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गणराज्य का नाम, देश के उत्तरी भाग से क्षिणी हिस्से तक बहने वाली पैराग्वे नदी के नाम पर रखा गया था। नदी के नाम की उत्पत्ति में कम से कम चार संस्करण हैं, हालांकि गुरानी में नाम का शाब्दिक अनुवाद है। गुरानी में "पैरा" का अर्थ है कई रंगों का, "गुआ" का अर्थ है उससे संबंधित या उद्गम स्थल और "वाई" का मतलब पानी, नदी या झील है।
आधुनिक पैराग्वे के पहले निवासी विभिन्न अमेरिकी आदिवासी थे, जो सेमिनोमैडिक थे जिनकी योद्धा संस्कृति थी। 16वीं शताब्दी की शुरुआत तक यूरोपीय लोगों का आगमन होने लगा जिसमें सबसे पहले स्पेनिश विजयविद जुआन दे सलाज़र दे एस्पिनोज़ा के नेतृत्व में पहुंचे और 15 अगस्त, 1537 को असुन्सियोन उपनिवेशिक बस्ती की स्थापना की। जोकि जल्दी ही एक शहर और स्पेनिश औपनिवेशिक प्राधिकरण का केंद्र बन गया। यह ईसाइ बस्तियों और मिशन का मुख्य स्थल भी था, जो 150 वर्षों तक चला, जब तक स्पेनिश अधिकारियों ने 1767 में देश से धार्मिक आदेश निष्कासित नहीं कर दिय। 14 मई, 1811 को स्पेनिश औपनिवेशिक प्रशासन को हटाकर देश स्वतंत्र हो गया।
पैराग्वे कई वर्षों तक अपने पड़ोसियों, अर्जेंटीना, ब्राजील और उरुग्वे के बीच चली लड़ाई की श्रृंखला में शामिल रहा। तीन गठबंधन के युद्ध में जो पांच सालों तक चलता रहा, पैराग्वे अपने तीन पड़ोसी देशों के हाथों 1870 में पराजित हो गया। पैराग्वे अर्जेंटीना और ब्राजील के हाथों, अपनी आधी से ज्यादा आबादी और क्षेत्रफल खो बैठा। 1930 के दशक में यह बोलीविया के खिलाफ चाको युद्धों लड़ा जहां वह विजयी रहा। पैराग्वे चाको क्षेत्र में अपना अधिकार को फिर से स्थापित करने में सक्षम रहा, लेकिन शांति समझौते के हिस्से के रूप में अतिरिक्त क्षेत्र को त्यागना पड़ा। 1904 से 1954 तक देश के 31 राष्ट्रपति हुए, जिनका औसत सेवाकाल डेढ़ वर्ष रहा। अधिकांशो ने अपना कार्यकाल तक पूरा नहीं किया।
2008 में पूर्व बिशप फर्नांडो लूगो ने भारी बहुमत से राष्ट्रपति चुनाव जीत कर, देश में रूढ़िवादी पार्टी के लगातार 60 वर्षों से अधिक का शासन समाप्त कर दिया।
पैराग्वे को दो विभेदित भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया गया है। पूर्वी क्षेत्र ; और पश्चिमी क्षेत्र, जिसे आधिकारिक तौर पर पश्चिमी पराग्वे और जिसे चाको भी कहा जाता है, जो ग्रैन चाको का हिस्सा है। देश अक्षांश 19°डिग्री और 28°एस, और 54° और 63°डब्ल्यू देशांतर में स्थित है। इलाके में पूर्वी क्षेत्र में अधिकतर घास के मैदान और जंगली पहाड़ी शामिल हैं। पश्चिम में ज्यादातर निचले, दलदली मैदानी हैं।
कुल जलवायु उपोष्णकटिबंधीय से लेकर उष्णकटिबंधीय है। इस क्षेत्र की अधिकांश भूमि की तरह ही, पैराग्वे में केवल नम और शुष्क अवधि होती है। पैराग्वे के मौसम को प्रभावित करने में हवाएं प्रमुख भूमिका निभाती हैं: अक्टूबर और मार्च के बीच, उत्तर में अमेज़ॅन बेसिन से गर्म हवाएं उड़ती हैं, जबकि मई और अगस्त के बीच की अवधि में एंडीज से ठंडी हवाऐं आती है।
पैराग्वे सरकार, लोकतांत्रिक प्रतिनिधि प्रणाली के साथ एक गणतंत्र है। सरकार को तीन अलग-अलग शाखाओं कार्यकारी, विधायी और न्यायपालिका में बांटा गया है। कार्यकारी शक्ति सरकार पर निर्भर करती है, जहाँ राष्ट्रपति, सरकार और राष्ट्र दोनों का प्रमुख होता हैं। राष्ट्रपति सीधे जनता के मतों द्वारा चुने जाते हैं और उनका कार्यकाल पांच साल का होता हैं। राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की नियुक्ति करते हैं। राष्ट्रपति का कार्यालय "पालासिओ डी लॉस लोपेज़" और निवास स्थल "बुरुवीचा रोगा हाउस" है और दोनों राजधानी असुन्सियोन में स्थित है। कार्यालय छोड़ने के बाद राष्ट्रपति संवैधानिक रूप से जीवनभर के लिए सीनेटर के पद में रहते हैं, हालांकि उन्हें केवल बोलने का हक होता हैं और वे मतदान नहीं कर सकते हैं।
विधान शक्तियां राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा प्रयोग की जाती हैं जो दो कक्षों में विभाजित होती है। ये दो कक्ष "कैमरा डी दीपुताडोस" या चैंबर ऑफ डेप्युटीज हैं जो 80 सदस्यों और "कैमरा डी सेनाडोरेस या 45 सदस्यों से बना सीनेटर के चैंबर से बना हैं। दोनों कक्ष पांच वर्ष की अवधि के लिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुने जाते हैं।
पैराग्वे की सर्वोच्च अदालत देश में सबसे बड़ी न्यायिक अदालत होती है। इसके 9 सदस्यों का चयन राष्ट्रपति और राष्ट्रीय कांग्रेस के सीनेट कक्ष द्वारा किया जाता है, जो मजिस्ट्रेट काउंसिल की सिफारिश के आधार पर एक संवैधानिक निकाय है। 9 सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश असुनसियन में स्थित पैलेस ऑफ जस्टिस से काम करते हैं। अदालत को तीन कक्षों, संवैधानिक, नागरिक और वाणिज्यिक और आपराधिक, में विभाजित किया गया है।
देश को 17 प्रशासनिक विभागों या प्रांतों और एक निर्वाचित गवर्नर की अध्यक्षता में एक राजधानी शहर में विभाजित किया गया है।
पैराग्वे को विकासशील अर्थव्यवस्था माना जाता है। 2007 तक देश ने लगभग 4,000 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति का सकल घरेलू उत्पाद पंजीकृत किया था, जो इसे दक्षिण अमेरिका का दूसरा सबसे गरीब देश बनाता है। अनुमानित आबादी में से ढाई मिलियन से अधिक, लगभग 35% गरीब मानी जाती हैं, हालांकि राजधानी शहर असुन्सियोन को रहने के लिए दुनिया का सबसे सस्ता शहर माना जाता है।
इसकी अर्थव्यवस्था में बाजार संचालित एक बड़ा अनौपचारिक क्षेत्र है, जो हजारों लघु उद्योगों से बना है और अपने पड़ोसी देशों के साथ आयातित उपभोक्ता वस्तुओं के व्यापार पर केन्द्रित है। कृषि सामान और मवेशी देश के मुख्य आर्थिक उत्पाद हैं। देश वर्तमान में दुनिया का तीसरा मुख्य श्यामपट निर्यातक है और बड़ी मात्रा में गोमांस का भी निर्यात करता है। इसके उपोष्णकटिबंधीय जलवायु और इसकी अनुकूल कृषि भूमि ने अंतर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है, विशेष रूप से भूमि के विदेशी स्वामित्व की अनुमति के बाद। पैराग्वे दुनिया का छठा सबसे बड़ा सोयाबीन उत्पादक है। कृषि उत्पादन जीडीपी में लगभग 27% और कुल निर्यात का लगभग 84% योगदान देता है जो इसे अपनी अर्थव्यवस्था का मुख्य घटक बनाता है। पैराग्वे अपनी सीमाओं में बने दो बड़ी जल विद्युत विद्युत परियोजनाओं से इलेक्ट्रिक पावर का दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। जिसका उत्पादन वह ब्राजील, अर्जेंटीना और उरुग्वे को बेचता है।
चूंकि देश स्थलरुद्ध है, इसकी अर्थव्यवस्था अपने दो प्रमुख भागीदारों अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच निर्यात और व्यापार पर निर्भर करती है, जहां इसके सकल घरेलू उत्पाद का 35% से अधिक व्युत्पन्न होता है। पैराग्वे ने विशेष रूप से अर्जेंटीना, ब्राजील और उरुग्वे के साथ विभिन्न संधि पर हस्ताक्षर किए हैं जो मुक्त बंदरगाहों का आश्वासन देते है, जिसके माध्यम से पैराग्वे अपने सामान निर्यात कर सकता है। देश यूरोपीय संघ के साथ माल का व्यापार भी करता है। यह द्विपक्षीय व्यापार 2005 तक 437 मिलियन यूरो तक पहुंच गया है। यूई व्यापार उसी वर्ष अपने कुल व्यापार का लगभग 9% हिस्सा है।
पैराग्वे की संस्कृतियां और परंपराएं यूरोपीय और गुआरानी का मिश्रण हैं। स्वदेशी गुआरानी महिलाओं के साथ बसने वालों स्पेनिश नर के बीच अंतर्जातीय विवाह के परिणामस्वरूप, देश की 90% आबादी मेस्टिज़ो है। अधिकांश आबादी द्विभाषी है जिसमें 80% लोग स्पेनिश और गुआरानी दोनों भाषा बोलने में सक्षम हैं; जोपारा मूल रूप से स्पेनिश और गुआरानी का मिश्रण है, जो कि अधिकांश आबादी द्वारा बोली जाती है।
देश की कढ़ाई और लेस बनाने की कला में सांस्कृतिक मिश्रण देखा जा सकता है। इसके संगीत में पोल्का, गैलोपा और गुआरानी शामिल हैं। गुरानिया शहरों में लोकप्रिय है, जबकि ग्रामीण इलाकों में पसंदीदा संगीत पोल्का या पुरीहे जाहे नामक संगीत शैली है।
इसके पाककला भी संस्कृतियों के अंतःक्रिया को दिखाते हैं, मनीओक जो स्थानीय फसल है, देश के कई प्रसिद्ध व्यंजनों में शामिल किया जाता है।
1950 और 60 के दशक में देश के कई शीर्ष उपन्यासकार और कवियों हुए जिनमें से रोक जोस रिकार्डो माज़ो और ऑगस्टो रोआ बास्टोस को नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया था।
पैरागुआयन अपने परिवार के प्रति वफादार और समर्पित होते हैं, असल में उनके सामाजिक जीवन उनके माता-पिता, बच्चों और रक्त संबंधों के चारों ओर घुमता हैं, और ज़रूरत के समय में सुरक्षा और सहायता के लिए खड़े रहते हैं।
पैराग्वे पृथ्वी पर कुछ शेष स्थानों में से एक है जहां मृत्यु तक द्वंद्वयुद्ध को कानूनी मान्यता है, हालांकि उन्हें केवल ऐसा करने की इजाजत, दोनों पक्षों ने स्वयं को अंग दाताओं के रूप में पंजीकृत करने के बाद दी जा जाती है।
पराना और पैराग्वे नदी का संगम।
ग्रान चाको का क्षेत्र।
जीसस दे तवरांगु के खंडहर।
असुन्सियोन शहर रात में।
ओवेचा रागुए त्यौहार।
पराग्वे का मुख्य कैथोलिक चैपल, कॉन्सेप्सिओन।
कैक्यूपे में एक सभा रैली।
सम्प्रभु राज्यअर्जेण्टीना · बोलिविया · ब्राज़ील · चिली · कोलम्बिया · ईक्वाडोर · गुयाना · पनामा * · पैराग्वे · पेरू · सूरीनाम · त्रिनिदाद और टोबैगो '* · उरुग्वे · वेनेज़ुएला
अधीन क्षेत्रअरूबा · फ़ॉकलैंड द्वीपसमूह · फ़्रान्सीसी गुयाना ·
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एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन, या Integrated Pest Control ) नाशीजीवों के नियंत्रण की सस्ती और वृहद आधार वाली विधि है जो नाशीजीवों के नियंत्रण की सभी विधियों के समुचित तालमेल पर आधारित है। इसका लक्ष्य नाशीजीवों की संख्या एक सीमा के नीचे बनाये रखना है। इस सीमा को 'आर्थिक क्षति सीमा' ) कहते हैं।
एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें फसलों को हानिकारक कीड़ों तथा बीमारियों से बचाने के लिए किसानों को एक से अधिक तरीकों को जैसे व्यवहारिक, यांत्रिक, जैविक तथा रासायनिक नियंत्रण इस तरह से क्रमानुसार प्रयोग में लाना चाहिए ताकि फसलों को हानि पहुंचाने वालें की संख्या आर्थिक हानिस्तर से नीचे रहे और रासायनिक दवाईयों का प्रयोग तभी किया जाए जब अन्य अपनाए गये तरिके से सफल न हों।
व्यवस्थित निगरानी रखना।
यांत्रिक, अनुवांशिक, जैविक, संगरोध व रासायनिक नियंत्रण का यथायोग्य करना।
सही मात्रा में प्रयोग करना।
वर्तमान समय में जहां एक ओर उत्तम किस्मों के आने से तथा उत्तम फसल प्रबंधन अपनाने से फसल की पैदावार में महत्वपूर्णवृद्धि हुई है, वहीं दूसरी ओर कृषि पारिस्थितिक तन्त्र में भौतिक, जैविक सस्य परिवर्तनों के कारण फसल में तरह-तरह के कीड़ों वबिमारियों में भी वृद्धि हुई है। इन कीड़ो व बिमारियों से छुटकारा पाने के लिए किसानों ने रासायनिक दवाईयों को मुख्यहथियार के रूप में अपनाया। ये कीटनाशकों किसानों के लिए वरदान सिद्ध हुए लेकिन आगे चलकर इनसे अनेक समस्याएं पैदा हो गईं।
मानव जाति पर तथा अन्य प्राणियों पर भी बहुत बुरा पड़ रहा है। विभिन्न प्रकार की बीमारियां पैदा हा रही है, जिनकाइलाज भी आसानी से संम्भव नहीं है।
बिमारियां निर्धारित मात्रा में उपयोग से नहीं मरते बल्कि उनकी संख्या कुछ दिनों के बाद और भी बढ़ जाती है जिसेरिसर्जेस कहते हैं।
हैं जिन्हें किसानों को मित्र कीड़े कहा जाता है। रासायनों के अन्ध-धुन्ध प्रयोग से, ये मित्र किडे़ हानिकारक कीड़ो कीअपेक्षा शीघ्र मर जाते हैं क्योंकि ये प्रायः फसल की ऊपरी सतह पर हानिकारक कीड़ो की खोज में रहते है और रासायनोके सीधे सम्पर्क में आ जाते है इस तरह जो प्राकृतिक सन्तुलन दोनों तरह के कीड़ोे में पाया जाता है बिगड़ जाताहै और हानिकारक कीड़ों की संख्या वढ़ जाती है। इस तरह जो कीड़े अब तक हानि पहंुचाने की क्षमता नहीं रखतेथे वे भी नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं। इसे सेकेन्ड्री पेस्ट आउट ब्रेक कहते हैं।
रसायनों के प्रयोग से उत्पन्न बुरे प्रभावों में से कुछ मुख्य जो मनुष्य जाति पर पड़े है इस प्रकार हैं :
से प्रभावित हो जाते हैं जिनमें से बीस हजार लोग मर जाते है। जबिक यू.एन.ओ. की रिर्पोट के अनुसार ये आकडे़20 लाख तथा 40 हजार है। अन्धाधुन्ध रसायनों के प्रयोग से ये आकड़े लगातार बढ़ते जा रहे है, इसके लिए कड़े कदमउठाने आवश्यक है।
दूध में डी. डी. टी. और बी.एच.सी. की मात्रा दूसरे देशों की तुलना में कम से कम चार गुणा अधिक पाई गयी है
है, बेहोशी, मृत्यु, चक्कर, थकान, सिरदर्द, उल्टी, छाती दर्द केंसर, मोतिया बिन्द, अंधापन, दमा, उच्च रक्तचाप, दिलका दौरा, गर्भपात, अनियमत मासिक धर्म, नपंुसकता इत्यादि।
इन सब बुरे प्रभावों को मध्य नजर रखते हुए भारत सरकार ने कुछ ज्यादा जहरीली कीटनाशक दवाइयों का या तोउत्पादन तथा प्रयोग बन्द कर दिया है या उनका प्रयोग कुछ एक फसलों पर ही करना सुनिश्चित किया है। इन सबबुरे प्रभावों को ध्यान में रखते हुए विश्व के कृषि वैज्ञिानिकों ने यह सलाह दी है कि किसानों को ऐसे सभी तरिकों कोक्रमानुसार प्रयोग में लाना चाहिए जो उनकी फसलों को कीड़ो तथा बिमारियों से बचा सकें तथा साथ ही साथ पर्यावरणको भी प्रदूषण से बचाया जा सके। ऐसी विधि को ही एकीकृत नाशीजीवी प्रबन्धन' का नाम दिया गयाहै।
बढ़ती जा रही है जिससे मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के स्वास्थय पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है और कई प्रकार की बीमारियांजन्म ले रही हैं।
है जिससे रासायनों के निर्धारित मात्रा का प्रयोग करने से ये कीड़े या बीमारियां नही मरती बल्कि कुछ दिनों के बादइनकी संख्या और बढ़ जाती है। ऐसी परिस्थिति में रासायनों का प्रयोग करना पर्यावरण के प्रदूषण को बढ़ाना है।
हानिकारक तथा लाभदायक कीड़ो का प्राकृतिक संतुलन हमेशा बना रहता है और फसलों का कोई आर्थिक हानि नहीपंहुचती। लेकिन रासानिक दवाईयों के प्रयोग से मित्र किड़े शीघ्र मर जाते हैं क्योंकि वे प्रायः फसल की ऊपरी सतहपर शत्रु कीड़ो काी खोज में रहते है। बौर कीटनाशकों के साधे संपर्क में बा जाते हैं जिससे प्राकृतिक संतुलन बिगड़जाता हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जो किड़े अब तक आर्थिक हानि पहुँचाने की क्षमता नहीं रखते थे अर्थातउनकी संख्या कम थी, वे भी नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं।
कमी हो जाती है।
रासायनो के दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हुए किसानों के लिये आई. पी. एम. विधि अपनाना अनिवार्य है।
बीज के चयन तथा बीजाई से लेकर फसल की कटाई तक विभिन्न विधियां, जो प्रयोग समयानुसार एवं क्रमानुसार आई. पी.एम. विधि में अपनाई जाती है, इस प्रकार हैं:-
व्यवहारिक नियन्त्रण से तात्पर्य है कि परम्परागत अपनाए जाने वाले कृषि क्रियाओं में ऐसा क्या परिवर्तन लाया जाए, जिससेकीड़ों तथा बिमारियों से होने वाले आक्रमण को या तो रोका जाए या कम किया जाए। या विधियां हमारे पूर्वजों से चलीआ रही है लेकिन आधुनिक रासायनों के आने से इनका प्रयोग कम होता जा रहा है।इसके अंतगर्त निन्मलिखित तरिके अपनाएं जाते है:-
इस विधि को फसल रोपाई के बाद अपनाना आवश्यक है। इसके अंतर्गत निम्न तरिकें अपनाएं जाते है:-
इस विधि से नर कीटों में प्रयोगशाला में या तो रासायनों से या फिर रेडिऐशन तकनिकी से नंपुसकता पैदा की जाती हैऔर फिर उन्हें काफी मात्रा में वातावरण में छोड़ दिया जाता है ताकि वे वातावरण में पाए हाने वाले नर कीटों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। लेकिन यह विधि द्वीप समूहों में ही सफल पाई जाती है।
इस विधि में सरकार के द्वरा प्रचलित कानूनों को सख्ती से प्रयोग में लाया जाता है जिसके तहत कोई भी मनुष्य कीटया बीमारी ग्रस्त पौधों को एक स्थान से दूसरे स्थानों को नहीं ले जा सकता। यह दो तरह का होता है जैसे घरेलूतथा विदेशी संगरोध।
जैव नियन्त्रणः फसलों के नाशीजीवों कों नियन्त्रित करने के लिए प्राकृतिक शत्रुओं को प्रयोग में लाना जैव नियन्त्रण कहलाता है।
नाशीजीव फसलों को हानि पहुँचाने वाले जीव नाशीजीव कहलाते है।
प्राकृतिक शत्रुः प्रकृति में मौजूद फसलों के नाशीजीवों के नाशीजीव 'प्राकृतिक शत्रु', 'मित्र जीव', 'मित्र कीट', 'किसानों केमित्र', 'वायो एजैेट' आदि नामों सें जाने जोते हैं।
जैव नियन्त्रण एकीकष्त नाशीजीव प्रबधन का महत्वपूर्ण अंग है। इस विधि में नाशीजीवी व उसके प्राकृतिक शत्रुओ के जीवनचक्र, भोजन, मानव सहित अन्य जीवों पर प्रभाव आदि का गहन अध्ययन करके प्रबन्धन का निर्णय लिया जाता है।
पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य भारत के एक युगदृष्टा मनीषी थे जिन्होने अखिल भारतीय गायत्री परिवार की स्थापना की। उनने अपना जीवन समाज की भलाई तथा सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया। उन्होने आधुनिक व प्राचीन विज्ञान व धर्म का समन्वय करके आध्यात्मिक नवचेतना को जगाने का कार्य किया ताकि वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सके। उनका व्यक्तित्व एक साधु पुरुष, आध्यात्म विज्ञानी, योगी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, लेखक, सुधारक, मनीषी व दृष्टा का समन्वित रूप था।
पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1967 को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के आँवलखेड़ा ग्राम में हुआ था। उनका बाल्यकाल व कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता। वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिता श्री पं.रूपकिशोर जी शर्मा आस-पास के, दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे, किन्तु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत् विचलित रहता था। साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे। छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उनने संबंधियों को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे। किसे मालूम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आयी यह सत्ता वस्तुतः अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी। जाति-पाँति का कोई भेद नहीं। जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में अछूत वृद्ध महिला की जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवा कर उनने घरवालों का विरोध तो मोल ले लिया पर अपना व्रत नहीं छोड़ा। उन्होने किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना आरंभ कर दी थीं। औपचारिक शिक्षा स्वल्प ही पायी थी। किन्तु, उन्हें इसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि, जो जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न हो वह औपचारिक पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रह सकता है। हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य-शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी कैसे बनें, इसके छोटे-छोटे पैम्पलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी। वे चाहते थे, जनमानस आत्मावलम्बी बने, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका जागे, इसलिए गाँव में जन्मे। इस लाल ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व उसके द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाय, अपने पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाय-यह सिखाया।
पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में उनके घर की पूजास्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आधार थी, जबसे महामना पं.मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी, उनकी गुरुसत्ता का आगमन हुआ। अदृश्य छायाधारी सूक्ष्म रूप में। उनने प्रज्ज्वलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में सम्पन्न क्रिया-कलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आये हैं एवं उनसे अनेकानेक ऐसे क्रियाकलाप कराना चाहते हैं, जो अवतारी स्तर की ऋषिसत्ताएँ उनसे अपेक्षा रखती हैं। चार बार कुछ दिन से लेकर एक साल तक की अवधि तक हिमालय आकर रहने, कठोर तप करने का भी उनने संदेश दिया एवं उन्हे तीन संदेश दिए -
यह कहा जा सकता है कि युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान, पूज्य गुरुदेव जो सभी एक-दूसरे के पर्याय हैं, जीवन यात्रा का यह एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जिसने भावी रीति-नीति का निर्धारण कर दिया। पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक हमारी वसीयत और विरासत में लिखते हैं कि प्रथम मिलन के दिन ही समर्पण सम्पन्न हुआ। दो बातें गुरुसत्ता द्वारा विशेष रूप से कही गई-संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सार्मथ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी। वसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।
भारत के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हे उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आदेशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख-सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकाण्ड में पानी लेकर दौड़ पड़ने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था। 1927 से 1933 तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयं सेवक- स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों-सखाओं-मार्गदर्शकों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये। छह-छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई। जेल में भी जेल के निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अँग्रेजी सीखकर लौटै। आसनसोल जेल में वे पं.जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मदनमोहन मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना। यही मंत्र आगे चलकर एक घंटा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्म घट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया, जिसका आधार था - प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश।
स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगत सिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जनआक्रोश के समय श्री अरविन्द के किशोर काल की क्रान्तिकारी स्थिति की तरह उनने भी वे कार्य किये, जिनसे आक्रान्ता शासकों प्रति असहयोग जाहिर होता था। नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, वे मारते रहे परन्तु, समाधि स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था पर आन्दोलन के दौरान उनने झण्डा छोड़ा नहीं जबकि, फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे। उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा दाँतों में भींचे गये टुकड़े के रूप में जब निकाला गया तक सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला। अभी भी भी आगरा में उनके साथ रहे या उनसे कुछ सीख लिए अगणित व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं। लगानबन्दी के आकड़े एकत्र करने के लिए उन्होंने पूरे आगरा जिले का दौरा किया व उनके द्वारा प्रस्तुत वे आँकड़े तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत द्वारा गाँधी जी के समक्ष पेश किये गये। बापू ने अपनी प्रशस्ति के साथ वे प्रामाणिक आँकड़े ब्रिटिश पार्लियामेन्ट भेजे, इसी आधार पर पूरे संयुक्त प्रान्त के लगान माफी के आदेश प्रसारित हुए। कभी जिनने अपनी इस लड़ाई के बदले कुछ न चाहा, उन्हें सरकार ने अपने प्रतिनिधि के साथ सारी सुविधाएँ व पेंशन दिया, जिसे उनने प्रधानमंत्री राहत फण्ड के नाम समपित कर दी। वैरागी जीवन का, सच्चे राष्ट्र संत होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?
1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर से मिलने शांति निकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद गये। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंर्चों पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाय, यह र्निदेश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, जब आगरा में 'सैनिक' समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्रीकृष्णदत्त पालीवाल जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया।
बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए सतत स्वाध्यायरत रहकर उनने 'अखण्ड ज्योति' नामक पत्रिका का पहला अंक 1938 की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया। प्रयास पहला था, जानकारियाँ कम थीं अतः पुनः सारी तैयारी के साथ विधिवत् 1940 की जनवरी से उनने परिजनों के नाम पाती के साथ अपने हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर अखण्ड ज्योति पत्रिका का शुभारंभ किया, जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु क्रमशः उनके अध्यवसाय, घर-घर पहुँचाने, मित्रों तक पहुँचाने वाले उनके हृदयस्पर्शी पत्रों द्वारा बढ़ती-बढ़ती नवयुग के मत्स्यावतार की तरह आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभिन्न भाषाओं में छपती व करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है।
अखिल भारतीय गायत्री परिवार का जालघरपं॰ श्रीराम शर्मा आचार्य
भारत, नेपाल, मॉरीशस, सूरीनाम
लुप्तप्राय भाषा गुयाना और त्रिनिदाद और टोबैगो में
4करोड़ 16 करोड़
भोजपुरी शब्द का निर्माण बिहार का प्राचीन जिला भोजपुर के आधार पर पड़ा। जहाँ के राजा "राजा भोज" ने इस जिले का नामकरण किया था।भाषाई परिवार के स्तर पर भोजपुरी एक आर्य भाषा है और मुख्य रूप से पश्चिम बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्र में बोली जाती है। आधिकारिक और व्यवहारिक रूप से भोजपुरी हिन्दी की एक उपभाषा या बोली है। भोजपुरी अपने शब्दावली के लिये मुख्यतः संस्कृत एवं हिन्दी पर निर्भर है कुछ शब्द इसने उर्दू से भी ग्रहण किये हैं। भोजपुरी जानने-समझने वालों का विस्तार विश्व के सभी महाद्वीपों पर है जिसका कारण ब्रिटिश राज के दौरान उत्तर भारत से अंग्रेजों द्वारा ले जाये गये मजदूर हैं जिनके वंशज अब जहाँ उनके पूर्वज गये थे वहीं बस गये हैं। इनमे सूरिनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, फिजी आदि देश प्रमुख है। भारत के जनगणना आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 3.3 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं। पूरे विश्व में भोजपुरी जानने वालों की संख्या लगभग 4 करोड़ है, हालांकि द टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख के में ये बताया गया है कि पूरे विश्व में भोजपुरी के वक्ताओं की संख्या 16 करोड़ है, जिसमें बिहार में 8 करोड़ और उत्तर प्रदेश में 7 करोड़ तथा शेष विश्व में 1 करोड़ है। उत्तर अमेरिकी भोजपुरी संगठन के अनुसार वक्ताओं की संख्या 18 करोड़ है। वक्ताओं के संख्या के आंकड़ों में ऐसे अंतर का संभावित कारण ये हो सकता है कि जनगणना के समय लोगों द्वारा भोजपुरी को अपनी मातृ भाषा नहीं बताई जाती है।
डॉ॰ ग्रियर्सन ने भारतीय भाषाओं को अन्तरंग ओर बहिरंग इन दो श्रेणियों में विभक्त किया है जिसमें बहिरंग के अन्तर्गत उन्होंने तीन प्रधान शाखाएँ स्वीकार की हैं -
इस अन्तिम शाखा के अन्तर्गत उड़िया, असमी, बँग्ला और पुरबिया भाषाओं की गणना की जाती है। पुरबिया भाषाओं में मैथिली, मगही और भोजपुरी - ये तीन बोलियाँ मानी जाती हैं। क्षेत्रविस्तार और भाषाभाषियों की संख्या के आधार पर भोजपुरी अपनी बहनों मैथिली और मगही में सबसे बड़ी है।
भोजपुरी भाषा का नामकरण बिहार राज्य के आरा जिले में स्थित भोजपुर नामक गाँव के नाम पर हुआ है। पूर्ववर्ती आरा जिले के बक्सर सब-डिविजन में भोजपुर नाम का एक बड़ा परगना है जिसमें "नवका भोजपुर" और "पुरनका भोजपुर" दो गाँव हैं। मध्य काल में इस स्थान को मध्य प्रदेश के उज्जैन से आए भोजवंशी परमार राजाओं ने बसाया था। उन्होंने अपनी इस राजधानी को अपने पूर्वज राजा भोज के नाम पर भोजपुर रखा था। इसी कारण इसके पास बोली जाने वाली भाषा का नाम "भोजपुरी" पड़ गया।
भोजपुरी भाषा का इतिहास 7वीं सदी से शुरू होता है - 1000 से अधिक साल पुरानी! गुरु गोरख नाथ 1100 वर्ष में गोरख बानी लिखा था। संत कबीर दास का जन्मदिवस भोजपुरी दिवस के रूप में भारत में स्वीकार किया गया है और विश्व भोजपुरी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भोजपुरी भाषा प्रधानतया पश्चिमी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उत्तरी झारखण्ड के क्षेत्रों में बोली जाती है।इन क्षेत्रों के अलावा भोजपुरी विदेशों में भी बोली जाती है।भोजपुरी भाषा फिजी और नेपाल की संवैधानिक भाषाओं में से एक है।इसे मॉरीशस,फिजी,गयाना,गुयाना,सूरीनाम,सिंगापुर,उत्तर अमरीका और लैटिन अमेरिका में भी बोला जाता है।
मुख्यरुप से भोजपुरी बोले जाने वाले जिले-
आदर्श भोजपुरी,
पश्चिमी भोजपुरी और
अन्य दो उपबोलियाँ "मघेसी" तथा "थारु" के नाम से प्रसिद्ध हैं।
जिसे डॉ॰ ग्रियर्सन ने स्टैंडर्ड भोजपुरी कहा है वह प्रधानतया बिहार राज्य के आरा जिला और उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर जिले के पूर्वी भाग और घाघरा एवं गंडक के दोआब में बोली जाती है। यह एक लंबें भूभाग में फैली हुई है। इसमें अनेक स्थानीय विशेताएँ पाई जाती है। जहाँ शाहाबाद, बलिया और गाजीपुर आदि दक्षिणी जिलों में "ड़" का प्रयोग किया जाता है वहाँ उत्तरी जिलों में "ट" का प्रयोग होता है। इस प्रकार उत्तरी आदर्श भोजपुरी में जहाँ "बाटे" का प्रयोग किया जाता है वहाँ दक्षिणी आदर्श भोजपुरी में "बाड़े" प्रयुक्त होता है। गोरखपुर की भोजपुरी में "मोहन घर में बाटें" कहते परंतु बलिया में "मोहन घर में बाड़ें" बोला जाता है।
पूर्वी गोरखपुर की भाषा को 'गोरखपुरी' कहा जाता है परंतु पश्चिमी गोरखपुर और बस्ती जिले की भाषा को "सरवरिया" नाम दिया गया है। "सरवरिया" शब्द "सरुआर" से निकला हुआ है जो "सरयूपार" का अपभ्रंश रूप है। "सरवरिया" और गोरखपुरी के शब्दों - विशेषत: संज्ञा शब्दों- के प्रयोग में भिन्नता पाई जाती है।
बलिया और सारन इन दोनों जिलों में 'आदर्श भोजपुरी' बोली जाती है। परंतु कुछ शब्दों के उच्चारण में थोड़ा अन्तर है। सारन के लोग "ड" का उच्चारण "र" करते हैं। जहाँ बलिया निवासी "घोड़ागाड़ी आवत बा" कहता है, वहाँ छपरा या सारन का निवासी "घोरा गारी आवत बा" बोलता है। आदर्श भोजपुरी का नितांत निखरा रूप बलिया और आरा जिले में बोला जाता है।
जौनपुर, आजमगढ़, बनारस, गाजीपुर के पश्चिमी भाग और मिर्जापुर में बोली जाती है। आदर्श भोजपुरी और पश्चिमी भोजपुरी में बहुत अधिक अन्तर है। पश्चिमी भोजपुरी में आदर सूचक के लिये "तुँह" का प्रयोग दीख पड़ता है परंतु आदर्श भोजपुरी में इसके लिये "रउरा" प्रयुक्त होता है। संप्रदान कारक का परसर्ग इन दोनों बोलियों में भिन्न-भिन्न पाया जाता है। आदर्श भोजपुरी में संप्रदान कारक का प्रत्यय "लागि" है परंतु वाराणसी की पश्चिमी भोजपुरी में इसके लिये "बदे" या "वास्ते" का प्रयोग होता है। उदाहरणार्थ :
पश्चिमी भोजपुरी -
मधेसी शब्द संस्कृत के "मध्य प्रदेश" से निकला है जिसका अर्थ है बीच का देश। चूँकि यह बोली तिरहुत की मैथिली बोली और गोरखपुर की भोजपुरी के बीचवाले स्थानों में बोली जाती है, अत: इसका नाम मधेसी पड़ गया है। यह बोली चंपारण जिले में बोली जाती और प्राय: "कैथी लिपि" में लिखी जाती है।
"थारू" लोग नेपाल की तराई में रहते हैं। ये बहराइच से चंपारण जिले तक पाए जाते हैं और भोजपुरी बोलते हैं। यह विशेष उल्लेखनीय बात है कि गोंडा और बहराइच जिले के थारू लोग भोजपुरी बोलते हैं जबकि वहाँ की भाषा पूर्वी हिन्दी है। हॉग्सन ने इस भाषा के ऊपर प्रचुर प्रकाश डाला है।
भोजपुरी बहुत ही सुंदर, सरस, तथा मधुर भाषा है। भोजपुरी भाषाभाषियों की संख्या भारत की समृद्ध भाषाओं- बँगला, गुजराती और मराठी आदि बोलनेवालों से कम नहीं है। इन दृष्टियों से इस भाषा का महत्व बहुत अधिक है और इसका भविष्य उज्जवल तथा गौरवशाली प्रतीत होता है।
भोजपुरी भाषा में निबद्ध साहित्य यद्यपि अभी प्रचुर परिमाण में नहीं है तथापि अनेक सरस कवि और अधिकारी लेखक इसके भंडार को भरने में संलग्न हैं। भोजपुरिया-भोजपुरी प्रदेश के निवासी लोगों को अपनी भाषा से बड़ा प्रेम है। अनेक पत्रपत्रिकाएँ तथा ग्रन्थ इसमें प्रकाशित हो रहे हैं तथा भोजपुरी सांस्कृतिक सम्मेलन, वाराणसी इसके प्रचार में संलग्न है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन समय-समय पर आंदोलनात्म, रचनात्मक और बैद्धिक तीन स्तरों पर भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास में निरंतर जुटा हुआ है। विश्व भोजपुरी सम्मेलन से ग्रन्थ के साथ-साथ त्रैमासिक 'समकालीन भोजपुरी साहित्य' पत्रिका का प्रकाशन हो रहे हैं। विश्व भोजपुरी सम्मेलन, भारत ही नहीं ग्लोबल स्तर पर भी भोजपुरी भाषा और साहित्य को सहेजने और इसके प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है। देवरिया, दिल्ली, मुंबई, कोलकभोजपुता, पोर्ट लुईस, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और अमेरिका में इसकी शाखाएं खोली जा चुकी हैं।
भोजपुरी साहित्य में भिखारी ठाकुर योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है।उन्हें भोजपुरी का शकेस्पीयर भी कहा जाता है।उनके लिखे हुए नाटक तत्कालीन स्त्रियों के मार्मिक दृश्य को दर्शाते हैं, अपने लेखों के द्वारा उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया है।उनके प्रमुख ग्रंथ है:-बिदेशिया,बेटीबेचवा,भाई बिरोध,कलजुग प्रेम,विधवा बिलाप इतियादी।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों का सार्वभौम घोषणा को विश्व के 154 भाषाओं में प्रकाशित किया है जिसमें भोजपुरी तथा सूरीनामी हिन्दुस्तानी भी उपस्थित है, सूरीनामी हिन्दुस्तानी भोजपुरी के तरह हीं बोली जाती है केवल इसे रोमन लिपि में लिखा जाता है। मानवाधिकारों के घोषणा का प्रथम अनुच्छेद भोजपुरी, हिंदी, सूरीनामी तथा अंग्रेजी में निम्नलिखित है -
अनुच्छेद 1: सबहि लोकानि आजादे जन्मेला आउर ओखिनियो के बराबर सम्मान आओर अधिकार प्राप्त हवे। ओखिनियो के पास समझ-बूझ आउर अंत:करण के आवाज होखता आओर हुनको के दोसरा के साथ भाईचारे के बेवहार करे के होखला।
अनुच्छेद 1: सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतन्त्रता और समानता प्राप्त हैं। उन्हें बुद्धि और अन्तरात्मा की देन प्राप्त है और परस्पर उन्हें भाईचारे के भाव से बर्ताव करना चाहिये।
Aadhiaai 1: Sab djanne aadjádi aur barabar paidaa bhailèn, iddjat aur hak mê. Ohi djanne ke lage sab ke samadj-boedj aur hierdaai hai aur doesare se sab soemmat sè, djaane-maane ke chaahin.
Article 1: All human beings are born free and equal in dignity and rights. They are endowed with reason and conscience and should act towards one another in a spirit of brotherhood.
आचार्य हवलदार त्रिपाठी "सह्मदय" लम्बे समय तक अन्वेषण कार्य करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भोजपुरी संस्कृत से ही निकली है। उनके कोश-ग्रन्थ में मात्र 761 धातुओं की खोज उन्होंने की है, जिनका विस्तार "ढ़" वर्ण तक हुआ है। इस प्रबन्ध के अध्ययन से ज्ञात होता है कि 761 पदों की मूल धातु की वैज्ञानिक निर्माण प्रक्रिया में पाणिनि सूत्र का अक्षरश: अनुपालन हुआ है।
इस कोश-ग्रन्थ में वर्णित विषय पर एक नजर डालने से भोजपुरी तथा संस्कृत भाषा के मध्य समानता स्पष्ट परिलक्षित होती है। वस्तुत: भोजपुरी-भाषा संस्कृत-भाषा के अति निकट और संस्कृत की ही भांति वैज्ञानिक भाषा है। भोजपुरी-भाषा के धातुओं और क्रियाओं का वाक्य-प्रयोग विषय को और अधिक स्पष्ट कर देता है। प्रामाणिकता हेतु संस्कृत व्याकरण को भी साथ-साथ प्रस्तुत कर दिया गया है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें भोजपुरी-भाषा के धातुओं और क्रियाओं की व्युत्पत्ति को स्रोत संस्कृत-भाषा एवं उसके मानक व्याकरण से लिया गया है।
सामंतवाद मध्यकालीन युग में इंग्लैंड और यूरोप की प्रथा थी। इन सामंतों की कई श्रेणियाँ थीं जिनके शीर्ष स्थान में राजा होता था। उसके नीचे विभिन्न कोटि के सामंत होते थे और सबसे निम्न स्तर में किसान या दास होते थे। यह रक्षक और अधीनस्थ लोगों का संगठन था। राजा समस्त भूमि का स्वामी माना जाता था। सामंतगण राजा के प्रति स्वामिभक्ति बरतते थे, उसकी रक्षा के लिए सेना सुसज्जित करते थे और बदले में राजा से भूमि पाते थे। सामंतगण भूमि के क्रय-विक्रय के अधिकारी नहीं थे। प्रारंभिक काल में सामंतवाद ने स्थानीय सुरक्षा, कृषि और न्याय की समुचित व्यवस्था करके समाज की प्रशंसनीय सेवा की। कालांतर में व्यक्तिगत युद्ध एवं व्यक्तिगत स्वार्थ ही सामंतों का उद्देश्य बन गया। साधन-संपन्न नए शहरों के उत्थान, बारूद के आविष्कार, तथा स्थानीय राजभक्ति के स्थान पर राष्ट्रभक्ति के उदय के कारण सामंतशाही का लोप हो गया।.
यूरोप में सामंतवाद का विकास सामान्यतः इन परिस्थितियों में हुआ। रोमन साम्राज्य के टूटने के बाद उस पर पश्चिमी यूरोप की असभ्य जातियां-फ्रैंक लोम्बार्ड तथा गोथ इत्यादि ने अधिकार कर लिया। इन लुटेरी जातियों ने समाज और सरकार को सर्वथा नवीन रूप दिया। पांचवीं शताब्दी तक रोमन साम्राज्य अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो चुके थे। जर्मन की बर्बर जातियों के आक्रमण के कारण इटली के गांव असुरक्षित से हो गए थे, क्योंकि सरकार सुरक्षा करने में समर्थ नहीं थी जिसके परिणामस्वरूप जनता ने अपनी सुरक्षा के लिए शक्तिशाली वर्ग से समझौता किया। यही शक्तिशाली वर्ग आगे चलकर सामंतवाद के आधार बने। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में भी सुरक्षा की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। उसके अनुसार ‘‘सामंतवाद के जन्म में सुरक्षा की भावना प्रधान थी। संभावित विदेशी आक्रमण तथा सरकारी अफसरों की अनियंत्रित मांगों से छुटकारे के लिए एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी, जो उन्हें किसी भी कीमत पर सुरक्षा प्रदान कर सके।’’
यूरोप में सामंतवाद के उदय के पीछे एक और जबरदस्त कारण रहा हैं। साम्राज्य के दूरस्थ विस्तार के कारण सम्राट पूरे साम्राज्य का सुचारू रूप से संचालन करने में असमर्थ था। इसलिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो गया जो आवश्यक कार्य होने के साथ लोकतंत्र की दिशा में एक कदम था।
धीरे-धीरे जनता को सुरक्षा प्रदान करने वाला यह शक्तिशाली वर्ग अर्थात् सामंतवाद सम्पूर्ण यूरोप में फैल गया। उसका केन्द्र कैरोलिगियन साम्राज्य में था। वहां से वह पवित्र रोमन साम्राज्य के माध्यम से पूर्वी जर्मनी और डेनमार्क पहुंचा। दक्षिणी फ्रांस में सामंतवाद का प्रभाव स्पेन पर पड़ा। बाद में सामंतवाद फ्रांस में अपने उत्कर्ष रूप में दिखाई पड़ता है। नारमन विजय के फलस्वरूप दक्षिणी इटली और इंग्लैण्ड भी इसके पूर्ण प्रभाव में आ गए। इस प्रकार सम्पूर्ण यूरोप में एक नए ढंग की व्यवस्था का सूत्रपात हुआ और यही नई व्यवस्था सामंतवाद कहलायी जो लगभग आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक समस्त यूरोप में अपने पूर्ण वैभव के साथ छाई रही।