Doha
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67
98
Meaning
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96
421
१. **दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय। \ जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि दुःख में भगवान का स्मरण तो सभी करते हैं, सुख में कोई याद नहीं करता है। यदि सुख में भी भगवान का स्मरण किया जाये तो दुःख होगा ही क्यों।
२. **तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय। \ कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय॥**
तिनका अगर पैर के नीचे है तब भी उसे सूक्षम (तुच्छ) नहीं समझना चाहिए। अगर वह उड़ करके आँख मे चला जाये तो बहुत ही पीड़ा होती है।
३. **माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। \ कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर॥**
कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।
४. **गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय। \ बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय॥**
कबीर दास जी इस दोहे में गुरु की महिमा बताते हुए कहते है, गुरु और गोविंद अर्थात भगवान आपके सामने खड़े हों, तब आपको पहले गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए, क्योंकि उस गुरु ने ही आपको भगवान तक पहुंचने का मार्ग बताया है, गुरु कृपा से ही आप भगवान तक पहुंचे हैं।
५. **बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार। \ मानुष से देवत किया करत न लागी बार॥**
कबीर दास जी इस दोहे में गुरु महिमा बताते हुए कहते हैं, मैं जीवन का प्रत्येक क्षण गुरु पर सैकड़ों बार न्यौछावर करता हूँ, क्यूंकि उनकी कृपा से बिना विलम्ब मुझे मनुष्य से देवता बना दिया।
६. **कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख। \ माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख॥**
कबीर जी कहते हैं कि माला तो मन की ही होती है बाकी तो सभी लोक दिखावा है। अगर माला फेरने से भगवान मिलता हो तो रहट के गले को देख, कितनी बार माला फिरती है। दिल की माला फिरने से ही भगवान मिलता है।
७. **सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद। \ कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद॥**
कबीर दास जी कहते हैं जब मनुष्य के जीवन में सुख आता हैं, तब वो ईश्वर को याद नहीं करता लेकिन जैसे ही दुःख आता हैं, वो दौड़ा दौड़ा ईश्वर के चरणों में आ जाता हैं। फिर आप ही बताये कि ऐसे भक्त की पीड़ा को कौन सुनेगा।
८. **साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय। \ मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय॥**
कबीर दास जी ईश्वर से कहते है कि आप मुझे केवल इतना दीजिये कि जिससे मेरे और मेरे परिवार की गुजर बसर हो जाये। और मेरे घर से कोई भी साधु संत भुखा न जाये।
९. **लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट। \ पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट॥**
कबीर दास जी कहते हैं, अभी समय है राम नाम का समरण कर लो, वरना समय निकल जाने पर पछताओगे अर्थात जब शरीर से प्राण निकल जाएंगे तब।
१०. **जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान। \ मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥**
कबीरदास कहते हैं कि संतजन (साधु) की जाति मत पूछो, यदि पूछना ही है तो उनके ज्ञान के बारे में पूछ लो। तलवार को खरीदते समय सिर्फ तलवार का ही मोल-भाव करो, उस समय . तलवार रखने के कोष को पड़ा रहने दो। उसका मूल्य नहीं किया जाता।
११. **जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप। \ जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप॥**
कबीर दास जी कहते हैं कि जहाँ दया है वहीँ धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास होता है।
१२. **धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। \ माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥**
कबीर दास जी कहते है, मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है, अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।
१३. **कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और। \ हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर॥**
कबीर दास जी कहते हैं कि वे लोग अंधे और मूर्ख हैं जो गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते। अगर ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु का सहारा है लेकिन अगर गुरु आपसे रूठ गया तो दुनियां में कहीं आपका सहारा नहीं है।
१४. **पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय। \ एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय॥**
कबीरदास कहते हैं कि एक दिन में चौबीस घंटे होते हैं। इनमें पंद्रह घंटे काम-धंधों में बिता देते हैं, नौ घंटे सोने में। हमें हरि स्मरण करने फुरसत ही नहीं मिलती। हरि स्मरण बिना किये कोई मुक्ति कैसे पा सकते हैं? अर्थात् हरि स्मरण से ही कोई मुक्ति पा सकता है।
१५. **कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान। \ जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान॥**
कबीरदास जी कहते हैं की हे प्राणी! तू सोता रहता है (अपनी चेतना को जगाओ) उठकर भगवान का स्मरण कर क्यूंकि जिस समय यमदूत तुझे अपने साथ लेने आएंगे तब तेरा यह शरीर खाली म्यान की तरह पड़ा रह जाएगा।
१६. **शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान। \ तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन॥**
कबीर दास जी कहते हैं, जो शील (शान्त एवं सदाचारी) स्वभाव का होता है मानो वो सब रत्नों की खान है क्योंकि तीनों लोकों की माया शीलवन्त (सदाचारी) व्यक्ति में हीं निवास करती है।
१७. **माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर। \ आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर॥**
कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य का मन तथा उसमे व्याप्त माया का नाश नहीं होता और उसकी आशा तथा इच्छाओं का कभी भी अन्त नहीं होता केवल दिखने वाला शरीर हीं मरता है। यही कारण है कि मनुष्य दु:ख रूपी समुद्र मे सदा गोते खाता रहता है।
१८. **माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय। \ एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे क्या रौंदता है। एक दिन ऐसा आएगा कि मै तुझे रौंदूंगी। अर्थात मृत्यु के पश्चात मनुष्य का शरीर इसी मिट्टी मे मिल जाएगा।
१९. **रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय। \ हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय॥**
कबीर दस जी कहते हैं, रात तो तुमने सोकर गंवा दी और दिन खाने-पीने में गंवा दिया। यह हीरे जैसा अनमोल मनुष्य रूपी जन्म को तुमने कौड़ियो मे बदल दिया।
२०. **नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग। \ और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग॥**
कबीरदास जी कहते हैं की हे प्राणी! उठ जाग, नींद तो मौत की निशानी है। दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा।
२१. **जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल। \ तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल॥**
कबीर दास जी कहते हैं, जो तेरे रास्ते में कांटे बोये उसके लिए भी तुम्हें फूल बोना चाहिए। तुझको फूल के फूल ही मिलेंगे और जिसने तेरे रास्ते मे कांटे बोये हैं उसको त्रिशूल की भांति चुभने वाले कांटे मिलेंगे। अर्थात मनुष्य को सबके लिए भला ही करना चाहिए, जो तुम्हारे लिए बुरा करेंगे वह स्वयं अपने दुष्कर्मों का फल पाएंगे।
२२. **दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार। \ तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार॥**
कबीर दास जी कहते हैं, यह मनुष्य जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है और यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जिस तरह पेड़ से पत्ता झड़ जाने के बाद फिर वापस कभी डाल मे नहीं लग सकता। अतः इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पहचानिए और अच्छे कर्मों मे लग जाइए।
२३. **आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर। \ एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर॥**
कबीर दास जी कहते हैं, जो इस संसार मे आया है, उसे जाना है चाहे वह राजा हो या फकीर (कंगाल) हो। लेकिन कोई सिंहासन पर बैठ कर जाएगा और कोई जंजीरों में बंधकर जाएगा। अर्थात जिसने अच्छे कर्म किए होंगे वह सम्मान के साथ जाएगा और जिसने बुरे कर्म किए होंगे वह कष्ट के साथ जाएगा।
२४. **काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। \ पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब॥**
कबीर दास जी कहते हैं, जो कल करना है उसे आज कर और जो आज करना है उसे अभी कर। समय और परिस्थितियाँ एक पल मे बदल सकती हैं, एक पल बाद प्रलय हो सकती हैं अतः किसी कार्य को कल पर मत टालो।
२५. **माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख। \ माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख॥**
कबीर दास जी कहते है, माँगना मरने के बराबर है इसलिए किसी से भीख मत माँगो। सतगुरु की यही शिक्षा है की माँगने से मर जाना बेहतर है अतः प्रयास यह करना चाहिये की हमे जो भी वस्तु की आवश्यकता हो उसे अपने मेहनत से प्राप्त करें न की किसी से माँगकर।
२६. **जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग। \ कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग॥**
जहाँ मनुष्य में घमंड हो जाता है वहाँ उस पर आपत्तियाँ आने लगती हैं और जहाँ संदेह होता है वहाँ निराशा और चिंता होने लगती है। कबीरदास जी कहते हैं की यह चारों रोग धीरज से हीं मिट सकते हैं।
२७. **माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय। \ भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, माया और छाया एक जैसी है इसे कोई-कोई ही जानता है यह भागने वालों के पीछे ही भागती है, और जो सम्मुख खड़ा होकर इसका सामना करता है तो वह स्वयं हीं भाग जाती है।
२८. **आया था किस काम को, तु सोया चादर तान। \ सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान॥**
कबीरदास जी कहते हैं की ऐ तू चादर तान कर सो रहा है, अपने होश ठीक कर और अपने आप को पहचान, तू किस काम के लिए आया था और तू कौन है? स्वयं को पहचान और अच्छे कर्म कर।
२९. **क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह। \ साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह॥**
कबीर दास जी कहते हैं, इस शरीर का क्या भरोसा करना, इसका तो क्षण भर में विनाश हो जाता है, इसलिए हर सांस पर हरि (भगवान) का स्मरण करो इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है।
३०. **गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच। \ हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच॥**
कबीर दास जी कहते हैं, गाली यानि दुर्वचन से ही कलह, कष्ट और मृत्यु जैसी समस्याएं उत्पन्न हो जाती है, इन दुर्वचनों को सुनकर जो हार मानकर चला जाये वह साधु है, और जो इन गालियों को सुनकर गाली देने लगे वह नीच है।
३१. **दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय। \ बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कभी भी कमजोर व्यक्ति को सताना नहीं चाहिए क्योंकि उसकी हाय में अत्यंत शक्ति होती है, जैसे बिना जीवन वाली धौंकनी लोहे को भी भस्म कर डालती है।
३२. **दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर। \ अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर॥**
कबीर दास जी चेतावनी देते हुए कहते है, तुम अपनी आंखें खोलकर स्वयं देख लो, दान देने से धन नहीं घटता है और ना ही नदी का पानी पीने से नदी के पास पानी घटता है।
३३. **दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी का कौन। \ रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन॥**
कबीर दास जी कहते हैं, यह जो शरीर है इसमें जो प्राण वायु है वह इस शरीर में होने वाले दस द्वारों से निकल सकता है। इसमें कोई अचरज की बात नहीं है। अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय मृत्यु का कारण बन सकती है।
३४. **ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय। \ औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि हमेशा वाणी में मधुरता रखनी चाहिए और घमंड का त्याग करना चाहिए। जिससे औरों में भी शीतलता बनी रहे, साथ ही आपका मन भी शांत बना रहे।
३५. **हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट। \ बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट॥**
इस दोहे में कबीर दास जी कहते हैं, कि हीरे को कभी भी बेईमानों और चोरों की बाजार में खोलना/दिखाना भी नहीं चाहिए। वहाँ से चुपचाप अपने रास्ते निकल जाना चाहिए क्यूंकी वहाँ आपके हीरे का कोई मोल ही नहीं साझेगा, इसलिए पोटली बंधी ही रखनी चाहिए। अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान को केवल आध्यात्मिक लोग ही समझ सकते हैं, इसलिए सांसरिक लोगों में आध्यात्मिक ज्ञान का हीरा ना ही दिखाना चाहिए, क्यूंकी वहाँ पर उसका कोई सही मूल्य नहीं जान सकता है।
३६. **कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार। \ साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कटु वचन बहुत बुरे होते हैं और उनकी वजह से पूरा बदन जलने लगता है। जबकि मधुर वचन शीतल जल की तरह हैं और जब बोले जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अमृत बरस रहा है।
३७. **जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय। \ यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय॥**
कबीर दास जी कहते हैं कि अगर अपने मन में शीतलता हो तो इस संसार में कोई बैरी नहीं प्रतीत होता। अगर आदमी अपना अहंकार छोड़ दे तो उस पर हर कोई दया करने को तैयार हो जाता है।
३८. **मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय। \ मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, मैं संसार में सभी के दुख देखकर रोता हूँ (दुखी होता हूँ) लेकिन कोई भी मेरा दुख नहीं देख पाता है। मेरा दुःख केवल वही सझ सकता है, जो मेरे शब्दों को समझता है।
३९. **सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप। \ यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप॥**
कबीर दास जी कहते हैं की यदि साधू (सज्जन) सो रहा है तो उसे जगाना उचित है, क्यूंकी उसके जगने से ज्ञान की वर्षा होगी। वही दूसरी ओर अधर्मी, शेर और साँप को सोने देना ही सही है, क्यूंकी इनके जगने से सिर्फ लोगों को कष्ट और परेशानियाँ ही बढ़ेंगी।
४०. **अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ। \ मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि शराब पीने का अवगुण / लत बहुत ही बुरी है, क्यूंकी शराब के नशे में मद मस्त होकर मनुष्य पशुओं कि भांति व्यवहार करने लगता है। समाज में मान सम्मान के साथ आर्थिक स्थिति भी खराब हो जाती है।
४१. **बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ। \ नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ॥**
जैसे बाजीगर (जादूगर) के साथ बंदर होता है, बाजीगर उसे अपने इशारे पर नचाता रहता है। उसी प्रकार यह मन भी जीव (मनुष्य) को अपने इशारों पर नचाता रहता है। जबकि मनुष्य को अपने मन पर काबू रखना चाहिए।
४२. **अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट। \ चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट॥**
कबीर दास जी कहते है, जिस प्रकार योद्धा के शरीर में भाले की टूटी हुई नोक बिना चुंबक की सहायता से नहीं निकाली जा सकती है, उसी प्रकार मन में व्याप्त बुराई को बिना सतगुरु रूपी चुंबक के निकालना संभव नहीं है।
४३. **कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय। \ ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि इस लकड़ी कि बनी माला को जपने से क्या दिखावा कर रहे हो? जब तक अपने हृदय / मन से ईश्वर का नाम / जप नहीं करोगे, तब तक इसका कोई फायदा नहीं है। इसलिए लकड़ी की माला को छोडकर मन रूपी माला से भगवान का भजन करो (स्मरण करो), वही महत्वपूर्ण है।
४४. **पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप। \ पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप॥**
कबीर दास जी कहते हैं, पवित्रता मैली ही भली है फिर चाहे वह रंग में काली हो, फटे वस्त्र पहने हुये और कुरूप हो। इस पवित्रता के रूप पर भी मैं करोड़ों सुंदरियों को न्यौछावर करता हूँ।
४५. **बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार। \ एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार॥**
कबीर दास जी कहते हैं, बैद्य जो चिकित्सा करता है वह भी मरेगा, रोगी रोग के कारण मर जाएगा, इसी प्रकार सारा संसार मरेगा। वह कहते हैं कि मै (कबीर दास) तो मरूंगा ही नहीं। यदि राम नहीं मरता तो मैं भी नहीं मरूंगा। मेरा आधार वह राम है जो अनादि, अनंत, अनश्वर है। मैं उसी में समाहित हूं, उसी में लीन हूं। इसलिए जब तक वह ब्रह्म है तब तक मैं भी हूं।
४६. **हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध। \ हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध॥**
संत कबीर दास जी कहते है, जो थोड़ा थोड़ा जप करे वह मानव है, जो अधिक स्मरण व जप करे वह साधु है। परंतु जो हद और बेहद अर्थात जो स्मरण व जप करते ही नही, हमेशा सोये रहते हैं उनके साथ क्या अगाध हुआ, पता नहीं?
४७. **राम रहे बन भीतरे, गुरु की पूजा ना आस। \ रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश॥**
कबीर दास जी कहते हैं, जो राम राम मन से जपते है, परंतु गुरु के उपदेशों का न तो पालन करते है और न ही गुरु सेवा की इच्छा रखते हैं। ऐसे लोग पाखण्डी, झूठे होते हैं, ये हमेशा निराश रहते हैं। उनकी इस झूठी भक्ति का कोई फल उन्हें प्राप्त नहीं होता है।
४८. **जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच। \ वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच॥**
कबीर दास जी कहते हैं, जिनका अपनी जीभ अर्थात वाणी पर नियंत्रण नहीं होता है, साथ ही उनके हृदय में सत्य नहीं होता है। ऐसे लोग औषधि की खाली कांच की शीशी की भांति होते हैं, इनसे आपको कोई लाभ नहीं होता है, वरन नुकसान अवश्य पहुंच सकता है, इनकी संगति कभी नहीं करनी चाहिए।
४९. **तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार। \ सत्-गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार॥**
कबीर दास जी का विचार है, कि किसी तीर्थ जाने से एक फल की प्राप्ति होती है, संतो की संगति से चार फलों की प्राप्ति होती है। लेकिन एक सदगुरु मिल जाये तो उससे अनेक फलों की प्राप्ति होती है अर्थात सद्गुरु के मिलने से जीवन धन्य हो जाता है।
५०. **सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन। \ प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन॥**
संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते है, ईश्वर का स्मरण उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार मछली पानी से दूर जाने पर अपने प्राण त्याग देती है। उसी प्रकार की भक्ति से ही जीवन धन्य होता है।
१०१. **तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर। \ तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर॥**
कबीर दास जी कहते हैं, आकाश में तारे तभी तक जगमगाते रहते हैं जब तक सूर्य का उदय नहीं होता है, जैसे ही सूर्य उदय होता है उन सभी की रोशनी चमक खतम हो जाती है। उसी प्रकार जब तक जीव को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक वह सांसरिक मोह माया, भोग विलास में लिप्त रहता है और दुखों को झेलता हुआ जीवन-मरण के चक्रव्युव्ह में फंसा रहता हैं। परंतु जब उसे वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, तब वह इन सबसे ऊपर उठ जाता है।
१०२. **आस पराई राख्त, खाया घर का खेत। \ औरन कोप्त बोधता, मुख में पड़ रेत॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि तू दूसरों की रखवाली करता है और अपने घर को नहीं देखता यानि तू दूसरों को ज्ञान सिखाता है और स्वयं क्यों नहीं परमात्मा का भजन करता।
१०३. **सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार। \ दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि सोना, सज्जन पुरुष और साधू जन किसी बात या कारण से अलग होने पर पुनः जुड़ जाते हैं। परंतु कुम्हार का घड़ा एक ही धक्के में टूट कर अलग हो जाता है अर्थात दुर्जन छोटी सी बात पर ही दरार पैदा कर देते हैं।
१०४. **सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय। \ सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय॥**
कबीर दास जी गुरु की महिमा का बखान करते हैं, कि सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
१०५. **बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव। \ घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव॥**
कबीर कहते हैं कि मेरी आधी साखी चारों वेदों की जान है तो मैं क्यों न उस दूध का सम्मान करूँ जिसमें घी निकले। जिस प्रकार दूध में घी है इसी भाँति मेरी आधी साखी चारों वेदों का निचोड़ है।
१०६. **आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय। \ सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय॥**
जब मन में प्रेम की अग्नि लग जाती है तो दूसरा उसे क्यों जाने ? या तो वह जानता है जिसके मन से अग्नि लगी है या आग लगाने वाला जानता है।
१०७. **साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय। \ आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय॥**
साधु गाँठ नहीं बाँधता अर्थात वह भंडारण के लिए ज्यादा अन्न नहीं एकत्र करता है, वह तो पेट भर अन्न लेता है क्योंकि वह जानता है आगे पीछे ईश्वर खड़े हैं। भाव यह है कि परमात्मा सर्वव्यापी है जीव जब माँगता है तब वह उसे देता है।
१०८. **घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार। \ बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार॥**
कबीरदास जी कहते हैं कि तेरा बालकपन का मित्र और आरंभ से अंत तक का जो मित्र है वह हमेशा तेरे अंदर रहता है, तू जरा अंदर के पर्दे को दूर करके देख तो सम्मुख ही भगवान के दर्शन हो जाएंगे।
१०९. **कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय। \ जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय॥**
कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में या तो परमात्मा जागता है या ईश्वर का भजन करने वाला या पापी जागता है, और कोई नहीं जागता।
११०. **ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय। \ सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय॥**
यदि सोने के कलश में शराब है तो संत उसे बुरा कहेंगे। इस प्रकार कोई ऊँचे कुल में पैदा होकर बुरा कर्म करे तो वह भी बुरा होता है।
१११. **सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार। \ होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार॥**
कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे पनिहारी का ध्यान हर समय गागर पर ही रहता है इसी प्रकार तुम भी हर समय उठते-बैठते ईश्वर में मन लगाओ।
११२. **सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल। \ कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि जब जड़ मिट्टी से जुड़ जाती है, तब उसमें डालियाँ, पत्ते फूल सब आते है। इसी प्रकार जब मनुष्य ईश्वर से पकड़ मजबूत बना लेता तो उसे सुख, समृद्धि, वैभव इत्यादि सब चीज़ें प्राप्त हो जाती हैं।
११३. **जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख। \ अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख॥**
जिस तरह सूखा पेड़ नहीं फलता इसी तरह राम के बिना कोई नहीं फल-फूल सकता। जिसके मन में राम-नाम के सिवा दूसरा भाव नहीं है उनको सुख-दुःख का बंधन नहीं है।
११४. **सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर। \ जैसा बन है आपना, तैसा बन है और॥**
जिस तरह शेर अकेला जंगल में रहता हुआ पल-पल दौड़ता रहता है जैसा अपना मन वैसा ही औरों का भी इसी तरह मन रूपी शेर अपने शरीर में रहते हुए भी घूमता फिरता है।
११५. **यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो। \ बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो॥**
कबीरदास जी कहते हैं कि यह माया ब्रह्मा भंगी की जोरु है, इसमें ब्रह्मा और जीव दोनों बाप-बेटों को उलझा रखा है मगर यह साथ एक का भी नहीं देगी, तुम भी इसके धोखे में न आओ।
११६. **जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार। \ कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार॥**
हे कबीर! संसार में जिसने कुछ सोच-विचार रखा है वह ऐसे नहीं छोड़ता उसने तो पहले ही अपनी धरती में विष देकर थाँवला बनाया है। अब सागर से अमृत खींचता है तो क्या लाभ।
११७. **जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय। \ यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय॥**
यदि तुम्हारे मन में शांति है तो संसार में तुम्हारा कोई बैरी नहीं। यदि तू घमंड करना छोर दे तो सब तेरे ऊपर दया करेंगे।
११८. **जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार। \ जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार॥**
यदि तुम समझते हो कि वह जीवन हमारा तो उसे राम-नाम से भर दो क्योंकि यह ऐसा मेहमान है जो दुबारा मिलना मुस्किल है।
११९. **कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार। \ बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार॥**
कबीर दास जी कहते हैं कि मैंने चन्दन की डाली पर चढ़ बहुत से लोगों को पुकारकर ठीक रास्ता बताया परंतु जो ठीक रास्ते पर नहीं आता वह ना आवे! हमारा क्या लेता है।अर्थात जो व्यक्ति सही रास्ते का अनुसरण नहीं करते है उसमें उनकी हानि है, मेरा कर्तव्य था सही दिशा दिखाना वह मैंने कर दिया है।
१२०. **लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय। \ जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि लोग पता नहीं किसके भरोसे बैठे हैं। मैंढ़ा को जैसे कसाई मारता है, उसी प्रकार यमराज जीव के पीछे फिरता है। फिर भी लोग गुरु कि शिक्षा पाकर उससे बचने का प्रयास पता नही क्यूँ नहीं करते हैं।
१२१. **एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार। \ है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार॥**
मैं उसे एक कहूँ तो सब जगत दिखता है और यदि दो कहूँ तो बुराई है। हे कबीर! बस विचार यही कहता हूँ कि जैसा है वैसा ही रह।
१२२. **जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस। \ मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास॥**
परमात्मा का कहना है अगर तू मुक्ति चाहता है तो मेरे सिवाय सब आस छोड़ दे और मुझ जैसा हो जा, फिर तुझे कुछ परवाह नहीं रहेगी।
१२३. **साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय। \ चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि ईश्वर (परमात्मा) को सच पसंद है, और वह भी सत्य है। फिर उसके लिए तुम जटा बढ़ा कर सच बोलो या फिर सिर मुंडाकर सच बोलो। कोई फर्क नहीं है। अर्थात सत्य को बदला नहीं जा सकता है, सांसरिक वेश भूषा का उस पर कोई प्रभाव नहीं हैं।
१२४. **अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान। \ हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान॥**
कबीरदास जी कहते हैं कि परमात्मा को पूरी तरह से कोई भी नहीं जान सका है। जिसने भी उनके बारे में थोड़ा भी जान सका है, उसको लगा कि वह सब जान गया है। इसी घमंड की वजह से वह कुछ भी नहीं जान पाया है।
१२५. **खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह। \ आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह॥**
जो वीर है वह दो सेनाओं के बीच में भी लड़ता रहेगा। उसे अपने मरने की चिंता नहीं रहती है। वह कभी भी मैदान कायरता से नहीं छोड़ेगा।
१२६. **लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत। \ लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत॥**
पुराने मार्ग को कायर, धोखेबाज और नालायक ही छोड़ते हैं। चाहे रास्ता कितना ही बुरा क्यों न हो शेर और योग्य बच्चे अपना पुराना तरीका नहीं छोड़ते हैं और वे इस तरह से चलते हैं कि जिसमें कुछ लाभ हो।
१२७. **सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह। \ लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि संत पुरुष (साधुओं) का शरीर और मन शीशे कि तरह साफ होता है, उनके मन में ईश्वर दृष्टि आती है। अगर तू ईश्वर के दर्शन करना चाहता है, तो उनके मन में ही देख लें।
१२८. **भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग। \ भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग॥**
तू अपने आपको भूखा-भूखा कहकर क्या सुनाता है, लोग क्या तेरा पेट भर देंगे। याद रख, जिस परमात्मा ने तुझे शरीर और मुँह दिया है वही तेरे काम पूर्ण करेगा।
१२९. **गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव। \ कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव॥**
यदि किसी ने अपना गुरु नहीं बनाया और जन्म से ही हरि सेवा में लगा हुआ है तो वह शुक्रदेव की तरह है।
१३०. **प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय। \ चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय॥**
चाहे लाख तरह के भेष बदलें। घर रहें, चाहे वन में जाएं परंतु सिर्फ प्रेम भाव होना चाहिए। अर्थात संसार में किसी भी स्थान पर, किसी भी स्थिति में रहें प्रेम भाव से रहना चाहिए।
१३१. **कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह। \ भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह॥**
जिस तरह कुम्हार बहुत ध्यान व प्रेम से कच्चे बर्तन को बाहर से चोट देता (थपथपाता) है और भीतर से सहारा देता है। उसी प्रकार गुरु को शिष्य का ध्यान रखना चाहिए।
१३२. **साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं। \ राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं॥**
ईश्वर जो चाहे कर सकता है बंदा कुछ नहीं कर सकता वह राई का पहाड़ बना सकता है और पहाड़ को राई कर दे, यानि छोटे को बड़ा और बड़े को छोटा कर सकता है।
१३३. **केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह। \ अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह॥**
बिना प्रेम की भक्ति के वर्षों बीत गए तो ऐसी भक्ति से क्या लाभ ? जैसे बंजर जमीन में बोने से फल नहीं प्राप्त होता चाहे कितना ही मेह बरसे। ऐसे ही बिना प्रेम की भक्ति फलदायक नहीं होती।
१३४. **एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय। \ एक से परचे भया, एक मोह समाय॥**
कबीर दास जी कहते हैं कि हम सब उस एक परमात्मा के ही अंश हैं, उसी से अनेक हुये हैं। और पुनः सब एक ही हो जाएंगे अर्थात उसी में विलीन हो जाएंगे।
१३५. **साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध। \ आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध॥**
साधु, सती, सूरमा की बातें न्यारी हैं। यह अपने जीवन की परवाह नहीं करते हैं इसलिए इनमें साधन भी अधिक हैं। साधारण जीव उनकी समानता नहीं कर सकता।
१३६. **हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप। \ निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि हरि समरण (संगति) से जीवतमा को शांति प्राप्त हो गयी। मोह की ताप अग्नि शांत हो गयी (मिट गयी)। हृदय में ईश्वर के दर्शन होने लगे और दिन रात सुख शांति से व्यतीत होने लगे।
१३७. **आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत। \ जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत॥**
कबीरदास जी कहते हैं कि ऐ जोगी! तुम आशा और तृष्णा को फूँककर राख करके फेरी करो तब सच्चे जोगी बन सकोगे।
१३८. **आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय। \ सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय॥**
कबीर दास जी कहते हैं कि मन के चिंताग्रस्त होने की स्थिति कुछ ऐसी ही होती है, जैसे समुद्र के भीतर आग लगी हो। इसमें से न धुआं निकलती है और न वह किसी को दिखाई देती है। इस आग को वही पहचान सकता है, जो खुद इस से हो कर गुजरा हो।
१३९. **अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट। \ चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट॥**
जैसे कि शरीर में वीर की भाल अटक जाती है और वह बिना चुंबक के नहीं निकल सकती इसी प्रकार तुम्हारे मन में जो खोट (बुराई) है वह किसी महात्मा के बिना निकल नहीं सकती, इसलिए तुम्हें सच्चे गुरु की आवश्यकता है।
१४०. **अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान। \ हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान॥**
हरि का भेद पाना बहुत कठिन है पूर्णतया कोई भी न पा सका। बस जिसने यह जान लिया कि मैं सब कुछ जानता हूँ मेरे बराबर अब इस संसार में कौन है, इसी घमंड में होकर वास्तविकता से प्रत्येक वंचित ही रह गया।
१४१. **आस पराई राखता, खाया घर का खेत। \ और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि तू दूसरों की रखवाली करता है और अपने घर को नहीं देखता यानि तू दूसरों को ज्ञान सिखाता है और स्वयं क्यों नहीं परमात्मा का भजन करता।
१४२. **आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक। \ कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक॥**
गाली आते हुए एक होती है परंतु उलटने पर बहुत हो जाती है। कबीरदास जी कहते हैं कि गाली के बदले में अगर उलट कर गाली न दोगे तो एक-की-एक ही रहेगी।
१४३. **आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद। \ नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद॥**
जो मनुष्य इंद्रियों के स्वाद के लिए पूर्ण नाक तक भरकर खाये तो प्रसाद कहाँ रहा? तात्पर्य यह है कि भोजन या आहार शरीर की रक्षा के लिए सोच समझकर करें तभी वह उत्तम होगा। अर्थात सांसारिक भोग उपभोग ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करें।
१४४. **आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर। \ एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर॥**
कबीर दास जी कहते हैं, जो इस संसार मे आया है, उसे जाना है चाहे वह राजा हो या फकीर (कंगाल) हो। लेकिन कोई सिंहासन पर बैठ कर जाएगा और कोई जंजीरों में बंधकर जाएगा। अर्थात जिसने अच्छे कर्म किए होंगे वह सम्मान के साथ जाएगा और जिसने बुरे कर्म किए होंगे वह कष्ट के साथ जाएगा।
१४५. **आया था किस काम को, तू सोया चादर तान। \ सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान॥**
कबीरदास जी कहते हैं की ऐ तू चादर तान कर सो रहा है, अपने होश ठीक कर और अपने आप को पहचान, तू किस काम के लिए आया था और तू कौन है? स्वयं को पहचान और अच्छे कर्म कर।
१४६. **उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय। \ एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय॥**
कबीर दास जी कहते हैं कि मनुष्य उजले कपड़े पहनता है और पान-सुपारी खाकर भी अपने तन को मैला नहीं होने देता परंतु हरि का नाम न लेने पर यमदूत द्वारा बंधा हुआ नर्क में जाएगा।
१४७. **उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय। \ इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय॥**
कबीरदास जी कहते हैं कि कोई भी जीव स्वर्ग से नहीं आता है कि वहाँ का कोई हाल मालूम हो सके, यह बात पूछने से मालूम है कि उसको कुछ नहीं मालूम है, किन्तु यहाँ से जो जीव जाया करते हैं वे दुष्कर्मों के पोटरे बाँध के ले जाते हैं।
१४८. **अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय। \ मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि शराब के अवगुण कहता हूँ, क्यूंकी इससे मनुष्य अपना आपा (अस्तित्व) खो देता है, और पशुओं कि तरह व्यवहार करने लगता है। साथ ही उसका एकत्रित धन भी ख़रच होता जाता है।
१४९. **एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार। \ है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार॥**
मैं उसे एक कहूँ तो सब जगत दिखता है और यदि दो कहूँ तो बुराई है। हे कबीर! बस विचार यही कहता हूँ कि जैसा है वैसा ही रह।
१५०. **ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए। \ औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय॥**
कबीर दास जी कहते हैं, कि हमेशा वाणी में मधुरता रखनी चाहिए और घमंड का त्याग करना चाहिए। जिससे औरों में भी शीतलता बनी रहे, साथ ही आपका मन भी शांत बना रहे।
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