Poet's Name
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16 values
Poem Text
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66
168k
अंबिकादत्त व्यास
1858 -1900
दोहा
null
गुंजा री तू धन्य है, बसत तेरे मुख स्याम। यातें उर लाये रहत, हरि तोको बस जाम॥
अंबिकादत्त व्यास
1858 -1900
दोहा
null
मोर सदा पिउ-पिउ करत, नाचत लखि घनश्याम। यासों ताकी पाँखहूँ, सिर धारी घनश्याम॥
अमीर ख़ुसरो
1253 -1325
दोहा
null
ख़ुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एक रंग॥
अमीर ख़ुसरो
1253 -1325
दोहा
null
गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस। चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥
उदयराज जती
null
दोहा
null
स्वारथ प्यारो कवि उदै, कहै बड़े सो साँच। जल लेवा के कारणे, नमत कूप कूँ चाँच॥
उदयराज जती
null
दोहा
null
अति न करौ कहि कवि उदै, अति कर रावन कंस। आप गयौ जानत सकल, गयौ संपूरन बंस॥
उदयराज जती
null
दोहा
null
आछा खावै सुख सुवै, आछा पहिरे सोइ। अति आछो रहणी रहै, मरै न बूढ़ा होइ॥
उदयराज जती
null
दोहा
null
उदै राज खेलौ हँसौ, मनिखा देही सार। इह सगपण जिवतन मिलण, बहुरि न दूजी बार॥
उदयराज जती
null
दोहा
null
सज्जन मिलण समान कछु, उदै न दूजी बात। सेत पीत चूनौ हरद, मिलत लाल ह्वै जात॥
उदयराज जती
null
दोहा
null
उदै सीख कहि क्यों दिए, सीख दिया दुख होइ। अपनी करनी चालणी, बुरी न देखै कोइ॥
उदयराज जती
null
दोहा
null
सूर सुख्ख अरु दुख्ख को, दोउ गिणो विचार। जेतौ जुग भइँ चाँदणों, ते तौ पख अंधार॥
ऋषिनाथ
null
दोहा
null
श्री नंदलाल तमाल सो, स्यामल तन दरसाय। ता तन सुबरन बेलि सी, राधा रही समाय॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ। वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ। एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद। कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम। मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं। सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति। कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न कोइ। प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
बेटा जाए क्या हुआ, कहा बजावै थाल। आवन जावन ह्वै रहा, ज्यौं कीड़ी का नाल॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
साँच बराबरि तप नहीं, झूठ बराबर पाप। जाके हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै। दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम। मोट चून मैदा भया, बैठ कबीर जीम॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ। सतगुरु की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
साँई मेरा बाँणियाँ, सहजि करै व्यौपार। बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद। काल खड़ा सिर ऊपरै, ज्यौं तौरणि आया बींद॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ। गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ। दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा न कोई॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ। मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ। मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ। धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास। सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई। बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि। सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर। आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
पाणी ही तैं पातला, धूवां हीं तैं झींण। पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीरै कीन्ह॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार। फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति। जे जन बिछूटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
कलि का बामण मसखरा, ताहि न दीजै दान। सौ कुटुंब नरकै चला, साथि लिए जजमान॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
नैनाँ अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ। नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि। दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि। अब घर जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
मुला मुनारै क्या चढ़हि, अला न बहिरा होइ। जेहिं कारन तू बांग दे, सो दिल ही भीतरि जोइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग। बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
नर-नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम। कहै कबीर ते राम के, जैं सुमिरैं निहकाम॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
कबीर मरनां तहं भला, जहां आपनां न कोइ। आमिख भखै जनावरा, नाउं न लेवै कोइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ। अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि। जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न दृष्टि बिकाइ। राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार। मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
कबीर ऐसा यहु संसार है, जैसा सैंबल फूल। दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि न भूलि॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध। अंधा−अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार। लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ। बछा था सो मरि गया, ऊभी चांम चटाइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
परनारी पर सुंदरी, बिरला बंचै कोइ। खातां मीठी खाँड़ सी, अंति कालि विष होइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
जाति न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥ आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक। कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक॥ माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि। मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै, यह तौ सुमिरन नाहिं॥ कबीर घास न नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ। उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, खरी दुहेली होइ॥ जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होय। या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति। एक दिनाँ छिप जाँहिगे, तारे ज्यूं परभाति॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
खीर रूप हरि नाँव है, नीर आन व्यौहार। हंस रूप कोइ साध है, तत का जाणहार॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
अंतरि कँवल प्रकासिया, ब्रह्म वास तहाँ होइ। मन भँवरा तहाँ लुबधिया, जाँणौंगा जन कोइ॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप। पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥
कबीर
1398 -1518
दोहा
null
बाग़ों ना जा रे ना जा, तेरी काया में गुलज़ार। सहस-कँवल पर बैठ के, तू देखे रूप अपार॥
खूब चंंद्र
null
दोहा
null
आवत सखी बसंत के, कारन कौन विशेष। हरष त्रिया को पिया बिना, कोइल कूकत देख॥
गणेशपुरी पद्मेश
null
दोहा
null
कुंडल जिय-रक्षा करन, कवच करन जय वार। करन दान आहव करन, करन-करन बलिहार॥
गंग
1538 -1625
दोहा
null
पान पुराना घी नया, अरु कुलवंती नारि। चौथी पीठि तुरंग की, स्वर्ग निसानी चारि॥
गरीबदास
1717 -1778
दोहा
null
साहब तेरी साहबी, कैसे जानी जाय। त्रिसरेनू से झीन है, नैनों रहा समाय॥
गरीबदास
1717 -1778
दोहा
null
साहब मेरी बीनती, सुनो गरीब निवाज। जल की बूँद महल रचा, भला बनाया साज॥
गरीबदास
1717 -1778
दोहा
null
भगति बिना क्या होत है, भरम रहा संसार। रत्ती कंचन पाय नहिं, रावन चलती बार॥
गरीबदास
1717 -1778
दोहा
null
सुरत निरत मन पवन कूँ, करो एकत्तर यार। द्वादस उलट समोय ले, दिल अंदर दीदार॥
गरीबदास
1717 -1778
दोहा
null
पारस हमारा नाम है, लोहा हमरी जात। जड़ सेती जड़ पलटिया, तुम कूँ केतिक बात॥
गरीबदास
1717 -1778
दोहा
null
लै लागी जब जानिये, जग सूँ रहै उदास। नाम रटै निर्भय कला, हर दर हीरा स्वांस॥
गवरी बाई
1758
दोहा
null
बन में गये हरि ना मिले, नरत करी नेहाल। बन में तो भूंकते फिरे, मृग, रोझ, सीयाल॥
गवरी बाई
1758
दोहा
null
छापा तिलक बनाय के, परधन की करें आसा। आत्मतत्व जान्या नहीं, इंद्री-रस में माता॥
गवरी बाई
1758
दोहा
null
गवरी चित्त तो है भला, जो चेते चित मांय। मनसा, वाचा, कर्मणा, गोविंद का गुन गाय॥
गवरी बाई
1758
दोहा
null
अड़सठ तीरथ में फिरे, कोई बधारे बाल। हिरदा शुद्ध किया बिना, मिले न श्री गोपाल॥
गवरी बाई
1758
दोहा
null
बावन अक्षर बाहिरो, पहुँचे ना मति दास। सतगुरु की किरपा भये, हरि पेखे पूरन पास॥
गवरी बाई
1758
दोहा
null
साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देख मन मांहि। बिनु साखी संसार का, झगड़ा छूटत नाँहि॥
गवरी बाई
1758
दोहा
null
गवरी चित में चेतिऐ, लालच लोभ निवार। सील संतोष समता ग्रहे, हरि उतारे पार॥
गवरी बाई
1758
दोहा
null
दरी में तो बहू दिन बसे, अहि उंदर परमान। दरी समारे न मिले, सुनियो संत सुजान॥
गिरिधर पुरोहित
null
दोहा
null
गोपिन केरे पुंज में, मधुर मुरलिका हाथ। मूरतिवंत शृंगार-रस, जय-जय गोपीनाथ॥
गिरिधर पुरोहित
null
दोहा
null
पूरन प्रेम प्रताप तै, उपजि परत गुरुमान। ताकी छवि के छोभ सौं, कवि सो कहियत मान।
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
उद्यम में निद्रा नहीं, नहिं सुख दारिद माहिं। लोभी उर संतोष नहिं, धीर अबुध में नाहिं॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
सकल वस्तु संग्रह करै, आवै कोउ दिन काम। बखत परे पर ना मिलै, माटी खरचे दाम॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
लोभ सरिस अवगुन नहीं, तप नहिं सत्य समान। तीरथ नहिं मन शुद्धि सम, विद्या सम धन आन॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
लोभ न कबहूं कीजिये, या में विपति अपार। लोभी को विश्वास नहिं, करे कोऊ संसार॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
सुख में संग मिलि सुख करै, दुख में पाछो होय। निज स्वारथ की मित्रता, मित्र अधम है सोय॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
उद्यम कीजै जगत में, मिले भाग्य अनुसार। मोती मिले कि शंख कर, सागर गोता मार॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
अति चंचल नित कलह रुचि, पति सों नाहिं मिलाप। सो अधमा तिय जानिये, पाइय पूरब पाप॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
आप करै उपकार अति, प्रति उपकार न चाह। हियरो कोमल संत सम, सुहृद सोइ नरनाह॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
सासु पासु जोहत खरी, आँखि आँसु उर लाजु। गौनो करि गौनो चहत, पिय विदेश बस काजु॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
रूपवती लज्जावती, सीलवती मृदु बैन। तिय कुलीन उत्तम सोई, गरिमा धर गुन ऐन॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
मिल्यो रहत निज प्राप्ति हित, दगा समय पर देत। बंधु अधम तेहि कहत है, जाको मुख पर हेत॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
धनहिं राखिये विपति हित, तिय राखिय धन त्यागि। तजिये गिरिधरदास दोउ, आतम के हित लागि॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
सुख दुख अरु विग्रह विपति, यामे तजै न संग। गिरिधरदास बखानिये, मित्र सोइ वर ढंग॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
पति देवत कहि नारि कहँ, और आसरो नाहिं। सर्ग-सिढ़ी जानहु यही, वेद पुरान कहाहिं॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
जनक बचन निदरत निडर, बसत कुसंगति माहिं। मूरख सो सुत अधम है, तेहि जनमे सुख नाहिं॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
पुन्य करिय सो नहिं कहिय, पाप करिय परकास। कहिवे सों दोउ घटत हैं, बरनत गिरिधरदास॥
गिरिधारन
1833 -1860
दोहा
null
मन सों जग को भल चहै, हिय छल रहै न नेक। सो सज्जन संसार में, जाके विमल विवेक॥
घनानंद
1673 -1760
दोहा
null
जानराय! जानत सबैं, असरगत की बात। क्यौं अज्ञान लौं करत फिरि, मो घायल पर घात॥
चंदबरदाई
1168 -1192
दोहा
null
समदरसी ते निकट है, भुगति-भुगति भरपूर। विषम दरस वा नरन तें, सदा सरबदा दूर॥
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