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20231101.hi_30962_17
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शैवाल
(६) बैसिलेरियोफाइसिई - इनकी कोशिकाओं की दीवारों पर सिकता (बालू) विद्यमान रहती है। दीवार आभूषित रहती है। रंग पीला, या स्वर्ण रंग का, अथवा भूरा होता है। लैंगिक जनन समयुग्मक होता हैं। कभी कभी असमयुग्मक भी होता है।
0.5
6,459.127191
20231101.hi_30962_18
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शैवाल
(७) क्रिप्टोफाइसिई - इनकी प्रत्येक कोशिका में दो बड़े वर्णकीलवक होते हैं, जिनका रंग विभिन्न होता है। इनमें भूरे रंग का बाहुल्य होता है। भ्रमणशील कोशिका में दो असमानकशाभिकाएँ होती हैं। लैंगिक जनन केवल एक प्रजाति में असमयुग्मक होता है।
1
6,459.127191
20231101.hi_30962_19
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शैवाल
(८) कैरोफाइसिई - ये पौधों के तने तथा शाखाओं सदृश रूप के बने होते हैं। पर्णहरित रहता है। लैंगिक जनन असमयुग्मक होता है। शुक्राणु में दो कशाभिकाएँ होती हैं। स्टार्च प्रत्येक कोशिका में विद्यमान रहता है। कभी कभी लैंगिक जनन विषमयुग्मक प्रकार का भी होता है।
0.5
6,459.127191
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शैवाल
(९) डाइनोफाइसिई - इस कुल के शैवाल अधिकतर एक कोशिकीय होते हैं, परंतु सूत्रवत्‌ होने की क्षमता धीरे धीरे बढ़ती जाती है, कोशिकीय दीवारें आभूषित रहती हैं। स्टार्च तथा वसा प्रकाश संश्लेषण के फलस्वरूप बनते हैं।
0.5
6,459.127191
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शैवाल
(१०) फीयोफाइसिई - ये अधिकतर समुद्र में पाए जाते हैं। इनका रंग भूरा होता है, क्योंकि इनमें फ्यूकोज़ैथिन (fucoxanthin) विद्यमान रहता है। प्रकाशसंश्लेषण के फलस्वरूप वसा, पॉलिसैकैराइड (Polysaccharides) तथा चीनी बनती है। पौधे सूत्रवत्‌ होते हैं। जनन अंगों में दो कशाभिकाएँ होती हैं। लैंगिक जनन विषमयुग्मक सा होता है। कभी कभी समयुग्मक जनन भी होता है।
0.5
6,459.127191
20231101.hi_30962_22
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शैवाल
(११) रोडोफाइसिई''' - इस कुटुंब के शैवाल भी समुद्र में पाए जाते हैं। इस कुटुंब में बहुत कम ऐसे शैवाल होते हैं जो मीठे पानी में उगते हैं। वह गुलाबी रंग का होता है, क्योंकि फाइकोएरिअन (Phycoerythrin) नामक वर्णक विद्यमान रहता है। जनन अंग बिना कशाभिका के होते हैं। पौधे सूत्रवत्‌ तथा अधिकतर असाधारण ढंग के होते हैं। लैगिक जनन विषमयुग्मक (oogamous) होता है। सिस्टोकार्प (cystocarp) में फलबीजाणु (corpospores) कहते हैं।
0.5
6,459.127191
20231101.hi_81490_5
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सोयाबीन
ग्रीष्‍म कालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवश्‍य करनी चाहिए। वर्षा प्रारम्‍भ होने पर 2 या 3 बार बखर तथा पाटा चलाकर खेत को तैयार कर लेना चाहिए। इससे हानि पहॅचाने वाले कीटों की सभी अवस्‍थाएं नष्‍ट होगीं। ढेला रहित और भूरभुरी मिटटी वाले खेत सोयाबीन के लिए उत्‍तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है अत: अधिक उत्‍पादन के लिए खेत में जल निकास की व्‍यवस्‍था करना आवश्‍यक होता है। जहां तक संभव हो आखरी बखरनी एवं पाटा समय से करें जिससे अंकुरित खरपतवार नष्‍ट हो सके। यथा संभव मेंड् और कूड् रिज एवं फरो बनाकर सोयाबीन बोएं।
0.5
6,457.782377
20231101.hi_81490_6
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सोयाबीन
जून के अन्तिम सप्‍ताह में जुलाई के प्रथम सप्‍ताह तक का समय सबसे उपयुक्‍त है बोने के समय अच्‍छे अंकुरण हेतु भूमि में 10 सेमी गहराई तक उपयुक्‍त नमी होना चाहिए। जुलाई के प्रथम सप्‍ताह के पश्‍चात बोनी की बीज दर 5- 10 प्रतिशत बढ़ा देनी चाहिए।
0.5
6,457.782377
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सोयाबीन
पौध संख्‍या 3 – 4 लाख पौधे प्रति हेक्‍टर ‘’ 40 से 60 प्रति वर्ग मीटर ‘’ पौध संख्‍या उपयुक्‍त है। जे.एस. 75 – 46 जे. एस. 93 – 05 किस्‍मों में पौधों की संख्‍या 6 लाख प्रति हेक्‍टेयर उपयुक्‍त है। असीमित बढ़ने वाली किस्‍मों के लिए 4 लाख एवं सीमित वृद्धि वाली किस्‍मों के लिए 6 लाख पौधे प्रति हेक्‍टेयर होना चाहिए।
0.5
6,457.782377
20231101.hi_81490_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%A8
सोयाबीन
सोयाबीन की बोनी कतारों में करना चाहिए। कतारों की दूरी 30 सेमी. ‘’ बोनी किस्‍मों के लिए ‘’ तथा 45 सेमी. बड़ी किस्‍मों के लिए उपयुक्‍त है। 20 कतारों के बाद कूड़ जल निथार तथा नमी संरक्षण के लिए खाली छोड़ देना चाहिए। बीज 2.5 से 3 सेमी. गहराई त‍क बोयें। बीज एवं खाद को अलग अलग बोना चाहिए जिससे अंकुरण क्षमता प्रभावित न हो।
0.5
6,457.782377
20231101.hi_81490_9
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सोयाबीन
सोयाबीन के अंकुरण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते है। इसकी रोकथाम हेतु बीज को थीरम या केप्‍टान 2 ग्राम कार्बेन्‍डाजिम या थायोफेनेट मिथीईल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए अथवा ट्राइकोडरमा 4 ग्राम एवं कार्बेन्‍डाजिम 2 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज से उपचारित करके बोयें।
1
6,457.782377
20231101.hi_81490_10
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सोयाबीन
फफूँदनाशक दवाओं से बीजोपचार के पश्‍चात बीज को 5 ग्राम राइजोबियम एवं 5 ग्राम पी.एस.बी.कल्‍चर प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए एवं शीघ्र बोनी करना चाहिए। ध्‍यान रहें कि फफूँदनाशक दवा एवं कल्‍चर को एक साथ न मिलाऐं।
0.5
6,457.782377
20231101.hi_81490_11
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सोयाबीन
अच्‍छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्‍पोस्‍ट) 5 टन प्रति हेक्‍टर अंतिम बखरनी के समय खेत में अच्‍छी तरह मिला देवें तथा बोते समय 20 किलो नत्रजन 60 किलो स्‍फुर 20 किलो पोटाश एवं 20 किलो गंधक प्रति हेक्‍टर देवें। यह मात्रा मिटटी परीक्षण के आधर पर घटाई बढ़ाई जा सकती है तथा संभव नाडेप, फास्‍फो कम्‍पोस्‍ट के उपयोग को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में लगभग 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिए। गहरी काली मिटटी में जिंक सल्‍फेट 50 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर एवं उथली मिटिटयों में 25 किलो ग्राम प्रति हेक्‍टर की दर से 5 से 6 फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिए।
0.5
6,457.782377
20231101.hi_81490_12
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%A8
सोयाबीन
फसल के प्रारम्भिक 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्‍यक होता है। बतर आने पर डोरा या कुल्‍फा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करें व दूसरी निंदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन बाद करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारो को नष्‍ट करने के लिए क्‍यूजेलेफोप इथाइल एक लीटर प्रति हेक्‍टर अथवा घांस कुल और कुछ चौड़ी पत्‍ती वाले खरपतवारों के लिए इमेजेथाफायर 750 मिली. ली. लीटर प्रति हेक्‍टर की दर से छिड़काव की अनुशंसा है। नींदानाशक के प्रयोग में बोने के पूर्व फलुक्‍लोरेलीन 2 लीटर प्रति हेक्‍टर आखरी बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़के और अवा को पेन्‍डीमेथलीन 3 लीटर प्रति हेक्‍टर या मेटोलाक्‍लोर 2 लीटर प्रति हेक्‍टर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर फलैटफेन या फलेटजेट नोजल की सहायकता से पूरे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों के मिटटी में पर्याप्‍त पानी व भुरभुरापन होना चाहिए।
0.5
6,457.782377
20231101.hi_81490_13
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सोयाबीन
खरीफ मौसम की फसल होने के कारण सामान्‍यत: सोयाबीन को सिंचाई की आवश्‍यकता नही होती है। फलियों में दाना भरते समय अर्थात सितंबर माह में यदि खेत में नमी पर्याप्‍त न हो तो आवश्‍यकतानुसार एक या दो हल्‍की सिंचाई करना सोयाबीन के विपुल उत्‍पादन लेने हेतु लाभदायक है। वर्षा ना होने पर उपयुक्त सिचाई नमी के अनुसार सही समय पर की जा सकती है।
0.5
6,457.782377
20231101.hi_9222_3
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9
सत्याग्रह
"सत्याग्रह' में अपने विरोधी के प्रति हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है। वे अहिंसा वादी थे । धैर्य एवं सहानुभूति से विरोधी को उसकी गलती से मुक्त करना चाहिए, क्योंकि जो एक को सत्य प्रतीत होता है, वहीं दूसरे को गलत दिखाई दे सकता है। धैर्य का तात्पर्य कष्टसहन से है। इसलिए इस सिद्धांत का अर्थ हो गया, "विरोधी को कष्ट अथवा पीड़ा देकर नहीं, बल्कि स्वयं कष्ट उठाकर सत्य का रक्षण।'
0.5
6,428.787012
20231101.hi_9222_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9
सत्याग्रह
महात्मा गांधी ने कहा था कि सत्याग्रह में एक पद "प्रेम' अध्याहत है। सत्याग्रह की संधि में मध्यम पद का लोप है। सत्याग्रह यानी सत्य के लिए प्रेम द्वारा आग्रह। (सत्य + प्रेम + आग्रह = सत्याग्रह)
0.5
6,428.787012
20231101.hi_9222_5
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सत्याग्रह
गांधी जी ने लार्ड इंटर के सामने सत्याग्रह की संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार की थी-"यह ऐसा आंदोलन है जो पूरी तरह सच्चाई पर कायम है और हिंसा के उपायों के एवज में चलाया जा रहा।' अहिंसा सत्याग्रह दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, क्योंकि सत्य तक पहुँचने और उन पर टिके रहने का एकमात्र उपाय अहिंसा ही है। और गांधी जी के ही शब्दों में "अहिंसा किसी को चोट न पहुँचाने की नकारात्मक (निगेटिव) वृत्तिमात्र नहीं है, बल्कि वह सक्रिय प्रेम की विधायक वृत्ति है।'
0.5
6,428.787012
20231101.hi_9222_6
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सत्याग्रह
सत्याग्रह में स्वयं कष्ट उठाने की बात है। सत्य का पालन करते हुए मृत्यु के वरण की बात है। सत्य और अहिंसा के पुजारी के शस्त्रागार में "उपवास' सबसे शक्तिशाली शस्त्र है। जिसे किसी रूप में हिंसा का आश्रय नहीं लेता है, उसके लिए उपवास अनिवार्य है। मृत्यु पर्यंत कष्ट सहन और इसलिए मृत्यु पर्यत उपवास भी, सत्याग्रही का अंतिम अस्त्र है।' परंतु अगर उपवास दूसरों को मजबूर करने के लिए आत्मपीड़न का रूप ग्रहण करे तो वह त्याज्य है : आचार्य विनोबा जिसे सौम्य, सौम्यतर, सौम्यतम सत्याग्रह कहते हैं, उस भूमिका में उपवास का स्थान अंतिम है।
0.5
6,428.787012
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सत्याग्रह
"सत्याग्रह' एक प्रतिकारपद्धति ही नहीं है, एक विशिष्ट जीवनपद्धति भी है जिसके मूल में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, निर्भयता, ब्राहृचर्य, सर्वधर्म समभाव आदि एकादश व्रत हैं। जिसका व्यक्तिगत जीवन इन व्रतों के कारण शुद्ध नहीं है, वह सच्चा सत्याग्रही नहीं हो सकता। इसीलिए विनोबा इन व्रतों को "सत्याग्रह निष्ठा' कहते हैं।
1
6,428.787012
20231101.hi_9222_8
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सत्याग्रह
"सत्याग्रह' और "नि:शस्त्र प्रतिकार' में उतना ही अंतर है, जितना उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में। नि:शस्त्र प्रतिकार की कल्पना एक निर्बल के अस्त्र के रूप में की गई है और उसमें अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए हिंसा का उपयोग वर्जित नहीं है, जबकि सत्याग्रह की कल्पना परम शूर के अस्त्र के रूप में की गई है और इसमें किसी भी रूप में हिंसा के प्रयोग के लिए स्थान नहीं है। इस प्रकार सत्याग्रह निष्क्रिय स्थिति नहीं है। वह प्रबल सक्रियता की स्थिति है। सत्याग्रह अहिंसक प्रतिकार है, परंतु वह निष्क्रिय नहीं है।
0.5
6,428.787012
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सत्याग्रह
अन्यायी और अन्याय के प्रति प्रतिकार का प्रश्न सनातन है। अपनी सभ्यता के विकासक्रम में मनुष्य ने प्रतिकार के लिए प्रमुखत: चार पद्धतियों का अवलंबन किया है-
0.5
6,428.787012
20231101.hi_9222_10
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9
सत्याग्रह
पहली पद्धति है बुराई के बदले अधिक बुराई। इस पद्धति से दंडनीति का जन्म हुआ जब इससे समाज और राष्ट्र की समस्याओं के निराकरण का प्रयास हुआ तो युद्ध की संस्था का विकास हुआ।
0.5
6,428.787012
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सत्याग्रह
दूसरी पद्धति है, बुराई के बदले समान बुराई अर्थात् अपराध का उचित दंड दिया जाए, अधि नहीं। यह अमर्यादित प्रतिकार को सीमित करने का प्रयास है।
0.5
6,428.787012
20231101.hi_71704_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
बेकारी
सन् 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट में बेरोजगारी (बेरोजगारी) प्रांतीय विषय के रूप में ग्रहण की गई। परंतु द्वितीय महायुद्ध समाप्त होने के बाद युद्धरत तथा फैक्टरियों में काम करनेवाले कामगारों को फिर से काम पर लगाने की समस्या उठ खड़ी हुई। 1942-1944 में देश के विभिन्न भागों में कामदिलाऊ कार्यालय खोले गए परंतु कामदिलाऊ कार्यालयों की व्यवस्था के बारे में केंद्रीकरण तथा समन्वय का अनुभव किया गया। अत: एक पुनर्वास तथा नियोजन निदेशालय (Directorate of Resettlement and Employment) की स्थापना की गई है।
0.5
6,426.183302
20231101.hi_71704_5
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
बेकारी
संरचनात्मक बेरोजगारी : सरचनात्मक बेरोजगारी वह बेरोजगारी है जो अर्थव्यवस्था मे होने वाले संरचनात्मक बदलाव के कारण उत्पन्न होती है।
0.5
6,426.183302
20231101.hi_71704_6
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
बेकारी
अल्प बेरोजगारी : अल्प बेरोजगारी वह स्थिति होती है जिसमें एक श्रमिक जितना समय काम कर सकता है उससे कम समय वह काम करता है। दूूसरे शब्दो में, वह एक वर्ष में कुछ महीने या प्रतिदिन कुछ घंटे बेकार रहता है। अल्प बेरोजगारी के दो प्रकार है-
0.5
6,426.183302
20231101.hi_71704_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
बेकारी
अदृष्य अल्प रोजगार : इस स्थिति में, लोग पूरा दिन काम करते हैं पर उनकी आय बहुत कम होती है या उनको ऐसे काम करने पडते हैं जिनमें वे अपनी योग्यता का पूरा उपयोग नहीं कर सकते।
0.5
6,426.183302
20231101.hi_71704_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
बेकारी
खुली बेरोजगारी : उस स्थिति को कह्ते है जिसमे यद्यपि श्रमिक काम करने के लिये उत्सुक है और उसमें काम करने की आवश्यक योग्यता भी है तथापि उसे काम प्राप्त नही होता। वह पूरा समय बेकार रहता है। वह पूरी तरह से परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर आश्रित होता है। ऐसी बेरोजगारी प्राय: कृषि-श्रमिको, शिक्षित व्यक्तियों तथा उन लोगों में पायी जाती है। जो गावों से शहरी हिस्सों में काम की तलाश में आते हैं पर उन को कोई काम नही मिलता। यह बेरोजगारी का नग्न रूप है।
1
6,426.183302
20231101.hi_71704_9
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
बेकारी
मौसमी बेरोजगारी: इसका अर्थ एक व्यक्ति को वर्ष के केवल मौसमी महीनो में काम प्राप्त होता है। भारत में कृषि क्षेत्र में यह आम बात है। इधर बुआई तथा कटाई के मौसमों में अधिक लोगों को काम मिल जाता है किन्तु शेष वर्ष वे बेकार रहते हैं। एक अनुमान के अनुसार, यदि कोई किसान वर्ष में केवल एक ही फसल की बुआई करता है तो वह कुछ महिने तक बेकार रहता है। इस स्थिति को मौसमी बेरोजगारी माना जाता है।
0.5
6,426.183302
20231101.hi_71704_10
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
बेकारी
चक्रीय बेरोजगारी : ऐसी बेरोजगारी तब उत्पन्न होती है जब अर्थव्यवस्था में चक्रीय ऊंच नीच आती है। तेजी, आर्थिक सुस्ती, आर्थिक मंदी तथा पुनरुत्थान चार अवस्थाएं या चक्र है जो एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएं हैं। आर्थिक तेजी की अवस्था में आर्थिक क्रिया उच्च स्तर पर होती है तथा रोजगार का स्तर भी बहुत ऊंचा होता है। जब अर्थव्यवस्था में कुल ज़रुरत के घटने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
0.5
6,426.183302
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80
बेकारी
छिपी बेरोजगारी : छिपी बेरोजगारी से पीडित व्यक्ति वह होता है जो ऐसे दिखाई देता है जैसे कि वह काम में लगा हुआ है, परन्तु वास्तव में ऐसा नही होता।
0.5
6,426.183302
20231101.hi_71704_12
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बेकारी
जैसे कि किसी काम के लिए दस लोगों की अवश्यकता है परन्तु उससे ज्यादा होते हैं ऐसे अवसर में यह होता है |जेसे एक खेत में 10 लोग काम पूरा कर सकते हैं लेकिन उस खेत में उसी काम को 15 लोग कर रहे है तो वे 5 लोग फालतू मे ही काम पर लगे हुए है ्
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6,426.183302
20231101.hi_10205_4
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कथक
तेरहवी सदी तक इस नृत्य में निश्चित शैली में उभर आया था। स्मरक अक्षरों और बोल की भी तकनीकी सुविधाओं का विकास हो गया। भक्ति आंदोलन के समय रासलीला कथक पर एक जबरदस्त प्रभाव पड़ा। इस तरह का नृत्य प्रदर्शन कथावछकास मंदिरों में भी करने लगे। कथक राधा कृष्ण की के जीवन के दास्तां बयान करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। श्री कृष्ण के वृंदावन की पवित्र भूमि में कारनामे और कृष्ण लीला (कृष्ण के बचपन) के किस्से का लोकप्रिय प्रदर्शन किया जाता था। इस समय नृत्य आध्यात्मिकता से दुर हटकर लोक तत्वों से प्रभावित होने लगा था।
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6,416.454862
20231101.hi_10205_5
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कथक
मुगलों के युग में फ़ारसी नर्तकियों के सीधे पैर से नृत्य के कारण और भी प्रसिद्ध हो गया। पैर पर १५० टखने की घंटी पहने कदमों का उपयोग कर ताल के काम को दिखाते थे। इस अवधि के दौरान चक्कर भी शुरु किया गया। इस नृत्य में लचीलापन आ गया। तबला और पखवाज इस नृत्य में पुरक है।
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कथक
नृत्य: भाव को मौखिक टुकड़े की एक विशेष प्रदर्शन शैली में दिखाया जाता है। मुगल दरबार में यह अभिनय शैली की उत्पत्ति हुई। इसकी वजह से यह महफिल या दरबार के लिए अधिक अनुकूल है ताकि दर्शकों को कलाकार और नर्तकी के चेहरे की अभिव्यक्त की हुई बारीकियों को देख सके। क ठुमरी गाया जाता है और उसे चेहरे, अभिनय और हाथ आंदोलनों के साथ व्याख्या की जाति है।
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कथक
अवध के नवाब वाजिद आली शाह के दरबार में इसका जन्म हुआ। आगरा शैली के कथक नृत्य में सुंदरता, प्राकृतिक संतुलन होती है। कलात्मक रचनाएँ, ठुमरी आदि अभिनय के साथ साथ होरिस (शाब्दिक अभिनय) और आशु रचनाएँ जैसे भावपूर्ण शैली भी होती हैं। वर्तमान में, पंडित बिरजु महाराज (अच्छन महाराजजी के बेटे) इस घराने के मुख्य प्रतिनिधि माने जाते हैं।
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कथक
राजस्थान के कच्छवा राजा के दरबार में इसका जन्म हुआ। शक्तिशाली ततकार, कई चक्कर और विभिन्न ताल में जटिल रचनाओं के रूप में नृत्य के अधिक तकनीकी पहलुएँ यहाँ महत्वपुर्ण है। यहाँ पखवाज का बहुत उपयोग होता है। यह कथक का प्राचीनतम घराना है। जयपुर घराने के प्रवर्तक भानु जी (प्रसिद्ध शिव तांडव नर्तक)।
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कथक
जानकीप्रसाद ने इस घराने का प्रतिष्ठा किया था। यहाँ नटवरी का अनन्य उपयोग होता है एवं पखवाज (एक प्रकार का तबला जो उत्तर-भारतीय शैली में उपयोग आता है )तबला का इस्तेमाल कम होता है। यहाँ ठाट और ततकार में अंतर होता है। न्यूनतम चक्कर दाएं और बाएँ दोनों पक्षों से लिया जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%95
कथक
छत्तीसगढ़ के महाराज चक्रधार सिंह इस घराने कि प्रतिष्ठा की थी। विभिन्न पृष्ठभूमि के अलग शैलियों और कलाकारों के संगम और तबला रचनाओं से एक अनूठा माहौल बनाया गया था। पंडित कार्तिक राम, पंडित फिर्तु महाराज, पंडित कल्यानदास महांत, पंडित बरमानलक इस घराने के प्रसिद्ध नर्तक हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%95
कथक
Pt. Birju Maharaj (2002) Ang Kavya : Nomenclature for Hand Movements and Feet Positions in Kathak, नई दिल्ली, Har-Anand, photographs, ISBN 81-241-0861-7.
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%95
कथक
Reginald Massey (1999) India's Kathak Dance - Past, Present, Future, नई दिल्ली, Abhinav, ISBN 81-7017-374-4
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20231101.hi_185_4
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
नृत्य
लोक नृत्यों में प्रत्येक प्रांत के अनेक स्थानीय नृत्य हैं। जैसे पंजाब में भांगड़ा, उत्तर-प्रदेश का पखाउज आदि
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
नृत्य
नृत्य का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इतिहास की दृष्टि में सबसे पहले उपलब्ध साक्ष्य गुफाओं में प्राप्त आदिमानव के उकेरे चित्रों तथा हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों में प्राप्त मूर्तियाँ हैं, जिनके संबंध में पुरातत्वेत्ता नर्तकी होने का दावा करते हैं। ऋगवेद के अनेक श्लोकों में नृत्या शब्द का प्रयोग हुआ है। इन्द्र यथा हयस्तितेपरीतं नृतोशग्वः । तथा नह्यंगं नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे। अर्थात- इन्द्र तुम बहुतों द्वारा आहूत तथा सबको नचाने वाले हो। इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में नृत्यकला का प्रचार-प्रसार सर्वत्र था। इस युग में नृत्य के साथ निम्नलिखित वाद्यों का प्रयोग होता था। वीणा वादं पाणिघ्नं तूणब्रह्मं तानृत्यान्दाय तलवम्। अर्थात- नृत्य के साथ वीणा वादक और मृदंगवादक और वंशीवादक को संगत करनी चाहिए और ताल बजाने वाले को बैठना चाहिये।
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नृत्य
यर्जुवेद में भी नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को अरोग्य रखने के लिये नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। पुराणों में भी नृत्य संबंधी घटनाओं का उल्लेख है। श्रीमद्भागवत महापुराण, शिव पुराण तथा कूर्म पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में मिला है। रामायण और महाभारत में भी समय-समय पर नृत्य पाया गया है। इस युग में आकर नृत्त- नृत्य- नाट्य तीनों का विकास हो चुका था। भरत के नाट्य शास्त्र के समय तक भारतीय समाज में कई प्रकार की कलाओं का पूर्णरूपेण विकास हो चुका था। इसके बाद संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों जैसे कालिदास के शाकुंतलम- मेघदूतम- वात्स्यायन की कामसूत्र- तथा मृच्छकटिकम आदि ग्रंथों में इन नृत्य का विवरण हमारी भारतीय संस्कृति की कलाप्रियता को दर्शाता है। आज भी हमारे समाज में नृत्य- संगीत को उतना ही महत्त्व दिया जाता है कि हमारे कोई भी समारोह नृत्य के बिना संपूर्ण नहीं होते। भारत के विविध शास्त्रीय नृत्यों की अनवरत शिष्य परंपराएँ हमारी इस सांस्कृतिक विरासत की धारा को लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित करती रहेंगी।
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नृत्य
कई अन्य नृत्य शैलियों बैले के आधार पर कर रहे हैं के रूप में बैले, नृत्य के कई अन्य शैलियों के लिए एक आधार के रूप में कार्य करता है। बैले सदियों से विकसित किया गया है कि तकनीक पर आधारित है। बैले कहानियां बताने के लिए संगीत और नृत्य का उपयोग करता है। बैले नर्तकियों एक और दुनिया के लिए एक दर्शकों को परिवहन करने की क्षमता है।
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नृत्य
जैज मौलिकता और कामचलाऊ व्यवस्था पर काफी निर्भर करता है कि एक मजेदार नृत्य शैली है। कई जैज नर्तकियों को अपने स्वयं की अभिव्यक्ति को शामिल, उनके नृत्य में विभिन्न शैलियों का मिश्रण। जैज नृत्य अक्सर् संकुचन सहित बोल्ड, नाटकीय शरीर आंदोलनों का उपयोग करता है।
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नृत्य
हिप हॉप संस्कृति से विकसित किया है कि आमतौर पर हिप हॉप संगीत के लिए नृत्य एक नृत्य शैली देश और पश्चिमी नृत्य आम तौर पर देश के पश्चिमी संगीत पर नृत्य किया कई नृत्य रूपों, भी शामिल है। यदि आप कभी भी एक देश और पश्चिमी क्लब या सराय लिए किया गया है, तो आप शायद उनके चेहरे पर बड़ी मुस्कान के साथ डांस फ्लोर के आसपास ट्वर्लिग्ग् कुछ चरवाहे बूट पहने नर्तकों देखा है। बेली नृत्यहै। हिप हॉप ऐसे तोड़ने पॉपिंग, लॉकिंग और क्रम्पिंग्ग् और यहां तक ​​कि घर के नृत्य के रूप में विभिन्न चाल भी शामिल है। कामचलाऊ व्यवस्था और व्यक्तिगत व्याख्या हिप - हॉप नृत्य करने के लिए आवश्यक हैं।
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नृत्य
स्विंग नृत्य जोड़े, झूले स्पिन और एक साथ कूद जिसमें एक जीवंत नृत्य शैली है। स्विंग नृत्य एक सामान्य संगीत स्विंग करने के नाच का मतलब है कि अवधि, या संगीत है "झूलों. कि" एक गीत झूलों यदि आप कैसे बता सकते हैं? स्विंग नर्तकियों वे इसे सुना है, वे अभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं जब एक गाना झूलों क्योंकि जानते हैं।
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नृत्य
कॉन्ट्रा नृत्य नर्तकियों दो समानांतर लाइनों फार्म और रेखा की लंबाई नीचे विभिन्न भागीदारों के साथ नृत्य आंदोलनों का एक दृश्य जो प्रदर्शन में अमेरिकी लोक नृत्य का एक रूप है। कॉन्ट्रा नृत्य परिवार की तरह वायुमंडल के साथ आराम कर रहे हैं। नृत्य बहुत अच्छा व्यायाम है और नर्तकियों को अपनी गति निर्धारित कर सकते हैं। कॉन्ट्रा नर्तकियों आमतौर पर नृत्य का एक प्यार के साथ दोस्ताना, सक्रिय लोग हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
नृत्य
बेली नृत्य कूल्हों और पेट की तेज, रोलिंग आंदोलनों द्वारा विशेषता नृत्य का एक अनोखा रूप है। बेली डांसिंग का असली मूल उत्साही लोगों के बीच बहस कर रहे हैं।
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रेडियो
24 दिसम्बर 1906 की शाम कनाडाई वैज्ञानिक रेगिनाल्ड फेसेंडेन ने जब अपना वॉयलिन बजाया और अटलांटिक महासागर में तैर रहे तमाम जहाजों के रेडियो ऑपरेटरों ने उस संगीत को अपने रेडियो सेट पर सुना, वह दुनिया में रेडियो प्रसारण की शुरुआत थी।
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रेडियो
इससे पहले जगदीश चन्द्र बसु ने भारत में तथा गुल्येल्मो मार्कोनी ने सन 1900 में इंग्लैंड से अमरीका बेतार संदेश भेजकर व्यक्तिगत रेडियो संदेश भेजने की शुरुआत कर दी थी, पर एक से अधिक व्यक्तियों को एक साथ संदेश भेजने या ब्रॉडकास्टिंग की शुरुआत 1906 में फेसेंडेन के साथ हुई। ली द फोरेस्ट और चार्ल्स हेरॉल्ड जैसे लोगों ने इसके बाद रेडियो प्रसारण के प्रयोग करने शुरु किए। तब तक रेडियो का प्रयोग सिर्फ नौसेना तक ही सीमित था। 1917 में प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत के बाद किसी भी गैर फौज़ी के लिये रेडियो का प्रयोग निषिद्ध कर दिया गया।
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रेडियो
1918 में ली द फोरेस्ट ने न्यू यॉर्क के हाईब्रिज इलाके में दुनिया का पहला रेडियो स्टेशन शुरु किया। पर कुछ दिनों बाद ही पुलिस को ख़बर लग गई और रेडियो स्टेशन बंद करा दिया गया।
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रेडियो
नवंबर 1920 में नौसेना के रेडियो विभाग में काम कर चुके फ्रैंक कॉनार्ड को दुनिया में पहली बार क़ानूनी तौर पर रेडियो स्टेशन शुरु करने की अनुमति मिली।
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रेडियो
रेडियो में विज्ञापन की शुरुआत 1923 में हुई। इसके बाद ब्रिटेन में बीबीसी और अमरीका में सीबीएस और एनबीसी जैसे सरकारी रेडियो स्टेशनों की शुरुआत हुई।
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रेडियो
1927 तक भारत में भी ढेरों रेडियो क्लबों की स्थापना हो चुकी थी। 1936 में भारत में सरकारी ‘इम्पेरियल रेडियो ऑफ इंडिया’ की शुरुआत हुई जो आज़ादी के बाद ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी बन गया।
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रेडियो
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत होने पर भारत में भी रेडियो के सारे लाइसेंस रद्द कर दिए गए और ट्रांसमीटरों को सरकार के पास जमा करने के आदेश दे दिए गए।
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रेडियो
नरीमन प्रिंटर उन दिनों बॉम्बे टेक्निकल इंस्टीट्यूट बायकुला के प्रिंसिपल थे। उन्होंने रेडियो इंजीनियरिंग की शिक्षा पाई थी। लाइसेंस रद्द होने की ख़बर सुनते ही उन्होंने अपने रेडियो ट्रांसमीटर को खोल दिया और उसके पुर्जे अलग-अलग जगह पर छुपा दिए।
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रेडियो
इस बीच गांधी जी ने अंग्रेज़ों भारत छोडो का नारा दिया। गांधी जी समेत तमाम नेता 9 अगस्त 1942 को गिरफ़्तार कर लिए गए और प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई।
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शब्दकोश
कोश की एक दूसरी विधा ज्ञानकोश भी विकसित हुई है। इसके वृहत्तम और उत्कष्ट रूप को इन्साइक्लोपिडिया कहा गया है। हिन्दी में इसके लिये विश्वकोश शब्द प्रयुक्त और गृहीत हो गया है। यह शब्द बँगाल विश्वकोशकार ने कदाचित् सर्वप्रथम बंगाल के ज्ञानकोश के लिये प्रयुक्त किया। उसका एक हिन्दी संस्करण हिन्दी विश्वकोश के नाम से नए सिरे से प्रकाशित हुआ। हिन्दी में यह शब्द प्रयुक्त होने लगा है। यद्यपि हिन्दी के प्रथम किशोरोपयोगी ज्ञानकोश (अपूर्ण) को श्री श्रीनारायण चतुर्वेदी तथा पं० कृष्ण वल्लभ द्विवेदी द्वारा विश्वभारती अभिधान दिया गया तो भी ज्ञान कोश, ज्ञानदीपिका, विश्वदर्शन, विश्वविद्यालयभण्डार आदि संज्ञाओं का प्रयोग भी ज्ञानकोश के लिये हुआ है। स्वयं सरकार भी बालशिक्षोपयोगी ज्ञानकोशात्मक ग्रन्थ का प्रकाशन 'ज्ञानसरोवर' नाम से कर रही है। परन्तु इन्साइक्लोपीडिया के अनुवाद रूप में विवकोश शब्द ही प्रचलित हो गया। उडिया के एक विश्वकोश का नाम शब्दार्थानुवाद के अनुसार ज्ञान मण्डल रखा भी गया। ऐसा लगता है कि बृहद् परिवेश के व्यापक ज्ञान का परिभाषिक और विशिष्ट शब्दों के माध्यम से ज्ञान देने वाले ग्रन्थ का इन्साइक्लोपीडिया या विश्वकोश अभिधान निर्धारित हुआ और अपेक्षाकृत लघुतरकोशों को ज्ञानकोश आदि विभिन्न नाम दिए गए। अंग्रेजी आदि भाषाओं में बुक ऑफ़ नालेज, डिक्शनरी आव जनरल नालेज आदि शीर्षकों के अन्तर्गत नाना प्रकार के छोटे बडे विश्वकोश अथवा ज्ञानकोश बने हैं और आज भी निरन्तर प्रकाशित एवं विकसित होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं इन्साइक्लोपीडिया ऑफ़ रिलीजन ऐण्ड एथिक्स आदि विषयविशेष से संबंद्ध विश्वकोशों की संख्या भी बहुत ही बडी है। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से निर्मित अनेक सामान्य विश्वकोश और विशष विश्वकोश भी आज उपलब्ध हैं।
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20231101.hi_79_13
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शब्दकोश
इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, इन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना अंग्रेजी के ऐसे विश्वकोश हैं। अंग्रेजी के सामान्य विश्वकोशों द्वारा इनकी प्रामाणिकता और संमान्यता सर्वस्वीकृत है। निरन्तर इनके संशोधित, संवर्धित तथा परिष्कृत संस्करण निकलते रहते हैं। इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के दो परिशिष्ट ग्रन्थ भी हैं जो प्रकाशित होते रहते हैं और जो नूतन संस्करण की सामग्री के रूप में सातत्य भाव से संकलित होते रहते हैं। इंग्लैंड में इन्साइक्लोपीडिया के पहले से ही ज्ञानकोशात्मक कोशों के नाना रूप बनने लगे थे।
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शब्दकोश
ज्ञानकोशों के भी इतने अधिक प्रकार और पद्धतियाँ हैं जिनकी चर्चा का यहाँ अवसर नहीं है। चरितकोश, कथाकोश इतिहासकोश, ऐतिहासिक कालकोश, जीवनचरितकोश पुराख्यानकोश, पौराणिक- ख्यातपुरुषकोश आदि आदि प्रकार के विविध नामरूपात्मक ज्ञानकोशों की बहुत सी विधाएँ विकसित और प्रचलित हो चुकी हैं। यहाँ प्रसंगतः ज्ञानकोशों का संकेतात्मक नामनिर्देश मात्र कर दिया जा रहा है। हम इस प्रसंग को यहीं समाप्त करते हैं और शब्दार्थकोश से संबंद्ध प्रकृत विषय की चर्चा पर लौट आते हैं।
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शब्दकोश
भारत में कोशविद्या के आधुनिक स्वरुप का उद्भव और विकास मध्यकालीन हिंदी कोशों की मान्यता और रचनाप्रक्रिया से भिन्न उद्देश्यों को लेकर हुआ। पाश्चात्य कोशों के आदर्श, मान्यताएँ, उद्देश्य, रचनाप्रक्रिया और सीमा के नूतन और परिवर्तित आयामों का प्रवेश भारत की कोश रचनापद्धति में आरंभ हुआ। संस्कृत और इतर भारतीय भाषाओं में पाश्चात्य तथा भारतीय विद्वानों के प्रयास से छोटे-बडे बहुत से कोश निर्मित हुए। इन कोशों का भारत और भारत के बाहर भी निर्माण हुआ। आरंभ में भारतीय भाषाओं के, मुख्यतः संस्कृत के कोश अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच आदि भाषाओं के माध्यम से बनाए गए। इनमें संस्कृत आदि के शब्द भी रोमन लिपि में रखे गए। शब्दार्थ की व्याख्या और अर्थ आदि के निर्देश कोश की भाषा के अनुसार जर्मन, अंग्रेजी, फारसी, पुर्तगाली आदि भाषाओं में दिए गए। बँगला, तमिल आदि भाषाओं के ऐसे अनेक कोशों की रचना ईसाई धर्मप्रचारकों द्वारा भारत और आसपास के लघु द्वीपों में हुई। हिंदी के भी ऐसे अनेक कोश बने। सबसे पहला शब्दकोश संभवतः फरग्युमन का 'हिंदुस्तानी अंग्रेजी' (अंग्रेजी हिंदुस्तानी) कोश था जो १७७३ ई० में लंदन में प्रकाशित हुआ। इन आरंभिक कोशों को 'हिंदुस्तानी कोश' कहा गया। ये कोश मुख्यतः हिंदी के ही थे। पाश्चात्य विद्वानों के इन कोशों में हिंदी को हिंदुस्तानी कहने का कदाचित् यह कारण है कि हिंदुस्तान भारत का नाम माना गया और वहाँ की भाषा हिंदुस्तानी कही गई। कोशविद्या के इन पाश्चात्य पंडितों की दृष्टि में हिंदी का ही पर्याय हिंदुस्तानी था और वही सामान्य रूप में हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा थी।
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20231101.hi_79_16
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6
शब्दकोश
आरंभिक क्रम में कोशनिर्माण की प्रेरणात्मक चेतना का बहुत कुछ सामान्य रूप भारत और पश्चिम में मिलता जुलता था। भारत का वैदिक निघंटु विरल और क्लिष्ट शब्दों के अर्थ और पर्यायों का संक्षिप्त संग्रह था। योरप में भी ग्लासेरिया से जिस कोशविद्या का आरंभिक बीजवपन हुआ था, उसके मूल में भई विरल और क्लिष्ट शब्दों का पर्याय द्वारा अर्थबोध कराना ही उद्देश्य था। लातिन की उक्त शब्दार्थसूची से शनैः शनैः पश्चिम की आधुनिक कोशविद्या के वैकासिक सोपान आविर्भूत हुए। भारत और पश्चिम दोनों ही स्थानों में शब्दों के सकलन में वर्गपद्धति का कोई न कोई रूप मिल जाता है। पर आगे चलकर नव्य कोशों का पूर्वोंक्त प्राचीन और मध्यकालीन कोशों से जो सर्वप्रथम और प्रमुखतम भेदक वैशिष्टय प्रकट हुआ वह था - 'वर्णमालाक्रमानुसारी शब्दयोजना' की पद्धति।
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20231101.hi_79_17
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6
शब्दकोश
योरप में आधुनिक कोशों का जो स्वरूप विकसित हुआ, उसकी रूपरेखा का संकेत ऊपर किया जा चुका है। योरप, एशिया और अफ्रिका के उस तटभाग में जो अरब देशों के प्रभाव में आया था, उक्त पद्धति के अनुकरण पर कोशों का निर्माण होने लगा था। भारत में व्यापक पैमाने पर जिस रूप में कोश निर्मत होते चले, उनकी संक्षिप्त चर्चा की जा चुकी है। इन सबके आधार पर उत्तम कोटि के आधुनिक कोशों की विशिष्टताओं का आकलन करते हुए कहा जा सकता है कि:
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शब्दकोश
(क) आधुनिक कोशों में शब्दप्रयोग के ऐतिहाससिक क्रम की सरणि दिखाने के प्रयास को बहुत महत्व दिया गया है। ऐसे कोर्शो को ऐतिहासिक विवरणात्मक कहा जा सकता है। उपलब्ध प्रथम प्रयोग और प्रयोगसंदर्भ का आधार लेकर अर्थ और उनके एकमुखी या बहुमुखी विकास के सप्रमाण उपस्थापन की चेष्टा की जाती है। दूसरे शब्दों में इसे हम शब्दप्रयोग और तद्बोध्यार्थ के रूप की आनुक्रमिक या इतिहासानुसारी विवेचना कह सकते है। इसमें उद्वरणों का उपयोग दोनों ही बातों (शब्दप्रयोग और अर्थविकास) की प्रमाणिकता सिद्ध करते हैं।
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शब्दकोश
(ख) आधुनिक कोशकार के द्वार संगृहीत शब्दों और अर्थों के आधार का प्रामाण्य भी अपेक्षित होता है। प्राचीन कोशकार इसके लिये बाध्य नहीं था। वह स्वत: प्रमाण समझा जाता था। पूर्व तंत्रों या ग्रंथों का समाहार करते हुए यदाकदा इतना भी कह देना उसके लिये बहुधा पर्याप्त हो जाता था। पर आधुनिक कोशों में ऐसे शब्दों के संबंध में जिनका साहित्य व्यवहार में प्रयोग नहीं मिलता, यह बताना भी आवश्यक हो जाता है कि अमुक शब्द या अर्थ कोशीय मात्र हैं।
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20231101.hi_79_20
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शब्दकोश
(ग) आधुनिक कोशों की एक दुसरी नई धारा ज्ञानकोशात्मक है जिनकी उत्कृष्ट रूप 'विश्वकोश' के नाम से सामने आता है। अन्य रूप पारिभाषिक शब्दकोश, विषयकोश, चरितकोश, ज्ञानकोश, अब्दकोश आदि नाना रूपों में अपने आभोग का विस्तार करते चल रहै हैं।
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20231101.hi_1578_4
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यजुर्वेद
ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत् यजुर्वेद में मिलते हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है, जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है। संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही हैं।
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यजुर्वेद
ओ३म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥ -- यजुर्वेद २२, मन्त्र २२
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यजुर्वेद
यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजुर्वेद और आदित्य सम्प्रदाय अथवा शुक्ल यजुर्वेद ही प्रमुख हैं।
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यजुर्वेद
वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ 'तन्त्रियोजक ब्राह्मणों' का भी सम्मिश्रण है। वास्तव में मंत्र तथा ब्राह्मण का एकत्र मिश्रण ही 'कृष्ण यजुः' के कृष्णत्व का कारण है तथा मंत्रों का विशुद्ध एवं अमिश्रित रूप ही 'शुक्ल यजुष्' के शुक्लत्व का कारण है।
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यजुर्वेद
महर्षि पंतजलि द्वारा उल्लिखित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में इस समय केवल उपरोक्त पाँच वाजसनेय, तैत्तिरीय, कठ, कपिष्ठल और मैत्रायणी ही उपलब्ध हैं।
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यजुर्वेद
इन दोनों शाखाओं में अंतर यह है कि शुक्ल यजुर्वेद पद्य (संहिताओं) को विवेचनात्मक सामग्री (ब्राह्मण) से अलग करता है, जबकि कृष्ण यजुर्वेद में दोनों ही उपस्थित हैं।
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यजुर्वेद
यजुर्वेद में वैदिक अनुष्ठान की प्रकृति पर विस्तृत चिंतन है और इसमें यज्ञ संपन्न कराने वाले प्राथमिक ब्राह्मण व आहुति देने के दौरान प्रयुक्त मंत्रों पर गीति पुस्तिका भी शामिल है। इस प्रकार यजुर्वेद यज्ञों के आधारभूत तत्त्वों से सर्वाधिक निकटता रखने वाला वेद है।
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यजुर्वेद
यजुर्वेद संहिताएँ संभवतः अंतिम रचित संहिताएँ थीं, जो ई. पू. दूसरी सहस्त्राब्दी के अंत से लेकर पहली सहस्त्राब्दी की आरंभिक शताब्दियों के बीच की हैं।शुक्ल यजुर्वेद''' की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- १. मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यागादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३) तथा महामृत्युंजय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है।
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यजुर्वेद
यजुर्वेद कर्मकाण्ड से जुडा हुआ है। इसमें विभिन्न यज्ञों (जैसे अश्वमेध) का वर्णन है। यजुर्वेद पाठ अध्वुर्य द्वारा किया जाता है। यजुर्वेद ५ शाखाओ मे विभक्त् है-
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%B9%E0%A4%B0
मैहर
प्रजापति दक्ष का भगवान् शिव से मनोमालिन्य होने के कारण रूप में तीन मत हैं। एक मत के अनुसार प्रारंभ में ब्रह्मा के पाँच सिर थे। ब्रह्मा अपने तीन सिरों से वेदपाठ करते तथा दो सिर से वेद को गालियाँ भी देते जिससे क्रोधित हो शिव ने उनका एक सिर काट दिया। ब्रह्मा दक्ष के पिता थे। अत: दक्ष क्रोधित हो गया और शिव से बदला लेने की बात करने लगा। लेकिन यह मत अन्य प्रामाणिक संदर्भों से खंडित हो जाता है। श्रीमद्भागवतमहापुराण में स्पष्ट वर्णित है कि जन्म के समय ही ब्रह्मा के चार ही सिर थे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%B9%E0%A4%B0
मैहर
दूसरे मत के अनुसार शक्ति द्वारा स्वयं भविष्यवाणी रूप में दक्ष से स्वयं के भगवान शिव की पत्नी होने की बात कह दिये जाने के बावजूद दक्ष शिव को सती के अनुरूप नहीं मानते थे। इसलिए उन्होंने सती के विवाह-योग्य होने पर उनके लिए स्वयंवर का आयोजन किया तथा उसमें शिव को नहीं बुलाया। फिर भी सती ने 'शिवाय नमः' कहकर वरमाला पृथ्वी पर डाल दी और वहाँ प्रकट होकर भगवान् शिव ने वरमाला ग्रहण करके सती को अपनी पत्नी बनाकर कैलाश चले गये। इस प्रकार अपनी इच्छा के विरुद्ध अपनी पुत्री सती द्वारा शिव को पति चुनने के कारण दक्ष शिव को पसंद नहीं करते थे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%B9%E0%A4%B0
मैहर
तीसरा मत सर्वाधिक प्रचलित है। इसके अनुसार प्रजापतियों के एक यज्ञ में दक्ष के पधारने पर सभी देवताओं ने उठकर उनका सम्मान किया, परंतु ब्रह्मा जी के साथ शिवजी भी बैठे ही रहे। शिव को अपना जामाता अर्थात् पुत्र समान होने के कारण उनके द्वारा खड़े होकर आदर नहीं दिये जाने से दक्ष ने अपना अपमान महसूस किया और उन्होंने शिव के प्रति कटूक्तियों का प्रयोग करते हुए अब से उन्हें यज्ञ में देवताओं के साथ भाग न मिलने का शाप दे दिया। इस प्रकार इन दोनों का मनोमालिन्य हो गया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%B9%E0%A4%B0
मैहर
उक्त घटना के बाद प्रजापति दक्ष ने अपनी राजधानी कनखल में एक विराट यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने अपने जामाता शिव और पुत्री सती को यज्ञ में आने हेतु निमंत्रित नहीं किया। शंकर जी के समझाने के बाद भी सती अपने पिता के उस यज्ञ में बिना बुलाये ही चली गयी। यज्ञस्थल में दक्ष प्रजापति ने सती और शंकर जी का घोर निरादर किया। अपमान न सह पाने के कारण सती ने तत्काल यज्ञस्थल में ही योगाग्नि से स्वयं को भस्म कर दिया। सती की मृत्यु का समाचार पाकर भगवान् शंकर ने वीरभद्र को उत्पन्न कर उसके द्वारा उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया। वीरभद्र ने पूर्व में भगवान् शिव का विरोध तथा उपहास करने वाले देवताओं तथा ऋषियों को यथायोग्य दण्ड देते हुए दक्ष प्रजापति का सिर भी काट डाला। बाद में ब्रह्मा जी के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर भगवान् शंकर ने दक्ष प्रजापति को उसके सिर के बदले में बकरे का सिर प्रदान कर उसके यज्ञ को सम्पन्न करवाया।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%B9%E0%A4%B0
मैहर
दक्ष-यज्ञ-विध्वंस की कथा के विकास के स्पष्टतः तीन चरण हैं। इस कथा के प्रथम चरण का रूप महाभारत के शांतिपर्व में है। कथा के इस प्राथमिक रूप में भी दक्ष का यज्ञ कनखल में हुआ था इसका समर्थन हो जाता है। यहाँ कनखल में यज्ञ होने का स्पष्ट उल्लेख तो नहीं है, परंतु गंगाद्वार के देश में यज्ञ होना उल्लिखित है और कनखल गंगाद्वार (हरिद्वार) के अंतर्गत ही आता है। इस कथा में दक्ष के यज्ञ का विध्वंस तो होता है परंतु सती भस्म नहीं होती है। वस्तुतः सती कैलाश पर अपने पति भगवान शंकर के पास ही रहती है और अपने पिता दक्ष द्वारा उन्हें निमंत्रण तथा यज्ञ में भाग नहीं दिये जाने पर अत्यधिक व्याकुल रहती है। उनकी व्याकुलता के कारण शिवजी अपने मुख से वीरभद्र को उत्पन्न करते हैं और वह गणों के साथ जाकर यज्ञ का विध्वंस कर डालता है। परंतु, न तो वीरभद्र दक्ष का सिर काटता है और न ही उसे भस्म करता है। स्वाभाविक है कि बकरे का सिर जोड़ने का प्रश्न ही नहीं उठता है। वस्तुतः इस कथा में 'यज्ञ' का सिर काटने अर्थात् पूरी तरह 'यज्ञ' को नष्ट कर देने की बात कही गयी है, जिसे बाद की कथाओं में 'दक्ष' का सिर काटने से जोड़ दिया गया। इस कथा में दक्ष 1008 नामों के द्वारा शिवजी की स्तुति करता है और भगवान् शिव प्रसन्न होकर उन्हें वरदान देते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%B9%E0%A4%B0
मैहर
इस कथा के विकास के दूसरे चरण का रूप श्रीमद्भागवत महापुराण से लेकर शिव पुराण तक में वर्णित है। इसमें सती हठपूर्वक यज्ञ में सम्मिलित होती है तथा कुपित होकर योगाग्नि से भस्म भी हो जाती है। स्वाभाविक है कि जब सती योगाग्नि में भस्म हो जाती है तो उनकी लाश कहां से बचेगी ! इसलिए उनकी लाश लेकर शिवजी के भटकने आदि का प्रश्न ही नहीं उठता है। ऐसा कोई संकेत कथा के इस चरण में नहीं मिलता है। इस कथा में वीरभद्र शिवजी की जटा से उत्पन्न होता है तथा दक्ष का सिर काट कर जला देता है। परिणामस्वरूप उसे बकरे का सिर जोड़ा जाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%B9%E0%A4%B0
मैहर
कथा के विकास के तीसरे चरण का रूप देवीपुराण (महाभागवत) जैसे उपपुराण में वर्णित हुआ है। जिसमें सती जल जाती है और दक्ष के यज्ञ का वीरभद्र द्वारा विध्वंस भी होता है। यहाँ वीरभद्र शिवजी के तीसरे नेत्र से उत्पन्न होता है तथा दक्ष का सिर भी काटा जाता है। फिर स्तुति करने पर शिव जी प्रसन्न होते हैं और दक्ष जीवित भी होता है तथा वीरभद्र उसे बकरे का सिर जोड़ देता है। परंतु, यहाँ पुराणकार कथा को और आगे बढ़ाते हैं तथा बाद में भगवान शिव को पुनः सती की लाश सुरक्षित तथा देदीप्यमान रूप में यज्ञशाला में ही मिल जाती है। तब उस लाश को लेकर शिवजी विक्षिप्त की तरह भटकते हैं और भगवान् विष्णु क्रमशः खंड-खंड रूप में चक्र से लाश को काटते जाते हैं। इस प्रकार लाश के विभिन्न अंगों के विभिन्न स्थानों पर गिरने से 51 शक्ति पीठों का निर्माण होता है। स्पष्ट है कि कथा के इस तीसरे रूप में आने तक में सदियों या सहस्राब्दियों का समय लगा होगा।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%B9%E0%A4%B0
मैहर
इस तरह सती के शरीर का जो हिस्सा और धारण किये आभूषण जहाँ-जहाँ गिरे वहाँ-वहाँ शक्ति पीठ अस्तित्व में आ गये। शक्तिपीठों की संख्या विभिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न बतायी गयी है। तंत्रचूड़ामणि में शक्तिपीठों की संख्या 52 बताई गयी है। देवीभागवत में 108 शक्तिपीठों का उल्लेख है, तो देवीगीता में 72 शक्तिपीठों का जिक्र मिलता है। देवीपुराण में 51 शक्तिपीठों की चर्चा की गयी है। परम्परागत रूप से भी देवीभक्तों और सुधीजनों में 51 शक्तिपीठों की विशेष मान्यता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%B9%E0%A4%B0
मैहर
यह कहा जाता है कि जब शिव मृत देवी माँ के शरीर ले जा रहे थे, उनका हार इस जगह पर गिर गया और इसलिए नाम मैहर (मैहर = माई का हार ) पड़ गया। एक कहानी यह भी है कि भगवती सती का उर्ध्व ओष्ठ यहां गिरा था।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
हर्निया
ग्रोइन हर्निया जो पुरुषों में लक्षण पैदा नहीं करते हैं, उन्हें ठीक करने की आवश्यकता नहीं है।  हालांकि, आमतौर पर महिलाओं में ऊरु हर्निया की उच्च दर के कारण मरम्मत की सिफारिश की जाती है, जिसमें अधिक जटिलताएं होती हैं। अगर गला घोंट दिया जाता है, तो तत्काल सर्जरी की आवश्यकता होती है।  मरम्मत ओपन सर्जरी या लेप्रोस्कोपिक सर्जरी द्वारा की जा सकती है। ओपन सर्जरी में सामान्य एनेस्थीसिया के बजाय संभवतः स्थानीय एनेस्थीसिया के तहत किए जाने का लाभ होता है। लैप्रोस्कोपिक सर्जरी में आमतौर पर प्रक्रिया के बाद कम दर्द होता है।  अंतराल हर्निया का इलाज जीवन शैली में बदलाव के साथ किया जा सकता है जैसे कि बिस्तर का सिर उठाना, वजन कम करना और खाने की आदतों को समायोजित करना।  दवाएं H2 ब्लॉकर्स या प्रोटॉन पंप अवरोधक सहायता कर सकते हैं। यदि लक्षणों में दवाओं से सुधार नहीं होता है, तो लैप्रोस्कोपिक निसेन फंडोप्लीकेशन के रूप में जानी जाने वाली सर्जरी एक विकल्प हो सकती है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
हर्निया
लगभग 27% पुरुषों और 3% महिलाओं को अपने जीवन में कभी न कभी ग्रोइन हर्निया होता है। वंक्षण, ऊरु और उदर हर्निया 18.5 मिलियन लोगों में मौजूद थे और इसके परिणामस्वरूप 2015 में 59,800 मौतें हुईं।  ग्रोइन हर्निया सबसे अधिक 1 वर्ष की आयु से पहले और 50 वर्ष की आयु के बाद होता है। यह ज्ञात नहीं है कि आम तौर पर अंतराल हर्निया कैसे होता है, उत्तरी अमेरिका में अनुमान 10% से 80% तक भिन्न होता है।  हर्निया का पहला ज्ञात वर्णन कम से कम 1550 ईसा पूर्व का है, मिस्र के एबर्स पपाइरस मे।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
हर्निया
हर्निया कई प्रकार के होते हैं। साधारणत: हर्निया से हमारा आशय उदर हर्निया से ही होता है। मनुष्य हर्निया से आक्रांत है, ऐसा कहा जाता है। स्थान के अनुसार उनका वर्गीकरण किया गया है। कुछ अन्वेषकों के नाम पर भी हर्निया का नाम दिया गया है, जैसे रिक्टर हर्निया। विभिन्न स्थानों के हर्निया इस प्रकार हैं-
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
हर्निया
वंक्षण हर्निया (inguinal hernia) अऋज् या ऋज् हो सकता है। अऋज् हर्निया जन्मजात, शैशव या अर्जित हो सकता है। पूर्ण या अपूर्ण ऋज् हर्निया बाह्य (external) पार्श्व, नाभिस्थ स्नायु के पार्श्व से या अन्तर (internal) पार्श्व नाभिस्थ स्नायु के अंदर से अन्तरालीय और आवर्तक हर्निया भी हो सकता है। इनके अतिरिक्त फुफ्फुस के, मस्तिष्क के तथा उदरावरण के भी हर्निया होते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
हर्निया
प्रवर्तक (promotor) कारणों में कास, कोष्ठबद्धता, प्रसव, वर्षित पुरस्थ ग्रन्थि (prostate gland), मूत्रकृच्छता आदि के कारण उदरगुहा में नित्य दबाव बढ़ना अथवा "अन्तरंग" का स्थानभ्रष्ट होना हो सकता है। यह रोग शायद पैतृक भी हो सकता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
हर्निया
जिस क्रिया में विस्थापित अंग दबाव आदि से पुन: यथास्थान स्थापित किया जा सकता है वह रिड्यूसिबल (reducible) हर्निया कहलाता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE
हर्निया
शोथ, संकोच आदि के उपद्रवों के कारण जिस हर्निया में विस्थापित अंग पुन: यथास्थान संस्थापित न किया जा सकता हो वह इर्रिड्यूसिबल हर्निया कहलाता है।
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हर्निया
स्ट्रेंग्यूलेटेड (Strangulated) हर्निया - इसमें विस्थापित अंग द्वारा सूक्ष्म ऊतकों में रुधिर परिवहन रुक जाता है।
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हर्निया
हर्निया के स्थान पर गोल उभार होना, कुछ उतरने जैसा अनुभव होता, उभार का अंदेशा होने पर उसमें आंत्र कुंजन सुनाई देता है तथा थपथपाने पर अनुनाद सुनाई देता है।
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रक्तचाप
निम्न रक्तचाप (हाइपोटेंशन) वह दाब है जिससे धमनियों और नसों में रक्त का प्रवाह कम होने के लक्षण या संकेत दिखाई देते हैं। जब रक्त का प्रवाह कफी कम होता हो तो मस्तिष्क, हृदय तथा गुर्दे जैसे महत्वपूर्ण इंद्रियों में ऑक्सीजन और पौष्टिक पदार्थ नहीं पहुंच पाते जिससे ये इंद्रियां सामान्य रूप से काम नहीं कर पाती और इससे यह स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो सकती है। उच्च रक्तचाप के विपरीत, निम्न रक्तचाप की पहचान मूलतः लक्षण और संकेत से होती है, न कि विशिष्ट दाब संख्या के। किसी-किसी का रक्तचाप ९०/५० होता है लेकिन उसमें निम्न रक्त चाप के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते हैं और इसलिए उन्हें निम्न रक्तचाप नहीं होता तथापि ऐसे व्यक्तियों में जिनका रक्तचाप उच्च है और उनका रक्तचाप यदि १००/६० तक गिर जाता है तो उनमें निम्न रक्तचाप के लक्षण दिखाई देने लगते हैं।
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रक्तचाप
यदि किसी को निम्न रक्तचाप के कारण चक्कर आता हो या मितली आती हो या खड़े होने पर बेहोश होकर गिर पड़ता हो तो उसे आर्थोस्टेटिक उच्च रक्तचाप कहते हैं। खड़े होने पर निम्न दाब के कारण होने वाले प्रभाव को सामान्य व्यक्ति शीघ्र ही काबू में कर लेता है। लेकिन जब पर्याप्त रक्तचाप के कारण चक्रीय धमनी में रक्त की आपूर्ति नहीं होती है तो व्यक्ति को सीने में दर्द हो सकता है या दिल का दौरा पड़ सकता है। जब गुर्दों में अपर्याप्त मात्रा में खून की आपूर्ति होती है तो गुर्दे शरीर से यूरिया और क्रिएटाइन जैसे अपशिष्टों को निकाल नहीं पाते जिससे रक्त में इनकी मात्रा अधिक हो जाती है।
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रक्तचाप
यह एक ऐसी स्थिति है जिससे जीवन को खतरा हो सकता है। निम्न रक्तचाप की स्थिति में गुर्दे, हृदय, फेफड़े तथा मस्तिष्क तेजी से खराब होने लगते हैं।
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रक्तचाप
१३०/८० से ऊपर का रक्तचाप, उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन कहलाता है। इसका अर्थ है कि धमनियों में उच्च चाप (तनाव) है। उच्च रक्तचाप का अर्थ यह नहीं है कि अत्यधिक भावनात्मक तनाव हो। भावनात्मक तनाव व दबाव अस्थायी तौर पर रक्त के दाब को बढ़ा देते हैं। सामान्यतः रक्तचाप १२०/८० से कम होनी चाहिए और १२०/८० तथा १३९/८९ के बीच का रक्त का दबाव पूर्व उच्च रक्तचाप (प्री हाइपरटेंशन) कहलाता है और १४०/९० या उससे अधिक का रक्तचाप उच्च समझा जाता है। उच्च रक्तचाप से हृदय रोग, गुर्दे की बीमारी, धमनियों का सख्त हो जाने, आंखे खराब होने और मस्तिष्क खराब होने का जोखिम बढ़ जाता है। है। युवाओं में ब्लड प्रेशर की समस्या का मुख्य कारण उनकी अनियमित जीवन शैली और गलत खान-पान होते हैं। यदि चक्कर आयें, सिर दर्द हो, साँस में तक़लीफ़ हो, नींद न आए, शीथीलता रहे, कम मेहनत करने पर सांस फूले और नाक से खून गिरे इत्यादि तो चिकित्सक से जांच करायें, संभव है ये उच्च रक्तचाप के कारण हो। उच्च रक्ततचाप के कारणों में:
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