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एन॰ महालिंगम को सन 2007 में भारत सरकार द्वारा उद्योग एवं व्यापार के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये तमिलनाडु से थे। 2 अक्टूबर 2014 को लम्बी बिमारी के बाद उनका निधन हो गया।
तिलतड, पिथौरागढ तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के पिथोरागढ जिले का एक गाँव है।
ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम ने भारत का दौरा किया, 1 से 24 अक्टूबर 2010 के बीच तीन एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय और दो टेस्ट मैच खेले।
बांग्लादेश एक एकात्मक राज्य है, अतः उसकी शासन प्रणाली किसी एकमेव शक्ति के रूप में सुनियोजित है, जिसमें केन्द्रीय सरकार अन्ततः सर्वोच्च है, तथा सारी उपराष्ट्रीय इकाइयाँ और उनको प्राप्त होने वाले अधिकार केन्द्रीय सरकार के पूर्णतः अधीन हैं और केन्द्रीय सरकार के अंतर्गत् कार्य करती हैं। अतः बांग्लादेश के उपराष्ट्रीय इकाइयाँ पूर्णतः प्रशासनिक निकाय हैं, और इनका राष्ट्रीय राजनीती में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती है। बांग्लादेश की सर्वोच्च प्रशासनिक संसथान बांग्लादेश की केन्द्रीय सरकार है, जिसका मूलासन राजधानी ढाका है। बांग्लादेश को कुल 64 जिलों में विभाजित किया गया है, जिन्हें, प्रशासनिक कारणों हेतु कुल 8 प्रशासनिक अंचलों में संयोजित किया गया है, जिन्हें विभाग कहा जाता है। प्रत्येक विभाग के अंतर्गत अधिक्तम् 13 और न्यूनतम् 4 ज़िले आते हैं। इन विभागों का नाम, संभंधित विभागीय मुख्यालय के नाम पर रखा जाता है। प्रत्येक जिलों को कई उपजिलों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक जिले में औसतन 8 से 15 उपजिले होते हैं, जबकि न्यूनतम 4 और अधिक्तम् 22 उपजिले हैं। इन उपजिलों को पूर्वतः "थाना" कहा जाता था। इन तमाम उपजिलों में अनेक यूनियन परिषद् तथा नगर पालिकाएँ होते हैं। यूनियन परिषद् केवल ग्रामीण क्षेत्रों में होते है, जबकि कस्बों और नगरीय व उपनगरीय क्षेत्रों में नगर पालिकाएँ होती हैं। इनके अलावा, महानगरों में नगर निगम होते हैं, जिनपर, नगर पालिकाओं से कुछ अतिरिक्त अधिकार निहित होते हैं। इन सारे स्थानीय निकायों को संबंधित निर्वाचित अधिकारीयों के दिशानिर्देशों द्वारा चलाया जाता है।
खुड्डी शौचालय या पिट टॉयलेट एक प्रकार का शौचालय है जो जमीन पर एक गड्ढे में मानव मल एकत्र करता है. इसमें या तो पानी का इस्तेमाल नहीं होता या फ्लश वाले खुड्डी शौचालयों में प्रति फ्लश एक से तीन लीटर पानी का प्रयोग किया जाता है. उचित तरीके से निर्मित और रखरखाव किए गए शौचालय खुले में शौच करने से पर्यावरण में फैले मानव मल की मात्रा कम करके बीमारी फैलना कम कर सकते हैं. यह मल और भोजन के बीच मक्खियों द्वारा रोगाणुओं का स्थानांतरण कम करता है. ये रोगाणु संक्रामक अतिसार और आंत के कीड़े संबंधी संक्रमणों के प्रमुख कारण होते हैं. वर्ष 2011 में संक्रामक अतिसार के कारण पांच साल से कम आयु के लगभग 0.7 मिलियन बच्चों की मौत हुई और 250 मिलियन बच्चों की पढ़ाई छूट गई. गड्ढा युक्त शौचालय मल को लोगों से अलग करने के लिए सबसे कम लागत वाले उपाय हैं. एक खुड्डी शौचालय में आम तौर पर तीन मुख्य हिस्से होते हैं: जमीन पर एक गड्ढा, एक छोटे छेद वाली पटिया या फर्श, और एक आश्रय. गड्ढा विशेष रूप से कम से कम 3 मीटर गहरा और 1 मीटर चौड़ा होता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन का सुझाव है कि इन्हें आसान पहुंच बनाम दुर्गंध के मुद्दों को संतुलित करते हुए घर से एक तर्कपूर्ण दूरी पर निर्मित किया जाए. प्रदूषण के जोखिम को कम करने के लिए भूजल और ऊपरी सतह के पानी से यथासंभव दूरी होनी चाहिए. बच्चों को इसमें गिरने से बचाने के लिए स्लैब में छेद 25 सेंटीमीटर से बड़ा नहीं होना चाहिए. मक्खियों को आने नहीं देने के लिए गड्ढे में प्रकाश नहीं पहुंचने देना चाहिए. इसके लिए फर्श में छेद को ढंकने के लिए उस समय ढक्कन का प्रयोग करने की आवश्यकता हो सकती है जब इसका इस्तेमाल नहीं हो रहा हो. जब गड्ढा ऊपर से 0.5 मीटर तक भर जाता है, तो इसे या तो खाली करा देना चाहिए अथवा नया गड्ढा बनवाना चाहिए और नये स्थान पर आश्रय ले जाना चाहिए या नया बनवाना चाहिए. गड्ढे से निकाले गए मल कीचड़ का प्रबंधन जटिल होता है. यह काम यदि उपयुक्त तरीके से नहीं किया गया तो पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों को खतरा रहता है. बुनियादी खुड्डी शौचालय में कई तरीकों से सुधार किया जा सकता है. इसमें से एक तरीका है गड्ढे से लेकर ढांचे के ऊपर तक एक वेंटिलेशन पाइप जोड़ना. यह वायु प्रवाह को सुधारता है और शौचालय की दुर्गंध को कम करता है. जब पाइप का ऊपरी सिरा जाली से ढंका होता है तो यह मक्खियों को भी कम कर सकता है. इस प्रकार के शौचालयों में फर्श के छेद को ढंकने के प्रयोग होने वाले ढक्कन की आवश्यकता नहीं रहती. अन्य संभावित सुधारों में तरल पदार्थ बहकर नाली में जाने के लिए फर्श का निर्माण और स्थिरता में सुधार के लिए ईंट और सीमेंट के छल्लों से गड्ढे के ऊपरी हिस्से का सुदृढ़ीकरण शामिल है. वर्ष 2013 में अनुमानतः 1.77 बिलियन लोगों ने खुड्डी शौचालयों का उपयोग किया. इसका ज्यादातर उपयोग विकासशील विश्व के साथ ग्रामीण और जंगली इलाकों में किया गया. वर्ष 2011 में लगभग 2.5 बिलियन लोगों की पहुंच उपयुक्त शौचालय तक नहीं थी और एक बिलियन लोग अपने आस-पास के क्षेत्रों में खुले में शौच करने जाते थे. दक्षिण एशिया और उप-सहारा वाले अफ्रीका की शौचालयों तक पहुंच सबसे बुरी थी. विकासशील देशों में एक साधारण खुड्डी शौचालय की लागत आम तौर पर 25 से 60 अमेरिकी डॉलर आती है. चालू हालत में शौचालय के रखरखाव की लागत 1.5 से 4 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष आती है जिसपर अक्सर विचार नहीं किया जाता. ग्रामीण भारत के कुछ हिस्सों में महिलाओं को ऐसे व्यक्ति से विवाह करने से इनकार करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए शौचालयों को बढ़ावा देने के लिए "शौचालय नहीं, दुल्हन नहीं" अभियान चलाया गया है.
26 जुलाई, 2008 को अहमदाबाद में 90 मिनट के भीतर सोलह बम विस्फोट किए गए। इन विस्फोटो मे 38 लोग के मारे गए और लगभग लोग घायल हुए।
निर्देशांक: 27°30′N 79°24′E / 27.5°N 79.4°E / 27.5; 79.4 ऊगर पुर फर्रुखाबाद, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है।
जिप्सी शलभ लेपिडॉप्टेरीय कीट है, जो लाइमैनट्राइडी कुल के अंतर्गत आता है। इस कुल के अंतर्गत कुछ बड़े भयंकर कीट भी पाए जाते हैं। ये शलभ मध्यम आकार के होते हैं। इनकी टाँगें घने बालों से ढँकी रहती हैं। इस कुल के शलभ प्राय: रात्रि में उड़नेवाले होते हैं, परंतु कुछ दिन में भी उड़ते हैं। जिप्सी शलभ के वयस्क नर का रंग भूरा होता है, जिसमें कुछ पीले निशान होते हैं जो डेढ़ इंच तक फैले होते है। दिन में यह स्वच्छंदता से उड़ता है। मादा शलभ के पंख, जिनपर काले निशान होते हैं, लगभग सफेद होते हैं। इसका शरीर भारी और पुष्ट होता है तथा पांडु रंग के बालों से ढँका रहता है। पंख लगभग दो इंच तक फैले होते हैं, परंतु ऐसे विकसित पंखों के होते हुए भी ये शरीर के भारीपन के कारण उड़तीं नहीं। मादा जाड़े में अंडाकार गुच्छों में अंडे देती है, जो पांडु बालों से ढँके होते हैं। प्रत्येक गुच्छे में 400-500 अंडे होते हैं। अंडे देने के लिए मादा स्थान के चयन पर कोई विशेष ध्यान नहीं देती। ये स्थान वृक्ष की शाखाएँ, धड़, घड़ों के कोटर, पत्थर और टिन के डिब्बे तक हो सकते हैं। वसंत में अंडों के फूटने पर इल्लियाँ निकल आती हैं। इल्लियाँ अनेक प्रकार की पत्तियाँ खाती हैं। सेब, बांज, विलो, अल्डर और बर्च की पत्तियाँ इन्हें विशेष प्रिय हैं। इस प्रकार खाते खाते इल्लियाँ जुलाई के प्रारंभ तक काफी बड़ी हो जात हैं। अब तक इल्लियों का आकार लगभग तीन इंच लंबा और पेंसिल सा मोटा हो जाता है। ये भूरे रंग की होती हैं और इनके शरीर के कुछ भाग पर गुच्छेदार बाल होते हैं। इनकी पीठ पर पाँच जोड़ी नीले धब्बे होते हैं, जिनके पीछे छह जोड़े लाल धब्बे होते हैं। भोजन के पश्चात् इल्लियाँ किसी वृक्ष की शाखा, या तने के भीतर, उपयुक्त स्थान में चली जाती हैं। वहाँ पर वे अपने शरीर को पकड़ रखने के लिए कुछ तागों का कोया बुनती हैं। इसी कोए में इल्लियाँ प्यूपा बनती हैं और सात से 17 दिनों के पश्चात् शलभ के रूप में निकल आती हैं। शलभों का वितरण चार प्रकार से होता है : शलभों द्वारा गंभीर हानियाँ होती हैं। इल्लियाँ बड़ी पेटू होती हैं और यदि इनकी संख्या अधिक हो, तो ये वृक्षों और सदाबहार की पत्तियों को खोकर कुछ वर्षों में वृक्षों को सुखा देती हैं। इल्लियों को नष्ट करने के दो तरीके हैं : प्राकृतिक रीतियों से, यद्यपि अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं, तथापि इल्लियाँ समूल नष्ट नहीं होतीं। कृत्रिम रीतियाँ निम्नलिखित हैं :
युद्धपोत एक ऐसा जलयान है जिसका निर्माण युद्ध करने के लिए किया गया हो। युद्धपोतों का निर्माण आमतौर पर व्यापारिक जलयानों से पूर्णतया भिन्न रूप से होता है। सशस्त्र होने के साथ ही साथ युद्धपोत की रचना उसको होने वाली क्षति को सहने के लिए भी की जाती है, साथ ही वे व्यापारिक जलयानों की तुलना में अधिक तेज तथा आसानी से मुड़ सकने वाले होते हैं। एक व्यापारिक जलयान के विपरीत, एक युद्धपोत आमतौर पर केवल अपने स्वयं के चालक दल के लिए हथियार, गोला बारूद, तथा आपूर्ति को ढोता है . युद्धपोत आमतौर पर नौसेना की संपत्ति होते हैं, हालांकि कभ-कभी कुछ व्यक्तियों अथवा कंपनियों द्वारा भी इन्हें रखा जाता है। युद्ध के समय में, युद्धपोतों और व्यापारिक जहाज़ों के बीच का अंतर अक्सर अस्पष्ट हो जाता है। युद्ध के समय में व्यापारिक जहाज़ अक्सर सशस्त्र रहते हैं तथा सहायक युद्धपोतों के रूप में प्रयोग किये जाते हैं, उदाहरण के लिए प्रथम विश्व युद्ध के क्यू-शिप्स तथा द्वितीय विश्व युद्ध के सशस्त्र व्यापारिक क्रूज़र्स. 17वीं शताब्दी तक यह आम था कि व्यापारिक जलयानों को नौसैनिक सेवा में प्रयोग किया जाये तथा यह भी असामान्य नहीं था कि नौसैनिक बेड़े में आधे से अधिक व्यापारिक जलयान शामिल हों. 19वीं सदी में समुद्री डकैतों के खतरे के समाप्त होने तक बड़े व्यापारिक जलयानों, जैसे गैलियंस को सशस्त्र रखना एक आम प्रथा थी। युद्धपोतों का प्रयोग सैन्य टुकड़ियों के वाहक अथवा रसद सामग्री पहुंचाने वाले जलयान के रूप में भी किया जाता था, जैसा कि फ्रांसीसी नौसेना 18वीं सदी में अथवा जापानी नौसेना द्वितीय विश्वयुद्ध के समय करती थीं। मेसोपोटामिया, प्राचीन फारस, प्राचीन ग्रीस, तथा रोमन साम्राज्य के समय में गैली सर्वाधिक प्रचलित प्रकार के युद्धपोत होते थे, यह एक लम्बा, संकरा जलयान होता था जिसे मल्लाहों की कतारों के द्वारा शक्ति मिलती थी, इसका डिज़ाइन शत्रु के जलयान से टकरा कर उसे डुबाने के लिए होता था, अथवा यह शत्रु के बराबर आकर चलता था जिससे उनपर आमने-सामने आक्रमण किया जा सकता था। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में गुलेलों के विकास तथा इसकी प्रौद्योगिकी में शोधन के साथ ही हेलेनिस्टिक युग से तोपखाने से लैस युद्धपोत के पहले बेड़ों का विकास हुआ। दूसरी और पहली सदी ई.पू. में भूमध्य सागर में राजनीतिक एकीकरण के साथ, नौसैनिक तोपखाने प्रयोग से बाहर हो गए। बाद की एंटिक्विटी तथा मध्यकाल में 16वीं सदी तक नौसैनिक युद्ध जलयानों पर ही आधारित थे, इनका प्रयोग से टक्कर मार कर, चालक दल की तलवारों तथा विभिन्न प्रक्षेपास्त्रों, जैसे धनुष व बाण तथा जलयान के परकोटे पर लगे भारी क्रॉसबो से छोड़े गए तीरों की सहायता से युद्ध लड़े जाते थे। नौसैनिक युद्ध में मुख्य रूप से टक्कर मारना तथा बोर्डिंग क्रियाएं शामिल थीं इसलिए युद्धपोतों को विशिष्ट रूप से विशेषीकृत होने की आवश्यकता नहीं होती थी। 14वीं सदी में नौसैनिक तोपखाना पुनः विकसित हुआ परन्तु समुद्र में तोपें विशेष प्रचलित नहीं हो पायीं जब तक कि उन्हें पुनः भर कर उसी युद्ध में दोबारा दागे जाने लायक नहीं बना लिया गया। बड़ी संख्या में तोपें ले जा सकने लायक जलयान के आकार के कारण नौका-आधारित प्रणोदन असंभव हो गया था, एवं इसीलिए युद्धपोत मुख्य रूप से पालों पर आधारित थे। 16वीं सदी के दौरान पाल आधारित मैन-ऑफ-वार का प्रादुर्भाव हुआ। 17वीं शताब्दी के मध्य तक युद्धपोतों के दोनों ओर ब्रॉडसाइड पर लगाई जाने वाली तोपों की संख्या बढ़ती जा रही थी, तथा युद्धक्षेत्र में प्रत्येक युद्धपोत की मारक क्षमता के पूर्ण प्रयोग की युद्धनीतियों का विकास हो रहा था। मैन-ऑफ-वार अब शिप ऑफ दि लाइन के रूप में विकसित हो चुका था। 18वीं सदी में फ्रिगेट तथा स्लूप-ऑफ-वार - जो अपने छोटे आकार के कारण युद्ध क्षेत्र के लिए अनुपयुक्त थे - व्यापारिक जलयानों के काफिले के साथ चलते थे, शत्रु के जलयानों की सूचना देते थे तथा शत्रु के समुद्र तट की नाकाबंदी करते थे। 19वीं सदी के दौरान प्रणोदन, आयुध और युद्धपोतों के निर्माण में एक क्रांति आ गयी। भाप के इंजन प्रकाश में आ गए, शुरुआत में 19वीं सदी के दूसरे चौथाई भाग में वे सहायक शक्तिस्रोत के रूप में थे। क्रीमियाई युद्ध ने तोपों के विकास को बहुत अधिक उद्दीप्त किया। विस्फोटक गोलों की शुरूआत के कारण बड़े युद्धपोतों के दोनों ओर तथा डेक पर आर्मर के लिए पहले लोहे तथा फिर इस्पात का प्रयोग किया जाने लगा। पहले लौह आच्छादित युद्धपोतों, फ़्रांसिसी ग्लोएर तथा ब्रिटिश वॉरियर ने, लकड़ी से बने जलयानों को प्रचलन से बाहर कर दिया। धातु ने जल्दी ही युद्धपोत निर्माण के लिए मुख्य सामग्री के रूप में लकड़ी की जगह ले ली। 1850 के दशक से भाप की शक्ति से चलने वाले युद्धपोतों ने पाल से चलने वाले जलयानों की जगह ले ली, जबकि पाल से चलने वाली फ्रिगेट्स के स्थान पर भाप की शक्ति से चलने वाले क्रूज़र्स आ गए।घूम सकने वाले बारबेट तथा टरेट के आविष्कार ने युद्धपोतों के आयुध को भी बदल दिया, अब तोपों को जलयान के दिशा के सापेक्ष स्वतन्त्र रूप से निशाना लगाने के लिए प्रयोग किया जा सकता था तथा अब बड़ी तोपों की कम संख्या को ढोने की आवश्यकता थी। 19वीं सदी के दौरान आखिरी बड़ी नवीनता टौरपीडो तथा टौरपीडो नौकाओं का विकास था। छोटे, तेज टारपीडो नौकाएं महंगे युद्धपोतों के बेड़े बनाने का विकल्प उपलब्ध कराती थीं। युद्धपोत डिजाइन में एक और क्रांति सदी के अंत के शीघ्र बाद हुई, जब ब्रिटेन ने 1906 में सभी-बड़ी-तोपों-वाले युद्धपोत ड्रेडनॉट का जलावतरण किया। भाप की टर्बाइन से चालित, सभी तत्कालीन युद्धपोतों से, जिन्हें इसने उसी क्षण प्रचलन से बाहर कर दिया, यह बड़ा, तेज तथा भारी तोपों से लैस था। अन्य देशों में शीघ्रता से ऐसे ही जलयान बनाये जाने लगे। ब्रिटेन ने पहले बैटलक्रूज़र का विकास भी किया। ड्रेडनॉट जैसी ही भारी तोपों के साथ और बड़े हल वाले बैटलक्रूज़र को गति पाने के लिए आर्मर की सुरक्षा का परित्याग करना पड़ा. बैटलक्रूज़र सभी तत्कालीन क्रूज़र की तुलना में अधिक तेज तथा शक्तिशाली थे, जिन्हें उसने प्रचलन से बाहर कर दिया, परन्तु बैटलक्रूज़र तत्कालीन युद्धपोतों की तुलना में कहीं अधिक असुरक्षित थे। टारपीडो नाव विध्वंसक का विकास भी ड्रेडनॉट के समकालीन ही किया गया था। ये विध्वंसक टौरपीडो नौकाओं से बड़े, तेज तथा अधिक बड़ी तोपों से लैस थे, इनका विकास मुख्य जलयानों को टौरपीडो नौकाओं से बचाने के लिए किया गया था। द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभ होने से पहले जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन एक बार फिर से अटलांटिक सागर की दो सबसे बड़ी शक्तियों के रूप में उभरे. वरसाइल्स की संधि के अंतर्गत जर्मनी की नौसेना कुछ छोटे जलयानों तक ही सीमित थी। लेकिन चतुराईपूर्ण नामों, जैसे "पॉकेट युद्धपोत" जैसे नामों ने ब्रिटिश तथा फ़्रांसिसी कमानों को धोखे में डाले रखा। वे बेरुखी आश्चर्य में पड़ गए जब जलयानों, जैसे एडमिरल ग्राफ स्पी, स्कार्नहोर्स्ट तथा नीसेनाऊ आदि मित्र राष्ट्रों की आपूर्ति श्रृंखलाओं पर लगातार आक्रमण करते रहे। सबसे बड़ा खतरा हालांकि क्रीग्समरीन के सबसे खतरनाक हथियारों - बिस्मार्क तथा टिरपित्ज़ - का प्रस्तुत होना था। बिस्मार्क को उत्तरी अटलांटिक में एक भीषण तथा मुठभेड़ की एक छोटी श्रृंखला में डुबा दिया गया, जबकि टिरपित्ज़ को आरएएफ द्वारा डुबाये जाने से पहले उसने हलचल उत्पन्न की थी। 1943 तक यूरोपियन समाज में रॉयल नौसेना का दबदबा कायम हो गया था। द्वितीय विश्व युद्ध ने युद्धपोतों की डिजाइन तथा भूमिका में भारी परिवर्तन किया। पहली बार, नौसैनिक कार्य दल में विमानवाही जहाज मुख्य जलयान की भूमिका में पहली पसंद बन गयी। इतिहास में द्वितीय विश्व युद्ध एकमात्र ऐसा युद्ध है जिसमें विमानवाही जहाजों के समूहों के बीच अनेक लड़ाइयां हुई थीं। द्वितीय विश्व युद्ध में ही रडार का इस्तेमाल पहली बार देखा गया। इसमें पहली बार ऐसी नौसैनिक लड़ाई भी देखी गयी जिसमें दोनों पक्षों के जलयानों ने कभी भी सीधे न लड़ते हुए विमानों को भेज कर हमले किये, जैसा कि कोरल सागर की लड़ाई में हुआ। पहली व्यावहारिक पनडुब्बी 19वीं शताब्दी के अंत में बनायी गयी थी, परन्तु पनडुब्बियां टौरपीडो के विकास के बाद वास्तव में खतरनाक हो गयीं। पनडुब्बियों ने प्रथम विश्व युद्ध के अंत तक अपनी क्षमता साबित कर दी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन नौसेना के पनडुब्बी बेड़े की यू-बोट्स ने ब्रिटेन को समर्पण की कगार तक पराजित कर दिया था साथ ही संयुक्त राष्ट्र के तटीय जलयानों को भी बड़ी क्षति पहुंचाई थी।पनडुब्बियों की सफलता ने प्रथम तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पनडुब्बी-रोधी कॉन्वॉय एस्कॉर्ट्स के विकास का मार्ग प्रशस्त किया, जैसे कि विध्वंसक एस्कॉर्ट. भ्रमपूर्ण ढंग से, इन नए प्रकारों के नाम पाल युग के छोटे युद्धपोतों से लिए गए हैं, जैसे कौर्वेट, स्लूप तथा फ्रिगेट. नौसैनिक युद्ध में एक प्रमुख बदलाव विमानवाही जहाज के आने से पैदा हुआ। सर्वप्रथम टारान्टो में और उसके पश्चात पर्ल हार्बर में, विमानवाही जहाज ने शत्रु के जलयानों पर, जो सतह पर चलने वाले जहाजों के दृश्य क्षेत्र व परास के बाहर थे, निर्णायक हमला करने की अपनी क्षमता का परिचय दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक, विमानवाही जहाज प्रमुख युद्धपोत बन गया था। आधुनिक युद्धपोत आमतौर पर सात मुख्य श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं, ये हैं: विमानवाही जहाज, क्रूज़र्स, विध्वंसक, फ्रिगेट्स, कौर्वेट्स, पनडुब्बियां तथा एम्फिबियस एसौल्ट जलयान. बैटलशिप का आठवां वर्ग हो सकता है, लेकिन वर्तमान में दुनिया की किसी भी नौसेना में प्रयोग में नहीं है। सिर्फ अमेरिकी निष्क्रिय लोवा-श्रेणी के बैटलशिप अभी भी मौजूद हैं जिन्हें कॉम्बैटैंट कहा जा सकता है, तथा सामान्य रूप से बैटलशिप का बिना पुनर्परिभाषित हुए जलयानों की एक श्रेणी के रूप में फिर से शामिल करना कठिन लगता है। विध्वंसक को आमतौर से सबसे आधुनिक समुद्री नौसेनाओं का सबसे प्रमुख सतह पर चलने वाला युद्धपोत माना जा सकता है। हालांकि, ध्यान देने की बात है क्रूज़र्स, विध्वंसक, फ्रिगेट्स तथा कौर्वेट्स, जिनकी विशिष्ट भूमिकाएं तथा आकार होते थे, जो अब धुंधली पड़ चुकी हैं। ज्यादातर जहाज़ सतह, पनडुब्बी और विमान रोधी हथियारों के मिश्रण के साथ सशस्त्र होने लगे हैं। अब वर्ग पदनाम विश्वसनीय रूप से विस्थापन अनुक्रम को इंगित नहीं करते हैं, तथा जलयानों का आकार 20वीं शताब्दी में प्रतिपादित की गयी परिभाषाओं से कहीं अधिक बढ़ चुका है। पुराने और आधुनिक जहाज़ों के बीच एक और महत्वपूर्ण अंतर यह है कि सभी आधुनिक युद्धपोत "सॉफ्ट" होते हैं, उनमें द्वितीय विश्वयुद्ध तथा उससे भी पुरानी डिजाइनों में पाया जाने वाला मोटा आर्मर तथा उभरी हुई टौरपीडो रोधी सुरक्षा का आभाव होता है। अधिकांश नौसेनाओं में अनेक प्रकार के सहायता तथा सहायक जलयान भी सम्मिलित होते हैं, जैसे माइनस्वीपर, गश्ती नौकाएं तथा ऑफशोर गश्ती जलयान.
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बालसुब्रह्मण्य राजम अइयर को सन 2003 में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ये तमिलनाडु राज्य से हैं।
853 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 853 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 853 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
पोटासियम ब्रोमाइड एक अकार्बनिक यौगिक है।
गणतन्त्र दिवस भारत का एक राष्ट्रीय पर्व है जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन् 1950 को भारत सरकार अधिनियम को हटाकर भारत का संविधान लागू किया गया था।एक स्वतंत्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिए संविधान को 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे एक लोकतांत्रिक सरकार प्रणाली के साथ लागू किया गया था। 26 जनवरी को इसलिए चुना गया था क्योंकि 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था। यह भारत के तीन राष्ट्रीय अवकाशों में से एक है, अन्य दो स्‍वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती हैं। सन् 1929 के दिसंबर में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार 26 जनवरी 1930 तक भारत को स्वायत्तयोपनिवेश का पद नहीं प्रदान करेगी, जिसके तहत भारत ब्रिटिश साम्राज्य में ही स्वशासित एकाई बन जाता, तो भारत अपने को पूर्णतः स्वतंत्र घोषित कर देगा। 26 जनवरी 1930 तक जब अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। इसके पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन 15 अगस्त को भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया। भारत के आज़ाद हो जाने के बाद संविधान सभा की घोषणा हुई और इसने अपना कार्य 9 दिसम्बर 1947 से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। डॉ0 भीमराव आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, डॉ राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। संविधान निर्माण में कुल 22 समितीयां थी जिसमें प्रारूप समिति सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण समिति थी और इस समिति का कार्य संपूर्ण ‘संविधान लिखना’ या ‘निर्माण करना’ था। प्रारूप समिति के अध्यक्ष विधिवेत्ता डॉ0 भीमराव आंबेडकर थे। प्रारूप समिति ने और उसमें विशेष रूप से डॉ. आंबेडकर जी ने 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में भारतीय संविधान का निर्माण किया और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को 26 नवम्बर 1949 को भारत का संविधान सुपूर्द किया, इसलिए 26 नवम्बर दिवस को भारत में संविधान दिवस के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाता है। संविधान सभा ने संविधान निर्माण के समय कुल 114 दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी। अनेक सुधारों और बदलावों के बाद सभा के 308 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को संविधान की दो हस्तलिखित कॉपियों पर हस्ताक्षर किये। इसके दो दिन बाद संविधान 26 जनवरी को यह देश भर में लागू हो गया। 26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए इसी दिन संविधान निर्मात्री सभा द्वारा स्वीकृत संविधान में भारत के गणतंत्र स्वरूप को मान्यता प्रदान की गई। 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस समारोह पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारतीय राष्ट्र ध्वज को फहराया जाता हैं और इसके बाद सामूहिक रूप में खड़े होकर राष्ट्रगान गाया जाता है। गणतंत्र दिवस को पूरे देश में विशेष रूप से भारत की राजधानी दिल्ली में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस अवसर के महत्व को चिह्नित करने के लिए हर साल एक भव्य परेड इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक राजपथ पर राजधानी, नई दिल्ली में आयोजित किया जाता है। इस भव्य परेड में भारतीय सेना के विभिन्न रेजिमेंट, वायुसेना, नौसेना आदि सभी भाग लेते हैं। इस समारोह में भाग लेने के लिए देश के सभी हिस्सों से राष्ट्रीय कडेट कोर व विभिन्न विद्यालयों से बच्चे आते हैं, समारोह में भाग लेना एक सम्मान की बात होती है। परेड प्रारंभ करते हुए प्रधानमंत्री अमर जवान ज्योति जो राजपथ के एक छोर पर इंडिया गेट पर स्थित है पर पुष्प माला डालते हैं| इसके बाद शहीद सैनिकों की स्मृति में दो मिनट मौन रखा जाता है। यह देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए लड़े युद्ध व स्वतंत्रता आंदोलन में देश के लिए बलिदान देने वाले शहीदों के बलिदान का एक स्मारक है। इसके बाद प्रधानमंत्री, अन्य व्यक्तियों के साथ राजपथ पर स्थित मंच तक आते हैं, राष्ट्रपति बाद में अवसर के मुख्य अतिथि के साथ आते हैं। परेड में विभिन्न राज्यों की प्रदर्शनी भी होती हैं, प्रदर्शनी में हर राज्य के लोगों की विशेषता, उनके लोक गीत व कला का दृश्यचित्र प्रस्तुत किया जाता है। हर प्रदर्शिनी भारत की विविधता व सांस्कृतिक समृद्धि प्रदर्शित करती है। परेड और जुलूस राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रसारित होता है और देश के हर कोने में करोड़ों दर्शकों के द्वारा देखा जाता है।2014 में, भारत के 64वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर, महाराष्ट्र सरकार के प्रोटोकॉल विभाग ने पहली बार मुंबई के मरीन ड्राईव पर परेड आयोजित की, जैसी हर वर्ष नई दिल्ली में राजपथ में होती है। भारतीय गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथियों की सूची: रात में चमकता हुआ राष्ट्रपति भवन। भारतीय वायु सेना की हवाई कलाबाजी प्रदर्शन टीम तिरंगा प्रदर्शित करते हुए। गणतंत्र दिवस पर सीमा सुरक्षा बल के जवान। गणतंत्र दिवस से जुड़े रोचक तथ्य और दिलचस्प बातें भारत का संविधान एक लिखित संविधान है।
गादिक्स गिरजाघर जा गादिक्स का बड़ा गिरजाघर एक रोमन कैथोलिक गिरजाघर है। ये स्पेन में ग्रानादा प्रान्त के गादिक्स शहर में स्थित है। इसका निर्माण 16 वीं सदी में शुरू हुआ और 18 वीं सदी में समाप्त हुआ। ये बरोक शैली में बना हुआ है। गादिक्स को बिशप की सबसे पुरानी सीट माना जाता है। एक परंपरा के अनुसार माना जाता है कि यह अकी के तरुस द्वारा पहली सदी में शहर की नींव रखी. ये चर्च हिस्पानो- विसिगोथिक चर्च की जगह पर स्थित है। मुस्लिम अवधि के दौरान यह एक मस्जिद में तब्दील कर लिया। रिकोन्किऊस्त के दौरान गादिक्स को 1489 में इसाई फौजों द्बारा अधीन कर लिया गया और हिस्पानो- विसिगोथिक को दुबारा गिरजाघर बनाया गया। इसे सेंट मेरी का गिरजाघर का नाम दिया गया। इसे पोप इनोसेंट आठवां के अधीन गिरजाघर बनया गया। सिका पुनर्निर्माण गोथिक शैली में किया गया। डिएगो डी सिलोए को इसका डिजाइन विकसित करने के लिए 1549 में ये काम सोंपा गया। इसका डिजाइन मलागा गिरजाघर और ग्रानादा गिरजाघर से प्रभावित था। डिएगो डी सिलोए के इलावा फ्रासिसको अंतेरो और फ्रांसिस्को रोलान्दो ने भी इसके निर्माण में खास योगदान किया। डिएगो डी सिलोए ने इसके चैपल का निर्माण किया।
287 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 287 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 287 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते हैं।
मनोहर सिंह जी प्रद्युम्न सिंह जी जाड़ेजा एक भारतीय राजकोट शाही घराने के ठाकुर और राजनीतिज्ञ थे। मनोहरसिंहजी का जन्म 14वें ठाकुर साहब प्रद्युमसिंहजी लखजीराजसिंहजी के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में राजकोट के रणजीत विलास महल में हुआ था। उन्होंने राजकुमार कालेज, राजकोट, और एलफिंस्टन महाविद्यालय, मुंबई से शिक्षा प्राप्त किया। मनोहरसिंहजी के पास कला स्नातक के साथ कानून स्नातक की डिग्री थी। उन्होंने कानून से मास्टर डिग्री लंदन विश्वविद्यालय से प्राप्त की। अपने पिता और दादा, की तरह मनोहरसिंहजी क्रिकेट में उत्सुक थे, और अपने प्रथम श्रेणी करियर की शुरुआत सौराष्ट्र की तरफ से गुजरात के खिलाफ 1955-56 रणजी ट्रॉफी, से की थी, जहां उन्होंने अपनी पहली पारी में 59 रन बनाये थे। मनोहरसिंहजी 1957-58 सत्र में टीम के कप्तान के रूप में रहें, और 1963-64 सत्र के बाद उनकी सेवानिवृत्ति के पहले तक टीम के एक नियमित खिलाड़ी रहें। आमतौर पर शीर्ष क्रम के बल्लेबाज के रूप में, उनका उच्चतम प्रथम श्रेणी स्कोर दिसंबर 1957 में गुजरात के खिलाफ एक पारी में 144 रन था। कुल मिलाकर, मनोहरसिंहजी ने 14 प्रथम श्रेणी मैचों में 29.23 के औसत से 614 रन बनाये थे। 1967 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की तरफ से राजकोट निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लडते हुए मनोहरसिंहजी गुजरात विधान सभा के लिये निर्वाचित हुए, और 1971 सेवा में रहे। नवंबर में 1973 में उनके पिता की मृत्यु के बाद, उन्होंने पुस्तैनी उपाधि "ठाकुर साहब" का धारण किया। हालांकि 1947 में भारत की आजादी के बाद से यह उपाधि कोई अतिरिक्त अधिकार या विशेषाधिकार नहीं रखती थी, और यह केवल एक शिष्टाचार, के रूप में सम्बोधित किया जाता था, हालांकि सारी शाही संपत्ति इसी उपाधि के साथ संलग्न रहती है। मनोहरसिंहजी आगे दो बार राजकोट निर्वाचन क्षेत्र से -1980 से 1985 और 1990 से 1995- के बीच गुजरात विधानसभा के सदस्य रहे और इसी दौरान उन्हें कैबिनेट में, वित्त मंत्री, युवा कल्याण, और स्वास्थ्य मंत्री सहित पद दिये गये। 1998 से, वे गुजरात प्रदेश कांग्रेस समिति के उपाध्यक्ष भी रहे। मनोहरसिंहजी राजनीतिक में अपने वंशवादी नाम के वजाय, आम तौर पर "मनोहरसिंहजी जाड़ेजा" के नाम से जाने जाते थे। मनोहरसिंहजी का विवाह 1949 में अलवर के महाराजा तेज सिंह प्रभाकर की सुपुत्री मनकुमारी देवी साहिबा से हुआ था, और उनके एक पुत्र और तीन पुत्रियाँ भी हैं। नवम्बर 2010 में उन्होंने एक रोल्स रॉयस कार जिसे "भारत का सितारा" कहा जाता है, खरीदा, जोकि 1934 में उनके दादा धर्मेंद्रसिंहजी लखजीराज के लिये बनवाया गया था। कार, बिल मेरेडिथ-ओवेन्स' संग्रहालय के एक भाग के रूप में होने के कारण 42 वर्षो से परिवार से दूर रहा था। इसे कभी दुनिया की सबसे महंगी कारों में गिना जाता था। मनोहरसिंहजी का 27 सितंबर 2018 को अपने निवास रंजीत विलास पैलेस पर निधन हो गया।
शैलेश मटियानी आधुनिक हिन्दी साहित्य-जगत् में नयी कहानी आन्दोलन के दौर के कहानीकार एवं प्रसिद्ध गद्यकार थे। उन्होंने 'बोरीवली से बोरीबन्दर' तथा 'मुठभेड़', जैसे उपन्यास, चील, अर्धांगिनी जैसी कहानियों के साथ ही अनेक निबंध तथा प्रेरणादायक संस्मरण भी लिखे हैं। उनके हिन्दी साहित्य के प्रति प्रेरणादायक समर्पण व उत्कृष्ट रचनाओं के फलस्वरूप आज भी उत्तराखण्ड सरकार द्वारा उत्तराखण्ड राज्य में पुरस्कार का वितरण होता है। शैलेश मटियानी का जन्म उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँ क्षेत्र के अन्तर्गत अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना नामक गाँव में 14 अक्टूबर 1931 में हुआ था। उनका मूल नाम रमेशचन्द्र सिंह मटियानी था। बारह वर्ष की अवस्था में उनके माता-पिता का देहांत हो गया था, तब वे पाँचवीं कक्षा में पढ़ते थे, तदुपरान्त अपने चाचा लोगों के संरक्षण में रहे। किन्हीं कारणों से निरन्तर विद्याध्ययन में व्यवधान पड़ गया और पढ़ाई रुक गई। इस बीच उन्हें बूचड़खाने तथा जुए की नाल उघाने का काम करना पड़ा। पाँच साल बाद 17 वर्ष की उम्र में उन्होंने फिर से पढ़ना शुरु किया। विकट परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की तथा रोजगार की तलाश में पैत्रिक गाँव छोड़कर 1951 में दिल्ली आ गये। यहाँ वे 'अमर कहानी' के संपादक, आचार्य ओमप्रकाश गुप्ता के यहाॅं रहने लगे। तबतक 'अमर कहानी' और 'रंगमहल' से उनकी कहानी प्रकाशित हो चुकी थी। इसके बाद वे इलाहाबाद गये। उन्होंने मुज़फ़्फ़र नगर में भी काम किया। दिल्ली आकर कुछ समय रहने के बाद वे बंबई चले गए। फिर पाँच-छह वर्षों तक उन्हें कई कठिन अनुभवों से गुजरना पड़ा। 1956 में श्रीकृष्ण पुरी हाउस में काम मिला जहाँ वे अगले साढ़े तीन साल तक रहे और अपना लेखन जारी रखा। बंबई से फिर अल्मोड़ा और दिल्ली होते हुए वे इलाहाबाद आ गये और कई वर्षों तक वहीं रहे। 1992 में छोटे पुत्र की मृत्यु के बाद उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। जीवन के अंतिम वर्षों में वे हल्द्वानी आ गए। विक्षिप्तता की स्थिति में उनकी मृत्यु दिल्ली के शहादरा अस्पताल में हुई। 1950 से ही उन्होंने कविताएें और कहानियां लिखनी शुरू कर दी थी। शुरु में वे रमेश मटियानी 'शैलेश' नाम से लिखते थे। उनकी आरंभिक कहानियां 'रंगमहल' और 'अमर कहानी' पत्रिका में प्रकाशित हुई। उन्होंने 'अमर कहानी' के लिए 'शक्ति ही जीवन है' और 'दोराहा' नामक लघु उपन्यास भी लिखा। उनका पहला कहानी संग्रह 'मेरी तैंतीस कहानियां' 1961 में प्रकाशित हुआ। उनकी कहानियों में 'डब्बू मलंग', 'रहमतुल्ला', 'पोस्टमैन', 'प्यास और पत्थर', 'दो दुखों का एक सुख', 'चील', 'अर्द्धांगिनी', ' जुलूस', 'महाभोज', 'भविष्य' और 'मिट्टी' आदि विशेष उल्लेखनीय है। कहानी के साथ ही उन्होंने कई प्रसिद्ध उपन्यास भी लिखा। उनके कई निबंध संग्रह एवं संस्मरण भी प्रकाशित हुए। उन्होंने 'विकल्प' और 'जनपक्ष' नामक दो पत्रिकाएँ निकाली। उनके पत्र 'लेखक और संवेदना' में संकलित हैं।
मानव और मानव निर्मित यंत्रो की परस्पर क्रिया जिसमें मानव यंत्रों से और अधिक लाभ प्राप्त करता है, का तकनीकी शिक्षा में अध्ययन किया जाता है।
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एडवर्ड थार्नडाइक यूएसए के मनोवैज्ञानिक एवं थे जिहोने लगभग अपना पूरा जीवन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शिक्षक महाविद्यालय में बिताया। 'पशु व्यवहार' एवं 'सीखने की प्रक्रिया' पर उनका कार्य के आधार पर ही आधुनिक शैक्षिक मनोविज्ञान की वैज्ञानिक नीव पड़ी। उन्होने औद्योगिक समस्याओं के समाधान की दिशा में भी कार्य किया । वे मनोवैज्ञानिक कॉर्पोरेशन के बोर्ड के सदस्य थे तथा सन् 1912 में अमेरिकन मनोवैज्ञानिक संघ के अध्यक्ष भी रहे। एडवर्ड थार्नडाइक 31 अगस्त 1874 को विलियम्सबर्ग में उत्पन्न हुए। पशु मनोविज्ञान के गंभीर अध्ययन के अतिरिक्त थार्नडाइक ने सीखने की प्रक्रिया में मानसिक व्यवहार, थकान और पठनक्षमता तथा अन्य कारकों की परीक्षणविधियों के अविष्कार में महत्वपूर्ण योगदान किया। थार्नडाइक ने प्रौढ़शिक्षा अभियान को एक नया और वैज्ञानिक रूप प्रदान किया। मनोवैज्ञानिक परीक्षण की अपनी विधियों द्वारा उसने सीखने की क्षमता और पूर्वार्जित ज्ञान मे भेद स्पष्ट किया और इसमें उसका नाम अग्रगण्य है। 1899 से 1940 तक वह कोलंबिया विश्वविद्यालय के टीचर्स कालेज से संबद्ध रहा। शिक्षा संबंधी विचारों तथा उसकी व्यावहारिकता पर उसकी कृतियों का विशेष प्रभाव पड़ा। 9 अगस्त 1949 को न्यूयार्क में उसकी मृत्यु हुई। उसकी कृतियों में "एडूकेशनल साइकॉलजी", "एनीमल इंटेलीजेंस", "द साइकालजी ऑव लर्निंग", "द मेजरमेंट ऑव इंटेलीजेंस", "फंडामेंटल्स ऑव लर्निंग", "ह्यूमन नेचर ऐंड द सोशल आर्डर" के नाम उल्लेखनीय हैं।
चौबोला या चौबोल उत्तर भारत और पाकिस्तान की काव्य परम्परा में प्रयोग होने वाली चार पंक्तियों की एक छंद शैली है, जो अक्सर लोक-गीत में प्रयोग की जाती है। चौबोलों का प्रयोग अक्सर नौटंकियों में होता है और इसके कुछ अच्छे उदाहरण 'सुल्ताना डाकू नौटंकी' में मिलते हैं। मिसाल के लिए एक दृश्य में सुल्ताना अपनी प्रेमिका को समझाता है कि वह ग़रीबों की सहायता करने के लिए पैदा हुआ है और इसीलिए अमीरों को लूटता है। उसकी प्रेमिका कहती है कि उसे सुल्ताना की वीरता पर नाज़ है : प्रसिद्ध उर्दू नाटक इंदर सभा के एक दृश्य में देवताओं के राजा इन्द्र अपने दरबार में प्रवेश करते हैं और एक चौबोले में कहते हैं कि: بِن پریوں کی دید کے مُجهے نهیں آراممیرا سنگلدیپ میں مُلکوں مُلکوں راججی میرا هے چاہتا کی جلسہ دیکهوں آج ‎ राजा हूँ मैं क़ौम का और इंदर मेरा नामबिन परियों की दीद के मुझे नहीं आराममेरा संगलदीप में मुल्कों-मुल्कों राजजी मेरा है चाहता कि जलसा देखूँ आज
1331 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है।
भारत का मंत्रिमण्डल भारत सरकार का सामूहिक निर्णय लेने वाली परिषद् होती है। इसमें प्रधानमंत्री और अन्य सभी कैबिनेट मंत्री शामिल होते हैं। सभी मंत्री नई दिल्ली स्थित सम्बंधित केंद्रीय मंत्रालयों में बैठते हैं। भारत के संविधान के अनुसार सभी मंत्री आवश्यक रूप से सांसद होने चाहिए। भारत में मंत्रियों की तीन श्रेणियाँ होती हैं: यह सूची भारत सरकार के वर्तमान मंत्रियों की है: नरेन्द्र मोदी
अरबी रेगिस्तान पश्चिमी एशिया में स्थित एक विशाल रेगिस्तान है जो दक्षिण में यमन से लेकर उत्तर में फ़ारस की खाड़ी तक और पूर्व में ओमान से लेकर पश्चिम में जोर्डन और इराक़ तक फैला हुआ है। अरबी प्रायद्वीप का अधिकाँश भाग इस रेगिस्तान में आता है और इस मरुस्थल का कुल क्षेत्रफल 23.3 लाख किमी2 है, यानि पूरे भारत के क्षेत्रफल का लगभग 70%। इसके बीच में रुब अल-ख़ाली नाम का इलाक़ा है जो विश्व का सबसे विस्तृत रेतीला क्षेत्र है। अरबी रेगिस्तान का वातावरण बहुत कठोर है। दिन में यहाँ अत्यंत गर्मी और सूरज का प्रकोप रहता है और रात में तापमान कभी-कभी शुन्य से भी नीचे गिर जाता है। इस वजह से यहाँ जीव विविधता काफ़ी कम है, हालांकि यहाँ ग़ज़ल और ओरिक्स जैसे हिरण, रेत बिल्ली और कांटेदार दुम वाली गिरगिट जैसे प्राणी रहते हैं। यहाँ कभी धारीदार लकड़बग्घा, सियार और बिज्जू भी मिलते थे लेकिन अनियंत्रित शिकार और अन्य मानवी गतिविधियों से वह यहाँ विलुप्त हो चुके हैं। इस क्षेत्र की धरती के रूप विविध हैं। लाल रेत के टीले, लावा की विस्तृत चट्टानें, शुष्क पहाड़ी शृंखलाएँ, सूखी वादियाँ और ऐसे रेतीले क्षेत्र जिसमें चलने वाले दलदल की तरह अन्दर धंसकर डूब जाते हैं - सभी इस रेगिस्तान में मौजूद हैं। अरबी रेगिस्तान का अधिकतर हिस्सा सउदी अरब में आता है, हलाकि इसका कुछ अंश मिस्र के सीनाई प्रायद्वीप, दक्षिण इराक़ और दक्षिणी जोर्डन में भी फैला हुआ है। यहाँ के लोग मुख्य रूप से अरब जाति के हैं, जिसमें शहरों-बस्तियों में रहने वाले और ख़ानाबदोश बदुइन लोग दोनों शामिल हैं। धार्मिक दृष्टि से यहाँ के लगभग सभी लोग इस्लाम के अनुयायी हैं, हालांकि कुछ ईसाई भी बसते हैं। लगभग सभी स्थानीय लोग अरबी भाषा बोलते हैं।
एनटीटी डोकोमो, इन्कार्पोरेशन जापान में प्रमुख मोबाइल फोन ऑपरेटर है। डोकोमो नाम आधिकारिक तौर पर वाक्यांश "do communications over the mobile network" का एक संक्षिप्त नाम है और एक यौगिक शब्द डोकोमो जिसका अर्थ जापानी भाषा में सर्वत्र है। डोकोमो फोन, वीडियो फोन, आई-मोड और मेल सेवायें प्रदान करता है।
मीणा अथवा मीना मुख्यतया भारत के राजस्थान व मध्य प्रदेशराज्यों में निवास करने वाली एक जनजाति है। इन्हे वैदिक युग के मत्स्य गणराज्य के मत्स्य जन-जाति का वंशज कहा जाता है, जो कि छठी शताब्दी ईसापूर्व में पल्लवित हुये। मीणा भारत कि अनुसूचित जन जाति वर्ग से संबन्धित है व राजस्थान राज्य में वे सभी हिन्दू हैं, परंतु मध्य प्रदेश में मीणा विदिशा जिले कि सिरोंज तहसील में अनुसूचित जन जाति में सम्मिलित है जबकि मध्य प्रदेश के अन्य 44 जिलों में वे अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आते हैं। वर्तमान में भारत कि केंद्र सरकार के समक्ष यह प्रस्ताव रखा गया है कि मध्य प्रदेश की समूची मीणा जाति को भारत की अनुसूचित जन जाति के रूप में मान्यता दी जाए।। पुराणों के अनुसार चैत्र शुक्ला तृतीया को कृतमाला नदी के जल से मत्स्य भगवान प्रकट हुए थे। इस दिन को मीणा समाज में जहाँ एक ओर मत्स्य जयन्ती के रूप में मनाया जाता है, वहीं दूसरी ओर इसी दिन संम्पूर्ण राजस्थान में गणगौर का त्योहार बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। डोङिया • खोंड • भोई • राठवा •
मदुरै नायक राजवंश का राजा।
चुम्बकीय धारुक या चुम्बकीय बेयरिंग ऐसा बेयरिंग है जो किसी शैफ्ट को चुम्बकीय बलों के द्वारा एक अक्ष पर बनाये रखता है। चुम्बकीय बीयरिंग बिना किसी भौतिक-सम्पर्क के ही चलायमान अवयवों को एक सीमा में धारण किये रहते हैं। इस कारण चुम्बकीय बेयरिंग सबसे अधिक गति से चलने वाले शैफ्टों आदि को भी धारण करने में सक्षम हैं। मोटे तौर पर चुम्बकीय बेयरिंग दो तरह के होते हैं-
अराम शाह मध्य कालीन भारत में ग़ुलाम वंश का एक शासक एवं दिल्ली का दूसरा सुल्तान था। उसने केवल एक वर्ष ही शासन किया।
प्राचीन काल से चले आ रहे यहूदी त्योहार इजराइल में बड़े पैमाने पर और विभिन्न तरह से मनाए जाते हैं। ये त्योहार वहां के पारंपरिक और गैर-पारंपरिक रीति-रिवाजों में परिलक्षित होते हैं और राष्ट्रीय जीवन के विविध पहलुओं पर अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। यहूदी त्योहार वे मील के पत्थर हैं, जिनसे इजराइली लोग अपने गुजरे हुए वर्षों को गिनते हैं। ये त्योहार बहुत हद तक रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा होते हैं : गली-मुहल्लों से लेकर स्कूलों, सिनेगॉग और देश भर के घरों तक में। यह इजराइल में साप्ताहिक विश्राम का दिन है, जो शनिवार को मनाया जाता है। इस दिन इजराइली पूरा वक्त परिवार और दोस्तों के बीच गुजारते हैं। सार्वजनिक यातायात और कारोबार बंद रहते हैं। जरूरी सेवाएं नाम मात्र के स्टाफ पर निर्भर रहती हैं। ज्यादा से ज्यादा सैनिकों को छुट्टी दे दी जाती है। दूसरे धर्मों के ज्यादातर लोग साप्ताहिक छुट्टी का लुत्फ समुद्र तटों, मनोरंजन की जगहों और घर के बाहर अन्य कार्यक्रमों के जरिए उठाते हैं। यहूदी श्रद्धालु इस दिन कई घंटे उत्सव संबंधी खानपान और सिनेगॉग सर्विस में बिताते हैं। वे इस दिन यात्रा करने से बचते हैं और बिजली के उपकरणों का इस्तेमाल नहीं करते। यह यहूदी नववर्ष को चिह्नित करता है। इसकी उत्पत्ति बाइबल से जुड़ी है : एक पवित्र अवसर जो जोरदार धमाकों के साथ मनाया जाता है। रोश हशाना शब्द रैबिनिकल है, जिसका जिक्र साल की शुरुआत के रूप में आता है। इस त्योहार के प्रसंग हैं : प्रायश्चित, दैवीय फैसले के दिन की तैयारी और लाभदायक साल के लिए प्रार्थना। यह दो दिवसीय त्योहार यहूदी कैलंडर में 1-2 तिशरी को मनाया जाता है, जो अंग्रेजी कैलंडर के मुताबिक आमतौर पर सितंबर में पड़ता है। सभी यहूदी त्योहारों की तरह यह भी पिछली शाम से शुरू हो जाता है। रोश हशाना की मुख्य रस्मों में लंबे समय तक चलने वाली एक सिनेगॉग सर्विस के बीच शोफर बजाना और नए साल की खुशी में घरों में तरह-तरह के पकवान बनाना शामिल है। कई मायनों में इजराइल नया साल रोश हशाना से शुरू होता है। सरकारी प्रपत्रों, अखबारों और प्रसारणों में सबसे पहले यहूदी तारीख का जिक्र होता है। रोश हशाना के आठ दिन बाद आने वाला योम किपूर प्रायश्चित, दैवी फैसले और आत्माओं के कष्ट का दिन होता है, ताकि व्यक्तियों के पाप धोए जा सकें। यह उपवास का एक मात्र दिन है, जिसका निर्देश बाइबल में है। यह अपने बुरे कर्मों को गिनने और अपनी खामियों पर विचार करने का दिन होता है। एक यहूदी से इस दिन अपेक्षा की जाती है कि वह आदमी और ईश्वर के बीच के पापों को क्षमा करने के लिए प्रार्थना करे और अपने साथियों के प्रति किए गए गलत कामों को सुधारे। योम किपूर की प्रमुख रस्मों - लंबी भक्ति सेवाएं और 25 घंटे का उपवास- का पालन अन्य धर्मों के लोग भी करते हैं। लोकप्रियता के लिहाज से यह सबसे बड़ा त्योहार है। इस दिन देश 25 घंटों के लिए पूरी तरह से ठहर जाता है। मनोरंजन के स्थान बंद रहते हैं। टीवी और रेडियो का प्रसारण नहीं होता, खबरों तक का नहीं। सार्वजनिक यातायात स्थगित रहता है। यहां तक की सड़कें भी पूरी तरह बंद हो जाती हैं। 1973 के युद्ध की स्मृति के कारण इजराइल में योम किपूर के खास मायने भी हैं। इसी दिन मिस्र और सीरिया ने इजराइल पर अचानक हमला बोल दिया था। बाइबल में इसका वर्णन फीस्ट ऑफ टैबरनेकल्स के रूप में किया गया है। यह योम किपूर के पांच दिन बाद आता है। सुकौत उन तीन त्योहारों में से है, जो यरुशलम के टेंपल की सामूहिक तीर्थयात्रा के साथमनाए जाते थे और इसीलिए जिन्हें अब तीर्थ त्यौहार के तौर पर जाना जाता है। यहूदी सुकौत को मिस्र से पलायन या एक्सॉडस की स्मृति में मनाते हैं और अच्छी फसल के लिए शुक्रिया अदा करते हैं। कुछ समुदायों में यह चैग हासिफ के रूप में भी मनाया जाता है, जहां दूसरी फसल की कटाई, शरद फलों का भंडारण, खेती के सीजन की शुरुआत और पहली बारिश- इस त्योहार के प्रसंग होते हैं। योम किपूर और सुकौत के बीच के पांच दिनों में हजारों गृहस्थ और कारोबारी अपने यहां सुकोत खड़ा करते हैं। ये उन रेगिस्तानी बूथों के प्रतीक होते हैं, जिनमें मिस्र से पलायन के बाद इजराइली रहते थे। इनमें खजूर के पत्ते, नींबू, मेंहदी और विलो की शाखाएं सजाई जाती हैं, जिनसे प्रार्थना की रस्में भी अदा की जाती हैं। देश भर में - पार्किंग की जगहों, बालकनी, छतों, गलियारों और सार्वजनिक स्थलों पर - हर जगह सुकोत नजर आते हैं। कोई ऐसा सैन्य अड्डा नहीं होता, जहां सुकोत न हो। कुछ श्रद्धालु, त्योहार और उसके बाद के छह दिन अपने सुकोत में रहकर बिताते हैं, जबकि ज्यादातर लोग वहां सिर्फ भोजन करते हैं। इजराइल में सुकोत का हॉलिडे वाला हिस्सा एक ही दिन के लिए मनाया जाता है, जबकि प्रवासी समुदाय इसे दो दिनों तक मनाता है। प्रार्थना सर्विस अतिरिक्त प्रार्थनाओं के साथ संपन्न होती है, जिनमें हल्लेल भी शामिल होता है। उत्सव वाले दिन के बाद भी सुकोत का आयोजन जारी रहता है, हालांकि इस दौरान पवित्रता या शुद्धता का बंधन कम हो जाता है, जैसाकि तोरा में निर्देशित है। इस बीच के सप्ताह-आधा उत्सवपूर्ण, आधा सामान्य- के दौरान स्कूल बंद रहते हैं और कारोबार या तो बंद होते हैं या फिर काम के घंटे कम हो जाते हैं। ज्यादातर इजराइली सुकोत और पासोवर के दिन मनोरंजक स्थलों पर बिताते हैं। इस विशेष हफ्ते और हॉलिडे सीजन का समापन शेमिनी अत्सेरेट पर होता है, जिससे सिमहट तोरा को जोड़ा जाता है। शेमिनी अत्सेरेट या सिमहट तोरा उत्सव का फोकस तोरा पर ही होता है। इस दौरान लोग बांहों में तोरा स्क्रॉल के साथ सामूहिक नृत्य करते हैं और तोरा के शुरुआती और आखिरी अध्यायों का पाठ करते हैं। अंधेरा होने के बाद भी कई समुदाय जश्न जारी रखते हैं, जो प्रायः घर के बाहर मनाए जाते हैं। इस दौरान विधि-विधान की वे पाबंदियां नहीं होतीं, जो पवित्र दिन में लागू होती हैं। 25 किसलेव को शुरू होने वाला हनुका ग्रीक शासकों पर यहूदियों की जीत के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस जीत को दो रूपों में देखा जाता है : शक्तिशाली ग्रीस के खिलाफ छोटे यहूदी राष्ट्र की भौतिक जीत और यूनानियों के हेलेनिज्म के खिलाफ यहूदी आस्था की आध्यात्मिक जीत। त्योहार की पवित्रता जीत के आध्यात्मिक पहलू और तेल की कुप्पी के चमत्कार से जुड़ी है। वह चमत्कार, जब टेंपल के कैंडल को एक दिन के लिए जलाने के लिए रखे गए जैतून के तेल से वह आठ दिनों तक जलता रहा। हनुका इजराइल में और प्रवासियों में भी आठ दिनों तक मनाया जाता है। इस त्योहार का सबसे खास लक्षण हर शाम मोमबत्तियां जलाना है। मंदिर में हुए चमत्कार की तर्ज पर पहली रात एक, दूसरी रात दो, तीसरी रात तीन और इसी तरह आठवीं रात तक। हनुक्का का संदेश इजराइल की पुनः कायम की गई संप्रभुता पर जोर देता है। इसकी रस्में प्रवासियों के बीच भी कायम हैं। इस मौके पर एक खास तरह का चौकोर लट्टू उपहार में दिए जाने का चलन है। इस पर हिब्रू में चार अक्षर लिखे होते हैं, जो इस संदेश को दर्शाते हैं, एक बड़ा चमत्कार यहां हुआ। प्रवासियों के लिए इन अक्षरों का मतलब होता है, एक बड़ा चमत्कार वहां हुआ। इस दौरान हफ्ते भर के लिए स्कूल बंद होते हैं, लेकिन कारोबार और दफ्तर खुले रहते हैं। यह शेवत के पंद्रवें दिन मनाया जाता है, जिसे यहूदी धार्मिक स्रोतों में फलदार वृक्षों का नया साल कहा गया है। इसमें विधि-विधान नहीं के बराबर होते हैं। लेकिन इसने एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष अवसर का रूप ले लिया है, जब लोग खासकर स्कूली बच्चे पेड़-पौधे लगाते हैं। यह एक ऐसे दिन के तौर पर आता है, जब यहूदी नैशनल फंड और स्थानीय अधिकारियों द्वारा बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाता है। इस महीने हालांकि ठंड रहती है, पर फलदार वृक्षों में फूल लगने लगते हैं। शुरूआत बादाम के पेड़ों से होती है। एक अन्य यहूदी त्योहार जो बसंत के शुरू में 14 अदर को पड़ता है। यह अर्टैक्सरेक्सेज के अधीन पर्सियन साम्राज्य में यहूदियों की मुक्ति के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। स्क्रॉल ऑफ इस्टर में इसका वर्णन है। यह हंसी-खुशी और आनंद का त्योहार है। इस दिन स्कूल बंद रहते हैं। हर तरफ उत्सव का माहौल होता है। पुरिम के दिन अप्रैल फूल की तर्ज पर अखबारों में नकली खबरेंया अफवाहें देखी जा सकती हैं। हंसीखुशी के बीच स्क्रॉल ऑफ इस्टर का पाठ होता है, जिसमें जब कभी खलनायक हमैन का जिक्र आता है, लोग खूब शोर मचाते हैं। जो पारंपरिक किस्म के लोग हैं, वे इस दिन संयम के साथ मद्यपान करते हैं, सुबह-शाम एस्थर का पाठ करते हैं, गरीबों को दान देते हैं, एक दूसरे को उपहार देते हैं और अच्छा खान-पान करते हैं। वसंत में मनाया जाने वाला यह त्योहार 15 निसान को शुरू होता है। यह मिस्र से पलायन और बंधनों से आजादी के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस त्योहार के पीछे स्वतंत्रता की प्रबल भावना है। पासोवर की रस्में त्यौहार से काफी पहले शुरू हो जाती हैं। इस दौरान लोग अपने घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की सफाई करते हैं। त्योहार के एक दिन पहले तैयारी की रस्में होती हैं। इनमें मनाही वाले खाद्य पदार्थों को समारोहपूर्वक जलाया जाता है। त्योहार की शाम सेदर होता है, जिसमें परिवार के अलग हुए सदस्य हगादा पढ़ने के लिए एकत्र होते हैं और पारंपरिक व्यंजनों खासतौर पर मात्जा का लुत्फ उठाते हैं। अगले दिन के रिवाज अन्य तीर्थ त्योहारों जैसे ही होते हैं। पासोवर, यॉम किपर के बाद ऐसा त्योहार है, जिसे गैर यहूदी भी मनाते हैं। इसके अलावा कुछ समुदायों के बीच त्योहार के कृषि महत्व से जुड़ीं कुछ रस्में मनाने का भी चलन है। इसे एक वसंत उत्सव, आजादी के त्योहार और पहली फसल की कटाई के तौर पर देखा जाता है। पासोवर में एक अन्य इंटरमीडिएटसप्ताह, जिस दौरान अतिरिक्त प्रार्थनाएं होती हैं और उल्लास का माहौल कायम रहता है। यह एक अन्य समारोहपूर्ण दिन के साथ खत्म होता है। पासोवर के बाद एक हफ्ते से भी कम समय में इजराइल के लोग उन साठ लाख यहूदी शहीदों को याद करते हैं, जो होलोकॉस्ट में नाजियों के हाथों मारे गए। इस दिन सामूहिक शोक के आधुनिक संस्कार और खास समारोह आयोजित किए जाते हैं। सुबह 10 बजे एक सायरन बजाया जाता है और पूरा राष्ट्र दो मिनट का मौन रखता है। यह दिन शहीदों को याद करने और कभी न भूलने के लिए दूसरों को याद दिलाने की भावना पर जोर देता है। यह एक हफ्ते बाद उन लोगों के सम्मान में मनाया जाता है, जो इजराइल राज्य की स्थापना के संघर्ष और इसकी रक्षा में मारे गए। स्मृति दिवस की शाम को 8 बजे और अगले दिन सुबह 11 बजे सायरन बजने पर दो मिनट का मौन रखा जाता है। यह अवसर होता है, जब पूरा राष्ट्र अपने उन बेटे-बेटियों के प्रति चिरस्थायी आभार व्यक्त करता है, जिन्होंने देश की आजादी हासिल करने और उसे बचाए रखने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। यह स्मृति दिवस के ठीक अगले दिन पड़ता है। इसे इज+राइल की स्थापना की घोषणा की वर्षगांठ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भी इजराइल की स्थापना के संघर्ष में मारे गए शहीदों को याद किया जाता है। चूंकि यह कोई बहुत पुराना समारोह नहीं है, इसलिए यह उन जीवित लोगों के लिए काफी मायने रखता है, जिन्होंने शारीरिक और सक्रिय रूप से नए राज्य के गठन और उसकी रक्षा के लिए संघर्ष में हिस्सा लिया और उन तमाम बदलावों के साक्षी बने जो 1948 के बाद हुए। स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर नगरपालिकाएं जन समारोह कराती हैं। लाउड स्पीकरों पर लोकप्रिय संगीत बजते हैं स्वतंत्रता दिवस पर कई नागरिक, आजादी की जंग के मैदानों को देखने के मकसद से ग्रामीण इलाकों का रुख करते हैं, शहीदों के स्मारकों का दौरा करते हैं और पिकनिक पर जाते हैं। इस दिन साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिए जाते हैं। यहूदी युवाओं के लिए अंतरराष्ट्रीय बाइबल प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। सैन्य अड्डे अवाम के लिए खुले होते हैं। एयरफोर्स और नेवी की प्रदर्शनियां आयोजित होती हैं। यह पासोवर और शवौत के बीच के सप्ताहों की गिनती में 33 वें दिन पड़ता है। यह बच्चों के उत्सव के रूप में लोकप्रिय है। इस दौरान विशाल बोनफायर देखे जा सकते हैं। यह रोम के खिलाफ बार-कोचबा बगावत के दौरान की घटनाओं के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। यह 28 वें ईयार को मनाया जाता है, जो शवौत से करीब एक सप्ताह पहले पड़ता है। यह 1967 में यरुशलम के पुनः एकीकरण के उपलक्ष्य में मनाया जाता है, जो करीब 19 सालों तक कंक्रीट की दीवारों और तारों के बाड़ से बंटा रहा। इस दिन इजराइलियों को याद दिलाया जाता है कि यरुशलम यहूदियों के इतिहास, प्राचीन गौरव, आध्यात्मिक सिद्धि और आधुनिक उद्धार का केंद्रबिंदु है। इस दिन कुछ सिनेगॉग में हल्लेल का वाचन होता है। यहूदी साल की शुरुआत से गणना करें तो यह आखिरी तीर्थ त्योहार पासोवर के सात सप्ताह बाद पड़ता है। यह जौ की कटाई के बाद और गेंहू की कटाई के शुरू में पड़ता है। बाइबल में इस अवसर को सप्ताहों का त्योहार बताया गया है। इसकी गणना पासोवर से शुरू होती है और इसे एक ऐसे अवसर के रूप में देखा जाता है, जब नई फसल का अनाज और फल मंदिर के पुजारियों को पेश किया जाता है। धर्मग्रंथ स्रोतों से जुड़ी इसकी एक अतिरिक्त परिभाषा चली आई हैः माउंट सिनाई पर तोरा दिए जाने की वर्षगांठ। शवौत धर्मपरायण और शास्त्रों के अनुसार चलने वाले लोगों के बीच मनाया जाता है। इस दौरान यरुशलम में लंबे समय तक धार्मिक पाठ होता है और वेस्टर्न वाल पर भारी संख्या में लोग पूजा में शरीक होते हैं। किबुत्जिम में इसे नई फसल की चरम अवस्था और पहले फल के पकने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इनमें फसलों या फलों की वे सात प्रजातियां शामिल हैं, जिनका जिक्र बाइबल में मिलता है : गेहूं, जौ, अंगूर, अंजीर, अनार, जैतून, खजूर। द नाइन्थ ऑफ एव ;जुलाई या अगस्त के आसपासद्ध : यह पहले और दूसरे टेंपल के विध्वंस की वर्षगांठ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन वियोग या संताप के कई नियम प्रचलन में हैं। पूरे दिन उपवास के अलावा योम किपूर के दौरान प्रचलित आत्मत्याग के कई उपायों का भी पालन होता है। जातीय समुदायों के अपने अतिरिक्त समारोह और विधि-विधान होते हैं। कुछ मशहूर समारोहों में मिमौना शामिल है, जो मोरक्को के यहूदियों के लिए खास होता है। पासोवर के एक दिन बाद यह प्रकृति के पुर्ननवीकरण और उसके आशीर्वाद के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। कुर्द यहूदियों का सहारना सुकोत के बाद मनाया जाता है और कुर्दिस्तान के यहूदियों के लिए राष्ट्रीय छुट्टी का दिन होता है। एक अन्य पर्व है सिग्द, जो यूथोपिया के यहूदी समुदाय के लिए छुट्टी का दिन होता है। नवंबर में मनाए जाने वाले इस समारोह की शुरुआत यूथोपिया में जियॉन के लिए कष्ट के इजहार के तौर पर हुई थी और आज इजराइल में उनके आभार के तौर पर जारी है। इस तरह, अपनी विविध जनसंख्या और बहुरंगी जीवनशैली व नजरिए के साथ इजराइल में यहूदी त्योहारों का चक्र चलता रहता है। ये त्योहार ऐसे लोक रिवाजों से मनाए जाते हैं, जो देश के यहूदीत्व और यहूदी धर्म के केंद्रीय तत्वों को रेखांकित करते हैं।
बौद्धिक सम्पदा अधिकार मस्तिष्क की उपज हैं और इनमे सबसे महत्वपूर्ण हैं - पेटेंट। पेटेंटी, पेटेंट का उल्लंघन करने वाले तरीके या उत्पाद के निर्माण को न्यायालय द्वारा रूकवा सकता है। बहुत से लोग यह कहते हैं कि पेटेंट तकनीक को आगे बढाता हैं पर बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि इस युग में पेटेंट तकनीक की प्रगति पर बाधा पहुंचा रहा है। इसलिये य‍ह जरूरी है कि हम पेटेंट को समझें और देखें कि वह हमारे देश की उन्नति में बाधा न बने। ‘पेटेंट’ का शब्द, लैटिन के शब्द Lilterae Patents से आया है। पेटेंट का अर्थ है ‘खुला’ और Lilterae Patents का शाब्दिक अर्थ है या खुले पत्र। पुराने जमाने में शासको या सरकारों के द्वारा पदवी‚ हक‚ विशेष अधिकार पत्र के द्वारा दिया जाता है। यह शासकीय दस्तावेज होता था और इन्हे चूंकि सार्वजनिक रूप से दिया जाता था, इसलिए यह हमेशा ‘खुले’ रहते थे। यूरोप में 6वीं शताब्‍दी में से इस तरह के पत्र दिये जाते थे। यह शासक की ओर से विदेशी भूमि की खोज तथा उस पर विजय के लिये जारी किये जाते थे। आजकल पेटेंट शब्द का प्रयोग आविष्कारों के संबंध में होता है। इस तरह का प्रयोग पहली बार 15वीं शताब्दी के आस-पास आया। सर्वप्रथम, पेटेंट कानून जैसा इसे आज समझा जाता हैं, 14 मार्च 1474 को वियाना सिनेट के द्वारा को पारित किया गया। पेटेंट‚ आविष्कारकों को अनन्य अधिकार देता है। यह बहुत जल्दी इटली से यूरोप के अन्य देशों तक फैल गया। जिन देशों के पास प्रौद्योगिकी नहीं थी, उन्होंने प्रौद्योगिकी को स्थापित करने के लिए विदेशी आविष्कारकों को पेटेंट देना शुरू कर दिया। इंगलैंड में पहले इसकी अवधि नहीं थी पर ब्रिटिश संसद ने 1623 में नया कानून बनाकर इसे 14 वर्षो तक सीमित कर दिया। अमेरिका के संविधान के अनुच्छेद 1 अनुभाग 8 के अन्तर्गत अमेरिकी कॉग्रेस को विज्ञान और कलाओं की प्रगति के लिये कानून बनाने का अधिकार है। इस परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस ने 1790 में पहला पेटेंट कानून पारित किया। फ्रान्स ने इसके अगले वर्ष पेटेंट कानून बनाया। 19वीं शताब्दी के अंत तक अनेक देशों ने अपना पेटेंट कानून बनाया। भारतवर्ष में पेटेंट कानून का इतिहासभारतवर्ष में पहला पेटेंट सम्बन्धित कानून, 1856 में पारित अधिनियम था। इसे 25 फरवरी‚ 1856 को गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त हो गयी थी पर यह कानून 1857 में अधिनियम सं. 9 के द्वारा इसलिये खारिज कर दिया गया कि इसे बनाने के पूर्व इंगलैंड की महारानी की मंजूरी नहीं प्राप्त की गयी थी। नये अविष्कार के उत्पादकों को प्रोत्साहित करने के लिये 1859 में, अधिनियम सं. 15 पारित किया। बाद में यह Inventions and Designs Act 1888 के द्वारा प्रतिस्थपित कर दिया गया। इसके बाद 1911 में Indian Patents and Designs Act 1911 आया। 1967 में भारत सरकार ने पार्लियामेंट में पेटैंट बिल पेश किया जो Patent Act 1970 के रूप में पास हुआ। पेटेंट अधिनियम को तीन बार संशोधित किया गया है। कुछ संशोधन तो ट्रिप्स के मुताबिक कानून बनाने के लिये किये गये और कुछ अपने अधिकारों को सुरक्षित करने के लिये किये गये। यह संशोधन निम्न हैं, प्रत्येक देश का अपना पेटेंट कानून है। साधारण तौर पर आविष्कारको को प्रत्येक देश में पेटेंट के लिए आवेदन देना आवश्यक है, जहां वे अपने आविष्कारों का प्रयोग करना चाहते हैं। हर देश में अलग अलग आवेदन पत्र देना कठिन कार्य है। इस प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए निम्न अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास किये गये हैं। अविष्कार की सही ओर प्रथम घोषणा करने के एवज में राज्य निश्चित अवधि के लिए पेटेंट देते हैं। राज्य को नए अविष्कार की जानकारी मिल जाती है व पेटेंट धारक को निश्चित अवधि के लिए एक्सव अधिकार | पेटेंट आविष्कारों के लिए दिया जाता है। ‘आविष्कार’ का अर्थ उस प्रक्रिया या उत्पाद से है, जो कि औद्योगिक उपयोजन के योग्य है। अविष्कार नवीन एवं उपयोगी होना चाहिये तथा इसको उस समय की तकनीक की जानकारी में अगला कदम होना चाहिए। यह आविष्कार उस कला में कुशल व्यक्ति के लिए स्पष्ट भी नहीं होना चाहिये। आविष्कार को भारत के पेटेंट अधिनियम की धारा 3 के प्रकाश में भी देखा जाना चाहिये। यह धारा परिभाषित करती है कि क्या आविष्कार नहीं होते हैं। किसी बात को आविष्कार तब तक नहीं कहा जा सकता है जब तक वह नवीन न हो। यदि किसी बात का पूर्वानुमान किसी प्रकाशित दस्तावेज के द्वारा किया जा सकता था या पेटेंट आवेदन के प्रस्तुत करने के पूर्व विश्व में और कहीं प्रयोग किया जा सकता था तो इसे नवीन नहीं कहा जा सकता। यदि कोई बात सार्वजनिक क्षेत्र में है या पूर्व कला के भाग की तरह उपलब्ध है तो उसे भी आविष्कार नहीं कहा जा सकता। भारत देश में परमाणु उर्जा से सम्बन्धित आविष्कारों का पेटें‍ट नहीं कराया जा सकता है। पेटेंट एक सम्पत्ति है जो कि विरासत में प्राप्त की जा सकती है। पेटेंटी उसे किसी और को दे सकता है, या बन्धक रख सकता है। यदि दूसरे लोगों ने यदि पेटें‍टी से लाइसेंस न लिया हो तो, पेटेंटी उन्हें अपने पेटेंट का प्रयोग करने से या उसका विक्रय करने से रोक सकता है। उसे अधिकार है कि वह लाइसेंस के द्वारा दूसरे लोगों को यह कार्य करने के लिये अनुमति दे और इसके लिये वह रॉयल्टी भी ले सकता है। यदि कोई व्यक्ति, पेटेंटी से बिना लाइसेंस लिए या उसके पेटेंट का अनाधिकृत प्रयोग करता है तो पेटेंटी उस पर हर्जाने का मुकदमा या injunction का मुकदमा दायर कर उचित अनुतोष प्राप्त कर सकता है। ट्रिप्स, ट्रेड मार्क या कॉपीराईट के उल्लंघन के मामलों में दाण्डिक प्रक्रियाओं एवं शास्तियों का प्रावधान बनाने के लिए सदस्यों को कहता है लेकिन पेटेंट के उल्लंघन के लिए नहीं। हमने भी पेटेंट का उल्लंघन करने वाले के लिये दाण्डिक अभियोजन का उपबन्ध नहीं किया है। हां झूठ बोलकर पेटेंट प्राप्त करने पर दाण्डिक अभियोजन की बात अवश्य है। पेटेंट से जुड़े कुछ मुद्दे विवादस्पद हैं इनमे से कुछ निम्नलिखित हैं।
निर्देशांक: 24°25′N 76°34′E / 24.42°N 76.57°E / 24.42; 76.57 अकलेरा कस्बा राजस्थान के झालावाड जिले में स्थित है। यह तहसील मुख्यालय है। जिला मुख्यालय झालावाड से लगभग 55 किलोमीटर दूर है। विधानसभा क्षेत्र मनोहरथाना लगता है। रेलवे लाइन अभी नहीं है लेकिन कार्य चल रहा है और 2010 तक पूर्ण होना संभावित है। प्राचीनकाल में अमीर अली ठग ने इस कस्बे को बसाया था। भीमगड, काकोनी यहाँ के मुख्य पर्यटन स्थल है। अकलेरा 24.42° उत्तरी अक्षांश 76.57° पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। मानक समुद्र तल से ऊचाई 309 मीटर है। पश्चिम- आमेठा पूर्व - सारथल तारजउत्तर - ल्हास कलांदक्षिण - सेमली, गादिया जयपुर-जबलपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित।विभिन्न शहरों से दूरी-
पहाड़ी खाना भारत के पहाड़ी राज्यों, विशेषकर [[उत्तराखण्ड राबडु चौंसा लोकप्रिय व्यंजन है राबडु प्राय छाय को गरम करके उसमें चावल डाल कर पकाया जाता है तथा पकने पर उसमें लहसन व कुटी ॥मिर्च कूट कर डाल दी जाती है तथा पकने पर उसमें मूली के पत्ते भी काट कर डाल दिए जाते हैं पंजाबी • उत्तर प्रदेश • राजस्थानी • मुगलई -पहाड़ी • बिहारी • बंगाली • कश्मीरी केरल • तमिल • आंध्र प्रदेश • कर्नाटक • हैदराबाद उड़ीसा • छत्तीसगढ़ • आदिवासी-झारखंड, उड़ीसा सिक्किम • असमिया • त्रिपुरी • नागा गोआ • गुजराती • मराठी • मालवानी/कोंकणी • पारसी इंडो-चाइनीज • फास्ट-फूड · नेपाली • महाद्वीपीय खाना मिठाइयां एवं डेजर्ट
स्कायफॉल 2012 में बनी जेम्स बॉन्ड फ़िल्म श्रंखला की तेइस्वीं फ़िल्म है जिसमें डैनियल क्रैग ने जेम्स बॉन्ड कि भुमिका निभाई है। हिंदी, तमिल, तेलुगू, रूसी और यूक्रेनी डबिंग क्रेडिट्स सबूत। स्कायफॉल इंटरनेट मूवी डेटाबेस पर
ईश्वरगंज उपजिला, बांग्लादेश का एक उपज़िला है, जोकी बांग्लादेश में तृतीय स्तर का प्रशासनिक अंचल होता है । यह मय़मनसिंह विभाग के जमालपुर ज़िले का एक उपजिला है। इसमें, ज़िला सदर समेत, कुल 7 उपज़िले हैं। यह बांग्लादेश की राजधानी ढाका से उत्तर की दिशा में अवस्थित है। यह मुख्यतः एक ग्रामीण क्षेत्र है, और अधिकांश आबादी ग्राम्य इलाकों में रहती है। यहाँ की आधिकारिक स्तर की भाषाएँ बांग्ला और अंग्रेज़ी है। तथा बांग्लादेश के किसी भी अन्य क्षेत्र की तरह ही, यहाँ की भी प्रमुख मौखिक भाषा और मातृभाषा बांग्ला है। बंगाली के अलावा अंग्रेज़ी भाषा भी कई लोगों द्वारा जानी और समझी जाती है, जबकि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक निकटता तथा भाषाई समानता के कारण, कई लोग सीमित मात्रा में हिंदुस्तानी भी समझने में सक्षम हैं। यहाँ का बहुसंख्यक धर्म, इस्लाम है, जबकि प्रमुख अल्पसंख्यक धर्म, हिन्दू धर्म है। जनसांख्यिकीक रूप से, यहाँ, इस्लाम के अनुयाई, आबादी के औसतन 91% के करीब है। शेष जनसंख्या प्रमुखतः हिन्दू धर्म की अनुयाई है। यह मयख्यातः एक ग्रामीण क्षेत्र है, और अधिकांश आबादी ग्राम्य इलाकों में रहती है। ईश्वरगंज उपजिला बांग्लादेश के उत्तरी सीमा से सटे, मयमनसिंह विभाग के जमालपुर जिले में स्थित है।
वीरपुर एटा जिला के अलीगंज प्रखण्ड एक गाँव है।
महाड महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले का एक नगर है। यह उत्तरी कोंकण क्षेत्र में स्थित है। यह मुम्बई से 167 किमी की दूरी पर है।
मैं आज़ाद हूँ 1989 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है।
नोरिस ई डॉड फूड एंड एग्रीकल्चरल आर्गनाइज़ेशन के महानिदेशक थे। इनका कार्यकाल अप्रैल 1948 से दिसंबर 1953 तक था। ये स.राज्य से थे।
डर एक नकारात्मक भावना है। डर संभावित खतरे के लिए एक सहज वृत्ति प्रतिक्रिया के रूप में सभी जानवरों और लोगों में पूर्व क्रमादेशित एक ऐसी भावना है। यह भावना हमेशा अनुकूली नहीं है। यह एक अच्छी भावना नहीं है; कोई आजादी, खुशी नहीं है। यह कई रूपों में प्रकट होता है। सबसे आम अभिव्यक्ति गुस्सा है। आपका जीवन डर के जीत के लिए एक संघर्ष है। डर के विपरीत, एकता के बारे में जागरूकता है। डर के सबसे शक्तिशाली जनरेटर मृत्यु की अवधारणा है। डर हम सब एक समय पर महसूस करते हैं। यह बच्चों के रूप में सबसे पहले अनुभव किया जाता है। ज्यादातर लोगों को डर एक अप्रिय भावना लगती है। खतरे की उपस्थिति या निकटस्थता की वजह से एक बहुत अप्रिय भावना को डर केहते हैं। भय, मानव प्रजाति द्वारा अनुभव किया जाता है, यह एक पूरी तरह से अपरिहार्य भावना है। भय की हद और सीमा व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में बदलता है, लेकिन भावना एक ही है। यह प्रत्याशा के कारण होता है। डर में कुछ आम चेहरे के भाव -- डरा हुआ चेहरा, बड़ी आंखें, खुला मुंह आदि। अंधविश्वासी, बुद्घिमान, और अनिश्चितता: भय के तीन अलग अलग प्रकार होते हैं। अंधविश्वासी डर काल्पनिक चीजों का एक भय है। बुद्घिमान डर बड़े हो जाने पर और उसके दुनिया का अधिक ज्ञान लाभ के रूप में आता है। अनिश्चितता के डर से एक के कार्रवाई के परिणाम का ना पता चलना होता है। डर एक खतरनाक प्रोत्साहन की उपस्थिति, या प्रत्याशा में एक भावनात्मक राज्य है। कुछ भय कंडीशनिंग प्रक्रिया के माध्यम से हासिल किया जाता है। कुछ माता पिता और भाई के भय के नकल के माध्यम से सीखा रहे जाता है। इन्सानों एवं जानवरों में एक एेसी भावना है जो अनुभूति द्वारा संग्राहक होती है। जब वस्तुओं या घटनाओं के लिए भय तर्कहीन हो जाता है तो उसे "फोबिया" कहा जाता है। डर इन्सानों मैं तब देखा जाता है जब उन्हें किसी वस्तु से किसी प्रकार का जोखिम महसूस होता हो। यह जोख़िम किसी भी प्रकार का हो सकता है- स्वास्थ्य,धन,निजी सुरक्षा,आदि। डर शब्द "फिर" से उत्पन्न हुआ जिसका अर्थ है आपदा या खतरा। अमेरिका में दस प्रकार के डर हैं-- आतंकवादी हमले, मकडियाँ, मौत,असफलता, युद्ध या आपराधिक हालात, अकेलापन, भविष्य या परमाणु युद्ध आदि। सर्वेक्षण के अनुसार यह कुछ आम प्रकार के डर हैं-- राक्षस और भूत, बुरी शक्तियों का अस्तित्व, तिलचट्टे, मकड़ियाँ, सांप, हाइट्स, पानी, सूई, सामाजिक अस्वीकृति, परीक्षा और सार्वजनिक बोल आदि। अराकनोफोबिया के साथ एक व्यक्ति मकड़ियों के आस पास हलचल महसूस करता है यह जानते हुए कि वह कोई नुकसान नहीं देगी। कभी कभी तो वह वस्तु जो मकड़ी के समान दिखती हो, यह व्यक्ति उस से भी डर महसूस करेगा; इस भय को आॅटोमाटोनोफोबिया कहते हैं। एक और आम डर दर्द का भय होता है। मौत के प्रति चिंता बहुआयामी है; यह एक की अपनी मृत्यु से संबंधित आशंकाओं का परिणाम होता है। अज्ञात या तर्कहीन डर चिंता से पैदा होती है, जो नकारात्मक सोच के कारण होता है। बहुत से लोग "अज्ञात" से डरते हैं। इन मामलों में विशेषज्ञों ने एक परिभाषा के रूप में झूठी गवाही जो सच लगती है; इस स्केल क उपयोग किया है। यह एक व्यक्ति मैं आलस्य और शिथिलता पैदा कर सकता है। कुछ लोगों में डर का विकास सीखने से होता है। यह डर कंडीशनिंग के रूप में मनोविज्ञान में पढ़ा जाता है। भय अनुभव या दर्दनाक दुर्घटना देखने से सीखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, एक बच्चा एक कुएं में गिर जाता है और बाहर निकलने के लिए संघर्ष करता है, तो उसमें कुओं के डर का विकास हो सकता है। इस से यह पता चलता है कि डर का विकास ना सिर्फ सीखने से बल्कि निजी इतिहास से भी हो सकता है। डर सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ से भी प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए, बीस्वि सदी में, बहुत से अमेरिकियों को पोलियो से डर लगता था। लोगों की भय के प्रति प्रतिक्रिया लगातार पार सांस्कृतिक मतभेदों से उत्पन्न होती हैं। इसके बावजूद की डर सीखा जाता है, डरने की क्षमता मानव स्वभाव का हिस्सा है। कई अध्ययनों से यह पता चला है कि कुछ डर दूसरों की तुलना में आम है। यह घटना तैयारियों के रूप में जाना जाता है। डर चिंता, भय, आतंक और दहशत के रूप में बढ़ते स्तर पर व्यक्त किया जाता है। डर बिदकाना प्रतिक्रिया के साथ शुरू होता है। भय कई अवचेतन व्यवहार को रास्ता देता है। डर शरीर में जैविक घटनाओं की एक श्रृंखला उत्पन्न करता है। डर तुरन्त कार्य करता है। शरीर में डर के साथ कई शारीरिक परिवर्तन जुड़े हुए हैं। खतरे का मुकाबला करने के लिए एक सहज प्रतिक्रिया इन लक्षण द्वारा देखी जाती है-- साँस लेने की दर में तेजी, हृदय गति, परिधीय रक्त वाहिकाओं का कसना, मांसपेशियों में तनाव, पसीना, बढ़ता रक्त ग्लूकोज,सफेद रक्त कोशिकाओं में वृद्धि और सोने में अशांति। अंत और अपने अस्तित्व का डर दूसरे शब्दों में मृत्यु का भय है। इस भय कि वजह से लोग एक दूसरे के साथ मिलकर कठिनाईयों का सामना करते हैं ना कि अकेले। धर्म सदियों से मनुष्य की जिंदगी में अलग अलग तरह के डर के रूप में मौजूद हैं। यह डर नैतिक है। मौत एक और दुनिया के लिए एक सीमा के रूप में देखा जाता है। डर एक संतानोचित या एक स्लाव जुनून को व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है। भय राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से चालाकी से जोड़ा-तोड़ा जा सकता है। भय और बुराई हमेशा से ही एक दूसरे से संबंधित थे। प्रमस्तिष्कखंड के माध्यम से डर कंडीशनिंग और फोबिया के लिए एक दवा उपचार ग्लुकोकौरटिकौडस का इस्तेमाल होता है। अपनी सुविधा क्षेत्र में हमेशा रहना सबसे अच्छा तरीका नहीं है। अपनी सुविधा क्षेत्र के बाहर कदम रखकर सहज बनने पर काम करें। ध्यान आपको शांत करता है और आपको किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए आंतरिक शक्ति देता है। ध्यान आपकी चिंता कम करने में मदद करता है। हमारी सबसे बुरी कल्पना एवं चिंता तब होती है जब हम डर से अपने दिमाग में घिरे हुए हों। डर से बचने के लिए सबसे सही तरीका यह है कि हम अपनी कल्पना पर थोड़ा सा नियंत्रण रखें। हम में से कई लोगों को डर पसंद नहीं है क्योंकि डर हमें पंगु बना देता है। लेकिन अगर आप बस अपने आप को भय महसूस करने की अनुमति दें तो, आप खुद देखेंगे कि वह स्थिति प्रबंधनीय है।
काकीनाडा एक्स्प्रेस 1405 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन मनमाड जंक्शन रेलवे स्टेशन से 07:00PM बजे छूटती है और काकीनाडा टाउन रेलवे स्टेशन पर 08:10PM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 25 घंटे 10 मिनट।
नालंदा, बिहार राज्य के नालंदा जिला का एक प्रखण्ड नगरनौसा है। प्रखण्ड में कुल 9 पंचायत है1.नगरनौसा2.रामपुर3.भुतहाखार4.दामोदरपुर बलधा5.कछियावां6.खजुरा7.कैला8.गोराइपुर9. नगरनौसा प्रखण्ड पहले चंडी प्रखण्ड का अंग था जो बीते 23जून1993 को चंडी प्रखण्ड से अलग होकर अपना अस्तितब में आया
बहुफेज प्रणाली प्रत्यावर्ती धारा वाली विद्युत शक्ति के उत्पादन, संप्रेषण, वितरण और उपयोग की वह प्रणाली है जिसमें तीन या उससे अधिक चालक होते हैं और जिनके वोल्टता के बीच 360/n डिग्री का कलान्तर होता है । तीन-फेजी प्रणाली सबसे अधिक प्रचलित है।
पावेल फ्रीडमैन एक यहूदी कवि थे, जिन्हे उनकी कविता "द बटरफ्लाई" के लिए ख्याति मिली। The Butterfly
नानजिंग चीन के जियांगसु राज्य की राजधानी है जिसका चीन के इतिहास और संस्कृति में एक बहुत महत्वपूर्ण किरदार रहा है। यह अतीत में कभी-कभी चीन की राष्ट्रीय राजधानी रही है और 'नानजिंग' शब्द का मतलब भी चीनी भाषा में 'दक्षिणी राजधानी' ही है। यह यांग्त्से नदी के अंतिम भाग में उस नदी की डेल्टा में स्थित है। सन् 2006 की जनगणना में नानजिंग की आबादी 50 लाख से अधिक थी और शन्घाई के बाद यह पूर्वी चीन सागर क्षेत्र का दूसरा सब से बड़ा आर्थिक केंद्र है।
यह जिंबाब्वे की एक प्रमुख समाचार संस्था है।
तनहुँ जिला नेपाल के पश्चिमांचल विकास क्षेत्र के गण्डकी अंचल में स्थित एक अत्याधिक उर्वर एवं घना वस्ती वाली जिला हैं। इस जिला की क्षेत्रफल 1546 बर्ग कि॰मी॰ और जनसंख्या करिव 4 लाख हैं। इस जिला के पूर्व में चितवन और गोरखा उत्तर में कास्की और लमजुंग पश्चिम में स्यांजा दक्षिण में पाल्पा और नवलपरासी जिलाएं हैं। इस जिले का केन्द्र दमाैली है, जाे मादी नदी के तटपर अवस्थित है। इसी जिले के चुँदी रम्घा ग्राम में 1814 जुलाइ 10 में नेपाली भाषा के अादिकवि भानुभक्त अाचार्यका जन्म हुअा था।
पटेला एक कृषि औजार है जिसका उपयोग जुताई के बाद खेत की सतह को समतल करना और बड़े ढेलों को तोड़कर छोटे करना है। इसे 'हेंगा', 'सोहागा', 'सिरावन', 'पटरी', 'डन्डेला' आदि नामों से भी जाना जाता है। पटेला, तीन-चार बांस के टुकडों से बनाया जाता है या लकड़ी के एक भारी पटरे से।
जायल, राजस्थान के नागौर जिले का एक कस्बा है। यह नागौर से 40 किमी की दूरी पर है। जायल से 11 किमी की दूरी पर गांव कठौती है जो पुराने मंदिरों व मसजिद के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ एक अकबर के जमाने की मसजिद है व माता लिकाषन का मंदिर है। जायल के छापड़ा गाँव मे हरिराम बाबा का प्रसिद्ध मन्दिर है। इसके अलावा छापड़ा में एक प्रसिद्ध क्रिकेट मैदान भी है। जायल चुनाव क्षेत्र अनुसुचित जाति के लिए आरक्षित है।
हेबेई जनवादी गणराज्य चीन के उत्तरी भाग में स्थित एक प्रांत है। हेबेई का अर्थ 'नदी से उत्तर' होता है, जो इस प्रांत की पीली नदी से उत्तर की स्थिति पर पड़ा है। हान राजवंश के ज़माने में यहाँ जी प्रांत होता था जिस वजह से हेबेई को चीनी भावचित्रों में संक्षिप्त रूप से '冀' लिखा जाता है। हेबेई का क्षेत्रफल 1,87,700 वर्ग किमी है, यानि भारत के कर्नाटक राज्य से ज़रा कम। सन् 2010 की जनगणना में इसकी आबादी 7,18,54,202 थी, यानि भारत के तमिल नाडू राज्य से ज़रा कम। हेबेई की राजधानी और सबसे बड़ा शहर शिजियाझुआंग है। यी ज़िले में लांगयाशान पहाड़ पूतूओ ज़ोंगचंग मंदिर राजधानी शिजियाझुआंग की एक सड़क सन् 1045 में बना लिंगशियाओं पगोडा अनहुइ · फ़ूज्यान · गान्सू · गुआंगदोंग · गुइझोऊ · हाइनान · हेबेई · हेइलोंगजियांग · हेनान · हूबेई · हूनान · जिआंगसू · जिआंगशी · जीलिन · लियाओनिंग · चिंगहई · शान्शी · शानदोंग · शन्शी · सिचुआन · युन्नान · झेजियांग गुआंगशी · भीतरी मंगोलिया · निंगशिया · तिब्बत · शिंजियांग बीजिंग · चोंग्किंग · शंघाई · तिआन्जिन हांगकांग · मकाऊ
अपूर्व शर्मा असमिया भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कहानी–संग्रह बाघे टापुर राति के लिये उन्हें सन् 2000 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
2004 यूईएफए चैंपियंस लीग फाइनल 2003-04 यूईएफए चैंपियंस लीग के विजेता का फैसला करने के लिए, 26 मई 2004 पर गेल्सेंकिचैन, जर्मनी, में एरेना ओफ़ स्काल्क में खेला एक फुटबॉल मैच था. पुर्तगाल से पोर्टो ने ए एस मोनाको प्रतियोगिता में फ्रांस का प्रतिनिधित्व करने वाले मोनाको से एक क्लब को हराने के बाद मैच 3-0 से जीता. यह पोर्टो दूसरा खिताब था. ग्रुप C ग्रुप F सामनावीर: देचो सहायक रेफरी: जेन्स लर्सेन् जोर्गेन जेप्सेन् चौथा अधिकारी: क्नुद एरिक फिस्केर्
चमन पाकिस्तान के बलोचिस्तान प्रांत के क़िला अब्दुल्लाह ज़िले की राजधानी है। यह अफ़्ग़ानिस्तान की सीमा के बहुत क़रीब है और सीमा के पार अफ़्ग़ानिस्तान के कंदहार प्रान्त का स्पिन बोल्दक शहर है। चमन की आबादी लगभग 20,000 है जिनमें से चंद-हज़ार लोग हिन्दू समुदाय के हैं। चमन अफ़्ग़ानिस्तान के पास है और यहाँ से रेल की पटरी कंदहार तक जाती है। चमन बहुत ज़माने से अफ़्ग़ानिस्तान और भारतीय उपमहाद्वीप के बीच व्यापर का केंद्र रहा है। भारत की आज़ादी से पहले यहाँ से अफ़्ग़ानिस्तान की हींग, ख़ुबानी, गिलास, क़ालीन और बहुत सा अन्य माल पूरे उत्तर भारत के बाज़ारों में जाया करता था।
बंपर किसी भी मोटर वाहन के साबसे आगे अथवा सबसे पीछे के उस भाग को कहते हैं जो सामने अथवा पीछे से लगने वाली टक्कर से वाहन एवं सवारीयों को लगने वाले आघात से बचने के लिये लगाया जाता है।
सिंघनपुर खरसीया मण्डल में भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के अन्तर्गत रायगढ़ जिले का एक गाँव है।
बर्नार्ड "बर्नी" सैंडर्स एक अमेरिकी राजनीतिज्ञ और वरमोंट से जूनियर संयुक्तराज्य सीनेटर हैं। वह राष्ट्रपति के संयुक्त राज्य अमेरिका में 2016 में चुनाव के लिए डेमोक्रेटिक नामांकन के लिए एक उम्मीदवार हैं। डेमोक्रेटिक पार्टी के 2015 से एक सदस्य, सैंडर्स अमेरिका में कांग्रेस के इतिहास में सबसे लंबे समय तक सेवारत स्वतंत्र हैं, हालांकि उसकी डेमोक्रेट के साथ काक्सिंग ने उसे समिति कार्य करने के लिए हकदार बनाया और कभी कभी डेमोक्रेटस को बहुमत दिया है। जनवरी 2015 में सैंडर्स सीनेट बजट समिति पर रैंकिंग अल्पसंख्यक सदस्य बन गया, इस से पहले दो साल के लिए सीनेट दिग्गजों के मामलों की समिति के अध्यक्ष के रूप में . सेवा की है। एक स्वयंभू लोकतांत्रिक समाजवादी, सैंडर्स प्रो-श्रम है और अधिक से अधिक आर्थिक समानता का पक्षधर है।
गंधाष्टक या अष्टगंध आठ गंधद्रव्यों के मिलाने से बना हुआ एक संयुक्त गंध है जो पूजा में चढ़ाने और यंत्रादि लिखने के काम में आता है। तंत्र के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के लिये भिन्न-भिन्न गंधाष्टक का विधान पाया जाता है। तंत्र में पंचदेव प्रधान हैं, उन्हीं के अंतर्गत सब देवता माने गए हैं; अतः गंधाष्टक भी पाँच यही हैं। शास्त्रों में तीन प्रकार की अष्टगन्ध का वर्णन है, जोकि इस प्रकार है- यह अष्टगन्ध शैव सम्प्रदाय वालों को ही प्रिय होती है। यह अष्टगन्ध शाक्त व शैव दोनों सम्प्रदाय वालों को प्रिय है। ये पदार्थ भली-भांति पिसे हुए, कपड़छान किए हुए, अग्नि द्वारा भस्म बनाए हुए और जल के साथ मिलाकर अच्छी तरह घुटे हुए होने चाहिए।
काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्‍वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं। यहिपर सन्त एकनाथजीने वारकरी सम्प्रदायका महान ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पुरा किया और काशिनरेश तथा विद्वतजनोद्वारा उस ग्रन्थ कि हाथी पर से शोभायात्रा खुब धुमधामसे निकाली गयी।महाशिवरात्रि की मध्य रात्रि में प्रमुख मंदिरों से भव्य शोभा यात्रा ढोल नगाड़े इत्यादि के साथ बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर तक जाती है। वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन 1780 में करवाया गया था।. बाद में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा 1853 में 1000 कि.ग्रा शुद्ध सोने द्वारा बनवाया गया था।. वैदिक धर्मपर एक श्रेणी का भाग मोक्ष ध्यान योग हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने का कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्रीवशिष्ठजी तीनों लोकों में पुजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये। सर् वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान भोलानाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवंम दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है। विश्वेश्वर के आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं:- और इनहीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है निर्देशांक: 25°18′38.79″N 83°0′38.21″E / 25.3107750°N 83.0106139°E / 25.3107750; 83.0106139
अज्ञातव्यक्तिभीति को "विदेशियों या अजनबियों अथवा उनकी राजनीति या संस्कृति से घृणा या डर" के रूप में परिभाषित किया गया है।इसे अंग्रेजी में ज़ेनोफोब कहते हैं जिसकी उत्पत्ति यूनानी शब्द ξένος, जिसका अर्थ है "अजनबी", "विदेशी" और φόβος जिसका अर्थ है "डर". अज्ञातव्यक्तिभीति कई प्रकार से प्रकट हो सकती है, जिनमें अंतःसमूहों के बाह्यसमूहों के साथ संबंध और ग्रहणबोध सहित अपनी पहचान खोने का डर, उनकी गतिविधियों, आक्रामकता के प्रति संदेह तथा कल्पित पवित्रता सुनिश्चित करने के लिए उनकी उपस्थिति मिटाने की इच्छा शामिल हैं। अज्ञातव्यक्तिभीति "दूसरी संस्कृति की, बिना आलोचना किए अत्यंत प्रशंसा" के रूप में भी प्रकट हो सकती है जिसमें एक संस्कृति को "अवास्तविक, रूढ़िबद्ध और विदेशी गुणवत्ता" की बताया जाता है। अज्ञातव्यक्तिभीति की शब्दकोश परिभाषाओं में शामिल हैं: विदेशियों के प्रति गहरी घृणा ),अपरिचित, विशेष रूप से अन्य नस्ल के लोगों से अनुचित भय डिक्शनरी ऑफ साइकोलॉजी इसे "अजनबियों का डर" के रूप में परिभाषित करती है। जैसा कि ओईडी द्वारा परिभाषित है, इसका अर्थ है सिर्फ अन्य देशों के लोगों से ही नहीं, बल्कि अन्य संस्कृतियों, उपसंस्कृतियों और मान्यता पद्धतियों के उपवर्गों से भी; संक्षेप में वह कोई भी जो अपने मूल, धर्म, निजी मान्यताओं, आदतों, भाषा, झुकाव या अन्य किन्हीं भी मानदंडों को पूरा करता है, से डर या घृणा. जबकि कुछ कहेंगे कि 'लक्ष्य' समूह ऐसे व्यक्तियों का एक सेट है जो समाज को स्वीकार्य नहीं है, वास्तव में केवल भयग्रस्त व्यक्ति ही यह विश्वास रख सकता है कि लक्ष्य समूह समाज को स्वीकार नहीं है . जबकि भयग्रस्त व्यक्ति को लक्ष्य समूह के प्रति विरोध के बारे में पता होता है, वे इसे पहचान नहीं सकते या एक डर के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते. एक नैदानिक परिभाषा है: अपनी नस्ल से अलग, एक खास नस्ल के सदस्यों का तर्कहीन डर अक्सर अभिघातज दबाव विकार से जुड़ा हुआ और दूसरे क्रम का विकार है। इसके अलावा: अधिकारवादी व्यक्तित्व के परिचायक प्रवृत्ति समूहों में से एक. एक वियतनामी बुजुर्ग ने वियत कांग द्वारा अपने जीवित साथी सैनिक की खाल उतारते हुए देखा. उस के अंदर मंगोल पलकों वाले लोगों के लिए घृणा का विकास हुआ। दोनों मामलों में, अज्ञातव्यक्तिभीति पीटीएसडी से जुड़ी हुई थी। एक अज्ञातव्यक्तिभीत व्यक्ति को किसी स्तर पर सचमुच में यह सोचना या मानना है कि लक्ष्य वास्तव में विदेशी है। यह विवादास्पद रूप से अज्ञातव्यक्तिभीति को नस्लवाद तथा पूर्वाग्रह से इस रूप में अलग करता है कि किसी का दूसरी नस्ल का होने से यह जरूरी नहीं हो जाता कि वह भिन्न राष्ट्रीयता का भी हो। विभिन्न संदर्भों में, शब्द अज्ञातव्यक्तिभीति और "नस्लवाद" लगता है लगता है विनिमेय रूप से प्रयुक्त होते रहे हैं, जबकि उनके अर्थ बिलकुल अलग हो सकते हैं . अज्ञातव्यक्तिभीति का निशाना संस्कृति से बाहर का कोई भी व्यक्ति हो सकता है, कोई खास नस्ल या लोग नहीं। अज्ञातव्यक्तिभीति के दो मुख्य उद्देश्य हैं: पहला समाज के अंदर मौजूद एक आबादी समूह जिसे समाज का हिस्सा नहीं माना जाता है। अक्सर वे हाल के आप्रवासी होते हैं, लेकिन अज्ञातव्यक्तिभीति उस समूह के प्रति होती है जो सदियों से मौजूद रहा है या उस स्थान को जीतकर और क्षेत्रीय विस्तार के द्वारा समाज का हिस्सा बन गया था। अज्ञातव्यक्तिभीति का यह रूप शत्रुतापूर्ण और हिंसक प्रतिक्रियाएं, जैसे आप्रवासियों का सामूहिक निष्कासन, सामूहिक हत्या या अन्य मामलों में जातिसंहार प्रकट कर सकता है या प्रदान कर सकता है। अज्ञातव्यक्तिभीति का दूसरा रूप मुख्यतः सांस्कृतिक है और भय की वस्तुएं सांस्कृतिक तत्व है जो विदेशी माने जाते हैं। सभी संस्कृतियों पर बाहरी प्रभाव होते हैं, लेकिन सांस्कृतिक अज्ञातव्यक्तिभीति संकीर्णता से निर्देशित होती है, उदाहरण के लिए एक राष्ट्रीय भाषा में उधार लिए गए विदेशी शब्द. इसका परिणाम शायद ही कभी व्यक्ति विशेष के प्रति आक्रामकता के रूप में हो, लेकिन सांस्कृतिक और भाषाई शुद्धिकरण के लिए राजनीतिक अभियानों के रूप में हो सकता है। इसके अलावा, पूरे अज्ञातव्यक्तिभीत समाज अपने से बाहर किसी से भी बातचीत के लिए खुला नहीं होता, जिसका परिणाम पृथकतावाद के रूप में होता है, जो अज्ञातव्यक्तिभीति को आगे और बढ़ा सकता है।
पायजामा या पैजामा या पाजामा कमर में बांधकर पैरों में पहना जाने वाला वस्त्र है जो थोडा ढ़ीला-ढ़ाला होता है।
प्रीति पाटकर एक भारतीय सामाजिक कार्यकर्त्ता और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता हैं। वह एक संघठन "प्रेरणा" की सह-संस्थापक व निर्देशक हैं, जिसने मुंबई के रेड-लाइट इलाको में व्यावसायिक यौन शोषण और तस्करी से बच्चो की रक्षा की। प्रीति पाटकर का जन्म मुंबई में हुआ था। उनके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे और उनकी माँ एक डेकेयर कार्यक्रम चलाती थी। उन्होंने टाटा इंस्टीटूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से सामाजिक कार्य में मास्टर की डिग्री हासिल की वो भी स्वर्ण पदक के साथ। उनका विवाह एक सामाजिक कार्यकर्त्ता प्रवीन पाटकर से हुआ। वह पिछले 28 सालो से व्यावसायिक यौन शोषण और मानव तस्करी के शिकार होने वाले महिलाओं और बच्चो के बचाव के लिए काम कर रहे हैं। 1986 में उन्होंने "प्रेरणा" की स्थापना की। मानव तस्करी और व्यावसायिक यौन शोषण के खिलाफ बच्चों और महिलाओं के संरक्षण व गरिमा के संरक्षण और सम्मान के लिए कई तरह से सामाजिक हस्तक्षेपों के लिए उन्हें मान्यता मिली हैं।
पुरवी बरमुदै असमिया भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास शान्तनुकुलनन्दन के लिये उन्हें सन् 2007 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
निर्देशांक: 27°24′00″N 79°34′01″E / 27.400°N 79.567°E / 27.400; 79.567फ़र्रूख़ाबाद भारत के उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शहर एवं लोकसभा क्षेत्र है। फ़र्रूख़ाबाद जिला, उत्तर प्रदेश की उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है। इसका परिमाप 105 किलो मीटर लम्बा तथा 60 किलो मीटर चौड़ा है। इसका क्षेत्रफल 4349 वर्ग किलो मीटर है, गंगा, रामगंगा, कालिन्दी व ईसन नदी इस क्षेत्र की प्रमुख नदियां हैं। यहाँ गंगा के पश्चिमी तट पर आबादी बहुत समय पहले से पायी जाती है। पांचाल देश जो कि पौराणिक-काल से जाना जाता है। इसका उल्लेख, पांचाली व पांचाल-नरेश अनेकानेक रुपों में महाभारत में उद्धृत है। व्यापार तथा व्यवसाय की दृष्टि से फ़र्रूख़ाबाद एक महत्त्वपूर्ण शहर है। यह 100 किलो मीटर के अर्द्धव्यास का शहर आज भी अपना एक महत्व रखता है। शहर में 300-400 वर्ष पुराने अनेक खण्डहर अभी बचे हैं। परवर्ती शासकों और अन्य शासकवंशों के समर्थकों ने ही संभवत: इन भवनों को नष्ट किया है। फ़र्रूख़ाबाद में लगभग 20 मकबरे हैं। इनका सूक्ष्म विश्लेषण एक पृथक तथ्य का उद्घाटन करता है। प्लास्टर की परत के नीचे छिपे स्थापत्य-कला के वे मौलिक तत्व प्राचीन स्थापत्य-कौशल तथा हिन्दू कलाकारी के प्रतीक चिह्न हैं। गंगा तट पर घटियाघाट, टोंक-घाट और रानी घाट पर ईंटों का एक प्राचीन निर्माण देखा जा सकता है। पंचाल घाट पुराना नाम घटिया घाट अन्त्येष्टि के लिए प्रयोग किया जाता है। घटिया का अर्थ यहाँ आवागमन स्थल है। कुछ जीर्ण-शीर्ण खण्डहर इधर-उधर हैं। फ़र्रूख़ाबाद के इतिहास को परिलक्षित करने के लिए अधिक कुछ शेष नहीं है। दस वर्ष पूर्व डी. एन. कालेज में खुदाई कार्य से प्राप्त कुछ मूर्तियां, जो पूर्व और उत्तरी गुप्त कालीन है। ये मूर्तियाँ हिन्दू मंदिर स्थापत्य कला के अभिन्न अंग हैं और अब वे डी. एन. कालेज के प्रांगण में स्थित हैं। ये सभी मूर्तियां मूर्तिकारों की उत्तम कोटि की कला की श्रेष्ठता के जीवन्त प्रतीक हैं जो गुप्त काल में अधोगति को प्राप्त हुई। में सबसे प्राचीन मंदिर पंडाबाग मंदिर यहाँ के लोगो का मानना है की इश मंदिर की स्थापना स्वम् पांड्वो ने की थी . व इस मंदिर भगवन शिव की प्राचीन मूर्ति व शिवलिंग स्थापित है व इस मंदिर में भगवन शिव के साथ कई और भगवानो की भी मुर्तिया स्थापित की गई है,फतेहगढ़ के मंदिरों में से एक मंदिर में उमा-महेश्वर और गणेश की प्रतिमाएं हैं। शैली और प्रतीकात्मक आधार पर ये 11-12 सदी की हैं। जो कि कला पारखियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। उत्तर-मुगलकालीन समय के अनेक मंदिर यहां हैं। ये मंदिर दार्व्हिष्टक सौंदर्य और स्थापत्य कला के श्रेष्ठता के उदाहरण हैं। सौंदर्य और काव्य-शास्त्र जनसाधारण की कलात्मक अभिरुचियों के विषय में कहता नहीं अघाता। फ़र्रूख़ाबाद में बढ़पुर में ईंटों से निर्मित एक मंदिर है, जिसमें हिंदू देवी-देवताओं की पाषाण-मूर्तियां हैं। उलवेरुनी ने अपनी पुस्तक किताब उल-हिन्द में भी फ़र्रूख़ाबाद का उल्लेख किया है। एक दुर्ग जो कि अभी भी अक्षय है, राजपूत रेजीमेंटल सेंटर के अधिपत्य में है। यह गंगा के पश्चिमी तट पर स्थित है। इन किलों के विषय में फ़र्रूख़ाबाद में बहुत अधिक शेष नहीं है। एक किला जो कि अभी तक सही-सलामत है वह राजपूत रेजीमेंटल सेंटर के अधीन है। यह गंगा के पश्चिमी तट पर अवस्थित है। किले के प्रमुखद्वार का जीर्णोद्धार कर उसे नया बनाया गया है। फर्रूखाबाद शहर के चारों तरफ की प्राचीर में दस दरवाजे हैं दरवाजों के नामों में लाल दरवाजा, रानी दरवाजा, हुसैनिया दरवाजा, कादरी दरवाजा, जसमाई दरवाजा, मऊ दरवाजा शामिल है। फ़र्रूख़ाबाद में रानी मस्जिद है, रानी शब्द अनेक रुपों और स्थानों से जुड़ा है। यहां जैसे रानी बाग, रानी घाट, रानी दरवाजा और रानी मस्जिद। शहर में एक दुर्ग था, जो कि ध्वस्त कर दिया गया और उसके मलवे से एक नये टाऊनहॉल का निर्माण किया गया। फ़र्रूख़ाबाद से 12 किलो मीटर कानपुर मार्ग पर एक किला है जो कि अब भग्नावशेष मात्र है। मोहम्दाबाद, फ़र्रूख़ाबाद से 20 किलो मीटर दूर में से किले की दीवारें अभी भी देखी जा सकती हैं। जो कि बहुत ही जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं। मोहम्मदाबाद का किला सैनिक विद्रोह के पश्चात ध्वस्त हुआ। जयचन्द के समय में फतेहगढ़ छावनी क्षेत्र था। मोहम्मद तुगलक 1343 में फतेहगढ़ आया। वह स्वयं फ़र्रूख़ाबाद में ठहरा और उसके सैनिक फतेहगढ़ में। दिलीप सिंह, पंजाब के अंतिम सिख शासक लाहौर में राज्यच्युत हुए और फ़र्रूख़ाबाद में उन्हें बंदी बनाकर रखा गया। वे यहां 3 वर्ष 8 माह तक बंदी रहे। फतेहगढ़ से 35 किलो मीटर दूर स्थित संकिशा है। इसका प्रथमोल्लेख वाल्मीकि रामायण में पाया जाता है। संकिशा नरेश सीता स्वयंवर में आमन्त्रित थे। जनसमूह में उन्होंने अपने मि गर्व का प्रदर्शन किया। वे सीता को बिना शर्त ले जाना चाहते थे। वे राजा जनक द्वारा परास्त और वीरगति को प्राप्त हुए तत्पश्चात् जनक ने अपने अनुज कुंशध्वज को संकिशा पर अधिकार करने के लिए कहा परन्तु महाभारत में इस स्थल का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। बुद्ध धर्म के इतिहास में इसका उल्लेख बहुधा पाया जाता है। कहा जाता है कि भगवान बुद्ध यहां 8-10 दिन ठहरे थे। यहां से वो फ़र्रूख़ाबाद शहर गए, जबकि वे संकिशा से कन्नौज की यात्रा पर थे। यदि बुद्ध काल में ही नहीं, तो बाद में यहां बौद्ध विहारों, का आगमन हुआ। संकिशा का उत्खन्न कार्य यह सिद्ध करता है कि अनेक उच्चकोटि के भवन व धार्मिक स्थल तदन्तर यहां आए, बौद्ध धर्मावलम्बियों के आश्रयदाताओं द्वारा बनावाए गये। संकिशा भी बौद्धों के लिए एक पवित्र तीर्थ स्थली है। संकिशा का उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में भी पाया जाता है। चीनी यात्री फाह्मवान ने भी इस स्थान का उल्लेख किया है। इस स्थान से अनेक बुद्ध मूर्तियां खुदाई में प्राप्त हुई। जो कि अब मथुरा संग्रहालय में रखी हैं। चीनी तीर्थ-यात्री हवेनत्सांग के अनुसार संकिशा उच्च कोटि के भवनों से सुसज्जित नगर है जिसका निर्माण सम्राट अशोक ने तथा उसके उत्तरवर्ती शासकों ने किया। संकिशा ने अब अपना वैभव खो दिया और मात्र ग्राम रूप में शेष है। फतेहगढ़ से 25 किलो मीटर दूर प्राचीन भारत का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण केन्द्र कन्नौज स्थित है। रामायण के अनुसार यह नगर कौशाम्ब द्वारा बसाया गया। जो कि कुश का पुत्र था। महाभारत में भी इसके विषय में उल्लेख पाये जाते हैं। 606 ई0 में हर्षवर्धन जब थानेश्वर का शासक बना, उसने अपनी राजधानी गंगातटीय कन्नौज में स्थानांन्तरित की। कठियाद से बंगाल तक उसके 41 वर्ष के शासनकाल में भारत का एक महत्वपूर्ण केन्द्र हर्षवर्धन की राजधानी होने के कारण यहां अनेक उत्तम कोटि के भवनों का निर्माण हुआ जो कि अब लुप्त हो गए हैं। 6वीं शदी से इस स्थान का महत्व बढ़ा। कन्नौज अनेक शताब्दियों तक महत्व का केन्द्र रहा। दुर्भाग्यवश यह विदेशी आक्रमणकारियों का कोप भाजन हो गया। जो अपने स्वर्णिम इतिहास के साक्षी हैं। पुरानी पोशाक, पुराने परिधान फूलमती मंदिर में आज भी देखे जा सकते हैं। गौरी शंकर मंदिर और निकटस्थ चौधरीपुर क्षेत्र, देवकाली और सलीमपुर ग्राम सभी प्राचीन विरासत के केन्द्र हैं। इन सभी स्थलों पर स्थापत्य कला और मूर्तिकला का अद्वितीय सौंदर्य देखा जा सकता है। 836 ई0 में कन्नौज पर प्रतिहारों का अधिपत्य हो गया। प्रतिहार वंश का अंतिम शासक राज्यपाल था, उसकी राजधानी पर मोहम्मद गजनी के 1018 ई0 में आक्रमण किया। बारा-बार हुए आक्रमणों ने नगर को छिन्न-भिन्न कर दिया जिससे वह पुन: न उभर पाया। मोहम्मद गजनी के ऐतिहासिक वृतान्त उत्वी के अनुसार 10,000 हिन्दू मंदिरों को मोहम्मद की तलवार का शिकार होना पड़ा। 1030 में अलवेरुनी कन्नौज आया, उसने वहां मुस्लिम आबादी का उल्लेख किया है। उसके उल्लेख के अनुसार मुस्लिम आबादी वहां पहले से थी जबकि मुगल शासन आरम्भ भी नहीं हुआ था। तब भी हिन्दू-मुस्लिम शान्ति व सहृदयता से वहां रहते थे। कन्नौज के महाराजा जयचन्द गरवार 1193 में पराजय तथा वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने मुस्लिम प्रजा पर विशेष कर लगाया जिससे यह स्पष्ट होता है कि मुस्लिम जनसंख्या हिन्दू साम्राज्य में कम थी।लेकिन अब दुबारा से सकिसा बोध धर्म का एक धार्मिक स्थल ब॑न्त जा रहा हे। फतेहगढ़ से उत्तर-पश्चिम दिशा में 45 किलो मीटर की दूरी पर स्थित यह स्थान ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसका उल्लेख रामायण, महाभारत में भी पाया जाता है। महाभारत में इसका उल्लेख द्रौपदी के स्वयंवर के समय किया गया है कि राजा द्रुपद ने द्रौपदी स्वयंवर यहां आयोजित किया था। काम्पिल पांचाल देश की राजधानी थी। यहां कपिल मुनि का आश्रम है जिसके अनुरुप यह नामकरण प्रसिद्ध हुआ। यह स्थान हिन्दू व जैन दोनों ही के लिए पवित्र है। जैन धर्मग्रन्थों के अनुसार प्रथम तीर्थकर श्री ॠषभदेव ने नगर को बसाया तथा अपना पहला उपदेश दिया। तेरहवें तीर्थकर बिमलदेव ने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया। काम्पिल में अनेकों वैभवशाली मंदिर हैं। समग्रतया सुधार संभव है यदि जिला भारतीय पर्यटन मानचित्र पर लाया जाए। इससे उन्नतिशील परियोजनाएं कुछ गति प्राप्त कर सकती हैं। जिससे नि:सन्देह प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति होगी। अविलम्बावश्यकता क्षेत्र में प्रचार और तत्संबंधी सभी परियोजनाओं को सुचारु रूप से आयोजित व क्रियान्वित करने की है जिसमें वहां की स्थानीय प्रजा सहभागी हो तभी सर्वा प्रगति संभव है। फ़र्रूख़ाबाद में एक पर्यटक के लिए पर्याप्त दर्शनीय स्थल व सामग्री है। काम्पिल में देवी-देवताओं की प्राचीन प्रतिमाएं हैं, जो कि शिलाखण्डों पर उत्कीर्णित हैं। जो कि अनेक शताब्दियों के बाद भी जीवन्त प्रतीत होती हैं। संकिशा को तो बौद्धों का मक्का संसारभर में कहा जाता है। कन्नौज अपने उत्पादों से दुनियाभर को सुरभित करता है। यह अनेंक शताब्दियों तक भारत की राजधानी रहा। कन्नौज के वैभव-ऐश्वर्य के साक्षी उसके भग्न शेष हैं। वैज्ञानिक सर्वेक्षण तथा अन्वेषण इसके वैभवशाली इतिहास पर प्रकाश डालने में सक्षम हैं। अतीत में की गई एक खुदाई फ़र्रूख़ाबाद के इतिहास के विषय में बहुत कुछ उद्घाटित करती है। बहुत कुछ समय के द्वारा नष्ट हो गया जो भी बचा है उसे भावी संततियों के लए सुरक्षित व संरक्षित करने की आवश्यकता है। ये भवन मात्र ईंट चूने के ढ़ेर ही नहीं हैं अपितु अतीत के मौन प्रत्यक्षदर्शी हैं। आज कला, संस्कृति व स्थापत्य कला के विविध आयामों के गहन अध्ययन की परमावश्यकता है। आज सुलभ भवनों की उचित जानकारी देना भी भावी इतिहासान्वेषियों के अध्ययनार्थ एक अद्वितीय योगदान है। अवाजपुर.अकरखेरा • अकबरगंज गढ़िया • अकबरपुर • अकबरपुर दामोदर • अकराबाद • अचरा • अचरातकी पुर • अचरिया वाकरपुर • अजीजपुर • अजीजाबाद • अटसेनी • अटेना • अतगापुर • अताईपुर • अताईपुर कोहना • अताईपुर जदीद • अतुरुइया • अद्दूपुर • अद्दूपुर डैयामाफी • अब्दर्रहमान पुर • अमरापुर • अमिलापुर • अमिलैया आशानन्द • अमिलैया मुकेरी • अरियारा • अलमापुर • अल्लापुर • अल्लाहपुर • अलादासपुर • अलियापुर • अलियापुर मजरा किसरोली • अलेहपुर पतिधवलेश्वर • असगरपुर • अहमद गंज • आजम नगर • आजमपुर • इकलहरा • इजौर • इमादपुर थमराई • इमादपुर समाचीपुर • ऊगरपुर • उम्मरपुर • उलियापुर • उलीसाबाद • उस्मानपुर • • ऊगरपुर • ऊधौंपुर • • अंगरैया • ककरोली • कटरा रहमतखान • कटरी तौफीक गड़ियाहैबतपुर • कटरी दुंध • कटरी रम्पुरा • कटरीरूपपुर मंगलीपुर • कटिया • कनासी • कम्पिल • कमठारी • कमरुद्दीन नगर • कमलैयापुर • कर्हुली • करनपुर • करनपुर गंगतारा • करीमनगर • कमालगंज • कमालपुर • कलिआपुर सैनी • कादर दादपुर सराय • कायमगंज • कायमपुर • कारव • कासिमपुर तराई • काँधेमई • किन्नर नगला • किसरोली • कुतुबुद्दीनपुरकुइयां सन्त • कुबेरपुर • कुंअरपुर इमलाक • कुंअरपुर खास • कुंइयाखेरा • कुइयांधीर • कुंआखेरा खास • कुंआखेरा वजीरआलम खान • कुरार • कैराई • कैलिहाई • कैंचिया • कोकापुर • ख्वाजा अहमदपुर कटिया • खगऊ • खलवारा • खलवारा • खानपुर • खिनमिनी • खुदना धमगवाँ • खुदना वैद • खुम्मरपुर • 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रस्सम या रसम एक दक्षिण भारतीय व्यनजन हैं।
विनकोट N.Z.A., कालाढूगी तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है।
हेल्फोर्ड जॉन मैकिण्डर मेकिण्डर ब्रिटेन में भुगोल का अग्रदूत माना जाता हैं। ब्रिटेन में भूगोल का विभाग सर्वप्रथम ऑक्सफ़ोर्ड में 1887 में खोला गया था, और नवयुवक मेकिण्डर वहां सर्वप्रथम रीडर नियुक्त हुवा था, तब उसकी आयु केवल 26 वर्ष थी। "जो पुर्वी युरोप पर शासन करता हैं, हृदय स्थल को नियंत्रित करता है,जो हृदय स्थल पर शासन करता हैं, विश्वद्वीप को नियंत्रित करता है,जो विश्वद्वीप पर शासन करता हैं, विश्व को नियंत्रित करता है,"
चन्द्रावती हरियाणा की एक अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं, ये 19 फ़रवरी 1990 से 18 दिसम्बर 1990 तक पुद्दुचेरी के लेफ्टिनेंट गवर्नर रह चुकी हैं।इसके पहले ये 1964 से 1966 तक और 1972 से 1974 तक हरियाणा की मंत्री रह चुकी हैं।1977 से 1979 तक ये भिवानी से जनता पार्टी की लोकसभा सदस्य रह चुकी हैं।
सहरावी अरब जनतांत्रिक गणराज्य पश्चिमी सहारा का आंशिक मान्य राज्य है। यह पश्चिमी सहारा पर पूर्ण दावा करता है। Sahara Press Service
आंगनवाडी भारत में ग्रामीण माँ और बच्चों के देखा भाल केंद्र है। बच्चों के भूख और कुपोषण से निपटने के लिए एकीकृत बाल विकास सेवा कार्यक्रम के भाग के रूप में,2 अक्टूम्बर 1975 बांसवाड़ा जिले के गढ़ी गांव खुली उन्हें भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया था। आंगनवाड़ी का अर्थ है "आंगन आश्रय"। इस प्रकार का आंगनवाड़ी केंद्र भारतीय गांवों में बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करता है। यह भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का एक हिस्सा है। मूल स्वास्थ्य देखभाल गतिविधियों में गर्भनिरोधक परामर्श और आपूर्ति, पोषण शिक्षा और अनुपूरक, साथ ही पूर्व-विद्यालय की गतिविधियों शामिल हैं। केंद्रों को मौखिक रीहाइड्रेशन नमक, बुनियादी दवाओं और गर्भ निरोधकों के लिए डिपो के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। 31 जनवरी 2013 तक 13.3 लाख आंगनवाड़ी और मिनी आंगनवाडी केंद्र 13.7 लाख स्वीकृत एडब्ल्यूसी / मिनी-एडब्ल्यूसी से परिचालित हैं। ये केंद्र पूरक पोषण प्रदान करते हैं, गैर - पूर्व-प्राथमिक शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा, प्रतिरक्षण, स्वास्थ्य जांच और रेफरल सेवाओं की बाद में तीन सेवाएं सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ मिलकर प्रदान की जाती हैं। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की ज़िम्मेदारी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। वे गर्भवती महिलाओं के लिए जन्मपूर्व और प्रसवपूर्व देखभाल सुनिश्चित करते हैं और नवजात शिशुओं और नर्सिंग माताओं के लिए तुरंत निदान और देखभाल करते हैं। वे 6 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों के टीकाकरण का प्रबंध करते हैं। इसके अलावा वे 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए पूरक पोषण के वितरण के साथ-साथ गर्भवती और नर्सिंग महिलाओं की निगरानी भी करते हैं। महिलाओं और बच्चों के लिए नियमित स्वास्थ्य और चिकित्सा जांच की निगरानी उनकी मुख्य जिम्मेदारियों में से एक है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अक्सर एक शिक्षक की भूमिका निभाते हैं और 3 से 5 साल के बीच के बच्चों को पूर्व-स्कूल शिक्षा प्रदान करना है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियों के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए हैं। इन में शामिल है, इस कार्यक्रम को निष्पादित करने, सभी परिवारों के नियमित रूप से त्वरित सर्वेक्षण करने, पूर्व-स्कूल की गतिविधियों का आयोजन करने, बच्चों को विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं को स्तनपान कराने के लिए स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा प्रदान करने, आदि को बढ़ावा देने के लिए, परिवार नियोजन, बच्चे के विकास और विकास के बारे में माता-पिता को शिक्षित करना, किशोरी शक्ति योजना के क्रियान्वयन और सामाजिक जागरूकता कार्यक्रमों आदि के आयोजन द्वारा किशोर लड़कियां और माता-पिता को शिक्षित करने में सहायता करना, बच्चों में विकलांगों की पहचान करना और इसी तरह। प्रत्येक 40 से 65 आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की निगरानी एक मुख्य सेविका द्वारा की जाती है। वे नौकरी प्रशिक्षण प्रदान करते हैं आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ ज़िम्मेदारियां करने के अलावा, उनके पास अन्य कर्तव्यों जैसे कि कम आर्थिक स्थिति से कार्यक्रम से लाभान्वित होने का ट्रैक रखने के लिए विशेष रूप से कुपोषित वर्ग से संबंधित हैं; आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को उम्र और बच्चों के वजन का आकलन करने और उनके वजन की साजिश रचने के लिए मार्गदर्शन करना; प्रभावी तरीकों का प्रदर्शन, उदाहरण के लिए, माताओं को स्वास्थ्य और पोषण शिक्षा प्रदान करने में; और क्या सुधार किया जा सकता है यह निर्धारित करने के लिए आंगनवाड़ी और श्रमिकों के आंकड़ों को बनाए रखें। मुख्य सेविका तब बाल विकास परियोजनाओं के अधिकारी को रिपोर्ट करती है। चिकित्सा और स्वास्थ्य देखभाल विशेषज्ञ दुर्भाग्य से भारत में कुशल पेशेवरों की कमी है इसलिए, आंगनवाड़ी प्रणाली के माध्यम से, देश, बढ़ी स्वास्थ्य सुविधाओं के अपने लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश कर रहा है जो स्थानीय जनसंख्या के लिए सस्ती और सुलभ हैं। कई तरह से ग्रामीण आबादी तक पहुंचने में एक चिकित्सक की तुलना में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बेहतर सुसज्जित है। चूंकि कार्यकर्ता लोगों के साथ रहता है, इसलिए वे स्वास्थ्य समस्याओं के कारणों की पहचान करने के लिए बेहतर स्थिति में हैं और इसलिए उन्हें प्रतिबन्ध करते हैं। उनके क्षेत्र में स्वास्थ्य स्थिति की उनकी बहुत अच्छी जानकारी है दूसरी बात यह है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता पेशेवरों के रूप में कुशल या योग्य नहीं हैं, इसलिए उनके पास बेहतर सामाजिक कौशल हैं जिससे लोगों के साथ बातचीत करना आसान हो जाता है। इसके अलावा, क्योंकि ये कार्यकर्ता गांव से हैं, वे भरोसेमंद हैं जो लोगों के लिए उनकी मदद करना आसान बनाता है। आखिरी लेकिन कम से कम, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता लोगों के तरीकों से अच्छी तरह जानते हैं, भाषा के साथ सहज महसूस करते हैं, ग्रामीण लोगों को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं। यह उनके लिए लोगों द्वारा सामना की जा रही समस्याओं को समझने और सुनिश्चित करने के लिए बहुत आसान है। कि वे हल कर रहे हैं आंगनवाड़ी को सार्वभौमिक रूप से सभी पात्र बच्चों और मां को उपलब्ध कराने के लिए सार्वजनिक नीतिगत चर्चा हुई है। इसके लिए बजटीय आवंटन में महत्वपूर्ण वृद्धि की आवश्यकता होगी और आंगनवाड़ी केंद्रों में 16 लाख से ज्यादा की वृद्धि होगी। आंगनवाड़ी के अधिकारियों और उनके सहायकों द्वारा कार्यरत हैं, जो आमतौर पर गरीब परिवारों से महिलाएं हैं अन्य सरकारी कर्मचारियों जैसे कर्मचारियों को व्यापक सेवानिवृत्ति के लाभ के साथ स्थायी नौकरियां नहीं हैं कार्यकर्ता विरोध और इस विषय पर सार्वजनिक बहस चल रहे हैं। कुछ आंगनवाड़ी केंद्रों में महिलाओं के खिलाफ भ्रष्टाचार और अपराधों की आवधिक रिपोर्टें हैं। जब आंगनवाडी-सेवारत बच्चों में बीमार हो या मर जाते हैं तो कानूनी और सामाजिक समस्याएं हैं 2008-2009 के बजट की घोषणा करते हुए, भारतीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए 1500 रुपये प्रति माह और सहायक प्रति माह 750 रुपये वेतन बढ़ाया जाएगा। मार्च 2008 में इस बात पर बहस हुई कि क्या पैक किए गए खाद्य पदार्थ को भोजन की सेवा का हिस्सा बन जाना चाहिए। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन सहित विरोधियों ने यह कहते हुए असहमत व्यक्त किया कि यह बच्चों द्वारा खाया जाने वाला एकमात्र भोजन होगा। निजी क्षेत्र के साथ भागीदारी बढ़ाने के लिए विकल्प जारी रहे हैं। एक प्रमुख पहल में, केंद्र उत्तर प्रदेश में 27 सबसे पिछड़े जिलों के साथ शुरू होने वाले आंगनवाड़ी के काम को डिजिटाइज़ करने के लिए तैयार है: बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश। स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ एकीकृत आंकड़ों को रिकॉर्ड करने के लिए आँगनवाड़ी को टैबलेट कंप्यूटर से उपलब्ध कराया जाएगा जो इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम के तहत टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच और पोषण शिक्षा में शामिल है। एकीकृत बाल विकास सेवा योजना में एडब्ल्यूसी भवनों के निर्माण के लिए कोई प्रावधान नहीं था क्योंकि यह पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर समुदाय द्वारा प्रदान किए जाने पर विचार किया गया था। उनके लिए, 1 992 के एक यूनिट लागत पर 2001-02 से एआरडब्ल्यूसी भवनों के निर्माण के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की गई थी। आईसीडीएस योजना को सुदृढ़ बनाने और पुनर्गठन के एक भाग के रूप में, सरकार ने रुपये की लागत से 200,000 आंगनवाड़ी केंद्र भवनों के निर्माण का प्रावधान किया। बारहवीं योजना अवधि के दौरान प्रति यूनिट 450,000 प्रति यूनिट के बीच केंद्र और राज्यों के बीच 75:25 के लागत साझेदारी अनुपात के साथ । इसके अलावा, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत एडब्ल्यूसी का निर्माण एक अनुज्ञेय गतिविधि के रूप में अधिसूचित किया गया है। मनरेगा के साथ अभिसरण में एडब्ल्यूसी भवनों का निर्माण किया जा सकता है आंगनवाड़ी प्रमुख दैनिक समाचार पत्र, द टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा रिपोर्टों के संग्रह के अनुसार दर्शाया गया है। पहली रिपोर्ट से उद्धृत करने के लिए, "अंगुल जिले में एक आंगनवाड़ी केंद्र के दो बच्चों की शुक्रवार को एक सनकी दुर्घटना में निधन हो गया, वे अपने आंगनवाड़ी केंद्र के पास वर्षा जल से भरे हुए पिट में डुबो गए। बच्चों में प्रियंका डैश और मोनालिसा नायक तंतुलीहटा गांव के भीतर हैं। बनारपाल पुलिस की सीमा 20 किमी दूर है। यह घटना दो महीने बाद आता है जब एक नया आँगनवाड़ी केंद्र के सात बच्चों की मौत हो गई, जब मध्य-दिवसीय भोजन के दौरान बारिश से बने ईंट की दीवार उन पर गिर गई। वित्तीय वर्ष 2011-12 के लिए अपने बजट भाषण में आंगनवाडी योजना के ग़रीब राज्य शासन को सुधारने के एक असाधारण प्रयास में, वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के वेतन में 3000 रुपये प्रति माह और सहायक को प्रति माह 1500 रुपये बढ़ा दिया - सरकारी कार्यालय सहायक के वेतन के बारे में दसवां अंश अंतर्राष्ट्रीय प्रयास यूनिसेफ और संयुक्त राष्ट्र सहस्राब्दी विकास शिशु मृत्यु दर को कम करने और मातृ देखभाल में सुधार लाने के लक्ष्य हैं आंगनवाडिओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहन। श्रमिकों और सहायकों को प्रत्येक डब्ल्यूएचओ मानकों के अनुसार प्रशिक्षित होने की उम्मीद है। भाटुन्द में एक आंगनवाड़ी केन्द्र है।
मोबाइल फोन आजकल हर व्यक्ति की आवश्यकता बन चुका है। इण्टरनेट पर हिन्दी के प्रयोक्ता ऐसा फोन चाहते हैं जिससे कि वे अपने फोन पर भी हिन्दी का प्रयोग कर सकें जिसमें कि हिन्दी साइटों की सर्फिंग, ईमेल, गपशप, ब्लॉगिंग, ट्विटिंग आदि शामिल हैं। आजकल मोबाइल फोनों में हिन्दी भाषा का समर्थन बढ़ता जा रहा है। विभिन्न कम्पनियाँ हिन्दी समर्थन युक्त हैण्डसैट ला रही हैं। लेकिन अक्सर इस बारे भ्रम रहता है कि फोन में हिन्दी समर्थन है कि नहीं। इस बारे में जानकारी प्रदान करने हेतु यह सूची बनाई गई है। आंशिक प्रदर्शन से अर्थ है कि फोन में हिन्दी दिखती तो है परन्तु सही रूप से नहीं। मात्रायें तथा संयुक्ताक्षर बिखरे हुये से दिखते हैं। इसका कारण है कि फोन में हिन्दी फॉण्ट तो होता है परन्तु फोन का कॉम्पलैक्स स्क्रिप्ट लेआउट इंजन हिन्दी का समर्थन नहीं करता अर्थात देवनागरी को सही तरीके से रॅण्डर नहीं करता। ऐसे फोनो में कुछ सॉफ्टवेयरों में हिन्दी सही रूप से दिख सकती है जो कि फोन की बजाय अपना हिन्दी फॉण्ट इंजन प्रयोग करते हों।
संयुक्त राज्य वायुसेना संयुक्त राज्य अमेरिका की सशस्त्र सेना का वायु युद्ध शाखा और अमेरिकी वर्दीधारी सेवाओं में से एक है। शुरू में, संयुक्त राज्य वायुसेना, संयुक्त राज्य थलसेना के अधीन स्थापित हुआ। परंतु, 1947 के राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के द्वारा स्वतंत्र वायुसेना की पुनर्स्थापना किया। इस लिए, संयुक्त राज्य वायुसेना, अमेरिकी सशस्त्र सेनाओ के सबसे नया सदस्य है। पर्वत मैदान द्वीप
घाटाइल उपजिला, बांग्लादेश का एक उपज़िला है, जोकी बांग्लादेश में तृतीय स्तर का प्रशासनिक अंचल होता है । यह ढाका विभाग के टाङाइल ज़िले का एक उपजिला है। यह बांग्लादेश की राजधानी ढाका के निकट अवस्थित है। यहाँ की आधिकारिक स्तर की भाषाएँ बांग्ला और अंग्रेज़ी है। तथा बांग्लादेश के किसी भी अन्य क्षेत्र की तरह ही, यहाँ की भी प्रमुख मौखिक भाषा और मातृभाषा बांग्ला है। बंगाली के अलावा अंग्रेज़ी भाषा भी कई लोगों द्वारा जानी और समझी जाती है, जबकि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक निकटता तथा भाषाई समानता के कारण, कई लोग सीमित मात्रा में हिंदुस्तानी भी समझने में सक्षम हैं। यहाँ का बहुसंख्यक धर्म, इस्लाम है, जबकि प्रमुख अल्पसंख्यक धर्म, हिन्दू धर्म है। चट्टग्राम विभाग में, जनसांख्यिकीक रूप से, इस्लाम के अनुयाई, आबादी के औसतन 91.19% है, जोकि बांग्लादेश के तमाम विभागों में अधिकतम् है। शेष जनसंख्या प्रमुखतः हिन्दू धर्म की अनुयाई है। घाटाइल उपजिला बांग्लादेश के मध्य में स्थित, ढाका विभाग के टाङाइल जिले में स्थित है।
अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है। जैन धर्म एवंम हिन्दू धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। जैन धर्म के मूलमंत्र में ही अहिंसा परमो धर्म: धर्म कहा गया है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था। हिंदू शास्त्रों की दृष्टि से "अहिंसा" का अर्थ है सर्वदा तथा सर्वदा zeeshan सब प्राणियों के साथ द्रोह का अभाव। । अहिंसा के भीतर इस प्रकार सर्वकाल में केवल कर्म या वचन से ही सब जीवों के साथ द्रोह न करने की बात समाविष्ट नहीं होती, प्रत्युत मन के द्वारा भी द्रोह के अभाव का संबंध रहता है। योगशास्त्र में निर्दिष्ट यम तथा नियम अहिंसामूलक ही माने जाते हैं। यदि उनके द्वारा किसी प्रकार की हिंसावृत्ति का उदय होता है तो वे साधना की सिद्धि में उपादेय तथा उपकार नहीं माने जाते। "सत्य" की महिमा तथा श्रेष्ठता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, परंतु यदि कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष घटित हाता है तो वहाँ सत्य वस्तुत: सत्य न होकर सत्याभास ही माना जाता है। कोई वस्तु जैसी देखी गई हो तथा जैसी अनुमित हो उसका उसी रूप में वचन के द्वारा प्रकट करना तथा मन के द्वारा संकल्प करना "सत्य" कहलाता है, परंतु यह वाणी भी सब भूतों के उपकार के लिए प्रवृत्त होती है, भूतों के उपघात के लिए नहीं। इस प्रकार सत्य की भी कसौटी अहिंसा ही है। इस प्रसंग में वाचस्पति मिश्र ने "सत्यतपा" नामक तपस्वी के सत्यवचन को भी सत्याभास ही माना है, क्योंकि उसने चोरों के द्वारा पूछे जाने पर उस मार्ग से जानेवाले सार्थ का सच्चा परिचय दिया था। हिंदू शास्त्रों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह, इन पाँचों यमों को जाति, देश, काल तथा समय से अनवच्छिन्न होने के कारण समभावेन सार्वभौम तथा महाव्रत कहा गया है और इनमें भी, सबका आधारा होने से, "अहिंसा" ही सबसे अधिक महाव्रत कहलाने की योग्यता रखती है। जैन धर्म में सब जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार अहिंसा है। अहिंसा का शब्दानुसारी अर्थ है, हिंसा न करना। इसके पारिभाषिक अर्थ विध्यात्मक और निषेधात्मक दोनों हैं। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राणवध न करना या प्रवृत्ति मात्र का विरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है; सत्प्रवृत्ति, स्वाध्याय, अध्यात्मसेव, उपदेश, ज्ञानचर्चा आदि आत्महितकारी व्यवहार विध्यात्मक अहिंसा है। संयमी के द्वारा भी अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाता है, वह भी निषेधात्मक अहिंसा हिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है, विध्यात्मक अहिंसा में सत्क्रियात्मक सक्रियता होती है। यह स्थूल दृष्टि का निर्णय है। गहराई में पहुँचने पर तथ्य कुछ और मिलता है। निषेध में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निषेध होता ही है। निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति और सत्प्रवृत्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होता है। हिंसा न करनेवाला यदि आँतरिक प्रवृत्तियों को शुद्ध न करे तो वह अहिंसा न होगी। इसलिए निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति की अपेक्षा रहती है, वह बाह्य हो चाहे आँतरिक, स्थूल हो चाहे सूक्ष्म। सत्प्रवृत्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होना आवश्यक है। इसके बिना कोई प्रवृत्ति सत् या अहिंसा नहीं हो सकती, यह निश्चय दृष्टि की बात है। व्यवहार में निषेधात्मक अहिंसा को निष्क्रिय अहिंसा और विध्यात्मक अहिंसा को सक्रिय अहिंसा कहा जाता है। जैन ग्रंथ आचारांगसूत्र में, जिसका समय संभवत: तीसरी चौथी शताब्दी ई. पू. है, अहिंसा का उपदेश इस प्रकार दिया गया है : भूत, भावी और वर्तमान के अर्हत् यही कहते हैं-किसी भी जीवित प्राणी को, किसी भी जंतु को, किसी भी वस्तु को जिसमें आत्मा है, न मारो, न अनुचित व्यवहार करो, न अपमानित करो, न कष्ट दो और न सताओ। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति, ये सब अलग जीव हैं। पृथ्वी आदि हर एक में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व के धारक अलग-अलग जीव हैं। उपर्युक्त स्थावर जीवों के उपरांत न्नस प्राणी हैं, जिनमें चलने फिरने का सामर्थ्य होता है। ये ही जीवों के छह वर्ग हैं। इनके सिवाय दुनिया में और जीव नहीं हैं। जगत् में कोई जीव न्नस है और कोई जीव स्थावर। एक पर्याय में होना या दूसरी में होना कर्मों की विचित्रता है। अपनी-अपनी कमाई है, जिससे जीव अन्न या स्थावर होते हैं। एक ही जीव जो एक जन्म में अन्न होता है, दूसरे जन्म में स्थावर हो सकता है। न्नस हो या स्थावर, सब जीवों को दु:ख अप्रिय होता है। यह समझकर मुमुक्षु सब जीवों के प्रति अहिंसा भाव रखे। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए निर्ग्रंथ प्राणिवध का वर्जन करते हैं। सभी प्राणियों को अपनी आयु प्रिय है, सुख अनुकूल है, दु:ख प्रतिकूल है। जो व्यक्ति हरी वनस्पति का छेदन करता है वह अपनी आत्मा को दंड देनेवाला है। वह दूसरे प्राणियों का हनन करके परमार्थत: अपनी आत्मा का ही हनन करता है। आत्मा की अशुद्ध परिणति मात्र हिंसा है; इसका समर्थन करते हुए आचार्य अमृतचंद्र ने लिखा है : असत्य आदि सभी विकार आत्मपरिणति को बिगाड़नेवाले हैं, इसलिए वे सब भी हिंसा हैं। असत्य आदि जो दोष बतलाए गए हैं वे केवल "शिष्याबोधाय" हैं। संक्षेप में रागद्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा और उनका प्रादुर्भाव हिंसा है। रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती, रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से, प्राणवध न होने पर भी, वह होती है। जो रागद्वेष की प्रवृत्ति करता है वह अपनी आत्मा का ही घात करता है, फिर चाहे दूसरे जीवों का घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणत होना भी हिंसा है। इसलिए जहाँ रागद्वेष की प्रवृत्ति है वहाँ निरंतर प्राणवध होता है। हिंसा मात्र से पाप कर्म का बंधन हाता है। इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किंतु हिंसा के कारण अनेक होते हैं, इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जानबूझकर हिंसा करता है, तो कोई अनजान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोगजनवश करता है, तो काई बिना प्रयोजन भी।,सूत्रकृतांग में हिंसा के पाँच समाधान बतलाए गए हैं : अर्थदंड, अनर्थदंड, हिंसादंड, अकस्माद्दंड, दृष्टिविपर्यासदंड। अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है। वह एक ओर अखंड है, किंतु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना ही नाश होता है उतना ही उसका विकास। इस मोहविलय के तारतम्य पर उसके दो रूप निश्चित किए गए हैं : अहिंसा महाव्रत, अहिंसा अणुव्रत। इनमें स्वरूपभेद नहीं, मात्रा का भेद है। मुनि की अहिंसा पूर्ण है, इस दशा में श्रावक की अहिंसा अपूर्ण। मुनि की तरह श्रावक सब प्रकार की हिंसा से मुक्त नहीं रह सकता। मुनि की अपेक्षा श्रावक की अहिंसा का परिमाण बहुत कम है। उदाहरणत: मुनि की अहिंसा 20 बिस्वा है तो श्रावक की अहिंसा सवा बिस्वा है। इसका कारण यह है कि श्रावक 19 जीवों की हिंसा को छोड़ सकता है, वादर स्थावर जीवों की हिंसा को नहीं। इससे उसकी अहिंसा का परिमाण आधा रह जाता है-दस बिस्वा रह जाता है। इसमें भी श्रावक उन्नीस जीवों की हिंसा का संकल्पपूर्वक त्याग करता है, आरंभजा हिंसा का नहीं। अत: उसका परिमाण उसमें भी आधा अर्थात् पाँच बिस्वा रह जाता है। संकल्पपूर्वक हिंसा भी उन्हीं उन्नीस जीवों की त्यागी जाती है जो निरपराध हैं। सापराध न्नस जीवों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकता। इससे वह अहिंसा ढाई बिस्वा रह जाती है। निरपराध उन्नीस जीवों की भी निरपेक्ष हिंसा को श्रावक त्यागता है। सापेक्ष हिंसा तो उससे हो जाती है। इस प्रकार श्रावक की अंहिसा का परिमाण सवा बिस्वा रह जाता है। इस प्राचीन गाथा में इसे संक्षेप में इस प्रकार कहा है : जीवा सुहुमाथूला, संकप्पा, आरम्भाभवे दुविहा। सावराह निरवराहा, सविक्खा चैव निरविक्खा।। सूक्ष्म जीवहिंसा, स्थूल जीवहिंसा, संकल्प हिंसा, आरंभ हिंसा, सापराध हिंसा, निरपराध हिंसा, सापेक्ष हिंसा, निरपेक्ष हिंसा। हिंसा के ये आठ प्रकार हैं। श्रावक इनमें से चार प्रकार की, हिंसा का त्याग करता है। अत: श्रावक की अहिंसा अपूर्ण है। इसी प्रकार बौद्ध और ईसाई धर्मों में भी अहिंसा की बड़ी महिमा है। वैदिक हिंसात्मक यज्ञों का उपनिषत्कालीन मनीषियों ने विरोध कर जिस परंपरा का आरंभ किया था उसी परंपरा की पराकाष्ठा जैन और बौद्ध धर्मों ने की। जैन अहिंसा सैद्धांतिक दृष्टि से सारे धर्मों की अपेक्षा असाधारण थी। बौद्ध अहिंसा नि:संदेह आस्था में जैन धर्म के समान महत्व की न थी, पर उसका प्रभाव भी संसार पर प्रभूत पड़ा। उसी का यह परिणाम था कि रक्त और लूट के नाम पर दौड़ पड़नेवाली मध्य एशिया की विकराल जातियाँ प्रेम और दया की मूर्ति बन गईं। बौद्ध धर्म के प्रभाव से ही ईसाई भी अहिंसा के प्रति विशेष आकृष्ट हुए; ईसा ने जो आत्मोत्सर्ग किया वह प्रेम और अहिंसा का ही उदाहरण था। उन्होंने अपने हत्यारों तक की सद्गति के लिए भगवान से प्रार्थना की और अपने अनुयायियों से स्पष्ट कहा है कि यदि कोई गाल पर प्रहार करे तो दूसरे को भी प्रहार स्वीकार करने के लिए आगे कर दो। यह हिंसा का प्रतिशोध की भावना नष्ट करने के लिए ही था। तोल्स्तोइ और गांधी ईसा के इस अहिंसात्मक आचरण से बहुत प्रभावित हुए। गांधी ने तो जिस अहिंसा का प्रचार किया वह अत्यंत महत्वपूर्ण थी। उन्होंने कहा कि उनका विरोध असत् से है, बुराई से नहीं। उनसे आवृत व्यक्ति सदा प्रेम का अधिकारी है, हिंसा का कभी नहीं। अपने आँदोलन के प्राय: चोटी पर होते भी चौराचौरी के हत्याकांड से विरक्त होकर उन्होंने आँदोलन बंद कर दिया था।
माओ से-तुंग या माओ ज़ेदोंग चीनी क्रान्तिकारी, राजनैतिक विचारक और साम्यवादी दल के नेता थे जिनके नेतृत्व में चीन की क्रान्ति सफल हुई। उन्होंने जनवादी गणतन्त्र चीन की स्थापना से मृत्यु पर्यन्त तक चीन का नेतृत्व किया। मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर उन्होंनें जिस सिद्धान्त को जन्म दिया उसे माओवाद नाम से जाना जाता है। वर्तमान में कई लोग माओ को एक विवादास्पद व्यक्ति मानते हैं परन्तु चीन में वे राजकीय रूप में महान क्रान्तिकारी, राजनैतिक रणनीतिकार, सैनिक पुरोधा एवं देशरक्षक माने जाते हैं। चीनियों के अनुसार माओ ने अपनी नीति और कार्यक्रमों के माध्यम से आर्थिक, तकनीकी एवं सांस्कृतिक विकास के साथ संसार विश्व में प्रमुख शक्ति के रूप में ला खडा करने में मुख्य भूमिका निभाई। वे कवि, दार्शनिक, दूरदर्शी महान प्रशासक के रूप में गिने जाते हैं। इसके विपरीत, माओ के 'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' और 'सांस्कृतिक क्रांति' नामक सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यक्रमों के कारण गंभीर अकाल की सृजना होने के साथ चीनी समाज, अर्थव्यवस्था तथा संस्कृति को ठेस पहुंचाने की भी बातें की जाती हैं, जिसके कारण संसार में सन् 1949 से 1975 तक करोडों लोगों की व्यापक मृत्यु हुई बताई जाती हैं। माओ संसार के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में गिने जाते हैं। टाइम पत्रिका के अनुसार 20वीं सदी के 100 सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में माओ आते हैं। माओ का जन्म 26 दिसम्बर 1893 में हूनान प्रान्त के शाओशान क़स्बे में हुआ। उनके पिता एक ग़रीब किसान थे जो आगे चलकर एक धनी कृषक और गेहूँ के व्यापारी बन गए। 8 साल की उम्र में माओ ने अपने गाँव की प्रारम्भिक पाठशाला में पढ़ना शुरू किया लेकिन 13 की आयु में अपने परिवार के खेत पर काम करने के लिए पढ़ना छोड़ दिया। बाद में खेती छोड़कर वे हूनान प्रान्त की राजधानी चांगशा में माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने गए। जिन्हाई क्राति के समय माओ ने हूनान के स्थानीय रेजिमन्ट में भर्ती होकर क्रान्तिकारियों की तरफ से लड़ाई में भाग लिया। चिंग राजवंश के सत्ताच्युत होने पर वे सेना छोड़कर पुनः विद्यालय गए। सन् 1918 में स्नातक बनने के बाद् सन् 1919 को चार मई आन्दोलन के लिए अपने शिक्षक एवं भविष्य के ससुर प्राध्यापक यां च्यां जि के साथ बेइजिंग की यात्रा पर गए। प्राध्यापक यां च्यां जि पीकिंग विश्वविद्यालय में महत्वपूर्ण पद पर थे और उनकी सिफारिश पर माओ ने सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष पद पर रहकर काम किया। माओ ने अंशकालिक छात्र के रूप में पंजीकृत होकर कुछ व्याखानों और विद्वानों के सेमिनारों में भी भाग लिए। शंघाई में रहते वे साम्यवादी सिद्धान्त में अध्ययन में लगे।
2502 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 2502 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 2502 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते हैं।
कम्ब्रिया एक इंग्लैंड का काउंटी है। बेडफ़र्डशायर |बर्कशायर |सिटी ऑफ़ ब्रिस्टल |बकिंघमशायर |केमब्रिजशायर |चेशायर |कॉर्नवल |कम्ब्रिया |डर्बीशायर |डेवन |डॉर्सेट |डरहम |ईस्ट राइडिंग ऑफ़ यॉर्कशायर |ईस्ट ससेक्स |एसेक्स |ग्लॉस्टरशायर |ग्रेटर लंदन |ग्रेटर मैनचेस्टर |हैम्पशायर |हरफ़र्डशायर |हर्टफ़र्डशायर |आइल ऑफ़ वाइट |केंट |लैंकाशायर |लेस्टरशायर |लिंकनशायर |सिटी ऑफ़ लंदन |मर्सीसाइड |नॉर्फ़क |नॉर्थहैम्पटनशायर |नॉर्थम्बरलैंड |नॉर्थ यॉर्कशायर |नॉटिंघमशायर |ऑक्सफ़र्डशायर |रटलैंड |श्रॉपशायर |समरसेट |साउथ यॉर्कशायर |स्टैफ़र्डशायर |सफ़क |सरी |टाइन ऐंड वेयर |वरिकशायर |वेस्ट मिडलैंड्स |वेस्ट ससेक्स |वेस्ट यॉर्कशायर |विल्टशायर |वॉस्टरशायर
परुकी में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत मगध मण्डल के औरंगाबाद जिले का एक गाँव है।
गुवाहाटी एक्स्प्रेस 5666 भारतीय रेल द्वारा संचालित एक मेल एक्स्प्रेस ट्रेन है। यह ट्रेन दीमापुर रेलवे स्टेशन से 09:45PM बजे छूटती है और गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर 03:45AM बजे पहुंचती है। इसकी यात्रा अवधि है 6 घंटे 0 मिनट।
आरज़ू का अर्थ अभिलाषा या तमन्ना है। यह शब्द संभवत दरी भाषा से आया है। इससे इनका उल्लेख होता हैं:-
यूरोप में मानव ईसापूर्व 35,000 के आसपास आया। इसके बाद 7000 इस्वी पूर्व से संगठित बसाव यानि बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं। काँस्य युगीन सभ्यता के समय यहाँ कुछ अधिक बसाव नहीं हुआ - भ़ासकर मिस्र, इराक, चीन और भारतीय सभ्यता के मुकाबले। लेकिन 500 ईसापूर्व से रोमन और यूनानी साम्राज्यों का उदय हुआ जिसने यूरोप की संस्कृति को बहुत प्रभावित किया। सैन्य, कला और चिंतन के मामले में यूनानियों ने यूरोप के एक कोने में होते हुए भी पूरे यूरोप और बाद में विश्वभर में अपना प्रभाव जमाया। आज यूरोप के देश यूरोपीय संघ के सदस्य हैं जो एक मुद्रा यूरो चलाता है। मध्यकाल में यूरोप छोटे राज्यों में विभक्त हो गया था। विज्ञान और शोध के मामले में धार्मिक मान्यताओं ने अपना प्रभाव बना रखा था। पंद्रहवीं सदी के बाद यह पुनः विकसित हुआ। सैनिक इतिहास का एक छोटा ब्यौरा नीचे लिखा है, कृपया वहाँ देखें। यूरोप के इतिहास को समझने के लिए दक्षिणी, पूर्वी और उत्तरी क्षेत्र जिसनें जर्मन मूल की नौर्ड और वाइकिंग तथा केल्ट और गॉल को समझना आवश्यक है। ग्रीक तथा लातिनी राज्यों की स्थापना प्रथम सहस्त्राब्दी के पूर्वार्ध में हुई। इन दोनों संस्कृतियों ने आधुनिक य़ूरोप की संस्कृति को बहुत प्रभावित किया है। ईसापूर्व 480 के आसपास य़ूनान पर फ़ारसियों का आक्रमण हुआ जिसमेंम यवनों को बहुधा पीछे हटना पड़ा। 330 ईसापूर्व में सिकन्दर ने फारसी साम्राज्य को जीत लिया। सन् 27 ईसापूर्व में रोमन गणतंत्र समाप्त हो गया और रोमन साम्राज्य की स्थापना हुई। सन् 313 में कांस्टेंटाइन ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया और यह धर्म रोमन साम्राज्य का राजधर्म बन गया। पाँचवीं सदी तक आते-आते रोमन साम्राज्य कमजोर हो चला और पूर्वी रोमन साम्राज्य पंद्रहवीं सदी तक इस्तांबुल में बना रहा। इस दौरान पूर्वी रोमन साम्राज्यों को अरबों के आक्रमण का सामना करना पड़ा जिसमें उन्हें अपने प्रदेश अरबों को देने पड़े। सन् 1453 में इस्तांबुल के पतन के बाद यूरोप में नए जनमानस का विकास हुआ जो धार्मिक बंधनों से ऊपर उठना चाहता था। इस घटना को पुनर्जागरण कहते हैं। पुनर्जागरण ने लोगों को पारम्परिक विचारों को त्याग व्यावहारिक तथा वैज्ञानिक तथ्यों पर विश्वास करने पर जोर दिया। इस काल में भारत तथा अमेरिका जैसे देशों के समुद्री मार्ग की खोज हुई। सोलहवीं सदी में पुर्तगाली तथा डच नाविक दुनिया के देशों के सामुद्रिक रास्तों पर वर्चस्व बनाए हुए थे। इसी समय पश्चिमी य़ूरोप में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हो गया था। सांस्कृतिक रूप से भी य़ूरोप बहुत आगे बढ़ चुका था। साहित्य तथा कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई थी। छपाई की खोज के बाद पुस्तकों से ज्ञानसंचार त्वरित गति से बढ़ गया था। सन् 1789 में फ्रांस की राज्यक्रांति हुई जिसने पूरे यूरोप को प्रभावित किया। इसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता, जनभागीदारी तथा उदारता को बल मिला था। रूसी साम्राज्य धीरे-धीरे विस्तृत होने लगा था। पर इसका विस्तार मुख्यतः एशिया में अपने दक्षिण की तरफ़ हो रहा था। इस समय ब्रिटेन तथा फ्रांस अपने नौसेना की तकनीकी प्रगति के कारण डचों तथा पुर्तगालियों से आगे निकल गए। पुर्तगाल पर स्पेन का अधिकार हो गया और पुर्तगाली उपनिवेशों पर अधिकांशतः अंग्रेजों तथा फ्रांसिसियों ने अधिकार कर लिया। रूसी सर्फराज्य का पतन 1861 में हुआ। बाल्कन के प्रदेश उस्मानी साम्राज्य से स्वतंत्र होते गए। 1914-8 तथा 1939-45 में दो विश्वयुद्ध हुए। दोनों में जर्मनी की पराजय हुई। इसेक बाद विश्व शीतयुद्ध के दौर से गुजरा। अमेरिका था रूस दो महाशक्ति बनकर उभरे। प्रायः पूर्वी य़ूरोप के देश रूस के साथ रहे जबकि पश्चिमी य़ूरोप के देश अमेरिका के। जर्मनी का विभाजन हो गया। सन् 1959 में रूस ने अपने कॉस्मोनॉट यूरी गगरिन को अंतरिक्ष में भेजा। 1969 में अमेरिका ने सफलतापूर्वक मानव को चन्द्रमा की सतह तक पहुँचाने का दावा किया हथियारों की होड़ बढ़ती गई। अंततः अमेरिका आगे निकल गया और 1989 में जर्मनी का एकीकरण हुआ। 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया। रूस सबसे बड़ा परवर्ती राज्य बना। सन् 2007 में यूरोपीय संघ की स्थापना हुई। सत्रहवीं शताब्दी में पहली बार भारत का ब्रिटेन से सम्पर्क हुआ। यह सम्पर्क दो परस्पर-विरोधी संस्कृतियों का परस्पर टकराना–मात्र था। उन दिनों समूचा ब्रिटेन अर्धसभ्य किसानों का उजाड़ देश था। उनकी झोपड़ियों नरसलों और सरकंडों की बनी होती थीं, जिनके ऊपर मिट्टी या गारा लगाया हुआ होता था। घास-फूस जलाकर घर में आग तैयार की जाती थी जिससे सारी झोपड़ी में धुआँ भर जाता था। धुँए को निकालने के कोई राह ही न थी। उनकी खुराक जौ, मटर, उड़द, कन्द और दरख्तों की छाल तथा मांस थी। उनके कपड़ों में जुएं भरी होती थीं। आबादी बहुत कम थी, जो महामारी और दरिद्रता के कारण आए दिन घटती जाती थी। शहरों की हालत गाँवों से कुछ अच्छी न थी। शहरवालों का बिछौना भुस से भरा एक थैला होता था। तकिये की जगह लकड़ी का एक गोल टुकड़ा। शहरी लोग जो खुशहाल होते थे, चमड़े का कोट पहनते थे। गरीब लोग हाथ-पैरों पर पुआल लटेपकर सरदी से जान बचाते थे। न कोई कारखाना था, न कारीगर। न सफाई का इन्तजाम, न रोगी होने पर चिकित्सा की व्यवस्था। सड़कों पर डाकू फिरते थे और नदियां तथा समुद्री मुहाने समुद्री डाकुओं से भरे रहते थे। उन दिनो दुराचार का तमाम यूरोप में बोलबाला और आतशक-सिफलिस की बीमारी आम थी। विवाहित या अविवाहित, गृहस्थ पादरी, यहाँ कि पोप दसवें लुई तक भी इस रोग से बचे न थे। पादरियों का इंग्लैंड की एक लाख स्त्रियों को भ्रष्ट किया था। कोई पादरी बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी केवल थोड़े-से जुर्माने की सज़ा पाता था। मनुष्य-हत्या करने पर भी केवल छः शिलिंग आठ पैंस- लगभग पांच रुपये-जुर्माना देना पड़ता था। ढोंग-पाखण्ड, जादू-टोना उनका व्यवसाय था। सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लंदन नगर इतना गंदा था और वहां के मकान इस कदर भद्दे थे कि उसे मुश्किल से शहर कहा जा सकता था। सड़कों की हालत ऐसी थी कि पहियेदार गाड़ियों का चलना खतरे से खाली न था लोग लद्दू टट्टुओं पर दाएं-बाएं पालनों में असबाब की भाँति लदकर यात्रा करते थे। उन दिनों तेज़ से तेज़ गाड़ी इंगलैंड में तीस से पचास मील का सफर एक दिन में तय कर सकती थी। अधनंगी स्त्रियां जंगली और भद्दे गीत गाती फिरती थीं और पुरुष कटार घुमा-घुमाकर लड़ाई के नाच नाचा करते थे। लिखना-पढ़ना बहुत कम लोग जानते थे। यहाँ तक कि बहुत-से लार्ड अपने हस्ताक्षर भी नहीं कर सकते थे। बहुदा पति कोड़ों से अपनी स्त्रियों को पीटा करते थे। अपराधी को टिकटिकी से बाँधकर पत्थर मार-मारकर मार डाला जाता था। औरतों की टाँगों को सरेबाजार शिकंजों में कसकर तोड़ दिया जाता था। शाम होने के बाद लंदन की गलियां सूनी, डरावनी और अंधेरी हो जाती थीं। उस समय कोई जीवट का आदमी ही घर से बाहर निकलने का साहस कर सकता था। उसे लुट जाने या गला काट जाने का भय था। फिर उसके ऊपर खिड़की खोल कोई भी गन्दा पानी तो फेंक ही सकता था। गलियों में लालटेन थीं ही नहीं। लोगों को भयभीत करने के लिए टेम्स के पुराने पुल पर अपराधियों के सिर काट कर लटका दिए जाते थे। धार्मिक स्वतन्त्रता न थी। बादशाह के सम्प्रदाय से भिन्न दूसरे किसी सम्प्रदाय के गिरजाघर में जाकर उपदेश सुनने की सजा मौत थी। ऐसे अपराधियों के घुटने को शिकजे में कसकर तोड़ दिया जाता था। स्त्रियों को लड़कियों को सहतीरों में बाँधकर समुद्र के किनारे पर छोड़ देते थे कि धीरे-धीरे बढ़ती हुई समुद्र की लहरें उन्हें निगल जाएं। बहुधा उनके गालों को लाल लोहे से दागदार अमेरिका निर्वासित कर दिया जाता था। उन दिनों इंग्लैंड की रानी भी गुलामों के व्यापर में लाभ का भाग लेती थी। इंग्लैंड के किसान की व्यवस्था उस ऊदबिलाव के समान थी जो नदी किनारे मांद बनाकर रहता हो। कोई ऐसा धंधा-रोजगार न था कि जिससे वर्षा न होने की सूरत में किसान दुष्काल से बच सकें। उस समय समूचे इंगलिस्तान की आबादी पचास लाख से अधिक न थी। जंगली जानवर हर जगह फिरते थे। सड़कों की हालत बहुत खराब थी। बरसात में तो सब रास्ते ही बन्द हो जाते थे। देहात में प्रायः लोग रास्ता भूल जाते थे और रात-रात भर ठण्डी हवा में ठिठुरते फिरते थे। दुराचार का दौरदौरा था। राजनीतिक और धार्मिक अपराधों पर भयानक अमानुषिक सजाएं दी जाती थीं। यह दशा केवल ब्रिटेन की ही न थी, समूचे यूरोप की थी। प्रायः सब देशों में वंश-क्रम से आए हुए एकतन्त्र, स्वेच्छाचारी निरंकुश राजा राज्य करते थे। उनका शासन-सम्बन्धी मुख्य सिद्दान्त था-हम पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं और हमारी इच्छा ही कानून है। जनता की दो श्रेणियां थी। जो कुलीन थे वे ऊँचे समझे जाते थे; जो जन्म से नीच थे वे दलितवर्गी थे। ऐसा एक भी राजा न था जो प्रजा के सुख-दुख से सहानुभूति रखता हो। विलाश और शान-शौकत ही में वे मस्त रहते थे। वे अपनी सब प्रजा के जानोमाल के स्वामी थे। राजा होना उनका जन्मसिद्ध अधिकार था। उनकी प्रजा को बिना सोचे-समझे उनकी आज्ञा का पालन करना ही चाहिए। फ्रांस का चौदहवां लुई ऐसा ही बादशाह था। यूरोप में वह सबसे अधिक काल तक तख्तनशीन रहा। वह औरंगजेब से बारह वर्ष पूर्व गद्दी पर बैठा और उसके मरने के आठ वर्ष बाद तक गद्दी पर बैठा रहा। पूरे बहत्तर वर्ष। वह सभ्य, बुद्धिमान और महत्वाकांक्षी था। और चाहता था कि फ्रांस दुनिया का सबसे अधिक शक्ति-सम्पन्न राष्ट्र बन जाए। परन्तु जब-जब वह फ्रांस की शक्ति और उन्नति की बात सोचता था, तब-तब वह फ्रांस की जनता के सम्बन्ध में नहीं, केवल अपने और अपने सामन्तों के सम्बन्ध में। वह अपने ही को राज्य कहता था और यह उसका तकिया-कलाम बन गया था। उसने अपनी दरबारी तड़क-भड़क से सारे संसार को चकित कर दिया था और फ्रांस सारे तत्कालीन सभ्य संसार में फैशन के लिए प्रसिद्ध हो गया था। उसने प्रजा पर भारी–भारी टैक्स लगाए थे तथा प्रजा की गाढ़ी कमायी से बड़े-बड़े राजमहल बनाए थे। उसने वसाई और पेरिस की शान बनाई कि जिसकी उपमा यूरोप में न थी। उसने अजेय सेना का संगठन किया था, जिसे यूरोप के सब राष्ट्रों ने मिलकर बड़ी ही कठिनाई से परास्त किया। सन् 1715 में जब वह मरा तो पेरिस अपनी शान-फैशन साहित्य, सौन्दर्य और बड़े-बड़े महलों तथा फव्वारों से सुसज्जित था और फ्रांस यूरोप की प्रधान राजनीतिक और सैनिक शक्ति बन गया था। परन्तु सारा देश भूखा और सन्तुष्ट था। उस काल में यूरोप का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी आस्ट्रिया था जिसके राजा हाशबुर्ग के थे। पवित्र रोमन साम्राज्य के सम्राट का गौरवपूर्ण पद इसी राजवंश को प्राप्त था। यद्यपि इस पद के कारण आस्ट्रिया के राजाओं की शक्ति में कोई वृद्ध नहीं हुई थी पर उसका सम्मान और प्रभाव तथा प्रभुत्व समूचे यूरोप पर था। उस समय जर्मन न कोई एक राष्ट्र था, न एक राज्य का नाम ही जर्मनी था। तब जर्मनी लगभग तीन सौ साठ छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था, जिनमें तनिक भी राजनीतिक एकता न थी। वे नाममात्र को आस्ट्रिया के धर्मसम्राट की अधीनता मानते थे। यही दशा इटली की थी। इटली का राष्ट्र है, यह कोई न जानता था। वहाँ भी अनेक छोटे-छोटे स्वतन्तत्र राज्य थे, जिसके राजा निरंकुश स्वेच्छाचारी थे। जनता को शासन में कहीं कोई अधिकार प्राप्त न था। स्पेन इस काल में यूरोप का सबसे अधिक समर्थ राज्य था। पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में ही उसने अमेरिका में उपनिवेश स्थापित करके अपनी अपार समृद्धि बढ़ा ली थी। स्पेन के राजा यूरोप के अनेकों देशों के अधिपति थे। पोलैण्ड सोलहवीं शताब्दी तक यूरोप का एक समर्थ राज्य था। सत्रहवीं शताब्दी में पीटर के अभियानों ने उसे जर्जर और अव्यवस्थिपित कर दिया था और फिर वहाँ किसी शक्तिशाली केन्द्रीय शासन का विकास नहीं हो पाया। स्वीडन, डेनमार्क, नार्वें, हालैण्ड और स्विटज़लैण्ड का विकास अभी हुआ ही नहीं था। अभी ये देश पिछड़े हुए थे। आज का सोवियत रूस संसार का सबसे बड़ा और समर्थ प्रतातन्त्र है। आज उसका एक छोर बाल्टिक सागर से पैसिफिक सागर तक फैला हुआ और दूसरा आर्कटिक सागर से भारत और चीन की सीमाओं को छू रहा है। परन्तु उन दिनों वह छोटा-सा प्रदेश था, मास्को नगर के आसपास के इलाकों तक ही सीमित था और जिसका अधिकांश जंगल था। समुद्र से उसका सम्बन्ध विच्छिन्न था। एक भी समुद्र-तट उसके पास न था। तब बाल्टिक सागर का सारा तट स्वीडन के बाद शाह के अधीन और सागर तथा कास्पियन सागर तट का सारा दक्षिण भू-भाग तातारी और तुर्क राजाओं के सरदारों के अधिकार में था। चौदहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में पीटर ने ज़ार के सिंहासन पर बैठकर रूस की कायापलट करने का उपक्रम किया। उन दिनों रूस के लोग लम्बी-लम्बी दाढ़ियाँ रखते और ढीले-ढीले लबादे पहनते थे। एक दिन उसने अपने सब दरबारियों को अपने दरबार में बुलाया और सबकी दाढ़ी अपने हाथ से मूंड दीं। और चुस्त पोशाकें पहना दीं। उसने स्वीडन के बादशाह के हाथों से बाल्टिक तट छीन लिया और समुद्र-तट पर अपनी नई राजधानी सेण्ट पीटर्सबर्ग जो आज लेनिन ग्राड के नाम से विख्यात है। परन्तु यह महान सुधारक पीटर भी उन दोषों से मुक्त न था, जो उन दिनों संसार के बादशाहों में थे। वह स्वेच्छाचारी था। वह जो चाहता था वही करता था उनकी आज्ञा का पालन करने में किसे कितना कष्ट झेलना पड़ेगा, इसकी उसे परवाह न थी। ईसा के बाद
पलायनवाद का कोशगत अर्थ है ऐसा साहित्य जो जीवनसंघर्ष से कुछ समय के लिए हमें दूर ले जा सके; जैसे जासूसी उपन्यास, संगीतात्मक सुखांत नाटक, चित्रपट आदि। किंतु यह अर्थ समझाने के पश्चात् शिपले न अपने अंगरेजी साहित्य कोश में यह भी लिखा है कि पलायनवादी साहित्य में जीवन से पलायन ही हो यह अनिवार्य नहीं है। पलायनवादी-साहित्य द्वारा जीवन का अनुसंधान भी होता है क्योंकि ऐसे साहित्य द्वारा हम जीवन की नीरस पुनरावृत्ति से कुछ क्षणों के लिए हटकर पुन: अधिक उत्साह से जीवनसंघर्ष में भाग ले सकते हैं। इस प्रकार पलायनवाद को प्रचलित अर्थ विवादास्पद है। समाजशास्त्र के अनुसार आदिम सभ्यता में कबीलों द्वारा अभिचार या जादू, नृत्य, मान, चित्रांकन आदि क्रियाएँ, सतही दृष्टि से पलायन प्रतीत होती हैं, किंतु इन चेष्टाओं द्वारा कबीले बाह्य कठोर संघर्ष की तैयारी करते थे। मनुष्य प्रकृति पर बाह्यविजय की कल्पना सर्वप्रथम अपने मत में करता है, इससे वह प्रकृतिविजय के लिए उत्साहित हो उठता है। इस दृष्टि से अथर्ववेद के अभिचार ब्राह्मणों में प्रतिपादित यज्ञ, फसल बोने और पकने, ऋतुओं के बदलने, संतानोत्पत्ति, युद्ध आदि के अवसरों पर किए गए नृत्य गानादि पलायन भी है और संघर्ष की प्रस्तावना भी। सभ्यता के उन्नत होने पर भी ये उपयोगी क्रिया कवियों के दिवास्वप्नों, चित्रकारों के कल्पित चित्रों, राजनीतिज्ञों के यूटोपिया और धार्मिकों की निरर्थक प्रतीत होनेवाली कार्यपद्धतियों में देखी जा सकती है। पलायनवाद साहित्य में विशेषत: यथार्थवाद का विरोधी माना जाने लगा है। संस्कृत साहित्य में कथासरित्सागर, दशकुमारचरित, वासवदत्ता, कांदबरी जैसी कथाओं में पलायनवादी तत्व कम नहीं हैं। घोर यथार्थवादी दृष्टि से नाटकों में भी, सूद्रक के मृच्छकटिक नाटक को छोड़कर, संस्कृत साहित्यकारों ने उच्चवर्ग के मनोरंजन के लिए प्राय: जीवन की वास्तविक स्थिति को छोड़कर रंजनात्मक पक्षों को ही अधिक प्रस्तुत किया है। काव्य में "कविपरंपराओं" और बाद में "कामशास्त्र" के प्रभाव के कारण जो नायक-नायिका-तत्व-वादी साहित्य लिखा गया, उसे भी एक सीमा तक पलायनवादी कहा जा सकता है, यद्यपि यथार्थ का सर्वथा अभाव उसमें कहीं नहीं है। हिंदी में सिद्धों की बानी में समा, धर्म और साधना के दंभ की कठोर भर्त्सना मिलती है, यह यथार्थवादी प्रवृत्ति है। भक्तिकाल में जहाँ वैकुंठ की कल्पना है, राधाकृष्ण के अनवरत विलास का निरंतर ध्यान है, वह यथार्थवादी पंरपरा में न आ सकने के कारण पलायनवाद कहा जाएगा, यद्यपि राधाकृष्णवाद को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से वासना का उदात्तीकरण भी कहा गया है। रीतिकालीन श्रृंगार को आचार्य शुक्ल और उनके बाद प्रगतिवादियों ने पलायनवाद का ही एक रूप माना है क्योंकि इस काव्य में जनसंवेदना का सर्वथा अभाव है। भारतेंदु युग से हिंदी में समस्याओं का सीधा चित्रण प्रारंभ होता हे, किंतु छायावाद में पुन: कविगण कल्पित लोक में विचरते हैं; पंत की "ज्योत्स्ना", प्रसाद की कामायनी के "रहस्य" और "आनंद" सर्ग और निराला का "सूक्ष्म ब्रह्म" - यह सब द्विवेदीयुगीन प्रत्यक्ष कविता के संदर्भ में पलायन प्रतीत होता है। प्रसाद की यह पंक्ति पलायनवाद की स्तरीय पंक्ति मानी जाती है - "ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे"। यथार्थवाद सामाजिक समस्याओं से सीधे टकराने में विश्वास करता है। पलायनवाद संघर्ष से श्रांत व्यक्ति को कल्पना के क्षेत्र में ले जाता है। पलायनवाद को वस्तुत: मनोरंजन का पर्याय नहीं समझना चाहिए। जीवन के लिए स्मृति और विस्मृति दोनों आवश्यक हैं। किंतु ऐसी रचनाएँ और कलारूप अवश्य पलायनवादी कहलाएँगे जिनमें जागरूक होकर पाठक या दर्शक को वास्तविकता से दूर रखने का प्रयत्न हो। शरच्चंद्र के देवदास के मदिरापान में यह प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई पड़ती है। आज के यथार्थवादी और वैज्ञानिक युग में प्रत्येक प्रकार का रहस्यवाद पलायनवाद माना जाएगा; यों रहस्यवादी साधक केवल उसी को यथार्थवादी कहेंगे। अमरीका, यूरोप और अब भारत में भी अपराध कथाओं, जासूसी उपन्यासों और चित्रपट का अधिक प्रकार है किंतु इनमें भी सभी रचनाओं और चित्रों को पलायनवादी नहीं कह सकते। इधर नई कविता और नव साहित्य में निराशा, अवसाद, अनिश्चय और मनुष्य के भविष्य में अविश्वास की प्रवृत्तियाँ पलायनवाद का स्पर्श करती हुई प्रतीत होती हैं। किसी युग की वास्तविकता को ध्यान में रखकर पलायनवाद का निर्णय संभव है।
निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 महमदपुर मजरा कन्नौज, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है।
वह प्रत्येक वचन अथवा करार जो कानून द्वारा प्रवर्तनीय हो अथवा जिसका कानून द्वारा पालन कराया जा सके, संविदा कहलाता है। वर्तमान संविदा की विशेषता उसकी कानूनी मान्यता है। वचनपालन, करार अथवा कौल के निर्वाह को सम्पूर्ण विश्व में और विशेषत: भारत में बड़ा महत्व दिया गया है। भारतीय इतिहास में वचनपालन के लिए पुत्र को वनवास और स्वयं मृत्यु का वरण करनेवाले दशरथ की गाथा लोकप्रसिद्ध है। राजस्थान का मध्यकालीन इतिहास इसी उज्वल परंपरा से ओतप्रोत है। परंतु इस वचनपालन का आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य रहा है, इसके पीछे कानून का हाथ नहीं था और न इसको कोई वैधानिक मान्यता प्राप्त थी। परन्तु धीरे धीरे व्यावसायिक सम्बन्धों में वचनपालन की और उसे कानूनी मान्यता देने की आवश्यकता का अनुभव भी जीवनमूल्यों एवं नैतिकता के ह्रास के साथ ही समाज ने किया और इसी कारण नैतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से वचनपालन जहाँ गौण होता गया, वैधानिक मान्यताप्राप्त व्यावसायिक वचनों के पालन के महत्व को प्रमुखता प्राप्त होती गई। व्यावसायिक और कानूनी दृष्टि से इस सम्बन्ध में रोम का कानूनी इतिहास रोचक है। वहाँ संविदा का प्राचीनतम स्वरूप था। अपने मूल रूप में यह उधार वस्तुविक्रय से सम्बन्धित था। धीरे धीरे ऋण के लिये भी इसका प्रयोग होने लगा। इसकी कतिपय औपचारिकताएँ थीं जिनके बिना की पूर्णता प्राप्त नहीं होती थी। भारत में भी नारद और वृहस्पति के ग्रन्थों में वस्तुविक्रय, ऋण, साझेदारी और अभिकर्तृत्व के सम्बन्धों का उल्लेख है। किंतु वर्तमान संविदा का स्वरूप उससे भिन्न है, यद्यपि उसके विकास की कड़ी उनसे भी जोड़ी जा सकती है। वर्तमान संविदा की विशेषता उसकी कानूनी मान्यता है। वह प्रत्येक वचन अथवा करार जो कानून द्वारा प्रवर्तनीय हो अथवा जिसका कानून द्वारा पालन कराया जा सके, संविदा है। प्राचीन काल में इस कानूनी मान्यता पर विशेष बल नहीं था बल्कि बल था उसकी औपचारिकाताओं में से यदि कोई औपचारिकता कम रह जाती थी तो संविदा पूर्ण नहीं होती थी। यद्यपि अपने विभिन्न रूपों में संविदा का प्रचलन समाज के व्यावसायिक सम्बन्धों में था परन्तु "संविदा" शब्द का अन्वेषण बहुत बाद में हुआ। संविदा शब्द बहुत व्यापक है। संविदा के ही अंग विक्रय, ऋण, बन्धक, निक्षेप, साझेदारी, अभिकर्तृत्व, विवाह आदि भी हैं। परंतु अपने वर्तमान रूप में संविदा ने नया कानूनी अर्थ ग्रहण कर लिया है। भारतवर्ष में इसका अधिनियम सन् 1872 ई. में बना और संविदाओं का नियमन उसी भारतीय संविदा अधिनियम द्वारा होता है। इसलिये भारतीय न्यायालय अब संविदा के मामले में इसी लिखित कानून का अनुसरण करने को बाध्य हैं। व्यवस्थाओं की व्याख्या के लिये उन्हें इसी अधिनियम का अध्ययन करके उपयुक्त अर्थ और मंतव्य निकालना चाहिए। भारतीय संविदा अधिनियम ब्रिटिश संविदा कानून पर आधारित है परन्तु ब्रिटिश संविदा अधिनियम की सहायता तभी ली जा सकती है जब या तो भारतीय संविदा अधिनियम किसी प्रश्न पर मौन हो अथवा उसकी व्यवस्था अस्पष्ट हो और ब्रिटिश कानून भारतीय अवस्था और सामाजिक स्थिति से असंगत न हो। अपने वर्तमान रूप में संविदा एक विधिक वचन या कानून द्वारा प्रवर्तनीय करार है। इसमें दो आवश्यक तत्व हैं - करार और कानून द्वारा उसे प्रभावशील बनाए जाने का गुण। जब कम से कम दो व्यक्ति किसी कार्य के करने अथवा उससे विरत रहने के सम्बन्ध में एकमत होते हैं तो उसे करार कहा जाता है। करार के लिये कम से कम दो पक्षों का होना आवश्यक है। यदि "अ" न "ब" से प्रस्ताव किया कि "ब" "अ" का एक चित्र बना दे तो वह "ब" को इस कार्य हेतु पाँच सौ रूपए देगा। "अ" के द्वारा यह प्रस्ताव है। यदि "ब" यह स्वीकार कर ले कि पाँच सौर रूपए में वह "अ" के लिये उसका चित्र बना देगा तो यह एक ऐसा करार हुआ जो कानून द्वारा प्रवर्तनीय है और उसे प्रभावकारी बनाया जा सकता है। अर्थात् एक व्यक्ति अकेला ही कोई करार नहीं कर सकता है करार के लिये करार सम्बन्धी बातों पर उभय पक्ष की मानसिक एकात्मता होना आवश्यक है। तात्पर्य यह है कि करार सम्बन्धी प्रत्येक बात के सम्बन्ध में उभय पक्ष उसका एक ही अर्थ समझें। ऐसा न हो कि एक पक्ष एक अर्थ और दूसरा पक्ष दूसरा अर्थ समझे। "अ" के पास दो मोटरकारें हैं, एक फोर्ड और दूसरी शेवरलेट। वह अपनी फोर्ड कार पाँच हजार में बेचना चाहता है। उसने अपनी उस कार को बेचने का प्रस्ताव "ब" से किया। परंतु "ब" ने "शेवरलेट" कार समझकर उसे खरीदने की स्वीकृति प्रदान कर दी। यह करार नहीं होगा क्योंकि "अ" और "ब" में मोटरकार के सम्बन्ध में मानसिक एकात्मकता नहीं हुई। मोटरकार से "अ" ने फोर्ड मोटरकार और "ब" ने शेवरलेट कार समझी। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि प्रस्ताव ही स्वीकृति के उपरान्त करार बनता है। प्रस्ताव विभिन्न प्रकार के होते हैं परन्तु साधारणत: उनका वर्गीकरण पाँच श्रेणियों में किया गया है : 1. विशिष्ट प्रस्ताव, जब कोई प्रस्ताव निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों से किया जाता है, तब उसे विशिष्ट प्रस्ताव कहते हैं। चूँकि प्रस्ताव निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों से किया जाता है, अत: इसमें स्वीकार करनेवाला व्यक्ति, जिसे स्वीकर्ता कहा जाएगा, निर्दिष्ट होता है। इसमें स्वीकृति की सूचना स्वीकर्ता द्वारा प्रस्तावक को देना आवश्यक है। 2. सामान्य प्रस्ताव वह प्रस्ताव है जो निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों से नहीं किया जाता बल्कि संसार का कोई व्यक्ति इसे स्वीकार कर सकता है। इसी लिये विशिष्ट प्रस्ताव की भाँति इसमें स्वीकृति की सूचना का प्रस्तावक को दिया जाना अनिवार्य नहीं होता। प्रस्ताव में प्रकटित और इच्छित कार्य को करना ही इस प्रस्ताव की स्वीकृति मानी गई है। 3. स्पष्ट प्रस्ताव वे प्रस्ताव है जो मौखिक या लिखित रूप में हृ परन्तु स्पष्टत: हृ किए जाएँ। 4. सांकेतिक प्रस्ताव ये प्रस्ताव शब्दों द्वारा न होकर कार्य द्वारा किए जाते हैं। यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान को टिकट के बदले ले जाने का प्रस्ताव, रेलगाड़ी को स्टेशन पर आना ही है। यह सामान्य प्रस्ताव का भी उदारहण है क्योंकि इसका स्वीकर्ता पूर्वनिश्चित नहीं है। 5. अनवरत प्रस्ताव इस प्रस्ताव में निश्चित दर से 5000 मन गेहूँ की आपूर्ति का प्रस्ताव। इस प्रस्ताव की स्वीकृति के उपरान्त भी एक पक्ष तुरंत ही सम्पूर्ण गेहूँ खरीदने को या दूसरा पक्ष बेचने को बाध्य नहीं किया जा सकता। प्रस्ताव की ही भाँति और उसके अनुरूप स्वीकृति की कोई विशेष विधि या प्रणाली निर्धारित करता है, वहाँ स्वीकृति का उस विधि या प्रणाली निर्धारित करता है, वहाँ स्वीकृति का उस विधि या प्रणाली द्वारा स्वीकृति न हो तो प्रस्तावक को उसी प्रणाली द्वारा स्वीकृति देने पर बल देना चाहिए। परन्तु जहाँ स्वीकृति की किसी प्रणाली या विशिष्ट विधि का उल्लेख नहीं हो, वहाँ किसी युक्तियुक्त, संगत और उचित प्रणाली द्वारा स्वीकृति दी जा सकती है। स्वीकृति भी स्पष्ट अर्थात् शब्दों द्वारा हो सकती है अथवा सांकेतिक रूप में कार्य द्वारा। टिकट लेकर गंतव्य स्थान को जानेवाली रेलगाड़ी पर यात्री का बैठना ही कार्य द्वारा कम्पनी के प्रस्ताव की स्वीकृति है। केवल मानसिक स्वीकृति मात्र स्वीकृति नहीं समझी जा सकती। शब्दों में अथवा कार्य द्वारा उसकी अभिव्यक्ति भी आवश्यक है। प्रस्ताव में निर्दिष्ट कार्यों का करना भी कतिपय प्रस्तावों की स्वीकृति मानी जाती है। परन्तु यह आवश्यक है कि स्वीकर्ता इस कार्य को करने के पूर्व से ही प्रस्तावक की शर्ते जानता हो। यदि स्वीकर्ता प्रस्ताव की बिना जानकारी के ही वह कार्य करता है जो प्रस्ताव में निर्दिष्ट है, तो वह प्रस्ताव की स्वीकृति नहीं माना जा सकता। एक व्यक्ति गोरीदत्त ने अपने भतीजे की खोज के लिए अपने मुनीम लालमन को भेजा। लालमन के जाने के उपरान्त गौरीदत्त ने अपने भतीजे को खोज लानेवाले के लिए 501 रूपए पुरस्कार की घोषणा की। लालमन मुनीम गौरीदत्त के भतीजे को खोज लाया और पुरस्कार की माँग की। निर्णय यह हुआ कि चूँकि लालमन को लड़के की खोज के पूर्व पुरस्कार की शर्त की सूचना नहीं थी, न पुरस्कार प्राप्ति की बात ही ज्ञात थी, अत: खोए हुए लड़के को खोज लाने का लालमन का कार्य गौरीदत्त के प्रस्ताव की स्वीकृति नहीं माना जा सकता प्रस्ताव से उत्पन्न लाभ को स्वीकार करना भी उपयुक्त दशाओं में प्रस्ताव की स्वीकृति समझी जाती है। वाराणसी से प्रयाग की बस में बैठकर जाना ही बस मालिक के प्रस्ताव की स्वीकृति है और स्वीकर्ता बस का किराया देने को बाध्य है। स्वीकृति प्रस्ताव के कायम रहने की दशा में होनी चाहिए। यदि प्रस्ताव निष्प्रभाव हो चुका है या प्रस्तावक द्वारा खंडित किया या वापस लिया जा चुका है तो स्वीकृति भी निरर्थक और प्रभावहीन होगी। प्रस्तावक की सूचना स्वीकर्ता को और प्रस्ताव की स्वीकृति की सूचना प्रस्तावक को मिलना आवश्यक है। प्रस्ताव की सूचना जब उस व्यक्ति को प्राप्त हो जाए जिसके प्रति प्रस्ताव किया जाता है तब प्रस्ताव का संवहन या संचार पूर्ण समझा है। "क" ने अपनी घड़ी 150) में "ख" को बेचने का प्रस्ताव पत्र द्वारा "ख" की प्रेषित किया। ज्योंही "क" का पत्र "ख" को प्राप्त होगा, "क" के प्रस्ताव का संवहन पूर्ण हो जाएगा। स्वीकृर्ता के लिये पृथक् पृथक् होता है। जब स्वीकर्ता अपनी स्वीकृति प्रस्तावक के पास इस प्रकार प्रेषित कर दे कि उसका वापस लेना स्वीकर्ता के वश में न रहे, तो प्रस्तावक के विरुद्ध स्वीकृति प्रस्तावक के पास पहुँच जाए। उपर्युक्त उदाहरण में "ख" द्वारा अपनी स्वीकृति का संवहन पूर्ण समझा जाएगा परन्तु स्वीकर्ता के विरुद्ध नहीं। स्वीकर्ता के विरुद्ध स्वीकृति के विरुद्ध स्वीकृति का संवहन तब पूर्ण होगा जब स्वीकति प्रस्तावक के पास पहुँच जाए। उपर्युक्त उदाहरण में "ख" द्वारा अपनी स्वीकृति का पत्र "क" के नाम डालते ही स्वीकृति की पाबंदी "क" नामक प्रस्तावक के विरुद्ध हो जाएगी परन्तु स्वीकर्ता "ख" के विरुद्ध नहीं। "ख" के विरुद्ध संवहन की पूर्णता तब होगी जब उसकी स्वीकृति का पत्र "क" को प्राप्त हो जाए। जब प्रस्तावक और स्वीकर्ता एक दूसरे के समक्ष उपस्थित हों तो संवहन में कोई पेचीदगी पैदा नहीं होती परन्तु जब दोनों दो स्थानों पर हों तो संवहन का माध्यम डाक : पत्र या तार : होता है। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि प्रस्ताव का पत्र प्रस्तावक द्वारा छोड़े जाते ही वह पूर्ण नहीं होता वरन् स्वीकर्ता के पास पहुँचन पर ही पूर्ण होता है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि प्रस्तावक और स्वीकर्ता एक दूसरे के समक्ष उपस्थित हों तो संवहन में कोई पेचीदगी पैदा नहीं होती परन्तु जब तक स्वीकर्ता अपनी स्वीकृति का पत्र डाक में नहीं छोड़ देता क्योंकि तब स्वीकृति का वापस लिया जाना स्वीकर्ता के वश के बाहर हो जाता है। स्वीकर्ता द्वारा स्वीकृतिपत्र डाक में छोड़ते हर प्रस्ताव प्रस्तावक के विरुद्ध पूर्ण हो जाता है। ऊपर कहा जा चुका है कि स्वीकृति स्वीकर्ता के विरुद्ध तब पूर्ण होती है जब प्रस्तावक को प्राप्त हो जाए। प्रस्तावक को प्राप्त होने के पूर्व स्वीकर्ता अपनी स्वीकृतिपत्र डाकखाने में छोड़े जाते हो स्वीकर्ता के विरुद्ध भी पूर्ण हो जाता है। स्वीकृतापत्र देर में पहुँचने या रास्ते में खो जाने पर भी प्रभावकारी रहता है क्योंकि ऐसा माना गया है कि डाक विभाग की असावधानी या भूल का कोई प्रभाव संविदा के पक्षों पर पड़ना न्यायसंगत नहीं है। परन्तु यदि संवहन के लिये पत्र डाक में न डालकर पोस्टमैन को दे दिया जाए तो यह पर्याप्त संवहन नहीं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के पत्र को लेकर डाक में छोड़ना पोस्टमैन के कर्तव्यों में सम्मिलित नहीं है। भारतीय संविदा अधिनियम 1872 ई. की धारा 10 के अनुसार ऐसे सभी करार संविदा माने गए हैं जो करार करने योग्य पक्षों की स्वतंत्र सहमति से किए जाए, जिनका प्रतिफल और उद्देश्य वैध हो और जो उक्त अधिनियम द्वारा निसत्व न घोषित किए गए हों। इसी धारा में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि उपर्युक्त परिभाषा का प्रभाव ऐसे किसी कानून पर नहीं पड़ेगा, जिसके द्वारा किसी संविदा का लिखित, या पंजीकृत साक्षियों की गवाही के साथ होना आवश्यक है। ऐसे सभी व्यक्ति संविदा करने योग्य माने जाते हैं जो व्यस्क हों, स्वस्थ मस्तिष्कवाले हों और किसी कानून द्वारा संविदा करने के अयोग्य न ठहराए गए हों। फलस्वरूप अवयस्क, विकृत मस्तिष्कवाले व्यक्ति या उन्मत्त, जड़बुद्धि तथा नशे में चूर रहनेवाले, और ऐसे व्यक्ति जो कानून द्वारा संविदा करने के अयोग्य ठहराए गए हों, यथा विदेशी शत्रु, विदेशी सम्राट् अथवा उनके प्रतिनिधि, देश के शत्रु, अपराधी आदि संविदा नहीं कर सकते। अवस्यक व्यक्ति स्वतंत्र बुद्धि से अपने लाभ हानि का निर्णय नहीं कर सकता। अत: वह संविदा करने योग्य नहीं माना गया है। विकृत मस्तिक वाले व्यक्तियों में अगर विकृति अस्थायी हो हृ यानी कभी मस्तिष्क वाले व्यक्तियों में अगर विकृति अस्थायी हो हृ यानी कभी मस्तिष्क विकृत और कभी स्वस्थ रहता हो हृ तो ऐसे व्यक्ति विकृतिकाल में तो नहीं परन्तु मस्तिष्क की स्वस्थता के काल में संविदा का योग्य पक्ष हो सकते हैं1 अपराधी का दंडभोग के समय संविदा करने का अधिकार निलम्बित हो जाता है परन्तु दंडभोग या क्षमाप्राप्ति के पश्चात् उसे संविदा करने की क्षमता पुन: प्राप्त हो जाती है। दिवालिया घोषित व्यक्ति भी संविदा करने की योग्यता से वंचित माना जाता है। संविदा के पक्षों की सहमति का स्वतंत्र होना संविदा की एक प्रमुख आवश्यकता है। यदि सहमति स्वतंत्र नहीं है तो संविदा उससे प्रभावित होगी। सहमति उस दशा में स्वतंत्र मानी जाती है जब यह 1. बलप्रवर्तन या त्रास, 2. अवांछित प्रभाव, 3. छलकपट, 4. भ्रांत कथन, या भ्रांति द्वारा प्रभावित नहीं हुई हो और न प्राप्त की गई हो। बलप्रवर्तन या त्रास की परिभाषा भारतीय संविदा अधिनियम की धारा में दी गई है। उसके अनुसार बलप्रवर्तन या त्रास के चार रूप है : भारतीय दंड विधान द्वारा वर्जित और दंडनीय कार्य करना या करने की धमकी देना, चाहे उस स्थान पर जहाँ यह कार्य किया जाए भारतीय दंड विधान लागू हो या नहीं, किसी भी व्यक्ति की सम्पत्ति अवैध रूप से रोक रखना; अथवा रोक रखने की धमकी देना। इस बलप्रवर्तन या त्रास का उद्देश्य किसी व्यक्ति को संविदा का पक्ष बनाना ही होना चाहिए। अवांछित प्रभाव की परिभाषा संविदा अधिनियम की धारा 16 में दी गई है। उसके अनुसार वह संविदा अवांछित प्रभाव द्वारा प्रेरित कही जाती है जिसके पक्षों के सम्बन्ध ऐसे हों कि एक पक्ष दूसरे पक्ष की इच्छा से अपनी उस विशिष्ट स्थिति का प्रयोग करे। माता पिता और बच्चे, अभिभावक और पाल्य, वकील ओर मुवक्किल, डाक्टर और रोगी, गुरु और शिष्य आदि के सम्बन्ध ऐसे ही होते हैं जिनमें प्रथम पक्ष दूसरे की इच्छाओं को अपने विशिष्ट सम्बन्ध के कारण प्रेरित करता है। अवांछित प्रभाव सिद्ध करने के लिए यह भी सिद्ध करना आवश्यक है कि वस्तुत: विशिष्ट स्थितिवाले पक्ष के दूसरे पक्ष पर अपनी विशेष स्थिति का प्रयोग अपने अनुचित लाभ के लिये किया। यदि यह बात सिद्ध नहीं होती तो केवल विशिष्ट स्थिति के ही कारण कोई संविदा अवांछित प्रभाव द्वारा प्रभावित या परित्याज्य नहीं समझी जाएगी। यह संविदा अधिनियम की धारा 17 में वर्णित है। उसके अनुसार संविदा के किसी पक्ष द्वारा या उसकी साजिश से या उसके अभिकर्ता द्वारा दूसरे पक्ष या उसके अभिकर्ता को धोखा देने या छलने या संविदा से सम्मिलित होने के लिये प्रेरित करने के हेतु निम्नांकित कार्य छलकपट कहलाएँगे : क) किसी असत्य बात को, जिसकी सत्यता में उसे विश्वास न हो, तथ्य बतलाना, ख) ऐसे तथ्य को छिपाना जिसका उसे ज्ञान या विश्वास न हो; ग) ऐसा वचन देना जिसे पूरा करने की इच्छा न हो; घ) ऐसा कार्य करना या उससे विरत होना जिसे कानून विशेष रूप से छलकपट घोषित करता हो; ङ) धोखा देने लायक अन्य कार्य करना। करार के सम्बनध में विचार करते हुए यह कहा गया है कि उभय पक्ष के बीच मानसिक मतैक्य का होना आवश्यक है। भ्रांति इसी से सम्बन्धित दोष है। इसमें एक पक्ष एक वस्तु या बात और दूसरा पक्ष दूसरी वस्तु या बात समझता है। फलस्वरूप ऊपरी ढंग से देखने में तो संविदा का निर्माण प्रतीत होता है परन्तु भ्रांति के कारण वस्तुत: कोई संविदा होती नहीं है। ये भ्रांतियाँ कई प्रकार की होतीं हैं। विषयसामग्री के सम्बन्ध में भ्रांति का उदाहरण पूर्वप्रसंग में शेवरलेट और फोर्ड मोटर कारों के द्वारा दिया गया है। इसी प्रकार संविदा के पक्ष की पहचान में भी भ्रांति सम्भव है। "क" ने जिसे "ख" समझकर संविदा की यदि वह वस्तुत: "ख" नहीं वरन् "ग" था तो यह पक्ष की पहचान की भ्रांति है। संविदा की प्रकृति या अर्थ सम्बन्धी भी भ्रांति हो सकती है। अगर किसी बाद का एक पक्ष बाद में अवसर लेने का आवेदन पत्र बताकर किसी सन्धिपत्र पर दूसरे पक्ष का हस्ताक्षर करा लेता है तो दूसरे पक्ष को संविदा के रूप या प्रकृति के विषय में भ्रांति होती है। ऐसी दशा में हस्ताक्षर बनानेवाले का मस्तिष्क उसके हस्ताक्षर के साथ नहीं है। प्रसंविदा के लिये प्रतिफल एक आवश्यक तत्व है। बिना प्रतिफल के कोई प्रसंविदा नहीं हो सकती; और यदि वह हो भी तो नि:सत्व या अवैध होती है। प्रतिफल भी वैध होना चाहिए। उदाहरण स्वरूप "अ", "ब" को "स" की हत्या के लिए 5000 रु. देता है और "ब" हत्या के लिए वचन देता है। यहाँ यह संविदा नि:सत्व है क्योंकि इसका प्रतिफल हत्या कानून द्वारा वर्जित है। इस प्रकार निम्नलिखित प्रकार के प्रतिफल अवैध होते हैं - 1. ऐसे प्रतिफल जो कानून वर्जित हैं। यदि कोई प्रतिफल स्पष्टया या सांकेतिक रूप से कानून द्वारा वर्जित हो तो उसके आधार पर निर्मित प्रसंविदा नि:सत्य होती है। यह उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। 2. यदि कोई ऐसा प्रतिफल हो जिससे किसी अधिनियम की कोई व्यवस्था भंग होती हो या निष्फल होती हो तो वह प्रतिफल अवैध माना जाएगा। 3. जो प्रतिफल कपटपूर्ण होते हैं, वे अवैध समझे जाते हैं। 4. वह प्रतिफल जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति को हानि पहुँचती हो अवैध होता है। उदाहरण के लिये अ एक समाचारपत्र के सम्पादक को पाँच सौ रुपया देने का वचन देता है यदि सम्पादक ब के सम्बन्ध में अपमानजनक विवरण छापे। यहाँ प्रतिफल अवैध है क्योंकि इससे ब की प्रतिष्ठा पर आघात पहुँचता है। 5. ऐसे प्रतिफल जो अनैतिक होते हैं, अवैध हैं। 6. लोकनीति के विरुद्ध प्रतिफल अवैध होते हैं, जैसे शत्रु के साथ व्यापार करना। लोकसेवा को हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति रखनेवाली संविदा, दंडनीय अपराधों से सम्बन्धित मुकदमों का गला घोटनेवाली संविदा नि:सत्व होती है। वैधानिक कार्रवाई का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति रखनेवाली संविदा, ऐसी संविदा जौ नैतिकता के विरुद्ध हो, या व्यापारनिरोधक संविदा या किसी जो नैतिकता के विरुद्ध हो, या व्यापारनिरोधक संविदा या किसी व्यवस्क व्यक्ति को शादी करने से रोकने के लिए संविदा, इत्यादि भी लोकनीति के विरुद्ध एवं नि:सत्व होतीं हैं। उद्देश्य एवं प्रतिफल में से एक का भी अवैध होना संविदा को नि:सत्व कर देता है। यदि संविदा का उद्देश्य अंशत: अवैध हो तब भी संविदा नि:सत्व हो जाती है, यदि उसके अवैध अंश को वैध अंश से पृथक् न किया जा सके। यदि प्रतिफल या उद्देश्य का अवैध अंश वैध अंश से अलग किया जा सके तो वैध अंश प्रवर्तनीय होगा और अवैध अंश नि:सत्व होगा। जैसे "ब" ने "अ" को एक प्रतिज्ञापात्र द्वारा 2000 रुपए देने का वचन दिया जिनमें से 1500 रुपए पुराना ऋण था और 500 रुपए जुए में हारी रकम थी। इसमें वैध भाग का अवैध भाग से पृथक् किया जा सकता है; अतएव यह प्रतिज्ञापत्र 1500 रुपए के लिये मान्य होगा किन्तु 500) के लिये नि:सत्व होगा। भारतीय संविदा अधिनियम के अन्तर्गत नि:सत्व घोषित करार कानून द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हो सकते, यद्यपि उसमें संविदा के अन्य तत्व पूर्णत: विद्यमान भी हों। इस कोटि में निम्नांकित करार आते हैं : 1) त्रुटि या भ्रांति द्वारा प्रभावित करार; 2. अवयस्क के साथ किया गया करार; 3. प्रतिफलविहीन करार; 4. व्यस्क का विवाह रोकनेवाला संविदा करार; 5. व्यापारनिरोधक करार; 6. वैध कार्रवाई को रोकनेवाला करार; 7. अनिश्चित करार; 8. असंभव कार्यो को करने के लिये किया गया करार; 9. पण विषयक करार; 10. असम्भव घटनाओं के घटित होने पर संभावित करार; 11. अवैध प्रतिफल या उद्देश्यवाले करार। सभी करार और संविदाओं के लिये लिखित, पंजीकृत और गवाहों की गवाही से युक्त होना आवश्यक नहीं है परन्तु ऐसी संविदा अन्य सब गुणों के रहते हुए भी इन औपचारिकताओं के अभाव के कारण मान्य नहीं होती। उपर्युक्त वर्णन से संविदा-निर्माण के आवश्यक तत्वों का सार निम्नलिखित प्रतीत होता है : 1. कम से कम दो पक्षों का होना; 2. प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति; 3. उभय पक्षों की मानसिक एकात्मकता; 4. उभय पक्ष के बीच वैध संविदा निर्माण का मतंव्य; 5. उभय पक्षों की अर्हता; 6. उनकी स्वतंत्र सहमति; 7. वैध प्रतिफल; 8. वैध उद्देश्य; 9. करार का भारतीय संविदा अधिनियम द्वारा नि:सत्व न घोषित होना; 10. आवश्यकतानुसार उसका लिखित, पंजीकृत एवं साक्षीयुक्त होना।
वन्स अपॉन ए टाईम इन मुम्बई 2010 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है।
कुछ मीठा हो जाये 2005 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है।
2200 ईसा पूर्व ईसा मसीह के जन्म से पूर्व के वर्षों को दर्शाता है। ईसा के जन्म को अधार मानकर उसके जन्म से 2200 ईसा पूर्व या वर्ष पूर्व के वर्ष को इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है। यह जूलियन कलेण्डर पर अधारित एक सामूहिक वर्ष माना जाता है। अधिकांश विश्व में इसी पद्धति के आधार पर पुराने वर्षों की गणना की जाती है। भारत में इसके अलावा कई पंचाग प्रसिद्ध है जैसे विक्रम संवत जो ईसा के जन्म से 57 या 58 वर्ष पूर्व शुरु होती है। इसके अलावा शक संवत भी प्रसिद्ध है। शक संवत भारत का प्राचीन संवत है जो ईसा के जन्म के 78 वर्ष बाद से आरम्भ होता है। शक संवत भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर है। भारत में प्रचलित कुछ अन्य प्राचीन संवत इस प्रकार है- उपरोक्त अन्तर के आधार पर 2200 ईसा पूर्व के अनुसार विक्रमी संवत, सप्तर्षि संवत, कलियुग संवत और प्राचीन सप्तर्षि आदि में वर्ष आदि निकाले जा सकते है।
बांटू भाषाएँ नाइजर-कांगो भाषा परिवार की एक उपशाखा है जिसमें अफ़्रीका के महाद्वीप के दक्षिणी भाग में बोले जाने वाली लगभग 250 भाषाएँ हैं। यह सारी कैमरुन देश के पूर्व और दक्षिण में बोली जाती हैं। इस भाषा परिवार में स्वाहिली भाषा भी आती है जो आठ राष्ट्रों में 8 करोड़ से ज़्यादा लोग बोलते हैं। इस परिवार की अन्य भाषाओँ में शोना भाषा, ज़ूलू भाषा और कोसा भाषा भी शामिल हैं। माना जाता है कि आज से 2500-3000 वर्ष पूर्व नाइजीरिया या कैमरून के इलाक़े में आदिम-बांटू भाषा बोली जाती थी। इसे बोलने वाले हज़ारों सालों में उप-सहारा अफ़्रीका में फैलकर बस गए और आदिम-बांटू की बहुत सी संतान भाषाएँ ही अब परिवार की भिन्न-भिन्न सदस्य हैं।
तन्त्रांश अभियान्त्रिकी का अर्थ है व्यवस्थित, अनुशासन-बद्ध, परिमाणनात्मक, औप से तन्त्रांश का विकास, संचालन और रखरखाव और इन प्रस्तावों का अध्धयन करना ताकि प्रोद्योगिकी का प्रयोग तन्त्रांश क्षेत्र में किया जा सके। "तन्त्रांश अभियान्त्रिकी" शब्द सर्वप्रथम 1968 में नाटो के तन्त्रांश अभियान्त्रिकी सम्मेलन में प्रयोग में लाया गया था जोकि उस समय के "तन्त्रांश संकट" को सुलझाने के लिए आयोजित किया गया था। तबसे ये एक ऐसे व्यवसाय के रूप में विकसित हो चुका है जो उच्च गुणवत्ता के तन्त्रांश विकसित करने के लिए समर्पित है जो सस्ते, सरलता से रखरखाव करने योग्य और तेज़ी से बनाये जा सके। चूँकि अन्य अभियान्त्रिकी शाखाओं की तुलना में "तन्त्रांश अभियान्त्रिकी" एक नया क्षेत्र है, इसलिए इस क्षेत्र में बहुत काम किया जाना बाकी है और इस बात को लेकर बहुत वाद-विवाद है कि वास्तव में ये हैं क्या और ये भी की क्या ये अभियान्त्रिकी के क्षेत्र में रखे जाने योग्य है भी| ये क्षेत्र में इतनी तीव्रता से वृद्धि हुई है कि इसे अब केवल प्रोग्रामिंग तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता| "तन्त्रांश अभियान्त्रिकी" के स्थान पर तन्त्रांश उद्योग में "तन्त्रांश विकास" शब्द का भी प्रयोग किया जाता है जो अभियान्त्रिकी शब्द को तन्त्रांश विकास के लिए संकुचित मानते हैं। एक नया व्यवसाय होने के पश्चात् भी ये भारत में एक पसंदीदा व्यवसाय और जीवन वृत्त है और पिछले कई वर्षों में लाखों भारतीय युवक-युवतियां इस क्षेत्र में काम करने के लिए आगे आयें हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में ही इस उद्योग में 22 लाख लोग कार्यरत है। यद्यपि "तन्त्रांश अभियान्त्रिकी" शब्द 1968 में एक सम्मलेन में प्रयोग में लाया गया था, लेकिन जिन समस्याओं को ये संबोधित करता है वो बहुत पहले की है। तन्त्रांश अभियान्त्रिकी का इतिहास जटिल रूप से संगणक हार्डवेयर और संगणक तन्त्रांश के इतिहासों से गुथा हुआ है। सन् 1941 में जब प्रथम डिजीटल संगणक अस्तित्व में आया, तब उसे चलाने वाले अनुदेश एक यन्त्र में होते थे जो तारो द्बारा संगणक से जुड़ा होता था। लेकिन शीघ्र ही व्यवसायियो ने ये अनुभव किया की ये ख़ाका अधिक लचीला नहीं है और तब "संग्रहित निर्देश संरचना" या वॉन निउमन स्थापत्य का विकास हुआ। 1950 से प्रोग्रामिंग भाषाएँ विकसित होने लगीं और ये भी मतिहीनता की और एक महत्वपूर्ण बढ़त थी। फौरट्रैन, अलगोल और कोबोल जैसी प्रमुख भाषाएँ 1950 के अंतिम वर्षों में आई जो वैज्ञानिक, प्रतीकगणितीय और व्यावसायिक समस्याओं को सुलझाने के लिया बनी थी।सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग डिजाइन, विकास और सॉफ्टवेयर के रखरखाव के लिए इंजीनियरिंग के एक विस्तृत अध्ययन है। सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग कम गुणवत्ता सॉफ्टवेयर परियोजनाओं के मुद्दों को संबोधित करने के लिए शुरू की गई थी। जब एक सॉफ्टवेयर आम तौर पर timelines, बजट, और गुणवत्ता का स्तर कम से अधिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। यह सुनिश्चित करता है कि अनुप्रयोग लगातार, सही ढंग से, समय पर और बजट पर और आवश्यकताओं के भीतर बनाया गया है। सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की मांग भी उपयोगकर्ता आवश्यकताओं और जिस पर काम कर रहे हो करने के लिए आवेदन करना है वातावरण में परिवर्तन की भारी दर को पूरा करने के लिए उभरा। विवरण: कितनी आसानी से यह एंड-यूज़र और यह उपयोगकर्ता के लिए प्रदान करता है सुविधाओं द्वारा उपयोग किया जा सकता द्वारा एक सॉफ्टवेयर उत्पाद माना जाता है। कोई अनुप्रयोग निम्न क्षेत्रों में स्कोर होगा:- 1) आपरेशनल:-यह कितना अच्छा एक सॉफ्टवेयर कहता है बजट, प्रयोज्य, क्षमता, शुद्धता, कार्यक्षमता, dependability, सुरक्षा और सुरक्षा की तरह कार्रवाई पर काम करता है। 2) संक्रमणकालीन: - परिवर्ती महत्वपूर्ण है, जब कोई अनुप्रयोग एक प्लेटफार्म से दूसरे करने के लिए स्थानांतरित कर दिया गया है। तो, सुवाह्यता, पुन: प्रयोज्य और अनुकूलन क्षमता इस क्षेत्र में आते हैं। 3) रखरखाव: - यह कितना अच्छा एक सॉफ्टवेयर को निर्दिष्ट करता है बदलते वातावरण में काम करता है। प्रतिरूपकता, maintainability, लचीलापन और scalability रखरखाव भाग में आते हैं। या सॉफ्टवेयर विकास Lifecycle SDLC चरणों में प्रस्तावित सॉफ्टवेयर अनुप्रयोग, इस तरह के रूप में विकसित करने के लिए सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की एक श्रृंखला है: 1) संचार 2) आवश्यकता सभा 3) व्यवहार्यता अध्ययन 4) प्रणाली विश्लेषण 5) सॉफ्टवेयर डिजाइन 6) कोडिंग 7) परीक्षण 8) एकीकरण 9) कार्यान्वयन 10) संचालन और रखरखाव 11) स्वभाव सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग आम तौर पर एक विशिष्ट कार्य या एक आउटपुट के लिए एक उपयोगकर्ता अनुरोध दीक्षा के रूप में पहले कदम के साथ शुरू होता है। वह अपनी आवश्यकताओं के लिए एक सेवा प्रदाता संगठन प्रस्तुत करें। सॉफ्टवेयर विकास टीम उपयोगकर्ता की आवश्यकता, सिस्टम आवश्यकताएँ और कार्यात्मक आवश्यकताओं segregates. आवश्यकता की मौजूदा प्रणाली आदि का अध्ययन कर एक उपयोगकर्ता एक डेटाबेस के लिए, की चर्चा करते हुए, आयोजित साक्षात्कार द्वारा एकत्र की है। उपयोगकर्ता की सभी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सॉफ्टवेयर बनाया जा सकता, तो सभा की आवश्यकता के बाद, टीम विश्लेषण करती है। डेवलपर तब उसकी योजना का एक रोडमैप का फैसला करता है। सिस्टम विश्लेषण सॉफ्टवेयर उत्पाद सीमाओं की समझ भी शामिल है। आवश्यकताएँ और विश्लेषण के अनुसार, एक सॉफ्टवेयर डिजाइन किया जाता है। सॉफ्टवेयर डिजाइन के कार्यान्वयन में एक उपयुक्त प्रोग्रामिंग भाषा प्रोग्राम कोड लिखने के मामले में प्रारंभ हो जाता है। सॉफ्टवेयर परीक्षण किया जाता है कि डेवलपर्स और गहन परीक्षण द्वारा कोडिंग मॉड्यूल का परीक्षण, परीक्षण प्रोग्राम, उत्पाद परीक्षण, जैसे कोड की विभिन्न स्तरों पर विशेषज्ञों द्वारा परीक्षण किया जाता है, जबकि घर में परीक्षण और उपयोगकर्ता सगाई और प्रतिक्रिया पर उत्पाद परीक्षण। softwere are good fo cumputers
निर्देशांक: 27°13′N 79°30′E / 27.22°N 79.50°E / 27.22; 79.50 बिकू पुर छिबरामऊ, कन्नौज, उत्तर प्रदेश स्थित एक गाँव है।
बेरिंग ज़मीनी पुल या बेरिंजिया एक ज़मीनी पुल था जो एशिया के सुदूर पूर्वोत्तर के साइबेरिया क्षेत्र को उत्तर अमेरिका के सुदूर पश्चिमोत्तर अलास्का क्षेत्र से जोड़ता था। इस धरती के पट्टे की चौड़ाई उत्तर से दक्षिण तक लगभग 1,600 किमी थी यानि इसका क्षेत्रफल काफ़ी बड़ा था। पिछले हिमयुग के दौरान समुद्रों का बहुत सा पानी बर्फ़ के रूप में जमा हुआ होने से समुद्र-तल आज से नीचे था जिस वजह से बेरिंजिया एक ज़मीनी क्षेत्र था। हिमयुग समाप्त होने पर बहुत सी यह बर्फ़ पिघली, समुद्र-तल उठा और बेरिंजिया समुद्र के नीचे डूब गया। जब बेरिंजिया अस्तित्व में था तो क्षेत्रीय मौसम अनुकूल होने की वजह से यहाँ बर्फ़बारी कम होती थी और वातावरण मध्य एशिया के स्तेपी मैदानों जैसा था। इतिहासकारों का मानना है कि उस समय कुछ मानव समूह एशिया से आकर यहाँ बस गए। वह बेरिंजिया से आगे उत्तर अमेरिका में दाख़िल नहीं हो पाए क्योंकि आगे भीमकाय हिमानियाँ उनका रास्ता रोके हुए थीं। इसके बाद बेरिंजिया और एशिया के बीच भी एक बर्फ़ की दीवार खड़ी होने से बेरिंजिया पर चंद हज़ार मानव लगभग 5,000 सालों तक अन्य मानवों से बिना संपर्क के हिमयुग के भयंकर प्रकोप से बचे रहे। आज से क़रीब 16,500 वर्ष पहले हिमानियाँ पिघलने लगी और वे उत्तर अमेरिका में प्रवेश कर गए। लगभग उसी समय के आसपास बेरिंजिया भी पानी में डूबने लगा और आज से क़रीब 6,000 वर्ष पहले तक तटों के रूप वैसे हो गए जैसे कि आधुनिक युग में देखे जाते हैं। बेरिंजिया लगभग 4,000 किमी लम्बा और 1,600 किमी चौड़ा था। यह आधुनिक साइबेरिया की लेना नदी से लेकर कनाडा की मैकेन्ज़ी नदी तक पहुँचता था। इसका क्षेत्र इतना बड़ा था कि कुछ भूवैज्ञानिकों के अनुसार यह एक ज़मीनी पुल कम और एक उपमहाद्वीप ज़्यादा था। मैमथों के अवशेषों की हड्डियों में मौजूद कोलेजन पर अनुसंधान करके वैज्ञानिकों ने यह मत दिया है कि पश्चिमी बेरिंजिया पूर्वी बेरिंजिया से ज़यादा शुष्क और ठंडा था और इसलिए पूर्वी बेरिंजिया में प्राणियों और पौधों की अधिक समृद्धि और विविधता थी। बेरिंजिया एक बड़ा क्षेत्र था और इसका अधिकतर भाग हिमानियों से मुक्त था और इसके स्तेपी जैसे क्षेत्र पर बहुत से जानवर रहते थे। इसलिए कुछ हज़ार मानव भी यहाँ रह पाए। माना जाता है कि यह 5-17 हज़ार साल तक बेरिंजिया में रहे और दूसरे मानव समाजों से इनका कोई संपर्क नहीं था। कुछ इतिहासकारों का सोचना है कि एक ज़माने में बेरिंजियाई मानवों की पाषाणयुगीय संस्कृति पूरे बेरिंजिया में पूर्व में साइबेरिया के प्रिमोर्ये क्षेत्र से लेकर पश्चिम में अलास्का तक और दक्षिण में होक्काइदो तक फैली हुई थी। बेरिंजियाइयों के कोई अवशेष नहीं मिलें हैं क्योंकि यह पूरा उपमहाद्वीप अब सागर के नीचे डूबा हुआ है। इन बेरिंजियाई लोगों का जीवन यक़ीनन कठिन था क्योंकि यह एक अत्यंत सर्द इलाक़ा था। यह एक शिकारी-फ़रमर जीवनी व्यतीत करते थे और औसतन 40 साल से भी कम उम्र तक जीते होंगे। गर्मियों में बड़ी तादाद में मच्छर और अन्य कीट उन्हें परेशान करते होंगे, जैसा कि साइबेरिया में भी देखा जाता है। जब मौसम बदला और उनका इलाक़ा डूबने पर बेरिंजियाई उत्तर अमेरिका में जाने पर मजबूर हुए, तो उन्हें अमेरिका की अलग आब-ओ-हवा में नए सिरे से जीवन व्यतीत करना सीखना पड़ा होगा। 2005 में हुए एक अनुवांशिकी अनुसंधान से संकेत मिलता है कि शायद 80 से भी कम बेरिंजियाइयों का वंश आधुनिक काल तक चल पाया है, यानि अन्य सभी किसी-न-किसी मुसीबत में पड़कर बिना आगे वंश चलाए ही ख़त्म हो गए। बेरिंजिया पर ऊँट, मैमथ, अमेरिकी सिंह, घोड़े, हिरण, भेड़, भेड़िया और स्तेपी भैंसे जैसे जानवर रहा करते थे। उत्तर अमेरिका में हाथी, बालदार गैंडा और सिंह अब विलुप्त हैं लेकिन वे इसी ज़मीनी पुल के ज़रिये एशिया से वहाँ पहुँचे। अध्ययन से यह भी ज्ञात हुआ है कि वास्तव में ऊँटों का वंश सबसे पहले उत्तर अमेरिका में शुरू हुआ था और ऊँट वहाँ से बेरिंजिया से गुज़रकर एशिया और विश्व के अन्य भागों में पहुँचे। इतिहासकार अंदाज़ा लगते हैं कि बेरिंजिया में मैमथ जैसे भीमकाय जानवरों के बीच रहकर बेरिंजियाई मानव उनके शिकार में माहिर हो गए थे। बाद में जब यह फैलकर अलास्का और उत्तर अमेरिका के अन्य भागों में गए तो वहाँ भी उन्होंने अपनी महारत से बड़े पैमाने पर इन बड़े जानवरों का शिकार जारी रखा। उत्तर अमेरिकी महाद्वीप में मैमथ, मैस्टोडॉन और बालदार गैंडे के विलुप्त हो जाने का यह एक बड़ा कारण माना जाता है।
गोपाचल ग्वालियर में स्थित है। ग्वालियर का प्रसिद्ध किला भी इसी पर्वत पर स्थित है। इसके अतिरिक्त इस पर्वत पर हजारों जैन मूर्तियाँ स्थित हैं जो सं. 1398 से सं. 1536 के मध्य पर्वत को तराशकर बनाई गई हैं। इन विशाल मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी राजा वीरमदेव, डूँगरसिंह व कीर्तिसिंह के काल में हुआ। अपभ्रंश के महाकवि पं॰ रइघू के सान्निध्य में इनकी प्रतिष्ठा हुई। काल परिवर्तन के साथ जब मुगल सम्राट बाबर ने गोपाचल पर अधिकार किया, तब उसने इन विशाल मूर्तियों को देख कुपित होकर सं. 1557 में इन्हें नष्ट करने का आदेश दे दिया, परन्तु जैसे ही उन्होंने भगवान पार्श्वनाथजी की विशाल पद्मासन मूर्ति पर वार किया तो दैवी देवपुणीत चमत्कार हुआ एवं विध्वंसक भाग खड़े हुए और वह विशाल मूर्ति नष्ट होने से बच गई। आज भी यह विश्व की सबसे विशाल 42 फुट ऊँची पद्मासन पारसनाथ की मूर्ति अपने अतिशय से पूर्ण है एवं जैन समाज के परम श्रद्धा का केंद्र है। भगवान पार्श्वनाथ की देशनास्थली, भगवान सुप्रतिष्ठित केवली की निर्वाणस्थली के साथ 26 जिनालय एवं त्रिकाल चौबीसी पर्वत पर और दो जिनालय तलहटी में हैं, ऐसे गोपाचल पर्वत के दर्शन अद्वितीय हैं। यद्यपि ये प्रतिमाएँ विश्व भर में अनूठी हैं, फिर भी अब तक इस धरोहर पर न तो जैन समाज का ही विशेष ध्यान गया है और न ही सरकार ने इनके मूल्य को समझा है। आदिनाथ की 58.4 उुट ऊँची प्रतिमा
कीप या क़ीफ़ ऐसी नली को बोलते हैं जिसका एक सिरा तो शांकव होता है और दूसरा एक तंग नली होता है। अंग्रेज़ी में कीप को "फनल" कहते हैं।
फ्रांस के क्रान्तिकारी युद्ध युद्धों की एक शृंखला थी जो 1792 से आरम्भ होकर 1802 तक चली। ये युद्ध फ्रांसीसी क्रान्ति की उपज थे।
पनडुब्बी एक प्रकार का जलयान है जो पानी के अन्दर रहकर काम कर सकता है। यह एक बहुत बड़ा, मानव-सहित, आत्मनिर्भर डिब्बा होता है। पनडुब्बियों के उपयोग ने विश्व का राजनैतिक मानचित्र बदलने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। पनडुब्बियों का सर्वाधिक उपयोग सेना में किया जाता रहा है और ये किसी भी देश की नौसेना का विशिष्ट हथियार बन गई हैं। यद्यपि पनडुब्बियाँ पहले भी बनायी गयीं थीं, किन्तु ये उन्नीसवीं शताब्दी में लोकप्रिय हुईं तथा सबसे पहले प्रथम विश्व युद्ध में इनका जमकर प्रयोग हुआ। विश्व की पहली पनडुब्बी एक डच वैज्ञानिक द्वारा सन 1602 में और पहली सैनिक पनडुब्बी टर्टल 1775 में बनाई गई। यह पानी के भीतर रहते हुए समस्त सैनिक कार्य करने में सक्षम थी और इसलिए इसके बनने के 1 वर्ष बाद ही इसे अमेरिकी क्रान्ति में प्रयोग में लाया गया था। सन 1620 से लेकर अब तक पनडुब्बियों की तकनीक और निर्माण में आमूलचूल बदलाव आया। 1950 में परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बियों ने डीज़ल चलित पनडुब्बियों का स्थान ले लिया। इसके बाद समुद्री जल से आक्सीजन ग्रहण करने वाली पनडुब्बियों का भी निर्माण कर लिया गया। इन दो महत्वपूर्ण आविष्कारों से पनडुब्बी निर्माण क्षेत्र में क्रांति सी आ गई। आधुनिक पनडुब्बियाँ कई सप्ताह या महिनों तक पानी के भीतर रहने में सक्षम हो गई है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय भी पनडुब्बियों का उपयोग परिवहन के लिये सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए किया जाता था। आजकल इनका प्रयोग पर्यटन के लिये भी किया जाने लगा है। कालपनिक साहित्य संसार और फंतासी चलचित्रों के लिये पनडुब्बियों का कच्चे माल के रूप मे प्रयोग किया गया है। पनडुब्बियों पर कई लेखकों ने पुस्तकें भी लिखी हैं। इन पर कई उपन्यास भी लिखे जा चुके हैं। पनडुब्बियों की दुनिया को छोटे परदे पर कई धारावाहिको में दिखाया गया है। हॉलीवुड के कुछ चलचित्रों जैसे आक्टोपस 1, आक्टोपस 2, द कोर में समुद्री दुनिया के मिथकों को दिखाने के लिये भी पनडुब्बियो को दिखाया गया है। पनडुब्बी के भीतर कृत्रिम रूप से जीवन योग्य सुविधाओं की व्यस्था की जाती है। आधुनिक पनडुब्बियाँ अपने चालक दल के लिये प्राणवायु ऑक्सीजन समुद्री जल के विघटन की प्रक्रिया से प्राप्त करती है। पनडुब्बियों में कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित करने की भी व्यस्था होती है ताकि पनडुब्बी के भीतर कार्बन डाईऑक्साइड ना भर जाए। ऑक्सीजन की पर्याप्त उपलब्धता के लिये पनडुब्बी में एक ऑक्सीजन टंकी भी होती है। आग लगने पर बचाव के लिये भी व्यस्था की जाती है। आग लगने की स्थिति में जिस भाग में आग लगी होती है, उसे शेष पनडुब्बी से विशेष रूप से बने परदों की सहायता से अलग कर दिया जाता है ताकि विषैली गैसें बाकी पनडुब्बी में ना फैले। विश्व की सभी प्रमुख नौसेनाओं के समान ही भारतीय नौसेना ने भी अपने बेड़े में पनडुब्बियों को सम्मिलित किया है। भारतीय नौसेना के बेड़े में वर्तमान में 16 डीज़ल चलित पनडुब्बियाँ हैं। ये सभी पनडुब्बियाँ मुख्य रूप से रुस या जर्मनी में बनीं हुईं हैं। वर्ष 2010-11 में इस बेड़े मे 6 और पनडुब्बियाँ सम्मिलित कर ली जाएगीं। भारतीय नौसेना पोत अरिहंत परमाणु शक्ति चालित भारत की प्रथम पनडुब्बी है। इस 6000 टन के पोत का निर्माण उन्नत प्रौद्योगिकी पोत परियोजना के अंतर्गत पोत निर्माण केंद्र विशाखापत्तनम में 2.9 अरब डॉलर की लागत से किया गया है। इसको बनाने के बाद भारत वह छठा देश बन गया जिनके पास इस प्रकार की पनडुब्बियां है।
कर्नाटक के आदिम निवासी लौह धातु का प्रयोग उत्तर भारतीयों की अपेक्षा पहले से जानते थे, और ईसापूर्व 1200 इस्वी के औजार धारवाड़ जिले के हल्लूर में मिले हैं। ज्ञात इतिहास के आरंभ में इस प्रदेश पर उत्तर भारतीयों का शासन था। पहले यहाँ नन्दों तथा मौर्यों का शासन था। सातवाहनों का राज्य उत्तरी कर्नाटक में फैला था जिसके बाद कांची के पल्लवों का शासन आया। पल्लवों के प्रभुत्व को स्थानीय कदम्बों तथा कोलार के गंगा राजवंश ने खत्म किया। कदम्ब राजवंश की स्थापना सन् 345 में मयूरशर्मन नामक ब्राह्मण ने की थी। पल्लवों की राजधानी में अपमान सहने के बाद उसने पल्लवों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। उसके परवर्तियों में से एक ककुस्थ वर्मन तो इतना शक्तिशाली हो गया था कि वकट तथा गुप्तों ने भी उनके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापिक किया था। माना जाता है कि महाकवि कालिदास ने उसके दरबार की यात्रा की थी। गंगा राजवंश ने सन् 350 के आसपास कोलार से शासन आरंभ किया था और बाद में उन्होंने अपनी राजधानी मैसूर के पास तालकडु में स्थापित की। बदामी चालुक्यों के आने से पहले तक वे दक्षिणी कर्नाटक में एकक्षत्र राज्य करते रहे। बदामी के चालुक्यों के अन्दर ही सम्पूर्ण कर्नाटक एक शासन सूत्र में बंध पाया था। वे अपने शासनकाल में बनाई गई कलाकृतियों के लिए भी जाने जाते हैं। इसी कुल के पुलकेशिन द्वितीय ने हर्षवर्धन को हराया था। पल्लवों के साथ युद्ध में वे धीरे-धीरे क्षीण होते गए। बदामी के चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने के बाद राष्ट्रकूटों का शासन आया पर वे अधिक दिन प्रभुत्व मे नहीं रह पाए। कल्याण के चालुक्यों ने सन् 973 में उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। सोमेश्वर प्रथम ने चोलों के आक्रमण से बचने की सफलतापूर्वक कोशिश की। उसने कल्याण में अपनी राजधानी स्थापित की और चोल राजा राजाधिराज की कोप्पर में सन् 1054 में हत्या कर दी। उसका बेटा विक्रमादित्य षष्टम तो इतना प्रसिद्ध हुआ कि कश्मीर के कवि दिल्हण ने अपनी संस्कृत रचना के लिए उसके नायक चुना और विक्रमदेव चरितम की रचना की। वो एक प्रसिद्ध कानूनविद विज्ञानेश्वर का भी संरक्षक था। उसने चोल राजधानी कांची को 1085 में जीत लिया। यादवों ने देवगिरि से शासन करना आरंभ किया। पर यादवों को दिल्ली सल्तनत की सेनाओं ने 1296 में हरा दिया। यादवों के समय भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञों ने अपनी अमर रचनाए कीं। हेमाद्रि की रचनाए भी इसी काल में हुईं। चालुक्यों की एक शाखा इसी बीच शकितशाली हो रही थी - होयसल। उन्होंने बेलुरु, हेलेबिदु और सोमनाथपुरा में मन्दिरों की रचना करवाई। जब तमिल प्रदेश में चोलों और पाण्ड्यों में संघर्ष चल रहा था तब होयसलों ने पाण्ड्यों को पीछे की ओर खदेड़ दिया। बल्लाल तृतीय को दिल्ली तथा मदुरै दोनों के शासकों से युद्ध कना पड़ा। उसके सैनिक हरिहर तथा बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की नींव रखी। होयसलों के शासनकाल में कन्नड़ भाषा का विकास हुआ। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के समय वो दक्षिण में एक हिन्दू शक्ति के रूप में देखा गया जो दिल्ली और उत्तरी भारत पर सत्तारूढ़ मुस्लिम शासकों के विरूद्ध एक लोकप्रिय शासक बना। हरिहर तथा बुक्का ने न केवल दिल्ली सल्तनत का सामना किया बल्कि मदुरै के सुल्तान को भी हराया। कृष्णदेव राय इस काल का सबसे महान शासक हुआ। विजयनगर के पतन के बाद बहमनी सल्तनत के परवर्ती राज्यों का छिटपुत शासन हुआ। इन राज्यों को मुगलों ने हरा दिया और इसी बीच बीजापुर के सूबेदार शाहजी के पुत्र शिवाजी के नेतृत्व में मराठों की शक्ति का उदय हुआ। मराठों की शक्ति अठारहवीं सदी के अन्त तक क्षीण होने लगी थी। दक्षिण में हैदर अली ने मैसूर के वोड्यार राजाओं की शक्ति हथिया ली। चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध में हैदर अली के पुत्र टीपू सुल्तान को मात देकर अंग्रेजों ने मैसूर का शासन अपने हाथों में ले लिया। सन् 1818 में पेशवाओं को हरा दिया गया और लगभग सम्पूर्ण राज्य पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। सन् 1956 में कर्नाटक राज्य बना।
लोहाली, कोश्याँकुटोली तहसील में भारत के उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मण्डल के नैनीताल जिले का एक गाँव है।
सिकन्दर बख्त भारत के राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानी भी थे। उनकी गणना भारतीय जनता पार्टी के शीर्षस्थ राजनयिकों में की जाती थी। मोरारजी देसाई की जनता सरकार तथा अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में वे केन्द्रीय मन्त्री रहे। जिस समय उनका निधन हुआ वे केरल के राज्यपाल पद पर आसीन थे। सन् 2000 में उन्हें पद्म विभूषण से नवाजा गया। सन् 1918 में दिल्ली में जन्में सिकन्दर बख्त ने अपनी शुरुआती तालीम एंग्लो अरैबिक सीनियर सेकेंडरी स्कूल दिल्ली से हासिल की और साइन्स में ग्रेजुएशन की बैचलर्स डिग्री तत्कालीन एंग्लो अरैबिक कॉलेज से ली जिसे आजकल दिल्ली में जाकिर हुसैन कॉलेज के नाम से जाना जाता है। स्कूल कॉलेज के दिनों में वे हाकी के अच्छे खिलाडी थे और दिल्ली विश्वविद्यालय की टीम में खेला करते थे। उन्होंने अपना एक स्वतन्त्र हाकी क्लब भी बनाया हुआ था जिसकी टीम की कप्तानी वे खुद किया करते थे। सन् 1952 में सिकन्दर बख्त ने दिल्ली नगर निगम का चुनाव कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में जीता। 1968 में उन्हें दिल्ली विद्युत आपूर्ति अभिकरण का अध्यक्ष बनाया गया। 1969 में जब कांग्रेस पार्टी का विभाजन हुआ तो वे पुरानी कांग्रेस के साथ बने रहे और उसके प्रत्याशी के रूप में दिल्ली महानगर परिषद का चुनाव जीते। तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गान्धी ने 25 जून 1975 को जब आपातकाल की घोषणा की तो सभी विपक्षी दल के नेता रातों-रात गिरफ्तार कर लिये गये। सिकन्दर बख्त को गिरफ्तार करके रोहतक जेल में रक्खा गया जहाँ से वे दिसम्बर 1976 में छूटकर घर लौटे। मार्च 1977 में जब इन्दिरा गान्धी ने आम चुनाव घोषित किया तो सिकन्दर बख्त तमाम विपक्षी दलों को एकजुट करके बनी जनता पार्टी में शामिल हो गये। मार्च 1977 में वे दिल्ली की चाँदनी चौक लोक सभा सीट से सांसद चुने गये और मोरारजी देसाई सरकार में लोक निर्माण, आपूर्ति और पुनर्वास मन्त्री बने। जुलाई, 1979 तक वे इस पद पर काम करते रहे। 1980 में जब जनता पार्टी विखण्डित हो गयी तो वे भारतीय जनता पार्टी में चले गये। पार्टी ने महासचिव का दायित्व सौंपा। चार वर्ष तक इस पद पर काम करने के बाद पार्टी ने उन्हें 1984 में पदोन्नत करके उपाध्यक्ष बनाया। 1990 में वे भाजपा के प्रत्याशी के रूप में राज्य सभा के लिये निर्वाचित हुए और 1992 में राज्य सभा के ऊपरी सदन में नेता प्रतिपक्ष चुने गये। 1996 में वे पुन: राज्य सभा सांसद चुने गये। मई 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी ने जब अपनी सरकार बनायी तो उन्होंने सिकन्दर बख्त को शहरी विकास मन्त्री का दायित्व देना चाहा परन्तु उससे वह सन्तुष्ट नहीं हुए अत: वाजपेयी ने उन्हें विदेश मन्त्री का अतिरिक्त प्रभार भी दे दिया। चूँकि तेरह दिन बाद बहुमत न जुटा पाने पर अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी सरकार का इस्तीफा राष्ट्रपति को सौंप दिया। इस प्रकार वे केवल एक सप्ताह तक ही विदेश मन्त्रालय का कामकाज देख पाये। 1 जून 1996 को वाजपेयी सरकार के पतन के पश्चात सिकन्दर बख्त ने राज्य सभा में विपक्षी दल के नेता की कमान दुबारा सम्हाली। 1998 में वाजपेयी जब फिर से भारत के प्रधानमन्त्री बने तो सिकन्दर बख्त को उन्होंने अपनी सरकार में शामिल किया और उद्योग मन्त्री बनाया। इसके अतिरिक्त वे राज्य सभा के सभापति भी चुने गये। सन् 2000 में सिकन्दर बख्त को पद्म विभूषण के गौरवपूर्ण सरकारी सम्मान से विभूषित किया गया। पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी के केवल दो ही नेता यह सम्मान प्राप्त कर सके एक बख्त दूसरे वाजपेयी अर्थात । 9 अप्रैल 2002 को सिकन्दर बख्त ने राज्य सभा का वक़्त पूरा किया। उसके ठीक 9 दिन बाद ही उन्हें केरल का राज्यपाल बना दिया गया। 83 वर्ष और 237 दिन की आयु में किसी अहिन्दी भाषी प्रान्त के वे पहले राज्यपाल थे। वे अपना कार्यकाल पूरा न कर सके और 23 फ़रवरी 2004 को तिरुवनन्तपुरम के एक सरकारी अस्पताल में आँतों की शल्य चिकित्सा, जो 19 फ़रवरी को मात्र चार दिन पूर्व ही की गयी थी, के दुष्परिणामस्वरूप इस दुनिया से चल बसे। उनकी मृत्यु के पश्चात त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी, जो पहले से ही कर्नाटक के राज्यपाल पद पर आसीन थे, को केरल के राज्यपाल का अतिरिक्त प्रभार दिया गया।