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सुख राम दास,भारत के उत्तर प्रदेश की तीसरी विधानसभा सभा में विधायक रहे। 1962 उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में इन्होंने उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले के 136 - बिड़हर विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से चुनाव में भाग लिया।
सुपौल लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र भारत के बिहार राज्य का एक लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र है।
आमि ओ बनबिहारी बंगाली भाषा के विख्यात साहित्यकार संदीपन चट्टोपाध्याय द्वारा रचित एक उपन्यास है जिसके लिये उन्हें सन् 2002 में बंगाली भाषा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
भुवन चन्द्र खण्डूरीभारतीय जनता पार्टी विजय बहुगुणाभारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव, 2012 भारत के उत्तराखण्ड राज्य में वर्ष 2012 में हुआ तीसरा विधानसभा चुनाव है। इससे पूर्व उत्तराखण्ड में वर्ष 2002 और 2007 में विधानसभा चुनाव हुए थे। 2012 के विधानसभा चुनाव 30 जनवरी 2012 को एक चरण वाले चुनाव में सम्पन्न हुए थे। 2012 विधानसभा चुनाव उत्तराखण्ड की 70 विधानसभा सीटों पर 788 प्रत्याशियों द्वारा लड़े गए थे। इस विधानसभा चुनाव के लिए उत्तराखण्ड में कुल 9,806 मतदान केन्द्र बनाए गए थे। मतदान का समय प्रातः आठ बजे से लेकर सायं पाँच बजे तक का था और इस दौरान राज्य में कुल 63 लाख 78 हज़ार 292 लोगों ने मतदान किया जो कुल मतदाताओं की संख्या का लगभग 67% था। उत्तराखण्ड की 70 सदस्यीय विधानसभा सीटों में से 13 अनुसूचित जाति और 2 सीटें अनुसूचित जनजाति के प्रत्याशियों के लिए आरक्षित हैं। राज्य के प्रमुख राजनीतिक दल निम्नलिखित हैं : भारतीय जनता पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और उत्तराखण्ड क्रान्ति दल । मौसम विभाग द्वारा मतदान तिथि घोषित किए जाने के बाद इस बात की आशंका थी कि राज्य के खराब मौसम के कारण मतदान तिथि को आगे बढ़ाया जा सकता है लेकिन मतदान वाले दिन कुल मिलाकर मौसम सही रहा। इस चुनाव के परिणाम अन्य चार राज्यों के परिणामों के साथ ही 6 मार्च 2012 को घोषित किए गये। उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों के परिणाम 6 मार्च 2012 को घोषित किए गए। चुनाव परिणाम इस प्रकार रहा: स्रोत: मत प्रतिशत सीट संख्या भारतीय जनता पार्टी भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस बहुजन समाज पार्टी उत्तराखण्ड क्रान्ति दल 2002 · 2007 · 2012 · 2017
शौर्य प्रक्षेपास्त्र एक कनस्तर से प्रक्षेपित सतह से सतह पर मार करने वाला सामरिक प्रक्षेपास्त्र है जिसे भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन ने भारतीय सशस्त्र बलों के उपयोग के लिए विकसित किया है।इसकी मारक सीमा 750-1900 किमी है तथा ये एक टन परंपरागत या परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम है। यह किसी भी विरोधी के खिलाफ कम - मध्यवर्ती श्रेणी में प्रहार की क्षमता देता है। शौर्य प्रक्षेपास्त्र भारत को द्वितिय प्रहार की महत्वपूर्ण क्षमता देता है। शौर्य प्रक्षेपास्त्र को जल के निचे मार करने वालि सागारिका प्रक्षेपास्त्र का भूमि संस्करण माना जाता रहा है परंतु डीआरडीओ अधिकारियों ने कथित तौर पर सागारिका कार्यक्रम के साथ इसके संबंध से इनकार किया है।शौर्य एक समग्र कनस्तर में संग्रहित रहती है जो रखरखाव के बिना बहुत लंबी अवधि के लिए संग्रहित करने के लिए एवम संभालने और परिवहन. मे बेहतर है। इसमे गैस् जनित्र भी है जो कनस्तर से बेदखल करने के लिए इसे इच्छित लक्ष्य पर वेग से फेंक देती है। यह दुश्मन या निगरानी उपग्रहों से भूमिगत भंडारो मे तब तक छिपा रह सकता है जब तक वे विशेष भंडारण व लांच कनस्तरों से प्रक्षेपित किये जाए।शौर्य प्रणाली में कुछ और परीक्षणों की आवश्यकता से है फिर ये दो से तीन वर्षों में पूरी तरह चालू हो जायेगा। उच्च गतीय दो चरणो वाली शौर्य अत्यधिक चुस्त है मौजूदा मिसाइल रोधी रक्षा प्रणाली को इसके विरुद्ध कमजोर बनाता है। शौर्य कम ऊंचाई पर भी छह मैक के वेग तक पहुँच सकती हैं। सतह पर समान रूप से गर्मी प्रसार के लिए ये धुरी पर घूमती है। उड़ान समय 500 सेकंड और 700 सेकंड के बीच है। यह उच्च प्रदर्शन, नेविगेशन और मार्गदर्शन प्रणाली, कुशल प्रणोदन प्रणाली, उच्च तकनीक नियंत्रण तकनीकों और कनस्तर प्रक्षेपण की एक जटिल प्रणाली के रूप में वर्णित है। यह आसानी से सड़क मार्ग से ले जाया जा सकता है। शौर्य में शामिल प्रौद्योगिकियों मे त्वरण मीटर और गायरोस्कोप शामिल है। प्रक्षेपास्त्र का प्रथम परीक्षण 12 नवम्बर 2008 को किया गया। मिसाइल एक भूमिगत सुविधा से चांदीपुर इंटीग्रेटेड टेस्ट रेंज मे निर्मित परिसर-3 से प्रेक्षित की गई। संबंधित विकास
एक वैक्युम क्लीनर, जो हूवर या स्वीपर के भी नाम से जाना जाता है और आमतौर पर यह वैक्युम क्लीनर कहलाता है, एक ऐसा उपकरण है जो आमतौर पर फर्श से धूल और गंदगी खींचने के लिए आंशिक वैक्युम का निर्माण करता है और इसके लिए वायु पंप का इस्तेमाल होता है। बाद में निपटान के लिए गंदगी को या तो डस्टबैग द्वारा इकट्ठा किया जाता है या चक्रवात द्वारा. 1860 में संयुक्त राज्य अमेरिका के वेस्ट यूनियन के आयोवा के डैनियल हेस ने एक वैक्युम क्लीनर का आविष्कार किया। इसे उन्होंने वैक्युम स्वीपर कहने के बजाए कारपेट क्लीनर कहा, दरअसल, उनकी मशीन में एक घूमनेवाला ब्रश था जैसा कि पारंपरिक वैक्युम क्लीनर में होता है, धूल और गंदगी को खींचने के लिए इसके यंत्र के ऊपरी सिरे पर बड़ी-सी धौंकनी लगी है। 10 जून 1860 को हेस ने अपने आविष्कृत वैक्युम क्लीनर के लिए पेंटेंट प्राप्त किया। हाथों से चलाये जानेवाले पहले क्लीनर में "बवंडर" के सिद्धांत का उपयोग किया गया था, जिसका आविष्कार 1868 में यूएसए के शिकागो के इवेस डब्ल्यू. मैकगैफे ने किया था। व्हर्लविन्ड मशीन हल्की और छोटे आकार की थी, लेकिन परिचालन में कठिन थी, क्योंकि इसे घुमाने के साथ ही साथ एक ही हाथ से इसे पूरे फर्श पर भी चलाना पड़ता था। 8 जून 1869 को मैकगैफे ने इस उपकरण के लिए पेटेंट हासिल किया और सार्वजनिक तौर पर बेचे जाने के लिए बोस्टन के द अमेरिकन कारपेट क्लीनिंग कंपनी की मदद से इसे सूचीबद्ध किया। 25 डॉलर में इसे बेच दिया गया। यह तय करना कठिन है कि बवंडर कितना सफल रहा, क्योंकि इनमें से ज्यादातर शिकागो और बोस्टन में बिका और समझा जाता है कि 1871 में इनमें से अधिकांश ग्रेट शिकागो फायर में नष्ट हो गए। ज्ञात रूप से केवल दो ही बच पाए, इनमें से एक को हूवर हिस्टोरिकल सेंटर में देखा जा सकता है। 19वीं शताब्दी में संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में जितने आविष्कारक हुए मैकगैफे उनमें से एक थे, जिन्होंने मैन्युअल वैक्युम क्लीनर का आविष्कार किया। विद्युतचालित "कारपेट स्वीपर एंड डस्ट गैदरर" के रूप में पहले-पहल इसे पेटेंट कराया गया और दिसंबर 1900 में जॅर्जिया के सवाना के कोरिने डूफोर ने इसे मंजूरी दी। 1876 में, यूएसए में मिशिगन के ग्रांड रैपिड्स के मेलविले बिसेल ने कालीन से लकड़ी के बुरादे को साफ करने के लिए अपनी पत्नी एना के लिए एक वैक्युम क्लीनर बनाया। इसके तुरंत बाद, बिसेल कारपेट स्वीपर आया। 1889 में मेलविल की अचानक मृत्यु के बाद एन ने कंपनी का नियंत्रण संभाला और वे दुनिया की बहुत ही ताकतवर कारोबारी महिलाओं में से एक बन गयी। 1901 में पहले मोटरचालित वैक्युम क्लीनर के आविष्कार का श्रेय आमतौर पर हुबर्ट सेसिल बूथ को जाता है, हालांकि इससे दो साल पहले 1899 में अमेरिका के मिसौरी स्थित सेंट लुईस के जॉन थर्मैन ने दरअसल, मोटरचालित वैक्युम क्लीनर का आविष्कार कर लिया था। बूथ ने ट्रेनों में कुर्सियों की धूल उड़ाने वाले एक उपकरण के प्रदर्शन को देखा और सोचा कि धूल को खींच लेने के लिए यह कहीं अधिक उपयोगी होगा। उन्होंने एक रेस्तरां की कुर्सी पर एक रूमाल डालकर इसका परीक्षण किया, उन्होंने रूमाल में अपना मुंह रखा और फिर जितना अधिक हो सके धूल खींचने की उन्होंने कोशिश की। रूमाल के नीचे की ओर धूल और गंदगी जमा देख उन्होंने समझ लिया कि उनका विचार काम कर सकता है। बूथ ने पफिंग बिली नामक एक बड़ा उपकरण बनाया; पहले एक तेल इंजन वाला और बाद में एक विद्युत मोटर चालित. इसे घोड़ों द्वारा खींचा जाता था और साफ करने के लिए इमारत के बाहर खड़ा किया जाता था। बूथ ने ब्रिटिश वैक्युम क्लीनर कंपनी शुरू की और अगले कई दशकों में अपने आविष्कार को परिष्कृत किया। हालांकि उनका "गोब्लिन" मॉडल हूवर के साथ घरेलू वैक्युम बाजार की प्रतिस्पर्धा में हार गया, लेकिन उनकी कंपनी ने सफलतापूर्वक औद्योगिक बाजार पर अपना ध्यान मोड़ा और कारखानों और गोदामों के लिए बहुत बड़े मॉडल बनाये। न्युमेटिक ट्यूब सिस्टम मेकर क्वायरपेस लि. की एक ईकाई के रूप में आज बूथ की कंपनी चल रही है। 1910 में पी. ए. फिस्कर ने एक वैक्युम क्लीनर का पेटेंट अपनी कंपनी के टेलीग्राम पते—निफिस्क के नाम पर कराया. यूरोप में यह पहला बिजली से चलनेवाला वैक्युम क्लीनर था। इसे महज 17.5 किलोग्राम वजन की डिजाइन में बनाया गया, जिसे एक व्यक्ति द्वारा भी संचालित किया जा सकता था। कुछ साल पहले ही फिस्कर एंड नीलसन कंपनी का गठन हुआ था। इन दिनों निफिस्क वैक्युम का वितरण निलफिस्क-एडवांस द्वारा किया जाता है। 1905 में "कालीन से धूल हटाने के लिए ग्रिफिथ का उन्नत वैक्युम उपकरण" मैन्युअल तरीके से चलाया जानेवाला एक अन्य क्लीनर था, जिसे वाल्टर ग्रिफिथ मैनुफैक्चरर, बर्मिंघम, इंग्लैंड द्वारा पेटेंट कराया गया था। यह पोर्टेबल था, इसे रखना आसान था और इसे "किसी भी व्यक्ति " द्वारा चलाया जा सकता था। इसमें लगे एक धौंकनी जैसे यंत्र का काम दबाव डालने का था। इसमें लगे एक निकाल लिये जाने योग्य एक लचीले पाइप के जरिए धूल को निकाला जाता था, जिसमें विभिन्न आकार की टोंटी लगायी जा सकती थी। यकीनन यह पहला घरेलू वैक्युम क्लीनर उपकरण था, जो आधुनिक वैक्युम क्लीनर से काफी मिलता-जुलता था। अमेरिकी वैक्युम क्लीनर उद्योग की स्थापना के लिए 1903 और 1913 के बीच यूएसए आविष्कारक डेविड टी. कैनेडी को नौ पेटेंट दिया गया। 1919 में गठित वैक्युम क्लीनर मैन्यूफैक्चर्स एसोसिएशन की सदस्यता केवल उन्हीं तक सीमित थी, जो उनके पेटेंटों के तहत लाइसेंसधारी थे। 1907 में, यूएसए के ओहियो, कैनटोन में एक चौकीदार जेम्स मूर्रे स्पैंग्लर ने पहला व्यावहारिक पोर्टेबल वैक्युम क्लीनर का आविष्कार किया। यह महत्वपूर्ण बात है, इलेक्ट्रिक पंखे, एक बॉक्स और अपनी पत्नी के तकिए के खोल में इस्तेमाल होनेवाले सक्शन को स्पैंग्लर द्वारा डिजाइन की गयी कचरा खाली करने के लिए एक घूमनेवाले ब्रश से जोड़ा गया। धन की कमी के कारण उस डिजाइन का उत्पादन करने में वे असमर्थ थे तो उन्होंने 1908 में विलियम हैनरी हूवर को़ इसे बेच दिया, जिन्होंने स्पैंग्लर की मशीन को इस्पात के आवरण, ढ़लाई और संलग्नकों के साथ फिर से इसे डिजाइन किया। बाद में आने वाले नवोत्पाद में 1920 के दशक का पहला डिस्पोजेबल फिल्टर बैग और 1926 का पहला सीधा खड़ा होनेवाला वैक्युम क्लीनर शामिल हैं। 2 जून 1908 को स्पैंग्लर ने अपने घूमनेवाले ब्रश का पेंटेंट कराया और अंतत: इस आइडिया को अपनी भतीजी के पति हूवर को बेच दिया। वे एक नए उत्पाद को बेचने की जुगाड़ में थे, क्योंकि ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में आविष्कार के कारण उनकी 'हूवर हर्नेस एंड लेदर गुड्स' कंपनी विलुप्ति के कगार पर जा रही थी। संयुक्त राज्य अमेरिका में, वैक्युम क्लीनर समेत घरेलू सामानों के अग्रणी निर्माताओं में एक रहा है हूवर; और इस आविष्कार के कारण हूवर बहुत ही अमीर बन गए थे। वास्तव में, ब्रिटेन में हूवर का नाम वैक्युम क्लीनर का इतना बड़ा पर्याय बन गया कि "हरेक की कालीन हूवर की" जैसी स्थिति बन गयी। शुरूआत में यह 'द इलेक्ट्रिक सक्शन स्वीपर कंपनी' कहलाया, उनका पहला वैक्युम ओ मॉडल 1908 में आया, जिसे 60 डॉलर में बेचा गया। एक अनोखे वैक्युम क्लीनर के लिए हूवर भी उल्लेखनीय है, कॉन्स्टलेशन हूवर एक कनस्तर वाला वैक्युम क्लीनर है, लेकिन इसमें पहिया नहीं होता है। इसके बजाय, वैक्युम क्लीनर अपने निकासी पर प्रवाहमान होता है और होवरक्राफ्ट की तरह प्रचालित होता है, हालांकि पुराने मॉडल में ऐसा नहीं है। इसमें ऊपर के सिरे में एक घूमनेवाली नली इस अभिप्राय से लगी होती थी कि उपयोगकर्ता कमरे के केंद्र में ईकाई को रखकर प्रचालित करेगा और क्लीनर के आसपास काम करेगा। 1952 में लाया गया कनस्तर वैक्युम क्लीनर संग्रहणीय है और गोलाकार आकृति के कारण आसानी से पहचाने जाते हैं। ये बहुत शोर करते थे, सफाई की क्षमता कम थी और कालीन के ऊपर यह नहीं चल सकता था। लेकिन ये एक दिलचस्प मशीन बन कर रह गए; इनसे काम लिया जाता, सख्त लकड़ी के फर्शवाले घरों में अच्छी तरह काम करते हैं। कॉन्स्टलेशन को बदल दिए गए थे और 1975 में बंद हो जाने से पहले पिछले कुछ वर्षों तक अद्यतन किए गए। वैक्युम के अंतर्गत इन सभी निकासियों के कॉन्स्टलेशन मार्ग भिन्न एयरफोइल का उपयोग करते हैं। अद्यतन डिजाइन आधुनिक मानकों से काफी मिलते-जुलते हैं, क्योंकि विशेष कर कालीन पर होनेवाली आवाज को ये दबा देते हैं। ये मॉडलों कालीन पर या नंगे फर्श पर - बल्कि सख्त फर्श पर तैरते हुए चलते है, इससे निष्कासित वायु किसी भी तरह के सतह पर या कचरे के आसपास बिखर जाती हैं। अब हूवर को यूएस में बाद के कॉन्स्टलेशन मॉडल मॉडल में एक अद्यतन संस्करण के साथ फिर से रिलीज किया गया है। एक हेपा फिल्टरेशन बैग, जो कि एक 12 एम्पीयर का मोटर, एक सक्शन टर्बाइन जो बिजली से ब्रश को फर्श पर घूमाता है, बदलाव को शामिल किया गया और इसके हत्थे को फिर से डिजाइन किया गया, जो टूट जाने वाला था। इसी मॉडल को मेटैग ब्रांड के तहत यूके में सैटेलाइट के नाम से विपणन किया गया, क्योंकि इसका लाइसेंस प्रतिबंधित था। यूएस की पुरानी ईकाई में सक्शन योग्य 5.2 एम्पीयर मोटर डाला गया, लेकिन इन सभी में मोटरचालित ब्रश नहीं था। इसलिए वे आम तौर पर सख्त फर्श पर या छोटे कालीनों पर बेहतर काम करते हैं। पुरानी इकाइयां हूवर की तरह के जे पेपर बैग होते हैं, लेकिन ये छोटे किस्म के एस ऐलर्जन फिल्टरेशन बैग को पुराने वैक्युम के खाने में आसानी से काट-छांट कर फिट किया जा सकता है। यूएस हूवर से प्रतिस्थापन मोटर्स अभी भी कुछ मॉडलों के लिए उपलब्ध हैं। 1973 में सेलिब्रेटी नाम से हूवर ने हवा में चक्कर लगाने वाला वैक्युम क्लीनर का एक और मॉडल तैयार किया। इसका चपटा आकार "उड़न तश्तरी" जैसा है। पारंपरिक कनस्तर मॉडल को कुछ देर चलने के बाद हवा में चक्कर लगानेवाले वैक्युम की तरह बनाने के लिए हूवर में पहिए जोड़े गए हैं। यह एच किस्म के बैग का उपयोग करता है। शुरूआती वैक्युम क्लीनर भारी खड़ी रहनेवाली इकाइयां हुआ करती थी और आसानी से कहीं नहीं ले जाना जा सकता था। लेकिन 1921 में इलेक्ट्रोलक्स मॉडल वी लेकर आया, जिसे दो पतले धातु के चलाया जानेवाले के लिए डिजाइन किया गया था। इस नवाचार की कल्पना इलेक्ट्रोलक्स के संस्थापक एक्सल वेनेर-ग्रेन द्वारा की गयी थी, भावी पीढ़ी के वैक्युम क्लीनर के लिए यह एक मानक विशेषता बन गयी। 70 सालों तक 1930 के दशक के इलेक्ट्रोलक्स वैक्युम क्लीनर के इस्तेमाल होने का रिकॉर्ड था और अंतत: 2008 में यह टूट गया। इसके आने के बाद बहुत सालों के बाद तक वैक्युम क्लीनर एक विलासी वस्तु के रूप में ही रह गया था; लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मध्यवर्गों के बीच में ये आम हो गए। पश्चिमी देशों में ये कहीं अधिक चलन में आ गए, क्योंकि दुनिया के ज्यादतर हिस्सों में, दीवार से दीवार तक कालीन बिछाया जाना और घरों में टाइल या सख्त लकड़ी के फर्श असामान्य हैं, जिसमें आसानी से बुहारा, झाड़ू या पोंछा लगाया जाता है। वैक्युम क्लीनर चक्रवात के सिद्धांत पर काम करनेवाला वैक्युम क्लीनर 1990 के दशक में लोकप्रिय हो गया, हालांकि कुछ कंपनियों ने 1928 से चक्रवाती सक्रियता वाले वैक्युम क्लीनर बनाती रही है। 1985 में ब्रिटिश डिजाइनर जेम्स डायसन द्वारा आधुनिक चक्रवाती क्लीनर को औद्योगिक आधुनिक चक्रवाती विभाजक से रूपांतरित किया गया। 1980 के दशक में उन्होंने चक्रवाती क्लीनर को 1,800 यूएस डॉलर में पहली बार जापान में लॉन्च किया और बाद में 1993 में सीधे यूके में 200 पाउंड में डायसन डीसी01 लॉन्च किया। उम्मीद यह थी कि लोग एक आम वैक्युम क्लीनर की तुलना में दुगुनी कीमत देकर कोई वैक्युम क्लीनर नहीं खरीदेंगे, लेकिन बाद में यह यूके में सबसे अधिक लोकप्रिय वैक्युम क्लीनर बन गया। चक्रवाती क्लीनर में बैग का उपयोग होता है, इसके बजाय धूल एक ऐसे गोल पात्र में इकट्ठा होता, जो कि अलग किया जाने लायक होता है। भंवर का निर्माण करते हुए पात्र की दीवार की तरफ स्पर्शरेखा की दिशा में हवा और धूल तेज गति से उड़कर पात्र में इकट्ठा होती है। धूल के कणों और अन्य कचरों को अपकेंद्री बल के द्वारा जहां वे गिरती है उसका कारण गुरुत्वाकर्षण हैं और पात्र के ऊपरी हिस्से में एक के बाद एक कई संख्या में महीन फिल्टर के से होकर साफ हवा भंवर के केंद्र से मशीन से बाहर निकल कर आती है। पहला फिल्टर उन कणों को रोक लेता है जो इसके पीछे लगे फिल्टर को, जो और भी अधिक महीन धूल को हटाता है, नुकसान पहुंचा सकता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि मशीन प्रभावी तरीके से काम करता रहे, फिल्टरों को नियमित रूप से साफ किया या बदला जाना चाहिए। डायसन के बाद हॉवर समेत कई अन्य कंपनियां चक्रवाती मॉडल लेकर आयीं और तब एक पारंपरिक क्लीनर की तुलना में सबसे सस्ता मॉडल भी महंगा नहीं रहा। 2000 के शुरूआत में कई कंपनियों ने रोबोट "वैक्युम" क्लीनर विकसित किया। इसके कुछ उदाहरण हैं रूंबा, रोबोमैक्स, इंटेलीबोट, ट्रिलोबाइट और फ्लोरबोट . ये मशीने पूरे फर्श पर एक पैटर्न में अपने आप में आगे बढ़ती है, सतह की धूल को साफ करती और कचरे को अपने कचरे के डब्बे में डालती है। ये आमतौर पर फर्नीचरों के आसपास घूम सकती है और दोबारा अपने काम पर लग जाती है। ज्यादातर रोबोट वाले "वैक्युम" क्लीनर का डिजाइन घर पर उपयोग के लिए किया जाता है, हालांकि दफ्तरों, होटलों, अस्पतालों आदि में परिचलान के लिए और अधिक सक्षम मॉडल हैं। जैसे कि कुछ रूंबा में असली वैक्युम का निर्माण करने के लिए उसे इंपेलर मोटर से लैस किया गया है। 2003 के अंत तक दुनिया भर में लगभग 570,000 इकाइयां बिकीं थीं। 2004 में एक ब्रिटिश कंपनी एयराइडर रिलीज किया, जो कि आगे-पीछे होने वाला एक ऐसा वैक्युम क्लीनर था जो कुशन के ऊपरी सतह पर तैरता है। दावा किया जाता है कि वजन में यह हल्का और कौशल में आसान होता है, हालांकि ऐसा करनेवाला यह पहला वैक्युम क्लीनर नहीं है - कम से कम 35 सालों पुराना है हॉवर कान्स्टलेशन. एक वैक्युम का खींचना हवा के दबाव में अंतर आने के कारण होता है। एक बिजली का पंखा मशीन के अंदर दबाव कम कर देता है। तब वायुमंडलीय दबाव हवा को टोंटी के जरिए कालीन पर धक्का देता है, जिससे धूल पूरी तरह से बैग में पहुंच जाता है। परीक्षणों से पता चला है कि वैक्युम पंप की सफाई से छोटे पिस्सूओं का 100% और वयस्क पिस्सूओं का 96% सफाया हो सकता है। एक ब्रिटिश आविष्कारक ने सफाई की एक नई तकनीक विकसित की है जो एयर रिसाइक्लिंग तकनीक के रूप में जाना जाता है, जो कालीन से घूल को इकट्ठा करने के लिए वैक्युम के बजाय हवा के प्रवाह का उपयोग करता है। इस तकनीक की जांच मार्केट ट्रैन्स्फर्मेशन प्रोग्राम ) द्वारा की गयी और दिखाया गया कि यह वैक्युम पद्धति की तुलना में कहीं अधिक ऊर्जा कुशल है। हालांकि प्रोटोटाइप के रूप में काम करनेवाले किसी भी क्लीनर के निर्माण में एयर रिसाइक्लिंग तकनीक का उपयोग मौजूदा समय में नहीं हो रहा है। वैक्युम क्लीनर में इस तरह का विन्यास होता हैं: विभिन्न तरह के विशेष संलग्नक, उपकरण, ब्रश और विस्तार के लिए अतिरिक्त डंडा के साथ ज्यादातर वैक्युम क्लीनरों की आपूर्ति की जाती है, ताकि वे दुर्गम स्थानों तक पहुंच सके या विभिन्न तरह के सतहों की सफाई के लिए इसका उपयोग किया जा सके। ऐसे सबसे अधिक आम उपकरणों निम्न हैं: वैक्युम अपने स्वभाव के कारण हवा की निकासी द्वारा हवा को वहन करती हैजो कि पूरी तरह से छनी हुई नहीं होती है। इसके कारण सेहत में समस्या पेश आ सकती है, क्योंकि प्रचालक अंतत: धूल फांस ही लेता हैं। इस समस्या का हल करने के लिए निर्माता बहुत सारी पद्धतियों का प्रयोग करते हैं। एक ही वैक्युम में कई तरीके एक साथ सम्मिलित किए जा सकते हैं। आमतौर पर फिल्टर को इस तरह लगाया जाता है कि मोटर तक पहुंचने से पहले भीतर आनेवाली हवा इससे होकर गुजरे. साधारण वैक्युम क्लीनर, को एस्बेस्टोस फाइबर को साफ करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, अगर 'हेपा' फिल्टर लगा हुआ हो तो भी. एक वैक्युम क्लीनर का प्रदर्शन कई मापदंडों से मापा जा सकता है: एक वैक्युम क्लीनर का अन्य ब्यौरा इस प्रकार हैं: सक्शन अधिकतम दबाव का अंतर है कि जिसकी रचना एक पंप कर सकता है। उदाहरण के लिए, एक आम घरेलू मॉडल में सक्शन लगभग 20 किलो पास्कल ऋणात्मक होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि 20 किलो पास्कल द्वारा यह सामान्य वायुमंडलीय दबाव से नली के अंदर के दबाव को कम कर सकता है। खींचने की उच्च दर क्लीनर को और अधिक मजबूत बनाती है। पानी का एक इंज 249 पास्कल के बराबर होता है; इसलिए, यह पानी का एक आम सक्शन 80 इंच होता है। क्लीनर में बिजली की खपत, वाट में, प्रायः एकमात्र नियत आंकडा है। कई उत्तर अमेरिकी के वैक्युम क्लीनर निर्माता विद्युत केवल वर्तमान एम्पीयर में देते हैं और उपभोक्ता को वाट में बिजली की दर प्राप्त करने लिए लाइन के 120 वोल्ट के वोल्टेज से गुणा करने के लिए छोड़ देते हैं। उपभोक्ता को बिजली क्लीनर की प्रभावशीलता का संकेत नहीं, केवल बिजली की खपत कितनी हुई इसका संकेत देती है। बिजली को हवा की धार में परिवर्तित किए माने की मात्रा कभी-कभी सफाई करनेवाली नली के अंतिम छोर पर दिखाया जाता है और इसे एयरवाट से मापा जाता है: इसकी ईकाई महज वाट होती है; "हवा" इसके काम करने की क्षमता के बारे में बताता है, न कि बिजली की खपत के बारे में. एयरवाट की उत्पत्ति अंग्रेजी यूनिट से हुई है। एएसटीएम इंटरनेशनल एयरवाट को 0.117354 *एफ* एस के रूप में परिभाषित करता है, जहां एफ ft3/m में हवा के प्रवाह की दर है और पानी के इंज में एस दबाव है। यह एक एयरवाट को 0.9983 वाट के समान बनता है। कुछ छोटे वैक्युम क्लीनर एसी बिजली का उपयोग करने के बजाए कम-वजनी, पोर्टेबल और रिचार्ज योग्य होते हैं। कुछ वैक्युम क्लीनर में एक ही मशीन में सूखी और बाद में गीली सफाई के लिए बिजली वाला पोछा भी लगा होता है।
किसमत का तात्पर्य निम्न में से किसी से हो सकता है:
डॉ बिन्देश्वरी पाठक विश्वविख्यात भारतीय समाजिक कार्यकर्ता एवं उद्यमी हैं। उन्होने सन 1970 मे सुलभ इन्टरनेशनल की स्थापना की। सुलभ इंटरनेशनल मुख्यतः मानव अधिकार, पर्यावरणीय स्वच्छता, ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्रोतों और शिक्षा द्वारा सामाजिक परिवर्तन आदि क्षेत्रों में कार्य करने वाली एक अग्रणी संस्था है। श्री पाठक का कार्य स्वच्छता और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अग्रणी माना जाता है। इनके द्वारा किए गए कार्यों की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है और पुरस्कृत किया गया है। डॉ बिन्देश्वरी पाठक ने का जन्म भारत के बिहार प्रान्त के रामपुर में हुआ। उन्होने सन 1964 में समाज शास्त्र में स्नातक की उपाधि ली। सन 1967 में उन्होने बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति में एक प्रचारक के रूप में कार्य किया। वर्ष 1970 में बिहार सरकार के मंत्री श्री शत्रुहन शरण सिंह के सुझाव पर सुलभ शौचालय संस्थान की स्थापना की। बिहार से यह अभियान शुरू होकर बंगाल तक पहुंच गया। वर्ष 1980 आते आते सुलभ भारत ही नहीं विदेशों तक पहुंच गया। सन, 1980 में इस संस्था का नाम सुलभ इण्टरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन हो गया। सुलभ को लिए अन्तर्राष्ट्रीय गौरव उस समय प्राप्त हुआ जब संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा सुलभ इण्टरनेशनल को विशेष सलाहकार का दर्जा प्रदान किया गया। सन 1980 में उन्होने स्नातकोत्तर तथा सन 1985 में पटना विश्वविद्यालय से पीएच डी की उपाधि अर्जित की। उनके शोध-प्रबन्ध का विषय था - बिहार में कम लागत की सफाई-प्रणाली के माध्यम से सफाईकर्मियों की मुक्ति । बिंदेश्वर पाठक ने सामाजिक विज्ञान में स्नातक किया। उन्होंने अपनी परास्नातक उपाधि 1980 में और डॉक्टरेट की उपाधि 1985 में पटना विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उच्चकोटि के लेखक और वक्ता के रूप में श्री पाठक ने कई पुस्तके भी लिखीं। स्वच्छता और स्वास्थ्य पर आधारित विभिन्न कार्यशालाओं और सम्मेलनों में श्री पाठन ने अभूतपूर्व योगदान दिया। एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में जन्मे और बिहार में पले बढे डॉ॰ पाठक ने अपने पीएच.डी. का अध्ययन क्षेत्र "भंगी मुक्ति और स्वच्छता के लिए सर्व सुलभ संसाधन" जैसे विषय को चुना और इस दिशा में गहन शोध भी किया। 1968 में श्री पाठक भंगी मुक्ति कार्यक्रम से जुड़े रहे और उन्होंने तब इस सामाजिक बुराई और इससे जुड़ी हुई पीड़ा का अनुभव किया। श्री पाठक के दृढ निश्चय ने उन्हें सुलभ इंटरनेशनल जैसी संस्था की स्थापना की प्रेरणा दी और उन्होंने 1970 में भारत के इतिहास में एक अनोखे आंदोलन का शुभारंभ किया। श्री पाठक ने 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की सुलभ इंटरनेशनल एक सामाजिक सेवा संगठन है जो मुख्यतः मानव अधिकार, पर्यावरणीय स्वच्छता, ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्रोतों और शिक्षा द्वारा सामाजिक परिवर्तन आदि क्षेत्रों में कार्य करती है। इस संस्था के 50,000 समर्पित स्वयंसेवक हैं। श्री पाठक ने सुलभ शौचालयों के द्वारा बिना दुर्गंध वाली बायोगैस के प्रयोग की खोज की। इस सुलभ तकनीकि का प्रयोग भारत सहित अनेक विकाशसील राष्ट्रों में बहुतायत से होता है। सुलभ शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट का खाद के रूप में प्रयोग को भी प्रोत्साहित किया। श्री पाठक को भारत सरकार द्वारा 1991 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 2003 में श्री पाठक का नाम विश्व के 500 उत्कृष्ट सामाजिक कार्य करने वाले व्यक्तियों की सूची में प्रकाशित किया गया। श्री पाठक को एनर्जी ग्लोब पुरस्कार भी मिला। श्री पाठक को इंदिरा गांधी पुरस्कार, स्टाकहोम वाटर पुरस्कार इत्यादि सहित अनेक पुरस्कारों द्वारा सम्मानित किया गया है। उन्होने पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने के लिये प्रियदर्शिनी पुरस्कार एवं सर्वोत्तम कार्यप्रणाली के लिये दुबई अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त किया है। इसके अलावा सन 2009 में अंतर्राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा संगठन का अक्षय उर्जा पुरस्कार भी प्राप्त किया।
गुफ़ा धरती में ऐसे भूमिगत स्थल को कहते हैं जो इतना बड़ा हो कि कोई व्यक्ति उसमें प्रवेश कर सके। अगर ऐसा कोई स्थान इतना छोटा हो कि उसमें केवल एक छोटा जानवर ही प्रवेश कर पाए तो उसे आम तौर से हिन्दी में गुफा की बजाए 'बिल' कहा जाता है। यह संभव है कि कोई गुफा समुद्र के पानी के अन्दर भी हो - ऐसी गुफाओं को समुद्री गुफा कहा जाता है।
केंद्रीय खनन एवं ईंधन अनुसंधान संस्थान धनबाद, झारखण्ड में स्थित है। यह भारत की वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद की एक अंगीभूत प्रयोगशाला है। यह खनन से खपत तक अर्थात सम्पूर्ण कोयला ऊर्जा श्रृंखला को अनुसंधान व विकास से संबंधित निवेश उपलब्ध कराने के लिए समर्पित है। सीएफआरआई तथा सीएमआरआई के एकीकरण के बाद सीआईएमएफआर का गठन हुआ। राँची, बिलासपुर, नागपुर व रुड़की में इस संस्थान के यूनिट हैं। केंद्रीय ईंधन अनुसंधान संस्थान की स्थापना सन 1946 में हुई। यह एक अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त कोयला अनुसंधान व विकास प्रयोगशाला थी। इसे संसाधन गुणवत्ता मूल्यांकन, कोयला विनिर्माण, कार्बनीकरण, प्रदहन तथा निम्न गुणवत्ता वाले कोयले के गैसीकरण, पर्यावरण प्रबंधन तथा उड़नशील राख के प्रयोग के क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त थी। इसके अतिरिक्त इसे कोयला, सिन्थेटिक ईंधन एवं रसायनों पर मौलिक अनुसंधान करने का भी अनुभव प्राप्त था। केन्द्रीय खनन अनुसंधान केन्द्र की स्थापना 1956 में हुई थी। 1994 में इसका नाम केन्द्रीय खनन अनुसंधान संस्थान कर दिया गया। यह प्रयोगशाला कोयला एवं खनिज उद्योगों को पूरी सुरक्षा एवं मित्तव्ययिता के साथ लक्ष्यबध्द उत्पादन प्राप्त करने के लिए अनुसंधान व विकास समर्थन, तकनीकी सेवा, प्रौद्योगिकी उत्क्रमण में सहायता, प्रौद्योगिकी अनुकूलन आदि उपलब्ध कराने वाला देश का एक अग्रणी संस्थान था। इस संस्थान में निम्न विभाग हैं:
भारत का उच्चतम न्यायालय या भारत का सर्वोच्च न्यायालय भारत का शीर्ष न्यायिक प्राधिकरण है जिसे भारतीय संविधान के भाग 5 अध्याय 4 के तहत स्थापित किया गया है। भारतीय संघ की अधिकतम और व्यापक न्यायिक अधिकारिता उच्चतम न्यायालय को प्राप्त हैं। भारतीय संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय की भूमिका संघीय न्यायालय और भारतीय संविधान के संरक्षक की है।भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 से 147 तक में वर्णित नियम उच्चतम न्यायालय की संरचना और अधिकार क्षेत्रों की नींव हैं। उच्चतम न्यायालय सबसे उच्च अपीलीय अदालत है जो राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के उच्च न्यायालयों के फैसलों के खिलाफ अपील सुनता है। इसके अलावा, राज्यों के बीच के विवादों या मौलिक अधिकारों और मानव अधिकारों के गंभीर उल्लंघन से सम्बन्धित याचिकाओं को आमतौर पर उच्च्तम न्यायालय के समक्ष सीधे रखा जाता है। भारत के उच्चतम न्यायालय का उद्घाटन 28 जनवरी 1950 को हुआ और उसके बाद से इसके द्वारा 24,000 से अधिक निर्णय दिए जा चुके हैं। 28 जनवरी 1950, भारत के एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के दो दिन बाद, भारत का उच्चतम न्यायालय अस्तित्व में आया। उद्घाटन समारोह का आयोजन संसद भवन के नरेंद्रमण्डल भवन में किया गया था। इससे पहले सन् 1937 से 1950 तक चैंबर ऑफ़ प्रिंसेस ही भारत की संघीय अदालत का भवन था। आज़ादी के बाद भी सन् 1958 तक चैंबर ऑफ़ प्रिंसेस ही भारत के उच्चतम न्यायालय का भवन था, जब तक कि 1958 में उच्चतम न्यायालय ने अपने वर्तमान तिलक मार्ग, नई दिल्ली स्थित परिसर का अधिग्रहण किया। भारत के उच्चतम न्यायालय ने भारतीय अदालत प्रणाली के शीर्ष पर पहुँचते हुए भारत की संघीय अदालत और प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति को प्रतिस्थापित किया था। 28 जनवरी 1950 को इसके उद्घाटन के बाद, उच्चतम न्यायालय ने संसद भवन के चैंबर ऑफ़ प्रिंसेस में अपनी बैठकों की शुरुआत की। उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन सर्वोच्च न्यायालय की बार है। एस. सी . बी. ए. के वर्तमान अध्यक्ष प्रवीण पारेख हैं, जबकि के. सी. कौशिक मौजूदा मानद सचिव हैं।< उच्चतम न्यायालय भवन के मुख्य ब्लॉक को भारत की राजधानी नई दिल्ली में तिलक रोड स्थित 22 एकड़ जमीन के एक वर्गाकार भूखंड पर बनाया गया है। निर्माण का डिजाइन केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग के प्रथम भारतीय अध्यक्ष मुख्य वास्तुकार गणेश भीकाजी देवलालीकर द्वारा इंडो-ब्रिटिश स्थापत्य शैली में बनाया गया था। न्यायालय 1958 में वर्तमान इमारत में स्थानान्तरित किया गया। भवन को न्याय के तराजू की छवि देने की वास्तुकारों की कोशिश के अंतर्गत भवन के केन्द्रीय ब्लाक को इस तरह बनाया गया है की वह तराजू के केन्द्रीय बीम की तरह लगे। 1979 में दो नए हिस्से पूर्व विंग और पश्चिम विंग को 1958 में बने परिसर में जोड़ा गया। कुल मिलकर इस परिसर में 15 अदालती कमरे हैं। मुख्य न्यायाधीश की अदालत, जो कि ने केन्द्रीय विंग के केंद्र में स्थित है सबसे बड़ा अदालती कार्यवाही का कमरा है। इसमें एक ऊंची छत के साथ एक बड़ा गुंबद भी है। भारत के संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय के लिए मूल रूप से दी गयी व्यवस्था में एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीशों को अधिनियमित किया गया था और इस संख्या को बढ़ाने का जिम्मा संसद पर छोड़ा गया था। प्रारंभिक वर्षों में, न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत मामलों को सुनने के लिए उच्चतम न्यायालय की पूरी पीठ एक साथ बैठा करती थी। जैसे जैसे न्यायालय के कार्य में वृद्धि हुई और लंबित मामले बढ़ने लगे, भारतीय संसद द्वारा न्यायाधीशों की मूल संख्या को आठ से बढ़ाकर 1956 में ग्यारह, 1960 में चौदह, 1978 में अठारह, 1986 में छब्बीस और 2008 में इकत्तीस तक कर दिया गया। न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि हुई है, वर्तमान में वे दो या तीन की छोटी न्यायपीठों के रूप में सुनवाई करते हैं। संवैधानिक मामले और ऐसे मामले जिनमें विधि के मौलिक प्रश्नों की व्याख्या देनी हो, की सुनवाई पांच या इससे अधिक न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जाती है। कोई भी पीठ किसी भी विचाराधीन मामले को आवश्यकता पड़ने पर संख्या में बड़ी पीठ के पास सुनवाई के लिए भेज सकती है। संविधान में 30 न्यायधीश तथा 1 मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का प्रावधान है। उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के परामर्शानुसार की जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इस प्रसंग में राष्ट्रपति को परामर्श देने से पूर्व अनिवार्य रूप से चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह से परामर्श प्राप्त करते हैं तथा इस समूह से प्राप्त परामर्श के आधार पर राष्ट्रपति को परामर्श देते हैं। अनु 124 के अनुसार मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह लेगा। वहीं अन्य जजों की नियुक्ति के समय उसे अनिवार्य रूप से मुख्य न्यायाधीश की सलाह माननी पडेगी सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद 1993 मे दिये गये निर्णय के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के जजों के तबादले इस प्रकार की प्रक्रिया है जो सर्वाधिक योग्य उपलब्ध व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सके। भारत के मुख्य न्यायाधीश का मत प्राथमिकता पायेगा। उच्च न्यायपालिका मे कोई नियुक्ति बिना उस की सहमति के नहीं होती है। संवैधानिक सत्ताओं के संघर्ष के समय भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व करेगा। राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश को अपने मत पर फिर से विचार करने को तभी कहेगा जब इस हेतु कोई तार्किक कारण मौजूद होगा। पुनः विचार के बाद उसका मत राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होगा यद्यपि अपना मत प्रकट करते समय वह सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठम न्यायधीशों का मत जरूर लेगा। पुनःविचार की दशा मे फिर से उसे दो वरिष्ठम न्यायधीशों की राय लेनी होगी वह चाहे तो उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की राय भी ले सकता है लेकिन सभी राय सदैव लिखित में होगीबाद में अपना मत बदलते हुए न्यायालय ने कम से कम 4 जजों के साथ सलाह करना अनिवार्य कर दिया था। वह कोई भी सलाह राष्ट्रपति को अग्रेषित नहीं करेगा यदि दो या ज्यादा जजों की सलाह इसके विरूद्ध हो किंतु 4 जजों की सलाह उसे अन्य जजों जिनसे वो चाहे, सलाह लेने से नहीं रोकेगी। किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या फिर उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के एक तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जा सकता है ! और वह 62 वर्ष की आयु पूरी न किया हो ,वर्तमान समय में CJAC निर्णय लेगी उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष होती है। न्यायाधीशों को केवल दुर्व्यवहार या असमर्थता के सिद्ध होने पर संसद के दोनों सदनों द्वारा दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव के आधार पर ही राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों की राष्ट्रपति तब पदच्युत करेगा जब संसद के दोनों सदनों के कम से कम 2/3 उपस्थित तथा मत देने वाले तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव जो कि सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पर लाया गया हो के द्वारा उसे अधिकार दिया गया हो। ये आदेश उसी संसद सत्र मे लाया जायेगा जिस सत्र मे ये प्रस्ताव संसद ने पारित किया हो। अनु 124 मे वह प्रक्रिया वर्णित है जिससे जज पदच्युत होते है। इस प्रक्रिया के आधार पर संसद ने न्यायधीश अक्षमता अधिनियम 1968 पारित किया था। इसके अंतर्गत 1. संसद के किसी भी सदन मे प्रस्ताव लाया जा सकता है। लोकस्भा मे 100 राज्यसभा मे 50 सदस्यों का समर्थन अनिवार्य है 2. प्रस्ताव मिलने पर सदन का सभापति एक 3 सदस्य समिति बनायेगा जो आरोपों की जाँच करेगी। समिति का अध्यक्ष सप्रीम कोर्ट का कार्यकारी जज होगा दूसरा सदस्य किसी हाई कोर्ट का मुख्य कार्यकारी जज होगा। तीसरा सदस्य माना हुआ विधिवेत्ता होगा। इसकी जाँच-रिपोर्ट सदन के सामने आयेगी। यदि इस मे जज को दोषी बताया हो तब भी सदन प्रस्ताव पारित करने को बाध्य नहीं होता किंतु यदि समिति आरोपों को खारिज कर दे तो सदन प्रस्ताव पारित नही कर सकता है।अभी तक सिर्फ एक बार किसी जज के विरूद्ध जांच की गयी है। जज रामास्वामी दोषी सिद्ध हो गये थे किंतु संसद मे आवश्यक बहुमत के अभाव के चलते प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सका था। उच्चतम न्यायालय ने हमेशा एक विस्तृत क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व को बनाए रखा है। इसमें धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यक वर्गों से संबंधित न्यायाधीशों का एक अच्छा हिस्सा है। उच्चतम न्यायालय में नियुक्त होने वाली प्रथम महिला न्यायाधीश 1987 में नियुक्त हुईं न्यायमूर्ति फातिमा बीवी थीं। उनके बाद इसी क्रम में न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर, न्यायमूर्ति रूमा पाल और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा का नाम आता है। न्यायमूर्ति रंजना देसाई, जो सबसे हाल ही में उच्चतम न्यायालय की महिला जज नियुक्त हुईं हैं, को मिलाकर वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में दो महिला न्यायाधीश हैं, उच्चतम न्यायालय के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब दो महिलायें एक साथ न्यायाधीश हों।2000 में न्यायमूर्ति के. जी. बालकृष्णन दलित समुदाय से पहले न्यायाधीश बने। बाद में, सन् 2007 में वे ही उच्चतम न्यायालय के पहले दलित मुख्य न्यायाधीश भी बने। 2010 में, भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद सँभालने वाले न्यायमूर्ति एस. एच. कपाड़िया पारसी अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्ध रखते हैं। अनु 130 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली मे होगा परन्तु यह भारत मे और कही भी मुख्य न्यायाधीश के निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति की स्वीकृति से सुनवाई कर सकेगाक्षेत्रीय खंडपीठों का प्रश्न- विधि आयोग अपनी रिपोर्ट के माध्यम से क्षेत्रीय खंडपीठों के गठन की अनुसंशा कर चुका है न्यायालय के वकीलॉ ने भी प्राथर्ना की है कि वह अपनी क्षेत्रीय खंडपीठों का गठन करे ताकि देश के विभिन्न भागॉ मे निवास करने वाले वादियॉ के धन तथा समय दोनॉ की बचत हो सके, किंतु न्यायालय ने इस प्रश्न पे विचार करने के बाद निर्णय दिया है कि पीठॉ के गठन से 1. ये पीठे क्षेत्र के राज नैतिक दबाव मे आ जायेगी 2. इनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट के एकात्मक चरित्र तथा संगठन को हानि पहुँच सकती है किंतु इसके विरोध मे भी तर्क दिये गये है।
गंगापुर, हल्द्वानी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है।
तसलीमा नसरीन बांग्ला लेखिका एवं भूतपूर्व चिकित्सक हैं जो 1994 से बांग्लादेश से निर्वासित हैं। 1970 के दशक में एक कवि के रूप में उभरीं तसलीमा 1990 के दशक के आरम्भ में अत्यन्त प्रसिद्ध हो गयीं। वे अपने नारीवादी विचारों से युक्त लेखों तथा उपन्यासों एवं इस्लाम एवं अन्य नारीद्वेषी मजहबों की आलोचना के लिये जानी जाती हैं। तसलीमा का जन्म प्रचलित रूप से 25 अगस्त सन् 1962 को माना जाता है, परंतु वास्तव में उनका जन्म 5 सितंबर 1960 ई0 को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के मयमनसिंह शहर में हुआ था। उन्होंने मयमनसिंह मेडिकल कॉलेज से 1986 में चिकित्सा स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद सरकारी डॉक्टर के रूप में कार्य आरम्भ किया जिस पर वे 1994 तक थीं। जब वह स्कूल में थी तभी से कविताएँ लिखना आरम्भ कर दिया था। बांग्लादेश में उनपर जारी फ़तवे के कारण आजकल वे कोलकाता में निर्वासित जीवन जी रही हैं। हालांकि कोलकाता में मुसलमानों के विरोध के बाद उन्हें कुछ समय के लिये दिल्ली और उसके बाद फिर स्वीडन में भी समय बिताना पड़ा लेकिन इसके बाद जनवरी 2010 में वे भारत लौट आईं। उन्होंने भारत में स्थाई नागरिकता के लिये आवेदन किया है लेकिन भारत सरकार की ओर से उस पर अब तक कोई निर्णय नहीं हो पाया है। यूरोप और अमेरिका में एक दशक से भी अधिक समय रहने के बाद, तस्लीमा 2005 में भारत चले गए, लेकिन 2008 में देश से हटा दिया गया, हालांकि वह दिल्ली में रह रही है, भारत में एक आवासीय परमिट के लिए दीर्घावधि, बहु- 2004 के बाद से प्रवेश या 'एक्स' वीज़ा। उसे स्वीडन की नागरिकता मिली है। स्त्री के स्वाभिमान और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए तसलीमा नसरीन ने बहुत कुछ खोया। अपना भरापूरा परिवार, दाम्पत्य, नौकरी सब दांव पर लगा दिया। उसकी पराकाष्ठा थी देश निकाला। नसरीन को रियलिटी शो बिग बॉस 8 में भाग लेने के लिए कलर्स की तरफ से प्रस्ताव दिया गया है। तसलीमा ने इस शो में भाग लेने से मना कर दिया है। अपने उदार तथा स्वतंत्र विचारों के लिये तसलीमा को देश-विदेश में सैकड़ों पुरस्कार एवं सम्मान प्रदान किये गये हैं। इनमें से कुछ ये हैं-
श्री रघुनाथ दास गोस्वामी, वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। इन्होंने युवा आयु में ही गृहस्थी का त्याग किया और गौरांग के साथ हो लिए थे। ये चैतन्य के सचिव स्वरूप दामोदर के निजी सहायक रहे। उनके संग ही इन्होंने गौरांग के पृथ्वी पर अंतिम दिनों में दर्शन भी किये। गौरांग के देहत्याग उपरांत ये वृंदावन चले आए, व सनातन गोस्वामी व रूप गोस्वामी के साथ अत्यंत सादगी के साथ भग्वन्नाम का जाप करते रहे, व चैतन्य की शिक्षाओं का प्रचार किया। इनके दीक्षा गुरु थे यदुनंदन आचार्य।
भारत की जनगणना अनुसार यह गाँव, तहसील ठाकुरद्वारा, जिला मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में स्थित है। सम्बंधित जनगणना कोड:
शनिवार वाड़ा भारत के महाराष्ट्र राज्य के पुणे ज़िले में स्थित एक दुर्ग है जिनका निर्माण 18वीं सदी में 1746 में किया था। यह मराठा पेशवाओं की सीट थी। जब मराठाओं ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से नियंत्रण खो दिया तो तीसरा आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ था तब मराठों ने इसका निर्माण करवाया था। दुर्ग खुद को काफी हद तक एक अस्पष्टीकृत आग से 1838 में नष्ट हो गया था, लेकिन जीवित संरचनाएंअब एक पर्यटक स्थल के रूप में स्थित है। मराठा साम्राज्य में पेशवा बाजीराव जो कि छत्रपति शाहु के प्रधान थे इन्होंने ने ही शनिवार वाड़ा का निर्माण करवाया था। शनिवार वाड़ा का मराठी में मतलब शनिवार तथा वाड़ा का मतलब टीक होता है। शनिवार वाड़ा के प्रवेशद्वार के सामने पर्यटक शनिवार वाड़ा दिल्ली गेट नारायण प्रवेशद्वार शनिवार वाड़ा महल की दीवारें शनिवार वाड़ा महल दिल्ली दरवाज़ा शनिवार वाड़ा का उद्यान
कुलासू-जै0-2, चौबटाखाल तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के पौड़ी जिले का एक गाँव है।
मीरपोर आज़ाद कश्मीर का सब से बड़ा शहर है और ज़िला मीरपोर का मरकज़ भी है। मीरपोर आज़ाद कश्मीर के इन्तिहाई जनूब में वाक़िअ है और सतह समुंद्र से इस की ऊंचाई तक़रीबन 459 मीटर है। ये पाकिस्तान के दारुलहकूमत इस्लाम आबाद से तक़रीबन 125 किलोमीटर जनूब मशरिक़ में वाक़िअ है। पाकिस्तान का दूसर बड़ा डैम मंगलह डैम इसी ज़िला में है। 1960 की दुहाएी में तक़रीबअ 50,000 लोगों ने इस डैम की वजह से दूसरे इलाक़ों जैसाकि न्यू मीर पोर, पाकिस्तान के दूसरों इलाक़ों और बर्तानिया में हिजरत की। मीर पोर शहर की बुलंदी सतह समुंद्र से 459 मीटर है। तहसील दीनह के ज़रीये ये लाहौर पिशावर मरकज़ी शाहराह से मुनसलिक है। ये मीरपोर ज़िला का सदर मुक़ाम है जो कि तीन सब डिवीज़नओ-ं मीरपोर, डडयाल और चक सवारी पर मस्तमल है। मीर पोर का नया शहर मंगलह झील के किनारे वाक़िअ है। पुराना शहर झील के पानी में दफ़न है। सरदीयों के दिनों में जब मंगलह झील के पानी की सतह कम हो तोदरबारऔर मंदिर, बऊला और पुराने खन्डरात नज़र आते हैं।
कन्‍धई लाल,भारत के उत्तर प्रदेश की चौथी विधानसभा सभा में विधायक रहे। 1967 उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में इन्होंने उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले के 61 - पुवायां विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से चुनाव में भाग लिया।
} निर्देशांक: 27°11′N 78°01′E / 27.18°N 78.02°E / 27.18; 78.02 देओरी खैरागढ़, आगरा, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है। · अंबेडकर नगर जिला · आगरा जिला · अलीगढ़ जिला · आजमगढ़ जिला · इलाहाबाद जिला · उन्नाव जिला · इटावा जिला · एटा जिला · औरैया जिला · कन्नौज जिला · कौशम्बी जिला · कुशीनगर जिला · कानपुर नगर जिला · कानपुर देहात जिला · खैर · गाजियाबाद जिला · गोरखपुर जिला · गोंडा जिला · गौतम बुद्ध नगर जिला · चित्रकूट जिला · जालौन जिला · चन्दौली जिला · ज्योतिबा फुले नगर जिला · झांसी जिला · जौनपुर जिला · देवरिया जिला · पीलीभीत जिला · प्रतापगढ़ जिला · फतेहपुर जिला · फार्रूखाबाद जिला · फिरोजाबाद जिला · फैजाबाद जिला · बलरामपुर जिला · बरेली जिला · बलिया जिला · बस्ती जिला · बदौन जिला · बहरैच जिला · बुलन्दशहर जिला · बागपत जिला · बिजनौर जिला · बाराबांकी जिला · बांदा जिला · मैनपुरी जिला · महामायानगर जिला · मऊ जिला · मथुरा जिला · महोबा जिला · महाराजगंज जिला · मिर्जापुर जिला · मुझफ्फरनगर जिला · मेरठ जिला · मुरादाबाद जिला · रामपुर जिला · रायबरेली जिला · लखनऊ जिला · ललितपुर जिला · लखीमपुर खीरी जिला · वाराणसी जिला · सुल्तानपुर जिला · शाहजहांपुर जिला · श्रावस्ती जिला · सिद्धार्थनगर जिला · संत कबीर नगर जिला · सीतापुर जिला · संत रविदास नगर जिला · सोनभद्र जिला · सहारनपुर जिला · हमीरपुर जिला, उत्तर प्रदेश · हरदोइ जिला
हॉकआई मार्वल कॉमिक्स द्वारा प्रकाशित अमेरिकी कॉमिक पुस्तकों में दिखने वाला एक काल्पनिक सुपरहीरो है। लेखक स्टेन ली और कलाकार डॉन हेक द्वारा बनाया गया यह चरित्र पहली बार टेल्स ऑफ़ सस्पेंस #57 में एक खलनायक के रूप में दिखाई दिया, और बाद में द अवेंजर्स #16 में सुपरहीरो टीम अवेंजर्स में शामिल हो गया। तब से वह इस टीम का एक प्रमुख सदस्य रहा है। हॉकआई को आईजीएन की शीर्ष 100 कॉमिक बुक नायकों की सूची में 44वां स्थान दिया गया था। अभिनेता जेरेमी रेनर मार्वल सिनेमेटिक यूनिवर्स की फिल्मों में हॉकआई की भूमिका निभा रहे हैं। फिल्म थॉर में कैमियो उपस्थिति में नजर आने के बाद, रेनर द अवेंजर्स, अवेंजर्स: एज ऑफ़ अल्ट्रॉन, और कैप्टन अमेरिका: सिविल वॉर में हॉकआई का अभिनय कर चुके हैं, और वह ही एमसीयू की आगामी अवेंजर्स: इन्फिनिटी वॉर और उसके सीक्वल में भी हॉकआई की भूमिका का निर्वहन करेंगे।
सरदार वल्लभभाई राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, सूरत जिसे 'एन आई टी सूरत' के नाम से भी जाना जाता है, प्रौद्योगिकी एवम अभियांत्रिकी का राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है। यह भारत के लगभग तीस राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में से एक है। इसे भारत सरकार ने 1961 में स्थापित किया था। इसकी संगठनात्मक संरचना एवम स्नातक प्रवेश प्रक्रिया शेष सभी एन आई टी की तरह ही है। संस्थान में इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी, विज्ञान मानविकी और प्रबंधन में स्नातक, पूर्व स्नातक एवम डॉक्टरेट के पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं। यह पंडित जवाहर लाल नेहरू का सपना था कि भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी में एक नेता के रूप में उभरे। प्रशिक्षित गुणवत्ता एवम तकनीकी जनशक्ति की बढ़ती मांग को पुरा करने के लिये भारत सरकार ने 1959 और 1965 के बीच चौदह आरईसी शुरू की ।सरदार वल्लभभाई रीजनल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड टैक्नोलॉजी जून 1961 में भारत सरकार और गुजरात की सरकार के बीच एक सहकारी उद्यम के रूप में स्थापित किया गया था। यह भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर है। केंद्र सरकार ने 1998 मे आरईसी की समीक्षा के लिए एक समिति का गठन किया। डॉ॰ आर.ए माशेलकर की अध्यक्षता में समिति ने 1998 में रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसका शीर्षक था ' भविष्य मे आरईसी का शैक्षिक उत्कृष्टता के लिए सामरिक रोड मैप'।समीक्षा समिति की सिफारिशों को मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने मानकर सत्रह क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज कालेजों को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों मे प्रोन्नत कर दिया।2003 मे यूजीसी / एआईसीटीई के अनुमोदन से संस्थान को मानद विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया एवम नाम बदलकर सरदार वल्लभभाई राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान कर दिया गया।भारत की संसद ने 5 जून 2007 को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान अधिनियम पारित कर इन्हे राष्ट्रीय महत्व के संस्थान घोषित किया। परिसर मुम्बई के उत्तर मे 265 किलोमीटर की दूरी पर सूरत मे स्थित है। परिसर 265 एकड़ में हरे भरे जंगल में फैला हुआ है। मुख्य प्रवेश द्वार परिसर के दक्षिणी छोर पर स्थित है और सूरत रेलवे स्टेशन से सूरत-ड्युमस राजमार्ग पर 13 किमी दूर स्थित है।1.1 वर्ग किलोमीटर परिसर में 5000 निवासियों जिसमे 210 संकाय सदस्यों और लगभग 4,000 परिसर हॉस्टल पर रहने वाले छात्र शामिल है।
ऍल्फगिफु 955 से 957-8 तक अंग्रेज राजा ईडविग की पत्नी और इंग्लैंड की रानी थीं। उनके बारे में जो कुछ थोडा बहुत पता है वो आंग्ल-सैक्सन घोषणापत्र जिसमें एक वसीयत शामिल है, और एंग्लों-सैक्सन गाथाओं में शत्रुतापूर्ण व बैर भाव से भरी लघु कहानियों या उपाख्यानों व सचरित्र वर्णनों से मिलता है। राजा के साथ उनका मिलन ईडविग के राज्याभिषेक के कुछ ही सालों बाद टूट गया जब प्रमुख पादरी कैंटरबरी के ओड ने इसे बेहद नजदीक का खून का रिश्ता बताते हुए अमान्य करार दिया। उनका विवाह संभवत: साठ के दशक के अंग्रेज सत्ता की राजनीतिक खींचतान की भेंट चढ गया। लगभग 1000 ई0 में जब बेनेडिक्टाइन सुधारकों जैसे डन्सटन और ओसवॉल्ड के सचरित्र वर्णनों का काल आया तब ऍल्फगिफु की स्मृतियों को लगभग भुला दिया गया। हाँलाकि 960 के दशक के मध्य में वो एक अच्छे रहन सहन वाली धनवान व जमींदार महिला जिसके राजा एडगर से अच्छे संबन्ध थे के तौर पर जानी जाती थी। अपनी वसीयतों से उसे विंचेस्टर के ओल्ड मिंस्टर, विन्चेस्टर व न्यू मिंस्टर, विन्चेस्टर में विशाल घर, भूमि व शाही धन प्राप्त हुआ था जो कि शाही परिवार से संबन्धित था।
रोपा, चमोली तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक गाँव है।
ब्रिटिश किरीटाधीन क्षेत्र विशेष प्रकार के क्षेत्र हैं। इन क्षेत्रों का राष्ट्राध्यक्ष ब्रिटेन का सम्राट या साम्राज्ञी होता/होती है जिसका प्रतिनिधित्व एक उपराज्यपाल द्वारा किया जाता है। प्रत्येक अधीन क्षेत्र की एक संसद, सरकार और प्रधानमंत्री होता है जो रक्षा और विदेशी मामलों को छोड़ कर अन्य विषयों से संबंधित कानून बनाने के लिए स्वतंत्र होता है। रक्षा और विदेशी मामलों को ब्रिटिश सरकार द्वारा देखा जाता है। लंदन की ब्रिटिश सरकार को अधीन क्षेत्र की सहमति के बिना कुछ भी करने की स्वतंत्रता नहीं होती है। कुछ उपनिवेशों में सरकारें भी है, लेकिन वह ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाये गयी थी और ब्रिटिश सरकार द्वारा इन्हे कभी भी समाप्त किया जा सकता है। किरीटाधीन क्षेत्र हैं
धर्मराजिक एक विशाल बौद्ध स्तूप है जो तक्षशिला क्षेत्र में स्थित है। ऐसा विश्वास है कि इसका निर्माण सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसापूर्व में कराया था। इस स्थल को दो मुख्य भागों में बांटा जा सकता है- स्थल के दक्षिण में स्तूप है तथा उसके उत्तर में मठ।धर्मराजिक का स्तूप तक्षशिला संग्रहालय से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर है। इसका महत्व इस तथ्य में निहित है कि बुद्ध के शरीर-अवशेषों में से एक को वहां दफनाया गया था। इसका नाम धर्मराजिक, धर्मराज से आता है, यह नाम बुद्ध को दिया गया जो सच्चे धर्म राज थे । यह भी माना जाता है कि 'धर्मराजिक' शब्द 'धर्मराज' से लिया गया है, जो कि मौर्य सम्राट अशोक द्वारा इस्तेमाल किया गया एक शीर्षक है। इंडो-यूनानी शासक ज़ोइलोस द्वितीय के सिक्के परिधीय स्तूप के नीचे पाए गए थे।धर्मराजिक स्तूप एक परिपत्र संरचना है। प्रदक्षिणा के लिए एक मार्ग है। मुख्य स्तूप के चारों ओर स्थित इमारतों में तीन विशेष प्रकार की चुनाई की गई है।। मूल संरचनाओं के चारों ओर छोटे स्तूप और निर्माण के छल्ले का निर्माण करके इन संरचनाओं को कई शताब्दियों में बनाया गया। इंडो-ग्रीक राजा ज़ोइलोस द्वितीय के कई सिक्के ऐसे 1-शताब्दी बीसीई स्तूप की नींव के नीचे पाए गए
म्यूज़िक रिकॉर्डिंग बिक्री प्रमाण पत्र विश्व भर में अधिकांश देशों में किसी संगीत या फिल्म के एल्बम की बिक्री के आधार पर वार्षिक पुरस्कार स्वरूप दिये जाते हैं। ये देश विशेष में दिये जाते हैं। इनका आधार राष्ट्रीय स्तर पर रिलीज़ हुए एल्बमों की बिक्री होता है। इनकी अधिकांशतः तीन श्रेणियां होती हैं:- इन्हें इस ही वरीयता क्रम में दिया जाता है।
सौन्हर, भारत के मध्यप्रान्त मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले की तहसील नरवर के अन्तर्गत आने वाला एक प्रसिद्ध गाँव है। यह गाँव आसपास के क्षेत्र में बहुचर्चित और प्रसिद्ध है। चारों ओर से पहाड़ों से घिरा होने कारण यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य देखने लायक है। बरसात के दिनों में जब पहाड़ों पर हरियाली छा जाती है तब यहाँ का दृश्य बिल्कुल हिमाचल प्रदेश के सदृश्य लगता है। गाँव के मध्य में स्थित एक पहाड़ी पर बंगला वाले बाबा का प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर है। मान्यता है कि बाबा सोनपाल सिंह बैश जी ने ही सौन्हर की स्थापना की थी। उन्हीं को बंगला वाले बाबा के नाम से उक्त पहाड़ी पर पूजा जाता है। गाँव में पूर्व की ओर स्थित एक विशाल तालाब भी है जो कि गाँव कि सुन्दरता में चार चाँद लगाता है। यह तालाब बरसात के पानी के लबालब भर जाता है। गर्मी के दिनों जलस्तर धीरे धीरे घटने लगता है जिससे कि तालाब सूखने की कगार पर आ जाता है। वैसे तो गाँव के आसपास अनेक धार्मिक और प्राकृतिक दर्शनीय स्थल हैंगूगल मानचित्र पर ग्राम सौन्हर के कुछ स्थल जिनमें से मुख्यतः गाँव के पश्चिमोत्तर दिशा में स्थित श्री श्री 1008 हनुमान मन्दिर, बरूआ सौन्हर-नयागाँव प्रमुख है। गाँव के मध्य में स्थित श्री राम जानकी राज मन्दिर, पारवाले हनुमान मन्दिर आदि अनेक दर्शनीय स्थल हैं। छत्तीसिया पहाड़ और कोल्हुआ भी प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। गाँव में शिक्षा स्तर बहुत अच्छा है। गाँव में ही प्राथमिक, माध्यमिक से लेकर हाई स्कूल तक पढ़ाई की व्यवस्था सरकार ने की है।गूगल मानचित्र पर ] का एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय
निर्देशांक: 25°36′40″N 85°08′38″E / 25.611°N 85.144°E / 25.611; 85.144 छोटका-खरवा दुल्हिनबाजार, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है। Pirahi Village,Dulhin Bazar
उत्तर सिंक द्वीप भारत के अण्डमान व निकोबार द्वीपसमूह के अण्डमान द्वीपसमूह भाग में रटलैण्ड द्वीप और छोटे अण्डमान के बीच डंकन जलसन्धि में स्थित एक छोटा-सा टापू है। यह एक निर्जन द्वीप है । यह महात्मा गांधी समुद्री राष्ट्रीय उद्यान का हिस्सा है। कभी यह एक रेत की पट्टी द्वारा अपने से 1 किमी दूर स्थित दक्षिण सिंक द्वीप से जुड़ा होता था लेकिन 2004 के भूकम्प में यह पट्टी डूब गई और द्वीप अलग हो गये थे। समय के साथ-साथ पट्टी फिर से बन गई है और अक्सर इन दोनों द्वीपों को एक ही सिंक द्वीप समझा जाता है। द्वीप रटलैण्ड द्वीप से 5.4 किमी दक्षिणपूर्व में स्थित है और इन दोनों द्वीपों के बीच के डंकन जलसंधि क्षेत्र को मैनर्ज़ जलसन्धि भी कहते हैं। उत्तर सिंक द्वीप के तीन पथरीले उपद्वीप हैं जो एक-दूसरे से रेतीली पट्टीयों द्वारा जुड़े हैं। उत्तरी उपद्वीप सबसे बड़ा है - यह उत्तर-दक्षिण दिशा में 2.9 किमी और पूर्व-पश्चिम में 1.4 किमी चौड़ा है, और इसपर 161 मीटर और 173 मीटर ऊँची दो पहाड़ियाँ हैं। मध्य उपद्वीप, जो सबसे दक्षिणी भी है, उत्तरी उपद्वीप से 270 मीटर दक्षिण में है और लगभग 1 किमी चौड़ा है। इसपर बिना किसी वपस्पतियों वाली एक 89 मीटर ऊँची पहाड़ी है। तीसरा उपद्वीप दक्षिणी उपद्वीप से 150 मीटर पश्चिम पर स्थित है और एक 400 मीटर चौड़ा अण्डाकार है। उत्तरी उपद्वीप की अधिक ऊँचाई वाले पहाड़ पर सन् 1972 में भारत सरकार ने एक प्रकाशस्तम्भ बनाया था। अपने भरपूर समुद्री-जीवन के लिये यहाँ कई पर्यटक गोताख़ोरी करने आते हैं।
नुंगी कोलकाता का एक क्षेत्र है। यह कोलकाता मेट्रोपॉलिटन डवलपमेंट अथॉरिटी के अधीन आता है।
} निर्देशांक: 25°06′N 85°54′E / 25.10°N 85.90°E / 25.10; 85.90 दामोदरपुर 1 लखीसराय, लखीसराय, बिहार स्थित एक गाँव है।
टी॰एन॰ शेषन टी एन शेषन, भारत के दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त थे। इनका कार्यकाल 12 दिसम्बर 1990 से लेकर 11 दिसम्बर 1996 तक था। इनके कार्यकाल में स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव सम्पन्न कराने के लिये नियमों का कड़ाई से पालन किया गया जिसके साथ तत्कालीन केन्द्रीय सरकार एवं ढीठ नेताओं के साथ कई विवाद हुए।स्वतंत्र भारत के निर्वाचन इतिहास मे शेषन सर्वाधिक प्रभावशाली एवं सुधारवादी चुनाव आयुक्त के रुप मे जाने जाते है। टी एन शेषन का जन्म केरल के पलक्कड़ जिले के तिरुनेलै नामक स्थान में हुआ था। उन्होने मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज से स्नातक परीक्षा उतीर्ण की। वहीं पर कुछ समय के लिये वे व्याख्याता भी रहे। देश के इस दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल 1990 से 96 तक था। शेषन को आजाद भारत के ऐसे नौकरशाह के रूप में याद किया जाएगा, जिसके पास मौलिक सोच थी और जो देश को भ्रष्टाचार और मुक्त करने की दिशा में विवादास्पद होने की हद तक जा सकते थे। उनके आलोचक उन्हें सनकी कहते थे, लेकिन भ्रष्टाचार मिटाने के लिए वह किसी के भी खिलाफ जाने का साहस रखते थे। देश के हर वाजिब वोटर के लिए मतदाता पहचान पत्र उन्हीं की पहल का नतीजा था। पद से मुक्त होने के बाद उन्होंने देशभक्त ट्रस्ट बनाया। वर्ष 1997 में उन्होंने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा, लेकिन के आर नारायणन से हार गए। उसके दो वर्ष बाद कांग्रेस के टिकट पर उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ चुनाव लड़ा, लेकिन उसमें भी पराजित हुए। वर्ष 1990 में टीएन शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के पहले तक निर्वाचन आयोग की भूमिका से आम आदमी प्राय: अपरिचित था लेकिन शेषन ने इसे जनता के दरवाजे पर ला खड़ा किया। इससे जनता की उम्मीदें और बढ़ीं। इसे और गतिशील और पारदर्शी बनाने के लिए इसका स्वरूप बदलने की जरूरत महसूस की गई और इसे बदला भी गया। आयोग कई तरह के आरोपों से भी घिरता रहा लेकिन उस समस्या का भी हल ढूंढा गया। टी एन शेषन ने भारत के भूत एवं भविष्य से सम्बन्धित एक पुस्तक लिखी जो बहुत लोकप्रिय हुई।
1994 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है।
कान्जुगेट सिस्टम एक शक्तिमान स्वभाव का संयोजी पाई रासायनिक बंध होता है। पाई बंध: पाई बैकबॉंन्डिंग · कॉन्जुगेशन · हाइपरकॉन्जुगेशन · एरोमैटिसिटी · धातु एरोमैटिसिटीडेल्टा बंध: क्वाड्रुपल बंध · क्विंटुपल बंध · सेक्स्टुपल बंध
आमिर इक़बाल ख़ान पाकिस्तानी मूल के ब्रितानवी पेशेवर मुक्केबाज़ हैं। वह दो बार विश्व चैंपियन और मौजूदा डब्ल्यू0बी0ए सुपर वेलटर वेट चैंपियन हैं। ख़ान बोल्टन, ब्रितानिया में पैदा हुए। वह ब्रितानवी-पाकिस्तानी परिवार से संबंध रखते हैं। उनके परिवार का संबंध कहूटा, रावलपिंडी, पाकिस्तान से है। वह जोइया राजपूत उपजाति के हैं। अंग्रेज़ी के अलावा ख़ान पंजाबी और उर्दू ज़बान भी बोलते हैं। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बोल्टन के स्कूल से प्राप्त की।
भारत की जनगणना अनुसार यह गाँव, तहसील संभल, जिला मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में स्थित है। सम्बंधित जनगणना कोड: राज्य कोड :09 जिला कोड :135 तहसील कोड : 00721 उत्तर प्रदेश के जिले
मियां मोहम्मद शाहबाज शरीफ पाकिस्तान के प्रसिद्ध राजनेता, पाकिस्तान मुस्लिम लीग के प्रमुख सदस्य और पाकिस्तान प्रधानमंत्री मियां मोहम्मद नवाज शरीफ के भाई हैं। 1950 में लाहौर में पैदा हुए। वह पाकिस्तान के सबसे घनी आबादी वाले प्रांत पंजाब के मुख्यमंत्री हैं। शाहबाज शरीफ 20 फरवरी 1997 से 12 अक्टूबर 1999 तक भी पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। 1999 में मुशर्रफ सरकार पर कब्जा कर लेने के बाद वह सऊदी अरब, में निर्वासित रहे। 11 मई 2004 को उन्होंने पाकिस्तान वापस आने की कोशिश की मगर लाहौर के अल्लामा इकबाल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से उन्हें वापस भेज दिया गया। शाहबाज शरीफ प्रसिद्ध कश्मीरी निर्माता I मियां मोहम्मद शरीफ के बेटे और मियां मुहम्मद नवाज शरीफ प्रधानमंत्री पाकिस्तान के भाई हैं। उनकी पहली शादी उनके पिता अनुमति 1973 में उनके चचेरे भाई बेगम नुसरत शाहबाज से हुई जिनसे उनके दो बेटे हमजा ​​शाहबाज और सलमान शाहबाज और तीन बेटियां हैं। हमजा शाहबाज राजनीतिज्ञ है और एनए के सदस्य भी हैं। सलमान शाहबाज ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय लंदन से अध्ययन किया और उनका अधिक प्रवृत्ति व्यापार की ओर है। उन्होंने 1993 में दूसरी शादी सदा हनी से जिनसे उनकी एक बेटी खदीजा हैं। उन्होंने अपनी सदा हनी को निर्वासन के दौर में सऊदी अरब में तलाक दे दिया। यह भी कहा जाता है कि शाहबाज शरीफ ने तीसरी शादी तहमीना दुर्रानी से जिसका वे स्वीकार नहीं करते, यह दोनों की तीसरी तीसरी शादी है। मियां मोहम्मद शाहबाज शरीफ 20 फरवरी 1997 से 12 अक्टूबर 1999 तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। उनका दूर नहायत सख्त प्रबंधन के लिए प्रसिद्ध है जिसमें उन्होंने लाहौर प्रारूप बदलने की कोशिश की। केवल अवैध अतिक्रमण से बेशुमार को खत्म किया। उन्होंने पंजाब के ऐसे स्कूलों के खिलाफ भी कदम उठाए जो उर्फ ​​आम में भूत स्कूल या भूत स्कूल कहलाते हैं यानी संसाधनों का उपयोग करते हैं, लेकिन वहाँ शिक्षकों नहीं होते या फिर से स्कूल ही नहीं होता। उन्होंने ढाई साल के दौरान भाई-भतीजावाद और सिफारिश के खिलाफ भी काफी प्रदर्शन किया और बूटी माफिया के खिलाफ काम किया। अपने दौर के खर्च अपनी जेब से भुगतान किए। और इस दौरान पूरे पंजाब में कोई नई कार नहीं खरीदी गई। पुलिस में पहली बार पढ़े लिखे युवा लड़कों की भर्ती मेरिट के आधार पर करवा गई۔ फरवरी 2008 के चुनाव के बाद उपचुनाव में जीतकर दोबारा पंजाब के मुख्यमंत्री चुने गए। मई 2013 के चुनाव के बाद आप फिर पंजाब के मुख्यमंत्री बने, और अभी भी उसी पद पर हैं। 12 अक्टूबर 1999 को पाकिस्तान सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया और अन्य लोगों के साथ शाहबाज शरीफ भी जेल में रहे। बाद में उन्हें सऊदी अरब निर्वासित कर दिया गया। सरकार के अनुसार यह एक अनुबंध के तहत हुआ मगर इससे शरीफ परिवार इनकार करता है और सरकार भी कोई सबूत भी पेश नहीं कर सकी। लाहौर हाईकोर्ट ने जब फैसला दिया कि वह पाकिस्तान आने के लिए स्वतंत्र हैं तो वह 11 मई 2004 को उन्होंने पाकिस्तान वापस आने की कोशिश की मगर लाहौर के अल्लामा इकबाल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे में उन्हें गिरफ्तार कर वापस सऊदी अरब भेज दिया गया। सऊदी अरब फिर वह ब्रिटेन की राजधानी लंदन चले गए हैं और वहां से राजनीति करते थे। इसके बाद वह नवाज शरीफ के साथ लंदन चले गए। हाल ही में ऑल पार्टी सम्मेलन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई है। सऊदी अरब में प्रवास के दौरान 3 अगस्त 2002 को पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज समूह का अध्यक्ष चुना गया। 2 अगस्त 2006 को उन्हें फिर अगली अवधि के लिए चुना गया। नवाज शरीफ के अनुसार पाकिस्तानी सरकार ने उन्हें अपने भाई नवाज शरीफ से घृणा करने की कोशिश भी की मगर नाकाम हुई। शाहबाज शरीफ के अनुसार वह नवाज शरीफ को अपने पिता की जगह समझते हैं। क्रांति मार्च के दौरान पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल रअहील शरीफ के हस्तक्षेप से त्रासदी मॉडल टाउन के दौरान शहीद होने वाले 14 लोगों की हत्या और 90 से अधिक के घायल होने वालों को न्याय दिलाने के लिए मुख्यमंत्री पंजाब मियां मोहम्मद शाहबाज शरीफ समेत 9 लोगों के खिलाफ हत्या की प्राथमिकी दर्ज हुई।
यह मंगोलिया में शहरों की सूची है। इस सारणी में वे शहर दिए हैं, जिनकी जनसंख्या 7,500 से अधिक है। उन शहरों के नाम साथ में मंगोलियाई भाषा में भि दिए हैं। इनकी जनसंख्या 5 जनवरी, 2000 और 2006 के जनसंख्या अनुमान पर आधारित है। * - शहर proper, नालाइख, बागान्नूर, बागाखंगाई सम्मिलित नहीं। अफ़गानिस्तान · आर्मेनिया · अज़रबैजान · बहरीन · बांग्लादेश · भूटान · Brunei · Burma · कंबोडिया · People's Republic of China · साइप्रस · East Timor · मिस्र · जॉर्जिया · भारत · इंडोनेशिया · ईरान · इराक · इजराइल · जापान · जॉर्डन · कजाखिस्तान · उत्तर कोरिया · दक्षिण कोरिया · कुवैत · किर्गिस्तान · Laos · लेबनान · मलेशिया · मालदीव · मंगोलिया · नेपाल · ओमान · पाकिस्तान · Philippines · क़तर · रूस · सऊदी अरब · सिंगापुर · श्रीलंका · सीरिया · ताजिकिस्तान · थाईलैंड · तुर्की · तुर्कमेनिस्तान · संयुक्त अरब अमीरात · उज़्बेकिस्तान · वियतनाम · यमन Abkhazia · Nagorno-Karabakh · Northern Cyprus · Palestine · Republic of China · South Ossetia Christmas Island · Cocos Islands · हाँग काँग · मकाउ
रुनियन में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है।
शिखा खन्ना पीयुष खन्ना अविनाश राय खन्ना एक भारतीय राजनीतिज्ञ तथा भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं | वे वर्तमान राज्यसभा सांसद हैं | वे पूर्व होशियारपुर से लोकसभा सांसद हैं | साँचा:भारतीय जनता पार्टी
रूंग, धारचुला तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के पिथोरागढ जिले का एक गाँव है।
पर्वतारोहण में, किसी पहाड़ की चोटी पर चढ़ने के पहले प्रलेखित सफल प्रयास, या चढ़ाई के दौरान किसी एक विशेष आरोहण मार्ग का पहली बार किया सफल अनुसरण प्रथम आरोहण या पहली चढ़ाई कहलाता है। प्रथम आरोहण हमेशा ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि यह उन वास्तविक जोखिम, अन्वेषण और चुनौतियों से पर्वतारोहियों का सामना करवाता है जो इससे पहले अज्ञात थीं, साथ ही इसके दौरान हुए अनुभव इसके बाद के पर्वतारोहकों का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं।
11 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 11 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 11 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
भारत की लगभग सभी प्राचिनतम चित्रकलाएँ गुफाओं में ही बची पड़ीं हैं क्योंकि प्राचीन भारत में निर्मित बहुत कम भवन अब बचे रह गये हैं। बची हुईं सबसे प्राचीन भारतीय गुफाचित्र की कला या शैलकलाएँ प्रागैतिहासिक काल में ईसापूर्व 30 हजार वर्ष पहले निर्मित हैं । इसके बाद चट्टानों को काटकर निर्मित गुफाओं में भी चित्र मिलते हैं।
मुकर्जीनगर दिल्ली के रिंग मार्ग पर आने वाला एक बस स्टॉप भी है।
सदाबहार या चिरहरित ऐसे पौधों और वृक्षों को कहा जाता है जिनपर हर मौसम में पत्ते होते हैं। यह उन पतझड़ी वृक्षों और पौधों से अलग होते हैं जो आमतौर पर शरद ऋतु में अपने पत्ते खो देते हैं। सदाबहार वृक्षों के भी पत्ते गिरते हैं लेकिन वे सब एक साथ नहीं गिरते और पत्तों के गिरने के साथ-साथ उन पर नए पत्ते भी आते रहते हैं। नीम, देवदार, पीलू, कपूर, नीम्बू और चीकू सदाबहार पेड़ों के कुछ उदहारण हैं। इनके अलावा चीड़, सरल और सनोबर जैसे अधिकतर कोणधारी वृक्ष भी सदाबहार होते हैं।
घेतरा में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है।
किरात, प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में हिमालय के कुछ क्षेत्रों और पूर्वोत्तर भारत में बसने वाली कुछ जातियों का नाम था। यजुर्वेद में और अथर्ववेद में इनका सबसे प्राचीन उल्लेख मिलता है। संभव है कि यह मंगोल या मंगोल-प्रभावित जन-समुदायों के लिए प्राचीन शब्द रहा हो। यह ठीक से ज्ञात नहीं है कि "किरात" नाम कहा से उत्पन्न हुआ। संभव है कि यह दो अंशों को जोड़कर बना हो - किर और ति, अर्थात 'सिंह की प्रवृत्ति वाले लोग'। यह भी संभव है कि यह पूर्वी नेपाल की "किरांती" नामक तिब्बती जाती के नाम का एक और रूप हो। प्राचीन ग्रंथों में इन्हें "सुनहरे" या "पीले" रंग का बुलाया गया है। इनका ज़िक्र अक्सर निषाद और पुलिंद जातियों के साथ किया जाता था, लेकिन निषादों का रंग सांवला या काला बताया गया है। "योग वशिष्ठ" ग्रन्थ में श्री रामचंद्र जंगल में किरातों द्वारा फैलाए गए जाल के बारे में बात कहते हैं, जिस से यह संकेत मिलता है कि प्राचीन युग में शायद किरातों को एक शिकार करने वाले समुदाय के रूप में देखा जाता हो। ऐतिहासिक सूत्रों से कुछ सबूत मिलते हैं कि किरात शिव के उपासक थे। महाभारत में वर्णन है कि शिवजी की किरातों के कुल-देवता होने की स्थित को देखते हुए अर्जुन ने कुछ समय के लिए किरात वेशभूषा और नाम अपना लिए थे ताकि वह शिवजी से तीरंदाज़ी और एनी युद्ध-कलाएँ सीख सके।
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र से मिलने के लिये तथा भविष्य का कार्यक्रम निश्चित करने के लिये अर्जुन द्वारिकापुरी गये थे। जब उन्हें गये कई महीने व्यतीत हो गये तब एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर को विशेष चिन्ता हुई। वे भीमसेन से बोले - "हे भीमसेन! द्वारिका का समाचार लेकर भाई अर्जुन अभी तक नहीं लौटे। और इधर काल की गति देखो, सम्पूर्ण भूतों में उत्पात होने लगे हैं। नित्य अपशकुन होते हैं। आकाश में उल्कापात होने लगे हैं और पृथ्वी में भूकम्प आने लगे हैं। सूर्य का प्रकाश मध्यम सा हो गया है और चन्द्रमा के इर्द गिर्द बारम्बार मण्डल बैठते हैं। आकाश के नक्षत्र एवं तारे परस्पर टकरा कर गिर रहे हैं। पृथ्वी पर बारम्बार बिजली गिरती है। बड़े बड़े बवण्डर उठ कर अन्धकारमय भयंकर आंधी उत्पन्न करते हैं। सियारिन सूर्योदय के सम्मुख मुँह करके चिल्ला रही हैं। कुत्ते बिलाव बारम्बार रोते हैं। गधे, उल्लू, कौवे और कबूतर रात को कठोर शब्द करते हैं। गौएँ निरंतर आँसू बहाती हैं। घृत में अग्नि प्रज्जवलित करने की शक्ति नहीं रह गई है। सर्वत्र श्रीहीनता प्रतीत होती है। इन सब बातों को देख कर मेरा हृदय धड़क रहा है। न जाने ये अपशकुन किस विपत्ति की सूचना दे रहे हैं। क्या भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस लोक को छोड़ कर चले गये या अन्य कोई दुःखदाई घटना होने वाली है?" उसी क्षण आतुर अवस्था में अर्जुन द्वारिका से वापस आये। उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, शरीर कान्तिहीन था और गर्दन झुकी हुई थी। वे आते ही धर्मराज युधिष्ठिर के चरणों में गिर पड़े। तब युधिष्ठिर ने घबरा कर पूछा - "हे अर्जुन! द्वारिकापुरी में हमारे सम्बंधी और बन्धु-बान्धव यादव लोग तो प्रसन्न हैं न? हमारे नाना शूरसेन तथा छोटे मामा वसुदेव तो कुशल से हैं न? हमारी मामी देवकी अपनी सातों बहनों तथा पुत्र-पौत्रादि सहित प्रसन्न तो हैं न? राजा उग्रसेन और उनके छोटे भाई देवक तो कुशल से हैं न? प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, साम्ब, ऋषभ आदि तो प्रसन्न हैं न? हमारे स्वामी भगवान श्रीकृष्णचन्द्र उद्धव आदि अपने सेवकों सहित कुशल से तो हैं न? वे अपनी सुधर्मा सभा में नित्य आते हैं न? सत्यभामा, रुक्मिणी, जाम्वन्ती आदि उनकी सोलह सहस्त्र एक सौ आठ पटरानियाँ तो नित्य ठनकी सेवा में लीन रहती हैं न? हे भाई अर्जुन! तुम्हारी कान्ति क्षीण क्यों हो रही है और तुम श्रीहीन क्यों हो रहे हो?" धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्नों के बौछार से अर्जुन और भी व्याकुल एवं शोकाकुल हो गये, उनका रंग फीका पड़ गया, नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी, हिचकियाँ बँध गईं, रुँधे कण्ठ से उन्होंने कहा - "हे भ्राता! हमारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने हमें ठग लिया, वे हमें त्याग कर इस लोक से चले गये। जिनकी कृपा से मेरे परम पराक्रम के सामने देवता भी सिर नहीं उठाते थे मेरे उस परम पराक्रम को भी वे अपने साथ ले गये, प्राणहीन मुर्दे जैसी गति हो गई मेरी। मैं द्वारिका से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की पत्नियों को हस्तिनापुर ला रहा था किन्तु मार्ग में थोड़े से भीलों ने मुझे एक निर्बल की भाँति परास्त कर दिया। मैं उन अबलाओं की रक्षा नहीं कर सका। मेरी वे ही भुजाएँ हैं, वही रथ है, वही घोड़े हैं, वही गाण्डीव धनुष है और वही बाण हैं जिन से मैंने बड़े बड़े महारथियों के सिर बात की बात में उड़ा दिये थे। जिस अर्जुन ने कभी अपने जीवन में शत्रुओं से मुहकी नहीं खाई थी वही अर्जुन आज कायरों की भाँति भीलों से पराजित हो गया। उनकी सम्पूर्ण पत्नियों तथा धन आदि को भील लोग लूट ले गये और मैं निहत्थे की भाँति खड़ा देखता रह गया। उन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के बिना मेरी सम्पूर्ण शक्ति क्षीण हो गई है। "आपने जो द्वारिका में जिन यादवों की कुशल पूछी है, वे समस्त यादव ब्राह्मणों के श्राप से दुर्बुद्धि अवस्था को प्राप्त हो गये थे और वे अति मदिरा पान कर के परस्पर एक दूसरे को मारते मारते मृत्यु को प्राप्त हो गये। यह सब उन्हीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की लीला है।" अर्जुन के मुख से भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन और सम्पूर्ण यदुवंशियों के नाश का समाचार सुन कर धर्मराज युधिष्ठिर ने तुरन्त अपना कर्तवय निश्चित कर लिया और अर्जुन से बोले - "हे अर्जुन! भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने इस लौकिक शरीर से इस पृथ्वी का भार उतार कर उसे इस प्रकार त्याग दिया जिस प्रकार कोई काँटे से काँटा निकालने के पश्चात उन कोनों काँटों को त्याग देता है। अब घोर कलियुग भी आने वाला है। अतः अब शीघ्र ही हम लोगों को स्वर्गारोहण करना चाहिये।" जब माता कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के स्वधाम गमन का समाचार सुना तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में अपना ध्यान लगा कर शरीर त्याग दिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने महापराक्रमी पौत्र परीक्षित को सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का राज्य देकर हस्तिनापुर में उसका राज्याभिषेक किया और शूरसेन देश का राजा बनाकर मथुरापुरी में अनिरुद्ध के पुत्र बज्र का राजतिलक किया। तत्पश्चात् परमज्ञानी युधिष्ठिर ने प्रजापति यज्ञ किया और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन होकर सन्यास ले लिया। उन्होंने मान, अपमान, अहंकार तथा मोह को त्याग दिया और मन तथा वाणी को वश में कर लिया। सम्पूर्ण विश्व उन्हें ब्रह्म रूप दृष्टिगोचर होने लगा। उन्होंने अपने केश खोल दिये, राजसी वस्त्राभूषण त्याग कर चीर वस्त्र धारण कर के और अन्न जल का परित्याग करके मौनव्रत धारण कर लिया। इतना करने के बाद बिना किसी की ओर दृष्टि किये घर से बाहर उत्तर दिशा की ओर चल दिये। भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव ने भी उनका अनुकरण किया भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के प्रेम में मग्न होकर वे सब उत्तराखंड की ओर चल पड़े। उधर विदुर जी ने भी प्रभास क्षेत्र में भगवन्मय होकर शरीर त्याग दिया और अपने यमलोक को प्रस्थान कर गये। सुखसागर के सौजन्य से
पॆदलंक में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है।
919 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को आधार मानकर उसके जन्म से 919 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर आधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 919 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
करण वीर ग्रोवर एक भारतीय अभिनेता है।
मेथी एक वनस्पति है जिसका पौधा 1 फुट से छोटा होता है। इसकी पत्तियाँ साग बनाने के काम आतीं हैं तथा इसके दाने मसाले के रूप में प्रयुक्त होते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह बहुत गुणकारी है। मेथी के बीज मेथी के बीज सूखे हुए मेथी के बीज
खरग पर्सा में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है।
डीडी लोक सभा एक हिन्दी टी वी चैनल है। यह एक राजनीति संबंधी चैनल है।
वनेडियम एक रासायनिक तत्व है। यह एक सख़्त, श्वेत-चाँदी रंग की, तन्य व आघातवर्धक धातु है। प्रकृति में वनेडियम केवल अन्य तत्वों के साथ बने यौगिकों के रूप में ही मिलता है लेकिन, अगर इसे शुद्ध किया जाए तो इसके ऊपर एक पतली ओक्साइड की परत बन जाती है जिस से अंदर की धातु सुरक्षित रहती है। रासायनिक रूप से यह संक्रमण धातु समूह का सदस्य है। विश्व का 97% वनेडियम तीन देशों - चीन, रूस और दक्षिण अफ़्रीका - में खनिजों से निकाला जाता है और इसका दुनिया-भर का वार्षिक उत्पादन लगभग 80,000 टन है। इसे इस्पात में मिलाने से इस्पात अधिक कठोर बन जाता है, जिस कारणवश इसे औज़ार बनाने के लिये बहुत प्रयोग किया जाता है।
हाबर प्रक्रम या हाबर-बॉश प्रक्रम नाइट्रोजन स्थिरीकरण का एक कृत्रिम प्रक्रम है। इसके साथ ही वर्तमान समय में अमोनिया के औद्योगिक उत्पादन का मुख्य विधि है। इस प्रक्रम का नाम जर्मनी के रसायनशास्त्री फ्रिट्ज हाबर तथा कार्ल बॉश के नाम पर पड़ा है जिन्होने इस प्रक्रम का विकास 20वीं शताब्दी के पूर्वाध में किया था। इस प्रक्रिया में वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को हाइड्रोजन से अभिक्रिया कराकर अमोनिया में बदल दिया जाता है। इसमें धातु का उत्प्रेरक और उच्च ताप एवं दाब प्रयुक्त होता है। हाबर प्रक्रम के विकास के पहले, अमोनिया का औद्योगिक पैमाने पर उत्पादन एक कठिन कार्य था
अश्विनी कलसेकर एक भारतीय फ़िल्म तथा धारावाहिक अभिनेत्री है। इन्होंने अधिकतर टेलीविज़न धारावाहिकों में ही अभिनय किया है। अश्विनी कलसेकर का जन्म अनिल कलसेकर के घर मुम्बई ,महाराष्ट्र में 1970 में हुआ था।
वड्लमानु में भारत के आन्ध्रप्रदेश राज्य के अन्तर्गत के कृष्णा जिले का एक गाँव है।
हेमलता भारतीय सिनेमा की एक महत्वपूर्ण पार्श्वगायिका है। हेमलता का जन्म 16 अगस्त, 1954 को हैदराबाद में हुआ था, लेकिन उनका परिवार मूल रूप से राजस्थान के चुरू जिले के सेहला गांव का निवासी है। गाने का शौक उन्हें बचपन से ही था, मगर रूढ़िवादी मारवाड़ी ब्राह्मण परिवार में होने के कारण उन्हें गाने का मौका नहीं मिलता था। वह पूजा पंडाल में पीछे छुपकर गाया करती थीं। हेमलता के पिता का नाम पंडित जयचंद भट्ट और मां का अंबिका भट्ट है। हेमलता के तीन भाई भी हैं। उनके वर्तमान पति का नाम दिलीप सेनगुप्ता है। हेमलता ने वर्ष 1977 में फिल्म ‘चितचोर’ के शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत ‘तू जो मेरे सुर में’ के लिए सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायिका का पुरस्कार जीता था। 1977 से 1980 के बीच वह पांच बार फिल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामित हुई थीं। उन्होंने विभिन्न भारतीय फिल्मों, संगीत, टीवी धारावाहिकों, संगीत अलबम को अपनी मधुर आवाज दी। इसके साथ ही उन्होंने ‘अंखियों के झरोखों से’, ‘कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया’, ‘तू इस तरह से मेरी जिंदगी में’ जैसे यादगार गीत गाए हैं, जो आज भी युवाओं के सिर चढ़कर बोलते हैं। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में एसडी बर्मन, एन. दत्ता, सलिल चौधरी, चित्रगुप्त, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याणजी आनंदजी, राजकमल, उषा खन्ना और रवींद्र जैन सहित कई प्रसिद्ध संगीतकारोंके साथ काम किया। वह बॉलीवुड की कई अभिनेत्रियों -जैसे नूतन, शबाना अजमी, रेखा, हेमा मालिनी, रामेश्वरी, योगिता बाली, सारिका व माधुरी दीक्षित की आवाज भी बनीं। हेमलता का व्यक्तिगत जीवन रूपहले पर्दे की तरह ही है। उनकी पहली शादी योगेश बाली के साथ हुई, जो बाल कलाकार के रूप में प्रसिद्ध थे। लीवर की बीमारी के कारण उनकी मौत 25 जनवरी, 1988 को हो गई। वह कुछ दिनों रवींद्र जैन के संपर्क में रहीं, फिर किन्हीं कारणों से दोनों के बीच अलगाव हो गया। इसके बाद उनकी शादी दिलीप सेनगुप्ता के साथ हुई। उल्लेखनीय है कि 38 भाषाओं में गाना गा चुकीं हेमलता न सिर्फ अपने करियर का, बल्कि अपनी जिंदगी का भी दूसरा दौर जी रही हैं। वह दिलीप से शादी करने के बाद बेहद सुखी जीवन व्यतीत कर रही हैं। उनका आदित्य बाली नामक एक बेटा भी है, जो अभिनय की दुनिया में उतरने को तैयार है।
समुद्री शब्दावली में, एक शैल-भित्ति या रीफ़ एक चट्टान, रेती या पानी की सतह के नीचे उपस्थित अन्य कोई संरचना है। बहुत सी शैल-भित्तियां अजैविक प्रक्रियाओं जैसे कि रेत के जमाव, लहरों द्वारा चट्टानों के कटाव आदि के द्वारा निर्मित होती हैं लेकिन इनका सबसे उत्तम उदाहरण उष्णकटिबंधीय समुद्रों में जैविक प्रक्रियाओं द्वारा निर्मित प्रवाल-भित्तियां है जो मृत मूंगों और चूनेदार शैवालों से बनती है।
थाकला, गरुङ तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के बागेश्वर जिले का एक गाँव है।
तल्लीसेठी, बेतालघाट तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है।
हरीदत्‍त काण्‍डपाल,भारत के उत्तर प्रदेश की दूसरी विधानसभा सभा में विधायक रहे। 1957 उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में इन्होंने उत्तर प्रदेश के अल्‍मोड़ा जिले के 4 - रानीखेत विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से चुनाव में भाग लिया।
यह तहसील फैजाबाद जिला, उत्तर प्रदेश में स्थित है। 2011 में हुई भारत की जनगणना के अनुसार इस तहसील में 280 गांव हैं।
जगदम्बिका पाल उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री थे। वह भारतीय जनता पार्टी के एक नेता हैं।वर्तमान समय में वह लोकसभा के सदस्य है .
जगंबहादुर वर्मा,भारत के उत्तर प्रदेश की दूसरी विधानसभा सभा में विधायक रहे। 1957 उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में इन्होंने उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के 287 - हैदरगढ़ विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से सोशलिस्‍ट पार्टी की ओर से चुनाव में भाग लिया।
कनक चंपा माध्यम ऊँचाई का एक वृक्ष है जो भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जता है। मुख्यतः यह भारत और म्यांमार में पाया जाता है। हिंदी में ही इसके कई नाम हैं - कनक चंपा, मुचकुंद तथा पद्म पुष्प। बंगाली में 'रोसु कुंडा' तथा सिक्किम में इसे 'हाथीपैला' कहते हैं। इसकी लकड़ी लाल रंग की होती है और इसके तख्ते बनते हैं।कनक चम्पा के वृक्ष को खुशबू के साथ-साथ खाने की थाली के पेड़ के रूप में जाना जाता है। इसके पत्ते 40 से.मी. तक लम्बे होते हैं। तथा दुगनी चौड़ाई के होते हैं। यह वृक्ष 50 से 70 फिट की ऊँचाई तक बढ़ सकता है। भारत के कुछ भागों में इसके पत्ती का प्रयोग बर्तन की जगह किया जाता है। फूल कलियों के अन्दर बन्द होते हैं। कलियाँ पाँच खण्डों में बटी होती हैं। छिले केले की तरह दिखाई देती हैं।प्रत्येक फूल केवल एक रात तक रहता है। मधुर और सुगन्धित होने के कारण चमगादड़ इन फूलों की तरफ आकर्षित होते हैं। पत्ते, छाल चेचक और खुजली की दवा बनाने में इस्तेमाल होते हैं। इसके वृक्ष की लकड़ी से तख्त बनाये जाते हैं। यह वृक्ष पश्चिमी घाट और भारत के पर्णपाती जगलों में पाया जाता है। समुद्री खारा पानी इसके लिए अत्यन्त उपयुक्त होता है। कर्णिकार पुष्पित होने पर वनश्री की शोभा बढ़ाता है और जिसके पुष्पों एवं मंजरियों को महिलाएँ कर्णाभरण के रूप में प्राचीन काल से उपयोग करती रही हैं। संस्कृत साहित्य में 'कर्णिकार' का बहुत उल्लेख हुआ है। किन्तु मतैक्य नहीं है कि कर्णिकार ठीक-ठीक कौन सा वृक्ष है। कालिदास ने अपने काव्य में अशोक के साथ अनगिन स्थानों पर कर्णिकार का उल्लेख किया है। ब्रांडिस अशोक और अमलतास दोनों को एक ही जाति का सिद्ध करते हैं। प्रसिद्ध है कि यदि कर्णिकार वृक्ष के आगे स्त्रियाँ नृत्य करें तो प्रमुदित होकर वह पुष्पित हो उठता है। आयुर्वेदीय संहिताओं में कर्णिकार का नाम नहीं मिलता, परंतु निघंटुओं में यह प्राय: आरग्वध का एक भेद अथवा पर्याय माना गया है। अमरकोष के टीकाकारों ने इसकी लोकसंज्ञा 'कंठचंपा' बतलाई है, जो मुकचंद अथवा कचनार दोनों ही हो सकता है। भावप्रकाश के रचयिता 'पांगारा इति लोके प्रसिद्ध:' कहकर पारिभद्र को कर्णिकार मानते हैं। इस प्रकार विभिन्न मतों के अनुसार चार वृक्ष जातयों-अमलतास, कचनार, मुकचंद और फरहद-को कर्णिकार माना जा सकता है। काव्य में कर्णिकार के जिस रूपरंग की ओर संकेत किया गया है उससे ज्ञात होता है कि इसके पुष्पों को 'हेमद्युति' अर्थात् स्वर्णवत् पीतवर्ण होना चाहिए। अमलतास की मंजरियों में पीतवर्ण के सुकोमल पुष्प रहते हैं, जिन्हें कर्णाभरण के रूप में पहन भी सकते हैं। कचनार, पारिभद्र और मुचकंद के पुष्प भी कर्णफूल के सदृश प्रयुक्त होते रहे हैं। संभव है, उपयोगसादृश्य के कारण उन्हें भी 'कर्णिकार' कह दिया गया हो, क्योंकि कहीं-कहीं इसे 'हुतहुताशनदीप्ति' भी कहा गया है। कचनार तथा पारिभद्र के पुष्पों को यह विशेषण दिया जा सकता है।
अरुण जेटली भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता हैं। वे वर्तमान समय में भारत के वित्त मंत्री हैं। वे राजग के शासन में केंद्रीय न्याय मन्त्री के साथ-साथ कई बड़े पद पर आसीन थे। उनका जन्म महाराज किशन जेटली और रतन प्रभा जेटली के घर में हुआ। उनके पिता एक वकील हैं, उन्होंने अपनी विद्यालयी शिक्षा सेंट जेवियर्स स्कूल, नई दिल्ली से 1957-69 में पूर्ण की। उन्होंने अपनी 1973 में श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स, नई दिल्ली से कॉमर्स में स्नातक की। उन्होंने 1977 में दिल्ली विश्‍वविद्यालय के विधि संकाय से विधि की डिग्री प्राप्त की। छात्र के रूप में अपने कैरियर के दौरान, उन्होंने अकादमिक और पाठ्यक्रम के अतिरिक्त गतिविधियों दोनों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के विभिन्न सम्मानों को प्राप्त किया हैं। वो 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संगठन के अध्यक्ष भी रहे। जेटली ने 24 मई 1982 को संगीता जेटली से विवाह कर लिया। उनके दो बच्चे, पुत्र रोहन और पुत्री सोनाली हैं।
सिद्धार्थ मुखर्जी कैंसर पर लिखी अपनी किताब के लिए 2011 में पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके हैं। सि‍द्धार्थ मुखर्जी को चि‍कि‍त्‍सा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए 2014 में भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया। वे यू.एस.ए से हैं।
लैक्टोज़ की मात्रा के कारण की वजह से ही कई बार बच्चे और वयस्क दूध पचा नहीं पाते हैं, इसे लैक्टोस इंटोलरेंस कहते हैं। दूध का सेवन बच्चों के लिए परमावश्यक है क्योंकि यह कैल्शियम का प्रमुख स्रोत है। इसमें प्रोबायोटिक जीवाणु सहायक रहते हैं।
मनोविज्ञान वह शैक्षिक व अनुप्रयोगात्मक विद्या है जो प्राणी के मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों तथा व्यक्त व अव्यक्त दाेनाें प्रकार के व्यवहाराें का एक क्रमबद्ध तथा वैज्ञानिक अध्ययन करती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो क्रमबद्ध रूप से प्रेक्षणीय व्यवहार का अध्ययन करता है तथा प्राणी के भीतर के मानसिक एवं दैहिक प्रक्रियाओं जैसे - चिन्तन, भाव आदि तथा वातावरण की घटनाओं के साथ उनका संबंध जोड़कर अध्ययन करता है। इस परिप्रेक्ष्य में मनोविज्ञान को व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के अध्ययन का विज्ञान कहा गया है। 'व्यवहार' में मानव व्यवहार तथा पशु व्यवहार दोनों ही सम्मिलित होते हैं। मानसिक प्रक्रियाओं के अन्तर्गत संवेदन, अवधान, प्रत्यक्षण, सीखना, स्मृति, चिन्तन आदि आते हैं। मनोविज्ञान अनुभव का विज्ञान है, इसका उद्देश्य चेतनावस्था की प्रक्रिया के तत्त्वों का विश्लेषण, उनके परस्पर संबंधों का स्वरूप तथा उन्हें निर्धारित करनेवाले नियमों का पता लगाना है। मनोविज्ञान की परिभाषायें :- प्राक्-वैज्ञानिक काल में मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र का एक शाखा था। जब विल्हेल्म वुण्ट ने 1879 में मनोविज्ञान की पहला प्रयोगशाला खोला, मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र के चंगुल से निकलकर एक स्वतंत्र विज्ञान का दर्जा पा सकने में समर्थ हो सका। मनोविज्ञान पर वैज्ञानिक प्रवृत्ति के साथ-साथ दर्शनशास्त्र का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। वास्तव में वैज्ञानिक परंपरा बाद में आरंभ हुई। पहले तो प्रयोग या पर्यवेक्षण के स्थान पर विचारविनिमय तथा चिंतन समस्याओं को सुलझाने की सर्वमान्य विधियाँ थीं। मनोवैज्ञानिक समस्याओं को दर्शन के परिवेश में प्रतिपादित करनेवाले विद्वानों में से कुछ के नाम उल्लेखनीय हैं। डेकार्ट ने मनुष्य तथा पशुओं में भेद करते हुए बताया कि मनुष्यों में आत्मा होती है जबकि पशु केवल मशीन की भाँति काम करते हैं। आत्मा के कारण मनुष्य में इच्छाशक्ति होती है। पिट्यूटरी ग्रंथि पर शरीर तथा आत्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। डेकार्ट के मतानुसार मनुष्य के कुछ विचार ऐसे होते हैं जिन्हे जन्मजात कहा जा सकता है। उनका अनुभव से कोई संबंध नहीं होता। लायबनीत्स के मतानुसार संपूर्ण पदार्थ "मोनैड" इकाई से मिलकर बना है। उन्होंने चेतनावस्था को विभिन्न मात्राओं में विभाजित करके लगभग दो सौ वर्ष बाद आनेवाले फ्रायड के विचारों के लिये एक बुनियाद तैयार की। लॉक का अनुमान था कि मनुष्य के स्वभाव को समझने के लिये विचारों के स्रोत के विषय में जानना आवश्यक है। उन्होंने विचारों के परस्पर संबंध विषयक सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए बताया कि विचार एक तत्व की तरह होते हैं और मस्तिष्क उनका विश्लेषण करता है। उनका कहना था कि प्रत्येक वस्तु में प्राथमिक गुण स्वयं वस्तु में निहित होते हैं। गौण गुण वस्तु में निहित नहीं होते वरन् वस्तु विशेष के द्वारा उनका बोध अवश्य होता है। बर्कले ने कहा कि वास्तविकता की अनुभूति पदार्थ के रूप में नहीं वरन् प्रत्यय के रूप में होती है। उन्होंने दूरी की संवेदनाके विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि अभिबिंदुता धुँधलेपन तथा स्वत: समायोजन की सहायता से हमें दूरी की संवेदना होती है। मस्तिष्क और पदार्थ के परस्पर संबंध के विषय में लॉक का कथन था कि पदार्थ द्वारा मस्तिष्क का बोध होता है। ह्यूम ने मुख्य रूप से "विचार" तथा "अनुमान" में भेद करते हुए कहा कि विचारों की तुलना में अनुमान अधिक उत्तेजनापूर्ण तथा प्रभावशाली होते हैं। विचारों को अनुमान की प्रतिलिपि माना जा सकता है। ह्यूम ने कार्य-कारण-सिद्धांत के विषय में अपने विचार स्पष्ट करते हुए आधुनिक मनोविज्ञान को वैज्ञानिक पद्धति के निकट पहुँचाने में उल्लेखनीय सहायता प्रदान की। हार्टले का नाम दैहिक मनोवैज्ञानिक दार्शनिकों में रखा जा सकता है। उनके अनुसार स्नायु-तंतुओं में हुए कंपन के आधार पर संवेदना होती है। इस विचार की पृष्ठभूमि में न्यूटन के द्वारा प्रतिपादित तथ्य थे जिनमें कहा गया था कि उत्तेजक के हटा लेने के बाद भी संवेदना होती रहती है। हार्टले ने साहचर्य विषयक नियम बताते हुए सान्निध्य के सिद्धांत पर अधिक जोर दिया। हार्टले के बाद लगभग 70 वर्ष तक साहचर्यवाद के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। इस बीच स्काटलैंड में रीड ने वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण का वर्णन करते हुए बताया कि प्रत्यक्षीकरण तथा संवेदना में भेद करना आवश्यक है। किसी वस्तु विशेष के गुणों की संवेदना होती है जबकि उस संपूर्ण वस्तु का प्रत्यक्षीकरण होता है। संवेदना केवल किसी वस्तु के गुणों तक ही सीमित रहती है, किंतु प्रत्यक्षीकरण द्वारा हमें उस पूरी वस्तु का ज्ञान होता है। इसी बीच फ्रांस में कांडिलैक ने अनुभववाद तथा ला मेट्री ने भौतिकवाद की प्रवृत्तियों की बुनियाद डाली। कांडिलैंक का कहना था कि संवेदन ही संपूर्ण ज्ञान का "मूल स्त्रोत" है। उन्होंने लॉक द्वारा बताए गए विचारों अथवा अनुभवों को बिल्कुल आवश्यक नहीं समझा। ला मेट्री ने कहा कि विचार की उत्पत्ति मस्तिष्क तथा स्नायुमंडल के परस्पर प्रभाव के फलस्वरूप होती है। डेकार्ट की ही भाँति उन्होंने भी मनुष्य को एक मशीन की तरह माना। उनका कहना था कि शरीर तथा मस्तिष्क की भाँति आत्मा भी नाशवान् है। आधुनिक मनोविज्ञान में प्रेरकों की बुनियाद डालते हुए ला मेट्री ने बताया कि सुखप्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है। जेम्स मिल तथा बाद में उनके पुत्र जान स्टुअर्ट मिल ने मानसिक रसायनी का विकास किया। इन दोनों विद्वानों ने साहचर्यवाद की प्रवृत्ति को औपचारिक रूप प्रदान किया और वुंट के लिये उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार की। बेन के बारे में यही बात लागू होती है। कांट ने समस्याओं के समाधान में व्यक्तिनिष्ठावाद की विधि अपनाई कि बाह्य जगत् के प्रत्यक्षीकरण के सिद्धांत में जन्मजातवाद का समर्थन किया। हरबार्ट ने मनोविज्ञान को एक स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूण्र योगदान किया। उनके मतानुसार मनोविज्ञान अनुभववाद पर आधारित एक तात्विक, मात्रात्मक तथा विश्लेषात्मक विज्ञान है। उन्होंने मनोविज्ञान को तात्विक के स्थान पर भौतिक आधार प्रदान किया और लॉत्से ने इसी दिशा में ओर आगे प्रगति की। मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन का शुभारंभ उनके औपचारिक स्वरूप आने के बाद पहले से हो चुका था। सन् 1834 में वेबर ने स्पर्शेन्द्रिय संबंधी अपने प्रयोगात्मक शोधकार्य को एक पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। सन् 1831 में फेक्नर स्वयं एकदिश धारा विद्युत् के मापन के विषय पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित कर चुके थे। कुछ वर्षों बाद सन् 1847 में हेल्मो ने ऊर्जा सरंक्षण पर अपना वैज्ञानिक लेख लोगों के सामने रखा। इसके बाद सन् 1856 ई, 1860 ई तथा 1866 ईदृ में उन्होंने "आप्टिक" नामक पुस्तक तीन भागों में प्रकाशित की। सन् 1851 ई तथा सन् 1860 ई में फेक्नर ने भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दो महत्वपूर्ण ग्रंथ ने जर्मन भाषा में "एलिमेंट्स आव साइकोफ़िज़िक्स" नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें कि उन्होंने मनोवैज्ञानिक समस्याओं को वैज्ञानिक पद्धति के परिवेश में अध्ययन करने की तीन विशेष प्रणालियों का विधिवत् वर्णन किया : मध्य त्रुटि विधि, न्यूनतम परिवर्तन विधि तथा स्थिर उत्तेजक भेद विधि। आज भी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इन्हीं प्रणालियों के आधार पर अनेक महत्वपूर्ण अनुसंधान किए जाते हैं। वैज्ञानिक मनोविज्ञान में फेक्नर के बाद दो अन्य महत्वपूर्ण नाम है : हेल्मोलत्स तथा विल्हेम वुण्ट । हेल्मोलत्स ने अनेक प्रयोगों द्वारा दृष्टीर्द्रिय विषयक महत्वपूर्ण नियमों का प्रतिपादन किया। इस संदर्भ में उन्होंने प्रत्यक्षीकरण पर अनुसंधान कार्य द्वारा मनोविज्ञान का वैज्ञानिक अस्तित्व ऊपर उठाया। वुंट का नाम मनोविज्ञान में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने सन् 1879 ई में लिपज़िग विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला स्थापित की। मनोविज्ञान का औपचारिक रूप परिभाषित किया। लाइपज़िग की प्रयोगशाला में वुंट तथा उनके सहयोगियों ने मनोविज्ञान की विभिन्न समस्याओं पर उल्लेखनीय प्रयोग किए, जिसमें समय-अभिक्रिया विषयक प्रयोग विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। क्रियाविज्ञान के विद्वान् हेरिंग, भौतिकी के विद्वान् मैख तथा जी ई म्यूलर के नाम भी उल्लेखनीय हैं। हेरिंग घटना-क्रिया-विज्ञान के प्रमुख प्रवर्तकों में से थे और इस प्रवृत्ति का मनोविज्ञान पर प्रभाव डालने का काफी श्रेय उन्हें दिया जा सकता है। मैख ने शारीरिक परिभ्रमण के प्रत्यक्षीकरण पर अत्यंत प्रभावशाली प्रयोगात्मक अनुसंधान किए। उन्होंने साथ ही साथ आधुनिक प्रत्यक्षवाद की बुनियाद भी डाली। जी ई म्यूलर वास्तव में दर्शन तथा इतिहास के विद्यार्थी थे किंतु फेक्नर के साथ पत्रव्यवहार के फलस्वरूप उनका ध्यान मनोदैहिक समस्याओं की ओर गया। उन्होंने स्मृति तथा दृष्टींद्रिय के क्षेत्र में मनोदैहिकी विधियों द्वारा अनुसंधान कार्य किया। इसी संदर्भ में उन्होंने "जास्ट नियम" का भी पता लगाया अर्थात् अगर समान शक्ति के दो साहचर्य हों तो दुहराने के फलस्वरूप पुराना साहचर्य नए की अपेक्षा अधिक दृढ़ हो जाएगा । व्यवहार विषयक नियमों की खोज ही मनोविज्ञान का मुख्य ध्येय था। सैद्धांतिक स्तर पर विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए। मनोविज्ञान के क्षेत्र में सन् 1912 ई के आसपास संरचनावाद, क्रियावाद, व्यवहारवाद, गेस्टाल्टवाद तथा मनोविश्लेषण आदि मुख्य मुख्य शाखाओं का विकास हुआ। इन सभी वादों के प्रवर्तक इस विषय में एकमत थे कि मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन ही मनोविज्ञान का उद्देश्य है। उनमें परस्पर मतभेद का विषय था कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने का सबसे अच्छा ढंग कौन सा है। सरंचनावाद के अनुयायियों का मत था कि व्यवहार की व्याख्या के लिये उन शारीरिक संरचनाओं को समझना आवश्यक है जिनके द्वारा व्यवहार संभव होता है। क्रियावाद के माननेवालों का कहना था कि शारीरिक संरचना के स्थान पर प्रेक्षण योग्य तथा दृश्यमान व्यवहार पर अधिक जोर होना चाहिए। इसी आधार पर बाद में वाटसन ने व्यवहारवाद की स्थापना की। गेस्टाल्टवादियों ने प्रत्यक्षीकरण को व्यवहारविषयक समस्याओं का मूल आधार माना। व्यवहार में सुसंगठित रूप से व्यवस्था प्राप्त करने की प्रवृत्ति मुख्य है, ऐसा उनका मत था। फ्रायड ने मनोविश्लेषणवाद की स्थापना द्वारा यह बताने का प्रयास किया कि हमारे व्यवहार के अधिकांश कारण अचेतन प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित होते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में इन सभी "वादों" का अब एकमात्र ऐतिहासिक महत्व रह गया है। इनके स्थान पर मनोविज्ञान में अध्ययन की सुविधा के लिये विभिन्न शाखाओं का विभाजन हो गया है। प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में मुख्य रूप से उन्हीं समस्याओं का मनोवैज्ञानिक विधि से अध्ययन किया जाने लगा जिन्हें दार्शनिक पहले चिंतन अथवा विचारविमर्श द्वारा सुलझाते थे। अर्थात् संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण। बाद में इसके अंतर्गत सीखने की प्रक्रियाओं का अध्ययन भी होने लगा। प्रयोगात्मक मनोविज्ञान, आधुनिक मनोविज्ञान की प्राचीनतम शाखा है। मनुष्य की अपेक्षा पशुओं को अधिक नियंत्रित परिस्थितियों में रखा जा सकता है, साथ ही साथ पशुओं की शारीरिक रचना भी मनुष्य की भाँति जटिल नहीं होती। पशुओं पर प्रयोग करके व्यवहार संबंधी नियमों का ज्ञान सुगमता से हो सकता है। सन् 1912 ई के लगभग थॉर्नडाइक ने पशुओं पर प्रयोग करके तुलनात्मक अथवा पशु मनोविज्ञान का विकास किया। किंतु पशुओं पर प्राप्त किए गए परिणाम कहाँ तक मनुष्यों के विषय में लागू हो सकते हैं, यह जानने के लिये विकासात्मक क्रम का ज्ञान भी आवश्यक था। इसके अतिरिक्त व्यवहार के नियमों का प्रतिपादन उसी दशा में संभव हो सकता है जब कि मनुष्य अथवा पशुओं के विकास का पूर्ण एवं उचित ज्ञान हो। इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए विकासात्मक मनोविज्ञान का जन्म हुआ। सन् 1912 ई के कुछ ही बाद मैक्डूगल के प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज मनोविज्ञान की स्थापना हुई, यद्यपि इसकी बुनियाद समाज वैज्ञानिक हरबर्ट स्पेंसर द्वारा बहुत पहले रखी जा चुकी थी। धीरे-धीरे ज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर मनोविज्ञान का प्रभाव अनुभव किया जाने लगा। आशा व्यक्त की गई कि मनोविज्ञान अन्य विषयों की समस्याएँ सुलझाने में उपयोगी हो सकता है। साथ ही साथ, अध्ययन की जानेवाली समस्याओं के विभिन्न पक्ष सामने आए। परिणामस्वरूप मनोविज्ञान की नई-नई शाखाओं का विकास होता गया। इनमें से कुछ ने अभी हाल में ही जन्म लिया है, जिनमें प्रेरक मनोविज्ञान, सत्तात्मक मनोविज्ञान, गणितीय मनोविज्ञान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मनोविज्ञान की मूलभूत एवं अनुप्रयुक्त - दोनों प्रकार की शाखाएं हैं। इसकी महत्वपूर्ण शाखाएं सामाजिक एवं पर्यावरण मनोविज्ञान, संगठनात्मक व्यवहार/मनोविज्ञान, क्लीनिकल मनोविज्ञान, मार्गदर्शन एवं परामर्श, औद्योगिक मनोविज्ञान, विकासात्मक, आपराधिक, प्रायोगिक परामर्श, पशु मनोविज्ञान आदि है। अलग-अलग होने के बावजूद ये शाखाएं परस्पर संबद्ध हैं। नैदानिक मनोविज्ञान - न्यूरोटिसिज्म, साइकोन्यूरोसिस, साइकोसिस जैसी क्लीनिकल समस्याओं एवं शिजोफ्रेनिया, हिस्टीरिया, ऑब्सेसिव-कंपलसिव विकार जैसी समस्याओं के कारण क्लीनिकल मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। ऐसे मनोवज्ञानिक का प्रमुख कार्य रोगों का पता लगाना और निदानात्मक तथा विभिन्न उपचारात्मक तकनीकों का इस्तेमाल करना है। विकास मनोविज्ञान में जीवन भर घटित होनेवाले मनोवैज्ञानिक संज्ञानात्मक तथा सामाजिक घटनाक्रम शामिल हैं। इसमें शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के दौरान व्यवहार या वयस्क से वृद्धावस्था तक होने वाले परिवर्तन का अध्ययन होता है। पहले इसे बाल मनोविज्ञान भी कहते थे। आपराधिक मनोविज्ञान चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है, जहां अपराधियों के व्यवहार विशेष के संबंध में कार्य किया जाता है। अपराध शास्त्र, मनोविज्ञान आपराधिक विज्ञान की शाखा है, जो अपराध तथा संबंधित तथ्यों की तहकीकात से जुड़ी है। पशु मनोविज्ञान एक अद्भुत शाखा है। मनोविज्ञान की प्रमुख शाखाएँ हैं - मनोविज्ञान के कार्यक्षेत्र को सही ढंग से समझने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण श्रेणी वह श्रेणी है जिससे यह पता चलता है कि मनोविज्ञानी क्या चाहते हैं ? किये गये कार्य के आधार पर मनोविज्ञानियों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है: इस तरह से मनोविज्ञानियों का तीन प्रमुख कार्यक्षेत्र है—शिक्षण, शोध तथा उपयोग । इन तीनों कार्यक्षेत्रों से सम्बन्धित मुख्य तथ्यों का वर्णन निम्नांकित है— शिक्षण तथा शोध मनोविज्ञान का एक प्रमुख कार्य क्षेत्र है। इस दृष्टिकोण से इस क्षेत्र के तहत निम्नांकित शाखाओं में मनोविज्ञानी अपनी अभिरुचि दिखाते हैं— बाल मनोविज्ञान का प्रारंभिक संबंध मात्र बाल विकास के अध्ययन से था परंतु हाल के वर्षों में विकासात्मक मनोविज्ञान में किशोरावस्था, वयस्कावस्था तथा वृद्धावस्था के अध्ययन पर भी बल डाला गया है। यही कारण है कि इसे 'जीवन अवधि विकासात्मक मनोविज्ञान' कहा जाता है। विकासात्मक मनोविज्ञान में मनोविज्ञान मानव के लगभग प्रत्येक क्षेत्र जैसे—बुद्धि, पेशीय विकास, सांवेगिक विकास, सामाजिक विकास, खेल, भाषा विकास का अध्ययन विकासात्मक दृष्टिकोण से करते हैं। इसमें कुछ विशेष कारक जैसे—आनुवांशिकता, परिपक्वता, पारिवारिक पर्यावरण, सामाजिक-आर्थिक अन्तर का व्यवहार के विकास पर पड़ने वाले प्रभावों का भी अध्ययन किया जाता है। कुल मनोविज्ञानियों का 5% मनोवैज्ञानिक विकासात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत हैं। मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ मानव के उन सभी व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है जिस पर प्रयोग करना सम्भव है। सैद्धान्तिक रूप से ऐसे तो मानव व्यवहार के किसी भी पहलू पर प्रयोग किया जा सकता है परंतु मनोविज्ञानी उसी पहलू पर प्रयोग करने की कोशिश करते हैं जिसे पृथक किया जा सके तथा जिसके अध्ययन की प्रक्रिया सरल हो। इस तरह से दृष्टि, श्रवण, चिन्तन, सीखना आदि जैसे व्यवहारों का प्रयोगात्मक अध्ययन काफी अधिक किया गया है। मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में उन मनोवैज्ञानिकों ने भी काफी अभिरुचि दिखलाया है जिन्हें प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का संस्थापक कहा जाता है। इनमें विलियम वुण्ट, टिचेनर तथा वाटसन आदि के नाम अधिक मशहूर हैं। मनोविज्ञान का यह क्षेत्र मानव प्रयोगात्मक विज्ञान के समान है। सिर्फ अन्तर इतना ही है कि यहाँ प्रयोग पशुओं जैसे—चूहों, बिल्लियों, कुत्तों, बन्दरों, वनमानुषों आदि पर किया जाता है। पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में अधिकतर शोध सीखने की प्रक्रिया तथा व्यवहार के जैविक पहलुओं के अध्ययन में किया गया है। पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में स्कीनर, गथरी, पैवलव, टॉलमैन आदि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। सच्चाई यह है कि सीखने के आधुनिक सिद्घान्त तथा मानव व्यवहार के जैविक पहलू के बारे में हम आज जो कुछ भी जानते हैं, उसका आधार पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान ही है। इस मनोविज्ञान में पशुओं के व्यवहारों को समझने की कोशिश की जाती है। कुछ लोगों का मत है कि यदि मनोविज्ञान का मुख्य संबंध मानव व्यवहार के अध्ययन से है तो पशुओं के व्यवहारों का अध्ययन करना कोई अधिक तर्कसंगत बात नहीं दिखता। परंतु मनोविज्ञानियों के पास कुछ ऐसी बाध्यताएँ हैं जिनके कारण वे पशुओं के व्यवहार में अभिरुचि दिखलाते हैं। जैसे पशु व्यवहार का अध्ययन कम खर्चीला होता है। फिर कुछ ऐसे प्रयोग हैं जो मनुष्यों पर नैतिक दृष्टिकोण से करना संभव नहीं है तथा पशुओं का जीवन अवधि का लघु होना प्रमुख ऐसे कारण हैं। मानव एवं पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में कुछ मनोविज्ञानियों की संख्या का करीब 14% मनोविज्ञानी कार्यरत है। दैहिक मनोविज्ञान में मनोविज्ञानियों का कार्यक्षेत्र प्राणी के व्यवहारों के दैहिक निर्धारकों तथा उनके प्रभावों का अध्ययन करना है। इस तरह के दैहिक मनोविज्ञान की एक ऐसी शाखा है जो जैविक विज्ञान से काफी जुड़ा हुआ है। इसे मनोजीवविज्ञान भी कहा जाता है। आजकल मस्तिष्कीय कार्य तथा व्यवहार के संबंधों के अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों की रुचि अधिक हो गयी है। इससे एक नयी अन्तरविषयक विशिष्टता का जन्म हुआ है जिसे ‘न्यूरोविज्ञान’ कहा जाता है। इसी तरह के दैहिक मनोविज्ञान हारमोन्स का व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन में भी अभिरुचि रखते हैं। आजकल विभिन्न तरह के औषध तथा उनका व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभावों का भी अध्ययन दैहिक मनोविज्ञान में किया जा रहा है। इससे भी एक नयी विशिष्टता का जन्म हुआ है जिसे मनोफर्माकोलॉजी कहा जाता है तथा जिसमें विभिन्न औषधों के व्यवहारात्मक प्रभाव से लेकर तंत्रीय तथा चयापचय प्रक्रियाओं में होने वाले आणविक शोध तक का अध्ययन किया जाता है।
रुखुआ में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है।
देवेन्द्र बीशू एक वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम के अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर है जो एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय तथा टेस्ट क्रिकेट में खेलते हैं। इन्होंने अपने वनडे कैरियर की शुरुआत 2011 क्रिकेट विश्व कप में की थी। बीशू एक लेग−स्पिनर है।
देविस्थान नेपाल के सेती अंचल के अछाम जिला के एक गाँव है।
वैदिक धर्मपर एक श्रेणी का भाग मोक्ष ध्यान योग हिन्दू धर्म का इतिहास अति प्राचीन है। इस धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है। यहां शताब्दियों से मौखिक परंपरा चलती रही, जिसके द्वारा इसका इतिहास व ग्रन्थ आगे बढ़ते रहे। उसके बाद इसे लिपिबद्ध करने का काल भी बहुत लंबा रहा है। हिन्दू धर्म के सर्वपूज्य ग्रन्थ हैं वेद। वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल का आरंभ 2000 ई.पू. से माना है। यानि यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद जि‍से वेदत्रयी कहा जाता था। मान्यता अनुसार वेद का वि‍भाजन राम के जन्‍म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि‍ अथर्वा द्वारा कि‍या गया। वहीं एक अन्य मान्यता अनुसार कृष्ण के समय में वेद व्यास ने वेदों का विभाग कर उन्हें लिपिबद्ध किया था। हिंदू और जैन धर्म की उत्पत्ति पूर्व आर्यों की अवधारणा में है जो 4500 ई.पू. मध्य एशिया से हिमालय तक फैले थे। आर्यों की ही एक शाखा ने पारसी धर्म की स्थापना भी की। इसके बाद क्रमश: यहूदी धर्म दो हजार ई.पू., बौद्ध धर्म पाँच सौ ई.पू., ईसाई धर्म सिर्फ दो हजार वर्ष पूर्व, इस्लाम धर्म आज से 1400 वर्ष पूर्व हुआ। धार्मिक साहित्य अनुसार हिंदू धर्म की कुछ और भी धारणाएँ हैं। रामायण, महाभारत और पुराणों में सूर्य और चंद्रवंशी राजाओं की वंश परम्परा का उल्लेख उपलब्ध है। इसके अलावा भी अनेक वंशों की उत्पति और परम्परा का वर्णन आता है। उक्त सभी को इतिहास सम्मत क्रमबद्ध लिखना बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि पुराणों में उक्त इतिहास को अलग-अलग तरह से व्यक्त किया गया है जिसके कारण इसके सूत्रों में बिखराव और भ्रम निर्मित जान पड़ता है, फिर भी धर्म के ज्ञाताओं के लिए यह भ्रम नहीं है। असल में हिंदुओं ने अपने इतिहास को गाकर, रटकर और सूत्रों के आधार पर मुखाग्र जिंदा बनाए रखा। यही कारण रहा कि वह इतिहास धीरे-धीरे काव्यमय और श्रृंगारिक होता गया जिसे आधुनिक लोग इतिहास मानने को तैयार नहीं हैं। वह समय ऐसा था जबकि कागज और कलम नहीं होते थे। इतिहास लिखा जाता था शिलाओं पर, पत्थरों पर और मन पर। हिंदू धर्म के इतिहास ग्रंथ पढ़ें तो ऋषि-मुनियों की परम्परा के पूर्व मनुओं की परम्परा का उल्लेख मिलता है जिन्हें जैन धर्म में कुलकर कहा गया है। ऐसे क्रमश: 14 मनु माने गए हैं जिन्होंने समाज को सभ्य और तकनीकी सम्पन्न बनाने के लिए अथक प्रयास किए। धरती के प्रथम मानव का नाम स्वयंभू मनु था और प्रथम ‍स्त्री सतरुपा थी महाभारत में आठ मनुओं का उल्लेख है। इस वक्त धरती पर आठवें मनु वैवस्वत की ही संतानें हैं। आठवें मनु वैवस्वत के काल में ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ था। पुराणों में हिंदू इतिहास का आरंभ सृष्टि उत्पत्ति से ही माना जाता है। ऐसा कहना कि यहाँ से शुरुआत हुई यह ‍शायद उचित न होगा फिर भी हिंदू इतिहास ग्रंथ महाभारत और पुराणों में मनु से भगवान कृष्ण की पीढ़ी तक का उल्लेख मिलता है। हिन्दू धर्म लगभग 5000 साल से व्यवस्थित विकसित हुआ है और सात चरणों के रूप में देखा जा सकता है कि दूरबीन एक-दूसरे में है। कुछ हिंदुत्व के अधिवक्ताओं का मानना होगा कि 12,000 साल पहले हिमयुग के अंत तक हिंदू धर्म को अपने संपूर्ण रूप में ऋषियों के लिए प्रकट किया गया था। हिंदुत्व के इतिहास में, पौराणिक कथाएं सिर्फ समय-समय पर इतिहास है, इतिहासकार गणना नहीं कर सकते या नहीं। हाल के दिनों में, हिंदू धर्म को "खुला स्रोत धर्म" के रूप में वर्णित किया गया है, अनोखा है कि इसमें कोई परिभाषित संस्थापक या सिद्धांत नहीं है, और ऐतिहासिक और भौगोलिक वास्तविकताओं के जवाब में इसके विचार लगातार विकसित होते हैं। यह कई सहायक नदियों और शाखाओं के साथ एक नदी के रूप में सबसे अच्छा वर्णित है, हिंदुत्व शाखाओं में से एक है, और वर्तमान में बहुत शक्तिशाली है, कई लोग स्वयं को नदी के रूप में मानते हैं। लगभग 5000 साल पहले, कांस्य युग में, जिसे अब हड़प्पा सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाता है, जो ईंट शहरों की विशेषता है, जो लगभग एक हजार वर्षों से सिंधु नदी घाटी के विशाल क्षेत्र में गंगा के ऊपर तक पहुंचे। समतल इन शहरों में, हम उन चित्रों के साथ मिट्टी की जवानों को खोजते हैं जो वर्तमान हिंदू प्रकृति की बहुत अधिक हिस्सा हैं जैसे पाइपल वृक्ष, बैल, स्वस्तिका, सात दासी, और एक आदमी जो योग मुद्रा में बैठा है। हम इस चरण के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते क्योंकि भाषा को समझने के लिए बना रहता है। 3,500 साल पहले, लौह युग में, वैदिक भजनों और अनुष्ठानों से पता चला जा सकता है जिसमें हड़प्पा के विचारों के निशान होते हैं, लेकिन एक स्थाई शहरी जीवन शैली की बजाय एक खानाबदोश और ग्रामीण जीवन शैली के लिए डिजाइन किया गया है। कुछ हिंदुत्व के अधिवक्ताओं पूरी तरह असहमत हैं और जोर देते हैं कि दो चरणों वास्तव में एक हैं। इस चरण में, हमें एक विश्वदृष्टि मिलती है जो भौतिक दुनिया का जश्न मनाती है, जहां ईश्वरों को अनुष्ठानों के साथ पेश किया जाता है, और स्वास्थ्य और धन, समृद्धि और शांति प्रदान करने को कहा जाता है। देवताओं को आमंत्रित करने और उनसे अनुग्रह प्राप्त करने का यह पहलू आज भी जारी है, हालांकि ये रस्में अलग-अलग हैं। वेदों ने सिंधु से अपर गंगा और निचले गंगा मैदानों में एक क्रमिक फैलाव प्रकट किया है। कुछ हिंदुत्व विद्वान इस तरह के भौगोलिक फैलाव का खंडन करते हैं और उपमहाद्वीप पर जोर देते हैं कि प्राचीन समय से पूरी तरह से विकसित, समरूप, शहरी वैदिक संस्कृति, प्लास्टिक की सर्जरी और यहां तक ​​कि हवाई जहाज जैसे उन्नत प्रौद्योगिकी के लिए। तीसरे चरण में 2,500 साल पहले उपनिषद के रूप में जाना जाता ग्रंथों के साथ, जहां अनुष्ठानों की तुलना में आत्मनिरीक्षण और ध्यान पर अधिक महत्व दिया गया था, और हम पुनर्जन्म, मठवाद, जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति जैसे विचारों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं। इस चरण में बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसे शमन परंपराओं का उदय देखा गया, इसके अनुयायियों ने पाली और प्राकृत में बात की और वेदिक रूप और वैदिक भाषा, संस्कृत का भी खारिज कर दिया। इसमें ब्राह्मण पुजारियों ने भी धर्म-शास्त्रों की रचना के माध्यम से वैदिक विचारों को पुनर्गठित किया, किताबें जो कि शादी के माध्यम से सामाजिक जीवन को विनियमित करने और पारित होने के अनुष्ठान पर ध्यान केंद्रित करती हैं, और लोगों के दायित्वों को उनके पूर्वजों, उनकी जाति और विश्व पर निर्भर करता है। विशाल। कई शिक्षाविद वैदिक विचारों के इस संगठन का वर्णन करने के लिए ब्राह्मणवाद का प्रयोग करते हैं और इसे एक मूल रूप से पितृसत्तात्मक और मागासीवादी बल के रूप में देखते हैं जो समतावादी और शांतिवादी मठों के आदेशों के साथ हिंसक रूप से प्रतिस्पर्धा करते हैं। बौद्ध धर्म और जैन धर्म, वैदिक प्रथाओं और विश्वासों के साथ, उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक फैल गया, और अंततः उपमहाद्वीप से मध्य एशिया तक और दक्षिण पूर्व एशिया तक फैल गया। दक्षिण में, तमिल संगम संस्कृति का सामना करना पड़ता था, उस जानकारी के बारे में जो प्रारंभिक कविताओं के संग्रह से आते हैं, जो वैदिक अनुष्ठानों के कुछ ज्ञान और बौद्ध धर्म और जैन धर्म के ज्ञान के साथ बाद में महाकाव्यों का पता चलता है। कुछ हिंदुत्व विद्वानों का कहना है कि कोई अलग तमिल संगम संस्कृति नहीं थी। यह पूरी तरह से विकसित, समरूप, शहरी वैदिक संस्कृति का हिस्सा था, जहां सभी ने संस्कृत को बोला था। चौथे चरण में 2,000 साल पहले शुरू हुए रामायण, महाभारत और पुराण जैसे लेखों का उदय हुआ, जहां कहानियों को घरेलू और विश्व सम्बन्धों की विश्वदृष्टि का समाधान करने के लिए उपयोग किया जाता है और अब परिचित हिंदू विश्वदृष्टि का निर्माण किया जाता है। हमें एक पूरी तरह से विकसित पौराणिक कथाओं के लिए पेश किया जाता है जहां विश्व की कोई शुरुआत नहीं है या अंत, कई आकाश और कई हेल्लो के साथ, क्रिया और प्रतिक्रिया द्वारा नियंत्रित, जहां सभी समाज जन्म और मृत्यु के चक्रों के माध्यम से जाते हैं, बस सभी जीवित प्राणियों की तरह इस चरण में मंदिरों और मंदिर अनुष्ठानों का उदय हुआ। हम मठवासी वेदांतिक आदेशों का उदय भी देखते हैं जो शरीर और सबकुछ संवेदनात्मक, साथ ही जाप तन्त्रिक आदेशों से शरीर को भ्रष्ट करते हैं और शरीर और सभी चीजों की खोज करते हैं। हम पुराने निगामा परम्परा के मिंगलिंग भी देख सकते हैं, जहां दिव्यता को नए अग्मा परम्पारा के साथ निराकार माना जाता है, जहां परमात्मा शिव और उसके पुत्रों, विष्णु और उनके अवतार, और देवी और उसके कई रूपों का रूप लेते हैं। नए आदेशों और परंपराओं के उभरने के साथ, हम जाति प्रणाली के समेकन को भी देखते हैं, जो व्यवसायों के आधार पर समुदाय समूह नहीं है, जो अंतरिमारी न होने से खुद को अलग करता है। कई शिक्षाविदों ने जाति को हिंदू धर्म की एक आवश्यक विशेषता के रूप में देखा है जो उच्च जातियों के पक्ष में है, जिस पर आरोप है कि हिंदुत्व अस्वीकार करते हैं। कई हिंदुत्व के विद्वानों का कहना है कि जाति के पास एक वैज्ञानिक और तर्कसंगत आधार है, और उसके पास राजनीति या अर्थशास्त्र के साथ कुछ भी नहीं है। पांचवां चरण 1,000 वर्ष पुराना है, और यह एक सिद्धांत के रूप में भक्ति का उदय देखा, जहां भक्त भावुक गीतों के माध्यम से देवताओं से जुड़े हुए हैं, जो क्षेत्रीय भाषाओं में बना है, अक्सर मंदिर प्रणाली को दरकिनार करते हैं। यह वह समय था जब एक कठोर जाति के पदानुक्रम ने खुद को दृढ़तापूर्वक लगाया था, जो पवित्रता के सिद्धांत पर आधारित थी और कुछ जातियों को अशुभ और अयोग्य रूप में देखा जा रहा था। उन्हें भी समुदाय से अच्छी तरह से वंचित नहीं किया जा सकता है यह भी वह समय है जब इस्लाम भारत में प्रवेश करता है, शांतिपूर्वक समुद्र के व्यापारियों के माध्यम से दक्षिण में और मध्य एशियाई सरदारों के माध्यम से हिंसक रूप से उत्तर में जाता है, जो बौद्ध मठों और हिंदू मंदिरों को नष्ट करते हैं, जो राजनीतिक सत्ता के केंद्र भी होते हैं और अंततः उनके शासन की स्थापना करते हैं, अक्सर हिंदू राजाओं जैसे उत्तर में राजपूत, पूरब में अहोम्स, मराठों और दक्कन में विजयनगर साम्राज्य का विरोध करते थे। हिंदुत्व ने इस्लाम के आगमन और दिल्ली और डेक्कानी सल्तनतों के उत्थान को देखते हुए, बाद में मुगल शासन को महान हिंदू संस्कृति के अंत के रूप में चिह्नित किया, यह एक विषय है कि मार्क्सवादी इतिहासकारों ने पागल सांप्रदायिक प्रचार किया है। बाद में केवल हिंदू-इस्लामी सहयोग को उजागर किया गया, जो अन्य चरम पर जा रहा है, गैर-मार्क्सवादी इतिहासकारों का तर्क है छठे चरण 300 वर्ष का है जब हिंदू धर्म उपमहाद्वीप में यूरोपीय शक्ति के उदय को उत्तर देते हैं, और ईसाई मिशनरियों के परिणामस्वरूप आगमन और तर्कसंगत वैज्ञानिक व्याख्यान। कुछ हिंदुत्व विद्वान, दोनों के बीच अंतर नहीं करते हैं। इस युग में यूरोपीय विद्वानों ने वैज्ञानिक विधियों और जूदेव-ईसाई लेंस दोनों का उपयोग करके हिंदू धर्म की भावना बनाने की कोशिश की। उनके लिए, एकेश्वरवाद सच्चा धर्म और वैज्ञानिक था; बहुदेववाद मूर्तिपूजक पौराणिक कथाओं था उन्होंने हिंदू जीवन शैली के अनुवाद और दस्तावेजीकरण का एक विशाल अभ्यास शुरू किया। उन्होंने एक पवित्र किताब, एक नबी, और अधिक महत्वपूर्ण बात, एक उद्देश्य की तलाश की। आखिरकार, जटिलता को व्यवस्थित करने के लिए, उन्होंने हिंदू धर्म को ब्राह्मणवाद के रूप में परिभाषित करना शुरू किया, यह बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म से भिन्न था। यह ओरिएंटलिस्ट ढांचा विद्यालयों, कॉलेजों और मीडिया के माध्यम से पूर्वी धर्मों की वैश्विक समझ को सूचित करता रहा है। एक तरल मौखिक संस्कृति को 1 9वीं शताब्दी तक तय किया गया था। पश्चिमी तरीकों से पढ़े हुए हिंदुओं ने अपने रिवाज़ और विश्वासों के बारे में पूछे जाने पर उन्हें शर्म की बात और शर्मिंदगी का गहरा असर महसूस किया। कुछ ने औपनिवेशिक देखने के लिए हिंदुत्व को सुधारने का फैसला किया। दूसरों ने हिंदू धर्म के "सच्चे सार" की खोज करने और "बाद में भ्रष्ट" प्रथाओं को खारिज कर दिया। फिर भी दूसरों ने हिंदू धर्म को ही खारिज कर दिया और सभी धर्मों को एक अंधेरे खतरनाक बल के रूप में देखा, जो तर्कसंगतता और वैज्ञानिक रूप से बदल दिया गया। यह इस चरण में है कि हिंदुत्व एक जवाबी शक्ति के रूप में उभरे जो कि उन्होंने यूरोपियन में हिंदुओं की सभी चीजों के अविनाशी और अनुचित मजाक के रूप में देखा और बाद में अमेरिकी और भारतीय विश्वविद्यालयों में चुनौती दी। हिंदुत्व ने मार्क्सवाद और अन्य सभी पश्चिमी प्रवचनों को ईसाई प्रवचन के एक और रूप के रूप में देखा, जो पिछले शताब्दियों में इस्लाम ने मध्य और दक्षिण पूर्व एशिया में जो किया था, वह हिंदू जीवन शैली के सभी निशानों को मिटा देने की मांग कर रहा था। सातवीं चरण, आजादी के बाद, इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता, भले ही यह केवल पिछले 70 वर्षों तक फैला हो, क्योंकि यह धार्मिक आधार पर हिंसक और रक्त-लथपथ विभाजन से शुरू होता है और मुसलमानों के लिए पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान का निर्माण। क्या यह भारत को मूल रूप से एक हिंदू राज्य बना देता है? या क्या यह "भारत के विचार" को प्रेरित करता है जहां सभी लोगों को समान सम्मान मिलता है, चाहे धर्म और जाति का? अलग-अलग लोग अलग-अलग जवाब देंगे। हिंदुत्व ने अल्पसंख्यक अनुशासनात्मकता के रूप में धर्मनिरपेक्षता को देखा, विशिष्ट जातियों के प्रतिवाद के रूप में सकारात्मक भेदभाव को देखते हुए समाजवाद सिर्फ क्रोधित पूंजीवाद, सामाजिक न्याय के सिद्धांतों और पारंपरिक हिंदू परिवार के मूल्यों की धमकी देकर लैंगिक समानता का निर्माण, और समान नागरिक संहिता की अनुपस्थिति के रूप में भारत को विभाजित करने का एक और तरीका। कई बुद्धिजीवियों ने जब उनका तर्क दिया कि हिंदू धर्म और भारत जैसी अवधारणाएं ब्रिटिश की रचना थीं, तो कोई वास्तविक प्राचीन जड़ों के साथ, आम जनता की आस्था को कल्पित कल्पनाओं के विपरीत के रूप में अस्वीकार कर दिया गया था। यह बदतर हो गया जब दुनिया भर के शिक्षाविदों ने जातिवाद के साथ हिंदू धर्म को समझाते हुए इस्लाम को आतंकवाद से जुड़ा, या आतंकवादी मिशनरी गतिविधि के साथ ईसाई धर्म से इनकार कर दिया। बहुत से लोगों ने मार्क्सवाद, उदारवाद और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को बहुसंख्य भारतीयों में विफल कर दिया, जिनमें से ज्यादातर गरीबी गरीबी में रह रहे हैं। उचित या नहीं, पीड़ित महसूस हुआ कि हिंदुत्व को आक्रामक रूप से मर्दाना रुख के बावजूद एक मौका देने का समय था, खासकर जब से यह विकास की भाषा, और आकांक्षाओं की बात करता था।
यह ईसवीं की आठवीं शताब्दी को कहा जाता है। यानि 700-799 ई. वर्षों के समूह को कहते हैं।
अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी गणराज्य दक्षिणी मध्य एशिया में अवस्थित देश है, जो चारो ओर से जमीन से घिरा हुआ है। प्रायः इसकी गिनती मध्य एशिया के देशों में होती है पर देश में लगातार चल रहे संघर्षों ने इसे कभी मध्य पूर्व तो कभी दक्षिण एशिया से जोड़ दिया है। इसके पूर्व में पाकिस्तान, उत्तर पूर्व में भारत तथा चीन, उत्तर में ताजिकिस्तान, कज़ाकस्तान तथा तुर्कमेनिस्तान तथा पश्चिम में ईरान है। अफ़ग़ानिस्तान रेशम मार्ग और मानव प्रवास का एक प्राचीन केन्द्र बिन्दु रहा है। पुरातत्वविदों को मध्य पाषाण काल ​​के मानव बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। इस क्षेत्र में नगरीय सभ्यता की शुरुआत 3000 से 2,000 ई.पू. के रूप में मानी जा सकती है। यह क्षेत्र एक ऐसे भू-रणनीतिक स्थान पर अवस्थित है जो मध्य एशिया और पश्चिम एशिया को भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति से जोड़ता है। इस भूमि पर कुषाण, हफ्थलिट, समानी, गजनवी, मोहमद गौरी, मुगल, दुर्रानी और अनेक दूसरे प्रमुख साम्राज्यों का उत्थान हुआ है। प्राचीन काल में फ़ारस तथा शक साम्राज्यों का अंग रहा अफ़्ग़ानिस्तान कई सम्राटों, आक्रमणकारियों तथा विजेताओं की कर्मभूमि रहा है। इनमें सिकन्दर, फारसी शासक दारा प्रथम, तुर्क,मुगल शासक बाबर, मुहम्मद गौरी, नादिर शाह इत्यादि के नाम प्रमुख हैं। ब्रिटिश सेनाओं ने भी कई बार अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया। वर्तमान में अमेरिका द्वारा तालेबान पर आक्रमण किये जाने के बाद नाटो की सेनाएं वहां बनी हुई हैं। अफ़ग़ानिस्तान के प्रमुख नगर हैं- राजधानी काबुल, कंधार। यहाँ कई नस्ल के लोग रहते हैं जिनमें पश्तून सबसे अधिक हैं। इसके अलावा उज्बेक, ताजिक, तुर्कमेन और हज़ारा शामिल हैं। यहाँ की मुख्य भाषा पश्तो है। फ़ारसी भाषा के अफ़गान रूप को दरी कहते हैं। अफ़्ग़ानिस्तान का नाम अफगान और स्तान से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है अफ़गानों की भूमि। स्तान इस क्षेत्र के कई देशों के नाम में है जैसे- पाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कज़ाख़स्तान, हिन्दुस्तान इत्यादि जिसका अर्थ है भूमि या देश। अफ़्गान का अर्थ यहां के सबसे अधिक वसित नस्ल को कहते है। अफ़्गान शब्द को संस्कृत अवगान से निकला हुआ माना जाता है। ध्यान रहे की "अफ़्ग़ान" शब्द में ग़ की ध्वनी है और "ग" की नहीं। मानव बसाहट 10,000 साल से भी अधिक पुराना हो सकता है। ईसा के 1800 साल पहले आर्यों का आगमन इस क्षेत्र में हुआ। ईसा के 700 साल पहले इसके उत्तरी क्षेत्र में गांधार महाजनपद था जिसके बारे में भारतीय स्रोत महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है। ईसापूर्व 500 में फ़ारस के हखामनी शासकों ने इसको जीत लिया। सिकन्दर के फारस विजय अभियान के तहते अफ़गानिस्तान भी यूनानी साम्राज्य का अंग बन गया। इसके बाद यह शकों के शासन में आए। शक स्कीथियों के भारतीय अंग थे। ईसापूर्व 230 में मौर्य शासन के तहत अफ़ग़ानिस्तान का संपूर्ण इलाका आ चुका था पर मौर्यों का शासन अधिक दिनों तक नहीं रहा। इसके बाद पार्थियन और फ़िर सासानी शासकों ने फ़ारस में केन्द्रित अपने साम्राज्यों का हिस्सा इसे बना लिया। सासनी वंश इस्लाम के आगमन से पूर्व का आखिरी ईरानी वंश था। अरबों ने ख़ुरासान पर सन् 707 में अधिकार कर लिया। सामानी वंश, जो फ़ारसी मूल के पर सुन्नी थे, ने 987 इस्वी में अपना शासन गजनवियों को खो दिया जिसके फलस्वरूप लगभग संपूर्ण अफ़ग़ानिस्तान ग़ज़नवियों के हाथों आ गया। ग़ोर के शासकों ने गज़नी पर 1183 में अधिकार कर लिया। मध्यकाल में कई अफ़्गान शासकों ने दिल्ली की सत्ता पर अधिकार किया या करने का प्रयत्न किया जिनमें लोदी वंश का नाम प्रमुख है। इसके अलावा भी कई मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अफगान शाहों की मदद से हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया था जिसमें बाबर, नादिर शाह तथा अहमद शाह अब्दाली शामिल है। अफ़ग़ानिस्तान के कुछ क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के अंग थे। उन्नीसवीं सदी में आंग्ल-अफ़ग़ान युद्धों के कारण अफ़ग़ानिस्तान का काफी हिस्सा ब्रिटिश इंडिया के अधीन हो गया जिसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में यूरोपीय प्रभाव बढ़ता गया। 1919 में अफ़ग़ानिस्तान ने विदेशी ताकतों से एक बार फिर स्वतंत्रता पाई। आधुनिक काल में 1933-1973 के बाच का काल अफ़ग़ानिस्तान का सबसे अधिक व्यवस्थित काल रहा जब ज़ाहिर शाह का शासन था। पर पहले उसके जीजा तथा बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्तापलट के कारण देश में फिर से अस्थिरता आ गई। सोवियत सेना ने कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग के लिए देश में कदम रखा और मुजाहिदीन ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और बाद में अमेरिका तथा पाकिस्तान के सहयोग से सोवियतों को वापस जाना पड़ा। 11 सितम्बर 2001 के हमले में मुजाहिदीन के सहयोग होने की खबर के बाद अमेरिका ने देश के अधिकांश हिस्से पर सत्तारुढ़ मुजाहिदीन, जिसको कभी अमेरिका ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ लड़ने में हथियारों से सहयोग दिया था, के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। अफगानिस्तान नाम अफ्गान समुदाय की जगह के रूप में प्रयुक्त किया गया है, यह नाम सबसे पहले 10 वीं शताब्दी में हूदूद उल-आलम नाम की भौगोलिक किताब में आया था इसके रचनाकार का नाम अज्ञात है' साल 2006 में पारित देश के संविधान में अफगानिस्तान के सभी नागरिकों को अफ्गान कहा गया है जो अफगानिस्तान के सभी नागरिक अफ्गान है' वर्तमान में देश में नाटो की सेनाएं बनी हैं और देश में लोकतांत्रिक सरकार का शासन है। हालांकि तालिबान ने फिर से कुछ क्षेत्रों पर अधिपत्य जमा लिया है, अमेरिका का कहना है कि तालिबान को पाकिस्तानी जमीन पर फलने-फूलने दिया जा रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में कुल 34 प्रशासनिक विभाग हैं। इनके नाम हैं - अफ़ग़ानिस्तान चारों ओर से ज़मीन से घिरा हुआ है और इसकी सबसे बड़ी सीमा पूर्व की ओर पाकिस्तान से लगी है। इसे डूरण्ड रेखा भी कहते हैं। केन्द्रीय तथा उत्तरपूर्व की दिशा में पर्वतमालाएँ हैं जो उत्तरपूर्व में ताजिकिस्तान स्थित हिन्दूकुश पर्वतों का विस्तार हैं। अक्सर तापमान का दैनिक अन्तरण अधिक होता है। अफ़ग़ानिस्तान ईरान मॉरीतानिया पाकिस्तान गैम्बिया
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निर्देशांक: 25°36′40″N 85°08′38″E / 25.611°N 85.144°E / 25.611; 85.144 बैरामचक मसौढी, पटना, बिहार स्थित एक गाँव है।
हॅलम टेनिसन, दूसरे बॅरन टेनिसन एक ब्रिटिश राजनीतिज्ञ थे। उन्हें 9 जनवरी 1903-21 जनवरी 1904 के बीच, महाराज एडवर्ड सप्तम् द्वारा, ऑस्ट्रेलिया के गवर्नर-जनरल यानि महाराज्यपाल के पद पर नियुक्त किया गया था। इस काल के दौरान वे, महाराज के प्रतिनिधि के रूप में, उनकी अनुपस्थिति के दौरान शासक के कर्तव्यों का निर्वाह करते थे। इसके अलावा, अपने व्यवसायिक जीवन के दौरान, उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा में, विश्व भर में विस्तृत विभिन्न ब्रिटिश उपनिवेशों में, अन्य अनेक महत्वपूर्ण व वर्चस्वपूर्ण पदों पर अपनी सेवा दी थी। वे ऑस्ट्रेलिया के दूसरे गवर्नर-जनरल थे। उन्होंने होपटन के सातवें अर्ल के पदत्याग के बाद गवर्नर-जनरल के पद को संभाला था।
सागर नितल प्रसरण एक भूवैज्ञानिक संकल्पना है जिसमें यह अभिकल्पित किया गया है कि स्थलमण्डल समुद्री कटकों से सहारे प्लेटों में टूट कर इस कटकीय अक्ष के सहारे सरकता है और इसके टुकड़े एक दूसरे से दूर हटते हैं तथा यहाँ नीचे से मैग्मा ऊपर आकार नए स्थलमण्डल का निर्माण करता है।
शासन की सुविधा के लिये गुप्त वंश के शासकों ने साम्राज्य को अनेक भुक्तियों में विभाजित किया था। ये भुक्तियाँ वर्तमान कमिश्नरी की भाँति थीं जिनमें कई 'विषय' या जिले होते थे। भुक्तियों का शासन 'उपरिक' नाम के अधिकारियों के हाथ में था जो अधिक शक्तिशाली हो जाने पर 'उपरिक महाराज' कहलाते थे। गुप्तोत्तर काल में शासन की इकाई के रूप में भुक्ति के उल्लेख अधिक नहीं मिलते। प्रतिहार साम्राज्य में ऐसे कुछ उल्लेख हैं किंतु उनकी संख्या अधिक नहीं है। परमार, गहड़वाल, चंदेल और चालुक्यों के साम्राज्य में अधिक विस्तृत नहीं थे, भुक्ति के उल्लेख नहीं मिलता। बंगाल में पालों के बड़े साम्राज्य के कारण भुक्ति के उल्लेख हैं। असम में भी भुक्ति का उपयोग संभवत: पालों के साथ दीर्घकालीन संबंध के कारण था। गुप्तोत्तर काल में सम्राज्य का बहुत बड़ा भाग सामंतों के अधिकार में होने के कारण केंद्र द्वारा शासित प्रदेश इतना बड़ा नहीं था कि उसे भुक्ति जैसी बड़ी इकाइयों में बाँटा जा सके। राष्ट्रकूट वंश, जो गंगा के मैदान के संपर्क में रहा, अपने कुछ अभिलेखों में कुछ भुक्तियों के नाम देता है, किंतु वहाँ यह विषय का विभाजन था। जो वर्तमान तालुक या तहसील जैसा छोटा था और उसमें प्राय: केवल 50 से 70 तक गाँव होते थे। कुछ स्थलों पर भुक्ति का शासन के विभाजन के विशिष्ट अर्थ में उपयोग नहीं मिलता; यथा ईदा अभिलेख में 'वर्धमान भुक्ति' के अंतर्गत दंडभुक्ति एक मंडल था। इसी प्रकार तीरभुक्ति नगर के नाम के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है। गुप्तोत्तर काल में भुक्ति का उपयोग सामंतों की जागीर के अर्थ में भी मिलता है। यह उपयोग भुक्ति के शाब्दिक अर्थ पर आधारित था। कई चाहमान अभिलेखों, कीर्तिकौमुदी और उपमिति भवप्रपंच कथा में भुक्ति का उपयोग इस अर्थ में है। धर्मशास्त्रों में भुक्ति अथवा भोग का इसके शाब्दिक अर्थ के आधार पर एक विशिष्ट उपयोग मिलता है। किसी संपत्ति पर स्वामित्त्व के लिये आवश्यक हैं - भुक्ति और आगम । इसी कारण भुक्ति दो प्रकार की मानी गई है - सागमा और अनागमा। आगम और भुक्ति एक दूसरे पर अवलंबित और संबंधित हैं। बिना आगम के संपत्ति का भोग करनेवाला चोर के तुल्य कहा गया है किंतु स्वामित्व सिद्ध करने के लिये भुक्ति को अधिक महत्व दिया जाता था। संपत्ति का स्थानांतर लिखित और साक्षीयुक्त होने पर यदि भुक्ति रहित है तो संशयात्मक रहेगा। धर्मशास्त्रों में भुक्ति और आगम के तुलनात्मक महत्व और दीर्घकालीन भुक्ति की अवधि के संबंध में, जिससे स्वामित्व की प्राप्ति होती है, बड़ा मतभेद रहा है। उत्तरकालीन टीकाओं ने इन विरोधों को मिटाने को प्रयत्न किया है। पूर्वकालीन स्मृतियों ने 20 वर्षो तक अनागम भुक्ति को स्वामित्व के लिये पर्याप्त माना है, किंतु उत्तरकालीन स्मृतियों ने इसका समय 60 वर्ष तक बताया है। प्राय: तीन पीढ़ियों तक के अनधिकारी भोग को स्वामित्व उत्पन्न करने में समर्थ कहा गया है। एक विवेचना मिलता है कि मानव स्मरण काल के भीतर ही भुक्ति को आगम की अपेक्षा होती है स्मार्तकाल के बाहर तीन पीढ़ियों तक का भोग पर्याप्त है। कुछ स्मृतिकारों ने चल संपत्ति के संबंध में स्वामित्व स्थापित करने वाले भोग की अवधि 4,5 या 1 वर्ष की कही है जो वास्तव में भुक्ति के महत्व के स्वीकृत मात्र है।
तकनीकी विज्ञान के उम्मीदवार 1984 डिजाइन और जहाजों के निर्माण, विक्टर फ़ुटपाथतकनीकी विज्ञान के डॉक्टर 1994 विरूप्य ठोस यांत्रिकी. वह अमूर नदी 1975, गोर्की पॉलिटेक्निक संस्थान 1983 में स्नातकोत्तर अध्ययन के द्वारा पीछा किया पालीटेक्निक संस्थान में अध्ययन किया। वह जहाज बिल्डर निकोलस शिपयार्ड 1974 पर काम किया। वह 1975 में पर अमुर पॉलिटेक्निक संस्थान, जहाँ वह वर्तमान में प्रोफेसर और कुर्सी में काम शुरू कर दिया। विकसित और लागू बर्फ कवर के विनाश की गूंज विधि, द्विधा गतिवाला होवरक्राफ्ट का एहसास, एक बार कुछ परंपरागत तकनीकों बर्फ तोड़ने वाले, बर्फ तोड़ने संलग्नक, आदि का उपयोग की तुलना में बिजली की खपत को कम करने के लिए अनुमति देता है - वीए Zuev, वीएम Kozin बर्फ कवर के विनाश के लिए होवरक्राफ्ट का उपयोग. बीजिंग: सुदूर पूर्वी राज्य विश्वविद्यालय की पब्लिशिंग हाउस. 1988 में. - पी 128. - Kozin वी.एम. Zhyostkaya V.D. बर्फ कवर के साथ लोड के nonstationary आंदोलन. अपतटीय और ध्रुवीय इंजीनियरिंग इंटरनेशनल जर्नल ऑफ. - संयुक्त राज्य अमेरिका. - Voe.9, 4 №, दिसंबर. - पी 1999. 293-297 . - हार्ड वी डी, वीएम Kozin बर्फ कवर द्विधा गतिवाला होवरक्राफ्ट प्रतिध्वनि विधि के विनाश के अनुसंधान की संभावनाओं. व्लादिवोस्तोक: Dal'nauka. 2003 में. -161 सेक. 5-8044-0384-2 आईऍसबीऍन. Ledorazrushayuschaya वस्तुओं की गति पर flexural - गुरुत्वाकर्षण लहरों की क्षमता. / विक्टर पक्की सड़क सम्पादन और दूसरों - व्लादिवोस्तोक Dal'nauka अपने, 2005 191 - पी. ISBN 5-8044-0508 एक्स.
Humulus lupulusHumulus japonicusHumulus yunnanensis राज़क या हॉप या ह्युमुलस पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध के समशीतोष्ण इलाक़ों में उगने वाला एक फूलदार पौधा है। यह '​कैनाबेसीए' जीववैज्ञानिक कुल का एक सदस्य है, जिसमें भांग और खरक भी शामिल हैं। राज़क की ह्युमुलस लुप्युलस जाति के शंकुनुमा मादा फूलों को उनके स्वाद और गंध के लिए प्रयोग किया जाता है, विशेषकर बियर बनाने के लिए। राज़क एक लता के रूप में उगता है और इसकी मोटी टहनियों के सख़्त बाल इसे दीवार और अन्य वस्तुओं पर चढ़ने में मदद करते हैं। इसकी ऊपरी लताएँ सर्दियों में सूखकर मर जाती हैं और बसंत में यह फिर नई हरी लताएँ उगाता है जो पास की हर वस्तु पर लिपट-लिपटकर ऊपर की ओर उगती हैं। अगर इसे सहारा मिले तो यह 2 मीटर से 15 मीटर तक की ऊँचाई तक उग सकती है। इसके पत्ते लम्बे और चौड़े होते हैं और उनका आकार लगभग पान के पत्ते जैसा लगता है, हालांकि उनके किनारे सीधे होने की बजाए वज्रनुमा होते हैं। राज़क का एक पौधा या तो नर होता है या मादा। मादा पौधे के फूलों का प्रयोग बियर बनाने में लिया जाता है। बीज पैदा करने के लिए नर फूलों से मादा फूलों तक पराग का पहुँचना ज़रूरी होता है। बियर बनाने के लिए मादा पौधों को नर पौधों से दूर रखा जाता है क्योंकि बीज बनने से मादा फूलों का स्वाद बदल जाता है। पारंपरिक रूप से इस पौधा का प्रयोग औषधियों में भी किया जाता है।
रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि हैं।
नबी का अर्थ है ईश्वर का गुणगान करनेवाला, ईश्वर की शिक्षा तथा उसके आदेर्शों का उद्घोषक। बाइबिल ने उसे 'ईश्वर का मनुष्य' और 'आत्मा का मनुष्य' भी कहा गया है। यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम, प्राचीन यूनान, पारसी आदि धर्मों एवं संस्कृतियों में विभिन्न नबियों के होने के दावे किये गये हैं। ऐसी मान्यता है कि ईश्वर ने किसी व्यक्ति से सम्पर्क किया और भगवान की तरफ से उनको अपना सन्देशवाहक बनाया गया। इस प्रकार नबी ईश्वर और मानवजाति के बीच आधार जैसे कार्य का निष्पादन करने वाले थे। वास्तव में नबी ईश्वर का प्रवक्ता है जो ईश्वर की इच्छा प्रकट करता है और धार्मिक शिक्षा देता है। वह यदा कदा भविष्यवाणियाँ भी करता है। किंतु इसी के आधार पर नबी को भविष्यवक्ता नहीं कहा जाता। यद्यपि मूसा को भी नबी कहा गया है, तो भी इसराएल में नबियों का युग सामुएल के समय प्रारंभ होता है। कुछ नबी छोटे-छोटे समूहों में रहा करते थे और जनता के दानों से जीविका चलाते थे, दूसरे नबी गृहस्थ थे। वे छाल का लबादा पहना करते थे। उनके शरीर पर क्षतचिह्न स्पष्ट रूप से दिखाई दिया करते थे क्योंकि वे तपस्या के रूप में अपने शरीर पर घाव किया करते थे। ईश्वर की आत्मा से आविष्ट होकर जब वे भावसमाधि की दशा में पहुँच जाते थे तो वे गाने, नाचने या रोने लगते। उस समय वे कभी विचित्र चेष्टाएँ तथा प्रतीकात्मक कार्य भी संपन्न करते थे। बाइबिल में झूठे नबियों की भी चर्चा है, जैसे बालदेवता के नबी। वे ईश्वर के नबियों की नकल करते थे और बुरी नीयत से ईश्वर की इच्छा की गलत व्याख्या किया करते थे। आठवीं शताब्दी ई.पू. से छठी श.ई.पू. तक नदियों का स्वर्णकाल है, 12 गौण नदियों के आमोस आदि) इसइया अथवा यशायाह जेरेमियाह तथा यहेतकेल जैसे महान नबी उस समय के हैं। वे ईश्वर के सच्चे भक्त थे और मूसा की परंपरा तथा उसके नैतिक एकेश्वरवाद को बनाए रखकर उसे विकसित करते थे। 400 ई.पू. के बाद इसराएल में कोई नबी नहीं रहा, उनके स्थान पर कुछ मनीषी थे जो अपना ज्ञान ईश्वरप्रदत्त समझते थे और कभी-कभी अपने को नबी मानते थे। बाइबिल के उत्तरार्ध में नबी का अर्थ है - प्रकाशनों का घोषक तथा व्याख्याता, जो कभी-कभी भावी घटनाओं को भी प्रकट करता है। इस अर्थ में योहन बपतिस्ता नबी हैं। अधिकारपूर्ण शिक्षा तथा शक्तिशाली चमत्कारों के कारण ईसा को नबी और मसीह माना गया है। प्रारंभिक ईसाई चर्च में उन लोगों को नबी कहते थे जिन्हें अपने भाइयों को शिक्षा, प्रोत्साहन तथा सांत्वना देने का वरदान प्राप्त था। वे कभी-कभी भावी घटनाओं को भी प्रकट करते थे। पैगम्बर एक फारसी शब्द है जिसका अर्थ है 'पैगाम देने वाला'। इब्राहीमी धर्म जैसे यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म इत्यादि में इस शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है। अर्थात, परमेश्वर, गॅड, अल्लाह, येहोवा द्वारा भेजा गया व्यक्ति जो मानव समाज को धार्मिक ज्ञान देने वाला माना जाता है। मुसलमानों का विश्वास है कि अल्लाह द्वारा 1 लाख 84 हजार पैगम्बर इस दुनिया में भेजे गये हैं जिसमें आखिरी पैगंबर हजरत मुहम्मद हैं। पैगम्बर, नबी, रसूल, इमाम जैसे शब्द हैं जो लगभग एक जैसे लगते हैं किन्तु उन के ग्रांथिक अर्थ और कार्य अलग अलग होते हैं। अंग्रेजी में पैगंबर का समान रूप अर्थ देने वाला शब्द है "प्रोफेट"। प्रोफेट का मतलब पैगाम देने वाला और प्रोफेसी करने वाला।
बखरी मिलिक में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत पुर्णिया मण्डल के अररिया जिले का एक गाँव है।
} निर्देशांक: 27°53′N 78°04′E / 27.89°N 78.06°E / 27.89; 78.06 गोपालपुर कोइल, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है।
शिवानन्द गोस्वामी | शिरोमणि भट्ट तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोलशास्त्र-ज्योतिष, होरा शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के जाने-माने विद्वान थे। इनके पूर्वज मूलतः तेलंगाना के तेलगूभाषी उच्चकुलीन पंचद्रविड़ वेल्लनाडू ब्राह्मण थे, जो उत्तर भारतीय राजा-महाराजाओं के आग्रह और निमंत्रण पर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के अन्य प्रान्तों में आ कर कुलगुरु, राजगुरु, धर्मपीठ निर्देशक, आदि पदों पर आसीन हुए| शिवानन्द गोस्वामी त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य साधक और शक्ति-उपासक थे। एक चमत्कारिक मान्त्रिक और तांत्रिक के रूप में उनकी साधना और सिद्धियों की अनेक घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवत के बाद सबसे विपुल ग्रन्थ सिंह-सिद्धांत-सिन्धु लिखने का श्रेय शिवानंद गोस्वामी को है।" भारत के विपुल गौरवशाली और वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक-इतिहास के निर्माण में जिन महापुरुषों का योगदान चिरस्मरणीय रहा है - उनमें आंध्रप्रदेश की लम्बी विद्वत-परम्परा की एक सुदृढ़ कड़ी के रूप में सत्रहवी शताब्दी के तैलंग ब्राह्मण, दार्शनिक-कवि तंत्र-चूड़ामणि शिवानन्द गोस्वामी का सांस्कृतिक और साहित्यिक योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है| उत्तर भारतीय आन्ध्र-तैलंग-भट्ट-वंशवृक्ष के विवरणानुसार "तैलंग ब्राह्मणों के आत्रेय गोत्र में कृष्ण-यजुर्वेद के तैत्तरीय आपस्तम्ब में मूलपुरुष श्रीव्येंकटेश अणणम्मा थे"- जिनकी छठी पीढ़ी में जगन्निवासजी के परिवार में शिवानन्द गोस्वामी के रूप में एक ऐसे विलक्षण विद्वान ने जन्म लिया जिनके तप, साधना, ज्ञान, शाक्त-भक्ति, तंत्र-सिद्धि और अध्यवसाय से प्रभावित हो कर काशी, चंदेरी, जयपुर, बीकानेर, ओरछा आदि राज्यों के तत्कालीन नरेशों ने इन्हें न केवल राज-सम्मानस्वरूप बड़ी-बड़ी जागीरें ही भेंट कीं बल्कि अपने कुलगुरु और प्रथमपूज्य के रूप में आजीवन अपने साथ रख कर अपने-अपने राज्यों के सम्मान में श्रीवृद्धि भी की। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुरूप शिवानन्द गोस्वामी तक का वंशवृक्ष कुछ इस प्रकार उपलब्ध होता है- श्रीव्येंकटेश अन्न्म्मा→ → → → → → श्रीसमर पुंगव दीक्षित→ → → → → श्रीतिरुमल्ल्ल दीक्षित→ → → → श्रीश्रीनिकेतन → → → श्रीश्रीनिवास→ → श्रीजगन्निवास → श्रीशिवानन्द गोस्वामी . शिवानन्द गोस्वामी अपने यशस्वी पिता के दो अन्य पुत्रों-श्री जनार्दन गोस्वामी और श्रीचक्रपाणि से बड़े थे। ऐतिहासिक संस्कृत ग्रंथों- 'मुहूर्तरत्न' एवं 'सभेदा आर्यासप्तशती' में शिवानन्द के द्रविड-कुल का 'कवितामय' परिचय कुछ यों मिलता है - " भारतवर्ष के दक्षिण स्थित 'द्रविड़' प्रदेश में समस्त पापों का नाश करने वाली पावन नदी पेन्ना के किनारे पाणमपट्ट नगर में निवास करते आत्रेय गोत्र के परिवार में आगम निगम रहस्य और वेद-वेदांग/गों के ज्ञाता जो चूड़ान्त विद्वान थे, उन्होंने शास्त्रार्थों में अपने समय के अनेक उद्भट विद्वानों को 'पराजित' कर उन्हें अपना शिष्यत्व ग्रहण कराया था| उसी आत्रेय कुल की यशोपताका, नदियों और सागरों के पार फ़ैलाने वाले इस कुल में जन्मे जगन्निवासजी को बुंदेलखंड नरेशों ने आमंत्रित किया था और इनसे 'दीक्षा' ग्रहण कर वे नरेश उनके शिष्य बने थे| इन्हीं प्रतापी विद्वान जगन्निवासजी के तीन पुत्र हुए- - श्रीशिरोमणि भट्ट, श्रीजनार्दन और श्रीचक्रपाणि." 'सभेदा आर्यासप्तशती' में ही लिखा है- " श्रीनिवास गोस्वामी के पुत्र जगन्निवास के ज्येष्ठ पुत्र 'शिरोमणि' नाम से विख्यात हुए जो विद्यावंत, संत-प्रकृति के त्रयोगजा-वृत्ति के थे और जो अपने असाधारण पांडित्य के बल पर समस्त पंडित-समाज में समादृत हुए..." शिवानंदजी के पितामह श्री श्रीनिवास भट्ट दक्षिण से आये थे। अपनी युवावस्था में उन्होंने तंत्रशास्त्र और 'श्रीविद्या' की दीक्षा जालंधर-पीठ के अधिपति द्रविड़ क्षेत्र के मनीषी देशिकेन्द्र सच्चिदानंद सुन्दराचार्य से ली थी- गुरु ने इन्हें तब संवत 1630 में 'गोस्वामी' की उपाधि दी। दीक्षा के उपरांत इनका नया नाम गोस्वामी विद्यानन्द्नाथ पड़ा| ललिता की अर्चा में, श्रीविद्या में निरत हो जाने से इन्हीं का तीसरा नाम ललितानन्दनाथ गोस्वामी भी है। अतः तेलंगाना से आये इन आत्रेय ब्राह्मणों में 'गोस्वामी' कोई जातिसूचक शब्द नहीं, विद्वत्ता के लिए दी गई उपाधि है। इसके तीस वर्ष बाद में, संवत 1660 में महाप्रभु वल्लभाचार्य के योग्य पुत्र गुसाईं श्री विट्ठलनाथ जी को भी अकबर के एक फरमान से 'गोस्वामी' की जो उपाधि मिली वह आज तक अपने नाम के साथ पुष्टिमार्ग के संप्रदाय के आचार्य और उनके वंशज लगाते हैं। ) इस तरह 'गोस्वामी' सरनाम अलग अलग सन्दर्भों में मथुरास्थ और गोकुलस्थ- दोनों तैलंग-ब्राह्मणों के लिए प्रचलित हुआ। शिवानन्द गोस्वामी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करने से पहले इनके कुछ पूर्वजों के सांस्कृतिक-अवदान की संक्षिप्त चर्चा भी प्रसंगवश ज़रूरी है ताकि यह ज्ञात हो सके इनके पूर्वजों की जो अटूट-विद्वत-परंपरा आन्ध्रप्रदेश में चली आयी थी, उत्तर-भारत में इन वंशजों के आगमन पर भी अक्षुण्ण रही और प्रायः सभी प्रवासी-आंध्र पंडितों ने अपने वैदुष्य और अध्यवसाय से तत्कालीन उत्तर-भारतीय रजवाड़ों में 'कुलगुरु' या 'राजगुरु' के रूप निवास करते हुए प्राकृत, संस्कृत-साहित्य, ज्योतिषशास्त्र, संगीत, चित्रकला और तंत्र-साहित्य आदि के गूढ़ ज्ञान-भंडार की श्रीवृद्धि की। श्री व्येंकटेश अणम्मा की दूसरी पीढ़ी में शास्त्रार्थ-विशारद श्रीसमरपुंगव दीक्षित हुए थे, कहा जाता है जिन्होंने अश्वमेध-यज्ञ तक करवाया था और 'अद्वैत-विद्यातिलकम' और 'यात्रा-प्रबंध' जैसे ग्रन्थ लिखे थे। विश्वविख्यात विद्वान गोपीनाथ कविराज की भूमिका के साथ ब्रह्मसूत्र की व्याख्या का यह ग्रन्थ 'अद्वैत-विद्यातिलकम' 1930 में गवर्मेंट संस्कृत लाइब्रेरी, काशी से प्रकाशित हुआ है। श्रीतिरुमल्ल दीक्षित ने 'योग-तरंगिनी', 'पथ्यापथ्य-निर्णय', श्रीनिकेतन भट्ट ने 'यशस्तिलक चम्पू', श्रीनिवास भट्ट ने सं. 1553 में रची अपनी कृति 'शिवार्चन-चन्द्रिका', 'सौभाग्यरत्नाकर', 'चंडी-समयानुक्रम', 'श्रीनिवास चम्पू', 'त्रिपुरसुन्दरी पद्धति', 'सौभाग्य-सुधोदय', 'श्रीचंडिकायजन', श्री जगन्निवास भट्ट ने 'त्रिपुर-सुन्दरी' और 'शिवार्चान्चंद्रिका सूची', तथा चक्रपाणि गोस्वामी ने 'पंचायतन-प्रकाश' के माध्यम से दर्शन, साहित्य, आयुर्वेद, शाक्तोपासना, पूर्वज-प्रशस्ति और तंत्र आदि 2 अनेक विषयों पर लेखन किया। शिवानन्द गोस्वामी ने पैंतीस से भी अधिक छोटे-बड़े संस्कृत-ग्रंथों की रचना की थी। चम्पू आदि को छोड़ कर इनकी अधिकांश रचनाएं ललित-पद्य में निबद्ध हैं। ग्रंथों के विषय देखने से ज्ञात होता है शिवानन्द गोस्वामी तंत्र-मंत्र, साहित्य, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, सम्प्रदाय-ज्ञान, वेद-वेदांग, कर्मकांड, धर्मशास्त्र, खगोल-, होराशास्त्र, ज्योतिर्विज्ञान आदि अनेक विषयों के कितने गहरे विद्वान थे। 'सिंह सिद्धांत सिन्धु' की प्रथम दस 'तरंगों' के उद्धरण-ग्रंथों की सूची चेन्नई में प्रकाशित है। वह मूलतः त्रिपुर-सुन्दरी के अनन्य-साधक और शक्ति-उपासक थे। कहा जाता है-अपनी आराध्य-देवी के प्रति उनकी निष्ठा इतनी सघन थी कि माता स्वयं सशरीर उपस्थित हो कर उनसे संवाद करती थीं! कुछ इसी स्तर की अविचल और एकनिष्ठ साधना आधुनिक समय में रामकृष्ण परमहंस की भी थी। श्रीविद्या के माध्यम से शक्ति-उपासना की इस उत्कट प्रतिबद्धता के परिणामस्वरूप उन्हें काशी के पंडित समाज ने 'साक्षी-नाट्य-शिरोमणि' की संज्ञा भी दी। पद्यबद्ध ज्ञान से भरी उनकी उपलब्ध 28 कृतियाँ इस प्रकार हैं : 1. सिंह-सिद्धांत-सिन्धु 2. सिंह-सिद्धांत-प्रदीपक 3. सुबोध-रूपावली 4. श्रीविद्यास्यपर्याक्रम-दर्पण 5. विद्यार्चनदीपिका 6. ललितार्चन-कौमुदी 7. लक्ष्मीनारायणार्चा-कौमुदी 8. लक्ष्मीनारायण-स्तुति 9. सुभगोदय-दर्पण 10. आचारसिन्धु 11. प्रयाश्चित्तारणव-संकेत 12. आन्हिकरत्न 13. महाभारत-सुभाषित-श्लोक-संग्रह 14. व्यवहारनिर्णय 15. वैद्यरत्न 16. मुहूर्तरत्न 15. कालविवेक 16. तिथिनिर्णय 17. अमरकोशस्य बालबोधिनी टीका 18. स्त्री-प्रत्ययकोश 19. कारक-कोश 20. समास-कोश 21. शब्द्भेद्प्रकाश 22. आख्यानवाद 23. पदार्थतत्वनिरूपण 24. नय-विवेक 25. ईश्वरस्तुति 26. कुलप्रदीप 27. श्रीचंद्रपूजा-प्रयोग 28. नित्यार्चन-कथन इन सब ग्रंथों में 'सिंह-सिद्धांत-सिन्धु' वि॰सं॰1731 ऐसी कालजयी रचना है, जिसका अपने समकालीन-संस्कृत-ग्रंथों में कोई सानी नहीं है। इसमें रचे गए मौलिक श्लोकों की संख्या सर चकरा देने वाली है। सिंह-सिद्धांत-सिन्धु में कुल 35,130 संस्कृत श्लोक हैं जोश्रीमद्भागवत की कुल श्लोक संख्या से भी कहीं ज्यादा हैं। भागवत में 18 हजार श्लोक, 335 अध्याय तथा 12 स्कंध हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण से बड़ा विपुल सन्दर्भ सामग्री से संयोजित संभवतया यह अपनी तरह का सबसे बड़ा ग्रन्थ है। श्रीमद्भागवत महापुराण और 'महाभारत' जैसे कालजयी ग्रन्थ, अनेकानेक ऋषियों-विद्वानों की संयुक्त सुदीर्घ लेखन-परम्परा का प्रतिफल हैं, क्योंकि वेदव्यास कोई एक व्यक्ति-विशेष का नाम नहीं, विभिन्न विद्वानों द्वारा समय-समय पर ग्रहण किया गया 'अकादमिक पद' है) पर एक अकेले कृतिकार ने इतनी विशालकाय पाण्डुलिपि तैयार कर दी हो, ऐसा विलक्षण उदाहरण संस्कृत के साहित्यिक-इतिहास में मिलना दुर्लभ है। यह कृति अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में पाण्डुलिपि की प्रति होने के बावजूद विद्वानों की दृष्टि से अनेक वर्षों तक लुप्तप्राय रही और इसका प्रकाशन लेखन के प्रायः चार सौ साल बाद संभव हुआ पर सौभाग्य से यह अब सुलभ है। जोधपुर के राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ने यह महारचना लक्ष्मीनारायण गोस्वामी के सम्पादन में 4 खण्डों में प्रकाशित की है। यह महाग्रंथ संस्कृत काव्य, तंत्रशास्त्र, मंत्रशास्त्र, न्याय, निगम, मीमांसा, सूत्र, आचार, ज्योतिष, वेद-वेदांग, व्याकरण, औषधिशास्त्र, आयुर्वेद, यज्ञ-विधि, कर्मकांड, धर्मशास्त्र होराशास्त्र न जाने कितनी विधाओं और विद्याओं का विलक्षण और विश्वसनीय विश्वकोश ही है। इनकी कुछ रचनाओं की हस्तलिखित प्रतियाँ जयपुर के पोथीखाने में भी हैं जैसा इस सूची में अंकित है। यद्यपि प्रकाश परिमल जैसे अनुसंधानकर्ताओं ने शिवानन्द जी का जन्म विक्रम संवत 1710 अंकित किया है, तथापि उनकी लघु-पुस्तक में इस तथ्य के साक्ष्य का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। सच तो यह है इनका जन्म असल में किस साल, कहाँ हुआ यह शोध का विषय है। इस का कारण केवल यह है कि पुराने ज़माने में महान से महान लेखक तक अपने निजी-जीवन के बारे में कोई सूचना या जानकारी अपनी कृतियों में अक्सर नहीं देते थे। उस युग में पूर्णतः गुप्त या अविज्ञप्त रह कर उच्चस्तरीय मौन सारस्वत-साधना में लीन रहना ही शिवानन्द जी जैसी अनेक विद्वत-विभूतियों की आन्तरिक मनोप्रवृत्ति रही होगी। ऐसा अनुमान बहुप्रचलित है कि अनेक नरेशों के सम्मानित कुलगुरु होने के बावजूद, अपना अंतिम समय गोस्वामीजी ने बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह के आग्रह पर उनके साथ ही व्यतीत किया। पर शिवानन्द गोस्वामी का देहावसान कहाँ हुआ- दक्षिण भारत में कहीं, या बीकानेर में- यह शोध का विषय है। शिवानन्द गोस्वामी चंदेरी के गवर्नर देवीसिंह बुंदेला के समकालीन थे, जिन्होंने गोस्वामीजी से 'मंत्र-दीक्षा' लेकर भेंट में कुछ गांवों की जागीर बख्शी थी। इसी प्रकार ओरछा के सातवीं पीढ़ी के राजा देवीसिंह ने भी इनकी विद्वत्ता से प्रभावित हो कर 4 ग्रामों की जागीर दी थी। जयपुर राजा विष्णुसिंह ने सन 1692-1694 ईस्वी में इन्हें रामजीपुरा, हरिवंशपुरा, चिमनपुरा और महापुरा ग्रामों की जागीर भेंट की थी, जिसका प्रमाण जयपुर के पोथीखाना के अभिलेख में आज भी सुरक्षित है। महापुरा ग्राम आज तो जयपुर महानगर का ही भाग बन चुका है, जो जयपुर से 10 किलोमीटर दूर अजमेर रोड पर स्थित है। महापुरा में गोस्वामी जी के और उनके भाई जनार्दन गोस्वामी के वंशज पीढ़ियों तक निवास करते रहे। यहीं शिवानंदजी के वंशज श्रीमद्भागवत के आचार्य गोपीकृष्ण गोस्वामी की सुपुत्री रामादेवी भट्ट से विख्यात संस्कृत साहित्यकार भट्ट मथुरानाथ शास्त्री का विवाह सन 1922 में हुआ था। बीकानेर के महाराजा अनूप सिंह द्वारा गोस्वामीजी को दो गांवों - पूलासर और चिलकोई की जागीर भेंट की गई थी। अपने जीवन के संध्याकाल में ये बीकानेर में ही रहे। संभवतः इनका देहावसान भी वहीं हुआ हो- किन्तु इनके अंतिम दिनों के बारे में कोई ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध नहीं होती| शिवानन्द जी के बाद इनके पुत्रों ने भी अपनी कुल-परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए राज्याश्रय में अनेकानेक उपलब्धियां प्राप्त करना जारी रखा, जैसा निम्नांकित अंग्रेज़ी दस्तावेज़ से सिद्ध होता है- 'Maharaj shri Shivanandji, sole ascendant, gave Purnabhishek-Mantra to Maharaja Shri Anoop Singh ji Bahadur of Bikaner at Dilsuri . The Maharaja bequeathed two villages CHIKLOI and POOLASAR in Bhent on this most auspicious occasion to Shri Shivanandji Maharaj, the Rajguru. Thus Goswami Paramsukhji Maharaj, the youngest son of great Shri Shivanandji Maharaj settled at Bikaner on the request of HH Shri Gajsingh ji Bahadur,the Maharaja of Bikaner. Shri Suratsinghji, Maharaja of Bikaner also accepted Purnabhishek Mantra from Goswami Shri Paramsukhji Maharaj, the Rajguru, in 1855 AD and bequeathed the village KHETOLAI in Bhent and bequeathed on the most auspicious occasion of the sacred thread ceremony of Bishwnathji and kanhaiyalalji, real sons of shri Paramsukhji Goswami, village SURJANSAR देवीसिंह के दरबारी विद्वान् उनके विरुद्ध अनेक प्रकार के प्रवाद उनकी अनुपस्थिति में बना कर राजा के कान भरते रहते थे| यह बात तो सर्वविदित थी कि ओरछा या बुंदेलों के इष्ट देवता, भगवान राम थे और इसी कारण इस क्षेत्र में अनेक राम और हनुमान मंदिरों की स्थापना भी हुई है, वैसे ओरछा में ही बुंदेलों के इष्ट हनुमानजी का एक मंदिर आज भी है| यह मंदिर शिवानन्दजी के आश्रम और देवीसिंह के महलों के बीच पड़ता था। शिवानन्द के विद्वेशियों ने राजा से यह शिकायत कर दी कि बुंदेलखंड के इष्टदेवता का मंदिर रास्ते में होते हुए भी आपके गुरु, इष्टदेव को कभी प्रणाम नहीं करते| स्वयं राजा देवीसिंह ने जब यही बात इनके सामने रखी तो इन्होने विनोद में इतना ही कह कर टाल दिया कि "यह मामला व्यक्तिगत श्रद्धाभाव का है और चूंकि में अहर्निश देवी के भाव में ही लीन रहता हूँ, इसलिए 'अन्य' भाव में जाने से इसमें मेरा और आपका अनिष्ट ही होगा! वैसे भी सब देवता भगवान के ही रूप हैं।.. " इनके उत्तर से राजा कदाचित पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो सका। इसलिए एक बार जब वे दोनों उसी हनुमान मंदिर के मार्ग से आ रहे थे, राजा ने अपने इष्ट हनुमान को प्रणाम करने की आग्रहभरी विनती कर ही डाली। कहते हैं- जैसे ही शक्ति के परम आराधक शिवानंदजी ने अपने हाथ प्रणाम हेतु उठाए, उससे पूर्व ही हनुमानजी की मूर्ति में पत्थर फटने की आवाज़ के साथ ऊपर से नीचे तक एक गहरी दरार पड गयी! राजा इस चमत्कार से बहुत भयभीत हो गया। और तब से उसके मन में आद्याशक्ति के प्रति भी गहरी निष्ठा जाग्रत हो गयी। ओरछा में हनुमान मंदिर में आज भी वह गहरी दरार देखी जा सकती है।...इस प्रसंग के बाद शिवानन्द गोस्वामी का मन दरबार में विद्वेशियों और चमत्कार के बल पर ही श्रद्धा रखने वाले धर्मप्राण राजन्यों के प्रति कुछ असम्प्रक्त हो गया। उन्होंने "संक्षेप-प्रायश्चित्त" और "व्यवहार-निर्णय" जैसे ग्रन्थ लिख कर अपने इष्ट के समक्ष प्रायश्चित्त किया।..." औरंगजेब शासन के दौरान आमेर के राज्य पर आये राजनैतिक-संकटों के निवारण के लिए जयपुर के तत्कालीन पंडितों ने महाराजा विष्णुसिंह को नगर में शांति बनाये रखने के लिए 'वाजपेय-यज्ञ' करवाने का मशविरा दिया था। तब काशी और मिथिला के कुछ पंडित अपनी साधना और सिद्धियों के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। आमेर के नरेश ने उन्हें ही इस काम के लिए जयपुर आमंत्रित किया। किन्तु दुर्योग से जब-जब भी उस राजसी वाजपेय-यज्ञ में पूर्णाहुति की वेला आती, यज्ञकर्ता पुरोहित की आकस्मिक मृत्यु हो जाती. ऐसा एक बार नहीं, कई बार हुआ। एक के बाद एक काशी-मिथिला के पांच सिद्ध पुरोहित यज्ञ पूरा कराने से पूर्व ही काल-कवलित हो गए। ऐसे विकट अपशकुन को देख कर राजा ने बीकानेर नरेश अनूपसिंह के माध्यम से ओरछा महाराज को यह संदेश भिजवाया कि वे कृपा कर उनके कुलगुरु और महान तांत्रिक शिवानंदजी को जयपुर भिजवाएं ताकि वह वाजपेय-यज्ञ की पूर्णाहुति करवा सकें| अंततः शिवानन्द गोस्वामी, सन 1680 ईस्वी में आमेर पहुंचे और जलमहल के पास उन्होंने जयपुर नरेश का वाजपेय-यज्ञ निर्विघ्न पूरा करवाया| पूर्णाहुति से एक रात पहले, कहते हैं एक विकट ब्रह्मराक्षस स्वप्न में गोस्वामीजी के सामने उपस्थित हुआ- जिसने उनसे शास्त्रार्थ करने की चुनौती इस सूचना के साथ दी कि पहले के पांच काशी-पंडित शास्त्रार्थ में उससे पराजित हो कर ही उसका ग्रास बन चुके थे। गोस्वामीजी ने ब्रह्मराक्षस की इस चुनौती को स्वीकार किया और उसे शास्त्रार्थ में हरा कर वाजपेय-यज्ञ पूर्णाहुति के साथ विधिवत संपन्न कराया| पर राजा द्वारा इस तथ्य को छिपाने के लिए कि पहले के पांच काशी-पंडित शास्त्रार्थ में ब्रह्मराक्षस से पराजित हो कर उसका निवाला बन चुके थे, खिन्न शिवानंदजी, आमेर महाराजा से बिना दान-दक्षिणा लिए आमेर से महापुरा लौट आये| कहते हैं जब महाराजा विष्णुसिंह को शिवानन्दजी की नाराजगी की भनक लगी तो उन्हें मनाने खुद वह अपने पुत्र सवाई जयसिंह के साथ महापुरा पहुंचे| शिवानंदजी ने सवाई जयसिंह के बारे में कुछ बेहद सटीक भविष्यवाणियां करते हुए महाराजा को निर्देश दिया कि ब्रह्मराक्षस की 'प्रेतमुक्ति' के लिए वह किसी जाने-माने कर्मकांडी पंडित को गया और काशी भिजवाएं| उन्होंने किंचित अप्रसन्नतापूर्वक महाराजा को पांच-पंडितों के वध का उत्तरदायी मानते, उन्हें कई प्राचीन शास्त्रों का हवाला देते हुए प्रयाश्चित्त्स्वरूप अश्वमेध यज्ञ करवाने की सलाह भी तभी दी होगी | निर्दोष ब्राह्मणों की मृत्यु से व्यथित होने के कारण उन्होंने महाराजा के सामने महापुरा में और रहने में अनिच्छा भी बड़ी विनम्रता से प्रकट की| अंततः अपने छोटे भाई के पास पांच गांवों की जागीर और अकूत-संपत्ति का परित्याग कर गोस्वामीजी कुछ समय बाद बीकानेर के राजगुरु के रूप में महाराजा अनूपसिंह के यहाँ चले गए"- जिनका बीकानेर कुलगुरु-राजगुरु होने का आमंत्रण/अनुरोध कब से इनके पास लंबित था| यह शुभ है कि छह सौ साल बाद भी शिवानन्द गोस्वामी की प्राचीन साहित्यिक रचना-परंपरा उत्तर भारत के प्रवासी आन्ध्र आत्रेय परिवारों में आज भी निर्बाध निरंतर जारी है! कलानाथ शास्त्री एवं घनश्याम गोस्वामी और पंडित कंठमणि शास्त्री ने शिवानंदजी के बाद की पीढी के विद्वान तैलंग ब्राह्मणों द्वारा समय-समय पर लिखे संस्कृत/ वृजभाषा ग्रंथों की सूची प्रकाशित की है, जिसमें श्री निकेतन जी की 'आर्यासप्तशती, चक्रपाणि भट्ट की 'पंचायतन-प्रकाश' रमणजी की कृति 'वंशावली', कन्हैयालालजी की पुस्तक 'कनिष्ठ पूर्णाभिषेक स्तोत्र', ईश्वरीदत्त के 31 ग्रन्थ और जनार्दन गोस्वामी, आनंदी देवी, देवीदत्त गोस्वामी, मंडन कवि, पद्माकर, गदाधर भट्ट, रामप्रसाद भट्ट 'प्रभाकर', लक्ष्मीधर भट्ट'श्रीधर', बंशीधर भट्ट, अम्बुज भट्ट, मिहीलाल, गौरीशंकर सुधाकर, गोविन्द कवीश्वर, गुरु कमलाकर 'कमल' भालचंद्र राव जैसे अनेक विद्वानों की पुस्तकें शामिल हैं। इसी आत्रेय वंश में जन्मे रीतिकाल के यशस्वी महाकवि पद्माकर का नाम किसने नहीं सुना? पद्माकर महापुरामहाराजा बिशनसिंहभट्ट मथुरानाथ शास्त्रीगोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री‎कलानाथ शास्त्री
नबरंगपुर लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र भारत के ओडिशा का एक लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र है।2014 चुनाव में सोलहवीं लोकसभा में बीजू जनता दल के बलभद्र माझी यहाँ के सांसद बने।
पार-अंटार्कटिक पर्वतमाला अंटार्कटिका को दो भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित करती है पार-अंटार्कटिक पर्वत अंटार्कटिका की एक पर्वतमाला है जो पश्चिमी अंटार्कटिका और पूर्वी अंटार्कटिका के क्षेत्रों को एक-दूसरे से विभाजित करती है। यह कुछ जगहों को छोड़कर अंटार्कटिका के एक छोर में तट पर स्थित केप अडेर से लेकर दूसरे छोर के तट तक जाती है। इसकी कई उपशृंखलाएँ हैं। केप रॉबर्ट्स के नज़दीक पार-अंटार्कटिक पर्वत विमान से सन् 1957 में बेयर्डमोर हिमानी की तस्वीर
बसूला कुल्हाड़ी से मिलता-जुलता काटने का औजार है। इसका उपयोग लकड़ी की सतह को चिकना बनाने या उसका अलंकरण करने के लिये किया जाता है। बसूला की काटने वाली धार हत्थे के लम्बवत होती है जबकि कुल्हाड़ी की धार हत्थे के समान्तर होती है।
निम्न सदन द्विसदनी संसद के दो सदनों में से एक होता है जिसका अन्य कक्ष उपरी सदन होता है। विश्व के विभिन्न संसदों में से अपनी आधिकारिक स्थिति उपरी सदन "निम्न" के विरुद्ध इसके पास बहुत शक्तियाँ होती हैं। अकेले एक ही सदन से निर्मित संसद को एकसदनी के रूप में वर्णित किया जाता है।
हरित भवन एक प्रकार का ऐसा भवन, जो पर्यावरण के साथ मिल कर बना होता है। इसे बनाते समय इस तरह से बनाते हैं कि पर्यावरण को बहुत ही कम हानि हो। इसे बनाए के बाद आसपास के स्थान पर पेड़ पौधे लगाए जाते हैं। इसके अलावा कुछ लोग इसमें पूरी तरह से अपने भवन के ऊपर के भाग को गमलों और छोटे पौधों से सजाते हैं। इसका मुख्य लक्ष्य ऊर्जा क्षय को रोकना है। इस तरह के भवन का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है कि इससे प्रकृति को बहुत कम हानि हो। इसके अलावा इसमें छोटे छोटे पौधे लगाए जाते हैं। जिससे कई प्रकार के लाभ मिलते हैं। जीवाश्म ईंधन के कमी होने के कारण इस तरह से ईंधन के स्रोत बनाने से उसकी कमी की पूर्ति भी हो जाती है। कई पौधे कई प्रकार के ईंधन भी प्रदान करते हैं। जिससे पेट्रोल जैसे ईंधन की आवश्यकता भी नहीं पड़ती है और यह सभी ईंधन पर्यावरण को किसी प्रकार का अधिक हानि भी नहीं पहुँचाता है।
राजकुमारी मार्गरेट, स्नोडन की काउंटेस, जॉर्ज सष्टम् और राजमाता एलिज़ाबेथ की छोटी बेटी और महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय की एकलौती बहन हैं। मार्गरेट के बचपन के अधिकांश वर्ष, अपने बड़ी बहन और माता-पिता की संगती में गुज़ारा था। 1936 में उनके चाचा, शाशी राजा एडवर्ड अष्टम् के पदत्याग के बाद से उनकी ज़िन्दगी पूरी तरह बदल गयी। एडवर्ड के निःसंतान होने के कारण, उनके पिता जॉर्ज को ब्रिटेन और राष्ट्रमण्डल प्रदेशों का राजा घोषित कर दिया, और उनकी बड़ी बहन एलिज़ाबेथ, युवरानी बन गयी, तथा मार्गरेट, सिंघासन के अनुक्रम में दुसरे स्थान पर चली गयी। दुसरे विश्वयुद्ध के दौरान, सुरक्षित कनाडा ले जाए जाने की सलाह के बावजूद, दोनों बहनों ने इंग्लैंड में रहने का निर्णय किया। इन्होंने विंड्सर कासल में पनाह ली। युद्ध के दौरान, मार्गरेट को आधिकारिक ज़िम्मेदारियाँ संभालने के लिए बहुत छोटा समझा जाता था, अतः उन्होंने अपनी पढाई ज़ारी रखी। युद्ध के बाद, मार्गरेट, ग्रुप कैप्टेन पीटर टौनसेंड के प्यार में पद गयी। 1952 में मार्गरेट के पिता रजा जॉर्ज षष्टम् की मृत्यु हो गयी और उनकी बड़ी बहन एलिज़ाबेथ ब्रिटेन की मलिक़ा बन गयी, और टौनसेंड ने अपनी पहली पत्नी को डिवोर्स दे दिया और अगले वर्ष पीटर ने मार्गरेट को शादी के किये प्रोपोज़् कर दिया। उस समय, सर्कार में कई लोग, पीटर को 22 साल की इस राजकुमारी के लिए योग्य पति नहीं मानते था, और चर्च ऑफ़ इंग्लैंड ने एक तलाक़शुदा आदमी के साथ विवाह को मान्यता या समर्थन देने से इनकार कर दिया। अंत्यतः मार्गरेट ने पीटर के संबंध में अपने इरादे को छोड़ दिया। 1960 में, एंटनी आर्मस्ट्रांग-जोन्स नामक एक फोटोग्राफर का विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, जिन्हें रानी द्वारा स्नोडन का अर्ल]] बना दिया गया। इस विवाह से मार्गरेट के बच्चे हुए; और 1978 में उन्होंने आपस में तलाक़ कर लिया। राजकुमारी मार्गरेट को एक विवादस्पद व्यक्तित्व के रूप में देखा जाता था, और वो अपनी हरकतों के कारण अक्सर पत्रकारी तवज्जो और विवाद का पात्र रहती थीं। स्नोडन के अर्ल के साथ उनके तलाक़ ने उन्हें काफ़ी नकारात्मक पब्लिसिटी दिलाई। इसके अलावा वे विभिन्न समय में, कई मर्दों के साथ वासनात्मक रूप से संबंधित भी थी। अपनी जीवन के आखरी दो दशकों में उनकी सेहत ने तेज़ी से गिरना शुरू कर दिया, और उनकी जीवन के आखरी वर्ष अस्वस्थता और बीमारी से पस्त थे। मार्गरेट अपनी वयस्क जीवन के अधिकांश समय तक एक हेवी स्मोक्वर हुआ करती थी, 1985 में, 55 वर्ष की आयु में, उन्हें एक लंग संक्रिया से गुज़रना पड़ा था, जिसमें उनके फेफड़ों के एक हिस्सा निकाल दिया गया था।, 1993 में उन्हें निमोनिया हुआ और 1998 से 2001 के बाच उन्हें कम-से-कम तीन दिल के दौरों का सामना करना पड़ा। 9 फ़रवरी 2002 को किंग एडवर्ड द सेवेंथ आपटल में उनकी मृत्यु हो गयी।
इस अनुच्छेद को विकिपीडिया लेख Mughal Empire के इस संस्करण से अनूदित किया गया है। ध्वज घनत्व मुग़ल साम्राज्य, एक इस्लामी तुर्की-मंगोल साम्राज्य था जो 1526 में शुरू हुआ, जिसने 17 वीं शताब्दी के आखिर में और 18 वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारतीय उपमहाद्वीप में शासन किया और 19 वीं शताब्दी के मध्य में समाप्त हुआ।मुग़ल सम्राट तुर्क-मंगोल पीढ़ी के तैमूरवंशी थे और इन्होंने अति परिष्कृत मिश्रित हिन्द-फारसी संस्कृति को विकसित किया। 1700 के आसपास, अपनी शक्ति की ऊँचाई पर, इसने भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश भाग को नियंत्रित किया - इसका विस्तार पूर्व में वर्तमान बंगलादेश से पश्चिम में बलूचिस्तान तक और उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में कावेरी घाटी तक था। उस समय 40 लाख किमी² के क्षेत्र पर फैले इस साम्राज्य की जनसंख्या का अनुमान 11 और 13 करोड़ के बीच लगाया गया था। 1725 के बाद इसकी शक्ति में तेज़ी से गिरावट आई। उत्तराधिकार के कलह, कृषि संकट की वजह से स्थानीय विद्रोह, धार्मिक असहिष्णुता का उत्कर्ष और ब्रिटिश उपनिवेशवाद से कमजोर हुए साम्राज्य का अंतिम सम्राट बहादुर ज़फ़र शाह था, जिसका शासन दिल्ली शहर तक सीमित रह गया था। अंग्रेजों ने उसे कैद में रखा और 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद ब्रिटिश द्वारा म्यानमार निर्वासित कर दिया। 1556 में, जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर, जो महान अकबर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, के पदग्रहण के साथ इस साम्राज्य का उत्कृष्ट काल शुरू हुआ और सम्राट औरंगज़ेब के निधन के साथ समाप्त हुआ, हालाँकि यह साम्राज्य और 150 साल तक चला। इस समय के दौरान, विभिन्न क्षेत्रों को जोड़ने में एक उच्च केंद्रीकृत प्रशासन निर्मित किया गया था। मुग़लों के सभी महत्वपूर्ण स्मारक, उनके ज्यादातर दृश्य विरासत, इस अवधि के हैं। प्रारंभिक 1500 के आसपास तैमूरी राजवंश के राजकुमार बाबर के द्वारा उमैरिड्स साम्राज्य के नींव की स्थापना हुई, जब उन्होंने दोआब पर कब्जा किया और खोरासन के पूर्वी क्षेत्र द्वारा सिंध के उपजाऊ क्षेत्र और सिंधु नदी के निचले घाटी को नियंत्रित किया। 1526 में, बाबर ने दिल्ली के सुल्तानों में आखिरी सुलतान, इब्राहिम शाह लोदी, को पानीपत के पहले युद्ध में हराया। अपने नए राज्य की स्थापना को सुरक्षित करने के लिए, बाबर को खानवा के युद्ध में राजपूत संधि का सामना करना पड़ा जो चित्तौड़ के राणा साँगा के नेतृत्व में था। विरोधियों से काफी ज़्यादा छोटी सेना द्वारा हासिल की गई, तुर्क की प्रारंभिक सैन्य सफलताओं को उनकी एकता, गतिशीलता, घुड़सवार धनुर्धारियों और तोपखाने के इस्तेमाल में विशेषता के लिए ठहराया गया है। 1530 में बाबर का बेटा हुमायूँ उत्तराधिकारी बना लेकिन पश्तून शेरशाह सूरी के हाथों प्रमुख उलट-फेर सहे और नए साम्राज्य के अधिकाँश भाग को क्षेत्रीय राज्य से आगे बढ़ने से पहले ही प्रभावी रूप से हार गए। 1540 से हुमायूं एक निर्वासित शासक बने, 1554 में साफाविद दरबार में पहुँचे जबकि अभी भी कुछ किले और छोटे क्षेत्र उनकी सेना द्वारा नियंत्रित थे। लेकिन शेर शाह सूरी के निधन के बाद जब पश्तून अव्यवस्था में गिर गया, तब हुमायूं एक मिश्रित सेना के साथ लौटे, अधिक सैनिकों को बटोरा और 1555 में दिल्ली को पुनः जीतने में कामयाब रहे। हुमायूं ने अपनी पत्नी के साथ मकरन के खुरदुरे इलाकों को पार किया, लेकिन यात्रा की निष्ठुरता से बचाने के लिए अपने शिशु बेटे जलालुद्दीन को पीछे छोड़ गए। जलालुद्दीन को बाद के वर्षों में अकबर के नाम से बेहतर जाना गया। वे सिंध के राजपूत शहर, अमरकोट में पैदा हुए जहाँ उनके चाचा अस्करी ने उन्हें पाला। वहाँ वे मैदानी खेल, घुड़सवारी और शिकार करने में उत्कृष्ट बने और युद्ध की कला सीखी। तब पुनस्र्त्थानशील हुमायूं ने दिल्ली के आसपास के मध्य पठार पर कब्ज़ा किया, लेकिन महीनों बाद एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई, जिससे वे दायरे को अस्थिर और युद्ध में छोड़ गए। 14 फरवरी 1556 को दिल्ली के सिंहासन के लिए सिकंदर शाह सूरी के खिलाफ एक युद्ध के दौरान, अकबर अपने पिता के उत्तराधिकारी बने। उन्होंने जल्द ही 21 या 22 की उम्र में अपनी अठारहवीं जीत हासिल करी। वह अकबर के नाम से जाने गए। वह एक बुद्धिमान शासक थे, जो निष्पक्ष पर कड़ाई से कर निर्धारित करते थे। उन्होंने निश्चित क्षेत्र में उत्पादन की जाँच की और निवासियों से उनकी कृषि उपज के 1/5 का कर लागू किया। उन्होंने एक कुशल अधिकारीवर्ग की स्थापना की और धार्मिक मतभेद से सहिष्णुशील थे, जिससे विजय प्राप्त किए गए लोगों का प्रतिरोध नरम हुआ। उन्होंने राजपूतों के साथ गठबंधन किया और हिन्दू जनरलों और प्रशासकों को नियुक्त किया था। उमैरिड्स के सम्राट अकबर के बेटे जहाँगीर ने 1605-1627 के बीच साम्राज्य पर शासन किया। अक्टूबर 1627 में, उमैरिड्स के सम्राट जहाँगीर के बेटे शाहजहाँ सिंहासन के उत्तराधिकारी बने, जहाँ उन्हें भारत में एक विशाल और समृद्ध साम्राज्य विरासत में मिला। मध्य-सदी में यह शायद विश्व का सबसे बड़ा साम्राज्य था। शाहजहाँ ने आगरा में प्रसिद्ध ताज महल बनाना शुरू किया जो फारसी वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी द्वारा शाहजहाँ की पत्नी मुमताज़ महल के लिए कब्र के रूप में बनाया गया था, जिनका अपने 14 वें बच्चे को जन्म देते हुए निधन हुआ। 1700 तक यह साम्राज्य वर्तमान भारत के प्रमुख भागों के साथ अपनी चरम पर पहुँच चुका था, औरंगजेब आलमगीर के नेतृत्व के तहत उत्तर पूर्वी राज्यों के अलावा, पंजाब की सिख भूमि, मराठाओं की भूमि, दक्षिण के क्षेत्र और अफगानिस्तान के अधिकांश क्षेत्र उनकी जागीर थे। औरंगजेब, महान तुर्क राजाओं में आखिरी थे। फारसी भोजन का जबर्दस्त प्रभाव भारतीय रसोई की परंपराओं में देखा जा सकता है जो इस अवधि में प्रारंभिक थे। मध्य-16 वीं शताब्दी और 17-वीं शताब्दी के अंत के बीच मुग़ल साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख शक्ति थी। 1526 में स्थापित, यह नाममात्र 1857 तक बचा रहा, जब वह ब्रिटिश राज द्वारा हटाया गया। यह राजवंश कभी कभी तिमुरिड राजवंश के नाम से जाना जाता है क्योंकि बाबर तैमूर का वंशज था। फ़रग़ना वादी से आए एक तुर्की मुस्लिम तिमुरिड सिपहसालार बाबर ने मुग़ल राजवंश को स्थापित किया। उन्होंने उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों पर हमला किया और दिल्ली के शासक इब्राहिम शाह लोधी को 1526 में पानीपत के पहले युद्ध में हराया। मुग़ल साम्राज्य ने उत्तरी भारत के शासकों के रूप में दिल्ली के सुल्तान का स्थान लिया। समय के साथ, उमेर द्वारा स्थापित राज्य ने दिल्ली के सुल्तान की सीमा को पार किया, अंततः भारत का एक बड़ा हिस्सा घेरा और साम्राज्य की पदवी कमाई। बाबर के बेटे हुमायूँ के शासनकाल के दौरान एक संक्षिप्त राजाए के भीतर, एक सक्षम और अपने ही अधिकार में कुशल शासक शेर शाह सूरी के अंतर्गत अफगान सूरी राजवंश का उदय देखा। हालाँकि, शेर शाह की असामयिक मृत्यु और उनके उत्तराधिकारियों की सैन्य अक्षमता ने 1555 में हुमायूँ को अपनी गद्दी हासिल करने के लिए सक्षम किया। हालाँकि, कुछ महीनों बाद हुमायूं का निधन हुआ और उनके 13 वर्षीय बेटे अकबर ने गद्दी हासिल करी। मुग़ल विस्तार का सबसे बड़ा भाग अकबर के शासनकाल के दौरान निपुण हुआ। वर्तमान भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तराधिकारि जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब द्वारा इस साम्राज्य को अगले सौ साल के लिए प्रमुख शक्ति के रूप में बनाया रखा गया था। पहले छह सम्राट, जिन्होंने दोनों "विधि सम्मत" और "रेल्" शक्तियों का आनंद लिया, उन्हें आमतौर पर सिर्फ एक ही नाम से उल्लेख करते हैं, एक शीर्षक जो प्रत्येक महाराज द्वारा अपने परिग्रहण पर अपनाई जाती थी। प्रासंगिक शीर्षक के नीचे सूची में मोटे अक्षरों में लिखा गया है। अकबर ने कतिपय महत्वपूर्ण नीतियों को शुरू किया था, जैसे की धार्मिक उदारवाद, साम्राज्य के मामलों में हिन्दुओं को शामिल करना और राजनीतिक गठबंधन/हिन्दू राजपूत जाति के साथ शादी, जो कि उनके वातावरण के लिए अभिनव थे। उन्होंने शेर शाह सूरी की कुछ नीतियों को भी अपनाया था, जैसे की अपने प्रशासन में साम्राज्य को सरकारों में विभाजित करना। इन नीतियों ने निःसंदेह शक्ति बनाए रखने में और साम्राज्य की स्थिरता में मदद की थी, इनको दो तात्कालिक उत्तराधिकारियों द्वारा संरक्षित किया गया था, लेकिन इन्हें औरंगजेब ने त्याग दिया, जिसने एक नीति अपनाई जिसमें धार्मिक सहिष्णुता का कम स्थान था। इसके अलावा औरंगजेब ने लगभग अपने पूरे जीवन-वृत्ति में डेक्कन और दक्षिण भारत में अपने दायरे का विस्तार करने की कोशिश की। इस उद्यम ने साम्राज्य के संसाधनों को बहा दिया जिससे मराठा, पंजाब के सिखों और हिन्दू राजपूतों के अंदर मजबूत प्रतिरोध उत्तेजित हुआ। औरंगजेब के शासनकाल के बाद, साम्राज्य में गिरावट हुई। बहादुर ज़फ़र शाह I के साथ शुरुआत से, मुगल सम्राटों की सत्ता में उत्तरोत्तर गिरावट आई और वे कल्पित सरदार बने, जो शुरू में विभिन्न विविध दरबारियों द्वारा और बाद में कई बढ़ते सरदारों द्वारा नियंत्रित थे। 18 वीं शताब्दी में, इस साम्राज्य ने पर्शिया के नादिर शाह और अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली जैसे हमलावरों का लूट को सहा, जिन्होंने बार बार मुग़ल राजधानी दिल्ली में लूटपाट की। भारत में इस साम्राज्य के क्षेत्रों के अधिकांश भाग को ब्रिटिश को मिलने से पहले मराठाओं को पराजित किया गया था। 1803 में, अंधे और शक्तिहीन शाह आलम II ने औपचारिक रूप से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का संरक्षण स्वीकार किया। ब्रिटिश सरकार ने पहले से ही कमजोर मुग़लोँ को "भारत के सम्राट" के बजाय "दिल्ली का राजा" कहना शुरू कर दिया था, जो 1803 में औपचारिक रूप से प्रयोग किया गया, जिसने भारतीय नरेश की ब्रिटिश सम्राट से आगे बढ़ने की असहज निहितार्थ से परहेज किया। फिर भी, कुछ दशकों के बाद, BEIC ने सम्राट के नाममात्र नौकरों के रूप में और उनके नाम पर, अपने नियंत्रण के अधीन क्षेत्रों में शासन जारी रखा, 1827 में यह शिष्टाचार भी खत्म हो गया था।सिपाही विद्रोह के कुछ विद्रोहियों ने जब शाह आलम के वंशज बहादुर जफर शाह II से अपने निष्ठा की घोषणा की, तो ब्रिटिशों ने इस संस्था को पूरी तरह समाप्त करने का निर्णय लिया। उन्होंने 1857 में अंतिम मुग़ल सम्राट को पद से गिराया और उन्हें बर्मा के लिए निर्वासित किया, जहाँ 1862 में उनकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार मुग़ल राजवंश का अंत हो गया, जिसने भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के इतिहास के लिए एक महत्वपूर्ण अध्याय का योगदान किया था। मुग़ल सम्राटों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण विवरण नीचे सारणीबद्ध है: अकबर शाह II भारतीय उपमहाद्वीप के लिए मुग़लों का प्रमुख योगदान उनकी अनूठी वास्तुकला थी। मुग़ल काल के दौरान मुस्लिम सम्राटों द्वारा ताज महल सहित कई महान स्मारक बनाए गए थे। मुस्लिम मुग़ल राजवंश ने भव्य महलों, कब्रों, मीनारों और किलों को निर्मित किया था जो आज दिल्ली, ढाका, आगरा, जयपुर, लाहौर, शेखपुरा, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के कई अन्य शहरों में खड़े हैं। उनके उत्तराधिकारियों ने, मध्य एशियाई देश के कम यादों के साथ जिसके लिए उन्होंने इंतज़ार किया, उपमहाद्वीप की संस्कृति का एक कम जानिबदार दृश्य लिया और काफी आत्मसत बने। उन्होंने कई उपमहाद्वीपों के लक्षण और प्रथा को अवशोषित किया। भारत के इतिहास में दूसरों की तुलना में मुग़ल काल ने भारतीय, ईरानी और मध्य एशिया के कलात्मक, बौद्धिक और साहित्यिक परंपरा का एक और अधिक उपयोगी का सम्मिश्रण देखा। भारतीय उपमहाद्वीप की दोनों, हिन्दू और मुस्लिम परम्पराओं, संस्कृति और शैली पर भारी प्रभाव पड़ा था। वे उपमहाद्वीप के समाजों और संस्कृति के लिए कई उल्लेखनीय बदलाव लाए, जिसमें शामिल हैं: मुग़लों के तहत कला और वास्तुकला का उल्लेखनीय कुसुमित कई कारकों के कारण है। इस साम्राज्य ने कलात्मक प्रतिभा के विकास के लिए एक सुरक्षित ढांचा प्रदान किया और इस उपमहाद्वीप के इतिहास में अद्वितीय धन और संसाधनों को बढावा दिया। स्वयं मुग़ल शासक कला के असाधारण संरक्षक थे, जिनकी बौद्धिक क्षमता और सांस्कृतिक दृष्टिकोण को सबसे परिष्कृत स्वाद में व्यक्त किया गया था। हालाँकि जिस पर उन्होंने कभी शासन किया था वह हिन्दूस्तान अब पाकिस्तान, भारत और बंगलादेश में बँट गया है, पर उनका प्रभाव आज भी व्यापक रूप से देखा जा सकता है। सम्राटों के मकबरे भारत और पाकिस्तान भर में फैले हुए हैं। इनके 160 लाख वंश, महाद्वीप और संभवतः दुनिया भर में फैले हुए हैं।