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अगले साल ख़ान की दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं, चलते चलते और कल हो ना हो। चलते चलते एक औसत हिट साबित हुई लेकिन कल हो ना हो, जो की करण जोहर की तीसरी फ़िल्म थी, राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही बाज़ारों में काफ़ी कामियाब रही। इस फ़िल्म में ख़ान ने एक दिल के मरीज़ का किरदार निभाया जो मरने से पहले अपने चारों ओर खुशियाँ फैलाना चाहता है और इस अदाकारी के लिये उन्हें सरहाया भी गया।
2004 ख़ान के लिये एक और महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस साल की उनकी पहली फ़िल्म थी फ़राह ख़ान निर्देशित मैं हूँ ना, जो ख़ान द्वारा सह-निर्मित भी थी। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर एक बड़ी हिट सिद्ध हुई। उनकी अगली फ़िल्म थी यश चोपड़ा कृत वीर-ज़ारा, जो उस साल की सबसे कामयाब फ़िल्म थी और जिसमे ख़ान को अपने अभिनय के लिये कई अवार्ड और बहुत प्रशंसा मिली। उनकी तीसरी फ़िल्म थी आशुतोष गोवारिकर निर्देशित स्वदेश, जो दर्शकों को सिनेमा-घरों में लाने में तोह सफल ना हो सकी लेकिन उसमें ख़ान के भारत लौटे एक अप्रवासी भारतीय की भूमिका को सरहाया गया और ख़ान ने अपना छठवाँ फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार जीता।
सन 2005 में उनकी एकमात्र फ़िल्म पहेली बॉक्स ऑफिस पर असफल रही हाला की उसमे ख़ान के अभिनय को सरहाया गया| 2006 में ख़ान एक बार फिर करण जोहर की फ़िल्म कभी अलविदा ना कहना में देखे गये जो एक अतिनाटकीय फ़िल्म थी। इस फ़िल्म ने भारत में तोह सफलता प्राप्त की ही, साथ ही साथ यह विदेश में सबसे सफल हिन्दी फ़िल्म भी बन गई। उस ही वर्ष ख़ान ने 1978 की हिट फ़िल्म डॉन की रीमेक डॉन में भी अभिनय किया जो एक बड़ी हिट सिद्ध हुई।
2007 में ख़ान की दो फिल्में आई है - चक दे! इंडिया और ']। चक दे! इंडिया में ख़ान भारतीय महिला हॉकी टीम के कोच के किरदार में नज़र आते हैं जिनका लक्ष्य है भारत को विश्व कप दिलवाना। इस किरदार की लिये ख़ान को समीक्षकों से तोह खासी प्रशंसा मिली ही है साथ ही साथ यह फ़िल्म एक विशाल हिट भी सिद्ध हुई है। 2007 की दूसरी फ़िल्म ओम शांति ओम में भी नज़र आए ये फराह ख़ान की शाहरुख़ ख़ान के साथ दूसरी फ़िल्म है। इसमें ख़ान ने दोहरी भूमिका निभाई। पहला किरदार ओम एक जूनियर कलाकार है और एक हादसे में मारा जाता है और दूसरा एक नामी अभिनेता ओम कपूर है। ये फ़िल्म भी 2007 की एक सफल फ़िल्म थी।
'चार्ली' शर्मा
काली
तलियार ख़ान
'जुग'ख़ान
द बीटल्स 1960 का एक अन्ग्रेज़ी रॉक बैन्ड था जिसका निर्माण लिवरपूल में किया गया था। जॉन लेनन, पॉल मेकारटनि, जोर्ज हैरिसन और रिंगो स्टार के साथ वे व्यापक प्रभावशाली कलाकार के रूप मे माने जाते है।1950 के दशक के रॉक एन्ड ऱोल के शैलि मे शुरु किया था और उस्के बाद बीटल्स ने कई सारे शैलियों के साथ प्रयोग किया। पॉप गाथगीत से साइकेडेलिक् रॉक को लेकर वह अक्सर शास्त्रीय ततवो को अपनाकर, अभिनव तारीके से इन ततवो को अपने संगीत मे शामिल करते।
1960 के काल मे बीटल्स को बहुत लोकप्रियता मिलि। जब वह "बीटलमेनिया" के रूप मे उभरे। लेकिन जैसे उन्के गीत लेखन कि व्रिधि हुइ वे सामाजिक और सांस्कृतिक क्रितियो के द्वारा अपने आदर्शें के अवतार के रूप से माना जाने लगे।1960 मे सथापित हुए बीटल्स ने अप्नि ख्याति लिवरपूल और हैम्बर्ग मे कल्ब खोल्कर तीन साल कि अवधि मे लोकप्रियताअर्जित कि। प्रबन्धक बरायन एप्स्तटाईण एक पेशवर अधिनियम मे डाला और निर्माता जार्ज मार्टीन उन्के संगीत की क्शम्ता बडाई। 1962 मे "लव मी डू: उन्का पहला हिट होने के बाद ब्रिटेन मे प्रसिधि हासिल की। वे "बीटल्मैनिया" के नाम से माने जाने लगे।
वह उप्नाम "फैब फोर" के रूप से माने जाने लगे। जल्दि 1964 मे प्रमुख अन्तरासश्ट्ऱीय सितारे बन गए जो अमेरिका पॉप बाज़ार के "ब्रिटीश आक्रमण" के संयुक्त बने। पर 1प65 से बीटल्स कई प्रभावशालि एल्बम बनाए जैसे रबर सोल, रिवाल्वर, सार्जिट पेपर्स लोनली हार्टस कल्ब बैन्ड, द बीटल्स और अभय रोड । 1970 मे उन्के टूट्ने के बाद वे एकल वयवसाय का आनन्द लिया। लेनन को दिसम्बर 1980 मे गोलि मार दिया गया और हैरिसन को नवम्बर 2011 मे फेफड़ों के कैनसर के कारण म्र्त्यु हो गई। मेकारटनि और स्टार, बाकी सदस्य अपने संगीत को जारि रखा।
RIAA के अनुसार बीटल्स प्रमाणीत इकाइयो के साथ, सयुन्क्त रज्य अमेरिका मे सब्से ज़्यादा बिक्ने वाला बैन्ड था। वे ब्रिटिश चार्ट पर अधिक सन्ख्या मे सबसे अवल एलब्म था। 2008 मे समुह के सबसे सफल "हाट 100" कलाकारो मे बिलबोर्ड पत्रिका की सूची मे सबसे उपर रहे। 2014 के रूप मे वे सबसे अधिक सन्ख्या मे एक 20 के साथ हाट 100 चार्ट पर रेकार्ड पकडा रखा। वे दस ग्रैमी पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ मूल स्कोर के लिए एक अकादमि पुरस्कार और 15 इवोर नोवेलो पुरस्कार प्राप्त किए है।सामुस्टोनहिक रूप से 20वी सदि के 100 सबसे प्रभाव्शालि लोगो की टाइम पत्रिका के सन्कलन मे शामिल है। वे EMI रिकार्ड्स मे अरसे से ज़्यादा इकाइयों की बिक्री के आकलन के साथ मे इतिहास मे अधिक बिकने वाला बैन्ड है। 2004 मे रोलिंग स्टोन सभी समय के महान्तम कलाकार के रूप मे बीटल्स स्थान पर रहे।
प्रभाव्
बीटल्स के सबसे पहले प्रभाव है एल्विस प्रैसलि, कार्ल पार्किन्स, लिटिल रिचर्ड और चक बैरी है। 1962 मे जब् बीटल्स लिटिल रिचर्ड के साथ स्टार कल्ब, हैमबर्ग, अप्रैल से मई मे उन्होने सलाह दी कि वह अपने गीत के लिये उचित प्रविधि का प्रदर्शन करे। प्रेस्ली के लिये लेनन ने कहा "मैने जब तक एल्विस को सुना, तब तक मुझे वास्तव मे कुछ भि प्रभावित न हिआ, अगर एलिस न होता तो बीटल्स भी न होता।"
अन्य प्रारम्भिक प्रभाव थे जैसे कि बडि होली, एडी कोकरान, रॉय और्बिसन और एवर्लि ब्रदर्स थे। वह अक्सर बॉब डिलन और फ्रैन्क ज़ैपा के गीत सहित को सुन्ने के द्वरा नए संगीत गाते और गीतात्मक रास्ते खोजने लगते। हैरिसन ने 1966, भारत मे 6 सप्ताह के समय के लिये रवि शनकर के साथ अध्ययन किया था। बैन्ड के बाद के वर्षों के दौरान उनके संगीत मे रवि शनकर के विकास का महत्व्पूर्ण प्रभाव था।
"ऱोल्लिङ स्टोनेस" नामक पत्रिक के पूर्व एसोसिएट एडीटर ने बीटल्स की तुलना पिकास्सो से की, जो "कलाकार अपने समय के दबाव तोड्कर कुछ नयी कला को प्राप्त किया जो अद्वितीय और मूल था। लोकप्रिय संगीत के प्रपत्र में कोई भी इत्ना क्रान्तिकारी, इत्ना रच्नात्मक, इत्ना विशिष्ट नही हो सक्ता।" अमेरिका के खिलाफ अन्ग्ग्रेज़ी आक्रमण रचाने के साथ साथ वे विश्व स्तर पर प्रभावशाली घटना बन गये थे।
उन्के संगीत नवाचारों और व्यावसायिक सफलता ने दुनिया के कई संगीतकारों को प्रेरणा दी। कई कलाकारों ने बीटल्स के प्रभाव को स्वीकार किया है और बीटल्स से लिये गये उन्के संगीत को सफल्ता मिली है। रडियो पर उन्के आगमन ने एक नया युग स्थापित किया; 1986 में न्यू योर्क के "WABC" रेडियो स्टेशन के प्रोग्रामिंग निदेशक ने अपने रडियो को कोई भी बीटल्स के पेहले का संगीत बजाने से मना कर दिया था। वे आधूनिक संगीत के प्राथमिक नवीन आविष्कारों कहलाये जाते थे। "द शिया स्टेडिअम शो" में लगभग 55600 लोग आये, जिस्से उन्होने अप्ना 1965 का नोर्थ अमेरिका संगीत यात्रा को शुरु किया, जो उस समय का सब्से बडा संगीत कार्यक्रम माना गया; स्पिट्ज़ इस घटना को इस तरह से वर्णन करते हैं - "यह बडी सफलता है। इसे संगीत कार्यक्रम के व्यापार में एक बडा कदम है।" उनके वस्त्र और ज़्यादातर उन्के केश्विन्यास का अनुकरण, जो विद्रोह का एक निशान बन गया, ने वैश्विक फैशन को प्रभावित किया, ऐसा गोल्ड ने कहा।
गोल्ड के अनुसार, बीटल्स ने लोगों के संगीत का मज़ा लेने क तरीका बदल दिया था और इन लोगों ने अपने जीवन में बीटाल्स की भूमिका का अनुभाव किया। जो "बीटलमेनिया" से शुरु हुअ था, इस समुह की लोकप्रीयता धीरे धीरे दशक की सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों का अवतार बन गयी। 1960 के जवाबी संस्कृति के आइकॉन होने की वजह से वे बोहेमियनिस्म और सक्रियता जैसे अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में उत्प्रेरक माने जाते थे और महिला मुक्ति, समलैंगिक मुक्ति और पर्यावरणवाद के मामलो में उन्होने अप्न हाथ बढाया। पीटर लवेज़्ज़ोलि के अनुसार, 1966 के "यीशु से ज़्यादा लोकप्रीय" विवाद के बाद, बीटल्स को यह सहि लगा कि उन्हे सही चीज़े कहिनी चाहिये और वे ज्ञान का संदेश और उच्च चेतना फैलाने का प्रयोग करने लगे।
1965 में, रानी एलिज़बेथ 2 ने लेनन, मेकारटनि, हैरिसन और स्टार को "मेम्बर्स ऑफ़ द ऑर्डेर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पाइर" में नियुक्त किया। "लेट इट बी" नामक चलचित्र को 1971 अकादमी पुरस्कार "बेस्ट ओरिजिनल सांग स्कोर" से सम्मनित किया गया था। 7 ग्राम्मी पुरस्कार और 15 ईवोर नोवेल्लो पुरस्कार के विजेता, बीटल्स को 6 डाइमन्ड एलबम, 24 मल्टि प्मेटिनम एलबम, 39 प्मेटिनम एलबम और 45 गोल्ड एलबम से अमेरिका में सम्मानित किया गया है। इंग्लैंड में, बीटल्स के नाम 4 मल्टि प्मेटिनम एलबम, 4 प्मेटिनम एलबम, 8 गोल्ड एलबम और 1 सिल्वर एलबम हैं। 1988 में उन्हे "रॉक एंड रोल हॉल ऑफ फेम" में शामिल किया गया था।
इतिहास के सबसे सर्वश्रेष्ठ विक्रय बैन्ड, बीटल्स ने 60 करोड और 100 करोड से अधिक इकाइयों को बेचा है। उन्के पास दुनिया के दूसरे बैन्ड से ज़्यादा नुम्बर एक एलबम ब्रिटिश चार्ट्स पर हैं और इंग्लैंड में 2 करोड से ज़्यादा गानो को बेचा है। 2004 में, "रोल्लिन्ग स्टोन" नामक पत्रिका ने बीटल्स को दुनिया के सबसे सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पद सौंपा। "टाइम" पत्रिका के "20 सदी के 100 प्रमुख प्रभावशाली लोग" के भाग में बीटल्स को सामुहिक रूप मे शामिल किया गया था। 2014 में उन्हें "ग्राम्मी लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार" से सम्मनित किया गया था।
कंकनी या टेनोफोरा अपृष्ठवंशी जंतुओं का एक छोटा संघ है जो कुछ ही समय पहले तक आंतरगुही समुदाय से घनिष्ठ संबंध के कारण उसी के उपसमुदाय के अंतर्गत रखा जाता था। इसके सभी सदस्य समुद्री स्वतंत्रजीवी, स्वतंत्र रूप से तैरनेवाले तथा बहुत ही पारदर्शी होते हैं। ये बहुविस्तृत हैं और उष्ण भागों में बहुतायत से पाए जाते हैं।
इनको सामन्यत: 'समुद्री अखरोट' या 'कंकत-गिजगिजिया' कहते हैं। पहला नाम आकार के कारण तथा दूसरा उसके पारदर्शी तथा कोमल होने और उनपर कंकत जैसे चलांगों के कारण है। ये 'कंघियाँ' शरीर पर लाक्षणिक रूप से आठ पंक्तियों में स्थित होती हैं। कुछ जातियाँ फीते जैसी चपटी भी होती हैं, जैस 'रति-वलय', जिसकी लंबाई 6 इंच से लेकर 4 फुट तक होती है।
इस समुदाय के साधारण लक्षण निम्नलिखित हैं :
1. शरीर के द्विअरीय विधि से उदग्र अक्ष पर संमित होता है;
2. शरीर के निर्माण में दो मुख्य स्तरों–बहिर्जनस्तर तथा अंतर्जनस्तर का होना, किंतु साथ ही इनके बीच में बहुविकसित मध्यश्लेष का स्तर होना, जिसमें अनेक कोशिकाएँ होती हैं। इन कोशिकाओं का पृथक्करण बहुत प्रारंभिक अवस्था में हो जाता है जिससे इसको अधिकांश लेखक एक अलग स्तर मध्यचर्म मानते हैं। इस प्रकार कंकनी समुदाय त्रिस्तरीय कहा जा सकता है। मध्यचर्म की कोशिकाओं से पेशीय कोशिकाएँ बनती हैं।
3. समुदाय में शरीर विखंडित नहीं होता।
4. शरीर बहुत कुछ गोलाकार या लंबी नाशपाती जैसा होता हैं, किंतु कुछ सदस्य चपटे भी होते हैं। शरीर के ऊपरी तल पर पक्ष्म-कोशिकाओं से बनी 'कंघियों' की आठ पंक्तियाँ होती हैं। ये ही इन जीवों के चलांग हैं।
5. सुच्यंग अथवा डंक सर्वथा अनुपस्थित रहते हैं।
6. पाचक अंगों के अंतर्गत मुख, 'ग्रसनी', आमाशय तथा शाखित नलिकाएँ रहती हैं।
7. स्नायु संस्थान आंतरगुही की भाँति फैला हुआ और जाल जैसा तथा मुख की विपरीत दिशा में स्थित्यंग नामक संवेदांग की उपस्थिति होती है।
8. ये जीव द्विलिंगी होते हैं; जननकोशिकाओं का निर्माण अंतर्जनस्तर से, कंकनीपंक्तियों के नीचे, होता है।
9. परिवर्धन सरल तथा बिना किसी डिंभ की अवस्था और पीढ़ियों के एकांतरण से होता है।
इसके अतिरिक्त अधिकांश कंकनियों में दो ठोस, लंबी स्पर्शिकाएँ होती हैं, जो प्रत्येक पार्श्व में स्थित एक अंधी थैली से निकलती हैं। इन स्पर्शिकाओं पर कुछ विचित्र कोशिकाएँ होती हैं जिनको कॉलोब्लास्ट कहते हैं। प्रत्येक कॉलोब्लास्ट से एक प्रकार का लसदार द्रव निकलता है और इसमें कुंतलित कमानी के आकार की एक संकोची धागे जैसी रचना होती है, जो शिकार से लिपट जाती है और उसे पकड़ने में सहायक होती है।
कंकनी की संरचना का कुछ ज्ञान पार्श्वक्लोम के संक्षिप्त वर्णन से हो जाएगा। यह प्राय: गोल होता है और इसका व्यास लगभग 3/4 इंच होता है। इसका मुख एक ओर स्थित होता है तथा उपलकोष्ठ मुख की विपरीत दिशा में रहता है। इन दो ध्रुवों के बीच, एक दूसरे से लगभग बराबर दूरी पर, आठ कंकनी पंक्तियाँ होती हैं। प्रत्येक पंक्तियाँ सामान्य धरातल से कुछ ऊपर उठी हुई होती है और प्रत्येक का निर्माण अनेक बेड़ी, कंघी जैसी रचना से होता है। अंत में प्रत्येक कंघी स्वयं अनेक जुड़े हुए रोमाभ से बनती है। इन रोमाभों की गति में सामंजस्य होने से जंतु में गति होती है और वह मुख को आगे की ओर रखकर चलनक्रिया करते हैं। स्थित्यंग की ओर दो अंधी थैलियों में से प्रत्येक से एक अंगक निकलता है जो बहुधा छह इंच लंबा होता है। तैरते समय अधिकतर ये रचनाएँ पीछे की ओर घिसटती रहती हैं। इनपर असंख्य कॉलोब्लास्ट होते हैं जिनकी सहायता से यह जीव छोटे जंतुओं का शिकार करता है।
मुख का संबंध ग्रसनी या मुखाग्र से होता है जहाँ पाचन क्रिया होती है। इसके आगे आमाशय होता है जिससे पाचक नलिकाएँ एक विशेष योजना के अनुसार निकलती हैं। इनके अतिरिक्त आमाशय और भी संवेदांग की ओर बढ़ता है और अंत में उससे चार नलिकाएँ निकलती हैं जिनमें से दो संवेदांग के इधर-उधर उत्सर्जन छिद्रों द्वारा बाहर खुलती हैं। वास्तव में इन छिद्रों से अपचित भोजन बाहर निकलता है।
संवेदांग की रचना में रोमाभों के चार लंबे गुच्छे भाग लेते हैं और उनके बीच एक गोल पथरीला कण, या स्थितिकण, होता है। समस्त रचनाएँ एक अर्ध गोल आवरण से ढकी होती हैं। स्टैटोसिस्ट का संबंध जंतु के संतुलन से, अर्थात्‌ गुरुत्वाकर्षण के संबंध में प्राणी की स्थिति से, होता है। संभवत: उसके द्वारा किसी प्रकार रोमाभों की गति में सामंजस्य भी उत्पन्न होता है।
कंकनी का विभाजन दो वर्गो या उपवर्गो में किया जाता है–टेंटाकुलाटा तथा न्यूडा । इनका विवरण इस प्रकार है :
इसमें साधारणत: दो लंबी स्पर्शिकाएँ पाई जाती हैं। इसमें चार गण होते हैं :
साइडिपिडा –इनमें शरीर गोल होता है तथा दो स्पशिकाएँ पाई जाती हैं। ये बहुधा शाखित होती हैं और अपनी थैलियों में वापस की जा सकती हैं; जैस पार्श्वक्लोम तथा काचकुड्म में।
सपालि इनमें शरीर कुछ अंडाकार तथा चिपटा होता है। स्पर्शिकाएँ बिना थैलियों या आवरण के होती हैं और मुख के इधर-उधर एक जोड़ा मौखिक पिंडक होता है; जैसे काचर उर्वशी और ।
मेखला –इनमें शरीर चिपटा, लंबा, फीते जैसा होता है, दो या अधिक अविकसित स्पर्शिकाएँ होती हैं और कई छोटी पार्श्वीय स्पर्शिकाएँ ; जैसे सेस्टम वेनेरिस जो दो इंच चौड़ा और लगभग तीन फुट लंबा होता है, उष्ण प्रदेशों में पाया जाता है और टेढ़े-मेढ़े ढंग से चलता है।
प्लैटिक्टीनिया–इनमें शरीर उदग्र अक्ष में चिपटा होता है और इस प्रकार रेंगने के लिए संपरिवर्तित हो जाता है; जैसे सीलोप्लेना, टेनोप्लेना ।
इनमें स्पर्शिकाओं का अभाव रहता है, शरीर थैली या टोपी जैसा होता है, मुख चौड़ा होता है और ग्रसनी बहुत बड़ी होती है। इस वर्ग में एक ही गुण हैं :
बिरोइडी –इसके जंतु बहुभक्षी, शंक्वाकार शरीरवाले होते हैं। ये पार्श्वीय अक्ष में कुछ चिपटे होते हैं। इस गण की मुख्य जाति बेरोई है, जो संसार भर में पाई जाती है। यह कुछ गुलाबी होती है और लगभग 8 इंच तक ऊँची हो सकती है।
जंतुसंसार में कंकनी की स्थिति तथा अन्य समुदायो से उनके संबंध के विषय में जंतु शास्त्रवेताओं के बीच पर्याप्त मतभेद है। कुछ लक्षणों के आधार पर इनका संबंध आंतरगुहियों से स्पष्ट है, जैसे देहगुहा का अभाव, संमिति की प्रकृति, श्लेषाभीय मध्यश्लेष, विस्तृत नाड़ीजाल, शाखित पाचक गुहा इत्यादि। कई लेखकों ने इसका संबंध जलीयक वर्ग के चलछत्रिक गण से जोड़ने का प्रयत्न किया है। यह स्थापना तथ्यपूर्ण जान पड़ती है। इसके अतिरिक्त कुछ लक्षणों के कारण साइफोज़ोआ और ऐंथोज़ोआ से भी इसका संबंध जान पड़ता है, किंतु साथ ही इस समुदाय में कुछ ऐसे लक्षण भी देखे जाते हैं जिनके कारण यह सभी आंतरगुहियों से पृथक दिखाई पड़ता है–जैसे पेशीय तंतुओं की दशा, कोलोब्लास्ट कोशिकाओं की उपस्थिति, कंकनी पंक्तियों की उपस्थिति आदि। संभव यही जान पड़ता है कि कंकनी समुदाय आंतरगुहियों के किसी बहुत प्रारंभिक पूर्वज से, जो ट्रेकिलाइनी जैसा था, उत्पन्न होकर अलग हो गया है।
लैंग के अनुसार कंकनी से ही द्विसंमित जंतुओं का उद्भव हुआ जिनमें से मुख्य हैं पर्णचिपिट । किंतु इस मत की पुष्टि में जो तथ्य दिए गए हैं वे बहुत विश्वसनीय नहीं जान पड़ते। संभावना यही है कि विशेषीकरण के कारण यह समुदाय जंतुओं की एक प्रकार की छोटी बंद शाखा है, यद्यपि इसके अध्ययन से यह पता चलता है कि द्विस्तरीय जंतुओं से त्रिस्तरीय जंतुओं का उद्भव किस प्रकार हुआ।
सिख धर्मपर एक श्रेणी का भाग
गुरू हरगोबिन्द सिखों के छठें गुरू थे।साहिब की सिक्ख इतिहास में गुरु अर्जुन देव जी के सुपुत्र गुरु हरगोबिन्द साहिब की दल-भंजन योद्धा कहकर प्रशंसा की गई है। गुरु हरगोबिन्द साहिब की शिक्षा दीक्षा महान विद्वान् भाई गुरदास की देख-रेख में हुई। गुरु जी को बराबर बाबा बुड्डाजी का भी आशीर्वाद प्राप्त रहा। छठे गुरु ने सिक्ख धर्म, संस्कृति एवं इसकी आचार-संहिता में अनेक ऐसे परिवर्तनों को अपनी आंखों से देखा जिनके कारण सिक्खी का महान बूटा अपनी जडे मजबूत कर रहा था। विरासत के इस महान पौधे को गुरु हरगोबिन्द साहिब ने अपनी दिव्य-दृष्टि से सुरक्षा प्रदान की तथा उसे फलने-फूलने का अवसर भी दिया। अपने पिता श्री गुरु अर्जुन देव की शहीदी के आदर्श को उन्होंने न केवल अपने जीवन का उद्देश्य माना, बल्कि उनके द्वारा जो महान कार्य प्रारम्भ किए गए थे, उन्हें सफलता पूर्वक सम्पूर्ण करने के लिए आजीवन अपनी प्रतिबद्धता भी दिखलाई।
बदलते हुए हालातों के मुताबिक गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा भी ग्रहण की। वह महान योद्धा भी थे। विभिन्न प्रकार के शस्त्र चलाने का उन्हें अद्भुत अभ्यास था। गुरु हरगोबिन्दसाहिब का चिन्तन भी क्रान्तिकारी था। वह चाहते थे कि सिख कौम शान्ति, भक्ति एवं धर्म के साथ-साथ अत्याचार एवं जुल्म का मुकाबला करने के लिए भी सशक्त बने। वह अध्यात्म चिन्तन को दर्शन की नई भंगिमाओं से जोडना चाहते थे। गुरु- गद्दी संभालते ही उन्होंने मीरी एवं पीरी की दो तलवारें ग्रहण की। मीरी और पीरी की दोनों तलवारें उन्हें बाबा बुड्डाजीने पहनाई। यहीं से सिख इतिहास एक नया मोड लेता है। गुरु हरगोबिन्दसाहिब मीरी-पीरी के संकल्प के साथ सिख-दर्शन की चेतना को नए अध्यात्म दर्शन के साथ जोड देते हैं। इस प्रक्रिया में राजनीति और धर्म एक दूसरे के पूरक बने। गुरु जी की प्रेरणा से श्री अकाल तख्त साहिब का भी भव्य अस्तित्व निर्मित हुआ। देश के विभिन्न भागों की संगत ने गुरु जी को भेंट स्वरूप शस्त्र एवं घोडे देने प्रारम्भ किए। अकाल तख्त पर कवि और ढाडियोंने गुरु-यश व वीर योद्धाओं की गाथाएं गानी प्रारम्भ की। लोगों में मुगल सल्तनत के प्रति विद्रोह जागृत होने लगा। गुरु हरगोबिन्दसाहिब नानक राज स्थापित करने में सफलता की ओर बढने लगे। जहांगीर ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ग्वालियर के किले में बन्दी बना लिया। इस किले में और भी कई राजा, जो मुगल सल्तनत के विरोधी थे, पहले से ही कारावास भोग रहे थे। गुरु हरगोबिन्दसाहिब लगभग तीन वर्ष ग्वालियर के किले में बन्दी रहे। महान सूफी फकीर मीयांमीर गुरु घर के श्रद्धालु थे। जहांगीर की पत्‍‌नी नूरजहांमीयांमीर की सेविका थी। इन लोगों ने भी जहांगीर को गुरु जी की महानता और प्रतिभा से परिचित करवाया। बाबा बुड्डाव भाई गुरदास ने भी गुरु साहिब को बन्दी बनाने का विरोध किया। जहांगीर ने केवल गुरु जी को ही ग्वालियर के किले से आजाद नहीं किया, बल्कि उन्हें यह स्वतन्त्रता भी दी कि वे 52राजाओं को भी अपने साथ लेकर जा सकते हैं। इसीलिए सिख इतिहास में गुरु जी को बन्दी छोड़ दाता कहा जाता है। ग्वालियर में इस घटना का साक्षी गुरुद्वारा बन्दी छोड़ है। अपने जीवन मूल्यों पर दृढ रहते गुरु जी ने शाहजहां के साथ चार बार टक्कर ली। वे युद्ध के दौरान सदैव शान्त, अभय एवं अडोल रहते थे। उनके पास इतनी बडी सैन्य शक्ति थी कि मुगल सिपाही प्राय: भयभीत रहते थे। गुरु जी ने मुगल सेना को कई बार कड़ी पराजय दी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने अपने व्यक्तित्व और कृत्तित्वसे एक ऐसी अदम्य लहर पैदा की, जिसने आगे चलकर सिख संगत में भक्ति और शक्ति की नई चेतना पैदा की। गुरु जी ने अपनी सूझ-बूझ से गुरु घर के श्रद्धालुओं को सुगठित भी किया और सिख-समाज को नई दिशा भी प्रदान की। अकाल तख्त साहिब सिख समाज के लिए ऐसी सर्वोच्च संस्था के रूप में उभरा, जिसने भविष्य में सिख शक्ति को केन्द्रित किया तथा उसे अलग सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान प्रदान की। इसका श्रेय गुरु हरगोबिन्दसाहिब को ही जाता है।
गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी बहुत परोपकारी योद्धा थे। उनका जीवन दर्शन जन-साधारण के कल्याण से जुडा हुआ था। यही कारण है कि उनके समय में गुरमतिदर्शन राष्ट्र के कोने-कोने तक पहुंचा। श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के महान संदेश ने गुरु-परम्परा के उन कार्यो को भी प्रकाशमान बनाया जिसके कारण भविष्य में मानवता का महा कल्याण होने जा रहा था।
गुरु जी के इन अथक प्रयत्‍‌नों के कारण सिख परम्परा नया रूप भी ले रही थी तथा अपनी विरासत की गरिमा को पुन:नए सन्दर्भो में परिभाषित भी कर रही थी। गुरु हरगोबिन्दसाहिब की चिन्तन की दिशा को नए व्यावहारिक अर्थ दे रहे थे। वास्तव में यह उनकी आभा और शक्ति का प्रभाव था। गुरु जी के व्यक्तित्व और कृत्तित्वका गहरा प्रभाव पूरे परिवेश पर भी पडने लगा था। गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी ने अपनी सारी शक्ति हरमन्दिरसाहिब व अकाल तख्त साहिब के आदर्श स्थापित करने में लगाई। गुरु हरगोबिन्दसाहिब प्राय: पंजाब से बाहर भी सिख धर्म के प्रचार हेतु अपने शिष्यों को भेजा करते थे।
गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने सिक्ख जीवन दर्शन को सम-सामयिक समस्याओं से केवल जोडा ही नहीं, बल्कि एक ऐसी जीवन दृष्टि का निर्माण भी किया जो गौरव पूर्ण समाधानों की संभावना को भी उजागर करता था। सिख लहर को प्रभावशाली बनाने में गुरु जी का अद्वितीय योगदान रहा।
गुरु जी कीरतपुर साहिब में ज्योति-जोत समाए। गुरुद्वारा पातालपुरीगुरु जी की याद में आज भी हजारों व्यक्तियों को शान्ति का संदेश देता है। भाई गुरुदास ने गुरु हरगोबिन्दसाहिब की गौरव गाथा का इन शब्दों में उल्लेख किया है: पंज पिआलेपंजपीर छटम्पीर बैठा गुर भारी, अर्जुन काया पलट के मूरत हरगोबिन्दसवारी,
चली पीढीसोढियांरूप दिखावनवारो-वारी,
दल भंजन गुर सूरमा वडयोद्धा बहु-परउपकारी॥सिखों के दस गुरू हैं।
गुरु हरगोबिंद साहिब जी जब कश्मीर की यात्रा पर थे तब उनकी मुलाकात माता भाग्भरी से हुई थी जिन्होंने पहली मुलाकात पर उनसे पूछा कि क्या आप गुरु नानक देव जी हैं क्योंकि उन्होंने गुरु नानक देव जी को नहीं देखा था। उन्होंने गुरु नानक देव जी के लिए एक बड़ा सा चोला बनाया था जिसमे 52 कलियाँ थी ये चोला उन्होंने उनके बारे में सुनकर कि उनका शरीर थोडा भारी है ये वस्त्र थोडा बड़ा बनाया था। माता की भावनाओं को देखते हुए गुरु साहिब ने ये चोला उनसे लेकर पहन लिया। गुरु साहिब जब ग्वालियर के किले से मुक्त किये गए तो उन्होंने यही चोला पहन रखा था जिसकी 52 कलियों को पकड़ कर किले की जेल में बंद सारे 52 राजा एक एक कर बाहर आ गए, तभी से गुरु हरगोबिन्द साहिब जी "दाता बन्दी छोड़" कहलाये।
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1971 का भारत-पाक युद्ध के बाद भारत के शिमला में एक संधि पर हस्ताक्षर हुए। इसे शिमला समझौता कहते हैं। इसमें भारत की तरफ से इंदिरा गांधी और पाकिस्तान की तरफ से ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो शामिल थे। यह समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच दिसम्बर 1971 में हुई लड़ाई के बाद किया गया था, जिसमें पाकिस्तान के 93000 से अधिक सैनिकों ने अपने लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी के नेतृत्व में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण किया था और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान को बंगलादेश के रूप में पाकिस्तानी शासन से मुक्ति प्राप्त हुई थी। यह समझौता करने के लिए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो अपनी पुत्री बेनज़ीर भुट्टो के साथ 28 जून 1972 को शिमला पधारे। ये वही भुट्टो थे, जिन्होंने घास की रोटी खाकर भी भारत से हजार साल तक जंग करने की कसमें खायी थीं।28 जून से 1 जुलाई तक दोनों पक्षों में कई दौर की वार्ता हुई परन्तु किसी समझौते पर नहीं पहुँच सके। इसके लिए पाकिस्तान की हठधर्मी ही मुख्य रूप से जिम्मेदार थी। तभी अचानक 2 जुलाई को लंच से पहले ही दोनों पक्षों में समझौता हो गया, जबकि भुट्टो को उसी दिन वापस जाना था। इस समझौते पर पाकिस्तान की ओर से बेनजीर भुट्टो और भारत की ओर से इन्दिरा गाँधी ने हस्ताक्षर किये थे। यह समझना कठिन नहीं है कि यह समझौता करने के लिए भारत के ऊपर किसी बड़ी विदेशी ताकत का दबाव था। इस समझौते से भारत को पाकिस्तान के सभी 93000 से अधिक युद्धबंदी छोड़ने पड़े और युद्ध में जीती गयी 5600 वर्ग मील जमीन भी लौटानी पड़े। इसके बदले में भारत को क्या मिला यह कोई नहीं जानता। यहाँ तक कि पाकिस्तान में भारत के जो 54 युद्धबंदी थे, उनको भी भारत वापस नहीं ले सका और वे 41 साल से आज भी अपने देश लौटने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।अपना सब कुछ लेकर पाकिस्तान ने एक थोथा-सा आश्वासन भारत को दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर सहित जितने भी विवाद हैं, उनका समाधान आपसी बातचीत से ही किया जाएगा और उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर नहीं उठाया जाएगा। लेकिन इस अकेले आश्वासन का भी पाकिस्तान ने सैकड़ों बार उल्लंघन किया है और कश्मीर विवाद को पूरी निर्लज्जता के साथ अनेक बार अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाया है। वास्तव में उसके लिए किसी समझौते का मूल्य उतना भी नहीं है, जितना उस कागज का मूल्य है, जिस पर वह समझौता लिखा गया है।इस समझौते में भारत और पाकिस्तान के बीच यह भी तय हुआ था कि 17 दिसम्बर 1971 अर्थात् पाकिस्तानी सेनाओं के आत्मसमर्पण के बाद दोनों देशों की सेनायें जिस स्थिति में थीं, उस रेखा को ”वास्तविक नियंत्रण रेखा“ माना जाएगा और कोई भी पक्ष अपनी ओर से इस रेखा को बदलने या उसका उल्लंघन करने की कोशिश नहीं करेगा। लेकिन पाकिस्तान अपने इस वचन पर भी टिका नहीं रहा। सब जानते हैं कि 1999 में कारगिल में पाकिस्तानी सेना ने जानबूझकर घुसपैठ की और इस कारण भारत को कारगिल में युद्ध लड़ना पड़ा।
जुलफिकार अली भुट्टो ने 20 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति का पदभार संभाला। उन्हें विरासत में एक टूटा हुआ पाकिस्तान मिला। सत्ता सभांलते ही भुट्टो ने यह वादा किया कि वह शीघ्र ही बांग्लादेश को फिर से पाकिस्तान में शामिल करवा लेंगे। पाकिस्तानी सेना के अनेक अधिकारियों को देश की पराजय के लिए उत्तरदायी मान कर बरखास्त कर दिया गया।
कई महीने तक चलने वाली राजनीतिक-स्तर की बातचीत के बाद जून 1972 के अंत में शिमला में भारत-पाकिस्तान शिखर बैठक हुई। इंदिरा गांधी और भुट्टो ने अपने उच्चस्तरीय मंत्रियों और अधिकारियों के साथ उन सभी विषयों पर चर्चा की जो 1971 के युद्ध से उत्पन्न हुए थे। साथ ही उन्होंने दोनों देशों के अन्य प्रश्नों पर भी बातचीत की। इन में कुछ प्रमुख विषय थे युद्ध बंदियों की अदला-बदली, पाकिस्तान द्वारा बांग्लादेश को मान्यता का प्रश्न, भारत और पाकिस्तान के राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाना, व्यापार फिर से शुरू करना और कश्मीर में नियंत्रण रेखा स्थापित करना। लम्बी बातचीत के बाद भुट्टो इस बात के लिए सहमत हुए कि भारत-पाकिस्तान संबंधों को केवल द्विपक्षीय बातचीत से तय किया जाएगा। शिमला समझौते के अंत में एक समझौते पर इंदिरा गांधी और भुट्टो ने हस्ताक्षर किए। इसके प्रावधान निम्न्तः है -
इनमें यह प्रावधान किया गया कि दोनों देश अपने संघर्ष और विवाद समाप्त करने का प्रयास करेंगे और यह वचन दिया गया कि उप-महाद्वीप में स्थाई मित्रता के लिए कार्य किया जाएगा। इन उद्देश्यों के लिए इंदिरा गांधी और भुट्टो ने यह तय किया कि दोनों देश सभी विवादों और समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत करेंगे और किसी भी स्थिति में एकतरफा कार्यवाही करके कोई परिवर्तन नहीं करेंगे। वे एक दूसरे के विरूद्घ न तो बल प्रयोग करेंगे, न प्रादेशिक अखण्डता की अवेहलना करेंगे और न ही एक दूसरे की राजनीतिक स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप करेंगे।दोनों ही सरकारें एक दूसरे देश के विरूद्घ प्रचार को रोकेंगी और समाचारों को प्रोत्साहन देंगी जिनसे संबंधों में मित्रता का विकास हो।दोनों देशों के संबंधों को सामान्य बनाने के लिए : सभी संचार संबंध फिर से स्थापित किए जाएंगे 2 आवागमन की सुविधाएं दी जाएंगी ताकि दोनों देशों के लोग असानी से आ-जा सकें और घनिष्ठ संबंध स्थापित कर सकें 3 जहां तक संभव होगा व्यापार और आर्थिक सहयोग शीघ्र ही फिर से स्थापित किए जाएंगे 4 विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में आपसी आदान-प्रदान को प्रोत्साहन दिया जाएगा।स्थाई शांतिं के हित में दोनों सरकारें इस बात के लिए सहमत हुई कि 1 भारत और पाकिस्तान दोनों की सेनाएं अपने-अपने प्रदेशों में वापस चली जाएंगी। 2 दोनों देशों ने 17 सितम्बर 1971 की युद्ध विराम रेखा को नियंत्रण रेखा के रूप में मान्यता दी और 3 यह तय हुआ कि इस समझौते के बीस दिन के अंदर सेनाएं अपनी-अपनी सीमा से पीछे चली जाएंगी।यह तय किया गया कि भविष्य में दोनों सरकारों के अध्यक्ष मिलते रहेंगे और इस बीच अपने संबंध सामान्य बनाने के लिए दोनों देशों के अधिकारी बातचीत करते रहेंगे।
भारत में शिमला समझौते के आलोचकों ने कहा कि यह समझौता तो एक प्रकार से पाकिस्तान के सामने भारत का समर्पण था क्योंकि भारत की सेनाओं ने पाकिस्तान के जिन प्रदेशों पर अधिकार किया था अब उन्हें छोड़ना पड़ा। परंतु शिमला समझौते का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि दोनों देशों ने अपने विवादों को आपसी बातचीत से निपटाने का निर्णय किया। इसका यह अर्थ हुआ कि कश्मीर विवाद को अंतरराष्ट्रीय रूप न देकर, अन्य विवादों की तरह आपसी बातचीत से सुलझाया जाएगा।
शंघाई चीनी जनवादी गणराज्य का सबसे बड़ा नगर है। यह देश के पूर्वी भाग में यांग्त्ज़े नदी के डेल्टा पर स्थित है। यह अर्थव्यवस्था और जनसंख्या दोनों ही दृष्टि से चीन का सबसे बड़ा नगर है। यह देश की चार नगरपालिकाओं में से एक है और उसी स्तर पर है जिसपर कि चीन का कोई अन्य प्रान्त।
नगर सीमा के भीतर की जनसंख्या 93 लाख है और पूरी नगरपालिका में 1 करोड़ 81 लाख लोग रहते हैं। 1 जनवरी, 2006 की स्थिति तक यहां 1 करोड़ 37 लाख स्थाई निवासी और 44 लाख अस्थाई निवासी थे जिनके पास रहने का वैध परमिट था। इसके अतिरिक्त यहां 30 लाख लोग अवैध रूप से भी रहते है।
शंघाई पहले मछुआरों का एक गाँव था, पर प्रथम अफ़ीम युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने इस स्थान पर अधिकार कर लिया और यहां विदेशियों के लिए एक स्वायत्तशासी क्षेत्र का निर्माण किया, जो 1930 तक अस्तित्व में रहा और जिसने इस मछुआरों के गाँव को उस समय के एक बड़े अन्तर्राष्ट्रीय नगर और वित्तीय केन्द्र बनने में सहायता की।
1949 में साम्यवादी अधिग्रहण के बाद उन्होंने विदेशी निवेश पर रोक लगा दी और अत्यधिक कर लगा दिया। 1992 से यहां आर्थिक सुधार लागू किए गए और कर में कमी की गई, जिससे शंघाई ने अन्य प्रमुख चीनी नगरों जिनका पहले विकास आरम्भ हो चुका था जैसे शेन्झेन और गुआंग्झोऊ को आर्थिक विकास में पछाड़ दिया। 1992 से ही यह महानगर प्रतिवर्ष 9-15% की दर से वृद्धि कर रहा है, पर तीव्र आर्थिक विकास के कारण इसे चीन के अन्य क्षेत्रों से आने वाले अप्रवासियों और समाजिक असमनता की समस्या से इसे जुझना पड़ रहा है।
इस महानगर को आधुनिक चीन का ध्वजारोहक नगर माना जाता है और यह चीन का एक प्रमुख सांस्कृतिक, व्यवसायिक और औद्योगिक केन्द्र है। 2005 से ही शंघाई का बन्दरगाह विश्व का सर्वाधिक व्यस्त बन्दरगाह है। पूरे चीन और शेष दुनिया में भी इसे भविष्य के प्रमुख महानगर के रूप में माना जाता है।शंघाई चीन की चार प्रत्यक्ष-नियंत्रित नगरपालिका और दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, 2014 की तुलना में 24 मिलियन से अधिक की आबादी है। यह विश्व के सबसे व्यस्त कंटेनर बंदरगाह के साथ एक वैश्विक वित्तीय केंद्र और परिवहन केंद्र है। यांग्त्ज़ी नदी डेल्टा में स्थित यह पूर्वी चीन तट के मध्य भाग में यांग्त्ज़ी नदी के मुहाने के दक्षिण किनारे पर स्थित है। नगरपालिका उत्तर, दक्षिण और पश्चिम में जिआंगसू और झेजियांग के प्रांतों की सीमाओं को लेकर है और पूर्वी चीन सागर द्वारा पूर्व में घिरा है।
एक प्रमुख प्रशासनिक, शिपिंग और व्यापारिक शहर के रूप में, 1 9वीं शताब्दी में अपने अनुकूल बंदरगाह स्थान और आर्थिक क्षमता की व्यापार और मान्यता के कारण शंघाई का महत्व बढ़ गया। पहला अफ़ीम युद्ध में चीन पर ब्रिटिश जीत के बाद यह पांच संधि बंदरगाहों में से एक था, जो विदेशी व्यापारों के लिए खुला था। बाद में 1842 नानकींग की संधि और व्हामपोआ की 1844 संधि ने शंघाई अंतर्राष्ट्रीय निपटान और फ्रेंच रियायत की स्थापना की अनुमति दी। इसके बाद शहर चीन और दुनिया के अन्य हिस्सों के बीच वाणिज्य केंद्र के रूप में विकसित हुआ और 1 9 30 के दशक में एशिया-प्रशांत क्षेत्र का प्राथमिक वित्तीय केंद्र बन गया। हालांकि, 1 9 4 9 में मुख्य भूमि का कम्युनिस्ट पार्टी अधिग्रहण के साथ, व्यापार अन्य समाजवादी देशों तक सीमित था, और शहर का वैश्विक प्रभाव में गिरावट आई है। 1 99 0 के दशक में, देंग जियाओपिंग द्वारा शुरू किये गये आर्थिक सुधारों ने शहर की तीव्र पुन: विकास, शहर की वित्त और विदेशी निवेश की वापसी का समर्थन किया।
शंघाई को मुख्य भूमि चीन की उभरती अर्थव्यवस्था की "प्रदर्शनी" के रूप में वर्णित किया गया है; इसके लुजियाज़ूई क्षितिज के लिए प्रसिद्ध है, और संग्रहालयों और ऐतिहासिक इमारतों, जैसे द बुंद के साथ, साथ ही साथ सिटी भगवान मंदिर और यू गार्डन
विषय वस्तु 1 नाम2 इतिहास2.1 प्राचीन इतिहास2.2 इंपीरियल इतिहास2.3 प्रारंभिक आधुनिक इतिहास2.4 आधुनिक इतिहास3 भूगोल3.1 जलवायु4 सिटीस्केप5 राजनीति6 प्रशासनिक प्रभाग7 अर्थव्यवस्था8 जनसांख्यिकी9 धर्म10 शिक्षा11 परिवहन11.1 सार्वजनिक परिवहन11.2 सड़कें11.3 रेलवे11.4 एयर12 वास्तुकला13 पर्यावरण13.1 पार्क और रिसॉर्ट्स13.2 पर्यावरण संरक्षण13.3 वायु प्रदूषण और सरकारी प्रतिक्रिया14 संस्कृति14.1 भाषा14.2 संग्रहालय14.3 सिनेमा14.4 कला14.5 फैशन15 मीडिया16 खेल17 अंतर्राष्ट्रीय संबंध18 यह भी देखें19 सन्दर्भ20 आगे पढ़ने21 बाहरी लिंकनाम शहर के नाम के दो चीनी पात्रों हैं और 海, जिसका अर्थ है "अपॉन द सागर"। इस नाम की सबसे प्रारंभिक घटना 11 वीं शताब्दी के गाने राजवंश से की जाती है, इस समय उस क्षेत्र में एक नदी संगम और शहर के नाम से एक शहर था। ऐसे विवाद हैं कि नाम कैसे ठीक समझा जाना चाहिए, लेकिन चीनी इतिहासकारों ने निष्कर्ष निकाला है कि तांग राजवंश के दौरान शंघाई शाब्दिक समुद्र पर था।
शंघाई आधिकारिक तौर पर चीनी में 沪 संक्षिप्त रूप है, सूज़ौ के मुंह के लिए 沪 a, का एक चौथा - या पांचवीं शताब्दी का नाम क्रीक जब यह महासागर में मुख्य नाली था। यह चरित्र नगर निगम में आज जारी सभी मोटर वाहन लाइसेंस प्लेटों पर दिखाई देता है।
शंघाई के लिए एक अन्य वैकल्पिक नाम शेंन या शेंन्चेंग है, जो लॉर्ड चौसन से है, तीसरी सदी के ईसा पूर्व उत्तराधिकारी और चू राज्य के प्रधान मंत्री, जिसका मकसद आधुनिक शंघाई में शामिल था। शंघाई Shenhua एफ.सी. जैसे खेल टीमों और शंघाई में अखबार अक्सर उनके नामों में शेन का उपयोग करते हैं और शेन बाओ
हूटिंग शंघाई का दूसरा नाम था। 751 ई। में, मध्य-तांग राजवंश के दौरान, आधुनिक दिवस के शंघाई में पहले काउंटी-स्तरीय प्रशासन, आधुनिक दिवस के सोंगियांग में हुटिंग काउंटी की स्थापना हुई थी। आज, हुटिंग शहर में चार सितारा होटल के नाम के रूप में दिखाई देती है।
शहर में अंग्रेज़ी में विभिन्न उपनाम भी हैं, जिनमें "पर्ल ऑफ़ द ओरिएंट" और "पेरिस ऑफ द ईस्ट" भी शामिल है।
इतिहास मुख्य लेख: शंघाई का इतिहासयह भी देखें: शंघाई, शंघाई अंतर्राष्ट्रीय निपटान, शंघाई फ्रांसीसी रियायत और ग्रेटर शंघाई योजना की समय सीमाप्राचीन इतिहास वसंत और शरद ऋतु अवधि के दौरान, शंघाई क्षेत्र वू राज्य से था, जो कि यू के राज्य पर कब्जा कर लिया गया था, जिसे बदले में चू की साम्राज्य पर कब्जा कर लिया गया था। वारिंग राज्यों की अवधि के दौरान, शंघाई चू के लॉर्ड चौसने के मस्तिष्क का हिस्सा था, जो वारिंग राज्यों के चार लॉर्ड्स में से एक था। उन्होंने हुआंगपु नदी के उत्खनन का आदेश दिया इसका पूर्व या काव्य नाम, चनसन नदी, ने शंघाई को "शेन" का अपना उपनाम दिया। शंघाई क्षेत्र में रहने वाले मछुआरों ने एक मछली पकड़ने के उपकरण का निर्माण किया, जिसे हू कहा जाता है, जो पुराने शहर के उत्तर सूज़ौ क्रीक के आउटलेट में अपना नाम दे दिया और शहर के लिए एक सामान्य उपनाम और संक्षिप्त नाम बन गया।
इंपीरियल इतिहास सांग राजवंश के दौरान शंघाई को एक गांव से बाजार में तब्दील कर दिया गया था
अनहुइ · फ़ूज्यान · गान्सू · गुआंगदोंग · गुइझोऊ · हाइनान · हेबेई · हेइलोंगजियांग · हेनान · हूबेई · हूनान · जिआंगसू · जिआंगशी · जीलिन · लियाओनिंग · चिंगहई · शान्शी · शानदोंग · शन्शी · सिचुआन · युन्नान · झेजियांग
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बीजिंग · चोंग्किंग · शंघाई · तिआन्जिन
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इलियड या ईलियद — प्राचीन यूनानी शास्त्रीय महाकाव्य है, जो यूरोप के आदिकवि होमर की रचना मानी जाती है। इसका नामकरण ईलियन नगर के युद्ध के वर्णन के कारण हुआ है। समग्र रचना 24 पुस्तकों में विभक्त है और इसमें 15,693 पंक्तियाँ हैं। इलियड में ट्राय राज्य के साथ ग्रीक लोंगो के युद्ध का वर्णन है। इस महाकाव्य में ट्राय के विजय और ध्वंस की कहानी तथा युनानी वीर एकलिस के वीरत्व की गाथाएं हैं।
संक्षेप में इस महाकाव्य की कथावस्तु इस प्रकार है : ईलियन के राजा प्रियम के पुत्र पेरिस ने स्पार्टा के राजा मेनेलाउस की पत्नी परम सुंदरी हेलेन का उसके पति की अनुपस्थिति में अपहरण कर लिया था। हेलेन को पुन: प्राप्त करने तथा ईलियन को दंड देने के लिए मेनेलाउस और उसके भाई आगामेम्नन ने समस्त ग्रीक राजाओं और सामंतों की सेना एकत्र करके ईलियन के विरुद्ध अभियान आरंभ किया। परंतु इस अभियान के उपर्युक्त कारण और उसके अंतिम परिणाम, अर्थात् ईलियन के विध्वंस का प्रत्यक्ष वर्णन इस काव्य में नहीं है। इसका आरंभ तो ग्रीक शिविर में काव्य के नायक एकिलीज के रोष से होता है। अगामेम्नन ने सूर्यदेव अपोलो के पुजारी की पुत्री को बलात्कारपूर्वक अपने पास रख छोड़ा है। परिणामत: ग्रीक शिविर में महामारी फैली हुई है। भविष्यद्रष्टा काल्कस ने बतलाया कि जब तक पुजारी की पुत्री को नहीं लौटाया जाएगा तब तक महामारी नहीं रुकेगी। अगामेम्नन बड़ी कठिनाई से इसके लिए प्रस्तुत होता है पर इसके साथ ही वह बदले में एकिलीज़ के पास से एक दूसरी बेटी ब्रिसेइस को छीन लेता है। एकिलीज़ इस अपमान से क्षुब्ध और रुष्ट होकर युद्ध में न लड़ने की प्रतिज्ञा करता है। वह अपनी मीरमिदन सेना और अपने मित्र पात्रोक्लस के साथ अपने डेरों में चला जाता है और किसी भी मनुहार को नहीं सुनता। परिणामत: युद्ध में अगामेम्नन के पक्ष की किरकिरी होने लगती है। ग्रीक सेना भागकर अपने शिविर में शरण लेती है। परिस्थितियों से विवश होकर अगामेम्नन एकिलीज़ के पास अपने दूत भेजता है और उसके रोष के निवारण के लिए बहुत कुछ करने को तैयार हो जाता है। परंतु एकिलीज़ का रोष दूर नहीं होता और वह दूसरे दिन अपने घर लौट जाने की घोषणा करता है। पर वास्तव में वह अगामेम्नन की सेना की दुर्दशा देखने के लिए ठहरा रहता है। किंतु उसका मित्र पात्रोक्लस अपने पक्ष की इस दुर्दशा को देखकर को देखकर खीझ उठता है और वह एकिलीज़ से युद्ध में लड़ने की आज्ञा प्राप्त कर लेता है। एकिलीज़ उसको अपना कवच भी दे देता है और अपने मीरमिदन सैनिकों को भी उसके साथ युद्ध करने के लिए भेज देता है। पात्रोक्लस ईलियन की सेना को खदेड़ देता है पर स्वयं अंत में वह ईलियन के महारथी हेक्तर द्वारा मार डाला जाता है। पात्रोक्लस के निधन का समाचार सुनकर एकिलीज़ शोक और क्रोध से पागल हो जाता है और अगामेम्नन से संधि करके नवीन कवच धारण कर हेक्तर से अपने मित्र का बदला लेने युद्ध क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाता है। एकिलीज़ से युद्ध आरंभ करते ही पासा पलट जाता है। वह हेक्तर को मार डालता है और उसके पैर को अपने रथ के पिछले भाग से बाँधकर उसके शरीर को युद्धक्षेत्र में घसीटता है जिससे उसका सिर घूल में लुढ़कता चलता है। इसके पश्चात् पात्रोक्लस की अंत्येष्टि बड़े ठाट बाट के साथ की जाती है। एकिलीज़ हेक्तर के शव को अपने शिविर में ले आता है और निर्णय करता है कि उसका शरीर खंड-खंड करके कुत्तों को खिला दिया जाए। हेक्तर का पिता ईलियन राजा प्रियम उसके शिविर में अपने पुत्र का शव प्राप्त करने के लिए उपस्थित होता है। उसके विलाप से एकिलीज़ को अपने पिता का स्मरण हो आता है और उसका क्रोध दूर हो जाता है और वह करुणा से अभिभूत होकर हेक्तर का शव उसके पिता को दे देता है और साथ ही साथ 12 दिन के लिए युद्ध भी रोक दिया जाता है। हेक्तर की अंत्येष्टि के साथ ईलियद की समाप्ति हो जाती है।
कुछ हस्तलिखित प्रतियों में ईलियद के अंत में एक पंक्ति इस आशय की मिलती है कि हेक्तर की अंत्येष्टि के बाद अमेज़न नामक नारी योद्धाओं की रानी पैंथेसिलिया प्रियम की सहायता के लिए आई। इसी संकेत के आधार पर स्मर्ना के क्विंतुस नामक कवि ने 14 पुस्तकों में ईलियद का पूरक काव्य लिखा था। आधुनिक समय में श्री अरविंद घोष ने भी अपने जीवन की संध्या में मात्रिक वृत्त में ईलियन नामक ईलियद को पूर्ण करनेवाली रचना का अंग्रेजी भाषा में आरंभ किया था जो पूरी नहीं हो सकी। नवम पुस्तक की रचना के मध्य में ही उनकी चिरसमाधि की उपलब्धि हो गई।
ईलियद में जिस युग की घटनाओं का उल्लेख है उसको वीरयुग कहते हैं। श्लीमान और डेफैल्ट को ट्राय नगर की खुदाई के पश्चात् इस युग की सत्यता निर्विवाद सिद्ध हो चुकी थी। ई.पू. 13वीं और 13 शताब्दियाँ इस युग का काल मानी जाती हैं। पर ईलियद के रचनाकाल की सीमाएँ ई.पू. नवीं और सातवीं शताब्दियाँ हैं। होमर की रचनाओं से संबंध रखनेवाली समस्याएँ अत्यंत जटिल हैं। एक समय होमर के अस्तित्व तक पर संदेह किया जाने लगा था। पर अब स्थिति अधिक अनुकूल हो चली है, यद्यपि अब भी होमर के महाकाव्य एक विकासक्रम की चरम परिणति माने जाते हैं जिनमें एक लोकोत्तर प्रतिभा का कौशल स्पष्ट लक्षित होता है।
ईलियद में महाकाव्य की दृष्टि से सरलता और कविकर्म का अभूतपूर्व सामंजस्य है। नीति की दृष्टि से असाधारण काम और क्रोध के विध्वंसकारी परिणाम का प्रदर्शन जैसा इस काव्य में हुआ हे वैसा अन्यत्र मुश्किल से मिलेगा। इसके पुरुष पात्रों में अगामेम्नन, एकिलीज़, पात्रोक्लस, मेनेलाउस, प्रियम, पेरिस और हेक्तर उल्लेखनीय हैं। स्त्री पात्रों में हेलेन, हेकुबा, आंद्रोमाको इत्यादि महान हैं। युद्ध में मनुष्य और देवता सभी भाग लेते हैं, कहीं मनुष्य गुणों में देवताओं से ऊँचे उठ जाते हैं तो कहीं देवता लोग मानवीय दुर्बलताओं के शिकार होते दृष्टिगोचर होते हैं एवं परिहास के पात्र बनते हैं। भारतीय महाकाव्यों के साथ ईलियद की अनेक बातें मेल खाती हैं, जिनमें हेलेन का अपहरण और ईलियन का दहन सीता-हरण और लंकादहन से स्पष्ट सादृश्य रखते हैं। संभवत: इसी कारण मेगस्थनीज़ को भारत में होमर के महाकाव्यों के अस्तित्व का भ्रम हुआ था।
होमर के अनुवाद बहुत हैं परंतु उसका अनुवाद, जैसा प्रत्येक उच्च कोटि की मौलिक रचना का अनुवाद हुआ करता है, एक समस्या है। यदि अनुवादक सरलता पर दृष्टि रखता है तो होमर के कवित्व को गँवा बैठता है और कवित्व को पकड़ना चाहता है तो सरलता काफूर हो जाती है।
इस महाकाव्य का यूरोप की हर भाषा में अनुवाद हुआ है। पद्य और गद्य दोनों में अनेक अनुवाद हुए हैं। कई भारतीय भाषाओं में भी 'इलियड' तथा 'ओडिसी' दोनों के अनुवाद हुए हैं। बांग्ला में एक से अधिक अनुवाद हो चुके हैं। प्रख्यात कवि माइकेल मधुसूदन दत्त द्वारा इलियड का बांग्ला में किया गया पहला परंतु अधूरा अनुवाद 1941 ईस्वी में प्रकाशित हुआ। योगेंद्रनाथ काव्यविनोद ने इलियड का पद्यानुवाद 1902-08 ई0 और गद्यानुवाद 1911 ईस्वी में प्रकाशित करवाया था। कालांतर में इलियड और ओडिसी के बंगला में और भी कई अनुवाद हुए। तमिल में भी अनुवाद हो चुका है।
'इलियड' का प्रथम हिन्दी अनुवाद 2012 ई0 में प्रकाशित हुआ। एक उत्तम अनुवाद के लिए आवश्यक परिश्रम करके अनुवादक रमेश चंद्र सिन्हा ने यह कार्य संपन्न किया। यूनानी साहित्य, मिथक, इतिहास, धर्म और दर्शन के अध्ययन में अनेक वर्ष लगाकर इलियड का हिन्दी गद्यानुवाद संपन्न हुआ है।
This is an oil painting of the Goddess Thetis dipping her son Achilles into the River Styx, which runs through Hades. In the background, the ferryman Charon can be seen taking the dead across the river in his boat. The scene was painted by Peter Paul Rubens around 1625.
This is a fresco of Paris abducting Helen by force. It is painted on a wall inside a villa in Venice, Italy.
This is a drawing of the Greeks leaving their hiding place inside the Trojan Horse in order to attack Troy. The drawing is based on an oil painting by Henri Motte.
डॉ॰ रामविलास शर्मा आधुनिक हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध आलोचक, निबंधकार, विचारक एवं कवि थे। व्यवसाय से अंग्रेजी के प्रोफेसर, दिल से हिन्दी के प्रकांड पंडित और महान विचारक, ऋग्वेद और मार्क्स के अध्येता, कवि, आलोचक, इतिहासवेत्ता, भाषाविद, राजनीति-विशारद ये सब विशेषण उन पर समान रूप से लागू होते हैं।
उन्नाव जिला के ऊँचगाँव सानी में जन्मे डॉ॰ रामविलास शर्मा ने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. किया और वहीं अस्थाई रूप से अध्यापन करने लगे। 1940 में वहीं से पी-एच.डी. की उपाधि में प्राप्त की। 1943 से आपने बलवंत राजपूत कालेज, आगरा में अंग्रेजी विभाग में अध्यापन किया और अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे। 1971-74 तक कन्हैयालाल माणिक मुंशी हिन्दी विद्यापीठ, आगरा में निदेशक पद पर रहे। 1974 में सेवानिवृत्त हुये।
डॉ॰ रामविलास शर्मा के साहित्यिक जीवन का आरंभ 1934 से होता है जब वह सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के संपर्क में आये। इसी वर्ष उन्होंने अपना प्रथम आलोचनात्मक लेख 'निरालाजी की कविता' लिखा जो चर्चित पत्रिका 'चाँद' में प्रकाशित हुआ। इसके बाद वे निरंतर सृजन की ओर उन्मुख रहे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ॰ रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं। उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास को एक साथ लेकर साहित्य का मूल्यांकन करते हैं। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जाँचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है।
इनमें से अनेक पुस्तकों के संशोधित-परिवर्द्धित संस्करण बाद में प्रकाशित हुए हैं, उन्हें ही पढ़ना चाहिए। ये सभी पुस्तकें अब राजकमल, वाणी, किताबघर, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, साहित्य अकादेमी एवं साहित्य भंडार प्रकाशनों से प्रकाशित हैं।