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छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर, उत्तर प्रदेश में स्थित एक विश्वविद्यालय है। यह पहले कानपुर विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता था। यह भारत एवं उत्तर प्रदेश के अन्य उत्कृष्ट विश्वविद्यालयो में से एक है। कानपुर विश्वविद्यालय की स्थापना 1966 में आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्द विश्वविद्यालयों के विभाजन से हुई। अब इसमे 15 जिलों के 170 कॉलेज सम्बद्द है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने कानपुर विश्वविद्यालय का नाम 1884 से 1922 के बीच कोल्हापुर के राजा शाहू चतुर्थ के नाम पर महाराजा के बाद दिए गए नाम छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय रख दिया।तब से कानपुर विश्वविद्यालय आधिकारिक तौर पर छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय ' के नाम से जाना जाता है। कानपुर यूनिवर्सिटी यानी कि छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय में लगभग सारे कोर्स फुल टाइम और पार्ट टाइम में उपलब्धहैं है। कानपुर विश्वविद्यालय में उपलब्ध कोर्स निम्नवत हैं: कानपुर विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आवेदन पत्र मई-जून माह में उपलब्ध होते हैं। भारत के पूर्व प्रधानमत्री अटल बिहारी वाजपेयी डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर के छात्र थे। रेणु खातूर् छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के छात्र थे।
यह एक प्रमुख हवाई अड्डा हैं |
विश्व हिंदू परिषद एक हिंदू संगठन है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी "आरएसएस" की एक अनुषांगिक शाखा है। इसे वीएचपी और विहिप के नाम से भी जाना जाता है। विहिप का चिन्ह बरगद का पेड़ है और इसका नारा, "धर्मो रक्षति रक्षित:" यानी जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल को धार्मिक उग्रवादी संगठन बताया है,जिसका कि सम्पूर्ण देश में तीव्र विरोध चल रहा है. सीआईए द्वारा जारी वर्ल्ड फैक्ट बुक में विहिप और बजरंग दल को 'राजनीतिक दवाब समूह' की श्रेणी में शामिल किया गया हैl विश्व हिंदू परिषद की स्थापना 1964 में हुई। इसके संस्थापकों में स्वामी चिन्मयानंद, एसएस आप्टे, मास्टर तारा हिंद थे। पहली बार 21 मई 1964 में मुंबई के संदीपनी साधनाशाला में एक सम्मेलन हुआ। सम्मेलन आरएसएस सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने बुलाई थी। इस सम्मेलन में हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के कई प्रतिनिधि मौजूद थे। सम्मेलन में गोलवलकर ने कहा कि भारत के सभी मताबलंवियों को एकजुट होने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि हिंदू हिंदूस्तानियों के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द है और यह धर्मों से ऊपर है। सम्मेलन में तय हुआ कि प्रस्तावित संगठन का नाम विश्व हिंदू परिषद होगा और 1966 के प्रयाग के कुंभ मेले में एक विश्व सम्मेलन के साथ ही इस संगठन का स्वरूप सामने आया। आगे यह फैसला किया गया कि यह गैर-राजनीतिक संगठन होगा और राजनीतिक पार्टी का अधिकारी विश्व हिंदू परिषद का अधिकारी नहीं होगा। संगठन के उद्देश्य और लक्ष्य कुछ इस तरह तय किए गए:
पार्वती हिमनरेश हिमावन तथा मैनावती की पुत्री हैं, तथा भगवान शंकर की पत्नी हैं। उमा, गौरी भी पार्वती के ही नाम हैं। यह प्रकृति स्वरूपा हैं। पार्वती के जन्म का समाचार सुनकर देवर्षि नारद हिमनरेश के घर आये थे। हिमनरेश के पूछने पर देवर्षि नारद ने पार्वती के विषय में यह बताया कि तुम्हारी कन्या सभी सुलक्षणों से सम्पन्न है तथा इसका विवाह भगवान शंकर से होगा। किन्तु महादेव जी को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये तुम्हारी पुत्री को घोर तपस्या करना होगा। बाद में इनके दो पुत्र कार्तिकेय तथा गणेश हुए। कई पुराणों में इनकी पुत्री अशोक सुंदरी का भी वर्णन है। पार्वती पूर्वजन्म में दक्ष प्रजापति की पुत्री सती थीं तथा उस जन्म में भी वे भगवान शंकर की ही पत्नी थीं। सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में, अपने पति का अपमान न सह पाने के कारण, स्वयं को योगाग्नि में भस्म कर दिया था। तथा हिमनरेश हिमावन के घर पार्वती बन कर अवतरित हुईं | पार्वती को भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये वन में तपस्या करने चली गईं। अनेक वर्षों तक कठोर उपवास करके घोर तपस्या की तत्पश्चात वैरागी भगवान शिव ने उनसे विवाह करना स्वीकार किया। भगवान शंकर ने पार्वती के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेने के लिये सप्तऋषियों को पार्वती के पास भेजा। उन्होंने पार्वती के पास जाकर उसे यह समझाने के अनेक प्रयत्न किये कि शिव जी औघड़, अमंगल वेषधारी और जटाधारी हैं और वे तुम्हारे लिये उपयुक्त वर नहीं हैं। उनके साथ विवाह करके तुम्हें सुख की प्राप्ति नहीं होगी। तुम उनका ध्यान छोड़ दो। किन्तु पार्वती अपने विचारों में दृढ़ रहीं। उनकी दृढ़ता को देखकर सप्तऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्हें सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद देकर शिव जी के पास वापस आ गये। सप्तऋषियों से पार्वती के अपने प्रति दृढ़ प्रेम का वृत्तान्त सुन कर भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्न हुये। सप्तऋषियों ने शिव जी और पार्वती के विवाह का लग्न मुहूर्त आदि निश्चित कर दिया। निश्चित दिन शिव जी बारात ले कर हिमालय के घर आये। वे बैल पर सवार थे। उनके एक हाथ में त्रिशूल और एक हाथ में डमरू था। उनकी बारात में समस्त देवताओं के साथ उनके गण भूत, प्रेत, पिशाच आदि भी थे। सारे बाराती नाच गा रहे थे। सारे संसार को प्रसन्न करने वाली भगवान शिव की बारात अत्यंत मन मोहक थी। इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव जी और पार्वती का विवाह हो गया और पार्वती को साथ ले कर शिव जी अपने धाम कैलाश पर्वत पर सुख पूर्वक रहने लगे।
सरला बेन एक अंग्रेजी गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता थी उत्तराखंड, भारत के कुमाऊं क्षेत्र के जिसके काम नेराज्य के हिमालयी जंगलों में पर्यावरणीय विनाश के बारे में जागरुकता पैदा करने में मदद की। उन्होंने चिप्को आंदोलन के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारत में कई गांधीवादी पर्यावरणविदों को प्रभावित किया, जिसमें चंडी प्रसाद भट्ट, बिमला बेन और सुंदरलाल बहुगुणा शामिल थे। मिराबेन के साथ, वह महात्मा गांधी की दो अंग्रेज बेटियों में से एक के रूप में जानी जाती है। दो महिलाओं का काम ने क्रमशः गढ़वाल और कुमाओं में स्वतंत्र भारत में पर्यावरणीय क्षरण और संरक्षण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।. सरला बेहन, यानि कैथरीन मरियम हेमिलमैन का जन्म 1901 में वेस्टर्न लन्दन के शेफर्ड बुश क्षेत्र में जर्मन स्विस एक्सट्रैक्शन के पिता और एक अंग्रेजी मां से हुआ था। उनकी पृष्ठभूमि के कारण, उनके पिता को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बंद कर दिया गया और कैथरीन खुद बहिष्कार का सामना करना पड़ा और स्कूल में छात्रवृत्ति नहीं दी गई थी; उसने जल्दी स्कूल छोड़ दिया। उस ने परिवार और घर को छोड़कर एक क्लर्क के रूप में कुछ समय तक काम किया, और 1920 के दशक के दौरान लंदन में भारतीय छात्रों के संपर्क में आई, जो भारत में गांधी से और भारत में स्वतंत्रता संग्राम की जान पहिचान करवाई। प्रेरित होकर, वह जनवरी 1932 में कभी भी वापस ना लौटने के लिए इंग्लैंड से भारत को निकल पड़ी।. गांधी से मिलने जाने से पहले उसने कुछ समय के लिए उदयपुर के एक स्कूल में काम किया। गांधी के साथ वे वर्धा में सेवाग्राम में उसके आश्रम में आठ साल तक रही। यहां वह गांधी के नई तालीम या बुनियादी शिक्षा के विचार में गहराई से शामिल थी और सेवाग्राम में महिलाओं को सशक्त बनाने और पर्यावरण की रक्षा के लिए काम किया। यह गांधी थे जिन्होंने उसे सरला बेन का नाम दिया था। गर्मी और मलेरिया ने उसे सेवाग्राम में पीड़ित किया और गांधीजी की सहमति के साथ वह 1940 में संयुक्त प्रांत के अल्मोड़ा जिले में कौसानी के अधिक आकर्षक मौसमों में जा पहुंची। उसने उसे अपने घर बनाया, आश्रम की स्थापना की और कुमाऊं में पहाड़ियों की महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए काम किया। कुमाओं में रहते सरला बेन ने भारत की स्वतंत्रता आंदोलन के ध्येय से खुद को संबद्ध करना जारी रखा। 1942 में, गांधी के तहत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा जारी किए गए भारत छोड़ो आंदोलन के जवाब में, उसने कुमाऊं जिले में आंदोलन को संगठित करने और नेतृत्व करने में मदद की। उन्होंने राजनीतिक कैदियों के परिवारों तक पहुंचने के लिए क्षेत्र में बड़े पैमाने पर यात्रा की और उसके कार्यों के लिए उसे कैद किया गया। उन्होंने घर गिरफ्तारी के आदेशों के उल्लंघन के लिए भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल में दो टर्म रही और लगभग दो साल के लिए अल्मोड़ा और लखनऊ जेलों में बतीत किये।
निर्देशांक: 25°09′N 85°27′E / 25.15°N 85.45°E / 25.15; 85.45 लक्ष्मीपुर बीरपुर, बेगूसराय, बिहार स्थित एक गाँव है।
व्यारा गुजरात प्रान्त का एक शहर है। ईस शहरमें नवरचित तापी जिला का मुख्यालय है।
मंगल हिन्दी के लिये एक ओपनटाइप यूनिकोड फॉण्ट है जो कि विण्डोज ऑपरेटिंग सिस्टम का डिफॉल्ट हिन्दी फॉण्ट है। यह यूजर इंटरफेस फॉण्ट के तौर पर डिजाइन किया गया है। यह विंडोज़ ऍक्सपी तथा इसके उत्तरोत्तर संस्करणों में इण्डिक टैक्स्ट के वैकल्पिक समर्थन हेतु उपलब्ध करवाया गया है। यह देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली सभी भाषाओं जैसे हिन्दी, मराठी, नेपाली तथा संस्कृत हेतु विंडोज़ का डिफॉल्ट फॉण्ट है। यह माइक्रोसॉफ्ट कॉर्पोरेशन के द्वारा विकसित तथा मैण्टेन किया जाता है। यह माइक्रोसॉफ्ट हेतु प्रो॰ रघुनाथकृष्ण जोशी द्वारा विकसित किया गया था। यद्यपि यह विण्डोज के लिए बनाया गया था तथापि तकनीकी रूप से इसका उपयोग अन्य़ प्रचानल तन्त्रों में भी किया जा सकता है, परन्तु यह वितरण के लिए मुफ्त उपलब्ध नहीं है। मंगल स्क्रीन रीडिंग के लिये बनाया गया है, इसमें छोटे फॉण्ट आकार में भी स्पष्ट पढ़ा जा सकता है परन्तु यह मुद्रण के कार्य हेतु उपयुक्त नहीं। मुद्रण में । मंगल टाइपोग्राफिक संयुक्ताक्षरों को सही तरीके से सम्भाल नहीं कर सकता जहाँ वर्ण दायें जोड़े जाते हों जैसे द, ड, ढ, ट तथा ठ के दायें जोड़े जाने वाले वर्ण जो कि ऍरियल यूनिकोड ऍमऍस जो कि माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस के साथ आता है, के द्वारा ठीक से प्रदर्शित किये जाते हैं। इसी प्रकार जिन संयुक्ताक्षरों में वर्ण नीचे जोड़े जाते हों उन्हें भी ठीक से प्रदर्शित नहीं कर पाता, जैसे ं को क, ग तथा ं को च, ज के नीचे जोड़ा जाता है। इन सभी प्रकार के संयुक्ताक्षरों को संस्कृत 2003 नामक मुफ्त फॉण्ट द्वारा सही रूप से प्रदर्शित किया जा सकता है।
विश्वनाथ राव रिंगे 'तनरंग' हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायक तथा निर्मता थे। वे ग्वालियर घराने से सम्बन्धित थे। उन्होने लगभग 200 रागों में 2000 से भी अधिक बन्दिशों की रचना की जिसके लिए उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में लिखा गया है। उन्होने 'संगीतांजलि' और 'स्वरांजलि' आदि कुछ पुस्तकों की रचना की। हाल ही में उनकी पुस्तक ाचार्य तनरंग की बंदिशें' प्रकाशित हुई है।
न्यूटन के गति नियम तीन भौतिक नियम हैं जो चिरसम्मत यांत्रिकी के आधार हैं। ये नियम किसी वस्तु पर लगने वाले बल और उससे उत्पन्न उस वस्तु की गति के बीच सम्बन्ध बताते हैं। इन्हें तीन सदियों में अनेक प्रकार से व्यक्त किया गया है। न्यूटन के गति के तीनों नियम, पारम्परिक रूप से, संक्षेप में निम्नलिखित हैं- सबसे पहले न्यूटन ने इन्हे अपने ग्रन्थ फिलासफी नेचुरालिस प्रिंसिपिआ मैथेमेटिका में संकलित किया था। न्यूटन ने अनेक स्थानों पर भौतिक वस्तुओं की गति से सम्बन्धित समस्याओं की व्याख्या में इनका प्रयोग किया था। अपने ग्रन्थ के तृतीय भाग में न्यूटन ने दर्शाया कि गति के ये तीनों नियम और उनके सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नियम सम्मिलित रूप से केप्लर के आकाशीय पिण्डों की गति से सम्बन्धित नियम की व्याख्या करने में समर्थ हैं। न्यूटन के गति नियम सिर्फ उन्ही वस्तुओं पर लगाया जाता है जिन्हें हम एक कण के रूप में मान सके। मतलब कि उन वस्तुओं की गति को नापते समय उनके आकर को नज़रंदाज़ किया जाता है। उन वस्तुओं के पिंड को एक बिंदु में केन्द्रित मन कर इन नियमो को लगाया जाता है। ऐसा तब किया जाता है जब विश्लेषण में दूरियां वस्तुयों की तुलना में काफी बड़े होते है। इसलिए ग्रहों को एक कण मान कर उनके कक्षीय गति को मापा जा सकता है। अपने मूल रूप में इन गति के नियमो को दृढ और विरूपणशील पिंडों पर नहीं लगाया जा सकता है। 1750 में लियोनार्ड यूलर ने न्यूटन के गति नियमो का विस्तार किया और यूलर के गति नियमों का निर्माण किया जिन्हें दृढ और विरूपणशील पिंडो पर भी लगाया जा सकता है। यदि एक वस्तु को असतत कणों का एक संयोजन माना जाये, जिनमे अलग-अलग कर के न्यूटन के गति नियम लगाये जा सकते है, तो यूलर के गति नियम को न्यूटन के गति नियम से वियुत्त्पन्न किया जा सकता है। न्यूटन के गति नियम भी कुछ निर्देश तंत्रों में ही लागु होते है जिन्हें जड़त्वीय निर्देश तंत्र कहा जाता है। कई लेखको का मानना है कि प्रथम नियम जड़त्वीय निर्देश तंत्र को परिभाषित करता है और द्वितीय नियम सिर्फ उन्ही निर्देश तंत्रों से में मान्य है इसी कारण से पहले नियम को दुसरे नियम का एक विशेष रूप नहीं कहा जा सकता है। पर कुछ पहले नियम को दूसरे का परिणाम मानते है। निर्देश तंत्रों की स्पष्ट अवधारणा न्यूटन के मरने के काफी समय पश्चात विकसित हुई। न्यूटनी यांत्रिकी की जगह अब आइंस्टीन के विशेष आपेक्षिकता के सिद्धांत ने ले ली है पर फिर भी इसका इस्तेमाल प्रकाश की गति से कम गति वाले पिंडों के लिए अभी भी किया जाता है। न्यूटन के मूल शब्दों में हिन्दी अनुवाद "प्रत्येक वस्तु अपने स्थिरावस्था अथवा एकसमान वेगावस्था मे तब तक रहती है जब तक उसे किसी बाह्य कारक द्वारा अवस्था में बदलाव के लिए प्रेरित नहीं किया जाता।" दूसरे शब्दों में, जो वस्तु विराम अवस्था में है वह विराम अवस्था में ही रहेगी तथा जो वस्तु गतिमान हैं वह गतिमान ही रहेगी जब तक कि उस पर भी कोई बाहरी बल ना लगाया जाए। न्यूटन का प्रथम नियम पदार्थ के एक प्राकृतिक गुण जड़त्व को परिभाषित करत है जो गति में बदलाव का विरोध करता है। इसलिए प्रथम नियम को जड़त्व का नियम भी कहते है।यह नियम अप्रत्क्ष रूप से जड़त्वीय निर्देश तंत्र तथा बल को भी परिभाषित करता है। इसके कारण न्यूटन द्वारा इस नियम को प्रथम रखा गया। इस नियम का सरल प्रमाणीकरण मुश्किल है क्योंकि घर्षण और गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव को ज्यादातर पिण्ड महसूस करते हैं। असल में न्यूटन से पहले गैलीलियो ने इस प्रेक्षण का वर्णन किया। न्यूटन ने अन्य शब्दों में इसे व्यक्त किया। न्यूटन के मूल शब्दो में : हिन्दी में अनुवाद " किसी वस्तु के संवेग मे आया बदलाव उस वस्तु पर आरोपित धक्के के समानुपाती होता है तथा समान दिशा में घटित होता है। "न्यूटन के इस नियम से अधोलिखित बिन्दु व्युपत्रित किए जा सकते है : जहाँ F → {\displaystyle {\vec {F}}} बल, p → {\displaystyle {\vec {p}}} संवेग और t {\displaystyle t} समय हैं। इस समीकरण के अनुसार, जब किसी पिण्ड पर कोई बाह्य बल नहीं है, तो पिण्ड का संवेग स्थिर रहता है। जब पिण्ड का द्रव्यमान स्थिर होता है, तो समीकरण ज़्यादा सरल रूप में लिखा जा सकता है: जहाँ m {\displaystyle m} द्रव्यमान है और a → {\displaystyle {\vec {a}}} त्वरण है। यानि किसी पिण्ड का त्वरण आरोपित बल के अनुक्रमानुपाती है। आवेग द्वितीय नियम से संबंधित है। आवेग का मतलब है संवेग में परिवर्तन। अर्थात: जहाँ I आवेग है। आवेग टक्करों के विश्लेषण में बहुत अहम है।माना कि किसी पिण्ड का द्रव्यमान m है। इस पर एक नियम बल F को ∆tसमयान्तराल के लिए लगाने पर वेग में ∆v परिवर्तित हो जाता है। तब न्यूटन- अतः किसी पिण्ड को दिया गया आवेग, पिण्ड में उत्पन्न सम्वेग- परिवर्तन के समान होता है। अत: आवेग का मात्रक वही होता है जो सम्वेग का है। तृतीय नियम का अर्थ है कि किसी बल के संगत एक और बल है जो उसके समान और विपरीत है। न्यूटन ने इस नियम को इस्तेमाल करके संवेग संरक्षण के नियम का वर्णन किया, लेकिन असल में संवेग संरक्षण एक अधिक मूलभूत सिद्धांत है। कई उदहारण हैं जिनमें संवेग संरक्षित होता है लेकिन तृतीय नियम मान्य नहीं है।
भारतीय पारिवारिक नाम अनेक प्रकार की प्रणालियों व नामकरण पद्धतियों पर आधारित होते हैं, जो एक से दूसरे क्षेत्र के अनुसार बदलतीं रहती हैं। नामों पर धर्म व जाति का प्रभाव भी होता है और वे धर्म या महाकाव्यों से लिये हुए हो सकते हैं। भारत के लोग विविध प्रकार की भाषाएं बोलते हैं और भारत में विश्व के लगभग प्रत्येक प्रमुख धर्म के अनुयायी मौजूद हैं। यह विविधता नामों व नामकरण की शैलियों में सूक्ष्म, अक्सर भ्रामक, अंतर उत्पन्न करती है। उदाहरण के लिये, पारिवारिक नाम की अवधारणा तमिलनाडु में व्यापक रूप से मौजूद नहीं थी। कई भारतीयों के लिये, उनके जन्म का नाम, उनके औपचारिक नाम से भिन्न होता है; जन्म का नाम किसी ऐसे वर्ण से प्रारंभ होता है, जो उस व्यक्ति की जन्म-कुंडली के आधार पर उसके लिये शुभ हो। कुछ बच्चों को एक नाम दिया जाता है . पारिवारिक नामों का प्रयोग न करने वाले समुदायों में, तीसरा नाम ईश्वर का नाम, या शिशु के लिंग के आधार पर दादा या दादी का नाम हो सकता है। कभी-कभी धार्मिक शिक्षाओं के एक भाग के रूप में अनेक शिशुओं को दो नाम दिये जाते हैं तथा “वेलंटी ” और “तेलगण्य ” उनके मूल पैतृक स्थानों को सूचित करते हैं। इनका प्रयोग उप-जातियों की पहचान के लिये किया जाता है और इन्हें नियमित रूप से व्यक्ति के आधिकारिक नाम या दैनिक उपयोग के नाम के रूप में प्रयुक्त किया जाना आवश्यक नहीं है। जाति-आधारित भेद-भाव के कारण या जाति के प्रति तटस्थ रहने के लिये, कई लोगों ने आनुवांशिक अंतिम नाम, जैसे कुमार, अपनाना शुरु कर दिया। राजकुमार, दिलीप कुमार, मनोज कुमार और अधिक हालिया दौर में, अक्षय कुमार जैसे सिने अभिनेताओं ने मार्केटिंग कारणों से अपने अंतिम नाम के रूप में कुमार शब्द को अपनाया है। जब कुमार शब्द बहुत आम हो गया, तो लोगों ने अपने कुलनाम के रूप में रंजन और आनंद जैसे नाम अपना लिये. अंग्रेज़ी भाषा की कुछ व्यावसायिक संज्ञाओं का प्रयोग भी कुलनाम के रूप में किया जाने लगा है, जैसे इंजीनियर. राजेश पायलट, भारत के एक पूर्व मंत्री, ने भारतीय वायु सेना में एक निश्चित अवधि बिताने के बाद इसे अपने कुलनाम के रूप में अपना लिया। कुछ लोगों, कुछ सैकड़ा, ने अपने बच्चों के नाम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त व्यक्तियों के नाम पर रखने शुरु कर दिये हैं। अक्सर, कुलनाम का प्रयोग प्रथन नाम के रूप में किया जाता है, जैसे आइंस्टीन, चर्चिल, केनेडी, बीथोवन, शेक्सपियर आदि और यह अभिभावकों के राजनैतिक रुझानों की ओर सूचित करता है। यह पद्धति विशिष्ट रूप से गोवा और तमिलनाडु में प्रचलित है। इस प्रकार के नामों के उदाहरणों में गोवा के चर्चिल बी. अलेमाओ और उनके भाई रूज़वेल्ट बी. अलेमाओ तथा केनेडी बी. अलेमाओ और तमिलनाडु के एम. के। स्टालिन और नेपोलियन आइन्सटाइन शामिल हैं। जैसा कि पश्चिमी समाजों में होता है, अब अभिभावक ऐसे नामों के साथ प्रयोग करने लगे हैं जो आम नाम नहीं हैं या वे ऐसे शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं, जिन्हें सामान्यतः नाम नहीं समझा जाता, जैसे प्रोटॉन पद्मनाभन, अल्फा ज्योथिस और ओमेगा ज्योथिस व साथ ही नियोन व आयोडीन. भारत में सैकड़ों लोग इन नामों का प्रयोग कर रहे हैं। थौनाओजम, फुरेम, फिरेम, शरुंगबम, फरेमबम, कोंथोउजम, थोंगराम, तोरोंगबम, असेम, युम्रेमबम, खोइसनम, हजारीमयम, कोंग्बम, पंग्षताबम, खोंबलतबम, थोंगम, हिदम, येन्द्रम्बम, शैरेम, सोरैसम, अधिकारीमयम, फम्दोम, महारबम, चिन्ग्थं, फिजम, मैकम, हिग्रूजम, ब्रजबशीमयम, यूरेमबम, कायेनपैबम, चिन्गंगबम, मुर्तुम, शिजागुरुमयम, मैमोम, हिरोंगबम, अरुबम, मुटुम, लांगम, लिमपोकपम, वैरोकपम, लिमजम, पोनम, उरिक्सीबम, उरिखिंबम, वंग्जम, खुमुजम, चनाम्बम, समोम, मैथम, न्गासेकपम, सौग्रकपरम, चुंगख़म, मित्रम, लोक्टोंगबम, पेबम, लिहोरनोग्बम, शैखोम, हंजबम, युरेनजम, खुमबोंगमयम, लैकंगबम, थोंगबम, पीचीमयम, चिन्ग्सुबम, वथम, निंगथोखोंगजम, एलम, येंसेहेंबम, मंदिंगबम, सौगैजम, आदि अधिक जानकारी के लिए यम्नक देखें. पहाड़ी आदिवासी कामेई, होकिप, किप्जेन, पोमेई, किम, पुरम, लुफो, लिंगमई, लूफेंग, चोठे, मिसाव, ताराव, कीशिंग, वैफेई, बीटे, मो, सिंग्सन, सिंग्सिट, सिट्किल, राल्टे, गाईट, डप्ज़र, बुक्पी, थोमटे, वोल्टे, वर्टे, खव्लहरिंग, सैलो, टूंगलुट, थीएक, दर्न्गाव्न, गान्गटे, श्रिथ्लौ, सिमटे, वैफेई, ज़ू, कॉलनी, खिंगटे, प्युडाईट, सिनेट, लुन्किम, अनल, जेमे, कोम, कोइरेंग, हंग्सिंग, ऐमोल, मोयोन, कबुई, मोंसंग, मेट, ल्हंघल, मुइवः, रोंग्मी, लेंथंग, मर्म, मरिंग, हुन्ग्यो, डौंगेल, चिरु, थोटहैंग, टुबोई, सुम्पी, सित्ल्होऊ, लम्कंग, रोंग्मी, सिंग्सन, खौटे, सैज़ा, शिम्रय, चोंग्लोई, खोंगसाई, चाखेसंग, खोइबू, मिल्हिएम, पोमेई, कोइराव, ल्हुन्ग्दिम, जेलिंग, ठन्ग्नेओ. आदि. - कांताबली, नंदीबली, अलंग, गुंथा, धन्गदामझी, तदिंग, बजिंग, खल्पदिया, मदिंग, बदनायक, दिसारी, भूमिया, गदबा, सौर, बलिपुटिया, अर्लब, पेटिया, बदपुटिया, मस्तिपुटिया, पेंथिया, गरहंदिया, रंधारी, बग्देरिया, कुल्सिका, चालन, मिन्याका, वादक, मंदिंगा, पिदिका, बिदिका, पुसिका, मेलका, हिक्का, सिरिका, निसिकिया, बदतसिया, किसानी, सीसा, पांगी, इन्जेल, बंदा, हलंग, पदम, गोलारी, बदाम, करलिया, घोसर्लिया, केंदु, गतम, मत्तम, मारी, बिटु, तंगली, हरिजन, गौड़ा, सीसा, सोराबू, गांडा, कोमर, पेनटाना, खेमुंदु, कद्रका, मंगरिया, मंगराज, गेमेल, कदमगुड़िया, मुर्जा, सिर्कर्लिया, पुकिया, सिया, स्वेन, हन्ताला, बिसोई, छाती, चपाड़ी, कन्दुल्फुल, घिउरिया, उदल्बदिया, तुडू, हेम्ब्रम, बेसरा, ओरम, कुलु, करकेटा, एक्का, लकड़ा, अहोम समुदाय में एक नामकरण प्रणाली है, जो मोटे तौर पर अहोम राजाओं के शासनकाल के दौरान उनके पूर्वजों द्वारा किये जाने वाले व्यवसाय पर आधारित है। सामान्यतः अधिकांश नामों में प्रथम-नाम, मध्य-नाम और अंतिम-नाम वाले प्रारूप का पालन किया जाता है। अंतिम नाम सैकिया 100 से अधिक सैनिकों के सेनापति को सूचित करता है। हज़ारिका 1000 से अधिक सैनिकों का सेनापति होता था। अन्य अंतिम नाम बोरा और बोरबोरा, बरुआ और बोरबरुआ, गोहैन, बोर्गोहैन, बुरागोहैन आदि हैं, जहां बोर=बड़ा, बुरा=बूढ़ा होता है। अन्य समुदायों में प्रयुक्त अंतिम नाम उत्तर भारत के अन्य भागों में प्रयुक्त अंतिम नामों के समान हो सकते हैं, जैसे दास, सर्मा, चक्रवर्ती, अली, अहमद आदि. अपने पारिवारिक नाम के अलावा, अनेक बंगालियों को दो नाम दिये जाते हैं: एक भालो नाम, जिसका प्रयोग सभी क़ानूनी दस्तावेजों में किया जाता है और एक डाक नाम, जिसका प्रयोग पारिवारिक सदस्यों व निकट मित्रों द्वारा किया जाता है। इन दो नामों के बीच कोई संबंध हो भी सकता है या वे एक-दूसरे से पूरी तरह असंबद्ध भी हो सकते हैं; उदाहरणार्थ, अनूप साहा नाम वाले किसी व्यक्ति को घर पर उसके डाक नाम से तथा अन्य सभी स्थानों पर उसके भालो नाम से पुकारा जा सकता है। कई लोग अपने पूरे भालो नाम और डाक नाम के साथ भालो नाम के संक्षिप्त रूप का प्रयोग भी करते हैं . हाल ही में, अनेक बांग्लादेशी बंगाली अपने पूरे आधिकारिक नाम के अंत में अपना डाक नाम भी जोड़ने लगे हैं, जिसके परिणामस्वरूप सैफुद्दीन चौधरी कांचोन जैसे नाम बनते हैं, जिनमें “सैफुद्दीन” व्यक्ति का भालो नाम होगा, “चौधरी” उसका पारिवारिक नाम होगा और “कांचोन” उसका डाक नाम होगा. इन परिस्थितियों में, उस व्यक्ति को “श्री चौधरी” कहना उसे संबोधित करने का सही तरीका होगा, न कि “श्री कांचोन”. उड़िया लोगों के लिये सभी क़ानूनी दस्तावेजों में “भला ना” का प्रयोग किया जाता है और “डाका ना” परिवारजनों व मित्रों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला उपनाम होता है। अनेक अन्य उड़िया कुलनाम लोगों के व्यवसाय पर आधारित जाति-प्रथा से आये हैं। उदाहरणार्थ, आम अंतिम नाम कर, मोहापात्रा और दास ब्राह्मणों के कुलनाम हैं। इसी प्रकार मिश्रा, नंदे, रथ, सत्पथी, पाणिग्रही, त्रिपाठी आदि सभी ब्राह्मण कुलनाम हैं। दास और साहू कराण हैं, जबकि समतासिंघर, सुंदरय, जागदेव, बलियारसिंग, हरिचंदन, मांगराज, मरदाराज, सेनापति, श्रीचंदन, प्रतिहारी, छोटरे, पातसानी, परिदा, समल, नायक, मुदुली आदि खांदायेत हैं। कुछ कुलनाम पश्चिम बंगाल और उड़ीसा दोनों राज्यों में पाये जाते हैं और दो राज्यों के बीच आप्रवास इसका कारण हो सकता है। गुजरात व महाराष्ट्र में, नामकरण की प्रणाली पितृसत्तात्मक होती है। उदाहरण के लिये, क्रिकेटर सुनील मनोहर गावस्कर का पहला नाम “सुनील” है; “मनोहर” उनके पिता का नाम है और “गावस्कर” उनका पारिवारिक नाम है। पारंपरिक रूप से, विवाहित महिलाएं अपने मध्य नाम के रूप में अपने पति के दिये हुए नाम का प्रयोग करती हैं और उसके पारिवारिक नाम को अपनाती हैं। महाराष्ट्र में, कभी-कभी एक नवजात नर शिशु का नाम उसके दादा के नाम पर रखा जाता है। गुजरात में, लोग अपने लिंग के आधार पर नामों के साथ प्रत्यय भी जोड़ते हैं। पुरुषों के लिये "भाई/कुमार/लाल" और महिलाओं के लिये "बेन/बहन" . उदाहरणार्थ, सुनील को सुनीलभाई और लता को लताबेन या लताबहन कहा जाता है। इसी प्रकार महाराष्ट्रीयन लोग भी पुरुषों को “राव” कहकर संबोधित करते हैं। . सामान्यतः यह अनौपचारिक पद्धति है, जिसका प्रयोग मित्रों के बीच किया जाता है, आधिकारिक दस्तावेजों में नहीं. आम गुजराती पारिवारिक नामों में पटेल, सोनी, मेहता, शाह, देसाई, पारेख और चूड़ासमा शामिल हैं। अक्सर प्रयोग किये जाने वाले मराठी पारिवारिक नामों में कुलकर्णी, जोशी, देशपांडे, देशमुख, चौधरी, कोलते, मोदी और पाटिल शामिल हैं। महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों के लिये पारिवारिक नाम “भट” का प्रयोग किया जाता है, जबकि गुजरातियों के मामले में इसमें एक अतिरिक्त ट जोड़ा जाता है। अनेक मराठी पारिवारिक नाम ‘कर’ के साथ समाप्त होते हैं, उदा। तुळसकर, गावस्कर, तेंडुलकर, सावरकर, माडगुलकर, मायेकर, लऊळकर, आचरेकर, नवलकर, लाठकर, जोगलेकर, जुहेकर, देउस्कर, मांगलोकर, चिंदरकर और कभी-कभी वे उस परिवार या उसके पूर्वजों के मूल ग्राम से जुड़े होते हैं। उदा., चिंदरकर शब्द का मूल महाराष्ट्र-कोंकण क्षेत्र के सिंधुदुर्ग जिले में स्थित चिंदर कस्बे के नाम के कारण हो सकता है। लाठकर शब्द का मूल महाराष्ट्र के मराठवाडा क्षेत्र के नांदेड़ जिले में कंधार तालुका स्थित लाठी गांव के नाम के कारण है। मराठी अंतिम नाम और उनके मूल बहुत ही अच्छी तरह लेखबद्ध किये हुए होते हैं और सैकड़ों वर्षों पीछे तक की जड़ों तथा वंश को ढूंढा जा सकता है। मुख्य आलेख मराठा वंश प्रणाली देखें गुजरात में, किसी वैवाहिक निमंत्रण पर नाम लिखते समय, परिवार के सदस्यों की सूची बनाते समय लिखे गये ‘वाला’ या ‘वाल्ला’ प्रत्यय के साथ समाप्त होने वाले पारिवारिक नाम किसी ऐसे व्यक्ति के रहने के स्थान को सूचित कर सकते हैं, जो स्थानीय व्यक्ति न हो, उदाहरणार्थ, लंदन से आये किसी व्यक्ति का कुलनाम ‘लंदनवाला’ लिखा जा सकता है, जिससे यह पता चले कि वह व्यक्ति वहां रहता है, जबकि उसका वास्तविक कुलनाम कोई आम पारिवारिक नाम हो सकता है। वास्तविक कुलनाम के रूप में प्रयोग किये जाने पर यह परिवार के पैतृक ग्राम के बारे में भी बता सकता है। हालिया समय में, तंडेल परिवार के कुछ लोगों का मेह से पास के मोगोड डुंगरी में स्थानांतरण इसका एक उदाहरण है, जिसके बाद उन्होंने अपना कुलनाम बदलकर मेहवाला कर लिया, ताकि यह पता चले कि वे मेह ग्राम से आये हैं। इसका प्रयोग किसी व्यवसाय या पारिवारिक व्यापार को सूचित करने के लिये भी किया जाता है, जैसे लकड़ावाला, जो यह सूचित करता है कि उस व्यक्ति का पारिवारिक व्यापार लकड़ियों की खरीदी व बिक्री से संबंधित है। कोंकणी लोग वर्तमान में गोवा, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा केरल के कुछ भागों में बसे हुए हैं। ये लोग मूलतः हिंदू हैं और बाद में उन्हें इस्लाम या ईसाईयत में धर्मांतरित किया गया। वे अत्यधिक पितृसत्तात्मक होते हैं और इसलिये उनके प्रथम नाम के साथ हमेशा पिता का नाम आता है। हालांकि, इस पद्धति का सख़्ती से पालन अब केवल हिंदुओं द्वारा ही किया जाता है। पुर्तगालियों के आगमन के पूर्व हिंदू भट्ट, शेणॉय, कामाटी, शेट्ट, पार्पती, महाले, नाइक, कोयन्दे आदि जैसे शीर्षकों या जाति की पहचान बताने वाले नामों, जैसे गौडे, वेलिप, मुल्ली आदि का प्रयोग करते थे। गांवों के नामों का प्रयोग केवल तभी किया जाता था, जब वे अपने पैतृक गांव से आप्रवास करते थे। प्रत्यय कार या ‘का निवासी ’ को गांव के नामों के साथ जोड़ा जाता था उदा: रायकर, बोरकर, वर्णेकर, केरकर आदि, जो कि इस बात को सूचित करते थे कि वे किस गांव से आये हैं। यह पद्धति आज भी प्रयोग की जाती है और गोवा के लगभग सभी और कुछ कोंकणी लोग, जो अन्य राज्यों में बसे हुए हैं, अभी भी अपने मूल गांवों के नामों का प्रयोग करते हैं, जहां परीक्षण काल और उसके बाद गोवा और अन्य राज्यों में उनके सामूहिक आप्रवास से पूर्व किसी समय उनके पूर्वज रहा करते थे। व्यवसाय को सूचित करने वाले कुलनाम भी आम हैं, उदा: अभिषेकी, तेली, कसार, वैद्य आदि भी आम हैं। लगभग सभी कोंकणी कैथलिक लोग पुर्तगाली कुलनाम का प्रयोग करते हैं, जैसे डी’सूज़ा, डी’मेलो, फर्नांडीज़, नाज़ारेथ आदि। हालांकि कुनबी समुदाय के कुछ परिवार आज भी अपने मूल अंतिम नामों, जैसे गावकार, तारी आदि का ही प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार की रोमन कैथलिक ब्राह्मण जाति के कई कैथलिक परिवार आज भी अपने मूल हिंदू कुलनाम, जैसे प्रभु, शेणॉय, नाइक, पै, शेट, भट आदि का ही प्रयोग करते हैं। कर्नाटक में कोंकणी बोलने वाले अनेक प्रकार के लोग बसे हुए हैं, जो कि कई छोटे-छोटे संप्रदायों में विभक्त हैं। एक लंबे समय से, दक्षिण भारतीय लोगों में एक सरल नामकरण प्रणाली रही है। ऐतिहासिक रूप से, प्रत्येक व्यक्ति को एक ही नाम दिया जाता था, जो कि तीन संभावित तरीकों में से किसी एक के आधार पर चुना जाता था: कर्नाटक में, नामकरण की पद्धति में दिया गया नाम, पिता का नाम, अंतिम नाम लिखा जाता है। मंजूनाथ, मुरलीधर, वेंकटेश, राघव, राधा कृष्ण मूर्ति, राघवेन्द्र, रमेश, बी. जयप्पा, शैली मल्लप्पा, के मल्लप्पा, कांथराजप्पा विश्वनाथ पुरुषों के प्रचलित नामों में से कुछ हैं। महिलाओं के लिये भाग्या, भाग्यलक्ष्मी, लक्ष्मी, शैलजा, मानसा, मीरा, शांथला, सीता, उमा, गायत्री, चित्रा आदि नाम प्रचलित हैं। पारंपरिक रूप से महिलाएं अपने पति के कुलनाम या अंतिम नाम को अपना लेती हैं, जो कि उनके द्वारा अपने पिता के घर से निकलने और पति के घर को अपनाने के बाद उनमें हुए सांकेतिक परिवर्तन को प्रतिबिम्बित करता है। पुरुष घर का मुखिया होता है। गांवों में और शहरों से दूर कभी-कभी किसी नाम के पहले आद्याक्षर भी लिखे जाते हैं। उदाहरण के लिये, कागोडु बैरप्पा तिम्मप्पा . कभी-कभी नाम के पहले केवल व्यक्ति का नाम लिखा जाता है। कुछ नाम स्पष्ट रूप से किसी परिवार से संबंध का उल्लेख करते हैं। उदाहरण के लिये पशारा कोल्ली,, नायगोदरा कण्णी . केरल में, मानक विधि के अनुसार परिवार का नाम-व्यक्ति का नाम-जाति/शीर्षक नाम लिखा जाता था। अतः कैनथ करुणाकरण मारार, की व्याख्या कैनथ परिवार से मारार जाति का करुणाकरण, के रूप में की जा सकती है। चूंकि 20वीं सदी के मध्य-काल से पहले तक केरल एक सामन्ती समाज था, अतः दक्षिण भारत के अन्य भागों के विपरीत अधिकांश केरलवासी किसी वंश के वंशज हुआ करते थे। जो लोग किसी भी जाति से संबंधित नहीं थे, उन्हें कोई शीर्षक दिया जाता था, जैसे मछुआरे व मजदूर केवल अपने पारिवारिक नम के बाद अपना नाम लिखते थे, उदा. वायिलपरंबु मनोहरन. आज, नामकरण का पारंपरिक प्रारूप बदलने लगा है और अन्य दक्षिण भारतीय समुदायों के अनुरुप कभी-कभी अंतिम नाम के रूप में पिता के नाम का प्रयोग किया जाता है।केरल के ईसाइयों में, एक द्वितीय नाम होना एक आम पद्धति है, जो कि उनका बपतिस्मा द्वारा प्राप्त नाम होता है, सामान्यतः प्रथम नाम दादा का या कुलदेवता का नाम होता है, जैसे रोशनी मैरी जॉर्ज और अनूप एंटनी फिलिप. अनेक दक्षिण भारतीय लोग अपने अंतिम नाम या पारिवारिक नाम के रूप में अपने पैतृक ग्राम के नाम का या परिवारिक व्यवसाय का प्रयोग करते हैं। इस मामले में, कभी-कभी व्यक्ति के नाम से पूर्व उसका कुलनाम लिखा जाता है। कुछ तमिल व्यक्ति अपने नाम के भाग के रूप में अपने गांव का नाम और जाति का नाम दोनों लिखते हैं, उदाहरण के लिये, मदुरै मणि अय्यर . यहां मदुरै शहर का नाम और अय्यर जाति है। अनेक केरलवासी विशेषतः सीरियाई ईसाई “थरवाड” के रूप में, अपने पैतृक घर के वर्णन करते हैं। प्रमोद पेरुपरांबिल और पॉल चेम्मनूर इस श्रेणी में आते हैं। गोत्र का प्रयोग भी व्यापक पैमाने पर किया जाता है: द्वितीय नाम के रूप में पिता के नाम का प्रयोग. इसका अर्थ यह है कि एक पीढ़ी का दिया गया नाम अगली पीढ़ी का द्वितीय नाम बन जाता है। अनेक मामलों में, दूसरे नाम का प्रयोग आद्याक्षर के रूप में किया जाता है और व्यक्ति का नाम उसके द्वितीय नाम जैसा प्रतीत हो सकता है। उदाहरणार्थ, “अजीथ अब्राहम” जैसे किसी नाम का अर्थ होगा “अब्राहम का पुत्र अजीथ”. यदि इसके बाद अजीथ का कोई अश्विन नामक पुत्र हो, तो उसका नाम अश्विन अजीथ होगा. किसी तमिल महिला द्वारा अपने पति के नाम को अपने द्वितीय नाम के रूप में अपना लिया जाना आम है। सुनिथा गोपालन शादी के बाद अपना नाम बदलकर सुनिथा राजीव कर सकती है। कुछ दक्षिण भारतीय लोग एक विलोमित गोत्र का प्रयोग करते हैं। उदाहरणार्थ, चित्रा विश्वेश्वरन एक नृत्यांगना हैं, जिनका अंतिम नाम या तो उनका गोत्र है या उनके पति का नाम है। महिलाओं में अधिक प्रचलित विलोमित गोत्र का प्रयोग पश्चिमी देशों में आप्रवास करने वाले उन लोगों द्वारा भी अपनाया जाता है, जो भारतीय नामकरण पद्धति की व्याख्या करने की आवश्यकता के बिना अपने नाम से पुकारे जाना चाहते हों. उनके पिता या पतियों के नाम उनके पारिवारिक नाम बन जाते हैं। पश्चिमी अंग्रेज़ी-भाषी समाजों में, जब किसी प्राथमिक विद्यालय में एक ही नाम वाले दो लोग हों, उदाहरणार्थ, रॉबर्ट जोन्स और रॉबर्ट स्मिथ, तो अस्पष्टता से बचने के उनका उल्लेख क्रमशः रॉबर्ट जे. और रॉबर्ट एस. के रूप में किया जा सकता है। लेकिन दक्षिण भारत में यदि दो रमन हों, तो उनमें से प्रत्येक का केवल एक ही नाम होता है। अतः कुलनाम के बजाय उनके आद्याक्षरों के रूप में उनके पिता के नामों का प्रयोग किया जाता है। गोपाल का पुत्र रमन, जी. रमन तथा दिनेश का पुत्र रमन डी. रमन कहलाएगा. इसके परिणामस्वरूप आद्याक्षरों की एक प्रणाली विकसित हुई है, जिसका अधिकांशतः दक्षिण भारत में पालन किया जाता है। अधिकतर विद्यालय प्रवेश के समय स्वतः ही आद्याक्षर जोड़ लेते हैं। तमिलनाडु के कुछ भागों में, आजकल पारंपरिक पारिवारिक नामों के स्थान पर पिता/पति के नाम का प्रयोग पारिवारिक नाम के रूप में किया जाने लगा है। पारिवारिक नाम के रूप में पिता/पति के नाम का प्रयोग प्रचलन में है। इन नामों का प्रयोग आद्याक्षरों के रूप में भी किया जाता है। स्कूलों व कालेजों के रिकॉर्ड में उनके आद्याक्षर इस प्रकार दिये जाएंगे. पासपोर्ट जैसे क़ानूनी दस्तावेज में आद्याक्षरों के स्थान पर पूर्णतः विस्तारित अंतिम नाम लिखा जाएगा. संपत्ति के सौदों जैसे अन्य क़ानूनी दस्तावेजों में इनमें से किसी भी प्रारूप का प्रयोग किया जाएगा और साथ ही पिता/दादा/पति के नाम तथा/या गांव/कस्बे/शहर के नाम का उल्लेख किया जाएगा. पासपोर्ट तथा पश्चिमी मानकों से प्रभावित बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में आद्याक्षरों के विस्तार को अनिवार्य किया जाना दक्षिण भारत में उलझन का एक बड़ा स्रोत है। उदाहरणार्थ, कृष्ण कुमार के पुत्र राजा गोपाल वर्मा, जिन्हें सामान्यतः “के. राजा गोपाल” के नाम से जाना जाता हो, के नाम लिखा कोई पत्र गलती से “कृष्ण कुमार राजा गोपाल वर्मा” के पते पर भेजा जा सकता है। सामान्यतः पुरुषों के नाम पूर्व में वर्णित आद्याक्षरों के साथ प्रारंभ होते हैं। कुछ पुरुष अपने आद्याक्षरों को हटा देते थे और अंत में अपने पिता का नाम जोड़ते थे। हालांकि, यह कोई क़ानूनी नाम नहीं है और इससे आधिकारिक रिकार्डों में उनके नाम परिवर्तित नहीं होंगे. उदाहरणार्थ, पी. चिदम्बरम और चिदम्बरम पलानियप्पन दोनों ही नाम वैध हैं; हालांकि दूसरे रूप का प्रयोग क़ानूनी रूप से नहीं किया जाता. सामान्यतः आद्याक्षरों को हटा दिया जाता है और नाम को छोटा करने के लिये पिता का नाम अंत में जोड़ा जाता है, जैसे एम. गोपाल कृष्णन के पुत्र जी. राजा रवि वर्मा का नाम राजा गोपाल बन जाता है। महिलाओं के लिये, आद्याक्षरों की प्रणाली कुछ भिन्न है। विवाह से पूर्व, एक कन्या अपने पिता के आद्याक्षरों का प्रयोग करती है, लेकिन विवाह के बाद वह अपने पति के आद्याक्षर का प्रयोग करने का विकल्प चुन सकती है। हालिया दिनों में यह चलन बदल गया है और अनेक महिलायें, विशेषतः कामकाजी महिलायें, अपने आद्याक्षर नहीं बदलतीं, बल्कि अपने पिता के आद्याक्षरों का प्रयोग करना जारी रखतीं हैं। ऐसा मुख्यतः सुविधा की दृष्टि से किया जाता है क्योंकि स्कूल की डिग्री व कॅरियर के दस्तावेजों में महिला के पिता के आद्याक्षर ही लिखे होते हैं। क़ानूनी रूप से कोई नाम बदलना बहुत जटिल प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत प्रस्तावित परिवर्तन की घोषणा समाचार-पत्रों के माध्यम से करना और परिवर्तन एक आधिकारिक गजट में प्रकाशित करवाना शामिल होता है। अतः आधुनिक चलन के अनुसार अपने पति का नाम अंत में जोड़ लिया जाता है, जैसे कुछ पश्चिमी महिलायें करतीं हैं, जो एक समासचिह्न के साथ अपने पति का नाम जोड़ लेती हैं। जो लोग नामकरण की दक्षिण भारतीय पद्धति को नहीं समझ पाते, वे कभी-कभी गलत तरीके से आद्याक्षरों का विस्तार करते हैं। उदाहरणार्थ, पी. चिदम्बरम नाम को विस्तारित करके पलानियप्पन चिदम्बरम कर दिया जाता है, जो इस अर्थ में गलत है कि इससे ऐसा लगता है कि उस व्यक्ति का नाम “पलानियप्पन” है और उसके परिवार का नाम “चिदम्बरम” है। वास्तव में, व्यक्ति का नाम केवल “चिदम्बरम” है और उसके पूर्व आद्याक्षर “पी” जोड़ा गया है। साथ ही, यदि नाम सृष्टि वेंकट शेष फणीन्द्र है, तो इसे तीन आद्याक्षरों के साथ एस. वी. एस. फणीन्द्र लिखा जा सकता है। ऐसी ही अन्य प्रसिद्ध गलत व्याख्याओं में शतरंज के ग्रैंड मास्टर वी. आनंद ; क्रिकेटर, एल. शिवरामकृष्णन ; तथा स्वतंत्रता सेनानी व राजनेता, सी. राजगोपालाचारी शामिल हैं। दूसरी ओर उत्तर भारतीय मीडिया डॉ॰ अंबुमणि रामदॉस का उल्लेख अक्सर केवल डॉ रामदॉस के रूप में करता है, जो कि पुनः गलत है क्योंकि रामदॉस उनके पिता का नाम है, उनका नहीं. स्वतंत्र भारत के प्रारंभ में जस्टिस पार्टी और अन्य द्रविड़ दलों ने इस भ्रम को बढ़ाने में बहुत योगदान दिया है। उदाहरणार्थ, राजाराम अय्यर नामक एक व्यक्ति को अय्यर जाति का होने के कारण स्कूलों, कालेजों, नौकरी आदि में लाभ मिला करता था। दूसरी ओर, संभव है कि पहचाने जाने से बचने के लिये कोई व्यक्ति अपनी जाति का नाम घोषित न करे. "किसी व्यक्ति को केवल अपनी जाति की घोषणा करने मात्र से कोई लाभ या हानि क्यों प्राप्त होनी चाहिये?" यह द्रविड़ विचारधारा द्वारा उठाया गया मुख्य प्रश्न था। उदाहरणार्थ, संभव है कि किसी सार्वजनिक कार्यालय में राजाराम मुदलियार नामक एक व्यक्ति के साथ वैसा ही व्यवहार न किया जाए, जैसा राजाराम नादार नामक व्यक्ति के साथ किया जाता हो। इसके अलावा, बिना कुलनाम/जाति के नाम वाला कोई राजाराम लोगों को भ्रम में डाल देगा। इसके परिणामस्वरूप आद्याक्षर के रूप में पिता के नाम को शामिल किया जाने लगा. कुछ अभद्र शब्दावली में, तमिलनाडु के कुछ भागों में इसका उल्लेख इस प्रकार किया जाता था। "हमारा जन्म पिता से हुआ है, जातियों से नहीं". इतना सब-कुछ कहने और होने के बावजूद भी यह स्थिति बनी हुई है कि तमिलनाडु में एक शक्तिशाली जाति-प्रथा और जातिगत भावना मौजूद है, लेकिन उसे केवल नाम के द्वारा उजागर नहीं किया जा सकता. अनेक दक्षिण भारतीय व्यक्ति एक पारिवारिक नाम का प्रयोग भी करते हैं। पारिवारिक नाम तमिलनाडु में आम नहीं हैं, लेकिन शेष भारत में अधिकांश लोग एक पारिवारिक नाम का प्रयोग करते हैं। कन्नड़ नामों में व्यक्ति के नाम के साथ स्थानों के नाम, वंश/शीर्षक/जाति के नाम, पिता के नाम शामिल हो सकते हैं। नामों का संयोजनों का प्रयोग करते समय पालन किये जाने वाले नियम; कभी-कभी वे कुलनाम को उपसर्ग या प्रत्यय की तरह लिखते हैं और मध्य नाम के स्थान पर व्यक्ति का नाम लिखा जाता है। उदा. कडिडल मंजप्पा, जहां कडिडल स्थान का नाम है और मंजप्पा व्यक्ति का नाम है। उदा. कुप्पल्ली वेंकटप्पा पुट्टप्पा, जहां कुप्पल्ली स्थान का नाम है, वेंकटप्पा पिता का नाम है और पुट्टप्पा व्यक्ति का नाम है। उदा. अडनूर भीमाप्पा नरेन्द्र, जहां अडनूर स्थान का नाम है, भीमाप्पा पिता का नाम है और नरेन्द्र व्यक्ति का नाम है। अडनूर व भीमाप्पा को संक्षिप्त आद्याक्षरों के रूप में लिखा जा सकता है, जिससे नाम "ए. बी. नरेन्द्र" बन जायेगा. उदा. कुंदापुर वरुण शेणॉय, कुंदापुर स्थान का नाम है, वरुण व्यक्ति का नाम है और शेणॉय कुलनाम है।उदा. सतीश रामनाथ हेगडे, सतीश व्यक्ति का नाम है, रामनाथ पिता का नाम है और हेगडे शीर्षक है। उदा. सतीश गौड़ा हालांकि, यदि कोई व्यक्ति केवल अपने नाम का प्रयोग करना चाहता हो, तो आधिकारिक समूहों में जबरन अतिरिक्त नामों को जोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। कभी-कभी कुलनाम व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले कार्य पर निर्भर होता है। अधिकांश केरलवासियों का एक पारिवारिक नाम होता है। अधिकांश पारिवारिक नामों का मूल अस्पष्ट होता है, लेकिन उनका मूल भौगोलिक हो सकता है – उदा., वडक्केडथ, पुथेनवीतिल आदि। पारंपरिक रूप से पूर्ण नाम निम्नलिखित तीन में से किसी एक पद्धति का पालन करते हैं: 1. पारिवारिक नाम के बाद व्यक्ति का नाम और उसके बाद सामान्यतः जाति का नाम या शीर्षक लिखा जाता है। यह पद्धति उच्च-वर्णीय हिंदुओं के बीच आम थी, विशेषतः मालाबार और कोचीन में. कुछ उदाहरण: मणि माधव चकियार व्यक्ति का नाम है और चकियार जाति का नाम है), वल्लाथल नारायण मेनन व्यक्ति का नाम और मेनन जाति का नाम है), ओलप्पमण्णा सुब्रमणियन नंबूदिरी, एरंबला कृष्णन नायनार, आदि। कभी-कभी जाति का नाम/शीर्षक हटा दिया जाता है, उदा., कैनथ करुणाकरण . महिलाओं के मामले में, जाति का नाम/शीर्षक, पारंपरिक रूप से, सामान्यतः भिन्न हुआ करता था, उदाहरणार्थ "नायर" के लिये "अम्मा" का प्रयोग किया जाता था, "नंबूदिरी" के लिये "अंदरज्जणम" का प्रयोग किया जाता था, "वारयार" के लिये "वारियसार", "नांबियार" के लिये "नांग्यार" "वलियाथन/उन्निथन/कर्था" के लिये "कुंजम्मा" आदि।, उदा., नालप्पट बालमणि अम्मा, जिनके भाई नालप्पट नारयण मेनन तथा सावित्री अंदरज्जणम . अक्सर पारिवारिक नाम एक से अधिक भागों से मिलकर बना होगा, उदा., एलंकुलम मणक्कल शंकरन नंबूदिरीपाद, मदथिल थेक्केरपट्टु वासुदेवन नायर, आदि। सामान्यतः पारिवारिक नाम को आद्याक्षरित कर दिया जाता है, कभी-कभी व्यक्ति का नाम भी आद्याक्षरित किया जाता है और जाति का नाम को कभी आद्याक्षरित नहीं किया जाता. यह पूरी तरह स्वैच्छिक है। अतः हमारे पास आम रूपों में वैलाथल नारायण मेनन, सी. अच्युत मेनन, ई के नायनार और पी. भास्करन मौजूद हैं। नायर जाति में, शुरुआत में माता के पारिवारिक नाम का प्रयोग भी आम है। उदा. मैथिली राधाकृष्णन, जो अपने पारिवारिक नाम मैथिली के द्वारा ज्यादा जानी जाती हैं। 2. पारिवारिक नाम के बाद पिता का नाम और उसके बाद व्यक्ति का नाम लिखा जाता है। यह शेष जनसंख्या के बीच आम है। उदाहरणार्थ अधिकांश पारंपरिक ईसाई नाम इसी पद्धति का पालन करते हैं। सामान्यतः पारिवारिक नाम और पिता के नाम को आद्याक्षरित किया जाता था। महिलाओं के मामले में, “अम्मा” का प्रयोग अक्सर किया जाता था . उदाहरणों में के एम मणि, के जी जॉर्ज, वी एस अच्युतानंदन, के आर गोवरी अम्मा. पलक्कड़ के अनेक अय्यर इस पद्धति के एक अनुकूलित रूप का प्रयोग करते हैं, जिसमें पारिवारिक नाम के स्थान पर "ग्रामम्" का नाम लिखा जाता था। उदाहरण: तिरुनेलै नारायणैयर शेषन, जहां तिरुनेलै गांव का नाम है, नारायणैयर पिता का नाम और शेषन व्यक्ति का नाम है; या गुरुवायूर शंकरनारायणन ललिथा को जी. एस. ललिथा के रूप में संक्षेपित किया जाता है। 3. व्यक्ति के नाम के बाद शीर्षक. यह विशिष्ट रूप से केंद्रीय त्रावणकोर क्षेत्र के सीरियाई ईसाइयों के बीच आम है, जहां राजा या स्थानीय शासक चुनिंदा परिवारों को कोई उपाधियां प्रदान किया करते थे। उदाहरणों में वर्गीस वैद्यन, फ्र. गेवर्गीस पणिक्कर, चाको मुथलली, अविरा थारकन, वार्की वलिकप्पन आदि शामिल हैं। 4. व्यक्ति के नाम के बाद कुलनाम के रूप में पिता का नाम तथा माता के नाम से लिये गये आद्याक्षर.यह चलन अब आम है, जबकि व्यक्ति के नाम के साथ माता व पिता दोनों के नाम मिलते हैं। उदाहरणार्थ, एल. अथिरा कृष्ण. यहां माता के नाम ‘लीला’ का उल्लेख अद्याक्षर के रूप में मिलता है और पिता का नाम ‘कृष्ण’ कुलनाम के रूप में लिया गया है। 5. इन पारंपरिक नामकरण पद्धतियों में से अधिकांश का प्रयोग अब नहीं मिलता। सामान्यतः आजकल पारिवारिक नाम शामिल नहीं किये जाते . व्यक्ति के नाम, उसके बाद पिता के नाम अथवा जाति का नाम लिखना वर्तमान में प्रचलित सबसे आम पद्धति है। पारिवारिक नाम के साथ मूल ग्राम का नाम लिखना भी असामान्य नहीं है, विशेषतः दक्षिणी केरल में, उदा. कावलम नारायण पणिक्कर, जहां कावलम अलप्पुज़ा जिले में एक गांव है। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिये कि अनेक ईसाई नाम, जैसे वर्गीस एरेमिक/सीरियाई मूल के हैं। दक्षिणी राज्यों तमिलनाडु व केरल के कई लोग औपचारिक कुलनाम का प्रयोग नहीं करते, हालांकि इनमें से अधिकांश का कोई कुलनाम हो सकता है। ऐसा इसलिये है क्योंकि पारंपरिक रूप से कुलनाम उनकी जाति का उल्लेख करता है और इस बात को सुनिश्चित करने के लिये कि उनके नाम जाति-निरपेक्ष हों, उनके कुलनाम पूरी तरह त्याग दिये जाते हैं। अतः व्यवहार में, लोग कुलनाम के स्थान पर या तो अपने पिता के नाम का या आद्याक्षरों का प्रयोग करते हैं। जब आद्याक्षरों का प्रयोग किया जा रहा हो, तो उन्हें व्यक्ति के नाम के पहले या बाद में रखा जा सकता है।उदाहरणार्थ; जी. वेंकटेशन, वेंकटेशन जी, या वेंकटेशन गोविंदराजन, ये सभी वे विभिन्न तरीके हैं, जिनका प्रयोग वेंकटेशन नामक कोई व्यक्ति, जिसके पिता का नाम गोविंदराजन हो, स्वयं का उल्लेख करने के लिये कर सकता है। मलेशिया में रहने वाले भारतीय मूल के अधिकांश लोगों का पैतृक मूल दक्षिण भारत में है। मलेशिया में, भारतीयों के लिये नामकरण का सामान्य प्रारूप वाय का पुत्र एक्स या वाय की पुत्री एक्स है। शब्दावली ‘का पुत्र’ मलय भाषा में आनक लेलकी है, और शब्दावली 'की पुत्री' आनक पेरेम्पुअन है, . उदाहरण के लिये, मलयेशियाई पहचान पत्र के नाम वाले भाग में तथा मलयेशियाई पासपोर्ट में वेलुपिल्लै के पुत्र मुरुगन का नाम MURUGAN A/L VELLUPILLAI लिखा जाएगा. उपरोक्त उदाहरण का प्रयोग करते हुये, MURUGAN A/L VELLUPILLAI अपने नाम को इस प्रकार भी व्यवस्थित करेगा कि उसके पिता का नाम उसका आद्याक्षर बन जाये औअर उसका नाम उसका कुलनाम/अंतिम नाम प्रतीत हो: वी. मुरुगन. यह पद्धति प्रसिद्ध दक्षिण भारतीय लेखक आर. के। नारायण के नाम के प्रारूप के समान है। चूंकि वर्तमान में मलेशिया में निवासरत अधिकांश भारतीयों का जन्म मलेशिया में ही हुआ था, अतः उनके नाम में आद्याक्षरों के रूप में केवल पिता का नाम ही दिखाई देता है। हालांकि, पश्चिमी देशों में बसने वाले मलेशियाई भारतीयों की संख्या बढ़ती जा रही है और अस्पष्टता से बचने के लिये उन्होंने अपने अंतिम नाम के रूप में पिता के नाम का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया है। अतः, वेलुपिल्लै का पुत्र मुरुगन पश्चिम में अपना नाम केवल मुरुगन वेलुपिल्लै या एम. वेलुपिल्लै लिखेगा. ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में, भारतीय पुरुषों के नाम में क्रमशः संबधात्मक शब्दावली S/O और भारतीय महिलाओं के नाम में D/O का प्रयोग किया जाता था और ये शब्दावलियां सिंगापुर में आज भी प्रचलित हैं। तेलुगु लोगों के पारिवारिक नामों के पहले व्यक्ति का नाम लिखा जाता है और अक्सर यह अपने संक्षिप्त रूप में होता है। उदाहरणार्थ, कंभम नागार्जुन रेड्डी नाम को संक्षिप्त रूप से के। एन.रेड्डी लिखा जायेगा. इस नाम में, नागार्जुन रेड्डी व्यक्ति का नाम है और कंभम उसका पारिवारिक नाम होगा. विशिष्ट रेड्डी जाति के कुछ लोग अपने नामों के साथ जाति का नाम भी जोड़ते हैं, विशेषतः “नायडू”, चौधरी, शेट्टी, गौड़ या मुद्राज. उदाहरणार्थ, विजय रेड्डी, हरि चौधरी, देवेंद्र गौड़. सामान्यतः, यदि पश्चिमी प्रारूप में व्यक्ति का नाम विजय रेड्डी कंडी था, तो तेलुगु-भाषी क्षेत्रों में इस नाम को के। विजय रेड्डी लिखा जायेगा. आंध्र प्रदेश में अनेक जातियों में एक समान कुलनाम, जैसे “लंकला” भी होते हैं, यादव जाति में लंकला वीरैया, रेड्डी जाति में लंकला दीपक रेड्डी आदि। तेलुगु लोगों के पारिवारिक नाम उन गांवों या क्षेत्रों के नाम होते हैं, जहां से उनके पूर्वज आये थे। कभी-कभी विभिन्न जातियों के लोगों के पारिवारिक नाम एक समान भी हो सकते हैं।उदहरणार्थ, नंदुमुरी तारका रामाराव को एन.टी.रामाराव के रूप में संक्षेपित किया जा सकता है। तारकारामाराव नाम और नंदुमुरु संभवतः एन.टी.आर. पैतृक ग्राम है। कभी-कभी पारिवारिक नाम मानवीय शरीर के अंगों के समान भी हो सकते हैं, जैसे बोड्डु, लिंगम आदि। हालांकि उन नामों के साथ सदैव ही कोई आध्यात्मिक अर्थ जुड़ा होता है। आध्यात्मिक अर्थ में, बोड्डु का अर्थ ब्रह्माण्ड का मूल तथा लिंगम का अर्थ भगवान शिव होता है।
बुल्लसमुद्रं में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अनंतपुर जिले का एक गाँव है।
ममिदिपुडी वेंकटाअरंगया को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ये आंध्र प्रदेश राज्य से हैं।
सार्क को दक्सेस भी कहते हैं ईसकी स्थापना 1985 में हुई जिसका वर्तमान में न्यायलय नेपाल में स्थत हैं
पुंछ जिला भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर का एक जिला है। यह जिला नियंत्रण रेखा से सटा हुआ है। जिले का मुख्यालय पुंछ है। पुंछ जिले में चार तहसीलें हैं- 2011 की जनगणना के अनुसार पुंछ जिले की जनसँख्या 476,820 थी। जनसँख्या वृद्धि दर 2001-2011 के दौरान 27.97% रही। पुंछ का लिंगानुपात 890 है और साक्षरता दर 68.69% है। जिले में 85% मुस्लिम आबादी है। यहाँ पर गुज्जर, बक्करवाल, पहाड़ी, पंजाबी, कश्मीरी और राजपूत जैसी जातिय समूह निवास करते हैं। यहाँ पर एक छोटा हवाई अड्डा है। रेल लाइन का निर्माण अभी चल रहा है। वर्तमान में बस के ही माध्यम से यहाँ पर आया जाया जा सकता है।
उत्पल का अर्थ खिलता हुआ कमल होता है। उत्पल माने पद्म। यह शब्द हिंदी में काफी प्रयुक्त होता है, यदि आप इसका सटीक अर्थ जानते है तो पृष्ठ को संपादित करने में संकोच ना करें । दिया गया प्रारूप सिर्फ दिशा निर्देशन के लिये है, आप इसमें अपने अनुसार फेर-बदल कर सकते हैं। नील कमल
प्रसिद्ध साहित्यकार प्रतापनारायण मिश्र की पुस्तक
पुर्तगाल ने पहली बार 1912 में ओलंपिक खेलों में हिस्सा लिया और तब से ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेलों के हर संस्करण में भाग लिया। उस वर्ष के पहले, पुर्तगाल की ओलंपिक समिति को अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति द्वारा पुर्तगाली राष्ट्रीय ओलंपिक समिति के रूप में मान्यता दी गई थी। 1952 में, पुर्तगाल का प्रतिनिधित्व करने वाले एथलीटों ने ओलंपिक शीतकालीन खेलों में पहली बार प्रतिस्पर्धा की, और 1988 के बाद से केवल दो संस्करणों को ही याद किया। 2016 ग्रीष्मकालीन ओलंपिक के रूप में, 37 पुर्तगाली एथलीटों ने नौ ग्रीष्मकालीन खेलों में कुल 24 पदक जीते । एथलेटिक्स ने सभी चार स्वर्ण पदक सहित सभी पदक उपलब्ध कराए हैं। पुर्तगाल ने शीतकालीन ओलंपिक में अभी तक कोई पदक नहीं जीता है।
माता बगलामुखी का यह मंदिर मध्य प्रदेश के शाजापुर जिले के नलखेड़ा कस्बे में लखुंदर नदी के किनारे स्थित है। यह मन्दिर तीन मुखों वाली त्रिशक्ति बगलामुखी देवी को समर्पित है। मान्यता है कि द्वापर युग से चला आ रहा यह मंदिर अत्यंत चमत्कारिक भी है। इस मन्दिर में विभिन्न राज्यों से तथा स्थानीय लोग भी एवं शैव और शाक्त मार्गी साधु-संत तांत्रिक अनुष्ठान के लिए आते रहते हैं। यहाँ बगलामुखी के अतिरिक्त माता लक्ष्मी, कृष्ण, हनुमान, भैरव तथा सरस्वती की मूर्तियां भी स्थापित हैं। कहते हैं कि इस मंदिर की स्थापना महाभारत में विजय के उद्देश्य से भगवान कृष्ण की सलाह पर युधिष्ठिर ने की थी। मान्यता यह भी है कि यहाँ की बगलामुखी प्रतिमा स्वयंभू है। प्राचीन तंत्र ग्रंथों में दस महाविद्याओं का उल्लेख है जिनमें से एक है बगलामुखी। माँ भगवती बगलामुखी का महत्व समस्त देवियों में सबसे विशिष्ट है। विश्व में इनके सिर्फ तीन ही महत्वपूर्ण प्राचीन मंदिर हैं, जिन्हें सिद्धपीठ कहा जाता है। यह मन्दिर उन्हीं से एक बताया जाता है। मंदिर के बाहर सोलह स्त्म्भों वाला एक सभामंडप है जो आज से लगभग 252 वर्षों से संवत 1816 में पंडित ईबुजी दक्षिणी कारीगर श्रीतुलाराम ने बनवाया था। इसी सभामंड़प में एक कछुआ भी स्थित है जो देवी की मूर्ति की ओर मुख करता हुआ है। यहाम पुरातन काल से देवी को बलि चढ़ाई जाती थी। मंदिर के सामने लगभग 80 फीट ऊँची एक दीप मालिका बनी हुई है, जिसका निर्माण राजा विक्रमादित्य द्वारा ही करवाया गया था। प्रांगन में ही एक दक्षिणमुखी हनुमान का मंदिर, एक उत्तरमुखी गोपाल मंदिर तथा पूर्वर्मुखी भैरवजी का मंदिर भी स्थित है। यहां के सिंहमुखी मुख्य द्वार का निर्माण 18 वर्ष पूर्व कराया गया था। स्थानीय पंडित कैलाश नारायण शर्मा के अनुसार यह बहुत ही प्राचीन मंदिर है। यहाँ पर पुजारी अपनी दसवीं पीढ़ी से भी पहले से पूजा-पाठ करते आए हैं। 1815 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था। मंदिर में लोग अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु एवं विभिन्न क्षेत्रों में विजय प्राप्त करने के लिए यज्ञ, हवन या पूजन-पाठ कराते हैं। एक अन्य पंडित गोपालजी पंडा, मनोहरलाल पंडा आदि के अनुसार यह मंदिर श्मशान क्षेत्र में स्थित है। बगलामुखी माता तंत्र की देवी हैं, अतः यहाँ पर तांत्रिक अनुष्ठानों का महत्व अधिक है। इस मंदिर की मान्यता इसलिए भी अधिक है, क्योंकि यहाँ की मूर्ति स्वयंभू और जागृत है तथा इस मंदिर की स्थापना स्वयं महाराज युधिष्ठिर ने की थी। मंदिर में बहुत से वृक्ष हैं, जिनमें बिल्वपत्र, चंपा, सफेद आँकड़ा, आँवला, नीम एवं पीपल के वृक्ष एक साथ स्थित हैं। इसके आसपास सुंदर और हरा-भरा बगीचा भी बना हुआ है। नवरात्रि के अवसर पर यहाँ भक्तों का ताँता लगा रहता है। मंदिर श्मशान क्षेत्र में होने के कारण वर्षभर यहाँ पर कम ही लोग आते हैं। मंदिर के पीछे लखुन्दर नदी के तट पर संत व मुनियो की कई समाधियाँ जीर्ण अवस्था में स्थित है, जो आज भी इस मंदिर में संत मुनियों का रहने का प्रमाण है। सड़क मार्ग द्वारा इंदौर से लगभग 165 किमी की दूरी पर स्थित नलखेड़ा पहुँचने के लिए देवास या उज्जैन के रास्ते से जाने के लिए बस और टैक्सी उपलब्ध हैं। वायु मार्ग से पहुंचने हेतु नलखेड़ा के निकटतम इंदौर का विमानक्षेत्र है। रेल मार्ग द्वारा इंदौर से 30 किमी पर स्थित देवास या लगभग 60 किमी मक्सी पहुँचकर भी शाजापुर जिले के गाँव नलखेड़ा पहुँच सकते हैं।
निर्देशांक: 24°49′N 85°00′E / 24.81°N 85°E / 24.81; 85 सिमरी डुमरिया, गया, बिहार स्थित एक गाँव है।
कुनेने दक्षिणी अफ़्रीका में स्थित नामीबिया देश के 13 प्रदेशों में से एक है। इसकी राजधानी ओपुवो है। कुनेने प्रदेश क नाम उसके उत्तरी छोर पर बहने वाली कुनेने नदी पर रखा गया है। यह नदी इस प्रदेश की उत्तर में स्थित अंगोला से अंतरराष्ट्रीय सीमा भी है। इस इलाक़े में हीम्बा जनजाति बसी हुई है। अपनी शुष्कता और पहाड़ी धरती के कारण यह नामीबिया के अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम विकसित है। एपुपा जलप्रपात प्रादेशिक राजधानी ओपुवो का विमान से दृश्य क्च्ची सड़क काओकोलैंड क्षेत्र
निर्देशांक: 21°36′10″N 71°13′05″E / 21.602871°N 71.21817°E / 21.602871; 71.21817देवराजीया भारत देश में गुजरात प्रान्त के सौराष्ट्र विस्तार में अमरेली जिले के 11 तहसील में से एक अमरेली तहसील का महत्वपूर्ण गाँव है। देवराजीया गाँव के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती, खेतमजदूरी, पशुपालन और रत्नकला कारीगरी है। यहा पे गेहूँ, मूँगफली, तल, बाजरा, जीरा, अनाज, सेम, सब्जी, अल्फला इत्यादी की खेती होती है। गाँव में विद्यालय, पंचायत घर जैसी सुविधाएँ है। गाँव से सबसे नजदीकी शहर अमरेली है।
जासूस विजय भारत में जनता के बीच एचआईवी/एड्स के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए दूरदर्शन और राष्ट्रीय एड्स नियन्त्रण सङ्गठन के सहयोग से बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ट्रस्ट द्वारा उत्पादित एक भारतीय जासूसी रहस्य टीवी श्रृंखला है। इसका जून 2002 में डीडी नेशनल पर प्रीमियर हुआ था। सितम्बर 2006 में इसके अन्त तक कुल तीन सत्र प्रसारित किए गए। यह श्रृंखला विजय पर केन्द्रित थी जो एक निजी जासूस था और इसमें गौरी जो उसकी सहायक थी वो बाद में उनकी पत्नी बन गया थी। श्रृंखला को छोटी श्रृंखला में विभाजित किया गया था। जिसमें प्रत्येक छोटी श्रृंखला आमतौर पर एक महीने तक लम्बी थी और प्रत्येक छोटी श्रृंखला में विजय एक मामला हल किया करता था। प्रत्येक एपिसोड के अन्त में, ओम पुरी ने ग्रामीण इलाकों में जाकर और आम लोगों से बात करके या दर्शकों के पत्रों का जवाब देकर एचआईवी/एड्स के मुद्दे को सम्बोधित किया। दर्शकों को उन्हें लिखने के लिए आमन्त्रित किया गया था ताकि वे विजय से पहले अपराधी को पकड़कर पत्र में उनका नाम लिख कर भेज सकें। सर्वश्रेष्ठ उत्तरों के लिए पुरस्कार थे। जिनमें दर्शकों को धारावाहिक में शामिल होने का मौका मिलता था।
कंचन कन्या एक्स्प्रेस 3150 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन अलीपुर द्वार जंक्शन रेलवे स्टेशन से 04:45PM बजे छूटती है और सियाल्दा रेलवे स्टेशन पर 08:15AM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 15 घंटे 30 मिनट।
उर्तिच्छा-अ0व01, यमकेश्वर तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है।
यह भारत की एक प्रमुख नदी घाटी परियोजना हैं।
फ़बासिए, लेग्युमिनोसी या पापील्योनेसी एक महत्त्वपूर्ण पादप कुल है जिसका बहुत अधिक आर्थिक महत्त्व है। इस कुल में लगभग 400 वंश तथा 1250 जातियाँ मिलती हैं जिनमें से भारत में करीब 900 जातियाँ पाई जाती हैं। इसके पौधे उष्ण प्रदेशों में मिलते हैं। शीशम, काला शीशम, कसयानी, सनाई, चना, अकेरी, अगस्त, मसूर, खेसारी, मटर, उरद, मूँग, सेम, अरहर, मेथी, मूँगफली, ढाक, इण्डियन टेलीग्राफ प्लाण्ट, सोयाबीन एवं रत्ती इस कुल के प्रमुख पौधे हैं। लेग्युमिनोसी द्विबीजपत्री पौधों का विशाल कुल है, जिसके लगभग 630 वंशों तथा 18,860 जातियों का वर्णन मिलता है। इस कुल के पौधे प्रत्येक प्रकार की जलवायु में पाए जाते हैं, परंतु प्राय: शीतोष्ण एवं उष्ण कटिबंधों में इनका बाहुल्य है। इस कुल के अंतर्गत शाक, क्षुप तथा विशाल पादप आते हैं। कभी कभी इस कुल के सदस्य आरोही, जलीय, मरुद्भिदी तथा समोद्भिदी होते हैं। इस कुल के पौधों में एक मोटी जड़ होती है, जो आगे चलकर मूलिकाओं एवं उपमूलिकाओं में विभक्त हो जाती है। अनेक स्पीशीज़ की जड़ों में ग्रंथिकाएँ होती हैं, जिनमें हवा के नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करनेवाले जीवाणु विद्यमान रहते हैं। ये जीवाणु नाइट्रोजन का स्थायीकरण कर, खेतों को उर्वर बनाने में पर्याप्त योग देते हैं। अत: ये अधिक आर्थिक महत्व के हैं। इसी वर्ग के पौधे अरहर, मटर, ऐल्फेल्फा आदि हैं। लेग्युमिनोसी कुल के पौधों के तने साधारण अथवा शाखायुक्त तथा अधिकतर सीधे, या लिपटे हुए होते है। पत्तियाँ साधारणतया अनुपर्णी, अथवा संयुक्त, होती हैं। अनुपर्णी पत्तियाँ कभी कभी पत्रमय, जैसे मटर में, अथवा शूलमय, जैसे बबूल में, होती हैं। आस्ट्रेलिया के बबूल की पत्तियाँ, जो डंठल सदृश दिखलाई पड़ती हैं, पर्णाभवृंत सदृश होती है। पुष्पक्रम कई फूलों का गुच्छा होता है। फूल या तो एकाकी होता है या पुष्पक्रम में लगा रहता है। पुष्पक्रम असीमाक्षी अथवा ससीमाक्षी होता है। पुष्प प्राय: एकव्याससममित, द्विलिंगी, जायांगाधर, या परिजायांगी होते हैं। बाह्यदलपुंज पाँच दलवाला तथा स्वतंत्र, या कभी-कभी थोड़ा जुड़ा, रहता है। पुमंग में 10 या अधिक पुंकेसर होते हैं। जायांग एक कोशिकीय तथा असमबाहु होता है। एकलभित्तीय बीजांडासन अभ्यक्ष होता है, पर अपाक्षीय घूम जाता है। बीजांड एक, या अनेक होते हैं। फल या फली गूदेदार तथा बीज अऐल्बूमिनी होते हैं। यह कुल निम्नलिखित तीन उपकुलों में विभाजित हैं : पैपिलियोनेटी, सेज़ैलपिनाइडी तथा मिमोसॉइडी । इस कुल के पौधे शाक, क्षुप, या वृक्ष होते हैं। जड़ों में ग्रंथिकाएँ होती हैं, जिनमें हवा के नाइट्रोजन का स्थायीकरण करनेवाले जीवाणु रहते हैं। तने नरम, या कठोर, सीधे या लता की भाँति होते हैं। पत्तियाँ एकांतर, साधारण, संयुक्त, या अनुपर्णी होती हैं। पुष्प पुष्पक्रम में लगते हैं और वे असीमाक्षी अथवा एकाकी, उभयलिंगी, पूर्ण, एकव्याससममित तथा परिजायांगी होते हैं। बाह्यदल में जुड़े पाँच दल होते हैं। विषम बाह्यदल बाहर की ओर रहता है। दलपुंज में पाँच स्वतंत्र दल रहते हैं, जिसमें विषमदल सबसे बड़ा होता है, जिसे ध्वज कहते हैं। दो दल पार्श्व एली, या पक्ष होते हैं, और दो दल नीचे जुड़े रहते हैं। ये नाव के आकार के होते हैं जिसे कूटक कहते हैं। इसी नाव के आकार वाले कूटक में जनन अंग विद्यमान रहते हैं। पुंकेसर दस होते हैं, जिनमें नौ जुड़े रहते हैं तथा एक अलग रहता है। एककोष्ठकी अंडाशय में कई बीजांड रहते हैं। इसमें कीड़ों द्वारा निषेचन होता है। कीड़े चमकीले एवं रंगीन दलों की ओर आकर्षित होते हैं। इस कुल के प्रमुख पौधे हैं : मीठा मटर, धुँधली जवास, या ऐल्हेजाइ केमीलोरम, मूँगफली, थोड़ा, अरहर, चना, सनई, सेम, शीशम, मटर आदि। इस उपकुल के पौधे प्राय: विशाल वृक्ष होते हैं, पर कभी कभी शाक तथा क्षुप भी होते हैं। जड़ विशाल तथा मूलिकाओं एवं उपमूलिकाओं से युक्त होती है। तना सीधा, कड़ा, या आरोही होता है। पत्तियाँ संयुक्त पिच्छाकार, या द्विपिच्छाकार, तथा कभी कभी साधारण अनुपर्णी होती हैं। अनुपर्ण सूक्ष्म होता है। पुष्पक्रम असीमाक्ष होता है। पुष्प एकव्याससममित, अनियमित, उभयलिंगी तथा परिजायांगी होता है। बाह्यदलपुंज पाँच दलों का होता है, जो कभी कभी रंगीन होते हैं। ये दल स्वतंत्र, या जुड़े हुए भी रहते हैं। दलपुंज पाँच दल का तथा रंगीन होता है। पुंकेसर दस, स्वतंत्र या जुड़े हुए तथा भिन्न भिन्न लंबाई के होते हैं। कभी कभी बंध्यपुंकेसर होते हैं। जायांग एक अंडप का होता है। अंडाशय एककोष्ठकी तथा ऊर्ध्व अंडाशय होता है। वर्तिकाग्र साधारण तथा बीजांडन्यास सीमांत होता है। फल फलीदार होता है। इस उपकुल के मुख्य पौधे हैं : अमलतास, कचनार, कैसिया टोरा, गोल्ड मोहर, अशोक, इमली आदि। इस उपकुल के पौधे प्राय:, वृक्ष, कभी कभी लता, या बहुवर्षी शाक होते हैं। जड़ लंबी, विस्तृत एवं उपमूलिकाओं से युक्त होती है। तना मोटा एवं कठोर होता है। पत्तियाँ एकांतर पिच्छाकार, या द्विपिच्छाकर, संयुक्त तथा अनुपर्णी होती हैं। अनुपर्ण कंटक में परिवर्तित हो जाते हैं। डंठल वृत्तफलक में परिवर्तित रहता है। पुष्पक्रम असीमाक्षी, या शूकी होती है। पुष्प नियमित, अरत: सममित, उभयलिंगी, पूर्ण तथा जायांगाधर होते है। बाह्यदल एवं अंतर्दल पाँच होते हैं। पुंकेसर ग्यारह, या दस होते हैं। इस उपकुल के प्रमुख पौधे हैं : बबूल, सिरस, लाजवंती, जंगल जलेबी, या पिथीकोलोबियम डल्से आदि। आर्थिक महत्व - लेग्युमिनोसी कुल के पौधे बड़े आर्थिक महत्व के हैं। अनेक पौधों के बीच आहार में काम आते हैं, जैसे अरहर, मटर, चना, उड़द, मूँग, मसूर आदि की दालें बनती हैं। कुछ बड़े वृक्षों जैसे शीशम, बबूल, इमली आदि से इमारती लकड़ी मिलती है। मूंगफली से खाद्य तेल प्राप्त होता है। कुछ पौधों के फल और पत्तियाँ साग सब्ज़ी के रूप में प्रयुक्त होती हैं, तो कुछ पौधे चारे के काम आते हैं। कुछ पौधों, जैसे सनई, से रेशे प्राप्त होते हैं, जिनसे रस्सियाँ बनती हैं। आकेशा कैटेचू नामक वृक्ष से कत्था प्राप्त होता है। कुछ पौधे हरी खाद में काम आते हैं कुछ पौधे औषधियों के रूप में व्यवहृत होते हैं, और कुछ पौधे वायुमंडल के नाइट्रोजन का अपनी जड़ की ग्रंथिकाओं में रहनेवाले जीवाणुओं द्वारा स्थायीकरण कर खेत की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। Acacia baileyana Loments of Alysicarpus vaginalis Calliandra emarginata Desmodium gangeticum Dichrostachys cinerea Sickle Bush Indigofera gerardiana Tendrils of Lathyrus odoratus Inflorescence of Lupinus arboreus Pisum sativum ; note the leaf-like stipules Smithia conferta Trifolium repens in Kullu District of Himachal Pradesh, India. Kashubian vetch – Kashubia Zornia gibbosa
नर्मदा, जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है, मध्य भारत की एक नदी और भारतीय उपमहाद्वीप की पांचवीं सबसे लंबी नदी है। यह गोदावरी नदी और कृष्णा नदी के बाद भारत के अंदर बहने वाली तीसरी सबसे लंबी नदी है। मध्य प्रदेश राज्य में इसके विशाल योगदान के कारण इसे "मध्य प्रदेश की जीवन रेखा" भी कहा जाता है। यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक पारंपरिक सीमा की तरह कार्य करती है। यह अपने उद्गम से पश्चिम की ओर 1,312 किमी चल कर खंभात की खाड़ी, अरब सागर में जा मिलती है। नर्मदा, मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। मैकल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। इसकी लम्बाई प्रायः 1312 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ जाकर खम्बात की खाड़ी में गिरती है। नर्मदा नदी का उद्गम मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों के पूर्वी संधिस्थल पर स्थित अमरकंटक में नर्मदा कुंड से हुआ है। नदी पश्चिम की ओर सोनमुद से बहती हुई, एक चट्टान से नीचे गिरती हुई कपिलधारा नाम की एक जलप्रपात बनाती है। घुमावदार मार्ग और प्रबल वेग के साथ घने जंगलो और चट्टानों को पार करते हुए रामनगर के जर्जर महल तक पहुँचती हैं। आगे दक्षिण-पूर्व की ओर, रामनगर और मंडला ) के बीच, यहाँ जलमार्ग अपेक्षाकृत चट्टानी बाधाओं से रहित सीधे एवं गहरे पानी के साथ है। बंजर नदी बाईं ओर से जुड़ जाता है। नदी आगे एक संकीर्ण लूप में उत्तर-पश्चिम में जबलपुर पहुँचती है। शहर के करीब, नदी भेड़ाघाट के पास करीब 9 मीटर का जल-प्रपात बनाती हैं जो की धुआँधार के नाम से प्रसिद्ध हैं, आगे यह लगभग 3 किमी तक एक गहरी संकीर्ण चैनल में मैग्नीशियम चूनापत्थर और बेसाल्ट चट्टानों जिसे संगमरमर चट्टान भी कहते हैं के माध्यम से बहती है, यहाँ पर नदी 80 मीटर के अपने पाट से संकुचित होकर मात्र 18 मीटर की चौड़ाई के साथ बहती हैं। आगे इस क्षेत्र से अरब सागर में अपनी मिलान तक, नर्मदा उत्तर में विंध्य पट्टियों और दक्षिण में सतपुड़ा रेंज के बीच तीन संकीर्ण घाटियों में प्रवेश करती है। घाटी का दक्षिणी विस्तार अधिकतर स्थानों पर फैला हुआ है। संगमरमर चट्टानों से निकलते हुए नदी अपनी पहली जलोढ़ मिट्टी के उपजाऊ मैदान में प्रवेश करती है, जिसे "नर्मदाघाटी" कहते हैं। जो लगभग 320 किमी तक फैली हुई है, यहाँ दक्षिण में नदी की औसत चौड़ाई 35 किमी हो जाती है। वही उत्तर में, बर्ना-बरेली घाटी पर सीमित होती जाती है जो की होशंगाबाद के बरखरा पहाड़ियों के बाद समाप्त होती है। हालांकि, कन्नोद मैदानों से यह फिर पहाड़ियों में आ जाती हैं। यह नर्मदा की पहली घाटी में है, जहां दक्षिण की ओर से कई महत्वपूर्ण सहायक नदियाँ आकर इसमें शामिल होती हैं और सतपुड़ा पहाड़ियों के उत्तरी ढलानों से पानी लाती हैं। जिनमे: शार, शाककर, दधी, तवा और गंजल साहिल हैं। हिरन, बरना, चोरल, करम और लोहर, जैसी महत्वपूर्ण सहायक नदियां उत्तर से आकर जुड़ती हैं। हंडिया और नेमावर से नीचे हिरन जल-प्रपात तक, नदी दोनों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है। इस भाग पर नदी का चरित्र भिन्न दिखाई देता है। ओंकारेश्वर द्वीप, जोकि भगवान शिव को समर्पित हैं, मध्य प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण नदी द्वीप है। सिकता और कावेरी, खण्डवा मैदान के नीचे आकर नदी से मिलते हैं। दो स्थानों पर, नेमावर से करीब 40 किमी पर मंधार पर और पंसासा के करीब 40 किमी पर ददराई में, नदी लगभग 12 मीटर की ऊंचाई से गिरती है। बरेली के निकट कुछ किलोमीटर और आगरा-मुंबई रोड घाट, राष्ट्रीय राजमार्ग 3, से नीचे नर्मदा मंडलेश्वर मैदान में प्रवेश करती है, जो कि 180 किमी लंबा है। बेसिन की उत्तरी पट्टी केवल 25 किमी है। यह घाटी साहेश्वर धारा जल-प्रपात पर जा कर ख़त्म होती है। मकरई के नीचे, नदी बड़ोदरा जिले और नर्मदा जिला के बीच बहती है और फिर गुजरात राज्य के भरूच जिला के समृद्ध मैदान के माध्यम से बहती है। यहाँ नदी के किनारे, सालो से बाह कर आये जलोढ़ मिट्टी, गांठदार चूना पत्थर और रेत की बजरी से पटे हुए हैं। नदी की चौड़ाई मकराई पर लगभग 1.5 किमी, भरूच के पास और 3 किमी तथा कैम्बे की खाड़ी के मुहाने में 21 किमी तक फैली हुई बेसीन बनाती हुई अरब सागर में विलिन हो जाती है। नर्मदा, समूचे विश्व में दिव्य व रहस्यमयी नदी है,इसकी महिमा का वर्णन चारों वेदों की व्याख्या में श्री विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण के रेवाखंड़ में किया है। इस नदी का प्राकट्य ही, विष्णु द्वारा अवतारों में किए राक्षस-वध के प्रायश्चित के लिए ही प्रभु शिव द्वारा अमरकण्टक के मैकल पर्वत पर कृपा सागर भगवान शंकर द्वारा 12 वर्ष की दिव्य कन्या के रूप में किया गया। महारूपवती होने के कारण विष्णु आदि देवताओं ने इस कन्या का नामकरण नर्मदा किया। इस दिव्य कन्या नर्मदा ने उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर काशी के पंचक्रोशी क्षेत्र में 10,000 दिव्य वर्षों तक तपस्या करके प्रभु शिव से निम्न ऐसे वरदान प्राप्त किये जो कि अन्य किसी नदी और तीर्थ के पास नहीं है :' प्रलय में भी मेरा नाश न हो। मैं विश्व में एकमात्र पाप-नाशिनी प्रसिद्ध होऊँ, यह अवधि अब समाप्त हो चुकी है। मेरा हर पाषाण शिवलिंग के रूप में बिना प्राण-प्रतिष्ठा के पूजित हो। विश्व में हर शिव-मंदिर में इसी दिव्य नदी के नर्मदेश्वर शिवलिंग विराजमान है। कई लोग जो इस रहस्य को नहीं जानते वे दूसरे पाषाण से निर्मित शिवलिंग स्थापित करते हैं ऐसे शिवलिंग भी स्थापित किये जा सकते हैं परन्तु उनकी प्राण-प्रतिष्ठा अनिवार्य है। जबकि श्री नर्मदेश्वर शिवलिंग बिना प्राण के पूजित है। मेरे के तट पर शिव-पार्वती सहित सभी देवता निवास करें। सभी देवता, ऋषि मुनि, गणेश, कार्तिकेय, राम, लक्ष्मण, हनुमान आदि ने नर्मदा तट पर ही तपस्या करके सिद्धियाँ प्राप्त की। दिव्य नदी नर्मदा के दक्षिण तट पर सूर्य द्वारा तपस्या करके आदित्येश्वर तीर्थ स्थापित है। इस तीर्थ पर ऋषियों द्वारा तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर दिव्य नदी नर्मदा 12 वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हो गई तब ऋषियों ने नर्मदा की स्तुति की। तब नर्मदा ऋषियों से बोली कि मेरे तट पर देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर तपस्या करने पर ही प्रभु शिव की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है। इस आदित्येश्वर तीर्थ पर हमारा आश्रम अपने भक्तों के अनुष्ठान करता है। नर्मदा नदी को लेकर कई लोक कथायें प्रचलित हैं एक कहानी के अनुसार नर्मदा जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है और राजा मैखल की पुत्री है। उन्होंने नर्मदा से शादी के लिए घोषणा की कि जो राजकुमार गुलबकावली के फूल उनकी बेटी के लिए लाएगा, उसके साथ नर्मदा का विवाह होगा। सोनभद्र यह फूल ले आए और उनका विवाह तय हो गया। दोनों की शादी में कुछ दिनों का समय था। नर्मदा सोनभद्र से कभी मिली नहीं थीं। उन्होंने अपनी दासी जुहिला के हाथों सोनभद्र के लिए एक संदेश भेजा। जुहिला ने नर्मदा से राजकुमारी के वस्त्र और आभूषण मांगे और उसे पहनकर वह सोनभद्र से मिलने चली गईं। सोनभद्र ने जुहिला को ही राजकुमारी समझ लिया। जुहिला की नियत भी डगमगा गई और वह सोनभद्र का प्रणय निवेदन ठुकरा नहीं पाई। काफी समय बीता, जुहिला नहीं आई, तो नर्मदा का सब्र का बांध टूट गया। वह खुद सोनभद्र से मिलने चल पड़ीं। वहां जाकर देखा तो जुहिला और सोनभद्र को एक साथ पाया। इससे नाराज होकर वह उल्टी दिशा में चल पड़ीं। उसके बाद से नर्मदा बंगाल सागर की बजाय अरब सागर में जाकर मिल गईं। एक अन्य कहानी के अनुसार सोनभद्र नदी को नद कहा जाता है। दोनों के घर पास थे। अमरकंटक की पहाडिय़ों में दोनों का बचपन बीता। दोनों किशोर हुए तो लगाव और बढ़ा। दोनों ने साथ जीने की कसमें खाई, लेकिन अचानक दोनों के जीवन में जुहिला आ गई। जुहिला नर्मदा की सखी थी। सोनभद्र जुहिला के प्रेम में पड़ गया। नर्मदा को यह पता चला तो उन्होंने सोनभद्र को समझाने की कोशिश की, लेकिन सोनभद्र नहीं माना। इससे नाराज होकर नर्मदा दूसरी दिशा में चल पड़ी और हमेशा कुंवारी रहने की कसम खाई। कहा जाता है कि इसीलिए सभी प्रमुख नदियां बंगाल की खाड़ी में मिलती हैं,लेकिन नर्मदा अरब सागर में मिलती है। रामायण तथा महाभारत और परवर्ती ग्रंथों में इस नदी के विषय में अनेक उल्लेख हैं। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार नर्मदा की एक नहर किसी सोमवंशी राजा ने निकाली थी जिससे उसका नाम सोमोद्भवा भी पड़ गया था। गुप्तकालीन अमरकोशमें भी नर्मदा को 'सोमोद्भवा' कहा है। कालिदास ने भी नर्मदा को सोमप्रभवा कहा है। रघुवंश में नर्मदा का उल्लेख है। मेघदूत में रेवा या नर्मदा का सुन्दर वर्णन है। विश्व में नर्मदा ही एक ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है और पुराणों के अनुसार जहाँ गंगा में स्नान से जो फल मिलता है नर्मदा के दर्शन मात्र से ही उस फल की प्राप्ति होती है। नर्मदा नदी पुरे भारत की प्रमुख नदियों में से एक ही है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है।
बुद्दारं, चेन्नूर‌ मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है।
पट्टबिराम तमिल नाडु की राजधानी चेन्नई का एक क्षेत्र है। यहां चेन्नई उपनगरीय रेलवे का एक स्टेशन है। अहमदाबाद मेट्रो* · कोलकाता मेट्रो · गुवाहाटी मेट्रो*बंगलुरु मेट्रो† · बंगलुरु मोनोरेल* · भोपाल मेट्रो* · चंडीगढ़ मेट्रो* · चेन्नई मेट्रो · चेन्नई मोनोरेल* · जयपुर मेट्रो · दिल्ली मेट्रो · गुड़गांव मेट्रो* · हैदराबाद मेट्रो* · लखनऊ मेट्रो* · कानपुर मेट्रो* · कोच्चि मेट्रो* · कोलकाता एल.आर.टी.एस* · कोलकाता मोनोरेल * · मुंबई मेट्रो† · मुंबई मोनोरेल† · पुणे मेट्रो* · स्काइबस मेट्रो† · पटना मेट्रो* कोलकाता उपनगरीय रेलवे · चेन्नई उपनगरीय रेलवे · चेन्नई एम.आर.टी.एस · दिल्ली उपनगरीय रेलवे · बंगलुरु कम्यूटर रेल* · हैदराबाद एमएमटीएस · मुंबई उपनगरीय रेल · पश्चिमी रेलवे उच्च कॉरिडोर* · अहमदाबाद बी.आर.टी.एस · बंगलौर बी.आर.टी.एस* · भोपाल बी.आर.टी.एस* · चेन्नई बी.आर.टी.एस* · चेन्नई आर.बी.टी.डब्लू* · कोयमबटूर बी.आर.टी.एस* · दिल्ली बी.आर.टी.एस · हैदराबाद बी.आर.टी.एस* · इन्दौर बी.आर.टी.एस* · मदुरई बी.आर.टी.एस* · मुम्बई बी.आर.टी.एस† · पुणे बी.आर.टी.एस · राजकोट बी.आर.टी.एस† · विशखापट्टनम बी.आर.टी.एस* · उच्च-गति रेल* · मुंबई मैग्लेव* · बान्द्रा-वर्ली समुद्रसेतु · बंगलुरु उच्च टोलवे† · चेन्नई उच्च एक्स्प्रेस्वे* · चेन्नई एच एस सी टी सी† · हैदराबाद उच्च एक्स्प्रेस्वे† ·
पशुओं के प्रति क्रूरता रोकथाम अधिनियम भारतीय संसद द्वारा 1960 में पारित एक अधिनियम है जिसका उद्देश्य पशुओं को दी जाने वाली अनावश्यक पीड़ा और कष्ट को रोकना है।
छत्रपति शिवाजी महाराज या शिवाजी राजे भोसले भारत के राजा एवं रणनीतिकार थे जिन्होंने 1674 में पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। उन्होंने कई वर्ष औरंगज़ेब के मुगल साम्राज्य से संघर्ष किया। सन 1674 में रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक हुआ और छत्रपति बने। शिवाजी ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों की सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने समर-विद्या में अनेक नवाचार किये तथा छापामार युद्ध की नयी शैली विकसित की। उन्होंने प्राचीन हिन्दू राजनीतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को पुनर्जीवित किया और फारसी के स्थान पर मराठी एवं संस्कृत को राजकाज की भाषा बनाया। भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में बहुत से लोगों ने शिवाजी के जीवनचरित से प्रेरणा लेकर भारत की स्वतन्त्रता के लिये अपना तन, मन धन न्यौछावर कर दिया। आज उनकि राजनिती कि तर्ज पर नेपाल व भारत में शिवसेना नाम का राजनैतिक पक्ष चला आ रहा है। शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 में शिवनेरी दुर्ग में हुआ था।शाहजी भोंसले की पत्नी जीजाबाई की कोख से शिवाजी महाराज का जन्म 19 फ़रवरी 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। शिवनेरी का दुर्ग पूना से उत्तर की तरफ़ जुन्नर नगर के पास था। उनका बचपन उनकी माता जिजाऊ माँ साहेब के मार्गदर्शन में बीता। वह सभी कलाओं में माहिर थे, उन्होंने बचपन में राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा ली थी। ये भोंसले उपजाति के थे जो कि मूलतः क्षत्रिय मराठा जाति के थे। गागाभट्ट के अनुसार शिवाजी का वंश मेवाड़ के प्रसिद्ध गुहिल सिसोदिया वंश से मिलता है। शिवाजी के कारण ही समस्त मराठा समुदाय को क्षत्रिय होने का दर्जा मिला है। उनके पिता अप्रतिम शूरवीर थे और उनकी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते थीं। उनकी माता जी जीजाबाई जाधव कुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली थी और उनके पिता एक शक्तिशाली सामंत थे। शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वे उस युग के वातावरण और घटनाओँ को भली प्रकार समझने लगे थे। शासक वर्ग की करतूतों पर वे झल्लाते थे और बेचैन हो जाते थे। उनके बाल-हृदय में स्वाधीनता की लौ प्रज्ज्वलित हो गयी थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों का संगठन किया। अवस्था बढ़ने के साथ विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ फेंकने का उनका संकल्प प्रबलतर होता गया। छत्रपति शिवाजी महाराज का विवाह सन् 14 मई 1640 में सइबाई निम्बालकर के साथ लाल महल, पूना में हुआ था। उस समय बीजापुर का राज्य आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमणकाल के दौर से गुजर रहा था। ऐसे साम्राज्य के सुल्तान की सेवा करने के बदले उन्होंने मावलों को बीजापुर के ख़िलाफ संगठित करने लगे। मावल प्रदेश पश्चिम घाट से जुड़ा है और कोई 150 किलोमीटर लम्बा और 30 किलोमीटर चौड़ा है। वे संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण कुशल योद्धा माने जाते हैं। इस प्रदेश में मराठा और सभी जाति के लोग रहते हैं। शिवाजी महाराज इन सभी जाति के लोगों को लेकर मावलों नाम देकर सभी को संगठित किया और उनसे सम्पर्क कर उनके प्रदेश से परिचित हो गए थे। मावल युवकों को लाकर उन्होंने दुर्ग निर्माण का कार्य आरम्भ कर दिया था। मावलों का सहयोग शिवाजी महाराज के लिए बाद में उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ जितना शेरशाह सूरी के लिए अफ़गानों का साथ।उस समय बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुग़लों के आक्रमण से परेशान था। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों या सामन्तों के हाथ सौंप दिया था। जब आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल गई और शिवाजी महाराज ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश का निर्णय लिया। शिवाजी महाराज ने इसके बाद के दिनों में बीजापुर के दुर्गों पर अधिकार करने की नीति अपनाई। सबसे पहला दुर्ग था तोरण का दुर्ग। तोरण का दुर्ग पूना के दक्षिण पश्चिम में 30 किलोमीटर की दूरी पर था। शिवाजी ने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत भेजकर खबर भिजवाई की वे पहले किलेदार की तुलना में बेहतर रकम देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें सौंप दिया जाये। उन्होंने आदिलशाह के दरबारियों को पहले ही रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया था और अपने दरबारियों की सलाह के मुताबिक आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को उस दुर्ग का अधिपति बना दिया। उस दुर्ग में मिली सम्पत्ति से शिवाजी महाराज ने दुर्ग की सुरक्षात्मक कमियों की मरम्मत का काम करवाया। इससे कोई 10 किलोमीटर दूर राजगढ़ का दुर्ग था और शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। शिवाजी महाराज की इस साम्राज्य विस्तार की नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली तो वह क्षुब्ध हुआ। उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा। शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया और नियमित लगान बन्द कर दिया। राजगढ़ के बाद उन्होंने चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और उसके बाद कोंडना के दुर्ग पर। कोंडना पर अधिकार करते समय उन्हें घूस देनी पड़ी।ऊसके बाद औरंगजेब ने मिर्जाराजा जयसिंह को भेजकर 23 किलों पर कब्जा किया बाद में शिाजी महाराज के मावला तानाजी मालुसरे ने कोंढाणा दुर्ग पर कब्जा कीया पर उस युद्ध में वह विरगती को प्राप्त हुआ उसकी याद में कोंडना पर अधिकार करने के बाद उसका नाम सिंहगढ़ रखा गया। शाहजी राजे को पूना और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा का दुर्ग उनके सम्बंधी बाजी मोहिते के हाथ में थी। शिवाजी महाराज ने रात के समय सूपा के दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और बाजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया। उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी महाराज की सेवा में आ गया। इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई। दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुँचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने सभी भाइयों को बन्दी बना लिया। इस तरह पुरन्दर के किले पर भी उनका अधिकार स्थापित हो गया। अब तक की घटना में शिवाजी महाराज को कोई युद्ध या खुनखराबा नहीं करना पड़ा था। 1647 ईस्वी तक वे चाकन से लेकर नीरा तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे। अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ शिवाजी महाराज ने मैदानी इलाकों में प्रवेश करने की योजना बनाई। एक अश्वारोही सेना का गठन कर शिवाजी महाराज ने आबाजी सोन्देर के नेतृत्व में कोंकण के विरुद्ध एक सेना भेजी। आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया। इसके अलावा ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी महाराज के अधीन आ गए थे। लूट की सारी सम्पत्ति रायगढ़ में सुरक्षित रखी गई। कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी महाराज ने कोलाबा की ओर रुख किया और यहाँ के प्रमुखों को विदेशियों के ख़िलाफ़़ युद्ध के लिए उकसाया। बीजापुर का सुल्तान शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले ही आक्रोश में था। उसने शिवाजी महाराज के पिता को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया। शाहजी राजे उस समय कर्नाटक में थे और एक विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े द्वारा बन्दी बनाकर बीजापुर लाए गए। उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने कुतुबशाह की सेवा प्राप्त करने की कोशिश की थी जो गोलकोंडा का शासक था और इस कारण आदिलशाह का शत्रु। बीजापुर के दो सरदारों की मध्यस्थता के बाद शाहाजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी महाराज पर लगाम कसेंगे। अगले चार वर्षों तक शिवाजी महाराज ने बीजीपुर के ख़िलाफ कोई आक्रमण नहीं किया। इस दौरान उन्होंने अपनी सेना संगठित की। शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी राजाने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया पर उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। पर इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। सन् 1656 में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की पर अन्त में वे बन्दी बना लिए गए पर चन्द्रराव भाग गया। स्थानीय लोगों ने शिवाजी के इस कृत्य का विरोध किया पर वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे। इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए। शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय 1 नवम्बर 1656 को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसपर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ 200 घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से 700 घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहाँ के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली और इसी समय शाहजहाँ बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहाँ शाहजहाँ को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया। दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। कल्याण तथा भिवण्डी पर अधिकार करने के बाद वहाँ नौसैनिक अड्डा बना लिया। इस समय तक शिवाजी 40 दुर्गों के मालिक बन चुके थे। इधर औरंगजेब के आगरा लौट जाने के बाद बीजापुर के सुल्तान ने भी राहत की सांस ली। अब शिवाजी ही बीजापुर के सबसे प्रबल शत्रु रह गए थे। शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल ने 120000 सैनिकों के साथ 1659 में कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के 30 किलोमीटर उत्तर वाई, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खाँ ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसने उसके मार्फत ये सन्देश भिजवाया कि अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार अस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को ये वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खाँ के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खाँ शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खाँ को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खाँ को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खाँ ने अपने कट्यार से शिवाजी पे वार किया बचाव में शिवाजी ने अफजल खाँ को अपने वस्त्रों वाघनखो से मार दिया । अफजल खाँ की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खाँ के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहाँ के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 2 अक्टूबर 1665 को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया, राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। सन् 1662 में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान द्वारा स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली। इसी सन्धि के अनुसार उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोण्डा तक का और पूर्व में इन्दापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक का भूभाग शिवाजी के नियन्त्रण में आ गया। शिवाजी की सेना में इस समय तक 30000 पैदल और 1000 घुड़सवार हो गए थे। उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खत्म होने के बाद औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ गया। वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से परिचित था और उसने शिवाजी पर नियन्त्रण रखने के उद्येश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। शाइस्का खाँ अपने 1,50,000 फोज लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया। उसने 3 साल तक मावल में लुटमार कि। एक रात शिवाजी ने अपने 350 मवलो के साथ उनपर हमला कर दिया। शाइस्ता तो खिड़की के रास्ते बच निकलने में कामयाब रहा पर उसे इसी क्रम में अपनी चार अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा। शाइस्ता खाँ के पुत्र, तथा चालीस रक्षकों और अनगिनत सैनिकों का कत्ल कर दिया गया। इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता को दक्कन के बदले बंगाल का सूबेदार बना दिया और शाहजादा मुअज्जम शाइस्ता की जगह लेने भेजा गया। इस जीत से शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। 6 साल शाईस्ता खान ने अपनी 150000 फ़ौज लेकर राजा शिवाजी का पुरा मुलुख जलाकर तबाह कर दिया था। इस लिए उस् का हर्जाना वसूल करने के लिये शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में लूटपाट मचाना आरम्भ किया। सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ था और हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए हज पर जाने का द्वार। यह एक समृद्ध नगर था और इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था। शिवाजी ने चार हजार की सेना के साथ 1664 में छः दिनों तक सूरत के धनाड्य व्यापारियों को लूटा। आम आदमी को उन्होनें नहीं लूटा और फिर लौट गए। इस घटना का ज़िक्र डच तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है। उस समय तक यूरोपीय व्यापारियों ने भारत तथा अन्य एशियाई देशों में बस गये थे। नादिर शाह के भारत पर आक्रमण करने तक किसी भी य़ूरोपीय शक्ति ने भारतीय मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने की नहीं सोची थी। सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त किया। और शहजादा मुअज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह की नियुक्ति की गई। राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार की सम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा। जून 1665 में हुई इस सन्धि के मुताबिक शिवाजी 23 दुर्ग मुग़लों को दे देंगे और इस तरह उनके पास केवल 12 दुर्ग बच जाएँगे। इन 23 दुर्गों से होने वाली आमदनी 4 लाख हूण सालाना थी। बालाघाट और कोंकण के क्षेत्र शिवाजी को मिलेंगे पर उन्हें इसके बदले में 13 किस्तों में 40 लाख हूण अदा करने होंगे। इसके अलावा प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व भी वे देंगे। शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे पर उनके पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में खिदमत करनी होगी। बीजापुर के ख़िलाफ़ शिवाजी मुगलों का साथ देंगे। शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। इसके ख़िलाफ़ उन्होंने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया। औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी को नज़रकैद कर दिया और उनपर 5000 सैनिकों के पहरे लगा दिये। कुछ ही दिनों बाद राजा शिवाजी को मार डालने का इरादा औरंगजेब का था। लेकिन अपने अजोड साहस ओर युक्ति के साथ शिवाजी और सम्भाजी दोनों इससे भागने में सफल रहे। सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी महाराज बनारस, गये, पुरी होते हुए सकुशल राजगढ़ पहुँच गए । इससे मराठों को नवजीवन सा मिल गया। औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा डाली। जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार सन्धि की। औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता दी। शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5000 की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया। पर, सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुग़लों का अधिपत्य बना रहा। सन् 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा। नगर से 132 लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते वक्त उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास फिर से हराया। सन् 1674 तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की सन्धि के अन्तर्गत उन्हें मुग़लों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु मुस्लिम सैनिको ने ब्राहमणों को धमकी दी कि जो भी शिवाजी का राज्याभिषेक करेगा उनकी हत्या कर दी जायेगी. जब ये बात शिवाजी तक पहुंची की मुगल सरदार ऐसे धमकी दे रहे है तब शिवाजी ने इसे एक चुनौती के रुप मे लिया और कहा की अब वो उस राज्य के ब्राहम्ण से ही अभिषेक करवायेंगे जो मुगलों के अधिकार में है. शिवाजी के निजी सचिव बालाजी जी ने काशी में तीन दूतो को भेजा, क्युंकि काशी मुगल साम्राज्य के अधीन था. जब दूतों ने संदेश दिया तो काशी के ब्राहम्ण काफी प्रसन्न हुये. किंतु मुगल सैनिको को यह बात पता चल गई तब उन ब्राह्मणो को पकड लिया. परंतु युक्ति पूर्वक उन ब्राह्मणों ने मुगल सैंनिको के समक्ष उन दूतों से कहा कि शिवाजी कौन है हम नहीं जानते है. वे किस वंश से हैं ? दूतों को पता नहीं था इसलिये उन्होंने कहा हमें पता नहीं है. तब मुगल सैनिको के सरदार के समक्ष उन ब्राह्मणों ने कहा कि हमें कहीं अन्यत्र जाना है, शिवाजी किस वंश से हैं आपने नहीं बताया अत: ऐसे में हम उनके राज्याभिषेक कैसेकर सकते हैं. हम तो तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं और काशीका कोई अन्य ब्राह्मण भी राज्याभिषेक नहीं करेगा जब तक राजा का पूर्ण परिचय न हो अत: आप वापस जा सकते हैं. मुगल सरदार ने खुश होके ब्राह्मणो को छोड दिया और दूतो को पकड कर औरंगजेब के पास दिल्ली भेजने की सोची पर वो भी चुप के से निकल भागे. वापस लौट कर उन्होने ये बात बालाजी आव तथा शिवाजी को बताई. परंतु आश्चर्य जनक रूप से दो दिन बाद वही ब्राह्मण अपने शिष्यों के साथ रायगढ पहुचें ओर शिवाजी का राज्याभिषेक किया। इसके बाद मुगलो ने फूट डालने की कोशिस की और शिवाजी के राज्याभिषेक के बाद भी पूना के ब्राह्मणों को धमकी दी कहा कि शिवाजी को राजा मानने से मना करो. ताकि प्रजा भी इसे न माने !! लेकिन उनकी नहीं चली. शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना की. विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया था इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। दो बार हुए इस समारोह में लगभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरुद्ध भेजा पर वे असफल रहे। सन् 1677-78 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। बम्बई के दक्षिण में कोंकण, तुंगभद्रा नदी के पश्चिम में बेलगाँव तथा धारवाड़ का क्षेत्र, मैसूर, वैलारी, त्रिचूर तथा जिंजी पर अधिकार करने के बाद 4 अप्रैल, 1680 को शिवाजी का देहान्त हो गया। तीन सप्ताह की बीमारी के बाद शिवाजी की मृत्यु 3 अप्रैल 1680 में हुई। उस समय शिवाजी के उत्तराधिकार संभाजी को मिले। शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र संभाजी थे और दूसी पत्नी से राजाराम नाम एक दूसरा पुत्र था। उस समय राजाराम की उम्र मात्र 10 वर्ष थी अतः मराठों ने शम्भाजी को राजा मान लिया। उस समय औरंगजेब राजा शिवाजी का देहान्त देखकर अपनी पूरे भारत पर राज्य करने कि अभिलाशा से अपनी 5,00,000 सेना सागर लेकर दक्षिण भारत जीतने निकला। औरंगजेब ने दक्षिण में आतेही अदिल्शाहि 2 दिनो में ओर कुतुबशहि 1 हि दिनो में खतम कर दी। पर राजा संभाजी के नेतृत्व में मराठाओ ने 9 साल युद्ध करते हुये अपनी स्वतन्त्रता बरकरा‍र रखी। औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर ने औरंगजेब के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया। संभाजी ने उसको अपने यहाँ शरण दी। औरंगजेब ने अब फिर जोरदार तरीके से संभाजी के ख़िलाफ़ आक्रमण करना शुरु किया। उसने अन्ततः 1689 में संभाजी के बीवी के सगे भाई ने याने गणोजी शिर्के की मुखबरी से संभाजी को मुकरव खाँ द्वारा बन्दी बना लिया। औरंगजेब ने राजा संभाजी से बदसलूकी की और बुरा हाल कर के मार दिया। अपनी राजा को औरंगजेब ने बदसलूकी और बुरी हाल मारा हुआ देखकर पुरा मराठा स्वराज्य क्रोधित हुआ। उन्होने अपनी पुरी ताकत से तीसरा राजाराम के नेतृत्व में मुगलों से संघर्ष जारी रखा। 1700 इस्वी में राजाराम की मृत्यु हो गई। उसके बाद राजाराम की पत्नी ताराबाई 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका बनकर राज करती रही। आखिरकार 25 साल मराठा स्वराज्य के युद्ध लड के थके हुये औरंगजेब की उसी छ्त्रपती शिवाजी के स्वराज्य में दफन हुये। शिवाजी को एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में जाना जाता है। यद्यपि उनको अपने बचपन में पारम्परिक शिक्षा कुछ खास नहीं मिली थी, पर वे भारतीय इतिहास और राजनीति से सुपरिचित थे। उन्होंने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कूटनीति का सहारा लेना कई बार उचित समझा था। अपने समकालीन मुगलों की तरह वह भी निरंकुश शासक थे, अर्थात शासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी। पर उनके प्रशासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी जिन्हें अष्टप्रधान कहा जाता था। इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती था। अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था तो मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का खयाल रखाता था। सचिव दफ़तरी काम करते थे जिसमे शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना शामिल होते थे। सुमन्त विदेश मंत्री था। सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे। दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे। न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था। मराठा साम्राज्य तीन या चार विभागों में विभक्त था। प्रत्येक प्रान्त में एक सूबेदार था जिसे प्रान्तपति कहा जाता था। हरेक सूबेदार के पास भी एक अष्टप्रधान समिति होती थी। कुछ प्रान्त केवल करदाता थे और प्रशासन के मामले में स्वतंत्र। न्यायव्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी। शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिन्दू धर्मशास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था। गाँव के पटेल फौजदारी मुकदमों की जाँच करते थे। राज्य की आय का साधन भूमिकर था पर चौथ और सरदेशमुखी से भी राजस्व वसूला जाता था। 'चौथ' पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिए वसूले जाने वाला कर था। शिवाजी अपने को मराठों का सरदेशमुख कहता थे और इसी हैसियत से सरदेशमुखी कर वसूला जाता था। राज्याभिषेक के बाद उन्होंने अपने एक मंत्री को शासकीय उपयोग में आने वाले फारसी शब्दों के लिये उपयुक्त संस्कृत शब्द निर्मित करने का कार्य सौंपा। रामचन्द्र अमात्य ने धुन्धिराज नामक विद्वान की सहायता से 'राज्यव्यवहारकोश' नामक ग्रन्थ निर्मित किया। इस कोश में 1380 फारसी के प्रशासनिक शब्दों के तुल्य संस्कृत शब्द थे। इसमें रामचन्द्र ने लिखा है- शिवाजी एक समर्पित हिन्दु थे तथा वह धार्मिक सहिष्णु भी थे। उनके साम्राज्य में मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया। हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान सन्तों और फ़कीरों को भी सम्मान प्राप्त था। उनकी सेना में मुसलमान सैनिक भी थे। शिवाजी हिन्दू संकृति को बढ़ावा देते थे। पारम्परिक हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था। वह अपने अभियानों का आरम्भ भी अकसर दशहरा के अवसर पर करते थे। शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज की शिक्षा ही मिली जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी राजे को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र की तरह उन्होंने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी राजे को छुड़वा लिया। इससे उनके चरित्र में एक उदार अवयव ऩजर आता है। उसेक बाद उन्होंने पिता की हत्या नहीं करवाई जैसा कि अन्य सम्राट किया करते थे। शाहजी राजे के मरने के बाद ही उन्होंने अपना राज्याभिषेक करवाया हँलांकि वो उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे। उनके नेतृत्व को सब लोग स्वीकार करते थे यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी। वह एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे। कई जगहों पर उन्होंने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय युद्ध से भाग लिया था। लेकिन यही उनकी कूटनीति थी, जो हर बार बड़े से बड़े शत्रु को मात देने में उनका साथ देती रही। शिवाजी महाराज की "गनिमी कावा" नामक कूटनीति, जिसमें शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभनियता से और आदरसहित याद किया जाता है। शिवाजी महाराज के गौरव में ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध हैं-
संक्रामक रोग, रोग जो किसी ना किसी रोगजनित कारको जैसे प्रोटोज़ोआ, कवक, जीवाणु, वाइरस इत्यादि के कारण होते है। संक्रामक रोगों में एक शरीर से अन्य शरीर में फैलने की क्षमता होती है। मलेरिया, टायफायड, चेचक, इन्फ्लुएन्जा इत्यादि संक्रामक रोगों के उदाहरण हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि दुनिया भर में संक्रामक रोग पहले से कहीं ज्यादा तेजी से फैल रहे हैं और उनका इलाज करना ज्यादा मुश्किल हो गया है।अपनी वार्षिक विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट 2008 में राष्ट्र संघ एजेंसी ने कहा है कि 1970 के दशक से हर साल एक या ज्यादा नए रोगों का पता चल रहा है, जो अभूतपूर्व है। एजेंसी ने कहा है कि तपेदिक जैसी जानी-मानी बीमारियों को नियंत्रित करने के प्रयास भी सीमित हो रहे हैं, क्योंकि वे ज्यादा ताकतवर और दवाइयों की प्रतिरोधी किस्मों में विकसित होती जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि संक्रामक रोगों के प्रसार का कारण पिछले 50 वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय हवाई यातायात में वृद्धि है। उसने पिछले 5 वर्षों में ही 1,100 से ज्यादा विभिन्न बीमारियां फैलने की पुष्टि की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने 193 सदस्यों को बीमारियों के फैलने के बारे में जानकारी देने और टीके विकसित करने में मदद देने के लिए विषाणुओं के नमूनों का आदान-प्रदान करने में एक-दूसरे के साथ ज्यादा सहयोग करने का अनुरोध किया है। टीकों के जरिये रोगों का समय पूर्व मुकाबला करना और उन्हें नियंत्र में रखना मानव द्वारा रोगों के इलाज में प्राप्त प्रशंसनीय प्रगति है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अभी भी विश्व में हर साल लाखों बच्चे संक्रामक रोगों के शिकार हो रहे हैं, लेकिन उन में से बीस लाख को टीकों के जरिये बचाया जा सकता था। हमें सर्वप्रथम यह जानना चाहिये कि टीका क्या है। चीन के राजधानी शहर पेइचिंग के रोग निरोध केंद्र के विशेषज्ञ श्री वू च्यांग के अनुसार टीका वास्तव में किसी विषाणु की प्रोसेसिंग के आधार पर विकसित किया गया उत्पाद होता है। इसे खाने या सुई के जरिये मानव शरीर में प्रविष्ट कराने से मानव शरीर में असली विषाणुओं का मुकाबला करने की शक्ति पैदा की जाती है। टीका विषाणु से बिल्कुल अलग है, क्योंकि विषाणु लगने से रोग पैदा होता है, पर टीके के जरिये शरीर में रोग का मुकाबला करने की शक्ति पैदा होती है। वर्ष 1796 में एक ब्रिटिश डाक्टर मानव शरीर में गाय में होने वाले एक रोग के चेचक जैसे विषाणु कौबौक्स को प्रविष्ट कराने के जरिये चेचक का इलाज करने में सफल रहा था। इस तरह मानव ने चेचक के टीके का आविष्कार किया। वर्ष 1980 में विश्व चिकित्सा संगठन ने चेचक की समाप्ति की घोषणा की, जो रोग प्रतिरक्षण क्षमता के जरिये खत्म किया जाने वाला प्रथम रोग था। उस के बाद मानव ने लम्बे अरसे के प्रयासों से अनेक रोगों, जैसे चेचक, प्लेग, काली खांसी, रोहिणी, हनुस्तंभ, खसरे और पागल कुत्ते के रोग के टीकों का उत्पादन करने की क्षमता हासिल की। संक्रामक रोगों के मुकाबले में टीकों की विशेष भूमिका की वजह से विभिन्न देशों में टीका लगाने को बहुत महत्व दिया जाता है। चीन में भी यह कार्य बहुत पहले शुरू हो गया था। इधर तेजी से सामाजिक व आर्थिक विकास करते चीन में टीका लगाने को अधिकाधिक महत्व दिया जा रहा है और बच्चों को टीका लगाने के कार्य को विशेष महत्व प्राप्त है। चीन में रोग प्रतिरक्षण क्षमता बढ़ाने का काम योजनानुसार किया जाता है। चीन में सात वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों को पोलियो, खसरे, पीलिया, तपेदिक, काली खांसी और रोहिणी आदि रोगों के टीके लगाये जाते हैं। इसका मुख्य खर्च सरकार उठाती है। बच्चों के मां-बाप का इस पर बहुत कम खर्च आता है। 1970 के दशक से चीन में यह काम शुरू होने के बाद से भारी प्रगति हुई है। इससे चीनी बच्चों की रोग प्रतिरक्षण क्षमता बहुत उन्नत हो गयी। चीनी बालरोग विशेषज्ञ डाक्टर हू यामेई के अनुसार वर्ष 2003 में जब चीन सार्स से ग्रस्त हुआ, तब भी चीन में कोई भी बच्चा इस रोग का शिकार नहीं बना। विशेषज्ञों का मानना है कि चीनी बच्चों को खसरे का टीका लगाये जाने से उनमें सार्स का मुकाबला करने की शक्ति पैदा हुई। इसीलिए बहुत कम चीनी बच्चे 2003 में सार्स के शिकार हुए। सार्स की वजह से किसी किसी बच्चे की मृत्यु भी नहीं हुई। पता चला है कि 15 साल पहले ही चीन ने अपने 15 प्रतिशत बच्चों को टीका लगाने का लक्ष्य पूरा कर लिया था। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष, विश्व चिकित्सा संगठन और चीनी स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस कार्य की संयुक्त जांच की और इस का उच्च मूल्यांकन किया। टीकों से चीन में खसरे आदि संक्रामक रोगों में बहुत कमी आई है। मिसाल के लिए 1960 के दशक में इससे होने वाली मृत्यु की दर प्रति लाख 2000 से घटकर 10 तक गिर गई। चीन वर्ष 1960 में चेचक का खात्मा कर चुका था और वर्ष 2000 में उसने पोलियो का नाश करने के युद्ध में विजय पाई। चीन सरकार द्वारा बच्चों के लिए तय पांच आवश्यक टीकों के अतिरिक्त चीनी लोगों को अपने बच्चों को अस्पतालों में अपने खर्च पर फ्लू और पीलिया आदि रोगों का टीका लगवाने की सुविधा भी हासिल है। बच्चों के अलावा प्रौढ़ लोग भी विभिन्न मौसमों में उत्पन्न होने वाले संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए अस्पताल में आवश्यक टीके लगवा सकते हैं। यहां यह भी चर्चित है कि चीन में कुत्ते भी खासे ज्यादा हैं, इसलिए लोगों को पागल कुत्ते के रोग का टीका लगाने की भी जरूरत है। नये संक्रामक रोगों का मुकाबला करने के लिए अब चीनी विशेषज्ञ नये टीकों का अनुसंधान कर रहे हैं। चीनी रोग निरोध सोसाइटी के विशेषज्ञ डाक्टर हो श्यूंग का कहना है कि चीनी विशेषज्ञ कई नये टीकों के आविष्कार में लगे हैं। टीकों के जरिये एड्स, कैंसर और कुछ पुराने गंभीर रोगों का मुकाबला करने की भी बड़ी संभावना है। इसलिए इस संदर्भ में की जा रही कोशिशों अर्थहीन नहीं रहेंगी।
चेन्नई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे, जो मद्रास इंटरनेशनल एयरपोर्ट के नाम से भी विख्यात है, चेन्नई, भारत के दक्षिण में, तिरूसूलम 7 कि॰मी॰ में स्थित है। यह देश के सबसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय प्रवेश द्वारों में से एक है और भारत में तीसरा सबसे व्यस्त हवाई अड्डा है और एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय केन्द्र, जो 2007 से लगभग 12 करोड़ यात्रियों का संचालन कर रहा है और 25 से अधिक विभिन्न एयरलाइनों को सेवा प्रदान करता है। देश में मुंबई के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा नौभार केंद्र है। यह मीनमबाक्कम और तिरूसूलम के पास स्थित है, जहां यात्री प्रवेश तिरूसूलम में और माल प्रवेश मीनमबाक्कम में होता है। मद्रास का हवाई अड्डा भारत के पहले हवाई अड्डों में से एक है और 1954 में बॉम्बे से बेलगाम के ज़रिए एयर इंडिया की पहली उड़ान का गंतव्य स्थान था। इसका पहला यात्री टर्मिनल हवाई अड्डे के उत्तर-पूर्व में बनाया गया था, जो मीनमबाक्कम उपनगर में आता है, इसी कारण मीनमबाक्कम एयरपोर्ट के रूप में इसका हवाला दिया जाता है। बाद में एक नया टर्मिनल परिसर तिरूसूलम में बनाया गया और उसके दक्षिण में पल्लावरम के समीप, यात्री संचालनों को स्थानांतरित कर दिया गया। पुराने टर्मिनल भवन का इस्तेमाल अब कार्गो टर्मिनल के रूप में किया जाता है और यह भारतीय कूरियर कंपनी ब्लू डार्ट का अड्डा है। चेन्नई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर तीन टर्मिनल हैं: मीनमबाक्कम में स्थित सबसे पुराने टर्मिनल का प्रयोग कार्गो के लिए किया जाता है, जबकि तिरूसूलम में यात्रियों के लिए बने नए टर्मिनल भवन का प्रयोग यात्री संचालनों के लिए किया जाता है। यात्री टर्मिनल परिसर में घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल हैं जो एक संयोजक भवन द्वारा परस्पर जुड़े हैं, जिसमें प्रशासनिक कार्यालय और एक रेस्तरां हैं। हालांकि यह परिसर एक अखंड संरचना है, लेकिन इसका निर्माण वर्धमान तौर पर हुआ, जिसमें 1988 के दौरान कामराज और अन्ना टर्मिनल को पहले से मौजूद मीनमबाक्कम टर्मिनल के साथ जोड़ा गया। निर्मित पहला हिस्सा था अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल, जिसमें दो एयरोब्रिड्ज थे, जिसके बाद में तीन एयरोब्रिड्ज के साथ एक घरेलू टर्मिनल बनाया गया। घरेलू टर्मिनल का निर्माण कार्य पूरा होने के बाद मीनमबाक्कम के पुराने टर्मिनल का इस्तेमाल विशेष रूप से कार्गो के लिए किया गया। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल को दक्षिण की ओर विस्तृत किया गया और एक नए ब्लॉक को जोड़ा गया, जिसमें तीन एयरोब्रिड्ज शामिल हैं। इस समय, नए अंतर्राष्ट्रीय खंड का प्रयोग प्रस्थान के लिए और पुराने भवन का प्रयोग आगमन के लिए किया जाता है। कामराज घरेलू टर्मिनल से घरेलू उड़ानों को संचालित किया जाता है, जबकि अन्ना अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के लिए हैं। मीनमबाक्कम पर स्थित पुराने टर्मिनल का इस्तेमाल कार्गो ऑपरेशन के लिए किया जाता है। इस समय, चेन्नई हवाई अड्डा हर घंटे लगभग 25 विमान उड़ानों को संचालित करता है, जो वर्ष 2014-15 में पूरी तरह से भर जाएगा. लेकिन, व्यस्ततम समय में यातायात को संभालने की क्षमता उससे भी बहुत पहले समाप्त हो जाएगी. अन्ना अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल ने 2007-08 में 3,410,253 यात्रियों को संभाला था और उसके पास 3 करोड़ यात्रियों को प्रतिवर्ष संभालने की क्षमता है और इसने पहले ही यात्रियों को संभालने की क्षमता को पार कर दिया है। इसी तरह कामराज घरेलू टर्मिनल, जिसने 2007-08 में 7,249,501 यात्रियों को संभाला था और उसके पास सालाना 6 करोड़ यात्रियों को संभालने की क्षमता है। यहां फिर से टर्मिनल की क्षमता की तुलना में मांग बहुत अधिक है। कुल मिलाकर वर्ष 2007 - 08 में चेन्नई हवाई अड्डे ने 10,659,754 यात्रियों को संभाला था। 2007 - 08 में हवाई अड्डे ने 270,608 टन कुल कार्गो को संभाला था. चेन्नई हवाई अड्डे का आधुनिकीकरण और विस्तार होना तय हुआ है। भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण द्वारा यह कार्य किया जाना है, जिसमें समानांतर दौड़ पथ, टैक्सी पथ, पट्टियां और नए यात्री टर्मिनल इमारतों का निर्माण शामिल है। विस्तार कार्यों में आस-पास के इलाक़ों की ज़मीन का अधिग्रहण भी शामिल होगा। मौजूदा हवाई अड्डे का विस्तारण श्रीपेरूमबदूर तालुका में मनपक्कम, कोलापक्कम, गेरूगमबक्कम और थारापक्कम में, सरकार द्वारा इस आशय का संकल्प पारित होने के बाद किया जाएगा. सरकार इन क्षेत्रों के 947 घरों के लिए उपयुक्त मुआवजा प्रदान करेगी और उनके पुनर्वास की भी व्यवस्था करेगी। विस्तारण के पहले चरण में ही परिवारों का पुनर्वास कार्य संपन्न किया जाएगा. आधुनिकीकरण और पुनर्संरचना में करीब 2,350 करोड़ रुपए के खर्च होने की संभावना है जिसमें दौड़ पथ, टैक्सी पथ और पट्टियों के निर्माण की लागत लगभग 1,100 करोड़ रुपए हो सकती है, जबकि टर्मिनल भवन, कार्गो भवन, कार पार्किंग और फेस अपलिफ्ट के निर्माण में 1,250 करोड़ रुपये की लागत होगी। आधुनिकीकरण योजना के अनुसार सहायक दौड़ पथ का निर्माण एक पुल के ज़रिए अड्यार नदी पर निर्मित किया जाएगा. अड्यार नदी के उस पार तक रनवे का विस्तार होगा। नदी के ऊपर एक पुल का निर्माण किया जाएगा, जिसमें दौड़ पथ और टैक्सी पथ शामिल होंगे। यह चेन्नई हवाई अड्डे को भारत का एकमात्र ऐसा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बना देगा, जिसके पास नदी के उस पार तक एक दौड़ पथ होगा. मुंबई में केवल दौड़ पथ का अंत मीठी नदी के ऊपर है। सहायक दौड़ पथ के विस्तार में 430 करोड़ रुपये खर्च होंगे और 2010 के आस-पास यह पूरा किया जाएगा. प्रस्तावित चेन्नई मेट्रो रेल परियोजना, चेन्नई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से शहर के विभिन्न भागों को जोड़ेगी. अस्थायी तौर पर इस परियोजना को वित्तीय वर्ष 2013-2014 में पूरा किए जाने का कार्यक्रम बनाया गया है। वर्तमान विकास परियोजनाओं में एक नवीन घरेलू टर्मिनल का निर्माण और मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल का विस्तार शामिल है। यह डिजाइन चार व्यावसायिक कंपनियों का सहयोगी प्रयास है। जबकि हर्ग्रीव्स एसोसिएट्स ने परिदृश्य डिजाइन तैयार किया है, जेंसलर और फ्रेडरिक शवार्ट्ज आर्किटेक्ट्स यात्री टर्मिनल भवनों, पार्किंग गराज संरचना और सड़क अभिगम प्रणाली के डिजाइन के लिए जिम्मेदार हैं। परियोजना के लिए क्रिएटिव समूह स्थानीय आर्किटेक्ट होगा। प्रस्तावित डिजाइन को मौजूदा टर्मिनल डिजाइन तत्वों के साथ जोड़ा जाएगा. यह पहले बताया गया कि नवीन टर्मिनल भवन के पास करीब 10 करोड़ यात्रियों को संभालने की क्षमता होगी और मौजूदा टर्मिनलों के साथ एकीकृत करने के बाद यह सालाना 23 करोड़ यात्रियों को संभालने की क्षमता प्रदान करेगा। नवीन टर्मिनल भवनों के लिए करीब 1,40,000 वर्ग मीटर क्षेत्र होने की संभावना है जिसमें 140 जांच काउंटर और 60 अप्रवासन काउंटर और टैक्सी पथों के नेटवर्क से जुड़े दो दौड़ पथ होंगे। इस टर्मिनल परिसर में एक फ्लाईओवर ट्रेवेलेटर होगा, जो घरेलू टर्मिनल और अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल का संयोजक होगा और इसकी लम्बाई करीब 1 कि॰मी॰ होगी। इसमें ऊंची सड़क का निर्माण किया जाएगा और ऊपर एक ट्यूब के नीचे दो वाकलेटर्स होंगे। दौड़ पथ के डिज़ाइन विवरण भारत के विमानपत्तन प्राधिकरण द्वारा संभाले जा रहे हैं, जबकि वास्तुकला कंपनियां दौड़पथ के ज़मीनी इमारतों की डिज़ाइनिंग तक ही सीमित रहेंगी. वर्तमान प्रस्ताव मौजूदा दौड़पथ के समानांतर है। पूरी डिजाइन को "दो हरे-भरे निर्वाह योग्य बग़ीचों" के आस-पास व्यवस्थित किया जा रहा है और पंखों के आकार वाली छतें बारिश के पानी को एकत्रित करने में मदद करेंगी और उद्यान का हिस्सा होगी। चेन्नई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के कार्गो परिसर में एक एकीकृत कार्गो परिसर का निर्माण किया जाएगा. इस परिसर का निर्माण 15 महीनों में 145 करोड़ रुपयों की लागत पर किया जाएगा. जबकि निचली मंज़िल 21,000 वर्ग मीटर आकार की होगी, पहली मंज़िल का निर्माण 12,100 वर्ग मीटर पर किया जाएगा. नए भवन का प्रयोग विशेष रूप से आयात गतिविधियों के लिए किया जाएगा. एक बार सिविल कार्य पूरा होने के साथ ही, स्वचालित संग्रहण और पुनर्प्राप्ति प्रणाली स्थापित की जाएगी. इसकी लागत 75 करोड़ रुपये होगी। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने घोषणा की है कि तिरूसूलम में मौजूदा हवाई अड्डे के विस्तार के अलावा श्रीपेरूमबदूर और तिरूवल्लूर तालुका में एक नवीन ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे को स्थापित किया जाएगा. ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे का निर्माण 3,486.66 एकड़ तक होगा, वहीं चेन्नई हवाई अड्डे का विस्तार 1,069.99 एकड़ पर किया जाएगा, जिसकी अनुमानित लागत 2,000 करोड़ होगी। प्रारम्भ में ग्रीनफील्ड हवाई अड्डों का निर्माण कार्य भारत के विमानपत्तन प्राधिकरण को सौंपा जाना था। लेकिन चेन्नई के करीब श्रीपेरूमबदूर में ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे का विकास एक सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत किया जाएगा. प्रधानमंत्री की समिति ने भी इस हवाई अड्डे के लिए पूर्व व्यवहार्यता रिपोर्ट की मांग की है। ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे में चार दौड़पथ होंगे। चेन्नई हवाई अड्डे पर नज़रें गढ़ाए अग्रणी वैश्विक हवाई अड्डों के विकासक इस परियोजना के लिए बोली लगाने के लिए भारतीय सहभागियों के साथ गठजोड़ कर रहे हैं। इस परियोजना में रुचि रखने वाली कंपनियों में शामिल हैं सिंगापुर चांगी हवाई अड्डा, मैक्वेरी समूह, GMR समूह, GVK इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड और टाटा समूह. केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने स्पष्ट किया है कि "चेन्नई के करीब ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे के विकास में AAI की कोई भूमिका नहीं है।" नए हवाई अड्डे का निर्माण कार्य शुरू होने पर 28 महीने के भीतर पूरा होने की संभावना है। श्रीपेरूमबदूर में बहु-प्रतीक्षित दूसरे हवाई अड्डे का निर्माण कार्य बंद किया जा सकता है, चूंकि केन्द्र और राज्य सरकार इस परियोजना को स्थगित करने की तैयारी कर रही हैं। जहां अंतर्राष्ट्रीय नागर विमानन संगठन ने इस परियोजना के लिए तकनीकी आर्थिक व्यवहार्यता के अध्ययन की शुरूआत की है, वहीं केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि सरकार क़ायल है कि तत्काल इस शहर में दूसरे हवाई अड्डे की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मीनमबाक्कम में मौजूदा हवाई अड्डे का विस्तार किया जा रहा है। हाल ही में राज्य विधानसभा को जानकारी दी गई कि चेन्नई हवाई अड्डे का विस्तार और आधुनिकीकरण अगले वर्ष तक पूरा हो जाएगा और सरकार भी ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट की स्थापना को लेकर 'आवश्यक कार्रवाई' कर रही है। मंत्री के.एन. नेहरू द्वारा विधानसभा में प्रस्तुत परिवहन विभाग की नीति संबंधी नोट में कहा गया है कि सरकार इस तथ्य की पुष्टि करती है कि दक्षिणी महानगर तेजी से एक निवेश गंतव्य बनता जा रहा था और इसलिए वर्तमान आधुनिकीकरण के प्रयास किए जा रहे हैं। "हवाई अड्डे का आधुनिकीकरण 2011 तक पूरा हो जाएगा." उन्होंने कहा कि "पहले ही सरकार ने 127.06 करोड़ रुपए की लागत पर 126 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया है और भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण को सौंप चुकी है।" नीति नोट के अनुसार AAI कार्यान्वयन एजेंसी थी और इसने 1,808 करोड़ रुपयों की अनुमानित लागत पर इस परियोजना को हाथ में लिया था। इसके अलावा, राज्य सरकार श्रीपेरूमबदूर में ग्रीनफील्ड हवाई अड्डा स्थापित करने के लिए 'आवश्यक कार्रवाई' कर रही है, जो इसके निकट का एक औद्योगिक केंद्र है। यह हवाई अड्डा व्यस्त ग्रैंड सदर्न ट्रंक रोड पर स्थित है और उपनगरीय रेलवे नेटवर्क पर एयरपोर्ट स्टेशन भी इसको सेवा देती है। प्रस्तावित मेट्रो रेल प्रणाली हवाई अड्डे से चेन्नई के महत्वपूर्ण स्थानों को जोड़ेगी. 1984 अगस्त में हवाई अड्डे से 1,200 मीटर की दूरी पर एक बम विस्फोट हुआ था, जिसमें 33 लोगों की मौत और 27 अन्य लोग घायल हो गए थे। साँचा:Chennai Topics अहमदाबाद →सरदार वल्लभभाई पटेल अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा · अमृतसर →राजा सांसी अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र* · बेंगलुरु → देवनहल्ली अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र · कालीकट→ कालीकट अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र * · चेन्नई → चेन्नई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा · 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सैण्डी चक्रवात वर्ष 2012 के चक्रवाती मौसम का अट्ठारहवाँ उष्णकटिबन्धीय चक्रवात है और हरिकेन स्तर तक पहुँचने वाला दसवां। इस चक्रवात ने जमैका, क्यूबा, बहामास, हैती, डोमिनिकन गणराज्य और संयुक्त राज्य अमेरिका को प्रभावित किया है। अभी यह चक्रवात अमेरिका के उत्तरपूर्वी और कनाडा के पूर्वी भाग में सक्रिय है। इस चक्रवात का निर्माण 18 अक्टूबर 2012 को कैरिबियाई सागर के ऊपर हुआ था। धीरे-धीरे यह चक्रवात बारिश और गर्जना के साथ पश्चिम की ओर आगे बढ़ा। 24 अक्टूबर 2012 को सायं 3 बजे राष्ट्रीय हरिकेन केन्द्र ने इसे प्रथम श्रेणी का चक्रवात बताया जो जमैका की राजधानी किंग्सटन से 100 किमी दूर अवस्थित था।यह चक्रवात 30 अक्टूबर 2012 को अमेरिका के पूर्वी तट पर पहुँचा। इस चक्रवात के यहाँ पहुँचने से पहले ही न्यूयॉर्क नगर और अन्य पूर्वी तटीय राज्यों से लाखों लोगों को इन क्षेत्रों से हटा कर खाली करा लिया गया।
बारामती महाराष्ट्र प्रान्त का एक शहर है। बारामती पुणे जिले में स्थित एक तहसील है। यह शहर करहा नदी के तट पर स्थित है।
विद्युत-मापी या 'ऊर्जामापी' सामान्यत: उन सभी उपकरणों को कहा जाता है विद्युत ऊर्जा का माप करने के लिए प्रयुक्त होते हैं। विद्युत-मापी प्रायः किलोवाट-घण्टा में अंशांकित होते हैं। कुछ विद्युत् मापी विशेष कार्यों के लिए व्यवस्थित होते हैं, जैसे महत्तम माँग संसूचक, जिसमें मीटर के साथ ऐसा काल अंशक होता है जो निश्चित अवधि में अधिकतम ऊर्जा का निर्देश करे। कुछ विद्युत-मापी ऐसे भी होते हैं जो महत्तम लोड के समय में स्वयं लोड को काट दें। किसी निश्चित अवधि में उपयुक्त होनेवाली विद्युत् ऊर्जा की माप करने के लिए यह आवश्यक है कि विद्युत्मापी परिपथ में धारा, वोल्टता तथा शक्ति गुणांक तीनों की उचित माप करने में तथा उन्हें समाकलित करके किसी निश्चित अवधि में खर्च होनेवाली ऊर्जा का मापन कर सकने में समर्थ हो। इस प्रकार किसी भी विद्युतमापी में दो अंशक होते हैं : शक्ति अंशक, दिष्ट धारा एवं प्रत्यावर्ती धारा में भिन्न भिन्न प्ररूप का होता है। दिष्ट धारा में, शक्ति गुणांक न होने के कारण, शक्ति अंशक का केवल धारा तथा वोल्टता का गुणन करने में समर्थ होना पर्याप्त है। यदि वोल्टता को स्थिर मान लिया जाए, तो केवल धारा मापन से ही कार्य चल सकता है। इस रूप में विद्युत्मापी वस्तुत: ऐंपियर-घंटा मीटर हो जाता है। यह केवल यही बताता है कि निश्चित अवधि में कितनी धारा प्रयुक्त की गई है। इस प्रकार एक ऐंपियर-घंटा से तात्पर्य है कि निश्चित वोल्टता पर 1 घंटे में 1 ऐंपियर धारा उपभुक्त की गई हैं। यद्यपि बनावट में ऐसे उपकरण सरल होते हैं, तथापि स्पष्टत: वोल्टता के घटने बढ़ने से उनके द्वारा निर्देशित ऊर्जा में गलती हो जाती है। तब भी अपने सरल बनावट के कारण, सामान्य उपयोगों के लिए ये बहुत उपयुक्त होते हैं। उपरोक्त प्रकार के मीटर में एक बंद प्रकोष्ठ में ऐलुमिनियम का एक डिस्क संबद्ध रहता है, जिससे उसका चलन स्वतंत्र रूप में हो सके। प्रकोष्ठ में पारा भरा होता है और डिस्क पारे के उत्प्लावन पर अवलंबित रहता है। आपेक्षिक घनत्व 13.6 होने के कारण, पारा डिस्क पर काफी उत्क्षेप लगाता है, जिससे वेयरिंग पर दाब कम हो जाती है और डिस्क को घूमने में सुविधा रहती है। डिस्क के दोनों ओर दो चुंबक होते हैं, जिनमें से एक चालन चुंबक कहलाता है: और दूसरा ब्रेक चुंबक । घुराग्र धारा के वाहक का भी कार्य करता है। धारा घुराग्र से होकर डिस्क में अरीय बहती है और वहाँ से पारे में होकर प्रकोष्ठ पर के स्थिर टर्मिनल में जाती है। इस प्रकार परिपथ पारे में होकर पूरा होता और चालन चुंबक की उत्तेजक कुंडली में से प्रवाहित होती हुई धारा डिस्क पर चालन बल आरोपित करती है। डिस्क परिभ्रमण के लिए स्वमंत्र होने के कारण घूमने लगता है। उसका ब्रेक चुंबक के क्षेत्र में परिभ्रमण, उसपर ब्रेक बल आरोपित करता है। ब्रेक-चुंबक की स्थिति का व्यवस्थापन करने से डिस्क की गति में परिवर्तन किया जा सकता है। यदि मोटर ठीक न चल रहा हो, तो रोक चुंबक की स्थिति का व्यवस्थापन करके ठीक किया जा सकता है। दूसरे प्रकार के ऐंपियर घंटा मापियों में धारा के विद्युत् अपघटनी प्रभाव का उपयोग किया जाता है। किसी निश्चित अवधि में, विद्युत् अपघट्य में से पारित होती हुई धारा जितना अवशेष जमा करती है, उसका परिमाण परिपथ में उपभोग की गई ऊर्जा के अनुपात में होता है। परंतु इस प्ररूप के मीटरों की बनावट मजबूत नहीं होती और उन्हें बार बार व्यवस्थित करना पड़ता है। अत: इस प्ररूप के मीटर अधिक चलन में नहीं हैं। दिष्ट धारा के मीटरों में शक्ति अंशक वाटमीटर जैसे ही होते हैं। इनमें वस्तुत: दो परिपथ होते हैं, इन दोनों कुंडलियों की धारा एवं वोल्टता के क्षणिक मानों द्वारा प्रभावित होने के कारण, अंशक का चलनतंत्र परिपथ में औसत शक्ति का परिचायक होता है। प्र.धा. मीटर, मुख्यत:, दो प्ररूप के होते हैं : दोनों मीटर वास्तव में अपने अपने प्ररूप के वाटमीटर पर ही आधारित होते हैं। शक्तिअंशक के साथ कालअंशक जोड़ देने से ही उनसे ऊर्जा का मापन किया जा सकता है। कालअंशक वास्तव में घड़ी की भाँति होता है, जो निश्चित अवधि में शक्ति का समाकरलन कर ऊर्जा का निर्देश करता है। वाटमीटर में संकेतक द्वारा शक्ति का निर्देश ही किया जा सकता है। जबकि विद्युत् मापी में डिस्क के परिभ्रमण गिनने से ऊर्जा का मापन होता है। डिस्क अथवा ड्रम के परिभ्रमण गिनने के लिए एक गणकतंत्र होता है, जिससे कुल ऊर्जा का मान पढ़ा जा सकता है। एक दूसरे प्ररूप के मीटर में वस्तुत: मोटर का छोटा अंग ही काम में लाया जाता है। इसमें धारा कुंडली, उत्तेजक के रूप में होती है और वोल्टता कुंडली, आर्मेचर के रूप में। आर्मेचर से साथ कम्यूटेटर भी होता है और संस्पर्श करनेवाले दो बुरुश होते हैं। इस प्रकार वह मीटर, वस्तुत: मोटर का छोटा रूप ही है। इसे इस कारण 'मोटर मीटर' ही कहा जाता है, परंतु यह अधिक महँगा होने के कारण और देखभाल की कठिनाइयों के कारण, बहुत कम प्रयोग में लाया जाता है। त्रिफेज परिपथों में ऊर्जा मापन भी त्रिफेज शक्ति मापन के आधार पर ही किया जाता है। त्रिफेज वाटमीटर की भाँति, इनमें भी शक्ति अंशक दो भागों में संघटित होता है और संयोजन भी दो वाटमीटर द्वारा शक्तिमापन के आधार पर किया जाता है। इस प्रकार इसमें 6 टर्मिनल हाते हैं और उन्हें त्रिफेज वाटमीटर की भाँति ही संयोजित किया जाता है। केवल काल अंशक तथा गणन तंत्र जोड़ देने से यह ऊर्जा का मापन कर सकता है। सूक्ष्म एलेक्ट्रॉनिकी एवं माइक्रोकंट्रोलर आदि के विकास ने एलेक्ट्रानिक ऊर्जामीटरों का विकास सम्भव बना दिया है। इनका डिस्प्ले LCD या LED पर आधारित होता है। कुछ मीटर पाठ्यांक को दूरस्थ स्थानों पर संचारित भी करने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा एलेक्ट्रानिक ऊर्जामापी सप्लाई तथा लोड के कुछ अन्य प्राचलों को भी रेकार्ड कर सकते हैं, जैसे- अधिकतम मांग, वोल्टेज, शक्ति गुणांक, रिएक्टिव शक्ति आदि।
निशात बाग कशमीर मे स्थित है। इसका र्निमाण नूरजहंआ के भाई आसफ खान ने करवाया था।
उमरा तारापुर, मुंगेर, बिहार स्थित एक गाँव है।
भारत सरकार ने देश भर में 18 बायोस्फीयर भंडार स्थापित किए हैं। ये बायोस्फीयर भंडार भौगोलिक रूप से जीव जंतुओं के प्राकृतिक भू-भाग की रक्षा करते हैं और अकसर आर्थिक उपयोगों के लिए स्थापित बफर जोनों के साथ एक या ज्यादा राष्ट्रीय उद्यान और अभ्यारण्य को संरक्षित रखने का काम करते हैं। संरक्षण न केवल संरक्षित क्षेत्र के वनस्पतियों और जीवों के लिए दिया जाता है, बल्कि इन क्षेत्रों में रहने वाले मानव समुदायों को भी दिया जाता है। अठारह जीवमंडल भंडार में से दस यूनेस्को के मानव और संरक्षित जैवमंडल कार्यक्रम सूची के आधार पर संरक्षित जैवमंडलों के विश्व नेटवर्क का एक हिस्सा हैं। 2009 में, भारत ने हिमाचल प्रदेश के शीत-रेगिस्तान को बीओस्फियर रिजर्व के रूप में नामित किया। 20 सितंबर, 2010 को, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने शशचलम पहाड़ियों को 17 वीं जीवमंडल आरक्षण के रूप में नामित किया। पन्ना को 25 अगस्त, 2011 को 18 वें स्थान पर नामित किया। वन और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा चयनित बायोस्फीयर रिजर्व के लिए संभावित साइटों की सूची निम्नलिखित है।
दादा साहब फाल्के सम्मान सिनेमा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला वार्षिक सम्मान है। इसकी स्थापना वर्ष 1969 में की गई थी।RAJAT KUSHWAH
212 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 212 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 212 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते हैं।
सूचना के समूह और उनके नामों को प्रबंधित करने के लिए उपयोग की जाने वाली संरचना और तर्क नियमों को "फाइल सिस्टम" कहा जाता है। डेटा को टुकड़ों में विभाजित करके और प्रत्येक टुकड़े को एक नाम देकर, जानकारी आसानी से अलग और पहचान की जाती है। पेपर-आधारित सूचना प्रणाली के नाम से लेते हुए, डेटा के प्रत्येक समूह को "फ़ाइल" कहा जाता है। कंप्यूटिंग में, एक फ़ाइल को फाइल सिस्टम नियंत्रित करता है इसका निर्माण इस लिये हुआ की यह बताने का कोई तरीका नहीं है कि जानकारी का एक टुकड़ा कहां बंद हो जाता है और अगला शुरू होता है। डेटा कैसे संग्रहीत और पुनर्प्राप्त किया जा सकता है? एक फाइल सिस्टम के बिना, स्टोरेज माध्यम में दी गई जानकारी डेटा का एक बड़ा हिस्सा कहा होगा ? फाइल सिस्टम के कई अलग-अलग प्रकार हैं। प्रत्येक में अलग संरचना और तर्क, गति, लचीलापन, सुरक्षा, आकार और अधिक गुण होते हैं। कुछ फाइल सिस्टम को विशिष्ट अनुप्रयोगों के लिए इस्तेमाल करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। उदाहरण के लिए, आईएसओ 9660 फाइल सिस्टम विशेष रूप से ऑप्टिकल डिस्क के लिए डिज़ाइन किया गया है। फाइल सिस्टम का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के स्टोरेज उपकरणों पर किया जा सकता है जो विभिन्न प्रकार के मीडिया का उपयोग करते हैं। उपयोग में सबसे आम स्टोरेज डिवाइस आज एक हार्ड डिस्क ड्राइव है। उपयोग किए जाने वाले अन्य प्रकार के मीडिया में फ्लैश मेमोरी, चुंबकीय टेप और ऑप्टिकल डिस्क शामिल हैं। कुछ मामलों में, जैसे कि tmpfs के साथ, कंप्यूटर की मुख्य मेमोरी, रैम) का उपयोग अल्पावधि उपयोग के लिए अस्थायी फ़ाइल सिस्टम बनाने के लिए किया जाता है।
मीलाद उन-नबी इस्लाम धर्म के मानने वालों के कई वर्गों में एक प्रमुख त्यौहार है। इस शब्द का मूल मौलिद है जिसका अर्थ अरबी में "जन्म" है। अरबी भाषा में 'मौलिद-उन-नबी' का मतलब है हज़रत मुहम्मद का जन्म दिन है। यह त्यौहार 12 रबी अल-अव्वल को मनाया जाता है मीलाद उन नबी संसार का सबसे बड़ा जशन माना जाता है। 1588 में उस्मानिया साम्राज्य में यह त्यौहार का प्रचलन जन मानस में सर्वाधिल प्रचलित हुआ। मवलिद का मूल अरबी भाशा का पद "वलद" है, जिस का अर्थ "जन्म देना", "गर्भ धारण" या "वारिस" के हैं। समकालीन उपयोग में, मवलीद या मौलीद या मौलूद, प्रेशित मुहम्मद के जन्मतिथी या जन्म दिन को कहा जाता है। मौलीद का अर्थ ह.मुहम्मद के जन्म दिन का भी है, और इस शुभ अवसर पर संकीर्तन पठन या गायन को भी "मौलीद" कहा जाता है, जिस में सीरत और नात पढी जाती हैं। .इस पर्व को इन नामों से भी पुकारा और पहचाना जाता है: ह.मुहम्मद का जन्म स्थल, मक्का, सऊदी अरब मौलीद उत्सव, कैरो 1878 उस्मानिया ध्वज, लिबिया का शहर बेंघाज़ी 1896 में उत्सव ईद मीलाद उत्सव, पारलमेंट हाउज़, पाकिस्तान सेकेतन उत्सव, हफ़्ते भर का उत्सव, इंडोनेशिया शेख सूफ़ी रियाज़ नख्शबन्दी असलमी, 2007 में मीलाद उत्सव
निर्देशांक: 25°06′N 85°54′E / 25.10°N 85.90°E / 25.10; 85.90 लक्ष्मीपुर लखीसराय, लखीसराय, बिहार स्थित एक गाँव है।
सौर मंडल में सूर्य और वह खगोलीय पिंड सम्मलित हैं, जो इस मंडल में एक दूसरे से गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा बंधे हैं। किसी तारे के इर्द गिर्द परिक्रमा करते हुई उन खगोलीय वस्तुओं के समूह को ग्रहीय मण्डल कहा जाता है जो अन्य तारे न हों, जैसे की ग्रह, बौने ग्रह, प्राकृतिक उपग्रह, क्षुद्रग्रह, उल्का, धूमकेतु और खगोलीय धूल। हमारे सूरज और उसके ग्रहीय मण्डल को मिलाकर हमारा सौर मण्डल बनता है। इन पिंडों में आठ ग्रह, उनके 166 ज्ञात उपग्रह, पाँच बौने ग्रह और अरबों छोटे पिंड शामिल हैं। इन छोटे पिंडों में क्षुद्रग्रह, बर्फ़ीला काइपर घेरा के पिंड, धूमकेतु, उल्कायें और ग्रहों के बीच की धूल शामिल हैं। सौर मंडल के चार छोटे आंतरिक ग्रह बुध, शुक्र, पृथ्वी और मंगल ग्रह जिन्हें स्थलीय ग्रह कहा जाता है, मुख्यतया पत्थर और धातु से बने हैं। और इसमें क्षुद्रग्रह घेरा, चार विशाल गैस से बने बाहरी गैस दानव ग्रह, काइपर घेरा और बिखरा चक्र शामिल हैं। काल्पनिक और्ट बादल भी सनदी क्षेत्रों से लगभग एक हजार गुना दूरी से परे मौजूद हो सकता है। सूर्य से होने वाला प्लाज़्मा का प्रवाह सौर मंडल को भेदता है। यह तारे के बीच के माध्यम में एक बुलबुला बनाता है जिसे हेलिओमंडल कहते हैं, जो इससे बाहर फैल कर बिखरी हुई तश्तरी के बीच तक जाता है। कुछ उल्लेखनीय अपवादों को छोड़ कर, मानवता को सौर मण्डल का अस्तित्व जानने में कई हजार वर्ष लग गए। लोग सोचते थे कि पृथ्वी, ब्रह्माण्ड का स्थिर केंद्र है और आकाश में घूमने वाली दिव्य या वायव्य वस्तुओं से स्पष्ट रूप में अलग है। लेकिन 140 इ. में क्लाडियस टॉलमी ने बताया की पृथ्वी ब्रह्माण्ड के केंद्र में है और सारे गृह पिंड इसकी परिक्रमा करते हैं लेकिन कॉपरनिकस ने 1543 में बताया की सूर्य ब्रह्माण्ड के केंद्र में है और सारे गृह पिंड इसकी परिक्रमा करते हैं। सौरमंडल सूर्य और उसकी परिक्रमा करते ग्रह, क्षुद्रग्रह और धूमकेतुओं से बना है। इसके केन्द्र में सूर्य है और सबसे बाहरी सीमा पर वरुण है। वरुण के परे यम जैसे बौने ग्रहो के अतिरिक्त धूमकेतु भी आते है। सूर्य के केंद्र से चुनी हुई निकायों की श्रृंखला। सूर्य अथवा सूरज सौर मंडल के केन्द्र में स्थित एक G श्रेणी का मुख्य-अनुक्रम तारा है जिसके इर्द-गिर्द पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है, जिसमें हमारे पूरे सौर मंडल का 99.86% द्रव्यमान निहित है और उसका व्यास लगभग 13 लाख 90 हज़ार किलोमीटर है, जो पृथ्वी से लगभग 109 गुना अधिक है। ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से 15 प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, 30 प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। सौरमंडल सौर वायु द्वारा बनाए गए एक बड़े बुलबुले से घिरा हुआ है जिसे हीलीयोस्फियर कहते है। इस बुलबुले के अंदर सभी पदार्थ सूर्य द्वारा उत्सर्जित हैं। अत्यंत ज़्यादा उर्जा वाले कण इस बुलबुले के अंदर हीलीयोस्फीयर के बाहर से प्रवेश कर सकते है। यह किसी तारे के बाहरी वातावरण द्वारा उत्सर्जन किए गए आवेशित कणों की धारा को सौर वायु कहते हैं। सौर वायु विशेषकर अत्यधिक उर्जा वाले इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन से बनी होती है, इनकी उर्जा किसी तारे के गुरुत्व प्रभाव से बाहर जाने के लिए पर्याप्त होती है। सौर वायु सूर्य से हर दिशा में प्रवाहित होती है जिसकी गति कुछ सौ किलोमीटर प्रति सेकंड होती है। सूर्य के सन्दर्भ में इसे सौर वायु कहते है, अन्य तारों के सन्दर्भ में इसे ब्रह्माण्ड वायु कहते है।यम से काफी बाहर सौर वायु खगोलीय माध्यम के प्रभाव से धीमी हो जाती है। यह प्रक्रिया कुछ चरणों में होती है। खगोलीय माध्यम और सारे ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है। यह एक अत्यधिक कम घनत्व वाला माध्यम है।सौर वायु सुपर सोनिक गति से धीमी होकर सब-सोनिक गति में आने वाले चरण को टर्मीनेशन शॉक या समाप्ती सदमा कहते है।सब-सोनिक गति पर सौर वायु खगोलीय माध्यम के प्रवाह के प्रभाव में आने से दबाव होता है जिससे सौर वायु धूमकेतु की पुंछ जैसी आकृती बनाती है जिसे हीलिओसिथ कहते है।हीलिओसिथ की बाहरी सतह जहां हीलीयोस्फियर खगोलीय माध्यम से मिलता है हीलीयोपाज कहलाती है।हीलीओपाज क्षेत्र सूर्य के आकाशगंगा के केन्द्र की परिक्रमा के दौरान खगोलीय माध्यम में एक हलचल उत्पन्न करता है। यह खलबली वाला क्षेत्र जो हीलीओपाज के बाहर है बो-शाक या धनु सदमा कहलाता है। ग्रहीय मण्डल उसी प्रक्रिया से बनते हैं जिस से तारों की सृष्टि होती है। आधुनिक खगोलशास्त्र में माना जाता है के जब अंतरिक्ष में कोई अणुओं का बादल गुरुत्वाकर्षण से सिमटने लगता है तो वह किसी तारे के इर्द-गिर्द एक आदिग्रह चक्र बना देता है। पहले अणु जमा होकर धूल के कण बना देते हैं, फिर कण मिलकर डले बन जाते हैं। गुरुत्वाकर्षण के लगातार प्रभाव से, इन डलों में टकराव और जमावड़े होते रहते हैं और धीरे-धीरे मलबे के बड़े-बड़े टुकड़े बन जाते हैं जो वक़्त से साथ-साथ ग्रहों, उपग्रहों और अलग वस्तुओं का रूप धारण कर लेते हैं। जो वस्तुएँ बड़ी होती हैं उनका गुरुत्वाकर्षण ताक़तवर होता है और वे अपने-आप को सिकोड़कर एक गोले का आकार धारण कर लेती हैं। किसी ग्रहीय मण्डल के सृजन के पहले चरणों में यह ग्रह और उपग्रह कभी-कभी आपस में टकरा भी जाते हैं, जिस से कभी तो वह खंडित हो जाते हैं और कभी जुड़कर और बड़े हो जाते हैं। माना जाता है के हमारी पृथ्वी के साथ एक मंगल ग्रह जितनी बड़ी वस्तु का भयंकर टकराव हुआ, जिस से पृथ्वी का बड़ा सा सतही हिस्सा उखाड़कर पृथ्वी के इर्द-गिर्द परिक्रमा ग्रहपथ में चला गया और धीरे-धीरे जुड़कर हमारा चन्द्रमा बन गया। सूर्य से उनकी दूरी के क्रम में आठ ग्रह हैं: ग्रहपथ : 57,910,000 किमी सूर्य सेव्यास : 4880 किमीद्रव्यमान : 3.30e23 किग्रा ग्रहपथ :0.72 AU या 108,200,000 किमी । शुक्र शुक्र की ग्रहपथ लगभग पूर्ण वृत्त है।व्यास : 12,103.6 किमीद्रव्यमान : 4.869e24 किग्रा क्षुद्रग्रह घेरा या ऐस्टरौएड बॅल्ट हमारे सौर मण्डल का एक क्षेत्र है जो मंगल ग्रह और बृहस्पति ग्रह की ग्रहपथओं के बीच स्थित है और जिसमें हज़ारों-लाखों क्षुद्रग्रह सूरज की परिक्रमा कर रहे हैं। इनमें एक 950 किमी के व्यास वाला सीरीस नाम का बौना ग्रह भी है जो अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षक खिचाव से गोल अकार पा चुका है। यहाँ तीन और 400 किमी के व्यास से बड़े क्षुद्रग्रह पाए जा चुके हैं - वॅस्टा, पैलस और हाइजिआ। पूरे क्षुद्रग्रह घेरे के कुल द्रव्यमान में से आधे से ज़्यादा इन्ही चार वस्तुओं में निहित है। बाक़ी वस्तुओं का अकार भिन्न-भिन्न है - कुछ तो दसियों किलोमीटर बड़े हैं और कुछ धूल के कण मात्र हैं। 2008 के मध्य तक, पाँच छोटे पिंडों को बौने ग्रह के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, सीरीस क्षुद्रग्रह घेरे में है और वरुण से परे चार सूर्य ग्रहपथ - यम, हउमेया, माकेमाके और ऍरिस। छह ग्रहों और तीन बौने ग्रहों की परिक्रमा प्राकृतिक उपग्रह करते हैं, जिन्हें आम तौर पर पृथ्वी के चंद्रमा के नाम के आधार पर "चन्द्रमा" ही पुकारा जाता है। प्रत्येक बाहरी ग्रह को धूल और अन्य कणों से निर्मित छल्लों द्वारा परिवृत किया जाता है।
विज्ञान, प्रकृति का विशेष ज्ञान है। यद्यपि मनुष्य प्राचीन समय से ही प्रकृति संबंधी ज्ञान प्राप्त करता रहा है, फिर भी विज्ञान अर्वाचीन काल की ही देन है। इसी युग में इसका आरंभ हुआ और थोड़े समय के भीतर ही इसने बड़ी उन्नति कर ली है। इस प्रकार संसार में एक बहुत बड़ी क्रांति हुई और एक नई सभ्यता का, जो विज्ञान पर आधारित है, निर्माण हुआ। ब्रह्माण्ड के परीक्षण का सम्यक् तरीका भी धीरे-धीरे विकसित हुआ। किसी भी चीज के बारे में यों ही कुछ बोलने व तर्क-वितर्क करने के बजाय बेहतर है कि उस पर कुछ प्रयोग किये जायें और उसका सावधानी पूर्वक निरीक्षण किया जाय। इस विधि के परिणाम इस अर्थ में सार्वत्रिक हैं कि कोई भी उन प्रयोगों को पुनः दोहरा कर प्राप्त आंकडों की जांच कर सकता है। सत्य को असत्य व भ्रम से अलग करने के लिये अब तक आविष्कृत तरीकों में वैज्ञानिक विधि सर्वश्रेष्ठ है। संक्षेप में वैज्ञानिक विधि निम्न प्रकार से कार्य करती है: किसी वैज्ञानिक सिद्धान्त या परिकल्पना की सबसे बडी विशेषता यह है कि उसे असत्य सिद्ध करने की गुंजाइश होनी चाहिये। जबकी मजहबी मान्यताएं ऐसी होतीं हैं जिन्हे असत्य सिद्ध करने की कोई गुंजाइश नहीं होती। उदाहरण के लिये 'जो जीसस के बताये मार्ग पर चलेंगे, केवल वे ही स्वर्ग जायेंगे' - इसकी सत्यता की जांच नहीं की जा सकती। प्रश्न यह है कि विज्ञान की द्रुत गति से जो उन्नति हुई, उसका श्रेय किसे है? क्या प्राचीन काल के मनुष्य इन अर्वाचीन वैज्ञानिकों की अपेक्षा बुद्धि कम रखते थे? यदि ऐसी बात है, तो दर्शन, साहित्य एवं ललित कलाओं की उन्नति प्राचीन समय में इतनी अधिक क्यों हुई? संभवत: इसका रहस्य उन वैज्ञानिक विधियों में निहित है, जिनका प्रश्रय पाकर विज्ञान इतनी उन्नति कर सका है। अर्वाचीन विज्ञान का आरंभ लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व हुआ। जैसा ऊपर कहा गया है, प्राचीन काल में भी विज्ञान की कुछ उन्नति हुई, किंतु उसका क्रम आगे न बढ़ पाया। इसलिए कुछ बात इसके पीछे अवश्य रही होगी। वस्तुत: प्राचीन काल के मनीषियों ने जो भी ज्ञान अर्जित किया, उसे बुद्धिवादी कहना ठीक होगा। अपनी बुद्धि और तर्क के बल पर ज्ञान की उच्च कोटि की बातें उन्होंने बताईं, किंतु उनके प्रकार और वर्धन की व्यवस्था नहीं थी और संसार भर में उनका व्यापक प्रचार और प्रसारण नहीं हो पाया अर्वाचीन विज्ञान इसके विपरीत प्रायोगिक ज्ञान है, जिसका आरंभ में बड़ा विरोध हुआ। इसी के फलस्वरूप गैलिलियो जैसे अग्रगामी वैज्ञानिकों को कड़ी यातनाएँ सहनी पड़ीं। फिर भी प्रयोग द्वारा सत्यापन विधि के भीतर ही प्रसारण का बीज भी छिपा हुआ था। इस प्रकार जो ज्ञान मिलता गया, वह एक शृंखला में आबद्ध हो चला, जिसका क्रम आगे भी जारी रहा। इस ज्ञान से शक्ति के नए नए स्रोतों का पता चला और परिणामस्वरूप न केवल इसका विरोध कम होता गया अपितु एक बहुत बड़ी क्रांति समाज में हुई। मशीन युग का सूत्रपात हुआ और संसार मे आशा की एक नई किरण सामने आई। किंतु जिस प्रकार सभी वस्तुओं के साथ अच्छाई और बुराई दोनों के पहलू जुड़े हुए हैं, विज्ञान भी मानव के लिए केवल वरदान ही न रहा, उसका पैशाचिक रूप हिरोशिमा में ऐटम बम के रूप में विश्व ने देखा, जिसके विस्फोट के कारण संसार के विनाश तथा प्रलय की लीला का दृश्य उपस्थित हो गया। इस प्रकार संसार के सामने "सत्य को केवल सत्य के लिए" खोज न करने की आवश्यकता जान पड़ी और "सत्यं शिवं सुंदरम्" के अदर्श को विज्ञान जगत् में भी अपनाना ही श्रेयस्कर मालूम हुआ। विज्ञान इस प्रकार नियंत्रित होकर ही मानव कल्याण में योगदान कर सकता है। इसी नियंत्रण के फलस्वरूप परमाण्वीय भट्ठियाँ बनीं, जो एक प्रकार से नियंत्रित ऐटम बम मात्र हैं, किंतु जिनसे अपार सुविधाएँ मिल सकती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि अल्प काल में ही विज्ञान ने बड़ी उन्नति की और इसका सब श्रेय प्रयोगविधि को है, जिसका उपयोग प्राचीन समय में नहीं किया गया था। इस प्रयोगविधि में प्रयोग का महत्व सर्वोपरि है, फिर भी अन्य और विधियों का उपयोग भी एक विशेष ढंग और क्रम से किया जाता है, जिन्हें हम वैज्ञानिक विधियाँ कह सकते हैं। विज्ञान के अध्ययन में जिन विधियों का उपयोग सामूहिक रूप से अथवा आंशिक रूप से किया जाता है, उनका नीचे वर्णन किया जा रहा है : निरीक्षण - जिस प्राकृतिक वस्तु या घटना का अध्ययन करना हो, सबसे पहले उसका ध्यानपूर्वक निरीक्षण आवश्यक है। यदि कोई घटना क्षणिक हो, तो उसका चित्रण कर लेना आवश्यक है, ताकि बाद में उसका निरीक्षण हो सके, जैसे ग्रहण। निरीक्षण के लिए सूक्ष्मदर्शी या दूरदर्शी का उपयोग किया जा सकता है, ताकि अधिक विस्तार के साथ और ठीक ठीक निरीक्षण हो सके। यदि अन्य लोग भी निरीक्षण का कार्य कर रहे हों, तो उसका स्वागत करना चाहिए कि केवल निरीक्षित वस्तु पर ही ध्यान केंद्रित रहे, जैसे अर्जुन को वाणविद्या के परीक्षण के समय केवल पक्षी का सिर दिखाई पड़ रहा था। कभी-कभी किस वस्तु के विषय में मस्तिष्क में पहले से कुछ धारणा बनी रहती है, जो निष्पक्ष निरीक्षण में बहुत बाधक होती है। निरीक्षण के समय इस प्रकार की धारणाओं से उन्मुक्त होकर कार्य करना चाहिए। वर्णन - निरीक्षण के साथ ही साथ, या तुरंत बाद, निरीक्षित वस्तु या घटना का वर्णन लिखना चाहिए। इसके लिए नपे-तुले शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, जिससे पढ़नेवाले के सामने निरोक्षित वस्तु का चित्र खिंच जाए। जहाँ कहीं आवश्यकता हो, अनुमान के द्वारा अंकों में वस्तु के गुणविशेष की माप दे देनी चाहिए, कितु यह तभी करना चाहिए जब वैसा करना बाद में उपयोगी सिद्ध होनेवाला हो। फूलों के रंग का वर्णन करते समय अनुमानित तरंगदैर्घ्य देना व्यर्थ है, किंतु किसी वस्तु की कठोरता की तुलना अन्य वस्तु की अपेक्षा अंकों में देना ही ठीक है। व्यर्थ के व्योरे न दिए जाएँ और भाषा सरल तथा सुबोध हो। देश, काल एवं वातावरण का वर्णन दे देना चाहिए ताकि वस्तु किन परिस्थितियों में उपलब्ध हो सकती है, यह ज्ञात हो सके। कार्य-कारण-विवेचन - प्रकृति के रहस्योद्घाटन में कार्यकारण का विवेचन महत्वपूर्ण है। वर्षा का होना, बादल की गरज, बिजली की चमक, आँधी और तूफान आदि घटनाएँ साथ हो सकती हैं। इनमें कौन कितना कारण हैं? प्राय: कारण पहले आता है, किंतु केवल क्रम ही कारण का निश्चय नही करता। इसलिए इन बातों पर थोड़ाविचार कर लेना चाहिए, ताकि आगे किसी प्रकार का भ्रम न पैदा हो। साथ ही विभिन्न कारणों का तारतम्य भी बाँध रखना चाहिए। ये सब बातें घटना को समझने में सहायक होती हैं। प्रयोगीकरण - विज्ञान की इस युग में जो भी शीघ्र उन्नति हो पाई, उसका एकमात्र श्रेय इस विधि को ही है, क्योकि अन्य विधियाँ तो इसी मुख्य विधि के इर्द गिर्द संजोई गई हैं। यह तकनीक इस युग की देन है। प्राचीन समय में इसी के अभाव में विज्ञान की प्रगति नहीं हो पाई थी। अंतरिक्षयात्रा एव पारमाण्वीय शक्ति का विकास, इसी प्रयोगीकरण के कारण, संभव हो सका है। प्रयोग और साधारण निरीक्षण में क्या अंतर है? प्रयोग में भी तो निरीक्षण का कार्य होता है। वास्तव में साधारण निरीक्षण में प्रकृति के साथ किसी प्रकार का दखल नहीं दिया जाता, किंतु प्रयोग में दखल दिया जाता है। फलस्वरूप ऐसी संभावनाएँ एवं परिस्थितियाँ निकल आती हैं जिनसे प्रयोग के समय का निरीक्षण रहस्योद्घाटन में बड़ा सहायक होता है। प्रयोग सत्य जानने के लिए किए जाते हैं, किंतु निरंतर वैज्ञानिक प्रयोगों के फलस्वरूप ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि केवल सत्य के ही नाम पर प्रयोग करना श्रेयस्कर नहीं, यदि वह सत्य मंगलकारी न हो। उस सत्य से क्या लाभ जिसके फलस्वरूप सारे संसार का विनाश निश्चितप्राय हो। इसलिए अच्छा ही है कि इस समय सारे संसार में परमाण्वीय परीक्षण का विरोध हो रहा है। सत्य की खोज के वास्ते ही यह परीक्षण कुछ राष्ट्रों के द्वारा होते रहते हैं, किंतु उसके परिणामस्वरूप रेडियो ऐक्टिवता बढ़ती जा रही है और हो सकता है, भविष्य में उसके कारण जनजीवन के लिए भारी खतरा पैदा हो जाए। प्रयोग करते समय सच्चाई और ईमानदारी बरतनी पड़ती है। शुद्धि और त्रुटियों का ध्यान रखना पड़ता है। अनेक विभिन्नताओं के अध्ययन के पश्चात् कोई परिणाम निकाला जाता है। यदि कोई असंगत बात दिखलाई पड़े, तो उसे छोड़ नहीं दिया जाता, बल्कि ध्यानपूर्वक उसपर विचार किया जाता है। कभी-कभी इसी क्रम में बड़े-बड़े आविष्कार हुए हैं। निरीक्षण को कई बार दुहराया जाता है और मध्यमान परिणाम पर ही बल दिया जाता है। तकनीकी भाषा में विधि, निरीक्षण एवं परिणाम का वर्णन किया जाता है। परिकल्पना - प्रयोग करने का एक मात्र उद्देश्य प्रकृति के किसी रहस्य का उद्घाटन होता है। कोई घटना क्यों और कैसे घटित होती है, इसको समझना पड़ता है। वर्षा क्यों होती है? इंद्रधनुष कैसे बनता है? इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए एक परिकल्पना की आवश्यकता पड़ती है। यदि परिकल्पना ठीक है, तो वह जाँच में ठीक बैठेगी। परिकल्पना की जाँच के लिए विभिन्न प्रयोग किए जा सकते हैं। आगे चलकर ऐसे तथ्य भी प्रकाश में आते हैं जो उस परिकल्पना की पुष्टि कर सकते हैं। यदि ऐसी बातें हैं, तो उसी परिकल्पना को सिद्धांत या नियम की सज्ञा दी जाती है, अन्यथा उसका संशोधन करना पड़ता है, या उसे छोड़ देना पड़ता है। न्यूटन के गति के नियम और आइन्स्टान का सापेक्षवाद का सिद्धात इसके उदाहरण हैं। आगमन - जब किसी वर्ग के कुछ सदस्यों के गुण ज्ञात हों, तो उनके आधार पर उस वर्गविशेष के गुणों के बारे में अनुमान लगाना उपपादन कहलाता है। उदाहरण के लिए, अ, ब, स आदि। मनुष्य मरणशील प्राणी हैं; इसके आधार पर कहा जाता है कि सब मनुष्य मरणशील प्राणी है। इस प्रकार के सामान्यीकरण के लिए यह आवश्यक है कि जो नमूने इकट्ठे किए जाएँ, वे अनियत तरीके से किए जाएँ, नहीं तो जो परिणाम निकाला जाएगा वह ठीक नहीं होगा। कभी कभी कुछ राशियों का मध्यमान निकाला जाता है, किंतु यह तभी करना ठीक होगा जब ऐसा करना तर्कसंगत हो। उदाहरणार्थ, "लेखा जोखा थाहे, लड़का डूबा काहे" से पता चलता है कि नदी की औसत गहराई किसी लड़के की ऊँचाई से कम होते हुए भी लड़का डूब सकता है। निगमन - आगमन में जो कार्य होता है, उसका उल्टा निगमन में होता है। इसमें किसी वर्ग विशेष के गुणों के आधार पर उस वर्ग के किसी सदस्य के गुणों के बारे में अनुमान लगाया जाता है, जैसे मानव मरणशील प्राणी है, इसलिए "क", जो एक मनुष्य है, मरणशील है। निष्कर्ष निकालने की इस विधि को ही निगमन कहते हैं। इसके लिए दो बातें आवश्यक हैं: निगमन व्यवहार्य और तर्कसंगत होना चाहिए। गणित और प्रतिरूप - बहुत सी बातें हमारी समझ से परे हैं, उनके समझने में प्रतिरूप से बड़ी सहायता मिलती हैं। शरीर की आंतरिक रचना, अणुओं का संगठन आदि विषय प्रतिरूप की सहायता से अच्छी तरह बोधगम्य हो जाते हैं। गणित के द्वारा भी विज्ञान के कठिन प्रश्नों को हल करने में बड़ी सहायता मिलती है। बहुत सी ऐसी बातें हैं जो हमारी ज्ञानेंद्रियों द्वारा आत्मसात् नहीं की जा सकतीं, जैसे पदार्थतरंगें, किंतु गणित के सूत्रों के द्वारा उनकी छानबीन संभव हो पाई है और प्रयोगों द्वारा उनकी पुष्टि भी हुई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक विज्ञान की प्रगति में गणित का बहुत बड़ा हाथ है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण - अंत में एक बहुत ही महत्वपूर्ण विधि रह जाती है। वह है किसी प्रश्न के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अपनाना। खुले दिमाग से खोज की भावना रखकर विचार करना ही सही दृष्टिकोण है अपने व्यक्तित्व को प्रश्न से अलग रखना चाहिए और सच्चाई एवं पक्षपातरहित भाव से किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए। जीवन के रोज के प्रश्नों में भी इस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना श्रेयस्कर है। कई लोगों का मानना है कि सम्पूर्ण विश्व में अपनाई जा रही वैज्ञानिक विधि का प्रतिपादन भारतीय दार्शनिक-वैज्ञानिक गौतम या अक्षपाद ने न्यायसूत्र के रूप में किया था ।
यहाँ भोपाल स्थित विभिन्न शिक्षण संस्थाओं की सूची दी गयी है-
फ़ानी बदायूनी उर्दू के एक प्रमुख शायर हैं इनका जन्म 13 सितम्बर 1879 को इस्लामनगर बदायूं में हुआ। बाक़ियाते फ़ानी, वजदानियात इनके प्रमुख संग्रह हैं।
बंगलौर भारत के राज्य कर्नाटक की राजधानी है। बेंगलुरु शहर की जनसंख्या 84 लाख है और इसके महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या 89 लाख है, और यह भारत गणराज्य का तीसरा सबसे बड़ा शहर और पांचवा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है। दक्षिण भारत में दक्कन के पठारीय क्षेत्र में 900 मीटर की औसत ऊंचाई पर स्थित यह नगर अपने साल भर के सुहाने मौसम के लिए जाना जाता है। भारत के मुख्य शहरों में इसकी ऊंचाई सबसे ज़्यादा है। वर्ष 2006 में बेंगलूर के स्थानीय निकाय बृहत् बेंगलूर महानगर पालिके ने एक प्रस्ताव के माध्यम से शहर के नाम की अंग्रेज़ी भाषा की वर्तनी को Bangalore से Bengaluru में परिवर्तित करने का निवेदन राज्य सरकार को भेजा। राज्य और केंद्रीय सरकार की स्वीकृति मिलने के बाद यह बदलाव 1 नवंबर 2014 से प्रभावी हो गया है। पुराणों में इस स्थान को कल्याणपुरी या कल्याण नगर के नाम से जाना जाता था। अंग्रेजों के आगमन के पश्चात ही बंगलौर को अपना यह अंग्रेज़ी नाम मिला। बेगुर के पास मिले एक शिलालेख से ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिला 1004 ई0 तक, गंग राजवंश का एक भाग था। इसे बेंगा-वलोरू के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ प्राचीन कन्नड़ में "रखवालों का नगर" होता है। सन् 1015 से 1116 तक तमिलनाडु के चोल शासकों ने यहाँ राज किया जिसके बाद इसकी सत्ता होयसल राजवंश के हाथ चली गई। ऐसा माना जाता है कि आधुनिक बंगलौर की स्थापना सन 1537 में विजयनगर साम्राज्य के दौरान हुई थी। विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद बंगलौर के सत्ता की बागडोर कई बार बदली। मराठा सेनापति शाहाजी भोंसले के अघिकार में कुछ समय तक रहने के बाद इस पर मुग़लों ने राज किया। बाद में जब 1689 में मुगल शासक औरंगजेब ने इसे चिक्काराजा वोडयार को दे दिया तो यह नगर मैसूर साम्राज्य का हिस्सा हो गया। कृष्णराजा वोडयार के देहांत के बाद मैसूर के सेनापति हैदर अली ने इस पर 1759 में अधिकार कर लिया। इसके बाद हैदर-अली के पुत्र टीपू सुल्तान, जिसे लोग शेर-ए-मैसूर के नाम से जानते हैं, ने यहाँ 1799 तक राज किया जिसके बाद यह अंग्रेजों के अघिकार में चला गया। यह राज्य 1799 में चौथे मैसूर युद्ध में टीपू की मौत के बाद ही अंग्रेजों के हाथ लग सका। मैसूर का शासकीय नियंत्रण महाराजा के ही हाथ में छोड़ दिया गया, केवल छावनी क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन रहा। ब्रिटिश शासनकाल में यह नगर मद्रास प्रेसिडेंसी के तहत था। मैसूर की राजधानी 1831 में मैसूर शहर से बदल कर बंगलौर कर दी गई। 1537 में विजयनगर साम्राज्य के सामंत केंपेगौडा प्रथम ने इस क्षेत्र में पहले किले का निर्माण किया था। इसे आज बेंगलूर शहर की नींव माना जाता है। समय के साथ यह क्षेत्र मराठों, अंग्रेज़ों और आखिर में मैसूर के राज्य का हिस्स बना। अंग्रेज़ों के प्रभाव में मैसूर राज्य की राजधानी मैसूर शहर से बेंगलूर में स्थानांतरित हो गई, और ब्रिटेश रेज़िडेंट ने बेंगलूर से शासन चलाना शुरू कर दिया। बाद में मैसूर का शाही वाडेयार परिवार भी बेंगलूर से ही शासन चलाता रहा। 1947 में भारत की आज़ादी के बाद मैसूर राज्य का भारत संघ में विलय हो गया, और बेंगलूर 1956 में नवगठित कर्नाटक राज्य की राजधानी बन गया। 1949 में बेंगलूर छावनी और बेंगलूर नगर, जिनका विकास अलग अलग इकाइयों के तौर पर हुआ था, का विलय करके नगरपालिका का पुनर्गठन किया गया। संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट 2001 के मुताबिक विश्व के शीर्ष प्रौद्योगिकी केंद्रों में ऑस्टिन, सैन फ्रांसिस्को और ताइपेई के साथ बेंगलुरु को चौथे स्थान पर जगह मिली है। पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स और टेक्सटाइल इंडस्ट्री ने शुरू में बेंगलुरू की अर्थव्यवस्था को चलाई, लेकिन पिछले दशक में फोकस हाई-टेक्नोलॉजी सर्विस उद्योगों पर स्थानांतरित हो गया है। बैंगलोर की 47.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था भारत में इसे एक प्रमुख आर्थिक केंद्र बनाती है। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के रूप में 3.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश ने बंगलौर को भारत तीसरा सबसे ज्यादा एफडीआई आकर्षित करने वाले शहर बना दिया। बंगलौर में 103 से अधिक केन्द्रीय और राज्य अनुसंधान और विकास संस्थान, भारतीय विज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय लॉ स्कूल ऑफ इंडिया, 45 इंजीनियरिंग कॉलेज, विश्व स्तर की स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं, मेडिकल कॉलेज और संस्थान, बंगलौर को शिक्षा और अनुसंधान के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण शहर बनाते हैं। भारत की दूसरी और तीसरी सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों का मुख्यालय इलेक्ट्रॉनिक्स सिटी में है। बेंगलूर भारत के सूचना प्रौद्योगिकी निर्यातों का अग्रणी स्रोत रहा है, और इसी कारण से इसे 'भारत का सिलिकॉन वैली' कहा जाता है। भारत के प्रमुख तकनीकी संगठन इसरो, इंफ़ोसिस और विप्रो का मुख्यालय यहीं है। बेंगलूरु भारत का दूसरा सबसे तेज़ी से विकसित हो रहा मुख्य महानगर है। बेंगलूर कन्नड़ फिल्म उद्योग का केंद्र है। एक उभरते हुए महानगर के तौर पर बेंगलूर के सामने प्रदूषण, यातायात और अन्य सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां हैं। $83 अरब के घरेलू उत्पाद के साथ बेंगलूर भारत का चौथा सबसे बड़ा नगर है। 12.97 डिग्री उत्तरी अक्षांश और 77.56 डिग्री पूर्वी देशांतर पर स्थित इस नगर का भूखंड मुख्यतः पठारी है। यह मैसूर का पठार के लगभग बीच में 920 मीटर की औसत ऊचाई पर अवस्थित है। बंगलौर जिले के उत्तर-पूर्व में कोलार जिला, उत्तर-पश्चिम में तुमकुर जिला, दक्षिण-पश्चिम में मांड्य जिला, दक्षिण में चामराजनगर जिला तथा दक्षिण-पूर्व में तमिलनाडु राज्य है। एक अनुमान के अनुसार बंगलौर में 51% से अधिक लोग भारत के विभिन्न हिस्सों से आ कर बसे हैं। अपने सुहाने मौसम के कारण इसे भारत का उद्यान नगर भी कहते हैं। प्रकाश का पर्व दीपावली यहाँ बहुत धूमधाम से मनाई जाती है। दशहरा, जो मैसूर का पहचान बन गया है, भी काफी प्रसिद्ध है। अन्य लोकप्रिय उत्सवों में गणेश चतुर्थी, उगादि, संक्रांति, ईद-उल-फितर, क्रिसमस शामिल हैं। कन्नड़ फिल्म उद्योग का केन्द्र बंगलौर, सालाना औसतन 80 कन्नड़ फिल्म का निर्माण करता है है। कन्नड़ फिल्मों की लोकप्रियता ने एक नई जनभाषा बंगलौर-की-कन्नड़ को जन्म दिया है जो अन्य भाषाओं से प्रेरित है और युवा संस्कृति का समर्थक है। व्यंजनों की विविधता से भरपूर इस नगर में उत्तर भारतीय, दक्कनी, चीनी तथा पश्चिमी खाने काफी लोकप्रिय हैं। दिल्ली और मुंबई के विपरीत बेंगलूर में समकालीन कला के नमूने 1990 के दशक से पहले विरले ही होते थे। 1990 के दशक में बहुत से कला प्रदर्शन स्थल बेंगलूर में स्थापित हो गए, जैसे सरकार द्वारा समर्थित नैशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट। बेंगलूर का अन्तर्राष्ट्रीय कला महोत्सव, आर्ट बेंगलूर, 2010 से चल रहा है, और यह दक्षिण भारत का अकेला कला महोत्सव है। क्रिकेट यहाँ का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है। बंगलौर ने देश को काफी उन्नत खिलाड़ी दिये हैं, जिसमें राहुल द्रविड़, अनिल कुम्बले, गुंडप्पा विश्वनाथ, प्रसन्ना, बी. एस. चन्द्रशेखर, वेंकटेश प्रसाद, जावागल श्रीनाथ आदि का नाम लिया जा सकता है। बंगलौर में कई क्लब भी हैं, जैसे - बंगलौर गोल्फ क्लब, बाउरिंग इंस्टीट्यूट, इक्सक्लुसिव बंगलौर क्लब आदि जिनके पूर्व सदस्यों में विंस्टन चर्चिल और मैसूर महाराजा का नाम शामिल है। ऐसा माना जाता है कि जब कैंपे गौड़ा ने 1537 में बंगलौर की स्थापना की। उस समय उसने मिट्टी की चिनाई वाले एक छोटे किले का निर्माण कराया। साथ ही गवीपुरम में उसने गवी गंगाधरेश्वरा मंदिर और बासवा में बसवांगुड़ी मंदिर की स्थापना की। इस किले के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिसका दो शताब्दियों के बाद हैदर अली ने पुनर्निर्माण कराया और टीपू सुल्तान ने उसमें और सुधार कार्य किए। ये स्थल आज भी दर्शनीय है। शहर के मध्य 1864 में निर्मित कब्बन पार्क और संग्रहालय देखने के योग्य है। 1958 में निर्मित सचिवालय, गांधी जी के जीवन से संबंधित गांधी भवन, टीपू सुल्तान का सुमेर महल, बाँसगुड़ी तथा हरे कृष्ण मंदिर, लाल बाग, बंगलौर पैलेस साईं बाबा का आश्रम, नृत्यग्राम, बनेरघाट अभयारण्य कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ बंगलौर की यात्रा करने वाले ज़रूर जाना चाहेंगे। यह मंदिर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल को समर्पित है। प्रत्येक दिन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। इस मंदिर में बैठे हुए बैल की प्रतिमा स्थापित है। यह मूर्ति 4.5 मीटर ऊंची और 6 मीटर लम्बी है। बुल मंदिर एन.आर.कालोनी, दक्षिण बैंगलोर में हैं। मंदिर रॉक नामक एक पार्क के अंदर है। बैल एक पवित्र हिंदू यक्ष, नंदी के रूप में जाना जाता है। नंदी एक करीबी भक्त और शिव का परिचरक है। नंदी मंदिर विशेष रूप से पवित्र बैल की पूजा के लिए है।"नंदी" शब्द का मतलब संस्कृत में "हर्षित" है। विजयनगर साम्राज्य के शासक द्वारा 1537 में मंदिर बनाया गयाथा। नंदी की मूर्ति लंबाई में बहुत बड़ा है, लगभग 15 फुट ऊंचाई और 20 फीट लंबाई. पर है। कहा जाता है कि यह मंदिर लगभग 500 साल पहले का निर्माण किया गया है। केम्पे गौड़ा के शासक के सपने में नंदी आये और एक मंदिर पहाड़ी पर निर्मित करने का अनुरोध किया। नंदी उत्तर दिशा कि और सामना कर रहा है। एक छोटे से गणेश मंदिर के ऊपर भगवान शिव के लिए एक मंदिर बनाया गया है। किसानों का मानना ​​है कि अगर वे नंदी कि प्रार्थना करते है तो वे एक अच्छी उपज का आनंद ले सक्ते है।बुल टेंपल को दोड़ बसवन गुड़ी मंदिर भी कहा जाता है। यह दक्षिण बेंगलुरु के एनआर कॉलोनी में स्थित है। इस मंदिर का मुख्य देवता नंदी है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदी शिव का न सिर्फ बहुत बड़ा भक्त था, बल्कि उनका सवारी भी था। इस मंदिर को 1537 में विजयनगर साम्राज्य के शासक केंपेगौड़ा ने बनवाया था। नंदी की प्रतिमा 15 फीट ऊंची और 20 फीट लंबी है और इसे ग्रेनाइट के सिर्फ एक चट्टा के जरिए बनाया गया है। बुल टेंपल को द्रविड शैली में बनाया गया है और ऐसा माना जाता है कि विश्वभारती नदी प्रतिमा के पैर से निकलती है। पौराणिक कथा के अनुसार यह मंदिर एक बैल को शांत करने के लिए बनवाया गया था, जो कि मूंगफली के खेत में चरने के लिए चला गया था, जहां पर आज मंदिर बना हुआ है। इस कहानी की स्मृति में आज भी मंदिर के पास एक मूंगफली के मेले का आयोजन किया जाता है। नवंबर-दिसंबर में लगने वाला यह मेला उस समय आयोजित किया जाता है, जब मूंगफली की पैदावार होती है। यह समय बुल टेंपल घूमने के लिए सबसे अच्छा रहता है।दोद्दा गणेश मंदिर बुल टेंपल के पास ही स्थित है। बसवन गुड़ी मंदिर तक पहुंचने में परेशानी नहीं होती है। बेंगलुरु मंदिर के लिए ढेरों बसें मिलती हैं। यह मूर्ति 65 मीटर ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शिव पदमासन की अवस्था में विराजमान है। इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास स्थल तथा प्रवाहित हो रही गंगा नदी है। इस्कोन मंदिर बंगलूरू की खूबसूरत इमारतों में से एक है। इस इमारत में कई आधुनिक सुविधाएं जैसे मल्टी-विजन सिनेमा थियेटर, कम्प्यूटर सहायता प्रस्तुतिकरण थियेटर एवं वैदिक पुस्तकालय और उपदेशात्मक पुस्तकालय है। इस मंदिर के सदस्यो व गैर-सदस्यों के लिए यहाँ रहने की भी काफी अच्छी सुविधा उपलब्ध है। अपने विशाल सरंचना के कारण हि इस्कॉन मंदिर बैगंलोर में बहुत प्रसिद्ध है और इसिलिए बैगंलोर का सबसे मुख्य पर्यटन स्थान भी है। इस मंदिर में आधुनिक और वास्तुकला का दक्षिण भरतीय मिश्रण परंपरागत रूप से पाया जाता है। मंदिर में अन्य संरचनाऍ - बहु दृष्टि सिनेमा थिएटर और वैदिक पुस्तकालय। मंदिर में ब्राह्मणो और भक्तों के लिए रहने कि सुविधाऍ भी उपलब्ध है।इस्कॉन मंदिर के बैगंलोर में छ: मंदिर है:- उत्तर बैगंलोर के राजाजीनगर में स्थित कृष्ण और राधा का मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा इस्कॉन मंदिर है। इस मंदिर का शंकर दयाल शर्मा ने सन् 1997 में उद्घाटन किया। टीपू पैलेस व किला बंगलूरू के प्रसिद्व पर्यटन स्थलों में से है। इस महल की वास्तुकला व बनावट मुगल जीवनशैली को दर्शाती है। इसके अलावा यह किला अपने समय के इतिहास को भी दर्शाता है। टीपू महल के निर्माण का आरंभ हैदर अली ने करवाया था। जबकि इस महल को स्वयं टीपू सुल्तान ने पूरा किया था। टीपू सुल्तान का महल मैसूरी शासक टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन निवास था। यह बैंगलोर, भारत में स्थित है। टीपू की मौत के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने सिंहासन को ध्वस्त किया और उसके भागों को टुकड़ा में नीलाम करने का फैसला किया। यह बहुत महंगा था कि एक व्यक्ति पूरे टुकड़ा खरीद नहीं सक्ता है। महल के सामने अंतरिक्ष में एक बगीचेत और लॉन द्वारा बागवानी विभाग, कर्नाटक सरकार है। टीपू सुल्तान का महल पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह पूरे राज्य में निर्मित कई खूबसूरत महलों में से एक है। यह जगह कला प्रेमियों के लिए बिल्कुल उचित है। इस आर्ट गैलरी में लगभग 600 पेंटिग प्रदर्शित की गई है। यह आर्ट गैलरी पूरे वर्ष खुली रहती है। इसके अलावा, इस गैलरी में कई अन्य नाटकीय प्रदर्शनी का संग्रह देख सकते हैं। यह महल बंगलूरू के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। इस महल की वास्तुकला तुदौर शैली पर आधारित है। यह महल बंगलूरू शहर के मध्य में स्थित है। यह महल लगभग 800 एकड़ में फैला हुआ है। यह महल इंगलैंड के वाइंडसर महल की तरह दिखाई देता है। प्रसिद्ध बैंगलोर पैलेस बैंगलोर का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थान है। 4500 वर्ग फीट पर बना यह विशाल पैलेस 110 साल पुराना है। सन् 1880 में इस पैलेस का निर्माण हुआ था और आज यह पुर्व शासकों की महिमा को पकड़ा हुआ है।इसके निर्माण में तब कुल 1 करोड़ रुपये लगे थे। इसके आगे एक सुन्दर उद्यान है जो इसको इतना सुन्दर रूप देता है कि वह सपनों और कहानियों के महल कि तरह लगता है।बेंगलुरु पैलेस शहर के बीचों बीच स्थित पैलेस गार्डन में स्थित है। यह सदशिवनगर और जयामहल के बीच में स्थित है। इस महल के निर्माण का काम 1862 में श्री गेरेट द्वारा शुरू किया गया था। इसके निर्माण में इस बात की पूरी कोशिश की गई कि यह इंग्लैंड के विंसर कास्टल की तरह दिखे। 1884 में इसे वाडेयार वंश के शासक चमाराजा वाडेयार ने खरीद लिया था। 45000 वर्ग फीट में बने इस महल के निर्माण में करीब 82 साल का समय लगा। महल की खूबसूरती देखते ही बनती है। जब आप आगे के गेट से महल में प्रवेश करेंगे तो आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे। अभी हाल ही में इस महल का नवीनीकरण भी किया गया है। महल के अंदरूनी भाग की डिजाइन में तुदार शैली का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है। महल के निचले तल में खुला हुआ प्रांगण है। इसमें ग्रेनाइट के सीट बने हुए हैं, जिसपर नीले रंग के क्रेमिक टाइल्स लेगे हुए हैं। रात के समय इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। वहीं महल के ऊपरी तल पर एक बड़ा सा दरबार हॉल है, जहां से राजा सभा को संबोधित किया करते थे। महल के अंदर के दीवार को ग्रीक, डच और प्रसिद्ध राजा रवि वर्मा के पेंटिंग्स से सजाया गया है, जिससे यह और भी खिल उठता है। यह जगह बंगलूरू के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। इसका निर्माण 1954 ई. में किया गया। इस इमारत की वास्तुकला नियो-द्रविडियन शैली पर आधारित है। वर्तमान समय में यह जगह कर्नाटक राज्य के विधान सभा के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके अलावा इमारत का कुछ हिस्सा कर्नाटक सचिवालय के रूप में भी कार्य कर रहा है। विधान सौधा के शैली में ही और एक इमारत का निर्माण किया गया है, जिसका नाम ’विकास सौधा’ रखा गया है। पूरे भारत में यह सबसे बड़ी विधान भवन है। तत्कालीन मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा की ओर से शुरू की गई है और, फरवरी 2005 में उद्घाटन किया गया। यह डॉ॰ अम्बेडकर रोड, सेशाद्रिपुरम में स्थित है। विधान सौधा के सामने कर्नाटक उच्च न्यायालय है। 2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद, विधान सौधा की सुरक्षा के बारे में चिंता कि जा रही थी। सभी पक्षों के फुटपाथ पर एक मजबूत 10 फुट ऊंची इस्पात बाड़ लगाने का फैसला किया गया। विधान सौधा के तीन मुख्य फर्श है। यह भवन 700 फुट उत्तर दक्षिण और 350 फीट पूरब पश्चिम आयताकार है।अगर आप बेंगलुरु जा रहे हैं तो विधान सौदा जरूर जाएं। यह राज्य सचिवालय होने के साथ-साथ ईंट और पत्थर से बना एक उत्कृष्ट निर्माण है। करीब 46 मीटर ऊंचा यह भवन बेंगलुरु का सबसे ऊंचा भवन है।इसकी वास्तुशिल्पीय शैली में परंपरागत द्रविड शैली के साथ—साथ आधुनिक शैली का भी मिश्रण देखने को मिलता है। ऐसे में यहां जाना आपको निराश नहीं करेगा। शहर के किसी भी स्थान से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। सार्वजनिक छुट्टी के दिन और रविवार के दिन इसे रंग—बिरंगी रोशनी से सजाया जाता है, जिससे यह और भी खूबसूरत हो उठता है। हालांकि विधान सौदा हर दिन शाम 6 से 8.30 बजे तक रोशनी से जगमगाता रहता है। बेंगलुरु सिटी जंक्शन से यह सिर्फ 9 किमी दूर है। कब्बन पार्क के पास स्थित दूर तक फैले हरे-भरे मैदान पर बना विधान सौदा घूमने अवश्य जाना चाहिए। वर्तमान समय में इस बाग को लाल बाग वनस्पति बगीचा के नाम से जाना जाता है। यह बाग भारत के सबसे खूबसूरत वनस्पतिक बगीचों में से एक है। अठारहवीं शताब्दी में हैदर अली और टीपू सुल्तान ने इसका निर्माण करवाया था। इस बगीचे के अंदर एक खूबसूरत झील है। यह झील 1.5 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है। यह झील का नजारा एक छोटे से द्वीप की तरह प्रतीत होता है। जिस कारण यह जगह एक अच्छे पर्यटन स्थल के रूप में भी जाना जाता है। लालबाग बैंगलोर में उपस्थित वानस्पतिक उद्यान है। साल भर अपने सुन्दर, निवोदित लाल खिलते हुए गुलाबों के कारण इसका नाम लालबाग रखा है। इस उद्यान में दुर्लभ प्रजातियों के पौधों को अफगानिस्तान और फ्रांस से लाया जाता है। यहाँ कई सारे स्प्रिंग, कमल तल आदि भी है। एक ग्लास हाउस भी प्रस्तुत है। जहा अब एक स्थायी पुष्प प्रदर्शनी आयोजित किया जाता है। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर उद्यान को बहुत अच्छी तरह से सजाया जाता है। फुलों से कई तरह के भिन्न-भिन्न चित्र और प्रतिरुप बनाये जाते है।बेंगलुरु के दक्षिण में स्थित लाल बाग एक प्रसिद्ध बॉटनिकल गार्डन है। इस बाग का निर्माण कार्य हैदर अली ने शुरू किया था और बाद में उनके बेटे टीपू सुल्तान ने इसे पूरा किया। करीब 240 एकड़ भूभाग में फैले इस बाग में ट्रॉपिकल पौधों का विशाल संकलन है और यहां वनस्पतियों की 1000 से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। बाग में सिंचाई की व्यवस्था बेहतरीन है और इसे कमल के फूल वाले तालाब, घास के मैदान और फुलवारी के जरिए बेहतरीन तरीके से सजाया गया है। लोगों को वनस्पति के संरक्षण के प्रति जागरुक करने के लिए यहां हर साल फूलों की प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। लाल बाग हर दिन सुबह 6 बजे से शाम 7 बजे तक खुला रहता है। यह राज्य पथ परिवहन की बस और टूरिस्ट बस के जरिए अच्छे से जुड़ा हुआ है। वर्तमान में लाल बाग को बागबानी निदेशायल द्वारा सहयोग किया जा रहा है। हलांकि इसे 1856 में ही सरकारी बॉटनिकल गार्डन घोषित कर दिया गया था। लंदन के क्रिस्टल पैलेसे से प्रभावित होकर बाग के अंदर एक ग्लास पैलेस भी बनाया गया है, जहां हर साल फूलों की प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। लाल बाग की चट्टानें करीब 3000 साल पुरानी है और इसे धरती का सबसे पुराना चट्टान माना जाता है। भेंट के तौर पर गार्डन के बीच में एचएमटी द्वारा एक इलेक्ट्रॉनिक फ्लावर क्लॉक बनवाया गया है। इस गार्डन ही हरियाली के बीच में घूमते-घूमते कब आप इंसान से ज्यादा प्रकृति से प्रेम करने लग जाएंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा। कई एकड़ क्षेत्र में फैले लॉन, दूर तक फैली हरियाली, सैंकड़ों वर्ष पुराने पेड़, सुंदर झीलें, कमल के तालाब, गुलाबों की क्यारियाँ, दुर्लभ समशीतोष्ण और शीतोष्ण पौधे, सजावटी फूल पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यहाँ प्रकृति मनुष्य के साथ साक्षात्कार करती है। यह स्थान बंगलौर के सुंदरतम स्थानों में से एक है जिसे लाल बाग बॉटनिकल गार्डन, या लाल बाग वनस्पति उद्यान कहते हैं। यह 240 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। 1760 में इसकी नींव हैदर अली ने रखी और टीपू सुल्तान ने इसका विकास किया। बंगलोर् शहर में आने वाले पर्यटक इस पार्क को देख कर बंगलौर शहर को 'गार्डन सिटी' कह कर पुकारते है। पार्क के माध्यम से कई सड़कों विभिन्न स्थानों को चलाते हैं। कबन्न पार्क 1870 में बनाया गया था। पार्क 5:00-8:00 के समय छोड़कर हर समय खुला है। पार्क में 6000 पौधों के साथ 68 किस्मों और 96 प्रजातियों के आसपास पौधों है। सजावटी और फूल के पेड़ है। कब्बन पार्क बंगलौर में गांधी नगर के पास स्थित है। परी फव्वारे और एक अगस्त बैंडस्टैंड भी है। आम्, अशोक, पाइन, इमली, गुलमोहर, बांस, जैसे वृक्षों यहाँ पाये जाते है। रोज गार्डन पब्लिक लाइब्रेरी के प्रवेश के बिल्कुल विपरीत है। यह दरगाह सूफी संत तवक्कल मस्तान की है। इस दरगाह में मुस्लिम व गैर-मुस्लिम दोनों ही श्रद्धालु आते हैं। गांधी भवन कुमार कुरूपा मार्ग पर स्थित है। यह भवन महात्मा गांधी के जीवन की याद में बनवाया गया है। इस भवन में गांधी जी के बचपन से लेकर उनके जीवन के अंतिम दिनों को चित्रों के द्वारा दर्शाया गया है। इसके अलावा यहाँ स्वयं गांधी जी द्वारा लिखे गए पत्रों की प्रतिकृति का संग्रह, उनके खडाऊ, पानी पीने के लिए मिट्टी के बर्तन आदि स्थित है। इस हॉल का निर्माण वायलिन के आकार में किया गया है। कर्नाटक के प्रसिद्ध सांरगी आचार्य टी.चौदैया की मृत्यु के बाद इस जगह का नाम उनके नाम पर रखा गया। विभिन्न उद्देश्यों से बने इस वातानुकूलित हॉल में विशेष रूप से परम्परागत कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। यह जगह गायत्री देवी पार्क एक्सटेंशन पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि यह इमारत पूरे विश्व में संगीत वाद्य के आकार में बना पहला इमारत है। यह मंदिर बसवनगुडी के समीप स्थित है। यह मंदिर अपनी वास्तुकला के लिए भी विशेष रूप से जाना जाता है। यह मंदिर बंगलूरू के पुराने मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण केम्पेगौड़ा ने करवाया था। यह मंदिर भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित है। इस मंदिर में एक प्राकृतिक गुफा है। मकर सक्रांति के दिन काफी संख्या में भक्तगण यहाँ एकत्रित होते हैं। नेहरू प्लैनेटेरियम, भारत में पांच ग्रहो का नाम है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाम पर रखा गया है। ये मुंबई, नई दिल्ली, पुणे और बंगलौर में स्थित हैं। बेंगलुरू में जवाहरलाल नेहरू प्लैनेटेरियम 1989 में बंगलौर नगर ​​निगम द्वारा स्थापित किया गया था। आकाशगंगाओं का विशाल रंग चित्र इस तारामंडल के प्रदर्शनी हॉल में दिखाई देता है। साइंस सेंटर और एक विज्ञान पार्क यहाँ है। यह पता चलता है कि यह ना केवल पढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है बल्कि खगोल विज्ञान के लिये भी प्रयोग किया जाता है। कस्तुरबा रोड पर स्थित यह संग्रहालय सर. एम. विश्वेश्वरैया को श्रधाजंलि देते हुए उनके नाम से बनाया गया है। इसके परिसर में एक हवाई जहाज और एक भाप इजंन का प्रदर्शन किया गया है। संग्रहालय का सबसे प्रमुख आकर्षण मोबाइल विज्ञान प्रदर्शन है,जो पूरे शहर में साल भर होता है। प्रस्तुत संग्रहालय में इलेक्ट्रानिक्स मोटर शक्ति और उपयोग कर्ता और धातु के गुणो के बारे में भी प्रदर्शन किया गया है। सेमिनार प्रदर्शन और वैज्ञानिक विषयो पर फिल्म शो का भी आयोजन किया गया है। संग्रहालय की विशेषताएँ- इजंन हाल, इलेक्ट्रानिक प्रौद्योगिकि वीथिका, किम्बे कागज धातु वीथिका, लोकप्रीय विज्ञान वीथिका और बाल विज्ञान वीथिका। यह पार्क शहर से 22 किलोमीटर की दूरू पर स्थित है। यहां पर विभिन्न प्रकार के जानवरों, चिड़ियों को एक उपयुक्त वातावरण में रखा है। यहां सफारी की सेवा बहुत ही रोमाचंक है, जहां लोगों को जगंल में यात्रा करवाई जाती है। बेंगलुरु अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र सबसे नजदीकी एयरपोर्ट है जो बंगलौर सेंट्रल रेल स्टेशन से करीब 30 किलोमी. की दूरी पर स्थित है। कई प्रमुख शहरों जैसे कोलकाता, मुम्बई, दिल्ली, हैदराबाद, चैन्नई, अहमदाबाद, गोवा, कोच्ची, मंगलूर, पुणे और तिरूवंतपुरम से यहाँ के लिए नियमित रूप से उड़ानें भरी जाती है। अंतरराष्ट्रीय उड़ानें भी इसी एयरपोर्ट से निकलती हैं।बेंगलुरु इंटरनेशनल एयरपोर्ट, बेंगलुरुअवलोकन आकर्षण होटल वीकेंड में जाने लायक फोटो औरअनुशंसित बेंगलुरु इंटरनेशनल एयरपोर्ट शहर के बीच से करीब 40 किमी दूर स्थित है। यह भारत का चौथा सबसे व्यस्त एयरपोर्ट है। साथ ही यह किंगफिशर एयरलाइन का गढ़ भी है। यहां 10 डॉमेस्टिक और 21 इंटरनेशनल एयरलाइन की सुविधा है। इससे बेंगलुरु शेष भारत और विश्व से अच्छे से जुड़ा हुआ है।Bangalore photos, Bengaluru International Airportसोशल नेटवर्क पर इसे शेयर करेंशेयर करेंट्वीट करेंटशेयर करेंकमेंट करेंइसके निर्माण की शुरुआत 2008 में हुई थी और यह जर्मन कंपनी सीमेंस और कर्नाटक सरकार का ज्वाइंट सेक्टर वेंचर था। चूंकि यह रेलवे स्टेशन और बस टर्मिनल से नजदीक है, इसलिए एयरपोर्ट तक रेलवे लाइन बिछाने की योजना बनाई जा रही है। वहीं नेशनल हाइवे से यहां पहुचनें के लिए सिक्स लेन हाइवे पहले ही बनाया जा चुका है।यह एयरपोर्ट 71000 वर्ग मीटर में बना है और पैसेंजर टर्मिनल पूरी तरह से वातानुकूलित है। इसके चार तल्ला भवन में अंतरराष्ट्रीय और घरेलू पैसेंजर रुक सकते हैं। इस एयरपोर्ट की एक और खास बात यह है कि हज यात्रियों के लिए यहां एक अलग टर्मिनल है। करीब 1500 वर्ग मीटर के इस टर्मिनल में 600 यात्री एक साथ समा सकते हैं। शहर से एयरपोर्ट पहुंचने के लिए आप टैक्सी का सहारा ले सकते हैं। बंगलुरू में दो प्रमुख रेलवे स्टेशन है:- बंगलौर सिटी जंक्शन रेलवे स्टेशन और यशवंतपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन। यह स्टेशने भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़े हुए है। देश के कई शहरों से नियमित रूप से एक्सप्रेस रेल बंगलूरू के लिए चलती है। बंगलुरू में त्वरित यातायात सेवा भी है, जिसे बंगलुरु मेट्रो या नम्मा मेट्रो कहा जाता है। बंगलूरू में काफी संख्या में बस टर्मिनल है। जो कि रेलवे स्टेशन के समीप ही है। BMTC के किराये देश में सबसे ज्यादा माना जाता है। पहले चरण में एक किलोमीटर 4 रुपए है, दूरी बढ़ने के साथ - रू 1 /प्रति किलोमीटर हो जता है। BMTC का मुख्य आकर्षण 60 / पर प्रदान की दैनिक पास है। बंगलूरू में शॉपिंग का अपना ही एक अलग मजा है। यहाँ आपको कांचीपुरम सिल्क या सावोरस्की क्रिस्टल आसानी से मिल सकता है। बंगलूरू विशेष रूप से मॉलों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ स्थित मॉल भारत के कुछ खूबसूरत और बड़े मॉल में से एक है। कमर्शियल स्ट्रीट बंगलूरू से सबसे व्यस्त और भीड़-भाड़ वाले शॉपिंग की जगहों में से है। यहाँ आपको जूते, ज्वैलरी, स्टेशनरी, ट्रैवल किट और स्पोाट्स वस्तुएं आसानी से मिल जाएगी। ब्रिटिश काल के दौरान के दक्षिण परेड को आज एम.जी.रोड़ के नाम से जाना जाता है। यहाँ आपको शॉपिंग के लिए इलेक्ट्रॉ निक उपकरण, किताबें और मैगजीन, सिल्क साड़ी, कपड़े, प्राचीन और फोटोकारी की जुड़ी विशेष चीजें मिल सकती है। एम.जी.रोड़ के काफी नजदीक ही ब्रिगेड रोड है यह जगह इलेक्ट्रॉ निक उपकरण जैसे टेलीविजन, फ्रिज, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर और वाशिंग मशीन आदि के लिए प्रसिद्ध है। बंगलौर का बेंगलुरु अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र देश का तीसरा व्यस्ततम एयरपोर्ट है। घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों में प्रयुक्त यह हवाईपट्टी, एशिया, मध्य-पूर्व तथा यूरोप के लिये सेवाएं देती है। कब्बन पार्क और संग्रहालय · विधान सौध · गांधी भवन · टीपू सुल्तान का सुमेर महल · बासवांगुडी मंदिर · इस्कॉन का हरे कृष्ण मंदिर · लाल बाग · बेंगलोर पैलेस · साईं बाबा का आश्रम · नृत्य ग्राम · बानेरघाट राष्ट्रीय उद्यान
पुरनिया या पूर्णियाँ बिहार राज्य का ज़िला है। इसके उत्तर में अररिया तथा किशनगंज जिला, पूर्व में पश्चिम बंगाल का दिनाजपुर, पश्चिम में मधेपुरा जिला, दक्षिण में भागलपुर तथा कटिहार जिला सीमा बनाती है। इसका क्षेत्रफल 3229 वर्ग किमी है। उत्तर की ओर धरातल पथरीला तथा पूर्व की ओर नदियों एवं प्राकृतिक स्रोतों से बने कभी न सूखनेवाले दलदल एवं पश्चिम की ओर रेतीले घास के मैदान मिलते हैं। गंगा के अलावा कोसी, महानंदा तथा पनार नदियाँ बहती हैं। पूर्व की ओर कहीं-कहीं उत्तम जलोढ़ मिट्टी मिलती है। वर्षा शीघ्र प्रारंभ होती तथा जोरों के साथ होती है। वार्षिक वर्षा का औसत 71 इंच रहता है। कृषि में धान के अतिरिक्त दालें, तिलहन और तंबाकू भी पैदा हाता है। पशु छोटे तथा कमजोर हाते हैं। उद्योगों में मोटे रंगीन कपड़े, बैलगाड़ियों के पहिए, चटाइयाँ तथा जूट के सामान बनाए जाते हैं।
निकोलाउ डॉस रीस लोबाटो या निकोलाउ डॉस रीस लोबैटो, पूर्वी तिमोर के एक राजनीतिज्ञ और राष्ट्रीय नायक थे। 7 दिसम्बर 1952 को पुर्तगाली तिमोर के बज़ारतेते में जन्मे लोबाटो, 28 नवम्बर से लेकर 7 दिसम्बर 1975 तक पूर्वी तिमोर के प्रधानमंत्री भी थे। इन्डोनेशियाई सेना के पूर्वी तिमोर में घुस आने के बाद लोबाटो, फ्रेटिलिन के अन्य प्रमुख नेताओं के साथ, तिमोर के दूरदराज के इलाकों में भाग गए ताकि वो इन्डोनेशियाई बलों के खिलाफ लड़ने की तैयारी कर सकें। 31 दिसम्बर 1978 को लेफ्टिनेंट प्राबोवो सुबिआंतो के नेतृत्व में इन्डोनेशियाई सेना के विशेष बल द्वारा की गयी कार्यवाही में लोबाटो को मार दिया गया। लोबाटो की मौत पेट में गोली लगने के कारण हुई। लोबाटो के शव को दिली ले जाया गया ताकि उसे इन्डोनेशियाई प्रेस को दिखाया जा सके। निकोलाउ लोबाटो इस प्रकार पूर्वी तिमोर के राष्ट्रीय नायक बन गये। पूर्वी तिमोर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम उनके सम्मान में प्रेसीदेंते निकोलाउ लोबाटो अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया है।
इसमें सरकार द्वारा बाजार से लिए गए ऋण, भारतीय रिजर्व बैंक से ली गई उधारी और विनिवेश के जरिए प्राप्त आमदनी को शामिल किया जाता है।
एन्ड्रॉयड गूगल द्वारा विकसित एक मुक्त स्रोत मोबाइल प्रचालन तन्त्र है जो लिनक्स पर आधारित है। एन्ड्रॉयड का विकास मुख्य रूप से स्पर्श पटल मोबाइल के लिये किया गया था जिसे प्रायः स्मार्टफोन भी कहा जाता है, किन्तु इसका प्रयोग टेबलेट कंप्यूटर में भी किया जाता है और अब कार, टीवी, कलाई घड़ियों, नोटबुक, गेमिंग कन्सोल, डिजिटल कैमरा, आदि में भी एन्ड्रॉयड का उपयोग हो रहा है। इस प्रचालन तन्त्र में सब कुछ स्पर्श आधारित है जैसे वर्चुअल की–बोर्ड, स्वाइपिंग, टैपिंग, पिंचिंग इत्यादि जो दैनिक प्रयोग की भंगिमाओं से काफ़ी मिलते जुलते हैं। इसमें में मोबाइल गेम, कैमरा आदि अनेक सुविधाएँ उपलब्ध हैं जिनके कारण एन्ड्रॉयड वर्तमान समय में सर्वाधिक उपयोग होने वाला प्रचालन तन्त्र बन गया है। एन्ड्रॉयड तन्त्र के सोर्स कोड को गूगल ने मुक्त स्रोत लाइसेन्स के अन्तर्गत रिलीज़ किया था किन्तु अधिकांश एन्ड्रॉयड आधारित युक्तियाँ निःशुल्क, मुक्त एवं स्वामित्व सॉफ़्टवेयर सामग्री के संयोजन में आती हैं। एन्ड्रॉयड अधिकतर फोन, टी वी आदि में इस्तेमाल होता है। एन्ड्रॉयड का लेटेस्ट वर्जन गूगल पिक्सल्स में आने लगा है। एन्ड्रॉयड का उपयोक्ता अन्तराफ़लक स्पर्श पर आधारित है और स्वाईपिंग, टैपिंग, पिंचिंग जैसी क्रियाओं की मदद से उपयोगकर्ता स्क्रीन पर वस्तुओं का नियंत्रण कर सकता है। इसके अलावा गेम कण्ट्रोलर या पूर्ण रूप के बड़े कीबोर्ड्स, इत्यादि को ब्लूटूथ, यूएसबी या वाई फाई की सहायता से जोड़ा जा सकता है। उपयोगकर्ता के हर आदेश पर उसे तुरंत प्रतिक्रिया मिलती है, जो कि उसके अनुभव को सहज बनाती है व मंशा सुलभ कराती है। इस आदेश की प्रतीक्षा तरल स्पर्श अन्तराफ़लक करता है व आदेश मिलते ही अपने सॉफ़्टवेयर प्रतिक्रिया स्वरूप उचित कार्रवाई उपलब्ध कराता है। इसके लिये एक्सिलरोमीटर, जायरोस्कोप, निकटता संवेदक आदि का प्रयोग भी किया जाता है। एन्ड्रॉयड उपकरण आरम्भ होते समय एक गृहस्थान में बूट होता है, जो कि उपकरण का प्राथमिक संचालन और सूचना केंद्र होता है। एन्ड्रॉयड की होमस्क्रीन आमतौर पर अनुप्रयोग और विड्जेट से भरी होती है। इसमें सबसे ऊपर एक स्टेटस बार भी होती है, जो उपकरण के बारे में व उसकी कनेक्टिविटी संबंधित सूचनाएं उपलब्ध कराती है। एन्ड्रॉयड पर चलने वाले अनुप्रयोग दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। इन्हें गूगल प्ले या अन्य उपलब्ध बहुत सी मानक एवं अमानक अनुप्रयोग भण्डार के माध्यम से एप्लीकेशन फाइल डाउनलोड करके प्राप्त किया जा सकता है। एप्लीकेशन एंड्रायड सॉफ्टवेयर विकास किट की मदद से जावा प्रोग्रामिंग भाषा में विकसित किये जाते हैं। एन्ड्रॉयड की पहचान बन चुका हरे रंग का एन्ड्रॉयड लोगो की रचना ग्राफ़िक डिज़ाइनर इरीना ब्लोक द्वारा 2007 में गूगल के लिए की गई थी क्योंकि एन्ड्रॉयड और उसका लोगो मुक्त स्रोत लाइसेंस के अंतर्गत आता है, उसके मूल हरे लोगो की अनगिनत विभिन्न रूपों में पुनर्व्याख्या की जा चुकी है। गूगल हर छह से नौ महीनों में एन्ड्रॉयड के लिए महत्वपूर्ण अद्यतन प्रदान करता है, जो की वृद्धिशील होते हैं और जिसे अधिकतर उपकरण इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त करने में सक्षम होते हैं।एन्ड्रॉयड का सबसे नवीनतम प्रमुख अद्यतन एन्ड्रॉयड 7.1.2 है। इसे ड्रॉइडफ्लेयर के द्वारा भी अपने पुराने एन्ड्रॉयड को नए संस्करण मे बदला जा सकता है। अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी मोबाइल प्रचालन तन्त्र अर्थात् आईओएस की तुलना में एन्ड्रॉयड के अपडेट आमतौर पर वास्तविक उपकरणों तक धीमी गति से पहुँचते हैं। एन्ड्रॉयड जैसे मुक्त प्लेट्फ़ार्म की रचना ओपेन हैण्ड एलाइन्स नामक संगठन द्वारा की गई, गूगल यद्यपि इसका सर्वेसर्वा है, फ़िर भी कुल 84 संगठन इसके सदस्य हैं और इन सबने एन्ड्रॉयड प्लेट्फ़ार्म को विकसित करने में अपना विशेष योगदान दिया है, जिनमें से 34 सदस्य विभिन्न मोबाइल कम्पनियाँ, सेमी कण्डक्टर कंपनी है जैसे एन वीडिय़ा कुआलकम आदि। कुछ हैण्ड्सेट निर्माता कम्पनियाँ जैसे:-सैमसंग, एच 0 टी0 सी0, सोनी, एल0 जी0, मोटोरोला आदि सॉफ्टवेयर कम्पनियाँ भी इसकी सदस्य हैं। अधिकांशतः इलेक्ट्रानिक, तथा दूर-संचार के क्षेत्र से जुड़ी कम्पनियों के संयुक्त प्रयास से एन्ड्रॉयड प्लेटफार्म दिनों-दिन निखर कर सामने आ रहा है। इसके तीव्र विकास में इन कम्पनियों के बीच हुए समझौते का भी विशेष योगदान है। इस समझौते के अनुसार “वे हमेशा इस समुदाय का सहयोग करेंगी और एन्ड्रॉयड प्लेटफार्म से सामंजस्य रखने वाले उपकरणों का ही उत्पादन करेंगी।” इसने न केवल इस प्लेटफार्म के विकास को बल मिला बल्कि इस प्लेटफार्म से संबधित जो भी खोज की गई उसके प्रमुख घटकों/तत्वों को मुख्य धारा को प्रयोग हेतु उपलब्ध कराया जाता रहा। अक्टूबर 2003 में संयुक्त राज्य अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया राज्य के पालो आल्टो नामक नगर में एंडी रूबीन, रिच माइनर, निक सियर्स तथा क्रिस ह्वाइट एन्ड्रॉयड इनकार्पोरेशन की स्थापना की। एण्डी रूबीन के शब्दों में उनका उद्देश्य था -- बाद मे, 17 अगस्त 2005 को गूगल द्वारा इस का अधिग्रहण कर इसे गूगल के अधीन कम्पनी के रूप में रखा गया और मूल कम्पनी एन्ड्रॉयड इनकार्पोरेशन के एंडी रूबीन, रिच माइनर, तथा क्रिस ह्वाइट यहाँ कम्पनी के कर्मचारियों के रूप में काम करते रहे। गूगल द्वारा बाजार में आने के बारे में सोचने के बाद रूबीन के नेतृत्व में लाइनक्स कर्नेल पर आधारित मोबाइल उपकरण प्लेटफार्म को विकसित किया गया। गूगल ने इस प्लेटफार्म की मार्केटिंग इस समझौते के साथ की ‘कि हैण्डसेट निर्माताओ तथा संचार कंपनियों के बीच इस प्लेट फ़ार्म को लचीला रखेगा और अपग्रेड करने की सुविधा उपलब्ध करता रहेगा।’ वर्ष 2008 में इसका प्रथम संस्करण निकाला गया। तब से अबतक कई बार इन संस्करणों को उन्नत किया गया और हर बार इनका नामकरण किसी न किसी खाद्य मीठे पदार्थ के नाम पर किया गया - कपकेक,डोनट एक्लेयर,जिंजरब्रेड,आइसक्रीम सैंडविच,हनीकाम,जेली बीन। 2008 के कप केक संस्करण की विशेषता थी–स्क्रीन को घुमाने की सुविधा, स्क्रीन पर कुंजीपटल तथा टेक्स्ट का अनुमान लगाने की सुविधा।इसके बाद डोनट, फ्रोयो एक्लेयर आदि संस्करणों में और अधिक सुविधाएं प्रदान की गयी। इनमे से सबसे महत्वपूर्ण सुविधा–लेख को आवाज में बदलने के सुविधा,क्लाउड से मोबाइल या टैबलेट में डाऊनलोड की सुविधा, मेमोरी कार्ड पर अनुप्रयोगों को डाउनलोड कर इस्तेमाल करने की सुविधा थी। इसके बाद हनीकाम संस्करण को टैबलेट पर प्रयोग के लिये विकसित किया गया और इसमे पाई गयी कमियों को अगले संस्करण आइसक्रीम सैंडविच में दूर किया गया। इसके बाद के संस्करण जेली बीन के द्वारा यू .एस .बी .आडियो आउट पुट की सुविधा प्रदान की गयी। अभी नवीनतम संस्करण एन्ड्रॉयड 7.1.2 है। एन्ड्रॉयड सॉफ्टवेयर के पांच भाग या अवयव है जिसके आधार पर पूरा एन्ड्रॉयड प्लेटफार्म कार्य करता है। वस्तुतः मोबाईल जैसे सीमित मेमोरी वाले उपकरणों के सर्वोपयुक्त उपयोग करने के लिए इसे विकसित किया गया है। लिनक्स कर्नेल के उपयोग के कारण यह और अधिक शक्तिशाली बन कर उभरा है और प्रायः किसी भी अन्य उपकरण पर चलाया जा सकता है। जावा वर्चुअल मशीन के अनुरूप इस प्रणाली में डैल्विक वर्चुअल मशीन के कारण बिना किसी चिंता या कठिनाई के किसी भी मोबाइल या टेबलेट पर कोइ भी 'एप' अर्थात अनुप्रयोग चलाया जा सकता है। इसी कारण से इसकी सहायता से कोई भी उपकरण जैसे घड़ी, रेफ्रिजरेटर चलाया जा सकता है। एन्ड्रॉयड लिनक्स कर्नेल पर आधारित प्रणाली है जो मोबाइल हार्ड्वेयर से सीधे जुडकर ड्राइवर को नियमित रूप से मेमोरी पावर, नेटवर्क तथा विभिन्न अन्य अनुप्रयोगों द्वारा आदेश देकर विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं को सुलभ कराता हैं। कर्नेल ओपन सोर्स होने के कारण हैकरों तथा कम्प्यूटर प्रोग्रामों में रूचि रखने वालों को अपने प्रोग्राम बनाने में बढ़ावा देता है। इसी कारण कई बार इस तरह के उदाहरण सामने आते हैं कि जिन मोबाइल उपकरणों मे वैध एन्ड्रॉयड नहीं हैं, उन पर भी इन्हें चलाया जा रहा है। कर्नेल हार्ड्वेयर के स्तर पर की जाने वाली वास्तविक डाटा प्रोसेसिंग तथा अनुप्रयोग के बीच सेतु का कार्य करता है। इसका मुख्य कार्य सॉफ्टवेयर तथा हार्डवेयर के बीच संचार स्थापित कर सिस्टम के सभी स्रोतों का आवश्यकतानुसार प्रयोग करना है। जिससे आवश्यक प्रक्रिया का पालन कर कार्य सुचारु रूप से किया जा सके।कर्नेल अनुप्रयोग सॉफ्टवेयर द्वारा किये जाने वाले कार्यों को आवरण प्रदान करता है । विभिन्न ऑपरेटिंग सिस्टम्स में डिजाइन तथा आवश्यकतानुसार कार्य सम्पादन विभिन्न प्रकार के कर्नेल द्वारा किया जाता है। किन्तु मोनोलिथ कर्नेल में ऑपरेटिंग सिस्टम कोड एक ही स्थान पर पर कार्य करते हैं जिससे कम स्थान होने पर भी अधिक कार्य किया जा सकता है। एन्ड्रॉयड में अनुप्रयोग को चलाने के लिये सबसे महत्वपूर्ण अवयव या अंग डैलविक है। जो लोग कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की भाषा से परिचित हैं वे समझ सकते हैं कि यह भी जावा वर्चुअल मशीन का लघु रूप है। इसको इस प्रकार समझा जा सकता है कि पहले जावा कोड में लिखे प्रोग्राम को बाइट कोड में बदला जाता है और फ़िर उसे डैलविक एक्स्क्यूटेबल से अर्थात डेक्स टूल द्वारा डैलविक रूप मे बदल कर प्रयोग किया जाता है। एंड्रॉइड का स्रोत कोड गूगल द्वारा एक मुफ्त स्रोत लाइसेंस के तहत जारी किया जाता है, और इसकी खुली प्रकृति ने डेवलपर्स और तकनीक से जुड़े उत्साही लोगों के एक बड़े समुदाय को प्रोत्साहित किया है ताकि खुले-स्रोत कोड का इस्तेमाल समुदाय-संचालित परियोजनाओं के लिए किया जा सके, जो पुरानी डिवाइसों को अपडेट प्रदान करता है उन्नत उपयोगकर्ताओं के लिए नई सुविधाएं या अन्य ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ मूल रूप से भेजे गए डिवाइसों में एंड्राइड ऑपरेटिंग सिस्टम संचालित किया जा सके । ये सामुदायिक-विकसित रिलीज़ अक्सर आधिकारिक निर्माणों की तुलना में गुणवत्ता के साथ तुलनात्मक स्तर पे नए विशेषताओं और अद्यतनों को लेकर आते हैं; पुरानी डिवाइसों के लिए निरंतर समर्थन प्रदान करते हैं जो निर्माण के कुछ साल बाद आधिकारिक अद्यतन नहीं प्राप्त करते; या उन उपकरणों को एंड्रॉइड से जोरते है जो आधिकारिक तौर पर अन्य ऑपरेटिंग सिस्टम चला रहे थे, जैसे एचपी टचपैड सामुदायिक रिलीज अक्सर मूलभूत रूप से आते हैं और मूल विक्रेता द्वारा प्रदान किए गए संशोधनों में शामिल नहीं होती है, जैसे कि डिवाइस के प्रोसेसर को ओवरक्लॉक या ओवर / ओवरवाल्ल्ट करने की क्षमता। स्य्नोगेनमोड़े सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला सामुदायिक फर्मवेयर था | ऐतिहासिक रूप से, डिवाइस निर्माताओं और मोबाइल वाहक आम तौर पर तीसरे पक्ष के फ़र्मवेयर विकास का समर्थन नहीं करते हैं। निर्माता अनधिकृत सॉफ़्टवेयर चलाने वाले उपकरणों की अनुचित कार्यप्रणाली और इसके परिणामस्वरूप सहायता लागत के बारे में चिंता व्यक्त करते हैं। इसके अलावा, संशोधित फर्मवेयर जैसे कि साइयनोजेमोड कभी-कभी विशेष रूप से फीचर्स प्रदान करते हैं, जैसे टिथरिंग, जिसके लिए वाहक प्रीमियम का भुगतान नहीं करना चाहते । नतीजतन, लॉक बूटलोडर सहित तकनीकी बाधाएं और रूट अनुमतियां तक सीमित पहुंच कई उपकरणों में आम है। हालांकि, चूंकि सामुदायिक विकसित सॉफ्टवेयर अधिक लोकप्रिय हो गए हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका में कांग्रेस ने मोबाइल डिवाइस के "जेलब्रेकिंग" परमिट देने के एक बयान के बाद,निर्माताओं और वाहक ने तीसरे पक्ष के विकास के बारे में उनकी मनोस्थिति को नरम कर दिया है, एचटीसी, मोटोरोला, सैमसंग और सोनी, सहित कई और कम्पनिया विकास और सहयोग को प्रोत्साहित कर रही है । इसके परिणामस्वरूप, समय के साथ, अनधिकृत फर्मवेयर स्थापित करने के लिए हार्डवेयर प्रतिबंधों को नाकाम करने की आवश्यकता कम हो गई है | ये उपकरणों की प्राथमिक गति विधियों को नियन्त्रित करने के लिए निचले स्तर के सॉफ्टवेयर हैं,जो सतह पर होने वाली गतिविधियों जैसे–थ्री-डी हर्ड्वेयर गति तथा डिस्प्ले,सब सिस्टम तथा सॉफ्टवेयर अनुप्रयोगों के प्रबन्धों को नियन्त्रित करते है। सूचनाओं को छाँटने में एस.क्यू.एल डाटाबेस का प्रयोग महत्वपूर्ण घटक के रूप में किया जाता है। एप्लिकेशन, जो उपकरणों की कार्यक्षमता को बढ़ाते हैं, इसे एंड्रॉइड सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट किट और अक्सर जावा प्रोग्रामिंग भाषा का उपयोग करते हुए लिखा जाता है। [ जावा को सी / सी ++ के साथ जोड़ा जा सकता है, एक साथ गैर-डिफ़ॉल्ट रनटायम के विकल्प के साथ, जो बेहतर सी ++ समर्थन की अनुमति देता है। हालांकि जावा प्रोग्रामिंग भाषा भी सीमित प्रोग्रामिंग इंटरफ़ेस के साथ समर्थित है ।मई 2017 में, गूगल ने कोटलाइन प्रोग्रामिंग भाषा में एंड्रॉइड ऐप डेवलपमेंट के लिए समर्थन की घोषणा की। एसडीके में डेवलपमेंट टूल्स का एक व्यापक सेट शामिल है, जिसमें डीबगर, सॉफ्टवेयर लाइब्रेरी, क्यूईएमयू, दस्तावेज़ीकरण, नमूना कोड और ट्यूटोरियल पर आधारित हैंडसेट एमुलेटर शामिल हैं। प्रारंभ में,गूगल का एकीकृत विकास वातावरण एंड्रॉइड डेवलपमेंट टूल्स प्लगइन का उपयोग करते हुए एक्लिप्स था | दिसंबर 2014 में, गूगल ने एंड्रॉइड स्टूडियो को जारी किया, जो इंटेलेलजे आईडीईए पर आधारित है, क्योंकि यह एंड्रॉइड एप्लीकेशन डेवलपमेंट के लिए प्राथमिक आईडीई है। सी या सी ++, गूगल ऐप डेवलपर, नौसिखिया प्रोग्रामर के लिए एक दृश्य वातावरण और विभिन्न क्रॉस प्लेटफॉर्म मोबाइल वेब एप्लीकेशन फ़्रेमवर्क के अनेक प्रयोगों या एक्सटेंशन के लिए मूल विकास किट सहित अन्य विकास उपकरण उपलब्ध हैं। जनवरी 2014 में, गूगल ने क्रोम एचटीएमएल 5 वेब एप्लीकेशन एंड्रॉइड को पोर्टफोल करने के लिए अपाचे कॉर्डोवा पर आधारित ढांचे का खुलासा किया, जो कि एक देशी एप्लिकेशन शेल में लिपटा होता है | एंड्रॉइड के पास तीसरे पक्ष के अनुप्रयोगों की बढ़ती चयन है, जो उपयोगकर्ताओं द्वारा एप्लिकेशन के एपीके फाइल को डाउनलोड करके या एप्लिकेशन स्टोर प्रोग्राम का उपयोग करके डाउनलोड करने की अनुमति देता है अपने डिवाइस से एप्लिकेशन गूगल प्ले स्टोर प्राथमिक एप्लिकेशन स्टोर है जो एंड्रॉइड डिवाइस पर इंस्टॉल किया गया है जो गूगल की संगतता आवश्यकताओं का अनुपालन करता है और गूगल मोबाइल सेवा सॉफ्टवेयर को लाइसेंस देता है।गूगल प्ले स्टोर उपयोगकर्ताओं को गूगल और तृतीय-पक्ष डेवलपर्स द्वारा प्रकाशित एप्लिकेशन को ब्राउज़, डाउनलोड और अपडेट करने देता है; जुलाई 2013 के अनुसार, प्ले स्टोर में एंड्रॉइड के लिए 1 लाख से अधिक एप्लिकेशन उपलब्ध था । जुलाई 2013 तक 50 अरब आवेदन स्थापित किए गए हैं।कुछ गूगल प्ले एप्लिकेशन खरीदने के लिए सीधे वाहक बिलिंग प्रदान करते हैं, जहां एप्लिकेशन की लागत उपयोगकर्ता के मासिक बिल में जोड़ दी जाती है। मई 2017 तक, जीमेल, एंड्रॉइड, क्रोम, गूगल प्ले और मैप्स के लिए प्रति माह एक अरब से ज्यादा सक्रिय यूजर्स हैं। वर्तमान में एन्ड्रॉयड,मोबाइल फोन तथा टैबलेट हेतु एक लोकप्रिय प्रचालन तन्त्र के रूप में उभर रहा है। एन्ड्रॉयड में अभी तक हिन्दी समर्थन उपलब्ध है।
तारा हिन्दू महाकाव्य रामायण में वानरराज वालि की पत्नी है। तारा की बुद्धिमता, प्रत्युत्पन्नमतित्वता, साहस तथा अपने पति के प्रति कर्तव्यनिष्ठा को सभी पौराणिक ग्रन्थों में सराहा गया है। तारा को हिन्दू धर्म ने पंचकन्याओं में से एक माना है। पौराणिक ग्रन्थों में पंचकन्याओं के विषय में कहा गया है:- अहिल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा। पंचकन्या स्मरणित्यं महापातक नाशक॥ हालांकि तारा को मुख्य भूमिका में वाल्मीकि रामायण में केवल तीन ही जगह दर्शाया गया है, लेकिन उसके चरित्र ने रामायण कथा को समझनेवालों के मन में एक अमिट छाप छोड़ दी है। जिन तीन जगह तारा का चरित्र मुख्य भूमिका में है, वह इस प्रकार हैं:- कुछ ग्रन्थों के अनुसार वह देवताओं के गुरु बृहस्पति की पौत्री थी। एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान चौदह मणियों में से एक अप्सराएँ थीं। उन्हीं अप्सराओं में से एक तारा थी। वालि और सुषेण दोनों मन्थन में देवतागण की मदद कर रहे थे। जब उन्होंने तारा को देखा तो दोनों में उसे पत्नी बनाने की होड़ लगी। वालि तारा के दाहिनी तरफ़ तथा सुषेण उसके बायीं तरफ़ खड़े हो गए। तब विष्णु ने फ़ैसला सुनाया कि विवाह के समय कन्या के दाहिनी तरफ़ उसका होने वाला पति तथा बायीं तरफ़ कन्यादान करने वाला पिता होता है। अतः वालि तारा का पति तथा सुषेण उसका पिता घोषित किये गए। राम के यह आश्वासन देने पर कि राम स्वयं वालि का वध करेंगे, सुग्रीव ने वालि को ललकारा। वालि ललकार सुनकर बाहर आया। दोनों में घमासान युद्ध हुआ, परंतु क्योंकि दोनो भाइयों की मुख तथा देह रचना समान थी, इसलिए राम ने असमंजस के कारण अपना बाण नहीं चलाया। अन्ततः वालि ने सुग्रीव को बुरी तरह परास्त करके दूर खदेड़ दिया। सुग्रीव निराश होकर फिर राम के पास आ गया। राम ने इस बार लक्ष्मण से सुग्रीव के गले में माला पहनाने को कहा जिससे वह द्वंद्व के दौरान सुग्रीव को पहचानने में ग़लती नहीं करेंगे और सुग्रीव से वालि को पुन: ललकारने को कहा। सुग्रीव ने किष्किन्धा जा कर वालि को फिर से द्वंद्व के लिये ललकारा। जब वालि ने दोबारा सुग्रीव की ललकार सुनी तो उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। तारा को शायद इस बात का बोध हो गया था कि सुग्रीव को राम का संरक्षण हासिल है क्योंकि अकेले तो सुग्रीव वालि को दोबारा ललकारने की हिम्मत कदापि नहीं करता। अतः किसी अनहोनी के भय से तारा ने वालि को सावधान करने की चेष्टा की। उसने यहाँ तक कहा कि सुग्रीव को किष्किन्धा का राजकुमार घोषित कर वालि उसके साथ संधि कर ले। किन्तु वालि ने इस शक से कि तारा सुग्रीव का अनुचित पक्ष ले रही है, उसे दुत्कार दिया। किन्तु उसने तारा को यह आश्वासन दिया कि वह सुग्रीव का वध नहीं करेगा और सिर्फ़ उसे अच्छा सबक सिखाएगा। ऐसी मान्यता है कि राम ने वालि पर जो तीर चलाया था वह एक साधारण तीर था, अर्थात् राम के तरकश में अनेकानेक अस्त्र थे जिनसे पल भर में जीव तो क्या पूरी की पूरी सभ्यता का विनाश हो सकता था, जैसे ब्रह्मास्त्र इत्यादि। लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम — जो कि विष्णु का अवतार थे और सर्वज्ञाता थे — ने एक साधारण सा ही तीर इसलिए चलाया क्योंकि वालि की तुरन्त मृत्यु न हो और मरने से पहले उसे अपने प्रश्नों का उत्तर भली भांति प्राप्त हो जाये ताकि वह शांति से प्राण त्याग सके और मरने से पहले वह स्वजनों से भली भांति मिल सके। वालि के आहत होने का समाचार सुनकर तारा अपने पुत्र अंगद के साथ रणभूमि की तरफ़ भागी। रास्ते में उसे रण से भागते हुए वानर मिले जिन्होंने उसे सलाह दी कि अंगद को लेकर वापस किष्किन्धा जाकर अंगद का राज्याभिषेक कर दे और राम के प्रकोप से बच जाये। लेकिन तारा ने उस वानर समूह को अपने साथ किया और मरणासन्न वालि की ओर प्रस्थान किया। वहाँ जा कर वालि के समक्ष तारा का विलाप अति महत्वपूर्ण है क्योंकि मनुष्य के अलावा कोई और प्राणी अपने स्वजन के मरने पर इतना विलाप नहीं करता है। पहले तो तारा मरते हुए वालि को अंग लगाती है, उसके पश्चात् सुग्रीव तथा राम को वह खरी खोटी सुनाती है। हनुमान मध्यस्थता करते हुए तारा को ढाढ़स बन्धाते हैं और उसे दर्शन शास्त्र समझाते हैं। यह एक अनूठा संदर्भ है कि तारा ने वालि की चिता में अपने भी प्राण त्यागने का संकल्प लिया। इसका अभिप्राय यह है कि सती प्रथा हमारे समाज में प्राचीन काल से चली आ रही है। इस संदर्भ में इतना ही कहना उचित होगा कि विलाप के समय उसने जो वचन कहे वह कोई साधारण नारी नहीं बोल सकती है। उसको राजनीति तथा कूटनीति का अच्छा ज्ञान था और इसी वजह से वानरों के कहने के बावजूद उसने अंगद का राज्याभिषेक न करा कर सुग्रीव को ही राजा मनोनित किया। अपने पुत्र पर कोई आँच न आने पाये, इस कारण उसने सुग्रीव को अपना स्वामी स्वीकार कर लिया। वालि के वध के पश्चात् तारा ने यही उचित समझा कि सुग्रीव को स्वामी स्वीकार करे क्योंकि उसने अंगद के हितों की रक्षा भी तो करनी थी। जब सुग्रीव राजोल्लास में तल्लीन हो गया और राम को सीता का ढूंढने का वचन भूल गया तो राम ने लक्ष्मण को उसे अपना वचन याद कराने को भेजा। लक्ष्मण वैसे भी काफ़ी ग़ुस्सैल थे। उन्होंने किष्किन्धा की राजधानी पम्पापुर में लगभग आक्रमण बोल दिया। सुग्रीव को अपनी ग़लती का अहसास हो गया लेकिन लक्ष्मण का सामना करने की उसकी हिम्मत न हुई। उसने तारा से आग्रह किया कि वह लक्ष्मण को शान्त कर दे। तारा रनिवास से मदोन्मत्त निकली और लक्ष्मण को शान्त किया। उसने महर्षि विश्वामित्र का उदाहरण दिया कि ऐसे महात्मा भी इन्द्रिय विषयक भोगों के आगे लाचार हो गए थे फिर सुग्रीव की तो बिसात ही क्या और यह भी कि वह मनुष्य नहीं वरन् एक वानर है। तारा ने यह भी वर्णन किया कि सुग्रीव ने चारों दिशाओं में सेना एकत्रित करने के लिए दूत भेज दिये हैं। वाल्मीकि रामायण तथा अन्य भाषाओं के रूपांतरणों में यह उल्लेख है कि अधखुले नयनों वाली मदोन्मत्त तारा के तर्कों को सुनकर लक्ष्मण थोड़ी शान्त हो गए और उसके पश्चात् सुग्रीव के आगमन और उससे सीता को खोजने का आश्वासन पाकर वापस चले गए। रामायण के कुछ क्षेत्रीय रूपांतरणों में यह भी दर्शाया गया है कि जिस समय लक्ष्मण ने किष्किन्धा की राजधानी के राजमहल के गर्भागृह में क्रोधित होकर प्रवेष किया था उस समय सुग्रीव के साथ मदिरा-पान करने वाली उसकी प्रथम पत्नी रूमा नहीं अपितु तारा थी और भोग विलास में वह दोनों तल्लीन थे। यहाँ पर यह याद दिलाना उचित होगा कि राम से मैत्री करते समय सुग्रीव ने अपने राज्य के छिन जाने से भी अधिक वालि द्वारा अपनी पत्नी रूमा के छिन जाने का खेद प्रकट किया था। लेकिन तारा जैसी सहभागिनी पाकर सुग्रीव अपनी प्रीय पत्नी रूमा को भी भूल गया। रामायण के कई रूपांतरणों में यह उल्लेख आया है कि जब मायावी से युद्ध करते समय वालि को काफ़ी समय बीत गया और सुग्रीव ने कन्दरा के मुहाने में एक शिला लगाकर उसका द्वार बन्द कर दिया और किष्किन्धा वापस आकर इस बात की सूचना मंत्रियों को दी कि शायद वालि मायावी के हाथों मारा गया है, तो मंत्रणा करके मंत्रियों ने सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा चुना और प्रकट रूप से विधवा हुई तारा अपने पति के छोटे भाई की पत्नी स्वीकृत हुई। इस प्रथा को न तो वाल्मीकि रामायण में और न ही उसके क्षेत्रीय रूपांतरणों में पाप का दर्जा दिया गया है। लेकिन जब वालि मायावी का वध करके वापस किष्किन्धा आता है और क्रोध के कारण सुग्रीव को देश-निकाला देता है और उसकी पत्नी रूमा को हड़प लेता है तो किष्किन्धाकाण्ड में सुग्रीव-राम मिलाप के दौरान राम इसे घोर पाप की संज्ञा देते हैं। वालि के वध के बाद भी तारा पुनः सुग्रीव की पत्नी बन गई। शायद उस काल के समाज में बहु-पत्नी तथा बहु-पति प्रथा का चलन स्वीकार्य रहा हो।
}} निर्देशांक: 24°49′N 85°00′E / 24.81°N 85°E / 24.81; 85 कटैया अतरी, गया, बिहार स्थित एक गाँव है।
नालाकंकर हिमाल हिमालय की एक छोटी उपश्रेणी है जो दक्षिणी तिब्बत और पश्चिमोत्तरी नेपाल में मानसरोवर झील से दक्षिण में स्थित है। इसकी दक्षिणी सीमा हुमला करनाली नदी है, जो करनाली नदी की एक उपनदी है और नालाकंकर हिमाल को दक्षिण में गुरंस हिमाल और दक्षिणपूर्व में कुमाऊँ क्षेत्र से अलग करती है। नालाकंकर हिमाल का सर्वोच्च शिखर 7,694 मीटर  ऊँचा गुरला मन्धाता है।
688 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 688 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 688 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
सुँदरता, उत्पत्ति, ऊर्जा, भावावेश, क्रोध, अग्नि, स्वर्णताम्र, त्याग, प्रेम, सुरक्षा, उत्साह, एवं चेतावनी लाल वर्ण को रक्त वर्ण भी कहा जाता है, कारण इसका रक्त के रंग का होना। लाल वर्ण प्रकाश की सर्वाधिक लम्बी तरंग दैर्घ्य वाली रोशनी या प्रकाश किरण को कहते हैं, जो कि मानवीय आँख द्वारा दृश्य हो। इसका तरंग दैर्घ्य लगभग625–740 nm तक होता है। इससे लम्बी तरंग को अधोरक्त कहते हैं, जो कि मानवीय चक्षु द्वारा दृश्य नहीं है। लाल रंग प्रकाश का संयोजी प्राथमिक रंग है, जो कि क्याना रंग का सम्पूरक है। लाल रंग सब्ट्रेक्टिव प्राथमिक रंग भी है RYB वर्ण व्योम में, परंतु CMYK वर्ण व्योम में नहीं। मानवीय रंग मनोविज्ञान में, लाल रंग जुडा़ है ऊष्मा, ऊर्जा एवं रक्त से, साथ ही वे भावनाएं जो कि रक्त से जुडी़ हैं। जैसे कि क्रोध, आवेश, प्रेम। इसे किरमिजी़ रंग भी कहते हैं। यह नाम भारत में पाई जाने वाली एक मिट्टी के रंग पर दिया गया है, जिसमें लौह भस्म का बाहुल्य होने से यह रंग आता है। इसे शाहबलूत या चेस्टनट लाल भी कहते हैं, जो कि इसी नाम के फल के रंग का होता है। यह रंग स्वीडन में गाँवों के घरों में अधिकतर पेंट किया जाता है। यह रंग अग्निशामक गाडि़यों पर किया होता है। इसे अँग्रे़ई़ में फायर इंजन रैड कहते हैं। यह रंग लालमणि नामक रत्न के नाम पर उसी रंग का होता है। इस रत्न को अँग्रेजी़ में रूबी कहते हैं। इस रंग का नाम फ्रेंच भाषा से निकला शब्द है। इस रंग का नाम इसी नाम की मदिरा से पडा़ है। इस रंग का नाम फारसी शब्द साकि़र्लात से पडा़ है, जिसका अर्थ थोडा़ नारंगी की ओर का लाल। यह स्कार्लेट का गहरा शेड है। कार्माइन कार्माइन गहरे लाल रंग के लिए प्रयुक्त होता है।
अरकपुर बागमोची दिल्ली का एक मौहल्ला है।
लोरा बुश अमेरिका के 43 राष्ट्रपति जार्ज बुश कि पत्नी है। लोरा बुश को महिलाओं के मुद्दों से गहरा लगाव है। इसके लिए वह कई देशों की महिलाओं से मिलकर बात करती रहती हैं। मार्च 2016 में उन्होंने भारतीय फ़िल्म अभिनेत्री मल्लिका शेरावत से मिली। इस मौके पर महिलाओं के मुद्दों पर ढेरों बातें हुई। मल्लिका ने इस मुलाकात के बारे में कहा कि यह मुलाकात बहुत ही मजेदार रही और इसका अनुभव बहुत अच्छा रहा।
निर्देशांक: 25°06′N 85°54′E / 25.10°N 85.90°E / 25.10; 85.90 रता हलसी, लखीसराय, बिहार स्थित एक गाँव है।
निर्देशांक: 24°49′N 85°00′E / 24.81°N 85°E / 24.81; 85 अमास गया, बिहार का एक प्रखण्ड है।
जय विक्रान्ता 1995 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है।
मृदगलोपनिषद ॠग्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है उपनिषदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। कुछ उपनिषद ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ ग्रन्थों के अंश माने गये हैं। इनका रचनाकाल संहिताओं के बाद का है। उपनिषदों के काल के विषय मे निश्चित मत नही है समान्यत उपनिषदो का काल रचनाकाल 3000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व माना गया है। उपनिषदों के काल-निर्णय के लिए निम्न मुख्य तथ्यों को आधार माना गया है— निम्न विद्वानों द्वारा विभिन्न उपनिषदों का रचना काल निम्न क्रम में माना गया है-
स्लावी भाषाएँ या स्लावोनी भाषाएँ हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार की एक उपशाखा है जो पूर्वी यूरोप, बाल्कन क्षेत्र और उत्तरी एशिया के साइबेरिया क्षेत्र में बोली जाती हैं। स्लावी भाषाएँ बोलने वाली मूल जातियों को स्लाव लोग कहा जाता है। आमतौर पर भाषावैज्ञानिक स्लावी भाषाओँ को तीन उपपरिवारों में विभाजित करते हैं -
भारत की जनगणना अनुसार यह गाँव, तहसील कांठ, जिला मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में स्थित है। सम्बंधित जनगणना कोड: राज्य कोड :09 जिला कोड :135 तहसील कोड : 00718
ओम् णमो कन्नड़ भाषा के विख्यात साहित्यकार शान्तिनाथ कुबेरप्पा देसाई द्वारा रचित एक उपन्यास है जिसके लिये उन्हें सन् 2000 में कन्नड़ भाषा के लिए मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
नंदिवर्गं में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कर्नूलु जिले का एक गाँव है।
ब्रह्म 1994 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है।
सुई दक्षिणी गैस कंपनी एक प्रथम श्रेणी की क्रिकेट टीम है, जो सुई दक्षिणी गैस कंपनी द्वारा प्रायोजित है, जिन्होंने 2007-08 से 2009-10 तक और 2014-15 से वर्तमान तक पाकिस्तान में क्वैद-ए-आज़म ट्रॉफी में खेला था।
रम्भा या क्रोबार एक हाथ का औज़ार है जो धंसी हुई कील आदि निकालने के काम आता है। रम्भा मजबूत लोहे का बनाहुआ होता है। लकड़ी के बक्सों में लगी कीलों को निकालकर उस बक्से को ढहाने के लिये एवं अन्य इसी तरह के कार्यों के लिये इसका उपयोग होता है। इसमें किसी धातु की एक छड़ के सिरे पर वक्राकार सिरा होता है जो कील के सिर को पकड़ने के हिसाब से बनाया गया होता है। अंग्रेजी में इसे क्रोबार शायद इसलिये कहा जाता है क्योंकि इसका आकार कौवे के पैर या चोंच से मिलता-जुलता है।
खेल मोहब्बत का 1986 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है।
सन 1917 की रूस की क्रांति विश्व इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। इसके परिणामस्वरूप रूस से ज़ार के स्वेच्छाचारी शासन का अन्त हुआ तथा रूसी सोवियत संघात्मक समाजवादी गणराज्य की स्थापना हुई। यह क्रान्ति दो भागों में हुई थी - मार्च 1917 में, तथा अक्टूबर 1917 में। पहली क्रांति के फलस्वरूप सम्राट को पद-त्याग के लिये विवश होना पड़ा तथा एक अस्थायी सरकार बनी। अक्टूबर की क्रान्ति के फलस्वरूप अस्थायी सरकार को हटाकर बोलसेविक सरकार की स्थापना की गयी। 1917 की रूसी क्रांति बीसवीं सदी के विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना रही। 1789 ई. में फ्रांस की राज्यक्रांति ने स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व की भावना का प्रचार कर यूरोप के जनजीवन को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। रूसी क्रांति की व्यापकता अब तक की सभी राजनीतिक घटनाओं की तुलना में बहुत विस्तृत थी। इसने केवल निरंकुश, एकतंत्री, स्वेच्छाचारी, ज़ारशाही शासन का ही अंत नहीं किया बल्कि कुलीन जमींदारों, सामंतों, पूंजीपतियों आदि की आर्थिक और सामाजिक सत्ता को समाप्त करते हुए विश्व में मजदूर और किसानों की प्रथम सत्ता स्थापित की। मार्क्स द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा को मूर्त रूप पहली बार रूसी क्रांति ने प्रदान किया। इस क्रांति ने समाजवादी व्यवस्था को स्थापित कर स्वयं को इस व्यवस्था के जनक के रूप में स्थापित किया। यह विचारधारा 1917 के पश्चात इतनी शक्तिशाली हो गई कि 1950 तक लगभग आधा विश्व इसके अंतर्गत आ चुका था।क्रांति के बाद का विश्व इतिहास कुछ इस तरीके से गतिशील हुआ कि या तो वह इसके प्रसार के पक्ष में था अथवा इसके प्रसार के विरूद्ध। रूस की क्रांति का महत्व न केवल यूरोप के इतिहास में वरन् विश्व के इतिहास में है। जिस प्रकार 18वीं शताब्दी के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना फ्रांस की राज्य क्रांति है उसी प्रकार बीसवीं शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण घटना रूस की 1917 ई. की बोल्शेविक क्रांति थी। रूस में सामाजिक समानता का नितांत अभाव था। इस समय रूस का समस्त समाज तीन विभिन्न श्रेणियों में विभक्त था, जिनमें आपस में किसी भी प्रकार की सद्भावना विद्यमान नहीं थी। वे एक दूसरे को अपने से पूर्णतया भिन्न और पृथक समझती थीं। जार निकोलस पूर्ण निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी शासक था। यह जनता को किसी प्रकार का अधिकार प्रदान करने के पक्ष में नहीं था। 1917 की रूसी क्रांति के निम्नलिखित कारण थे- अन्य देशों के समान रूस में भी औद्योगिक क्रांति हुई, यद्यपि यहां पर क्रांति अन्य देशों की अपेक्षा काफी समय के उपरांत हुई किन्तु इसके होने पर रूस में बहुत से कारखानों की स्थापना हो गई थी। इस प्रकार रूस का औद्योगीकरण होना आरंभ हुआ। इसमें काम करने के कारण लाखों की संख्या में मजदूर देहातों और गांवों का परित्याग कर उन नगरों तथा शहरों में निवास करने लगे, जिनमें कल कारखानों की स्थापना हुई थी। नगरों और शहरों में निवास करने के कारण अब वे पहले के समान सीधे-सादे नहीं रह गये थे। नगरों में रहने से उनमें न केवल चलता-पुर्जापन ही आ गया था, अपितु ये राजनीतिक मामलों में भी रूचि लेने लगे थे। इनको अपने राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकारों का भी ध्यान हुआ। इन्होंने अपने क्लबों का निर्माण किया, जहां ये सब प्रकार के मामलों पर विचार करते थे और आपस में वाद-विवाद करते थे। इनको यहां रहकर नवीन विचारधाराओं तथा प्रवृत्तियों का भी ज्ञान हुआ। इन्होंने श्रमिक संगठनों की स्थापना भी करनी आरंभan रूस मे 1905 ई. में एक क्रांति हुई थी, जिसके द्वारा रूस में वैधानिक राजतंत्र की स्थापना करने का प्रयास किया गया था किन्तु पारस्परिक झगड़ों के कारण यह क्रांति सफल नहीं हो सकी और शासन पर पुनः जार का आधिपत्य स्थापित हो गया। इस क्रांति का स्पष्ट परिणाम यह हुआ कि उसने रूस की साधारण जनता को राजनीतिक अधिकारों का परिचय करा दिया था। उनको ज्ञात हो गया कि मत का क्या अर्थ है? ड्यूमा या दूसरे शब्दों में पार्लियामेंट के सदस्यों का निर्वाचन किस प्रकार किया जाना चाहिये? सरकार को लोकमत के अनुसार अपनी नीति का निर्धारण कर जनहित के कार्यों को करने के लिये अग्रसर होना चाहिये। अपने राजनीतिक अधिकारों से परिचित हो जाने के कारण रूस की जनता समझ गई कि रूस में भी पूर्णतया लोकतंत्र शासन की स्थापना होनी चाहिये जहां साधारण जनता के हाथ में शासन सत्ता हो। पश्चिमी यूरोप के लोकतंत्र राज्यों का प्रभाव भी रूस पर पड़ा, यद्यपि रूस के सम्राटों ने पाश्चात्य प्रगतिशील विचारों का रूस में प्रचार रोकने के लिये विशेष रूप से प्रयत्न किया, किन्तु विचारों का रोकना बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि विचार हवा के समान होते हैं। प्रथम विश्वयुद्ध के समय जर्मनी और उसके साथियों के विरूद्ध जो प्रचार-कार्य मित्र राष्ट्रों की ओर से किया जा रहा था, उसमें मुख्यतः यही कहा जाता था कि वे लोकतंत्र शासन, जनता की स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता के आधार पर नवीन राष्ट्रों का निर्माण करने के अभिप्राय से युद्ध कर रहे हैं। रूस मित्र-राष्ट्रों के अंतर्गत था। अतः वहां की जनता पर भी इस प्रचार का बहुत असर पड़ा। रूसी में मध्य श्रेणी के व्यक्तियों में शिक्षा का प्रचार हो गया था। जिस प्रकार फ्रांस की क्रांति का श्रेय फ्रांस के दार्शनिक, शिक्षित वर्ग आदि को प्राप्त है उसी प्रकार रूस में भी क्रांति का वेग इसी श्रेणी के लोगों ने तीव्र किया। वे लोग नई-नई पुस्तकों का अध्ययन करते थे। पश्चिमी यूरोप के विचारों की लिखी हुई पुस्तकें रूसी भाषा में अनूदित हुई थीं। अनेक एशियन लेखकों ने भी अपने ग्रन्थों द्वारा नये तथा प्रगतिशील विचारों का प्रतिपादन किया। शिक्षित वर्ग पर उन नये विचारों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा, विशेषतः नवयुवक विद्यार्थी नये विचारों का अध्ययन कर यह भली-भांति समझने लगे थे कि उनका देश उन्नति की दौड़ में बहुत पिछड़ा हुआ है, जिसका प्रमुख कारण जार की निरंकुशता है। उनके हृदय में यह भावना जागृत हुई कि उनका कर्तव्य है कि वे अपने देश को उन्नत करने के लिये घोर प्रयत्न करें। महायुद्ध में रूस मित्र राष्ट्रों की ओर से सम्मिलित हुआ। उनकी विशाल सेना ने युद्ध के आरंभ में बड़ी क्षमता तथा योग्यता का प्रदर्शन किया, परन्तु दो वर्ष तक निरंतर युद्ध करते हुये उसमें शिथिलता के चिन्ह स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे। रूस की सेना बहादुर अवश्य थी, किन्तु उसमें देश-भक्ति और राष्ट्रीयता की वे भावनायें विद्यमान नहीं थी, जो अपूर्व त्याग और मर मिटने के लिये प्रेरणा प्रदान करती हैं। रूस की सेनायें संख्या की पूर्ति के लिये भरती की गई थीं। उनमें वीर सैनिकों की परम्परा अवश्य थी, पर उनके सम्मुख कोई आदर्श विशेष नहीं था। यही दशा रूस की नौकरशाही की थी। रूस के कर्मचारी यह नहीं समझते थे कि वे देश की उन्नति और राष्ट्र सेवा के लिये नियुक्त किये गये हैं। उनका आदर्श था सम्राट को प्रसन्न कर उच्च पदों पर आसीन होना। जब विश्वयुद्ध लम्बा होता गया और दो वर्ष की लड़ाई के उपरांत भी विजय के कोई चिन्ह प्रकट नहीं हुए तो रूस की सेना और नौकरशाही घबरा उठी। रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि रूस में पहले से ही अपनी चरम सीमा को प्राप्त कर चुका था। गरीब लोगों के लिए गुजर कर सकना असंभव हो गया था। अंत में 7 मार्च 1917 ई. को जनता की दशा बहुत ही शोचनीय हो गई थी। उसके पास न पहनने को कपड़ा था और न खाने को अनाज था। वह भूख और कपड़े से व्याकुल हो चुकी थी। परेशान होकर भूखे और ठण्ड से ठिठुरते हुए गरीब और मजबूरों ने 7 मार्च दिन पेट्रोग्रेड की सड़कों पर घूमना आरंभ किया। रोटी की दुकानों पर ताजी और गरम रोटियों के ढेर लगे पड़े थे। भूखी जनता का मन ताजी और गरम चाय व रोटियों को देखकर ललचा गया और वह अपने आपको नियंत्रण में नहीं रख सकी। उन्होंने बाजार में लूट-मार करनी आरंभ कर दी। सरकार ने सेना को उन पर गोली चलाने का आदेश दिया कि वह गोली चलाकर लूटमार करने वालों को तितर-बितर कर दे, किन्तु सैनिकों ने गोली चलाने से साफ मना कर दिया क्योंकि उनको जनता से सहानुभूति थी। उनमें भी क्रांति की भावना प्रवेश कर चुकी थी। जब मजदूरों ने यह देखा कि सैनिक उन पर गोली चलाने को तैयार नहीं हैं, तो उनका साहस बहुत बढ़ गया। अतः अब क्रान्ति अवश्यम्भावी हो गई थी। दूसरी ओर ड्यूमा ने विसर्जित होने से मना कर दिया। उसका पेट्रोग्रेड सोवियत के समझौता हो गया, जिसके आधार पर 14 मार्च 1917 ई. को उदारवादी नेता जार्ज स्लाव की अध्यक्षता में एक सामाजिक सरकार की स्थापना की गई। उसने 14 मार्च को जार से शासन का परित्याग करने की मांग की। परिस्थिति से बाध्य होकर उसने उनकी मांग को स्वीकार कर शासन से त्यागपत्र दे दिया। इस प्रकार रूस में जारशाही का अंत हुआ। क्रांति में मजदूरों को सफलता प्राप्त हुई, किन्तु उन्होंने शासन की बागडोर को अपने हाथ में रखना उचित न समझ, समस्त शक्ति मध्य वर्ग के हाथ में सौंप दी।
सुखोई एसयू-25 ग्रेच एक सिंगल सीट वाला, सोवियत संघ में सुखोई द्वारा विकसित दो इंजन वाला जेट विमान है। यह सोवियत ग्राउंड बलों के लिए करीब हवाई समर्थन प्रदान करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। सुखोई एसयू-25 के पहले प्रोटोटाइप ने 22 फरवरी 1975 को पहली उड़ान भरी। परीक्षण के बाद, विमान की शृंखला का उत्पादन जॉर्जियाई सोवियत समाजवादी गणराज्य में 1978 में शुरू हुआ था। शुरुआती प्रकार में सुखोई एसयू-25यूबी के दो-सीट ट्रेनर, सुखोई एसयू-25बीएम और निर्यात ग्राहकों के लिए सुखोई एसयू-25क्यू शामिल थे। कुछ विमानों को 2012 में सुखोई एसयू-25एम मानक में अपग्रेड किया जा रहा था। सुखोई एसयू-25टी और सुखोई एसयू-25टीएम आगे के विकासाधीन विमान थे लेकिन इनका बड़ी संख्याओं में उत्पादन नहीं किया गया था। सुखोई एसयू-25, और सुखोई एसयू-34, 2007 तक उत्पादन में एकमात्र बख़्तरबंद, फिक्स्ड-विंग विमान थे। सुखोई एसयू-25 रूस, स्वतंत्र राज्य राष्ट्रसंघ और निर्यात ग्राहकों के वायु सेना मे अभी भी सेवा में हैं। सुखोई एसयू-25 की 30 से अधिक वर्षों की सेवा के दौरान कई संघर्षों में इसने अच्छे लड़ाकू विमान की भूमिका निभाई है। यह अफगानिस्तान में सोवियत युद्ध में मुख्य रूप से शामिल था। इसने मुजाहिदीन के खिलाफ उग्रवादियों के उग्र अभियानों मे बहुत भाग लिया था। ईरानी वायुसेना ने 1980-88 ईरान-इराक युद्ध के दौरान ईरान के खिलाफ सुखोई एसयू-25 का इस्तेमाल किया था। बाद में 1991 के फारस की खाड़ी युद्ध में ज्यादातर विमान नष्ट हो गये थे। 1992 से 1993 तक अबकाज़िया युद्ध के दौरान जॉर्जियाई वायु सेना ने सुखोई एसयू-25 एस का इस्तेमाल किया। मैसेडोनियन वायु सेना ने 2001 मकदूनिया विवाद में अल्बेनिया विद्रोहियों के खिलाफ सुखोई एसयू-25 का इस्तेमाल किया था और 2008 में, जॉर्जिया और रूस दोनों ने रूस-जॉर्जियाई युद्ध में सुखोई एसयू-25 एस का इस्तेमाल किया। आइवरी कोस्ट, चाड और सूडान सहित अफ्रीकी राज्यों ने स्थानीय उग्रवाद और नागरिक युद्धों में सुखोई एसयू-25 का इस्तेमाल किया है। हाल ही में सुखोई एसयू-25 ने सीरिया के नागरिक युद्ध में भी बहुत भूमिका निभाई है। जेन ऑल द वर्ल्ड एयरक्राफ्ट 2003-2004, सुखोई, deagel.com, airforce-technology.com से डेटा सामान्य लक्षण प्रदर्शन
नोकिया 5110, नोकिया द्वारा बनाया गया एक मोबाइल फ़ोन उपकरण है। इसे सन 1998 में बाज़ार में उपलब्ध कराया गया। यह जीएसएम तकनीक पर कार्य करता है। यह नोकिया 5000 एक्टिव श्रृंखला का केंडीबार बनावट वाला, मोनोक्रोम रंग दिखाने में सक्षम - 84X48 पिक्सल की स्क्रीन लगा उत्पाद है।
178 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 178 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 178 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
सस्ती वायुसेवा उन वायुसेवाओं को कहते हैं जो अपेक्षाकृत बहुत कम मूल्य पर वायुसेवाएँ प्रदान करतीं हैं। प्रायः सस्ती वायुसेवाओं में कुछ परम्परागत सेवाएँ/सुविधाएँ नहीं दी जातीं हैं जिसके फलस्वरूप य सस्ती पड़तीं हैं। भोजन, सामान, सीट निर्धारण आदि सुविधाएँ अतिरिक्त मूल्य चुकाकर ली जा सकतीं हैं। जुलाई 2014 को यूएसए में कार्यरत साउथवेस्ट एयरलाइन्स विश्व की सबसे सस्ती वायुसेवा थी।
2018 इंटर-प्रांतीय चैम्पियनशिप इंटर-प्रांतीय चैम्पियनशिप का छठा संस्करण है, जो आयरलैंड में खेली जाने वाली प्रथम श्रेणी की क्रिकेट प्रतियोगिता है। यह 1 मई से 6 सितंबर 2018 तक आयोजित होने वाला है। यह प्रथम श्रेणी की स्थिति के साथ खेला जाने वाला प्रतियोगिता का दूसरा संस्करण है। लीनस्टर लाइटनिंग मौजूदा चैंपियन हैं। उद्घाटन स्थिरता के लिए स्थल, मूल रूप से ओक हिल क्रिकेट क्लब ग्राउंड में होने वाला है, खराब मौसम के कारण पेमब्रोक क्रिकेट क्लब में स्थानांतरित हो गया था। 11 मई 2018 को पाकिस्तान के खिलाफ खेले जाने वाले आयरलैंड के पहले टेस्ट मैच से पहले, आयरलैंड के अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के सत्रह ने टूर्नामेंट के शुरुआती मुकाबले में हिस्सा लिया।
कोटा मल्ला-म0ब0-2, सतपुली तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है।
अर्लि, अदिलाबादु मण्डल में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के अदिलाबादु जिले का एक गाँव है।
चैत्र शुक्ल पक्ष में ‘कामदा’ नाम की एकादशी होती है। कहा गया है कि ‘कामदा एकादशी’ ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषों का नाश करनेवाली है। इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पुराणों में इसके विषय में एक कथा मिलती है। प्राचीनकाल में भोगीपुर नामक एक नगर था। वहाँ पर अनेक ऐश्वर्यों से युक्त पुण्डरीक नाम का एक राजा राज्य करता था। भोगीपुर नगर में अनेक अप्सरा, किन्नर तथा गन्धर्व वास करते थे। उनमें से एक जगह ललिता और ललित नाम के दो स्त्री-पुरुष अत्यंत वैभवशाली घर में निवास करते थे। उन दोनों में अत्यंत स्नेह था, यहाँ तक कि अलग-अलग हो जाने पर दोनों व्याकुल हो जाते थे। एक दिन गन्धर्व ललित दरबार में गान कर रहा था कि अचानक उसे अपनी पत्नी की याद आ गई। इससे उसका स्वर, लय एवं ताल बिगडने लगे। इस त्रुटि को कर्कट नामक नाग ने जान लिया और यह बात राजा को बता दी। राजा को ललित पर बड़ा क्रोध आया। राजा ने ललित को राक्षस होने का श्राप दे दिया। जब उसकी प्रियतमा ललिता को यह वृत्तान्त मालूम हुआ तो उसे अत्यंत खेद हुआ। ललित वर्षों वर्षों तक राक्षस योनि में घूमता रहा। उसकी पत्नी भी उसी का अनुकरण करती रही। अपने पति को इस हालत में देखकर वह बडी दुःखी होती थी। वह श्रृंगी ऋषि के आश्रम में जाकर विनीत भाव से प्रार्थना करने लगी। उसे देखकर श्रृंगी ऋषि बोले कि हे सुभगे! तुम कौन हो और यहाँ किस लिए आई हो? ‍ललिता बोली कि हे मुने! मेरा नाम ललिता है। मेरा पति राजा पुण्डरीक के श्राप से विशालकाय राक्षस हो गया है। इसका मुझको महान दुःख है। उसके उद्धार का कोई उपाय बतलाइए। श्रृंगी ऋषि बोले हे गंधर्व कन्या! अब चैत्र शुक्ल एकादशी आने वाली है, जिसका नाम कामदा एकादशी है। इसका व्रत करने से मनुष्य के सब कार्य सिद्ध होते हैं। यदि तू कामदा एकादशी का व्रत कर उसके पुण्य का फल अपने पति को दे तो वह शीघ्र ही राक्षस योनि से मुक्त हो जाएगा और राजा का श्राप भी अवश्यमेव शांत हो जाएगा। ललिता ने मुनि की आज्ञा का पालन किया और एकादशी का फल देते ही उसका पति राक्षस योनि से मुक्त होकर अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त हुआ। फिर अनेक सुंदर वस्त्राभूषणों से युक्त होकर ललिता के साथ विहार करते हुए वे दोनों विमान में बैठकर स्वर्गलोक को प्राप्त हुए। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को विधिपूर्वक करने से समस्त पाप नाश हो जाते हैं तथा राक्षस आदि की योनि भी छूट जाती है। संसार में इसके बराबर कोई और दूसरा व्रत नहीं है। इसकी कथा पढ़ने या सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
मुजरा-उ0व0-4, यमकेश्वर तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है।
नासिका घ्राणतंत्र का अंग हैं। उसके भीतर की दोनों गुहाएँ नासासुरंग कहलाती हैं। ये आगे की ओर नासाद्वारों से प्रारंभ होकर पीछे ग्रसनिका तक चली गई हैं। इन दोनों के बीच में एक विभाजक पटल है, जो ऊपर की ओर झर्झरिका की मध्य प्लेट से ऊपर और नीचे की ओर वोमर या सीरिक अस्थि का बना हुआ है। इस फलक पर रोमक श्लेष्मल कला चढ़ी हुई है, जो नासा के पार्श्वों पर की काल से मिल जाती है। इस कला के फलक पर चढ़ हुए भाग के केवल ऊपरी क्षेत्र में ध्राणतंत्रिका के वे तंतु फैले हुए है जो गंध को ग्रहण करके मस्तिष्क में केंद्र तक पहुँचाते हैं। नासिका का बाहरी भाग ऊपर की ओर अस्थि का और नीचे का केवल मांसनिर्मित है, जो त्वचा से दबा हुआ है और नासापक्ष कहलाता है। मध्य विभाजक फलक पर ऊपर नीचे सीप के आकार की मुड़ी हुई पतली पतली तीन अस्थियाँ लगी हुई हैं, जो ऊर्ध्व, मध्य और अधो शुक्तिभाएं कहलाती हैं। ऊर्ध्व शुक्तिभा के ऊपर का स्थान जतूक झर्झरिका दरी कहा जाता है। उसके पीछे के भाग में जतूक वायुविवर का मुख खुलता है। ऊर्ध्व और मध्यशुक्तिभा के बीच में ऊर्ध्व कुहर हैं, जिसमें झर्झरिका के कुछ वायुकोष खुलते हैं। मध्य और अधोशुक्तिभा के बीच का गहरा और विस्तृत अत:स्थान मध्यकुहर हैं, जिसमें ललाटास्थि और अधोहन्वास्थि के वायुविवरों के छिद्र स्थित हैं। दोनों विवरों में यहीं से वायु पहुंचती हैं। संक्रमण भी यहीं से पहुँचता है। अधोशुक्तिभा के नीचे का स्थान अधोकुहर कहा जाता है। यहाँ अधोशुक्तिभा के नीचे, उससे ढका हुआ नासानलिका का छिद्र है। इस कारण वह शुक्तिभा को हटाने या काटने पर ही दिखाई देता है। इस सुरंग की छत संकुचित है, जहाँ नासा की पार्श्वभित्ति मध्यफलक से मिल जाती है। यहाँ से मध्यफलक के ऊपरी भाग में फैले हुए तंत्रिकातंतु झर्झरास्थि के सुषिर पट्ट में होकर ऊपर को घ्राणकंद में चले जाते हैं। नासिका का काम गंध का ज्ञान करना है, जो घ्राणक्रिया द्वारा होता है। गंध का अनुभव करना उपर्युक्त उन तंत्रिकातंतुओं का काम है जो मध्यफलक पर आच्छादित श्लेष्मल कला के ऊर्ध्व भाग में फैले हुए हैं। जब किसी वस्तु का घ्राण संबंधी ज्ञान प्राप्त करना होता है तब उसके भिन्न-भिन्न शक्ति के विलयन बना लिए जाते हैं और उनको पृथक्-पृथक् परीक्षण नलिकाओं में भरकर, सबसे अधिक शक्ति का विलयन पहले सुँघाया जाता है। फिर कम शक्ति के विलयन सुंघाए जाते हैं। इस प्रकर वह न्यनतम मात्रा मालूम की जाती है, जिसको व्यक्ति सूँघ सकता है। जब व्यक्ति साधारण जल और विलयन की गंध में अंतर नहीं कर पाता तो उससे पहले की मात्रा न्यूनतम होती है। ऐसे ही प्रयोगों द्वारा मालूम किया गया है कि जाफरान की 1/10,00,00,000 रत्ती को सूँघा जा सकता है।
युद्धबन्दी उस व्यक्ति को कहते हैं जो किसी सशस्त्र संघर्ष के दौरान या तुरन्त बाद शत्रु देश द्वारा हिरासत में ले लिया गया है। पकड़ा गया व्यक्ति लड़ाकू हो या न हो, वह 'युद्धबन्दी' ही कहा जाता है।
सर्व सेवा संघ महात्मा गाँधी द्वारा या उनकी प्रेरणा से स्थापित रचनात्मक संस्थाओं तथा संघों का मिलाजुला संगठन है, जो उनके बलिदान के बाद आचार्य विनोबा भावे के मार्गदर्शन में अप्रैल 1948 में गठित किया गया। संशोधित नियमों के सन्दर्भ में यह देशभर में फैले हुए "लोकसेवकों का एक संयोजक संघ" भी बन गया है। इसे अखिल भारत सर्वोदय मण्डल के नाम से भी जाना जाता है। सर्व सेवा संघ का प्रधान कार्यालय महादेव भाई भवन, सेवाग्राम, वर्धा में तथा प्रकाशन कार्यालय राजघाट, वाराणसी में है। वर्ष 1954 में आचार्य धीरेन्द्र मजूमदार संघ के प्रथम अध्यक्ष बने। सर्व सेवा संघ का उद्देश्य ऐसे समाज की स्थापना करना है, जिसका आधार सत्य और अहिंसा हो, जहाँ कोई किसी का शोषण न करे और जो शासन की अपेक्षा न रखता हो। यह शान्ति, प्रेम, मैत्री और करुणा की भावनाओं को जाग्रत करते हुए साम्ययोगी अहिंसक क्रांति के लिए स्वतंत्र जनशक्ति का निर्माण तथा आध्यात्मिक और वैज्ञानिक साधनों का उपयोग करना चाहता है। समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना और समय मानव व्यक्तित्व का विकास करना संघ की बुनियादी नीति होगी। इसके लिए संघ का प्रयत्न रहेगा कि समाज में जाति, वर्ण, लिंग आदि तत्वों के आधार पर ऊँच नीच का भेदभाव निर्मूल हो, वर्ग-संघर्ष के स्थान पर वर्ग-निराकरण और स्वेच्छा से परस्पर सहकार करने की वृत्ति बढ़े तथा खादी तथा विकेंद्रित अर्थव्यवस्था के माध्यम से कृषि, उद्योग आदि के क्षेत्र में आर्थिक विषमता का निरसन हो। सर्व सेवा संघ सर्वानुमति से तीन साल के लिए अपना एक अध्यक्ष चुनता है और वह अध्यक्ष संघ का काम चलाने के लिए कम से कम 11 और अधिक से अधिक 25 लोगों की एक प्रबंध समिति गठित करता है, जिसमें से मंत्री, सभामंत्री आदि की नियुक्ति भी अध्यक्ष ही करता है। वर्तमान में सर्व सेवा संघ के अध्यक्ष महादेव विद्रोही हैं। सर्व सेवा संघ के सदस्य और लोकसेवक वे ही हो सकते हैं, जो सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और शरीरश्रम में निष्ठा और तदनुसार जीवन बिताने की कोशिश करते हों; लोकनीति के द्वारा ही सच्ची स्वतंत्रता संभव है, इस मान्यता के आधार पर दलगत राजनीति तथा सत्ता की राजनीति से अलग रहते हों और किसी राजनीतिक पक्ष के सदस्य न हों। जाति, वर्ग या पंथ आदि किसी प्रकार के भेद को जीवन में स्थान न देते हों तथा अपना पूरा समय और मुख्य चिन्तन भूदानमूलक ग्रामोद्योगप्रधान अहिंसक क्रांति के काम में लगाते हों। सर्व सेवा संघ के द्वारा नीचे लिखे प्रवृत्तियाँ चलाई जाती हैं : 1. सर्वोदय समाज सम्मेलन : संघ सर्वोदय विचार में निष्ठा रखनेवालों का एक सम्मेलन हर दूसरे वर्ष आयोजित करता है। 2. साहित्य प्रकाशन : महात्मा गाँधी, आचार्य विनोबा तथा सर्वोदय विचार के साहित्य का प्रकाशन और प्रसार करने के लिए संघ की ओर से एक "प्रकाशन समिति" बनी है। इसके द्वारा अब तक देश-विदेश की 16 विभिन्न भाषाओं में लगभग 900 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 3. शान्ति सेना मंडल : शांतिसेना का संगठन, संयोजन तथा शांति संबंधी कार्यक्रमों का आयोजन करने के लिए शांति-सेना-मंडल बना है। इस समय देश भर में लगभग 8,000 शांति सैनिक और 5,000 शांतिकेंद्र काम कर रहे हैं। 4. खादी ग्रामोद्योग ग्राम-स्वराज्य समिति : खादी ग्रामोद्योग संस्थाओं के मार्फत देशभर में जो खादी ग्रामोद्योग का कार्य चल रहा है, उसकी नीति तथा कार्यक्रम में सर्वोदय विचार के आधार पर निर्देशन, समन्वय आदि काम के लिए यह समिति बनी है। 5. कृषि गोसेवा समिति : गोवंश को, विशेषत: गाय को, समाज में योग्य स्थान पर प्रतिष्ठित करने तथा आर्थिक दृष्टि से उपयोगी बनाने का राष्ट्रव्यापी आयोजन करना इस समिति का लक्ष्य है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए गोसंवर्धन केंद्र, नंदीशाला, गोसदन, गोरस भंडार, गोशाला, चरागाह, चारे की खेती तथा अन्य कृषि सुधार के कार्य समिति कर रही है। भारत सरकार द्वारा गठित गोसंवर्धन कौंसिल भी इस समिति का सहयोग लेती है। प्रधान कार्यालय नई दिल्ली में है। पता, ठक्करबापा स्मारक सदन, यूलिंक रोड, झंडेवालान्, नई दिल्ली। 6. खादी ग्रामोद्योग प्रयोग समिति : कताई, बुनाई, कृषि तथा अन्य ग्रामोद्योगों के औजारों में शोध, अन्वेषण, सुघार आदि की दृष्टि से इस समिति का गठन हुआ है। 7. इन स्थायी प्रवृत्तियों के अलावा नई तालीम, सेवाग्राम आश्रम आदि का संयोजन संघ के मार्फत होता है। चंबल घाटी की बागी समस्या, पंचायत राज्य, कश्मीर समस्या आदि तात्कालिक प्रश्नों पर भी सर्व-सेवा-संघ अपने विचार के आधार पर हल ढूँढ़ने और तद्नुसार कार्य करने का प्रयत्न करता रहता है।
पिंचू कपूर हिन्दी फ़िल्मों के एक अभिनेता हैं।
पाकिस्तान का सर्वोच्च न्यायालय, इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत है और पाकिस्तान की न्यायिक व्यवस्था का शीर्ष हिस्सा है और पाकिस्तानी न्यायिक क्रम का शिखर बिन्दु है। पाकिस्तान की सर्वोच्च न्यायालय, पाकिस्तान कानूनी और संवैधानिक मामलों में फैसला करने वाली अंतिम मध्यस्थ भी है। सर्वोच्च न्यायालय का स्थायी कार्यालय पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में स्थित है, जबकि इस अदालत की कई उप-शाखाएं, पाकिस्तान के महत्वपूर्ण शहरों में कार्यशील हैं जहां मामलों की सुनवाई की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय, पाकिस्तान को कई संवैधानिक व न्यायिक विकल्प प्राप्त होते हैं, जिनकी व्याख्या पाकिस्तान के संविधान में की गई है। देश में कई सैन्य सरकारों और असंवैधानिक तानाशाही सरकारों के कार्यकाल में भी सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं को स्थापित कर रखा है। साथ ही, इस अदालत ने सैन्य शक्ति पर एक वास्तविक निरीक्षक के रूप में स्वयं को स्थापित किया है और कई अवसरों में सरकारों की निगरानी की है। इस अदालत के पास, सभी उच्च न्यायालयों और संघीय अदालत के ऊपर अपीलीय अधिकार है। इसके अलावा यह कुछ प्रकार के मामलों पर मूल अधिकार भी रखता है। सुप्रीम कोर्ट एक मुख्य न्यायाधीश और एक निर्धारित संख्या के वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा निर्मित होता है, जो प्रधानमंत्री से परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा नामित किया जाता है। एक बार नियुक्त न्यायाधीश को, एक निर्दिष्ट अवधि को पूरा करने और उसके बाद ही रिटायर होने की उम्मीद की जाती है, जब तक कि वे दुराचार के कारण सर्वोच्च न्यायिक परिषद द्वारा निलंबित नहीं किये जाते हैं। पाकिस्तान की सर्वोच्च न्यायालय को 1956 के संविधान द्वारा स्थापित किया गया था। इसने 1948 में, आदेश द्वारा स्थापित, संघीय अदालत का नवरूप था। 1956 में इस के गठन के समय से ही इसने अपना न्यायिक अधिकार संजोए रखा है एवं अनेक सैनी सरकारों के कार्यकाल के दौरान भी यह अपना अधिकार जताने में सफल रहा है। 1956 के संविधान के अनुसार: उच्चतम न्यायालय कराँची में स्थापित थी, परंतु 1949 में इसे लाहौर में पुनर्स्थापित कर दिया गया, जहां यह मौजूदा लाहौर उच्च न्यायालय के भवन में कार्यशील था। 1973 के संविधान के दस्तावेज़ मैं सर्वोच्च न्यायालय को इस्लामाबाद में स्थापित करने की बात की गई है एवं यह आशा जताई गई है की सर्वोच्च न्यायालय देश की राजधानी में स्थापित हो। परंतु राशि के अभाव के कारण न्यायालय के भवन को उस समय इस्लामाबाद में नहीं निर्मित किया जा सका था। अतः 1974 में न्यायालय को लाहौर से रावलपिंडी ले आया गया। 1989 में, सरकार द्वारा इस्लामाबाद में सर्वोच्च न्यायालय के नए भवन के निर्माण के लिए धनराशि आवंटित की गई। इस्लामाबाद के कंस्टिच्यूशन ऐवेन्यू पर स्थित मौजूदा भवन के निर्माण की शुरुआत केवल 1990 में ही हो सकी, परंतु मुद्रा के अभाव के कारण 1993 तक केवल मुख्य भवन का निर्माण ही किया जा सका, अतः आगे के निर्माण कार्य को 1993 में रोक दिया गया। 31 दिसंबर 1993 में नयायालय को रावलपिंडी से इस्लामाबाद मैं निर्मित भवन में पुनर्स्थापित किया गया एवं परिसर के अन्य भवनों के निर्माण को 2011 तक पूरा किया गया। पाकिस्तान के संविधान के भाग 7, अध्याय द्वितीय में अनुच्छेद 176 ता 191 में अदालत पाकिस्तान के विकल्प, लेआउट, नियमों और कर्तव्यों की पहचान की गई है। उनके लेख का सरसरी समीक्षा आभल में कहा गया है: ऊपर वर्णित किए गए अवलोकन के अलावा, संविधान पाकिस्तान में जा बजा दूसरे अध्याय और वर्गों में कानूनी, संवैधानिक और घरेलू मामलों में अदालत से संपर्क करने का आदेश दिया गया है। पाकिस्तान के न्यायिक व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय का यह भूमिका स्पष्ट है कि वह पाकिस्तान के अन्य भागों में न केवल संवैधानिक और कानूनी नजर रखे बल्कि उनके सरकारी शाखाओं में विकल्प और कर्तव्यों की सही पहचान और वितरण भी अमल में लाए। संविधान की धाराएँ 176 से 190 सर्वोच्च न्यायालय को अनेक संवैधानिक अधिकार देते हैं, जिनके उपयोगन से राष्ट्रपति की कार्य स्वतंत्रता पर नियंत्रण व बाधाएँ डाली जा सकती है। उदाहरणस्वरूप: संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के पास क़ौमी असेम्ब्ली को भंग करने का अधिकार है, परंतु ऐसे किसी भी विवादास्पर भंगन को वैद्ध या अवैद्ध करार देने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को दिया गया है। इसके अलावा राष्ट्रपति द्वारा लिये गए किसी भी निर्णय व आदेश के निरीक्षण व उसे गैर संवैधानिक व अवैध करार देने का अधिकार भी न्यायालय को दिया गया है। हालाँकि ये प्रावधान संविधान द्वारा अंकित किये गए हैं, परंतु इन्हें आमतौर पर उपयोग नहीं किया जाता है। परंतु यदि पाकिस्तान के संवैधानिक इतिहास के संदर्भ में देखा जाए तो ऐसे अधिकारों का इस्तेमाल कई अवसरों पर किया जाता रहा है। कई विवादास्पद निर्णयों के बावजूद इस न्यायालय का पाकिस्तानी राजनीति में अहम स्थान है, अतः अनेक सैन्य सरकारों व राजनैतिक अनबन के दौरों के बाद भी इस न्यायालय ने अपना स्थान बनाए रखा है, एवं कई बार सेना के अवैध ताकतों पर लगाम डालती रही है, और यह पाकिस्तान के कुछ सबसे सम्माननीय संस्थानों में से एक है और आम जनता में इसे विश्वास की दृष्टि से देखा जाता है। राजनीति प्रवेशद्वार सर्वोच्च न्यायालय, पाकिस्तान की न्यायपालिका का शिकार बिंदु है, एवं पाकिस्तानी न्यायिक तंत्र का श्रेष्ठतम व उच्चतम न्यायालय है। पाकिस्तान की न्यायपालिका की श्रेणीबद्ध प्रणाली है जिसमें अदालतों के दो वर्गों है: श्रेष्ठतर न्यायपालिका में, उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त, संघीय शरीयत अदालत और पाँच प्रांतीय उच्च न्यायालयों आते हैं, जिसके शीर्ष पर सुप्रीम कोर्ट विराजमान है। सर्वोच्च न्यायालय के निचली स्तर पर, प्रत्येक चार प्रांतों एवं इस्लामाबाद राजधानी क्षेत्र के लिये गठित उच्च न्यायालय है। पाकिस्तान का संविधान, न्यायपालिका पर संविधान की रक्षा, संरक्षण व बचाव का दायित्व सौंपता है। ना उच्चतम न्यायालय, ना हीं, उच्च न्यायालय, जनजातीय क्षेत्रों के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग कर सकते हैं, सिवाय अन्यथा यदी प्रदान की जाय तो। आजाद कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान के विवादित क्षेत्रों के लिये अलग न्यायिक प्रणाली है। अधीनस्थ न्यायपालिका में वह न्यायालय हैं जो श्रेष्ठतर प्रणाली की अधीन आती है। इसमें, सिविल और आपराधिक जनपदीय न्यायालय व अन्य अनेक विशेष अदालतें शामिल हैं, जो, बैंकिंग, बीमा, सीमा शुल्क व उत्पाद शुल्क, तस्करी, ड्रग्स, आतंकवाद, कराधान, पर्यावरण, उपभोक्ता संरक्षण, और भ्रष्टाचार संबंधित मामलों में अधिकारिता का प्रयोग करती हैं। आपराधिक अदालतों को दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 के तहत बनाया गया था और सिविल अदालतें, पश्चिमी पाकिस्तान सिविल न्यायालय अध्यादेश, 1964 द्वारा स्थापित किए गए थे। साथ ही, राजस्व अदालतें भी हैं, जो कि पश्चिमी पाकिस्तान भू-राजस्व अधिनियम, 1967 के तहत काम कर रहे हैं। इन सारे न्यायालयों द्वारा लिये गए निर्णय अपील-बद्ध हैं। अर्थात् निर्णय को उंची अदालतों में चुनौती दी जा सकती है। इसमें अंत्यत् निर्णयाधिकार सर्वोच्च न्यायालय का होता है। पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश, पाकिस्तान की न्यायपालिका के प्रमुख एवं उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश होते हैं। वे उच्चतम न्यायालय के 16 न्यायाधीशों में वरिष्ठतम होते हैं।मुख्य न्यायाधीश पाकिस्तान की न्यायिक प्रणाली के प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी है एवं यह पाकिस्तान का उच्चतम न्यायालय पद है जो संघीय न्यायपालिका की नीति निर्धारण वह उच्चतम न्यायालय में न्यायिक कार्यों का कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार है। इस पद पर नियुक्ति के लिए नामांकन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री द्वारा एवं नियुक्ति अंततः पाकिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। अदालत की सुनवाई पर अध्यक्षता करते हुए मुख्य न्यायाधीश के पास न्यायालय की नीति निर्धारण के लिए अत्यंत ताकत है। साथ ही आधुनिक परंपरा अनुसार मुख्य न्यायाधीश के कार्य क्षेत्र के अंतर्गत राष्ट्रपति को शपथ दिलाने का भी महत्वपूर्ण संवैधानिक कार्य हैपाकिस्तान के सर्वप्रथम मुख्य न्यायाधीश सर अब्दुल राशिद थे। मौजूदा संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त, अधिकतम 16 और न्यायाधीश रह सकते हैं। पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट में एक मुख्य और 16 अन्य नियुक्त न्यायाधीशों के होते हैं। न्यायाधीश के रूप में अनुभव के 5 साल तक या वकील के रूप में 15 वर्षों के अनुभव वाल किसी व्यक्ति को ही सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद के लिए आवेदन करने का अधिकार है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति व्यक्तियों को अपने विवेक और कानून के विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव के आधार पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई सिफारिश के बीच से न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। सुप्रीम कोर्ट की सिफारिशें को राष्ट्रपति पर बाध्यकारी है। अभ्यासतः, एक नियम के रूप में, सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है। प्रत्येक न्यायाधीश 65 साल की उम्र तक पद धारण कर सकते हैं, जिस बीच वे जल्दी ही इस्तीफा द्वारा या संविधान के प्रावधानों के अनुसार पद से हटाया जा सकता है। अर्थात्, शारीरिक या मानसिक अक्षमता या दुराचार - जिसकी वैधता सर्वोच्च न्यायिक परिषद द्वारा निर्धारित की जाती है - के कारण कोई भी न्यायाधीश केवल संविधान द्वारा प्रदान किये गए प्रावधानों के आधार पर पद से कार्यकाल पूर्ण होने से पूर्व ही हटाया जा सकता है। ध्वज भवन प्रतीकचिह्न सर्वोच्च न्यायालय का ध्येयवाक्य क़ुरान- 38:26 से लिया गया है। इस्का सार यह है: सर्वोच्च न्यायालय भवन, सर्वोच्च न्यायालय का आधिकारिक एवं प्रधान कार्यालय है। यह इस्लामाबाद के प्रशासनिक क्षेत्र में मुख्य गामिनी, कंस्टिच्यूशन ऐवेन्यू पर स्थित है। यह भवन, संविधान गामिनी पर, दक्षिण स्थित प्रधानमंत्री सचिवालय व उत्तर स्थित, आईवान-ए सदर और संसद भवन के बीच विराजमान है। इसका पता: 44000 कंस्टिच्यूशन ऐवेन्यू, इस्लामाबाद, पाकिस्तान है। इसकी रूपाकृती को, विख्यात जापानी वास्तुकार, केन्ज़ो तांगे ने पाकिस्तान पर्यावरण संरक्षण अभिकरण से मशवरे के बाद तईयार किया था। इस पूरे भवन समूह को इस्लामाबाद की राजधानी विकास प्राधिकरण की अभियंत्रिकी विभाग और पाकिस्तान की साईमेन्स इंजीनियरिंग नामक कंपनी ने बनाया था। निर्देशांक: 33°43′41″N 73°05′55″E / 33.72806°N 73.09861°E / 33.72806; 73.09861 अफ़गानिस्तान · आर्मेनिया · अज़रबैजान · बहरीन · बांग्लादेश · भूटान · Brunei · Burma · कंबोडिया · People's Republic of China · साइप्रस · East Timor · मिस्र · जॉर्जिया · भारत · इंडोनेशिया · ईरान · इराक · इजराइल · जापान · जॉर्डन · कजाखिस्तान · उत्तर कोरिया · दक्षिण कोरिया · कुवैत · किर्गिस्तान · Laos · 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कैरीबियाई प्लेट एक भौगोलिक प्लेट है जिसके ऊपर कैरीबियन सागर और मध्य अमेरिका के कुछ भाग स्थित हैं। इस प्लेट का क्षेत्रफल 32 लाख वर्ग किमी है। इसकी सीमाएँ उत्तर अमेरिकी प्लेट, दक्षिण अमेरिकी प्लेट, नाज़का प्लेट और कोकोस प्लेट को लगती हैं। इन सीमाओं पर कई ज्वालामुखी स्थित हैं और कभी-कभी भूकंप भी आते हैं।
चागलमर्रि में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कर्नूलु जिले का एक गाँव है।
विक्टोरियस एक अमेरिकी धारावाहिक है जिसकी रचना डैन श्निडर द्वारा निकलोडीयन के लिए की गौ है। यह शृंखला गायिका बनने की इच्छा रखने वाली टोरी वेगा, एक युवा लड़की जो होलीवुड आर्ट्स हाई स्कुल में कला की शिक्षा ले रही है, के इर्द-गिर्द घुमती है जो उस विद्यालय में अपनी बड़ी बहन ट्रीना की जगह लेती है। विद्यालय के पहले ही दिन उसकी मुलाकात आंद्रे हैरिस, रॉबी शापिरो, रेक्स पावर्स, जेड वेस्ट, कैट वैलेन्टिन और बेक ऑलिवर से होती है।
भटीगांव, कांडा तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के बागेश्वर जिले का एक गाँव है।
बालागंज-हल्दूखाता, यमकेश्वर तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है।
ब्रह्मबान्धव उपाध्याय बंगाली राष्ट्रवादी, धर्मसुधारक, पत्रकार, कैथोलिक सन्यासी। ईसाई एवं हिन्दू सम्वाद के प्रणेता एवं पूर्ण स्वराज का आह्वान करने वाले प्रारम्भिक नेताओं में से एक। ब्रह्मबान्धव उपाध्याय ने 11 फ़रवरी को बंगाल के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। उनके पिता ब्रिटिश पुलिस अधिकारी थे तथा चाचा रेवरंड कालीचरण बैनर्जी मसीही धर्मप्रचारक तथा राष्ट्रवादी नेता थे। आरंभ में वे अपने चाचा के धर्मपरिवर्तन से रुष्ट थे परंतु जब उन्होंने देखा कि ईसाई बन जाने के बावजूद उनका रहन-सहन, खान-पान, पहनावा इत्यादि एक ठेठ बंगाली का सा था तो उन्होंने ईसाई धर्म तथा पश्चिमी संस्कृति में अंतर को समझ लिया। अपने चाचा के प्रारंभिक प्रभाव के बाद उन पर सबसे अधिक प्रभाव केशब चंद्र सेन का था जिन्हें उन्होंने सबसे महान भारतीय कहकर भी संबोधित किया है। 1887 में वे केशब के नब बिधान संगठन के सदस्य बने। इसी बीच वे कैथोलिक एवं एंग्लीकन मिशनरियों के सम्पर्क में भी आए। 1888 में ब्रह्मो मिशनरी के रूप में वे सिंध पहुंचे। उन दिनों इनके पिता की नियुक्ति सिंध में ही थी जो संयोगवश बीमार चल रहे थे। उनकी सेवा करते हुए उन्होंने फा डी ब्रूनो की पुस्तक कैथोलिक बिलीफ़ का अध्ययन किया। फरवरी 1889 में एक एंग्लीकन पादरी ने उन्हें बपतिस्मा दिया परंतु भवानी ने साफ़ कर दिया कि हालांकि यह कदम यीशु मसीह में उनके विश्वास को दर्शाता है परंतु इससे वे एंग्लीकन चर्च के सदस्य नहीं बन जाएंगे। कुछ लोगों का मानना है कि इसकी एक राष्ट्रवादी वजह थी। वे हाकिमों की कलीसिया का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे। उसी वर्ष सितंबर में वे कैथोलिक कलीसिया के सदस्य बने। जनवरी 1894 में उन्होंने एक पर्चा सोफ़िया प्रकाशित करना शुरू किया। एक हिन्दू संन्यासी के समान भगवे वस्त्र पहने तथा अपना नया नाम ब्रह्मबान्धव उपाध्याय धारण किया।उपाध्याय ने यीशु वन्दना में संस्कृत भजन की भी रचना की जो आज भी मसीही मण्डलियों में मूल संस्कृत तथा अनुवाद में गाया जाता है। इस भजन में वे यीशु को नरहरि कह कर सम्बोधित करते हैं। उपचितचिरचिन्मुकुरित प्रतिबिम्बितब्रह्मपरात्पररूपजय देव जय देव नरहरेकनकुमारीबालक भवचालकनिर्गुणगुणाभिरागजय देव जय देव नरहरेपण्डितमण्डलमण्न भयखण्डनदण्डितभण्डनभूतजय देव जय देव नरहरेआधिव्याधिविताड़न परसेवनपावनलीलाखेलजय देव जय देव नरहरेविनिवेदितनिजवदन बलिजीवनकृतकिल्विषविषनाशजय देव जय देव नरहरेललितदयितहृद्रंजन नयनांजनसुदलितकालकरालजय देव जय देव नरहरे
क्रस्नोयार्स्क क्राय रूस के साइबेरिया क्षेत्र में स्थित एक 'क्राय' का दर्जा रखने वाला संघीय खंड है। सन् 2010 में की गई एक जनगणना के अनुसार इसकी आबादी 28,28,187 थी। इस क्राय का क्षेत्रफल 23,39,700 वर्ग किलोमीटर है, जो कि पूरे रूस का 13% है। उत्तर में यह क्राय आर्कटिक महासागर से तटवर्ती है। इसकी राजधानी क्रस्नोयार्स्क शहर है।
तनहुँ जिला नेपाल के पश्चिमांचल विकास क्षेत्र के गण्डकी अंचल में स्थित एक अत्याधिक उर्वर एवं घना वस्ती वाली जिला हैं। इस जिला की क्षेत्रफल 1546 बर्ग कि॰मी॰ और जनसंख्या करिव 4 लाख हैं। इस जिला के पूर्व में चितवन और गोरखा उत्तर में कास्की और लमजुंग पश्चिम में स्यांजा दक्षिण में पाल्पा और नवलपरासी जिलाएं हैं। इस जिले का केन्द्र दमाैली है, जाे मादी नदी के तटपर अवस्थित है। इसी जिले के चुँदी रम्घा ग्राम में 1814 जुलाइ 10 में नेपाली भाषा के अादिकवि भानुभक्त अाचार्यका जन्म हुअा था।
पं. काशीनाथ किष्टो आर्य समाज के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने मारीशस आर्य पत्रिका और आर्यवीर का संपादन किया था। उन्होंने हिन्दी में उन्होंने ढेरों लेख धर्म सुधार और लेख सुधार के विषय में लिखे हैं।