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प्रत्येक युद्ध में जो राज्य एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध करते हैं, वे "युद्धरत" राज्य कहे जाते हैं। जो राज्य किसी ओर से नहीं लड़ते अथवा युद्ध में कोई भाग नहीं लेते, वे तटस्थ राज्य कहे जाते हैं। अत: तटस्थता वह निप्पक्ष अथवा तटस्थ रहने का भाव है, जो युद्ध में सम्मिलित न होनेवाले तीसरे राज्य युद्धरत दोनों पक्ष के राज्यों के प्रति धारण करते हैं और युद्धरत राज्य इस भाव को अपनी मान्यता प्रदान करते हैं। निष्पक्षता अथवा तटस्थता का यह भाव तटस्थ राज्यों और युद्धरत राज्यों के बीच कुछ कर्तव्यों और कुछ अधिकारों की सृष्टि करता है। प्राचीन युग में तटस्थता का प्रचलन नहीं था। उन दिनों यदि कोई युद्ध छिड़ता था तो युद्धरत दोनों राज्यों के अतिरिक्त अन्य तीसरे राज्यों को इस बात का चुनाव करना पड़ता थ कि वे इन दो में से किस पक्ष में सम्मिलित हों। वे एक के मित्र बन जाते थे और दूसरे के शुत्रु। मध्यकालीन युग में कोई भी राज्य इस प्रकार की घोषणा कर सकता था कि वह युद्धरत दो पक्षों में से किसी एक ही पक्ष की सहायता कर सकता था। 17वीं शताब्दी में अंतर्राष्ट्रीय विधान में तटस्थता को एक संस्था रूप में स्थान प्राप्त हुआ, यद्यपि उस समय वह अपनी शैशवावस्था में ही थी और अपना वर्तमान स्वरूप प्राप्त काने के लिये उसे दीर्ध काल की असवश्यकता थी। 18वीं शताब्दी में पहुँचकर ही सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक, दोनों रूपों में यह बात मान्य हो सकी कि तटस्थ राज्यों का यह कर्तव्य है कि वे तटस्थ या निष्पक्ष रहें और युद्धरत राज्यों का यह कर्तव्य है कि वे तटस्थ राज्यों के अधिकारक्षेत्र का संमान करें। सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ। उस समय कई राज्यों ने यह घोषणा की कि वे तटस्थ रहेंगें। इस प्रकार की घोषणा करनेवाले राज्यों में संयुक्त राज्य अमरीका भी था। परंतु अक्टूबर, 1916 में अमरीका भी युद्ध में सम्मिलित हो गया। युद्ध का अंत होने पर राष्ट्रसंघ के अनुबंधन ने तटस्थता के परंपरागत नियम की समाप्ति कर दी। उक्त अनुबंध की धारा 10 के अनुसार राष्ट्रसंघ के सदस्यों ने सभी सदस्य राज्यों की क्षेत्रीय अथवा प्रादेशिक अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता का आदर करना स्वीकार किया। सितंबर, 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने पर तटस्थता का परंम्परागत नियम अस्थायी रूप से पुनरुज्जीवित हुआ। संयुक्त राज्य अमरीका तथा कई अन्य देशों ने पुन: ऐसी घोषणा की कि वे इस युद्ध में तटस्थ रहेंगे। जर्मनी ने इनमें से अधिकांश राज्यों की तटस्थता का उल्लंघन किया। अपने तटस्थताकाल में भी अमरीका ने उधारपट्टा कानून बनाकर मित्र शक्तियों को इस बहाने सहायता प्रदान की कि इन देशों की सुरक्षा स्वयं अमरीका की सुरक्षा के लिये आवश्यक है। यह प्रश्न विवादग्रस्त रहा है कि जिन दिनों अमरीका प्राबिधिक रूप में तटस्थ था, उन दिनो उसका ऐसा आचरण क्या उचित था? द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के उपरांत सन् 1945 में जब संयुक्त राष्ट्रसंघ का अधिकारपत्र स्वीकृत हुआ तो उसने वैधानिक रूप में तटस्थता का अंत कर दिया। उस अधिकारपत्र में ऐसे राज्यों के पृथक् वैधानिक अस्तित्व की कोई व्यवस्था नहीं है। उसके अनुसार कोई भी राज्य ऐसे किसी युद्ध में स्वेच्छया तटस्थ नहीं रह सकता जिसके संबंध में सुरक्षा परिषद् ने किसी विशेष राज्य को शांति भंग करने का अथवा अग्राक्रमण करने का अपराधी पाया है और जिसके लिये संयुक्त राष्ट्रसंघ ने अपने सदस्य राष्ट्रों का आवाहन किया है कि वे उक्त राज्य के विरुद्ध सैनिक कारवाई करें। शाश्वत तटस्थता - शाश्वत अथवा चिरस्थायी तटस्थता उन राज्यों की तटस्थता है, जो विशेष संधियों द्वारा स्वीकार कर लेते है जैसे, स्विट्जरलैंड की तटस्थता। स्वेच्छाप्रेरित और परंपरागत तटस्थता - यदि कोई राज्य स्वेच्छा से तटस्थ रहता है और किसी संधि द्वारा अपने को तटस्थ नहीं बनाता, तो उसकी तटस्थता स्वेच्छाप्रेरित तटस्थता है। दूसरी ओर, यदि कोई राज्य ऐसी संधि करता है कि युद्ध छिड़ने पर वह तटस्थ रहेगा, तो उसकी तटस्थता परंपरागत अथवा व्यवहारसिद्ध तटस्थता कही जायगी। सशस्त्र तटस्थता- यदि कोई युद्धरत राज्य किसी तटस्थ के अधिकारक्षेत्र का उपयोग करने का प्रयत्न करता है और वह तटस्थ राज्य अपनी तटस्थता की रक्षा के लिए सैनिक कार्यवाही करता है तो ऐसी तटस्थता की रक्षा के लिए सैनिक कारवाई करता है तो ऐसी तटस्थता "सशस्त्र तटस्थता" कही जायगी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बेलजियम, हालैंड और स्विट्जरलैंड की तटस्थता ऐसी ही सशस्त्र तटस्थता भी। कारण, उस समय ये राज्य अपनी सेनाओं को युद्ध के लिए सतत प्रस्तुत रखते थे। संपूर्ण और संप्रतिबंध तटस्थता- उस राज्य की तटस्थता "सप्रतिबंध तटस्थता" मानी जायगी, जो यों तो तटस्थ रहता है, पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से दो में से किसी एक युद्धरत पक्ष को किसी प्रकार की सहायता प्रदान करता है। दूसरी और, उन राज्यों की तटस्थता "संपूर्ण तटस्थता" मानी जायगी जो किसी भी युद्धरत राज्य को किसी भी प्रकार की कोई सहायता प्रदान नहीं करते। 1. युद्धरत राज्यों के प्रति निष्पक्षता का भाव रखना। 2. तटस्थ राज्य के व्यापारियों द्वारा नाकेबंदी और वर्जित माल के आवागमन संबंधी नियमों को भंग करने पर कोई युद्धरत राज्य उन्हें दंड देने के अपने अधिकार का प्रयोग करे तो उसमें अपनी सम्मति प्रदान करना। 1. तटस्त राज्यों के निष्पक्षता संबंधी भाव के अनुकूल उनके प्रति व्यवहार करना। 2 शत्रुराज्य के प्रति तटस्थ राज्यों के व्यापार-वाणिज्य संबंधी अथवा अन्य जो संबंध हों, उन्हे न दबाना। यदि कोई युद्धरत राज्य किसी तटस्थ राज्य की तटस्थता भंग करने का प्रयत्न करें, तो वह तटस्थ राज्य सदैव ही अपनी रक्षा के लिए शस्त्र उठा सकता है और उसका यह बलप्रयोग शत्रुता का कार्य नहीं माना जाएगा। किसी भी तटस्थ राज्य को, अपने प्रदेश के भीतर से होकर किसी भी युद्धरत राज्य को अपनी सेना, युद्धसामग्री अथवा अन्य रसद आदि निकाल ले जाने की, अनुमति नहीं देनी चाहिए। परंतु वह अपने समुद्रतटीय क्षेत्र से युद्धरत राज्यों के युद्धपोतों को वहाँ से होकर निकल जाने दे सकता है। इन युद्धपोतों को वहाँ से होकर निकल जाने दे सकता है। इन युद्धपोतों को अपने बंदरगाहों से बहिष्कृत करने की उसे आवश्यकता नहीं। किंतु इस प्रकार तटस्थ राज्यों से होकर निकलते समय युद्धरत राज्य के युद्धपोतों को ऐसा कोई शत्रु कार्य नहीं करना चाहिए जिससे शत्रु राज्य के युद्ध पोतों को कोई हानि पहुँचे। युद्धरत राज्यों को तटस्थ राज्यों के समुद्री तट अथवा उनके अपने बंदरगाहों को आधार बनाकर शत्रुराज्य के विरुद्ध आक्रमणात्मक कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। युद्धरत राज्य के सैनिक तटस्थ राज्य के अधिकारक्षेत्र से होकर निकल जाने की चेष्टा करें तो उन्हे बलपूर्वक पीछे हटा देना चाहिए। यदि वे तटस्थ राज्य के अधिकारक्षेत्र में प्रवेश करने में सफल हो जाएँ तो तटस्थ राज्य को चाहिए कि वह उनके शस्त्र रखवाकर उन्हें नजरबंद कर ले। जहाँ तक युद्धबंदियों का प्रश्न है, किसी भी तटस्थ राज्य में प्रवेश करते ही, अपने वहाँ प्रवेश करने के कारण ही वे मुक्त जो जाते हैं। परंतु तटस्थ राज्य का कर्तव्य है कि वह उन्हें अपनी सेना में जाकर पुन: काम करने की अनुमति न प्रदान करें। तटस्थता के उल्लंघन अंतर्राष्ट्रीय अपराध माने जाते हैं, फिर इसके नियमों का उल्लंघन चाहे कोई तटस्थ राज्य किसी युद्धरत राज्य के विरुद्ध करे, चाहे कोई युद्धरत राज्य किसी तटस्थ राज्य के विरुद्ध करे। इन उल्लंघनों का तुरंत प्रतिकार होना चाहिए। जिस पक्ष पर अत्याचार किया गया हो, वह अत्याचारी पक्ष से क्षतिपूर्ति की माँग कर सकता है। पीड़ित राज्य अत्याचारी राज्य के विरुद्ध युद्ध भी कर सकता है। तटस्थ राज्य की संपत्ति पर बलात् अधिकार कर लेने के संबंध में जो कानून है, उसके आज के प्रचलित अर्थ के अनुसार, किसी भी युद्धरत राज्य को आक्रमण अथवा सुरक्षा के लिये आवश्यक होने पर तटस्थ राज्य की संपत्ति का उपयोग करने अथवा उसे नष्ट कर देने का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार का प्रयोग तटस्थ राज्य के अधिकारक्षेत्र के भीतर भी किया जा सकता है, शत्रुप्रदेश के अंतर्गत भी किया जा सकता है और खुले समुद्र के भीतर भी। युद्धरत राज्य किसी तटस्थ राज्य को कोई सेवा करने के लिये बाध्य नहीं कर सकता, यों स्वेच्छा से वह कोई सेवा कर दे तो दूसरी बात है। युद्धरत राज्य तटस्थ राज्य की संपत्ति का उपयोग करे अथवा उसे नष्ट कर दे तो युद्धरत राज्य को उसकी क्षतिपूर्ति करनी होगी। |