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1. प्रस्तुत संहिता कौमार्यभृत्य की प्रमुख संहिता है। बालकों में होने वाले समस्त रोगों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
2. बालकों के उत्पन्न होने से लेकर, दन्तोद्भव, युवावस्था तक के सभी संस्कार एवं ग्रहबाधा चिकित्सा तथा अन्य रोगों का विस्तृत वर्णन है।
3. गर्भिणीय प्रकरण, दुष्प्रजातीय एवं धात्री परिचय एवं परीक्षा का विस्तृत वर्णन है।
4. स्तन्य से सम्बन्धित समस्त रोग एवं उसके निवारणार्थ चिकित्सा का वर्णन है।
5. पंचकर्म अध्याय के अंतरगत बालकों में करने वाले पंचकर्मों, पूर्वकर्मों तथा शल्य कर्मों का विशिष्ट व्यवस्था की गई है।
6. बालको में होने वाले फक्क रोग की चिकित्सा तथा तीन पहिया रथ का निर्माण, उपयोग सर्वप्रथम इसी संहिता में प्राप्त है।
7. विषम ज्वर के विभिन्न भेदों की लक्षण एवं चिकित्सा का वर्णन है।
8. बालकों के विभिन्न अंगो में होने वाली वेदना को बालको की चेष्टा के द्वारा अनुमान लगाने का वर्णन है।
9. कल्पस्थान में औषधि द्रव्य लहसुन का वर्णन एवं लहसुन-कल्प का विशेष वर्णन इस संहिता की विशिष्टता है।
10. कल्प स्थान में ही युष, यवांगु आदि का प्रयोग, मधुर आदि रसों का एवं वातादि दोषो का विस्तृत वर्णन मिलता है।
प्रत्येक युद्ध में जो राज्य एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध करते हैं, वे "युद्धरत" राज्य कहे जाते हैं। जो राज्य किसी ओर से नहीं लड़ते अथवा युद्ध में कोई भाग नहीं लेते, वे तटस्थ राज्य कहे जाते हैं। अत: तटस्थता वह निप्पक्ष अथवा तटस्थ रहने का भाव है, जो युद्ध में सम्मिलित न होनेवाले तीसरे राज्य युद्धरत दोनों पक्ष के राज्यों के प्रति धारण करते हैं और युद्धरत राज्य इस भाव को अपनी मान्यता प्रदान करते हैं। निष्पक्षता अथवा तटस्थता का यह भाव तटस्थ राज्यों और युद्धरत राज्यों के बीच कुछ कर्तव्यों और कुछ अधिकारों की सृष्टि करता है।
प्राचीन युग में तटस्थता का प्रचलन नहीं था। उन दिनों यदि कोई युद्ध छिड़ता था तो युद्धरत दोनों राज्यों के अतिरिक्त अन्य तीसरे राज्यों को इस बात का चुनाव करना पड़ता थ कि वे इन दो में से किस पक्ष में सम्मिलित हों। वे एक के मित्र बन जाते थे और दूसरे के शुत्रु। मध्यकालीन युग में कोई भी राज्य इस प्रकार की घोषणा कर सकता था कि वह युद्धरत दो पक्षों में से किसी एक ही पक्ष की सहायता कर सकता था। 17वीं शताब्दी में अंतर्राष्ट्रीय विधान में तटस्थता को एक संस्था रूप में स्थान प्राप्त हुआ, यद्यपि उस समय वह अपनी शैशवावस्था में ही थी और अपना वर्तमान स्वरूप प्राप्त काने के लिये उसे दीर्ध काल की असवश्यकता थी। 18वीं शताब्दी में पहुँचकर ही सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक, दोनों रूपों में यह बात मान्य हो सकी कि तटस्थ राज्यों का यह कर्तव्य है कि वे तटस्थ या निष्पक्ष रहें और युद्धरत राज्यों का यह कर्तव्य है कि वे तटस्थ राज्यों के अधिकारक्षेत्र का संमान करें।
सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ। उस समय कई राज्यों ने यह घोषणा की कि वे तटस्थ रहेंगें। इस प्रकार की घोषणा करनेवाले राज्यों में संयुक्त राज्य अमरीका भी था। परंतु अक्टूबर, 1916 में अमरीका भी युद्ध में सम्मिलित हो गया।
युद्ध का अंत होने पर राष्ट्रसंघ के अनुबंधन ने तटस्थता के परंपरागत नियम की समाप्ति कर दी। उक्त अनुबंध की धारा 10 के अनुसार राष्ट्रसंघ के सदस्यों ने सभी सदस्य राज्यों की क्षेत्रीय अथवा प्रादेशिक अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता का आदर करना स्वीकार किया।
सितंबर, 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने पर तटस्थता का परंम्परागत नियम अस्थायी रूप से पुनरुज्जीवित हुआ। संयुक्त राज्य अमरीका तथा कई अन्य देशों ने पुन: ऐसी घोषणा की कि वे इस युद्ध में तटस्थ रहेंगे। जर्मनी ने इनमें से अधिकांश राज्यों की तटस्थता का उल्लंघन किया। अपने तटस्थताकाल में भी अमरीका ने उधारपट्टा कानून बनाकर मित्र शक्तियों को इस बहाने सहायता प्रदान की कि इन देशों की सुरक्षा स्वयं अमरीका की सुरक्षा के लिये आवश्यक है। यह प्रश्न विवादग्रस्त रहा है कि जिन दिनों अमरीका प्राबिधिक रूप में तटस्थ था, उन दिनो उसका ऐसा आचरण क्या उचित था?
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के उपरांत सन् 1945 में जब संयुक्त राष्ट्रसंघ का अधिकारपत्र स्वीकृत हुआ तो उसने वैधानिक रूप में तटस्थता का अंत कर दिया। उस अधिकारपत्र में ऐसे राज्यों के पृथक् वैधानिक अस्तित्व की कोई व्यवस्था नहीं है। उसके अनुसार कोई भी राज्य ऐसे किसी युद्ध में स्वेच्छया तटस्थ नहीं रह सकता जिसके संबंध में सुरक्षा परिषद् ने किसी विशेष राज्य को शांति भंग करने का अथवा अग्राक्रमण करने का अपराधी पाया है और जिसके लिये संयुक्त राष्ट्रसंघ ने अपने सदस्य राष्ट्रों का आवाहन किया है कि वे उक्त राज्य के विरुद्ध सैनिक कारवाई करें।
शाश्वत तटस्थता - शाश्वत अथवा चिरस्थायी तटस्थता उन राज्यों की तटस्थता है, जो विशेष संधियों द्वारा स्वीकार कर लेते है जैसे, स्विट्जरलैंड की तटस्थता।
स्वेच्छाप्रेरित और परंपरागत तटस्थता - यदि कोई राज्य स्वेच्छा से तटस्थ रहता है और किसी संधि द्वारा अपने को तटस्थ नहीं बनाता, तो उसकी तटस्थता स्वेच्छाप्रेरित तटस्थता है। दूसरी ओर, यदि कोई राज्य ऐसी संधि करता है कि युद्ध छिड़ने पर वह तटस्थ रहेगा, तो उसकी तटस्थता परंपरागत अथवा व्यवहारसिद्ध तटस्थता कही जायगी।
सशस्त्र तटस्थता- यदि कोई युद्धरत राज्य किसी तटस्थ के अधिकारक्षेत्र का उपयोग करने का प्रयत्न करता है और वह तटस्थ राज्य अपनी तटस्थता की रक्षा के लिए सैनिक कार्यवाही करता है तो ऐसी तटस्थता की रक्षा के लिए सैनिक कारवाई करता है तो ऐसी तटस्थता "सशस्त्र तटस्थता" कही जायगी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बेलजियम, हालैंड और स्विट्जरलैंड की तटस्थता ऐसी ही सशस्त्र तटस्थता भी। कारण, उस समय ये राज्य अपनी सेनाओं को युद्ध के लिए सतत प्रस्तुत रखते थे।
संपूर्ण और संप्रतिबंध तटस्थता- उस राज्य की तटस्थता "सप्रतिबंध तटस्थता" मानी जायगी, जो यों तो तटस्थ रहता है, पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से दो में से किसी एक युद्धरत पक्ष को किसी प्रकार की सहायता प्रदान करता है। दूसरी और, उन राज्यों की तटस्थता "संपूर्ण तटस्थता" मानी जायगी जो किसी भी युद्धरत राज्य को किसी भी प्रकार की कोई सहायता प्रदान नहीं करते।
1. युद्धरत राज्यों के प्रति निष्पक्षता का भाव रखना।
2. तटस्थ राज्य के व्यापारियों द्वारा नाकेबंदी और वर्जित माल के आवागमन संबंधी नियमों को भंग करने पर कोई युद्धरत राज्य उन्हें दंड देने के अपने अधिकार का प्रयोग करे तो उसमें अपनी सम्मति प्रदान करना।
1. तटस्त राज्यों के निष्पक्षता संबंधी भाव के अनुकूल उनके प्रति व्यवहार करना।
2 शत्रुराज्य के प्रति तटस्थ राज्यों के व्यापार-वाणिज्य संबंधी अथवा अन्य जो संबंध हों, उन्हे न दबाना।
यदि कोई युद्धरत राज्य किसी तटस्थ राज्य की तटस्थता भंग करने का प्रयत्न करें, तो वह तटस्थ राज्य सदैव ही अपनी रक्षा के लिए शस्त्र उठा सकता है और उसका यह बलप्रयोग शत्रुता का कार्य नहीं माना जाएगा।
किसी भी तटस्थ राज्य को, अपने प्रदेश के भीतर से होकर किसी भी युद्धरत राज्य को अपनी सेना, युद्धसामग्री अथवा अन्य रसद आदि निकाल ले जाने की, अनुमति नहीं देनी चाहिए। परंतु वह अपने समुद्रतटीय क्षेत्र से युद्धरत राज्यों के युद्धपोतों को वहाँ से होकर निकल जाने दे सकता है। इन युद्धपोतों को वहाँ से होकर निकल जाने दे सकता है। इन युद्धपोतों को अपने बंदरगाहों से बहिष्कृत करने की उसे आवश्यकता नहीं। किंतु इस प्रकार तटस्थ राज्यों से होकर निकलते समय युद्धरत राज्य के युद्धपोतों को ऐसा कोई शत्रु कार्य नहीं करना चाहिए जिससे शत्रु राज्य के युद्ध पोतों को कोई हानि पहुँचे। युद्धरत राज्यों को तटस्थ राज्यों के समुद्री तट अथवा उनके अपने बंदरगाहों को आधार बनाकर शत्रुराज्य के विरुद्ध आक्रमणात्मक कार्रवाई नहीं करनी चाहिए।
युद्धरत राज्य के सैनिक तटस्थ राज्य के अधिकारक्षेत्र से होकर निकल जाने की चेष्टा करें तो उन्हे बलपूर्वक पीछे हटा देना चाहिए। यदि वे तटस्थ राज्य के अधिकारक्षेत्र में प्रवेश करने में सफल हो जाएँ तो तटस्थ राज्य को चाहिए कि वह उनके शस्त्र रखवाकर उन्हें नजरबंद कर ले। जहाँ तक युद्धबंदियों का प्रश्न है, किसी भी तटस्थ राज्य में प्रवेश करते ही, अपने वहाँ प्रवेश करने के कारण ही वे मुक्त जो जाते हैं। परंतु तटस्थ राज्य का कर्तव्य है कि वह उन्हें अपनी सेना में जाकर पुन: काम करने की अनुमति न प्रदान करें।
तटस्थता के उल्लंघन अंतर्राष्ट्रीय अपराध माने जाते हैं, फिर इसके नियमों का उल्लंघन चाहे कोई तटस्थ राज्य किसी युद्धरत राज्य के विरुद्ध करे, चाहे कोई युद्धरत राज्य किसी तटस्थ राज्य के विरुद्ध करे। इन उल्लंघनों का तुरंत प्रतिकार होना चाहिए। जिस पक्ष पर अत्याचार किया गया हो, वह अत्याचारी पक्ष से क्षतिपूर्ति की माँग कर सकता है। पीड़ित राज्य अत्याचारी राज्य के विरुद्ध युद्ध भी कर सकता है।
तटस्थ राज्य की संपत्ति पर बलात् अधिकार कर लेने के संबंध में जो कानून है, उसके आज के प्रचलित अर्थ के अनुसार, किसी भी युद्धरत राज्य को आक्रमण अथवा सुरक्षा के लिये आवश्यक होने पर तटस्थ राज्य की संपत्ति का उपयोग करने अथवा उसे नष्ट कर देने का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार का प्रयोग तटस्थ राज्य के अधिकारक्षेत्र के भीतर भी किया जा सकता है, शत्रुप्रदेश के अंतर्गत भी किया जा सकता है और खुले समुद्र के भीतर भी। युद्धरत राज्य किसी तटस्थ राज्य को कोई सेवा करने के लिये बाध्य नहीं कर सकता, यों स्वेच्छा से वह कोई सेवा कर दे तो दूसरी बात है। युद्धरत राज्य तटस्थ राज्य की संपत्ति का उपयोग करे अथवा उसे नष्ट कर दे तो युद्धरत राज्य को उसकी क्षतिपूर्ति करनी होगी।
खाता-बही या लेजर उस मुख्य बही को कहते हैं जिसमें पैसे के लेन-देन का हिसाब रखा जाता है। आजकल यह कम्पयूटर-फाइल के रूप में भी होती है। खाता बही में सभी लेन-देन को खाता के अनुसार लिखा जाता है जिसमें डेबित और क्रेडित के के दो अलग-अलग कॉलम होते हैं।
लेखांकन का एक उद्देश्य सुगमता से यह निश्चित करना है व्यापारी को अपने लेनदारों को क्या देना है, उसे अपने देनदारों से क्या लेना है, उसके व्यय और आय कय है इत्यादी। यह भी स्पष्ट है कि यह जानकारी केवल रोजनामचे में सौदों के लिखने मात्र से ही तुरन्त प्राप्त नहीं हो सकती। माना कि एक व्यक्ति यह जानना चाहता है कि उसे 'क' से क्या लेना अथवा देना है तो उसे 'क' से सम्बन्धित प्रविष्टियों को ढ़ूंढने के लिए पूरा रोजनामचा देखना पड़ेगा क्योंकि उसने उससे कई बार माल खरीदा होगा और कई बार उसे धन दिया होगा। यदि यही तरीका अपने साथ व्यवहार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति या फर्म के साथ अपनी स्थिति मालूम करने के लिए प्रयोग में लाया जाय तो वही खाते लिखने का उद्देश्य अंतशः ही प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त इसका अर्थ होगा समय, उर्जा, एवं धन की व्यर्थ बरवादी। अतः प्रत्येक व्यक्ति अथवा फर्म से सम्बन्धित सभी प्रविष्टियों को एक साथ लिखने के लिए कोई त्वरित साधन प्राप्त करना चाहिए। यह सब प्रविष्टियों को एक और पुस्तक में, जिसे खताबही कहते हैं, एकत्रित और संक्षिप्त करके किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति से सम्बन्धित उन सभी प्रविष्टियों को जो अब तक रोजनामचे में विखरी पड़ी थी एक जगह एकत्रित एवं संक्षिप्त किया जाता है।
बाटलीबॉय के अनुसार खाताबही खातों की मुख्य पुस्तक है और इसी पुस्तक में सारे व्यापारिक लेन-देन अन्त में विभाजित होकर अपने-अपने खातों में स्थान प्राप्त करते हैं।
पीकल्स के अनुसार, ‘खाताबही खातों की सबसे महत्त्वपूर्ण पुसतक है और सहायक पुस्तकों में की गई प्रविष्टियों की मंजिल है। यह अनिवार्यतः तीन प्रकार के खातों का संग्रह है - वास्तविक, व्यक्तिगत तथा नाममात्र । उपर्युक्त विवेचन से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि खातावही प्रथम प्रविष्टि की पुस्तक नहीं है क्योंकि कोई भी प्रविष्टि सीधी इस प्रस्तक में नहीं की जाती है। प्रविष्टि सर्वप्रथम सहायक पुस्तकों में की जाती है। यह प्रमुख महत्त्व की पुसतक है। इसमें वयवहार में होने वाले सब सौदों से सम्बन्धित खाते होते हैं। यद्यपि ऐसा कोई पक्का नियम नहीं है तथापि साधारणतया खाताबही के एक पृष्ठ में एक ही खाता होता है। ऐसा अशुद्धियों एवं पूरी लिखावट के भद्देपन को दूर करने के लिए किया जाता है।
यदि खातों की संख्या बहुत अधिक हो तो एक ही खाताबही में सब खातों को रखना संभव नहीं हो सकता। ऐसी दशा में बही को कई विभागों अथवा परिणामों में विभाजित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए रोकड़ बही खाताबही का ही एक उपविभाजन हैं। इसमें रोकड़ के सौदे लिखे जाते हैं।
खाताबही को विभाजित करने का एक-तरीका उसे व्यक्तिग और अव्यक्तिगत या साधारण खाताबही में विभाजित करना है। व्यक्तिगत खाताबही को आगे विक्रय खाताबही के खाते में उपविभाजित किया जा सकता है। इसी प्रकार से खाताबही को भी वास्तविक खाताबही और नाम मात्र खाताबही में उपविभाजित किया जा सकता है। कभी-कभी पूंजी खाता और आहरण खाता रखने के लिए निजी खाताबही रखी जाती है। परन्तु कम्पनी में ऐसी कोई खाताबही नहीं रखी जाती है।
यह नोट किया जाना चाहिए कि खाताबही को उपविभाजित करने की केवल अकेली उपरोक्त विधि ही नहीं है। विभाजित करने की विधियां प्रत्येक के के हालात पर निर्भर करती है। प्रत्येक खाताबही के आरम्भ में अभिसूचक होता है। सामान्यता यह वर्णात्मक अभिसूचक होता है। अभिसूचक का एक पृष्ठ वर्णमाला के एक अक्षर के लिए नियत कर दिया जाता है और जो नाम जिस अक्षर से आरम्भ होते हैं वे उस अक्षर के लिए नियत पृष्ठ पर लिख दिए जाते हैं। अभिसूचक में प्रत्येक खाते के सामने खाताबही के उस पृष्ठ की संख्या लिख दी जाती है जिस पर वह खाता खोला गया है।
व्यापार में खाताबही के कई प्रारूप मिलते हैं। सर्वसामान्य प्रारूप में तिथि, सौदे का विवरण, पृष्ठांक और धनराशि के लिए स्तम्भ होते हैं। व्यापारिक आवश्यकताओं के अनुरूप अतिरिक्त घन-राशि स्तम्भ जोड़े जा सकते हैं। प्रारूप का एक वैकल्पिक रूप, जिसे बैंको और कुछ व्यवसायिक संस्थाओं मे अपाना जाता है, वह है जिसके खाताबही के पूरे पृष्ठ को छह स्तम्भों में बांट दिया जाता है। ये स्तम्भ हैं -
इस वैकल्पिक प्रारूप का लाभ यह है कि प्रत्येक सौदे के उपरान्त खाते का शेष अपने आप निकाला जा सकता है शेष ज्ञात करने के लिए वर्ष की समाप्ति तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती हैं।
रोजनामचे एवं अन्य सहायक पुस्तको से खाताबही में प्रविष्टियां करने की प्रक्रिया को खतौनी कहा जाता है। रोजनामचे एवं अन्य सहायक पुस्तकों में दी गई प्रविष्टियों के लिए आधार बनाती है। खतौनी के कार्य के लिए विशेष कुशलता की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि यह सामान्य प्रकार का कार्य है।
प्रविष्टियों के रोजनामचे में लिखने के पश्चात् खाताबही में खताया जाना चाहिए। अन्य सहायक पुस्त्कों की खतौनी से रोजनामचे की खतौनी आसान है। रोजनामचे के डेबिट पक्ष के धन-राशि स्तम्भ में लिखी गई धनराशि को खाताबही में सम्बन्धित खाते के क्रेडिट पक्ष मे खताया जाता है और क्रेडिट पक्ष के धन-राशि स्तम्भ में लिखी गई धनराशि को खाताबही में सम्बन्धित खाते के क्रेडिट पक्ष में खताया जाता है। खाताबही के विवरण स्तम्भ में खातों के नाम अदल-बदल कर दिए जाते हैं - रोजनामचे के उस खाते का नाम जिसमें कि धन-राशि डेबिट की गई है। खाताबही में दूसरे खाते के क्रेडिट पक्ष के विवरण स्तम्भ में लिखा जाएगा। इसी प्रकार से इसका विपरीत भी सही है। यह निम्नलिखित उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है।
खाताबही में प्रत्येक लेनदार का एक अलग खाता खोला जाता है। प्रत्येक क्रय की धन-राशि उससे सम्बन्धित व्यक्तिगत खाते में साधारणतया प्रतिदिन क्रेडिट की जाएगी। इस पुस्तक की द्वि-प्रविष्टि कुल क्रयों का आवधिक योग के क्रय खाते में डेबिट करने से पूर्ण होगी।
खाता पुस्तक में प्रत्येक देनदार का एक अलग खाता खोलना होगा। साधारणतया उधार बिक्रि को वैयक्ति खाते में प्रतिदिन खताया जाता है। ग्राहकों के वैयक्ति खाते को विक्रय की धनराशि से डेबिट किया जाएगा। विक्रय खाता उधार बिक्री के मासिक योग से क्रेडिट किया जाएगा। इस प्रकार इस पुस्तक की द्वि-प्रविष्टि पूर्ण की जाएगी।
खातबही में उस प्रत्येक व्यक्ति, जिसे माल लौटाया गया है, को ‘डेबिट किया जाता है और महीने के अन्त में वापसियों के आवधिक योग को खाताबही में क्रय वापसी खाते में क्रेडिट किया जाता है।
उस प्रत्येक ग्राहक को जो माल लौटाता है, क्रेडिट किया जाता है और महीने के अन्त में विक्रय-वापसी पुस्तक के योग के विक्रय-वापसी खाते को डेबिट किया जाता है।
रोकड़ की सभी मदों को खाताबही में खाताबही में खताया जाता है। रोकड़ बही के डेबिट पक्ष में लिखी सभी प्राप्तियों को सम्बन्धित खातों के क्रेडिट में ‘रोकड़ से’, बैंक से’, ‘छूट से’ लिखकर खताया जाता है। रोकड़ बही के क्रेडिट पक्ष में लिखे गये सभी भुगतानों को सम्बन्धित खातों के डेबिट में ‘रोकड से’, ‘छूट से’, बैंक से’ लिखकर खताया जाता है। रोकड़ बही के डेबिट पक्ष के छूट सत्म्भ के योग को खाताबही में छूट खाते के डेबिट पक्ष में लिखा जाता है। क्योंकि मदें व्यक्तिगत खातों के क्रेडिट पक्ष में खताई जाती है। मदों को व्यक्तिगत खातों के डेबिट में खताई जाने की वजह से रोकड़ बही के क्रेडिट पक्ष के छूट स्तम्भ के योग को खाताबही में छूट खाते के क्रेडिट पक्ष में लिखा जाता है।
उस व्यक्ति, जिससे विनमय-विपत्र मिला है, का खाता विपत्र की धन-राशि से क्रेडिट कर दिया जाता है। प्राप्त विपत्रों के मासिक योग से खाताबही में प्राप्य-विनिमय-विपत्र खाता डेबिट किया जाता है।
उस व्यक्ति, जिसको विपत्र दिया जाता है, का खाता विपत्र की धन-राशि से डेबिट किया है। देय विपत्रों के मासिक योग से खाताबही में देय विनिमय विपत्र खाते को क्रेडिट किया जाता है।
आवधिक अन्तराल पर खुदरा रोकड़ बही के वैश्लेषक स्तम्भों द्वारा दर्शाए गए खुदरा व्ययों के विश्लेषण की जनरल प्रविष्टि की जाती है। प्रत्येक नाम मात्र के खाते को उसके सम्बिन्ध योग से डेबिट किया जाता है और खुदरा रोकड़ खात अवधि में किए गए कुल खुदरा व्ययों की से क्रेडिट किया जात है।
यह पता लगाने के लिए कि एक विषेश व्यक्ति से क्या लेना है या एक विषेश व्यक्ति को क्या देना है, उसके व्यक्तिगत खाते का शेष निकालना आवश्यक है। इस प्रक्रिया को खाते बन्द करना कहते हैं।
एक खाते का शेष निकालने के लिए उसके दोनों पक्षों का योग लगाया जाता है। यदि दोनों पक्ष बराबर नहीं होते, तो दोनों पक्षों को बराबर करने के लिए अन्तर की कमी वाले पक्ष में लिख दिया जाता है। कमी वाले पक्ष में लिखने के लिए जो अन्तर इस प्रकार प्राप्त किया जाता है उसे उस खाते का शेष कहते हैं।
यदि डेबिट पक्ष का योग क्रेडिट पक्ष के योग से अधिक है तो शेष को श्ठल ठंसंदबम बधकश्लिख कर क्रेडिट पक्ष लिख दिया जाता है। ऐसी दशा में उस शेष को डेबिट शेष कहा जाता है। दूसरे वर्ष के आरम्भ में इस शेष को खाता खोलने समय श्ठल इंसंदबम इधकश्लिख कर डेबिट पक्ष में लिख दिया जाता है। इसी प्रकार से यदि क्रेडिट पक्ष का योग डेबिट पक्ष के योग से अधिक है तो शेष को श्ठल इंसंदबम इधकश्लिखकर क्रेडिट पक्ष में लिख दिया जाता है। इस शेष को क्रेडिट शेश काहा जाता है।
वास्तविक खाते व्यापार की सम्पत्तियों को दर्शाते हैं। इस खातों के शेष चिट्ठे की तिथि पर व्यापार के अधिकार वाली सम्पत्तियों की धन-राशि ज्ञात करने के लिए निकाले जाते हैं। इनका शेष भी उसी प्रकार निकाला जाता है। जिस प्रकार व्यक्तिगत खातों का शेष निकाला जाता है। यह नोट किया जाना चाहिए कि वास्तविक खातों का शेष हमेशा डेबिट ही होता है या कोई शेष नहीं होता अर्थात् उनका शेष कभी भी क्रेडिट शेष नहीं हो सकता।
नाम मात्र खाते व्यापार के व्ययों, हानियों आयों तथा लाभों से सम्बन्ध रखते हैं। इनका शेष नहीं निकाला जाता है। वस्तुतः इन्हें व्यापार खाते अथवा लाभ-हानि खाते में स्थानान्तरित करके बन्द कर दिया जाता है।
टिप्पणी
खातों का शेष निकालते हुए या उसको बन्द करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि दोनों पक्षों का जोड़ एक सीध में लिखा जाए। यदि खातों में केवल एक ही प्रविष्टि है तो जोड़ लगाना आनावश्यक है। प्रविष्टि के नीचे खीची दोहरी रेखा का तात्पर्य यह होगा कि वह प्रविष्टि ही स्वयं का जोड़ है। इसी प्रकार यदि एक खाते की दोनों ओर समान धन-राशि वाली एक-एक प्रविष्ट है तो भी जोड़ लगाना अनावश्यक होगा।
सर जे जे स्कूल ऑफ आर्ट,
धुंडिराज गोविन्द फालके उपाख्य दादासाहब फालके वह महापुरुष हैं जिन्हें भारतीय फिल्म उद्योग का 'पितामह' कहा जाता है।
दादा साहब फालके, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। वह मंच के अनुभवी अभिनेता थे, शौकिया जादूगर थे। कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी का एक पाठ्यक्रम भी किया था। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे। प्रिंटिंग के जिस कारोबार में वह लगे हुए थे, 1910 में उनके एक साझेदार ने उससे अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया। उस समय इनकी उम्र 40 वर्ष की थी कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़िचड़ा हो गया था। उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर ‘ईसामसीह’ पर बनी एक फिल्म देखी। फिल्म देखने के दौरान ही फालके ने निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है। उन्हें लगा कि रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी। उनके पास सभी तरह का हुनर था। वह नए-नए प्रयोग करते थे। अतः प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी स्वभावगत प्रकृति के चलते प्रथम भारतीय चलचित्र बनाने का असंभव कार्य करनेवाले वह पहले व्यक्ति बने।
उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया। फिर दिन में 20 घंटे लगकर प्रयोग किये। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर पड़ा। उनकी एक आंख जाती रही। उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया। सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिये । उनके अपने मित्र ही उनके पहले आलोचक थे। अतः अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर बोई। फिर इसके बढ़ने की प्रक्रिया को एक समय में एक फ्रेम खींचकर साधारण कैमरे से उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की। इस तरह से बनी अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर ऋण प्राप्त करने में वह सफल रहे।
फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए वह इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की। इन्होंने ‘राजा हरिशचंद्र’ बनायी। चूंकि उस दौर में उनके सामने कोई और मानक नहीं थे, अतः सब कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ी। अभिनय करना सिखाना पड़ा, दृश्य लिखने पड़े, फोटोग्राफी करनी पड़ी और फिल्म प्रोजेक्शन के काम भी करने पड़े। महिला कलाकार उपलब्ध न होने के कारण उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार थे । होटल का एक पुरुष रसोइया सालुंके ने भारतीय फिल्म की पहली नायिका की भूमिका की। शुरू में शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे । छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में यह रिलीज की गई। पश्चिमी फिल्म के नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, अतः यह फिल्म जबरदस्त हिट रही।
फालके के फिल्मनिर्मिती के प्रयास तथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म 'हरिश्चंद्राची फॅक्टरी' 2009 में बनी, जिसे देश विदेश में सराहा गया।
दादासाहब फालके का पूरा नाम धुंडीराज गोविन्द फालके है और इनका जन्म महाराष्ट्र के नाशिक शहर से लगभग 20-25 किमी की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी त्र्यंबकेश्वर में 30 अप्रैल 1870 ई. को हुआ था। इनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे और मुम्बई के एलफिंस्तन कालेज में प्राध्यापक थे। इस कारण दादासाहब की शिक्षा-दीक्षा मुम्बई में ही हुई। 25 दिसम्बर 1891 की बात है, मुम्बई में 'अमेरिका-इंडिया थिएटर' में एक विदेशी मूक चलचित्र "लाइफ ऑफ क्राइस्ट" दिखाया जा रहा था और दादासाहब भी यह चलचित्र देख रहे थे। चलचित्र देखते समय दादासाहब को प्रभु ईसामसीह के स्थान पर कृष्ण, राम, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम इत्यादि महान विभूतियाँ दिखाई दे रही थीं। उन्होंने सोचा क्यों नहीं चलचित्र के माध्यम से भारतीय महान विभूतियों के चरित्र को चित्रित किया जाए। उन्होंने इस चलचित्र को कई बार देखा और फिर क्या, उनके हृदय में चलचित्र-निर्माण का अंकुर फूट पड़ा।
उनमें चलचित्र-निर्माण की ललक इतनी बड़ गई कि उन्होंने चलचित्र-निर्माण संबंधी कई पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन किया और कैमरा लेकर चित्र खींचना भी शुरु कर दिया।जब दादासाहब ने चलचित्र-निर्माण में अपना ठोस कदम रखा तो इन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जैसे-तैसे कुछ पैसों की व्यवस्था कर चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरणों को खरीदने के लिए दादासाहब लंदन पहुँचे। वे वहाँ बाइस्कोप सिने साप्ताहिक के संपादक की मदद से कुछ चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरण खरीदे और 1912 के अप्रैल माह में वापस मुम्बई आ गए। उन्होने दादर में अपना स्टूडियो बनाया और फालके फिल्म के नाम से अपनी संस्था स्थापित की। आठ महीने की कठोर साधना के बाद दादासाहब के द्वारा पहली मूक फिल्म "राजा हरिश्चंन्द्र" का निर्माण हुआ। इस चलचित्र के निर्माता, लेखक, कैमरामैन इत्यादि सबकुछ दादासाहब ही थे। इस फिल्म में काम करने के लिए कोई स्त्री तैयार नहीं हुई अतः लाचार होकर तारामती की भूमिका के लिए एक पुरुष पात्र ही चुना गया। इस चलचित्र में दादासाहब स्वयं नायक बने और रोहिताश्व की भूमिका उनके सात वर्षीय पुत्र भालचन्द्र फालके ने निभाई। यह चलचित्र सर्वप्रथम दिसम्बर 1912 में कोरोनेशन थिएटर में प्रदर्शित किया गया। इस चलचित्र के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फिल्में "भस्मासुर मोहिनी" और "सावित्री" बनाई। 1915 में अपनी इन तीन फिल्मों के साथ दादासाहब विदेश चले गए। लंदन में इन फिल्मों की बहुत प्रशंसा हुई। कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर 1937 में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम सवाक फिल्म "गंगावतरण" बनाई। दादासाहब ने कुल 125 फिल्मों का निर्माण किया। 16 फ़रवरी 1944 को 74 वर्ष की अवस्था में पवित्र तीर्थस्थली नासिक में भारतीय चलचित्र-जगत का यह अनुपम सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया। भारत सरकार उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष चलचित्र-जगत के किसी विशिष्ट व्यक्ति को 'दादा साहब फालके पुरस्कार' प्रदान करती है।
दादासाहब नें 19 साल के लंबे करियर में कुल 95 फिल्में और 27 लघु फिल्मे बनाईं।
तुकोजीराव होल्कर प्रथम अहिल्याबाई होल्कर का सेनापति था तथा उसकी मृत्यु के बाद होल्करवंश का शासक बन गया था। दूरदर्शिता के अभाव तथा प्रबल महत्वाकांक्षावश इसने महादजी शिन्दे से युद्ध मोल लिया था तथा अंततः पूर्णरूपेण पराजित हुआ था।
बाजीराव प्रथम के समय से ही 'शिन्दे' तथा 'होल्कर' मराठा साम्राज्य के दो प्रमुख आधार स्तंभ थे। राणोजी शिंदे एवं मल्हारराव होलकर शिवाजी महाराज के सर्वप्रमुख सरदारों में से थे, लेकिन इन दोनों परिवारों का भविष्य सामान्य स्थिति वाला नहीं रह पाया। राणोजी शिंदे के सभी उत्तराधिकारी सुयोग्य हुए जबकि मल्हारराव होलकर की पारिवारिक स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो गयी। उनके पुत्र खंडेराव के दुर्भाग्यपूर्ण अंत के पश्चात अहिल्याबाई होल्कर के स्त्री तथा भक्तिभाव पूर्ण महिला होने से द्वैध शासन स्थापित हो गया। राजधानी में नाम मात्र की शासिका के रूप में अहिल्याबाई होल्कर थी तथा सैनिक कार्यवाहियों के लिए उन्होंने तुकोजी होलकर को मुख्य कार्याधिकारी बनाया था। कोष पर अहिल्याबाई अपना कठोर नियंत्रण रखती थी तथा तुकोजी होलकर कार्यवाहक अधिकारी के रूप में उनकी इच्छाओं तथा आदेशों के पालन के लिए अभियानों एवं अन्य कार्यों का संचालन करता था। अहिल्याबाई भक्ति एवं दान में अधिक व्यस्त रहती थी तथा सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप सेना को उन्नत बनाने पर विशेष ध्यान नहीं दे सकी। तुकोजी होलकर अत्यधिक महत्वाकांक्षी परंतु अविवेकी व्यक्ति था। आरंभ में मराठा अभियानों में वह महाद जी के साथ सहयोगी की तरह रहा। तब तक उसकी स्थिति भी अपेक्षाकृत सुदृढ़ रही। बालक पेशवा माधवराव नारायण की ओर से बड़गाँव तथा तालेगाँव के बीच ब्रिटिश सेना की पराजय, रघुनाथराव के समर्पण तथा मराठों की विजय में महादजी के साथ तुकोजी होलकर का भी अल्प परंतु संतोषजनक भाग था।
सन् 1780 में तुकोजी महादजी से अलग हो गया। उसके बाद महादजी ने राजनीतिक क्षेत्र में भारी उन्नति प्राप्त की तथा तुकोजी का स्थान काफी नीचा हो गया। वस्तुतः तुकोजी में दूरदर्शिता का अभाव था। वह अपने अधीनस्थ व्यक्तियों एवं सचिवों के हाथ की कठपुतली की तरह था। विशेषतः उसके सचिव नारोशंकर का उस पर अनर्गल प्रभाव था। इन्हीं कारणों से अहिल्याबाई का मुख्य कार्यवाहक होने के बावजूद स्वयं अहिल्याबाई उस पर अधिक विश्वास नहीं करती थी। लालसोट के संघर्ष के बाद 1787 में महादजी द्वारा सहायता भेजे जाने के अनुरोध पर नाना फडणवीस ने पुणे से अली बहादुर तथा तुकोजी होलकर को भेजा था; परंतु एक तो इन दोनों ने पहुँचने में अत्यधिक समय लगाया और फिर पहुँचकर भी महादजी से वैमनस्य उत्पन्न कर लिया। तुकोजी जीते गये प्रांतों में हिस्सा चाह रहा था और स्वभावतः महादजी का कहना था कि यदि हिस्सा चाहिए तो पहले विजय हेतु व्यय किये गये धन को चुकाने में भी हिस्सा देना चाहिए। राजपूत संघ द्वारा उत्पन्न महादजी के कष्टों को दूर करने के स्थान पर तुकोजी ने उनके शत्रुओं का पक्ष लिया तथा महादजी के प्रयत्नों को निर्बल बनाने में योगदान दिया। वस्तुतः तुकोजी मदिरा-व्यसनी सैनिक मात्र था। प्रशासन के कार्यों में मुख्यतः वह अपने षड्यंत्रकारी सचिव नारों गणेश के हाथों का खिलौना बनकर ही रह गया था। अहिल्याबाई तथा तुकोजी जो प्रायः समवयस्क थे कभी समान मतवाले होकर नहीं रह पाये। अहिल्याबाई ने तुकोजी को पदच्युत करने का भी प्रयत्न किया परंतु उनके परिवार में कोई अन्य व्यक्ति ऐसा था भी नहीं जो कि सेना का नियंत्रण संभाल सकता। अतः कोष पर अहिल्याबाई की पकड़ बनी रही और सैनिक अभियानों में तुकोजी होलकर को भुखमरी की स्थिति तक का सामना करना पड़ा।
तुकोजी होल्कर के चार पुत्र थे-- काशीराव, मल्हारराव, विठोजी तथा यशवंतराव। इनमें से प्रथम दो औरस पुत्र थे तथा अंतिम दो अनौरस । परंतु ये सभी मदिरा-व्यसनी और नीच प्रकृति के थे। मदिरापान करके उन्मुक्त होकर चिल्लाते हुए ये एक दूसरे के गले पकड़ लेते थे। सन् 1791 में महादजी ने अपना उत्तर भारतीय कार्य सफलतापूर्वक संपन्न कर लिया तथा सफलता एवं वैभव के शिखर पर आसीन होकर दक्षिण लौटे। होल्कर के उपभोग के लिए कोई वास्तविक सत्ता या कार्यक्षेत्र रह नहीं गया था। इससे तुकोजी होलकर के साथ अहिल्याबाई भी काफी निराश हुई तथा महादजी के प्रति ये दोनों ईर्ष्या-ग्रस्त हो गये।
अगस्त 1790 में महादजी ने मथुरा में विधिपूर्वक उस शाही फरमान को ग्रहण करने के लिए उत्सव किया, जिसके द्वारा वे साम्राज्य के सर्व सत्ता प्राप्त एकमात्र राज्य प्रतिनिधि नियुक्त किये गय थे। भव्य दरबार का प्रबंध किया गया था। तुकोजी को छोड़कर इस दरबार में समस्त सामंत उपस्थित हुए। तुकोजी ने इस दरबार में भाग लेना अस्वीकार कर के एक प्रकार से महादजी का सार्वजनिक अपमान किया था।
तुकोजी लगातार पेशवा की आज्ञाओं को भी नजरअंदाज कर रहा था तथा 1792 में शिंदे के विरुद्ध उसने सरदारों को भी उभारा। परिणामस्वरूप महादजी ने उसका सर्वनाश करने का निश्चय किया। 8 अक्टूबर 1792 को महादजी की ओर से गोपाल राव भाऊ ने सुरावली नामक स्थान पर होलकर पर आकस्मिक आक्रमण किया। अनेक सैनिक मारे गए परंतु खुद तुकोजी होलकर बंदी होने से बच गया। यद्यपि बापूजी होलकर तथा पाराशर पंत के प्रयत्न से इस प्रकरण में समझौता हो गया, परंतु इंदौर में अहिल्याबाई तथा तुकोजी के उद्धत पुत्र मल्हारराव द्वितीय को यह अपमानजनक लगा। बाहरी दुनिया से अनभिज्ञ होने के कारण अहिल्याबाई ने मल्हारराव के रण में अधिकारपूर्वक जाने देने के उद्धत प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। उसने मनचाही सेना तथा धन लेकर अपने पिता के शिविर में पहुँचकर समझौते तथा बापूजी एवं पाराशर पंत के परामर्श का उल्लंघन कर महादजी के बिखरे अश्वारोहियों पर आक्रमण आरंभ कर दिया। गोपालराव द्वारा समाचार पाकर महादजी ने आक्रमण का आदेश दे दिया।
लाखेरी में हुए इस युद्ध के बारे में माना गया है कि इतना जोरदार युद्ध उत्तर भारत में कभी नहीं हुआ था। होल्कर के अश्वारोही दल की संख्या लगभग 25,000 थी। उनके साथ करीब 2,000 डुड्रेनेक की प्रशिक्षित पैदल सेना थी, जिसके पास 38 तोपें थीं। महादजी के प्रतिनिधि गोपालराव 20,000 अश्वारोही, 6,000 प्रशिक्षित पैदल तथा फ्रेंच शैली की उन्नत 80 हल्की तोपें लेकर होल्कर के सामने डट गया। प्रथम टक्कर 27 मई 1793 को हुई तथा निर्णायक युद्ध 1 जून 1793 को हुआ। महादजी के अनुभवसिद्ध प्रबंधक जीवबा बख्शी तथा दि बायने की चतुर रण शैली के कारण होल्कर की समस्त सेना का लगभग सर्वनाश हो गया। उद्धत मल्हारराव सड़क किनारे एक तालाब के पास मदिरा के नशे में अचेत पकड़ा गया।
तुकोजी होल्कर का अहंकार चूर्ण हो गया और वह इंदौर लौट गया। 'रस्सी जल गयी परंतु ऐंठन नहीं गयी'। लौटते हुए उसने शिंदे की राजधानी उज्जैन को निर्दयतापूर्वक लूटकर अपनी प्रतिशोध-भावना को शांत किया।
उक्त घटना के बाद तुकोजी प्रायः शांत रहा। 1795 में निजाम के विरुद्ध मराठों के खरडा के युद्ध में अत्यंत वृद्धावस्था में उसने भाग लिया था। 1795 ई0 में अहिल्याबाई का देहान्त हो जाने पर तुकोजी ने इंदौर का राज्याधिकार ग्रहण किया। अपनी अंतिम अवस्था में तुकोजी पुणे में ही रहा। अपने अविनीत पुत्रों तथा विभक्त परिवार का नियंत्रण करने में वह असमर्थ रहा। 15 अगस्त 1797 को पुणे में ही तुकोजी का निधन हो गया।
सर चार्ल्स स्पेन्सर चैप्लिन, KBE एक अंग्रेजी हास्य अभिनेता और फिल्म निर्देशक थे। चैप्लिन, सबसे प्रसिद्ध कलाकारों में से एक होने के अलावा अमेरिकी सिनेमा के क्लासिकल हॉलीवुड युग के प्रारंभिक से मध्य तक एक महत्वपूर्ण फिल्म निर्माता, संगीतकार और संगीतज्ञ थे।
चैप्लिन, मूक फिल्म युग के सबसे रचनात्मक और प्रभावशाली व्यक्तित्वों में से एक थे जिन्होंने अपनी फिल्मों में अभिनय, निर्देशन, पटकथा, निर्माण और अंततः संगीत दिया। मनोरंजन के कार्य में उनके जीवन के 75 वर्ष बीते, विक्टोरियन मंच और यूनाइटेड किंगडम के संगीत कक्ष में एक शिशु कलाकार से लेकर 88 वर्ष की आयु में लगभग उनकी मृत्यु तक। उनकी उच्च-स्तरीय सार्वजनिक और निजी जिंदगी में अतिप्रशंसा और विवाद दोनों सम्मिलित हैं। 1919 में मेरी पिकफोर्ड, डगलस फेयरबैंक्स और डी.डब्ल्यू.ग्रिफ़िथ के साथ चैप्लिन ने यूनाइटेङ आर्टिस्टस की सह-स्थापना की।
चैप्लिन: अ लाइफ किताब की समीक्षा में, मार्टिन सिएफ्फ़ ने लिखा की: "चैप्लिन सिर्फ 'बड़े' ही नहीं थे, वे विराट् थे। 1915 में, वे एक युद्ध प्रभावित विश्व में हास्य, हँसी और राहत का उपहार लाए जब यह प्रथम विश्व युद्ध के बाद बिखर रहा था। अगले 25 वर्षों में, महामंदी और हिटलर के उत्कर्ष के दौरान, वह अपना काम करते रहे। वह सबसे बड़े थे। यह संदिग्ध है की किसी व्यक्ति ने कभी भी इतने सारे मनुष्यों को इससे अधिक मनोरंजन, सुख और राहत दी हो जब उनको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।"
चार्ल्स स्पेन्सर चैप्लिन का जन्म 16 अप्रैल 1889 को ईस्ट स्ट्रीट, वॉलवर्थ, लंदन, इंग्लैंड में हुआ था। उसके माता पिता दोनों संगीत हॉल परंपरा में मनोरंजक थे; उनके पिता एक गायक और अभिनेता थे और उनकी माँ, एक गायक और अभिनेत्री थी। चार्ली की आयु तीन होने से पहले वे अलग हो गए थे। उन्होंने अपने माता पिता से गाना सीखा था। 1891 की गणना के हिसाब से उनकी माँ, अभिनेत्री हैन्ना हिल, चार्ली और उनके सौतेले बड़े भाई सिडनी के साथ बारलो स्ट्रीट, वॉलवर्थ में रहती थी। बचपन में, चार्ली अपनी माँ के साथ लैम्बेथ के केंन्निगटन रोड में और उसके आस पास विभिन्न पतों में रहे हैं, जिनमें 3 पोनल टेर्रस, चेस्टर स्ट्रीट और 39 मेथ्ले स्ट्रीट शामिल हैं। उनकी नानी अर्ध बंजारन थी, इस तथ्य से वह बेहद गर्वित थे, लेकिन उनका वर्णन "परिवार की अलमारी का कंकाल" के रूप में भी किया था। चैप्लिन के पिता, चार्ल्स चैप्लिन सीनियर, एक शराबी थे और अपने बेटे के साथ उनका कम संपर्क रहा, हालांकि चैप्लिन और उनका सौतेला भाई कुछ समय के लिए अपने पिता और उनकी उपपत्नी लुईस के साथ 287 केंन्निगटन रोड में रहे हैं, जहां एक पट्टिका अब इस तथ्य की स्मृति है। उनका सौतेला भाई वहाँ रहता था जब उनकी मानसिक रूप से बीमार माँ कॉउल्सडॉन में केन हिल अस्पताल में रहती थी। चैप्लिन के पिता की उपपत्नी ने उसे आर्कबिशप मंदिर लड़कों के स्कूल में भेजा था। शराब पीने की वजह से 1901 में उनके पिता की मृत्यु हो गई, जब चार्ली बारह वर्ष के थे। 1901 की गणना के अनुसार, चार्ल्स आठ लंकाशायर लड़कों के साथ, जॉन विलियम जैक्सन द्वारा संचालित 94 फर्ङेल रोड, लैम्बेथ में रहते थे।
एक कंठनाली की बुरी हालत ने चैप्लिन की माँ के गायन कैरियर का अंत कर दिया। हैन्ना का पहला संकट 1894 में आया जब वह अल्डरशॉट में एक थियेटर, द कैंटीन, में प्रदर्शन कर रही थीं। उस थियेटर में मुख्यतः विद्रोही और सैनिक अचार्ल्स चैप्लिन नामक अन्य व्यक्तियों के लिये चार्ल्स चैप्लिन देखें।चार्ली चैप्लिन
Chaplin in costume as The Trampजन्म नाम चार्ल्स स्पेन्सर चैप्लिनजन्म 16 अप्रैल 1889वालवर्थ, लंदन, इंग्लैण्डमृत्यु 25 दिसम्बर 1977 Vevey, Switzerlandव्यवसाय Actor, director, producer, screenwriter, composer, mimeकार्यकाल 1895–1976जीवनसाथी Mildred Harris Lita Grey Paulette Goddard Oona O'Neill सन्तान Christopher, Eugene and Michael Chaplin and five daughters: Geraldine, Josephine, Jane, Victoria and Annette-Emily Chaplin
सर चार्ल्स स्पेन्सर चैप्लिन, KBE एक अंग्रेजी हास्य अभिनेता और फिल्म निर्देशक थे। चैप्लिन, सबसे प्रसिद्ध कलाकारों में से एक होने के अलावा अमेरिकी सिनेमा के क्लासिकल हॉलीवुड युग के प्रारंभिक से मध्य तक एक महत्वपूर्ण फिल्म निर्माता, संगीतकार और संगीतज्ञ थे।
चैप्लिन, मूक फिल्म युग के सबसे रचनात्मक और प्रभावशाली व्यक्तित्वों में से एक थे जिन्होंने अपनी फिल्मों में अभिनय, निर्देशन, पटकथा, निर्माण और अंततः संगीत दिया। मनोरंजन के कार्य में उनके जीवन के 75 वर्ष बीते, विक्टोरियन मंच और यूनाइटेड किंगडम के संगीत कक्ष में एक शिशु कलाकार से लेकर 88 वर्ष की आयु में लगभग उनकी मृत्यु तक। उनकी उच्च-स्तरीय सार्वजनिक और निजी जिंदगी में अतिप्रशंसा और विवाद दोनों सम्मिलित हैं। 1919 में मेरी पिकफोर्ड, डगलस फेयरबैंक्स और डी.डब्ल्यू.ग्रिफ़िथ के साथ चैप्लिन ने यूनाइटेङ आर्टिस्टस की सह-स्थापना की।
चैप्लिन: अ लाइफ किताब की समीक्षा में, मार्टिन सिएफ्फ़ ने लिखा की: "चैप्लिन सिर्फ 'बड़े' ही नहीं थे, वे विराट् थे। 1915 में, वे एक युद्ध प्रभावित विश्व में हास्य, हँसी और राहत का उपहार लाए जब यह प्रथम विश्व युद्ध के बाद बिखर रहा था। अगले 25 वर्षों में, महामंदी और हिटलर के उत्कर्ष के दौरान, वह अपना काम करते रहे। वह सबसे बड़े थे। यह संदिग्ध है की किसी व्यक्ति ने कभी भी इतने सारे मनुष्यों को इससे अधिक मनोरंजन, सुख और राहत दी हो जब उनको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।" 1 प्रारंभिक जीवन2 अमेरिका3 अग्रणी फिल्म कलाकार4 फिल्म निर्माण की तकनीक5 रचनात्मक नियंत्रण5.1 द ग्रेट डिक्टेटर6 राजनीति7 मैक कार्थी युग8 अकादमी पुरस्कार8.1 प्रतियोगी पुरस्कार8.2 मानद पुरस्कार9 अंतिम काम10 महिलाओं के साथ रिश्ते, शादी और बच्चे10.1 हेट्टी केली10.2 एडना परविएन्स10.3 मिल्ड्रेड हैर्रिस10.4 पोला नेग्री10.5 मैरिओन डाविस10.6 लीटा ग्रे10.7 मरना कैनेडी10.8 जॉर्जिया हेल10.9 लूइस ब्रूक्स10.10 में रीव्स10.11 पौलेट जूलिएट गोडार्ड10.12 जोऐन बैरी10.13 ऊना ओ'नील11 बच्चे12 शूरवीर की पदवी13 मृत्यु14 अन्य विवाद15 विरासत16 अन्य मूक कॉमिक्स के साथ तुलना17 मीडिया18 फिल्मोग्राफी19 इन्हें भी देखें20 टिप्पणी21 आगे पठन22 बाहरी लिंक
प्रारंभिक जीवन
चैप्लिन सी. 1910 के दशक मेंचार्ल्स स्पेन्सर चैप्लिन का जन्म 16 अप्रैल 1889 को ईस्ट स्ट्रीट, वॉलवर्थ, लंदन, इंग्लैंड में हुआ था। उसके माता पिता दोनों संगीत हॉल परंपरा में मनोरंजक थे; उनके पिता एक गायक और अभिनेता थे और उनकी माँ, एक गायक और अभिनेत्री थी। चार्ली की आयु तीन होने से पहले वे अलग हो गए थे। उन्होंने अपने माता पिता से गाना सीखा था। 1891 की गणना के हिसाब से उनकी माँ, अभिनेत्री हैन्ना हिल, चार्ली और उनके सौतेले बड़े भाई सिडनी के साथ बारलो स्ट्रीट, वॉलवर्थ में रहती थी। बचपन में, चार्ली अपनी माँ के साथ लैम्बेथ के केंन्निगटन रोड में और उसके आस पास विभिन्न पतों में रहे हैं, जिनमें 3 पोनल टेर्रस, चेस्टर स्ट्रीट और 39 मेथ्ले स्ट्रीट शामिल हैं। उनकी नानी अर्ध बंजारन थी, इस तथ्य से वह बेहद गर्वित थे, लेकिन उनका वर्णन "परिवार की अलमारी का कंकाल" के रूप में भी किया था।चैप्लिन के पिता, चार्ल्स चैप्लिन सीनियर, एक शराबी थे और अपने बेटे के साथ उनका कम संपर्क रहा, हालांकि चैप्लिन और उनका सौतेला भाई कुछ समय के लिए अपने पिता और उनकी उपपत्नी लुईस के साथ 287 केंन्निगटन रोड में रहे हैं, जहां एक पट्टिका अब इस तथ्य की स्मृति है। उनका सौतेला भाई वहाँ रहता था जब उनकी मानसिक रूप से बीमार माँ कॉउल्सडॉन में केन हिल अस्पताल में रहती थी। चैप्लिन के पिता की उपपत्नी ने उसे आर्कबिशप मंदिर लड़कों के स्कूल में भेजा था। शराब पीने की वजह से 1901 में उनके पिता की मृत्यु हो गई, जब चार्ली बारह वर्ष के थे। 1901 की गणना के अनुसार, चार्ल्स आठ लंकाशायर लड़कों के साथ, जॉन विलियम जैक्सन द्वारा संचालित 94 फर्ङेल रोड, लैम्बेथ में रहते थे।
एक कंठनाली की बुरी हालत ने चैप्लिन की माँ के गायन कैरियर का अंत कर दिया। हैन्ना का पहला संकट 1894 में आया जब वह अल्डरशॉट में एक थियेटर, द कैंटीन, में प्रदर्शन कर रही थीं। उस थियेटर में मुख्यतः विद्रोही और सैनिक अक्सर आते थे। दर्शकों द्वारा फैंके गई वस्तुओं से हैन्ना बुरी तरह घायल हो गईं और शोरगुल मचाकर उन्हें मंच के बहार भेज दिया गया था। मंच के पीछे, वह रोई और अपने प्रबंधक के साथ बहस किया था।इस बीच, पांच वर्षीय चैप्लिन अकेले मंच पर गए और उस समय की एक प्रसिद्ध धुन, "जैक जोन्स", गाई |
चैप्लिन की माँ को दुबारा केन हिल अस्पताल में भर्ती कराने के बाद, उनके बेटे को दक्षिण लंदन में लैम्बेथ की कार्यशाला में छोडा गया था, फिर कई हफ्तों के बाद हैनवेल में अकिंचन के लिए सेंट्रल लंदन जिला स्कूल में चले गए। युवा चैप्लिन भाइयों ने जीवित रहने के लिए एक करीबी रिश्ता बनाया। बहुत छोटी उम्र में वे संगीत हॉल की ओर आकर्षित हुए और दोनों में ही काफी प्राकृतिक मंच प्रतिभा साबित हुई। चैप्लिन के प्रारंभिक वर्षों की हताश गरीबी ने उनके चरित्र पर काफी प्रभाव डाला। बाद के वर्षों में उनकी फिल्मों का विषय लैम्बेथ में उनके बचपन के अभाव दृश्यों को पुनः दर्शाता है।
1928 में हॉलीवुड में चैप्लिन की माँ की मृत्यु हो गई, उनके पुत्रों द्वारा अमेरिका में उन्हें लाने के सात साल बाद| चार्ली और सिडनी की माँ द्वारा उनका एक सौतेला भाई था जो उन्हें कुछ सालों बाद पता चला.उस लड़के को, व्हीलर ड्राईडेन, को विदेश में उसके पिता ने बड़ा किया लेकिन बाद में वह अपने बाकी परिवार के साथ जुड़ गया और चैप्लिन के साथ काम करने के लिए हॉलीवुड स्टूडियो चला गया था।
अमेरिका
मेकिंग अ लिविंग, चापलिन की पहली फिल्म
1910 से 1912 तक चैप्लिन ने फ्रेड कार्नो मंडली के साथ पहले अमेरिका का दौरा किया। इंङिपेंङेंट ऑर्ङर ऑफ ऑङ फैलोज़ में कार्नो उनका सहोदर भाई है। इंग्लैंड में पांच महीने के बाद, वह दूसरे दौरे के लिए 2 अक्टूबर 1912 को कार्नो मंडली के साथ U.S. लौटे.कार्नो कंपनी में आर्थर स्टेनली जेफर्सन थे, जो बाद में स्टेन लॉरेल के रूप में जाना गया था। चैप्लिन और लॉरेल ने बोर्डिंग घर में एक कमरा बांटा था। स्टेन लॉरेल इंग्लैंड लौटे पर चैप्लिन संयुक्त राज्य अमेरिका में ही रहे। 1913 के अंत में, मैक सेनेट, माबेल नोरमंड, मिंटा डर्फी और फैटी आरबक्कल द्वारा, कार्नो मंडली के साथ चैप्लिन का प्रदर्शन देखा गया था। सेनेट ने फोर्ड स्टर्लिंग की स्थानापन्न के रूप में अपने स्टूडियो कीस्टोन फ़िल्म कंपनी में उन्हें नौकरी दी। दुर्भाग्य से, चैप्लिन को फिल्म अभिनय की मांग समायोजन में काफी प्रारंभिक कठिनाई हुई और उनके प्रदर्शन पर काफी प्रभाव पड़ा था। चैप्लिन की पहली फिल्मी उपस्थिति के बाद, मेकिंग अ लिविंग फिल्म बनाई गई, सेनेट को लगा की उन्होंने एक बड़ी महंगी गलती की थी।ज्यादातर लोगों का मानना है कि नोरमंड ने उन्हें चैप्लिन को एक और मौका देने के लिए मनाया था।
नोरमंड को चैप्लिन सौंपे गए थे, जिन्होंने उनकी कुछ पहली फिल्मों को निर्देशित किया और लिखा था।चैप्लिन को एक महिला द्वारा निर्देशित होना पसंद नहीं था और दोनों अक्सर असहमत रहते थे।अंत में दोनों ने अपने मतभेदों को दूर किया और चैप्लिन के कीस्टोन छोड़ने के बाद भी लंबे समय तक दोस्त बने रहे।
मैक सेनेट, चैप्लिन पर एकदम गुस्सा नहीं हुए और चैप्लिन को विश्वास था की नोरमंड के साथ असहमति के बाद सेनेट उन्हें निकाल देते.हालांकि, चैप्लिन की फिल्में जल्द ही सफल हईं और वह कीस्टोन के एक सबसे बड़े स्टार बन गए।
अग्रणी फिल्म कलाकारचैप्लिन की पहली फिल्में मैक सेनेट के कीस्टोन स्टूडियो के लिए बनाई गई थी, जहाँ उन्होंने अपने बहेतू चरित्र को विकसित किया और बहुत जल्दी फिल्म बनाने की कौशल और कला सीखी.जनता ने पहली बार बहेतू देखा जब 24 उम्र के चैप्लिन अपनी रिलीज होने वाली दूसरी फिल्म, किड ऑटो रेसिस ऐट वेनिस, में दिखे .
हालांकि, उन्होंने अपनी बहेतू पोशाक एक फिल्म, माबेल्स स्ट्रेंज प्रेड़िकमेंट, के लिए बनाई, जो कुछ दिन पहले रिलीज़ होने वाली थी लेकिन बाद में रिलीज़ हुई .मैक सेनेट ने अनुरोध किया था कि चैप्लिन "एक कॉमेडी मेकअप में रहें".अपनी आत्मकथा में जैसा चैप्लिन ने याद किया।
"मुझे पता नहीं था कि कैसा मेकअप करना है। मुझे एक प्रेस रिपोर्टर के रूप में अपना पात्र पसंद नहीं आया। लेकिन अलमारी की ओर जाते हुए मैंने सोचा कि मैं बैगी पैंट, बड़े जूते, एक छड़ी और एक डर्बी टोपी पहनूँगा.मैं सब कुछ विरोधाभास चाहता था: पैंट बैगी, कोट तंग, टोपी छोटी और जूते बड़े. मैं दुविधा में था कि बड़ा दिखूं या छोटा, लेकिन सेनेट को याद किया तो वह चाहता था की में एक वृद्ध आदमी लगूं, मैंने एक छोटी मूछ लगाई, जो मुझे लगा कि मुझे बड़ा दिखाएगी, मेरी अभिव्यक्ति छुपाए बिना.मुझे भूमिका का पता नहीं था। लेकिन जब में तैयार हो गया तो उन कपडों और मेकअप में मुझे वो व्यक्ति महसूस हुआ। मैं उसे जानने लगा और जब तक में स्टेज में पहुंचा तब तक वह जन्म ले चुका था।
फैटी आरबक्कल ने अपने ससुर की डर्बी और अपनी पैन्ट का योगदान दिया . चेस्टर कोन्क्लिन ने छोटी कटअवे टेलकोट और फोर्ड स्टर्लिंग ने 14 नं. के जूते प्रदान किए, जो इतने बड़े थे, की चैप्लिन को उन्हें पहन कर चलने के लिए उनको गलत पैरों पर पहनना पड़ा.उन्होंने मैक स्वेन के क्रेप बालों से मूछ बनाई. सिर्फ बांस की छड़ी उनकी अपनी थी।चैप्लिन की बहेतू भूमिका तुरंत सिनेमा के दर्शकों के बीच भारी लोकप्रियता हासिल करने लगी.
किड ऑटो रेसिस ऐट वेनिस : चैप्लिन की दूसरी फिल्म है और उनके "बहेतू" पोशाक की पहली फिल्मचैप्लिन की शुरुआती कीस्टोन में मैक सेनेट की अत्यधिक शारीरिक कॉमेडी और अतिशयोक्तिपूर्ण इशारों के मानक का उपयोग किया गया था। चैप्लिन का मूकाभिनय सूक्ष्म था और सामान्य कीस्टोन आखेट और भीड़ के दृश्य की जगह, रोमांटिक और घरेलू नकल के लिए उपयुक्त हो सकता था। दृश्य प्रतिबन्ध शुद्ध कीस्टोन थे, लेकिन; बहेतू भूमिका में लातों और ईंटों के साथ अपने दुश्मन पर आक्रामक हमला करना था। फिल्म दर्शकों ने इस नए हंसमुख गँवारू हास्य अभिनेता को पसंद किया, हालांकि आलोचकों ने चेतावनी दी कि उनकी हरकतें अश्लीलता की सीमा पर हैं। चैप्लिन को जल्दी ही अपनी फिल्मों का निर्देशन और संपादन कार्य सौंपा गया था। फिल्मों में अपने पहले वर्ष उन्होंने सेनेट के लिए 34 शॉर्ट्स बनाए, साथ ही ऐतिहासिक हास्य फीचर "टिल्लिस पंक्चर्ड रोमांस ".
चैप्लिन की मुख्य भूनिका "द ट्रेंप" की थी . परिष्कृत शिष्टाचार, कपडे और एक सज्जन के सम्मान के साथ "द ट्रेंप" एक आवारा है। यह चरित्र एक तंग कोट, बड़ी पतलून और जूते और एक डर्बी पहनता है; एक बांस की छड़ी; और एक अनोखी टूथब्रश मूंछें हैं। बहेतू चरित्र को पहली फिल्म ट्रेलर में प्रदर्शित किया गया था जो एक अमेरिकी फिल्म थियेटर में दिखाया जाना था, निल्स ग्रंलंड द्वारा विकसित एक स्लाइड पदोन्नति, जो किमार्कस लोएव थियेटर श्रृंखला में विज्ञापन प्रबंधक था और 1914 में हरलेम में लोएव के सेवेन्थ एवेन्यू रंगमंच में दिखाया गया था। 1915 में, चैप्लिन ने एस्सने स्टूडियोज़ के साथ एक अधिक अनुकूल अनुबंध पर हस्ताक्षर किए और अपनी सिनेमाई कौशल को और विकसित किया, कीस्टोन शैली तमाशे में गहराई और करुणा का नया स्तर जोड़ा.अधिकांश एस्सने फिल्में अधिक महत्वाकांक्षी थी, जो औसत कीस्टोन हास्य से दुगनी चलतीं थी। चैप्लिन ने अपनी भी शेयर कंपनी बनाई, जिसमें भोली एडना परविएन्स और हास्य खलनायक लियो व्हाइट और बड जमिसन शामिल थे।
1916 में, म्युचुअल फिल्म निगम ने दो दर्जन रील हास्य बनाने के लिए चैप्लिन को अमेरिकी $670,000 का भुगतान किया। उन्हें पूरा कलात्मक नियंत्रण दिया गया था और अठारह महीनों में बारह फिल्मों का निर्माण किया, जिन्हें सिनेमा में सबसे प्रभावशाली कॉमेडी फिल्मों की श्रेणी मिली। व्यावहारिक रूप से हर म्यूचुअल कॉमेडी एक उत्कृष्ट है: ईज़ी स्ट्रीट, वन एएम्, द पौनशॉप और द एडवेंचर सबसे अच्छे जाने जाते हैं। एडना परविएन्स नायिका बनी रहीं और चैप्लिन ने अपने शेयर कंपनी में एरिक कैम्पबेल, हेनरी बर्गमन और अल्बर्ट ऑस्टिन को शामिल किया; कैम्पबेल एक गिल्बर्ट और सुलिवान दिग्गज ने, शानदार खलनायकी प्रदान की और दूसरा बनाना बेर्गमन और ऑस्टिन, चैप्लिन के साथ दशकों तक रहे। चैप्लिन ने म्यूचुअल अवधि को अपने कैरियर की सबसे प्रसन्नतम अवधि माना, हालांकि उनको अन्य चिंताएं थीं कि उस समय के दौरान फिल्में फार्मूलाबद्ध थीं, जिसके कारण उनके अनुबंध की आवश्यकता की वजह से कड़े निर्माण कार्यक्रम थे। विश्व युद्घ में अमेरिका के प्रवेश के बाद, चैप्लिन अपने करीबी दोस्त डगलस फेयरबैंक्स और मेरी पिक्कफोर्ड के साथ एक स्वतंत्रता बांड्स के प्रवक्ता बन गए।