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अकबरपुर मीरजापुर, इलाहाबाद इलाहाबाद जिले के इलाहाबाद प्रखंड का एक गाँव है।
मैं और मिसेज खन्ना 2009 की एक बॉलीवुड फ़िल्म है।
अलीशा अब्दुल्ला एक भारतीय रेसिंग ड्राईवर हैं। वह भारत की पहली महिला राष्ट्रीय रेसिंग चैंपियन हैं। अलीशा बचपन से ही रेसिंग की ओर आकर्षित थी। बचपन में 9 वर्षीय अलीशा गो-कार्टिंग के लिए तैयार हो गयी थी। 11 वर्षीय होने तक उन्हों गो-कार्टिंग की बहुत सी रेस जीती। जब वह सिर्फ 13 वर्ष की थी, तो वह खुले वर्ग में एमआरएफ राष्ट्रीय गो-कार्टिंग चैम्पियनशिप और राष्ट्रीय स्तर के फॉर्मूला कार रेसिंग में सर्वश्रेष्ठ नोविस पुरस्कार जीता। अपनी स्कूली शिक्षा उन्होंने सेंट केविंस और उच्च माध्यमिक शिक्षा सेक्रेड हार्ट, चर्च पार्क से पूरी की। उन्होंने एमओपी वैष्णव कोलेज फॉर वीमेन, नुन्गबक्कम, चेन्नई से समाजशास्त्र में स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी की और लीबा से अपनी स्नातकोत्तर शिक्षा पूरी की। अलीशा फॉर्मूला कार रेसिंग पर चले गए और 2004 में जेके टायर नेशनल रेसिंग चैम्पियनशिप में पांचवें स्थान पर पहुंचने में कामयाब रही। उन्होंने सी वर्ष चार पहिये से दो पहिये के लिए स्विच कर लिया।
भालू का जेविक रिश्तेदार जो की चीन में पाया जाता है।
हरमन एमिल लूई फिशर एक जर्मन रसायनशास्त्री थे जिन्हें 1902 में रसायन शास्त्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उन्होंने फिशर एस्टरीफिकेशन की खोज की एवं असममित कार्बन परमाणुओं को प्रतीकात्मक रूप से चित्रित करने की विधि, फिशर प्रोजेक्शन का भी विकास किया।
न्यूटन के गति नियम तीन भौतिक नियम हैं जो चिरसम्मत यांत्रिकी के आधार हैं। ये नियम किसी वस्तु पर लगने वाले बल और उससे उत्पन्न उस वस्तु की गति के बीच सम्बन्ध बताते हैं। इन्हें तीन सदियों में अनेक प्रकार से व्यक्त किया गया है। न्यूटन के गति के तीनों नियम, पारम्परिक रूप से, संक्षेप में निम्नलिखित हैं- सबसे पहले न्यूटन ने इन्हे अपने ग्रन्थ फिलासफी नेचुरालिस प्रिंसिपिआ मैथेमेटिका में संकलित किया था। न्यूटन ने अनेक स्थानों पर भौतिक वस्तुओं की गति से सम्बन्धित समस्याओं की व्याख्या में इनका प्रयोग किया था। अपने ग्रन्थ के तृतीय भाग में न्यूटन ने दर्शाया कि गति के ये तीनों नियम और उनके सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नियम सम्मिलित रूप से केप्लर के आकाशीय पिण्डों की गति से सम्बन्धित नियम की व्याख्या करने में समर्थ हैं। न्यूटन के गति नियम सिर्फ उन्ही वस्तुओं पर लगाया जाता है जिन्हें हम एक कण के रूप में मान सके। मतलब कि उन वस्तुओं की गति को नापते समय उनके आकर को नज़रंदाज़ किया जाता है। उन वस्तुओं के पिंड को एक बिंदु में केन्द्रित मन कर इन नियमो को लगाया जाता है। ऐसा तब किया जाता है जब विश्लेषण में दूरियां वस्तुयों की तुलना में काफी बड़े होते है। इसलिए ग्रहों को एक कण मान कर उनके कक्षीय गति को मापा जा सकता है। अपने मूल रूप में इन गति के नियमो को दृढ और विरूपणशील पिंडों पर नहीं लगाया जा सकता है। 1750 में लियोनार्ड यूलर ने न्यूटन के गति नियमो का विस्तार किया और यूलर के गति नियमों का निर्माण किया जिन्हें दृढ और विरूपणशील पिंडो पर भी लगाया जा सकता है। यदि एक वस्तु को असतत कणों का एक संयोजन माना जाये, जिनमे अलग-अलग कर के न्यूटन के गति नियम लगाये जा सकते है, तो यूलर के गति नियम को न्यूटन के गति नियम से वियुत्त्पन्न किया जा सकता है। न्यूटन के गति नियम भी कुछ निर्देश तंत्रों में ही लागु होते है जिन्हें जड़त्वीय निर्देश तंत्र कहा जाता है। कई लेखको का मानना है कि प्रथम नियम जड़त्वीय निर्देश तंत्र को परिभाषित करता है और द्वितीय नियम सिर्फ उन्ही निर्देश तंत्रों से में मान्य है इसी कारण से पहले नियम को दुसरे नियम का एक विशेष रूप नहीं कहा जा सकता है। पर कुछ पहले नियम को दूसरे का परिणाम मानते है। निर्देश तंत्रों की स्पष्ट अवधारणा न्यूटन के मरने के काफी समय पश्चात विकसित हुई। न्यूटनी यांत्रिकी की जगह अब आइंस्टीन के विशेष आपेक्षिकता के सिद्धांत ने ले ली है पर फिर भी इसका इस्तेमाल प्रकाश की गति से कम गति वाले पिंडों के लिए अभी भी किया जाता है। न्यूटन के मूल शब्दों में हिन्दी अनुवाद "प्रत्येक वस्तु अपने स्थिरावस्था अथवा एकसमान वेगावस्था मे तब तक रहती है जब तक उसे किसी बाह्य कारक द्वारा अवस्था में बदलाव के लिए प्रेरित नहीं किया जाता।" दूसरे शब्दों में, जो वस्तु विराम अवस्था में है वह विराम अवस्था में ही रहेगी तथा जो वस्तु गतिमान हैं वह गतिमान ही रहेगी जब तक कि उस पर भी कोई बाहरी बल ना लगाया जाए। न्यूटन का प्रथम नियम पदार्थ के एक प्राकृतिक गुण जड़त्व को परिभाषित करत है जो गति में बदलाव का विरोध करता है। इसलिए प्रथम नियम को जड़त्व का नियम भी कहते है।यह नियम अप्रत्क्ष रूप से जड़त्वीय निर्देश तंत्र तथा बल को भी परिभाषित करता है। इसके कारण न्यूटन द्वारा इस नियम को प्रथम रखा गया। इस नियम का सरल प्रमाणीकरण मुश्किल है क्योंकि घर्षण और गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव को ज्यादातर पिण्ड महसूस करते हैं। असल में न्यूटन से पहले गैलीलियो ने इस प्रेक्षण का वर्णन किया। न्यूटन ने अन्य शब्दों में इसे व्यक्त किया। न्यूटन के मूल शब्दो में : हिन्दी में अनुवाद " किसी वस्तु के संवेग मे आया बदलाव उस वस्तु पर आरोपित धक्के के समानुपाती होता है तथा समान दिशा में घटित होता है। "न्यूटन के इस नियम से अधोलिखित बिन्दु व्युपत्रित किए जा सकते है : जहाँ F → {\displaystyle {\vec {F}}} बल, p → {\displaystyle {\vec {p}}} संवेग और t {\displaystyle t} समय हैं। इस समीकरण के अनुसार, जब किसी पिण्ड पर कोई बाह्य बल नहीं है, तो पिण्ड का संवेग स्थिर रहता है। जब पिण्ड का द्रव्यमान स्थिर होता है, तो समीकरण ज़्यादा सरल रूप में लिखा जा सकता है: जहाँ m {\displaystyle m} द्रव्यमान है और a → {\displaystyle {\vec {a}}} त्वरण है। यानि किसी पिण्ड का त्वरण आरोपित बल के अनुक्रमानुपाती है। आवेग द्वितीय नियम से संबंधित है। आवेग का मतलब है संवेग में परिवर्तन। अर्थात: जहाँ I आवेग है। आवेग टक्करों के विश्लेषण में बहुत अहम है।माना कि किसी पिण्ड का द्रव्यमान m है। इस पर एक नियम बल F को ∆tसमयान्तराल के लिए लगाने पर वेग में ∆v परिवर्तित हो जाता है। तब न्यूटन- अतः किसी पिण्ड को दिया गया आवेग, पिण्ड में उत्पन्न सम्वेग- परिवर्तन के समान होता है। अत: आवेग का मात्रक वही होता है जो सम्वेग का है। तृतीय नियम का अर्थ है कि किसी बल के संगत एक और बल है जो उसके समान और विपरीत है। न्यूटन ने इस नियम को इस्तेमाल करके संवेग संरक्षण के नियम का वर्णन किया, लेकिन असल में संवेग संरक्षण एक अधिक मूलभूत सिद्धांत है। कई उदहारण हैं जिनमें संवेग संरक्षित होता है लेकिन तृतीय नियम मान्य नहीं है।
इतालवी भाषा इटली की मुख्य और राजभाषा है। ये हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की रोमांस शाखा में आती है। इसकी जननी लातिनी है। इसकी लिपि रोमन लिपि है। ये स्विट्ज़रलैंड के दो कैण्टन की भी राजभाषा है। कोर्सिका, त्रियेस्ते के कुछ भाग तथा सानमारीनो के छोटे से प्रजातंत्र में भी इतालवी बोली जाती है। इटली में अनेक बोलियाँ बोली जाती हैं जिनमें से कुछ तो साहित्यिक इतालवी से बहुत भिन्न प्रतीत होती हैं। इन बोलियों में परस्पर इतना भेद है कि उत्तरी इटली के लोंबार्द प्रांत का निवासी दक्षिणी इटली के कालाब्रिया की बोली शायद ही समझ सकेगा या रोम में रहनेवाला केवल साहित्यिक इतालवी जानने वाला विदेशी रोमानो बोली को शायद ही समझ सकेगा। इतालवी बोलियों के नाम इतालवी प्रांतों की सीमाओं से थोड़े बहुत मिलते हैं। स्विट्ज़रलैंड से मिले हुए उत्तरी इटली के कुछ भागों में लादीन वर्ग की बोलियाँ बोली जाती हैं-जो रोमांस बोलियाँ हैं; स्विट्ज़रलैंड में भी लादीनी बोली जाती है। वेनत्सियन बोलियाँ इटली के उत्तरी पश्चिमी भाग में बोली जाती हैं, वेनिस नगर इसका प्रतिनिधि केंद्र कहा जा सकता है। पीमौते, लिगूरिया, लोंबार्दिया तथा एमीलिया प्रांतों में इन्हीं नामों की बोलियाँ बोली जाती हैं जो कुछ-कुछ फ्रांसीसी बोलियों से मिलती हैं। लातीनी के अंत्य स्वर का इनमें लोप हो जाता है-उदाहरणार्थ फात्तों, फेत्त ओत्तो, ओत । तोस्काना प्रांत में तोस्काना वर्ग की बोलियाँ बोली जाती हैं। साहित्यिक इतालवी का आधार तोस्काना प्रांत की, विशेषकर फ्लोरेंस की बोली रही है। यह लातीनी केअधिक समीप कही जा सकती है। कंठ्य का महाप्राण उच्चारण इसकी प्रमुख विशेषता है-यथा कासा, कहासा । उत्तरी और दक्षिणी बोलियों के क्षेत्रों के बीच में होने के कारण भी इसमें दोनों वर्गों की विशेषताएँ कुछ-कुछ समन्वित हो गईं। उत्तरी कोर्सिका की बोली तोस्कानो से मिलती है। लान्सियो, ऊंबिया तथा मार्के की बोलियों को एक वर्ग में रखा जा सकता है और दक्षिण की बोलियों में अब्रूज्जी, कांपानिया, कालाब्रिया, पूल्या और सिसिली की बोलियाँ प्रमुख हैं-इनकी सबसे प्रमुख विशेषता लातीनी के संयुक्त व्यंजन ण्ड के स्थान पर न्न, म्ब के स्थान पर म्म, ल्ल के स्थान ड्ड का हो जाना सार्देन्या की बोलियाँ इतालवी से भिन्न हैं। एक ही मूल स्रोत से विकसित होते हुए भी इनकी भिन्नता इन बोलियों में कदाचित् लातीनी के भिन्न प्रकार से उच्चारण करने में आ गई होगी। बाहरी आक्रमणों का भी प्रभाव पड़ा होगा। इटली की बोलियों में सुंदर ग्राम्य गीत हैं जिनका अब संग्रह हो रहा है और अध्ययन भी किया जा रहा है। बोलियों में सजीवता और व्यंजनाशक्ति पर्याप्त है। नोपोलीतानो के लोकगीत तो काफी प्रसिद्ध हैं। नवीं सदी के आरंभ की एक पहले "इंदोवीनेल्लो वेरोनेसे" मिलती है जिसमें आधुनिक इतालवी भाषा के शब्दों का प्रयोग हुआ है। उसके पूर्व के भी लातीनी अपभ्रंश के प्रयोग लातीनी में लिखे गए हिसाब के कागजपत्रों में मिलते हैं जो आधुनिक भाषा के प्रारंभ की सूचना देते हैं। सातवीं और आठवीं सदी में लिखित पत्रों में स्थानों के नाम तथा कुछ शब्दों के रूप में मिलते हैं जो नवीन भाषा के द्योतक हैं। साहित्यिक लातीनी और जनसामान्य की बोली में धीरे-धीरे अंतर बढ़ता गया और बोली की लातीनी से ही आधुनिक इतालवी का विकास हुआ। इस बोली के अनेक नमूने मिलते हैं। सन् 960 में मोंतेकास्सीनो के मठ की सीमा के पंचायत के प्रसंग में एक गवाही का बयान तत्कालीन बोली में मिलता है; इसी प्रकार की बोली तथा लातीनी अपभ्रंश में लिखित लेख रोम के संत क्लेमेंते के गिरजे में मिलता है। ऊंब्रिया तथा मार्के में भी 11वीं 12वीं सदी की भाषा के नमूने धार्मिक स्वीकारोक्तियों के रूप में मिलते हैं, किंतु इतालवी भाषा की पद्यबद्ध रचनाओं के उदाहरण सिसिली के सम्राट् फ्रेडरिक द्वितीय के दरबारी कवियों के मिलते हैं। ये कविताएँ सिसिली की बोली में रची गई होंगी। श्रृंगार ही इन कविताओं का प्रधान विषय है। पिएर देल्ला विन्या, याकोपो द अक्वीनो आदि अनेक पद्यरचयिता फ्रेडरिक के दरबार में थे। वह स्वयं कवि था। वेनेवेत्तो के युद्ध के पश्चात् साहित्यिक और सांस्कृतिक केंद्र सिसिली के बजाय तोस्काना हो गया जहाँ शृंगारविषयक गीतिकाव्य की रचना हुई, गूइत्तोने देल वीवा द आरेज्जो इस धारा का प्रधान कवि था। फ्लोरेंस, पीसा, लूक्का तथा आरेज्जो में इस काल में अनेक कवियों ने तत्कालीन बोली में कविताएँ लिखीं। बोलोन में साहित्यिक भाषा का रूप स्थिर करने का प्रयास किया गया। सिसिली और तोस्काना काव्यधाराओं ने साहित्यिक इतालवी का जो रूप प्रस्तुत किया उसे अंतिम और स्थिर रूप दिया "दोल्चे स्तील नोवो" के कवियों ने। इन कवियों ने कलात्मक संयम, परिष्कृत रुचि तथा परिमार्जित समृद्ध भाषा का ऐसा रूप रखा कि आगे की कई सदियों के इतालवी लेखक उसको आदर्श मानकर इसी में लिखते रहे। दांते अलीमिएरी ने इसी नवीन शैली में, तोस्काना की बोली में, अपनी महान कृति "दिवीना कोमेदिया" लिखी। दांते ने "कोन्वीविओ" में गद्य का भी परिष्कृत रूप प्रस्तुत किया और गूइदो फाबा तथा गूइत्तोने द आरेज्जो की कृत्रिम तथा साधारण बोलचाल की भाषा से भिन्न स्वाभाविक गद्य का रूप उपस्थित किया। दांते तथा "दोचे स्तील नोवो" के अन्य अनुयायियों में अग्रगण्य हैं फ्रोंचेस्को, पेत्रार्का और ज्वोवान्नी बोक्काच्यो। पेत्रार्का ने फ्लोरेंस की भाषा को परिमार्जित रूप प्रदान किया तथा उसे व्यवस्थित किया। पेत्रार्का की कविताओं और बोक्काच्चो की कथाओं ने इतालवी साहित्यिक भाषा का अत्यंत सुव्यवस्थित रूप सामने रखा। पीछे के लेखकों ने दांते, पेत्रार्का और बोक्काच्यो की कृतियों से सदियों तक प्रेरणा ग्रहण की। 15वीं सदी में लातीनी के प्राचीन साहित्य के प्रशंसकों ने लातीनी को चलाने की चेष्टा की और प्राचीन सभ्यता के अध्ययनवादियों ने नवीन साहित्यिक भाषा बनाने की चेष्टा की, किंतु यही लातीनी प्राचीन लातीनी से भिन्न थी। इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप साहित्यिक भाषा का रूप क्या हो, यह समस्या खड़ी हो गई। एक दल विभिन्न बोलियों के कुछ तत्व लेकर एक नई साहित्यिक भाषा गढ़ने के पक्ष में था, एक दल तोस्काना, विशेषकर फ्लोरेंस की बोली को यह स्थान देने के पक्ष में था और एक दल, जिसमें पिएतरो बेंबो प्रमुख था, चाहता था कि दांते, पेत्रार्का और बोक्काच्यो की भाषा को ही आदर्श माना जाए। मैकियावेली ने भी फियोरेंतीनो का ही पक्ष लिया। तोस्काना की ही बोली साहित्यिक भाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो गई। आगे सन् 1612 में क्रूस्का अकादमी ने इतालवी भाषा का प्रथम शब्दकोश प्रकाशित किया जिसने साहित्यिक भाषा के रूप को स्थिर करने में सहायता प्रदान की। 18वीं सदी में एक नई स्थिति आई। इतालवी भाषा पर फ्रेंच का अत्यधिक प्रभाव पड़ना शुरू हुआ। फ्रेंच विचारधारा, शैली, शब्दावली तथा वाक्यांशों से और मुहावरों के अनुवादों से इतालवी भाषा की गति रुग गई। फ्रांसीसी बुद्धिवादी आंदोलन उसका प्रधान कारण था। इतालवी भाषा के अनेक लेखकों-आल्गारोत्ती, वेर्री, बेक्कारिया-ने नि:संकोच फ्रेंच का अनुसरण किया। शुद्ध इतालवी के पक्षपाती इससे बहुत दु:खित हुए। मिलान के निवासी अलेस्सांद्रो मांजोनी ने इस स्थिति को सुलझाया। राष्ट्र की एकता के लिए वे एक भाषा का होना आवश्यक मानते थे और फ्लोरेंस की भाषा को वे उस स्थान के उपयुक्त समझते समझते थे। अपने उपन्यास "ई प्रोमेस्सी स्पोसी" में फ्लोरेंस की भाषा का साहित्यिक आदर्श रूप उन्होंने स्थापित किया और इस प्रकार तोस्काना की भाषा ही अंतिम रूप से साहित्यिक भाषा बन गई। इटली के राजनीतिक एकता प्राप्त कर लेने के बाद यह समस्या निश्चित रूप से हल हो गई।
एम. एस. अणे संस्कृत भाषा के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक महाकाव्य श्रीतिलकयशोर्णव: के लिये उन्हें सन् 1973 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मणिमाला सिंघल ;जन्म 11 अप्रैल 1965 ,दिल्ली ,भारत ) एक पूर्व भारतीय महिला क्रिकेट खिलाड़ी है जो भारतीय महिला क्रिकेट टीम के लिए टेस्ट क्रिकेट और एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच खेला करती थी। इन्होंने अपने क्रिकेट जीवन में कुल छः टेस्ट और छः ही वनडे मैच खेले थे। संध्या अग्रवाल · रुना बासु · प्रमिला भट्ट · श्रीरूपा बोस · सांद्रा ब्रगांजा · शर्मिला चक्रवर्ती · पूर्णिमा चौधरी · संगीता दबीर · नीतू डेविड · मिनोती देसाई · रीता डे · कल्याणी ढोकरीकर · राजेश्वरी ढोलकिया · लाया फ्रांसिस · रेशमा गाँधी · अरुणाधती संतोष घोष · रेखा गोडबोले · बिंदेश्वरी गोयल · शशि गुप्ता · स्मिता हरिकृष्ण · सुसान इट्टिचेरिया · अंजू जैन · नीलिमा जोगलेकर · नीता कदम · हेमलता कला · ममता कनोजिया · चंद्रकांता कौल · फावज़ीह खलीली · अरुंधति किरकिरे · ममता माबेन · रीमा मल्होत्रा · बबिता मांडलिक · दीपा मराठे · रेणू मारग्रेट · संध्या मजूमदार · रिशिजे मुद्गल · मंजू नादगोड़ा · सुलक्षणा नाईक · उज्वला निकम · शोभा पंडित · सुनेत्र परांजपे · कल्पन परोपकारी · रीता पटेल · अंजलि पेंढारकर · रेखा पुणेकर · पूर्णिमा राव · कविता राय · लिसी सैम्युल · बीस सरकार · सुधा शाह · अमिता शर्मा · अंजलि शर्मा · जया शर्मा · रूपांजलि शास्त्री · श्यामा शॉ · अमृता शिंदे · सुनीता सिंह · मणिमाला सिंघल · सुजाता श्रीधर · आरती वैद्य · रजनी वेणुगोपाल · एकता बिष्ट · गार्गी बेनर्जी · झूलन गोस्वामी · डायना एडुल्जी · रुमेली धर · लोपामुद्रा भट्टाचार्जी · वृंदा भगत · वेंकटाचर कल्पना · शान्ता रंगास्वामी · शुभांगी कुलकर्णी · स्मृति मंधाना रीता डे · रेशमा गाँधी · अंजू जैन · नीलिमा जोगलेकर · अरुंधति किरकिरे · सुलक्षणा नाईक · जया शर्मा · मणिमाला सिंघल
सेंट जेम्स स्ट्रीट एक एतिहासिक सड़क है जो वेल्स की काउंटी मॉनमाउथशायर के मॉनमाउथ नगर के केंद्र में स्थित है। मानचित्रकार जॉन स्पीड के वर्ष 1610 में बनाए गए मानचित्र में सेंट जेम्स स्ट्रीट को मध्यकालीन शहर को घेरने वाली दीवारों के अंदर व्हाइटक्रॉस स्ट्रीट के एक हिस्से के रूप में दर्शाया है। निकट समय के मानचित्रों में इस सड़क को सेंट जेम्स स्क्वायर के दक्षिण-पश्चिम से आम्सहाउस स्ट्रीट तक दिखाया जाता है। लेखक विलियम मेलर वॉरलो के 1899 में किए गए अध्ययन व स्पीड के मानचित्र से पता चलता है कि कैसे व्हाइटक्रॉस स्ट्रीट को उसका यह नाम इसे एक सफ़ेद क्रोस मिला था जो कि भविष्य के सेंट जेम्स स्क्वायर पर स्थापित किया गया था। 2010 में यह सड़क मध्यपाषाण काल की कलाकृतियों की खोज का स्थल थी, जिससे यह सिद्ध होता है कि मॉनमाउथ शहर में बसावट मध्यपाषाण के समय से ही थी। सेंट जेम्स स्ट्रीट पर अनेक सूचीबद्ध इमारतें हैं। चौदहवीं शताब्दी तक मॉनमाउथ शहर की सड़क योजना का एक हिस्सा पूरा किया जा चुका था। सेंट जेम्स स्ट्रीट 1300 के आसपास बनीं शहर की दीवारों और गढ़ के अंदर मौजूद है। इसे जॉन स्पीड के 1610 में बनाए गए मचित्र में दर्शाया गया है। हालांकि नक्शे में इसे सेंट जेम्स स्ट्रीट के नाम से नहीं दिखाया गया है। बल्कि 1899 में लेखक विलियम मेलर वॉरलो के अनुसार व्हाइटक्रॉस स्ट्रीट का विस्तार वीयरहेड स्ट्रीट तक था। केवल सेंट जेम्स स्ट्रीट ही नहीं बल्कि आम्सहाउस स्ट्रीट भी व्हाइटक्रॉस स्ट्रीट का ही हिस्सा थी। सड़क को सेंट जेम्स स्ट्रीट शीर्षक उसे हाल ही के वर्षों में मिला है। इसके अलावा वॉरलो का मानना था कि व्हाइटक्रॉस स्ट्रीट का नाम एक सफ़ेद क्रोस से व्युत्पन्न हुआ है जो डिस्पेंसरी के निकट भविष्य के सेंट जेम्स स्क्वायर पर स्थापित किया गया था। जॉन स्पीड के 1610 के नक्शे का निरीक्षण करने पर ईस्ट गेट के निकट एक क्रोस के चिह्न के बारे में पता चलता है, जो कि सेंट जेम्स स्क्वायर के अपेक्षित स्थान पर है। वर्ष 2010 में सेंट जेम्स स्क्वायर में पुरातात्विक रूप से एक एतिहासिक व महत्वपूर्ण खोज हुई थी। असल में सेंट जेम्स स्क्वायर और वेयाब्रिज स्ट्रीट में मुख्य गैस की लाइन बदलने का कार्य चल रहा था। इस कार्य में हुई खुदाई के दौरान मध्यपाषाण काल के पत्थर के औजार मिले थे। यह विरूपण साक्ष्य यह सिद्ध करते है कि मॉनमाउथ शहर में मध्यपाषाण युग की बस्तियाँ थीं।
पिनोकियो 1940 में वॉल्ट डिज़्नी द्वारा निर्मित एनीमेटेड फिल्म है।
मोतिया खान दिल्ली का एक आवासीय क्षेत्र है।
अंग्रेज़ी के "मार्दी ग्रा ", "मार्दी ग्रा सीज़न " एवं "कार्निवल सीज़न " अंग्रेज़ी में आदि शब्दों का अभिप्राय कार्निवल समारोहों के कार्यक्रमों से है जो क्रिसमस के बारह दिन बाद एपीफैनी को या उसके बाद शुरू होते हैं और ईस्टर से पहले सातवें बुधवार, ऐश वेन्ज़्डे को समाप्त होते हैं। मार्दी ग्रा "फैट ट्यूजडे" के लिए एक फ़्रांसिसी शब्द है, जो ऐश वेन्ज़्डे को शुरू होने वाले लेनटेन मौसम के रिवाज़ी उपवास के पहले आखिरी रात को मसालेदार, वसायुक्त भोजन करने की परंपरा को सन्दर्भित करता है। संबंधित लोकप्रिय प्रथाएं उपवास के पहले होने वाले उत्सवों से एवं धार्मिक दायित्व लेंट के शोकसूचक मौसम से संबद्ध थे। लोकप्रिय प्रथाओं में मुखौटे और परिधान पहनना, सामाजिक सम्मेलनों में बढ़-चढ़ कर भाग लेना, नाचना, खेल प्रतियोगिताएं, परेड वगैरह शामिल हैं। मार्दी ग्रा के प्रति इसी तरह की अभिव्यक्ति ईसाई परम्पराओं को मानने वाली अन्यान्य यूरोपीय भाषाओं में भी देखने को मिलती है। अंग्रेजी में इस दिन को श्रोव ट्यूजडे कहा जाता है, जो लेंट के शुरू होने से पहले स्वीकारोक्ति की धार्मिक अपेक्षा से जुड़ा हुआ है। कई क्षेत्रों में "मार्दी ग्रा" शब्द का तात्पर्य उत्सव से संबंधित कार्यक्रमों से जुड़ी क्रियाकलापों की पूरी अवधि से होता है, न कि केवल एक दिन से. कुछ अमेरिकी देशों में अब इसे "मार्दी ग्रा डे" या "फैट ट्यूजडे" कहा जाता है।अलग-अलग शहरों में त्योहारों का मौसम भिन्न होता है, जैसे कि कुछ परम्पराओं में एपीफैनी या बारहवीं रात और ऐश वेन्ज़्डे के बीच की पूरी अवधि को मार्दी ग्रा माना जाता है। कुछ दूसरे ऐश वेन्ज़्डे से पूर्व आख़िरी तीन-दिनों की अवधि को मार्दी ग्रा मानते हैं। मोबाइल में अलाबामा मार्दी ग्रा नवम्बर में सामाजिक कार्यक्रमों से संबंधित था। इसके बाद मिस्टिक सोसाइटी का शुक्राना जश्न, नव वर्ष की पूर्व संध्या आदि हुए और उसके बाद ऐश वेन्ज़्डे के पहले मध्य रात्रि तक उत्सव मनाते हुए जनवरी और फरवरी में परेड और जश्न किये गए। पहले के समय में नए वर्ष के दिन परेड किया जाता था। मार्दी ग्रा उत्सवों के लिए प्रसिद्ध अन्यान्य शहरों में ब्राज़ील का रियो दी जैनिरो, क्यूबेक शहर, कनाडा का क्यूबेक; मैक्सिको का मज़त्लान; और अमेरिका का न्यू ओरलियंस, लोइज़ियन शामिल हैं। कई अन्य स्थानों पर भी महत्वपूर्ण मार्दी ग्रा उत्सव मनाये जाते हैं। कैथोलिक यूरोपीय राष्ट्रों में कार्निवल एक महत्वपूर्ण उत्सव है। ब्रिटेन और आयरलैंड में ऐश वेन्ज़्डे से पहले वाले हफ्ते को "श्रोवेटाइड" कहते हैं, जो श्रोव ट्यूज़डे को ख़त्म होता है। इसका एक लोकप्रिय उत्सव पहलू भी है। मालपुआ एक पारंपरिक भोजन है। लैटिन अमेरिका और कैरिबियन के कई हिस्सों में मालपुआ और इसी तरह के तले हुए भजिये और मीठी पेस्ट्री, वसा और अंडे भी परंपरागत रूप से इस दौरान बनाये और खाए जाते हैं। बिंश के बेल्जियम शहर में मार्दी ग्रा वर्ष का सबसे अहम् दिन और कार्निवल ऑफ बिंश का शिखर सम्मलेन है। परंपरागत आनंदोत्सव के गानों के बजने के साथ पूरे शहर में सुबह से लेकर सूरज ढलने के बाद तक भी तकरीबन 1000 गिल्स नृत्य करते हुए देखे जा सकते हैं। 2003 में "कार्निवल ऑफ बिंश" को युनेस्को द्वारा मानवता के मौखिक और अमूर्त विरासत के मास्टरपीसों में से एक घोषित किया गया। ब्राज़ील में यह कार्निवल लेनटेन के पूर्व मनाया जाने वाला वार्षिक उत्सव है। रेसिफ और सैलवाडोर के शहर अपने कार्निवल के लिए काफी मशहूर हैं लेकिन सबसे उल्लेखनीय रियो दी जेनीरो में आयोजित किया जाने वाला कार्निवल है। मार्दी ग्रा में कार्निवल की समाप्ति तक लाखों लोग उत्सव में भाग ले लेते हैं। रेसिफी का कार्निवल राष्ट्रीय तौर पर मशहूर है और हर वर्ष हज़ारों लोगों को एकत्रित करता है। विद्युतीय ट्रियो से रौनक बोआ वायाजेम ज़िले में पार्टी औपचारिक तिथि से एक हफ्ते पहले ही शुरू हो जाती है। शुक्रवार को लोग सड़कों पर उतर आते हैं ताकि फ्रेवो की आवाज पर झूम सकें और माराकाटू, सिरांडा, कैबोक्लिनहॉस, एफोक्स, रेगी और मैंग बीट समूहों के साथ नाच सकें. पूरे शहर में मनोरंजन का माहौल रहता है जैसे कि जब एक लाख से भी अधिक लोगों का हुजूम गालो दा मैद्रगाडा समूह के पीछे हो लेता है। इतवार को नॉयट डौस टैमबोर्स साइलेंसिसोस का दर्शनीय स्थल होता है जहां मैराकाटस उन ग़ुलामों को सम्मान देते हैं जो क़ैद में मारे गए थे। रियो दी जेनीरो में कार्निवल के बहुतेरे विकल्प हैं, जिसमें सैमबोड्रोमो प्रदर्शनी केंद्र में होने वाला प्रसिद्ध एसकोलास डी साम्बा परेड और प्रसिद्ध 'ब्लौकोस डी कार्निवल' शामिल हैं, जो तकरीबन शहर के हर कोने में परेड करते हैं। सबसे मशहूर परेड हैं - शहर के बीचों-बीच पारंपरिक कार्निवल परेड के साथ कौरडाओ डो बोला प्रीटा, वनस्पति उद्यान के सुवाको डो क्रिस्टो परेड, सैंटा टेरेसा की पहाड़ियों के कारमेलिटास परेड, इपानेमा के सबसे प्रसिद्ध परेडों में से एक सिमपाटिया ए क्वेस, एवं बैंडा डी इपानेमा जो बड़े पैमाने पर परिवारों एवं समलैंगिक आबादी के एक व्यापक समुदायों सहित रिवेलर्स को आकर्षित करता है . गिनीज़ बुक के अनुसार कार्निवल या कर्नावल ऑफ डी बाहिया पूरे गृह पर सड़कों पर होने वाली सबसे बड़ी पार्टी है। पूरे एक सप्ताह के लिए लगभग दो लाख लोग शहर के सड़क पर मनाये जाने वाले उत्सव में भाग लेते हैं, जो बैरा/ऑनडीना, कैम्पों ग्रैंडे एवं पेलोरिन्हो नामक सर्किटों में विभाजित होते हैं। कार्निवल के दौरान चलाये जाने वाले संगीत में एक्स और साम्बा-रेगा शामिल हैं। कार्निवल में बहुत से "ब्लॉकोज़" भाग लेते हैं, "ब्लॉकोज़ अफ्रोज़" मसलन मेल डेबेल, ओलोडम एवं फिल्होस डी गांधी इनमें से सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। देशभर में ख़ास तौर पर टोरंटो, सेंट जॉन्स, वैनकुवर एवं मोनट्रील जैसे प्रमुख शहरों में मार्दी ग्रा उत्सव आम है। फ्रांसीसी भाषी क्यूबेक वह प्रांत है जहां मार्दी ग्रा कनाडा में सबसे बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। क्यूबेक शहर और माँनट्रील संगीत समारोह, हास्य समारोह, भोजन समारोह तथा सड़क की पार्टियां आदि कार्यक्रमों के साथ मार्दी ग्रा उत्सव मनाते हैं। क्यूबेक शहर क्यूबेक के शीतकालीन कार्निवल के लिए भी विख्यात है जो आम तौर पर जनवरी के पहले सप्ताह में शुरू होता है और अगले 17 दिनों तक चलता रहता है। क़रीब एक लाख प्रतिभागियों के साथ यह दुनिया का सबसे बड़ा शीतकालीन आनंदोत्सव बन चुका है। समारोह के कार्यक्रमों में स्कीइंग, स्नो-रैफ्टिंग तथा स्नो स्लेड-स्लाइड्स सरीखे आकर्षणों के साथ एक शीतकालीन मनोरंजन पार्क शामिल है। कैरेबियन में कार्निवल कई एक द्वीपों पर मनाये जाते हैं : एंटीगुआ, अरुबा, बार्बाडोज़, बोनेयर, कुराकाओ, डोमिनिका, डोमिनिकन गणतंत्र, ग्रेनाडा, गुआडेलूप, गुयाना, हैती, जमाइका, प्योर्टो रिको, सेंट किट्स एवं नेविस, सेंट लूशिया, सेंट विन्सेंट एवं ग्रेनाडाइन्स, सेंट मार्टिन, सूरीनाम, त्रिनिदाद एवं टोबैगो एवं अमेरिकी वर्जिन द्वीपसमूह यह धर्मोत्सव मनाने वालों में से कुछ हैं। बहुतेरे कोलंबियाई शहर बारहवीं रात और मार्दी ग्रा के बीच की अवधि में कार्निवल मनाते हैं। इन अनंदोत्सवों में सबसे महत्वपूर्ण बैरेनक्विला का कार्निवल है, जो ऐश वेन्ज़्डे के पहले शनिवार को शुरू होकर मार्दी ग्रा पर ख़त्म होता है। बैरेनक्विला के कार्निवल की जड़ें 19वीं शताब्दी से जुड़ी हुई हैं और आकार में रियो के बाद दूसरे स्थान पर होने के लिए विख्यात है लेकिन इसका वाणिज्यिकरण अपेक्षाकृत रूप से बहुत कम हुआ है। कार्निवल ऑफ बैरेनक्वि ला को नवम्बर 2003 में युनेस्को द्वारा मानवता के मौखिक और अमूर्त विरासत की विलक्षण कृतियों में से एक के रूप में घोषित किया गया था। क्षेत्रीय आधार पर इस उत्सव को कार्नेवाल, मेसोपस्ट, पोकलेड अथवा फास्निक आदि अलग-अलग नामों से जाना जाता है। दुनिया के सबसे बड़े कार्निवालों में से एक रिजेका कार्निवल सबसे प्रसिद्ध कार्यक्रम है। डेनमार्क में इसी तरह के एक उत्सव को फास्टेलव्न कहा जाता है। फास्टेलव्न की उत्पत्ति लेंट से पहले के दिनों में उत्सव मनाये जाने की रोमन कैथोलिक परंपरा से हुई है। जब से डेनमार्क एक प्रोटेस्टेंट राष्ट्र बन गया है, तब से यह छुट्टी धार्मिक तौर पर कम विशेष हो गया है। यह छुट्टी ईस्टर इतवार के सात हफ्ते पहले पड़ती है और कभी-कभी इसका वर्णन नौर्डिक हैलोवीन के रूप में किया जाता है, जिसमें फास्टेलव्न भोज के लिए बच्चे रंग-बिरंगे परिधान पहनते हैं और दावत लेते हैं। इस छुट्टी को आम तौर पर बच्चों के मनोरंजन और पारिवारिक खेलों का समय माना जाता है। "फास्टेलव्न" शब्द उत्तरी जर्मनी से आयातित एक निम्न सैक्सौन आगम शब्द है। फास्टटेलवेंड, उच्चारण: फास्टेलबेंड, एवं फास्टलाम आदि शब्द नीदरलैंड के पूर्वी हिस्सों के निम्न सैक्सौन वेस्टेलाओवेंड से तथा डच वेस्टेनावोंड से सम्बंधित हैं। फ्रांस के नाइस शहर के बारे में कहा जाता है कि वर्ष 1294 में कॉम्टे डी प्रोविंस चार्ल्स II, डाक डी'औन्जौ ने कार्निवल के समारोह में हिस्सा लेने के लिए नाइस में छुट्टियां लेनी शुरू की. इसमें जश्न, मस्करेड्स, बोनफायर्स, बाज़ीगरी, मूकाभिनय और अनेकानेक चीज़ें शामिल थीं। इसमें भाग लेने के लिए एक परिधान और मुखौटे की ज़रुरत पड़ती थी। इसमें इतनी धूमधाम होती थी कि इसके अश्लील पहलुओं पर चर्च तक पाबंदी लगा पाने में असफल होते थे। हालांकि इस शहर का इतिहास यह दिखाता है कि यह उत्सव विश्व युद्ध के पहले 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक बेले इपोक़ कहे जाने वाले समय में काफी ज़ोर-शोर से मनाया जाता था। नाइस शहर में दो हफ़्तों से अधिक तक कार्यक्रम आयोजित कर और आख़िरी दिन को मार्दी ग्रा का उत्सव मना कर कार्नावल मनाया जाता है। नाइस कार्नावल में फूलों से ढंके फ्लोट एवं शानदार रात्रि-कालीन प्रकाश प्रदर्शनी वाले परेड होते हैं। अन्यान्य फ़्रांसिसी शहर भी कार्नावल आयोजित करते हैं। पेरिस में भी पेरिस कार्निवल नामक आनंदोत्सव मनाया जाता है। जर्मनी में मार्दी ग्रा के उत्सव को कार्नेवाल, फास्टनैक्ट, अथवा फास्चिंग कहा जाता है। फास्टनैक्ट का तात्पर्य है - "व्रत शरू होने की पूर्वसंध्या" और इसे ऐश वेन्ज़्डे के पहले वाले दिन मनाया जाता है। रोज़ेनमौन्टेग नामक सबसे मशहूर परेड ऐश वेन्ज़्डे के पहले सोमवार को कोलों, मेंज़ और डसेलडोर्फ़ में आयोजित किया जाता है। ग्वाटेमाला में मनाया जाने वाला प्रमुख कार्निवल माज़ाटेनांगो में आठ दिनों तक मनाया जाता है। 1961 तक एक पूर्व पुर्तगाली कैथोलिक कॉलोनी, भारत के गोवा में फैट ट्यूजडे से शुरू होकर तीन दिनों तक कार्निवल मनाया जाता है। केरला राज्य में कार्निवल परेड को रसा कहा जाता है और यह ऐश वेन्ज़्डे की पूर्व-रात्रि को होती है। गोवा के विपरीत, यहां के उत्सव में मुखौटे नहीं होते. कार्नेवेल इटली का पारंपरिक पूर्व-लेनटेन उत्सव है। यह ऐश वेन्ज़्डे से पहले के कुछ सप्ताहों में आमोद-प्रमोद, मसक्वरेड जुलूसों, मुखौटे वाले जश्न, परेडों, झांकियों, बाजीगरी, जादूगर, बांस पर चलना, सुरुचिपूर्ण परिधान और खर्चीले मुखौटों, गायन-नृत्य, आतिशबाज़ी, एवं भोज का समय होता है। कार्नेवेल ऐश वेन्ज़्डे से पहले अतिभोग का अवसर है, जो लेंट की तपस्या और व्रत का संकेत देता है। कार्नेवेल पूरे इटली में होता है, जहां हर शहर, नगर, एवं गांव अपने पारंपरिक रीति-रिवाज़ों के साथ इसे मनाते हैं। वियारेगियो, इव्रिया, स्कियासा, नापोली, रोमा, कैलेब्रिया एवं वेनेज़िया सरीखे स्थानों में अनोखा और व्यापक समारोह होता है, जो पूरी दुनिया में मशहूर है। कार्नेवेल के आखिरी दिनों के उत्सव जैसे-जैसे मार्तेडी ग्रासो के निकट पहुंचते जाते हैं, वे सबसे अधिक तीव्र होने लगते हैं। कार्नेवेले से विशिष्ट रूप से जुड़े परंपरागत पकवानों और डोलसी में फ्रिटेले, क्रेस्पेले, स्फिंगी, कास्टागनोले, केंसी, नोडी, चियाशेर, बूगी, गालानी, फ्रिटोले, बरलिंगाशियो, सेंगग्विनाशियो एवं टौरटेली आदि शुमार हैं। इस बाल-कविता/गीत में फेस्टा के खेलों, मसखरी या मज़ाक आदि का बयां करते हुए कार्नेवेल के दौरान माहौल का वर्णन किया गया है। अ कार्नेवेल, ओग्नी शेर्ज़ो वेळ, एविवा, एविवा इल कार्नेवेल!अ कार्नेवेल, ओग्नी शेर्ज़ो वेळएविवा, एविवा इल कार्नेवेल!केंटियम, बैलियामो ए कार्नेवेल,मा....डोमानी अ स्कुओला सी डेवे ऍनडेयर ए स्टडीएअर...अ कार्नेवेल, ओग्नी शेर्ज़ो वेळएविवा, एविवा इल कार्नेवेल!' मिलान मार्दी ग्रा कार्निवल का समापन नहीं है चूंकि इसके बाद भी चार दिनों तक कार्निवल चलता है और भोग देने की प्रथा के कारण ऐश वेन्ज़्डे के बाद शनिवार को समाप्त होता है। अतः कार्निवल का आख़िरी दिन "सबटो ग्रैसो" होता है। वेनिस, वियारेगिओ, इव्रिया, संतो, पुटिग्नानो, बौर्डीघेरा एवं ओरिसस्टानो के "सर्तीग्लिया" में आयोजित होने वाले कार्निवल इटली के मशहूर कार्निवल हैं। वेनिस दुनिया के सर्वाधिक प्रसिद्ध और साथ ही प्राचीनतम कार्निवल उत्सवों में से एक का गढ़ है। वेनिस के कार्निवल को पहले-पहल 1268 में दर्ज किया गया था। इस उत्सव की विध्वंसक प्रकृति सदियों से बने बहुत से कानूनों में प्रतिबिंबित होती हैं, जो उत्सव को सीमाबद्ध करते हैं और बहुधा मुखौटे पहनने पर प्रतिबंध लगाते हैं। मुखौटे हमेशा से वेनेशियन कार्निवल के केन्द्रीय विशिष्टता रहे हैं; परंपरागत रूप से सैंटो स्टीफानो के उत्सव के बीच लोगों को उन्हें पहनने की अनुमति होती थी। चूंकि एसेंशन के दौरान एवं 5 अक्टूबर से लेकर क्रिसमस तक भी मुखौटे पहनने की अनुमति रहती थी, अतः लोग वर्ष का एक बड़ा अनुपात छद्मवेश में और अपने व्यवहार को प्रकट होने से बचाते हुए बिता सकते थे।. मुखौटे बनाने वालों का समाज में एक ख़ास रुतबा हुआ करता था। उनके अपने कानून और अपने संघ होते थे। 1797 में जब नेपोलियन ने कैम्पो फौर्मियो संधि पर हस्ताक्षर किये तो वेनिस लौमबार्डी-वेनेशिया के ऑस्ट्रिया शासित साम्राज्य का अंग बना. 18 जनवरी 1798 को शहर पर ऑस्ट्रियाइयों का नियंत्रण होने के बाद यह पतन के कगार पर पहुंच गया, जिससे कार्निवल आनंदोत्सवों पर तकरीबन दो शताब्दियों के लिए रोक लग गई। 1930 और 1940 के दशक में बेनिटो मुसोलिनी के फासीवादी सरकार द्वारा कार्निवल को ग़ैरकानूनी घोषित कर दिया गया। 1980 के दशक में मॉडर्न मास्क शॉप की स्थापना से वेनिस में कार्निवल के पुनरुद्धार में मदद मिली. नीदरलैंड में भी मार्दी ग्रा की ही तरह का एक त्योहार मनाया जाता है। इसे कार्नावल कहते हैं और यह वेनिस कार्निवल से मिलता-जुलता है। कार्नावल शब्द का अर्थ है 'कार्ने वेल', जिसका तात्पर्य लैटिन में मांसाहार को अलविदा कहना है। यह उस पवित्र अवधि के प्रारम्भ का संकेत है जो ईस्टर तक चलता है। नीदरलैंड के दक्षिणी प्रान्तों लिम्बर्ग एवं नोवर्ड-ब्राबेंट में असली त्योहार मनाया जाता है। लास टेबल्स, ओकू, चित्रे, पेनेनोम एवं पनामा शहर सरीखे विभिन्न पनामाई शहरों में कार्निवल मनाया जाता है। इस देश में कार्निवल की पहचान मुख्यतः लोगों को जल-टैंकों या हौजों के पानी में भिगोना है। यह उत्सव चार दिनों की छुट्टी वाले पूरे सप्ताहांत में चलता रहता है। स्पेन में इसे कार्नावल कहा जाता है। सांता क्रूज़ डी टेनेरिफ का कार्निवल कार्नावल डी केडिज़ के बाद स्पेन का दूसरा सबसे बड़ा मान्यता प्राप्त कार्निवल है। यह आम तौर पर फरवरी के महीने में मनाया जाता है और मार्दी ग्रा एवं ऐश वेन्ज़्डे की कैथोलिक छुट्टियों से संबद्ध है। टेनेरिफ में दो हफ़्तों के दौरान मुर्गाज़ होता है और बर्लेसक्यू गीत गाया जाता है। कार्निवल की महारानी इसी समय चुनी जाती है। केडिज़ में कार्निवल की पहचान सड़क के संगीतकारों की टोली कॉम्परसस एवं चिरीगोटस है, जो पूरा एक वर्ष ग्रेट टीट्रो फौला में होने वाले कार्निवल में पहला प्राइज़ जीतने के लिए गाने तैयार करते हुए बिताते हैं। स्वीडन में इस त्योहार को फेटिसडैगेन कहते हैं। यह "फेट" और "टिसडैग" आदि शब्दों के मेल से बना है। मूलतः यह एकमात्र ऐसा दिन हुआ करता था, जब व्यक्ति को सेमलर खाना चाहिए था। अब ये छुट्टियों से पहले से लेकर ईस्टर तक ज़्यादातर किराने की दुकानों और बेकरी में बिकते हैं। तथापि यह समूचे अमेरिका में राष्ट्रीय तौर पर नहीं मनाया जाता, लेकिन यह कईएक परंपरागत जातीय फ्रांसीसी शहरों और देश के प्रान्तों में उल्लेखनीय रूप से मनाया जाता है। उत्तर अमेरिका में मार्दी ग्रा पियरी ली मोयन दिल्बर्विले एवं जीन-बैप्टिस्ट ली मोयन डी बियेंविले नामक दो ली मोयन भाइयों के साथ एक फ्रांसीसी कैथोलिक परंपरा के रूप में तब आया जब 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा लुईस XIV ने दोनों भाइयों को लुइज़ियाने प्रांत पर फ्रांसीसी दावों की रक्षा करने के लिए भेजा, जिसके अंतर्गत अभी के अमेरिकी देश अलबामा, मिसिसिपी एवं लुइसियाना शामिल थे। इबर्विले के नेतृत्व में इस अभियान ने 2 मार्च 1699, लुंडी ग्रा के दिन मिसिसिपी नदी के मुहाने में प्रवेश किया। उन्हें अभी तक ये ज्ञात नहीं था कि उन्होंने उस नदी का आविष्कार किया था और 1683 में रेने-रॉबर्ट कैवेलियर, सियुर डी साल्ले ने उसे फ्रांस में लेने का दावा किया। यह टोली आज के न्यू ऑर्लियंस से 60 मील दूर स्थित पश्चिमी तट पर अवस्थित एक स्थान की और बढ़ी और वहां उन्होंने शिविर बनाया. यह 3 मार्च 1699 मार्दी ग्रा का दिन था, इसलिए इस दिन के सम्मान में इबर्विले ने उस स्थान का नाम पॉइंट डू मार्दी ग्रा और निकटवर्ती उपनदी की खाड़ी का नाम मार्दी ग्रा रखा. 1702 में बियेन्विले मोबाइल, अलबामा को फ्रांसीसी लुइज़ियाना की पहली राजधानी बनाने के लिए आगे बढ़े. 1703 में मोबाइल के फ्रांसीसी बाशिंदों ने मार्दी ग्रा उत्सव परंपरा का शुभारम्भ किया। 1720 तक बिलोक्सी को लुइज़ियाना की राजधानी बना दिया गया। वहां बसे कोलोनिस्टों में फ्रांसीसी विधि-विधान पहले ही रच-बस गए थे। 1723 में लुइज़ियाना की राजधानी को न्यू ऑर्लियंस ले जाया गया, जिसका अविष्कार 1718 में हुआ था। यह परंपरा अब इस हद तक विकसित हो चुकी है कि यह शहर के लोकप्रिय अनुभव से गहरे जुड़ चुका है और इसे फ़्रांसीसी और कैथोलिक विरासत से परे न्यू ऑर्लियंस के निवासियों ने भी अपना लिया है। मार्दी ग्रा उत्सव लाइस्सेज़ लेस बोन टेम्प्स रोलर नारे एवं पुकारने के नाम "बेहद आसान" के आधार का हिस्सा हैं। नए फ्रांस की पूर्व राजधानी मोबाइल, अलबामा में भी मार्दी ग्रा मनाने की दीर्घकालीन परंपरा रही है। खाड़ी तटों से सटे अन्यान्य शहरों, जिन्हें पहले फ्रांसीसियों ने पेन्साकोला, फ्लोरिडा से लेकर कब्ज़ा कर लिया था, एवं इसके उपनगरों से लेफेयेट, लुइज़ियाना तक में मार्दी ग्रा उत्सव बड़े जोश-ख़रोश के साथ मनाया जाता है। रुअल अकाडियाना क्षेत्र में बहुत से कजुन्स कुरीर डी मार्दी ग्रा मनाते हैं। यह फ्रांस के मध्ययुगीन उत्सवों के समय से चली आ रही परंपरा है। हाल के समय में बहुत से अन्य अमेरिकी शहरों ने, जिनकी कोई फ्रांसीसी विरासत नहीं है, मार्दी ग्रा की एक शैली स्थापित की है; उदाहरण के तौर पर, टेक्सास के लारेडो में जनवरी के अंत में जैमबूज़ी त्योहार मनाया जाता है।
धुन्धरेहडी हरियाणा राज्य के कैथल जिले की कैथल तहसील का एक गाँव है।
टेरी विश्वविद्यालय, को 19 अगस्त 1998 को नई दिल्ली में स्थापित किया गया था और एक विश्वविद्यालय के रूप में इसे 1999 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मान्यता प्रदान की गई।1998 में टेरी विस्तृत अध्ययन स्कूल के रूप में स्थापित, संस्था को बाद में टेरी विश्वविद्यालय नाम दिया गया था।टेरी विश्वविद्यालय भारत में अपनी तरह का पहला संस्थान है जो स्थायी विकास के लिए पर्यावरण, ऊर्जा और प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन के लिए समर्पित है।विश्वविद्यालय जैव प्रौद्योगिकी नियामक और नीति पहलुओं, ऊर्जा और पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन में पीएचडी कार्यक्रम प्रदान करता है। परास्नातक कार्यक्रम सार्वजनिक नीति एवं सतत विकास, पर्यावरण अध्ययन, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, संसाधन और पर्यावरण अर्थशास्त्र, जलवायु परिवर्तन विज्ञान और नीति, नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों और प्रबंधन, जल संसाधन प्रबंधन, जियोइन्फारमैटिक्स, पादप जैव प्रौद्योगिकी, व्यापार स्थिरता में और इन्फ्रास्ट्रक्चर मैनेजमेंट मे उपलब्ध हैं।टेरी विश्वविद्यालय की नींव टेरी जो एक प्रमुख गैर लाभ पर्यावरणीय कारणों के लिए समर्पित संगठन के अनुसंधान परामर्श और पर्यावरण संबंधी गतिविधियों द्वारा किये गए एक विस्तार के रूप में पडी थी। टेरी विश्वविद्यालय प्लॉट 10, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, नई दिल्ली में एक आधुनिक हरे रंग की इमारत में स्थित है। परिसर का भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने 11 सितम्बर 2008 को उद्घाटन किया।विश्वविद्यालय अपने लिए एक ऊर्जा कुशल आधुनिक हरी इमारतों के परिसर के निर्माण से सिद्धांत को अभ्यास मे डालता है।एक अभिनव, वास्तु डिजाइन ऊर्जा की बचत के अलावा, अन्य इमारत अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों से सुसज्जित, संस्थान ऊर्जा की खपत को 25 % और पीने योग्य पानी के उपयोग को 60 % कम करता है। राजेंद्र कुमार पचौरी, टेरी के महानिदेशक और आईपीसीसी अध्यक्ष कुलपति है और प्रोफेसर भाविक बख्शी विश्वविद्यालय के उप कुलपति है।
राजमोहनी देवी गांधीवादी विचार धारा वाली एक समाज सेविका थी जिन्होंने बापू धर्म सभा आदिवासी मण्डल की स्थापना की। ये संस्था गोंडवाना स्थित आदिवासियों के हित के लिए कार्य करती है। वे स्वयं एक आदिवासी जाति मांझी में जन्मी थी। 1951 के अकाल के समय गांधीवादी विचारधाराओ व आदर्शों से प्रभावित होकर इन्होंने एक जन आंदोलन चलाया जिसे राजमोहनी आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य आदिवासी महिलाओं की स्वतन्त्रता व स्वायत्ता निश्चित करना था साथ ही अंधविश्वास और मदिरा पान की समस्याओं का उन्मूलन था। धीरे धीरे इस आंदोलन से 80000 से भी ज्यादा लोग जुड़ गए। बाद में ये आंदोलन एक अशाष्कीय संस्थान के रूप में सामने आया। इस संस्थान के आश्रम न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि उत्तर प्रदेश और बिहार में भी है। सन 1989 को भारत सरकार द्वारा इन्हे भारत के चतुर्थ सर्वोच्च नागरिक सम्मान "पद्म श्री" से सम्मानित किया गया। उनके जीवन पर सीमा सुधीर जी द्वारा एक किताब की रचना की गयी है जिसका शीर्षक है "सामाजिक क्रांति की अग्रदूत राजमोहनी देवी" जिसका प्रकाशन छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादेमी द्वारा सन 2013 में किया गया। उनके नाम पर इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा संचालीत "राजमोहनी देवी कॉलेज ऑफ एग्रिकल्चर अँड रिसर्च स्टेशन" व "राजमोहनी देवी पीजी महिला महाविद्यालय" अंबिका पुर में स्थित है।
बैचलर ऑफ़ टेक्नोलॉजी कहा जाता है) एक पूर्वस्नातक अकादमिक डिग्री है जिसे एक मान्यता प्राप्त विश्विद्यालय या मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय स्तरीय संस्थान में तीन या चार वर्षों के एक अध्ययन कार्यक्रम को पूरा करने के बाद प्रदान किया जाता है। यह डिग्री कॉमनवेल्थ ऑफ नेशंस, आयरलैंड गणराज्य, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और अन्य देशों में प्रदान की जाती है। आम तौर पर यह डिग्री बैचलर ऑफ साइंस डिग्री कार्यक्रम में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों को प्रदान की जाती है जिन्होंने एक लिया है जिसे अतिरिक्त रूप से या तो व्यावसायिक प्लेसमेंट्स या अभ्यास आधारित क्लासरूम कार्यक्रमों द्वारा पूरा किया जाता है। इन आवश्यकताओं के कारण इस डिग्री में आम तौर पर कम से कम चार साल का समय लगता है। कुछ देशों में एक पाठ्यक्रम को पूरा करने के बाद यह डिग्री प्रदान की जाती है जो करियर उन्मुखी होता है जहां सिद्धांत के विपरीत अभ्यास पर जोर दिया जाता है। यहाँ, इसके विपरीत, व्यवसायिक प्लेसमेंट्स और अभ्यास आधारित कार्यक्रमों को इस कार्यक्रम के तहत बहुत ज्यादा महत्व दिया जाता है . ऑस्ट्रेलिया में, बैचलर ऑफ टेक्नोलॉजी कार्यक्रमों की अवधि तीन से चार साल होती है। ऑनर्स डिग्री, जिसे संक्षेप में बी.टेक. कहा जाता है, चार वर्षीय कार्यक्रम को सफलतापूर्वक पूरा करने वाले स्नातकों को प्रदान की जाती है। कनाडा में, बैचलर ऑफ टेक्नोलॉजी की डिग्री चार साल के एक कार्यक्रम को पूरा करने के बाद प्रदान की जाती है। कनाडा में कुछ कम्युनिटी कॉलेजों द्वारा प्रदान की जाने वाली बैचलर ऑफ अप्लाइड टेक्नोलॉजी या की डिग्री के साथ बी.टेक. की डिग्री को लेकर भ्रमित न होने पर ध्यान दिया जाना चाहिए. कम्युनिटी कॉलेजों का प्रधिनित्व एसोसिएशन ऑफ कैनेडियन कम्युनिटी कॉलेज द्वारा किया जाता है लेकिन इन्हें कैनेडियन इंजीनियरिंग एक्रेडिटेशन बोर्ड द्वारा एक गहन समीक्षा के बाद इंजीनियर्स कनाडा द्वारा मान्यता प्रदान किया गया है और अब इन्हें एसोसिएशन ऑफ यूनिवर्सिटीज एण्ड कॉलेज ऑफ कनाडा नामक कनेडियन राष्ट्रीय विश्वविद्यालय मान्यीकरण निकाय द्वारा विश्वविद्यालय स्तरीय संस्थानों के रूप में मान्यीकृत किया जाता है। भारत में बैचलर ऑफ टेक्नोलॉजी की डिग्री चार साल के एक कार्यक्रम के पूरा होने के बाद प्रदान की जाती है। बी.टेक. की डिग्री इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग, मैकेनिकल इंजीनियरिंग, कंप्यूटर इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग, माइनिंग इंजीनियरिंग, एयरोस्पेस इंजीनियरिंग, सिविल इंजीनियरिंग, बायोटेक्नोलॉजी, केमिकल इंजीनियरिंग, प्रोडक्शन इंजीनियरिंग और टेक्सटाइल इंजीनियरिंग जैसे विभिन्न क्षेत्रों में सरकारी और निजी संस्थानों के साथ-साथ कई अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों द्वारा उनके पेशेवर इंजीनियरिंग कार्यक्रमों के लिए प्रदान की जाती है। हालांकि, भारत में ज्यादातर अन्य संस्थान बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग डिग्री का इस्तेमाल करते हैं। इज़राइल में बी.टेक. की डिग्री इंजीनियरिंग के क्षेत्र में केवल अकादमिक कॉलेजों द्वारा ही प्रदान की जाती है। बी.टेक. की डिग्री की न्यूनतम अवधि आठ सेमेस्टर और 160 क्रेडिट घंटे है। न्यूनतम पांच सेमेस्टरों और 100 क्रेडिट घंटों वाले पूरक अध्ययनों को पूरा करके बी.टेक. की डिग्री के लिए प्रैक्टिकल इंजीनियरिंग सर्टिफिकेट से अपग्रेड होने वाले विद्यार्थियों को भी यह डिग्री प्रदान की जाती है। इस पाठ्यक्रम के महत्व को इस बात से ही आंका जा सकता है कि जीडीएस इसका अनुसरण कर रहा है। केन्या में, बी.टेक. की डिग्री मोई यूनिवर्सिटी द्वारा प्रदान की जाती है और इसे पूरा करने में पांच साल लगते हैं। विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान किए जाने वाले क्षेत्रों में केमिकल इंजीनियरिंग, सिविल इंजीनियरिंग, कंप्यूटर इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग, टेक्सटाइल इंजीनियरिंग और प्रोडक्शन इंजीनियरिंग शामिल हैं। नाइजीरिया में, बी.टेक. की डिग्री संघीय, राज्यीय या निजी स्वामित्व वाले प्रौद्योगिकी या विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालयों द्वारा प्रदान की जाती है। अध्ययन की अवधि आम तौर पर पांच साल है जिसे दस सेमेस्टरों में पूरा किया जाता है। इनमें से नौ सेमेस्टरों को विश्वविद्यालय में बिताया जाता है जबकि एक सेमेस्टर को अनिवार्य औद्योगिक प्रशिक्षण में बिताया जाता है जिसकी समयावधि तीन से छः महीने होती है हालांकि कृषि संबंधित पाठ्यक्रमों के छात्रों के लिए एक सम्पूर्ण सत्र के लिए इसका विस्तार किया जा सकता है। आरम्भ में ज्यादातर विश्वविद्यालय मूल विज्ञान पाठ्यक्रमों की पेशकश करते थे लेकिन अब उन्होंने अपने पाठ्यक्रम पेशकश में विस्तार करके उसमें सोशल साइंस और मेडिसिन को भी शामिल कर लिया गया है। नाइजीरिया में पांच संघीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय हैं जो मिन्ना, अकुरे, ओवेर्री, योला और बाउची में स्थित हैं और साथ में कुछ राज्यीय और निजी स्वामित्व वाले विश्वविद्यालय देश भर में स्थित हैं। . पाकिस्तान में: बैचलर ऑफ टेक्नोलॉजी डिग्री एक चार वर्षीय पूर्वस्नातक डिग्री कार्यक्रम है जिसमें दो-दो साल का क्षेत्र प्रशिक्षण और पाठ्यक्रम समापन शामिल है। इस कार्यक्रम की एक शर्त विशिष्ट क्षेत्रों में एक तीन वर्षीय डिप्लोमा ऑफ एसोसिएट इंजीनियर है जैसे इलेक्ट्रिकल, मेकैनिकल या सिविल इंजीनियरिंग इत्यादि या एफ.एससी. प्री-इंजीनियरिंग के बाद. एचईसी मान्यीकृत विश्विद्यालयों द्वारा प्रदान की जाने वाली बी.टेक. ऑनर्स की चार वर्षीय डिग्री को पाकिस्तान में अन्य संस्थानों/विश्वविद्यालयों की बी.एससी. इंजीनियरिंग के बराबर और अनुरूप माना जाता है . इसके अतिरिक्त बी.टेक. ऑनर्स और बी.एससी. इंजीनियरिंग डिग्री की समानता के बारे में विवरणों वाले 91 में से 68वें पृष्ठ पर आइटम नं. 9/10 भी देखें. पाकिस्तान इंजीनियरिंग काउंसिल अधिनियम 1976 के मजलिस-ए-शूरा संशोधन के अनुसार पाकिस्त्तान इंजीनियरिंग काउंसिल बी.टेक. डिग्री धारकों को पंजीकृत इंजीनियरों के रूप में मान्यीकृत और पंजीकृत करते रहेंगे. दक्षिण अफ्रीका में, इस डिग्री को प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालयों और व्यापक विश्वविद्यालयों द्वारा प्रदान किया जाता है और इसे अक्सर उन क्षेत्रों में प्रदान किया जाता है जहां कोई तदनुरूपी बी.एससी. नहीं होती है। दक्षिण अफ्रीका की राष्ट्रीय योग्यता रूपरेखा की दृष्टि से बी.एससी. की तरह बी.टेक. में भी अक्सर एक समान अंक परिमाण होने के बावजूद बी.टेक. प्राप्त करने पर भी आम तौर पर तदनुरूपी एम.एससी. कार्यक्रम में प्रवेश नहीं मिलता है; इसके बजाय छात्र मास्टर ऑफ टेक्नोलॉजी और डॉक्टर ऑफ टेक्नोलॉजी डिग्रियों का अनुसरण करते हैं। श्रीलंका में ओपन यूनिवर्सिटी ऑफ श्रीलंका बी.टेक. की पेशकश में अग्रणी है जिसकी अवधि कम से कम पांच वर्ष है। पूर्वस्नातक सिविल इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स एण्ड कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग, कंप्यूटर इंजीनियरिंग, मैकेनिकल इंजीनियरिंग, ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग, मैनुफैक्चरिंग इंजीनियरिंग, मेकैट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग और टेक्सटाइल एण्ड अप्लाइड टेक्नोलॉजी में विशेषज्ञता प्राप्त कर सकते हैं। बी.टेक. इंजीनियरिंग हाल ही में स्थापित उवा वेलासा यूनिवर्सिटी द्वारा भी प्रदान की जाती है जिसकी अवधि चार वर्ष है। इसे एक विशेषज्ञता वाली डिग्री के रूप में जाना जाता है जहां उन्हें तीन क्षेत्रों फ़ूड इंजीनियरिंग एण्ड बायोप्रोसेस टेक्नोलॉजी, मैटेरियल साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी और मेकैट्रॉनिक्स में विशेषज्ञता प्राप्त करना होता है। श्रीलंका में बी.टेक. को इन्फॉर्मेशन कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी, बिल्डिंग सर्विसेस टेक्नोलॉजी, मैनुफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी और मेकैट्रॉनिक्स टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में यूनिवर्सिटी ऑफ वोकेशनल टेक्नोलॉजी द्वारा भी प्रदान किया जाता है। यूनाइटेड किंगडम में अब यह डिग्री प्रदान नहीं की जाती है। ऐसे कार्यक्रमों को ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों को आम तौर पर बैचलर ऑफ साइंस की डिग्री से सम्मानित किया जाता है। यूनाइटेड किंगडम की बिजनेस एण्ड टेक्नीकल एडुकेशन काउंसिल पदनाम के साथ बी.टेक. की डिग्री को लेकर भ्रमित न होने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए जो कि एक यूनिवर्सिटी डिग्री नहीं है। बीटीईसी के कार्यों को अब इडेक्सेल ने पीछे छोड़ दिया है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, बैचलर ऑफ टेक्नोलॉजी की डिग्री को एक चार वर्षीय कार्यक्रम के पूरा होने के बाद प्रदान किया जाता है। इस डिग्री को प्रदान करने वाले कई कॉलेज और विश्वविद्यालय अलास्का, फ्लोरिडा, न्यूयॉर्क, इलिनोइस, मिसौरी, नेवादा, दक्षिण कैरोलिना, ओकलाहोमा और वर्जीनिया जैसे राज्यों में स्थित हैं। उदहारण के लिए वर्जीनिया में स्थित वर्ल्ड कॉलेज बैचलर ऑफ टेक्नोलॉजी की डिग्रियां प्रदान करता है।
मंगतुराम जयपुरिया को समाज सेवा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये दिल्ली राज्य से हैं।
पाइनस वर्गीकरण को पूर्ण वर्गिकी के लिए देखें। क्षेत्रानुसार चीड़ों का वितरण को विभिन्न चीड़ प्रजातियों के भौगोलिक वितरण के लिए देखें। चीड़, एक सपुष्पक किन्तु अनावृतबीजी पौधा है। यह पौधा सीधा पृथ्वी पर खड़ा रहता है। इसमें शाखाएँ तथा प्रशाखाएँ निकलकर शंक्वाकार शरीर की रचना करती हैं। इसकी 115 प्रजातियाँ हैं। ये 3 से 80 मीटर तक लम्बे हो सकते हैं। चीड़ के वृक्ष पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में पाए जाते हैं। इनकी 90 जातियाँ उत्तर में वृक्ष रेखा से लेकर दक्षिण में शीतोष्ण कटिबंध तथा उष्ण कटिबंध के ठंडे पहाड़ों पर फैली हुई हैं। इनके विस्तार के मुख्य स्थान उत्तरी यूरोप, उत्तरी अमेरिका, उत्तरी अफ्रीका के शीतोष्ण भाग तथा एशिया में भारत, बर्मा, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो और फिलीपींस द्वीपसमूह हैं। कम उम्र के छोटे पौधों में निचली शाखाओं के अधिक दूर तक फैलने तथा ऊपरी शाखाओं के कम दूर तक फैलने के करण इनका सामान्य आकार पिरामिड जैसा हो जाता है। पुराने होने के कारण इनका सामान्य आकार पिरामिड जैसा हो जाता है। पुराने होने पर वृक्षों का आकार धीरे धीरे गोलाकार हो जाता है। जगलों में उगनेवाले वृक्षों की निचली शाखाएँ शीघ्र गिर जाती हैं और इनका तना काफी सीधा, ऊँचा, स्तंभ जैसा हो जाता है। इनकी कुछ जातियों में एक से अध्कि मुख्य तने पाए जाते हैं। छाल साधारणतय मोटी और खुरदरी होती है, परंतु कुछ जातियों में पतली भी होती है। इनमें दो प्रकार की टहनियाँ पाई जाती है, एक लंबी, जिनपर शल्कपत्र लगे होते हें, तथा दूसरी छोटी टहनियाँ, जिनपर सुई के आकार की लंबी, नुकीली पत्तियाँ गुच्छों में लगी होती हैं। नए पौधों में पत्तियाँ एक या दो सप्ताह में ही पीली होकर गिर जाती हैं। वृक्षों के बड़े हो जाने पर पत्तियाँ वर्षों नहीं गिरतीं। सदा हरी रहनेवाली पत्तियों की अनुप्रस्थ काट तिकोनी, अर्धवृत्ताकार तथा कभी कभी वृत्ताकार भी होती है। पत्तियाँ दो, तीन, पाँच या आठ के गुच्छों में या अकेली ही टहनियों से निकलती हैं। इनकी लंबाई दो से लेकर 14 इंच तक होती है और इनके दोनों तरु रंध्र कई पंक्तियों में पाए जाते हैं। पत्ती के अंदर एक या दो वाहिनी बंडल और दो या अधिक रेजिन नलिकाएँ होती हैं। वसंत ऋतु में एक ही पेड़ पर नर और मादा कोन या शंकु निकलते हैं। नर शंकु कत्थई अथवा पीलें रंग का साधारणतय एक इंच से कुछ छोटा होता है। प्रत्येक नर शंकु में बहुत से द्विकोषीय लघु बीजाणुधानियाँ होती हैं। ये लघुबीजाणुधानियाँ छोटे छोटे सहस्त्रों परागकणों से भरी होती हैं। परागकणों के दोनों सिरों का भाग फूला होने से ये हवा में आसानी से उड़कर दूर दूर तक पहुँच जाते हैं। मादा शंकु चार इंच से लेकर 20 इंच तक लंबी होती है। इसमें बहुत से बीजांडी शल्क चारों तरफ से निकले होते हैं। प्रत्येक शल्क पर दो बीजांड लगे होते हैं। अधिकतर जातियों में बीज पक जाने पर शंकु की शल्कें खुलकर अलग हो जाती हैं और बीज हव में उड़कर फैल जाते हैं। कुछ जातियों में शकुं नहीं भी खुलते और भूमि पर गिर जाते हैं। बीज का ऊपरी भाग कई जातियों में कागज की तरह पतला और चौड़ा हो जाता है, जो बीज को हवा द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने में सहायता करता है। बीज के चारों ओर मजबूत छिलका होता है। इसके अंदर तीन से लेकर 18 तक बीजपत्र पाए जाते हैं। चीड़ के पौधे को उगाने के लिये काफी अच्छी भूमि तैयार करनी पड़ती है। छोटी छोटी क्यारियों में मार्च-अप्रैल के महीनों में बीज मिट्टी में एक या दो इंच नीचे बो दिया जाता है। चूहों, चिड़ियों और अन्य जंतुओं से इनकी रक्षा की विशेष आवश्यकता पड़ती है। अंकुर निकल आने पर इन्हें कड़ी धूप से बचाना चाहिए। एक या दो वर्ष पश्चात् इन्हें खोदकर उचित स्थान पर लगा देते हैं। खोदते समय सावधानी रखनी चाहिए, जिसमें जड़ों को किसी प्रकार की हानि न पहुँचे, अन्यथा चीड़, जो स्वभावत: जड़ की हानि नहीं सहन कर सकता, मर जायगा। वनस्पति शास्त्र में चीड़ को कोनीफरेलीज़ आर्डर में रखा गया है। चीड़ दो प्रकार के होते हैं : कोमल चीड़ की पत्तियों में एक वाहिनी बंडल होता है और एक गुच्छे में पाँच, या कभी कभी से कम, पत्तियाँ होती हैं। वसंत और सूखे मौसम की बनी लकड़ियों में विशेष अंतर नहीं होता। कठोर या पीले चीड़ में एक गुच्छे में दो अथवा तीन पत्तियाँ होती हैं। वसंत और सूखे मौसम की बनी लकड़ियों में विशेष अंतर नहीं होता। कठोर या पीले चीड़ में एक गुच्छे में दो अथव तीन पत्तियाँ होती हैं। इनकी वसंत और सूखे ऋतु की लकड़ियों में काफी अंतर होता है। चीड़ की लकड़ी काफी आर्थिक महत्व की हाती है। विश्व की सब उपयोगी लकड़ियों का लगभग आधा भाग चीड़ द्वारा पूरा होता है। अनेकाने कार्यों में, जैसे पुल निर्माण में, बड़ी बड़ी इमारतों में, रेलगाड़ी की पटरियों के लिये, कुर्सी, मेज, संदूक और खिलौने इत्यादि बनाने में इसका उपयोग होता है। कठोर चीड़ की लकड़ियाँ अधिक मजबूत होती हैं। अच्छाई के आधार पर इन्हें पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है। इन वर्गों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं : उपयोगी लकड़ी प्रदान करनेवाले कोमल चीड़ के कुछ उदाहरण वर्गानुसार निम्नलिखित हैं: कई जातियों के वृक्षों से चुआ करके तारपीन का तेल और गंधराल निकाला जाता है। इनकी लकड़ी काटकर आसवन द्वारा टार तेल, तारपीन, पाइन आयल, अलकतरा और कोयला प्राप्त करते हैं। कुछ जातियों की पत्तियों से चीड़ की पत्ती का तेल बनाते हैं, जिसका यथेष्ट औषधीय महत्व है। पत्तियों के रेशों से चटाई आदि बनती हैं। तारपीन और गंधराल उत्पन्न करनेवाले चीड़ के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं : चीड़ की बहुत सी जातियों के बीज खाने के काम आते हैं, जिनमें पश्चिमोत्तर हिमालय का चिलगोजा चीड़ अपने सूखे फल के लिये प्रसिद्ध और मूल्यवान् है। जिन चीड़ों के बीज खाए जाते हैं, उनके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं : अमरीका के पा. लेंबरर्टिना की छाल से खरोंचकर रेजिन की तरह एक पदार्थ निकालते हैं, जो चीनी की तरह मीठा होता है। इसे चीड़ की चीनी कहते हैं। कई देशों में चीड़ की कुछ जातियाँ सजावट के लिय बगीचों में लगाई जाती हैं। कहरुवा नामक पत्थाराया हुआ सम्ख़ पाइनस सक्सिनिफेरा द्वारा बना होगा, ऐसा अनुमान है। चीड़ के मुख्य रोग इस प्रकार हैं : 1. सफेद चीड़ ब्लिस्टर रतुआ - - यह रोग क्रोनारटियम रिबिकोला नामक फफूँद के आक्रमण के फलस्वरूप होता है। चीड़ की छाल इस रोग के कारण विशेष रूप से प्रभावित होती हैं। 2. आरमिलेरिया जड़ सड़न - यह रोग आरमिलेरिया मीलिया नामक "गिल फफूँदी" द्वारा होती है। यह जड़ पर जमने लगती है और उसे सड़ा देती है। कभी-कभी तो सैकड़ों वृक्ष इस रोग के कारण नष्ट हो जाते हैं। चीड़ की लकड़ी लोअर क्रिटेशस युग से मिलने लगती है और तृतीय युगीन निक्षेप में अधिकता से मिलती है।
641 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 641 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 641 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
बदलुगंज पीरपैंती, भागलपुर, बिहार स्थित एक गाँव है।
-86 °C, 187 K, -123 °F 23.5 °C, 297 K, 74 °F आइसोसायनिक अम्ल एक कार्बनिक यौगिक है जिसका रासायनिक सूत्र HNCO है। इसको सन् 1830 में वोलर और लीबिग ने ज्ञात किया था। यह रंगहीन, वाष्पशील तथा विषैला पदार्थ है। इसका क्वथनांक 23.5 °C होता है। इसके निर्माण की सबसे सरल विधि इसके बहुलकीकृत रूप सायन्यूरिक अम्ल को कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति में आसवन करके तथा इससे प्राप्त वाष्पों को हिमकारी मिश्रण में संघनित करके इकट्ठा करने की है। यह बहुत ही तीव्र वाष्पशील द्रव पदार्थ है जो 0 डिग्री सेल्सियस से नीचे ही स्थायी रहता है तथा इसकी अम्लीय अभिक्रिया काफी तीव्र होती है। इसमें ऐसीटिक अम्ल की सी गंध होती है। 0 डिग्री सेल्सियस पर यह बहुलकीकृत होकर सायन्यूरिक अम्ल 2 बनाता है। हाइड्रोसायनिक अम्ल या मरक्यूरिक सायनाइड पर क्लोरीन की अभिक्रिया से सायनोजन क्लोराइड बनता है जो वाष्पशील विषैला द्रव है और जहरीली गैस के रूप में प्रयुक्त होता है। HCNO के दो चलावयवीय रूप होते हैं। सामान्य रूप का ऐस्टर नहीं मिलता परंतु आइसोसायनेट के ऐस्टर ऐल्किल हैलाइड पर सिलवर सायनेट की अभिक्रिया से प्राप्त होते हैं। R-X + AgN = C = O --> R- N = C = O + AgX इनमें एथिल आइसोसायनेट प्रमुख है और बड़े काम का है।
प्रमस्तिष्क पक्षाघात या सेरेब्रल पाल्सी सेरेब्रल का अर्थ मसि्तष्क के दोनो भाग तथा पाल्सी का अर्थ किसी ऐसा विकार या क्षति से है जो शारीरिक गति के नियंत्रण को क्षतिग्रस्त करती है। एक प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक विलियम लिटिल ने 1860 ई में बच्चो में पाई जाने वाली असामान्यता से सम्बंधित चिकित्सा की चर्चा की थी जिसमे हाथ एवं पाव की मांसपेशियों में कड़ापन पाया जाता है। ऐसे बच्चों को वस्तु पकड़ने तथा चलने में कठिनाई होती है जिसे लम्बे समय तक लिटिल्स रोग के नाम से जाना जाता था। अब इसे प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात कहते हैं। 'सेरेब्रल' का अर्थ है मस्तिष्क के दोनों भाग तथा पाल्सी का अर्थ है ऐसी असामान्यता या क्षति जो शारीरिक गति के नियंत्रण को नष्ट करती है प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात का अर्थ है मस्तिष्क का लकवा। यह मस्तिष्कीय क्षति बच्चो के जन्म के पहले, जन्म के समय और जन्म के बाद कभी भी हो सकता है इसमें जितनी ज्यादा मस्तिष्क की क्षति होगी उतनी ही अधिक बच्चो में विकलांगता की गंभीरता बढ़ जाती है। बैटसो एवंं पैरट के अनुसार "सेरेब्रल पाल्सी एक जटिल, अप्रगतिशील अवस्था है जो जीवन के प्रथम तीन वर्षो मे हुई मस्तिष्कीय क्षति के कारण होती है जिसके फलस्वरूप मांसपेशियों में सामंजस्य न होने के कारण तथा कमजोरी से अपंगता होती है।" यह एक प्रमस्तिष्क संबंधी विकार है। यह विकार विकसित होते मस्तिष्क के मोटर कंट्रोल सेंटर में हुई किसी क्षति के कारण होता है। यह बीमारी मुख्यत: गर्भधारण, बच्चे के जन्म के समय और तीन वर्ष तक की आयु के बच्चों को होती है। सेरेब्रल पाल्सी पर अभी शोध चल रहा है, क्योंकि वर्तमान उपलब्ध शोध सिर्फ बाल्य रोगियों पर केन्द्रित है। इस बीमारी की वजह से संचार में समस्या, संवेदना, पूर्व धारणा, वस्तुओं को पहचानना और अन्य व्यवहारिक समस्याएं आती है। इस बीमारी के बारे में पहली बार अंग्रेजी सर्जन विलियम लिटिल ने 1860 में पता लगाया था। इस रोग के मुख्य कारणो में बच्चे के मस्तिष्क के विकास में व्यवधान आने या मस्तिष्क में चोट होते हैं। कुछ अन्य कारण इस प्रकार से हैं: प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात के शीघ्र पहचान के लिए इसके शुरूआती लक्षण को पहचानना अति आवश्यक है क्योंकि जब तक इसके लक्षणों का सही पहचान नहीं होगा तब तक उपचार एवं रोकथाम हेतु कदम उठाना मुश्किल है। अतः इसके लक्षणों को देखकर शीघ्र पहचान आसानी से की जा सकती है। प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात की शीघ्र एवं प्रारंभिक पहचान हेतु निम्नलिखित विन्दुओं के अनुसार बच्चे का आकलन किया जा सकता है – 1) जन्म के समय देर से रोता है या साँस लेता है। 2) जन्म के समय प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात युक्त शिशु प्रायः शिथिल या निर्जीव जैसा तथा लचीला एवं पतला होता है। यदि शिशु को छाती की तरफ पकड़कर औंधे मुह लटकाया जाय तो शिशु उल्टा यू जैसा झुक जायेगा। 3) दूसरे सामान्य बच्चे की तुलना में विकास धीमा होता है। 4) गर्दन नियंत्रण एवं बैठने में देर करता है। 5) अपने दोनों हाथो को एक साथ नहीं चलता है तथा एक ही हाथ का प्रयोग करता है। 6) शिशु स्तनपान में असमर्थता दिखाता है। 7) गोद में लेते समय या कपड़ा पहनते समय एवं नहाते समय शिशु का शरीर अकड़ जाता है। 8) शिशु का शरीर बहुत लचीला होता है। 9) बच्चे बहुत उदास दिखते हैं तथा सुस्त गति वाले होते हैं। 10) ओठ से लार टपकता है। इसे मुख्यतः तीन आधार पर वर्गीकृत किया गया है- प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात का किसी व्यक्ति पर कितना गंभीर प्रभाव है, इसके आधार पर इसे मुख्यतः तीन भागो में वर्गीकृत किया गया है – क) अल्प प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात - इसमें गामक एवं शरीर स्थिति से सम्बंधित विकलांगता न्यूनतम होती है। बच्चा पूरी तरह स्वतंत्र होता है। सीखने में समस्याए हो सकती है। इस श्रेणी के बच्चे सामान्य विद्यालय में सामेकित शिक्षा का लाभ उठा सकते हैं। ख) अतिअल्प प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात - गामक एवं शरीर स्थिति से सम्बंधित विकलांगता का प्रभाव अधिक होता है। बच्चा उपकरणों की मदद से बहुत हद तक स्वतंत्र हो सकता है। इस श्रेणी के बच्चो के लिए विशेष शिक्षा की आवश्यकता होती है। ग) गंभीर प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात - गामक एवं शरीर स्थिति से सम्बंधित विकलांगता पूर्णतः होती है। बच्चो को दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस श्रेणी के बच्चो को अपनी नित्य क्रिया जैसे- कपड़े पहनना, ब्रश करना, स्नान करना, खाना-पीना इत्यादि के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। शरीर का कौन सा भाग अथवा हाथ-पैर प्रभावित है, इसके आधार पर भी प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात का वर्गीकरण किया गया है। प्रभावित अंगो के आधार पर इसे मुख्यतः पांच भागो में वर्गीकृत किया गया है – क) मोनोप्लेजिया - इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात में व्यक्ति का कोई एक हाथ या पैर प्रभावित होता है ख) हेमीप्लेजिया - इसमें एक ही तरफ के हाथ और पैर दोनों प्रभावित होते हैं। ग) डायप्लेजिया - इसमें ज्यादातर दोनों पैर प्रभावित हो जाते हैं, परन्तु कभी–कभी हाथ में भी इसका प्रभाव दिखता है। घ) पैराप्लेजिया - इसके अंतर्गत व्यक्ति के दोनों पैर प्रभावित होते हैं। ङ) क्वाड्रीप्लेजिया - इसके अंतर्गत दोनों हाथ और दोनों पैर अर्थात शरीर का पूरा भाग प्रभावित रहता है। इसके आधार पर प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात को चार भागो में बांटा गया है – क) स्पासटीसिटी – इसका अर्थ है कड़ी या तनी हुई माँसपेशी इसमें गामक कुशलता प्राप्त करने में कठिनाई एवं धीमापन महसूस होता है। बच्चें सुस्त दिखते हैं। गति बढ़ने के साथ मांसपेशीय तनाव बढ़ने लगता है। क्रोध या उतेजना की स्थिति में मांसपेशीय कड़ापन और भी बढ़ जाता है। पीठ के बल लेटने पर बच्चे का सर एक तरफ घुमा होता है तथा पैर अंदर की ओर मुड़ जाता है। ख) एथेटोसिस – एथेटोसिस का अर्थ है अनियमित गति। मांसपेशीय तनाव सामान्य होता है। शरीर की गति के साथ तनाव बढ़ता है। बच्चा जब अपनी इच्छा से कोई अंग संचालित करता है तो उसका शरीर तड़फड़ाने लगता है। ग) एटेक्सिया - इसका अर्थ है अस्थिर एवं अनियंत्रित गति। इसमें बच्चे का शारीरिक संतुलन ख़राब होता है। ऐसे बच्चें बैठने या खड़े होने पर गिर जाते हैं। इनका मांसपेशीय तनाव कम होता है तथा गमक विकास पिछड़ा होता है। घ) मिक्स्ड - स्पासटीसिटी एवं एथेटोसिस अथवा अटेक्सिया में दिखने वाले लक्षण जब किसी बच्चों में मिले हुए दिखते हैं, तो मिश्रित प्रकार के प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात से ग्रसित बच्चें कहलाते हैं। वर्तमान में इस बीमारी की कोई कारगर दवा बनी नहीं है। वर्तमान चिकित्सा एवं उपचार अभी इस रोग और इसके दुष्प्रभाव के बारे में कोई ठोस परिणाम नहीं दे पाए हैं। सेरेब्रल पाल्सी को तीन भागों में बांटकर देखा जा सकता है। स्पास्टिक सेरेब्रल पाल्सी सबसे आम है। लगभग 70 से 80 प्रतिशत मामलों में यही होती है। फिर भी इलाहाबाद के एक डॉ॰ जितेन्द्र कुमार जैन एवं उनकी टीम ने ओएसएससीएस नामक एक थेरैपी से पूर्वोत्तर भारत के एक बच्चे पर प्रयोग पहली बार किया। उनके अनुसार इससे बच्चे न सिर्फ अपने पैरों पर खड़े हो पायेंगे, बल्कि दौड़ भी पायेंगे। एटॉक्सिक सेरेब्रल पाल्सी की समस्या लगभग दस प्रतिशत लोगों में देखने में आती है। भारत में लगभग 25 लाख बच्चे इस समस्या के शिकार हैं। इस स्थिति में व्यक्ति को लिखने, टंकण में समस्या होती है। इसके अलावा इस बीमारी में चलते समय व्यक्ति को संतुलन बनाने में काफी दिक्कत आती है। साथ ही किसी व्यक्ति की दृश्य और श्रवण शक्ति पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। एथिऑइड की समस्या में व्यक्ति को सीधा खड़ा होने, बैठने में परेशानी होती है। साथ ही रोगी किसी चीज को सही तरीके से पकड़ नहीं पाता। उदाहरण के तौर पर वह टूथब्रश, पेंसिल को भी ठीक से इस्तेमाल नहीं कर पाता है। इस रोग का इलाज भौतिक चिकित्सा से पूर्ण रूप से किया जा सकता है। आज के सरकारी अस्पतालो में बच्चो को सेरेब्रल पाल्सी मर्ज लाईलाज कहते हुये इलाज नहीं किया जाता है। कुछ खोज से ज्ञात हुआ भारत में सेरेब्रल पाल्सी रोग से करीब पचिस लाख बच्चे ग्रष्त है। फिजियोथेरेपि उपचार एवं बोटॅक्स इनजेक्सन के प्रयोग से करीब पंद्रह लाख पुर्ण स्वस्थ एवं पाचँ लाख अत्यधिक प्रतिसद ठिक किये जा सकते है। लेकिन महगे इनजेक्सन एवं सरकारी अस्पतालो में पथभ्रष्ट फिजियोथेरेपिस्टो की वजह से ये बच्चे मौत के मुह में समा जाते है। परिजनो को मर्ज और उपचार से सम्बंन्धीत गलत जानकारी दि जाती है। भौतिक चिकित्सक महीने दो महिने में परिजन को फिजियोथेरेपिस्ट बना के बच्चो को चिकित्सा से दूर कर दिया जाता है। नियमित उपचार की जगह एक दिन के अन्तराल पे एक दिन, एवं हप्ते में एक दिन एवं पुरा फिजियोथेरेपि उपचार परिजन को कराने की सलाह दिया जाता है। फिजियोथेरेपि उपचार पोलियो एवं सेरेब्रल पाल्सी मर्ज से ग्रष्त बच्चो को पुर्ण मिलने की ब्यवस्था हो जाये तो बच्चो को विकलांगता से मुक्ति दिलायी जा सकती है। अन्तरआत्मा को झकझोर देने वाली यह बात है, कि चिकित्सा पेशे से जुडे लोग चिकित्सा को सिर्फ धन अर्जित करने का साधन बना लिये हैं। मानवता, चिकित्सा धर्म मानवि, संस्कृत इस सम्मानित पेशे से विलुप्त होता जा रहाँ हैं। आर्दशवादी शिक्षीत समाज के लोग चिकित्सक पेसे में मरिज के जान लेने वाली क्रिया और मरिज के दर्द की अनदेखी करने वाले चिकित्सको के अत्यधिक अमानवि कार्य के प्रति संवेदनहीन है। जो दिन ब दिन अत्यधिक पथ भ्रष्ट एवं मानवता से बिहिन होता जा रहा आज का चिकित्सा समाज अप्रत्यक्ष कितने माशुम लोगो के हत्या जैसे सगिन अपराध सल्य चिकित्सा के नाम करता है। आने वाले वक्त में चिकित्सा समाज के वरिष्ठ चिकित्सको ने उठ रही चिकित्सा पेसे के नाम बुराईयो प्रति संवेदनशिलता से ध्यान नहीं दिया गया तो देश का हर दवाखाना, कत्ल खाना के नाम से बुलाया जायेगाँ। जो मानवता संस्कृत चिकित्सक और आर्दशवादी शिक्षित समाज के चेहरे पे बदनुमाँ दाग के रूप में अंकित होगा। यह चिकित्सक मरिज परिजन तिनो के लिए अत्यधिक दुख दायी होगा॥
भारतीय सिनेमा के अन्तर्गत भारत के विभिन्न भागों और भाषाओं में बनने वाली फिल्में आती हैं जिनमें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, जम्मू एवं कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और बॉलीवुड शामिल हैं। भारतीय सिनेमा ने 20वीं सदी की शुरुआत से ही विश्व के चलचित्र जगत पर गहरा प्रभाव छोड़ा है।। भारतीय फिल्मों का अनुकरण पूरे दक्षिणी एशिया, ग्रेटर मध्य पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व सोवियत संघ में भी होता है। भारतीय प्रवासियों की बढ़ती संख्या की वजह से अब संयुक्त राज्य अमरीका और यूनाइटेड किंगडम भी भारतीय फिल्मों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार बन गए हैं। एक माध्यम के रूप में सिनेमा ने देश में अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल की और सिनेमा की लोकप्रियता का इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यहाँ सभी भाषाओं में मिलाकर प्रति वर्ष 1,600 तक फिल्में बनी हैं। दादा साहेब फाल्के भारतीय सिनेमा के जनक के रूप में जाना जाते हैं। दादा साहब फाल्के के भारतीय सिनेमा में आजीवन योगदान के प्रतीक स्वरुप और 1969 में दादा साहब के जन्म शताब्दी वर्ष में भारत सरकार द्वारा दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की स्थापना उनके सम्मान में की गयी। आज यह भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित और वांछित पुरस्कार हो गया है। 20वीं सदी में भारतीय सिनेमा, संयुक्त राज्य अमरीका का सिनेमा हॉलीवुड तथा चीनी फिल्म उद्योग के साथ एक वैश्विक उद्योग बन गया। 2013 में भारत वार्षिक फिल्म निर्माण में पहले स्थान पर था इसके बाद नाइजीरिया सिनेमा, हॉलीवुड और चीन के सिनेमा का स्थान आता है। वर्ष 2012 में भारत में 1602 फ़िल्मों का निर्माण हुआ जिसमें तमिल सिनेमा अग्रणी रहा जिसके बाद तेलुगु और बॉलीवुड का स्थान आता है। भारतीय फ़िल्म उद्योग की वर्ष 2011 में कुल आय $1.86 अरब की रही। जिसके वर्ष 2016 तक $3 अरब तक पहुँचने का अनुमान है। बढ़ती हुई तकनीक और ग्लोबल प्रभाव ने भारतीय सिनेमा का चेहरा बदला है। अब सुपर हीरो तथा विज्ञानं कल्प जैसी फ़िल्में न केवल बन रही हैं बल्कि ऐसी कई फिल्में एंथीरन, रा.वन, ईगा और कृष 3 ब्लॉकबस्टर फिल्मों के रूप में सफल हुई है। भारतीय सिनेमा ने 90 से ज़्यादा देशों में बाजार पाया है जहाँ भारतीय फिल्मे प्रदर्शित होती हैं। सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, बुद्धदेव दासगुप्ता, जी अरविंदन, अपर्णा सेन, शाजी एन करुण, और गिरीश कासरावल्ली जैसे निर्देशकों ने समानांतर सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वैश्विक प्रशंसा जीती है। शेखर कपूर, मीरा नायर और दीपा मेहता सरीखे फिल्म निर्माताओं ने विदेशों में भी सफलता पाई है। 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रावधान से 20वीं सेंचुरी फॉक्स, सोनी पिक्चर्स, वॉल्ट डिज्नी पिक्चर्स और वार्नर ब्रदर्स आदि विदेशी उद्यमों के लिए भारतीय फिल्म बाजार को आकर्षक बना दिया है। एवीएम प्रोडक्शंस, प्रसाद समूह, सन पिक्चर्स, पीवीपी सिनेमा,जी, यूटीवी, सुरेश प्रोडक्शंस, इरोज फिल्म्स, अयनगर्न इंटरनेशनल, पिरामिड साइमिरा, आस्कार फिल्म्स पीवीआर सिनेमा यशराज फिल्म्स धर्मा प्रोडक्शन्स और एडलैब्स आदि भारतीय उद्यमों ने भी फिल्म उत्पादन और वितरण में सफलता पाई। मल्टीप्लेक्स के लिए कर में छूट से भारत में मल्टीप्लेक्सों की संख्या बढ़ी है और फिल्म दर्शकों के लिए सुविधा भी। 2003 तक फिल्म निर्माण / वितरण / प्रदर्शन से सम्बंधित 30 से ज़्यादा कम्पनियां भारत के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध की गयी थी जो फिल्म माध्यम के बढ़ते वाणिज्यिक प्रभाव और व्यसायिकरण का सबूत हैं। दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग दक्षिण भारत की चार फिल्म संस्कृतियों को एक इकाई के रूप में परिभाषित करता है। ये कन्नड़ सिनेमा, मलयालम सिनेमा, तेलुगू सिनेमा और तमिल सिनेमा हैं। हालाँकि ये स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं लेकिन इनमे फिल्म कलाकारों और तकनीशियनों के आदान-प्रदान और वैष्वीकरण ने इस नई पहचान के जन्म में मदद की। भारत से बाहर निवास कर रहे प्रवासी भारतीय जिनकी संख्या आज लाखों में हैं, उनके लिए भारतीय फिल्में डीवीडी या व्यावसायिक रूप से संभव जगहों में स्क्रीनिंग के माध्यम से प्रदर्शित होती हैं। इस विदेशी बाजार का भारतीय फिल्मों की आय में 12% तक का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। इसके अलावा भारतीय सिनेमा में संगीत भी राजस्व का एक साधन है। फिल्मों के संगीत अधिकार एक फिल्म की 4 -5 % शुद्ध आय का साधन हो सकते हैं। लंदन में लुमिएरे चल चित्र की स्क्रीनिंग के बाद सिनेमा यूरोप भर में एक सनसनी बन गई और जुलाई 1896 तक इन फिल्मों को बंबई में भी प्रदर्शित किया गया था। अगले एक साल में प्रोफेसर स्टीवेंसन द्वारा एक फिल्म प्रस्तुति कलकत्ता स्टार थियेटर में एक स्टेज शो में की गयी। स्टीवेंसन के प्रोत्साहन और कैमरा से हीरालाल सेन, एक भारतीय फोटोग्राफर ने उस स्टेज शो के दृश्यों से 'द फ्लॉवर ऑफ़ पर्शिया' फिल्म बनाई। एच एस भटवडेकर की द रेस्टलेर्स जो मुंबई के हैंगिंग गार्डन में एक कुश्ती मैच को दिखती है किसी भारतीय द्वारा शूट की हुई पहली फिल्म थी। यह पहली भारतीय वृत्तचित्र फिल्म भी थी। दादासाहब तोरणे की श्री पुण्डलिक, एक मूक मराठी फिल्म पहली भारतीय फिल्म थी जो 18 मई 1912 को 'कोरोनेशन सिनेमेटोग्राफ', मुंबई, भारत में रिलीज़ हुई. कुछ लोगो का मत है की पुण्डलिक पहली भारतीय फिल्म के सम्मान की अधिकारी नहीं है क्यूंकि ये 1. एक लोकप्रिय मराठी नाटक की रिकॉर्डिंग मात्र थी, 2. इसका चलचित्रकार जॉनसन एक ब्रिटिश नागरिक था 3. इस फिल्म की प्रोसेसिंग लंदन में हुई थी भारत की पहली पूरी अवधि की फीचर फिल्म का निर्माण दादासाहब फाल्के द्वारा किया गया था। दादासाहब भारतीय फिल्म उद्योग के अगुआ थे. वो भारतीय भाषाओँ और संस्कृति के विद्वान थे जिन्होंने संस्कृत महा काव्यों के तत्वों को आधार बना कर राजा हरिशचंद्र, मराठी भाषा की मूक फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म में पुरुषों ने महिलाओं का किरदार निभाया। यह फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। इस फिलम का सिर्फ एक ही प्रिंट बनाया गया था और इसे 'कोरोनेशन सिनेमेटोग्राफ' में 3 मई 1913 को प्रदर्शित किया गया। फिल्म को व्यावसायिक सफलता मिली और इसने अन्य फिल्मो के निर्माण के लिए अवसर प्रदान किया। तमिल भाषा की पहली मूक फिल्म कीचका वधम का निर्माण रंगास्वामी नटराज मुदालियर ने 1916 में किया. मुदालियर ने मद्रास में दक्षिण भारत के पहले फिल्म स्टूडियो की स्थापना भी की पारसी उद्यमी जमशेदजी फ्रामजी मदन के मदन थिएटर पहली भारतीय सिनेमा थिएटर श्रृंखला थे। जमशेदजी 1902 से हर साल 10 फिल्मों का निर्माण और उनका भारतीय उपमहाद्वीप में वितरण करते थे। उन्होंने कोलकाता में एल्फिंस्टन बॉयोस्कोप कंपनी की स्थापना भी की. एल्फिंस्टन का 1919 में मदन थिएटर लिमिटेड। मदन थिएटर विलय हुआ जिसके माध्यम से बंगाल के कई लोकप्रिय साहित्यिक कार्यों को स्टेज पर आने का मौका मिला। उन्होंने 1917 में सत्यवादी राजा हरिशचंद्र का निर्माण भी किया जो दादासाहब फाल्के की राजा हरिशचंद्र का रीमेक थी। रघुपति वेंकैया नायडू एक कलाकार थे जो मूक और बोलती भारतीय फिल्मों के अगुआ थे। 1909 से वो भारतीय सिनेमा इतिहास के कई पहलुओं से जुड़े थे, जैसे की एशिया के विभिन्न क्षेत्रों में फिल्मो के प्रचार और बढ़ावे के लिए भ्रमण. वो मद्रास के पहले भारतीय सिनेमा हाल गेयटी टॉकीज के निर्माता और स्वामी थे. बीसवी सदी के प्रारंभिक सालों में सिनेमा भारत की जनता के विभिन्न वर्गों में एक माध्यम के रूप में लोकप्रिय हुआ। सिनेमा टिकट को कम दाम पर आम जनता के लिए सस्ता बनाया गया. आर्थिक रूप से सक्षम लोगों के लिए अतिरिक्त आराम देकर प्रवेश टिकट के दाम बढ़ाये गए क्यूंकि मनोरंजन के इस सस्ते माध्यम सिनेमा की टिकट बम्बई में 1 आना के कम दाम में मिलती थी इसी लिए दर्शकों के भीड़ सिनेमा घरों में नज़र आने लगी। भारतीय व्यावसायिक सिनेमा की विषय वस्तु को जल्दी से जनता के आकर्षण के हिसाब से ढाला गया. युवा भारतीय निर्माता भारत के सामाजिक जीवन और संस्कृति के तत्वों को सिनेमा में सम्मिलित करने लगे। अन्य निर्माता विश्व के कई कोनो से विचार लाने लगे इन सब वजहों से दुनिया भर के फिल्म दर्शक और फिल्म बाजार भारतीय फिल्म उद्योग के बारे में जानने लगे. . 1927 में ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश फिल्मों को अमरीकी फिल्मों पर प्राथमिकता देने के लिए इंडियन सिनेमेटोग्राफ इन्क्वारी कमेटी गठित की . आई सी सी में टी. रंगाचारी, के नेतृत्व में तीन ब्रिटिश और तीन भारतीय मेम्बर थे. इस कमेटी ने ब्रिटिश फिल्मो को समर्थन देने की वांछित सिफारिश देने की जगह नवजात भारतीय फिल्म उद्योग को समर्थन की सलाह दी . परिणाम स्वरुप इनकी सिफारिशों को ख़ारिज कर दिया गया. आर्देशिर ईरानी ने पहली भारतीय बोलती फिल्म आलम आरा 14 मार्च 1931 को रिलीज़ करी . ईरानी केवल 7 महीने बाद 31 अक्टूबर 1931, को रिलीज़ हुई पहली दक्षिण भारतीय बोलती फिल्म एच. एम. रेड्डी द्वारा निर्देशित तमिल फिल्म कालिदास के निर्माता भी थे जुमई शास्ति पहली बंगाली बोलती फिल्म थी। 'टॉकीज' के भारत आगमन के बाद कई फिल्म स्टारों की मांग बहुत बढ़ गयी और वह अभािनय के माध्यम से आरामदायक आमदनी कमाने लगे। चित्तोर वी. नागया, पहले बहुभाषी फिल्म अभिनेता, गायक, संगीतकार निर्माता और निर्देशक थे. वो भारत के पॉल मुनि के रूप में जाने जाते थे 1933 में ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी ने कलकत्ता में शूट हुई अपनी पहली भारतीय फिल्म सावित्री रिलीज़ करी। 75 हज़ार के बजट में बानी यह फिल्म प्रसिद्ध नाटक म्यलवरम बाल भारती समाजम, पर आधारित थी। निर्देशक सी. पुलइया ने इसमें थिएटर अभिनेता वेमुरी गगइया और दसारी रामाथिलकम को यम और सावित्री के रूप में लिया इस ब्लॉकबस्टर फिल्म को वेनिस फिल्म समारोह माननीय डिप्लोमा मिला . पहला तेलुगु फिल्म स्टूडियो दुर्गा सिनेटोन 1936 में निदामरथी सुरैय्या द्वारा राजाहमुन्द्री, आंध्र प्रदेश में स्थापित किया गया 1930 के दशक में भारतीय सिनेमा में ध्वनि तकनीक की प्रगति के साथ संगीत और संगीतमय फिल्में जैसे इंद्र सभा और देवी देवयानी के माध्यम से फिल्मों में नाच और गाने का प्रारभ हुआ देवदास, जैसी फिल्मों की देशव्यापी सफलता के बाद और फिल्म निर्माण के एक शिल्प के रूप में उदय के साथ कई मुख्य शहरों मद्रास। चेन्नई, कलकत्ता। कोलकाता और बम्बई। मुंबई में फिल्म स्टूडियो उभरे। 1940 की फिल्म विश्व मोहिनी भारतीय फिल्म जगत को दर्शाने वाली पहली फिल्म है। इस फिल्म को वाइ. वी. राव ने निर्देशित किया और बलिजेपल्ली लक्ष्मीकांता कवि ने लिखा था। स्वामीकन्नु विन्सेंट, कोयंबटूर, में पहले सिनेमा हॉल का निर्माता ने "टेन्ट सिनेमा" की शुरुआत की जिसमे शहर या गाँव के नज़दीक खुले मैदान में टेंट लगा कर फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है। एडिसन ग्रैंड सिनेमामेगाफोन नामक पहला स्थाई टेंट सिनेमा मद्रास के एस्प्लेनेड में शुरू हुआ। 1934 में हिमांशु राय, देविका रानी और, राजनारायण दुबे ने उद्योगपति एफ ई दीनशॉ, सर फ़िरोज़ सेठना के साथ मिल कर बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो शुरू किया. पूना। पुणे के प्रभात स्टूडियो ने मराठी दर्शकों के लिए फिल्मों का निर्माण शुरू किया। फिल्मनिर्माता आर इस डी चौधरी की फिल्म व्राथ पर ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में प्रतिबन्ध लगाया गया क्यों की इसमें भारतीयों को नेताओं के रूप में और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान इस तरह के चित्रण पर रोक थी . तुकाराम, वरकरी संत और आध्यात्मिक कवि के जीवन पर आधारित 1936 की फिल्म संत तुकाराम 1937 वेनिस फिल्म समारोह के दौरान प्रदर्शित हुई और किस अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिखाई गयी पहली फिल्म बन गयी. 1938 में गुडावल्ली रामाब्रह्मम, द्वारा सह निर्मित और निर्देशित सामाजिक समस्या फिल्म रायथू बिड्डा, ब्रिटिश प्रशासन द्वारा प्रतिबंधित की गयी क्यों की इसमें किसानों द्वारा ज़मींदार के विरूद्ध बगावत दिखाई गयी थी। भारतीय मसाला फिल्म— रोमांस, नाच, गाने वाली व्यावसायिक फिल्म के लिए कठबोली शब्द — का उद्भव दुसरे विश्व युद्ध के बाद हुआ दक्षिण भारतीय सिनेमा ने एस एस वासन के फिल्म चंद्रलेखा के साथ पूरे भारत में शोहरत हासिल करी . 1940 के दशक के दौरान पूरे भारत के सिनेमा हालों में से आधे से ज़्यादा दक्षिण भारत में थे और सिनेमा को सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के साधन के रूप में देखा जाने लगा। स्वंतत्रा के बाद भारत का विभाजन की वजह से भारत की सिनेमा परिसंपत्तियाँ भी विभाजित हुई और कई स्टूडियो नव निर्मित पाकिस्तान के पास चले गए बटवारे का विवाद और दंगे अगले कई दशको तक फिल्म निर्माण के लिए चिरस्थायी विषय बने रहे . भारत की स्वतंत्रता के बाद, एस. के. पाटिल समिति ने भारतीय सिनेमा की तहकीकात व् समीक्षा की। एस. के. पाटिल, समिति प्रमुख ने भारत में सिनेमा को 'कला, उद्यम और मनोरंजन' का मिश्रण कहा और इसके व्यावसायिक महत्व पर भी ध्यान दिया। पाटिल ने वित्त मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन की स्थापना की सिफारिश भी की। इस परामर्श को मानते हुए 1960 में पूरे भारत के प्रतिभाशाली फिल्मकारो की आर्थिक मदद के लिए इस की स्थापना की गयी भारत सरकार ने 1948 फिल्म डिवीज़न को स्थापित किया जो आगे चल कर सालाना 200 लघु वृत्तचित्र का निर्माण कर के विश्व का सबसे बडा वृत्तचित्र निर्माता बन गया। इंडियन पीपलस थिएटर एसोसिएशन, कम्युनिस्ट झुकाव वाले एक कला आंदोलन ने 1940 और 1950 के दशक में स्वरुप लिया। इप्टा के कई यथार्थवादी नाटकों जैसे 1944 में बीजोन भट्टाचार्य' का नबन्ना, ने भारतीय सिनेमा में यथार्तवाद की जड़ें मज़बूत करीं। इसका उदहारण ख़्वाजा अहमद अब्बास' की धरती के लाल है . इप्टा प्रेरित आंदोलन लगातार सच्चाई और वास्तविकता पर ज़ोर देता रहा जिसके फलस्वरूप मदर इंडिया और प्यासा सरीखी भारत की सबसे अधिक पहचानी जाने वाली फिल्मों का निर्माण हुआ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के बाद, 1944 से 1960 की काल अवधि फिल्म इतिहासकारों द्वारा भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग मन जाता है। पूरे भारतीय सिनेमा इतिहास की समीक्षकों द्वारा सर्वाधिक प्रशंसित फिल्में इस समय निर्मित हुई थी। इस अवधि में बंगाली सिनेमा के नेतृत्व में एक नया समानांतर सिनेमा आंदोलन उभरा इस आंदोलन की कुछ पहले उदाहरण फिल्मों चेतन आनंद' की नीचा नगर, ऋत्विक घटक' की नागरिक, और बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन, ने नव यथार्तवाद और "नयी भारतीय लहर " की नींव रखी . पथेर पांचाली, जो की सत्यजित राय की अपु त्रयी का पहला भाग था, ने रॉय के भारतीय सिनेमा में प्रवेश की घोषणा थी। अपु त्रयी ने विश्व भर के प्रधान फिल्म समारोहों में प्रमुख पुरुस्कार जीते और भारतीय सिनेमा में 'समानांतर सिनेमा' आंदोलन को सुदृढ़ता से स्थापना की. विश्व सिनेमा पर इसका प्रभाव उन " युवा कमिंग ऑफ ऎज नाटक फिल्मों के रूप में देखा जा सकता है जो 1950 से कला घरों में बाढ़ के रूप में फ़ैल रही है और "अपु त्रयी की कर्ज़दार" हैं। चलचित्रकार सुब्रत मित्र, जिनकी पहली फिल्म पथेर पांचाली थी का विश्व सिनेकला पर महतवपूर्ण प्रभाव पड़ा . उनकी एक ज़रूरी तकनीक थी बाउंस लाइटिंग, जिसका इस्तमाल करके वह सेट पर दिन के प्रकाश का प्रभाव लाते थे। उन्होंने इस तकनीक को अपराजितो ,अपु त्रयी का दूसरा भाग की शूटिंग के दौरान पहली बार इस्तेमाल किया। कुछ और प्रोयगात्मक तकनीक जिनकी सत्यजित राय ने अगुआई करी, उसमे शामिल हैं फोटो-नेगेटिव फ्लैशबैक एक्स -रे विषयांतर प्रतिद्वंदी की शूटिंग के दौरान . कैंसिल हुई 'द एलियन' नामक फिल्म के 1967 में लिखी हुई पठकथा को स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म ई.टी. द एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल की प्रेरणा माना जाता है . सत्यजित राय और ऋत्विक घटक ने आगे चलकर कई और समीक्षक प्रशंसित कला फिल्म का निर्देशन किया। उनके अनुरसरण उनके पद चिन्हों पर चलते हुए अन्य प्रशंसित स्वतंत्र भारतीय फ़िल्मकार मृणाल सेन, मणि कौल, अडूर गोपालकृष्णन, जी. अरविन्दन और बुद्धदेब दासगुप्ता ने किया. 1960s के दशक में इंदिरा गांधी के सूचना और प्रसारण मंत्री कार्यकाल में उनके हस्तक्क्षेप से फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन द्वारा और भिन्न सिनेमाई अभिव्यक्ति वाली फिल्मों का निर्माण हुआ। व्यावसायिक बॉलीवुड। हिंदी सिनेमा भी कामयाब हो रहा था। इस दौर की प्रशंसित फिल्मों में गुरु दत्त की प्यासा and कागज़ के फूल और राज कपूर की आवारा and श्री 420 . ये फिल्मे उस दौर के सामाजिक विषय जो की उस वक़्त के शहरी कामकाजी वर्ग की ज़िन्दगी से जुड़े थे को दर्शाती थी ; आवारा में शहर को भयावह और खूबसूरत सपने की तरह दिखाया गया जबकि प्यासा ने शहरी जीवन के मायाजाल की आलोचना की। कुछ प्रसिद्ध फिल्मे भी इस समय निर्मित हुई जैसे मेहबूब खान की मदर इंडिया, जिसे विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के अकादमी पुरस्कार, का नामांकन भी मिला और के. आसिफ'की मुग़ल-ए-आज़म . वी. शांताराम 'की दो आँखें बारह हाथ को हॉलीवुड फिल्म द डर्टी डॉजेन की प्रेरणा भी कहा जाता है । बिमल रॉय द्वारा निर्देशित और ऋत्विक घटक द्वारा लिखित मधुमती ने पुनर्जन्म के विषय को लोकप्रिय पश्चिम संस्कृति में बढ़ावा दिया. अन्य लोकर्पिय मुख्य धारा के फिल्मेकर थे कमाल अमरोही और विजय भट्ट 1946 में काँस फिल्म फेस्टिवल में चेतन आनंद की सामाजिक यथार्थवादी फिल्म नीचा नगर के प्रधान पुरुस्कार जीतने के बाद 1950 और 1960 के दशक में भारतीय फिल्मे लगातार काँन्स पालमे डी'ओर के मुकाबले में बानी रही और उन में से कई फिल्मों ने पुरुस्कार भी जीते। सत्यजित राय ने अपु त्रयी की अपनी दूसरी फिल्म अपराजितो के लिए वेनिस फिल्म समारोह में स्वर्ण सिंह और बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में स्वर्ण भालू और दो रजत भालू भी जीते। रे के समकालीन ऋत्विक घटक और गुरु दत्त की उनके जीवन काल में हालाँकि उपेक्षा हुई पर 1980 और 1990 के दशक में विलम्ब के साथ अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली। राय को घटक और दत्त के साथ 20वी शताब्दी का सिनेमा के महानतम फिल्मकारों में से एक माना जाता है। 1992 में साईट और साउंड समीक्षक मतदान में राय को 10 सर्वकालीन श्रेष्ठ निर्देशकों में #7 चुना जबकि 2012 में साईट और साउंड के श्रेष्ठ निर्देशकों मतदान में दत्त को #73 स्थान मिला। सिवाजी गणेशन अंतरराष्ट्रीय पुरुस्कार पाने वाले पहले भारतीय अभिनेता बने जब उन्होंने 1960 के एफ्रो एशियाई फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का खिताब जीता और 1995 में फ्रेंच सरकार ने उन्हें लीजन ऑफ़ ऑनर में शेवलिएर का सम्मान दिया। . तमिल सिनेमा ने ], पर अपना प्रभाव छोड़ा और कई प्रसिद्ध फिल्म व्यक्ति जैसे सी एन अन्नादुरै, एम जी रामचंद्रन, एम करूणानिधि और जयललिता तमिलनाडु के मख्यमंत्री बने। इस स्वर्ण युग की कई फिल्मे की गिनती समीक्षकों और निर्देशकों के मतानुसार सर्वकालीन श्रेष्ठ फिल्मे में की जाती है। इस दौरान दक्षिण भारतीय सिनेमा महा ग्रन्थ महाभारत पर आधारित कुछ फिल्म निर्माण हुए जैसे मायाबाज़ार, आईबीएन लाइव के 2013 मतदान के सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म इन्डोनेशियाई फिल्म समारोह में नार्थंसला ने सर्वश्रेष्ठ निर्माण योजना और एस. वी. रंगा राव को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरुस्कार मिला। साईट और साउंड समीक्षक मतदानो में सत्यजित राय की कई फिल्मों को स्थान मिला जिनमे 'अपु त्रयी' The Apu Trilogy, जलसाघर, चारुलता and अरण्येर दिन रात्रि . 2002 साईट और साउंड समीक्षक और निर्देशक मतदान में गुरु दत्त की प्यासा और कागज़ के फूल, ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा और कोमल गांधार, राज कपूर की आवारा, विजय भट्ट' की बैजू बावरा, महबूब खान की मदर इंडिया और के. आसिफ़ की मुग़ल ए आज़म भी शामिल थी . 1998 में एशियाई सिनेमा मैगज़ीन सिनेमाया के समीक्षक मतदान में भी राय की अपु त्रयी, चारुलता और जलसाघर, घटक की सुबर्णरेखा स्थान मिला . 1999 में द विलेज वॉयस के सदी की सर्वश्रेष्ठ 250 फिल्म मत में फिर से अपु त्रयी को मतों को मिलकर 5वा स्थान मिला. 2005 में, अपु त्रयी और प्यासा को टाइम मैगज़ीन की सर्वकालीन 100 श्रेष्ठ फिल्म स्थान मिला. 1970 के दशक में भी श्याम बेनेगल जैसे कई फ़िल्मकार यथार्थवादी सामानांतर सिनेमा का निर्माण करते रहे। इस दौरान सक्रिय फ़िल्मकार थे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, बुद्धदेव दासगुप्ता और गौतम घोष बंगाली सिनेमा में, के बालाचंदर, बालू महेंद्र, भारथीराजा और मणि रत्नम तमिल सिनेमा में, अडूर गोपालकृष्णन, शाजी एन करुण, जी अरविंदन, जॉन अब्राहम, भारथन और पद्मराजन मलयालम सिनेमा में, नीरद एन. मोहपात्रा ओड़िया सिनेमा, के. एन. टी सास्त्री और बी. नरसिंग राव तेलुगु सिनेमा में; और मणि कौल, कुमार शाहाणी, केतन मेहता, गोविन्द निहलानी और विजया मेहता हिंदी सिनेमा में. फिल्म फिनान्स कारपोरेशन ने ऐसी कई फिल्मों की आर्थिक मदद भी की लेकिन कला फिल्मों के प्रति इस झुकाव की सरकारी उपक्रमों की जांच कमिटी ने 1976 में व्यवासयिक सिनेमा को बढ़ावा न देने के लिए आलोचना भी की। दक्षिण भारतीय अभिनेता कमल हसन को 6 साल की आयु में अपनी पहली फिल्म कलाथुर कन्नम्मा के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण मेडल मिला। उन्हें भारतीय सिनेमा में अपने योगदान के लिए 1990 में पद्म श्री और 2014 में पद्म भूषण सम्मान भी मिला। हासन को ममूटी और अमिताभ बच्चन के साथ सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिये 3 राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड भी मिले हैं। तमिल फिल्म थेवर मगन के लिए सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड भी हासन को निर्माता के तौर पर पर मिला है। कमल ने पांच भाषाओँ में रिकॉर्ड 19 फिल्मफेयर अवार्ड भी जीते हैं ; 2000 में अपना आखिरी अवार्ड जीतने के बाद उन्होंने फिल्मफेयर को लिख कर और अपने आप को अवार्ड न देने की गुज़ारिश की। 2003 में रॉटरडैम फिल्म समारोह में उनकी फिल्मे हे राम, पुष्पक, नायकन और कुरथीपूणल निर्देशक फोकस में प्रदर्शित हुई 2004 में पुचोन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में विरुमांडी ने पहला सर्वश्रेष्ठ एशियाई फिल्म का ख़िताब जीता. 1970 के दशक में व्यवासयिक सिनेमा ने भी कुछ चिरस्थायी फिल्में जैसे आनंद, अमर प्रेम and कटी पतंग, जिन्होंने राजेश खन्ना को भारतीय सिनेमा का पहला सुपरस्टार या महानायक बनाया, के साथ उन्नति हासिल की . 1970 दशक के आखरी सालों में अमिताभ बच्चन ज़ंजीर और भारतीय सिनेमा की सफलतम फिल्मो में से एक शोले जैसी एक्शन फिल्मो के साथ अपनी एंग्री यंग मैन की छवि बनायी और भारत के दुसरे महानायक का दर्ज़ा प्राप्त किया . धार्मिक फिल्म जय संतोषी माँ जिसने सफलता के कई रिकॉर्ड तोड़े 1975 में रिलीज़ हुई. यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित और सलीम-जावेद की लिखी हुई दीवार, एक आपराधिक ड्रामा फिल्म थी जिसमे एक पुलिस अफसर शशि कपूर अपने गैंगस्टर भाई से लड़ता है जिसका चरित्र असली स्मगलर हाजी मस्तान" पर आधारित था. इस फिल्म को डैनी बॉयल ने भारतीय सिनेमा की असली पहचान बताया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुनरुद्धार की कहानी बताती 1979 तेलुगु फिल्म संकरभरणम् को 1981 के बेसांको फ्रेंच फिल्म समारोह का जनता का पुरुस्कार मिला पट्टाभिराम रेड्डी निर्देशित 1970 कन्नड़ फिल्म संस्कारा ने दक्षिण भारत में सामानांतर सिनेमा आंदोलन की शुरुआत करी. इस फिल्म को लोकार्नो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में कांस्य तेंदुआ सम्मान मिला। कई तमिल फिल्मों विश्व भर के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रीमियर या प्रदर्शित हुई हैं जैसे मणि रत्नम' की कन्नथील मुथामित्तल, वसंथबालन' की वेय्यील और अमीर सुल्तान'की परूथीवीरण. कांचीवरम का प्रीमियर टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में हुआ था . तमिल फिल्मे विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अकादमी अवार्ड के लिए 8 बार भेजी गयी है। मणि रत्नम की नायकन टाइम मैगज़ीन की सर्वकालीन 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची में भी शामिल की गयी है। के. एस. सेथु माधवन निर्देशित मरूपक्कम सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय अवार्ड पाने वाली पहली तमिल फिल्म थी। दक्षिण भारतीय मलयालम सिनेमा का स्वर्ण युग 1980s के दशक और 1990s के शुरुआती वर्षों में था। उस काल के कुछ सर्वाधिक प्रशंसित फ़िल्मकार मलयालम सिनेमा से थे जिनमे अडूर गोपालकृष्णन, शाजी एन करुण, जी अरविंदन और टी. वी. चंद्रन प्रमुख हैं। अडूर गोपालकृष्णन, जिन्हें सत्यजित राय का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना जाता है ने इस इस समय अपनी कुछ सर्वाधिक प्रशंसित फ़िल्में निर्देशित की जिनमे एलीप्पथायम लंदन फिल्म समारोह में सुदरलैंड ट्रॉफी विजेता ; मथिलुकल वेनिस फिल्म समारोह में सम्मान विजेता प्रमुख हैं . शाजी एन करुण की पहली फिल्म पिरावी को काँन्स फिल्म फेस्टिवल में कैमरा डी' ऑर सम्मान मिला जबकि उनकी दूसरी फिल्म स्वहम 1994 के काँन्स फिल्म फेस्टिवल के पॉम डी' ऑर की प्रतियोगिता में थी व्यवासयिक मलयालम सिनेमा को भी जयन की एक्शन फिल्मो से बढ़ावा मिला. व्यवासयिक हिंदी सिनेमा 1980 और 1990 के दशक मेंएक दूजे के लिए, मिस्टर इंडिया, क़यामत से क़यामत तक, तेज़ाब, चांदनी, मैंने प्यार किया, बाज़ीगर, डर, हम आपके हैं कौन..!, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे और कुछ कुछ होता है जैसी फिल्मों की रिलीज़ के साथ और बढ़ता रहा। इनमे कई नए कलाकार जैसे शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित, श्रीदेवी, अक्षय कुमार, आमिर खान और सलमान खान ने अभिनय किया था। इस बीच में शेखर कपूर' की कल्ट श्रेष्ट फिल्म बैंडिट क्वीन भी बनी जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली 1990 के दशक के अंत में 'समानांतर सिनेमा' का वयवासयिक और समीक्षक रूप से सफल फिल्म सत्या के कारण पुनर्जन्म हुआ. भारतीय माफिया। मुंबई अंडरवर्ल्ड से प्रेरित यह एक अपराधिक ड्रामा था जिसका निर्देशन राम गोपाल वर्मा ने किया था और इसके लेखक थे अनुराग कश्यप. इस फिल्म की सफलता से एक नयी भिन्न शैली मुंबई नोयर का उदय हुआ। ये शहरी फिल्मे मुंबई की सामाजिक समस्याओं का चित्रण करती हैं। . कुछ और मुंबई नोयर फ़िल्में है मधुर भंडारकर' की चांदनी बार and ट्रैफिक सिग्नल, राम गोपाल वर्मा की कंपनी और इसकी पिछली कड़ी डी, अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे . विशाल भारद्वाज की 2014 फिल्म हैदर, उनकी विलियम शेक्सपियर के भारतीय रूपांतरण त्रयी की मक़बूल and ओमकारा के बाद तीसरी फिल्म थी। इस फिल्म ने 9वे रोम फिल्म समारोह में मोंडो श्रेणी में पीपलस चॉइस अवार्ड जीतकर ऐसा करने वाली पहली भारतीय फिल्म बन गयी आज के युग में अन्य सक्रिय कला फिल्म निर्देशक हैं मृणाल सेन, मीर शानी, बुद्धदेव दासगुप्ता, गौतम घोष, संदीप रे और अपर्णा सेन बंगाली सिनेमा में, संतोष सिवन और मणि रत्नम तमिल सिनेमा में, नीरद एन. मोहपात्रा ओड़िया सिनेमा, के. एन. टी सास्त्री और बी. नरसिंग राव अक्किकेनि कुटुंबा राव, देवा कट्टातेलुगु सिनेमा में; अडूर गोपालकृष्णन, शाजी एन करुण, टी. वी. चंद्रन, मलयालम सिनेमा में, मणि कौल, कुमार शाहाणी, केतन मेहता, गोविन्द निहलानी, मीरा नायर, नागेश कुकुनूर, और सुधीर मिश्रा हिंदी सिनेमा में और दीपा मेहता, अनंत बालानी, होमी अड़ाजानिया, विजय सिंह और सूनी तारापोरवाला भारतीय अंग्रेजी सिनेमा में. भारतीय फ़िल्मकार उपनिवेशी राज के दौरान यूरोप से फिल्म अपकरण ख़रीदते थे. ब्रिटिश सरकार ने दूसरा विश्वयुद्ध के समय पर युद्धकालीन प्रचार फिल्मों के निर्माण के लिए पैसे भी दिए, जिनमे से कुछ में भारतीय सेना को धुरी राष्ट्र, के खिलाफ युद्ध करते हुए दिखाया गया विशेषकर जापान का साम्राज्य, जो भारत की सीमा में घुसपैठ भी कर ली थी बर्मा रानी ऐसी ही एक कहानी थी जो म्यानमार में जापानी कब्ज़े के खिलाफ ब्रिटिश और भारतीयों द्वारा किये नागरिक विरोध को दिखाती है आज़ादी से पहले के व्यापारी जैसे जे. एफ. मदन और अब्दुलली इसूफल्ली ग्लोबल सिनेमा में व्यापार करते थे. भारतीय सिनेमा के दुसरे क्षेत्रों के साथ शुरुआती सम्पर्क तब दिखे जब भारतीय फिल्मो ने सोवियत यूनियन, मध्यपूर्व एशिया, दक्षिणपूर्व एशिया आदि में प्रवेश किया। मुख्य धारा फिल्म अभिनेता जैसे रजनीकांत और राज कपूर ने एशिया और पूर्वी यूरोप भर में अंतर्राष्ट्रीय शोहरत पायी। भारतीय फिल्मो ने अंतर्राष्ट्रीय फोरम और फिल्म समारोहों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। इस माध्यम से सामानांतर बंगाली फिल्मकारों जैसे सत्यजित रे ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाई और उनकी फिल्मे यूरोपियन, अमरीकी और एशियाई दर्शकों में सफलता पाई। राय की फिल्मो ने तत्पश्चात् विश्वव्यापी प्रभाव डाला और मार्टिन स्कोर्सीसी, जेम्स आइवरी, अब्बास किआरोस्तामी, एलीआ कज़ान, फ्रांकोइस ट्रूफॉट, स्टीवन स्पीलबर्ग, कार्लोस सौरा, जॉन-लुक गोडार्ड, एसओ टाकाहाटा, ग्रेगोरी नावा, इरा साक्स and वेस एंडरसन उनकी सिनेमाई शैली से प्रभावित हुए और कई अन्य जैसे अकीरा कुरोसावा ने उनके काम की तारीफ़ की। वो " युवा कमिंग ऑफ ऎज नाटक फिल्में जो 1950 से कला घरों में बाढ़ के रूप में फ़ैल रही है अपु त्रयी की कर्ज़दार" हैं। सुब्रत मित्र की बाउंस लाइटिंग तकनीक जिसका इस्तमाल करके वह सेट पर दिन के प्रकाश का प्रभाव लाते थे का भी काफी प्रभाव पड़ा। . राय की फिल्म 'कंचनजंघा ने एक कथा सरंचना शैली का इस्तेमाल किया जो बाद में प्रचलित हाइपरलिंक सिनेमा से मिलती है . 1980 के पश्चात, कुछ पहले अनदेखे भारतीय फ़िल्मकार जैसे ऋत्विक घटक और गुरु दत्त ने मरणोपरांत अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है। तमिल फिल्मो ने दक्षिणपूर्व एशिया के दर्शकों में लगातार लोकप्रियता बनायीं है। चंद्रलेखा के बाद मुथु जापानी भाषा में डब होने वाली दूसरी तमिल फिल्म थी। और 1998 में इसने रिकॉर्ड $1.6 मिलियन की कमाई करी। 2010 में एंथीरन ने उत्तर अमेरिका में रिकॉर्ड $4 की कमाई की। कई एशियाई और दक्षिण एशियाई देश पश्चिमी सिनेमा के मुकाबले भारतीय सिनेमा को अपनी संवेदनाओं के निकट पाते हैं जिग्ना देसाई का मानना है की 21वी शताब्दी तक भारतीय सिनेमा सीमाहीन हो गया था और उन सब जगहों तक फ़ैल गया था जहाँ प्रवासी भारतीय सार्थक संख्या में रहते हैं और अन्य अंतराष्ट्रीय सिनेमा का विकल्प बन रहा था. हाल ही में भारतीय सिनेमा का प्रभाव पश्चिमी संगीतमय फिल्मो पर भी पड़ रहा है और इसने इस शैली के पुनरुद्धार में महत्त्वपूर्ण सहायता करी है बाज़ लुहरमनं ने कहा है की उनकी सफल संगीतमय फिल्म मौलिन रूज़! बॉलीवुड संगीतमय फिल्मो से सीधी प्रभावित थी। मौलिन रूज़ की व्यावासयिक और समीक्षक सफलता से मरणासन्न पश्चिमी संगीतमय फिल्म शैली में नयी दिलचस्पी पैदा की और इसका नवजागरण हुआ। डैनी बॉयल'की अकादमी अवार्ड विजेता फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर भी भारतीय फिल्मों से सीढ़ी प्रभावित थी और हिंदी व्यावसायिक सिनेमा को एक श्रद्धांजलि भी मानी जाती है। कुछ भारतीय फ़िल्मकार विधु विनोद चोपड़ा, जाह्नू बरुआ, सुधीर मिश्रा और पन नलिन भी ग्लोबल दर्शकों तक पहुंच बनाने की कोशिश कर रहे हैं भारतीय सिनेमा को अमरीकन अकादमी अवार्ड में भी पहचान मिली है . तीन भारतीय फिल्मे मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे!, and लगान सर्वश्रेश्ठ विदेशी भाषा फिल्म के अकादमी अवार्ड के लिए नामांकित हुई हैं। अकादमी अवार्ड जीतने वाले भारतीय हैं भानु अथैया, सत्यजित राय, ए. आर. रहमान, रेसुल पूकुट्टी and गुलज़ार . भारतीय लोकप्रिय सिनेमा की परम्पराएँ 6 प्रमुख प्रभावों से बनी है। पहला; प्राचीन भारतीय महाकाव्यों महाभारत और रामायण ने भारतीय सिनेमा के विचार और कल्पना पर गहरा प्रभाव छोड़ा है विशेषकर कथानक पर। इस प्रभाव के उदहारण है साथ की कहानी, पीछे की कहानी और कहानी के अंदर कहानी की तकनीक. लोकप्रिय भारतीय फिल्मों के प्लाट में अक्सर कहानी उप कथाओं में फ़ैल जाती है, ये कथानक का प्रसार 1993 की फिल्म 'खलनायक और गर्दिश में देखा जा सकता है। दूसरा : प्राचीन संस्कृत नाटक, अपनी शैलीबद्ध स्वरुप और प्रदर्शन पर महत्व के साथ संगीत, नृत्य और भाव भंगिमा मिलकर " जीवंत कलात्मक इकाई का निर्माण करते हैं जहाँ नृत्य और अनुकरण/स्वांग नाटकीय अनुभव का केंद्र हैं"। संस्कृत नाटक नाट्य के नाम से भी जाने जाते हैं। नाट्य शब्द की उत्पत्ति "नृत्" शब्द मूल से हुई है जिससे संस्कृत नाटक के भव्य नृत्य नाटक चरित्र का पता चलता है जिस परंपरा का पालन आज भी हिंदी सिनेमा में हो रहा है अभिनय की रास विधि जिसकी उत्पत्ति प्राचीन संस्कृत नाटक के काल में हुई थी, एक मूल गुण है जो जो भारीतय सिनेमा को पश्चिमी सिनेमा से भिन्न करता है। रास विधि में अभिनेता समानुभूतिक " के भाव दिखाता है जिसे दर्शक महसूस करता है पश्चिमी स्टानिसलावस्की पद्धति के विपरीत जहाँ अभिनेता को अपने चरित्र का "जीता जागता अवतार" बनना चाहिए। " अभिनय की रास पद्धति लोकप्रिय हिंदी फिल्म अभिनेता जैसे अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान और देश भर में प्रिय फिल्म जैसे रंग दे बसंती, और अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराही गयी सत्यजित रे के फिल्मो भी दिखता है। तीसरा: पारम्परिक लोक भारतीय थिएटर, जो 10 वी शताब्दी में संस्कृत नाटक के पतन के बाद लोकप्रिय हुआ। इन क्षेत्रीय प्रथाओं में बंगाल की जात्रा, उत्तर प्रदेश की राम लीला, कर्णाटक का यक्षगान, आंध्र प्रदेश का चिन्दु नाटकम्, और तमिलनाडु का तेरुक्कुटू है। चौथा: पारसी थिएटर, जिसमें यथार्थवाद और फंतासी, संगीत और नाच, कथानक और प्रदर्शन, जमीनी संवाद और स्टेज प्रदर्शन की पटुता, और इन सब को एक में पिरो कर अतिनाटक के नाटकीय सम्भाषण में प्रस्तुत किया जाता है। पारसी नाटकों में भोंडा हास्य, मधुर गाने और संगीत, सनसनीखेज और चकाचौंध स्टेज कला होती है। " ये सारे प्रभाव मसाला फिल्मो में स्पष्ट दिखते है जो मनमोहन देसाई जैसे फिल्मकारों ने 1970 और 1980 में लोकप्रिय बनाया। इसका उदहारण हैं कुली और हाल ही में समीक्षकों द्वारा प्रशंसित रंग दे बसंती . पाँचवा: 1920s से 1950s का हॉलीवुड जब वहां पर संगीतमय फिल्म लोकप्रिय थी, हालाँकि भारतीय फ़िल्मकार अपने हॉलीवुड समकक्ष से कई तरीकों से अलग थे। उदहारण के लिए हॉलीवुड की संगीतमय फिल्म का प्लाट अधिकतर मनोरंजन की दुनिया में ही होता था जबकि भारतीय फ़िल्मकार लोकप्रिय फिल्मो में फंतासी के तत्वों को बढ़ाते हुए गीत-संगीत और नृत्य को कई परिस्थितियोँ में अभिव्यक्ति का एक प्राकृतिक माध्यम की तरह इस्तेमाल करते थे। गीत और नृत्य के साथ मिथको, इतिहास, परी कथा इत्यादि का कथा वचन एक भारतीय प्रथा है। इसके अतिरिक्त "जहाँ हॉलीवुड के फ़िल्मकार अपनी फिल्मो को निर्मित स्वरुप को छिपाने की कोशिश करते हैं ताकि यथार्थवादी कथानक पूरी तरह से प्रधान रहे, भारतीय फ़िल्मकार इस तथ्य को छुपाने की कोशिश नहीं करते की स्क्रीन पर दिखाया गया दृश्य एक कृति, एक माया, एक कल्पना है। लेकिन उन्हों अपनी इस कृति की लोगों की रोज़ाना की ज़िन्दगी के साथ रोचक और जटिल तरीकों से मिलाया। " एक और प्रभाव पश्चिमी म्यूजिक वीडियो हैं जिनका 1990 के बाद से काफी प्रभाव पड़ा है जिसे नृत्य क्रम, कैमरा एंगल, गति और संगीत मेमे भी देखा जा सकता है। इसका एक शीघ्र उदहारण है मणि रत्नम की 'बॉम्बे . लोकप्रिय भारतीय सिनेमा की तरह भारतीय समान्तर सिनेमा पर भी भारतीय थिएटर और भारतीय साहित्य का प्रभाव पड़ा है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय प्रेरणा के रूप में उस पर यूरोपियन सिनेमा खास तौर पर इतालियन नवयथार्तवाद और फ्रेंच काव्यात्मक यथार्तवाद) का हॉलीवुड के मुकाबले ज़्यादा असर पड़ा है। सत्यजित रे ने इतालियन फ़िल्मकार विट्टोरिओ डे सीका' की बाइसिकल थीव्स और फ्रेंच फ़िल्मकार जॉन रेनॉर'की द रिवर, को अपनी पहली फिल्म पाथेर पांचाली की प्रेरणा बताया है। रे ने अपने आप को यूरोपियन सिनेमा और बंगाली साहित्य के अलावा भारतीय थिएटर की परम्परा खास तौर पर शास्त्रीय संस्कृत नाटक की रास पद्धति का भी कर्ज़दार माना है। रास में पात्र न सिर्फ भावना महसूस करते हैं बल्कि उसे एक कलात्मक रूप में दर्शको को भी दर्शाते हैं और यही दोहरा चित्रण अपु त्रयी में दिखता है। . बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन भी डे सीका की बाइसिकल थीव्स से प्रेरित थी और इसने भारतीय नयी लहर का मार्ग प्रशस्त किया जो फ्रेंच नयी लहर और जापानी नयी लहर का समकालीन था। 1930 के दशक की कुछ भारतीय फिल्मे "बहुभाषी" के रूप में जानी जाती है। इन फिल्मो को मिलती जुलती लेकिन असमान रूपांतर में विभिन्न भाषाओँ में शूट किया गया था। ' इनसाइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन सिनेमा में राजधक्ष्य और विलेमेन के अनुसार, एक बहुभाषी फिल्म अपने सटीक रूप में एक बहुभाषी या त्रिभाषी एक प्रकार की फिल्म है जो 1930s में स्टूडियो युग में बनी थी, जिसमे अलग भाषाओँ में हर दृश्य के अलग लेकिन समान शॉट लिए जाते थे जिसमे अभिनेता अलग होते थे लेकिन तकनिकी कर्मी और संगीत एक होते थे। :15 राजधक्ष्य और विलेमेन के अनुसार अपने इनसाइक्लोपीडिया के शोध के दौरान उन्हें बहुभाषी, डब फिल्मो, रीमेक इत्यादि के बीच में भेद करने में काफी कठिनाई हुई। कुछ मामलो में वही फिल्म अलग शीर्षक के साथ भिन्न फिल्म के रूप में दूसरी भाषा में सूचीबद्ध की गयी हैं। कई वर्षों के विद्वत्तापूर्ण कार्य के बाद ही इसमें निर्णायक विवरण निकाला जा सकता है। ":15 असमिया फिल्म उद्योग की उत्पत्ति क्रांतिकारी कल्पनाकर रुपकोंवर ज्योतिप्रसाद अग्रवाल के कार्यों में है, जो एक कवि, नाटक लेखक, संगीतकार और स्वतंत्रता सेनानी भी थे। उनका चित्रकला मूवीटोन के बैनर में 1935 में बनी पहली असमिया फिल्म जोयमती के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान था। प्रशिक्षित तकनीशियनों के कमी के कारण ज्योतिप्रसाद को अपनी फिल्म बनाते हुए निर्माता और निर्देशक के अलावा पटकथा लेखक, नृत्य निर्देशक, संगीतकार, गीतकार, संपादक आदि कई अतिरिक्त जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ी. 60,000 रुपए के बजट में बनी यह फिल्म 10 मार्च 1935 को रिलीज़ हुई और बॉक्स ऑफिस पर असफल रही . कई अन्य शुरुआती भारतीय फिल्मो की तरह जोयमती के भी नेगेटिव और पूरे प्रिंट गायब है। अल्ताफ मज़ीद ने निजी तौर बचे हुए प्रिंट का नवीनीकरण और उपशीर्षक किया है। जोयमती में हुए नुकसान के बावजूद दूसरी असमिया फिल्म इन्द्रमालती को 1937 से 1938 फिल्माया गया और 1939 में रिलीज़ किया गया . 21वी शताब्दी की शुरुआत में बॉलीवुड- शैली में असमिया फिल्मो का निर्माण होने लगा। टोलीगंज पश्चिम बंगाल में स्थित बंगाली सिनेमाई परंपरा प्रसिद्ध फ़िल्मकार जैसे सत्यजित रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन को अपने सबसे प्रशंसित सदस्यों के रूप में गिनती है। हाल की फिल्मे जिन्होंने राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है वो हैं ऋतुपर्णो घोष' की चोखेर बाली अभिनीत ऐश्वर्या राय, कौशिक गांगुली की शब्दो आदि . बंगाली सिनेमा में विज्ञानं कल्प और सामाजिक विषयों पर भी फिल्मे बनी है 2010 के दशक में बंगाली 50 - 70 फिल्मे सालाना बना रहा है। बंगाल में सिनेमा का इतिहास 1890 में शुरू होता है जब पहले "बॉयोस्कोप" कोलकाता के थिएटर में दिखाए गए। दस वर्षों के भीतर ही हीरालाल सेन विक्टोरियन युग सिनेमा के अगुआ ने रॉयल बॉयोस्कोप कंपनी की स्थापना कर बंगाली फिल्म उद्योग के बीज बोए. रॉयल बॉयोस्कोप स्टार थिएटर, मिनर्वा थिएटर, क्लासिक थिएटर इत्यादि के लोकप्रिय नाटको के स्टेज निर्माण के सीन दिखाता था। सेन के कार्यों के काफी साल बाद 1918 में धीरेन्द्र नाथ गांगुली ने इंडो ब्रिटिश फिल्म कंपनी पहली बंगाली स्वामित्व वाली निर्माण कंपनी की स्थापना की। लेकिन पहली बंगाली फीचर फिल्म बिल्वमंगल मदन थिएटर के बैनर तले 1919 में निर्मित हुई. बिलत फेरत 1921 में इंडो ब्रिटिश का पहला निर्माण था। मदन थिएटर की जमाई षष्ठी पहली बंगाली बोलती फिल्म थी। 1932 में बंगाली सिनेमा। टॉलीवुड नाम बंगाली फिल्म उद्योग के लिए इस्तेमाल हुआ चूँकि टॉलीगँज फिल्म उद्योग का केंद्र था और ये हॉलीवुड के साथ मेल खाता था। बाद में ये बॉलीवुड और ऐसे ही और हॉलीवुड प्रेरित नाम की भी प्रेरणा बना जब बम्बई टॉलीगँज को पीछे छोड़कर भारतीय फिल्म उद्योग का केंद्र बन गया। 1950s में सामानांतर फिल्म आंदोलन बंगाली फिल्म उद्योग में शुरू हुआ। तब से कई युगों का इतिहास लिखा जा चुका है जिसमे रे, घटक आदि फ़िल्मकार और उत्तम कुमार और सौमित्र चटर्जी आदि अभिनेताओं ने अपनी जगह बनायीं। भोजपुरी भाषा के फिल्में मुख्यतः पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के निवासियों का मंजोरंजन करती हैं। भोजपुरी बोलने क्षेत्रो से प्रवास के कारण इन फिल्मो का एक बड़ा दर्शक वर्ग दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में भी पाया जाता है। भारत के अलावा अन्य देश जहाँ भोजपुरी भाषा बोलने वाले दर्शक है जैसे दक्षिण अफ्रीका, वेस्ट इंडीज, ओशानिया और दक्षिण अमरीका में भी इन फिल्मों का बाजार पाया जाता है। भोजपुरी फिल्मों का इतिहास 1962 में कुंदन कुमार द्वारा निर्देशित सफल फिल्म गंगा मैय्या तोहे पियरी चढ़इबो, से शुरू माना जाता है। इसके बाद कई दशकों तक भोजपुरी फिल्मों का निर्माण यदा कदा ही हुआ। हालाँकि एस एन त्रिपाठी निर्देशित बिदेसिया और कुंदन कुमार द्वारा निर्देशित गंगा जैसी फिल्मे लोकप्रिय भी हुई और उन्होंने मुनाफा भी कमाया लेकिन 1960 से 1990 के दशक तक भोजपुरी फिल्मों का निर्माण सामान्यतः नहीं होता था। मोहन प्रसाद निर्देशित सुपर हिट फिल्म सैय्याँ हमार ने भोजपुरी फिल्म उद्योग को पुनर्जीवित किया और इस फिल्म के हीरो रवि किशन को भोजपुरी फिल्मो का पहला सुपर स्टार बनाया। इस फिल्म की सफलता के बाद कई और सफल भोजपुरी फिल्मों का निर्माण हुआ जैसे मोहन प्रसाद निर्देशित पंडितजी बताई न बियाह कब होइ और ससुरा बड़ा पइसा वाला . भोजपुरी फिल्म उद्योग की सफलता के प्रमाण के रूप में इन फिल्मों ने उत्तर प्रदेश और बिहार में इन फिल्मों ने अपने प्रदर्शन के समय बॉलीवुड की मुख्यधारा फिल्मो से बेहतर व्यवसाय किया और कम बजट में बनी दोनों ही फिल्मों ने अपनी लागत से दस गुना ज़्यादा मुनाफा कमाया। हालाँकि भोजपुरी सिनेमा अन्य भारतीय सिनेमा उद्योग के मुकाबले छोटा आकार का है, भोजपुरी फिल्मो की शीघ्र सफलता से भोजपुरी सिनेमा को बहुत प्रसार मिला है। अब भोजपुरी फिल्म उद्योग का एक फिल्म पुरुस्कार समारोह है और एक फिल्म व्यापार पत्रिका भोजपुरी सिटी भी है छॉलीवुड का जन्म 1965 में मनु नायक निर्मित और निर्देशित पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म " कही देबे सन्देश " के प्रदर्शन के साथ हुआ इस फिल्म की कहानी अंतरजाति प्रेम पर आधारित थी। कहा जाता है की भूतपूर्व भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस फिल्म को देखा था। . इस फिल्म के दो गाने लोकप्रिय गायक मोहम्मद रफ़ी ने गाये थे . इसके बाद 1971 में निरंजन तिवारी निर्देशित और विजय कुमार पाण्डेय द्वारा निर्मित घर द्वार का निर्माण हुआ। . लेकिन दोनों फिल्मो ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया और अपने निर्माताओं को निराश किया। जिसकी वजह से अगले 30 तक किसी छत्तीसगढ़ी फिल्म का निर्माण नहीं हुआ। गुजरात के फिल्म उद्योग की शुरुआत 1932 में हुई . उस समय से गुजराती सिनेमा ने भारतीय सिनेमा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अन्य क्षेत्रीय भाषा के सिनेमा के मुकाबले गुजराती सिनेमा ने काफी लोकप्रियता हासिल करी है। गुजराती सिनेमा की कहानियाँ पुराणो, इतिहास, समाज और राजनीती पर आधारित होती हैं। अपने उद्भव से ही गुजरती फिल्मकारों ने भारतीय समाज के मुद्दों और कहानियों के साथ प्रयोग किये हैं। गुजरात ने अपने अभिनेताओं के रूप में बॉलीवुड को भी योगदान दिया है। गुजराती फिल्म उद्योग में निम्न कलाकारों का काम भी शामिल है संजीव कुमार, राजेंद्र कुमार, बिंदु, आशा पारेख, किरण कुमार, अरविन्द त्रिवेदी, अरुणा ईरानी, मल्लिका साराभाई, नरेश कनोड़िआ, महेश कनोड़िआ और असरानी. गुजराती फिल्मो की स्क्रिप्ट और कहानियाँ आतंरिक रूप से मानवीय होती है। ये रिश्तों और पारवारिक विषयों के साथ मानवीय आकाँक्षाओं को भारतीय परिवारों के सन्दर्भ में देखती है। पहली गुजराती फिल्म, नानुभाई वकील द्वारा निर्देशित नरसिंह मेहता, 1932 में रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म के अभिनेता मोहन लाला, मारुती राव, मास्टर मनहर और मिस मेहताब थे। संत नरसिंह मेहता, के जीवन पर आधारित ये फिल्म "संत फिल्मो" की श्रेणी में गिनी जाती है। लेकिन संत फिल्मो के विपरीत इस फिल्म में कोई भी चमत्कार नहीं दर्शाये गए थे। 1935 में एक और सामाजिक फिल्म, होमी मास्टर द्वारा निर्देशित, घर जमाई रिलीज़ हुई। इस फिल्म में हीरा, जमना, बेबी नूरजहां, अमू, अलिमिया, जमशेदजी और गुलाम रसूल ने अभिनय किया था। इस फिल्म में अपने ससुराल में रह रहे दामाद और उसकी हरकतों और उसके महिलाओं की स्वतंत्रता के बारे में समस्यात्मक रुख को दर्शाया गया था। यह एक कॉमेडी फिल्म थी जिसे काफी सफलता मिली। गुजराती सिनेमा में आगे भी ईसी प्रकार कई और महत्त्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विषयो पर फिल्मों का निर्माण हुआ। 1948, 1950, 1968 और 1971 में गुजराती सिनेमा के कुछ नए आयाम स्थापित हुए। चतुर्भुज दोशी निर्देशित करियावर, रामचन्द्र ठाकुर की वडिलोना वांक, रतिभाई पूणतर की गडानो बेल और वल्लभ चोकसी की लीलुडी धरती ने गुजराती सिनेमा में काफी सफल रही. वर्त्तमान में गुजराती फिल्मे आधुनिकता की समस्याओं के प्रसंग पर चर्चा करती है। गडानो बेल जैसी फिल्मो में यथार्थवाद और बदलाव की झलक देखी जा सकती है। मुंबई में केंद्रित हिंदी भाषा फिल्म उद्योग जिसे बॉलीवुड के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय सिनेमा को नियंत्रित करती है और उसकी सबसे बड़ी और शक्तिशाली शाखा है। हिंदी सिनेमा ने अपने शुरुआती दौर में अछूत कन्या and सुजाता आदि फिल्मों के माध्यम से जाति और संस्कृति की समस्याओं का विशेलषण किया . हिंदी सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति चेतन आनंद की नीचा नगर, राज कपूर ' की आवारा। आवारा और शक्ति सामंत की आराधना आदि फिल्मों से मिली. 1990 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था उदारीकरण के बाद जब सतत रूप से विकसित हुई तो हिंदी सिनेमा उद्योग भी एक व्यवसाय के रूप में 15% की वर्षिक दर से बढ़ा फिल्मो के बजट बड़े हुए और स्टार अभिनेताओं की आमदनी भी काफी बढ़ी। कई अभिनेता साथ साथ 3–4 फिल्मों में काम करने लगे वाणिज्यिक संस्थान जैसे भारतीय औद्योगिक विकास बैंक आई डी बी आई हिन्दी फिल्मों में पूँजी लगाने लगे। 21वी सदी के पहले दशक में फिल्म उद्योग ने और अधिक कॉर्पोरेट स्वरूप लिया जहाँ फिल्म स्टूडियो कंपनियों की तरह कार्य कर रहे हैं, फिल्मों की मार्केटिंग हो रही है, आय और उसके स्रोत बढ़ने की कोशिश हो रही है और जॉइंट वेंचर भी हो रहे है। हिंदी फिल्मों के दर्शक फिल्मों के साथ सिनेमा हाल में ताली, सीटी बजाने, गाना गाने डायलॉग बोलने आदि द्वारा अपनी भागीदारी के लिए जाने जाते हैं कन्नड़ फिल्म उद्योग बंगळुरु में केंद्रित है और कर्नाटक राज्य की मनोरंजन आवश्यकताएं पूरी करता है। राजकुमार कन्नड़ सिनेमा के प्रख्यात महानायक है। अपने फ़िल्मी करियर में उन्होंने बहुमुखी किरदार निभाए और सैकड़ों गाने गाये। अन्य मशहूर कन्नड़ और तुलु अभिनेता है विष्णुवर्धन, अम्बरीष, रविचंद्रन, गिरीश कर्नाड, प्रकाश राज, शंकर नाग, अनंथ नाग, उपेन्द्र, दर्शन, सुदीप, गणेश, शिवराज कुमार, पुनीत राजकुमार, कल्पना, भारथी, जयंथी, पंडरी बाई, तारा, उमाश्री और रम्या. कन्नड़ सिनेमा के फिल्म निर्देशक जैसे गिरीश कसरावल्ली, पी. शेषाद्रि राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है। पुट्टण्णा कनगल, जी. वी. अय्यर, गिरीश कर्नाड, टी. एस. नागभारना, केसरी हरवू, उपेन्द्र, योगराज भट्ट, और सूरी अन्य मशहूर कन्नड़ निर्देशक है। जी.के. वेंकटेश, विजय भास्कर, राजन नागेन्द्र, हंसलेखा, गुरुकिरण, अनूप सेलिन और वी. हरिकृष्ण मशहूर कन्नड़ संगीत निर्देशक है . कन्नड़ सिनेमा ने भी बंगाली और मलयालम फिल्मों के साथ भारतीय सामानांतर सिनेमा के युग में योगदान किया है। इस श्रेणी की कुछ प्रभावशाली फ़िल्में है संस्कारा, बी. वी. करंथ की चोमाना डूडी, ताबरना कथे, वंसावृक्षा, कडु कुडुरे, हंसगीथे, भूतय्यना मगा अय्यु, एक्सीडेंट, मानसा सरोवर, घटाश्रद्धा, मने, क्रौर्य, थाई साहेबा, द्वीपा, मुन्नुदी, अतिथि, बेरु, थुत्तुरी, विमुक्थि, बेत्तडा जीवा और भारत स्टोर्स. कोंकणी भाषा की फिल्मो का निर्माण मुख्यता गोवा में होता है। 2009 में 4 फिल्मों के निर्माण के साथ ये भारत के सबसे छोटे फिल्म उद्योगों में से एक है। कोंकणी भाषा मुख्यत गोवा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और सीमित मात्रा में केरल में बोली जाती है। पहली पूर्ण अवधि की कोंकणी फीचर फिल्म मोगचो अंवद्ड़ो निर्माता निर्देशक जेरी ब्रगांजा के एटिका पिक्चर्स बैनर तले 24 अप्रैल 1950 को रिलीज़ हुई थी इसी लिए 24 अप्रैल को कोंकणी फिल्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। कज़र् 2009 में बनी रिचर्ड कास्टेलिनो द्वारा निर्देशित और फ्रैंक फर्नॅंडेज़ द्वारा निर्मित कोंकणी फिल्म है। कासरगोड चिन्ना की 'उजवाडु ' पुराने विषयों पर नया प्रकाश डालती है। मोग आणि मैपस एक मंगलोरी कोंकणी फिल्म है। मलयालम फिल्म उद्योग जिसे मौलीवुड, के नाम से भी जाना जाता है केरल में स्थित है। यह भारत का चौथा सबसे बड़ा फिल्म उद्योग है। मलयालम फिल्म उद्योग को सामानांतर सिनेमा और मुख्यधारा सिनेमा के बीच की दूरी को पाटने वाली सामाजिक विषयों पर विचारो को प्रेरित करने वाली तकनिकी रूप से उत्तम काम बजट की फिल्मों के लिए जाना जाता है। अडूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन, शाजी एन करुण, के. जी. जॉर्ज, पद्मराजन, सथ्यन अन्थिकड़, टी. वी. चंद्रन और भारतन मलयालम सिनेमा के नामचीन फिल्मकार है। जे. सी. डैनियल द्वारा निर्मित व निर्देशित विगतकुमारन, 1928 में रिलीज़ हुई मूक फिल्म से मलयालम फिल्म उद्योग की शुरुआत हुई। 1938 में रिलीज़ हुई बालन, पहली मलयालम "टॉकीज " या बोलती फिल्म थी। 1947 तक जब पहले मलयालम फिल्म स्टूडियो, उदय स्टूडियो की केरल में शुरुआत हुई, मलयालम फिल्में का निर्माण तमिल निर्माताओं द्वारा होता था। 1954 में नीलककुयिल फिल्म बे राष्ट्रपति का रजत मेडल जीत कर राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया। मशहूर मलयालम उपन्यासकार उरूब द्वारा लिखित और पी. भास्करन एवं रामू करिअत द्वारा निर्देशित इस फिल्म को पहली प्रामाणिक मलयालम माना जाता है। 1955 में छात्रों के समूह द्वारा निर्मित न्यूज़पेपर बॉय पहली नव यथार्थवादी मलयालम फिल्म थी। थक़ाज़ी सिवसंकरा पिल्लै की कहानी पर आधारित रामू करिअत द्वारा निर्देशित चेम्मीन, बहुत लोकप्रिय हुई और सर्वोत्तम फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरुस्कार पाने वालीं दक्षिण भारत की पहली फिल्म थी। मोहनलाल, ममूटी, सुरेश गोपी, जयराम, मुरली, थिलकन, श्रीनिवासन और नेदुमुदी वेणु जैसे अभिनेताओं और आई. वी. ससी, भारतन, पद्मराजन, के. जी. जॉर्ज, सथ्यन अन्थिकड़, प्रियदर्शन, ऐ. के. लोहितादास, सिद्दीकी-लाल, और टी . के . राजीव कुमार जैसे फिल्मकारों के उदय के साथ 1980s से 1990s तक का समय 'मलयालम सिनेमा का स्वर्ण युग ' माना जाता है। मराठी फिल्म उद्योग मराठी भाषा में फिल्मो का निर्माण करता है जिनका प्रमुख बाजार महाराष्ट्र राज्य है। मराठी सिनेमा भारतीय फिल्म जगत के सबसे पुराने फिल्म उद्योगों में से एक है। वास्तव में भारतीय सिनेमा के अग्र-दूत दादा साहेब फाल्के, जिन्होंने 1913 में भारत में चल चित्र क्रांति की शुरुआत की अपनी स्वदेशी निर्मित मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र से की, उसे भारत के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह और अन्य संस्थाओं द्वारा मराठी सिनेमा का अंग माना जाता है क्यों की उसका निर्माण एक मराठी कर्मीदल द्वारा हुआ था। पहली मराठी बोलती फिल्म अयोध्येचा राजा 1932 में रिलीज़ हुई, "आलम आरा" पहली हिंदी बोलती फिल्म के सिर्फ एक साल बाद। हाल के वर्षों में "श्वास" और "हरिशचंद्राची फैक्ट्री", जैसी फिल्मो के निर्माण से मराठी सिनेमा का विकास हुआ है। ये दोनों फिल्मे ऑस्कर पुरुस्कार के लिए भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में भेजी गयी. आज मराठी सिनेमा मुंबई में स्थित है पर अतीत में इसका विकास कोल्हापुर और पुणे में हुआ। मराठी भाषा की कुछ उल्लेखनीय फिल्म है 'सांगते एका ','एक गाओं बड़ा भंगड़ी, वी. शांताराम की 'पिंजरा' ,'सिंहासन', 'पथलॉग' 'जैत रे जैत' 'सामना', 'संत वहते कृष्णमि ','संत तुकाराम', और प्रह्लाद केशव अत्रे के साने गुरूजी के उपन्यास पर आधारित 'श्यामची आई' . मराठी सिनेमा के कई कलाकारों ने हिंदी सिनेमा ' बॉलीवुड' में भी कॅाफ़ी योगदान किया है। इनमे से कुछ प्रसिद्ध कलाकार है नूतन, तनूजा, वी. शांताराम, श्रीराम लागू, रमेश देव, सीमा देव, नाना पाटेकर, स्मिता पाटिल, माधुरी दीक्षित, सोनाली बेंद्रे, उर्मिला मांतोडकर, रीमा लागू, ललिता पवार, नंदा, पद्मिनी कोल्हापुरे, सदाशिव अमरापुरकर,विक्रम गोखले, सचिन खेडेकर, अमोल पालेकर, सचिन पिलगाओंकर, सोनाली कुलकर्णी, मकरंद देशपांडे, रितेश देशमुख, दुर्गा खोटे और अन्य। भुबनेश्वर और कटक स्थित उड़िया फिल्म उद्योग, ओलीवुड उड़िया भाषा में फिल्मो का निर्माण करता है। पहली उड़िया बोलती फिल्म सीता बिबाह का निर्माण 1936 में सुन्दर देब गोस्वामी ने किया था।गापा हेले बे साता पहली रंगीन उड़िया फिल्म थी। इसका निर्माण नगेन रे ने किया था और इसके चलचित्रकार पुणे के फिल्म इंस्टिट्यूट में प्रशिक्षित सुरेन्द्र साहू थे। 1984 उड़िया सिनेमा का स्वर्णिम वर्षा था जब दो उड़िया फिल्मे ' माया मृगा ' और ' धारे अलुआ' को भारतीय चित्रमाला में प्रदर्शित किया गया. नीरद मोहपात्रा की माया मृगा को कांन्स फिल्म समारोह में क्रिटिक सप्ताह के लिए निमंत्रण मिला और इसने मैंनहेइम में सर्वश्रेष्ठ तीसरी दुनिया फिल्म का पुरुस्कार तथा हवाई में जूरी पुरुस्कार मिला। इसे लंदन फिल्म समारोह में प्रदर्शित भी किया गया। के. डी. मेहरा ने पहली पंजाबी फिल्म शीला का निर्माण किया। लोकप्रिय अभिनेत्री बेबी नूर जहाँ को इसी फिल्म में अभिनेत्री और गायिका के रूप में पहली बार देखा गया। शीला का निर्माण कलकत्ता में हुआ और इसे पंजाब की तत्कालीन राजधानी लाहौर में रिलीज़ किया गया। ये फिल्म पूरे राज्य में बहुत सफलतापूर्वक चली और हिट घोषित हुई। पंजाबी भाषा की इस पहली फिल्म की सफलता की वजह से कई और फिल्मकार पंजाबी भाषा में फिल्मे बनाने लगे। वर्ष 2009 तक पंजाबी सिनेमा में 900 से 1,000 फिल्मो का निर्माण हो चुका था। हालाँकि 1970 के दशक में 9 फिल्मो की रिलीज़ से गिरते हुए 1997 में सिर्फ 5 पंजाबी फिल्मे ही रिलीज़ हुई। लेकिन 2000s ने पंजाबी सिनेमा में पुनर्जीवन का संचार हुआ। अब हर साल ज़्यादा फिल्मे रिलीज़ हो रही है जिनके बजट भी बढे हैं और स्थानीय फिल्म अभिनेताओं के साथ बॉलीवूड के पंजाबी कलाकार भी इन फिल्मो में अभिनय कर रहे है। 2013 में पहली पंजाबी 3D फिल्म पहचान 3D रिलीज़ हुई। सिंधी सिनेमा, भारत में किसी राज्य या क्षेत्र का प्रतिनिधि न होने के कारण अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। इसके बावजूद समय समय पर सिंधी फिल्मो का निर्माण होता रहता है। 1958 में निर्मित अबाना पहली सिंधी फिल्म थी और इसे सफलता भी मिली। विगत कुछ समय में सिंधी सिनेमा ने बॉलीवूड शैली में फिल्मो का निर्माण हुआ है जैसे हल ता भाजी हलूं, परेवारी, दिल दीजे दिल वरन खे, हो जमालो, प्यार करे दिस: फील द पावर ऑफ़ लव and द अवेकनिंग. पाकिस्तानी सिनेमा और बॉलीवुड में सिंधी समुदाय के कई व्यक्तित्व है जैसे जी पी सिप्पी, रमेश सिप्पी, रामसे बंधू, गोविन्द निहलानी, संगीता बिजलानी, बबिता, साधना, असरानी, आफताब शिवदासानी,वशु भगनानी, राजकुमार हिरानी, दिलीप ताहिल, विशाल ददलानी, रणवीर सिंह, हंसिका मोटवानी, निखिल अडवाणी, रितेश सिधवानी, प्रीती झंगिआनी आदि। निर्देशक सोंगे दोरजी थोंडोक शेरुडुकपेन में पहली भारतीय फिल्म क्रासिंग ब्रिज्स 2014 मे बनायीं। . शेरुडुकपेन भाषा भारत के पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में बोली जाती है। दोरजी शेरुडुकपेन में और भी फिल्मे बनें चाहते है ताकि भारतीय सिनेमा में एक और क्षेत्रीय भाषा की बढ़ोतरी हो। चेन्नई एक समय में पूरे दक्षिण भारतीय फिल्मे का मूल स्थान था और वर्तमान में भी दक्षिण भारत का सबसे बड़ा फिल्म निर्माण केंद्र है। एच. एम. रेड्डी ने पहली दक्षिण भारतीय टॉकीज कालिदास को निर्देशित किया जिसको तमिल और तेलुगु दोनों भाषाओँ में शूट किया गया था। शिवाजी गणेशन अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार पाने वाले भारत के पहले कलाकार बने जब उन्हें 1960 के एफ्रो एशियाई फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चुना गया। उन्हें फ़्रांस सरकार द्वारा लीजन ऑफ़ ऑनर पुरुस्कार में शेवलिएर की उपाधि French Government 1995 में प्रदान की गयी। तमिल सिनेमा द्रविड़ राजनीिति द्वारा प्रभावित होता है . के. बी. सुन्दरम्बल राज्य विधानसभा के लिए चुनी गयी भारत की पहली फिल्म व्यक्तित्व थी। भरतिया फिल्म उद्योग में एक लाख रुपए वेतन पाने वाली वह पहली महिला थी। प्रसिद्ध फिल्म व्यक्तित्व जैसे सी एन अन्नादुराई, एम जी रामचंद्रन, एम करूणानिधि और जयललिता तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। तमिल फिल्मे एशिया, दक्षिण अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, यूरोप और ओशानिया में वितरित होती हैं। कॉलीवुड के प्रभाव से श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर और कनाडा में तमिल फिल्मों का निर्माण हुआ है। प्रसिद्ध तमिल फिल्म अभिनेता रजनीकांत को "सुपरस्टार" बोला जाता है और वो लम्बे समय से दक्षिण भारत के लोकप्रिय अभिनेता बने हुए हैं उनका फ़िल्मी परदे पर रंग ढंग और संवाद बोलने की शैली जनता में उनकी व्यापक लोकप्रियता और अपील का कारण माने जाते हैं। शिवाजी में अपने रोल के लिए 26 करोड़ कमाने की बाद वह एशिया में जैकी चान के बाद Jackie Chan]] सर्वाधिक कमाने वाले अभिनेता बन गए हैं। प्रसिद्ध अभिनेता कमल हासन ने सर्वप्रथम कलाथुर कन्नमा फिल्म में अभिनय किया। इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ बाल अभिनेता का राष्ट्रपति स्वर्ण पदक मिला। हासन ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कार ममूटी और अमिताभ बच्चन की तरह तीन बार प्राप्त किया है। 7 प्रविष्टियों के साथ कमल हासन ने सर्वाधिक ] में अभिनय किया है। तमिल सिनेमा में संगीत और गाने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। समीक्षक प्रशंसित तमिल फिल्म संगीतकार इल्लियाराजा और ए. आर. रहमान के भारत के अलावा विदेशों में भी प्रशंसक है। भारत के 10167 फिल्म थिएटर में से सर्वाधिक 2809 थिएटर आंध्र प्रदेश और तेलेंगाना राज्यों में है जहाँ तेलुगू भाषा में फिल्मो का निर्माण होता है। 2005, 2006 और 2008 में तेलुगू सिनेमा ने 268, 245 and 286 फिल्मो के निर्माण के साथ बॉलीवुड को पीछे छोड़ते हुए भारत में सर्वाधिक फिल्मो का निर्माण किया। गिनेस वर्ल्ड रिकॉर्ड के अनुसार विश्व का सबसे बड़ा फिल्म निर्माण स्थल रामोजी फिल्मसिटी हैदराबाद, भारत। हैदराबाद में है। प्रसाद आईमैक्स, हैदराबाद विश्व का सबसे बड़ा और सबसे ज़्यादा दर्शकों वाला 3D आईमैक्स स्क्रीन है तेलुगू सिनेमा में मूक फिल्मो का निर्माण 1921 में रघुपथी वेंकैया नायडू और आर. एस. प्रकाश की "भीष्म प्रतिज्ञा" के साथ शुरू हुआ। 1932 में पहली तेलुगु टॉकीज फिल्म भक्त प्रह्लाद का निर्माण एच. एम. रेड्डी ने किया जिन्होंने पहली दक्षिण भारतीय टॉकीज फिल्म कालिदास निर्देशित की थी। पहला तेलुगु फिल्म स्टूडियो दुर्गा सिनेटोन 1936 में निदामरथी सुरैय्या द्वारा राजाहमुन्द्री, आंध्र प्रदेश में स्थापित किया गया। वुप्पलादियाम नागेयाः पद्मश्री पुरुस्कार पाने वाले दक्षिण भारत के पहले बहुभाषी फिल्म अभिनेता, गायक, संगीत निर्देशक, निर्माता और अभिनेता थे . वो भारत के पॉल मुनि के रूप में जाने जाते थे। एस. वी. रंगा राव भारत के अंतर राष्ट्रीय पुरुस्कार पाने वाले पहले अभिनेताओँ में से एक थे। उन्हें इंडोनेशियाआई फिल्म समारोह, जकार्ता में नर्थंनसाला के लिए पुरूस्कृत किया गया था। एन. टी. रामा राव जिन्हे के नाम से जाना जाता है, राजनीति में आने से पहले तेलुगु सिनेमा के व्यावसायिक रूप से सफल अभिनेताओं में से एक थे। बी. नरसिंग राव, के. एन. टी. सास्त्री और पट्टाभिरामा रेड्डी ने समान्तर सिनेमा में अपने पथ प्रदर्शक काम के लिए अंतर राष्ट्रीय पहचान पाई है। अदुरथी सुब्बा राव, ने निर्देशक के रूप में अपने कार्य के लिए कई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त किये। पुरुष पार्श्वगायक के रूप में सबसे अधिक गाना गाने के लिए गिनेस रिकॉर्ड धारक एस. पी. बालसुब्रमण्यम ने सबसे अधिक गाने तेलुगु में गाये हैं। एस. वी. रंगा राव, एन. टी. रामा राव, कांता राव, भानुमथी रामकृष्णा, सावित्री, गुम्मडी और सोभन बाबू को अभिनय के लिए राष्ट्रपति मेडल। शारदा, अर्चना, विजया शांति, रोहिणी, नागार्जुन अक्किकेनि और पी. एल. नारायणा को National Film Award for best performance in acting from this industry. Chiranjeevi, was listed among "The men who changed the face of the Indian Cinema" by IBN-live India. तुलु फिल्म उद्योग वार्षिक 2 - 3 फिल्मों के निर्माण के साथ भारतीय सिनेमा का एक लघु उद्योग है। आमतौर पर यह फिल्मे तुलु भाषी क्षेत्रों। तुलु नाडु और डीवीडी पर रिलीज़ होती है। 1971 में रिलीज़ हुई इन्ना ठंगडी तुलु भाषा की पहली फिल्म थी। समीक्षकों द्वारा प्रशंसित तुलु फिल्म सुधा ने 2006 के ओशियान सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म का पुरुस्कार जीता। 2011 में रिलीज़ हुई एच. एस. राजशेखर की ओरियाडोरी असल तुलु भाषा की सबसे सफल फिल्म है। कुछ अन्य तुलु फिल्म तथ्य संस्कृत सिनेमा भारत के दो प्रमुख राष्ट्रीय चलचित्र उद्योगों में से एक है। भारतीय सिनेमा में संस्कृत सिनेमा एवं हिन्दी सिनेमा का नाम प्रमुखता से आता है। तथा कई बार इसे " संस्कृत सिनेमा " भी कहा जाता है। संस्कृत में अब तक लगभग 9 चलचित्र बन चुके हैं। यह भारत का सबसे सभ्य सिनेमा माना जाता है। मसाला भारतीय फिल्मों की एक शैली है जो की मुख्यतः बॉलीवुड, बंगाली और दक्षिण भारतीय सिनेमा में बनती है। मसाला फिल्मों एक ही फिल्म में विभिन्न शैली की फिल्मो के तत्वों का मिश्रण होता है। उदाहरण के लिए, एक मसाला फिल्म में एक्शन, कॉमेडी, ड्रामा, रोमांस और मेलोड्रामा सब का चित्रण हो सकता है। मसाला फिल्में संगीतमय भी होती है और इनमे चित्रात्मक या प्राकृतिक जगहों में फिल्माए गए गाने भी होते हैं जो बॉलीवुड या दक्षिण भारतीय मसाला फिल्मों में बहुत सामान्य है। इन फिल्मो की कहानी नए या अनजान दर्शकों को तर्कहीन या असम्बह्व भी लग सकती है। इस शैली का नाम भारतीय भोजन में प्रयोग होने वाले मसालों के नाम पर रखा गया है। समानांतर सिनेमा, जिसे कला सिनेमा ओर नयी भारतीय लहर के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय सिनेमा का एक विशिष्ट आन्दोलन है। समानांतर सिनेमा यथार्थवाद और प्रकृतिवाद की अपनी गंभीर सामग्री के साथ समकालीन सामाजिक-राजनीतिक माहौल पर गहरी नज़र के साथ लिए जाना जाता है,। यह आंदोलन मुख्यधारा बॉलीवुड सिनेमा से अलग है और नयी फ्रेंच लहर और जापानी नयी लहर के आस पास ही शुरू हुआ. इस आंदोलन का नेतृत्व शुरू में बंगाली सिनेमा ने किया और बाद में अन्य भारतीय फिल्म उद्योगों में प्रसिद्धि प्राप्त की। इस आन्दोलन की कुछ फिल्मों ने व्यवसायिक सफलता भी प्राप्त कर कला और व्यावसयिक सिनेमा के बीच सामंजस्य बनाया. इस का शुरुआती उदहारण है बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा ज़मीन, जिसने दोनों व्यावसायिक और समालोचनात्मक सफलताप्राप्त की तथा 1954 के काँस फिल्म फेस्टिवल में अन्तराष्ट्रीय फिल्म का पुरुस्कार भी जीता। इस फिल्म की सफलता ने नयी भारतीय लहर के लिए मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय फिल्म उद्योग में 1000 से अधिक फिल्म निर्माण कम्पनियां हैं, लेकिन इनमे से कुछ ही अंतराष्ट्रीय बाजार में सफल होने में कामयाब रहे हैं। इन निर्माण घरों ने भारतीय सिनेमा को विदेशों में फिल्म रिलीज़ और विदेशी दर्शकों के लिए वितरण से अंतर्राष्ट्रीय मंच तक पहुँचने में मदद की है। भारतीय फिल्म उद्योग में कुछ निर्माण घर है यशराज फिल्म्स, रेड चिल्लीस एंटरटेनमेंट, धर्मा प्रोडक्शन, एरोस इंटरनेशनल, बालाजी मोशन पिक्चर और यूटीवी मोशन पिक्चर . संगीत भारतीय फिल्मो का एक अभिन्न अंग है। एक सामान्य भारतीय फिल्म में लगभग 5-6 गीत हो सकते है जिनमे से कई संयोजित नृत्य भी सकते है। भारतीय सिनेमा में संगीत राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। फिल्म के संगीत अधिकार अकेले एक फिल्म के राजस्व का 4-5% भाग तक हो सकते हैं। भारत की प्रमुख फिल्म संगीत कंपनियों में सारेगामा, टी सीरीज, सोनी म्यूजिक और यूनिवर्सल म्यूजिक आदि हैं व्यवसयिक रूप में फिल्म संगीत की बिक्री भारत के पूरे संगीत की बिक्री का 48% है। एक बहुसांस्कृतिक, और तेजी से वैश्विक भारतीय दर्शकों की मांग के फलस्वरूप भारतीय फिल्म संगीत अक्सर विभिन्न स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय संगीत शैलीयों का मिश्रण करता है। लेकिन फिर भी स्थानीय नृत्य और संगीत समय की परीक्षा में सफल हो कर कालातीत बना है और इसी लिए ये बार बार भारतीय फिल्मों में इस्तेमाल होता है। इसने भारतीय प्रवासियों के साथ साथ भारत की सीमाओं के बाहर भी अपना रास्ता बना दिया है। पार्श्व गायक मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर, येसुदास आदि ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म संगीत स्टेज शो के साथ बड़ी संख्या में भीड़ को आकर्षित किया है। 20 वीं सदी के अंत और 21 वीं की शुरुआत में भारतीय और पश्चिमी दुनिया के कलाकारों के बीच व्यापक आदान प्रदान हुआ। भारतीय मूल के कलाकारों ने अपने देश के लोगों को अपनी विरासत की परंपराओं से मिश्रित लोकप्रिय समकालीन संगीत को जन्म दिया। भारत के भीतर भी गायकों की संख्या इतनी ज्यादा हो गयी है कि संगीत प्रेमी एक गायक को सिर्फ उसकी आवाज के आधार पर नहीं पहचान सकते है। भारतीय संगीतकार ऐ आर रहमान ने दो अकादमी पुरुस्कार, दो ग्रैमी पुरुस्कार, एक बाफ्टा और एक गोल्डन ग्लोब पुरुस्कार के साथ भारतीय फिल्म संगीत को विश्व में एक नयी पहचान दी है। फिल्म निर्माण में, एक फिल्म स्थान वो जगह है जहां एक फिल्म कर्मी दल अभिनेताओं को फिल्माएगा और उनके संवाद की रिकॉर्डिंग करेगा। फिल्म निर्माता अक्सर फिल्म स्थान पर शूट करने के लिए चुनते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि अधिक से अधिक यथार्थवाद स्टूडियो की जगह एक "वास्तविक" जगह में प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन लोकेशन शूटिंग अक्सर फिल्म के बजट पर निर्भर होती है चूंकि इसकी लागत स्टूडियो शूटिंग से अधिक होती है। भारत में फिल्म की शूटिंग के लिए सबसे लोकप्रिय स्थानों में आम तौर पर भारतीय सिनेमा के भाषा केंद्र हैं। उदाहरण के लिए। मुंबई बॉलीवुड / हिंदी और मराठी सिनेमा के लिए, कोलकाता बंगाली सिनेमा के लिए, चेन्नई तमिल सिनेमा के लिए, हैदराबाद तेलुगु सिनेमा के लिए आदि। इसके अलावा भारत में कई और लोकेशन है जिन्हे भारतीय फ़िल्मकार अपनी फिल्मों में इस्तेमाल करते है। ये है हिमाचल प्रदेश में मनाली और शिमला, जम्मू और कश्मीर में श्रीनगर, गुलमर्ग और लदाख, लखनऊ, आगरा और वाराणसी उत्तर प्रदेश में, तमिलनाडु में ऊटी, पंजाब में अमृतसर, पश्चिम बंगाल में दार्जीलिंग, राजस्थान में उदयपुरजोधपुर, जयपुर और जैसलमेर, दिल्ली, गोवा और केरल . वर्तमान में छत्तीसगढ़ से भी नेषनल और इंटरनेषनल स्तर पर फिल्म निर्माण किया जा रहा है इस खंड में राष्ट्रीय, राज्यों और अन्य संस्थाओं के द्वारा भारतीय सिनेमा के लिए दिए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण फिल्म पुरस्कारों की सूची है। नीचे प्रमुख गैर सरकारी पुरस्कार दिए गए हैं। कई भारतीय संस्थान, सरकारी और निजी, फिल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं के बारे में औपचारिक शिक्षा प्रदान करते हैं। इनमे से कुछ प्रमुख है Caribbean:Antigua and Barbuda •Aruba •Bahamas •Barbados •Cuba •Dominican Republic •Guadeloupe •Haiti •Jamaica •Martinique •Puerto Rico •Trinidad and TobagoLatin America:Argentina •Bolivia •Brazil •Chile •Colombia •Costa Rica •Ecuador •Guatemala •Guyana •Honduras •Mexico •Nicaragua •Panama •Paraguay •Peru •Suriname •Uruguay •Venezuela Northern America:Canada •U.S.A. Afghanistan •Bahrain •Bangladesh •Bhutan •Burma •Cambodia •China —भारत:आसामी •बांग्ला •बॉलीवुड •कॉलीवुड •कन्नड़ •मराठी •मलयालम •टॉलीवुड —Indonesia •Iran •Iraq •Israel •Japan •Jordan •Kazakhstan •Korea •Kuwait •Kyrgyzstan •Laos •Lebanon •Macau •Malaysia •Mongolia •Nepal —Pakistan: •nbsp;—Palestine •Philippines •Qatar •Saudi Arabia •Singapore •Sri Lanka •Syria •Taiwan •Tajikistan •Thailand •Turkey •Turkmenistan •U.A.E. •Uzbekistan •Vietnam •Yemen Albania •Andorra •Armenia •Austria •Azerbaijan •Belarus •Belgium •Bosnia-Herzegovina •Bulgaria •Croatia •Cyprus •Czech Republic •Denmark •Estonia •Faroe Islands •Finland •France •Georgia •Germany •Greece •Greenland •Hungary •Iceland •Ireland •Italy •Latvia •Liechtenstein •Lithuania •Luxembourg •Macedonia •Malta •Moldova •Monaco •Montenegro •Netherlands •Norway •Poland •Portugal •Romania •Russia •Serbia •Slovakia •Slovenia •Spain •Sweden •Switzerland •Ukraine •United Kingdom •Yugoslavia Australia •Fiji •New Zealand •Papua New Guinea •Tonga Algeria •Angola •Benin •Botswana •Burkina Faso •Burundi •Cameroon •Cape Verde •Central African Republic •Chad •Congo •Egypt •Eritrea •Ethiopia •Gabon •Guinea •Guinea-Bissau •Kenya •Ivory Coast •Libya •Madagascar •Mali •Mauritania •Mauritius •Morocco •Mozambique •Niger •Nigeria •Rwanda •Senegal •Somalia •South Africa •Tanzania •Togo •Tunisia •Uganda •Zaire •Zambia •Zimbabwe अफ़गानिस्तान · आर्मेनिया · अज़रबैजान · बहरीन · बांग्लादेश · भूटान · Brunei · Burma · कंबोडिया · People's Republic of China · साइप्रस · East Timor · मिस्र · जॉर्जिया · भारत · इंडोनेशिया · ईरान · इराक · इजराइल · जापान · जॉर्डन · कजाखिस्तान · उत्तर कोरिया · दक्षिण कोरिया · कुवैत · किर्गिस्तान · Laos · लेबनान · मलेशिया · मालदीव · मंगोलिया · नेपाल · ओमान · पाकिस्तान · Philippines · क़तर · रूस · सऊदी अरब · सिंगापुर · श्रीलंका · सीरिया · ताजिकिस्तान · थाईलैंड · तुर्की · तुर्कमेनिस्तान · संयुक्त अरब अमीरात · उज़्बेकिस्तान · वियतनाम · यमन Abkhazia · Nagorno-Karabakh · Northern Cyprus · Palestine · Republic of China · South Ossetia Christmas Island · Cocos Islands · हाँग काँग · मकाउ
रणजीतसिंहजी विभाजी जडेजा नवानगर के 10वें जाम साहब तथा प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी थे। उनके अन्य प्रसिद्ध नाम हैं- 'नवानगर के जाम साहब', 'कुमार रणजीतसिंहजी', 'रणजी' और 'स्मिथ'। उनका शासन 1907 से 1933 तक चला था। वे एक बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी और बल्लेबाज़ थे जिन्होंने भारतीय क्रिकेट के विकास में अहम भूमिका अदा की थी। वे अंग्रेज़ी क्रिकेट टीम के तरफ़ से खेलने वाले विख्यात क्रिकेट खिलाड़ी थे और इंग्लैंड क्रिकेट टीम के लिए टेस्ट मैच खेला करते थे। इसके अलावा, रणजी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के लिये प्रथम श्रेणी क्रिकेट और काउंटी क्रिकेट में ससेक्स का प्रतिनिधित्व किया करते थे। रणजीतसिंहजी टीम में मूलतः दाएं हाथ के बल्लेबाज की भूमिका निभाया करते थे, तथा वह धीमी गेंदबाजी में भी सिद्धहस्त थे। उनकी गिनाती सभी समय के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजों में होती है। नेविल कार्डस ने उन्हें 'द मिडसमर नाइट्स ड्रीम ऑफ़ क्रिकेट' भी कहा था। अपनी बल्लेबाजी से उन्होंने क्रिकेट को एक नयी शैली दी तथा इस खेल में क्रांति ला दी थी। उनकी मृत्यु के बाद उनके सम्मान में, बीसीसीआई ने 1934 में भारत के विभिन्न शहरों और क्षेत्रों के बीच खेली जा रही क्रिकेट सिरीज़ को 'रणजी ट्रॉफी' का नाम दिया। उनहोंने कई क्रिकेट अकादमियाँ भी खोली थी। रणजीतसिंहजी, 1931 से 1933 तक नरेंद्रमंडल के चांसलर भी रहे थे। उनके बाद, उनके भतीजे, दिग्विजयसिंहजी चांसलर बने। 10 या 11 वर्ष की उम्र में, वह क्रिकेट में रूचि रखते थे। 1883 में पहली बार स्कूल ने क्रिकेट में क्रिकेट खेला। 1884 में टीम के कप्तान को नामांकित किया गया था। वह 1888 तक कप्तान का प्रभारी था। हालांकि स्कूल में कई शताब्दियों थे, वे इंग्लैंड से मानक और अलग नहीं थे लेकिन उन्होंने गेम को गंभीरता से नहीं लिया और टेनिस पर ध्यान केंद्रित किया। जब वे इंग्लैंड गए, उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में अध्ययन किया। 1888 में सरे क्रिकेट क्लब के एक सदस्य के रूप में, दौरे टीम ने भाग लिया। चार्ल्स टर्नर एक के रूप में गेंदबाज जब वह एक शतक बनाया था और अनगिनत दर्शकों के लिए कदम। उन्होंने बाद में कहा कि वह दस साल में एक बेहतर पारी नहीं खेल रहे। 16 जुलाई 1896 को रणजीतसिंगजी की पहली टेस्ट मैच थी। पहली पारी में उन्होंने 62 रन बनाए लेकिन 181 रन की अंतराल में, इंग्लैंड टीम फिर से फॉलो-ऑन पर बल्लेबाजी कर रही है। दूसरे दिन के अंत में, वह 42 रन पर नाबाद रहे थे। अंतिम दिन, उन्होंने दोपहर के भोजन से पहले 113 रन बनाए। उन्होंने टीम का बचाव किया और जोन्स की खराब गेंदबाजी को नजरअंदाज कर दिया और ऑस्ट्रेलियाई टीम के दौरे के खिलाफ अपना पहला शतक बनाया। वह मैच में 154* पर नाबाद रहे। अंतिम दिन इंग्लैंड के अगले उच्चतम रन 19 थे। उन्होंने अपने पूरे करियर में 15 टेस्ट मैचों में भाग लिया। सभी टेस्ट ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेले जाते हैं उन्होंने 44.96 के औसत से 989 रन बनाए। 1896 में, खेल के उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण, उन्हें विस्डेन क्रिकेटर ऑफ द ईयर द्वारा वर्ष 1897 के लिए नामांकित किया गया था। उनके निधन के बाद, भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड ने 1934 में रणजी ट्रॉफी की शुरुआत की। पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह ने सभी को सम्मान में दिया और इस ट्रॉफी को मनाने और प्रतियोगिता का उद्घाटन किया। प्रतियोगिता 1934-35 सीजन में पहली बार शुरू हुई। आज, यह प्रतियोगिता विभिन्न शहरों और भारत के राज्यों के बीच प्रथम श्रेणी क्रिकेट प्रतियोगिता के रूप में मान्यता प्राप्त है। भगतपुत्र दिलीप सिंहजी ने इंग्लैंड में अपने कदमों का पालन ​​किया और प्रथम श्रेणी क्रिकेट और इंग्लैंड में खेले क्रिकेट के बाहर, उन्हें 1907 में नानागढ़ में महाराजा जाम साहिब का खिताब मिला। बाद में, भारतीय चैंबर ऑफ प्रिंसिपलों के कुलपति को नामांकित किया गया था। वह संयुक्त राष्ट्र समुदाय में भी भारत का प्रतिनिधित्व करता है।
फाब्री तथा पेरो व्यतिकरणमापी व्यतिकरणमापी में केवल दो व्यतिकारी किरणपुंजों का उपयोग किया गया है। 1893 ई. में बुलूच ने सर्वप्रथम बताया कि अनेक व्यतिकारी किरणपुंजों के उपयोग से अधिक सुग्राहिता प्राप्त की जा सकती है। इस सिद्धांत का विकास 1897 ई. में फाब्री तथा पेरो द्वारा किया गया। इनके उपकरण में दो समतल समांतर कांचपट्ट रहते हैं, जिनपरश् पतला रजतश् फिल्म रहता है। जब विस्तृत प्रकाशस्त्रोत से ये पट्ट प्रदीप्त किए जाते हैं, तब इन पट्टों केश् मध्य से व्यतिकरण के कारण फ्रंज बनते हैं। ये फ्रंज अनंत परवलय होते हैं और ये समान झुकाव के फ्रंज कहलाते है। ये फ्रंज हाइडिंगर फ्रंज के समान होते हैं, पर ये वह किरणपुंज के कारण तीव्र और चमकीले होते हैं। इन बहुकिरणपुंजों के फ्रंजों के अनेकानेक उपयोग हैं। धन डेसिमीटर जल की संहति इस व्यतिकरण से मापी गई है और यह संहति एक किलोग्राम से 27 मिलिग्राम कम है। गैसीय अपवर्तनांक ज्ञात करने के लिए, यह व्यतिकरणमापी मानक साधन है। 1943 ई. में टोलैसकी ने क्रिस्टल पृष्ठ की रूपरेखा ज्ञात करने में इस व्यतिकरणमापी का उपयोग किया। इससे इतनी परिशुद्धता थी कि क्रिस्टल जालक अंतराल को भी प्रकाशतरंगों द्वारा मापा जा सकता था। इस व्यतिकरणमापी से क्रिस्टल के आकृतिक लक्षण से लेकर आण्विक विमाएँ तक उद्घटित हो गई हैं। एकवर्णी तथा श्वेत दोनों प्रकार का प्रकाश इस व्यतिकरण में प्रयुक्त होता है।
विद्युत शक्ति वितरण के सन्दर्भ में बसबार किसी विद्युत चालक धातु से बनी छड़ या पट्टी को कहते हैं जिसका उपयोग उच्च धारा प्रवाहित करने के लिए किया जाता है। इनका उपयोग विद्युत स्विचयार्ड में उच्च वोल्टता वाले उपकरणों को जोड़ने के लिए किया जाता है। प्रायः बसबार के ऊपर कोई विद्युत विगलक नहीं लगाया जाता। इससे इनको ठण्डा होने में सुविधा होती है तथा इनके किसी स्थान से दूसरी बसबार या केबल जोड़ने में सुविधा होती है। केबल बसबार
गडिगांव-चौथान-4, थलीसैंण तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है।
1604 ग्रेगोरी कैलंडर का एक अधिवर्ष है।
डी॰ पुरंदेश्वरी आन्ध्र प्रदेश से भारतीय राजनीतिज्ञा है। वो 2009 में हुए आमचुनाव में आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम चुनाव क्षेत्र से 15वीं लोकसभा के लिए सदस्य निर्वाचित हुईं। इससे पहले वो बापतला लोक सभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती थीं। पुरंदेश्वरी 7 मार्च 2014 को कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुई। उन्होंने संसद में विभिन्न अहम बिलों पर चर्चाओं में भाग लिया, उदाहर्णार्थ: घरेलु हिंसा विधेयक, हिन्दू उत्तराधिकार बिल आदि। एशियन एज पत्रिका ने संसद में उनके प्रदर्शन की सराहना करते हुए उन्हें सन 2004-05 का सर्वश्रेष्ठ सांसद चुना। उन्होंने अपनी शिक्षा चेन्नई के प्रतिष्ठित विद्यालय सक्रेड हार्ट मैट्रिकुलेशन हाइयर सेकेंडरी स्कूल, चर्च पार्क से ग्रहण की। उन्होंने बीए की डिग्री साउथ इंडियन एड्जुकेश्नल ट्रस्ट एंड वुमेन कॉलेज, चेन्नई से हासिल की। उन्होंने रत्नशास्त्र का भी कोर्स किया है। बाद में वो हैदराबाद में जेम एंड ज्वेलरी इंस्टीट्यूट में स्थानान्तरित हो गयीं। वो पाँच भाषाएँ लिख व पढ़ सकती हैं। इनमे अंग्रेजी, तेलुगु, तमिल, हिन्दी और फ़्रांसिसी शामिल हैं। वो आन्ध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और तेलुगु देशम पार्टी के संस्थापक एन॰ टी॰ रमाराव की बेटी हैं। उन्होंने दग्गुबती वेंकटेश्वरा राव से विवाह किया है, जो केन्द्र सरकार में पूर्व मंत्री, पूर्व कैबिनेट सदस्य और आन्ध्र प्रदेश विधान सभा के वर्तमान विधायक है। वे प्रकाशम जिले की परचूर विधान सभा क्षेत्र से चुने गए। वह तेलुगु फिल्म अभिनेत्री नंदामुरी बालाकृष्णा और नंदामुरी हरिकृष्णा की बहन हैं।
यूरेका टावर एक गगनचुम्बी इमारत है।
बर्धमान-दुर्गापुर लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र भारत के पश्चिम बंगाल राज्य का एक लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र है।
ज्यामिति में, किसी बहुभुज के किसी भी शीर्ष पर दो कोण बनते हैं, एक कोण को आन्तरिक कोण और दूसरे को वाह्य कोण कहते हैं। सरल बहुभुज, चाहे वह उत्तल बहुभुज हो या नहीं, के जिस कोण के अन्दर स्थित कोई बिन्दु बहुभुज के अन्दर हो तो उस कोण को 'आन्तरिक कोण' कहते हैं। प्रत्येक बहुभुज के हरेक शीर्ष पर केवल एक ही आन्तरिक कोण होता है।
कंगला महल मणिपुर की राजधानी इम्फाल में स्थित एक पुराना महल है। यह इम्फाल नदी के दोनों किनारों पर विस्तृत है लेकिन अब इसके अधिकतर भाग के खंडहर ही बचे हैं। मणिपुरी भाषा में 'कंगला' का अर्थ 'सूखी भूमि' होता है और यह महल प्राचीनकाल में मणिपुर के मेइतेइ राजाओं का निवास हुआ करता था। मणिपुर के प्राचीन इतिहास-ग्रंथ 'चेइथारोल कुम्माबा' के अनुसार इस स्थान पर महल 33 ईसवी काल से खड़ा था हालांकि यहाँ समय के साथ-साथ नए निर्माण होते रहे।
पुरुषोत्तम लाल को सन 2003 में भारत सरकार द्वारा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ये उत्तर प्रदेश राज्य से हैं।
लकड़ापतल धरहरा, मुंगेर, बिहार स्थित एक गाँव है।
अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय, जिसे पहले बिलासपुर विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता था, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में स्थित एक नवगठित विश्वविद्यालय है। यह एक राज्य-विश्वविद्यालय है जिसकी स्थापना 03-02-2012 की गजट अधिसूचना, छत्तीसगढ़ अधिनियम क्रमांक 07, 2012 के अन्तर्गत हुई थी। वर्तमान में यहाँ के कुलपति प्रो॰ जी॰डी॰ शर्मा हैं।
खैर फ़िरोज़ में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है।
2359 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 2359 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 2359 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते हैं।
नेपाल के राप्ती प्रान्त का जिला।
टाटा इंडिका टाटा मोटर्स द्वारा निर्मित एक भारतीय हैचबैक कार है। यह मॉडल यूरोप एवं दक्षिण अफ्रीका भी निर्यात किया जाता है। इंग्लैंड में यह एम जी रोवर ग्रुप द्वारा सिटी रोवर नाम से निर्यात किया जाता रहा है। दिनाँक 30 दिसंबर 1998 को टाटा मोटर्स द्वारा प्रस्तुत यह किसी भारतीय कम्पनी द्वारा बनाई गई अत्याधुनिक कार थी। इसका प्रवर्तन नारा था:द बिग...स्मॉल कार एवं मोर कार पर कार इस विज्ञापन में बड़े अंतस्थ एवं वहन करने योग्य वाहन क्षमताओं पर जोर दिया गया था। एक सप्ताह के भीतर ही कम्पनी को 1,15,000 बुकिंग्स प्राप्त हुईं। और अगले दो वर्षों में यह इस खण्ड की सर्वश्रेष्ठ कार बन गई। टाटा मोटर्स द्वारा आंशिक रूप से रूपांकित एवं अभिकल्पित, यह पाँच द्वार सुसंहत हैचबैक कार 1.2 एवं 1.4 ली. पैट्रोल या डीज़ल दोनों में उपलब्ध है। यह एक भारत में ही विकसित इंजन है, जो कि टाटा ने पहले भी अपने कई वाहनों में अपार सफलतापूर्वक प्रयोग किया है। इसमें वातानुकूलन, पॉवर विंडो इत्यादि सुविधाएं पहली बार दी गईं थीं, जो कि अब तक केवल ऊँची कीमत वाली आयातित कारों में ही होतीं थीं। तीन वर्ष बाद 2003 में इंडिका यूरोपियन बाजारों में भी पहुँची। जैसा प्रायः लोगों की धारण थी, ये कार पूर्ण-रूपेण पूर्ण रूपेण गृह निर्मित नहीं थी। बाहरी पर्त इटैलियन डिजाइन संस्थान में टाटा मोटर्स से अनुबंध पर उनकी गृह रूपांकन टीम द्वारा अच्छे इन्टरैक्शन के उपरांत बनवाई जाती थी। हाँ इंजन अवश्य पूर्णतया स्वदेशी था। 2004 के आरंभ में टाटा मोटर्स ने दक्षिण अफ़्रीका के बाजार पर भी आंशिक कब्जा जमा लिया। ऐसा वहां टेल्कोलाइन 2x4 एवं 4x4 पिक-अप ट्रक के वहां के बाजार भाव से कहीं कम कीमत पर उतारने से हुआ था। 2004 के अंत तक टाटा ने वहां टाटा इंडिका एवं टाटा इंडिगो भी उतारी, जिसका लक्ष्य युवा चालक वर्ग था। 2005 के मध्य तक टाटा मोटर्स की रिपोर्ट्स के अनुसार वे द.अफ़्रीका के सबसे प्रगतिशील वाहन ब्रांड थे। इंडिका विस्ता का अनावरण 9वें ऑटो-एक्स्पो, नई दिल्ली में किया गया था। ये पुरानी इंडिका का पुनर्निर्माण नहीं है, बल्कि पूर्णतया नये प्लैटफॉर्म पर बनी एकदम नयी कार है, जिसमें इंडिका जैसा कुछ भी नहीम है। ये पिछली इंडिका ने बड़ी है और 3,795 मि॰मी॰ लंबी तथा 2,470 मि॰मी॰ चक्र-व्यास सहित है। इंडिका विस्ता में दो नये इंजन हैं: 1.3 ली. क्वांड्राजेट कॉमन रेल डायरेक्ट इन्जेक्शन डीज़ल इंजन एवं 1.2 ली. सैफ़ायर एमपीएफ़आई वीवीटी पेट्रोल इंजन है। ये 1.4 ली. टर्बो डीज़ल इंजन में भी उपलब्ध है। क्वांड्राजेट इयैट जेटीडी इंजन का उत्पादन राजनंदगांव में टाटा-फियेट ज्वाइंट-वेंचर द्वारा होता है। इंडिका विस्ता, इंडिका वी3 के नाम से अगस्त 2008 में आरंभ हुई थी। The Indica Vista, rumoured as the Indica V3 till then, was launched in August 2008इंडिका की दूसरी पीढ़ी में कंपनी ने इसके नाम को भी बदल दिया और नई कार का नाम इंडिका विस्ता रखा है। इंडिका ज़ीटा से अलग-थलग दिखने के लिए ही इसे नया नाम दिया गया है। टाटा मोटर्स के अनुसार इंडिका विस्ता आने के बाद भी इंडिका का उत्पादन बंद नहीं किया जाएगा और दोनों कारों की बिक्री जारी रखी जाएगी। यह अवश्य है कि इंडिका विस्ता पर अब कंपनी ज्यादा जोर देगी, ताकि मारुति सुजुकी की स्विफ्ट और हुंडई की गेट्ज तथा आई-10 की टक्कर में इसे खड़ा किया जा सके। नई इंडिका विस्ता पुरानी इंडिका की तुलना में कुछ बड़े आकार की है व इसमें फिएट कंपनी से मिला इंजन लगाया गया है। इस इंजन के पेट्रोल से चलने वाले संस्करण को सैफायर कहा जा रहा है। इसमें डीजल से चलने वाला क्वाड्राजेट इंजन और टाटा का जाना पहचाना टर्बो डीजल इंजन भी लगाये जाने की संभावना है। इस कार को टाटा-फिएट के रंजनगांव संयंत्र में बनाई जाएगी। इस पर 4020 करोड़ रुपये का निवेश किया जा रहा है।
यह् एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र है। यह दैनिक समाचार पत्र सिडनी, आस्ट्रेलिया से प्रकाशित होता है। मियामी हेराल्ड · वाशिंटन पोस्ट · लॉस एंजिल्स टाइम्स · शिकागो ट्रिब्यून · बोस्टन ग्लोब · क्रिश्चियन साइंस मानीटर · डेली न्यूज़ · वाल स्ट्रीट जर्नल · न्यूयार्क टाइम्स · न्यूयार्क पोस्ट · यू0एस0ए0 टुडे · फिलाडेल्फिया इन्क्यारर · टोरंटो सन · टोरंटो स्टार · ग्लोब एंड मेल · बैंकूवर सन · डेली टेलीग्राफ मिरर · सन · हेराल्ड सन · न्यूजीलैण्ड हेराल्ड · स्टार · ओपिनियन · डेली मेल · डेली मिरर · डेली टेलीग्राफ · गार्डियन · इंडीपेंडेंट · द टाइम्स · डेली स्टार · टुडे · फाइनेंशियल टाइम्स · ग्लास्को हेराल्ड · ला रिपब्लिका · ला गाजेटा डेलो स्पोर्टस · ला मांद · ली फिगारो · क्वेस्ट फ्रांस · बिल्ड · बर्लिन जेतुंग · डी टेलीग्राफ · अल पायस · एक्सप्रेसेन · साबाह · प्रावदा · इजवेस्तिया · ट्रुद् · ड्यूमा · प्रेस · रोमानिया लिबेरिया · आफेनपोस्टेन · इंटरनेशन हेराल्ड ट्रिब्यून · अल अहरम · डान · पीपुल्स डेली · मर्डेका · साउथ चायना मार्निग पोस्ट · एशियन वाल स्ट्रीट जर्नल · मैनेची सिम्बुम · द राइजिंग नेपाल · मनीला टाइम्स · पालीटिका · सुदे मरदान · डेली एक्सप्रेस · द आइलैंड · खलीफा टाइम्स · मशरीक · डेली जंग · बांग्लादेश आब्जर्वर · कोरिया हेराल्ड · चायना टाइम्स · अलशाब · ईस्टन सन · न्हान डान · रयुड प्रेवो · द टाईम्स ऑफ़ इंडिया · हिन्दुस्तान टाईम्स · दि इंडियन एक्सप्रेस · दैनिक भास्कर · अमर उजाला · दैनिक जागरण
घेरा एक पुस्तक है जिसके लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक ओमकार चौधरी है। ओमकार चौधरी वर्तमान में हरिभूमि नामक समाचार पत्र पर सम्पादक है। यह पुस्तक ) सन 2001 में प्रकाशित हुई थी।
कोई भी ऐसी युक्ति जो त्वरण मापने के काम आती है, त्वरणमापी कहलाती है। प्रायः ये विद्युतयांत्रिक युक्तियाँ होती हैं जो त्वरण के संगत उपयुक्त वैद्युत संकेत प्रदान करती हैं।
2489 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 2489 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 2489 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
दो रास्ते 1969 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है।
रेहाना खातुन को साहि‍त्‍य एवं शि‍क्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए 2014 में भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया। वे दि‍ल्‍ली राज्य से हैं।
संरक्षित जैवमंडल या बायोस्फेयर रिज़र्व, यूनेस्को द्वारा अपने कार्यक्रम मैन एंड द बाओस्फेयर के अंतर्गत दिया जाने वाला एक अंतरराष्ट्रीय संरक्षण उपनाम है। संरक्षित जैवमंडलों का विश्व नेटवर्क, विश्व के 107 देशों के सभी 533 संरक्षित जैवमंडलों का एक संग्रह है ।संरक्षित जैवमंडल के रूप में मान्यता प्राप्त स्थल, किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते का विषय नहीं है बस इनके लिए एक समान मानदंडों का पालन करना होता है। यह उस देश के संप्रभु अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं जहाँ पर यह स्थित हैं, हालांकि, यह विचारों और अनुभवों को क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संरक्षित जैवमंडलों का विश्व नेटवर्क के अंतर्गत साझा करते हैं। संरक्षित जैवमंडलों का विश्व नेटवर्क के वैधानिक ढाँचे के अनुसार जैवमंडलों का निर्माण उद्देश्य “मानव और जैवमंडल के बीच एक संतुलित संबंध का प्रदर्शन करना और इसे बढ़ावा देना है”। अनुच्छेद 4 के अंतर्गत, किसी भी संरक्षित जैवमंडल के अंतर्गत सभी उपस्थित पारिस्थितिक तंत्रों का समावेश होना चाहिए यानि इसे तटीय, पार्थिव या समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों के संयोजन से मिलकर बना होना चाहिए। उपयुक्त अंचलों के निर्माण और प्रबंधन के माध्यम से, इन पारिस्थितिक तंत्रों के संरक्षण और उनमें जैव विविधता को बनाए रखा जा सकता है। संरक्षित जैवमंडल का डिजाइन के अनुसार किसी भी जैवमंडल को तीन क्षेत्रों मे विभाजित होना चाहिए जिनमे पहला है एक कानूनी रूप से सुरक्षित प्रमुख क्षेत्र, दूसरा एक बफर क्षेत्र जहां गैर संरक्षण गतिविधियाँ निषिद्ध हों और तीसरा एक संक्रमण क्षेत्र जहां स्वीकृत प्रथाओं की सीमित अनुमति दी गयी हो। यह स्थानीय समुदायों के लाभों को ध्यान मे रख कर किया जाता है ताकि यह समुदाय प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग स्थाई रूप से कर सकें। इस प्रयास के लिए प्रासंगिक अनुसंधान, निगरानी, शिक्षा और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उपरोक्त सुझाई सभी बातों पर अमल कर जैव विविधता समझौते की कार्यसूची 21 को लागू किया जाता है।
पोखरी-म0ब0-2, सतपुली तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है।
फ़लक शब्बीर एक प्रसिद्ध पाकिस्तानी गायक हैं, जिन्हें यह प्रसिद्धि अपने पहले ही गाने "रोग" से प्राप्त हुई। भारत में फलक की प्रसिद्धि आगामी हिन्दी फिल्म नौटंकी साला में गाये उनके गाने "मेरा मन" की वजह से है। फलक का जन्म 27 दिसम्बर 1985 को कराची में हुआ था, किन्तु उनके पिता के व्यवसाय के कारण उनका परिवार लाहौर आ गया था।
सुजाता एक प्रदत्त नाम है। इस नाम वाले लोग:
जब समुदाय के अनेक व्यक्ति एक साथ एक ही तरह के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो वह एक सामूहिक घटना होती है जिसे ‘जनरीति’ कहते हैं। यह ‘जनरीति’ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है इस प्रकार हस्तान्तरित होने के दौरान इसे समूह की अधिकाधिक अभिमति प्राप्त होती जाती है, क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी का सफल अनुभव इसे और भी दृढ़ बना देता है, यही 'प्रथा' है। कभी-कभी मानव इन प्रथाओं का पालन कानूनों के समान करता है। क्योंकि उसे समाज का भय होता है, उसे भय होता है लोकनिन्दा का और उसे भय होता है सामाजिक बहिष्कार का। जैसाकि उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट ही है कि समाज से मान्यता प्राप्त, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होने वाली सुव्यवस्थित, दृढ़ जनरीतियां ही ‘प्रथाएं’ कहलाती हैं। प्रथा वास्तव में सामाजिक क्रिया करने की, स्थापित व मान्य विधि है। लोग इसे इसलिए मानते हैं कि समाज के अधिकतर लोग उसी विधि के अनुसार बहुत दिनों से कार्य या व्यवहार करते आ रहे हैं। इस प्रकार ‘प्रथा’, ‘जनरीति’ का ही एक प्रौढ़ रूप है, जिसके साथ सामाजिक अभिमति या स्वीकृति जुड़ी हुई होती है। ‘प्रथा’ का सम्बन्ध एक लम्बे समय से प्रयोग में लाई जाने वाली लोक-रीतियों से होता है। दूसरे शब्दों में, इसके अन्तर्गत वे क्रियाएँ आती हैं, जिन्हें पीढ़ियों से स्वीकार किया जाता रहा है। इन्हीं प्रथाओ के कारण हम नवीन क्रियाओं को करने में कुछ हिचकिचाहट का अनुभ्व करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार प्रथाओं से प्रभावित होता है। मैकाइवरऔर पेजके अनुसार, प्रो॰ बोगार्डस ने प्रथाओं और परम्पराओं को एक ही मानते हुए उनकी परिभाषा देते हुए कहा है, सेपीरने भी लिखा है, परन्तु प्रो॰ बोगार्डसकी उपरोक्त परिभाषा से यह न समझ लेना चाहिए कि प्रथा और परम्परा एक ही हैं। वास्तव में इनमें पर्याप्त भिन्नता है। इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए रॉस ने लिखा है कि, है।’’ प्रथा की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए इसकी विशेषताओं को जानना आवश्यक है- ‘प्रथा’ का आधार समाज है, पर इसे जानबूझकर नहीं बनाया जाता, अपितु सामाजिक अन्तःक्रिया के दौरान इसका विकास होता है। ‘प्रथा’ वह जनरीति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है। इसका पालन केवल इसलिए किया जाता है कि एक लम्बे समय से अनेक व्यक्ति इसका पालन करते आ रहे हैं। ‘प्रथा’ व्यवहार की वे रीतियाँ हैं जो अनेक पीढ़ियों से चलती आती हैं और इस प्रकार समूह में स्थायित्व प्राप्त कर लेती हैं। इसके पीछे समूह या समाज की अधिकाधिक अभिमति होती है। वास्तव में अनेक पीढ़ियों का सफल अनुभव ही इसे दृढ़ बनाता है। ‘प्रथा’ रूढ़िवादी होती है, इस कारण इसे सरलता से बदला नहीं जा सकता और परिवर्तन की गति बहुत ही धीमी होती है। ‘प्रथा’ को बनाने, चलाने तथा इसे तोड़ने वालों को दण्ड देने के लिए कोई संगठन या शक्ति नहीं होती। समाज ही इसे जन्म देता और लागू करता है। मानव के हर प्र्रकार के व्यवहार को नियन्त्रित करने की क्षमता, प्रथाओं में बहुत बड़ी मात्रा में होती है। मानव के जीवन में, बचपन से लेकर मृत्युकाल तक, इनका प्रभाव पड़ता रहता है। प्रथा की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए जिन्सबर्ग ने ‘प्रथा’ और ‘आदत’ में अन्तर करना आवश्यक समझा है। आपने लिखा है कि, जिन्सबर्गके अनुसार ‘प्रथा की प्रकृति को भलीभांति समझने के लिए ‘प्रथा’ का ‘फैशन’ से भी अन्तर समझ लेना होगा। कभी-कभी यह कहा जाता है कि फैशन क्रिया की तात्कालिक समानता है; अर्थात् इसके प्रभाव से प्रत्येक व्यक्ति वही करता है जो हर दूसरा आदमी कर रहा है; और इस तरह यह अनुकरण पर आधारित होता है। पर ‘प्रथा’ तो क्रिया की क्रमिक समानता है। दूसरे शब्दों में, प्रथा के अनुसार काम करते हुए प्रत्येक व्यक्ति वही करता है जो सदैव से किया जाता रहा है और इस तरह प्रथा अनिवार्य रूप से आदत पर आधारित होती है। लेकिन दोनों में इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण अन्तर भी है। सर्वप्रथम- प्रथा, समाज की सदा बनी रहने वाली मौलिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित मालूम पड़ती है; जबकि फैशन का प्रभाव जीवन के कम मार्मिक और कम सामान्य क्षेत्रों में दिखाई देता है। फैशन अनिवार्य रूप से गतिशील और परिवर्तनशील होता है। वास्तव में फैशन बार-बार होने वाले परिवर्तनों का एक सिलसिला होता है और प्रायः अनुकरण और नवीनता इसकी विशेषता होती है। इसके विपरीत, प्रथा अनिवार्य रूप से सुस्थिर और बगैर टूटे चलने वाली होती है। और उसमें परिवर्तन सदैव धीमे-धीमे ही होता है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ फैशन ऐसे भी होते हैं जो बदलते नहीं हैं, लेकिन ऐसा होने पर वास्तव में वे फैशन नहीं रहते, बल्कि प्रथा बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में, उनको अतीत और वर्तमान दोनों का ही सम्मान प्राप्त होता है। दूसरी बात यह है कि प्रथा और फैशन में प्रेरक तत्व पृथक-पृथक होते हैं।... प्रथा का अनुसरण इसलिए होता है कि भूतकाल में प्रायः इसका अनुसरण हुआ है, जबकि फैशन का इसलिए कि वर्तमान में उसका अनुसरण हो रहा है। इसके अतिरिक्त, फैशन एक तरह से नवीनता का द्योतक होता है और इसका अनिवार्य आधार अपने को दूसरे से पृथक करने की उत्कट इच्छा में पाया जाता है। इसके विपरीत, प्रथा का जोर बहुत‘ कुछ इस तथ्य पर आधारित होता है कि इसके द्वारा समाज नवीनता के खतरों से अपना बचाव कर सकता है। अर्थात् प्रथा का आधार अपने को दूसरों के अतीत के और पुरातन के समान कर लेने की इच्छा होती है। साधारणतया प्रथाओं और जनरीतियों को एक ही माना जाता है। परन्तु वास्तव में ये दोनों ही भिन्न-भिन्न विचार हैं। प्रथाएँ वास्तव में जनरीतियाँ न होकर उनका ही विकसित रूप हैं। समूह का कोई भी व्यवहार तब तक प्रथा का रूप धारण नहीं कर सकता, जब तक कि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त न हो। इस रूप में जनरीतियों को सामूहिक व्यवहार का प्रथम पग कहा जा सकता है और प्रथाओं को दू सरा पग। इसके अतिरिक्त प्रथाएँ जनरीतियों की तुलना में अधिक स्थायी और शक्तिशाली भी होती हैं। इतना ही नहीं, सामाजिक नियन्त्रण के एक साधन के रूप में, प्रथाओं का महत्व जनरीतियों से कहीं अधिक बढ़कर हैं। प्रथा की उत्पत्ति एकाएक या एक दिन में नहीं होती। किसी भी प्रथा का विकास धीरे-धीरे और काफी समय में होता है। दैनिक जीवन में मनुष्य के सामने अनेक नवीन आवश्यकताएँ आती रहती हैं। इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो समूह के अधिकतर लोगों से सम्बन्धित होती हैं। इसलिए इस प्रकार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों को दूँढ़ निकालने का प्रयत्न किया जाता है। यह साधन सर्वप्रथम एक विचार या अवधारणा के रूप में एक व्यक्ति के दिमाग में आता है। व्यक्ति अपने इस विचार के अनुसार कार्य करता है और यह जानने की कोशिश करता है कि उस तरीके से उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है या नहीं। यदि वह अपने इस प्रयास में सफल होता है तो भविष्य में भी वैसी ही आवश्यकता आ पड़ने पर उसे वह बार-बार दोहराता है। बार-बार दोहराने से वह उसकी व्यक्तिगत आदत बन जाती है। जब दूसरे लोग प्रथम व्यक्ति के सफल व्यवहार या क्रिया की विधि को देखते हैं; तो वे भी उस विधि को अपना लेते हैं। जब व्यवहार की वह विधि समाज में फैल जाती है तो उसे जनरीति कहते हैं। जब जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है तो उसे प्रथा कहते हैं। इस प्रकार एक विचार से व्यक्तिगत आदत, व्यक्तिगत आदत से जनरीति और जनरीति से प्रथा की उत्पत्ति या विकास होता है। इस प्रकार प्रथा की उत्पत्ति में अतीत और वर्तमान दोनों का ही योगदान रहता है। वुण्ट ने लिखा है, यह कथन श्री जिन्सबर्ग के अनुसार इस अर्थ में सही है कि रिवाज एक सम्मिलित सृष्टि और हजारों अन्तःक्रियाओं की उपज होता है। लेकिन इससे यह न समझना चाहिए कि प्रथा के पीछे किसी महामस्तिष्क या समाज की सामान्य आत्मा का अस्तित्व होता है। अन्तिम रूप में किसी व्यक्तिगत आदत के साथ अन्य व्यक्तिगत आदतों के मिलने से ही प्रथा का जन्म होता है। उनमें से प्रत्येक की आदत का दूसरे से प्रभावित होते रहने और दूसरे को प्रभावित करते रहने का ही फल है कि अन्त में एक संयुक्त उपज के रूप में उसका स्वरूप स्थिर हो जाता है। इसी को हम प्रथा कहते हैं। जैसाकि हॉबहाउस ने लिखा है- सामाजिक जीवन में प्रथा के महत्व को किसी भी रूप में अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में आदिकालीन अथवा सरल समाजों में इनका महत्व राजकीय कानून से भी अधिक होता है। इसका एक विशेष कारण है और वह यह है कि सरल समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रूढ़िवादी होता है, साथ ही धर्म द्वारा अत्यधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, चूँकि प्रथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है, अतः इनका उल्लंघन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। निम्नलिख्ति विवेचना से प्रथा का यह महत्व और भी स्पष्ट हो जाएगा। में असफल रहें और इसीलिए उनके द्वारा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति न हो। ऐसी प्रथाएँ बहुधा समाज की प्रगति में बाधक भी हो जाती हैं। परन्तु कुछ अनुपयोगी प्रथाओं का चलन देखकर हमें इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि प्रथाएँ अर्थहीन व निरर्थक होती हैं। प्रथाओं का सामाजिक नियंत्रण में अत्यधिक महत्व है। प्रथाएँ व्यक्ति के व्यवहारों को काफी सीमा तक नियन्त्रित करती हैं। यद्यपि इनके पीछे ऐसी कोई कानूनी शक्ति नहीं होती जिसके द्वारा व्यक्तियों पर उनके मनवाने के लिए दबाव डाला जा सके, फिर भी मनुष्य सामाजिक निन्दा के भय से प्रथाओं का उल्लंघन नहीं कर पाता। प्रथाएँ चूँकि पिछली पीढ़ियों का सफल अनुभव होती हैं, अतः व्यक्ति इन्हें जल्दी ही मान लेता है क्योंकि नए व्यवहारों को करने में उसे हिचकिचाहट तथा भय की अनुभूति भी होती है। प्रथाओं का प्रभाव आदिम और सरल समाजों में तो कानूनों से भी अधिक होता है। इसका एक विशेष कारण यह है कि इस प्रकार के समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रूढ़िवादी होता है, साथ ही धर्म द्वारा अधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, चूँकि प्रथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती हैं, अतः इनका उल्लंघन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। प्रथाओं के इसी व्यापक प्रभाव को दे खते हुए शेक्सपीयर ने प्रथाओं को ‘क्रूर प्रथा’, मॉन्टेन ने ‘गुस्सेबाज व दगाबाज स्कूल-मास्टरनी’, बेकन ने ‘मनुष्य के जीवन का प्रधान न्यायाधीश’ और लॉक ने ‘प्रकृति से भी बड़ी शक्ति’ कहा है। जिन्सबर्ग ने प्रथाओं की सामाजिक नियन्त्रण में भूमिका के वर्णन की व्याख्या करते हुए लिखा है, इसीलिए तो प्रथाओं को सामाजिक अभिमति प्राप्त होती है और इसके बल पर ही ये व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित व संचालित करती हैं और इस प्रकार सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होती हैं। प्राचीन समाज छोटा और सरल होता था और प्रत्येक व्यक्ति एक-दू सरे को बहुत-कुछ व्यक्तिगत रूप से जानता-पहचानता था। साथ ही, सामाजिक जीवन में न तो परिवर्तन शीघ्रता से होता था और न ही सामाजिक समस्याएँ गम्भीर थीं। इसलिए प्रथाओं के द्वारा ही सामाजिक नियन्त्रण का कार्य सरलता से हो जाता था। परन्तु आधुनिक समाज में प्रथाएँ बिलकुल अपर्याप्त हैं और केवल इनके द्वारा सामाजिक नियन्त्रण आज असम्भव है। इसके चार प्रमुख कारण हैं- इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आधुनिक समाज के लिए प्रथाएँ अपर्याप्त हैं और इनके द्वारा सामाजिक नियन्त्रण का सम्पूर्ण कार्य कदापि नहीं किया जा सकता है; यही कारण है कि आज प्रथाओं का महत्व दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है और कानून का महत्व बढ़ रहा है।
टाइम्स नाऊ एक 24 घंटे का अंग्रेजी समाचार चैनल है जो मुंबई में आधारित है और भारत, सिंगापुर और संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रसारित होता है। अरनब गोस्वामि टाइम्स नाऊ के मुख्य संपादक हैं और सुनील लुल्ला वर्तमान सी॰ई॰ओ॰ हैं। यह मोबाइल स्क्रीन पर शुरू होने वाला भारत की पहली समाचार चैनल था। मारूफ रजा चैनल के सह सामरिक मामलों के विशेषज्ञ व सलाहकार हैं। उन्होंने समाचार बहसों के संचालन के अतिरिक्त 'लाइन ऑफ़ ड्यूटी' शीर्षक से भारतीय सशस्त्र बलों पर एक 20 भागों की शृंखला को प्रस्तुत किया है। इस शृंखला से एक प्रकरण सियाचिन ग्लेशियर पर 2005 में रोम में फिल्म समारोह में सैन्य वृत्तचित्र खंड में एक पुरस्कार जीता। इस टीवी शृंखला को भारत के पहले सैन्य रियलिटी शो के रूप में "रिकार्ड लिम्का बुक" में प्रवेश मिला है।
निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 अकबरपुर मजरा कुसुमखोर अंश कन्नौज, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है।
नावागाँव रायगढ मण्डल में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिले का एक गाँव है।
भारतीय ओलम्पिक संघ भारत की राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति है। संघ का कार्य ओलंपिक खेलों, एशियाई खेलों व अन्य अंतरराष्ट्रीय बहु-खेल प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले एथलीटों का चयन करना और भारतीय दल का प्रबंधन करना है। यह भारतीय राष्ट्रमंडल खेल संघ कि तरह भी कार्य करता है, तथा राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले एथलीटों का भी चयन करता है।
केहरि सिंह मधुकर डोगरी भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कविता–संग्रह मैं मेले रा जानू के लिये उन्हें सन् 1977 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
एयर फोर्स वन संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति की सवारी ले जानेवाले किसी अमेरिकी एयर फोर्स विमान के आधिकारिक वायु यातायात नियंत्रण कॉल का चिह्न है। 1990 के बाद से राष्ट्रपति के बेड़े में दो विशेष रूप से बनाये गये उच्च अनुकूलित बोइंग 747-200B सिरीज के विमान हैं, जिनके सीरियल नंबर "28,000" और "29,000" हैं और जिनपर वायु सेना का पदनाम "VC-25A" लिखा होता है। हालांकि इन विमानों पर कॉल साइन "एयर फोर्स वन" तभी लिखा होता है, जब राष्ट्रपति उस पर सवार होते हैं, यह शब्द उन दो में से किसी एक विमान के लिए बोलचाल में प्रयुक्त होता है, जिनका आम तौर पर उपयोग और रखरखाव अमेरिकी वायुसेना द्वारा केवल राष्ट्रपति के लिए होता है, साथ ही राष्ट्रपति द्वारा उपयोग किये जाने वाले किसी अतिरिक्त विमान के लिए भी ऐसा होता है। एयर फोर्स वन अमेरिकी राष्ट्रपति पद और उनकी सत्ता का एक प्रमुख प्रतीक है। यह विमान सबसे प्रसिद्ध और दुनिया में सबसे ज्यादा जिन विमानों की तस्वीर खींची गई है, उनमें से एक हैं। 11 अक्टूबर 1910 को, थिओडोर रूजवेल्ट एक विमान में उड़ने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बने, हालांकि किनलोच के फील्ड से राइट फ्लेयर के शुरुआती समय में उड़ान भरने के दौरान वे पद पर आसीन नहीं थे और उनकी जगह ]]]] द्वितीय विश्व युद्ध के पहले, विदेश और देश में राष्ट्रपति की यात्रा दुर्लभ थी। बेतार दूरसंचार के अभाव और त्वरित परिवहन ने लंबी दूरी की यात्रा को अव्यावहारिक बना दिया, क्योंकि इसमें बहुत समय लगता था और राष्ट्रपति वाशिंगटन डीसी में होने वाली घटनाओं में हिस्सा लेने से वंचित रह जाते थे। 1930 के दशक के आखिर से डगलस DC-3 विमान के आगमन के साथ ही अधिकतर अमेरिकी आबादी ने हवाई यात्रा को सार्वजनिक परिवहन के उपयुक्त साधन के रूप में देखा. पूरी तरह धातु से बने विमान और अधिक विश्वसनीय इंजनों और जहाजी विद्या में नये रेडियो की मदद से सुरक्षित व्यावसायिक विमान यात्रा और अधिक सुरक्षित और सुविधाजनक हो गई। जीवन बीमा कंपनियों ने भी एयरलाइन के पायलटों को बीमा पॉलिसियों की पेशकश शुरू की, हालांकि दरें असाधारण थीं और कई वाणिज्यिक यात्री और सरकारी अधिकारियों ने रेल यात्रा से ज्यादा प्राथमिकता विमान सेवाओं, खासकर लंबी यात्राओं के लिए, को देना शुरू किया। फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट, पद पर रहते हुए विमान में उड़ान भरने वाले पहले राष्ट्रपति थे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, रूजवेल्ट ने एक पैन एम-चालक दल वाले बोइंग-314 वायु यान, डिक्सी क्लिपर, से मोरक्को में 1943 कैसाब्लांका सम्मेलन में गये। इस उड़ान ने तीन चरणों में 5,500 मील की यात्रा की. अटलांटिक के युद्ध के दौरान जर्मन पनडुब्बियों के खतरे को देखते हुए अटलांटिक से होकर हवाई यात्रा परिवहन का पसंदीदा तरीका बन गया। व्यावसायिक विमान सेवाओं पर भरोसा करने से चिंतित USAAF नेताओं ने मुख्य कमांडर की खास जरूरतों को समायोजित करने के लिए एक सैन्य विमान के रूपांतरण के आदेश दिये. राष्ट्रपति के इस्तेमाल के लिए प्रस्तावित पहला समर्पित विमानC-87A VIP परिवहन विमान था। यह विमान राष्ट्रपति के वीआईपी परिवहन के रूप में इस्तेमाल के लिए 1943 में पुन: संशोधित किया गया था।गेस व्हेयर-II का मकसद राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट के अंतरराष्ट्रीय दौरे के लिए उपयोग करना था। अगर यह स्वीकार किया गया होता तो राष्ट्रपति की सेवा में लगाया जाने वाला यह पहला विमान होता, अर्थात् व्यावहारिक रूप से पहला एयर फोर्स वन बन जाता. हालांकि C-87 के सेवाकाल के काफी विवादास्पद सुरक्षा रिकार्ड की समीक्षा के बाद सिक्रेट सर्विस ने राष्ट्रपति की सवारी के लिए गेस व्हेयर-टू का अनुमोदन करने से सीधे-सीधे इनकार कर दिया. इस विमान का तब रूजवेल्ट प्रशासन के वरिष्ठ सदस्यों के परिवहन के लिए उपयोग किया गया। मार्च 1944 में, गेस ह्वेयर-II ने कई लैटिन अमेरिकी देशों की सद्भावना यात्रा परइलिनोर रूजवेल्टको ले गया। C-87 को 1945 में रद्द करदया गया। सीक्रेट सर्विस ने बाद में राष्ट्रपति के परिवहन के लिए डग्लस C-54 स्काई मास्टर को पुन: संरुपित बनाया. इस VC-54C विमान को स्केयर्ड काउ उपनाम दिया गया, जिसमें एक सोने का क्षेत्र, रेडियो टेलीफोन और खोलने-बंद करने की सुविधा वाला लिफ्ट शामिल था, जिसपर रूजवेल्ट को उनके व्हीलचेयर पर उठाया जा सके. संशोधन के बाद राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने फरवरी 1945 में याल्टा सम्मेलन के लिए केवल एक बार ही VC-54C का उपयोग किया था। 1945 के वसंत में रूजवेल्ट के निधन के बाद उप-राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन राष्ट्रपति बने. कानून के जरिये अमेरिकी वायु सेना, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1947 बना और ट्रूमैन ने VC-54C पर सवार होने के दौरान ही हस्ताक्षर किए. 1947 में VC-54C की जगह उनके लिए C-118 लिफ्टमास्टर लाया गया, जिसे इंडिपेंडेंस कहा गया। एयर फोर्स वन के रूप में काम करने वाला यह पहला विमान था, जिसका बाहरी स्वरूप विशिष्ट, नाक वाले हिस्से पर एक गंजे चील की सिराकृति को अंकित किया गया था। ड्वाइट डी. ऐसेनहोवर के प्रशासन दौरान सुरक्षा उद्देश्यों के लिए राष्ट्रपति के कॉल चिह्न को स्थापित किया गया। 1953 की एक घटना के बाद तब बदलाव हुआ, जब पूर्वी एयरलाइंस की वाणिज्यिक उड़ान में भी राष्ट्रपति के विमान की ही तरह कॉल चिह्न था। यह विमान दुर्घटनावश उसी हवाई क्षेत्र में प्रवेश कर गया और इस घटना के बाद राष्ट्रपति के विमानों पर अनोखा "एयर फोर्स वन" चिह्न शुरू किया गया। ऐसेनहोवर ने भी राष्ट्रपति की सेवा में चार अन्य प्रोपेलर विमान लॉकहीड C-121 कॉन्सटिलेषण की सेवा शुरू की. मामी ऐसेनहोवर ने अपनाये गये गृह राज्य कोलोराडो के राजकीय फूल कॉलंबिन के नाम पर इन विमानों को कॉलंबिन द्वितीय और कॉलंबिन तृतीय नाम दिये. इस बेड़े में दो एरो कमांडर भी शामिल किये गये और इसने एयर फोर्स वन के रूप में सेवा करने वाले अब तक के सबसे छोटे विमान होने का गौरव अर्जित किया। राष्ट्रपति ऐसेनहोवर ने हवा से जमीन पर टेलीफोन और एक हवा से जमीन पर टेली टाइप मशीन की सुविधा जोड़कर एयर फोर्स वन की प्रौद्योगिकी का उन्नयन किया। 1958 में ऐसेनहोवर के कार्यकाल के अंत में वायु सेना ने तीन बोइंग 707 जेट बेड़े में शामिल किये. ऐसेनहोवर 1959 में 3 दिसम्बर से 22 दिसम्बर के बीच सद्भावना दौरे "फ्लाइट टू पीस" के दौरान VC-137 का उपयोग करने वाले पहले राष्ट्रपति बन गये। उन्होंने 19 दिनों तक उड़ान भरते हुए 11 एशियाई देशों का दौरा किया,22,000 मील जिसकी गति कॉलंबिन से दुगनी थी। अक्टूबर 1962 में, जॉन एफ कैनेडी प्रशासन ने एक C-137 स्ट्राटोलाइनर, जो लंबी दूरी के 707 स्पेशल एयर मिशन 26,000 का संशोधित रूप था, खरीदा. हालांकि उन्होंने कनाडा, फ्रांस, ऑस्ट्रिया और ब्रिटेन के दौरे के लिए उन ऐसेनहोवर युग के जेट विमानों का ही इस्तेमाल किया। वायु सेना ने अपनी एक अलग डिजाइन के साथ राष्ट्रपति के लिएएक खास डिजाइन: जिसमें लाल और मेटेलिक गोल्ड और बड़े अक्षरों में राष्ट्र का नाम लिखने की योजना बनाने की कोशिश की थी। कैनेडी ने महसूस किया कि विमान कुछ ज्यादा ही शाही अंदाज वाला लगता है और अपनी पत्नी प्रथम महिला जैकलिन कैनेडीकी सलाह पर उन्होंने फ्रांस में जन्मे अमेरिकी औद्योगिक डिजाइनररेमंड लोएवी से VC-137 जेट के बाहरी रूप व अंदरूनी हिस्से की डिजाइन करने में मदद के लिए संपर्क किया। लोएवी ने राष्ट्रपति से मुलाकात की और उनकी परियोजना का शुरुआती अनुसंधान उन्हें राष्ट्रीय अभिलेखागार में ले गया, जहां उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका की आजादी की घोषणा की पहली मुद्रित प्रति देखी और देखा कि देश के नाम के अक्षरों के बीच में काफी जगह है और उसके कैपिटल अक्षर कैसलोन टाइप फेस में हैं। उन्होंने विमान के पॉलिश किये हुए एल्यूमीनियम धड़ को नीचे के हिस्से में दिखाना पसंद किया और दो तरह के नीले रंग पसंद किये; जिनमें एक था स्लेटी नीला, जो गणतंत्र और राष्ट्रपति पद के शुरुआती समय में जुड़ा था और एक ज्यादा समकालीन सायन रंग, जो वर्तमान और भविष्य का प्रतिनिधित्व करता था। राष्ट्रपति की मुहर विमान के धड़ और नाक वाले अगले हिस्से के दोनों तरफ लगी थी, एक विशाल अमेरिकी ध्वज पूंछ वाले हिस्से में पेंट किया हुआ था और विमान के दोनों बगल में बड़े अक्षरों में 'यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका" पढ़ा जा सकता था। लोएवी के काम को राष्ट्रपति और प्रेस की ओर तुरंत प्रशंसा मिली. VC-137 के चिह्नों को बड़े VC-25 के लिए अनुकूलित किया गया, जब उसने 1990 में सेवा में प्रवेश किया। SAM 26000, 1962 से 1998 तक सेवा में था और इसने कैनेडी से लेकर क्लिंटन तक की सेवा की. 22 नवम्बर 1963 को SAM 26,000 राष्ट्रपति कैनेडी को डलास, टेक्सास ले गया, जहां इसने पृष्ठपट के रूप में सेवा की, जब राष्ट्रपति और श्रीमती केनेडी ने डलास के लव फील्ड में अपने शुभचिंतकों को बधाई दी. बाद में दोपहर में, केनेडी की हत्या कर दी गई और उपराष्ट्रपति लीनडॉन जॉनसन ने राष्ट्रपति का पद संभाला और SAM 26000 पर सवार रहते हुए ही पद की शपथ ली. जॉनसन के अनुरोध पर, विमान कैनेडी के शरीर को वॉशिंगटन वापस ले गया। इसने एरलिंग्टान नेशनल सिमेट्री पर भी उड़ान भरी, जहां कैनेडी का अंतिम संस्कार होना था। उसके साथ 50 लड़ाकू जेट विमान भी उड़े. एक दशक बाद, यह विमान खुद जॉनसन के शव को राजकीय अंतिम संस्कार के लिए वॉशिंगटन लाया और फिर वापस उनके घर टेक्सासले गया। पूर्व राष्ट्रपति को उनके खेत में दफना दिया गया, SAM 26000 के पूर्व पायलट ने लेडी बर्ड जॉनसन को ध्वज भेंट किया। 1972 में SAM 26000 की जगह VC-137, विशेष एयर मिशन 27000 को लाया गया, हालांकि SAM 26000 को 1998 में सेवानिवृत्त होने तक बैकअप के रूप में रखा गया। SAM 26000 अब अमेरिकी वायु सेना के राष्ट्रीय संग्रहालय में है। SAM 27000 का उपयोग करने वाले रिचर्ड निक्सन पहले राष्ट्रपति थे और यह नया विमान तब तक हर राष्ट्रपति की सेवा करता रहा, जब तक 1990 में उसकी जगह दो VC-25 विमान लाये गये। इस्तीफा देने के अपने इरादे की घोषणा के बाद, निक्सन ने SAM 27000 पर कैलिफोर्निया की यात्रा की. जेराल्ड फोर्ड के राष्ट्रपति बनने के बाद मिसौरी में, वायु सेना विमान का कॉल चिह्न एयर फोर्स वन से SAM 27000 रखा गया। SAM 27000 को, जिसे 2001 में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने सेवा से हटा दिया, कैलिफोर्निया में सैन बनार्डिनो अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा भेजा गया और बाद में ध्वस्त कर सिमी घाटी के रोनाल्ड रीगन लाइब्रेरी ले जाया गया, जहां उसे फिर से जोड़ा गया और वर्तमान में वह स्थाई रूप प्रदर्शित किया जा रहा है। हालांकि, रोनाल्ड रीगन के दो बार के कार्यकाल में एयर फोर्स वन में कोई बड़े बदलाव नहीं हुए, लेकिन उनके राष्ट्रपति के कार्यकाल में वर्तमान 747 विमानों का निर्माण शुरू हुआ। USAF ने 1985 में दो चौड़े आकार वाले विमानों के लिए एक अनुरोध प्रस्ताव जारी किया, जिनमें कम से कम तीन इंजन हों और जो 6000 मील की दूरी तक बिना दोबारा इंधन भरे उड़ान में सक्षम हों. 747 के साथ दोनो बोइंग और DC-10के साथ मैकडोनेल डगलस के प्रस्ताव पेश किये गये, पर जीत बोइंग की हुई. रीगन प्रशासन ने उन पुराने पड़ रहे 707 विमानों की जगह दो समरूप बोइंग 747 विमानों का आदेश दिये, जिनका वे परिवहन के लिए इस्तेमाल करते थे। आंतरिक डिजाइन का खाका प्रथम महिला नैंसी रीगन ने तैयार किया, जो दक्षिण-पश्चिम अमेरिका की याद ताजा करते थे। पहले विमान की आपूर्ति 1990 में जार्ज एच डब्ल्यू बुश के प्रशासन के दौरान की गई। विमान को विद्युत-चुबकीय पल्स प्रभाव से बचाने के लिए किये जाने वाले अतिरिक्त कार्य के लिए कुछ विलंब का अनुभव हुआ। VC-25 सुरक्षित और असुरक्षित दोनों तरह के फोन और कंप्यूटर संचार प्रणाली से लैस था, जिससे राष्ट्रपति संयुक्त राज्य अमेरिका पर हमले की स्थिति में हवा में भी अपना कर्तव्य- पालन करने में सक्षम हो सकें. राष्ट्रपति के हवाई बेड़े का रखरखाव मेरीलैंड के एन्ड्रयूज़ एयर फोर्स अंडे में 89 वीं एयरलिफ्टशाखा करती है। आम तौर पर अमेरिका में राष्ट्रपति के विमान की हिफाजत में एयर फोर्स वन का कोई लड़ाकू विमान नहीं होता, लेकिन ऐसा हुआ है। जून 1974 में, जब राष्ट्रपति निक्सन सीरिया के निर्धारित ठहराव के लिए जा रहे थे, सीरिया के लड़ाकू जेट विमान सुरक्षा के लिए एयर फोर्स वन के साथ हो लिए. हालांकि, एयर फोर्स वन के चालक दल को अग्रिम तौर पर कुछ नहीं बताया गया और इसका परिणाम यह हुआ कि गोता लगाने सहित बचने की कार्रवाई की गई। 11 सितंबर के हमलों के दौरान एयर फोर्स वन के एक विमान को लेकर सबसे नाटकीय प्रकरण दर्ज किये गये। न्यूयॉर्क शहर में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के दक्षिण टॉवर पर हुए हमले के बाद राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू.बुश को फ्लोरिडा के सारासोटा एम्मा ई. बुकर प्राथमिक स्कूल में रोका गया। वह एक VC-25 से सारासोटा ब्राडेंटॉन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से लुसियाना के बार्क्सडेल एयर फोर्स अड्डे के लिए जा रहे थे और वॉशिंगटन को लौटने से पहले वहां से फिर नेब्रास्का में ऑफपुट एयर फोर्स अड्डे पर जाना था। अगले दिन, ह्वाइट हाउस और न्याय विभाग के अधिकारियों ने सफाई दी कि राष्ट्रपति बुश ने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि एक "विशिष्ट और विश्वसनीय जानकारी मिली थी कि ह्वाइट हाउस और एयर फोर्स वन को भी निशाना बनाया जाना है।" बाद में ह्वाइट हाउस ने एयर फोर्स वन के खिलाफ धमकी के प्रमाण की पुष्टि नहीं की और बाद में जांच से पता चला कि मूल दावा गलत सूचना का नतीजा था। जब राष्ट्रपति बुश ने 2009 में अपना दूसरा कार्यकाल पूरा किया, उन्हें टेक्सास ले जाने के लिए एक VC-25 का उपयोग किया गया- इस मकसद के लिए विमान को स्पेशल एयर मिशन 28000 कहा गया, क्योंकि वह विमान के संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति को नहीं ले जा सकता था। 27 अप्रैल 2009 को, कम ऊंचाई पर उड़ रहे VC-25 ने तस्वीर खिंचवाने व अभ्यास के तौर पर न्यूयॉर्क शहर का चक्कर लगाया, जिससे न्यूयार्क में कई लोग डर गये। फोटो सत्र की घटना का परिणाम यह हुआ कि ह्वाइट हाउस सैन्य कार्यालय के निदेशक को इस्तीफा देना पड़ा. VC-25 विमानों को बदले जाने की संभावना हैं, क्योंकि उनमें संचालन के लिए कम लागत प्रभावशीलता है। USAF एयर मोबिलिटी कमांड को नए बोइंग 747-8 और EADS एयरबस A380 सहित संभावित स्थानापन्न के रूप में देखने का प्रभार दिया गया। 7 जनवरी 2009 को, USAF की एयर मैटेरियल कमांड ने विमान को बदलने के लिए एक नयी आवश्यकता का इजहार किया है, जिसे 2017 में सेवा में लगाया जाना है। 28 जनवरी 2009 को, EADS ने घोषणा की कि वह इस कार्यक्रम के लिए बोली नहीं लगायेगा, जिससे बोइंग एकमात्र बोली लगाने वाला बन गया, भले ही उनकी बोइंग 747-8 या बोइंग 787 का प्रस्ताव दिया जाये. यूनाइटेड एयरलाइंस ही केवल एक ऐसा व्यावसायिक एयरलाइन था, जिसने एक्जीक्युटिव वन का संचालन किया, यह उपाधि उस नागरिक विमान को दी जाती है, जिस पर अमेरिकी राष्ट्रपति सवार होते हैं। 26 दिसम्बर 1973 को तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन वॉशिंगटन डलास से लॉस एंजिल्स अंतरराष्ट्रीय उड़ान के लिए एक यात्री के रूप में इस पर सवार हुए थे। उनके कर्मचारियों ने बताया कि ईंधन संरक्षण के लिए हमेशा की तरह वायु सेना के बोइंग 707 विमान को नहीं उड़ाया गया था 8 मार्च 2000 को, राष्ट्रपति बिल क्लिंटन एक अनजाने गल्फस्ट्रीम III से पाकिस्तान गये, जबकि उसी रास्ते पर "एयर फोर्स वन" कुछ मिनट बाद ही उड़ा. इस बदले रास्ते की कई अमेरिकी अखबारों ने रिपोर्ट प्रकाशित की. अन्य राष्ट्र प्रमुखों के लिए भी विशेष विमान होते हैं। विस्तृत जानकारी के लिए देखिये राष्ट्र और सरकार के प्रमुखों के लिए हवाई परिवहन. राष्ट्रपति के कई विमान, जैसे, जो पहले एयर फार्स वन के रूप में सेवा दे चुके हैं, अमेरिकी वायु सेना के राष्ट्रीय संग्रहालय के राष्ट्रपति के हैंगर और वाशिंगटन के सिएटल में म्युजियम ऑफ फ्लाइट में प्रदर्शनी के लिए रखे गये हैं। बोइंग 707, जिसने निक्सन के वर्षो से एच डब्ल्यू जॉर्ज बुश प्रशासन तक एयर फोर्स वन के रूप में कार्य किया, रोनाल्ड रीगन के कैलिफोर्निया केसिमी वैली स्थित प्रेसिडेंसियल लाइब्रेरी में प्रदर्शन के लिए रखा गया है। लाइब्रेरी का एयप फोर्स वन पैवेलियन 24 अक्टूबर 2005 को जनता के लिए खोला गया था। जॉन एफ कैनेडी द्वारा इस्तेमाल किया हुआ VC-118A लिफ्टमास्टर एरिजोना में टुकसॉन के पिमा एयर एंड स्पेस संग्रहालय में प्रदर्शित है। लेफ्टिनेंट कर्नल हेनरी टी. मायर्स: कर्नल फ्रांसिस डब्ल्यू. विलियम्स: कर्नल विलियम जी. ड्रेपर: कर्नल जेम्स स्विंडल: कर्नल जेम्स वी. क्रॉस: लेफ्टिनेंट कर्नल पॉल थोर्नहिल: कर्नल राल्फ डी. अल्बर्टाइज़: कर्नल लेस्टर सी. मैकक्लेलैंड: कर्नल रॉबर्ट ई. रडिक: कर्नल रॉबर्ट डी. "डैनी" बर्र: कर्नल मार्क एस. डोनली: कर्नल मार्क डब्ल्यू टिलमैन: कर्नल स्कॉट टर्नर: White House Communications Agency · Presidential Airlift Group · White House Medical Unit · Camp David · Marine Helicopter Squadron One · Presidential Food Service · White House Transportation Agency
मधुमेही न्यूरोपैथी मधुमेह मेलिटस से जुड़ा एक न्यूरोपैथिक विकार है। इस विकार के बारे में यह धारणा है कि यह मधुमेही माइक्रोवैस्कुलर क्षति का परिणाम है जिसमें छोटी रक्त वाहिकाएं शामिल होती हैं जो मैक्रोवैस्कुलर अवस्थाओं के अलावा नसों में आपूर्ति करती हैं जो अंत में मधुमेही न्यूरोपैथी का रूप धारण कर सकता है। मधुमेही न्यूरोपैथी से संबंधित अपेक्षाकृत सामान्य अवस्थाओं में थर्ड नर्व पल्सी; मोनोन्यूरोपैथी; मोनोन्यूरोपैथी मल्टीप्लेक्स; मधुमेही एमायोट्रोफी; एक दर्दनाक पोलीन्यूरोपैथी; ऑटोनोमिक न्यूरोपैथी; और थोराकोएब्डोमिनल न्यूरोपैथी शामिल हैं। मधुमेही न्यूरोपैथी का असर सभी परिधीय नसों: दर्दकारी फाइबर, मोटर न्यूरॉन्स, ऑटोनोमिक नसों पर पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक रूप से सभी अंगों और तंत्रों को प्रभावित कर सकता है क्योंकि सभी आपस में तंत्रिकाओं के माध्यम से जुडे होते हैं। प्रभावित अंग तंत्रों और सदस्यों के आधार पर कई स्पष्ट सिंड्रोम होते हैं लेकिन वे अनन्य कतई नहीं हैं। एक रोगी में सेंसरीमोटर और ऑटोनोमिक न्यूरोपैथी या कोई अन्य संयोजन हो सकता है। प्रभावित नसों के आधार पर लक्षणों में अंतर होता है और उनमें सूचीबद्ध लक्षणों के अलावा अन्य लक्षण भी शामिल हो सकते हैं। आम तौर पर लक्षणों का विकास साल दर साल धीरे-धीरे होता है। लक्षणों में निम्न शामिल हो सकते हैं: ऐसी धारणा है कि मधुमेही न्यूरोपैथी के विकास में चार कारक शामिल हैं: संवहनी और तंत्रिका रोगों का आपस में बहुत गहरा और नजदीकी संबंध है। रक्त वाहिनियाँ सामान्य तंत्रिका कार्य पर निर्भर करती हैं और तंत्रिकाएं पर्याप्त रक्त प्रवाह पर निर्भर करती हैं। माइक्रोवैस्कुलेचर में पहला पैथोलोजिकल परिवर्तन वैसोकोंस्ट्रिक्शन है। जैसे-जैसे इस रोग में प्रगति होती है वैसे-वैसे संवहनीय असामान्यताओं के विकास के साथ न्यूरोनल डिस्फंक्शन का आपसी संबंध गहराता जाता है जैसे कैपिलरी बेसमेंट मेम्ब्रेन का मोटा होना और एन्डोथेलियल हाइपरप्लासिया जो कम ऑक्सीजन तनाव और हाइपोक्सिया में योगदान करता है। न्यूरोनल इस्कीमिया मधुमेही न्यूरोपैथी की एक सुप्रतिष्ठित विशेषता है। वैसोडिलेटर एजेंटों के फलस्वरूप न्यूरोनल रक्त प्रवाह में पर्याप्त सुधार हो सकता है और उसके अनुसार तंत्रिका चालन वेग में सुधार हो सकता है। इस प्रकार, माइक्रोवैस्कुलर डिस्फंक्शन मधुमेह के आरंभिक दौर में न्यूरल डिस्फंक्शन की प्रगति के साथ होता है और यह मधुमेही न्यूरोपैथी में देखे जाने वाले संरचनात्मक, कार्यात्मक और क्लिनिकल परिवर्तनों की गंभीरता को सहारा देने के लिए काफी हो सकता है। ग्लूकोज के ऊंचे अंतर्कोशिकीय स्तरों की वजह से प्रोटीनों के साथ गैर-इन्जाइम संबंधी सहसंयोजक बंधन का परिणाम देखने को मिलता है जो उनकी संरचना को बदल देता है और उनके कार्य में बाधा डालता है। इनमें से कुछ ग्लाइकोसिलेटेड प्रोटीन मधुमेही न्यूरोपैथी और मधुमेह की अन्य दीर्घकालिक जटिलताओं की पैथोलोजी में शामिल हैं। पीकेसी मधुमेही न्यूरोपैथी की पैथोलोजी में शामिल है। ग्लूकोज के स्तर में वृद्धि के फलस्वरूप अंतर्कोशिकीय डायसीलग्लाइसेरल में वृद्धि होती है जो पीकेसी को सक्रिय करता है। पशु मॉडलों में पीकेसी प्रावरोधक न्यूरोनल रक्त प्रवाह में वृद्धि करके तंत्रिका चालन वेग में वृद्धि करेगा. सोर्बिटल/एल्डोज रिडक्टेस मार्ग के नाम से भी जाने जाने वाला पोलिओल मार्ग मधुमेही जटिलताओं में शामिल हो सकता है जिसकी वजह से तंत्रिका ऊतक और रेटिना और किडनी में भी माइक्रोवैस्कुलर क्षति का परिणाम भुगतना पड़ता है। ग्लूकोज एक उच्च प्रतिक्रियाशील यौगिक है और चयापचय क्रिया द्वारा इसे परिवर्तित करना आवश्यक है या इसे प्रतिक्रिया करने के लिए शरीर में मौजूद ऊतक मिल जाएंगे. मधुमेह के क्षेत्र में देखे जाने वाले मामलों की तरह ग्लूकोज का बढ़ा हुआ स्तर इस जैव रासायनिक मार्ग को सक्रिय कर देता है जिसकी वजह से ग्लूटाथियन में कमी और प्रतिक्रियाशील ऑक्सीजन रेडिकल्स में वृद्धि का परिणाम देखने को मिलता है। यह मार्ग एंजाइम एल्डोज रिडक्टेस पर निर्भर करता है। इस एंजाइम के प्रावरोधक न्यूरोपैथी के विकास को रोकने में पशु मॉडलों में प्रभावकारी साबित हुए हैं। जबकि कोशिका में प्रवेश पाने के लिए अधिकांश शारीरिक कोशिकाओं को ग्लूकोज के लिए इंसुलिन की क्रिया की जरूरत पड़ती है, रेटिना, किडनी और तंत्रिका ऊतकों की कोशिकाएं इंसुलिन पर निर्भर नहीं करती हैं। इसलिए आँख, किडनी और न्यूरॉन्स में इंसुलिन की क्रिया की परवाह किए बिना कोशिका के भीतरी भाग से बाहरी भाग तक ग्लूकोज का एक मुक्त विनिमय होता है। कोशिकाएं सामान्य रूप से ऊर्जा के लिए ग्लूकोज का इस्तेमाल करेगी और ऊर्जा के लिए न इस्तेमाल किया जाने वाला ग्लूकोज पोलिओल मार्ग में प्रवेश करेगा और सोर्बिटोल में बदल जाएगा. सामान्य रक्त शर्करा स्तर के तहत इस विनिमय से कोई समस्या पैदा नहीं होगी क्योंकि एल्डोज रिडक्टेस में सामान्य सांद्रता पर ग्लूकोज या शर्करा के लिए कम समानता होती है। हालांकि, हाइपरग्लाइसेमिक अवस्था में ग्लूकोज के लिए एल्डोज रिडक्टेस की समानता में वृद्धि होती है जिसका मतलब है कि सोर्बिटोल का स्तर काफी बढ़ जाता है और एनएडीपीएच का स्तर काफी घट जाता है जो एक ऐसा यौगिक है जिसका इस्तेमाल उस समय किया जाता है जब यह मार्ग सक्रिय हो जाता है। सोर्बिटोल कोशिका झिल्लियों को पार नहीं कर सकता है और जब यह एकत्र हो जाता है तो यह कोशिका में पानी खींचकर कोशिकाओं पर ऑस्मोटिक दबाव उत्पन्न करता है। फ्रुक्टोज मूलतः एक ही काम करता है और इसका निर्माण और आगे रासायनिक मार्ग में होता है। मार्ग के सक्रिय होने के दौरान इस्तेमाल किया जाने वाला एनएडीपीएच नाइट्रिक ऑक्साइड और ग्लूटाथियन उत्पादन को बढ़ावा देने का काम करता है और मार्ग में इसके रूपांतरण के फलस्वरूप प्रतिक्रियाशील ऑक्सीजन अणुओं का परिणाम देखने को मिलता है। ग्लूटाथियन की कमी से ऑक्सीडेटिव दबाव की वजह से हेमोलाइसिस का परिणाम देखने को मिल सकता है और हमें पहले से ही मालूम है कि नाइट्रिक ऑक्साइड रक्त वाहिकाओं का एक महत्वपूर्ण वैसोडिलेटर है। NAD+, इसका भी इस्तेमाल होता है, कोशिकाओं को बनाने और नष्ट करने से प्रतिक्रियाशील ऑक्सीजन प्रजातियों को अलग रखने के लिए आवश्यक है। इसके अलावा, ऐसा विश्वास है कि सोर्बिटोल का ऊंचा स्तर नस की क्रियाशीलता के लिए आवश्यक प्लाज्मा झिल्ली Na+/K+ अत्पसे पम्प की गतिविधि को कम करके एक अन्य अल्कोहल, मायोइंसिटोल के कोशिकीय उद्ग्रहण को कम करता है जो आगे चलकर न्यूरोपैथी में योगदान करता है। संक्षेप में पोलिओल मार्ग के अत्यधिक सक्रियण के फलस्वरूप सोर्बिटोल और प्रतिक्रियाशील ऑक्सीजन अणुओं का स्तर बढ़ जाता है और नाइट्रिक ऑक्साइड और ग्लूटाथियन का स्तर घट जाता है और इसके साथ ही साथ कोशिका झिल्ली पर ऑस्मोटिक दबाव बढ़ जाता है। इनमें से कोई भी एक तत्व कोशिका क्षति को बढ़ावा दे सकता है लेकिन यहाँ हम कई तत्वों को एकसाथ सक्रिय रूप में देखते हैं। विभिन्न तंत्रिकाएँ या नसें अलग-अलग तरह से प्रभावित होती हैं छोटी तंत्रिका तंतुओं की तुलना में बड़ी तंत्रिका तंतुओं पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है क्योंकि तंत्रिका की लम्बाई के अनुपात में तंत्रिका चालन वेग धीमा हो जाता है। इस सिंड्रोम में सजगता की संवेदना में कमी और परिवर्त की हानि सबसे पहले प्रत्येक पैर के अंगूठों में दिखाई देती है उसके बाद इसका विस्तार ऊपर की तरफ होता है। इसे आम तौर पर सुन्नता, संवेदन हानि, अपसंवेदन और रात्रिकालीन दर्द के हाथ से पैर तक वितरण के रूप में वर्णित किया जाता है। इस दर्द का अहसास जलन, चुभन संवेदना, दुखदायी या सुस्तीपन की तरह हो सकता है। पिन और सुई की तरह चुभन संवेदना आम है। प्रोप्रियोसेप्शन की हानि पर पहले असर पड़ता है जो एक ऐसी भावना है जहां ऐसा लगता है जैसे कि अंग अंतरिक्ष में झूल रहा हो. इन रोगियों को इस बात का अहसास तक नहीं हो पाता है कि वे कब किसी बाहरी वस्तु जैसे कोई स्प्लिंटर या छिपटी पर कदम रख रहे हैं या ठीक तरह से फिट न होने वाले जूते की वजह से उनके पैरों में दर्द हो रहा है। नतीजतन, उनके पाँव और पैरों में संक्रमण और अल्सर होने का खतरा रहता है जिससे आगे चलकर पैर काटना भी पड़ सकता है। इसी तरह, इन रोगियों के घुटने, टखने या पैरों में कई बार फ्रैक्चर भी हो सकता है और उनमें चारकोल ज्वाइंट का विकास हो सकता है। मोटर फंक्शन की हानि की वजह से डोर्सिफ्लेक्शन, पैर की अँगुलियों का अवकुंचन, इंटेरोसियस मांसपेशी क्रियाशीलता की हानि का परिणाम देखना पड़ता है और इसके फलस्वरूप अंकों का संकुचन होता है जिसे हैमर टोज कहते हैं। ये अवकुंचन केवल पैरों में ही नहीं बल्कि हाथों में भी होते हैं जहाँ मांसलता की हानि से हाथ कृश और कंकाल की तरह दिखाई देने लगता है। मांसपेशियों की क्रियाशीलता की हानि प्रगतिशील प्रकृति की होती है। ऑटोनोमिक नर्वस सिस्टम या स्वायत्त तंत्रिका तंत्र का निर्माण हृदय की सेवा करने वाली तंत्रिकाओं, जठरांत्र तंत्र और जनन मूत्र तंत्र से हुआ है। ऑटोनोमिक न्यूरोपैथी इनमें से किसी भी अंग तंत्र को प्रभावित कर सकता है। मधुमेही में सबसे आम तौर पर मान्यता प्राप्त ऑटोनोमिक डिस्फंक्शन ओर्थोस्टेटिक हाइपोटेंशन या खड़े होने के दौरान बेहोशी है। मधुमेही ऑटोनोमिक न्यूरोपैथी के मामले में ऐसा मस्तिष्क तक रक्त के लगातार और पूरी तरह से बहते रहने के लिए हृदय गति और वैस्कुलर टोन को सही तरह से समायोजित करने में हृदय और धमनियों के विफल होने की वजह से होता है। इस लक्षण का साथ आम तौर पर सामान्य श्वास के साथ देखे जाने वाले हृदय दर में सामान्य परिवर्तन की हानि देती है। इन दोनों निष्कर्षों से ऑटोनोमिक न्यूरोपैथी का पता चलता है। जीआई पथ अभिव्यक्तियों में गैस्ट्रोपैरेसिस, मिचली, सूजन और डायरिया या दस्त शामिल है। चूंकि कई मधुमेही अपने मधुमेह के लिए मौखिक दवा लेते हैं, इसलिए इन दवाओं के अवशोषण पर विलम्ब गैस्ट्रिक रिक्तता का बहुत ज्यादा असर पड़ता है। इसके फलस्वरूप हाइपोग्लाइसेमिया का परिणाम देखना पड़ सकता है जब किसी मौखिक मधुमेही एजेंट को भोजन से पहले लिया जाता है और कई घंटों या कभी-कभी कई दिनों बाद भी वह अवशोषित नहीं होता है जब पहले से ही सामान्य या निम्न रक्त शुगर या शर्करा हो. छोटी आंत के सुस्त आंदोलन की वजह से बैक्टीरियल अतिवृद्धि का परिणाम देखना पड़ सकता है जो हाइपरग्लाइसेमिया की मौजूदगी से और उग्र रूप धारण कर सकता है। इसके फलस्वरूप सूजन, गैस और डायरिया या दस्त का परिणाम भुगतना पड़ता है। मूत्र संबंधी लक्षणों में मूत्र आवृत्ति, तात्कालिता, असंयम और अवरोधन शामिल है। फिर से, मूत्र के अवरोधन की वजह से अक्सर मूत्र मार्ग संक्रमण होता है। मूत्र अवरोधन की वजह से ब्लैडर डाइवर्टिकुला, स्टोन, रिफ्लक्स नेफ्रोपैथी का परिणाम भुगतना पड़ सकता है। जब कपाल तंत्रिका प्रभावित होते हैं तब ओकुलोमोटर न्यूरोपैथी सबसे आम होते हैं। ओकुलोमोटर तंत्रिका सभी मांसपेशियों को नियंत्रित करती हैं जो पार्श्व रेक्टस और बेहतर तिरछी मांसपेशियों के अपवाद के साथ आँख को आंदोलित करती हैं। यह पुतली को संकुचित करने और पलक को खोलने का भी काम करती है। मधुमेही तृतीय तंत्रिका पक्षाघात का आक्रमण आम तौर पर अचानक होता है जिसकी शुरुआत फ्रंटल और पेरिऑर्बिटल दर्द से और उसके बाद डिप्लोपिया से होती है। तृतीय तंत्रिका द्वारा वितरित सभी ओकुलोमोटर मांसपेशियां प्रभावित हो सकती हैं लेकिन पुतली के आकार को नियंत्रित करने वाली मांसपेशियां आम तौर पर पहले से ही अच्छी तरह से संरक्षित होती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि पुतली के आकार को प्रभावित करने वाले CNIII के भीतर पैरासिम्पैथेटिक तंत्रिका तंतु तंत्रिका की परिधि पर पाए जाते हैं जो उन्हें इस्कीमिक क्षति के प्रति कम संवेदनशील बनाते हैं . आँख की पार्श्व रेक्टस मांसपेशी को वितरित करने वाली अपसरणी तंत्रिका नामक छठी तंत्रिका भी सामान्य रूप से प्रभावित होती है लेकिन घिरनी तंत्रिका नामक चौथी तंत्रिका की मौजूदगी असामान्य है। वक्ष या कमर की रीढ़ की तंत्रिकाओं की मोनोन्यूरोपैथी हो सकती है और इसके फलस्वरूप दर्दनाक सिंड्रोम की उत्पत्ति हो सकती है जो मायोकार्डियल इनफार्क्शन, कोलेसिसटाइटिस या एपेंडीसाइटिस के सदृश होते हैं। डायबिटिक या मधुमेह के रोगियों में एंट्रैपमेंट न्यूरोपैथी की घटना बहुत ज्यादा होती है जैसे कार्पल टनेल सिंड्रोम. मधुमेही परिधीय न्यूरोपैथी काफी हद तक मधुमेह वाले किसी व्यक्ति के डायग्नोसिस की तरह है जिसे पैर या पाँव में दर्द होता है हालांकि ऐसा विटामिन B12 की कमी या ऑस्टियोआर्थराइटिस की वजह से भी हो सकता है। जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन की "रैशनल क्लिनिकल एग्जामिनेशन सीरीज" में हाल ही की एक समीक्षा में मधुमेही परिधीय न्यूरोपैथी के डायग्नोसिस में क्लिनिकल परीक्षा की उपयोगिता का मूल्यांकन किया गया। जबकि चिकित्सक मोटे तौर पर पाँव की उपस्थिति, अल्सर की उपस्थिति और टखने की सजगता का मूल्यांकन करते हैं, लेकिन फिर भी बड़े तंतु न्यूरोपैथी के लिए सबसे ज्यादा उपयोगी चिकित्सीय परीक्षा निष्कर्ष एक 128-हर्ट्ज ट्यूनिंग फोर्क सीमा, 16–35) की असामान्य रूप से कम कंपन संवेदना या 5.07 सेमेस-वेंस्टीन मोनोफिलामेंट के साथ दबाव संवेदना है। कंपनी परिक्षण या मोनोफिलामेंट के सामान्य परिणाम से मधुमेह के बड़े तंतु परिधीय न्यूरोपैथी के होने की कम सम्भावना का पता चलता है। संकेतों के संयोजन इन 2 व्यक्तिगत निष्कर्षों से बेहतर प्रदर्शन नहीं करते हैं। तंत्रिका चालन परीक्षणों से परिधीय तंत्रिकाओं की कम क्रियाशीलता का पता चल सकता है लेकिन शायद ही कभी उनका संबंध मधुमेही परिधीय न्यूरोपैथी की गंभीरता से होता है और इस अवस्था या स्थिति के लिए नियमित परीक्षण के रूप में उपयुक्त नहीं हैं। न्यूरोपैथी के चयापचय कारणों की समझ में उन्नति के बावजूद इन पैथोलोजिकल प्रक्रियाओं को बाधित करने के उद्देश्य से किए जाने वाले उपचार सीमित हैं। इस प्रकार, तंग ग्लूकोज नियंत्रण के अपवाद के साथ दर्द और अन्य लक्षणों को कम करने के लिए इलाज किया जाता है। दर्द नियंत्रण के विकल्पों में ट्राईसाइक्लिक एंटीडिप्रेसंट्स, सीरोटोनिन रियूपटेक इनहिबिटर्स और एंटीएपिलेप्टिक ड्रग्स शामिल हैं। एक व्यवस्थित समीक्षा से यह निष्कर्ष निकाला गया कि "अल्पकालीन दर्द के लिए नई पीढ़ी के एंटीकोंवलसंट्स की तुलना में ट्राईसाइक्लिक एंटीडिप्रेसंट्स और पारंपरिक एंटीकोंवलसंट्स बेहतर होते हैं।" इन दवाओं का संयोजन भी एक एकल एजेंट के लिए बेहतर साबित हो सकता है। मधुमेही परिधीय न्यूरोपैथी के लिए एफडीए द्वारा अनुमोदित एकमात्र दो दवाइयां एंटीडिप्रेसंट डुलोक्सेटीन और एंटीकोंवलसंट प्रेगैबालिन हैं। एक व्यवस्थित दवा का इस्तेमाल करने की कोशिश करने से पहले स्थानीय मधुमेही परिधीय न्यूरोपैथी से पीड़ित लोग लिडोकाइन धब्बों के साथ अपने लक्षणों से मुक्त हो सकते हैं। टीसीए में इमिप्रामीन, एमीट्रिप्टीलीन, डेसिप्रामीन और नोर्ट्रिप्टीलीन शामिल हैं। ये दवाइयां दर्दनाक लक्षणों को कम करने में प्रभावी हैं लेकिन इनकी वजह से खुराक के आधार पर कई दुष्प्रभाव भी सहन करना पड़ता है। एक उल्लेखिनीय दुष्प्रभाव कार्डियक टोक्सीसिटी है जिसकी वजह से घातक अतालता का परिणाम भुगतना पड़ सकता है। न्यूरोपैथी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले कम खुराकों पर विषाक्तता का होना दुर्लभ है लेकिन अगर लक्षण उच्चतर खुराकों का समर्थन करते हैं तो जटिलताओं का होना अधिक आम है। टीसीए में इस अवस्था के लिए एमीट्रिप्टीलीन का सबसे ज्यादा व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया जाता है लेकिन डेसीप्रामीन और नोर्ट्रिप्टीलीन का दुष्प्रभाव या साइड इफेक्ट बहुत कम होता है। एसएसएनआरआई डुलोक्सेटीन को मधुमेही न्यूरोपैथी के लिए अनुमोदित किया गया है जबकि आम तौर पर वेनलाफैक्सीन का इस्तेमाल किया जाता है। सीरोटोनिन और नोरेपिनेफ्रीन दोनों को लक्ष्य करके ये दवाइयां मधुमेही न्यूरोपैथी के दर्दनाक लक्षणों को अपना निशाना बनाती हैं और अवसाद या निराशा होने पर उसका भी इलाज करती हैं। दूसरी तरफ कुछ सेलेक्टिव सीरोटोनिन रीअपटेक इनहिबिटर्स उपयोगी नहीं हैं। एसएसआरआई में फ्लोक्सेटीन, पैरोक्सेटीन, सेर्ट्रालीन और साइटलोप्राम शामिल हैं और दर्दनाक न्यूरोपैथी के इलाज के लिए इनकी सलाह नहीं दी जाती है क्योंकि कई नियंत्रिक परीक्षणों में प्लेसीबो की तुलना में इन्हें अधिक प्रभावोत्पादक नहीं पाया गया है। दुष्प्रभाव या साइड इफेक्ट्स शायद ही कभी गंभीर रूप धारण करते हैं और इनकी वजह से कोई स्थायी विकलांगता या अक्षमता नहीं आती है। वे दर्द को शांत करते हैं और वजन बढ़ा देते हैं जो मधुमेही के ग्लाइसेमिक नियंत्रण को बदतर कर सकता है। उनका इस्तेमाल उन खुराकों में किया जा सकता है जो खुद भी निराशा या अवसाद के लक्षणों से रोगी को मुक्त करते हैं जो मधुमेही न्यूरोपैथी की एक आम सहरुग्णता है। एईडी, खास तौर पर गैबापेंटीन और संबंधित प्रेगैबालिन, दर्दनाक न्यूरोपैथी के लिए पहले दर्जे के इलाज के रूप में उभर रही है। प्रभावोत्पादकता की दृष्टि से गैबापेंटीन एमीट्रिप्टीलीन की तुलना में काफी प्रशंसनीय ढंग से समान है और स्पष्ट रूप से सुरक्षित है। इसका मुख्य साइड इफेक्ट बेहोशीपन है जो समय के साथ कम नहीं होता है और वास्तव में यह बदतर रूप धारण कर सकता है। इसे दिन में तीन बार लेना चाहिए और इससे कभी कभी वजन घट जाता है जो मधुमेह के रोगियों में ग्लाइसेमिक नियंत्रण को बदतर बना सकता है। कार्बामैजेपीन प्रभावशाली है लेकिन मधुमेही न्यूरोपैथी के लिए आवश्यक रूप से सुरक्षित नहीं है। इसका पहला मेटाबोलाईट, ऑक्सकार्बामैजेपीन, अन्य न्यूरोपैथिक विकारों में सुरक्षित और प्रभावशाली दोनों है लेकिन मधुमेही न्यूरोपैथी में इसका अध्ययन नहीं किया गया है। टोपिरामेट का अध्ययन मधुमेही न्यूरोपैथी में नहीं किया गया है लेकिन इसके लाभदायक साइड इफेक्ट की वजह से हल्की एनोरेक्सिया और वजन कम होने का परिणाम प्राप्त हो सकता है और यह कुल मिलाकर फायदेमंद है। दवाइयों की उपरोक्त तीन श्रेणियाँ असामान्य, सहायक और संभावक के शीर्षक के अंतर्गत आते हैं और इन्हें अक्सर ओपियोड्स और/या एनएसएआईडी के साथ संयोजित किया जाता है जिनका प्रभाव आम तौर पर उनके हिस्सों के योगफल की तुलना में बहुत ज्यादा होता है। निर्णायक दर्द से तुरंत मुक्ति पाने के लिए डुलोक्सेटीन + विस्तारित मुक्त मोर्फिन ± नैप्रोक्सेन ± हाइड्रोक्सीजीन ± मोर्फिन या हाइड्रोमोर्फोन उन मामलों में एक आम रेसीपी है जहां मधुमेही न्यूरोपैथी किसी दुर्बल जीर्ण दर्द अवस्था में एक जटिल कारक होती है - कुछ मामलों में डुलोक्सेटीन की तुलना में एमीट्रिप्टीलीन ज्यादा असरदायक होता है। साइटोक्रोम पी-450 सक्रियण की आवश्यकता वाले ओपियोड्स का इस्तेमाल शायद किसी ऐसे एजेंट के साथ किया जाना चाहिए जो रासायनिक दृष्टि से एसएसआरआई से संबंधित न हो; इसके विपरीत, वे मोर्फिन, हाइड्रोमोर्फोन, ऑक्सीमोर्फोन और किसी अन्य तरीके के लिए मुक्ति, अवशोषण, वितरण, चयापचय और उन्मूलन प्रोफाइल के हिस्सों को प्रभावित कर सकते हैं। ट्रांसक्यूटेनियस इलेक्ट्रिक नर्व स्टिमुलेशन दर्दनाक मधुमेही न्यूरोपैथी के इलाज में प्रभावशाली हो सकता है। α-लिपोइक एसिड नामक एक एंटी-ऑक्सीडेंट एक ऐसा गैर-निर्धारित आहार अनुपूरक है जो एक बेतरतीब नियंत्रित परीक्षण में फायदेमंद साबित हुआ है जिसकी 600 से 1800 मिग्रा प्रतिदिन एक बार मौखिक खुराक प्लेसीबो की तुलना में बराबर था हालाँकि ज्यादा खुराक लेने पर मतली होना पाया गया था। मिथाइलकोबालामीन, रीढ़ की हड्डी के तरल पदार्थ में पाए जाने वाले विटामिन बी-12 का एक विशिष्ट रूप, का अध्ययन किया गया है और मधुमेही न्यूरोपैथी के इलाज में और उसमें सुधार लाने में मुंह से या इंजेक्शन के माध्यम से इसे लिए जाने पर इसका महत्वपूर्ण प्रभाव दिखाई दिया है। न्यूरोपैथी सहित मधुमेही जटिलताओं के इलाज में वाणिज्यिक तौर पर अनुपलब्ध सी-पेप्टाइड के आशाजनक परिणाम सामने आए हैं। कभी इंसुलिन उत्पादन का एक अनुपयोगी गौण उत्पाद मानी जाने वाली यह दवा मधुमेह के प्रमुख लक्षणों में सुधार करने और बदल देने में मदद करती है। अधिक हाल के वर्षों में न्यूरोपैथिक लक्षणों के इलाज में फोटो एनर्जी थेरपी उपकरणों का अधिक व्यापक तौर पर इस्तेमाल हो रहा है। फोटो एनर्जी थेरपी उपकरण आम तौर पर 880 एनएम की एक तरंग दैर्ध्य पर निकट अवरक्त प्रकाश उत्सर्जित करते हैं। ऐसा विश्वास है कि यह तरंग दैर्ध्य नाइट्रिक ऑक्साइड के निर्गमन को उत्तेजित करता है जो रक्त धारा का एक एन्डोथेलियम-व्युत्पन्न आराम कारक है जिससे माइक्रोसर्कुलेटरी सिस्टम में रक्त कणिकाओं और उपशिराओं में विस्तार होने लगता है। परिसंचरण में होने वाली यह वृद्धि मधुमेही और गैर-मधुमेही रोगियों में दर्द को कम करने के लिए किए गए तरह-तरह के क्लिनिकल अध्ययनों में प्रभावशाली साबित हुई है। ऐसा लगता है कि फोटो एनर्जी थेरपी उपकरण न्यूरोपैथी, खराब सूक्ष्मपरिसंचरण की अन्तर्निहित समस्या को संबोधित करते हैं जिसके फलस्वरूप अग्रान्गों में दर्द और सुन्नता की समस्या उत्पन्न होती है। सैटिवेक्स नामक एक कैनबिस आधारित दवा को मधुमेही न्यूरोपैथी के लिए प्रभावी नहीं पाया गया है। सिल्डेनाफिल नामक एक दवा की प्रभावकारिता पर एक प्रयोगात्मक कार्य परीक्षण किया गया लेकिन इस अध्ययन को स्वयं एक "पृथक क्लिनिकल रिपोर्ट" के रूप में वर्णित किया गया और अतिरिक्त क्लिनिकल जांच की जरूरत का हवाला दिया गया। सेंसरीमोटर पोलीन्यूरोपैथी की आरंभिक ज्ञानेन्द्रिय अभिव्यक्तियों के उपचार में ग्लाइसेमिक नियंत्रण का सुधार शामिल है। रक्त शर्करा का तंग नियंत्रण मधुमेही न्यूरोपैथी के परिवर्तनों को विपरीत कर सकता है लेकिन केवल तभी जब न्यूरोपैथी और मधुमेह शुरूआती दौर में हो. इसके विपरीत, अनियंत्रित मधुमेह रोगियों में न्यूरोपैथी के दर्दनाक लक्षण रोग और सुन्नता की प्रगति पर कम हो जाते हैं। मधुमेही न्यूरोपैथी की क्रियाविधियों को गलत ढंग से समझा जाता है। वर्तमान में, उपचार से दर्द कम हो जाता है और इससे कुछ जुड़े लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन यह प्रक्रिया आम तौर पर प्रगतिशील प्रकृति की होती है। जहाँ तक जटिलता का सवाल है, संवेदना हानि की वजह से पैरों में दर्द होने का ज्यादा खतरा होता है . छोटे संक्रमण अल्सर का रूप धारण कर सकते हैं जिसकी वजह से पैर काटना पड़ सकता है। डायबिटीज या मधुमेह विकासशील देशों में न्यूरोपैथी का सबसे ज्यादा जाना-माना कारण है और न्यूरोपैथ मधुमेह के रोगियों की रूग्णता और उनकी मृत्यु दर का सबसे बड़ा स्रोत और सबसे आम समस्या है। ऐसा अनुमान है कि मधुमेह के रोगियों में न्यूरोपैथी का प्रसार लगभग 20% है। मधुमेही न्यूरोपैथी 50–75% गैर-अभिघातजन्य अंगच्छेद की तरफ इशारा करता है। मधुमेही न्यूरोपैथी का मुख्य जोखिम कारक हाइपरग्लाइसेमिया है। इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि मधुमेह से पीड़ित लोगों में परिधीय न्यूरोपैथी से संबंधित लक्षणों के विकसित होने की अधिक सम्भावना होती है क्योंकि रक्त में शर्करा या ग्लूकोज की अधिकता के परिणामस्वरूप ग्लुकोजैसिनोजेन नामक एक अवस्था का विकास होता है। यह अवस्था या हालत इरेक्टाइल डिस्फंक्शन और अधिजठर कोमलता से संबंधित होती है जिसके परिणामस्वरूप भुजाओं और पैरों की गतिविधि को नियंत्रित करने वाले परिधीय इंट्रापेक्टीन नसों में रक्त का बहाव कम हो जाता है। डीसीसीटी अध्ययन में न्यूरोपैथी की वार्षिक घटना 2% प्रति वर्ष थी लेकिन टाइप 1 मधुमेही रोगियों के गहन उपचार से यह कम होकर 0.56% हो गया। न्यूरोपैथी की प्रगति टाइप 1 और टाइप 2 दोनों तरह के मधुमेह में ग्लाइसेमिक नियंत्रण के स्तर पर निर्भर करती है। मधुमेह की अवधि, आयु, सिगरेट पीना, हाइपरटेंशन, कद और हाइपरलिपिडेमिया भी मधुमेही न्यूरोपैथी के जोखिम कारक हैं। साँचा:Diabetesसाँचा:Endocrine pathologyसाँचा:Neuropathy
1658 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 1658 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 1658 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते हैं।
बाबा सोहन सिंह भकना ) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी थे। वे गदर पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष थे तथा सन् 1915 के गदर आन्दोलन के प्रमुख सूत्रधार थे। लाहौर षडयंत्र केस में बाबा को आजीवन कारावास हुआ और सोलह वर्ष तक जेल में रहने के बाद सन् 1930 में रिहा हुए। बाद में वे भारतीय मजदूर आन्दोलन से जुड़े तथा किसान सभा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को अपना अधिकांश समय दिया। बाबा सोहन सिंह भकना का जन्म जनवरी, 1870 ई. में पंजाब के अमृतसर जिले के 'खुतराई खुर्द' नामक गाँव में एक संपन्न किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम भाई करम सिंह और माँ का नाम राम कौर था। सोहन सिंह जी को अपने पिता का प्यार अधिक समय तक प्राप्त नहीं हो सका। जब वे मात्र एक वर्ष के थे, तभी पिता का देहान्त हो गया। उनकी माँ रानी कौर ने ही उनका पालन-पोषण किया। आरम्भ में गाँव के ही गुरुद्वारे से उन्होने धार्मिक शिक्षा पायी। ग्यारह वर्ष की उम्र में प्राइमरी स्कूल में भर्ती होकर उन्होंने उर्दू पढ़ना आंरभ किया। जब सोहन सिंह दस वर्ष के थे, तभी उनका विवाह बिशन कौर के साथ हो गया, जो लाहौर के समीप के एक जमींदार कुशल सिंह की पुत्री थीं। सोहन सिंह जी ने सोलह वर्ष की उम्र में अपनी स्कूली शिक्षा पूर्ण की। वे उर्दू और फ़ारसी में दक्ष थे। युवा होने पर सोहन सिंह बुरे लोगों की संगत में पड़ गये। उन्होंने अपनी संपूर्ण पैतृक संपत्ति शराब पीने और अन्य व्यर्थ के कार्यों में गवाँ दी। कुछ समय बाद उनका संपर्क बाबा केशवसिंह से हुआ। उनसे मिलने के बाद उन्होंने शराब आदि का त्याग कर दिया। सन 1907 में 40 वर्ष की उम्र में आजीविका की खोज में अब सोहन सिंह अमेरिका जा पहुँचे। उनके भारत छोड़ने से पहले ही लाला लाजपतराय आदि अन्य देशभक्त राष्ट्रीय आंदोलन आंरभ कर चुके थे। इसकी भनक बाबा सोहन सिंह के कानों तक भी पहुँच चुकी थी। वहाँ उन्हें एक मिल में काम मिल गया। लगभग 200 पंजाब निवासी वहाँ पहले से ही काम कर रहे थे। किन्तु इन लोगों को वेतन बहुत कम मिलता था और विदेशी उन्हें तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। सोहन सिंह जी को यह समझते देर नहीं लगी कि उनका यह अपमान भारत में अंग्रेजों की गुलामी के कारण हो रहा है। अतः उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए स्वयं के संगठन का निर्माण करना आरम्भ कर दिया। क्रांतिकारी लाला हरदयाल अमेरिका में ही थे। उन्होंने 'पैसिफ़िक कोस्ट हिन्दी एसोसियेशन' नामक एक संस्था बनाई। बाबा सोहन सिंह उसके अधयक्ष और स्वयं मंत्री बने। सब भारतीय इस संस्था में सम्मिलित हो गए। सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम की स्मृति में इस संस्था ने 'गदर' नाम का पत्र भी प्रकाशित किया। इसके अतिरिक्त 'ऐलाने जंग', 'नया जमाना' जैसे प्रकाशन भी किए गए। आगे चलकर संस्था का नाम भी 'ग़दर पार्टी' कर दिया गया। 'गदर पार्टी' के अंतर्गत बाबा सोहन सिंह ने क्रांतिकारियों को संगाठित करने तथा अस्त्र-शस्त्र एकत्र करके भारत भेजने की योजना को कार्यन्वित करने में आगे बढ़ कर भाग लिया। 'कामागाटामारू प्रकरण' भी इस सिलसिले का ही एक हिस्सा थी। भारतीय सेना की कुछ टुकड़ियों को क्रांति में भाग लेने के तैयार किया गया था। किन्तु मुखबिरों और कुछ देशद्रोहियों द्वारा भेद खोल देने से यह सारा किया धरा बेकार गया। बाबा सोहन सिंह भकना एक अन्य जहाज से कोलकाता पहुँचे थे। 13 अक्टूबर, 1914 ई. को उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। यहाँ से उन्हें पूछताछ के लिए लाहौर जेल भेज दिया गया। इन सब क्रांतिकारियों पर लाहौर में मुकदमा चलाया गया, जो 'प्रथम लाहौर षड़यंत्र केस' के नाम से प्रसिद्ध है। बाबा सोहन सिंह को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और उन्हें अण्डमान भेज दिया गया। वहाँ से वे कोयम्बटूर और भखदा जेल भेजे गए। उस समय यहाँ महात्मा गाँधी भी बंद थे। फिर वे लाहौर जेल ले जाए गए। इस दौरान उन्होंने एक लम्बे समय तक यातनापूर्ण जीवन व्यतीत किया। 16 वर्ष जेल मे बिताने पर भी अंग्रेज सरकार का इरादा उन्हें जेल में ही सड़ा डालने का था। इस पर बाबा सोहन सिंह ने अनशन आरम्भ कर दिया। इससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। यह देखकर अततः अंग्रेज सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। रिहाई के बाद बाबा सोहन सिंह 'कम्युनिस्ट पार्टी' का प्रचार करने लगे। द्वितीय विश्व युद्ध आंरभ होने पर सरकार ने उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन सन 1943 में रिहा कर दिया। 20 दिसम्बर, 1968 को बाबा सोहन सिंह भकना का देहान्त हो गया।
मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली या मात्र निदा फ़ाज़ली हिन्दी और उर्दू के मशहूर शायर थे इनका निधन 08 फ़रवरी 2016 को मुम्बई में निधन हो गया। दिल्ली में पिता मुर्तुज़ा हसन और माँ जमील फ़ातिमा के घर तीसरी संतान नें जन्म लिया जिसका नाम बड़े भाई के नाम के क़ाफ़िये से मिला कर मुक़्तदा हसन रखा गया। दिल्ली कॉर्पोरेशन के रिकॉर्ड में इनके जन्म की तारीख 12 अक्टूबर 1938 लिखवा दी गई। पिता स्वयं भी शायर थे। इन्होने अपना बाल्यकाल ग्वालियर में गुजारा जहाँ पर उनकी शिक्षा हुई। उन्होंने 1958 में ग्वालियर कॉलेज से स्नातकोत्तर पढ़ाई पूरी करी।वो छोटी उम्र से ही लिखने लगे थे। निदा फ़ाज़ली इनका लेखन का नाम है। निदा का अर्थ है स्वर/ आवाज़/ Voice। फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है जहाँ से निदा के पुरखे आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फ़ाज़ली जोड़ा।जब वह पढ़ते थे तो उनके सामने की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी जिससे वो एक अनजाना, अनबोला सा रिश्ता अनुभव करने लगे थे। लेकिन एक दिन कॉलेज के बोर्ड पर एक नोटिस दिखा "Miss Tondon met with an accident and has expired" । निदा बहुत दु:खी हुए और उन्होंने पाया कि उनका अभी तक का लिखा कुछ भी उनके इस दुख को व्यक्त नहीं कर पा रहा है, ना ही उनको लिखने का जो तरीका आता था उसमें वो कुछ ऐसा लिख पा रहे थे जिससे उनके अंदर का दुख की गिरहें खुलें। एक दिन सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजरे जहाँ पर उन्होंने किसी को सूरदास का भजन मधुबन तुम क्यौं रहत हरे? बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे? गाते सुना, जिसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियाँ फुलवारी से पूछ रही होती हैं ऐ फुलवारी, तुम हरी क्यों बनी हुई हो? कृष्ण के वियोग में तुम खड़े-खड़े क्यों नहीं जल गईं? वह सुन कर निदा को लगा कि उनके अंदर दबे हुए दुख की गिरहें खुल रही है। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फ़रीद इत्यादि कई अन्य कवियों को भी पढ़ा और उन्होंने पाया कि इन कवियों की सीधी-सादी, बिना लाग लपेट की, दो-टूक भाषा में लिखी रचनाएँ अधिक प्रभावकारी है जैसे सूरदास की ही उधो, मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अराधै ते ईस॥, न कि मिर्ज़ा ग़ालिब की एब्सट्रैक्ट भाषा में "दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है?"। तब से वैसी ही सरल भाषा सदैव के लिए उनकी अपनी शैली बन गई।हिन्दू-मुस्लिम क़ौमी दंगों से तंग आ कर उनके माता-पिता पाकिस्तान जा के बस गए, लेकिन निदा यहीं भारत में रहे। कमाई की तलाश में कई शहरों में भटके। उस समय बम्बई हिन्दी/ उर्दू साहित्य का केन्द्र था और वहाँ से धर्मयुग/ सारिका जैसी लोकप्रिय और सम्मानित पत्रिकाएँ छपती थीं तो 1964 में निदा काम की तलाश में वहाँ चले गए और धर्मयुग, ब्लिट्ज़ जैसी पत्रिकाओं, समाचार पत्रों के लिए लिखने लगे। उनकी सरल और प्रभावकारी लेखनशैली ने शीघ्र ही उन्हें सम्मान और लोकप्रियता दिलाई। उर्दू कविता का उनका पहला संग्रह 1969 में छपा। फ़िल्म प्रोड्यूसर-निर्देशक-लेखक कमाल अमरोही उन दिनों फ़िल्म रज़िया सुल्ताना बना रहे थे जिसके गीत जाँनिसार अख़्तर लिख रहे थे जिनका अकस्मात निधन हो गया। जाँनिसार अख़्तर ग्वालियर से ही थे और निदा के लेखन के बारे में जानकारी रखते थे जो उन्होंने शत-प्रतिशत शुद्ध उर्दू बोलने वाले कमाल अमरोही को बताया हुआ था। तब कमाल अमरोही ने उनसे संपर्क किया और उन्हें फ़िल्म के वो शेष रहे दो गाने लिखने को कहा जो कि उन्होंने लिखे। इस प्रकार उन्होंने फ़िल्मी गीत लेखन प्रारम्भ किया और उसके बाद इन्होने कई हिन्दी फिल्मों के लिये गाने लिखे।उनकी पुस्तक मुलाक़ातें में उन्होंने उस समय के कई स्थापित लेखकों के बारे मे लिखा और भारतीय लेखन के दरबारी-करण को उजागर किया जिसमें लोग धनवान और राजनीतिक अधिकारयुक्त लोगों से अपने संपर्कों के आधार पर पुरस्कार और सम्मान पाते हैं। इसका बहुत विरोध हुआ और ऐसे कई स्थापित लेखकों ने निदा का बहिष्कार कर दिया और ऐसे सम्मेलनों में सम्मिलित होने से मना कर दिया जिसमें निदा को बुलाया जा रहा हो।जब वह पाकिस्तान गए तो एक मुशायरे के बाद कट्टरपंथी मुल्लाओं ने उनका घेराव कर लिया और उनके लिखे शेर - पर अपना विरोध प्रकट करते हुए उनसे पूछा कि क्या निदा किसी बच्चे को अल्लाह से बड़ा समझते हैं? निदा ने उत्तर दिया कि मैं केवल इतना जानता हूँ कि मस्जिद इंसान के हाथ बनाते हैं जबकि बच्चे को अल्लाह अपने हाथों से बनाता है।उनकी एक ही बेटी है जिसका नाम तहरीर है।
यह फिनलैंड का एक प्रमुख बंदरगाह है।
व्यापक क्र्म्संचरण विधि तंत्र यह विभिन्न यंत्रों को कम्प्युटर से जोड़ने की व्यवस्था है।यूएसबी को इंटेल एवं अन्य टेक्नोलॉजी कम्पनियों ने मिलकर बनाया था। यू0 एस0 बी0 के तीन संस्करण बाजार में आये। सबसे पहले यू0 एस0 बी0 - 1.1 आया इसकी अधिकतम डेटा स्थानांतरण गति, 12 एमबी प्रति सेकेंड थी। इसके पश्चात यू0 एस0 बी0 - 2.0 आया, इसकी अधिकतम डेटा स्थानांतरण गति, एमबी प्रति सेकेंड थी। वर्तमान मे यू0 एस0 बी0 - 3.0 भी उपयोग मे है। यूएसबी 3.0 को सुपर स्पीड यूएसबी नाम दिया गया है क्योंकि इसकी स्पीड पहले यूएसबी उपकरणों से कहीं तेज है। इसकी डेटा स्थानांतरण गति 4.8 जीबी प्रति सेकेंड है। यूएसबी फ्लैश ड्राइव
सूरा अल-फज्र कुरान का 89वां सूरा है। इसमें 30 आयतें हैं। यह सूरा विश्वास ना रखने वाले लोगों के विनाश के बारे में वर्णन करता है, जैसे प्राचीन मिस्र के लोग और स्तंभों वाले ईरम के लोग। जो लोग धन-सम्पत्ति को चाहते हैं, एवं गरीब एवं अनाथों की अवहेलना करते हैं, यह उनका बहिष्कार करता है। अंतिम आयत कहती है &mdash सच्चे तथा ईमान वाले लोगों को जन्नत का विश्वस दिलाया जाता है। ईश्वर इसमें स्वयं कहते हैं "मेरी जन्नत में आओ"। 123456789101112131415161718192021222324252627282930313233343536373839404142434445464748495051525354555657585960616263646566676869707172737475767778798081828384858687888990919293949596979899100101102103104105106107108109110111112113114
1151 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 1151 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 1151 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
बारी एक शहर तथा नगरपालिका है जो भारतीय राज्य राजस्थान के धौलपुर में स्थित है। यहां पर राजा राम सिंह ने कई सालों तक शासन किया था। बारी में कई प्राचीन मन्दिर भी है।
किसी खगोलीय पिंड की कक्षीय विकेन्द्रता वह राशि है जिसके द्वारा उसकी कक्षा एक पूर्ण वृत्त से विचलित हो जाती है। जहां शून्य एक पूर्ण वृत्त है और 1.0 एक परवलय है। इसे अंग्रेजी अक्षर e से प्रदर्शित किया जाता है। विकेन्द्रता निम्न मान ले सकती है:
विजयसिंह मोहिते पाटिल भारत की सोलहवीं लोक सभा के सांसद हैं। 2014 के चुनावों में वे महाराष्ट्र के माधा से निर्वाचित हुए। वे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से संबद्ध हैं।
पुस्तकालय के प्रकारविभिन्न पुस्तकालय का अपना क्षेत्र और उद्देश्य अलग अलग होता है और वह अपने उद्देश्य का पू￷त के लिए अनुकूल धारणकरते है। इसी के आधार पर इसके अनेक भेद हो जाते है जैसे- राष्ट्रीय पुस्तकालय, सावर्जिनक पुस्तकालय, व्यावसा￸यक पुस्तकालय,सरकारी पुस्तकालय, ￸चिकत्सा पुस्तकालय और विश्वविध्यालयो तथा ￱शिक्षण संस्थाओं में भी पुस्तकालय होते है। 1.1 राष्ट्रीय पुस्तकालय जिन पुस्तकालयों का उद्देश्य सम्पूर्ण राष्ट्र की सेवा करना होता है, उन्हें राष्ट्रीय पुस्तकालय कहते है। वहाँ पर हर प्रकार के पाठक की आवश्यकतानुसार पठनसामग्री का संकलन किया जाता है। अनीलड इस्डैल के मतानुसार 'राष्ट्रीय पुस्तकालय का प्रमुख कतर्व्य संपूण र्राष्ट्र के प्रग￸तशील विश्वविद्यालय को इतिहास और सािहत्य की सामग्री सुलभ करना, अध्यापक, लेखक एवं￱श￸क्षत को ￱श￸क्षत करनाहै'। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय पुस्तकालय के निम्नलिखित कतर्व्य होते है: 1- राष्ट्रीय ग्रंथसूची के प्रका￱शत करानेका दा￸यत्व।2- इस पुस्तकालय से संबद्ध की एक संघीय सूची का संपदान करना।3- पुस्तकालय में संदभर् सेवा की पूर्ण व्यवस्था करना और पुस्तकों को अंतरार्ष्ट्रीय आदान-प्रदान की सुिवधा दिलवाना।4- अंतरार्ष्ट्रीय ग्रंथसूची के कायर् के साथ समन्वय स्थािपत करना और इय संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी रखना।5- सम्पूर्ण राष्ट्र में स्थािपत महत्वपूर्ण संदभर्क की सूची तैयार करना।भारतीय विद्वान डाक्टर रंगनाथन के अनुसार देश की सांस्कृ￸तक अध्ययन सामग्री की सुरक्षा राष्ट्रीय पुस्तकालय का मुख्य कार्य है। साथ ही देश के प्रत्येक नागरिक को ज्ञानाजर्न के समान सुिवधा प्रदान करना और जनता की ￱शिक्षा में सहायता देने के द्वारा ऐसी भावना भरना िक लोग देश के प्राकृ￸तक साधन का उपयोग कर सक। यह िनश्चय हैिक यिद देश के प्रत्येक व्यिक्त का मस्तिष्क सृजनशील नहीं होगा तो राष्ट्र का सवार्ंगीण िवकास तीव्र ग￸त सेनह हो सकेगा। कापीराइट की सुिवधा से राष्ट्रीय पुस्तकालयों के विकास में वृ￸द्ध हुई है। वास्तव में पुस्तकालय आंदोलन के इतिहास में यह क्रां￸तकारीकदम है। ब्रिटेन के राष्ट्रीय पुस्तकालय, ब्रिटिश म्यूजियम को 1709 में यह सुिवधा प्रदान की गई। इसी प्रकार फ्रांस बिब्लयोथेक नैशनल अध्याय पुस्तकालय आधुिनक शैली का एक पुस्तकालय पेरस को 1556 और ब￳लन लाइब्रेरी को 1699 ई में एवंस्वस नैशनल लाइब्रेरी को 1950 ई। में वहाँ के प्रकाशन नि:शुल्क प्राप्त होने लगे। कापीराइट की यह महत्वपूर्ण सुिवधा भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय को सन् 1954 ई में प्रदान की गई। ￸डलीवरी आंव बुक्स सन् 1954 के कानून के द्वारा प्रत्येक प्रकाशन की कुछ प्र￸तयाँराष्ट्रीय पुस्तकालय को भेजना पप्रकाशकों के लिए कानून द्वारा अिनवायर् कर दिया गया है। 1.2. सावर्जिनक पुस्तकालयआधुिनक सावर्जिनक पुस्तकालयों का विकास वास्तव में प्रजातंत्र की महान् देन है। ￱शक्षा का प्रसारण एवंजनसामान्य को सु￱श￸क्षत करना प्रत्येक राष्ट्र का कतर्व्य है। जो लोग स्कूल या कालेज में नहीं पढ़ते, जो साधारण पढ़े लिखे है, अपना निजी व्यवसाय करते है अथवा जिनकी पढ़ने की अभिलाषा है पर पुस्तके नहीं खरीद सकते तथा साहित्य पढ़ना चाहते है, ऐसे वर्गों के लोगो को ध्यान में रखकर जनसाधारण की पुस्तकों की माँग सावर्जिनक पुस्तकालय ही पूरी कर सकते है। इसके अतिरिक्त प्रदशर्नी,वादिववाद, ￱शक्षाप्रद चल￸चत्र प्रदशर्न, महत्वपूर्ण विषयों पर भाषण का भी प्रबंध सावर्जिनक पुस्तकालय करते है। इस दिशा में यूनैसको जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन ने बड़ा महत्वपूणर् योगदान किया है। प्रत्येक प्रग￸तशील देश में जन पुस्तकालय निरन्तरं प्रग￸त कर रहे है और साक्षरता का प्रसार कर रहे है। वास्तव में लोक पुस्तकालय जनता के विश्विद्यालय है, जो बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के उपयोग के लिए खुले रहते है। 1.3 अनुसंधान पुस्तकालयउस संस्था को कहते है जो ऐसे लोगों की सहायता एवं मागर्दशर्न करती है जो ज्ञान की सीमाओं को विकसित करने में कार्य करता है। ज्ञान की विभिन्न शाखाएँ है और उनकी पू￷त विभिन्न प्रकार के संग्रहों से ही संभव हो सकती है, जैसे कृिष से सम्बंधित किसी विषय पर अनुसंधानात्मक लेख लिखने के लिए कृिष विश्विद्यालय या कृषि कार्य से सम्बंधित किसी संस्था का ही पुस्तकालय अ￸धक उपयोगी सद्ध होगा। ऐसे पुस्तकालयों की कायर्पद्ध￸त अन्य पुस्तकालयों से ￱भिन्न होती है। यहाँ कार्य करने वाले का अत्यंत दक्ष एवं अपने विषय का पं￸डत होना अिनवायर् है, नहींतो अनुसंधान कर्ताओ को ठीक मागर्दशर्न उपलब्ध न हो सकेगा। 1.4. व्यावसा￸यक पुस्तकालयइन पुस्तकालयों का उद्देश्य किसी विशेष व्यावसा￸यक संस्था अथवा वहाँ के करमचारियों की सेवा करना होता है। इनके आवश्यकता नुसारि वशेष पठनसामग्री का इन पुस्तकालयों में संग्रह किया जाता है, जैसे व्यवसाय से संबं￸धत डायरेक्टरोज, व्यावसा￸यक पित्रकाएँ, समयसार￱णयाँ, महत्वपूणर् सरकारी प्रकाशन, मान￸चत्र, व्यवसाय से संबं￸धत एवं संदभर्ग्रंथ, सािहत्य इत्यािद। 1.5. सरकारी पुस्तकालयवैसेतो सरकार अनेक पुस्तकालयों को वितीय सहायता देती है, परंतु जिन पुस्तकालयों का सम्पूर्ण व्यय सरकार वहन करती है उन्हें सरकारी पुस्तकालय कहते है, जैसे राष्ट्रीय पुस्तकालय, विभागतीय पुस्तकालय,विव￱भन्न मंत्रालयों के पुस्तकालय, प्रांतीय पुस्तकालय। संसद और विधानभवनों के पुस्तकालय भी सरकारी पुस्तकालय की श्रेणी में आते है। 1.6.￸चिकत्सा पुस्तकालययह पुस्तकालय किसी ￸चिकत्सा संबंधी संस्था, विद्यालय, अनुसंधान की अथवा ￸चिकत्सालय से संबद्ध होते है। ￸चिकत्सा संबंधी पुस्तकों का संग्रह इनमे रहता है और इनका सावर्जिनक न होकर विवशेष वर्ग की सेवा मात्र तक ही सिमित होता है। 1.7 ￱शक्षण संस्थाओंके पुस्तकालय￱शक्षण संस्थाओं के पुस्तकालयों को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है, जैसे विश्वविद्यालय पुस्तकालय, विद्यालय पुस्तकालय, माध्यिमक शाला पुस्तकालय, बेशक शाला पुस्तकालय एवं प्रयोगशालाओं, अनुसंधान संस्थाओंऔर खोज संस्थाओं के निजी पुस्तकालय आदि। हरविश्वविद्यालय के साथ एक िवशाल पुस्तकालय का होना प्राय: अनिवार्य ही है। बेशक शालाओं एवं जूिनयर हाई स्कूलों मेंतो अभी पुस्तकालयों का विकास नहीं हुआ है, परंतुमाध्यिमक शालाओं एवं विद्यालय के पुस्तकालयों का सवार्ंगीणि वकास हो रहा है। इसके अतिरिक्त पुस्तकालयों के और भी अनेक भेद है जैसे ध्वनि पुस्तकालय, जिसमें ग्रामोफोन रिकॉर्ड औरफिल्में आिद का संग्रह रहता है, कानून पुस्तकालय, समाचारपत्र पुस्तकालय, जेल पुस्तकालय, संगीत पुस्तकालय, बाल पुस्तकालय एवंसचल पुस्तकालय आदि। 1.8 सेना पुस्तकालयये पुस्तकालय विशिष्ट प्रकार के होते है और संग्रह की सेतो इनका प्राय: अन्य पुस्तकालयों से￱भन्न होता है। प्रथम विश्वयुद्ध के समय ऐसे पुस्तकालयों की आवश्यकता की ओर ध्यान दिया गया था और दुसरे विश्व युद्ध के समय तो सेना के अधिकारिय को पठन-पाठन की सुिवधा देने हेतुिमत्र-राष्ट्र ने अनेकानेक पुस्तकालय स्थािपत किए। अकेले अमरीका में नभ सेना के लिए 1600 पुस्तकालय है जिनमे नभ सेना के उपयोग के लिए नई से नई सामग्री का संग्रह किया जाता है। ये पुस्तकालय बहुत से जलपोती और सैिनक छाविनय के साथ स्थािपत किए गए है। इसी प्रकार वायुसेना और स्थल सेना के भी अनेक पुस्तकालय विश्व के अनेक देशों में है। अमेरिकन पेटागेन में सेना का एक विशाल पुस्तकालय है। भारत में रक्षा मंत्रालय, सेना प्रधान कायार्लय एवं￸डफसे साइंस आर्गेनाईजेशन के लिए विशाल पुस्तकालय है।
लव सिन्हा एक भारतीय अभिनेता हैं जिन्होंने हिन्दी फ़िल्म शादियाँ में मुख्य कलाकार की भूमिका निभाई थी। वो शत्रुघन सिन्हा के पुत्र एवं सोनाक्षी सिन्हा के भाई हैं। वो शत्रुघन सिन्हा और पूनम सिन्हा के पुत्र हैं। दबंग फ़िल्म की मसहूर अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा उनकी बहन है और उनके भाई का नाम कुश सिन्हा है।
वारंगल भारतीय राज्य तेलंगाना का एक ज़िला हुआ करता था। इसे विभाजित कर वारंगल और वारंगल ज़िलों में पुनर्गठित करा गया। क्षेत्रफल - 12,846 वर्ग कि.मी.जनसंख्या - 32,46,004
अयोध्या प्रसाद खत्री का नाम हिंदी पद्य में खड़ी बोली हिन्दी के प्रारम्भिक समर्थकों और पुरस्कर्ताओं में प्रमुख है। उन्होंने उस समय हिन्दी कविता में खड़ी बोली के महत्त्व पर जोर दिया जब अधिकतर लोग ब्रजभाषा में कविता लिख रहे थे। उनका जन्म बिहार में हुआ था बाद में वे बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में कलक्‍टरी के पेशकार पद पर नियुक्त हुए। 1877 में उन्होंने हिन्दी व्याकरण नामक खड़ी बोली की पहली व्याकरण पुस्तक की रचना की जो बिहार बन्धु प्रेस द्वारा प्रकाशित की गई थी। उनके अनुसार खड़ीबोली गद्य की चार शैलियाँ थीं- मौलवी शैली, मुंशी शैली, पण्डित शैली तथा मास्टर शैली। 1887-89 में इन्होंने "खड़ीबोली का पद्य" नामक संग्रह दो भागों में प्रस्तुत किया जिसमें विभिन्न शैलियों की रचनाएँ संकलित की गयीं। इसके अतिरिक्त सभाओं आदि में बोलकर भी वे खड़ीबोली के पक्ष का समर्थन करते थे। सरस्वती मार्च 1905 में प्रकाशित "अयोध्याप्रसाद" खत्री शीर्षक जीवनी के लेखक पुरुषोत्तमप्रसाद ने लिखा था कि खड़ी बोली का प्रचार करने के लिए इन्होंने इतना द्रव्य खर्च किया कि राजा-महाराजा भी कम करते हैं। 1888 में उन्‍होंने 'खडी बोली का आंदोलन' नामक पुस्तिका प्रकाशित करवाई। भारतेंदु युग से हिन्दी-साहित्य में आधुनिकता की शुरूआत हुई। इसी दौर में बड़े पैमाने पर भाषा और विषय-वस्तु में बदलाव आया। इतिहास के उस कालखंड में, जिसे हम भारतेंदु युग के नाम से जानते हैं, खड़ीबोली हिन्दी गद्य की भाषा बन गई लेकिन पद्य की भाषा के रूप में ब्रजभाषा का बोलबाला कायम रहा। अयोध्या प्रसाद खत्री ने गद्य और पद्य की भाषा के अलगाव को गलत मानते हुए इसकी एकरूपता पर जोर दिया। पहली बार इन्होंने साहित्य जगत का ध्यान इस मुद्दे की तरफ खींचा, साथ ही इसे आंदोलन का रूप दिया। हिंदी पुनर्जागरण काल में स्रष्टा के रूप में जहाँ एक ओर भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसा प्रतिभा-पुरुष खड़ा था तो दूसरी ओर द्रष्टा के रूप में अयोध्याप्रसाद खत्री जैसा अद्वितीय युगांतरकारी व्यक्तित्व था। इसी क्रम में खत्री जी ने 'खड़ी-बोली का पद्य` दो खंडों में छपवाया। इस किताब के जरिए एक साहित्यिक आंदोलन की शुरूआत हुई। हिन्दी कविता की भाषा क्या हो, ब्रजभाषा अथवा खड़ीबोली हिन्दी?जिसका ग्रियर्सन के साथ भारतेंदु मंडल के अनेक लेखकों ने प्रतिवाद किया तो फ्रेडरिक पिन्काट ने समर्थन। इस दृष्टि से यह भाषा, धर्म, जाति, राज्य आदि क्षेत्रीयताओं के सामूहिक उद्घोष का नवजागरण था। जुलाई 2007 में बिहार के शहर मुजफ्फरपुर में उनकी समृति में 'अयोध्या प्रसाद खत्री जयंती समारोह समिति' की स्थापना की गई। इसके द्वारा प्रति वर्ष हिंदी साहित्य में विशेष योगदन करने वाले किसी विशिष्ट व्यक्ति को अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान से सम्मानित किया जाता है। पुरस्कार में अयोध्या प्रसाद खत्री की डेढ़ फुट ऊँची प्रतिमा, शाल और नकद राशि प्रदान की जाती है। 5-6 जुलाई 2007 को पटना में खड़ी बोली के प्रथम आंदोलनकर्ता अयोध्या प्रसाद खत्री की 150वीं जयंती आयोजित की गई। संस्था के अध्यक्ष श्री वीरेन नंदा द्वारा श्री अयोध्या प्रसाद खत्री के जीवन तथा कार्यों पर केन्द्रित 'खड़ी बोली का चाणक्य' शीर्षक फिल्म का निर्माण किया गया है।
सांता क्रूज़ दे तेनेरीफ़ एक रोमन कैथोलिक गिरजाघर है। ये सांता क्रूज़ दे तेनेरीफ़, केनरी द्वीपसमूह, स्पेन में स्थित है। ये शहर का दूसरा गिरजाघर है। पहिला बड़ा गिरजाघर इग्लिअस दे ला कोंसेप्सिओ है। इस गिरजाघर के निर्माण का काम 1680 में पूरा हुआ। इसमें कला का खूबसूरत काम किया गया है। ये केनरी द्वीपसमूह में बारोक शैली की सबसे अच्छी उदहारण है। इसमें ईसा मसीह के बड़ी मशहूर फोटो है। माना जाता है कि 1893 ई. में जब शहर हैजा फ़ैल गया था तो शहर में ईसा के फोटो को सड़को पर लाया गया और ये बीमारी चमत्कारी ढंग से बंद हो गयी। उस दिन से इस फोटो की पूजा की जाती है। निर्देशांक: 28°28′05″N 16°14′58″W / 28.46806°N 16.24944°W / 28.46806; -16.24944
महलों के ख़्वाब 1960 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है।
असम में 2 दिसम्बर, 2008, मंगलवार सुबह 7 बजकर 50 मिनट पर गुवाहाटी से तिनसुकिया जा रही पैसेंजर ट्रेन में हुए धमाके में तीन लोग मारे गए और 30 अन्य घायल हो गए। दीफू स्टेशन पर खड़ी ट्रेन में हुए इस हादसे के बाद स्टेशन से ट्रेनों का आवागमन रोक दिया गया है। स्टेशन पर ट्रेन खाली कराकर उसकी तलाशी ली जा रही है। धमाका सुबह 8.10 बजे हुआ है। दिफू एक संवेदनशील इलाका है। दीफू एसपी ने बताया कि यह धमाका आतंकियों ने टाइमर लगाकर किया है। उन्होंने बताया कि इस घटना में 3 लोग मारे गए और 30 घायल हो गए। आशंका जताई जा रहीं है कि यह धमाका के एल एन एफ आतंकियों ने किया है। दिफू रेलवे स्टेशन के आगे दकमोका नामक जगह पर दो जिंदा बम मिले। ये बम रेलवे ट्रेक पर ही रखा था। लमडिंग के पास ये धमाका उस वक्त हुआ जब ट्रेन दिफू स्टेशन पर खड़ी थी। ये धमाका ट्रेन की बोगी नंबर 8209 में हुआ है। स्टेशन पर अफरा-तफरी मच गई है। पुलिस मौके पर पहुंच गई है। धमाके की शक की सुई केएलएनएलएफ पर जताई जा रही है। धमाका सुबह 8.10 बजे हुआ है। दिफू एक संवेदनशील इलाका है। यहां पर उग्रवादियों के ताडंव बीच-बीच में होते रहते हैं। असम में सक्रिय विद्रोही संगठनों में से किसी ने भी इस घटना की ज़िम्मेदारी नहीं ली है। पुलिस का कहना है कि उसे कार्बी जनजाति के कोर्बी लोंगरी नेशनल लिब्रेशन फ़्रंट का इस घटना में हाथ होने का शक़ है। ये गुट पहले भी हिंदी भाषी लोगों को वहाँ निशाना बना चुका है। तीस अक्टूबर को असम के चार नगरों में हुए धमाकों में 80 लोग मारे गए थे। उन धमाकों के लिए राज्य सरकरा ने अल्फ़ा और नेशनल डेमोक्रिटेक फ़्रंट ऑफ़ बोडोलैंड को ज़िम्मेदार ठहराया था।
खरतरगच्छ जैन संप्रदाय का एक पंथ है। इस गच्छ की उपलब्ध पट्टावली के अनुसार महावीर के प्रथम शिष्य गौतम हुए। जिनेश्वर सूरि रचित कथाकोषप्रकरण की प्रस्तावना में इस गच्छ के संबंध में बताया गया है कि जिनेश्वर सूरि के एक प्रशिष्य जिनबल्लभ सूरि नामक आचार्य थे। इनका समय 1112 से 1154 ई. है। इनका जिनदत्त सूरि नामक एक पट्टधर था। ये दोनों ही प्रकांड पंडित और चरित्रवान् थे। इन लोगों के प्रभाव से मारवाड़, मेवाड़, बागड़, सिंध, दिल्ली एवं गुजरात प्रदेश के अनेक लोगों ने जैन धर्म की दीक्षा ली। उन लोगों ने इन स्थानों पर अपने पक्ष के अनेक जिन मंदिर और जैन उपाश्रय बनवाए और अपने पक्ष को विधिपक्ष नाम दिया। उनके शिष्यों ने जो जिन मंदिर बनवाए वे विधि चैत्य कहलाए। यही विधि पक्ष कालांतर में खरतरगच्छ कहा जाने लगा और यही नाम आज भी प्रचलित है। इस गच्छ में अनेक गंभीर एवं प्रभावशाली आचार्य हुए हैं। उन्होंने भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक आदि विषयों पर संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश एवं देश भाषा में हजारों ग्रंथ लिखे। उनके ये ग्रंथ केवल जैन धर्म की दृष्टि से ही महत्व के नहीं हैं, वरन समस्त भारतीय संस्कृति के गौरव माने जाते हैं।
संस्कृत स्तोत्रों में वैदिक शतरुद्रि, उत्पलदेव की 'स्तोत्रावली', जगद्धर भट्ट की 'स्तुतिकुसुमांजलि', 'पुष्पदंत' का 'शिवमहिम्न स्तोत्र', रावणकृत 'तांडव स्तोत्र' एवं शंकराचार्य कृत 'शिवानंदलहरी' प्रमुख शैव रचनाएँ हैं। प्रबंधकाव्यों में कालिदासकृत 'कुमारसंभव' भारविकृत 'किरातार्जुनीयम्‌' मंखकरचित 'श्रीकंठचरितम्‌' एवं रत्नाकर प्रणीत 'हरविजय' उल्लेख्य हैं। हिंदी में भी शैवकाव्य की ये स्तोत्रात्मक एवं प्रबंधात्मक पद्धतियाँ चलीं पर इसके अतिरिक्त शिव के स्वरूपैश्वर्य का स्वतंत्र वर्णन, हास्य के आलंबन, शृंगार के उपमान एवं क्रांति और विनाश के प्रतीक के रूप में भी उनका चित्रण पर्याप्त रूप में हुआ है। मिथिला, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में शैव साधना एवं शैव भाव का विशेष महत्व रहा है। फलत: इन प्रदेशों में शैव काव्य का अखंड सृजन होता रहा। हिंदी साहित्य के आदिकाल में अपभ्रंश और लोकभाषा दोनों में शैव काव्य का प्रचुर प्रणयन हुआ। जैन कवि पुष्पदंत ने अपने 'णायकुमारचरिउ' में शिव द्वारा मदनदहन तथा ब्रह्मा के शिरोच्छेद की कथा का वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त 'प्राकृतपैंगलम्‌' में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ शिव के विराट् स्वरूप का स्वतंत्र रूप से विलक्षण वर्णन उपलब्ध होता है। सिद्ध कवि गुंडरीपा और सरहपा आदि ने भी शैव मत से प्रभावित होकर अनेक पद रचे। नाथपंथ शैवों का ही एक संप्रदाय था अत: गोरख की बानियों में सर्वत्र ही शिव शक्ति के सामरस्य एवं असंख्य कलायुक्त शिव को सहस्रार में ही देखने का संदेश दिया गया है। चौदहवीं शताब्दी में मिथिला के महाकवि विद्यापति ने शताधिक शैव गीतों का सृजन किया जो नचारी के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके गीतों में शिव के नटराज, अर्धनारीश्वर एवं हरिहर के एकात्म रूप का चित्रण है तथा शिव के प्रति व्यक्त एक भक्त के निश्छल हृदय की सहज भावनाओं का उद्रेक भी है। भक्तिकाल में मिथिला के कृष्णदास, गोविंद ठाकुर तथा हरिदास आदि ने स्वतंत्र रूप से शिवमहिमा एवं उनके ऐश्वर्यप्रतिपादक पदों का निर्माण किया। मिथिलेतर प्रदेशों के तानसेन, नरहरि एवं सेनापति ने भी शिव के प्रति भक्तिभाव से पूर्ण अनेक कवित्त रचे। सूफी कवि जायसी ने शैव मत से प्रभावित होकर पद्मावत में अनेक शैव तत्वों का पतिपादन किया। उन्होंने शिवशक्ति या रसायनवाद के सभी उपकरणों को मुक्त भाव से स्वीकार किया एवं रतनसेन को शिवानुग्रह से ही सिद्धि दिलाई। इसी भाँति कबीर आदि ज्ञानमार्गी संतों पर शैव मत एवं नाथपंथियों का प्रभाव है। उन्होंने निरंजन या शून्य को शिवरूप में ही ग्रहण किया। महाकवि तुलसीदास ने 'विनयपत्रिका' में शिव के प्रति भक्तिभाव से पूर्ण अनेक पदों की रचना की एवं 'पार्वतीमंगल' जैसे स्वतंत्र ग्रंथ में शिवविवाह की कथा को प्रथम बार लोकभाषा में प्रबंधात्मक रूप प्रदान किया। उनके 'रामचरितमानस' के आरंभ में ही शिवकथा कही गई है। मध्य में भी प्रसिद्ध शिवस्तुति है और शिव-उमा-संवाद के रूप में प्रस्तुत कर तुलसी ने रामकथा को शैव परिवेश प्रदान कर किया है। सूरदास ने भी सूरसागर में अंतर्कथा के रूप में शिवजीवन के अनेक प्रसंगों को गीतिप्रबंध का रूप देकर प्रस्तुत किया है। रीतिकालीन कवियों में प्राय: सबने शिव संबंधी काव्यप्रणयन किया जिनमें केशवदास, देव, पद्माकर, भिखारीदास और भूषण प्रमुख हैं। केशव और भिखारी आदि ने अपने लक्षमणग्रंथों के उदाहरण के लिए शिव का जहाँ अनेक स्थलों पर वर्णन किया है वहाँ मिथिला के अग्निप्रसाद सिंह, आनंद, उमानाथ, कुंजनदास, चंदनराम, जयरामदास, महीनाथ ठाकुर, लाल झा एवं हिमकर न स्वतंत्र रूप से शिवसंबंधी पद रचे। इनके अतिरिक्त इस काल में प्रणीत शैव काव्यग्रंथों में दीनदयाल गिरि का 'विश्वनाथ नवरत्न', दलेलसिंह का 'शिवसागर' तथा बनारसी कवि की 'शिवपच्चीसी' आदि महत्वपूर्ण हैं। प्रबंध काव्यों में पं. गौरीनाथ शर्मा का दोहा, चौपाई छंद में रचित 'शिवपुराण' महाकाव्य अत्यंत उत्कृष्ट है। जयशंकरप्रसादकृत 'कामायनी' में शैवों के प्रत्यभिज्ञा दर्शन का प्रचुर प्रभाव है तथा इसमें शिव के नटराज रूप के अतिरिक्त उनके सृष्टिरक्षक, सृष्टिसंहारक, सृष्टि की मूल शक्ति एवं महायोगी रूप का भी भव्य और उदात्त वर्णन है। इसमें श्रद्धा के सहयोग से इच्छा, क्रिया और ज्ञान सामरस्य कर शाश्वत शिवानंद प्राप्त करने का दिव्य संदेश मानव को दिया गया है। गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरिश' कृत 'ताराकवध' एक विशाल शैव महाकाव्य है। राजस्थान के कवि रामानंद तिवारी का 'पार्वती' महाकाव्य शैव काव्यों में एक उत्कृष्ट उपलब्धि है। इसकी कथा पर यद्यपि कुमारसंभव का प्रभाव है तथापि इसमें शिवसमाज, शिवदर्शन, शिवसंस्कृति आदि का विस्तृत वर्णन कर मानव को शिव समाज-निर्माण का संदेश दिया गया है। युगीन भावनाओं एवं राष्ट्रीय परिवेश के आवरण में शिव को तांडव, क्रांति और विध्वंस का प्रतीक मानकर काव्य रचनेवालों में कविवर आरसी, केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' नाथूराम 'शंकर', रामकुमार वर्मा, रामधारी सिंह 'दिनकर' एवं सुमित्रानंदन पंत प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त अनूप शर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' आदि अनेक ऐसे उत्कृष्ठ कवि है जिन्होंने अपनी कविताओं में शिव के प्रति भक्तिभाव व्यंजित कर शैव काव्य के भंडार को भरने में योगदान दिया है।
सगरमाथा प्रान्त का एक शहर
} निर्देशांक: 27°11′N 78°01′E / 27.18°N 78.02°E / 27.18; 78.02 छत्तापुर खैरागढ़, आगरा, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। · अंबेडकर नगर जिला · आगरा जिला · अलीगढ़ जिला · आजमगढ़ जिला · इलाहाबाद जिला · उन्नाव जिला · इटावा जिला · एटा जिला · औरैया जिला · कन्नौज जिला · कौशम्बी जिला · कुशीनगर जिला · कानपुर नगर जिला · कानपुर देहात जिला · खैर · गाजियाबाद जिला · गोरखपुर जिला · गोंडा जिला · गौतम बुद्ध नगर जिला · चित्रकूट जिला · जालौन जिला · चन्दौली जिला · ज्योतिबा फुले नगर जिला · झांसी जिला · जौनपुर जिला · देवरिया जिला · पीलीभीत जिला · प्रतापगढ़ जिला · फतेहपुर जिला · फार्रूखाबाद जिला · फिरोजाबाद जिला · फैजाबाद जिला · बलरामपुर जिला · बरेली जिला · बलिया जिला · बस्ती जिला · बदौन जिला · बहरैच जिला · बुलन्दशहर जिला · बागपत जिला · बिजनौर जिला · बाराबांकी जिला · बांदा जिला · मैनपुरी जिला · महामायानगर जिला · मऊ जिला · मथुरा जिला · महोबा जिला · महाराजगंज जिला · मिर्जापुर जिला · मुझफ्फरनगर जिला · मेरठ जिला · मुरादाबाद जिला · रामपुर जिला · रायबरेली जिला · लखनऊ जिला · ललितपुर जिला · लखीमपुर खीरी जिला · वाराणसी जिला · सुल्तानपुर जिला · शाहजहांपुर जिला · श्रावस्ती जिला · सिद्धार्थनगर जिला · संत कबीर नगर जिला · सीतापुर जिला · संत रविदास नगर जिला · सोनभद्र जिला · सहारनपुर जिला · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश · हरदोइ जिला
कार्ल फ्रेडरिक गॉस अथवा कार्ल फ्रेडरिक गाउस ; लातिन : Carolus Fridericus Gauss) एक जर्मन गणितज्ञ और भौतिक विज्ञानी थे जिन्होंने संख्या सिद्धान्त, बीजगणित, सांख्यिकी, गणितीय विश्लेषण, अवकल ज्यामिति, भूगणित, भूभौतिकी, वैद्युत स्थैतिकी, खगोल शास्त्र और प्रकाशिकी सहित कई क्षेत्रों में सार्थक रूप से योगदान दिया। गाउस को विद्युत के गणितीय सिद्धांत का संस्थापक कहा जाता है। विद्युत की चुंबकीय इकाई का 'गाउस' नाम उसी के नाम पर रखा गया है। कभी-कभी गाउस को गणित का राजकुमार भी कहा जाता है। गॉस का गणित और विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न क्षेत्रों में योगदान है और उनका योगदान इतिहास का सबसे प्रभावशाली योगदान रहा है। उन्होंने गणित को "विज्ञान की रानी" कहा है। जर्मनी के ब्रुंसविक नाम स्थान में एक ईंट चुननेवाले मेमार के घर उसका जन्म हुआ था। जन्म से ही उसमें गणति के प्रश्नों को तत्काल हल कर देने की क्षमता थी। उसकी इस प्रतिभा का पता जब ब्रुंसविक के ड्यूक को लगा तो उन्होंने उसे गटिंगन विश्वविद्यालय में अध्ययन करने की व्यवस्था कर दी। वहाँ विद्यार्थी जीवन में ही उसने अनेक गणितीय आविष्कार किए। जयामिति के माध्यम से उसने सिद्ध किया कि एक वृत्त सत्तरह समान आर्क में विभाजित हो सकता है। सिरेस नामक ग्रह के संबंध में उसने जो गणना की उसके कारण उसकी गणना खगोलशास्त्रियों में की जाती है। 1807 ई0 से मृत्यु पर्यंत वह गर्टिगन वेधशाला का निदेशक रहा।
उदयलालपुर, हल्द्वानी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है।
ट्राइटियम ट्राइटियम हाइड्रोजन का एक रेडियोधर्मी समस्थानिक होता है। इसे ट्राइटॉन भी कहते हैं। ट्राइटियम के नाभिक में एक प्रोटॉन और दो न्यूट्रॉन होते हैं, जबकि हाइड्रोजन के सबसे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध समस्थानिक प्रोटियम में मात्र एक प्रोटॉन ही होता है और न्यूट्रॉन अनुपस्थित होता है। इस समस्थानिक का नाम एक ग्रीक शब्द से मिलकर बना है, जिसका अर्थ थर्ड या तृतीय होता है। ट्राइटियम की उत्पत्ति हैवी वाटर मॉडरेट रिएक्टर में ड्यूटीरियम माध्यम में न्यूट्रान के टकराव से होती है। इस प्रक्रिया में कुछ मात्रा में ट्राइटियम बनता है। ट्राइटियम का आण्विक भार 3.0160492 होता है। मानक तापमान और दबाव पर ट्राइटियम गैस रूप में रहता है। ऑक्सीजन से मिश्रित होने पर यह ये तरल रूप धारण करता है, जिसे ट्राइटीकृत जल कहते हैं। ये रबड़, प्लास्टिक और कुछ तरह के इस्पातों के लिए पारगम्य होता है। ट्राइटियम की खोज 1920 में वाल्टर रसेल ने की थी। वहीं विल्फर्ड एफ. लिबी ने यह खोज की थी कि ट्राइटियम का प्रयोग डेटिंग वाटर की तरह किया जा सकता है, जो मदिरा उत्पादन के लिए निर्माण किया जाता है। हाइड्रोजन की तरह ट्राइटियम को सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। ट्राइटियम और ड्यूटेरियम को परमाणु ईंधन की तरह प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार ये चर्चा का विषय रहा है, कि ट्राइटियम को प्रस्तावित फ़्यूज़न रियेक्टरों में अधिक मात्र में प्रयोग करने पर रेडियोधर्मी प्रदूषण संभव है। विभिन्न देशों में ट्राइटियम के प्रयोग पर निषेध है। सूर्य पर जो प्रक्रियाएँ होती हैं, उन में हाइड्रोजन के दोनों ड्यूटेरियम और ट्राइटियम के अणुओं के मेल से अधिक मात्रा में ऊर्जा पैदा होती है। ड्यूटेरियम और ट्राइटियम के एक ग्राम से उतनी ही ऊर्जा उत्पन होती है जितनी 8 टन तेल से पैदा की जा सकती है। ट्राइटियम लगभग हाइड्रोजन से मिलता जुलता होता है, जिसके कारण यह सरलता से मिलकर कार्बनिक बंध बना लेते हैं। ट्राइटियम बीटा का मजबूत उत्सर्जक नहीं है जिस कारण यह काफी खतरनाक होता है। खाना, पानी और त्वचा द्वारा अवशोषण किए जाने के कारण सांस लेने या खाना खाने के दौरान काफी हानिकारक होता है। ट्राईटियम डायल वाली घड़ी ट्राइटियम भरी ट्यूबलाइट
तप गच्छ, श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय का सबसे बड़ा गच्छ है।
निर्देशांक: 25°36′40″N 85°08′38″E / 25.611°N 85.144°E / 25.611; 85.144 इजरटा पालीगंज, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है।
हैम्पटन विक एक दक्षिणपश्चिम लंदन में रिचमंड अपॉन टेम्स बरो का जिला है। बार्न्स | ईस्ट शीन | ईस्ट ट्विकनहम | हैम | हैम्पटन | हैम्पटन हिल और फ़ुलवेल | हैम्पटन विक | क्यू | मोर्टलेक | नॉर्थ शीन | पीटरशम | रिचमंड | सेंट मार्गरेट्स | स्ट्रॉबेरी हिल | टेडिंगटन | ट्विकनहम | ह्विटन ऐक्टन |बार्किंग |बार्न्स |बार्नेट |बैटरसी |बेकनहम |बर्मंडसी |बेथनल ग्रीन |बेक्सलीहीथ |ब्लूम्सबरी |ब्रेंटफ़र्ड |ब्रिक्सटन |ब्रॉमली |केम्बरवेल |कैमडन टाउन |कार्शल्टन |कैटफ़र्ड |चेल्सी |चिंगफ़र्ड |चिसलहर्स्ट |चिज़िक |सिटी |क्लैपहम |क्लर्कनवेल |कूल्सडन |क्रॉयडन |डेगनहम |डेटफ़र्ड |ईलिंग |ईस्ट हैम |एडमंटन |एल्ठम |एनफ़ील्ड टाउन |फ़ेल्ठम |फ़िंचली |फ़ुलहम |ग्रेनिच |हैकनी |हैमरस्मिथ |हैम्पस्टेड |हैरो |हेंडन |हाइबरी |हाइगेट |हिलिंगडन |हॉलबोर्न |हॉर्नचर्च |हाउंस्लो |इलफ़र्ड |आइल ऑफ़ डॉग्स |आइज़लवर्थ |इस्लिंगटन |केंसिंगटन |केंटिश टाउन |किलबर्न |किंग्स्टन अपॉन टेम्स |लैम्बेथ |लूविशम |लेटन |मेफ़ेयर |मिचम |मोर्डेन |नैग्स हेड |न्यू मॉल्डन |ओर्पिंगटन |पैडिंगटन |पेखम |पेंज |पिनर |पॉप्लर |पर्ली |पटनी |रिचमंड |रॉमफ़र्ड |राइस्लिप |शेपर्ड्स बुश |शोरडिच |सिडकप |सोहो |साउथॉल |साउथगेट |स्टेपनी |स्टोक न्यूइंगटन |स्ट्रैटफ़र्ड |स्ट्रेटहम |सर्बिटन |सटन |सिडनहम |टेडिंगटन |टेम्समेड |टूटिंग |टॉटनहम |ट्विकनहम |अपमिनिस्टर |अक्सब्रिज |वल्ठम्सटो |वंड्सवर्थ |वंस्टेड |वैपिंग |वेल्डस्टोन |वेलिंग |वेम्बली |वेस्ट हैम |वेस्टमिंस्टर |ह्वाइटचैपल |विल्सडन |विम्बलडन |वुड ग्रीन |वुडफ़र्ड |वुलिच
पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत का एक जिला।
राजनीति तथा समाजविज्ञान में 'बांटो और राज करो' राजनैतिक, सैनिक एवं आर्थिक रणनीतियों का समुच्चय है जो शक्ति हासिल करने तथा उसे बनाए रखने के लिए प्रयोग की जाती हैं। इसे 'बांटो और जीतो' भी कहते हैं। इस नीति के तहत मौजूद शक्तियों को बांटकर छोटा करा दिया जाता है और इनको एक होने से रोकने के सतत प्रयत्न किये जाते हैं। अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाने के लिए तथा तत्पश्चात लंबे समय तक गुलाम बनाये रखने के लिए इसका भरपूर उपयोग किया। इसके अलावा इतिहास में इस नीति के सफल क्रियान्वयन के उदाहरण भरे पड़े हैं। सभी यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों ने भारतीय उपमहाद्वीप में 'बांटो और राज करो' की नीति का प्रयोग किया। विभिन्न भारतीय राज्यों की आपसी लड़ाई में फ्रान्सीसी और ब्रितानी दोनों ही ने बढ़चढ़कर भाग लिया। इसके द्वारा वे एक-दूसरे की शक्ति का अनुमान लगाते थे और अपनी शक्ति को बढ़ाने में इसकी मदद लेते थे। ब्रितानियों ने भारत में हिन्दू-मुसलमान, हिन्दू-सिख, सवर्णन-अछूत आदि के भेदभाव को विभिन्न तरीकों से बढ़ाया और भारतीयों की एकता को छिन्न-भिन्न किया।
कौवा एक पक्षी है। राजस्थानी में इसे कागला तथा मारवाडी भाषा में हाडा कहा जाता हैँ |राजस्थान में एक बहुप्रचलित कहावत है-" मलके माय हाडा काळा " अर्थात दुष्ट व्यक्ति हर जगह मिलते हैँ। अपेक्षाकृत छोटा कबूतर आकार के जैकडो से होलारक्टिक क्षेत्र के आम रैवेन और इथियोपिया के हाइलैंड्स के मोटी-बिल वाले रेवेन, दक्षिण अमेरिका को छोड़कर सभी समशीतोष्ण महाद्वीपों पर इस जीनसोकक के 45 या इतने सदस्य हैं।, और कई द्वीपों कौवा जीन परिवार कोरिडीडे में प्रजातियों में से एक तिहाई पैदा करता है। सदस्यों को एशिया में कॉरिड स्टॉक से विकसित किया गया है, जो ऑस्ट्रेलिया में विकसित हुआ था। कौवा के एक समूह के लिए सामूहिक नाम एक 'झुंड' या 'हत्या' है। जीनस नाम "रेवेन" के लिए लैटिन है।वैज्ञानिक वर्गीकरणकिंगडम:एनिमिलियासंघ:कॉर्डेटा
अलेक्सांद्र सेर्गेयेविच पूश्किन रूसी भाषा के छायावादी कवियों में से एक थे जिन्हें रूसी का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। उन्हें आधुनिक रूसी कविता का संस्थापक भी माना जाता है। पूश्किन के 38 वर्ष के छोटे जीवनकाल को हम 5 खंडों में बाँटकर समझ सकते हैं। 26 मई 1799 को उनके जन्म से 1820 तक का समय बाल्यकाल और प्रारंभिक साहित्य रचना को समेटता है। 1820 से 1824 का समय निर्वासन काल है। 1824 से 1826 के बीच वे मिखायेलोव्स्कोये में रहे। 1826-1831 में वे ज़ार के करीब आकर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचे। 1831 से उनकी मृत्यु तक का काल उनके लिए बड़ा दुःखदायी रहा। बारह साल की उम्र में पूश्किन को त्सारस्कोयेस्येलो के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया। सन्‌ 1817 में पूश्किन पढ़ाई पूरी कर सेंट पीटर्सबर्ग आ गए और विदेश मंत्रालय के कार्यों के अतिरिक्त उनका सारा समय कविता करने और मौज उड़ाने में बीता, इसी दौरान सेना के नौजवान अफसरों द्वारा बनाई गई साहित्यिक संस्था ग्रीनलैंप में भी उन्होंने जाना शुरू कर दिया था, जहाँ उनकी कविता का स्वागत हुआ। मुक्त माहौल में अपने विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए पूश्किन ने ओड टू लिबर्टी, चादायेव के लिए और देश में जैसी कविताएँ लिखीं। दक्षिण में येकातेरीनोस्लाव, काकेशस और क्रीमिया की अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने खूब पढ़ा और खूब लिखा, इसी बीच वे बीमार भी पड़े और जनरल रायेव्स्की के परिवार के साथ काकेशस और क्रीमिया गए। पूश्किन के जीवन में यह यात्रा यादगार बनकर रह गई। काकेशस की खूबसूरत वादियों में वे रोमांटिक कवि बायरन की कविता से परिचित हुए। सन्‌ 1823 में उन्हें ओद्देसा भेज दिया गया। ओद्देसा में जिन दो स्त्रियों से उनकी नजदीकीयाँ रहीं उनमें एक थी एक सर्ब व्यापारी की इटालियन पत्नी एमिलिया रिजनिच और दूसरी थी प्रांत के गवर्नर जनरल की पत्नी काउंटेस वोरोन्त्सोव। इन दोनों महिलाओं ने पूश्किन के जीवन में गहरी छाप छोड़ी। पूश्किन ने भी दोनों से समान भाव से प्रेम किया और अपनी कविताएँ भी उन्हें समर्पित कीं। किंतु दूसरी ओर काउंटेस से बढ़ी नजदीकी उनके हित में नहीं रही। उन्हें अपनी माँ की जागीर मिखायेलोव्स्कोये में निर्वासित कर दिया गया। रूस के इस सुदूर उत्तरी कोने पर पूश्किन ने जो दो साल बिताए, उनमें वे ज्यादातर अकेले रहे। पर यही समय था जब उन्होंने येव्गेनी अनेगिन और बोरिस गोदुनोव जैसी विख्यात रचनाएँ पूरी कीं तथा अनेक सुंदर कविताएँ लिखीं। अंततः सन्‌ 1826 में 27 वर्ष की आयु में पूश्किन को ज़ार निकोलस ने निर्वासन से वापस सेंट पीटर्सबर्ग बुला लिया। मुलाकात के दौरान जार ने पूश्किन से उस कथित षड्यंत्र की बाबत पूछा भी जिसकी बदौलत उन्हें निर्वासन भोगना पड़ा था। सत्ता की नजरों में वे संदेहास्पद बने रहे और उनकी रचनाओं को भी सेंसर का शिकार होना पड़ा, पर पूश्किन का स्वतंत्रता के प्रति प्रेम सदा बरकरार रहा। सन्‌ 1828 में मास्को में एक नृत्य के दौरान पूश्किन की भेंट नाताल्या गोंचारोवा से हुई। 1829 के बसंत में उन्होंने नाताल्या से विवाह का प्रस्ताव किया। अनेक बाधाओं के बावजूद सन 1831 में पूश्किन का विवाह नाताल्या के साथ हो गया। पूश्किन का विवाहित जीवन सुखी नहीं रहा। इसकी झलक उनके लिखे पत्रों में मिलती है, पूश्किन का टकराव नाताल्या गोंचारोवा के एक दीवाने फ्रांसीसी द'आंतेस से हुआ जो जार निकोलस का दरबारी था। कहा जाता है कि द'आंतेस नाताल्या से प्रेम करने लगा था। द'आंतेस ने नाताल्या की बहन कैथरीन से विवाह का प्रस्ताव रखा। फिर वह और नाताल्या छुपकर मिले, स्थितियाँ और बिगड़ीं। यह पूश्किन को सहन नहीं हुई और वह द'आंतेस को द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण दे बैठा। 27 जनवरी 1837 को हुए द्वंद्व युद्ध में पूश्किन द'आंतेस की गोलियों से बुरी तरह घायल हुए और दो दिनों बाद 29 जनवरी 1837 को मात्र 38 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। पूश्किन की अचानक हुई मौत से सनसनी फैल गई। तत्कालीन रूसी समाज के तथाकथित कुलीनों को छो़ड़कर छात्रों, कामगारों और बुद्धिजीवियों सहित लगभग पचास हजार लोगों की भीड़ कवि को श्रद्धांजलि अर्पित करने सेंट पीटर्सबर्ग में जमा हुई थी। केवल 37 साल जीकर पूश्किन ने संसार में अपना ऐसा स्थान बना लिया जिसे उन्होंने अपने शब्दों में कुछ इस तरह व्यक्त किया है: मैंने स्थापित किया है अपना अलौकिक स्मारक उसे अनदेखा नहीं कर सकेगी जनसामान्य की कोई भी राह... गरिमा प्राप्त होती रहेगी मुझे इस धरा पर जब तक जीवित रहेगा रचनाशील कवि एक भी!
दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम् सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व, अर्थात प्रकृति तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है। दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसका जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया। भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है किन्तु फिलॉसफ़ी के अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग सर्वप्रथम पाइथागोरस ने किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरंभिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर के कारण सर्वथा स्वाभाविक था। सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की प्रक्रिया में भिन्न भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पृथक होते गये और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विस्तार करने तथा सामान्य आधारों व नियमों का करने, यथार्थ के विषय में चिंतन की तर्कबुद्धिपरक, तर्क तथा संज्ञान के सिद्धांत विकसित करने की आवश्यकता से दर्शनशास्त्र का एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में जन्म हुआ। पृथक विज्ञान के रूप में दर्शन का आधारभूत प्रश्न स्वत्व के साथ चिंतन के, भूतद्रव्य के साथ चेतना के संबंध की समस्या है। दर्शन विभिन्न विषयों का विश्लेषण है । इसलिये भारतीय दर्शन में चेतना की मीमांसा अनिवार्य है जो आधुनिक दर्शन में नहीं। मानव जीवन का चरम लक्ष्य दुखों से छुटकारा प्राप्त करके चिर आनंद की प्राप्ति है। भारतीय दर्शनों का भी एक ही लक्ष्य दुखों के मूल कारण अज्ञान से मानव को मुक्ति दिलाकर उसे मोक्ष की प्राप्ति करवाना है। यानी अज्ञान व परंपरावादी और रूढ़िवादी विचारों को नष्ट करके सत्य ज्ञान को प्राप्त करना ही जीवन का मुख्य उद्देश्य है। सनातन काल से ही मानव में जिज्ञासा और अन्वेषण की प्रवृत्ति रही है। प्रकृति के उद्भव तथा सूर्य, चंद्र और ग्रहों की स्थिति के अलावा परमात्मा के बारे में भी जानने की जिज्ञासा मानव में रही है। इन जिज्ञासाओं का शमन करने के लिए उसके अनवरत प्रयास का ही यह फल है कि हम लोग इतने विकसित समाज में रह रहे हैं। परंतु प्राचीन ऋषि-मुनियों को इस भौतिक समृद्धि से न तो संतोष हुआ और न चिर आनंद की प्राप्ति ही हुई। अत: उन्होंने इसी सत्य और ज्ञान की प्राप्ति के क्रम में सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं गूढ़तम साधनों से ज्ञान की तलाश आरंभ की और इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई। उसी सत्य ज्ञान का नाम दर्शन है। दृश्यतेह्यनेनेति दर्शनम् अर्थात् असत् एवं सत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है। पाश्चात्य फिलॉस्पी शब्द फिलॉस +सोफिया से मिलकर बना है। इसलिए फिलॉसफी का शाब्दिक अर्थ है बुद्धि प्रेम। पाश्चात्य दार्शनिक बुद्धिमान या प्रज्ञावान व्यक्ति बनना चाहता है। पाश्चात्य दर्शन के इतिहास से यह बात झलक जाती है कि पाश्चात्य दार्शनिक ने विषय ज्ञान के आधार पर ही बुद्धिमान होना चाहा है। इसके विपरीत कुछ उदाहरण अवश्य मिलेंगें जिसमें आचरण शुद्धि तथा मनस् की परिशुद्धता के आधार पर परमसत्ता के साथ साक्षात्कार करने का भी आदर्श पाया जाता है। परंतु यह आदर्श प्राच्य है न कि पाश्चात्य। पाश्चात्य दार्शनिक अपने ज्ञान पर जोर देता है और अपने ज्ञान के अनुरूप अपने चरित्र का संचालन करना अनिवार्य नहीं समझता। केवल पाश्चात्य रहस्यवादी और समाधीवादी विचारक ही इसके अपवाद हैं। भारतीय दर्शन में परम सत्ता के साथ साक्षात्कार करने का दूसरा नाम ही दर्शन हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार मनुष्य को परम सत्ता का साक्षात् ज्ञान हो सकता है। इस प्रकार साक्षात्कार के लिए भक्ति ज्ञान तथा योग के मार्ग बताए गए हैं। परंतु दार्शनिक ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान से भिन्न कहा गया है। वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने में आलोच्य विषय में परिवर्तन करना पड़ता है ताकि उसे अपनी इच्छा के अनुसार वश में किया जा सके और फिर उसका इच्छित उपयोग किया जा सके। परंतु प्राच्य दर्शन के अनुसार दार्शनिक ज्ञान जीवन साधना है। ऐसे दर्शन से स्वयं दार्शनिक में ही परिवर्तन हो जाता है। उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है। जिसके द्वारा वह समस्त प्राणियों को अपनी समष्टि दृष्टि से देखता है। समसामयिक विचारधारा में प्राच्य दर्शन को धर्म-दर्शन माना जाता है और पाश्चात्य दर्शन को भाषा सुधार तथा प्रत्ययों का स्पष्टिकरण कहा जाता है दर्शनशास्त्र अनुभव की व्याख्या है। इस व्याख्या में जो कुछ अस्पष्ट होता है, उसे स्पष्ट करने का यत्न किया जाता है। हमारी ज्ञानेंद्रियाँ बाहर की ओर खुलती हैं, हम प्राय: बाह्य जगत् में विलीन रहते हैं। कभी कभी हमारा ध्यान अंतर्मुख होता है और हम एक नए लोक का दर्शन करते हैं। तथ्य तो दिखाई देते ही हैं, नैतिक भावना आदेश भी देती है। वास्तविकता और संभावना का भेद आदर्श के प्रत्यय को व्यक्त करता है। इस प्रत्यय के प्रभाव में हम ऊपर की ओर देखते हैं। इस तरह दर्शन के प्रमुख विषय बाह्य जगत्, चेतन आत्मा और परमात्मा बन जाते हैं। इनपर विचार करते हुए हम स्वभावत: इनके संबंधो पर भी विचार करते हैं। प्राचीन काल में रचना और रचयिता का संबंध प्रमुख विषय था, मध्यकाल में आत्मा और परमात्मा का संबंध प्रमुख विषय बना और आधुनिक काल में पुरुष और प्रकृति, विषयी और विषय, का संबंध विवेन का केंद्र बना। प्राचीन यूनान में भौतिकी, तर्क और नीति, ये तीनों दर्शनशास्त्र के तीन भाग समझे जाते थे। भौतिकी बाहर की ओर देखती है, तर्क स्वयं चिंतन को चिंतन का विषय बनाता है, नीति जानना चाहती है कि जीवन को व्यवस्थित करने के लिए कोई निरपेक्ष आदेश ज्ञात हो सकता है या नहीं। तत्वज्ञान में प्रमुख प्रश्न ये हैं- 1. ज्ञान के अतिरिक्त ज्ञाता और ज्ञेय का भी अस्तित्व है या नहीं? 2. अंतिम सत्ता का स्वरूप क्या है? वह एक प्रकार की है, या एक से अधिक प्रकार की? प्राचीन काल में नीति का प्रमुख लक्ष्य नि:श्रेयस के स्वरूप को समझना था। आधुनिक काल में कांट ने कर्तव्य के प्रत्यय को मौलिक प्रत्यय का स्थान दिया। तृप्ति या प्रसन्नता का मूल्यांकन विवाद का विषय बना रहा है। ज्ञानमीमांसा में प्रमुख प्रश्न ये हैं- 1. ज्ञान क्या है? 2. ज्ञान की संभावना भी है या नहीं? 3. ज्ञान प्राप्त कैसे होता है? 4. मानव ज्ञान की सीमाएँ क्या हैं? ज्ञानमीमांसा ने आधुनिक काल में विचारकों का ध्यान आकृष्ट किया। पहले दर्शन को प्राय: तत्वज्ञान के अर्थ में ही लिया जाता था। दार्शनिकों का लक्ष्य समग्र की व्यवस्था का पता लगाना था। जब कभी प्रतीत हुआ कि इस अन्वेषण में मनुष्य की बुद्धि आगे जा नहीं सकती, तो कुछ गौण सिद्धांत विवेचन के विषय बने। यूनान में, सुकरात, प्लेटो और अरस्तू के बाद तथा जर्मनी में कांट और हेगल के बाद ऐसा हुआ। यथार्थवाद और संदेहवाद ऐसे ही सिद्धांत हैं। इस तरह दार्शनिक विवेचन में जिन विषयों पर विशेष रूप से विचार होता रहा है, वे ये हैं- मुख्य विषय - गौण विषय - इन विषयों को विचारकों ने अपनी अपनी रुचि के अनुसार विविध पक्षों से देखा है। किसी ने एक पक्ष पर विशेष ध्यान दिया है, किसी ने दूसरे पक्ष पर। प्रत्येक समस्या के नीचे उपसमस्याएँ उपस्थित हो जाती हैं। विस्तृत विवरण के लिये भारतीय दर्शन देखें। वैसे तो समस्त दर्शन की उत्पत्ति वेदों से ही हुई है, फिर भी समस्त भारतीय दर्शन को आस्तिक एवं नास्तिक दो भागों में विभक्त किया गया है। जो ईश्वर तथा वेदोक्त बातों जैसे न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत पर विश्वास करता है, उसे आस्तिक माना जाता है; जो नहीं करता वह नास्तिक है। वैदिक परम्परा के 6 दर्शन हैं : मीमांसा न्याय वैशेषिक सांख्य योग वेदान्त यह दर्शन पराविद्या, जो शब्दों की पहुंच से परे है, का ज्ञान विभिन्न दृष्टिकोणों से समक्ष करते हैं। प्रत्येक दर्शन में अन्य दर्शन हो सकते हैं, जैसे वेदान्त में कई मत हैं। नोट - अक्सर लोग समझते है कि जो ईश्वर को नहीं मानता वह नास्तिक है पर यहाँ नास्तिक का अर्थ वेदों को न मानने से है इसलिए ऊपर दिए गए तीनो दर्शन नास्तिक दर्शन में आते है ] Anarchism · Deism · Deontology · Dualism · Empiricism · Epiphenomenalism · Feminism · Functionalism · Hedonism · Hermeneutics · Humanism · Idealism · Materialism · Monism · Naturalism · Nihilism · Process · Solipsism · Rationalism · Realism · Relativism · Skepticism · Utilitarianism · more... 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निश्चित आय • निगमित बॉण्डसरकारी बॉण्ड • नगर निगम बॉण्डबॉण्ड मूल्यांकन • उच्च उपज ऋण स्टॉक • वरीय स्टॉककॉमन स्टॉक • पंजीकृत शेयरमतदान शेयर • स्टॉक एक्स्चेंज क्रेडिट डेरिवेटिव • फ्यूचर्सविकल्प • हाइब्रिड सिक्योरिटीफॉर्वर्ड्स • स्वैप्स कमोडिटी बाज़ार • मुद्रा बाज़ारओ.टी.सी • अचल संपत्ति बाज़ारस्पॉट बाजार वित्त शृंखलावित्तीय बाज़ार • वित्तीय बाज़ार सहभागीनिगमित वित्त • वैयक्तिक वित्तसार्वजनिक वित्त • बैंक एवं बैंकिंगवित्तीय नियमन इंडेक्स फंड एक इक्विटी म्यूचुअल फंड होता है जो स्टॉक में निवेश करता है और कई स्टॉक सूचकांक यानि इंडेक्स से मिलकर बनता है जैसे भारत में बीएसई सेंसेक्स या एनएसई निफ्टी। इसके फलस्वरूप इंडेक्स फंड में निवेश के लिए निवेशकों को किसी विशेषज्ञ की सलाह नहीं लेनी पड़ती है। इनके द्वारा मिलने वाला रिटर्न अन्तर्निहित सूचकांक यानि अंडरलाइंग इंडेक्स द्वारा उत्पादित किए जाने वाले फंड से समीपता से जुड़ा होता है। यह फंड किसी विशेष इंडेक्स की सिक्योरिटीज में समान अनुपात में निवेश करता है। इनका का लक्ष्य बीएसई सेंसेक्स या निफ्टी जैसे लोकप्रिय सूचकांक होते हैं। ये फंड किसी विशेष सेक्टर पर आधारित भी हो सकते हैं, जैसे फार्मा, आईटी, एफएमसीजी या ऑटो सेक्टर सूचकांक आदि। इन फंडों से बेंचमार्क इंडेक्स के समान ही रिटर्न मिलने की आशा होती है व इनके जोखिम भी उन सिक्योरिटीज के जोखिम के साथ ही जुड़े होते हैं जिनमें ये निवेश करते हैं। जब बाजार नीचे आते हैं तो उसमें शामिल सिक्योरिटीज के मूल्य में भी गिरावट आती है और इसके साथ ही इंडेक्स फंड भी गिरते हैं। सक्रीय प्रबंधित निधि, यानि एक्टिवली मैनेजमेंट फंड की अपेक्षा इंडेक्स फंड का शुल्क कम होता है। इंडेक्स फंड के उपभाग, एक्सचेंज ट्रेडेड फंड का मूल्य इंडेक्स फंड की अपेक्षा कम होता है। हालांकि एक्टिवली मैनेज्ड फंड और पैसिव फंड में से किसी एक में निवेश करना बेहतर रहता है, किन्तु किसी निश्चित सीमा में कुछ एक्टिवली मैनेज्ड फंड, इंडेक्स की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते भी दिखे हैं। इंडेक्स फंड सुरक्षित और दीर्घावधि में एक बेहतर विकल्प होता है, किन्तु निवेशक को चाहिये कि किसी भी फंड में निवेश करने से पूर्व पूरी जांच कर लें और अपनी आवश्यकता भी विचार कर लें तब तय करें कि कहां निवेश करना श्रेयस्कर रहेगा। प्रायः निवेशकों के मन में एक्टिव और पैसिव निवेश को लेकर असमंजस की स्थिति बनी रहती है। एक्टिवली मैनेज्ड फंड इंडेक्स की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। एक्टिवली मैनेज्ड फंड में फंड मैनेजर अपनी विशेषज्ञता का प्रयोग पोर्टफोलियो में स्टॉक के चयन के लिए करता है। डायवर्सिफाइड इक्विटी फंड इस श्रेणी में आते हैं। कई लोग निवेश के लिए निष्क्रिय दृष्टिकोण का सहारा भी लिया करते हैं। इसे ही इंडेक्सिंग कहा जाता है। इंडेक्स फंड इक्विटी या डेब्ट दोनों प्रकार के हो सकते हैं। लंबी अवधि और कम जोखिम के निवेशकों के लिए इंडेक्स फंडों को वरीयता दी जाती है। इंडेक्सिंग निवेश का एक ऐसा उपाय है जिसमें किसी विशेष शेयर बाजार बेंचमार्क या इंडेक्स के समान रिटर्न पाने का प्रयास किया जाता है। इस फंड में लक्षित इंडेक्स की लगभग सभी सिक्योरिटीज में निवेश किया जाता है। ये फंड निवेशकों के बीच काफी लोकप्रिय हैं और बाजार में इक्विटी स्कीम से मिलने वाले लाभ से कहीं अधिक होता है। इंडेक्स फंड में निवेश करने वाले अधिकांश निवेशक वे होते हैं जो बाजार के प्रतिदिन के उतार-चढ़ाव के प्रति जागरूक नहीं रह पाते हैं, व लंबी अवधि के लिए निवेश में उत्सुक रहते हैं। अन्य फंडों की अपेक्षा इंडेक्स फंडों के व्यय का अनुपात और ट्रांजैक्शन की लागत कम होती है। इनमें पोर्टफोलियो में विभिन्नता लाकर जोखिम पर बेहतर नियंत्रण किया जा सकता है और फंड मैनेजर के प्रदर्शन का जोखिम कम रहता है। संस्थागत निवेशकों में इंडेक्स फंडों का प्रयोग पेंशन और इंश्योरेंस फंड करते हैं। छोटे निवेशकों ने यदि किसी फंड मैनेजर के द्वारा अपना धन निवेश करने के बजाय सीधे इंडेक्स फंड में लगाया हो, तो उनको अधिक लाभ होता है। इंडेक्स फंड भी म्यूचुअल फंड ही होते हैं। निवेशकों से पैसा इकट्ठा करके ये स्टॉक मार्केट के किसी इंडेक्स में निवेश करते हैं। सक्रिय रूप से मैनेज फंड की अपेक्षा इंडेक्स फंड में निवेश काफी सस्ता भी होता है। आम फंड्स की तरह इसमें प्रबंधन शुल्क के नाम पर मोटी रकम नहीं वसूली जाती है। विशेषज्ञों के अनुसार लंबी अवधि के लिए निवेश करने वाले निवेशकों के लिए अच्छा लाभ अर्जित करने का सबसे बेहतर तरीका होता है इंडेक्स फंड या एक्सचेंज ट्रेडेड फंड में लगातार निवेश करना। संभव है कि इस प्रकार से उन्हें एक साथ बड़ा लाभ न मिले, लेकिन लंबे समय में कुछ न कुछ अवश्य मिलेगा। उदाहरण के लिए निवेशक ने किसी ऐसे इंडेक्स में निवेश किया जिसका ऊपर जाना तय है। संभव है जल्दी में पैसे की अधिक आवश्यकता न हो, फिर भी निश्चित समय पर तय राशि निवेश करते रहना निवेशक के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता है। इंडेक्स फंड के जरिए हर महीने तय राशि निवेश करते हैं। इसलिए जब बाजार गिर रहा होगा तो निवेशकों के पास अधिक यूनिट होंगी और जब बाजार तेजी पर होगा तो कम यूनिट मिलेंगी। इसके बाद भी उपलब्ध यूनिटों की वैल्यू बढ़ती ही रहेगी। सफलता के लिए आवश्यक है कि जब बाजार तेजी से गिर रहा हो तो निवेशक हताश न हों और नया निवेश करते रहें। यदि निवेशक इंडेक्स फंड में लगातार निवेश कर रहे हों तो उनके पोर्टफोलियो में स्वयमेव विभिन्नता आ जाएगी। इसलिए उन्हें सबसे ज्यादा चलने वाले स्टॉक के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं रहती। इंडेक्स फंड का चुनाव करने पर किसी भी विशेष क्षेत्र में ज्यादा निवेश करने से सरलता से बचा जा सकता है। अर्थव्यवस्था में मजबूती के साथ लाभ भी मिलेगा। इंडेक्स फंड में निवेश से होने वाला लाभ इंडेक्स की तेजी पर निर्भर करता है। यदि लगातार निवेश करते जाते हैं और पैसा नहीं निकालते हैं तो लाभ से निवेश पर संयुक्त मुनाफा मिलता है। लंबी अवधि के निवेश करने में होने वाले लाभ पर टैक्स भी नहीं चुकाना पड़ता है। फंड प्रबंधन के तौर होने वाला खर्च बहुत कम होता है।
शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" भारत के विपुल गौरवशाली और वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक-इतिहास के निर्माण में जिन महापुरुषों का योगदान चिरस्मरणीय रहा है - उनमें आंध्रप्रदेश की लम्बी विद्वत-परम्परा की एक सुदृढ़ कड़ी के रूप में सत्रहवी शताब्दी के तैलंग ब्राह्मण, दार्शनिक-कवि तंत्र-चूड़ामणि शिवानन्द गोस्वामी का सांस्कृतिक और साहित्यिक योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है| उत्तर भारतीय आन्ध्र-तैलंग-भट्ट-वंशवृक्ष के विवरणानुसार "तैलंग ब्राह्मणों के आत्रेय गोत्र में कृष्ण-यजुर्वेद के तैत्तरीय आपस्तम्ब में मूलपुरुष श्रीव्येंकटेश अणणम्मा थे"- जिनकी छठी पीढ़ी में जगन्निवासजी के परिवार में शिवानन्द गोस्वामी के रूप में एक ऐसे विलक्षण विद्वान ने जन्म लिया जिनके तप, साधना, ज्ञान, शाक्त-भक्ति, तंत्र-सिद्धि और अध्यवसाय से प्रभावित हो कर काशी, चंदेरी, जयपुर, बीकानेर, ओरछा आदि राज्यों के तत्कालीन नरेशों ने इन्हें न केवल राज-सम्मानस्वरूप बड़ी-बड़ी जागीरें ही भेंट कीं बल्कि अपने कुलगुरु और प्रथमपूज्य के रूप में आजीवन अपने साथ रख कर अपने-अपने राज्यों के सम्मान में श्रीवृद्धि भी की। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुरूप शिवानन्द गोस्वामी तक का वंशवृक्ष कुछ इस प्रकार उपलब्ध होता है- श्रीव्येंकटेश अन्न्म्मा→ → → → → → श्रीसमर पुंगव दीक्षित→ → → → → श्रीतिरुमल्ल्ल दीक्षित→ → → → श्रीश्रीनिकेतन → → → श्रीश्रीनिवास→ → श्रीजगन्निवास → श्रीशिवानन्द गोस्वामी . शिवानन्द गोस्वामी अपने यशस्वी पिता के दो अन्य पुत्रों-श्री जनार्दन गोस्वामी और श्रीचक्रपाणि से बड़े थे। ऐतिहासिक संस्कृत ग्रंथों- 'मुहूर्तरत्न' एवं 'सभेदा आर्यासप्तशती' में शिवानन्द के द्रविड-कुल का 'कवितामय' परिचय कुछ यों मिलता है - " भारतवर्ष के दक्षिण स्थित 'द्रविड़' प्रदेश में समस्त पापों का नाश करने वाली पावन नदी पेन्ना के किनारे पाणमपट्ट नगर में निवास करते आत्रेय गोत्र के परिवार में आगम निगम रहस्य और वेद-वेदांग/गों के ज्ञाता जो चूड़ान्त विद्वान थे, उन्होंने शास्त्रार्थों में अपने समय के अनेक उद्भट विद्वानों को 'पराजित' कर उन्हें अपना शिष्यत्व ग्रहण कराया था| उसी आत्रेय कुल की यशोपताका, नदियों और सागरों के पार फ़ैलाने वाले इस कुल में जन्मे जगन्निवासजी को बुंदेलखंड नरेशों ने आमंत्रित किया था और इनसे 'दीक्षा' ग्रहण कर वे नरेश उनके शिष्य बने थे| इन्हीं प्रतापी विद्वान जगन्निवासजी के तीन पुत्र हुए- - श्रीशिरोमणि भट्ट, श्रीजनार्दन और श्रीचक्रपाणि." 'सभेदा आर्यासप्तशती' में ही लिखा है- " श्रीनिवास गोस्वामी के पुत्र जगन्निवास के ज्येष्ठ पुत्र 'शिरोमणि' नाम से विख्यात हुए जो विद्यावंत, संत-प्रकृति के त्रयोगजा-वृत्ति के थे और जो अपने असाधारण पांडित्य के बल पर समस्त पंडित-समाज में समादृत हुए..." शिवानंदजी के पितामह श्री श्रीनिवास भट्ट दक्षिण से आये थे। अपनी युवावस्था में उन्होंने तंत्रशास्त्र और 'श्रीविद्या' की दीक्षा जालंधर-पीठ के अधिपति द्रविड़ क्षेत्र के मनीषी देशिकेन्द्र सच्चिदानंद सुन्दराचार्य से ली थी- गुरु ने इन्हें तब संवत 1630 में 'गोस्वामी' की उपाधि दी। दीक्षा के उपरांत इनका नया नाम गोस्वामी विद्यानन्द्नाथ पड़ा| ललिता की अर्चा में, श्रीविद्या में निरत हो जाने से इन्हीं का तीसरा नाम ललितानन्दनाथ गोस्वामी भी है। अतः तेलंगाना से आये इन आत्रेय ब्राह्मणों में 'गोस्वामी' कोई जातिसूचक शब्द नहीं, विद्वत्ता के लिए दी गई उपाधि है। इसके तीस वर्ष बाद में, संवत 1660 में महाप्रभु वल्लभाचार्य के योग्य पुत्र गुसाईं श्री विट्ठलनाथ जी को भी अकबर के एक फरमान से 'गोस्वामी' की जो उपाधि मिली वह आज तक अपने नाम के साथ पुष्टिमार्ग के संप्रदाय के आचार्य और उनके वंशज लगाते हैं। ) इस तरह 'गोस्वामी' सरनाम अलग अलग सन्दर्भों में मथुरास्थ और गोकुलस्थ- दोनों तैलंग-ब्राह्मणों के लिए प्रचलित हुआ। शिवानन्द गोस्वामी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करने से पहले इनके कुछ पूर्वजों के सांस्कृतिक-अवदान की संक्षिप्त चर्चा भी प्रसंगवश ज़रूरी है ताकि यह ज्ञात हो सके इनके पूर्वजों की जो अटूट-विद्वत-परंपरा आन्ध्रप्रदेश में चली आयी थी, उत्तर-भारत में इन वंशजों के आगमन पर भी अक्षुण्ण रही और प्रायः सभी प्रवासी-आंध्र पंडितों ने अपने वैदुष्य और अध्यवसाय से तत्कालीन उत्तर-भारतीय रजवाड़ों में 'कुलगुरु' या 'राजगुरु' के रूप निवास करते हुए प्राकृत, संस्कृत-साहित्य, ज्योतिषशास्त्र, संगीत, चित्रकला और तंत्र-साहित्य आदि के गूढ़ ज्ञान-भंडार की श्रीवृद्धि की। श्री व्येंकटेश अणम्मा की दूसरी पीढ़ी में शास्त्रार्थ-विशारद श्रीसमरपुंगव दीक्षित हुए थे, कहा जाता है जिन्होंने अश्वमेध-यज्ञ तक करवाया था और 'अद्वैत-विद्यातिलकम' और 'यात्रा-प्रबंध' जैसे ग्रन्थ लिखे थे। विश्वविख्यात विद्वान गोपीनाथ कविराज की भूमिका के साथ ब्रह्मसूत्र की व्याख्या का यह ग्रन्थ 'अद्वैत-विद्यातिलकम' 1930 में गवर्मेंट संस्कृत लाइब्रेरी, काशी से प्रकाशित हुआ है। श्रीतिरुमल्ल दीक्षित ने 'योग-तरंगिनी', 'पथ्यापथ्य-निर्णय', श्रीनिकेतन भट्ट ने 'यशस्तिलक चम्पू', श्रीनिवास भट्ट ने सं. 1553 में रची अपनी कृति 'शिवार्चन-चन्द्रिका', 'सौभाग्यरत्नाकर', 'चंडी-समयानुक्रम', 'श्रीनिवास चम्पू', 'त्रिपुरसुन्दरी पद्धति', 'सौभाग्य-सुधोदय', 'श्रीचंडिकायजन', श्री जगन्निवास भट्ट ने 'त्रिपुर-सुन्दरी' और 'शिवार्चान्चंद्रिका सूची', तथा चक्रपाणि गोस्वामी ने 'पंचायतन-प्रकाश' के माध्यम से दर्शन, साहित्य, आयुर्वेद, शाक्तोपासना, पूर्वज-प्रशस्ति और तंत्र आदि 2 अनेक विषयों पर लेखन किया। शिवानन्द गोस्वामी ने पैंतीस से भी अधिक छोटे-बड़े संस्कृत-ग्रंथों की रचना की थी। चम्पू आदि को छोड़ कर इनकी अधिकांश रचनाएं ललित-पद्य में निबद्ध हैं। ग्रंथों के विषय देखने से ज्ञात होता है शिवानन्द गोस्वामी तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोल-, होराशास्त्र, ज्योतिर्विज्ञान आदि अनेक विषयों के कितने गहरे विद्वान थे। 'सिंह सिद्धांत सिन्धु' की प्रथम दस 'तरंगों' के उद्धरण-ग्रंथों की सूची चेन्नई में प्रकाशित है। वह मूलतः त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य-साधक और शक्ति-उपासक थे। कहा जाता है-अपनी आराध्य-देवी के प्रति उनकी निष्ठा इतनी सघन थी कि माता स्वयं सशरीर उपस्थित हो कर उनसे संवाद करती थीं! कुछ इसी स्तर की अविचल और एकनिष्ठ साधना आधुनिक समय में रामकृष्ण परमहंस की भी थी। श्रीविद्या के माध्यम से शक्ति-उपासना की इस उत्कट प्रतिबद्धता के परिणामस्वरूप उन्हें काशी के पंडित समाज ने 'साक्षी-नाट्य-शिरोमणि' की संज्ञा भी दी। पद्यबद्ध ज्ञान से भरी उनकी उपलब्ध 28 कृतियाँ इस प्रकार हैं : 1. सिंह-सिद्धांत-सिन्धु 2. सिंह-सिद्धांत-प्रदीपक 3. सुबोध-रूपावली 4. श्रीविद्यास्यपर्याक्रम-दर्पण 5. विद्यार्चनदीपिका 6. ललितार्चन-कौमुदी 7. लक्ष्मीनारायणार्चा-कौमुदी 8. लक्ष्मीनारायण-स्तुति 9. सुभगोदय-दर्पण 10. आचारसिन्धु 11. प्रयाश्चित्तारणव-संकेत 12. आन्हिकरत्न 13. महाभारत-सुभाषित-श्लोक-संग्रह 14. व्यवहारनिर्णय 15. वैद्यरत्न 16. मुहूर्तरत्न 15. कालविवेक 16. तिथिनिर्णय 17. अमरकोशस्य बालबोधिनी टीका 18. स्त्री-प्रत्ययकोश 19. कारक-कोश 20. समास-कोश 21. शब्द्भेद्प्रकाश 22. आख्यानवाद 23. पदार्थतत्वनिरूपण 24. नय-विवेक 25. ईश्वरस्तुति 26. कुलप्रदीप 27. श्रीचंद्रपूजा-प्रयोग 28. नित्यार्चन-कथन इन सब ग्रंथों में 'सिंह-सिद्धांत-सिन्धु' वि॰सं॰1731 ऐसी कालजयी रचना है, जिसका अपने समकालीन-संस्कृत-ग्रंथों में कोई सानी नहीं है। इसमें रचे गए मौलिक श्लोकों की संख्या सर चकरा देने वाली है। सिंह-सिद्धांत-सिन्धु में कुल 35,130 संस्कृत श्लोक हैं जोश्रीमद्भागवत की कुल श्लोक संख्या से भी कहीं ज्यादा हैं। भागवत में 18 हजार श्लोक, 335 अध्याय तथा 12 स्कंध हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण से बड़ा विपुल सन्दर्भ सामग्री से संयोजित संभवतया यह अपनी तरह का सबसे बड़ा ग्रन्थ है। श्रीमद्भागवत महापुराण और 'महाभारत' जैसे कालजयी ग्रन्थ, अनेकानेक ऋषियों-विद्वानों की संयुक्त सुदीर्घ लेखन-परम्परा का प्रतिफल हैं, क्योंकि वेदव्यास कोई एक व्यक्ति-विशेष का नाम नहीं, विभिन्न विद्वानों द्वारा समय-समय पर ग्रहण किया गया 'अकादमिक पद' है) पर एक अकेले कृतिकार ने इतनी विशालकाय पाण्डुलिपि तैयार कर दी हो, ऐसा विलक्षण उदाहरण संस्कृत के साहित्यिक-इतिहास में मिलना दुर्लभ है। यह कृति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में पाण्डुलिपि की प्रति होने के बावजूद विद्वानों की दृष्टि से अनेक वर्षों तक लुप्तप्राय रही और इसका प्रकाशन लेखन के प्रायः चार सौ साल बाद संभव हुआ पर सौभाग्य से यह अब सुलभ है। जोधपुर के राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ने यह महारचना लक्ष्मीनारायण गोस्वामी के सम्पादन में 4 खण्डों में प्रकाशित की है। यह महाग्रंथ संस्कृत काव्य, तंत्रशास्त्र, मंत्रशास्त्र, न्याय, निगम, मीमांसा, सूत्र, आचार, ज्योतिष, वेद-वेदांग, व्याकरण, औषधिशास्त्र, आयुर्वेद, यज्ञ-विधि, कर्मकांड, धर्मशास्त्र होराशास्त्र न जाने कितनी विधाओं और विद्याओं का विलक्षण और विश्वसनीय विश्वकोश ही है। इनकी कुछ रचनाओं की हस्तलिखित प्रतियाँ जयपुर के पोथीखाने में भी हैं जैसा इस सूची में अंकित है। यद्यपि प्रकाश परिमल जैसे अनुसंधानकर्ताओं ने शिवानन्द जी का जन्म विक्रम संवत 1710 अंकित किया है, तथापि उनकी लघु-पुस्तक में इस तथ्य के साक्ष्य का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। सच तो यह है इनका जन्म असल में किस साल, कहाँ हुआ यह शोध का विषय है। इस का कारण केवल यह है कि पुराने ज़माने में महान से महान लेखक तक अपने निजी-जीवन के बारे में कोई सूचना या जानकारी अपनी कृतियों में अक्सर नहीं देते थे। उस युग में पूर्णतः गुप्त या अविज्ञप्त रह कर उच्चस्तरीय मौन सारस्वत-साधना में लीन रहना ही शिवानन्द जी जैसी अनेक विद्वत-विभूतियों की आन्तरिक मनोप्रवृत्ति रही होगी। ऐसा अनुमान बहुप्रचलित है कि अनेक नरेशों के सम्मानित कुलगुरु होने के बावजूद, अपना अंतिम समय गोस्वामीजी ने बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह के आग्रह पर उनके साथ ही व्यतीत किया। पर शिवानन्द गोस्वामी का देहावसान कहाँ हुआ- दक्षिण भारत में कहीं, या बीकानेर में- यह शोध का विषय है। शिवानन्द गोस्वामी चंदेरी के गवर्नर देवीसिंह बुंदेला के समकालीन थे, जिन्होंने गोस्वामीजी से 'मंत्र-दीक्षा' लेकर भेंट में कुछ गांवों की जागीर बख्शी थी। इसी प्रकार ओरछा के सातवीं पीढ़ी के राजा देवीसिंह ने भी इनकी विद्वत्ता से प्रभावित हो कर 4 ग्रामों की जागीर दी थी। जयपुर राजा विष्णुसिंह ने सन 1692-1694 ईस्वी में इन्हें रामजीपुरा, हरिवंशपुरा, चिमनपुरा और महापुरा ग्रामों की जागीर भेंट की थी, जिसका प्रमाण जयपुर के पोथीखाना के अभिलेख में आज भी सुरक्षित है। महापुरा ग्राम आज तो जयपुर महानगर का ही भाग बन चुका है, जो जयपुर से 10 किलोमीटर दूर अजमेर रोड पर स्थित है। महापुरा में गोस्वामी जी के और उनके भाई जनार्दन गोस्वामी के वंशज पीढ़ियों तक निवास करते रहे। यहीं शिवानंदजी के वंशज श्रीमद्भागवत के आचार्य गोपीकृष्ण गोस्वामी की सुपुत्री रामादेवी भट्ट से विख्यात संस्कृत साहित्यकार भट्ट मथुरानाथ शास्त्री का विवाह सन 1922 में हुआ था। बीकानेर के महाराजा अनूप सिंह द्वारा गोस्वामीजी को दो गांवों - पूलासर और चिलकोई की जागीर भेंट की गई थी। अपने जीवन के संध्याकाल में ये बीकानेर में ही रहे। संभवतः इनका देहावसान भी वहीं हुआ हो- किन्तु इनके अंतिम दिनों के बारे में कोई ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती| शिवानन्द जी के बाद इनके पुत्रों ने भी अपनी कुल-परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए राज्याश्रय में अनेकानेक उपलब्धियां प्राप्त करना जारी रखा, जैसा निम्नांकित अंग्रेज़ी दस्तावेज़ से सिद्ध होता है- 'Maharaj shri Shivanandji, sole ascendant, gave Purnabhishek-Mantra to Maharaja Shri Anoop Singh ji Bahadur of Bikaner at Dilsuri . The Maharaja bequeathed two villages CHIKLOI and POOLASAR in Bhent on this most auspicious occasion to Shri Shivanandji Maharaj, the Rajguru. Thus Goswami Paramsukhji Maharaj, the youngest son of great Shri Shivanandji Maharaj settled at Bikaner on the request of HH Shri Gajsingh ji Bahadur,the Maharaja of Bikaner. Shri Suratsinghji, Maharaja of Bikaner also accepted Purnabhishek Mantra from Goswami Shri Paramsukhji Maharaj, the Rajguru, in 1855 AD and bequeathed the village KHETOLAI in Bhent and bequeathed on the most auspicious occasion of the sacred thread ceremony of Bishwnathji and kanhaiyalalji, real sons of shri Paramsukhji Goswami, village SURJANSAR देवीसिंह के दरबारी विद्वान् उनके विरुद्ध अनेक प्रकार के प्रवाद उनकी अनुपस्थिति में बना कर राजा के कान भरते रहते थे| यह बात तो सर्वविदित थी कि ओरछा या बुंदेलों के इष्ट देवता, भगवान राम थे और इसी कारण इस क्षेत्र में अनेक राम और हनुमान मंदिरों की स्थापना भी हुई है, वैसे ओरछा में ही बुंदेलों के इष्ट हनुमानजी का एक मंदिर आज भी है| यह मंदिर शिवानन्दजी के आश्रम और देवीसिंह के महलों के बीच पड़ता था। शिवानन्द के विद्वेशियों ने राजा से यह शिकायत कर दी कि बुंदेलखंड के इष्टदेवता का मंदिर रास्ते में होते हुए भी आपके गुरु, इष्टदेव को कभी प्रणाम नहीं करते| स्वयं राजा देवीसिंह ने जब यही बात इनके सामने रखी तो इन्होने विनोद में इतना ही कह कर टाल दिया कि "यह मामला व्यक्तिगत श्रद्धाभाव का है और चूंकि में अहर्निश देवी के भाव में ही लीन रहता हूँ, इसलिए 'अन्य' भाव में जाने से इसमें मेरा और आपका अनिष्ट ही होगा! वैसे भी सब देवता भगवान के ही रूप हैं।.. " इनके उत्तर से राजा कदाचित पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो सका। इसलिए एक बार जब वे दोनों उसी हनुमान मंदिर के मार्ग से आ रहे थे, राजा ने अपने इष्ट हनुमान को प्रणाम करने की आग्रहभरी विनती कर ही डाली। कहते हैं- जैसे ही शक्ति के परम आराधक शिवानंदजी ने अपने हाथ प्रणाम हेतु उठाए, उससे पूर्व ही हनुमानजी की मूर्ति में पत्थर फटने की आवाज़ के साथ ऊपर से नीचे तक एक गहरी दरार पड गयी! राजा इस चमत्कार से बहुत भयभीत हो गया। और तब से उसके मन में आद्याशक्ति के प्रति भी गहरी निष्ठा जाग्रत हो गयी। ओरछा में हनुमान मंदिर में आज भी वह गहरी दरार देखी जा सकती है।...इस प्रसंग के बाद शिवानन्द गोस्वामी का मन दरबार में विद्वेशियों और चमत्कार के बल पर ही श्रद्धा रखने वाले धर्मप्राण राजन्यों के प्रति कुछ असम्प्रक्त हो गया। उन्होंने "संक्षेप-प्रायश्चित्त" और "व्यवहार-निर्णय" जैसे ग्रन्थ लिख कर अपने इष्ट के समक्ष प्रायश्चित्त किया।..." औरंगजेब शासन के दौरान आमेर के राज्य पर आये राजनैतिक-संकटों के निवारण के लिए जयपुर के तत्कालीन पंडितों ने महाराजा विष्णुसिंह को नगर में शांति बनाये रखने के लिए 'वाजपेय-यज्ञ' करवाने का मशविरा दिया था। तब काशी और मिथिला के कुछ पंडित अपनी साधना और सिद्धियों के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। आमेर के नरेश ने उन्हें ही इस काम के लिए जयपुर आमंत्रित किया। किन्तु दुर्योग से जब-जब भी उस राजसी वाजपेय-यज्ञ में पूर्णाहुति की वेला आती, यज्ञकर्ता पुरोहित की आकस्मिक मृत्यु हो जाती. ऐसा एक बार नहीं, कई बार हुआ। एक के बाद एक काशी-मिथिला के पांच सिद्ध पुरोहित यज्ञ पूरा कराने से पूर्व ही काल-कवलित हो गए। ऐसे विकट अपशकुन को देख कर राजा ने बीकानेर नरेश अनूपसिंह के माध्यम से ओरछा महाराज को यह संदेश भिजवाया कि वे कृपा कर उनके कुलगुरु और महान तांत्रिक शिवानंदजी को जयपुर भिजवाएं ताकि वह वाजपेय-यज्ञ की पूर्णाहुति करवा सकें| अंततः शिवानन्द गोस्वामी, सन 1680 ईस्वी में आमेर पहुंचे और जलमहल के पास उन्होंने जयपुर नरेश का वाजपेय-यज्ञ निर्विघ्न पूरा करवाया| पूर्णाहुति से एक रात पहले, कहते हैं एक विकट ब्रह्मराक्षस स्वप्न में गोस्वामीजी के सामने उपस्थित हुआ- जिसने उनसे शास्त्रार्थ करने की चुनौती इस सूचना के साथ दी कि पहले के पांच काशी-पंडित शास्त्रार्थ में उससे पराजित हो कर ही उसका ग्रास बन चुके थे। गोस्वामीजी ने ब्रह्मराक्षस की इस चुनौती को स्वीकार किया और उसे शास्त्रार्थ में हरा कर वाजपेय-यज्ञ पूर्णाहुति के साथ विधिवत संपन्न कराया| पर राजा द्वारा इस तथ्य को छिपाने के लिए कि पहले के पांच काशी-पंडित शास्त्रार्थ में ब्रह्मराक्षस से पराजित हो कर उसका निवाला बन चुके थे, खिन्न शिवानंदजी, आमेर महाराजा से बिना दान-दक्षिणा लिए आमेर से महापुरा लौट आये| कहते हैं जब महाराजा विष्णुसिंह को शिवानन्दजी की नाराजगी की भनक लगी तो उन्हें मनाने खुद वह अपने पुत्र सवाई जयसिंह के साथ महापुरा पहुंचे| शिवानंदजी ने सवाई जयसिंह के बारे में कुछ बेहद सटीक भविष्यवाणियां करते हुए महाराजा को निर्देश दिया कि ब्रह्मराक्षस की 'प्रेतमुक्ति' के लिए वह किसी जाने-माने कर्मकांडी पंडित को गया और काशी भिजवाएं| उन्होंने किंचित अप्रसन्नतापूर्वक महाराजा को पांच-पंडितों के वध का उत्तरदायी मानते, उन्हें कई प्राचीन शास्त्रों का हवाला देते हुए प्रयाश्चित्त्स्वरूप अश्वमेध यज्ञ करवाने की सलाह भी तभी दी होगी | निर्दोष ब्राह्मणों की मृत्यु से व्यथित होने के कारण उन्होंने महाराजा के सामने महापुरा में और रहने में अनिच्छा भी बड़ी विनम्रता से प्रकट की| अंततः अपने छोटे भाई के पास पांच गांवों की जागीर और अकूत-संपत्ति का परित्याग कर गोस्वामीजी कुछ समय बाद बीकानेर के राजगुरु के रूप में महाराजा अनूपसिंह के यहाँ चले गए"- जिनका बीकानेर कुलगुरु-राजगुरु होने का आमंत्रण/अनुरोध कब से इनके पास लंबित था| यह शुभ है कि छह सौ साल बाद भी शिवानन्द गोस्वामी की प्राचीन साहित्यिक रचना-परंपरा उत्तर भारत के प्रवासी आन्ध्र आत्रेय परिवारों में आज भी निर्बाध निरंतर जारी है! कलानाथ शास्त्री एवं घनश्याम गोस्वामी और पंडित कंठमणि शास्त्री ने शिवानंदजी के बाद की पीढी के विद्वान तैलंग ब्राह्मणों द्वारा समय-समय पर लिखे संस्कृत/ वृजभाषा ग्रंथों की सूची प्रकाशित की है, जिसमें श्री निकेतन जी की 'आर्यासप्तशती, चक्रपाणि भट्ट की 'पंचायतन-प्रकाश' रमणजी की कृति 'वंशावली', कन्हैयालालजी की पुस्तक 'कनिष्ठ पूर्णाभिषेक स्तोत्र', ईश्वरीदत्त के 31 ग्रन्थ और जनार्दन गोस्वामी, आनंदी देवी, देवीदत्त गोस्वामी, मंडन कवि, पद्माकर, गदाधर भट्ट, रामप्रसाद भट्ट 'प्रभाकर', लक्ष्मीधर भट्ट'श्रीधर', बंशीधर भट्ट, अम्बुज भट्ट, मिहीलाल, गौरीशंकर सुधाकर, गोविन्द कवीश्वर, गुरु कमलाकर 'कमल' भालचंद्र राव जैसे अनेक विद्वानों की पुस्तकें शामिल हैं। इसी आत्रेय वंश में जन्मे रीतिकाल के यशस्वी महाकवि पद्माकर का नाम किसने नहीं सुना? पद्माकर महापुरामहाराजा बिशनसिंहभट्ट मथुरानाथ शास्त्रीगोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री‎कलानाथ शास्त्री
गर ज़िला तिब्बत का एक ज़िला है। तिब्बत पर चीन का क़ब्ज़ा होने के बाद यह चीनी प्रशासनिक प्रणाली में तिब्बत स्वशासित प्रदेश के न्गारी विभाग में पड़ता है। इस ज़िले की राजधानी का नाम भी पहले गर शहर ही हुआ करता था लेकिन आधुनिक काल में इसे सेंगेज़ंगबो, आली और शीचुआनहे नामों से जाना जाता है। यह शहर सिन्धु नदी और गर नदी के संगम पर स्थित है। चीन की सरकार ने यहाँ न्गारी गुनसा नामक हवाई अड्डे का निर्माण किया है और बहुत से हान चीनी लोगों को भी यहाँ बसाने के प्रयास जारी हैं।
ऎदुरुपाडु में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कर्नूलु जिले का एक गाँव है।
स्वस्थ भारत यात्रा भारत छोड़ो आंदोलन के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के मार्गदर्शन में आरम्भ की गई 20 हजार किलोमीटर की जनसंदेशात्कम यात्रा है। स्वस्थ भारत न्यास के चेयरमैन आशतोष कुमार सिंह के नेत्रित्व में 'स्वस्थ बालिका - स्वस्थ समाज' का सन्देश लेकर निकली इस यात्रा का आरम्भ नई दिल्ली से मुख्तार अब्बास नकवी द्वारा हरी झंडी दिखा कर किया गया। इस यात्रा को गांधी स्मृति एंव दर्शन समिति, संवाद मीडिया, राजकमल प्रकाशन, नेस्टिवा अस्पताल, मेडिकेयर अस्पताल, स्पंदन, जलधारा, हेल्प एंड होप सहित अन्य कई गैरसरकारी संस्थाओं का समर्थन प्राप्त है। यह यात्रा अब तक 16 हजार किलोमीटर की दुरी तय करते हुए 26 राज्यों से होकर गुज़री है तथा 50 हजार गाँवों को छुआ है। इस दौरान स्कूलों तथा महाविद्यालयों की एक लाख से अधिक बालिकाओं से सीधा संवाद स्थापित किया है। स्वस्थ भारत यात्रा पहुँची लखनऊ स्वस्थ भारत यात्रा का बंगाल में स्वागत स्वस्थ भारत यात्रा: बालिकाओं को दिया स्वस्थ बालिका स्वस्थ समाज का संदेश स्वस्थ भारत यात्रा पहुंची शाहजहांपुर यात्रा का हुआ भव्य स्वागत
त्रिचूर पूरम केरल में हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। त्रिचूर पूरम त्रिचूर नगर का वार्षिकोत्सव है। यह भव्य रंगीन मंदिर उत्सव केरल के सभी भाग से लोगों को आकर्षित करता है। यह उत्सव थेक्किनाडु मैदान पर्वत पर स्थित वडक्कुन्नाथन मंदिर में, नगर के बीचोंबीच आयोजित होता है। यह मलयाली मेडम मास की पूरम तिथि को मनाया जाता है।
प्रमुख संगीतकार। रवि शंकर क पुत्र
चचनामा, सिन्ध के इतिहास से सम्बन्धित एक पुस्तक है। इसका लेखक 'अली अहमद' है। इसमें चच राजवंश के इतिहास तथा अरबों द्वारा सिंध विजय का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक को 'फतहनामा सिन्ध', तथा 'तारीख़ अल-हिन्द वस-सिन्द', भी कहते हैं। चच राजवंश ने राय राजवंश की समाप्ति पर सिन्ध पर शासन किया। 8 वीं शताब्दी के शुरुआती 8 वीं शताब्दी के मुहम्मद बिन कसीम की विजय की कहानियों के साथ, 13 वीं शताब्दी के अनुवाद फारसी द्वारा लंबे समय तक माना जाता है, क्योंकि वह एक निश्चित, मूल लेकिन अनुपलब्ध अरबी पाठ का 'अली कुफी' है। मनन अहमद आसिफ के अनुसार, पाठ महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सिंध क्षेत्र के माध्यम से भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम के उद्गम के औपनिवेशिक समझ का एक स्रोत था और ब्रिटिश भारत के विभाजन पर बहस को प्रभावित किया था। इसकी कहानी पाकिस्तान की राज्य द्वारा स्वीकृत इतिहास पाठ्य पुस्तकों का एक हिस्सा रही है, लेकिन वास्तविकता में पाठ मूल और "अनुवाद का काम नहीं" है। यह अरबों द्वारा अपनी जीत से पहले सिंध के इतिहास के बारे में एक प्रारंभिक अध्याय है काम का शरीर 7 वीं -8 वीं शताब्दी ईस्वी के सिंध में अरब सहारे का वर्णन करता है।इस प्रकार, 8 वीं शताब्दी की शुरुआत में मोहम्मद बिन कसीम द्वारा अरब विजय के लिए, राजवंश के राई की मृत्यु के बाद और सिंहासन के लिए चोर के अलंकार के बाद चाचा राजवंश की अवधि का संकेत मिलता है।इस पाठ के साथ समाप्त होता है 'अरब कमांडर मुहम्मद बी के दुखद अंत का वर्णन करने वाला एक उपसंहार। अल-आसिदम और सिंध के पराजय राजा, डाहिर की दो बेटियों की। सिंध के अरब विजय के बारे में केवल लिखित स्रोतों में से एक है, और इसलिए भारत में इस्लाम की उत्पत्ति, चच नामा एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पाठ है जिसे विभिन्न शताब्दियों के लिए विभिन्न हित समूहों द्वारा सह-चुना गया है, और इसका महत्वपूर्ण अर्थ है दक्षिण एशिया में इस्लाम के स्थान के बारे में आधुनिक कल्पनाओं के लिए। तदनुसार, इसके प्रभाव बहुत विवादित हैं। मनन अहमद आसिफ के अनुसार, चच नामा ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। यह सिंध क्षेत्र के माध्यम से भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम के उद्गम के औपनिवेशिक समझ का एक स्रोत था।औपनिवेशिक ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए दक्षिण एशियाई लोगों के संघर्षों के दौरान यह लेख ऐतिहासिक इतिहास और धार्मिक विरोध के स्रोत में से एक रहा है। पाठ, आसिफ का कहना है, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक विरोध के लंबे इतिहास के औपनिवेशिक निर्माण का स्रोत और 20 वीं सदी के इतिहासकारों और लेखकों द्वारा दक्षिण एशिया में मुस्लिम मूल के एक कथा है। यह पाकिस्तान के राज्य द्वारा स्वीकृत इतिहास पाठ्यपुस्तकों का एक हिस्सा रहा है। पाकिस्तानी पेशेवर फैसल शहजाद ने अपने 2010 टाइम्स स्क्वायर कार बम विस्फोट के प्रयास से पहले "पाक-ओ-हिंद" पर 17 साल के मुहम्मद बिन कसीम हमले की कहानी का उल्लेख किया था।
अंकुश कृमि या हुकवर्म बेलनाकार छोटे-छोटे भूरे रंग के कृमि होते हैं। ये अधिकतर मनुष्य के क्षुद्र अंत्र के पहले भाग में रहते हैं। इनके मुँह के पास एक कॅटिया सा अवयव होता है; इसी कारण ये अंकुश कृमि कहलाते हैं। इनकी दो जातियाँ होती हैं, नेकटर अमेरिकानस और एन्क्लोस्टोम डुओडिनेल। दोनों ही प्रकार के कृमि सब जगह पाए जाते हैं। नाप में मादा कृमि 10 से लेकर 13 मिलीमीटर तक लंबी और लगभग 0.6 मिलीमीटर व्यास की होती है। नर थोड़ा छोटा और पतला होता है। मनुष्य के अंत्र में पड़ी मादा कृमि अंडे देती हैं जो बिष्ठा के साथ बाहर निकलते हैं। भूमि पर बिष्ठा में पड़े हुए अंडे ढोलों में परिणत हो जाते हैं, जो केंचुल बदलकर छोटे-छोटे कीड़े बन जाते हैं। किसी व्यक्ति का पैर पड़ते ही ये कीड़े उसके पैर की अंगुलियों के बीच की नरम त्वचा को या बाल के सूक्ष्म द्विद्र को छेदकर शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ रुधिर या लसीका की धारा में पड़कर वे हृदय, फेफड़े और वायु प्रणाली में पहुँचते हैं और फिर ग्रास नलिका तथा आमाशय में होकर अँतरियों में पहुँच जाते हैं। गंदा जल पीने अथवा संक्रमित भोजन करने से भी ये कृमि अंत्र में पहुँच जाते हैं। वहाँ पर तीन या चार सप्ताह के पश्चात् मादा अंडे देने लगती है। ये कृमि अपने अंकुश से अंत्र की भित्ति पर अटके रहते हैं और रक्त चूसकर अपना भोजन प्राप्त करती हैं। ये कई महीने तक जीवित रह सकते हैं। परंतु साधारणत: एक व्यक्ति में बार-बार नए कृमियों का प्रवेश होता रहता है और इस प्रकार कृमियों का जीवन चक्र और व्यक्ति का रोग दोनों ही चलते रहते हैं। इस रोग का विशेष लक्षण रक्ताल्पता होता है। रक्त के नाश से रोगी पीला दिखाई पड़ता है। रक्ताल्पता के कारण रोगी दुर्बल हो जाता है। मुँह पर कुछ सूजन भी आ जाती है। थोड़े परिश्रम से ही वह थक जाता और हाँफने लगता है। यदि कृमियों की संख्या कम होती है तो लक्षण भी हलके होते हैं। रोग बढ़ जाने पर हाथ-पैर में भी सूजन आ जाती है। यह सब रक्ताल्पता का परिणाम होता है। रोग का निदान ऊपर लिखित लक्षणों से होता है। रोगी के मल की जाँच करने पर मल में कृमि के अंडे मिलते हैं जिससे निदान का निश्चय हो जाता है।