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20231101.hi_1761_9
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पुणे
पुणे का मध्यबिन्दु (Zero milestone) पुणे जी.पी.ओ पोस्ट ऑफिस के बाहर है। जी.पी.ओ. पुणे सह्याद्रि पर्वत के पूर्व और समुद्रतल से 560 मी (1,837 फूट) की ऊचाँई पर है। भीमा नदीकी उपनदियाँ मुला व मुठा के संगम पर यह शहर बसा है। पवना व इन्द्रायणी ये नदियाँ पुणे शहर के उत्तर-पश्चिम दिशा मे बहती है। शहर का सर्वोच्च बिन्दु वेताल टेकडी (समुद्रतल से 800 मी) है और शहर के पास का सिंहगड किले की ऊचाँई 1300 मी. है।
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20231101.hi_1761_10
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पुणे
पुणे शहर कोयना भूकम्प क्षेत्र मे आता है जो पुणे शहर से 100 कि॰मी॰ दक्षिण दिशा मे है। पुणे में मध्यम व छोटे भूकम्प आए है। कात्रज, में 17 मई, 2004 को 3.2 रि. स्केल का भूकंप आया था।
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पुणे
पुणे शहर के पूर्व में नदी किनारे पेठ के अनुसार बढता गया, जो नए उपनगर है और जुडते हुए शहर का विस्तार करते चले गए है। पेठ के नाम सप्ताह के दिनो के नाम और ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम पर रखे गए। पुणे के पेठ के नाम इस प्रकार हैं:
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पुणे
पुणे ये १७ पेठ का शहर है। कसबा पेठ, रविवार पेठ, सोमवार पेठ, मंगलवार पेठ, बुधवार पेठ, गुरुवार पेठ, शुक्रवार पेठ, शनिवार पेठ, गंज पेठ (महात्मा फुले पेठ), सदाशिव पेठ, नवी (सदाशिव) पेठ, नारायण पेठ, भवानी पेठ, नाना पेठ, रास्ता पेठ, गणेश पेठ, घोरपडे पेठ।
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बिटकॉइन
सामूहिक संगणक जाल पर पारस्परिक भुगतान हेतु कूट-लेखन द्वारा सुरक्षित यह एक नवीन मुद्रा है। अंकीय प्रणाली से बनाई गई यह मुद्रा अंकीय पर्स में ही रखी जाती है। इसकी शुरुआत 3 जनवरी 2009 को हुई थी। यह विश्व का प्रथम पूर्णतया खुला भुगतान तन्त्र है। दुनिया भर में 1 करोड़ से अधिक बिटकॉइन हैं।
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बिटकॉइन
बिटकॉइन एक वर्चुअल यानी आभासी मुद्रा है, आभासी मतलब कि अन्य मुद्रा की तरह इसका कोई भौतिक स्वरुप नहीं है यह एक डिजिटल करेंसी है। यह एक ऐसी मुद्रा है जिसको आप ना तो देख सकते हैं और न ही छू सकते हैं। यह केवल इलेक्ट्रॉनिकली स्टोर होती है। अगर किसी के पास बिटकॉइन है तो वह आम मुद्रा की तरह ही सामान खरीद सकता है।
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बिटकॉइन
वर्तमान में संसार में बिटकॉइन बहुत लोकप्रिय हो रहा है। इसका आविष्कार  सातोशी नकामोतो नामक एक अभियन्ता ने 2008 में किया था और 2009 में ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर के रूप में इसे जारी किया गया था। वर्तमान में लोग कम कीमत पर बिटकॉइन खरीद कर ऊँचे दामों पर बेच कर कारोबार कर रहे हैं।
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बिटकॉइन
आम डेबिट /क्रेडिट कार्ड से भुगतान करने में लगभग दो से तीन प्रतिशत लेनदेन शुल्क लगता है, लेकिन बिटकॉइन में ऐसा कुछ नहीं होता है। इसके लेनदेन में कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लगता है, इस वजह से भी यह लोकप्रिय होता जा रहा है। इसके अलावा यह सुरक्षित और तेज है, जिससे लोग बिटकॉइन स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित हो रहे हैं। किसी अन्य क्रेडिट कार्ड की तरह इसमें कोई क्रेडिट लिमिट नहीं होती है न ही कोई नगदी लेकर घूमने की समस्या है। खरीदार की पहचान का खुलासा किए बिना पूरे बिटकॉइन नेटवर्क के प्रत्येक लेन देन के बारे में पता किया जा सकता है। यह एकदम सुरक्षित और सुपर फास्ट है और यह दुनिया में कहीं भी कारगर है और इसकी कोई सीमा भी नहीं है।
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बिटकॉइन
ऐसे सैकड़ों हजारों वेबसाइट कम्पनी है जो बिटकोइन को स्वीकार कर रही हैं। प्लेन की टिकट, होटल रूम, इलेक्ट्रॉनिक्स, कार, कॉफी और किसी अन्य चीज के लिए भी पेमेण्ट कर सकते हैं। हर साल दुनिया में  $1 से लेकर एक मिलियन डॉलर तक इधर से उधर हो जाता है। वैसे भी पैसे लेने के लिए हम लोग बैंक और कई कम्पनी का सहारा लेते हैं यह सभी कम्पनियाँ हमारे भेजे हुए पैसे को हमारे लोगों तक पहुचाने के लिए अतिरिक्त राशि  लेती है और हमें उन पर भरोसा करना पड़ता है। वेस्टर्न यूनियन, मनी ग्राम और उन जैसी दूसरी कम्पनियाँ की मदद चाहिए होती है मगर  इस सुविधा को प्राप्त  करने के लिए कोई मंजूरी भी लेनी नहीं पड़ती है। आज भी कई लोगों के पास बैंकिंग सुविधा नहीं है, लेकिन उन लोगों की संख्या अधिक है जिनके पास इणृटरनेट के साथ सेल फोन है और यह इण्टरनेट के माध्यम से व्यापार नहीं कर सकते। लेकिन अब यह बिटकॉइन की वजह से ऐसा कर सकते हैं क्योंकि बिटकॉइन पर किसी व्यक्ति विशेष सरकार या कम्पनी का कोई स्वामित्व नहीं होता है। बिटकॉइन मुद्रा पर कोई भी सेण्ट्रलाइज कण्ट्रोलिंग अथॉरिटी नहीं है। आज बिटकॉइन काफी प्रसिद्ध है। इसे शक्ति उन हजारों लोगों से मिलती है जिनके पास विशेष कम्प्यूटर है जो नेटवर्क को शक्ति सम्पन्न बनाते हैं नेट पर विनिमय को सुरक्षित करते हैं और लेनदेन की जाँच करते हैं। इसे माइनिंग कहा जाता है।
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बिटकॉइन
एक आकड़ा के अनुसार साल 2010 से लेकर 2017 तक लोगों ने बिटकॉइन में पैसा निवेश करके काफी मुनाफा कमाया है।देखिये सबकी अपनी मत होती है लेकिन जो मैंने आंकड़े दिखाए है इससे प्रभाव में आप निवेश ना करे आप बस सोच – विचार कर के ही इन्वेस्ट करे नहीं तो आपको बहुत नुक्सान उठाना पड़ सकता है वैसे अगर मैं आपको बताऊँ तो अगर इसके दाम गिरते है तो आपको भी नुक्सान होगा और आप जानते है हमारे इंडियन रूपए की Value Bitcoin के सामने बहुत कम है।
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बिटकॉइन
आम भाषा में माइनिंग का मतलब ये होता है कि खुदाई के द्वारा खनिजो को निकालना जैसे की सोना कोयला आदि की माइनिंग। चूँकि बिटकॉइन का कोई भौतिक रूप नहीं है अतः इसकी माइनिंग परम्परागत तरीके से नहीं हो सकती। इसकी माइनिंग मतलब की बिटकॉइन का निर्माण करना होता है जो की कम्प्यूटर पर ही सम्भव है अर्थात बिटकॉइन को कैसे बनाएँ नई बिटकॉइन बनाने के तरीके को बिटकॉइन माइनिंग कहा जाता है।
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बिटकॉइन
बिटकॉइन माइनिंग का मतलब एक ऐसी प्रोसेस है जिसमें कम्प्यूटिंग पावर का इस्तेमाल कर ट्रांजैक्शन प्रोसेस किया जाता है, नेटवर्क को सुरक्षित रखा जाता है साथ ही नेटवर्क को सिंक्रोनाइज भी किया जाता है। यह एक बिट कम्प्यूटर सेंटर की तरह है पर यह डीसेण्ट्रलाइज सिस्टम है जिससे कि दुनिया भर में स्थित माइनरस कण्ट्रोल करते हैं। माइनर वो होते हैं जो माइनिंग का कार्य करते हैं अर्थात जो बिटकॉइन बनाते हैं अकेला एक इंसान माइनिंग को कण्ट्रोल नहीं कर सकता। बिटकॉइन माइनिंग की सफलता का ट्रांजैक्शन प्रोसेस करने पर जो पुरस्कार मिलता है वह बिटकॉइन होता है। बिटकॉइन माइनरस को माइनिंग के लिए  एक इस्पेशल हार्डवेयर या कहें तो एक शक्तिशाली कंप्यूटर जिसकी प्रोसेसिंग तीव्र होने की आवश्यकता होती है इसके अलावा बिटकॉइन माइनिंग सॉफ्टवेयर की आवश्यकता होती है माइनरस अगर ट्रांजैक्शन को कंप्लीट कर लेते हैं तो उन्हें ट्रांजैक्शन फीस मिलती है यह ट्रांजैक्शन फीस बिटकॉइन के रूप में ही होती है एक नई ट्रांजैक्शन को कंफर्म होने के लिए उन्हें ब्लॉक में शामिल करना पड़ता है उसके साथ एक गणितीय प्रणाली होती है उससे हल करना होता है जो कि बहुत कठिन होता है जिसकी पुष्टि करानी होती है प्रूफ़ करने के लिए आपको लाखों कैलकुलेशन प्रति सेकेण्ड करनी पड़ेगी उसके बाद ही ट्रांजैक्शन कंफर्म होगा। जैसे जैसे माइनरस हमारे इस नेटवर्क से जुड़ेंगे तो उन्हें माइनिंग करने के लिए रिक्त ब्लाक खोजने का तरीका और भी कठिन हो जाएगा |
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बिटकॉइन
माइनिंग का काम वही लोग करते हैं जो जिनके पास के पास विशेष गणना वाले कम्प्यूटर और गणना करने की उचित क्षमता हो ऐसा नहीं होने पर माइनरस केवल इलेक्ट्रिसिटी ही खर्च करेगा और अपना समय बर्बाद करेगा।
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शिलाजीत
शिलाजीत एक गाढ़ा भूरे रंग का, चिपचिपा पदार्थ है जो मुख्य रूप से हिमालय की चट्टानों से पाया जाता है। इसका रंग सफेद से लेकर गाढ़ा भूरा के बीच कुछ भी हो सकता है (अधिकांशतः गाढ़ा भूरा होता है।) शिलाजीत का उपयोग आमतौर पर आयुर्वेदिक चिकित्सा में किया जाता है। आयुर्वेद ने शिलाजीत की बहुत प्रशंसा की है जहाँ इसे बलपुष्टिकारक, ओजवर्द्धक, दौर्बल्यनाशक एवं धातु पौष्टिक अधिकांश नुस्खों में शिलाजीत के प्रयोग किये जाते है ।
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शिलाजीत
यह बहुत  प्रभावी और सुरक्षित है, जो आपके संपूर्ण स्वास्थ्य  पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। शिलाजीत कम टेस्टोस्टेरोन (Low testosterone), भूलने की बीमारी (अल्जाइमर), क्रोनिक थकान सिंड्रोम, आयरन की कमी से होने वाला रक्ताल्पता, पुरुष प्रजनन क्षमता में कमी  (पुरुष बांझपन /Male infertility) अथवा हृदय के लिए लाभदायक है ।
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शिलाजीत
शिलाजीत मई और जून की कड़ी गर्मी में पहाड़ों के पसीने के रूप में निकलता हैं जो मूलतः हिमालय के पहाड़ भारत नेपाल पाकिस्तान तिब्बत जैसे सात देशों में फैले हुए हैं से बहता हैं
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शिलाजीत
शिलाजीत कड़वा, कसैला, उष्ण, वीर्य शोषण तथा छेदन करने वाला होता है। शिलाजीत देखने में तारकोल के समान काला और गाढ़ा पदार्थ होता है जो सूखने पर चमकीला हो जाता है। यह जल में घुलनशील है, किन्तु एल्कोहोल, क्लोरोफॉर्म तथा ईथर में नहीं घुलता।
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शिलाजीत
शिलाजीत को इंडियन वायग्रा कहा जाता है। शीघ्र स्खलनऔर ऑर्गेज्मसुख से वंचित लोगों में यह कामोत्तेजना बढ़ाने का काम करता है।
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शिलाजीत
शिलाजीत के सेवन से नर्वस सिस्टम सही से काम करता है। मानसिक थकावट, अवसाद, तनाव और चिंता से लड़ने के लिए शिलाजीत का सेवन करना चाहिए। शिलाजीत का एक और महत्वपूर्ण कार्य यह है कि यह विभिन्न शरीर प्रणालियों को नियंत्रित करता है, जैसे कि आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली और हार्मोन का संतुलन।
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शिलाजीत
अध्ययनों से पता चलता है कि इसमें विशेष न्यूरोप्रोटेक्टेव क्षमता है। यह अविश्वसनीय पोषक तत्व अल्जाइमर रोग के हल्के मामलों का इलाज करने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। शिलाजीत भारतीय आयुर्वेद में एक महत्वपूर्ण औषधि मानी जाती है जिसे हिमालय के शिला पर्वतों से प्राप्त किया जाता है। यह आपके स्वास्थ्य के लिए अनेक गुणकारी गुणों से भरपूर है, जैसे कि शारीरिक और मानसिक तनाव को कम करना, ऊर्जा को बढ़ाना, इम्यून सिस्टम को मजबूत करना और शरीर के विभिन्न रोगों का इलाज करना। इसके मेंरल्स, विटामिन्स, और एंटीऑक्सीडेंट्स आपके स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद करते हैं। शिलाजीत को सही तरीके से सेवन करने से आपका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य दोनों में सुधार हो सकता है, और यह एक प्राकृतिक और प्रमुख आयुर्वेदिक उपाय के रूप में लोकप्रिय है।
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शिलाजीत
शुद्ध शिलाजीत निरंतर सेवन करने से शरीर पुष्ट तथा स्वास्थ्य बढ़िया रहता है। आयुर्वेद में ऐसे कई योग हैं, जिनमें शुद्ध शिलाजीत होती है जैसे सूर्यतापी शुद्ध शिलाजीत बलपुष्टिदायक है, शिलाजत्वादि वटी अम्बरयुक्त मधुमेह और शुक्रमेह नाशक है, शिलाजतु वटी आयुवर्द्धक है, वीर्यशोधन वटी स्वप्नदोष और धातु क्षीणता नाशक है, चंद्रप्रभावटी विशेष नं. 1 मूत्र विकार और स्वप्नदोष नाशक है, प्रमेहगज केसरी मधुमेह नाशक है, आरोग्य वर्द्धिनी वटी विशेष नं. 1 उदर विकार नाशक है और ब्राह्मी वटी मस्तिष्क को बल देने वाली और स्मरण शक्तिवर्द्धक है। शिलाजीतयुक्त से सभी औषधियां बनी बनाई औषधि विक्रेता की दुकान पर इन्हीं नामों से मिलती है।
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शिलाजीत
https://web.archive.org/web/20200203124756/https://www.nutrition99.com/shilajit-ke-fayde-aur-nuksan/
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A4%BE
अमीबा
अमीबा (Amoeba) जीववैज्ञानिक वर्गीकरण में एक वंश है तथा इस वंश के सदस्यों को भी प्रायः अमीबा कहा जाता है। अत्यंत सरल प्रकार का एक प्रजीव (प्रोटोज़ोआ) है जिसकी अधिकांश जातियाँ नदियों, तालाबों, मीठे पानी की झीलों, पोखरों, पानी के गड्ढों आदि में पाई जाती हैं। कुछ संबंधित जातियाँ महत्त्वपूर्ण परजीवी और रोगकारी हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A4%BE
अमीबा
जीवित अमीबा बहुत सूक्ष्म प्राणी है, यद्यपि इसकी कुछ जातियों के सदस्य 1/2 मि.मी. से अधिक व्यास के हो सकते हैं। संरचना में यह जीवरस (प्रोटोप्लाज्म) के छोटे ढेर जैसा होता है, जिसका आकार निरंतर धीरे-धीरे बदलता रहता है। कोशिकारस बाहर की ओर अत्यंत सूक्ष्म कोशाकला (प्लाज़्मालेमा) के आवरण से सुरक्षित रहता है। स्वयं कोशारस के दो स्पष्ट स्तर पहचाने जा सकते हैं-बाहर की ओर का स्वच्छ, कणरहित, काँच जैसा, गाढ़ा बाह्य रस तथा उसके भीतर का अधिक तरल, धूसरित, कणयुक्त भाग जिसे आंतर रस कहते हैं। आंतर रस में ही एक बड़ा केंद्रक भी होता है। संपूर्ण आंतर रस अनेक छोटी बड़ी अन्नधानियों तथा एक या दो संकोची रसधानियों से भरा होता है। प्रत्येक अन्नधानी में भोजनपदार्थ तथा कुछ तरल पदार्थ होता है। इनके भीतर ही पाचन की क्रिया होती है। संकोचिरसधानी में केवल तरल पदार्थ होता है। इसका निर्माण एक छोटी धानी के रूप में होता है, किंतु धीरे-धीरे यह बढ़ती है और अंत में फट जाती है तथा इसका तरल बाहर निकल जाता है।
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6,052.80872
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A4%BE
अमीबा
अमीबा की चलनक्रिया बड़ी रोचक है। इसके शरीर के कुछ अस्थायी प्रवर्ध निकलते हैं जिनको कूटपाद (नकली पैर) कहते हैं। पहले चलन की दिशा में एक कूटपाद निकलता है, फिर उसी कूटपाद में धीरे-धीरे सभी कोशारस बहकर समा जाता है। इसके बाद ही, या साथ साथ, नया कूटपाद बनने लगता है। हाइमन, मास्ट आदि के अनुसार कूटपादों का निर्माण कोशारस में कुछ भौतिक परिवर्तनों के कारण होता है। शरीर के पिछले भाग में कोशारस गाढ़े गोदं की अवस्था (जेल स्थिति) से तरल स्थिति में परिवर्तित होता है और इसके विपरीत अगले भाग में तरल स्थिति से जेल स्थिति में। अधिक गाढ़ा होने के कारण आगे बननेवाला जेल कोशिकारस को अपनी ओर खींचता है।
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6,052.80872
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A4%BE
अमीबा
अमीबा जीवित प्राणियों की तरह अपना भोजन ग्रहण करता है। वह हर प्रकार के कार्बनिक कणों-जीवित अथवा निर्जीव-का भक्षण करता है। इन भोजनकणों को वह कई कूटपादों से घेर लेता है; फिर कूटपादों के एक दूसरे से मिल जाने से भोजन का कण कुछ तरल के साथ अन्नधानी के रूप में कोशारस में पहुँच जाता है। कोशारस से अन्नधानी में पहले आम्ल, फिर क्षारीय पाचक यूषों का स्राव होता है, जिससे प्रोटीन तो निश्चय ही पच जाते हैं। कुछ लोगों के अनुसार मंड (स्टार्च) तथा वसा का पाचन भी कुछ जातियों में
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6,052.80872
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A4%BE
अमीबा
होता है। पाचन के बाद पचित भोजन का शोषण हो जाता है और अपाच्य भाग चलनक्रिया के बीच क्रमश: शरीर के पिछले भाग में पहुँचता है और फिर उसका परित्याग हो जाता है। परित्याग के लिए कोई विशेष अंग नहीं होता।
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6,052.80872
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A4%BE
अमीबा
श्वसन तथा उत्सर्जन की क्रियाएँ अमीबा के बाह्म तल पर प्राय: सभी स्थानों पर होती हैं। इनके लिए विशेष अंगों की आवयकता इसलिए नहीं होती कि शरीर बहुत सूक्ष्म और पानी से घिरा होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A4%BE
अमीबा
कोशिकारस की रसाकर्षण दाब (ऑसमोटिक प्रेशर) बाहर के जल की अपेक्षा अधिक होने के कारण जल बराबर कोशाकला को पार करता हुआ कोशारस में जमा होता है। इसके फलस्वरूप शरीर फूलकर अंत में फट जा सकता है। अत: जल का यह आधिक्य एक दो छोटी धानियों में एकत्र होता है। यह धानी धीरे-धीरे बढ़ती जाती है तथा एक सीमा तक बढ़ जाने पर फट जाती है और सारा जल निकल जाता है। इसीलिए इसको संकोची धानी कहते हैं। इस प्रकार अमीबा में रसाकर्षण नियत्रंण होता है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%AC%E0%A4%BE
अमीबा
प्रजनन के पहले अमीबा गोलाकार हो जाता है, इसका केंद्रक दो केंद्रकों में बँट जाता है और फिर जीवरस भी बीच से खिंचकर बँट जाता है। इस प्रकार एक अमीबा से विभाजन द्वारा दो छोटे अमीबे बन जाते हैं। संपूर्ण क्रिया एक घंटे से कम में ही पूर्ण हो जाती है।
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6,052.80872
20231101.hi_10453_8
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अमीबा
प्रतिकूल ऋतु आने के पहले अमीबा अन्नधानियों और संकोची धानी का परित्याग कर देता है और उसके चारों ओर एक कठिन पुटी (सिस्ट) का आवेष्टन तैयार हो जाता है जिसके भीतर वह गरमी या सर्दी में सुरक्षित रहता है। पानी सूख जाने पर भी पुटी के भीतर का अमीबा जीवित बना रहता है। हाँ, इस बीच उसकी सभी जीवनक्रियाएँ लगभग नहीं के बराबर रहती हैं। इस स्थिति को बहुधा स्थगित प्राणिक्रम कहते हैं। उबलता पानी डालने पर भी पुटी के भीतर का अमीबा मरता नहीं। बहुधा पुटी के भीतर अनुकूल ऋतु आने पर कोशारस तथा केंद्रक का विभाजन हो जाता है और जब पुटी नष्ट होती है तो उसमें से दो या चार नन्हें अमीबे निकलते हैं।
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6,052.80872
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नैनीताल
गढ़वाल और कुमाऊँ के राजाओं की भी नंदा देवी इष्ट रही है। गढ़वाल और कुमाऊँ की जनता के द्वारा प्रतिवर्ष नंदा अष्टमी के दिन नंदापार्वती की विशेष पूजा होती है। नंदा के मायके से ससुराल भेजने के लिए भी 'नन्दा जात' का आयोजन गढ़वाल-कुमाऊँ की जनता निरन्तर करती रही है। अतः नन्दापार्वती की पूजा - अर्चना के रूप में इस स्थान का महत्व युगों-युगों से आंका गया है। यहाँ के लोग इसी रूप में नन्दा के 'नैनीताल' की परिक्रमा करते आ रहे हैं।
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6,047.880166
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नैनीताल
नैनीताल का मुख्‍य आकर्षण यहाँ की झील है। स्‍कंद पुराण में इसे त्रिऋषि सरोवर कहा गया है। कहा जाता है कि जब अत्री, पुलस्‍त्‍य और पुलह ऋषि को नैनीताल में कहीं पानी नहीं मिला तो उन्‍होंने एक गड्ढा खोदा और मानसरोवर झील से पानी लाकर उसमें भरा। इस झील के बारे में कहा जाता है यहां डुबकी लगाने से उतना ही पुण्‍य मिलता है जितना मानसरोवर नदी से मिलता है। यह झील 64 शक्ति पीठों में से एक है।
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6,047.880166
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नैनीताल
इस खूबसूरत झील में नौकायन का आनंद लेने के लिए लाखों देशी-विदेशी पर्यटक यहाँ आते हैं। झील के पानी में आसपास के पहाड़ों का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। रात के समय जब चारों ओर बल्‍बों की रोशनी होती है तब तो इसकी सुंदरता और भी बढ़ जाती है। झील के उत्‍तरी किनारे को मल्‍लीताल और दक्षिणी किनारे को तल्‍लीताल करते हैं। यहां एक पुल है जहां गांधीजी की प्रतिमा और पोस्‍ट ऑफिस है। यह विश्‍व का एकमात्र पुल है जहां पोस्‍ट ऑफिस है। इसी पुल पर बस स्‍टेशन, टैक्‍सी स्‍टैंड और रेलवे रिज़र्वेशन काउंटर भी है। झील के दोनों किनारों पर बहुत सी दुकानें और खरीदारी केंद्र हैं जहां बहुत भीड़भाड़ रहती है। नदी के उत्‍तरी छोर पर नैना देवी मंदिर है। नैनीताल में तल्लीताल डाट से मछलियों का झुंड उनको खाना आदि देने वालों के लिए आकर्षण का केंद्र है।
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6,047.880166
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नैनीताल
नैनीताल के ताल के दोनों ओर सड़के हैं। ताल का मल्ला भाग मल्लीताल और नीचला भाग तल्लीताल कहलाता है। मल्लीताल में फ्लैट का खुला मैदान है। मल्लीताल के फ्लैट पर शाम होते ही मैदानी क्षेत्रों से आए हुए सैलानी एकत्र हो जाते हैं। यहाँ नित नये खेल - तमाशे होते रहते हैं। संध्या के समय जब सारी नैनीताल नगरीय बिजली के प्रकाश में जगमगाने लगती है तो नैनीताल के ताल के देखने में ऐसा लगता है कि मानो सारी नगरी इसी ताल में डूब सी गयी है। संध्या समय तल्लीताल से मल्लीताल को आने वाले सैलानियों का तांता सा लग जाता है। इसी तरह मल्लीताल से तल्लीताल (माल रोड) जाने वाले प्रकृतिप्रेमियों का काफिला देखने योग्य होता है।
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6,047.880166
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नैनीताल
नैनीताल, पर्यटकों, सैलानियों, पदारोहियों और पर्वतारोहियों का चहेता नगर है जिसे देखने प्रति वर्ष हजारों लोग यहाँ आते हैं। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं जो केवल नैनीताल का "नैनी देवी" के दर्शन करने और उस देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने की अभिलाषा से आते हैं। यह देवी कोई और न होकर स्वयं 'शिव पत्नी' नंदा (पार्वती) हैं। यह तालाब उन्हीं की स्मृति का द्योतक है। इस सम्बन्ध में पौराणिक कथा कही जाती है।
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6,047.880166
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नैनीताल
'नैनीताल' के सम्बन्ध में एक और पौराणिक कथा प्रचलित है। 'स्कन्द पुराण' के मानस खण्ड में एक समय अत्रि, पुस्त्य और पुलह नाम के ॠषि गर्गाचल की ओर जा रहे थे। मार्ग में उन्हें यह स्थान मिला। इस स्थान की रमणीयता में वे मुग्ध हो गये परन्तु पानी के अभाव से उनका वहाँ टिकना (रुकना) और करना कठिन हो गया। परन्तु तीनों ॠथियों ने अपने - अपने त्रिशूलों से मानसरोवर का स्मरण कर धरती को खोदा। उनके इस प्रयास से तीन स्थानों पर जल धरती से फूट पड़ा और यहाँ पर 'ताल' का निर्माण हो गया। इसिलिए कुछ विद्वान इस ताल को 'त्रिॠषि सरोवर' के नाम से पुकारा जाना श्रेयस्कर समझते हैं।
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नैनीताल
झील के एक ओर स्थित है माल रोड‍ जिसे अब गोविंद बल्‍लभ पंत मार्ग कहा जाता है। यहां बहुत सारे होटल, रेस्‍टोरेंट, ट्रैवल एजेंसी, दुकानें और बैंक हैं। सभी पर्यटकों के लिए यह रोड आकर्षण का केंद्र है। माल रोड मल्‍लीताल और तल्‍लीताल को जोड़ने वाला मुख्‍य रास्‍ता है। झील के दूसरी ओर ठंडी रोड है। यह रोड माल रोड जितनी व्‍यस्‍त नहीं रहती। यहां पशान देवी मंदिर भी है। ठंडी रोड पर वाहनों को लाना मना है।
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नैनीताल
यह रोपवे नैनीताल का मुख्‍य आकर्षण है। यह स्‍नो व्‍यू पाइंट और नैनीताल को जोड़ता है। रोपवे मल्‍लीताल से शुरु होता है। यहां दो ट्रॉली हैं जो सवारियों को लेकर जाती हैं। एक तरफ की यात्रा में लगभग १५१.७ सेकंड लगते हैं। रोपवे से शहर का खूबसूरत दृश्‍य दिखाई पड़ता है।
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नैनीताल
सात चोटियों में चीनीपीक (नैना पीक या चाइना पीक) २,६११ मीटर की ऊँचाई वाली पर्वत चोटी है। नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर पर यह चोटी पड़ती है। यहां एक ओर बर्फ़ से ढ़का हिमालय दिखाई देता है और दूसरी ओर नैनीताल नगर का पूरा भव्य दृश्‍य देखा जा सकता है। इस चोटी पर चार कमरे का लकड़ी का एक केबिन है जिसमें एक रेस्तरा भी है।
0.5
6,047.880166
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE
देवता
ऋग्वेद के सूक्तों में देवताओं की स्तुतियों से देवताओं की पहचान की जाती है, इनमें देवताओं के नाम अग्नि, वायु, इन्द्र, वरुण, मित्रावरुण, अश्विनीकुमार, विश्वदेवा, सरस्वती, ऋतु, मरुत, त्वष्टा, ब्रहम्णस्पति, सोम, दक्षिणा इन्द्राणी, वरुनानी, द्यौ, पृथ्वी, पूषा आदि को पहचाना गया है, और इनकी स्तुतियों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
0.5
6,043.550713
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE
देवता
जो लोग देवताओं की अनेकता को नहीं मानते है, वे सब नामों का अर्थ परब्रह्म परमात्मा वाचक लगाते है, और जो अलग अलग मानते हैं वे भी परमात्मात्मक रूप में इनको मानते है।
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6,043.550713
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE
देवता
भारतीय गाथाओम और पुराणों में इन देवताओं का मानवीकरण अथवा पुरुषीकरण हुआ है, फ़िर इनकी मूर्तियाँ बनने लगी, फ़िर इनके सम्प्रदाय बनने लगे, और अलग अलग पूजा पाठ होने लगे देखें (हिन्दू धर्मशास्त्र-देवी देवता), सबसे पहले जिन देवताओं का वर्गीकरण हुआ उनमें ब्रह्मा, विष्णु और शिव का उदय हुआ, इसके बाद में लगातार इनकी संख्या में वृद्धि होती चली गयी, निरुक्तकार यास्क के अनुसार," देवताऒ की उत्पत्ति आत्मा से ही मानी गयी है", देवताओं के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है, कि "तिस्त्रो देवता".अर्थात देवता तीन है, किन्तु यह प्रधान देवता है, जिनके प्रति सृष्टि का निर्माण, इसका पालन और इसका संहार किया जाना माना जाता है। महाभारत के (शांति पर्व) में इनका वर्णनक्रम इस प्रकार से किया गया है:-
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6,043.550713
20231101.hi_5195_7
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE
देवता
आदित्या: क्षत्रियास्तेषां विशस्च मरुतस्तथा, अश्विनौ तु स्मृतौ शूद्रौ तपस्युग्रे समास्थितौ, स्मृतास्त्वन्गिरसौ देवा ब्राहमणा इति निश्चय:, इत्येतत सर्व देवानां चातुर्वर्नेयं प्रकीर्तितम
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6,043.550713
20231101.hi_5195_8
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE
देवता
आदित्यगण क्षत्रिय देवता, मरुदगण वैश्य देवता, अश्विनी गण शूद्र देवता, और अंगिरस ब्राहमण देवता माने गए हैं। शतपथ ब्राह्मण में भी इसी प्रकार से देवताओं को माना गया है ।
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6,043.550713
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE
देवता
इस प्रथा के दार्शनिक आधार की पहली मान्यता मनुष्य में आध्यात्मिक तत्व की अमरता है। आत्मा किसी सूक्ष्म शारीरिक आकार में प्रभावाित होती है और इस आकार के माध्यम से ही आत्मा का संसरण संभव है। असंख्य जन्ममरणोपरांत आत्मा पुनरावृत्ति से मुक्त हो जाती है। यद्यपि आत्मा के संसरण का मार्ग पूर्वकर्मों द्वारा निश्चित होता है तथापि वंशजों द्वारा संपन्न श्राद्धक्रियाओं का माहात्म्य भी इसे प्रभावित करता है। धर्म में दो जन्मों के बीच एक अंत:स्थायी अवस्था की कल्पना की गई है जिसमें आत्मा के संसरण का रूप पूर्वकर्मानुसार निर्धारित होता है। पुनर्जन्म में विश्वास हिंदू तथा जैन चिंतनप्रणलियों में पाया जाता है। हिंदू दर्शन की चार्वाक पद्धति इस दिशा में अपवादस्वरूप है। अन्यथा पुनर्जन्म एवं पितरों की सत्ता में विश्वास सभी चिंतनप्रणालियों और वर्तमान पढ़ अपढ़ सभी हिंदुओं में समान रूप से पाया जाता है।
0.5
6,043.550713
20231101.hi_5195_10
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE
देवता
मालाबार के नायरों में मृतकों को दान देने की रस्म दाहसंस्कार के अगले दिन प्रारंभ की जाती है और पूरे सप्ताह भर चलती है। उत्तरी भारत की नीची जातियों में मृतकों को भोजन देने की प्रथा प्रचलित है। गोंड जाति में दाहसंस्कार संबंधी रस्मों की अवधि केवल तीन दिन है। इन रस्मों की समाप्ति पर शोककर्ता स्नान और क्षोर द्वारा शुद्ध हो पितरों को दूध और अन्न का तर्पण करते हैं। नेपाल में 'कमो' लोहारों में मृत्यु के ११वें दिन मृतक के संबंधियों के भोज का आयोजन किया जाता है। किंतु भोजन प्रारंभ होने के पूर्व प्रत्येक व्यंजन का थोड़ा थोड़ा अंश एक पत्तल पर निकालकर मृत आत्मा के लिये जंगल में भेज दिया जाता है। पत्तल ले जानेवाला व्यक्ति उसे तब तक दृष्टि से ओझल नहीं होने देता जब तक पत्तल में रखे भोजन पर कोई मक्खी या कीड़ा न बैठ जाए। ऐसा होने पर पत्तल को किसी भारी पत्थर से ढक कर वह व्यक्ति अपने साथ लाया भोजन जंगल में ही रख देता है। तदुपरांत वह गाँव में जाकर संबंधियों को मृतात्मा द्वारा उनके दान की स्वीकृति की सूचना देता है और तब भोज प्रारंभ होता है। मक्त ओरांव मृतक के अस्थि अवशेषों को शवस्थान में गाड़कर सुरक्षित रखते हैं। दिवंगत पुरखों को सूअर का मांस और ढेरों चावल भेंट में चढ़ाए जाते हैं और उठते बैठते, भोजन या धूम्रपान के अवसर पर उनका स्मरण किया जाता है। मल पहाड़ियाँ जाति में पूर्वजों की तुलना उन काष्ठस्तंभों से की जाती है जो मकान की छत को सहारा देते हैं। शव को गाड़ते समय मेछ लोग मृतात्मा की तृप्ति के लिये कब्र पर आग जलाकर उसमें भोजन और पेय पदार्थों की आहुति देते हैं। मल पहाड़ियाँ भी अक्टूबर नवंबर मास में कालीपूजा की रात्रि को मृत पुरखों के सम्मान में सूखे सन की बत्तियाँ जलाते हैं। उत्तरी भारत के अन्य भागों में इस प्रकार की रीतियाँ प्रचलित हैं। मिर्जापुर के घासिया पाँच पत्तलों में प्रतिदिन भोजन सजाकर पुरखों को भेंट चढ़ाते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं कि वे उनकी भेंट स्वीकार कर अपने वंशजों और पशुधन पर कृपादृष्टि रखें। कोलों में मृतात्मा को मुर्गे की बलि देते हैं। वे बलिस्थल पर शराब छिड़ककर संतति की सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं। राजी लोग सिर, दाढ़ी और मूँछों के बाल मुँडाकर उन्हें पूर्वजों की भेंट स्वरूप कब्र पर छोड़ देते हैं। खानाबदोश और पूर्व अपराधोपजीवी नट कबीले के लोग नदी के तट पर भोजन बनाते हैं और कपड़ा बिछा उसपर मृतात्मा के बैठने की प्रतीक्षा करते हैं। मृतक का निकटतम संबंधी एक कुल्हड़ और धुरी हाथ में लेकर नदी में डुबकी लगाता है। वह तब तक जल से बाहर नहीं आता जब तक सिर पर रखा कुल्हड़ भर न जाए। कुल्हड़ को कपड़े पर रख, उसके चारों कोनों का भी ऐसे कुल्हड़ों से दबा दिया जाता है। फिर कुल्हड़ों से घिरे इस कपड़े पर आत्मा की तृप्ति के लिये भोजन रख दिया जाता है।
0.5
6,043.550713
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE
देवता
कुछ भारतीय जातियों में मृतात्मा की भोजन संबंधी आवश्यकता की पूर्ति माता की ओर से संबंधियों को भोज देकर की जाती है। निचले हिमालय की तराई के भोकसा अपनी पुत्रियों के वंशजों को भोज देकर मृतात्मा की शांति की व्यवस्था करते हैं। उड़ीसा के जुआंग और उत्तरी भारत के अन्य कबीले मृतक के मामा को पुजारी का पद देते हैं। गया ओर ऐसे अन्य स्थानों में जहाँ सगे संबंधियों को पिंडदान दिया जाता है, ऐसे अवसरों पर भोजन करने के लिये ब्राह्मणों का एक विशेष वर्ग भी बन गया है। समस्त भारत में आश्विन (अगस्त सितंबर) मास में पितृपक्ष के अवसर पर वंशज पुरखों को पिंडदान देते हैं और पूरे पखवारे निकटतम पवित्र नदी में स्नान करते हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%BE
देवता
मैसूर के कुरुवारू और नीलगिरि पहाड़ियों के येरुकुल अपने देवताओं के साथ पितरों को भी बलि देते हैं। मुंबई राज्य के ढोर कठकरी तथा अन्य हिंदू कबीले बिना छिले नारियल का पूर्वज मानकर उसकी पूजा करते हैं।
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6,043.550713
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%B0
ग्वालियर
ग्वालियर संगीत के शहर के रूप में भी जाना जाता है।राजा मान सिंह तोमर (१४८६ ई.)के शासनकाल में संगीत महाविद्यालय की नींव रखी गई। बैजू बावरा, हरिदास ,तानसेन आदि ने यहीं संगीत साधना की। संगीत सम्राट तानसेन ग्वालियर के बेहट में पैदा हुए।म. प्र. सरकार द्वारा तानसेन समारोह ग्वालियर में हर साल आयोजित किया जाता है। सरोद उस्ताद अमजद अली ख़ान भी ग्वालियर के शाही शहर से है। उनके दादा गुलाम अली खान बंगश ग्वालियर के दरबार में संगीतकार बने। बैजनाथ प्रसाद (बैजू बावरा) ध्रुपद के गायक थे जिन्होने ग्वालियर को अपनी कर्म भूमि बनाई।
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6,039.749649
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ग्वालियर
यह ख़याल घरानों में सबसे पुराना घराना है, जिससे कई महान संगीतज्ञ निकले है। ग्वालियर घराने का उदय महान मुग़ल बादशाह अकबर के शासनकाल (1542-1605) के साथ शुरू हुआ। तानसेन जैसे इस कला के संरक्षक ग्वालियर से आये।
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ग्वालियर
ग्वालियर का राजमाता विजया राजे सिंधिया विमानतल, शहर को दिल्‍ली, मुंबई, इंदौर, भोपाल व जबलपुर से जोड़ता है। यहाँ भारतीय वायु सेना का मिराज़ विमानों का विमान केन्द्र है।
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ग्वालियर
ग्वालियर का रेलवे स्थानक देश के विविध रेलवे स्थानकों से जुड़ा हुआ है। यह रेलवे स्थानक भारतीय रेल के दिल्‍ली-चैन्‍नई मुख्य मार्ग पर पड़ता है। साथ ही यह शहर कानपुर, मुम्‍बई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बंगलूरू, हैदराबाद आदि शहरों से अनेक रेलगाडियों के माध्‍यम से जुड़ा हुआ है।
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6,039.749649
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ग्वालियर
ग्वालियर शहर राज्य व देश के अन्य भागों से काफ़ी अच्छे से जुड़ा हुआ है। आगरा-मुम्बई राष्ट्रीय राजमार्ग NH-३, ग्वालियर से गुजरता है। ग्वालियर झाँसी से NH-७५ से जुड़ा है। नॉर्थ-साउथ कॉरीडोर भी ग्वालियर से गुजरता है, एवं ग्वालियर भिण्ड से NH-९२ से जुड़ा हुआ है।
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6,039.749649
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ग्वालियर
ग्वालियर पश्चिमको राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रसे धन सहायता के साथ एक "काउंटर मैग्नेट" परियोजना के रूप में विकसित किया जा रहा है। इसे शिक्षा, उद्योग और रियल एस्टेट में निवेश बढ़ाने के लिए पेश किया गया है।हॉटलाइन, सिमको और ग्रासिम ग्वालियर जैसे निर्माताओं के समापन का मुकाबला करने की उम्मीद है। स्थानीय कलेक्टर और नगर निगम द्वारा शुरू की गई ग्वालियर मास्टर योजना शहर की बढ़ती आबादी को पूरा करने और साथ ही शहर को पर्यटकों के लिए सुंदर बनाने के लिए शहर के बुनियादी नागरिक बुनियादी ढांचे में सुधार करने की पहल करती है।
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6,039.749649
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ग्वालियर
ग्वालियर मृणशिल्पों की दृष्टि से आज उतना समृद्व भले ही न दिखता हो किन्तु लगभग पच्चीस वर्ष पहले तक यहां अनेक सुन्दर खिलौने बनाये जाते थे। दीवाली, दशहरे के समय यहां का जीवाजी चौक जिसे बाड़ा भी कहा जाता है, में खिलौनों की दुकाने बड़ी संख्या में लगती थी। मिट्टी के ठोस एवं जल रंगों से अलंकृत वे खिलौने अधिकांशतः बनना बन्द हो गये हैं। गूजरी, पनिहारिन, सिपाही, हाथी सवार, घोड़ा सवार, गोरस, गुल्लक आदि आज भी बिकते है। अब यहां मिटटी के स्थान पर कागज की लुगदी के खिलौने अधिक बनने लगे हैं जिन पर स्प्रेगन की सहायता से रंग ओर वार्निश किया जाता है।
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20231101.hi_2564_37
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ग्वालियर
यहां बनाये जाने वाले मृण शिल्पों में अनुष्ठानिक रूप से महत्वपूर्ण है, महालक्ष्मी का हाथी, हरदौल का धोड़ा, गणगौर, विवाह के कलश, टेसू, गौने के समय वधू को दी जाने वाली चित्रित मटकी आदि।
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ग्वालियर
ग्वालियर, कुंभार (प्रजापति) समुदाय की सामाजिक संरचना के अध्ययन की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां हथेरिया एवं चकरेटिया दोनों ही प्रकार के कुंभार पाये जाते है। हथरेटिया कुंभार चकरेटिया कुंभारों की भांति बर्तन बनाने के लिए चाक का प्रयोग नहीं करते, वे हाथों से ही, एक कूंढे की सहायता से मिटटी को बर्तनों को आकार देते हैं। उनके बनाये बर्तनों की दीवारें मोटी होती हैं। ये लोग खिलौनें बनाने में दक्ष होते है।
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झाँसी
झाँसी किले में स्थित यह संग्रहालय इतिहास में रूचि रखने वाले पर्यटकों का मनपसन्द स्थान है। यह संग्रहालय केवल झाँसी की ऐतिहासिक धरोहर को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड की झलक प्रस्तुत करता है। यहाँ चन्देल शासकों के जीवन से संबंधित अनेक जानकारियाँ हासिल की जा सकती हैं। चन्देल काल के अनेक हथियारों, मूर्तियों, वस्त्रों और तस्वीरों को यहाँ देखा जा सकता है।
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झाँसी
झाँसी के राजपरिवार के सदस्य पहले श्री गणेश मंदिर जाते थे जहा पर रानी मणिकर्णिका और श्रीमन्त गंगाधर राव नेवालकर की शादी हुई फिर इस महालक्ष्मी मन्दिर जाते थे। 18वीं शताब्दी में बना यह भव्य मन्दिर देवी महालक्ष्मी को समर्पित है। यह मन्दिर लक्ष्मी दरवाजे के निकट स्थित है।यह देवी आज भी झाँसी के लोगो की कुलदेवी है क्योंकि आदी अनादि काल से यह प्रथा रही है कि जो राज परिवार के कुलदेवी और कुलदैवत होते है वही उस नगरवासियों के कुलदैवत होते है तो झाँसी वालो के मुख्य अराध्य देव गणेशजी और आराध्य देवी महालक्ष्मी देवी है। झाँसी के राजपरिवार के ये कुल देवता है।
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झाँसी
लक्ष्मी ताल में महाराजा गंगाधर राव की समाधि स्थित है। 1853 में उनकी मृत्यु के बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने यहाँ उनकी याद में यह स्मारक बनवाया है।
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झाँसी
भगवान गणेश को समर्पित इस मन्दिर में महाराज गंगाधर राव और वीरांगना झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के विवाह का एक संस्कार सीमांत पूजन इसी मंदिर में सम्पन्न हुआ था। यह भगवान गणेश का प्राचीन मन्दिर है। जहा हर बुधवार को सैकड़ो भक्त दर्शन का लाभ लेते है। यहाँ पर प्रत्येक माह की गणेश चतुर्थी को प्रातः काल और सायं काल अभिषेक होता है। साधारणतः यहाँ सायं काल के अभिषेक में बहुत भीड़ होती है। ऐसी मान्यता है कि इस गणेश मूर्ति के इक्कीस दिन इक्कीस परिक्रमा लगाने से अप्रत्यक्ष लाभ होता है और मनोकामनाएँ पूर्ण होती है।
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झाँसी
झाँसी के नजदीकी पर्यटन स्थलों में ओरछा, बरूआ सागर, शिवपुरी, दतिया, ग्वालियर, खजुराहो, महोबा, टोड़ी फतेहपुर, आदि भी दर्शनीय स्थल हैं।
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झाँसी
सुकमा-डुकमा बाँध : बेतवा नदी पर बना हुआ यह अत्यन्त सुन्दर बाँध है। इस बाँध कि झाँसी शहर से दूरी करीब 45 कि॰मी॰ है तथा यह बबीना शहर के पास है।
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झाँसी
देवगढ् : झाँसी शहर से 123 कि॰मी॰ दूर यह शहर ललितपुर के पास है। यहाँ गुप्ता वंश के समय् के विश्नु एवं जैन मन्दिर देखे जा सकते हैं।
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झाँसी
ओरछा : झॉसी शहर से 18 कि॰मी॰ दूर यह स्थान अत्यन्त सुन्दर मन्दिरो, महलों एवं किलो के लिये जाना जाता है।
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झाँसी
खजुराहो : झाँसी शहर से 178 कि॰मी॰ दूर यह स्थान 10 वी एवं 12 वी शताब्दी में चन्देला वंश के राजाओं द्वारा बनवाए गए अपने शृंगारात्मक मन्दिरो के लिए प्रसिद्ध है।
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पद्मिनी
और इनका ऐतिहासिक अस्तित्व तो प्रायः इतिहासकारों द्वारा काल्पनिक स्वीकार कर लिया गया है। इस नाम का मुख्य स्रोत मलिक मुहम्मद जायसी कृत 'पद्मावत' नामक महाकाव्य है। अन्य जिस किसी ऐतिहासिक स्रोतों या ग्रंथों में 'पद्मावती' या 'पद्मिनी' का वर्णन हुआ है वे सभी 'पद्मावत' के परवर्ती हैं।
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पद्मिनी
इतिहास ग्रंथों में अधिकतर 'पद्मिनी' नाम स्वीकार किया गया है, जबकि जायसी ने स्पष्ट रूप से 'पद्मावती' नाम स्वीकार किया है। जायसी के वर्णन से स्पष्ट होता है कि 'पद्मिनी' से उनका भी तात्पर्य स्त्रियों की उच्चतम कोटि से ही है। जायसी ने स्पष्ट लिखा है कि राजा गंधर्वसेन की सोलह हजार पद्मिनी रानियाँ थीं, जिनमें सर्वश्रेष्ठ रानी चंपावती थी, जो कि पटरानी थी। इसी चंपावती के गर्भ से पद्मावती का जन्म हुआ था। इस प्रकार कथा के प्राथमिक स्रोत में ही स्पष्ट रूप से 'पद्मावती' नाम ही स्वीकृत हुआ है।
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पद्मिनी
जायसी के अनुसार पद्मावती सिंहल द्वीप के राजा गंधर्वसेन की पुत्री थी और चित्तौड़ के राजा रतन सिंह योगी के वेश में वहाँ जाकर अनेक वर्षों के प्रयत्न के पश्चात उसके साथ विवाह कर के उन्हे चित्तौड़ ले आये थे। वह अद्वितीय सुन्दरी थी और रतनसेन के द्वारा निरादृत कवि-पंडित-तांत्रिक राघव चेतन के द्वारा उनके रूप का वर्णन सुनकर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर दिया था। 8 माह के युद्ध के बाद भी अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर विजय प्राप्त नहीं कर सका तो लौट गया और दूसरी बार आक्रमण करके उस ने छल से राजा रतनसिंह को बंदी बनाया और उन्हे लौटाने की शर्त के रूप में पद्मावती को मांगा। तब पद्मावती की ओर से भी छल का सहारा लिया गया और गोरा-बादल की सहायता से अनेक वीरों के साथ वेश बदलकर पालकियों में पद्मावती की सखियों के रूप में जाकर राजा रतनसिंह को मुक्त कराया गया। परंतु इस छल का पता चलते ही अलाउद्दीन खिलजी ने प्रबल आक्रमण किया, जिसमें दिल्ली गये प्रायः सारे राजपूत योद्धा मारे गये। राजा रतन सिंह चित्तौड़ लौटे परंतु यहाँ आते ही उन्हें कुंभलनेर पर आक्रमण करना पड़ा और कुंभलनेर के शासक देवपाल के साथ युद्ध में देवपाल मारा गया परंतु राजा रतन सिंह भी अत्यधिक घायल होकर चित्तौड़ लौटे और स्वर्ग सिधार गये।
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पद्मिनी
उधर पुनः अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण हुआ। और उसने जंग जीतने केे बाद रानी पद्मावती को जीत लिया और बाद में उससे शादी कर ली।
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पद्मिनी
कर्नल टॉड ने अपने राजस्थान के इतिहास में जायसी के उक्त कथानक में कुछ हेर-फेर के साथ प्रायः उसी कहानी को दोहराया है। मुख्यतः भाटों की कथाओं के आधार पर लिखने के कारण कर्नल टॉड का वर्णन ऐतिहासिक बहुत कम रह गया है। उन्होंने राजा रत्नसिंह या रतनसेन के बदले भीमसी (भीमसिंह) का नाम दिया है और वह भी वस्तुतः राणा नहीं बल्कि राणा लखमसी (लक्ष्मण सिंह) के चाचा थे जो कि लक्ष्मण सिंह के बच्चे होने के कारण शासन संभाल रहे थे। कर्नल टॉड ने लक्ष्मण सिंह और उसके संरक्षक के रूप में भीमसिंह के शासन का आरंभ 1275 ईस्वी में माना है; जबकि यह सर्वज्ञात बात है कि अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण 1303 ईस्वी में हुआ था। इसी प्रकार कर्नल टॉड ने पद्मिनी को सिंहल द्वीप के चौहान वंशी हमीर शंख की लड़की बतलाया है। इन परिवर्तनों के सिवा शेष कहानी अपवादों को छोड़कर प्रायः पद्मावत वाली ही है।
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पद्मिनी
14 वीं और 16 वीं शताब्दी के बीच जैन ग्रंथ- नबीनंदन जेनुधर, चितई चरित्रा और रायन सेहरा ने रानी पद्मिनी का उल्लेख किया है।
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पद्मिनी
तेजपाल सिंह धामा ने अपने चर्चित शोधपरक उपन्यास अग्नि की लपटें में इन्हें जाफना से प्रकाशित ग्रंथों के आधार पर श्रीलंका की राजकुमारी सिद्ध किया है।
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पद्मिनी
रानी पद्मिनी, राजा रत्नसिंह तथा अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण को लेकर इतिहासकारों के बीच काफी पहले से पर्याप्त मंथन हो चुका है। इस संदर्भ में सर्वाधिक उद्धृत तथा प्रमाणभूत महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा का मत माना गया है। ओझा जी ने पद्मावत की कथा के संदर्भ में स्पष्ट लिखा है कि "इतिहास के अभाव में लोगों ने पद्मावत को ऐतिहासिक पुस्तक मान लिया, परंतु वास्तव में वह आजकल के ऐतिहासिक उपन्यासों की सी कविताबद्ध कथा है, जिसका कलेवर इन ऐतिहासिक बातों पर रचा गया है कि रतनसेन (रत्नसिंह) चित्तौड़ का राजा, पद्मिनी या पद्मावती उसकी राणी और अलाउद्दीन दिल्ली का सुल्तान था, जिसने रतनसेन (रत्नसिंह) से लड़कर चित्तौड़ का किला छीना था। बहुधा अन्य सब बातें कथा को रोचक बनाने के लिए कल्पित खड़ी की गई है; क्योंकि रत्नसिंह एक बरस भी राज्य करने नहीं पाया, ऐसी दशा में योगी बन कर उस की सिंहलद्वीप (लंका) तक जाना और वहाँ की राजकुमारी को ब्याह लाना कैसे संभव हो सकता है। उसके समय सिंहलद्वीप का राजा गंधर्वसेन नहीं किन्तु राजा कीर्तिनिश्शंक देव पराक्रमबाहु (चौथा) या भुवनेक बाहु (तीसरा) होना चाहिए। सिंहलद्वीप में गंधर्वसेन नाम का कोई राजा ही नहीं हुआ। उस समय तक कुंभलनेर (कुंभलगढ़) आबाद भी नहीं हुआ था, तो देवपाल वहाँ का राजा कैसे माना जाय ? अलाउद्दीन ८ बरस तक चित्तौड़ के लिए लड़ने के बाद निराश होकर दिल्ली को नहीं लौटा किंतु अनुमान छः महीने लड़ कर उसने चित्तौड़ ले लिया था, वह एक ही बार चित्तौड़ पर चढ़ा था, इसलिए दूसरी बार आने की कथा कल्पित ही है।"
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पद्मिनी
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि जायसी रचित पद्मावत महाकाव्य की कथा में ऐतिहासिकता ढूँढना बहुत हद तक निरर्थक ही है। कुछ नाम ऐतिहासिक अवश्य हैं, परंतु घटनाएं अधिकांशतः कल्पित ही हैं। कुछ घटनाएँ जो ऐतिहासिक हैं भी उनका संबंध 1303 ईस्वी से न होकर 1531 ईस्वी से है। इसी प्रकार कर्नल टॉड का वर्णन भी काफी हद तक अनैतिहासिक ही है। इस संदर्भ में ओझा जी का स्पष्ट कथन है कि "कर्नल टॉड ने यह कथा विशेषकर मेवाड़ के भाटों के आधार पर लिखी है और भाटों ने उसको 'पद्मावत' से लिया है। भाटों की पुस्तकों में समर सिंह के पीछे रत्नसिंह का नाम न होने से टाड ने पद्मिनी का संबंध भीमसिंह से मिलाया और उसे लखमसी (लक्ष्मणसिंह) के समय की घटना मान ली। ऐसे ही भाटों के कथनानुसार टाड ने लखमसी का बालक और मेवाड़ का राजा होना भी लिख दिया, परन्तु लखमसी न तो मेवाड़ का कभी राजा हुआ और न बालक था, किंतु सिसोदे का सामंत (सरदार) था और उस समय वृद्धावस्था को पहुंच चुका था, क्योंकि वह अपने सात पुत्रों सहित अपना नमक अदा करने के लिए रत्नसिंह की सेना का मुखिया बनकर अलाउद्दीन के साथ की लड़ाई में लड़ते हुए मारा गया था, जैसा कि विक्रम संवत १५१७ (ई० स० १४६०) के कुंभलगढ़ के शिलालेख से ऊपर बतलाया गया है। इसी तरह भीमसी (भीमसिंह) लखमसी (लक्ष्मणसिंह) का चाचा नहीं, किन्तु दादा था, जैसा कि राणा कुंभकर्ण के समय के 'एकलिंगमाहात्म्य' में पाया जाता है। ऐसी दशा में टाड का कथन भी विश्वास के योग्य नहीं हो सकता। 'पद्मावत', 'तारीख़ फिरिश्ता' और टाड के राजस्थान के लेखों की यदि कोई जड़ है तो केवल यही कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर छः मास के घेरे के अनंतर उसे विजय किया; वहाँ का राजा रत्नसिंह इस लड़ाई में लक्ष्मणसिंह आदि कई सामंतो सहित मारा गया, उसकी राणी पद्मिनी ने कई स्त्रियों सहित जौहर की अग्नि में प्राणाहुति दी; इस प्रकार चित्तौड़ पर थोड़े-से समय के लिए मुसलमानों का अधिकार हो गया। बाकी बहुधा सब बातें कल्पना से खड़ी की गई है।"
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गन्ना
इतिहास में एक समय ऐसा भी रहा है जब याचक के पानी मांगने पर उसे मिश्रीमिश्रित दूध दिया जाता था। तब देश में दूध और घी की नदियां बह रही थीं। हमारे अपने देखे काल में ही किसी के पानी मांगने पर उसे पहले गुड़ की डली भेंट की जाती थी और बाद में पानी। हमारा कोई पर्व या उत्सव ऐसा नहीं होता जिस पर हम अपने बंधु-बांधवों और इष्ट-मित्रों का मुंह मीठा नहीं कराते। मांगलिक अवसरों पर लड्डू, बताशे, गुड़ आदि बांटकर अपनी प्रसन्नता को मिल-बांट लेने की परम्परा तो हमारे देश में लम्बे समय से रही है। सच तो यह है कि मीठे की सबसे अधिक खपत हमारे देश में ही है।
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गन्ना
आयुर्वेद के ग्रन्थों में मधुर रस के पदार्थों से भोजन का श्रीगणेश करने का परामर्श दिया गया है। "ब्रह्मांड पुराण" में भोजन का समापन भी मीठे पदार्थों से ही करने का सुझाव है। एक ग्रन्थ में तो भोजन में मूंग की दाल, शहद, घी और शक्कर का शामिल रहना अनिवार्य कहा गया है। `नामुद्रसूपना क्षौद्र न चाप्य घृत शर्करम्।' ग्रीष्म ऋतु में शाली चावलों के भात में शक्कर मिलाकर सेवन करने का सुझाव है। शक्ति-क्षय पर मिश्री मिले दूध और दूध की मिठाइयों के सेवन करने की बात कही गई है।
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गन्ना
सुश्रुत ने भोजन के छ: प्रकार गिनाए हैं: चूष्म, पेय, लेह्य, भोज्य, भक्ष्य और चर्व्यपाचन की दृष्टि से चूष्य पदार्थ सबसे अधिक सुपाच्य बताए गए हैं। फिर क्रम से उनकी सुपाच्यता कम होती जाती है और चर्व्य सबसे कम सुपाच्य होते हैं। ईख या गन्ने को जो मिठास का प्रमुख स्रोत है, पहले वर्ग में रखा गया है, गन्ने का रस, शरबत, फलों के रस पेय पदार्थों में हैं। चटनी-सौंठ-कढ़ी लेह्य दाल-भात भोज्य, लड्डू-पेड़ा, बरफी भक्ष्य और चना-परवल, मूंगफली चर्व्य हैं।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गन्ना
जब हम मिठास की बात करते हैं, विशेषकर भोजन में मिठास की, तो हमारा ध्यान बरबस गन्ने की ओर जाता है। उससे हम अनेक रूपों में मिठास प्रदान करने वाले पदार्थ प्राप्त करते हैं, जैसे-गुड़, राब, शक्कर, खांड, बूरा, मिश्री,। चीनी आदि। यों मिठास प्राप्त करने के कुछ अन्य स्रोत भी हैं। मधु या शहद हमारे लिए प्रकृति का उपहार हैं जिसे वह मधुमक्खियों द्वारा फलों के रस से तैयार कराती है। दक्षिण भारत में ताड़ से गुड़ और शक्कर तैयार की जाती है। पश्चिम एशिया के देश खजूर से यह काम लेते हैं। यूरोपीय देश चुकंदर से चीनी तैयार करते हैं। अब सैकरीन नाम से कृत्रिम चीनी भी बाजार में उपलब्ध है, जो मधुमेह के रोगियों के लिए भी निरापद बताई गई है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गन्ना
फिर भी चीनी या उसकी शाखा-प्रशाखाओं को प्राप्त करने का सबसे प्रमुख स्रोत गन्ना ही है। कहते हैं, विश्व में जितने क्षेत्र में गन्ने की खेती की जाती है, उसका लगभग आधा हमारे देश में है। कोई आश्चर्य नहीं कि गन्ने की फसल हमारे देश की सबसे महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलों में से एक है और चीनी उद्योग हमारे देश के प्रमुख उद्योगों में है। हालांकि इस उद्योग को बहुत पुराना नहीं कहा जा सकता चूंकि चौथे दशक के बाद, या दूसरे महायुद्ध के दौरान ही इसका तेजी से विकास हुआ है।
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गन्ना
किन्तु शक्कर, गुड़, मिश्री आदि के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। हजारों वर्षों से यह उद्योग यहां स्थापित हैं, बल्कि हम अति प्राचीन काल से ही विश्व के प्राय: सभी भागों को इनका निर्यात करते रहे हैं। प्राचीन रोम, मिस्त्र, यूनान, चीन, अरब आदि सभी देशों को ये वस्तुएं जाती रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक हमारा देश चीनी का निर्यातक भी रहा है। कुछ आंतरिक खपत में वृद्धि के कारण और कुछ विभिन्न कारणों से उत्पादन में कमी के कारण इस वर्ष हमें विदेशों से चीनी का आयात करने को बाध्य होना पड़ा है।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गन्ना
सिंध के प्राचीन इतिहास पर प्रकाशित पुस्तक "सिंधु सौवीर" में टाड द्वारा लिखित `राजस्थान' के हिन्दी अनुवाद में राय बहादुर गौरीशंकर ओझा की एक अत्यंत दिलचस्प टिप्पणी इस प्रकार दी गई है:
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गन्ना
घग्घर नदी की एक शाखा का नाम साकड़ा अथवा हाकड़ा था, जो पहले पंजाब से चलकर बीकानेर और जोधपुर राज्यों में से बहती सिंध में पड़ती थी। परन्तु बहुत समय से उसका प्रवाह बंद हो गया है, जिसके बारे में बहुत बातें प्रचलित हैं। किन्तु उसके बंद होने का कारण यह है कि इस तरफ (राजस्थान) का किनारा ऊंचा होते-होते बिल्कुल बंद हो गया। अभी तक थोड़ाथोड़ा पानी बीकानेर राज्य के हनुमानगढ़ प्रदेश में आता है, जहां उससे गेहूं आदि की खेती होती है। उसे वहां वाले कग्गर नदी कहते हैं। मारवाड़ में हाकड़ा के बहने का यह प्रमाण है कि जोधपुर और मालानी के परगनों में बहुत से गांवों की सीमा के अंदर गन्ना पेरने के पत्थर के कोल्हू पड़े मिलते हैं, जिनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि पहले यहां हाकड़ा (हाकरो) नदी बहती थी, जिसके किनारे गन्ने की खेती होती थी, जिसे इन कोल्हुओं में पेरकर गुड़ बनाया जाता था। अगर इस नदी का बहाव यहां न होता तो इन रेतीले भागों में ऐसे कोल्हू कैसे संभव होते (टाड-`राजस्थान' प्रथम खंड पृष्ठ ३१)।
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https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BE
गन्ना
राजस्थान में पत्थर के कोल्हुओं का मिलना गन्ने की कृषि की प्राचीनता का ही प्रमाण है। यहां जिस धग्धर या कग्गर नदी का उल्लेख है, उसे वैदिककालीन सरस्वती होने का विश्वास किया जाता है। ईसा की छठी-सातवीं शती तक इस नदी में पानी था और उसके तट पर रंगमहल जैसे सम्पन्न नगर बसे हुए थे, जो अब अस्तित्व-शेष हो गए हैं। यदि हम प्रागैतिहास की खोज में जाए तो यह क्षेत्र हड़प्पाकालीन संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र रहा है।
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वृन्दावन
श्रीवराहघाट- वृन्दावन के दक्षिण-पश्चिम दिशा में प्राचीन यमुनाजी के तट पर श्रीवराहघाट अवस्थित है। तट के ऊपर भी श्रीवराहदेव विराजमान हैं। पास ही श्रीगौतम मुनि का आश्रम है।
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वृन्दावन
कालीयदमनघाट- इसका नामान्तर कालीयदह है। यह वराहघाट से लगभग आधे मील उत्तर में प्राचीन यमुना के तट पर अवस्थित है। यहाँ के प्रसंग के सम्बन्ध में पहले उल्लेख किया जा चुका है। कालीय को दमन कर तट भूमि में पहुँच ने पर श्रीकृष्ण को ब्रजराज नन्द और ब्रजेश्वरी श्री यशोदा ने अपने आसुँओं से तर-बतरकर दिया तथा उनके सारे अंगो में इस प्रकार देखने लगे कि 'मेरे लाला को कहीं कोई चोट तो नहीं पहुँची है।' महाराज नन्द ने कृष्ण की मंगल कामना से ब्राह्मणों को अनेकानेक गायों का यहीं पर दान किया था।
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वृन्दावन
सूर्यघाट- इसका नामान्तर आदित्यघाट भी है। गोपालघाट के उत्तर में यह घाट अवस्थित है। घाट के ऊपर वाले टीले को आदित्य टीला कहते हैं। इसी टीले के ऊपर श्रीसनातन गोस्वामी के प्राणदेवता श्री मदन मोहन जी का मन्दिर है। उसके सम्बन्ध में हम पहले ही वर्णन कर चुके हैं। यहीं पर प्रस्कन्दन तीर्थ भी है।
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वृन्दावन
युगलघाट- सूर्य घाट के उत्तर में युगलघाट अवस्थित है। इस घाट के ऊपर श्री युगलबिहारी का प्राचीन मन्दिर शिखरविहीन अवस्था में पड़ा हुआ है। केशी घाट के निकट एक और भी जुगल किशोर का मन्दिर है। वह भी इसी प्रकार शिखरविहीन अवस्था में पड़ा हुआ है।
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वृन्दावन
श्रीबिहारघाट- युगलघाट के उत्तर में श्रीबिहारघाट अवस्थित है। इस घाट पर श्रीराधाकृष्ण युगल स्नान, जल विहार आदि क्रीड़ाएँ करते थे।
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वृन्दावन
श्रीआंधेरघाट- युगलघाट के उत्तर में यह घाट अवस्थित हैं। इस घाट के उपवन में कृष्ण और गोपियाँ आँखमुदौवल की लीला करते थे। अर्थात् गोपियों के अपने करपल्लवों से अपने नेत्रों को ढक लेने पर श्रीकृष्ण आस-पास कहीं छिप जाते और गोपियाँ उन्हें ढूँढ़ती थीं। कभी श्रीकिशोरी जी इसी प्रकार छिप जातीं और सभी उनको ढूँढ़ते थे।
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वृन्दावन
इमलीतला घाट- आंधेरघाट के उत्तर में इमलीघाट अवस्थित है। यहीं पर श्रीकृष्ण के समसामयिक इमली वृक्ष के नीचे महाप्रभु श्रीचैतन्य देव अपने वृन्दावन वास काल में प्रेमाविष्ट होकर हरिनाम करते थे। इसलिए इसको गौरांगघाट भी कहते हैं।
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वृन्दावन
श्रृंगारघाट- इमलीतला घाट से कुछ पूर्व दिशा में यमुना तट पर श्रृंगारघाट अवस्थित है। यहीं बैठकर श्रीकृष्ण ने मानिनी श्रीराधिका का श्रृंगार किया था। वृन्दावन भ्रमण के समय श्रीनित्यानन्द प्रभुने इस घाट में स्नान किया था तथा कुछ दिनों तक इसी घाट के ऊपर श्रृंगारवट पर निवास किया था।
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वृन्दावन
श्रीगोविन्दघाट- श्रृंगारघाट के पास ही उत्तर में यह घाट अवस्थित है। श्रीरासमण्डल से अन्तर्धान होने पर श्रीकृष्ण पुन: यहीं पर गोपियों के सामने आविर्भूत हुये थे।
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ब्राज़ील
ऑटोमोबाइल, स्टील और पेट्रोकेमिकल्स, कंप्यूटर, विमान और उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं के उद्योग का सकल घरेलू उत्पाद में 30.8% का हिस्सा है। उद्योग साओ पाउलो, रियो डी जेनेरियो, कैंपिनास, पोर्टो एलेग्रे और बेलो होरिज़ोंटे के महानगरीय क्षेतों में अत्यधिक केंद्रित है।
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ब्राज़ील
ब्राजील में पर्यटन एक बढ़ता हुआ क्षेत्र है और देश के कई क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था का प्रमुख उद्योग है। 2015 में देश में 6.36 मिलियन आगंतुक आये थे, जो दक्षिण अमेरिका में मुख्य गंतव्य और मेक्सिको के बाद लैटिन अमेरिका में दूसरे अंतरराष्ट्रीय पर्यटक आगमन के रूप में श्रेणीगत थे। 2010 में अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों से राजस्व 6 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया, जोकि 2008-2009 के आर्थिक संकट से उबरने का संकेत था।
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ब्राज़ील
प्राकृतिक क्षेत्र इसके सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल हैं, अवकाश और मनोरंजन, मुख्य रूप से सूर्य और समुद्र तट, और रोमांचक यात्रा, साथ ही साथ सांस्कृतिक पर्यटन के साथ पारिस्थितिकता का संयोजन देखने को मिलता है। सबसे लोकप्रिय स्थलों में अमेज़ॅन वर्षावन, पूर्वोत्तर क्षेत्र के समुद्र तटों और डन्स, मध्य-पश्चिमी क्षेत्र में पैंटानल, रियो डी जेनेरो और सांता कातारीना के समुद्र तट, मिनास जेरायज़ के सांस्कृतिक पर्यटन और साओ पाउलो शहर के व्यापार यात्राएं शामिल हैं।
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ब्राज़ील
2008 पीएनएडी द्वारा दर्ज ब्राजील की जनसंख्या लगभग 190 मिलियन थी (22.31 निवासियों प्रति वर्ग किलोमीटर या 57.8 वर्ग वर्ग मील), पुरुषों के अनुपात में 0.95:1 और 83.75% जनसंख्या शहरी है। जनसंख्या दक्षिणपूर्वी (79.8 मिलियन निवासियों) और पूर्वोत्तर (53.5 मिलियन निवासियों) क्षेत्रों में काफी केंद्रित है, जबकि दो सबसे व्यापक मध्य-पश्चिम और उत्तर क्षेत्रों, जो ब्राजील के क्षेत्रफल का 64.12% हैं, में कुल 29.1 मिलियन निवासी रहते है।
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ब्राज़ील
1940 और 1970 के बीच मृत्यु दर में गिरावट होने के कारण ब्राजील की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, हालांकि जन्म दर में भी मामूली गिरावट आई है। 2008 में, निरक्षरता दर 11.48% और युवाओं में (15-19 साल की आयु) 1.74% थी। पूर्वोत्तर में यह उच्चतम (20.30%) था, जिसमें ग्रामीण गरीबों का एक बड़ा हिस्सा था।
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ब्राज़ील
2008 के घरेलू नमूने (पीएनएडी) द्वारा राष्ट्रीय शोध के अनुसार, 48.43% आबादी (लगभग 92 मिलियन) ने खुद को श्वेत के रूप में वर्णित किया; 43.80% (लगभग 83 मिलियन) परडो (भूरे), 6.84% (लगभग 13 मिलियन) अश्वेत के रूप में; 0.58% (लगभग 1.1 मिलियन) एशियाई के रूप में; और 0.28% (लगभग 536 हजार) अमेरिकी आदिवासी (आधिकारिक तौर पर इंडिजेना, स्वदेशी कहें जाते है), जबकि 0.07% (लगभग 130 हजार) ने अपनी वंश घोषित नहीं की थी।
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