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जॉर्ज वॉकर बुश
https://hi.wikipedia.org/wiki/जॉर्ज_वॉकर_बुश
+ जॉर्ज वॉकर बुशthumb|जॉर्ज बुश क्रम:43 वें राष्ट्रपतिकार्यकाल:20 जनवरी, 2001– 20 जनवरी, 2009पूर्ववर्ती:बिल क्लिंटनउत्तराधिकारी:बराक ओबामाजन्मतिथि:शनिवार, 6 जुलाई 1946न्यू हेवन कनाटीकट, कनाटीकटप्रथम महिला:लोरा बुशव्यवसाय:व्यापारराजनैतिक दल:रिपब्लिकनसमकालीन उपराष्ट्रपति: डिक चेनी 6 जुलाई 1946 को जन्मे जॉर्ज वॉकर बुश अमरीका के 43वें राष्ट्रपति थे। उन्होंने अपना पदभार 20 जनवरी सन 2001 को ग्रहण किया था। 20 जनवरी, 2009 को उन्होंने डैमोक्रेटिक पार्टी के नव निर्वाचित बराक ओबामा को सत्ता सौंप दी। बुश को सन 2004 के राष्ट्रपति के चुनाव में चार वर्षों के लिये दोबारा चुन लिया गया था। राजनीति में प्रवेश करने से पहले श्री बुश एक व्यापारी थे। तेल और गैस का उत्पादन करने वाली कई कंपनियों से वे जुड़े रहे थे और 1989 से 1998 तक टेक्सस रेंजर्स बेसबाल क्लब के सह मालिकों में से एक थे। वे सन 1995 से सन 2000 तक टेक्सस राज्य के राज्यपाल भी रह चुके हैं। उनके परिवार के सभी सदस्य राजनीति में काफी घनिष्ठ रूप से जुड़े हुये हैं। श्री बुश के पिता जॉर्ज हर्बट वॉकर बुश स्वयं अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति हैं। श्री बुश के बड़े भाई जेब बुश फ्लोरिडा के वर्तमान राज्यपाल हैं। श्रेणी:अमेरिका के राष्ट्रपति श्रेणी:1946 में जन्मे लोग
पंजाबी भाषा
https://hi.wikipedia.org/wiki/पंजाबी_भाषा
पंजाबी (गुरमुखी: ਪੰਜਾਬੀ ; शाहमुखी: پنجابی) एक हिंद-आर्यन भाषा है और ऐतिहासिक पंजाब क्षेत्र (अब भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित) के निवासियों तथा प्रवासियों द्वारा बोली जाती है। इसके बोलने वालों में सिख, मुसलमान और हिंदू सभी शामिल हैं। पाकिस्तान की १९९८ की जनगणना और २००१ की भारत की जनगणना के अनुसार, भारत और पाकिस्तान में भाषा के कुल वक्ताओं की संख्या लगभग ९-१३ करोड़ है, जिसके अनुसार यह विश्व की ११वीं सबसे व्यापक भाषा है। कम से कम पिछले ३०० वर्षों से लिखित पंजाबी भाषा का मानक रूप, माझी बोली पर आधारित है, जो ऐतिहासिक माझा क्षेत्र की भाषा है। परिचय पंजाबी भाषा पंजाब की आधुनिक भारतीय आर्यभाषा है। ग्रियर्सन ने (लिंग्विस्टिक सर्वे भाग 1,8 तथा 9 में) पूर्वी पंजाबी को "पंजाबी" और पश्चिमी पंजाबी को "लहिंदा" कहा है। वास्तव में पूर्वी पंजाबी और पश्चिमी पंजाबी पंजाबी की दो उपभाषाएँ हैं जैसे पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी हिंदी की। यह अलग बात है कि पाकिस्तान बन जाने के कारण दोनों भाषाओं का विकास इतनी भिन्न दिशाओं में हो रहा है कि इनके अलग अलग भाषाएँ हो जाने की संभावना है। पंजाबी की एक तीसरी उपभाषा "डोगरी" है जो जम्मू-कश्मीर के दक्षिण-पूर्वी प्रदेश और काँगड़ा के आसपास बोली जाती है। साहित्य में मध्यकाल में लहँदी का मुलतानी रूप और आधुनिक काल में अमृतसर और उसके आसपास प्रचलित पूर्वी पंजाबी का माझी रूप व्यवहृत होता रहा है। अमृतसर सिक्खों का प्रधान धार्मिक तीर्थ और केंद्र है। ईसाई मिशनरियों ने लुधियाना-पटियाला की मलवई बोली को टकसाली बनाने का प्रयत्न किया। उसका परिणाम इतना तो हुआ है कि मलवई का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त है, किंतु आदर्श साहित्यिक भाषा के रूप में माझी ही सर्वमान्य रही है। पश्चिमी पंजाब की बोलियों में मुलतानी, डेरावाली, अवाणकारी और पोठोहारी, एव पूर्वी पंजाबी की बोलियों में पहाड़ी, माझी, दूआबी, पुआधी, मलवई और राठी प्रसिद्ध हैं। पश्चिमी पंजाबी और पूर्वी पंजाबी की सीमारेखा रावी नदी मानी गई है। "पंजाबी" नाम बहुत पुराना नहीं है। "पंजाब" असल में दो फ़ारसी शब्द "पंज" और "आब" का मेल है। "पंज" का मतलब "पांच" है और "आब" का मतलब "पानी" है। इस प्रदेश का प्राचीन नाम 'सप्तसिंधु' है। भाषा के लिए "पंजाबी" शब्द 1670 ई. में हाफिज़ बरखुदार (कवि) ने पहली बार प्रयुक्त किया; किंतु इसका साधारण नाम बाद में भी "हिंदी" या "हिंदवी" रहा है, यहाँ तक कि रणजीत सिंह का दरबारी कवि हाशिम महाराज के सामने अपनी भाषा (पंजाबी) को हिंदी कहता है। वस्तुत: 19वीं सदी के अंत तक हिंदू और सिक्खों की भाषा का झुकाव ब्रजभाषा की ओर रहा है। यह अवश्य है कि मुसलमान जो इस देश की किसी भी भाषा से परिचित नहीं थे, लोकभाषा और विशेषत: लहँदी का प्रयोग करते रहे हैं। मुसलमान कवियों की भाषा सदा अरबी-फारसी लहँदी-मिश्रित पंजाबी रही है। पिछले वर्षों में साहित्यिक पंजाबी ने नए मोड़ लिए हैं। 20वीं सदी के पूर्वार्ध में पंजाबी ने फारसी और अँगरेजी शब्दावली और प्रयोगों का ग्रहण किया, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से हिंदी के राजभाषा हो जाने के कारण अब इसमें अधिकाधिक संस्कृत हिंदी के शब्द आ रहे हैं। पंजाबी और हिंदी खड़ी बोली में बहुत अंतर है। पुल्लिंग एकवचन शब्दों की आकारांत रचना और इनसे विशेषण और क्रिया का सामंजस्य, संज्ञाओं और सर्वनामों के प्रत्यक्ष और तिर्यक रूप, क्रियाओं कालादि भेद से जुड़नेवाले प्रत्यय दोनों भाषाओं में प्राय: एक से हैं। पंजाबी के कारकचिह्र इस प्रकार हैं - ने; नूँ (हिं. को); थों या ओं (हिं से); दा, दे, दी (हिं. का, के, की); विच (हिं. में)। पुंलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों का बहुवचन तिर्यक रूप- आँ होता है, बाताँ, कुड़ियाँ, मुड्याँ, पथराँ, साधुआँ। यह स्वरसामंजस्य संज्ञा, विशेषण और क्रिया में बराबर बना रहता है, जैसे छोट्याँ मूंड्याँ, दियाँ माप्याँ नूं (हिं. छोटे लड़कों के माँ बाप को), छोटियाँ कुड़ियाँ जाँदियाँ हन्न (हिं. छोटी लड़कियाँ जाती हैं)। ध्वनिविकास की दृष्टि से पंजाबी अभी तक अपनी प्राकृत अवस्था से बहुत आगे नहीं बढ़ी है। तुलना कीजिए पंजाबी हत्थ, कन्न, सत्त, कत्तणा, छडणा और हिंदी हाथ, कान, सात, कातना, छोड़ना आदि। पूर्वी पंजाबी में सघोष महाप्राण ध्वनियाँ (घ, झ, ढ, ध, भ) अघोष आरोही सुर के साथ बोली जाती हैं। यह पंजाबी की अपनी विशेषता है। पंजाबी बोलने वालों की कुल संख्या करोड़ों में है। भौगोलिक क्षेत्र thumb|left|400px पंजाबी पाकिस्तान में सबसे बड़ी भाषा है। यह ४५ फ़ीसद पकिस्तानियों की मातृभाषा जब कि ७० फ़ीसद पाकिस्तानी इस को बोलना जानते हैं। पंजाबी की कई उपभाषाएँ हैं परन्तु एक-दूसरे से करीबी होने के कारण सब को आसानी से समझा जा सकता है। पंजाब के साथ यह पूरे आज़ाद कश्मीर में बोली और समझी जाती है। इसके के अलावा भारत की सिर्फ़ 3 फ़ीसद आबादी पंजाबी बोलती है, परंतु पंजाबी को भारत के सूबा पंजाब में सरकारी बोली और दिल्ली और हरियाणा में दूसरी बोली का दर्जा है। पंजाबी, अंग्रेज़ के आने से पहले और भारत और मिल मारने से पहले, दिल्ली से ले कर पेशावर तक फैले हुए पंजाब के छोटे छोटे फ़र्कों साथ बोली जाने वाली बोली थी। १९०१ई. में अंग्रेज़ों ने उस समय पर के पंजाब के ऊपर वाले लेते तरफ़ को काट कर सूबा सरहद बना दिया और फिर १९४७ई. में रहता पंजाब भी 2 टुकड़ों: चढ़ते पंजाब और उतरते पंजाब में बँटा गया। १९६०ई. में इस चढ़ते या भारती पंजाब के भी 3 टुकड़े करके हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में बाँट दिया गया। अअऐनज पंजाबी भी भाग गई और राजनैतिक फ़ायदे के लिए इस को हिमाचल प्रदेश में हिंदी का एक लहजा बताया गया जब कि हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली बोली पंजाबी का अंगीठी लहजा है। इस समय पर पंजाबी पाकिस्तान के सूबा पंजाब में लहजो के मामूली फ़र्क साथ और सूबा सरहद में कोहाट, बनेगा और पेशावर के आसपास (हिंदको के नाम साथ) डेरा इस्माइल ख़ान में (डेरी के नाम साथ) और एबटाबाद, हरी परंतु और हज़ारा डिविज़न के दूसरे स्थानों में (हिंदको के नाम साथ), आज़ाद कश्मीर के स्थानों में (पहाड़ी और गुजरी के नाम साथ) और सिंध के पंजाब साथ लगते इलाकों में और भारत में पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा के काफ़ी इलाकों में दिल्ली और राजस्थान के पंजाब साथ लगते ज़िलें और कब्ज़ा किया हुआ जम्मू और कश्मीर में जम्मू के ज़िलें में बोली जाती है। इसके अलावा अमेरीका, कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया और बरतानिया में अकलियती ज़बान के तौर और बोली जाती है। पंजाबी साहित्य इन्हें भी देखें पंजाब गुरमुखी लिपि पंजाबी साहित्य बाहरी कड़ियाँ पंजाबीपीडिया (पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला की परियोजना) पंजाबी से हिन्‍दी शब्‍द संग्रह (राजभाषा ज्ञानधारा) Punjabi to Hindi Machine Translation System The Advanced Centre for Technical Development of Punjabi language, Literature and Culture The Punjabi Movement श्रेणी:हिन्द-आर्य भाषाएँ श्रेणी:पंजाब श्रेणी:भारत की भाषाएँ श्रेणी:पंजाबी भाषा श्रेणी:पाकिस्तान की भाषाएँ श्रेणी:पंजाब की भाषाएँ
शिवसेना
https://hi.wikipedia.org/wiki/शिवसेना
शिवसेना महाराष्ट्र का एक क्षेत्रीय राजनीतिक दलहै। जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र प्रान्त में सक्रिय है। इसकी स्थापना १९ जून १९६६ को एक प्रमुख कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने की थी। इस दल का प्रतीक चिन्ह बाघ था। फिलहाल १७ फरवरी २०२३ से एकनाथ शिंदे इसके अध्यक्ष/प्रमुख/मुख्य नेता के रूप में कार्यरत हैं। इसके बारे में मूल शिवसेना की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में प्रलंबित है । जिससे शिवसेना का उत्तराधिकारी कौन है उस निकाल के बाद स्वयं स्पष्ट होगा । चुनावी इतिहास लोकसभा चुनाव लोकसभा चुनाव वर्ष सीटें लड़ीं सीटें जीतीं प्राप्त मत मत % राज्य (सीटें) संदर्भ तेरहवीं लोक सभा १९९९ २२ १५५५,६७,४८४ १६़़.९ महाराष्ट्र (१५) चौदहवीं लोकसभा २००४ २२ १२ ६८,८८,३०६ २०.१ महाराष्ट्र (१२) पंद्रहवीं लोकसभा २००९ २२ ११ ६२,८७,९६४ १७.० महाराष्ट्र (११) सोलहवीं लोकसभा २०१४ २० १८ १,००,५१,०९० २०.८ महाराष्ट्र (१८) सत्रहवीं लोकसभा २०१९ २३ १८ १,२५,८९,०६४ २३.२९ महाराष्ट्र (१८) महाराष्ट्र विधानसभा विधानसभा चुनाव वर्ष सीटें लड़ीं सीटें जीतीं प्राप्त मत मत % लड़ी सीटों पर मत % दसवीं विधानसभा १९९९१६१ ६९५६,९२,८१२ १७.३३१७.३ ग्यारहवीं विधानसभा २००४ १६३ ६२ ८३,५१,६५४ १९.९७२०.० बारहवीं विधानसभा २००९ १६० ४५ ७३,६९,०३० १६.२६ २९.९० तेरहवीं विधानसभा २०१४ २८२ ६३ १,०२,३५,९७२ १९.३० १९.८० चौदहवीं विधानसभा २०१९ १२६ ५६ ९०,४९,७८९ १६.४१ ३८.३ मुख्यमंत्रियों की सूची महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री क्रम मुख्यमंत्री चित्र नियुक्ति तिथि निवृत्ति तिथि पदावधि विधानसभा १२ मनोहर जोशी80px १४ मार्च १९९५ १ फरवरी १९९९नवीं विधानसभा १३ नारायण राणे80px १ फरवरी १९९९ १८ अक्टूबर १९९९ १८ उद्धव ठाकरे80px २८ नवंबर २०१९ ३० जून २०२२ १४वीं विधानसभा १९ एकनाथ शिंदे80px ३० जून २०२२ पदस्थ लोकसभा अध्यक्ष क्रम लोकसभा सत्र निर्वाचित सांसद चित्र नियुक्ति तिथि निवृत्ति तिथि १ तेरहवीं लोकसभा मनोहर जोशी80px १० मई २००२ २ जून २००४ मनोहर जोशी ''लोकसभाध्यक्ष केंद्रीय मंत्री नेता मंत्रालय कार्यकाल लोकसभाप्रधानमंत्री अनंत गीते ऊर्जा मंत्रालय २००२ से २००४ तेरहवीं लोक सभा अटल बिहारी वाजपेयी अनंत गीते भारी उद्योग मंत्रालय २०१४ से २०१९ सोलहवीं लोकसभा नरेन्द्र मोदी अरविंद सावंत भारी उद्योग मंत्रालय मई २०१९ से नवंबर २०१९ सत्रहवीं लोकसभा संदर्भ
प्रेमचंद
https://hi.wikipedia.org/wiki/प्रेमचंद
धनपत राय श्रीवास्तव ( ३१ जुलाई १८८० – ८अक्टूबर १९३६ जो प्रेमचंद नाम से जाने जाते हैं, वो हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में लिखा। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बन्द करना पड़ा। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई आए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबन्ध, साहित्य का उद्देश्य अन्तिम व्याख्यान, कफन अन्तिम कहानी, गोदान अन्तिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अन्तिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है। १९०६ से १०३६ के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाजसुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में १९१८ से १९३६ तक के कालखण्ड को 'प्रेमचंद युग' या 'प्रेमचन्द युग' कहा जाता है। जीवन परिचय thumb|right|प्रेमचंद स्मृति द्वार, लमही, वाराणसी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद (प्रेमचन्द) की आरम्भिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। प्रेमचंद के माता-पिता के सम्बन्ध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- "जब वे सात साल के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जब पन्द्रह वर्ष के हुए तब उनका विवाह कर दिया गया और सोलह वर्ष के होने पर उनके पिता का भी देहान्त हो गया।" मुंशी प्रेमचंद अपने शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखते हैं की “पिताजी ने जीवन के अंतिम वर्षों में एक ठोकर खाई और स्वंय तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया और मेरी शादी बिना सोचे समझे करा दिया| इस बात की पुष्टि रामविलास शर्मा के इस कथन से होती है कि- "सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पण्डे-पुरोहित का कर्मकाण्ड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन-यह सब प्रेमचंद ने सोलह साल की उम्र में ही देख लिया था। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनके कथा-साहित्य में झलक उठे थे।" उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। 13 वर्ष की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लियारामविलास शर्मा, प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्‍ली, 1995, पृष्‍ठ 15। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में हुआ। 1906 में उनका दूसरा विवाह शिवरानी देवी से हुआ जो बाल-विधवा थीं। वे सुशिक्षित महिला थीं जिन्होंने कुछ कहानियाँ और प्रेमचंद घर में शीर्षक पुस्तक भी लिखी। उनकी तीन सन्ताने हुईं-श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। उनकी शिक्षा के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि- "1910 में अंग्रेज़ी, दर्शन, फ़ारसी और इतिहास लेकर इण्टर किया और 1919 में अंग्रेजी, फ़ारसी और इतिहास लेकर बी. ए. किया।" १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद वे शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। 1921 ई. में असहयोग आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से 23 जून को त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बना लिया। मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में वे संपादक पद पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने प्रवासीलाल के साथ मिलकर सरस्वती प्रेस भी खरीदा तथा हंस और जागरण निकाला। प्रेस उनके लिए व्यावसायिक रूप से लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ। 1933 ई. में अपने ऋण को पटाने के लिए उन्होंने मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कम्पनी में कहानी लेखक के रूप में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिल्म नगरी प्रेमचंद को रास नहीं आई। वे एक वर्ष का अनुबन्ध भी पूरा नहीं कर सके और दो महीने का वेतन छोड़कर बनारस लौट आए। उनका स्वास्थ्य निरन्तर बिगड़ता गया। लम्बी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया। साहित्यिक जीवन thumb|right|1000px| भित्तिलेख प्रेमचंद (प्रेमचन्द) के साहित्यिक जीवन का आरंभ (आरम्भ) 1901 से हो चुका था आरंभ (आरम्भ) में वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। प्रेमचंद की पहली रचना के संबंध में रामविलास शर्मा लिखते हैं कि-"प्रेमचंद की पहली रचना, जो अप्रकाशित ही रही, शायद उनका वह नाटक था जो उन्होंने अपने मामा जी के प्रेम और उस प्रेम के फलस्वरूप चमारों द्वारा उनकी पिटाई पर लिखा था। इसका जिक्र उन्होंने ‘पहली रचना’ नाम के अपने लेख में किया है।" उनका पहला उपलब्‍ध लेखन उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद'यह उपन्‍यास उर्दू साप्‍ताहिक 'आवाजे खल्‍क' में 8 अक्‍टूबर 1903 से 1 फ़रवरी 1905 तक धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ। इसमें लेखक का नाम छपा था- मुंशी धनपतराय उर्फ नवाबराय इलाहाबादी। बाद में स्‍वयं प्रेमचंद ने इसका हिन्‍दी तर्जुमा 'देवस्‍थान रहस्‍य' नाम से किया, जो उनके पुत्र अमृतराय द्वारा उनके आरंभिक उपन्‍यासों के संकलन 'मंगलाचारण' में संकलित है। है जो धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इसका हिंदी रूपांतरण देवस्थान रहस्य नाम से हुआ। प्रेमचंद का दूसरा उपन्‍यास 'हमखुर्मा व हमसवाब' है जिसका हिंदी रूपांतरण 'प्रेमा' नाम से १९०७ में प्रकाशित हुआ। १९०८ ई. में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत इस संग्रह को अंग्रेज़ सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त कर लीं और इसके लेखक नवाब राय को भविष्‍य में लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर प्रेमचंद के नाम से लिखना पड़ा। उनका यह नाम दयानारायन निगम ने रखा था। 'प्रेमचंद' नाम से उनकी पहली कहानी बड़े घर की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर १९१० के अंक में प्रकाशित हुई। १९१५ ई. में उस समय की प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती के दिसम्बर अंक में पहली बार उनकी कहानी सौत नाम से प्रकाशित हुई। १९१८ ई. में उनका पहला हिंदी उपन्यास सेवासदन प्रकाशित हुआ। इसकी अत्यधिक लोकप्रियता ने प्रेमचंद को उर्दू से हिंदी का कथाकार बना दिया। हालाँकि उनकी लगभग सभी रचनाएँ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित होती रहीं। उन्होंने लगभग ३०० कहानियाँ तथा डेढ़ दर्जन उपन्यास लिखे। १९२१ में असहयोग आंदोलन के दौरान सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद वे पूरी तरह साहित्य सृजन में लग गए। उन्होंने कुछ महीने मर्यादा नामक पत्रिका का संपादन किया। इसके बाद उन्होंने लगभग छह वर्षों तक हिंदी पत्रिका माधुरी का संपादन किया। १९२२ में उन्होंने बेदखली की समस्या पर आधारित प्रेमाश्रम उपन्यास प्रकाशित किया। १९२५ ई. में उन्होंने रंगभूमि नामक वृहद उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें मंगलप्रसाद पारितोषिक भी मिला। १९२६-२७ ई. के दौरान उन्होंने महादेवी वर्मा द्वारा संपादित हिंदी मासिक पत्रिका चाँद के लिए धारावाहिक उपन्यास के रूप में निर्मला की रचना की। इसके बाद उन्होंने कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि और गोदान की रचना की। उन्होंने १९३० में बनारस से अपना मासिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। १९३२ ई. में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्र जागरण का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने लखनऊ में १९३६ में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की। उन्होंने मोहन दयाराम भवनानी की अजंता सिनेटोन कंपनी में कथा-लेखक की नौकरी भी की। १९३४ में प्रदर्शित फिल्म मजदूर की कहानी उन्होंने ही लिखी थी। १९२०-३६ तक प्रेमचंद लगभग दस या अधिक कहानी प्रतिवर्ष लिखते रहे। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ "मानसरोवर" नाम से ८ खंडों में प्रकाशित हुईं। उपन्यास और कहानी के अतिरिक्त वैचारिक निबंध, संपादकीय, पत्र के रूप में भी उनका विपुल लेखन उपलब्ध है। रचनाएँ उपन्यास असरारे मआबिद- उर्दू साप्ताहिक आवाज-ए-खल्क़ में 8 अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। कालान्तर में यह हिन्दी में देवस्थान रहस्य नाम से प्रकाशित हुआ। हमखुर्मा व हमसवाब- इसका प्रकाशन 1907 ई. में हुआ। बाद में इसका हिन्दी रूपान्तरण 'प्रेमा' नाम से प्रकाशित हुआ। किशना- इसके सन्दर्भ में अमृतराय लिखते हैं कि- "उसकी समालोचना अक्तूबर-नवम्बर 1907 के 'ज़माना' में निकली।" इसी आधार पर 'किशना' का प्रकाशन वर्ष 1907 ही कल्पित किया गया। रूठी रानी- इसे सन् 1907 में अप्रैल से अगस्त महीने तक ज़माना में प्रकाशित किया गया। जलवए ईसार- यह सन् 1912 में प्रकाशित हुआ था। सेवासदन- 1918 ई. में प्रकाशित सेवासदन प्रेमचंद का हिन्दी में प्रकाशित होने वाला पहला उपन्यास था। यह मूल रूप से उन्‍होंने 'बाजारे-हुस्‍न' नाम से पहले उर्दू में लिखा गया लेकिन इसका हिन्दी रूप 'सेवासदन' पहले प्रकाशित हुआ। यह स्त्री समस्या पर केन्द्रित उपन्यास है जिसमें दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्यावृत्ति, स्त्री-पराधीनता आदि समस्याओं के कारण और प्रभाव शामिल हैं। डॉ रामविलास शर्मा 'सेवासदन' की मुख्‍य समस्‍या भारतीय नारी की पराधीनता को मानते हैं। प्रेमाश्रम (1922)- यह किसान जीवन पर उनका पहला उपन्‍यास है। इसका मसौदा भी पहले उर्दू में 'गोशाए-आफियत' नाम से तैयार हुआ था लेकिन इसे पहले हिंदी में प्रकाशित कराया। यह अवध के किसान आन्दोलनों के दौर में लिखा गया। इसके सन्दर्भ में वीर भारत तलवार किसान राष्ट्रीय आन्दोलन और प्रेमचन्द:1918-22 पुस्तक में लिखते हैं कि- "1922 में प्रकाशित 'प्रेमाश्रम' हिंदी में किसानों के सवाल पर लिखा गया पहला उपन्यास है। इसमें सामंती व्यवस्था के साथ किसानों के अन्तर्विरोधों को केंद्र में रखकर उसकी परिधि के अन्दर पड़नेवाले हर सामाजिक तबके का-ज़मींदार, ताल्लुकेदार, उनके नौकर, पुलिस, सरकारी मुलाजिम, शहरी मध्यवर्ग-और उनकी सामाजिक भूमिका का सजीव चित्रण किया गया है।" रंगभूमि (1925)- इसमें प्रेमचंद एक अंधे भिखारी सूरदास को कथा का नायक बनाकर हिंदी कथा साहित्‍य में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात करते हैं। निर्मला (1925)- यह अनमेल विवाह की समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है। कायाकल्प (1926) अहंकार - इसका प्रकाशन कायाकल्प के साथ ही सन् 1926 ई. में हुआ था। अमृतराय के अनुसार यह "अनातोल फ्रांस के 'थायस' का भारतीय परिवेश में रूपांतर है।" प्रतिज्ञा (1927)- यह विधवा जीवन तथा उसकी समस्याओं को रेखांकित करने वाला उपन्यास है। गबन (1928)- उपन्यास की कथा रमानाथ तथा उसकी पत्नी जालपा के दाम्पत्य जीवन, रमानाथ द्वारा सरकारी दफ्तर में गबन, जालपा का उभरता व्यक्तित्व इत्यादि घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। कर्मभूमि (1932)-यह अछूत समस्या, उनका मन्दिर में प्रवेश तथा लगान इत्यादि की समस्या को उजागर करने वाला उपन्यास है। गोदान (1936)- यह उनका अन्तिम पूर्ण उपन्यास है जो किसान-जीवन पर लिखी अद्वितीय रचना है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद 'द गिफ्ट ऑफ़ काओ' नाम से प्रकाशित हुआ। मंगलसूत्र (अपूर्ण)- यह प्रेमचंद का अधूरा उपन्‍यास है जिसे उनके पुत्र अमृतराय ने पूरा किया। इसके प्रकाशन के संदर्भ में अमृतराय प्रेमचंद की जीवनी में लिखते हैं कि इसका-"प्रकाशन लेखक के देहान्त के अनेक वर्ष बाद 1948 में हुआ।" कहानी thumb|मानसरोवर इनकी अधिकतर कहानियोँ में निम्न व मध्यम वर्ग का चित्रण है। डॉ॰ कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद की संपूर्ण हिंदी-उर्दू कहानी को प्रेमचंद कहानी रचनावली नाम से प्रकाशित कराया है। उनके अनुसार प्रेमचंद्र ने अपने जीवन में लगभग 300 से अधिक कहानियाँ तथा 18 से अधिक उपन्यास लिखे है| इनकी इन्हीं क्षमताओं के कारण इन्हें कलम का जादूगर कहा जाता है| प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े वतन(राष्ट्र का विलाप) नाम से जून 1908 में प्रकाशित हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जाता रहा है। डॉ॰ गोयनका के अनुसार कानपुर से निकलने वाली उर्दू मासिक पत्रिका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशित सांसारिक प्रेम और देश-प्रेम (इश्के दुनिया और हुब्बे वतन) वास्तव में उनकी पहली प्रकाशित कहानी है।डॉ कमल किशोर गोयनका (संपादक)- "प्रेमचंद कहानी रचनावली", 6 भागों में, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, भूमिका (भाग-१) उनकी कुछ कहानियों की सूची नीचे दी गयी है- 1. अन्धेर 2. अनाथ लड़की 3. अपनी करनी 4. अमृत 5. अलग्योझा 6. आखिरी तोहफ़ा 7. आखिरी मंजिल 8. आत्म-संगीत 9. आत्माराम 10. दो बैलों की कथा 11. आल्हा 12. इज्जत का खून 13. इस्तीफा 14. ईदगाह 15. ईश्वरीय न्याय 16. उद्धार 17. एक आँच की कसर 18. एक्ट्रेस 19. कप्तान साहब 20. कर्मों का फल 21. क्रिकेट मैच 22. कवच 23. कातिल 24. कोई दुख न हो तो बकरी खरीद ला 25. कौशल़ 26. खुदी 27. गैरत की कटार 28. गुल्‍ली डण्डा 29. घमण्ड का पुतला 30. ज्‍योति 31. जेल 32. जुलूस 33. झाँकी 34. ठाकुर का कुआँ 35. तेंतर 36. त्रिया-चरित्र 37. तांगेवाले की बड़ 38. तिरसूल 39. दण्ड 40. दुर्गा का मन्दिर 41. देवी 42. देवी - एक और कहानी 43. दूसरी शादी 44. दिल की रानी 45. दो सखियाँ 46. धिक्कार 47 धिक्कार - एक और कहानी 48. नेउर 49. नेकी 50. नबी का नीति-निर्वाह 51. नरक का मार्ग 52. नैराश्य 53. नैराश्य लीला 54. नशा 55. नसीहतों का दफ्तर 56. नाग-पूजा 57. नादान दोस्त 58. निर्वासन 59. पंच परमेश्वर 60. पत्नी से पति 61. पुत्र-प्रेम 62. पैपुजी 63. प्रतिशोध 64. प्रेम-सूत्र 65. पर्वत-यात्रा 66. प्रायश्चित 67. परीक्षा 68. पूस की रात 69. बैंक का दिवाला 70. बेटोंवाली विधवा 71. बड़े घर की बेटी 72. बड़े बाबू 73. बड़े भाई साहब 74. बन्द दरवाजा 75. बाँका जमींदार 76. बोहनी 77. मैकू 78. मन्त्र 79. मन्दिर और मस्जिद 80. मनावन 81. मुबारक बीमारी 82. ममता 83. माँ 84. माता का ह्रदय 85. मिलाप 86. मोटेराम जी शास्त्री 87. र्स्वग की देवी 88. राजहठ 89. राष्ट्र का सेवक 90. लैला 91. वफ़ा का खजर 92. वासना की कड़ियां 93. विजय 94. विश्वास 95. शंखनाद 96. शूद्र 97. शराब की दुकान 98. शान्ति 99. शादी की वजह 100. शान्ति 101. स्त्री और पुरूष 102. स्वर्ग की देवी 103. स्वांग 104. सभ्यता का रहस्य 105. समर यात्रा 106. समस्या 107. सैलानी बन्दर 108. स्‍वामिनी 109. सिर्फ एक आवाज 110. सोहाग का शव 111. सौत 112. होली की छुट्टी 113.नमक का दरोगा 114.गृह-दाह 115.सवा सेर गेहूँ नमक का दरोगा 116.दूध का दाम 117.मुक्तिधन 118.कफ़न कहानी संग्रह- सप्तसरोज- 1917 में इसके पहले संस्करण की भूमिका लिखी गई थी। सप्तसरोज में प्रेमचंद की सात कहानियाँ संकलित हैं। उदाहरणतः बड़े घर की बेटी, सौत, सज्जनता का दण्ड, पंच परमेश्वर, नमक का दारोगा, उपदेश तथा परीक्षा आदि। नवनिधि- यह प्रेमचंद की नौ कहानियों का संग्रह है। जैसे-राजा हरदौल, रानी सारन्धा, मर्यादा की वेदी, पाप का अग्निकुण्ड, जुगुनू की चमक, धोखा, अमावस्या की रात्रि, ममता, पछतावा आदि। 'प्रेमपूर्णिमा', 'प्रेम-पचीसी', 'प्रेम-प्रतिमा', 'प्रेम-द्वादशी', समरयात्रा- इस संग्रह के अंतर्गत प्रेमचंद की 11 राजनीतिक कहानियों का संकलन किया गया है। उदाहरणस्वरूप-जेल, कानूनी कुमार, पत्नी से पति, लांछन, ठाकुर का कुआँ, शराब की दुकान, जुलूस, आहुति, मैकू, होली का उपहार, अनुभव, समर-यात्रा आदि। मानसरोवर' : भाग एक व दो और 'कफन'। उनकी मृत्‍यु के बाद उनकी कहानियाँ 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई। नाटक संग्राम (1923)- यह किसानों के मध्य व्याप्त कुरीतियाँ तथा किसानों की फिजूलखर्ची के कारण हुआ कर्ज और कर्ज न चुका पाने के कारण अपनी फसल निम्न दाम में बेचने जैसी समस्याओं पर विचार करने वाला नाटक है। कर्बला (1924) प्रेम की वेदी (1933) ये नाटक शिल्‍प और संवेदना के स्‍तर पर अच्‍छे हैं लेकिन उनकी कहानियों और उपन्‍यासों ने इतनी ऊँचाई प्राप्‍त कर ली थी कि नाटक के क्षेत्र में प्रेमचंद को कोई खास सफलता नहीं मिली। ये नाटक वस्‍तुतः संवादात्‍मक उपन्‍यास ही बन गए हैं।हिन्दी का गद्य साहित्‍य - डॉ॰ रामचंद्र तिवारी, विश्‍वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2006, पृष्‍ठ संख्‍या- 518 कथेतर साहित्य प्रेमचंद : विविध प्रसंग- यह अमृतराय द्वारा संपादित प्रेमचंद की कथेतर रचनाओं का संग्रह है। इसके पहले खण्ड में प्रेमचंद के वैचारिक निबन्ध, संपादकीय आदि प्रकाशित हैं। इसके दूसरे खण्ड में प्रेमचंद के पत्रों का संग्रह है। प्रेमचंद के विचार- तीन खण्डों में प्रकाशित यह संग्रह भी प्रेमचंद के विभिन्न निबंधों, संपादकीय, टिप्पणियों आदि का संग्रह है। साहित्‍य का उद्देश्‍य- इसी नाम से उनका एक निबन्ध-संकलन भी प्रकाशित हुआ है जिसमें 40 लेख हैं। चिट्ठी-पत्री- यह प्रेमचंद के पत्रों का संग्रह है। दो खण्डों में प्रकाशित इस पुस्तक के पहले खण्ड के संपादक अमृतराय और मदनगोपाल हैं। इस पुस्तक में प्रेमचंद के दयानारायन निगम, जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्र आदि समकालीन लोगों से हुए पत्र-व्यवहार संग्रहित हैं। संकलन का दूसरा भाग अमृतराय ने संपादित किया है। प्रेमचंद के कुछ निबन्धों की सूची निम्नलिखित है- पुराना जमाना नया जमाना, स्‍वराज के फायदे, कहानी कला (1,2,3), कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार, हिन्दी-उर्दू की एकता, महाजनी सभ्‍यता, उपन्‍यास, जीवन में साहित्‍य का स्‍थान। अनुवाद प्रेमचंद एक सफल अनुवादक भी थे। उन्‍होंने दूसरी भाषाओं के जिन लेखकों को पढ़ा और जिनसे प्रभावित हुए, उनकी कृतियों का अनुवाद भी किया। उन्होंने 'टॉलस्‍टॉय की कहानियाँ' (1923), गाल्‍सवर्दी के तीन नाटकों का हड़ताल (1930), चाँदी की डिबिया (1931) और न्‍याय (1931) नाम से अनुवाद किया। उनका रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्‍यास फसान-ए-आजाद का हिन्दी अनुवाद आजाद कथा बहुत मशहूर हुआ। विविध बाल साहित्य : रामकथा, कुत्ते की कहानी, दुर्गादास विचार : प्रेमचंद : विविध प्रसंग, प्रेमचंद के विचार (तीन खण्डों में) संपादन प्रेमचन्द ने 'जागरण' नामक समाचार पत्र तथा 'हंस' नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन किया था। उन्होंने सरस्वती प्रेस भी चलाया था। वे उर्दू की पत्रिका ‘जमाना’ में नवाब राय के नाम से लिखते थे। विशेषताएँ बी.बी.सी. हिंदी में प्रकाशित विनोद वर्मा के साथ हुए साक्षात्कार रचना दृष्टि की प्रासंगिकता-मन्नू भंडारी में मन्नू भंडारी प्रेमचंद के विषय में बताती हैं कि-"साहित्य के प्रति और साहित्य के हर दृष्टि के प्रति यानी चाहे राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में समेटा और खासकरके एक आम आदमी को, एक किसान को, एक आम दलित वर्ग के लोगों को वह अपने आप में एक उदाहरण था. साहित्य में दलित विमर्श की शुरुआत शायद प्रेमचंद की रचनाओं से हुई थी." विचारधारा प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की ओर उन्मुख है। सेवासदन के दौर में वे यथार्थवादी समस्याओं को चित्रित तो कर रहे थे लेकिन उसका एक आदर्श समाधान भी निकाल रहे थे। १९३६ तक आते-आते महाजनी सभ्यता, गोदान और कफ़न जैसी रचनाएँ अधिक यथार्थपरक हो गईं, किंतु उसमें समाधान नहीं सुझाया गया। अपनी विचारधारा को प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहा है। इसके साथ ही प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के सबसे बड़े कथाकार हैं। इस अर्थ में उन्हें राष्ट्रवादी भी कहा जा सकता है। प्रेमचंद मानवतावादी भी थे और मार्क्सवादी भी। प्रगतिवादी विचारधारा उन्हें प्रेमाश्रम के दौर से ही आकर्षित कर रही थी। प्रेमचंद ने १९३६ में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन को सभापति के रूप में संबोधन किया था। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणा पत्र का आधार बना। इस अर्थ में प्रेमचंद निश्चित रूप से हिंदी के पहले प्रगतिशील लेखक कहे जा सकते हैं। विरासत प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने में कई रचनाकारों ने भूमिका अदा की है। उनके नामों का उल्लेख करते हुए रामविलास शर्मा प्रेमचंद और उनका युग में लिखते हैं कि- "प्रेमचंद की परंपरा को 'अलका', 'कुल्ली भाट', 'बिल्लेसुर बकरिहा' के निराला ने अपनाया। उसे 'चकल्लस' और 'क्या-से-क्या' आदि कहानियों के लेखक पढ़ीस ने अपनाया। उस परंपरा की झलक नरेंद्र शर्मा, अमृतलाल नागर आदि की कहानियों और रेखाचित्रों में मिलती है।" बी.बी.सी. हिंदी में प्रकाशित लेख स्वस्थ साहित्य किसी की नक़ल नहीं करता में निर्मल वर्मा लिखते हैं कि- ५०-६० के दशक में रेणु, नागार्जुन औऱ इनके बाद श्रीनाथ सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद की परंपरा के तारतम्य में आती हैं। प्रेमचंद संबंधी रचनाएँ जीवनी प्रेमचंद की तीन जीवनीपरक पुस्तकें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं: प्रेमचंद घर में- १९४४ ई. में प्रकाशित यह पुस्तक प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी द्वारा लिखी गई है जिसमें उनके व्यक्तित्व के घरेलू पक्ष को उजागर किया है। २००५ ई. में प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार ने इस पुस्तक तो दोबारा संशोधित करके प्रकाशित कराया। प्रेमचंद कलम का सिपाही- १९६२ ई. में प्रकाशित प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय द्वारा लिखी गई यह प्रेमचंद वृहद जीवनी है जिसे प्रामाणिक बनाने के लिए उन्होंने प्रेमचंद के पत्रों का बहुत उपयोग किया है। कलम का मज़दूर:प्रेमचन्द- १९६४ ई. में प्रकाशित इस कृति की भूमिका रामविलास शर्मा के अनुसार-"29 मई, 1962" में लिखी गई थी किंतु उसका प्रकाशन बाद में किया गया था। मदन गोपाल द्वारा रचित यह जीवनी मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई थी जिसका बाद में हिंदी रूपांतरण भी प्रकाशित हुआ। यह प्रेमचंद के परिवार के बाहर के व्यक्ति द्वारा रचित जीवनी है जो प्रेमचंद संबंधी तथ्यों का अधिक तटस्थ रूप से मूल्यांकन करती है। आलोचनात्मक पुस्तकें रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद और उनका युग में प्रेमचंद के जीवन तथा उनके साहित्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया है। प्रेमचंद पर हुए नए अध्‍ययनों में कमलकिशोर गोयनका और डॉ॰ धर्मवीर का नाम उल्‍लेखनीय है। कमलकिशोर गोयनका ने प्रेमचंद का अप्राप्‍य साहित्‍य (दो भाग) व 'प्रेमचंद विश्‍वकोश' (दो भाग) का संपादन भी किया है। डॉ॰ धर्मवीर ने दलित दृष्टि से प्रेमचंद साहित्‍य का मूलयांकन करते हुए प्रेमचंद : सामंत का मुंशी व प्रेमचंद की नीली आँखें नाम से पुस्‍तकें लिखी हैं। प्रेमचंद और सिनेमा प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। १९७७ में शतरंज के खिलाड़ी और १९८१ में सद्गति। उनके देहांत के दो वर्षों बाद सुब्रमण्यम ने १९३८ में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। १९७७ में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। १९६३ में गोदान और १९६६ में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। १९८० में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। स्मृतियाँ thumb|लमही में प्रेमचंद की प्रतिमा प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से ३० जुलाई १९८० को उनकी जन्मशती के अवसर पर ३० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। प्रेमचंद की १२५वीं सालगिरह पर सरकार की ओर से घोषणा की गई कि वाराणसी से लगे इस गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया जाएगा। विवाद प्रेमचंद के अध्‍येता कमलकिशोर गोयनका ने अपनी पुस्‍तक 'प्रेमचंद : अध्‍ययन की नई दिशाएं' में प्रेमचंद के जीवन पर कुछ आरोप लगाए हैं। जैसे- प्रेमचंद ने अपनी पहली पत्‍नी को बिना वजह छोड़ा और दूसरे विवाह के बाद भी उनके अन्‍य किसी महिला से संबंध रहे (जैसा कि शिवरानी देवी ने 'प्रेमचंद घर में' में उद्धृत किया है), प्रेमचंद ने 'जागरण विवाद' में विनोदशंकर व्‍यास के साथ धोखा किया, प्रेमचंद ने अपनी प्रेस के वरिष्‍ठ कर्मचारी प्रवासीलाल वर्मा के साथ धोखाधडी की, प्रेमचंद की प्रेस में मजदूरों ने हड़ताल की, प्रेमचंद ने अपनी बेटी के बीमार होने पर झाड़-फूंक का सहारा लिया आदि। "हंस" के संपादक प्रेमचंद तथा कन्हैयालाल मुंशी थे। परन्तु कालांतर में पाठकों ने 'मुंशी' तथा 'प्रेमचंद' को एक समझ लिया और 'प्रेमचंद'- 'मुंशी प्रेमचंद' बन गए।प्रेमचंद मुंशी कैसे बने- डॉ॰ जगदीश व्योम, सिटीजन पावर, मासिक हिन्दी समाचार पत्रिका, दिसम्बर २०११, पृष्‍ठ संख्‍या- ०९ हिन्दी विकिस्रोत पर उपलब्ध प्रेमचन्द साहित्य सेवासदन प्रेमाश्रम निर्मला कायाकल्प गबन कर्मभूमि गोदान मंगलसूत्र सप्तसरोज समर यात्रा साहित्य का उद्देश्य नव-निधि पाँच फूल संग्राम प्रेमचंद रचनावली (खण्ड ५) सन्दर्भ सहायक पुस्तकें । । । । । श्रेणी:प्रेमचंद श्रेणी:हिन्दी गद्यकार श्रेणी:उर्दू साहित्यकार श्रेणी:वाराणसी के लोग श्रेणी:भारतीय उपन्यासकार
ज्ञानेश्वरी
https://hi.wikipedia.org/wiki/ज्ञानेश्वरी
ज्ञानेश्वरी महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर द्वारा मराठी भाषा में रची गई श्रीमदभगवतगीता पर लिखी गई सर्वप्रथम भावार्थ रचना है। वस्तुत: यह काव्यमलेकनय प्रवचन है जिसे संत ज्ञानेश्वर ने अपने जेष्ठ बंधू तथा गुरू निवृत्तिनाथ के निर्देश पर किया था। इसमें गीता के मूल ७०० श्लोकों का मराठी भाषा की ९००० ओवियों में अत्यंत रसपूर्ण विशद विवेचन है। अंतर केवल इतना ही है कि यह श्री शंकराचार्य के समान गीता का प्रतिपद भाष्य नहीं है। यथार्थ में यह गीता की भावार्थदीपिका है। ज्ञानेश्वरी पर भारत सरकार के डाक विभाग ने सन् 1990 में 2 रुपये मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया था। परिचय यह भाष्य अथवा टीका ज्ञानेश्वर जी की स्वतंत्र बुद्धि की देन है। मूल गीता की अध्यायसंगति और श्लोकसंगति के विषय में भी कवि की स्वयंप्रज्ञा अनेक स्थलों पर प्रकट हुई है। प्रारंभिक अध्यायों की टीका संक्षिप्त है परंतु क्रमश: ज्ञानेश्वर जी की प्रतिभा प्रस्फुटित होती गई है। गुरुभक्ति, श्रोताओं की प्रार्थना, मराठी भाषा का अभिमान, गीता का स्तवन, श्रीकृष्ण और अर्जुन का अकृत्रिम स्नेह इत्यादि विषयों ने ज्ञानेश्वर को विशेष रूप से मुग्ध कर लिया है। इनका विवेचन करते समय ज्ञानेश्वर की वाणी वस्तुत: अक्षर साहित्य के अलंकारों से मंडित हो गई है। यह सत्य है कि आज तक भगवद्गीता पर साधिकार वाणी से कई काव्यग्रंथ लिखे गए। अपने कतिपय गुणों के कारण उनके निर्माता अपने-अपने स्थानों पर श्रेष्ठ ही हैं तथापित डॉo राo दo रानडे के समुचित शब्दों में यह कहना ही होगा कि विद्वत्ता, कविता और साधुता इन तीन दृष्टियों से गीता की सभी टीकाओं में 'ज्ञानेश्वरी' का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। ज्ञानेश्वर ने अपनी टीका शंकराचार्य के गीताभाष्य के आधार पर लिखी है। ज्ञानदेव के स्वयं नाथ संप्रदाय में दीक्षित हाने के कारण उनके इस ग्रंथ में उक्त संप्रदाय के यत्र-तत्र संकेत मिलते हैं। गीता-भाष्य में वर्णित ज्ञान एवं भक्ति के समन्वय के साथ नाथ संप्रदाय के योग, स्वानुभव इत्यादि बातों का ज्ञानदेव के विवेचन में समावेश हुआ है। इन्होंने इन मूल सिद्धांतों को भागवत संप्रदाय की सुदृढ़ पीठिका पर प्रतिष्ठित किया है। ज्ञानेश्वरी भक्ति-रस-प्रधान ग्रंथ है। ईश्वर-प्राप्ति का एकमेव साधन भक्ति ही है, यह इसका महासिद्धांत है। ज्ञानदेव की भक्ति, पूजन अर्चना, व्रत तथा नियमादि से बाह्य स्वरूप की नहीं अपितु नामस्मरणदि साधनोंवाली अंतरस्वरूप की थी। नाथपंथ का योगमार्ग जन साधारण के लिये सहज साध्य न होने के कारण ज्ञानेश्वर ने उसे भक्ति का अधिष्ठान देकर ईश्वरभक्ति रूपी नेत्रों से युक्त कर दिया। भारतीय दर्शन की विचारपरंपरा से ज्ञानदेव द्वारा प्रतिपादित स्फूर्तिवाद को महत्व का स्थान देना होगा। ज्ञानेश्वरी में स्फुरणरूप से अथवा बीजरूप से व्यक्त होनेवाला स्फूर्तिवाद ज्ञानेश्वर द्वारा उनके अमृतानुभव नामक एक छोटे ग्रंथ में विशद रूप से प्रतिपादित है। इस ग्रंथ के सातवें अध्याय में ज्ञानदेव ने 'विश्व का ही नाम चिद्विलास है' यह सिद्धांत तर्क शुद्ध पद्धति से प्रतिपादित किया है। ज्ञानेश्वरी के अलंकारपक्ष का अवलोकन करने पर कवि के प्रतिभासंपन्न हृदय के दर्शन होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे उपमा और रूपक के माध्यम से ही बोल रहे हों। उनकी इस रचना में मालोपमा और सांगरूपक मुक्तहस्त से बिखेरे गए हैं। विशेषता यह है कि ये सारी उपमाएँ और रूपक गीताटीका से तादात्म्य पा गए हैं। मायानदी, गुरुपूजा, पुरुष, प्रकृति, चित्सूर्य आदि उनके मराठी साहित्य में ही नहीं अपितु विश्ववांमय में अलौकिक माने जा सकते हैं। ये ही वे रूपक हैं जिनमें काव्य और दर्शन की धाराएँ घुल मिल गई हैं। अनुवाद इस ग्रन्थ के कई भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। गीता प्रेस के द्वारा इसका हिंदी भाषा में भी अनुवाद हुआ है। बाहरी कड़ियाँ सम्पूर्ण ज्ञानेश्वरी श्रेणी:मराठी साहित्य श्रेणी:भक्ति साहित्य
कर्ण सिंह
https://hi.wikipedia.org/wiki/कर्ण_सिंह
thumb|right|कर्ण सिंह कर्ण सिंह (जन्म १९३१) भारतीय राजनेता, लेखक और कूटनीतिज्ञ हैं। जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह और महारानी तारा देवी के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी (युवराज) के रूप में जन्मे डॉ॰ कर्ण सिंह ने अठारह वर्ष की ही उम्र में राजनीतिक जीवन में प्रवेश कर लिया था और वर्ष १९४९ में प्रधानमन्त्री पं॰ जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप पर उनके पिता ने उन्हें राजप्रतिनिधि (रीजेंट) नियुक्त कर दिया। इसके पश्चात अगले अठारह वर्षों के दौरान वे राजप्रतिनिधि, निर्वाचित सदर-ए-रियासत और अन्तत: राज्यपाल के पदों पर रहे। १९६७ में डॉ॰ कर्ण सिंह प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किए गए। इसके तुरन्त बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में जम्मू और कश्मीर के उधमपुर संसदीय क्षेत्र से भारी बहुमत से लोक सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इसी क्षेत्र से वे वर्ष १९७१, १९७७ और १९८० में पुन: चुने गए। डॉ॰ कर्ण सिंह को पहले पर्यटन और नगर विमानन मंत्रालय सौंपा गया। वे ६ वर्ष तक इस मंत्रालय में रहे, जहाँ उन्होंने अपनी सूक्ष्मदृष्टि और सक्रियता की अमिट छाप छोड़ी। १९७३ में वे स्वास्थ्य और परिवार नियोजन मंत्री बने। १९७६ में जब उन्होंने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा की तो परिवार नियोजन का विषय एक राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के रूप में उभरा। १९७९ में वे शिक्षा और संस्कृति मंत्री बने। डॉ॰ कर्ण सिंह पूर्व रियासतों के अकेले ऐसे पूर्व शासक थे, जिन्होंने स्वेच्छा से निजी कोश(प्रिवी पर्स) का त्याग किया। उन्होंने अपनी सारी राशि अपने माता-पिता के नाम पर भारत में मानव सेवा के लिए स्थापित 'हरि-तारा धर्मार्थ न्यास' को दे दी। उन्होंने जम्मू के अपने अमर महल (राजभवन) को संग्रहालय एवं पुस्तकालय में परिवर्तित कर दिया। इसमें पहाड़ी लघुचित्रों और आधुनिक भारतीय कला का अमूल्य संग्रह तथा बीस हजार से अधिक पुस्तकों का निजी संग्रह है। डॉ॰ कर्ण सिंह धर्मार्थ न्यास के अन्तर्गत चल रहे सौ से अधिक हिन्दू तीर्थ-स्थलों तथा मंदिरों सहित जम्मू और कश्मीर में अन्य कई न्यासों का काम-काज भी देखते हैं। हाल ही में उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान, संस्कृति और चेतना केंद्र की स्थापना की है। यह केंद्र सृजनात्मक दृष्टिकोण के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में उभर रहा है। कर्ण सिंह ने देहरादून स्थित दून स्कूल से सीनियर कैम्ब्रिज परीक्षा प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की और इसके बाद जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की। वे इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी रह चुके हैं। वर्ष १९५७ में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान में एम.ए. उपाधि हासिल की। उन्होंने श्री अरविन्द की राजनीतिक विचारधारा पर शोध प्रबन्ध लिख कर दिल्ली विश्वविद्यालय से डाक्टरेट उपाधि का अलंकरण प्राप्त किया। कर्ण सिंह कई वर्षों तक जम्मू और कश्मीर विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलाधिपति रहे हैं। वे केंद्रीय संस्कृत बोर्ड के अध्यक्ष, भारतीय लेखक संघ, भारतीय राष्ट्र मण्डल सोसायटी और दिल्ली संगीत सोसायटी के सभापति रहे हैं। वे जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि के उपाध्यक्ष, टेम्पल ऑफ अंडरस्टेंडिंग (एक प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय अन्तर्विश्वास संगठन) के अध्यक्ष, भारत पर्यावरण और विकास जनायोग के अध्यक्ष, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और विराट हिन्दू समाज के सभापति हैं। उन्हें अनेक मानद उपाधियों और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। इनमें - बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और सोका विश्वविद्यालय, तोक्यो से प्राप्त डाक्टरेट की मानद उपाधियां उल्लेखनीय हैं। वे कई वर्षों तक भारतीय वन्यजीव बोर्ड के अध्यक्ष और अत्यधिक सफल - प्रोजेक्ट टाइगर - के अध्यक्ष रहने के कारण उसके आजीवन संरक्षी हैं। डॉ॰ कर्ण सिंह ने राजनीति विज्ञान पर अनेक पुस्तकें, दार्शनिक निबन्ध, यात्रा-विवरण और कविताएं अंग्रेजी में लिखी हैं। उनके महत्वपूर्ण संग्रह "वन मैन्स वर्ल्ड" (एक आदमी की दुनिया) और हिन्दूवाद पर लिखे निबंधों की काफी सराहना हुई है। उन्होंने अपनी मातृभाषा डोगरी में कुछ भक्तिपूर्ण गीतों की रचना भी की है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में अपनी गहन अन्तर्दृष्टि और पश्चिमी साहित्य और सभ्यता की विस्तृत जानकारी के कारण वे भारत और विदेशों में एक विशिष्ट विचारक और नेता के रूप में जाने जाते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका में भारतीय राजदूत के रूप में उनका कार्यकाल हालांकि कम ही रहा है, लेकिन इस दौरान उन्हें दोनों ही देशों में व्यापक और अत्यधिक अनुकूल मीडिया कवरेज मिली। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ Dr Karan Singh’s official website कर्ण सिंह Article on Shri Dr. Karan Singh, by Indian Princely States website Genealogy of the ruling chiefs of Jammu and Kashmir Article on Dr. Karan Singh by The Doon School Proclamation of May 1, 1951 on Jammu & Kashmir Constituent Assembly by Yuvraj (Crown Prince) Karan Singh from the Official website of Government of Jammu and Kashmir, India श्रेणी:भारतीय राजनीतिज्ञ श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:1931 में जन्मे लोग
विस्कांसिन
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redirectविस्कॉन्सिन
मैडिसन
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मैडिसन अमरीका के एक राज्य विस्कांसिन का एक शहर है।
संयुक्त राज्य अमरीका के प्रान्त
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पुनर्प्रेषित अमेरिकी राज्य
कन्याकुमारी
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कन्याकुमारी (Kanyakumari) भारत के तमिल नाडु राज्य के कन्याकुमारी ज़िले में स्थित एक नगर है। यह भारत की मुख्यभूमि का दक्षिणतम नगर है। यहाँ से दक्षिण में हिन्द महासागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है। इनके साथ सटा हुआ तट 71.5 किमी तक विस्तारित है। समुद्र के साथ तिरुवल्लुवर मूर्ति और विवेकानन्द स्मारक शिला खड़े हैं। कन्याकुमारी एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थल भी है"Lonely Planet South India & Kerala," Isabella Noble et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787012394"Tamil Nadu, Human Development Report," Tamil Nadu Government, Berghahn Books, 2003, ISBN 9788187358145 विवरण कन्याकुमारी हिन्द महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर का संगम स्थल है, जहां भिन्न सागर अपने विभिन्न रंगो से मनोरम छटा बिखेरते हैं। भारत के सबसे दक्षिण छोर पर बसा कन्याकुमारी वर्षो से कला, संस्कृति, सभ्यता का प्रतीक रहा है। भारत के पर्यटक स्थल के रूप में भी इस स्थान का अपना ही महत्च है। दूर-दूर फैले समुद्र के विशाल लहरों के बीच यहां का सूर्योदय और सूर्यास्त का नजारा बेहद आकर्षक लगता हैं। समुद्र बीच पर फैले रंग बिरंगी रेत इसकी सुंदरता में चार चांद लगा देता है। इतिहास कन्याकुमारी दक्षिण भारत के महान शासकों चोल, चेर, पांड्य के अधीन रहा है। यहां के स्मारकों पर इन शासकों की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। इस जगह का नाम कन्‍याकुमारी पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने असुर बानासुरन को वरदान दिया था कि कुंवारी कन्या के अलावा किसी के हाथों उसका वध नहीं होगा। प्राचीन काल में भारत पर शासन करने वाले राजा भरत को आठ पुत्री और एक पुत्र था। भरत ने अपना साम्राज्य को नौ बराबर हिस्सों में बांटकर अपनी संतानों को दे दिया। दक्षिण का हिस्सा उसकी पुत्री कुमारी को मिला। कुमारी को शक्ति देवी का अवतार माना जाता था। कुमारी ने दक्षिण भारत के इस हिस्से पर कुशलतापूर्वक शासन किया। उसकी ईच्‍छा थी कि वह शिव से विवाह करें। इसके लिए वह उनकी पूजा करती थी। शिव विवाह के लिए राजी भी हो गए थे और विवाह की तैयारियां होने लगीं थी। लेकिन नारद मुनि चाहते थे कि बानासुरन का कुमारी के हाथों वध हो जाए। इस कारण शिव और देवी कुमारी का विवाह नहीं हो पाया। इस बीच बानासुरन को जब कुमारी की सुंदरता के बारे में पता चला तो उसने कुमारी के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखा। कुमारी ने कहा कि यदि वह उसे युद्ध में हरा देगा तो वह उससे विवाह कर लेगी। दोनों के बीच युद्ध हुआ और बानासुरन को मृत्यु की प्राप्ति हुई। कुमारी की याद में ही दक्षिण भारत के इस स्थान को कन्याकुमारी कहा जाता है। माना जाता है कि शिव और कुमारी के विवाह की तैयारी का सामान आगे चलकर रंग बिरंगी रेत में परिवर्तित हो गया। दर्शनीय स्थल कन्याकुमारी अम्मन मंदिर सागर के मुहाने के दाई ओर स्थित यह एक छोटा सा मंदिर है जो पार्वती को समर्पित है। मंदिर तीनों समुद्रों के संगम स्थल पर बना हुआ है। यहां सागर की लहरों की आवाज स्वर्ग के संगीत की भांति सुनाई देती है। भक्तगण मंदिर में प्रवेश करने से पहले त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाते हैं जो मंदिर के बाई ओर 500 मीटर की दूरी पर है। मंदिर का पूर्वी प्रवेश द्वार को हमेशा बंद करके रखा जाता है क्योंकि मंदिर है। गांधी स्मारक 280px|right|thumbnail|गाँधी मंडप यह स्मारक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित है। यही पर महात्मा गांधी की चिता की राख रखी हुई है। इस स्मारक की स्थापना 1956 में हुई थी। महात्मा गांधी 1948 में यहां अस्थियां विसर्जित की गई थी। स्मारक को इस प्रकार डिजाइन किया गया है कि महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर सूर्य की प्रथम किरणें उस स्थान पर पड़ती हैं जहां महात्मा की राख रखी हुई है। तिरूवल्लुवर मूर्ति 280px|right|thumbnail|133 फीट ऊंचा संत तिरुवल्लुवर मूर्ति तिरुक्कुरुल की रचना करने वाले अमर तमिल कवि तिरूवल्लुवर की यह प्रतिमा पर्यटकों को बहुत लुभाती है। 38 फीट ऊंचे आधार पर बनी यह प्रतिमा 95 फीट की है। इस प्रतिमा की कुल उंचाई 133 फीट है और इसका वजन 2000 टन है। इस प्रतिमा को बनाने में कुल 1283 पत्थर के टुकड़ों का उपयोग किया गया था। विवेकानंद रॉक मेमोरियल समुद्र में बने इस स्थान पर बड़ी संख्या में पर्यटक आते है। इस पवित्र स्थान को विवेकानंद रॉक मेमोरियल कमेटी ने 1970 में स्वामी विवेकानंद के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए बनवाया था। इसी स्थान पर स्वामी विवेकानंद गहन ध्यान लगाया था। इस स्थान को श्रीपद पराई के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार इस स्थान पर कन्याकुमारी ने भी तपस्या की थी। कहा जाता है कि यहां कुमारी देवी के पैरों के निशान मुद्रित हैं। यह स्मारक विश्व प्रसिद्ध है। सुचीन्द्रम यह छोटा-सा गांव कन्याकुमारी से लगभग 12 किमी दूर स्थित है। यहां का थानुमलायन मंदिर काफी प्रसिद्ध है। मंदिर में स्‍थापित हनुमान की छह मीटर की उंची मूर्ति काफी आकर्षक है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश जोकि इस ब्रह्मांड के रचयिता समझे जाते है उनकी मूर्ति स्‍थापित है। यहां नौवीं शताब्दी के प्राचीन अभिलेख भी पाए गए हैं। सुचीन्द्रम शक्तिपीठ हिन्दूओं के लिए प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह मंदिर भारत के तमिलनाडु राज्य, कन्याकुमारी में स्थित है। माना जाता है कि सुचिंद्रम में ‘सुची’ शब्द संस्कृत से लिया गया है जिसका अर्थ है ‘शुद्ध’ होना। सुचीन्द्रम शक्ति पीठ को ठाँउमालयन या स्तानुमालय मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर में विशेष बात यह है इसमें पत्थर के पाइप के सामान 8 या 10 झडे है और उन्हें बजाने पर तबलौ की धुन सुनाई देती है और यह हम पत्थर पर हाथ मारते हैं तभी धुन सुनाई देती है यह मंदिर सात मंजिला है जिसका सफेद गोपुरम काफी दूर से दिखाई देता है। इस मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी में किया गया था। सुचीन्द्रम शक्तिपीठ, मंदिर में बनी हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर का प्रवेश द्वार लगभग 24 फीट उंचा है जिसके दरवाजे पर सुंदर नक्काशी की गई है। यह मंदिर बड़ी संख्या में वैष्णव और सैवियों दोनों को आकर्षित करता है। मंदिर परिसर में विभिन्न देवी-देवताओं के लिए लगभग 30 मंदिर है जिसमें पवित्र स्थान में बड़ा लिंगम, आसन्न मंदिर में विष्णु की मूर्ति और उत्तरी गलियारे के पूर्वी छोर पर हनुमान की एक बड़ी मूर्ति है। यह मंदिर हिंदू धर्म के लगभग सभी देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। मंदिर के मुख्य देवता भगवान शिव, भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा को एक ही रूप में स्तरनुमल्याम कहा जाता है। स्तरनुमल्याम तीन देवताओं को दर्शाता है जिसमें ‘स्तानु’ का अर्थ ‘शिव’ है, ‘माल’ का अर्थ ‘विष्णु’ है और ‘आयन’ का अर्थ ‘ब्रह्मा’ है। भारत के उन मंदिरों में से एक है जिसमें त्रीमूर्ति व तीनों देवताओं की पूजा एक मंदिर में की जाती है। यह मंदिर माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है। इस मंदिर में शक्ति को नारायणी के रूप पूजा जाता है और भैरव को संहार भैरव के रूप में पूजा जाता है। पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाते हैं। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैले हुए हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी सती ने उनके पिता दक्षेस्वर द्वारा किये यज्ञ कुण्ड में अपने प्राण त्याग दिये थे, तब भगवान शंकर देवी सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्माण चक्कर लगा रहे थे इसी दौरान भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया था, जिसमें से सती की ऊपर के दांत इस स्थान पर गिरे थे। पौराणिक कथा के अनुसार देवों के राजा इन्द्र को महर्षि गौतम द्वारा दिये गए अभिशाप से इस स्थान पर मुक्ति मिली थी। सुचीन्द्रम शक्तिपीठ में सभी त्यौहार मनाये जाते है विशेष कर शिवरात्रि, दुर्गा पूजा और नवरात्र के त्यौहार पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। लेकिन दो प्रमुख त्यौहार है, जो इस मंदिर का प्रमुख आकर्षण का केन्द्र हैं, ‘सुचंद्रम मर्गली त्यौहार’ और ‘रथ यात्रा’ हैं। इन त्यौहारों के दौरान, कुछ लोग भगवान की पूजा के प्रति सम्मान और समर्पण के रूप में व्रत (भोजन नहीं खाते) रखते हैं। त्यौहार के दिनों में मंदिर को फूलो व लाईट से सजाया जाता है। मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण श्रद्धालुओं के दिल और दिमाग को शांति प्रदान करता है। नागराज मंदिर कन्याकुमारी से 20 किमी दूर नगरकोल का नागराज मंदिर नाग देव को समर्पित है। यहां भगवान विष्णु और शिव के दो अन्य मंदिर भी हैं। मंदिर का मुख्य द्वार चीन की बुद्ध विहार की कारीगरी की याद दिलाता है। पद्मनाभपुरम महल पद्मनाभपुरम महल की विशाल हवेलियां त्रावनकोर के राजा द्वारा बनवाया हैं। ये हवेलियां अपनी सुंदरता और भव्यता के लिए जानी जाती हैं। कन्याकुमारी से इनकी दूरी 45 किमी है। यह महल केरल सरकार के पुरातत्व विभाग के अधीन हैं। कोरटालम झरना यह झरना 167 मीटर ऊंची है। इस झरने के जल को औषधीय गुणों से युक्त माना जाता है। यह कन्याकुमारी से 137 किमी दूरी पर स्थित है। तिरूचेन्दूर 85 किमी दूर स्थित तिरूचेन्दूर के खूबसूरत मंदिर भगवान सुब्रमण्यम को समर्पित हैं। बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित इस मंदिर को भगवान सुब्रमण्यम के 6 निवासों में से एक माना जाता है। उदयगिरी किला कन्याकुमारी से 34 किमी दूर यह किला राजा मरतड वर्मा द्वारा 1729-1758 ई. दौरान बनवाया गया था। इसी किले में राजा के विश्वसनीय यूरोपियन दोस्त जनरल डी लिनोय की समाधि भी है। चित्रदीर्घा आवागमन वायुमार्ग- नजदीकी एयरपोर्ट तिरूअनंतपुरम है जो कन्याकुमारी से 89 किलोमीटर दूर है। यहां से बस या टैक्सी के माध्यम से कन्याकुमारी पहुंचा जा सकता है। यहां से लक्जरी कार भी किराए पर उपलब्ध हैं। रेलमार्ग- कन्याकुमारी चैन्नई सहित भारत के प्रमुख शहरों से रेल मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। चैन्नई से कन्याकुमारी एक्सप्रेस द्वारा यहां जाया जा सकता है। सड़क मार्ग- बस द्वारा कन्याकुमारी जाने के लिए त्रिची, मदुरै, चैन्नई, तिरूअनंतपुरम और तिरूचेन्दूर से नियमित बस सेवाएं हैं। तमिलनाड़ पर्यटन विभाग कन्याकुमारी के लिए सिंगल डे बस टूर की व्यवस्था भी करता है। राष्ट्रीय राजमार्ग 44 का दक्षिणी छोर यहाँ है और यह उत्तर दिशा में जम्मू और कश्मीर तक जाता है। भ्रमण समय समुद्र के किनारे होने के कारण कन्याकुमारी में साल भर मनोरम वातावरण रहता है। यूं तो पूरा साल कन्याकुमारी जाने लायक होता है लेकिन फिर भी पर्यटन के लिहाज से अक्टूबर से मार्च की अवधि सबसे बेहतर मानी जाती है। खरीददारी पर्यटक अक्सर यहां से विभिन्न रंगों के रेत के पैकेट खरीदतें हैं। यहां से सीप और शंख के अलावा प्रवाली शैलभित्ती के टुकड़ों की खरीददारी की जा सकती है। साथ ही केरल शैली की नारियल जटाएं और लकड़ी की हैंडीक्राफ्ट भी खरीदी जा सकती हैं। इन्हें भी देखें कन्याकुमारी ज़िला सन्दर्भ श्रेणी:कन्याकुमारी ज़िला श्रेणी:तमिल नाडु के शहर श्रेणी:कन्याकुमारी ज़िले के नगर श्रेणी:कोरोमंडल तट *
तमिल नाडु
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तमिल नाडु (तमिल: , तमिऴ् नाडु) भारत का एक दक्षिणी राज्य है। तमिल नाडु की राजधानी चेन्नई (चेऩ्ऩै) है। तमिल नाडु के अन्य महत्त्वपूर्ण नगर मदुरै, त्रिचि (तिरुच्चि), कोयम्बतूर (कोऽयम्बुत्तूर), सेलम (सेऽलम), तिरूनेलवेली (तिरुनेल्वेऽली) हैं। इसके पड़ोसी राज्य आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल हैं। तमिल नाडु में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा तमिल है। तमिल नाडु के वर्तमान मुख्यमन्त्री एम॰ के॰ स्टालिन और राज्यपाल रविन्द्र नारायण रवि हैं। भारतकासबसे दक्षिणीराज्य। क्षेत्रफल के हिसाब से दसवांसबसे बड़ा भारतीय राज्यऔरजनसंख्या के हिसाब से छठा सबसे बड़ाराज्य, तमिलनाडुतमिल लोगोंतमिल भाषाबोलते हैंशास्त्रीय भाषाओंमें से एक हैऔर इसकी आधिकारिक भाषा के रूप में कार्य करती है। राजधानी और सबसे बड़ा शहरचेन्नई। भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित , तमिलनाडु पश्चिम में पश्चिमी घाट और दक्कन के पठार , उत्तर में पूर्वी घाट , पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लगे पूर्वी तटीय मैदान और खाड़ी से फैला हुआ है। दक्षिण-पूर्व में मन्नार और पाक जलडमरूमध्य , प्रायद्वीप के दक्षिणी अंतरीप में लक्षद्वीप सागर , कावेरी नदी राज्य को दो भागों में विभाजित करती है। राजनीतिक रूप से, तमिलनाडु भारतीय राज्यों केरल , कर्नाटक और आंध्र प्रदेश और केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी से घिरा है और पंबन द्वीप पर श्रीलंका के उत्तरी प्रांत के साथ एक अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा साझा करता है । पुरातात्विक साक्ष्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि तमिलनाडु 400 सहस्राब्दियों से भी अधिक समय से बसा हुआ है और इसका 5,500 वर्षों से अधिक का निरंतर सांस्कृतिक इतिहास है। ऐतिहासिक रूप से , तमिलकम क्षेत्र तमिल भाषी द्रविड़ लोगों द्वारा बसाया गया था और सदियों से कई शासनों द्वारा शासित किया गया था, जैसे चेर , चोल और पांड्य की संगम युग की विजय , पल्लव (तीसरी-नौवीं शताब्दी सीई), और बाद में विजयनगर। साम्राज्य (14वीं-17वीं शताब्दी ई.पू.)। यूरोपीय उपनिवेशीकरण की शुरुआत 17वीं शताब्दी में व्यापार बंदरगाहों की स्थापना के साथ हुई, 1947 में भारतीय स्वतंत्रता से पहले दो शताब्दियों तक अंग्रेजों ने मद्रास प्रेसीडेंसी के रूप में दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्से को नियंत्रित किया । स्वतंत्रता के बाद, यह क्षेत्र भारत गणराज्य का मद्रास राज्य बन गया और था 1956 में जब राज्यों को भाषाई रूप से वर्तमान स्वरूप में पुनः रेखांकित किया गया तो इसे और अधिक पुनर्गठित किया गया । 1969 में राज्य का नाम बदलकर तमिलनाडु कर दिया गया, जिसका अर्थ है "तमिल देश"। इसलिए, संस्कृति , भोजन और वास्तुकला ने पिछले कुछ वर्षों में कई प्रभाव देखे हैं और विविध रूप से विकसित हुए हैं। भारत के सबसे शहरीकृत राज्य के रूप में, तमिलनाडु 23.65 लाख करोड़ रुपये (300 बिलियन अमेरिकी डॉलर) के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के साथ एक अर्थव्यवस्था का दावा करता है, जो इसे भारत के 28 राज्यों में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाता है। इसका प्रति व्यक्ति जीएसडीपी 9वां उच्चतम 275,583 ( US$3,500) है और मानव विकास सूचकांक में 11वें स्थान पर है । तमिलनाडु सबसे अधिक औद्योगिकीकृत राज्यों में से एक है, जहां विनिर्माण क्षेत्र का राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग एक-तिहाई योगदान है। अपनी विविध संस्कृति और वास्तुकला, लंबी तटरेखा, जंगलों और पहाड़ों के साथ, तमिलनाडु कई प्राचीन अवशेषों, ऐतिहासिक इमारतों, धार्मिक स्थलों, समुद्र तटों , हिल स्टेशनों , किलों , झरनों और राज्य के पर्यटन उद्योग के साथ चार विश्व धरोहर स्थलों का घर है । भारतीय राज्यों में सबसे बड़ा। 22,643 किमी 2 (8,743 वर्ग मील) के क्षेत्र में वन हैं, जो भौगोलिक क्षेत्र का 17.4% है, जिसमें से संरक्षित क्षेत्र 3,305 किमी 2 (1,276 वर्ग मील) के क्षेत्र को कवर करते हैं , जो राज्य के दर्ज वन क्षेत्र का लगभग 15% है और इसमें शामिल हैं तीन बायोस्फीयर रिजर्व , मैंग्रोव वन, पांच राष्ट्रीय उद्यान , 18 वन्यजीव अभयारण्य और 17 पक्षी अभयारण्य । तमिल फिल्म उद्योग , जिसे कॉलीवुड भी कहा जाता है, राज्य की लोकप्रिय संस्कृति में प्रभावशाली भूमिका निभाता है। शब्द-साधन यह नाम तमिल भाषा से लिया गया है , जिसका अर्थ नाडु है जिसका अर्थ है "भूमि" और तमिलनाडु का अर्थ है "तमिलों की भूमि"। तमिल शब्द की उत्पत्ति और सटीक व्युत्पत्ति इसके प्रमाणित कई सिद्धांतों के कारण अस्पष्ट है। [5] नामकरण ब्रिटिश शासनकाल में यह प्रान्त मद्रास प्रेसिडेंसी का भाग था। स्वतन्त्रता के बाद मद्रास प्रेसिडेंसी को विभिन्न भागों में बाँट दिया गया, जिसका परिणति मद्रास तथा अन्य राज्यों में हुई। 1968 में मद्रास प्रान्त का नाम बदलकर तमिल नाडु कर दिया गया। तमिलनाडु शब्द तमिल भाषा के तमिल तथा नाडु (நாடு) यानि देश या वासस्थान, से मिलकर बना है जिसका अर्थ तमिलों का घर या तमिलों का देश होता है। नाडु का शाब्दिक अर्थ होता है गांव का समूह (ncert Class7 ) इतिहास तमिलनाडु का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह उन गिने चुने क्षेत्रों में से एक है जो प्रागैतिहासिक काल से अब तक लगातार बसे हुए है। अत्यारम्भ से यह तीन प्रसिद्ध राजवंशों की कर्मभूमि रही है - चेर, चोल तथा पांड्य। तमिल नाडु के प्राचीन संगम साहित्य में, यहाँ के तत्कालीन राजाओं, राजकुमारों तथा उनके प्रशन्शक कवियों का बारम्बार विवरण मिलता है। विद्वान तथा विशेषज्ञ एसा मानते हैं कि, यह संगम साहित्य इसोत्तर (इसा-पश्चात) की आरम्भिक कुछ सदियों का है। आरम्भिक चोल, पहली सदी से लेकर चौथी सदी तक सत्ता के मुख्य अधिपति रहे। इनमें सर्वप्रमुख नाम करिकाल चोल (तमिल - கரிகால சோல (तमिल हिज्जे की शुद्धता अपूर्ण हो सकती है)) है, जिसने अपने साम्राज्य को कांचीपुरम् तक पहुँचाया। चोलों ने वर्तमान तंजावुर तथा तिरुचिरापल्ली तक अपना साम्राज्य विस्तृत किया तथा सैन्य कर्मों में महारत प्राप्त की। अपने यौवन काल में चोलों ने दक्षिण में श्रीलंका तथा उत्तर में कई सौ कि॰मी॰ तक अपना प्रभुत्व स्थापित किया। तीसरी सदी तक कालभ्रों के आक्रमण से चोलों का पतन आरम्भ हो गया। कालभ्रों को छठी सदी तक, उत्तर में पल्लवों तथा दक्षिण में पांड्यों ने हराकर बाहर कर दिया। प्रागितिहास (5वीं शताब्दी ईसा पूर्व से पहले) पुरातात्विक साक्ष्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि इस क्षेत्र में 400 सहस्राब्दी से भी पहले होमिनिड्स का निवास था। [6] [7] भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा आदिचनल्लूर में बरामद कलाकृतियां 3,800 साल से भी पहले के निरंतर इतिहास का संकेत देती हैं। [8] 1500 और 2000 ईसा पूर्व के बीच की सिंधु लिपि वाले नवपाषाणकालीन सेल्ट्स हड़प्पा भाषा के उपयोग का संकेत देते हैं । [9] [10] कीझाडी में उत्खनन से भारत-गंगा के मैदान में शहरीकरण के समय, 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व की एक बड़ी शहरी बस्ती का पता चला है । [11] आदिचनल्लूर में पाए गए अन्य अभिलेखीय शिलालेखों में तमिल ब्राह्मी का उपयोग किया गया है , जो 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व की एक अल्पविकसित लिपि है। [12] कीलाडी से मिले बर्तनों से एक लिपि का पता चलता है जो सिंधु घाटी लिपि और बाद में इस्तेमाल की गई तमिल ब्राह्मी लिपि के बीच एक संक्रमण है। [13] संगम काल (5वीं शताब्दी ईसा पूर्व-तीसरी शताब्दी ई.पू.) मुख्य लेख: संगम काल , तमिलकम , और संगम परिदृश्य संगम काल 500 ईसा पूर्व से 300 ईस्वी तक लगभग आठ शताब्दियों तक चला, इस अवधि के दौरान इतिहास का मुख्य स्रोत संगम साहित्य से आया । [14] [15] प्राचीन तमिलकम पर राजशाही राज्यों, चेर , चोल और पांड्य की त्रिमूर्ति का शासन था । [16] चेरों ने तमिलकम के पश्चिमी भाग को नियंत्रित किया, पांड्यों ने दक्षिण को नियंत्रित किया, और चोलों का आधार कावेरी डेल्टा में था। वेंधर नामक राजाओं ने वेलाला (किसानों) की कई जनजातियों पर शासन किया , जिनका नेतृत्व वेलिर प्रमुखों ने किया। [17] शासकों ने वैदिक धर्म , बौद्ध धर्म और जैन धर्म सहित कई धर्मों को संरक्षण दिया और कुछ शुरुआती तमिल साहित्य को प्रायोजित किया, जिसमें सबसे पुराना जीवित काम तोलकाप्पियम , तमिल व्याकरण की एक पुस्तक है। [18] [19] राज्यों के उत्तर के अन्य राज्यों और रोमनों के साथ महत्वपूर्ण राजनयिक और व्यापारिक संपर्क थे । [20] रोमन और हान चीन से अधिकांश वाणिज्य मुज़िरिस और कोरकाई सहित बंदरगाहों के माध्यम से सुगम होता था, जिसमें मोती और रेशम के साथ मसाले सबसे बेशकीमती सामान थे । [21] [22] 300 ई.पू. से, तमिलकम के अधिकांश कालभ्रस , जिनके बारे में माना जाता है कि वे योद्धाओं के वेल्लालर समुदाय के थे, जो संभवतः एक समय प्राचीन तमिल राज्यों के सामंत थे। [23] कालभ्र युग को तमिल इतिहास का "अंधकार काल" कहा जाता है, और इसके बारे में जानकारी आम तौर पर साहित्य और शिलालेखों में किसी भी उल्लेख से निकाली जाती है जो उनके युग के समाप्त होने के कई शताब्दियों बाद की है। [24] जुड़वां तमिल महाकाव्य सिलप्पातिकारम और मणिमेकलाई इसी युग में लिखे गए थे। [25] वल्लुवर द्वारा लिखित तमिल क्लासिक तिरुक्कुरल , दोहों का एक संग्रह उसी अवधि का है। [26] [27] मध्यकालीन युग (चौथी-13वीं शताब्दी ई.पू.) 7वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास, कालभ्रों को पांड्यों और चोलों ने उखाड़ फेंका, जिन्होंने भक्ति आंदोलन के दौरान शैववाद और वैष्णववाद के पुनरुद्धार से पहले बौद्ध धर्म और जैन धर्म को संरक्षण दिया था । [28] हालांकि वे पहले से अस्तित्व में थे, इस अवधि में छठी शताब्दी ईस्वी में महेंद्रवर्मन प्रथम के तहत पल्लवों का उदय हुआ , जिन्होंने कांचीपुरम को अपनी राजधानी बनाकर दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर शासन किया। [29] पल्लवों को वास्तुकला के संरक्षण के लिए जाना जाता था , मंदिरों के प्रवेश द्वार पर विशाल गोपुरम , अलंकृत टावरों की उत्पत्ति , पल्लवों के काल में हुई थी । उन्होंने महाबलीपुरम में चट्टानों को काटकर बनाए गए स्मारकों और कांचीपुरम में मंदिरों का समूह बनवाया । [30] अपने पूरे शासनकाल में, पल्लव चोलों और पांड्यों के साथ लगातार संघर्ष में रहे। छठी शताब्दी ईस्वी के अंत में कडुंगोन द्वारा पांड्यों को पुनर्जीवित किया गया था और उरैयुर में चोलों के अज्ञातवास के साथ , तमिल देश पल्लवों और पांड्यों के बीच विभाजित हो गया था। [31] 9वीं शताब्दी ईस्वी में पल्लव अंततः आदित्य प्रथम से हार गए । [32] 1030 में राजेंद्र चोल प्रथम के शासनकाल के दौरान चोल साम्राज्य अपने सबसे बड़े विस्तार पर था 9वीं शताब्दी में विजयालय चोल के तहत चोल प्रमुख साम्राज्य बन गए , जिन्होंने बाद के शासकों द्वारा और विस्तार के साथ तंजावुर को चोल की नई राजधानी के रूप में स्थापित किया। 11वीं शताब्दी ईस्वी में, राजराजा प्रथम ने संपूर्ण दक्षिणी भारत और वर्तमान श्रीलंका , मालदीव के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त करके चोल साम्राज्य का विस्तार किया और हिंद महासागर में चोल प्रभाव बढ़ाया । [33] [34] राजराजा ने तमिल देश को अलग-अलग प्रशासनिक इकाइयों में पुनर्गठित करने सहित प्रशासनिक सुधार लाए। [35] उनके बेटे राजेंद्र चोल प्रथम के तहत , चोल साम्राज्य अपने चरम पर पहुंच गया और उत्तर में बंगाल और हिंद महासागर तक फैल गया। [36] चोलों ने द्रविड़ शैली में कई मंदिरों का निर्माण किया, जिनमें सबसे उल्लेखनीय तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर है , जो राजा राजा द्वारा निर्मित युग के सबसे प्रमुख मंदिरों में से एक है और राजेंद्र द्वारा निर्मित गंगईकोंडा चोलपुरम है । [37] 13वीं शताब्दी की शुरुआत में मारवर्मन सुंदर प्रथम के तहत पांड्यों ने फिर से सर्वोच्च शासन किया । [38] उन्होंने अपनी राजधानी मदुरै से शासन किया और अन्य समुद्री साम्राज्यों के साथ व्यापार संबंधों का विस्तार किया। [39] 13वीं शताब्दी के दौरान, मार्को पोलो ने पांड्यों को अस्तित्व में सबसे अमीर साम्राज्य के रूप में उल्लेख किया था। पांड्यों ने मदुरै में मीनाक्षी अम्मन मंदिर सहित कई मंदिर भी बनवाए । [40] विजयनगर और नायक काल (14वीं-17वीं शताब्दी ई.पू.) 13वीं और 14वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत की ओर से बार-बार हमले हुए । [41] विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 ई. में हुई थी । [42] विजयनगर साम्राज्य ने अंततः पूरे तमिल देश पर कब्ज़ा कर लिया ।  1370 और 1565 में तालीकोटा की लड़ाई में डेक्कन सल्तनत के संघ द्वारा अपनी हार तक लगभग दो शताब्दियों तक शासन किया । [43] [44] बाद में, नायक , जो विजयनगर साम्राज्य में सैन्य गवर्नर थे, ने इस क्षेत्र पर नियंत्रण कर लिया, जिनमें मदुरै के नायक और तंजावुर के नायक सबसे प्रमुख थे। [45] [46] उन्होंने पलायक्करर प्रणाली की शुरुआत की और मदुरै में मीनाक्षी मंदिर सहित तमिलनाडु के कुछ प्रसिद्ध मंदिरों का पुनर्निर्माण किया। [47] बाद के संघर्ष और यूरोपीय उपनिवेशीकरण (17वीं से 20वीं शताब्दी ई.पू.) 18वीं शताब्दी में, मुग़ल साम्राज्य ने इस क्षेत्र का प्रशासन अर्कोट में अपनी सीट वाले कर्नाटक के नवाब के माध्यम से किया , जिन्होंने मदुरै नायक को हराया था। [48] त्रिचिनोपोली की घेराबंदी (1751-1752) के बाद मराठों ने कई बार हमला किया और नवाब को हराया । [49] [50] [51] इससे तंजावुर मराठा साम्राज्य अल्पकालिक हो गया । [52] थारंगमबाड़ी में फोर्ट डैन्सबोर्ग , डेनिश द्वारा निर्मित यूरोपीय लोगों ने 16वीं शताब्दी से पूर्वी तट पर व्यापार केंद्र स्थापित करना शुरू कर दिया था। पुर्तगाली 1522 में आये और मद्रास में वर्तमान मायलापुर के पास साओ टोमे नामक एक बंदरगाह का निर्माण किया। [53] 1609 में, डचों ने पुलिकट में और डेनिश ने थारंगमबाड़ी में अपनी बस्ती स्थापित की । [54] [55] 20 अगस्त 1639 को, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के फ्रांसिस डे ने विजयनगर के सम्राट पेडा वेंकट राय से मुलाकात की और अपनी व्यापारिक गतिविधियों के लिए कोरोमंडल तट पर भूमि के लिए अनुदान प्राप्त किया। [56] [57] [58] एक साल बाद, कंपनी ने फोर्ट सेंट जॉर्ज का निर्माण किया , जो भारत में पहली बड़ी अंग्रेजी बस्ती थी, जो इस क्षेत्र में ब्रिटिश राज का केंद्र बन गई। [59] [60] 1693 तक, फ्रांसीसियों ने पांडिचेरी में व्यापारिक चौकियाँ स्थापित कर लीं । ब्रिटिश और फ्रांसीसी ने व्यापार का विस्तार करने के लिए प्रतिस्पर्धा की जिसके परिणामस्वरूप सात साल के युद्ध के हिस्से के रूप में वांडीवाश की लड़ाई हुई । [61] 1749 में ऐक्स-ला-चैपेल की संधि के माध्यम से ब्रिटिशों ने फिर से नियंत्रण हासिल कर लिया और 1759 में फ्रांसीसी घेराबंदी के प्रयास का विरोध किया । [62] [63] कर्नाटक के नवाबों ने अपने क्षेत्र का अधिकांश भाग ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया। उत्तर और दक्षिण में कर राजस्व संग्रह का अधिकार प्रदान किया, जिसके कारण पलैयाक्करों के साथ लगातार संघर्ष होते रहे जिन्हें पॉलीगर युद्धों के रूप में जाना जाता है । पुली थेवर शुरुआती विरोधियों में से एक था, जो बाद में पॉलीगर युद्धों की पहली श्रृंखला में शिवगंगई की रानी वेलु नचियार और पंचालाकुरिची के कट्टाबोम्मन से जुड़ गया। [64] [65] मरुथु बंधुओं ने कट्टाबोम्मन के भाई ओमाइथुराई के साथ मिलकर धीरन चिन्नामलाई और केरल वर्मा पजहस्सी राजा के साथ गठबंधन बनाया , जिसने दूसरे पॉलीगर युद्धों में अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। [66] 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, मैसूर साम्राज्य ने क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया और अंग्रेजों के साथ लगातार लड़ाई में लगे रहे, जिसकी परिणति चार एंग्लो-मैसूर युद्धों में हुई । [67] फोर्ट सेंट जॉर्ज और मद्रास की 18वीं सदी की रंगीन नक्काशी 18वीं शताब्दी तक, अंग्रेजों ने अधिकांश क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था और मद्रास को राजधानी बनाकर मद्रास प्रेसीडेंसी की स्थापना की थी। [68] 1799 में चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध में मैसूर की हार और 1801 में दूसरे पॉलीगर युद्ध में ब्रिटिश की जीत के बाद, अंग्रेजों ने दक्षिणी भारत के अधिकांश हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया, जिसे बाद में मद्रास प्रेसीडेंसी के नाम से जाना गया । [69] 10 जुलाई 1806 को, वेल्लोर विद्रोह , जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ भारतीय सिपाहियों द्वारा बड़े पैमाने पर विद्रोह का पहला उदाहरण था, वेल्लोर किले में हुआ था । [70] [71] 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद , ब्रिटिश ताज द्वारा कंपनी से शासन का नियंत्रण अपने हाथ में लेने के बाद ब्रिटिश राज का गठन हुआ। [72] ग्रीष्मकालीन मानसून की विफलता और रैयतवारी प्रणाली की प्रशासनिक कमियों के परिणामस्वरूप मद्रास प्रेसीडेंसी में दो गंभीर अकाल पड़े, 1876-78 का महान अकाल और 1896-97 का भारतीय अकाल जिसमें लाखों लोग मारे गए और कई तमिलों का बंधुआ मजदूरों के रूप में पलायन हुआ। अन्य ब्रिटिश देशों ने अंततः वर्तमान तमिल प्रवासी का निर्माण किया । [73] भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के साथ गति पकड़ी, जो दिसंबर 1884 में मद्रास में आयोजित एक थियोसोफिकल सम्मेलन के बाद थियोसोफिकल सोसायटी आंदोलन के सदस्यों द्वारा प्रचारित एक विचार पर आधारित थी। [74 ] [75] तमिलनाडु स्वतंत्रता आंदोलन में वीओ चिदंबरम पिल्लई , सुब्रमण्यम शिव और भरतियार सहित विभिन्न योगदानकर्ताओं का आधार था । [76] सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) के सदस्यों में तमिलों का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत था । [77] स्वतंत्रता के बाद (1947-वर्तमान) 1947 में भारत की आजादी के बाद , मद्रास प्रेसीडेंसी मद्रास राज्य बन गया , जिसमें वर्तमान तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश , कर्नाटक और केरल के कुछ हिस्से शामिल थे । 1953 में आंध्र राज्य को राज्य से अलग कर दिया गया और 1956 में जब राज्यों को भाषाई रूप से वर्तमान आकार में फिर से तैयार किया गया तो राज्य को और अधिक पुनर्गठित किया गया। [78] [79] 14 जनवरी 1969 को मद्रास राज्य का नाम बदलकर तमिलनाडु कर दिया गया, जिसका अर्थ है "तमिल देश"। [80] [81] 1965 में, हिंदी को थोपे जाने के खिलाफ और संचार के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को जारी रखने के समर्थन में आंदोलन उठे, जिसके परिणामस्वरूप अंततः अंग्रेजी को हिंदी के साथ भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में बरकरार रखा गया। [82] स्वतंत्रता के बाद, तमिलनाडु की अर्थव्यवस्था एक समाजवादी ढांचे के अनुरूप थी, जिसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी, विदेशी व्यापार और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर सख्त सरकारी नियंत्रण था । भारतीय स्वतंत्रता के तुरंत बाद के दशकों में उतार-चढ़ाव का अनुभव करने के बाद, सुधार-उन्मुख आर्थिक नीतियों के कारण, तमिलनाडु की अर्थव्यवस्था 1970 के दशक से लगातार राष्ट्रीय औसत विकास दर से अधिक रही। [83] 2000 के दशक में, राज्य उच्च जीवन स्तर के साथ देश के सबसे अधिक शहरीकृत राज्यों में से एक बन गया है। [84] मन्दिर निर्माण right|thumb|300px|मदुरै का मीनाक्षी अम्मम मंदिर ५८० ई० के आसपास पांड्य शाशक, जो मन्दिर निर्माण में निपुण निकले, सत्ता के प्रमुख हो गए और अगले १५० वर्षों तक राज सम्भाला। कांचीपुरम् उनका प्रमुख केन्द्र था। द्रविड़ स्थापत्य इस समय अपने चरम पर था। ९वीं सदी में चोलों का पुनरोदय हुआ। राजाराजा चोल तथा उसके पुत्र राजेंद्र चोल के नेतृत्व में चोल एशिया के प्रमुख साम्राज्यों में गिना जाने लगा। उनका साम्राज्य बंगाल तक फैल गया। राजेंद्र चोल की नौसेना ने बर्मा (म्यानमार), अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, सुमात्रा, जावा, मलय तथा लक्षद्वीप तक पर अधिपत्य जमाया। चोलों ने भी भुवन (मंदिर) निर्माण में प्रवीणता हासिल की। तंजावुर का वृहदेश्वर मंदिर इसका सुंदरतम उदाहरण है। 14वीं सदी के आरंभ में पांड्य फिर प्रभुत्व में आए, पर अधिक दिनों तक टिक नहीं सके। उन्हें उत्तर के मुस्लिम खिलजी शाशकों ने हरा दिया। मदुरई को लूट लिया गया। १६वीं सदी के मध्य में विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद कुछ पुराने मंदिरों का पुनर्निमाण किया गया। १६७० तक राज्य का लगभग सम्पूर्ण क्षेत्र मराठों के अधिकार में आ गया। पर मराठे अधिक दिनों तक शासन में नहीं रह सके इसके ५० वर्षों के बाद मैसूर स्वतन्त्र हो गया जिसके अधीन आज के तमिळनाडु का उत्तर-पूर्वी क्षेत्र था। इसके अलावा दक्षिण के राज्य भी स्वतंत्र हो गए। सन् १७९९ में चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद यह अंग्रेजी शासन में आ गया। भूगोल right|thumb|150px|तमिलनाडु के जिले तमिल नाडु का क्षेत्रफल १,३०,०५८km२ है। यह भारत के दक्षिण में स्थित है और उत्तर में आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम में केरल, दक्षिण में हिन्द महासागर और पूर्व में बंगाल की खाड़ी इसके पड़ोसी हैं। इसके अतिरिक्त राज्य के उत्तरपूर्व में पुडुचेरी भी स्थित है। यहाँ की सबसे प्रमुख नदी कावेरी है। राज्य का पश्चिमी, दक्षिणी और उत्तरपूर्वी भाग पहाड़ी भूभाग वाला है। तमिल नाडु देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जिसकी सीमा के भीतर पूर्वी और पश्चिमी घाट पड़ते हैं जो नीलगिरी में जुड़े हुए हैं। केरल की सीमा से लगता पश्चिमी घाट है जो दक्षिणपश्चिम मानसून की बारिश को रोक देता है। राज्य का पूर्वी भाग उपजाऊ है, उत्तरी भाग में पहाडियाँ और समतल भूमि भी है। राज्य के मध्य भाग शुष्क हैं और राज्य के अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम वर्षा प्राप्त करते हैं। तमिल नाडु की तटरेखा ९१० किमी है। वर्ष २००४ में आई सुनामी की लहरें इस राज्य की तटरेखा से भी टकराई थीं जिसके कारण यहाँ बहुत क्षति हुई। उस सुनामी में तमिल नाडु में लगभग ७,७९० लोग मारे गए थे। इस राज्य की जलवायु मानसून पर निर्भर है और बहुत से क्षेत्र सूखा-सम्भावित हैं। राज्य में औसत वार्षिक अवक्षेपण ९४५ मीमी है। भूगर्भ शास्त्र तमिलनाडु ज्यादातर कम भूकंपीय खतरे वाले क्षेत्र में आता है, पश्चिमी सीमा क्षेत्रों को छोड़कर जो कम से मध्यम खतरे वाले क्षेत्र में आते हैं; 2002 के भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) मानचित्र के अनुसार, तमिलनाडु जोन II और III में आता है। [100] दक्कन के ज्वालामुखीय बेसाल्ट बिस्तर विशाल डेक्कन ट्रैप विस्फोट में बिछाए गए थे , जो 67 से 66 मिलियन वर्ष पहले क्रेटेशियस काल के अंत में हुआ था । [101] कई वर्षों तक चली ज्वालामुखी गतिविधि से परत दर परत बनती गई और जब ज्वालामुखी विलुप्त हो गए, तो उन्होंने ऊंचे इलाकों का एक क्षेत्र छोड़ दिया, जिसके शीर्ष पर आमतौर पर एक मेज की तरह समतल क्षेत्रों का विशाल विस्तार था। [102] तमिलनाडु की प्रमुख मिट्टी लाल दोमट , लेटराइट , काली , जलोढ़ और खारी हैं । उच्च लौह सामग्री वाली लाल मिट्टी, राज्य के एक बड़े हिस्से और सभी अंतर्देशीय जिलों पर कब्जा करती है। काली मिट्टी पश्चिमी तमिलनाडु और दक्षिणी तट के कुछ हिस्सों में पाई जाती है। जलोढ़ मिट्टी उपजाऊ कावेरी डेल्टा क्षेत्र में पाई जाती है, लैटेराइट मिट्टी तटीय इलाकों में पाई जाती है और लवणीय मिट्टी पूरे तट पर पाई जाती है जहां वाष्पीकरण अधिक होता है। [103] जलवायु इस क्षेत्र की जलवायु उष्णकटिबंधीय है और वर्षा के लिए मानसून पर निर्भर है। [104] तमिलनाडु को सात कृषि-जलवायु क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: उत्तर-पूर्व, उत्तर-पश्चिम, पश्चिम, दक्षिणी, उच्च वर्षा, उच्च ऊंचाई वाली पहाड़ी और कावेरी डेल्टा। [105] पश्चिमी घाट के पूर्व में अर्ध-शुष्क वर्षा छाया को छोड़कर अधिकांश अंतर्देशीय प्रायद्वीपीय क्षेत्र में उष्णकटिबंधीय आर्द्र और शुष्क जलवायु व्याप्त है । सर्दी और गर्मियों की शुरुआत लंबी शुष्क अवधि होती है, जिसमें औसत तापमान 18 डिग्री सेल्सियस (64 डिग्री फारेनहाइट) से ऊपर होता है; गर्मियों में अत्यधिक गर्मी होती है और निचले इलाकों में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस (122 डिग्री फ़ारेनहाइट) से अधिक होता है; और बरसात का मौसम जून से सितंबर तक रहता है, पूरे क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 750 और 1,500 मिमी (30 और 59 इंच) के बीच होती है। एक बार जब सितंबर में शुष्क पूर्वोत्तर मानसून शुरू हो जाता है, तो भारत में सबसे अधिक वर्षा तमिलनाडु में होती है, जिससे अन्य राज्य तुलनात्मक रूप से शुष्क हो जाते हैं। [106] पश्चिमी घाट के पूर्व की भूमि में गर्म अर्ध-शुष्क जलवायु व्याप्त है, जिसमें राज्य के अंतर्देशीय दक्षिण और दक्षिण मध्य भाग शामिल हैं और सालाना 400 से 750 मिलीमीटर (15.7 और 29.5 इंच) के बीच वर्षा होती है, जिसमें गर्म ग्रीष्मकाल और लगभग 20-24 डिग्री सेल्सियस (68-75 डिग्री फ़ारेनहाइट) तापमान के साथ शुष्क सर्दियाँ। मार्च और मई के बीच के महीने गर्म और शुष्क होते हैं, औसत मासिक तापमान 32 डिग्री सेल्सियस (90 डिग्री फ़ारेनहाइट) के आसपास रहता है, और 320 मिलीमीटर (13 इंच) वर्षा होती है। कृत्रिम सिंचाई के बिना यह क्षेत्र कृषि के लिये उपयुक्त नहीं है। [107] जून से सितंबर तक दक्षिण -पश्चिम मानसून से क्षेत्र में अधिकांश वर्षा होती है। दक्षिण पश्चिम मानसून की अरब सागर शाखा केरल से पश्चिमी घाट से टकराती है और कोंकण तट के साथ उत्तर की ओर बढ़ती है , जिससे राज्य के पश्चिमी क्षेत्र में वर्षा होती है। ऊँचे पश्चिमी घाट हवाओं को दक्कन के पठार तक पहुँचने से रोकते हैं; इसलिए, लीवार्ड क्षेत्र (हवाओं से वंचित क्षेत्र) में बहुत कम वर्षा होती है। [108] [109] दक्षिण-पश्चिम मानसून की बंगाल की खाड़ी की शाखा उत्तर-पूर्व भारत की ओर बढ़ती है, जो बंगाल की खाड़ी से नमी लेती है और भूमि के आकार के कारण, कोरामंडल तट पर दक्षिण-पश्चिम मानसून से अधिक वर्षा नहीं होती है। उत्तरी तमिलनाडु में अधिकांश वर्षा पूर्वोत्तर मानसून से होती है। [110] पूर्वोत्तर मानसून नवंबर से मार्च की शुरुआत तक होता है, जब सतह पर उच्च दबाव प्रणाली सबसे मजबूत होती है। [111] उत्तरी हिंद महासागर में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में पूरे वर्ष उष्णकटिबंधीय चक्रवात आते हैं, जो विनाशकारी हवाएं और भारी वर्षा लाते हैं। [112] [113] राज्य की वार्षिक वर्षा लगभग 945 मिमी (37.2 इंच) है जिसमें से 48 प्रतिशत पूर्वोत्तर मानसून के माध्यम से, और 52 प्रतिशत दक्षिण-पश्चिम मानसून के माध्यम से होती है। राज्य के पास राष्ट्रीय स्तर पर केवल 3% जल संसाधन हैं और यह अपने जल संसाधनों को रिचार्ज करने के लिए पूरी तरह से बारिश पर निर्भर है, मानसून की विफलता के कारण पानी की भारी कमी और गंभीर सूखा पड़ता है । [114] [115] वनस्पति और जीव मुख्य लेख: तमिलनाडु के वन्यजीव और तमिलनाडु के पक्षियों की सूची (8,743 वर्ग मील) क्षेत्र पर कब्जा करते हैं जो भौगोलिक क्षेत्र का 17.4% है। [116] तमिलनाडु में पौधों और जानवरों की व्यापक विविधता है, जो इसकी विविध जलवायु और भूगोल के कारण है। पर्णपाती वन पश्चिमी घाट के किनारे पाए जाते हैं जबकि उष्णकटिबंधीय शुष्क वन और झाड़ियाँ आंतरिक भाग में आम हैं। दक्षिणी पश्चिमी घाट में ऊँचाई पर स्थित वर्षा वन हैं जिन्हें दक्षिण पश्चिमी घाट पर्वतीय वर्षा वन कहा जाता है । [117] पश्चिमी घाट दुनिया के आठ सबसे गर्म जैव विविधता वाले हॉटस्पॉट और यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल में से एक है । [118] वन्यजीवों की लगभग 2,000 प्रजातियाँ हैं जो तमिलनाडु की मूल निवासी हैं, एंजियोस्पर्म की 5640 प्रजातियाँ ( औषधीय पौधों की 1,559 प्रजातियाँ , 533 स्थानिक प्रजातियाँ, खेती वाले पौधों के जंगली रिश्तेदारों की 260 प्रजातियाँ, 230 लाल-सूचीबद्ध प्रजातियाँ शामिल हैं), 64 ब्रायोफाइट्स , लाइकेन , कवक , शैवाल और बैक्टीरिया के अलावा जिम्नोस्पर्म की प्रजातियां (चार स्वदेशी प्रजातियों और 60 प्रचलित प्रजातियों सहित) और टेरिडोफाइट्स की 184 प्रजातियां । [119] सामान्य पौधों की प्रजातियों में राज्य वृक्ष शामिल हैं: पाल्मिरा पाम , यूकेलिप्टस , रबर, सिनकोना , गुच्छेदार बांस ( बम्बुसा अरुंडिनेशिया ), सामान्य सागौन , एनोजीसस लैटिफोलिया , इंडियन लॉरेल , ग्रेविया , और इंडियन लैबर्नम , अर्डिसिया और सोलानेसी जैसे फूल वाले पेड़ । दुर्लभ और अनूठे पौधों में कॉम्ब्रेटम ओवलिफोलियम , आबनूस ( डायस्पायरोस निलाग्रिका ), हेबेनेरिया रारिफ्लोरा (आर्किड), अलसोफिला , इम्पेतिन्स एलिगेंस , रानुनकुलस रेनिफोर्मिस और रॉयल फर्न शामिल हैं । [120] तमिलनाडु के महत्वपूर्ण पारिस्थितिक क्षेत्र नीलगिरि पहाड़ियों में नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व , अगस्त्य माला में अगस्त्यमाला बायोस्फीयर रिजर्व - इलायची पहाड़ियाँ और मन्नार की खाड़ी प्रवाल भित्तियाँ हैं। [121] मन्नार की खाड़ी बायोस्फीयर रिज़र्व 10,500 किमी 2 (4,100 वर्ग मील) महासागर, द्वीपों और प्रवाल भित्तियों , नमक दलदल और मैंग्रोव सहित आसपास के समुद्र तट को कवर करती है। यह डॉल्फ़िन , डुगोंग , व्हेल और समुद्री खीरे सहित लुप्तप्राय जलीय प्रजातियों का घर है । [122] [123] थट्टेकड़ , कदलुंडी , वेदांथंगल , रंगनाथिटु , कुमारकोम , नीलापट्टू और पुलिकट सहित पक्षी अभयारण्य कई प्रवासी और स्थानीय पक्षियों का घर हैं। [124] [125] मुदुमलाई राष्ट्रीय उद्यान में एक बंगाल टाइगर , जो दक्षिण भारत का पहला आधुनिक वन्यजीव अभयारण्य है संरक्षित क्षेत्र 3,305 किमी 2 (1,276 वर्ग मील) के क्षेत्र को कवर करते हैं , जो राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 2.54% और 22,643 किमी 2 (8,743 वर्ग मील) दर्ज वन क्षेत्र का 15% है। प्रशासन और राजनीति प्रशासन अधिक जानकारी: तमिलनाडु में स्थानीय सरकारी निकाय चेन्नई राज्य की राजधानी है और यहां राज्य की कार्यपालिका , विधायिका और न्यायपालिका के प्रमुख रहते हैं । [149] राज्य सरकार का प्रशासन विभिन्न सचिवालय विभागों के माध्यम से कार्य करता है। राज्य में 43 विभाग हैं और विभागों के अतिरिक्त उप-विभाग भी हैं जो विभिन्न उपक्रमों और बोर्डों को नियंत्रित कर सकते हैं। [150] राज्य को 38 जिलों में विभाजित किया गया है , जिनमें से प्रत्येक का प्रशासन एक जिला कलेक्टर द्वारा किया जाता है , जो तमिलनाडु सरकार द्वारा जिले में नियुक्त भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) का एक अधिकारी होता है। राजस्व प्रशासन के लिए, जिलों को राजस्व मंडल अधिकारियों (आरडीओ) द्वारा प्रशासित 87 राजस्व प्रभागों में विभाजित किया गया है, जिसमें तहसीलदारों द्वारा प्रशासित 310 तालुक शामिल हैं । [151] तालुकों को 1349 राजस्व खंडों में विभाजित किया गया है जिन्हें फिरका कहा जाता है , जिसमें 17,680 राजस्व गांव शामिल हैं। [151] स्थानीय प्रशासन में शहरी क्षेत्र में 15 नगर निगम , 121 नगर पालिकाएं और 528 नगर पंचायतें और 385 पंचायत संघ और 12,618 ग्राम पंचायतें शामिल हैं, जो ग्राम प्रशासनिक अधिकारियों (वीएओ) द्वारा प्रशासित हैं। [152] [151] [153] 1688 में स्थापित ग्रेटर चेन्नई कॉर्पोरेशन , दुनिया का दूसरा सबसे पुराना राज्य है और तमिलनाडु एक नई प्रशासनिक इकाई के रूप में नगर पंचायत स्थापित करने वाला पहला राज्य था। [154] [152] विधान मंडल भारत के संविधान के अनुसार , राज्यपाल राज्य का कानूनी प्रमुख होता है और मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है जिसके पास वास्तविक कार्यकारी अधिकार होता है। [155] भारतीय परिषद अधिनियम 1861 ने चार से आठ सदस्यों के साथ मद्रास प्रेसीडेंसी विधान परिषद की स्थापना की, लेकिन यह केवल एक सलाहकार निकाय थी और इसकी संख्या 1892 में 20 और 1909 में 50 तक बढ़ा दी गई थी । [156] [157] मद्रास विधान परिषद की स्थापना 1921 में भारत सरकार अधिनियम 1919 द्वारा तीन साल की अवधि के साथ की गई थी और इसमें 132 सदस्य शामिल थे, जिनमें से 34 राज्यपाल द्वारा नामित किए गए थे और बाकी चुने गए थे। [158] भारत सरकार अधिनियम 1935 ने जुलाई 1937 में 54 से 56 सदस्यों वाली एक नई विधान परिषद के निर्माण के साथ द्विसदनीय विधायिका की स्थापना की । [158] भारत के संविधान के तहत मद्रास राज्य की पहली विधायिका का गठन 1 मार्च 1952 को किया गया था। 1952 के चुनाव के बाद . 1956 में पुनर्गठन के बाद सीटों की संख्या 206 थी, जिसे 1962 में बढ़ाकर 234 कर दिया गया। [158] 1986 में, तमिलनाडु विधान परिषद द्वारा विधान परिषद को समाप्त करने के साथ राज्य एक सदनीय विधायिका में चला गया ( (उन्मूलन) अधिनियम, 1986। [159] तमिलनाडु विधान सभा चेन्नई के फोर्ट सेंट जॉर्ज में स्थित है। [160] राज्य भारतीय संसद के लोकसभा के लिए 39 सदस्यों और राज्यसभा के लिए 18 सदस्यों का चुनाव करता है । [161] कानून एवं व्यवस्था मद्रास उच्च न्यायालय की स्थापना 26 जून 1862 को हुई थी और यह राज्य का सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण है जिसका राज्य की सभी दीवानी और आपराधिक अदालतों पर नियंत्रण है। [162] इसका नेतृत्व मुख्य न्यायाधीश करते हैं और 2004 से मदुरै में इसकी एक पीठ है। [163] तमिलनाडु पुलिस , जिसे 1859 में मद्रास राज्य पुलिस के रूप में स्थापित किया गया था, तमिलनाडु सरकार के गृह मंत्रालय के तहत काम करती है और रखरखाव के लिए जिम्मेदार है। राज्य में कानून व्यवस्था. [164] 2023 तक , इसमें 1.32 लाख से अधिक पुलिस कर्मी शामिल हैं, जिसका नेतृत्व पुलिस महानिदेशक करता है । [165] [166] पुलिस बल में 17.6% महिलाएं हैं और विशेष रूप से 222 विशेष महिला पुलिस स्टेशनों के माध्यम से महिलाओं के खिलाफ हिंसा को संभालती हैं। [167] [168] [169] 2023 तक , राज्य में 1854 पुलिस स्टेशन हैं, जो देश में सबसे अधिक है, जिसमें 47 रेलवे और 243 ट्रैफिक पुलिस स्टेशन शामिल हैं। [167] [170] विभिन्न जिला प्रशासनों के अंतर्गत यातायात पुलिस संबंधित क्षेत्रों में यातायात प्रबंधन के लिए जिम्मेदार है। [171] 2018 में 2.2 प्रति लाख की अपराध दर के साथ राज्य को लगातार महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित राज्यों में से एक के रूप में स्थान दिया गया है । [172] राजनीति मुख्य लेख: तमिलनाडु में चुनाव और तमिलनाडु की राजनीति भारत में चुनाव भारत के चुनाव आयोग द्वारा आयोजित किए जाते हैं , जो 1950 में स्थापित एक स्वतंत्र निकाय है। [173] तमिलनाडु की राजनीति में 1960 के दशक तक राष्ट्रीय पार्टियों का वर्चस्व था और तब से क्षेत्रीय पार्टियों ने शासन किया है। जस्टिस पार्टी और स्वराज पार्टी तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी में दो प्रमुख पार्टियाँ थीं। [174] 1920 और 1930 के दशक के दौरान, थेगारोया चेट्टी और ईवी रामास्वामी (आमतौर पर पेरियार के नाम से जाना जाता है) के नेतृत्व में आत्म-सम्मान आंदोलन , मद्रास प्रेसीडेंसी में उभरा और जस्टिस पार्टी के गठन का नेतृत्व किया। [175] जस्टिस पार्टी अंततः 1937 का चुनाव भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से हार गई और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री बने। [174] 1944 में, पेरियार ने जस्टिस पार्टी को एक सामाजिक संगठन में बदल दिया, पार्टी का नाम बदलकर द्रविड़ कड़गम रखा , और चुनावी राजनीति से हट गये। [176] स्वतंत्रता के बाद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1950 और 1960 के दशक में के. कामराज के नेतृत्व में तमिलनाडु के राजनीतिक परिदृश्य पर हावी रही , जिन्होंने जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद पार्टी का नेतृत्व किया और प्रधानमंत्रियों लाल बहादुर शास्त्री और प्रधानमंत्री का चयन सुनिश्चित किया। इंदिरा गांधी । [177] [178] पेरियार के अनुयायी सीएन अन्नादुराई ने 1949 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) का गठन किया । [179] तमिलनाडु के हिंदी-विरोधी आंदोलनों के कारण द्रविड़ पार्टियों का उदय हुआ, जिन्होंने 1967 में तमिलनाडु की पहली सरकार बनाई । [180] 1972 में, डीएमके में विभाजन के परिणामस्वरूप एमजी रामचंद्रन के नेतृत्व में अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) का गठन हुआ । [181] तमिलनाडु की चुनावी राजनीति में द्रविड़ पार्टियों का दबदबा कायम है और राष्ट्रीय पार्टियाँ आमतौर पर प्रमुख द्रविड़ पार्टियों, अन्नाद्रमुक और द्रमुक के कनिष्ठ साझेदार के रूप में गठबंधन करती हैं। [182] अन्नादुराई के बाद एम. करुणानिधि द्रमुक के नेता बने और एमजी रामचंद्रन के बाद जे. जयललिता अन्नाद्रमुक के नेता के रूप में सफल हुईं। [183] [177] करुणानिधि और जयललिता ने 1980 के दशक से लेकर 2010 के दशक तक राज्य की राजनीति पर अपना दबदबा बनाए रखा और संयुक्त रूप से 32 वर्षों से अधिक समय तक मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। [177] आज़ादी के बाद भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी तमिलनाडु से थे। राज्य ने तीन भारतीय राष्ट्रपतियों को जन्म दिया है, अर्थात् सर्वपल्ली राधाकृष्णन , [184] आर. वेंकटरमन , [185] और एपीजे अब्दुल कलाम । [186] जनसांख्यिकी २०११ की जनगणना के अनुसार तमिल नाडु की जनसंख्या ७,२१,३८,९५८ है जो देश में सातवीं सबसे अधिक है और देश की कुल जनसंख्या का ५.९६% है। राज्य में जनसंख्या घनत्व ५५५ व्यक्ति/किमी२ है जो राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक ऊपर है। यहाँ की ४४% जनसंख्या नगरीय क्षेत्रों में निवास करती है। वर्ष २००१ से २०११ के दौरान तमिल नाडु की जनसंख्या में १५.६% की वृद्धि हुई थी। तब भी राज्य की प्रजनन दर देश में सबसे कम में से है - १.८ बच्चे प्रति १ महिला। राज्य की अधिकान्श जनसंख्या हिन्दू धर्म की अनुयायी है, लगभग ८८.३४%, जिसके पश्चात ईसाई (६.०८%) और मुसलमान (५.५७%) हैं। राज्य की आधिकारिक भाषा तमिल है और कुल ८९% लोग इसे बोलते हैं। अन्य प्रमुख भाषाएँ हैं: तेलुगू (५.६६%), कन्नड़ (१.७%), उर्दू (१.५%) और मलयालम (०.६%)। राज्य की जीवन प्रत्याशा दर पुरुषों के लिए ६५.२ वर्ष और महिलाओं के लिए ६७.६ वर्ष है। वर्ष २००४-०५ के आँकड़ों के अनुसार राज्य में २७.५% लोग निर्धनता सीमा से नीचे रह रहे हैं। शहरों और कस्बों मुख्य लेख: जनसंख्या के आधार पर तमिलनाडु के शहरों की सूची अधिक जानकारी: जनसंख्या के आधार पर तमिलनाडु में शहरों की सूची चेन्नई की राजधानी 8.6 मिलियन से अधिक निवासियों के साथ राज्य में सबसे अधिक आबादी वाला शहरी समूह है, इसके बाद क्रमशः कोयंबटूर, मदुरै, तिरुचिरापल्ली और तिरुप्पुर हैं । [199] धर्म और जातीयता मुख्य लेख: तमिलनाडु में धर्म राज्य जातीय-धार्मिक समुदायों की विविध आबादी का घर है। [201] [202] 2011 की जनगणना के अनुसार, 87% से अधिक अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म प्रमुख धर्म है। 6.1% अनुयायियों के साथ ईसाई राज्य में सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, इसके बाद 5.9% इस्लाम के अनुयायी हैं। [200] तमिलों की बहुसंख्यक आबादी है, जिनमें तेलुगु , [203] मारवाड़ी , [204] गुजराती , [205] पारसी , [206] सिंधी , [207] उड़िया , [208] कन्नडिगा , [209] एंग्लो-इंडियन शामिल हैं। , [210] बंगाली , [211] पंजाबी , [212] और मलयाली । [213] राज्य में बड़ी संख्या में प्रवासी आबादी भी है। [214] [215] 2011 तक , राज्य में 3.49 मिलियन आप्रवासी थे। [216] भाषा तमिल तमिलनाडु की आधिकारिक भाषा है, जबकि अंग्रेजी अतिरिक्त आधिकारिक भाषा के रूप में कार्य करती है। [2] तमिल सबसे पुरानी भाषाओं में से एक है और यह भारत की शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने वाली पहली भाषा थी । [218] 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की 88.4% आबादी द्वारा तमिल पहली भाषा के रूप में बोली जाती है, इसके बाद तेलुगु (5.87%), कन्नड़ (1.58%), उर्दू (1.75%), मलयालम (1%) और का स्थान आता है। अन्य भाषाएँ (1.53%) [217] तमिल की विभिन्न किस्में उत्तरी तमिलनाडु में मद्रास बशाई , पश्चिमी तमिलनाडु में कोंगु तमिल , मदुरै के आसपास मदुरै तमिल और दक्षिण-पूर्वी तमिलनाडु में नेल्लई तमिल जैसे क्षेत्रों में बोली जाती हैं । [219] [220] यह द्रविड़ भाषाओं का हिस्सा है और प्रोटो-द्रविड़ियन की कई विशेषताओं को संरक्षित करता है , हालांकि तमिलनाडु में आधुनिक समय में बोली जाने वाली तमिल संस्कृत और अंग्रेजी जैसी अन्य भाषाओं के उधार शब्दों का स्वतंत्र रूप से उपयोग करती है । [221] [222] कोरियाई , [223] जापानी , [224] फ्रेंच , [225] मंदारिन चीनी , [226] जर्मन [227] और स्पेनिश राज्य में विदेशी प्रवासियों द्वारा बोली जाती हैं। [225] एलजीबीटी अधिकार मुख्य लेख: तमिलनाडु में एलजीबीटी अधिकार तमिलनाडु में एलजीबीटी अधिकार भारत में सबसे प्रगतिशील हैं । [228] [229] 2008 में, तमिलनाडु ने ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड की स्थापना की और ट्रांसजेंडर कल्याण नीति शुरू करने वाला पहला राज्य था, जिसमें ट्रांसजेंडर लोग सरकारी अस्पतालों में मुफ्त लिंग पुनर्मूल्यांकन सर्जरी का लाभ उठा सकते हैं। [230] चेन्नई रेनबो प्राइड 2009 से हर साल चेन्नई में आयोजित किया जाता है। [231] 2021 में, मद्रास उच्च न्यायालय के निर्देशों का पालन करते हुए, तमिलनाडु रूपांतरण चिकित्सा और इंटरसेक्स शिशुओं पर जबरन लिंग-चयनात्मक सर्जरी पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला भारतीय राज्य बन गया। . [232] [233] [234] 2019 में, मद्रास उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत "दुल्हन" शब्द में ट्रांस-महिलाएं शामिल हैं, जिससे एक पुरुष और एक ट्रांसजेंडर महिला के बीच विवाह को वैध बनाया जा सकता है। [235] संस्कृति और विरासत मुख्य लेख: तमिल संस्कृति कपड़े तमिल महिलाएं पारंपरिक रूप से साड़ी पहनती हैं , एक ऐसा परिधान जिसमें 5 गज (4.6 मीटर) से लेकर 9 गज (8.2 मीटर) की लंबाई और 2 फीट (0.61 मीटर) से 4 फीट (1.2 मीटर) की चौड़ाई होती है, जो आमतौर पर होती है। कमर के चारों ओर लपेटा हुआ, एक सिरा कंधे पर लपेटा हुआ, मध्य भाग खुला हुआ, जैसा कि भारतीय दर्शन के अनुसार, नाभि को जीवन और रचनात्मकता का स्रोत माना जाता है। [236] [237] सिलप्पाधिकरम जैसी प्राचीन तमिल कविता में महिलाओं को उत्कृष्ट परिधान या साड़ी में वर्णित किया गया है। [238] महिलाएं विवाह जैसे विशेष अवसरों पर रंगीन रेशम की साड़ियाँ पहनती हैं। [239] पुरुष धोती पहनते हैं , जो 4.5 मीटर (15 फीट) लंबा, बिना सिले कपड़े का सफेद आयताकार टुकड़ा होता है, जो अक्सर चमकीले रंग की धारियों से घिरा होता है। यह आमतौर पर कमर और पैरों के चारों ओर लपेटा जाता है और कमर पर गांठ लगाई जाती है। [240] विशिष्ट बैटिक पैटर्न वाली रंगीन लुंगी ग्रामीण इलाकों में पुरुषों की पोशाक का सबसे आम रूप है। [241] शहरी क्षेत्रों में लोग आमतौर पर सिले हुए कपड़े पहनते हैं, और पश्चिमी पोशाक लोकप्रिय है। पश्चिमी शैली की स्कूल वर्दी लड़के और लड़कियाँ दोनों स्कूलों में पहनते हैं, यहाँ तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी। [241] कांचीपुरम रेशम साड़ी एक प्रकार की रेशम साड़ी है जो तमिलनाडु के कांचीपुरम क्षेत्र में बनाई जाती है और इन साड़ियों को दक्षिण भारत में ज्यादातर महिलाएं दुल्हन और विशेष अवसर की साड़ियों के रूप में पहनती हैं। इसे 2005-2006 में भारत सरकार द्वारा भौगोलिक संकेत के रूप में मान्यता दी गई है। [242] [243] कोवई कोरा कॉटन एक प्रकार की सूती साड़ी है जो कोयंबटूर में बनाई जाती है। [243] [244] भोजन चावल आहार का मुख्य हिस्सा है और इसे तमिल भोजन के हिस्से के रूप में सांबर , रसम और पोरियाल के साथ परोसा जाता है। [245] तमिल व्यंजनों में नारियल और मसालों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। इस क्षेत्र में एक समृद्ध व्यंजन है जिसमें चावल, फलियां और दाल से बने पारंपरिक मांसाहारी और शाकाहारी दोनों तरह के व्यंजन शामिल हैं, जिनकी विशिष्ट सुगंध और स्वाद जायके और मसालों के मिश्रण से प्राप्त होता है । [246] [247] भोजन करने के पारंपरिक तरीके में फर्श पर बैठना, केले के पत्ते पर भोजन परोसना , [248] और भोजन को मुंह में लेने के लिए दाहिने हाथ की साफ उंगलियों का उपयोग करना शामिल है। [249] भोजन के बाद उंगलियां धोयी जाती हैं; आसानी से नष्ट होने वाले केले के पत्ते को फेंक दिया जाता है या मवेशियों के लिए चारा बन जाता है। [250] केले के पत्तों पर खाना हजारों साल पुराना रिवाज है, यह भोजन को एक अनोखा स्वाद देता है और इसे स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है। [251] इडली , डोसा , उथप्पम , पोंगल और पनियारम तमिलनाडु में लोकप्रिय नाश्ते के व्यंजन हैं। [252] साहित्य तमिलनाडु में संगम युग से 2500 वर्ष से अधिक पुरानी एक स्वतंत्र साहित्यिक परंपरा है । [253] प्रारंभिक तमिल साहित्य की रचना तीन क्रमिक काव्य सभाओं में की गई, जिन्हें तमिल संगम के नाम से जाना जाता है , जिनमें से सबसे प्रारंभिक, प्राचीन परंपरा के अनुसार, भारत के दक्षिण में अब लुप्त हो चुके महाद्वीप पर आयोजित की गई थी। [254] इसमें सबसे पुराना व्याकरणिक ग्रंथ, थोलकप्पियम , और महाकाव्य सिलप्पातिकारम और मणिमेकलाई शामिल हैं । [255] शिलालेखों और नायक पत्थरों पर पाए गए सबसे पुराने पुरालेख अभिलेख तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास के हैं। [256] [257] संगम काल के उपलब्ध साहित्य को मोटे तौर पर कालक्रम के आधार पर दो श्रेणियों में वर्गीकृत और संकलित किया गया था: पथिनेंमेलकनक्कु जिसमें एट्टुट्टोकाई और पट्टुपट्टू और पथिनेंकिलकनक्कु शामिल थे । मौजूदा तमिल व्याकरण काफी हद तक तोल्काप्पियम पर आधारित 13वीं सदी की व्याकरण पुस्तक नाउल पर आधारित है और तमिल व्याकरण में पांच भाग होते हैं, अर्थात् एउट्टु , सोल , पोरु ,, यप्पु , अणि । [258] तिरुवल्लुवर की नैतिकता पर लिखी किताब तिरुक्कुरल तमिल साहित्य की सबसे लोकप्रिय कृतियों में से एक है। [259] मध्य युग की शुरुआत में , छठी शताब्दी ईस्वी में भक्ति आंदोलन के बाद अलवर और नयनमारों द्वारा रचित भजनों के साथ वैष्णव और शैव साहित्य प्रमुख हो गया । [260] [261] [262] बाद के वर्षों में, तमिल साहित्य फिर से उल्लेखनीय कार्यों के साथ फला-फूला, जिसमें रामावतारम् भी शामिल है, जो 12वीं शताब्दी में कंबर द्वारा लिखा गया था । [263] विभिन्न आक्रमणों और अस्थिरता के कारण मध्यवर्ती वर्षों में शांति के बाद, तमिल साहित्य 14वीं शताब्दी ईस्वी में पुनः प्राप्त हुआ, जिसमें अरुणगिरिनाथर का तिरुप्पुगल उल्लेखनीय कार्य है । [264] 1578 में, पुर्तगालियों ने पुरानी तमिल लिपि में 'थम्बिरान वनक्कम' नामक एक तमिल पुस्तक प्रकाशित की, इस प्रकार तमिल मुद्रित और प्रकाशित होने वाली पहली भारतीय भाषा बन गई। [265] मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित तमिल लेक्सिकॉन , किसी भी भारतीय भाषा में प्रकाशित शब्दकोशों में पहला है । [266] 19वीं सदी में तमिल नवजागरण का उदय हुआ और मीनाक्षी सुंदरम पिल्लई , यूवीस्वामीनाथ अय्यर , रामलिंगा आदिगल , मरैमलाई आदिगल और भारतीदासन जैसे लेखकों के लेखन और कविताएं आईं । [267] [268] भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान , कई तमिल कवियों और लेखकों ने राष्ट्रीय भावना, सामाजिक समानता और धर्मनिरपेक्षतावादी विचारों को भड़काने की कोशिश की, विशेष रूप से भारथिअर और भारतीदासन । [269] वास्तुकला द्रविड़ वास्तुकला तमिलनाडु में रॉक वास्तुकला की विशिष्ट शैली है। [270] द्रविड़ वास्तुकला में, मंदिरों को गर्भगृह की ओर जाने वाले दरवाजे से पहले बरामदे या मंतपों के रूप में माना जाता है, चतुष्कोणीय बाड़ों में गेट-पिरामिड या गोपुरम जो मंदिर को घेरते हैं और स्तंभों वाले हॉल कई उद्देश्यों के लिए उपयोग किए जाते हैं और इन मंदिरों की अपरिवर्तनीय संगत हैं। इनके अलावा, एक दक्षिण भारतीय मंदिर में आमतौर पर एक तालाब होता है जिसे कल्याणी या पुष्कर्णी कहा जाता है । [271] गोपुरम एक स्मारकीय मीनार है, जो आमतौर पर मंदिर के प्रवेश द्वार पर अलंकृत होती है, जो द्रविड़ शैली के कोइल्स और हिंदू मंदिरों की एक प्रमुख विशेषता है । [272] इनके शीर्ष पर कलशम है , जो एक बल्बनुमा पत्थर है और मंदिर परिसर के चारों ओर की दीवारों के माध्यम से प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है। [273] गोपुरम की उत्पत्ति का पता पल्लवों से लगाया जा सकता है जिन्होंने महाबलीपुरम और कांचीपुरम में स्मारकों के समूह का निर्माण किया था । [30] बाद में चोलों ने इसका विस्तार किया और बारहवीं शताब्दी में पांड्य शासन के दौरान, ये प्रवेश द्वार मंदिर के बाहरी स्वरूप की एक प्रमुख विशेषता बन गए। [274] [275] राज्य के प्रतीक में पृष्ठभूमि पर गोपुरम की छवि के साथ अशोक का सिंह शीर्ष भी शामिल है । [276] विमानम गर्भगृह या मंदिर के आंतरिक गर्भगृह के ऊपर बनी समान संरचनाएं हैं, लेकिन आमतौर पर तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर सहित कुछ अपवादों के साथ द्रविड़ वास्तुकला में गोपुरम से छोटी होती हैं । [277] [278] मध्ययुगीन काल में मुगल प्रभाव और बाद में ब्रिटिशों के प्रभाव के साथ , हिंदू , इस्लामी और गोथिक पुनरुद्धार शैलियों के मिश्रण में वृद्धि हुई , जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश काल के दौरान शैली का अनुसरण करने वाले कई संस्थानों के साथ विशिष्ट इंडो-सारसेनिक वास्तुकला का निर्माण हुआ। [279] [280] 20वीं सदी की शुरुआत तक, आर्ट डेको ने शहरी परिदृश्य में अपना प्रवेश कर लिया। [281] स्वतंत्रता के बाद , वास्तुकला में चूने और ईंट के निर्माण से लेकर कंक्रीट के स्तंभों तक के संक्रमण के साथ आधुनिकतावाद में वृद्धि देखी गई। [282] संस्कृति thumb|300px|right|भरतनाट्यम तमिल सभ्यता विश्व की पुरातनतम सभ्यताओं में से एक है। तमिल यहां की आधिकारिक भाषा है और हाल में ही इसे जनक भाषा का दर्जा मिला। तमिळ भाषा का इतिहास काफी प्राचीन है, जिसका परिवर्तित रूप आज सामान्य बोलचाल में प्रयुक्त होता है। तमिलनाडु की सांस्कृतिक विशेषता तंजावुर के भित्तिचित्र, भरतनाट्यम्, मंदिर-निर्माण तथा अन्य स्थापत्य कलाएं हैं। साहित्य संत कवि तिरूवल्लुवर का तिरुक्कुरल (तमिल - திருக்குறள்), प्राचीन तमिल का सर्वप्रसिद्ध ग्रंथ है। संगम साहित्य, तमिल के साहित्यिक विकास का दस्तावेज है। तमिल का विकास 20वीं सदी के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी काफी तेजी से हुआ। संगीत कर्नाटक संगीत यहां की मुख्यधारा संगीत-विधा है। नृत्य भरतनाट्यम् काफी लोकप्रिय और प्रसिद्ध है। भोजन thumb|250px|right|केले के पत्ते पर परोसा हुआ तमिलनाडु का सम्पूर्ण भोजन चावल तमिलनाडु का प्रमुख भोजन है, चावल व चावल के बने व्यंजन जैसे दोसा, उथप्पम्, इद्ली आदि लोकप्रिय है जिन्हे केले के पत्ते पर परोसा जाता है। यहां के खाने में मिर्च-मसालों का काफी प्रयोग किया जाता है जिससे भोजन अतिस्‍वादिष्‍ट एवं रूचिकर लगता है। राजनीति तमिलनाडु में द्विसदनात्मक लोकतंत्र था, जिसे 1986 में अन्य कई भारतीय राज्यों की तरह, एकसदनात्मक कर दिया गया। अर्थव्यवस्था तमिल नाडु, भारत का महाराष्ट्र के बाद सबसे बड़ा औद्योगिक राज्य है। यह भारत का सर्वाधिक नगरीकृत राज्य भी है जहां की ४७% जनसम्ख्या नगरीय क्षेत्रों में निवास करती है। देश के अन्य राज्यों की तुलना में तमिल नाडु में औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र समान रूप से फैला हुआ है। तमिल नाडु, कर्नाटक के बाद देश का सबसे बड़ा सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) विकास का क्षेत्र है विशेषकर चेन्नई जो कर्नाटक की राजधानी बंगलौर के बाद देश का सबसे बड़ा आईटी नगर है और देश का सबसे बड़ा आईटी पार्क यहाँ स्थित है। इसके अतिरिक्त यहाँ बायोप्रौद्योगिकी विकास (चैन्नई और मदुरई), लौह धातु-विज्ञान (सालेम), परमाणु ऊर्जा (कलपक्कम और कुण्डन्कुलम) के भी केन्द्र है। यहाँ यान्त्रिक अभियान्त्रिकी केन्द्र भी हैं और देश के ४०% वाहन यहाँ निर्मित होते हैं। इसके अतिरिक्त वस्त्र-उद्योग भी यहाँ का एक पारम्परिक रूप से प्रमुख उद्योग है और इसका केन्द्र तिरुपुर में है। तमिल नाडु का पर्यटन उद्योग भी विकसित है और पर्यटन के प्रमुख केन्द्र कांचीपुरम, ममल्लपुरम (या महाबलिपुरम), तिरुचिरापल्ली, कन्याकुमारी और रामेश्वरम हैं। चैन्नई का मरीना तट भी विश्व का दूसरा सबसे लम्बा समुद्रतट है। कृषि राज्य की अर्थव्यवस्था में कृषिक्षेत्र की प्रमुख भूमिका है। तमिल नाडु का चावल उत्पादन देश में पाँचवा सबसे अधिक है। इस राज्य में भारत के कुल फल-उत्पादन का १०% और सब्ज़ियों के उत्पादन का ६% पैदा होता है। यहाँ स्थित कावेरी नदी द्रोणी को "दक्षिण भारत का चावल का कटोरा" कहा जात है। तमिल नाडु केलों और फूलों का सबसे बड़ा, आम, रबड़, मूंगफली, नारियल का दूसरा सबसे बड़ा और कॉफ़ी का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। गन्ना उत्पादन के लिए राज्य की २% जुती हुई भूमि उपयोग में है। तमिल नाडु दूध का भी प्रमुख उत्पादक है। शिक्षा २०११ की जनगणना के अनुसार तमिल नाडु की साक्षरता दर ८०.३% है जो राष्टीय औसत से अधिक है। २००१ की जनगणना में यह दर ७३.५% था। यहां शिक्षा-क्षेत्र में एक प्रमुख समस्या प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी होना है। तमिल नाडु में कुल मिलाकर ३७ विश्वविद्यालय, ४५४ तकनीकी महाविद्यालय, ५६६ कला और विग्यान महाविद्यालय, ३४,३३५ प्रारम्भिक विद्यालय, ५,१६७ माध्यमिक विद्यालय, ५,०५४ उच्चतर विद्यालय हैं। प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में हैं: मद्रास विश्वविद्यालय, आईआईटी मद्रास, पीएसजी प्रौद्योगिकी महाविद्यालय, अन्ना विध्वविद्यालय चैन्नई, कोयमबटूर प्रौद्योगिकी संस्थान, कामराज विश्वविद्यालय मदुरई, एनाआईटी त्रिची, मद्रास किश्चन कॉलेज, किश्चन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास मेदिकल कॉलेज, लोयोला कॉलेज, तमिल नाडु कृषि विश्वविद्यालय और मदुरई मेडिकल कॉलेज हैं। परिवहन तमिल नाडु का परिवहन तन्त्र अपेक्षाकृत रूप से विकसित है। राज्य में सड़कों की कुल लम्बाई १,९९,०४० किमी है जिसमें से ४,८७३ किमी राष्ट्रीय राजमार्ग हैं। सड़क तन्त्र का घनत्व १५३ से १०० किमी२ है जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है। राज्य में रेल-तन्त्र बहुत अच्छी तरह विकसित है और यहाँ रेलमार्गों की कुल लम्बाई ५,९५२ किमी है। तमिल नाडु भारतीय रेल के दक्षिणी ज़ोन में आता है। राज्य की राजधानी चैन्नई में मेट्रो रेल एवं नगर का रेपिड रेलवे सिस्टम मौजूद है।chennaimetrorail.gov.in राज्य का प्रमुख बस सेवा संचालक-तमिल नाडु राज्य परिवहन निगम है जो राज्यभर में बस सेवाएँ प्रदान करता है। राज्य का प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा चैन्नई में स्थित है और देश का चौथा सबसे व्यस्त है। दो अन्य अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे तिरुचिरापल्ली और कोयमबटूर में हैं। छबि दीर्घा इन्हें भी देखें तमिल तमिल भाषा सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ तमिल नाडु - भारत के राष्ट्रीय पोर्टल पर आधिकारिक जालस्थल आधिकारिक जालस्थल श्रेणी:भारत के राज्य
मुकेश (गायक)
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मुकेश चंद माथुर जुलाई २२, १९२३, दिल्ली, भारत - अगस्त २७, १९७६, लोकप्रिय तौर पर सिर्फ मुकेश के नाम से जाने वाले, हिन्दी सिनेमा के एक प्रमुख पार्श्व गायक थे। मुकेश की आवाज बहुत मधुर थी लेकिन उनके एक दूर के संबंधी मोतीलाल ने उन्हें तब पहचाना जब उन्होंने उसे अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना। मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में रहने दिया। यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिए गायन अभ्यास का पूरा इन्तजाम किया। इस दौरान मुकेश को एक हिन्दी फिल्म निर्दोष (१९४१) में मुख्य कलाकार का काम मिला। पार्श्व गायक के तौर पर उन्हें अपना पहला काम १९४५ में फिल्म पहली नजर में मिला। मुकेश ने हिन्दी फिल्म में जो पहला गाना गाया, वह था दिल जलता है तो जलने दे जिसमें अभिनय मोतीलाल ने किया। इस गीत में मुकेश के आदर्श गायक के एल सहगल के प्रभाव का असर स्पष्ट दिखाई देता है। 1959 में अनाड़ी फ़िल्म के ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ गाने के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायन का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। १९७४ में मुकेश को रजनीगन्धा फिल्म में "कई बार यूँ भी देखा है" गाना गाने के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला। १९७६ में जब वे अमेरीका के डेट्रॉएट शहर में दौरे पर थे, तब उन्हें हृदयाघात हुआ और उनकी मृत्यु हो गयी। प्रारम्भिक जीवन इनका जन्म 22 जुलाई 1923 को लुधियाना के जोरावर चंद माथुर और चांद रानी के घर हुआ था। इनकी बड़ी बहन संगीत की शिक्षा लेती थीं और मुकेश बड़े चाव से उन्हें सुना करते थे। मोतीलाल के घर मुकेश ने संगीत की पारम्परिक शिक्षा लेनी शुरू की, लेकिन इनकी दिली ख्वाहिश हिन्दी फ़िल्मों में बतौर अभिनेता प्रवेश करने की थी। गायन करियर मुम्बई आने के बाद इन्हें 1941 में "निर्दोष" फ़िल्म में बतौर एक्टर सिंगर पहला ब्रेक मिला। इंडस्ट्री में शुरुआती दौर मुश्किलों भरा था। लेकिन के एल सहगल को इनकी आवाज़ बहुत पसंद आयी। इनके गाने को सुन के एल सहगल भी दुविधा में पड़ गये थे। 40 के दशक में मुकेश का अपना पार्श्व गायन शैली था। नौशाद के साथ उनकी जुगलबंदी एक के बाद एक सुपरहिट गाने दे रही थी। उस दौर में मुकेश की आवाज़ में सबसे ज़्यादा गीत दिलीप कुमार पर फ़िल्माए गये। 50 के दशक में इन्हें एक नयी पहचान मिली, जब इन्हें राजकपूर की आवाज़ कहा जाने लगा। कई साक्षात्कार में खुद राज कपूर ने अपने दोस्त मुकेश के बारे में कहा है कि मैं तो बस शरीर हूँ मेरी आत्मा तो मुकेश है।पढ़ें: सिंगर मुकेश के जीवन की अनकही 'कहानी' - आईबीएन7, 23 अगस्त 2013 पार्श्व गायक मुकेश को फ़िल्म इंडस्ट्री में अपना मकाम हासिल कर लेने के बाद, कुछ नया करने की चाह जगी और इसलिए इन्होंने फ़िल्म निर्माता (प्रोड्यूसर) बन गये। साल 1951 में फ़िल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ निर्मित की। अभिनय का शौक बचपन से होने के कारण ‘माशूका’ और ‘अनुराग’ में बतौर हीरो भी आये। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ये दोनों फ़िल्में फ्लॉप रहीं। कहते हैं कि इस दौर में मुकेश आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे। बतौर अभिनेता-निर्माता मुकेश को सफलता नहीं मिली। गलतियों से सबक लेते हुए फिर से सुरों की महफिल में लौट आये। 50 के दशक के आखिरी सालों में मुकेश फिर पार्श्व गायन के शिखर पर पहुँच गये। यहूदी, मधुमती, अनाड़ी जैसी फ़िल्मों ने उनकी गायकी को एक नयी पहचान दी और फिर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के गाने के लिए वे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित हुए। 60 के दशक की शुरुआत मुकेश ने कल्याणजी-आनंदजी, के डम-डम डीगा-डीगा, नौशाद का मेरा प्यार भी तू है, और एस॰ डी॰ बर्मन के नग़मों से की और फिर राज कपूर की फ़िल्म संगम में शंकर-जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध किया गाना, जिसके लिए वह फिर से फ़िल्मफेयर के लिए नामांकित हुए। 60 के दशक में मुकेश का करियर अपने चरम पर था और अब मुकेश ने अपनी गायकी में नये प्रयोग शुरू कर दिये थे। उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी। जैसे कि सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए गाये गीत। 70 के दशक का आगाज़ मुकेश ने जीना यहाँ मरना यहाँ गाने से किया। उस वक्त के हर बड़े फ़िल्मी सितारों की ये आवाज़ बन गये थे। साल 1970 में मुकेश को मनोज कुमार की फ़िल्म पहचान के गीत के लिए दूसरा फ़िल्मफेयर मिला और फिर 1972 में मनोज कुमार की ही फ़िल्म के गाने के लिए उन्हें तीसरी बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। अब मुकेश ज़्यादातर कल्याणजी-आंनदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर॰ डी॰ बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर रहे थे। साल 1974 में फ़िल्म रजनीगंधा के गाने के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार दिया गया। विनोद मेहरा और फ़िरोज़ ख़ान जैसे नये अभिनेताओं के लिए भी इन्होंने गाने गाये। 70 के दशक में भी इन्होंने अनेक सुपरहिट गाने दिये जैसे— फ़िल्म धरम करम का एक दिन बिक जाएगा। फ़िल्म आनंद और अमर अकबर एंथनी की वो बेहतरीन नगमें। साल 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म कभी कभी के इस शीर्षक गीत के लिए मुकेश को अपने करियर का चौथा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला और इस गाने ने उनके करियर में फिर से एक नयी जान फूँक दी। मुकेश ने अपने करियर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फ़िल्म के लिए ही गाया था। लेकिन 1978 में इस फ़िल्म के जारी होने से दो साल पहले ही 27 अगस्त को मुकेश का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। फिल्मों में गायन पहली नज़र (१९४५) मेला (१९४८) आग (१९४८) अन्दाज़ (१९४९) आवारा (१९५१) श्री ४२० (१९५५) परवरिश (१९५८) अनाड़ी (१९५९) संगम (१९६४) मेरा नाम जोकर (१९७०) धरम करम (१९७५) "कभी कभी" ([१९७६]) यादगार गीत तु कहे अगर ज़िन्दा हूँ मै इस तरह से मेरा जूता है जापानी (फ़िल्म आवारा से) ये मेरा दीवानापन है (फ़िल्म यहुदी से) किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार (फ़िल्म अन्दाज़ से) ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना (फ़िल्म बन्दीनी से) दोस्त दोस्त ना रहा (फ़िल्म सन्गम से) जाने कहाँ गये वो दिन (फ़िल्म मेरा नाम जोकर से) मैने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने (फ़िल्म आनन्द से) इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल (फ़िल्म धरम करम से) मैं पल दो पल का शायर हूँ कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है (फ़िल्म कभी कभी से) चंचल शीतल निर्मल कोमल (फ़िल्म सत्यम शिवम सुन्दरम् से) ''दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी| "एक प्यार का नगमा है" "डम डम डिगा डिगा" सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अंग्रेज़ी में मुकेश को समर्पीत वेबसाइट मुकेश को समर्पीत वेबग्रुप मुकेशजी ने गाए हुए गीत श्रेणी:फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता श्रेणी:1923 में जन्मे लोग श्रेणी:१९७६ में निधन
लोक जनशक्ति पार्टी
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लोक जनशक्ति पार्टी (:लोजपा), एक राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त राजनैतिक दल है, जो मुख्य रूप से भारत के बिहार राज्य की राजनीति में सक्रिय थी। पार्टी का गठन 2000 में हुआ जब रामविलास पासवान जनता दल से अलग हो गए। बिहार में दलितों के बीच पार्टी की अच्छी-खासी पकड़ थी। 2021 में पार्टी दो पार्टियों लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी में बंट गई। स्थापना लोक जनशक्ति पार्टी अथवा लोजपा की स्थापना रामविलास पासवान ने की थी। नेतृत्व राष्ट्रीय अध्यक्ष- चिराग पासवान, सांसद बिहार प्रदेशाध्यक्ष- प्रिंस राज, सांसद लोकसभा क्रम राज्य निर्वाचन क्षेत्र निर्वाचित सांसद १७वीं लोकसभा १६वीं लोकसभा १ बिहार वैशाली वीणा देवी राम किशोर सिंह २ हाजीपुर पशुपति पारस रामविलास पासवान ३ समस्तीपुर रामचंद्र पासवान रामचंद्र पासवान प्रिंस राज ४ खगड़िया महबूब अली कैसर महबूब अली कैसर ५ मुंगेर - वीणा देवी ६ नवादा चंदन सिंह - ७ जमुई चिराग पासवान चिराग पासवान चुनावी राजनीति लोकसभा चुनाव 2009 लोकसभा चुनाव 2009 में रामविलास पासवान ने सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के साथ उत्तर प्रदेश एवं बिहार की सभी 120 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए ऐतिहासिक गठबन्धन करते हुए चौथा मोर्चा बनाने का प्रयास किया। उस समय इस मोर्चे के पास लोकसभा में 64 सांसदों की संख्या थी। इस गठबन्धन के तहत उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर सपा एवं बिहार की 40 सीटों में से 28 पर राजद तथा शेष 12 सीटों पर लोजपा ने उम्मीदवार उतारे। आशा के विपरीत यह मोर्चा अपेक्षाकृत प्रदर्शन करने में विफल रहा तथा 120 में से केवल 28 पर ही जीत सका। लोक जनशक्ति पार्टी को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली। क्रम दल सीटें लड़ीं जीतीं +/- 1समाजवादी पार्टी | 80 | 24 | 12 |- ! 2 | bgcolor=#008000| | align=left|राष्ट्रीय जनता दल 28 4 20 3लोक जनशक्ति पार्टी | 12 | 0 | 4 |- ! कुल ! colspan=2| चौथा मोर्चा ! 120 ! 28 ! 36 |- |} लोकसभा चुनाव 2014लोकसभा चुनाव 2014 में लोजपा ने भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के साथ चुनाव में भाग लिया था जिसके अनुसार भाजपा 30, रालोसपा 3 एवं लोजपा के हिस्से में 7 सीटें आई थीं। लोजपा ने अपने खाते की सात में से छः सीटों पर जीत दर्ज की तथा पूरे गठबन्धन को बिहार की 40 में से 31 सीटों पर जीत मिली। {| class="wikitable" style="text-align:center" |- ! क्रम ! colspan=2| दल ! लड़ीं ! जीतीं ! +/- |- ! १ | bgcolor=| |align=left|भारतीय जनता पार्टी ३० २२ १० २लोक जनशक्ति पार्टी | ७ | ६ | ६ |- ! ३ | bgcolor=#999966| |align=left|राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ३ ३ ३ कुल राजग ४० ३१ १९ लोकसभा चुनाव २०१९ लोकसभा चुनाव २०१९ में लोजपा ने एक बार पुनः भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के साथ चुनाव में भाग लिया था जिसके अनुसार बिहार की ४० सीटों में से भाजपा १७, जदयू १७ एवं लोजपा के हिस्से में ६ सीटें आईं, तथा साथ ही साथ एक राज्यसभा की सीट भी लोजपा के खाते में आई। लोजपा ने सभी छः स्थानों पर जीत हासिल की। इन चुनावों में पार्टी अध्यक्ष रामविलास पासवान ने स्वास्थ्य कारणोंवश भाग नहीं लिया तथा राज्यसभा के माध्यम से सांसद बने।बिहार एनडीए में सीट बंटवारा फाइनल ''नवभारत टाइम्स क्रम दल सीटें लड़ीं जीतीं +/- 1 भारतीय जनता पार्टी | 17 | 17 | ५ |- ! 2 | bgcolor=#009900| | जनता दल (यूनाइटेड) 17 16 १४ 3 '''लोक जनशक्ति पार्टी 6 6 कुल राजग 40 39 बिहार विधानसभा चुनाव 2020 बिहार विधानसभा चुनाव, 2020 में लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान ने बिना किसी गठबन्धन के अकेले दम पर ही चुनाव लड़ने की घोषणा की। पार्टी पूरे राज्य की 143 सीटों पर चुनाव लड़ी। चिराग पासवान ने चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व में राजग की सरकार बनाने के लिए समर्थन करने की बात कही। 10 नवम्बर 2020 को आए नतीजों में लोजपा को केवल एक सीट पर ही जीत हासिल हुई। पार्टी को पूरे राज्य में कुल 23,83,457 मत हासिल हुए जो कि कुल पड़े वैध मतों का 5.66% रहा। एकमात्र बेगूसराय ज़िले की मटिहानी विधानसभा सीट पर लोजपा के राज कुमार सिंह ने विजय प्राप्त की, उन्होंने निकट प्रतिद्वन्द्वी जदयू के नरेन्द्र कुमार सिंह उर्फ बोगो सिंह एवं भाकपा (माले) के राजेन्द्र प्रसाद सिंह को कड़े मुकाबले में क्रमशः 333 एवं 765 मतों के मामूली अन्तर से हराया। चुनावी प्रदर्शन लोकसभा लोकसभा सत्र चुनाव वर्ष सीटें प्राप्त मत राज्य (सीटें) संदर्भ लड़ीं जीतीं # % चौदहवीं लोकसभा २००४ ४ बिहार (४) पंद्रहवीं लोकसभा २००९ १२ ० ०.४५ सोलहवीं लोकसभा २०१४ ७ ६ २२,९५,९२९ ०.४१ बिहार (६) सत्रहवीं लोकसभा २०१९ ६ ६ ३२,०६,९७९ ०.५२ बिहार (६) बिहार विधानसभा विधानसभा सत्र चुनाव वर्ष सीटें प्राप्त मत संदर्भ लड़ीं जीतीं # % चौदहवीं विधानसभा २००५ पंद्रहवीं विधानसभा २०१० सोलहवीं विधानसभा २०१५ ४२ २ सत्रहवीं विधानसभा २०२० १३७ १ २३,८३,४५७ ५.६६ बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम २०२०- दलवार ''eciresults हिन्दी ११ नवंबर २०२० इन्हें भी देखें राष्ट्रीय जनता दल जनता दल (यूनाइटेड) जनता दल संदर्भ पुलिस की नौकरी छोड़ राजनीति में आए थे रामविलास पासवान, हाजीपुर से जीत का बनाया था वर्ल्ड रिकॉर्ड श्रेणी:भारत के राजनीतिक दल श्रेणी:बिहार के राजनीतिक दल
पाणिनि
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पाणिनि (७०० ई॰पू॰) संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण हुए हैं। इनका जन्म तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गान्धार में हुआ था। इनके व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है। अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रन्थ नहीं है। इसमें प्रकारान्तर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिन्तन, खान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं। जीवनी एवं कार्य पाणिनि का जन्म शलातुर नामक ग्राम में हुआ था। जहाँ काबुल नदी सिंधु में मिली है उस संगम से कुछ मील दूर यह गाँव था। उसे अब लहुर कहते हैं। अपने जन्मस्थान के अनुसार पाणिनि शालातुरीय भी कहे गए हैं। और अष्टाध्यायी में स्वयं उन्होंने इस नाम का उल्लेख किया है। चीनी यात्री युवान्च्वां (७वीं शती) उत्तर-पश्चिम से आते समय शालातुर गाँव में गए थे। पाणिनि के गुरु का नाम उपवर्ष पिता का नाम पणिन और माता का नाम दाक्षी था। पाणिनि जब बड़े हुए तो उन्होंने व्याकरणशास्त्र का गहरा अध्ययन किया। पाणिनि से पहले शब्दविद्या के अनेक आचार्य हो चुके थे। उनके ग्रंथों को पढ़कर और उनके परस्पर भेदों को देखकर पाणिनि के मन में यह विचार आया कि उन्हें व्याकरणशास्त्र को व्यवस्थित करना चाहिए। पहले तो पाणिनि से पूर्व वैदिक संहिताओं, शाखाओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् आदि का जो विस्तार हो चुका था उस वाङ्मय से उन्होंने अपने लिये शब्दसामग्री ली जिसका उन्होंने अष्टाध्यायी में उपयोग किया है। दूसरे निरुक्त और व्याकरण की जो सामग्री पहले से थी उसका उन्होंने संग्रह और सूक्ष्म अध्ययन किया। इसका प्रमाण भी अष्टाध्यायी में है, जैसा शाकटायन, शाकल्य, भारद्वाज, गार्ग्य, सेनक, आपिशलि, गालब और स्फोटायन आदि आचार्यों के मतों के उल्लेख से ज्ञात होता है। शाकटायन निश्चित रूप से पाणिनि से पूर्व के वैयाकरण थे, जैसा निरुक्तकार यास्क ने लिखा है। शाकटायन का मत था कि सब संज्ञा शब्द धातुओं से बनते हैं। पाणिनि ने इस मत को स्वीकार किया किंतु इस विषय में कोई आग्रह नहीं रखा और यह भी कहा कि बहुत से शब्द ऐसे भी हैं जो लोक की बोलचाल में आ गए हैं और उनसे धातु प्रत्यय की पकड़ नहीं की जा सकती। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात पाणिनि ने यह की कि उन्होंने स्वयं लोक को अपनी आँखों से देखा और घूमकर लोगों के बहुमुखी जीवन का परिचय प्राप्त करके शब्दों को छाना। इस प्रकार से कितने ही सहस्र शब्दों को उन्होंने इकट्ठा किया। शब्दों का संकलन करके उन्होंने उनको वर्गीकृत किया और उनकी कई सूचियाँ बनाई। एक सूची "धातु पाठ" की थी जिसे पाणिनि ने अष्टाध्यायी से अलग रखा है। उसमें १९४३ धातुएँ हैं। धातुपाठ में दो प्रकार की धातुएँ हैं- १. जो पाणिनि से पहले साहित्य में प्रयुक्त हो चुकी थीं और दूसरी वे जो लोगों की बोलचाल में उन्हें मिली। उनकी दूसरी सूची में वेदों के अनेक आचार्य थे। किस आचार्य के नाम से कौन सा चरण प्रसिद्ध हुआ और उसमें पढ़नेवाले छात्र किस नाम से प्रसिद्ध थे और उन छन्द या शाखाओं के क्या नाम थे, उन सब की निष्पत्ति भिन्न भिन्न प्रत्यय लगाकर पाणिनि ने दी है; जैसे एक आचार्य तित्तिरि थे। उनका चरण तैत्तरीय कहा जाता था और उस विद्यालय के छात्र एवं वहाँ की शाखा या संहिता भी तैत्तिरीय कहलाती थी। पाणिनि की तीसरी सूची "गोत्रों" के संबंध में थी। मूल सात गोत्र वैदिक युग से ही चले आते थे। पाणिनि के काल तक आते आते उनका बहुत विस्तार हो गया था। गोत्रों की कई सूचियाँ श्रौत सूत्रों में हैं। जैसे बोधायन श्रौत सूत्र में जिसे महाप्रवर कांड कहते हैं। किंतु पाणिनि ने वैदिक और लौकिक दोनों भाषाओं के परिवार या कुटुंब के नामों की एक बहुत बड़ी सूची बनाई जिसमें आर्ष गोत्र और लौकिक गोत्र दोनों थे। छोटे मोटे पारिवारिक नाम या अल्लों को उन्होंने गोत्रावयव कहा हैं। एक गोत्र या परिवार में होनेवाला दादा, बूढ़े एवं चाचा (सपिंड स्थविर पिता, पुत्र, पौत्र) आदि व्यक्तियों के नाम कैसे रखे जाते थे, इसका ब्योरेवार उल्लेख पाणिनि ने किया है। बीसियों सूत्रों के साथ लगे हुए गणों में गोत्रों के अनेक नाम पाणिनि के "गणपाठ" नामक परिशिष्ट ग्रंथ में हैं। पाणिनि की चौथी सूची भौगोलिक थी। पाणिनि का जन्मस्थान उत्तर पश्चिम में था, जिस प्रदेश को हम गांधार कहते हैं। यूनानी भूगोल लेखकों ने लिखा है कि उत्तर पश्चिम अर्थात् गांधार और पंजाब में लगभग ५०० ऐसे ग्राम थे जिनमें से प्रत्येक की जनसंख्या दस सहस्र के लगभग थी। पाणिनि ने उन ५०० ग्रामों के वास्तविक नाम भी दे दिए हैं जिनसे उनके भूगोल संबंधी गणों की सूचियाँ बनी हैं। ग्रामों और नगरों के उन नामों की पहचान टेढ़ा प्रश्न है, किंतु यदि बहुत परिश्रम किया जाय तो यह संभव है जैसे सुनेत और सिरसा पंजाब के दो छोटे गाँव हैं जिन्हें पाणिनि ने सुनेत्र और शैरीषक कहा है। पंजाब की अनेक जातियों के नाम उन गाँवों के अनुसार थे जहाँ वह जाति निवास करती थी या जहाँ से उसके पूर्वज आए थे। इस प्रकार निवास और अभिजन (पूर्वजों का स्थान) इन दोनों से जो उपनाम बनते थे वे पुरुष नाम में जुड़ जाते थे क्योंकि ऐसे नाम भी भाषा के अंग थे। पाणिनि ने पंजाब के मध्यभाग में खड़े होकर अपनी दृष्टि पूर्व और पश्चिम की ओर दौड़ाई। उन्हें दो पहाड़ी इलाके दिखाई पड़े। पूर्व की ओर कुल्लू काँगड़ाँ जिसे उस समय त्रिगर्त कहते थे, पश्चिमी ओर का पहाड़ी प्रदेश वह था जो गांधार की पूर्वी राजधानी तक्षशिला से पश्चिमी राजधानी पुष्कलावती तक फैला था। इसी में वह प्रदेश था जिसे अब कबायली इलाका कहते हैं और जो सिंधु नद के उत्तर से दक्षिण तक व्याप्त था और जिसके उत्तरी छोर पर दरद (वर्तमान गिलगित) और दक्षिणी छोर पर सौबीर (वर्तमान सिंध) था। पाणिनि ने इस प्रदेश में रहनेवाले कबीलों की विस्तृत सूची बनाई और संविधानों का अध्ययन किया। इस प्रदेश को उस समय ग्रामणीय इलाका कहते थे क्योंकि इन कबीलों में, जैसा आज भी है और उस समय भी था, ग्रामणी शासन की प्रथा थी और ग्रामणी शब्द उनके नेता या शासक की पदवी थी। इन जातियों की शासनसभा को इस समय जिर्गा कहते हैं और पाणिनि के युग में उसे "ब्रातपूग", "संघ" या "गण" कहते थे। वस्तुत: सब कबीलों के शासन का एक प्रकार न था किंतु वे संघ शासन के विकास की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में थे। पाणिनि ने व्रात और पूग इन संज्ञाओं से बताया है कि इनमें से बहुत से कबीले उत्सेधजीवी या लूटपाट करके जीवन बिताते थे जो आज भी वहाँ के जीवन की सच्चाई है। उस समय ये सब कबीले या जातियाँ हिंदू थीं और उनके अधिपतियों के नाम संस्कृत भाषा के थे जैसे देवदत्तक, कबीले का पूर्वपुरुष या संस्थापक कोई देवदत्त था। अब नाम बदल गए हैं, किंतु बात वही है जैसे ईसाखेल कबीले का पूर्वज ईसा नामक कोई व्यक्ति था। इन कबीलों के बहुत से नाम पाणिनि के गणपाठ में मिलते हैं, जैसे अफरीदी और मोहमद जिन्हें पाणिनि ने आप्रीत और मधुमंत कहा है। पाणिनि की भौगोलिक सूचियों में एक सूची जनपदों की है। प्राचीन काल में अपना देश जनपद भूमियों में बैठा हुआ था। मध्य एशिया की वंक्षु नदी के उपरिभाग में स्थित कंबोज जनपद, पश्चिम में सौराष्ट्र का कच्छ जनपद, पूरब में असम प्रदेश का सूरमस जनपद (वर्तमान सूरमा घाटी) और दक्षिण में गोदावरी के किनारे अश्मक जनपद (वर्तमान पेठण) इन चार खूँटों के बीच में सारा भूभाग जनपदों में बँटा हुआ था और लोगों के राजनीतिक और सामाजिक जीवन एवं भाषाओं का जनपदीय विकास सहस्रों वर्षों से चला आता था। पाणिनि ने सहस्रों शब्दों की व्युत्पत्ति बताई जो अष्टाध्यागी के चौथे पाँचवें अध्यायों में है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, सैनिक, व्यापारी किसान, रँगरेज, बढ़ई, रसोइए, मोची, ग्वाले, चरवाहे, गड़रिये, बुनकर, कुम्हार आदि सैकड़ों पेशेवर लोगों से मिलजुलकर पाणिनि ने उनके विशेष पेशे के शब्दों का संग्रह किया। पाणिनि ने यह बताया कि किस शब्द में कौन सा प्रत्यय लगता है। वर्णमाला के स्वर और व्यंजन रूप जो अक्षर है उन्हीं से प्रत्यय बनाए गए। जैसे- वर्षा से वार्षिक, यहाँ मूल शब्द वर्षा है उससे इक् प्रत्यय जुड़ गया और वार्षिक अर्थात् वर्षा संबंधी यह शब्द बन गया। अष्टाध्यायी में तद्वितों का प्रकरण रोचक है। कहीं तो पाणिनि की सूक्ष्म छानबीन पर आश्चर्य होता हैं, जैसे व्यास नदी के उत्तरी किनारे की बाँगर भूमि में जो पक्के बारामासी कुएँ बनाए जाते थे उनके नामों का उच्चारण किसी दूसरे स्वर में किया जाता था और उसी के दक्खिनी किनारे पर खादर भूमि में हर साल जो कच्चे कुएँ खोद लिए जाते थे उनके नामों का स्वर कुछ भिन्न था। यह बात पाणिनि ने "उदक् च बिपाशा" सूत्र में कही है। गायों और बैलों की तो जीवनकथा ही पाणिनि ने सूत्रों में भर दी है। आर्थिक जीवन का अध्ययन करते हुए पाणिनि ने उन सिक्कों को भी जाँचा जो बाजारों में चलते थे। जैसे "शतमान", "कार्षापण", "सुवर्ण", "अंध", "पाद", "माशक" "त्रिंशत्क" (तीस मासे या साठ रत्ती तौल का सिक्का), "विंशतिक" (बीस मासे की तौल का सिक्का)। कुछ लोग अदला-बदली से भी माल बेचते थे। उसे "निमान" कहा जाता था। पाणिनि के काल में शिक्षा और वाङ्मय का बहुत विस्तार था। संस्कृत भाषा का उन्होंने बहुत ही गहरा अध्ययन किया था। वैदिक और लौकिक दोनों भाषाओं से वे पूर्णतया परिचित थे। उन्हीं की सामग्री से पाणिनि ने अपने व्याकरण की रचना की पर उसमें प्रधानता लौकिक संस्कृत की ही रखी। बोलचाल की लौकिक संस्कृत को उन्होंने भाषा कहा है। उन्होंने न केवल ग्रंथरचना को किंतु अध्यापन कार्य भी किया। (व्याकरण के उदाहरणों में उनके विषय का नाम कोत्स कहा है)। पाणिनि का शिक्षा विषयक संबंध, संभव है, तक्षशिला के विश्वविद्यालय से रहा हो। कहा जाता है, जब वे अपनी सामग्री का संग्रह कर चुके तो उन्होंने कुछ समय तक एकांतवास किया और अष्टाध्यायी की रचना की। पाणिनि का समय क्या था, इस विषय में कई मत हैं। कोई उन्हें ७वीं शती ई. पू., कोई 5वीं शती या चौथी शती ई. पू. का कहते हैं। पतंजलि ने लिखा है कि पाणिनि की अष्टाध्यायी का संबंध किसी एक वेद से नहीं बल्कि सभी वेदों की परिषदों से था (सर्व वेद परिषद)। पाणिनि के ग्रंथों की सर्वसम्मत प्रतिष्ठा का यह भी कारण हुआ। पाणिनि को किसी मतविशेष में पक्षपात न था। शब्द का अर्थ एक व्यक्ति है या जाति, इस विषय में उन्होंने दोनों पक्षों को माना है। गऊ शब्द एक गाय का भी वाचक है और गऊ जाति का भी। वाजप्यायन और व्याडि नामक दो आचार्यों में भिन्न मतों का आग्रह या, पर पाणिनि ने सरलता से दोनों को स्वीकार कर लिया। पाणिनि से पूर्व एक प्रसिद्ध व्याकरण इंद्र का था। उसमें शब्दों का प्रातिकंठिक या प्रातिपदिक विचार किया गया था। उसी की परंपरा पाणिनि से पूर्व भारद्वाज आचार्य के व्याकरण में ली गई थी। पाणिनि ने उसपर विचार किया। बहुत सी पारिभाषिक संज्ञाएँ उन्होंने उससे ले लीं, जैसे सर्वनाम, अव्यय आदि और बहुत सी नई बनाई, जैसे टि, घु, भ आदि। पाणिनि को मांगलिक आचार्य कहा गया है। उनके हृदय की उदार वृत्ति मंगलात्मक कर्म और फल की इच्छुक थी। इसकी साक्षी यह है कि उन्होंने अपने शब्दानुशासन का आरंभ "वृद्ध" शब्द से किया। कुछ विद्वान् कहते हैं कि पाणिनि के ग्रंथ में न केवल आदिमंगल बल्कि मध्यमंगल और अंतमंगल भी है। उनका अंतिम सूत्र अ आ है। ह्रस्वकार वर्णसमन्वय का मूल है। पाणिनि को सुहृद्भूत आचार्य अर्थात् सबके मित्र एवं प्रमाणभूत आचार्य भी कहा है। पतंजलि का कहना है कि पाणिनि ने जो सूत्र एक बार लिखा उसे काटा नहीं। व्याकरण में उनके प्रत्येक अक्षर का प्रमाण माना जाता है। शिष्य, गुरु, लोक और वेद धातुलि शब्द और देशी शब्द जिस ओर आचार्य ने दृष्टि डाली उसे ही रस से सींच दिया। आज भी पाणिनि "शब्द:लोके प्रकाशते", अर्थात् उनका नाम सर्वत्र प्रकाशित है। समयकाल इनका समयकाल अनिश्चित तथा विवादित है। इतना तय है कि छठी सदी ईसा पूर्व के बाद और चौथी सदी ईसापूर्व से पहले की अवधि में इनका अस्तित्व रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि इनका जन्म पंजाब (पाकिस्तान) के शालातुला में हुआ था जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के करीब है। इनका जीवनकाल ५२०-४६० ईसा पूर्व माना जाता है। पाणिनि के जीवनकाल को मापने के लिए यवनानी शब्द के उद्धरण का सहारा लिया जाता है। इसका अर्थ यूनान की स्त्री या यूनान की लिपि से लगाया जाता है। गांधार में यवनो (ग्रीक्स्) के बारे में प्रत्यक्ष जानकारी सिकंदर के आक्रमण के पहले नहीं थी। सिकंदर भारत में ईसा पूर्व ३३० के आसपास आया था। पर ऐसा हो सकता है कि पाणिनि को फारसी यौन के जरिये यवनों की जानकारी होगी और पाणिनि दारा प्रथम (शासनकाल - ५२१-४८५ ईसा पूर्व) के काल में भी हो सकते हैं। प्लूटार्क के अनुसार सिकंदर जब भारत आया था तो यहां पहले से कुछ यूनानी बस्तियां थीं। कृतियाँ १- अष्टाध्यायी (सूत्रपाठ) - इसमे ८ अध्याय एवं कुल लगभग ४००० सूत्र हैं। २- धातुपाठ - यह १० गणों में विभक्त एवं लगभग २००० धातुवें हैं ३- गणपाठ- सूत्रपठित गणों का पाठ ४- उणादिसूत्र -- इनके पाणिनिकृत होने में बहुत सन्देश है। ५- लिंगानुशासन- लिंग निर्धारण विषय कात्यायन ने पाणिनि के सूत्रों पर वार्तिक लिखे। पतञ्जलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर अपनी टिप्पणी लिखी जिसे महाभाष्य का नाम दिया (महा+भाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना))। अन्य रचनाएँ पाणिनि को दो साहित्यिक रचनाओं के लिए भी जाना जाता है, यद्यपि वे अब प्राप्य नहीं हैं। जाम्बवती विजय आज एक अप्राप्य रचना है जिसका उल्लेख राजशेखर नामक व्यक्ति ने जह्लण की सूक्ति मुक्तावली में किया है। इसका एक भाग रामयुक्त की नामलिंगानुशासन की टीका में भी मिलता है। राजशेखर ने जह्लण की सूक्तिमुक्तावली में लिखा है: नमः पाणिनये तस्मै यस्मादाविर भूदिह। आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम् ॥ पाताल विजय, जो आज अप्राप्य रचना है, जिसका उल्लेख नामिसाधु ने रुद्रटकृत काव्यालंकार की टीका में किया है। पाणिनि का महत्त्व एक शताब्दी से भी पहले प्रसिद्ध जर्मन भारतविद् मैक्स मूलर (१८२३-१९००) ने अपने साइंस ऑफ थाट में कहा - "मैं निर्भीकतापूर्वक कह सकता हूँ कि अंग्रेज़ी या लैटिन या ग्रीक में ऐसी संकल्पनाएँ नगण्य हैं जिन्हें संस्कृत धातुओं से व्युत्पन्न शब्दों से अभिव्यक्त न किया जा सके। इसके विपरीत मेरा विश्वास है कि २,५०,००० शब्द सम्मिलित माने जाने वाले अंग्रेज़ी शब्दकोश की सम्पूर्ण सम्पदा के स्पष्टीकरण हेतु वांछित धातुओं की संख्या, उचित सीमाओं में न्यूनीकृत पाणिनीय धातुओं से भी कम है। .... अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का ८०० धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक वेश्लेषण के बाद अविशष्ट १२१ मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके।" पाणिनि की सूत्र शैली पाणिनि के सूत्रों की शैली अत्यंत संक्षिप्त है। वे सूत्रयुग में ही हुए थे। श्रौत सूत्र, धर्म सूत्र, गृहस्थसूत्र, प्रातिशाख्य सूत्र भी इसी शैली में है किंतु पाणिनि के सूत्रों में जो निखार है वह अन्यत्र नहीं है। इसीलिये पाणिनि के सूत्रों को प्रतिष्णात सूत्र कहा गया है। पाणिनि ने वर्ण या वर्णमाला को १४ प्रत्याहार सूत्रों में बाँटा और उन्हें विशेष क्रम देकर ४२ प्रत्याहार सूत्र बनाए। पाणिनि की सबसे बड़ी विशेषता यही है जिससे वे थोड़े स्थान में अधिक सामग्री भर सके। यदि अष्टाध्यायी के अक्षरों को गिना जाय तो उसके ३९९५ सूत्र एक सहस्र श्लोक के बराबर होते हैं। पाणिनि ने संक्षिप्त ग्रंथरचना की और भी कई युक्तियाँ निकालीं जैसे अधिकार और अनुवृत्ति अर्थात् सूत्र के एक या कई शब्दों को आगे के सूत्रों में ले जाना जिससे उन्हें दोहराना न पड़े। अर्थ करने की कुछ परिभाषाएँ भी उन्होंने बनाई। एक बड़ी विचित्र युक्ति उन्होंने असिद्ध सूत्रों की निकाली। अर्थात् बाद का सूत्र अपने से पहले के सूत्र के कार्य को ओझल कर दे। पाणिनि का यह असिद्ध नियम उनकी ऐसी तंत्र युक्ति थी जो संसार के अन्य किसी ग्रंथ में नहीं पाई जाती। पाणिनि और आधुनिक भाषाशास्त्र पाणिनि का कार्य १९वीं सदी में यूरोप में जाना जाने लगा, जिससे इसका आधुनिक भाषाशास्त्र पर खूब प्रभाव पड़ा। आरंभ में फ़्रेन्ज़ बोप् ने पाणिनि का अध्ययन किया। बाद में बहुत सी रचनाओं से योरपीय संस्कृत के विद्वान् जैसे फर्नांडीस डी सॉसर, लियोनार्ड ब्लूमफील्ड और रोमन जैकब्सन् आदि प्रभावित हुए। फ्रिट्स् स्टाल ने योरप में भाषा पर भारतीय विचारों के प्रभाव की विवेचना की। डी सॉसर् पाणिनि और बाद के भारतीय भाषाशास्त्री भर्तृहरि का फ़र्डीनांड डि सॉसर के कई बुनियादी विचारों पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। फ़र्डीनांड डि सॉसर संस्कृत के प्राध्यापक थे, जो कि आधुनिक संरचनात्मक भाषाशास्त्र के जनक कहे जाते हैं। सॉसर ने स्वयं अपने कुछ विचारों पर भारतीय व्याकरण के प्रभाव का ज़िक्र किया है। अपने १८८१ में प्रकाशित "डी लेम्पलोइ डु जेनिटिफ़् ऍब्सॉल्यु एन् सैन्स्क्रिट्" (संस्कृत में जेनेटिव् निरपेक्ष का प्रयोग) में, उन्होंने पाणिनि को विशेषरूप से ज़िक्र करके अपनी रचना को प्रभावित करने वाला बताया है। लियोनार्ड् ब्लूम्फ़ील्ड् अमेरिकी संरचनावाद के संस्थापक लियोनॉर्ड् ब्लूम्फ़ील्ड ने १९२७ में एक शोधपत्र लिखा जिसका शीर्षक था "ऑन् सम् रूल्स् ऑफ़् पाणिनि" (यानी, पाणिनि के कुछ नियमों पर)। आज के औपचारिक तन्त्रों के साथ तुलना पाणिनि का व्याकरण संसार का पहला औपचारिक तन्त्र (फ़ॉर्मल् सिस्टम्) है। इसका विकास १९वीं सदी के गोट्लॉब फ्रेज के अन्वेषणों और उसके बाद के गणित के विकासों से बहुत पहले ही हो गया था। अपने व्याकरण का स्वरूप बनाने में पाणिनि ने "सहायक प्रतीकों" का प्रयोग किया, जिसमें नये शब्दांशों को सिन्टैक्टिक श्रेणियों का विभाजन रखने के लिए प्रयोग किया, ताकि व्याकरण की व्युत्पत्तियों को यथेष्ट नियन्त्रित किया जा सके। ठीक यही तकनीक जब एमिल पोस्ट् ने दोबारा "खोजी", तो यह कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग भाषाओं की अभिकल्पना के लिए मानदण्ड बना।कैड्वेनी, जॉन (2007), "पोज़ीश्नल् वेल्यू एंड लिंग्विस्टिक् रिकर्शन्", जर्नल् ऑफ़् इन्डियन् फ़िलॉस्फ़ी 35: 587-520. आज संस्कृतविद् स्वीकार करते हैं कि पाणिनि का भाषीय औज़ार अनुप्रयुक्त पोस्ट-सिस्टम् के रूप में भली-भाँति वर्णित है। पर्याप्तमात्रा में प्रमाण मौज़ूद हैं कि इन प्राचीन लोगों को सहपाठ-संवेदी-व्याकरण (कन्टेक्स्ट-सेन्सिटिव ग्रामर) में महारत थी और कई जटिल समस्याओं को सुलझाने में व्यापक क्षमता थी। इन्हें भी देखें अष्टाध्यायी महाजनपद सुश्रुत भारतीय गणितज्ञों की सूची संस्कृत व्याकरण का इतिहास बाहरी कड़ियाँ पाणिनि की अष्टाध्यायी ITRANSliteration में तथा देवनागरी लिपि में The Paninian System of Sanskrit Grammar Who is the father of computing - Turing or Panin!? Panini's Grammar and Computer Science (Saroja Bhate and Subhash Kak) गणकाष्टाध्यायी - पाणिनि के सूत्रों पर आधारित संस्कृत व्याकरण का सॉफ़्टवेयर (Win98/2000/XP) पाणिनि की अष्टाध्यायी का मेण्डलीव की आवर्त सारणी पर प्रभाव - यह पेपर :en:ArXiv.org e-print archive में है। मेण्डलीव की आवर्त सारणी में संस्कृत (हिन्दी ब्लॉग, चर्चा) पाणिनि फ़ाउण्डेशन काशी की विभूतियाँ - पाणिनि पाणिनि – सर्वश्रेष्ठ व्याकरण के रचनाकार (हिन्दी ब्लॉग, चर्चा) पाणिनि : व्याकरण शास्त्र के श्रेष्ठ रचनाकार Indian Researcher Solves a 2,500 Years Old Sanskrit Problem for NLP (१५ दिसम्बर, २०२२) सन्दर्भ श्रेणी:संस्कृत श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन श्रेणी:वैयाकरण
भारतीय व्यक्तित्व
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यहाँ पर भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न कालों में हुए प्रसिद्ध व्यक्तियों की सूची दी गयी है। कला राजा रवि वर्मा, चित्रकला यामिनी कृष्णमूर्ति, नृत्‍य अमृता शेरगिल, चित्रकार अंजलि एला मेनन, चित्रकला बिरजू महाराज , नृत्‍य जतिन दास, चित्रकला केलुचरण महापात्र, ओडिसी नृत्‍य मल्लिका साराभाई, नृत्‍य मकबूल फ़िदा हुसैन, चित्रकला सुधा चंद्रन, नृत्‍य व्यापार एवं उद्योग जमशेदजी टाटा, उद्योगपति टाटा समूह घनश्याम दास बिड़ला, उद्योगपति बिड़ला जमनालाल बजाज धीरूभाई अंबानी, उद्योगपति अंबानी समूह सोहराब फीरोजशाह गोदरेज, गोदरेज उद्योग एन आर नारायणमूर्ति, सह-संस्थापक इन्फोसिस शिव नादर शबीर भाटिया, सह संस्थापक हाटमेल संजीव सिंधु, संस्थापक आइ टू टेक्नोलजी शांतनुराव लक्ष्मण राव किर्लोस्कर -- किर्लोस्कर समूह सुब्रत राय, सहारा इंडिया परिवार वर्गीश कुरियन, संस्थापक आपरेशन फ्लड विनोद खोसला, सह-संस्थापक सन माइक्रो सिस्टम ख्वाजा अब्दुल हमीद, सह-संस्थापक सिप्ला, दवाई कम्पनी यूसुफ़ ख्वाजा हमीद, अध्यक्ष, सिप्ला धर्मपाल गुलाटी, एम.डी.एच.मसाले अर्जुन मल्होत्रा सह-संस्थापक, एच सी एल टेक्नालजी देवांग मेहता, भूतपूर्व अध्यक्ष नास्काम भारतीय क्रांतिकारी धन सिंह गुर्जर बहादुर शाह ज़फ़र रानी लक्ष्मीबाई बेगम हज़रत महल रानी अवंतीबाई झलकारी बाई अजीजनबाई बख़्त खान कुंवर सिंह मंगल पांडे तात्या टोपे नाना साहेब अज़ीमुल्ला खां अली बहादुर द्वितीय खान बहादुर खान रुहेला मौलवी लियाक़त अली मौलवी अलाउद्दीन अहमदुल्लाह शाह बिरसा मुंडा टंट्या भील ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव शेख भिखारी फज़ले हक खैराबादी मौलाना मोहम्मद बाकिर शहीद पीर अली खान शहीद सआदत खां शेर अली आफ़रीदी राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी खुदीराम बोस भगत सिंह सूर्य सेन रोशन सिंह वासुदेव बलवन्त फड़के चन्द्रशेखर आज़ाद बटुकेश्वर दत्त अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान सुखदेव राजगुरु राजा महेन्द्र प्रताप सिंह अब्दुल हाफ़िज़ मोहम्मद बरकतउल्ला रासबिहारी बोस रामप्रसाद बिस्मिल भगवती चरण वोहरा दुर्गा भाभी प्रफुल्ल चाकी हेमू कालाणी शचीन्द्रनाथ सान्याल कर्तार सिंह सराभा लाला हरदयाल सोहन सिंह भकना विष्णु गणेश पिंगले उधम सिंह कन्हाई लाल दत्त श्यामजी कृष्ण वर्मा मदनलाल ढींगरा सुभाष चन्द्र बोस वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय भारतीय इतिहासकार राखालदास बनर्जी अबुल फजल अविनाशचन्द्र दास आचार्य रामदेव इरफान हबीब काशीप्रसाद जायसवाल गौरीशंकर हीराचंद ओझा चिन्तामण विनायक वैद्य जयचन्द विद्यालंकार ठाकुर रामसिंह दयाराम साहनी दिनेशचंद्र सरकार देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय धरमपाल पंडित भगवद्दत्त बलवंत मोरेश्वर पुरंदरे बिनय कुमार सरकार बिपिन चन्द्र यदुनाथ सरकार यल्लाप्रगड सुदर्शन राव रमेशचन्द्र दत्त रमेशचन्द्र मजुमदार रामकृष्ण गोपाल भांडारकर रोमिला थापर विश्वनाथ काशिनाथ राजवाडे वी आर रामचन्द्र दीक्षितार दशरथ शर्मा रामशरण शर्मा कविराज श्यामलदास सत्यकेतु विद्यालंकार सीता राम गोयल विन्यास, सौन्दर्य जॉन अब्राहम, मॉडल और अभिनेता मधु सप्रे मनीष मल्होत्रा, डिजाइनर मिलिंद सोमान, माडल और अभिनेता ऋतु बेरी, डिजाइनर रोहित बहल, डिजाइनर साहित्य वाल्मीकि वेद व्यास कल्‍हण कालिदास तुलसीदास कबीर भारतेन्दु हरिश्चंद्र बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय प्रेमचन्‍द हरिवंश राय बच्चन सुमित्रानन्‍दन पन्‍त रामधारी सिंह दिनकर मैथिलीशरण गुप्त इकबाल मिर्ज़ा ग़ालिब अज्ञेय रघुवीर सहाय प्रभाष जोशी कमलेश्वर कन्हैया लाल नन्दन निर्मल वर्मा अमृता प्रीतम महादेवी वर्मा आर के नारायण मनोहर श्याम जोशी सलमान रुश्दी वैद्यनाथ मिश्र यात्री 'नागार्जुन ' पोद्दार रामावतार अरुण फणीश्वर नाथ "रेणु" विक्रम सेठ वी एस नायपाल पत्रकार जेम्स ऑगस्टस हिक्की लक्ष्मण नारायण गर्दे बाबूराव विष्णु पराडकर द्वारकानाथ विद्याभूषण गणेशशंकर विद्यार्थी खुशवंत सिंह एम जे अकबर अरुण शौरी फिरोज गांधी मौलवी मोहम्मद बाकिर वक्कोम मौलवी स्वदेशाभिमानी रामकृष्ण पिल्लई कुलदीप नैयर रवीश कुमार रजत शर्मा राजदीप सरदेसाई चलचित्र दिग्दर्शक दादासाहब फालके राज कपूर सत्‍यजित राय अदूर गोपालकृष्णन गुरिन्दर चड्डा गुरुदत्त मणि रत्‍नम्‌ मनोज श्‍यामलन्‌ राजकुमार संतोषी रामगोपाल वर्मा सई परांजपे शेखर कपूर श्याम बेनेगल सुभाष घई प्रकाश झा यश चोपड़ा सूत्रधार अमिताभ बच्चन, अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड देवानंद, नवकेतन फिल्मस अज़ीज़ मिर्जा, ड्रीम्ज इंटरनेशनल जूही चावला, ड्रीम्ज अनलिमिटेड मीरा नायर, मीराबाई फिल्मस राजकपूर, आर के फिल्मस सूरज बड़जात्या, राजश्री फिल्मस सुभाष घई, मुक्ता आर्टस सुनील दत्त, अंजना आर्टस यश चोपड़ा, यशराज फिल्मस यश जौहर, धर्म प्रोडक्सनस अभिनय अभिनेता अमिताभ बच्‍चन अमरीश पुरी अनुपम खेर अक्षय खन्ना अमोल पालेकर आमिर खान अजय देवगण अनिल कपूर दीलिप कुमार गुरु दत्त कमल हसन मनोज कुमार नसीरुद्दीन शाह ओम प्रकाश अभिनेत्री नूतन ऐश्वर्या राय माधुरी दीक्षित मधुबाला मीना कुमारी स्मिता पाटिल संगीत अमीर ख़ुसरो, (कव्वाली, गज़ल संगीतकार) राहुल देव बर्मन लता मंगेशकर, श्वर कोकिला (गायिका) आशा भोसले, गायिका अमज़द अली खान ए आर रहमान - 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संयुक्त राज्य अमरीका
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पुनर्प्रेषित संयुक्त राज्य अमेरिका
अमृता प्रीतम
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अमृता प्रीतम (१९१९-२००५) पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब (भारत) के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग १०० पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था। अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब (भारत) में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया: कविता, कहानी और निबंध। प्रकाशित पुस्तकें पचास से अधिक। महत्त्वपूर्ण रचनाएं अनेक देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित। १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। उन्हें अपनी पंजाबी कविता अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी। प्रमुख कृतियाँ चर्चित कृतियाँ उपन्यास- पांच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत, कोरे कागज़, उन्चास दिन, सागर और सीपियां आत्मकथा-रसीदी टिकट कहानी संग्रह- कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में संस्मरण- कच्चा आंगन, एक थी सारा उपन्यास डॉक्टर देव (१९४९)- (हिन्दी, गुजराती, मलयालम और अंग्रेज़ी में अनूदित), पिंजर (१९५०) - (हिन्दी, उर्दू, गुजराती, मलयालम, मराठी, अंग्रेज़ी और सर्बोकरोट में अनूदित), आह्लणा (१९५२) (हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में अनूदित), आशू (१९५८) - हिन्दी और उर्दू में अनूदित, इक सिनोही (१९५९) हिन्दी और उर्दू में अनूदित, बुलावा (१९६०) हिन्दी और उर्दू में अनूदित, बंद दरवाज़ा (१९६१) हिन्दी, कन्नड़, सिंधी, मराठी और उर्दू में अनूदित, रंग दा पत्ता (१९६३) हिन्दी और उर्दू में अनूदित, इक सी अनीता (१९६४) हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू में अनूदित, चक्क नम्बर छत्ती (१९६४) हिन्दी, अंग्रेजी, सिंधी और उर्दू में अनूदित, धरती सागर ते सीपियाँ (१९६५) हिन्दी और उर्दू में अनूदित, दिल्ली दियाँ गलियाँ (१९६८) हिन्दी में अनूदित, एकते एरियल (१९६९) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, जलावतन (१९७०)- हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, यात्री (१९७१) हिन्दी, कन्नड़, अंग्रेज़ी बांग्ला और सर्बोकरोट में अनूदित, जेबकतरे (१९७१), हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, मलयालम और कन्नड़ में अनूदित, अग दा बूटा (१९७२) हिन्दी, कन्नड़ और अंग्रेज़ी में अनूदित पक्की हवेली (१९७२) हिन्दी में अनूदित, अग दी लकीर (१९७४) हिन्दी में अनूदित, कच्ची सड़क (१९७५) हिन्दी में अनूदित, कोई नहीं जानदाँ (१९७५) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, उनहाँ दी कहानी (१९७६) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, इह सच है (१९७७) हिन्दी, बुल्गारियन और अंग्रेज़ी में अनूदित, दूसरी मंज़िल (१९७७) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, तेहरवाँ सूरज (१९७८) हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में अनूदित, उनींजा दिन (१९७९) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित, कोरे कागज़ (१९८२) हिन्दी में अनूदित, हरदत्त दा ज़िंदगीनामा (१९८२) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित आत्मकथा: रसीदी टिकट (१९७६) कहानी संग्रह: हीरे दी कनी, लातियाँ दी छोकरी, पंज वरा लंबी सड़क, इक शहर दी मौत, तीसरी औरत सभी हिन्दी में अनूदित कविता संग्रह: लोक पीड़ (१९४४), मैं जमा तू (१९७७), लामियाँ वतन, कस्तूरी, सुनहुड़े (साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कविता संग्रह तथा कागज़ ते कैनवस ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कविता संग्रह सहित १८ कविता संग्रह। गद्य कृतियाँ किरमिची लकीरें, काला गुलाब, अग दियाँ लकीराँ (१९६९), इकी पत्तियाँ दा गुलाब, सफ़रनामा (१९७३), औरतः इक दृष्टिकोण (१९७५), इक उदास किताब (१९७६), अपने-अपने चार वरे (१९७८), केड़ी ज़िंदगी केड़ा साहित्य (१९७९), कच्चे अखर (१९७९), इक हथ मेहन्दी इक हथ छल्ला (१९८०), मुहब्बतनामा (१९८०), मेरे काल मुकट समकाली (१९८०), शौक़ सुरेही (१९८१), कड़ी धुप्प दा सफ़र (१९८२), अज्ज दे काफ़िर (१९८२) सभी हिन्दी में अनूदित। इन्हें भी देखें अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ बाहरी कड़ियाँ Amrita Pritam Shayari | अमृता प्रीतम शायरी अमृता प्रीतम के लेखन में बनावटीपन नहीं था (प्रभासाक्षी) बिक गया अमृता का मकान ...... साहित्य्कार अपनी रचनाओं द्वारा जीवित रहते हैं।मकानों से नहीं... अमृता प्रीतम की कहानियां व कविताएं सन्दर्भ श्रेणी:ज्ञानपीठ सम्मानित श्रेणी:साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत पंजाबी भाषा के साहित्यकार श्रेणी:भारतीय महिला साहित्यकार श्रेणी:पंजाबी कवि श्रेणी:पंजाबी भाषा के कवि श्रेणी:1919 में जन्मे लोग श्रेणी:2005 में निधन श्रेणी:भारतीय शांतिवादी श्रेणी:भारतीय नारीवादी श्रेणी:साहित्य और शिक्षा में पद्म विभूषण के प्राप्तकर्ता श्रेणी:अमृता प्रीतम श्रेणी:साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित‎
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"
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मकबूल फ़िदा हुसैन
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मक़बूल फ़िदा हुसैन (जन्म सितम्बर १७, १९१५, पंढरपुर), (मृत्यु जून 09, 2011, लंदन),एम एफ़ हुसैन के नाम से जाने जाने वाले भारतीय चित्रकार थे। एक कलाकार के तौर पर उन्हे सबसे पहले १९४० के दशक में ख्याति मिली। १९५२ में उनकी पहली एकल प्रदर्शनी ज़्युरिक में हुई। इसके बाद उनकी कलाकृतियों की अनेक प्रदर्शनियां यूरोप और अमेरिका में हुईं। १९६६ में भारत सरकार ने उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया। उसके एक साल बाद उन्होने अपनी पहली फ़िल्म बनायी: थ्रू द आइज़ ऑफ अ पेन्टर (चित्रकार की दृष्टि से)। यह फ़िल्म बर्लिन उत्सव में दिखायी गयी और उसे 'गोल्डेन बियर' से पुरस्कृत किया गया। जीवन परिचय अंगूठाकार|1956 में हुसैन हुसैन बहुत छोटे थे जब उनकी मां का देहांत हो गया। इसके बाद उनके पिता इंदौर चले गए जहाँ हुसैन की प्रारंभिक शिक्षा हुई। बीस साल की उम्र में हुसैन बम्बई गये और उन्हे जे जे स्कूल ओफ़ आर्ट्स में दाखला मिल गया। शुरुआत में वे बहुत कम पैसो में सिनेमा के होर्डिन्ग बनाते थे। कम पैसे मिलने की वजह से वे दूसरे काम भी करते थे जैसे खिलोने की फ़ैक्टरी में जहाँ उन्हे अच्छे पैसे मिलते थे। पहली बार उनकी पैन्टिन्ग दिखाये जाने के बाद उन्हे बहुत प्रसिद्धी मिली। अपनी प्रारंभिक प्रदर्शनियों के बाद वे प्रसिद्धि के सोपान चढ़ते चले गए और विश्व के अत्यंत प्रतिभावान कलाकारों में उनकी गिनती होती थी। एमएफ़ हुसैन को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर पहचान 1940 के दशक के आख़िर में मिली। वर्ष 1947 में वे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में शामिल हुए। युवा पेंटर के रूप में एमएफ़ हुसैन बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट्स की राष्ट्रवादी परंपरा को तोड़कर कुछ नया करना चाहते थे। वर्ष 1952 में उनकी पेंटिग्स की प्रदर्शनी ज़्यूरिख में लगी। उसके बाद तो यूरोप और अमरीका में उनकी पेंटिग्स की ज़ोर-शोर से चर्चा शुरू हो गई। वर्ष 1966में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। वर्ष 1967 में उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म थ्रू द आइज़ ऑफ़ अ पेंटर बनाई। ये फ़िल्म बर्लिन फ़िल्म समारोह में दिखाई गई और फ़िल्म ने गोल्डन बेयर पुरस्कार जीता। वर्ष 1971 में साओ पावलो समारोह में उन्हें पाबलो पिकासो के साथ विशेष निमंत्रण देकर बुलाया गया था। 1973 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया तो वर्ष 1986 में उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया गया। भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 92 वर्ष की उम्र में उन्हें केरल सरकार ने राजा रवि वर्मा पुरस्कार दिया। क्रिस्टीज़ ऑक्शन में उनकी एक पेंटिंग 20 लाख अमरीकी डॉलर में बिकी। इसके साथ ही वे भारत के सबसे महंगे पेंटर बन गए थे। उनकी आत्मकथा पर एक फ़िल्म भी बन रही है। देवी-देवताओं, भारतमाता की पेंटिंग पर विवाद भारतीय देवी-देवताओं पर बनाई, इनकी विवादित पेंटिंग को लेकर भारत के कई हिस्सों में उग्र प्रदर्शन हुए। शिवसेना ने इसका सबसे अधिक विरोध किया।आर्य समाज ने भी इसका कड़ा विरोध किया और आर्य समाज के एक कार्यकर्ता और हैदराबाद के हिन्दी दैनिक स्वतंत्र वार्ता के पत्रकार तेजपाल सिंह धामा भारत माता की विवादित पेंटिंग बनाने पर एम एफ हुसैन से एक पत्रकार वार्ता के दौरान उलझ बैठे थे, बाद में 2006 में हुसैन ने हिन्दुस्तान छोड़ दिया था। और तभी से लंदन में रह रहे थे। हुसैन से उलझने वाले पत्रकार धामा को बाद में मुंबई में एक कार्यक्रम में शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे द्वारा इन्हें सन आफ आर्यवर्त कहकर संबोधित किया। 2010 में कतर ने हुसैन के सामने नागरिकता का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 2008 में भारत माता पर बनाई पेंटिंग्स के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में चल रहे मुकदमे पर न्यायाधीश की एक टिप्पणी "एक पेंटर को इस उम्र में घर में ही रहना चाहिए" जिससे उन्हें गहरा सदमा लगा और उन्होंने इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील भी की। हालांकि इसे अस्वीकार कर दिया गया था। निधन 9 जून 2011 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।। उनका निधन लंदन के रॉयल ब्राम्पटन अस्पताल में हुआ, जहां वह 2006 से लंदन में ही रह रहे थे। जीवन के अंतिम दिनों में वे विभिन्न रोगों से ग्रसित हो गए थे। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ 'अभिव्यक्ति' में मक़बूल फ़िदा हुसैन हुसेन के बारे में जानकारी (अंग्रेज़ी में) एम. ऍफ़. हुसैन का जीवन परिचय श्रेणी:जीवन परिचय श्रेणी:कलाकार श्रेणी:फ़िल्म निर्माता श्रेणी:भारतीय चित्रकार श्रेणी:1915 में जन्मे लोग श्रेणी:पद्म विभूषण धारक श्रेणी:२०११ में निधन
१७ सितम्बर
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17 सितंबर ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 260वॉ (लीप वर्ष में 261 वॉ) दिन है। साल में अभी और 105 दिन बाकी है। प्रमुख घटनाएँ 1922- डच साइकिल चालकपीट मोस्कप्स विश्व चैंपियन बना। 1923 - बर्कले में भड़की आग ने कैलिफोर्निया में भीषण तबाही मचायी। इसमें कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के परिसर के उत्तर पड़ोस में सघन रूप से बनाए गए 584 घरों सहित कोई 640 भवन आग की चपेट में आ गए। 1630- अमेरिका के बॉस्टन शहर की स्थापना। 1761- कोसाब्रोमा का युद्ध लड़ा गया। 1867- भारतीय कलाकार गगनेंद्रनाथ टैगोर का जन्म। 1876- बंगाली उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म। 1879- तमिल भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता ई वी रामास्वामी नायकर का जन्म। 1948- हैदराबाद रियासत का भारत में विलय। 1949- दक्षिण भारतीय राजनीतिक दल द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) की स्थापना। 1950- भारतीय राजनेता और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जन्म। 1956- भारतीय तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग का गठन। 1957- मलेशिया संयुक्त राष्ट्र में शामिल हुआ। 1974- बंगलादेश, ग्रेनेडा और गिनी बिसाऊ संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल। 1982- भारत और सेलोन(श्रीलंका) के बीच पहला क्रिकेट टेस्ट मैच खेला गया। 1995 – चीन की राजधानी बीजिंग में ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत अंतिम चुनाव सम्पन्न। 1999 – ओसामा बिन लादेन का भारत के विरुद्ध जेहाद का ऐलान। 2000 – जाफना प्राय:द्वीप का चवाक छेड़ी शहर लिट्टे से मुक्त। 2002 – इराक ने संयुक्त राष्ट्र हथियार निरीक्षकों को बिना शर्त देश में आने की अनुमति दी। 2011- न्यूयॉर्क के जुकोट्टी पार्क में वॉल स्ट्रीट घेरो आंदोलन की शुरूआत। जन्म 1892 श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" 1922- वंस बॉर्जैली, अमेरिकी लेखक, उपन्यासकार, नाटककार, पत्रकार और निबंधकार 1950 - नरेन्द्र मोदी, भारत का प्रधानमन्त्री 1876 - शरतचंद्र चट्टोपाध्याय,बंगाली उपन्यासकार निधन बाहरी कडियाँ बीबीसी पे यह दिन सितम्बर, १७
१९१५
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१९१५ ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। घटनाएँ जनवरी-मार्च 2 जनवरी- रूसी सेनाओं ने अहमद पाशा के नेतृत्व वाली तुर्की की सेना को बूरी तरह हराया। इसमें तुर्की के 70 हजार सैनिक मारे गए थे। 13 जनवरी- इटली के आवेजानो शहर में आये विनाशकारी भूकंप से ३० हजार लोगों की मौत। 3 मार्च - नाका जो कि बाद में नासा बना की स्थापना। अप्रैल-जून 22 मई- प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इटली ने आस्ट्रिया, हंगरी तथा जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। जुलाई-सितंबर २१ अगस्त - प्रथम विश्व युद्ध में इटली ने तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की। 9 सितंबर- प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी जतिन्द्रनाथ सान्याल और अंग्रेजों के बीच उड़ीसा के काप्टेवाड़ा में संघर्ष। अक्टूबर-दिसंबर 12 दिसंबर- चीन के राष्ट्रपति युवान शी की ने राजतंत्र को पुनः बहाल कर स्वयं को चीन का सम्राट घोषित किया। अज्ञात तारीख़ की घटनाएँ जारी अर्मेनियाई नरसंहार (1915 - 1923) असिरियाई नरसंहार (1914 -1922) ग्रीक नरसंहार (1914 - 1923) जन्म 1915 - ग़ुलाम इशाक़ ख़ान पाकिस्तान के राष्ट्रपति निधन जनवरी-मार्च अप्रैल-जून जुलाई-सितंबर अक्टूबर-दिसंबर 1915 1915
लोक जनशक्ति पार्टी । लोजपा
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REDIRECTलोक जनशक्ति पार्टी
राजनीतिक दल
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thumb|280px|ऑस्ट्रेलिया के 2016 संघीय चुनाव में प्रयोग होने वाला मतपत्र। इसमें उम्मीदवारों और उनके राजनीतिक दलों के नाम लिखे हुए हैं। राजनैतिक दल लोगों का एक ऐसा संगठित गुट होता है जिसके सदस्य किसी साँझी विचारधारा में विश्वास रखते हैं या समान राजनैतिक दृष्टिकोण रखते हैं। यह दल चुनावों में उम्मीदवार उतारते हैं और उन्हें निर्वाचित करवा कर दल के कार्यक्रम लागू करवाने का प्रयास करते हैं। राजनैतिक दलों के सिद्धान्त या लक्ष्य (विज़न) प्राय: लिखित दस्तावेज़ के रूप में होता है।Ellen Wilson and Peter Reill, Encyclopedia of the Enlightenment (2004), p. 298Richard Hofstadter, The Idea of a Party System: The Rise of Legitimate Opposition in the United States, 1780–1840 (1970) विभिन्न देशों में राजनीतिक दलों की अलग-अलग स्थिति व व्यवस्था है। कुछ देशों में कोई भी राजनीतिक दल नहीं होता। कहीं एक ही दल सर्वेसर्वा (डॉमिनैन्ट) होता है। कहीं मुख्यतः दो दल होते हैं। किन्तु बहुत से देशों में दो से अधिक दल होते हैं। लोकतान्त्रिक राजनैतिक व्यवस्था में राजनैतिक दलों का स्थान केन्द्रीय अवधारणा के रूप में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राजनैतिक दल किसी सामाजिक व्यवस्था में शक्ति के वितरण और सत्ता के आकांक्षी व्यक्तियों एवं समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे परस्पर विरोधी हितों के सारणीकरण, अनुशासन और सामंजस्य का प्रमुख साधन रहे हैं। इस तरह से राजनैतिक दल समाज व्यवस्था के लक्ष्यों, सामाजिक गतिशीलता, सामाजिक परिवर्तनों, परिवर्तनों के अवरोधों और सामाजिक आन्दोलनों से भी सम्बन्धित होते हैं। राजनैतिक दलों का अध्ययन समाजशास्त्री और राजनीतिशास्त्री दोनों करते हैं, लेकिन दोनों के दृष्टिकोणों में पर्याप्त अन्तर है। समाजशास्त्री राजनैतिक दल को सामाजिक समूह मानते हैं जबकि राजनीतिज्ञ राजनीतिक दलों को आधुनिक राज्य में सरकार बनाने की एक प्रमुख संस्था के रूप में देखते हैं। Mohit baghel (Rajpur vrindavan mathura) Uttar Pradesh विशेषताएँ राजनीतिक दल की संरचना में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो इसे अन्य समूह से अलग करती हैं: राजनीतिक दल ऐसा संगठन है जिसका प्राथमिक उद्देश्य राजनीतिक नेतृत्व की प्राप्ति होता है। इसमें दल का नेता संगठित अल्पतंत्र (कार्यकारिणी) द्वारा विधायिका पर अधिकार हथियाने का पूरा-पूरा प्रयत्न करता है। सामाजिक एवं आर्थिक उद्देश्यों को लेकर उप संरचनाएं एवं समितियां होती है, जो भौगोलिक सीमाओं, सामाजिक समग्रताओं के आधार पर होती हैं। दल में कई परस्पर विरोधी समूह किसी उद्देश्य तथा राजनीतिक विचारधारा को लेकर साथ जुड़े हुए रहते हैं। हर राजनीतिक दल में अल्पतन्त्र होता है। प्रथम अवस्था में शक्ति का केन्द्रीकरण कुछ अनुभवी नेताओं के हाथ में होता है, जो प्रमुख पदाधिकारी होते हैं, जबकि दूसरी अवस्था में दल का संगठन एक विशेष स्तरीकरण व्यवस्था में विभाजित होता है और हर स्तर पर कुछ स्वायत्तता पाई जाती है। दल में सदस्यता निरन्तर बनी रहती है। एक सदस्य दूसरे सदस्य को दल की गतिविधियों की जानकारी देते रहते हैं। नए सदस्यों के लिए दल में सदस्यता के द्वार हमेशा खुले रहते 87 हैं। यहीं यह एक खुली संरचना होती है। कुछ लोग दल के सदस्य इसलिए होते हैं कि उन्हें समाज में उसके कारण एक विशेष स्थान मिल जाता है। उपर्युक्त लक्षणों द्वारा राजनीतिक दल को अन्य संगठन से भिन्न करके देख सकते हैं। राजनीतिक दल का गठन समाज व्यवस्था की दो विशेषताओं द्वारा पाया जाता है: राजनीतिक शक्ति का आधार ‘वोट’ है अर्थात् विधायिका का निर्धारण मतदान प्रणाली से किया जाता है। विभिन्न समूहों में शक्ति के लिए परस्पर प्रतिस्पर्धा होती है। अर्थात् राजनीतिक शक्ति को सत्ता हथियाने के लिए परस्पर होड़ हो रही होती है। संरचना मौरिस डुवर्जर ने राजनीतिक दल के सामाजिक संगठन का महत्वपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इन्होंने दल के संगठन को चार सूत्रीय वर्गीकरण द्वारा समझाने का प्रयास किया है। ये वर्ग निम्नलिखित हैं- (१) समिति ( कॉकस / Caucus) (२) शाखा (ब्रांच / Branch) (३) कोष्ठक (सेल / Cell) (४) नागरिक सेना (मिलिशिया / Militia) कॉकस दल के जाने-पहचाने लोगों का एक लघु समूह कहा जा सकता है जो न अपने विस्तार और न ही अपनी भर्ती में रूचि रखता है। वास्तव में यह एक बन्द समूह है। जिसकी प्रकृति अर्द्ध-स्थायी होती है। केवल चुनाव के समय ही कॉकस अधिक सक्रिय होता है तथा चुनावों के बीच के समय में यह निष्क्रिय रहता है। इसके सदस्यों की न्यून संख्या इसकी शक्ति का माप नहीं है क्योंकि इसके सदस्यों का व्यक्तिगत प्रभाव, शक्ति एवं क्षमता उनकी संख्या से काफी अधिक होती है। अतः इसके ख्याति प्राप्त सदस्यों की संख्या की अपेक्षा उनका प्रभाव एवं क्षमता अधिक महत्वपूर्ण है। डुवर्जर ने फ्रांसीसी रैडिकल पार्टी और 1918 से पूर्व की ब्रिटिश लेबर पार्टी को इसका उदाहरण बताया है। मताधिकार के विस्तार के साथ ‘कॉकस’ प्रकार के दल का ह्रास हो जाता है। शाखा या ब्रांच दल परिश्मी यूरोप में मताधिकार के विस्तार का परिणाम है। इसका सम्बन्ध जनता से होता है तथा कॉकस की तरह यह एक बन्द समूह नहीं है क्योंकि इनमें गुणों की अपेक्षा संख्या को अधिक महत्त्व दिया जाता है। अतः यह अधिक से अधिक सदस्यों की भर्ती में सदैव रूचि रखता है। इनकी राजनीतिक संक्रियताएं केवल चुनाव तक ही सीमित नहीं होती अपितु निरन्तर चलती रहती हैं। ब्रांच कॉकस की अपेक्षा बड़ा समूह है इसलिए इसका संगठन अधिक होता है तथा इसमें कॉकस की अपेक्षा अधिक एकीकरण पाया जाता है। इसमें संस्तरण तथा कर्त्तव्यों का विभाजन सुस्पष्ट होता है तथा स्थानीयता एवं संकीर्णता का भी आभास पाया जाता है। इसमें अधिकतर केन्द्रीकृत दल संरचना होती है और प्रारम्भिक इकाईयां निर्वाचन क्षेत्रों की ही भांति भौगोलिक आधार पर संगठित होती हैं। यूरोप के समाजवादी दलों में ब्रांच के सभी लक्षण पाये जाते हैं। कैथोलिक और अनुदारवादी दलों ने न्यूनाधिक सफलतापूर्वक इसका अनुसरण किया है। जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी संगठनात्मक आधार पर इस प्रकार के दल का एक अच्छा उदाहरण है। डुवर्जर द्वारा बताया गया दल संगठन का तीसरा प्रकार कोष्ठक या सेल है जो क्रान्तिकारी साम्यवादी दलों की खोज है। यह ब्रांच की अपेक्षा काफी छोटा समूह होता है तथा इसका आधार भौगोलिक न होकर व्यावसायिक होता है। व्यावसायिक आधार के कारण सेल किसी स्थान पर कार्य करने वाले सभी सदस्यों को एक सूत्र में बाँधना है। कारखाना, वर्कशॉप, दफ्तर एवं प्रशासन आदि इसके अंग हो सकते हैं। चूंकि सेल उन सदस्यों का समूह हैं जो एक ही व्यवसाय में लगे हुए हैं तथा जो प्रतिदिन कार्य के समय मिलते हैं, इसलिए इसके सदस्यों में दलीय एकात्मकता अधिक होती है। वैयक्तिक सेल का अन्य सेलों से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता है। सेल का संगठन अनिवार्य रूप से षड्यन्त्रकारी होता है और इसकी निर्माण शैली इस बात का पक्का इन्तजाम करती है कि एक सेल के नष्ट होने पर सम्पूर्ण दल-संरचना संकट में पड़े क्योंकि एक ही स्तर पर पृथक-पृथक इकाइयों के बीच कोई संपर्क नहीं रहता। यह गुप्त सक्रियता के लिए सबसे उपयुक्त माध्यम है। इसकी गुप्त सक्रियताएं मुख्यतः राजनैतिक होती हैं तथा सदस्यों के लिए अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। मतों को जीतने, प्रतिनिधियों के समूहन तथा मतदाताओं के प्रतिनिधियों से संपर्क रखने की अपेक्षा सेल दल संघर्ष, प्रचार, अनुशासन तथा अगर अनिवार्य तो गुप्त सक्रियता का एक माध्यम है। इनमें चुनाव जीतने की दूसरे दर्जे के महत्त्व की बात मानने की प्रवृत्ति होती है। प्रजा तांत्रिक केन्द्रवाद की धारणा दल के सभी पहलुओं पर केन्द्रीकृत नियंत्रण स्थापित कर देती है जिसका उदाहरण 1917 से पहले लेनिनवादी दल था। डुवर्जर फ्रांसीसी साम्यवादी दल के सदस्यों में सेल संरचना के प्रति शत्रु भाव होने का भी संकेत करते हैं। डुवर्जर का दल-संगठन का चौथा प्रकार मिलिशिया प्रकार का संगठन है। यह एक प्रकार की निजी सेना है जिसके सदस्यों को सैनिकों की तरह भर्ती किया जाता है तथा जिन्हें सैनिक संगठन की भाँति अनुशासन में रहना और प्रशिक्षण लेना पड़ता है। इसकी संरचना भी सैनिक संरचना के समान होती है अर्थात् इसके सदस्य सेना की तरह टुकड़ियों, कम्पनियों और बटालियनों से संगठित होते हैं। मिलिशिया सेना के अधिक्रमिक लक्षण ग्रहण कर लेती है। मिलिशिया की चुनाव तथा संसदीय गतिविधियों में कोई रूचि नहीं होती क्योंकि यह प्रजातन्त्रीय व्यवस्था को मजबूत करने की अपेक्षा इसे उखाड़ फेंकने का एक मौलिक साधन है। जिस प्रकार सेल एक साम्यवादी खोज है, ठीक उसी प्रकार मिलिशिया क्रान्तिकारियों की खोज है। हिटलर के आक्रामी सैनिक और मुसोलिनी की क्रान्तिकारी मिलिशिया इस प्रकार की संरचना का उदाहरण हैं। इनकी ओर डुवर्जर यह संकेत करते हैं कि केवल मिलिशिया के आधार पर कभी भी कोई राजनीतिक दल नहीं बना है। राजनीतिक दलों का सामाजिक संगठन जिस संगठित रूप में राजनीतिक दल आज हमारे सामने विद्यमान हैं, उस रूप में उनका इतिहास अधिक प्राचीन नहीं है। उनकी उत्पत्ति उन्नीसवीं शताब्दी में हुई है परन्तु इससे पूर्व भी मनुष्यों द्वारा निर्मित कुछ संगठन, शासन से प्रत्यक्ष न होने पर भी जनमत के निर्माण तथा मांगों को शासकों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। आधुनिक समाज में राजनीतिक दलों का गठन विविध आधारों पर किया गया है। राजनीतिक दलों के निर्माण में मनोवैज्ञानिक आधार अर्थात् मानव स्वभाव में निहित प्रवृत्तियां प्रमुख हैं। मतैक्य एवं संगठन मानव स्वभाव की दो प्रमुख प्रवृत्तियां हैं। समान स्वभाव एवं मूल्यों वाले व्यक्ति संगठित होकर राजनीतिक दल का निर्माण करते हैं तथा फिर उन मूल्यों को बनाये रखने का प्रयास करते हैं। ब्रिटिश कंज़रवेटिव दल का गठन रूढ़िवादी व्यवस्था को बनाये रखने के समर्थक व्यक्तियों द्वारा किया गया है। कुछ व्यक्ति रूढ़िवादी व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हैं तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उदारवादी दलों का निर्माण करते हैं, जबकि कुछ लोग विगत युग की पुनरावृत्ति की आकांक्षा के आधार पर प्रतिक्रियावादी दलों का निर्माण करते हैं। मानव इतिहास में धर्म की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका रही है तथा आज भी अनेक देशों में धार्मिक नेता एवं पदाधिकारी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीति में हस्तक्षेप करते हैं। राजनैतिक दलों के सामाजिक संगठन में धर्म प्रमुख भूमिका निभाता है। उदाहरणार्थ भारत में मुस्लिम लीग, अकाली दल, जनसंघ, हिन्दू महासभा जैसे दलों के सामाजिक संगठन में धर्म केन्द्रीय भूमिका निभाता है। राजनीतिक दलों के निर्माण में क्षेत्रीयता अथवा प्रादेशिकता भी एक प्रमुख आधार है। प्रादेशिक हितों की रक्षा के लिए तथा प्रादेशिक समस्याओं के शीघ्र निपटारे के लिए कुछ प्रादेशिक दलों का निर्माण होता है। भारत में डी0एम0के0, तेलंगाना प्रजा समिति, असम गण परिषद, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा आदि। राजनीतिक दल आर्थिक या वर्गीय आधारों पर भी संगठित होते हैं। मार्क्स के अनुसार राजनीतिक दलों तथा वर्गों का परस्पर सम्बन्ध राज्य व राजनीति के सिद्धान्त का केन्द्रीय बिन्दु होता है। अनेक अन्वेषणों से हमें यह पता चलता है कि वर्गीय हित, दलीय सम्बद्धताओं तथा निर्वाचनों की पसन्द के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा अधिकांश समाज में राजनीतिक दल निर्वाचक वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्रिटेन में श्रमिक दल, भारत में मजदूर दल, किसान यूनियन आदि। जाति, भारतीय समाज की आधारभूत विशेषता है। भारत में राजनैतिक दलों के सामाजिक संगठन को जाति हमेशा से प्रभावित करती रही है। स्वतन्त्रता से पूर्व जाति मुक्ति का आन्दोलन राजनैतिक दलों के गठन को प्रभावित करना रहा है। दलित वर्ग कल्याण लीग, बहिष्कृत हितकारिणी सभा, जस्टिस पार्टी इसके प्रमुख उदाहरण हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् निर्वाचन प्रतियोगिता में ‘जाति’ राजनैतिक गतिशीलता लाने वाला प्रमुख सामाजिक आधार बन गया। ‘जातीय संलयन’ और ‘जातीय विखण्डन’ राजनैतिक प्रक्रियाओं में केन्द्रीय भूमिका निभाने लगी। सभी राजनैतिक दल जातीय गणना के आधार पर उम्मीदवारों को तय करने लगे। वर्तमान समय में जातीय आधार पर राजनैतिक दलों के गठन का प्रमुख आधार है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। दलीय संगठन में विचारधारा भी प्रमुख भूमिका निभाती है। समाजवादी, लेनिनवादी और माओवादी विचारधाराओं पर आधारित अनेक दलों का निर्माण भारतीय राजनीति की प्रमुख विशेषता रही। भारत में राजनैतिक दल भारत में राजनैतिक दल को संवैधानिक स्वीकृति सन् 1985 में दसवीं अनुसूची के तहत दी गई थी। भारत के राजनैतिक दलों को निम्न आधार पर बांंट सकते है- प्रभावक्षेत्र के आधार पर राष्ट्रीय दल- जिनका प्रभाव राष्ट्रव्यापी हो। उदा.- भाजपा, कांग्रेस आदि क्षेत्रीय दल- जिनका प्रभाव किसी क्षेत्र/राज्य विशेष पर हो। उदा.- द्रमुक, तेदेपा, बीजद आदि। विचारधारा के आधार पर प्रतिक्तियावादी दल- जो प्राचीन रीतियों से बंधे रहना चाहते है, उदाहरणार्थ- भाजपा, शिवसेना आदि उदारवादी दल- जो वर्तमान शासन प्रणाली में धीरे-धीरे परिवर्तन करना चाहते होंं, उदा.- कांग्रेस, राकांपा आदि विप्लवकारी दल- जो वर्तमान व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था लाना चाहते हो, उदा.- माकपा, भाकपा आदि। मान्यता के आधार पर मान्यता प्राप्त दल पंजीकृत दल इन्हें भी देखें भारत के राजनीतिक दलों की सूची सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ अंतरजाल पर राजनैतिक साहित्य क्या राजनैतिक दल भले से अधिक बुरा करते हैं? दल श्रेणी:चुनाव *
हरिवंश राय बच्चन
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हरिवंश राय बच्चन (27 नवम्बर 1907 – 18 जनवरी 2003) हिंदी भाषा के एक कवि और लेखक थे। वे हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों में से एक थे । उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है। भारतीय फिल्म उद्योग के अभिनेता अमिताभ बच्चन उनके सुपुत्र हैं। उनका निधन 18 जनवरी 2003 के दिन, साँस की बीमारी के कारण, मुम्बई में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापन किया। बाद में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे। अनन्तर राज्य सभा के मनोनीत सदस्य रहे। बच्चन जी की गिनती हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में होती है। जीवन हरिवंश राय बच्चन जी का जन्म 27 नवम्बर 1907 को प्रयाग में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। हरिवंश राय बच्चन के पूर्वज मूलरूप से अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर प्रयाग जा बसे थे। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव तथा माता का नाम सरस्वती देवी था। इनको बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ 'बच्चा' या 'संतान' होता है। बाद में ये इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू और फिर हिन्दी की शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम॰ए॰ और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू॰बी॰ यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच.डी.(Ph.D) पूरी की थी । १९२६ में १९ वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ जो उस समय १४ वर्ष की थीं। सन १९३६ में टीबी के कारण श्यामा की मृत्यु हो गई। पाँच साल बाद १९४१ में बच्चन ने एक पंजाबन तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं। इसी समय उन्होंने 'नीड़ का निर्माण फिर' जैसी कविताओं की रचना की। उनके पुत्र अमिताभ बच्चन एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं। मृत्यु 2002 के सर्दियों के महीने से उनका स्वस्थ्य बिगड़ने लगा। 2003 के जनवरी से उनको सांस लेने में दिक्कत होने लगी।कठिनाइयां बढ़ने के कारण उनकी मृत्यु 18 जनवरी 2003 में सांस की बीमारी के वजह से मुंबई में हो गयी। प्रमुख कृतियाँ कविता संग्रह तेरा हार (1929)हिन्दी के गौरव:हरिवंश बच्चन , हिन्दी भवन की वेबसाइट पर (टिप्पणी: यहाँ स्पष्ट रूप से नहीं लिखा कि यह 'तेरा हार नामक रचना 1929 में छपी थी किन्तु यह पहली रचना थी और रचना-यात्रा की शुरूआत 1929 में हुई लिखित है अतः यह माना जा सकता है कि इस रचना का प्रकाशन 1929 में हुआ)।, मधुशाला (1935), मधुबाला (1936), मधुकलश (1937), आत्म परिचय (1937)Abhijot हरिवंश राय बच्चन – कवि परिचय : आत्म-परिचय और एक गीत इस कविता में कवि हरिवंशराय बच्चन ने अपने स्वभाव एवं व्यक्तित्व के बारे में बताया है। कवि जग के जीवन से जुड़ा भी है और इससे पृथक् भी है। वह इस संसार का भार लिए हुए फिरता है लेकिन उसके जीवन में प्यार की भावना भी है।, निशा निमंत्रण (1938), एकांत संगीत (1939), आकुल अंतर (1943), सतरंगिनी (1945), हलाहल (1946), बंगाल का काल (1946), खादी के फूल (1948), सूत की माला (1948), मिलन यामिनी (1950), प्रणय पत्रिका (1955), धार के इधर-उधर (1957), आरती और अंगारे (1958), बुद्ध और नाचघर (1958), त्रिभंगिमा (1961), चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962), दो चट्टानें (1965), बहुत दिन बीते (1967), कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968), उभरते प्रतिमानों के रूप (1969), जाल समेटा (1973) नई से नई-पुरानी से पुरानी (1985) काव्य संगह क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969), नीड़ का निर्माण फिर (1970), बसेरे से दूर (1977), दशद्वार से सोपान तक (1985) प्रवासी की डायरी विविध बच्चन के साथ क्षण भर (1934), खय्याम की मधुशाला (1938), सोपान (1953), मैकबेथ (1957), जनगीता (1958), ओथेलो (1959), उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959), कवियों में सौम्य संत: पंत (1960), आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960), आधुनिक कवि (1961), नेहरू: राजनैतिक जीवनचरित (1961), नये पुराने झरोखे (1962), अभिनव सोपान (1964) चौंसठ रूसी कविताएँ (1964) नागर गीता (1966), बच्चन के लोकप्रिय गीत (1967) डब्लू बी यीट्स एंड अकल्टिज़म (1968) मरकत द्वीप का स्वर (1968) हैमलेट (1969) भाषा अपनी भाव पराये (1970) पंत के सौ पत्र (1970) प्रवास की डायरी (1971) किंग लियर (1972) टूटी छूटी कड़ियाँ (1973) पुरस्कार/सम्मान उनकी कृति दो चट्टानें को १९६८ में हिन्दी कविता के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसी वर्ष उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउण्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिए उन्हें सरस्वती सम्मान दिया था। बच्चन को भारत सरकार द्वारा १९७६ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। बच्चन जी से संबंधित पुस्तकें हरिवंश राय बच्चन पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं। इनमें उनपर हुए शोध, आलोचना एवं रचनावली शामिल हैं। बच्चन रचनावली (1983) के नौ खण्ड हैं। इसका संपादन अजितकुमार ने किया है। अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें हैं- हरिवंशराय बच्चन (बिशन टण्डन) गुरुवर बच्चन से दूर (अजितकुमार) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ हरिवंशराय बच्चन वेबदुनिया पर हरिवंशराय बच्चन के बारे में हरिवंश राय बच्चन की रचनाएँ कविता कोश में दशद्वार से सोपान तक (बच्चन जी की आत्मकथा ; गूगल पुस्तक) श्रेणी:साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी भाषा के साहित्यकार श्रेणी:हिन्दी गद्यकार श्रेणी:छायावादी कवि श्रेणी:सरस्वती सम्मान से सम्मानित श्रेणी:१९७६ पद्म भूषण श्रेणी:२००३ में निधन श्रेणी:इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र श्रेणी:1907 में जन्मे लोग श्रेणी:साहित्य और शिक्षा में पद्म भूषण के प्राप्तकर्ता
महादेवी वर्मा
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महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907 — 11 सितम्बर 1987) हिन्दी भाषा की कवयित्री थीं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तम्भों में से एक मानी जाती हैं। आधुनिक हिन्दी की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण उन्हें आधुनिक मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कवि निराला ने उन्हें “हिन्दी के विशाल मन्दिर की सरस्वती” भी कहा है। महादेवी ने स्वतन्त्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। न केवल उनका काव्य बल्कि उनके सामाजसुधार के कार्य और महिलाओं के प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे। उन्होंने मन की पीड़ा को इतने स्नेह और शृंगार से सजाया कि दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रूप में स्थापित हुई और उसने केवल पाठकों को ही नहीं समीक्षकों को भी गहराई तक प्रभावित किया। उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी की कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो अभी तक केवल ब्रजभाषा में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को चुनकर हिन्दी का जामा पहनाया। संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अध्यापन से अपने कार्यजीवन की शुरूआत की और अन्तिम समय तक वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या बनी रहीं। उनका बाल-विवाह हुआ परन्तु उन्होंने अविवाहित की भाँति जीवन-यापन किया। प्रतिभावान कवयित्री और गद्य लेखिका महादेवी वर्मा साहित्य और संगीत में निपुण होने के साथ-साथ कुशल चित्रकार और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिन्दी साहित्य के सभी महत्त्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त है। भारत के साहित्य आकाश में महादेवी वर्मा का नाम ध्रुव तारे की भाँति प्रकाशमान है। गत शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार के रूप में वे जीवन भर पूजनीय बनी रहीं। वे पशु पक्षी प्रेमी थी गाय उनको अति प्रिय थी । वर्ष 2007 उनका जन्म शताब्दी के रूप में मनाया गया। 27 अप्रैल 1982 को भारतीय साहित्य में अतुलनीय योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से इन्हें सम्मानित किया गया था। गूगल ने इस दिवस की याद में वर्ष 2018 में गूगल डूडल के माध्यम से मनाया । जीवनी जन्म और परिवार महादेवी का जन्म 26 मार्च 1907 को प्रातः 8 बजे फ़र्रुख़ाबाद उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। उनके परिवार में लगभग 200 वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद पहली बार पुत्री का जन्म हुआ था। अतः बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी — महादेवी मानते हुए पुत्री का नाम महादेवी रखा। उनके पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापक थे। उनकी माता का नाम हेमरानी देवी था। हेमरानी देवी बड़ी धर्म परायण, कर्मनिष्ठ, भावुक एवं शाकाहारी महिला थीं। विवाह के समय अपने साथ सिंहासनासीन भगवान की मूर्ति भी लायी थीं वे प्रतिदिन कई घंटे पूजा-पाठ तथा रामायण, गीता एवं विनय पत्रिका का पारायण करती थीं और संगीत में भी उनकी अत्यधिक रुचि थी। इसके बिल्कुल विपरीत उनके पिता गोविन्द प्रसाद वर्मा सुन्दर, विद्वान, संगीत प्रेमी, नास्तिक, शिकार करने एवं घूमने के शौकीन, माँसाहारी तथा हँसमुख व्यक्ति थे। महादेवी वर्मा के मानस बंधुओं में सुमित्रानन्दन पन्त एवं निराला का नाम लिया जा सकता है, जो उनसे जीवन पर्यन्त राखी बँधवाते रहे। निराला जी से उनकी अत्यधिक निकटता थी, उनकी पुष्ट कलाइयों में महादेवी जी लगभग चालीस वर्षों तक राखी बाँधती रहीं। शिक्षा महादेवी जी की शिक्षा इन्दौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने 1919 में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। 1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं ― “सुनो, ये कविता भी लिखती हैं”। 1932 में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम॰ए॰ पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे। वैवाहिक जीवन सन् 1916 में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। श्री वर्मा इण्टर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोर्डिंग हाउस में रहने लगे। महादेवी जी उस समय क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद के छात्रावास में थीं। श्रीमती महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी। कारण कुछ भी रहा हो पर श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बन्ध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोईं और कभी शीशा नहीं देखा। सन् 1966 में पति की मृत्यु के बाद वे स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं। कार्यक्षेत्र thumb|200px|right|महादेवी, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी आदि के साथ महादेवी का कार्यक्षेत्र लेखन, सम्पादन और अध्यापन रहा। उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। यह कार्य अपने समय में महिला-शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम था। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। 1923 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘चाँद’ का कार्यभार संभाला। १९३० में नीहार, १९३२ में रश्मि, १९३४ में नीरजा, तथा १९३६ में सांध्यगीत नामक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए। १९३९ में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किये। इसके अतिरिक्त उनकी 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कड़ियाँ और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं। सन १९५५ में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं इलाचंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का सम्पादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। उन्होंने भारत में महिला कवि सम्मेलनों की नीव रखी। इस प्रकार का पहला अखिल भारतवर्षीय कवि सम्मेलन 15 अप्रैल 1933 को सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में प्रयाग महिला विद्यापीठ में सम्पन्न हुआ। वे हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तिका भी मानी जाती हैं। महादेवी बौद्ध पन्थ से बहुत प्रभावित थीं। महात्मा गांधी के प्रभाव से उन्होंने जनसेवा का व्रत लेकर झूसी में कार्य किया और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया। 1936]] में नैनीताल से 25 किलोमीटर दूर रामगढ़ कसबे के उमागढ़ नामक गाँव में महादेवी वर्मा ने एक बंगला बनवाया था। जिसका नाम उन्होंने मीरा मन्दिर रखा था। जितने दिन वे यहाँ रहीं इस छोटे से गाँव की शिक्षा और विकास के लिए काम करती रहीं। विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आजकल इस बंगले को महादेवी साहित्य संग्रहालय के नाम से जाना जाता है। शृंखला की कड़ियाँ में स्त्रियों की मुक्ति और विकास के लिए उन्होंने जिस साहस व दृढ़ता से आवाज़ उठाई हैं और जिस प्रकार सामाजिक रूढ़ियों की निन्दा की है उससे उन्हें महिला मुक्तिवादी भी कहा गया। महिलाओं व शिक्षा के विकास के कार्यों और जनसेवा के कारण उन्हें समाज-सुधारक भी कहा गया है। उनके सम्पूर्ण गद्य साहित्य में पीड़ा या वेदना के कहीं दर्शन नहीं होते बल्कि अदम्य रचनात्मक रोष समाज में बदलाव की अदम्य आकांक्षा और विकास के प्रति सहज लगाव परिलक्षित होता है। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में बिताया। 11 सितम्बर 1987 को इलाहाबाद में रात 9 बजकर 30 मिनट पर उनका देहांत हो गया। प्रमुख कृतियाँ महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ विशिष्ट गद्यकार भी थीं। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं। thumb|200px|पन्थ तुम्हारा मंगलमय हो। महादेवी के हस्ताक्षर thumb|200px|महादेवी वर्मा की प्रमुख गद्य रचनाएँ कविता संग्रह १. नीहार (१९३०)२. रश्मि (१९३२)३. नीरजा (१९३४)४. सांध्यगीत (१९३६)  ५. दीपशिखा (१९४२) ६. सप्तपर्णा (अनूदित-१९५९)  ७. प्रथम आयाम (१९७४)  ८. अग्निरेखा (१९९०) श्रीमती महादेवी वर्मा के अन्य अनेक काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं, जैसे आत्मिका, परिक्रमा, सन्धिनी (१९६५), यामा (१९३६), गीतपर्व, दीपगीत, स्मारिका, नीलांबरा और आधुनिक कवि महादेवी आदि। महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य रेखाचित्र: अतीत के चलचित्र (१९४१) और स्मृति की रेखाएं (१९४३), संस्मरण: पथ के साथी (१९५६) और मेरा परिवार (१९७२) और संस्मरण (१९८३) चुने हुए भाषणों का संकलन: संभाषण (१९७४) निबंध: शृंखला की कड़ियाँभारतीय नारी की विषम परिस्थितियों पर अनेक दृष्टियों से विचार (१९४२), विवेचनात्मक गद्य (१९४२), साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध (१९६२), संकल्पिता (१९६९) ललित निबंध: क्षणदायात्रा, कला और साहित्य से संबंधित मौलिक विचार (१९५६) कहानियाँ: गिल्लू संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह: हिमालय (१९६३), अन्य निबंध में संकल्पिता तथा विविध संकलनों में स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध उल्लेखनीय हैं। वे अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका ‘चाँद’ तथा ‘साहित्यकार’ मासिक की भी सम्पादक रहीं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने प्रयाग में ‘साहित्यकार संसद’ और रंगवाणी नाट्य संस्था की भी स्थापना की। महादेवी वर्मा का बाल साहित्य महादेवी वर्मा की बाल कविताओं के दो संकलन छपे हैं। ठाकुरजी भोले हैं आज खरीदेंगे हम ज्वाला समालोचना आधुनिक गीत काव्य में महादेवी जी का स्थान सर्वोपरि है। उनकी कविता में प्रेम की पीर और भावों की तीव्रता वर्तमान होने के कारण भाव, भाषा और संगीत की जैसी त्रिवेणी उनके गीतों में प्रवाहित होती है वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। महादेवी के गीतों की वेदना, प्रणयानुभूति, करुणा और रहस्यवाद काव्यानुरागियों को आकर्षित करते हैं। पर इन रचनाओं की विरोधी आलोचनाएँ सामान्य पाठक को दिग्भ्रमित करती हैं। आलोचकों का एक वर्ग वह है, जो यह मानकर चलते हैं कि महादेवी का काव्य नितान्त वैयक्तिक है। उनकी पीड़ा, वेदना, करुणा, कृत्रिम और बनावटी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे मूर्धन्य आलोचकों ने उनकी वेदना और अनुभूतियों की सच्चाई पर प्रश्न चिह्न लगाया है — दूसरी ओर आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जैसे समीक्षक उनके काव्य को समष्टि परक मानते हैं। शोमेर ने ‘दीप’ (नीहार), मधुर मधुर मेरे दीपक जल (नीरजा) और मोम सा तन गल चुका है कविताओं को उद्धृत करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि ये कविताएं महादेवी के ‘आत्मभक्षी दीप’ अभिप्राय को ही व्याख्यायित नहीं करतीं बल्कि उनकी कविता की सामान्य मुद्रा और बुनावट का प्रतिनिधि रूप भी मानी जा सकती हैं। सत्यप्रकाश मिश्र छायावाद से संबंधित उनकी शास्त्र मीमांसा के विषय में कहते हैं ― “महादेवी ने वैदुष्य युक्त तार्किकता और उदाहरणों के द्वारा छायावाद और रहस्यवाद के वस्तु शिल्प की पूर्ववर्ती काव्य से भिन्नता तथा विशिष्टता ही नहीं बतायी, यह भी बताया कि वह किन अर्थों में मानवीय संवेदन के बदलाव और अभिव्यक्ति के नयेपन का काव्य है। उन्होंने किसी पर भाव साम्य, भावोपहरण आदि का आरोप नहीं लगाया केवल छायावाद के स्वभाव, चरित्र, स्वरूप और विशिष्टता का वर्णन किया।” प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे मनीषी का मानना है कि जो लोग उन्हें पीड़ा और निराशा की कवयित्री मानते हैं वे यह नहीं जानते कि उस पीड़ा में कितनी आग है जो जीवन के सत्य को उजागर करती है। यह सच है कि महादेवी का काव्य संसार छायावाद की परिधि में आता है, पर उनके काव्य को उनके युग से एकदम असम्पृक्त करके देखना, उनके साथ अन्याय करना होगा। महादेवी एक सजग रचनाकार हैं। बंगाल के अकाल के समय १९४३ में इन्होंने एक काव्य संकलन प्रकाशित किया था और बंगाल से सम्बंधित “बंग भू शत वंदना” नामक कविता भी लिखी थी। इसी प्रकार चीन के आक्रमण के प्रतिवाद में हिमालय नामक काव्य संग्रह का सम्पादन किया था। यह संकलन उनके युगबोध का प्रमाण है। गद्य साहित्य के क्षेत्र में भी उन्होंने कम काम नहीं किया। उनका आलोचना साहित्य उनके काव्य की भांति ही महत्वपूर्ण है। उनके संस्मरण भारतीय जीवन के संस्मरण चित्र हैं। उन्होंने चित्रकला का काम अधिक नहीं किया फिर भी जलरंगों में ‘वॉश’ शैली से बनाए गए उनके चित्र धुंधले रंगों और लयपूर्ण रेखाओं का कारण कला के सुंदर नमूने समझे जाते हैं। उन्होंने रेखाचित्र भी बनाए हैं। दाहिनी ओर करीन शोमर की क़िताब के मुखपृष्ठ पर महादेवी द्वारा बनाया गया रेखाचित्र ही रखा गया है। उनके अपने कविता संग्रहों यामा और दीपशिखा में उनके रंगीन चित्रों और रेखांकनों को देखा जा सकता है। पुरस्कार व सम्मान thumb|200px|right|डाकटिकट उन्हें प्रशासनिक, अर्धप्रशासनिक और व्यक्तिगत सभी संस्थाओँ से पुरस्कार व सम्मान मिले। 1943 में उन्हें ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ एवं ‘भारत भारती’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गयीं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिये ‘पद्म भूषण’ की उपाधि दी। 1971 में साहित्य अकादमी की सदस्यता ग्रहण करने वाली वे पहली महिला थीं। 1988 में उन्हें मरणोपरांत भारत सरकार की पद्म विभूषण उपाधि से सम्मानित किया गया। सन 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय, 1977 में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, 1980 में दिल्ली विश्वविद्यालय तथा 1984 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने उन्हें डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया। इससे पूर्व महादेवी वर्मा को ‘नीरजा’ के लिये 1934 में ‘सक्सेरिया पुरस्कार’, 1942 में ‘स्मृति की रेखाएँ’ के लिये ‘द्विवेदी पदक’ प्राप्त हुए। ‘यामा’ नामक काव्य संकलन के लिये उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। वे भारत की 50 सबसे यशस्वी महिलाओं में भी शामिल हैं। 1968 में सुप्रसिद्ध भारतीय फ़िल्मकार मृणाल सेन ने उनके संस्मरण ‘वह चीनी भाई’ पर एक बांग्ला फ़िल्म का निर्माण किया था जिसका नाम था नील आकाशेर नीचे। 16 सितंबर 1991 को भारत सरकार के डाकतार विभाग ने जयशंकर प्रसाद के साथ उनके सम्मान में 2 रुपये का एक युगल टिकट भी जारी किया है। महादेवी वर्मा का योगदान thumb|250px|महादेवी से जुड़े विशिष्ट स्थल साहित्य में महादेवी वर्मा का आविर्भाव उस समय हुआ जब खड़ीबोली का आकार परिष्कृत हो रहा था। उन्होंने हिन्दी कविता को बृजभाषा की कोमलता दी, छंदों के नये दौर को गीतों का भंडार दिया और भारतीय दर्शन को वेदना की हार्दिक स्वीकृति दी। इस प्रकार उन्होंने भाषा साहित्य और दर्शन तीनों क्षेत्रों में ऐसा महत्त्वपूर्ण काम किया जिसने आनेवाली एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया। शचीरानी गुर्टू ने भी उनकी कविता को सुसज्जित भाषा का अनुपम उदाहरण माना है। उन्होंने अपने गीतों की रचना शैली और भाषा में अनोखी लय और सरलता भरी है, साथ ही प्रतीकों और बिंबों का ऐसा सुंदर और स्वाभाविक प्रयोग किया है जो पाठक के मन में चित्र सा खींच देता है। छायावादी काव्य की समृद्धि में उनका योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। छायावादी काव्य को जहाँ प्रसाद ने प्रकृतितत्त्व दिया, निराला ने उसमें मुक्तछंद की अवतारणा की और पंत ने उसे सुकोमल कला प्रदान की वहाँ छायावाद के कलेवर में प्राण-प्रतिष्ठा करने का गौरव महादेवी जी को ही प्राप्त है। भावात्मकता एवं अनुभूति की गहनता उनके काव्य की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता है। हृदय की सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव-हिलोरों का ऐसा सजीव और मूर्त अभिव्यंजन ही छायावादी कवियों में उन्हें ‘महादेवी’ बनाता है। वे हिन्दी बोलने वालों में अपने भाषणों के लिए सम्मान के साथ याद की जाती हैं। उनके भाषण जन सामान्य के प्रति संवेदना और सच्चाई के प्रति दृढ़ता से परिपूर्ण होते थे। वे दिल्ली में 1983 में आयोजित तीसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन के समापन समारोह की मुख्य अतिथि थीं। इस अवसर पर दिये गये उनके भाषण में उनके इस गुण को देखा जा सकता है। यद्यपि महादेवी ने कोई उपन्यास, कहानी या नाटक नहीं लिखा तो भी उनके लेख, निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, भूमिकाओं और ललित निबंधों में जो गद्य लिखा है वह श्रेष्ठतम गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसमें जीवन का सम्पूर्ण वैविध्य समाया है। बिना कल्पना और काव्यरूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में कितना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। उनके गद्य में वैचारिक परिपक्वता इतनी है कि वह आज भी प्रासंगिक है। समाज सुधार और नारी स्वतंत्रता से संबंधित उनके विचारों में दृढ़ता और विकास का अनुपम सामंजस्य मिलता है। सामाजिक जीवन की गहरी परतों को छूने वाली इतनी तीव्र दृष्टि, नारी जीवन के वैषम्य और शोषण को तीखेपन से आंकने वाली इतनी जागरूक प्रतिभा और निम्न वर्ग के निरीह, साधनहीन प्राणियों के अनूठे चित्र उन्होंने ही पहली बार हिंदी साहित्य को दिये। मौलिक रचनाकार के अलावा उनका एक रूप सृजनात्मक अनुवादक का भी है जिसके दर्शन उनकी अनुवाद-कृत ‘सप्तपर्णा’ (१९६०) में होते हैं। अपनी सांस्कृतिक चेतना के सहारे उन्होंने वेद, रामायण, थेरगाथा तथा अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की कृतियों से तादात्म्य स्थापित करके ३९ चयनित महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद इस कृति में प्रस्तुत किया है। आरम्भ में ६१ पृष्ठीय ‘अपनी बात’ में उन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य की इस अमूल्य धरोहर के सम्बंध में गहन शोधपूर्ण विमर्ष किया है जो केवल स्त्री-लेखन को ही नहीं हिंदी के समग्र चिंतनपरक और ललित लेखन को समृद्ध करता है। इन्हें भी देखें हिंदी साहित्य छायावादी युग आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास महादेवी वर्मा की रचनाएँ टीका-टिप्पणी    क.    छायावाद के अन्य तीन स्तंभ हैं, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत।    ख.    हिंदी के विशाल मन्दिर की वीणापाणी, स्फूर्ति चेतना रचना की प्रतिमा कल्याणी ―निराला    ग.    उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी को कोमलता और मधुरता से संसिक्त कर सहज मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का द्वार खोला, विरह को दीपशिखा का गौरव दिया और व्यष्टि मूलक मानवतावादी काव्य के चिंतन को प्रतिष्ठापित किया। उनके गीतों का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। ―निशा सहगल    घ.    “इस वेदना को लेकर उन्होंने हृदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक ये वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता।” ―आचार्य रामचंद्र शुक्ल    ङ.    “महादेवी का ‘मैं’ सन्दर्भ भेद से सबका नाम है।” सच्चाई यह है कि महादेवी व्यष्टि से समष्टि की ओर जाती हैं। उनकी पीड़ा, वेदना, करुणा और दुखवाद में विश्व की कल्याण कामना निहित है। ―हज़ारी प्रसाद द्विवेदी    च.    वस्तुत: महादेवी की अनुभूति और सृजन का केंद्र आँसू नहीं आग है। जो दृश्य है वह अन्तिम सत्य नहीं है, जो अदृश्य है वह मूल या प्रेरक सत्य है। महादेवी लिखती हैं: “आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के” और भी स्पष्टता की माँग हो तो ये पंक्तियाँ देखें: मेरे निश्वासों में बहती रहती झंझावात/आँसू में दिनरात प्रलय के घन करते उत्पात/कसक में विद्युत अंतर्धान। ये आँसू सहज सरल वेदना के आँसू नहीं हैं, इनके पीछे जाने कितनी आग, झंझावात प्रलय-मेघ का विद्युत-गर्जन, विद्रोह छिपा है। ―प्रभाकर श्रोत्रिय    छ.    महादेवी जी की कविता सुसज्जित भाषा का अनुपम उदाहरण है ―शचीरानी गुर्टू    ज.    महादेवी के प्रगीतों का रूप विन्यास, भाषा, प्रतीक-बिंब लय के स्तर पर अद्भुत उपलब्धि कहा जा सकता है। ―कृष्णदत्त पालीवाल    झ.    एक महादेवी ही हैं जिन्होंने गद्य में भी कविता के मर्म की अनुभूति कराई और ‘गद्य कवीतां निकषं वदंति’ उक्ति को चरितार्थ किया है। विलक्षण बात तो यह है कि न तो उन्होंने उपन्यास लिखा, न कहानी, न ही नाटक फिर भी श्रेष्ठ गद्यकार हैं। उनके ग्रंथ लेखन में एक ओर रेखाचित्र, संस्मरण या फिर यात्रावृत्त हैं तो दूसरी ओर सम्पादकीय, भूमिकाएँ, निबंध और अभिभाषण, पर सबमें जैसे सम्पूर्ण जीवन का वैविध्य समाया है। बिना कल्पनाश्रित काव्य रूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में इतना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। ―रामजी पांडेय    ञ.    महादेवी का गद्य जीवन की आँच में तपा हुआ गद्य है। निखरा हुआ, निथरा हुआ गद्य है। 1956 में लिखा हुआ उनका गद्य आज 50 वर्ष बाद भी प्रासंगिक है। वह पुराना नहीं पड़ा है। ―राजेन्द्र उपाध्याय सन्दर्भ ग्रन्थसूची । । । । । । । । बाहरी कड़ियाँ जीवनी और निबंध संस्मरण विविध </div> श्रेणी:महादेवी वर्मा श्रेणी:हिन्दी गद्यकार श्रेणी:हिन्दी कवयित्रियाँ श्रेणी:प्रयागराज श्रेणी:ज्ञानपीठ सम्मानित श्रेणी:द्विवेदी पदक श्रेणी:भारत भारती श्रेणी:मंगला प्रसाद पुरस्कार श्रेणी:१९५६ पद्म भूषण श्रेणी:फ़र्रूख़ाबाद के हिन्दी कवि श्रेणी:भारतीय महिला साहित्यकार श्रेणी:इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र श्रेणी:साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित‎ श्रेणी:साहित्य और शिक्षा में पद्म विभूषण के प्राप्तकर्ता
जयशंकर प्रसाद
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Sameer Mani जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889- 15 नवंबर 1937)अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद', सं॰-पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-2001ई॰,पृ॰-2 (केवल तिथि एवं संवत् के लिए। ईस्वी यहाँ भी मोटे तौर पर संवत् में से 57 घटाकर1889 लिख दी गयी है जो कि गलत है, क्योंकि 1 जनवरी से लेकर चैत्र कृष्ण अमावस्या तिथि तक के ईस्वीवर्ष के लिए संवत् में से 56 वर्ष ही घटाये जाने चाहिए क्योंकि 1 जनवरी से इस तिथि तक ईस्वीवर्ष तो नया हो गया रहता है लेकिन संवत् पुराना ही रहता है। इसकी अगली तिथि अर्थात् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नया संवत् आरंभ होने से उस तारीख से 31 दिसंबर तक 57 वर्ष घटाने चाहिए)।(क)हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-१०, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; संस्करण-२०२८ वि॰ (=१९७१ई॰), पृ॰-१४५(तारीख एवं ईस्वी के लिए)। (ख) www.drikpanchang.com (30.1.1890 का पंचांग; तिथ्यादि से अंग्रेजी तारीख आदि के मिलान के लिए)।, हिन्दी कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्ध-लेखक थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ीबोली के काव्य में न केवल कामनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के, प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओं के, प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि 'खड़ीबोली' हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी। जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी, संवत्‌ १९४६ वि॰ तदनुसार 30 जनवरी 1890 ई॰ दिन-गुरुवार) को काशी के गोवर्धनसराय में हुआ। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी भी दान देने के साथ-साथ कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई थी, परंतु यह शिक्षा अल्पकालिक थी। छठे दर्जे में वहाँ शिक्षा आरंभ हुई थीडॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰,पृ॰ १२. और सातवें दर्जे तक ही वे वहाँ पढ़ पाये। उनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध घर पर ही किया गया, जहाँ हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन इन्होंने किया। प्रसाद जी के प्रारंभिक शिक्षक श्री मोहिनीलाल गुप्त थे। वे कवि थे और उनका उपनाम 'रसमय सिद्ध' था। शिक्षक के रूप में वे बहुत प्रसिद्ध थे।राय कृष्णदास, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰, पृ॰ ३०. चेतगंज के प्राचीन दलहट्टा मोहल्ले में उनकी अपनी छोटी सी बाल पाठशाला थी। 'रसमय सिद्ध' जी ने प्रसाद जी को प्रारंभिक शिक्षा दी तथा हिंदी और संस्कृत में अच्छी प्रगति करा दी। प्रसाद जी ने संस्कृत की गहन शिक्षा प्राप्त की थी। उनके निकट संपर्क में रहने वाले तीन सुधी व्यक्तियों के द्वारा तीन संस्कृत अध्यापकों के नाम मिलते हैं। डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा के अनुसार "चेतगंज के तेलियाने की पतली गली में इटावा के एक उद्भट विद्वान रहते थे। संस्कृत-साहित्य के उस दुर्धर्ष मनीषी का नाम था - गोपाल बाबा। प्रसाद जी को संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए उन्हें ही चुना गया।"डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰,पृ॰ ११. विनोदशंकर व्यास के अनुसार "श्री दीनबन्धु ब्रह्मचारी उन्हें संस्कृत और उपनिषद् पढ़ाते थे।" राय कृष्णदास के अनुसार रसमय सिद्ध से शिक्षा पाने के बाद "प्रसाद जी ने एक विद्वान् हरिहर महाराज से और संस्कृत dffwc । वे लहुराबीर मुहल्ले के आस-पास रहते थे। प्रसाद जी का संस्कृत प्रेम बढ़ता गया। उन्होंने स्वयमेव उसका बहुत अच्छा अभ्यास कर लिया था। बाद में वे स्वाध्याय से ही वैदिक संस्कृत में भी निष्णात हो गये थे।" बनारस हिन्दू huविश्वविद्यालय के संस्कृत-अध्यापक महामहोपाध्याय पं॰ देवीप्रसाद शुक्ल कवि-चक्रवर्ती को प्रसाद जी का काव्यगुरु माना जाता है।शिवपूजन रचनावली, चौथा खण्ड, श्री शिवपूजन सहाय, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, संस्करण-१९५९, पृष्ठ-४१२-४१३. घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की Slipkzk में ही उन्होंने 'कलाधर' के नाम से व्रजभाषा में एक सवैया लिखकर 'रसमय सिद्ध' को दिखाया था। डॉ॰ प्रेमशंकर, प्रसाद का काव्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1998, पृष्ठ-29. उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्यशास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान-पान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। इनकी पहली कविता ‘सावक पंचक’ सन १९०६ में भारतेंदु पत्रिका में कलाधर नाम से ही प्रकाशित हुई थी। वे नियमित रूप से गीता-पाठ करते थे, परंतु वे संस्कृत में गीता के पाठ मात्र को पर्याप्त न मानकर गीता के आशय को जीवन में धारण करना आवश्यक मानते थे।डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰,पृ॰ १६-१७. प्रसाद जी का पहला विवाह 1909 ई॰ में विंध्यवासिनी देवी के साथ हुआ था। उनकी पत्नी को क्षय रोग था। सन् 1916 ई॰ में विंध्यवासिनी देवी का निधन हो गया। उसी समय से उनके घर में क्षय रोग के कीटाणु प्रवेश कर गये थे। सन् 1917 ई॰ में सरस्वती देवी के साथ उनका दूसरा विवाह हुआ। दूसरा विवाह होने पर उनकी पहली पत्नी की साड़ियों आदि को उनकी द्वितीय पत्नी ने भी पहना और कुछ समय बाद उन्हें भी क्षय रोग हो गया और दो ही वर्ष बाद 1919 ई॰ में उनका देहांत भी प्रसूतावस्था में क्षय रोग से ही हुआ।राय कृष्णदास, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰, पृ॰ ३२. इसके बाद पुनः घर बसाने की उनकी लालसा नहीं थी, परंतु अनेक लोगों के समझाने और सबसे अधिक अपनी भाभी के प्रतिदिन के शोकमय जीवन को सुलझाने के लिए उन्हें बाध्य होकर विवाह करना पड़ा। सन् १९१९ ई॰ में उनका तीसरा विवाह कमला देवी के साथ हुआ। उनका एकमात्र पुत्र रत्नशंकर प्रसाद तीसरी पत्नी की ही संतान थे, जिनका जन्म सन् १९२२ ई॰ में हुआ था। स्वयं प्रसाद जी भी जीवन के अंत में क्षय रोग से ग्रस्त हो गये थे और एलोपैथिक के अतिरिक्त लंबे समय तक होमियोपैथिक तथा कुछ समय आयुर्वेदिक चिकित्सा का सहारा लेने के बावजूद इस रोग से मुक्त न हो सके और अंततः इसी रोग से १५ नवम्बर १९३७ (दिन-सोमवार) को प्रातःकाल (उम्र ४७) उनका देहान्त काशी में हुआ। सुप्रसिद्ध युवा कवि गोलेन्द्र पटेल ने अपनी कविता ‘कठौती और करघा’ में काशी के संदर्भ में कहा है कि “रैदास की कठौती और कबीर के करघे के बीच/ तुलसी का दुख एक सेतु की तरह है/ जिस पर से गुज़रने पर/ हमें प्रसाद, प्रेमचंद व धूमिल आदि के दर्शन होते हैं!/ यह काशी/ बेगमपुरा, अमरदेसवा और रामराज्य की नाभि है।” (कवितांश : ‘कठौती और करघा’ से)विनोदशंकर व्यास, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰,पृ॰ ४३-४४. लेखन-कार्य कविता प्रसाद ने कविता ब्रजभाषा में आरम्भ की थी। सुधाकर पांडेय, हिंदी विश्वकोश, खंड-७, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-१९६६ ई॰, पृष्ठ-४९०. उपलब्ध स्रोतों के आधार पर प्रसाद जी की पहली रचना 1901 ई॰ में लिखा गया एक सवैया छंद है, लेकिन उनकी प्रथम प्रकाशित कविता दूसरी है, जिसका प्रकाशन जुलाई 1906 में 'भारतेन्दु' में हुआ था।जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xxxix. प्रसाद जी ने जब लिखना शुरू किया उस समय भारतेन्दुयुगीन और द्विवेदीयुगीन काव्य-परंपराओं के अलावा श्रीधर पाठक की 'नयी चाल की कविताएँ भी थीं। उनके द्वारा किये गये अनुवादों 'एकान्तवासी योगी' और 'ऊजड़ग्राम' का नवशिक्षितों और पढ़े-लिखे प्रभु वर्ग में काफी मान था। प्रसाद के 'चित्राधार' में संकलित रचनाओं में इसके प्रभाव खोजे भी गये हैं और प्रमाणित भी किये जा सकते हैं।प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-१३. 1909 ई॰ में 'इन्दु' में उनका कविता संग्रह 'प्रेम-पथिक' प्रकाशित हुआ था। 'प्रेम-पथिक' पहले ब्रजभाषा में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसका परिमार्जित और परिवर्धित संस्करण खड़ी बोली में नवंबर 1914 में 'प्रेम-पथ' नाम से और उसका अवशिष्ट अंश दिसंबर 1914 में 'चमेली' शीर्षक से प्रकाशित हुआ।प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-२०. बाद में एकत्रित रूप से यह कविता 'प्रेम-पथिक' नाम से प्रसिद्ध हुई। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के अनुसार : 'करुणालय' का प्रकाशन १९१३ ई॰ में 'इन्दु' में हुआ था। स्वयं प्रसाद जी ने इसे गीतिनाट्य के ढंग पर लिखा गया दृश्य काव्य कहा है। हालाँकि इसकी रचना गीतिपरक न होकर कवितात्मक ही है। केवल इसके अंत में एक गीतात्मक पद्य है। कविता का अधिकांश अतुकान्त है तथा मात्रिक छंद में वाक्यानुसार विरामचिह्न दिया गया है। इसलिए इसे गीतिनाट्य की अपेक्षा 'काव्य नाटक' कहना ही उचित है। १९१४ ई॰ में 'इन्दु' में प्रकाशित 'महाराणा का महत्त्व' शीर्षक कविता महाराणा प्रताप के साथ अमर सिंह पर भी केन्द्रित है। यह स्वाधीनता प्रेम, पराधीनता के खिलाफ संघर्ष, स्वतंत्रता को हर कीमत पर बनाये रखने के शौर्य और संकल्प की कथात्मक कविता है। प्रसाद जी की प्रारम्भिक रचनाओं का संग्रह 'चित्राधार' था, जिसका पहला संस्करण १९१८ ई॰ में प्रकाशित हुआ था; परंतु उनका पहला प्रकाशित काव्य-संग्रह 'कानन-कुसुम' था जिसका प्रथम प्रकाशन १९१३ ई॰ में हुआ था। इसके तीसरे संस्करण के विवरण से पता चलता है कि इसके प्रथम संस्करण में उस समय तक रचित प्रसाद जी की खड़ीबोली के साथ ब्रजभाषा की कविताएँ भी संकलित थीं। बाद के संस्करण में इसमें केवल खड़ीबोली की कविताएँ रखी गयीं तथा ब्रजभाषा में रचित कविताएँ 'चित्राधार' में संकलित कर दी गयीं।हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-१०, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; संस्करण-२०२८ वि॰ (=१९७१ई॰), पृ॰-१४६. चूँकि 'चित्राधार' में संकलित रचनाएँ कालक्रम से 'कानन-कुसुम' में संकलित रचनाओं से पहले की थीं, इसलिए प्रसाद जी की कृतियों में 'चित्राधार' को पहले और 'कानन-कुसुम' को दूसरे काव्य-संग्रह के रूप में स्थान दिया जाता है। 'कानन-कुसुम' की रचनाओं में संशोधन-परिवर्धन भी बहुत बाद तक होते रहा।जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xviii-xix. सन् १९१८ ई॰ में प्रकाशित 'चित्राधार' के प्रथम संस्करण में ब्रजभाषा और खड़ी बोली में लिखी 'कलाधर' और 'प्रसाद' छाप की कविताएँ एक साथ संकलित थीं, परन्तु १९२८ ई॰ में प्रकाशित इसके दूसरे संस्करण में केवल ब्रजभाषा की ही रचनाएँ रखी गयीं। 'चित्राधार' के प्रथम संस्करण में 'करुणालय' एवं 'महाराणा का महत्त्व' शीर्षक कविताएँ भी संकलित थीं, परंतु १९२८ में इन दोनों का स्वतंत्र प्रकाशन हुआ।हिन्दी साहित्य कोश, भाग-२, सं॰ धीरेन्द्र वर्मा एवं अन्य, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, पुनर्मुद्रित संस्करण-२०११, पृष्ठ-२१०. उर्वशी, बभ्रुवाहन, करुणालय, ब्रह्मर्षि, पंचायत, प्रकृति सौंदर्य, सरोज, भक्ति आदि रचनाओं को 'चित्राधार' के इस परवर्ती संस्करण में निकाल दिया गया।जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xix. 'चित्राधार' में संकलित कथामूलक भाव वाली कविताएँ तीन हैं -- 'वन मिलन', 'अयोध्या का उद्धार' और 'प्रेम राज्य'।प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-१७. 'अयोध्या का उद्धार' कालिदास कृत 'रघुवंश' के सोलहवें सर्ग पर तथा 'वन मिलन' 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' पर आधारित है। 'प्रेम राज्य' विजयनगर और अहमदाबाद के बीच हुए तालीकोट युद्ध की ऐतिहासिक घटना को केंद्र में रखकर लिखा गया वीरगाथा काव्य है। प्रसाद जी की खड़ीबोली की स्फुट कविताओं का प्रथम संग्रह 'कानन कुसुम' है। इसमें सन १९०९ से लेकर १९१७ तक की कविताएँ संगृहीत हैं। प्रायः सभी कविताएँ पहले 'इन्दु' में प्रकाशित हो चुकी थीं। यहाँ तक की कविताएँ प्रसाद जी के प्रारंभिक दौर की कविताएँ हैं, जिनमें काव्य-विकास की अपेक्षा विकास के संकेत ही अधिक उपस्थापित हो पाये हैं। १९१८ ई॰ में ही प्रसाद जी के सुप्रसिद्ध संग्रह 'झरना' का प्रकाशन हुआ। जिसमें प्रसाद की प्रथम छायावादी कविता प्रथम प्रभात भी प्रकाशित हुई थी। इसमें प्रसाद जी के काव्य-विकास के संधिकाल की गीतिपरक कविताएँ संकलित हैं। आरंभ में इसमें कुल २४ कविताएँ थीं। इसका दूसरा संस्करण सन १९२७ ई॰ में प्रकाशित हुआ, जिसमें आचार्य शुक्ल के अनुसार ३३ रचनाएँ और जोड़ी गयीं, जिनमें रहस्यवाद, अभिव्यंजना का अनूठापन, व्यंजक चित्रविधान आदि सब कुछ मिल जाता है। 'विषाद', 'बालू की बेला', 'खोलो द्वार', 'बिखरा हुआ प्रेम', 'किरण', 'वसंत की प्रतीक्षा' इत्यादि उन्हीं पीछे जोड़ी गयीं रचनाओं में हैं जो पहले संस्करण में नहीं थीं।आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्करण-२००१ ई॰, पृष्ठ-३६७. 'झरना' एक दृष्टि से प्रेम के विविध अनुभवों का जीवन्त वर्णन है। इसके साथ ही इसमें लोकमंगल की भावना और दीन-दुखी तथा दलितों के दुख के अन्त की कामना भी है, जो प्रेम को उदार बनाती है।प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-३१. अनेक समालोचकों के विचार से छायावाद की प्रतिष्ठापक कुछ कविताएँ इस संग्रह में संकलित थीं। इसमें प्रसाद जी के भावी उदात्त काव्य-विकास के संकेत तो प्रभूत मात्रा में मिलते हैं, परंतु जहाँ-तहाँ भाषा का अनगढ़पन, लय का अभाव तथा उदात्तीकरण की न्यूनताडॉ॰ प्रेमशंकर, प्रसाद का काव्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1998, पृष्ठ-171. रचनात्मक प्रौढ़ता में बाधा बनती भी दिखती है। प्रसाद जी की काव्य रचना के दूसरे दौर का आरम्भ 'आँसू' से हुआ, जिसका प्रकाशन १९२५ ई॰ में साहित्य सदन, चिरगाँव (झाँसी) से हुआ था। इसके प्रथम संस्करण में १२६ छंद थे, जबकि १९३३ में भारती-भण्डार, रामघाट, बनारस सिटी से प्रकाशित द्वितीय संस्करण में १९० छंद हैं।नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 'जयशंकर प्रसाद विशेषांक', वर्ष-९२-९४, संवत्-२०४४-४६ सं॰ शिवनंदनलाल दर एवं अन्य, पृष्ठ-७२. द्वितीय संस्करण में कुछ छंदों के पाठ में भी परिवर्तन किया गया था।नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 'जयशंकर प्रसाद विशेषांक', वर्ष-९२-९४, संवत्-२०४४-४६ सं॰ शिवनंदनलाल दर एवं अन्य, पृष्ठ-७७.जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xxi. प्रसाद जी की अधिकांश काव्य-रचनाओं में न्यूनाधिक सिद्धि के साथ अन्तर्धारा के रूप में अनुस्यूत तत्त्व के बारे में 'प्रेम-पथिक' के सन्दर्भ में लिखते हुए डॉ॰ रमेशचन्द्र शाह ने कहा है : इस भावना का प्रतिफलन 'प्रेम-पथिक' में जहाँ प्रारम्भिक रूप में हुआ था, वहीं 'आँसू' में यह अधिक व्यापक और काफी हद तक सिद्ध रूप में प्रतिफलित हुई है। डॉ॰ शाह के शब्दों में : डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के अनुसार "आत्मपरकता की यह वस्तुपरकता प्रसाद को अच्छे लेखक से बड़ा लेखक बनाती है। 'आँसू' में भी इस प्रकार की चेतना मिलती है।"प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-३६. प्रसाद जी की गीतात्मक सृष्टि के शिखर 'लहर' का प्रकाशन १९३५ ई॰ में हुआ। इस संग्रह में १९३० से १९३५ ई॰ तक की रचनाएँ संकलित की गयीं।जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xx. इस संग्रह के नाम तथा इसमें अन्तर्व्याप्त भावधारा के सम्बन्ध में डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा है " 'लहर' की पहली ही कविता में, जो रचना के नामकरण और प्रतीकार्थ का कारण भी है, सूखे तट पर 'करुणा की नव अंगड़ाई सी' और 'मलयानिल की परछाईं सी' छिटकने और छहरने की आकांक्षा है।" प्रसाद जी के काव्य-शिल्प के प्रति असंतोष व्यक्त करने के बावजूद 'लहर' के सम्बन्ध में सुमित्रानंदन पंत ने 'छायावाद : पुनर्मूल्यांकन' नामक पुस्तक में लिखा है "लहर के प्रगीतों में गाम्भीर्य, मार्मिक अनुभूति तथा बुद्ध की करुणा का भी प्रभाव है। प्रसाद जी का भावजगत 'झरना' की प्रेम-व्याकुलता तथा चंचल भावुकता से बाहर निकलकर इसमें उनकी व्यापक जीवनानुभूति को अधिक सबल संगठित अभिव्यक्ति दे सका है।"सुमित्रानंदन पंत ग्रंथावली, भाग-६, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ-८०. 'लहर' के अंत में ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित चार कविताएँ संकलित हैं जो कि प्रसाद के जीवन-दर्शन, देशप्रेम, सामयिक स्थिति, अन्तर्द्वन्द्व तथा नियतिबोध की कविताएँ हैं।प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-३९. सन् १९३६ ई॰ में 'कामायनी' का प्रकाशन हुआ। इसकी रचना में प्रसाद ने पूरे सात वर्ष लगाये थे।हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-१०, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; संस्करण-२०२८ वि॰ (=१९७१ई॰), पृ॰-१४६. इसकी पांडुलिपि तथा प्रथम संस्करण को मिलाकर पढ़ने पर यह ज्ञात होता है कि प्रसाद जी ने इसके पाठ में भी अनेक परिवर्तन करते हुए इसका स्वरूप निर्धारित किया था।जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-२, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-v. महाकाव्य के परम्परागत विधान में सचेत रूप से कुछ छोड़ते और बहुत-कुछ जोड़ते हुए पन्द्रह सर्गों में विभक्त यह महाकाव्य विभिन्न दृष्टियों से जयशंकर प्रसाद की रचनात्मकता का शिखर तो है ही, काफी हद तक छायावादी काव्य दृष्टि की भी रचनात्मक निष्पत्ति है। कहानी कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभयिता माने जाते हैं। सन्‌ १९१२ ई. में 'इन्दु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई। उनके पाँच कहानी-संग्रहों में कुल मिलाकर सत्तर कहानियाँ संकलित हैं। 'चित्राधार' से संकलित 'उर्वशी' और 'बभ्रुवाहन' को मिलाकर उनकी कुल कहानियों की संख्या ७२ बतला दी जाती है। यह 'उर्वशी' 'उर्वशी चम्पू' से भिन्न है, परन्तु ये दोनों रचनाएँ भी गद्य-पद्य मिश्रित भिन्न श्रेणी की रचनाएँ ही हैं। 'चित्राधार' में तो कथा-प्रबन्ध के रूप में पाँच और रचनाएँ भी संकलित हैं,प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-२००९, पृष्ठ-४१४-४२८. जिनको मिलाकर कहानियों की कुल संख्या ७७ हो जाएँगी; परंतु कुछ अंशों में कथा-तत्त्व से युक्त होने के बावजूद स्वयं जयशंकर प्रसाद की मान्यता के अनुसार ये रचनाएँ 'कहानी' विधा के अंतर्गत नहीं आती हैं। अतः उनकी कुल कहानियों की संख्या सत्तर है। कहानी के सम्बन्ध में प्रसाद जी की अवधारणा का स्पष्ट संकेत उनके प्रथम कहानी-संग्रह 'छाया' की भूमिका में मिल जाता है। 'छाया' नाम का स्पष्टीकरण देते हुए वे जो कुछ कहते हैं वह काफी हद तक 'कहानी' का परिभाषात्मक स्पष्टीकरण बन गया है। प्रसाद जी का मानना है कि छोटी-छोटी आख्यायिका में किसी घटना का पूर्ण चित्र नहीं खींचा जा सकता। परंतु, उसकी यह अपूर्णता कलात्मक रूप से उसकी सबलता ही बन जाती है क्योंकि वह मानव-हृदय को अर्थ के विभिन्न आयामों की ओर प्रेरित कर जाती है। प्रसाद जी के शब्दों में "...कल्पना के विस्तृत कानन में छोड़कर उसे घूमने का अवकाश देती है जिसमें पाठकों को विस्तृत आनन्द मिलता है।"प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-२००९, पृष्ठ-८. 'आनन्द' के साथ इस 'विस्तृत' विश्लेषण में निश्चय ही अर्थ की बहुआयामी छवि सन्निहित है; और इसीलिए छोटी कहानी भी केवल विनोद के लिए न होकर हृदय पर गम्भीर प्रभाव डालने वाली होती है। आज भी कहानी के सन्दर्भ में प्रसाद जी की इस अवधारणा की प्रासंगिकता अक्षुण्ण बनी हुई है, बल्कि बढ़ी ही है। कवि एवं नाटककार के रूप में आधुनिक हिन्दी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर अधिष्ठित होने के कारण प्रसाद जी की कहानियों पर लम्बे समय तक समीक्षकों ने उतना ध्यान नहीं दिया, जितना कि अपेक्षित था; जबकि विजयमोहन सिंह के शब्दों में : छायावादी और आदर्शवादी माने जाने वाले जयशंकर प्रसाद की पहली ही कहानी 'ग्राम' आश्चर्यजनक रूप से यथार्थवादी है। भले ही उनकी यह कहानी हिन्दी की पहली कहानी न हो, परन्तु इसे सामान्यतः हिन्दी की पहली 'आधुनिक कहानी' माना जाता है। इसमें ग्रामीण यथार्थ का वह पक्ष अभिव्यक्त हुआ है जिसकी उस युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इस कहानी में महाजनी सभ्यता के अमानवीय पक्ष का जिस वास्तविकता के साथ उद्घाटन हुआ है वह प्रसाद जी की सूक्ष्म और सटीक वस्तुवादी दृष्टि का परिचायक है। सामान्यतः प्रसाद जी को सामन्ती अभिरुचि का रचनाकार मानने की भूल भी की जाती रही है, जबकि एक ओर प्रसाद जी 'ममता' कहानी में "पतनोन्मुख सामन्त वंश का अन्त समीप" बतलाते हैंआकाशदीप संग्रह की कहानी 'ममता', प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-२००९, पृष्ठ-१२३. तो दूसरी ओर अपनी शिखर कृति 'कामायनी' में 'देव संस्कृति' के विनाश को उसकी आन्तरिक कमियों के कारण ही स्वाभाविक मानते हैं। 'देव संस्कृति' और 'स्वर्ग की परिकल्पना' को प्रसाद जी अपनी कहानी 'स्वर्ग के खण्डहर में' भी ध्वस्त कर डालते हैं। इस कहानी में दुर्दान्त शेख से बिना डरे लज्जा कहती है "स्वर्ग ! इस पृथ्वी को स्वर्ग की आवश्यकता क्या है, शेख ? ना, ना, इस पृथ्वी को स्वर्ग के ठेकेदारों से बचाना होगा। पृथ्वी का गौरव स्वर्ग बन जाने से नष्ट हो जायगा। इसकी स्वाभाविकता साधारण स्थिति में ही रह सकती है। पृथ्वी को केवल वसुंधरा होकर मानव जाति के लिए जीने दो, अपनी आकांक्षा के कल्पित स्वर्ग के लिए, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इस महती को, इस धरणी को नरक न बनाओ, जिसमें देवता बनने के प्रलोभन में पड़कर मनुष्य राक्षस न बन जाय, शेख।"आकाशदीप संग्रह की कहानी 'स्वर्ग के खण्डहर में', प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, पूर्ववत्, पृष्ठ-१३५. यदि इस कहानी के ध्वन्यर्थ को इसके बाद हुए द्वितीय विश्वयुद्ध की परिणति से भी जोड़ कर देखेंविजयमोहन सिंह, समय और साहित्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-२०१२, पृष्ठ-१३. तो प्रसाद जी की सर्जनात्मक दृष्टि की महत्ता और भी सहजता से समझ में आ सकती है। वस्तुतः प्रसाद जी ने हिन्दी कहानी को अपने विशिष्ट योगदान के रूप में प्रेम की तीव्रता और प्रतीति के साथ कहानीपन को बनाए रखते हुए आन्तरिकता और अन्तर्मुखता के आयाम ही नहीं दिये बल्कि वास्तविकता के दोहरे स्वरूपों और जटिलताओं को पकड़ने, दरसाने और प्रस्तुत करने के लिए हिन्दी कहानी को सक्षम भी बनाया। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के शब्दों में : उपन्यास प्रसाद जी ने तीन उपन्यास लिखे हैं : कंकाल, तितली और इरावती (अपूर्ण)। 'कंकाल' के प्रकाशित होने पर प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों से नाराज रहने वाले प्रेमचन्द ने अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त की थी तथा इसकी समीक्षा करते हुए 'हंस' के नवंबर १९३० के अंक में लिखा था : 'कंकाल' में धर्मपीठों में धर्म के नाम पर होने वाले अनाचारों को अंकित किया गया है। उपन्यास में प्रसाद जी ने अपने को काशी तक ही सीमित न रखकर प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन, हरिद्वार आदि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों को भी कथा के केंद्र में समेट लिया है। इतना ही नहीं उन्होंने हिन्दू धर्म के अतिरिक्त मुस्लिम और ईसाई समाज में भी इस धार्मिक व्यभिचार की व्याप्ति को अंकित किया है। मधुरेश की मान्यता है : 'तितली' में ग्रामीण जीवन के सुधार के संकेत हैं। इसके प्रकाशित होने पर प्रेमचन्द ने 'हंस' के जुलाई १९३५ अंक में लिखा था : आरम्भिक समीक्षकों ने 'कंकाल' को यथार्थवादी और तितली को आदर्शोन्मुख यथार्थवादी रचना माना। परन्तु, बाद में प्रगतिशील दृष्टि-सम्पन्न आलोचकों ने 'तितली' की वास्तविक महत्ता को पहचाना और एक यथार्थवादी रचना के रूप में उसे पर्याप्त महत्त्व मिला। इसकी प्रासंगिकता बढ़ी ही। 'तितली' में जमींदारी प्रथा होने न होने के सन्दर्भ में किसान की समस्या तथा पूँजीवादी भूमि-सुधार को लेकर लेखकीय दृष्टि के बारे में डॉ॰ रामविलास शर्मा का कहना है कि ऐसा लगता है, प्रसाद जी ने ये बातें बीस साल पहले न लिखकर आज लिखी हों। इसलिए डॉ॰ शर्मा की स्पष्ट मान्यता है : 'इरावती' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया प्रसाद जी का अपूर्ण उपन्यास है। जिस ऐतिहासिक पद्धति पर प्रसाद जी ने नाटकों की रचना की थी उसी पद्धति पर उपन्यास के रूप में 'इरावती' की रचना का आरम्भ किया गया था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में "इसी पद्धति पर उपन्यास लिखने का अनुरोध हमने उनसे कई बार किया था जिसके अनुसार शुंगकाल (पुष्यमित्र, अग्निमित्र का समय) का चित्र उपस्थित करने वाला एक बड़ा मनोहर उपन्यास लिखने में उन्होंने हाथ भी लगाया था, पर साहित्य के दुर्भाग्य से उसे अधूरा छोड़कर ही चल बसे।"हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण- विक्रमसंवत् २०५८ (२००१ ई॰) पृष्ठ-२९४. मधुरेश के अनुसार : नाटक जयशंकर प्रसाद ने 'उर्वशी' एवं 'बभ्रुवाहन' चम्पू तथा अपूर्ण 'अग्निमित्र' को छोड़कर आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल तेरह नाटकों की सर्जना की। 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गयी है। उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित है। 'बभ्रुवाहन' चम्पू को 'जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली ' में पूर्व में असंकलित रचना के रूप में संकलित किया गया हैजयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xxxii.जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-३, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-vii एवं ५५-७२. परन्तु यह रचना पहले भी 'प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध' संग्रह में 'चित्राधार' से संकलित 'विविध' रचना के रूप में संकलित हो चुकी है।प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-२००९, पृष्ठ-४००-४१३. जयशंकर प्रसाद ने जिस समय नाटकों की रचना आरंभ की उस समय भारतेन्दु द्वारा विकसित हिन्दी रंगमंच की स्वतंत्र चेतना क्रमशः क्षीण हो चुकी थी।प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-viii. हालाँकि पारसी थिएटर का भी एक समय ऐतिहासिक योगदान रहा था; स्वयं प्रसाद जी ने स्वीकार किया है कि "पारसी व्यवसायियों ने पहले-पहल नये रंगमंच की आयोजना की", परंतु विडंबना यह थी कि पारसी थियेटर का विकास लोकरुचि को उन्नत बनाते हुए सामाजिक समस्याओं को कलात्मक रूप से सामने लाने तथा उसके समाधान की ओर प्रेरित करने की अपेक्षा एक प्रकार की विकृत रुचि और भोंड़ेपन का प्रचार करने की ओर होते चला गया।प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-ix. इसके विपरीत प्रसाद जी के पूर्व से ही वैचारिक क्षेत्र की स्थिति यह थी कि साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और अध्यात्म में विवेकानन्द का एक स्वर से आर्य साम्राज्य की एकता और आर्य संस्कृति को नष्ट होने से बचाने का, उसके विभिन्न गणों, समाजों और जातीयताओं को एक सूत्र में पिरोने का विवेकवादी और आनन्दवादी दोनों रूपों में प्रयत्न चल रहा था।प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-vii. ऐसे में प्रसाद जी ने अपने साहित्य -- जिसमें नाटक प्रमुखता से शामिल थे -- की रचना हेतु गहन चिन्तन-मनन को एक आवश्यक उपादान के रूप में अपनाया, जिसके स्पष्ट प्रमाण 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' में पर्याप्त रूप से मिलते हैं। जयशंकर प्रसाद की इस गहरी चिंतनशीलता ने हिन्दी नाटकों को पहली बार बौद्धिक अर्थवत्ता प्रदान की। उनके नाटकों की भूमिकाएँ उनकी अनुसन्धानपरक तथ्यान्वेषी दृष्टि का स्पष्ट संकेत देती हैं।प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-xii. डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के शब्दों में : प्रसाद जी ने नाट्य लेखन के आरंभ से ही पौराणिक एवं ऐतिहासिक दोनों परिप्रेक्ष्य को वैचारिक उपादान के रूप में सामने रखा है। एक ओर जहाँ महाभारत के प्रसंगों पर आधारित 'सज्जन' में युधिष्ठिर की धर्मनिष्ठा और सज्जनता को एक मूल्य के रूप में प्रस्तुत करना उनका लक्ष्य रहा है, वहीं दूसरी ओर प्रसिद्ध ऐतिहासिक पात्र जयचन्द पर केंद्रित 'प्रायश्चित्त' में राष्ट्रप्रेम को मूल्य मानकर देशद्रोह का प्रायश्चित आत्मवध माना गया है;प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, पूर्ववत्, पृष्ठ-xiii. तथा 'चन्द्रगुप्त' नाटक के आरंभिक रूप 'कल्याणी परिणय' में पहले ही दृश्य में चाणक्य के स्वर में 'अन्धकार हट रहा जगत जागृत हुआ''कल्याणी परिणय' (एकांकी), प्रथम दृश्य, प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, पूर्ववत्, पृष्ठ-६९. के द्वारा प्रकृति और जागरण दोनों का संकेत किया गया है। स्वाभाविक है कि आरंभिक रचनात्मक प्रयत्न के रूप में इनमें पर्याप्त अनगढ़ता है, परंतु प्रसाद की दृष्टि एवं दिशा के संकेत स्पष्ट मिल जाते हैं। बाद में उन्होंने पौराणिक की अपेक्षा ऐतिहासिक कथानक को अधिक अपनाया तथा 'राज्यश्री' से लेकर 'ध्रुवस्वामिनी' तक में मौर्यकाल से लेकर हर्ष के समय तक से भारत के गौरवमय अतीत के प्रेरक चरित्रों को सामने लाते हुए अविस्मरणीय नाटकों की रचना की। उनके नाटक स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त आदि में स्वर्णिम अतीत को सामने रखकर मानों एक सोये हुए देश को जागने की प्रेरणा दी जा रही थी। वैचारिक रूप से प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटक के पात्रों को लेकर एक समय प्रेमचन्दप्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य, खण्ड-१, संपादक- कमलकिशोर गोयनका, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-१९८८, पृष्ठ-४५०.प्रेमचंद रचनावली, खण्ड-9, भूमिका एवं मार्गदर्शन- डॉ॰ रामविलास शर्मा, संपादक- राम आनंद, जनवाणी प्रकाशन, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, पृष्ठ-338. एवं पं॰ लक्ष्मीनारायण मिश्रडॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰, पृष्ठ-६. जैसे लेखकों ने भी अपनी निजी मान्यता एवं आरंभिक उत्साह के कारण 'गड़े मुर्दे उखाड़ने' अर्थात् सामन्ती संस्कारों को पुनरुज्जीवित करने के आरोप लगाये थे, जबकि 'स्कन्दगुप्त' में देवसेना बड़े सरल शब्दों में गा रही थी : "देश की दुर्दशा निहारोगे डूबते को कभी उबारोगे हारते ही रहे न है कुछ अब दाँव पर आपको न हारोगे कुछ करोगे कि बस सदा रोकर दीन हो दैव को पुकारोगे सो रहे तुम, न भाग्य सोता है आप बिगड़ी तुम्हीं सँवारोगे दीन जीवन बिता रहे अब तक क्या हुए जा रहे, विचारोगे ?"'स्कन्दगुप्त' (नाटक), पंचम अंक, तृतीय दृश्य, प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, पूर्ववत्, पृष्ठ-५५२. और पर्णदत्त भीख भी माँगता है तो भीख में जन्मभूमि के लिए प्राण उत्सर्ग कर सकने वाले वीरों को माँगता है। इसलिए डॉ॰ रामविलास शर्मा स्पष्ट शब्दों में कहते हैं : स्पष्ट है कि प्रसाद जी अपने युग-जीवन के यथार्थ को मार्मिक रूप से अभिव्यक्त करते हुए एक तरह से आँख में उँगली डालकर जनता को जगा रहे थे। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र ने बहुत ठीक लिखा है कि : प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों पर लगाये जा रहे आरोपों में निहित संकीर्णता एवं अदूरदर्शिता को उस समय भी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे मूर्धन्य मनीषी तथा दूरदृष्टि-सम्पन्न आलोचक भली-भाँति समझ रहे थे तथा इस पद्धति के नाटकों की मौलिक सर्जनात्मकता की व्यापकता एवं गहराई को पहचानते हुए एक विशिष्ट साहित्यरूप के रूप में न केवल इसकी महत्ता को रेखांकित कर रहे थे बल्कि विरोधियों की मानसिकता एवं समझ पर पुरजोर शब्दों में तार्किक रूप से प्रश्नचिह्न भी लगा रहे थे।हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण- विक्रमसंवत् २०५८ (२००१ ई॰) पृष्ठ-२९१-२९२. वस्तुतः राष्ट्रीय भावबोध की अभिव्यक्ति प्रसाद के नाट्य विधान का मूलाधार कहा जा सकता है। इतिहास के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को उद्दीप्त करने का सजग प्रयास उनके अधिकतर नाटकों में द्रष्टव्य है। प्रसाद का विश्लेषण था कि आधुनिक काल में सामाजिक समरसता और राष्ट्रीयता के आड़े तीन बाधाएँ आती हैं-- सांप्रदायिकता की भावना, प्रादेशिकता के तनाव तथा पुरुष-नारी के बीच असमानता की स्थिति। अपने प्रधान नाटकों 'अजातशत्रु', 'स्कन्दगुप्त', 'चन्द्रगुप्त' तथा 'ध्रुवस्वामिनी' में उन्होंने इन्हीं का समाधान देने का यत्न किया है। डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, छठा संस्करण-१९९६, पृष्ठ-१८०. रंगमंचीय अध्ययन प्रसाद जी के नाटकों पर अभिनेय न होने का आरोप भी लगता रहा है। आक्षेप किया जाता रहा है कि वे रंगमंच के हिसाब से नहीं लिखे गये हैं, जिसका कारण यह बताया जाता है कि इनमें काव्यतत्त्व की प्रधानता, स्वगत कथनों का विस्तार, गायन का बीच-बीच में प्रयोग तथा दृश्यों का त्रुटिपूर्ण संयोजन है। किंतु उनके अनेक नाटक सफलतापूर्वक अभिनीत हो चुके हैं। उनके नाटकों में प्राचीन वस्तुविन्यास और रसवादी भारतीय परंपरा तो है ही, साथ ही पारसी नाटक कंपनियों, बँगला तथा भारतेंदुयुगीन नाटकों एवं शेक्सपियर की नाटकीय शिल्पविधि के योग से उन्होंने नवीन मार्ग ग्रहण किया है। उनके नाटकों के आरंभ और अंत में उनका अपना मौलिक शिल्प है जो अत्यंत कलात्मक है।सुधाकर पांडेय, हिंदी विश्वकोश, खंड-७, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-१९६६ ई॰, पृष्ठ-४९०-४९१. इसके बावजूद बाबू श्यामसुंदर दास से लेकर बच्चन सिंह तक हिंदी आलोचना की तीन पीढ़ियाँ एक प्रवाद के रूप में मानती रही है कि प्रसाद के नाटक अभिनेय नहीं हैं। परंतु नयी पीढ़ी के वैसे आलोचक जो सीधे रंगमंच से जुड़े रहे हैं, बिल्कुल भिन्न विचार प्रकट करते हैं। शांता गांधी ने 'नटरंग' त्रैमासिक में लिखा था : "प्रसाद के नाटकों की सभी समस्याओं को सुलझाकर उन्हें अत्यंत सफलतापूर्वक रंगमंच पर प्रस्तुत किया जा सकता है और उनका अवश्य ही प्रदर्शन होना चाहिए।" डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, छठा संस्करण-१९९६, पृष्ठ-१७८. इस दिशा में आगे बढ़ते हुए अनेक निर्देशकों ने प्रसाद के मुख्य नाटकों को रंगमंच पर प्रदर्शित किया तथा अनेक आलोचकों ने उनके अलग-अलग नाटकों का रंगमंचीय विमर्श भी प्रस्तुत किया है। श्री वीरेन्द्र नारायण द्वारा प्रस्तुत स्कन्दगुप्त का रंगमंचीय अध्ययन 'हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास' भाग-११ में साठ पृष्ठों में विन्यस्त है।वीरेन्द्र नारायण, हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास भाग-११, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-१९७२ ई॰, पृष्ठ-१८३-२४३. इस दिशा में एक समेकित प्रयत्न की तरह 'नाटककार जयशंकर प्रसाद' नामक संपादित पुस्तक में सत्येन्द्र कुमार तनेजा ने प्राचीन से लेकर विभिन्न नवीन लेखकों तक के विचार उपयुक्त रंगमंचीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किये हैं, जिसका एक प्रमुख अंश नाट्य निर्देशकों द्वारा प्रस्तुत विचार तथा रंग-समीक्षकों द्वारा प्रस्तुत समीक्षाएँ हैं।नाटककार जयशंकर प्रसाद, संपादक- सत्येन्द्र कुमार तनेजा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2004, पृष्ठ-68-100. इस दिशा में लम्बी सर्जनात्मक साधना के उपरान्त महेश आनंद ने 'जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि' एवं 'जयशंकर प्रसाद : रंगसृष्टि' नामक दो खंडों की पुस्तक में प्रसाद के सभी नाटकों के विविध रंगमंचीय आयामों को उपस्थापित किया है। इसके प्रथम खंड में प्रसाद के रंग-विचारों और सभी नाटकों के विस्तृत विश्लेषण द्वारा उनकी रंगदृष्टि को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है,महेश आनंद, जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नयी दिल्ली, वितरक- राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण-2010, पृष्ठ-19. जबकि उनके नाटकों और अन्य रचनाओं की प्रस्तुतियों के विभिन्न पक्षों का विवेचन, निर्देशकों के वक्तव्य, प्रमुख रंगकर्मियों से साक्षात्कार, पत्राचार तथा अन्य विवरणों का 'रंगसृष्टि' नामक पुस्तक के दूसरे भाग में विस्तृत विवेचन किया गया है। प्रकाशित कृतियाँ काव्य प्रेम-पथिक - १९०९ ई॰ (प्रथम संस्करण ब्रजभाषा में; संशोधित-परिवर्धित संस्करण खड़ी बोली में - १९१४) करुणालय (काव्य–नाटक) - १९१३ ई॰ ('चित्राधार' के प्रथम संस्करण में 'करुणालय' संकलित थी, परंतु १९२८ में इन दोनों का स्वतंत्र प्रकाशन हुआ।) महाराणा का महत्त्व - १९१४ ई॰ (यह भी 'चित्राधार' के प्रथम संस्करण में करुणालय के साथ ही संकलित थी, परंतु १९२८ में इसका भी स्वतंत्र प्रकाशन हुआ।) चित्राधार - १९१८ ई॰ (संशोधित-परिमार्जित संस्करण - १९२८ ई॰) कानन कुसुम - १९१३ ई॰ (ब्रजभाषा मिश्रित प्रथम संस्करण-१९१३ ई॰; परिवर्धित संस्करण-१९१८ ई॰; संशोधित-परिमार्जित, खड़ीबोली संस्करण-१९२९ ई॰) झरना - १९१८ ई॰ (परिवर्धित संस्करण-१९२७ ई॰) आँसू - १९२५ ई॰ (परिवर्धित संस्करण-१९३३ ई॰) लहर- १९३५ ई॰ कामायनी - १९३६ ई॰ संशोधन एवं परिवर्धन के पश्चात जयशंकर प्रसाद के काव्य–संग्रहों का कालानुक्रम संशोधित वर्ष कृति प्रथम संस्करण वर्ष १९१४ प्रेमपथिक १९०९ १९२७ झरना १९१८ १९२८ करुणालय १९१३ १९२८ महाराणा का महत्त्व १९१४ १९२८ चित्राधार १९१८ १९२९ कानन कुसुम १९१३ पुनः १९१८ १९३३ आँसू १९२५ १९३५ लहर १९३६ कामायनी कहानी-संग्रह एवं उपन्यास छाया - १९१२ ई॰ प्रतिध्वनि - १९२६ ई॰ आकाशदीप - १९२९ ई॰ आँधी - १९३१ ई॰ इन्द्रजाल - १९३६ ई॰ उपन्यास- कंकाल - १९२९ ई॰ तितली - १९३४ ई॰ इरावती - १९३८ ई॰ नाटक-एकांकी एवं निबन्ध उर्वशी (चम्पू) - १९०९ ई॰ सज्जन - १९१० ई॰ कल्याणी परिणय - १९१२ ई॰ (नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित; १९३१ ई॰ में कुछ संशोधनों के साथ 'चन्द्रगुप्त' नाटक में समायोजित।) प्रायश्चित्त - १९१४ ई॰ राज्यश्री - १९१५ ई॰ विशाख - १९२१ ई॰ अजातशत्रु - १९२२ ई॰ जनमेजय का नाग-यज्ञ - १९२६ ई॰ कामना - १९२७ ई॰ स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य - १९२८ ई॰ एक घूँट - १९३० ई॰ चन्द्रगुप्त - १९३१ ई॰ ध्रुवस्वामिनी - १९३३ ई॰ अग्निमित्र (अपूर्ण) निबन्ध- काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध - १९३९ (भारती भण्डार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित।इसका मद्रण भी लीडर प्रेस, इलाहाबाद में ही हुआ था। इसका विस्तृत 'प्राक्कथन' नन्ददुलारे वाजपेयी ने लिखा था। उस समय वे गीताप्रेस, गोरखपुर में कार्यरत थे। अतः दायीं ओर उनका नाम तथा बायीं ओर 'गीताप्रेस, गोरखपुर' एवं उसके नीचे 'प्राक्कथन' लिखने की तारीख ११-३-'३९ लिखा हुआ है। [द्रष्टव्य- काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध, भारती भण्डार, लीडरप्रेस, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण- संवत् १९९६ (=१९३९ ई॰), पृष्ठ-ii (प्रकाशन-विवरण) एवं पृष्ठ-२५.] संभवतः इस कारण 'जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली' के संपादक डॉ॰ ओमप्रकाश सिंह ने भूलवश लिख दिया है कि इस पुस्तक का प्रथम संस्करण गीताप्रेस, गोरखपुर से छपा था। [द्रष्टव्य- जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, खण्ड-७, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, संस्करण-२०१४, पृष्ठ-vii.) रचना-समग्र जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली (चार खण्डों में) [संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र; लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज से प्रकाशित। चारों खण्ड अलग-अलग प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, प्रसाद के सम्पूर्ण उपन्यास तथा प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध के नाम से भी सजिल्द एवं पेपरबैक में उपलब्ध।] जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली (सात खण्डों में) - २०१४ ई॰ (सं॰ ओमप्रकाश सिंह; प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली से प्रकाशित। इसके द्वितीय खण्ड में समुचित शोध से प्राप्त, दो अधूरी कविताएँ सहित पूर्व में असंकलित कुल पैंतीस कविताओं को पहली बार संकलित किया गया है।जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-२, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-vi एवं २८३-३५२. सभी खण्डों में संकलित रचनाओं के प्रथम प्रकाशन का विवरण दिया गया है। सप्तम खण्ड में 'आँसू' का प्रथम संस्करण भी संकलित किया गया है। इसके अतिरिक्त ५ व्यक्तियों के नाम लिखे गये ४६ पत्र, कई चित्र एवं हस्तलेख तथा कुछ अन्य सामग्री भी दी गयी हैं।) सम्मान मंगलाप्रसाद पारितोषिक 'कामायनी' के लिए इन्हें भी देखें छायावाद चित्राधार कानन कुसुम आँसू (काव्य) लहर (काव्य) कामायनी सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ जयशंकर प्रसाद (कविता कोश) जयशंकर प्रसाद (अनुभूति) जयशंकर प्रसाद (अभिव्यक्ति में) प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी (गूगल पुस्तक) स्कन्दगुप्त (गूगल पुस्तक ; लेखक - जयशंकर प्रसाद) प्रसाद-काव्य में बिम्ब-योजना (गूगल पुस्तक; लेखक - रामकृष्ण अग्रवाल) वासुदेव शरण अग्रवाल - जीवन परिचय, शैली एवं रचनाएं जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता Jaishankar Prasad Ka Jivan Parichay (जयशंकर प्रसाद के बारे में) जयशंकर प्रसाद : एक परिचय ('महाकवि प्रसाद फाउंडेशन' द्वारा प्रस्तुत वीडियो) श्रेणी:जयशंकर प्रसाद श्रेणी:हिन्दी नाटककार श्रेणी:हिन्दी कथाकार श्रेणी:छायावादी कवि श्रेणी:वाराणसी के लोग श्रेणी:1890 में जन्मे लोग श्रेणी:१९३७ में निधन
अकल दाढ़
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right|thumb|300px|अक्ल दाढ़ right|thumb|300px|अक्ल दाढ़ thumb|right|300px|अक्ल दाढ़ right|thumb|300px|अक्ल दाढ़ की कुछ समस्याएँ अक़्ल दाढ़ या ज्ञान चौ दाँतों के नाम हैं जो आखिर में निकलते हैं। अधिकतर लोगों को चार अकल दाढ होते हैं - मुँह के हर कोने में एक - ये ज्यादातर जवानी में निकलते हैं। यह संभव है कि अकल दाढ जबड़ों की हड्डी में अटक जाएं, या फिर निकलें ही नहीं। ऐसा होने पर बाकी दाँत ठसने या खिसकने लग सकते हैं, या नजदीकी दाँतों में सड़न या संक्रमण हो सकता है या मसूड़ों में बीमारी फैल सकती है। जबड़ों में अकल दाढ के अटकने का कारण यह हो सकता है कि वे किसी असाधारण अवस्था में हों, जैसे कि सपाट, जिसकी वजह से वो सामान्य रूप से बाहर नहीं निकल सकते। अधिकतर लोगों को अटके हुए अकल दाढ को निकलवाने की सलाह दी जाती है। दाँत की अवस्था के अनुसार, तीसरे दाढ (अकल दाढ) को आपके दाँत के डॉक्टर के दफ्तर में, किसी बाहरी रोगी क्लिनिक में या अस्पताल में भर्ती करके निकाला जा सकता है। सामान्यतया एक व्यस्क की अकल दाढ निकलने के बाद उसके दाँतों की संख्या ३२ हो जाती है |और इसके निकलने में मीठा दर्द भी होता है जो आपको कोई काम करने नहीं देगा । और इसके दर्द से बचने के लिए मुंह में लौंग का सेवन करे या नहीं तो आप लौंग का तेल भी प्रायोग कर सकते है/ इसके और भी उपाय है यदि आप लहसुन का प्रयोग करके सही कर सकते है तो लहसुन को दाँत के साथ दबा दे।। श्रेणी:दाँत
प्राथमिक उपचार
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REDIRECT प्राथमिक चिकित्सा
ग्नूविन
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ग्नूविन विण्डोज़ के लिये मुक्त तन्त्रांश का संकलन है। यह लिनक्स उपयोगकर्ताओं द्वारा (लिनक्स यूजर ग्रूप) द्वारा निर्मित किया गया। सामान्य बोलचाल में इसे ग्नु अथवा जीएनयू कहा जाता है। बाहरी कड़ियाँ ग्नूविन का मुखपृष्ठ श्रेणी:लिनक्स
तख्ती
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का अर्थ है तख्ती या स्लेट पर छोटे बच्चे खड़िया या चॉक से लिखने का अभ्यास करते हैं। लिखावट सुंदर हो इसलिये प्राचीन समय में तख्ती, क़लम और काली स्याही की दवात का प्रयोग अनिवार्यता था। तख्ती तंत्राश की मदद से आप विण्डोज़ मशीनों पर हिन्दी (देवनागरी यूनीकोड) में लिख सकते हैं। का अर्थ है कागज़ का पुट्ठा या सूचना पट्ट।
हरियाणा
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हरियाणा उत्तर भारत का एक राज्य है जिसकी राजधानी चण्डीगढ़ है। इसकी सीमायें उत्तर में पंजाब और हिमाचल प्रदेश, दक्षिण एवं पश्चिम में राजस्थान से जुड़ी हुई हैं। यमुना नदी इसके उत्तर प्रदेश राज्य के साथ पूर्वी सीमा को परिभाषित करती है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली हरियाणा से तीन ओर से घिरी हुई है और फलस्वरूप हरियाणा का दक्षिणी क्षेत्र नियोजित विकास के उद्देश्य से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में शामिल है। यह राज्य वैदिक सभ्यता और सिंधु घाटी सभ्यता का मुख्य निवास स्थान है। इस क्षेत्र में विभिन्न निर्णायक लड़ाइयाँ भी हुई हैं जिसमें भारत का अधिकतर इतिहास समाहित है। इसमें महाभारत का महाकाव्य युद्ध भी शामिल है। हिन्दू मतों के अनुसार महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ (इसमें भगवान कृष्ण ने भागवत गीता का वादन किया)। इसके अलावा यहाँ तीन पानीपत की लड़ाइयाँ हुई। ब्रितानी भारत में हरियाणा पंजाब राज्य का अंग था जिसे 1966 में भारत के 17वें राज्य के रूप में पहचान मिली। वर्तमान में खाद्यान और दुग्ध उत्पादन में हरियाणा देश में प्रमुख राज्य है। इस राज्य के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि है। समतल कृषि भूमि निमज्जक कुओं (समर्सिबल पंप) और नहर से सिंचित की जाती है। 1960 के दशक की हरित क्रान्ति में हरियाणा का भारी योगदान रहा जिससे देश खाद्यान सम्पन्न हुआ। हरियाणा, भारत के अमीर राज्यों में से एक है और प्रति व्यक्ति आय के आधार पर यह देश का दूसरा सबसे धनी राज्य है। वर्ष २०१२-१३ में देश में इसकी प्रति-व्यक्ति १,१९,१५८ (अर्थव्यवस्था के आकार के आधार पर भारत के राज्य देखें) और वर्ष २०१३-१४ में १,३२,०८९ रही। इसके अतिरिक्त भारत में सबसे अधिक ग्रामीण करोड़पति भी इसी राज्य में हैं। हरियाणा आर्थिक रूप से दक्षिण एशिया का सबसे विकसित क्षेत्र है और यहाँ कृषि एवं विनिर्माण उद्योग ने १९७० के दशक से निरंतर वृद्धि प्राप्त की है। भारत में हरियाणा यात्रि कारों, द्विचक्र वाहनों और ट्रैक्टरों के निर्माण में सर्वोपरी राज्य है। भारत में प्रति व्यक्ति निवेश के आधार पर वर्ष २००० से राज्य सर्वोपरी स्थान पर रहा है। भूगोल अंगूठाकार|ढोसी की पहाड़ी। अरावली पर्वतमाला का विस्तार राज्य के दक्षिणी हिस्से में है। हरियाणा उत्तर भारत में स्थित एक स्थलरुद्ध राज्य है। इसका विस्तार २७°३९' उत्तर से ३०°५५' उत्तर तक के अक्षांशों तक, और ७४°२८' पूर्व से ७७°३६' पूर्व तक के देशान्तरों तक है। राज्य की सीमायें उत्तर में पंजाब और हिमाचल प्रदेश, तथा दक्षिण एवं पश्चिम में राजस्थान से जुड़ी हुई हैं। उत्तर प्रदेश राज्य के साथ इसकी पूर्वी सीमा को यमुना नदी परिभाषित करती है। हरियाणा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को भी तीन ओर से घेरता है। राज्य का क्षेत्रफल ४४,२१२ वर्ग किलोमीटर है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का १.४ प्रतिशत है, और इस प्रकार क्षेत्रफल के आधार पर यह भारत का बीस वाँ सबसे बड़ा राज्य है। समुद्र तल से हरियाणा की ऊँचाई ७०० से ३६०० फीट (२०० मीटर से १२०० मीटर) तक है। भूतत्व भौगोलिक तौर पर हरियाणा को चार भागों में बांटा जा सकता है: राज्य के उत्तरी हिस्से में स्थित यमुना-घग्गर के मैदान, सुदूर उत्तर में शिवालिक पहाड़ियों की एक पट्टी, दक्षिण-पश्चिम में बांगर क्षेत्र तथा दक्षिणी हिस्से में अरावली पर्वतमालाओं के अंतिमांश, जिनका क्षैतिज विस्तार राजस्थान से दिल्ली तक है। राज्य की मिट्टी आमतौर पर गहरी और उपजाऊ है। हालांकि, पूर्वोत्तर के पहाड़ी और दक्षिण-पश्चिम के रेतीले इलाके इसके अपवाद हैं। राज्य की अधिकांश भूमि कृषि योग्य है, लेकिन यहाँ अत्यधिक सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। यमुना राज्य की एकमात्र चिरस्थायी नदी है, जो इसकी पूर्वी सीमा पर बहती है। उत्तरी हरियाणा में उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम की ओर बहने वाली कई बरसाती नदियां हैं, जो हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों से निकलती हैं। इनमें घग्गर-हकरा, चौटांग, टागंरी, कौशल्या, मारकंडा, सरस्वती और सोम इत्यादि प्रमुख हैं। इसी तरह दक्षिणी हरियाणा में भी अरावली पहाड़ियों से निकलने वाली कई नदियां दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पश्चिम की ओर बहती हैं। इन नदियों में साहिबी, दोहान, कृष्णावती और इंदौरी शामिल हैं। माना जाता है कि ये सभी किसी समय सरस्वती नदी की सहायक नदियां थीं। इन नदियों पर राज्य भर में कई बाँध बने हैं, जिनमें यमुना नदी पर बने हथिनीकुंड तथा ताजेवाला बैराज, पंचकुला ज़िले में स्थित कौशल्या बाँध, यमुनानगर ज़िले में स्थित पथराला बैराज तथा सिरसा ज़िले में स्थित ओटू बैराज मुख्य हैं। हरियाणा की प्रमुख झीलों में गुरुग्राम का बसई वेटलैंड और सुल्तानपुर झील, फरीदाबाद की बड़खल झील और प्राचीन सूरजकुण्ड, कुरुक्षेत्र के सन्निहित और ब्रह्म सरोवर, हिसार की ब्लू बर्ड झील, सोहना की दमदामा झील, यमुनानगर जिले का हथनी कुंड, करनाल की कर्ण झील, और रोहतक की तिल्यार झील, झज्जर जिले का भिंडावास वेटलैंड, इत्यादि प्रमुख हैं। सिंचाई के लिए जल की व्यवस्था हेतु राज्य भर में नहरों का जाल बिछा है, जिनमें पश्चिमी यमुना नहर, इंदिरा गांधी नहर और प्रस्तावित सतलज यमुना लिंक नहर मुख्य हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आने वाले लगभग १४,००० जोहड़ों और ६० झीलों का प्रबंधन हरियाणा राज्य वाटरबॉडी प्रबंधन बोर्ड हरियाणा के जिम्मे है। राज्य का एकमात्र गरम चश्मा सोहना में स्थित है। वन्य जीवन राज्य में वन कवर ३.५९% (१,५८६ वर्ग किमी) था, और राज्य में वृक्षारोपण २.९०% (१,२८२ वर्ग किमी) था, जिसमें कुल वन और वृक्ष ६.४९% का कवर था। २०१६-१७ में, १४.१ मिलियन पौधे लगाकर १८,४१२ हेक्टेयर क्षेत्र को वन क्षेत्र के अंतर्गत लाया गया था। पूरे राज्य में कांटेदार, शुष्क, पर्णपाती वन और कांटेदार झाड़ियों को पाया जा सकता है। मानसून के दौरान, घास का एक कालीन पहाड़ियों को ढक लेता है। शहतूत, नीलगिरी, पाइन, किकर, शिशम और बबूल यहां पाए जाने वाले कुछ पेड़ हैं। हरियाणा राज्य में पाए जाने वाले जीवों की प्रजातियों में काला हिरण, नीलगाय, पैंथर, लोमड़ी, नेवला, सियार और जंगली कुत्ता शामिल हैं। यहां पक्षियों की ४५० से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। जलवायु हरियाणा की जलवायु साल भर में गांगेय मैदानों के समान रहती है, यहाँ का मौसम गर्मियों में बहुत गर्म, जबकि सर्दियों में मध्यम ठंडा रहता है। सबसे गर्म महीने मई और जून होते हैं, जब तापमान ४५ डिग्री सेल्सियस (११३ डिग्री फारेनहाइट) तक चला जाता है,नारनौल व हिसार गर्मी में सबसे गर्म तथा सर्दी में सबसे ठंडे शहर और सबसे ठंडे महीने दिसंबर और जनवरी रहते है। कोप्पेन वर्गीकरण के अनुसार राज्य में तीन मौसम क्षेत्र पाए जाते हैं: राज्य के पश्चिमी तथा मध्य हिस्सों की जलवायु अर्द्ध शुष्क है, उत्तरी तथा पूर्वी क्षेत्रों की गर्म भूमध्यसागरीय, जबकि दक्षिणी क्षेत्रों की जलवायु मरुस्थलीय है। करनाल, कुरुक्षेत्र और अंबाला जिलों के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरे राज्य में वर्षा कम और अनियमित है। वर्ष भर में अधिकतम वर्षा २१६ सेमी, जबकि न्यूनतम वर्षा २५ से ३८ सेमी तक रिकॉर्ड की जाती है। जुलाई से सितंबर के महीनों के दौरान लगभग ८० प्रतिशत बारिश होती है, और शेष वर्षा दिसंबर से फरवरी की अवधि के दौरान प्राप्त होती है। जनसांख्यिकी 2011 की जनगणना के अनुसार, हरियाणा की कुल आबादी लगभग २५,३५०,००० है। धर्म ८७.४६% आबादी के साथ हिंदू राज्य में बहुसंख्यक हैं। प्रमुख अल्पसंख्यकों में मुसलमान (७.०३%) (मुख्य रूप से मियो) और सिख (४.९१%) हैं। मुस्लिम मुख्य रूप से नूंह जिले में पाए जाते हैं। हरियाणा में पंजाब के बाद भारत की दूसरी सबसे बड़ी सिख आबादी है, और वे ज्यादातर पंजाब के आस-पास के जिलों, जैसे हिसार, सिरसा, जींद, फतेहाबाद, कैथल, करनाल, कुरुक्षेत्र, अंबाला, नारनौल और पंचकुला में रहते हैं। भाषाएं हिंदी 2020 तक हरियाणा की एकमात्र आधिकारिक भाषा थी और राज्य की अधिकांश आबादी (८७.३१%) द्वारा बोली जाती है। हरियाणा में ७०% ग्रामीण आबादी है जो मुख्य रूप से हिंदी की हरियाणवी बोली बोलती है। हरियाणा में ब्रजभाषा भी लोकप्रिय है, जो पलवल ज़िला और गुरूग्राम ज़िला में प्रमुखता से बोली जाती है। साथ ही साथ अन्य संबंधित बोलियां भी, जैसे बागरी और मेवाती भी बोली जाती हैं। इतिहास नामोत्पत्ति मानवविज्ञानियों का मानना ​​है कि हरियाणा को इस नाम से जाना जाता था क्योंकि महाभारत के बाद के काल में, आभीर यहाँ रहते थे, जिन्होंने कृषि कला में विशेष कौशल विकसित किया। प्राण नाथ चोपड़ा के अनुसार हरियाणा का नाम अभिरायण-अहिरायण-हिरायणा-हरियाणा से लिया गया है। हरियाणा के तथ्यों को माने तो कहते हैं यहां श्री हरि का आना हुआ है यहां महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया हरि के आने से इसका नाम हरियाणा पाड़ा हरि + आना= हरियाणा इसकी स्थापना १ नवम्बर १९६६ को हुई। इसे भाषायी आधार पर पूर्वी पंजाब से नये राज्य के रूप में बनाया गया। ISBN 978-81-85151-34-2 ISBN 978-81-7030-774-7 शब्द हरियाणा सर्वप्रथम १२वीं सदी में अपभ्रंश लेखक विबुध श्रीधर (विसं ११८९–१२३०) ने उल्लिखीत किया था। ह प्राचीन इतिहास सिंधु घाटी जितनी पुरानी कई सभ्यताओं के अवशेष सरस्वती नदी के किनारे पाए गए हैं। जिनमे नौरंगाबाद और मिट्टाथल भिवानी में, कुणाल, फतेहाबाद मे, अग्रोहा और राखीगढी़ हिसार में, रूखी रोहतक में और बनवाली फतेहाबाद जिले में प्रमुख है। प्राचीन वैदिक सभ्यता भी सरस्वती नदी के तट के आस पास फली फूली। ऋग्वेद के मंत्रों की रचना भी यहीं हुई है। ग्रंथों में वर्णन कुछ प्राचीन हिंदू ग्रंथों के अनुसार, कुरुक्षेत्र की सीमायें, मोटे तौर पर हरियाणा राज्य की सीमायें हैं। तैत्रीय अरण्यक ५.१.१ के अनुसार, कुरुक्षेत्र क्षेत्र, तुर्घना (श्रुघना / सुघ सरहिन्द, पंजाब में) के दक्षिण में, खांडव (दिल्ली और मेवात क्षेत्र) के उत्तर में, मारू (रेगिस्तान) के पूर्व में और पारिन के पश्चिम में है। आर्यों के भारत प्रवासन संबंधी वैदिक प्रमाण पर विशाल अग्रवाल का पत्र भारत के महाकाव्य महाभारतमे हरियाणा का उल्लेख बहुधान्यकऔर बहुधनके रूप में किया गया है। महाभारत में वर्णित हरियाणा के कुछ स्थान आज के आधुनिक शहरों जैसे, प्रिथुदक (पेहोवा), तिलप्रस्थ (तिल्पुट), पानप्रस्थ (पानीपत) और सोनप्रस्थ (सोनीपत) में विकसित हो गये हैं। गुड़गाँव का अर्थ गुरु के ग्राम यानि गुरु द्रोणाचार्य के गाँव से है। कौरवों और पांडवों के बीच हुआ महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध कुरुक्षेत्र नगर के निकट हुआ था। कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं पर दिया था। इसके बाद अठारह दिन तक हस्तिनापुर के सिंहासन का अधिकारी तय करने के लिये कुरुक्षेत्र के मैदानी इलाकों में पूरे भारत से आयी सेनाओं के मध्य भीषण संघर्ष हुआ। जनश्रुति के अनुसार महाराजा अग्रसेन् ने अग्रोहा जो आज के हिसार के निकट स्थित है, में एक व्यापारियों के समृद्ध नगर की स्थापना की थी। किवंदती है कि जो भी व्यक्ति यहाँ बसना चाहता था उसे एक ईंट और रुपया शहर के सभी एक लाख नागरिकों द्वारा दिया जाता था, इससे उस व्यक्ति के पास घर बनाने के लिये पर्याप्त ईंटें और व्यापार शुरू करने के लिए पर्याप्त धन होता था। मघ्यकालीन इतिहास हूण के शासन के पश्चात हर्षवर्धन द्वारा 7वीं शताब्दी में स्थापित राज्य की राजधानी कुरुक्षेत्र के पास थानेसर में बसायी। उसकी मौत के बाद गुर्जर प्रतिहार ने वहां शासन करना आरंभ कर दिया और अपनी राजधानी कन्नौज बना ली। यह स्थान दिल्ली के शासक के लिये महत्वपूर्ण था। पृथ्वीराज चौहान ने १२वीं शताब्दी में अपना किला hansi और तरावड़ी (पुराना नाम तराईन) में स्थापित कर लिया।मुहम्मद गौरी ने दुसरी तराईन युध में इस पर कब्जा कर लिया। उसके पश्चात दिल्ली सल्तनत ने कई सदी तक यहाँ शासन किया। विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा दिल्ली पर अधिकार के लिए अधिकतर युद्ध हरियाणा की धरती पर ही लड़े गए। तरावड़ी के युद्ध के अतिरिक्त पानीपत के मैदान में भी तीन युद्ध एसे लड़े गए जिन्होंने भारत के इतिहास की दिशा ही बदल दी। ब्रिटिश राज से मुक्ति पाने के आन्दोलनों में हरियाणा वासियों ने भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। रेवाड़ी के राजा राव तुला राम का नाम १८५७ के संग्राम में योगदान दिया। राज्य स्थापना स्वतन्त्रता के बाद सबसे पहले 1948 में हरियाणा राज्य कि अधिकारिक मांग पंजाबी नेता तारा सिंह द्वारा उठाई गई थी। 1 अक्टूबर, 1949 को सच्चर फ़ार्मूला के अंतर्गत पंजाब को दो क्षेत्रों पंजाबी क्षेत्र और हिंदी क्षेत्र में विभाजित कर दिया ,परंतु जनता ने इसे अस्वीकार कर दिया। राज्य के रूप में हरियाणा 1 नवंबर 1966 को पंजाब पुनर्गठन अधिनियम (१९६६) के माध्यम से अस्तित्व में आया था। भारत सरकार ने २३ अप्रैल १९६६ को पंजाब के तत्कालीन राज्य को निवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के आधार पर विभाजित करने के विचार के बाद हरियाणा के नए राज्य की सीमा निर्धारित करने के लिए न्यायमूर्ति जेसी शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग की स्थापना की। आयोग ने ३१ मई १९६६ को अपनी रिपोर्ट दे दी, जिससे हिसार, महेंद्रगढ़, गुरुग्राम, रोहतक और करनाल के तत्कालीन जिलों को हरियाणा के नए राज्य का हिस्सा बन गए। इसके अलावा, संगरूर जिले की जिंद और नरवाना तहसील, और साथ साथ ही नारायणगढ़, अंबाला और जगधरी को भी इसमें शामिल किया जाना था। आयोग ने यह भी सिफारिश की थी कि खरड़ तहसील, जिसमें पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ शामिल थी, को हरियाणा का हिस्सा होना चाहिए। हालांकि, हरियाणा को खरड़ का केवल एक छोटा सा हिस्सा दिया गया था। चंडीगढ़ शहर को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था, जो कालांतर में पंजाब और हरियाणा दोनों की राजधानी बना। मण्डल तथा जिले अंगूठाकार|400px|हरियाणा के जिले (२०११) प्रशासनिक आधार पर हरियाणा को २२ जिलों में विभाजित किया गया है, जो ६ मण्डलों में समूहबद्ध हैं। इन 22 जिलों में ७२ सब-डिवीजन, ९३ तहसील, ५० उप-तहसील, १४० सामुदायिक विकास खंड, १५४ नगर तथा कस्बे, ६,२१२ ग्राम पंचायत और ६,८४१ गांव हैं। १ नवंबर १९६६ को जब तत्कालीन पूर्वी पंजाब के विभाजन द्वारा हरियाणा राज्य की स्थापना हुई थी, तब राज्य में ७ जिले थे; रोहतक, जींद, हिसार, महेंद्रगढ़, गुडगाँव, करनाल तथा अम्बाला। २०१७ तक इन जिलों के पुनर्गठन के माध्यम से १४ नए जिले जोड़े जा चुके हैं। +हरियाणा के मण्डल तथा जिले मण्डल जिले अम्बाला अम्बाला, कुरुक्षेत्र, पंचकुला, यमुनानगर फरीदाबाद फरीदाबाद, पलवल, मेवात गुरुग्राम गुरुग्राम, महेंद्रगढ़, रेवाड़ी हिसार फतेहाबाद, जींद, हिसार, सिरसा रोहतक भिवानी] [चरखा दादरी] करनाल करनाल, पानीपत, कैथल बाद में चरखी दादरी को भी जिला बना दिया है नगर तथा कस्बे हरियाणा में कुल 154 नगर तथा कस्बे हैं।2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में 1 लाख से अधिक जनसंख्या वाले 18 नगर हैं: फरीदाबाद, गुरुग्राम, पानीपत, अम्बाला, यमुनानगर, रोहतक, हिसार, करनाल, सोनीपत, पंचकुला, भिवानी, सिरसा, बहादुरगढ़, जींद, थानेसर, कैथल, रेवाड़ी और पलवल। चण्डीगढ़, जो भारत का एक केन्द्र शासित प्रदेश है, हरियाणा की राजधानी है। १ नवंबर, १९६६ को जब पंजाब के हिन्दी-भाषी पूर्वी भाग को काटकर हरियाणा राज्य का गठन किया गया, तो चंडीगढ़ शहर के दोनों के बीच सीमा पर स्थित होने के कारण इसी दोनों राज्यों की संयुक्त राजधानी के रूप में घोषित किया गया और साथ ही संघ शासित क्षेत्र भी घोषित किया गया था। अगस्त १९८५ में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी और अकाली दल के संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच हुए समझौते के अनुसार, चंडीगढ़ को १९८६ में पंजाब में स्थानांतरित होना तय हुआ था। इसके साथ ही हरियाणा के लिए एक नई राजधानी का सृजन भी होना था, किन्तु कुछ प्रशासनिक कारणों के चलते इस स्थानांतरण में विलंब हुआ। इस विलंब के मुख्य कारणों में दक्षिणी पंजाब के कुछ हिन्दी-भाषी गाँवों को हरियाणा और पश्चिम हरियाणा के पंजाबी-भाषी गाँवों को पंजाब को देने का विवाद था। अर्थव्यवस्था २०१२-१७ में १२.९६% की कंपाउंड वार्षिक वृद्धि दर और २०१७-१८ में यूएस $९५ बिलियन डॉलर की अनुमानित जीएसडीपी के साथ हरियाणा की जीडीपी भारत में १४वीं सबसे बड़ी है। हरियाणा की जीडीपी ५२% सर्विस सेक्टर, ३०% इंडस्ट्रीज सेक्टर, और १८% कृषि सेक्टर में विभाजित है। सर्विस सेक्टर ४५% रीयल एस्टेट और वित्तीय और पेशेवर सेवाओं, २६% व्यापार और आतिथ्य, १५% राज्य और केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों, और १४% परिवहन और रसद और गोदाम में विभाजित है। आईटी सेवाओं में, गुरुग्राम विकास दर और मौजूदा प्रौद्योगिकी आधारभूत संरचना में पूरे भारत में नंबर १ स्थान पर, और स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र, नवाचार और उत्तरदायित्व (नवंबर २०१६) में नंबर २ पर है। इंडस्ट्रीज सेक्टर ६९% विनिर्माण, २८% निर्माण, २% उपयोगिताओं और १% खनन में विभाजित है। हरियाणा पूरे भारत की ६७% यात्री कार, ६०% मोटरसाइकिल, ५०% ट्रैक्टर और ५०% रेफ्रिजरेटरों का उत्पादन करता है। सेवाओं और औद्योगिक क्षेत्रों को ७ परिचालित एसईजेड और अतिरिक्त २३ औपचारिक रूप से अनुमोदित एसईजेड (२० पहले ही अधिसूचित और ३ इन-प्रिंसिपल स्वीकृति) द्वारा बढ़ाया जाता है जो ज्यादातर दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर, अमृतसर दिल्ली कोलकाता औद्योगिक कॉरिडोर और दिल्ली पश्चिमी परिधीय एक्सप्रेसवे के साथ फैले हुए हैं। कृषि क्षेत्र ९३% फसलों और पशुधन, ४% वाणिज्यिक वानिकी और लॉगिंग, और २% मत्स्यपालन में विभाजित है। हरियाणा का कृषि क्षेत्र, भारत के १.४% से कम क्षेत्र के साथ, केंद्रीय खाद्य सुरक्षा सार्वजनिक वितरण प्रणाली, और कुल राष्ट्रीय कृषि निर्यात का ७% का योगदान देता है जिसमें कुल राष्ट्रीय बासमती चावल निर्यात का ६०% शामिल है। कृषि हरियाणा परंपरागत रूप से एक कृषि समाज रहा है। १९६० के दशक में हरियाणा में हरित क्रांति के आगमन, और फिर १९६३ में भाखड़ा बांध और १९७० के दशक में पश्चिमी यमुना कमांड नेटवर्क नहर प्रणाली के पूरा होने के परिणामस्वरूप हरियाणा में खाद्य अनाज उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। २०१५-२०१६ में, हरियाणा में १,३३,५२,००० टन गेहूं, ४१,४५,००० टन चावल, ७१,६९,००० टन गन्ना, ९,९३,००० टन कपास और ८,५५,००० टन तिलहन (सरसों का बीज, सूरजमुखी, आदि) का उत्पादन हुआ। हरियाणा दुग्ध के लिए भी जाना जाता है। राज्य में मवेशियों की कई नस्लें पाई जाती हैं, जिनमें मुर्रा भैंस, हरियाणवी, मेवाती, साहिवाल और नीलि-रवि इत्यादि प्रमुख हैं। कृषि आधारित हरियाणा की अर्थव्यवस्था को और बेहतर बनाने के लिए, केंद्रीय सरकार (केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, बफेलो, केंद्रीय भेड़ प्रजनन फार्म, इक्विनेस पर राष्ट्रीय शोध केंद्र, मत्स्य पालन संस्थान, राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान, भारतीय संस्थान गेहूं और जौ अनुसंधान और राष्ट्रीय ब्यूरो ऑफ एनिमल आनुवांशिक संसाधन) और राज्य सरकार (सीसीएस एचएयू, लुवास, सरकारी पशुधन फार्म, क्षेत्रीय चारा स्टेशन और उत्तरी क्षेत्र कृषि मशीनरी प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थान) ने कृषि क्षेत्र में अनुसंधान और शिक्षा के लिए कई संस्थान राज्य में खोले हैं। प्रशासन नियम कानून हरियाणा पुलिस बल हरियाणा की कानून प्रवर्तन एजेंसी है। हरियाणा पुलिस की पांच रेंज अंबाला, हिसार, करनाल, रेवाड़ी और रोहतक हैं। इसके अतिरिक्त फरीदाबाद, गुड़गांव और पंचकुला में तीन पुलिस आयुक्त हैं। साइबर क्राइम की जांच हेतु गुड़गांव के सेक्टर ५१ में साइबर सेल स्थित है। राज्य में सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय है। हरियाणा ई-फाइलिंग सुविधा का उपयोग करता है। अन्य प्रशासनिक सेवाएं नागरिकों को सैकड़ों ई-सेवाओं की पेशकश करने के लिए सभी जिलों में सर्व सेवा केंद्रों (सीएससी) को अपग्रेड किया गया है, जिसमें नए जल कनेक्शन, सीवर कनेक्शन, बिजली बिल संग्रह, राशन कार्ड सदस्य पंजीकरण, एचबीएसई का परिणाम, बोर्ड परीक्षाओं के लिए प्रवेश पत्र, सरकारी कॉलेजों के लिए ऑनलाइन प्रवेश फॉर्म, बसों की लंबी मार्ग बुकिंग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और एचयूडीए प्लॉट्स स्टेटस पूछताछ के लिए फॉर्म उपलब्ध हैं। हरियाणा सभी जिलों में आधार-सक्षम जन्म पंजीकरण को लागू करने वाला पहला राज्य बन गया है। डिजिटल इंडिया पहल के अंतर्गत एकीकृत यूएमएएनजी ऐप और पोर्टल के माध्यम से हजारों पारंपरिक ऑफ़लाइन राज्य और केंद्र सरकार सेवाएं भी २४/७ उपलब्ध हैं। परिवहन सड़क दिसंबर २०१७ तक हरियाणा राज्य में सड़कों की कुल लंबाई २६,०६२ किलोमीटर (१६,१९४ मील) है, जिसमें २,४८२ किलोमीटर (१,५४२ मील) राष्ट्रीय राजमार्ग, १,८०१ किलोमीटर (१,११९ मील) राज्य राजमार्ग, १,३९५ किलोमीटर (८६७ मील) प्रमुख जिला सड़क (एमडीआर) और २०,३४४ किलोमीटर (१२,६४१ मील) अन्य जिला सड़क (ओडीआर) हैं।Single agency to handle road repair work from January 1 , Tribune, 29 Dec 2017. राज्य में कुल १५ राष्ट्रीय राजमार्ग हैं, जिनमें से अधिकतर राज्य के विभिन्न हिस्सों को दिल्ली से जोड़ते हैं। हरियाणा रोडवेज का ३,८६४ बसों का बेड़ा राज्य भर में प्रति दिन १.१५ मिलियन किमी की दूरी को कवर करता है। हरियाणा देश में लक्जरी वीडियो कोच पेश करने वाला पहला राज्य था। रेल हरियाणा में रेल नेटवर्क ३ रेलवे जोनों के तहत ५ रेल डिवीजनों द्वारा कवर किया गया है। डायमंड चतुर्भुज हाई स्पीड रेल नेटवर्क, पूर्वी समर्पित फ्रेट कॉरिडोर (72 किमी) और पश्चिमी समर्पित फ्रेट कॉरिडोर (177 किमी) हरियाणा से गुजरते हैं। उत्तर पश्चिमी रेलवे जोन के बीकानेर रेलवे डिवीजन पश्चिमी और दक्षिणी हरियाणा में भटिंडा-दबवाली-हनुमानगढ़ लाइन, रेवाड़ी-भिवानी-हिसार-बठिंडा लाइन, हिसार-सदुलपुर लाइन और रेवाड़ी-लोहारु-सदुलपुर लाइन को कवर करते हुए रेल नेटवर्क का संचालन करता है। इसी जोन के जयपुर रेलवे डिवीजन के अंतर्गत दक्षिण-पश्चिम हरियाणा का रेल नेटवर्क आता है, जिसमें रेवाड़ी-रेन्गस-जयपुर लाइन, दिल्ली-अलवर-जयपुर लाइन और लोहारु-सीकर लाइन शामिल है। उत्तरी, पूर्व और मध्य हरियाणा के क्षेत्र उत्तरी रेलवे जोन के दिल्ली रेलवे डिवीजन के अंतर्गत आते हैं, जिसके अंदर दिल्ली-अंबाला लाइन, दिल्ली-रोहतक-तोहाना लाइन, रेवारी-रोहतक लाइन, जींद-सोनीपत लाइन और दिल्ली-रेवाड़ी लाइन आती हैं। इसी जाने के अंबाला रेलवे डिवीजन के अंतर्गत उत्तर-पूर्व हरियाणा में अंबाला-यमुनानगर लाइन, अंबाला-कुरुक्षेत्र लाइन और यूनेस्को विश्व विरासत कालका-शिमला रेलवे लाइन आती हैं। दक्षिण-पूर्व हरियाणा की पलवल-मथुरा लाइन उत्तर मध्य रेलवे जोन के आगरा रेलवे डिवीजन के अंतर्गत आने वाली एकमात्र रेलवे लाइन है। हवाई अड्डे.... हरियाणा के हिसार जिले में हवाई अड्डा भी बनाया गया है जिसका नाम महाराजा अग्रसेन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया है जो हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर जी ने 26 जुलाई 2021 को रखा था इसके अलावा वर्तमान में राज्य में भिवानी, करनाल, नारनौल और पिंजौर में चार नागरिक हवाई पट्टियां हैं तथा एक लाइसेंस प्राप्त हवाई अड्डा हिसार में है| इसके अलावा, दो रक्षा हवाई अड्डे भी सिरसा और अंबाला में स्थित हैं। शिक्षा साक्षरता हरियाणा में साक्षरता दर में ऊपर की प्रवृत्ति देखी गई है और २०११ की जनगणना के मुताबिक यह ७६.६४ प्रतिशत है। पुरुषों में साक्षरता डॉ ८५.३८ प्रतिशत है, जबकि महिलाओं में यह ६६.६७ प्रतिशत है। २००१ में हरियाणा की साक्षरता दर ६७.९१ प्रतिशत थी; तब ७८.४९ प्रतिशत पुरुष और ५५.७३ प्रतिशत महिलाएं साक्षर थीं। २०१३ तक, हरियाणा के उच्चतम साक्षरता दर वाले नगर गुरुग्राम (८६.३० प्रतिशत), पंचकुला (८१.९० प्रतिशत) और अम्बाला (८१.७० प्रतिशत) हैं। सबसे कम साक्षर जिला मेवात (54.08)है ।जिलों के संदर्भ में, 2012 तक ७४ प्रतिशत के साथ रेवाड़ी में हरियाणा की उच्चतम साक्षरता दर थी, जो राष्ट्रीय औसत ५९.५ प्रतिशत से अधिक थी: पुरुष साक्षरता ७९ प्रतिशत थी, और महिला ६७ प्रतिशत थी। यहा कुछ किताबों में प्रतिशत 90% दिया गया है स्कूली शिक्षा हरियाणा बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन सालाना दो बार माध्यमिक, मैट्रिक, और वरिष्ठ माध्यमिक स्तर पर सार्वजनिक परीक्षाऐं आयोजित करता है। बोर्ड की स्थापना सितंबर १९६९ में चण्डीगढ़ में हुई थी, और १९८१ में यह भिवानी में स्थानांतरित हो गया। फरवरी और मार्च में सात लाख से अधिक उम्मीदवार वार्षिक परीक्षा में भाग लेते हैं; जबकि लगभग डेढ़ लाख प्रत्येक नवंबर में पूरक परीक्षाओं में भाग लेते हैं। बोर्ड सालाना दो बार वरिष्ठ और वरिष्ठ माध्यमिक स्तर पर हरियाणा ओपन स्कूल के लिए भी परीक्षा आयोजित करता है। हरियाणा सरकार बैचलर डिग्री स्तर तक महिलाओं को मुफ्त शिक्षा प्रदान करती है। हिंदी और अंग्रेजी स्कूलों में अनिवार्य भाषाएं हैं जबकि पंजाबी, संस्कृत और उर्दू वैकल्पिक भाषाओं के रूप में चुने जाते हैं। २०१५-२०१६ में, राज्य भर में लगभग २०,००० स्कूल थे, जिनमें से १०,१०० सरकारी स्कूल (३६ आरोही स्कूल, ११ कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय, २१ मॉडल संस्कार स्कूल, ८७४४ सरकारी प्राथमिक विद्यालय, ३३८६ सरकारी माध्यमिक विद्यालय, १२८४ सरकारी हाई स्कूल और १९६७ सरकारी वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय), ७,६३५ निजी स्कूल (२०० सहायता प्राप्त, ६,६१२ अनियोजित मान्यता प्राप्त, और ८२१ अज्ञात अवैतनिक निजी स्कूल) और कई सौ अन्य केंद्र सरकार और निजी विद्यालय थे, जैसे केन्द्रीय विद्यालय, भारतीय आर्मी पब्लिक स्कूल, जवाहर नवोदय विद्यालय और डीएवी स्कूल। उच्च शिक्षा अंगूठाकार|महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक का मुख्य भवन हरियाणा में २९ विश्वविद्यालय और २९९ कॉलेज हैं, जिनमें ११५ सरकारी कॉलेज, ८८ सरकारी सहायता प्राप्त कॉलेज और ९६ स्वयं वित्त कॉलेज शामिल हैं। केवल हिसार में ही तीन विश्वविद्यालय हैं: चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय - एशिया का सबसे बड़ा कृषि विश्वविद्यालय, गुरु जांभेश्वर विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, लाला लाजपत राय पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय); कई राष्ट्रीय संस्थान हैं, जैसे कृषि और पशु चिकित्सा अनुसंधान केंद्र (इक्विंस पर राष्ट्रीय शोध केंद्र), केंद्रीय भेड़ प्रजनन फार्म, पिग प्रजनन और अनुसंधान पर राष्ट्रीय संस्थान, उत्तरी क्षेत्र कृषि मशीनरी प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थान और मध्य इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन बफेलो (सीआईआरबी); और महाराजा अग्रसेन मेडिकल कॉलेज, एग्रोहा सहित २० से अधिक कॉलेज भी हैं। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने २७ फरवरी २०१६ को घोषणा की कि युवाओं को कंप्यूटर प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए कुरुक्षेत्र में राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईईएलआईटी) स्थापित किया जाएगा और भारत के सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी पार्क (एसटीपीआई) की स्थापना पंचकुला के सेक्टर २३ में मौजूदा एचएसआईआईडीसी आईटी पार्क में की जाएगी। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सामान्य एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका पर हरियाणा के बारे में। (अंग्रेज़ी में) सरकार हरियाणा सरकार का आधिकारिक जालस्थल हरियाणा के सभी विभागों, बोर्ड, निगम, आधिकारिक, विश्वविद्यालय और जिलों के जालस्थलों की सूची श्रेणी:भारत के राज्य श्रेणी:हरियाणा श्रेणी:पंजाबी-भाषी देश व क्षेत्र
दलमा अभयारण्य
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दलमा अभयारण्य झारखंड के जमशेदपुर, राँची और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया के बीच बसा पूर्वी भारत का एक प्रमुख वन्य जीव अभयारण्य है। इस अभयारण्य को खास तौर पर हाथियों के संरक्षण के लिये चुना गया है। इन्हें भी देखें जमशेदपुर झारखंड हाथी भारत के अभयारण्य बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:जमशेदपुर श्रेणी:झारखंड श्रेणी:पर्यटन
बेतला राष्ट्रीय उद्यान
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बेतला राष्ट्रीय उद्यान झारखंड प्रान्त के लातेहार और पलामू ज़िलों के जंगलो में विस्तृत है। इसमें पालामऊ व्याघ्र आरक्षित वन के 1,026 वर्ग किमी के अलावा 289 वर्ग किमी के अन्य क्षेत्र सम्मिलित हैं।"Lonely Planet Bihar & Jharkhand," Lonely Planet Publications, 2012, ISBN 9781743212004"Superfast Jharkhand GK," Prabhat Prakashan इन्हें भी देखें पालामऊ व्याघ्र आरक्षित वन पलामू ज़िला लातेहार ज़िला सन्दर्भ श्रेणी:झारखंड में राष्ट्रीय उद्यान श्रेणी:भारत के वन्य अभयारण्य श्रेणी:भारत के राष्ट्रीय उद्यान श्रेणी:पलामू ज़िला श्रेणी:लातेहार ज़िला
हिन्दी समाचारपत्र
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(Official/Personal) भारत के प्रमुख हिन्दी समाचारपत्र हैं :- हिन्दुस्तान (समाचार पत्र) चौथी दुनिया पाञ्चजन्य नई दुनिया नवभारत टाइम्स आज प्रभात खबर अमर उजाला प्रयुक्ति जलते दीप दैनिक जागरण जनसत्ता पंजाब केसरी देशबन्धु दैनिक भास्कर हरिभूमि राँची एक्सप्रेस राजस्थान पत्रिका स्वतंत्र भारत दीपशील भारत उगता भारत
समाचारपत्र
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thumb|अर्जेंटीना की एक सड़क पर स्थित एक समाचारपत्र की टपरी समाचार पत्र या अख़बार, समाचारो पर आधारित एक प्रकाशन है, जिसमें मुख्यत: सामयिक घटनायें, राजनीति, खेल-कूद, व्यक्तित्व, विज्ञापन इत्यादि जानकारियां सस्ते कागज पर छपी होती है। समाचार पत्र संचार के साधनो में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। समाचारपत्र प्रायः दैनिक होते हैं लेकिन कुछ समाचार पत्र साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक एवं छमाही भी होतें हैं। अधिकतर समाचारपत्र स्थानीय भाषाओं में और स्थानीय विषयों पर केन्द्रित होते हैं। समाचार पत्रों का इतिहास सबसे पहला ज्ञात समाचारपत्र 59 ई.पू. का 'द रोमन एक्टा डिउरना' है। जूलिएस सीसर ने जनसाधरण को महत्वपूर्ण राजनैतिज्ञ और समाजिक घटनाओं से अवगत कराने के लिए उन्हे शहरो के प्रमुख स्थानो पर प्रेषित किया। 8वी शताब्दी में चीन में हस्तलिखित समाचारपत्रो का प्रचलन हुआ। अखबार का इतिहास और योगदान: यूँ तो ब्रिटिश शासन के एक पूर्व अधिकारी के द्वारा अखबारों की शुरुआत मानी जाती है, लेकिन उसका स्वरूप अखबारों की तरह नहीं था। वह केवल एक पन्ने का सूचनात्मक पर्चा था। पूर्णरूपेण अखबार बंगाल से 'बंगाल-गजट' के नाम से वायसराय हिक्की द्वारा निकाला गया था। आरंभ में अँग्रेजों ने अपने फायदे के लिए अखबारों का इस्तेमाल किया, चूँकि सारे अखबार अँग्रेजी में ही निकल रहे थे, इसलिए बहुसंख्यक लोगों तक खबरें और सूचनाएँ पहुँच नहीं पाती थीं। जो खबरें बाहर निकलकर आती थींत्र से गुजरते, वहाँ अपना आतंक फैलाते रहते थे। उनके खिलाफ न तो मुकदमे होते और न ही उन्हें कोई दंड ही दिया जाता था। इन नारकीय परिस्थितियों को झेलते हुए भी लोग खामोश थे। इस दौरान भारत में ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’, ‘नेशनल हेराल्ड', 'पायनियर', 'मुंबई-मिरर' जैसे अखबार अँग्रेजी में निकलते थे, जिसमें उन अत्याचारों का दूर-दूर तक उल्लेख नहीं रहता था। इन अँग्रेजी पत्रों के अतिरिक्त बंगला, उर्दू आदि में पत्रों का प्रकाशन तो होता रहा, लेकिन उसका दायरा सीमित था। उसे कोई बंगाली पढ़ने वाला या उर्दू जानने वाला ही समझ सकता था। ऐसे में पहली बार 30 मई 1826 को हिन्दी का प्रथम पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ। यह पत्र साप्ताहिक था। ‘उदंत मार्तंड' की शुरुआत ने भाषायी स्तर पर लोगों को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। यह केवल एक पत्र नहीं था, बल्कि उन हजारों लोगों की जुबान था, जो अब तक खामोश और भयभीत थे। हिन्दी में पत्रों की शुरुआत से देश में एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ और आजादी की जंग। उन्हें काफी तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाता था, ताकि अँग्रेजी सरकार के अत्याचारों की खबरें दबी रह जाएँ। अँग्रेज सिपाही किसी भी क्षेत्र में घुसकर मनमाना व्यवहार करते थे। लूट, हत्या, बलात्कार जैसी घटनाएँ आम होती थीं। वो जिस भी क्षेको भी एक नई दिशा मिली। अब लोगों तक देश के कोने-कोन में घट रही घटनाओं की जानकारी पहुँचने लगी। लेकिन कुछ ही समय बाद इस पत्र के संपादक जुगल किशोर को सहायता के अभाव में 11 दिसम्बर 1827 को पत्र बंद करना पड़ा। 10 मई 1829 को बंगाल से हिन्दी अखबार 'बंगदूत' का प्रकाशन हुआ। यह पत्र भी लोगों की आवाज बना और उन्हें जोड़े रखने का माध्यम। इसके बाद जुलाई, 1854 में श्यामसुंदर सेन ने कलकत्ता से ‘समाचार सुधा वर्षण’ का प्रकाशन किया। उस दौरान जिन भी अखबारों ने अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई भी खबर या आलेख छपा, उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ी। अखबारों को प्रतिबंधित कर दिया जाता था। उसकी प्रतियाँ जलवाई जाती थीं, उसके प्रकाशकों, संपादकों, लेखकों को दंड दिया जाता था। उन पर भारी-भरकम जुर्माना लगाया जाता था, ताकि वो दुबारा फिर उठने की हिम्मत न जुटा पाएँ। आजादी की लहर जिस तरह पूरे देश में फैल रही थी, अखबार भी अत्याचारों को सहकर और मुखर हो रहे थे। यही वजह थी कि बंगाल विभाजन के उपरांत हिन्दी पत्रों की आवाज और बुलंद हो गई। लोकमान्य तिलक ने 'केसरी' का संपादन किया और लाला लाजपत राय ने पंजाब से 'वंदे मातरम' पत्र निकाला। इन पत्रों ने युवाओं को आजादी की लड़ाई में अधिक-से-अधिक सहयोग देने का आह्वान किया। इन पत्रों ने आजादी पाने का एक जज्बा पैदा कर दिया। ‘केसरी’ को नागपुर से माधवराव सप्रे ने निकाला, लेकिन तिलक के उत्तेजक लेखों के कारण इस पत्र पर पाबंदी लगा दी गई। उत्तर भारत में आजादी की जंग में जान फूँकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी ने 1913 में कानपुर से साप्ताहिक पत्र 'प्रताप' का प्रकाशन आरंभ किया। इसमें देश के हर हिस्से में हो रहे अत्याचारों के बारे में जानकारियाँ प्रकाशित होती थीं। इससे लोगों में आक्रोश भड़कने लगा था और वे ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए और भी उत्साहित हो उठे थे। इसकी आक्रामकता को देखते हुए अँग्रेज प्रशासन ने इसके लेखकों, संपादकों को तरह-तरह की प्रताड़नाएँ दीं, लेकिन यह पत्र अपने लक्ष्य पर डटा रहा। इसी प्रकार बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र के क्षेत्रों से पत्रों का प्रकाशन होता रहा। उन पत्रों ने लोगों में स्वतंत्रता को पाने की ललक और जागरूकता फैलाने का प्रयास किया। अगर यह कहा जाए कि स्वतंत्रता सेनानियों के लिए ये अखबार किसी हथियार से कमतर नहीं थे, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अखबार बने आजादी का हथियार ''प्रेस आज जितना स्वतंत्र और मुखर दिखता है, आजादी की जंग में यह उतनी ही बंदिशों और पाबंदियों से बँधा हुआ था। न तो उसमें मनोरंजन का पुट था और न ही ये किसी की कमाई का जरिया ही। ये अखबार और पत्र-पत्रिकाएँ आजादी के जाँबाजों का एक हथियार और माध्यम थे, जो उन्हें लोगों और घटनाओं से जोड़े रखता था। आजादी की लड़ाई का कोई भी ऐसा योद्धा नहीं था, जिसने अखबारों के जरिए अपनी बात कहने का प्रयास न किया हो। गाँधीजी ने भी ‘हरिजन’, ‘यंग-इंडिया’ के नाम से अखबारों का प्रकाशन किया था तो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 'अल-हिलाल' पत्र का प्रकाशन। ऐसे और कितने ही उदाहरण हैं, जो यह साबित करते हैं कि पत्र-पत्रिकाओं की आजादी की लड़ाई में महती भूमिका थी। यह वह दौर था, जब लोगों के पास संवाद का कोई साधन नहीं था। उस पर भी अँग्रेजों के अत्याचारों के शिकार असहाय लोग चुपचाप सारे अत्याचर सहते थे। न तो कोई उनकी सुनने वाला था और न उनके दु:खों को हरने वाला। वो कहते भी तो किससे और कैसे? हर कोई तो उसी प्रताड़ना को झेल रहे थे। ऐसे में पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत ने लोगों को हिम्मत दी, उन्हें ढाँढस बँधाया। यही कारण था कि क्रांतिकारियों के एक-एक लेख जनता में नई स्फूर्ति और देशभक्ति का संचार करते थे। भारतेंदु का नाटक ‘भारत-दुर्दशा’ जब प्रकाशित हुआ था तो लोगों को यह अनुभव हुआ था कि भारत के लोग कैसे दौर से गुजर रहे हैं और अँग्रेजों की मंशा क्या है। ब्रिटिश राज के दौरान प्रकाशित भारत के कुछ प्रमुख समाचार पत्र और पत्रिकाएँ प्रकाशित होने का वर्ष प्रकाशित होने का स्थान पत्रिका / जर्नल का नाम संस्थापक / संपादक का नाम 1780 कलकत्ता बंगाल गजट जेम्स ऑगस्टस हिक्की 1821 कलकत्ता सम्वाद कौमुदी (बंगाली में साप्ताहिक) राजा राम मोहन राय 1822 कलकत्ता मिरात-उल अकबर (फारसी में सबसे पहले पत्रिका) राजा राम मोहन राय 1822 कलकत्ता बंगदूत (चार भाषाओं अंग्रेजी, बंगाली, फारसी, हिंदी में एक साप्ताहिक पत्रिका) राजा राम मोहन राय और द्वारकानाथ ठाकुर 1826 कलकत्ता उदन्त मार्तण्ड (हिंदी का प्रथम समाचार पत्र) (साप्ताहिक) जुगलकिशोर सुकुल 1838 बंबई बॉम्बे टाइम्स (1861 के बाद से, टाइम्स ऑफ इंडिया) रॉबर्ट नाइट और थॉमस बेनेट 1851 रास्त गफ्तार (गुजराती, पाक्षिक (अर्द्धमासिक)) दादाभाई नौरोजी 1853 कलकत्ता हिन्दू पैट्रियट गिरीशचन्द्र घोष 1858 कलकत्ता सोम प्रकाश द्वारकानाथ विद्याभूषण 1862 कलकत्ता भारतीय आईना देवेन्द्रनाथ टैगोर और एनएन सेन 1862 कलकत्ता बंगाली (इस और अमृता बाजार पत्रिका- पहला स्थानीय भाषा का अखबार) गिरीश चन्द्र घोष 1865 कलकत्ता राष्ट्रीय पेपर देवेंद्र नाथ टैगोर 1868 जेस्सोर (बांग्लादेश) अमृत बाजार पत्रिका (शुरुआत में बंगाली और बाद में अंग्रेजी दैनिक) शिशिर कुमार घोष और मोतीलाल घोष 1873 कलकत्ता बंगदर्शन बंकिमचंद्र चटर्जी 1875 कलकत्ता स्टेट्समैन रॉबर्ट नाइट 1878 मद्रास हिन्दू जी एस अय्यर वीराघवचारी और सुब्बा राव पंडित 1881 लाहौर ट्रिब्यून (अंग्रेजी) दयाल सिंह मजीठिया बंबई हिन्दुस्तानी और एडवोकेट जीपी वर्मा 1881 मद्रास केसरी (मराठी दैनिक) और मराठा (अंग्रेजी साप्ताहिक) तिलक, चिपलूनकर, अगरकर 1882 सिलहट (बांग्लादेश) स्वदेशमित्रण जी एस अय्यर 1886 परिदर्शक (साप्ताहिक) बिपिन चंद्र पाल 1988 लंडन (इंग्लैंड) सुधारक (मराठी और अंग्रेजी) – साप्ताहिक गोपाल गणेश अगरकर 1905 बंगाल द इंडियन सोशिओलॉजिस्ट (मासिक) श्यामजी कृष्ण वर्मा 1906 बंगाल युगान्तर बारीन्द्रनाथ घोष और भूपेन्द्रनाथ दत्ता 1906 पल्ली संध्या ब्रह्मबान्धव उपाध्याय वैंकूवर बंदे मातरम मैडम भिकाजी कामा बर्लिन फ्री हिन्दुस्तान तारकनाथ दास 1909 द तलवार (मासिक) वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय 1909 सैन फ्रांसिस्को लीडर (दैनिक, अंग्रेजी में) मदन मोहन मालवीय 1913 बंबई हिंदुस्तान ग़दर (साप्ताहिक, हिंदी और उर्दू, उसके बाद पंजाबी) गदर पार्टी 1913 दिल्ली दि बॉम्बे क्रॉनिकल (अंग्रेज़ी, दैनिक) फिरोजशाह मेहरवांजी मेहता, बीजी होर्निमान 1920 हिंदुस्तान टाइम्स के.एम. पणिक्कर (कावालम माधव पणिक्कर) 1927 बहिष्कृत भारत (मराठी, पाक्षिक) बी. आर. आंबेडकर 1910 दिल्ली कुडी अरासु (तमिल) ईवी रामास्वामी नायकर (पेरियार), एसएस मिराजकर, केएन जोगलेकर 1938 दिल्ली नेशनल हेराल्ड जवाहर लाल नेहरू 1871 तगजीन-उल-अखलाक (पत्रिका) सर सैयद अहमद खान 1881 केसरी (मराठी डेली अखबार) बाल गंगाधर तिलक 1911 कॉमरेड (साप्ताहिक अंग्रेजी अखबार) मौलाना मोहम्मद अली 1912 अल बलघ, अल-हिलाल (उर्दू, साप्ताहिक) अबुल कलाम आजाद 1913 प्रताप (हिंदी अखबार) गणेश शंकर विद्यार्थी 1919 इलाहाबाद इंडिपेंडेंट (दैनिक) मोतीलाल नेहरू 1920 चंद्रमा नायक (मराठी, साप्ताहिक) बी आर अम्बेडकर 1919 यंग इंडिया (साप्ताहिक) मोहनदास करमचन्द गांधी 1929 नवजीवन (साप्ताहिक अख़बार) मोहनदास करमचन्द गांधी 1931 हरिजन (साप्ताहिक) मोहनदास करमचन्द गांधी 1936 दिल्ली हिंदुस्तान दैनिक (हिंदी, दैनिक) मदन मोहन मालवीय इन्हें भी देखें हिन्दी समाचारपत्र बाहरी कड़ियाँ समाचारपत्रों का इतिहास (अंग्रेजी मे) सन्दर्भ श्रेणी:समाचार पत्र श्रेणी:संचार के साधन श्रेणी:काग़ज़ उत्पाद
भारत के समाचारपत्र
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REDIRECTहिन्दी समाचारपत्र
सुभाष काक
https://hi.wikipedia.org/wiki/सुभाष_काक
right|thumb|200px|सुभाष काक सुभाष काक (जन्म 26 मार्च 1947) प्रमुख भारतीय-अमेरिकी कवि, दार्शनिक और वैज्ञानिक हैं। वे अमेरिका के ओक्लाहोमा प्रान्त में संगणक विज्ञान के प्रोफेसर हैं। वेद, कला और इतिहास पर उनके कई ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। उनका जन्म श्रीनगर, कश्मीर में राम नाथ काक और सरोजिनी काक के यहाँ हुआ। उनकी शिक्षा कश्मीर और दिल्ली में हुई। कविता और जीवन का मर्म कविता जीवन की पहेलियों पर प्रकाश डालती है। सुभाष काक की शैली सरल है पर इस सरलता के भीतर विचारों की जटिलता छिपी हुई है। वह प्रकृतिवाद के समर्थक हैं। प्रकृति के माध्यम से वह जटिल मानव भाव प्रस्तुत करते हैं। विख्यात विद्वान और आलोचक गोविन्द चन्द्र पाण्डे ने उनकी कविता की अंग्रेजी के विलियम वर्ड्सवर्थ (William Wordsworth) की रचनाओं से तुलना की है। पाण्डेजी लिखते हैं -- उनकी भाषा और शैली आन्तरिक गाम्भीर्य को सरल प्रासादिकता से प्रस्तुत करती है जैसी कभी शेषनाग सरोवर का सलिल। उनकी भाव-भूमि स्मृतियों की पच्चीकारी से अलंकृत है। उनके बिम्ब प्रकृति और सहज मानवता से बराबर जुड़े रहते हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि न सिर्फ कवि एक बीते शैशव और सुदूर प्रदेश की स्मृतियों से अभिभूत है बल्कि अपनी सांस्कृतिक धरोहर की बदलती परिस्थिति की आशंकाओं से भी चिन्तित है। उनकी कविताएं अनुभव रस से सिक्त हैं, वे उलझी बौद्धिकता और आन्तरिक विसंगतियों से दुर्बोध नहीं हैं। <ref>गोविन्द चन्द्र पाण्डे, प्राग्वाच, एक ताल, एक दर्पण, १९९९</ref> उनकी कविता ने हिन्दी के समकालीन मार्ग और विधि से दूर नये रूप की स्थापना का प्रयत्न किया है। उनकी कविता के कई संग्रह प्रकाशित -- और अन्य भाषाओं में अनूदित -- हो चुके हैं। संस्कृति और दर्शन वे भारतीय विद्या में निपुण और साहित्य, दर्शन, कला, एवं संस्कृति के सहृद-मर्मज्ञ हैं। वेदकाल का बहुत समय से लुप्त उन्होंने एक ज्योतिष ढूंढ निकाला है जिससे भारत की संस्कृति, विज्ञान और कालक्रम पर नया प्रकाश पडता है। इनमें से सबसे रोचक १०८ अंक, जो भारतीय संस्कृति में बहुत आता है, की व्याख्या है। प्रमुख देवी-देवताओं के १०८ नाम हैं, जपमाला में १०८ दाने, १०८ धाम हैं, आदि। इनके शोध ने दिखाया है कि वैदिक काल में यह ज्ञान था कि सूर्य और चन्द्रमा पृथिवी से क्रमशः लगभग १०८ गुणा निजि व्यास की दूरी पर हैं। आधुनिक ज्योतिष ने तो यह भी दिखाया है कि सूर्य का व्यास पृथिवी के व्यास से लगभग १०८ गुणा है।सु. काक,Birth and Early Development of Indian Astronomy. In "Astronomy Across Cultures: The History of Non-Western Astronomy", Helaine Selin (editor), Kluwer Academic, Boston, 2000, pp. 303-340. पिण्ड और ब्रह्माण्ड के समीकरण के कारण मानव अपने व्यक्तिगत आध्यात्मिक यात्रा में भी इस संख्या को पाता है, यह वेद की धारणा है।सु. काक, ऋग्वेद का कूट-ज्योतिष (2000) इस शोध का विद्वानों ने स्वागत किया है। अमेरिका के वेदपण्डित वामदेव शास्त्री ने इस शोध को स्मारकीय उपलब्धि (monumental achievement) कहा है।'दि एस्ट्रोनोमिकल कोड ऑफ दि ऋग्वेद' के जिल्द से, मुंशीराम मनोहरलाल, नई दिल्ली, २०००। कनाडा के विख्यात आचार्य क्लास क्लास्टरमेयर के अनुसार, "मेरी बहुत देर की समझ थी कि ऋग्वेद में भाषाशास्त्र और इतिहास के परे बहुत कुछ था। यह है वह!... यह एक युगान्तककारी खोज (epoch-making discovery) है।"'दि एस्ट्रोनोमिकल कोड ऑफ दि ऋग्वेद' के जिल्द से, मुंशीराम मनोहारलाल, नई दिल्ली, २०००। उनका दार्शनिक दृष्टिकोण पुनर्गमनवाद से प्रेरित है, जिसके अनुसार विश्व में प्रतिरूप विभिन्न अनुमाप में पुनरावृत, अथवा दोहरते, हैं और कवि और कलाकार इसीका चित्रण करते हैं। इसका प्रयोग कर उन्होंने भारतीय कला और संस्कृति की विवेचना की है। सु. काक, रीति और यज्ञ सु. काक, संगीत उनके अनुसार पुनर्गमन ही विश्व का समझना सम्भव करता है। वे संस्कृत के भी विद्वान हैं, इस भाषा में उन्होंने वेदान्त के नए सूत्र (प्रज्ञा सूत्र) की रचना की है। विज्ञान की सीमाएं विज्ञान में इनका योगदान भौतिक शास्त्र और संगणन शास्त्र पर हुआ है। उन्होंने कृत्रिम बुद्धि (:en:Artificial Intelligence) की सीमा पर शोध किया है और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि संगणक बुद्धि कभी भी मानव बुद्धि की सीमा पर नहीं पहुंच सकती है।सु. काक, मानव और कृत्रिम बुद्धि, ACM Ubiquity, 2005 उनके अनुसार भौतिक सिद्धान्तों का एकीकरण - जो पिछले कुछ दशकों में विज्ञान का प्रमुख लक्ष्य रहा है - असफल रहेगा। पार्थव और आध्यात्मिक में निरन्तर द्वन्द्व बना रहेगा। वह अपने यमल परोक्षक के समाधान के कारण समाचार पत्रों में बहुत चर्चित रहे हैं। ग्रन्थ right|thumb|300px|डॉ सुभाष काक (२०१५) मृतक नायक (The Conductor of the Dead) लन्दन सेतु (The London Bridge) मन्दिर की सीढियां इश्बर रहस्य एक ताल, एक दर्पण (1999) प्रज्ञा सूत्र (2003) चिनार उपवन (The Chinar Garden) मिट्‍टी का अनुराग (2007) अन्य ग्रन्थ The Loom of Time (2016), DKPrintworld, New Delhi The Circle of Memory: An Autobiography (2016), Mount Meru Publishing, Mississauga, Ontario, Matter and Mind (2016), Mount Meru Publishing, Mississauga, Ontario, Mind and Self (2016), Mount Meru Publishing, Mississauga, Ontario, Computing Science in Ancient India; Munshiram Manoharlal Publishers Pvt. Ltd (2001) The Wishing Tree: Presence and Promise of India कल्पतरु: भारत की उपस्थिति एवं प्रतिश्रुति (Third Edition) Aditya Prakashan (2015), The Gods Within: Mind, Consciousness and the Vedic Tradition, Munshiram Manoharlal Publishers Pvt. Ltd (2002) The Asvamedha: The Rite and Its Logic, Motilal Banarsidass Publishers, (2002) The Prajna Sutra: Aphorisms of Intuition, DK Printworld, 2007. The Architecture of Knowledge: Quantum Mechanics, Neuroscience, Computers and Consciousness, Motilal Banarsidass, 2004, "Recursionism and Reality: Representing and Understanding the World", 2005. Advances in Communications and Signal Processing, Springer-Verlag, 1989. (with W.A. Porter). Advances in Computing and Control, Springer-Verlag, 1989. (with W.A. Porter and J.L. Aravena). Consciousness and the universe : quantum physics, evolution, brain & mind, Cosmology Science Publishers, 2011. (with Roger Penrose and Stuart Hameroff) , The Nature of Physical Reality भौतिक तथ्यता का स्वरूप (2016)Third edition. India at Century's End भारत शताब्दी के अन्त में (1994) :en:In Search of the Cradle of Civilization सभ्यता के स्रोत की ढूंढ (1995, 2001) :en:The Astronomical Code of the Rigveda ऋग्वेद का कूट-ज्योतिष . Aditya Prakashan (2016), Computing Science in Ancient India प्राचीन भारत का संगणन शास्त्र (2001) The Gods Within आन्तरिक देवता (2002) The Asvamedha अश्वमेध यज्ञ (2002) :en:The Architecture of Knowledge Arrival and Exile: Selected Poems (2016), Mount Meru Publishing, Mississauga, Ontario, सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ सुभाष काक की रचनाएँ कविता कोश में अनुभूति पत्रिका में कविता कविता कोश में सुभाष काक भौतिक और संगणन शास्त्र की arXiv रचनाएं लुइसियाना स्टेट यूनिवर्सिटी के जालपृष्ठ पर काक के प्रकाशनों की सूची ओक्लाहोमा स्टेट यूनिवर्सिटी केजालपृष्ठ पर काक के बारे में मस्तिष्क और चेतना भाषण साक्षात्कार राजीव श्रीनिवासन् द्वारा रीडिफ साक्षात्कार पी.बी.एस. साक्षात्कार Closer to Truth श्रेणी:लेखक श्रेणी:साहित्य श्रेणी:कश्मीर के लोग श्रेणी:श्रीनगर के लोग श्रेणी:वैज्ञानिक श्रेणी:कश्मीरी कवि श्रेणी:भारतीय वैज्ञानिक
एयर इंडिया
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भाषा
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right|500px|thumb|विभिन्न भाषा-परिवार right|500px|thumb|लोग और भाषाओं की संख्या भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त कर सकते हैं और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का प्रयोग करते हैं। भाषा, मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह है जिनके द्वारा मन की बात बताई जाती है। किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वर एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं। व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे से प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होने वाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बताई जाती है जैसे - बोली, जबान, वाणी विशेष। सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा आभ्यन्तर अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं वह हमारे आभ्यन्तर के निर्माण, विकास, हमारी अस्मिता, सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान का भी साधन है। भाषा के बिना मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है और अपने इतिहास तथा परम्परा से विच्छिन्न है। इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी तरह सीखे नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं और उन शाखाओं के भी अनेक वर्ग-उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रान्तीय भेदों, उपभाषाओं अथवा बोलियों को रखा है। जैसे हिंदी भाषा(हिन्दी) भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखण्डी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास-पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कृत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है। उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं।। परिभाषा भाषा को प्राचीन काल से ही परिभाषित करने की कोशिश की जाती रही है। इसकी कुछ मुख्य परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं- (1) 'भाषा' शब्द संस्कृत के 'भाष्' धातु से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना अर्थात् भाषा वह है जिसे बोला जाए। (2) प्लेटो ने सोफिस्ट में विचार और भाषा के सम्बन्ध में लिखते हुए कहा है कि विचार और भाषा में थोड़ा ही अंतर है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है और वही शब्द जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं। (3) स्वीट के अनुसार ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है। (4) वेन्द्रीय कहते हैं कि भाषा एक तरह का चिह्न है। चिह्न से आशय उन प्रतीकों से है जिनके द्वारा मानव अपना विचार दूसरों के समक्ष प्रकट करता है। ये प्रतीक कई प्रकार के होते हैं जैसे नेत्रग्राह्य, श्रोत्र ग्राह्य और स्पर्श ग्राह्य। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है। (5) ब्लाक तथा ट्रेगर- भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तन्त्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह सहयोग करता है। (6) स्त्रुत्वा – भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तन्त्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य सहयोग एवं समृपर्क करते हैं। (7) इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका - भाषा को यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तन्त्र है जिसके द्वारा मानव प्राणि एक सामाजिक समूह के सदस्य और सांस्कृतिक साझीदार के रूप में एक सामाजिक समूह के सदस्य संपर्क एवं सम्प्रेषण करते हैं। (8) ए. एच. गार्डिबर का मन्तव्य है-"The common definition of speech is the use of articulate sound symbols for the expression of thought." अर्थात् विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जिन व्यक्त एवं स्पष्ट भ्वनि-संकेतों का व्यवहार किया जाता है, उनके समूह को भाषा कहते हैं। (9) ‘‘भाषा यादृच्छिक वाचिक ध्वनि-संकेतों की वह पद्धति है, जिसके द्वारा मानव परम्परा विचारों का आदान-प्रदान करता है।’’A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a social group co-operates. - Outlines of linguistic analysis, b. Block and G.L. Trager, page 5. स्पष्ट ही इस कथन में भाषा के लिए चार बातों पर ध्यान दिया गया है- (1) भाषा एक पद्धति है, अर्थात् एक सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना या संघटन है, जिसमें कर्ता, कर्म, क्रिया, आदि व्यवस्थिति रूप में आ सकते हैं। (2) भाषा संकेतात्कम है अर्थात् इसमे जो ध्वनियाँ उच्चारित होती हैं, उनका किसी वस्तु या कार्य से सम्बन्ध होता है। ये ध्वनियाँ संकेतात्मक या प्रतीकात्मक होती हैं। (3) भाषा वाचिक ध्वनि-संकेत है, अर्थात् मनुष्य अपनी वागिन्द्रिय की सहायता से संकेतों का उच्चारण करता है, वे ही भाषा के अन्तर्गत आते हैं। (4) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यादृच्छिक से तात्पर्य है - ऐच्छिक, अर्थात् किसी भी विशेष ध्वनि का किसी विशेष अर्थ से मौलिक अथवा दार्शनिक सम्बन्ध नहीं होता। प्रत्येक भाषा में किसी विशेष ध्वनि को किसी विशेष अर्थ का वाचक ‘मान लिया जाता’ है। फिर वह उसी अर्थ के लिए रूढ़ हो जाता है। कहने का अर्थ यह है कि वह परम्परानुसार उसी अर्थ का वाचक हो जाता है। दूसरी भाषा में उस अर्थ का वाचक कोई दूसरा शब्द होगा। हम व्यवहार में यह देखते हैं कि भाषा का सम्बन्ध एक व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण विश्व तक है। व्यक्ति और समाज के बीच व्यवहार में आने वाली इस परम्परा से अर्जित सम्पत्ति के अनेक रूप हैं। समाज सापेक्षता भाषा के लिए अनिवार्य है, ठीक वैसे ही जैसे व्यक्ति सापेक्षता। भाषा संकेतात्मक होती है अर्थात् वह एक ‘प्रतीक-स्थिति' है। इसकी प्रतीकात्मक गतिविधि के चार प्रमुख संयोजक हैः दो व्यक्ति-एक वह जो संबोधित करता है, दूसरा वह जिसे संबोधित किया जाता है, तीसरी संकेतित वस्तु और चौथी-प्रतीकात्मक संवाहक जो संकेतित वस्तु की ओर प्रतिनिधि भंगिमा के साथ संकेत करता है। विकास की प्रक्रिया में भाषा का दायरा भी बढ़ता जाता है। यही नहीं एक समाज में एक जैसी भाषा बोलने वाले व्यक्तियों का बोलने का ढंग, उनकी उच्चारण-प्रक्रिया, शब्द-भण्डार, वाक्य-विन्यास आदि अलग-अलग हो जाने से उनकी भाषा में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। इसी को शैली कह सकते हैं।भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर, सुनकर, लिखकर व पढ़कर अपने मन के भावों या विचारों का आदान-प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में- जिसके द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और दूसरों के भावो को समझ सके उसे भाषा कहते है। सार्थक शब्दों के समूह या संकेत को भाषा कहते है। यह संकेत स्पष्ट होना चाहिए। मनुष्य के जटिल मनोभावों को भाषा व्यक्त करती है; किन्तु केवल संकेत भाषा नहीं है। रेलगाड़ी का गार्ड हरी झण्डी दिखाकर यह भाव व्यक्त करता है कि गाड़ी अब खुलनेवाली है; किन्तु भाषा में इस प्रकार के संकेत का महत्त्व नहीं है। सभी संकेतों को सभी लोग ठीक-ठीक समझ भी नहीं पाते और न इनसे विचार ही सही-सही व्यक्त हो पाते हैं। सारांश यह है कि भाषा को सार्थक और स्पष्ट होना चाहिए। बोली, विभाषा, भाषा और राजभाषा यों बोली, विभाषा और भाषा का मौलिक अन्तर बता पाना कठिन है, क्योंकि इसमें प्रमुख अन्तर व्यवहार-क्षेत्र के विस्तार पर निर्भर है। वैयक्तिक विविधता के चलते एक समाज में चलने वाली एक ही भाषा के कई रूप दिखाई देते हैं। मुख्य रूप से भाषा के इन रूपों को हम इस प्रकार देखते हैं- (1) बोली, (2) विभाषा, और (3) भाषा (अर्थात् परिनिष्ठित या आदर्श भाषा) बोली और भाषा में अन्तर होता है। यह भाषा की छोटी इकाई है। इसका सम्बन्ध ग्राम या मण्डल अर्थात सीमित क्षेत्र से होता है। इसमें प्रधानता व्यक्तिगत बोलचाल के माध्यम की रहती है और देशज शब्दों तथा घरेलू शब्दावली का बाहुल्य होता है। यह मुख्य रूप से बोलचाल की भाषा है, इसका रूप (लहजा) कुछ-कुछ दूरी पर बदलते पाया जाता है तथा लिपिबद्ध न होने के कारण इसमें साहित्यिक रचनाओं का अभाव रहता है। व्याकरणिक दृष्टि से भी इसमें विसंगतियाँ पायी जाती है। विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा विस्तृत होता है यह एक प्रान्त या उपप्रान्त में प्रचलित होती है। एक विभाषा में स्थानीय भेदों के आधार पर कई बोलियाँ प्रचलित रहती हैं। विभाषा में साहित्यिक रचनाएँ मिल सकती हैं। भाषा, या परिनिष्ठित भाषा अथवा आदर्श भाषा, विभाषा की विकसित स्थिति हैं। इसे राष्ट्र-भाषा या टकसाली-भाषा भी कहा जाता है। प्रायः देखा जाता है कि विभिन्न विभाषाओं में से कोई एक विभाषा अपने गुण-गौरव, साहित्यिक अभिवृद्धि, जन-सामान्य में अधिक प्रचलन आदि के आधार पर राजकार्य के लिए चुन ली जाती है और उसे राजभाषा के रूप में या राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता है। राज्यभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा किसी प्रदेश की राज्य सरकार के द्वारा उस राज्य के अन्तर्गत प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राज्यभाषा कहते हैं। यह भाषा सम्पूर्ण प्रदेश के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा बोलीऔर समझी जाती है। प्रशासनिक दृष्टि से सम्पूर्ण राज्य में सर्वत्र इस भाषा को महत्त्व प्राप्त रहता है। भारतीय संविधान में राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए हिन्दी के अतिरिक्त 22 अन्य भाषाएं राजभाषा स्वीकार की गई हैं। राज्यों की विधानसभाएं बहुमत के आधार पर किसी एक भाषा को अथवा चाहें तो एक से अधिक भाषाओं को अपने राज्य की राज्यभाषा घोषित कर सकती हैं। राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। प्रायः वह अधिकाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा होती है। प्रायः राष्ट्रभाषा ही किसी देश की राजभाषा होती है। भाषा के विभिन्न रूप जीवन के विभिन्न व्यवहारों के अनुरूप भाषिक प्रयोजनों की तलाश हमारे दौर की अपरिहार्यता है। इसका कारण यह है कि भाषाओं को सम्प्रेषणपरक प्रकार्य (फ़ंक्शन) कई स्तरों पर और कई सन्दर्भों में पूरी तरह प्रयुक्ति सापेक्ष होता गया है। प्रयुक्ति और प्रयोजन से रहित भाषा, अब भाषा ही नहीं रह गई है। भाषा की पहचान केवल यही नहीं कि उसमें कविताओं और कहानियों का सृजन कितनी सप्राणता के साथ हुआ है, बल्कि भाषा की व्यापकतर सम्प्रेषणीयता का एक अनिवार्य प्रतिफल यह भी है कि उसमें सामाजिक सन्दर्भों और नये प्रयोजनों को साकार करने की कितनी सम्भावना है। इधर संसार भर की भाषाओं में यह प्रयोजनीयता धीरे-धीरे विकसित हुई है और रोजी-रोटी का माध्यम बनने की विशिष्टताओं के साथ भाषा का नया आयाम सामने आया है : वर्गाभाषा, तकनीकी भाषा, साहित्यिक भाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, सम्पर्क भाषा, बोलचाल की भाषा, मानक भाषा आदि। बोलचाल की भाषा ‘बोलचाल की भाषा’ को समझने के लिए ‘बोली’ (Dialect , डायलेक्ट‌ ) को समझना आवश्यक है। ‘बोली’ उन सभी लोगों की बोलचाल की भाषा का वह मिश्रित रूप है जिनकी भाषा में पारस्परिक भेद को अनुभव नहीं किया जाता है। विश्व में जब किसी जन-समूह का महत्त्व किसी भी कारण से बढ़ जाता है तो उसकी बोलचाल की बोली ‘भाषा’ कही जाने लगती है, अन्यथा वह ‘बोली’ ही रहती है। स्पष्ट है कि ‘भाषा’ की अपेक्षा ‘बोली’ का क्षेत्र, उसके बोलने वालों की संख्या और उसका महत्त्व कम होता है। एक भाषा की कई बोलियाँ होती हैं क्योंकि भाषा का क्षेत्र विस्तृत होता है।जब कई व्यक्ति-बोलियों में पारस्परिक सम्पर्क होता है, तब बालेचाल की भाषा का प्रसार होता है, आपस में मिलती-जुलती बोली या उपभाषाओं में हुई आपसी व्यवहार से बोलचाल की भाषा को विस्तार मिलता है। इसे ‘सामान्य भाषा’ के नाम से भी जाना जाता है। यह भाषा बडे़ पैमाने पर विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त होती है। मानक भाषा भाषा के स्थिर तथा सुनिश्चित रूप को मानक या परिनिष्ठित भाषा कहते हैं। भाषाविज्ञान कोश के अनुसार ‘किसी भाषा की उस विभाषा को परिनिष्ठित भाषा कहते हैंजो अन्य विभाषाओं पर अपनी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक श्रेष्ठता स्थापित कर लेती है तथा उन विभाषाओं को बोलने वाले भी उसे सर्वाधिक उपयुक्त समझने लगते हैं।मानक भाषा शिक्षित वर्ग की शिक्षा, पत्राचार एवं व्यवहार की भाषा होती है। इसके व्याकरण तथा उच्चारण की प्रक्रिया लगभग निश्चित होती है। मानक भाषा को टकसाली भाषा भी कहते हैं। इसी भाषा में पाठ्य-पुस्तकों का प्रकाशन होता है। हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, संस्कृत तथा ग्रीक इत्यादि मानक भाषाएँ हैं। किसी भाषा के मानक रूप का अर्थ है, उस भाषा का वह रूप जो उच्चारण, रूप-रचना, वाक्य-रचना, शब्द और शब्द-रचना, अर्थ, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, प्रयोग तथा लेखन आदि की दृष्टि से, उस भाषा के सभी नहीं तो अधिकांश सुशिक्षित लोगों द्वारा शुद्ध माना जाता है।मानकता अनेकता में एकता की खोज है, अर्थात यदि किसी लेखन या भाषिक इकाई में विकल्प न हो तब तो वही मानक होगा, किन्तु यदि विकल्प हो तो अपवादों की बात छोड़ दें तो कोई एक मानक होता है। जिसका प्रयोग उस भाषा के अधिकांश शिष्ट लोग करते हैं। किसी भाषा का मानक रूप ही प्रतिष्ठित माना जाता है। उस भाषा के लगभग समूचे क्षेत्र में मानक भाषा का प्रयोग होता है। 'मानक भाषा' एक प्रकार से सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक होती है। उसका सम्बन्ध भाषा की संरचना से न होकर सामाजिक स्वीकृति से होता है।मानक भाषा को इस रूप में भी समझा जा सकता है कि समाज में एक वर्ग मानक होता है जो अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण होता है तथा समाज में उसी का बोलना-लिखना, उसी का खाना-पीना, उसी के रीति-रिवाज़ अनुकरणीय माने जाते हैं। मानक भाषा मूलत: उसी वर्ग की भाषा होती है। अंग्रेजी में इसे 'स्टैंडर्ड लैंग्वेज' कहा जाता है। सम्पर्क भाषा अनेक भाषाओं के अस्तित्व के बावजूद जिस विशिष्ट भाषा के माध्यम से व्यक्ति-व्यक्ति, राज्य-राज्य तथा देश-विदेश के बीच सम्पर्क स्थापित किया जाता है उसे सम्पर्क भाषा कहते हैं। एक ही भाषा परिपूरक भाषा और सम्पर्क भाषा दोनों ही हो सकती है।आज भारत मे सम्पर्क भाषा के तौर पर हिन्दी प्रतिष्ठित होती जा रही है जबकि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी संपर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो गई है। सम्पर्क भाषा के रूप में जब भी किसी भाषा को देश की राष्ट्रभाषा अथवा राजभाषा के पद पर आसीन किया जाता है तब उस भाषा से कुछ अपेक्षाएँ भी रखी जाती हैं। जब कोई भाषा ‘सम्पर्क भाषा’ के रूप में उभरती है तब राष्ट्रीयता या राष्ट्रता से प्रेरित होकर वह प्रभुतासम्पन्न भाषा बन जाती है। यह तो आवश्यक नहीं कि मातृभाषा के रूप में इसके बोलने वालों की संख्या अधिक हो पर द्वितीय भाषा के रूप में इसके बोलने वाले बहुसंख्यक होते हैं। राजभाषा जिस भाषा में सरकार के कार्यों का निष्पादन होता है उसे राजभाषा कहते हैं। कुछ लोग राष्ट्रभाषा और राजभाषा में अन्तर नहीं करते और दोनों को समानार्थी मानते हैं। परन्तु दोनों के अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। राष्ट्रभाषा सारे राष्ट्र के लोगों की सम्पर्क भाषा होती है जबकि राजभाषा केवल सरकार के कामकाज की भाषा है। भारत के संविधान के अनुसार हिन्दी संघ सरकार की राजभाषा है। राज्य सरकार की अपनी-अपनी राज्य भाषाएँ हैं। राजभाषा जनता और सरकार के बीच एक सेतु का कार्य करती है। किसी भी स्वतन्त्र राष्ट्र की उसकी अपनी स्थानीय राजभाषा उसके लिए राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान का प्रतीक होती है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों की अपनी स्थानीय भाषाएँ राजभाषा हैं। आज हिन्दी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रभाषा देश के विभिन्न भाषा-भाषियों में पारस्परिक विचार-विनिमय की भाषा को राष्ट्रभाषा कहते हैं। राष्ट्रभाषा को देश के अधिकतर नागरिक समझते हैं, पढ़ते हैं या बोलते हैं। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उस देश के नागरिकों के लिए गौरव, एकता, अखण्डता और अस्मिता का प्रतीक होती है। महात्मा गांधी जी ने राष्ट्रभाषा को राष्ट्र की आत्मा की संज्ञा दी है। एक भाषा कई देशों की राष्ट्रभाषा भी हो सकती है; जैसे अंग्रेजी आज अमेरिका, इंग्लैण्ड तथा कनाडा इत्यादि कई देशों की राष्ट्रभाषा है। संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो नहीं दिया गया है किन्तु इसकी व्यापकता को देखते हुए इसे राष्ट्रभाषा कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में राजभाषा के रूप में हिन्दी, अंग्रेजी की तरह न केवल प्रशासनिक प्रयोजनों की भाषा है, बल्कि उसकी भूमिका राष्ट्रभाषा के रूप में भी है।। वह हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा है। महात्मा गांधी जी के अनुसार किसी देश की राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जो सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज और सुगम हो; जिसको बोलने वाले बहुसंख्यक हों और जो पूरे देश के लिए सहज रूप में उपलब्ध हो। उनके अनुसार भारत जैसे बहुभाषी देश में हिन्दी ही राष्ट्रभाषा के निर्धारित अभिलक्षणों से युक्त है। उपर्युक्त सभी भाषाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। इसलिए यह प्रश्न निरर्थक है कि राजभाषा, राष्ट्रभाषा, सम्पर्क भाषा आदि में से कौन सर्वाधिक महत्त्व का है, आवश्यकता है हिन्दी को अधिक व्यवहार में लाने की। भारत की भाषाएँ भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है। 1950 में भारतीय संविधान की स्थापना के समय में, मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 14 थी। आठवीं अनुसूची में तदोपरान्त जोड़ी गई भाषाएँ सिन्धी, कोंकणी, नेपाली, मणिपुरी, मैथिली, डोगरी, बोडो और सन्थाली है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यांवयन (कार्यान्वयन) मन्त्रालय की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार पहचान योग्य मातृभाषाओं की संख्या 234 है। शास्त्रीय भाषा का दर्जा पाने वाली पहली भाषा तमिल है। शास्त्रीय भाषा का दर्जा पाने वाली अन्य भाषाएँ संस्कृत, कन्नड़, मलयालम, तेलुगू और उड़िया है। नागालैंड की राजभाषा अंग्रेजी है, जम्मू और कश्मीर की राजभाषा उर्दू है, गोवा की राजभाषा कोंकणी है। भारत के संविधान द्वारा निर्धारित सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय की राजभाषा अंग्रेजी है। लक्षद्वीप की प्रमुख भाषाएँ– जेसरी (द्वीप भाषा) और महल है। सामान्यतः पुडुचेरी (पूर्व में पांडिचेरी) में बोली जाने वाली विदेशी भाषा फ्रेंच है। 'पूर्व की इतालवी' कही जाने वाली भारतीय भाषा तेलुगु है। भारत का एकमात्र राज्य जहाँ संस्कृत राजभाषा मे रूप में मान्य है – उत्तराखण्ड। अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह के प्रमुख भाषाएँ हिन्दी, निकोबारी, बंगाली, तमिल, मलयालम और तेलुगू। अंग्रेजी मान्यता प्राप्त भाषाओं की सूची में नहीं है। जम्मू एवं कश्मीर में कश्मीरी डोगरी और हिन्दी है। हिमाचल प्रदेश में हिन्दी, पंजाबी और [[नेपाली है। हरियाणा में हिन्दी, पंजाबी और हरियाणवी है। पंजाब में पंजाबी व हिन्दी है। उत्तराखण्ड में हिन्दी, पहाड़ी (गढ़वाली ,कुमाँऊनी ,जौनसारी), उर्दू, पंजाबी और नेपाली है। दिल्ली में हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और बंगाली है। उत्तर प्रदेश में हिन्दी व उर्दू है। राजस्थान में हिन्दी, पंजाबी और उर्दू है। मध्य प्रदेश में हिन्दी,मराठी और उर्दू है। पश्चिम बंगाल बंगाली, हिन्दी, संताली, उर्दू, नेपाली है। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी व हिन्दी है। बिहार में हिन्दी, मैथिली और उर्दू हैं। झारखण्डमें हिन्दी, संताली, बंगाली और उर्दू है। सिक्किम में नेपाली, हिन्दी, बंगाली है। अरुणाचल प्रदेश में बंगाली, नेपाली, हिन्दी और असमिया है। नागालैण्ड में बंगाली, हिन्दी और नेपाली है। मिजोरम में बंगाली, हिन्दी और नेपाली है। असम में असमिया, बंगाली, हिन्दी, बोडो और नेपाली है। त्रिपुरा में बंगाली व हिन्दी है। मेघालय में बंगाली, हिन्दी और नेपाली है। मणिपुर में मणिपुरी, नेपाली, हिन्दी और बंगाली है। ओडिशा में ओड़िया, हिन्दी, तेलुगु और संताली है। महाराष्ट्र में मराठी, हिन्दी, उर्दू और गुजराती है। गुजरात में गुजराती, हिन्दी, सिन्धी, मराठी और उर्दू है। कर्नाटक में कन्नड़, उर्दू, तेलुगू, मराठी और तमिल है। दमन और दीव में गुजराती, हिन्दी और मराठी है। दादरा और नगर हवेली में गुजराती, हिन्दी, कोंकणी और मराठी है। गोवा में कोंकणी मराठी, हिन्दी और कन्नड़ है। आन्ध्र प्रदेश में तेलुगु उर्दू, हिन्दी और तमिल है। केरल में मलयालम है। लक्षद्वीप में मलयालम है। तमिलनाडु में तमिल तेलुगू, कन्नड़ और उर्दू‌ है। पुडुचेरी में तमिल तेलुगू, कन्नड़ और उर्दू है। अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह में बंगाली, हिन्दी, तमिल, तेलुगू और मलयालम है। इन्हें भी पढ़ें भाषाई साम्राज्यवाद भाषावसान भाषाभाषियों की संख्या के अनुसार भाषाओं की सूची लिपि लिपि के अनुसार भाषाओं की सूची सांकेतिक भाषा सन्दर्भ सम्बन्धित पुस्तकें भाषा विज्ञान - भोला नाथ तिवारी, किताब महल, नई दिल्ली, 1951 भाषा और समाज - रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली बाहरी कड़ियाँ भाषा और समाज (गूगल पुस्तक ; लेखक - डॉ राम विलास शर्मा) भाषा का संसार (गूगल पुस्तक ; लेखक - प्रो॰ दिलीप सिंह) कोई भी भाषा कैसे सीखें ? World language Resources - All the resources for all languages) भारत भाषा नीति, एक नई सोच (संक्रान्त सानु) भाषा किसे कहते है (गूगल से विस्तृत जानकारी) श्रेणी:भाषा श्रेणी:भाषा-विज्ञान श्रेणी:समाजशास्त्र श्रेणी:संस्कृति
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ
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महात्मा गाँधी
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अनुप्रेषित महात्मा गांधी नामक लेख देखें
भारत के भाषा परिवार
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आस्ट्रो-एशियाई भाषा परिवार
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एयरपोर्ट
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हवाई यातायात
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टुसू पर्व
https://hi.wikipedia.org/wiki/टुसू_पर्व
टुसू पर्व या टुसू परब भारत में अगहन माह से पौष माह के अंतिम दिन यानी मकर संक्रांति पर आयोजित होने वाला एक लोक उत्सव है। यह फसलों की कटाई के आनंद में कृषि समाज के विश्वास का एक एकीकृत रूप है।  उत्सव के अंत में, टूसू देवी की छवि का विसर्जन टुसू गीतों के साथ विशद रूप से किया जाता है। त्योहार के दौरान ग्रामीण मेलों का भी आयोजन किया जाता है।  टुसू त्योहार, ज्यादातर पश्चिम बंगाल के दक्षिण पश्चिम, झारखंड के दक्षिण पूर्व, पूर्वोत्तर ओडिशा के साथ-साथ असम के चाय-राज्य में मनाया जाता है। thumb|टुसू परब टूसू एक धर्मनिरपेक्ष त्योहार है और सभी जातियों और धर्मों के लोगों द्वारा मनाया जाता है, जैसे कि ईसाई, हिंदू, गैर-हिंदू, आदिवासी, सभी। टुसू परब मुख्यत: भूमिज, कोरा, मुंडा, संथाल, खड़िया, हो, गोंड, चिक बड़ाइक, उरांव, खेरवार, माहली, लोहरा, सबर, करमाली, कुड़मी महतो, लोधा, बागाल, भुइंया, गोंझू और अन्य समुदायों द्वारा धूमधाम से मनाया जाता है। टुसू पर्व को तीन प्रमुख नामों से भी जाना जाता है - टुसू परब, मकर परब और पौष परब। परंपरा और त्योहार पौष माह के अंतिम दिन मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है। मकर संक्रांति के पहले दिन "बांउड़ी" मनाया जाता है, जिसमें लोग त्योहार के लिए वस्तुओं की खरीदारी करते हैं। अगले दिन मकर संक्रांति का त्योहार मनाया जाता है। मकर संक्रांति के अगले दिन "आखाईन जातरा" मनाया जाता है। आमतौर पर बांउड़ी तक खलिहान का कार्य समाप्त हो जाता है और आखाईन जातरा के दिन किसान कृषि कार्य का प्रारंभ करता है। इस दिन नये कार्यों की शुरुआत शुभ माना जाता है। आखाँइन जातरा के दिन भूमिज आदिवासी लोग "भेंजा बिंधा" (बिंधा परब) और कुड़मी महतो लोग "पीठा परब" भी मनाते हैं। मकर परब के दौरान बनाए जाने वाली "पीठा" (एक प्रकार का पकवान) भारतीय सांस्कृतिक विरासत का ही एक अंग है। मकर परब में गुड़ पीठा सबसे प्रसिद्ध है। गांवों में अरवा चावल को लकड़ी की ढेंकी में कूटा जाता है, फिर उसमें गुड़, बादाम, आदि सामग्री मिलाकर गुड़ पीठा बनाया जाता है। इसके अलावा संथाल और भूमिज आदिवासियों में "जीलू पीठा" (मांस पीठा) और "धुम्बु पीठा" (ढुम्बु पीड़ा) भी बहुत प्रचलित है। मांस पीठा में चावल की आटा में मांस, प्याज, मिर्च और मसाले मिलाकर बनाया जाता है। धुम्बु पीठा अरवा चावल के गोले में गुड़ डालकर, मिट्टी के बर्तन में पुआल में रखकर बनाया जाता है। thumb|नदी तट पर टुसू मेला का आयोजन मकर परब के दिन से महीनों तक झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में नदी तटों पर टुसू मेला का आयोजन किया जाता है। लोग टुसू की मुर्ति और मंदिर की तरह "चौड़ाल" बनाकर मेले में जाते हैं, और भूमिज, संथाल, कुड़मी महतो, मुंडा, लोधा समुदाय के लोग टुसू गीत गाते हैं। कहानी टुसू परब मनाने के पीछे अनेक कहानियां और कथाएं बताई जाती है, जो निम्न हैं — भूमिज और संथाल लोगों में प्रचलित कहानी के अनुसार, गुजरात के एक राजा की रुक्मिणी नामक पुत्री थी, जिसे टुसू नाम से भी पुकारा जाता था। राजकुमारी टुसू को पंजाब के एक राजकुमार सीताराम से प्रेम हुआ। लेकिन एक मुग़ल बादशाह रुक्मिणी की सुंदरता से आकर्षित होकर उसे पाना चाहता था। बादशाह को दोनों के रिश्ते का पाता चला, प्रेमियों को मुगल बादशाह के क्रोध से भागना पड़ा। दोनों भागकर संतालों के राज्य से होते हुए भूमिजों के राज्य में पहुंचे, जहां एक भूमिज राजा ने उन दोनों का विवाह कराया। कुछ दिन बाद, रुक्मिणी (टुसू) के पति सीताराम का निधन हो गया। व्याकुल टूसू अपने प्रेमी के बिना जीवन का सामना नहीं कर सकी और पति की जलती चिता में कूद गई। इसके बाद से ही भूमिज, संथाल और कुड़मी टुसू पर्व को टुसू देवी की दया, सदाचार, प्रेम और बलिदान के प्रतीक के रूप में मानते हैं। अन्य प्रचलित कहानी के अनुसार, टुसू परब टुसूमनी नामक युवती के स्वाभिमान की गाथा से जुड़ा है। टुसूमनी एक गरीब किसान की अत्यंत सुंदर कन्या थी। सम्पूर्ण राज्य में उसकी सुंदरता की चर्चा होने लगी, यह खबर एक क्रुर मुग़ल राजा के दरबार तक पहुंची। कन्या को प्राप्त करने के लिए राजा ने षड्यंत्र रचना प्रारंभ कर दिया। संयोग से उस साल राज्य में भीषण अकाल पड़ गया। किसान लगान देने की स्थिति में नहीं थे। इसी स्थिति का फायदा उठाने के लिए राजा ने कृषि कर दोगुना कर दिया। किसानों ने कृषि कर माफी की मांग की, राजा ने कर माफी के बदले टुसूमनी की इच्छा की। लेकिन टुसूमनी ने राजा के आगे घुटने टेकने के बजाय जलसमाधि लेने का फैसला लिया और उफनती स्वर्णरेखा नदी के सतीघाट स्थल पर कूद गई। उनकी इस कुर्बानी की याद में ही टुसू पर्व मनाया जाता है। एक अन्य कथा के अनुसार, एक कुरमी किसान की सरला, भादू और टुसूमनी नामक तीन पुत्री थीं। जिनमें टुसूमनी अधिक रूपवती और गुणवती थी। उस समय भारत में मुगलों का शासन था। खूबसूरत होने के कारण मुगल बादशाह टुसूमनी को जबरन अपनाना चाहता था। टुसूमनी ने अपनी इज्जत बचाने के लिए पौष माह में मकर संक्रांति के दिन स्वर्णरेखा नदी में कूदकर जान दे दी। इन्हें भी देखें आखाँइन जातरा सन्दर्भ श्रेणी:पश्चिम बंगाल की संस्कृति
झारखन्ड
https://hi.wikipedia.org/wiki/झारखन्ड
REDIRECT झारखण्ड
भारत के राज्य
https://hi.wikipedia.org/wiki/भारत_के_राज्य
पुनर्प्रेषित भारत के राज्य तथा केन्द्र-शासित प्रदेश
बीजिंग
https://hi.wikipedia.org/wiki/बीजिंग
बेजिंग या पीकिंग/पेकिंग (北京 पेइचीङ) चीनी जनवादी गणराज्य, की राजधानी है। बीजिंग का अर्थ है "उत्तरी राजधानी", जबकि नान्जिंग का अर्थ है "दक्षिणी राजधानी"। बीजिंग १९४९ में साम्यवादी क्रान्ति के बाद से निरन्तर चीन की राजधानी है और उस समय तक यह विभिन्न कालों में अलग-अलग अवधियों तक चीन की राजधानी रहा है। बीजिंग, देश के उत्तरपूर्वी भाग में स्थित है और चार नगरपालिकाओं में से एक है। इसका अर्थ है कि इन चारों नगरपालिकाओं को प्रान्तों के बराबर दर्जा प्राप्त है और यह उसी प्रकार का स्वशासन चलाते हैं जैसे कि कोई अन्य प्रान्त। १८२८ से पूर्व बीजिंग विश्व का सबसे बड़ा नगर था। मध्य बीजिंग में जनवरी २००७ में लगभग ७६ लाख लोग रह रहे थे। उपनगरीय क्षेत्रों को मिलाकर यहां की कुल जनसंख्या १ करोड़ ७५ लाख के लगभग है, जिसमें से १ करोड़ २० लाख के लगभग स्थाई निवासियों के रूप में पंजीकृत हैं और शेष ५५ लाख लोग अस्थाई अप्रवासी निवासी हैं। बीजिंग और उपनगरीय क्षेत्र का कुल क्षेत्रफल बेल्जियम का लगभग आधा है। https://web.archive.org/web/20180320110417/http://tjj.beijing.gov.cn/English/PR/201801/t20180125_391609.html बीजिंग, चीन का सांस्कृतिक और राजनैतिक केन्द्र है, जबकि चीन का सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर शंघाई देश का वित्तीय केन्द्र है और जो हांगकांग के साथ इस पदवी के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा में है। अपने पूरे दीर्घकालिक इतिहास के दौरान बीजिंग ने अपनी एक विविध और विशिष्ट विरासत का विकास किया है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका, बीजिंग को "विश्व के महानतम" नगरों में से एक मानता है"Peking (Beijing)". Encyclopædia Britannica. 25 (15th edition, Macropædia ed.). pp. 468.। सबसे प्रसिद्ध है त्यानमन चौक, जहां से "निषिद्ध नगर", "शाही महल" और "निषिद्ध नगर के मन्दिर" का मार्ग जाता है, जो १९८७ से यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है। यूनेस्कों सूची में "स्वर्ग का मन्दिर", "ग्रीष्मकालीन महल", "लामा मन्दिर" और "कन्फ़्यूशियस मन्दिर" भी हैं। [[File:BeijingWatchTower.jpg| १९८९ में बीजिंग में त्यानमन चौक पर छात्र विद्रोह हुआ था जिसे चीन की साम्यवादी सरकार ने क्रूरता से कुचल दिया था। छात्र लोग लोकतन्त्र की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। अगस्त २००८ में यहां २००८ ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेलों का आयोजन किया गया था। नाम बीजिंग का अर्थ है "उत्तरी राजधानी"। बीजिंग के समकक्ष नान्जिंग नगर रहा है, जो मिंग साम्राज्य की दक्षिणी राजधानी था। (जबकि नान्जिंग का अर्थ है दक्षिण राजधानी, टोक्यो का अर्थ है राजधानी और हनोई का अर्थ है पूर्वी राजधानी)। बीजिंग के प्रशासनिक क्षेत्र thumb|right बीजिंग महानगरीय क्षेत्र १८ जिलों में विभाजित है, जो चार क्षेत्रों में बँटे हुए हैं: भीतरी राजधानी जिला क्षेत्रफल: ९२.३९ किमी२, जनसंख्या: २०,५२,००० (२००५), जिले: चोंग्वेन, डोंग चेन, श़ीचेंग, श़ूआन्वू। बाहरी महानगरीय जिला क्षेत्रफल: १,२७५.९३ किमी२, जनसंख्या: ७४,८०,००० (२००५), जिले: चाओयांग, फ़ेंग्ताई, हाइदान, शीजिंगशान। नवीन बस्ती क्षेत्र क्षेत्रफल: ६,२९५.५७ किमी२, जनसंख्या: ४१,१६,००० (२००५), जिले: चांग्पिंग, दाक्श़ीग, फ़ांग्शान, शुन्यी, तोंग्झोऊ। पारिस्थितिक सुरक्षा जिला क्षेत्रफल: ८,७४६.६५ किमी२, जनसंख्या: १७,३२,०००, (२००५), जिले: हुआइरोउ, मेन्तोउगोउ, मियून, पिंग्गू, यांग्किंग। चित्र दीर्घा भगिनी नगर एम्सटर्डम, नीदरलैण्ड (१९९४ से) अंकारा, तुर्की (१९९० से) बैंकाक, थाईलैण्ड (१९९३ से) बेल्ग्रेड, सर्बिया (१९८० से) बर्लिन, जर्मनी (१९९४ से) ब्रुसेल्स, बेल्जियम (१९९४ से) ब्यूनस आयर्स, अर्जेण्टीना (१९९१ से) काहिरा, मिस्र (१९९० से) कैनबरा, ऑस्ट्रेलिया (२००० से) गौटेंग, दक्षिण अफ़्रीका (१९९८ से) हनोई, वियतनाम (१९९४ से) इल-दा-फ़्रान्स, फ़्रान्स (१९८७ से) इस्लामाबाद, पाकिस्तान (१९९२ से) जकार्ता, इण्डोनेशिया (१९९२ से) कोलोन, जर्मनी (१९८७ से) कीव, यूक्रेन (१९९३ से) लीमा, पेरू (१९८३ से) मैड्रिड, स्पेन (१९८५ से) मॉस्को, रूस (१९९५ से) न्यूयॉर्क नगर, संयुक्त राज्य अमेरिका (१९८० से) ओटावा, कनाडा (१९९९ से) पेरिस, फ़्रान्स (१९९७ से) रियो डि जेनेरो, ब्राज़ील (१९८६ से) रोम, इटली (१९९८ से) सियोल, दक्षिण कोरिया (१९९३ से) तेल अवीव, इस्राइल टोक्यो, जापान (१९७९ से) वॉशिंगटन डी॰ सी॰, संयुक्त राज्य अमेरिका (१९८४ से) सन्दर्भ See also बीजिंग मेट्रो बाहरी कडियां बीजिंग सरकार भूमि से दिल्ली के लिए बीजिंग श्रेणी:चीनी जनवादी गणराज्य के नगर श्रेणी:एशिया में राजधानियाँ
मंडी, हिमाचल प्रदेश
https://hi.wikipedia.org/wiki/मंडी,_हिमाचल_प्रदेश
मंडी (Mandi), जिसका पूर्वनाम मांडव नगर (Mandav Nagar) था और तिब्बती नाम ज़होर (Zahor) है, भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के मंडी ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है और ब्यास नदी के किनारे बसा हुआ हिमाचल का एक महत्वपूर्ण धार्मिक व सांस्कृतिक केन्द्र भी है।"Himachal Pradesh, Development Report, State Development Report Series, Planning Commission of India, Academic Foundation, 2005, ISBN 9788171884452"Himachal Pradesh District Factbook," RK Thukral, Datanet India Pvt Ltd, 2017, ISBN 9789380590448 विवरण मंडी ज़िला जनसंख्या में शिमला के बाद यह राज्य का दूसरा सबसे बड़ा जिला है। मंडी नगर राज्य की राजधानी, शिमला, से 145 किलोमीटर (90 मील) उत्तर में स्थित है। यह पर्यटन की दृष्टि से महत्व रखता है और यहाँ आयोजित नवरात्रि मेला प्रसिद्ध है। इसे "वाराणसी ऑफ हिल्स" या "छोटी काशी" या "हिमाचल की काशी" के रूप में जाना जाता है। मंडी के लोगों का गर्व से दावा है कि जबकि बनारस (काशी) केवल 80 मंदिर है, मंडी 81 है। यह कभी मंडी रियासत की राजधानी हुआ करती थी। मंडी नगर की स्थापना अजबर सेन द्वारा सन् 1527 में हुई। मंडी रियासत सन् 1948 तक अस्तित्व में रही। बाद में मुख्य शहर पुरानी मंडी से नई मंडी में स्थानांतरित करा गया। इसके पश्चिमोत्तर में हिमालय की श्रेणियाँ 1044 मीटर (3425 फुट) की औसत रखती हैं। शहर गर्मियों में सुखद और सर्दियों में ठंडा रहता है। शहर में कई पुराने महल और वास्तुकला के उल्लेखनीय उदाहरण के अवशेष हैं। राजमार्ग मंडी को पठानकोट, मनाली और चंडीगढ़ से जोड़ते हैं। 184.6 किमी (114.7 मील) दूर स्थित चंडीगढ़ निकटतम बड़ा शहर है। दिल्ली यहाँ से 440.9 किमी (273.9 मील) दूर है। शहर का नाम ऋषि माण्डव पर पड़ा था। मान्यात है कि यहाँ की चट्टाने उनकी तपस्या की गंभीरता के कारण काली हो गई। परिचय व्‍यास नदी के किनारे बसा हिमाचल प्रदेश का ऐतिहासिक नगर मंडी लंबे समय से व्‍यवसायिक गतिविधियों का केन्‍द्र रहा है। समुद्र तल से 760 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह नगर हिमाचल के तेजी से विकसित होते शहरों में एक है। कहा जाता है महान संत मांडव ने यहां तपस्‍या की और उनके पास अलौकिक शक्तियां थी। साथ ही उन्‍हें अनेक ग्रन्‍थों का ज्ञान था। माना जाता है कि वे कोल्‍सरा नामक पत्‍थर पर बैठकर व्‍यास नदी के पश्चिमी तट पर बैठकर तपस्‍या किया करते थे। यह नगर अपने 81 ओल्‍ड स्‍टोन मंदिरों और उनमें की गई शानदार नक्‍कासियों के लिए के प्रसिद्ध है। मंदिरों की बहुलता के कारण ही इसे पहाड़ों के वाराणसी नाम से भी जाना जाता है। मंडी नाम संस्‍कृत शब्‍द मंडोइका से बना है जिसका अर्थ होता है खुला क्षेत्र। दर्शनीय स्थल रिवालसर झील मंडी से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रिवालसर झील अपने बहते रीड के द्वीपों के लिए लो‍कप्रिय हैं। कहा जाता है कि इनमें से सात द्वीप हवा और प्रार्थना से हिलते हैं। प्रार्थना के लिए यहां एक बौद्ध मठ, हिन्‍दु मंदिर और एक सिख गुरूद्वारा बना हुआ है। इन तीनों धार्मिक संगठनों की ओर से यहां नौकायन की सुविधा मुहैया कराई जाती है। इसी स्‍थान पर बौद्ध शिक्षक पद्मसंभव ने अपने एक शिष्य को धर्मोपदेश देने के लिए नियुक्‍त किया था। यहाँ पर अनेक मनोहर स्थल है, जहाँ कई फिल्मों की शूटिंग भी हुई है। जैसे- बरसात। यह माँ नैना देवी की तलहटी में स्थित है, तथा इस स्थान को त्रिवेणी के नाम से भी जाना जाता है। त्रिलोकनाथ शिव मंदिर नागरी शैली में बने इस मंदिर की छत टाइलनुमा है। यहां से आसपास के सुंदर नजारे देखे जा सकते हैं। मंदिर से नदी और आसपास के क्षेत्रों का खूबसूरत नजारा देखा जा सकता है। यहां भगवान शिव को तीनों लोकों के भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। मंदिर में स्थित भगवान शिव की मूर्ति पंचानन है जो उनके पांच रूपों को दिखाती है। भूतनाथ मंदिर मंडी के बीचों-बीच स्थित इस मंदिर का निर्माण 1527 में किया गया था। यह मंदिर उतना ही पुराना है जितना कि यह शहर। मंदिर में स्‍थापित नंदी बैल की प्रतिमा बुर्ज की ओर देखती प्रतीत होती हे। पास ही बना नया मंदिर खूबसूरती से बनाया गया है। मार्च के महीने में यहां शिवरात्रि का उत्‍सव मनाया जाता है जिसका केंद्र भूतनाथ मंदिर होता है। श्यामाकाली मंदिर टारना पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर को टारना देवी मंदिर भी कहा जाता है। राजा श्‍याम सेन ने 1658 ई० में इस मंदिर का निर्माण कराया था। अपने वारिस के पैदा होने की खुशी में देवी को धन्‍यवाद देने के लिए उन्‍होंने यह मंदिर बनवाया। भगवान शिव की पत्‍नी सती को समर्पित इस मंदिर का पौराणिक महत्‍व है। सुंदरनगर मंडी से 26 किलोमीटर दूर सुंदरनगर अपने मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। खूबसूरत हरीभरी घ‍ाटियों के इस क्षेत्र में ऊंचें ऊंचें पेड़ों की छाया में चलना बहुत की सुखद अनुभव होता है। पहाड़ी के ऊपर सुकदेव वाटिका और महामाया का मंदिर है जहां प्रतिवर्ष हजारों भक्‍त आते हैं। एशिया का सबसे बड़ा हाइड्रो इलैक्ट्रिक प्रोजेक्‍ट सुंदरनगर का ही हिस्‍सा है। साथ ही यहाँ एक अत्यन्त मनोहर झील भी है। यहाँ का रात्री दृश्य बहुत ही सुन्दर होता है। शितला माता व कुमारी माता का मन्दिर भी दर्शनीय है। यहाँ स्नातकोत्तर संस्कृत महाविद्यालय भी है, जिसमें संस्कृत पढ़ने की उत्तम व्यवस्था है। जंजैहली मंडी से जंजैहली 82 किलोमीटर है यह एक बहुत ही रमणीय स्थल है तथा भविष्य में यह हिमाचल का तथा भारत का प्रसिद्द पर्यटन स्थल बनने की कगार पर है मंडी से आप इस रमणीय स्थल तक वाया चैलचौक-थुनाग से पहुँच सकते है यह स्थल आपके हृदय को भा जाएगा ऊँचे ऊँचे पहाड़ तथा बर्फ से ढके पहाड़ आपका मन मोह लेंगे अर्द्धनारीश्‍वर मंदिर सातवीं शताब्‍दी में बना यह मंदिर स्‍थापत्‍य कला का बेजोड नमूना है। भगवान शिव की सुंदर प्रतिमा यहां स्‍थापित है। प्रतिमा आधे पुरूष और आधी महिला के रूप में है, जो एक दर्शाती है नारी और पुरूष दोनों को अस्तित्‍व एक दूसरे पर निर्भर है। तत्ता पानी तत्ता पानी का मतलब गर्म पानी होता है। चारों ओर पहाड़ों से घिरा तत्‍ता पानी यह सतलुज नदी के सतलुज नदी के दायें तट पर स्थित है। जिस घाटी पर यह स्थित है वह बेहद खूबसूरत है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 656 मीटर है। प्राकृतिक सल्‍फर युक्‍त इसका पानी बहुत शुद्ध और अलौकिक शक्तियों से युक्‍त माना जाता है। कहा जाता है कि इसके पानी से बहुत-से राजाओं के शरीर के रोग ठीक हो गए थे। सतलुज नदी के जल में उतार-चढ़ाव के साथ्‍ा इसके जल में उतार-चढ़ाव आता रहता है। बरोट बरोट एक शानदार पिकनिक स्‍थल के रूप में लोकप्रिय है। मंडी से 65 किलोमीटर दूर मंडी-पठानकोट हाइवे पर यह स्थित है। यहां का रोपवे और फिशिंग की सुविधाएं पर्यटकों को काफी आकर्षिक करती हैं। शिकारी देवी मंदिर समुद्र तल से 3332 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर मानवीय शोर-शराबे एक एकदम मुक्‍त है। सूर्योदय और सूर्यास्‍त के मनमोहक नजारे यहां से बहुत ही सुंदर दिखाई देते हैं। चैल चौक, जंजैहली,करसोग और गोहर से होते हुए यहां पहुंचा जा सकता है। कमरुनाग कमरुनाग मंडी जिले में सबसे ज्यादा पूजनीय देवता है इसे वर्षा का देवता भी कहा जाता है ऊँची पहाड़ियों में चारों और से देवदारों से घिरे इस देवता का मन्दिर है हर वर्ष जून -जुलाई में यहाँ मेले का आयोजन होता है हजारों लोग पैदल यात्रा करके यहाँ पहुंचते है यहाँ तक श्रद्धालु वाया चैलचौक ,रोहांडा,करसोग से होकर आ सकते हैं शांत वादियों में स्थित इस स्थल की अपनी ही एक पहचान है पराशर पराशर झील मण्डी से 47 किलोमीटर दूर उत्‍तर दिशा में स्थित है। इसकी लोकप्रियता का कारण यहां बना एक तिमंजिला मंदिर है। पैगोड़ा शैली में बना यह मंदिर संत पराशर को समर्पित है। आवागमन वायु मार्ग हिमाचल प्रदेश का भुंतर हवाई अड्डा मंडी का निकटतम हवाई अड्डा है। मंडी से इस हवाई अड्डे की दूरी लगभग 63 किलोमीटरहै। रेल मार्ग मंडी का निकटतम रेलवे स्टेशन कीरतपुर में है जो यहां से 125 किमी की दूरी पर है। सड़क मार्ग सड़क मार्ग से चंडीगढ़, पठानकोट, शिमला, कुल्‍लू, मनाली और दिल्‍ली से मंडी पहुंचा जा सकता है। हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम की अनेक बसें मनाली, कुल्‍लू, चंडीगढ़, शिमला और दिल्‍ली से मंडी के लिए चलती हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 3 और राष्ट्रीय राजमार्ग 154 यहाँ से गुज़रते हैं। चित्रावली इन्हें भी देखें मंडी ज़िला हिमाचल प्रदेश सन्दर्भ श्रेणी:हिमाचल प्रदेश के शहर श्रेणी:मंडी ज़िला श्रेणी:मंडी ज़िले के नगर * श्रेणी:हिमाचल प्रदेश में पर्यटन आकर्षण
मगही भाषा
https://hi.wikipedia.org/wiki/मगही_भाषा
मगही या मागधी भाषा भारत के मध्य पूर्व में बोली जाने वाली एक प्रमुख भाषा है। मागधी भाषा से ही भोजपुरी, मैथिली,अंगिका, वज्जिका,खोरठा, भाषा निकला गया हैं.इसका निकट का संबंध भोजपुरी और मैथिली भाषा से है और अक्सर ये भाषाएँ एक ही साथ बिहारी भाषा के रूप में रख दी जाती हैं। दुनिया की सबसे मीठी, मधुर भाषा मगही हैं। इसे देवनागरी अथवा कयथी लिपि में लिखा जाता है। मगही बोलने वालों की संख्या (2002) लगभग 10 करोड़ 30 लाख है। मुख्य रूप से यह बिहार के पटना, राजगीर, नालंदा, जहानाबाद,गया, अरवल, नवादा, शेखपुरा, लखीसराय, जमुई, मुंगेर, औरंगाबाद और झारखंड के पलामू, गढ़वा, लातेहार, चतरा, कोडरमा , हजारीबाग , गिरीडीह और देवघर के इलाकों में बोली जाती है। मगही का धार्मिक भाषा के रूप में भी पहचान है। कई जैन धर्मग्रंथ मगही भाषा में लिखे गए हैं। मुख्य रूप से वाचिक परंपरा के रूप में यह आज भी जीवित है। मगही का पहला महाकाव्य गौतम महाकवि योगेश द्वारा 1960-62 के बीच लिखा गया। दर्जनों पुरस्कारो से सम्मानित योगेश्वर प्रसाद सिन्ह योगेश आधुनिक मगही के सबसे लोकप्रिय कवि माने जाते हैं। 23 अक्तुबर को उनकी जयन्ति मगही दिवस के रूप मे मनाई जा रही है। मगही भाषा में विशेष योगदान हेतु सन् 2002 में रामप्रसाद सिंह को साहित्य अकादमी भाषा सम्मान दिया गया। ऐसा कुछ विद्वानों का मानना है कि मगही संस्कृत भाषा से जन्मी हिन्द आर्य भाषा है, परंतु महावीर और बुद्ध दोनों के उपदेश की भाषा मागधी ही थी। बुद्ध ने भाषा की प्राचीनता के प्रश्न पर स्पष्ट कहा है- ‘सा मागधी मूल भाषा’। अतः मगही ‘मागधी’ से ही निकली भाषा है। इसकी लिपि कैथी है। मगही भाषा का इतिहास। मगही भाषा दुनिया का सबसे पुराना भाषा हैं मगही बोलने वाले लोग बिहार के साथ साथ अन्य राज्य में भी मगही बोली जाती हैं। विश्व के कई देश जहाँ आज भी वहाँ के लोग मगही बोलते हैं नेपाल, फिजी, वियत, देश शामिल हैं मगही भाषा सम्राट अशोक काल में विश्व में राज्य भाषा हुआ करता था। राष्ट्रीय भाषा के उपाधि मगही थीं सम्राट अशोक के दौरान पर । मगध से लेकर कन्धार तक मगही भाषा बोला जाता था। मगही भाषा के लिपि कैथी हैं । जो आज विश्व से मानचित्र से विलुप्त होने कगार पर हैं। भगवान बुद्ध ने मगही भाषा में अपना प्रथम उपदेश दिया था। और जैन धर्म मे कई धार्मिक ग्रन्थ, पुस्तकें, साहित्य में मगही भाषा में वर्णन मिलता हैं। भगवान बुद्ध औऱ महावीर स्वामी की भाषा मगधी ही थी। जिसे आज हम सब मगही के नाम से भी जानते हैं। बंगाल के 7 जिला में मगही भाषा बोला जाता हैं। बंगाल में मगही भाषी लोग लगभग 50 लाख से ऊपर विराजमान हैं। हावड़ा जिला हुगली जिला उत्तर चोवीस परगना जिला दक्षिण चोवीस परगना जिला कोलकाता जिला मगही भाषा प्राचीन भाषा हैं। मगही भाषा का अपना इतिहास हैं। मगही का अपना साहित्य हैं। होने के बाबजूद भी आज देश में विलुप्त हैं। इसकी बोलने वाले लोगों की संख्या करोड़ों में हैं। करीब देश में 10 करोड़ लोग इस भाषा को बोलते हैं। मगही भाषा बहुत ही मीठी बोली हैं। कोलकाता में भी करीब करीब लाखों संख्या मगही भाषी लोग निवास करते हैं।जिनका कोलकाता में भी निवास स्थान बन गया हैं। इन्हे भी देखें मागधी अर्धमागधी बाहरी कड़ियाँ मगही कविता कोश''' मगही साहित्य मगही मंडल मागधी फूल बहादुर - मगही का पहला उपलब्ध उपन्यास मगही उपन्यास - नरक सरग धरती मगध की लोककथाएँ : संचयन मगही का भाषिक स्वरुप और उसका साहित्यिक विकास मगही पुस्तकें नमूना संदर्भ सूची फ़िल्म "भैया" संयुक्त राष्ट्रसंघ की मानवाधिकार घोषणा - मगही रूपांतर मगही में बाइबिल (1818) का नमूना पृष्ठ दक्षिण एशियाई भाषाओं की प्राथमिकता का निश्चय - प्रारूप रिपोर्ट (जून 2005) हिंदी की विभिन्न बोलियाँ और उनका साहित्य बिहारी भाषाएँ Magahi at The Rosetta Project सन्दर्भ श्रेणी:हिन्दी की बोलियाँ श्रेणी:भारत की भाषाएँ श्रेणी:बिहार की भाषाएँ श्रेणी:हिन्द-आर्य भाषाएँ
गुवाहाटी
https://hi.wikipedia.org/wiki/गुवाहाटी
thumb|280px|ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा गुवाहाटी thumb|280px|भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गुवाहाटी गुवाहाटी (Guwahati) भारत के असम राज्य का सबसे बड़ा नगर है। प्रशासनिक रूप से यह कामरूप महानगर ज़िले में स्थित है। गुवाहाटी, ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसा, पूर्वोत्तर भारत का मुख्य शहर है। यह नगर प्राचीन हिंदू मंदिरों के लिए भी जाना जाता है। प्राचीन काल में इस नगर को प्रगज्योतिषपुर के नाम से जाना जाता था, जो तत्कालीन असम (कामरूप) की राजधानी थी। इस शहर "मंदिरों के शहर" की उपाधि भी दिलाती है। दिसपुर, असम की राजधानी, नगर के सर्किट-क्षेत्र में है और यहाँ असम सरकार की सीट है। शहर का कुछ विस्तार मेघालय राज्य में आता है। गुवाहाटी ब्रह्मपुत्र नदी और शिल्लोंग पठार के बीच स्थित है; इसके पूर्व दिशा में नारेंगी नगर है और इसका हवाई-अड्डा, लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई हवाई अड्डा, इसके पश्चिम दिशा में है। उत्तर गुवाहाटी, जो नदी के उत्तरी तट पर है, को इस शहर के सीमाओं में शामिल कर दिया जा रहा है। प्रसिद्ध मदन कामदेव गुवाहाटी से ३० कि.मी. (१९ मील) दूर है। गुवाहाटी नगर निगम (GMC) शहर का स्थानीय सर्कार है और ३२८ वर्ग कि.मी. के क्षेत्र पर प्रशासन करता है। वहीं, गुवाहाटी महानगर विकास प्राधिकरण (GMDA) बड़े गुवाहाटी महानगर क्षेत्र के आयोजन और विकास का विभाग है। यह पूर्वोत्तर भारत का सबसे बड़ा नगर है।"North East India: A Systematic Geography," Narendra Nath Bhattacharyya, Rajesh Publications, 2005, ISBN 9788185891620 नाम एक समय इस नगर को प्रगज्योतिषपुर कहा जाता था, गुवाहाटी का नाम असमीया शब्द "गुवा" (जो संस्कृत शब्द "गुवक" से आता है), जिस का मतलब है "सुपारी", और "हाटी", जिस का मतलब है "पंक्ति", से आता है। इसका पूरा मतलब आता है "सुपारी की पंक्ति"। इतिहास गुवाहाटी के मिथक और इतिहास कई हजारों सालो की है। हालांकि शहर की शुरुआत की तारीख अज्ञात है, महाकाव्यों, पुराणों और अन्य परंपरागत इतिहास में संदर्भ, कई मान कि यह एशिया के प्राचीन शहरों में से एक का नेतृत्व करता है। उत्कीर्ण लेख संबंधी स्रोतों में गुवाहाटी को कई प्राचीन राज्यों की राजधानियों माना गया है। यह 'पौराणिक राजा नरकासुर और महाभारत के अनुसार भगदत्त् की राजधानी था। देवी कामाख्या के प्राचीन सक्ति मंदिर नीलाचल पहाड़ी (भी तांत्रिक वज्र्रयाना और बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण स्थान्), प्राचीन और अद्वितीय ज्योतिषीय मंदिर चईत्राच्हल पाहार् में स्थित नव्ग्रह, और वशिथ और अन्य स्थानों में पुरातात्विक बनी हुई है में स्थित शहर के प्राचीन पौराणिक दावे का समर्थन पिछले। आम्बारी खुदाई 6 वीं शताब्दी ई. के शहर का पता लगाने. शहर के अलग - अलग समय अवधि में (यानी प्रकाश के पूर्व) प्रगाज्योतिषपुर और दुर्जोय के रूप में जाना जाता था और वर्मन और कामारुपा राज्य के पाला राजवंशों के तहत राजधानी थी। उआन जान ग् द्वारा विवरण है कि सबसे प्रभावशाली वर्मन राजा भास्कर वर्मन (7 वीं शताब्दी ई.) के दौरान, यह शहर 19 किमी फैला है और शायद जो अधिकारियों के जानकार थे साथ अपने मजबूत नौसैनिक बल (नौकाओं - तीस हज़ार युद्ध के लिए प्रमुख आधार था हिंद महासागर से चीन के लिए समुद्री मार्गों - उआन जान ग्)। शहर पाला राजवंश के शासकों के अधीन 10 - 11 वीं शताब्दी ई. तक असम की राजधानी के रूप में बने रहे। आम्बारी में खुदाई और ईंट की दीवार और घरों में उपस्थित कपास विस्वविदाल्य् सभागार के निर्माण के दौरान खुदाई का सुझाव है कि यह 9 11 वीं शताब्दी ई. तक आर्थिक और सामरिक महत्व के साथ महान आकार का एक शहर था। उद्योग व व्यवसाय गुवाहाटी असम का महत्त्वपूर्ण व्यापार केंद्र तथा बंदरगाह है। पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार गुवाहाटी आसपास के क्षेत्र की व्यवसायिक गतिविधियों का केन्द्र है। इसे विश्व का सबसे बड़ा चाय का बाज़ार माना जाता है। यहाँ एक तेलशोधन संयंत्र और सरकारी कृषि क्षेत्र है तथा उद्योगों में चाय तथा कृषि उत्पादों का प्रसंस्करण, अनाज पिसाई तथा साबुन बनाना हैं। यहाँ कोई अन्य बड़े उद्योग नहीं हैं। लगभग 17 प्रतिशत आबादी उद्योग, व्यापार तथा वाणिज्य में लगी हुई है तथा उद्योगों पर राजस्थान से आए मारवाड़ियों का एकाधिकार है। संस्कृति गुवाहाटी की आबादी मिलीजुली है, जिसमें असमी, बंगाली, पंजाबी, बिहारी, नेपाली तथा राजस्थानी शामिल हैं। इसके अलावा यहाँ सारे पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समुदायों के लोग भी बसते हैं। यहाँ गुवाहाटी विश्वविद्यालय (स्थापना 1948), अर्ल लॉ कॉलेज, राज्य उच्च न्यायालय तथा अनेक हिन्दू तीर्थस्थल हैं। मनोरंजन गुवाहाटी खेलों की दृष्टि से भी महत्त्वपुर्ण स्थान रहा है। गुवाहाटी में अनेक स्टेडियम स्थित है, यहाँ 2007 में 33 वें राष्ट्रीय खेल आयोजित हुऐ थे। परिवहन गुवाहाटी में हवाई अड्डा और छोटी तथा बड़ी लाइन के रेलमार्ग हैं। बोरझार में स्थित हवाई अड्डा शहर से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। नगर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के साथ भली-भाँति जुड़ा हुआ है। राज्य परिवहन निगम की बसों के अलावा निजी बसें तथा टैक्सियाँ भी उपलब्ध हैं। वृहत्तर गुवाहाटी की नगरयोजना में 262 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र शामिल है। वायु मार्ग गुवाहाटी से 18 किलोमीटर दूर बोरझार में स्थित लोकप्रिय गोपीनाथ बरदलै अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र निकटतम हवाई अड्डा है। गुवाहाटी तक आने वाले सभी अंतर्राष्ट्रीय एवं आंतरिक विमानों के चलते यह हवाई अड्डा भारत का ग्यारहवाँ सबसे कार्यरत हवाई अड्डा है। इस हवाई अड्डे से दैनिक और साप्ताहिक उड़ानें दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, विशाखापत्तनम, बेंगलुरु, हैदराबाद, अहमदाबाद, जयपुर, कोच्ची, बैंकॉक, सिंगापुर, ढाका, पारो, काठमांडू, कुआला लम्पुर, हनोई और यांगून जैसे महत्वपूर्ण लक्ष्यों तक उपलब्ध हैं। रेल मार्ग गुवाहाटी पूर्वोत्तर सीमान्त रेलवे के अंदर आता है, जिसका मुख्यालय नगर के उत्तर-पश्चिम दिशा में नीलाचल पहाड़ी के पास मालिगांव में है। इस नगर में और तीन रेलवे स्टेशन हैं - यात्री और माल-सेवा के लिए कामख्या रेलवे स्टेशन, माल सेवा के लिए नई गुवाहाटी रेलवे स्टेशन (नूनमाटी के पास) और अज़रा रेलवे स्टेशन। गुवाहाटी को दुसरे प्रमुख शहरों तक जोड़ने वाले नियमित ट्रेन उपलब्ध हैं। राजधानी एक्सप्रेस, पूर्वोत्तर संपर्क क्रांति एक्सप्रेस, ब्रह्मपुत्र मेल, कामरूप एक्सप्रेस, पूर्वोत्तर एक्सप्रेस, सरायघाट एक्सप्रेस और गरीबरथ गुवाहाटी से और तक आने-जाने वाले को महत्वपूर्ण ट्रेन हैं। भारत में सबसे लंबे राह वाला ट्रेन, विवेक एक्सप्रेस, जो उच्चतर असम के डिब्रूगढ़ नगर से शुरू होती है और भारत के सब से दक्षिणी स्थान कन्याकुमारी तक जाती है, गुवाहाटी से हो कर गुज़रती है। सड़क मार्ग शहर के अंदर की मुख्य सड़को की कूल लंबाई है। राष्ट्रीय राजमार्ग 27 गुवाहाटी को पश्चिम बंगाल, बिहार और भारत के अन्य भागों से जोड़ता है। यह राजमार्ग गुवाहाटी को असम की बराक घाटी में स्थित सिल्चर तथा मेघालय, मणिपुर, मिज़ोरम और त्रिपुरा राज्यों से भी जोड़ता है। पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग ज़िले में सेवक से शुरू होने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 17 जलुकबारी में ख़त्म होता है और गुवाहाटी को धुबरी और कूच बिहार के मुख्य नगरों से जोड़ता है। राष्ट्रीय राजमार्ग 15 और इसकी माध्यमिक सड़कें, जो ब्रह्मपुत्र नदी के दो तटों से हो कर गुज़रती हैं। यह गुवाहाटी को उच्चतर असम के शहर तेज़पुर, जोरहाट और डिब्रुगढ़, और अरुणाचल प्रदेश व नागालैंड के राज्यों से जोड़ती हैं। सार्वजनिक परिवहन नगर में विकसित है। बस गुवाहाटी का मुख्य परिवहन का साधन है। स्मारक एवं दर्शनीय स्थल कामाख्या मंदिर देश के प्रत्येक मंदिर की भांति इस मंदिर का भी अपना महत्व है। कहा जाता है कि सती पार्वती ने अपने पिता द्वारा अपने पति, भगवान शिव का अपमान किए जाने पर हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी थी। भगवान शिव को आने में थोड़ी देर हो गई, तब तक उनकी अर्धांगिनी का शरीर जल चुका था। उन्होंने सती का शरीर आग से निकाला और तांडव नृत्य आरंभ कर दिया। अन्य देवतागण उनका नृत्य रोकना चाहते थे, अत: उन्होंने भगवान विष्णु से शिव को मनाने का आग्रह किया। भगवान विष्णु ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए और भगवान शिव ने नृत्य रोक दिया। कहा जाता है कि सती की योनि (सृजक अंग) गुवाहाटी में गिरी। यह मंदिर देवी की प्रतीकात्मक ऊर्जा को समर्पित है। गुवाहाटी से 7 कि॰मी॰ दूर पश्चिम में नीलाचल हिल पर स्थित यह मंदिर असम की वास्तुकला का एक उदाहरण है, जिसका गुम्बद मधुमक्खियों के छत्ते की भांति है। यहां देवी को बकरे की बली दी जाती है। यहां पूरी धार्मिक श्रद्धा और विश्वास से मुख्य रूप से दो त्यौहार मनाए जाते हैं। जून/जुलाई माह के अंत में पृथ्वी के मासिक चक्र की समाप्ति पर अम्बूची पर्व का आयोजन किया जाता है। सितंबर में मनासा पर्व के दौरान श्रद्धालु पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य करके देवी से दुआ मांगते हैं। नवग्रह मंदिर 280px|right|thumb|गुवाहाटी शहर की जीवनरेखा- ब्रह्मपुत्र नदी चित्राचल हिल पर स्थित यह मंदिर नवग्रहों को समर्पित है, क्योंकि देश में नवग्रहों का बहुत महत्व है। माना जाता है कि ये ग्रह लोगों के भाग्य को प्रभावित करते हैं अत: उन्हें भगवान माना जाता है और उनकी पूजा की जाती है। उमानन्दा मंदिर नदी के बीच में पिकॉक हिल पर स्थित यह एक सुंदर मंदिर है। भगवान शिव के इस मंदिर का निर्माण 1594 में हुआ था। इस मंदिर में जाने के लिए आपको नाव से जाना पड़ेगा, जो प्रात: 7.00 बजे से सायं 5.30 बजे तक चलती हैं। वशिष्ठ आश्रम यह आश्रम वशिष्ठ मुनि की स्मृति में बना है, जो एक प्रसिद्ध संत और विचारक थे। इन्होंने महान धर्मग्रंथ रामायण की रचना की थी। असम जू एवं बॉटनिकल गार्डन्स असम के चिड़ियाघर में उन जानवरों को साक्षात देखिए, जिन्हें आप केवल टी.वी. चैनलों पर देख पाते हैं। इस चिड़ियाघर में भारतीय और अफ्रीकी गैंडे, सफेद शेर, चीते और पूर्वोत्तर भारत में पाई जाने वाली पक्षियों की कुछ दुर्लभ प्रजातियां देखने को मिलती है। शंकरदेव कलाक्षेत्र शंकरदेव कलाक्षेत्र असम का सांस्कृतिक संग्रहालय है। यह गुवाहाटी शहर के पंजाबाड़ी क्षेत्र में स्थित है। हाजो कुछ लोगों के अनुसार गुवाहाटी से 27 कि॰मी॰ दूर हाजो नामक स्थान पर ही भगवान बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था। पाव मक्का मस्जिद "पाव" का अर्थ है "एक चौथाई" - और ऐसा विश्वास है कि यह मस्जिद मक्का स्थित मुख्य मस्जिद के एक चौथाई के बराबर पवित्र है। इन्हें भी देखें कामरूप महानगर ज़िला कामरूप ज़िला लोकप्रिय गोपीनाथ बारदोलोई अन्तरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र ब्रह्मपुत्र नदी दिसपुर सन्दर्भ श्रेणी:कामरूप महानगर ज़िला श्रेणी:असम के नगर श्रेणी:कामरूप महानगर ज़िले के नगर *
मिथिला
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अंगूठाकार|मिथिला मिथिला प्राचीन भारत में एक राज्य था। मिथिला वर्तमान में एक सांस्कृतिक क्षेत्र है जिसमे बिहार का सिर्फ दरभंगा प्रमंडल एवं नेपाल सम्मिलित है के साथ साथ नेपाल के तराई क्षेत्र के कुछ भाग भी शामिल हैं। मिथिला की लोकश्रुति कई सदियों से चली आ रही है जो अपनी बौद्धिक परम्परा के लिये भारत और भारत के बाहर जानी जाती रही है। इस क्षेत्र की प्रमुख भाषा मैथिली है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में सबसे पहले इसका संकेत शतपथ ब्राह्मण में तथा स्पष्ट उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में मिलता है। मिथिला का उल्लेख वेदों, महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है। नामकरण : प्राचीन उल्लेखों के सन्दर्भ में thumb|विदेह, 500 ईशा पूर्व, कोलिय गणराज्य के पश्चिम में स्थित पौराणिक उल्लेखों के अनुसार इस क्षेत्र का सर्वाधिक प्राचीन नाम मिथिला ही प्राप्त होता है; साथ ही विदेह नाम से भी इसे संबोधित किया गया है। तीरभुक्ति (तिरहुत) नाम प्राप्त उल्लेखों के अनुसार अपेक्षाकृत काफी बाद का सिद्ध होता है। मिथिला एवं विदेह विदेह और मिथिला नामकरण का सर्वाधिक प्राचीन संबंध शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित विदेघ माथव से जुड़ता है। मिथिला के बसने के आरंभिक समय का संकेत उक्त कथा में प्राप्त होता है। विदेघ माथव तथा उसके पुरोहित गौतम राहूगण सरस्वती नदी के तीर से पूर्व की ओर चले थे। उनके आगे-आगे अग्नि वैश्वानर नदियों का जल सुखाते हुए चल रहे थे। सदानीरा (गण्डकी) नदी को अग्नि सुखा नहीं सकेशतपथ ब्राह्मण (प्रथम भाग) - सं. स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती, अनुवादक- पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय; विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली; संस्करण-2010 ई. पृ०-69(1.4.1.14) और विदेघ माथव द्वारा यह पूछे जाने पर कि अब मेरा निवास कहाँ हो, अग्नि ने उत्तर दिया कि इस नदी के पूर्व की ओर तुम्हारा निवास हो।शतपथ ब्राह्मण (प्रथम भाग), पूर्ववत्-1.4.1.17, पृ०-71. शतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट रूपेण उल्लिखित है कि पहले ब्राह्मण लोग इस नदी को पार नहीं करते थे तथा यहाँ की भूमि उपजाऊ नहीं थी। उसमें दलदल बहुत था क्योंकि अग्नि वैश्वानर ने उसका आस्वादन नहीं किया था। परंतु अब यह बहुत उपजाऊ है क्योंकि ब्राह्मणों ने यज्ञ करके उसका आस्वादन अग्नि को करा दिया है।शतपथ ब्राह्मण (प्रथम भाग), पूर्ववत्-1.4.1.15-16, पृ०-70-71. गण्डकी नदी के बारे में यह भी उल्लेख है कि गर्मी के बाद के दिनों में भी, अर्थात् काफी गर्मी के दिनों में भी, यह नदी खूब बहती है। इस विदेघ शब्द से विदेह का तथा माथव शब्द से मिथिला का संबंध प्रतीत होता है।मिथिलाक इतिहास, डाॅ० उपेन्द्र ठाकुर, मैथिली अकादमी पटना, द्वितीय संस्करण-1992ई०, पृ०-1,2.मिथिला का इतिहास, डाॅ० रामप्रकाश शर्मा, कामेश्वर सिंह संस्कृत वि.वि.दरभंगा, तृतीय संस्करण-2016, पृ०-9. शतपथ में ही गंडकी नदी के बारे में उल्लेख करते हुए स्पष्ट रूप से विदेह शब्द का भी उल्लेख हुआ है। वहाँ कहा गया है कि अब तक यह नदी कोसल और विदह देशों के बीच की सीमा है; तथा इस भूमि को माथव की संतान (माथवाः) कहा गया है। वाल्मीकीय रामायण तथा विभिन्न पुराणों में मिथिला नाम का संबंध राजा निमि के पुत्र मिथि से जोड़ा गया है। न्यूनाधिक अंतरों के साथ इन ग्रंथों में एक कथा सर्वत्र प्राप्त है कि निमि के मृत शरीर के मंथन से मिथि का जन्म हुआ था। वाल्मीकीय रामायण में मिथि के वंशज के मैथिल कहलाने का उल्लेख हुआ हैवाल्मीकीय रामायण, गीताप्रेस गोरखपुर, द्वितीय खण्ड, संस्करण-1995ई०, उत्तरकाण्ड-57.19-20 (पृ०-739)। जबकि पौराणिक ग्रंथों में मिथि के द्वारा ही मिथिला के बसाये जाने की बात स्पष्ट रूप से कही गयी है।श्रीमद्भागवतमहापुराण (सटीक), द्वितीय खण्ड, 9.13.13, गीता प्रेस गोरखपुर, संस्करण-2001ई०, पृष्ठ-54. शब्दान्तरों से यह बात अनेक ग्रंथों में कही गयी है कि स्वतः जन्म लेने के कारण उनका नाम जनक हुआ, विदेह (देह-रहित) पिता से उत्पन्न होने के कारण वे वैदेह कहलाये तथा मंथन से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम मिथि हुआ।श्रीविष्णुपुराण (सटीक)- 4.5.22,23, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-2001ई०, पृष्ठ-253. इस प्रकार उन्हीं के नाम से उनके द्वारा शासित प्रदेश का नाम विदेह तथा मिथिला माना गया है। महाभारत में प्रदेश का नाम 'मिथिला' तथा इसके शासकों को 'विदेहवंशीय' (विदेहाः) कहा गया है।महाभारत (सटीक), प्रथम खण्ड, आदिपर्व-112.28, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-1996ई०, पृष्ठ-339. तीरभुक्ति (तिरहुत) वृहद्विष्णुपुराण के मिथिला-माहात्म्य में मिथिला एवं तीरभुक्ति दोनों नाम कहे गये हैं। मिथि के नाम से मिथिलावृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), श्लोक संख्या-47, संपादन-अनुवाद- पं० श्री धर्मनाथ शर्मा, प्रकाशन विभाग, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा, संस्करण-1980, पृष्ठ-8 (भूमिकादि के पश्चात्)। तथा अनेक नदियों के तीर पर स्थित होने से तीरों में भोग (नदी तीरों से पोषित) होने से तीरभुक्ति नाम माने गये हैं।वृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-63, पृ०-11. इस ग्रंथ में गंगा से लेकर हिमालय के बीच स्थित मिथिला में मुख्य 15 नदियों की स्थिति मानी गयी है तथा उनके नाम भी गिनाये गये हैं। पौराणिक माहात्म्य मिथिला का माहात्म्य बतलाते हुए वृहद्विष्णु पुराण के मिथिला-माहात्म्य खंड में कहा गया है कि गंगा से हिमालय के बीच 15 नदियों से युक्त परम पवित्र तीरभुक्ति (तिरहुत) है।वृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-37, पृ०-7. यह तीरभुक्ति मिथिला सीता का निमिकानन है, ज्ञान का क्षेत्र है और कृपा का पीठ है। जानकी कि यह जन्मभूमि मिथिला निष्पापा और निरपेक्षा है। यह राम को आनंद देने वाली तथा मंगलदायिनी है।वृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-52,53, पृ०-9. प्रयाग आदि तीर्थ लोकों में पुण्य देने वाली है परंतु राम की प्राप्ति करवाने में समर्थ नहीं है; परंतु यह मिथिला सब प्रकार से निश्चित रूप से राम को तुष्ट करने वाली होने से विशेष है।वृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-55,56, पृ०-10. जैसे साकेत नगरी संसार के कारण स्वरूप है वैसे ही यह मिथिला समस्त आनंद का कारण स्वरूप है। इसलिए महर्षिगण समस्त परिग्रहों को छोड़कर राम की आराधना के लिए प्रयत्नपूर्वक यहीं निवास करते हैं।वृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-56से58, पृ०-10. श्रीसावित्री तथा श्रीगौरी जैसी देव-शक्तियों ने यही जन्म ग्रहण किया। स्वयं सर्वेश्वरेश्वरी श्रीसीता जी की जन्मभूमि यह मिथिला यत्नपूर्वक वास करने से समस्त सिद्धियों को देने वाली है।वृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-67, पृ०-12. सीमा एवं अन्तर्वर्ती क्षेत्र : प्राचीन उल्लेखों के सन्दर्भ में महाभारत में मगध के बाद (उत्तर) मिथिला की स्थिति मानी गयी है। श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा भीम की मगध-यात्रा का वर्णन करते हुए पहले सरयू नदी पार करके पूर्वी कौशल प्रदेश तथा फिर महाशोण, गण्डकी तथा सदानीरा को पार करके मिथिला में जाने का उल्लेख हुआ है। पुनः गंगा तथा महाशोण को पार करके मगध में जाने की बात कही गयी है।महाभारत (सटीक), प्रथम खण्ड, सभापर्व-20.27,28, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-1996ई०, पृष्ठ-723-724. इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उस समय मगध के उत्तर में मिथिला की ही स्थिति मानी गयी है। वज्जि प्रदेश (वैशाली राज्य) मिथिला के अंतर्गत ही समाविष्ट था।मिथिलाक इतिहास, डाॅ० उपेन्द्र ठाकुर, मैथिली अकादमी पटना, द्वितीय संस्करण-1992ई०, पृ०-5. महाभारत के इस उल्लेख में भी मिथिला के सीमा क्षेत्र के बारे में अन्यत्र उल्लिखित पश्चिम में गंडकी तथा दक्षिण में गंगा तक के क्षेत्र यथावत् संकेतित होते हैं। वृहद्विष्णुपुराण में मिथिला की सीमा (चौहद्दी) का स्पष्ट उल्लेख करते हुए कहा गया है कि- कौशिकीन्तु समारभ्य गण्डकीमधिगम्यवै। योजनानि चतुर्विंश व्यायामः परिकीर्त्तितः॥ गङ्गा प्रवाहमारभ्य यावद्धैमवतम्वनम् । विस्तारः षोडशप्रोक्तो देशस्य कुलनन्दन॥वृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-42,43, पृ०-8. अर्थात् पूर्व में कोसी से आरंभ होकर पश्चिम में गंडकी तक 24 योजन तथा दक्षिण में गंगा नदी से आरंभ होकर उत्तर में हिमालय वन (तराई प्रदेश) तक 16 योजन मिथिला का विस्तार है। महाकवि चन्दा झा ने उपर्युक्त श्लोक का ही मैथिली रूपांतरण करते हुए मिथिला की सीमा बताते हुए लिखा है कि गंगा बहथि जनिक दक्षिण दिशि पूब कौशिकी धारा। पश्चिम बहथि गंडकी उत्तर हिमवत वन विस्तारा॥ इस प्रकार उल्लिखित सीमा के अंतर्गत वर्तमान में नेपाल के तराई प्रदेश के साथ बिहार राज्य के पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर, बेगूसराय, दरभंगा, मधुबनी, सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, और खगड़िया जिले का प्रायः पूरा भूभाग तथा भागलपुर जिले का आंशिक भूभाग आता है।HISTORY OF MITHILA - Upendra Thakur; Mithila Institute of P.G. studies and research, Darbhanga; Second Edition-1988, p.4. thumb|right|भारत में प्रस्तावित मिथिला राज्य (जिला सहित) यह सीमा प्राचीन उल्लेखों के अनुसार है संभवतः कोसी की अत्यधिक प्रसिद्धि तथा अनियंत्रित फैलाव के कारण भी पूर्वी सीमा कोसी को माना गया है। बाँध बनने से पूर्व कोसी का कोई नियत मार्ग नहीं रहा है। पूर्वी बिहार के सभी क्षेत्रों से प्रायः कोशी बही है। अतः महानंदा नदी से पश्चिम अर्थात् पश्चिम बंगाल आरंभ होने से पहले का पूरा पूर्वी बिहार (अररिया, किशनगंज, पूर्णिया और कटिहार भी) मिथिला का ही स्वाभाविक भाग रहा है। भौगोलिक स्वरूप प्रमुख नदियाँ वृहद्विष्णुपुराण में गंगा तथा हिमालय के बीच स्थित मिथिला के अंतर्गत मुख्य 15 नदियों की स्थिति बतायी गयी है। उनके नाम इस प्रकार हैंवृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-38से41, पृ०-7,8.:- कोसी कमला विण्ववती (विल्ववती= बेलौंती) यमुना (=जमुने, अधवारा समूह की नदी जो छोटी बागमती में मिलती है। यह नेपाल में जनकपुर के पास से बहती हुई बिहार में मधुबनी जिले के हरलाखी के पास से बहती है।) गैरिका (=गेरुआ, बाद में धारा-भेद से प्रचलित अनेक नाम -फरैनी, कजला, कमतारा, गोरोभगड़, चकरदाहा, नीतिया धार आदि का प्राचीन रूप-नाम) जलाधिका वाग्मती (बागमती) व्याघ्रमती (छोटी बागमती, मूलत: बघोर नदी जिससे अधवारा समूह की नदियाँ मिलकर छोटी बागमती बनती है जो उत्तर से दक्षिण दरभंगा के बीच से होकर बहती है।) विरजा गण्डला (गण्डक/बूढ़ी गण्डक) इक्ष्वावती (संभवतः लच्छा धार जिससे होकर करीब तीन दशक तक कोसी की मुख्यधारा भी बही थी; अथवा बैती नदी जो अब कोसी तटबंध में समा दी गयी है।) लक्ष्मणा (लखनदेई) गण्डकी अकुक्षि वर्त्तिनी (भुतही बलान) जङ्घा (संभवतः धेमुरा)मिथिलातत्त्वविमर्श - महामहोपाध्याय परमेश्वर झा, मैथिली अकादमी, पटना, द्वितीय संस्करण-2013, पृ०-38. जीवापिका (जीववत्सा= जीबछ) ये सब अपेक्षाकृत तत्कालीन बड़ी नदियों के नाम हैं; परंतु इनके अतिरिक्त भी मिथिला में अनेक छोटी-छोटी नदियाँ प्राचीन समय से आज तक अनवरत प्रवाहित हैं और मिथिला के 'तीरभुक्ति' नाम को सार्थक कर रही हैं। प्रमुख शासक प्रमुख तीर्थ एवं दर्शनीय स्थल श्रीराम-सीता से संबंधित विशेष स्थान होने के अतिरिक्त मिथिला देवाधिदेव महादेव के पूजन-स्थल के रूप में विशेष प्रसिद्ध रही है। वृहद् विष्णुपुराण के अनुसार यहाँ के अंतर्वर्ती प्रमुख शिवलिङ्गों के नाम इस प्रकार हैंवृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-74से77, पृ०-13-14.:- basua शिलानाथ कपिलेश्वर (पूर्व में) कूपेश्वर (आग्नेय कोण में) कल्याणेश्वर (दक्षिण में) जलेश्वर (पश्चिम में) जलाधिनाथ क्षीरेश्वर (उत्तर में) त्रिजग महादेव मिथिलेश्वर महादेव (ईशान कोण में) भैरव (नैऋत्य कोण में) मिथिला परिक्रमा के क्रम में सीमावर्ती शिवलिङ्गों का उल्लेख करते हुए सिंहेश्वर महादेव तथा कामेश्वर लिङ्ग का नाम अत्यधिक श्रद्धा पूर्वक लिया गया है। इस प्रकार यहाँ एकादश शिवलिङ्गों के नाम परिगणित किये गये हैं। पूर्व में सिंहेश्वर महादेव को प्रणाम कर परिक्रमा आरंभ करने तथा पुनः घूमकर सिंहेश्वर महादेव के पास पहुँचकर नियम-विधि पूर्ण करके ही घर जाने की बात कही गयी है।वृहद्विष्णुपुराणीय मिथिला-माहात्म्यम् (सटीक), पूर्ववत्, श्लोक संख्या-101से104, पृ०-18. मिथिला के प्रमुख शहर जनकपुर दरभंगा जनकपुरधाम मधुबनी झंझारपुर इन्हें भी देखें मिथिला के राजाओं की सूची मिथिला चित्रकारी मिथिलाक्षर मैथिली विद्यापति मधुबनी पंजी (मिथिला) मखाना सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ पुराण-प्रमाणित मिथिला मिथिला से सम्बंधित जानकारी प्राप्त करने का स्थान मिथिला से सम्बंधित जानकारी प्राप्त करने का स्थान ऑनलाइन मिथिला पेंटिंग मैथिल ब्राह्मणों का वैवाहिक जालस्थल मैथिल ब्राह्मण - ऑनलाइन जानकारी मिथिला की कलाएँ मधुबनी पेंटिंग - एक महिला द्वारा बनाये गये पेंटिंग के प्रदर्शन का जालस्थल मिथिला पेंटिंग खरीदने का जालस्थल मिथिला-मन्च मिथिला से सम्बंधित जानकारी प्राप्त करने का स्थान श्रेणी:बिहार श्रेणी:मिथिला श्रेणी:ऐतिहासिक भारतीय क्षेत्र श्रेणी:बिहार के क्षेत्र श्रेणी:रामायण में स्थान
मिथिलांचल
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REDIRECT मिथिला
ब्यास नदी
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ब्यास (, ) पंजाब (भारत) हिमाचल में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। नदी की लम्बाई ४६० किलोमीटर है। पंजाब (भारत) की पांच प्रमुख नदियों में से एक है। इसका उल्लेख ऋग्वेद में केवल एक बार है।’अच्छासिंधु मातृतमामयांस विपाशमुर्वीं सुभगामगन्मवत्समिवमातरासंरिहाणे समानं योनिमनुसंचरंती’, ऋग्वेद 3,33,3 बृहद्देवताबृहद्देवता 1,114 में शतुद्री या सतलुज और विपाशा का एक साथ उल्लेख है। इतिहास thumb|left|हिमाचल प्रदेशमें ब्यास नदी की स्थिति ब्यास नदी का पुराना नाम ‘अर्जिकिया’ या ‘विपाशा’ था। यह कुल्लू में व्यास कुंड से निकलती है। व्यास कुंड पीर पंजाल पर्वत शृंखला में स्थित रोहतांग दर्रे में है। यह कुल्लू, मंडी, हमीरपुर और कांगड़ा में बहती है। कांगड़ा से मुरथल के पास पंजाब में चली जाती है। मनाली, कुल्लू, बजौरा, औट, पंडोह, मंडी, सुजानपुर टीहरा, नादौन और देहरा गोपीपुर इसके प्रमुख तटीय स्थान हैं। इसकी कुल लंबाई 460 कि॰मी॰ है। हिमाचल में इसकी लंबाई 256 कि॰मी॰ है। कुल्लू में पतलीकूहल, पार्वती, पिन, मलाणा-नाला, फोजल, सर्वरी और सैज इसकी सहायक नदियां हैं। कांगड़ा में सहायक नदियां बिनवा न्यूगल, गज और चक्की हैं। इस नदी का नाम महर्षि ब्यास के नाम पर रखा गया है। यह प्रदेश की जीवनदायिनी नदियों में से एक है। स्थिति इस नदी का उद्गम मध्य हिमाचल प्रदेश में, वृहद हिमालय की जासकर पर्वतमाला के रोहतांग दर्रे पर 4,361 मीटर की ऊंचाई से होता है। यहाँ से यह कुल्लू घाटी से होते हुये दक्षिण की ओर बहती है। जहां पर सहायक नदियों को अपने में मिलाती है। फिर यह पश्चिम की ओर बहती हुई मंडी नगर से होकर कांगड़ा घाटी में आ जाती है। घाटी पार करने के बाद ब्यास पंजाब (भारत) में प्रवेश करती है व दक्षिण दिशा में घूम जाती है और फिर दक्षिण-पश्चिम में यह 470 कि॰मी॰ बहाने के बाद आर्की में सतलुज नदी में जा मिलती है। व्यास नदी 326 ई. पू. में सिकंदर महान के भारत आक्रमण की अनुमानित पूर्वी सीमा थी।भारत ज्ञानकोश, खंड-5, पॉप्युलर प्रकाशन मुंबई, पृष्ठ संख्या-247, आ ई एस बी एन 81-7154-993-4 नामोल्लेख वाल्मीकि रामायण में अयोध्या के दूतों की केकय देश की यात्रा के प्रसंग में विपाशा (वैदिक नाम विपाश) को पार करने का उल्लेख है’विष्णु:पदं प्रेक्षमाणा विपाशां चापि शाल्मलीम्, नदीर्वापीताटाकानि पल्वलानी सरांसि च’, अयोध्याकाण्ड 68,19। महाभारत में भी विपाशा के तट पर विष्णुपद तीर्थ का वर्णन है।एतद् विष्णुपदं नाम दृश्यते तीर्थमुत्तमम्, एषा रम्या विपाशा च नदी परमपावनी’, वनपर्व विपाशा के नामकरण का कारण पौराणिक कथा के अनुसार इस प्रकार वर्णित है,’अत्र वै पुत्रशोकेन वसिष्ठो भगवानृषि:, बद्ध्वात्मानं निपतितो विपाश: पुनरुत्थित:’, महाभारत-वनपर्व 130,9 कि वसिष्ठ पुत्र शोक से पीड़ित हो अपने शरीर को पाश से बांधकर इस नदी में कूद पड़े थे किन्तु विपाशा या पाशमुक्त होकर जल से बाहर निकल आए। महाभारत में भी इसी कथा की आवृत्ति की गई है’तथैवास्यभयाद् बद्ध्वा वसिष्ठ: सलिले पुरा, आत्मानं मज्जयंश्रीमान् विपाश: पुनरुत्थित:। तदाप्रभृति पुण्य, ही विपाशान् भून्महानदी, विख्याता कर्मणातेन वसिष्ठस्य महात्मन:’, महाभारत अनुशासन 3,12,13। दि मिहरान ऑव सिंध एंड इट्ज़ ट्रिव्यूटेरीज़ के लेखक रेवर्टी का मत है कि व्यास का प्राचीन मार्ग 1790 ई. में बदल कर पूर्व की ओर हट गया था और सतलुज का पश्चिम की ओर और ये दोनों नदियाँ संयुक्त रूप से बहने लगी थीं। रेवर्टी का विचार है कि प्राचीन काल में सतलुज व्यास में नहीं मिलती थी। किन्तु वाल्मीकि रामायणअयोध्याकाण्ड 71,2 में वर्णित है कि शतुद्रु या सतलुज पश्चिमी की ओर बहने वाली नदी थी।प्रत्यक् स्तोत्रस्तरंगिणी, दे. शतुद्र अत: रेवर्टी का मत संदिग्ध जान पड़ता है। ब्यास को ग्रीक लेखकों ने हाइफेसिस कहा है। पर्यटन स्थल right|265px|thumb|पठानकोट में ब्यास नदी left|thumb|हिमाचल प्रदेश, ब्यास नदी में नौका विहार right|265px|thumb|ब्यास नदी के तट पर बसा एक खूबसूरत शहर मंडी ब्यास नदी के किनारे एक प्रमुख पर्यटन स्थल है कुल्लू । कुल्लू भारत के हिमाचल प्रदेश प्रान्त का एक शहर है। कुल्लू गर्मी के मौसम में लोगों का एक मनपसंद गंतव्‍य है। मैदानों में तपती धूप से बच कर लोग हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में शरण लेते हैं। यहां के मंदिर, सेब के बागान और दशहरा हजारों पर्यटकों को कुल्लू की ओर आकर्षित करते हैं। यहां के स्‍थानीय हस्‍तशिल्‍प कुल्लू की सबसे बड़ी विशेषता है। मनाली कुल्लू घाटी के उत्तर में स्थित हिमाचल प्रदेश का लोकप्रिय हिल स्टेशन है। समुद्र तल से 2050 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मनाली व्यास नदी के किनारे बसा है। गर्मियों से निजात पाने के लिए इस हिल स्टेशन पर हजारों की तादाद में सैलानी आते हैं। सर्दियों में यहां का तापमान शून्य डिग्री से नीचे पहुंच जाता है। आप यहां के खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों के अलावा मनाली में हाइकिंग, पैराग्लाइडिंग, राफ्टिंग, ट्रैकिंग, कायकिंग जैसे खेलों का भी आनंद उठा सकते है। यहां के जंगली फूलों और सेब के बगीचों से छनकर आती सुंगंधित हवाएं दिलो दिमाग को ताजगी से भर देती हैं। व्‍यास नदी के किनारे बसा हिमाचल प्रदेश का प्रमुख पर्यटन स्थल मंडी लंबे समय से व्‍यवसायिक गतिविधियों का केन्‍द्र रहा है। समुद्र तल से 760 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह नगर हिमाचल के तेजी से विकसित होते शहरों में एक है। कहा जाता है महान संत मांडव ने यहां तपस्‍या की और उनके पास अलौकिक शक्तियां थी। साथ ही उन्‍हें अनेक ग्रन्‍थों का ज्ञान था। माना जाता है कि वे कोल्‍सरा नामक पत्‍थर पर बैठकर व्‍यास नदी के पश्चिमी तट पर बैठकर तपस्‍या किया करते थे। यह नगर अपने 81 ओल्‍ड स्‍टोन मंदिरों और उनमें की गई शानदार नक्‍कासियों के लिए के प्रसिद्ध है। मंदिरों की बहुलता के कारण ही इसे पहाड़ों के वाराणसी नाम से भी जाना जाता है। मंडी नाम संस्‍कृत शब्‍द मंडोइका से बना है जिसका अर्थ होता है खुला क्षेत्र। विद्युत परियोजनाएँ ब्यास नदी और सतलुज नदी के लिंक से एक विद्युत परियोजना बिकसित की गयी है। प्रथम यूनिट के अंतर्गत यह पंडोह में 4711 मिलियन क्‍यूमेक (3.82 एम.ए.एफ.) ब्‍यास जल को 1000 फीट नीचे सतलुज में अपवर्तित करती है। इस बिंदु पर देहर विद्युत गृह की अधिष्‍ठापित क्षमता 990 मेगावाट है, इसके बाद टेल रेस जल सतलुज से बहता हुआ भाखडा के गोबिन्‍दसागर जलशाय में एकत्रित हो जाता है। पंडोह से देहर तक अपवर्तन 38 कि॰मी॰ लम्‍बी जल संवाहक प्रणाली द्वारा होता है जिसमें संयुक्‍त रूप से 25 कि॰मी॰ लम्‍बी एक खुली चैनल तथा दो सुंरगें सम्मिलित हैं। ब्‍यास तथा सतलुज का कुल जलग्रहण क्षेत्र क्रमश: 12560 कि॰मी॰ तथा 56860 कि॰मी॰ है। ब्‍यास परियोजना की द्वितीय यूनिट के अंतर्गत तलवाड़ा के मैदानी भाग में प्रवेश करने से ठीक पहले ब्‍यास नदी पर पौंग बांध है, जिसका सकल भण्‍डारण 435 फुट अर्थ कोर ग्रैवल शैल डैम के पीछे 8572 मिलियन क्‍यूमेक (6.95 एम.ए.एफ.) है। बांध के आधार पर स्थित विद्युत संयंत्र की अधिष्‍ठापित क्षमता 360 मेगावाट है। विवाद देश में रावी और ब्यास नदी जल विवाद काफी पुराना है। यह भारत के दो राज्यों पंजाब (भारत) और हरियाणा के बीच रावी और ब्यास नदियों के अतरिक्त पानी के बंटवारे को लेकर हैं। मुकदमे सालों से अदालतों में हैं। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ हिन्दी नेटिव प्लानेट में मनाली तस्वीरें, ब्यास कुंड - ब्यास नदी श्रेणी:सिन्धु नदी की उपनदियाँ श्रेणी:भारत की नदियाँ श्रेणी:सिन्धु जलसम्भर द्रोणी श्रेणी:हिमाचल प्रदेश की नदियाँ श्रेणी:ऋग्वैदिक नदियाँ
महमूद
https://hi.wikipedia.org/wiki/महमूद
महमूद अली (29 सितम्बर,1932-23 जुलाई, 2004) (आम तौर पर महमूद) एक भारतीय अभिनेता और फ़िल्म निर्देशक थे। हिन्दी फ़िल्मों में उनके हास्य कलाकार के तौर पर किये गये अदभुत अभिनय के लिये वे जाने और सराहे गये है। तीन दशक लम्बे चले उनके करीयर में उन्होने 300 से ज़्यादा हिन्दी फ़िल्मों में काम किया। महमूद अभिनेता और नृत्य कलाकार मुम्ताज़ अली के नौ बच्चों में से एक थे। जुलाई २३, २००४ को अमरीका में पेनसिल्वेनिया शहर में नींद में ही गुज़र गये। वे बरसों से ह्रदयरोग से पीड़ित थे। पिछले बरसों में उनकी सेहत बहुत खराब रहती थी। व्यक्तिगत जीवन महमूद का जन्म 29 सितम्बर 1932 को मुम्बई में हुआ था। अपने माता-पिता की आठ में से दूसरे नम्बर की संतान महमूद ने शुरुआत में बाल कलाकार के तौर पर कुछ फ़िल्मों में काम किया था। उनकी भाषा में हैदराबादी जुबान का पुट दर्शकों को बेहद पसंद आया और उनकी संवाद अदायगी और अभिनय के लाजवाब अंदाज ने जल्द ही करोड़ों लोगों को अपना दीवाना बना लिया। महमूद ने जिस वक्त फ़िल्मों को गम्भीरता से लेना शुरू किया तब भारतीय फ़िल्मों पर किशोर कुमार की कॉमेडी का जादू छाया था। लेखक मनमोहन मेलविले ने अपने एक लेख में महमूद और किशोर के दिलचस्प किस्से को बयान किया है। इसमें कहा गया है कि महमूद ने अपने कॅरियर के सुनहरे दौर से गुजर रहे किशोर से अपनी किसी फ़िल्म में भूमिका देने की गुजारिश की थी लेकिन महमूद की प्रतिभा से पूरी तरह वाकिफ किशोर ने कहा था कि वह ऐसे किसी व्यक्ति को मौका कैसे दे सकते, जो भविष्य में उन्हें चुनौती देने का माद्दा रखता हो। इस पर महमूद ने बड़े दिलचस्प जवाब में कहा एक दिन मैं भी बड़ा फ़िल्मकार बन जाउूंगा और आपको अपनी फ़िल्म में भूमिका दे दूंगा। महमूद अपनी बात के पक्के साबित हुए और आगे चलकर अपनी होम प्रोडक्शन फ़िल्म पड़ोसन में किशोर को रोल दिया। इन दोनों महान कलाकारों की जुगलबंदी से यह फ़िल्म बॉलीवुड की सबसे विलक्षण कॉमेडी फ़िल्म बनकर उभरी। अपने जीवन के आखिरी दिनों में महमूद का स्वास्थ्य खराब हो गया। वह इलाज के लिए अमेरिका गए जहां 23 जुलाई 2004 को उनका निधन हो गया।Mumbai bids emotional farewell to Mehmood द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया, 28 July 2004. महमूद ने अभिनेत्री मीना कुमारी की बहन मधु से शादी की थी। आठ संतानों के पिता महमूद के दूसरे बेटे लकी अली जाने-माने गायक और अभिनेता हैं। कैरियर अभिनेता के तौर पर काम से पेहले वे छोटे मोटे काम करते थे, वाहन चलाने का काम भी करते थे। उस ज़माने में मीना कुमारी को टेबल टेनिस सिखाने के लिये उन्हे नौकरी पर रक्खा गया था। बादमें उन्होने मीना कुमारी की बहन मधु से शादी की। शादी करने और पिता बनने के बाद ज़्यादा पैसे कमाने के लिये उन्होने अभिनय करने का निश्चय किया। शुरुआत में उन्होने "दो बीघा ज़मीन" और "प्यासा" जैसी फ़िल्मों में छोटे मोटे पात्र निभायें। महमूद को फ़िल्मों में पहला बड़ा ब्रेक फ़िल्म परवरिश (1958) में मिला था। इसमें उन्होंने फ़िल्म के नायक राजकपूर के भाई का किरदार निभाया था। बाद में उन्होंने फ़िल्म गुमनाम में एक दक्षिण भारतीय रसोइए का कालजई किरदार अदा किया। उसके बाद उन्होंने "प्यार किये जा प्यार ही प्यार, ससुराल, लव इन टोक्यो और जिद्दी जैसी हिट फ़िल्में दीं। बाद में उन्होंने कुछ फ़िल्मों में मुख्य भूमिका भी निभाई लेकिन दर्शकों ने उन्हें एक कॉमेडियन के तौर पर ज्यादा पसंद किया। महमूद ने बाद में अपना स्वयं का प्रोडक्शन हाउस खोला। उनकी पहली होम प्रोडक्शन फ़िल्म छोटे नवाब थी। बाद में उन्होंने बतौर निर्देशक सस्पेंस-कॉमेडी फ़िल्म भूत बंगला बनाई। उसके बाद उनकी फ़िल्म पड़ोसन 60 के दशक की जबर्दस्त हिट साबित हुई। पड़ोसन को हिंदी सिने जगत की श्रेष्ठ हास्य फ़िल्मों में गिना जाता है। अपनी अनेक फ़िल्मों में वह नायक के किरदार पर भारी नजर आए। अभिनेता, निर्देशक, कथाकार और निर्माता के रूप में काम करने वाले महमूद ने शाहरुख खान को लेकर वर्ष 1996 में अपनी आखिरी फ़िल्म दुश्मन दुनिया का बनाई लेकिन वह बॉक्स ऑफिस पर नाकाम रही। प्रमुख फिल्में उनकी कुछ प्रमुख फ़िल्में थीं - पड़ोसन, गुमनाम, प्यार किए जा, भूत बंगला, बॉम्बे टू गोवा, सबसे बड़ा रूपैया, पत्थर के सनम, अनोखी अदा, नीला आकाश, नील कमल, कुँवारा बाप आदि. आई एस जौहर के साथ उनकी जोड़ी काफ़ी मशहूर हुई थी और दोनों ने जौहर महमूद इन गोवा और जौहर महमूद इन हाँगकाँग के नाम से फ़िल्में भी कीं. निर्देशक के रूप में महमूद की अंतिम फ़िल्म थी दुश्मन दुनिया का. १९९६ में बनी इस फ़िल्म में उन्होंने अपने बेटे मंज़ूर अली को पर्दे पर उतारा था। वर्ष फ़िल्म चरित्र टिप्पणी1980 ख़ंजर जगत 1978 देस परदेस अनवर 1975 सलाखें अब्दुल रहमान 1974 कुँवारा बाप 1966 पति पत्नी "ससुराल" शोभा खोटे के साथ (१९६१) "गुमनाम" हेलन के साथ (१९६५) "प्यार किये जा" मुमताज़ के साथ (१९६६) "लव इन टोक्यो" शोभा खोटे के साथ (१९६६) "पत्थर के सनम" (१९६७) "पडोसन" सुनील दत्त, सायरा बानु और किशोर कुमार के साथ (१९६८) "भूत बंगला" "बोम्बे टु गोआ" "साधू और शैतान" (१९६८) "हमजोली" (१९७०) "मैं सुन्दर हूं" लीना चंदावरकर के साथ (१९७१) "कुंवारा बाप" (१९७४) "संगर्श" "दो फ़ूल" "जिन्नि और जोनी" "सबसे बडा रुपय्या" "जोहर मेहमूद इन गोवा" "जोहर मेहमूद इन होंग कोंग" उनके कुछ यादगार गाने थे "एक चतुर नार" "पडोसन" से, "आओ ट्विस्ट करें" "भूत बंगला" से, "ये दो दिवाने दिल के" "जोहर मेहमूद इन गोवा" से, "हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं" "गुमनाम" से। सन्दर्भ नामांकन और पुरस्कार श्रेणी:२००४ में निधन श्रेणी:हिन्दी अभिनेता श्रेणी:फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता
पर्सनल डिजिटल एसिस्टेंट
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पीडीए या पर्सनल डिजिटल असिस्टंट एक ऐसा छोटा कंप्यूटर है जिसे आप डिजिटल डायरी की तरह जेब में कहीं भी ले जा सकते हैं। यह एक साधारण कंप्यूटर की तरह ही काम करता है लेकिन आप इसे मोबाइल फ़ोन की तरह या फिर इंटरनेट पर जाने के भी इस्तेमाल कर सकते हैं। पीडीए में लिखने के लिए एक विशेष पेन्सिल का इस्तेमाल होता है। इसके ज़रिए आप ठीक वैसे ही लिख सकते हैं जैसे की स्कूल में कॉपी में लिखा करते थे। वैसे कई पीडीए में कीबोर्ड पर टाइप करने की सुविधा भी होती है। अब बाज़ार में ऐसे पीडीए भी मिलने लगे हैं जो आपकी आवाज़ पहचान कर उसे शब्दों में उतार सकते हैं। लेकिन ये सुविधा अभी बहुत कम भाषाओं में ही उपलब्ध है
कृत्रिम बुद्धिमत्ता
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redirect कृत्रिम बुद्धि
कम्प्यूटर वायरस
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thumb|मैकमैग वायरस 'यूनिवर्सल पीस', जैसा कि मार्च 1988 में एक मैक पर प्रदर्शित किया गया था|पाठ=Computer virus writing computer virus writing computer virus writing computer virus writing computer virus writing कम्प्यूटर वायरस या कम्प्यूटर विषाणु एक कंप्यूटर प्रोग्राम (computer program) है जो अपनी अनुलिपि कर सकता है और उपयोगकर्ता की अनुमति के बिना एक कंप्यूटर को संक्रमित कर सकता है और उपयोगकर्ता को इसका पता भी नहीं चलता है। विभिन्न प्रकार के मैलवेयर (malware) और एडवेयर (adware) प्रोग्राम्स के सन्दर्भ में भी "वायरस" शब्द का उपयोग सामान्य रूप से होता है, हालाँकि यह कभी-कभी ग़लती से भी होता है। मूल वायरस अनुलिपियों में परिवर्तन कर सकता है, या अनुलिपियाँ ख़ुद अपने आप में परिवर्तन कर सकती हैं, जैसा कि एक रूपांतरित वायरस (metamorphic virus) में होता है। एक वायरस एक कंप्यूटर से दूसरे कंप्यूटर में तभी फ़ैल सकता है जब इसका होस्ट एक असंक्रमित कंप्यूटर में लाया जाता है, उदाहरण के लिए एक उपयोगकर्ता के द्वारा इसे एक नेटवर्क या इन्टरनेट पर भेजने से, या इसे हटाये जाने योग्य माध्यम जैसे फ्लॉपी डिस्क (floppy disk), CD (CD), या USB ड्राइव (USB drive) पर लाने से. इसी के साथ वायरस एक ऐसे संचिका तंत्र या जाल संचिका प्रमाली (network file system) पर संक्रमित संचिकाओं के द्वारा दूसरे कम्पूटरों पर फ़ैल सकता है जो दूसरे कम्प्यूटरों पर भी खुल सकती हों.कभी कभी कंप्यूटर का कीड़ा (computer worm) और ट्रोजन होर्सेस (Trojan horses) के लिए भी भ्रम पूर्वक वायरस शब्द का उपयोग किया जाता है। एक कीडा अन्य कम्प्यूटरों में ख़ुद फैला सकता है इसे पोषी के एक भाग्य के रूप में स्थानांतरित होने की जरुरत नहीं होती है और एक ट्रोजन होर्स एक ऐसी फाईल है जो हानिरहित प्रतीत होती है। कीडे और ट्रोजन होर्स एक कम्यूटर सिस्टम के आंकडों, कार्यात्मक प्रदर्शन, या कार्य निष्पादन के दौरान नेटवर्किंग को नुकसान पहुंचा सकते हैं। सामान्य तौर पर, एक कीड़ा वास्तव में सिस्टम के हार्डवेयर या सॉफ्टवेयर को नुकसान नहीं पहुंचाता, जबकि कम से कम सिद्धांत रूप में, एक ट्रोजन पेलोड, निष्पादन के दोरान किसी भी प्रकार का नुकसान पहुँचने में सक्षम होता है। जब प्रोग्राम नहीं चल रहा है तब कुछ भी नहीं दिखाई देता है लेकिन जैसे ही संक्रमित कोड चलता है, ट्रोजन होर्स प्रवेश कर जाता है। यही कारण है कि लोगों के लिए वायरस और अन्य मैलवेयर को खोजना बहुत ही कठिन होता है और इसीलिए उन्हें स्पायवेयर प्रोग्राम और पंजीकरण प्रक्रिया का उपयोग करना पड़ता है। आजकल अधिकांश व्यक्तिगत कंप्यूटर इंटरनेट और लोकर एरिया नेटवर्क से जुड़े हैं और लोकल एरिया नेटवर्क (local area network), दूषित कोड को फैलाने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाता है। आज का वायरस नेटवर्क सेवाओ का भी लाभ उठा सकता है जैसे वर्ल्ड वाइड वेब, ई मेल, त्वरित संदेश (Instant Messaging) और संचिका साझा (file sharing) प्रणालियां वायरसों और कीडों को फैलने में मदद करती हैं। इसके अलावा, कुछ स्रोत एक वैकल्पिक शब्दावली का उपयोग करते हैं, जिसमें एक वायरस स्व-अनुलिपि करने वाले मैलवेयर (malware) का एक रूप होता है। कुछ मेलवेयर, विनाशकारी प्रोग्रामों, संचिकाओं को डिलीट करने, या हार्ड डिस्क की पुनः फ़ॉर्मेटिंग करने के द्वारा कंप्यूटर को क्षति पहुचाने के लिए प्रोग्राम किए जाते हैं। अन्य मैलवेयर प्रोग्राम किसी क्षति के लिए नहीं बनाये जाते हैं, लेकिन साधारण रूप से अपने आप को अनुलिपित कर लेते हैं औए शायद कोई टेक्स्ट, वीडियो, या ऑडियो संदेश के द्वारा अपनी उपस्थिति को दर्शाते हैं। यहाँ तक की ये कम अशुभ मैलवेयर प्रोग्राम भी [उपयोगकर्ता (कम्प्यूटिंग)|कंप्यूटर उपयोगकर्ता] (computer user) के लिए समस्याएँ उत्पन्न कर सकते हैं।.वे आमतौर पर वैध कार्यक्रमों के द्वारा प्रयोग की जाने वाली कम्प्यूटर की स्मृति (computer memory) को अपने नियंत्रण में ले लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप, वे अक्सर अनियमित व्यवहार का कारण होते हैं और सिस्टम को नुकसान पहुंचाते हैं। इसके अतिरिक्त, बहुत से मैलवेयर बग (bug) से ग्रस्त होते हैं, और ये बग सिस्टम को नुक्सान पंहुचा सकते हैं या डाटा क्षति (data loss) का कारण हो सकते हैं। कई सीआईडी प्रोग्राम ऐसे प्रोग्राम हैं जो उपयोगकर्ता द्वारा डाउनलोड किए गए हैं और हर बार पॉप अप किए जाते हैं। इसके परिणाम स्वरुप कंप्यूटर की गति बहुत कम हो जाती है लेकिन इसे ढूंढ़ना और समस्या को रोकना बहुत ही कठिन होता है। इतिहास सबसे पहला वायरस क्रीपर था जो अरपानेट (ARPANET), पर खोजा गया, जो १९७० के दशक की शुरुआत में इंटरनेट से पहले आया था।सबसे पहला वायरसयह TENEX (TENEX) ऑपरेटिंग सिस्टम के द्वारा फैला और यह कंप्यूटर को नियंत्रित और संक्रमित करने के लिए किसी भी जुड़े मॉडम का उपयोग कर सकता था। यह संदेश प्रदर्शित कर सकता है कि "मैं क्रीपर हूँ; अगर पकड़ सकते हो तो मुझे पकडो". यह अफवाह थी कि रीपर प्रोग्राम, जो इसके कुछ ही समय बाद प्रकट होता है और क्रीपर की प्रतियाँ बनाता है और उन्हें हटा देता है, इसे संभवतया क्रीपर के निर्माता के द्वारा खेद पत्र में लिखा गया है। एक आम धारणा है कि एक प्रोग्राम जो "रोथर J (Rother J)"कहलाता था वह "इन दी वाइल्ड " प्रकट होने वाला पहला कंप्यूटर वायरस था —यह एक कंप्यूटर के बाहर या प्रयोगशाला में बनाया गया, लेकिन यह दावा ग़लत था। अन्य हाल ही के वायरसों के लिए जाने-माने कंप्यूटर वायरसों और कीडों की समय रेखा (Timeline of notable computer viruses and worms) देखें.लेकिन यह " घर में " कम्प्यूटरों को संक्रमित करने वाला पहला वायरस था। १९८२ में रिचर्ड स्क्रेंता (Richard Skrenta), के द्वारा लिखा गया, इसने ख़ुद को एप्पल DOS (Apple DOS) 3.3 ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ जोड़ लिया और फ्लॉपी डिस्क (floppy disk) के द्वारा फैला.मूलतः यह वायरस एक हाई स्कूल के छात्र के द्वारा निर्मित एक मजाक था और इसे एक खेल के रूप में फ्लॉपी डिस्क पर डाल दिया गया। इसके ५० वें उपयोग पर Elk Cloner (Elk Cloner) वायरस सक्रिय हो गया, जिसने कंप्यूटर को संक्रमित किया और यह एक छोटी कविता को प्रर्दशित करता था " Elk Cloner:The program with a personality". इन दी वाइल्ड पहला पीसी वायरस एक बूट क्षेत्र का वायरस था जो (c) ब्रेन ((c)Brain) कहलाता था, इसे फारूक अल्वी ब्रदर्स (Farooq Alvi Brothers) के द्वारा १९८६ में बनाया गया, तथा लाहौर, पाकिस्तान के बाहर संचालित किया गया। इन्होने इस कथित वायरस को उनके द्वारा बनाये गए सोफ्टवेयर की प्रतियों कि चोरी रोकने के लिए बनाया.यद्यपि, विश्लेषकों ने दावा किया कि Ashar वायरस जो, ब्रेन की एक प्रजाति है, संभवतः वायरस के अन्दर कोड के आधार पर इसे पूर्व दिनांकित करता है। इससे पहले की कंप्यूटर नेटवर्क व्यापक होते अधिकांश वायरस हटाये जाने योग्य मध्यम (removable media), विशेष रूप से फ्लॉपी डिस्क (floppy disk) पर फैल गए। शुरुआती दिनों में निजी कंप्यूटर (personal computer), के कई उपयोगकर्ताओं के बीच नियमित रूप से जानकारी और प्रोग्रामों का विनिमय फ्लोपियों के द्वारा होता था। कई वायरस इन डिस्कों पर उपस्थित संक्रमित प्रोग्रामों से फैले, जबकि कुछ ने अपने आप को डिस्क के बूट क्षेत्र (boot sector) में इंस्टाल कर लिया, इससे यह सुनिश्चित हो गया की जब उपयोगकर्ता कंप्यूटर को डिस्क से बूट करेगा तो यह अनजाने में ही चल जाएगा.उस समय के पी सी पहले फ्लोपी से बूट करने का प्रयास करते थे, यदि कोई फ्लोपी ड्राइव में रह गई है। जब तक फ्लोपी का उपयोग कम नहीं हो गया तब तक यह सर्वाधिक सफल संक्रमण रणनीति थी, in the wild बूट क्षेत्र के वायरसों को बनाना सबसे आसान था।डॉ॰ सुलैमान का वायरस विश्वकोश, १९९५, ISBN १-८९७६६१-००-२, पर अवशोषितhttp://vx.netlux.org/lib/aas10.html पारंपरिक कंप्यूटर वायरस १९८० के दशक में उभरे, ऐसा निजी कंप्यूटर का उपयोग बढ़ने के कारण हुआ और इसके परिणाम स्वरुप BBS (BBS) और मॉडेम (modem) का उपयोग, तथा सॉफ्टवेयर का आदान-प्रदान बढ़ गया।बुलेटिन बोर्ड (Bulletin board) सॉफ्टवेयर के आदान प्रदान ने प्रत्यक्ष रूप से ट्रोजन होर्स प्रोग्राम्स को फैलाया और वायरस लोकप्रिय व्यावसायिक सॉफ्टवेयर को संक्रमित करने के लिए बनाये जाते थे।शेयरवेयर (Shareware) और बूटलेग (bootleg) BBS के वायरस के लिए आम वाहक (vectors) थे।होबिस्ट्स के "पाइरेट सीन" में जो खुदरा सॉफ्टवेयर (retail software), की अवैध प्रतियों का व्य[पार कर रहे थे, व्यापारी आधुनिक अनुप्रयोगों और खेलों को जल्दी प्राप्त करना चाहते थे क्योंकि ये आसानी से वायरसों का लक्ष्य बनाये जा सकते थे। १९९० के दशक के मध्य के बाद से, मैक्रो वायरस (macro virus) आम हो गए .इनमें से अधिकांश वायरस माइक्रोसोफ्ट प्रोग्राम जैसे वर्ड (Word) औरएक्सेल (Excel) के लिए पटकथा भाषाओं में लिखे जाते हैं। ये वायरस दस्तावेज़ और स्प्रेडशीट को संक्रमित करते हुए माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस में फ़ैल जाते हैं। चूंकि वर्ड और एक्सेल मैक OS (Mac OS) के लिए भी उपलब्ध थे, इसलिए इनमें से अधिकांश वायरस Macintosh कंप्यूटर (Macintosh computers) पर भी फ़ैल सकते थे। इनमें से अधिकांश वायरसों में संक्रमित ई मेल भेजने की क्षमता नहीं थी। जो वायरस ईमेल के माध्यम से फ़ैल सकते थे उन्होंने माइक्रोसॉफ्ट आउटलुक (Microsoft Outlook) COM (COM) इंटरफेस का फायदा उठाया. मैक्रो वायरस ने सॉफ्टवेयर का पता लगाने में अद्वितीय समस्या उत्पन्न कर दी.उदाहरण के लिए, माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के कुछ संस्करणों ने मेक्रोस को अतिरिक्त रिक्त लाइनॉन के साथ अनुलिपित होने की इजाजत दे दी.वायरस समान रूप से व्यवहार करता था लेकिन इसे एक नए वायरस के रूप में पहचानने की भूल की जा रही थी। एक अन्य उदाहरण में, यदि दो मेक्रो वायरस एक दस्तावेज को एक साथ संक्रमित करते हैं और इन दोनों का संयोजन अपने आप को अनुलिपित कर सकता है, तो यह इन दोनों से "अलग" रूप में प्रकट होता है और एक वायरस होता है जो अपने " अभिभावकों " से अलग होता है। एक वायरस एक संक्रमित मशीन पर सभी सम्पर्कों को त्वरित संदेश (instant message) के रूप में एक वेब पता (web address) लिंक भेज सकता है। यदि प्राप्तकर्ता, यह सोचता है कि लिंक एक मित्र (एक विश्वसनीय स्रोत) से है, वह वेब साईट पर लिंक का अनुसरण करता है, साईट पर उपस्थित वायरस इस नए कंप्यूटर को संक्रमित करने में समर्थ हो सकता है और अपना प्रसार करने लगता है। वायरस परिवार की सबसे नई प्रजाति है क्रोस साईट पटकथा वायरस.यह वायरस अनुसंधान से उभरा और २००५ में इसका अकादमिक रूप से प्रदर्शन हुआ।यह वायरस क्रोस साईट पटकथा (cross-site scripting) का उपयोग करके प्रसारित होता है। २००५ के बाद से in the wild, क्रोस साईट पटकथा वायरसों के बहुत से उदहारण रहे हैं, सबसे उल्लेखनीय प्रभावित साईटें हैं माइस्पेस (MySpace) और याहू. संक्रमण की रणनीतियां अपने आप की अनुलिपि करने के लिए, एक वायरस को कोड का निष्पादन करने की तथा स्मृति पर लिखने की अनुमति होनी चाहिए इस कारण से, कई वायरस अपने आप को निष्पादन योग्य फाईलों से संलग्न कर लेते हैं जो उचित प्रोग्राम का हिस्सा हो सकता है। यदि एक उपयोग कर्ता एक संक्रमित प्रोग्राम को शुरू करने की कोशिश करता है तो, ऐसा हो सकता है की पहले वायरस का कोड निष्पादित हो. वाइरसों को दो प्रकार में विभाजित किया जा सकता है, उनके व्यवहार के आधार पर और उनके निष्पादन के आधार पर.अनिवासी वायरस तुंरत अन्य पोशियों को खोजते हैं जिन्हें संक्रमित किया जा सकता है, इन लक्ष्यों को संक्रमित करते हैं और अंततः नियंत्रण को अनुप्रयोग प्रोग्राम (application program) पर स्थानांतरित कर देते हैं जिसे उन्होंने संक्रमित किया है। निवासी वायरस पोशी की तलाश नहीं करते हैं जब वे शुरू होते हैं। इसके बजाय, एक निवासी वायरस अपने आप को निष्पादन पर स्‍मृति में लोड कर लेता है और नियंत्रण को पोषी प्रोग्राम पर स्थानांतरित कर देता है। वायरस पृष्ठ भूमि में सक्रिय रहता है और नए पोषियों को संक्रमित करता है जब इन फाईलों को अन्य प्रोग्रामों या ख़ुद ऑपरेटिंग सिस्टम के द्वारा एक्सेस किया जाता है। अनिवासी वायरस ऐसा माना जाता है कि अनिवासी वायरस एक खोजक मॉड्यूल और एक प्रतिकृति मॉड्यूल से युक्त होता है। खोजक मॉड्यूल संक्रमण हेतु नई फाईलें खोजने के लिए उत्तरदायी होता है। हर नई निष्पादन योग्य फाईल के लिए खोजक मॉड्यूल आक्रमण कर देता है, यह फाईल को संक्रमित करने के लिए अनुलिपि मॉड्यूल को बुलाता है। निवासी वायरस निवासी वायरस में एक अनुलिपि मॉड्यूल होता है जो एक अनिवासी वायरस के द्वारा नियोजित अनुलिपि मॉड्यूल के समान होता है। यद्यपि यह मोड्यूल खोजक मोड्यूल के द्वारा नहीं बुलाया जाता है। इसके बजाय, वायरस अनुलिपि मोड्यूल को स्मृति में लोड करता है जब इसका निष्पादन होता है और यह सुनिश्चित कर लेता है कि हर बार जब ऑपरेटिंग सिस्टम एक निश्चित आपरेशन का प्रदर्शन करता है तो इस मॉड्यूल का निष्पादन होता है। उदाहरण के लिए, हर बार जब ऑपरेटिंग सिस्टम एक संचिका को निष्पादित करता है, अनुलिपि मोड्यूल को बुलाया जा सकता है। इस मामले में, वायरस कंप्यूटर पर निष्पादित होने वाले प्रत्येक उपयुक्त प्रोग्राम को संक्रमित कर देता है। कभी कभी निवासी वायरस को आगे दो श्रेणियों में उपविभाजित किया जाता है एक तीव्र संक्रामक और दूसरे धीमें संक्रामक.तीव्र संक्रामक को इस प्रकार से बनाया गया है कि जितनी अधिक संचिकाओं को हो सके संक्रमित कर सके. उदाहरण के लिए, एक तीव्र संक्रामक अक्सेस हो सकने वाली हर सम्भव पोषी संचिका को संक्रमित करता है। यह एक वायरस रोधी सॉफ्ट वेयर के लिए एक विशेष समस्या है, चूँकि एक वायरस स्केनर हर सम्भव पोषी संचिका को अक्सेस कर लेगा जब यह सिस्टम का व्यापक स्केन करता है। यदि वायरस स्केनर इस बात का ध्यान नहीं रख पाता कि ऐसा एक वायरस स्मृति में उपस्थित है, वायरस स्केनर पर पीछे से वार करता है और इस प्रकार से स्केन हो रही सभी संचिकाओं को संक्रमित कर देता है। तीव्र संक्रामक अपने प्रसार के लिए तीव्र संक्रमण दर पर भरोसा करते हैं। इस विधि का नुकसान यह है कि कई संचिकाओं को संक्रमित करने से पता लगाने की संभावना अधिक हो जाती है, क्यों कि वायरस कम्पूटर को धीमा कर देता है या कई संदिग्ध क्रियाओं को करता है जो वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर के द्वारा देखी जा सकती हैं। दूसरी और धीमे संक्रामक, इस प्रकार से बनाये जाते हैं कि वे पोषी को अन-आवृत रूप से संक्रमित करते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ धीमे संक्रामक संचिकाओं को केवल तभी संक्रमित करते हैं जब उनको कॉपी किया जा रहा है। धीमे संक्रामक कि सीमित क्रिया कि वजह से उनका पता लगाना आसान नहीं होता है: वे कंप्यूटर को बहुत अधिक धीमा नहीं करते हैं, पर बार-बार वायरस विरोधी सॉफ्ट वेयर को झटका देते हैं जिसे प्रोग्रामों के संदिग्ध व्यवहार के द्वारा पहचाना जा सकता है। धीमे संक्रामक बहुत अधिक सफल प्रतीत नहीं होते हैं, वाहक और पोषी वायरसों ने भिन्न प्रकार के प्रसार माध्यमों या पोषियों को लक्ष्य बनाया है। यह सूची ख़त्म नहीं हो सकती है: बाइनरी निष्पादन योग्य संचिका (executable file) (जैसे कि COM संचिका (COM file) और EXE (EXE) MS-डॉस (MS-DOS) में संचिकाएँ, पोर्टेबल निष्पादन योग्य (Portable Executable) संचिकाएँ माइक्रोसॉफ्ट विन्डोज़ (Microsoft Windows) में, और ELF (ELF) संचिकाएँ Linux में) फ्लॉपी डिस्क (floppy disk) का आयतन बूट रिकॉर्ड (Volume Boot Record) और हार्ड डिस्क विभाजन एक हार्ड डिस्क का मास्टर बूट रिकॉर्ड (master boot record) (MBR) सामान्य उद्देश्य की पटकथा (script) संचिकाएँ (जैसे बैच संचिका (batch file) MS - डॉस (MS-DOS) में और माइक्रोसॉफ्ट विन्डोज़ (Microsoft Windows), VBScript (VBScript) संचिकाएँ, और शेल script (shell script) संचिकाएँ यूनिक्स की तरह (Unix-like) के प्लेटफार्म पर) . अनुप्रयोग विशिष्ट स्क्रिप्ट संचिकाएँ (जैसे Telix (Telix)- लिपियाँ) दस्तावेज जिनमें मेक्रोस (macro) हो सकते हैं (जैसे माइक्रोसॉफ्ट वर्ड (Microsoft Word) दस्तावेज, माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल (Microsoft Excel) स्प्रेडशीट, AmiPro (AmiPro) दस्तावेज, और माइक्रोसॉफ्ट एक्सेस (Microsoft Access) डेटाबेस संचिकाएँ) क्रोस साईट पटकथा (Cross-site scripting) वेब अनुप्रयोगों में कमजोरियां मनमानी कंप्‍यूटर संचिकाएँ. एक दोहन योग्य बफर अतिप्रवाह (buffer overflow), प्रारूप स्ट्रिंग (format string), रेस की स्थिति (race condition) या अन्य प्रोग्राम में दोहन योग्य एक बग जो संचिका को पढता है इसके भीतर छुपे हुए कोड के निष्पादन पर हमला कर सकता है। इस प्रकार के अधिकांश बग कंप्यूटर वास्तुकला (computer architecture) में दोहन के लिए अधिक जटिल बनाये जा सकते हैं इसमें सुरक्षा लक्षण जैसे एक निष्पादित निष्क्रिय बिट (execute disable bit) और / या लेआउट randomization होते हैं। PDFs, जैसे HTML, दुर्भावनापूर्ण कोड से सम्बंधित हो सकता है। कुछ वायरस लेखकों ने जो लिखा है उसका कोई महत्त्व नहीं है।EXE विस्तार के अंत परPNG (उदाहरण के लिए), उम्मीद है कि उपयोगकर्ता विश्वस्त फाईल के प्रकार पर रुक जाएगा, वह इस बात पर ध्यान नहीं देगा की कंप्यूटर अंतिम प्रकार की संचिका के साथ प्रारंभ होगा.(कई ऑपरेटिंग सिस्टम ज्ञात संचिका प्रकार के विस्तार को बाई डिफॉल्ट छुपा लेते हैं, इसलिए उदाहरण के लिए एक संचिका का नाम जो ".png.exe" पर ख़त्म होता है,".png" पर ख़त्म होता हुआ प्रर्दशित किया जाएगा.) ट्रोजन हार्स (कम्प्यूटिंग) (Trojan horse (computing)) देखें पता लगाने से बचने के लिए विधियां उपयोगकर्ता के द्वारा पता लगाने से बचने के लिए, कुछ वाईरस विभिन्न प्रकार के छल करते हैं। कुछ पुराने वायरस, विशेष रूप से MS - DOS मंच पर, यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि जब संचिका को वायरस के द्वारा संक्रमित किया जाता है तो पोषी संचिका के " अंतिम बार संशोधित " होने की दिनांक बनी रहती है। यद्यपि यह दृष्टिकोण वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर को मुर्ख नहीं बनता है, विशेष रूप से वो जो संचिका परिवर्तन पर चक्रीय अतिरेक की जाँच (Cyclic redundancy check) कि दिनांकों को बनाये रखता है। कुछ वायरस अपने आकार को बढाये बिना और संचिकाओं को क्षति पहुचाये बिना संचिकाओं को संक्रमित कर सकते हैं। वे ऐसा निष्पादन योग्य संचिकाओं के अप्रयुक्त क्षेत्रों में अधिलेखन के द्वारा करते हैं। ये केविटी वायरस कहलाता है। उदाहरण के लिए की CIH वायरस (CIH virus), या चेरनोबिल वायरस (Chernobyl Virus), पोर्टेबल निष्पादन योग्य (Portable Executable) संचिकाओं को संक्रमित करता है। क्योंकि उन संचिकाओं में कई खाली स्थान थे, वायरस जो १ KB (KB) लंबाई का था, संचिका के आकर में नहीं जुड़ा. कुछ वायरस वायरस विरोधी सॉफ्टवेयर के कार्य को ख़त्म करके अपने आप को प्रकट नहीं होने देते हैं, इससे पहले कि वह उसका पता लगा ले. क्योंकि कंप्यूटर और ऑपरेटिंग सिस्टम अधिक विकसित और जटिल हो रहे हैं, छुपाने कि पुरानी तकनीकों को नवीनीकृत करने या प्रतिस्थापित करने कि आवशयकता है। एक कंप्यूटर को वायरस से सुरक्षित रखने कि मांग यह हो सकती है कि संचिका तंत्र हर प्रकार के संचिका एक्सेस के लिए विस्तृत और स्पष्ट अनुमति की और पलायन कर जाए. बैट संचिकाओं और अन्य अवांछनीय पोषियों को टालना एक वायरस के लिए आगे फैलने के लिए पोषियों को संक्रमित करने कि जरुरत होती है। कुछ मामलों में, एक पोषी को संक्रमित करना एक खराब विचार हो सकता है उदाहरण के लिए, कई वायरस विरोधी प्रोग्राम अपने कोड की अखंडता की जांच करते हैं। इसलिए ऐसे प्रोग्रामों का संक्रमण इस सम्भावना को बढ़ाएगा कि इस वायरस का पता चल गया है। इस कारण से, कुछ वायरस उन प्रोग्रामों को संक्रमित नहीं करते हैं जो वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर का हिस्सा है। एक अन्य प्रकार का पोषी जिससे वायरस कभी कभी बचने कि कोशिश करता है वह है बैट संचिकाएँ.बैट संचिकाएँ (या गोट संचिकाएँ) वे संचिकाएँ हैं जो कि विशेष रूप से वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर या ख़ुद वायरस विरोधी पेशेवरों के द्वारा एक वायरस के द्वारा संक्रमित होने के लिए बनाई गई हैं। इन संचिकाओं को भिन्न कारणों से बनाया जा सकता है, ये सभी वायरस का पता लगाने से सम्बंधित हैं। वायरस विरोधी पेशेवर बैट संचिकाओं का उपयोग एक वायरस के नमूने लेने के लिए कर सकते हैं। (अर्थात एक ऐसे प्रोग्राम संचिका कि कॉपी जो वायरस के द्वारा संक्रमित है।) एक छोटी संक्रमित बैट संचिका का संग्रहण और विनिमय अधिक प्रायोगिक है, बजाय एक बड़े अनुप्रयोग प्रोग्राम के जो वायरस के द्वारा संक्रमित है। वायरस विरोधी पेशेवर बैट संचिकाओं का उपयोग वायरस के व्यवहार का अध्ययन करने के लिए और जांच विधियों के मूल्यांकन के लिए करते हैं। यह विशेष रूप से उपयोगी है जब वायरस बहुरूपी (polymorphic) हो. इस मामले में, वायरस बड़ी संख्या में बैट संचिकाओं को संक्रमित कर सकता है। संक्रमित संचिकाओं को उपयोग यह पता लगाने के लिए किया जाता है कि एक वायरस स्केनर वायरस के सभी संस्करणों का पता लगता है या नहीं. कुछ वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर ऐसी बैट संचिकाओं पर जाते हैं जो नियमित रूप से एक्सेस होती हैं। जब ये संचिकाएँ संशोधित की जाती हैं, वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर चेतावनी देता है कि शायद एक वायरस सिस्टम पर सक्रिय है। चूँकि बैट संचिकाओं का उपयोग वायरस का पता लगाने में या जांच को सम्भव बनने में किया जाता है, वायरस के द्वारा संक्रमण नहीं होने का लाभ उठाया जा सकता है। आम तौर पर वाइरस आम तौर पर ऐसा वाइरस प्रोग्रामों से बच कर ऐसा करते हैं, जैसे छोटी प्रोग्राम संचिकाएँ या प्रोग्राम जिनमें ' कूड़ा निर्देश ' के विशिष्ट प्रतिरूप हों. बैटिंग को मुश्किल बनाने के लिए एक संबंधित रणनीति है विरल संक्रमण.कभी कभी, विरल संक्रामक एक पोषी संचिका को संक्रमित नहीं करते हैं जो अन्य स्थितियों में संक्रमण के लिए उपयुक्त उम्मीदवार हो सकता है। उदाहरण के लिए, एक वायरस यादृच्छिक आधार पर तय कर सकता है कि एक संचिका को संक्रमित करना है या नहीं, या एक वायरस सप्ताह के विशेष दिनों में ही पोषी संचिकाओं को संक्रमित कर सकता है। चोरी कुछ वायरस ऑपरेटिंग सिस्टम से अनुरोध करके वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर को धोखा देने कि कोशिश करते हैं। वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर संचिका को पढने का अनुरोध करता है और यह अनुरोध OS के बजाय वायरस को जाता है, इस प्रकार से एक वायरस अपने आप को छुपा लेता है। अब वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर की संचिका के असंक्रमित संस्करण पर लोट जाता है, जिससे कि ऐसा प्रतीत होता है कि संचिका " स्वच्छ " है। आधुनिक वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर के पास वायरस की चोरी का पता लगाने के लिए कई तकनीकें हैं। चोरी को रोकने की केवल एक विश्वसनीय विधि है एक ऐसे माध्यम से बूट करना जो स्वच्छ हो. स्वयं संशोधन अधिकांश वायरस विरोधी प्रोग्राम साधारण प्रोग्रामों के भीतर वायरस प्रतिरूप खोजने कि कोशिश करते हैं इसे तथाकथित वायरस के हस्ताक्षर कहा जाता है। हस्ताक्षर एक लाक्षणिक बाईट प्रतिरूप है, जो एक विशेष वायरस या वायरस परिवार का एक भाग है। यदि एक वायरस स्केनर एक संचिका में ऐसा प्रतिरूप खोज लेता है, यह उपयोगकर्ता को सूचित कर देता है कि संचिका संक्रमित है। उपयोगकर्ता फिर इस संचिका को नष्ट कर सकते हैं, या (कुछ मामलों में) संक्रमित संचिका को " शुद्ध " या " ठीक "कर सकते हैं। कुछ वायरस ऐसी तकनीकों का उपयोग करते हैं कि जो हस्ताक्षर के द्वारा इसका पता लगाने को मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव बना देता है। ये वायरस प्रत्येक संक्रमण पर अपना कोड बदल लेते हैं। अर्थात प्रत्येक संक्रमित संचिका में वायरस की एक अलग प्रजाति होती है। एक चार कुंजी के साथ एन्क्रिप्शन. वायरस के कूटलेखन के लिए एक और अधिक उन्नत विधि है सरल एन्क्रिप्शन (encryption) का उपयोग.इस मामले में, वायरस एक छोटे से decrypting मॉड्यूल और वायरस के कोड कि एक एन्क्रिप्टेड कॉपी से युक्त होता है। यदि प्रत्येक संक्रमित संचिका के लिए वायरस एक अलग कुंजी से एन्क्रिप्टेड है, तो वायरस का केवल एक भाग स्थिर बना रहता है वह है decrypting मॉड्यूल, जो (उदाहरण के लिए) के अंत से संलग्न होगा.इस मामले में, एक वायरस स्कैनर हस्ताक्षर का उपयोग करके सीधे वायरस का पता नहीं लगा सकता, लेकिन यह फ़िर भी डीक्रिप्टिंग मॉड्यूल का पता लगा सकता है, जो संभव वायरस की अभी भी अप्रत्यक्ष जांच कर सकता है। चूंकि ये संक्रमित पोषी पर संग्रहित कुंजिया होंगी, वास्तव में अन्तिम वायरस को विकोड करना पूरी तरह से सम्भव है, लेकिन इसकी शायद जरुरत नहीं है, चूँकि स्वयं संशोधित कोड इतना दुर्लभ है कि इसके कारण से वायरस स्केनर कम से कम संदिग्ध संचिका को अंकित कर सकता है। एक पुराने लेकिन कम्पैक्ट, एन्क्रिप्शन में एक स्थिर वायरस कि प्रत्येक बाईट XORing (XORing) शामिल है, ताकि ऑपरेशन का दोहरान केवल डिक्रिप्शन के लिए हो.यह संदिग्ध कोड है जो अपने आप को संशोधित करता है, इसलिए कई वायरस परिभाषाओं में एन्क्रिप्शन / डिक्रिप्शन हस्ताक्षर का एक भाग हो सकता है। बहुरूपी कोड बहुरूपी कोड (Polymorphic code) पहली तकनीक थी जो वायरस स्केनर के लिए एक गंभीर खतरा बनी. नियमित एन्क्रिप्टेड वायरस की तरह, एक बहुरूपी वायरस अपने एन्क्रिप्टेड कोड के साथ संचिकाओं को संक्रमित करता है, जो एक डिक्रिप्शन मॉड्यूल के द्वारा डिकोड कर दिया जाता है। बहुरूपी वायरस के मामले में, यह डिक्रिप्शन मॉड्यूल भी प्रत्येक संक्रमण पर संशोधित होता है। इसलिए ठीक प्रकार से लिखे गए बहुरूपी वायरस में ऐसे कोई भाग नहीं हैं जो संक्रमणों में समान हों, यह हस्ताक्षर का उपयोग करके इसका पता लगाना मुश्किल बनाता है। वायरस विरोधी सॉफ़्टवेयर एक प्रतिद्वंद्वी का उपयोग करके decrypting के द्वारा इसका पता लगा सकता है, या एन्क्रिप्टेड वायरस शरीर के सांख्यिकीय प्रतिरूप विश्लेषण के द्वारा इसका पता लगा सकता है। बहुरूपी कोड को सक्षम करने के लिए, वायरस के पास इसके एन्क्रिप्टेड शरीर में कहीं पर एक बहुरूपी इंजन (इसे उत्परिवर्तन इंजन भी कहा जाता है) होना चाहिए .इस तरह के इंजन कैसे काम करते है इस पर तकनीकी विस्तार के लिए बहुरूपी कोड (Polymorphic code) देखें. कुछ वायरस बहुरूपी कोड को इस प्रकार से काम में लेते हैं कि यह मुख्य रूप से वायरस के उत्परिवर्तन की दर को बाध्य करता है। उदाहरण के लिए, एक वायरस केवल कुछ ही समय में उत्परिवर्तित होने के लिए प्रोग्राम किया जाता है, या इसे इस प्रकार से प्रोग्राम किया जा सकता है कि जब ये कंप्यूटर पर ऐसी संचिका को संक्रमित कर रहा हो जिसमें पहले से वायरस की अनुलिपियाँ हो, तो यह उत्परिवर्तन से बच सके. जिसे धीमे बहुरूपी कोड का उपयोग करने का लाभ यह है कि इससे वायरस विरोधी पेशेवर के लिए वायरस का प्रतिनिधि का नमूना प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बैट संचिकाएँ जो एक बार चलने में संक्रमित हो जाती हैं, उनमें प्रारूपिक रूप से वायरस का समान नमूना होगा. इसे यह सम्भावना बढ़ जायेगी कि वायरस स्केनर के द्वारा कि गई जांच अविश्वसनीय होगी और यह हो सकता है कि वायरस के कुछ उदाहरण जांच का पता लगाने में सक्षम न हों. रूपांतरित कोड अनुकरण के द्वारा जांच से बचने के लिए कुछ वायरस हर बार जब एक नए निष्पादनयोग्य को संक्रमित करते हैं तब अपने आप को पुनर्लिखित कर लेते हैं। वायरस जो ऐसी तकनीक का उपयोग करते हैं वे रूपांतरित (metamorphic) कहलाते हैं।रूपांतरण (metamorphism) को संभव बनाने के लिए एक रूपांतरित इंजन की जरूरत होती है। एक रूपांतरित वायरस आमतौर पर बहुत बड़ा और जटिल होता है। उदाहरण के लिए, W32/Simile (W32/Simile) में समूह भाषा कोड की १४००० से अधिक रेख्यें होती हैं, जिनमें से ९०% रूपांतरित इंजन का हिस्सा है। भेद्यता और मापने के लक्षण वायरस के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम की भेद्यता जैसे एक आबादी में आनुवंशिक विविधता (genetic diversity) के कम होने पर उसमें एक मात्र रोग की सम्भावना कम हो जाती है, समान रूप से एक नेटवर्क पर सॉफ्टवेयर सिस्टम कि विविधता की भी वायरस की विनाशकारी क्षमता को सीमित करती है। यह १९९० में विशेष विचार का विषय बन गया जब माइक्रोसॉफ्ट ने डेस्कटॉप ऑपरेटिंग सिस्टम और कार्यालय सुइट (office suite) में बाजार में प्रभुत्व प्राप्त कर लिया। माइक्रोसॉफ्ट सॉफ़्टवेयर के उपयोगकर्ता (विशेषकर नेटवर्किंग सॉफ्टवेयर जैसे माइक्रोसॉफ्ट आउटलुक (Microsoft Outlook) और इंटरनेट एक्सप्लोरर (Internet Explorer)) विशेष रूप से वायरस के प्रसार के लिए कमजोर हैं। माइक्रोसॉफ्ट सॉफ़्टवेयर को वायरस के द्वारा लक्ष्य बनाये जाने का कारण है उनका डेस्कटॉप प्रभुत्व होना और अक्सर कई गलतियों और वायरस लेखकों के लिए छिद्रों कि वजह से इसकी आलोचना की जाती है। समन्वित और गैर एकीकृत माइक्रोसॉफ्ट अनुप्रयोग (जैसे माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस) और संचिका प्रणाली के एक्सेस के साथ भाषाओँ कि पटकथाओं के अनुप्रयोग (उदाहरण के लिए दृश्य मूल लिपि (Visual Basic Script) (VBS), और नेटवर्किंग लक्षणों के साथ अनुप्रयोग) भी विशेष रूप से जोखिम युक्त हैं। यद्यपि विंडोस वायरस के लेखकों के लिए, सबसे लोकप्रिय ऑपरेटिंग सिस्टम है, कुछ वायरस दूसरे प्लेटफार्म पर भी मौजूद है। कोई भी ऑपरेटिंग सिस्टम जो चलने के लिए तीसरे पक्ष के प्रोग्राम को अनुमति दे सकता है वह सैद्धांतिक रूप से वायरस को चला सकता है। कुछ ऑपरेटिंग सिस्टम दूसरों के मुकाबले कम सुरक्षित हैं .यूनिक्स आधारित OS (और NTFS को जानने वाले अनुप्रयोग विन्डोज़ NT आधारित प्लेटफार्म पर) केवल अपने उपयोग कर्ताओं को ही अपने निर्देशों के अंतर्गत सुरक्षित स्थान के भीतर निष्पादन की अनुमति देते हैं। इंटरनेट आधारित एक शोध से पता चला कि ऐसे मामले भी थे जब लोगों ने जान-बूझ कर एक वायरस को डाऊनलोड करने के लिए एक विशेष बटन को दबाया.एक सुरक्षा फर्म F-Secure ने एक ६ माह का अभियान गूगल ऐडवर्ड्स (Google AdWords) पर चलाया जिसने कहा "क्या आपका पी सी वायरस मुक्त है?यह यहाँ संक्रमित प्राप्त करें ! " .इसका परिणाम था ४०९ क्लिक. २००६ में अपेक्षाकृत कुछ सुरक्षा के तरीके थेजो मैक OS X (Mac OS X) को लक्ष्य बना रहे थे (एक यूनिक्स आधारित संचिका प्रणाली और कर्नेल (kernel) के साथ) . पुराने एप्पल ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए वायरस कि एक संख्या जो मैक ओएस क्लासिक के नाम से जानी जाती है, वो अलग अलग स्रोतों में बहुत अलग होती है, एप्पल के साथ कहा जाता है कि केवल चार प्रकार के जाने माने वायरस होते हैं और स्वतंत्र सूत्रों (independent sources) के अनुसार ६३ वायरस के रूप हैं। यह कहना सुरक्षित है कि बाजार के कम शेयर कि वजह से Macs को लक्ष्य बनाने की सम्भावना कम होती है और इस प्रकार से एक मैक विशेष वायरस केवल कम्प्यूटरों के एक छोटे अनुपात को ही संक्रमित कर सकता है। (प्रयास को कम वांछनीय बनते हुए) .मेक्स और विंडोस के बीच वायरस का जोखिम मुख्य बिक्री बिन्दु है, एक यह कि Apple (Apple) उनके एक मैक प्राप्त करें (Get a Mac) विज्ञापन में काम लेता है। इस के अनुसार मेक्स में भी माइक्रोसॉफ्ट विन्डोज़ कि तरह सुरक्षा के मुद्दे होते हैं, यद्यपि किसी ने भी in the wild सफलता पूर्वक इसका पूर्ण लाभ नहीं उठाया है। विंडोस और यूनिक्स में समान पटकथा की क्षमता है, लेकिन जब यूनिक्स स्वाभाविक रूप से सामान्य उपयोगकर्ताओं को ऑपरेटिंग सिस्टम वातावरण के लिए परिवर्तन करने के लिए एक्सेस करने से रोकता है, विन्डोज़ की पुरानि प्रतियां जैसे विन्डोज़ ९५ और ९८ ऐसा नहीं करती.१९९७ में, जब एक "Bliss (Bliss)" नामक वायरस Linux के लिए जारी किया गया था --प्रमुख वायरस विरोधी विक्रेताओं ने एक चेतावनी जारी की यूनिक्स की तरह (Unix-like) के सिस्टम ठीक विडोस की तरह वायरस का शिकार बन सकते हैं।ब्लिस वायरस को वायरसों का लाक्षणिक माना जा सकता है--यूनिक्स प्रणालियों पर --कीडों के विपरीत.ब्लिस की जरुरत है कि उपयोगकर्ता इसे स्पष्ट रूप से चलाता है (इसलिए यह एक ट्रोजन है) और यह केवल ऐसे प्रोग्रामों को संक्रमित कर सकता है जो उपयोगकर्ता के द्वारा संशोधित किए जा सकते हैं। विन्डोज़ उपयोगकर्ता के विपरीत, अधिकांश यूनिक्स उपयोगकर्ता किसी सॉफ्टवेयर को इन्सटौल करने के अलावा किसी व्यवस्थापक उपयोगकर्ता के रूप में लॉग इन (log in) नहीं करते: यहाँ तक कि यदि एक उपयोगकर्ता वायरस को चलाता है तो भी यह ऑपरेटिंग सिस्टम को नुकसान नहीं कर सकता है। ब्लिस वायरस कभी भी व्यापक नहीं हुआ और मुख्य रूप से अनुसंधान के लिए उत्सुकता का विषय बना रहा.इसके निर्माता ने बाद में यूज़नेट को इसका स्रोत कोड पोस्ट किया, शोधकर्ताओं को यह जानने कि अनुमति दी कि यह कैसे कम करता है। सॉफ्टवेयर विकास की भूमिका चूँकि सिस्टम स्रोत का अनाधिकृत उपयोग रोकने के लिए सॉफ्टवेयर को अक्सर सुरक्षा व्यवस्था के साथ डिजाईन किया जाता है, कई वायरस एक सिस्टम या अनुप्रयोग में सॉफ्टवेयर बग (software bug) को फैलने में मदद करते हैं।सॉफ्टवेयर विकास (Software development) रणनीतियां जो बड़ी संख्या में बग का उत्पादन करती हैं, सामान्य रूप से सक्षम दोहन भी उत्पन्न करती है। वायरस विरोधी सॉफ्टवेयर और अन्य रोकथाम के उपाय. कई उपयोग कर्ता वायरस विरोधी सॉफ्टवेयर (ऐंटिवायरस सॉफ़्टवेयर, anti-virus software) इंस्टाल करते हैं, जो कंप्यूटर डाउनलोड (download) के बाद या निष्पादन योग्य के चलने के बाद ज्ञात वायरस का पता लगा लेते हैं या उसे नष्ट कर देते हैं। ऐसे दो सामान्य तरीके हैं जिन्हें एक वायरस विरोधी सॉफ्टवेयर (anti-virus software) अनुप्रयोग वायरस की जांच करने के लिए काम में लेता है। वायरस की जांच की पहली और सबसे सामान्य विधि है वायरस के हस्ताक्षर (virus signature) परिभाषा की सूची का उपयोग.यह कंप्यूटर की स्मृति के अवयवों (अपने RAM (RAM) और बूट क्षेत्र (boot sector)) और स्थायी या अस्थायी ड्राइवों (हार्ड ड्राइव, फ्लॉपी ड्राइव) पर संगृहीत संचिकाओं की जांच के द्वारा, कार्य करता है तथा इन संचिकाओं की तुलना ज्ञात वायरस के "हस्ताक्षर" के डेटाबेस के ख़िलाफ़ की जाती है। जांच की इस विधि का नुक्सान यह है कि उपयोग कर्ता केवल वायरस से सुरक्षित रहता है जो अपनी पिछली परिभाषा का अद्यतन करता रहता है। दूसरी विधि है अनुमानी (heuristic) कलन विधि जिसमें सामान्य व्यवहार पर आधारित वायरसों का पता लगाया जाता है। इस विधि में वायरसों का पता लगाने कि क्षमता होती है जिसके लिए अभी भी वायरस विरोधी कंपनियों को हस्ताक्षर बनाना है। कुछ वायरस विरोधी प्रोग्राम खुली हुई संचिकाओं को स्केन करने में सक्षम होते हैं साथ ही समान तरीके से 'on the fly' भेजे गए और प्राप्त किए गए ई-मेल्स को भी स्केन कर सकते हैं। इसे "on-access scanning"कहते हैं। वायरस विरोधी सोफ्टवेयर पोशी सॉफ्टवेयर कि वायरस को प्रेषित करने की क्षमता को परिवर्तित नहीं करता है। उपयोगकर्ता को पैच (patch) सुरक्षा छिद्र के लिए अपने सोफ्टवेयर नियमित रूप से अद्यतन करने चाहिए.एंटी वायरस सॉफ्टवेयर को भी नियमित रूप से अद्यतन किए जाने की आवश्यकता है ताकि आधुनिक खतरों को रोका जा सके. कोई भी व्यक्ति भिन्न मिडिया पर डाटा (और आपरेटिंग सिस्टम) के नियमित रूप से बैकअप (backup) से वायरस के द्वारा की गई क्षति को कम कर सकता है, इन्हें या तो सिस्टम से असंबद्ध (ज्यादातर समय), रखा जाता है, या अन्य कारणों जैसे भिन्न संचिका प्रणालियों (file system) का उपयोग के लिए इसे नहीं खोला जा सकता या केवल रीड-ओनली रखा जाता है। इस तरह, यदि एक वायरस के माध्यम से डाटा खो दिया है, कोई भी बैकअप का उपयोग करके फिर से शुरू कर सकता है। (जो हाल ही में अद्यतन किया गया होना चाहिए.) यदि ऑप्टिकल मीडिया (optical media) जैसे सीडी (CD) और डीवीडी (DVD) पर एक बैकअप सत्र बंद हो गया है, यह read-only बन जाता है और अब वायरस से संक्रमित नहीं हो सकता है। इसी तरह, बूट योग्य (bootable) पर एक ऑपरेटिंग सिस्टम का उपयोग कंप्यूटर को शुरू करने के लिए किया जा सकता है, यदि स्थापित आपरेटिंग सिस्टम उपयोग हीन हो गया है। अन्य विधि है भिन्न संचिका तंत्रों पर भिन्न आपरेटिंग सिस्टम का उपयोग.एक वायरस की दोनों को प्रभावित करने की सम्भावना नहीं होती है। डेटा बैकअप भी भिन्न संचिका तंत्रों पर डाला जा सकता है। उदाहरण के लिए, लिनक्स को NTFS (NTFS) विभाजन पर लिखने के लिए विशेष सॉफ़्टवेयर की आवश्यकता होती है, इसलिए यदि कोई सॉफ्टवेयर को इंस्टाल नहीं करता है और एक NTFS विभाजन पर एक बैकअप करने के लिए MS विन्डोज़ के अलग इंस्टालेशन का उपयोग करता है, बैकअप को लाइनक्स के किसी भी वर्जन से सुरक्षित होना चाहिए.इसी तरह, MS विन्डोज़ संचिका सिस्टम जैसे ext3 (ext3), को नहीं पढ़ सकता है, इसलिए यदि कोई सामान्यतया MS विन्डोज़ का उपयोग करता है, एक लिनक्स इंस्टालेशन का उपयोग करते हुए एक ext3 विभाजन पर बैकअप बनाया जा सकता है। पुनर्प्राप्ति विधियां एक बार एक कंप्यूटर जब वायरस से समझौता कर लेता है, तो सामान्यतया ऑपरेटिंग सिस्टम को फ़िर से पूरी तरह से इंस्टाल किए बिना समान कंप्यूटर का उपयोग जारी रखना असुरक्षित होता है। लेकिन, कई विकल्प हैं जो कंप्यूटर में वायरस के आने के बाद उपस्थित होते हैं। ये क्रियाएँ वायरस के प्रकार की गंभीरता पर निर्भर करती हैं। वायरस को हटाना Windows Me (Windows Me), Windows XP and Windows Vista पर एक सम्भावना है एक औजार जो सिस्टम रिस्टोर (System Restore) के नाम से जाना जाता है जो कि पिछले चेक बिन्दु के लिए रजिस्ट्री और जटिल तंत्र संचिका को रिस्टोर कर के रखता है। अक्सर एक वायरस एक सिस्टम को हेंग कर देता है और एक इसी के बाद से फ़िर से बूट होने पर सिस्टम के रिस्टोर बिन्दु में उसी दिन से समस्या आएगी.पिछले दिनों से रिस्टोर बिन्दु को दिया गया काम करना होता है, अब वायरस संग्रहीत संचिकाओं को संक्रमित नहीं कर पाता है। फिर भी कुछ वायरस, सिस्टम के रिस्टोर को और अन्य महत्वपूर्ण औजारों जैसे टास्क मेनेजर और कमांड प्रोम्प्ट को निष्क्रिय कर देते हैं। एक वायरस जो ऐसा करता है उसका उदहारण है CiaDoor. प्रशासकोण के पास भिन्न कारणों के लिए सीमित उपयोगकर्ताओं से ऐसे औजारों को निष्क्रिय करने के विकल्प उपलब्ध हैं। वायरस ऐसा करने के लिए रजिस्ट्री में संशोधन करता है, केवल उस समय ऐसा नहीं होता है जब प्रशासक कंप्यूटर को नियंत्रित कर रहा हो, यह सब उपयोगकर्ताओं को औजारों को एक्सेस करने से रोकता है। जब एक संक्रमित औजार सक्रिय होता है तो यह एक संदेश देता है "आपके प्रशासक के द्वारा टास्क मेनेजर को अक्षम कर दिया गया है।"यहाँ तक की यदि उपयोगकर्ता जो प्रोग्राम खोलने की कोशिश कर रहा है वह प्रशासक है। उपयोगकर्ता जो माइक्रोसॉफ्ट ऑपरेटिंग सिस्टम को चला रहा है, एक मुक्त स्केन चलाने के लिए माइक्रोसॉफ्ट की वेबसाइट पर जा सकता है, यदि उनके पास उनका २० अंकों की पंजीकरण संख्या है। ऑपरेटिंग सिस्‍टम की पुर्नस्‍थापना ऑपरेटिंग सिस्टम को पुनः इंस्टाल करना वायरस हटाने का एक अलग तरीका है। इसमें साधारण रूप से OS विभाजन की पुनः फोर्मेटिंग और इसके मूल माध्यम से OS को इंस्टाल करना शामिल है। या एक साफ़ बेकअप छवि के साथ विभाजन की कल्पना (imaging) की जा सकती है (उदाहरण के लिए Ghost (Ghost) या Acronis (Acronis) के साथ लिया गया) . इस विधि का लाभ यह है की यह करने में सरल है, कई वायरस विरोधी स्कैन को चलाने की तुलना में यह तेज होता है और किसी भी मैलवेयर को दूर करने की गारंटी देता है।Downsides में अन्य सभी सॉफ्टवेयर और ऑपरेटिंग सिस्टम का पुनः इंस्टाल करना शामिल है। उपयोगकर्ता डेटा को एक लाइव सीडी (Live CD) को बूट करके या हार्ड ड्राइव को किसी दूसरे कंप्यूटर में रखकर और उस कंप्यूटर के ऑपरेटिंग सिस्टम से बूट करके बेक अप किया जा सकता है। व्ब्फ्ज्ग् यह भी देखिए एड वेयर (Adware) एंटीवायरस सॉफ्टवेयर (Antivirus software) अटेक ट्री (Attack tree) ब्लेक हेट (Black hat) कम्प्यूटर असुरक्षा (Computer insecurity) कम्प्यूटर का कीड़ा (Computer worm) Crimeware (Crimeware) क्रिप्टोवाईरोलोजी (Cryptovirology) किस्ट्रोक लॉगिंग (Keystroke logging) कंप्यूटर वायरस की सूची (List of computer viruses) कंप्यूटर वायरस hoaxes की सूची (List of computer virus hoaxes) लाईनक्स मालवेयर (Linux malware) मालवेयर/मैलवेयर (Malware) गतिशील वाईरस (Mobile virus) अनेक भागों में विभक्त वाईरस (Multipartite virus) पाम OS वाइरस (Palm OS Viruses) obscurity के माध्यम से सुरक्षा (Security through obscurity) स्पैम (Spam) स्पायवेयर (Spyware) उल्लेखनीय कंप्यूटर वायरस और वर्म की समयरेखा (Timeline of notable computer viruses and worms) Trojan हार्स (कम्प्यूटिंग) (Trojan horse (computing)) वायरस hoax (Virus hoax) एइकार परीक्षण संचिका (Eicar test file) सन्दर्भ Mark Russinovich, Advanced Malware Cleaning video,Microsoft TechEd: IT Forum, नवम्बर २००६ बाहरी कड़ियाँ वायरस हुआ 25 साल का और कारोबार 16 अरब अमेरिकी डालर का अमेरिकी सरकार CERT (कंप्यूटर आपातकालीन तैयारी दल) साइट अन्य टेक्स्ट वीडियो : "सूचना प्रौद्योगिकी की सुरक्षा के बारे में माइक्रोसॉफ्ट सम्मेलन-- मांग पर वीडियो" अनुच्छेद : "' कंप्यूटर वायरस क्या है" अनुच्छेद : "कंप्यूटर वायरस कैसे काम करता है" अनुच्छेद : "पीसी वाइरस का संक्षिप्त इतिहास" (प्रारंभिक) डॉ॰ अनिल सुलैमान के द्वारा अनुच्छेद : "क्या ' अच्छे ' कंप्यूटर वायरस अभी भी एक खराब विचार है ?" अनुच्छेद : "आपके ईमेल की वाइरस और अन्य मैलवेयर सुरक्षा" अनुच्छेद : "हैकिंग Counterculture पर दूर" एंड्रयू रॉस (Andrew Ross) के द्वारा. अनुच्छेद : "अंतरिक्ष में जानकारी के क्षेत्र में एक वायरस" टोनी Sampson के द्वारा अनुच्छेद : "डॉ॰ Aycock के खराब विचार" टोनी Sampson के द्वारा अनुच्छेद : "Digital Monsters, Binary Aliens" जूसी परिका (Jussi Parikka) के द्वारा अनुच्छेद : "The Universal Viral Machine" जूसी परिका (Jussi Parikka) के द्वारा अनुच्छेद : "Hypervirus: A Clinical Report" थियरी बर्दिनी (Thierry Bardini) के द्वारा. अनुच्छेद : "The Cross-site Scripting Virus" आरएफसी ११३५ इंटरनेट के Helminthiasis अनुच्छेद: "The Virus Underground" वायरस श्रेणी:Digital Revolution
अंतर्राष्ट्रीय हवाई-अड्डा
https://hi.wikipedia.org/wiki/अंतर्राष्ट्रीय_हवाई-अड्डा
पुनर्प्रेषित भारत में विमानक्षेत्रों की सूची
मदन मोहन मालवीय
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द्रविड़ भाषा-परिवार
https://hi.wikipedia.org/wiki/द्रविड़_भाषा-परिवार
thumb|द्रविड़ भाषा-परिवार द्रविड़ भाषा-परिवार दक्षिण भारत की कई सम्बन्धित भाषाओं का समूह है। यह भारोपीय भाषा परिवार की एक शाखा है। इसमें मुख्यतः तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और तुलू भाषाएँ आती हैं। उत्तर और पूर्व भारत की कुछ भाषाएँ जैसे ब्राहुई, गोंडी, कुड़ुख द्रविड़ भाषा-परिवार से सम्बंधित हैं। ये सभी भाषाएँ अश्लिष्ट-योगात्मक (Agglutinating languages) हैं और इनमें संस्कृत से कई शब्द भी हैं। इनमें से तमिल सबसे पुरानी है और उसे शास्त्रीय भाषा माना जाता है। इन भाषाओं कि लिपि ब्राह्मी लिपि से ही उत्पन्न हुई है। इन भाषाओं में ट, ण, ळ, ड़ (ड, ठ, ड) आदि ध्वनियाँ बहुत अधिक पायी जाती हैं। चारों द्रविड़ भाषाओं में तमिल भाषा सबसे प्राचीन है तथा इसमें सबसे पहले साहित्य लेखन आरंभ हुआ इसमें संगम साहित्य के अतिरिक्त शिलाप्पदिकारम, मणिमैखलै तथा जीवक चिंतामणि महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। इन्हें भी देखें प्राचीनतम द्रविड़ भाषा (प्रोटो-द्रविडियन) श्रेणी:भारत की भाषाएँ श्रेणी:द्रविड़ भाषाएँ श्रेणी:भाषा-परिवार
निराला
https://hi.wikipedia.org/wiki/निराला
REDIRECTसूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
हिन्दी साहित्य
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सैयद सिब्ते रज़ी
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सैयद सिब्ते रज़ी (अंग्रेजी: Syed Sibtey Razi, जन्म:7 मार्च 1939 रायबरेली, उत्तर प्रदेश) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के एक राजनयिक हैं। वे राज्य सभा के तीन बार सदस्य रहे। बाद में उन्हें झारखंड और असम का राज्यपाल भी बनाया गया। प्रारम्भिक जीवन सिब्ते रज़ी का जन्म उत्तर प्रदेश के जनपद रायबरेली में 7 मार्च 1939 को हुआ। उनकी माँ का नाम रज़िया बेगम और बाप का नाम सैयद विरासत हुसैन था। उन्होंने हुसेनाबाद हायर सेकेण्डरी स्कूल से दसवीं करने के बाद एक शिया कॉलेज में प्रवेश लिया। वहाँ वे छात्र नेता बन गये। पढाई के साथ-साथ जेबखर्च निकालने के लिये वे दो-दो होटलों के एकाउण्ट्स भी देखते थे। बाद में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से बी०कॉम० किया। राजनीतिक जीवन सिब्ते रज़ी ने 1969 में यू०पी० की यूथ कांग्रेस ज्वाइन कर ली और 1971 में वे इसके अध्यक्ष बना दिये गये। 1973 तक वे यूथ काँग्रेस के अध्यक्ष रहे। 1980 से 1985 तक राज्य सभा सदस्य के अतिरिक्त 1980 से 1984 तक उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव भी रहे। उन्हें कांग्रेस पार्टी द्वारा दूसरी बार 1988 से 1992 तक तथा तीसरी बार 1992 से 1998 तक राज्य सभा का सदस्य बनाया गया। विवादास्पद राज्यपाल मार्च 2005 में, जब वे झारखंड के राज्यपाल थे, उन्होंने सरकार में एनडीए के सदस्यों की संख्या को नज़र अन्दाज़ करते हुए झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन को सरकार बनाने का न्योता देकर विवादास्पद भूमिका निभायी। इसकी शिकायत मिलते ही तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने हस्तक्षेप किया और सिब्ते रज़ी (राज्यपाल) के निर्णय को उलटते हुए एनडीए के अर्जुन मुंडा को 13 मार्च 2005 को उन्हीं राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी। बाहरी कड़ियाँ सैयद सिब्ते रज़ी के बारे में जानकारी श्रेणी:झारखण्ड के राज्यपाल श्रेणी:असम के राज्यपाल श्रेणी:भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस श्रेणी:राज्यसभा सदस्य
हिमाचल
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REDIRECTहिमाचल प्रदेश
कोरिया
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कोरिया (कोरियाई: 한국 या 조선) एक सभ्यता और पूर्व में एकीकृत राष्ट्र जो वर्तमान में दो राज्यों में विभाजित है। कोरियाई प्रायद्वीप पर स्थित, इसकी सीमाएं पश्चिमोत्तर में चीन, पूर्वोत्तर में रूस और जापान से कोरिया जलसन्धि द्वारा पूर्व में अलग है। कोरिया 1948 तक संयुक्त था; उस समय इसे दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया में विभाजित कर दिया गया। दक्षिण कोरिया, आधिकारिक तौर पर कोरिया गणराज्य, एक पूंजीवादी, लोकतांत्रिक और विकसित देश है, जिसकी संयुक्त राष्ट्र संघ, WTO, OECD और G-20 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सदस्यता है। उत्तर कोरिया, आधिकारिक तौर पर लोकतांत्रिक जनवादी कोरिया गणराज्य, किम इल-सुंग द्वारा स्थापित एक एकल पार्टी कम्युनिस्ट देश है और सम्प्रति उनके बेटे किम जोंग-इल के दूसरे बेटे किम जोंग-उन द्वारा शासित है। उत्तर कोरिया की वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ में सदस्यता है। पुरातत्व और भाषाई सबूत यह सुझाते हैं कि कोरियाई लोगों की उत्पत्ति दक्षिण-मध्य साइबेरिया के अल्टायाक भाषा बोलने वाले प्रवासियों में हुई थी,[2] जो नवपाषाण युग से कांस्य युग तक लगातार बहाव में प्राचीन कोरिया में बसते गए। [3] 2 शताब्दी ई.पू. में, चीनी लेखन प्रणाली (कोरियाई में "हंजा") और 4 शताब्दी ई. में बौद्ध धर्म को अपनाने के कारण कोरिया के तीन साम्राज्यों पर गहरा प्रभाव पड़ा. कोरिया बाद में इन सांस्कृतिक अग्रिमों का एक संशोधित संस्करण पर जापान को पारित कर दिया। "Yayoi अवधि इतिहास सारांश, 'BookRags.com, Jared हीरा," जापानी जड़ें, "डिस्कवर 19:6 (जून 1998); Thayer Watkins," जेनेटिक के मूल जापानी ";" Shinto - 1900 के लिए इतिहास , "ब्रिटैनिका विश्वकोश;" Yayoi अवधि सी. ( 287 ईसा पूर्व - c. 250 ई.), "ब्रिटैनिका विश्वकोश."कोरियाई बौद्ध धर्म जापानी बौद्ध धर्म का आधार, 'सोल टाइम्स, 18 सितम्बर 2006;" बौद्ध कोरिया और जापान की कला, "एशिया सोसायटी संग्रहालय;" कांजी, "JapanGuide.com;" मिट्टी के बर्तन, "MSN Encarta;" जापान का इतिहास, JapanVisitor.com ". 2009/10/31 आर्काइव. जॉर्ज Sansom, 1334 को एक जापान के इतिहास, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1958. पी. 47. ISBN 0-8047-0523-2 गोरियो राजवंश के बाद से कोरिया एक एकल सरकार द्वारा शासित रहा और गोरियो वंश पर 13वीं शताब्दी में मंगोल हमलों और 16वीं शताब्दी में जोसियो वंश पर जापानी हमलों के बावजूद 20वीं सदी तक इसने राजनैतिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता बनाए रखी. 1377 में, कोरिया ने जिक्जी पेश किया, दुनिया का सबसे पुराना मौजूद दस्तावेज़ जिसे चल धातु प्रकार से मुद्रित किया गया। [11] 15वीं सदी में, कछुए जहाज तैनात किये गए और राजा सेजोंग महान ने कोरियाई वर्णमाला हंगुल प्रख्यापित किया। जोसियो राजवंश के उत्तरार्द्ध के दौरान, कोरिया की एकान्तवादी नीति ने इसके लिए पश्चिमी उपनाम "साधु साम्राज्य" अर्जित किया। 19वीं सदी के उत्तरार्ध तक यह देश जापान और यूरोप की औपनिवेशिक वृत्ति का लक्ष्य बना। 1910 में कोरिया पर जबरन जापान द्वारा कब्जा कर लिया गया और यह कब्ज़ा, अगस्त 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक बना रहा। 1945 में, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका, कोरिया में जापानी सैनिकों के आत्मसमर्पण और निरस्त्रीकरण पर सहमत हुए; सोवियत संघ ने 38वें समानांतर के पूर्व में जापानी हथियारों के समर्पण को स्वीकार किया और अमेरिका ने उसके दक्षिण में. मित्र राष्ट्रों की सेना द्वारा यह छोटा निर्णय जल्द ही दो महाशक्तियों द्वारा कोरिया के विभाजन का आधार बन गया, जिसको, कोरियाई आजादी की शर्तों पर सहमत होने में उनकी असमर्थता ने और बढ़ा दिया। शीत युद्ध के इन दो प्रतिद्वंद्वीयों ने इसके बाद अपनी विचारधाराओं से सहानुभूति रखने वाली सरकारों की स्थापना की, जिसने कोरिया के दो राजनीतिक सत्ता के मौजूदा विभाजन को प्रेरित किया: उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया. नाम कोरिया, कोरियाई इतिहास के गोरियो काल से लिया गया है जो वापस गोगुरियो के प्राचीन राज्य को निर्दिष्ट करता है। मध्य पूर्व के व्यापारी इसे कौली (चीनी उच्चारण से) बुलाते थे, जिसकी वर्तनी बाद में Corea और Korea हो गई। अंग्रेजी सन्दर्भों में अब सामान्यतः, उत्तर और दक्षिण कोरिया, दोनों के द्वारा कोरिया प्रयोग किया जाता है। जर्मनिक भाषाओं में एक K का अक्सर इस्तेमाल किया जाता है, जबकि रोमन भाषाओं में एक C पसंद करते हैं। कोरियाई भाषा में, सम्पूर्ण रूप से कोरिया को दक्षिण कोरिया में हान-गुक के रूप में और उत्तर कोरिया में चोसोन के रूप में निर्दिष्ट करते हैं। दूसरा नाम, रोमन रूप में जोसियन, जोसियन वंश से है और उससे पहले के गोजोसियन से. "द लैंड ऑफ़ द मॉर्निंग काम" (सुबह की शांति का देश), एक अंग्रेजी भाषा से प्राप्त उपनाम है जो आंशिक रूप से जोसियन के लिए हंजा अक्षरों से लिया गया है। इतिहास प्रागितिहास और गोजोसियन उत्तर अमेरिका की कोरियाई अकादमी ने कोरिया में एक स्टोन सिटी स्थल पर लावा में 100,000 ई.पू. के करीब के प्राचीन मानव जीवाश्मों की खोज की। प्रतिदीप्त और उच्च चुंबकीय विश्लेषण से संकेत मिलता है ज्वालामुखी जीवाश्मों के रूप में जल्दी के रूप में 300.000 ई.पू. से हो सकता है। सर्वश्रेष्ठ संरक्षित कोरियाई बर्तनों 10,000 ई.पू. के आसपास paleolithic बार वापस चला जाता है और नवपाषाण काल 6000 ई.पू. के आसपास शुरू होती है। गोजोसियन की स्थापना की किंवदंती, स्वर्ग का एक वंशज, दंगुन का वर्णन करती है जिसने 2333 ई. पू. में इस राज्य की स्थापना की। [21] पुरातत्व और समकालीन लिखित रिकॉर्ड से संकेत मिलता है कि यह दीवार युक्त शहरों के एक संघ से एक केंद्रीकृत साम्राज्य में, 7वीं और 4थी शताब्दी ई.पू. के बीच में विकसित हुआ। मूल राजधानी हो सकता है मंचूरिया-कोरिया की सीमा पर रही हो, लेकिन बाद में उसे आज के प्योंगयांग, उत्तरी कोरिया में स्थानांतरित कर दिया गया। 108 ई.पू. में, चीनी हान राजवंश ने विमान जोसियन को हराया और लिओनिंग और उत्तरी कोरियाई प्रायद्वीप के क्षेत्र में चार कमान स्थापित किये। 75 ई.पू., में उनमें से तीन कमान गिर गए, लेकिन लेलांग कमान 313 में गोगुरिओ के अधीन होने से पहले तक बाद के चीनी राजवंशों के लिए सांस्कृतिक और आर्थिक आदान प्रदान का एक केन्द्र बन रहा। आद्य तीन साम्राज्य आद्य तीन साम्राज्यों की अवधि, जिसे कभी-कभी अनेक राज्यों का काल कहा जाता है, वह आरंभिक भाग है जिसे आमतौर पर तीन साम्राज्यों का काल कहा जाता है, गोजोसियन के पतन के बाद लेकिन गोगुरिओ, बैक्जे और सिला के पूर्ण राज्यों के रूप में विकास से पहले. यह काल, गोजोसियन के पूर्व राज्य क्षेत्रों से कई राज्यों के उदय का साक्षी बना। बुयिओ, आज के उत्तरी कोरिया और दक्षिणी मंचूरिया में पनपा, 2री शताब्दी BCE से 494 तक. इसके अवशेष को गोगुरियो ने 494 में समाविष्ट कर लिया और कोरिया के तीन साम्राज्य में से दो, गोगुरियो और बैक्जे, दोनों ने स्वयं को उसका उत्तराधिकारी माना. उत्तरी कोरिया के ओक्जियो और डोंग्ये, अंत में बढ़ते गोगुरियो में समाहित हो गए। कोरियाई प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग में स्थित, सम्हन, तीन राज्यसंघ महन, जिन्हन और बिओनहन को सन्दर्भित करता है। महन सबसे बड़ा था और इसमें 54 राज्य शामिल थे। बिओनहन और जिन्हन, दोनों ही बारह राज्यों से बने थे, जिससे सम्हन में कुल मिलाकर 78 राज्य शामिल हुए. ये तीन राज्यसंघ अंततः बैक्जे, सिला और गया में विकसित हुए. तीन साम्राज्य left|thumb|Anapji (Anap ग्योजू का ऐतिहासिक क्षेत्रों में Pond). कोरिया के तीन साम्राज्य (गोगुरियो, सिला और बैक्जे) ने साझा काल के दौरान प्रायद्वीप और मंचूरिया के हिस्सों पर प्रभाव जमाया. आर्थिक और सैन्य, दोनों ही रूप से उन्होंने एक दूसरे से होड़ ली। गोगुरियो ने बुयिओ, ओक्जियो, डोंग्ये और अन्य राज्यों को पूर्व गोजोसियन राज्यक्षेत्र में एकजुट किया। [25] गोगुरियो सबसे प्रभावशाली शक्ति थी; यह पांचवीं शताब्दी में अपने चरम पर पहुंचा, जब ग्वांगेटो महान और उसके बेटे जन्ग्सु का शासन लगभग सम्पूर्ण मंचूरिया और मंगोलिया के भीतरी हिस्से में विस्तृत हुआ और बैक्जे से सियोल क्षेत्र ले लिया। ग्वांगेटो और जन्ग्सु ने अपने काल के दौरान बैक्जे और सिला को अपने अधीन किया। 7वीं सदी के बाद, गोगुरियो चीन के सुई और तांग राजवंश के साथ निरंतर युद्ध में था। आधुनिक समय के सिओल के आसपास स्थापित, दक्षिण-पश्चिमी साम्राज्य बैक्जे ने, 4थी सदी में अपनी शक्ति की चरम अवस्था के दौरान प्योंगयांग के आगे तक विस्तार किया। इसने महन के सभी राज्यों को समाविष्ट कर लिया और एक केंद्रीकृत सरकार बनाते हुए पश्चिमी कोरियाई प्रायद्वीप के अधिकांश हिस्से को अधीन कर लिया (ग्योंगी, चुंगचीओंग और जिओला के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ ह्वांगहे और गांगवोन का हिस्सा)। बैक्जे ने अपने क्षेत्र के विस्तार के दौरान चीनी संस्कृति और प्रौद्योगिकी को दक्षिणी राजवंशों के साथ संपर्क के माध्यम से हासिल किया। ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चलता है कि जापानी संस्कृति, कला और भाषा, खुद बैक्जे और कोरिया राज्यों से प्रभावित थी। पुरातात्विक खोजों ने कई अनुमानों की पुष्टि की है लेकिन व्यापक जांच को अक्सर जापानी सरकार द्वारा प्रतिबंधित किया गया है और जिसे आम तौर पर सरकार द्वारा नियुक्त समूहों द्वारा संचालित किया जाता है। [26] हालांकि बाद के रिकॉर्ड का दावा है कि दक्षिण-पूर्व में सिला, तीन साम्राज्यों में सबसे पुराना था, अब यह माना जाता है कि विकसित होने वाला यह आखिरी साम्राज्य था। 2री शताब्दी तक, सिला, आसपास के राज्यों को प्रभावित और कब्जा करते हुए एक बड़े राज्य के रूप में अस्तित्व में रहा। सिला ने प्रभुत्व हासिल करना शुरू किया जब 562 CE में इसने गया संघ पर कब्जा कर लिया। गया संघ, बैक्जे और सिला के बीच स्थित था। कोरिया के तीन साम्राज्य, अक्सर एक दूसरे के साथ युद्ध करते रहते थे और सिला को अक्सर बैक्जे और गोगुरियो के दबाव का सामना करना पड़ा लेकिन कई बार सिला भी प्रायद्वीप पर प्रभुत्व हासिल करने के लिए बैक्जे और गोगुरियो के साथ मिल गया। 660 में, सिला के मुइओल राजा ने अपनी सेनाओं को बैक्जे पर हमला करने का आदेश दिया। तांग बलों की सहायता से, जनरल किम यू-शिन (गिम यू-सिन), ने बैक्जे पर विजय प्राप्त की। 661 में, सिला और तांग ने गोगुरियो पर चढ़ाई की लेकिन पीछे धकेल दिए गए। मुयोल के पुत्र और जनरल किम के भतीजे, राजा मुन्मु ने 667 में एक और अभियान शुरू किया और गोगुरियो का अगले वर्ष पतन हुआ। उत्तर दक्षिण राज्य काल 5वीं, 6वीं और 7वीं सदी में सिला का प्रभुत्व धीरे-धीरे कोरियाई प्रायद्वीप को पार करने लगा। सिला पहले बगल गया महासंघ कब्जा कर लिया। 660 तक, सिला ने बैक्जे को और बाद में गोगुरियो को जीतने के लिए, चीन के तांग राजवंश के साथ गठबंधन किया। चीनी सेना को पीछे धकेलने के बाद, सिला ने आंशिक रूप से प्रायद्वीप को एकीकृत किया और एक ऐसी अवधि शुरू हुई जिसे अक्सर एकीकृत सिला कहा जाता है। उत्तर में, गोगुरियो के पूर्व जनरल डे जोयोंग ने अपने नेतृत्व में गोगुरियो शरणार्थियों के एक समूह को मंचूरिया के जिलिन क्षेत्र में लाया और गोगुरियो के उत्तराधिकारी के रूप में बाल्हे (698-926) की स्थापना की। अपने चरम पर, बाल्हे की सीमा, उत्तरी मंचूरिया से आधुनिक समय के कोरिया के उत्तरी प्रांतों तक विस्तृत हुई। बाल्हे को 926 में खितान द्वारा नष्ट कर दिया गया। एकीकृत सिला, 9वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बिखर गया और अशान्तप्रिय बाद के तीन साम्राज्य की अवधि (892-935) के लिए मार्ग प्रशस्त किया। गोरियो ने बाद के तीन साम्राज्यों को एकीकृत किया और बाल्हे शरणार्थियों को समाविष्ट किया। गोरियो गोरियो देश 918 में स्थापित हुआ और कोरिया के शासक वंश के रूप में इसने सिला की जगह ली। ("गोरियो", "गोगुरियो" का एक लघु रूप है और अंग्रेजी नाम "कोरिया" का स्रोत.) यह वंश 1392 तक चला. इस अवधि के दौरान, क़ानून को संहिताबद्ध किया गया और एक सिविल सेवा प्रणाली शुरू की गई। बौद्ध धर्म का उत्कर्ष हुआ और पूरे प्रायद्वीप में इसका प्रसार हुआ। सेलाडोन उद्योग का विकास 12वीं और 13वीं शताब्दी में फला-फूला. 80,000 लकड़ी के ब्लॉक पर त्रिपिटक कोरिअना का प्रकाशन और 13वीं सदी में दुनिया के प्रथम धातु के चल-मुद्रण प्रकार के प्रिंटिंग-प्रेस का आविष्कार गोरियो सांस्कृतिक उपलब्धियों को प्रमाणित करता है। उनके वंश पर 1230 के दशक से 1270 के दशक तक मंगोल आक्रमण का खतरा मंडराता रहा, लेकिन यह खानदान 1392 तक जीवित रहा, चूंकि उन्होंने मंगोलों के साथ एक संधि की थी जिसने उनकी प्रभुसत्ता को बनाए रखा। 1350 के दशक में, राजा गोंग्मिन एक गोरियो सरकार के पुनर्गठन के लिए स्वतंत्र हुए. गोंग्मिन के समक्ष विभिन्न समस्याएं थीं जिनसे निपटना जरूरी था, जिसमें शामिल था मंगोल समर्थक अभिजात और सैन्य अधिकारियों को हटाना, भूमि के स्वामित्व का सवाल और बौद्ध और कन्फ्यूशियस विद्वानों के बीच बढ़ रही शत्रुता का शमन. जोसियन राजवंश thumb|250px|Gyeongbokgung पैलेस 1392 में, जनरल यी सिओंग-गे ने मोटे तौर पर एक रक्तहीन तख्तापलट के द्वारा जोसियन राजवंश (1392-1910) की स्थापना की। उसने पिछले जोसियन के सम्मान में जोसियन राजवंश नाम रखा (गोजोसियन पहला जोसियन है। "गो" जिसका अर्थ है "पुराना", को दोनों के बीच अंतर करने के लिए जोड़ा गया)। राजा तेजो ने राजधानी को हान्सिओंग स्थानांतरित किया (पूर्व में हान्यांग; आधुनिक सिओल) और ग्योंगबोक्गुंग महल का निर्माण किया। 1394 में उसने देश के आधिकारिक धर्म के रूप में कन्फ्यूशियनवाद को अपनाया जिसके परिणामस्वरूप बौद्धों की शक्ति और धन का काफी ह्रास हुआ। प्रचलित दर्शन नव कन्फ्यूशीवाद था। जोसियन ने विज्ञान और संस्कृति में उन्नति देखी. राजा सिजोंग महान (1418-1450) ने कोरियाई वर्णमाला प्रख्यापित की। यह अवधि, कई अन्य विभिन्न सांस्कृतिक और प्रौद्योगिकी उन्नतियों और साथ ही साथ सम्पूर्ण प्रायद्वीप पर नव-कन्फ्यूशियनवाद के प्रभुत्व की साक्षी बनी। जोसियन कोरिया की जनसंख्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा, अनुमान के अनुसार दास, नोबी, से निर्मित था। [31] 1592 और 1598 के बीच, जापानी कोरिया पर आक्रमण किया। तोयोतोमी हिदेयोशी ने सेना को आदेश दिया और कोरिया के माध्यम से एशियाई महाद्वीप पर आक्रमण करने की कोशिश की, लेकिन अंततः एक राईटिअस सेना, एडमिरल यी सुन-सिन और मिंग चीन की सहायता द्वारा पीछे धकेल दिया गया। इस युद्ध ने "कछुए जहाज" के साथ एडमिरल यी सुन-सिन के कैरियर की प्रगति देखी. 1620s और 1630s में Joseon मांचू के हमलों का सामना करना पड़ा. मंचूरियाई हमलों के बाद, जोसियन लगभग 200 वर्षों की अवधि की शांति से गुज़रा. राजा योंग्जो और राजा ज्योंग्जो जोसियन वंश के एक नए पुनर्जागरण का नेतृत्व किया। हालांकि, जोसियन राजवंश के अंतिम वर्षों के दौरान, कोरिया की पृथकतावादी नीति ने इसे "साधु साम्राज्य" का तमगा दिलवाया, मुख्य रूप से पश्चिम के साम्राज्यवाद के खिलाफ संरक्षण के लिए, जिसके बाद इसे व्यापार खोलने के लिए मजबूर किया गया जो जापानी औपनिवेशिक शासन के युग में परिणत हुआ। कोरियाई साम्राज्य thumb|220px|जल्द से जल्द कोरियाई / दक्षिण कोरिया के ध्वज के चित्रण जीवित जुलाई 1889 में एक अमेरिकी नौसेना के समुद्री राष्ट्र की पुस्तक Flags में छपा था। 1870 के दशक की शुरुआत में, जापान ने कोरिया को मांचू किंग राजवंश क्षेत्र के पारंपरिक प्रभाव से बाहर जाने के लिए मजबूर करना शुरू किया। चीन-जापान युद्ध (1894-1895) के परिणामस्वरूप, क्विंग राजवंश को शिमोनोसेकी संधि, जो क्विंग और जापान के बीच 1895 में संपन्न हुई थी, के अनुच्छेद 1 के अनुसार ऐसी स्थिति को छोड़ना पड़ा, . उसी वर्ष, महारानी म्योंग्सिओंग की जापानी एजेंटों द्वारा हत्या कर दी गई। [33] 1897 में, जोसियन वंश ने कोरियाई साम्राज्य (1897-1910) की घोषणा की और राजा गोजोंग, सम्राट गोजोंग बन गया। कोरिया में रूस, जापान, फ्रांस और अमेरिका के राजनीतिक अतिक्रमण से प्रभावित हो कर, इस संक्षिप्त अवधि ने सैनिक, अर्थव्यवस्था, भू संपत्ति कानून, शिक्षा प्रणाली और विभिन्न उद्योगों के आंशिक रूप से सफल आधुनिकीकरण को देखा. 1904 में, रूस-जापान युद्ध ने रूस को कोरिया के लिए लड़ाई से बाहर धकेल दिया। मंचूरिया में 1909 में, आन जंग-गियोन ने, कोरिया के रेसिडेंट जनरल, इतो हिरोबुमी की, कोरिया को कब्जे में जाने को मजबूर करने में उनकी भूमिका के लिए, ह्त्या कर दी। जापानी कब्जा thumb|220px|जाओ, मत्स्य पालन, Georges फर्डिनेंड Bigot, Tobae, 1887 फरवरी. यह एक मछली है, जो रूस चीन, जापान और सभी को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं के रूप में कोरिया से पता चलता है। 1910 में, कोरिया को, जिस पर पहले से ही सैन्य कब्जा था, जापान-कोरिया विलय संधि में मजबूरन शामिल होना पड़ा. संधि पर ली वान-योंग ने हस्ताक्षर किया, जिसे सम्राट ने जनरल पावर ऑफ़ अटार्नी दी। हालांकि, कहा जाता है कि यी ताए-जिन के अनुसार, सम्राट ने वास्तव में संधि का अनुमोदन नहीं किया था। [36] इस संधि पर दबाव, सेना की धमकी और रिश्वत के तहत हस्ताक्षर किये जाने के कारण, एक लंबा विवाद होता रहा है कि क्या यह कानूनी थी या गैरकानूनी। कोरियाई क्रूर जापानी व्यवसाय के प्रतिरोध37,4 कोरिया, 1910-1945. 2001. दुनिया के इतिहास विश्वकोश अहिंसक मार्च 1919, जहां 7,000 प्रदर्शनकारियों जापानी पुलिस और सेना द्वारा मारे गए थे मूवमेंट 1 में प्रकट. कोरियाई मुक्ति आंदोलन, पड़ोस के मंचूरिया और साइबेरिया में भी फैल गया। 1939 में पांच लाख से अधिक कोरियाई को अनिवार्य श्रमिक बनाया गया,[45] और दसों हज़ार पुरुषों को जापान की सेना में मजबूरन शामिल किया गया। [46] लगभग 200.000 लड़कियों और महिलाओं,Yoshimi Yoshiaki, Comfort महिला. जापानी सेना में यौन गुलामी के दौरान द्वितीय विश्व युद्ध के. थीं ओ द्वारा अनुवादित. कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, 2001, 0 ISBN 231-12032-X, मूल रूप से岩波书店, 1995 द्वारा प्रकाशित किए. ISBN 978-1-84728-756-4 ज्यादातर चीन और कोरिया से, यौन गुलामी में जापानी सेना के लिए मजबूर किया। 1993 में, जापान के मुख्य कैबिनेट सचिव योहे कोनो ने इन महिलाओं द्वारा भयानक अन्याय का सामना करने को स्वीकार किया, जिन्हें "आरामदायक महिलाएं" का मंगलभाषी नाम दिया गया था।[50][52] जापानी औपनिवेशिक शासन के दौरान, कोरियाई राष्ट्रीय पहचान को मिटाने के प्रयास में कोरियाई भाषा को दबा दिया गया। कोरियाई लोगों को जापानी कुलनाम, सोशी-कैमे [54] के रूप में ज्ञात, कुलनाम लेने पर मजबूर किया गया। [54] पारंपरिक कोरियाई संस्कृति को भारी नुकसान हुआ, चूंकि कई कोरियाई सांस्कृतिक कलाकृतियों को नष्ट कर दिया गया[56] या जापान ले जाया गया। [58] आज भी, जापानी संग्रहालयों या निजी संग्रहों में बहुमूल्य कोरियाई कलाकृतियों को अक्सर पाया जा सकता है। [59] दक्षिण कोरिया की सरकार ने एक जांच 75,311 सांस्कृतिक संपत्ति है कि कोरिया, जापान में 34,369 से 17,803 और संयुक्त राज्य अमेरिका में ले जाया गया की पहचान की। तथापि, विशेषज्ञों का अनुमान है कि 100,000 से अधिक कलाकृतियां वास्तव में जापान में हैं। [60][61] जापानी अधिकारियों ने कोरियाई सांस्कृतिक संपत्ति को वापस करने पर विचार किया, लेकिन आज तक[62] यह नहीं हुआ। [63] कोरिया और जापान अभी तक लिआनकोर्ट रॉक्स, कोरियाई प्रायद्वीप के पूर्व में स्थित एक छोटा द्वीप, के स्वामित्व पर विवाद करते हैं। [65] जापानी औपनिवेशिक काल के दौरान जापानी साम्राज्य के विदेशी राज्य क्षेत्रों में एक उच्च स्तर पर उत्प्रवास हुआ, कोरिया सहित. [67] द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक, कोरिया में करीब 850,000 से अधिक जापानी बस गए। [69] द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, इन विदेशी जापानियों में से अधिकांश, वापस जापान चले गए। कोरियाई युद्ध thumb|200px|सोल, 1950 में शहरी युद्ध, जैसा कि अमेरिकी मरीन लड़ाई उत्तर कोरियाई शहर पकड़े. 1945 में जापान के समर्पण के साथ, संयुक्त राष्ट्रसंघ ने एक न्यास प्रशासन की योजना विकसित की, जिसके तहत सोवियत संघ 38वें समानांतर के प्रायद्वीप उत्तर का प्रशासन और संयुक्त राज्य अमेरिका दक्षिण का प्रशासन संचालित करने लगा। शीत युद्ध की राजनीति 1948 में दो पृथक सरकारों, उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया की स्थापना में परिणत हुई। जून 1950 में उत्तरी कोरिया ने सोवियत टैंकों और हथियारों के प्रयोग से दक्षिण पर हमला कर दिया। कोरियाई युद्ध (1950-1953) के दौरान लाखों नागरिक मारे गए और पूरे देश में चल रहे इस तीन साल के युद्ध ने प्रभावी ढंग से अधिकांश शहरों को नष्ट कर दिया। [71] लगभग 125,000 POWs (युद्धबंदी) को गिरफ़्तार किया गया और अमेरिका और दक्षिण कोरिया द्वारा गिओजेडो पर (दक्षिण में एक द्वीप) रखा गया। [72] युद्ध, लगभग सैन्य सीमांकन रेखा पर युद्धविराम समझौते से समाप्त हुआ। कोरिया का विभाजन द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप, कोरिया 38 समांतर पर विभाजित हो गया, जिसके अंतर्गत उत्तरी हिस्सा, सोवियत कब्जे में और दक्षिण, मित्र राष्ट्रों के अन्य देशों के अधीन गया। नतीजतन, लोकतांत्रिक जनवादी कोरिया गणराज्य, एक सोवियत शैली का समाजवादी शासन, उत्तर में स्थापित किया गया, जबकि एक पश्चिमी शैली का गणतंत्र, कोरिया गणराज्य दक्षिण में स्थापित किया गया।[76] कोरियाई युद्ध तब छिड़ गया, जब सोवियत समर्थित उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर आक्रमण कर दिया, हालांकि, नतीजे के तौर पर किसी भी पक्ष को कुछ ख़ास क्षेत्र हासिल नहीं हुआ। कोरियाई प्रायद्वीप, विभाजित रहा, कोरियाई सैन्य रहित क्षेत्र दोनों राज्यों के बीच वास्तविक सीमा है। उत्तर कोरिया का अकाल 1995 में शुरू हुआ और 1997 में अपने चरम पर पहुंचा। उत्तर कोरिया के सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर के बारे में 25 लाख में अपने नुकसान के लिए 3 मिलियन अनुमान 1995 से मार्च 1998 के लिए। भूगोल left|200px|thumb|माउंट Seorak का एक दृश्य. कोरिया, उत्तर-पूर्व एशिया में कोरियाई प्रायद्वीप पर स्थित है। पश्चिमोत्तर में Amnok नदी (यालू नदी) कोरिया को चीन से अलग करती है और उत्तर-पूर्व में दुमन नदी (तुमन नदी), कोरिया को चीन और रूस से अलग करती है। पीला सागर पश्चिम में है, पूर्वी चीन सागर दक्षिण में है और पूर्व सागर (जापान सागर) कोरिया के पूर्व में है।[81] उल्लेखनीय द्वीप में शामिल हैं जेजू द्वीप (जेजुड़ो), उल्युंग द्वीप (उल्युंगडो) और लियनकोर्ट रॉक्स (डोक्डो)। प्रायद्वीप के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्सों में अच्छी तरह से विकसित मैदान हैं, जबकि पूर्वी और उत्तरी भाग पहाड़ युक्त हैं। कोरिया में पेक्टू पर्वत या पेक्टुसन (2744 मीटर) सर्वोच्च पर्वत है, जिसके बराबर चीन की सीमा चलती है। पेक्टुसन का दक्षिणी विस्तार एक उच्च भूमि है जिसे गैमा हाइट्स कहते हैं। यह उच्च भूमि मुख्य रूप से सिनोज़ोइक ओरोजेनी के दौरान ऊपर उठी थी और आंशिक रूप से ज्वालामुखी तत्वों से आच्छादित है। गैमा गोवोन के दक्षिण में प्रायद्वीप के पूर्वी तट के साथ लगातार ऊंचे पहाड़ स्थित हैं। इस पर्वत श्रेणी का नाम बैकडूडैगन है। कुछ महत्वपूर्ण पर्वतों में शामिल हैं पर्वत सोबैक या सोबैक्सन (1,439 मीटर), पर्वत कुमगांग या कुम्गांगसन (1,638 मीटर), पर्वत सिओराक या सिओराक्सन (1,708 मीटर), पर्वत तेबैक या तेबैक्सन (1,567 मीटर) और माउंट जीरी या जिरिसन (1,915 मीटर)। यहां कई कम ऊंचे, माध्यमिक पर्वत श्रृंखला हैं जिनकी दिशा बैकडूडेगन से लगभग लम्बवत है। वे मेसोज़ोइक ओरोजेनी के विवर्तनिक पंक्ति पर विकसित हुए हैं और उनकी दिशा मूल रूप से उत्तर-पश्चिमी है। thumb|200px|Daedongyeojido, कोरिया का एक मानचित्र thumb|left|जाजू द्वीप समुद्रतट. मुख्य भूमि पर सबसे प्राचीन पहाड़ों के विपरीत, कोरिया में कई महत्वपूर्ण द्वीप सेनोज़ोइक ओरोजेनी में ज्वालामुखी गतिविधि द्वारा निर्मित हुए थे। दक्षिणी तट पर स्थित जेजू द्वीप, एक विशाल ज्वालामुखी द्वीप है जिसका मुख्य पर्वत पर्वत हल्ला या हल्लासन (1950 मी), दक्षिण कोरिया में सबसे ऊंचा है। उल्योंग द्वीप, पूर्व सागर (जापान सागर) में एक ज्वालामुखी द्वीप है, जिसकी संरचना जेजू से अधिक फेल्सिक है। ज्वालामुखी द्वीप अपेक्षाकृत नवीन होते हैं और पश्चिम की ओर होते हैं। चूंकि पहाड़ी क्षेत्र, प्रायद्वीप के ज्यादातर पूर्वी भाग पर हैं, मुख्य नदियां पश्चिम की ओर बहती हैं। दो अपवाद हैं, दक्षिणवर्ती नाकडोंग नदी (नाकडोंगांग) और सिओम्जिन नदी (सिओमजिनगांग)। पश्चिम की ओर बहनेवाली महत्वपूर्ण नदियों में शामिल है अमनोक नदी (यालू), चोंगचोन नदी (चोंगचोनगांग), तेदोंग नदी (तेदोंगगांग), हान नदी (हन्गांग), गियम नदी (गियमगांग) और योंगसन नदी (योंग्संगांग)। इन नदियों के बाढ़ के मैदान विशाल हैं और गीले चावल की खेती के लिए एक आदर्श वातावरण प्रदान करते हैं। कोरिया की दक्षिणी और पश्चिमी तटरेखा एक अच्छी तरह से विकसित रिया तटरेखा बनाती है, जिसे दादोहे-जिन के रूप में जाना जाता है। इसकी घुमावदार तटरेखा शांत समुद्र प्रदान करती है और परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाला शांत वातावरण, सुरक्षित नौपरिवहन, मत्स्य-ग्रहण और समुद्री शैवाल की खेती की अनुमति देता है। जटिल समुद्र तट के अलावा, कोरियाई प्रायद्वीप के पश्चिमी तट पर अति उच्च ज्वारीय आयाम हैं (इनचान में, पश्चिमी तट के मध्य के आसपास)। यह 9 मीटर तक की उंचाई प्राप्त कर सकता है)। विशाल ज्वारीय फ्लैट, दक्षिण और पश्चिमी तटरेखा पर विकसित किये जा रहे हैं। जनांकिक कोरियाई लोगों की संयुक्त जनसंख्या करीब 73 मीलियन है (उत्तर कोरिया: 23 मीलियन, दक्षिण कोरिया: 50 मीलियन) है। कोरिया, मुख्यतः एक उच्च समरूपी जातीय समूह से, कोरियाई लोग, जो कोरियाई भाषा बोलते हैं, आबाद है। [84] कोरिया में रहने वाले विदेशियों की संख्या भी 20वीं सदी के उत्तरार्ध के बाद से तेजी से बढ़ी है, विशेष रूप से दक्षिण कोरिया में, जहां वर्तमान में दस लाख से अधिक विदेशी हते हैं। [85] ऐसा अनुमान है कि पुराने चीनी समुदाय के केवल 26,700 अब दक्षिण कोरिया में रहते हैं। [87] हालांकि, हाल के वर्षों में, मुख्य भूमि चीन से आप्रवास बढ़ा; है चीनी राष्ट्रीयता की 624,994 लोगों को जातीय कोरियाई मूल के 443,566 सहित दक्षिण कोरिया, में आकर बसा है। जातीय चीनियों और जापानियों के छोटे समुदाय भी उत्तर कोरिया में पाए जाते हैं। [91] भाषा thumb|right|240px|Hunmin jeong-eum, बाद में हंगुल बुलाया। कोरियाई, उत्तर और दक्षिण कोरिया, दोनों की आधिकारिक भाषा है और (मंदारिन के साथ) यान्बियन स्वायत्त प्रीफेक्चर के चीन के मंचूरिया क्षेत्र में. दुनिया भर में, कोरियाई भाषा के 80 मीलियन बोलने वाले हैं। दक्षिण कोरिया में बोलने वाले करीब 50 मीलियन हैं जबकि उत्तर कोरिया में लगभग 23 मीलियन हैं। कोरियाई भाषी लोगों के अन्य बड़े समूह संयुक्त राज्य अमेरिका (करीब 0.9 मीलियन भाषी), चीन (लगभग 1.8 मीलियन भाषी), पूर्व सोवियत संघ (लगभग 350,000 भाषी), जापान (लगभग 700,000), कनाडा (100,000), मलेशिया (70,000) और ऑस्ट्रेलिया (150,000) पाए जाते हैं। ऐसा अनुमान है कि, दुनिया भर में लगभग 700,000 लोग बिखरे हुए हैं जो नौकरी की आवश्यकताओं (उदाहरण के लिए, कोरियाई संपर्कों वाले सेल्सविक्रेता या व्यवसायी), कोरिआई से विवाह या कोरियाई भाषा में पूर्ण रुचि की वजह से कोरियन भाषा बोलने में सक्षम हैं। कोरियाई लोगों का वंश वर्गीकरण विवादित है। कुछ भाषाविद् इसे अल्टेक भाषा परिवार में रखते हैं; दूसरों के विचार से यह एक पृथक भाषा है। कोरियाई भाषा, अपने आकृति विज्ञान में अभिश्लेषी है और अपने वाक्यविन्यास में SOV है। जापानी और वियतनामी की तरह कोरियाई भाषा ने भी आनुवंशिक रूप से असंबंधित चीनी से काफी शब्दावली ली है या चीनी मॉडल पर शब्दावली निर्मित कर ली। आधुनिक कोरियाई भाषा, लगभग अनन्य रूप से हंगुल लिपि में लिखी जाती है, जिसका आविष्कार 15वीं सदी में किया गया था। जबकि हो सकता है हंगुल प्रतीकमय लगे, यह वास्तव में एक ध्वनिग्रामिक वर्णमाला है जो शब्दांश ब्लाक में आयोजित है। प्रत्येक ब्लॉक 24 हंगुल पत्र (jamo) के कम से कम दो होते हैं: कम से कम 14 ध्वनि से हर एक को एस एस 10 और स्वर ऐतिहासिक रूप से, वर्णमाला में कई अतिरिक्त अक्षर थे (देखें अप्रचलित जमो)। अक्षरों की ध्‍वनि प्रक्रिया के अनुसार विवरण के लिए, कोरियाई स्वर-शास्त्र देखें. हंजा (चीनी अक्षर) और लैटिन वर्णमालाएं, कभी-कभी हंगुल पाठ में शामिल की जाती है, विशेष रूप से दक्षिण कोरिया में. संस्कृति और कला 220px|thumb|कोरियाई बौद्ध वास्तुशिल्प 220px|thumb|कोरियाई पारंपरिक नृत्य (geommu जिंजू) प्राचीन चीनी ग्रंथों में, कोरिया के लिए 'के रूप में नदियों और सिल्क पर कढ़ाई पर्वत निर्दिष्ट है, और' पूर्वी राष्ट्र की मर्यादा" 7वीं और 8वीं शताब्दी के दौरान, सिल्क रोड कोरिया को अरब से जोड़ता था। 845 में, अरब व्यापारियों ने लिखा, "चीन के पार एक देश है जहां सोना प्रचुरता में है और जिसका नाम सिला है। मुसलमान, जो वहां गए, देश से सम्मोहित हो गए और वहां बसने के इच्छुक हो कर वहां से जाने के सभी विचार को त्याग दिया.[103] " कोरियाई उत्सव अक्सर जीवंत रंगों को प्रदर्शित करते हैं, जिसके लिए मंगोलियाई प्रभाव को जिम्मेदार ठहराया गया है: गहरा लाल, पीला और हरा रंग अक्सर पारंपरिक कोरियाई रूपांकनों को चिह्नित करता है। [105] ये चमकीले रंग, कभी-कभी पारंपरिक पोशाक में देखे जाते हैं जिसे हनबोक कहते हैं। कोरियाई संस्कृति की एक विशेषता उसकी उम्र की गणना प्रणाली है। जब कोई पैदा होता है तो उसे एक वर्ष की उम्र का माना जाता है और उसकी उम्र, उसके जन्मदिन की सालगिरह के बजाय हर नए साल के दिन बढ़ती है। इस प्रकार, 31 दिसम्बर को जन्मे शिशु, अपनी पैदाइशी के अगले दिन दो वर्ष की आयु के हो जाएंगे. तदनुसार, एक कोरियाई व्यक्ति की घोषित उम्र, पश्चिमी परंपरा में व्यक्त उसकी उम्र से एक या दो वर्ष ज्यादा हो जाएगी. साहित्य जोसियन राजवंश के अंत से पहले लिखे कोरियाई साहित्य को "शास्त्रीय" या "पारंपरिक" कहा जाता है। चीनी अक्षरों (हंजा) में लिखा साहित्य, उसी समय स्थापित हुआ जब चीनी वर्णमाला प्रायद्वीप पर पहुंची. कोरियाई विद्वान, कोरियाई विचारों और उस समय के अनुभवों को दर्शाते हुए, 2 शताब्दी ईसा पूर्व से ही कोरियाई शास्त्रीय शैली में कविता लिख रहे थे। कोरियाई शास्त्रीय साहित्य की जड़ें, प्रायद्वीप के पारंपरिक लोक विश्वासों और लोक कथाओं में है, जो कन्फ्यूशियनवाद, बौद्ध धर्म और ताओवाद से गहरे रूप से प्रभावित है। आधुनिक साहित्य को अक्सर हंगुल के विकास के साथ जोड़ा जाता है, जिसने अभिजात वर्ग से लेकर आम जनता और महिलाओं में साक्षरता के प्रसार में मदद की। हंगुल, तथापि, केवल 19वीं सदी के उत्तरार्ध में कोरियाई साहित्य में एक प्रमुख स्थान पर पहुंची, जिससे कोरियाई साहित्य में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई। सिन्सोसिओल उदाहरण के लिए, हंगुल में लिखित उपन्यास हैं। कोरियाई युद्ध ने युद्ध के घावों और अराजकता के इर्द-गिर्द केंद्रित साहित्य के विकास को प्रेरित किया। दक्षिण कोरिया का युद्ध-पूर्व का अधिकांश साहित्य, आम लोगों के दैनिक जीवन और राष्ट्रीय दर्द के साथ उनके संघर्ष की चर्चा करता है। पारंपरिक कोरियाई मूल्य प्रणाली का पतन उस समय का एक अन्य आम विषय था। धर्म thumb|अमिताभ और आठ महान Bodhisattvas, 1300s से गोरियो पुस्तक बौद्ध धर्म, ताओवाद और कोरियाई शमनवाद के योगदान के साथ-साथ कन्फ्यूशियाई परंपरा ने कोरियाई सोच को प्रभावित किया है। 20वीं शताब्दी के मध्य के बाद से, तथापि, दक्षिण कोरिया में ईसाइयत ने बौद्ध धर्म के साथ प्रतिस्पर्धा की है जबकि उत्तर कोरिया में धार्मिक प्रथाओं को दबा दिया गया। कोरियाई इतिहास और संस्कृति, जुदाई की परवाह किए बिना पूरे; कोरियाई शमनवाद, महायान बौद्ध धर्म, कन्फ्यूशीवाद और ताओवाद की पारंपरिक मान्यताओं के प्रभाव कोरियाई लोगों के रूप में भी उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पहलू की एक अंतर्निहित धर्म रहा है, इन सभी परंपराओं सैकड़ों वर्षों से शांतिपूर्ण सहअस्तित्व है। या साम्यवाद से दबाव दक्षिण में ईसाई मिशनरी रूपांतरणों से मजबूत पश्चिमीकरण के बावजूद उत्तर में जुचे सरकार एस. दक्षिण कोरियाई सरकार द्वारा संकलित 2005 के आंकड़ों के मुताबिक, लगभग 46% नागरिकों ने किसी विशेष धर्म का पालन न करने को स्वीकार किया। ईसाई जनसंख्या का 29.2% हैं (जिनमें Protestants- 18.3% और 10.9% कैथोलिक हैं) और बौद्ध 22.8% हैं. कोरियाई, छात्रवृत्ति को महत्व देते थे और चीनी शिक्षा और शास्त्रीय ग्रंथों के अध्ययन को पुरस्कृत किया जाता था; यांगबान लड़के हंजा में उच्च शिक्षित थे। सिला में, बोन रैंक प्रणाली, एक व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को परिभाषित करती थी और एक ऐसी ही समान प्रणाली जोसियन राजवंश के अंत तक बनी रही। इसके अतिरिक्त, ग्वागियो सिविल सेवा परीक्षा ने ऊर्ध्वगामी गतिशीलता का रास्ता प्रदान किया। दक्षिण कोरिया में इस्लाम का, करीब 100,000 विदेशी कर्मचारियों के अलावा, लगभग 45,000 देशी मुस्लिमों द्वारा अनुगमन किया जाता है। [122] पाक शैली/रसोई 200px|thumb|left|Bibimbap कोरियाई पाकशैली शायद किमची के लिए सबसे अच्छी तरह से जानी जाती है जिसमें सब्जियों के संरक्षण की एक विशिष्ट किण्वन प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है, सबसे अधिक फूलगोभी के लिए। गोचुजांग (लाल कागज का बना पारंपरिक कोरियाई सॉस) भी आमतौर पर इस्तेमाल किया जाता है, अक्सर मिर्च पाउडर के रूप में, जिससे यहां की पाकशैली को मसालेदार होने का तमगा प्राप्त हुआ। बुलगोगी (भुना हुआ मसालेदार मांस, आमतौर पर गोमांस), गाल्बी (मसालेदार ग्रील्ड छोटी पसलियां) और सेमगिओप्सल (सूअर का पेट) लोकप्रिय मांस स्नैक्स हैं। भोजन के साथ आमतौर पर एक सूप या दमपुख्त होता है, जैसे गाल्बीटांग (दमपुख्त पसलियां) के रूप में स्टू, के साथ) कर रहे हैं और jjigae (किण्वित सेम पेस्ट स्टू doenjang)। सारणी के केंद्र banchan बुलाया sidedishes के एक साझा संग्रह से भर जाता है। यह भी आमतौर पर Soju, एक लोकप्रिय कोरियाई शराबी चावल से बनी शराब के साथ है। अन्य लोकप्रिय व्यंजन bibimbap जो शाब्दिक अर्थ है "मिश्रित चावल" (मांस, सब्जियों के साथ मिश्रित चावल और काली मिर्च पेस्ट) और naengmyeon (ठंड नूडल्स) शामिल हैं। इसके अलावा, नूडल तत्काल बुलाया ramyeon लोकप्रिय है। कोरियाई भी (खोमचेवाले) pojangmachas से भोजन का आनंद एक मछली केक, Tteokbokki जहां एक मसालेदार gochujang सॉस के साथ (चावल का केक और मछली केक खरीद सकते हैं) और विद्रूप, मीठे आलू, मिर्च, आलू, सलाद पत्ता सहित तला हुआ भोजन और फलियों से बना दही और ग्रीन बीन सुअर आंत में भरवां अंकुरित सॉसेज, व्यापक रूप से खाया है। शिक्षा आधुनिक कोरियाई स्कूल प्रणाली को प्राथमिक विद्यालय, मध्य विद्यालय में 3 साल में 6 साल के होते हैं और हाई स्कूल में 3 साल. छात्रों को प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल में जाने वाले हैं और है कि शिक्षा के लिए एक छोटी सी "स्कूल ऑपरेशन सहायता शुल्क" कि स्कूल को स्कूल से अलग बुलाया शुल्क के अलावा, भुगतान नहीं है। (शिक्षकों के करों से भुगतान) अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थी मूल्यांकन, ओईसीडी द्वारा समन्वित, के लिए कार्यक्रम वर्तमान में रैंक दक्षिण कोरिया 3 के रूप में विज्ञान की शिक्षा दुनिया में सबसे अच्छा, काफी जा रहा है ओईसीडी औसत से अधिक है। कोरिया भी गणित और साहित्य और 1 पर समस्या को सुलझाने में 2 रैंक. हालांकि दक्षिण कोरिया के छात्रों अक्सर अंतरराष्ट्रीय तुलनात्मक परीक्षणों पर उच्च रैंक, शिक्षा प्रणाली कभी कभी निष्क्रिय सीखने और memorisation पर जोर देने के लिए आलोचना की है। कोरियाई शिक्षा प्रणाली को और अधिक कठोर है और सबसे पश्चिमी समाजों से संरचित. इसके अलावा उच्च लागत और गैर पर निर्भरता स्कूल निजी संस्थान (Hakwon [학원]) प्रमुख सामाजिक समस्या के रूप में की आलोचना की है। एक बार छात्रों को विश्वविद्यालय में प्रवेश बहरहाल, स्थिति को स्पष्ट रूप से उलट है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी 230px|thumb|Jikji, बौद्ध संतों और Seon परास्नातक, जल्द से जल्द पता चल धातु का प्रकार, 1377 से मुद्रित पुस्तक के चुने हुए उपदेश. Bibliothèque Nationale de पेरिस. विज्ञान के कोरिया के इतिहास और प्रौद्योगिकी के सबसे प्रसिद्ध कलाकृतियों में से एक Cheomseongdae (첨성대 है, एक 9.4-मीटर ऊंचे 634 में निर्मित वेधशाला. जल्द से जल्द woodblock मुद्रण के कोरियाई उदाहरण के जीवित ज्ञात Mugujeonggwang महान सूत्र Dharani है। यह है 750-751 ई. में कोरिया में छपा है, जो यदि सही करना, क्या माना जाता है कि यह पुराने सूत्र डायमंड से. गोरियो रेशम उच्च पश्चिम के द्वारा माना हालांकि चीनी रेशम के रूप में के रूप में बेशकीमती नहीं था और कोरियाई नीली हरी celadon के साथ बनाया बर्तनों उच्चतम गुणवत्ता की थी और उसके बाद की मांग भी अरब व्यापारियों द्वारा. गोरियो एक पूंजी है कि व्यापारियों द्वारा से अक्सर था के साथ एक हलचल अर्थव्यवस्था था सब मालूम दुनिया भर में. Joseon अवधि के दौरान Geobukseon (कछुए जहाज) का आविष्कार किया है जो एक लकड़ी डेक और कांटे के साथ लोहे के द्वारा कवर किया, थेशमूएल Hawley,: Imjin युद्ध. जापान की सोलहवीं सदी कोरिया और करने की कोशिश का आक्रमण को जीत चीन, रॉयल एशियाटिक सोसायटी, कोरिया शाखा, 2005 के सोल, 89-954424-2-5 ISBN, p.195f है।Turnbull, स्टीफन: समुराई आक्रमण. जापान के कोरियाई युद्ध 1592-98 (लंदन, 2002) और केसल सह ISBN 0-304-35948-3, p.244Roh, यंग-koo: "यी धूप में नली, एक एडमिरल कौन बने एक मिथक", कोरियाई अध्ययन, Vol की समीक्षा. 7, नंबर 3 (2004), p.13 और साथ ही अन्य ऐसी (비격진천뢰, Bigyeokjincheolloe के ) और hwacha. कोरियाई वर्णमाला हंगुल भी महान Sejong द्वारा इस समय के दौरान का आविष्कार किया गया था। इन्हें भी देखें कोरिया कोरियाई उत्तर कोरिया दक्षिण कोरिया उत्तरी कोरिया के साथ शांति समझौता कोरियाई नाम प्रसिद्ध कोरियाई लोगों को अंतर कोरियाई शिखर सम्मेलन कोरिया के शासकों की सूची उत्तर कोरिया की राष्ट्रीय खजाने नोट्स सन्दर्भ Cumings, ब्रुस. सूर्य, Norton, 1997 में कोरिया प्लेस. आई एस बी एन 0-393-31673-4 किम, एट अल. कोरिया की महिला: 1945 के लिए एक प्राचीन काल से इतिहास, Ewha स्त्राी यूनिवर्सिटी प्रेस, 1976. 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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
https://hi.wikipedia.org/wiki/सूर्यकांत_त्रिपाठी_निराला
अनुप्रेषित सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
गोविन्द शंकर कुरुप
https://hi.wikipedia.org/wiki/गोविन्द_शंकर_कुरुप
गोविन्द शंकर कुरुप या जी शंकर कुरुप (५ जून १९०१-२ फरवरी १९७८) मलयालम भाषा के प्रसिद्ध कवि हैं। उनका जन्म केरल के एक गाँव नायतोट्ट में हुआ था। ३ साल की उम्र से उनकी शिक्षा आरंभ हुई। ८ वर्ष तक की आयु में वे 'अमर कोश' 'सिद्धरुपम' 'श्रीरामोदन्तम' आदि ग्रन्थ कंठस्थ कर चुके थे और रघुवंश महाकाव्य के कई श्लोक पढ चुके थे। ११ वर्ष की आयु में महाकवि कुंजिकुट्टन के गाँव आगमन पर वे कविता की ओर उन्मुख हुये। तिरुविल्वमला में अध्यापन कार्य करते हुये अँग्रेजी भाषा तथा साहित्य का अध्यन किया। अँग्रेजी साहित्य इनको गीति के आलोक की ओर ले गया। उनकी प्रसिद्ध रचना ओटक्कुष़ल अर्थात बाँसुरी भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ द्वारा सम्मानित हुई। इनके द्वारा रचित एक कविता–संग्रह विश्वदर्शनम् के लिये उन्हें सन् 1963 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जीवन परिचय नायतोट्ट के सरलजीवी वातावरण में गोविन्द शंकर कुरुप का जन्म शंकर वारियर के घर में हुआ। उनकी माता का नाम लक्ष्मीकुट्टी अम्मा था। बचपन में ही पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका लालन-पालन मामा ने किया। उनके मामा ज्योतिषी और पंडित थे जिसके कारण संस्कृत पढ़ने में उनकी सहज रुचि रही और उन्हें संस्कृत काव्य परंपरा के सुदृढ़ संस्कार मिले। आगे की पढ़ाई के लिए वे पेरुमपावूर के मिडिल स्कूल में पढ़ने गए। सातवीं कक्षा के बाद वे मूवाट्टुपुपा मलयालम हाई स्कूल में पढ़ने आए। यहाँ के दो अध्यापकों श्री आर.सी. शर्मा और श्री एस.एन. नायर का उनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने कोचीन राज्य की पंडित परीक्षा पास की, बांग्ला और मलयालम के साहित्य का अध्ययन किया। उनकी पहली कविता 'आत्मपोषिणी' नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई और जल्दी ही उनका पहला कविता संग्रह 'साहित्य कौतुमकम' प्रकाशित हुआ। इस समय वे तिरुविल्वामला हाई स्कूल में अध्यापक हो गए। १९२१ से १९२५ तक श्री शंकर कुरुप तिरुविल्वामला रहे। १९२५ में वे चालाकुटि हाई स्कूल आ गए। इसी वर्ष साहित्य कौतुकम का दूसरा भाग प्रकाशित हुआ। उनकी प्रतिभा और प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी थी। १९३१ में नाले (आगामी कल) शीर्षक कविता से वे जन-जन में पहचाने गए। १९३७ से १९५६ तक वे महाराजा कॉलेज एर्णाकुलम में प्राध्यापक के पद पर कार्य करते रहे। प्राध्यापकी से अवकाश लेने के बाद वे आकाशवाणी के सलाहकार बने। १९६५ में ज्ञानपीठ के बाद उन्हें १९६७ में सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार प्राप्त हुआ। गोविंद शंकर कुरुप को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६८ में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था, तथा उसी वर्ष राष्ट्रपति ने उन्हें राज्य सभा का सदस्य भी मनोनीत किया जिस पर वे १९६८ से १९७२ तक बने रहे। १९७८ में उनकी मृत्यु के समय केरल में राजकीय अवकाश की घोषणा की गई। प्रकाशित कृतियाँ कविता संग्रह - साहित्य कौतुकम् - चार खंड (१९२३-१९२९), सूर्यकांति (१९३२), नवातिथि (१९३५), पूजा पुष्पमा (१९४४), निमिषम् (१९४५), चेंकतिरुकल् मुत्तुकल् (१९४५), वनगायकन् (१९४७), इतलुकल् (१९४८), ओटक्कुष़ल्(१९५०), पथिकंटे पाट्टु (१९५१), अंतर्दाह (१९५५), वेल्लिल्प्परवकल् (१९५५), विश्वदर्शनम् (१९६०), जीवन संगीतम् (१९६४), मून्नरुवियुम् ओरु पुष़युम् (१९६४), पाथेयम् (१९६१), जीयुहे तेरंजेटुत्त कवितकल् (१९७२), मधुरम् सौम्यम् दीप्तम्, वेलिच्चत्तिंटे दूतम्, सान्ध्यरागम्। निबंध संग्रह - गद्योपहारम् (१९४०), लेखमाल (१९४३), राक्कुयिलुकल्, मुत्तुम् चिप्पियुम (१९५९), जी. युटे नोटबुक, जी युटे गद्य लेखनंगल्। नाटक - इरुट्टिनु मुन्पु (१९३५), सान्ध्य (१९४४), आगस्ट १५ (१९५६)। बाल साहित्य - इलम् चंचुकल् (१९५४), ओलप्पीप्पि (१९४४), राधाराणि, जीयुटे बालकवितकाल्। आत्मकथा - ओम्मर्युटे ओलंगलिल् (दो खंड) अनुवाद - अनुवादों में से तीन बांग्ला में से हैं, दो संस्कृत से, एक अंग्रेज़ी के माध्यम से फ़ारसी कृति का और एक इसी माध्यम से दो फ़्रेंच कृतियों के। बांग्ला कृतियाँ हैं- गीतांजलि, एकोत्तरशती, टागोर। संस्कृत की कृतियाँ हैं- मध्यम व्यायोग और मेघदूत, फारसी की रुबाइयात ए उमर ख़ैयाम और फ़्रेंच कृतियों के अंग्रेजी नाम हैं- द ओल्ड मैन हू डज़ नॉट वांट टु डाय, तथा द चाइल्ड व्हिच डज़ नॉट वॉन्ट टु बी बॉर्न। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ संस्कृत साहित्य में गहन रुचि थी शंकर कुरूप की (प्रभासाक्षी) An overview of the major genres of modern Malayalam literature G. Sankara Kurup's Jnanpith Award Acceptance Speech The Poet's commentary on his work श्रेणी:१९६८ पद्म भूषण श्रेणी:मलयालम साहित्यकार श्रेणी:ज्ञानपीठ सम्मानित श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना श्रेणी:1901 में जन्मे लोग श्रेणी:१९७८ में निधन श्रेणी:साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत मलयालम भाषा के साहित्यकार श्रेणी: भारतीय लेखक श्रेणी:भारतीय साहित्यकार
मलयाली
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REDIRECT मलयालम भाषा
भारतीय अमरीकी
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अमरीका में बसे 38,52,293 भारतीय अमेरिकी भारत और अमेरिका के मध्य मजबूत कड़ी हैं। सैन फ़्रांसिस्को-लॉस एंजेलिस, न्यूयॉर्क-न्यू जर्सी, शिकागो, डैट्रायट, ह्यूस्टन, एटलांटा, मायामी-आरलैण्डो-टैम्पा और वाशिंगटन डी. सी. के बड़े क्षेत्र में उनकी उल्लेखनीय उपस्थिति है। 1960 और 1970 के दशकों में अमेरिका आए पहले भारतीयों में डॉक्टर, वैज्ञानिक और इंजीनियर (अभियान्त्रक) जैसे पेशों के लोग थे पर हाल ही में बहुत से अन्य पेशों के लोग भी आने लगे हैं। भारतीय-अमेरिकियों ने बहुत सी संस्थाएँ और संगठन बनाये हुए हैं जो मुख्य रूप से भाषा के आधार पर और कुछ एक व्यवसाय के आधार पर बनाये गये हैं। सम्पन्नता बढ़ने से, खासकर सूचना तकनीक और बायोटेक्नोलॉजी क्षेत्रों में, यह समुदाय राजनीति के क्षेत्र में भी लगातार सक्रीय भूमिका निभा रहे हैं। भारतीय-अमेरिकी समुदाय की बढ़ती हुई राजनीतिक चेतना और प्रभाव का एक महत्वपूर्ण परिणाम कांग्रेशनल कॉकस ऑन इंडिया एंड इंडियन अमेरिकन्स के रूप में सामने आया है। निचले सदन में इस कॉकस के सदस्यों की संख्या 130 है और सदन में यह किसी एक देश से सम्बन्धित सबसे बड़ा गुट है। इस गुट और भारतीय-अमेरिकी समुदाय दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण है और उनकी कोशिश है कि दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश अतीत को भुला दें और अपनी नीतियों और हितों में मजबूत तालमेल बनायें। न्यूयॉर्क महानगर में भारतीय-अमेरिकियों की सबसे बड़ी आबादी निवास करती है। श्रेणी:भारतीय अमेरिकी
भारत अमरीका संबंध
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पुनर्प्रेषितभारत-संयुक्त राज्य सम्बन्ध
फुमी
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फुमी जाति चीन की बहुत कम जन संख्या वाली जातियों में से एक है, अब उस की कुल जन संख्या मात्र तीस हजार है, जो दक्षिण पश्चिम चीन के युन्नान प्रांत के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में स्थित पाई व फुमी जातीय स्वायत्त काऊंटी में रहती है। फुमी जाति के पूर्वज चीन के उत्तर पश्चिम भाग में घास मैदान में रहते थे और घुमंतू पशुपालन का जीवन बिताते थे। करीब 13 वीं शताब्दी में वे स्थानांतरित हो कर आज के आबाद स्थल आ कर बस गए। बीते सात सौ सालों में फुमी जाति के लोग युन्नान प्रांत के नानपिंग क्षेत्र की फुमी काऊंटी में रहते हुए अपनी जाति की अलग पहचान बनाए रखे हुए हैं, उन के जातीय संगीत, भाषा, संस्कृति व रीति रिवाज में स्पष्ट विशेषता पायी जाती है। फुमी जाति के विशेष ढंग के वाद्ययंत्र बांसुरी से बजायी गई धुन बहुलॉत सुरीली है, फुमी जाति के युवा येन ल्येनचुन को अपना जातीय वाद्य बजाना बहुत पसंद है। येन ल्येनचुन का जन्म युन्नान प्रांत के फुमी जाति बहुल स्थान में हुआ था, पर विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद वह पेइचिंग में बस गए, उस के दिल में अपने गांव तथा अपनी जाति की संस्कृति के प्रति गाढ़ा लगाव है और उसे फुमी का संगीत बहुत पसंद भी है। उस की बांसुरी धुन से घने पहाड़ी जंगल में आबाद फुमी गांव की याद आती है। फुमी जाति के लोग अपनी जाति से बहुत प्यार करते हैं, उन के जीवन में ढेर सारी प्राचीन मान्यताएं और प्रथाएं सुरक्षित हैं। युवा लोग बुजुर्ग पीढ़ी से एतिहासिक कहानी सुनने के उत्सुक हैं, जब कि बुजुर्ग लोग भी वाचन गायन के रूप में फुमी जाति के उत्तर से दक्षिण में स्थानांतरित होने का इतिहास बताना पसंद करते हैं। इन कहानियों से फुमी जाति के पूर्वजों की मेहनत तथा बुद्धिमता जाहिर होती है। अपने पूर्वजों के लम्बे रास्ते के स्थानांतरण की याद में फुमी महिलाओं के बहु तहों वाले स्कर्ट के बीचोंबीच लाल रंग की धागे से एक घूमादार रेखा कसीदा की जाती है, यह घूमादार रेखा फुमी के पूर्वजों के स्थानांतरण का प्रतीक है। फुमी लोगों की मान्यता के अनुसार उन की मृत्यु के बाद वे इसी रास्ते से अपना अंतिम पड़ाव पहुंच जाते हैं। फुमी जाति के लोग मानते हैं कि मृत्यु के बाद उन की आत्मा अपनी जन्म भूमि वापस लौटती है, इसलिए वे अंतिम संस्कार के आयोजन में भी पूर्वजों की समृत्ति में रस्म जोड़ देते हैं। फुमी जाति के लोगों के अंतिम संस्कार में बकरी का मार्ग दर्शन नामक रस्म होता है, इस के अनुसार पुजारी मृतक को उस के पूर्वजों के नाम और उत्तरी भाग में लौटने का रास्ता बताता है, मृतक को रास्ता दिखाने के लिए एक बकरी भी लाता है। रस्म के दौरान पुजारी यह मंत्र जपाता रहता है कि तुरंत तैयार हो, यह सफेद बालों वाला बकरी तुझे रास्ता दिखाएगा, तुम हमारे पूर्वजों की जन्म भूमि --उत्तरी भाग लौट जाओ। फुमी जाति में अपनी जाति की विशेषता बनाए रखने के लिए अनेक रीति रिवाज प्रचलित होते हैं। मसलन् घुमंतू जाति की संतान होने के नाते फुमी जाति के बच्चे 13 साल की उम्र में ही व्यस्क माने जाते हैं, इस के लिए व्यस्क रस्म आयोजित होता है। श्री येन ल्येनचुन ने अपने व्यस्क रस्म की याद करते हुए कहाः व्यस्क रस्म फुमी जाति के बच्चों का एक अहम उत्सव है, यह इस का प्रतीक है कि बच्चे अब परवान चढ़ गए हैं। व्यस्क रस्म के आयोजन के समय परिवार के सभी लोग अग्नि कुंड के सामने इक्ट्ठे हो जाते हैं, अग्नि कुंड के आगे देव स्तंभ खड़ा किया गया है, व्यस्क रस्म लेने वाले बच्चे का पांव अनाज से भरी बौरे पर दबा हुआ है, इस का अर्थ है कि उस का भावी जीवन खुशहाल होगा। रस्म के दौरान बच्चा हाथों में चौकू और चांदी की सिक्का पकड़ता है और बच्ची कंगन, रेशम और टाट के कपड़े हाथ में लेती है। यह उन की मेहनत और कार्यकुशलता का परिचायक होता है। व्यस्क रस्म के बाद फुमी जाति के युवक युवती सामुहित उत्पादन श्रम तथा विभिन्न सामाजिक कार्यवाहियों में भाग लेने लगते हैं और उन्हें प्यार मुहब्बत करने तथा शादी ब्याह करने की हैसियत भी प्राप्त हुई है। फुमी जाति में स्वतंत्र प्रेम विवाह की प्रथा चलती है। जाति में दुल्हन छीनने की प्रथा अब भी फुमी लोग बहुल क्षेत्रों में चलती है। सन्दर्भ
बंगलौर
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बेंगलूरु (Bengaluru), जिसका पूर्व नाम बंगलूर या बैंगलोर (Bangalore) भी अनाधिकारिक रूप से प्रचलित हैं, भारत के कर्नाटक राज्य की राजधानी है और भारत का तीसरा सबसे बड़ा नगर और पाँचवा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है। बेंगलूरु नगर की जनसंख्या 84 लाख है और इसके महानगरीय क्षेत्र की जनसंख्या 89 लाख है। दक्षिण भारत में दक्कन के पठार पर 900 मीटर की औसत ऊँचाई पर स्थित यह नगर अपने साल भर के सुहाने मौसम के लिए जाना जाता है, और लोकसंस्कृति में "भारत का उद्यान नगर" का उपनाम रखता है। भारत के महानगरों में इसकी ऊँचाई सर्वाधिक है। देश की अग्रणी सूचना प्रौद्योगिकी (IT) निर्यातक के रूप में अपनी भूमिका के कारण बेंगलुरु को व्यापक रूप से भारत की सिलिकॉन वैली या भारत की आईटी राजधानी के रूप में माना जाता है।"Lonely Planet South India & Kerala," Isabella Noble et al, Lonely Planet, 2017, ISBN 9781787012394"The Rough Guide to South India and Kerala," Rough Guides UK, 2017, ISBN 9780241332894 नाम परिवर्तन 280px|right|कर्नाटक का उच्च न्यायालय वर्ष 2006 में बेंगलुरु के स्थानीय निकाय बृहत बेंगलुरु महानगर पालिके (बी॰ बी॰ एम॰ पी॰) ने एक प्रस्ताव के माध्यम से शहर के नाम की अंग्रेज़ी भाषा की वर्तनी को बैंगलोर (Bangalore) से बेंगलुरु (Bengaluru) में परिवर्तित करने का निवेदन राज्य सरकार को भेजा। राज्य और केंद्रीय सरकार की स्वीकृति मिलने के बाद यह बदलाव 1 नवंबर 2014 से प्रभावी हो गया है। शासन ऐसा माना जाता है कि 1004 ई॰ तक यह गंग वंश का भाग था। फिर इस पर 1015 ई॰ से 1116 ई॰ तक चोल शासकों ने राज्य किया। इसके बाद होयसल राजवंश का अधिकार रहा। 1357 ई॰ में यह विजयनगर में जुड़ गया। फिर शाहजी भोसले ने इस पर राज्य किया। सन् 1698 में मुगल शासक औरंगज़ेब ने इसे चिक्काराजा वोडयार को दे दिया। 1759 ई॰ में हैदर अली ने इस पर अधिकार किया। टीपू सुल्तान ने इस पर 1799 ई॰ तक राज्य किया। इसके बाद इसकी बागडोर अंग्रेजों के हाथ में चली गयी। और अब यह स्वतंत्र भारत के एक राज्य की राजधानी है। इतिहास पुराणों में इस स्थान को कल्याणपुरी या कल्याण नगर के नाम से जाना जाता था। कालांतर में इसका नाम बेंगलुरु हुआ। ब्रिटिश राज के आगमन के पश्चात बेंगलुरु को औपनिवेशिक नाम "बैंगलोर" मिला। बेगुर के पास मिले एक शिलालेख से ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिला 1004 ई॰ तक, गंग राजवंश का एक भाग था। इसे बेंगा-वलोरू के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ प्राचीन कन्नड़ में "रखवालों का नगर" होता है। सन् 1015 से 1116 तक तमिल नाडु के चोल शासकों ने यहाँ राज किया जिसके बाद इसकी सत्ता होयसल राजवंश के हाथ चली गई। ऐसा माना जाता है कि आधुनिक बेंगलुरु की स्थापना सन् 1537 में विजयनगर साम्राज्य के दौरान हुई थी। नादप्रभु केम्पेगौड़ा को बेंगलुरु का निर्माता माना जाता है। विजयनगर के शासक अच्युतराय के आज्ञा से मुखिया केम्पेगौड़ा जी ने बेंगलूर में किला का निर्माण कराया था, केम्पेगौड़ा ने अपनी राजधानी येलाहंका से बेंगलुरु कर ली, यही इस नगर का नीव साबित हुआ। विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद बेंगलुरु के सत्ता की बागडोर कई बार बदली। मराठा सेनापति शाहजी भोसले के अघिकार में कुछ समय तक रहने के बाद इस पर मुग़लों ने राज किया। बाद में जब सन् 1689 में मुगल शासक औरंगज़ेब ने इसे चिक्काराजा वोडयार को दे दिया तो यह नगर मैसूर साम्राज्य का हिस्सा हो गया। कृष्णराजा वोडयार के देहान्त के बाद मैसूर के सेनापति हैदर अली ने इस पर सन् 1759 में अधिकार कर लिया। इसके बाद हैदर-अली के पुत्र टीपू सुल्तान, जिसे लोग शेर-ए-मैसूर के नाम से जानते हैं, ने यहाँ 1799 तक राज किया जिसके बाद यह अंग्रेजों के अघिकार में चला गया। यह राज्य सन् 1799 में चौथे मैसूर युद्ध में टीपू की मौत के बाद ही अंग्रेजों के हाथ लग सका। मैसूर का शासकीय नियंत्रण महाराजा के ही हाथ में छोड़ दिया गया, केवल छावनी क्षेत्र (Cantonment) अंग्रेजों के अधीन रहा। ब्रिटिश शासनकाल में यह नगर मद्रास प्रेसिडेंसी के तहत था। मैसूर की राजधानी सन् 1831 में मैसूर शहर से बदल कर बेंगलुरु कर दी गई। 1537 में विजयनगर साम्राज्य के सामन्त केंपेगौड़ा प्रथम ने इस क्षेत्र में पहले क़िले का निर्माण किया था। इसे आज बेंगलुरु शहर की नींव माना जाता है। समय के साथ यह क्षेत्र मराठों, अंग्रेज़ों और आखिर में मैसूर के राज्य का हिस्सा बना। अंग्रेज़ों के प्रभाव में मैसूर राज्य की राजधानी मैसूर शहर से बेंगलुरु में स्थानांतरित हो गई, और ब्रिटिश रेज़िडेंट ने बेंगलुरु से शासन चलाना शुरू कर दिया। बाद में मैसूर का शाही वाडेयार परिवार भी बेंगलुरु से ही शासन चलाता रहा। सन् 1957 में भारत की आज़ादी के बाद मैसूर राज्य का भारत संघ में विलय हो गया, और बेंगलुरु सन् 1956 में नवगठित कर्नाटक राज्य की राजधानी बन गया।सन् 1949 में बेंगलुरु छावनी और बेंगलुरु नगर, जिनका विकास अलग अलग इकाइयों के तौर पर हुआ था, का विलय करके नगरपालिका का पुनर्गठन किया गया। आर्थिक संसाधन thumb|280px|बागमने टेक पार्क बैंगलोर में ओरेकल और अन्य के कार्यालय संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक सन् 2001 के मुताबिक विश्व के शीर्ष प्रौद्योगिकी केंद्रों में ऑस्टिन (यूएसए), सैन फ़्रान्सिस्को (यूएसए) और ताइपेई (ताइवान) के साथ बेंगलुरु को चौथे स्थान पर जगह मिली है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (PSU) और कपड़ा उद्योगों ने शुरू में बेंगलुरु की अर्थव्यवस्था को चलाई, लेकिन पिछले दशक में फोकस हाई-टेक्नोलॉजी सर्विस उद्योगों पर स्थानांतरित हो गया है। बेंगलुरु की 47.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था भारत में इसे एक प्रमुख आर्थिक केंद्र बनाती है। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) के रूप में 3.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश ने बेंगलुरु को भारत तीसरा सबसे ज्यादा एफडीआई आकर्षित करने वाले शहर बना दिया। बेंगलुरु में 103 से अधिक केंद्रीय और राज्य अनुसंधान और विकास संस्थान, भारतीय विज्ञान संस्थान (विश्व स्तर पर सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक), भारतीय राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, 45 अभियांत्रिकी महाविद्यालय, विश्व स्तर की स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं, चिकित्सा महाविद्यालय और शोध संस्थान, बेंगलुरु को शिक्षा और अनुसंधान के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण शहर बनाते हैं। भारत की दूसरी और तीसरी सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर कम्पनियों का मुख्यालय इलेक्ट्रॉनिक सिटी में है। बेंगलुरु भारत के सूचना प्रौद्योगिकी निर्यातों का अग्रणी स्रोत रहा है, और इसी कारण से इसे 'भारत का सिलिकॉन वैली' कहा जाता है। सन् 2015 में, बेंगलुरु ने भारत के कुल आईटी निर्यात में 45 बिलियन अमेरिकी डॉलर या 37 प्रतिशत का योगदान दिया। सन् 2017 तक, बेंगलुरु में आईटी व्यवसाय, भारत में लगभग 4.36 मिलियन कर्मचारियों में से, आईटी और आईटी-सक्षम सेवा क्षेत्रों में लगभग 1.5 मिलियन कर्मचारी कार्यरत हैं। भारत के प्रमुख तकनीकी संगठन इसरो, इंफ़ोसिस और विप्रो का मुख्यालय यहीं है। बेंगलुरु भारत का दूसरा सबसे तेज़ी से विकसित हो रहा मुख्य महानगर है। बेंगलुरु कन्नड़ फिल्म उद्योग का केंद्र है। एक उभरते हुए महानगर के तौर पर बेंगलुरु के सामने प्रदूषण, यातायात और अन्य सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां हैं। $83 अरब के घरेलू उत्पाद के साथ बेंगलुरु भारत का चौथा सबसे बड़ा नगर है। भौगोलिक स्थिति 12.97 डिग्री उत्तरी अक्षांश और 77.56 डिग्री पूर्वी देशांतर पर स्थित इस नगर का भूखंड मुख्यतः पठारी है। यह मैसूर का पठार के लगभग बीच में 920 मीटर की औसत ऊँचाई पर अवस्थित है। बेंगलुरु जिले के उत्तर-पूर्व में कोलार जिला (सोने की खानों के लिये प्रसिद्ध), उत्तर-पश्चिम में तुमकुरु जिला, दक्षिण-पश्चिम में मांडया जिला, दक्षिण में चामराजनगर जिला तथा दक्षिण-पूर्व में तमिल नाडु राज्य है। शहर से होकर कोई बड़ी नदियाँ नहीं बहती हैं, हालाँकि अर्कावती और दक्षिण पेन्नार उत्तर में 60 किमी (37 मील) दूर नंदी हिल्स पर पार करती हैं। वृषभवती नदी, अर्कावती की एक छोटी सहायक नदी, बसवनगुडी में शहर के भीतर से निकलती है और शहर से होकर बहती है। कावेरी नदी बेंगलुरु शहर से लगभग 60 मील (100 किमी) दूर बहती है, और कावेरी नदी शहर की लगभग 80% जल आपूर्ति प्रदान करती है और शेष 20% अर्कावती नदी के थिप्पागोंडानहल्ली और हेसरघट्टा जलाशयों से प्राप्त होती है। बैंगलोर को प्रतिदिन 800 मिलियन लीटर (210 मिलियन अमेरिकी गैलन) पानी मिलता है, जो किसी भी अन्य भारतीय शहर से अधिक है, लेकिन बैंगलोर को कभी-कभी पानी की कमी का सामना करना पड़ता है, खासकर गर्मियों के दौरान और कम वर्षा वाले वर्षों में। संस्कृति thumb|280px|बेंगलुरु का दृश्य एक अनुमान के अनुसार बेंगलुरु में 51% से अधिक लोग भारत के विभिन्न हिस्सों से आ कर बसे हैं। अपने सुहाने मौसम के कारण इसे भारत का उद्यान नगर भी कहते हैं। प्रकाश का पर्व दीपावली यहाँ बहुत धूमधाम से मनाई जाती है। दशहरा, जो मैसूर का पहचान बन गया है, भी काफी प्रसिद्ध है। अन्य लोकप्रिय उत्सवों में गणेश चतुर्थी, उगादि, संक्रांति, ईद-उल-फितर, क्रिसमस शामिल हैं। कन्नड़ फिल्म उद्योग का केंद्र बेंगलुरु, सालाना औसतन 80 कन्नड़ फिल्म का निर्माण करता है है। कन्नड़ फिल्मों की लोकप्रियता ने एक नई जनभाषा बेंगलुरु-की-कन्नड़ को जन्म दिया है जो अन्य भाषाओं से प्रेरित है और युवा संस्कृति का समर्थक है। व्यंजनों की विविधता से भरपूर इस नगर में उत्तर भारतीय, दक्कनी, चीनी तथा पश्चिमी खाने काफी लोकप्रिय हैं। दिल्ली और मुंबई के विपरीत बेंगलुरु में समकालीन कला के नमूने 1990 के दशक से पहले विरले ही होते थे। 1990 के दशक में बहुत से कला प्रदर्शन स्थल (Art Gallery) बेंगलुरु में स्थापित हो गए, जैसे सरकार द्वारा समर्थित राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रालय। बेंगलुरु का अन्तर्राष्ट्रीय कला महोत्सव, आर्ट बेंगलुरु, 2010 से चल रहा है, और यह दक्षिण भारत का अकेला कला महोत्सव है। क्रिकेट यहाँ का सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है। बेंगलुरु ने देश को काफी उन्नत खिलाड़ी दिये हैं, जिसमें राहुल द्रविड़, अनिल कुंबले, गुंडप्पा विश्वनाथ, प्रसन्ना, बी॰ एस॰ चंद्रशेखर, वेंकटेश प्रसाद, जावागल श्रीनाथ आदि का नाम लिया जा सकता है। बेंगलुरु में कई क्लब भी हैं, जैसे - बेंगलुरु गोल्फ क्लब, बाउरिंग इंस्टीट्यूट, इक्सक्लुसिव बेंगलुरु क्लब आदि जिनके पूर्व सदस्यों में विंस्टन चर्चिल और मैसूर महाराजा का नाम शामिल है। दर्शनीय स्थल ऐसा माना जाता है कि जब केंपेगौड़ा ने 1537 में बेंगलुरु की स्थापना की। उस समय उसने मिट्टी की चिनाई वाले एक छोटे किले का निर्माण कराया। साथ ही गवीपुरम में उसने गवी गंगाधरेश्वरा मंदिर और बासवा में बसवनगुड़ी मंदिर की स्थापना की। इस किले के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिसका दो शताब्दियों के बाद हैदर अली ने पुनर्निर्माण कराया और टीपू सुल्तान ने उसमें और सुधार कार्य किए। ये स्थल आज भी दर्शनीय है। शहर के मध्य 1864 में निर्मित कब्बन पार्क और संग्रहालय देखने के योग्य है। 1958 में निर्मित सचिवालय, गाँधी जी के जीवन से सम्बन्धित गाँधी भवन, टीपू सुल्तान का सुमेर महल, बसवनगुड़ी तथा हरे कृष्ण मंदिर, लाल बाग, बेंगलुरु पैलेस, साईं बाबा का आश्रम, नृत्यग्राम, बनेरघाट अभयारण्य कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ बेंगलुरु की यात्रा करने वाले ज़रूर जाना चाहेंगे। बसवनगुड़ी मंदिर thumb|280px|बसवनगुड़ी मंदिर यह मंदिर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल को समर्पित है। प्रत्येक दिन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। इस मंदिर में बैठे हुए बैल की प्रतिमा स्थापित है। यह मूर्ति 4.5 मीटर ऊँची और 6 मीटर लम्बी है। बुल मंदिर एनआर कॉलोनी, दक्षिण बेंगलुरु में हैं। मंदिर रॉक नामक एक पार्क के अंदर है। बैल एक पवित्र हिन्दू यक्ष, नंदी के रूप में जाना जाता है। नंदी एक करीबी भक्त और शिव का परिचरक है। नंदी मंदिर विशेष रूप से पवित्र बैल की पूजा के लिए है। "नंदी" शब्द का मतलब संस्कृत में "हर्षित" है। विजयनगर साम्राज्य के शासक द्वारा 1537 में मंदिर बनाया गया था। नंदी की मूर्ति लम्बाई में बहुत बड़ा है, लगभग 15 फुट ऊँचाई और 20 फीट लम्बाई पर है। कहा जाता है कि यह मंदिर लगभग 500 साल पहले का निर्माण किया गया है। केंपेगौड़ा के शासक के सपने में नंदी आये और एक मंदिर पहाड़ी पर निर्मित करने का अनुरोध किया। नंदी उत्तर दिशा कि और सामना कर रहा है। एक छोटे से गणेश मंदिर के ऊपर भगवान शिव के लिए एक मंदिर बनाया गया है। किसानों का मानना ​​है कि अगर वे नंदी कि प्रार्थना करते है तो वे एक अच्छी उपज का आनंद ले सक्ते है।बुल टेंपल को दोड़ बसवनगुड़ी मंदिर भी कहा जाता है। यह दक्षिण बेंगलुरु के एनआर कॉलोनी में स्थित है। इस मंदिर का मुख्य देवता नंदी है। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदी शिव का न सिर्फ बहुत बड़ा भक्त था, बल्कि उनका सवारी भी था। इस मंदिर को 1537 में विजयनगर साम्राज्य के शासक केंपेगौड़ा ने बनवाया था। नंदी की प्रतिमा 15 फीट ऊंची और 20 फीट लंबी है और इसे ग्रेनाइट के सिर्फ एक चट्टा के जरिए बनाया गया है। बुल टेंपल को द्रविड शैली में बनाया गया है और ऐसा माना जाता है कि विश्वभारती नदी प्रतिमा के पैर से निकलती है। पौराणिक कथा के अनुसार यह मंदिर एक बैल को शांत करने के लिए बनवाया गया था, जो कि मूंगफली के खेत में चरने के लिए चला गया था, जहां पर आज मंदिर बना हुआ है। इस कहानी की स्मृति में आज भी मंदिर के पास एक मूंगफली के मेले का आयोजन किया जाता है। नवंबर-दिसंबर में लगने वाला यह मेला उस समय आयोजित किया जाता है, जब मूंगफली की पैदावार होती है। यह समय बुल टेंपल घूमने के लिए सबसे अच्छा रहता है। दोद्दा गणेश मंदिर बुल टेंपल के पास ही स्थित है। बसवनगुड़ी मंदिर तक पहुंचने में परेशानी नहीं होती है। बेंगलुरु मंदिर के लिए ढेरों बसें मिलती हैं। शिव मूर्ति यह मूर्ति 65 मीटर ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शिव पदमासन की अवस्था में विराजमान है। इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास स्थल तथा प्रवाहित हो रही गंगा नदी है। इस्कॉन मंदिर इस्कॉन मंदिर (International Society for Krishna Consciousness) बेंगलुरु की खूबसूरत इमारतों में से एक है। इस इमारत में कई आधुनिक सुविधाएं जैसे मल्टी-विजन सिनेमा थियेटर, कम्प्यूटर सहायता प्रस्तुतिकरण थियेटर एवं वैदिक पुस्तकालय और उपदेशात्मक पुस्तकालय है। इस मंदिर के सदस्यो व गैर-सदस्यों के लिए यहाँ रहने की भी काफी अच्छी सुविधा उपलब्ध है। अपने विशाल सरंचना के कारण हि इस्कॉन मंदिर बेंगलुरु में बहुत प्रसिद्ध है और इसीलिए बेंगलुरु का सबसे मुख्य पर्यटन स्थान भी है। इस मंदिर में आधुनिक और वास्तुकला का दक्षिण भरतीय मिश्रण परंपरागत रूप से पाया जाता है। मंदिर में अन्य संरचनाएँ - बहु दृष्टि सिनेमा थिएटर और वैदिक पुस्तकालय। मंदिर में ब्राह्मणो और भक्तों के लिए रहने कि सुविधाएँ भी उपलब्ध है। इस्कॉन मंदिर के बैगंलोर में छ: मंदिर है:- राधा-कृष्ण मंदिर (मुख्य मंदिर) कृष्ण-बलराम मंदिर, निताई गौरंगा मंदिर (चैतन्य महाप्रभु और नित्यानन्दा), श्रीनिवास गोविंदा (वेंकटेश्वरा) प्रहलाद-नरसिंह मंदिर एवं श्रीला प्रभुपादा मंदिर उत्तर बेंगलुरु के राजाजीनगर में स्थित राधा-कृष्ण का मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा इस्कॉन मंदिर है। इस मंदिर का शंकर दयाल शर्मा ने सन् 1997 में उद्घाटन किया। टीपू पैलेस thumb|बेंगलुरु पैलेस टीपू पैलेस व क़िला बेंगलुरु के प्रसिद्व पर्यटन स्थलों में से है। इस महल की वास्तुकला व बनावट मुगल जीवनशैली को दर्शाती है। इसके अलावा यह किला अपने समय के इतिहास को भी दर्शाता है। टीपू महल के निर्माण का आरंभ हैदर अली ने करवाया था। जबकि इस महल को स्वयं टीपू सुल्तान ने पूरा किया था। टीपू सुल्तान का महल मैसूरी शासक टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन निवास था। यह बेंगलुरु, भारत में स्थित है। टीपू की मौत के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने सिंहासन को ध्वस्त किया और उसके भागों को टुकड़ा में नीलाम करने का फैसला किया। यह बहुत महंगा था कि एक व्यक्ति पूरे टुकड़ा खरीद नहीं सक्ता है। महल के सामने अंतरिक्ष में एक बगीचेत और लॉन द्वारा बागवानी विभाग, कर्नाटक सरकार है। टीपू सुल्तान का महल पर्यटकों को आकर्षित करता है। यह पूरे राज्य में निर्मित कई खूबसूरत महलों में से एक है। वेंकटप्पा चित्रशाला यह जगह कला प्रेमियों के लिए बिल्कुल उचित है। इस चित्रशाला में लगभग 600 पेंटिग प्रदर्शित की गई है। यह चित्रशाला पूरे वर्ष खुली रहती है। इसके अलावा, इसमें कई अन्य नाटकीय प्रदर्शनी का संग्रह देख सकते हैं। बेंगलुरु महल यह महल बेंगलुरु के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। इस महल की वास्तुकला तुदौर शैली पर आधारित है। यह महल बेंगलुरु शहर के मध्य में स्थित है। यह महल लगभग 800 एकड़ में फैला हुआ है। यह महल इंग्लैंड के विंडसर महल की तरह दिखाई देता है। प्रसिद्ध बेंगलुरु महल (राजमहल) बेंगलुरु का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थान है। 45000 वर्ग फीट पर बना यह विशाल पैलेस 110 साल पुराना है। सन् 1880 में इस पैलेस का निर्माण हुआ था और आज यह पुर्व शासकों की महिमा को पकड़ा हुआ है। इसके निर्माण में तब कुल 1 करोड़ रुपये लगे थे। इसके आगे एक सुन्दर उद्यान है जो इसको इतना सुंदर रूप देता है कि वह सपनों और कहानियों के महल कि तरह लगता है।बेंगलुरु पैलेस शहर के बीचों बीच स्थित पैलेस गार्डन में स्थित है। यह सदशिवनगर और जयामहल के बीच में स्थित है। इस महल के निर्माण का काम 1862 में श्री गेरेट द्वारा शुरू किया गया था। इसके निर्माण में इस बात की पूरी कोशिश की गई कि यह इंग्लैंड के विंडसर कास्टल की तरह दिखे। 1884 में इसे वाडेयार वंश के शासक चमाराजा वाडेयार ने खरीद लिया था। 45000 वर्ग फीट में बने इस महल के निर्माण में करीब 82 साल का समय लगा। महल की खूबसूरती देखते ही बनती है। जब आप आगे के गेट से महल में प्रवेश करेंगे तो आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे। अभी हाल ही में इस महल का नवीनीकरण भी किया गया है। महल के अंदरूनी भाग की डिजाइन में तुदार शैली का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है। महल के निचले तल में खुला हुआ प्रांगण है। इसमें ग्रेनाइट के सीट बने हुए हैं, जिसपर नीले रंग के क्रेमिक टाइल्स लेगे हुए हैं। रात के समय इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है। वहीं महल के ऊपरी तल पर एक बड़ा सा दरबार हॉल है, जहां से राजा सभा को संबोधित किया करते थे। महल के अंदर के दीवार को ग्रीक, डच और प्रसिद्ध राजा रवि वर्मा के पेंटिंग्स से सजाया गया है, जिससे यह और भी खिल उठता है। विधान सौधा thumb|विधान सौधा यह जगह बेंगलुरु के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। इसका निर्माण 1954 ई. में किया गया। इस इमारत की वास्तुकला नियो-द्रविडियन शैली पर आधारित है। वर्तमान समय में यह जगह कर्नाटक राज्य के विधान सभा के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके अलावा इमारत का कुछ हिस्सा कर्नाटक सचिवालय के रूप में भी कार्य कर रहा है। विधान सौधा के शैली में ही और एक इमारत का निर्माण किया गया है, जिसका नाम 'विकास सौधा' रखा गया है। पूरे भारत में यह सबसे बड़ी विधान भवन है। तत्कालीन मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा की ओर से शुरू की गई है और, फरवरी 2005 में उद्घाटन किया गया। यह डॉ॰ आंबेडकर रोड, सेशाद्रिपुरम में स्थित है। विधान सौधा के सामने कर्नाटक उच्च न्यायालय है। 2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद, विधान सौधा की सुरक्षा के बारे में चिंता कि जा रही थी। सभी पक्षों के फुटपाथ पर एक मजबूत 10 फुट ऊंची इस्पात बाड़ लगाने का फैसला किया गया। विधान सौधा के तीन मुख्य फर्श है। यह भवन 700 फुट उत्तर दक्षिण और 350 फीट पूरब पश्चिम आयताकार है।अगर आप बेंगलुरु जा रहे हैं तो विधान सौदा जरूर जाएं। यह राज्य सचिवालय होने के साथ-साथ ईंट और पत्थर से बना एक उत्कृष्ट निर्माण है। करीब 46 मीटर ऊँचा यह भवन बेंगलुरु का सबसे ऊँचा भवन है। इसकी वास्तुशिल्पीय शैली में परंपरागत द्रविड शैली के साथ—साथ आधुनिक शैली का भी मिश्रण देखने को मिलता है। ऐसे में यहां जाना आपको निराश नहीं करेगा। शहर के किसी भी स्थान से यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। सार्वजनिक छुट्टी के दिन और रविवार के दिन इसे रंग—बिरंगी रोशनी से सजाया जाता है, जिससे यह और भी खूबसूरत हो उठता है। हालांकि विधान सौदा हर दिन शाम 6 से 8.30 बजे तक रोशनी से जगमगाता रहता है। बेंगलुरु सिटी जंक्शन से यह सिर्फ 9 किमी दूर है। कब्बन पार्क के पास स्थित दूर तक फैले हरे-भरे मैदान पर बना विधान सौदा घूमने अवश्य जाना चाहिए। लाल बाग thumb|लाल बाग का रात्रि दृश्य वर्तमान समय में इस बाग को लाल बाग वनस्पति बगीचा के नाम से जाना जाता है। यह बाग भारत के सबसे खूबसूरत वनस्पतिक बगीचों में से एक है। अठारहवीं शताब्दी में हैदर अली और टीपू सुल्तान ने इसका निर्माण करवाया था। इस बगीचे के अंदर एक खूबसूरत झील है। यह झील 1.5 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है। यह झील का नजारा एक छोटे से द्वीप की तरह प्रतीत होता है। जिस कारण यह जगह एक अच्छे पर्यटन स्थल के रूप में भी जाना जाता है। लालबाग बेंगलुरु में उपस्थित वानस्पतिक उद्यान है। साल भर अपने सुंदर, निवोदित लाल खिलते हुए गुलाबों के कारण इसका नाम लालबाग रखा है। इस उद्यान में दुर्लभ प्रजातियों के पौधों को अफगानिस्तान और फ्रांस से लाया जाता है। यहाँ कई सारे स्प्रिंग, कमल तल आदि भी है। एक ग्लास हाउस भी प्रस्तुत है। जहा अब एक स्थायी पुष्प प्रदर्शनी आयोजित किया जाता है। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर उद्यान को बहुत अच्छी तरह से सजाया जाता है। फुलों से कई तरह के भिन्न-भिन्न चित्र और प्रतिरुप बनाये जाते है। बेंगलुरु के दक्षिण में स्थित लाल बाग एक प्रसिद्ध बॉटनिकल गार्डन है। इस बाग का निर्माण कार्य हैदर अली ने शुरू किया था और बाद में उनके बेटे टीपू सुल्तान ने इसे पूरा किया। करीब 240 एकड़ भूभाग में फैले इस बाग में ट्रॉपिकल पौधों का विशाल संकलन है और यहां वनस्पतियों की 1000 से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। बाग में सिंचाई की व्यवस्था बेहतरीन है और इसे कमल के फूल वाले तालाब, घास के मैदान और फुलवारी के जरिए बेहतरीन तरीके से सजाया गया है। लोगों को वनस्पति के संरक्षण के प्रति जागरुक करने के लिए यहां हर साल फूलों की प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। लाल बाग हर दिन सुबह 6 बजे से शाम 7 बजे तक खुला रहता है। यह राज्य पथ परिवहन की बस और टूरिस्ट बस के जरिए अच्छे से जुड़ा हुआ है। वर्तमान में लाल बाग को बागबानी निदेशायल द्वारा सहयोग किया जा रहा है। हलांकि इसे 1856 में ही सरकारी बॉटनिकल गार्डन घोषित कर दिया गया था। लण्डन के क्रिस्टल पैलेसे से प्रभावित होकर बाग के अंदर एक ग्लास पैलेस भी बनाया गया है, जहां हर साल फूलों की प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। लाल बाग की चट्टानें करीब 3000 साल पुरानी है और इसे धरती का सबसे पुराना चट्टान माना जाता है। भेंट के तौर पर गार्डन के बीच में एचएमटी द्वारा एक इलेक्ट्रॉनिक फ्लावर क्लॉक बनवाया गया है। इस गार्डन ही हरियाली के बीच में घूमते-घूमते कब आप इंसान से ज्यादा प्रकृति से प्रेम करने लग जाएंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा। कब्बन पार्क कई एकड़ क्षेत्र में फैले लॉन, दूर तक फैली हरियाली, सैंकड़ों वर्ष पुराने पेड़, सुंदर झीलें, कमल के तालाब, गुलाबों की क्यारियाँ, दुर्लभ समशीतोष्ण और शीतोष्ण पौधे, सजावटी फूल पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यहाँ प्रकृति मनुष्य के साथ साक्षात्कार करती है। यह स्थान बंगलौर के सुंदरतम स्थानों में से एक है जिसे लाल बाग बॉटनिकल गार्डन, या लाल बाग वनस्पति उद्यान कहते हैं। यह २४० एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। १७६० में इसकी नींव हैदर अली ने रखी और टीपू सुल्तान ने इसका विकास किया। बेंगलुरु शहर में आने वाले पर्यटक इस पार्क को देख कर बेंगलुरु शहर को 'गार्डन सिटी' कह कर पुकारते है। पार्क के माध्यम से कई सड़कों विभिन्न स्थानों को चलाते हैं। कब्बन पार्क 1870 में बनाया गया था। पार्क 5:00-8:00 के समय छोड़कर हर समय खुला है। पार्क में 6000 पौधों के साथ 68 किस्मों और 96 प्रजातियों के आसपास पौधों है। सजावटी और फूल के पेड़ है। कब्बन पार्क बेंगलुरु में गाँधी नगर के पास स्थित है। परी फव्वारे और एक अगस्त बैंडस्टैंड भी है। आम, अशोक, पाइन, इमली, गुलमोहर, बाँस, जैसे वृक्षों यहाँ पाये जाते है। रोज गार्डन पब्लिक लाइब्रेरी के प्रवेश के बिल्कुल विपरीत है। हजरत तवक्कल मस्तान दरगाह यह दरगाह सूफी संत तवक्कल मस्तान की है। इस दरगाह में मुस्लिम व गैर-मुस्लिम दोनों ही श्रद्धालु आते हैं। गाँधी भवन गाँधी भवन कुमार कुरूपा मार्ग पर स्थित है। यह भवन महात्मा गाँधी के जीवन की याद में बनवाया गया है। इस भवन में गाँधी जी के बचपन से लेकर उनके जीवन के अंतिम दिनों को चित्रों के द्वारा दर्शाया गया है। इसके अलावा यहाँ स्वयं गाँधी जी द्वारा लिखे गए पत्रों की प्रतिकृति का संग्रह, उनके खड़ाऊँ, पानी पीने के लिए मिट्टी के बर्तन आदि स्थित है। चौड़िया स्मारक सभागार इस हॉल का निर्माण वायलिन के आकार में किया गया है। कर्नाटक के प्रसिद्ध सांरगी आचार्य टी॰ चौड़िया की मृत्यु के बाद इस जगह का नाम उनके नाम पर रखा गया। विभिन्न उद्देश्यों से बने इस वातानुकूलित हॉल में विशेष रूप से परम्परागत कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। यह जगह गायत्री देवी पार्क एक्सटेंशन पर स्थित है। ऐसा माना जाता है कि यह इमारत पूरे विश्व में संगीत वाद्य के आकार में बना पहला इमारत है। गवी गंगादरश्रवरा मंदिर यह मंदिर बसवनगुड़ी के समीप स्थित है। यह मंदिर अपनी वास्तुकला के लिए भी विशेष रूप से जाना जाता है। यह मंदिर बेंगलुरु के पुराने मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण केंपेगौड़ा ने करवाया था। यह मंदिर भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित है। इस मंदिर में एक प्राकृतिक गुफा है। मकर सक्रांति के दिन काफी संख्या में भक्तगण यहाँ एकत्रित होते हैं। नेहरू तारामंडल नेहरू तारामंडल (Nehru Planetarium), भारत में पाँच ग्रहो का नाम है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाम पर रखा गया है। ये मुंबई, नई दिल्ली, पुणे और बंगलौर में स्थित हैं। बेंगलुरू में जवाहरलाल नेहरू प्लैनेटेरियम 1989 में बंगलौर नगर ​​निगम द्वारा स्थापित किया गया था। आकाशगंगाओं का विशाल रंग चित्र इस तारामंडल के प्रदर्शनी हॉल में दिखाई देता है। साइंस सेंटर और एक विज्ञान पार्क यहाँ है। यह पता चलता है कि यह ना केवल पढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है बल्कि खगोल विज्ञान के लिये भी प्रयोग किया जाता है। विश्वेश्वरैया औद्योगिक ऐवं प्रौद्योगिकीय संग्रहालय कस्तुरबा रोड पर स्थित यह संग्रहालय सर. एम. विश्वेश्वरैया को श्रद्धांजलि देते हुए उनके नाम से बनाया गया है। इसके परिसर में एक हवाई जहाज और एक भाप इजंन का प्रदर्शन किया गया है। संग्रहालय का सबसे प्रमुख आकर्षण मोबाइल विज्ञान प्रदर्शन है, जो पूरे शहर में साल भर होता है। प्रस्तुत संग्रहालय में इलेक्ट्रानिक्स मोटर शक्ति और उपयोग कर्ता और धातु के गुणो के बारे में भी प्रदर्शन किया गया है। सेमिनार प्रदर्शन और वैज्ञानिक विषयो पर फिल्म शो का भी आयोजन किया गया है। संग्रहालय की विशेषताएँ- इजंन हाल, इलेक्ट्रानिक प्रौद्योगिकि वीथिका, किंबे कागज धातु वीथिका, लोकप्रीय विज्ञान वीथिका और बाल विज्ञान वीथिका। बन्नरघट्टा जैविक उद्यान यह पार्क शहर से २२ किलोमीटर की दूरू पर स्थित है। यहाँ पर विभिन्न प्रकार के जानवरों, चिड़ियों को एक उपयुक्त वातावरण में रखा है। यहां सफारी की सेवा बहुत ही रोमाचंक है, जहां लोगों को जगंल में यात्रा करवाई जाती है। बेंगलुरु में दूसरे अन्य आकर्षण मनोरंजन उद्यान इनोवेटिव फिल्म सिटी वंडरला से 2 किमी दूर बेंगलुरु-मैसूर राज्य राजमार्ग-17 पर स्थित है। यहां बच्चे और बड़े बराबर संख्या में आते हैं। अपने परिवार और दोस्तों के साथ यहाँ पूरा दिन बिताना आपको अच्छा अनुभव दिलाएगा। बेंगलुरु से सड़क मार्ग के जरिए फ़िल्म सिटी आसानी से पहुंचा जा सकता है और यह पर्यटकों के लिए सुबह 10 बजे से शाम 6.30 बजे तक खुला रहता है। फ़िल्म सिटी के अंदर कुछ गिने चुने मनोरंजन के लिए प्रति व्यक्ति 299 रुपए अदा करना होता है। वहीं अगर आप फिल्म सिटी के सारे मनोरंजन का आनंद लेना चाहते हैं, तो इसके लिए आपको 499 रुपए चुकाने होंगे। फ़िल्म सिटी के मुख्य आकर्षण में इनोवेटिव स्टूडियो, म्यूजियम, 4डी थियेटर, टाड्लर डेन, लुइस तसौद वैक्स म्यूजियम और थीम बेस्ड रेस्टोरेंट शामिल है। वन्नाडो सिटी में खासतौर पर बच्चों के लिए बनाया गया है। इतना ही नहीं यहाँ के डायनासोर वर्ल्ड में आप डायनासोर की प्रतिमूर्ति को देख कर रोमांचित हुए बिना नहीं रह सकेंगे। भुतहा महल देखना भी आपके लिए एक यादगार अनुभव साबित होगा। वहीं मिनीअचर सिटी में आप विश्व के कुछ अजूबे और प्रमुख स्थानों की प्रतिमूर्ति देख सकते हैं। इसके अलावा यहां के थीम आधारित रेस्टोरेंट में भोजन करना भी लंबे समय तक आपको याद रहेगा। फन वर्ल्ड स्नो सिटी आवागमन वायु मार्ग बेंगलुरु अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र सबसे नजदीकी एयरपोर्ट है जो बेंगलुरु सेंट्रल रेलवे स्टेशन से करीब 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। कई प्रमुख शहरों जैसे कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, चैन्नई, अहमदाबाद, गोवा, कोच्चि, मंगलूरु, पुणे और तिरूवंतपुरम से यहाँ के लिए नियमित रूप से उड़ानें भरी जाती है। अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें भी इसी एयरपोर्ट से निकलती हैं। बेंगलुरु अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र शहर के बीच से करीब 40 किमी दूर स्थित है। यह भारत का चौथा सबसे व्यस्त एयरपोर्ट है। साथ ही यह किंगफिशर एयरलाइन का गढ़ भी है। यहाँ 10 घरेलू और 21 अंतर्राष्ट्रीय वायु-मार्ग की सुविधा है। इससे बेंगलुरु शेष भारत और विश्व से अच्छे से जुड़ा हुआ है। बेंगलुरु का बेंगलुरु अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र देश का तीसरा व्यस्ततम एयरपोर्ट है। घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों में प्रयुक्त यह हवाईपट्टी, एशिया, मध्य-पूर्व तथा यूरोप के लिये सेवाएँ देती है। thumb|right|रात्रि में बीआईएअ टर्मिनल भवन। इसके निर्माण की शुरुआत 2008 में हुई थी और यह जर्मन कंपनी सीमेंस और कर्नाटक सरकार का ज्वाइंट सेक्टर वेंचर था। चूंकि यह रेलवे स्टेशन और बस टर्मिनल से नजदीक है, इसलिए एयरपोर्ट तक रेलवे लाइन बिछाने की योजना बनाई जा रही है। वहीं राष्ट्रीय राजमार्ग से यहां पहुचनें के लिए सिक्स लेन हाइवे पहले ही बनाया जा चुका है। यह एयरपोर्ट 71000 वर्ग मीटर में बना है और पैसेंजर टर्मिनल पूरी तरह से वातानुकूलित है। इसके चार तल्ला भवन में अंतरराष्ट्रीय और घरेलू पैसेंजर रुक सकते हैं। इस एयरपोर्ट की एक और खास बात यह है कि हज यात्रियों के लिए यहां एक अलग टर्मिनल है। करीब 1500 वर्ग मीटर के इस टर्मिनल में 600 यात्री एक साथ समा सकते हैं। शहर से एयरपोर्ट पहुंचने के लिए आप टैक्सी का सहारा ले सकते हैं। रेल मार्ग बेंगलुरु में दो प्रमुख रेलवे स्टेशन है:- क्रांतिवीर संगोली रायण्णा रेलवे स्टेशन और यशवंतपुर जंक्शन रेलवे स्टेशन। यह स्टेशने भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़े हुए है। देश के कई शहरों से नियमित रूप से एक्सप्रेस रेल बेंगलुरु के लिए चलती है। बेंगलुरु में त्वरित यातायात सेवा भी है, जिसे बेंगलुरु मेट्रो या नम्मा मेट्रो कहा जाता है। सड़क मार्ग बेंगलुरु में काफी संख्या में बस टर्मिनल है। जो कि रेलवे स्टेशन के समीप ही है। बीएमटीसी के किराये देश में सबसे ज्यादा माना जाता है। पहले चरण में एक किलोमीटर 4 रुपए है, दूरी बढ़ने के साथ - रू 1 /प्रति किलोमीटर हो जता है। बीएमटीसी का मुख्य आकर्षण 60 पर प्रदान की दैनिक पास है। खरीदारी बेंगलुरु में शॉपिंग का अपना ही एक अलग मजा है। यहाँ आपको कांचीपुरम सिल्क या सावोरस्की क्रिस्टल आसानी से मिल सकता है। बेंगलुरु विशेष रूप से मॉलों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ स्थित मॉल भारत के कुछ खूबसूरत और बड़े मॉल में से एक है। कमर्शियल स्ट्रीट बेंगलुरु से सबसे व्यस्त और भीड़-भाड़ वाले शॉपिंग की जगहों में से है। यहाँ आपको जूते, ज्वैलरी, स्टेशनरी, ट्रैवल किट और स्पोाट्स वस्तुएं आसानी से मिल जाएगी। ब्रिटिश काल के दौरान के दक्षिण परेड को आज एम॰ जी॰ रोड के नाम से जाना जाता है। यहाँ आपको शॉपिंग के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, किताबें और मैगजीन, सिल्क साड़ी, कपड़े, प्राचीन और फोटोकारी की जुड़ी विशेष चीजें मिल सकती है। एम॰ जी॰ रोड के काफी नजदीक ही ब्रिगेड रोड है यह जगह इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे टेलीविजन, फ्रिज, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर और वाशिंग मशीन आदि के लिए प्रसिद्ध है। इन्हें भी देखें मैसूर केम्पे गौडा प्रथम कर्नाटक भारत के शहर बाहरी कड़ियाँ बेंगलुरु दर्शन बेंगलुरु की सैर (जागरण यात्रा) संदर्भ श्रेणी:कर्नाटक के शहर * श्रेणी:बंगलोर नगर ज़िले के नगर श्रेणी:बंगलोर ग्रामीण ज़िले के नगर श्रेणी:भारत के महानगर
सूनामी
https://hi.wikipedia.org/wiki/सूनामी
thumb|upright=1.4|हिन्द महासागर में २००४ में आये भूकम्प और सुनामी के दौरान थाईलैण्ड के क्रबी प्रान्त के आओ-नांग नामक स्थान पर लिया गया चित्र। समुद्री तूफ़ान - इसे जापानी भाषा में सुनामी (, अथवा ) बोलते हैं, यानी बन्दरगाह के निकट की लहर। दरअसल ये बहुत लम्बी और सैकड़ों किलोमीटर चौड़ाई वाली होती हैं, यानी कि लहरों के निचले हिस्सों के बीच का फ़ासला सैकड़ों किलोमीटर का होता है। परंतु जब ये तट के पास आती हैं, तो लहरों का निचला हिस्सा ज़मीन को छूने लगता है, इनकी गति कम हो जाती है और ऊँचाई बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब ये तट से टकराती हैं तो तबाही होती है। इनकी गति 420 किलोमीटर प्रति घण्टा तक और ऊँचाई 10 से 18 मीटर तक हो सकती है। ये लहरे खारे पानी की चलती दीवार के समान है। अक्सर समुद्री भूकम्पों की वजह से ये तूफ़ान पैदा होते हैं। यह प्रशान्त महासागर में बहुत आम हैं, पर बंगाल की खाड़ी, हिन्द महासागर व अरब सागर में नहीं। इसीलिए शायद भारतीय भाषाओं में इनके लिए विशिष्ट नाम नहीं है। प्रक्रिया thumb|200px|सूनामी का चित्रण, १९वीं शती समुद्र के भीतर अचानक जब बड़ी तेज़ हलचल होने लगती है तो उसमें तूफान उठता है जिससे ऐसी लंबी और बहुत ऊंची लहरों का रेला उठना शुरू हो जाता है जो ज़बरदस्त आवेग के साथ आगे बढ़ता है, इन्हीं लहरों के रेले को सूनामी कहते हैं। दरअसल सूनामी जापानी शब्द है जो 'सू' और 'नामी' से मिल कर बना है। सू का अर्थ है समुद्र तट औऱ नामी का अर्थ है लहरें। पहले सूनामी को समुद्र में उठने वाले ज्वार के रूप में भी लिया जाता रहा है लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल समुद्र में लहरें चाँद, सूरज और ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से उठती हैं लेकिन सूनामी लहरें इन आम लहरों से अलग होती हैं। कारण thumb|left|इंडोनेशिया के निकट सूनामी लहरों का उद्गम सूनामी लहरों के पीछे वैसे तो कई कारण होते हैं लेकिन सबसे ज्यादा असरदार कारण है भूकंप। इसके अलावा ज़मीन धंसने, ज्वालामुखी फटने, किसी तरह का विस्फोट होने और कभी-कभी उल्कापात के असर से भी सूनामी लहरें उठती हैं। भूकंप जब कभी भीषण भूकंप की वजह से समुद्र की ऊपरी परत अचानक खिसक कर आगे बढ़ जाती है तो समुद्र अपनी समांतर स्थिति में ऊपर की तरफ बढ़ने लगता है। उस वक़्त बनने वाली लहरें सूनामी लहरें होती हैं। इसका एक उदाहरण ये हो सकता है कि धरती की ऊपरी परत फ़ुटबॉल की परतों की तरह आपस में जुड़ी हुई है या कहें कि उस अंडे की तरह है जिसमें दरारें हों। पहले सूनामी को समुद्र में उठने वाले ज्वार के रूप में भी लिया जाता रहा है लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल समुद्र में लहरे चाँद, सूरज और ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से उठती हैं लेकिन सूनामी लहरें इन आम लहरों से अलग होती हैं। जैसे अंडे का खोल सख़्त होता है लेकिन उसके भीतर का पदार्थ लिजलिजा और गीला होता है। भूकंप के असर से ये दरारें चौड़ी होकर अंदर के पदार्थ में इतनी हलचल पैदा करती हैं कि वो तेज़ी से ऊपर की तरफ का रूख़ कर लेता है। धरती की परतें भी जब किसी भी असर से चौड़ी होती हैं तो वो खिसकती हैं जिसके कारण महाद्वीप बनते हैं। तो इस तरह ये सूनामी लहरें बनती हैं। लेकिन ये भी ज़रूरी नहीं कि हर भूकंप से सूनामी लहरें बने। इसके लिए भूकंप का केंद्र समुद्र के अंदर या उसके आसपास होना ज़रूरी है। तट आगमन पर प्रभाव जब ये सुनामी लहरें किसी भी महाद्वीप की उस परत के उथले पानी तक पहुँचती हैं जहाँ से वो दूसरे महाद्वीप से जुड़ा है और जो कि एक दरार के रूप में देखा जा सकता है। वहाँ सूनामी लहर की तेज़ी कम हो जाती है क्योंकि उस जगह दूसरा महाद्वीप भी जुड़ रहा है और वहां धरती की जुड़ी हुई परत की वजह से दरार जैसी जो जगह होती है वो पानी को अपने अंदर रास्ता देती है। लेकिन उसके बाद भीतर के पानी के साथ मिल कर जब सूनामी किनारे की तरफ़ बढ़ती है तो वह इतनी तेज़ी होती है कि 30 मीटर तक ऊपर उठ सकती है और अपने रास्ते में आने वाले पेड़, जंगल या इमारतें इत्यादि सबका सफ़ाया कर सकती है। प्रभाव सूनामी लहरें, समुद्री तट पर भीषण तरीके से हमला करती हैं और जान-माल का बुरी तरह नुक़सान कर सकती है। इनकी भविष्यवाणी करना मुश्किल है। जिस तरह वैज्ञानिक भूकंप के बारे में भविष्य वाणी नहीं कर सकते वैसे ही सूनामी के बारे में भी अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। लेकिन सूनामी के अब तक के रिकॉर्ड को देखकर और महाद्वीपों की स्थिति को देखकर वैज्ञानिक कुछ अंदाज़ा लगा सकते हैं। धरती की जो प्लेट्स या परतें जहाँ-जहाँ मिलती है वहाँ के आसपास के समुद्र में सूनामी का ख़तरा ज़्यादा होता है। जैसे आस्ट्रेलियाई परत और यूरेशियाई परत जहाँ मिलती हैं वहाँ सुमात्रा स्थित है जो कि दूसरी तरफ फिलीपीनी परत से जुड़ा हुआ है। सूनामी लहरों का कहर यहाँ भयंकर रूप में देखा जा रहा है। इन्हें भी देखें २००४ हिंद महासागर में भूकंप और सुनामी सन्दर्भ बाहरी कड़ि सुनामी सुनामी के बारे में जानकारी एवं बचाव के उपाय सुनामी और विज्ञान श्रेणी:प्राकृतिक आपदाएँ श्रेणी:प्राकृतिक संकट श्रेणी:महासागरीय तरंगे श्रेणी:मौसम संबंधित विपदायें श्रेणी:भूवैज्ञानिक संकट श्रेणी:समुद्र-वैज्ञानिक पारिभाषिकी
बेन्गलोर
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पुनर्प्रेषित बंगलौर
वेलिंग्टन
https://hi.wikipedia.org/wiki/वेलिंग्टन
वेलिंग्टन न्यूज़ीलैंड की राजधानी है। वेलिंगटन को इस देश का दूसरा सबसे बड़ा नगरीय क्षेत्र माना जाता है। लगभग १८ लाख की जनसंख्या वाले इस नगर की स्‍थापना १८३९ ईसवी में हुई थी और १८६५ ईसवी में इसे यहां का राजधानी घोषित किया गया। पर्यटन की दृष्टि से यहां वेलिंगटन म्‍यूजियम, सिटी गैलरी, फैंक किटस पार्क, माउन्‍ट विक्‍टोरिया, माउन्‍ट कोकोउ, मैसी मे‍मोरियल, कारोरी वाइल्‍डलाइफ सैंचुरी, लीमर्स आर्क, पार्लियामेंट बिल्‍डिंग, नेशनल लाईब्रेरी, टर्नबुल हाउस, सेन्‍ट्रल लाईब्रेरी, बोटेनिक गार्डेन जैसे जगहों को घूमा जा सकता है। वेलिगंटन को पृथ्वी की अंतिम दक्षिणतम राजधानी कहते हैं। भूगोल वेलिंग्टन न्यूज़ीलैंड के उत्तर द्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित है और कुक जलसन्धि पर तटस्थ है। इसके उत्तर में समुद्र के किनारे कापीती तट के बालूतट (बीच) फैले हुए हैं। पूर्व में रिमुताका पहाड़ियों की शृंखला इसे वाइरारापा के मैदान से अलग करती है। वेलिंग्टन पूरे विश्व की दक्षिणतम राष्ट्रीय राजधानी है।वेलिंग्टन / वेट्टी / (माओरी: ते व्हानंगुई-ए-तारा) राजधानी और दूसरे न्यूजीलैंड के सबसे अधिक आबादी वाला शहरी क्षेत्र है, जिसमें 405,000 निवासियों का स्थान है। [3] यह कुक स्ट्रेट और रिमूटका रेंज के बीच उत्तर द्वीप के दक्षिण-पश्चिमी टिप पर है। वेलिंगटन दक्षिणी उत्तरी द्वीप का प्रमुख जनसंख्या केंद्र है और वेलिंग्टन क्षेत्र का प्रशासनिक केंद्र है, जिसमें कपिटी तट और वैरापापा भी शामिल हैं। यह दुनिया का सबसे ऊंचा शहर है, जिसमें 26 किमी / घंटे की औसत हवा की गति है, [4] और एक सार्वभौमिक राज्य की दुनिया की दक्षिणी सबसे बड़ी राजधानी है। [5] वेलिंगटन शहरी क्षेत्र में चार स्थानीय प्राधिकरण शामिल हैं: कुक स्ट्रेट और वेलिंग्टन हार्बर के बीच प्रायद्वीप पर वेलिंगटन सिटी, केंद्रीय व्यवसाय जिले और आधे आबादी शामिल है; उत्तर में पोरीरुआ हार्बर पर पोरीरुआ अपने बड़े माओरी और प्रशांत द्वीप समुदायों के लिए उल्लेखनीय है; लोअर हट और ऊपरी हिट उत्तरपूर्व में बड़े पैमाने पर उपनगरीय इलाके हैं, जिसे हट वैली के नाम से जाना जाता है। देश के भौगोलिक केंद्र के पास स्थित वेलिंगटन को व्यापार के लिए अच्छी तरह से रखा गया था। 183 9 में न्यूजीलैंड आने वाले ब्रिटिश आप्रवासियों के लिए सबसे पहले योजनाबद्ध निपटान के रूप में चुना गया था। इस निपटारे का नाम आर्थर वेलेस्ले, वेलिंगटन के पहले ड्यूक और वॉटरलू की लड़ाई के विजेता के सम्मान में रखा गया था। 1865 से देश की राजधानी होने के नाते, न्यूजीलैंड सरकार और संसद, सर्वोच्च न्यायालय और अधिकांश नागरिक सेवा शहर में स्थित हैं। ऑकलैंड से बहुत छोटे होने के बावजूद, वेलिंगटन को न्यूजीलैंड की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में भी जाना जाता है यह शहर राष्ट्रीय अभिलेखागार, नेशनल लाइब्रेरी, न्यूजीलैंड ते पेपा टोंगरेवा का संग्रहालय, कई थियेटर और दो विश्वविद्यालयों का घर है। वास्तुशिल्प स्थलों में सरकारी भवन शामिल हैं- दुनिया में सबसे बड़ी लकड़ी की इमारतों में से एक-साथ-साथ इकोलिन बीहाइव भी। वेलिंगटन कई कलात्मक और सांस्कृतिक संगठनों की मेजबानी करता है, जिनमें न्यूजीलैंड सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा और रॉयल न्यूजीलैंड बैले शामिल हैं। यह एक जीवंत शहरी संस्कृति है, जिसमें कई कैफे, रेस्तरां और प्रदर्शन स्थान हैं। दुनिया के सबसे ज़्यादा रहने योग्य शहरों में से एक, 2014 मर्सर क्वालिटी ऑफ़ लिविंग सर्वे ने वेलिंगटन को दुनिया में 12 वीं का स्थान दिया। [6] वेलिंग्टन की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से वित्त आधारित, व्यापार सेवाओं और सरकार पर जोर देने के साथ सेवा-आधारित है। यह न्यूजीलैंड की फिल्म और विशेष प्रभाव उद्योगों का केंद्र है, और सूचना प्रौद्योगिकी और नवीनता के लिए तेजी से एक केंद्र है। [7] वेलिंगटन न्यूजीलैंड के मुख्य बंदरगाहों में से एक के रूप में शुमार है और दोनों घरेलू और अंतरराष्ट्रीय नौवहन पर काम करता है। शहर वेलिंग्टन अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से परोसा जाता है, देश में तीसरा सबसे व्यस्त हवाई अड्डा। वेलिंगटन के परिवहन नेटवर्क में ट्रेन और बस लाइन शामिल होती है जो कि कपिटी तट और वैरापाप तक पहुंचती हैं, और घाटियों को शहर को दक्षिण द्वीप से जोड़ते हैं। औसत तापमान श्रेणी:न्यूज़ीलैण्ड के आबाद स्थान श्रेणी:ओशिआनिया में राजधानियाँ श्रेणी:राजधानियाँ श्रेणी:वेलिंग्टन क्षेत्र
लालू प्रसाद यादव
https://hi.wikipedia.org/wiki/लालू_प्रसाद_यादव
जीवन एवं राजनीतिक यात्रा बिहार के गोपालगंज में एक यादव परिवार में जन्मे यादव ने राजनीति की शुरूआत जयप्रकाश नारायण के जेपी आन्दोलन से की जब वे एक छात्र नेता थे और उस समय के राजनेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के काफी करीबी रहे थे। 1977 में आपातकाल के पश्चात् हुए। लोक सभा चुनाव में लालू यादव जीते और पहली बार 29 साल की उम्र में लोकसभा पहुँचे। 1980 से 1989 तक वे दो बार विधानसभा के सदस्य रहे और विपक्ष के नेता पद पर भी रहे। छात्र राजनीति और प्रारंभिक कैरियर लालू प्रसाद ने 1970 में पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के महासचिव के रूप में छात्र राजनीति में प्रवेश किया और 1973 में अपने अध्यक्ष बने। 1974 में, उन्होंने बिहार आंदोलन, जयप्रकाश नारायण (जेपी) की अगुवाई वाली छात्र आंदोलन में अनुसूचित जाति व जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के हक व अधिकार के लिए शामिल हो गए। पुसू ने बिहार छात्र संघर्ष समिति का गठन किया था, जिसने लालू प्रसाद को अध्यक्ष के रूप में आंदोलन दिया था। आंदोलन के दौरान प्रसाद जनवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता के करीब आए और 1977 में लोकसभा चुनाव में छपरा से जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में नामित हुए, बिहार राज्य के तत्कालीन अध्यक्ष जनता पार्टी और बिहार के नेता सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने उनके लिए प्रचार किया।। जनता पार्टी ने भारत गणराज्य के इतिहास में पहली गैर-कांग्रेस सरकार बनाई और 29 साल की उम्र में, वह उस समय भारतीय संसद के सबसे युवा सदस्यों में से एक बन गए। निरंतर लड़ने और वैचारिक मतभेदों के कारण जनता पार्टी सरकार गिर गई और 1980 में संसद को फिर से चुनाव में भंग कर दिया गया। वह जय प्रकाश नारायण की विचारधारा और प्रथाओं और भारत में समाजवादी आंदोलन के एक पिता, राज से प्रेरित था। नारायण। उन्होंने मोरारजी देसाई के साथ अलग-अलग तरीके से हिस्सा लिया और जनता पार्टी-एस के नेतृत्व में लोकभाऊ राज नारायण के नेतृत्व में शामिल हुए जो जनता पार्टी-एस के अध्यक्ष थे और बाद में अध्यक्ष बने। प्रसाद 1980 में फिर से हार गए। हालांकि उन्होंने सफलतापूर्वक 1980 में बिहार विधानसभा चुनाव लड़ा और बिहार विधान सभा के सदस्य बने। इस अवधि के दौरान यादव ने पदानुक्रम में वृद्धि की और उन्हें दूसरे दल के नेताओं में से एक माना जाता था। 1985 में वह बिहार विधानसभा के लिए फिर से निर्वाचित हुए थे। पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद, प्रसाद 1989 में विपक्षी बिहार विधानसभा के नेता बन गए। उसी वर्ष, वह वी.पी. सिंह सरकार के तहत लोक सभा के लिए भी चुने गए थे। 1990 तक, प्रसाद ने राज्य की 11.7% आबादी के साथ यादव के सबसे बड़े जातियों का प्रतिनिधित्व किया, जो खुद को निम्न जाति के नेता के रूप में स्थापित करता है। दूसरी तरफ बिहार में मुसलमान परंपरागत रूप से कांग्रेस (आई) वोट बैंक के रूप में कार्यरत थे, लेकिन 1989 के भागलपुर हिंसा के बाद उन्होंने प्रसाद के प्रति अपनी वफादारी बदल दी। 10 वर्षों की अवधि में, वह बिहार राज्य की राजनीति में एक ताकतवर बल बन गया, जो कि मुस्लिम और यादव मतदाताओं में उनकी लोकप्रियता के लिए जाना जाता है। बिहार के मुख्यमंत्री 1990 में वे बिहार के मुख्यमंत्री बने एवं 1995 में भी भारी बहुमत से विजयी रहे। 23 सितंबर 1990 को, प्रसाद ने राम रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया, और खुद को एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत किया। 1990 के दशक में आर्थिक मोर्चे पर विश्व बैंक ने अपने कार्य के लिए अपनी पार्टी की सराहना की। 1993 में, प्रसाद ने एक अंग्रेजी भाषा की नीति अपनायी और स्कूल के पाठ्यक्रम में एक भाषा के रूप में अंग्रेजी के पुन: परिचय के लिए प्रेरित किया। लालू यादव के जनाधार में एमवाई (MY) यानी मुस्लिम और यादव फैक्टर का बड़ा योगदान है और उन्होंने इससे कभी इन्कार भी नहीं किया है। राष्ट्रीय जनता दल लालू प्रसाद यादव मुख्यतः राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर लेखों के अलावा विभिन्न आन्दोलनकारियों की जीवनियाँ पढ़ने का शौक रखते हैं। वे बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। लालू यादव ने एक फिल्म में भी काम किया जिसका नाम उनके नाम पर ही है। जुलाई, 1997 में लालू यादव ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल के नाम से नयी पार्टी बना ली। गिरफ्तारी तय हो जाने के बाद लालू ने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दे दिया और अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमन्त्री बनाने का फैसला किया। जब राबड़ी के विश्वास मत हासिल करने में समस्या आयी तो कांग्रेस और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने उनको समर्थन दे दिया। 1998 में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी। दो साल बाद विधानसभा का चुनाव हुआ तो राजद अल्पमत में आ गई। सात दिनों के लिये नीतीश कुमार की सरकार बनी परन्तु वह चल नहीं पायी। एक बार फ़िर राबड़ी देवी मुख्यमन्त्री बनीं। कांग्रेस के 22 विधायक उनकी सरकार में मन्त्री बने। 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद एक बार फिर "किंग मेकर" की भूमिका में आये और रेलमन्त्री बने। यादव के कार्यकाल में ही दशकों से घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई। भारत के सभी प्रमुख प्रबन्धन संस्थानों के साथ-साथ दुनिया भर के बिजनेस स्कूलों में लालू यादव के कुशल प्रबन्धन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया। लेकिन अगले ही साल 2005 में बिहार विधानसभा चुनाव में राजद सरकार हार गई और 2009 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के केवल चार सांसद ही जीत सके। इसका अंजाम यह हुआ कि लालू को केन्द्र सरकार में जगह नहीं मिली। समय-समय पर लालू को बचाने वाली कांग्रेस भी इस बार उन्हें नहीं बचा नहीं पायी। दागी जन प्रतिनिधियों को बचाने वाला अध्यादेश खटाई में पड़ गया और इस तरह लालू का राजनीतिक भविष्य अधर में लटक गया। लालू की शैली देश भर में लालू प्रसाद यादव की एक छवि हास्य नेता की भी है। इनकी लोकप्रियता उनके बिहारी उच्चारण और अनोखे अंदाज के भाषण को लेकर भी है। बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गालों की तरह बनाने का वादा हो या रेलवे में कुल्हड़ की शुरुआत, लालू यादव हमेशा ही सुर्खियों में रहे। टीवी हो या इन्टरनेट, लालू यादव के लतीफों का दौर भी खूब चला। चारा घोटाला 1997 में जब केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने उनके खिलाफ चारा घोटाला मामले में आरोप-पत्र दाखिल किया तो यादव को मुख्यमन्त्री पद से हटना पड़ा। अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंपकर वे राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष बन गये और अपरोक्ष रूप से सत्ता की कमान अपने हाथ में रखी। चारा घोटाला मामले में लालू यादव को जेल भी जाना पड़ा और वे कई महीने तक जेल में रहे भी। लगभग सत्रह साल तक चले इस ऐतिहासिक मुकदमे में सीबीआई की स्पेशल कोर्ट के न्यायाधीश प्रवास कुमार सिंह ने लालू प्रसाद यादव को वीडियो कान्फ्रेन्सिंग के जरिये 3 अक्टूबर 2013 को पाँच साल की कैद व पच्चीस लाख रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। thumb|लालू प्रसाद यादव 1988 में नयागांव, सोनपुर में युवा जनता दल की चुनावी रैली को संबोधित करते हुए यादव और जदयू नेता जगदीश शर्मा को घोटाला मामले में दोषी करार दिये जाने के बाद लोक सभा से अयोग्य ठहराया गया। इसके कारण राँची जेल में सजा भुगत रहे लालू प्रसाद यादव को लोक सभा की सदस्यता भी गँवानी पड़ी। भारतीय चुनाव आयोग के नये नियमों के अनुसार लालू प्रसाद अब 11 साल (5 साल जेल और रिहाई के बाद के 6 साल) तक लोक सभा चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। भारतीय उच्चतम न्यायालय ने चारा घोटाला में दोषी सांसदों को संसद की सदस्यता से अयोग्य ठहराये जाने से बचाने वाले प्रावधान को भी निरस्त कर दिया था। लोक सभा के महासचिव एस॰ बालशेखर ने यादव और शर्मा को सदन की सदस्यता के अयोग्य ठहराये जाने की अधिसूचना जारी कर दी। लोक सभा द्वारा जारी इस अधिसूचना के बाद संसद की सदस्यता गँवाने वाले लालू प्रसाद यादव भारतीय इतिहास में लोक सभा के पहले सांसद बने जबकि जनता दल यूनाइटेड के एक अन्य नेता जगदीश शर्मा दूसरे, जिन्हें 10 साल के लिये अयोग्य ठहराया गया। लालू प्रसाद यादव को फ़रवरी 2022 में डोरंडा कोषागार से जुड़े चारा घोटाले में पांच साल की सजा सुनाई . स्पेशल कोर्ट के जज एसके शशि ने यह फैसला सुनाया. उनपर 60 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया | घोटाले की समयरेखा 1990 के दशक में हुए चारा घोटाला मामले में राजद प्रमुख लालू यादव और जगन्नाथ मिश्रा को दोषी करार देने के बाद उनके राजनीतिक कैरियर पर सवालिया निशान लग गया। लालू पर पशुओं के चारे के नाम पर चाईबासा ट्रेज़री से 67.70 करोड़ रुपए निकालने का आरोप था। पूरा घटनाक्रम इस प्रकार है: 27 जनवरी 1996: पशुओं के चारा घोटाले के रूप में सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये की लूट सामने आयी। चाईबासा ट्रेजरी से इसके लियेगलत तरीके से 37.6 करोड़ रुपए निकाले गये थे। 11 मार्च 1996: पटना उच्च न्यायालय ने चारा घोटाले की जाँच के लिये सीबीआई को निर्देश दिये। 19 मार्च 1996: उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश की पुष्टि करते हुए हाईकोर्ट की बैंच को निगरानी करने को कहा। 27 जुलाई 1997: सीबीआई ने मामले में राजद सुप्रीमो पर फंदा कसा। 30 जुलाई 1997: लालू प्रसाद ने सीबीआई अदालत के समक्ष समर्पण किया। 19 अगस्त 1998: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की आय से अधिक की सम्पत्ति का मामला दर्ज कराया गया। 4 अप्रैल 2000: लालू प्रसाद यादव के खिलाफ आरोप पत्र दर्ज हुआ और राबड़ी देवी को सह-आरोपी बनाया गया। 5 अप्रैल 2000: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी का समर्पण, राबड़ी देवी को मिली जमानत। 9 जून 2000: अदालत में लालू प्रसाद के खिलाफ आरोप तय किये। अक्टूबर 2001: सुप्रीम कोर्ट ने झारखण्ड के अलग राज्य बनने के बाद मामले को नये राज्य में ट्रांसफर कर दिया। इसके बाद लालू ने झारखण्ड में आत्मसमर्पण किया। 18 दिसम्बर 2006: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी को आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में क्लीन चिट दी। 2000 से 2012 तक: मामले में करीब 350 लोगों की गवाही हुई। इस दौरान मामले के कई गवाहों की भी मौत हो गयी। 17 मई 2012: सीबीआई की विशेष अदालत में लालू यादव पर इस मामले में कुछ नये आरोप तय किये। इसमें दिसम्बर 1995 और जनवरी 1996 के बीच दुमका कोषागार से 3.13 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी पूर्ण निकासी भी शामिल है। 17 सितम्बर 2013: चारा घोटाला मामले में रांची की विशेष अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा। 30 सितम्बर 2013: चारा घोटाला मामले में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव दोषी करार। 6 जनवरी 2018: को स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने लालू प्रसाद को चारा घोटाला मामले में साढ़े तीन साल की सजा और पांच लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई। 24 जनवरी 2018 : न्यायालय ने तीसरे मामले में निर्णय सुनाया। लालू यादव को ५ वर्ष का कारावास और १० लाख के अर्थदण्ड की सजा सुनायी गयी। इस प्रकार इन तीन निर्णयों में कुल मिलाकर साढ़े तेरह वर्ष का कारावास की सजा तय हुई है। आलोचनाएं और विवाद भाजपा के खिलाफ आरोप 5 अगस्त 2004 को यादव ने दावा किया कि एल.के. आडवाणी, जो वरिष्ठ भाजपा नेता और विपक्ष के नेता थे, मुहम्मद अली जिन्ना को मारने की साजिश में आरोपी थे और उन्हें एक 'अंतरराष्ट्रीय फरार' कहा। 28 सितंबर 2004 को, यादव ने तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण मंत्री वेंकैया नायडू को आंध्र प्रदेश में सूखा राहत वितरण समूह में 55,000 टन गेहूं बेची थी। उन्होंने कहा, "सीबीआई की जांच सच जानने के लिए की जाएगी।" नकारात्मक छवि भ्रषाचार, भाई-भतीजावाद और वंशवाद यादव उन पहले विख्यात राजनेताओं में से एक हैं, जिन्हें चारा घोटाले में गिरफ्तार होने पर संसदीय सीट गंवानी पड़ी, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने सजायाफ्ता विधायकों को उनके पदों पर बने रहने पर रोक लगा दी थी। मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान, बिहार की कानून और व्यवस्था सबसे निचले स्तर पर थी, अपहरण बढ़ रहा था और निजी सेनाएँ पनप रही थीं। शिल्पी-गौतम मर्डर केस और उनकी बेटी रागिनी यादव के दोस्त, अभिषेक मिश्रा की रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत में भी विपक्ष द्वारा उनकी आलोचना की गई थी। इन दोनों केस में इनके पत्नी के सगे भाई साधु यादव पर आरोप लगा । उनके खिलाफ कई चल रही भ्रष्टाचार के बावजूद, वह और उनकी पत्नी रबड़ी देवी ने बिहार राज्य को 15 साल तक शासन किया, एक ऐसा अवधि जिसके दौरान राज्य के हर आर्थिक और सामाजिक रैंकिंग भारत के अन्य राज्यों की तुलना में निम्न स्तर पर गई। परिवार के सदस्यों के खिलाफ कर चोरी के आरोप आई-टी विभाग ने 12 जून के बीच सांसद मीसा भारती को बेनामी के व्यक्तिगत जीवन 1 जून 1973 को यादव ने राबड़ी देवी से अपने माता-पिता द्वारा व्यवस्थित एक पारंपरिक शादी की। यादव नौ बच्चों, दो बेटे और सात बेटियों का पिता हैं। तेज प्रताप यादव, बड़े बेटे , बिहार राज्य सरकार में पूर्व स्वास्थ्य मंत्री तेजस्वी यादव, छोटे बेटे, पूर्व क्रिकेटर, बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री मीसा भारती , सबसे बड़ी बेटी ने एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर शैलेश कुमार से शादी कर ली रोहिणी आचार्य, दूसरी बेटी, राव समरेश सिंह, एसआरसी दिल्ली से एक अमेरिका स्थित वाणिज्य स्नातक, औरंगाबाद जिले के दाउदनगर निवासी राव रणविजय सिंह के बेटे से मई 2002 में शादी कर ली चंदा सिंह, तीसरी बेटी, विक्रम सिंह से शादी कर ली, और 2006 में इंडियन एयरलाइंस के साथ पायलट रागिनी यादव, चौथी बेटी, राहुल यादव से शादी, जितेंद्र यादव के बेटे, गाजियाबाद से सांसद विधायक, जो अब कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं हेमा यादव, पांचवीं बेटी, विनीत यादव से शादी की, एक राजनीतिक परिवार के वंशज Dhannu (उर्फ अनुष्का राव), छठे बेटी, चिरंजीव राव, कांग्रेस के राव अजय सिंह यादव, हरियाणा सरकार में कुछ समय ऊर्जा मंत्री के बेटे से शादी की राजलक्ष्मी सिंह, सबसे छोटी बेटी, मैनपुरी और मुलायम सिंह यादव के भव्य भतीजे से तेज प्रताप सिंह यादव, सांसद से शादी की जीवनी लालू प्रसाद ने गोपालगंज टू रायसीना रोड नाम से अपनी आत्मकथा लिखी है। संकर्षण ठाकुर अपने जीवन के आधार पर एक पुस्तक के लेखक हैं, द मेकिंग ऑफ लालू यादव, बिहार की अनमाकिंग; बाद में किताब को अद्यतन और पिकाडोइंडिया द्वारा "सुब्बलर साहिब: बिहार और मेकिंग ऑफ लालू यादव" के तहत पुनर्मुद्रित किया गया सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ राष्ट्रीय जनता दल की आधिकारिक वेबसाइट 25 साल पहले लालू और आडवाणी ("राम के नाम" से एक अंश) जानें, कैसे समाजवादी चाल से करोड़ों के मालिक बन बैठे लालू यादव एंड संस Lalu Prasad Yadav ने Online की म्यूजियम की सैर, Tej Pratap Yadav ने Video call के जरिए दिखाई पुरानी फोटो श्रेणी:1948 में जन्मे लोग श्रेणी:जीवित लोग श्रेणी:बिहार के मुख्यमंत्री श्रेणी:सांसद श्रेणी:भारत के रेल मंत्री
लालूप्रसाद यादव
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REDIRECT लालू प्रसाद यादव
मुल्कराज आनंद
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मुल्कराज आनंद भारत में अंग्रेज़ी साहित्य के क्षेत्र के प्रख्यात लेखक थे। मुल्कराज आनंद का जन्म १२ दिसम्बर १९०५ को पेशावर में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन तथा केंब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर पीएचडी की उपाधि हासिल की. साहित्य जगत में उनका नाम हुआ उनके उपन्यास अनटचेबल्स से जिसमें उन्होंने भारत में अछूत समस्या का बेबाक चित्रण किया। उनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं, कुली टू लीव्स एंड अ बड द विलेज अक्रॉस द ब्लैक वाटर्स द सोर्ड एंड द सिकल द डेथ ऑफ ए हीरो (1964), कश्मीरी स्वतंत्रता सेनानी के जीवन पर आधारित भारत में रचा गया उनका प्रमुख उपन्यास था द प्राइवेट लाइफ़ ऑफ़ ऐन इंडियन प्रिंस. ९९ वर्ष की आयु में सन २००४ में उनका निधन हुआ। सम्मान मुल्कराज आनंद को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन १९६७ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। ये महाराष्ट्र राज्य से हैं। सन्दर्भ श्रेणी:१९६७ पद्म भूषण श्रेणी:लेखक श्रेणी:1905 में जन्मे लोग श्रेणी:२००४ में निधन श्रेणी:साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित‎ श्रेणी:साहित्य और शिक्षा में पद्म भूषण के प्राप्तकर्ता
दशावतार
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thumb|300px|भगवान विष्णु दसों अवतारों सहित हिन्दू धर्म में विभिन्न देवताओं के अवतार की मान्यता है। प्रायः विष्णु के दस अवतार माने गये हैं जिन्हें दशावतार कहते हैं। इसी तरह शिव और अन्य देवी-देवताओं के भी कई अवतार माने गये हैं। विष्णु के दस अवतार right|thumb|250px|गोवा के श्री बालाजी मंदिर के कपाट पर दशावतारों का चित्रण भगवान विष्णु हिन्दू त्रिदेवों (तीन महा देवताओं) में से एक हैं। निर्माण की योजना के अनुसार, वे ब्रह्माण्ड के निर्माण के बाद, उसके विघटन तक उसका संरक्षण करते हैं। भगवान विष्णु के दस अवतारों को संयुक्त रूप से 'दशावतार' कहा जाता है। जब मानव अन्याय और अधर्म के दलदल में खो जाता है, तब भगवान विष्णु उसे सही रास्ता दिखाने हेतु अवतार ग्रहण करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के द्वारा कहा गया है : यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युथानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे॥ अर्थात् जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान हो जाता है, तब-तब सज्जनों के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए मैं विभिन्न युगों में (माया का आश्रय लेकर) उत्पन्न होता हूँ। भगवान विष्णु के दस अवतार हैं : 1) मत्स्य 2) कूर्म 3) मोहिनी 4) वराह 5) नरसिंह 6) वामन 7) परशुराम 8) राम 9) कृष्ण 10) कल्कि पहले तीन अवतार, अर्थात् मत्स्य, कूर्म और वराह प्रथम महायुग में अवतीर्ण हुए। पहला महायुग सत्य युग या कृत युग है। नरसिंह, वामन, परशुराम और राम दूसरे अर्थात् त्रेतायुग में अवतरित हुए। कृष्ण और वेंकटेश्वर द्वापर युग में अवतरित हुए। इस समय चल रहा युग कलियुग है और भागवत पुराण की भविष्यवाणी के आधार पर इस युग के अंत में कल्कि अवतार होगा। इससे अन्याय और अनाचार का अंत होगा तथा न्याय का शासन होगा जिससे सत्य युग की फिर से स्थापना होगी। विस्तार हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में सामान्यतः दशावतार की उपर्युक्त सूची स्वीकृत है, लेकिन विभिन्न ग्रन्थों में कुछ अंतर भी हैं। उदाहरण के लिए, कुछ धार्मिक समूहों की मान्यता के अनुसार कृष्ण ही परमात्मा हैं और दशावतार कृष्ण के ही दस अवतार हैं; अतः उनकी सूची में कृष्ण नहीं बल्कि उनके स्थान पर बलराम होते हैं। कुछ लोग बलराम को एक अवतार मानते हैं, बुद्ध को नहीं। सामान्यतः बलराम को आदिशेष (विष्णु के विश्राम के आधार) का अवतार माना जाता है। दशावतार के बारे में अन्य विचारों में, कुछ लोग अवतारों के क्रम को युक्तिसंगत बनाने की कोशिश में, उन्हें विकासवादी डार्विन के सिद्धान्त से जोड़ते हैं। इस विचार के अनुसार अवतार जलचर से भूमिवास की ओर बढ़ते क्रम में हैं; फिर आधे जानवर से विकसित मानव तक विकास का क्रम चलते गया है। इस प्रकार दशावतार क्रमिक विकास का प्रतीक या रूपक की तरह है | भगवान कल्कि के जन्म के बारे में बताया गया है कि उनके जन्म के पश्चात पृथ्वी से अन्याय का नाश हो जाएगा | इन्हें भी देखें अवतार विष्णु बाहरी कड़ियाँ दशावतार में निहित है मानव जाति के विकास की रूपरेखा (नवभारत टाइम्स) ‘दशावतार... या फिर पृथ्वी पर जीव की प्रगति का क्रम?’ संदर्भ श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:विष्णु अवतार
चन्द्रगुप्त
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चन्द्रगुप्त से निम्नलिखित राजाओं या ग्रंथों का बोध होता है- चंद्रगुप्त मौर्य - मौर्य वंश का राजा (322ईसा पूर्व–293 ईसा पूर्व) चन्द्रगुप्त प्रथम - गुप्तवंश का राजा (320ई - 335 ई) चन्द्रगुप्त द्वितीय - इन्हें 'चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य' भी कहते हैं (375 ई - 414 ई) चन्द्रगुप्त (नाटक) - जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित हिन्दी नाटक श्रेणी:राजा
वेलिन्ग्टन
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REDIRECT वेलिंग्टन
शहरों की सूची
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REDIRECT सभी देशों में शहरों की सूचियाँ
सभी देशों में शहरों की सूचियाँ
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यह लेख विश्व के देशों में शहरों की सूचियाँ के संग मिला देना चाहिये, उसके हिंदी अनुवाद के उपरांत। यह देश के अनुसार शहरों की सूचियों की सूची है। <tr valign=top><td width=200> अक्रोतिरि अौर धेकेलिया अब्खाजि़या अफगानिस्तान अमेरिकन सेमोआ अल्बानिया अल्जीरिया अन्डोरा अंगोला अंग्यिला आर्जेन्टीना आर्मिनिया आस्ट्रेलिया आस्ट्रिया अज़रबैजान बहरीन बांग्लादेश बारबाडोस बेलारूस बेल्जियम बेनिन भूटान बोलिविया बोत्सवाना ब्राज़ील बुल्गारिया बुरुन्डी कम्बोडिया कैमरून कनाडा चाड चिली चीन पीपल्ज़ रिपब्लिक ओफ़ चायना चीन होन्ग कोन्ग रिपब्लिक ओफ़ चायना (ताइवान) कोलंबिया कांगो रिपब्लिक ओफ़ कोन्गो कोस्टारीका क्रोएशिया क्यूबा साइप्रस चेकोस्लोवाकिया डेनमार्क ग्रीनलैंड डोमिनिका डोमिनिकन रिपब्लिक इक्वाडोर इजिप्त अल साल्वाडोर एस्टोनिया इथियोपिया फिजी फिनलैंड फ्रांस <td width=200> जार्जिया जर्मनी घाना यूनान गयाना होन्डूरास हंगरी भारत इंडोनेशिया ईरान इराक आयरलैंड आइसलैंड इज़राईल इटली जमैका जापान जार्डन कज़ाकिस्तान कीनिया उत्तर कोरिया दक्षिण कोरिया कुवैत कर्गिस्तान लाओस लेबनान लेसोथो लायबीरिया लीबिया मलेशिया मारीशस मेक्सिको माल्डोवा मंगोलिया मोरोक्को नामीबिया नाव्रू नेपाल न्यूज़ीलैंड पाकिस्तान <td width=200> पनामा पेरू फ़िलिपींस पोलैंड पुर्तगाल कतार रूस चेचन्या रवांडा सोमालिया दक्षिण अफ़्रीका श्रीलंका सूडान स्वाज़ीलैंड स्वीडन स्वीटजरलैंड सिरिया तंजानिया युगांडा यूक्रेन उज़बेकिस्तान
भारत में शहरों की सूची
https://hi.wikipedia.org/wiki/भारत_में_शहरों_की_सूची
अनुप्रेषित भारत के शहरों की सूची
चंडीगढ
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REDIRECT चण्डीगढ़
न्यूज़ीलैण्ड
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न्यूज़ीलैंड प्रशान्त महासागर में ऑस्ट्रेलिया के पास स्थित देश है। ये दो बड़े द्वीपों से बना है। न्यूज़ीलैंड (माओरी भाषा में: आऔतैआरौआ) दक्षिण पश्चिमि प्रशांत महासागर में दो बड़े द्वीप और अन्य कई छोटे द्वीपों से बना एक देश है। न्यूज़ीलैंड के ४० लाख लोगों में से लगभग तीस लाख लोग उत्तरी द्वीप में रहते हैं और दस लाख लोग दक्षिणी द्वीप में। यह द्वीप दुनिया के सबसे बडे द्वीपों में गिने जाते हैं। अन्य द्वीपों में बहुत कम लोग रहतें हैं और वे बहुत छोटे हैं। इनमें मुख्य है: स्टिवोट द्वीप (दक्षिण द्वीप के दक्षिण में स्थित), तीसरा सबसे बड़ा द्वीप, जनसन्ख्या ४०० इतिहास ''मुख्य लेख: न्यूजीलैंड का इतिहास' राजनीती न्यूजीलैंड में सरकार एकात्मक संसदीय संवैधानिक राजतंत्र प्रणाली के अधीन है व् इस देश की सरकार महारानी एलिजाबेथ द्वितीय द्वारा शासित है, लेकिन इस देश में चुनाव होते है व् न्यूजीलैंड को चुनाव के द्वारा अपना प्राइम मिनिस्टर चुनने का अधिकार है. भूगोल दक्षिण पश्चिमी प्रशांत महासागर में स्थित एक खूबसूरत द्वीप देश है, जोकि प्रशांत महासागर में ऑस्ट्रेलिया के पूर्व में स्थित है. इस द्वीप की भौगोलिक स्थिति बेहद लाजवाब है व इसके दक्षिण में नई कैलेडोनिया, टोंगा और फिजी देश स्थित हैं। न्यूजीलैंड कई द्वीपों के समूह से बना देश है, जिसमें उत्तर और दक्षिण द्वीप सबसे बड़े और सबसे अधिक आबादी वाले द्वीप शामिल है, साथ ही इसके इस द्वीप का वातावरण व सुहावना मौसम विश्व भर के सैलानियों को अपनी और आकर्षित करता है। सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ न्यूजीलैंड से जुड़ी 22 जानकारियां
दीप्ति नवल
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redirect दीप्ती नवल
नागार्जुन
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नागार्जुन (30 जून 1911- 5 नवम्बर 1998) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया। जीवन-परिचय नागार्जुन का जन्म १९११ ई० की ज्येष्ठ पूर्णिमा  को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। यह उन का ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम 'ठक्कन मिसर' था।नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-13. गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार चार संताने हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। संतान न जीने के कारण गोकुल मिश्र अति निराशापूर्ण जीवन में रह रहे थे। अशिक्षित ब्राह्मण गोकुल मिश्र ईश्वर के प्रति आस्थावान तो स्वाभाविक रूप से थे ही पर उन दिनों अपने आराध्य देव शंकर भगवान की पूजा ज्यादा ही करने लगे थे। वैद्यनाथ धाम (देवघर) जाकर बाबा वैद्यनाथ की उन्होंने यथाशक्ति उपासना की और वहाँ से लौटने के बाद घर में पूजा-पाठ में भी समय लगाने लगे। "फिर जो पाँचवीं संतान हुई तो मन में यह आशंका भी पनपी कि चार संतानों की तरह यह भी कुछ समय में ठगकर चल बसेगा। अतः इसे 'ठक्कन' कहा जाने लगा। काफी दिनों के बाद इस ठक्कन का नामकरण हुआ और बाबा वैद्यनाथ की कृपा-प्रसाद मानकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया।"नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-15. गोकुल मिश्र की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रह गयी थी। वे काम-धाम कुछ करते नहीं थे। सारी जमीन बटाई पर दे रखी थी और जब उपज कम हो जाने से कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं तो उन्हें जमीन बेचने का चस्का लग गया। जमीन बेचकर कई प्रकार की गलत आदतें पाल रखी थीं। जीवन के अंतिम समय में गोकुल मिश्र अपने उत्तराधिकारी (वैद्यनाथ मिश्र) के लिए मात्र तीन कट्ठा उपजाऊ भूमि और प्रायः उतनी ही वास-भूमि छोड़ गये, वह भी सूद-भरना लगाकर। बहुत बाद में नागार्जुन दंपति ने उसे छुड़ाया। ऐसी पारिवारिक स्थिति में बालक वैद्यनाथ मिश्र पलने-बढ़ने लगे। छह वर्ष की आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता (गोकुल मिश्र) अपने एक मात्र मातृहीन पुत्र को कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, इस गाँव--उस गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया। "घुमक्कड़ी का अणु जो बाल्यकाल में ही शरीर के अंदर प्रवेश पा गया, वह रचना-धर्म की तरह ही विकसित और पुष्ट होता गया।" वैद्यनाथ मिश्र की आरंभिक शिक्षा उक्त पारिवारिक स्थिति में लघु सिद्धांत कौमुदी और अमरकोश के सहारे आरंभ हुई। उस जमाने में मिथिलांचल के धनी अपने यहां निर्धन मेधावी छात्रों को प्रश्रय दिया करते थे। इस उम्र में बालक वैद्यनाथ ने मिथिलांचल के कई गांवों को देख लिया। बाद में विधिवत संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की। वहीं उन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा और फिर बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चंद्र बोस उनके प्रिय थे। बौद्ध के रूप में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को अग्रज माना। बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात 'विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। राहुल और नागार्जुन 'गुरु भाई' हैं। लंका की उस विख्यात बौद्धिक शिक्षण संस्था में रहते हुए मात्र बौद्ध दर्शन का अध्ययन ही नहीं हुआ बल्कि विश्व राजनीति की ओर रुचि जगी और भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की ओर सजग नजर भी बनी रही। १९३८ ई० के मध्य में वे लंका से वापस लौट आये।नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-16. फिर आरंभ हुआ उनका घुमक्कड़ जीवन। साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलनों में भी प्रत्यक्षतः भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती। चंपारण के किसान आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। वस्तुतः वे रचनात्मक के साथ-साथ सक्रिय प्रतिरोध में विश्वास रखते थे। १९७४ के अप्रैल में जेपी आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था "सत्ता प्रतिष्ठान की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ।"नागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-17. और सचमुच इस आंदोलन के सिलसिले में आपात् स्थिति से पूर्व ही इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर काफी समय जेल में रहना पड़ा। १९४८ ई० में पहली बार नागार्जुन पर दमा का हमला हुआ और फिर कभी ठीक से इलाज न कराने के कारणनागार्जुन : मेरे बाबूजी, शोभाकांत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1990 पृष्ठ-19. आजीवन वे समय-समय पर इससे पीड़ित होते रहे। दो पुत्रियों एवं चार पुत्रों से भरे-पूरे परिवार वाले नागार्जुन कभी गार्हस्थ्य धर्म ठीक से नहीं निभा पाये और इस भरे-पूरे परिवार के पास अचल संपत्ति के रूप में विरासत में मिली वही तीन कट्ठा उपजाऊ तथा प्रायः उतनी ही वास-भूमि रह गयी। लेखन-कार्य एवं प्रकाशन नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखी थीं। सन् 1936 में सिंहल में 'विद्यालंकार परिवेण' में ही 'नागार्जुन' नाम ग्रहण किया।नागार्जुन रचना संचयन, संपादक- राजेश जोशी, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, पृष्ठ-327.नागार्जुन का रचना-संसार, विजय बहादुर सिंह, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2014, पृष्ठ-30. आरंभ में उनकी हिन्दी कविताएँ भी 'यात्री' के नाम से ही छपी थीं। वस्तुतः कुछ मित्रों के आग्रह पर १९४१ ईस्वी के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी नाम से न लिखने का निर्णय लिया था।नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-XI. नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो १९२९ ई० में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित 'मिथिला' नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना 'राम के प्रति' नामक कविता थी जो १९३४ ई० में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'विश्वबन्धु' में छपी थी।नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-VI. नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बाङ्ला से भी वे जुड़े रहे। बाङ्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बाङ्ला साहित्य को मूल बाङ्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रुप से बाङ्ला लिखना फरवरी 1978 ई० में शुरू किया और सितंबर 1979 ई० तक लगभग ५० कविताएँ लिखी जा चुकी थीं।नागार्जुन रचनावली, खण्ड-3, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-VIII. कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और 'मेघदूत' प्रिय पुस्तक।नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-XIV. मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने १९५३ ई० में किया था। जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद वे 1948 ई० में ही कर चुके थे।नागार्जुन रचनावली, खण्ड-3, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-IX. वस्तुतः १९४४ और १९५४ ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया। बाङ्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद छपा भी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'पृथ्वीवल्लभ' का गुजराती से हिंदी में अनुवाद १९४५ ई० में किया था।नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-VII. १९६५ ई० में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की 'पुरुष-परीक्षा' (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था जो 'विद्यापति की कहानियाँ' नाम से १९६४ ई० में प्रकाशित हुई थी।नागार्जुन रचनावली, खण्ड-7, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-V-VI. प्रकाशित कृतियाँ कविता-संग्रह- युगधारा -१९५३ सतरंगे पंखों वाली -१९५९ प्यासी पथराई आँखें -१९६२ तालाब की मछलियाँ"1974 ई० में 'तालाब की मछलियाँ' नाम से एक संग्रह प्रकाशित हुआ था। उस संकलन में मात्र आठ असंकलित रचनाओं के अलावा अधिकांश रचनाएँ 'युगधारा' और 'सतरंगे पंखोंवाली' की ही थीं। 1980 के बाद 'युगधारा' और 'सतरंगे पंखोंवाली' के पुनर्मुद्रित होने से 'तालाब की मछलियाँ' नामक संग्रह का नया संस्करण नहीं किया गया और उसमें संकलित उन रचनाओं को जो 'युगधारा' और 'सतरंगे पंखोंवाली' की नहीं थीं, अन्य संग्रहों में ले लिया गया।" द्रष्टव्य- नागार्जुन रचनावली, खण्ड-1, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-XIII. -1974 तुमने कहा था -1980 खिचड़ी विप्लव देखा हमने -1980 हजार-हजार बाँहों वाली -1981 पुरानी जूतियों का कोरस -1983 रत्नगर्भ -1984 ऐसे भी हम क्या! ऐसे भी तुम क्या!! -१९८५/1985 आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने -१९८६/1986 इस गुब्बारे की छाया में -१९९०/1990 भूल जाओ पुराने सपने -१९९४ अपने खेत में -१९९७ 15. हरिजन गाथा 7 मई 1977 प्रबंध काव्य- भस्मांकुर -१९७० भूमिजा निबंध- हिमालय की बेटियाँ उपन्यास- रतिनाथ की चाची -१९४८ बलचनमा -१९५२ नयी पौध -१९५३ बाबा बटेसरनाथ -१९५४ वरुण के बेटे -१९५६-५७ दुखमोचन -१९५६-५७ कुंभीपाक -१९६० (१९७२ में 'चम्पा' नाम से भी प्रकाशित) हीरक जयन्ती -१९६२ (१९७९ में 'अभिनन्दन' नाम से भी प्रकाशित) उग्रतारा -१९६३ जमनिया का बाबा -१९६८ (इसी वर्ष 'इमरतिया' नाम से भी प्रकाशित)नागार्जुन रचनावली, खण्ड-5, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2003, पृष्ठ-VI. गरीबदास -१९९० (१९७९ में लिखित) संस्मरण- एक व्यक्ति: एक युग -१९६३ कहानी संग्रह- आसमान में चन्दा तैरे -१९८२ आलेख संग्रह- अन्नहीनम् क्रियाहीनम् -१९८३ बम्भोलेनाथ -१९८७ बाल साहित्य- कथा मंजरी भाग-१ -१९५८ कथा मंजरी भाग-२ -1948 मर्यादा पुरुषोत्तम राम -१९५५ (बाद में 'भगवान राम' के नाम से तथा अब 'मर्यादा पुरुषोत्तम' के नाम से प्रकाशित) विद्यापति की कहानियाँ -१९६४ मैथिली रचनाएँ- चित्रा (कविता-संग्रह) -१९४९ पत्रहीन नग्न गाछ (") -१९६७ पका है यह कटहल (") -१९९५ ('चित्रा' एवं 'पत्रहीन नग्न गाछ' की सभी कविताओं के साथ ५२ असंकलित मैथिली कविताएँ हिंदी पद्यानुवाद सहित) पारो (उपन्यास) -१९४६ नवतुरिया (") -१९५४ बाङ्ला रचनाएँ- मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा -१९९७ (देवनागरी लिप्यंतर के साथ हिंदी पद्यानुवाद) संचयन एवं समग्र- नागार्जुन रचना संचयन - सं०-राजेश जोशी (साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली से) नागार्जुन : चुनी हुई रचनाएँ -तीन खण्ड (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से) नागार्जुन रचनावली -२००३, सात खण्डों में, सं० शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से) नागार्जुन पर केंद्रित विशिष्ट साहित्य नागार्जुन का रचना-संसार - विजय बहादुर सिंह (प्रथम संस्करण-1982, संभावना प्रकाशन, हापुड़ से; पुनर्प्रकाशन-2009, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से) नागार्जुन की कविता - अजय तिवारी, (संशोधित संस्करण-2005) वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से) नागार्जुन का कवि-कर्म - खगेंद्र ठाकुर (प्रथम संस्करण-2013, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नयी दिल्ली से) जनकवि हूँ मैं - संपादक- रामकुमार कृषक (प्रथम संस्करण-2012 {'अलाव' के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक का संशोधित पुस्तकीय रूप}, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, नयी दिल्ली से) नागार्जुन : अंतरंग और सृजन-कर्म - संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान {'नया पथ' के नागार्जुन जन्मशती विशेषांक का संशोधित पुस्तकीय रूप}, (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से) आलोचना सहस्राब्दी अंक 43 (अक्टूबर-दिसंबर 2011), संपादक- अरुण कमल तुमि चिर सारथि यात्री नागार्जुन आख्यान तारानंद वियोगी (मैथिली से अनुवाद-केदार कानन, अविनाश) (पहले 'पहल' पुस्तिका के रूप में फिर अंतिका प्रकाशन, दिल्ली से) युगों का यात्री नागार्जुन की जीवनी तारानंद वियोगी (रज़ा पुस्तकमाला के तहत राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से प्रकाशित) पुरस्कार साहित्य अकादमी पुरस्कार -1969 (मैथिली में, 'पत्र हीन नग्न गाछ' के लिए) भारत भारती सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा) मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (मध्य प्रदेश सरकार द्वारा) राजेन्द्र शिखर सम्मान -1994 (बिहार सरकार द्वारा) साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फेलोशिप से सम्मानित राहुल सांकृत्यायन सम्मान पश्चिम बंगाल सरकार सेे हिन्दी अकादमी पुरस्कार समालोचना नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ा़व तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है। उनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है। मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है। उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं। उन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में भी कई बड़े जनांदोलनों में भाग लिया था। 1939 से 1942 के बीच बिहार में किसानो के एक प्रदर्शन का नेतृत्व करने की वजह से जेल में रहे। आज़ादी के बाद लम्बे समय तक वो पत्रकारिता से भी जुड़े रहे। जन संघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना, ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी घुले-मिले हैं। निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ इस्तेमाल करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि हैं। उनके कुछ काव्य शिल्पों में ताक-झाँक करना हमारे लिए मूल्यवान हो सकता है। उनकी अभिव्यक्ति का ढंग तिर्यक भी है, बेहद ठेठ और सीधा भी। अपनी तिर्यकता में वे जितने बेजोड़ हैं, अपनी वाग्मिता में वे उतने ही विलक्षण हैं। काव्य रूपों को इस्तेमाल करने में उनमें किसी प्रकार की कोई अंतर्बाधा नहीं है। उनकी कविता में एक प्रमुख शैली स्वगत में मुक्त बातचीत की शैली है। नागार्जुन की ही कविता से पद उधार लें तो कह सकते हैं-स्वागत शोक में बीज निहित हैं विश्व व्यथा के। भाषा पर बाबा का गज़ब अधिकार है। देसी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेकों स्तर हैं। उन्होंने तो हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है। जैसा पहले भाव-बोध के संदर्भ में कहा गया, वैसे ही भाषा की दृष्टि से भी यह कहा जा सकता है कि बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है। बाबा ने छंद से भी परहेज नहीं किया, बल्कि उसका अपनी कविताओं में क्रांतिकारी ढंग से इस्तेमाल करके दिखा दिया। बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का एक आधार उनके द्वारा किया गया छंदों का सधा हुआ चमत्कारिक प्रयोग भी है। समकालीन प्रमुख हिंदी साहित्यकार उदय प्रकाश के अनुसार "यह जोर देकर कहने की ज़रूरत है कि बाबा नागार्जुन बीसवीं सदी की हिंदी कविता के सिर्फ 'भदेस' और मात्र विद्रोही मिजाज के कवि ही नहीं, वे हिंदी जाति के सबसे अद्वितीय मौलिक बौद्धिक कवि थे। वे सिर्फ 'एजिट पोएट' नहीं, पारंपरिक भारतीय काव्य परंपरा के विरल 'अभिजात' और 'एलीट पोएट' भी थे।"ईश्वर की आंख, उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ-207-8. उदय प्रकाश ने बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व-निर्माण एवं कृतित्व की व्यापक महत्ता को एक साथ संकेतित करते हुए एक ही महावाक्य में लिखा है कि "खुद ही विचार करिये, जिस कवि ने बौद्ध दर्शन और मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया हो, राहुल सांकृत्यायन और आनंद कौसल्यायन जैसी प्रचंड मेधाओं का साथी रहा हो, जिसने प्राचीन भारतीय चिंतन परंपरा का ज्ञान पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत जैसी भाषाओं में महारत हासिल करके प्राप्त किया हो, जिस कवि ने हिंदी, मैथिली, बंगला और संस्कृत में लगभग एक जैसा वाग्वैदग्ध्य अर्जित किया हो, अपनी मूल प्रज्ञा और संज्ञान में जो तुलसी और कबीर की महान संत परंपरा के निकटस्थ हो, जिस रचनाकार ने 'बलचनमा' और 'वरुण के बेटे' जैसे उपन्यासों के द्वारा हिंदी में आंचलिक उपन्यास लेखन की नींव रखी हो जिसके चलते हिंदी कथा साहित्य को रेणु जैसी ऐतिहासिक प्रतिभा प्राप्त हुई हो, जिस कवि ने अपने आक्रांत निजी जीवन ही नहीं बल्कि अपने समूचे दिक् और काल की, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों और व्यक्तित्व पर अपनी निर्भ्रांत कलम चलाई हो, (संस्कृत में) बीसवीं सदी के किसी आधुनिक राजनीतिक व्यक्तित्व (लेनिन) पर समूचा खण्डकाव्य रच डाला हो, जिसके हैंडलूम के सस्ते झोले में मेघदूतम् और 'एकाॅनमिक पाॅलिटिकल वीकली' एक साथ रखे मिलते हों, जिसकी अंग्रेजी भी किसी समकालीन हिंदी कवि या आलोचक से बेहतर ही रही हो, जिसने रजनी पाम दत्त, नेहरू, बर्तोल्त ब्रेख्ट, निराला, लूशुन से लेकर विनोबा, मोरारजी, जेपी, लोहिया, केन्याता, एलिजाबेथ, आइजन हावर आदि पर स्मरणीय और अत्यंत लोकप्रिय कविताएं लिखी हों -- ... बीसवीं सदी की हिंदी कविता का प्रतिनिधि बौद्धिक कवि वह है...।"ईश्वर की आंख, उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2017, पृष्ठ-208. टिप्पणियाँ इन्हें भी देखें नयी पौध नागार्जुन (रसायनशास्त्री) नागार्जुन (प्राचीन दार्शनिक) सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ नागार्जुन की रचनाएँ कविता कोश में नागार्जुन की कविताएँ अनुभूति में नागार्जुन रचनावली: उपन्यास (गूगल पुस्तक ; लेखक - नागार्जुन) श्रेणी:प्रगतिशील कवि श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना श्रेणी:1911 में जन्मे लोग श्रेणी:१९९८ में निधन श्रेणी:भारतीय बौद्ध श्रेणी:साहित्य अकादमी फ़ैलोशिप से सम्मानित‎
बीरबल साहनी
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बीरबल साहनी (नवंबर, 1891 - 10 अप्रैल, 1949) अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरावनस्पति वैज्ञानिक थे। जीवनी बीरबल साहनी का जन्म नवंबर, 1891 को पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) के शाहपुर जिले के भेड़ा नामक एक छोटे से व्यापारिक नगर में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। इनके पिता रुचि राम साहनी रसायन के प्राध्यापक थे। उनका परिवार वहां डेरा इस्माइल खान से स्थानांतरित हो कर बस गया था। शिक्षा प्रोफेसर रुचि राम साहनी ने उच्च शिक्षा के लिए अपने पांचों पुत्रों को इंग्लैंड भेजा तथा स्वयं भी वहां गए। वे मैनचेस्टर गए और वहां कैम्ब्रिज के प्रोफेसर अर्नेस्ट रदरफोर्ड तथा कोपेनहेगन के नाइल्सबोर के साथ रेडियोसक्रियता पर अन्वेषण कार्य किया। प्रथम महायुद्ध आरंभ होने के समय वे जर्मनी में थे और लड़ाई छिड़ने के केवल एक दिन पहले किसी तरह सीमा पार कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचने में सफल हुए। वास्तव में उनके पुत्र बीरबल साहनी की वैज्ञानिक जिज्ञासा की प्रवृत्ति और चारित्रिक गठन का अधिकांश श्रेय उन्हीं की पहल एवं प्रेरणा, उत्साहवर्धन तथा दृढ़ता, परिश्रम औरईमानदारी को है। इनकी पुष्टि इस बात से होती है कि प्रोफेसर बीरबल साहनी अपने अनुसंधान कार्य में कभी हार नहीं मानते थे, बल्कि कठिन से कठिन समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। इस प्रकार, जीवन को एक बड़ी चुनौती के रूप में मानना चाहिए, यही उनके कुटुंब का आदर्श वाक्य बन गया था। इनको १९१९ ई. में लन्दन विश्वविद्यालय से और १९२९ ई. में केंब्रिज विश्वविद्यालय से डी.एस-सी. की उपाधि मिली थी। भारत लौट आने पर ये पहले बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्राध्यापक नियुक्त हुए। १९३९ ई. में ये रॉयल सोसायटी ऑव लन्दन के सदस्य (एफ.आर.एस.) चुने गए और कई वर्षों तक सायंस कांग्रेस और नेशनल ऐकेडेमी ऑव सायंसेज़ के अध्यक्ष रहे। इनके अनुसंधान जीवाश्म (फॉसिल) पौधों पर सबसे अधिक हैं। इन्होंने एक फॉसिल 'पेंटोज़ाइली' की खोज की, जो राजमहल पहाड़ियों में मिला था। इसका दूसरा नमूना अभी तक कहीं नहीं मिला है। हिंदू विश्वविद्यालय से डा. साहनी लाहौर विश्वविद्यालय गए, जहाँ से लखनऊ में आकर इन्होंने २० वर्ष तक अध्यापन और अन्वेषण कार्य किया। ये अनेक विदेशी वैज्ञानिक संस्थाओं के सदस्य थे। लखनऊ में डा. साहनी ने पैलिओबोटैनिक इंस्टिट्यूट की स्थापना की, जिसका उद्घाटन पं. जवाहरलाल ने १९४९ ई. के अप्रैल में किया था। पैलिओबोटैनिक इंस्टिट्यूट के उद्घाटन के बाद शीघ्र ही साहनी महोदय की मृत्यु हो गई। इन्होंने वनस्पति विज्ञान पर पुस्तकें लिखी हैं और इनके अनेक प्रबंध संसार के भिन्न भिन्न वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं। डा. साहनी केवल वैज्ञानिक ही नहीं थे, वरन् चित्रकला और संगीत के भी प्रेमी थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने इनके सम्मान में 'बीरबल साहनी पदक' की स्थापना की है, जो भारत के सर्वश्रेष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक को दिया जाता है। इनके छात्रों ने अनेक नए पौधों का नाम साहनी के नाम पर रखकर इनके नाम को अमर बनाए रखने का प्रयत्न किया है। प्रमुख प्रकाशन 1915. Foreign pollen in the ovules of Ginkgo and its significance in the study of fossil plants. New Phytol. 14 (4 and 5), 149–151. 1915. The anatomy of Nephrolepis volzibilis J. Sim, with remarks on the biology and morphology of the genus. New Phytol. 14 (8 and 9), 251–274. 1916. The vascular anatomy of the tubers of Nephrolepis. New Phytol. 15 (3 and 4), 72–80. 1917. Observations on the evolution of branching in the Filicales. New Phytol. 16 (1 and 2), 1–23. 1919. (With J. C. WILLIS.) Lawson's text book of botany. London: Univ. Tut. Press. 1919. On an Australian specimen of Clepsydropsis. Ann. Bot. 33 (129), 81–92. 1920. (With A. C. SEWARD) Indian Gondwana plants: a revision. Mem. Geol. Surv. Ind. Pal. Ind. 7 (I), 1–40. 1921. A stem impression from the plant-bearing beds near Khunmu (Kashmir), provisionally referred to Gangamopteris Kashmirensis Seward. Proc. (8th Ind. Sci. Cong. Cal.) Asiat. Sac. Beng. (N.S.), 17 (4), 200. 1921. The present position of Indian Palaeobotany. Pres. Add. 8th Ind. Sci. Cong. Cal. Proc. Asiat. Sac. Bengal (N.S.), 17 (4), 152–175. 1924. On the anatomy of some petrified plants from the Government Museum, Madras. Proc. 11th Ind. Sci. Cong. Bangalore, p. 141. 1925. The ontogeny of vascular plants and the theory of recapitulation. J. Ind. Bat. Soc. 4 (6), 202–216. 1925. (With E. J. BRADSHAW) A fossil tree in the Panchet Series of the Lower Gondwanas near Asansol. Rec. Geol. Surv. Ind. 58 (I), 77–79. 1931. On certain fossil epiphytic ferns found on the stems of the Palaeozoic tree-fern Psaronius. Proc. 18th Ind. Sci. Cong. Nagpur, p. 270. 1931. Materials for a monograph of the Indian petrified palms. Proc. Acad. Sci. U.P. 1, 140–144. 1932. Homoxylon rajmalzalense gen. et sp. nov., a fossil angiospermous wood, devoid of vessels, from the Rajmahal Hills, Behar. Mem. Geol. Sura. Ind. Pal. Ind. 20 (2), 1–19. 1932. A petrified Williamsonia (W. Sewardiana, sp. nov.) from the Rajmahal Hills, India. Mem. Geol. Sura. Ind. Pal. Ind. 20 (3), 1–19. 1933. (With A. R. RAO.) On some Jurassic plants from the Rajmahal hills. J. Asiat. Soc. Bengal (N.S.), 27 (2), 183–208. 1933. Explosive fruits in Viscum japonicum Thunb. J. Ind. Bat. Soc. 12 (2), 96–101. 1934. (With B. P. SRIVASTAVTA) Thee silicified flora of the Deccan Intertrappean Series. Pt. 3. Sausarospermum Fermori. gen. et sp. nov. Proc. 21st Ind. Sci. Cong. Bombay, p. 318. 1934. Dr S. K. Mukerji, F.L.S. (1896–1934). (Obituary.) J. Ind. Bot. Soc. 13 (3), 245–249. 1934. (With A. R. RAO.) Rajmahalia paradoxa gen. et sp. nov. and other Jurassic plants from the Rajmahal hills. Proc. Ind. Acad. Sci. 1 (6), 258–269. 1934. Dr Dukinfied Henry Scott. (Obituary). Curr. Sci. 2 (lo), 392–395. 1934. The Deccan Traps: Are they Cretaceous or Tertiary? Curr. Sci. 3 (lo), 392–395. 1935. The relations of the Indian Gondwana flora with those of Siberia and China. Proc. 2nd Cong. of Curb. Stratig. Heerlen, Holland. Compte Rendti I,517–518. 1935. Homoxylon and related woods and the origin of angiosperms. Proc. 6th Int. Bat. Cong. Amsterdam, 2, 237–238. 1935. The Glossopteris flora in India. Proc. 6th Int. Bat. Cong. Amsterdam, 2, 245–248. 1936. The Karewas of Kashmir. Curr. Sci. 5 (I), 10–16. 1936. The Himalayan uplift since the advent of Man: its culthistorical significance. Curr. Sci. 5 (I), 10–16. 1936. A clay seal and sealing of the Shunga period from the Khokra Kot mound (Rohtak). Curr. Sci. 5 (2), 80–81. 1936. A supposed Sanskrit seal from Rohtak: A correction. Curr. Sci. 5 (4), 206–215. 1936. Wegener's theory of continental drift in the light of palaeobotanical evidence. J. Ind. Bot. Soc. 15 (5), 319–322. 1936. The Gondwana affinities of the Angara flora in the light of geological evidence. Nature, 138 (3499, 720–721. 1937. Speculations on the climates of the Lower Gondwanas of India. Proc. 17th Int. Geol. Cong. Moscow, pp. 217–218. 1937. An appreciation of the late Sir J. C. Bose. Sci. & Cult. 31 (6), 346–347. 1937. 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Prabuddha Karnataka, 22 (2), 5–19 (Kanares trans. by H. S. Rao). 1941. Permanent labels for microscope slides. Curr. Sci. 10 (1 I), 485–486. 1942. 'A short history of the plant sciences' and 'The cytoplasm of the plant cell'. Reviews. Curr. Sci. 11 (9), 369–372. 1944. (With B. S. TRIVEDI.) The age of the Saline Series in the Punjab Salt Range. Nature, 153, 54. 1945. The technique of casting coins in ancient India. Mem. Numis. Sac. Ind. (I), 1–68. 1945. Obituary Note o इन्हें भी देखें रुचि राम साहनी बीरबल साहनी पुरावनस्पतिविज्ञान संस्थान पुरावनस्पति विज्ञान बाहरी कड़ियाँ लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुरावनस्पतिविज्ञान संस्थान भारत के प्रथम जुरासिक वैज्ञानिक बीरबल साहनी श्रेणी:भारतीय वैज्ञानिक श्रेणी:1891 में जन्मे लोग श्रेणी:पंजाब के लोग श्रेणी:१९४९ में निधन
टेलीविजन
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REDIRECTदूरदर्शन
ओडिशा
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ओडिशा, पूर्व में उड़ीसा (୨୦୧୧ तक आधिकारिक नाम), पूर्वी भारत में स्थित एक राज्य है। क्षेत्रफल के हिसाब से यह आठवां सबसे बड़ा राज्य है, और जनसंख्या के हिसाब से ग्यारहवां सबसे बड़ा राज्य है, जिसमें 4.1 करोड़ से अधिक निवासी रहते हैं। राज्य में भारत में अनुसूचित जनजातियों की तीसरी सबसे बड़ी आबादी भी है। इसके उत्तर में झारखंड और पश्चिम बंगाल, पश्चिम में छत्तीसगढ़ और दक्षिण में आंध्र प्रदेश राज्य हैं। हिंद महासागर में बंगाल की खाड़ी के साथ ओडिशा की तटरेखा 485 किलोमीटर (301 मील) है। इस क्षेत्र को उत्कल के नाम से भी जाना जाता है और भारत के राष्ट्रगान "जन गण मन" में इसका उल्लेख इसी नाम से किया गया है। ओडिशा की भाषा ओड़िया है, जो भारत की पारम्परिक भाषाओं में से एक है। व्युत्पत्ति ओडिशा और उड़ीसा (उड़िया: ଓଡ଼ିଶା, ओड़ीसा) शब्द प्राचीन प्राकृत शब्द "ओद्दाॅ विसाॅयाॅ" ("उद्राॅ बिभाषा" या "ओद्राॅ बिभाषा") से निकले हैं, जैसा कि राजेंद्र चोल प्रथम के तिरुमलाई शिलालेख में है, जो 1025 ई॰ का है। 15वीं शताब्दी में महाभारत का ओड़िया भाषा में अनुवाद करने वाले सरल दास इस क्षेत्र 'ओद्र राष्ट्र' को ओडिशा कहती हैं। पुरी में मंदिरों की दीवारों पर गजपति साम्राज्य (1435-67) के कपिलेंद्र देव के शिलालेख इस क्षेत्र को 'ओडिशा' या 'ओडिशा राज्य' कहते हैं। इतिहास राज्य के नाम की उत्पत्ति ओड़िशा नाम की उत्पत्ति संस्कृत के ओड्र विषय या ओड्र देश से हुई है। ओडवंश के राजा ओड्र ने इसे बसाया पाली और संस्कृत दोनों भाषाओं के साहित्य में ओड्र लोगों का उल्लेख क्रमशः ओद्दाक और ओड्र: के रूप में किया गया है। प्लिनी और टोलेमी जैसे यूनानी लेखकों ने ओड्र लोगों का वर्णन ओरेटस (Oretes) कह कर किया है। महाभारत में ओड्रओं का उल्लेख पौन्द्र, उत्कल, मेकल, कलिंग और आंध्र के साथ हुआ है जबकि मनु के अनुसार ओड्र लोग पौन्द्रक, यवन, शक, परद, पल्ल्व, चिन, कीरत और खरस से संबंधित हैं। प्लिनी के प्राकृतिक इतिहास में ओरेटस लोग उस भूमि पर वास करते हैं जहां मलेउस पर्वत (Maleus) खड़ा है। यहां यूनानी शब्द ओरेटस संभवत: संस्कृत के ओड्र का यूनानी संस्करण है जबकि, मलेउस पर्वत पाललहडा के समीप स्थित मलयगिरि है। प्लिनी ने मलेउस पर्वत के साथ मोन्देस और शरीस लोगों को भी जोड़ा है जो संभवत: ओड़िशा के पहाड़ी क्षेत्रों में वास करने वाले मुंडा और सवर लोग हैं। राजवंश ओड़िशा पर तीसरी सदी ईसा पूर्व से राज करने वाले कुछ वंश इस प्रकार हैं:- ओडवंश, महामेघवाहन वंश, माठर वंश, नल वंश, विग्रह एवं मुदगल वंश, शैलोदभव वंश, भौमकर वंश, नंदोदभव वंश, सोम वंश केशरि, गंग वंश गजपति, सूर्य वंश गजपति। ओड़िशा के अन्य नाम कळिंग उत्कळ उत्कलरात ओड्र- ओद्र ओड्रदेश ओड ओडराष्ट्र त्रिकलिंग दक्शिण कोशल कंगोद तोषाळी छेदि (महाभारत) मत्स (महाभारत) रामायण में राम की माता कौशल्या, कोशल के राजा की पुत्री हैं। महाभारत में पाण्डवों ने एक वर्ष का अज्ञातवास राजा विराट के यहाँ रहकर बिताया था जो 'मत्स्य' देश के राजा थे। भूगोल भारत के पूर्वी तट पर बसे ओड़िशा राज्य कि राजधानी भुवनेश्वर है। यह शहर अपने उत्कृष्ट मन्दिरों के लिये विख्यात है। यहाँ की जनसंख्या लगभग ४२ मिलियन है जिसका ४० प्रतिशत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का है। ओड़िशा का विकास दर अन्य राज्यों की तुलना में बिल्कुल खराब हालत में है। १९९० में ओड़िशा का विकास दर ४.३% था जबकि औसत विकास दर ६.७% है। मगर पिछले दो दसंधियों में ओडिशा ने विभिन्न प्राकृतिक विपदाओं के वाबजूद अनेकांश में प्रगति की हे । स्वास्थ्य,शिल्प और प्राकृतिक विपदाओं से जूझने मे अनेकांश में प्रगति की हे । पूर्वी भारत में ओडिशा का विकास, सच्ची में तारीफ के काबिल हे । ओड़िशा के कषि क्षेत्र का विकास में योगदान ३२ फीसदी है। ओडिशा का विकास बहुत तेजी से हो रहा है पूर्वी भारत में सबसे तेजी से विकास करता हुआ राज्‍य है यह छग झारखंड बिहार पं बंगाल से आगे है ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर है जो की ओड़िशा के पूर्व राजधानी कटक से सिर्फ २९ किमी दूर है। भुवनेश्‍वर भारत के अत्‍याधुनिक शहरों में से है जिसकी वर्तमान में जनसंख्‍या करीब 9 लाख है, भुवनेश्‍वर और कटक दोनों शहरों को मिलाकर ओड़िशा का युग्म शहर भी कहा जाता है। इन दोनों शहरों को मिलाकर कुल 14 लाख आबादी है जो एक महानगर जैसे शहर का निर्माण करती है इसलिए इन दोनों शहरो का विकास तेजी से हो रहा है इन दोनेां शहरो में सन 2020 तक मेट्रो रेल चलाये जाने की योजना है हिंदुओं के चार धामों में से एक पुरी ६० किमी के दूरता पर बंगाल की खाडी के किनारे अवस्थित है। यह शहर हिंदु देवता श्री जगन्नाथ, उनके मंदिर एवं वार्षिक रथयात्रा के लिए सुप्रसिद्ध है। ओड़िशा का उत्तरी व पश्चिमी अंश छोटानागपुर पठार के अंतर्गत आता है। तटवर्ती इलाका जो की बंगाल की खाडी से सटा है महानदी, ब्राह्मणी, बैतरणी आदि प्रमुख नदीयों से सिंचता है। यह इलाका अत्यंत उपजाऊ है और यहां पर सघन रूप से चावल की खेती की जाती है। ओड़िशा का तकरीबन ३२% भूभाग जंगलों से ढंका है पर जनसंख्या विस्फोर्ण के बाद जंगल तेजी से सिकुड रहे हैं। ओड़िशा में वन्यजीव संरक्षण के लिए क‍ई अभयारण्य हैं। इनमें से सिमिलिपाल जातीय उद्यान प्रमुख है। क‍ई एकड जमीन पर फैला हुआ यह उद्यान हालांकि व्याघ्र प्रकल्प के अंतर्गत आता है पर यहां पर हाथी व अन्यान्य वन्यजीवों का निवास भी है। ओड़िशा के ह्रदों में चिलिका और अंशुपा प्रधान हैं। महानदी के दक्षिण में तटवर्ती इलाके में अवस्थित चिलिका पुरे एसिया महादेश का सबसे बडा ह्रद है। ओड़िशा का सबसे बडा मधुर जल ह्रद अंशुपा कटक के समीपवर्ती आठगढ में अवस्थित है। ओड़िशा सर्वोच्च पर्वत शिखर देवमाली (देओमाली) है जिसकि ऊंचाई १६७२ मी. है। दक्षिण ओड़िशा के कोरापुट जिला में अवस्थित यह शिखर पूर्वघाट का भी उच्चतम शिखर है। thumb|चिल्का झील, ओडिशा की हवाई उपग्रह छवि अर्थव्यवस्था कृषि ओड़िशा की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ओड़िशा की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में लगी है, हालांकि यहाँ की अधिकांश भूमि अनुपजाऊ या एक से अधिक वार्षिक फ़सल के लिए अनुपयुक्त है। ओड़िशा में लगभग 40 लाख खेत हैं, जिनका औसत आकार 1.5 हेक्टेयर है, लेकिन प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र 0.2 हेक्टेयर से भी कम है। राज्य के कुल क्षेत्रफल के लगभग 45 प्रतिशत भाग में खेत है। इसके 80 प्रतिशत भाग में चावल उगाया जाता है। अन्य महत्त्वपूर्ण फ़सलें तिलहन, दलहन, जूट, गन्ना और नारियल है। और मानसूनी वर्षा के समय व मात्रा में विविधता होने के कारण यहाँ उपज कम होती है चूंकि बहुत से ग्रामीण लगातार साल भर रोज़गार नहीं प्राप्त कर पाते, इसलिए कृषि- कार्य में लगे बहुत से परिवार गैर कृषि कार्यों में भी संलग्न है। जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही है। भू- अधिगृहण पर सीमा लगाने के प्रयास अधिकांशत: सफल नहीं रहे। हालांकि राज्य द्वारा अधिगृहीत कुछ भूमि स्वैच्छिक तौर पर भूतपूर्व काश्तकारों को दे दी गई है। चावल ओडिशा की मुख्य फ़सल है। 2004 - 2005 में 65.37 लाख मी. टन चावल का उत्पादन हुआ। गन्ने की खेती भी किसान करते हैं। उच्च फ़सल उत्पादन प्रौद्योगिकी, समन्वित पोषक प्रबंधन और कीट प्रबंधन को अपनाकर कृषि का विस्तार किया जा रहा है। अलग-अलग फलों की 12.5 लाख और काजू की 10 लाख तथा सब्जियों की 2.5 लाख कलमें किसानों में वितरित की गई हैं। राज्य में प्याज की फ़सल को बढावा देने के लिए अच्छी किस्म की प्याज के 300 क्विंटल बीज बांटे गए हैं जिनसे 7,500 एकड ज़मीन प्याज उगायी जाएगी। राष्ट्रीय बागवानी मिशन के अंतर्गत गुलाब, गुलदाऊदी और गेंदे के फूलों की 2,625 प्रदर्शनियाँ की गईं। किसानों को धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाने के लिए ओडिशा राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लि. (पी ए सी), मार्कफेड, नाफेड आदि एजेंसियों के द्वारा 20 लाख मी. टन चावल ख़रीदने का लक्ष्य बनाया है। सूखे की आशंका से ग्रस्त क्षेत्रों में लघु जलाशय लिए 13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में 2,413 लघु जलाशय विकसित करने का लक्ष्य है। सिंचाई और बिजली बडी, मंझोली और छोटी परियोजनाओं और जल दोहन परियोजनाओं से सिचांई क्षमता को बढाने का प्रयास किया गया है- वर्ष 2004 - 2005 तक 2,696 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की व्यवस्था पूर्ण की जा चुकी है। 2005-06 के सत्र में 12,685 हेक्टेयर सिंचाई की छह सिंचाई परियोजनाओं को चिह्नित किया गया है जिसमें से चार योजनाएं लक्ष्य प्राप्त कर चुकी हैं। 2005 - 2006 में ओडिशा लिफ्ट सिंचाई निगम ने 'बीजू कृषक विकास योजना' के अंतर्गत 500 लिफ्ट सिंचाई पाइंट बनाये हैं और 1,200 हेक्टेयर की सिंचाई क्षमता प्राप्त की है। 2004 - 2005 में राज्य में बिजली की कुल उत्पादन क्षमता 4,845.34 मेगावाट थी तथा कुल स्रोतों से प्राप्त बिजली क्षमता 1,995.82 मेगावाट थी। मार्च 2005 तक राज्य के कुल 46,989 गांवों में से 37,744 गांवों में बिजली पहुँचा दी गई है। उद्योग उद्योग प्रोत्साहन एवं निवेश निगम लि., औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड और ओडिशा राज्य इलेक्ट्रॉनिक्स विकास निगम ये तीन प्रमुख एजेंसियां राज्य के उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। इस्पात, एल्यूमीनियम, तेलशोधन, उर्वरक आदि विशाल उद्योग लग रहे हैं। राज्य सरकार लघु, ग्रामीण और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए छूट देकर वित्तीय मदद दे रही है। 2004 - 2005 वर्ष में 83,075 लघु उद्योग इकाई स्थापित की गयी। औद्योगिक विकास करने के लिए रोजगार के अवसर और आर्थिक विकास दर को बढाने के लिए ओडिशा उद्योग (सुविधा) अधिनियम, 2004 को लागू किया है जिससे निवेश प्रस्तावों के कम समय में निबटारा और निरीक्षण कार्य हो सके। निवेश को सही दिशा में प्रयोग करने के लिए ढांचागत सुविधा में सुधार को प्राथमिकता दी गई है। सूचना प्रौद्योगिकी में ढांचागत विकास करने के लिए भुवनेश्वर में एक निर्यात संवर्द्धन औद्योगिक पार्क स्थापित किया गया है। राज्य में लघु और मध्यम उद्योगों को बढाने के लिए 2005 - 2006 में 2,255 लघु उद्योग स्थापित किए गये, इन योजनाओं में 123.23 करोड़ रुपये का निवेश किया गया और लगभग 10,308 व्यक्तियों को काम मिला। श्रमिकों और उनके परिवार के सदस्यों को सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सुविधाएं दी गई हैं। उद्योगों में लगे बाल मजदूरों को मुक्त किया गया और औपचारिक शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय बाल श्रमिक परियोजना के अंतर्गत प्रवेश दिया गया। राज्य भर में 18 ज़िलों में 18 बालश्रमिक परियोजनाएं क्रियान्वित हैं। लगभग 33,843 बाल श्रमिकों को राष्ट्रीय बाल श्रमिक परियोजना द्वारा संचालित स्कूलों में प्रवेश दिलाया गया है और 64,885 बाल श्रमिकों को स्कूली शिक्षा के माध्यम से मुख्यधारा में जोडने का प्रयास किया गया। श्रमिकों को दिया जाने वाला न्यूनतम वेतन बढाया गया। ओडिशा के औद्योगिक संसाधन उल्लेखनीय हैं। क्रोमाइट, मैंगनीज़ अयस्क और डोलोमाइट के उत्पादन में ओडिशा भारत के सभी राज्यों से आगे है। यह उच्च गुणवत्ता के लौह- अयस्क के उत्पादन में भी अग्रणी है। ढेंकानाल के भीतरी ज़िले में स्थित महत्त्वपूर्ण तालचर की खानों से प्राप्त कोयला राज्य के प्रगलन व उर्वरक उत्पादन के लिए ऊर्जा उपलब्ध कराता है। स्टील, अलौह प्रगलन और उर्वरक उद्योग राज्य के भीतर भागों में केंद्रित हैं, जबकि अधिकांश ढलाईघर, रेल कार्यशालाएँ, काँच निर्माण और काग़ज़ की मिलें कटक के आसपास महानदी के डेल्टा के निकट स्थित है। जिसका उपयोग उपमहाद्वीप की सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी बहुउद्देशीय परियोजना, हीराकुड बाँध व माछकुड जलविद्युत परियोजना द्वारा किया जा रहा है। ये दोनों बहुत सी अन्य छोटी इकाइयों के साथ समूचे निचले बेसिन को बाढ़ नियंत्रण, सिंचाई और बिजली उपलब्ध कराते है। खनिज बड़े उद्योग मुख्यत: खनिज आधारित हैं, जिनमें राउरकेला स्थित इस्पात व उर्वरक संयंत्र, जोडो व रायगड़ा में लौह मैंगनीज़ संयत्र, राज गांगपुर व बेलपहाड़ में अपवर्तक उत्पादन कर रहे कारख़ाने, चौद्वार (नया नाम टांगी चौद्वार) में रेफ्रिजरेटर निर्माण संयंत्र और राजगांगपुर में एक सीमेंट कारख़ाना शामिल हैं। रायगड़ा व चौद्वार में चीनी व काग़ज़ की तथा ब्रजराजनगर में काग़ज़ की बड़ी मिलें हैं; अन्य उद्योगों में वस्त्र, कांच ऐलुमिनियम धातुपिंड व केबल और भारी मशीन उपकरण शामिल हैं। सूचना प्रौद्योगिकी सूचना प्रौद्योगिक में राज्य में संतोष जनक प्रगति हो रही है। भुवनेश्वर की इन्फोसिटी में विकास केंद्र खोलने का प्रयास चल रहा है। ओडिशा सरकार और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ गवर्नेंस तथा नेशनल इन्फार्मेटिक्स सेंटर ने संयुक्त रूप एक पारदर्शी और कुशल प्रणाली शुरू की है। राज्य मुख्यालय को ज़िला मुख्यालयों, सब डिवीजन मुख्यालयों, ब्लाक मुख्यालयों से जोडने के लिए ई-गवर्नेंस पर आधारित क्षेत्र नेटवर्क से जोडा जा रहा है। उड़िया भाषा को कंप्यूटर में लाने के लिए ‘भारतीय भाषाओं के लिए प्रौद्योगिकी विकास’ कार्यक्रम के अंतर्गत उडिया भाषा का पैकेज तैयार किया जा रहा है। मत्स्य पालन और पशु संसाधन विकास राज्य की कृषि नीति में आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकी का प्रयोग करते हुए, दूध, मछली और मांस उत्पादन के विकास को विशेष रूप से विकसित करने का प्रयास करके कुल दुग्ध उत्पादन 36 लाख लीटर प्रतिदिन अर्थात 3 लाख लीटर से अधिक तक पहुँचा दिया गया है। डेयरी उत्पादन के विकास के लिए ओडिशा दुग्ध फेडरेशनमें राज्य के सभी 30 ज़िलों को सम्मिलित गया है। फेडरेशन ने दुग्ध संरक्षण को बढ़ाकर 2.70 लाख लीटर प्रतिदिन तक कर दिया है। ‘स्टैप’ कार्यक्रम के तहत फेडरेशन द्वारा 17 ज़िलों में ‘महिला डेयरी परियोजना’ चल रही है। राज्य में 837 महिला डेयरी सहकारी समितियां हैं, जिनमें 60,287 महिलाएं कार्यरत हैं। संस्कृति ओड़िशा की समृद्ध कलात्मक विरासत है और इसने भारतीय कला एवं वास्तुशिल्प के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों का सृजन किया है। भित्तिचित्रों पत्थर व लकड़ी पर नक़्क़ाशी देव चित्र (पट्ट चित्रकला के नाम से विख्यात) और ताड़पत्रों पर चित्रकारी के माध्यम से कलात्मक परंपराएं आज भी कायम हैं। हस्तशिल्प कलाकार चांदी में बेहद महीन जाली की कटाई की अलंकृत शिल्प कला के लिए विख्यात हैं। नृत्य जनजातीय इलाकों में कई प्रकार के लोकनृत्य है। मादल व बांसुरी का संगीत गांवो में आम है। ओडिशा का शास्त्रीय नृत्य ओड़िशी 700 वर्षों से भी अधिक समय से अस्तित्व में है। मूलत: यह ईश्वर के लिए किया जाने वाला मंदिर नृत्य था। नृत्य के प्रकार, गति, मुद्राएं और भाव-भंगिमाएं बड़े मंदिरों की दीवारों पर, विशेषकर कोणार्क में शिल्प व उभरी हुई नक़्क़ासी के रूप में अंकित हैं, इस नृत्य के आधुनिक प्रवर्तकों ने इसे राज्य के बाहर भी लोकप्रिय बनाया है। मयूरभंज और सरायकेला प्रदेशों का छऊ नृत्य (मुखौटे पहने कलाकारों द्वारा किया जाने वाला नृत्य) ओडिशा की संस्कृति की एक अन्य धरोहर है। 1952 में कटक में कला विकास केंद्र की स्थापना की गई, जिसमें नृत्य व संगीत के प्रोत्साहन के लिए एक छह वर्षीय अवधि का शिक्षण पाठयक्रम है। नेशनल म्यूजिक एसोसिएशन (राष्ट्रीय संगीत समिति) भी इस उद्देश्य के लिए है। कटक में अन्य प्रसिद्ध नृत्य व संगीत केन्द्र है: उत्कल संगीत समाज, उत्कल स्मृति कला मंडप और मुक्ति कला मंदिर। त्योहार ओड़िशा के अनेक अपने पारंपरिक त्योहार हैं। इसका एक अनोखा त्योहार अक्टूबर या नवंबर (तिथि हिंदू पंचांग के अनुसार तय की जाती है) में मनाया जाने वाला बोइता बंदना (नौकाओं की पूजा) अनुष्ठा है। पूर्णिमा से पहले लगातार पांच दिनों तक लोग नदी किनारों या समुद्र तटों पर एकत्र होते हैं और छोटे-छोटे नौका रूप तैराते हैं। जो इसका प्रतीक है कि वे भी अपने पूर्वजों की तरह सुदूर स्थानों (मलेशिया, इंडोनेशिया) की यात्रा पर निकलेंगे। पुरी में जगन्नाथ (ब्रह्मांड का स्वामी) मंदिर है, जो भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। यहाँ होने वाली वार्षिक रथयात्रा लाखों लोगों को आकृष्ट करती है। यहाँ से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर भगवान सूर्य के रथ के आकार में बना कोणार्क मंदिर है। यह मंदिर मध्यकालीन उड़िया संस्कृति के उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक है। शिक्षा 1947 के बाद शैक्षणिक संस्थानों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। यहाँ पाँच विश्वविद्यालय (और कई संबद्ध महाविद्यालय) हैं, जिनमें उत्कल विश्वविद्यालय और उड़ीसा कृषि एवं प्रोद्योगिकी विश्वविद्यालय सबसे बड़े व विख्यात हैं। विश्वविद्यालय उत्कल विश्वविद्यालय, वाणी विहार, भुवनेश्वर रेवेनशॉ विश्वविद्यालय, कटक फ़कीर मोहन विश्वविद्यालय, व्यास विहार, बालेश्वर ब्रह्मपुर विश्वविद्यालय, भंज विहार, ब्रह्मपुर ओड़िशा युनिवर्सिटी आफ़ एग्रीकल्चर ऐंड टेक्नालजी, भुवनेश्वर संबलपुर विश्वविद्यालय, ज्योति विहार, संबलपुर श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, पुरी बिजू पटनायक युनिवर्सिटी आफ़ टेक्नालजी, राउरकेला --> प्रबंधन संस्थान ज़ेवियर इंस्टीट्यूट आफ़ मैनेजमेंट, भुवनेश्वर - https://web.archive.org/web/20170217125351/http://www.ximb.ac.in/ अभियांत्रिकी महाविद्यालय नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालजी (https://web.archive.org/web/20041230093626/http://www.nitrkl.ac.in/) राउरकेला कालेज ऑफ इंजिनयरिंग ऐंड टेक्नालजी (https://web.archive.org/web/20190830233609/http://cetindia.org/) भुवनेश्वर युनिवर्सिटी कालेज आफ़ इंजिनयरिंग (https://web.archive.org/web/20040723093457/http://www.uceburla.org/) बुर्ला नेशनल इंस्टीट्यूट आफ़ साइंस ऐंड टेक्नालजी (https://web.archive.org/web/20190423101026/http://www.nist.edu/) ब्रह्मपुर आई.जी.आई.टी., सारंग (उत्कल विश्वविद्यालय के अधीन) [https://web.archive.org/web/20181216074204/https://cvraman.org/ सी.वी. रामण इंजिनयरिंग कालेज, भुवनेश्वर, (उत्कल विश्वविद्यालय के अधीन) पुरुषोत्तम इंस्टीट्यूट ऑफ इंजिनयरिंग ऐंड टेक्नालजी, राउरकेला (https://web.archive.org/web/20170815082112/http://www.piet.ac.in/) पद्मनावा कालेज ऑफ इंजिनयरिंग (https://web.archive.org/web/20190329163021/http://pcerkl.ac.in/) चिकित्सा महाविद्यालय श्री रामचन्द्र भंज मेडिकाल कॉलेज, कटक महाराजा कृष्णचन्द्र गजपति देव मेडिकाल कॉलेज, ब्रह्मपुर वीर सुरेन्द्र साए मेडिकाल कॉलेज, बुर्ला, सम्बलपुर आयुर्वेदिक महाविद्यालय अनन्त त्रिपाठी आयुर्वेदिक कॉलेज, बलांगिर ब्रह्मपुर सरकारी आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, ब्रह्मपुर सरकारी आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, पुरी गोपालबन्धु आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, पुरी सरकारी आयुर्वेद महाबिद्यालय, बलांगिर के.ए.टि.ए. आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, गंजाम नृसिंहनाथ सरकारी आयुर्वेदिक महाबिद्यालय, पाइकमाल, सम्बलपुर एस्.एस्.एन्. आयुर्वेद महाबिद्यालय एवं गवेषणा प्रतिष्ठान, नृसिंहनाथ इन संस्थानों की उपस्थिति के बावजूद उड़ीसा की जनसंख्या का एक छोटा सा भाग ही विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षित है और राज्य की साक्षरता दर (63.61 प्रतिशत) राष्ट्रीय औसत (65.38 प्रतिशत) से कम है। परिवहन 1947 से पहले ओडिशा में संचार सुविधाएं अविकसित थीं, लेकिन इसमें से रजवाड़ों के विलय और खनिज संसाधनों की खोज से अच्छी सड़कों के संजाल की आवश्यकता महसूस की गई। अधिकांश प्रमुख नदियों पर पुल निर्माण जैसे बड़े विनिर्माण कार्यक्रम ओडिशा सरकार द्वारा शुरू किए गए। महानदी के मुहाने पर पारादीप में सभी मौसमों के लिए उपयुक्त, गहरे बंदरगाह का निर्माण किया गया है। यह बंदरगाह राज्य के निर्यात, विशेषकर कोयले के निर्यात का केंद्र बन गया है। राज्य में विकास दर बढाने के लिए परिवहन की अनेक योजनाओं को क्रियान्वित किया जा रहा है- सडकें 2004 - 05 तक राज्य में सडकों की कुल लंबाई 2,37,332 कि॰मी॰ थी। इसमें राष्ट्रीय राजमार्गों की कुल लंबाई 3,595 कि॰मी॰, एक्सप्रेस राजमार्गों की कुल लंबाई 29 किलोमीटर, राजकीय राजमार्गों की कुल लंबाई 5,102 कि॰मी॰ ज़िला मुख्य सड़कों की कुल लंबाई 3,189 कि॰मी॰, अन्य ज़िला सड़कों की कुल लंबाई 6,334 कि॰मी॰ और ग्रामीण सड़कों की कुल लंबाई 27,882 कि॰मी॰ है। पंचायत समिति सड़कों की कुल लंबाई 1,39,942 कि॰मी॰ और 88 कि॰मी॰ ग्रिडको सड़कें हैं। रेलवे 31 मार्च 2004 तक राज्य में 2,287 किलोमीटर लंबी बडी रेल लाइनें और 91 किलोमीटर छोटी लाइनें थी। उड्डयन भुवनेश्वर में हवाई अड्डे का आधुनिकीकरण का कार्य हो चुका है अभी यह अंतर्राष्‍टत्र्ीय हवाई अडडा है यहाँ से दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, नागपुर हैदराबाद सहित विदेशों के लिए सीधी उड़ानें हैं। इस समय राज्य भर में 13 हवाई पट्टियां और 16 हेलीपैड की व्यवस्था है। बंदरगाह पारादीप राज्य का एक मात्र मुख्य बंदरगाह है। गोपालपुर को पूरे साल काम करने वाले बंदरगाह के रूप में विकसित करने का कार्य प्रगति पर है। पर्यटन राज्य के आर्थिक विकास में पर्यटन के महत्त्व को समझते हुए मीडिया प्रबंधन एजेंसियों और पर्व प्रबंधकों को प्रचार एवं प्रसार का कार्य दिया गया है। ओडिशा को विभिन्न महत्त्वपूर्ण पर्यटन परिजनाओं - धौली में शांति पार्क, ललितगिरि, उदयगिरि तथा लांगुडी के बौद्ध स्थलों को ढांचागत विकास और पिपिली में पर्यटन विकास का काम किया जाएगा। (पुरी) भुवनेश्वर का एकाग्र उत्सव, कोणार्क का कोणार्क पर्व के मेलों और त्योहारों के विकास के लिए प्रयास किया जा रहा है। ओडिशा पर्यटन विभाग ने बैंकाक, मास्को, लंदन, कुआलालंपुर, कोच्चि, कोलकाता, रायपुर आदि के भ्रमण व्यापार के आयोजनों में भाग लिया। पर्यटन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहन देने के लिए 373 मार्गदर्शकों (गाइडों) को प्रशिक्षण दिया गया। ओड़िशा के संबलपुर के पास स्थित हीराकुंड बांध विश्व का सबसे लंबा मिट्टी का बांध है। ओड़िशा में कई लोकप्रिय पर्यटक स्थल स्थित हैं जिनमें, पुरी, कोणार्क और भुवनेश्वर सबसे प्रमुख हैं और जिन्हें पूर्वी भारत का सुनहरा त्रिकोण पुकारा जाता है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर जिसकी रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है और कोणार्क के सूर्य मंदिर को देखने प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक आते हैं। ब्रह्मपुर के पास जौगदा में स्थित अशोक का प्रसिद्ध शिलालेख और कटक का बारबाटी किला भारत के पुरातात्विक इतिहास में महत्वपूर्ण हैं। पर्यटन स्थल जगन्नाथ मन्दिर, पुरी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का यह मंदिर पुरी में स्थित है और यह हिन्दू धर्म के चार धाम में एक माना जाता है। हर वर्ष होने वाली रथ यात्रा में दूर दूर से श्रृद्धालू भाग लेते हैं। भारत के प्रमुख तीर्थ धाम में जगन्नाथ धाम पूर्व दिशा में विराजमान है। इस धाम को पुरुषोत्तम धाम भी कहा जाता है। यहां अवतारी विष्णु हमेशा अवस्थान करते हैं, जो स्कन्द पुराण में उल्लेख है। पुराण शास्त्र के अनुसार यह स्थान भगवान विष्णु का भोगभूमि अथवा श्वेतद्वीप है। इस क्षेत्र को शंख क्षेत्र नाम से जाना जाता है, यह शंख जैसा आकार का क्षेत्र है। यह मात्र भारत ही नहीं विश्व में प्रसिद्ध सर्वोत्तम क्षेत्र है। thumb|जगन्नाथ मन्दिर, पुरी सूर्य मंदिर, कोणार्क thumb|कोणार्क मंदिर राज्य की राजधानी भुवनेश्वर लिंगराज मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है। सुंदर पुरी तट राज्य के अन्य प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र हैं कोणार्क, नंदनकानन, चिल्का झील, धौली बौद्ध मंदिर, उदयगिरि-खंडगिरि की प्राचीन गुफाएं, रत्नगिरि, ललितगिरि और उदयगिरि के बौद्ध भित्तिचित्र और गुफाएं, सप्तसज्या का मनोरम पहाडी दृश्य, सिमिलिपाल राष्ट्रीय उद्यान तथा बाघ परियोजना, हीराकुंड बांध, दुदुमा जलप्रपात, उषाकोठी वन्य जीव अभयारण्य, गोपानपुर समुद्री तट, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, तारातारिणी, तप्तापानी, भितरकणिका, भीमकुंड कपिलाश आदि स्थान प्रसिद्ध हैं। ====श्री लिंगराज मन्दिर==== श्री लिंगराज मंदिर प्राचीन कला स्थापत्य से परिपूर्ण यह मंदिर भुवनेश्वर में अवस्थित है। यहां पर्यटकों की वर्ष भर भीड़ लगी रहती है। यहाँ इस पीठ के प्रलयंकारी श्री शिव अधिष्ठाता हैं। इस मंदिर के तीन दरवाजा उत्तर ,दक्षिण ,और पूर्व में है। पूर्व की तरफ ३४ फिट की ऊंचाई के दरवाजे के दोनों तरफ सिंह के मूर्ती स्थापित हैं इस द्वार को प्रवेश द्वार खा जाता है। मंदिर चार भागों में विभक्त है प्रथम-देउल(मुख्य मंदिर )द्वितीय -जगमोहन (भक्तोंका बैठकखाना ) तृतीय-नाट मंदिर (नृत्य मंडप )चतुर्थ-भोगमण्डप ( यहां भोग चढ़ाया जाता है ) मंदिर की ऊचाई १५९ फिट चौड़ाई४६५ फिट लम्बाई ५२० फिट में और क्षेत्रफल में ४.५ एकड़ जमीन पर यह मंदिर अवस्थित है। इस मंदिर में शिव वाहन बृषभ औरविष्णु वाहन गरुण को स्थापित किया गया है जो शैवाजीव और बैष्णवजीव का निर्देशन स्वरूप है। यहां महा प्रसाद पाया जाता है। कोणार्क का सूर्य मंदिर भारत के तीर्थ स्थलों में एक क्षेत्र अर्क क्षेत्र हैं कोणार्क। यह प्रमुख दर्शनीय स्थल में से एक स्थल है। इस क्षेत्र को पद्मक्षेत्र, मैत्रेयवन के नाम से जाना जाता हैं। मैत्रेय ऋषि के तपोवल से यह स्थान पवित्र हो गया अतएव इसका नाम मैत्रेयवन नाम से प्रसिद्ध हुआ। सूर्यदेव यहां का अधिष्ठाता देवता हैं। सूर्यदेव यहां अर्कासुर नामक राक्षस का वध किया था जिस कारण इस क्षेत्र का नाम अर्क क्षेत्र हो गया। मैत्रेय वन में सूर्य पूजा करने से अनेक बीमारियां दूर हो जाती हैं और पापक्षय हो जाता हैं। ऐसा कपिल संहिता में मिलता हैं। पद्म क्षेत्र चन्द्रभागा के किनारे शाम्ब को जो पिता के शाप से शापित होकर कुष्टरोग से ग्रसित हो गया था उसे नारद जी की आज्ञा पालन करने के कारण रोग से छुटकारा मिला। पुराण में वर्णित हैं। यहां शुकमुनि तपोवल से योगचारी पुरुष हुए। सूर्य विग्रह कतिपय कारणों से हटाकर पुरी श्री मंदिर में स्थापित किया गया हैं जहां प्रतिष्ठा उपरान्त अब पूजा अर्चना होती हैं। जनसांख्यिकी thumb|कोरापुट, ओडिशा के आदिवासी लोगभारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, ओडिशा की कुल जनसंख्या 41,974,218 है, जिसमें 21,212,136 (50.54%) पुरुष और 20,762,082 (49.46%) महिलाएँ हैं, या प्रति 1000 पुरुषों पर 978 महिलाएँ हैं। यह 2001 की जनसंख्या की तुलना में 13.97% की वृद्धि दर्शाता है। जनसंख्या घनत्व 270 प्रति किमी2 है। धर्म २००१ की जनगणना के अनुसार ओडिशा में हिन्दू ९४.३५%, ईसाई २.४४%, मुसलमान २.०७% और अन्य धर्म (मुख्यतः बौद्ध) १.१४% है। जिले अनुगुल जिला कटक जिला कन्धमाल जिला कलाहान्डी जिला केन्दुझर जिला केन्द्रापड़ा जिला कोरापुट जिला खोर्धा जिला गंजाम जिला गजपति जिला जगतसिंहपुर जिला जाजपुर जिला झारसुगुड़ा जिला देवगड़ जिला ढेन्कानाल जिला पुरी जिला मालकानगिरि जिला मयूरभंज जिला नबरंगपुर जिला नयागड़ जिला नुआपड़ा जिला बरगढ़ जिला बालेश्वर जिला बलांगिर जिला बौध जिला भद्रक जिला रायगड़ा जिला सम्बलपुर जिला सुन्दरगड़ जिला सोनपुर जिला राजनीति ओड़िशा का शासन भार संप्रति बीजु जनता दल के हाथ में है। दल के सभापति तथा राज्य के मुख्यमत्री का स्थान स्वर्गत बीजु पटनायक के सुपुत्र श्री नवीन पटनायक हैं। मंत्रीमंडल मुख्यमंत्री: श्री नवीन पटनायक (गृह, जलसंपद, जंगल एबं परिवेश) अर्थमंत्री: श्री प्रफुल्ल चन्द्र घडेइ कृषिमंत्री: डः दामोदर राउत योजना एवं समन्वय मंत्री: श्री अनंग उदय सिंह देव राजस्व एबं विपर्यय परिचालना मंत्री: श्री सूर्य नारायण पात्र शिल्प, खनि एबं इस्पात मंत्री: श्री रघुनाथ महान्ति महिला एबं शिशु विकाश मंत्री: श्रीमती प्रमिला मल्लिक उच्चशिक्षा, पर्यटन एबं संस्कृति मंत्री: श्री देवी प्रसाद मिश्र स्वास्थ्य एबं परिवार कल्याण मंत्री: श्री प्रसन्न आचार्य पंचायतिराज, सूचना एबं लोकसंपर्क मंत्री: श्री प्रफुल्ल सामल आदिवासी उन्नयन मंत्री: श्री विजय रंजन सिं बरिहा ग्राम्य उन्नयन, आइन मंत्री: श्री विक्रम केशरी आरुख वाणिज्य एबं परिवहन मंत्री: श्री संजीब कुमार साहु गृह नियनिर्माण एबं नगर उन्नयन मंत्री: श्री बद्रि नारायण पात्र खाद्य योगाण एबं खाउटि कल्याण मंत्री: श्री सारदा प्रसाद नायक श्रम एबं नियोजन मंत्री: श्री पुष्पेन्द्र सिंह देव सूचना प्रयुक्ति, विग्यान एवं प्रयुक्ति मंत्री: श्री रमेश माझि बिद्यालय एबं गणशिक्षा मंत्री: श्री प्रताप जेना वस्त्र एवं हस्ततन्त मंत्री: श्रीमती अंजलि बेहेरा शक्ति मंत्री: श्री अतनु सव्यसाची नायक क्रीडा एबं युवव्यापार मंत्री: श्री प्रवीण चन्द्र भंज देव राज्य मंत्री राजस्व एबं विपर्यय परिचालना मंत्री: श्री प्रवीण चन्द्र भंज देव सन्दर्भ इन्हें भी देखें ओड़िशा का इतिहास ओड़िशा के लोकसभा सदस्य ओड़िशा के जिले बाहरी कड़ियाँ ओडिशा सरकार श्रेणी:भारत के राज्य श्रेणी:ओड़िशा
इराक़
https://hi.wikipedia.org/wiki/इराक़
इराक़ मध्य-पूर्व एशिया में स्थित एक जनतांत्रिक देश है जहाँ के लोग मुख्यतः मुस्लिम हैं। इसके दक्षिण में सउदी अरब और कुवैत, पश्चिम में जोर्डन और सीरिया, उत्तर में तुर्की और पूर्व में ईरान (कुर्दिस्तान प्रांत (ईरान)) अवस्थित है। दक्षिण पश्चिम की दिशा में यह फ़ारस की खाड़ी से भी जुड़ा है। दजला नदी और फरात इसकी दो प्रमुख नदियाँ हैं जो इसके इतिहास को ५००० वर्ष पीछे ले जाती हैं। इसके दोआबे में ही मेसोपोटामिया की सभ्यता का उदय हुआ था। इराक़ के इतिहास में असीरिया के पतन के बाद विदेशी शक्तियों का प्रभुत्व रहा है। ईसापूर्व छठी सदी के बाद से फ़ारसी शासन में रहने के बाद (सातवीं सदी तक) इसपर अरबों का प्रभुत्व बना। अरब शासन के समय यहाँ इस्लाम धर्म आया और बगदाद अब्बासी खिलाफत की राजधानी रहा। तेरहवीं सदी में मंगोल आक्रमण से बगदाद का पतन हो गया और उसके बाद की अराजकता के वर्षों बाद तुर्कों (उस्मानी साम्राज्य) का प्रभुत्व यहाँ पर बन गया २००३ से दिसम्बर २०११ तक अमेरिका के नेतृत्व में नैटो की सेना की यहाँ उपस्थिति बनी हुई थी जिसके बाद से यहाँ एक जनतांत्रिक सरकार का शासन है। राजधानी बगदाद के अलावा करबला, बसरा, किर्कुक तथा नजफ़ अन्य प्रमुख शहर हैं। यहाँ की मुख्य बोलचाल की भाषा अरबी और कुर्दी भाषा है और दोनों को सांवैधानिक दर्जा मिला है। इतिहास इराक़ के इतिहास का आरंभ बेबीलोनिया और उसी क्षेत्र में आरंभ हुए कई अन्य सभ्यताओं से होता है। लगभग 5000 ईसापूर्व से सुमेरिया की सभ्यता इस क्षेत्र में फल-फूल रही थी। इसके बाद बेबीलोनिया, असीरिया तथा अक्कद के राज्य आए। इस समय की सभ्यता को पश्चिमी देश एक महान सभ्यता के रूप में देखते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि लेखन का विकास सर्वप्रथम यहीं हुआ। इसके अलावा विज्ञान, गणित तथा कुछ अन्य विषयो का सबसे आरंभिक प्रमाण भी यहीं मिलता है। इसका दूसरा प्रमुख कारण ये हैं कि मेसोपोटामिया (आधुनिक दजला-फरात नदियों की घाटी का क्षेत्र) को प्राचीन ईसाई और यहूदी कथाओं में कई पूर्वजों का निवास स्थान या कर्मस्थली माना गया है। आरंभ के यूरोपीय इतिहासकारों ने बाईबल के मुताबिक इतिहास की शुरुआत 4400 ईसापूर्व माना था। इस कारण बेबीलोन (जिसे बाबिली सभ्यता भी कहा जाता था) तथा अन्य सभ्यताओं को दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता माना गया। हँलांकि वैज्ञानिक विधियों से इसकी संतोषजनक पुष्टि होती है, इस बात को बाद के यूरोपीय इतिहासकारों ने मानने से मना कर दिया कि यहीं से इंसान की उत्पत्ति हुई थी। इस स्थल को यहूदियों तथा इसाईयों के (और इस कारण इस्लाम के कुछ) धर्मगुरुओं (पैग़म्बरों तथा मसीहों) का मूल-स्थल मानने पर अधिकांश इतिहासकार सहमत हैं। फ़ारस के हख़ामनी (एकेमेनिड) शासकों की शक्ति का उदय ईसा के छठी सदी पूर्व हो रहा था। उन्होंने मीदियों तथा बाद के असीरियाइयों को हरा कर आधुनिक इराक़ पर कब्जा कर लिया। सिकन्दर ने 330 इसापूर्व में फ़ारस के शाह दारा तृतीय को कई युद्धों में हरा कर फ़ारसी साम्राज्य का अन्त कर दिया। इसके बाद इराकी भूभाग पर यवनों तथा बाद में रोमनों का आंशिक प्रभाव रहा। रोमनों की शक्ति जब अपने चरम पर थी (130 इस्वी) तब ये फ़ारस के पार्थियनों के सासन में थी। इसके बाद तीसरा सदी के आरंभ में सासानियों ने पार्थियनों को हराकर इराक़ के क्षेत्र पर अपना कब्जा बना लिया। इसके बाद से सातवीं सदी तक मुख्य रूप से यह पारसी सासानियों के शासन में ही रही। पश्चिमी पड़ोसी सीरिया से रोमनों ने युद्ध जारी रखा और इस बीच ईसाई धर्म का भी प्रचार हुआ। इस्लाम इसके बाद जब अरबों का प्रभुत्व बढ़ा (630 इस्वी) तब यह अरबों के शासन में आ गया। फ़ारस पर भी अरबों का प्रभुत्व हो गया और 762 में बग़दाद इस्लामी अब्बासी ख़िलाफ़त की राजधानी बनी। यह क्षेत्र इस्लाम के केन्द्र बन गया। बगदाद में इस्लाम के विद्वानों ने पुस्तकालयों का निर्माण करवाया। इस्लाम का प्रसार हो रहा था और बगदाद का महत्त्व बढ़ता जा रहा था। सभी इस्लामिक प्रदेश, स्पेन से लेकर मध्य एशिया तक, बग़दाद को किसी न किसी रूप में कर देते थे। पर धीरे-धीरे इस्लामिक राज्य स्वायत्त होते गए। thumb|left|240px|बग़दाद में बना अब्बासी सिक्का, सन् 1244 1258 में मंगोलों ने बग़दाद पर कब्जा कर लिया। उन्होंने भयंकर नरसंहार किया और पुस्तकालयों को जला दिया। कोई 90,000 लोग मारे गए और कई इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध के बाद ही इराक़ के इस हिस्से में खेती का नाश हो गया और जनसंख्या में भारी कमी आ गई। इसके बाद इराक़ पर सन् 1401 में तैमूर लंग का आक्रमण भी हुआ जिसमें भी कई लोग मारे गए। पंद्रहवीं सदी में इस्तांबुल के उस्मानी (औटोमन) तुर्क तथा अन्या स्थानीय पक्षों के बीच इराक़ के लिए संघर्ष होता रहा। उस्मानी तुर्कों (ऑटोमन) ने सोलहवीं सदी के अन्त में बग़दाद पर अधिकार किया। इसके बाद फ़ारस के सफ़वी वंश तथा तुर्कों के बीच बग़दाद तथा इराक़ के अन्य हिस्सों के लिए संघर्ष होता रहा। 1508-33 कथा 1622-38 के काल के अलावा तुर्क अधिक शक्तिशाली निकले। इसी समय नज्द से बेदू आप्रवासियों की संख्या भी बहुत बढ़ी। ईरान के ओर से बाद में, अठारहवीं सदी में, नादिर शाह ने कई बार तुर्कों के खिलाफ़ हमला बोला पर वो भी महत्वपूर्ण शहरों पर कब्जा करने में नाकामयाब रहा। मामलुकों के जॉर्जियाई प्रांतपालों का शासन इराक़ पर बना रहा और उन्होंने स्थानीय विद्रोहों को दबाने में सफलता प्राप्त की। सन् 1831 में उस्मानी तुर्कों ने मामलुकों पर नियंत्रण पाने में सफलता हासिल की। प्रथम विश्वयुद्ध प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की, जर्मनी के साथ था और इस तरह इराक़ ब्रिटेन का विरोधी। सन् 1916-17 में ब्रिटिश सेना ने, जिसमें भारतीय टुकड़ी भी थी, आरंभिक हारों के बाद बग़दाद पर कब्जा कर लिया। युद्ध में मिली जीत के बाद ब्रिटेन और फ्रांस के बीच पश्चिम एशिया पर शासन के बंटवारे के लिए समझौता हुआ जिसके तहत ब्रिटेन ने इराक़ पर कब्जा बनाए रखा। युद्ध के बाद दिल्ली में बनाए गए इंडिया गेट में भारतीय सैनिकों के मेसोपोटामिया में उपस्थित होने का ज़िक्र मिलता है। आधुनिक काल सन् 1932 में ब्रिटेन ने इराक़ को स्वतंत्र घोषित किया लेकिन इराक़ी मामलों में ब्रितानी हस्तक्षेप बना रहा। 1958 में हुए एक सैनिक तख्तापलट के कारण यहाँ एक गणतांत्रिक सरकार बनी पर 1968 में समाजवादी अरब आंदोलन ने इसका अंत कर दिया। इस आंदोलन के प्रमुख नेता रही बाथ पार्टी। इस पार्टी का सिद्धांत देश को दुनिया के नक्शे पर लाना और आधुनिक अरबी इस्लामिक राष्ट्र बनाना था। सद्दाम हुसैन का स्थान आधुनिक इराक़ी इतिहास में बहुत प्रमुखता से लिया जाता है। उसने बाथ पार्टी के सहारे अपना राजनैतिक सफ़र शुरु किया। उसने पहले तो इराक को एक आधुनिक राष्ट्र बनाने का प्रयत्न किया पर बाद में उसने कुर्दों तथा अन्य लोगों के खिलाफ़ हिंसा भी करवाई। 1979 में पड़ोसी ईरान में एक इस्लामिक जनतांत्रिक सरकार बनी जो राजशाही के खिलाफ़ विद्रोह के परिणाम स्वरूप बनी थी। यह नई ईरानी शासन व्यवस्था बाथ पार्टी के नए शासक सद्दाम हुसैन के लिए सहज नहीं थी - कयोंकि ईरान में अब शिया शासकों के हाथ सत्ता थी और इराक़ में भी शिया बहुमत (60 %) में थे। सद्दाम और उसकी पार्टी सुन्नी समर्थक थी। अपने सत्ता के तख़्तापलट की साजिश का कारण बताकर सद्दाम ने ईरान के साथ 1980 में एक युद्ध घोषित कर दिया जो 8 सालों तक चला और इसका अंत अनिर्णीत रहा। इसके बाद देश खाड़ी युद्ध में भी उलझा रहा। बाद में अमेरिकी नेतृत्व में नाटो की सेनाओं के 2003 में इराक़ पर चढ़ाई करने के बाद इसे ग़िरफ़्तार कर लिया गया और एक मुकदमे में सद्दाम हुसैन को फ़ांसी की सज़ा मिली। दिसंबर 2011 में आखिरी नैटो सेनाएं देश से कूच कर गईं और इस तरह 8 सालों की विदेशी सैन्य उपस्थिति का अंत हुआ। अभी वहाँ नूरी अल मलिकी के नेतृत्व वाली सरकार है जो शिया बहुल है। विभाग इराक के 18 प्रशासनिक प्रान्त हैं। इन्हें अरबी में मुहाफ़धा और कुर्दी में पारिज़गा कहते हैं। इनका विवरण इस प्रकार है - {|border="0" cellpadding="5" cellspacing="0" align="center" 200px|right|इराक़ के प्रशासनिक मंडलों का संख्यावार चित्र <li>बगदाद <li>सला अल दीन <li>दियाला <li>वासित <li>मयसन <li>अल बसरा <li>धी क़र <li>अल मुतन्ना <li>अल-क़ादिसिया <li>बाबिल <li>करबला <li> नजफ़ या अन्नजफ़ <li>अल अनबार <li>निनावा <li>दहुक <li>अर्बिल <li>अत तमीम (किरकुक) <li>सुलेमानिया इनमे से आख़िरी के तीन इराक़ी कुर्दिस्तान में आते हैं जिसका एक अलग प्रशासन है। यह भी देखिए इराक का इतिहास भारत–इराक़ सम्बन्ध आईएसआईएस इराक़ के प्रान्त ईराक (विकिपीडिया) श्रेणी:इराक़ श्रेणी:नैऋत्य जंबुद्वीप श्रेणी:एशिया के देश श्रेणी:अरब लीग के देश श्रेणी:अरबी-भाषी देश व क्षेत्र श्रेणी:पश्चिमी एशिया श्रेणी:संघीय गणराज्य
स्वामी चिन्मयानंद
https://hi.wikipedia.org/wiki/स्वामी_चिन्मयानंद
right|thumb|200px|स्वामी चिन्मयानन्द स्वामी चिन्मयानन्द (8 मई 1916 - 3 अगस्त 1993) हिन्दू धर्म और संस्कृति के मूलभूत सिद्धान्त वेदान्त दर्शन के एक महान प्रवक्ता थे। उन्होंने सारे भारत में भ्रमण करते हुए देखा कि देश में धर्म संबंधी अनेक भ्रांतियां फैली हैं। उनका निवारण कर शुद्ध धर्म की स्थापना करने के लिए उन्होंने गीता ज्ञान-यज्ञ प्रारम्भ किया और 1953 ई में चिन्मय मिशन की स्थापना की। स्वामी जी के प्रवचन बड़े ही तर्कसंगत और प्रेरणादायी होते थे। उनको सुनने के लिए हजारों लोग आने लगे। उन्होंने सैकड़ों संन्यासी और ब्रह्मचारी प्रशिक्षित किये। हजारों स्वाध्याय मंडल स्थापित किये। बहुत से सामाजिक सेवा के कार्य प्रारम्भ किये, जैसे विद्यालय, अस्पताल आदि। स्वामी जी ने उपनिषद्, गीता और आदि शंकराचार्य के 35 से अधिक ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखीं। गीता पर लिखा उनका भाष्य सर्वोत्तम माना जाता है। आरम्भिक जीवन स्वामी चिन्मयानन्द जी का जन्म 8 मई 1916 को दक्षिण भारत के केरल प्रान्त में एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम बालकृष्ण था। उनके पिता न्याय विभाग में एक न्यायाधीश थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पाँच वर्ष की आयु में स्थानीय विद्यालय श्री राम वर्मा ब्याज स्कूल में हुई। उनकी मुख्य भाषा अंग्रेजी थी उनकी बुद्धि तीव्र थी और पढ़ने मे होशियार थे। उनकी गिनती आदर्श छात्रों मे थी। स्कूल की पढ़ाई के बाद बालन ने महाराजा कालेज में प्रवेश लिया। वहाँ भी उनकी पढ़ाई सफलतापूर्वक चली। उस समय एक गरीब बालक शंकर नारायण उनका मित्र बना। वे कालेज में विज्ञान के छात्र थे। जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और रसायन शास्त्र उनके विषय थे। यहाँ इण्टर पास कर लेने पर उनके पिता का स्थानान्तरण त्रिचूर के लिए हो गया यहाँ उन्होंने विज्ञान के विषय छोड़ कर कला के विषय ले लिये। इस पढ़ाई में भी उनका अधिक मन नहीं लग रहा था। पिता ने उनके लिए ट्यूशन भी लगाया, किन्तु वह भी कारगर नहीं हुआ। यद्यपि वहाँ से उन्होंने बी. ए पास कर लिया। किन्तु मद्रास विश्व विद्यालय नें उन्हें एम. ए में प्रवेश नहीं दिया। इसलिए उन्हें लखनऊ विश्व विद्यालय जाना पड़ा। स्नातकोत्तर लखनऊ विश्वविद्यालय में बालकृष्ण को एम. ए करने की तथा साथ ही एल. एल.बी की परीक्षा पास करने की स्वीकृति मिल गयी। वहाँ उन्होंने सन 1940 में प्रवेश लिया। अंग्रेजी साहित्य पढ़ने में उन्होंने अपनी रुचि पाई। उसी को पढ़ने में उनका अधिक समय जाता था। लखनऊ विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त करने के बाद बालकृष्ण ने पत्रकारिता का कार्य प्रारम्भ किया। उनके लेख मि. ट्रैम्प के छद्म नाम से प्रकाशित हुए। इन लेखों मे समाज के गरीब और उपेक्षित व्यक्तियों का चित्रण था। एक तरह से ये उस समय के सरकार और धनी पुरुषों का उपहास था। रुझान सन् 1948 में बालकृष्ण ऋषिकेश पहुँचे। वे देखना चाहते थे कि भारत के सन्त महात्मा कितने उपयोगी अनुपयोगी है। वहाँ पहुंचने पर उन्हें स्वामी शिवानन्द की जानकारी हुई। वे दक्षिण के रहने वाले थे और उनकी भाषा अंग्रेजी थी। इस कारण बालकृष्ण उनके ही आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ वे स्वामी जी की स्वीकृति से अन्य आश्रमवासियों के साथ रहने लगे। यद्यपि वे उस समय किसी धार्मिक कृत्य में विश्वास नही रखते थे, किन्तु श्रद्धालु पुरुष की भांति आश्रमवासियों का अनुकरण करते हुए रहने लगे। वे प्रात: काल गंगा जी में स्नान करते, सायंकाल प्रार्थना में सम्मिलित होते और आश्रम के काम भी करते। दीक्षा right|thumb|300px|सन्यास के दिन गुरु शिवानन्द सरस्वती के साथ चिन्मयानन्द तथा उनके अन्य गुरुभाई इसी समय वे स्वामी शिवानन्द जी से प्रभावित हुए और उनसे संन्यास की दीक्षा ले ली। अब उनका नाम स्वामी चिन्मयानन्द हो गया। वे अपने गुरु से मार्ग - दर्शन पुस्तकालय की एक - एक पुस्तक लेकर अध्ययन करने लगे। दिन भर पढ़ने के लिए पर्याप्त समय रहता। उन दिनों आश्रम में बिजली नहीं थी। इसलिए रात के समय पढ़ने की सुविधा नही थी। स्वामी जी उस समय दिन भर पढ़े हुए विषयों का चिन्तन करते थे। कुछ दिनों बाद उनका अध्ययन गहन हो गया और वे बड़े गम्भीर चिन्तन में व्यस्त रहने लगे। उनकी यह स्थिति देखकर स्वामी शिवानन्द जी ने उन्हें स्वामी तपोवन जी के पास उपनिषदों का अध्ययन करने के लिए भेज दिया। उन दिनों स्वामी तपोवन महाराज उत्तरकाशी में वाश करते थे। उनके पास रहकर लगभग 8 वर्ष उन्होंने वेदान्त अध्ययन किया। तपोवन जी को कोई जल्दी नहीं थी। वे एक घण्टे नित्य पढ़ाते थे। शेष समय शिष्य मनन - चिन्तन में व्यतीत करता था। यह अध्ययन बौद्धिक तो था ही, किन्तु व्यावहारिक भी था। स्वामी जी को अपनी गुरु के शिक्षा अनुसार संयमी, विरक्त और शान्त रहने का अभ्यास करना होता था। इसके परिणामस्वरूप, स्वामी जी का स्वभाव बिल्कुल बदल गया। जीवन और जगत् के प्रति उनकी धारणा बदल गई। देहान्त स्वामी चिन्मयानन्द जी ने अपना भौतिक शरीर 3 अगस्त 1993 ई. को अमेरिका के सेन डियागो नगर में त्याग दिया। लोक सेवा अध्ययन समाप्त करने के बाद स्वामी जी के मन मे लोक सेवा करने का विचार प्रबल होने लगा। तपोवन जी से स्वीकृति पाकर वे दक्षिण भारत की ओर चले और पूना पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपना प्रथम ज्ञान यज्ञ किया। यह एक प्रकार का नया प्रयोग था। प्रारम्भ में श्रोताओं की संख्या चार या छह ही था। वह धीरे धीरे बढ़ने लगी। लगभग एक महीने के ज्ञान यज्ञ के बाद वे मद्रास चले गये और वहाँ दूसरा ज्ञान यज्ञ प्रारम्भ किया। इन यज्ञों में स्वामी जी स्वयं प्रचार करते थे और स्वयं यज्ञ करते थे। कुछ समय बाद ही उनके सहायक तैयार हुए और फिर उसने एक संस्था का रूप ले लिया। धीरे - धीरे उनके प्रवचनों की माँग बढ़ने लगी। स्वामी जी ने भी ज्ञान - यज्ञ का समय एक महीने से घटाकर पंद्रह दिन या फिर और फिर दस दिन या सात दिन कर दिया। पहले ये ज्ञान-यज्ञ भारत के बड़े शहरों में हुए, फिर छोटे शहरों में। कुछ समय बाद स्वामी जी विदेश भी जाने लगे.अब इन यज्ञों की इतनी अधिक माँग हुई कि उसे एक व्यक्ति द्वारा पूरा करना असम्भव हो गया। इसलिए स्वामी जी ने बम्बई सान्दीपनी की स्थापना की और ब्रह्मचारियों को प्रशिक्षित करना प्रारम्भ किया। दो तिन वर्ष पढ़ने के बाद ब्रह्मचारी छोटे यज्ञ करने लगे, स्वाध्याय मंडल चलाने लगे और अनेक प्रकार के सेवा कार्य करने लगे। इस समय देश में 175 केन्द्र और विदेशों में लगभग 40 केन्द्र कार्य कर रहे है। इन केन्द्रों पर लगभग 150 स्वामी एवं ब्रह्मचारी कार्य में लगे है। यह संख्या हर वर्ष बढ़ रही है। इन्हें भी देखें चिन्मय मिशन बाहरी कड़ियाँ स्वामी चिन्मयानन्द एक विलक्षण व्यक्ति (रांची एक्सप्रेस) Images of Swami Chinmayananda श्रेणी:साधु-सन्त श्रेणी:हिन्दू आध्यात्मिक नेता श्रेणी:हिन्दू गुरु श्रेणी:1916 में जन्मे लोग
भारत का मंत्रिमंडल
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पुनर्प्रेषित भारत का केन्द्रीय मंत्रिमण्डल
लालू यादव
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REDIRECT लालू प्रसाद यादव