Datasets:

Modalities:
Text
Formats:
csv
Libraries:
Datasets
pandas
Hindi
stringlengths
6
1.61k
Sanskrit
stringlengths
1
1.44k
इसलिए आँखों के सत्ताग्रहण से ब्रह्म को जाना जाता है यह स्पष्ट हो गया है।
अतः चक्षुषा सत्ताग्रहणात्‌ ब्रह्म ज्ञातमिति स्पष्टम्‌।
व्याकरण के शरीर की किस अङ्ग से तुलना की है?
व्याकरणं शरीरस्य केन तुल्यम्‌?
उन तात्पर्य ग्रहाकलिङ्गों के द्वारा ही वेदान्तवाक्यों के तात्पर्य का ग्रहण होता है।
तैरेव तात्पर्यग्राहकलिङ्गैः वेदान्तवाक्यानां तात्पर्य॑निर्णीयते।
गोपि इस लौकिक विग्रह में गोपा डि अधि इस अलौकिक विग्रह में समास संज्ञा होने पर उपसर्जन का पूर्वनिपात होने पर प्रातिपदिक से सुप्‌ के ङे का लोप होने पर प्रक्रिया में अधिगोपा यह निष्पन्न होता है।
गोपि इति लौकिकविग्रहे गोपा ङि अधि इत्यलौकिकविग्रहे समाससंज्ञायाम्‌ उपसर्जनस्य पूर्वनिपाते प्रातिपदिकत्वात्‌ सुपः ङेर्लुकि प्रक्रियाकार्ये अधिगोपा इति निष्पन्नः।
गोपथ ब्राह्मण का (३/२) कथन है की तीनों वेदों के द्वारा यज्ञ का अन्तर पक्ष को ही शुद्ध करते हैं।
गोपथब्राह्मणस्य (३/२) कथनम्‌ अस्ति यत्‌ त्रिभिः वेदैः यज्ञस्यान्तरः पक्ष एव संस्क्रियते।
पतञ्जलि योगदर्शन में तो शीतोष्ण, भूख, प्यास, सुख, दुःख इत्यादि द्वन्द्वो को सहना तथा कृच्छ चान्द्रायणादि व्रत, तप, शब्द के द्वारा कहे गये हैं।
पातञ्जलदर्शने तु शीतोष्णम्‌, जिघत्सापिपासे, सुखदुःखे - इत्यादीनां द्वन्द्वानां सहनं, कृच्छ-चान्द्रायणादिव्रतानि च तपश्शब्देन निर्दिष्ठानि।
वैदिकदेवता का बाह्यप्रतीक प्रत्येक एक एक प्राकृतिक घटना रूप में है।
वैदिकदेवतायाः बाह्यप्रतीकं प्रत्येकम्‌ एकम्‌ एकं प्राकृतिकघटनरूपम्‌।
चित्तशुद्धि के बिना संन्यास विफल हो जाता है।
चित्तशुद्धिं विना संन्यासः विफलो भवति।
और वह भिस्प्रत्यय झलादि है।
स च भिस्प्रत्ययः झलादिः वर्तते।
तात्पर्य यह है कि मन के राज जनन से बन्धन का कारण होता है तथा वैराग्य जनन से मोक्ष कारण होता है।
रागजननद्वारा मनः बन्धस्य कारणं तथा वैराग्यजननद्वारा मोक्षकारणञ्च ।
ध्यान धारण तथा समाधि ये पतंजलि के योग शास्त्र में संयम पद के द्वारा कहे गये है।
ध्यान-धारणा-समाधयः पातञ्जलयोगसूत्रे संयमपदेन उक्ताः।
आचार्य का यह वचन हैं कि अज्ञानकल्पितभेदनिवृत्तिपरत्व शास्त्रों का होता है।
अज्ञानकल्पितभेदनिवृत्तिपरत्वात्‌ शास्त्राणामिति आचार्यवचनम्‌।
स्वरभेद से अर्थभेद होता है।
स्वरभेदे अर्थभेदो भवति।
अतः कर्मयोग का सभी मुमुक्षुओं के द्वारा हमेशा अनुष्ठान करना चाहिए।
अतः कर्मयोगः सर्वैः मुमुक्षिभिः नितराम्‌ अनुष्ठेयः।
“प्राक्कडारात्समासः''' “ सहसुपा'' “तत्पुरुषः” “विभाषा” ये चार प्रकार के सूत्र अधिकृत किये गये हैं।
"प्राक्कडारात्समासः", "सह सुपा", "तत्पुरुषः" "विभाषा" इति सूत्रचतुष्टयमधिकृतम्‌।
मानवजाति की समस्याओं का समाधन समूह शक्ती संघ में गूहित है, अकेला मानव दुर्बल और स्वार्थी हो जाता है।
मानवजातेः समस्यानां समाधानं समूहशक्तौ किञ्च संघे गूहितं वर्तते, एकाकी मानवः दुर्बलः स्वार्थपरश्च सञ्जायते।
शब्द या वाक्य जो अर्थ परक होता है वह तात्पर्य कहलाता है।
शब्दः वाक्यं वा यदर्थपरं तत्‌ तस्य तात्पर्यम्‌।
वेद प्रमाण विषय पर विस्तृत वर्णन कीजिए।
वेदप्रामाण्यविषये विस्तृतं वर्णनं कुरुत।
किन्तु - आ नो मित्रावरुणा (ऋ. ३/६२/१६) इस मन्त्र के गायन का प्रयोग दीर्घरोग निवृत्ति के लिए ही है।
किञ्च - आ नो मित्रावरुणा (ऋ. ३/६२/१६) अस्य मन्त्रगायनस्य विनियोगः दीर्घरोगनिवृत्त्यर्थम्‌ एव अस्ति।
उसी प्रकार मन से बन्धन बनाये जाते हैं तथा फिर मन के द्वारा ही उनका निरास कर दिया जाता है।
एवं मनसा बन्धः आनीयते। ततः मनसा तस्य निरासश्च क्रियते।
यहाँ अग्निम्‌ ईळे इस स्थिति में 'तिङङतिङ:' इस सूत्र से सभी को अनुदात्त स्वर प्राप्त होता है।
अत्र अग्निम्‌ ईळे इति स्थिते तिङ्ङतिङः इति सूत्रेण सर्वानुदात्तस्वरः।
चित्त विषयों में आकृष्ट होता है।
चित्तं विषयेषु एव आकृष्टं भवति।
यह लोक प्रज्ञा चक्षु है तथा इस जगत की प्रतिष्ठा प्रज्ञा ही है।
प्रज्ञाचक्षुर्वा सर्व एव लोकः प्रज्ञा प्रतिष्ठा सर्वस्य जगतः।
उस मनुष्य का पोषण करने के लिये किसी भी अपरिचित मनुष्य की शरण में जाना चाहिए।
तं जनं पोषणकरः कस्यापि अपरिचितस्य जनस्यैव शरणं गन्तव्यम्‌।
इस पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य, पैरों से शूद्र, नाभिप्रदेश से अन्तरिक्ष मण्डल, शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि, कर्ण से दिशाएं उत्पन्न हुई।
अस्य पुरुषस्य मुखात्‌ ब्राह्मणाः, बाहुभ्यां क्षत्रियाः, ऊरुभ्यां वैश्याः, पादाभ्यां शूद्राः, नाभिप्रदेशात्‌ अन्तरिक्षमण्डलं, शिरसः द्युलोकः, पादाभ्यां भूमिः, कर्णाभ्यां दिशः अजायन्त।
““ अङ्गस्य'' यह अधिकृत सूत्र है।
"अङ्गस्य" इति सूत्रम्‌ अधिकृतम्‌ ।
पूर्ण रूप से कहा की निरुक्त का ज्ञान भी अत्यन्त आवश्यक है।
निःशेषेण उक्तस्य निरुक्तस्य ज्ञानम्‌ अपि अत्यावश्यकम्‌।
इन्होने वेदों की अध्यात्म परक व्याख्या की है।
अनेन वेदानाम्‌ अध्यात्मपरका व्याख्या कृतास्ति।
यहाँ कुछ पाठगत प्रश्‍न दिये जा रहे हैं।
अत्र केचन पाठगतप्रश्नाः प्रदीयन्ते।
वसूनाम्‌ इसका क्या अर्थ है?
वसूनाम्‌ इत्यस्य कः अर्थः।
वह चैतन्य ही सभी जगह अनुस्यूत रहता है।
तच्चैतन्यं सर्वत्र एव अनुस्यूतं वर्तते।
विशेष रूप से छिन्न।
विशेषतः छिन्नानि।
उसके प्रति कहा गया है कि- न तो उसका समानजातीयत्व वाला और न ही भिन्न जातीयत्व वाला नियम है।
तावत्समानजातीयम्‌ एवारभते, न भिन्नजातीयमिति नियमोऽस्ति ।
और दुःख से पीछा छुडाना चाहता है।
दुःखपरिजिहिर्षुश्च ।
यहां इसका अर्थ अङऱगुष्ठमात्र है।
अत्रार्थ अङ्गुष्ठमात्रः ।
74. “तद्धिता” इस सूत्र का अधिकार कहाँ तक है?
७४. "तद्धिताः" इति सूत्रस्याधिकारः कियत्पर्यन्तम्‌?
और इसके बाद शप्‌ का भी शित्व सार्वधातुक से सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से भू के ऊकार का गुण होने पर ओकार में एचोऽयवायावः सूत्र से अव्‌ आदेश होने पर भत्‌ अ अत्‌ होने पर अतो गुणे' सूत्र से पररूप होने पर भवत्‌ सिद्ध होता है।
ततश्च शपः अपि शित्त्वेन सार्वधातुकत्त्वात्‌ सार्वधातुकार्धधातुकयोः इति सूत्रेण भुवः ऊकारस्य गुणे ओकारे एचोऽयवायावः इति सूत्रेण अव्‌ इत्यादेशे च कृते भव्‌ अ अत्‌ इति जाते अतो गुणे इति सूत्रेण पररूपे भवत्‌ इति सिद्ध्यति।
इसका भी समय अज्ञात ही है।
अस्य अपि समयः अज्ञातः एव।
और “विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधो पदम्‌" इस मन्त्र का उच्चारण करके त्रिपद जाता है।
अपि च "विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्‌" इति मन्त्रम्‌ उच्चारयन्‌ त्रिपदं गच्छति।
इस पाठ को पढकर आप सक्षम होंगे - पृथ्वी सूक्त के संहितापाठ को स्वर सहित जान पाने में। पृथ्वी सूक्त के पदपाठ को जान पाने में। पृथ्वी सूक्त के मन्त्रों का अन्वय कर पाने में। सरलता से पृथ्वी सूक्त के अर्थ को समझ पाने में। पृथ्वी सूक्त के शब्दों के व्याकरण बिन्दुओं को जान पाने में। पृथ्वी सूक्त का विविधरूप से वर्णन कर पाने में। वैदिक शब्दों को जान पाने में समर्थ हैं।
एतं पाठं पठित्वा भवान्‌- पृथिवीसूक्तस्य संहितापाठं संस्वरम्‌ ज्ञातुं शक्नुयात्‌। पृथिवीसूक्तस्य पदपाठं ज्ञातुं शक्नुयात्‌। पृथिवीसूक्तस्य मन्त्राणाम्‌ अन्वयं कर्तुम्‌ समर्थो भविष्यति। ऋजुतया पृथिवीसूक्तस्य अर्थम्‌ अध्येष्यते। पृथिवीसूक्तस्य केषाञ्चित्‌ शब्दानाम्‌ व्याकरणं ज्ञास्यति। पृथिव्याः विविधरूपेण वर्णनं कर्तुं शक्नुयात्‌। वैदिकशब्दान्‌ ज्ञातुं शक्नुयात्‌।
जैसे जल तथा नमक के मिश्रण होने पर उन दोनों में भेद ग्रहण किया जाता है।
यथा लवणजलयोः मिश्रणे सति न तयोः भेदो गृह्यते ।
इसके बाद पञ्चम्यन्त का पूवनियात होने पर चोर ङसि भय सु ऐसा होने पर प्रातिपदिकत्व से सुलोप होने पर निष्पन्न चोर भयशब्द से सु प्रत्यये की प्रक्रियाकार्य में यह रूप निष्पन्न होता है।
ततः पञ्चम्यन्तस्य पूर्वनिपाते चोर ङसि भय सु इति स्थिते, प्रातिपदिकत्वात्‌ सुब्लुकि निष्पन्नात्‌ चोरभयशब्दात्‌ सौ प्रक्रियाकार्ये चोरभयम्‌ इति रूपं निष्पन्नम्‌।
विश्वंभरा इस शब्द का क्या अर्थ है?
विश्वंभरा इति शब्दस्य कः अर्थः?
यज्ञ का देव दान देने से, प्रकाश करने से, प्रकाशित होने से अथवा द्युस्थान में रहने से होता है।
यज्ञस्य देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीति वा।
भूतपञ्चक से रस प्राप्त हुआ।
भूतपञ्चकात्‌ यो रसः सम्भृतः पुष्टः।
शरवे - शृ-धातु से उ प्रत्यय करने पर शरु: हुआ इसके बाद चतुर्थी एकवचन में शरवे यह रूप बना।
शरवे- शृ-धातोः उप्रत्यये शरुः इति जाते चतुर्थ्येकवचने शरवे इति रूपम्‌।
जैसे घोड़े की पूंछ के बाल मक्खी आदि को हटाने के लिए इधर उधर होती है, वैसे ही तुम ने भी वृत्रगण का निराकरण किया यह अर्थ है।
अथाश्वस्य वालोऽनायासेन मोक्षाकादीन्निवारयति तद्वत्‌ वृत्रमगणयित्वा निराकृतवानित्यर्थः।
समास में और इसमें समास विधायक सूत्र में यही अर्थ होता है।
समासे इत्यस्य च समासविधायकसूत्रे इत्यर्थः।
कवि जहां कही पर भी अलङऱकारों का प्रयोग नहीं करता है।
कविः यत्र कुत्रापि अलङ्काराणां व्यवहारं न करोति।
इसलिए देह आत्मा नहीं है।
अतः देहः नात्मा।
13. अपीपरम्‌ यहा पर क्या धातु है?
१३. अपीपरम्‌ इत्यत्र कः धातुः?
इस प्रकार अन्य उदाहरण ही इस प्रकार सिद्ध होते हेैं।
अन्यानि उदाहरणानि एवमेव सिद्ध्यन्ती।
यहाँ किसका वेत्ता नहीं होता हे?
न तस्यास्ति वेत्ता, कस्य ?
जिसे विवेकचूडामणी में इस प्रकार से कहा गया है।
तदुक्तं विवेकचूडामणौ ।
सूत्र व्याख्या - अतिदेश सूत्र है।
सूत्रव्याख्या - अतिदेशसूत्रमिदम्‌।
उसकी सम्पत्ति लाभ मे किसका अधिकार है, कौन अधिकृत है तथा कौन अधिकारी है।
तत्सम्पत्तिलाभे कस्य अधिकारः, कः अधिकृतः, कः अधिकारी।
आमन्त्रिते यह सप्तमी एकवचनान्त पद है।
आमन्त्रिते इति सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌।
अपनी इच्छा अनुसार शिक्षा शास्त्र के तीन ग्रन्थ के रचयिताओं का परिचय ऊपर निर्देश के अनुसार व्याख्या कीजिए।
यथेच्छं शिक्षाशास्त्रस्य ग्रन्थत्रयं रचयितृपरिचयनिर्देशपुरःसरं व्याख्यात।
आदि में जो कहा गया है अन्त में भी उसका कथन उपक्रम तथा उपसंहार कहलाता है।
आदौ यत्‌ वदति अन्तिमे अपि तस्यैव कथनम्‌ उपक्रमोपसंहारौ।
एकदेशिना इस तृतीया एकवचनान्त और एक अधिकरण में सप्तमी एकवचनान्त पद है।
एकदेशिना इति तृतीयैकवचनान्तम्‌ एकाधिकरणे इति च सप्तम्येकवचनान्तं पदम्‌।
अर्थात्‌ तिङन्त शब्द का उपसर्ग व्यवधान होने पर भी यावद्‌ यथा से योग तिङन्त को अनुदात्त नहीं होता है, पूजा विषय गम्यमान होने पर।
अर्थात्‌ तिङन्तशब्दस्य उपसर्गव्यवधाने सत्यपि यावद्यथाभ्यां योगे तिङन्तम्‌ अनुदात्तत्वं न भवति पूजायां गम्यमानायाम्‌।
इसलिए इसे श्वेताश्वतरोपनिषद्‌ में इस प्रकार से कहा है।
श्वेताश्वतरोपनिषदि निगद्यते।
बिम्बभूत चैतन्य का कभी भी नाश नहीं होता है।
बिम्बभूतस्य चैतन्यस्य कदापि नाशः न भवति।
जैसे -वह जलवर्षक औषधियों में गर्भरूप से बीज को धारणा करता है।
यथा- स जलवर्षकः ओषधीषु गर्भरूपेण बीजानि धारयति।
ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुग्रैद्युभ्यः ( ६.१.१७६ ) सूत्र का अर्थ- इन शब्दों से उत्तर असर्वनाम स्थान विभक्ति उदात्त होती है।
ऊडिदम्पदाद्यपुप्पुम्रैद्युभ्यः (६.१.१७६) सूत्रार्थः- एभ्योऽसर्वनामस्थानविभक्तिरुदात्ता।
श्रुति में ब्रह्म से सम्पूर्ण जगत्‌ को सृष्टि होती है तथा एक ही सृष्टा से सम्पूर्ण सृष्टि का उपदेश मिलता है।
श्रुतौ ब्रह्मण एव सर्वं सृज्यते इति एकस्मात्‌ स्रष्टुः सर्वसृष्ट्युपदेशात्‌
लौकिक में तो इष्टे रूप बनता है।
लौकिके तु इष्टे इति रूपम्‌।
विवेकचूडामणी में इस प्रकार से कहा गया है प्राणापानव्यानोदानसमानाः भवत्यसौ प्राणः।
तदुक्तं विवेचूडामणौ प्राणापानव्यानोदानसमानाः भवत्यसौ प्राणः।
वहाँ एवादीनाम्‌ यह षष्ठी बहुवचनान्त पद है, अन्तः यह प्रथमा एकवचनान्त पद है।
तत्र एवादीनाम्‌ इति षष्ठीबहुवचनान्तं पदम्‌, अन्तः इति च प्रथमैकवचनान्तं पदम्‌।
इसी प्रकार अल्पान्युक्तः, अन्तिकादागतः इरात्‌ आगतः (दूरादागतः) कृछ्रादागतः इत्यादि अन्य सूत्र के उदाहरण है।
एवमेव अल्पान्मुक्तः अन्तिकादागतः दूरादागतः कृच्छ्रादागतः इत्यादीन्यस्य सूत्रस्योदाहरणानि।
और अहि, वृत्रपृथ्वी के ऊपर सदा के लिए सोये अथवा कटी हुई लकडी के समान भूमि पर गिरे।
तथा सति अहिः वृत्रः पृथिव्याः उपरि उपपृक्‌ सामीप्येन संपृक्तः शयते शयनं करोति छिन्नकाष्ठवत्‌ भूमौ पततीत्यर्थः॥
ब्राह्मणों में शब्दों के निर्वचन का मार्मिक और वैज्ञानिक निर्देश निरुक्त में कहा है।
ब्राह्मणेषु शब्दानां निर्वचनस्य मार्मिकः वैज्ञानिकश्च निर्देशः निरुक्तिः इत्युच्यते।
वर्षा करते हुए मेघ की धारो को नीचे की और प्रवाहित करो।
वर्षणं कुर्वतां मेघानां धारां प्रवाहयतु।
वैसे ही यज्ञकर्मण्यजपन्यूङखसामसु इस सूत्र से जप, न्यूङ्ख, साम से भिन्न यज्ञकर्म में ही नित्य एकश्रुति का विधान है, अतः जप, न्यूङ्ख, साम से भिन्न में, और यज्ञकर्म से भिन्न स्थलों में छन्द में भी विकल्प से एकश्रुति हो उसके लिए इस नये सूत्र की रचना की है।
तथाहि यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खसामसु इति सूत्रेण जपभिन्नेषु न्यूङ्खभिन्नेषु सामभिन्नेषु यज्ञकर्मसु एव नित्यम्‌ ऐकश्रुत्यं विधीयते, अतः जपभिन्नेषु न्यूङ्खभिन्नेषु सामभिन्नेषु यज्ञकर्मभिन्नेषु च स्थलेषु छन्दस्सु अपि विकल्पेन ऐकश्रुत्यं यथा स्यात्‌ तदर्थं नूतनमिदं सूत्रं प्रणीतम्‌।
महाभाष्य के अनुसार से- “शन्नो देवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये।
महाभाष्यानुसारेण - 'शन्नो देवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये।
सूत्र का अवतरणर- तद्धित कित्प्रत्ययान्त शब्द के अन्त स्वर को उदात्त विधान के लिए इस सूत्र की रचना की है।
सूत्रावतरणरम्‌- तद्धितकित्प्रत्ययान्तस्य शब्दस्य अन्तस्य स्वरस्य उदात्तविधानार्थं सूत्रमिदं प्रणीतमाचार्येण।
यहाँ देवता विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के प्रतिनिधि स्वरूप हैं।
अत्र देवताः विभिन्नानां प्राकृतिकशक्तीनां प्रतिनिधिस्वरूपाः।
( ६.१.१८८ ) सूत्र का अर्थ - स्वपादि धातुओं को तथा हिंस धातु के अजादि अनिट सार्वधातुक परे हो, तो विकल्प से आदि को उदात हो जाता है।
(६.१.१८८) सूत्रार्थः - स्वपादीनां हिंसेश्चानिट्यजादौ लसार्वधातुके परे आदिरुदात्तो वा स्यात्‌।
3. आजहुः यह रूप कैसे सिद्ध हुआ?
३. आजहुः इति रूपं कथं सिद्ध्येत्‌?
तिसृभ्य: यह पञ्चमी बहुवचनान्त पद है, जसः यह षष्ठी एकवचनान्त पद है।
तिसृभ्यः इति पञ्चमीबहुवचनान्तं पदम्‌, जसः इति षष्ठ्येकवचनान्तं पदम्‌।
अब्राह्मणः- न ब्राह्मणः इस विग्रह में नजूतत्पुरुष समास में अब्राह्मण: यह रूप होता है।
अब्राह्मणः- न ब्राह्मणः इति विग्रहे नञ्तत्पुरुषसमासे अब्राह्मणः इति रूपं भवति।
इस हेतु से सत्य आदि भी प्रतिपादित किए गए हैं।
इति हेतोः सत्यादयः प्रतिपादिता भवन्ति।
इन घटनाओं का वर्णन पाठकों के मन में आनन्द को उत्पन्न करता है।
एतानि वर्णनानि पाठकानां मनःसु आनन्दं जनयन्ति।
उदात्त निवृत्ति स्वर अपवाद भूत यह सूत्र है।
उदात्तनिवृत्तिस्वरापवादभूतम्‌ इदं सूत्रम्‌।
समास संज्ञक होना।
समाससंज्ञं भवति इति।
बृहन्महतोरुपसङ्ख्यानम्‌' से ङीप्‌ को उदात्त।
'बृहन्महतोरुपसङ्ख्यानम्‌' इति ङीप उदात्तत्वम्‌।
जितनी सुललित देववाणी का शास्त्रीय विवेचन वहाँ देखते हैं, अन्य जगह उस प्रकार की सुललिता दिखाई नहीं देती है।
यादृशं हि सुललितं देववाण्याः शास्त्रीयं विवेचनं तत्र दृश्यते, नान्यत्र तादृशं क्वापि विलोक्यते।
नहीं जानता हुआ तो स्थाणु में पुरुषविज्ञान के समान अविवेक से देहादिसङ्गात को में मानता हूँ।
अजानंस्तु स्थाणौ पुरुषविज्ञानवत्‌ अविवेकतः देहादिसङ्खाते कुर्यात्‌ “अहम्‌ इति प्रत्ययं, न विवेकतः जानन्‌।
5. क्रन्द्‌-धातु से यङ लुङन्त में प्रथमापुरुष एकवचन का यह रूप है।
५. क्रन्द्‌ - धातोः यङ्‌ तुङन्ते प्रथमापुरुषैकवचने रूपमिदम्‌ ।
उस अग्नि के द्वारा निमित्तभूत यजमान धन- धान्य को विशेष रूप से प्राप्त करता है।
तेन अग्निना निमित्तभूतेन यजमानः रयिं धनम्‌ अश्नवत्‌ प्राप्नोति।
मरण भी देह का धर्म होता है।
मरणं देहस्य धर्मः।
अलग नहीं है फिर भी इनमें नामों में भिन्नता दिखाई देती है।
अभिन्ना तथापि एतेषु नामसु महती भिन्नता दृश्यते।
व्याकरण के सभी प्रयोजन बताये गये महाभाष्य में - रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम्‌।
व्याकरणस्य सर्वाणि प्रयोजनानि उक्तानि महाभाष्ये - रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम्‌।
क्योंकि अग्नि से ही यज्ञ भोजन आदि और शीतनिवारण होता था।
यतो हि अग्निना एव यज्ञः भोजनादिकं शीतनिवारणं च सम्पाद्यन्ते स्म।
इसी प्रकार से अन्य शास्त्रों में भी तथा अन्य ग्रन्थों में भी देखना चाहिए।
एवमेव अन्यानि शास्त्राणि, अन्ये ग्रन्थाः चापि द्रष्टव्याः।
इसलिए योगसूत्र में कहा गया है- “सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्‌” इति।
तथाहि योगसूत्रे उच्यते - “सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्‌” इति।
और देवों का भी यज्ञस्थल में आह्वान करती है।
तथा देवानपि यज्ञस्थलमावहति।
इसलिये व्याकरणदार्शनिकै के द्वारा स्फोटपरक व्याख्या की गई है।
अतो व्याकरणदार्शनिकैः स्फोटपरा व्याख्या प्राणायि।
वो कभी पुरुषरूप से, कभी हिरण्यगर्भ रूप से कभी प्रजापतिरूप से और कभी ब्रह्मरूप में सुशोभित होता है।
सः कदाचित्‌ पुरुषरूपेण, कदाचित्‌ हिरण्यगर्भरूपेण कदाचित्‌ प्रजापतिरूपेण कदाचिच्च ब्रह्मरूपेण विराजते।
निरुक्त का एकमात्र प्रतिनिधि होने से निरुक्त ग्रन्थ का सबसे अधिक महत्त्व है।
निरुक्तस्य एकमात्रप्रतिनिधित्वेन निरुक्तग्रन्थस्य सर्वातिशायि महत्त्वम्‌ अस्ति।

No dataset card yet

Downloads last month
39