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डाउसे तथा ह्यूज : राजनीतिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की एक शाखा है जिसका सम्बन्ध मुख्य रूप से राजनीति और समाज में अन्तःक्रिया का विश्लेषण करना है।
जेनोविट्स : व्यापकतर अर्थ में राजनीतिक समाजशास्त्र समाज के सभी संस्थागत पहलुओं की शक्ति के सामाजिक आधार से सम्बन्धित है। इस परम्परा में राजनीतिक समाजशास्त्र स्तरीकरण के प्रतिमानों तथा संगठित राजनीति में इसके परिणामों का अध्ययन करता है।
लिपसेट : राजनीतिक समाजशास्त्र को समाज एवं राजनीतिक व्यवस्था के तथा सामाजिक संरचनाओं एवं राजनीतिक संस्थाओं के पारस्परिक अन्तःसम्बन्धों के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
बेंडिक्स : राजनीति विज्ञान राज्य से प्रारम्भ होता है और इस बात की जांच करता है कि यह समाज को कैसे प्रभावित करता है। राजनीतिक समाजशास्त्र समाज से प्रारम्भ होता है और इस बात की जांच करता है कि वह राज्य को कैसे प्रभावित करता है।
पोपीनो : राजनीतिक समाजशास्त्र में वृहत् सामाजिक संरचना तथा समाज की राजनीतिक संस्थाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
सारटोरी : राजनीतिक समाजशास्त्र एक अन्तःशास्त्रीय मिश्रण है जो कि सामाजिक तथा राजनीतिक चरों को अर्थात् समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित निर्गमनों को राजनीतिशास्त्रियों द्वारा प्रस्तावित निर्गमनों से जोड़ने का प्रयास करता है। यद्यपि राजनीतिक समाजशास्त्र राजनीतिशास्त्र तथा समाजशास्त्र को आपस से जोड़ने वाले पुलों में से एक है, फिर भी इसे ‘राजनीति के समाजशास्त्र’ का पर्यायवाची नहीं समझा जाना चाहिए।
लेविस कोजर : राजनीतिक समाजशास्त्र, समाजशास्त्र की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध सामाजिक कारकों तथा तात्कालिक समाज में शक्ति वितरण से है। इसका सम्बन्ध सामाजिक और राजनीतिक संघर्षो से है जो शक्ति वितरण में परिवर्तन का सूचक है।
टॉम बोटामोर : राजनीतिक समाजशास्त्र का सरोकर सामाजिक सन्दर्भ में सत्ता से है। यहां सत्ता का अर्थ है एक व्यक्ति या सामाजिक समूह द्वारा कार्यवाही करने, निर्णय करने व उन्हें कार्यान्वित करने और मोटे तौर पर निर्णय करने के कार्यक्रम को निर्धारित करने की क्षमता जो यदि आवश्यक हो तो अन्य व्यक्तियों और समूहों के हितों और विरोध में भी प्रयुक्त हो सकती है।
राजनीति विज्ञान के परम्परावादी विद्वान अपने अध्ययन विषय का सम्बन्ध ‘राज्य’ और ‘सरकार’ जैसी औपचारिक संस्थाओं से जोड़ते थे। राजनीति विज्ञान में व्यवहारवादी क्रान्ति के परिणामस्वरूप ‘राजनीति’ शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के राजनीतिक व्यवहार, हित समूहों की क्रियाओं तथा विभिन्न हित समूहों में संघर्ष के समाधान के लिए किया जाने लगा। डेविड ईस्टन ने इसे किसी समाज में मूल्यों के प्राधिकारिक वितरण से सम्बन्धित क्रिया कहा है। संक्षेप में, राजनीति के अध्ययन से अभिप्राय केवल राज्य और सरकार की औपचारिक राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करना ही नहीं अपितु यह एक सामाजिक क्रिया है क्योंकि सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों में राजनीति पायी जाती है।
निष्कर्षतः राजनीतिक समाजशास्त्र का उपागम सामाजिक एवं राजनीतिक कारकों को समान महत्व देने के कारण, समाजशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र दोनों से भिन्न है तथा इसलिए यह एक पृथक् सामाजिक विज्ञान है। प्रो.आर.टी. जनगम के अनुसार राजनीतिक समाजशास्त्र को समाजशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र के अन्तःउर्वरक की उपज माना जा सकता है जो राजनीति को सामाजिक रूप में प्रेक्षण करते हुए, राजनीति पर समाज के प्रभाव तथा समाज पर राजनीति के प्रभाव का अध्ययन करता है। संक्षेप, में राजनीतिक समाजशास्त्र समाज के सामाजिक आर्थिक पर्यावरण से उत्पन्न तनावों और संघर्षो का अध्ययन कराने वाला विषय है। राजनीति विज्ञान की भांति राजनीतिक समाजशास्त्र समाज में शक्ति सम्बन्धों के वितरण तथा शक्ति विभाजन का अध्ययन हैं इस दृष्टि से कतिपय विद्वान इसे राजनीति विज्ञान का उप-विषय भी कहते है।
उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने से ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ की निम्नलिखित विशेषताएं स्पष्ट होती हैं-
अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘राजनीतिक समाजशास्त्र’ राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र दोनों के गुणों को अपने में समाविष्ट करते हुए यह दोनों का अधिक विकसित रूप में प्रतिनिधित्व करता है। एस.एस. लिपसेट इसी बात को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं : यदि समाज-व्यवस्था का स्थायित्व समाजशास्त्र की केन्द्रीय समस्या है तो राजनीतिक व्यवस्था का स्थायित्व अथवा जनतन्त्र की सामाजिक परिस्थिति राजनीतिक समाजशास्त्र की मुख्य चिन्ता है।
प्रक्रम गति का सूचक है। किसी भी वस्तु की आंतरिक बनावट में भिन्नता आना परिवर्तन है। जब एक अवस्था दूसरी अवस्था की ओर सुनिश्चित रूप से अग्रसर होती है तो उस गति को प्रक्रम कहा जाता है। इस अर्थ में जीव की अमीबा से मानव तक आने वाली गति, भूप्रस्तरण की क्रियाएँ तथा तरल पदार्थ का वाष्प में आना प्रक्रम के सूचक हैं। प्रक्रम से ऐसी गति का बोध होता है जो कुछ समय तक निरंतरता लिए रहे। सामान्य जगत्‌ में जड़ और चेतन, पदार्थ और जीव में आने वाले ऐसे परिवर्तन प्रक्रम के द्योतक हैं। इस प्रकार प्रक्रम शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होता है।
प्रक्रम के इस मूल ग्रंथ के उपयोग सामाजिक जीवन के समझने के लिए किया गया है। सामाजिक शब्द से उस व्यवहार का बोध होता है जो एक से अधिक जीवित प्राणियों के पारस्परिक संबंध को व्यक्त करे, जिसका अर्थ निजी न होकर सामूहिक हो, जिसे किसी समूह द्वारा मान्यता प्राप्त हो और इस रूप में उसकी सार्थकता भी सामूहिक हो। एक समाज में कई प्रकार के समूह हो सकते हैं जो एक या अनेक दिशाओं में मानव व्यवहार को प्रभावित करें। इस अर्थ में सामाजिक प्रक्रम वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सामाजिक व्यवस्था अथवा सामाजिक क्रिया की कोई भी इकाई या समूह अपनी एक अवस्था से दूसरी अवस्था की ओर निश्चित रूप से कुछ समय तक अग्रसर होने की गति में हो।
एक दृष्टि से विशिष्ट दिशा में होने वाले परिवर्तन सामाजिक व्यवस्था के एक भाग के अंतर्गत देखे जा सकते हैं तथा दूसरी से सामाजिक व्यवस्था के दृष्टिकोण से। प्रथम प्रकार के परिवर्तन के तीन रूप हैं-
आकार के आधार पर संख्यात्मक रूप से परिभाषित - जनसंख्या की वृद्धि, एक स्थान पर कुछ वस्तुओं का पहले से अधिक संख्या में एकत्र होना, जैसे अनाज की मंडी में बैलगाड़ियों या ग्राहकों का दिन चढ़ने के साथ बढ़ना, इसके उदाहरण हैं। मैकईश्वर ने इसके विपरीत दिशा में उदाहरण नहीं दिए हैं, किंतु बाजार का शाम को समाप्त होना, बड़े नगर में दिन के 8 से 10 बजे के बीच बसों या रेलों द्वारा बाहरी भाग से भीतरी भागों में कई व्यक्तियों का एकत्र होना तथा सायंकाल में विसर्जित होना ऐसे ही उदाहरण हैं। अकाल तथा महामारी के फैलने से जनहानि भी इसी प्रकार के प्रक्रम के द्योतक हैं।
संरचनात्मक तथा क्रियात्मक दृष्टि से गुण में होने वाली परिवर्तन - किसी भी सामाजिक इकाई में आंतरिक लक्षणों का प्रादुर्भाव होना या उनका लुप्त होना इस प्रकार के प्रक्रम के द्योतक हैं। जनतंत्र के लक्षणों का लघु रूप से पूर्णता की ओर बढ़ना ऐसा ही प्रक्रम है। एक छोटे कस्बे का नगर के रूप में बढ़ना, प्राथमिक पाठशाला का माध्यमिक तथा उच्च शिक्षणालय के रूप में सम्मुख आना, छोटे से पूजा स्थल का मंदिर या देवालय की अवस्था प्राप्त करना विकास के उदाहरण हैं। विकास की क्रिया से आशय उन गुणों की अभिवृद्धि से है जो एक अवस्था में लघु रूप से दूसरी अवस्था में वृहत्‌ तथा अधिक गुणसंपन्न स्थिति को प्राप्त हुए हैं। यह वृद्धि केवल संख्या या आकार की नहीं, वरन्‌ आंतरिक गुणों की है। इस भाँति की वृद्धि संरचना में होती है और क्रियाओं में भी। इंग्लैंड में प्रधानमंत्री और संसद के गुण रूपी वृद्धि में निरंतरता देखी गई है। इस विकास की दो दिशाएँ थीं। इन्हें किसी भी दिशा से देखा जा सकता है। भारत में कांग्रेस का उदय और स्वतंत्रता की प्राप्ति एक ओर तथा ब्रिटिश सरकार का निरंतर शक्तिहीन होना दूसरी ओर इसी रूप से देखा जा सकता है। जब तक सामाजिक विकास में नई आने वाली गुण संबंधी अवस्था को पहले आने वाली अवस्था से हेय या श्रेय बताने का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक सामाजिक प्रक्रम विकास व ्ह्रास की स्थिति स्पष्ट करते हैं।
निश्चित मर्यादाओं के आधार पर लक्ष्यों का परिवर्तन - जब एक अवस्था से दूसरी अवस्था की ओर जाना सामाजिक रूप से स्वीकृत वा श्रेय माना जाए तो उस प्रकार का प्रक्रम उन्नति या प्रगति का रूप लिए होता है और जब सामाजिक मान्यताएँ परिवर्तन द्वारा लाई जाने वाली दिशा को हीन दृष्टि से देखें तो उसे पतन या विलोम होने की प्रक्रिया कहा जाएगा। रूस में साम्यवाद की ओर बढ़ाने वाले कदम प्रगतिशील माने जाएँगे, अमरीका में राजकीय सत्ता बढ़ाने वाले कदम पतन की परिभाषा तक पहुँच जाएंगे, शूद्र वर्ण के व्यक्तियों का ब्राह्मण वर्ण में खान-पान होना समाजवादी कार्यक्रम की मान्यताओं में प्रगति का द्योतक है और परंपरागत व्यवस्थाओं के अनुसार अध:पतन का लक्षण। कुछ व्यवस्थाएँ एस समय की मान्यताओं के अनुसार श्रेयस्कर हो सकती हैं और दूसरे समय में उन्हें तिरस्कार की दृष्टि से देखा जा सकता है। रोम में ग्लेडिएटर की व्यवस्था, या प्राचीन काल में दास प्रथा की अवस्था में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर भावनाएँ निहित थीं। समाज में विभिन्न वर्ग या समूह होते हैं, उनसे मान्यताएँ निर्धारित होती हैं। एक समूह की मान्यताएँ कई बार संपूर्ण समाज के अनुरूप होती हैं। कभी-कभी वे विपरीत दिशाओं में भी जाती हैं और उन्हीं के अनुसार विभिन्न सामाजिक परिवर्तनों का मूल्यांकन श्रेय वा हेय दिशाओं में किया जा सकता है। जब तक सामाजिक मान्यताएँ स्वयं न बदल जाएँ, वे परिवर्तनों को प्रगति या पतन की परिभाषा लंबे समय तक देती रहती हैं।
दूसरे प्रकार के सामाजिक प्रक्रम अपने से बाहर किंतु किसी सामान्य व्यवस्था के अंग के रूप में संतुलन करने या बढ़ने की दृष्टि से देखे जा सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन चब एक संस्था के लक्षणों में आते हैं तो कई बार उस संस्था की संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था या अन्य विभागों से बना हुआ संबंध बदल जाता है। पहले के संतुलन घट-बढ़ जाते हैं और किसी भी दिशा में प्रक्रम चालू हो जाते हैं। परिवारों के छोटे होने के साथ संयुक्त परिवार के ्ह्रास के फलस्वरूप वृद्ध व्यक्तियों का परिवार या ग्राम से संबंध बदलता सा दिखाई पड़ रहा है। सामंतशाही के सदृढ़ संबंध एकाएक उस युग के प्रमुख व्यक्तियों के लिए एक नई समस्या लेकर आए हैं। इस भांति के परिवर्तनों को समझने का आधारभूत तत्व समाज के एक अंग की पूर्वावस्था के संतुलन को नई अवस्था की समस्याओं से तुलना करने में है। इस प्रकार के परिवर्तन संतुलन बढ़ाने या घटाने वाले हो सकते हैं। संतुलन एक अंग का अन्य अंगों से देखा जा सकता है।
दो व्यक्ति या समूह जब एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्वीकृत साधनों के उपयोग द्वारा प्रयत्न करते हैं तो यह क्रिया प्रतियोगिता कहलाती है। इसमें लक्ष्य प्राप्ति के साधन सामान्य होते हैं। कभी-कभी नियमावली तक प्रकाशित हो जाती है। ओलंपिक खेल तथा खेल की विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताएँ इसकी सूचक हैं। परीक्षा के नियमों के अंतर्गत प्रथम स्थान प्राप्त करना दूसरा उदाहरण है। जब नियमो को भंग कर, या उनकी अवहेलना कर लक्ष्य प्राप्ति के लिए विपक्षी को नियमों से परे हानि पहुँचाकर प्रयास किए जाएँ तो वे संघर्ष कहलाएँगे। राजनीतिक दलों में प्रतियोगिता मूल नियमों को सदृढ़ बनाती हैं; उनमें होने वाले संघर्ष नियमों को ही क्षीण बनाते हैं और इस प्रकार अव्यवस्था फैलाते हैं। कभी-कभी छोटे संघर्ष बड़ी एकता का सर्जन करते हैं। बाहरी आक्रमण के समय भीतरी संगठन कई बार एक हो जाते हैं, कभी-कभी ऐसा कुव्यवस्था जड़ पकड़ लेती है कि उसे साधारण से परे ढंग से भी नहीं हटाया जा सकता। यह आवश्यक नहीं कि संघर्ष का फल सदा समाज के अहित में हो, किंतु उस प्रक्रम में नियमों के अतिरिक्त होने वाले प्रभावात्मक कदम अवश्य उठ जाते हैं।
एक समाज या संस्कृति का दूसरे समाज या संस्कृति से जब मुकाबला होता है तो कई बार एक के तत्व दूसरे में तथा दूसरे के पहले में आने लगते हैं। संस्कृति के तत्वों का इस भाँति का ग्रहण अधिकतर सीमित एवं चुने हुए स्थलों पर ही होता है। नाश्ते में अंग्रेजों से चाय ग्रहण कर ली गई पर मक्खन नहीं; घड़ियों का उपयोग बढ़ा पर समय पर काम करने की आदत उतनी व्यापक नहीं हुई; कुर्सियों पर पलथी मार कर बैठना तथा नौकरी दिलाने में जाति को याद करना इसी प्रकार के परिवर्तन हैं। दर समाज में वस्तुओं के उपयोग के साथ कुछ नियम और प्रतिबंध हैं, कुछ मान्यताएँ तथा विधियाँ हैं और उनकी कुछ उपादेयता है। एक वस्तु का जो स्थान एक समाज मे है, उसका वही स्थान इन सभी बिंदुओं पर दूसरे समाज में हो जाए यह आवश्यक नहीं। भारत में मोटर और टेलीफोन का उपयोग सम्मान वृद्धि के मापक के रूप में है, जबकि अमरीका में वह केवल सुविधा मात्र का; कुछ देशों में परमाणु बम रक्षा का आधार है, कुछ में प्रतिष्ठा का। इस भाँति संस्कृति का प्रसार समाज की आवश्यकताओं, मान्यताओं तथा सामाजिक संरचना द्वारा प्रभावित हो जाता है। इस प्रक्रिया में नई व्यवस्थाओं एवं वस्तुओं के कुछ ही लक्षण ग्रहण किए जाते हैं। इसे अंग्रेजी में एकल्चरेशन कहा गया है। कल्चर में जब किसी नई वस्तु का आंशिक समावेश किया जाता है तो उस अंश ग्रहण को इस शब्द से व्यक्त किया गया है।
जब किसी संस्कृति के तत्व को पूर्णरूपेण नई संस्कृति में समाविष्ट कर लिया जाए तब उस प्रक्रिया को ऐसिमिलेशन कहा जाता है। इस शब्द का बोध है कि ग्रहण किए गए लक्षण या वस्तु को इस रूप में संस्कृति का भाग बना लिया है, मानो उसका उद्गम कभी विदेशी रहा ही न हो। आज के रूप में वह संस्कृति का इतना अभिन्न अंग बन गया है कि उसके आगमन का स्रोत देखने की आवश्यकता का मान तक नहीं हो सकता। हिंदी का खड़ी बोली का स्वरूप हिंदी भाषी प्रदेश में आज उतना ही स्वाभाविक है जितना उनके लिए आलू का उपयोग या तंबाकू का प्रचलन। भारत में शक, हूण और सीथियन तत्वों का इतना समावेश हो चुका है कि उनका पृथक्‌ अस्तित्व देखना ही मानो निरर्थक हो गया है। एक भाषा में अन्य भाषाओं के शब्द इसी रूप में अपना स्थान बना लेते हैं, जैसे पंडित का अंग्रेजी में या रेल मोटर का हिंदी में समावेश हो गया है। बाहरी व्यवस्था से प्राप्त तत्व जब अभिन्न रूप से आंतरिक व्यवस्था का भाग बन जाता है तब उस प्रक्रम को आत्मीकरण कहा जाता है।
एक ही समाज के विभिन्न भाग जब एक-दूसरे का समर्थन करते हुए सामाजिक व्यवस्था को अखंड बनाए रखने में योगदान करते रहते हैं तो उस प्रक्रम को इंटेग्रेशन कहा जाता है। इस प्रकार के समाज की ठोस रचना कई बार समाज को बलवान्‌ बनाते हुए नए विचारों से विहीन बना देती है। नित्य नए परिवर्तनों के बीच एकमात्र ठोस व्यवस्ता स्वयं में संतुलन खो बैठती है। अत: अपेक्षित है कि जीवित सामाजिक व्यवस्था अपने अंदर उन प्रक्रियाओं को भी प्रोत्साहन हे, जिनसे नई अवस्थाओं के लिए नए संतुलन बन सकें; इस दृष्टि से पूर्ण संगठित समाज स्वयं में कमजोरी लिए होता है। गतिशील समाज में कुछ असंतुलन आवश्यक है किंतु मुख्य बात देखने की यह है कि उसमें नित्य नए संतुलन तथा समस्या समाधान के प्रक्रम किस स्वास्थ्यप्रद ढंग से चलते हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग एवं संघर्ष की प्रक्रियाएँ सदा चलते हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग एवं संघर्ष की प्रक्रियाएँ सदा चलती रहती हैं और उनके बीच व्यवस्था बनाए रखना हर समाज के बने रहने के लिए ऐसी समस्या है जिसके समाधान का प्रयत्न करते रहना आवश्यक है।
विल्हेम द्वितीय या विलियम द्वितीय जर्मनी का अन्तिम सम्राट तथा प्रशा का राजा था जिसने जर्मन साम्राज्य एवं प्रशा पर 15 जून 1888 से 9 नवम्बर 1918 तक शासन किया।
विलियम प्रथम की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र फैड्रिक तृतीय जर्मनी के राजसिंहासन पर 9 मार्च 1888 ई. को आसीन हुआ। किन्तु केवल 100 दिन राज्य करने के बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु होने पर उसका पुत्र विलियम द्वितीय राज्य सिंहासन पर आसीन हुआ। वह एक नवयुवक था। उसमें अनेक गुणों और दुर्गुणों का सम्मिश्रण था। वह कुशाग्र बुद्धि, महत्वकांक्षी आत्मविश्वासी तथा असाधारण नवयुवक था। वह स्वार्थी और घमण्डी था तथा उसका विश्वास राजा के दैवी सिद्धांत में था। किसी अन्य व्यक्ति के नियंत्रण में रहना उसको असह्य था जिसके कारण कुछ ही दिनों के उपरांत उसकी अपने चांसलर बिस्मार्क से अनबन हो गई। परिस्थितियों से बाध्य होकर बिस्मार्क को त्याग-पत्र देना पड़ा। बिस्मार्क के पतन के उपरांत विलियम ने समस्त सत्ता को अपने हाथों में लिया और उसके मंत्री आज्ञाकारी सेवक बन गये और वह स्वयं का शासन का कर्णधार बना।
विलियम कैसर अत्यधिक हठी, महत्वाकांक्षी एवं क्रोधी व्यक्ति था। वह कहता था कि हमारा भविष्य समुद्र पर निर्भर है। उसके जर्मनी को समुद्री शक्ति बनाने के प्रयास ने इंग्लैण्ड की स्थायी शत्रुता प्राप्त कर ली थी। उसकी नीति थी- 'संपूर्ण विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना।' यदि इसमें उसे सफलता न मिले तो वह विश्व के सर्वनाश के लिए तत्पर था। व्यापारिक देश होने के कारण इंग्लैण्ड युद्ध के पक्ष में नहीं था, जिसे विलियम कैसर इंग्लैण्ड की कायरता समझता था। वह आक्रमक रूख अपनाकार इंग्लैण्ड को भयभीत कर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था और यह गलत समझ थी कि इंग्लैंड किसी भी कीमत पर युद्ध टालना चाहेगा। इस प्रकार विलियम कैसर के उग्र, साम्राज्यवादी, निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी व्यक्तित्व ने यूरोप को महायुद्ध के कगार पर पहुंचा दिया।
कैसर विलियम द्वितीय की विश्व नीति के निम्नलिखित तीन मुख्य उद्देश्य थे -
उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति करने के अभिप्राय से कैसर विलियम द्वितीय ने जर्मनी की ‘विदेश नीति’ का संचालन करना आरंभ किया। प्रथम उद्देश्य के कारण आस्ट्रिया के साथ घनिष्ट मेल आवश्यक था, क्योंकि वह भी उसी दिशा में बढ़ कर सैलोनिका के बन्दरगाह पर अधिकार करना चाहता था। इसका अर्थ था, मध्य यूरोप के कूटनीतिज्ञ गुट को सुदृढ़ बनाना। आस्ट्रिया और रूस के हितों में संघर्ष होने के कारण इसका अर्थ रूस से अलग हटना और अन्त में उसे अपना विरोधी बना लेना भी था। दूसरे उद्देश्य की पूर्ति का अर्थ था, 'संसार में जहां कहीं भी आवश्यक हो, विशेषकर अफ्रीका में, जर्मनी की शक्ति का प्रदर्शन करना।' इस संबन्ध में मोरक्को ने फ्रांस को दो बार 1905 ई. और 1911 ई. में चुनौती दी। तीसरे उद्देश्य की पूर्ति का स्पष्ट परिणाम था इंगलैंड के साथ तीव्र प्रतिस्पर्द्धा और वैमनस्य। सारांश में इस नई नीति का स्वाभाविक परिणाम होना था, रूस, फ्रांस और इंगलैंड की शत्रुता और अंत में इन तीनों का उसके मुकाबले में एकत्रित हो जाना, अर्थात् बिस्मार्क के समस्त कार्य का विनाश। विलियम द्वितीय ने अपनी नीति से उसकी समस्त व्यवस्था को नष्ट कर दिया।
तीन वर्ष के अंदर रूस जर्मनी से अलग हो गया और बाद में फ्रांस से संधि करके उसने उसके एकाकीपन का अंत कर दिया। 6 वर्ष के अंदर इंगलैंड शत्रु बन गया। मोरक्को में हस्तक्षेप करने सेफ्रांस से शत्रुता और बढ़ गई और 1907 ई. तक जर्मनी, आस्ट्रिया तथा इटली के त्रिगुट के मुकाबले में फ्रांस, रूस और इंगलैंड की त्रिराष्ट्र मैत्री स्थापित हो गई। इटली का त्रिगुट से संबंध भी शिथिल पड़ता जा रहा था किन्तु विलियम द्वितीय ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया।
1890 ई. में पुनराश्वासन संधि की पुनरावृत्ति होने वाली थी जो बिस्मार्क द्वारा जर्मनी और रूस में हुई थी, जबकि विलियम रूस की अपेक्षा आस्ट्रिया से सुदृढ़ संबंध स्थापित करना चाहता था जिससेवह बालकन में होकर पूर्वी भूमध्यसागर को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने में सफल हो सके। रूस ने भी इस पुनराश्वासन संधि की पुनरावृत्ति को यह कहकर मना कर दिया कि 'सन्धि बड़ी पेचीदा है और इसमें आस्ट्रिया के लिये धमकी मौजूद है जिसके बड़े अनिष्टकारी परिणाम हो सकते हैं।'
पुनराश्वासन सन्धि की पुनरावृत्ति के न होने का स्पष्ट परिणाम यह हुआ कि रूस अकेला रह गया। उसको अपने एकाकीपन को दूर करने के लिये एक मित्र की खोज करनी अनिवार्य हो गई। अबउसके सामने उसके शत्रु इंगलैंड और फ्रांस ही थे। किन्तु अपनी परिस्थिति से बाध्य होकर वह फ्रांस से मित्रता करने की ओर आकर्षित हुआ और उससे मित्रता करने का प्रयत्न करने लगा। अन्त में, 1895 ई. में दोनों देशों में संधि हुई जो द्विगुट संधि के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि से फ्रांस को अत्यधिक लाभ हुआ और उसका अकेलापन समाप्त हो गया।
विलियम बड़ा महत्वकांक्षी था। वह जर्मनी को यूरोप का भाग्य-निर्माता ही नहीं, वरन् विश्व का भाग्य-निर्माता बनाना चाहता था। बिस्मार्क विश्व के झगड़ों से जर्मनी को अलग रखना चाहता था,किन्तु विलियम ने यूरोप के बाहर के झगड़ों में हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया। वह केवल बालकन प्रायद्वीप में ही जर्मन-प्रभाव से संतुष्ट नहीं था, वरन् वह तो उसको विश्व-शक्ति के रूप में देखनाचाहता था। इसी उद्देश्य के लिए 1890 ई. के उपरांत जर्मनी की वैदेशिक नीति में विश्व-व्यापी नीति का समावेश हुआ। विलियम के अनेक भाषणों से उसके इन विचारों का दिग्दर्शन होता है। उसने इन प्रदेशों को अपने अधिकार में किया -
विलियम टर्की को अपने प्रभाव-क्षेत्र के अंतर्गत लाना चाहता था और यह उसकी विश्व नीति का एक प्रमुख अंग था। इंगलैंड भी इस ओर प्रयत्नशील था। वह किसी यूरोपीय राष्ट्र का प्रभुत्व टर्की में स्थापित नहीं होने देना चाहता था, क्योंकि ऐसा होने से उसके भारतीय साम्राज्य को भय उत्पन्न हो सकता था। 1878 ई. की बर्लिन-कांग्रेस तक टर्की पर इंगलैंड का प्रभुत्व रहा और जब कभी भी किसी यूरोपीय रास्ट्र ने उस ओर प्रगति करने का विचार किया तो इंगलैंड ने उसका डटकर विरोध किया, परन्तु साइप्रस के समझौते के उपरांत उसका प्रभाव टर्की पर से कम होने लगा। जब इंगलैंड का 1882 ई. में मिस्र पर अधिकार हुआ तो इंगलैंड और टर्की के मध्य जो रही-सही सद्भावना विद्यमान थी उसका भी अंत होना आरंभ हो गया। अब विलियम द्वितीय ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर टर्की को अपने प्रभाव-क्षेत्र में लाने का प्रयत्न किया। इस संबन्ध में उसने निम्न उपाय किये-
कुस्तुन्तुनिया तक रेल बनाने का भी था। इस मार्ग के खुल जाने से जर्मनी का सम्पर्क फारस की खाड़ी तक हो जाता जो इंगलैंड के भारतीय साम्राज्य के लिए विशेष चिन्ता का विषय बन जाता।
विलियम टर्की को अपनी ओर आकर्षित करने में अवश्य सफल हुआ, किन्तु उसने अपनी इस नीति से रूस, फ्रांस और इंगलैंड को अपना शत्रु बना लिया जबकि टर्की की शक्ति इन तीनों बड़े राष्ट्रों के सामने नगण्य थी। विलियम की इस नीति को सफल नीति नहीं कहा जा सकता। उसने तीनों राष्टोंं को एक साथ अप्रसन्न किया जिसका परिणाम यह हुआ कि त्रिदलीय गुट का निर्माण संभव हो गया।
1890 ई. तक जर्मनी और इंगलैंड के संबन्ध अच्छे थे, किन्तु जब विलियम द्वितीय के शासनकाल में जर्मनी ने विश्वव्यापी नीति को अपनाना आरंभ किया तो जर्मनी और इंगलैंड के संबंध कटु होनेआरंभ हो गये। बिस्मार्क के पद त्याग करने के उपरांत विलियम ने जर्मनी की नौसेना में विस्तार करना आरंभ किया तो इंगलैंड जर्मनी की बढ़ती हुई शक्ति से सशंकित होने लगा था। कुछ समय तकदोनों में मैत्री का हाथ बढ़ा, किन्तु 1896 ई. के उपरांत दोनों के संबंध कटु होने आरंभ होते गये। जब विलियम ने ट्रान्सवाल के रास्ट्रपति क्रुजर को जेम्स के आक्रमण पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में बधाई का तार भेजा। इस तार से इंगलैंड की जनता में बड़ा क्षेभ उत्पन्न हुआ। महारानी विक्टोरिया ने भी अपने पौत्र विलियम द्वितीय के इस कार्य की बड़ी निन्दा की। इस समय इंगलैंड ने जर्मनी से संबंध बिगाड़ना उचित नहीं समझा, क्योंकि ऐसा करने पर वह अकेला रह जाता। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने जर्मनी से अच्छे संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया। 1898 ई. में अफ्रीका के संबंध में तथा 1899 ई. में सेनाओं के संबन्ध में दोनों देशों के समझौते भी हुए। उसी वर्ष इंगलैंड के उपनिवेश मंत्री जोसेफ चेम्बरलेन ने इंगलैंड, जर्मनी और संयुक्त राज्य के एक त्रिगुट के निर्माण का प्रस्ताव किया, किन्तु 1899 ई. में ब्यूलो ने जो इस समय जर्मनी का प्रधानमंत्री था, इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उसका इस प्रस्ताव के अस्वीकार करने का कारण यह था कि इसके द्वारा इंगलैंड का आशय यह है कि आगामी युद्धों में जर्मनी, इंगलैंड का पक्ष ले और उसके समर्थक के रूप में युद्ध में भाग ले और इंगलैंड यूरोपीय महाद्वीप से निश्चिन्त होकर एशिया तथा अफ्रीका में अपने साम्राज्य का विस्तार करता रहे। ब्यूलो का यह विचार था कि जर्मनी की औपनिवेशिक, व्यापारिक तथा नाविक उन्नति से इंगलैंड को असुविधा होना अनिवार्य थी और कभी भी दोनों में युद्ध छिड़ सकता है। अतः जर्मनी की नीतियों द्वारा इंगलैंड भली प्रकार समझ गया कि जर्मनी पर अधिक विश्वास करना इंगलैंड के लिए घातक सिद्ध होगा और वास्तव में एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब इंगलैंड और जर्मनी का युद्ध होगा।
फ्रांस और रूस के मध्य मित्रता की स्थापना हो चुकी थी, अब फ्रांस द्वारा रूस और इंगलैंड की मित्रता का कार्य आरंभ हुआ। 1907 ई. में फ्रांस के प्रयत्न से रूस और इंगलैंड का गुट तैयार हो गया। यह गुट रक्षात्मक था किन्तु जर्मन सम्राट विलियम द्वितीय को इसके निर्माण से बड़ी चिन्ता हुई। अब उसने अपना ध्यान इस गुट के अंत करने की ओर विशेष रूप से आकर्षित किया। इसी समय जर्मनी को पूर्वी समस्या में हस्तक्षेप करने तथा रूस को अपमानित करने का अवसर प्राप्त हुआ।
1908 ई . टर्की में एक आन्दोलन हुआ जो युवा तुर्क आन्दोलन के नाम से प्रसिद्ध है। शीघ्र ही आस्ट्रिया ने बॉस्निया तथा हर्जेगोविना अधिकार कर लिया। सर्बिया यह सहन नहीं कर सका और उसने युद्ध की तैयारी करना आरंभ कर दिया। उसको यह आशा थी कि आस्ट्रिया तथा जर्मनी के विरूद्ध रूस और इंगलैंड उसकी सहायता करने की उद्यत हो जायेंगे किन्तु रूस की अभी ऐसी स्थिति नहीं थी। आस्ट्रिया ने सर्बिया के साथ बड़ा कठोर व्यवहार किया जिसके कारण युद्ध का होना अनिवार्य सा दिखने लगा, किन्तु जब जर्मनी ने स्पष्ट घोषणा कर दी कि यदि रूस सर्बिया की किसी प्रकार से सहायता करेगा, तो वह युद्ध में आस्ट्रिया की पूर्ण रूप से सहायता करने को तैयार है। इस प्रकार युद्ध टल गया। इस समय रूस में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह जर्मनी और आस्ट्रिया की सम्मिलित सेवाओं का सफलतापूर्वक सामना कर सकता। रूस को बाध्य होकर दब जाना पड़ा और जर्मन राजनीति बालकन प्रायद्वीप में सफल हुई।
यद्यपि जर्मन-सम्राट विलियम कैसर बालकन प्रदेश में रूस को नीचा दिखलाने में सफल हुआ और वह अपने मित्र आस्ट्रिया की शक्ति का विस्तार तथा प्रभाव में वृद्धि करवा सका, किन्तु फिर भी वह फ्रांस, रूस और इंगलैंड के गुट से भयभीत बना रहा। उसने फ्रांस और रूस से मित्रता करने की ओर हाथ बढ़ाना आरंभ किया। 8 फरवरी 1909 ई. को उसने फ्रांस से एक समझौता किया जिसके अनुसार फ्रांस ने मोरक्को की स्वतंत्रता एवं अखण्डता के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। जर्मनी ने मोरक्को की आन्तरिक सुरक्षा के संबंध में फ्रांस की असाधारण स्थिति मान ली। इधर निश्चिन्त होकर जर्मनी ने अपना ध्यान रूस से समझौता करने की ओर आकर्षित किया। जर्मनी ने रूस से नवम्बर 1910 में मेसोपोटामिया और फारस में अपने हितों के संबंध में समझौता किया, जिसके द्वारा 'रूस ने जर्मनी को बर्लिन-बगदाद रेलवे की योजना का विरोध न करने का वचन दिया और विलियम ने फारस में रूस के हितों की स्वीकृति प्रदान की।'
उपरोक्त कार्यो द्वारा विलियम द्वितीय रूस, फ्रांस और इंगलैंड के गुट को निर्बल करने में सफल हुआ, किन्तु यह स्थिति अधिक काल तक स्थायी नहीं रह सकी। मोरक्को के प्रश्न का समाधान करने का प्रयत्न फ्रांस और जर्मनी द्वारा किया गया था, किन्तु दोनों समझौते की स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। ‘मोरक्को की स्वतंत्रता’ तथा फ्रांस की पुलिस सत्ता में स्वाभाविक विरोध था जिसके कारण भविष्य में झगड़ा होना निश्चित था। फ्रांस मोरक्को को पूर्णतया अपने अधिकार में लाने पर तुला हुआ था और जर्मनी उसे रोकने या उसके बदले में उपयुक्त पुरस्कार प्राप्त करने पर कटिबद्ध था। 1911 ई . में मोरक्को में एक ऐसी घटना घटी जिसने यूरोप के प्रमुख राष्ट्रों का ध्यान उस ओर आकर्षित किया। मोरक्को में गृहयुद्ध की अग्नि प्रज्जवलित हुई और मोरक्को का सुल्तान इस विद्रोह का दमन करने में असफल रहा। इस परिस्थिति के उत्पन्न होने पर फ्रांस ने आंतरिक सुरक्षा के लिए अपने उत्तरदायित्व का बहाना लेकर एक सेना भेजी, जिसने 21 मई 1910 ई. को मोरक्को में विद्रोह का दमन करना आरंभ कर दिया। जर्मनी फ्रांस के इस प्रकार के हस्तक्षेप को सहन नहीं कर सका और जर्मनी के विदेशमंत्री ने घोषणा की कि 'यदि फ्रांस को मोरक्को में रहना आवश्यक प्रतीत हुआ तो मोरक्को की पूर्ण समस्या पर पुनः विचार किया जायेगा और एल्जीसिराज के एक्ट पर हस्ताक्षर करने वाली समस्त सत्ताओं को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता पुनः प्राप्त हो जायेगी।' विद्राेहियों के दमन के उपरांत फ्रांस की सेनायें वापिस लौटने लगी, किन्तु इस पर भी जर्मनी ने अपने कड़े व्यवहार में किसी प्रकार परिवर्तन करना उचित नहीं समझा। जुलाई 1910 ई. को जर्मनी ने घोषणा की कि उसने जर्मन हितों तथा जर्मन निवासियों की रक्षा के अभिप्राय से एक जंगी जहाज दक्षिणी मोरक्को के एजेडिर नामक बन्दरगाह पर भेज दिया। जर्मनी के इस व्यवहार ने बड़ी संकटमय परिस्थिति उत्पन्न कर दी और यह संभावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगी कि शीघ्र ही यूरोप के राष्टोंं के मध्य युद्ध का होना अनिवार्य है।
अंत में फ्रांस और जर्मन के मध्य संधि हो गई जो कि 4 नवम्बर 1911 को सम्पन्न हुई, जिसके अनुसार यह निश्चय हुआ कि मोरक्को पर फ्रांस का संरक्षण पूर्ववत् बना रहे और जर्मनी को फ्रेंच कांगों का आधा प्रदेश प्राप्त हुआ। मोरक्को के प्रश्न पर जर्मनी को मुंह की खानी पड़ी, क्योंकि रूस, फ्रांस और इंगलैंड का त्रिराष्टींय गुट पहले की अपेक्षा अब अधिक दृढ़ तथा स्थाई हो गया था तथा जर्मनी और इंगलैंड के संबंध दिन-प्रतिदिन खराब होने आरंभ हो गए।
कायस्थ भारत में रहने वाले सवर्ण हिन्दू समुदाय की एक जाति है। गुप्तकाल के दौरान कायस्थ नाम की एक उपजाति का उद्भव हुआ। पुराणों के अनुसार कायस्थ प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करते हैं।
हिंदू धर्म की मान्यता है कि कायस्थ धर्मराज श्री चित्रगुप्त जी की संतान हैं तथा देवता कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों धर्मों को धारण करने का अधिकार प्राप्त है।
वर्तमान में कायस्थ मुख्य रूप से श्रीवास्तव, सिन्हा, सक्सेना, अम्बष्ट, निगम, माथुर, भटनागर, लाभ, लाल, कुलश्रेष्ठ, अस्थाना, बिसारिया, कर्ण, वर्मा, खरे, राय, सुरजध्वज, विश्वास, सरकार, बोस, दत्त, चक्रवर्ती, श्रेष्ठ, प्रभु, ठाकरे, आडवाणी, नाग, गुप्त, रक्षित, बक्शी, मुंशी, दत्ता, देशमुख, पटनायक, नायडू, सोम, पाल, राव, रेड्डी, दास, मंडल, मेहता आदि उपनामों से जाने जाते हैं। वर्तमान में कायस्थों ने राजनीति और कला के साथ विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में सफलतापूर्वक विद्यमान हैं। वेदों के अनुसार कायस्थ का उद्गम ब्रह्मा ही हैं। उन्हें ब्रह्मा जी ने अपनी काया की सम्पूर्ण अस्थियों से बनाया था, तभी इनका नाम काया+अस्थि = कायस्थ हुआ।
स्वामी विवेकानन्द ने अपनी जाति की व्याख्या कुछ इस प्रकार की है:
—स्वामी विवेकानन्द
पद्म पुराण के अनुसार कायस्थ कुल के ईष्ट देव श्री चित्रगुप्त जी के दो विवाह हुए। इनकी प्रथम पत्नी सूर्यदक्षिणा सूर्य-पुत्र श्राद्धदेव की कन्या थी, इनसे 4 पुत्र हुए-भानू, विभानू, विश्वभानू और वीर्यभानू। इनकी द्वितीय पत्नी ऐरावती धर्मशर्मा नामक ब्राह्मण की कन्या थी, इनसे 8 पुत्र हुए चारु, चितचारु, मतिभान, सुचारु, चारुण, हिमवान, चित्र एवं अतिन्द्रिय कहलाए। इसका उल्लेख अहिल्या, कामधेनु, धर्मशास्त्र एवं पुराणों में भी किया गया है। चित्रगुप्त जी के बारह पुत्रों का विवाह नागराज वासुकी की बारह कन्याओं से सम्पन्न हुआ। इसी कारण कायस्थों की ननिहाल नागवंश मानी जाती है और नागपंचमी के दिन नाग पूजा की जाती है। नंदिनी के चार पुत्र काश्मीर के निकटवर्ती क्षेत्रों में जाकर बस गये तथा ऐरावती के आठ पुत्रों ने गौड़ देश के आसपास में जा कर निवास किया। वर्तमान बंगाल उस काल में गौड़ देश कहलाता था
इन बारह पुत्रों के दंश के अनुसार कायस्थ कुल में 12 शाखाएं हैं जो - श्रीवास्तव, सूर्यध्वज, वाल्मीक, अष्ठाना, माथुर, गौड़, भटनागर, सक्सेना, अम्बष्ठ, निगम, कर्ण, कुलश्रेष्ठ नामों से चलती हैं। अहिल्या, कामधेनु, धर्मशास्त्र एवं पुराणों के अनुसार इन बारह पुत्रों का विवरण इस प्रकार से है:
प्रथम पुत्र भानु कहलाये जिनका राशि नाम धर्मध्वज था| चित्रगुप्त जी ने श्रीभानु को श्रीवास और कान्धार क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था| उनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री पद्मिनी से हुआ था एवं देवदत्त और घनश्याम नामक दो पुत्रों हुए। देवदत्त को कश्मीर एवं घनश्याम को सिन्धु नदी के तट का राज्य मिला। श्रीवास्तव 2 वर्गों में विभाजित हैं - खर एवं दूसर। इनके वंशज आगे चलकर कुछ विभागों में विभाजित हुए जिन्हें अल कहा जाता है। श्रीवास्तवों की अल इस प्रकार हैं - वर्मा, सिन्हा, अघोरी, पडे, पांडिया,रायजादा, कानूनगो, जगधारी, प्रधान, बोहर, रजा सुरजपुरा,तनद्वा, वैद्य, बरवारिया, चौधरी, रजा संडीला, देवगन, इत्यादि।
द्वितीय पुत्र विभानु हुए जिनका राशि नाम श्यामसुंदर था। इनका विवाह मालती से हुआ। चित्रगुप्त जी ने विभानु को काश्मीर के उत्तर क्षेत्रों में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इन्होंने अपने नाना सूर्यदेव के नाम से अपने वंशजों के लिये सूर्यदेव का चिन्ह अपनी पताका पर लगाने का अधिकार एवं सूर्यध्वज नाम दिया। अंततः वह मगध में आकर बसे।
तृतीय पुत्र विश्वभानु हुए जिनका राशि नाम दीनदयाल था और ये देवी शाकम्भरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने उनको चित्रकूट और नर्मदा के समीप वाल्मीकि क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनका विवाह नागकन्या देवी बिम्ववती से हुआ एवं इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा भाग नर्मदा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बिताया जहां तपस्या करते हुए उनका पूर्ण शरीर वाल्मीकि नामक लता से ढंक गया था, अतः इनके वंशज वाल्मीकि नाम से जाने गए और वल्लभपंथी बने। इनके पुत्र श्री चंद्रकांत गुजरात जाकर बसे तथा अन्य पुत्र अपने परिवारों के साथ उत्तर भारत में गंगा और हिमालय के समीप प्रवासित हुए। वर्तमान में इनके वंशज गुजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं, उनको "वल्लभी कायस्थ" भी कहा जाता है।
चौथे पुत्र वीर्यभानु का राशि नाम माधवराव था और इनका विवाह देवी सिंघध्वनि से हुआ था। ये देवी शाकम्भरी की पूजा किया करते थे। चित्रगुप्त जी ने वीर्यभानु को आदिस्थान क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। इनके वंशजों ने आधिष्ठान नाम से अष्ठाना नाम लिया एवं रामनगर के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिया। वर्तमान में अष्ठाना उत्तर प्रदेश के कई जिले और बिहार के सारन, सिवान, चंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी,दरभंगा और भागलपुर क्षेत्रों में रहते हैं। मध्य प्रदेश में भी उनकी संख्या है। ये 5 अल में विभाजित हैं |
ऐरावती के प्रथम पुत्र का नाम चारु था एवं ये गुरु मथुरे के शिष्य थे तथा इनका राशि नाम धुरंधर था। इनका विवाह नागपुत्री पंकजाक्षी से हुआ एवं ये दुर्गा के भक्त थे। चित्रगुप्त जी ने चारू को मथुरा क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था अतः इनके वंशज माथुर नाम से जाने गये। तत्कालीन मथुरा राक्षसों के अधीन था और वे वेदों को नहीं मानते थे। चारु ने उनको हराकर मथुरा में राज्य स्थापित किया। तत्पश्चात् इन्होंने आर्यावर्त के अन्य भागों में भी अपने राज्य का विस्तार किया। माथुरों ने मथुरा पर राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण किये। वर्तमान माथुर 3 वर्गों में विभाजित हैं -देहलवी,खचौली एवं गुजरात के कच्छी एवं इनकी 84 अल हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कटारिया, सहरिया, ककरानिया, दवारिया,दिल्वारिया, तावाकले, राजौरिया, नाग, गलगोटिया, सर्वारिया,रानोरिया इत्यादि। एक मान्यता अनुसार माथुरों ने पांड्या राज्य की स्थापना की जो की वर्तमान में मदुरै, त्रिनिवेल्ली जैसे क्षेत्रों में फैला था। माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे।
द्वितीय पुत्र सुचारु गुरु वशिष्ठ के शिष्य थे और उनका राशि नाम धर्मदत्त था। ये देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने सुचारू को गौड़ देश में राज्य स्थापित करने भेजा था एवं इनका विवाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिया से हुआ। इनके वंशज गौड़ कहलाये एवं ये 5 वर्गों में विभाजित हैं: - खरे, दुसरे, बंगाली, देहलवी, वदनयुनि। गौड़ कायस्थों को 32 अल में बांटा गया है। गौड़ कायस्थों में महाभारत के भगदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त राजा हुए थे।
तृतीय पुत्र चित्र हुए जिन्हें चित्राख्य भी कहा जाता है, गुरू भट के शिष्य थे, अतः भटनागर कहलाये। इनका विवाह देवी भद्रकालिनी से हुआ था तथा ये देवी जयंती की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चित्राक्ष को भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इन क्ष्त्रों के नाम भी इन्हिं के नाम पर पड़े हैं। इन्होंने चित्तौड़ एवं चित्रकूट की स्थापना की और वहीं बस गए। इनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए एवं 84 अल में विभाजित हैं, इनकी कुछ अल इस प्रकार हैं- डसानिया, टकसालिया, भतनिया, कुचानिया, गुजरिया,बहलिवाल, महिवाल, सम्भाल्वेद, बरसानिया, कन्मौजिया इत्यादि| भटनागर उत्तर भारत में कायस्थों के बीच एक आम उपनाम है।
चतुर्थ पुत्र मतिमान हुए जिन्हें हस्तीवर्ण भी कहा जाता है। इनका विवाह देवी कोकलेश में हुआ एवं ये देवी शाकम्भरी की पूजा करते थे। चित्रगुप्त जी ने मतिमान को शक् इलाके में राज्य स्थापित करने भेजा। उनके पुत्र महान योद्धा थे और उन्होंने आधुनिक काल के कान्धार और यूरेशिया भूखंडों पर अपना राज्य स्थापित किया। ये शक् थे और शक् साम्राज्य से थे तथा उनकी मित्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वंशज शकसेन या सक्सेना कहलाये। आधुनिक इरान का एक भाग उनके राज्य का हिस्सा था। वर्तमान में ये कन्नौज, पीलीभीत, बदायूं, फर्रुखाबाद, इटाह,इटावा, मैनपुरी, और अलीगढ में पाए जाते हैं| सक्सेना लोग खरे और दूसर में विभाजित हैं और इस समुदाय में 106 अल हैं, जिनमें से कुछ अल इस प्रकार हैं- जोहरी, हजेला, अधोलिया, रायजादा, कोदेसिया, कानूनगो, बरतरिया, बिसारिया, प्रधान, कम्थानिया, दरबारी, रावत, सहरिया,दलेला, सोंरेक्षा, कमोजिया, अगोचिया, सिन्हा, मोरिया, इत्यादि|
पांचवें पुत्र हिमवान हुए जिनका राशि नाम सरंधर था उनका विवाह भुजंगाक्षी से हुआ। ये अम्बा माता की अराधना करते थे तथा चित्रगुप्त जी के अनुसार गिरनार और काठियवार के अम्बा-स्थान नामक क्षेत्र में बसने के कारण उनका नाम अम्बष्ट पड़ा। हिमवान के पांच पुत्र हुए: नागसेन, गयासेन, गयादत्त, रतनमूल और देवधर। ये पाँचों पुत्र विभिन्न स्थानों में जाकर बसे और इन स्थानों पर अपने वंश को आगे बढ़ाया। इनमें नागसेन के 24 अल, गयासेन के 35 अल, गयादत्त के 85 अल, रतनमूल के 25 अल तथा देवधर के 21 अल हैं। कालाम्तर में ये पंजाब में जाकर बसे जहाँ उनकी पराजय सिकंदर के सेनापति और उसके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के हाथों हुई। मान्यता अनुसार अम्बष्ट कायस्थ बिजातीय विवाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके लिए "खास घर" प्रणाली का उपयोग करते हैं। इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी प्रयोग किये जाते हैं। ये "खास घर" वे हैं जिनसे मगध राज्य के उन गाँवों का नाम पता चलता है जहाँ मौर्यकाल में तक्षशिला से विस्थापित होने के उपरान्त अम्बष्ट आकर बसे थे। इनमें से कुछ घरों के नाम हैं- भीलवार, दुमरवे, बधियार, भरथुआर, निमइयार, जमुआर,कतरयार पर्वतियार, मंदिलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदहियार,नंदकुलियार, गहिलवार, गयावार, बरियार, बरतियार, राजगृहार,देढ़गवे, कोचगवे, चारगवे, विरनवे, संदवार, पंचबरे, सकलदिहार,करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरियार, आदि|
छठवें पुत्र का नाम चित्रचारु था जिनका राशि नाम सुमंत था और उनका विवाह अशगंधमति से हुआ। ये देवी दुर्गा की अराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचारू को महाकोशल और निगम क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा। उनके वंशज वेदों और शास्त्रों की विधियों में पारंगत थे जिससे उनका नाम निगम पड़ा। वर्तमान में ये कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बंदा, जलाओं,महोबा में रहते हैं एवं 43 अल में विभाजित हैं। कुछ अल इस प्रकार हैं- कानूनगो, अकबरपुर, अकबराबादी, घताम्पुरी,चौधरी, कानूनगो बाधा, कानूनगो जयपुर, मुंशी इत्यादि।
सातवें पुत्र चित्रचरण थे जिनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचरण को कर्ण क्षेत्र में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनके वंशज कालांतर में उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और वर्तमान में नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। ये बिहार में दो भागों में विभाजित है: गयावाल कर्ण – गया में बसे एवं मैथिल कर्ण जो मिथिला में जाकर बसे। इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि,मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित हैं। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है, जो वंशावली अंकन की एक प्रणाली है। कर्ण 360 अल में विभाजित हैं। इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्होंने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर प्रवास किया। यह ध्यानयोग्य है कि इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है।
अंतिम या आठवें पुत्र चारुण थे जो अतिन्द्रिय भी कहलाते थे। इनका राशि नाम सदानंद है और उन्होंने देवी मंजुभाषिणी से विवाह किया। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे। चित्रगुप्त जी ने अतिन्द्रिय को कन्नौज क्षेत्र में राज्य स्थापित करने भेजा था। अतियेंद्रिय चित्रगुप्त जी की बारह संतानों में से सर्वाधिक धर्मनिष्ठ और संन्यासी प्रवृत्ति वाले थे। इन्हें 'धर्मात्मा' और 'पंडित' नाम से भी जाना गया और स्वभाव से धुनी थे। इनके वंशज कुलश्रेष्ठ नाम से जाने गए तथा आधुनिक काल में ये मथुरा, आगरा, फर्रूखाबाद, एटा, इटावा और मैनपुरी में पाए जाते हैं | कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिनी के वंश से हैं, नंदीगांव - बंगाल में पाए जाते हैं |
^क कुछ विद्वानों के अनुसार वीर्यभानू और विश्वभानू इरावती माता के पुत्र तथा चित्रचारू और अतीन्द्रिय नंदिनी माता के पुत्र हैं। इसका एक मात्र प्रमाण कुछ घरो में विराजित श्री चित्रगुप्त जी महाराज का चित्र है। आजकल सिन्हा, वर्मा,प्रसाद...आदि जातिनाम रखने का प्रचलन दूसरी जातियों में भी देखा जाता है
दिल्ली षडयंत्र मामला, जिसे दिल्ली-लाहौर षडयंत्र के नाम से भी जाना जाता है, 1912 में भारत के तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड हार्डिंग की हत्या के लिए रचे गए एक षड्यंत्र के संदर्भ में प्रयोग होता है, जब ब्रिटिश भारत की राजधानी के कलकत्ता से नई दिल्ली में स्थानांतरित होने के अवसर पर वह दिल्ली पधारे थे। रासबिहारी बोस को इस षड्यंत्र का प्रणेता माना जाता है। लॉर्ड हार्डिंग पर 23 दिसम्बर 1912 को चाँदनी चौक में एक जुलूस के दौरान एक बम फेंका गया था, जिसमें वह बुरी तरह घायल हो गए थे। इस घटनाक्रम में हार्डिंग के महावत की मृत्यु हो गयी थी। इस अपराध के आरोप में बसन्त कुमार विश्वास, बाल मुकुंद, अवध बिहारी व मास्टर अमीर चंद को फांसी की सजा दे दी गयी, जबकि रासबिहारी बोस गिरफ़्तारी से बचते हुए जापान फरार हो गए थे।
इस षड्यंत्र का प्रणेता रासबिहारी बोस को माना जाता है। देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में कुछ समय तक हेड क्लर्क के रूप में काम करने के दौरान ही बोस का परिचय क्रान्तिकारी जतिन मुखर्जी की अगुआई वाले युगान्तर नामक क्रान्तिकारी संगठन के अमरेन्द्र चटर्जी से हुआ, और वह बंगाल के क्रान्तिकारियों के साथ जुड़ गये थे। इसके कुछ समय बाद वह अरबिंदो घोष के राजनीतिक शिष्य रहे जतीन्द्रनाथ बनर्जी उर्फ निरालम्ब स्वामी के सम्पर्क में आने पर संयुक्त प्रान्त, और पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी क्रान्तिकारियों के भी निकट आये।
दिल्ली में जार्ज पंचम के 12 दिसंबर 1911 को होने वाले दिल्ली दरबार के बाद वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की दिल्ली में सवारी निकाली जा रही थी। इस शोभायात्रा की सुरक्षा में अंग्रेज़ों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सादे कपड़ों में सीआईडी के कई आदमी यात्रा से हफ्तों पहले ही पूरी दिल्ली में फ़ैल गए थे। यात्रा वाले दिन भी सुरक्षा इंतज़ाम सख्त थे। दो सुपरिंटेंडेंट, दो डिप्टी-सुपरिंटेंडेंट, पांच सार्जेंट और 75 हेड कांस्टेबल और 34 माउंटेड कांस्टेबल सुरक्षा पंक्ति में लगे थे। इनके अतिरिक्त इलेवेंथ लैंसर्स की पूरी कम्पनी को भी तैनात किया गया था।
बोस की योजना इसी शोभायात्रा में हार्डिंग पर बम फेंकने की थी। अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसन्त कुमार विश्वास को बम फेंकने के लिए चुना गया, जो देहरादून में बोस का नौकर था। बालमुकुंद गुप्त, अवध बिहारी व मास्टर अमीर चंद ने भी इस हमले में सक्रिय रूप से भूमिका निभाई थी।
दिल्ली में जार्ज पंचम के 12 दिसंबर 1911 को होने वाले दिल्ली दरबार के बाद वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की दिल्ली में सवारी निकाली जा रही थी। लार्ड हार्डिंग रत्नजड़ित पोशाक पहनकर एक हाथी पर बैठे हुए थे। उनके ठीक आगे उनकी पत्नी, लेडी हार्डिंग बैठी थी। हाथी चलाने वाले एक महावत के अतिरिक्त उस हाथी पर सबसे पीछे लार्ड हार्डिंग का एक अंगरक्षक भी सवार था। हज़ारों की संख्या में घोड़े, हाथी, तथा बन्दूकों और राइफलों से सुसज्जित कई सैनिक उनके इस काफिले का हिस्सा थे।
जब यह काफिला चाँदनी चौक पहुंचा, तो वहां ये दृश्य देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ पड़ी। कई महिलाएं चौक पर स्थित पंजाब नेशनल बैंक की छत से यह दृश्य देख रही थी। बसन्त कुमार विश्वास ने भी एक महिला का वेश धारण किया और इन्हीं महिलाओं की भीड़ में शामिल हो गया। उसने अपने आस-पास बैठी महिलाओं का ध्यान भटकाने के लिए लेडी हार्डिंग के मोतियों के हार की ओर उनका ध्यान आकृष्ट करवाया, और मौक़ा पाते ही वायसराय पर बम फेंक दिया। बम फटते ही वहां ज़ोरदार धमाका हुआ, और पूरा इलाका धुंए से भर गया। वाइसराय बेहोश होकर एक तरफ को जा गिरे। घबराकर भीड़ तितर-बितर हो गयी, और इसी का फायदा उठाकर विश्वाश वहां से बच निकले। पुलिस ने इलाके की घेराबन्दी कर कई लोगों के घरों की तलाशी भी ली, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ।
हालाँकि, इस बात की पुष्टि काफी बाद में हुई कि विश्वास का निशाना चूक गया था। बम के छर्रे लगने की वजह से लॉर्ड हार्डिंग की पीठ, पैर और सिर पर काफी चोटें आयी थी। उनके कंधों पर भी मांस फट गया था। लेकिन, घायल होने के बावजूद, वाइसराय जीवित बच गए थे, हालांकि इस हमले में उनका महावत मारा गया था। लेडी हार्डिंग भी सुरक्षित थी।
बिस्वास पुलिस से बचकर बंगाल पहुँच गए थे। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गयी और वह बचने के लिये रातों-रात रेलगाडी से देहरादून खिसक लिये, और आफिस में इस तरह काम करने लगे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। अगले दिन उन्होंने देहरादून के नागरिकों की एक सभा बुलायी, जिसमें उन्होंने वायसराय पर हुए हमले की निन्दा भी की। इस प्रकार उन पर इस षडयन्त्र और काण्ड का प्रमुख सरगना होने का किंचितमात्र भी सन्देह किसी को न हुआ।
26 फ़रवरी 1914 को अपने पैतृक गाँव परगाछा में अपने पिता की अंत्येष्टि करने आये बसंत को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद कलकत्ता के राजा बाजार इलाके में एक घर की तलाशी लेते हुए ब्रिटिश अधिकारियों को अन्य क्रांतिकारियों से संबंधित कुछ सुराग हाथ लगे। इन्हीं सुरागों के आधार पर मास्टर अमीर चंद, अवध बिहारी और भाई बालमुकुंद को भी गिरफ्तार कर लिया गया। कुल 13 लोगों को इस मामले में गिरफ्तार किया गया था। इन अभियुक्तों में से एक, दीनानाथ सरकारी गवाह बन गया था।
16 मार्च 1914 को मास्टर अमीर चंद, अवध बिहारी और बालमुकुंद गुप्त और सात अन्य लोगों पर दिल्ली की न्यायलय में देशद्रोह और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का मुकदमा दायर किया गया। यह भी पाया गया कि 17 मई 1913 को लाहौर में हुए एक अन्य बम हमला भी बसंत कुमार बिस्वास और उसके इन साथियों ने ही किया था। "दिल्ली षड्यंत्र केस" या "दिल्ली-लाहौर षड्यंत्र केस" नामक इस मुकदमे की सुनवाई 21 मई 1914 को शुरू होकर 1 सितम्बर 1914 तक चली थी। 5 अक्टूबर 1914 को न्यायलय ने इस मुक़दमे का फैसला सुनाया; सभी अभियुक्तों को काला पानी में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी।
फैसले से नाखुश ब्रिटिश सरकार ने लाहौर हाईकोर्ट में अपील की और अंततः पंजाब के गवर्नर, सर माइकल ओ'ड्वायर के हस्तक्षेप के बाद इन सभी की सजाओं को फांसी में बदल दिया गया था। 8 मई 1915 को दिल्ली में दिल्ली गेट से आगे स्थित वर्तमान खूनी दरवाजे के पास स्थित एक जेल में बाल मुकुंद, अवध बिहारी और मास्टर अमीर चंद को फांसी पर लटका दिया गया। 11 मई 1915 को अम्बाला की सेंट्रल जेल में बसंत कुमार विश्वास को भी फांसी दे दी गयी। रास बिहारी बोस, हालाँकि, पुलिस गिरफ़्तारी से बचते-बचाते घूमते रहे, और 1916 में जापान पहुँचने में सफल हो गए थे।
मुज़फ्फरनगर में किंग्सफोर्ड पर बम हमले के बाद यह उस वर्ष का दूसरा बम हमला था। जब इस धमाके की खबर अमेरिका में लाला हरदयाल के पास पहुंची, तो वह भी इससे काफी खुश हुए। उन्होंने इसकी प्रशंशा करते हुए एक न्यूज़ बुलेटिन भी जारी किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था
इस हमले ने ये स्पष्ट किया कि क्रान्तिकारी बंगाल, आसाम, बिहार और उड़ीसा के साथ साथ संयुक्त-प्रान्त, दिल्ली और पंजाब तक भी फैल चुके थे, हालांकि उन क्रांतिकारियों के केंद्र आज भी बंगाल ही था। इस हमले में प्रयोग हुआ बम भी बंगाल में ही बना था। ब्रिटिश सरकार भी अब पंजाब और बंगाल में पनप रहे इस क्रांतिकारी आन्दोलन को कुचलने का भरसक प्रयास करने लगी थी।
दिल्ली में स्थित मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज में सभी क्रांतिकारियों को समर्पित एक स्मारक उपस्थित है।
बंजी जम्पिंग एक ऐसी गतिविधि है जिसमे एक ऊंची संरचना से एक बड़ी लोचदार रस्सी के साथ जुड़े रहते हुए कूदना शामिल है। यह लम्बी संरचना आम तौर पर एक इमारत, पुल या एक क्रेन जैसी स्थायी वस्तु हो सकती है; लेकिन हॉट-एयर-बलून या हेलिकॉप्टर जैसी एक चलायमान वस्तु से भी कूदना सम्भव है, जिसमे जमीन से ऊपर मंडराने की क्षमता हो. जितना रोमांच फ्री-फालिंग से आता है उतना ही पलटाव से आता है।
जब व्यक्ति कूदता है, तो रस्सी खिंचाव के कारण विस्तृत हो जाती है और जब रस्सी वापस सिकुड़ती है तब कूदने वाला ऊपर की ओर उड़ जाता है और इसी प्रकार कभी ऊपर और कभी नीचे की ओर तब तक दोलायमान रहता है जब तक कि उसकी सारी उर्जा विकीर्ण नहीं हो जाती.
जैसा कि जेम्स जेनिंग्स की 1825 में प्रकाशित पुस्तक "ऑब्ज़र्वेशन्स ऑफ़ सम ऑफ़ दी डायलेक्ट्स इन दी वेस्ट ऑफ़ इंग्लॅण्ड" में परिभाषित किया गया है "बंजी" शब्द की उत्पत्ति पश्चिमी देश की भाषा से हुई है जिसका अर्थ है, "कुछ भी मोटा और फूहड़". 1930 के आस-पास यह नाम एक रबर इरेज़र के लिए इस्तेमाल होने लगा. कहा जाता है कि ए. जे. हैकेट द्वारा इस्तेमाल बंजी शब्द "किवी आम बोलचाल की भाषा में एक लचीली पट्टी के लिए किया जाता है".कपड़े से ढके हुए और सिरे पर हुक लगे हुए रबर के तार दशकों से आम तौर पर बंजी कॉर्ड के नाम से उपलब्ध हैं।
1950 के दशक में डेविड एटनबरो और BBC का एक फ़िल्म दल, वनुआतु में पेंटेकोस्ट आइलैंड के "लैंड डाइवर्स" की फ़ुटेज लेकर आया, जिसमें जवान मर्द अपने पैरों की एड़ियों से रस्सियां बांध कर लकड़ी के लम्बे चबूतरों से कूदते थे और अपने साहस और मर्दानगी का प्रदर्शन करते थे। ऐसे ही एक अभ्यास को, जिसमें गिरने की गति बहुत धीमी होती है, Danza de los Voladores de Papantla या मध्य मेक्सिको के 'पपांटला फ्लायर्स' के रूप में किया जाता रहा है, जिसकी परंपरा अज़टेक के समय से चली आ रही है।
"सर्वश्रेष्ठ रबर" के तार द्वारा एक "कार" को लटकाए जाने की प्रणाली से लैस, एक 4000 फीट ऊंची मीनार को शिकागो वर्ल्ड फेयर के लिए 1892-1893 में प्रस्तावित किया गया। दो सौ सवारियों को बिठाए हुए इस कार को, मीनार पर बने एक चबूतरे से धकेला जायेगा और फिर वह उछल कर रुक जायेगी. डिज़ाइनर इंजीनियरों ने सुझाया कि सुरक्षा के लिए "नीचे की जमीन पर आठ फीट मोटा पंखों का बिस्तर बिछाया जाए. इस प्रस्ताव को फेयर्स के आयोजकों ने ख़ारिज कर दिया.
ब्रिस्टल में स्थित, 250-फुट ऊंचे क्लिफ्टन सस्पेंशन ब्रिज से पहली आधुनिक बंजी कूद 1 अप्रैल 1979 को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के डेंजरस स्पोर्ट्स क्लब के डेविड किरके, क्रिस बेकर, सिमोन कीलिंग, टिम हंट और एलेन वेस्टन ने लगाई. इस घटना के तुरंत बाद इन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन इस अवधारणा को पूरे विश्व में फैलाते हुए उन्होंने अमेरिका के गोल्डन गेट और रॉयल जॉर्ज ब्रिज से कूदना जारी रखा. . 1982 तक वे चलायमान क्रेनों और गर्म हवा के गुब्बारों से कूदने लगे. व्यावसायिक बंजी जंपिंग की शुरुआत न्यूजीलैंड के, ए. जे. हैकेट ने की, जिन्होंने ऑकलैंड के ग्रीनहिथ ब्रिज से 1986 में अपनी पहली छलांग लगाई. बाद के वर्षों में हैकेट ने पुलों और दूसरी इमारतों से कई बार कूद लगाई, ऐसा करके उन्होंने ना केवल इस खेल के प्रति लोगों का रुझान बढ़ाया बल्कि न्यूजीलैंड के साऊथ आइलैंड में स्थित क्वीन्सटाउन में विश्व की प्रथम स्थाई व्यावसायिक बंजी साईट खोली. कई देशों में अपनी पैंठ बनाने वाले हैकेट एक सबसे बड़े व्यावसायिक प्रचालक बने हुए हैं।
अत्यधिक ऊंचाई से कूदने में निहित खतरे के बावजूद, 1980 से कई लाख सफल कूदें लगाई गईं. इसका श्रेय बंजी प्रचालकों को जाता है, जो मानकों के अनुरूपण और कूद को शासित करने वाले दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन करते हैं, जैसे हर कूद के लिए गणना और फिटिंग जैसे मानकों की दोहरी जांच करना. जैसा कि किसी भी अन्य खेल में होता है, इसमें फिर भी चोटें लगती हैं और इसमें घातक परिणाम भी हुए हैं। बहुत लम्बी रस्सी का प्रयोग करना दुर्घटनाओं के मामलों में एक अपेक्षाकृत आम गलती है। रस्सी की लम्बाई कूदे जाने वाले चबूतरे से वस्तुत: काफी छोटी होनी चाहिए ताकि उसे खिंचाव के लिए जगह मिल सके. जब रस्सी अपनी प्राकृतिक लंबाई तक पहुंचती है तब कूदनेवाले की गति या तो धीमी होने लगती है या तेज़ होने लगती है यह गिरने की गति पर निर्भर करता है। जब तक कि रस्सी एक सार्थक मात्रा तक नही खिंच जाती है, किसी जम्पर की गति धीमी होनी शुरू नहीं होती, क्योंकि प्राकृतिक लंबाई में रस्सी के विरूपण के लिए प्रतिरोध की क्षमता शून्य होती है और यह कुछ समय लेते हुए कूदनेवाले के शारीरिक वज़न के बराबर पहुंचते हुए धीरे-धीरे ही बढ़ती है। स्थिर स्प्रिंगों और बंजी रस्सियों को मरोड़ने के लिए आवश्यक बल और अन्य स्प्रिंग-समान वस्तुओं पर चर्चा करने के लिए संभावित ऊर्जा भी देखें.
जिस लोचदार रस्सी का प्रथम बंजी जंपिंग में इस्तेमाल किया गया था और जिसे आज भी कई व्यावसायिक प्रचालकों द्वारा उपयोग किया जाता है, कारखाने में उत्पादित ब्रेडेड शॉक रस्सी है। इसमें एक मजबूत बाहरी खोल के भीतर कई लेटेक्स के रेशे होते हैं। बाहरी कवर को उस समय इस्तेमाल किया जा सकता है जब लेटेक्स पर पहले से ही तनाव पड़ा हो, ताकि रस्सी के खिंचाव के लिए प्रतिरोधक क्षमता रस्सी की प्राकृतिक लम्बाई में पहले से ही उल्लेखनीय हो. यह एक ठोस और तीव्र उछाल देता है। ब्रेडेड कवर उल्लेखनीय मजबूती के लिए भी लाभप्रद होता है। अन्य प्रचालक, जिसमें ए. जे. हैकेट और दक्षिणी-गोलार्द्ध के प्रचालक शामिल हैं, अनब्रेडेड रस्सियों का प्रयोग करते हैं जिसमे लेटेक्स के रेशे दिखते हैं . ये एक नरम और लम्बी उछाल देते हैं और घरेलू रूप से उत्पादित किये जा सकते हैं।
हालांकि, केवल एक साधारण एंकल अटैचमेंट के प्रयोग में एक शान होती हैं, कई ऐसे हादसों ने जिनमें प्रतिभागी के रस्सी से अलग हो जाने से दुर्घटनाएं घटी हैं, कई व्यावसायिक प्रचालकों को केवल एंकल अटैचमेंट के बैकअप के रूप में शरीरिक कवच का उपयोग करने की दिशा दिखाई. शारीरिक कवच आम तौर पर पैराशूट उपकरणों के बजाय चढ़ाई उपकरणों से प्राप्त किया जाता है।
पुनः वापसी की विधियां, इस्तेमाल किये गये साइटों के अनुसार भिन्न होती हैं। मोबाइल क्रेन, वापसी में अधिकतम गति और लचीलापन प्रदान करती है, जिसमें जम्पर को तेजी से धरती के स्तर तक उतारा जाता है और फिर रस्सी से अलग किया जाता है। कूदने वाले चबूतरे की प्रकृति और तुरंत मुड़ने की आवश्यकता के अनुसार कई अन्य क्रियाविधियों को तैयार किया गया है।
अगस्त 2005 में, ए. जे. हैकेट ने मकाऊ टॉवर से स्काईजम्प लगाई, जो 233 मीटर पर दुनिया की सबसे ऊंची कूद थी.. इस स्काईजम्प को दुनिया की सबसे ऊंची बंजी का खिताब नही मिल पाया क्योंकि साफ़ तौर पर कहा जाये तो यह एक बंजी कूद नहीं थी, अपितु इसे एक 'डेसिलरेटर-डिसेंट' कूद के रूप में संदर्भित किया गया, जिसमें लोचदार रस्सी के बजाय एक स्टील के तार और डेसिलरेटर प्रणाली का इस्तेमाल किया गया। 17 दिसम्बर 2006 में, मकाऊ टॉवर ने सही तरीके की बंजी कूद का प्रचालन शुरू किया, जो गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकॉड्स के अनुसार "विश्व की सबसे ऊंची वाणिज्यिक बंजी जम्प" थी। मकाऊ टॉवर बंजी के पास एक "गाइड केबल" प्रणाली है जो झूलने को सीमा में बांधती है, लेकिन गिरने की गति पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिए यह कूद अभी भी वर्ल्ड रिकॉर्ड के लिए अर्हता प्राप्त किये हुए है।
उधर एक और व्यावसायिक बंजी कूद इस समय प्रचलन में है जो केवल 13 मि. छोटी है, 220 मीटर . यह कूद जो बिना गाइड रस्सियों के बनी है, लोकार्नो और स्विट्जरलैंड के निकट स्थित है और वरज़ासका डैम के ऊपर से भी की जाती है। इस छलांग को जेम्स बॉण्डकी फिल्म गोल्डेन आई के शुरुआती दृश्य में विशेष रूप से दर्शाया गया है।
दक्षिण अफ्रीका में स्थित ब्लाऊक्रांस ब्रिज और वरज़ासका डैम की कूदें, एक ही रस्सी से शुद्धतः झूलती फ्रीफ़ॉल बंजी हैं।
ब्लाऊक्रांस ब्रिज 1997 में खोला गया था और यह पेंडुलम बंजी प्रणाली का उपयोग करता है। यह चबूतरे से नीचे नदी तक, 216 मि. ऊंचा है.
गिनीज़ केवल स्थाई वस्तुओं से कूदी गई कूदों को ही दर्ज़ करता है ताकि माप की सटीकता की गारंटी रहे. 1989 में जॉन कॉक्लेमन ने कैलिफ़ोर्निया में एक गर्म हवा के गुब्बारे से 2,200-फुट बंजी कूद दर्ज की. 1991 में एंड्रयू सेलिसबरी ने कैन्कन के ऊपर एक हेलिकोप्टर से 9,000 फीट एक टेलिविज़न कार्यक्रम के लिए कूद लगाई, इस कूद को रीबोक ने प्रायोजित किया। पूरी उंचाई को 3,157 फीट दर्ज किया गया था। वह पैराशूट द्वारा सुरक्षित उतरे.
एक व्यावसायिक कूद जो अन्य सभी कूद की तुलना में सबसे ऊंची है, कोलोराडो में स्थित रॉयल जोर्ज ब्रिज पर है। मंच की ऊंचाई 321 मीटर है। रॉयल जोर्ज गो फास्ट गेम्स के भाग के रूप में इस कूद की उपलब्धता काफी कम है- पहली बार 2005 में और फिर 2007 में यह उपलब्ध कराई गयी .
कई प्रमुख फिल्मों में बंजी कूद को दर्शाया गया है, इनमे सबसे प्रसिद्ध रही 1995 में बनी जेम्स बोंड की फिल्म गोल्डन आई का आरम्भिक दृश्य जिसमे बोंड रशिया में स्थित एक बांध के छोर से कूदते हैं, .
यह एक दक्षिण कोरियाई फिल्म के शीर्षक बंजी जम्पिंग ऑफ़ देयर ओन में प्रस्तुत होता है हालांकि यह फिल्म में कोई बड़ी भूमिका नहीं निभाता है।
1986 में, BBC पर नोएल एड्मोंड द्वारा प्रस्तुत टीवी कार्यक्रम दी लेट, लेट ब्रेकफास्ट शो को उस वक्त बंद कर दिया गया, जब उनके 'वरली व्हील' सजीव स्टंट अनुभाग के स्वयंसेवक माइकल लश की एक बंजी कूद पूर्व अभ्यास के दौरान मृत्यु हो गई।
1982 में डेली स्टार में प्रकाशित, जज ड्रेड की कहानी 'क्रिमिनल हाइट्स' में बंजी जम्पिंग को शहर के अगले 'क्रेज़' के रूप में चित्रित किया गया था।
एक काल्पनिक प्रोटो-बंजी कूद माइकल चेबोन के उपन्यास दी अमेज़िंग एडवेंचर्स ऑफ़ कवैलियर एंड क्ले के कथानक का बिंदु है।
फिल्म सेलेना में, जेनिफर लोपेज़ को जिसने फिल्म में सेलेना कवीन्टेलीना-पेरेज़ की भूमिका निभाई है एक आनंदोत्सव में बंजी जंपिंग करते हुए दर्शाया गया है। यह एक वास्तविक घटना है जो 1995 में सेलेना की मृत्यु से कुछ ही समय पहले घटी थी।
"केटापल्ट" में जम्पर जमीन से उछलना शुरू करता है .
इसमें कूदनेवाले को लाया जाता है और रस्सी को खींचा जाता है और फिर छोड़ा जाता है, जिससे कूदनेवाला ऊपर हवा में उछल जाता है। इसे अक्सर एक क्रेन या एक -स्थाई संरचना से जुड़े एक उत्तोलक के उपयोग से हासिल किया जाता है। यह रस्सी को खींचने और बाद में प्रतिभागी को ज़मीन पर उतारने की प्रक्रिया को सरल बनाता है।