Poet's Name
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⌀ |
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अंबिकादत्त व्यास | 1858 -1900 | दोहा | null | गुंजा री तू धन्य है, बसत तेरे मुख स्याम।
यातें उर लाये रहत, हरि तोको बस जाम॥ |
अंबिकादत्त व्यास | 1858 -1900 | दोहा | null | मोर सदा पिउ-पिउ करत, नाचत लखि घनश्याम।
यासों ताकी पाँखहूँ, सिर धारी घनश्याम॥ |
अमीर ख़ुसरो | 1253 -1325 | दोहा | null | ख़ुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एक रंग॥ |
अमीर ख़ुसरो | 1253 -1325 | दोहा | null | गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥ |
उदयराज जती | null | दोहा | null | स्वारथ प्यारो कवि उदै, कहै बड़े सो साँच।
जल लेवा के कारणे, नमत कूप कूँ चाँच॥ |
उदयराज जती | null | दोहा | null | अति न करौ कहि कवि उदै, अति कर रावन कंस।
आप गयौ जानत सकल, गयौ संपूरन बंस॥ |
उदयराज जती | null | दोहा | null | आछा खावै सुख सुवै, आछा पहिरे सोइ।
अति आछो रहणी रहै, मरै न बूढ़ा होइ॥ |
उदयराज जती | null | दोहा | null | उदै राज खेलौ हँसौ, मनिखा देही सार।
इह सगपण जिवतन मिलण, बहुरि न दूजी बार॥ |
उदयराज जती | null | दोहा | null | सज्जन मिलण समान कछु, उदै न दूजी बात।
सेत पीत चूनौ हरद, मिलत लाल ह्वै जात॥ |
उदयराज जती | null | दोहा | null | उदै सीख कहि क्यों दिए, सीख दिया दुख होइ।
अपनी करनी चालणी, बुरी न देखै कोइ॥ |
उदयराज जती | null | दोहा | null | सूर सुख्ख अरु दुख्ख को, दोउ गिणो विचार।
जेतौ जुग भइँ चाँदणों, ते तौ पख अंधार॥ |
ऋषिनाथ | null | दोहा | null | श्री नंदलाल तमाल सो, स्यामल तन दरसाय।
ता तन सुबरन बेलि सी, राधा रही समाय॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।
मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति।
कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न कोइ।
प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | बेटा जाए क्या हुआ, कहा बजावै थाल।
आवन जावन ह्वै रहा, ज्यौं कीड़ी का नाल॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | साँच बराबरि तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठ कबीर जीम॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुरु की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | साँई मेरा बाँणियाँ, सहजि करै व्यौपार।
बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद।
काल खड़ा सिर ऊपरै, ज्यौं तौरणि आया बींद॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ।
दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा न कोई॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।
मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।
मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | पाणी ही तैं पातला, धूवां हीं तैं झींण।
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीरै कीन्ह॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार।
फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछूटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | कलि का बामण मसखरा, ताहि न दीजै दान।
सौ कुटुंब नरकै चला, साथि लिए जजमान॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | नैनाँ अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ।
नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | मुला मुनारै क्या चढ़हि, अला न बहिरा होइ।
जेहिं कारन तू बांग दे, सो दिल ही भीतरि जोइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | नर-नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम।
कहै कबीर ते राम के, जैं सुमिरैं निहकाम॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | कबीर मरनां तहं भला, जहां आपनां न कोइ।
आमिख भखै जनावरा, नाउं न लेवै कोइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न दृष्टि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार।
मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | कबीर ऐसा यहु संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि न भूलि॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा−अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था सो मरि गया, ऊभी चांम चटाइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | परनारी पर सुंदरी, बिरला बंचै कोइ।
खातां मीठी खाँड़ सी, अंति कालि विष होइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | जाति न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥
आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक॥
माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि।
मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै, यह तौ सुमिरन नाहिं॥
कबीर घास न नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ।
उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, खरी दुहेली होइ॥
जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होय।
या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।
एक दिनाँ छिप जाँहिगे, तारे ज्यूं परभाति॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | खीर रूप हरि नाँव है, नीर आन व्यौहार।
हंस रूप कोइ साध है, तत का जाणहार॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | अंतरि कँवल प्रकासिया, ब्रह्म वास तहाँ होइ।
मन भँवरा तहाँ लुबधिया, जाँणौंगा जन कोइ॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥ |
कबीर | 1398 -1518 | दोहा | null | बाग़ों ना जा रे ना जा, तेरी काया में गुलज़ार।
सहस-कँवल पर बैठ के, तू देखे रूप अपार॥ |
खूब चंंद्र | null | दोहा | null | आवत सखी बसंत के, कारन कौन विशेष।
हरष त्रिया को पिया बिना, कोइल कूकत देख॥ |
गणेशपुरी पद्मेश | null | दोहा | null | कुंडल जिय-रक्षा करन, कवच करन जय वार।
करन दान आहव करन, करन-करन बलिहार॥ |
गंग | 1538 -1625 | दोहा | null | पान पुराना घी नया, अरु कुलवंती नारि।
चौथी पीठि तुरंग की, स्वर्ग निसानी चारि॥ |
गरीबदास | 1717 -1778 | दोहा | null | साहब तेरी साहबी, कैसे जानी जाय।
त्रिसरेनू से झीन है, नैनों रहा समाय॥ |
गरीबदास | 1717 -1778 | दोहा | null | साहब मेरी बीनती, सुनो गरीब निवाज।
जल की बूँद महल रचा, भला बनाया साज॥ |
गरीबदास | 1717 -1778 | दोहा | null | भगति बिना क्या होत है, भरम रहा संसार।
रत्ती कंचन पाय नहिं, रावन चलती बार॥ |
गरीबदास | 1717 -1778 | दोहा | null | सुरत निरत मन पवन कूँ, करो एकत्तर यार।
द्वादस उलट समोय ले, दिल अंदर दीदार॥ |
गरीबदास | 1717 -1778 | दोहा | null | पारस हमारा नाम है, लोहा हमरी जात।
जड़ सेती जड़ पलटिया, तुम कूँ केतिक बात॥ |
गरीबदास | 1717 -1778 | दोहा | null | लै लागी जब जानिये, जग सूँ रहै उदास।
नाम रटै निर्भय कला, हर दर हीरा स्वांस॥ |
गवरी बाई | 1758 | दोहा | null | बन में गये हरि ना मिले, नरत करी नेहाल।
बन में तो भूंकते फिरे, मृग, रोझ, सीयाल॥ |
गवरी बाई | 1758 | दोहा | null | छापा तिलक बनाय के, परधन की करें आसा।
आत्मतत्व जान्या नहीं, इंद्री-रस में माता॥ |
गवरी बाई | 1758 | दोहा | null | गवरी चित्त तो है भला, जो चेते चित मांय।
मनसा, वाचा, कर्मणा, गोविंद का गुन गाय॥ |
गवरी बाई | 1758 | दोहा | null | अड़सठ तीरथ में फिरे, कोई बधारे बाल।
हिरदा शुद्ध किया बिना, मिले न श्री गोपाल॥ |
गवरी बाई | 1758 | दोहा | null | बावन अक्षर बाहिरो, पहुँचे ना मति दास।
सतगुरु की किरपा भये, हरि पेखे पूरन पास॥ |
गवरी बाई | 1758 | दोहा | null | साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देख मन मांहि।
बिनु साखी संसार का, झगड़ा छूटत नाँहि॥ |
गवरी बाई | 1758 | दोहा | null | गवरी चित में चेतिऐ, लालच लोभ निवार।
सील संतोष समता ग्रहे, हरि उतारे पार॥ |
गवरी बाई | 1758 | दोहा | null | दरी में तो बहू दिन बसे, अहि उंदर परमान।
दरी समारे न मिले, सुनियो संत सुजान॥ |
गिरिधर पुरोहित | null | दोहा | null | गोपिन केरे पुंज में, मधुर मुरलिका हाथ।
मूरतिवंत शृंगार-रस, जय-जय गोपीनाथ॥ |
गिरिधर पुरोहित | null | दोहा | null | पूरन प्रेम प्रताप तै, उपजि परत गुरुमान।
ताकी छवि के छोभ सौं, कवि सो कहियत मान। |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | उद्यम में निद्रा नहीं, नहिं सुख दारिद माहिं।
लोभी उर संतोष नहिं, धीर अबुध में नाहिं॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | सकल वस्तु संग्रह करै, आवै कोउ दिन काम।
बखत परे पर ना मिलै, माटी खरचे दाम॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | लोभ सरिस अवगुन नहीं, तप नहिं सत्य समान।
तीरथ नहिं मन शुद्धि सम, विद्या सम धन आन॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | लोभ न कबहूं कीजिये, या में विपति अपार।
लोभी को विश्वास नहिं, करे कोऊ संसार॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | सुख में संग मिलि सुख करै, दुख में पाछो होय।
निज स्वारथ की मित्रता, मित्र अधम है सोय॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | उद्यम कीजै जगत में, मिले भाग्य अनुसार।
मोती मिले कि शंख कर, सागर गोता मार॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | अति चंचल नित कलह रुचि, पति सों नाहिं मिलाप।
सो अधमा तिय जानिये, पाइय पूरब पाप॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | आप करै उपकार अति, प्रति उपकार न चाह।
हियरो कोमल संत सम, सुहृद सोइ नरनाह॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | सासु पासु जोहत खरी, आँखि आँसु उर लाजु।
गौनो करि गौनो चहत, पिय विदेश बस काजु॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | रूपवती लज्जावती, सीलवती मृदु बैन।
तिय कुलीन उत्तम सोई, गरिमा धर गुन ऐन॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | मिल्यो रहत निज प्राप्ति हित, दगा समय पर देत।
बंधु अधम तेहि कहत है, जाको मुख पर हेत॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | धनहिं राखिये विपति हित, तिय राखिय धन त्यागि।
तजिये गिरिधरदास दोउ, आतम के हित लागि॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | सुख दुख अरु विग्रह विपति, यामे तजै न संग।
गिरिधरदास बखानिये, मित्र सोइ वर ढंग॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | पति देवत कहि नारि कहँ, और आसरो नाहिं।
सर्ग-सिढ़ी जानहु यही, वेद पुरान कहाहिं॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | जनक बचन निदरत निडर, बसत कुसंगति माहिं।
मूरख सो सुत अधम है, तेहि जनमे सुख नाहिं॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | पुन्य करिय सो नहिं कहिय, पाप करिय परकास।
कहिवे सों दोउ घटत हैं, बरनत गिरिधरदास॥ |
गिरिधारन | 1833 -1860 | दोहा | null | मन सों जग को भल चहै, हिय छल रहै न नेक।
सो सज्जन संसार में, जाके विमल विवेक॥ |
घनानंद | 1673 -1760 | दोहा | null | जानराय! जानत सबैं, असरगत की बात।
क्यौं अज्ञान लौं करत फिरि, मो घायल पर घात॥ |
चंदबरदाई | 1168 -1192 | दोहा | null | समदरसी ते निकट है, भुगति-भुगति भरपूर।
विषम दरस वा नरन तें, सदा सरबदा दूर॥ |
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