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\id HAB | |
\ide UTF-8 | |
\rem Copyright Information: Creative Commons Attribution-ShareAlike 4.0 License | |
\h हबक्कूक | |
\toc1 हबक्कूक | |
\toc2 हबक्कूक | |
\toc3 हब. | |
\mt हबक्कूक | |
\is लेखक | |
\ip हब. 1: 1 भविष्यद्वक्ता हबक्कूक के वचन के रूप में इस पुस्तक की पहचान करता है। उनके नाम के अतिरिक्त हम हबक्कूक के विषय में और कुछ नहीं जानते हैं। यह तथ्य कि उसे “हबक्कूक नबी” कहा गया है दर्शाता है कि वह एक चिरपरिचित मनुष्य था और उसकी पहचान की आवश्यकता नहीं थी। | |
\is लेखन तिथि एवं स्थान | |
\ip लगभग 612-605 ई. पू. | |
\ip हबक्कूक ने यह पुस्तक सम्भवतः दक्षिणी राज्य, यहूदा के पतन से पूर्व, बहुत ही कम समय पहले लिखी थी। | |
\is प्रापक | |
\ip दक्षिणी राज्य, यहूदा की प्रजा तथा सर्वत्र परमेश्वर के लोगों के लिए एक पत्र। | |
\is उद्देश्य | |
\ip हबक्कूक सोच रहा था कि परमेश्वर अपने चुने हुओं को उनके बैरियों के हाथों कष्ट क्यों भोगने दे रहा है। परमेश्वर उसे उत्तर देता है और उसका विश्वास दृढ़ होता है। इस पुस्तक का उद्देश्य है कि यहोवा, उसके लोगों का रक्षक, विश्वास करनेवालों को सुरक्षित रखेगा और यह घोषणा करना कि यहोवा, यहूदा का परमप्रधान योद्धा एक दिन अन्यायी बाबेल को दण्ड देगा। हबक्कूक की पुस्तक हमें घमण्डियों को विनम्र बनाने का चित्रण प्रस्तुत करती है जबकि धर्मनिष्ठ मनुष्य परमेश्वर में विश्वास के द्वारा जीवित रहते हैं (2:4)। | |
\is मूल विषय | |
\ip प्रभु परमेश्वर पर भरोसा करना | |
\iot रूपरेखा | |
\io1 1. हबक्कूक की शिकायत — 1:1-2:20 | |
\io1 2. हबक्कूक की प्रार्थना — 3:1-19 | |
\c 1 | |
\p | |
\v 1 भारी वचन जिसको हबक्कूक नबी ने दर्शन में पाया। | |
\p | |
\v 2 हे यहोवा \it मैं कब तक तेरी दुहाई देता रहूँगा\f + \fr 1.2 \fq मैं कब तक तेरी दुहाई देता रहूँगा: \ft भविष्यद्वक्ता यहाँ व्यक्त करता है कि पहले से ही बहुत लम्बा समय हो चूका है और उस लम्बे समय के दौरान वह परमेश्वर को पुकारता है परन्तु कोई परिवर्तन नहीं हुआ।\f*\it*, और तू न सुनेगा? मैं कब तक तेरे सम्मुख “उपद्रव”, “उपद्रव” चिल्लाता रहूँगा? क्या तू उद्धार नहीं करेगा? | |
\v 3 तू मुझे अनर्थ काम क्यों दिखाता है? और क्या कारण है कि तू उत्पात को देखता ही रहता है? मेरे सामने लूट-पाट और उपद्रव होते रहते हैं; और झगड़ा हुआ करता है और वाद-विवाद बढ़ता जाता है। | |
\v 4 इसलिए व्यवस्था ढीली हो गई और न्याय कभी नहीं प्रगट होता। दुष्ट लोग धर्मी को घेर लेते हैं; इसलिए न्याय का \it खून हो रहा है\f + \fr 1.4 \fq खून हो रहा है: \ft अर्थात् बिगड़ रहा है या बदल रहा है।\f*\it*। | |
\p | |
\v 5 जाति-जाति की ओर चित्त लगाकर देखो, और बहुत ही चकित हो। क्योंकि मैं तुम्हारे ही दिनों में ऐसा काम करने पर हूँ कि जब वह तुम को बताया जाए तो तुम उस पर विश्वास न करोगे। \bdit (प्रेरि. 13:41) \bdit* | |
\v 6 देखो, मैं कसदियों को उभारने पर हूँ, वे क्रूर और उतावली करनेवाली जाति हैं, जो पराए वासस्थानों के अधिकारी होने के लिये पृथ्वी भर में फैल गए हैं। \bdit (प्रका. 20:9) \bdit* | |
\v 7 वे भयानक और डरावने हैं, वे आप ही अपने न्याय की बड़ाई और प्रशंसा का कारण हैं। | |
\v 8 उनके घोड़े चीतों से भी अधिक वेग से चलनेवाले हैं, और साँझ को आहेर करनेवाले भेड़ियों से भी अधिक क्रूर हैं; उनके सवार दूर-दूर कूदते-फाँदते आते हैं। हाँ, वे दूर से चले आते हैं; और आहेर पर झपटनेवाले उकाब के समान झपट्टा मारते हैं। | |
\v 9 वे सब के सब उपद्रव करने के लिये आते हैं; सामने की ओर मुख किए हुए वे सीधे बढ़े चले जाते हैं, और बंधुओं को रेत के किनकों के समान बटोरते हैं। | |
\v 10 राजाओं को वे उपहास में उड़ाते और हाकिमों का उपहास करते हैं; वे सब दृढ़ गढ़ों को तुच्छ जानते हैं, क्योंकि वे दमदमा बाँधकर उनको जीत लेते हैं। | |
\v 11 तब वे वायु के समान चलते और मर्यादा छोड़कर दोषी ठहरते हैं, क्योंकि उनका बल ही उनका देवता है। | |
\p | |
\v 12 हे मेरे प्रभु यहोवा, हे मेरे पवित्र परमेश्वर, क्या तू अनादिकाल से नहीं है? इस कारण हम लोग नहीं मरने के। हे यहोवा, तूने उनको न्याय करने के लिये ठहराया है; हे चट्टान, तूने उलाहना देने के लिये उनको बैठाया है। | |
\v 13 तेरी आँखें ऐसी शुद्ध हैं कि तू बुराई को देख ही नहीं सकता, और उत्पात को देखकर चुप नहीं रह सकता; फिर तू विश्वासघातियों को क्यों देखता रहता, और जब दुष्ट निर्दोष को निगल जाता है, तब तू क्यों चुप रहता है? | |
\v 14 तू क्यों मनुष्यों को समुद्र की मछलियों के समान और उन रेंगनेवाले जन्तुओं के समान बनाता है \it जिन पर कोई शासन करनेवाला नहीं\f + \fr 1.14 \fq जिन पर कोई शासन करनेवाला नहीं: \ft मार्गदर्शन करनेवाला, आज्ञा देनेवाला, रक्षा करनेवाला कोई नहीं उसी प्रकार परमेश्वर की देख-रेख और प्रावधान से वंचित मनुष्य का यह चित्रण है। \f*\it* है। | |
\v 15 वह उन सब मनुष्यों को बंसी से पकड़कर उठा लेता और जाल में घसीटता और महाजाल में फँसा लेता है; इस कारण वह आनन्दित और मगन है। | |
\v 16 इसलिए वह अपने जाल के सामने बलि चढ़ाता और अपने महाजाल के आगे धूप जलाता है; क्योंकि इन्हीं के द्वारा उसका भाग पुष्ट होता, और उसका भोजन चिकना होता है। | |
\v 17 क्या वह जाल को खाली करने और जाति-जाति के लोगों को लगातार निर्दयता से घात करने से हाथ न रोकेगा? | |
\c 2 | |
\s हबक्कूक को परमेश्वर का उत्तर | |
\p | |
\v 1 मैं अपने पहरे पर खड़ा रहूँगा, और गुम्मट पर चढ़कर ठहरा रहूँगा, और ताकता रहूँगा कि मुझसे वह क्या कहेगा? मैं अपने दिए हुए उलाहने के विषय में क्या उत्तर दूँ? | |
\p | |
\v 2 फिर यहोवा ने मुझसे कहा, “दर्शन की बातें लिख दे; वरन् पटियाओं पर साफ-साफ लिख दे कि दौड़ते हुए भी वे सहज से पढ़ी जाएँ। | |
\v 3 क्योंकि \it इस दर्शन की बात नियत समय में पूरी होनेवाली है\f + \fr 2.3 \fq इस दर्शन की बात नियत समय में पूरी होनेवाली है: \ft वर्तमान में तो नहीं परन्तु समय के अन्तराल में विकसित होकर उस समय होगी जो केवल परमेश्वर ही जानता है।\f*\it*, वरन् इसके पूरे होने का समय वेग से आता है; इसमें धोखा न होगा। चाहे इसमें विलम्ब भी हो, तो भी उसकी बाट जोहते रहना; क्योंकि वह निश्चय पूरी होगी और उसमें देर न होगी। | |
\v 4 देख, उसका मन फूला हुआ है, उसका मन सीधा नहीं है; परन्तु धर्मी अपने विश्वास के द्वारा जीवित रहेगा। \bdit (इब्रा. 10:37, 38, 2 पत. 3:9, रोम. 1:17, गला. 3:11) \bdit* | |
\v 5 दाखमधु से धोखा होता है; अहंकारी पुरुष घर में नहीं रहता, और उसकी लालसा अधोलोक के समान पूरी नहीं होती, और मृत्यु के समान उसका पेट नहीं भरता। वह सब जातियों को अपने पास खींच लेता, और सब देशों के लोगों को अपने पास इकट्ठे कर रखता है।” | |
\s दुष्ट का विनाश अवश्य | |
\p | |
\v 6 क्या वे सब उसका दृष्टान्त चलाकर, और उस पर ताना मारकर न कहेंगे “हाय उस पर जो पराया धन छीन छीनकर धनवान हो जाता है? कब तक? हाय उस पर जो अपना घर बन्धक की वस्तुओं से भर लेता है!” | |
\v 7 जो तुझ से कर्ज लेते हैं, क्या वे लोग अचानक न उठेंगे? और क्या वे न जागेंगे जो तुझको संकट में डालेंगे? | |
\v 8 और क्या तू उनसे लूटा न जाएगा? तूने बहुत सी जातियों को लूट लिया है, इसलिए सब बचे हुए लोग तुझे भी लूट लेंगे। इसका कारण मनुष्यों की हत्या है, और वह उपद्रव भी जो तूने इस देश और राजधानी और इसके सब रहनेवालों पर किया है। | |
\p | |
\v 9 हाय उस पर, जो अपने घर के लिये अन्याय के लाभ का लोभी है ताकि वह अपना घोंसला ऊँचे स्थान में बनाकर विपत्ति से बचे। | |
\v 10 तूने बहुत सी जातियों को काटकर अपने घर के लिये लज्जा की युक्ति बाँधी, और अपने ही प्राण का दोषी ठहरा है। | |
\v 11 क्योंकि घर की दीवार का पत्थर दुहाई देता है, और उसके छत की कड़ी उनके स्वर में स्वर मिलाकर उत्तर देती हैं। | |
\p | |
\v 12 हाय उस पर जो हत्या करके नगर को बनाता, और कुटिलता करके शहर को दृढ़ करता है। | |
\v 13 देखो, क्या सेनाओं के यहोवा की ओर से यह नहीं होता कि देश-देश के लोग परिश्रम तो करते हैं परन्तु वे आग का कौर होते हैं; और राज्य-राज्य के लोगों का परिश्रम व्यर्थ ही ठहरता है? | |
\v 14 क्योंकि \it पृथ्वी यहोवा की महिमा के ज्ञान से ऐसी भर जाएगी\f + \fr 2.14 \fq पृथ्वी यहोवा की महिमा के ज्ञान से ऐसी भर जाएगी: \ft क्योंकि प्रभु की आत्मा से पृथ्वी ऐसी भर गई और भरने के कारण प्रभु की महिमा का ज्ञान व्याप्त हो गया जिससे अज्ञानी और अशिक्षित मनुष्य बुद्धिमान एवं बोलने में प्रवीण हो गया। \f*\it* जैसे समुद्र जल से भर जाता है। | |
\p | |
\v 15 हाय उस पर, जो अपने पड़ोसी को मदिरा पिलाता, और उसमें विष मिलाकर उसको मतवाला कर देता है कि उसको नंगा देखे। | |
\v 16 तू महिमा के बदले अपमान ही से भर गया है। तू भी पी, और अपने को खतनाहीन प्रगट कर! जो कटोरा यहोवा के दाहिने हाथ में रहता है, वह घूमकर तेरी ओर भी जाएगा, और तेरा वैभव तेरी छाँट से अशुद्ध हो जाएगा। | |
\v 17 क्योंकि लबानोन में तेरा किया हुआ उपद्रव और वहाँ के जंगली पशुओं पर तेरा किया हुआ उत्पात, जिनसे वे भयभीत हो गए थे, तुझी पर आ पड़ेंगे। यह मनुष्यों की हत्या और उस उपद्रव के कारण होगा, जो इस देश और राजधानी और इसके सब रहनेवालों पर किया गया है। | |
\p | |
\v 18 \it खुदी हुई मूरत में क्या लाभ देखकर\f + \fr 2.18 \fq खुदी हुई मूरत में क्या लाभ देखकर: \ft यह मूर्तिपूजा की विशेष मूर्खता थी। उसकी रचना हस्तकार से भी कम है। यह मूर्तिपूजा का एक भ्रष्ट विचार है कि कलाकार अपनी ही रची हुई वस्तु में आस्था रखे।\f*\it* बनानेवाले ने उसे खोदा है? फिर झूठ सिखानेवाली और ढली हुई मूरत में क्या लाभ देखकर ढालनेवाले ने उस पर इतना भरोसा रखा है कि न बोलनेवाली और निकम्मी मूरत बनाए? | |
\v 19 हाय उस पर जो काठ से कहता है, जाग, या अबोल पत्थर से, उठ! क्या वह सिखाएगा? देखो, वह सोने चाँदी में मढ़ा हुआ है, परन्तु उसमें साँस नहीं है। \bdit (1 कुरि. 12:2) \bdit* | |
\p | |
\v 20 परन्तु यहोवा अपने पवित्र मन्दिर में है; समस्त पृथ्वी उसके सामने शान्त रहे। | |
\c 3 | |
\s हबक्कूक की प्रार्थना | |
\p | |
\v 1 शिग्योनीत की रीति पर हबक्कूक नबी की प्रार्थना। | |
\q | |
\v 2 हे यहोवा, मैं तेरी \it कीर्ति\f + \fr 3.2 \fq कीर्ति: \ft भजन 7 के अतिरिक्त यह इब्रानी शब्द शिग्योनीत: एक ही बार प्रगट है भजनों में यह संगीतवाद्य के साथ है मधुर धुन या भजन के प्रथम शब्द जिसकी धुन ग्रहण की गई है। \f*\it* सुनकर डर गया। | |
\q हे यहोवा, वर्तमान युग में अपने काम को पूरा कर; | |
\q इसी युग में तू उसको प्रगट कर; | |
\q क्रोध करते हुए भी दया करना स्मरण कर। | |
\q | |
\v 3 परमेश्वर तेमान से आया, | |
\q पवित्र परमेश्वर पारान पर्वत से आ रहा है। \qs (सेला) \qs* | |
\q उसका तेज आकाश पर छाया हुआ है, | |
\q और पृथ्वी उसकी स्तुति से परिपूर्ण हो गई है। | |
\q | |
\v 4 उसकी ज्योति सूर्य के तुल्य थी, | |
\q उसके हाथ से किरणें निकल रही थीं; | |
\q और इनमें उसका सामर्थ्य छिपा हुआ था। | |
\q | |
\v 5 उसके आगे-आगे मरी फैलती गई, | |
\q और उसके पाँवों से महाज्वर निकलता गया। | |
\q | |
\v 6 वह खड़ा होकर पृथ्वी को नाप रहा था; | |
\q उसने देखा और जाति-जाति के लोग घबरा गए; | |
\q तब सनातन पर्वत चकनाचूर हो गए, और सनातन की पहाड़ियाँ झुक गईं | |
\q उसकी गति अनन्तकाल से एक सी है। | |
\q | |
\v 7 मुझे कूशान के तम्बू में रहनेवाले दुःख से दबे दिखाई पड़े; | |
\q और मिद्यान देश के डेरे डगमगा गए। | |
\q | |
\v 8 हे यहोवा, क्या तू नदियों पर रिसियाया था? | |
\q क्या तेरा क्रोध नदियों पर भड़का था, | |
\q अथवा क्या तेरी जलजलाहट समुद्र पर भड़की थी, | |
\q जब तू अपने घोड़ों पर और उद्धार करनेवाले विजयी रथों पर चढ़कर आ रहा था? | |
\q | |
\v 9 तेरा धनुष खोल में से निकल गया, | |
\q तेरे दण्ड का वचन शपथ के साथ हुआ था। \qs (सेला) \qs* | |
\q तूने धरती को नदियों से चीर डाला। | |
\q | |
\v 10 पहाड़ तुझे देखकर काँप उठे; | |
\q आँधी और जल-प्रलय निकल गए; | |
\q गहरा सागर बोल उठा और अपने हाथों | |
\q अर्थात् लहरों को ऊपर उठाया। | |
\q | |
\v 11 तेरे उड़नेवाले तीरों के चलने की ज्योति से, | |
\q और तेरे चमकीले भाले की झलक के प्रकाश से सूर्य और चन्द्रमा अपने-अपने स्थान पर ठहर गए। | |
\q | |
\v 12 तू क्रोध में आकर पृथ्वी पर चल निकला, | |
\q तूने जाति-जाति को क्रोध से नाश किया। | |
\q | |
\v 13 तू अपनी प्रजा के उद्धार के लिये निकला, | |
\q हाँ, अपने अभिषिक्त के संग होकर उद्धार के लिये निकला। | |
\q तूने दुष्ट के घर के सिर को कुचलकर उसे गले से नींव तक नंगा कर दिया। \qs (सेला) \qs* | |
\q | |
\v 14 तूने उसके योद्धाओं के सिरों को उसी की बर्छी से छेदा है, | |
\q वे मुझ को तितर-बितर करने के लिये बवंडर की आँधी के समान आए, | |
\q और दीन लोगों को घात लगाकर मार डालने की आशा से आनन्दित थे। | |
\q | |
\v 15 तू अपने घोड़ों पर सवार होकर समुद्र से हाँ, जल-प्रलय से पार हो गया। | |
\q | |
\v 16 \it यह सब सुनते ही मेरा कलेजा\f + \fr 3.16 \fq यह सब सुनते ही मेरा कलेजा: \ft अर्थात् सम्पूर्ण आन्तरिक मनुष्यत्व शरीर और मानसिक स्थिति, सब शक्तियाँ काँप उठी।\f*\it* काँप उठा, | |
\q मेरे होंठ थरथराने लगे; | |
\q मेरी हड्डियाँ सड़ने लगीं, और मैं खड़े-खड़े काँपने लगा। | |
\q मैं शान्ति से उस दिन की बाट जोहता रहूँगा | |
\q जब दल बाँधकर प्रजा चढ़ाई करे। | |
\q | |
\v 17 क्योंकि चाहे अंजीर के वृक्षों में फूल न लगें, | |
\q और न दाखलताओं में फल लगें, | |
\q जैतून के वृक्ष से केवल धोखा पाया जाए | |
\q और खेतों में अन्न न उपजे, | |
\q भेड़शालाओं में भेड़-बकरियाँ न रहें, | |
\q और न थानों में गाय बैल हों, (लूका 13:6) | |
\q | |
\v 18 तो भी मैं यहोवा के कारण आनन्दित और मगन रहूँगा, | |
\q और अपने उद्धारकर्ता परमेश्वर के द्वारा अति प्रसन्न रहूँगा | |
\q | |
\v 19 यहोवा परमेश्वर मेरा बलमूल है, | |
\q वह मेरे पाँव हिरनों के समान बना देता है, | |
\q वह मुझ को मेरे ऊँचे स्थानों पर चलाता है। | |