्त होने के कारण सभी कर्मों का त्याग और चौथा मत- यज्ञ , दान और तप त्यागने योग्य नहों हैं| उनमें से एक मत में अपनी सहमति प्रकट करते हुए कहा- अर्जुन ! मेरा भी यह निश्चित किया हुआ मत है कि यज्ञ, दान और तपरूप क्रिया विदुः | |
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अष्टादश अध्याय ३३३ त्यागने योग्य नहीं है| इससे सिद्ध है कि कृष्णकाल में भी कई मत प्रचलित थे जिनमें एक यथार्थ था| उस काल में भी कई मत थे, आज भी हैं| महापुरुष जव दुनिया में आता है तो कई मत-्मतान्तरों में से कल्याणकारी मत को निकालकर सामने खडा कर देता है॰ प्रत्येक महापुरुष ने यहीं किया है, श्रीकृष्ण ने भी यही किया| उन्होंने कोई नया मार्ग नहों बताया, बल्कि प्रचलित कई मतों के बीच सत्य को समर्थन देकर उसे स्पष्ट कर दिया| एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च| कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्ढ़१६१| योगेश्वर श्रीकृष्ण बल देकर कहते हैं- पार्थ! यज्ञ, दान और तपरूप कर्म आसक्ति और फल को त्यागकर अवश्य करना चाहिये| यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है| अब अर्जुन के प्रश्न के अनुसार वे त्याग का विश्लेषण करते हैं- नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते| मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः १७ | | हे अर्जुन ! नियत कर्म ( श्रीकृष्ण के शब्दों में नियत कर्म एक ही है, यज्ञ को प्रक्रिया| इस नियत शब्द को आठ-्दस बार योगेश्वर ने कहा| इस पर बार-बार बल दिया कि कहों साधक भटककर दूसरा न करने लगे) , इस शास्त्रविधि से निर्धारित कर्म का त्याग करना उचित नहों है॰ मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग कहा गया है| सांसारिक विषय- वस्तुओं को आसक्ति में फँसकर कार्यम् कर्म ( कार्यम् कर्म , नियत कर्म एक दूसरे के पूरक हैं ) का त्याग तामसी है| ऐसा पुरुष अधः गच्छति - कोट - पतंगपर्यन्त अधम योनियों में जाता हैः क्योंकि उसने भजन को प्रवृत्तियों का त्याग कर दिया| अब राजस त्याग के विषय में बताते हैं- दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्१८१| कर्म को दुःखमय समझकर शारीरिक क्लेश के भय से उसका त्याग करनेवाला व्यक्ति राजस त्याग को करके भी त्याग के फल को प्राप्त नहों |
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३३४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता होता| जिससे भजन पार न लगे और ' कायक्लेशभयात् इस भय से कर्म को त्याग दे कि शरीर को कष्ट होगा , उस मनुष्य का त्याग राजस है| उसे त्याग का फल परमशान्ति नहों प्राप्त होती| तथा- कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेर्जुन| सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः१ १९| | हे अर्जुन करना कर्तव्य है- ऐसा समझकर जो नियतम् - शास्त्र- विधि से निर्धारित किया हुआ कर्म संगदोष और फल को त्यागकर किया जाता है , वही सात्त्विक त्याग है| अतः नियत कर्म करें और इसके सिवाय जो कुछ है उसका त्याग कर दें| यह नियत कर्म भी क्या करते ही रहेंगे या कभी इसका भी त्याग होगा? इस पर कहते हैं ( अब अन्तिम त्याग का रूप देखें) - न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म नानुषज्जते| त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः१११०१ | हे अर्जुन! जो पुरुष अकुशलं कर्म' अर्थात् अकल्याणकारी कर्म से ( शास्त्र नियत कर्म ही कल्याणकारी है| विरोध में जो कुछ है , इसी लोक का बन्धन है इसलिये अकल्याणकारी है, ऐसे कर्मों से) द्वेष नहीं करता और कल्याणकारीं कर्म में आसक्त नहों होता, जो करना था वह भी शेष नहों है- ऐसा सत्त्व से संयुक्त पुरुष संशयरहित, ज्ञानवान् और त्यागी है| उसने सब कुछ त्यागा है , लेकिन प्राप्ति के साथ वह पूर्ण त्याग ही संन्यास है| हो सकता है और कोई सरल रास्ता हो? इस पर कहते हैं ् नहीं| देखें- न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते१११११ | देहधारी के द्वारा ( केवल शरीर ही नहों , जिसे आप देखते हैं| श्रीकृष्ण के अनुसार प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व, रज, तम तीनों गुण हीं इस जीवात्मा को शरीरों में बाँधते हैं॰ जब तक गुण जीवित हैं तब तक वह जीवधारी है| किसी-्न-किसी रूप में शरीर परिवर्तित होता रहेगा| अतः देह के कारण जब तक जीवित है ) सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग संभव नहों है , इसलिये कर्म के फल का त्यागी है , वहीं त्यागी है- ऐसा कहा कुशले इसके पुरुषों जो पुरुष |
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अष्टादश अध्याय २२५ जाता है| अतः जब तक शरीर के कारण जीवित हैं, तब तक नियत कर्म करें और उसके फल का त्याग करें| बदले में किसीं फल को कामना न करें| वैसे सकामी के कर्मों का फल भी होता है- अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्| भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्वचित्११२१| सकामी के कर्मों का अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसा तोन प्रकार का फल मरने का पश्चात् भी होता है , जन्म- जन्मान्तरों तक मिलता है; सन्यासिनाम् ' सर्वस्व का न्यास ( अन्त) करनेवाले पूर्ण त्यागी के कर्मों का फल किसीं भी काल में नहों होता| संन्यास है| संन्यास चरमोत्कृष्ट अवस्था है| भले-बुरे कर्मों का फल तथा पूर्ण न्यासकाल में उनके अन्त का प्रश्न पूरा हुआ| अब पुरुष शुभ अथवा अशुभ कर्म होने में क्या कारण हैं? इस पर देखें- पञ्चेतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे| कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्॰ /१३१ | हे महाबाहो सम्पूर्ण कर्मों को सिद्धि के लिये पाँच कारण सांख्य- सिद्धान्त में कहे गये हैं, उन्हें तू मुझसे भली प्रकार जान| अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्| विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ११४ | इस विषय में कर्त्ता ( यह मन) , पृथक् पृथक् करण ( जिनके द्वारा किया जाता है| यदि शुभ पार लगता है तो विवेक , वैराग्य , शम , दम , त्याग अनवरत चिन्तन को प्रवृत्तियाँ इत्यादि करण होंगी| यदि अशुभ पार लगता है तो काम , क्रोध , राग , द्वेष , लिप्सा इत्यादि करण होंगे| इनके द्वारा प्रेरित होँगे ) , नाना प्रकार को न्यारी-्न्यारी चेष्टाएँ ( अनन्त इच्छाएँ) , आधार अर्थात् साधन (जिस इच्छा के साथ साधन मिला वही इच्छा पूरी होने लगती है॰ ) और पाँचवाँ हेतु है दैव अथवा संस्कार| इसकीं पुष्टि करते हैं- शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः| न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ११५ | पुरुषों पुरुषों किन्तु पुरुषों यहो शुद्ध के द्वारा साङ्ख्ये |
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३३६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता मनुष्य मन , वाणी और शरीर से शास्त्र के अनुसार अथवा विपरीत कर्म आरम्भ करता है , उसके ये पाँचों हो कारण हैं| परन्तु ऐसा होने पर भी- तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः| पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः१ ११६१| अशुद्ध बुद्धि के कारण उस विषय में कैवल्यस्वरूप आत्मा को कर्त्ता देखता है , वह दुर्बुद्धि यथार्थ नहों देखता अर्थात् भगवान नहों करते इस प्रश्न पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दूसरी बार बल दिया| अध्याय ५ में उन्होंने कहा कि वह प्रभु न करता है न कराता है, न क्रिया के संयोग को जोड़ता है| तो लोग कहते क्यों हैं? मोह से लोगों की बुद्धि आवृत्त है, इसलिये कुछ भी कह सकते हैं| यहाँ भी कहते हैं - कर्म होने में पाँच कारण हैं| उसके बावजूद भी जो कैवल्य स्वरूप परमात्मा को कर्त्ता देखता है, वह मूढ़बुद्धि ( दुर्बुद्धि ) यथार्थ नहों देखता अर्थात् भगवान नहों करते , जबकि अर्जुन के लिये ताल ठोंककर खड़े हो जाते हैं, निमित्तमात्रं भव कि कर्त्ता- धर्त्ता तो मैं हूँ॰ निमित्त बनकर खडा भर रह| अन्ततः वे महापुरुष कहना क्या चाहते हैं? वस्तुतः भगवान और प्रकृति के बीच एक आकर्षण रेखा है| जब तक साधक प्रकृति की सीमा में है, भगवान नहों करते| बहुत समीप रहकर भी द्रष्टा- रूप में हीं रहते हैं| अनन्य भाव से इष्ट को पकड़ने पर वे हृदय- देश से संचालक बन जाते हैं॰ साधक प्रकृति को आकर्षण सीमा से निकलकर उनके क्षेत्र में आ जाता है| ऐसे के लिये वे ताल ठोंककर सदैव खड़े रहते हैं| केवल उसी के लिये भगवान करते हैं| अतः चिन्तन करें| प्रश्न पूरा हुआ| आगे देखें - यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धि्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते| ११७१| जिस पुरुष के अन्तःकरण में मैं कर्त्ता हूँ - ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि लिपायमान नहीं होती , वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भो वास्तव में नतो मारता है और न बँधता है॰ लोक ्सम्बन्धी संस्कारों का विलय ही लोक- संहार है| अब उस नियत कर्म की प्रेरणा कैसे होती है? इस पर देखें- जो कुछ जो पुरुष अनुरागी |
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अष्टादश अध्याय ३३७ ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना| करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः ११८१| अर्जुन ! परिज्ञाता अर्थात् पूर्णज्ञाता से, ज्ञानम् - उसको जानने को विधि से और ज्ञेयम् - जानने योग्य वस्तु ( श्रीकृष्ण ने पीछे कहा कि मैं हीं ज्ञेय, जानने योग्य पदार्थ हूँ॰ से कर्म करने को प्रेरणा मिलती है| पहले तो पूर्णज्ञाता कोई महापुरुष हो, उनके द्वारा उस ज्ञान को जानने की विधि प्राप्त हो , लक्ष्य - ज्ञेय पर दृष्टि हो तभी कर्म की प्रेरणा मिलतीं है और कर्त्ता (मन कोी लगन ) , करण ( विवेक , वैराग्य , शम , दम इत्यादि ) तथा कर्म की जानकारीं से कर्म का संग्रह होता है , कर्म इकट्ठा होने लगता है| पीछे कहा गया कि प्राप्ति के पश्चात् उस पुरुष का कर्म किये जाने से कोई प्रयोजन नहों होता और न छोड़ने से हानि ही होती है; फिर भी लोकसंग्रह अर्थात् पीछेवालों के हृदय में कल्याणकारीं साधनों के संग्रह के लिये वह कर्म में बरतता है| कर्त्ता , करण और कर्म इनका संग्रह होता है| ज्ञान , कर्म और कर्त्ता के भी तीन-्तीन भेद हैं- कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः| प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छणु तान्यपि| ११९१ | ज्ञान कर्म तथा कर्त्ता भी गुणों के भेद से सांख्यशास्त्र में तोन- तीन प्रकार के कहे गये हैं , उन्हें भी तू यथावत् सुन| प्रस्तुत है पहले ज्ञान का भेद - सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते| अविभक्तं विद्धि सात्त्विकम्| |२०| | अर्जुन ! जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्- पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित एकरस देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्तविक जान| ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभूति है, जिसके साथ हीं गुणों का अन्त होना है| यह ज्ञान को परिपक्व अवस्था है| अब राजस ज्ञान देखें- पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्| वेत्ति सर्वेषु भूतेषु विद्धि राजसम् २११ | जो ज्ञान सम्पूर्ण भूतों में भिन्न प्रकार के अनेक भावों को अलग-्अलग ज्ञानं महापुरुषों के द्वारा ज्ञानं विभक्तेषु तज्ज्ञानं तज्ज्ञानं |
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३३८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता करके जानता है कि यह अच्छा है, ये बुरे हैं- उस ज्ञान को तू राजस जान| ऐसी स्थिति है तो राजसी स्तर पर तुम्हारा ज्ञान है| अब देखें तामस ज्ञान- यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्| अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् २२| | जो ज्ञान एकमात्र शरीर में ही सम्पूर्णता आसक्त है, युक्तिरहित अर्थात् जिसके पीछे कोई क्रिया नहों है, तत्त्व के अर्थस्वरूप परमात्मा की जानकारी से अलग करनेवाला और तुच्छ है, वह ज्ञान तामस कहा जाता है| अब प्रस्तुत है कर्म के तीन भेद- नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्| अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ११२३ | जो कर्म नियतम् - शास्त्रविधि से निर्धारित है ( अन्य नहों ) , संगदोष और फल को न चाहनेवाले पुरुष द्वारा बिना राग- द्वेष के किया जाता है , वह कर्म सात्त्विक कहा जाता है॰ [नियत कर्म ( आराधना ) चिन्तन है, जो परम में प्रवेश दिलाता है ] यत्तु कर्म साहङ्कारेण वा पुनः क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् २४१| जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त है , फल को चाहनेवाले और अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा जाता है| यह पुरुष भी वही नियत कर्म करता है; अन्तर मात्र इतना ही है कि फल को इच्छा और अहंकार से युक्त है इसलिये उसके द्वारा होनेवाले कर्म राजस हैं| अब देखें तामस- अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्| मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते १२५|| जो कर्म अन्ततः नष्ट होनेवाला है, हिंसा-सामर्थ्य को न विचार कर केवल आरम्भ किया जाता है वह कर्म तामस कहा जाता है| स्पष्ट है कि यह कर्म शास्त्र का नियत कर्म नहों है , उसके स्थान पर भ्रान्ति है| अब देखें कर्त्ता के लक्षण- के सदृश कामेप्सुना किन्तु मोहवश |
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अष्टादश अध्याय ३३९ मुक्तसङ्गो उनहंवादीं धृत्युत्साहसमन्चितः सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते| १२६ 0 1 कर्त्ता संगदोष से रहित होकर, अहंकार के वचन न बोलनेवाला , धैर्य और उत्साह होकर के सिद्ध होने और न होने में हर्ष, शोक इत्यादि विकारों से सर्वथा रहित होकर कर्म में ( अहर्निश ) प्रवृत्त है , वह कर्त्ता सात्त्विक कहा जाता है| यहीं उत्तम साधक के लक्षण हैं| कर्म वही है- नियत कर्म| रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोउशुचिः| हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः २७१| आसक्तियुक्त, कर्मों के फल को चाहनेवाला, लोलुप, आत्माओं को कष्ट देनेवाला , अपवित्र और हर्ष - शोक से जो लिप्त है , वह कर्त्ता राजस कहा गया है| अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोउलसः विषादी दीर्घासूत्री च कर्ता तामस उच्यते| २८| | जो चंचल चित्तवाला , असभ्य, घमण्डी , धूर्त , दूसरे के कार्यों में बाधा पहुँचानेवाला , शोक करने के स्वभाववाला , आलसी और दीर्घसूत्री है कि फिर कर लेंगे , वह कर्त्ता तामस कहा जाता है| दीर्घसूत्री कर्म को कल पर टालनेवाला है, यद्यपि करने की इच्छा उसे भी रहतीं है| इस प्रकार कर्त्ता के लक्षण पूरे हुए॰ अब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने नवीन प्रश्न उठाया - बुद्धि , धारणा के लक्षण - बुद्धेर्भेदं धृतेश्रैव गुणतस्त्रिविधं शृणु| प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जया१२९१| धनंजय ! बुद्धि और धारणा शक्ति का भी गुणों के कारण तीन प्रकार का भेद सम्पूर्णता से विभागपूर्वक मुझसे सुन| प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी १३०१| से युक्त कार्य और सुख |
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२४० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता पार्थ प्रवृत्ति और निवृत्ति को, कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को, भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को जो बुद्धि यथार्थ है, वह बुद्धि सात्त्विको है| अर्थात् परमात्म-पथ, आवागमन- पथ दोनों की भली प्रकार जानकारीवाली बुद्धि सात्त्विको है| तथा- यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च| अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी| १३११| पार्थ ! जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को भी यथावत् नहीं जानता , अधूरा जानता है, वह बुद्धि राजसी है| अब तामसी बुद्धि का स्वरूप देखें- अधर्मं धर्ममिति यामन्यते तमसावृता | सर्वार्थान्तिपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी| १३२१ | पार्थ! तमोगुण से ढँकी हुई जो बुद्धि अधर्म को धर्म मानती है तथा सम्पूर्ण हितों को विपरीत ही देखती है, वह बुद्धि तामसी है| यहाँ श्लोक तीस से बत्तीस तक बुद्धि के तीन भेद बताये गये| जो बुद्धि किस कार्य से निवृत्त होना है और किसमें प्रवृत्त होना है , कौन कर्त्तव्य है और कौन अकर्त्तव्य है- इसकी भली प्रकार रखती है , वह बुद्धि सात्त्विकी है|जो कर्त्तव्य ्अकर्त्तव्य को धूमिल ढंग से जानती है, यथार्थ नहीों जानती - वह राजसी बुद्धि है और अधर्म को धर्म, नश्वर को शाश्वत तथा हित को अहित- इस प्रकार विपरीत जानकारीवाली बुद्धि तामसी है| इस प्रकार बुद्धि के भेद समाप्त हुए| अब प्रस्तुत है दूसरा प्रश्न, धृति - धारणा के तोन भेद- धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी| १३३| | ' योगेन - यौगिक प्रक्रिया के द्वारा ' अव्यभिचारिणी - योग-चिन्तन के अलावा दूसरे किसी स्फुरण का आना व्यभिचार है चित्त का बहक जाना व्यभचार है; इसके विपरीत अव्यभिचारिणी धारणा से मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों को क्रिया को जो धारण करता है वह धारणा सात्त्विको है| जानती जानकारी |
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अष्टादश अध्याय ३४२ अर्थात् मन , प्राण और इन्द्रियों को इष्ट की दिशा में मोड़ना ही सात्त्विकी धारणा हे तथा - यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेउर्जुना प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी| १३४१ | हे पार्थ फल को इच्छावाला मनुष्य अति आसक्ति से जिस धारणा के द्वारा केवल धर्म, अर्थ और काम को धारण करता है ( मोक्ष को नहों ) , वह धारणा राजसी है॰ इस धारणा में भी लक्ष्य वही है , केवल कामना करता है|जो कुछ करता है , उसके बदले में चाहता है| अब तामसी धारणा के लक्षण देखें- यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च| न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी| १३५/ | हे पार्थ ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारणा के द्वारा भय. चिन्ता दुःख और अभिमान को भी ( नहों छोड़ता इन सबको ) धारण किये रहता है, वह धारणा तामसी है| यह प्रश्न पूरा हुआ| अगला प्रश्न है, सुख- त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ| अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छतित ३६१| अर्जुन ! अब सुख भी तीन प्रकार का सुनः उनमें से जिस सुख में साधक अभ्यास से रमण करता है अर्थात् चित्त को समेटकर इष्ट में रमण करता है और जो दुःखों का अन्त करनेवाला है तथा- यत्तदग्रे विषमिव परिणामेउमृतोपमम्| तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ३७| | उपर्युक्त सुख साधन के आरम्भकाल में यद्यपि विष के सदृश लगता है (प्रह्लाद को शूली पर चढ़ाया गया, मीरा को विष मिला| कबीर कहते हैं- सुखिया सब संसार है , खाये अरु सोवै| दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै| अतः आरम्भ में विष-्जैसा भासता है ) परन्तु परिणाम में अमृततुल्य है, अमृत ्तत्त्व को दिलानेवाला है, अतः आत्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पत्न हुआ सुख सात्त्विक कहा गया है| तथा- निद्रा , सुखं मुझसे |
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३४२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेउमृतोपमम् परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ३८१| जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह यद्यपि भोगकाल के सदृश लगता है किन्तु परिणाम में विष के सदृश है; क्योंकि जन्म- मृत्यु का कारण है, वह सुख राजस कहा गया है| तथा- यदग्रे चानुबान्धे च सुखं मोहनमात्मनः निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ३९१ | जो सुख भोगकाल और परिणाम में भी आत्मा को मोह में डालनेवाला है , निद्रा या निशा सर्वभूतानाम् - जगत् को निशा में अचेत रखनेवाला है आलस्य और व्यर्थ को चेष्टाओं से उत्पन्न वह सुख तामस कहा गया है| अब योगेश्वर श्रीकृष्ण गुणों की पहुँच बताते हैं, जो सबके पीछे लगे हैं- न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः१ सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः1 १४०१ | अर्जुन ! में, आकाश में अथवा देवताओं में ऐसा कोई भी प्राणी नहों , जो प्रकृति से उत्पन्न गुणों से रहित हो| अर्थात् ब्रह्मा से लेकर कोट-् पतंग यावन्मात्र जगत् क्षणभंगुर, मरने-जीनेवाला है तीनों गुणों के अन्तर्गत है अर्थात् देवता भी तीनों गुणों का विकार है नश्वर है| यहाँ बाह्य देवताओं को योगेश्वर ने चौथी बार लिया- अध्याय सात नौ , सत्रह तथा यहाँ अठारहवें अध्याय में॰ इन सबका एक ही अर्थ है कि देवता तीनों गुणों के अन्तर्गत हैं| जो इन्हें भजता है , नश्वर करता है| भागवत के द्वितीय स्कन्ध में महर्षि शुक तथा परीक्षित का प्रसिद्ध आख्यान है| जिसमें उपदेश देते हुए वे कहते हैं कि स्त्री - पुरुष में प्रेम के लिये शंकर - पार्वती की , आरोग्य के लिये अश्विनीकुमारों को , विजय के लिये इन्द्र को तथा धन के लिये कुबेर को पूजा करें| इसी तरह विविध कामनाएँ बताकर अन्त में निर्णय देते हैं कि कामनाओं की पूर्ति और मोक्ष के लिये तो एकमात्र नारायण को पूजा करनी चाहिये| तुलसीं सीँचिए , फूलइ में अमृत पृथ्वी हुए तोनों को पूजा सम्पूर्ण मूलहिं |
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अष्टादश अध्याय ३४३ फलइ अघाइ1 अस्तु, सर्वव्यापक प्रभु का स्मरण करें, जिसकी पूर्ति के लिये सद्गुरु की शरण, निष्कपट भाव से प्रश्न और सेवा एकमात्र उपाय है| आसुरी और दैवीं सम्पद् अन्तःकरण की दो वृत्तियाँ हैं| जिसमें दैवी सम्पद् परमदेव परमात्मा का दिग्दर्शन कराती है, इसलिये दैवीं कहीं जाती है; किन्तु यह भी तीनों गुणों के ही अन्तर्गत है| गुण शान्त होने के पश्चात् भी शान्ति हो जाती है| तत्पश्चात् उस आत्मतृप्त योगी के लिये कोई भी कर्त्तव्य शेष नहों रह जाता| अब प्रस्तुत है पीछे से आरम्भ हुआ प्रश्न वर्ण-्व्यवस्था| वर्ण जन्म- प्रधान है अथवा कर्मों से पायी जानेवाली अन्तःकरण को योग्यता का नाम है? इस पर देखें- बाह्मणक्षत्रियविशां च परन्तप| कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः १४११| हे परंतप ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं| स्वभाव में सात्त्विक गुण होगा तो आप में निर्मलता होगी , ध्यान - समाधि को क्षमता होगी| तामसी गुण होगा तो आलस्य निद्रा, प्रमाद रहेगा| उसी स्तर से आपसे कर्म भी होगा| कार्यरत है, वहीं आपका वर्ण है , स्वरूप है| इसीं प्रकार अर्द्ध- सात्त्विक और अर्द्ध - राजस से एक वर्ग क्षत्रिय का है और आधा से कम तामस तथा विशेष राजस से द्वितीय वर्ग वैश्य का है| इस प्रश्न को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यहाँ चौथी बार लिया है| अध्याय दो में इन चार वर्णों में से एक क्षत्रिय का नाम लिया कि क्षत्रिय के लिये युद्ध से श्रेयतर कोई मार्ग नहों है| तीसरे अध्याय में उन्होंने कहा कि दुर्बल गुणवाले के लिये भी उसके स्वभाव से उत्पन्न योग्यता के अनुसार धर्म में प्रवृत्त होना, उसमें मर जाना भी परम कल्याणकारी है| की नकल करना भयावह है| अध्याय चार में बताया कि चार वर्णों की सृष्टि मैंने को| तो क्या मनुष्यों को चार जातियों में बाँटा? कहते हैं- नहों , ' गुणकर्म विभागशः गुणों को योग्यता से कर्म को चार सोपानों में बाँटा| एक पैमाना है, उसके द्वारा इनको शूद्राणां जो गुण दूसरों यहाँ गुण |
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३४४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता मापकर कर्म करने को क्षमता को चार भागों में बाँटाा श्रीकृष्ण के शब्दों में कर्म एकमात्र अव्यक्त पुरुष की प्राप्ति की क्रिया है| ईश्वर-प्राप्ति का आचरण आराधना है , जिसकी शुरुआत मात्र एक इष्ट में श्रद्धा से है| चिन्तन की विधि- विशेष है, जिसे पीछे बता आये हैं॰ इस यज्ञार्थ कर्म को चार भागों में बाँटा| अब कैसे समझें कि हममें कौन से गुण हैं और किस श्रेणी के हैं? इस पर यहाँ कहते हैं- शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च| विज्ञानमास्तिक्यं बह्यमकर्म स्वभावजम्| १४२| | मन का शमन, इन्द्रियों का दमन, पूर्ण पवित्रताः मन, वाणी और शरीर को इष्ट के अनुरूप तपाना, क्षमाभाव; मन इन्द्रियों और शरीर को सर्वथा सरलता , आस्तिक बुद्धि अर्थात् एक इष्ट में सच्ची आस्था , अर्थात् परमात्मा की जानकारीं का संचार , विज्ञान अर्थात् परमात्मा से मिलनेवाले निर्देशों कोी जागृति एवं उसके अनुसार चलने को क्षमता- यह सब स्वभाव से उत्पन्न हुए ब्राह्मण के कर्म हैं अर्थात् जब स्वभाव में यह योग्यताएँ पायो जायँ, कर्म धारावाही होकर स्वभाव में ढल जाय तो वह ब्राह्मण श्रेणी का कर्त्ता है| तथा- शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्| दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्| |४३ | शूरवीरता , ईश्वरीय तेज का मिलना, धैर्य, चिन्तन में दक्षता अर्थात् कर्मसु कौशलम् ' कर्म करने में दक्षता , प्रकृति के संघर्ष से न भागने का स्वभाव , दान अर्थात् सर्वस्व का समर्पण, सब भावों पर स्वामिभाव अर्थात् ईश्वरभाव - यह सब क्षत्रिय के स्वभावजम् ' स्वभाव से उत्पन्न हुए कर्म हैं स्वभाव में ये योग्यताएँ पायो जाती हैं तो वह कर्त्ता क्षत्रिय है| अब प्रस्तुत है, वैश्य तथा शूद्र का स्वरूप - कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्| परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् १४४१ | कृषि, गो-रक्षा और व्यवसाय वैश्य के स्वभावजन्य कर्म हैं॰ गोपालन को क्यों? भैंस को मार डालें? बकरी न रखें? ऐसा कुछ नहों है| सुदूर वैदिक ज्ञानं ज्ञान |
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अष्टादश अध्याय ३४५ वाङ्मय मेंगो॰ शब्द अन्तःकरण एवं इन्द्रियों के लिये प्रचलित था| गो-रक्षा का अर्थ है इन्द्रियों की रक्षा| विवेक , वैराग्य, शम, दम के द्वारा इन्द्रियाँ सुरक्षित होती हैं और काम , क्रोध , लोभ , मोह के द्वारा ये विभक्त हो जातीं हैं, क्षीण हो जाती हैं| आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है| यह अपना निज धन है, जो एक बार साथ हो जाने पर सदैव साथ देता है| प्रकृति के द्वन्द्वों में से उनका शनैः- शनैः संग्रह करना व्यवसाय है ( विद्या धनम् सर्वधनप्रधानम् - इसे अर्जित करना वाणिज्य है॰) खेती? शरीर ही एक क्षेत्र है| इसके अन्तराल में बोया हुआ बीज संस्कार रूप में भला-बुरा जमता है| अर्जुन इस निष्काम कर्म में बीज अर्थात् आरम्भ का नाश नहीं होताा ( उनमें से कर्म की इस तीसरीं श्रेणी में कर्म अर्थात् इष्ट- चिन्तन नियत कर्म ) परमतत्त्व के चिन्तन का जो बीज इस क्षेत्र में पड़ा है, उसे सुरक्षित रखते हुए इसमें आनेवाले विजातीय विकारों का निराकरण करते जाना खेती है| निरावहिं चतुर किसाना जिमि बुध तजहिं मोह मद मानाा | ( रामचरितमानस , ४/१४/८ ) इस प्रकार इन्द्रियों की सुरक्षा तथा प्रकृति के द्वन्द्वों से आत्मिक सम्पत्ति को संग्रहित करना और इस क्षेत्र में परमतत्त्व के चिन्तन का सम्वर्द्धन- यह वैश्य श्रेणी का कर्म है| श्रीकृष्ण के अनुसार ' यज्ञशिष्टाशिनः पूर्तिकाल में यज्ञ जिसे देता है, वह है परात्पर ब्रह्म| उसको पान करनेवाले सन्तजन सम्पूर्ण पापों से छूट जाते हैं और उसीं का शनैः - शनैः चिन्तन-क्रिया से बीजारोपण होता है| उसकी सुरक्षा खेती है| वैदिक शास्त्रों में अन्न का अर्थ है परमात्मा| वह परमात्मा ही एकमात्र अशन है, अन्न है| चिन्तन के पूर्तिकाल में यह आत्मा पूर्णतः जाती है , फिर कभी अतृप्त नहीं होती , आवागमन में नहों आती| इस अन्न के बीज को जमाते हुए आगे बढ़ाना कृषि है| अपने से उन्नत अवस्थावाले, प्राप्तिवाले को सेवा करना शूद्र का स्वभावजन्य कर्म है| शूद्र का अर्थ नीच नहों अपितु अल्पज्ञ है| निम्न श्रेणी का साधक हीो शूद्र है| प्रवेशिका श्रेणी का वह साधक परिचर्या से ही आरम्भ करे| शनैः शनैः सेवा से उसके हृदय में उन संस्कारों का सृजन होगा और कृषी तृप्त हो गुरुजनों |
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३४६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता क्रमशः चलकर वह वैश्य , क्षत्रिय और ब्राह्मणपर्यन्त दूरी तय करके , वर्णों को भी पार करके ब्रह्म में प्रवेश पा जायेगा स्वभाव परिवर्तनशील है| स्वभाव के परिवर्तन के साथ वर्ण-्परिवर्तन हो जाता है| वस्तुतः ये वर्ण अति उत्तम , उत्तम मध्यम और चार अवस्थाएँ हैं , कर्मपथ पर चलनेवाले साधकों की ऊँची- नीचीं चार सीढ़ियाँ हैं| कर्म एक ही है , नियत कर्म| श्रीकृष्ण कहते हैं कि परमसिद्धि की प्राप्ति का यहीं एक रास्ता है कि स्वभाव में जैसीं योग्यता है, वहीं से लगे| इसको देखें- स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः| स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छणु| १४५/ | अपने अपने स्वभाव में पायो जानेवाली योग्यता के अनुसार कर्म में लगा हुआ मनुष्य ' संसिद्धिम् - भगवत्प्राप्तिरूपी परमसिद्धि को प्राप्त होता है| पहले भी कह आये हैं-इस कर्म को करके तू परमसिद्धि को प्राप्त होगा| कौन-सा कर्म करके? अर्जुन! तू शास्त्रविधि से निर्धारित कर्म यज्ञार्थ कर्म कर अब स्वकर्म करने को क्षमता के अनुसार कर्म में लगा हुआ मनुष्य परमसिद्धि को जिस प्रकार प्राप्त होता है वह विधि तू मुझसे सुनः ध्यान दें- यतः प्रवृत्तिर्भूतानां योन सार्वमिदं ततम्| स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः १४६ 1 | जिस परमात्मा से सब भूतों को उत्पत्ति हुई है , जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है , उस परमेश्वर को स्वकर्मणा - अपने स्वभाव से उत्पन्न के द्वारा अर्चन कर मानव परमसिद्धि को प्राप्त होता है| अतः परमात्मा को भावना परमात्मा का ही सर्वांगीण अर्चन और क्रमशः चलना आवश्यक है| जैसे , कोई बड़ी कक्षा में बैठ जाय तो छोटीं भी खो देगा और बड़ीं तो मिलेगी ही नहीं| अतः इस कर्मपथ पर सोपानशः चलने का विधान है| जैसे ३/३५ में॰ इसी पर पुनः बल कहते हैं कि आप अल्पज्ञ ही क्यों न हों , वहों से आरम्भ करें| वह विधि है- परमात्मा के प्रति समर्पण| श्रेयान्स्वधर्मों परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् १४७१ | निकृष्ट हुए कर्म देते हुए विगुणः |
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अष्टादश अध्याय ३४७ अच्छी प्रकार अनुष्ठान किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी स्वधर्म परमकल्याणकारी है स्वभावनियतम् ' स्वभाव से निर्धारित किया हुआ कर्म करता हुआ मनुष्य पाप अर्थात् आवागमन को प्राप्त नहों होताा प्रायः साधकों को उच्चाटन होने लगता है कि हम सेवा करते हीं रहेंगे , वे तो ध्यानस्थ हैं अच्छे गुणों के कारण उनका सम्मान है-तुरन्त वे नकल करने लगते हैं| श्रीकृष्ण के अनुसार नकल या ईर्ष्या से कुछ मिलेगा नहों| अपने स्वभाव से कर्म करने को क्षमता के अनुसार कर्म करके ही कोई परमसिद्धि पाता है॰ छोडकर नहों| सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः११४८१| कौन्तेय ! दोषयुक्त ( अल्पज्ञ अवस्थावाला है तो सिद्ध है कि अभी दोषों का बाहुल्य है, ऐसा दोषयुक्त भी ) सहजं कर्म - स्वभाव से उत्पन्न सहज कर्म को नहों त्यागना चाहिये; क्योंकि धुएँ से अग्नि के सदृश सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से आवृत्त हैं| ब्राह्मण श्रेणी हीं सही , कर्म तो करना पड़ रहा है॰ स्थिति नहों मिली , तब तक दोष विद्यमान है, प्रकृति का आवरण विद्यमान है| दोषों का अन्त वहाँ होगा , जहाँ ब्राह्मण श्रेणी का कर्म भी ब्रह्म में प्रवेश के साथ विलय हो जाता है| उस प्राप्तिवाले का लक्षण क्या है , जहाँ कर्मों से प्रयोजन नहों रह जाता? - असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छतित १४९१| सर्वत्र आसक्ति से रहित बुद्धिवाला, स्पृहा से सर्वथा रहित, अन्तःकरणवाला पुरुष ' सन्न्यासेन सर्वस्व के न्यास की अवस्था में परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है| यहाँ संन्यास और परम नैष्कर्म्य-सिद्धि पर्याय हैं| यहाँ सांख्ययोगी वहीं पहुँचता है , जहाँ कि निष्काम कर्मयोगी| यह उपलब्धि दोनों मार्गियों के लिये समान है| अब परम नैष्कर्म्य- सिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष जैसे ब्रह्म को प्राप्त होता है, उसका संक्षेप में चित्रण करते हैं - सिद्धिं प्राप्तो यथा बह्य तथाप्नोति निबोध मे| समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा|१५०| | जीते हुए |
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३४८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ कौन्तेय ! जो ज्ञान की परानिष्ठा है , पराकाष्ठा है , उस परमसिद्धि को प्राप्त हुआ पुरुष ब्रह्म को जैसे प्राप्त होता है , उस विधि को तू मुझसे संक्षेप में जान| अगले श्लोक में वही विधि बता रहे हैं , ध्यान दें- बुद्ध्या विशुद्धया धृत्यात्मानं नियम्य च| शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य चढ१५ ११ | विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः ध्यानयोगपरो नित्टां वैराग्यं समुपाश्रितः११५२१| अर्जुन ! विशेष रूप से शुद्ध बुद्धि से युक्त, एकान्त और शुभदेश का सेवन करनेवाला , साधना में जितना सहायक हो उतना ही आहार करनेवाला , जोते हुए मन, वाणी और शरीरवाला, दृढ़ वैराग्य को भली प्रकार प्राप्त हुआ पुरुष निरन्तर ध्यानयोग के परायण और ऐसी धारणा अर्थात् इसी सब को धारण करनेवाला तथा अन्तःकरण को वश में करके शब्दादिक विषयों को त्यागकर , राग द्वेष को नष्ट करके तथा- अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्| निर्ममः शान्तो बह्यमभूयाय कल्पते| १५३१ | अहंकार , बल, घमण्ड , काम क्रोध , बाह्य वस्तुओं और आन्तरिक चिन्तनों का त्याग कर, ममतारहित और शान्त अन्तःकरण हुआ पुरुष परब्रह्म के साथ एकीभाव होने के लिये योग्य होता है| आगे देखें- ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति| समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॰१५४१| ब्रह्म के साथ एकीभाव होने को योग्यतावाला वह प्रसन्नचित्त पुरुष न तो किसी वस्तु के लिये शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है| सब भूतों में समभाव हुआ वह भक्ति को पराकाष्ठा पर है| भक्ति अपना परिणाम देने को स्थिति में है, जहाँ ब्रह्म में प्रवेश मिलता है| अब- भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्|१५५|| गीता युक्तो = से युक्त विमुच्य |
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अष्टादश अध्याय ३४९ उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझे तत्त्व से भली प्रकार जानता है॰ वह तत्त्व है क्याः मैं जो और जिस प्रभाववाला हूँ अजर, अमर, शाश्वत जिन अलौकिक गुणधर्मोंवाला हूँ , उसे जानता है और मुझे तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रवेश कर जाता है| प्राप्तिकाल में तो भगवान दिखायी पडते हैं और प्राप्ति के ठीक बाद, तत्क्षण वह अपने ही आत्मस्वरूप को उन ईश्वरीय से युक्त पाता है कि आत्मा ही अजर , अमर , शाश्वत , अव्यक्त और सनातन है| अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- आत्मा हीं सत्य है , सनातन है अव्यक्त और अमृतस्वरूप है; इन विभूतियों से युक्त आत्मा को केवल तत्त्वदर्शियों ने देखा| अब वहाँ प्रश्न स्वाभाविक है कि वस्तुतः तत्त्वदर्शिता है क्याः बहुत से लोग पाँच तत्त्व , पचीस तत्त्व की बौद्धिक गणना करने लगते हैं; किन्तु इस पर श्रीकृष्ण ने यहाँ अठारहवें अध्याय में निर्णय दिया कि परमतत्त्व है परमात्मा , जो उसे जानता है वही तत्त्वदर्शी है| अब यदि आपको तत्त्व की चाह है परमात्मतत्त्व को चाह है तो भजन - चिन्तन आवश्यक है॰ यहाँ श्लोक उनचास से पचपन तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि संन्यास मार्ग में भी कर्म करना है| उन्होंने कहा , सन्र्यासेन संन्यास के द्वारा ( अर्थात् ज्ञानयोग के द्वारा) कर्म करते-करते इच्छारहित, आसक्तिरहित तथा जीते हुए शुद्ध अन्तःकरणवाला पुरुष जिस प्रकार नैष्कर्म्य को परमसिद्धि को प्राप्त होता है , उसे संक्षेप में कहूँगा| अहंकार , बल, दर्प, काम , क्रोध, मद, मोह इत्यादि प्रकृति में गिरानेवाले विकार जव सर्वथा शान्त होे जाते हैं और विवेक , वैराग्य , शम , दम , एकान्त - सेवन , ध्यान इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली योग्यताएँ जब पूर्णतया परिपक्व हो जाती हैं, उस समय वह ब्रह्म को जानने योग्य होता है| उस योग्यता का नाम ही पराभक्ति है| इसी योग्यता द्वारा वह तत्त्व को जानता है| तत्त्व है क्या? मुझे जानता है (भगवान जो है, जिन विभूतियों से युक्त है उसे जानता है ) और मुझे जानकर तत्क्षण ही स्थित हो जाता है| अर्थात् ब्रह्म, तत्त्व , ईश्वर , परमात्मा और आत्मा एक दूसरे के पर्याय हैं| एक को के साथ ही इन सबकी जानकारी हो जाती है| यही परमसिद्धि , परमगति , परमधाम भी है| गुणधर्मों = किन्तु मुझमें जानकारी |
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३५ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता अतः गीता का दृढ़ निश्चय है कि संन्यास और निष्काम कर्मयोग दोनों हीं परिस्थितियों में परम नैष्कर्म्य- सिद्धि को पाने के लिये नियत कर्म ( चिन्तन ) अनिवार्य है| अब तक तो संन्यासी के लिये भजन चिन्तन पर बल दिया और अब समर्पण कहकर उसी वार्त्ता को निष्काम कर्मयोगी के लिये भी कहते हैं- सर्वकर्माण्यपि सदा मदव्यपाश्रयः मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॰१५६म| मुझ पर विशेष रूप से आश्रित हुआ पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ , लेशमात्र भी त्रुटि न रखकर करता हुआ मेरे कृपा-प्रसाद से शाश्वत अविनाशी परमपद को प्राप्त होता है॰ कर्म वहीं है- नियत कर्म, यज्ञ को प्रक्रिया| पूर्ण योगेश्वर सद्गुरु के आश्रित साधक उनके कृपा- प्रसाद से शीघ्र पा जाता है॰ अतः उसे पाने के लिये समर्पण आवश्यक है॰ चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव १५७१ | अतः अर्जुन ! सम्पूर्ण कर्मों को ( जितना कुछ बन पड़ता है ) मन से मुझे अर्पित करके , अपने भरोसे नहों बल्कि मुझे समर्पण करके मेरे परायण हुआ अर्थात् योग को बुद्धि का अवलम्बन करके निरन्तर मुझमें चित्त लगा योग एक हीं है,जो सर्वथा का अन्त करनेवाला और परमतत्त्व परमात्मा में प्रवेश दिलानेवाला है| उसकी क्रिया भी एक ही है- यज्ञ की प्रक्रिया , जो मन तथा इन्द्रियों के संयम , श्वास - प्रश्वास तथा ध्यान इत्यादि पर निर्भर है| जिसका परिणाम भी एक हीं है- यान्ति बह्म सनातनम्| इसी पर आगे कहते हैं- मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि| १५८१| इस प्रकार निरन्तर चित्त को लगानेवाला होकर कृपा से मन और इन्द्रियों के सम्पूर्ण दुर्गों को अनायास ही तर जायेगा| इन्द्रीं द्वार झराखा नाना| तहँ तहँ सुर बैठे करि थानात| आवत देखहिं बिषय कुर्वाणो तुझसे बुद्धियोग दुःखों मुझमें तू मेरी |
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अष्टादश अध्याय ३५२ बयारी| ते हठि देहिं कपाट उघारी|| रामचरितमानस , ७/११७/११- १२ ) ये ही दुर्जय मेरी कृपा बाधाओं का अतिक्रमण कर जायेगा; किन्तु यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहों सुनेगा तो विनष्ट हो जायेगा परमार्थ से च्युत हो जायेगा| इस बिन्दु को योगेश्वर ने कई बार दृढ़ाया है| देखें - १६/१८-१९, १७५-६| १६२३ में वे कहते हैं- इस शास्त्रविधि को त्यागकर अन्य-्अन्य विधियों से जो भजते हैं उनके जीवन में न सुख है, न शान्ति है, न सिद्धि है और न परमगति हीं है| वह सबसे भ्रष्ट हो जाता है| यहाँ कहते हैं-यदि अहंकारवश तू मेरी बात नहीं सुनेगा तो विनष्ट हो जायेगा| अतः लोक- समृद्धि और परमश्रेय को प्राप्ति के लिये सम्पूर्ण साधन-क्रम का आदिशास्त्र योगेश्वर श्रीकृष्णोक्त यही ` गीता इसी पर बल देते हैं- यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्टासे| मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति| १५९१| जो तू अहंकार का आश्रय लेकर ऐसा मानता है कि युद्ध नहीं करूँगा , तो यह तेरा निश्चय मिथ्या है; क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे बलात् युद्ध में लगा देगा| स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा| कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोउपि तत्|१६०१ | कौन्तेय ! मोहवश तू जिस कर्म को नहों करना चाहता , उसको भी अपने स्वभाव से उत्पन्न से बँधा हुआ परवश होकर करेगा| प्रकृति के संघर्ष से न भागने का तुम्हारा क्षत्रिय श्रेणी का स्वभाव तुम्हें बरबस कर्म में लगायेगा| प्रश्न पूरा हुआ| अब वह ईश्वर रहता कहाँ है? इस पर कहते हैं- ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेउर्जुन तिष्ठति| भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया १६१| | अर्जुन ! वह ईश्वर सम्पूर्ण भूतप्राणियों के हृदय-्देश में निवास करता है| इतना समीप है तो लोग जानते क्यों नहीं? मायारूपीं यन्त्र में आरूढ़ होकर सबलोग भ्रमवश चक्कर लगाते ही रहते हैं, इसलिये नहीं जानते| यह यन्त्र बड़ा बाधक है, जो बार-बार नश्वर कलेवरों ( शरीरों ) रहता है॰ तो शरण किसको लें?- दुर्ग हैं| से तू इन है॰ पुनः हुए कर्म में घुमाता |
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३५ २ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत| तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् १६२१ | इसलिये हे भारत सम्पूर्ण भाव से उस ईश्वर को (जो हृदय-् देश में स्थित है) अनन्य शरण को प्राप्त हो| उसके कृपा-प्रसाद से तू परमशान्ति, शाश्वत परमधाम को प्राप्त होगा| अतः ध्यान करना है तो हृदय- देश में करें| यह जानते हुए भी मन्दिर, मस्जिद, चर्च या अन्यत्र खोजना समय बरबाद करना है॰ हाँ, जानकारी नहों है तब तक स्वाभाविक है| ईश्वर का निवास- स्थान हृदय है| भागवत के चतुःश्लोको गोता का सारांश भो यहीं है कि वैसे तो मैं सर्वत्र हूँ प्राप्त होता हूँ तो हृदय- देश में ध्यान करने से हो| इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया| विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॰१६३१| इस प्रकार बस इतना ही गोपनीय से भी अतिगोपनीय ज्ञान मैंने तेरे लिये कहा है| इस विधि से सम्पूर्ण रूप से विचार फिर तू जैसा चाहता है वैसा कर| सत्य यहीं है , शोध की स्थली यही है , प्राप्ति की स्थली भी यहीं है| हृदयस्थित ईश्वर दिखायी नहों देता, इस पर उपाय बताते हैं- सर्वगुहृ्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः | इष्टोउसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्| १६४१ | अर्जुन ! गोपनीय से भी अति गोपनीय मेरे रहस्ययुक्त वचन को भी सुना ( कहा है, किन्तु फिर साधक के लिये इष्ट सदैव खड़े रहते हैं) क्योंकि अतिशय प्रिय है , इसलिये यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिये फिर भी कहूँगा| वह है क्या? मन्मना भव मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोउसि मेढ़१६५ | अर्जुन ! तू मेरे में ही अनन्य मनवाला हो , मेरा अनन्य भक्त हो, मेरे प्रति श्रद्धा से पूर्ण हो ( मेरे समर्पण में अश्रुपात होने लगे) , मेरे को ही नमन करा ऐसा करने से तू मेरे को ही प्राप्त होगा| यह मैं तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है| पीछे बताया- ईश्वर हृदय- देश में किन्तु करः किन्तु सम्पूर्ण = भी सुन| तू फिर तू मेरा मद्भक्तो |
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अष्टादश अध्याय ३५३ है , उसकी शरण जा| यहाँ कहते हैं - मेरी शरण आ| यह अति गोपनीय रहस्ययुक्त वचन सुन कि मेरी शरण आओ| वास्तव में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहना क्या चाहते हैं? यही कि साधक के लिये सद्गुरु कोी शरण नितान्त आवश्यक है| श्रीकृष्ण एक पूर्ण योगेश्वर थे| अब समर्पण की विधि बताते हैं- सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं त्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः १६६१ | धर्मों को त्यागकर ( अर्थात् मैं ब्राह्मण श्रेणी का कर्त्ता हूँ या शूद्र श्रेणी का, क्षत्रिय हूँ अथवा वैश्य- विचार को त्यागकर) केवल ए्क मेरी अनन्य शरण को प्राप्त हा| मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा| तू शोक मत कर इन सब ब्राह्मण , क्षत्रिय इत्यादि वर्णों का विचार न कर ( कि इस कर्म- पथ में किस स्तर का हूँ जो अनन्य भाव से शरण हो जाता है, सिवाय इष्ट के अन्य किसी को नहों देखता, उसका क्रमशः वर्ण - परिवर्तन , उत्थान तथा पूर्ण पापों से निवृत्ति ( मोक्ष ) को जिम्मेदारी वह इष्ट सद्गुरु स्वयं अपने हाथों में ले लेते हैं| प्रत्येक महापुरुष ने यही कहा[ शास्त्र जब लिखने में आता है तो लगता है कि यह सबके लिये है; किन्तु है वस्तुतः श्रद्धावान् के लिये हो| अर्जुन अधिकारी था, अतः उसे बल देकर कहा| अब योगेश्वर स्वयं निर्णय देते हैं कि इसके अधिकारीं कौन हैं?- इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कराचन| न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योउभ्यसूयतित १६७१| अर्जुन ! इस प्रकार तेरे हित के लिये कहे इस गीता के उपदेश को किसी काल में भूलकर भो न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिये , न भक्तिरहित के प्रति कहना चाहिये, न बिना सुनने को इच्छावाले के प्रति कहना चाहिये और जो मेरी निन्दा करता है, यह दोष है, वह दोष है- इस प्रकार झूठीं आलोचना करता है, उसके प्रति भो नहीों कहना चाहिये| महापुरुष ही तो थे, जिनके समक्ष स्तुतिकर्त्ताओं के साथ - साथ कतिपय निन्दक भी रहे होंगे| इनसे शरणं सम्पूर्ण इसके |
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३५४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ तो नहों कहना चाहिये; प्रश्न स्वाभाविक है कि कहा किससे जायः इस पर देखें- य इमं परमं गुहृ्ां मद्भक्तेष्वभिधास्यति| भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः १६८१| जो मनुष्य मेरी पराभक्ति को प्राप्त कर इस परम रहस्ययुक्त गीता के उपदेश को मेरे भक्तों में कहेगा , वह निःसन्देह मुझे ही प्राप्त होगा| अर्थात् वह भक्त मुझे ही प्राप्त होगा , जो सुन लेगा; क्योंकि उपदेश को भली प्रकार सुनकर हृदयंगम कर लेेगा , तो उस पर चलेगा तथा पार पा जायेगा| अब उस उपदेशकर्त्ता के लिए कहते हैं - नच तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः| भविता नच मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि| १६९१| न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय करनेवाला मनुष्यों में कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त प्यारा में दूसरा कोई होगा| किससे? जो मेरे भक्तों में मेरा उपदेश करेगा , उनको उधर उस पथ पर चलायेगाः क्योंकि कल्याण का यही एक स्रोत है, राजमार्ग है| अब देखें अध्ययन- अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः| ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः १७०| | जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के सम्वाद का अध्येष्यते भलो प्रकार मनन करेगा , उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा अर्थात् ऐसा यज्ञ जिसका परिणाम ज्ञान है , जिसका स्वरूप पीछे बताया गया है , जिसका तात्पर्य है साक्षात्कार के साथ मिलनेवाली जानकारी- ऐसा मेरा निश्चित मत है| श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादणि यो नरः सोउपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्ग्राप्रुयात्पुण्यकर्मणाम्| १७११ | श्रद्वा और ईर्ष्यारहित होकर केवल सुनेगा , वह भी पापों होकर उत्तम कर्म करनेवालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा| अर्थात् करते हुए भी पार न लगे भर करें , उत्तम लोक तब भी हैः क्योंकि वह चित्त में उन उपदेशों को ग्रहण तो करता है| यहाँ सड़सठ से इकहत्तर तक गीता किन्तु कार्य पृथ्वी से युक्त जो पुरुष से मुक्त तो सुना |
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अष्टादश अध्याय २५५ पाँच श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने यह बताया कि गीता का उपदेश अनधिकारियों को नहों कहना चाहिये; जो श्रद्धावान् है उससे अवश्य कहना चाहिये| जो सुनेगा , वह भक्त मुझे प्राप्त होगाः क्योंकि अतिगोपनीय कथा को सुनकर पुरुष चलने लगता है| जो भक्तों में कहेगा , उससे अधिक प्रिय करनेवाला मेरा कोई नहों है॰ जो अध्ययन करेगा , उसके ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा| यज्ञ का परिणाम ही ज्ञान है॰जो गीता के अनुसार कर्म करने में असमर्थ है; श्रद्धा से मात्र सुनेगा, वह भी पुण्यलोकों को प्राप्त होगा| इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने इसके कहने, सुनने तथा अध्ययन का फल बताया| प्रश्न पूरा हुआ| अब अन्त में वे अर्जुन से पूछते हैं कि कुछ समझ में आया? कच्चिदेतच्छुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा| कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय १७७२| | हे पार्थ! क्या मेरा यह वचन एकाग्रचित्त होकर क्या तेरा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट इस पर अर्जुन बोला- अर्जुन उवाच नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत| स्थितोउस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तवढ़१७३१| अच्युत आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है| मुझे स्मृति प्राप्त हुई है॰ (जो रहस्यमय ज्ञान मनु ने स्मृति- परम्परा से चलाया, उसी को अर्जुन ने प्राप्त कर लिया१ ) अब मैं संशयरहित हुआ स्थित हूँ और आपको आज्ञा का पालन करूँगा| जबकि सैन्य निरीक्षण के समय दोनों हीं सेनाओं में स्वजनों को देख अर्जुन व्याकुल हो गया था| उसने निवेदन किया- गोविन्द ! स्वजनों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? ऐसे युद्ध से शाश्वत नष्ट हो जायेगा , पिण्डोदक- क्रिया लुप्त हो जायेगी , वर्णसंकर उत्पन्न होगा| हमलोग समझदार होकर भी पाप करने को उद्यत हुए हैं| क्यों न इससे बचने के लिये उपाय करें? शस्त्रधारी ये कौरव मुझ शस्त्ररहित को रण में मार डालें , वह मरना भी श्रेयस्कर है॰ गोविन्द ! नहों करूँगा - कहता हुआ वह रथ के पिछले भाग में बैठ गया था| किन्तु = द्वारा मैं किन्तु सुना? हुआ? कुलधर्म मैं युद्ध |
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३५६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता इस प्रकार गीता में अर्जुन ने योगेश्वर श्रीकृष्ण के समक्ष प्रश्न- परिप्रश्नों को शृंखला खडी कर दी| जैसे- अध्याय २७७- वह साधन मेरे प्रति कहिये जिससे मैं परमश्रेय को प्राप्त हो जाऊँ? २/५४ स्थितप्रज्ञ महापुरुष के लक्षण क्या हैं? ३१ - जब आपकी दृष्टि में ज्ञानयोग श्रेष्ठ है तो मुझे भयंकर कर्मों में क्यों लगाते हैं? ३/३६ - मनुष्य न चाहता हुआ भी किसकी प्रेरणा से पाप का आचरण करता है? ४/४- आपका जन्म तो अब हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है, तो मैं यह कैसे मान लूँ कि कल्प के आदि योग को आपने सूर्य के प्रति कहा थाः ५/१ - कभी आप संन्यास की प्रशंसा करते हैं तो कभी निष्काम कर्म की| इनमें से एक निश्चय करके कहिये जिससे मैं परमश्रेय को प्राप्त कर ६/३५ - मन चंचल है , फिर शिथिल प्रयत्नवाला श्रद्धावान् पुरुष आपको न प्राप्त होकर किस दुर्गति को प्राप्त होता है? ८/१ - २- गोविन्द जिसका आपने वर्णन किया , वह ब्रह्म क्या है? वह अध्यात्म क्या है? अधिदैव , अधिभूत क्या है? इस शरोर में अधियज्ञ कौन है? वह कर्म क्या है? अन्त समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं? सात प्रश्न किये| अध्याय १०/ १७ में अर्जुन ने जिज्ञासा की कि॰ निरन्तर चिन्तन करता हुआ मैं किन-किन भावों द्वारा आपका स्मरण करूँ? ११४ में उसने निवेदन किया कि॰ जिन विभूतियों का आपने वर्णन किया उन्हें मैं प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ॰ १२१- जो अनन्य श्रद्वा से लगे हुए भक्तजन भली प्रकार आपको उपासना करते हैं और अक्षर अव्यक्त को उपासना करते हैं , इन दोनों में उत्तम योगवेत्ता कौन है? १४/२१- तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरुष किन लक्षणों होता है तथा मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है? १७/१- जो मनुष्य उपरोक्त शास्त्रविधि को त्यागकर किन्तु श्रद्धा से युक्त होकर यजन करते हैं उनकी कौन-सी गति होती है? और १८/१ हे महाबाहो मैं त्याग और संन्यास के स्वरूप को पृथक् पृथक् जानना चाहता इस प्रकार अर्जुन प्रश्न करता गया| जो वह नहों कर सकता था उन गोपनीय रहस्यों को भगवान ने स्वयं दर्शाया| इनका समाधान होते हो वह प्रश्नों से विरत हो गया और बोला - गोविन्द ! अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा| वस्तुतः ये प्रश्न मानवमात्र के लिये हैं॰ इन सभी प्रश्नों के समाधान में इस दूसरे जो से युक्त यथार्थ |
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अष्टादश अध्याय ३५७ के बिना कोई भी साधक श्रेय-्पथ पर अग्रसर नहों हो सकता| अतः सदगुरु के आदेश का पालन करने के लिये, श्रेय-पथ पर अग्रसर होने के लिये सम्पूर्ण गीता का श्रवण अति आवश्यक है| अर्जुन का समाधान हो गया| साथ ही योगेश्वर श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निःसृत वाणी का उपसंहार हुआ| इस पर संजय बोला- (ग्यारहवें अध्याय में विराट् रूप का दर्शन करा लेने पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा - अर्जुन ! अनन्य भक्ति के द्वारा मैं इस प्रकार देखने को ( जैसा तूने देखा है) , तत्त्व से जानने तथा प्रवेश करने को सुलभ हूँ (११/५४)| इस प्रकार दर्शन करनेवाले साक्षात् मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं और यहाँ अभी अर्जुन से पूछते हैं - क्या तुम्हारा मोह नष्ट हुआ? अर्जुन ने कहा- मेरा मोह नष्ट हो गया| मैं अपनी स्मृति को प्राप्त हो गया हूँ| आप जो कहते हैं , वही करूँगा| दर्शन के साथ तो अर्जुन को मुक्त हो जाना चाहिये था| वस्तुतः अर्जुन को तो जो होना था, हो गया; किन्तु शास्त्र भविष्य में आनेवाली पीढ़ी के लिये होता है| उसका उपयोग आप सबके लिये हीं है ) सञ्जचय उवाच इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः| संवादमिममश्रौषमद्धुतं रोमहर्षणम्| १७४१ | इस प्रकार मैंने वासुदेव और महात्मा अर्जुन ( अर्जुन एक महात्मा है, योगी है, साधक है न कि कोई धनुर्धर जो मारने के लिये खडा हो| अतः महात्मा अर्जुन ) के इस विलक्षण और रोमांचकारी सम्वाद आप में की क्षमता कैसे आयी? इस पर कहते हैं- व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्रुह्यमहं परम्| योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्| १७५/ | श्री व्यासजी की कृपा से, उनकी दी हुई दृष्टि से मैंने इस परम गोपनीय योग को साक्षात् कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण है| संजय श्रीकृष्ण को योगेश्वर मानता है| जो स्वयं योगी हो और दूसरों को भी योग प्रदान करने को क्षमता रखता हो, वह योगेश्वर है| को सुना| सुनने से सुना |
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३५८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्धुतम्| केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः| १७६ | हे राजन केशव और अर्जुन के इस परम कल्याणकारीं और अद्भुत सम्वाद को पुनः - पुनः स्मरण करके मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ| अतः इस सम्वाद को सदैव स्मरण करना चाहिये और इसीं स्मृति से प्रसन्न रहना चाहिये अब उनके स्वरूप का स्मरण कर संजय कहते हैं - तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्तं हरेः| विस्मयो मे महान् राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः| १७७१| हे राजन् ! हरि के (जो शुभाशुभ सर्व का हरण कर स्वयं शेष रहते हैं, उन हरि के ) अति अद्भुत रूप को पुनः- पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान् आश्चर्य होता है और मैं बारम्बार हर्षित होता हूँ| इष्ट का स्वरूप बार-बार स्मरण करने को वस्तु है| अन्त में संजय निर्णय देते हैं- यत्र योगेश्वरः यत्र पार्थों तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्धुवा नीतिर्मतिर्ममत १७८१| राजन् जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धर अर्जुन ( ध्यान ही धनुष है, इन्द्रियों की दृढ़ता हीं गाण्डीव है अर्थात् स्थिरता के साथ ध्यान धरनेवाला महात्मा अर्जुन ) हैं, वहों पर ` श्रीः - ऐश्वर्य , विजय-्जिसके पोछे हार नहीं है, ईश्वरीय विभूति और चल संसार में अचल रहनेवाली नीति है , ऐसा मेरा मत है| आज तो धनुर्धर अर्जुन है नहीं| यह नीति, विजय-विभूति तो अर्जुन तक सीमित रह गयी| तत्सामयिक थी यह| यह तो द्वापर में ही समाप्त हो गयो| लेकिन ऐसी बात नहों है| योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि मैं सबके हृदय- देश में निवास करता हूँ| आपके हृदय में भी वे हैं| अनुराग ही अर्जुन है| अनुराग आपके अन्तःकरण की इष्टोन्मुखी लगन का नाम है| यदि ऐसा अनुराग आप में है तो सदैव वास्तविक विजय है और अचल स्थिति दिलानेवाली नीति भी सदैव रहेगी, न कि कभी थी| जब तक प्राणी रहेंगे , परमात्मा का निवास उनके हृदय - देश में रहेगा , विकल आत्मा उसे पाने का इच्छुक होगा और उनमें से जिसके भी हृदय में उसे पाने का अनुराग उमड़ेगा , वही अर्जुन को श्रेणीवाला कृष्णो धनुर्धरः |
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अष्टादश अध्याय ३५९ होगा; क्योंकि अनुराग हीं अर्जुन है| अतः मानवमात्र इसका प्रत्याशी बन सकता है॰ निष्कर्ष - यह गीता का समापन अध्याय है| आरम्भ में हीं अर्जुन का प्रश्न है- प्रभो ! मैं त्याग और संन्यास के भेद और स्वरूप को जानना चाहता हूँ| योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इस पर प्रचलित चार मतों की चर्चा की| इनमें एक सही भी था| इससे मिलता- जुलता ही निर्णय योगेश्वर श्रीकृष्ण ने दिया कि यज्ञ , दान और तप किसी काल में त्यागने योग्य नहों हैं| ये मनोषियों को भी पवित्र करनेवाले हैं| इन तीनों को रखते हुए इनके विरोधी विकारों का त्याग करना ही वास्तविक त्याग है| यह सात्त्विक त्याग है॰ फल की इच्छा के साथ त्याग राजस है , मोहवश नियत कर्म का ही त्याग करना तामस त्याग है और संन्यास त्याग की ही चरमोत्कृष्ट अवस्था है| नियत कर्म और ध्यानजनित सुख सात्त्विक है| इन्द्रियों और विषयों का भोग राजस है और तृप्तिदायक अन्न को उत्पत्ति से रहित दुःखद सुख तामस है| मनुष्यमात्र के द्वारा शास्त्र के अनुकूल अथवा प्रतिकूल कार्य होने में पाँच कारण हैं- कर्त्ता ( मन ) , पृथक् ्पृथक् करण ( जिनके द्वारा किया जाता है| शुभ पार लगता है तो विवेक, वैराग्य, शम, दम करण हैं| अशुभ पार लगता है तो काम, क्रोध, राग, द्वेष इत्यादि करण होंगे , नाना प्रकार को इच्छाएँ ( इच्छाएँ अनन्त हैं, सब पूर्ण नहों हो सकतीं| केवल वह इच्छा पूर्ण होती है, जिसके साथ आधार मिल जाता है ) , चौथा कारण है आधार साधन ) और पाँचवाँ हेतु है दैव ( प्रारब्ध या संस्कार)| प्रत्येक कार्य के होने में यही पाँच कारण हैं, फिर भी जो कैवल्यस्वरूप परमात्मा को कर्त्ता मानता है , वह मूढ़बुद्धि यथार्थ नहों जानता| अर्थात् भगवान नहों करते, जबकि पीछे कह आये हैं कि अर्जुन ! तू निमित्त मात्र होकर खडा भर रह, कर्त्ता- धर्त्ता तो मैं हूँ॰ अन्ततः उन महापुरुष का आशय क्या है? वस्तुतः के बीच एक आकर्षण सीमा है| जब तक मनुष्य में बरतता है , तब तक माया प्रेरणा करती है और जब वह इससे और पुरुष प्रकृति प्रकृति |
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३६ ० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता ऊपर उठकर इष्ट को समर्पित हो जाता है और वह इष्ट जब हृदय- देश से रथी हो जाता है, फिर भगवान करते हैं| ऐसे स्तर पर अर्जुन था, संजय भो था और सबके लिये इस ( कक्षा ) में पहुँचने का विधान है| अतः यहाँ भगवान प्रेरणा करते हैं| पूर्णज्ञाता महापुरुष , जानने को विधि और ज्ञेय परमात्मा- इन तीनों के संयोग से कर्म को प्रेरणा मिलती है| इसलिये किसीं महापुरुष ( सद्गुरु ) के सान्निध्य में समझने का प्रयास करना चाहिये| वर्ण-्व्यवस्था के प्रश्न को चौथी बार लेते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि इन्द्रियों का दमन , मन का शमन , एकाग्रता , शरीर-वाणी और मन को इष्ट के अनुरूप तपाना , ईश्वरीय जानकारीं का संचार , ईश्वरीय निर्देशन पर चलने की क्षमता इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली योग्यताएँ ब्राह्मण श्रेणी के कर्म हैं| शौर्य, पीछे न हटने का स्वभाव, सब भावों पर स्वामिभाव, कर्म में प्रवृत्त होने को दक्षता क्षत्रिय श्रेणी का कर्म है| इन्द्रियों का संरक्षण , आत्मिक सम्पत्ति का संवर्द्धन इत्यादि वैश्य श्रेणी के कर्म हैं और परिचर्या शूद्र श्रेणी का कर्म है| शूद्र का अर्थ है अल्पज्ञ| अल्पज्ञ साधक जो नियत कर्म चिन्तन में दो घण्टे बैठकर दस मिनट भी अपने पक्ष में नहीं पाता| शरीर अवश्य बैठा है, लेकिन जिस मन को टिकना चाहिये, वह तो हवा से बातें कर रहा है| ऐसे साधक का कल्याण कैसे हो? उसे अपने से उन्नत अवस्थावालों को अथवा सद्गुरु की सेवा करनी चाहिये| शनैः - शनैः उसमें भी संस्कारों का सृजन होगा, वह गति पकड़ लेेगा| अतः इस अल्पज्ञ का कर्म सेवा से ही प्रारम्भ होगा| कर्म एक ही है- नियत कर्म, चिन्तन| उसके कर्त्ता को चार श्रेणियाँ - अति उत्तम , उत्तम , मध्यम और निकृष्ट ही ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र हैं| मनुष्य को नहों बल्कि गुणों के माध्यम से कर्म को चार भागों में बाँटा गया| गीतोक्त वर्ण इतने में ही है| तत्त्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि॰ अर्जुन! उस परमसिद्धि की विधि बताऊँगा , जो ज्ञान की परानिष्ठा है| विवेक , वैराग्य , शम , दम , धारावाही चिन्तन और ध्यान की प्रवृत्ति इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिला देनेवाली सारी योग्यताएँ जब परिपक्व हो जाती हैं और काम , क्रोध , मोह , राग , द्वेषादि प्रकृति में घसीटकर रखनेवाली प्रवृत्तियाँ जब पूर्णतः शान्त हो जाती हैं , उस समय वह अनुभवी |
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अष्टादश अध्याय ३६२ व्यक्ति ब्रह्म को जानने योग्य होता है| उसी योग्यता का नाम पराभक्ति है| पराभक्ति के द्वारा ही वह तत्त्व को जानता है| तत्त्व है क्याः बताया- मैं जो हूँ , जिन विभूतियों हूँ, उसको जानता है अर्थात् परमात्मा जो है , अव्यक्त शाश्वत , अपरिवर्तनशील जिन अलौकिक गुणधर्मोंवाला है उसे जानता है और जानकर वह तत्क्षण स्थित हो जाता है| अतः तत्त्व है परमतत्त्व , न कि पाँच या पचीस तत्त्व| प्राप्ति के साथ आत्मा उसी स्वरूप में स्थित हो जाता है, उन्हीं गुणधर्मों हो जाता है| ईश्वर का निवास बताते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! वह ईश्वर सम्पूर्ण भूतों के हृदय- देश में निवास करता है; किन्तु मायारूपी यन्त्र में आरूढ़ होकर लोग भटक रहे हैं, इसलिये नहों जानते| अतः अर्जुन ! तू हृदय में स्थित उस ईश्वर की शरण जा| इससे भी गोपनीय एक रहस्य और है कि सम्पूर्ण धर्मों को चिन्ता छोड़कर तू मेरी शरण में आ, तू मुझे प्राप्त होगा| यह रहस्य अनधिकारीं से नहों कहना चाहिये जो भक्त नहीं है उससे नहीं कहना चाहिये; लेकिन जो भक्त है उससे अवश्य कहना चाहिये| उससे दुराव रखें तो उसका कल्याण कैसे होगा? अन्त में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने पूछा - अर्जुन ! मैँने जो कुछ कहा, उसे तूने भली प्रकार सुना-समझा , तुम्हारा मोह नष्ट हुआ कि नहीं? अर्जुन ने कहा- भगवन् मेरा मोह नष्ट हो गया है| मैं अपनी स्मृति को प्राप्त हो गया हूँ| आप जो कुछ कहते हैं वही सत्य है और अब मैं वहीं करूँगा| संजय , जिसने इन दोनों के सम्वाद को भली प्रकार सुना है अपना निर्णय देता है कि श्रीकृष्ण महायोगेश्वर और अर्जुन एक महात्मा हैं॰ उनका सम्वाद बारम्बार स्मरण कर वह हर्षित हो रहा है| अतः इसका स्मरण करते रहना चाहिये| उन हरि के रूप को याद करके भी वह बारम्बार हर्षित होता है| अतः बारम्बार स्वरूप का स्मरण करते रहना चाहिये, ध्यान करते रहना चाहिये| जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ महात्मा अर्जुन हैं, वहीं श्री है| विजय-विभूति और भी वहों है| सृष्टि की नीतियाँ आज हैं तो कल बदलेंगी| ध्रुव तो एकमात्र परमात्मा है| उसमें प्रवेश दिलानेवाली नीति भी वहीं है॰ यदि श्रीकृष्ण और अर्जुन को द्वापरकालीन व्यक्ति-विशेष मान लिया जाय तब तो आज न अर्जुन है और न श्रीकृष्ण| आपको न विजय से युक्त मुझमें से युक्त ध्रुवनीति ध्रुवनीति |
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३६२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता मिलनी चाहिये और न विभूति| तब तो गीता आपके लिये व्यर्थ है| लेकिन नहों , श्रीकृष्ण एक योगी थे| अनुराग से पूरित हृदयवाला महात्मा ही अर्जुन है| ये सदैव रहते हैं और रहेंगे| श्रीकृष्ण ने अपना परिचय देते हुए कहा कि॰ मैं हूँ तो अव्यक्त , लेकिन जिस भाव को प्राप्त हूँ, वह ईश्वर सबके हृदय- देश में निवास करता है| वह सदैव है और रहेगा| सबको उसको शरण जाना है| शरण जानेवाला ही महात्मा है, अनुरागी है और अनुराग ही अर्जुन है| इसके लिये किसीं स्थितप्रज्ञ महापुरुष को शरण जाना नितान्त आवश्यक है; क्योंकि वहीं इसके प्रेरक हैं| इस अध्याय में संन्यास का स्वरूप स्पष्ट किया गया कि सर्वस्व का न्यास ही संन्यास है॰ केवल बाना धारण कर लेना संन्यास नहों है; बल्कि इसके साथ एकान्त का सेवन नियत कर्म में अपनी शक्ति समझकर अथवा समर्पण के साथ सतत प्रयत्न अपरिहार्य है| प्राप्ति के साथ सम्पूर्ण कर्मों का त्याग ही संन्यास है, जो मोक्ष का पर्याय है॰ यहीं संन्यास कोी पराकाष्ठा है| अतः- ३४४ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु बह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे ' सन्न्यासयोगो ' नामाष्टादशो 5ध्यायः ११८१| इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्वाद में संन्यास योग' नामक अध्याय पूर्ण होता है| श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्गीतायाः ` यथार्थगीता ' भाष्ये ' सन्न्यासयोगो नामाष्टादशो उध्यायः ११८| | इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य यथार्थ गीता में संन्यास योग' नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण होता है| हरिः ३ँ तत्सत् 1१ करते हुए अठारहवाँ |
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उपशम प्रायः टीकाओं में लोग नयी बात खोजते हैं; वस्तुतः सत्य तो सत्य है| वह न नया होता है और न पुराना पड़ता है| नयो बातें तो अखबारों में छपती रहतीं हैं, जो मरतीं- उभरती घटनाएँ हैं॰ सत्य अपरिवर्तनशील है तो कोई दूसरा कहे भी क्याः यदि कहता है तो उसने पाया नहीं| प्रत्येक महापुरुष यदि चलकर उस लक्ष्य तक पहुँच गया तो एक ही बात कहेगा| वह समाज के बीच दरार नहों डाल सकता| यदि डालता है तो सिद्ध है उसने पाया नहों| श्रीकृष्ण भी उसी सत्य को कहते हैं जो पूर्व मनोषियों ने देखा था, पाया था और भविष्य में होनेवाले महापुरुष भी यदि पाते हैं तो यहीं कहेंगे| महापुरुष और उनकी कार्य-प्रणाली - महापुरुष दुनिया में सत्य के नाम पर फैली और सत्य-सो प्रतीत होनेवाली कुरीतियों का शमन करके कल्याण का पथ प्रशस्त कर देते हैं| यह पथ भी दुनिया में पहले से रहता है; किन्तु उसी के समानान्तर, उसी को तरह भासनेवाले अनेक पथ प्रचलित हो जाते हैं| उनमें से सत्य को छाँटना कठिन हो जाता है कि वस्तुतः सत्य क्या है| महापुरुष सत्यस्थित होने से उनमें सत्य की पहचान करते हैं, उसे निश्चित करते हैं और उस सत्य को ओर अभिमुख होने के लिये समाज को प्रेरित करते हैं| यहीं राम ने किया , यहीं महावीर ने किया , यहीं महात्मा किया , यही ईसा ने किया और यही प्रयास मुहम्मद ने किया| कबीर , गुरुनानक इत्यादि सबने यही किया| महापुरुष जब दुनिया से उठ जाता है, तो पीछे के लोग उसके बताये मार्ग पर न चलकर उसके जन्मस्थल , मृत्युस्थल और उन स्थलों को पूजने लगते हैं , जहाँ वे गये थे| क्रमशः वे उनकी मूर्ति बनाकर पूजने लगते हैं| यद्यपि आरम्भ में वे उनकी स्मृति ही सँजोते हैं कालान्तर में भ्रम में पड़ जाते हैं और वही भ्रम रूढ़ि का रूप ले लेता है| योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी तत्सामयिक समाज में सत्य के नाम पर पनपे हुए रीति रिवाजों का खण्डन करके समाज क प्रशस्त पथ पर खडा कर किन्तु बुद्ध ने किन्तु |
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३६४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता दिया| अध्याय २१६ में उन्होंने कहा- अर्जुन! असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहों है और सत् का तीनों कालों में अभाव नहीं है॰ भगवान होने के कारण यह मैं अपनी ओर से नहीं कह रहा हूँ बल्कि इनका अन्तर तत्त्वदर्शियों ने देखाः और वहीं मैं कहने जा रहा हूँ॰ तेरहवें अध्याय में उन्होंने क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का वर्णन उसी प्रकार किया, जो ' ऋषिभिर्बहुधागीतम् - ऋषियों द्वारा प्रायः गाया जा चुका था| अठारहवें अध्याय में त्याग और संन्यास का तत्त्व बताते हुए उन्होंने चार मतों में से एक का चयन किया और उसे अपना समर्थन दिया| संन्यास- कृष्णकाल में अग्नि को न छूनेवाले तथा चिन्तन का भी त्याग करके अपने को योगी, संन्यासी कहनेवालों का सम्प्रदाय भी पनप रहा था| इसका खण्डन करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि ज्ञानमार्ग तथा भक्तिमार्ग , दोनों में से किसी भी मार्ग के अनुसार कर्म को त्यागने का विधान नहों है , कर्म तो करना ही होगा| कर्म करते-करते साधना इतनी सूक्ष्म हो जाती है कि सर्वसंकल्पों का अभाव हो जाता है , वह पूर्ण संन्यास है| बीच रास्ते में संन्यास नाम की कोई वस्तु नहों है| केवल क्रियाओं को त्याग देने से तथा अग्नि न छूने से न तो कोई संन्यासी होता है और न योगी| (जिसे अध्याय दो, तीन, पाँच, छः और विशेषकर अठारह में देखा जा सकता है ) कर्म- ऐसीं ही भ्रान्ति कर्म के सम्बन्ध में भी मिलतीं है| अध्याय २/३९ में उन्होंने बताया- अर्जुन अब तक यह बुद्धि तेरे लिये सांख्ययोग के विषय में कही गयो और अब इसी को तू निष्काम कर्म के विषय में सुन| इससे युक्त होकर तू कर्मों के बन्धन का अच्छी तरह नाश कर सकेगा| इसका थोड़ा भी आचरण महान् जन्म-मरण के भय से उद्धार करानेवाला होता है| इस निष्काम कर्म में निश्चयात्मक क्रिया एक ही है, बुद्धि एक हीं है , दिशा भी एक ही है लेकिन अविवेकियों कोी बुद्धि अनन्त शाखाओंवाली है, इसलिये वे कर्म के नाम पर अनेक क्रियाओं का विस्तार कर लेते हैं| अर्जुन! तू नियत कर्म करा अर्थात् क्रियाएँ बहुत-सी हैं वे कर्म नहों हैं| कर्म कोई निर्धारित दिशा है| कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो जन्म-्जन्मान्तरों से चले आ रहे शरीरों की यात्रा का अन्त कर देता है| यदि एक भी जन्म लेना पड़ा तो यात्रा पूरी कहाँ हुई? |
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उपशम ३६५ यज- वह नियत कर्म है कौन-सा? श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि यज्ञार्थात्कर्मणो उन्यत्र लोकोउयं कर्मबन्धनः अर्जुन यज्ञ को प्रक्रिया हीं कर्म है| अतिरिक्त दुनिया में जो कुछ किया जाता है , वह इसी लोक का बन्धन है , न कि कर्म| कर्म तो इस संसार - बन्धन से मोक्ष दिलाता है| अब वह यज्ञ क्या है, जिसे क्रियान्वित करें तो कर्म सम्पादित हो सके? अध्याय चार में श्रीकृष्ण ने तेरह-चौदह तरीके से यज्ञ का वर्णन किया, जो सब मिलाकर परमात्मा में प्रवेश दिला देनेवाली विधि-विशेष का चित्रण है- जो श्वास से, ध्यान से, चिन्तन और इन्द्रिय-् संयम इत्यादि से सिद्ध होनेवाला है| श्रीकृष्ण ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि भौतिक द्रव्यों से इस यज्ञ का कोई सम्बन्ध नहों है| भौतिक से सिद्ध होनेवाले यज्ञ अत्यल्प हैं , आप करोड़ का हवन ही क्यों न करें| ( ४/३३ ) सम्पूर्ण यज्ञ मन और इन्द्रियों की अन्तःक्रिया से सिद्ध होनेवाले हैं| पूर्ण होने पर यज्ञ जिसकी सृष्टि करता है , उस अमृत- तत्त्व कोी जानकारीं का नाम ज्ञान है| उस ज्ञानामृत को पान करनेवाले योगी सनातन ब्रह्म में प्रवेश पा जाते हैं| जिसमें प्रवेश पाना था पा ही लिया, तो फिर उस पुरुष का कर्म किये जाने से कोई प्रयोजन नहों है| इसलिये यावन्मात्र कर्म उस साक्षात्कारसहित ज्ञान में शेष हो जाते हैं| कर्म करने के बन्धन से वह मुक्त हो जाता है| इस प्रकार निर्धारित यज्ञ को कार्यरूप देना कर्म है| कर्म का शुद्ध अर्थ है- आराधना| इस नियत कर्म, यज्ञार्थ कर्म अथवा तदर्थ कर्म के अतिरिक्त गीता में अन्य कोई कर्म नहों है॰ इसी पर ने स्थान-्स्थान पर बल दिया| अध्याय छः में इसी को उन्होंने कार्यम् कर्म' कहा| अध्याय सोलह में बताया कि काम , क्रोध और लोभ के त्याग देने पर ही वह कर्म आरम्भ होता है, जो परमश्रेय को दिलानेवाला है॰ सांसारिक कर्मों मेंजो जितना व्यस्त है॰ उसके पास काम क्रोध और लोभ उतने ही अधिक सजे-सजाये दिखते हैं समृद्ध पाये जाते हैं॰ इसी नियत कर्म को उन्होंने शास्त्र-विधानोक्त कर्म को संज्ञा दी| गीता अपने में पूर्ण तथा प्रथम शास्त्र है| सत्रहवें और अठारहवें अध्याय में भी शास्त्रविधि से निर्धारित कर्म , नियत कर्म , कर्त्तव्य कर्म कर्म से इंगित करके उन्होंने बारम्बार दृढ़ाया कि नियत कर्म हो परमकल्याणकारी है| इसके द्रव्यों श्रीकृष्ण और पुण्य |
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३६६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता योगेश्वर श्रीकृष्ण के इतना बल देने पर भो आप उस नियत कर्म को न करके , श्रीकृष्ण का कहना न मानकर उल्टी सीधी कल्पना करते हैं कि जो कुछ भी संसार में किया जाता है, कर्म है| कुछ भी त्यागने की जरूरत नहों है केवल फल को कामना न करो, हो गया निष्काम कर्मयोग| कर्त्तव्य भावना से करो - हो गया कर्त्तव्य योगा कुछ भी करो, नारायण को समर्पण कर दो- हो गया समर्पण योगा इसी प्रकार यज्ञ का नाम आते ही हम भूतयज्ञ , पितृयज्ञ , पंचयज्ञ , विष्णु के निमित्त किया जानेवाला यज्ञ गढ़ लेते हैं और उसकीं क्रिया में स्वाहा बोलकर खड़े हो जाते हैं| यदि श्रीकृष्ण ने स्पष्ट न कहा हो तो हम कुछ भी करें| यदि बताया है तो जितना कहा है उतना ही मान लें| किन्तु हम मान नहों पाते| विरासत में अनेक रीति रिवाज , पूजा- पद्धतियाँ हमारे मस्तिष्क को जकड़े हुई हैं| बाह्य को कदाचित् हम बेचकर भाग भी सकते हैं , किन्तु ये पूर्वाग्रह मस्तिष्क में बैठकर हमारे साथ चलते हैं| श्रीकृष्ण के शब्दों को भी हम इन्हों के अनुरूप ढालकर ग्रहण करते हैं॰ गीता तो अत्यन्त बोधगम्य सरल संस्कृत में है| आप अन्वयार्थ भी लें तो कभी सन्देह नहीं होगा| यहीं प्रयास प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है| युद्ध - यदि यज्ञ और कर्म , दो प्रश्न ही यथार्थ समझ लें तो युद्ध, वर्ण- व्यवस्था, वर्णसंकर , ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा संक्षेप में सम्पूर्ण गीता हीं आपको समझ में आ जाय| अर्जुन लड़ना नहों चाहता था| वह धनुष फेंककर रथ के पिछले भाग में बैठ गयाः किन्तु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने एकमात्र कर्म को शिक्षा देकर कर्म को केवल दृढ़ाया ही नहों बल्कि अर्जुन को उस कर्म पर चला भी दिया| युद्ध हुआ, सन्देह नहों| गीता के पन्द्रह - बीस श्लोक ऐसे हैं जिनमें बार-बार कहा गया , अर्जुन! तू युद्ध करः किन्तु एक भो श्लोक ऐसा नहीं है , जो बाहरी मारकाट का समर्थन करता होे| ( द्रष्टव्य है- अध्याय २, ३, ११, १५ और १८ ) क्योंकि जिस कर्म पर बल दिया गया वह है नियत कर्म , जो एकान्त- देश के सेवन से, चित्त को सब ओर से समेटकर ध्यान करने से होता है| जब कर्म का यहीं स्वरूप है, चित्त एकान्त और ध्यान में लगा है तो युद्ध कैसा? यदि गीतोक्त कल्याण युद्ध करनेवाले के लिये ही है तो आप गीता का पिण्ड छोड़ दें| आपके समक्ष अर्जुन-्जैसी युद्ध की कोई परिस्थिति तो है वस्तुओं इसमें |
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उपशम ३६७ नहीं| वस्तुतः तब भी वह परिस्थिति विद्यमान थी और आज भी ज्यों-को-्त्यों है| जब चित्त को सब ओर से समेटकर आप हृदय- देश में ध्यान करने लगेंगे तो काम, क्रोध, राग, द्वेषादि विकार आपके चित्त को टिकने नहों देंगे| उन विकारों से संघर्ष करना , उनका अन्त करना ही युद्ध है| विश्व में युद्ध होते हीं रहते हैं; किन्तु उनसे कल्याण नहों अपितु विनाश होता है| उसे शान्ति कह लें अथवा परिस्थिति , अन्य कोई शान्ति इस दुनिया में नहीं मिलती| शान्ति तभी मिलती है जब यह आत्मा अपने शाश्वत को पा ले| यही एकमात्र शान्ति है, जिसके पीछे अशान्ति नहों है| किन्तु यह शान्ति साधनगम्य है, उसी के लिये नियत कर्म का विधान है॰ वर्ण- उस कर्म को हीं चार वर्णों में बाँटा गया| चिन्तन में लगते तो सभी हैं; कोई श्वास-्प्रश्वास की गति रोकने में सक्षम होगा, तो कोई आरम्भ में दो घण्टे चिन्तन में बैठकर दस मिनट भी अपने पक्ष में नहों पाता| ऐसी स्थितिवाला अल्पज्ञ साधक शूद्र श्रेणी का है| वह अपनी स्वाभाविक क्षमता के अनुसार परिचर्या से ही कर्म आरम्भ करे| क्रमशः वैश्य , क्षत्रिय और विप्र श्रेणी को क्षमता उसके स्वभाव में ढलतीं जायेगी| वह उन्नत होता जायेगा| वह ब्राह्मण श्रेणी दोषयुक्त है; क्योंकि अभी वह ब्रह्म अलग है| प्रवेश पा जाने पर वह ब्राह्मण भी नहों रह जाता| वर्ण का अर्थ है आकृति| यह शरीर आपकी आकृति नहों है| आपकी आकृति वैसी है , जैसी आपकी वृत्ति है| श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन! पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये कहीं -न-कहीं उसको श्रद्धा अवश्य होगी| जैसी श्रद्धावाला वह पुरुष है, स्वयं भी वहीं है| जैसी वृत्ति, वर्ण कर्म को क्षमता का आन्तरिक मापदण्ड है; किन्तु लोगों ने नियत कर्म को छोड़कर बाहर समाज में जन्म के आधार पर जातियों को वर्ण मानकर उनको जीविका निश्चित कर दी , जो एक सामाजिक व्यवस्था थो| वे कर्म के यथार्थ रूप को तोड़ते- मरोड़ते हैं , जिससे उनकीं खोखली सामाजिक मर्यादा और जीविका को ठेस न लगे॰ कालान्तर में वर्ण का निर्धारण केवल जन्म से होने लगा| ऐसा कुछ नहीं है| श्रीकृष्ण ने कहा, चार वर्णों की सृष्टि मैंने को| क्या भारत से बाहर सृष्टि नहीं है? अन्यत्र तो इन जातियों का अस्तित्व ही नहों है| भारत में इनके अन्तर्गत लाखों जातियाँ किन्तु ब्रह्म में किन्तु वैसा पुरुष| मात्र |
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३६८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता और उप-्जातियाँ हैं॰ श्रीकृष्ण ने क्या मनुष्यों को बाँटाः नहों , गुणकर्म विभागशः गुण के आधार पर कर्म बाँटे गयेआ ' कर्माणि प्रविभक्तानि कर्म बाँटा गया| कर्म समझ में आ गया तो वर्ण समझ में आ जायेगा और वर्ण समझ में आ गया तो वर्णसंकर का यथार्थ रूप आप समझ लेंगे॰ वर्णसंकर - इस कर्मपथ से च्युत होना ही वर्णसंकर है| आत्मा का शुद्ध वर्ण है परमात्मा उसमें प्रवेश दिलानेवाले कर्म से हटकर प्रकृति में मिश्रित हो जाना हीो वर्णसंकर है॰ श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया कि इस कर्म को किये बिना उस स्वरूप को कोई पाता नहों और प्राप्तिवाले महापुरुष को कर्म करने से न कोई लाभ है और न छोड़ने से कोई हानि , फिर भी लोक- संग्रह के लिये वे कर्म में बरतते हैं॰ उन की तरह मुझे भी प्राप्त होने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त नहों है, फिर भी मैं पीछेवालों के हित को इच्छा से कर्म में ही बरतता हूँ॰ यदि न करूँ तो सभी वर्णसंकर हो जायँॅ स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर होना गयाः किन्तु यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्वरूपस्थ महापुरुष कर्म न करे तब लोग वर्णसंकर हो जाते हैं| उस महापुरुष को नकल करके आराधना बन्द कर देने सेवे प्रकृति में भटकते रहेंगे , वर्णसंकर हो जायेंगे; क्योंकि इस कर्म को करके ही उस परम नैष्कर्म्य की स्थिति को , अपने शुद्ध वर्ण परमात्मा को पाया जा सकता है| ज्ञानयोग तथा कर्मयोग- कर्म एक ही है- नियत कर्म , आराधना; किन्तु उसे करने के दृष्टिकोण दो हैं॰ अपनी शक्ति को समझकर , हानि-लाभ का निर्णय लेकर इस कर्म को करना ज्ञानयोग' है| इस मार्ग का साधक जानता है कि " आज मेरी यह स्थिति है , आगे इस भूमिका में परिणत हो जाऊँगा| फिर अपने स्वरूप को प्राप्त करूँगा ' इस भावना को लेकर कर्म में प्रवृत्त होता है| अपनी स्थिति का ज्ञान रखकर चलता है, इसलिये ज्ञानमार्गी कहा जाता है| समर्पण के साथ उसी कर्म में प्रवृत्त होना, हानि-्लाभ का निर्णय इष्ट पर फेंककर चलना निष्काम कर्मयोग, भक्तिमार्ग है॰ दोनों के प्रेरक सद्गुरु हैं एक हीो महापुरुष से शिक्षा लेकर एक स्वावलम्बी होकर उस कर्म में प्रवृत्त होता है और दूसरा उनसे शिक्षा लेकर, उन्हों पर निर्भर होकर प्रवृत्त होता है| बस अन्तर इतना ही है| इसीलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा - अर्जुन ! सांख्य महापुरुषों तो सुना |
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उपशम ३६९ द्वारा जो परम सत्य मिलता है , वही परम सत्य निष्काम कर्मयोग द्वारा भी मिलता है|जो दोनों को एक देखता है वही यथार्थ देखता है| दोनों की क्रिया बतानेवाला तत्त्वदर्शी एक है, क्रिया भी एक ही है- आराधना| कामनाओं का त्याग दोनों करते हैं और परिणाम भी एक ही है| केवल कर्म का दृष्टिकोण दो है| एक परमात्मा - नियत कर्म मन और इन्द्रियों की एक निर्धारित अन्तःक्रिया है| जब कर्म का यही स्वरूप है तो बाहर मन्दिर , मस्जिद , चर्च बनाकर देवी - देवताओं को मूर्ति या प्रतीक पूजना कहाँ तक संगत है? भारत कहलानेवाला समाज ( वस्तुतः वे सनातनधर्मी हैं| उनके ने परमसत्य को शोध करके देश विदेश में उसका प्रचार किया| उस पथ पर चलनेवाला विश्व में कहों भी हो, सनातनधर्मी है| इतना गौरवशाली हिन्दू - समाज ) कामनाओं से विवश होकर विविध भ्रान्तियों में पड़ गया| श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन ! देवताओं के स्थान पर देवता नाम को कोई शक्ति नहों है| जहाँ कहों भी मनुष्य को श्रद्धा है उसकी ओट में खडा होकर मैं ही फल देता हूँ॰ उसकी श्रद्धा को पुष्ट करता हूँ क्योंकि मैं ही सर्वत्र हूँ॰ किन्तु उसका वह पूजन अविधिपूर्वक है, उसका वह फल नाशवान् है| कामनाओं से जिनके ज्ञान का अपहरण हो गया है,वे मूढ़बुद्धि ही अन्य देवताओं को हैं॰ सात्त्विक लोग देवताओं को पूजते हैं , राजसी यक्ष- राक्षसों को तथा तामसी को हैं| घोर तप करते हैं| किन्तु अर्जुन ! वे शरीर में स्थित भूतसमुदाय और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को कृश करते हैं, न कि पूजते हैं| उन्हें निश्चय ही तू आसुरी स्वभाव से संयुक्त जान| इससे अधिक श्रीकृष्ण क्या कहते? उन्होंने स्पष्ट कहा- अर्जुन ! ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में रहता है, केवल उसी की शरण जाओ| पूजा की स्थली हृदय में है , बाहर नहों| फिर भी लोग पत्थर-्पानी, मन्दिर-्मस्जिद, देवी- देवताओं का पीछा करते ही हैं| उन्हीं के साथ श्रीकृष्ण को भी एक प्रतिमा बढ़ा लेते हैं| श्रीकृष्ण को हीं साधना पर बल देनेवाले तथा जोवन भर मूर्तिपूजा का खण्डन करनेवाले भी मूर्ति उनके अनुयायियों ने बना ली और लगे पूजा करने ( दीप दिखाने ) , जबकि बुद्ध ने कहा था- आनन्द तथागत को में समय नष्ट न करना में हिन्दू पूर्वजों झुकती पूजते भूत- प्रेतों पूजते बुद्ध को शरीर- पूजा |
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३७ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता मस्जिद , चर्च, तीर्थ , मूर्तियाँ तथा स्मारकों से पूर्ववर्ती महापुरुषों को स्मृतियाँ सँजोयी जाती हैं , जिससे उनकी उपलब्धियों का स्मरण होता रहे| महापुरुषों में स्त्री - पुरुष सभी होते आये हैं| जनक को कन्या सीता पिछले जन्म ब्राह्मण - ्कन्या थो| अपने पिता को प्रेरणा से परमब्रह्म को पाने के लिये उसने तपस्या कोः सफल न हो सकोी| दूसरे जन्म में उसने राम को प्राप्त किया और चिन्मय , अविनाशी , आदिशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुई| ठीक इसी प्रकार , राजकुल में उत्पन्न मीरा में परमात्मा को भक्ति का प्रस्फुटन हुआ| सबकुछ छोड़कर वह भगवान के चिन्तन में लग गयो| व्यवधानों को झेला और सफल रही| इनकी स्मृति सँजोने के लिये मन्दिर बने , स्मारक बने ताकि समाज उनके उपदेशों से अनुप्राणित हो सके| मोरा , सीता अथवा इस पक्ष का शोधकर्त्ता प्रत्येक महापुरुष हमारा आदर्श है| हमें उनके पदचिह्नों का अनुसरण करना चाहिये; किन्तु इससे बड़ी भूल क्या होगी कि यदि हम केवल उनके चरणों में फूल चढ़ाकर , चन्दन लगाकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री मान बैठें प्रायः जो जिसका आदर्श होता है, उसकी मूर्ति, चित्र , खड़ाऊँ , उसका स्थान अथवा उससे सन्दर्भित कुछ भी देखने सुनने पर मन में श्रद्धा उमड़ आती है| यह उचित हो है| हम भी अपने गुरुदेव भगवान के चित्र को कूड़े में नहीं फेंक सकते; क्योंकि वह हमारे आदर्श हैं| उन्हीं की प्रेरणा तथा कथनानुसार हमें चलना है| जो स्वरूप उनका है क्रमशः चलकर उसकी प्राप्ति हमारा भी अभीष्ट है और यही उनकी यथार्थ पूजा है| यहाँ तक तो ठीक है कि जो वस्तुतः आदर्श हैं , उनका निरादर न करें; किन्तु उन पर पत्र- पुष्प चढ़ाने को हीं भक्ति मान बैठने से, उतने को ही कल्याण- साधन मान लेने से हम लक्ष्य से बहुत दूर भटक जायेंगे| अपने आदर्शों के उपदेशों को हृदयंगम करने तथा उस पर चलने की प्रेरणा ग्रहण करने के लिये ही स्मारकों का उपयोग हैः चाहे उसे आश्रम मन्दिर , मस्जिद , चर्च , मठ , विहार , गुरुद्वारा या कुछ भो नाम दे लें| बशर्ते उन केन्द्रों का सम्बन्ध धर्म से है तो| जिसकी प्रतिमा है , उसने क्या किया और क्या पायाः कैसे तपस्या की? कैसे प्राप्त कियाः केवल इतना ही सीखने के लिये हम वहाँ पहुँचते हैं और पहुँचना भी चाहिये; यदि इन स्थानों पर मन्दिर , में एक किन्तु किन्तु |
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उपशम ३७२ महापुरुषों के पदचिह्न नहीं बताये गये, करके नहीं सिखाये गये, कल्याण की व्यवस्था नहों मिली तो वह स्थान गलत है| वहाँ आपको केवल रूढ़ि मिलेगी| वहाँ जाने में आपका नुकसान है| व्यक्तिगत रूप सेघर-घर ॰ गली- गली जाकर उपदेश पहुँचाने की अपेक्षा सामूहिक उपदेश केन्द्रों के रूप में इन धार्मिक संस्थानों की स्थापना को गयी थीः कालान्तर में इन प्रेरणास्थलियों से ही मूर्तिपूजा तथा रूढ़ियों ने धर्म का स्थान ग्रहण कर लिया| यहीं से भ्रम पनप गया ग्रन्थ- इसी प्रकार पुस्तकों का अध्ययन आवश्यक है, जिससे आप उस निर्दिष्ट क्रिया को समझ सकें , जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने नियत कर्म कहा है और जब समझ में आ जाय तो तुरन्त करने में लग जायँॅ विस्मृत होने लगे अध्ययन कर लें| यह नहों कि पुस्तक को हाथ जोड़कर अक्षत , चन्दन छिड़ककर रख दें| पुस्तक मार्ग - निर्देशक चिह्न है, जो पूर्तिपर्यन्त साथ देता है| देखते हुए आगे बढ़ते चलें अपने गन्तव्य की ओर| जब इष्ट को हृदय से पकड़ लेंगे तो वह इष्ट हो पुस्तक बन जायेगा| अतः स्मृति सँजोना हानिकारक नहों है; किन्तु इन स्मृतिचिह्नों को पूजा से हीं सन्तुष्ट हो जाना हानिकारक है| धर्म- (अध्याय २/१६ २९ ) योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार असत् वस्तु का अस्तित्व नहों है और सत् का कभी अभाव नहीं है| परमात्मा ही सत्य है, शाश्वत हैः अजर, अमर, अपरिवर्तनशील और सनातन है; वह परमात्मा अचिन्त्य और अगोचर है , चित्त की तरंगों से परे है| अब चित्त का निरोध कैसे हो? चित्त का निरोध करके उस परमात्मा को पाने की विधि- विशेष का नाम कर्म है| इस कर्म को कार्यरूप देना ही धर्म है, दायित्व है| गीता ( अध्याय २/४० ) में है कि॰ अर्जुन ! इस कर्मयोग में आरम्भ का नाश नहों है| इस कर्मरूपीं धर्म का किंचिन्मात्र साधन जन्म- मृत्यु के महान् भय से उद्धार करनेवाला होता है अर्थात् इस कर्म को कार्यरूप देना ही धर्म है| इस नियत कर्म (साधन ्पथ) को साधक के स्वभाव में उपलब्ध क्षमता के अनुसार चार भागों में बाँटा गया है| कर्म को समझकर मनुष्य जबसे आरम्भ करता है उस आरम्भिक अवस्था में वह शूद्र है| क्रमशः विधि पकड़ किन्तु = तो पुनः किन्तु |
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३७२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता में आयो तो वहीं वैश्य है| प्रकृति के संघर्ष को झेलने की क्षमता और शौर्य आने पर वहीं व्यक्ति क्षत्रिय है और ब्रह्म होने को क्षमता- ज्ञान ( वास्तविक जानकारी ) , विज्ञान ( ईश्वरीय वाणी का मिलना ) , उस अस्तित्व पर निर्भर रहने की क्षमता ऐसी योग्यताओं के आने पर वही ब्राह्मण है| इसलिये योगेश्वर श्रीकृष्ण ( गोता , अध्याय १८४४६ ४७ में) कहते हैं कि स्वभाव में पायी जानेवाली क्षमता के अनुसार कर्म में लगना स्वधर्म है| हल्का होने पर भी स्वभाव से उपलब्ध स्वधर्म श्रेयतर है और क्षमता अर्जित किये बिना ही दूसरों के उन्नत कर्म का परिपालन भी हानिकारक है| स्वधर्म में मरना भी श्रेयस्कर है; क्योंकि वस्त्र से बदलनेवाला तो बदल नहों जाता| उसके साधन का क्रम वहों से पुनः आरम्भ हो जायेगा, जहाँ से छूटा था| सोपानशः चलकर वह परमसिद्धि अविनाशी पद को पा लेगा| इसी पर पुनः बल देते हैं कि जिस परमात्मा से सभी प्राणियों को उत्पत्ति जो सर्वत्र व्याप्त है स्वभाव से उत्पन्न हुई क्षमता के अनुसार उसे भलीभाँति पूजकर मानव परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है| अर्थात् निश्चित विधि से एक परमात्मा का चिन्तन ही धर्म है| धर्म में प्रवेश किसको है? इसे करने का अधिकार किसे है? इसे स्पष्ट करते हुए योगेश्वर ने बताया कि॰ ' अर्जुन ! अत्यन्त भी यदि अनन्य भाव से मुझे भजता है ( अनन्य अर्थात् अन्य न) , मुझे छोड़कर अन्य किसी को भी न भजकर केवल मुझे भजता है तो क्षिप्रं भवति धर्मात्मा - वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है , उसकी आत्मा धर्म से संयुक्त हो जाती है॰ अतः श्रीकृष्ण के अनुसार धर्मात्मा वह है , जो एक परमात्मा में अनन्य निष्ठा से लग गया है| धर्मात्मा वह है , जो एक परमात्मा को प्राप्ति के लिये नियत कर्म का आचरण करता है| धर्मात्मा वह है, जो स्वभाव से नियत क्षमता के अनुसार परमात्मा की शोध में संलग्न है| अन्त में कहते हैं कि सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं त्रज| अर्जुन ! सारे धर्मों की चिन्ता छोड़कर एक मेरी शरण में हो जा| अतः एक परमात्मा के प्रति समर्पित व्यक्ति ही धार्मिक है| एक परमात्मा में श्रद्धा स्थिर करना ही धर्म है| उस एक परमात्मा की प्राप्ति की निश्चित क्रिया को करना के तद्रूप बदलने हुई है, दुराचारी |
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उपशम ३७३ धर्म है॰ इस स्थिति को प्राप्त महापुरुष , आत्मतृप्त महापुरुषों का सिद्धान्त ही सृष्टि में एकमात्र धर्म है| उनकी शरण में जाना चाहिये कि उन कैसे उस परमात्मा को पाया? किस मार्ग से चले? वह मार्ग सदा एक हीं है, उस मार्ग से चलना धर्म है| धर्म मनुष्य के आचरण की वस्तु है| वह आचरण केवल एक है- व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन॰ ' ( २/४१ ) इस कर्मयोग में निश्चयात्मक क्रिया एक ही है- इन्द्रियों को चेष्टा और मन के व्यापार को संयमित कर आत्मा में ( परात्पर ब्रह्म में ) प्रवाहित करना ( ४/२७)| धर्मान्तरण - सनातन- धर्म के आदिदेश भारत में कुरीतियाँ यहाँ तक पनपीं कि मुसलमानों के आक्रमण के समय उनका धर्म आक्रामकों के हाथ का एक ग्रास चावल खाने से, दो घूँट पानी पीने से नष्ट होने लगा| धर्मभ्रष्ट घोषित हजारों हिंदुओं ने आत्महत्या कर ली| धर्म के लिये वे मरना जानते थे, लेकिन धर्म समझें तब तो| धर्म तो हो गया छुईमुई| छुईमुई का पौधा छूने पर मुरझा जाता है, छूटते ही पनप जाता है; उनका सनातन- धर्म तो ऐसा मुरझाया कि कभी नहीं पनपा| जिस सनातन आत्मा को भौतिक वस्तुएँ स्पर्श भी नहीों कर पातों , वह कहों छूने-खाने से नष्ट होता है? आप तलवार से मरें , धर्म छूने से मर गया? क्या सचमुच धर्म नष्ट हुआ? कदापि नहों| धर्म के नाम पर कोई कुरीति पल रही थी , वह नष्ट हुई| अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में बयाना के काजी मुगीसुद्दीन ने व्यवस्था दी कि यदि कोई मुसलमान थूकना चाहता है तो हिन्दुओं को अपना मुँह खोल देना चाहिये| वह दीनदार हो जायेगा; क्योंकि उसके पास कोई धर्म नहों है| बुरा क्या कहा उसने? मुँह में से तो एक ही मुसलमान बनता , कुएँ में थूकने से तो हजारों बन जाते थे| वस्तुतः वह आततायी था या उस समय का हिन्दू समाज? जिन्होंने इस प्रकार धर्म- परिवर्तन कर लिया, क्या कोई धर्म पा गये? से मुसलमान बन जाना या एक प्रकार के रहन- सहन से दूसरे रहन- सहन में चले जाना धर्म तो नहों है| इस प्रकार योजनाबद्ध षड्यंत्र का शिकंजा बनाकर जिन्होंने उन्हें बदला , क्या वे धर्मात्मा थे? वे तो और भी बड़ी कुरीतियों के शिकार थे| हिन्दू उसी में जाकर फँस गये| अविकसित और गुमराह कबीलों महापुरुषों ने किन्तु हिन्दू थूकने = हिन्दू |
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३७४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता को सभ्य बनाने के लिये मुहम्मद ने विवाह , तलाक , वसीयत , लेन- देन, सूद , गवाही , कसम , प्रायश्चित , रोजी - रोटी , खान- पान , रहन- सहन इत्यादि विषय में एक सामाजिक व्यवस्था दी तथा मूर्ति-पूजा , शिर्क, व्यभिचार , चोरी , शराब , जुआ, माँ-दादी इत्यादि से विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया| समलैंगिक तथा रजस्वला मैथुनों का निषेध करके रोजे के दिनों में भी इसके लिये ढील दो| जन्नत में समवयस्क , अनछुई हूरों और किशोर बालकों का प्रलोभन दिया| यह कोई धर्म नहों था, एक प्रकार को सामाजिक व्यवस्था थी| ऐसा कुछ कहकर उन्होंने वासना में डूबे हुए समाज को उधर से घुमाकर अपनी ओर उन्मुख किया| स्त्रियों को जन्नत में कितने पुरुष मिलेंगे? ~ इस पर उन्होंने सोचा ही नहीं| यह उनका दोष नहों , दोष उस देश-काल और परिस्थिति का था, जिसमें स्त्रियों को आकांक्षाओं पर किसीं का ध्यान हीं नहीं जाता था| मुहम्मद साहब ने जिसे धर्म बताया , उधर किसी का ध्यान ही नहीं है| उन्होंने कहा कि जिस पुरुष का एक भी श्वास उस खुदा के नाम के बगैर खाली जाता है , उससे खुदा कयामत में वैसे ही पूछता है, जैसे किसी पापी से पाप के बदले जाय| जिसकी सजा है हमेशा - हमेशा के लिये दोज़खा कितने सच्चे मुसलमान हैं , जिनका एक भी श्वास खाली न जाता हो? करोडों में कदाचित् ही कोई हो| शेष तो सभी के श्वास खाली हीं जाते हैं, जिसकीं सजा वहीं है जो पापियों के लिये है| बताने को आवश्यकता नहों , दोज़ख मुहम्मद ने व्यवस्था दी किजो किसी को नहों सताता , को ठेस नहों पहुँचाता , वह आकाश से खुदा को आवाज सुनता है| यह सभो स्थानों के लिये थाः किन्तु पीछेवालों ने एक रास्ता निकाल लिया कि मक्का में एक मस्जिद है, जिसमें हरी घास नहों तोड़नी चाहिये, उस मस्जिद में किसी पशु को नहों मारना चाहिये , वहाँ किसी को ठेस नहों पहुँचानी चाहिये और घूम - फिरकर वे उसी दायरे में खड़े हो गये| क्या खुदा की आवाज सुनने से पहले मुहम्मद ने कोई मस्जिद बनवायी थी? क्या कभी किसी मस्जिद में कोई आयत उतरी? यह मस्जिद तो उनकी स्थली रहीं है, जिसमें उनकी यादगार सुरक्षित है| मुहम्मद के आशय को तबरेज ने जाना था, मंसूर ने जाना था , इकबाल ने जाना थाः किन्तु वे मज़हबी लोगों के शिकार बने, उन्हें यातनाएँ दी गयों| सुकरात बहुत-सी में पूछा पशुओं |
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उपशम ३७५ को जहर पिलाया गयाः क्योंकि वह लोगों को नास्तिक बना रहा था| ऐसा हीं आरोप ईसा पर भी लगाया गया उन्हें सूली दी गयोः क्योंकि वे विश्राम सव्वाथ के दिन भी काम करते थे, अन्धों को दृष्टि प्रदान करते थे| ऐसा ही भारत में भी है| जब भी कोई प्रत्यक्षदर्शी महापुरुष सत्य की ओर इंगित करता है तो इन मन्दिर, मस्जिद, मठ, सम्प्रदाय और तीर्थों से जिनकी जीविका चलती है , हाय-्हाय करने लगते हैं , अधर्म - अधर्म चिल्लाने लगते हैं| किसीं को इनसे लाखों करोड़ों की आय है, तो किसी को दाल- रोटीं ही चलती है| वास्तविकता के प्रचार से उनको जीविका को खतरा दिखायो पड़ता है॰ वे सत्य को पनपने नहों देते और न दे सकते हैं| इसके अतिरिक्त उनके विरोध का कोई कारण नहों है| सुदूरकाल में यह स्मृति क्यों सँजोयी गयी थी , इसका उन्हें भान नहों है| गृहस्थों का अधिकार- प्रायः लोग पूछते हैं किजब कर्म का यही स्वरूप है , जिसमें एकान्त - देश का सेवन , इन्द्रिय-्संयम , निरन्तर चिन्तन और ध्यान करना है॰ तब तो गीता के लिये अनुपयोगी है॰ तब तो गीता केवल के लिये है| किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है| गीता मूलतः उसके लिये है , जो इस पथ का पथिक है और अंशतः उसके लिये भी है , जो इस पथ का पथिक बनना चाहता है गीता मानवमात्र के लिये समान आशय रखती है| सद्गृहस्थों के लिये तो इसका विशेष उपयोग है; क्योंकि वहों से कर्म आरम्भ होता है| श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन इस निष्काम कर्मयोग में आरम्भ का कभी नाश नहों होता| इसका भी साधन जन्म ्मरण के महान् भय से उद्धार कराके ही छोड़ता है| आप ही बतायें , थोड़ा साधन कौन करेगा - गृहस्थ अथवा विरक्तः गृहस्थ हीं इसके लिये थोड़ा समय देगा, यह उसके लिये हीं है| अध्याय ४/३६ में कहा - अर्जुन ! यदि तू सम्पूर्ण पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है तब भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा निःसन्देह पार हो जायेगा| अधिक पापी कौन है- जो अनवरत लगा है वह अथवा जो अभी लगना चाहता है? अतः सद्गृहस्थ आश्रम से ही कर्म का आरम्भ है| अध्याय ६/३७ में अर्जुन ने पूछा भगवन् शिथिल प्रयत्नवाला श्रद्धावान् पुरुष परमगति को न पाकर गृहस्थों साधुओं थोड़ा |
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३७६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता किस दुर्गति को प्राप्त होता है? श्रीकृष्ण ने कहा ( अध्याय ६ ४०-४५ )- अर्जुन ! योग से चलायमान हुए शिथिल प्रयत्नवाले पुरुष का कभो विनाश नहीं होता| वह योगभ्रष्ट श्रीमानों [ शुचीनाम् - शुद्ध ( सत्य) आचरणवाले ही श्रीमान हैं॰] के यहाँ जन्म लेकर में प्रवेश पा जाता है, साधन को ओर आकर्षित होता है और अनेक जन्मों में चलकर वहीं पहुँच जाता है, जिसका नाम परमगति अर्थात् परमधाम है| यह शिथिल प्रयत्न कौन करता है? योगभ्रष्ट होकर वह कहाँ जन्म लेता है? गृहस्थ ही तो बना| वहों से वह साधनोन्मुख होता है| अध्याय ९३० में उन्होंने कहा- अत्यन्त भी यदि अनन्यभाव से मुझे भजने लगे तो वह साधु ही है; क्योंकि वह निश्चय के साथ सहीं रास्ते पर लग गया है| अत्यन्त कौन होगा- जो भजन में प्रवृत्त हो गया वह अथवा वह , जिसने अभी आरम्भ हो नहों किया? अध्याय ९/३२ में कहा - स्त्री , वैश्य , शूद्र तथा पापयोनिवाले हीं क्यों न हों , मेरे आश्रित होकर साधन करने से परमगति पाते हैं| हिन्दू हो, ईसाई हो, मुसलमान हो- श्रीकृष्ण ऐसा कुछ नहों कहते, अत्यन्त पातकी ही क्यों न हों, मेरी शरण होकर परमगति पाते हैं| अतः गीता मानवमात्र के लिये है॰ सद्गृहस्थ आश्रम से ही इस कर्म का आरम्भ है क्रमशः वहीं सद्गृहस्थ योगी बनता है , पूर्ण त्यागी हो जाता है और तत्त्व का दिग्दर्शन कर परम में प्रवेश पा जाता है जिसे श्रीकृष्ण ने कहा कि ज्ञानी मेरा स्वरूप है| स्त्री - गीता के अनुसार शरीर एक वस्त्र है| जैसे पुराने वस्त्र को त्यागकर मनुष्य नया वस्त्र धारण कर लेता है, ठीक इसीं प्रकार का स्वामी आत्मा इस शरीररूपी वस्त्र को त्यागकर दूसरा शरीर ( वस्त्र ) धारण कर लेता है| आप पिण्डरूप में स्त्री हों या पुरुष, ये वस्त्र के आकार हैं॰ संसार में पुरुष दो प्रकार का है- क्षर और अक्षर| समस्त प्राणियों का शरीर क्षर पुरुष अथवा परिवर्तनशील पुरुष है| मनसहित इन्द्रियाँ जब कूटस्थ हो जाती हैं, तब वही अक्षर पुरुष है| उसका कभी विनाश नहों होता| यह भजन को अवस्था है स्त्रियों के प्रति कभी सम्मान तो कभी अपमान को भावना समाज में बनी ही रहती है; किन्तु गीता की अपौरुषेय वाणी में यह है ( अल्पज्ञ ) योगो-कुल दुराचारी दुराचारी दुराचारी भूतादिकों कि शूद्र |
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उपशम २७७७ वेश्य विधिप्राप्त ) , स्त्री - पुरुष कोई क्यों न हो, मेरी शरण आकर परमगति को प्राप्त होता है| अतः इस कल्याण- पथ में स्रियों का वहीं स्थान है,जो एक पुरुष का है| भौतिक समृद्धि- गीता परमकल्याण तो देती है साथ ही मनुष्यों के लिये आवश्यक भौतिक वस्तुओं का भी विधान करती है| अध्याय ९/२०-२२ में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं से लोग निर्धारित विधि से मुझे पूजकर बदले में स्वर्ग की कामना करते हैं| उन्हें विशाल स्वर्गलोक मिलता है , मैं देता हूँ॰ जो माँगोगे , वह मिलेगा; उपभोग के पश्चात् समाप्त हो जायेगा , क्योंकि स्वर्ग के भोग भी नश्वर हैं| जन्म लेना पड़ेगा| हाँ, मुझसे सम्बन्धित होने के कारण वे नष्ट नहों होते; क्योंकि मैं कल्याणस्वरूप हूँ॰ मैं उन्हें भोग देता हूँ और शनैः - शनैः निवृत्त कराकर पुनः उन्हें कल्याण में लगा देता हूँ क्षेत्र- जिन परमात्मा के श्रीमुख की वाणी यह गीता है उन्होंने स्वयं परिचय दिया , इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते| ' - अर्जुन ! यह शरीर ही क्षेत्र ( खेत ) है, जिसमें बोया गया भला कर्मबीज संस्काररूप में जमता है और कालान्तर में सुख- दुःख का रूप लेकर भोग के रूप में मिलता है| आसुरी सम्पद् अधम योनियों में ले जाने के लिये है, जबकि दैवीं सम्पद् परमदेव परमात्मा में प्रवेश दिलाती है| सद्गुरु के सान्निध्य में इनमें निर्णायक युद्ध का आरंभ होता है, यही क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ को लड़ाई है| कुछेक टीकाकार कहते हैं- एक कुरुक्षेत्र बाहर है और दूसरा मन के भीतर है॰ गीता का एक अर्थ बाहरी है, दूसरा भीतरी| लेकिन ऐसा कुछ नहों है| वक्ता एक बात कहता है; किन्तु श्रोता अपनी बुद्धि के अनुरूप ही उसे पकड़ पाते हैं, इसीलिये अनेक प्रतीत होते हैं| साधन-पथ पर क्रमशः चलकर जो भी पुरुष श्रीकृष्ण के स्तर पर खडा हो जायेगा, तोजो दृश्य श्रीकृष्ण के सामने था, वहीं उसके सामने भी होगा| वहीं महापुरुष उनके मनोगत भावों को॰ गीता के संकेतों को समझ सकता है समझा सकता है| गीता का एक भी श्लोक बाहर का चित्रण नहों करता| खाना , पहनना, रहना आप जानते ही हैं| रहन-्सहन, मान्यता, लोकरीति-्नीति में देश-काल कि बहुत मुझसे किन्तु उन्हें पुनः और बुरा अर्थ |
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३७८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता और परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तन प्रकृति को देन है॰ इसमें आपको कौन-सी व्यवस्था दें? कहों लड़कियों का बाहुल्य है , बहु विवाह होते हैं , तो कहों उनकी संख्या कम है| कहों कई भाइयों के बीच एक पत्नी रह लेती है- इसमें श्रीकृष्ण कौन-सी व्यवस्था दें| द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जापान में जनसंख्या को कमी समस्या बन गयी तो तोस बच्चों को जन्म देने वाली एक महिला को मदरलैंड ( देश की माता) को उपाधि से सम्मानित किया गया| वैदिककालीन भारत में पहले दस सन्तान उत्पन्न करने का विधान था अब एक या दो बच्चे, होते हैं घर में अच्छे' का नारा लग रहा है| कदाचित् वे न रहें तो देश के लिए चिन्ता का विषय नहों , समस्या का हल हीं होता है| श्रीकृष्ण कौन-्सी व्यवस्था दें? श्रेय- काम , क्रोध , लोभ, मोह के कहों स्कूल नहीं खुले हैं, फिर भी इन विकारों में लड़के बड़े तथा सयानों से कहों अधिक प्रवीण निकलते हैं इसमें क्या शिक्षा दें? यह सब तो प्रकृति द्वारा स्वचालित हैं| कभी वेद पढ़ाये जाते थे, धनुर्वेद- गदायुद्ध सिखाया जाता था, आज इन्हें कौन सीखता है? आज तो पिस्टल चला रहे हैं| स्वचालित यन्त्रों का कभी रथ- सीखना पड़ता था, घोड़ों की लीद फेंकनीं पडती थी; आज मोटरों का तेल साफ किया जाता है| इसमें श्रीकृष्ण क्या बतायें? कह दें कि घोड़ों को ऐसे मत मलो बाहर आपको कैसीं व्यवस्था दें? पहले स्वाहा बोलने से वर्षा होतीं थो , आज मनचाही फसल लेने लगे हैं॰ योगेश्वर कहते हैं कि प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा परवश होकर मनुष्य परिस्थिति के अनुसार ढलता ही रहता है| गुण स्वतः उन्हें ढालने में सक्षम हैं| भौतिकशास्त्र , समाजशास्त्र , शिक्षाशास्त्र , अर्थशास्त्र तर्कशास्त्र वह गढ़ता ही रहता है| एक ही वस्तु ऐसी है जो मनुष्य नहीं जानता , नहीं पहचानता| जो है तो उसी के पास किन्तु उसे है| गीता सुनकर अर्जुन की वही स्मृति लौट आयी थो| वह स्मृति है परमात्मा की, जो हृदय- देश में होकर भी उससे बहुत दूर है| उसी को मनुष्य पाना चाहता है; रास्ता नहों पाता| केवल कल्याण-्पथ से ही मनुष्य अनभिज्ञ है| मोह का आवरण इतना घना है कि उधर सोचने का समय ही नहों मिलतात उन महापुरुष ने आपके लिये समय दिया है, उस कर्म को स्पष्ट किया है, जिसे श्रीकृष्ण इसमें श्रीकृष्ण युग है| संचालन विस्मृत किन्तु |
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उपशम ३७९ करने का निर्देश गीता में है| गीता मुख्यतः यही देती है| भौतिक वस्तुएँ भी उससे मिलती हैं; किन्तु श्रेय कोी तुलना में प्रेय नगण्य हैं| योग-प्रदाता - योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार कल्याण - पथ की जानकारी उसका साधन और उसकी प्राप्ति सद्गुरु से होती है| इधर - उधर तीर्थों में बहुत भटकने या बहुत परिश्रम से यह तब तक नहीं मिलता, जब तक किसी सन्त द्वारा न प्राप्त किया जाय| अध्याय ४/३४ में ने कहा- अर्जुन! तू किसी तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर, भली प्रकार दण्ड-्प्रणाम कर निष्कपट भाव से सेवा करके , प्रश्न करके उस ज्ञान को प्राप्त करढ प्राप्ति का एकमात्र उपाय है किसी महापुरुष का सान्रिध्य और उनकी सेवा| उनके अनुसार चलकर योग की संसिद्धिकाल में पायेगा| अध्याय १८/१८ में उन्होंने बताया कि परिज्ञाता अर्थात् तत्त्वदर्शी महापुरुष , ज्ञान अर्थात् जानने को विधि और ज्ञेय परमात्मा - तीनों कर्म के प्रेरक हैं| अतः श्रीकृष्ण के अनुसार महापुरुष हो कर्म के माध्यम हैं, न कि केवल पुस्तक| किताब तो एक नुस्खा है| नुस्खा रटने से कोई नीरोग नहों होता बल्कि उसे अमल में लाना है| नरक- अध्याय १६/१६ में आसुरी सम्पद् का वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया कि अनेक प्रकार से भ्रमित चित्तवाले , मोह में फँसे आसुरी स्वभाववाले मनुष्य अपवित्र नरक में गिरते हैं॰ प्रश्न स्वाभाविक है कि नरक है कैसा और किसे कहते हैं? इसी क्रम में स्पष्ट करते हैं कि मुझसे द्वेष रखनेवाले नराधमों को मैं बारम्बार आसुरी योनियों में गिराता हूँ, अजस्र आसुरी योनियों में गिराता हूँ| यहीं नरक है| इस नरक का द्वार क्या है? उन्होंने बताया कि काम . क्रोध और लोभ नरक के तीन द्वार हैं, जिनमें आसुरी सम्पद् गठित होतीं है॰ अतः बारम्बार कोट- पतंग, पशु इत्यादि योनियों में आना हीं नरक है| पिण्डदान- प्रथम अध्याय में विषादग्रस्त अर्जुन को आशंका थी कि युद्धजनित नरसंहार से पितर लोग पिण्डदान और तर्पण से वंचित हो जायेंगे , पितर गिर जायेंगे| इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - अर्जुन ! तुझे यह अज्ञान कहाँ से हो गयाः पिण्डोदक क्रिया को योगेश्वर ने अज्ञान कहा और बताया कि जिस प्रकार जोर्ण - शीर्ण वस्त्र को त्यागकर मनुष्य नया वस्त्र धारण कर लेता श्रीकृष्ण |
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३८० श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता है, ठीक इसी प्रकार यह आत्मा जीर्ण शरीर को छोड़कर तत्काल शरीररूपीं नवीन वस्त्र को ग्रहण कर लेता है॰ यहाँ शरीर मात्र एक वस्त्र है और जब आत्मा ने केवल वस्त्र बदला वह मरा नहों, नश्वर शरीर को हीं बदला है उसकी व्यवस्थाएँ पूर्ववत् हैं तो इस भोजन ( पिण्डदान) , आसन, शय्या सवारी , आवास या जल इत्यादि से किसे तृप्त किया जाता है? यही कारण है कि योगेश्वर ने इसे अज्ञान कहा| अध्याय १५७ में इसी पर बल कहते हैं कि यह आत्मा मेरा सनातन अंश है, स्वरूप है और मन तथा पाँचों इन्द्रियों के कार्य-कलापजन्य संस्कार को लेकर दूसरे शरीर को धारण कर लेता है और मनसहित षट् इन्द्रियों के द्वारा अगले शरीर में विषय- भोगों को भोगता है॰ आत्मा ने जिस शरीर को धारण किया, वहाँ भी भोग-सामग्री उपलब्ध है , फिर पिण्डदान क्यों दिया जाता है? इधर एक शरीर को छोड़ा, उधर दूसरे शरीर को धारण किया| वह सीधा उस शरीर में जाता है| बीच में कोई विराम नहों , कोई स्थान नहों तो हजारों पोढ़ियों के पितरों का अनादिकाल से पडे़ रहना और उनको जोविका वंश-्परम्परा के हाथ निर्धारित करना तथा पिंजड़े के पक्षी की तरह उनका रुदन , पतन एक अज्ञान मात्र है| इसीलिये श्रीकृष्ण ने इसे अज्ञान कहा| पाप और पुण्य- इस प्रश्न पर समाज में अनेक भ्रान्तियाँ हैं; योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार रजोगुण से उत्पन्न यह काम और क्रोध भोगों से कभी तृप्त न होनेवाले महान् पापी हैं| अर्थात् काम ही एकमात्र पापीं है| पाप का उदगम काम है, कामनाएँ हैं॰ ये कामनाएँ रहती कहाँ हैं? श्रीकृष्ण ने बताया कि इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि इसके वासस्थान कहे जाते हैं| जब विकार तन में नहीं , मन में ही होते हैं तो शरीर धोने से क्या होगा? श्रीकृष्ण के अनुसार इस मन की शुद्धि होती है नाम-्जप से, ध्यान से, समकालीन किसी तत्त्वदर्शी महापुरुष को सेवा से, उनके प्रति समर्पण से, जिसके लिये वे ४/३४ में प्रोत्साहित करते हैं कि तद्विद्धि प्रणिपातेन -सेवा और प्रश्न करके उस ज्ञान को प्राप्त करो, जिससे सभी पाप नष्ट हो जाते हैं| अध्याय ३१३ में उन्होंने कहा कि यज्ञ से शेष बचे अन्न को खानेवाले सन्तजन सम्पूर्ण पापों से छूट जाते हैं और जो शरीर के लिये कामना करते हैं , देते हुए किन्तु |
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उपशम ३८२ वे पापी पाप ही खाते हैं॰ यहाँ यज्ञ चिन्तन की एक निश्चित क्रिया है , जिससे मन में निहित चराचर जगत् के संस्कार जल जाते हैं| शेष केवल ब्रह्म ही बचता है| अतः शरीर के जन्म काजो कारण है, वहीं पाप है और जो उस अमृत-्तत्त्व को दिलानेवाला है , जिसके पश्चात् कभी शरीर धारण न करना पड़े , वहीं अध्याय ७/२९ में वे कहते हैं - मेरी शरण होकर जरा-मरण और दोषों से छूटने के लिये यत्न करनेवाले पुण्यकर्मी जिन का पाप नष्ट हो गया है, वे सम्पूर्ण ब्रह्म को , सम्पूर्ण कर्म को , सम्पूर्ण अध्यात्म को तथा भली प्रकार मुझे जानते हैं और मुझे जानकर ही स्थित रहते हैं| अतः पुण्यकर्म वह है जो जरा, मरण और दोषों से ऊपर उठाकर शाश्वत की जानकारीं और उसीं में सदा के लिये स्थिति दिलाता है| और जो जन्म- मृत्यु , जरा- मरण , दुःख- दोषों को परिधि में घुमाकर रखता है, वहीं पापकर्म है अध्याय १०/३ में कहते हैं - जो मुझ जन्म- मृत्यु से रहित, आदि-्अन्त से रहित सब लोकों के महान् ईश्वर को साक्षात्कारसहित विदित कर लेता है , वह पुरुष मरणधर्मा मनुष्यों में ज्ञानवान् है और ऐसा जाननेवाला सम्पूर्ण पापों हो जाता है| अतः साक्षात्कार के साथ ही सम्पूर्ण पापों से निवृत्ति मिलती है॰ सारांशतः बार- बार जन्म मृत्यु का कारण हीं पाप है और जो उससे बचाकर शाश्वत परमात्मा को ओर घुमा दे, परमशान्ति को प्राप्ति करा दे, वही है| सच बोलना , केवल अपने परिश्रम का खाना, स्त्रियों में मातृ- भाव , ईमानदारी इत्यादि भी इस पुण्यकर्म के सहायक अंग हैं; किन्तु सर्वोत्कृष्ट पुण्य है परमात्मा को प्राप्ति| जो मात्र एक परमात्मा को श्रद्धा को तोड़ता है वह पाप है| सन्त सब एक- अध्याय ४/१ में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया- इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में मैंने सूर्य के प्रति कहा था| श्रीकृष्ण के पूर्वकालीन इतिहास अथवा अन्य किसी भी शास्त्र में कृष्ण-्नाम का उल्लेख नहों मिलता| पुण्य है| पुरुषों मुझमें से मुक्त पुण्यकर्म गीता , किन्तु |
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३८२ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता वास्तव में श्रीकृष्ण एक पूर्ण योगेश्वर हैं| वे एक अव्यक्त और अविनाशी भाव को स्थिति के हैं| जब कभी परमात्मा से मिलानेवाली क्रिया अर्थात् योग का सूत्रपात किया गया तो इसी स्थितिवाले किसी महापुरुष ने किया , चाहे वह राम हों या ऋषि जरथुस्त्र ही क्यों न रहे हों| परवर्तीकाल में यही उपदेश ईसा , मुहम्मद , गुरुनानक इत्यादि जिस किसी के द्वारा निकला , कहा श्रीकृष्ण ने हीं| अतः सभी महापुरुष एक ही हैं॰ सब-के-सब एक ही बिन्दु का स्पर्श कर एक हीं स्वरूप को पाते हैं| यह पद एक इकाई है| अनेक पुरुष इस पथ पर चलेंगे; लेकिन जब पायेंगे , एक ही पद को पायेंगे| ऐसी अवस्था को प्राप्त सन्त का शरीर एक मकान मात्र रह जाता है|वे शुद्ध आत्मस्वरूप हैं॰ ऐसी स्थितिवालों ने कभी कुछ कहा, तो एक योगेश्वर ने हीं कहा| सन्त कहों ्न-कहों तो जन्म लेता ही है॰| पूरब अथवा पश्चिम में, श्याम अथवा श्वेत परिवार में, पूर्वप्रचलित किन्हों धर्मावलम्बियों के बीच अथवा अबोध कबीलों में सामान्य जीवन जीनेवाले गरीब अथवा अमीरों में जन्म लेकर भी सन्त उनको परम्परावाला नहों होता| वह तो अपने लक्ष्य परमात्मा को पकड़कर स्वरूप की ओर अग्रसर हो जाता है , वही हो जाता है| उसके उपदेशों में जाति- पाँति , वर्गभेद और अमीर - गरीब की दीवारें नहों रहतीं हैं॰ यहाँ तक कि उसकी दृष्टि में नर-्मादा का भेद भी नहों रह जाता ( देखें , गीता , १५/१६- द्वाविमौ लोके )| महापुरुषों के पश्चात् उनके अनुयायो अपना सम्प्रदाय बनाकर संकुचित हो जाते हैं| किसीं महापुरुष के पीछे चलनेवाले यहूदी हो जाते हैं , तो किसीं के अनुयायी ईसाई , मुसलमान , सनातनी इत्यादि हो जाते हैं; किन्तु इन दीवारों से सन्त का सम्बन्ध कदापि नहों होता| सन्त न तो कोई साम्प्रदायिक है और न कोई जातिः सन्त सन्त हैं , उन्हें किसीं सामाजिक संगठन में न समेटें| अतः संसार भर के सन्तों को , चाहे किसी कबोले में उनका जन्म हुआ है, चाहे किसी मज़हब सम्प्रदाय वाले उनका पूजन अधिक करते हों , किसीं साम्प्रदायिक प्रभाव में आकर ऐसे सन्तों की आलोचना नहों करनी चाहिये; क्योंकि वे निरपेक्ष हैं॰ संसार के किसी भी स्थान में उत्पन्न सन्त निन्दा के योग्य पुरुषौ |
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उपशम ३८३ नहों होता| यदि कोई ऐसा करता है तो वह अपने अन्दर स्थित अन्तर्यामी परमात्मा को दुर्बल करता है, अपने परमात्मा से दूरी पैदा कर लेता है, स्वयं अपनी क्षति करता है॰ संसार में जन्म लेनेवालों में यदि आपका कोई सच्चा हितैषी है तो सन्त ही| अतः उनके प्रति सहृदय रहना संसार भर के लोगों का मूल कर्त्तव्य है॰ इससे वंचित होना अपने को धोखा देना है| वेद - गीता में वेद का वर्णन बहुत आया है; किन्तु कुल मिलाकर वेद मार्ग- निर्देशक ( ढ़]९ डऐआऊ९ ) चिह्न मात्र हैं| मंजिल तक पहुँच जाने पर उस व्यक्ति के लिये उनका उपयोग समाप्त हो जाता है| अध्याय २४५ में श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! वेद तीनों गुणों तक ही प्रकाश कर पाते हैं, तू वेदों के कार्यक्षेत्र से ऊपर उठ| अध्याय २४६ में कहा- सब ओर से परिपूर्ण स्वच्छ जलाशय प्राप्त होने पर छोटे जलाशय से मनुष्य का जितना प्रयोजन रह जाता है, अच्छी प्रकार ब्रह्म के ज्ञाता महापुरुष अर्थात् ब्राह्मण का वेदों से उतना ही प्रयोजन रह जाता है; किन्तु दूसरों के लिये तो उनका उपयोग है ही| अध्याय ८/२८ में कहा - अर्जुन! मुझे तत्त्व से भलीभाँति जान लेने पर योगी वेद , यज्ञ , तप, दान इत्यादि के पुण्यफलों को पार कर सनातन पद को प्राप्त हो जाता है| अर्थात् जब तक वेद जीवित हैं, यज्ञ करना शेष है, तब तक सनातन पद को प्राप्ति नहीं है| अध्याय १५/१ में बताया- ऊपर परमात्मा हीं जिसका मूल है नीचे कोट- पतंगपर्यन्त प्रकृति जिसको शाखा-प्रशाखा है , संसार ऐसा पीपल का एक अविनाशी वृक्ष है| जो इसे मूलसहित जानता है , वह वेद का ज्ञाता है| इस जानकारी का स्रोत महापुरुष हैं, उनके द्वारा निर्दिष्ट भजन है| पुस्तक या पाठशाला भी उन्हों को ओर प्रेरित करते हैं| ओम्- श्रीकृष्ण के निर्देशन में ३४ँ के जप का विधान पाया जाता है| अध्याय ७८ - ओंकार मैं हूँ| ८/१३- ३४ का जप कर और मेरा चिन्तन कर| अध्याय ९/१७- जानने योग्य पवित्र ओंकार मैं हूँ॰ अध्याय १०३३- अक्षरों में अकार हूँ॰ १०/२५- वचनों अक्षर मैं हूँ! अध्याय १७/२३- ३ँ तत् और सत् ब्रह्म का परिचायक है १७/२४- यज्ञ , दान और तप को क्रियाएँ ३४ से ही प्रारम्भ होती हैं| अतः श्रीकृष्ण के अनुसार ३४ँ का जप नितान्त आवश्यक है, जिसको विधि किसी अनुभवीं महापुरुष से सोखें में एक |
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३८४ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीतोक्त ज्ञान ही मनुस्मृति- गीता आदिमानव महाराज मनु से भी पूर्व प्रकट इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ( ४/१ ) अर्जुन ! इस अविनाशी योग को मैंने कल्प के आदि में सूर्य से कहा तथा सूर्य ने मनु से कहा| मनु ने उसे श्रवण कर अपनी याददाश्त में धारण किया; क्योंकि श्रवण की गयी वस्तु मन की स्मृति में ही रखी जा सकती है| इसी को मनु ने राजा इक्ष्वाकु से कहा| इक्ष्वाकु से राजर्षियों ने जाना और इस महत्त्वपूर्ण काल से यह अविनाशी योग इसी पृथ्वी में लुप्त हो गया| आरम्भ में कहने और श्रवण करने को परम्परा थो| लिखा भी जा सकता है- ऐसी कल्पना नहों थी| मनु महाराज ने इसे मानसिक स्मृति में धारण किया तथा स्मृति की परम्परा दी| इसलिये यह गीतोक्त ज्ञान ही मनुस्मृति है| भगवान ने यह ज्ञान मनु से भो पूर्व सूर्य से कहा तो इसे सूर्यस्मृति क्यों नहों कहते? वस्तुतः सूर्य ज्योतिर्मय परमात्मा का वह अंश है जिससे इस मानव सृष्टि का सृजन हुआ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, चेतन बीजरूप से पिता हूँ, प्रकृति गर्भ धारण करनेवाली माँ है॰ ' वह बीजरूप पिता सूर्य है| सूर्य परमात्मा की वह प्रशक्ति है जिसने मानव की संरचना को| वह कोई व्यक्ति नहों और जहाँ परमात्मा के उस ज्योतिर्मय तेज से मानव की उत्पत्ति हुई, उस तेज में वह गीतोक्त ज्ञान भी प्रसारित किया अर्थात् सूर्य से कहा| सूर्य ने आदि मनु से कहा इसलिये यह अविनाशी योग ही मनुस्मृति है| सूर्य कोई व्यक्ति नहों , बीज है| भगवान कहते हैं - अर्जुन ! वही पुरातन योग मैं तेरे लिये कहने जा रहा हूँ॰ तू प्रिय भक्त है , अनन्य सखा है| अर्जुन मेधावी थे , सच्चे अधिकारी थे| उन्होंने प्रश्न- परिप्रश्नों को शृंखला खडीं कर दी कि- आपका जन्म तो अब हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत पहले हुआ है| इसे आपने ही सूर्य से कहा, यह मैं कैसे मान लूँ? इस प्रकार बीस- पच्चीस प्रश्न उन्होंने किये| गीता के समापन तक उनके सम्पूर्ण प्रश्न समाप्त हो गये, तब भगवान ने, जो प्रश्न अर्जुन नहों कर सकते थे, जो उनके हित में थे, उन्हें स्वयं उठाया और समाधान दिया| अन्ततः भगवान ने कहा- अर्जुन! क्या तुमने मेरे उपदेश को गीता विशुद्ध हुई है- विशुद्ध मैं हो परम श्रीकृष्ण |
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उपशम ३८५ एकाग्रचित्त हो श्रवण किया? क्या मोह से उत्पन्न तुम्हारा अज्ञान नष्ट अर्जुन ने कहा- नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत स्थितोडस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तवा१ ( १८ /७३ ) भगवन् ! मेरा मोह नष्ट हुआ| मैं स्मृति को प्राप्त हुआ हूँ॰ केवल सुना भर नहीं अपितु स्मृति में धारण कर लिया है| मैं आपके आदेश का पालन करूँगा , युद्ध करूँगा| उन्होंने धनुष उठा लिया, युद्ध हुआ, विजय प्राप्त को, एक धर्म - साम्राज्य की स्थापना हुई और एक धर्मशास्त्र के रूप में वहीं आदि धर्मशास्त्र गीता पुनः प्रसारण में आ गयो| गीता आपका आदि धर्मशास्त्र है| यहीं मनुस्मृति है, जिसे अर्जुन ने अपनी स्मृति में धारण किया था| मनु के समक्ष दो कृतियों का उल्लेख है- एक तो सूर्य से उपलब्ध दूसरे वेद मनु के समक्ष उतरे| तोसरी कोई कृति मनु के समय में प्रकट नहों हुई थी| उस समय लिखने लिखाने का प्रचलन नहीं था, कागज-्कलम का प्रचलन नहों था इसलिये ज्ञान को श्रुत अर्थात् सुनने और स्मृति-पटल पर धारण करने को परम्परा थी॰ जिनसे मानवों का हुआ, सृष्टि के प्रथम मानव उन मनु महाराज ने वेद को श्रुति तथा गीता को स्मृति का सम्मान दिया| वेद मनु के समक्ष उतरे थे, इन्हें सुनें , यह सुनने योग्य हैं; गीता स्मृति है, सदा स्मरण रखें| यह हर मानव को सदा रहनेवाला जीवन , सदा रहनेवाली शान्ति और सदा रहनेवाली समृद्धि, ऐश्वर्यसम्पन्न जीवन प्राप्त करानेवाला ईश्वरीय गायन है| भगवान ने कहा- अर्जुन ! यदि तू अहंकारवश मेरे उपदेश को नहों सुनेगा तो विनष्ट हो जायेगा अर्थात् गीता के उपदेशों को अवहेलना करनेवाला नष्ट हो जाता है| अध्याय पन्द्रह के अन्तिम श्लोक ( १५२० ) में भगवान ने कहा इति गुहृातमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ| यह गोपनीय से भी अति गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया| इसे तत्त्व से जानकर तू समस्त ज्ञान और परमश्रेय को प्राप्ति कर लेगा| अध्याय सोलह के अन्तिम दो श्लोकों में कहा- हुआ? विशुद्ध गीता , प्रादुर्भाव किन्तु |
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३८६ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः इस शास्त्रविधि को त्यागकर , कामनाओं से प्रेरित होकर अन्य विधियों सेजो भजते हैं उनके जीवन में न सुख है, न समृद्धि है और न परमगति ही है| तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ| ' इसलिये अर्जुन ! कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को व्यवस्था में यह शास्त्र हीं प्रमाण है| भली प्रकार अध्ययन कर, तत्पश्चात् आचरण करढ तुम निवास करोगे , अविनाशी पद प्राप्त कर लोगे| सदा रहनेवाला जीवन, सदा रहनेवाली शान्ति और समृद्धि पा लोगे| गीता मनुस्मृति है और भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार गीता ही धर्मशास्त्र है| अन्य कोई शास्त्र नहीं, कोई अन्य स्मृति नहों है॰ समाज में प्रचलित अनेकानेक स्मृतियाँ गीता के विस्मृत हो जाने का दुष्परिणाम हैं॰ स्मृतियाँ कतिपय राजाओं के संरक्षण में प्रशासन चलाने के लिये लिखी गयों , जिनसे समाज में ऊँच-नीच को दोवारें सृजित हो गयों| मनु के नाम पर प्रचारित तथा कथत मनुस्मृति में मनुकालीन वातावरण का चित्रण नहों है| मूल मनुस्मृति गीता एक परमात्मा को ही सत्य मानती है, उसमें विलय दिलाती है; किन्तु वर्तमान काल में प्रचलित लगभग १६४ स्मृतियाँ परमात्मा का नाम तक नहों लेतों , न परमात्मा को प्राप्ति के उपायों पर प्रकाश डालती हैं॰ वे केवल स्वर्ग के आरक्षण तक हीं सीमित रहकर न अस्ति - जो है नहों, उन्होीं को हीं प्रोत्साहन देतीं हैं| मोक्ष का उनमें उल्लेख तक नहों है| महापुरुष- महापुरुष बाह्य तथा आन्तरिक , व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक , लोक- रीति और यथार्थ वेद- रीति दोनों को जानकारी रखता है| यही कारण है कि समस्त समाज को महापुरुषों ने रहन-्सहन का विधान बताया और एक मर्यादित व्यवस्था दी| वशिष्ठ , विश्वामित्र , स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण , महावीर स्वामी , महात्मा बुद्ध, मूसा, ईसा, मुहम्मद, रामदास, दयानन्द, गुरु गोविन्द सिंह इत्यादि सहस्रों महापुरुषों ने ऐसा किया; व्यवस्थाएँ सामयिक होती हैं| समाज को भौतिक वस्तु प्रदान करना नहों है॰ भौतिक उलझनें क्षणिक हैं शाश्वत नहों , इसलिये उनका हल भी तत्सामयिक होता है| उन्हें चिरंतन व्यवस्था के रूप नहों किया जा सकता| * यः तुम्हारे इसको मुझमें किन्तु पीड़ित यथार्थ में ग्रहण |
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उपशम २८७ व्यवस्थाकार- सामाजिक विकृतियों को महापुरुष सुलझाया करते हैं यदि इन्हें न सुलझाया जाय तो ज्ञान-वैराग्यजनित परम को साधना कौन सुनेगा? व्यक्ति जिस वातावरण मे फँसा है, उसे वहाँ से हटाकर यथार्थ को जानने को स्थिति में लाने के लिये अनेकानेक प्रलोभन दिये जाते हैं| एतदर्थ महापुरुष जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, कोई व्यवस्था देते हैं, वह धर्म नहीं है| उससे सौ-दो सौ साल को व्यवस्था मिलती है चार छः सौ साल के लिये उदाहरण बन जाता है और हजार दो हजार वर्ष में वह सामाजिक आविष्कार नवीन परिस्थितियों के साथ- साथ निष्प्राण हो जाता है| गुरु गोविन्द सिंह की सामाजिक व्यवस्था में शस्त्र अनिवार्य था| क्या अब उस तलवार का शस्त्र के स्थान पर औचित्य है? ईसा गदहे पर बैठते थे१ ( मत्ती , २१ ) गदहे के सम्बन्ध में उनकी दी हुई व्यवस्थाओं का आज क्या उपयोग है? कहा- किसी का गधा मत चुराओ| आज गधा कौन पालता है? इसी प्रकार योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उस समय के समाज को सम्यक् व्यवस्थित किया, जिसका उल्लेख महाभारत भागवत इत्यादि ग्रन्थों में है, साथ ही इन ग्रन्थों में उन्होंने यथार्थ का भी यत्र- तत्र चित्रण किया| परमकल्याणकारी साधना और भौतिक व्यवस्थाओं के निर्देश को एक में मिला देने से समाज तत्त्वनिर्णायक क्रम को पूरा- पूरा नहों समझ पाता| भौतिक व्यवस्थाओं को वह ज्यों-का-त्यों नहों बल्कि बढा- चढ़ाकर ग्रहण करता है; क्योंकि वह भौतिक है॰ ' महापुरुष ने ऐसा कहकर इन व्यवस्थाओं के लिये महापुरुषों की दुहाई भी देते हैं| वे महापुरुष की वास्तविक क्रिया को तोड़- मरोड़कर उसे भ्रामक बना देते हैं| वेद, रामायण महाभारत , बाइबिल , कुरान सबके प्रति पूर्वाग्रहयुक्त धूमिल धारणाएँ शेष हैं| बाह्य धरातल पर जीवनयापन करनेवाला समाज उनके कथन का स्थूल आशय हीं ग्रहण कर पाता है| इसीलिये भगवान श्रीकृष्ण ने शाश्वत धाम , अनन्त जीवन , सदा रहनेवाली शान्ति प्रदायिनी गीता शास्त्र को भौतिक व्यवस्थाओं से पृथक् किया| महाभारत भारत का बृहत् इतिहास तथा गौरवशाली संस्कृति शास्त्र है| उन्होंने इस विशाल इतिहास के मध्य इसका गायन किया, जिससे भविष्य में आनेवाली समस्त पीढ़ियाँ इस धर्मशास्त्र को धार्मिक धरातल पर यथावत समझ सकें॰ कालान्तर में महर्षि पतञ्जलि इत्यादि अनेक महापुरुषों ने कहा' ' - |
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३८८ श्रीमद्भगवद्गीता यथार्थ गीता भी परमश्रेय की यथार्थ विधि को सामाजिक व्यवस्था हटाकर अलग प्रस्तुत किया गीता मनुष्य मात्र के लिये- भगवान ने इस धर्मशास्त्र का उपदेश प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते ' ( गीता , १/२० )- ठीक शस्त्र-्सञ्चालन के समय किया क्योंकि वह भली प्रकार जानते थे कि भौतिक संसार में कभी शान्ति होता हो नहों| अरबों लोगों को आहुति के उपरान्त भी जो विजेता होंगे , वह भी विफल मनोरथ और अन्ततः उदास हीो होंगे , इसलिये उन्होंने ऐसे शाश्वत युद्ध का परिचय गीता के माध्यम से दिया, जिसमें एक बार विजय हो जाने पर सदा रहनेवाली विजय , अनन्त विजय और अक्षय धाम है जो मानव मात्र के लिये सदैव सुलभ है , जो क्षेत्र क्षेत्रज्ञ की लड़ाई है, प्रकृति का संघर्ष है, अन्तःकरण में अशुभ का अन्त परमात्मस्वरूप को प्राप्ति का साधन है| उत्तम अधिकारी के प्रति हो उन्होंने उसे व्यक्त किया| श्रीकृष्ण ने बार- बार कहा कि तुझ अतिशय प्रीति रखनेवाले भक्त के प्रति हित को इच्छा से कहता हूँ॰ यह अति गोपनीय है| अन्त में उन्होंने कहा- जो भक्त नहीं हो तो प्रतीक्षा करो, उसको रास्ते पर लाओ , फिर उसी के लिये कहो| यही मनुष्य मात्र के लिये यथार्थ कल्याण का एकमात्र साधन है, जिसका क्रमबद्ध वर्णन श्रीकृष्णोक्त गीता है| प्रस्तुत टीका- योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा प्रसारित श्रीमद्भगवद्गीता के आशय का यथावत् अनुवाद करने के कारण प्रस्तुत टीका का नाम यथार्थ गीता है॰ यह भगवान् की अन्तस्प्रेरणा पर आधारित है| गीता अपने में पूर्ण साधन- ग्रन्थ है| सम्पूर्ण गीता में सन्देह का एक भी स्थल नहीं है| जहाँ कहों सन्देह है, वह बौद्धिक स्तर पर इसे जाना नहों जा सकता है, इसलिये प्रतीत होता है| अतः कहीं समझ में न आये तो किसीं तत्त्वदर्शो महापुरुष के सान्निध्य में समझने का प्रयास करें| तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया| उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः| ३४० शान्तिः! शान्तिः! ! शान्तिः!!! और सुख और पुरुष और शुभ |