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परिसर में ऐसी कई जगहें हैं। जहां छात्र काम कर सकते हैं। या मस्ती कर सकते हैं। जो कि हॉस्टेल में उपलब्ध नहीं है।
स्टैनफोर्ड NCAA के डिविजन I-A में भाग लेता है और पेसिफिक- 10 सम्मेलन का सदस्य भी है। यह माउंटेन पेसिफिक स्पोर्ट्स फेडरेशन फॉर इंडोर ट्रैक, वाटर पोलो महिला जिम्नास्टिक, महिला लैक्रॉस, पुरूष जिम्नास्टिक तथा पुरूष वालीबॉल आदि खेलों में भी भाग लेता है। महिलाओं की फील्ड हॉकी टीम तो नारपाक कॉन्फ्रेंस का हिस्सा है। खेल जगत में स्टैनफोर्ड के पारंपरिक प्रतिद्वंदी केलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कली है, जो उत्तर की तरफ पूर्वी खाड़ी में उसका पड़ोसी है।
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय स्तर पर 34 विभिन्न स्पोर्ट्स, 19 क्लब स्पोर्ट्स तथा 37 पारस्परिक स्पोर्ट्स पेश करता है - अंतर महाविद्यालय स्तर के खेलों में लगभग 800 छात्र भाग लेते हैं। . विश्वविद्यालय लगभग 300 एथलेटिक संबंधी छात्रवृति भी प्रदान करता है।
काल तथा स्टैनफोर्ड टीमों के बीच संपन्न वार्षिक बिगगेम के विजेता को हर वर्ष स्टैनफोर्ड एक्स पर कब्जा मिलता है। सेन फ्रांसिस्को के हेयट स्ट्रीट पार्क में 19 मार्च 1892 को खेले गए प्रथम "बिग गेम" ने पश्चिमी घाट में फुटबॉल को स्थापित किया। इसमें स्टैनफोर्ड ने 8000 दर्शकों के सामने खेलते हुए 10 के मुकाबले 14 गोलों से जीत दर्ज की. स्टैनफोर्ड की फुटबॉल टीम ने प्रथम रोजबाउल में 1902 में मैच खेला था। फिर भी, उस समय खेल की हिंसा तथा खेलोपरांत पियक्कड़ दोस्तों द्वारा मचाए गए दंगों के कारण सेन फ्रांसिस्को को 1905 के बाद शहर में "बिग गेम" को बंद करना पड़ा. 1906 में डेविड स्टार जोर्डन ने फुटबॉल को स्टैनफोर्ड से बहिष्कृत कर दिया. 1906-1914 के दौरान "बिग गेम" प्रतियोगिताओं में फुटबॉल की जगह रग्बी ही ज्यादा देखने को मिली. स्टैनफोर्ड फुटबॉल 1919 में फिर से शुरू हुआ। स्टैनफोर्ड ने 1971 और 1972 में लगातार रोज़ बाउल जीता. स्टैनफोर्ड ने 12 राजबाउल में भाग लिया, अभी हाल में 2000 में खेला। स्टैनफोर्ड के जिम प्लेंकट ने 1970 में हेसमैन ट्रॉफी का खिताब जीता.
हालांकि, क्लब स्पोर्ट्स, आधिकारिक तौर पर स्टैनफोर्ड एथलेटिक्स का हिस्सा नहीं है, ये स्टैनफोर्ड में अनगिनत है। इन खेलों में तीरंदाजी, बैडमिंटन, क्रिकेट, साइक्लिंग, इक्वेस्ट्रियन, हर्लिंग, आइस हॉकी, जूडो, कयाकिंग, पुरूष लेक्रॉस, पोलो, रॉकेट बॉल, रग्मी यूनियन, स्क्वैश, स्काइंग, टाइकोंडो, टेनिस, ट्रेथलान और अल्टीमेट है। 1984 और 2000 में पुरुषों की अल्टीमेट टीम ने राष्ट्रीय चैंपियनशिप जीता, महिला अल्टीमेट टीम ने 1997, 1998, 1999, 2003, 2005, 2006 और 2007 में चैंपियनशिप जीता, महिला रग्बी टीम ने 1999, 2005, 2006 और 2008 में जीता. साइक्लिंग टीम ने 2007 में डिविजन 1 USA साइक्लिंग कोलिजिएट रोड नेशनल चैंपियशिप जीता.
1930 तक स्टैनफोर्ड की एथलेटिक टीमों के लिए अपना कोई "मस्कट" खेल चिह्न नहीं था। उस वर्ष एथलेटिक विभाग ने इंडियंस नाम को अपनाया. लेकिन 1972 में कुछ स्थानीय छात्रों के द्वारा जातिसंबंधी असंवेदनशीलता को लेकर दर्ज की गई शिकायत के चलते इंडियंस नाम को हटा दिया गया.
अब स्टैनफोर्ड की टीमें आधिकारिक रूप से स्टैनफोर्ड कार्डिनल के नाम से संकेतित होती है – पर इनका संकेत कार्डिनल पक्षी की तरफ नहीं बल्कि लाल रंग की तरफ है। पहले स्टैनफोर्ड का आधाकारिक रंग चमकता लाल रंग था लेकिन 19वीं सदी के बाद सफेद रंग हो गया. बैंड का आधिकारिक चिह्न "द ट्री" सामान्य तौर पर स्कूल के साथ संबद्ध रहा है। पेड़ का ये चिह्न जो लेलैंड जूनियर विश्वविद्यालय मार्चिंग बैंड का एक हिस्सा है – एल पालो आल्टो रेडवुड वृक्ष से व्युत्पन्न है जो स्टैनफोर्ड के पालो आल्टो साल्स शहर में है।
स्टैनफोर्ड द बैंक ऑफ द वेस्ट क्लासिक नाम से टाबे स्टेडियम पर हर वर्ष U.S ओपन सीरीज़ टेनिस टूर्नामेंट का आयोजन करता है। यहां के कॉब ट्रैक, एंजिल फील्ड और एवरी स्टेडियम पूल को विश्वस्तर की एथलेटिक सुविधाओं के लिए जाना जाता है। स्टैनफोर्ड स्टेडियम ने 20 जनवरी 1985 को सुपर बाउल XIX की मेजबानी की जिसमें स्थानीय सेन फ्रांसिस्को 49 की टीम ने 38-16 के स्कोर से मियामी डाल्फिंस को शिकस्त दी.
स्टैनफोर्ड ने उच्चश्रेणी के महाविद्यालय-एथलेटिक कार्यक्रम- NACDA डायरेक्टर्स कप, जो सियर्स कप के नाम से ही अधिक जाना जाता है, को गत पंद्रह वर्षों से हर वर्ष जीता है। यह कप, पिछले सोलह वर्ष से प्रदान किया जा रहा है।
NCAA की उपलब्धियां : स्टैनफोर्ड ने अपनी स्थापना से लेकर 96 राष्ट्रीय महाविद्यालय-एथलेटिक एसोसिएशन के राष्ट्रीय टीम खिताब जीते. यह किसी भी विश्वविद्यालय के लिए द्वितीय उत्तम उपलब्धी है और वैयक्तिक NCAA चैंपियनशिप जीतों के मामले में यह किसी भी विश्वविद्यालय की सर्वोत्तम उपलब्धी है।
ओलंपिक उपलब्धियां : "स्टैनफोर्ड डेली के मुताबिक स्टैनफोर्ड प्रत्येक ग्रीष्म ओलंपियाड में 1908 से लगातार भाग ले रहा है। " 2004 में स्टैनफोर्ड के एथलेटिक्स ने ग्रीष्म खेलों में 182 ओलंपिक मेडल जीते थे। "दर असल, 1912 से लेकर लगातार हर एक ओलम्पियाड में स्टैनफोर्ड के एथलेटिक्स ने कम से कम एक पदक से लेकर 17 पदक तक जीता है। " स्टैनफोर्ड एथलेटिक्स ने 2008 समर खेलों में 24 पदक जीते, जिनमें 8 स्वर्ण पदक, 12 रजत पदक और 4 कांस्य पदक हैं। .
"इंटरनेट के जनक" विंटन सेर्फ ने स्टैनफोर्ड से स्नातक की उपाधि प्राप्त की.
स्टैनफोर्ड के पूर्व छात्रों द्वारा आरम्भ की गई कंपनियों में ह्यूलेट-पैकर्ड,, सिस्को सिस्टम, NVIDIA, SGI, VMware, MIPS टेक्नोलॉजी, याहू!, गूगल, विप्रो टेक्नोलॉजीज, नाइके, गैप और सन माइक्रोसिस्टम्स शामिल हैं। . सन माइक्रोसिस्टम्स में सन का अर्थ मूलतः "स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय नेटवर्क" था।
स्टैनफोर्ड के वर्तमान विद्वत समाज में शामिल हैं। :
पूर्व जापानी प्रधानमंत्री युकिओ हातोयामा, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति हरबर्ट हूवर, अमेरिका के पूर्व सचिव क्रिस्टोफर वॉरेन और पूर्व इस्राइली प्रधानमंत्री एहुद बराक इसके पूर्व छात्र हैं। .
NFL क्वार्टरबैक्स जिम प्लैनकैट, ट्रेंट एडवर्ड्स और जॉन एलवे NFL प्राप्तकर्ता गॉर्डन बैंक्स और एड मैकाफ्रे, NFL के फुलबैक जॉन रिची, रनर रयान हॉल, MLB के शुरूआती पिचर माइक मुसिना, MLB बाएं के क्षेत्ररक्षक कार्लोस क्वेन्टिन, ग्रैंड स्लैम टेनिस विजेता जॉन मेकएनरो और बॉब और माइक ब्रायन, पेशेवर गोल्फ खिलाड़ी टाइगर वुड्स, न्यूजीलैंड फुटबॉल और ब्लैकबर्न रोवर्स के डिफेंडर रयान नेल्सेन ओलिंपिक तैराक जेनी थोम्पसन, समर सैंडर्स और पॅबलो मोरालेस, ओलिंपिक हस्ती डेबी थॉमस, ओलिंपिक वाटरपोलो खिलाड़ी टोनी गेरहार्ट अज़ेवेडो और बे्रन्डा विल्ला ओलम्पिक सॉफ्टबॉल खिलाड़ी जेसिका मेनडोज़ा, हेसमैन फाइनलिस्ट टोबी और अभिनेत्री रीज़ विदरस्पून इसके पूर्व छात्र हैं। .
अभिनेत्री जेनिफर कोनेली और सिगोर्ने वीवर, अभिनेता फ्रेड सेवेज और राजनैतिक समालोचक राहेल मेडो इसके महत्वपूर्ण स्नातक हैं। .
सूरज प्रकाश हिंदी और गुजराती के लेखक और कथाकार हैं।
उपन्यास - हादसों के बीच, देस बिराना, कहानी संग्रह - अधूरी तस्‍वीर, छूटे हुए घर, खो जाते हैं घर, मर्द नहीं रोते ,
==परिचय== संपादित करें
सूरज प्रकाश का जन्म उत्‍तराखंड के देहरादून में हुआ था। सूरज प्रकाश ने मेरठ विश्‍व विद्यालय से बी॰ए॰ की डिग्री प्राप्त की और बाद में उस्‍मानिया विश्‍वविद्यालय से एम ए किया। तुकबंदी बेशक तेरह बरस की उम्र से ही शुरू कर दी थी लेकिन पहली कहानी लिखने के लिए उन्‍हें पैंतीस बरस की उम्र तक इंतजार करना पड़ा। उन्होंने शुरू में कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं और फिर 1981 में भारतीय रिज़र्व बैंक की सेवा में बंबई आ गए और वहीं से 2012 में महाप्रबंधक के पद से रिटायर हुए। सूरज प्रकाश कहानीकार, उपन्यासकार और सजग अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं। 1989 में वे नौकरी में सज़ा के रूप में अहमदाबाद भेजे गये थे लेकिन उन्‍होंने इस सज़ा को भी अपने पक्ष में मोड़ लिया। तब उन्‍होंने लिखना शुरू ही किया था और उनकी कुल जमा तीन ही कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं। अहमदाबाद में बिताए 75 महीनों में उन्‍होंने अपने व्‍यक्‍तित्‍व और लेखन को संवारा और कहानी लेखन में अपनी जगह बनानी शुरू की। खूब पढ़ा और खूब यात्राएं कीं। एक चुनौती के रूप में गुजराती सीखी और पंजाबी भाषी होते हुए भी गुजराती से कई किताबों के अनुवाद किए। इनमें व्‍यंग्य लेखक विनोद भट्ट की कुछ पुस्‍तकों, हसमुख बराड़ी के नाटक ’राई नो दर्पण’ राय और दिनकर जोशी के बेहद प्रसिद्ध उपन्‍यास ’प्रकाशनो पडछायो’ के अनुवाद शामिल हैं। वहीं रहते हुए जॉर्ज आर्वेल के उपन्‍यास ’एनिमल फॉर्म’ का अनुवाद किया। गुजरात हिंदी साहित्‍य अकादमी का पहला सम्‍मान 1993 में सूरज प्रकाश को मिला था। वे इन दिनों मुंबई में रहते हैं। सूरज प्रकाश जी हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी भाषाएं जानते हैं। उनके परिवार में उनकी पत्‍नी मधु अरोड़ा और दो बेटे अभिजित और अभिज्ञान हैं। मधु जी समर्थ लेखिका हैं।
==कार्यक्षेत्र== संपादित करें
1987 में लेखन शुरू करके सूरज प्रकाश ने लगभग 50 कहानियां और दो उपन्‍यास लिखे हैं। उनके दो व्‍यंग्‍य संग्रह भी हैं। गुजराती से उन्‍होंने 8 और अंग्रेजी से 6 किताबों के अनुवाद किये हैं। बैंक की सेवा में रहते हुए उन्‍होंने हिंदी में बैंकिंग साहित्‍य तैयार कराने की दिशा में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभायी। उनके प्रयासों से पहली बार बैंकिंग से जुड़े विभिन्‍न विषयों पर हिंदी में राष्‍ट्रीय स्‍तर के सेमिनार शुरू किये गये और उनमें प्रस्‍तुत आलेखों को संपादित करके पुस्‍तक रूप में प्रकाशित किये गये। भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा ये सेमिनार अभी भी नियमित रूप से आयोजित किये जाते हैं। बैंक के पुणे स्‍थित महाविद्यालय में अपनी तैनाती के दौरान सूरज प्रकाश ने बैंकरों के बीच साहित्‍य के प्रति रुचि जगाने के लिए कई प्रयास और प्रयोग किये। इनमें बैंकरों के बीच वरिष्‍ठ कथाकारों के कहानी पाठ, नाटकों के मंचन आदि शामिल हैं। गुजराती हिंदी साहित्‍य अकादमी से पहला सम्‍मान और महाराष्‍ट्र हिंदी साहित्‍य अकादमी से दो बार सम्‍मानित।अनुवाद के क्षेत्र में सूरज प्रकाश ने बहुत महत्‍वपूर्ण काम किया है। उन्‍होंने आत्‍मकथाओं के अनुवाद को अपनी प्राथमिकता बनाया और कई महत्‍वपूर्ण आत्‍मकथाओं के अनुवाद किये। चार्ल्‍स चैप्‍लिन की आत्‍मकथा, चार्ल्‍स डार्विन की आत्‍मकथा, ऐन फ्रैंक की डायरी, मिलेना और गुजराती से महात्‍मा गांधी की आत्‍मकथा सत्‍य नो प्रयोगो उनके कुछ उल्‍लखेनीय अनुवाद हैं। इनके अलावा नोबल पुरस्‍कार प्राप्‍त लेखकों की कहानियों के अनुवाद, एनिमल फार्म का अनुवाद और कुछेक दूसरे उपन्‍यासों के उनके किये गये अनुवाद बेहद पसंद किये गये हैं।इधर के बरसों में फेसबुक जैसे सशक्‍त सोशल मीडिया के आगमन के साथ सूरज प्रकाश ने अपनी कथाओं के लिए एक नयी ज़मीन तलाशी है और फेसबुक को आधार बना कर कई लंबी और सार्थक कहानियां दी हैं। वे शायद हिंदी के अकेले लेखक हैं जिन्‍होंने फेसबुक को आधार बना कर लगातार महत्‍वपूर्ण कहानियां दी हैं। उनकी कहानियां विभिन्‍न भाषाओं में अनूदित हैं। छोटे नवाब बड़े नवाब और डर कहानियों को दूरदर्शन पर दिखाया गया है। सूरज प्रकाश के लेखन पर तीन एमफिल हो चुकी हैं और उनके काम को कई शोध प्रबंधों में शामिल किया गया है।
==सूरज प्रकाश की कुछ रचनाएँ== संपादित करें
देस बिराना संपादित करें
==मुख्य लेख : देस बिराना==
देस बिराना सूरज प्रकाश का महत्‍वपूर्ण उपन्‍यास है। यह एक ऐसे अकेले लड़के की कहानी है जो बचपन के एक छोटे से हादसे के कारण घर छोड़ देता है और आजीवन अपनी शर्तों पर अपनी तरह के घर की तलाश करता रहता है। उसका अपना घर ही अपना नहीं रहता और वह घर नाम की जगह की चाहत में बंबई और लंदन में भटकता रहता है। जो घर उसे मिलता है वह उस तरह का घर नहीं होता जो उसकी चाहत है। वह सोचता है कि जिदंगी भी हमारे साथ कैसे कैसे खेल खेलती है। हम बंद दरवाजों के बाहर खड़े होते हैं और भीतर खबर नहीं होती और कहीं और किन्‍हीं बंद दरवाजों के पीछे कोई हमारी राह देख रहा होता है और हमें ही खबर नहीं होती। 2000 में लिखे गये इस उपन्‍यास को बंबई की दृष्‍टिहीन व्‍यक्‍तियों के लिए काम करने वाली बंबई की संस्‍था नेशनल एसोसिएशन फॉर ब्‍लाइंड ने देश भर में फैले अपने सदस्‍यों के लिए ऑडियो उपन्‍यास के रूप मे रिकार्ड करवाया था। ये उपन्‍यास सूरज प्रकाश की वेबसाइट www.surajprakash.com पर ऑडियो रूप में भी उपलब्‍ध है।
==प्रकाशित पुस्तकें== संपादित करें
उपन्यास संपादित करें
• हादसों के बीच ,• देस बिराना ,==कहानी-संग्रह== संपादित करें
• अधूरी तस्‍वीर • छूटे हुए घर • खो जाते हैं घर • मर्द नहीं रोते • छोटे नवाब बड़े नवाब • संकलित कहानियां
==व्‍यंग्‍य-संग्रह== संपादित करें
• ज़रा संभल के चलो • दाढ़ी में तिनका
==अंग्रेजी से अनुवाद== संपादित करें
• ऐन फ्रेंक की डायरी • मिलेना • चार्ली चैप्‍लिन की आत्‍मकथा • चार्ल्‍स डार्विन की आत्‍मकथा • एनिमल फार्म • क्रानिकल ऑफ ए डैथ फोरटोल्‍ड
==गुजराती से अनुवाद== संपादित करें
• भूल चूक लेनी देनी • चेखव और बर्नार्ड शॉ • हसमुख बराड़ी का नाटक राई नो दर्पण राय • प्रकाशनो पडछायो • दिवा स्वप्‍न • मां बाप से • • महात्‍मा गांधी की आत्‍मकथा • संपादन • बंबई एक • कथा दशक • कथा लंदन • इसके अलावा बैंकिंग साहित्‍य से संबंधित 6 पुस्तकों का संपादन
== सन्दर्भ == संपादित करें
1. ऊपर जायें↑ पुस्तक.ऑर्ग2. ऊपर जायें↑ हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 पृ-
• सूरज प्रकाश की रचनाएं • सूरज प्रकाश की रचनाएं • सूरज प्रकाश • सूरज प्रकाश
बीज पैदा करनेवाले पौधे दो प्रकार के होते हैं: नग्न या विवृतबीजी तथा बंद या संवृतबीजी। सपुष्पक, संवृतबीजी, या आवृतबीजी एक बहुत ही बृहत् और सर्वयापी उपवर्ग है। इस उपवर्ग के पौधों के सभी सदस्यों में पुष्प लगते हैं, जिनसे बीज फल के अंदर ढकी हुई अवस्था में बनते हैं। ये वनस्पति जगत् के सबसे विकसित पौधे हैं। मनुष्यों के लिये यह उपवर्ग अत्यंत उपयोगी है। बीज के अंदर एक या दो दल होते हैं। इस आधार पर इन्हें एकबीजपत्री और द्विबीजपत्री वर्गों में विभाजित करते हैं। सपुष्पक पौधे में जड़, तना, पत्ती, फूल, फल निश्चित रूप से पाए जाते हैं।
संवृतबीजी के सदस्यों की बनावट कई प्रकार की होती है, परंतु प्रत्येक में जड़, तना, पत्ती या पत्ती के अन्य रूपांतरित अंग, पुष्प, फल और बीज होते हैं। संवृतबीजी पौधों के अंगों की रचना तथा प्रकार निम्नलिखित हैं:
पृथ्वी के नीचे का भाग अधिकांशत: जड़ होता है। बीज के जमने के समय जो भाग मूलज या मूलांकुर से निकलता है, उसे ही जड़ कहते हैं। पौधों में प्रथम निकली जड़ जल्दी ही मर जाती है और तने के निचले भाग से रेशेदार जड़े निकल आती हैं। द्विबीजपत्री में प्रथम जड़, या प्राथमिक जड़, सदा ही रहती है। यह बढ़ती चलती है और द्वितीय, तृतीय श्रेणी की जड़, सदा ही रहती है। यह बढ़ती चलती है और द्वितीय, तृतीय श्रेणी की जड़ की शाखाएँ इसमें से निकलती हैं। ऐसी जड़ को मूसला जड़ कहते हैं। जड़ों में मूलगोप तथा मूल रोम होते हैं, जिन के द्वारा पौधे मिट्टी से लवणों का अवशोषण कर बढ़ते हैं। खाद्य एवं पानी प्राप्त करने के अतिरिक्त जड़ पौधों में अपस्थानिक जड़ें भी होते हैं। कुछ पौधों में जड़े बाहर भी निकल आती हैं। जड़ के मध्य भाग में पतली कोशिका से बनी मज्जा रहती है किनारे में दारु तथा फ्लोयम और बाह्यआदिदारुक होते हैं। दारु के बाहर की ओर आदिदारु और अंदर की ओर अनुदारु होते हैं। इनकी रचना तने से प्रतिकूल होती है, संवहन ऊतक के चारों तरफ परिरंभ और बाहर अंत:त्वचा रहते हैं। वल्कुट तथा मूलीय त्वचा बाहर की तरफ रहते हैं।
यह पृथ्वी के ऊपर के भाग का मूल भाग है, जिसमें अनेकानेक शाखाएँ, टहनियाँ, पत्तियाँ और पुष्प निकलते हैं। बीज के जमने पर प्रांकुल से निकले भाग को तना कहते हैं। यह धरती से ऊपर की ओर बढ़ता है। इससे निकलनेवाली शाखाएँ बहिर्जात होती हैं, अर्थात् जड़ों की शाखाओं की तरह अंत:त्वचा से नहीं निकलतीं वरन् बाहरी ऊतक से निकलती हैं। तने पर पत्ती, पर्णकलिका तथा पुष्पकलिका लगी होती है।
संवृतबीजों में तने कई प्रकार पाए जाते हैं। इन्हें साधारणतया मजबूत तथा दुर्बल तनों में विभाजित किया जाता है। मजबूत तने काफी ऊँचे बढ़ते जाते हैं। जैसे ताड़ को कोडेक्स तना, या गाँठदार बाँस का कल्म तना इत्यादि। दुर्बल तने भी कई प्रकार के होते हैं, जैसे ट्रेलिंग या अनुगामी, क्रोपिंग इत्यादि। शाखा के तने से निकलने की रिति को "शाखा विन्यास" कहते हैं। अगर एक स्थान से मुख्य शाखा दो भागों में विभाजित हो जाए, तो इसे द्विभाजी विन्यास कहते हैं अन्यथा अगर मुख्य तने के किनारे से टहनियाँ निकलती रहे, तो इन्हें पार्श्व विन्यास कहते हैं। द्विभाजी विभाजन के भी कई रूप होते हैं, जैसे यथार्थ द्विविभाजन, या कुंडलनी, या वृश्चिकी । पार्श्व शाखाएँ या तो अनिश्चित रूप से बढ़ती चलती है, जिसे असीमाक्षी शाखा विन्यास कहते हैं, या वह जिसमें शाखाओं की वृद्धि रुक जाती है और जिसे समीमाक्षी विन्यास कहते हैं।
तने का कार्य जड़ द्वारा अवशोषित जल तथा लवणों को ऊपर की ओर पहुँचाना है, जो पत्ती में पहुँचकर सूर्य के प्रकाश में संश्लेषण के काम में आते हैं। बने भोजन को तने द्वारा ही पोधे के हर एक भाग तक पहुँचाया जाता है। इसके अतिरिक्त तने पौधों को खंभे के रूप में सीधा खड़ा रखते हैं। ये पत्तियों को जन्म देकर भोजन बनाने तथा पुष्प को जन्म देकर जनन कार्य सम्पन्न करने में सहायक होते हैं। बहुत से तने भोजन का संग्रह भी करते हैं। कुछ तने पतले होने के कारण स्वयं सीधे नहीं उग पाते और अन्य किसी मजबूत आधार या अन्य वृक्ष से लिपटकर ऊपर बढ़ते चलते हैं। कुछ में तने काँटों में परिवर्तित हो जाते हैं। बहुत से पौधों में तने मिट्टी के नीचे उगते हैं और कई तने रूपविशेष धारण कर अलग अलग कार्य करते हैं, जैसे अदरक का परिवर्तित तना, जो खाया जाता है। इसे प्रकंद कहते हैं। आलू भी ऐसा ही तना है जिसे कंद कहते हैं। इन तनों पर भी कलिका रहती है, जो पादप प्रसारण के कार्य आती है। प्याज का खानेवाला भाग मिट्टी के नीचे रहनेवाला तना ही है, जिसे शल्क कंद कहते हैं। इसमें शल्कपत्र तथा अग्रस्थ कलिका दबी पड़ी रहती है। लहसुन, केना, बनप्याजी तथा अन्य कई एक एकबीजपत्री संवृतबीजी में ऐसे तने मिलते हैं। सूरन तथा बंडे का भी खानेवाला भाग भूमिगत रहता है और यह भी शाखा का ही रूप है, जिसे घन कंद कहते हैं। तने का ऐसा भी रूपांतर कई पौधों में पाया जाता है, जिसका कुछ भाग भूमि के नीचे और कुछ भाग भूमि के ऊपर रहते हुए विशेष कार्य करता है, जैसे दूब घास में तने उर्पार भूस्तारी के रूप पृथ्वी पर पड़े रहते हैं और उनकी पर्वसंधि से जड़ मिट्टी में घुस जाती है। इसी से मिलते जुलते भूस्तारी प्रकार के तने होते हैं, जैसे झूमकलता, या चमेली इत्यादि। भूस्तारी तने जलकुंभी में, तथा अंत: भूस्तारी तने पुदीना में होते हैं।
कुछ हवाई तने या स्तम्भ भी कई विशेष रूपों में परिवर्तित हो जाते हैं, जैसे नागफनी में चपटे, रस्कस में पत्ती के रूप में तथा कुछ पौधों में अन्य रूप धारण करते हैं।
आंतरिक रचना में भी स्तम्भ के आकार काफी हद तक एक प्रकार के होते हैं, जिसमें एकबीजपत्री तथा द्विबीजपत्री केवल आंतरिक रचना द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं। स्तंभ में भी बहिर्त्वचा, वल्कुट तथा संवहन सिलिंडर होते हैं। एकबीजपत्री में संवहन पुल बंद अर्थात् गौण वृद्धि न करनेवाले एघा से रहित होता है तथा द्विबीजपत्री में गौण वृद्धि होती है, जो एक प्रकार की सामान्य रीति द्वारा ही होती है। कुछ पौधों में परिस्थिति के कारण, या अन्य कारणों से विशेष प्रकार से भी, गौण वृद्धि होती है।
संवृतबीजी के पौधों में पत्तियाँ भी अन्य पौधों की तरह विशेष कार्य के लिये होती हैं। इनका प्रमुख कार्य भोजन बनाना है। इनके भाग इस प्रकार है : टहनी से निकलकर पर्णवृत होता है, जिसके निकलने के स्थान पर अनुपर्ण भी हो सकते हैं। पत्तियों का मुख्य भाग चपटा, फैला हुआ पर्णफलक है। इनमें शिरा कई प्रकार से विन्यासित रहती है। पत्तियों के आकार कई प्रकार के मिलते हैं। पत्तियों में छोटे छोटे छिद्र, या रंध्र, होते हैं। अनुपर्ण भी अलग अलग पौधों में कई प्रकार के होते हैं, जैसे गुलाब, बनपालक, स्माइलेक्स, इक्ज़ारा इत्यादि में। नाड़ीविन्यास जाल के रूप में जालिका रूपी तथा समांतर प्रकार का होता है। पहला विन्यास मुख्यत: द्विबीजीपत्री में और दूसरा विन्यास एकबीजपत्री में मिलता है। इन दोनों के कई रूप हो सकते हैं, जैसे जालिकारूप विन्यास आम, पीपल तथा नेनूआ की पत्ती में और समांतररूप विन्यास केला, ताड़, या केना की पत्ती में। शिराओं द्वारा पत्तियों का रूप आकार बना रहता है, जो इन्हें चपटी अवस्था में फैले रखने में मदद देता है और शिराओं द्वारा भोजन, जल आदि पत्ती के हर भाग में पहुँचते रहते हैं। पत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं। साधारण तथा संयुक्त, बहुत से संवृतबीजियों में पत्तियाँ विभिन्न प्रकार से रूपांतरित हो जाती हैं, जैसे मटर में ऊपर की पत्तियाँ लतर की तरह प्रतान का रूप धारण करती हैं, या बारबेरी में काँटे के रूप में, विगनोनियाँ में अंकुश की तरह और नागफनी, धतूरा, भरभंडा, भटकटइया में काँटे के रूप में बदल जाती हैं। घटपर्णी में पत्तियाँ सुराही की तरह हो जाती हैं, जिसमें छोटे कीड़े फँसकर रह जाते हैं और जिन्हें यह पौधा हजम कर जाता है। पत्तियों के अंदर की बनावट इस प्रकार की होती हैं कि इनके अंदर पर्णहरित, प्रकाश की ऊर्जा को लेकर, जल तथा कार्बन डाइऑक्साइड को मिलाकर, अकार्बनिक फ़ॉस्फ़ेट की शक्तिशाली बनाता है तथा शर्करा और अन्य खाद्य पदार्थ का निर्माण करता है।
संवृतबीजी के पुष्प नाना प्रकार के होते हैं और इन्हीं की बनावट तथा अन्य गुणों के कारण संवृतबीजी का वर्गीकरण किया गया है। परागण के द्वारा पौधों का निषेचन होता है। निषेचन के पश्चात् भ्रूण धीरे धीरे विभाजित होकर बढ़ता चलता है। इसकी भी कई रीतियाँ हैं जिनका भारतीय वनस्पति विज्ञानी महेश्वरी ने कॉफी विस्तार से अध्ययन किया है। भ्रूण बढ़ते बढ़ते एक या दो दलवाले बीज बनाता है, परंतु उसके चारों तरफ का भाग अर्थात् अंडाशय, तथा स्त्रीकेसर का पूरा भाग बढ़कर फल को बनाता है। बीजों को ये ढँके रहते हैं। इसी कारण इन बीजों को आवृतबीजी या संवृतबीजी कहते हैं। फल भी कई प्रकार के होते हैं, जिनमें मनुष्य के उपयोग में कुछ आते हैं। सेब में पुष्पासन का भाग, अमरूद में पुष्पासन तथा फलावरण, बेल में बीजांडासन का भाग, नारियल में भ्रूणपोष का भाग खाया जाता है।
संवृतबीजियों का वर्गीकरण कई वनस्पति-वर्गीकरण-वैज्ञानिकों द्वारा समय समय पर हुआ है। ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व थियोफ्रस्टस ने कुछ लक्षणों के आधार पर वनस्पतियों का वर्गीकरण किया था। भारत में बेंथम और हूकर तथा ऐंगलर प्रेंटल ने वर्गीकरण किया है। सभी ने संवृतबीजियों को एकबीजपत्री और द्विबीजपत्रियों में विभाजित किया है।
पेटालयडी के अंतर्गत ऐसा एकबीजी कुल रखा जाता है जिसके पौधों के पुष्प में दलचक्र हों, जैसे केना, कमेलाइना, प्याज इत्यादि। स्पैडिसिफ्लोरी में स्पादीक्स् प्रकार का पुष्पक्रम पाया जाता है, जैस केला में। ग्लुमिफ्लोरी में मुख्य कुल ग्रामीनेऐ और साइप्रेसी है। ग्रैमिनी तो संसार का सर्वमान्य तथा उपयोगी कुल है। इसके सदस्य मुख्यत: मनुष्य तथा पालतू पशु, गाय, भैंस इत्यादि के आहार के रूप में काम आते हैं। जौ, गेहूँ, मक्का, बाजरा, ज्वार, धान, दूब, दीखान्थ्युम्, मूँज, पतलो, खस इसी कुल के सदस्य हैं। एकबीजपत्री के अन्य उदाहरण, ताड़, खजूर, ईख, बाँस, प्याज, लहसुन इत्यादि है।
द्विबीजपत्री पौधों की तो कई हजार जातियाँ पाई जाती हैं। इनके अंतर्गत कई कुल हैं और प्रत्येक कुल में अनेक पेड़ पौधे हैं।
संवृतजीवी पौधे अनेक रूपों में मनुष्य के काम आते हैं। कुछ संवृतवीजी पौधे तो खानेवाले अनाज हैं, कुछ दलहन, कुछ फल और कुछ शाक सब्जी। कुछ पौधे हमें चीनी प्रदान करते हैं तो कुछ से हमें पेय, कॉफी, चाय, फल नीबू प्राप्त होते हैं। कुछ से मदिरा बनाने के लिए अंगूर, संतरा, महुआ, माल्ट आदि मिलते हैं। वस्त्र के लिए कपास, जूट, औषधियों के लिए सर्पगंधा, सिंकोना, यूकेलिप्टस, भृंगराज, तुलसी, गुलबनफ़सा, आँवला इत्यादि हैं। इमारती लकड़ी टीक, साल एवं शीशम से, रंग नील, टेसू इत्यादि से और रबर हीविया, आर्टोकार्पस इत्यादि वृक्षों से प्राप्त होते हैं। वनस्पति जगत् का संवृतबीजी बड़ा व्यापक और उपयोगी उपवर्ग है। पृथ्वी के हर भाग में यह बहुतायत से उगता है।
विधि किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है।
विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते है जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवर्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देता है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है।
विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में 'विधि के विधान' का आशय 'विधाता द्वारा बनाये हुए कानून' से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है।
आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है।
कानून या विधि का मतलब है मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित और संचालित करने वाले नियमों, हिदायतों, पाबंदियों और हकों की संहिता। लेकिन यह भूमिका तो नैतिक, धार्मिक और अन्य सामाजिक संहिताओं की भी होती है। दरअसल, कानून इन संहिताओं से कई मायनों में अलग है। पहली बात तो यह है कि कानून सरकार द्वारा बनाया जाता है लेकिन समाज में उसे सभी के ऊपर समान रूप से लागू किया जाता है। दूसरे, ‘राज्य की इच्छा’ का रूप ले कर वह अन्य सभी सामाजिक नियमों और मानकों पर प्राथमिकता प्राप्त कर लेता है। तीसरे, कानून अनिवार्य होता है अर्थात् नागरिकों को उसके पालन करने के चुनाव की स्वतंत्रता नहीं होती। पालन न करने वाले के लिए कानून में दण्ड की व्यवस्था होती है। लेकिन, कानून केवल दण्ड ही नहीं देता। वह व्यक्तियों या पक्षों के बीच अनुबंध करने, विवाह, उत्तराधिकार, लाभों के वितरण और संस्थाओं को संचालित करने के नियम भी मुहैया कराता है। कानून स्थापित सामाजिक नैतिकताओं की पुष्टि की भूमिका भी निभाता है। चौथे, कानून की प्रकृति ‘सार्वजनिक’ होती है क्योंकि प्रकाशित और मान्यता प्राप्त नियमों की संहिता के रूप में उसकी रचना औपचारिक विधायी प्रक्रियाओं के ज़रिये की जाती है। अंत में कानून में अपने अनुपालन की एक नैतिक बाध्यता निहित है जिसके तहत वे लोग भी कानून का पालन करने के लिए मजबूर होते हैं जिन्हें वह अन्यायपूर्ण लगता है। राजनीतिक व्यवस्था चाहे लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, उसे कानून की किसी न किसी संहिता के आधार पर चलना पड़ता है। लेकिन, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बदलते समय के साथ अप्रासंगिक हो गये या न्यायपूर्ण न समझे जाने वाले कानून को रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की माँग करने का अधिकार होता है। कानून की एक उल्लेखनीय भूमिका समाज को संगठित शैली में चलाने के लिए नागरिकों को शिक्षित करने की भी मानी जाती है। शुरुआत में राजनीतिशास्त्र के केंद्र में कानून का अध्ययन ही था। राजनीतिक दार्शनिक विधि के सार और संरचना के सवाल पर ज़बरदस्त बहसों में उलझे रहे हैं। कानून के विद्वानों को मानवशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, नैतिकशास्त्र और विधायी मूल्य-प्रणाली का अध्ययन भी करना पड़ता है।
संविधानसम्मत आधार पर संचालित होने वाले उदारतावादी लोकतंत्रों में ‘कानून के शासन’ की धारणा प्रचलित होती है। इन व्यवस्थाओं में कानून के दायरे के बाहर कोई काम नहीं करता, न व्यक्ति और न ही सरकार। इसके पीछे कानून का उदारतावादी सिद्धांत है जिसके अनुसार कानून का उद्देश्य व्यक्ति पर पाबंदियाँ लगाना न हो कर उसकी स्वतंत्रता की गारंटी करना है। उदारतावादी सिद्धांत मानता है कि कानून के बिना व्यक्तिगत आचरण को संयमित करना नामुमकिन हो जाएगा और एक के अधिकारों को दूसरे के हाथों हनन से बचाया नहीं जा सकेगा। इस प्रकार जॉन लॉक की भाषा में कानून का मतलब है जीवन, स्वतंत्रता और सम्पत्ति की रक्षा के लिए कानून। उदारतावादी सिद्धांत स्पष्ट करता है कि कानून के बनाने और लागू करने के तरीके कौन-कौन से होने चाहिए। उदाहरणार्थ, कानून निर्वाचित विधिकर्त्ताओं द्वारा आपसी विचार-विमर्श के द्वारा किया जाना चाहिए। दूसरे, कोई कानून पिछली तारीख़ से लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस सूरत में वह नागरिकों को उन कामों के लिए दण्डित करेगा जो तत्कालीन कानून के मुताबिक किये गये थे। इसी तरह उदारतावादी कानून क्रूर और अमानवीय किस्म की सज़ाएँ देने के विरुद्ध होता है।  राजनीतिक प्रभावों से निरपेक्ष रहने वाली एक निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना की जाती है ताकि कानून की व्यवस्थित व्याख्या करते हुए पक्षकारों के बीच उसके आधार पर फ़ैसला हो सके। मार्क्सवादियों की मान्यता है कि कानून के शासन की अवधारणा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी करने के नाम पर सम्पत्ति संबंधी अधिकारों की रक्षा करते हुए पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा के काम आती है। इसका नतीजा सामाजिक विषमता और वर्गीय प्रभुत्व को बनाये रखने में निकलता है। मार्क्स कानून को राजनीति और विचारधारा की भाँति उस सुपरस्ट्रक्चर या अधिरचना का हिस्सा मानते हैं जिसका बेस या आधार पूँजीवादी उत्पादन की विधि पर रखा जाता है। नारीवादियों ने भी कानून के शासन की अवधारणा की आलोचना की है कि वह लैंगिक निष्पक्षता पर आधारित नहीं है। इसीलिए न्यायपालिका और कानून के पेशे पर पुरुषों का कब्ज़ा रहता है। बहुसंस्कृतिवाद के पैरोकारों का तर्क है कि कानून असल में प्रभुत्वशाली सांस्कृतिक समूहों के मूल्यों और रवैयों की नुमाइंदगी ही करता है। परिणामस्वरूप अल्पसंख्यक और हाशियाग्रस्त समूहों के मूल्य और सरोकार नज़रअंदाज़ किये जाते रहते हैं।
कानून और नैतिकता के बीच अंतर के सवाल पर दार्शनिक शुरू से ही सिर खपाते रहे हैं। कानून का आधार नैतिक प्रणाली में मानने वालों का विश्वास ‘प्राकृतिक कानून’ के सिद्धांत में है। प्लेटो और उनके बाद अरस्तू की मान्यता थी कि कानून और नैतिकता में नज़दीकी रिश्ता होता है। एक न्यायपूर्ण समाज वही हो सकता है जिसमें कानून नैतिक नियमों पर आधारित प्रज्ञा की पुष्टि करते हों। मध्ययुगीन ईसाई विचारक थॉमस एक्विना भी मानते थे कि इस धरती पर उत्तम जीवन व्यतीत करने के लिए नेचुरल लॉ यानी ईश्वर प्रदत्त नैतिकताओं के मुताबिक कानून होने चाहिए। उन्नीसवीं सदी में बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा बढ़ने के कारण प्राकृतिक कानून का सिद्धांत निष्प्रभावी होता चला गया। कानून को नैतिक, धार्मिक और रहस्यवादी मान्यताओं से मुक्त करने की कोशिशें हुईं। जॉन आस्टिन ने ‘विधिक प्रत्यक्षतावाद’ की स्थापना की जिसका दावा था कि कानून का सरोकार किसी उच्चतर नैतिक या धार्मिक उसूल से न हो कर किसी सम्प्रभु व्यक्ति या संस्था से होता है। कानून इसलिए कानून है कि उसका पालन करवाया जाता है और करना पड़ता है। विधिक प्रत्यक्षतावाद की कहीं अधिक व्यावहारिक और नफ़ीस व्याख्या एच.एल.ए. हार्ट की रचना 'द कंसेप्ट ऑफ़ लॉ' में मिलती है। हार्ट कानून को नैतिक नियमों के दायरे से निकाल कर मानव समाज के संदर्भ में परिभाषित करते हैं। उनके मुताबिक कानून प्रथम और द्वितीयक नियमों का संयोग है। प्रथम श्रेणी के नियमों को 'कानून के सार' की संज्ञा देते हुए हार्ट कहते हैं कि उनका सम्बन्ध सामाजिक व्यवहार के विनियमन से है। जैसे, फ़ौजदारी कानून। द्वितीय श्रेणी के नियम सरकारी संस्थाओं को हिदायत देते हैं कि कानून किस तरह बनाया जाए, उनका किस तरह कार्यान्वयन किया जाए, किस तरह उसके आधार पर फ़ैसले किये जाएँ और इन आधारों पर किस तरह उसकी वैधता स्थापित की जाए। हार्ट द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रत्यक्षतावाद के सिद्धांत की आलोचना राजनीतिक दार्शनिक रोनॉल्ड ड्वॅर्किन ने की है। उनके अनुसार कानून केवल नियमों की संहिता ही नहीं होता और न ही आधुनिक विधि प्रणालियाँ कानून की वैधता स्थापित करने के लिए किसी एक समान तरीके का प्रावधान करती हैं।
कानून और नैतिकता के बीच संबंध की बहस नाज़ियों के अत्याचारों को दण्डित करने वाले न्यूरेम्बर्ग मुकदमे में भी उठी थी। प्रश्न यह था कि क्या उन कामों को अपराध ठहराया जा सकता है जो राष्ट्रीय कानून के मुताबिक किये गये हों? इसके जवाब के लिए प्राकृतिक कानून की अवधारणा का सहारा लिया गया, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति मानवाधिकारों की भाषा में हुई। दरअसल कानून और नैतिकता के रिश्ते का प्रश्न बेहद जटिल है और गर्भपात, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफ़ी, टीवी और फ़िल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा, अपनी कोख किराए पर देने वाली माताओं और जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे मसलों के सदंर्भ में बार-बार उठती रहती है।
1. एच.एल.ए. हार्ट, द कंसेप्ट ऑफ़ लॉ, क्लैरंडन प्रेस, ऑक्सफ़र्ड.
2. रोनॉल्ड ड्वॉर्किन, लाज़ एम्पायर, कोलिंस, लंदन, 1986
3. जे. रैज़, द अथॉरिटी ऑल लॉ, क्लैरंडन प्रेस, ऑक्सफ़र्ड
4. ओ. डब्ल्यू. होम्स, द प्योर थियरी ऑफ़ लॉ, युनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस, बरकल.
5. एच. कोलिंस, मार्क्सिज़म ऐंड लॉ, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, ऑक्सफ़र्ड.
यह लेख आंग्ल-भारतीय गोलमेज सम्मेलन के बारे में है। डच-इन्डोनेशियाई गोलमेज सम्मेलन के लिए, डच-इन्डोनेशियाई गोलमेज सम्मेलन देखिये। गोलमेज के अन्य उपयोगों के लिए, कृपया गोलमेज देखें।
नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोल मेज सम्मेलनों का आयोजन शुरू किया। अंग्रेज़ सरकार द्वारा भारत में संवैधानिक सुधारों पर चर्चा के लिए 1930-32 के बीच सम्मेलनों की एक श्रृंखला के तहत तीन गोलमेज सम्मेलन आयोजित किये गए थे। ये सम्मलेन मई 1930 में साइमन आयोग द्वारा प्रस्तुत की गयी रिपोर्ट के आधार पर संचालित किये गए थे। भारत में स्वराज, या स्व-शासन की मांग तेजी से बढ़ रही थी। 1930 के दशक तक, कई ब्रिटिश राजनेताओं का मानना था कि भारत में अब स्व-शासन लागू होना चाहिए। हालांकि, भारतीय और ब्रिटिश राजनीतिक दलों के बीच काफी वैचारिक मतभेद थे, जिनका समाधान सम्मलेनों से नहीं हो सका।
पहला गोल मेज सम्मेलन नवम्बर 1930 में आयोजित किया गया जिसमें देश के प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए, इसी कारण अंतत: यह बैठक निरर्थक साबित हुई। यह आधिकारिक तौर पर जॉर्ज पंचम ने 12 नवम्बर 1930 को प्रारम्भ किया और इसकी अध्यक्षता ब्रिटेन के प्रधानमंत्री, रामसे मैकडॉनल्ड ने की। तीन ब्रिटिश राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व सोलह प्रतिनिधियों द्वारा किया गया। अंग्रेजों द्वारा शासित भारत से 57 राजनीतिक नेताओं और रियासतों से 16 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। हालांकि, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और व्यापारिक नेताओं ने सम्मलेन में भाग नहीं लिया। उनमें से कई नेता सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भाग लेने के कारण जेल में थे।
जनवरी 1931 में गाँधी जी को जेल से रिहा किया गया। अगले ही महीने वायसराय के साथ उनकी कई लंबी बैठके हुईं। इन्हीं बैठकों के बाद गांधी-इरविन समझौते पर सहमति बनी जिसकी शर्तो में सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लेना, सारे कैदियों की रिहाई और तटीय इलाकों में नमक उत्पादन की अनुमति देना शामिल था। रैडिकल राष्ट्रवादियों ने इस समझौते की आलोचना की क्योंकि गाँधी जी वायसराय से भारतीयों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का आश्वासन हासिल नहीं कर पाए थे। गाँधी जी को इस संभावित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए केवल वार्ताओं का आश्वासन मिला था।
एक अखिल भारतीय महासंघ बनाने का विचार चर्चा का मुख्य बिंदु बना रहा। सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी समूहों ने इस अवधारणा का समर्थन किया। कार्यकारिणी सभा से व्यवस्थापिका सभा तक की जिम्मेदारियों पर चर्चा की गई और बी.आर. अम्बेडकर ने अछूत लोगों के लिए अलग से राजनीतिक प्रतिनिधि की मांग की।यह वास्तव मे दलितो के लिए उपहार था। उनको भी इस प्रकार अंदेखा नहीं किया जा सकता था।
दूसरा गोल मेज सम्मेलन 1931 के आखिर में लंदन में आयोजित हुआ। उसमें गाँधी जी कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे। गाँधी जी का कहना था कि उनकी पार्टी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है। इस दावे को तीन पार्टियों ने चुनौती दी। मुस्लिम लीग का कहना था कि वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है। राजे-रजवाड़ों का दावा था कि कांग्रेस का उनके नियंत्रण वाले भूभाग पर कोई अधिकार नहीं है। तीसरी चुनौती तेज-तर्रार वकील और विचारक बी आर अंबेडकर की तरफ़ से थी जिनका कहना था कि गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी निचली जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। लंदन में हुआ यह सम्मेलन किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सका इसलिए गाँधी जी को खाली हाथ लौटना पड़ा। भारत लौटने पर उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया।
नए वायसराय लॉर्ड विलिंग्डन को गाँधी जी से बिलकुल हमदर्दी नहीं थी। अपनी बहन को लिखे एक निजी खत में विलिंग्डन ने लिखा था कि-
बहरहाल, 1935 में नए गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट में सीमित प्रातिनिधिक शासन व्यवस्था का आश्वासन व्यक्त किया गया। दो साल बाद सीमित मताधिकार के आधिकार पर हुए चुनावों में कांग्रेस को जबर्दस्त सफ़लता मिली। 11 में से 8 प्रांतों में कांग्रेस के प्रतिनिधि सत्ता में आए जो ब्रिटिश गवर्नर की देखरेख में काम करते थे। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के सत्ता में आने के दो साल बाद, सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू, दोनों ही हिटलर व नात्सियों के कड़े आलोचक थे। तदनुरूप, उन्होंने फ़ैसला लिया कि अगर अंग्रेज युद्ध समाप्त होने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने पर राजी हों तो कांग्रेस उनके युद्द्ध प्रयासों में सहायता दे सकती है। सरकार ने उनका प्रस्ताव खारिज कर दिया। इसके विरोध में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने अक्टूबर 1939 में इस्तीफ़ा दे दिया।
पहले गोलमेज सम्मलेन से दूसरा गोलमेज सम्मेलन तीन प्रकार से भिन्न था। दूसरे सम्मलेन के प्रारम्भ होने तक:
सम्मेलन के दौरान, गांधीजी मुस्लिम प्रतिनिधित्व और सुरक्षा उपायों पर मुसलमानों के साथ कोई समझौता नहीं कर पाए। सम्मेलन के अंत में रामसे मैकडोनाल्ड ने अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के संबंध में एक सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा की और उसमें यह प्रावधान रखा गया कि राजनीतिक दलों के बीच किसी भी प्रकार के मुक्त समझौते को इस निर्णय के स्थान पर लागू किया जा सकता है।
गांधी ने अछूतों को हिन्दू समुदाय से अलग एक अल्पसंख्यक समुदाय का दर्ज़ा देने के मुद्दे का विशेष रूप से विरोध किया। उनका अछूतों के नेता बी.आर. अम्बेडकर के साथ इस मुद्दे पर विवाद हुआ। अंततः दोनों नेताओं ने इस समस्या का हल 1932 की पूना संधि द्वारा निकाला।
मार्च 1940 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के नाम से एक पृथक राष्ट्र की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया और उसे अपना लक्ष्य घोषित कर दिया। अब राजनीतिक भूदृश्य का्फ़ी जटिल हो गया था : अब यह संघर्ष भारतीय बनाम ब्रिटिश नहीं रह गया था। अब यह कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ब्रिटिश शासन, तीन धुरियों के बीच का संघर्ष था। इसी समय ब्रिटेन में एक सर्वदलीय सरकार सत्ता में थी जिसमें शामिल लेबर पार्टी के सदस्य भारतीय आकांक्षाओं के प्रति हमदर्दी का रवैया रखते थे लेकिन सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल कट्‌टर साम्राज्यवादी थे। उनका कहना था कि उन्हें सम्राट का सर्वोच्च मंत्री इसलिए नहीं नियुक्त किया गया है कि वह ब्रिटिश साम्राज्य को टुकड़े-टुकड़े कर दें।
1942 के वसंत में चर्चिल ने गाँधी जी और कांग्रेस के साथ समझौते का रास्ता निकालने के लिए अपने एक मंत्री सर स्टेप्फ़ार्ड क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स के साथ वार्ता में कांग्रेस ने इस बात पर जोर दिया कि अगर धुरी शक्तियों से भारत की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन कांग्रेस का समर्थन चाहता है तो वायसराय को सबसे पहले अपनी कार्यकारी परिषद् में किसी भारतीय को एक रक्षा सदस्य के रूप में नियुक्त करना चाहिए। इसी बात पर वार्ता टूट गई। जिस से कहीं राजनेतिक विचार बने।
तीसरा और अंतिम सत्र 17 नवम्बर 1932 को प्रारम्भ हुआ। मात्र 46 प्रतिनिधियों ने इस सम्मलेन में भाग लिया क्योंकि अधिकतर मुख्य भारतीय राजनीतिक प्रमुख इस सम्मलेन में मौजूद नहीं थे। ब्रिटेन की लेबर पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस सत्र में भाग लेने से इनकार कर दिया।
इस सम्मेलन में एक कॉलेज छात्र चौधरी रहमत अली ने विभाजित भारत के मुस्लिम भाग का नाम "पाकिस्तान" रखा। उसने पंजाब का 'पी' पंजाब, अफगान से 'ए', कश्मीर से 'कि', सिंध से "स" और बलूचिस्तान से "तान" लेकर यह शब्द बनाया। जिन्ना ने इस सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया।
सितंबर, 1931 से मार्च, 1933 तक, सैमुअल होअरे के पर्यवेक्षण में, प्रस्तावित सुधारों को लेकर प्रपत्र बनाया गया; जिसके आधार पर भारत सरकार का 1935 का अधिनियम बना।
दिक्-काल या स्पेस-टाइम की संकल्पना, अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा उनके सापेक्षता के सिद्धांत में दी गई थी| उनके अनुसार तीन दिशाओं की तरह, समय भी एक आयाम है और भौतिकी में इन्हें एक साथ चार आयामों के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि वास्तव में ब्रह्माण्ड की सभी चीज़ें इस चार-आयामी दिक्-काल में रहती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं जब भिन्न वस्तुओं को इन सभी-आयामों का अनुभव अलग-अलग प्रतीत हो।
दिक् और काल का संबध हमारे नित्य व्यवहार में इतना अधिक आता है कि इनके विषय में कुछ अधूरी सी किंतु दृढ़ धारणाएँ हमारे मन में बचपन से ही होना स्वाभाविक है। कवियों ने दिक्‌ और काल की गंभीर, विशाल तथा सुंदर कल्पनाओं का वर्णन किया है। दर्शन में और पाश्चात्य मनोविज्ञान में भी इनके विषय में पुरातन काल से सोच विचार होता आ रहा है। कणाद के वैशेषिक दर्शन में आकाश, दिक्‌ और काल की धारणाएँ सुस्पष्ट दी गई हैं और इनके गुणों का भी वर्णन किया गया है। इंद्रियजन्य अनुभवों से जो ज्ञान मिलता है उसमें दिक्‌ और काल का संबंध अवश्य ही होता है। इस ज्ञान की यदि वास्तविकता समझा जाए तो दिक्‌ और काल वस्तविकता से अलग नहीं हो सकते। प्रत्येक दार्शनिक संप्रदाय ने वस्तविकता, दिक्‌ और काल, इनके परस्पर संबंधों की अपनी अपनी धारणाएँ दी हैं, जिनमें ऐकमत्य नहीं है। गणित में भी दिक्‌ और काल का अप्रत्यक्ष रीति से संबंध आता है। अत: प्रतिष्ठित भौतिकी का विकास इन्हीं धारणाओं पर निर्भर रहा। भौतिकी के कुछ प्रायोगिक फल जब इन धारणाओं से विसंगत दिखाई देने लगे, तब ये धारणाएँ विचलित होने लगीं एवं आपेक्षितावाद ने दिक्‌ और काल का नया स्वरूप स्थापित किया, जो अनेक प्रयोगों द्वारा प्रमाणित और फलत: अब सर्वसम्मत हो चुका है। दिक्‌ तथा काल का यह नया स्वरूप केवल भिन्न ही नहीं वरन्‌ समझने में भी अत्यंत कठिन है, क्योंकि इसके प्रतिपादन में विशिष्ट गणित का उपयोग आवश्यक होता है। अत: जहाँ-जहाँ दिक्‌ तथा काल संबंध आता है उसका स्पष्टीकरण पहले स्थूल दृष्टि से, तत्पश्चात्‌ सूक्ष्म दृष्टि से और अंत में भौतिकी की दृष्टि से करना अधिक सरल होगा।
इंद्रियजन्य अनुभवों से जो दिक्‌ के गुणों का प्रत्यय आता है, उससे दिक्‌ के विभिन्न प्रकार माने जा सकते हैं। अनुभवों के बुद्धि पर जो परिणाम होते हैं उनका पृथक्करण करके धारणाएँ बनती हैं। इस प्रकार स्वानुभव से दिक्‌ की जो धारणा बनती है उसे "स्व-दिक्‌' अथवा "व्यक्तिगत दिक्‌' कहा जाता है। इंद्रियजन्य अनुभवों में अनेक अनुभव समस्त व्यक्तियों के लिए समान होते हैं और ऐसे अनुभव जिस घटना से मिलते हैं, उसे "वास्तव' कहा जाता है। वास्तव घटनाओं के समुदायों से "वास्तविकता' की धारणा बनती है। इंद्रियों से दृष्टि, स्पर्श, ध्वनि, रस और गंध के अनुभव मिलते हैं, किंतु ये अनुभव सर्वदा विश्वास के योग्य होते हैं, ऐसा नहीं है। प्रकाशकीय संभ्रम तो सुप्रसिद्ध हैं ही। स्पर्श के भी संभ्रम व्यवहार में नित्य प्रतीत होते हैं, जैसे दो दाँतों के बीच की खोह जीभ को जितनी लगती है उससे कम छोटी उँगली को लगती है। प्राय: ऐसा ही प्रकार सब तरह के इंद्रियजन्य अनुभवों का होता है। अत: इन अपूर्ण अनुभवों से व्यक्तिगत दिक्‌ की जो धारणा बनती है वह भ्रममूलक ही होती है। मापनदंड तथा अन्य उचित यंत्रों की सहायता से इंद्रियों की मर्यादित ग्राहकता बढ़ाई जा सकती है और इस प्रकार अनेक घटनाओं का भ्रमनिरसन हो सकता है। प्रयोगों में मापन करके दिक्‌ की जो धारणा होती है उसे "भौतिक दिक्‌ कहा जाता है। मापन के लिए मापनदंड का उपयोग किया जाता है।
अनुभवों में दिक्‌ का संबंध चार प्रकार से आता है और इन चारों प्रकारों पर विचार करके दिक्‌ के गुणों की व्यावहारिक कल्पनाएँ बनती हैं। किसी वस्तु के स्थल का निर्देश जब वहाँ कहकर किया जाता है, तब दिक्‌ के एक स्वरूप की कल्पना आती है और इसका अर्थ यह भी माना जाता है कि दिक्‌ का अस्तित्व स्वतंत्र है। किसी वस्तु के स्थल का निर्देश अन्य वस्तु के "सापेक्ष' करने पर दिक्‌ की "सापेक्ष स्थिति' में दूसरा स्वरूप दिखई देता है। दिक्‌ का तीसरा स्वरूप वस्तुओं के "आकार' से मिलता है, जिससे दिक्‌ की विभाज्यता की भी कल्पना की जा सकती है। आकाश की ओर देखने से दिक्‌ की "विशालता' का चौथा स्वरूप दिखाई देता है। इन चार प्रकार के स्वरूपों से ही प्राय: दिक्‌ के संबध में व्यावहारिक धारणाएँ बनती हैं और दिक्‌ के गुण भी सूचित होते हैं।
घटनाओं से प्राप्त इंद्रियजन्य अनुभवों का विचर किया जाए तो उनके दो प्रकार होते हैं। घटनाओं के स्थानभेद से दिक्‌ की कल्पना होती है और उनके क्रम-भेद से काल की कल्पना होती है। इस प्रकार दिक्‌ और काल हमारी विचारधारा में संदिग्ध रूप से प्रवेश करते हैं। दिक्‌ जैसा ही काल भी व्यक्तिगत होता है और प्रत्येक व्यक्ति की कालगणना स्वतंत्र तथा स्वेच्छ होती है। इतना ही नहीं, इस स्व-काल की गणना में भी परिवर्तन होता है और वह व्यक्ति के स्वास्थ्य, अवस्था इत्यादि स्थितियों पर निर्भर करता है, जैसे, किसी कार्य में मनुष्य मग्न हो तो काल तेजी से कटता है। अत: व्यक्तिगत अथवा स्व-काल विश्वास योग्य नहीं रहता। किसी प्राकृतिक घटना से - दिन और रात से - जो काल का मापन होगा वह व्यक्तिगत नहीं रहेगा और सब लोगों के लिए समान होगा। अत: ऐसे काल को सार्वजनिक काल कहा जाता है। दिन और रात काल के स्थूल विभाग हैं। इनके छोटे विभाग किए जाएँ तो व्यवहार में कालमापन के लिए वे अधिक उपयुक्त होते हैं। इसलिए प्रहर, घटिका, पल विपल अथवा घंटा, मिनट, सेकंड इत्यादि विभाग किए गए। सामान्यत: काल का मापन घड़ी से होता है।
दिक्‌ की भाँति काल के भी चार स्वरूप व्यवहार में दिखाई देते हैं। किसी घटना अथवा अनुभव से "कब?' प्रश्न उपस्थित होता है और इसका दिक्‌ विषयक "कहाँ' से साम्य है। इस कल्पना से काल का अस्तित्व स्वतंत्र समझा जाता है। किसी घटना के काल के सापेक्ष दूसरी घटना का वर्णन करते समय काल का सापेक्ष स्वरूप दिखाई देता है। दो घटनाओं के बीच के काल से काल का जो स्वरूप दिखाई देता है वह दिक्‌ के आकार से समान है। वैसे ही काल के अनादि, अनंत इत्यादि विशेषणों से काल की विशालता दिखाई दती है। दिक्‌ तथा काल के चारों स्वरूपों को, या गुणों को कहिए, मिलाकर विचार करने पर इनके विषय में हमारी जो धारणाएँ बनती हैं उनको "स्व' या "व्यक्तिगत' अथवा "मनोवैज्ञानिक' दिक्‌ और काल कहा जाता है।
दिक्‌ तथा काल की धारणाओं को निश्चित रूप देने के लिए उनका मापन करने के साधन आवश्यक होते हैं। दिक्‌ के मापन के लिए दृढ़ पदार्थों के दंड, औजार तथा यंत्र उपयोग में लाए जाते हैं। इन उपकरणों से लंबाई, कोण, क्षेत्रफल, आयतन इत्यादि वस्तुओं के गुणों के मापन होते है। इन मापनों के समय बिंदु, रेखा, समतल इत्यादि की धारणाएँ बनती जाती हैं। जब अनेक पुनरावृत्तियों से ये धारणाएँ दृढ़ हो जाती हैं, तब बिंदु, रेखा, समतल इत्यादि का स्थान मौलिक होता है और भौतिक वस्तुएँ इन धारणाओं से दूर हो जाती हैं। अब इन धारणाओं की और यूक्लिडीय ज्यामिति की मौलिक धारणाओं की समानता स्पष्ट होगी। दृढ़ वस्तुओं को समाविष्ट करके दिक्‌ के, अथवा वस्तुओं के, मापन से दिक्‌ की जो धारणा होती है उसे ज्यामितीय अथवा यूक्लिडीय दिक्‌ कहा जाता है। यह स्पष्ट है कि दिक्‌ की इस धारणा से उसके जो गुण समझे जाते हैं वे केवल यूक्लिडीय ज्यामिति की परिभाषाओं, स्वयंसिद्ध और कल्पनाओं के ऊपर ही निर्भर होते हैं। दिक्‌ की हमारी व्यावहारिक धारणा और मापन से निश्चित की हुई यह ज्यामितीय धारणा, क्रमश: हमारी स्थूल दृष्टि और सूक्ष्म दृष्टि के स्वरूप हैं।
यूक्लिडीय ज्यामिति पर निर्धारित दिक्‌ की यह धारणा यद्यपि स्वाभाविक दिखाई देती होगी, तथापि इसका विश्लेषण करने की आवश्यता है। यूक्लिडीय ज्यामिति में कुछ परिभाषाएँ तथा कुछ स्वयंसिद्ध तथ्य दिए हुए हैं और इनका तार्किक दृष्टि से विकास किया गया है। ये धारणाएँ केवल काल्पनिक और स्वतंत्र हैं। थोड़ा ही विचार करने पर यह स्पष्ट होगा कि यूक्लिडीय ज्यामिति का व्यवहार की वस्तुओं से कोई भी वास्तविक संबंध नहीं है। अपनी मूल कल्पनाओं को विकसित करते समय उनका परस्पर तर्कसंगत संबंध रखना और एक "काल्पनिक' गणित शास्त्र का निर्मांण करना, इतना ही इस ज्यामिति का मूल उद्देश्य था। इस उद्देश्य में यह ज्यामिति अत्यंत ही सफल रही। इस ज्यामिति का और भी विस्तार करके उसे "व्यावहारिक' बनाने के लिए "आदर्श दृढ़ वस्तु' की परिभाषा यह है कि इसके दो बिंदुओं का अंतर किसी भी परिस्थिति में उतना ही रहता है। मापन दंड अथवा अन्य औजारों का उपयोग इसी विशेषता पर निर्भर करता है। वस्तुत: इस प्रकार "आदर्श दृढ़ वस्तु' को समाविष्ट करने पर यूक्लिडीय ज्यामिति का स्वरूप बदल जाता है और उसको अब हम भौतिकी का एक विभाग समझ सकते हैं। किंतु व्यवहार में यूक्लिडीय ज्यामिति का यह परिवर्तन इस दृष्टि से नहीं देखा जाता। मापन करने पर व्यावहारिक वस्तुओं के मापन के लिए यूक्लिडीय ज्यामिति के सिद्धांत यथार्थ दिखाई देते हैं। इसलिए यूक्लिडीय ज्यामिति को "वास्तविक' समझा जाने लगा।
व्यावहारिक अनुभव और यूक्लिडीय ज्यामिति का दृष्टि से न्यूटन ने अपनी दिक्‌ और काल की धारणाएँ निश्चित रूप से प्रस्तुत की और प्रतिष्ठित भौतिकी का विकास प्राय: वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ तक इन्हीं धारणाओं पर निर्भर रहा। न्यूटन ने दिक्‌ को स्वतंत्र सत्ता समझकर उसके गुण भी दिए। न्यूटन के अनुसार दिक्‌ के गुण सर्व दिशाओं में तथा सर्व बिंदुओं पर समान ही होते हैं, अर्थात्‌ दिक्‌ समदिक्‌, समांग तथा एक समान है। अत: पदार्थों के गुण दिक्‌ में सभी स्थानों पर समान ही होते हैं। दिक्‌ अनंत है और न्यूटन के दिक्‌ में लंबाई, काल तथा गति से अबाधित रहती है। काल के विषय में भी न्यूटन ने अपनी धारणा दी है और यह धारणा भी उस समय के भौतिकी के विकास के अनुसार ही थी। न्यूटन के अनुसार काल भी एक स्वतंत्र सत्ता है। काल का विशेष गुण यह है कि वह समान गति से सतत और सर्वत्र "बहता' है और किसी भी परिस्थिति का उसके ऊपर कोई भी परिणाम नहीं होता। काल भी अनंत है। सारांश में, न्यूटन के अनुसार दिक्‌ तथा काल दोनों ही स्वतंत्र और निरपेक्ष सत्ताएँ होती हैं। न्यूटन आदि की यांत्रिकी इन्हीं धारणाओं पर निर्भर थी। यांत्रिकी में गति और त्वरण, इन दोनों के लिए दिक्‌ और काल को निश्चित रूप देना आवश्यक था और उस समय तो इन धारणाओं में कोई भी त्रुटि दिखाई नहीं देती थी। वैसे ही भौतिकी में न्यूटन का इतना प्रभाव था कि इन धारणाओं पर शंका प्रदर्शित करना संभव नहीं था।
बोल्याई, लोबातचेवस्की, रीमान इत्यादि गणितज्ञों ने यह सिद्ध किया कि यूक्लिडीय ज्यामिति के कुछ स्वयंतथ्यों में उचित परिवर्तन करने पर अयूक्लिडीय ज्यामितियों का निर्माण हो सकता है। यद्यपि अयूक्लिडीय ज्यामितियों के अनेक सिद्धांत यूक्लिडीय ज्यामिति के सिद्धांतों से भिन्न होते हैं, तथापि वे अयोग्य नहीं होते हैं। विशेषत: रीमान के अयूक्लिडीय ज्यामिति से यह स्पष्ट हुआ कि यूक्लिडीय ज्यामिति ही केवल मौलिक नहीं है। यद्यपि अयूक्लिडीय ज्यामितियाँ कल्पना करने में कठिन होती हैं, तथापि तर्कसम्मत होने से उनके फल अत्यंत रोचक तथा उपयुक्त होते हैं। इनमें तीन से अधिक विमितियों के दिक्‌ की जो कल्पना होती है, उस दिक्‌ की वक्रता की कल्पना विशेष रूप से उपयुक्त हुई।
क्व भूतं क्व भविष्यद् वा वर्तमानमपि क्व वा | क्व देशः क्व च वा नित्यं स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ||19- 3||
देशकालविमुक्तोअस्मि दिगम्बरसुखोअस्म्यहम्| नास्ति नास्ति विमुक्तोअस्मि नकाररहितोअस्म्यहम् ||
गर्भनिरोध को जन्म नियंत्रण और प्रजनन क्षमता नियंत्रण के नाम से भी जाना है ये गर्भधारण को रोकने के लिए विधियां या उपकरण हैं। जन्म नियंत्रण की योजना, प्रावधान और उपयोग को परिवार नियोजन कहा जाता है। सुरक्षित यौन संबंध, जैसे पुरुष या महिला निरोध का उपयोग भीयौन संचरित संक्रमण को रोकने में भी मदद कर सकता है। जन्म नियंत्रण विधियों का इस्तेमाल प्राचीन काल से किया जा रहा है, लेकिन प्रभावी और सुरक्षित तरीके केवल 20 वीं शताब्दी में उपलब्ध हुए। कुछ संस्कृतियां जान-बूझकर गर्भनिरोधक का उपयोग सीमित कर देती हैं क्योंकि वे इसे नैतिक या राजनीतिक रूप से अनुपयुक्त मानती हैं।
जन्म नियंत्रण की प्रभावशाली विधियां पुरूषों मेंपुरूष नसबंदी के माध्यम से नसबंदी और महिलाओं में ट्यूबल लिंगेशन, अंतर्गर्भाशयी युक्ति और प्रत्यारोपण योग्य गर्भ निरोधकहैं।इसे मौखिक गोलियों, पैचों, योनिक रिंग और इंजेक्शनों सहित अनेकोंहार्मोनल गर्भनिरोधकोंद्वारा इसे अपनाया जाता है। कम प्रभावी विधियों में बाधा जैसे कि निरोध, डायाफ्रामऔर गर्भनिरोधक स्पंज और प्रजनन जागरूकता विधियां शामिल हैं। बहुत कम प्रभावी विधियां स्पर्मीसाइडऔर स्खलन से पहले निकासी। नसबंदी के अत्यधिक प्रभावी होने पर भी यह आम तौर पर प्रतिवर्ती नहीं है; बाकी सभी तरीके प्रतिवर्ती हैं, उन्हें जल्दी से रोका जा सकता हैं। आपातकालीन जन्म नियंत्रण असुरक्षित यौन संबंधों के कुछ दिन बाद की गर्भावस्था से बचा सकता है। नए मामलों में जन्म नियंत्रण के रूप में यौन संबंध से परहेज लेकिन जब इसे गर्भनिरोध शिक्षा के बिना दिया जाता है तो यहकेवल-परहेज़ यौन शिक्षा किशोरियों में गर्भावस्थाएँ बढ़ा सकती है।
किशोरोंमें गर्भावस्था में खराब नतीजों के खतरे होते हैं। व्यापक यौन शिक्षा और जन्म नियंत्रण विधियों का प्रयोग इस आयु समूह में अनचाही गर्भावस्थाओं को कम करता है। जबकि जन्म नियंत्रण के सभी रूपों युवा लोगों द्वारा प्रयोग किया जा सकता है, दीर्घकालीन क्रियाशील प्रतिवर्ती जन्म नियंत्रण जैसे प्रत्यारोपण, आईयूडी, या योनि रिंग्स का किशोर गर्भावस्था की दरों को कम करने में विशेष रूप से फायदा मिलता हैं। प्रसव के बाद, एक औरत जो विशेष रूप से स्तनपान नहीं करवा रही है, वह चार से छह सप्ताह के भीतर दोबारा गर्भवती हो सकती है। जन्म नियंत्रण की कुछ विधियों को जन्म के तुरंत बाद शुरू किया जा सकता है, जबकि अन्य के लिए छह महीनों तक की देरी जरूरी होती है। केवल स्तनपान करवाने वाली प्रोजैस्टिन महिलाओं में ही संयुक्त मौखिक गर्भनिरोधकों के प्रयोग को ज्यादा पसंद किया जाता हैं। वे सहिलाएं जिन्हे रजोनिवृत्ति हो गई है, उन्हे अंतिम मासिक धर्म से लगातार एक साल तक जन्म नियंत्रण विधियां अपनाने की सिफारिश की जाती है।
विकासशील देशों में लगभग 222 मिलियन महिलाएं ऐसी हैं जो गर्भावस्था से बचना चाहती हैं लेकिन आधुनिक जन्म नियंत्रण विधि का प्रयोग नहीं कर रही हैं। विकासशील देशों में गर्भनिरोध के प्रयोग से मातृत्व मृत्यु में 40% की कमी आयी है और यदि गर्भनिरोध की मांग को पूरा किया जाए तो 70% तक मौतों को रोका जा सकता है। गर्भधारण के बीच लम्बी अवधि से जन्म नियंत्रण व्यस्क महिलाओं के प्रसव के परिणामों और उनके बच्चों उत्तरजीविता में सुधार करेगा। जन्म नियंत्रण के ज्यादा से ज्यादा उपयोग से विकासशील देशों में महिलाओं की आय, संपत्तियों, वजन और उनके बच्चों की स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सभी में सुधार होगा। कम आश्रित बच्चों, कार्य में महिलाओं की ज्यादा भागीदारी और दुर्लभ संसाधनों की कम खपत के कारण जन्म नियंत्रण, आर्थिक विकास को बढ़ाता है।