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<s>[INST]मौर्योत्तर शैली ने भाव, भावना एवं शारीरिक सौंदर्य सभी पक्षों के प्रदर्शन पर बल दिया जिसके कारण कला धार्मिक विचार और शारीरिक सुख दोनों की अभिव्यक्ति का साधन बन गई। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका मौर्योत्तर कला के विभिन्न पक्ष तथा समन्वय निष्कर्ष मौर्यकाल में कला के विकास में राज्य अहम भूमिका निभाता था परंतु मौर्योत्तर काल की कला को विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा संरक्षण तथा प्रोत्साहन दिया गया। मौर्योत्तर काल में नए विचारों के साथ-साथ कला के नए स्वरूप अस्तित्व में आए और इसी परिदृश्य में विभिन्न सांस्कृतिक तत्त्वों के प्रचलन की शुरुआत हुई जिसकी परिणति भारत में मिली-जुली संस्कृति के विकास के रूप में हुई। मौर्योत्तरकालीन कला तथा संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में भारतीय समाज का व्यवसाय प्रधान होना था। व्यवसाय के क्षेत्र में दक्षिण भारत की स्थिति उत्तर भारत की तुलना में बेहतर थी। बाद में उत्तर भारत के आर्थिक ढाँचे में भी परिवर्तन हुए, जिसके कारण मौर्योत्तरयुगीन कला तथा संस्कृति में व्यापक परिवर्तन देखा गया।इस काल में कला का आधार मुख्यत: बौद्ध धर्म ही रहा। धनी व्यापारियों की विभिन्न श्रेणियों तथा शासकों द्वारा इसे बहुत प्रोत्साहन दिया गया। पर्वतों में खोदी गई गुफाएँ मंदिरों तथा भिक्षुओं के निवास स्थान के रूप में प्रयुक्त होती थी। इसी प्रकार जैन धर्म के अनुयायियों ने मथुरा में मूर्तिकला की एक शैली को प्रश्रय दिया जहाँ शिल्पियों ने महावीर की एक मूर्ति बनाई। जहाँ तक ब्राह्मण धर्म का प्रश्न है, उसके भी अवशेष कुछ कम नहीं हैं। मथुरा, लखनऊ, वाराणसी के अनेक संग्रहालयों में इस काल के विष्णु, शिव, स्कंद-कार्तिकेय के निरुपणों के उदाहरण प्राप्त होते हैं। मौर्योत्तरयुगीन कला में स्तूपों, चैत्यों तथा विहारों के निर्माण को लोकप्रियता मिली। बुद्ध की प्रतिमाओं के चेहरे के चारों ओर दिव्य प्रकाश को चक्र द्वारा प्रदर्शित करने का प्रयत्न मथुरा शैली के अंतर्गत किया गया। निष्कर्षतः मौर्य तथा मौर्योत्तर काल में कला ने भाव, भावना एवं शारीरिक सौंदर्य सभी को प्रदर्शित करना शुरू किया जिसके कारण कला धार्मिक विचार और शारीरिक सुख दोनों की अभिव्यक्ति का साधन बन गई।</s>
<s>[INST]'यदि फ्रांस और ब्रिटेन ने नाज़ीवाद के प्रति तुष्टीकरण की नीति न अपनायी होती तो रूस, फ्रांस और ब्रिटेन मिलकर शांति और स्थिरता का वातावरण तैयार कर इतिहास की दिशा बदल सकते थे।' टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का करने का दृष्टिकोणः भूमिका द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि नाज़ी शक्ति के प्रति इंग्लैंड,तथा अन्य देशों के झुकाव के कारण नाज़ीवादी नीतियां किस सीमा तक घातक सिद्ध हुई? निष्कर्ष वर्साय की संधि के अंतर्गत जर्मनी का निःशस्त्रीकरण कर दिया गया था साथ ही उस पर भारी आर्थिक जुर्माना भी लगाया गया और उसके उपनिवेशों को छीन कर विजयी राष्ट्रों द्वारा आपस में बांट लिया गया। इससे जर्मन जनता में असंतोष उत्पन्न हुआ एवं इसी असंतोष का लाभ उठाकर हिटलर ने जर्मनी में नाज़ी राज्य की स्थापना की। सत्ता में आते ही हिटलर ने वर्साय की संधि की शर्तों का एक-एक कर उल्लंघन करना शुरू किया। उसने उग्र विदेश नीति का अपनायी। उसने जर्मनी में अनिवार्य सैनिक सेवा की शुरुआत की और नए सिरे से जर्मनी का शस्त्रीकरण शुरू किया। वर्ष 1935 में हिटलर ने ‘राइन क्षेत्र’ पर सैन्य अधिकार कर लिया, जिसका वर्साय की संधि के द्वारा असैन्यीकरण किया गया था। वर्ष 1938 में उसने ऑस्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् उसने चेकोस्लोवाकिया के सुडेटनलैंड पर अधिकार कर लिया। लेकिन इंग्लैंड व फ्राँस ने तुष्टीकरण की नीति अपनाते हुए हिटलर का विरोध नहीं किया। वहीं जब हिटलर ने वर्ष 1939 में डेजिंग गलियारा प्राप्त करने हेतु पोलैंड पर हमला किया तो इंग्लैंड तथा फ्राँस ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। वस्तुतः ये देश सोवियत संघ के साम्यवाद से भयभीत थे तथा उनकी नीति फासीवादी शक्तियों को साम्यवाद के विरुद्ध खड़ा करने की थी। इसी कारण उन्होंने साम्यवाद के विरुद्ध हिटलर का साथ दिया। इंग्लैंड के जर्मनी से घनिष्ठ व्यापारिक हित जुड़े हुए थे। साथ ही वह फ्राँस के साथ शक्ति संतुलन बनाए रखने हेतु जर्मनी के अस्तित्व को समाप्त करने का विरोधी था। निष्कर्षतः उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट है कि इंग्लैंड तथा फ्राँस, नाज़ीवाद के विस्तार और अतिक्रमण के विरुद्ध खड़े नहीं हुए और रूसी साम्यवाद को ही अपना सबसे बड़ा शत्रु समझते रहे। ऐसे में इतिहासकारों का मानना है कि तुष्टिकरण के बजाय यदि इंग्लैंड और फ्राँस, रूस के साथ मिलकर प्रयास करते तो संभव था कि हिटलर की प्रसारवादी नीति के विरुद्ध के मज़बूत संयुक्त मोर्चे के निर्माण कर सकते थे।</s>
<s>[INST]गांधीवादी राजनीतिक आंदोलनों में समाज के प्रत्येक वर्ग को बाँधे रखने की ताकत के साथ-साथ आत्मसंतुष्टि प्रदान करने की भी अद्भुत क्षमता समाहित थी।टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः गांधीवादी आंदोलन गांधीवादी राजनीति आंदोलनों के प्रमुख तत्त्व सभी वर्गों को एकजुट करने में गांधीजी कहां तक सफल हुए, निष्कर्ष दक्षिण अफ्रीका से वापस आने के बाद वहां के सफल आंदोलनों से गांधी जी को इस बात का भान हो गया था कि भारत में किसी भी आंदोलन की शुरुआत से पहले यहां के गांवों, जहां भारत की अधिकांश जनसंख्या निवास करती थी को जानना जरूरी था। अतः गांधीजी ने दो वर्षों तक भारत भ्रमण किया। उन्होंने भारत के गरीब किसानों, अल्पसंख्यकों, बुनकरों आदि के निजी अनुभवों को जानने व समझने का प्रयास किया।इनको संगठित करने के उद्देश्य से गांधीजी ने कई नए प्रयोग किये जिनमें सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा आदि शामिल हैं। भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में गांधीजी का आगमन वर्ष 1917 में हुआ। हालाँकि वे वर्ष 1915 में ही भारत आ चुके थे, किंतु सक्रिय रूप से उनका भारतीय आंदोलनों से जुड़ाव चंपारण के आंदोलन से ही शुरू हुआ। गांधीवादी राजनीति से आशय गांधी के बताए मूल्यों एवं आदर्शों में विश्वास से है। गांधीजी ने अपने मूल्य एवं आदर्शों की स्थापना स्वयं के अनुभव से की थी। ‘सत्याग्रह’ नामक हथियार का विकास गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सफलतापूर्वक किया था। सत्य एवं अहिंसा समूचे गांधीवादी आंदोलन का सार था जिसने आमलोगों को इन आंदोलनों से जुड़ने के लिये प्रेरित किया। गांधीवादी राजनीति मानवतावाद पर आधारित थी। असहयोग आंदोलन के लिये भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता की महती आवश्यकता थी। उस समय गांधीजी ने स्वयं को खिलाफत आंदोलन से जोड़कर स्वयं को मजबूत किया। दूसरा महत्त्वपूर्ण हथियार था- सत्याग्रह। तत्कालीन परिस्थितियों में भारतीय हथियार उठाने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी बिना मनोबल नीचे किये, संघर्ष के लिये तत्पर रहने का असीम धैर्य उन्हें ‘सत्याग्रह’ के सिद्धांतों से ही मिला। तीसरी बात थी- गांधीवादी राजनीति की देशी अवधारणा, जिसमें गांधीजी ने हिंदी भाषा की वकालत की, कुटीर उद्योगों की बात की, खादी की बात की, जिसका भारत के विशाल जनसमूह ने समर्थन किया। किसानों एवं निम्न वर्ग के समर्थन के बाद भी बिना उच्च वर्ग के समर्थन के आंदोलन अधूरा रह जाता। ऐसे में गांधीजी ने वर्ण व्यवस्था का भी समर्थन किया एवं समाज के उच्च वर्ग का विश्वास जीता। वर्ष 1932 में जब अंग्रेज़ों ने दलितों के लिये अलग प्रतिनिधित्व का कानून बनाया तो गांधीजी ने पूना जेल में आमरण अनशन शुरू कर दलितों को साथ लाने में सफलता प्राप्त की। इतना ही नहीं, गांधीजी ने महिलाओं को भी सक्रिय आंदोलन से जोड़ने में सफलता प्राप्त की। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि गांधीवादी राजनीति के तत्त्वों में समाज के प्रत्येक वर्ग को बाँधे रखने की क्षमता के साथ-साथ आत्मसंतुष्टि प्रदान करने की भी अद्भुत क्षमता समाहित थी।</s>
<s>[INST]'मुक्त अर्थव्यवस्था अपनाने के बाद भारत के लिये सुधारों की राह कठिन थी परंतु भारत ने अवसरों को भुनाया तथा चुनौतियों का बेहतर प्रबंधन किया।'टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका LPG नीतियों का प्रभाव- सामाजिक तथा आर्थिक जीवन पर सरकारी नीतियों में बदलाव LPG पूर्व तथा पश्चात प्रभाव की दृष्टि से तुलना निष्कर्ष स्वतंत्रता के पश्चात विदेशी हस्तक्षेपों से स्वयं को मुक्त रखने के लिये भारत ने नियंत्रित आर्थिक नीति अपनाई थी परंतु 20वीं सदी के अंतिम दशक में जब भुगतान का संकट नियंत्रण से बाहर हो गया तो सरकार ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की जिसे उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण (LPG) के नाम से जाना जाता है। उपरोक्त सुधारों का भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है- सरकारी नियंत्रण में कमी तथा लाइसेंस राज की समाप्ति के पश्चात् भारत में व्यापार करना आसान हुआ तथा नए रोज़गारों का सृजन हुआ। भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्यात में वृद्धि हुई तथा चालू खाता घाटा कम हो गया, साथ ही विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि हुई, फलस्वरूप भारत में भुगतान की समस्या खत्म हुई। प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से भारत में उपभोक्तावाद का प्रसार हुआ। कंपनियों के कुछ विशेष-क्षेत्रों में केंद्रित होने के कारण क्षेत्रीय असंतुलन उत्पन्न हुआ तथा प्रव्रजन में वृद्धि हुई। संयुक्त परिवार जैसी संस्था कमज़ोर हुई तथा एकल परिवार का प्रचलन बढ़ा। देर से विवाह, तलाक जैसे मामलों में वृद्धि हुई तथा वृद्धाश्रमों की संख्या में भी इजाफा हुआ। भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हुई तथा उपभोक्ताओं को अधिक विकल्प मिले। शिक्षा में निजीकरण के पश्चात् उच्च एवं तकनीकी शिक्षा का विस्तार हुआ परंतु गुणवत्ता एवं रोज़गार योग्यता में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई। भारत के समक्ष नई वैश्विक चुनौतियाँ तथा संभावनाएँ उभरकर आईं जिसके अनुसार सरकार ने अपनी नीतियों में कई आवश्यक बदलाव भी किये: भारत में निवेश को नियंत्रित करने के लिये सेबी (SEBI), FIPB जैसी संस्थाओं का गठन हुआ ताकि निवेश की अस्थिरता से निपटा जा सके। वैश्विक चुनौतियों एवं संभावनाओं के आलोक में द्वितीय पीढ़ी के सुधार लागू किये गए। सरकार ने 1991 में नई आर्थिक नीति की घोषणा की एवं अप्रगतिशील कानूनों को खत्म किया। प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्या से निपटने के लिये भारत सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों के सापेक्ष घरेलू नीतियों को लागू किया है। इसी संदर्भ में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना अपनाई गई। महिलाओं के अधिकारों तथा अवसरों में वृद्धि करने हेतु विभिन्न स्तर पर महिलाओं को आरक्षण प्रदान किया गया। अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार श्रम कानून लागू किये गए। विकास की क्षेत्रीय विसंगतियाँ दूर करने के लिये गैर-विकसित क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने हेतु प्रोत्साहन दिया गया। वैश्वीकरण के उपरांत भारत में आर्थिक तथा साइबर अपराधों में भी वृद्धि हुई, जिसके लिये भारत ने कार्यबल का गठन किया, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर भी ध्यान दिया। जन-जन तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियान की शुरुआत की गई। वैश्वीकरण ने भारत के समक्ष नए अवसर भी प्रस्तुत किये हैं, भारत आई.टी. सेवाओं का सर्वप्रमुख निर्यातक देश है। निर्यात को प्रोत्साहन देने के लिये भारत में कई नीतियों को लागू किया गया है। जैसे- विशेष आर्थिक क्षेत्रों का गठन, मेक इन इंडिया जैसे कायक्रमों को लागू करना तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की प्रक्रिया का सरलीकरण। वित्तीय क्षमता दुरुस्त रखने के लिये भारत ने FRBM अधिनियम लागू किया है तथा बेसेल प्रतिमान का पालन किया है। अन्य क्षेत्रों में भी आवश्यक पहल की गई है ताकि भारत में सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ सुचारु रूप से चलें। निष्कर्षतः भारत के सुधारों की राह कठिन थी किंतु भारत ने अवसरों को भुनाया तथा चुनौतियों का बेहतर प्रबंधन किया तथा भारत जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाकर स्वयं को विश्व की श्रम-शक्ति के रूप में स्थापित करने हेतु प्रयासरत है।</s>
<s>[INST]मौर्य साम्राज्य एक नए राजनीतिक प्रयोग का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें एक एकात्मक राजतंत्र की प्रवृत्ति भले न हो किंतु एक केंद्रीकृत साम्राज्य का स्वरूप आवश्यक रूप से परिलक्षित होता था, विवेचना करे।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका मौर्य साम्राज्य कैसे नए राजनीतिक प्रयोग का प्रतिनिधित्व करता है? साम्राज्य का स्वरूप निष्कर्ष मौर्य साम्राज्य के साम्राज्यवादी स्वरूप की जानकारी अभिलेखों के साथ-साथ अर्थशास्त्र में भी मिलती है। किंतु साम्राज्य की अत्यधिक केंद्रीयकृत व्यवस्था को क्षेत्रीय स्तर पर स्थानीय स्वतंत्रता की पूरी तरह समाप्ति के तौर पर देखना उचित नहीं होगा। अशोक के अभिलेखों में पूर्ण केंद्रीकरण की व्यवस्था में मौर्य साम्राज्य की एकात्मक व्यवस्था की कल्पना उचित नहीं क्योंकि ये बहुत हद तक उत्तराधिकारियों को संबोधित करते हैं। इसके अलावा, उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में प्राप्त अभिलेख खरोष्ठी लिपि में लिखे गए तथा अफगानिस्तान में यूनानी एवं अरेमाइक लिपि में लिखे गए मिलते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि उन क्षेत्रों में विदेशी मूल के लोग या अधिकारी रहते होंगें। रोमिला थापर के अनुसार मौर्य साम्राज्य में अच्छी संचार व्यवस्था एवं यातायात व्यवस्था के अभाव के कारण पूर्ण या एकात्मक राजतंत्र की संभावना नहीं दिखाई देती। यदि मौर्य साम्राज्य को मुख्य क्षेत्र एवं दूरवर्ती क्षेत्र में विभाजित करके देखे तो मौर्य साम्राज्य के प्रशासन में विविधता देखने को मिलती है। दूरवर्ती क्षेत्रों में प्रायद्वीपीय भारत के क्षेत्र तथा उत्तर-पश्चिम के क्षेत्र शामिल थे। दक्षिण भारत के अशोक के अभिलेखों में हाथी पालने के साक्ष्य मिलते हैं। इसका अर्थ है कि दूरवर्ती क्षेत्रों में मौर्य राज्य क्षेत्रीय सरदारों के माध्यम से नियंत्रण रखता था। दूसरे, इस समय श्रेणियों की भी स्वायत्त स्थिति की कल्पना की जा सकती है जिसके कारण अखंड राजतंत्र नहीं माना जा सकता। ऐसे में मौर्य राजतंत्र एक एकीकृत राजतंत्र तो नहीं था किंतु एक विस्तृत साम्राज्य अवश्य था जिसमें केंद्रीकरण की प्रवृत्ति अपनी पराकाष्ठा पर थी। मौर्य साम्राज्य में प्रशासन सप्तांग विचारधारा पर आधारित था, इसे सुचारु रूप से चलाने के लिये राजा जनपद, मित्र, सेना, कोष एवं दुर्ग राज्य के क्रियान्वयन के अंग थे। राजा के कार्यों में सहायता के लिये एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था थी जिसे राजा का नेत्र कहा गया है, मंत्रिपरिषद में मंत्रियों की शक्तियाँ राजा की परस्पर स्थिति पर निर्भर थी। मंत्रियों की नियुक्ति उपधा परीक्षण (योग्यता परीक्षण) के उपरांत होती थी। मंत्रिपरिषद एक परामर्शदात्री निकाय के रूप में कार्य करती थी। मौर्य साम्राज्य में अत्यधिक केंद्रीकरण की प्रवृत्ति उसकी नौकरशाही व्यवस्था से पता चलती है। मौर्य साम्राज्य विस्तृत नौकरशाही पर आधारित था जिसमें पिरामिडनुमा व्यवस्थित अधिकारी संवर्ग को नियुक्त किया गया था। नौकरशाही व्यवस्था में सबसे ऊँचे स्तर पर तीर्थ एवं महामात्र नामक अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों की चर्चा मिलती है। मौर्य साम्राज्य के प्रमुख तीर्थो में मंत्री, पुरोहित, सेनापति, समाहर्ता एवं सन्निधाता थे, सन्निधाता राज्य का कोषाध्यक्ष होने के साथ-साथ खजाने का प्रभारी भी होता था जो समाहर्ता के साथ मिलकर कार्य करता था। अर्थशास्त्र में मौर्य साम्राज्य में 27 अध्यक्षों की चर्चा मिलती है जैसे-लक्षपाध्यक्ष, सीताध्यक्ष पण्याध्यक्ष आदि। इनका कार्य राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में सहायता करना था, साथ ही ये लोग सामाजिक-आर्थिक जीवन का विनियमन भी देखते थे। संपूर्ण मौर्य साम्राज्य का विभाजन सुविधानुसार प्रांतों में किया गया था। चंद्रगुप्त मौर्य के समय प्रांतों की निश्चित संख्या की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, जबकि 4 (चार) प्रांत होने की जानकारी व्यक्त की जाती है। किंतु अशोक के काल के पाँच प्रांतों एवं उनकी राजधानियों की जानकारी मिलती है। मौर्य साम्राज्य के प्रांत ज़िलों में विभाजित थे जिनमें रज्जुक एवं प्रादेशिक अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी जो ज़िलों के प्रशासन एवं भूराजस्व व्यवस्था के साथ न्याय व्यवस्था को देखते थे। ज़िला एवं ग्रामीण व्यवस्था के बीच स्थानीय नामक प्रशासनिक इकाई कार्य करती थी जिस पर ‘स्थानिक’ नामक अधिकारी की नियुक्ति की जाती थी। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी जिस पर प्रधान ग्रामीण था। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यधिक केंद्रीकृत थी। अतः स्पष्ट है कि मौर्य साम्राज्य केंद्रीकृत प्रशासन तथा विस्तृत नौकरशाही एक विस्तृत साम्राज्य का प्रतिनिधित्व करता था। विस्तृत साम्राज्य की प्रतिक्रिया को जानने के लिये संचार साधनों के अभाव की स्थिति में गुप्तचर व्यवस्था का प्रबंध किया गया था। गुप्तचर व्यवस्था केंद्रीकृत एवं विस्तृत साम्राज्य के अभिलक्षणों को और पुष्ट करते हैं। निष्कर्षतः कह सकते हैं मौर्य साम्राज्य एक नए राजनीतिक प्रयोग का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें एक एकात्मक राजतंत्र की प्रवृत्ति भले न हो किंतु एक केंद्रीकृत साम्राज्य का स्वरूप आवश्यक रूप से परिलक्षित होता था।</s>
<s>[INST]भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वराज दल कोई अमूलचूल परिवर्तन करने में असफल रहा किंतु इसने राजनीतिक शून्यता को भरा तथा ब्रिटिश विरोधी भावना को जीवित रखा। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका स्वराज दल का परिचय सफलता के बिंदु राजनीति शून्यता को कैसे भरा विफलता या सीमाएं निष्कर्ष गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन समाप्त कर देने के कारण राष्ट्रीय आंदोलन में शून्यता आ गई थी। स्वतंत्रता संघर्ष के लिये गांधीवादी तरीके से लोगों का विश्वास अब उठने लगा था। भारत सरकार अधिनियम 1919 के तहत 1923 ई. में चुनाव होने थे। इस मुद्दे पर कॉन्ग्रेस दो भागों में बँट गई, एक भाग काउंसिल में प्रवेश के पक्ष में था तथा दूसरा इसके विरुद्ध। अंततः 1923 ई. में चुनावों में भाग लेने के लिये स्वराज दल की स्थापना की गई चितरंजन दास इसके अध्यक्ष बने तथा मोतीलाल नेहरू इसके सचिव। स्वराज दल को केंद्रीय विधानसभा में 48 सीटें प्राप्त हुईं तथा मध्य भारत में उसका बहुमत रहा। सफलता के बिंदु- स्वराजवादियों ने राष्ट्रीय एजेंडे का पालन किया तथा अपनी तरह के समूहों के साथ मिलकर राष्ट्र विरोधी कानूनों के पारित होने में अवरोध उत्पन्न किया। उन्होंने प्रांतीय स्तर पर द्वैध शासन के खोखलेपन को उजागर किया क्योंकि वास्तविक शक्तियाँ अब भी गवर्नर तथा गवर्नर जनरल के पास थीं। स्वराज दल द्वारा पारित एक प्रस्ताव के फलस्वरूप 1924 ई. में द्वैध शासन की कार्य-पद्धति की समीक्षा हेतु मड्डीमैन कमेटी का गठन किया गया। इसने व्यापक जन आंदोलन की अनुपस्थिति में भी ब्रिटिश विरोधी भावना को जीवित रखा। 1928 ई. में पब्लिक सेफ्टी बिल पारित नहीं होने दिया गया। विट्ठलभाई पटेल केंद्रीय विधानसभा के सभापति नियुक्त हुए तथा चुनावों में भाग लेने और काउंसिल में प्रवेश के फलस्वरूप प्राप्त अनुभवों से भारत में राजनीतिक परिपक्वता विकसित हुई एवं भारतीय और अधिक प्रभावशाली ढंग से संघर्ष करने के लिये प्रेरित हुए। अपरिवर्तनवादी समूह के प्रमुख नेता वल्लभभाई पटेल तथा राजेन्द्र प्रसाद थे। उनका तर्क था कि काउंसिल में प्रवेश का उद्देश्य भले ही सकारात्मक हो परंतु एक बार जब सत्ता-सुख भोग लेंगे तो स्वतंत्रता-संघर्ष के उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता कम हो जाएगी। साथ ही उनका यह भी मानना था कि चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने से हम भारत सरकार अधिनियम 1919 को कमियों के साथ ही स्वीकार कर लेंगे तथा इसके प्रति विरोध कमज़ोर पड़ जाएगा। परंतु वे 1907 ई- की तरह का विभाजन भी नहीं चाहते थे अतः कॉन्ग्रेस के भीतर ही एक गुट के रूप में उन्हें चुनाव लड़ने की आज्ञा दे दी गई। यद्यपि स्वराजवादियों ने अपनी राजनीतिक यात्रा बड़े ही उत्साह के साथ शुरू की थी परंतु 1926 तक उनका उत्साह ठंडा पड़ गया। यह उनकी अनुभवहीनता तथा गलतियों का परिणाम था। स्वराजवादियों की सीमाएं- स्वराजवादियों की कुछ गतिविधियों से ऐसा प्रतीत होता था कि वे सरकार के साथ सहयोगपूर्ण रवैया अपना रहे हैं जैसे विट्ठल भाई पटेल द्वारा केंद्रीय विधानसभा के सभापति का पद स्वीकार करना तथा मोतीलाल नेहरू का स्कीन कमेटी का सदस्य बनना इत्यादि। इस कारण उनकी विश्वसनीयता घटी तथा जनाधार का भी कम हुआ। स्वराजवादियों के आपसी मतभेद भी सतह पर आने लग गए थे तथा उनमें सत्ता-सुख की लालसा बलवती होती जा रही थी। 1925 ई. में चितरंजन दास की मृत्यु के पश्चात् स्वराज दल को बड़ा झटका लगाए क्योंकि वे स्वराज दल के सबसे लोकप्रिय नेता थे। 1927 ई. में साइमन कमीशन की नियुक्ति के फलस्वरूप स्वराज दल की प्रासंगिकता समाप्त हो गई तथा स्वराजवादी पुनः कॉन्ग्रेस की मुख्यधारा में शामिल हो गए। निष्कर्षतः भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वराज दल कोई अमूलचूल परिवर्तन करने में तो असफल रहा परंतु इसने असहयोग के बाद उपजी राजनीतिक शून्यता को भरा तथा ब्रिटिश विरोधी भावना को जीवित रखा।</s>
<s>[INST]'साम्यवाद को बचाने के उद्देश्य से शीतयुद्ध के दौर में खड़ी की गई बर्लिन की दीवार को जनमानस की जागरूकता ने 28 वर्षों के शोषण के उपरांत गिरने को विवश कर दिया।' विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भूमिका जर्मनी का विभाजन, साम्यवाद का प्रभाव बर्लिन की दीवार का संबंध पूंजीवाद तथा साम्यवाद से किस प्रकार जुड़ा हुआ है? निष्कर्ष पूर्वी यूरोप में साम्यवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के परिणामस्वरूप बर्लिन की दीवार का निर्माण किया गया था जो पूर्वी तथा पश्चिमी जर्मनी को एक दूसरे से पृथक करती थी। इसे 1980 के दशक में गिरा दिया गया जिसे मौन रूप में साम्यवाद के पतन के प्रतीक के रूप में जाना गया। ऐसा माना जाता है कि बर्लिन की दीवार का पतन जर्मनी के एकीकरण के साथ-साथ जर्मनी के लोगों की विचारधाराओं को भी एकीकृत करता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में नाजी जर्मनी की हार के पश्चात् जर्मनी पूर्व तथा पश्चिम दो भागों में विभाजित हो गया। पश्चिमी जर्मनी में पश्चिमी पूंजीवादी राष्ट्रों की सहयोगी सरकार थी, जबकि पूर्वी जर्मनी पर सोवियत संघ का प्रभाव था। पश्चिमी जर्मनी प्रदेश में लोकतांत्रिक सरकार, पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली, स्वतंत्र चर्च तथा श्रमिक संगठनों की व्यवस्था ने विकास की राह मज़बूती प्रदान की थी तो वहीं दूसरी तरफ, पूर्वी जर्मनी पर मार्क्स-लेनिन के प्रभाव से युक्त साम्यवादी तानाशाही सरकार स्थापित थी। कमज़ोर आर्थिक स्थिति तथा नकारात्मक राजनैतिक परिस्थितियों के कारण पूर्वी जर्मनी से सैकड़ों श्रमिक तथा व्यवसायी पश्चिमी जर्मनी की तरफ आय अर्जन हेतु जाते थे। बर्लिन की दीवार का निर्माण साम्यवाद के लिये अत्यधिक बुरा सिद्ध हुआ। कालांतर में यह पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी के लोगों के लिये यह दीवार समाजवादी शोषण का प्रतीक बन गई। 1980 का दशक जनमानस को चेतना की जागृति का काल था जब पूर्वी यूरोप में साम्यवादी सत्ता के विरुद्ध जनता ने व्यापक प्रदर्शन किये। इसी दौर में 9 नवंबर, 1984 का दिन बर्लिन की दीवार के ढ़हने के लिये जाना जाता है। इसी के साथ ही पूर्वी जर्मनी की सोवियत सरकार का पतन हो गया तथा जर्मनी के पुन: एकीकरण के साथ ही जर्मन राष्ट्र-राज्य की पुनर्स्थापना संभव हो सकी। जर्मनी के विभाजन के उपरांत भी लोगों का आवागमन न रुकने से पूर्वी जर्मनी को आर्थिक व राजनैतिक हानि का सामना करना पड़ रहा था। लगभग 25 लाख लोगों ने पूर्वी जर्मनी से पश्चिमी जर्मनी की तरफ प्रवास किया, जिसका नकारात्मक प्रभाव पूर्वी जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। इन परिस्थितियों में साम्यवादी सरकार ने 1961 में बर्लिन की दीवार का निर्माण करने का आदेश दिया। बर्लिन की दीवार के निर्माण का मुख्य उद्देश्य पूर्वी जर्मनी में बाहर से आने वालों को रोकना नहीं अपितु भीतर से बाहर जाने वालों को रोकना था। उल्लेखनीय है कि साम्यवादी सरकार की आय की समानता, मुफ्त जन-कल्याण, पूर्ण रोज़गार जैसे आदर्शों के स्थान पर पूंजीवादी विचारधारा में विद्यमान उच्च स्तरीय विषमता, बेरोज़गारी तथा सामाजिक जोखिम को अपनाने का मुख्य कारण जनता को मिलने वाली आज़ादी थी। पूंजीवादी विचारधारा की स्वतंत्रता की अवधारणा ने साम्यवाद के पतन में अहम भूमिका निभाई। निष्कर्षतः साम्यवाद को बचाने के उद्देश्य से शीतयुद्ध के दौर में खड़ी की गई दीवार को जनमानस की जागरूकता ने 28 वर्षों के शोषण के उपरांत गिरने को विवश कर दिया, जिसका परिणाम जर्मनी के साथ-साथ पूर्वी यूरोप से साम्यवाद के पतन के रूप में देखा गया।</s>
<s>[INST]'एक राष्ट्र एक भाषा का सिद्धांत किसी भी राष्ट्र की एकता तथा अखंडता को मज़बूती प्रदान करता है। लेकिन किसी भाषा को दबाकर कोई नई भाषा थोपना लोकतांत्रिक भावना के विपरीत है।' टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका भाषा संबंधी विवाद समाधान के बिंदु निष्कर्ष गांधी जी सहित अन्य नेताओं द्वारा सामान्य तौर पर यह स्वीकार कर लिया गया था कि आजाद भारत अपनी प्रशासनिक इकाइयों के सीमा को भाषायी सिद्धांत पर निर्धारित करेगा। लेकिन आजादी के बाद राष्ट्रीय नेतृत्व में यह विचार व्यक्त किया गया कि देश की सुरक्षा, एकता और आर्थिक संपन्नता पर पहले ध्यान दिया जाना चाहिये। स्वतंत्रता के पहले से ही कांग्रेस ने स्थानीय भाषाओं के महत्त्व को स्वीकार किया था लेकिन जिन परिस्थितियों में देश को स्वतंत्रता प्राप्त हुई उसने कांग्रेस तथा राष्ट्र के प्रमुख नेताओं की सिर्फ भाषा के आधार पर प्रांतों के निर्माण की अपेक्षा एक समग्र दृष्टिकोण विकसित करने की ओर प्रेरित किया। साथ ही स्वतंत्रता के बाद एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत ने सभी भाषाओं को उचित सम्मान प्रदान करने का प्रयास किया है। स्वतंत्रता के बाद भारत में भाषा संबंधी मामलों में राज्यों को भी व्यापक अधिकार दिये गए तथा संघ राज्य संबंधों में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी विशेष कालावधि के लिये मान्यता प्रदान की गई। राज्य पुनर्गठन आयोग ने भी राज्यों के पुनर्गठन में भाषा को आधार माना जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों का गठन हुआ साथ ही विभिन्न भाषाओं को प्रोत्साहन भी मिला। वर्तमान में विभिन्न राज्य अपने स्तर पर भाषा का चयन करने में सक्षम हैं जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं को भी उचित प्रोत्साहन मिला। ऐसा माना जाता है कि पुनर्गठन आयोग विभिन्न राज्यों के मध्य सभी विवादों और समस्याओं का समाधान नहीं कर पाया। किंतु सूक्ष्मता से देखें तो राज्यों के पुनर्गठन ने भारत की एकता को कमजोर नहीं किया बल्कि मज़बूत ही किया है। निष्कर्षतः एक लोकतांत्रिक देश में विभिन्न भाषाओं के सम्मान के साथ-साथ एक राष्ट्र एक भाषा का दिशा में प्रयास किया जाना चाहिये। निःसन्देह एक राष्ट्र एक भाषा का सिद्धांत किसी भी राष्ट्र की एकता तथा अखंडता को मज़बूती प्रदान करता है और संविधान भी सरकारों से इस दिशा में प्रयास करने की उम्मीद करता है, लेकिन किसी भाषा को दबाकर नई भाषा को थोपना लोकतांत्रिक भावना के विपरीत है।</s>
<s>[INST]उपनिवेशवाद ने औपनिवेशिक भारतीय समाज में राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक दृष्टि से मौलिक परिवर्तन किया तथा इसे विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बना दिया। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका भारतीय समाज और उपनिवेशवाद विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से जुड़ाव के बिंदु निष्कर्ष उपनिवेशवाद से तात्पर्य किसी शक्तिशाली एवं विकसित राष्ट्र द्वारा किसी निर्बल एवं अविकसित देश पर उसके संसाधनों को अपने हित में दोहन करने के लिये राजनीतिक नियत्रंण स्थापित करना है। इस क्रम में औपनिवेशिक शक्ति अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये उपनिवेशों पर सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक नियंत्रण भी स्थापित करती है। इससे औपनिवेशिक समाज में मौलिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। जहाँ तक भारतीय औपनिवेशिक समाज की बात है तो उपनिवेशवाद ने इसे निम्नलिखित संदर्भो में मौलिक रूप से परिवर्तित किया जैसे: प्रशासन के स्तर पर भी वंशानुगत एवं कुलीन प्रशासक के स्थान पर योग्यता का महत्त्व स्थापित हुआ। शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत के आधार पर प्रशासन एवं न्याय को अलग-अलग देखा जाने लगा। विधि के शासन का महत्त्व स्थापित हुआ। राजनीतिक स्तर पर स्वतंत्रता, समानता एवं जनतंत्र के विचारों का प्रसार हुआ। फलत: भारतीयों ने भी परंपरागत वंशानुगत शासन प्रणाली के स्थान पर लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में अपनी आस्था व्यक्त की। संचार एवं परिवहन के साधनों के विकास तथा प्रशासनिक एकरूपता के कारण एकीकरण एवं राष्ट्रवाद की भावना के विकास को बढ़ावा मिला, जो अंतत: भारतीय राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण सहायक सिद्ध हुआ। उपनिवेशवाद से पाश्चात्य शिक्षा एवं चितंन का प्रचार-प्रसार हुआ, जिससे तार्किकता एवं मानवतावादी दृष्टिकोण का उदय हुआ। इसके आधार पर परंपरागत रूढ़ियों, धार्मिक एवं जातीय कुरूतियों में सुधार के प्रयास आरंभ हुए। इसी क्रम में राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, रमाबाई एवं सर सैयद अहमद खाँ जैसे समाज सुधारक सामने आए। जहाँ तक विश्व पूंजीवाद व्यवस्था के अंग बनने की बात है तो अंग्रेज़ों ने मातृ देश के हित में कई नीतियाँ लागू कीं, जैसे: अंग्रेज़ों ने भारतीय कृषि को परिवर्तित करने के प्रयास में जमींदारी व्यवस्था का सूत्रपात किया जो मुगल काल में भारत में विद्यमान नहीं थी। ज़मीन को व्यक्तिगत संपत्ति बनाने से इसमें पूंजीवादी तत्त्व जुड़ गए, जो बड़े पैमाने पर स्वतंत्र रूप से खरीदी एवं बेची जाती थी। कृषि के वाणिज्यीकरण से भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ गई तथा कृषि का पूंजीवादी रूपातंरण हुआ। उदाहरण के लिये अमेरिकी क्रांति के दौरान भारत से कपास के निर्यात में वृद्धि हुई। पूंजीवाद से ही प्रभावित होकर ब्रिटिश निवेशकों ने भारत में रेलवे, जूट उद्योग एवं चाय बगानों आदि में निवेश किया। लेकिन पूंजीवाद का यह स्वरूप मुख्यत: औपनिवेशिक शक्ति के ही हित में था तथा यह उपनिवेश के विकास में सहायक की बजाय अवरोधक ही था। इसका कारण औपनिवेशिक शक्ति द्वारा अपने मातृ देश के हित में नीतियाँ बनाना था। इसी का परिणाम था कि भारत विश्व पूंजीवाद का अभिन्न अंग होते हुए भी अपनी स्वतंत्रता के समय विऔद्योगीकरण एवं कृषि में पिछड़े देश के रूप में सामने आया। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि उपनिवेशवाद ने औपनिवेशिक भारतीय समाज में राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक दृष्टि से मौलिक परिवर्तन किया तथा इसे विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का अंग बना दिया। इस पूंजीवाद का स्वरूप औपनिवेशिक शक्ति के ही हित में था।</s>
<s>[INST]कबीर के काव्य में विद्यमान भाव सौंदर्य और कलात्मक सौष्ठव पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : कबीर को मध्य युग के क्रांतिकारी समाज सुधारक के रूप में स्वीकृति आसानी से मिल जाती है परंतु एक महान कृतिकार अथवा एक श्रेष्ठ कवि के रूप में उनकी महानता को स्वीकार करना विद्वानों के मध्य जटिल चुनौती के रूप में उपस्थित हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास ग्रंथ में ज्ञानमार्गी शाखा की रचनाओं को बहुत महत्व नहीं दिया लेकिन फिर भी कबीर की रचनाओं को इस धारा में शामिल किया, परंतु आचार्य शुक्ल इन रचनाओं को भक्तिकाल के अन्य कवियों जैसे तुलसी, सूर और जायसी के समकक्ष महत्त्व नहीं प्रदान कर सके। कबीर की रचनाओं में समाज के सभी आयामों को शामिल करते हुए एक संश्लिष्ट व्यक्तित्व के रूप में कबीर का वर्णन आचार्य शुक्ल इस प्रकार करते हैं कि- उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावनात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी वाणी में ये सब अवयव अवश्य स्पष्ट लक्षित होते हैं। यद्यपि कबीर पढ़े-लिखे ना थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी जिससे उनके मुँह से बड़ी चुटीली और व्यंगपूर्ण बातें निकलती थी तथा उनकी उक्तियों में विरोध और असंभव का चमत्कार लोगों को बहुत आकर्षित करता था। इस प्रकार आचार्य शुक्ल उपरोक्त मानकों यथा उलटबासियों के चमत्कार, गूढ़ ज्ञान तथा सूफियों जैसे ईश्वर प्रेम के कारण उनकी प्रतिभा का लोहा मानते थे वरना आचार्य शुक्ल कबीर को एक महान कृतिकार मानने के पक्ष में नहीं थे। सांस्कृतिक परंपरा के निर्माण में ऊँची जातियों के कुलीनतावादी दृष्टिकोण अर्थात वैदिक-पौराणिक संस्कृति के आग्रहों से कबीर तथा अन्य निर्गुण संत के काव्य के मर्म को नहीं समझा जा सकता है। इस मर्म को समझने के क्रम में रविंद्रनाथ ठाकुर द्वारा किये गए कबीर काव्य के अंग्रेजी भावानुवाद, क्षितिमोहन सेन की कबीर तथा संत साहित्य पर लिखी टिप्पणी (जिस पर बंगाल नवजागरण के प्रभाव पड़ा) का विकास महत्वपूर्ण रहा जिससे कबीर विरोधी धारणाओं का उन्मूलन किया गया। इन प्रयासों के क्रम में हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखी गई पुस्तक कबीर अत्यंत महत्वपूर्ण रही जिसने कबीर विरोधी धारणाओं को स्थापित किए गए नए मानकों के आधार पर महत्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी माना। कबीर की रचनाएँ किसी स्थापित मान्यता का खंडन करने के उद्देश्य से प्रश्न पूछने की शैली में रची गई हैं। ये पद तेवर और मिजाज में अक्खड़पन का परिचय देती हैं। इन रचनाओं के मर्म में एक संघर्षशील चिंतक की प्रखरता और व्यंगपूर्ण वक्रोक्ति की तल्खी का बड़ा विचित्र सम्मिश्रण है। इन रचनाओं में कहीं पंडितों को संबोधित करते हैं, कहीं का जी को और कहीं मुल्ले को। पांडे बुझि पियहु तुम पानी। जिहि मिटिया के घरमंह बैठे, तामहँ सिस्ट समानी।। कबीर द्वारा अपनी रचनाओं में तर्कों के माध्यम से रूढ़िवादिता को निरुत्तर करने का प्रयत्न किया गया था। “पांडे ना कर सी वाद विवाद, या देही बिन शब्द न स्वाद”, इस पद के अंत में कबीर अपने निष्कर्ष पर पहुँच कर कहते हैं कि- कबीर ग्यान बिचारा अर्थात यह शरीर मिट्टी का बना हुआ है क्षणभंगुर है। मूर्तिपूजा, जातिप्रथा, धार्मिक भेदभाव, अंधविश्वास और तीर्थाटन आदि के खंडन में कबीर के बाणियों की तार्किक प्रखरता कविता को भी जीवंत बनाती है। बोधगम्य और लोकग्राह्य सादृश्य-विधान से भरी-पूरी सहज-सरल इन वाणियों की खास विशेषता है। मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में। ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में। ना तो कौनो क्रिया कर्म में नहीं योग बैराग में।। इस प्रकार कबीर प्रारंभिक उत्थान के रचनाकारों में सबसे महत्वपूर्ण हैं तथा उनकी वाणी में भाषिक दृष्टि से विविधता उपलब्ध है जो उनके काव्य को और भी सजीव बना देती है। भाव सौंदर्य और कलात्मकता की दृष्टि से भी कबीर अपने युग के अग्रणी रचनाकार थे।</s>
<s>[INST]'स्वतंत्र हुए दोनों राष्ट्रों के प्रारंभिक नेतृत्वकर्त्ताओं के व्यक्तित्व तथा कृतित्व ने दोनों देशों को गहनता से प्रभावित किया है।' कथन के संदर्भ में भारत तथा पाकिस्तान की दशाओं पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका भारत पाकिस्तान की स्वातंत्र्योत्तर परिस्थितियाँ नेहरू तथा जिन्ना की भूमिका निष्कर्ष किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसके नेतृत्वकर्त्ताओं के व्यक्तित्व में आवश्यक रूप से प्रतिबिंबित होता है, इस संदर्भ में भारत और पाकिस्तान भी अपवाद नहीं हैं। स्वतंत्रता के बाद के काल में देखें तो शुरुआती नीतिनिर्माण से लेकर वर्तमान तक दोनों देशों पर जिन्ना तथा नेहरू के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का प्रभाव देखा जा सकता है। जिन्ना के व्यक्तित्व पर गौर करें तो हम पाते हैं कि उनमें एक वकील की कुशलता, एक राजनीतिज्ञ का चातुर्य तथा अवसरों के दक्षतापूर्ण प्रयोग की निपुणता अवश्य थी, किंतु जिन्ना में एक नेता की वह संगठनिक क्षमता नहीं दिखाई देती जो एक राष्ट्र को एकीकृत रखते हुए उसके संस्थापना के मूल्यों को अक्षुण्ण बनाये रख सके। उल्लेखनीय है कि धर्म और राजनीति के गठजोड़ को आधार बनाकर असहयोग एवं खिलाफत आंदोलन का विरोध करने वाले जिन्ना आगे चलकर धर्म आधारित राष्ट्र के ही समर्थक बने। जिन्ना के सिद्धांतों पर गठित आधुनिक इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान न तो अपनी संप्रभुता, न ही अपनी धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था को अक्षुण्ण रख सका। बांग्लादेश का पाकिस्तान से अलगाव यह सिद्ध करता है कि एक आधुनिक राष्ट्र का गठन धर्म आधारित राष्ट्रवाद से नहीं बल्कि समावेशी स्वीकार्यतावादी एवं बहुसांस्कृतिक मूल्यों से होता है। इसी तरह कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था बिना लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात किये तानाशाही एवं सैन्य तख्ता पलट में परिवर्तित हो जाती है। जिन्ना की तुलना में जब हम नेहरू के व्यक्तित्व पर नज़र डालते हैं तो हम पाते हैं कि वे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान अर्जित गांधीवादी मूल्यों के स्वतंत्र भारत में वास्तविक संवाहक बनते हैं। नेहरू की बहुसांस्कृतिक दृष्टि संतुलित राष्ट्रवाद का निर्माण करती है, जिसकी झलक धर्मनिरपेक्ष भारतीय राष्ट्रवाद में आज भी विद्यमान है। नेहरू की अंतर्राष्ट्रीयतावादी मानवीय जीवन दृष्टि उनके पंचशील एवं गुटनिरपेक्षता के माध्यम से भारत की विदेश नीति एवं ‘सॉफ्टपावर’ को आज भी मज़बूत आधार प्रदान करती है। नेहरू ने आधुनिक, समग्रतावादी एवं आत्मनिर्भरतापरक प्रयासों से भारत को न सिर्फ आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से मज़बूत किया है बल्कि भारत की धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी अक्षुण्ण बनाये रखा है। नवस्वतंत्र राष्ट्र के रूप में नेहरू ने अपने प्रथम भाषण में अशिक्षा, भुखमरी तथा सांप्रदायिकता को भारत का प्रथम शत्रु माना तो दूसरी ओर जिन्ना ने कश्मीर को अपने लिये चुनौती मानकर कबीलाई युद्ध प्रारंभ कर दिया। निष्कर्षत: साथ ही इन नव स्वतंत्र दोनों राष्ट्रों के शुरुआती नेतृत्वकर्त्ताओं के व्यक्तित्व तथा कृतित्व ने दोनों देशों को गहनता से प्रभावित किया है। एक सैन्य शक्ति के रूप में भारत को चुनौती देने में सक्षम पाकिस्तान गैर-लोकतांत्रिक एव गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के प्रभाव में ‘डीप-स्टेट’, बनने के मुहाने पर खड़ा है। मानव विकास, लोकतांत्रिक मूल्यों, स्वतंत्र विदेश नीति, सुरक्षित संप्रभुता, संगठित राष्ट्र एवं धर्मनिरपेक्षता के मूल्य पर नेहरूवादी दृष्टिकोण वर्तमान में जिन्ना के दृष्टिकोण से ज़्यादा प्रभावी सिद्ध हुआ।</s>
<s>[INST]आज के संदर्भ में कबीर का मूल्यांकन कीजिये।[/INST]उत्तर : विगत साहित्यिक विरासत के मूल्यांकन, भक्ति काल के मूलभूत अंतर्विरोधों की परीक्षा तथा साहित्य में रहस्यवाद की भूमिका को लेकर पिछले 50 वर्षों की हिंदी समालोचना में जितने विवाद हुए हैं, सारे विवादों के केंद्र में कबीर ही रहे हैं। उनके साहित्य पर आचार्य शुक्ल की टिप्पणियों को लेकर भी बहस कम नहीं रही है इसके अतिरिक्त पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर नाम से एक स्वतंत्र पुस्तक ही लिख दी। इसके बावजूद अभी तक विवाद थमा नहीं है। इसी क्रम में नामवर सिंह ने दूसरी परंपरा की खोज नामक पुस्तक में कबीर की पुनः प्रतिष्ठा के क्रम में मार्क्सवादी साहित्य समीक्षा को खंगालने का एक प्रयास किया है। दरअसल अतीत के क्लासिक साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में आज की समालोचना के सामने दोहरी समस्या है- उस विशेष कालखंड में उक्त साहित्य की ऐतिहासिक भूमिका तथा आज के युग में उक्त साहित्य की सार्थकता। विगत युग की क्लासिक कृतियों के तत्कालीन संपूर्ण संदर्भ में अर्थवत्ता के हर आयाम का निचोड़ प्रस्तुत करने का दायित्व आलोचना के आगे एक चुनौती की तरह होता है। इसी तरह आज उक्त कृतियों को अपने युगबोध और वर्तमान यथार्थ के अंतर्विरोधों के हर आयाम के आलोक में पढ़ना होगा, तभी हम क्लासिक साहित्य की विगत अर्थवत्ता और वर्तमान सार्थकता के बीच संबंध कायम कर पाएँगे। सबसे अंत में कबीर वाणी नामक एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ जिसके संपादक उर्दू के प्रसिद्ध प्रगतिशील शायर अली सरदार जाफरी हैं। इस पुस्तक की भूमिका में सरदार जाफ़री ने उल्लिखित दोनों संदर्भ में अपना विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा कि कबीर की बानियों में दिखावटी धर्म से विद्रोह और वास्तविक धर्म के प्रचार का क्रांतिकारी पहलू यह था कि उसने मध्ययुग के मनुष्य को आत्मप्रतिष्ठा, आत्मसम्मान और आत्मविश्वास दिया और मनुष्य को मनुष्य से प्रेम करना सिखाया। विगत युग में कबीर के कृतित्व का सार तत्व प्रस्तुत करने के बाद सरदार जाफरी ने आज के युग संदर्भ में अपना मंतव्य इस प्रकार रखा है: हमें आज भी कबीर के नेतृत्त्व की जरूरत है, उस रोशनी की जरूरत है जो इस संत के दिल से पैदा हुई थी। आज दुनिया आजाद हो रही है। विज्ञान की असाधारण प्रगति ने मनुष्य का प्रभुत्व बढ़ा दिया है। उद्योगों ने उनके बाहुबल में वृद्धि कर दी है। मनुष्य सितारों पर पहुँच चुका है। फिर भी वह तुच्छ है, संकटग्रस्त है और दुखी है। वह रंगों में बँटा हुआ है तथा जातियों में विभाजित है। उसके बीच धर्मों की दीवारें खड़ी हुई हैं तथा सांप्रदायिक द्वेष और वर्ग संघर्ष की तलवारे खींची हुई हैं। इस प्रकार उपरोक्त परिस्थितियों में कबीर के विचारों की प्रासंगिकता पहले के सामान ही प्रासंगिक है जिससे सामाजिक अखंडता को एकीकरण में रूपांतरित करके समाज का संश्लिष्ट विकास किया जा सके।</s>
<s>[INST]'भारतीय संस्कृति उदारता तथा समन्वयवादी गुणों के साथ अन्य संस्कृतियों को अपने में समाहित कर परंपरागत अस्तित्व के साथ आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है।' विवेचना करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका मिस्र, मेसोपोटामिया और ग्रीस की सभ्यता भारत की प्राचीन सभ्यता की तुलना भारतीय सभ्यता की अक्षुण्णता के कारण निष्कर्ष मिस्र, मेसोपोटामिया, ग्रीस तथा भारतीय की प्राचीन सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में प्रमुख हैं। भारत की प्राचीन सभ्यता से इतर विश्व की ये प्राचीन सभ्यताएँ आज या तो नष्ट हो गईं या फिर प्रतिस्थापित कर दी गईं हैं। वहीं इसके विपरीत भारतीय उपमहाद्वीप की सभ्यता आज भी परिवर्तन के साथ निरंतरता को बनाए रखते हुए अमिट, अक्षुण्ण बनी हुई हैं। यदि मिस्र की प्राचीन सभ्यता की बात करें तो हम पाते हैं कि पहले यहाँ के लोग प्रकृति-पूजक और बहुदेववादी थे, लेकिन वर्तमान में यहाँ इस्लामी एकेश्वरवाद आ चुका है। इसी प्रकार ‘ममी’ के रूप में शवों को संरक्षित करने की विधि तथा अन्य कलाएँ आज लुप्त हो चुकी हैं; दूसरी तरफ भारत में सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर वर्तमान समय तक मातृदेवी, पशुपति शिव जैसे देवताओं की पूजा अनवरत जारी है। साथ ही वैदिक सभ्यता के धार्मिक कर्मकांड जैसे- यज्ञ और हवन आज भी प्रचलित हैं। सूक्ष्म परीक्षण करने पर हम पाते हैं कि सामाजिक व्यवस्था के रूप में वर्ण व्यवस्था भी किसी-न-किसी रूप में आज भी विद्यमान है। साथ ही पर्यावरण के विभिन्न उपागम जैसे- सूर्य, वृक्ष, पशु-पक्षी, नदी आदि की पूजा तथा शवाधान की प्राचीन परंपराएँ आज भी अनवरत रूप से जारी हैं। मिस्र व अन्य सभ्यताओं की प्राचीन भाषाएँ आज लगभग विलुप्त हो गई हैं, लेकिन भारत में संस्कृत व तमिल जैसी प्राचीन भाषाएँ आज भी प्रयोग की जा रही हैं, साथ ही भारत की वर्तमान लिपियों का आधार आज भी ब्राह्मी लिपि ही है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा और लिपि के स्तर पर भी भारतीय संस्कृति में निरंतरता का भाव है। भारतीय सभ्यता में धर्म, रीति-रिवाज व परंपरा में अद्भुत समन्वय है। भारत में प्राचीनकाल के खान-पान, पहनावे व शृंगार की विभिन्न पद्धतियों की वर्तमान भारतीय संस्कृति पर अमिट छाप है। ये रीति-रिवाज और परंपराएँ लोगों की जीवनशैली के भाग हैं। इसी कारण विदेशी लोगों, धर्मों व परंपराओं से भी सामंजस्य स्थापित कर यह उनको अपने में समाहित कर लेती है। इसी तरह यूनानी, मंगोल, इस्लामी आदि विदेशी के रूप में भारत आए लेकिन भारतीय संस्कृति ने उन्हें भी अपने में समाहित कर लिया। इसी प्रकार मेसोपोटामिया की सभ्यता जो कि विश्व की सर्वाधिक उन्नत सभ्यताओं में से एक थी, अब नष्ट हो चुकी है। इसी तरह ईसाई धर्म के उदय ने यूनानी सभ्यता के बहुदेववादी स्वरूप व संस्कृति में व्यापक परिवर्तन कर संस्कृति की तारतम्यता को खंडित कर दिया है। लेकिन भारत में आज भी गुप्त काल से पहले प्रारंभ हुई मंदिर निर्माण की कला और संस्कृति न सिर्फ संरक्षित है बल्कि अविरल है। निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं भारतीय संस्कृति उदारता तथा समन्वयवादी गुणों के साथ अन्य संस्कृतियों को अपने में समाहित कर परंपरागत अस्तित्व के साथ अक्षुण्ण बनी हुई है।</s>
<s>[INST]वैदिकोत्तर काल की अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तनों ने भारत में नवीन धार्मिक आंदोलनों को जन्म दिया, किंतु यह कहना गलत होगा कि केवल आर्थिक कारण ही उन आंदोलनों के लिये उत्तरदायी थे। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका आर्थिक परिवर्तन आर्थिक परिवर्तनों के अलावा उत्तरदायी कारक निष्कर्ष छठी शताब्दी ईसा पूर्व का काल धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक अशांति का काल था। 600 ई.पू. गंगा की घाटी में कई धार्मिक आंदोलनों की शुरुआत हुई। समकालीन स्रोतों से पता चलता है कि इस समय ऐसे 62 धार्मिक संगठन अस्तित्व में थे। इन धार्मिक सम्प्रदायों के उदय में सामाजिक,धार्मिक तथा आर्थिक कारकों की भूमिका निर्णायक रही। इस समय उत्तर भारत में नई कृषि अर्थव्यवस्था का उदय हो रहा था। यहाँ बड़े पैमाने पर नए शहरों का विकास हुआ; जैसे- कौशांबी, कुशीनगर, बनारस, वैशाली, राजगीर आदि। इन शहरों में व्यापारियों तथा शिलाकारों की भूमिका में वृद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप वैश्य वर्ण के सामाजिक महत्त्व में वृद्धि हुई। ब्राह्मणवादी समाज एवं साहित्य में वैश्य वर्ण के साहूकारी जैसे कार्यों को निम्नकोटि का समझा जाता था। फलस्वरूप वे अन्य धर्मों के प्रति उन्मुख हुए। प्रचलित वर्णव्यवस्था ने केवल ब्राह्मण वर्ण के वर्चस्व ने अन्य वर्णों को विरोध के लिये प्रेरित किया। यही कारण था कि बौद्ध तथा जैन धर्म के प्रणेता भी क्षत्रिय वर्ण से संबंधित थे। महावीर तथा बौद्ध धर्म के उत्थान में वैश्य वर्ण का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। छठी शताब्दी के धार्मिक आन्दोलनों का बल मुख्य रूप से अहिंसा पर था। परिणामस्वरूप विभिन्न साम्राज्यों के मध्य युद्ध का अहिंसा के कारण पशुबलि में कमी आईं, जिससे कृषि अर्थव्यवस्था मजबूत हुई। धर्मशास्त्रों में सूद पर लगाए जाने वाले धन को निकृष्ट कार्य बताया गया है, साथ ही इसमें ऐसे व्यक्तियों की भी आलोचना की गई जो सूद पर जीवित रहते हैं। यही कारण है कि वैश्यों ने नए धार्मिक आंदोलनों को समर्थन दिया। उपरोक्त से स्पष्ट है कि निःसन्देह वैदिकोत्तर काल की अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तनों ने भारत में नए धार्मिक आंदोलनों को जन्म दिया, किंतु यह कहना गलत है कि इन परिवर्तनों के लिए केवल आर्थिक कारक ही उत्तरदायी नहीं थे। वस्तुत: तत्कालीन समाज में उपजे अंतर्विरोधों के कारण भी नवीन धर्म तथा सम्प्रदायों की पृष्ठभूमि तैयार हुई।</s>
<s>[INST]'रूसो के राजनीतिक दर्शन में समाजवाद, निरंकुशतावाद और प्रजातंत्र के बीज विद्यमान थे।' टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका रूसो का राजनीतिक दर्शन राजनीतिक दर्शन में समाजवाद, निरंकुशतावाद और प्रजातंत्र के विचार निष्कर्ष मार्क्स के अलावा शायद ही दूसरे किसी भी चिंतक ने मानव चेतना को उतनी गहराई से प्रभावित किया जितना कि रूसो ने। रूसो की महानता 19वीं सदी तथा प्रजातंत्र के युग में चलकर स्थापित हुई। रूसो की विचारधारा से विभिन्न तत्त्वों को प्रेरणा मिली। उसके विचार में समाजवाद का तत्त्व ढूंढा जा सकता है क्योंकि उसने अरस्तू जैसे चिंतक के वर्गीय विशेषाधिकार की अवधारणा को अस्वीकार कर मानव समानता की वकालत की। जहाँ अरस्तू ने धनी व्यक्ति को ही राज्य का वास्तविक नागरिक माना था वहीं रूसो ने यह घोषित किया कि सभी लोग समान हैं क्योंकि सभी प्रकृति की संतान हैं। दूसरी तरफ रूसो के विचार से अनजाने ही अधिनायकवादियों को भी प्रेरणा मिल गई। जैसाकि हम जानते हैं कि रूसो के द्वारा प्रतिपादित समुदाय तथा सामान्य इच्छा की अवधारणा अत्यधिक जटिल एवं अस्पष्ट है उदाहरण- एक जगह वह कहता है कि जो व्यक्ति अपना अधिकार समुदाय को समर्पित नहीं करता तो वह मानसिक दासता से ग्रस्त है और उसे इस दासता से मुक्त कराना समुदाय का दायित्व है। यहाँ एक तानाशाही शासन के लिये जगह बन जाती है। उसी प्रकार उसका यह कहना कि अगर समुदाय के अन्य लोग सामान्य इच्छा को अभिव्यक्त करने में असमर्थ हों तो सामान्य इच्छा एक व्यक्ति में भी निहित हो सकती है जो आगे चलकर रोबस्पियर जैसे अधिनायकवादी को प्रेरित करता है। फिर भी रूसो अधिनायकवादी विचार नहीं अपितु प्रजातांत्रिक विचारों को प्रेरित करने के लिये जाना जाता है। वस्तुतः प्लेटो के काल से लेकर सभी चिंतकों ने प्रजातंत्र में अविश्वास जताया था किंतु रूसो ने इसे प्रेरित व प्रोत्साहित किया। उसने व्यक्ति के स्थान पर समुदाय के महत्व पर बल दिया तथा यह घोषित किया कि सामान्य इच्छा ही संप्रभु की इच्छा है। निष्कर्षतः रूसो की विचारधारा व्यापक एवं विविधतापूर्ण है तथा इसमें एक साथ विभिन्न तत्त्वों का सम्मिश्रण देखा जा सकता है।</s>
<s>[INST]नई कविता पर अस्तित्ववादी प्रभाव के साथ ही, इसमें संश्लिष्ट आधुनिक भावबोध कि विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।[/INST]उत्तर : नई कविता छठे दशक की कविता है। अज्ञेय ने 1951 में दूसरा सप्तक प्रकाशित किया और यहीं से प्रयोगवाद नई कविता के रूप में रूपांतरित हो गया। इसके अतिरिक्त कुछ इतिहासकारों की राय है कि 1954 में जगदीश गुप्त की पत्रिका नई कविता के प्रकाशन से नई कविता आंदोलन का प्रारंभ हुआ। लक्ष्मीकांत वर्मा ने इसका आरंभ 1951 से ही माना है क्योंकि इसी वर्ष अज्ञेय द्वारा संपादित दूसरा सप्तक प्रकाशित हुआ था। 1952 में अज्ञेय ने अपनी कविताओं को नई कविताएँ कहा था। शमशेर ने भी इसी समय अपनी कविताओं को नई कविता कहा। शंभूनाथ सिंह द्वारा इस पर एक विशेष टिप्पणी की गई कि नई कविता को प्रयोगवाद से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रयोगवाद में प्रयोगशीलता की केंद्रीयता है जबकि नई कविता में प्रयोग केंद्रीय प्रवृत्ति के रूप में नहीं दिखता है। भारत में स्वतंत्रता के बाद आर्थिक विषमता कम नहीं हुई थी तथा देश के नेतृत्व में जनता की समस्याओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। इसके परिणामस्वरूप देश में असंतोष, मोहभंग और निराशा की स्थिति बनी क्योंकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी लोगों के सपने पूरे नहीं हुए थे। इसी पृष्ठभूमि पर नई कविता का उदय हुआ, आजादी के बाद जो भी विकास हुआ उसे मशीनीकरण और शहरीकरण पर बल दिया गया जिससे समाज में यांत्रिकता, अकेलेपन और आत्मनिर्वासन को बल मिला। इसी पूरे दौर में मनुष्य का महत्व कम होता है जिससे अस्तित्ववादी विचारधारा के प्रभाव के रूप में लघुमानववाद कहा गया है। इन सारी परिस्थितियों का गंभीर प्रभाव नई कविता पर पड़ा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व पूंजीवादी और मार्क्सवादी दो खेमों में बँट गया था। इस दौर में मार्क्सवाद के खिलाफ व्यक्ति की स्वतंत्रता का नारा बुलंद किया गया तथा इस बात पर ध्यान आकर्षित किया गया कि मार्क्सवाद सभी प्रकार की स्वतंत्रताओं का अपहरण करता है। इस प्रकार यह देश के बुद्धिजीवियों, लेखकों एवं जनता को स्वतंत्रता से वंचित करता है। नई कविता प्रमुखता अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव पड़ा हालाँकि इस पर मार्क्सवाद का भी प्रभाव देखा गया। इस तरह नई कविता की दो धाराएँ बनी- पहली अस्तित्ववाद और व्यक्तिवादी आधुनिकतावाद से जबकि दूसरी मार्क्सवाद से प्रभावित, पहली धारा का नेतृत्व अगेन के हाथों में था जबकि दूसरी का नेतृत्व मुक्तिबोध के हाथों में। नई कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ: नई कविता में विचारधारा को यांत्रिकता से मुक्त होकर भोगे हुए यथार्थ के आधार पर रचना की गई- लिपटा रजाई में मोटे तकिए पर धर कविता की कॉपी ठंडक से अकड़ी उंगलियों से कलम पकड़ मैंने इस जीवन की गली-गली नापी हाथ कुछ लगा नहीं कोई भी भाव कमबख्त जगह नहीं ( सर्वेश्वर) नई कविता के कवि यथार्थ को किसी एक विचारधारा तक सीमित नहीं करना चाहते बल्कि संपूर्ण जीवन को समेटना चाहते हैं- हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन कम से कम वाली बात ना हमसे कहिए। ( रघुवीर सहाय) अस्तित्ववादी दर्शन तथा विश्व युद्ध, मशीनीकरण, स्वतंत्रता से मोहभंग आदि स्थितियों के प्रभाव में नई कविता में लघुमानव की धारणा उभरी- हम छोटे लोग चाहे अनदेखे बीत जाए कोई तो देखेगा हमारी मुट्ठी में गुलमोहर के फूल थे कोई तो चीन्हेगा हमारे होठों पर भी कविताएँ थी। (अशोक वाजपेयी) इस प्रकार आधुनिक सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों को आत्मसात करते हुए अस्तित्ववादी विचारधारा के आधार पर नई कविता का स्तंभ तैयार हुआ।</s>
<s>[INST]प्रायद्वीपीय भारत के जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण का चित्र प्रारंभिक संगम साहित्य में प्रस्तुत किया गया है। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका संगम साहित्य में प्रस्तुत सामाजिक-संस्कृतिक दशा निष्कर्ष प्रायद्वीपीय भारत या दक्षिण भारत का क्रमबद्ध इतिहास हमें जिस साहित्य से ज्ञात होता है उसे संगम साहित्य के रूप में जाना जाता है । संगम–तमिल कवियों, विद्वानों, आचार्यों, ज्योतिषियों एवं बुद्धिजीवियों की एक परिषद् थी। तमिल भाषा में लिखे गये प्राचीन साहित्य को ही संगम साहित्य कहा जाता है। प्रमुख संगम ग्रंथ जिनमें हमें तत्कालीन समाज एवं संस्कृति की जानकारी मिलती है- शिलप्पादिकारम्, मणिमैखले और जीवक चिन्तामणि हैं। तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के विषय में जानकारी प्राप्त करने का संगम साहित्य महत्त्वपूर्ण साधन है। इसमें हमें आर्य एवं द्रविड़ संस्कृति के समन्वय की झलक भी मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल तक उत्तर भारतीय समाज की कई परंपराओं को संगम कालीन समाज ने अपना लिया था। तमिल समाज में राजा को सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। शिलप्पादिकारम् और मणिमैखले तत्समय की सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। इनमें तत्कालीन समाज में नारी की स्थिति, उनके दार्शनिक एवं शास्त्रार्थ संबंधित दृष्टिकोण को भी स्थान दिया गया है। इस काल में महिलाओं को अपना जीवन साथी चुनने की छूट थी। तमिल ग्रन्थ तोलकाप्पियम में आठ प्रकार के विवाहों का भी उल्लेख मिलता है। विधवाओं की स्थिति अधिक शोचनीय थी। उच्च जातियों में सती प्रथा के प्रचलन के भी संकेत मिलते हैं। संगमकालीन समाज में वर्ण एवं जाति व्यवस्था उतनी कठोर नहीं थी जितनी उत्तर भारत में थी। सामाजिक वर्गों में ब्राह्मणों को समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। ब्राह्मणों के पश्चात् वेल्लार वर्ग का स्थान था। तत्कालीन समाज में शाकाहार एवं मांसाहार दोनों तरह के भोजन का प्रचलन था। वे लोक संगीत, नृत्य एवं विविध प्रकार के वाद्यों द्वारा मनोरंजन किया करते थे। धनी वर्ग पकी ईंट से बने मकानों में रहते थे जबकि निर्धन वर्ग कच्चे मकानों में रहते थे। तमिल साहित्य में संस्कृतिक पक्षों की भी जानकारी प्राप्त होती है। इस काल में मृतक के संस्कारों में अग्निदाह एवं समाधीकरण दोनों ही विधियों द्वारा शव का अंतिम संस्कार किया जाता था। कभी-कभी शवों को खुले में जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था। संगम साहित्य से पता चलता है कि ब्राह्मण अपना समय अध्ययन एवं अध्यापन में व्यतीत करते थे, साथ ही अन्य धर्मों के अनुयायियों से उनका शास्रार्थ होता था। प्रायद्वीपीय भारत के प्राचीन देवता मुरूगन को माना जाता था। कालांतर में इनका नाम सुब्रह्यण्य हो गया और स्कंद कार्तिकेय के साथ उनका तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। प्रायद्वीपीय भारत में इस काल में देवताओं की पूजा विधियाँ उत्तर भारत के ही समान थीं। कावेरीपत्तनम से इंद्र की पूजा के साक्ष्य भी मिलते हैं। इसके इसके लिये विशेष समारोह का आयोजन किया जाता था। संगम साहित्य के अध्ययन से प्रायद्वीपीय भारत के समाज तथा संस्कृति की सबसे विश्वसनीय जानकारी प्राप्त होती है। समाज में रहने वाले सामान्य मनुष्यों की दिनचर्या का जितना सूक्ष्म विवरण इन साहित्यों में प्राप्त होता है, वह अन्य साहित्यों में बहुत ही दुर्लभ है।</s>
<s>[INST]प्रयोगवाद कि प्रवृत्तियाँ किस प्रकार प्रगतिवाद से भिन्न है, उदाहरण सहित व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रगतिशील साहित्य का संबंध हमारे राष्ट्रीय आंदोलन से बहुत अधिक साम्य रखता है। आजादी का आंदोलन आधुनिक साहित्य की अब तक की सभी प्रमुख प्रवृतियों को प्रेरित और प्रभावित करता रहा है। प्रगतिवादी साहित्य को हम देशव्यापी आंदोलन भी कह सकते हैं। यूरोप में फासीवाद के उभार के विरुद्ध संघर्ष के दौरान इस आंदोलन का जन्म हुआ था। और भारत जैसे औपनिवेशिक देशों के लेखकों और कलाकारों ने इसे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन से जोड़ दिया, इस आंदोलन के पीछे मार्क्सवादी विचारधारा की शक्ति और सोवियत संघ के निर्माण की ताकत भी लगी हुई थी। अंग्रेजी में जिसे ” प्रोग्रेसिव लिटरेचर ” कहते हैं और और हिंदी साहित्य में इसे ” प्रगतिशील साहित्य ” नाम दिया गया है। हिंदी में प्रगतिशील के साथ-साथ प्रगतिवाद का भी प्रयोग हुआ है। गैर प्रगतिशील लेखकों ने उस साहित्य को जो मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के अनुसार लिखा गया है प्रगतिवाद नाम दिया है। 1936 से 42 तक एक विशेष प्रकार की काव्यधारा प्रचलित रही, जिसे प्रगतिवाद का नाम दिया गया। ” प्रगति” का शाब्दिक अर्थ है गति उच्च गति या उन्नति। इस साहित्य के विषय में प्रायः सभी ने इस धारणा को स्वीकार किया है कि प्रगतिवादी साहित्य मार्क्सवादी चिंतन से प्रेरित साहित्य है, जो पूंजीवादी शोषण और अन्याय के विरुद्ध विद्रोह जगाकर वर्गहीन समाज की स्थापना में विकास रखता है। पूंजीपतियों के विरुद्ध विद्रोह और क्रांति की प्रेरणा फूँकना, करुणा, यथार्थता, निष्ठा और अभिव्यक्ति की सादगी और सार्थकता प्रगतिवादी साहित्य की विशेषता है। डाॅ. नगेन्द्र’ के अनुसार – ‘‘हिन्दी साहित्य में ‘प्रयोगवाद’ नाम उन कविताओं के लिये रूढ़ हो गया है, जो कुछ नये भाव बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करने वाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में ‘तार-सप्तक’ के माध्यम से सन् 1943 ई. में प्रकाशन जगत् में आयी और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गयीं तथा जिनका पर्यवसान (समापन) नयी कविता में हो गया। प्रयोगवादी प्रवृत्तियाँ: समसामयिक जीवन का यथार्थ चित्रण: प्रयोगवादी कविता की भाव-वस्तु समसामयिक वस्तुओं और व्यापारों से उपजी है। रिक्शों के भोंपू की आवाज, लाउडस्पीकर का चीत्कार,मशीन के अलार्म की चीख,रेल के इंजन की सीटी आदि की यथावत अभिव्यक्ति इस कविता में मिलेगी। नलिन विलोचन शर्मा ने बंसत वर्णन के प्रसंग में लाउडस्पीकर को अंकित किया। प्रत्युष-वर्णन में उन्होंने रिक्शों के भोंपू की आवाज का उल्लेख किया। घोर अहंनिष्ठ वैयक्तिकता:- प्रयोगवादी कवि समाज-चित्रण की अपेक्षा वैयक्तिक कुरूपता का प्रकाशन करके समाज के मध्यमवर्गीय मानव की दुर्बलता का प्रकाशन करता है। विद्रोह का स्वर: इस कविता में विद्रोह का स्वर एक ओर समाज और परंपरा से अलग होने के रूप में मिलता है और दूसरी ओर आत्मशक्ति के उद्-घोष रूप में। परंपरा और रूढ़ि से मुक्ति पाने के लिये भवानी प्रसाद मिश्र कहते हैं:- ये किसी निश्चित नियम,क्रम की सरासर सीढ़ियाँ हैं पांव रखकर बढ़ रहीं जिस पर कि अपनी पीढ़ियाँ हैं बिना सीढ़ी के बढ़ेंगे तीर के जैसे बढ़ेंगे. लघु मानव की प्रतिष्ठा: प्रयोगवादी काव्य में लघु मानव की ऐसी धारणा को स्थापित किया गया है जो इतिहास की गति को अप्रत्याशित मोड़ दे सकने की क्षमता रखता है; मैं रथ का टूटा पहिया हूं लेकिन मुझे फेंको मत इतिहासों की सामूहिक गति सहसा झूठी पड़ जाने पर क्या जाने सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले अनास्थावादी तथा संशयात्मक स्वर: डॉ. शंभूनाथ चतुर्वेदी ने अनास्थामूलक प्रयोगवादी काव्य के दो पक्ष स्वीकार किए हैं। एक आस्था और अनास्था की द्वंद्वमयी अभिव्यक्ति,जो वस्तुत: निराशा और संशयात्मक दृष्टिकोण का संकेत करती है। दूसरी,नितांत हताशापूर्ण मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति। अपनी कुंठाओं की दीवारों में बंदी मैं घुटता हूं प्रयोगवाद एवं प्रगतिवाद प्रमुख अंतर: प्रयोगवाद में कला पक्ष का अधिक महत्व होता है जबकि प्रगतिवाद में विषय-वस्तु का। प्रगतिवाद में व्यक्ति की समस्याओं की प्रधानता होती है जबकि प्रयोगवाद में व्यक्ति की समस्याओं का चित्रण नहीं होता। प्रगतिशील आंदोलन का संबंध स्वाधीनता संघर्ष से था जबकि प्रयोगवाद केवल साहित्यिक, आंदोलन रहा। इस प्रकार प्रगतिवाद याँत्रिकता में बंधा हुआ आंदोलन था जबकि प्रयोगवाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता की विचारधारा के साथ याँत्रिकता का विरोध करते हुये विकसित हुआ।</s>
<s>[INST]ब्रिटिश सरकार ने जिन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन करके भारत को उपनिवेश में बदला था आगे चलकर उन्हीं बदलावों ने भारत मे जन-विद्रोह की राह प्रशस्त की। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका भारत के प्रति अंग्रेज़ों की नीति उनकी नीति किस प्रकार जन-विद्रोहों का कारण बनी निष्कर्ष ब्रिटिश व्यापारी के रूप में भारत आये और आगे चलकर यहाँ के संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। इन अपार संसाधनों से ब्रिटिश साम्राज्य के अन्य उपनिवेशों को नियंत्रित करना आसान हो गया। क्योंकि अंग्रेज भारत को लंबे समय तक अपने नियंत्रण में रखना चाहते थे अतः आवश्यक था कि कुछ ऐसे परिवर्तन किये जाए जो अंग्रेजी नियंत्रण को भारत में मज़बूत और दीर्घकालिक बना सके। ऐसे में अंग्रेज़ों ने अनेक आर्थिक, प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक-धार्मिक नीतियों को अपनाया। किंतु यही बदलाव कालांतर में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हुए अनेक जन-विद्रोहों का कारण सिद्ध हुए। इन बदलावों तथा निहित उद्देश्यों को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है: ब्रिटिश सरकार द्वारा अंग्रेज़ी को सरकारी भाषा बनाने के कारण फारसी और संस्कृत को जानने वाले लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे। फलतः इस वर्ग में असंतोष पनपा। अंग्रेज़ों ने अपनी सत्ता को सशक्त करने के लिये एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की जो सेना और पुलिस, राजस्व विभाग, नौकरशाही एवं न्यायिक प्रणाली पर आधारित थी। इससे ब्रिटिश शासन की भारतीय उपनिवेश पर पकड़ मज़बूत हुई। किंतु यह प्रणाली सभी वर्गो के हितों को साधने में सक्षम साबित न हो सकी और भारतीयों के असंतोष का कारण बनी। अंग्रेज़ों ने भारतीय उपनिवेश में अपने पैर जमाने के लिये सख़्त आर्थिक नीतियों को अपनाया जिसके तहत भू-राजस्व नीति, कृषि का वाणिज्यीकरण, अनौद्योगिकरण, रेलवे का विकास, आयात-निर्यात नीति आदि की शुरुआत की। स्थानीय स्तर पर वसूल किये गए राजस्व से अंग्रेज़ों ने अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया। इसी के तहत उन्होंने स्थानीय कृषकों से भारी मात्रा में जबरन राजस्व वसूलना प्रारंभ किया। जो कालांतर में कृषक असंतोष का कारण बना। उन्होंने ईसाई मिशनरियों को धर्मांतरण के लिये प्रेरित किया एवं आंग्ल शिक्षा पद्धति को अपनाया। जो भारतीयों के धार्मिक विश्वास पर सीधा प्रहार था। विभिन्न भू-राजस्व नीतियों एवं आदिवासी क्षेत्रों में हस्तक्षेप के कारण कृषकों एवं आदिवासियों का आर्थिक शोषण किया गया। जिसके परिणास्वरूप कृषकों एवं आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया। नव स्थापित न्याय, नौकरशाही और राजस्व व्यवस्था को स्थानीय लोग समझ नहीं पाते थे। वहीं, अंग्रेज़ न्यायाधीश भी स्थानीय समस्याओं को नहीं समझ पाते थे, फलस्वरूप तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई जो अंतत: जन-विद्रोहों में परिणत हुई। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय धार्मिक मान्यताओं, रूढ़ियों एवं परंपराओं को परिवर्तित करने का प्रयास किया। शोषकों ने शोषितों के धार्मिक स्थलों को भी क्षति पहुँचाईं परिणामस्वरूप तनाव की स्थिति में विरोध करने वाले व्यक्तियों ने प्रचलित धार्मिक मान्यताओं का प्रयोग किया। निष्कर्षतः ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत को उपनिवेश में परिवर्तित करने हेतु अपनायी गयी प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक नीतियों ने ही कालांतर में उन कारकों को आधार प्रदान किया जिन्होंने कालांतर में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विभिन्न जन-विद्रोहों को भी जन्म दिया।</s>
<s>[INST]“प्रयोगवाद पाश्चात्य साहित्यिक प्रवृत्तियों में भारतीय दर्शन के संश्लेषण से व्युत्पन्न आंदोलन है,” उदाहरण सहित व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में वर्ष 1943 में अज्ञेय द्वारा संपादित तार सप्तक के प्रकाशन के साथ ही एक नया मोड़ उपस्थित हुआ जिसे प्रयोगवाद कहा गया। इस संकलन में सात कवियों की कविताएं शामिल थी- रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, नेमी चंद्र जैन, प्रभाकर माचवे, भारत भूषण अग्रवाल। प्रयोगवाद पर पश्चिमी साहित्यिक प्रवृत्तियों पर पड़ने वाले कारकों का प्रभाव देखा गया। उदाहरण स्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव क्षण भंगुरता एवं क्षणवादी मानसिकता के संदर्भ में देखा गया, इसी प्रकार फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद संबंधी लिबिडो एक काम चेतना तथा अमेरिका में विकसित टी. एस. इलियट एवं रिचर्ड्स के नई समीक्षा आंदोलनों का भी प्रयोगवाद पर प्रभाव देखा गया। इलियट के निर्वैक्तिकता सिद्धांत का प्रभाव भी प्रयोगवाद की रचनाओं में देखा गया। इलियट ने रोमांटिसिजम की आलोचना यह कह कर की कि- इसमें भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं बल्कि वमन होता है। उनके अनुसार रचना प्रक्रिया में कवि को भावुक होकर नहीं बल्कि तटस्थ होकर शामिल होना चाहिए। इस प्रकार इलियट कहते हैं कि- भोगने वाले मन और रचना करने वाले मन में एक अनिवार्य अंतराल होना चाहिए और यह अंतराल जितना बड़ा होगा रचना उतनी ही महान होगी। इस विचार को अब घोषित रूप से स्वीकार किया गया तथा शेखर एक जीवनी में इस प्रसंग का उल्लेख भी किया गया है। इसी समय के फ्रांस में सक्रिय प्रतीक वाद का प्रभाव भी प्रयोगवाद में देखा गया। पश्चिमी प्रवृत्तियों के अतिरिक्त प्रयोगवाद में तत्कालीन भारतीय परिस्थितियों, स्वाधीनता आंदोलन और व्यक्तिगत हितों तथा गांधी जी के दर्शन प्रबुद्ध व्यक्तिवाद का प्रभाव भी देखा गया। तत्कालीन भारत की सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों जैसे शहरीकरण आदि का भी प्रभाव देखा गया। इसके अतिरिक्त अज्ञेय पर उनकी रचना असाध्य वीणा में जैन सिद्धांतों का प्रस्फुटन भी देखा जा सकता है। प्रयोगवाद के भारतीय विशेषताओं में भाषा को अधिक महत्व दिया गया, इस संदर्भ में अज्ञेय कहते हैं- भाषा सिर्फ व्यक्ति का माध्यम नहीं, जानने का भी माध्यम है। जितनी हमारी भाषा होती है, हम उतना ही सोच सकते हैं। इस प्रकार प्रयोगवाद पश्चिमी साहित्यिक प्रवृत्तियों से प्रभावित होते हुए भारतीय परिस्थिति एवं दर्शन को गहनता से आत्मसात करते हुए भारतीय प्रयोगवाद के एक नवीन एवं उत्कृष्ट संस्करण के रूप में प्रस्तुत हुआ।</s>
<s>[INST]दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की कला और साहित्य ही नहीं बल्कि उनके आचार-विचार, संस्कार-व्यवहार और तौर-तरीकों को भी भारतीय संस्कृति ने प्रभावित किया। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भूमिका भारत की संस्कृति का दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में प्रचार-प्रसार इसका दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों पर प्रभाव निष्कर्ष दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों से मिले साहित्यिक स्रोतों से यहाँ की भाषा, धर्म, राजनीति तथा सामाजिक संस्थानों पर भारत का बहुत गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है। इन देशों में भारतीय संस्कृति के प्रसार का कारण अनेक भारतीय राजाओं जिनमें अशोक प्रमुख था, द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में धर्म एवं संस्कृति का प्रचार प्रसार था। ऐसा माना जाता है कि दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति तथा धर्म का जितना प्रभाव पड़ा उतना शायद ही संसार के किसी अन्य देश पर पड़ा हो। मौर्योत्तर काल से दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति ने प्रवेश किया और अपनी सभ्यता, संस्कृति व धर्म से यहाँ के लोगों को प्रभावित किया। भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक प्रभाव जावा, सुमात्रा, बाली, चंपा, फुनान और मलाया आदि क्षेत्रों में अधिक रहा। मलयद्वीप तथा इंडोनेशियाई द्वीपों पर सर्वप्रथम पूर्वी तटों के व्यापारियों का संपर्क स्थापित हुआ। इसी दौर में महायान और हीनयान से जुड़े कुछ धर्म प्रचारक भी यहां आए। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि गुप्तकाल में इन क्षेत्रों को उपनिवेश की तरह भी इस्तेमाल किया गया। इसी समय भारत के पूर्वी तटों से दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्रों में राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से प्रभावी होने की भारतीय प्रयास की शुरूआत भी होती है। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचारक मंडल को बर्मा भेजा तथा बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के निर्देश दिये। 11 से 13वीं शताब्दी के मध्य आते-आते बर्मा बौद्ध-संस्कृति का महान केंद्र बन गया। इसी तरह मलेशिया के केडाह प्रांत से शैव धर्म के प्रचार-प्रसार तथा कालांतर में इसके प्रचलन के संकेत मिलना, वियतनाम में हिंदू एवं बौद्ध मंदिरों के निर्माण के साथ ही शिव, गणेश, लक्ष्मी, पार्वती, सरस्वती, बुद्ध तथा लोकेश्वर आदि देवताओं की पूजा किये जाने, थाईलैंड से अमरावती शैली, गुप्तकालीन कला और पल्लव लिपि में अंकित बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के अवशेषों का मिलना, कंबोडिया में अंकोरवाट का मंदिर तथा इंडोनेशिया के जावा द्वीप पर प्रांबानन में हिंदू मंदिर और बोरोंबुदूर में विश्व विख्यात विशाल बौद्ध स्तूप का मिलना भारतीय संस्कृति के गहन प्रभाव का परिचायक है। पूजापाठ की पद्धतियों, जीवन के विभिन्न संस्कारों, त्योहारों को मनाने के तरीकों, रहन-सहन की पद्धतियां तथा संस्कारों में भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में आश्चर्यजनक रूप से समानता दिखाई देती है। भारतीय संस्कृति ने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों की कला और साहित्य ही नहीं बल्कि उनके आचार-विचार, संस्कार-व्यवहार और तौर-तरीकों को भी प्रभावित किया है। जिसे हम आज भी भारत-आसियान संबंधों के संदर्भ समझ सकते हैं।</s>
<s>[INST]“धर्मवीर भारती द्वारा आधुनिक यथार्थवादी दृष्टिकोण को आधार बनाते हुये व्यक्ति की मनोभावनाओं और अंतर्द्वंदों को उभारने का प्रयास किया गया।” उनकी रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में इस कथन की यथार्थता सिद्ध कीजिये?[/INST]उत्तर : प्रेमचंद और प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों की एक धारा ने जहाँ सामाजिक ऐतिहासिक प्रवृत्तियों के उपन्यास लिखें वही जैनेंद्र, इलाचंदर जोशी, अज्ञेय आदि ने दूसरी धारा का प्रवर्तन किया। इस धारा के उपन्यासकारों ने समाज की अपेक्षा व्यक्ति मन की सूक्ष्म समस्याओं को अपने उपन्यासों का केंद्र बिंदु बनाया। इसमें कथाकार जीवन यथार्थ और संघर्ष की अपेक्षा व्यक्त की मनोस्थिति और मनोभावनाओं की गहराइयों से डूबते उतरते हुए प्रेम और नैतिकता के प्रश्नों से उलझते हैं। धर्मवीर भारती ने भी अपनी रचनाओं में इसी मनोवैज्ञानिक अथवा मनोविश्लेषणात्मक प्रवृत्तियों का प्रयोग किया। प्रेमचंद के बाद जो नई धारा हिंदी में उभरती है उसमें स्वाधीनता आंदोलन और सामंती परिवेश के बीच की समस्याओं बाह्य घटनाओं, परिस्थितियों, संस्कारों में फँसे मनुष्य की विवशता दर्शाना तथा व्यक्ति मन, उसकी कुंठाओं की झलक दिखाना एवं प्रेम और नैतिकता के उलझे प्रश्नों को विश्लेषित करने की प्रवृत्तियाँ प्रभावी रहीं। इसी प्रकार ये रचनाकार सामाजिक समस्याओं को कथानक की विषयवस्तु बनाने के बजाय मनुष्य के अंतर्द्वंदों को उभारना अधिक सर्वश्रेष्ठ समझते थे। इसी क्रम में जैनेंद्र ने कहा कि- “वह उपन्यास किसी काम का नहीं, जो इतिहास की तरह घटनाओं का बखान कर जाता है।” धर्मवीर भारती द्वारा मनोवैज्ञानिकतावादी प्रवृत्तियों के साथ अपनी दो प्रमुख रचनाओं- गुनाहों का देवता और सूरज का सातवाँ घोड़ा की रचना की गई। गुनाहों का देवता एक भावुकता और उच्छवास युक्त प्रेम की रोमानी कहानी को आधार बनाता है। वस्तुनिष्ठ दृष्टि से देखा जाए तो भारती जी के इस उपन्यास में प्रेम को एक समग्र मानवीय व्यवहार के रूप में चित्रित किया गया है जो युवक-युवतियों के बीच का त्याग भावना से प्रेरित और वासना रहित प्रेम है। उपन्यास में चंदर सुधा को अपनी समस्त पवित्रता से प्रेम करता है वासना उसके लिये गर्हित है और इस प्रकार वे दोनों रोमानी प्रेम के प्रवाह में बहते रहते हैं। एक दूसरे से प्रेम में होड़ करते हुए ऊपर उठते हुए यह मानते हैं कि प्रेम सामान्य प्रक्रियाओं से अति श्रेष्ठ चीज है इसीलिये सुधा का विवाह किसी और से होने पर भी चंदर इस कार्य को हर्ष पूर्ण संपन्न कराता है। चंदर सोचता है कि सुधा पति के घर जाकर उसे भूल गई है और वह उसे पत्र नहीं लिखता और ईसाई लड़की पम्मी के आकर्षण में फँसकर वासनायुक्त प्रेम (गुनाह) में डूब जाता है। गुनाहों का देवता उपन्यास का कथानक चंदर और सुधा के भावुकता पूर्ण प्रेम के इर्द-गिर्द ही घूमता है। लेखक उनके मानसिक अंतर्द्वंद, नारी और आत्मा के संघर्ष को ही अपने इस उपन्यास की कहानी में विन्यस्त करता है। सूरज का सातवाँ घोड़ा भारती का गुनाहों का देवता के बाद लिखा गया दूसरा उपन्यास है। इसके विषय में उपन्यासकार ने निवेदन में लिखा कि- “दोनों कृतियों में कालयुग का अंतर पड़ने के अलावा उन बिंदुओं में भी अंतर आ गया है जिन पर मैंने समस्याओं का विश्लेषण किया है।” दरअसल गुनाहों का देवता उपन्यास एक भावुक प्रेम कहानी है जिसमें समाज और उसकी समस्याएँ उतनी मुख्य रूप से स्पष्ट नहीं हुई हैं जबकि सूरज का सातवाँ घोड़ा एक निम्न वर्गीय जनजीवन की कहानी है जहाँ पर मार्क्सवाद की कुछ प्रवृत्तियाँ भी महसूस की जा सकती हैं। इस उपन्यास में माणिक मुल्ला आपबीती के रूप में निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की कहानी अपने नौजवान साथियों को सुनाता है। इस उपन्यास में जमुना, लिली और सती के जीवन से जुड़ी कहानियाँ हैं जिन्हें माणिक मुल्ला ने सातवी दोपहर की कहानी में सूरज के मिथक के साथ जोड़ दिया है। इसकी कथावस्तु में निम्न मध्यमवर्गीय जनजीवन की त्रासद स्थितियों, उनके घुटन भरे जीवन और जैसे-तैसे जिंदा रहने की विवशता के अनेक चित्र खींचे गए हैं। इस प्रकार धर्मवीर भारती द्वारा प्रसाद के कथानको की भांति मनोवैज्ञानिक स्तर पर मनुष्य के अंतर्द्वंद, निर्णय न ले पाने की क्षमता और भाषाई कलात्मकता को आधार बनाया है तो वहीं दूसरी ओर मोहन राकेश और आधुनिक राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियों और विचारधाराओं जैसे- अस्तित्ववाद, मनोविश्लेषणवाद, लघु मानववाद और परोक्ष स्तर पर मार्क्सवाद की अंतर भावनाओं की प्रविष्टि भी संतुलित रूप से की है। उनकी रचनाओं पर उनके प्रिय लेखक प्रसाद की भाषा और ऑस्कर वाइल्ड की लेखन शैली का प्रभाव देखा जा सकता है।</s>
<s>[INST]यशपाल के उपन्यासों के विषय वैविध्य के बावजूद भी विचारधारा का अंतर्वेशन उनकी कलात्मकता की विशेषता है| स्पष्ट कीजिये?[/INST]उत्तर : हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र सेना के सक्रिय और उत्साही कार्यकर्त्ता के रूप में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिये यशपाल को आजन्म कारावास का दंड मिला था परंतु 1937 में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बन जाने पर अन्य कैदियों की तरह उन्हें भी कारावास से मुक्ति मिल गई। इसके बाद पंजाब में प्रवेश ना मिलने के कारण लखनऊ में रहकर उन्होंने विप्लव के संपादक के रूप में कार्य करते हुए “बुलेट की जगह बुलेटिन” की कार्यशैली पर कार्य किया। दादा कामरेड से लेकर मेरी तेरी उसकी बात तक यशपाल का रचनाकाल लगभग 32 वर्षों के कालखंड में फैला हुआ है। यहाँ पर ध्यान देने वाली बात यह है कि यशपाल ने अपनी कृतियों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपनी विचारधारा प्रगतिवाद या मार्क्सवाद का प्रक्षेपण किया है। कथानक के अन्य पहलुओं के साथ सामंजस्य बनाते हुए विचारधारा के प्रक्षेपण का कार्य बहुत ही कुशलता से किया गया है। दादा कामरेड में यशपाल एक ओर यदि समाज की मौजूदा स्थिति में और क्रमागत आचार और नैतिक धारणा में वैषम्य की ओर संकेत करना चाहते हैं तो दूसरी ओर वे उस ऐतिहासिक दौर को भी क्रमबद्ध करना चाहते हैं जब उनके सहयोगी ओम सहकर्मी एक व्यापक विघटन का शिकार हो रहे थे। दादा कामरेड का नायक हरीश एक स्थल पर कहता है- मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि उद्देश्य को ध्यान में रखकर आंदोलन को अपने कार्यक्रम में परिवर्तन करना पड़ता है। रूस में भी स्वतंत्रता के आंदोलन ने आतंकवादी कार्यों का रूप लिया था। इसकी नायिका शैल के रूप में यशपाल आत्मसजग और अपने संदर्भ में निर्णय लेने में सक्षम युवती की परिकल्पना करते हैं। देशद्रोही उपन्यास दूसरे विश्व युद्ध के आरंभिक दो-तीन वर्षों के बीच की राजनीतिक परिस्थिति का वर्णन करता है। इसमें यशपाल ने तत्कालीन राजनैतिक अंतरधारणाओं को बहुत स्पष्टता से चित्रित किया है। कांग्रेश की बुर्जुआ और जन विरोधी नीतियों एवं कार्य पद्धति के उद्घाटन में व्यंग का जैसा कलात्मक उपयोग इस उपन्यास में हुआ है वह लेखक की भावी क्षमताओं का संकेत देता है। भारतीय सामाजिक संरचना में स्त्री की यातना का संदर्भ यशपाल का मुख्य रचनात्मक सरोकार रहा है। दिव्या उपन्यास को बौद्ध कालीन समाज की पृष्ठभूमि में संदर्भित किया गया है। इतिहास को वह विश्लेषण की वस्तु मानते हैं विश्वास कि नहीं। दिव्या में यशपाल मानते हैं कि ना वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित सामंती समाज स्त्री को सम्मान और सुरक्षा का आश्वासन दे सकता है और ना ही बौद्ध धर्म जो स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व को शंका की दृष्टि से देखता है। इसके अतिरिक्त इस उपन्यास के नायक मारिश के कई कथनों से भी उनकी विचारधारा का प्रस्फुटन होता है। पार्टी कामरेड गीता नामक एक कम्युनिस्ट युवती पर केंद्रित है इसके अतिरिक्त इसमें 1945 के आम चुनाव और नाभिक विद्रोह की घटनाएँ भी शामिल की गई हैं। इस उपन्यास में यशपाल ने कांग्रेस के वर्ग चरित्र और उनके नेताओं के चारित्रिक अंतरविरोधियों को व्यंगात्मक शैली में उद्घाटित किया है। अमिता उपन्यास शीत युद्ध के दौर में कलिंग युद्ध की पृष्ठभूमि में रचित उपन्यास है जिसमें गांधीवादी अहिंसा और हृदय परिवर्तन के सिद्धांतों के प्रति यशपाल द्वारा असहमति व्यक्त की गई है। झूठा सच निर्विवाद रूप से यशपाल का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। इसका पहला खंड सन 1958 में और दूसरा सन 1960 में प्रकाशित हुआ। इंद्रनाथ मदान ने रंगो के रूपक द्वारा इसे लाल से गुलाबी की ओर यशपाल के संचरण के रूप में देखा है। लाहौर को केंद्र बनाकर लिखा गया झूठा सच का पहला खंड पंजाब और पंजाबियत को समग्रता के साथ अपने में समाए हुए हैं। इस खंड में भी असद, गिल जैसे कम्युनिस्ट पात्र हैं लेकिन विभाजन की त्रासदी पृष्ठभूमि में उनकी किसी क्रांतिकारी भूमिका का उल्लेख संभव नहीं था। जबकि उपन्यास के दूसरे खंड में देश का भविष्य नामक शीर्षक से यशपाल ने कम्युनिस्ट पात्रों और उनकी गतिविधियों का समुचित उल्लेख किया है। पीसी जोशी और बीटी रणदिवे की पॉलिटिकल लाइन पर खुलकर चर्चा की गई है। यशपाल द्वारा झूठा सच के उत्तरार्ध में रातों-रात कांग्रेसियों और उनके हिमायतिओं की एक पूरी फौज द्वारा राजनीतिक अंतर्द्वंदों और दिखावटी राजनीति की वास्तविकता को उकेरा है। उपन्यास की एक पात्र मिसेज अगरवाला ब्रिटिश क्लब की मेंबर थी जो बाद में खद्दर पहनने लगती हैं और कांग्रेसी विचारधारा में अपनी श्रद्धा व्यक्त करती हैं। इसके अतिरिक्त गांधी जी की हत्या वाली रात में शराब के बीच कांग्रेसी नेताओं की बसों के प्रसंग कहीं-कहीं अति रंजना पूर्ण लग सकते हैं लेकिन इन सब से ना डरते हुए लेखक द्वारा अपनी विचारधारा की प्रविष्टि कराई गई है। इस प्रकार एक सजग लेखक के रूप में यशपाल द्वारा उस समय की सभी प्रमुख राजनीतिक सामाजिक घटनाओं जैसे- द्वितीय विश्व युद्ध, शीत युद्ध, नाविक विद्रोह, भारत छोड़ो आंदोलन और विभाजन की त्रासदी का वर्णन तो किया ही गया है लेकिन इस प्रकार की कथावस्तु के मध्य उनके द्वारा अपनी विचारधारा का अंतर्वेशन उनकी कलात्मकता को प्रदर्शित करता है।</s>
<s>[INST]दक्षिण अफ्रीका में नस्ल-भेद नीति के अभिलक्षणों को स्पष्ट करते हुए इससे होने वाले परिवर्तन के बिंदुओं को रेखांकित कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका नस्लभेद-परिचय दक्षिण अफ्रीका में नस्ल-भेद के अभिलक्षण परिवर्तन निष्कर्ष नस्लवाद का आशय ऐसी धारणा से है, जिसमें यह माना जाता है कि मनुष्यों की कुछ विशिष्ट ‘नस्लें’ अन्य की तुलना में बेहतर होती हैं। औपनिवेशक देशों द्वारा नस्लवाद की नीति अपनाना कोई नयी बात नहीं थी फिर चाहे वह भारत के के संदर्भ में हो या दक्षिण अफ्रीका। किंतु दक्षिण अफ्रीका पर श्वेत सरकार द्वारा लागू की गयी रंगभेद (Apartheid) की नीति नस्लवाद की पराकाष्ठा थी। उल्लेखनीय है कि दक्षिण अफ्रीका मे यह नीति तब लागू की जा रही थी जब विश्व स्तर पर जोर-शोर से उपनिवेश मुक्ति की प्रक्रिया चल रही थी। इसे पार्थक्य या Apartheid की नीति का नाम दिया गया। दक्षिण अफ्रीका में औपनिवेशीकरण का आरंभ 1652 ई. में डच ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा केप ऑफ गुड होप पर अधिकार स्थापित कर शुरू हुआ बाद में ब्रिटिश ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। जब 1838 ई. में ब्रिटिश द्वारा दास प्रथा का अंत कर दिया गया तो बोअर केप ऑफ गुड होप से पलायन कर ट्रांसवाल, नेटाल तथा ऑरेज फ्री स्टेट जैसे राज्यों की स्थापना कर यही बस गये। कालांतर में जब ट्रांसवाल में सोने व हीरे की खानों का पता चला तो ब्रिटिश इन क्षेत्रों की ओर आकर्षित हुये फलतः 1899-1902 के बीच बोअर युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेजों की जीत हुयी। इस तरह 1910 ई. तक सभी क्षेत्रों (नेटाल ट्रांसवाल, केप ऑफ गुड होप) को मिलाकर दक्षिण अफ्रीकी संघ की स्थापना की गयी। हलांकि नवीन दक्षिण अफ्रीकी संघ में 70% से अधिक जनसंख्या अश्वेत अफ्रीकी लोगों की थी। इसके बावजूद अश्वेत अफ्रीकी लोगों को नस्लीय भेदभाव का शिकार होना पड़ता था। रंगभेद नीति के तहत निम्नलिखित कदम उठाये गये- अश्वेतों एवं श्वेत लोगों के बीच विवाह एवं लैंगिक संबंधों पर प्रतिबंध था।इस प्रतिबंध का मुख्य उद्देश्य श्वेत लोगों की रक्त की शुद्धता को बनाये रखना था। प्रत्येक अश्वेत व्यक्ति को पास जारी किया गया था जिसमें बिना कार्य के अश्वेत लोगों को श्वेत लोगों के क्षेत्र में आने-जाने की मनाही थी। अश्वेत लोगों को श्रमिक यूनियन बनाने का अधिकार नहीं था। अश्वेत लोगों का आवासीय क्षेत्र श्वेत लोगों के अवासीय क्षेत्र से दूर बनाया गया था ताकि पूर्ण रूप से पृथक्करण किया जा सके। अश्वेत लोगों द्वारा रंगभेद नीति की इस नीति के विरूद्ध प्रतिक्रिया करना स्वाभाविक था। इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयास अफ्रीकी नेशनल कान्ग्रेस (ANC) द्वारा किया गया जिसके नेतृत्वकर्त्ता ‘अलबर्ट बुभूलि' थे। फिर 1952 ई. में अफ्रीकियों द्वारा रंगभेद नीति कानून का उल्लंघन किया गया जिसमें अश्वेत लोगों ने श्वेत लोगों के लिये आरक्षित क्षेत्रों में जाना शुरू कर दिया। 1955 ई. में अफ्रीकी नेशनल कान्ग्रेस ने एशियाई एवं मिश्रित समूहों के साथ मिलकर एक गठबंधन तैयार किया तथा खुली बैठक आयोजित कर एक अधिकार पत्र (चार्टर) की घोषणा की जिसमें कानून के समक्ष समानता का अधिकार, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा समान कार्य हेतु समान वेतन आदि मागें उठायी गयी। आगे चलकर 1960 ई. में शर्प विले कस्बे के निकट ANC के नेतृत्व में रंगभेद के विरूद्ध जबरदस्त प्रदर्शन किया गया जिसमें नेल्सन मंडेला की सक्रिय भागीदारी रही।अब दक्षिण अफ्रीका से बाहर के देशों एवं संगठनों ने रंगभेद नीति का आलोचना शुरू कर दी जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ एवं राष्ट्र मंडल देशों के समूह ने अहम भूमिका निभाई। संयुक्त राष्ट्र संघ ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ आर्थिक बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया गया था ऐसे में 1979 ई. में बनी पी.डब्ल्यू बोथा की सरकार ने रंगभेद नीति को ढील देना प्रारंभ किया। आंदोलन के बाद परिवर्तन के प्रमुख बिंदु- 'घृणित पास' कानून का अंत किया गया। श्वेत एवं अश्वेतों के बीच विवाह की अनुमति दी गयी। अश्वेत लोगों को श्रमिक यूनियन बनाने तथा हड़ताल पर जाने का अधिकार दिया गया। अश्वेत लोगों को नगरपालिका के चुनाव में मत देने तथा प्रतिनिधि खड़ा करने का अधिकार दिया गया। इनकी सर्वप्रमुख मांग विधानमंडल में प्रतिनिधित्व के अधिकार की मांग पर विचार का आश्वासन दिया गया। 1980 के दशक में ‘ डब्ल्यू डी क्लार्क’ जब राष्ट्रपति बने तो इन्होंने रंगभेद नीति को पूर्णतः समाप्त करने की घोषणा की। 1990 ई. में नेल्सन मंडेला को जेल से रिहा कर दिये गये तत्पश्चात अफ्रीकी नेशनल कान्ग्रेस पर से प्रतिबंध हटाकर रंगभेद कानून को अंत कर दिया गया। ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के आधार पर लोकततांत्रिक चुनाव कराने की घोषणा की गयी। 1994 ई. में प्रथम लोकतांत्रिक चुनाव हुआ और दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति चुने गये। नेल्सन मंडेला को रंगभेद नीति के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिये 1993 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गाया। निष्कर्षतः दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति की समाप्ति ने विश्व इतिहास में एक शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया।</s>
<s>[INST]इंग्लैंड और फ्राँस के मध्य भारत में अपने वर्चस्व स्थापना की कोशिशों को लेकर हुये कर्नाटक युद्ध में अंग्रेज़ों की विजय एवं फ्राँसीसियों की पराजय के क्या कारण रहें। स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भूमिका कर्नाटक युद्ध-सामान्य परिचय अंग्रेजों की विजय तथा फ्राँसीसियों की हार के कारण निष्कर्ष ब्रिटिश एवं फ्राँसीसी दोनों ही भारत में व्यापारिक उद्देश्यों के लिये आए लेकिन कालांतर में भारत में राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने में संघर्षरत हो गए। दोनों ही इस क्षेत्र में राजनीतिक शक्ति स्थापित करना चाहते थे। भारत में एंग्लो-फ्रेंच प्रतिद्वंद्विता ने इतिहास में इंग्लैंड एवं फ्राँस की पारंपरिक प्रतिद्वंद्विता को प्रतिबिंबित किया। भारत में लड़े गए तीन कर्नाटक युद्धों के रूप में एंग्लो-फ्रेंच के मध्य प्रतिद्वंद्विता ने यह सिद्ध कर दिया की संपूर्ण भारत में शासन स्थापित करने के लिये अंग्रेज़ों से अधिक फ्राँसीसी उपयुक्त थे। ब्रिटिश की जीत तथा फ्राँसीसियों कंपनी के हार के कारण- ईस्ट इंडिया कंपनी एक निजी कंपनी थी। उस पर सरकारी नियंत्रण कम था इससे कंपनी के लोगों में उत्साह एवं आत्मविश्वास अपेक्षाकृत अधिक था। कम सरकारी नियंत्रण होने के कारण कंपनी सरकार के अनुमोदन की प्रतीक्षा किये बिना तत्काल निर्णय ले सकती थी। वहीं फ्राँसीसी कंपनी राज्य की एक व्यापारिक संस्था थी। इसे फ्राँसीसी सरकार द्वारा नियंत्रित एवं विनियमित किया जाता था व सरकार की नीतियों और निर्णय लेने में देरी के कारण इसे क्षति हुई। बेहतर ब्रिटिश नौसेना एवं बड़े शहरों में ब्रिटिश नियंत्रण के मामले में भी अंग्रेज़ी नौसेना फ्राँसीसी नौसेना से बेहतर थी। अंग्रेज़ों के आधिपत्य में तीन महत्त्वपूर्ण स्थान कलकत्ता, बॉम्बे एवं मद्रास थे, जबकि फ्राँसीसियों के पास केवल पुद्दुचेरी था। ब्रिटिश आर्थिक रूप से शक्तिशाली थे। फ्राँसीसियों ने क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षा के लिये अपने वाणिज्यिक हितों को गौण कर दिया, जिससे फ्राँसीसी कंपनी के समक्ष वित्तीय अभाव की स्थिति उत्पन्न हुई। अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों के बावज़ूद, अंग्रेज़ों ने कभी भी अपने वाणिज्यिक हितों की उपेक्षा नहीं की। ब्रिटिशों की हमेशा से उनके प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ युद्ध में मदद करने के लिये वित्तीय स्थिति अच्छी थी। भारत में अंग्रेज़ों की सफलता का एक प्रमुख कारण आयरकूट, मेजर स्ट्रिंगर लॉरेंस, रॉबर्ट क्लाइव जैसे योग्य सेनानायकों की उपस्थिति थी। अंग्रेजों की तुलना में फ्राँसिसियों कंपनी में एकमात्र डूप्ले को इनके समकक्ष माना जा सकता था। उपरोक्त से स्पष्ट है कि सैनिक, आर्थिक, राजनीतिक पहलुओं के संदर्भ में ब्रिटिश कंपनी फ्राँस की कंपनी से बेहतर स्थिति में थी अतः कर्नाटक युद्ध में जीत हासिल कर भारत में वर्चस्व स्थापित करने में अपेक्षाकृत सफल रही।</s>
<s>[INST]आधुनिक सजग लेखिका के रूप में कृष्णा सोबती द्वारा अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श के अतिरिक्त अन्य सामाजिक-राजनीतिक विषयों को समग्रता से शामिल किया| विश्लेषण कीजिये?[/INST]उत्तर : स्त्री विमर्श की सशक्त हस्ताक्षर कृष्णा सोबती द्वारा स्त्रियों की सामाजिक स्थितियों के बाह्य आवरण पर विमर्श करने के साथ ही उनके आंतरिक परतों से संबंधित विषय वैविध्य जैसे- विशेष व्यक्तित्व, आत्मसम्मान, यौन हिंसा जैसी पृष्ठभूमियों पर लेखनी चलाई। कृष्णा सोबती के प्रारंभिक उपन्यासों जैसे सूरजमुखी अंधेरे में, मैं एक ऐसी स्त्री की दर्दनाक कहानी है जिस के व्यक्तित्व में बचपन की यौन हिंसा में असुरक्षा के साथ ही कुछ हद तक यौन निस्संगता का भी समावेश हो गया। इसकी स्त्री पात्र रति अपने व्यक्तित्व, आत्मसम्मान के प्रति अतिशय संवेदनशील हो जाती है। उच्च मध्यमवर्गीय लड़की कहीं भी सामान्य संबंध नहीं बना पाती है। किशोरावस्था का प्रथम मित्र असद अचानक चल बसता है, अंतः विवाहित पुरुष दिवाकर के समक्ष समर्पण करती है। इस प्रकार की कथावस्तु हिंदी उपन्यास में दुर्लभ है। उपरोक्त परिस्थितियों के बाद में रति के अकेलेपन की नियति एक आधुनिक, सशक्त एवं यथार्थवादी कथानक के ढाँचे का निर्माण करती है। सामान्यतः स्त्री विमर्श के आवरण में ही लेखन कार्य करने की नियति केवल प्रारंभिक उपन्यासों में ही दिखती है बाद के उपन्यासों जैसे दिलो दानिश, समय सरगम और जिंदगीनामा आदि में कथावस्तु का विस्तार सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक और आंचलिकता जैसे तत्वों तक किया गया। दिलो दानिश उपन्यास में पुरानी दिल्ली की सामाजिक संस्कृति को केंद्र में रखा गया है और वकील कृपानारायण के घर और बाहर की कहानी कही गई है। दिल्ली के सफल वकील के घर की बड़ी हवेली में एक ओर पत्नी कुटुंबप्यारी और बच्चे हैं तो दूसरी ओर एक मुकदमे के सिलसिले में आई महक बानों की मां उन्हें महक बानों ही सौंप देती है। वकील कृपानारायण महक बानो को फराशखाने में एक घर में रखते हैं वहाँ पर उनके दो बच्चे मासूमा व बदरू हो जाते हैं। उपन्यास के उत्तरार्ध में महक बानो अपनी सामाजिक स्थिति से संघर्ष करते हुए अपनी बेटी मासूमा की शादी सामाजिक उपबंध के तहत करती है। उपन्यास का अंत वकील कृपा नारायण के देहांत और उनकी वसीयत के बँटवारे साथ होता है जिसमें महक बानो के बच्चों को भी जायदाद में हिस्सा मिलता है। उपन्यास समय सरगम में अरण्या को सपने के एक माध्यम से जीवन के प्रति आत्ममंथन का अवसर मिलता है वही उपन्यास के दूसरे पात्र ईशान जो सफल गृहस्थ जीवन जी कर भी एकमात्र बेटे और पत्नी की मृत्यु के बाद जीवन के अंतिम पड़ाव में और अरण्या की तरह ही अकेलेपन का शिकार हो गए हैं। दोनों के स्वभाव और जीवनशैली में जमीन आसमान का अंतर है लेकिन संवेदनशील और इमानदार इंसान हैं। इस उपन्यास में ईशान के साले की जर्मन पत्नी इन्ग्लिका, प्रशासनिक सेवा में व्याप्त समस्याएँ और अंतरिक्ष में बसायी जा रही बस्तियों जैसे विषयों को कथानक के ढाँचा में शामिल किया गया। कृष्णा सोबती की दृष्टि में भी उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना या मैगनस ओपम उनका उपन्यास जिंदगीनामा है, जिसमें उनकी कथावस्तु एकीकृत शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में विभाजन पूर्व पंजाब के सामान्य जनजीवन और संस्कृति का उल्लेख किया गया है। उपन्यास में गुरु गोविंद सिंह के कई प्रसिद्ध कथनों का प्रयोग करके लेखिका द्वारा सिख धर्म में अपनी आस्था को प्रकाशित किया गया है। इस उपन्यास में सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास के रूप में आंचलिकता की रूपरेखा किस प्रकार तैयार की गई है की कई मायनों में प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यास मैला आंचल को टक्कर देती है। इस उपन्यास का आरंभ शरद पूर्णिमा की रात के खूबसूरत चित्रण से होता है। उसके बाद इस गाँव में बसे तीनों प्रमुख समुदायों- हिंदू, मुसलमान और सिखों की घी खिचड़ी में जिंदगी के अनेक सांस्कृतिक बिंबों में प्रस्तुत होते हैं। यहाँ पर डेरा जट्टां गाँव के प्रत्येक पहलू का वर्णन किया गया है जिसमें राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान की कुछ गतिविधियों एवं प्रमुख व्यक्तियों जैसे भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह, क्रांतिकारी कवि लालचंद फलक इत्यादि का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकार एक सशक्त लेखिका के रूप में कृष्णा सोबती द्वारा स्त्री विमर्श के साथ-साथ सामाजिक राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों का भी समावेश बड़ी कुशलता के साथ अपने उपन्यासों में किया गया है। कृष्णा सोबती के प्रसिद्ध उपन्यास जिंदगीनामा को वर्ष 1980 का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार भी प्रदान किया गया तथा पंजाब सरकार द्वारा उन्हें वर्ष 1981 का साहित्य शिरोमणि पुरस्कार भी दिया जा चुका है।</s>
<s>[INST]प्रगतिवाद एवं छायावाद के मध्य के अंतर्संबंधों को स्पष्ट करते हुए प्रगतिवाद की संवेदनागत विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।[/INST]उत्तर : छायावाद के कवि स्वयं ही 1930 के दशक में समझ चुके थे कि अब रोमानियत का युग समाप्त हो चुका है और हिंदी कविता का स्वाभाविक विकास किसानों, मजदूरों और वंचित वर्गों के साथ जुड़ने में ही है। छायावादी कवियों पर भी यह विचारधारा दबाव डाल रही थी, जो 1936 के आसपास की उनकी कविताओं में साफ देखी जा सकती है। उदाहरण स्वरूप पंत ने इस दौर में युगवाणी, युगांतर और ग्राम्या जैसी कविताएँ लिखी, जिनमें शहरी और अभिजात्य रुचिओं के विपरीत ग्रामीण और साधारण वर्ग के प्रति निष्ठा दिखती है- देख रहा हूँ आज विश्व को, मैं ग्रामीण नयन से, सोच रहा हूँ जटिल जगत पर, जीवन पर जन मन से। ( युगवाणी) तुम वाहन कर सको जन मन में मेरे विचार, वाणी मेरी, चाहिये तुम्हें क्या अलंकार? पंत की तरह निराला भी समाजवाद से प्रेरित नजर आते हैं उनकी भिक्षुक जैसी प्रसिद्ध कविताओं में गरीबों के प्रति करुणा का भाव दिखाई पड़ता है तो वह तोड़ती पत्थर जैसी कविताओं में करुणा के साथ-साथ आक्रामक तेवर भी नजर आते हैं- करती बार बार प्रहार/ सामने तरुमालिका अट्टालिका प्राकार। इसके अतिरिक्त बादल राग की इन पंक्तियों में तो लगता है कि वह क्रांति की घोषणा ही कर रहे हैं- जीर्ण बाहु है, शीर्ण शरीर तुझे बुलाता कृषक अधीर ए विप्लव के वीर। छायावाद के अन्य प्रमुख स्तंभ जैसे जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की कविताओं में अप्रत्यक्ष रूप से क्रमशः वर्ग संघर्ष की दबी हुई अनुगूंज व महिला स्वतंत्रता के स्वर के रूप में उल्लिखित है। विषमता की पीड़ा से व्यस्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान वर्गों की खाई बन फैली, कभी नहीं जो जुड़ने की। स्पष्ट है कि प्रगतिवाद छायावाद के विरोध में पैदा हुआ आंदोलन नहीं है। छायावादी विकसनशील आंदोलन था जो अपने प्रारंभिक चरण में रोमानी तेवर धारण करता था तो अंतिम चरण तक आते-आते समाज के वंचित वर्गों की चिंताओं से जुड़ने लगा था। प्रगतिवाद छायावाद के अंतिम दौर की कविताओं का सहज स्वाभाविक विकास है। प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ: मार्क्सवाद में विश्वास: प्रगतिवादी चिंतन मार्क्सवादी विचारधारा से अभिप्रेरित है जो साम्यवाद के आदर्श को पूरा करने में विश्वास रखता है। मार्क्स के अनुसार, पूंजीवादी व्यवस्था हिंसक क्रांति के साथ समाप्त होगी जिसके परिणाम स्वरूप पहले समाजवादी तथा अंततः साम्यवादी व्यवस्था आएगी जिसमें कोई शोषक और शोषित नहीं होगा। एक अभी सोवियत रूस में क्रांति का परचम फैलाने वाली मजदूर सेना को आदर के भाव से देखते हैं- लाल क्रांति की लड़ने वाली, मजदूर सेना आम, उनको, उनके स्त्री पुरुषों को, मेरा लाल सलाम। (मुक्तिबोध) लाल रूस है ढाल साथियों, सब मजदूर किसानों की, लाल उसका दुश्मन साथी दुश्मन सब इंसानों का। (नरेंद्र शर्मा) समाजवादी यथार्थवाद: प्रगतिवादी कवि यथार्थवाद में विश्वास रखते हैं, आदर्शवाद या आध्यात्मवाद में नहीं। इनका यथार्थवाद सामाजिक मान्यताओं पर आधारित है जिसके अनुसार मानव के यथार्थ को निर्धारित करने वाली सबसे ताकतवर शक्ति अर्थव्यवस्था या उत्पादन प्रणाली है। मार्क्स ने भी कहा था कि सारा चिंतन सारे संस्कृति पेट भरने के बाद ही अस्तित्व में आता है यही भाव इन कवियों का भी है- दाने आए घर के अंदर, कई दिनों के बाद, चमक उठी घर भर की आँखें, कई दिनों के बाद। ( नागार्जुन) पूंजीवादी व्यवस्था से घृणा: प्रगतिवादी साहित्य के आक्रोश का केंद्र पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीवादी वर्ग है। मार्क्सवाद के अनुसार पूंजी पतियों द्वारा स्थापित उद्योगों में उत्पादन का संपूर्ण कार्य मजदूर करते हैं किंतु उससे पैदा होने वाला धन पूंजीपति हड़प लेते हैं। इस अधिशेष मूल्य को हस्तगत करके वे मजदूर का शोषण करते हैं- तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ, तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ। शोषितों के प्रति सहानुभूति और आस्था: कविता में शोषण व अन्याय की चक्की में पिसते हुए मजदूर एवं किसान वर्गों के प्रति करुणा व आस्था का भाव है। कवियों को गहरा विश्वास है कि मजदूर और किसान बढ़कर वंचित लोग ही अंत का समाज की एक नियत बदलने की शक्ति रखते हैं- मैंने उसको जब जब देखा, लोहा देखा, लोहा जैसे तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा, मैंने उसको गोली जैसे चलते देखा। ( केदारनाथ अग्रवाल) सामाजिक व्यवस्था का परिवर्तन: प्रगतिवादी कवि सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन चाहते हैं। यह परिवर्तन हृदय परिवर्तन जैसी काल्पनिकता से नहीं, वरन वर्ग संघर्ष के माध्यम से ही होगा। यह परिवर्तन आमूलचूल होगा, “व्यवस्था में नहीं”, “व्यवस्था का” होगा: सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है। दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो , सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। ( दिनकर) प्रगतिवादियों की स्पष्ट धारणा है कि वर्ग संघर्ष में बीच का कोई रास्ता नहीं होता, जो शोषित वर्ग के पक्ष में नहीं है वह शोषक के पक्ष में माना जाएगा। तटस्था की चादर ओढ़ने वाले भी अंततः इतिहास में अपराधी ही माने जाएँगे- समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। राजनीतिक चेतना: प्रगतिवादी कवि अन्य कवियों की तरह राजनीति से दूर नहीं भागते बल्कि राजनीति को यथार्थ की पहचान का प्रतीक और यथार्थ बदलने की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में देखते हैं। ये उदारवादी लोकतंत्र का अंध समर्थन करने के स्थान पर उसकी आंतरिक विसंगतियों का चित्रण करते हैं और बताते हैं कि तथाकथित लोकतंत्र वस्तुतः किस प्रकार शोषक वर्ग के हितों की सुरक्षा व वृद्धि करता है- “खादी ने मलमल से गुपचुप साँठगाँठ कर डाली है, बिरला-टाटा-डालमिया की तीसों दिन दिवाली है।” “लूटपाट के काले धन की करती है रखवाली, पता नहीं दिल्ली की देवी गोरी है या काली।” “ श्वेत श्याम रतनार अखिया निहार के, सिंडिकेट प्रभुओं की पग धूरि झार के, लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के, खिले हैं दाँत ज्यों दाने अनार के, आए दिन बहार के।” (नागार्जुन)</s>
<s>[INST]स्वच्छंदतावाद के उद्भव की परिस्थितियों को स्पष्ट करते हुए, छायावाद और स्वच्छंदतावाद के अंतर्संबंधों को स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : स्वच्छंदतावाद का पश्चिमी साहित्य में उद्भव: पश्चिमी साहित्य चिंतन में रूसो की प्रेरणा तथा विलियम वर्ड्सवर्थ एवं सैमुअल टेलर कॉलरिज के नेतृत्व में एक साहित्यिक आंदोलन का सूत्रपात 18वीं सदी के अंत में हुआ जिसे अंग्रेजी समीक्षा में रोमांटिसिज्म कहा गया। पश्चिम के स्वच्छंदतावाद की मूल विशेषता मानव कविता तथा भाषा के स्तर पर स्वतंत्रता के मूल्य की प्रतिष्ठा करना रही है। यह धारा उस काल में पैदा हुई थी जब पश्चिम में मशीनीकरण के बढ़ते प्रयोग से मनुष्य और प्रकृति का महत्व समाप्त होने लगा था। ऐसी स्थिति में स्वच्छंदतावादी चिंतकों ने साहित्य में प्रचलित दृष्टिकोण शास्त्रवाद या अभिजात्यवाद का विरोध किया जो कविता के लिये निश्चित नियम व अनुशासन के पालन के प्रयोग को अनिवार्य बनाता था। मशीनीकरण से मानव की मुक्ति की प्रेरणा के लिये उन्होंने प्रगति की ओर देखा वह प्रकृति इनके काव्य में स्वतंत्रता की मूल प्रेरणा बनकर शामिल हुई थी। स्वच्छंदता वादियों ने कविता की व्याख्या तीव्र भावनाओं के सहज उच्छलन के रूप में की। आचार्य शुक्ल ने इस शब्द का अनुवाद स्वच्छंदतावाद के रूप में किया। शुक्ल जी के अनुसार, द्विवेदी युगीन साहित्य में श्रीधर पाठक के नेतृत्व में एक विशेष धारा दिखाई देती है जिसे प्रवृत्तियों के आधार पर स्वच्छंदतावाद कहा जा सकता है। भारतीय और पश्चिमी स्वच्छंदतावाद में अंतर: भारतीय स्वच्छंदतावाद में पश्चिमी स्वच्छंदतावाद से कुछ अलग तरह की चिंताएं दिखाई देती हैं । अपनी मूल प्रवृत्ति में स्वच्छंदतावाद की विशेषताएं यहां भी वही हैं जो पश्चिम में थी किंतु यहाँ परिवेशगत भिन्नता के कारण इनकी अभिव्यक्ति कुछ अलग तरीके से हुई। उदाहरण के लिये तत्कालीन भारत की मूल समस्या मशीनीकरण नहीं बल्कि राष्ट्रीय पराधीनता तथा सामाजिक व रूढ़िवादी दबाव की थी। भाषा के स्तर पर मूल समस्या स्वाभाविकता की नहीं बल्कि यह थी कि आधुनिक भावों और विचारों को धारण करने के लिये एक नई भाषिक संरचना जरूरी हो चली थी। भारतीय स्वच्छंदतावाद ने इन स्तरों पर विद्रोह किया तथा नवीन दृष्टिकोण की स्थापना की। भारतीय साहित्य में स्वच्छंदतावाद का प्रारंभ: स्वच्छंदतावाद और छायावाद के संबंधों की आरंभिक व्याख्या आचार्य शुक्ल ने की। उनका मत है कि द्विवेदी युग में श्रीधर पाठक के नेतृत्व में स्वच्छंदतावाद किस धारा का आरंभ हुआ वह हिंदी साहित्य के विकास में एक नया तथा सार्थक दृष्टिकोण लेकर आई थी। इन कवियों ने पहली बार जगत की सच्चाई और वैयक्तिकता जैसे मूल्यों की स्थापना की। जगत है सच्चा, तनिक ण कच्चा, समझो बच्चा, इसका भेद।। लिखो, ना लेखनी करो बंद, श्रीधर सम सब कभी स्वच्छंद।। पारंपरिक दृष्टिकोण: आचार्य शुक्ल ने कहा कि इस स्वस्थ व सकारात्मक काव्यधारा का विकास दो कारणों से रुक गया। पहला कारण था कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी शास्त्रीय प्रतिमान लेकर आलोचना के क्षेत्र में उतरे और उन्होंने स्वच्छंदतावादी काव्य को शास्त्रीय प्रतिमान के अनुकूल ना पाकर उसे प्रशंसा की निगाह से नहीं देखा। दूसरा कारण यह था कि रवींद्रनाथ टैगोर के प्रभाव से हिंदी काव्य में एक रहस्यवादी शैली का विकास हुआ जिसे छायावाद कहा गया। रहस्यवाद मूल प्रवृत्ति में ही स्वच्छंदतावाद की विरोधी दृष्टि है अतः छायावाद के विकास ने स्वच्छंदतावाद के विकास को अवरुद्ध कर दिया। इस प्रकार छायावाद व स्वच्छतावाद के संबंधों का विवाद मूलतः आचार्य शुक्ल की व्याख्या पर आधारित है जिसके अंतर्गत वे छायावाद को स्वच्छतावाद का विरोधी मानते हैं। समन्वयवादी दृष्टिकोण: बाद के विद्वानों ने इस संबंध का पुनर्विश्लेषण किया और कहा कि छायावाद स्वच्छंदतावाद का विरोधी नहीं बल्कि विकसित रूप है। सामान्यता बाह्य स्तर पर इनके मध्य कई अंतर हो सकते हैं किंतु यथार्थ यह है कि स्वच्छंदतावाद के मूल तत्व ही विकसित होकर छायावाद में व्यक्त हुए हैं- स्वच्छंदतावाद छायावाद खड़ी बोली की स्थापना खड़ी बोली का चरम विकास स्वतंत्रता की घोषणा स्वतंत्रता का मूल्य के स्तर पर विकास प्रकृति का स्वतंत्र विषय बन जाना प्रकृति का मानवीकरण हुआ उसका नारी से भी सुंदर हो जाना राष्ट्रप्रेम की भूमिका का विस्तार राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रेम छायावादी रहस्यवाद भी स्वच्छंदतावाद का ही अगला चरण है। स्वच्छंदतावाद ई कवियों ने स्वतंत्रता की मांग की किंतु बाद में जब महसूस किया कि सामाजिक दबाव बेहद कठोर व अनमनीय है तो स्वच्छंदतावाद ही रहस्यवाद में परिणत हो गया।</s>
<s>[INST]शेरशाह द्वारा किये गए सुधार उसे एक बहादुर, बुद्धिमान, व्यवहार कुशल सैन्य प्रशासक, पैनी राजनीतिक परख एवं नगर प्रशासन में असाधारण कौशल और योग्यता रखने वाला व्यक्ति सिद्ध करते हैं। स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: शेरशाह के शासनकाल के विषय में संक्षिप्त उल्लेख विभिन्न क्षेत्रों में किये गए सुधार निष्कर्ष शेरशाह सूरी अपने शासनकाल की पाँच वर्ष की छोटी सी अवधि में अपने सुधारों के माध्यम इतिहास में सफल नायकों की श्रेणी में स्थान प्राप्त करने में सफल रहा। इतिहासकारों के अनुसार, अपने समय का वह सबसे दूरदर्शी और विशिष्ट सूझबूझ वाला शासक था। शेरशाह द्वारा कार्यान्वित सुधार: उसने साम्राज्य को 47 सरकारों में विभाजित किया। शासन की दृष्टि से प्रत्येक सरकार को कई परगनाओं में बाँट दिया गया। खेती योग्य भूमि को अच्छी, मध्यम एवं खराब तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया था। शेरशाह सूरी ने कलकत्ता से पेशावर के बीच पुराने राजमार्ग ग्रांट ट्रंक रोड को पुन: चालू करवाया। शेरशाह ने सोनारगाँव से सिंध, आगरा से बुरहानपुर, जोधपुर से चित्तौड़ और मुल्तान से लाहौर तक चार महत्त्वपूर्ण राजमार्गों के निर्माण द्वारा संचार व्यवस्था को सुदृढ़ किया। न्याय व्यवस्था के तहत खुद अपने कबीले के लोगों, रिश्तेदारों एवं अन्य लोगों के बीच भेदभाव न करने और सत्ताधारी वर्ग तथा अन्य लोगों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों को रोकने पर विशेष बल दिया गया था। पुलिस का पुनर्गठन किया। शेरशाह के शासन के तहत भूमि राजस्व प्रशासन को अच्छी तरह से संगठित किया गया था और भूमि सर्वेक्षण ध्यानपूर्वक किया जाता था। उसके राजस्व सुधारों ने राज्य के राजस्व में वृद्धि की। उसने ‘दाम’ कहे जाने वाले चाँदी के नए सिक्के जारी किये। व्यवस्थित डाक सेवा की शुरुआत की। शेरशाह सूरी ने दिल्ली के निकट यमुना नदी के किनारे एक नया नगर बसाया था। वास्तुशिल्प के क्षेत्र में देखें तो उसने सासाराम में स्वयं का मकबरा बनवाया। उपरोक्त से स्पष्ट है कि उसके द्वारा किये गए कार्य तत्समय कि विभिन्न समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं। यह कार्य उसे न सिर्फ एक वीर सैनिक, कुशल प्रशासक के साथ-साथ एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ भी सिद्ध करते हैं।</s>
<s>[INST]भक्ति आंदोलन किसी विशिष्ट या व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा के प्रकटीकरण अतिरिक्त अन्य आयामों को समेटे रखने वाला आंदोलन भी था। विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा से आशय अन्य पक्ष मध्य काल में भक्ति आंदोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण के अलवार तथा नयनार संतों द्वारा की गई। बारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में रामानंद द्वारा इस आंदोलन का प्रचार प्रसार दक्षिण भारत से उत्तर भारत में किया गया। इस आंदोलन को चैतन्‍य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव ने और अधिक मुखर बना दिया। भक्ति आंदोलन का उद्देश्य था- हिन्दू धर्म एवं समाज में सुधार तथा इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में समन्वय स्थापित करना। अपने उद्देश्यों में यह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा। मध्यकालीन भारतीय हिंदू समाज के धार्मिक जीवन में भक्ति आंदोलन के रूप में महत्त्वपूर्ण चेतना व जागृति का विकास हुआ। भक्ति काल में प्रत्येक सामाजिक, धार्मिक सुधारक संत के द्वारा समाज में किसी विशेष भगवान के प्रति भक्ति या आस्था का प्रचार -प्रसार किया गया जो इसे भक्ति आंदोलन की महत्त्वपूर्ण विशेषता बनाता है। गौर से देखें तो यह भारत में बहुदेववाद की स्थापित पंरपरा से भिन्न था। दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों ने ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम और समर्पण को मोक्ष प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया। दूसरी ओर महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को नामदेव व तुकाराम ने अधिक मुखर बनाया तथा 'हरि' के प्रति अदम्य प्रेम व समर्पण का उपदेश दिया। महाराष्ट्र में संत रामदास ने राम की पूजा को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। भारत के हिंदी भाषी क्षेत्रों में भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत रामानन्द थे जिन्होंने भगवान राम के स्वरूप में भक्ति भावना का प्रकटीकरण किया। रामानन्द ने बताया कि केवल राम के प्रति प्रेम व समर्पण के माध्यम से ही मुक्ति पाई जा सकती है। तुलसीदास ने भगवान राम में आस्था प्रकट की तथा राम को निरपेक्ष सत्य (अंतिम सत्य) के रूप में स्थापित किया। मीराबाई कृष्ण भक्ति की साकार प्रतिमा मानी जाती थीं। संत सूरदास भी अपनी रचनाओं में कृष्ण के मोहक रूप तथा राधा की कथाओं का वर्णन करते थे। इसके अतिरिक्त चैतन्य महाप्रभु ने श्रीकृष्ण की आराधना से भगवान के प्रति अदम्य प्रेमभाव का प्रकटीकरण किया है। उपरोक्त से स्पष्ट है कि मध्यकालीन भारत का भक्ति आंदोलन किसी विशिष्ट या व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा के प्रकटीकरण के संदर्भ में ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है किंतु इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि इन संतों ने अन्य की उपेक्षा या आलोचना की। इन्होंने केवल अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना को अभिव्यक्त किया। अतः स्पष्ट है कि यह किसी व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत ईश्वर को अपनाए जाने के अलावा अन्य आयामों को समेटे रखने वाला आंदोलन था।</s>
<s>[INST]छायावाद के तात्पर्य से उत्पन्न अंतर्द्वंदों को स्पष्ट करते हुए इसकी उदय की परिस्थितियों कि विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : छायावाद शब्द के प्रथम प्रयोक्ता मुकुटधर पांडेय ने अपने निबंध में छायावाद की पाँच विशेषताओं का उल्लेख किया है जो इस प्रकार हैं- वैयक्तिकता, स्वातंत्र्य चेतना, रहस्यवादिता, शैलीगत वैशिष्ट्य, अस्पष्टता। पारंपरिक दृष्टिकोण: छायावाद एक प्रतीकात्मक काव्य: प्रारंभ में लगभग सभी विद्वानों ने यही संकेत दिया कि सामान्यतः छायावाद का संबंध किसी प्रतीकात्मक या रहस्यात्मक काव्य से है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने छायावाद को परिभाषित करते हुए कहा कि- “छायावाद से लोगों का क्या मतलब है कुछ समझ में नहीं आता। शायद उनका मतलब है कि किसी कविता के भाव की छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहना चाहिये”। स्वच्छंदतावाद का अवरोधक: आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी छायावाद के प्रति सकारात्मक नहीं थे, उनके अनुसार स्वच्छंदतावाद की स्वच्छ व प्रांजल धारा के विकास को छायावादी कवियों ने अपने रहस्यवादी व प्रतीकवादी काव्य के माध्यम से रोक दिया। समन्यवादी दृष्टिकोण: गांधीवाद का साहित्यिक संस्करण: शुक्ल जी के पश्चात सर्वप्रथम शांतिप्रिय द्विवेदी ने छायावाद को गांधीवाद के साहित्यिक संस्करण के रूप में पहचान दिलाने की कोशिश की। छायावाद और रहस्यवाद पर्यायवाची नहीं: सर्वप्रथम आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने पहली बार आचार्य शुक्ल की छायावाद संबंधी धारणाओं को गंभीर टक्कर दी। उन्होंने स्पष्ट किया कि छायावाद और रहस्यवाद पर्यायवाची नहीं है। छायावाद का एक अंश भले ही रहस्यात्मक हो किंतु छायावाद की वास्तविक पहचान उससे होती है जोर राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रश्नों से जूझ रहा था। इसके अलावा उन्होंने दावा किया कि छायावादी रहस्यवाद मध्ययुगीन रहस्यवाद से काफी अलग है। स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह: स्वच्छंदतावादी समीक्षक डॉ नागेंद्र छायावाद की सकारात्मक व्याख्या के लिये विख्यात हैं। उनकी परिभाषा के अनुसार छायावाद- “स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है”। नवीन प्रवृत्तियाँ: स्वच्छंदतावाद या रोमांटिसिज्म: बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के उत्तरार्ध में हिंदी कविता में एक नई प्रवृत्ति का उदय हो रहा था जो पूर्व की काव्य प्रवृत्तियों से नहीं बल्कि द्विवेदी युग की वस्तुवादी-नैतिकतावादी दृष्टि से भी भिन्न न थी। इसी उदित होती नई प्रवृत्ति जिसे स्वच्छंदतावाद या रोमांटिसिज्म कहा जाता है, ने छायावाद के लिये पृष्ठभूमि तैयार की। द्विवेदी युग में इस प्रकार की काव्यधारा का संचालन श्रीधर पाठक जैसे कवि कर रहे थे। छायावाद स्वच्छंदतावाद का अगला चरण: प्रारंभ में छायावाद को स्वच्छंदतावाद का एक और अवरोधक माना जाता था किंतु सर्वप्रथम आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने इस बात को स्पष्ट किया कि छायावाद स्वच्छंदतावाद का अवरोधक ना होकर उसके विकास का अगला चरण है। छायावाद के उदय की परिस्थितियाँ: यूरोप का स्वच्छंदतावादी साहित्यिक आंदोलन: पुनर्जागरण से प्रेरित यूरोप के स्वच्छंदतावादी साहित्यिक आंदोलन ने भारतीय मध्यम वर्ग की सोच और संवेदना को नया धरातल दिया। मुक्ति की जैसी इच्छा और छटपटाहट भारत का मध्यम वर्ग इस समय महसूस कर रहा था वैसे ही भावना तत्कालीन यूरोपीय समाज में भी मौजूद थे। इसलिये यह स्वाभाविक था कि नए कभी उनके काव्य से प्रेरणा लेते। कीट्स, बायरन, वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज और शैली आदि रोमांटिक कवियों के काव्य और उनके लेखन ने उन्हें सोचने समझने का नया क्षेत्रीय प्रदान किया है। सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति: इस काल की सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों ने भी छायावाद के उद्भव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रथम विश्व युद्ध में साम्राज्यवाद के समूचे ढांचे पर स्थाई और जबरदस्त प्रहार किया। 1917 की रूसी क्रांति ने भी संपूर्ण विश्व पर अपना प्रभाव जमाया। भारत में भी इसी दौर में जन आंदोलनों का सूत्रपात हुआ। गांधी जी का भारत आगमन: 1916 में गांधी जी के भारत आगमन के बाद कांग्रेस का आंदोलन शहर में रहने वाले शिक्षित उच्च मध्य वर्ग से निकलकर गरीब किसान और मजदूरों के बीच भी फैल गया। असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन ने स्वतंत्रता की चेतना पूरे देश में फैला दी। स्वतंत्रता और मुक्ति ही एकमात्र लक्ष्य: 1928-31 के दौरान क्रांतिकारी आंदोलनों का दूसरा चरण संपन्न हुआ जिसने जनता, मुख्य रूप से युवा वर्ग के मध्य अपनी गंभीर पहचान स्थापित की। इन सभी घटनाओं के कारण यह भावना प्रबल होने लगी कि केवल स्वतंत्रता और मुक्ति ही एकमात्र लक्ष्य हो सकता है। दासता से मुक्ति की यह भावना इतनी प्रबल हो रही थी कि या केवल राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी बल्कि प्राचीन विरोधियों मान्यताओं और रीति-रिवाजों से मुक्ति की कामना के रूप में उभर रही थी। इसी सूक्ष्म स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति छायावाद के रूप में हुई।</s>
<s>[INST]सांप्रदायिक अधिनिर्णय के द्वारा ब्रिटिश सत्ता ने दलितों की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास किया था किंतु इसने भारतीय समाज की विविधता में परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को अधिक गहरा ही किया। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण सांप्रदायिक अधिनिर्णय के प्रावधान सांप्रदायिक अधिनिर्णय के नकारात्मक पक्ष परस्पर विरोधी हितों में टकराव के बिंदुएवं परिणाम निष्कर्ष भारत की प्रांतीय विधायिका में दलितों के प्रतिनिधित्व के बारे में 16 अगस्त, 1932 ई. को प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडॉनाल्ड द्वारा ब्रिटिश संसद में एक घोषणा की गई जिसे कम्युनल अवॉर्ड या सांप्रदायिक अधिनिर्णय के नाम से जाना जाता है। यह अंग्रेजों द्वारा भारत में अपनाई गई “फूट डालो और राज करो” की नीति का एक अन्य उदाहरण था। अंग्रेज़ो के अनुसार यह ब्रिटिश शासन द्वारा दलितों की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिये प्रयास है। इसके प्रावधान निम्नलिखित थे: प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं की सदस्यों संख्या बढ़ाकर दुगुनी कर दी गई। अल्पसंख्यकों के लिये अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई। स्त्रियों के लिये भी कुछ स्थान आरक्षित किये गए। दलितों के लिये पृथक निर्वाचन और प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया। सरकार ने इस घोषणा की की उनके द्वारा दलितों की स्थिति को राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्रदान करके सुधारने का प्रयास किया गया है किंतु गहनता से विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि इसके द्वारा भारतीय राष्ट्रवाद को कमजोर करने का प्रयत्न किया गया। जिसे निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है- इस निर्णय की योजना ही ऐसी बनाई गई थी कि प्रांतों में वास्तविक उत्तरदायी शासन का विकास न हो सके। केंद्रीय व्यवस्थापिका के संगठन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। यह निर्णय पक्षपात पर आधारित था क्योंकि इसमें यूरोपियनों और मुसलमानों को विशेष रियायतें दी गई थीं। अस्पृश्यों के लिये अलग निर्वाचन की व्यवस्था के द्वारा हिंदुओं में फुट डालने का प्रयास किया गया। इस निर्णय से मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला। इस प्रकार सांप्रदायिक अधिनिर्णय ने हिंदू-मुस्लिम हितों में टकराहट तो उत्पन्न की ही, साथ ही हिन्दुओं में भी सवर्णों और अस्पृश्यों के मध्य हितों के टकराव को जन्म दिया। इसे निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है: मुस्लिम लीग ने मुस्लिमों के लिये अधिक सहूलियतें मांगना प्रारंभ कर दिया। हिंदुओं में अस्पृश्य वर्ग भी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये लालायित हो गया। इससे हिंदू समाज में भी हितों का टकराव बढ़ गया। निष्कर्षतः सांप्रदायिक अधिनिर्णय के द्वारा ब्रिटिश सत्ता ने स्वघोषित तौर पर दलितों की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास किया था किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इसका निहित उद्देश्य फूट डालो की नीति से प्रभावित था ऐसे में भारतीय राष्ट्रवाद को इसने नकारात्मक रूप से प्रभावित किया तथा भारतीय समाज की विविधता में परस्पर विरोधी हितों के मध्य खाई को पाटने की बजाए और गहरा कर दिया।</s>
<s>[INST]पालि के उद्भव और विकास के साथ ही इसके विकास में बौद्ध धर्म के ग्रंथों के योगदान को स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : पालि साहित्य के स्रोत: पालि के विकास के अध्ययन की सामग्री पालि साहित्य तथा अशोक के अभिलेखों में प्राप्त होती है। पालि में बौद्ध धर्म के थेरवाद अथवा हीनयान संप्रदाय के धार्मिक साहित्य की रचना हुई है। वास्तव में पालि शब्द किसी भाषा का द्योतक नहीं है। पालि का अर्थ है “मूलपाठ” अथवा “बुद्धवचन”। पालि साहित्य का उद्भव: पंडित विष्णु शेखर भट्टाचार्य पालि शब्द को संस्कृत पंक्ति शब्द से निकला हुआ मानते हैं वह इसके ध्वनि परिवर्तन का क्रम पंक्ति>पन्ति>पट्ठि>पल्लि>पालि से माना है। कुछ विद्वानों का मानना है कि पालि गांव की भाषा थी और संस्कृत नगरों में बोली जाती थी। मैक्स वालेसर पालि शब्द की उत्पत्ति पाटलिपुत्र से मानी है। उनका मानना है कि ग्रीक में पाटलिपुत्र को पालब्रोथ लिखा जाता था। भिक्षु जगदीश कश्यप ने पालि महा व्याकरण में पालि शब्द की उत्पत्ति परियाम शब्द से माना है। पालि शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्ठकथाओं और उनके विशुद्ध भाग में मिलता है। आचार्य बुद्धघोष के कुछ ही समय पूर्व लंका में दिए गए दीपवंश ग्रंथ में भी पालि शब्द का प्रयोग बुद्धवचन के रूप में किया गया है। पालि भाषा के विकास में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यह किस प्रदेश की मूल भाषा थी? सिंघली परंपराओं से मागधी या मगध की भाषा मानती है। प्रोफेसर आर डेविड्स का इसे कोशल प्रदेश में छठी और सातवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में बोली जाने वाली भाषा मानते हैं। वेस्टर गार्ड इसे उज्जैनी प्रदेश की बोली मानते हैं। पालि साहित्य का विकास: पालि साहित्य का विस्तार पालि या पिटक साहित्य और अनुपालि या अनुपिटक साहित्य में होता है। पालि साहित्य या पिटक साहित्य तीन भागों में विभक्त है- सुत्त, विनय और अभिधम्म पिटक। इसके अतिरिक्त इस भाषा का प्रयोग अशोक के शिलालेखों में किया गया। बुद्धघोष के ही समय जिन बौद्ध विद्वानों ने महात्मा बुद्ध के विषय में साहित्य रचना की जिसमें अश्वघोष, नागार्जुन, वसुबंधु और दिक्नाग प्रमुख हैं। पालि साहित्य में विषयवस्तु: पालि साहित्य के क्षेत्र में काव्य की रचना बहुत कम हुई है। मानव जीवन की व्यापक एवं गहन अनुभूतियों का पहला दर्शन हमें त्रिपिटकों में दिखाई देता है। त्रिपिटक में संकलित भगवान तथागत के ऊंचे विचारों का विश्लेषण किया गया है। विषय की दृष्टि से पालि में दो प्रकार के काव्यों की रचना हुई है- वर्णनात्मक और आख्यानात्मक। पालि भाषा का व्याकरण: लगभग 5वीं शताब्दी ईस्वी तक पालि भाषा में किसी भी प्रकार के व्याकरण ग्रंथ की रचना नहीं हुई थी। आचार्य बुद्धघोष ने जितनी भी निष्पत्तियाँ या प्रयोग किए हैं उनका आधार पाणिनि व्याकरण ही था। प्रोफ़ेसर बलदेव उपाध्याय ने पालि में उपलब्ध व्याकरण को तीन शाखाओं में विभक्त किया है: कच्चायन व्याकरण मोग्गालायन व्याकरण अग्गवंसकृत सद्दनिति ध्वनि समूह का परिचय पालि में 47 ध्वनि मानी गई है यहाँ पर ऋ, ऐ, औ जैसे स्वरों का प्रयोग नहीं मिलता है तथा दो नए स्वर हृस्व ए और ओ मिलते हैं। पालि में श, ष नहीं मिलते हैं। ह्रदय > हदय, कृषि > कसि विसर्ग नहीं मिलता है। स्वत्रंत स्थिति में ह् प्राण ध्वनि व्यंजन है, किंतु य, र, ल, या व अनुनासिक में संयुक्त होने पर। घोषीकरण: स्वर मध्य अघोष, व्यंजन घोष हो जाता है। मकर > मगर</s>
<s>[INST]पुरानी हिंदी की भाषिक स्वीकारिता के विभिन्न विवादों को विद्वानों द्वारा किस प्रकार स्पष्ट किया गया। विवेचना कीजिये?[/INST]उत्तर : प्रारंभिक विवाद: प्रारंभिक हिंदी कौन सी है और उसमें क्या-क्या रचनाएँ हैं यह प्रश्न बहुत जटिल है। किस रचना को हिंदी की पहली रचना माना जाए? आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ रामकुमार वर्मा और पंडित राहुल सांकृत्यायन आदि विद्वान तो पुरानी हिंदी को अपभ्रंश में ही समाहित कर देते हैं तथा इस भाषिक स्थिति को पृथक नाम देने की कोई आवश्यकता नहीं समझते हैं। इसके विपरीत डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा मध्यदेश को वर्तमान हिंदी प्रदेश की संज्ञा देते हैं तथा जिसका वे देश के इतिहास में असाधारण महत्व मानते हैं। मध्य प्रदेश के 13 जनपद स्वीकार कर वहाँ बोली जाने वाली बोलियों का सामूहिक रूप हिंदी मानते हैं। डॉक्टर हरदेव बाहरी प्रारंभिक हिंदी के अंतर्गत एक नहीं 13 संभावनाएँ मानते हैं जैसे कि- सिद्धों की वाणी या स्वयंभू कृत पउमचरिउ आदि । काल: डॉक्टर बाहरी के अनुसार पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी का मत सही जान पड़ता है कि 11वीं शताब्दी की परवर्ती अपभ्रंश से पुरानी हिंदी का उदय माना जा सकता है। यहाँ पर कठिनाई यह है कि उस संक्रांति काल की सामग्री इतनी कम है कि उससे किसी भाषा के ध्वनिगत और व्याकरणिक लक्षणों की पूरी-पूरी जानकारी नहीं मिल सकती हो। इसी प्रकार डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त और कैलाश चंद्र भाटिया के विचार के अनुसार रोडा कृत राउल बेलि एकमात्र ऐसी कृति है जिसमें इस भाषा के लक्षण मिलते हैं। इसी के आधार पर हिंदी का पूर्व रूप निर्धारित किया जा सकता है। उद्गम और विकास: किस काल के साहित्य को अपभ्रंश माना जाए और कहाँ से प्राप्त साहित्य को अपभ्रंश ना कह कर पुरानी हिंदी कहा जाए अर्थात कहाँ से हिंदी के पुराने स्वरूप का उद्गम और विकास हुआ। यह अत्यधिक विवाद का विषय है। इसके बावजूद भी चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने कहा कि पुरानी हिंदी से तात्पर्य- “खड़ी बोली हिंदी व मानक हिंदी के पूर्व रूप से है।” आगे चलकर पुरानी हिंदी का प्रयोग अपभ्रंश के संदर्भ में आचार्य शुक्ल ने “हिंदी साहित्य का इतिहास” में किया की हिंदी काव्य भाषा के पुराने रूप का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है तथा यही देश भाषा मिश्रित अपभ्रंश अर्थात पुरानी हिंदी की काव्य भाषा है। स्रोत: पुरानी हिंदी के संदर्भ में व्याकरणिक एवं शाब्दिक शब्द संरचना के उद्घाटन के महत्वपूर्ण स्रोत दो प्रमुख कृतियाँ- प्राकृत पैंगलम और राउल बेलि हैं। प्राकृत पैंगलम: यह छंद शास्त्र का ग्रंथ है। छंदों के उदाहरण स्वरूप जो पद इसमें संकलित हैं वह किसी एक काल का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। डॉ सुनीति कुमार चटर्जी इस ग्रंथ में संकलित छंदों के उदाहरणों को नवी से चौदहवीं शताब्दी तक की रचनाएँ मानते हैं। डॉ नामवर सिंह ने व्यावहारिक रूप से यह निष्कर्ष निकाला है कि प्राकृत पैंगलम हेमचंद्र के दोहे और नव्य भाषाओं के प्राचीनतम रूप के बीच की कड़ी का प्रतिनिधित्व करता है। राउल बेलि: शताब्दी का शिलांकित भाषा काव्य है जिसके रचयिता रोडा है। इसकी भाषा पर टिप्पणी करते हुए डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त का कथन है कि- “लेख की भाषा पुरानी दक्षिण कोसली है जिस प्रकार उक्ति व्यक्ति प्रकरण की पुरानी कोसली है। उस पर समीपवर्ती तत्कालीन भाषाओं का कुछ प्रभाव अवश्य ज्ञात होता है।” भाषागत प्रमुख विशेषताएँ ण का प्रयोग बहुतायत से हुआ जिस पर प्राकृत अपभ्रंश का स्पष्ट प्रभाव है जैसे: भाणु, भाषणु, पहिणु, विण, भण, भयणु नासिक के ध्वनियों में ण अतिरिक्त न तथा म है जैसे- गवारिम्व, म्वालउ, चिंतवन्तई सानुनासिकता तथा अनुस्वार दोनों के लिये लेखन में (-ं) बिंदु का प्रयोग मिलता है। व और ब समान रूप से उत्कीर्ण किए गए हैं। य का प्रयोग ज के स्थान पर मिलता है जैसे कियई=किज्जई भाषा प्रधानता उकार बहुला है: कजालु, घरु रूप की दृष्टि से निर्विभक्तिक प्रयोग कर्ता एवं कर्म में मिलते हैं, करण कारक में “एँ” और संबंध कारक में “हूँ” प्राप्त होते हैं संबोधन में “रे” का प्रयोग किया जाता है।</s>
<s>[INST]क्या आप सहमत हैं कि सूरत विभाजन आपसी मतभेदों से कहीं अधिक अप्रत्यक्ष रूप से अपनाई गई ब्रिटिश सरकार की रणनीतियों का प्रतिफल था। स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका सूरत विभाजन की पृष्ठभूमि ब्रिटिश कहां तक उत्तरदायी निष्कर्ष 1907 के ‘सूरत विभाजन’ की पृष्ठभूमि तो बंगाल विभाजन के बाद शुरू हुए आंदोलन से ही बननी शुरू हो गई थी, किन्तु तात्कालिक कारण नागपुर अधिवेशन में स्वेदशी व बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा के पूर्ण समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किये जाने को लेकर आपसी मतभेद था। इस संबंध में दोनों ही पक्षों ने अपना अड़ियल रूख बनाये रखा तथा किसी भी समझौते की संभावना को नकार दिया जिसकी परिणीति कांग्रेस विभाजन के रूप में देखने को मिलती है। किन्तु गहराई से देखे तो यह विभाजन महज़ इन दोनों पक्षों के मध्य के विवादों का ही परिणाम नहीं था। इसके पीछे सरकार की भी सोची समझी रणनीति अपना कार्य कर रही थी। सरकार ने कांग्रेस के प्रारंम्भिक वर्षों से ही उदारवादियों के साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाया। किन्तु, बाद के वर्षों में स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलनों के उभरने से कांग्रेस के प्रति सरकार का मोह भंग हो गया तथा उसने ‘अवरोध, सांत्वना एवं दमन’ की रणनीति का पालन करना उचित समझा। अपनी रणनीति के प्रथम चरण में सरकार ने उदारवादियों को डराने हेतु अतिवादियों के साधारण दमन की नीति अपनाई। द्वितीय चरण में सरकार ने उदारवादियों की कुछ मांगों पर सहमति जताकर उन्हें आश्वासन दिया कि यदि वो खुद को अतिवादियों से दूर रखें तो देश में संवैधानिक सुधार संभव हो सकते हैं। इस प्रकार उदारवादियों को अपने पक्ष में करने के तथा उन्हें अतिवादियों के खिलाफ करने के बाद सरकार के लिये अतिवादियों का दमन करना आसान हो गया। दुर्भाग्य से उस दौर में जब राष्ट्र को अपने सभी राष्ट्रवादियों के समन्वित प्रयासों की जरूरत थी, उसी वक्त ये उदारवादी व अतिवादी ब्रिटिश नीति के शिकार हो गए एवं जिसकी परिणिति सूरत विभाजन के रूप में हुई। आगे चलकर ब्रिटिश सरकार ने उदारवादियों की उपेक्षा करने शुरू कर दिया। इस प्रकार आपसी संशय व भिन्नता के अलावा सरकारी नीतियों ने भी कांग्रेस विभाजन में अहम भूमिका निभाई। किंतु आगे चलकर उदारवादियों का ब्रिटिश सरकार से मोहभंग हुआ और 1916 में पुनः एक संगठित और मजबूत कांग्रेस अस्तित्व में आई और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी।</s>
<s>[INST]अपभ्रंश के प्रारम्भिक साहित्य विकास के साथ ही इसके हिंदी के साथ अंतर्संबंधों पर टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : नामकरण: अपभ्रंश भाषा का समय 500 ईसवी से 1000 ईसवी तक माना जाता है जबकि 15वी शताब्दी तक इसमें साहित्य रचना होती रही है। कवि विद्यापति ने इस भाषा की विशेषता बताते हुए कहा कि “देसिल बचना सब जन मिट्ठा, ते तैसन जमञो अवहट्टा” अर्थात देश की भाषा सभी लोगों को मीठी लगती है तथा इसे ही अवहट्ट भाषा कहा जाता है। इस काल में अपभ्रंश को अवहट्ट नाम से भी जाना जाता था। अपभ्रंश शब्द का प्राचीनतम प्रमाणिक प्रयोग पतंजलि के महाभारत में मिलता है। दूसरी शताब्दी में भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में अपभ्रंश के लिये भी भ्रष्ट शब्द का प्रयोग किया। अपभ्रंश मध्यकालीन आर्य भाषाओं और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं जैसे हिंदी, बंगला, मराठी, गुजराती आदि के बीच की कड़ी है। समय: डॉक्टर सुकुमार सेन ने अपनी पुस्तक “ए कंपैरेटिव ग्रामर ऑफ मिडिल इंडो आर्यन” में यह माना है कि अपभ्रंश का काल 1 ईसवी से 600 ईसवी तक है। क्षेत्र विस्तार: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में उकार बहुलता वाली भाषा का प्रयोग सिंधु सौवीर और इन क्षेत्रों के आश्रित देशों के लिये किया है। इससे पता चलता है कि भारत के समय तक उस समय के प्रयोग में आने वाली भाषा में अपभ्रंश की विशेषताएं भारत के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों में प्रकट हुई थी। ईसा की 10वीं शताब्दी में राजशेखर ने अपनी पुस्तक काव्यमीमांसा में अपभ्रंश का विस्तार संपूर्ण मरूभूमि अर्थात राजस्थान के क्षेत्र में बताया। अपभ्रंश में लिखित जो साहित्य आज हमें मिलता है उसका रचना स्थान राजस्थान, गुजरात, पश्चिमोत्तर भारत, बुंदेलखंड, बंगाल और सुदूर दक्षिण तक प्रतीत होता है। इस प्रकार यह स्वीकार किया जाता है की 11वीं शताब्दी तक अपभ्रंश का प्रचार प्रसार समस्त भारत और दक्षिण में हुआ था। अपभ्रंश साहित्य: इसके प्रारंभिक साहित्य का विकास मालवा गुजरात तथा राजस्थान में हुआ। अतः इस क्षेत्र की अपभ्रंश तत्कालीन साहित्यिक भाषा बन गई और बंगाल तथा दक्षिण में इस भाषा में साहित्य रचना हुई। अपभ्रंश के प्रचार-प्रसार में आभीर जाति का संबंध बहुत गहरा है इसे सिंधु के पश्चिम में निवास करने वाली जाति के रूप में जाना जाता है। आधुनिक गुर्जरों का आभीर जाति से गहरा संबंध है। अपभ्रंश के लिये आभीरी भी एक नाम प्रयुक्त होता है। अपभ्रंश और हिंदी में अंतर्संबंध: नागरी प्रचारिणी पत्रिका में पुरानी हिंदी शीर्षक में पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने अपभ्रंश को “पुरानी हिंदी” नाम दिया है। रामचंद्र शुक्ल ने प्राकृत की अंतिम अवस्था से ही हिंदी साहित्य का विकास माना है। राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी काव्यधारा में अपभ्रंश काव्य का संग्रह प्रकाशित करते हुए उसकी भाषा को हिंदी का प्राचीन रूप कहा है। वास्तव में विक्रम की आठवीं, नौवीं और दसवीं शताब्दियों को अपभ्रंश साहित्य का उत्कर्ष युग माना जाता है। पुष्पदंत चतुर्मुख तथा बौद्ध सिद्धि इसी युग के प्रतिभाशाली कवि माने जाते हैं। हिंदी साहित्य के सभी विद्वान इस मत को स्वीकारते हैं कि पुराने हिंदी का संबंध अपभ्रंश के साथ बहुत घनिष्ठ है।</s>
<s>[INST]'पूर्व वैदिक समाज की तुलना में उत्तर वैदिक काल के समाज में आए परिवर्तनों के कारण धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तनों में निहित थे जिन्होंने समाज के समतामूलक स्वरूप को समय एवं आवश्यकता के अनुसार बदल दिया।' टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका दोनों समाजों का तुलनात्मक स्वरूप निष्कर्ष पूर्व वैदिक अर्थात ऋग्वैदिक समाज एक समतामूलक समाज था। इस काल में सामाजिक व्यवस्था सहयोग एवं सहभागिता पर आधारित थी। समाज पितृ सत्तात्मक होने के बावजूद स्त्री-पुरुष विभेद पर आधारित नहीं था, पुत्रियों को पुत्रों के समान माना जाता था तथा उनकी शिक्षा एवं अधिकारों में भी समानता थी, जबकि उत्तर वैदिक काल तक आते-आते समाज में असमानताएँ दिखने लगी। पूर्व वैदिक समाज का आधार परिवार होता था जिसमें पिता या बड़ा भाई परिवार का मुखिया होता था। ऋग्वैदिक समाज प्रारंभ में वर्ग विभेद से रहित था। सभी लोगों की समान सामाजिक प्रतिष्ठा थी। इस काल में सभी लोगों को आर्य कहा जाता था। ऋग्वैदिक काल में वर्ण शब्द का प्रयोग रंग के अर्थ में किया जाता था किंतु कहीं-कहीं इसका प्रयोग व्यवसाय चयन के संदर्भ में भी किया जाता था। ऋग्वैदिक समाज के प्रारंभ में तीन वर्णों का उल्लेख किया गया है जिन्हें ब्रह्मा, क्षत्र, वैश्य कहा जाता था। कालांतर में एक चौथा वर्ण शूद्र नाम से जुड़ गया। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में पहली बार शूद्र वर्ण का उल्लेख मिलता है। पुरुष सूक्त में चारों वर्णों की उत्पत्ति एक विराट पुरुष से बताई गई। अभी तक वर्ण जन्मजात न होकर व्यवसाय पर आधारित था जैसा कि ऋग्वेद में एक ऋषि कहता है कि “मैं कवि हूँ मेरे पिता वैद्य हैं तथा मेरी माता अन्न पीसती है।” अतः कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी जो कालांतर में संकीर्ण होती चली गयी। उत्तर वैदिक काल में आते-आते ऋग्वैदिक सामाजिक संरचना टूटने लगती है। अब वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर निर्धारित की जाने लगी। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था ने सामाजिक जटिलता को बढ़ावा दिया। सामाजिक संरचना का निर्माण इस प्रकार किया कि उत्पादन अधिशेष दो उच्च वर्गों के पक्ष में बना रह सके। उत्तर वैदिक काल में चतुर्वर्ण व्यवस्था स्थापित हो गई। इसमें ब्राह्मण एवं क्षत्रिय विशेषाधिकार प्राप्त वर्ण के रूप में स्थापित हो गए। समाज में सर्वश्रेष्ठ स्थान ब्राह्मण का था। ब्राह्मण ने यज्ञ एवं मंत्रोच्चारण की प्रविधि द्वारा अपने आप को उच्च स्थान पर स्थापित कर लिया। ब्राह्मण के पश्चात् क्षत्रियों का स्थान आता था। इस काल में जब युद्धास्त्रों के रूप में लोहे के उपकरणों को प्रोत्साहन मिला तो क्षत्रियों की स्थिति अधिक मज़बूत हो गई और सुरक्षा के नाम पर इस वर्ण ने उत्पादन अधिशेष के एक भाग पर अपना दावा किया। इस समय तीसरा वर्ग वैश्य वर्ग था जो एकमात्र उत्पादक तथा करदाता के रूप में विद्यमान था जिसे शतपथ ब्राह्मण में अनस्यबलिकृता कहा गया है। इन तीनों वर्णों को द्विज की श्रेणी में रखा गया, इन तीनों वर्णों को उपनयन संस्कार का अधिकार दिया गया था। इन तीनों वर्णों से पृथक एक वर्ण शूद्र था इसका दायित्व उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा करना था। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में वर्ण विभाजन को धार्मिक आनुष्ठानिक आधार प्रदान करने की कोशिश की गई। उत्तर वैदिक काल में तुलनात्मक रूप से स्त्रियों की सामाजिक दशा में गिरावट आई, अब सभा एवं समिति जैसी सामाजिक संस्थाओं में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया था। मैत्रेयी संहिता में नारी को धूत एवं मदिरा के साथ-साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिना गया। तैत्तिरीय संहिता में नारी को शूद्र से भी नीच माना गया है। सामाजिक जीवन में स्त्रियों का प्रवेश क्रमशः कम हो गया। नारी के धार्मिक अधिकारों में भी अंतर आने लगा। उत्तर वैदिककालीन समाज में गोत्र की अवधारणा का विकास हुआ । गोत्र शब्द की उत्पत्ति गोष्ठ शब्द से हुई अर्थात् जिनकी गायें एक साथ बाँधी जाती थीं वे एक गोष्ठ के माने जाते थे, फिर एक गोष्ठ के लोग समान रक्त संबंध के माने जाने लगे और यहीं से गोत्र की परिकल्पना विकसित होती चली गई तथा समतामूलक समाज का विभाजन होता चला गया जो अपने जटिल स्वरूप में आज परिलक्षित होता है। उपरोक्त से स्पष्ट है कि पूर्व वैदिक समाज की तुलना में उत्तर वैदिक काल के समाज में आए परिवर्तनों के कारण धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन थे और इन्होंने शनैः-शनैः समाज के समतामूलक स्वरूप को समय एवं आवश्यकता के अनुसार बदलकर व्यवस्था में नवीन तत्त्वों को समाहित किया।</s>
<s>[INST]"अंधेर नगरी" नाटक में तत्कालीन राज्य सत्ता के दमनकारी चरित्र की सांकेतिक अभिव्यक्ति और सामान्य जनता की शक्ति का चित्रण किया गया है। विश्लेषण कीजिए?[/INST]उत्तर : "अंधेर नगरी" अपने संक्षिप्त कलेवर में गंभीर सांकेतिक मनोरंजक और कालजयी नाटक है तथा इसमें कोई गंभीर कथानक नहीं है। महंत अपने शिष्यों गोवर्धन दास और नारायण दास को लोभी वृत्ति से बचे रहने का उपदेश देकर सुंदरनगर में भेजता है। गोवर्धन शहर के रंग ढंग से बहुत प्रभावित होता है। उसे वह राज्य पहली ही दृष्टि में सुखकर लगता है, लेकिन जब वह पकड़ा जाता है और उसे फांसी का हुक्म हो जाता है तो वास्तविक राज्यसत्ता का चरित्र उसके सामने आता है। "अंधेर नगरी" की कथा सामंतशाही राज व्यवस्था के साथ संबंध है। भारतेंदु ने "अंधेर नगरी" में अपने दौर के यथार्थ को प्रतीकात्मक रूप से प्रकट किया है उन्होंने विभिन्न अवसरों पर कभी स्पष्ट रूप से तो कभी सांकेतिक रूप से अपनी बात कही है। नौकरशाही की आलोचना करते हुए भारतेंदु ने उनकी रिश्वतखोरी, जनता के प्रति विद्वेष और उत्पीड़न की नीति टैक्स लगाकर उनके जीवन को मुश्किल बनाना आदि को खास तौर पर रेखांकित किया है- चना हाकिम सब जो खाते। सब पर दो ना टिकस लगाते।। भारतेंदु ने नौकरशाही की कुव्यवस्था का चित्र प्रस्तुत किया है। नौकरशाही के चरित्र को भारतेंदु ने मुकदमे वाले प्रसंग द्वारा भी व्यक्त किया है। वस्तुतः न्याय की प्रक्रिया का यह चित्र और यथार्थ प्रतीत होता हुआ भी अपने अर्थ में यथार्थ में निहित विडंबना को प्रभावशाली रूप में व्यक्त करता है। राजा और मंत्री के बीच की बातचीत राजा की मूर्खता और मंत्री की चतुराई का उदाहरण है। राजा के पास सकती है लेकिन बुद्धि और विवेक का अभाव है। मंत्री उसकी मूर्खता और शक्ति का इस्तेमाल अपने बौद्धिक बल से करता है। भारतेंदु कृत "अंधेर नगरी" में पैसा केंद्रीय महत्त्व की चीज है। “टके सेर भाजी, टके सेर खाजा”- का केंद्रीय स्वर इसी सच्चाई को व्यक्त करता है भारतेंदु ने इस नाटक में अंग्रेजी राज की उन बुराइयों का उल्लेख भी किया है जो शोषणवादी व्यवस्था की सूचक है। यह आलोचना तत्कालीन साम्राज्यवादी राज्य व्यवस्था के कुशासन की आलोचना है "अंधेर नगरी" अपनी सोउद्देश्यता, अपनी सामाजिक-राजनीतिक चेतना के कारण बहुत तीखा व्यंग्यात्मक नाटक है। मूल्यहीनता की व्यंग्यचेतना इस पूरे नाटक का लक्ष्य है "अंधेर नगरी" की समकालीन प्रासंगिकता कहीं कोई पृथक विषय, विचार या तत्व नहीं है, उसे हम उसके कथानक कथा-पात्रों की परिकल्पना, संवादों की बुनावट सभी में व्यस्त होता हुआ देखते हैं। "अंधेर नगरी" में न्याय की पूरी प्रक्रिया शासनसत्ता की संवेदनहीनता और मानवीय विडम्बना को दिखाती है क्योंकि वही मनुष्य को अंधव्यवस्था में फँसाती है, जहाँ शोषक, शोषित, अपराधी, निरपराधी में कोई अंतर नहीं।</s>
<s>[INST]स्पष्ट कीजिये कि इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति का अग्रदूत किस कारण बना था? साथ ही इसके सामाजिक प्रभावों पर भी प्रकाश डालिये?[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भूमिका इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति सामाजिक प्रभाव निष्कर्ष 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर 19वीं सदी के पूवार्द्ध तक ब्रिटेन में होने वाले आर्थिक एवं सामाजिक परिवर्तनों को 'औद्योगिक क्रांति' के नाम से जाना जाता है। इस परिवर्तन ने मानव जीवन को अत्यधिक तीव्र एवं गहरे रूप से प्रभावित किया था। निःसन्देह हॉलैंड, फ्रांस, जर्मनी जैसे इंग्लैड से भी ज्यादा संपन्न देशों की यूरोप में उपस्थित के बावजूद इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति का अग्रदूत बना। जहाँ हॉलैंड भौगोलिक खोजों एवं व्यापार-वाणिज्य में अग्रणी था वहीं फ्रांस का उद्योग तथा यहां की जनसंख्या इंग्लैंड से तीगुनी थी। इसके बावजूद क्रांति की शुरूआत इंग्लैंड से हुयी इसके पीछे निम्नलिखित कारण थे- अन्य यूरोपीय देशों की अपेक्षा इंग्लैंड में राजनीतिक स्थायित्व अधिक था। जहां कि जनता को स्वच्छंद वातावरण के साथ-साथ राजनीतिक अधिकार भी दिये गये थे जिससे व्यापारिक गतिविधियों में वृद्धि हुयी जबकि इस समय यूरोप के अन्य देशों में सामंती व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक आराजकता व्याप्त थी। इंग्लैंड चारों ओर समुद्र से घिरा हुआ देश है इससे व्यापारिक गतिविधियों में सुविधा प्राप्त हुयी अर्थात् वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने में आसानी हुयी। साथ ही आंतरिक एवं बाह्य परिवहन ने औद्योगिक क्रांति के लिये उत्प्रेरक का कार्य किया। समुद्र से घिरे होने के कारण यहां की जलवायु नम थी जो कपड़ा उद्योग के लिये उपयुक्त था। ब्रिटेन ने एक शक्तिशाली जहाजरानी का विकास किया। समुद्र से घिरे होने के कारण अपने नौसैनिक बल पर विशाल औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित करने में सफल रहा। यूरोप के अन्य देशों की स्थिति ब्रिटेन जैसी नहीं थी। अतः युद्ध के समय भी ब्रिटेन का व्यापार जारी रहा। कोयला एवं लोहा खनिज औद्योगिक विकास के लिये आधारभूत तत्व माने जाते हैं जो इंग्लैंड में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। अतः इसने औद्योगिक क्रांति को गति प्रदान की। कृषि क्षेत्र में नवीन तकनीकी कृषि यंत्र एवं विधियों से कृषि उत्पादन क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन आया। इससे कृषि भू-स्वामी को अत्यधिक लाभ मिला इस अधिशेष पूंजी का उपयोग भू-स्वामियों ने औद्योगिक क्षेत्रों में निवेश कर के किया। हालांकि इस कृषि क्रांति ने खेतिहर मजदूर को बेरोजगार बना दिया। फलतः ये मज़दूर रोज़गार की तलाश में शहर की ओर प्रवास करने लगे जिससे उद्योगों में कम मज़दूरी पर श्रमिक कार्य करने के लिये तैयार हुये। इंग्लैंड में जनसंख्या वृद्धि के कारण वस्तुओं की मांग बढ़ी जिससे कीमतों में भी उछाल आया फलतः उत्पादन में और वृद्धि की गयी। कच्चे माल की प्राप्ति एवं तैयार माल की बिक्री के लिये उपनिवेश एक अच्छा बाजार साबित हुआ। विस्तृत बाजार ने पूंजीपतियों को उद्योगों में पूंजी निवेश के लिये प्रोत्साहित किया जिससे औद्योगिक क्रांति की संभावनाओं को बल मिला। किसी भी औद्योगिक विकास के लिये पूंजी एक आवश्यक कारक है। चूँकि इंग्लैंड ने भारत अमेरिका तथा अन्य उपनिवेशों से खूब पूंजी का संचय किया था तथा व्यावसायिक क्रांति का सर्वाधिक लाभ इंग्लैंड को ही मिला था। साथ ही व्यापारिक लाभ इंग्लैंड को ही मिला था। व्यापारिक बैंको ने भी पूंजी उपलब्ध कराने में मदद की थी। जहां अन्य यूरोपीय देशों में पूंजीपति वर्ग में अपनी पूंजी का प्रयोग भूमि खरीदने, भवन निर्माण एवं अपने शानों-शौकत में खर्च किया वहीं वहीं इंग्लैंड के पूंजीपति ने अपने पूंजी का प्रयोग उद्योगों में निवेश के रूप में किया। इंग्लैंड में अन्य यूरोपीय देशों की अपेक्षा वैज्ञानिक वातावरण एवं वैज्ञानिक विचारों का प्रभाव सर्वप्रथम पड़ा। जहां कपड़ा बुनने के लिये फलाइंग शटल तीव्र गति से सूत काटने के लिये ‘स्पिनिंग जेनी का अविष्कार हुआ आगे चलकर वस्त्रउद्योग में ‘पावरलूम’ का विकास ने बढ़िया किस्म के कपड़ों को उत्पादित करने में मदद की।1815 में हम्फ्रे डेवी द्वारा सेफटी लैप की खोज ने खानों के भीतर काम करने में सुगम बनाया। वहीं कच्चे माल को कारखानों तक लाने तथा उत्पादित/तैयार माल को बाजार तक ले जाने के लिये परिवहन एवं सड़कों का निर्माण हुआ। वहां संचार साधनों में तारयंत्र का अविष्कार तथा ग्राहमबेल के टेलीफोन के अविष्कार ने संचार व्यवस्था में क्रांति ला दी। इसके साथ ही मारकोनी द्वारा ‘बेतार के तार’ तथा रेडियो के अविष्कार होने से सूचनाओं के आदान-प्रदान में आसानी हुयी। इस प्रकार उपर्युक्त सभी कारकों ने मिलकर इंग्लैंड को औद्योगिक क्रांति का अग्रदूत बना दिया। इसके सामाजिक प्रभावों को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है- औद्योगिक क्रांति के कारण जनसंख्या में तीव्र वृद्धि- कृषि क्रांति के कारण अनाजों का अत्याधिक उत्पादन होने लगा तथा इसलिये बेहतर पोषण एवं उन्नत स्वास्थ्य व्यवस्था ने जनसंख्या वृद्धि दर को बढ़ावा दिया क्योंकि शिशु मृत्यु दर कम हुयी। औद्योगिक क्रांति के कारण भावनात्मक मानवीय संबंधों का स्थान आर्थिक संबंधों ने ले लिया। अब श्रमिक तथा मलिक के बीच अजनबी सा संबंध बन गया। अब मानव-मानव का संबंध टूटकर मशीन से जुुड़ गया। इस क्रांति के परिणाम स्वरूप सुयंक्त परिवार टूटने लगा क्योंकि मानव को कारखानों में काम करने हेतु दूर (शहर) जाना पड़ता था जहाँ पर परिवार के रहने की सुविधा नहीं थी। अतः इससे एकल परिवार को बढ़ावा मिला। शहरों में जनसंख्या वृद्धि के कारण अवास जल, भोजन स्वच्छ वायु आदि की आवश्यकता बढ़ी परंतु जगह के अभाव में लोग उद्योगों के आस-पास कच्ची बस्तियों का निर्माण कर रहने लगे जिससे गंदगी बढ़ी इसके कारण मानवीय स्वास्थ्य प्रभावित हुआ तथा महामारी एवं भयानक बीमारियों का सामना करना पड़ा। मानवीय मूल्यों में भी गिरावट आने लगी लोगों में परस्पर सहयोग की भावना कम हुयी। लोगों ने अपने थकान मिटाने के लिये नशे का सेवन करने लगे। बाल श्रम को बढ़ावा मिला। परंपरागत शिक्षा पद्धति की जगह रोजगारपरक तकनीकी एवं प्रबंधकीय शिक्षा पर जोर दिया जाने लगा। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप अधिक-से-अधिक कामगारों की आवश्यकता पड़ी फलतः अब स्त्रियाँ भी कार्य में लग गयी परंतु आगे चलकर इनके द्वारा अपने अधिकारों की मांग की जाने लगी। अतः उपर्युक्त से स्पष्ट है कि औद्योगिक क्रांति के लिये ब्रिटेन में अनुकूल परिस्थितियां विद्यमान थी। जिसके कारण इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति का अग्रदूत बना।</s>
<s>[INST]मोहन राकेश का आधुनिक नाटकों के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है उनके नाटकों के कथानक के माध्यम से विश्लेषण कीजिये?[/INST]उत्तर : हिंदी की नवनाट्य लेखन या नया नाटक परंपरा को एक व्यापक सर्जनात्मक एवं ठोस आंदोलन के रूप में स्थापित करने का श्रेय मोहन राकेश को ही है। सामान्यतः समानता राकेश को प्रसाद की परंपरा का नाटककार कहा जा सकता है क्योंकि उनके नाटकों में ऐतिहासिकता, नारी पात्रों की प्रधानता, भावुकता, काव्यत्मकता मौजूद है इसके अतिरिक्त नवाचार के अवसर पर मोहन राकेश ने इस परंपरा का नया स्वरूप विकसित किया एवं प्रसाद की परंपरा से इतर आधुनिक भाव बोध के नाटक लिखे। उन्होंने आधुनिक संवेदनाएं आधुनिक मानव के द्वन्द को पकड़ना चाहा तथा उनके नाटकों में पात्रों की भीड़ भाड़ नहीं है साथ ही उन्होंने नाटकों के प्रतिरूप को आधे-अधूरे नाटक में तोड़ा है। आषाढ़ का एक दिन: यह नाटक कवि कालिदास के सत्ता एवं सृजनात्मकता के मध्य अंतर संघर्ष का चित्रण करता है। यह केवल कालिदास का द्वंद नहीं बल्कि आधुनिक मानव का भी अंतर्द्वंद है, कालिदास एक ऐसे सृजनशील कलाकार का प्रतीक है जिसकी उस सृजनशीलता उस व्यवस्था द्वारा कुचल दी जाती है। लहरों के राजहंस: यह नाटक बुध के भ्राता नंद पर आधारित है। इसमें भी भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का द्वंद है। इन दोनों किनारों के मध्य खड़े मनुष्य को उचित समन्वय से ही सही दिशा मिल सकती है। इसमें सुंदरी प्रवृत्ति पक्ष की प्रतीक है तो बुद्ध निवृत्ति पक्ष के और नंद दोनों के बीच द्वंदग्रस्त मानव चेतना का। प्रतीकों की बहुलता से कहीं कहीं यह नाटक बोझिल भी प्रतीत होता है लेकिन चारित्रिक अंतर्द्वंद, मनोवैज्ञानिक स्तर पर यह नाटक उल्लेखनीय बन पड़ा है। आधे-अधूरे: आधे-अधूरे मोहन राकेश के नाटकों में सर्वाधिक चर्चित नाटक है। यह हिंदी नाटक की प्रचलित धारा से बहुत भिन्न नाटक है। वस्तुतः आधे-अधूरे हिंदी नाटक को वास्तविक साहित्य में समसामयिक युग का प्रतिबिंब बनाने वाला नाटक है। आधे-अधूरे मोहन राकेश के प्रथम दोनों नाटकों आषाढ़ का एक दिन और लहरों के राजहंस से भी दो दृष्टि से सर्वथा भिन्न है। एक तो इसमें आज के कठोर यथार्थ की सीधी अभिव्यक्ति है और दूसरे उसके अनुकूल आम आदमी की बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल है। पहले दोनों में ऐतिहासिक आवरण में आधुनिक संवेदना को व्यक्त किया गया था इस नाटक में नाटककार वर्तमान को अतीत के माध्यम से व्यक्त करने का मोह त्यागकर वर्तमान से सीधा साक्षात्कार किया है। आधे-अधूरे के दोनों मुख्य पात्र पति महेंद्र नाथ और पत्नी सावित्री अपने विवश हैं और बहुत सी परिस्थितियों ने भी उनका स्वभाव ऐसा बना दिया है कि दोनों ही एक दूसरे को सह नहीं पाते बल्कि एक दूसरे से परस्पर नफरत करते हैं और एक साथ रहने के लिये विवश हैं। सावित्री अपने अधूरे को दूर करने के लिये अलग-अलग व्यक्तियों से टकराती है और सब को अधूरा पाती है। दोनों पति पत्नी एक दूसरे के साथ ही जीने को विवश दिखाई देते हैं। उन के पारस्परिक संबंधों का प्रभाव उनके बच्चों पर भी पड़ता है। कुल मिलाकर यह नाटक स्त्री पुरुष संबंध और दांपत्य संबंध के खोखलेपन तथा पारिवारिक विघटन की जीवन स्थितियों को दर्शाने वाला नाटक है। यह नाटक कई स्तरों पर संकेत देता है। यह एक साथ पारिवारिक विघटन मानवीय संबंधों में दरार दांपत्य संबंधों की कटुता आपसी रिश्तो की रिक्तता, यौन विकृतियों एवं द्वंद आदि को समेटता चलता है। पैरों तले की जमीन: एक अधूरा नाटक है। इसमें कोई कथानक नहीं है तथा इसमें मुख्यतः स्थितियों की विसंगतियों से उत्पन्न अंतर्द्वंदों की अभिव्यक्ति की गई है। इसमें नेपथ्य की ध्वनियों के आधार पर रंगमंच को नया अर्थ देने का प्रयोग किया गया है। अन्य लघु नाटक: इन चारों नाटकों के अतिरिक्त मोहन राकेश ने अंडे के छिलके, शायद और धारियाँ नामक लघु नाटक भी लिखे हैं। मोहन राकेश ने अपने सभी नाटकों में भाव और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयत्न अधिक किया है, शिल्प की बनावट का उतना नहीं। फिर भी उनकी कोशिश रही है कि शब्दों के संयोजन से ही दृश्यत्त्व पैदा हो ना कि अन्य उपकरणों से। उन्होंने हिंदी नाटक को प्रसादीय और कृत्रिम भाषा से मुक्त कर युगीन विसंगतियों को मूर्त करने के लिये समर्थ भाषा प्रदान की। मोहन राकेश के नाटक रंगमंच की दृष्टि से अत्यंत सफल एवं प्रयोगशील हैं।</s>
<s>[INST]हिंदी नाटक परंपरा में राष्ट्रीय चेतना की मूल भावना का अंतर्वेशन किस प्रकार हुआ है। विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर : राष्ट्रीय चेतना का अभिप्राय (समाज की उन्नति) राष्ट्र की चेतना-प्राण शक्ति समाज से है। राष्ट्र शब्द समाज के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। जिस क्षण समुदाय में एकता की एक सहज लहर हो,उसे राष्ट्र कहते हैं। समाज और साहित्य का भी विरोध संबंध है। साहित्य सामुदायिक विकास में सहायक होता है, सामुदायिक भावना भी राष्ट्रीय चेतना का अंग है। हिंदी नाटक में राष्ट्रीय चेतना को भारतेंदु युग से ही देखा जा सकता है। भारतेंदु ने सभी विधाओं में सबसे सशक्त माध्यम नाटक को ही माना और वे जानते थे कि नवजागरण और प्रगतिशील चेतना को नाटक के माध्यम से उद्भाषित किया जा सकता है। भारतेंदु की रचना “भारत दुर्दशा” भारतीय राष्ट्रीयता की अग्रदूत थी जनसाधारण के लिये ऐसी रचनाएँ परम आवश्यक थी इनमें केवल राष्ट्रीय भावना ही नहीं वरन अतीत गौरव के प्रति अनुराग तथा भारत की तत्कालीन दुर्दशा पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है। “भारत जननी ‘के माध्यम से भारतेंदु ने भारत माता की परिकल्पना की है। “अंधेर नगरी” ब्रिटिश सत्ता के प्रबंध व्यवस्था पर कटाक्ष करता है तथा “सत्य हरिशचंद्र” में पुरुष सत्ता का, सत्य उद्धरण का के लिये आह्वान करते हैं। “नील देवी” में गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण दिलाकर भारतीयों को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये अनु प्रेरित किया गया है। भारतेंदु के पश्चात प्रसाद युग में नाट्य साहित्य को नया जीवन मिला। इस समय के नाट्य साहित्य में भारत की राजनीतिक व आर्थिक आशाओं का यथार्थ चित्रण कर राष्ट्रीयता का शंखनाद किया। राष्ट्रीयता, देशभक्ति विदेशी शिकंजे से देश को आजाद कराने का संघर्ष, एकता और सामूहिक जागरण का सबसे ही उन दिनों की प्रेरक शक्तियाँ थी और उन्हीं से प्रसाद का नाटककर्म विकसित हुआ। प्रसाद ने ऐतिहासिक चरित्रों के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना को प्रेरणा और धार देने का प्रयास किया। उनके सभी नाटक राष्ट्रीयता का पुट लिये हुए हैं, उनके प्रमुख हैं- राज्यश्री, हर्षवर्धन, अजातशत्रु, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी। प्रसाद ने इन नाटकों के माध्यम से विशाल जनमानस को भारतवर्ष के सम्मान के रक्षा के लिये सोचने को विवश कर दिया। प्रसाद धारा के ऐतिहासिक पौराणिक नाटककारों में हरिकृष्ण प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, लक्ष्मीनारायण मिश्र, डॉ. रामकुमार वर्मा और सेठ गोविंद दास प्रमुख हैं। हरिकृष्ण प्रेमी ने मुसलमान एवं राजपूत काल के इतिहास को अपने नाटकीय कथानकों का आधार बनाया उन्होंने अपने नाटकों के द्वारा राष्ट्रीय एकता के भाव पैदा करने का प्रयास किया</s>
<s>[INST]'यद्यपि पल्लवों की स्थापत्य शैली धार्मिक भावनाओं से प्रेरित प्रतीत होती है, फिर भी उनकी सांस्कृतिक उपलब्धि भारतीय इतिहास को गौरवान्वित करने के साथ अमूल्य धरोहर का एहसास देती है।' विवेचना करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भूमिका पल्लव राजवंश स्थापत्य के क्षेत्र में योगदान तथा अन्य क्षेत्रों में योगदान निष्कर्ष पल्लव काल न सिर्फ स्थापत्य कला अपितु अन्य विलक्षण सांस्कृतिक उपलब्धियों के संदर्भ में प्रगति का काल रहा है। सातवाहनों के ध्वंसावशेषों पर निर्मित होने वाले पल्लव वंश की स्थापना सिंहविष्णु ने की थी। पल्लवों ने प्रारंभिक पल्लव शासकों (250 ई.) से लेकर नौवीं शताब्दी के अपने पतन के अंतिम समय तक शासन किया। सातवाहन साम्राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग में शासन करने वाले पल्लवों की राजधानी कांचीपुरम थी। पल्लवों ने वास्तुकला के साथ-साथ संगीत, नृत्य एवं चित्रकला के क्षेत्र में भी प्रगति की, इस प्रकार पल्लव वास्तुकला का इतिहास में काफी महत्त्व है। पल्लवकालीन स्थापत्य कला की विशेषताएँ: रथ मंदिर का निर्माण पल्लवों की महत्त्वपूर्ण देन है। इसके अंतर्गत महाबलीपुरम में पाँच रथ मंदिरों का निर्माण किया गया था। ये रथ मंदिर शिव को समर्पित थे तथा इनका नामकरण पाँच पांडवों के आधार पर किया गया था। पल्लवों की स्थापत्य कला में मंदिर निर्माण को प्रमुख स्थान दिया गया था। इस काल में चट्टानों को काटकर और नक्काशी के द्वारा गुफा और मंदिरों का निर्माण किया गया था। रथ मंदिरों में सहदेव, धर्मराज और भीम रथ बहु-मंजिले हैं और इनके शिखर पिरामिड के समान है। द्रोपदी रथ लकड़ी के स्तंभों के सहारे झोपड़ीनुमा पत्थर की अनुकृति है। उल्लेखनीय है कि द्रोपदी रथ बाँस और छप्पर के आदिप्रारूप की भी अनुकृति प्रस्तुत करता है। एकाश्मक मंदिर संरचना भी पल्लवकालीन स्थापत्य की प्रमुख विशेषता है। महाबलीपुरम का गणेश रथ एकाश्मक मंदिरों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। तीन मंजिला गणेश रथ में बेहतरीन नक्काशी की झलक मिलती है। राजसिंह द्वारा निर्मित कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर का पल्लव वंश के स्थापत्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस विशाल मंदिर की भव्यता काफी मनोरम है। पल्लवों की अन्य सांस्कृतिक उपलब्धियाँ: पल्लवों के काल में स्थापत्य के बाद साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रगति देखने को मिलती है। पल्लव शासकों द्वारा संस्कृत भाषा को संरक्षण प्रदान किया गया था। संकृत भाषा के प्रसिद्ध कवि व ‘किरातार्जुनीयम’ के रचयिता भारवि सिंहविष्णु के दरबार में रहते थे। इसके अतिरिक्त पल्लवकालीन रचनाकारों में दण्डिन प्रमुख थे, इन्होंने ‘दश्मुखचरित’ और ‘काव्यादर्श’ जैसी पुस्तकों की रचना की। पल्लव वंश के शासक महेन्द्रवर्मन स्वयं साहित्य की महान हस्तियों में से एक थे। पल्लवों के शासन काल को धार्मिक पुनर्जीवन के काल के रूप में भी याद किया जाता है। इन्होंने दक्षिण भारत में आर्यीकरण को बढ़ावा देकर ब्राह्मण धर्म का प्रसार किया। इसके कारण ही कांची हिंदुओं के सात पवित्र शहरों के रूप में गिना जाने लगा। यद्यपि पल्लव विष्णु एवं शिव के उपासक थे, किंतु उन्होंने अन्य पंथों के प्रति सहिष्णुता बनाए रखी। मूर्तिकला के सन्दर्भ में भी पल्लव काल अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। महाबलीपुरम के सात विशालकाय पैगोडा के साथ महिषासुरमर्दिनी, गजलक्ष्मी, अर्जुन का तप आदि प्रतिमाओं को पल्लवों का संरक्षण प्राप्त हुआ। यद्यपि पल्लवों की स्थापत्य शैली धार्मिक भावनाओं से प्रेरित प्रतीत होती है, फिर भी उनकी सांस्कृतिक उपलब्धि भारतीय इतिहास को गौरवान्वित करने के साथ अमूल्य धरोहर का एहसास देती है। पल्लव कला की विशेषताएँ भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया तक भी पहुँचीं। पल्लव काल मंदिर निर्माण का एक महान युग था। पल्लवों ने बौद्ध चैत्य विहारों से विरासत में प्राप्त कला का विकास किया और नवीन शैली को जन्म दिया जिसका पूर्ण विकसित रूप पांड्य काल में देखने को मिला।</s>
<s>[INST]'अमेरिका ने भले ही कभी प्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवाद का समर्थन नहीं किया किंतु अपनी व्यापारिक नीतियों के माध्यम से विभिन्न देशों में प्रभावकारी परिवर्तन किये।' टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : भूमिका सोवियत संघ का विघटन अमेरिका की नीतियां और उनका प्रभाव निष्कर्ष सोवियत संघ के विघटन के बाद वैश्विक स्तर पर अमेरिका ने अपनी नीतियों तथा विचारधारा का प्रचार-प्रसार शुरू किया। अमेरिका ने भले ही कभी प्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवाद का समर्थन नहीं किया किंतु अपनी व्यापारिक नीतियों के माध्यम से विभिन्न देशों में प्रभावकारी परिवर्तन किये। अमेरिकी सरकार ने विश्व स्तर पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष निवेश को बढ़ावा देकर विभिन्न अमेरिकी कंपनियों की इकाईयों को अन्य देशों में स्थापित किया। वित्तीय तथा बैंकिंग कंपनियों के साथ बीमा कंपनियों के निवेश को बढ़ावा दिया। इन नीतियों के शिकार विशेष कर पूर्वी एशियाई देश हुए। अमेरिका ने अपनी नीतियों का निर्माण अपने हितों के अनुकूल किया। जिसका प्रारंभिक उद्देश्य साम्यवादी विचारधारा के समर्थित राष्ट्रों के प्रभावों को सीमित करना था। वहीं दूसरी ओर वह पूर्वी यूरोप के उन राष्ट्रों की विस्तारवादी विचारधारा पर भी वह अंकुश लगाना चाहता था जो विस्तारवादी नीति अपना रहे थे। यही कारण था कि उसने न सिर्फ गुप्त राजनीतिक संधियों बल्कि कूटनीतिक पहलों द्वारा रूस की साम्यवादी विचारधारा को अस्थिर करने का प्रयास किया। इसके अलावा अमेरिका के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती परमाणु शक्ति संपन्न देशों की शक्ति को नियंत्रित करने की भी थी। अत: शक्ति संतुलन की स्थिति में न सिर्फ उसने परमाणविक हथियारों का निर्माण किया, बल्कि अन्य देशों के परमाणविक कार्यक्रमों पर विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संधियों तथा एजेंसियों के माध्यम से रोक लगाने का भी प्रयास किया। अमेरिका का सबसे मजबूत पक्ष यह रहा कि विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय पहलों पर उसे अधिकाधिक देशों का सहयोग प्राप्त हुआ। धीरे-धीरे अमेरिका की हर नीति प्रत्येक देश के लिये बाध्यकारी हो गयी तथा अमेरिका अपनी आर्थिक मज़बूती के बल पर विभिन्न देशों की नीतियों को प्रभावित करने में भी सफल रहा। उपरोक्त के अलावा विश्व की विभिन्न नियामक संस्थाओं में अमेरिकी हस्तक्षेप लगातार विद्यमान है। इसलिये वैश्विक स्तर पर होने वाले भू-मंडलीकरण या उत्पन्न अन्य प्रभावों को अमेरिकीकरण की भी संज्ञा दी जाती है।</s>
<s>[INST]'त्रिपक्षीय संघर्ष में भले ही कोई भी शक्ति भारत में एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करने में सफल नहीं हुईं लेकिन इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि इसने राजनीतिक शून्यता को काफी लम्बे समय तक भरने में कामयाब रहीं।' टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका त्रिपक्षीय संघर्ष पाल, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूटों की भूमिका के विभिन्न पक्ष निष्कर्ष कन्नौज पर नियंत्रण के लिए भारत के तीन प्रमुख साम्राज्यों जिनके नाम पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट थे, के बीच 8वीं सदी के दौरान, संघर्ष हुआ। चूंकि सांतवी सदी के पूर्वाद्ध से ही कन्नौज भारत की राजनीति का केंद्र बिंदु रहा था। उस काल में उत्तरी भारत पर आधिपत्य का कोई भी दावा कन्नौज पर अधिकार के बिना निरर्थक था। पालों का भारत के पूर्वी भागों पर शासन था जबकि प्रतिहार के नियंत्रण में पश्चिमी भारत का अवंती-जालौर क्षेत्र था। राष्ट्रकूटों ने भारत के डक्कन क्षेत्र पर शासन किया था। इन तीन राजवंशों के बीच कन्नौज पर नियंत्रण के लिए हुए संघर्ष को भारतीय इतिहास में त्रिपक्षीय संघर्ष के रूप में जाना जाता है। कन्नौज का सामरिक महत्व भी था, क्योंकि पालों के लिए मध्य भारत तथा पंजाब और प्रतिहारों एवं राष्ट्रकूटों के लिए गंगा दोआब में पहुँचने के मार्ग पर कन्नौज से ही नियंत्रण संभव था। इसके अलावा गंगा-यमुना दोआब का समृद्ध क्षेत्र भी ऐसी इसी के अंतर्गत आता था जो प्रचुर मात्रा में राजस्व का स्रोत था। अतः इस पर बिना नियंत्रण किये कोई भी साम्राज्य शक्तिशाली नहीं हो सकता था पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट शासकों की भूमिका- हर्ष के शासन के पश्चात गुर्जर-प्रतिहारों ने उत्तरी भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की और अरबों को सिंध क्षेत्र से आगे बढ़ने से रोका। त्रिपक्षीय संघर्ष में सफलता के पश्चात् गुर्जर-प्रतिहार सर्वाधिक प्रभावशाली हो गए। पाल वंश के शासकों ने बंगाल को राजनीतिक एकता प्रदान करके सांस्कृतिक समृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया साथ ही भारत की राजनीति में इसके महत्त्व को लगभग चार सौ वर्षों तक स्थापित करने में सफल रहे। महाराष्ट्र-दक्कन क्षेत्र में राष्ट्रकूट एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति थे जिनका सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रमुख योगदान था। इन्होंने ने भी अरबों के आक्रमण से भारत की रक्षा की। इतिहासकारों का मानना है कि यदि राष्ट्रकूट शासक अपनी महत्त्वाकांक्षा को दक्षिण भारत तक ही सीमित रखते तो एक शक्तिशाली राज्य का निर्माण कर सकते थे। लगभग एक सदी तक गंगा घाटी में स्थित कन्नौज के ऊपर नियंत्रण को लेकर आपस में युद्ध करने के पश्चात् अंतत: नौवीं शताब्दी में गुर्जर-प्रतिहारों ने आधिपत्य स्थापित करने में सफलता पाई। पाल वंश की भूमिका देखें तो हम पाते हैं कि इसने भी बंगाल में दशकों से चली आ रही मत्स्य न्याय एवं अराजकता को समाप्त कर एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना की उल्लेखनीय है कि इनका शासनकाल तीनों ही शक्तियों में से सबसे लंबे समय तक चला। त्रिपक्षीय संघर्ष ने तीनों महाशक्तियों की स्थिति को कमज़ोर किया जिससे इनमें से कोई भी एक बड़ा साम्राज्य कायम करने में सफल नहीं हो सका नहीं किंतु इसका सकारात्मक पक्ष यह रहा कि इसने तुर्कों को सत्ता से बेदखल करने में सक्षम बनाया। तीनों महाशक्तियों की शक्ति लगभग समान थी जो मुख्यत: विशाल संगठित सेनाओं पर आधारित थी लेकिन कन्नौज के संघर्ष का लाभ उठाकर सामंतों ने अपने-आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया, जिससे रही-सही एकता भी नष्ट हो गई। उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि निःसंदेह त्रिपक्षीय संघर्ष की शक्तियाँ लगभग एक साथ अस्तित्व में आई और निरंतर युद्धरत रहने के कारण शनै-शनै समाप्त हो गईं। तत्समय ये भारत में एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करने में भले ही सफल नहीं हुईं लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इसने ततत्समय उपजी राजनीतिक शून्यता को काफी लम्बे समय तक भरने में कामयाब रहीं।</s>
<s>[INST]राष्ट्रपति फ्रैकलिन रूजवेल्ट की न्यू डील (New Deal) की चर्चा करते हुये आर्थिक मंदी के प्रभावों का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका न्यू डील क्या है? प्रभावों की चर्चा समाधान निष्कर्ष प्रथम विश्व युद्ध के बाद विश्व को आर्थिक रूप से काफी क्षति उठानी पड़ी। वाल स्ट्रीट (अमेरिक शेयर बाजार) सूचकांको में भारी गिरावट के कारण वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में गिरावट आने लगी। कारखानों के बंद होने से लाखों लोग बेरोज़गार हो गये और देखते-देखते यूरोप से संपूर्ण विश्व में फैल गयी जिसे विश्व व्यवस्था में आर्थिक मंदी के नाम से जाना गया। विश्व में आर्थिक मंदी के कारण- लिप्सन के अनुसार आर्थिक क्रियाओं में एक नियत समय में व्यापार चक्र में उतार-चढ़ाव आता रहता है। 1929 का आर्थिक मंदी इसी का परिणाम थी। कृषि और उद्योगों के मशीनीकरण के कारण रोज़गारों में कमी आने लगी जबकि इसके विपरित उत्पादन अधिक होने लगा परंतु विनिर्मित उत्पादों की खपत नहीं हो पाई जिससे मांग एवं पूर्ति में असंतुलन उत्पन्न हुआ। संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यूरोप के बीच व्यापार असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी और यह व्यापार संतुलन अमेरिका के पक्ष में चला गया था कहा जाता है कि यूरोप द्वारा लिये गये कर्ज़ की अदायगी अमेरिका को स्वर्ण के रूप में की जाने लगी और लगभग वैश्विक स्वर्ण का 60% अमेरिका के पास जमा हो गया। अतः स्वर्ण सिक्कों के मौद्रिक मूल्य बढ़ने से दूसरी वस्तुओं की कीमतों में गिरावट आने लगी जिससे व्यापार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। प्रथम विश्व युद्ध के बाद यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण कार्यक्रम अमेरिका के निवेश पर निर्भर थे परंतु अमेरिका निवेश करने में सफल नहीं हो सका। संकुचित राष्ट्रीय हितों पर आधारित नीतियों, विभिन्न देशों द्वारा वास्तुओं पर आयात शुल्क लगाना, संरक्षणवादी नीतियाँ अपनाना आदि ने व्यापार की निरंतरता को कम कर दिया जिससे व्यापार संकुचित होने लगा। विश्व आर्थिक मंदी को तात्कालिक घटना के रूप में अमेरिकी शेयर बाजार में गिरावट को माना जाता है। 1929 में शेयरों की कीमतें गिरने से लोगों में शेयर बेचने के लिये होड़ लग गयी जिससे बाज़ार और नीचे चला गया तथा अमेरिका ने यूरोपीय देशों को ऋण देने पर पूर्णतः रोक लगा दी जिससे अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी और इस घटना ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया। इस आर्थिक संकट को दूर करने के लिये निम्न प्रयास किये गये - यूरोपीय संघ की स्थापना का प्रस्ताव तथा एक समीति गठित करने की मांग। 1932 में लोसान में सम्मेलन। 1933 में हुये सम्मेलन में मुद्रा स्थिरता और सीमा शुल्क विषयों पर सहमति बनाने का प्रयास किया गया। कर प्रणाली एवं सरकारी व्यय को आर्थिक मंदी के एक समाधान के रूप में प्रस्तुत किया। अतः मंदी से उबरने के कई प्रयास किये गये परंतु इस क्षेत्र में व्यावहारिक समाधान अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने दिया। रूजवेल्ट ने अपने-यू डील नीति के अंतर्गत कहा कि “हमारे भीतर भय की एक ऐसी भावना जो हमें अत्याधि्क भयभीत कर रही है।” और इसी भय को दूर करने के लिये “मैं देश को एक नया व्यवहार (New Deal) दूंगा।” यह New Deal वैश्विक आर्थिक मंदी से निपटने में सहायक होगा। रूजवेल्ट के कठोर एवं साहसी प्रयासों से अर्थव्यवस्था में आत्मविश्वास लौटा और अमेरिका आर्थिक मंदी से तेजी से उबरकर बाहर आया। रूजवेल्ट ने New Deal के तहत तीन लक्ष्य निर्धारित किये थे। (i) सहायता (Relief) (ii) पुनर्प्राप्ति (Recovery) (iii) सुधार (Reform) इसे रूजवेल्ट ने 3R से संबोधित किया। इसके अंतर्गत कई कार्य किये गय जिसमें औद्योगिक क्षेत्र को आर्थिक संकट से निकालने के लिये राष्ट्रीय औद्योगिक पुनरूत्थान अधिनियम (NIRA) लाया गया जिसके अंतर्गत व्यापार एवं उत्पादन का निगमन किया गया, मज़दूरी दर में वृद्धि की गयी, काम के घंटों में कमी की गयी। इसके परिणामस्वरूप मात्र एक ही वर्ष में रोज़गार में 37 प्रतिशत तो मज़दूरी में 25 प्रतिशत की वृद्धि देखी गयी। कृषि अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिये किसानों की क्रय शक्ति में वृद्धि की गयी इसके लिये “कृषि समायेाजन कानून” लाया गया। किसानों को ऋण प्रदान कर एवं आपात कृषि भूमि बंधक अधिनियम पारित कर किसानों को ऋणग्रस्तता से उबारने का प्रयास किया गया। इसका परिणाम यह हुआ मात्र दो वर्षो में ही किसानों की आय में दोगुनी वृद्धि हुयी। सामाजिक पुनरुत्थान नीत में संघ द्वारा राज्यों को प्रत्यक्ष अनुदान देने की घोषणा, वृद्धावस्था पेंशन, स्वास्थ्य सेवा का विकास किया गया। बेरोजगारी भत्ता उपलब्ध कराया गया तथा संयुक्त राष्ट्र आवास प्राधिकरण की स्थापना कर आवास सुविधा उपलब्ध करायी गयी एवं टेनिस घाटी परियोजना (TVA) लाकर टेनिस नदी के समीपवर्ती क्षेत्त्रों का विकास एवं प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने में किया। मुद्रा एवं साख व्यवस्था को मज़बूत करने के लिये मुद्रा स्फीति अधिनियम 1933 पारित कर संघीय रिज़र्व बैंक को अतिरिक्त मुद्रा जारी करने का अधिकार दिया, संघीय जमा बीमा निगम की स्थापना की गयी तथा सबसे प्रमुख स्वर्णमान का परित्याग कर निर्यात में वृद्धि के लिये डॉलर का अवमूल्यन किया गया। इस प्रकार रूजवेल्ट ने अपनी New Deal नीति से अमेरिका को आर्थिक संकट से बाहर निकाला जिससे किसानों की आय बढ़ी उद्योगों का उत्पादन बढ़ा जिसमें बेरोज़गारों को रोज़गार मिला। अतः कहा जा सकता है कि रूजवेल्ट ने अपने New Deal नीति में सफलता प्राप्त की। परंतु इस संकट ने कई परिणाम उत्पन्न किये जिनमें अधिनायकवाद तथा फासिस्टवादी शक्तियों का उत्थान, आर्थिक संकट ने लोकतंत्रीय प्रणाली पर तीव्र प्रहार, आर्थिक राष्ट्रीयता का प्रबल हुआ, राजकीय नियंत्रण में वृद्धि, राष्ट्र संघ को अघात, जापान में सैन्यवाद का प्रसार तथा साम्यवाद को लोकप्रियता आदि प्रभाव देखा गया। इस प्रकार आर्थिक मंदी ने पूरे विश्व को प्रभावित किया जिससे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं सद्भावना का समूल नाश हो गया और इसने विभिन्न राष्ट्रों के बीच शंका एवं विश्वास की भावना का उदय हुआ और उनमें शस्त्र के निर्माण के लिये होड़ लग गयी जिसने विश्व को पुनः एक नये युद्ध के लिये तैयार कर दिया।</s>
<s>[INST]विऔपनिवेशीकरण हेतु उत्तरदायी कारकों की चर्चा करते हुये अफ्रीका में विऔपनिवेशीकरण के पश्चात विकास में बाधक तत्त्वों की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका विऔपनिवेशीकरण क्या है? विऔपनिवेशीकरण हेतु उत्तरदायी कारक। अफ्रीका के विकास में बाधक तत्त्वों की विवेचना। निष्कर्ष। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका जैसे नव स्वतंत्र देश अस्तित्व में आये। इन नव स्वतंत्र देशों में औपनिवेशिक शासन की समाप्ति एवं औपनिवेशिक परतंत्रता से स्वाधीनता की स्थिति में आने की प्रक्रिया को विश्व इतिहास में विऔपनिवेशीकरण कहा गया। इन देशों ने औपनिवेशिक मुक्ति के बाद अपने आप को विभिन्न गुटों से अलग रखा। नवोदित राष्ट्रों को तृतीय विश्व (थर्ड वर्ल्ड) भी कहा जाता है। विऔपनिवेशीकरण हेतु उत्तरदायी कारक- द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभावः द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी शक्तियाँ राजनीतिक, आर्थिक तथा सैन्यदृष्टि से बहुत कमज़ोर हो गयी। जिसके कारण साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों पर नियंत्रण रखने में सक्षम नहीं हो पाये। द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल एशियाई एवं अफ्रीकी जनता सामाजिक एवं आर्थिक रूप से जागरूक हो चुकी थे। इनमें राष्ट्रवादी चेतना का उभार होने लगा था तथा 1941 के अटलांटिक चार्टर द्वारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता, अस्तित्व तथा आत्मनिर्णय के अधिकार ने इन्हें और जागरूक किया। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् साम्राज्यवाद को पशुता अन्याय एवं शोषण का पर्याय माना जाने लगा जिससे साम्राज्यवादी देशों द्वारा उपनिवेशों पर शासन कायम रखने में आत्मविश्वास की कमी आयी। उपनिवेशों की जनता के मन में यह धारणा घर कर गयी थी कि यूरोपीय सेना अपराजेय है इसे कोई पराजित नहीं कर सकता परंतु द्वितीय विश्व युद्ध के शुरूआत में जापान ने यूरोपीय सेना पर सफलता प्राप्त की तथा मलाया, सिंगापुर, बर्मा आदि क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया जिससे उपनिवेशों की जनता में पश्चिमी अपराजेयता का मिथक टूट गया। विभिन्न उपनिवेशी देशों में साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव ने साम्राज्यवाद को खुली चुनौती दी। अन्य कारकः गुटनिरपेक्ष आंदोलन द्वारा साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का विरोध किया गया इससे जहाँ एक ओर औपनिवेशिक शासन पर दबाव पड़ा तो वहीं दूसरी ओर उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षो को मज़बूती मिली। अमेरिका द्वारा भी साम्राज्यवाद का विरोध किया गया उसका मानना था कि अगर उपनिवेशों को स्वतंत्रता न प्रदान की गयी तो इन क्षेत्रों में साम्यवाद का प्रसार हो सकता है । विऔपनिवेशिकता में साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों की एक जुटता भी देखी गयी। इसके अंतर्गत एक देश के स्वाधीनता आंदोलन का समर्थन किया गया। साथ ही स्वतंत्र देशों द्वारा अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचो पर समर्थन भी प्रदान किया गया। विऔपनिवेशीकरण में भारत की भूमिका को अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि भारत ही वह देश था जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद औपनिवेशिक शासन से मुक्ति प्राप्त की थी अतः भारत की स्वतंत्रता ने इन देशों के लिये प्रेरणा स्रोत का कार्य किया। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के बहुत से नेताओं ने आजादी पूर्व एशियाई संबंध सम्मेलन का संगठन करके एक वैचारिक मंच तैयार कर दिया था और विश्व पटल पर एक नयी पहचान बनाने का सफल प्रयास भी किया था। किंतु विऔपनिवेशिकरण के बाद भी अफ्रीका अपेक्षा अनुसार विकास करने में सफल न हो सका। कुछ ऐसे विकास के बाधक तत्व रहे जिन्होंने अफ्रीका को विकास के पथ पर बढ़ने से रोका। यूं तो अफ्रीका एक बड़ा महाद्वीप है किंतु क्योंकि यह महाद्वीप लंबे समय तक औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत रहा अतः यहाँ के अधिकांश देश सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुये है। औपनिवेशिक देशों का एकमात्र उद्देश्य उपनिवेशों का शोषण करना रहा था। अतः यहाँ विकास में बाधक तत्वों को निम्न बिंदुओं के माध्यम से भी समझा जा सकता है- जो अफ्रीकी देश औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिये एक साथ लड़े थे वही मुक्त होने के बाद राष्ट्र के प्रति निष्ठा न रखकर जनजातीय पहचान को महत्त्व देने लगे जिससे विभिन्न देशों के मध्य जनजातीय मतभेद उभरकर आये और गृह युद्ध की स्थिति बन गयी। इस गृहयुद्ध ने अफ्रीकी देशों को राजनीतिक, आर्थिक सामाजिक एवं शैक्षणिक विकास को अवरूद्ध कर दिया। सभी अफ्रीकी देश बाज़ार तथा पूंजी निवेश हेतु पश्चिमी यूरोपीय देशों तथा अमेरिका पर निर्भर थे। इन विकसित देशों ने अफ्रीकी देशों में राजनितिक हस्तक्षेप तथा नव-उपनिवेशवाद को बढ़ावा दिया। 1980 के दशक में अफ्रीका से निर्यात होने वाले तेल, तांबा तथा कोबाल्ट जैसे उत्पाद की मांग आर्थिक मंदी के फलस्वरूप कम हो गयी जिससे अफ्रीकी अर्थव्यवस्था चरमराने लगी साथ ही अकाल, महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने अफ्रीका को विकसित होने के मार्ग को बधित कर दिया। अफ्रीकी देशों में राजनीतिक अपरिपक्वता तथा अस्थिरता ने विकास में बाधक का काम किया क्योंकि यहाँ के राजनीतिज्ञों के पास शासन संचालन का अनुभव नहीं था। और न ही ये सरकार समस्याओं को सुलझा पा रही थी अतः सैनिक अधिकारियों द्वारा अलोकप्रिय सरकारों को पदच्युत कर दिया जाता था। अफ्रीकी देशों द्वारा विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा कड़ी शर्तो पर ऋण लेने के कारण अफ्रीकी देशों को अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा जिससे आवश्यक वस्तुओं के दामों में वृद्धि हुयी फलतः गरीबी एवं बेरोज़गारी बढ़ी। इस प्रकार कहा जा सकता है कि विऔपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने उपनिवेशों को मुक्त तो कर दिया परंतु आज़ाद हुये अफ्रीकी देश आर्थिक दृष्टिकोण से पश्चिमी देशों पर ही निर्भर रहे। साथ ही नव-उपनिवेशवाद के कारण इनका सामाजिक, आर्थिक विकास अवरूद्ध हो गया किंतु एक सकारात्मक पहलू यह भी रहा कि इस प्रक्रम में इन्हें औपनिवेशिक शासन से मुक्ति मिलने के साथ ही अधिकारों की भी प्राप्ति हुयी।</s>
<s>[INST]कबीर के इतर संत कवियों के साहित्य में खड़ी बोली के प्रारंभिक स्वरूप का विवेचन कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका साहित्य में खड़ी बोली के प्रारंभिक स्वरूप पर कबीर के अलावा अन्य संत कवियों का योगदान निष्कर्ष संत कवियों की भाषा को प्रायः 'सधुक्कड़ी' या 'पंचमेल खिचड़ी' कहा जाता है। 'सधुक्कड़ी' का अर्थ होता है- साधुओं की भाषा अर्थात् ऐसी भाषा जो कई स्थानों की भाषाओं के संयोग से निर्मित हुई हो। संत कवियों ने अपनी मिश्रित भाषा में खड़ी बोली को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। कहीं-कहीं तो इनकी रचनाएँ मूलतः खड़ी बोली में ही प्रतीत होती हैं। संत साहित्य की प्रारंभिक रचनाओं में राजस्थानी एवं पूर्वी हिंदी का प्रयोग खड़ी बोली की अपेक्षा अधिक है। परंतु संत साहित्य के उत्तरार्द्ध में खड़ी बोली का प्रभाव अधिक स्पष्ट होकर उभरता है। मलूकदास का निम्नलिखित दोहा 17वीं शताब्दी के संत साहित्य की इसी प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है- "अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम। दास मलूका कह गए सबके दाता राम।" इस दोहे का व्याकरणिक आधार निसंदेह खड़ी बोली का है। 'काम', 'दाता', 'गए', 'कहा', 'अजगर', 'सबके' जैसे शब्द भी स्पष्ट रूप से खड़ी बोली के हैं। संबंध कारक के रूप में 'के' का प्रयोग भी खड़ी बोली के प्रयोग को ही इंगित करता है। इसी प्रकार रीतिकालीन काव्य में दरिया साहब, पलटू साहब तथा यारी साहब जैसे संत कवि जिस भाषा में लिख रहे थे वह खड़ी बोली के ही निकट थी जैसे- "जात हमारी ब्रह्म है, मात पिता है राम गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम" इस उदाहरण में भी खड़ी बोली की प्रमुख प्रवृत्ति अकारांतता को देखा जा सकता है। खड़ी बोली के अधिकरण कारक के रूप में 'में' का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आधुनिक काल में खड़ी बोली जिस रूप में विकसित हुई है उसके पीछे संत साहित्य की गहरी प्रेरणा विद्यमान रही है।</s>
<s>[INST]“अज्ञेय ने ‘असाध्य वीणा’ कविता में अनेक मिथकों के माध्यम से अभीष्ट एवं सार्थक बिंबों का सृजन किया है।” अज्ञेय की काव्य-कला के सदंर्भ में विचार कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका। असाध्य वीणा में प्रयुक्त बिंबों की चर्चा कीजिये। निष्कर्ष। ‘असाध्य वीणा’ कविता की कथा का आधार जापान में प्रचलित एक लोक कथा है जिसका संकलन ‘ओकाकुरा’ की पुस्तक ‘Taming of the harp’ से किया गया है। इस कथा के अनुसार, एक जादूगर ने ‘किरीट’ नामक विशाल वृक्ष से एक वीणा बनाई। जापान के सम्राट ने इस वीणा को संभाल कर रखा। कई कलावंतों के प्रयास के बाद अंत में वीणाकारों के राजकुमार ‘पीवो’ ने अपनी साधना द्वारा उस वीणा को बजाया। यह एक बौद्ध मिथक पर आधारित कविता है जिसके माध्यम से अज्ञेय ने सार्थक बिंबों का सृजन किया है। नई कविता में बिंबों को काफी महत्त्वपूर्ण माना गया है। हिंदी कविता में अज्ञेय की विशिष्ट पहचान का एक कारण उनकी सही बिंब योजना है और असाध्य वीणा इस धरातल पर उनकी सर्वाधिक सशक्त कृति है। किरीटी-तरू और प्रियंवद के संबंध के लिये पिता-पुत्र तथा वीणा एवं प्रियंवद के संबंध के लिये माता-पुत्र संबंध का बिंब रचा गया है। इसी प्रकार उन्होंने पति-पत्नी के अनन्य प्रेम के लिये मेघ और बिजली के अनन्य संबंध का बिंब सृजित किया है। उदाहरणस्वरूप वीणा के सुनहरे तारों पर प्रियंवद की धीरे-धीरे फिरती अँगुलियों के लिये अज्ञेय ने यह बिंब खड़ा किया है- “अलस अँगड़ाई लेकर मानो जग उठी थी वीणा, किलक उठे थे स्वर शिशु।” असाध्य वीणा में मिथक के प्रयोग को व्यवहार्य बनाने हेतु अज्ञेय ने दृश्य, ध्वनि, स्पर्श आदि बिंबो का सफल प्रयोग किया है। जैसे- दृश्य बिंब: “संगीतकार वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक - मानो गोदी में सोये शिशु को पालने डालकर मुग्धा माँ हट जाए, दीठ से दुलारती - उठ खड़ा हुआ। स्पर्श बिंबः “और चित्र प्रत्येक स्तब्ध विजड़ित करता है मुझको। सुनता हूँ मैं पर हर स्वर कंपन लेता है मुझको मुझसे सोख वायु-सा, नाद भरा मैं उड़ जाता हूँ।” इस तरह असाध्य वीणा में अज्ञेय ने प्रकृति एवं सामान्य लोक जीवन से बिंब उपादानों का चयन करते हुए दृश्य, ध्वनि, स्पर्श आदि बिंबो का कुशल प्रयोग किया है।</s>
<s>[INST]‘जयशंकर प्रसाद के नाटकों के स्त्री पात्र सदैव श्रेष्ठ रहे हैं’, इस कथन के आलोक में ‘स्कंदगुप्त’ में स्त्री पात्र परिकल्पना की विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : प्रसाद उस संक्रमण काल के लेखक हैं जब नारी पहली बार घर से बाहर निकलकर स्वाधीनता संग्राम जैसे वृहत् दायित्वों को निभा रही थी और पुरुष उसके नए रूप को देखकर अचंभित था। इसलिये नारी को लेकर उनके दृष्टिकोण में एक उहापोह की स्थिति विद्यमान है। प्रसाद की ‘कामायनी’ जैसे- महाकाव्य ‘चंद्रगुप्त’ और ‘स्कंदगुप्त’ नाटकों में उनकी नारी चेतना साफ तौर पर झलकती है। प्रसाद की मान्यता है कि नारी का वास्तविक रूप भावना, कोमलता, परोपकार तथा श्रद्धा जैसे- गुणों से मिलकर बनता है। जिस नारी में ये सभी गुण मौजूद हों, उसकी महानता पर वे मुग्ध नज़र आते हैं ‘स्कंदगुप्त’ में भी ऐसे कई नारी चरित्र हैं जो इन गुणों का समग्र या आंशिक प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘देवसेना’ ऐसे सभी गुणों से युक्त है, मुख्यतः त्याग व राष्ट्रप्रेम की भावना उसमें प्रखर है। उदाहरण के लिये उसका कथन है- “मानव का महत्त्व तो रहेगा ही, उसका उद्देश्य भी सफल होना चाहिये। आपको अकर्मण्य बनाने के लिये देवसेना जीवित नहीं रहेगी।” इसके अलावा देवकी का क्षमा का गुण, कमला का देश के दायित्व के लिये पुत्र मोह का त्याग, राम का किसी भी लालच के सामने न झुकने की ताकत का गुण आदि भी प्रसाद की नारी दृष्टि के द्योतक हैं। प्रसाद के साहित्य में नारी चरित्र की महानता दिखती है किंतु कथानक की दृष्टि से उनका स्वतंत्र महत्त्व कम है यद्यपि ‘कामायानी’ और ‘ध्रुवस्वामिनी’ जैसी रचनाओं का नामकरण भी नायिका केंद्रित है, तब भी साधारणतः उनके नारी चरित्र पुरुष नायक के सहयोगी बनकर ही आते हैं लेकिन ‘स्कंदगुप्त’ इस दृष्टि से एक बेहतर अपवाद है क्योंकि इसमें देवसेना का महत्त्व बहुत ज़्यादा है। ‘स्कंदगुप्त’ के नारी-चरित्रों में एक वर्ग बुरे चरित्रों का भी है। प्रसाद उन नारियों को अच्छा नहीं मानते जो नैतिक मूल्यों से समझौता करती हैं, स्वार्थ या लालच के कारण अपनी प्रतिबद्धताओं को भूल जाती हैं। ‘विजया’ और ‘अनंत देवी’ ऐसे ही कमज़ोर पात्र हैं, जहाँ वह विजया को व्यभिचारी चरित्र के लिये उससे आत्महत्या कराते हैं, वहीं उन्होंने अनंत देवी के नैतिक मूल्यों से विचलन के बाद उसका हृदय परिवर्तन कराया है। उपरोक्त विश्लेषण से स्कंदगुप्त के नारी पात्रों की विशेषता स्पष्ट होती है। हालांँकि प्रसाद की नारी दृष्टि प्रगतिशील आलोचकों को खटकती रही है किंतु प्रसाद ने अपने नाटकों में नारियों को तुलनात्मक रूप में ज़्यादा स्वतंत्रता प्रदान की है। उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है कि देवसेना का अंतिम निर्णय किसी बाध्यता का नहीं बल्कि उसकी स्वतंत्र वैचारिकता का प्रमाण है।</s>
<s>[INST]‘महाभोज’ उपन्यास को क्या एक सशक्त राजनीतिक उपन्यास का दर्जा दिया जा सकता है? उपन्यास में चित्रित पात्रों के आधार पर समीक्षा कीजिये।[/INST]उत्तर : ‘महाभोज’ राजनीतिक विषयों पर लिखे गए हिंदी के सफलतम उपन्यासों में से एक है। इस उपन्यास में मन्नू भंडारी ने आपातकाल के बाद के भारतीय राजनीतिक परिदृश्य का प्रामाणिक चित्रण किया है। महाभोज की मूल समस्या राजनीतिक विकृति है। इस उपन्यास में भारतीय राजनीति में व्याप्त अवसरवादिता, जोड़-तोड़ और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने के साथ-साथ राजनीति तथा अपराध के गठजोड़ की भी गहन पड़ताल की गई है। लेखिका ने अलग-अलग चरित्रों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि किस प्रकार जुर्म और सियासत एक-दूसरे पर टिके हैं। इस रचना में राजनीति की संवेदनशील अवसरवादिता को सुकुल बाबू के माध्यम से दर्शाया गया है जिसे निम्नलिखित कथन से स्पष्ट किया गया है- “ज्योतिष पर अनंत विश्वास है सुकुल बाबू को xxxx नीलम तो अभी पिछले महीने ही पहना; और देखो रंग लाया। बिसू की मौत xxxxx लगता है जैसे- थाली में परोसकर मौका आ गया उनके सामने।” सुकुल बाबू वरिष्ठ राजनेता हैं जो चुनाव जीतने के लिये किसी भी हद तक जा सकते हैं। मारपीट और खून- खराबा उनके लिये चुनावी अभियान का अभिन्न अंग है। ‘दा साहब’ जो कि मुख्यमंत्री हैं, ने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिये ही सारे दाँव-पेंच खेले। जोरावर जैसे अपराधी को संरक्षण देना, सक्सेना जैसे- ईमानदार पुलिस अधिकारी का उत्पीड़ित करना या झूठे नाटकों के माध्यम से जनता को आकर्षित करना आदि। महाभोज में ऐसा ही एक प्रसंग है जब दा साहब हीरा को अपनी कार में बिठाते हैं- “जब दा साहब ने उसे गाड़ी में बैठने को कहा तो वह एकदम हक्का-बक्का रह गया जिंदगी में कब नसीब हुआ है उसे गाड़ी में बैठना और वह भी दा साहब की गाड़ी में। दा साहब के इस बड़प्पन के आगे सभी नतमस्तक हो गए हैं। बड़े-बूढ़ों को तो शबरी और निषाद की कथाएँ याद हो आईं। किसी-किसी को ईष्यों भी हो रही है हीरा से। बेटे तो जाने कितनों के मरते हैं- पर ऐसा मान?” ‘राव’ और ‘चौधरी’ के माध्यम से लेखिका ने भ्रष्टाचारी मानसिकता और राजनीति में विद्यमान भ्रष्टाचार को पूरी तरह से उभारा है। उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें राव और चौधरी की बेशर्म मांग सुनने के बाद लोचन बाबू सोचते हैं- “इसी क्रांति का सपना देखा था? और क्या इसी टुच्चेपन की सौदेबाज़ी के लिये मंत्रिमंडल को गिराने की बात सोच रहे हैं वे? नाम, चेहरे, लेबल भले ही अलग-अलग हों पर अलगाव है कहाँ - सुकुल बाबू ......... दा साहब ............ राव ............ चौधरी।” उपयुक्त चरित्रों के विश्लेषण से महाभोज की मूल संवेदना स्पष्ट होती है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यह एक सशक्त राजनीतिक उपन्यास है, साथ ही वर्तमान में भी प्रासंगिक है।</s>
<s>[INST]"मैं अनुभव करता हूँ कि यह ग्राम-प्रांतर मेरी वास्तविक भूमि है। मैं कहीं सूत्रों से इस भूमि से जुड़ा हूँ। उन सूत्रों में तुम हो, यह आकाश और ये मेघ हैं। यहाँ की हरियाली है, हरिणों के बच्चे हैं, पशुपाल हैं। यहाँ से जाकर मैं अपनी भूमि से उखड़ जाऊँगा।"[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: संदर्भ प्रसंग व्याख्या विशेष संदर्भः प्रस्तुत अवतरण मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ के अंक 1 से लिया गया है। प्रसंगः प्रस्तुत प्रसंग मल्लिका और कालिदास के बीच वार्तालाप से उद्धृत है जिसमें कालिदास उज्जयिनी ना जाने की इच्छा व्यक्त करता है और अपने गाँव के प्रति प्रेम दर्शाता है। व्याख्याः कालिदास मल्लिका से कहता है कि इसी गाँव व भूमि को मैं अपनी असली भूमि मानता हूँ। मैं यहाँ कई तत्व/तार से जुड़ा हुआ हूँ, यहाँ तुम हो अर्थात् मल्लिका, आकाश और ये बादल हैं, यहाँ की धरती हरी-भरी है, हरिण शावक हैं, पशुपाल हैं अर्थात् यहाँ विद्यमान प्राकृतिक तत्व सौंदर्य से ही मैं जुड़ा हुआ महसूस करता हूँ, अगर मैं यहाँ से गया जो अपनी ज़मीन से अलग हो जाऊँगा। विशेषः प्रस्तुत पंक्तियों में प्रकृति प्रेम को दर्शाया गया है। संवाद के स्तर पर यह पंक्तियाँ छोटे-छोटे वाक्यों और विराम चिन्हों के कुशल एवं परिपक्व प्रयोग के कारण अभिनेता की दृष्टि से उपयुक्त बंद पड़ी हैं।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित गद्यांश की संदर्भ-सहित व्याख्या कीजिए और उसका रचनात्मक-सौंदर्य प्रतिपादित कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: संदर्भ प्रसंग व्याख्या विशेष संदर्भ प्रस्तुत गद्यांश हिंदी नाट्य इतिहास के शिखर पुरुष जयशंकर प्रसाद द्वारा 1928 ई. में रचित प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक स्कंदगुप्त से लिया गया है। प्रसंग ये पंक्तियाँ ‘स्कंदगुप्त’ नाटक की आरंभिक पंक्तियाँ हैं जो स्कंदगुप्त द्वारा एकालाप के रुप में कही गईं हैं। व्याख्या इन पंक्तियों में स्कंदगुप्त सत्ता में निहित अधिकार भाव को अत्यधिक मादक बता रहा है। मादकता व्यक्ति को विवेकहीन बना देती है। उसके अनुसार इसी कारण व्यक्ति अधिकार सत्ता की वास्तविकता को नहीं पहचान पाता। स्कंदगुप्त के अनुसार वास्तव में अधिकार-सुख निरर्थक होता है। किंतु इसी निरर्थक सुख के लिये व्यक्ति लगातार प्रयत्नशील रहता है क्योंकि अधिकार एवं सत्ता के उन्माद में वह स्वयं को नियामक और कर्त्ता समझने लगता है। फिर स्कंदगुप्त अपने इस भाव को विराम देते हुए कहता है कि साम्राज्य के एक सैनिक के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन उसका दायित्व है। विशेष इन पंक्तियों में नायक स्कंदगुप्त का अंतर्द्वद्व दिखाई देता है जिस पर स्वच्छंदतावादी नाट्य परंपरा का प्रभाव लक्षित होता है। ‘अधिकार सुख को मादक और सारहीन मानना’ स्कंदगुप्त पर ट्रेजिक हीरो का प्रभाव दिखलाता है। भाषा की प्रकृति तत्समी है। प्रथम पंक्ति सूत्रभाषा के प्रयोग का उत्कृष्ट उदाहरण है। ये पंक्तियाँ वर्तमान जीवन संदर्भ में भी प्रसांगिक है, जहाँ अधिकार और सत्ता की लिप्सा बढ़ती जा रही है। यह व्यक्ति में सुख का भ्रम तो पैदा करती है किंतु अपनी परिणिति में अर्थहीन होती है।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित पद्यांशों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिये:[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: पद्यांश का संदर्भ प्रसंग व्याख्या विशेष a. संदर्भ प्रस्तुत पद्यखंड आधुनिक कविता के पुरोधा कवि जयशंकर प्रसाद के भाव प्रधान महाकाव्य ‘कामायनी’ के ‘श्रद्धा सर्ग’ से उद्धृत है। प्रसंगः प्रस्तुत प्रसंग में श्रद्धा सृष्टि के भावी विकास पर चिंतन करती है और सृष्टि के पुनर्निर्माण के संबंध में अत्यंत उत्सुक भी है। व्याख्याः मनुष्य के नवीन निर्माण का यह सुंदर इतिहास समस्त मानवोचित सद्गुणों वाला मानवीय चेतना का इतिहास होगा। श्रद्धा की आकांक्षा है कि साम्य भाव से प्रेरित मानवीय चेतना का यह इतिहास संसार में द्रव्य और अलौकिक अक्षरों से अंकित हो। वह चाहती है कि विधाता की भावी कल्याणमयी मानवीय सृष्टि इस भू-मंडल पर पूर्णतः सफल हो। सृष्टि के इस पुनर्विकास के लिये भले ही सागर पट जाए अथवा मानव विद्वेष की गहराइयाँ सागर के समान हो जाएँ। ग्रह नक्षत्र समूह आकर्षण विहीन और समस्त ज्वालामुखी भयानक रूप से फट जाए परंतु हर स्थिति में मानवीय सृष्टि का पूर्ण विकास अत्यंत आवश्यक है। विशेष 1. रूपक अलंकार = हृदय – पटल 2. रूपकातिश्योक्ति अलंकार = ज्वालामुखियाँ b. संदर्भ प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक हिंदी कविता की छायावादी काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रसिद्ध कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ से उद्धृत हैं। प्रसंगः प्रस्तुत प्रसंग में युद्ध भूमि से पराजय भावना से ग्रस्त होकर लौटे राम की आँखों से आँसू की दो बूँदें टपक कर गिरती हैं। उन्हें देखकर पहले तो हनुमान भक्ति-भाव में रत होने के कारण कल्पनाएँ करते हैं। किंतु यथार्थ का भान होते ही वे क्रोध से भर उठते हैं। व्याख्याः कवि इन पंक्तियों में कह रहा है कि जिस प्रकार प्रलय के समय सागर के भीतर सैकड़ों भँवर चक्कर काटते हुए सागर का मंथन करते हैं, लहरें अपने आवेग से उठती गिरती हैं, उन तरंगों के कारण सागर के वक्ष पर जल के पहाड़ उठते एवं गिरते हैं, उसी प्रकार तरह-तरह के प्रबल आवेग हनुमान के हृदय को उद्वेलित करने लगे। जिस प्रकार प्रलंयकारी समुद्र अपने मार्ग के प्रत्येक अवरोध को दूर करता हुआ पृथ्वी को अपने स्फीत वक्ष में समेटते हुए उसे जलमग्न कर देता है और अपना विस्तार करता है तथा संपूर्ण दिशाओं पर विजय प्राप्त करने के लिये प्रतिपल वेग के साथ आगे बढ़ता जाता है, उसी प्रकार हनुमान का वक्षस्थल भी अपने विराट व्यक्तित्व के साथ विस्तार पाने लगा। विशेषः इन पंक्तियों में शक्ति-चेतना का ओज चरम रूप में दिखाया गया है। निराला ने प्रकारांतर से भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में आमजन विशेषकर क्रांतिकारियों की शक्ति का चित्रण किया है। तत्समी भाषा का अत्यंत गतिशील एवं लयात्मक प्रयोग इन पंक्तियों को विशिष्ट बनाता है। समासिकता एवं ध्वनि मैत्री का अत्यंत कुशल प्रयोग किया गया है।</s>
<s>[INST]हिंदी निबंध साहित्य का विषयगत वैविध्य भारतीय संस्कृति की बहुविध विशेषताओं को कैसे शब्दबद्ध कर रहा है? विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका हिंदी निबंध साहित्य के विषयों में भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ निष्कर्ष हिंदी निबंध की शुरुआत 19वीं सदी के उत्तरार्ध से मानी जाती है। निबंध की आरंभिक परंपरा में भारतेंदु युग के लेखकों का विशेष महत्त्व है क्योंकि उन्होंने विषय शैली और भाषा तीनों स्तरों पर निबंधों में नये प्रयोग किये किंतु निबंधों को प्रौढ़ रूप द्विवेदी युग में ही प्राप्त हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल विदा के केंद्र माने जाते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्य में युग प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने इतिहास पुराण, धर्म, समाज-सुधार, जीवनी, यात्रवर्णन आदि विषयों पर निबंध लिखें। ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है’, और ‘जातीय संगीत’ में राष्ट्र के प्रति उनकी गहरी निष्ठा व्यक्त होती है। बालकृष्ण भट्ट ने विचार प्रधान निबंध के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक नैतिक आदि विषयों पर लिखा, जिसमें भारतीय संस्कृति की कई विशेषताओं के दर्शन होते हैं ‘आँसू’, ‘चारुचरित्र’, ‘आत्मनिर्भरता’ आदि इनके प्रमुख निबंध हैं। प्रतापनारायण मिश्र के निबंधों की सबसे बड़ी विशेषता रोचकता, जीवंतता एवं लालित्य है, इनके विषयों के वैविध्य में सामाजिक तत्त्वों का समावेशन है। ‘टैक्स’, ‘स्त्री’, ‘जुआ’, ‘देसी कपड़ा’, आदि इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। द्विवेदी युग के प्रमुख निबंधकार विचारात्मक लेखन करते रहे, सरदार पूर्ण सिंह के निबंध विषय-वस्तु के धरातल पर भावनात्मक हैं। इस युग के निबंधों में विषयों की विविधता, विचारों की गंभीरता, भाषा की सशक्त स्वच्छता अधिक मिलती है। शुक्ल युग के निबंधकारों में देशभक्ति और राष्ट्र प्रेम की भावनाओं के साथ व्यापक मानवीय दृष्टिकोण भी रहा है। शुक्ल जी ने प्रायः विचारपूर्ण विषयों को ही निबंध का विषय बनाया है। ‘श्रद्धा और भक्ति’, ‘उत्साह’, ‘कविता क्या है’ आदि शुक्ल जी के महत्त्वपूर्ण निबंध हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद व्यंग्य निबंध के नये युग की शुरुआत हुई। यह निबंध प्रायः समसामयिक विषयों पर लिखे गए हैं। डॉ. नामवर सिंह का ‘बकलम खुद’ इस दृष्टि से उल्लेखनीय रचना है। ललित शैली में सामाजिक यथार्थ का सजीव रेखांकन करने में कुबेरनाथ राय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सांस्कृतिक तत्त्वों के समावेशन की दृष्टि से परसाई का ‘सदाचार का ताबीज’, ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’, ‘शरद जोशी’ की ‘परिक्रमा’, ‘यथासंभव’, ‘रवींद्रनाथ त्यागी’ की निबंध रचना– ‘मल्लीनाथ की परंपरा’ एवं ‘गणतंत्र दिवस की शोभायात्रा’ दृष्टण्य हैं। अंततः कहा जा सकता है कि हिंदी निबंध साहित्य का विषयगत वैविध्य भारतीय संस्कृति की बहुविध विशेषताओं को शब्दबद्ध कर रहा है।</s>
<s>[INST]प्रेमचंद के उपन्यासों में अभिव्यक्त यथार्थवाद के स्वरूप पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका प्रेमचंद के उपन्यासों में व्यक्त यथार्थवाद अन्य उपन्यासों की तुलना में गोदान में व्यक्त चरम यथार्थवाद निष्कर्ष हिंदी में, प्रेमचंद से पूर्व उपदेशात्मक तथा ऐतिहासिक उपन्यासों में रोमानियत के तत्त्व हावी थे। आरंभ में प्रेमचंद गांधी के आदर्शवाद से प्रभावित रहे और रचनाओं में ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ की स्थापना करते रहे। किंतु गोदान में आकर ऐसा लगता है कि आदर्शवाद में उनका विश्वास खत्म हो गया है और उन्होंने यथार्थवाद को पूरी तरह अपना लिया है। प्रेमचंद ने बाद की सभी रचनाओं में यथार्थ को उभारा है किंतु जब वे रचना की परिणिति में पहुँचते हैं तो उन पर अक्सर आदर्शवाद हावी हो जाता है। इसका मूल कारण बुद्ध, गाँधी और भारतीय परंपरा का वह विश्वास है जिसके अनुसार “बुरे से बुरे व्यक्ति में भी अच्छाई छिपी होती है, उचित परिस्थितियाँ देखकर उस अच्छाई को उभारा जा सकता है।” ‘प्रेमाश्रम' में किसानों की समस्या उठाई है ‘कर्मभूमि’ में भी किसानों का आंदोलन दिखता है। ‘सेवासदन’ में वेश्याओं की समस्या को उभारा है, जिसमें उसने वेश्याओं को समाज की मुख्यधारा में लौटाने के लिये सेवासदन’ की स्थापना का विकल्प प्रस्तुत किया है जो उनके शुरुआती आदर्शवाद से प्रभावित है किंतु ‘गोदान’ में ऐसा कुछ नहीं होता। गोदान में ज़मींदार का शोषण ‘प्रेमाश्रम’ से भी अधिक है। किसानों की समस्याएँ ‘कर्मभूमि’ से भी अधिक हैं, धर्म और समाज की समस्याएँ ‘प्रतिज्ञा’, ‘निर्मला’ व ‘सेवासदन’ से भी अधिक हैं और महाजनी सभ्यता का कहर ‘रंगभूमि’ से भी अधिक है। होरी की मौत आदर्शवाद की समाप्ति की घोषणा है और यथार्थवाद का प्रस्थान बिंदु है। निर्मल वर्मा ने भी कहा है- “गोदान में भारतीय किसान का वह अंधकारमय (मैलनकॉलिक) भविष्य चित्रित हुआ है जहाँ भारतीय किसान का किसानत्व ही संकट में पड़ गया है।” गोदान में यथार्थवाद की उपस्थिति उसके आरंभिक व अंतिम अंशों की तुलना से स्पष्टतः दिखाई देती है। पहले ही पृष्ठ पर होरी कहता है कि- “जब दूसरों के पाँवों तले अपनी गर्दन दबी हुयी है तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशलता है।” होरी धनिया के तीन लड़के दवा के अभाव में मर चुके हैं और उसका मन बार-बार विद्रोह भी करता है। इन कठिनतम परिस्थितियों में होरी की एक ही छोटी सी लालसा है- गाय की लालसा। प्रेमचंद बताते हैं कि “यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी।” इस पृष्ठभूमि से कथा की शुरुआत करने वाला होरी जीवन भर कठिन संघर्ष करता है, किंतु तब भी उसे वह सब हासिल नहीं होता जो नैतिक रूप से उसे मिलना चाहिये था। उपन्यास के अंत से कुछ पहले वह पराजय बोध से भर जाता है। इन सभी उम्मीदों और आकांक्षाओं के बावजूद गोदान का अंत वह नहीं होता जो होरी चाहता है। उपन्यास का अंत भी बेहद त्रासद प्रभाव पैदा करता है। होरी कहता है- “मेरा कहा-सुना माफ करना धनिया। अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गयी। अब तो यहाँ के रुपये क्रिया करम में जाएँगे। रो मत धनिया, अब कब तक जिलाएगी। सब दुर्दशा तो हो गयी। अब मरने दे।” इस बिंदु पर धनिया की स्थिति वैसी ही है जैसी अपने तीनों लड़कों की मौत के समय थी। यही वह बिंदु है जहाँ प्रेमचंद्र आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अतिक्रमण करते हैं यथार्थवाद पर पहुँच जाते हैं। होरी की मृत्यु हिंदी उपन्यास परंपरा में सामाजिक यथार्थवाद के पूर्ण स्तर पर पहुँचने का महत्वपूर्ण संकेत है। प्रेमचंद्र के बाद हिंदी उपन्यास का इतिहास वस्तुतः यथार्थवाद के विभिन्न प्रारूपों का ही इतिहास है।</s>
<s>[INST]मोहन राकेश के नाटक क्रम की समीक्षा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका मोहन राकेश के विभिन्न नाटकों का संदर्भ लेते हुए उनकी समीक्षा निष्कर्ष हिंदी की ‘नवनाट्य लेखन’ या ‘नयी नाटक’ परंपरा को एक व्यापक सर्जनात्मक एवं ठोस आंदोलन के रूप में स्थापित करने का श्रेय मोहन राकेश को जाता है। सामान्यतः राकेश को प्रसाद की परंपरा का नाटककार कहा जा सकता है क्योंकि उनके नाटकों में ऐतिहासिकता, नारी पात्रों की प्रधानता, भावुकता, काव्यात्मकता मौजूद है फिर भी, मोहन राकेश ने इस परंपरा को नये रूप में विकसित किया है एवं प्रसाद की परंपरा से इतर आधुनिक भाव-बोध के नाटक लिखे हैं। मोहन राकेश की रंग-दृष्टि हिंदी रंगमंच के विकास में मील का पत्थर मानी जाती है। उन्होंने पश्चिमी रंगमंच से पृथक हिंदी के नये व मौलिक रंगमंच की खोज करने का प्रयास किया अपने पहले नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ की भूमिका में उन्होंने हिंदी के मौलिक रंगमंच के उद्देश्य की चर्चा की है। वे लिखते हैं- “हिंदी रंगमंच को हिंदी-भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक मूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा। रंगों और राशियों के हमारे विवेक को व्यक्त करना होगा। हमारे दैनंदिन जीवन के राग-रंग को प्रस्तुत करने के लिये, हमारे संवेदों और स्पन्दनों को अभिव्यक्त करने के लिये जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य के रंगमंच से कहीं भिन्न होगा।” अपनी इसी रंग दृष्टि को मोहन राकेश ने अपने सभी नाटकों ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ तथा ‘आधे-अधूरे’ में प्रयुक्त किया है। ‘आधे-अधूरे’ हिंदी नाटक को वास्तविक अर्थ में सम-सामयिक युग का प्रतिबिंब बनाने वाला नाटक है। आषाढ़ का एक दिन में कालिदास का द्वंद्व आधुनिक मानव का भी द्वंद्व है। सभी रंग-दृष्टि मंच पर इतने अधिक सफल रहे कि इसने हिंदी रंगमंच के मुहावरे गढ़ दिये। मोहन राकेश ने उपरोक्त नाटकों के अतिरिक्त ‘अंडे के छिलके’, ‘शायद’ नामक लघु नाटक भी लिखे हैं। राकेश ने अपने सभी नाटकों में भाग और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयत्न अधिक किया है, शिल्प की बनावट का उतना नहीं। फिर भी उनकी कोशिश रही है कि शब्दों के संयोजन से ही दृश्यत्व पैदा हो, न की अन्य उपकरणों से। यही उनके आंतरिक शिल्प की खोज है। इनके नाटकों में रंगमंच नाटक की बनावट में ही है, कहीं से आरोपित नहीं। मोहन राकेश के नाटकों में कथा की इतनी चिंता नहीं की गई जितनी संवेदना को सही रूप में व्यक्त करने की। उन्होंने हिंदी नाटक को प्रसादीय और कृत्रिम भाषा से मुक्त कर युगीन विसंगतियों को मूर्त करने के लिये समर्थ भाषा प्रदान की। मोहन राकेश के नाटक रंगमंच की दृष्टि से अत्यंत सफल एवं प्रयोगशील हैं।</s>
<s>[INST]विद्यापति की कविताओं में विद्यमान भक्ति-भावना का वर्णन कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका विद्यापति की कविताओं में भक्ति-भाव निष्कर्ष विद्यापति के ग्रंथ ‘विद्यापति-पदावली’ के पदों को श्रृंगार-परक भक्ति-भावना का प्रतीक माना जा सकता है। वस्तुतः इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण विवाद यह है कि इसे भक्तिपरक माना जाए या श्रृंगारपरक? दोनों संदर्भों के तर्क पर ध्यान देना आवश्यक है। जिन आलोचकों ने इन पदों को श्रृंगारिक माना उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं- आचार्य रामचंद्र शुक्ल। उन्होंने लिखा है कि- “आध्यात्मिक रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीतगोविंद को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।” रामकुमार वर्मा, बाबूराम सक्सेना, बच्चन सिंह तथा निराला ने भी विद्यापति की भक्ति-भावना को शृंगारपरक माना है। इन पदों को शृंगारिक मानने का मूल तर्क यह है कि यदि यह भक्ति की रचना होती तो इसमें सिर्फ संयोग वर्णन पर ही बल क्यों दिया जाता? पुनः ईश्वर का अश्लील वर्णन करना किस प्रकार की भक्ति है? दूसरा तर्क यह है कि विद्यापति मूलतः शैव थे, वैष्णव नहीं। इसलिये यदि उन्हें भक्ति ही करनी होती तो वे शिव-पार्वती की करते, ना कि कृष्ण राधा की। ग्रियर्सन, बाबू श्यामसुंदर दास, बाबू ब्रजनंदन सहाय इत्यादि ने विद्यापति को भक्त कवि माना है। इनका तर्क यह है कि यदि विद्यापति के गीत श्रृंगारिक या अश्लील होते तो इन्हें मंदिरों में क्यों गाया जाता? दूसरा तर्क यह है कि बाद के बहुत से भक्तों जैसे- कृष्णदास और गोविंद दास ने विद्यापति की कविताओं को भक्तिपरक माना है। एक तर्क यह भी है कि राधा व कृष्ण के संयोग का महाकाव्यात्मक वर्णन करने के बावजूद यदि सूरदास को भक्त माना जाता है तो विद्यापति को क्यों नहीं माना जा सकता है? वस्तुतः इस विवाद का कोई सर्वमान्य हल निकल सके यह संभव नहीं। विद्यापति की रचना के यह पद श्रृंगार व भक्ति के समन्वित रूप हैं और ऐसा होने का मूल कारण यह भी है कि श्रृंगार तथा भक्ति के स्थायी भाव ‘रति’ तथा ‘ईश्वरविषयक रति’ इतने निकट है कि इनके परस्पर मिश्रित होने की संभावना बनी ही रहती है।</s>
<s>[INST]हिंदी गद्य के विकास में बालकृष्ण भट्ट के योगदान का वर्णन कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका हिंदी गद्य के विकास में बालकृष्ण भट्ट के योगदान निष्कर्ष ‘हिंदी प्रदीप’ के संपादक बालकृष्ण भट्ट भारतेंदु मंडल के सबसे वरिष्ठ सदस्य थे। इन्होंने नाटक, उपन्यास, निबंध, आलोचना, पत्रकारिता, पुस्तक समीक्षा आदि अनेक क्षेत्रों में एक साथ योगदान दिया है। भट्ट जी भारतेंदु तथा द्विवेदी युग को जोड़ने वाले व्यक्ति थे। इन्होनें यूँ तो भावनात्मक, वर्णनात्मक, कथानक तथा विचारात्मक सभी प्रकार के निबंध लिखे हैं किंतु उनके विचारात्मक निबंध अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ‘चंद्रोदय’, ‘एक अनोखा स्वप्न’, ‘प्रेम के बाग का सैलानी’, “साहित्य जब समूह के हृदय का विकास है” आदि इनके प्रमुख निबंध हैं। भट्ट जी ने कविताओं के स्थान पर गद्यात्मक लेखन को प्रधानता दी है। आलोचना के क्षेत्र में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। भट्ट जी ने ‘हिंदी प्रदीप’ में लाला श्रीनिवासदास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की ‘सच्ची समालोचना’ नाम से व्यावहारिक आलोचना की, जिसे हिंदी साहित्य की पहली व्यावहारिक आलोचना माना जाता है। इन्होंने अनेक नाटकों का प्रणयन भी किया है, जिनमें ‘कलिराज की सभा’, ‘चंद्रसेन’, ‘खेल’, ‘रेल का टिकट’, ‘बाल विवाह’ आदि प्रमुख हैं, इतना ही नहीं भट्ट जी ने ‘नूतन ब्रह्मचारी’ नामक एक उपन्यास भी लिखा है। गद्य की भाषा के संदर्भ में उनका मानना था कि भाषा का विषय विभिन्न भाषाओं के शब्दों के आदान-प्रदान से ही होता है। उनका प्रसिद्ध कथन है कि- “बहुत से लोगों का मत है कि लिखने-पढ़ने की भाषा से यावनिक शब्दों को बीन-बीनकर अलग करते रहें। कलकत्ता और बंबई के कुछ पत्र ऐसा करने का कुछ यत्न भी कर रहें हैं, किंतु ऐसा करने से हमारी हिंदी बढ़ेगी नहीं, वरन दिन-दिन संकुचित होती जाएगी। भाषा के विस्तार का सदा यह क्रम रहा है कि किसी भी देश के शब्दों को हम अपनी भाषा में मिलाते जाएँ और उसे अपना करते रहे।” स्पष्ट है कि भट्ट जी ने आधुनिक काल के हिंदी साहित्य का बहुविधा संवर्द्धन किया है। नवजागरण कालीन संक्रमण के दौर में हिंदी साहित्य में गद्य की विविध विधाओं के प्रवर्तन तथा विकास में योगदान के लिये इनका प्रयास सराहनीय माना जाता है।</s>
<s>[INST]हिंदी सूफी काव्य के सांस्कृतिक महत्व पर चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका हिंदी सूफी काव्य का सांस्कृतिक महत्व निष्कर्ष भारत की सामासिक संस्कृतिक या गंगा-जमुनी तहज़ीब के निर्माण में सूफी काव्यधारा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसकी सांस्कृतिक समन्वय की विशेषता इसकी महत्ता को बढ़ाती है। सूफियों के समय हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता भारतीय समाज के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती थी। सूफी कवि जायसी ने हिंदुओं के घरों में प्रचलित प्रेम-कथाओं को अपने भावनात्मक रहस्यवाद में प्रस्तुत किया, जिसमें प्रेम को मानवीय जीवन का सार तत्त्व माना गया था। साथ ही हिंदू धर्म के मिथकों को भी सम्मान दिया और अपनी कविताओं में हिंदू देवी-देवताओं को सम्मानपूर्वक शामिल भी किया, जैसे पद्मावत में शिव, पार्वती, हनुमान या कन्हावत में कृष्ण की उपस्थिति। सूफी काव्य का दर्शन सांस्कृतिक महत्ता को प्रतिपादित करता है जिसके माध्यम से इसने हिंदू और इस्लाम के मध्य संवाद का द्वार खोल दिया। मूलतः इस्लाम में एकेश्वरवाद को मानते थे। किंतु उसमें खुदा एवं बंदे के एकत्त्व की अनुमति नहीं थी। उन्होंने प्लॉटिनस के नवप्लेटोवाद तथा भारतीय औपनिषदिक चिंतन में निहित ब्रह्मजीव एकत्व (अहं ब्रह्मस्मि) की धारणा को आधार बनाकर ‘अन-अल-हक’ की घोषणा की जिसका तात्पर्य है कि ‘मैं ही खुदा हूँ’ चूँकि यह विचार भारतीय समाज के लिये चिरपरिचित था, अतएव इसने समन्वय का मार्ग प्रशस्त किया। सूफी कवियों ने लिपि तो अरबी की ली किंतु भाषा ठेठ अवधी रखी उन्होंने छंद भी अरबी-फारसी काव्य परंपरा से नहीं लिये, बल्कि दोहा और चौपाई की शैली को चुना, जिसकी शुरुआत आदिकाल में स्वयंभू जैसे कवियों ने की थी और जो आगे चलकर रामचरित मानस में भी प्रयुक्त हुयी। सूफी काव्य की कथानक रूढ़ियाँ भारतीय साहित्य परंपरा से ही ली गई जैसे बारहमासा, षट्ऋतु वर्णन, ईश्वरीय हस्तक्षेप, आकाशवाणी, शुक-शुकी संवाद इत्यादि। साथ ही सूफी काव्यों में लोकतत्त्व की उपस्थिति इसकी सांस्कृतिक महत्ता को और बढ़ाती है जिसके कारण हिंदुओं की दीवाली, होली जैसे त्यौहार इन कविताओं में लगातार नज़र आते है।</s>
<s>[INST]राजभाषा हिंदी के मार्ग की कठिनाइयाँ बताएँ और संभावित समाधान भी सुझाइए।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]वैदिक समाज के समतावादी स्वरूप की तुलना में उत्तर वैदिक काल में होने वाले परिवर्तनों पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका कथन के पक्ष में तर्क उदाहरण निष्कर्ष पूर्व वैदिक समाज का तात्पर्य ऋग्वैदिक समाज से है जहाँ समाज समतामूलक था। ऋग्वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था सहयोग एवं सहभागिता पर आधारित थी। इस समय समाज पितृ सत्तात्मक होने के बावजूद स्त्री-पुरुष विभेद नहीं था, पुत्रियों को पुत्रों के समान माना जाता था तथा उनकी शिक्षा एवं अधिकार में भी समानता थी, जबकि उत्तर वैदिक काल तक आते-आते समाज में असमानताएँ उत्पन्न होने लगी थी। ऋग्वैदिक समाज का आधार परिवार होता था जिसमें पिता या बड़ा भाई परिवार का स्वामी होता था। पिता परिवार के दुःख-सुख का पूरा ध्यान रखता था। ऋग्वैदिक समाज प्रारंभ में वर्ग विभेद से रहित था। सभी लोगों की समान सामाजिक प्रतिष्ठा थी। इस समय के सभी लोगों को आर्य कहा जाता था। ऋग्वैदिक काल में वर्ण पद रंग के अर्थ में प्रयोग किया गया किंतु कहीं-कहीं यह व्यवसाय चयन के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वैदिक समाज के प्रारंभ में तीन वर्णों का उल्लेख किया गया है जिन्हें ब्रह्मा, क्षत्र, विशु कहा जाता था। कालांतर में एक चौथा वर्ण शूद्र नाम से समाज में उत्पन्न हो गया। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में पहली बार शूद्र वर्ण का उल्लेख मिलता है। पुरुष सूक्त में चारों वर्णों की उत्पत्ति एक विराट पुरुष से बताई गई। अभी तक वर्ण जन्मजात न होकर व्यवसाय पर आधारित था जैसा कि ऋग्वेद में एक ऋषि कहता है कि “मैं कवि हूँ मेरे पिता वैद्य हैं तथा मेरी माता अन्न पीसती है।” अतः कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी जो कालांतर में सकीर्ण स्वरूप में प्रकट होती है। उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक सामाजिक संरचना टूटने लगती है। अब वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर निर्धारित की जाने लगी। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था ने सामाजिक जटिलता को बढ़ावा दिया। इस जटिलतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था ने आपसी विभेद को उत्पन्न किया तथा समाज को दो वर्गों 'सुविधा भोगी' एवं 'सुविधा विहीन' में विभाजित कर दिया। सुविधा भोगी वर्ग ने सामाजिक संरचना का निर्माण इस प्रकार किया कि उत्पादन अधिशेष दो उच्च वर्गों के पक्ष में बना रह सके। उत्तर वैदिक काल में चतुर्वर्ण व्यवस्था स्थापित हो गई। इसमें ब्राह्मण एवं क्षत्रिय विशेषाधिकार प्राप्त वर्ण के रूप में स्थापित हो गए। समाज में सर्वश्रेष्ठ स्थान ब्राह्मण का था। ब्राह्मण ने यज्ञ एवं मंत्रोच्चारण की प्रविधि द्वारा अपने आप को उच्च स्थान पर स्थापित कर लिया। ब्राह्मण के पश्चात् क्षत्रियों का स्थान आता था। इस काल में जब युद्धास्त्रों के रूप में लोहे के उपकरणों को प्रोत्साहन मिला तो क्षत्रियों की स्थिति अधिक मज़बूत हो गई और सुरक्षा के नाम पर इस वर्ण ने उत्पादन अधिशेष के एक भाग पर अपना दावा किया। इस समय तीसरा वर्ग वैश्य वर्ग था जो एकमात्र उत्पादक तथा करदाता के रूप में विद्यमान था जिसे शतपथ ब्राह्मण में अनस्यबलिकृता कहा गया है। इन तीनों वर्णों को द्विज की श्रेणी में रखा गया, इन तीनों वर्णों को उपनयन संस्कार का अधिकार दिया गया था। इन तीनों वर्णों से पृथक एक वर्ण शूद्र था इसका दायित्व उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा करना था। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में वर्ण विभाजन को धार्मिक आनुष्ठानिक आधार प्रदान करने की कोशिश की गई। उत्तर वैदिक काल में तुलनात्मक रूप से स्त्रियों की सामाजिक दशा में गिरावट आई, अब सभा एवं समिति जैसी सामाजिक संस्थाओं में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया था। उत्तर वैदिक ग्रंथ एतरेव ब्राह्मण में पुत्रों को परिवार का रक्षक तथा पुत्रियों को दुःख का कारण माना गया है। इसी प्रकार मैत्रेयी संहिता में नारी को धूत एवं मदिरा के साथ-साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिना गया। तैत्तिरीय संहिता में नारी को शूद्र से भी नीच माना गया है। सामाजिक जीवन में स्त्रियों का प्रवेश क्रमशः कम हो गया। नारी के धार्मिक अधिकारों में भी अंतर आने लगा। उत्तर वैदिककालीन समाज में गोत्र की अवधारणा का विकास हुआ जो सामाजिक परिवर्तन का एक पहलू है। गोत्र शब्द की उत्पत्ति गोष्ठ शब्द से हुई अर्थात् जिनकी गायें एक साथ बाँधी जाती थीं वे एक गोष्ठ के माने जाते थे, फिर एक गोष्ठ के लोग समान रक्त संबंध के माने जाने लगे और यहीं से गोत्र की परिकल्पना विकसित होती चली गई तथा समतामूलक समाज का विभाजन होता चला गया जो अपने जटिल स्वरूप में आज परिलक्षित होता है। निष्कर्षतः पूर्व वैदिक समाज की तुलना में उत्तर वैदिक काल के समाज में आए परिवर्तनों के कारण धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन थे जिन्होंने समाज के समतामूलक स्वरूप को समय एवं आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित कर दिया।</s>
<s>[INST]हिंदी में विज्ञान-लेखन की दशा एवं दिशा पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका हिंदी में विज्ञान-लेखन की दशा एवं दिशा निष्कर्ष हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन की परंपरा लगभग दो सौ साल पुरानी है। शुरूआत में खड़ी बोली में वैज्ञानिक विषयों पर पाठ्यपुस्तकें तैयार करने के लिये अंग्रेजी से और वैज्ञानिक शब्दों के हिंदी पर्याय तैयार करने की आवश्यकता हुई होगी, जिसकी पूर्ति हेतु खड़ी बोली में वैज्ञानिक शब्द संग्रह पुस्तक रचना का काम साथ-साथ शुरू हुआ। 1810 ई. में लल्लूलाल जी द्वारा प्रकाशित सूची जिसमें उन्होंने 3500 शब्दों को संग्रहित किया, अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें हिंदी की वैज्ञानिक शब्दावली को फारसी और अंग्रेजी प्रतिरूपों के साथ प्रस्तुत किया गया। इसके बाद वर्ष 1847 में स्कूल बुक्स सोसाइटी, आगरा ने ‘रसायन प्रकाश प्रश्नोत्तर’ का प्रकाशन किया। गणित अध्यापक पंडित लक्ष्मीशंकर मिश्र ने गणित, स्थिति विद्या, गति विद्या, वायमुडल विज्ञान, प्राकृतिक भूगोल और पदार्थ विज्ञान जैसे विषयों पर पुस्तकें लिखकर आरंभिक वैज्ञानिक लेखन को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में नवजागरण की प्रक्रिया में अंधविश्वास के स्थान पर तर्क और वैज्ञानिकता पर आधारित सोच को बढ़ावा देने में साइंटिफिक सोसायटी अलीगढ़, वाद-विवाद क्लब बनारस, काशी नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी, आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। गुरूकुल कांगड़ी ने विज्ञान सहित सभी विषयों की शिक्षा के लिये हिंदी को माध्यम बनाया और तदानुरूप 17 पुस्तकों का प्रणयन भी किया। विज्ञान परिषद् प्रयागराज ने वर्ष 1914 में ‘विज्ञान पत्रिका आरंभ की जो तब से अब तक निरंतर प्रकाशित होती आ रही है। वर्ष 1943-46 के दौरान डॉ- रघुवीर ने लाहौर से हिंदी, तमिल, बंगला और कन्नड़ इन चार लिपियों में तकनीकी शब्दकोश प्रकाशित किया। मौलिक वैज्ञानिक लेखन में गुणाकर मुले एवं जयंत विष्णु नार्लीकर का योगदान अविस्मरणीय है। मातृभाषा मराठी होते हुए भी मुले ने अधिकांश लेखन हिंदी में किया है गणित हो या विज्ञान, पुरातत्व हो या सामाजिक विज्ञान हर विषय में उनका अद्भुत अधिकार था। एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्य पुस्तकों के निर्माण में उनका विशेष योगदान रहा। इसी प्रकार जयंत विष्णु नार्लीकर ने खगोल भौतिकी में वैज्ञानिक लेखन को एक नयी दिशा प्रदान की। ‘ब्रह्माण्ड की कुछ झलकें, ‘ब्रह्माण्ड की यात्रा’, ‘वायरस’, ‘भारत की विज्ञान-यात्रा’, ‘धूमकेतु’ आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। इसमें संदेह नहीं कि आज वैज्ञानिक शब्दावली और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी अत्यंत समृद्ध है। इतने पर भी आज वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में लेखन बहुत ही कम और अपर्याप्त है। इसका कारण भाषा की असमर्थता नहीं बल्कि वैज्ञानिकों का इस दिशा में रूझान न होना है।</s>
<s>[INST]हिंदी व्याकरण लेखन की परंपरा में कामता प्रसाद गुरू के कार्य की समीक्षा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका हिंदी व्याकरण लेखन की परंपरा में कामता प्रसाद गुरू के कार्य कामता प्रसाद गुरू के कार्य की समीक्षा निष्कर्ष भारत में व्याकरण लेखन की समृद्ध परंपरा रही है। हिंदी व्याकरण रचना के आरंभिक प्रयास 18वीं और 19वीं शताब्दी में हुए। वहीं दूसरा चरण 1870-1900 ई. के बीच दिखाई पड़ता है। हिंदी व्याकरण लेखन की पंरपरा का तीसरा चरण 1900 ई. के आसपास शुरू हुआ। इस समय ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना हो चुकी थी और ‘सरस्वती’ पत्रिका में व्याकरण को व्यवस्थित रूप देने के प्रयास में लेख लिखे जा रहे थे। द्विवेदी जी ने ‘भाषा और व्याकरण’ लेख में हिंदी के व्यवस्थित रूप को लेकर चिंता जाहिर की। इसी समय 1908 में ‘सरस्वती’ पत्रिका में ही श्री कामताप्रसाद गुरू का एक लेख छपा- ‘हिंदी की हीनता’, जिसमें उन्होंने हिंदी की व्याकरण का विकास न हो पाने की बात कही। अंततः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और महावराव सप्रे गुरू को यह कार्य सौंपा तथा दो वर्षों के गहन अनुसंधान के बाद यह पुस्तक वर्ष 1918 में तैयार हुई तथा एक समिति द्वारा मूल्यांकन व संशोधन के बाद वर्ष 1919 में इसको प्रकाशित किया गया। इनके द्वारा लिखित हिंदी व्याकरण की बड़ी विशेषता यह है कि इसमें लोक-प्रचलित भाषा के आधार पर व्याकरणिक नियम व्यवस्थित किये गए हैं न कि अपनी ओर से कोई नियम थोपे गए हैं। इन्होंने अरबी-फारसी शब्दों के लिये राजा शिवप्रसाद सितारें हिंद के ‘हिंदी व्याकरण’ को आधार बनाया, शैली के तौर पर ‘दामले’ द्वारा रचित ‘मराठी व्याकरण’ को आधार बनाया तथा अंग्रेजी में लिखे गए व्याकरणों में से प्लैट्स कृत ‘हिंदुस्तानी ग्रामर’ को आधार माना। विद्यार्थियों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इसके तीन विभिन्न संस्करण तैयार किये गए - प्रथम, मध्य और संक्षिप्त। हिंदी व्याकरण क्रमशः आरंभिक, माध्यमिक और उच्च कक्षाओं के लिये तैयार किया गया। अब पहली बार हिंदी का एक व्यवस्थित व्याकरण तैयार हो चुका था। पंडित कामताप्रसाद गुरू द्वारा लिखित व्याकरण से कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। बी.ए. और एम.ए. के पाठ्यक्रम हिंदी भाषा में शुरु हुए तथा काशी व अन्य विश्विद्यालयों में हिंदी विभागों की स्थापना हुई। साथ ही हिंदी में अनुसंधान को बढ़ावा मिला, जिसका परिणाम था कि गैर हिंदी प्रदेशों में हिंदी सीखने के इच्छुक व्यक्तियों हेतु भी समाधान मिल गया। पंडित जी ने व्याकरण संबंधी कई समस्याएँ दूर कर दी थीं, किंतु उसके बाद मानकीकरण की प्रक्रिया चलने के कारण हिंदी व्याकरण को आसान बनाने की ज़रूरत थी, जिसका समाधान आगे चलकर किशोरीदास वाजपेयी द्वारा किया गया।</s>
<s>[INST]उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में संपन्न औद्योगिक क्रांति को संभव बनाने में वैज्ञानिक आविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों की भूमिका का परीक्षण करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण औद्योगिक क्रांति का संक्षिप्त परिचय इन आविष्कारों ने किस प्रकार औद्योगिक क्रांति को सफल बनाया, विभिन्न दृष्टिकोणों से चर्चा करें। इन परिवर्तनों के कुछ नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में परिवर्तन ने समाज की सोच में भी परिवर्तन किया। कारखाना पद्धति घरेलू उत्पादन प्रणाली को प्रतिस्थापित करने लगी। शक्ति चालित मशीनों का अधिकाधिक उपयोग प्रारंभ हुआ और आधुनिक व्यापार तंत्र का विकास हुआ। इसके फलस्वरूप व्यापार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। इन्हीं व्यापक परिवर्तनों को इंगित करने के लिये ‘औद्योगिक क्रांति’ शब्द का प्रयोग किया गया। यद्यपि विज्ञान ने औद्योगिक क्रांति में कोई सीधी भूमिका नहीं निभाई, किंतु प्रौ़द्योगिकी ने यह भूमिका अवश्य अदा की। प्रौद्योगिकीय विकास विज्ञान पर ही निर्भर था। विज्ञान की बढ़ी हुई समझ ने ही कृषि, वस्त्र उद्योग, लौह एवं इस्पात उद्योग, परिवहन एवं संचार में सुधार आदि को संभव बनाया। इन सुधारों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है: कृषि क्रांति के बिना औद्योगिक क्रांति संभव नहीं होती। ‘ड्रिल’ नामक यंत्र की खोज ने खेतों की बुवाई को आसान बनाया। पोटाश, नाइट्रोजन और फास्फोरस के प्रयोग ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाया और कृषि को लाभ का कार्य बना दिया। फ्लांइग शटल, वाटर प्रेम, म्यूल आदि अविष्कारों ने वस्त्र उद्योग को नवीन उँचाइयों पर पहुँचा दिया। कम समय और कम लागत में अधिक उत्पादन होने लगा। पत्थर के कोयले (कोक) के प्रयोग ने लौह शुद्धिकरण तकनीक को आसान बनाया। इसके पश्चात् इस्पात के आविष्कार ने भारी उद्योगों को प्रगति दी। बड़ी-बड़ी मशीनों को इस्पात से बनाया जाना आसान हुआ। बढ़े हुए उत्पादन एवं व्यापार ने परिवहन के साधनों में आवश्यक परिवर्तनों को उत्प्रेरित किया। सड़क एवं नहर निर्माण किया जाने लगा। भाप इंजन और कालांतर में गैसोलीन (पेट्रोल) आधारित इंजन के विकास ने मोटर उद्योग की सफलता में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। रबर के टायरों से यात्रा आरामदेह हो गई। डाक-तार के विकास ने संचार के क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन किया। निकर्षतः वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास ने औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।यद्यपि इससे प्रदूषण, अव्यवस्थित शहरी बस्तियां, श्रमिकों का शोषण, अमीर गरीब के मध्य विस्तृत अंतर आदि नकारात्मक कारक भी उत्पन्न हुए।फिर भी वैज्ञानिक अविष्कारों एवम तकनीकी परिवर्तनों ने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।</s>
<s>[INST]राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में महात्मा गाँधी और राजर्षि पुरूषोत्त्तमदास टंडन की भूमिका स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में महात्मा गाँधी और राजर्षि पुरूषोत्त्तमदास टंडन का योगदान निष्कर्ष महात्मा गांधी के सन् 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में हिंदी-प्रेम प्रकट करते हुए आह्वान किया था “आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करे। हिंदी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्त्तव्य पालन करना चाहिये।” दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी जी हिंदी और हिंदुस्तान को जगाने में लग गए। उन्होंने विभिन्न व्यक्तियों, पत्र-पत्रिकाओं और संस्थाओं को हिंदी के प्रयोग की अनूठी प्रेरणा दी है, गांधी जी का मानना था कि भारत की संपर्क भाषा के रूप में हिंदी आदर्श भूमिका निभा सकती है। गांधी सेवा संघ, हरिजन सेवक संघ आदि का सारा कामकाज हिंदी में होता रहा है। महात्मा गांधी की प्रेरणा से ही वर्धा और मद्रास में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएँ स्थापित हुई। उन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार सभा मद्रास की स्थापना भी की। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने हिंदी को संघ की राजभाषा बनाने का अथक प्रयास किया। टंडन जी हिंदी साहित्य सम्मेलन के संस्थापकों में से थे एवं लाला लाजपत राय के साथ मिलकर भी हिंदी के प्रसार में लगे रहे। लाला जी की मृत्यु के पश्चात् टंडन जी ‘लोकसेवा मंडल’ के सभापति बन कर हिंदी के प्रसार में लगे रहे। हिंदी के संदर्भ में उनका यह-विचार दृष्टव्य है- “मैं हिंदी के प्रचार, राष्ट्रभाषा के प्रचार को राष्ट्रीयता का मुख्य अंग मानता हूँ। मैं चाहता हूँ कि यह भाषा ऐसी हो, जिसमें हमारे विचार आसानी से साफ-साफ स्पष्टतापूर्वक व्यक्त हो सके। राष्ट्रभाषा ऐसी होनी चाहिये, जिसे केवल एक जगह के लोग न समझें, बल्कि उसे देश के सभी प्रांतों में सुगमता से पहुँचाया जा सके।” उपरोक्त विश्लेषण से राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार में महात्मा गांधी और राजर्षि पुरूषोत्तमदास टंडन की भूमिका को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।</s>
<s>[INST]भारत में 16वीं और 17वीं शताब्दियों के दौरान कृषि एवं शिल्प उत्पादन के प्रमुख अभिलक्षणों की रूप-रेखा प्रस्तुत कीजिये। देश के सामाजिक ताने-बाने पर उनका किस प्रकार प्रभाव पड़ा था?[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- मुगल काल में कृषि तथा शिल्प सामाजिक व्यवस्था पर इसका प्रभाव निष्कर्ष मुगल साम्राज्य की स्थापना के कारण भारत में आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिले। जहाँ राज्य द्वारा कृषि क्षेत्र में दिये गये प्रोत्साहन, नकदी फसलों के विकास एवं कृषि में आधुनिक तकनीकी के प्रयोग ने नवीन संरचना का विकास किया। वही दूसरी ओर वस्त्र उत्पादन के क्षेत्र में भारत की भूमिका बढ़ी। कृषि तथा शिल्प के विकास ने ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्र में सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित किया। अगर गौर किया जाय तो ज्ञात होता है कि प्राचीन काल से ही भारत की भौगोलिक दशा कृषि के विकास के लिये अनुकूल रही है मुगल काल मे भी कृषि विकास के लिये कार्य किये गये। शासक वर्ग ने न केवल किसानों से भू-राजस्व प्राप्त किया बल्कि कृषि के विकास के लिये उपयोगी कदम भी उठाये। उदाहरण के लिये चंद्रगुपत ने काव्यिावाड़ क्षेत्र में सुदर्शन झील का निर्माण कराया तो वहीं फिरोज तुगलक ने सिंचाई के लिये कई नहरों का निर्माण कराया ,मोहम्मद बिन तुगलक ने भी तकावी ऋण की व्यवस्था की। इसी तरह कई अन्य शासकों ने भूमि की माप, किस्म एवं गुणवाता को आधार मानकर भू-राजस्व का निर्धारण किया साम्राज्य में भी कृषि के विकास के लिये नये स्रोतों में कृषि के प्रसार को प्रोत्साहन दिया। चूंकि भू-राजस्व राजकीय आय का प्रमुख स्रोत माना जाता था अतः राजकीय आय में वृद्धि के लिये केवल भू-राजस्व दर में वृद्धि करना ही काफी नहीं था बल्कि विकास के लिये बेहतर कदम उठाने की भी ज़रूरत थी। इसलिये मुगलों ने बंजर भूमि आबाद करने पर विशेष बल दिया तथा अमालगुजार नामक अधिकारी को किसानों की सहायता के लिये नियुक्त किया गया साथ-ही-साथ राज्य द्वारा नये कृषि उपकरण उपलब्ध कराये गए । सिंचाई की व्यवस्था जिनमें कुएं तथा जलाशय का निर्माण किया गया। उदाहरण के लिये शाहजहाँ ने सिंचाई के लिये रावी नहर से लाहौर तक निर्माण करवाया जिसे शहर-ए-फैज भी कहा जाता है। अबुल फ़जल के अनुसार मुगल काल में रावी एवं खरीफ दोनों प्रकार की फसलों को उत्पादन होता था। इस समय खाद्यान्न फसलों में गेंहूँ चना विभिन्न प्रकार की दालों की खेती होती थी। मुगल काल की कृषि संरचना में एक और विशेषता नकदी फसलों का विकास था इसमें कपास, नील, गन्ना और अफीम की खेती का जिक्र मिलता है जबकि पुर्तगिजों के आगमन से तंबाकू की खेती का प्रचलन बढ़ा। आगे चलकर मक्का एवं बाजरा की भी खेती होने लगी। कृषि संरचना में जाये परिवर्तनों ने सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित किया जिसमें नकदी फसलों के विकास ने ग्रामीण क्षेत्रों में मुद्रा के प्रसार को बढ़ावा दिया तथा इसने ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित यजमानी प्रथा को भी प्रभावित किया मुगल काल में कृषक वर्गों को तीन भागों में विभाजित किया गया था जिनमें खुदकाश्त, पाहीकाश्त तथा मुजारिम थे। खुदकाशतः ये वैसे खेतिहर होते थे जो अपने ही गांव की भूमि पर कृषि करते थे, तथा इस भूमि पर इनका स्थायी एवं वंशानुगत स्वामित्व होता था। पाहीकाश्तः ये बँटाईदार कृषक होते थे तथा दूसरे गाँवों में जाकर अस्थायी रूप से खेती करते थे। मुजरियानः ये अत्यंत गरीब किसान होते थे इनके पास उतनी कृषक भूमि नहीं होती थी। जिनसे अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके इसलिये खुदकाश्त की जमीन को लेकर बटाई के रूप में कृषि करते थे। इसके साथ ही एक बड़ी जनसंख्या कृषक मजदूरों को भी थी जो दूसरे की ज़मीनों पर खेती करते थे। इस नवीन कृषि अर्थव्यवस्था ने ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक और सामाजिक विभाजन को और प्रोत्साहन दिया तथा एक विशेषाधिकार वर्ग का उदय हुआ जिसे राज्य द्वारा मान्यता प्रदान की गयी। अगर मुगल साम्राज्य में शिल्प उत्पादन की बात की जाय तो इसके अंतर्गत वस्त्र उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका रही इसके अंतर्गत सूती वस्त्र, ऊनी वस्त्र उद्योग एवं रेशमी वस्त्र उद्योग को प्रोत्साहन दिया। गुजरात तथा बंगाल सूती वस्त्र के प्रमुख केंद्र थे। बंगाल में मलमल का भी उत्पादन होता था। अबुल फज़ल ने कश्मीर का रेशम उत्पादन का केंद्र के रूप में ज़िक्र किया है। अकबर ने ईरानी मॉडल पर आधारित कालीन बुनाई को प्रोत्साहन दिया। वारंगल तथा मसुलीपट्नम को भी कालीन बुनाई की जाती थी। कालांतर में मसुलीपट्नम बंदरगाह सूती वस्त्रों के निर्यात् का प्रमुख केंद्र बना। आगे चलकर लगभग 17वीं सदी के उत्तरार्ध में शिल्पियों पर व्यापारियों का प्रमुत्व बढ़ने लगा जिसे दादनी पद्धति के रूप में देखा जा सकता है। इसके अंतर्गत व्यापारी कच्चे मालों तथा शिल्पियों पर नियंत्रण स्थापित कर रहे थे। इस काल में श्रेणियों के प्रधान की विशिष्ट स्थिति का पता चलता है जिसे अकबर द्वारा भूमि अनुदान दिये जाने का जिक्र मिलता है। हालांकि सल्तनत काल में शिल्प कार्यों में दासों को लगाया गया था। परंतु इस काल में स्वतंत्र कारीगरों ने शिल्प विकास को बढ़ावा दिया। इसी तरह शिल्प गतिविधियों के विकास के कारण जाति नियंत्रण को नजर अदांज किया गया अर्थात् जाति बंधन को तोड़कर शिल्पियों ने नये-नये शिल्पों को अपनाया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मुगल काल में कृषि एवं शिल्प उत्पादन ने कृषि अर्थव्यवस्था एवं शिल्प उद्योग को मज़बूती प्रदान की परंतु इससे हुये सामाजिक परिवर्तन को इंकार नहीं किया जाता सकता।</s>
<s>[INST]पूर्वी हिंदी की किन्ही दो बोलियों की शब्द शास्त्रीय विशेषताएँ बताइये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका पूर्वी हिंदी की किन्ही दो बोलियों (बघेली एवं छत्तीसगढ़ी) की शब्द शास्त्रीय विशेषताएँ निष्कर्ष प्राचीन काल में जिस क्षेत्र को उत्तरी कोसल तथा दक्षिणी कोसल कहा जाता था, वही क्षेत्र पूर्वी हिंदी का क्षेत्र है, जो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ तक विस्तृत है। सीमाओं के निर्धारण की बात की जाए तो ये कानपुर से मिर्ज़ापुर तथा लखीमपुर से बस्तर तक विस्तृत है। इसके अंतर्गत तीन बोलियाँ शामिल की जाती हैं- अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। दो बोलियों की शब्दशास्त्रीय विशेषताएँ निम्नलिखित है- 1. बघेलीः बघेली बघेलखंड में बोली जाने वाली बोली है। इसका केंद्र रीवा है तथा उसके अतिरिक्त यह जबलपुर, मंडला तथा बालाघाट आदि ज़िलों में बोली जाती है। अवधी और बघेली में इतनी अधिक समानताएँ हैं कि कुछ विद्धान उसे अवधी की उपबोली ही मानते हैं, किंतु डॉ. जॉर्ज गियर्सन तथा अन्य कुछ विद्वानों ने बघेली को एक अलग बोली के रूप में मान्यता प्रदान की है। इसकी भाषिक, शब्द शास्त्रीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं- (क) ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ का प्रयोग मिलता है, (ख) ‘ए’ और ‘ओ’ ध्वनियों का उच्चारण करते हुए बघेली में ‘य’ और ‘वे’ ध्वनियों का मिश्रण करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है- खेत > ख्यात (ग) बघेली में निम्न सर्वनाम मिलते हैं- म्वाँ, मोहि, त्वा, तोही, बहि तथा यहि। (घ) बघेली में कर्म और संप्रदान के लिये ‘क’ तथा करण व अपादान के लिये ‘कार’ परसर्गों का प्रयोग मिलता है। 2. छत्तीसगढ़ीः यह वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य की बोली है। जिसे कालांतर में दक्षिण कोसल भी कहा गया है। इसके क्षेत्र के अंतर्गत सरगुजा, बिलासपुर, रायपुर, रायगढ़ दुर्ग तथा राजनाँद गाँव ज़िले आते हैं। यह बोली आमतौर पर अवधी के समान ही है। इसकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं- (क) उच्चारण में महाप्राणीकरण इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषता है- कचहरी > कछेरी, दोड़ > धौड़, जन > झन (ख) ‘स’ के स्थान पर ‘छ’ ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ तथा ‘ब’ या ‘व’ के स्थान पर ‘ज’ करने की प्रवृत्ति मिलती है- सीता > छीता, बालक > बारक (ग) ‘ष’ तथा ‘श’ केा ‘स’ के रूप में बोला जाता है- भाषा > भासा, दोष > दोस (घ) एकवचन से बहुवचन बनाने के लिये प्रायः ‘मन’ प्रत्यय जोड़ा जाता जैसे- ‘हममन’ (हमलोग)। (ड़) बहुवचन के लिये ‘न’ का प्रयोग भी किया जाता है जैसे- ‘लरिकन’। (च) कर्म, संप्रदान के लिये ‘ल’ परसर्ग तथा करण, अपादान के लिये ‘ल’ परसर्ग का प्रयोग विशिष्ट है। (छ) क्रिया के साथ आने वाले ‘त’ और ‘ह’ को जोड़कर ‘थ’ बनाने की प्रवृत्ति भी मिलती है’ करते हैं > करतथन</s>
<s>[INST]खुसरों एवं उनकी कविता पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका खुसरों एवं उनकी कविता पर टिप्पणी निष्कर्ष खुसरो खड़ी बोली, हिंदी और उर्दू के तो पहले कवि माने ही जाते हैं, ब्रजभाषा में भी इन्होंने कुछ अत्यंत मौलिक व साहसिक प्रयोग किये हैं। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं तो उन्होंने फारसी व हिंदी भाषा का अद्भुत समन्वय भी कर दिया है। आचार्य शुक्ल के अनुसार अमीर खुसरों की भाषा मुख्यतः दो प्रकार की है। पहले प्रकार की भाषा में ब्रजभाषा की झलक के साथ ठेठ खड़ी बोली दिखाई पड़ती है। यह मुख्यतः ‘पहेलियों’ व ‘सुखनों’ में दिखती है तथा गौण रूप से ‘मुकरियो’ में भी झलकती है। दूसरी शैली वह है जिसमें ब्रजभाषा अपने आरंभिक ठेठ रूप में आई है। ब्रजभाषाः “मेरा मोसे सिंगार करावत, आगे बैइ के मान बढ़ावत वासे चिक्कन ना कोऊ दीसा, ऐ सखि साजना। ना सखि सीसा।।” खड़ी बोलीः “एक थाल मोती से भरा, सबके सिर ओंधा धरा। चारों और वह थाल फिरे, मोती उससे एक न गिरे।।” खड़ी बोली व ब्रजभाषा का “खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। मिश्रित रूप तन मेरो मन पीऊ को, दोउ भए एक रंग।।” अमीर खुसरों ने भाषा के स्तर पर कुछ अद्भुत प्रयोग भी किये हैं जिनमें से एक प्रयोग में उन्होंने शुद्ध फारसी व शुद्ध ब्रजभाषा को एक ही कविता में साथ-साथ पिरो दिया है। यह प्रयोग बोधगम्यता की दृष्टि से चाहे कमज़ोर हो किंतु भाषायी संश्लेषण की दृष्टि से अनूठा है- “जे हाल मिसकीं मकुन तगाफुल, दुराय नैना बनाया बतियाँ। कि ताबे हिज्राँ न दारम ऐ जाँ, न लेहु काहे लगाया छतियाँ।।” खुसरों जिस समय के कवि हैं, उस समय तक साहित्यिक भाषा के रूप में न तो खड़ी बोली स्थापित हुई थी, न ही ब्रजभाषा। पिंगल शैली के तौर पर ब्रजभाषा के कुछ आरंभिक सूत्र रासों साहित्य में ज़रूर दिखाई देते हैं किंतु खुसरों की ब्रजभाषा भक्तिकाल व रीतिकाल की ब्रजभाषा के अधिक निकट है। आचार्य शुक्ल ने सूर की ब्रजभाषा पर आश्चर्य जताते हुए कहा है कि यह विश्वास करना कठिन प्रतीत होता है कि सूर ने बिना किसी साहित्यिक परंपरा के एक चलती हुई लोकभाषा को एक झटके में महान साहित्यिक भाषा बना दिया। ध्यान से देखें तो सूर से कुछ मिलती-जुलती सी भाषा खुसरों के काव्य में दिखती है। खुसरों की कविता भाषा के स्तर पर आतंक पैदा नहीं करती बल्कि बेहद सहजता के साथ पाठक श्रोता को बोधगम्य प्रतीत होती है। उनकी कविता मानसिक चित्रों का निर्माण करती है। आचार्य शुक्ल ने खुसरों की भाषा की एक ओर विशेषता ‘उक्तिवैचित्र’ को माना है, जिसका अर्थ है कि वे सीधी बात को भी रोचक तरीके से कहने की क्षमता रखते थे।</s>
<s>[INST]देवनागरी लिपि के विकास पर संक्षिप्त टिप्पणी।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका देवनागरी लिपि के विकास पर टिप्पणी निष्कर्ष लिपि का विकास भाषा के विकास के बाद होता है। लिपियों के विकास की पंरपरा प्रायः क्रमानुसार होती है, उसमें सबसे पहले चित्रलिपि, फिर सूत्रलिपि, फिर प्रतीकात्मक लिपि तथा अक्षरात्मक लिपि से होते हुये अंत में वर्णात्मक लिपि के विकास को माना गया है। देवनागरी एक अक्षरात्मक लिपि है क्योंकि इसके सारे व्यंजन स्वरों के माध्यम से ही उच्चरित होते हैं। भारत में लिपि के विकास की परंपरा में ब्राह्मी लिपि को प्रस्थान बिंदु माना जाता है। इसी की परंपरा में आगे चलकर देवनागरी का विकास हुआ है। ब्राह्मी लिपि के दो रूप प्रचलित रहे हैं- दक्षिणी ब्राह्मी और उत्तरी ब्राह्मी। उत्तरी ब्राह्मी से उत्तर भारतीय लिपियों का विकास हुआ है जबकि दक्षिणी ब्राह्मी से द्रविड़ परिवार की लिपियों का। उत्तरी ब्राह्मी से ही गुप्तकाल में गुप्त लिपि विकसित हुई और जब यह साधारण प्रयोग में टेढ़े-मेढ़े अक्षरों से युक्त हो गई तो इसे कुटिल लिपि कहा जाने लगा। कुटिल लिपि से दो प्रकार की परंपराएँ विकसित हुईं। कश्मीर के पंडितों ने इस कुटिल लिपि को ‘शारदा लिपि’ कहा। कश्मीर के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों जैसे- गुजरात, मध्यप्रदेश महाराष्ट्र आदि में कुटिल लिपि से विकसित होने वाली लिपि को ‘प्राचीन नागरी’ कहा गया। इस प्राचीन नागरी से पुनः कई विकास हुए तथा आधुनिक आर्यभाषाओं जैसे हिंदी, गुजराती, मराठी और बांग्ला इत्यादि के लिये अलग-अलग लिपियाँ विकसित हुई। हिंदी भाषा के लिये विकसित होने वाली लिपि को ही देवनागरी कहा गया देवनागरी लिपि के प्रयोग का पहला उदाहरण सातवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के समय से मिलने लगता है। दसवीं शताब्दी तक इस लिपि का क्षेत्र पंजाब से बंगाल तथा नेपाल से दक्षिण भारत तक हो गया था। दसवीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक यह लिपि किसी न किसी रूप में हिंदी देश की मुख्य लिपि बनी रही। 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में मानकीकरण के वैयक्तिक और संस्थागत प्रयासों की मदद से अखिल भारतीय लिपि के रूप में विकसित होने लगी। आज भी यह एकमात्र लिपि है जो भारत की सभी भाषाओं की भीषण विशेषताओं को धारण करके राष्ट्रीय एकीकरण का सशक्त माध्यम बन सकती है।</s>
<s>[INST]“कविता क्या है” निबंध के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल की “कविता की भाषा” विषयक मान्यताओं पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका आचार्य रामचंद्र शुक्ल की “कविता की भाषा” विषयक मान्यताएँ निष्कर्ष “कविता क्या है” आचार्य शुक्ल का सबसे महत्त्वपूर्ण निबंध है। इस निबंध के माध्यम से शुक्ल जी ने अपनी काव्यशास्त्रीय मान्यताएँ प्रस्तुत की है, जिसमें भाषा संदर्भ महत्त्वपूर्ण है। कविता की भाषा के संदर्भ में शुक्ल जी बिम्ब एवं नाद सौंदर्य पर बल देते हैं। शुक्ल जी अलंकारों एवं कोरे उक्ति वैचित्र की अधिकता को कविता के लिये अनावश्यक मानते हैं। वे मूलतः सौंदर्य को आंतरिक वस्तु मानते हैं और कहते हैं कि “सौंदर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है मन के भीतर की वस्तु है।” साथ ही निबंधों को सरस बनाने के लिये कई स्थानों पर विनोद-भाव का समावेश भी किया है। उदाहरण स्वरूप- “बंदर को शायद बंदरिया के मुँह में ही सौंदर्य दिखाई देता होगा, पर मुनष्य पशु-पक्षी, फूल-पत्ते और रेत-पत्थर में भी सौंदर्य पाकर मुग्ध होता है।” (कविता क्या है) शुक्ल जी ने ‘कविता की भाषा’ की विशेषताओं में सर्वप्रथम लाक्षणिकता को महत्त्व दिया है। उनका मानना है कि कविता हमारे समक्ष सूक्ष्म पदार्थों और व्यापारों को भी गोचर रूप से रखती है, स्थूल रूप में प्रत्यक्ष करती है। अन्य विशेषता उन्होंने नाद- सौस्ठव में देखी है। और कहा कि “(कविता) नादसौण्ठव के लिये संगीत कुछ-कुछ सहारा लेती है।” साथ ही इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि भाव को अधिक तीव्रता और पुष्टता प्रदान करने के लिये, केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिये नहीं, वर्णों का सूक्ष्म भेद अपनाया जाना चाहिये। कविता में व्यंग्य को वे महत्त्वपूर्ण मानते हैं और वे व्यंग्य करने में माहिर भी हैं। उनकी मान्यता है कि व्यंग्य विषय व्यंजकता को बढ़ा देता है वहीं दूसरी ओर गंभीर से गंभीर विषय को सरस भी बना देता है। उदाहरण के लिये- “खेद के साथ कहना पड़ता है कि बहुत दिनों से” बहुत से लोग कविता को विलास की सामग्री समझते चले आ रहे हैं।...... एक प्रकार के कविराज तो रईसों के मुँह में मकरहवज रस झोंकते थे, दूसरे प्रकार के कविराज कान में कमरध्वज रस की पिचकारी देते थे, पीछे से तो ग्रीष्मोपचार आदि के नुस्खे भी कवि लोग तैयार करने लगे। (कविता क्या है।)</s>
<s>[INST]‘भारत-दुर्दशा’ प्रायः कथाविहीन, घटनाविहीन नाट्य-रचना है। फिर भी इसके मंचन की संभावनाएँ कम नहीं हैं।’ अभिनेयता की दृष्टि से विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका कथन की विवेचना निष्कर्ष पारंपरिक दृष्टि से नाटक के दो मुख्य भेद स्वीकार किये गए हैं- रूपक और उपरूपक। डॉ. बच्चन सिंह ने इस नाटक को ‘अन्यायदेशिक नाटक’ कहा है, जिसका अर्थ है कि वह नाटक जिसमें विभिन्न मनोभावों की चरित्रों के माध्यम से प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति की गई हो। भारत दुर्दशा में कोई एक कथा या घटना नहीं है बल्कि यह एक समीक्षात्मक शैली में लिखा गया नाटक है। जिसमें समस्या के साथ-साथ समाधान की भी किरण दिखाई गई है। नाटक की पूर्ण सार्थकता उसके सफलतापूर्वक मंचित होने में ही है। नाटक की सफल अभिनेयता इस बात से निर्धारित की जा सकती है कि उमसें दृश्य विधान, अभिनय संकेत, वेश-भूषा, ध्वनि तथा प्रकाश जैसी व्यवस्थाओं के संकेत पर्याप्त मात्रा में दिये गए हैं अथवा नहीं। इसके अतिरिक्त उसकी भाषा, चरित्र योजना, कथानक का विकास जैसे तत्त्व सफल मंचन हेतु सहायक हो पाते है या नहीं। भारत दुर्दशा का दृश्य विधान सरल तथा प्रभावशाली है। छह अंकों के इस नाटक में छह ही दृश्य हैं, अतः दृश्यों की संख्या इतनी अधिक नहीं कि निर्देशक के लिये बार-बार दृश्य परिवर्तन की समस्या उठ खड़ी हो। दृश्य विधान सरल है। उदाहरण के लिये पहले अंक में वीथी का दृश्य है। दूसरे अंक में शमशान, टूटे-फूटे मंदिर, बिखरी हुई अस्थियाँ और कौए, सियार व कुत्ते के दृश्य हैं। स्पष्ट है कि कुछ पर्दों व कुछ वस्तुओं के संग्रह से यह दृश्य योजना साकार हो सकती है। नाटककार ने मंचन की सहजता हेतु अपनी ओर से कई प्रयास किये हैं। सबसे पहले अभिनय संकेतो को देखा जा सकता है। भारतीय नाट्य परंपरा में रंग संकेत देने की परंपरा कम रही है। किंतु भारतेंदु ने कम से कम चार-पाँच प्रसंगों में अभिनय संकेत दिये है। उदाहरण के लिये- आलस्य- “मोटा आदमी जम्हाई लेता हुआ, धीरे-धीरे आता है।” भारतेंदु के समय मंचीय विधान पर्दे पर आधारित था। भारतेंदु की कल्पनाशीलता का ही प्रमाण है कि उन्होंने एक स्थान पर प्रकाश व्यवस्था का सक्रिय प्रयोग किया है। नाटक के प्रभावशाली मंचन में ध्वनि तत्त्व के प्रयोग की भूमिका प्रबल होती है। पार्श्व ध्वनियों के प्रयोग की विशेष परंपरा तो भारतेंदु के सामने नहीं थी। किंतु सीमित रूप से उन्होंने इसका भी प्रयोग किया है। इन सभी तत्त्वों के साथ वेश-भूषा के प्रति भी भारतेंदु ने ध्यान दिया है। उन्होंने विभिन्न चरित्रों की वेश-भूषा का स्पष्ट अंकन किया है। उदाहरण के लिये- भारत- ‘फटे कपड़े पहिने, सिर पर अर्द्ध किरीट, हाथ में टेकने की छड़ी, शिथिल अंग’। हालाँकि गीतों व चरित्रों की अधिकता और उनकी प्रतीकात्मकता एक समस्या है। भाषा योजना में कहीं-कहीं लंबे स्वागत संवाद भाषण बन गए हैं किंतु इन सीमाओं के बावजूद यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि भारतेंदु के जीवनकाल में ही लखनऊ, बनारस और बलिया आदि स्थानों पर इस नाटक का सफल मंचन किया जा चुका है और वर्तमान में भी इसका मंचन जारी है।</s>
<s>[INST]अमेरिकी संविधान की रचना में किन तत्वों का प्रभाव रहा? बीयर्ड के इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं कि ‘अमेरिकी संविधान एक आर्थिक दस्तावेज़ है’?[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका अमेरिकी संविधान रचना में किन-किन तत्वों का प्रभाव है? क्या संविधान एक आर्थिक दस्तावेज़ मात्र है? सहमति तथा असहमति के बिंदु। अमेरिकी क्रांति की सफलता के बाद स्वतंत्र अमेरिकी राष्ट्र का निर्माण हुआ। इसके बाद 13 राज्यों के प्रतिनिधियों ने अमेरिकी संविधान निर्माण के लिये फिलाडेल्फ़िया कांग्रेस का आयोजन किया जिसमें स्वतंत्र अमेरिका के लिये लिखित संविधान तैयार किया गया। इस अमेरिकी संविधान ने विश्व में संविधान वाद को प्रोत्साहन दिया हालांकि यह संविधान पिछले कई वर्षो के संघर्ष , सैदेबाजी-प्रतिसौदेबाजी तथा वैचारिक आंदोलन के पश्चात् अस्तित्व में आया था। अमेरिकी संविधान की रचना में निम्न तत्वों के प्रभावों को देखा जा सकता है - इस संविधान के निर्माण में धनी वर्गो का अत्यधिक प्रभाव रहा जिसमें व्यापारी महाजन, स्टेक होल्डर आदि के प्रभावों को देखा जा सकता है वहीं मिल्टन जैसे नेता शक्तिशाली संघ के निर्माण की मांग के पक्ष में थे। प्रजातांत्रिक तथा रैडिकल तत्वों के प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता। हेनरी एडम्स एवं जेफरसन जैसे नेता प्रजातांत्रिक तत्वों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इन्हीं के प्रभावों के कारण 1791 में संविधान में संशोधन किया गया तथा लोगों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित किया गया। एक दृष्टि से देखे तो इन्होंने राज्य से व्यक्ति की सुरक्षा की मांग की। प्रसिद्ध फ्रांसीसी विचारक मॉन्टेस्क्यू के विचारों का प्रभाव इस संविधान की रचना पर पड़ा। इसने शासन के तीनों अंगों कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका तीनों को एक-दूसरे से अलग एवं समान रूप से शक्तिशाली बनाने को कहा इसी क्रम में अमेरिका संविधान में ‘शक्ति के पृथक्करण’ सिद्धांत को अपनाया गया। अमेरिकी संविधान के निर्माण में न्यूटन के दृष्टिकोणों का भी प्रभाव परिलक्षित होता है जिसमें न्यूटन की संतुलन की अवधारणा की स्वीकार कर अमेरिकी संविधान में शक्ति संतुलन की अवधारणा को स्वीकर किया गया। अतः कहा जा सकता है कि अमेरिकी संविधान की रचना में विभिन्न तत्वों का प्रभाव रहा परंतु एक अमेरिकी विद्धान चार्ल्स बीयर्ड ने अपने एक निबंध ‘An Economic Interpretation of the Constitutions of the united states’ में अमेरिकी संविधान को आर्थिक दस्तावेज के रूप में संज्ञा दी है। इसमें कहा गया कि इस संविधान के माध्यम से अपने आर्थिक वर्गो के निहित स्वार्थो को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। बीयर्ड का मानना है कि फिलाडेल्फ़िया कांग्रेस में जो प्रतिनिधि शामिल हुये उसमें 24 साहूकार वर्ग के 15 प्रतिनिधि उत्तरी क्षेत्र के और दासों के मालिक एवं 14 प्रतिनिधि भूमि के सौदे व सट्टेबाज़ी के व्यवसाय से संबंधित तथा तथा 11 प्रतिनिधि व्यवसायी एवं जहाज निर्माता थे। सम्मेलन में छोटे किसान एवं गरीबों का कोई प्रतिनिधि नहीं था। इस तरह सम्मेलन में शामिल प्रतिनिधि मंडलों ने शक्तिशाली संघ की स्थापना की मांग की। परंतु जब बीयर्ड महोदय के कथन का परीक्षण करते हैं तो प्राप्त होता है कि यद्यपि फिलाडेल्फ़िया कांग्रेस में धनी वर्गो का प्रभाव रहा किंतु अन्य वर्गो के हितों को नजर अंदाज़ नहीं किया गया था। प्रसिद्ध इतिहासविद् फॉरेस्ट मैकडोनाल्ड ने अपनी पुस्तक ‘We the people : The Economic origins of Constitutions’ (1958) में बीयर्ड के कथन को अस्वीकार कर बताया कि यह कहीं से प्रमाणित नहीं होता है कि व्यक्तिगत संपत्ति की रक्षा के लिये संविधान निर्माण में अन्य वर्गो को अनदेखा किया गया। वस्तुतः फिलाडेल्फ़िया कांग्रेस में निर्मित संविधान विभिन्न वर्गो के हितों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास कर रहा था। जहाँ धनी वर्ग अपने पक्ष में शक्तिशाली संघ निर्माण की मांग कर रहा था तो वहीं निम्न वर्गो को संतुष्ट करने के लिये मौलिक अधिकारों की स्वीकृति प्रदान की गयी थी। जहाँ तक इस संविधान को किसानों द्वारा विरोध का प्रश्न है तो ऐसा नहीं लगता कि किसानों ने संविधान का विरोध किया हो क्योंकि न्यूजर्सी, मेरीलैंड, जॉर्जिया, जैसे कृषि आधारित राज्यों में संविधान को आसानी से स्वीकार किया गया। परंतु उपर्युक्त संपूर्ण तथ्यों को देखे तो बीयर्ड का कथन अपने आप में इसलिये महत्वपूर्ण हो जाता है। कि इन्होंने अमेरिका संविधान की व्याख्या में एक नवीन दृष्टिकोण दिया जो पूरी तरह तो नहीं बल्कि आंशिक रूप से ही अमेरिकी संविधान की व्यवस्था में उपयोगी साबित हुआ। अतः अमेरिकी संविधान की निम्नलिखित विशेषताएँ उभरकर सामने आती है जिसमें- सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान विश्व का प्रथम लिखित संविधान है। जिसमें 7 अनुच्छेद एवं 13 धाराएँ है। इस तरह भारतीय संविधान की अपेक्षा संक्षिप्त एवं सरल है। अमेरिकी संविधान की मुख्य विशेषता संघात्मक शासन व्यवस्था है इसमें स्वतंत्रता राज्यों अस्तित्व को को बनाये एवं हितों की रक्षा के लिये महासंघ को अस्तित्व में लाया गया और रूस, U.S.A. (संयुक्त राज्य अमेरिका) नाम दिया गया। भारतीय संविधान के विपरित अमेरिकी संविधान में दोहरी नागरिकता का प्रावधान किया गया है अर्थात् संघ के साथ-साथ राज्य की भी नागरिकता प्रदान की गयी है। अमेरिकी संविधान में सर्वोच्य सत्ता को जनता में निहित माना गया है। अमेरिकी संविधान राज्यों के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये अमेरिका को अविनाशी राज्यों का अविनाशी संघ घोषित करता है। इस संविधान में अध्याक्षात्मक शासन प्रणाली की व्यवस्था कर शक्ति की पृथक्करण के सिद्धांत को अपनाया गया। इसमें कार्यपालिका को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है और इसका प्रमुख ही संघ का राष्ट्रपति होता है जिसे केवल महाभियोग द्वारा पद मुक्त किया जा सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि अमेरिकी संविधान विश्व के अन्य संविधान निर्माण करने वालों के लिये पथ प्रदर्शक का कार्य किया और जब भारत का संविधान निर्माण हुआ तो इसकी अच्छाइयों को भारतीय संविधान में शामिल किया गया।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित काव्यांश की संदर्भ-सहित व्याख्या प्रस्तुत करते हुए उनके काव्य-सौंदर्य का परिचय दीजिये-[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका संदर्भ प्रसंग व्याख्या विशेष (a) संदर्भः प्रस्तुत पद हिंदी की भक्तिकालीन कृष्ण काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि सूरदास के पदों के संग्रह ‘भ्रमरगीतसार’ से लिया गया है जिसका संपादन आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया है। प्रसंगः प्रस्तुत पद में गोपियों की श्री कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति वर्णित है गोपियाँ एकमात्र श्रीकृष्ण को ही महत्त्व देती हैं। जबकि उद्धव उन्हें निर्गुण भक्ति की शिक्षा देने का असफल प्रयास करते हैं। व्याख्याः गोपियाँ उद्धव से यह कह रही हैं- हे उद्धव! तुम जो हमें यत्नपूर्वक योग-ध्यान की विधियाँ सिखा रहे हो, वह हमारे लिए व्यर्थ हैं क्योंकि हमारा विश्वास तो श्रीकृष्ण के मुख दर्शन करने में है आपके द्वारा दिये जा रहे ज्ञान में कोई चतुराई नहीं हैं, यह भला हम कैसे मान लें अर्थात क्या आप बिना किसी प्रयोजन के ही हमें यह ज्ञान सिखा रहे हैं? साथ जो यह ब्रह्म और शून्य की बातें कर रहे हैं। जिसकी विराटता असीम है, उसके बारे में हम क्या निरूपित करें या फिर उसे हम किस प्रकार अपने हृदय में धारण करें। कहने का तात्पर्य यह है कि आपका ब्रह्म आकाश की भाँति शून्य और अनंत हैं अतः हमारे लिए आग्रह और अदम्य है। हमारा मन और श्रीकृष्ण की मूरत एक हो गए हैं और उन्होंने हमें भृंगी कीट के समान अपने रंग में रंग लिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भृंगी कीट किसी कीड़े को पकड़कर उसे अपने अनुरूप बना लेता है, उसी प्रकार श्री कृष्ण ने गोपियों को अपने अनुरूप बना लिया है। हे उद्धव! ब्रज के चतुर लोग तुमसे सौगंध देकर पूछना चाहते हैं कि जब हम दोनों (गोपियाँ एवं श्रीकृष्ण) एक ही रंग में रंग गए हैं तो फिर योग साधना को कैसे ग्रहण कर सकते हैं? विशेष 1. प्रेम की अनन्यता का चित्रण हुआ है। 2. ज्ञानमार्गी साधना के स्थान पर भक्ति की महत्ता का प्रतिपादन। 3. निर्गुण की उपासना की निरर्थकता को व्यक्त किया गया है। 4. सूरदास ने गोपियों की वाक् चतुरता का सुंदर प्रदर्शन कराया है। (b) संदर्भः प्रस्तुत पंक्तियाँ भक्तिकालीन रामभक्ति काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि गोस्वामी तुलसीदास के कालजयी महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ के सुंदरकांड से उद्धत हैं। प्रसंगः प्रस्तुत प्रसंग में हनुमान और माता सीता के बीच वार्तालाप को दर्शाया गया है। व्याख्याः सीताजी ने कहा- हे तात! श्रीराम को मेरा प्रणाम बोलना। हे प्रभु आप सब प्रकार से मनोकामना रहित हैं। आप दुखियों पर दया करने वाले हैं। अतः हे नाथ मेरे भारी संकट को दूर करने की कृपा करें। विशेषः यह प्रसंग वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण हनुमान्नाटक और रामचरितमानस में समान रूप से मिलता है।</s>
<s>[INST]दिल्ली सल्तनत के राज्य में नगरीय अर्थव्यवस्था के विस्तार को बनाये रखने वाले प्रमुख कारकों की पहचान कीजिए?[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका नगरीय अर्थव्यवस्था के विस्तार को बनाये रखने वाले प्रमुख कारक निष्कर्ष तुर्को के आगमन ने नगरीय अर्थव्यवस्था के विकास के लिये अनुकूल वातावरण प्रस्तुत करने का काम किया जिसमें किसानों को बिचौलियों की शक्ति से मुक्त किया गया तथा अधिशेष उत्पादन से नगरीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया गया। नगरीय अर्थव्यवस्था में वृद्धि ने विभिन्न प्रकार की प्रौद्योगिकी एवं शिल्पों को जन्म दिया जिससे उद्योगों का विकास हुआ जिसने नागरीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित कर विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया। रेशम के कीड़ों को पालने के साथ रेशम वस्त्र उद्योग का विकास हुआ तो साथ ही कालीन बुनने का उद्योग प्रारंभ हो गया इसी के साथ कागज के परिणामस्वरूप जिल्दसाजी उद्योगों को बढ़ावा मिला। इस प्रकार विभिन्न प्रकार के उद्योगों की स्थापना के साथ दस्तकारों का एक वर्ग तैयार होने लगा जिससे उसने उद्योगों में प्रोत्साहन का कार्य किया। इन्हीं गतिविधियों के साथ विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े नगरों की शृंखला बनती चली गयी। वस्त्र उद्योग की स्थिति तुर्को के द्वारा लाये गये चरखे के प्रचार के साथ और उन्नत होती गयी। मोटे सूती वस्त्र उद्योंगों के साथ मलमल का उत्पादन बढ़ता गया। उस समय पटोला वस्त्र गुजरात के निर्मित होते थे तथा रेशम के उच्च कोटि के वस्त्र ईरान से आपात किये जाते थे, जिसके साथ व्यापार को बढ़ावा मिला इसी व्यापार के साथ बड़े-बड़े नगरों का विकास होता गया और नगर दिल्ली सल्तनत में अर्थव्यवस्था के केंद्र बनते चले गये। नगरों में रोज़गार के अवसर प्रचुर मात्रा में बढ़ने लगे तथा ग्रामीण कारीगारों का पलायन नगरों की ओर बढ़ा। नगरों में रोज़गार का एक प्रमुख साधन भवन निर्माण भी रहा क्योंकि इसी समय दिल्ली सुल्तानों ने नगरों में बड़े-बड़े भवनों का निर्माण करना। बरनी के अनुसार, अलाउद्दीन ने ही सत्तर हजार मज़दूर अपने भवनों के निर्माण के लिये नियुक्त कर रखे थे। जो कहीं न कहीं नगरीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित एवं विस्तारित कर रहे थे। विभिन्न दिल्ली सुल्तानों ने नगरों की अर्थव्यवस्था के विस्तार के लिये कार्य किये, रोज़गार के साधनों की वृद्धि के लिये नगरों में शाही कारखानों की स्थापना की जाती थी। जिससे राज परिवार की शाही आवश्यकता पूर्ण हो सके तथा आय के नवीन साधन विकसित हो सके तथा आम जन जीवन की आवश्यकता की सभी वस्तुएँ नियमित उत्पादित हो सके इसके लिये विभिन्न शिल्पों को प्रोत्साहित किया जाता था। फिरोज शाह तुगलक ने अनेक शाही कारखानों की स्थापना की जिसमें लगभग 12000 दासों को लगाया गया था। दिल्ली सल्तनत में अंतर्देशीय एवं विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित दिया गया जिसके साथ नगरीय अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ। नगरों के व्यापार वाणिज्य विकास के लिये सड़कों का निर्माण किया गया। तुगलक काल तक दक्षिण में देवगिरि, तेलंगाना एवं माबर तक के क्षेत्र सड़को के माध्यम से दिल्ली से जुड़ चुके थे।। सड़क मार्गो ने आंतरिक व्यापार को बढ़ावा दिया जो नगरीय व्यापारियों के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण थे जिसने नगरीय व्यापार को बढ़ावा दिया। इसी के साथ गुजरात विजय के बाद समुद्री मार्ग से विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित किया। तथा नगरीय अर्थव्यवस्था की संभावनाओं को और अधिक विकसित किया। आमतौर पर व्यापारी वर्ग नगरों में निवास करता था उसने नगरीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित एवं विस्तारित किया था व्यापारी वर्ग में अनेक वर्ग सक्रिय थे जो मारवाड़ी, गुजराती, सुल्तानी, हिंदू एवं जैन थे। नगरीय अर्थव्यवस्था के विस्तार को बनाये रखने में मुख्य भूमिका मुद्रा प्रणाली की थी इसने व्यापक लेन-देन को बढ़ावा दिया। दिल्ली सुल्तानों के अंतर्गत मुद्रा की सिक्कों में ढलाई और विनियम के माध्यम से व्यापक असर पड़ा जिसने वस्तुओं की ठीक-ठीक कीमत मापने का काम किया जिसने शहरी केंद्रीयकरण को बढ़ावा दिया। इसी के साथ मुद्रा ने भूमि के अलावा संपत्ति का एक अन्य स्थाई और अविनाशी रूप प्रदान किया। सल्तनत काल में बहुत से शहरों का विकास हुआ तथा प्राचीन शासन व्यवस्था के केंद्र बिंदु भी नगर ही रहे उनकी राजधानियाँ भी नगरों के रूप में स्थापित थे जिन्हें गोलकुंडा, अहमदाबाद आदि शहरों के रूप में देख सकते है। कुछ सुल्तानों ने व्यक्तिगत रूप से भी नगरों को प्रोत्साहन दिया जिसमें फिरोज शाह का नाम लिया जा सकता है जिसने जौनपुर, फिरोजपुर, फतेहाबाद एवं फिरोजाबाद जैसे नगरों की स्थापना की। निष्कर्षतः इस प्रकार प्रशासकीय आवश्यकताओं तथा नागरिक आवश्यकताओं के साथ व्यापारिक गतिविधियों प्रसार ने नगरीय अर्थव्यवस्था को विस्तारित किया। अतः कह सकते है कि सल्तनत काल को विकसित नगरीय अर्थव्यवस्था ने मुगल काल की प्रगति के मार्ग को प्रशस्त किया।</s>
<s>[INST]मानसिक मानचित्र (मेंटल मैप) की संकल्पना को विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद: भूमिका मानसिक मानचित्र (मेंटल मैप) की सामान्य संकल्पना मानसिक मानचित्र (मेंटल मैप) के बारे में भूगोलवेत्ताओं द्वारा दी गई संकल्पनाएँ मेंटल मैप का उदाहरण निष्कर्ष हल करने का दृष्टिकोण: संक्षिप्त भूमिका लिखें। की-वर्ड को परिभाषित करें मानसिक मानचित्र (मेंटल मैप) के बारे में बताइये मानसिक मानचित्र (मेंटल मैप) के बारे में भूगोलवेत्ताओं द्वारा दी गई संकल्पनाओं का उल्लेख कीजिये। भूगोलवेत्ताओं का नाम, शोधपत्र, पुस्तक के बारे में स्पष्ट लिखिये। शब्द सीमा कम करने के लिये चित्र/माइंड मैप का प्रयोग करें। उदहारण के साथ निष्कर्ष लिखिये। व्यावहारिक भूगोल (Behavioral Geography) में एक मेंटल मैप व्यक्ति के संपर्क के क्षेत्र के बारे में एक दृष्टिकोण को दर्शाता है। मानसिक मानचित्र (मेंटल मैप) की संकल्पना 1950 के दशक के बाद पीटर गाउल्ड (Peter Gould) द्वारा प्रस्तुत की गई थी। गाउल्ड के अनुसार, मानव के स्थानिक निर्णय उसके आस-पास के पर्यावरण की गुणवत्ता पर आधारित होते हैं। इसलिये भूगोलवेत्ताओं के लिये यह आवश्यक है कि वे पर्यावरण का मेंटल इमेज बनाएं ताकि उसके आधार पर निर्णय लिया जा सके। गाउल्ड के अनुसार, ‘यदि हम यह मान लें कि हमारा मुख्य उद्देश्य स्थानिक व्यवहार पर निर्भर है तो हम अपने आस-पास की वस्तुओं की जो मेंटल इमेज बनाते हैं वे पृथ्वी पर कुछ संस्थाओं, स्वरूपों तथा प्रक्रमणों के लिये चाबी (Key) का कार्य करते है।” इस प्रकार के मानचित्र केवल स्थानिक व्यवहार के विश्लेषण के लिये ही नहीं बल्कि सामाजिक निवेश की योजना के लिये भी आवश्यक होते हैं। पीटर गाउल्ड (Peter Gould) एंड रोडनी व्हाइट (Rodney White) ने अपनी ‘मेंटल मैप्स’ (Mental Maps) पुस्तक में इसका प्रमुखता से विश्लेषण किया है। यह पुस्तक लोगों की स्थानिक इच्छाओं की जाँच पर आधारित है। मानसिक मानचित्र अथवा मस्तिष्क का भूगोल (Geography of mind) व्यवहारवादी भूगोल का महत्त्वपूर्ण अंग है। आर. जे. जोनस्टन (Johnston, 1986) के अनुसार, ‘मानसिक मानचित्र स्थानों की इमेज से संबंधित है, यह किसी मनुष्य द्वारा स्थानिक अभीष्टता, स्थानिक पद्धति तथा स्थानिक निर्णय के लिये मस्तिष्क में एकत्र स्थानीय इमेज को संचित करने की प्रक्रिया है। मानसिक मानचित्र सूचना तथा विवेचना (Interpratation) का मिश्रण है जो किसी स्थान के बारे में जानता ही नहीं बल्कि उसके बारे में सोचता भी है। भूगोल में इमेज की संकल्पना को केनेथ ई. बाउल्डिंग (Kenneth E. Boulding, 1956) ने अपनी पुस्तक ‘द इमेज: नॉलेज इन लाइफ एंड सोसाइटी’ (The Image: Knowledge in Life and Society) में प्रस्तुत किया था। इसने यह विचार व्यक्त किया कि पर्यावरण के संपर्क में आने से लोग अपने आस-पास की वस्तुओं की मानसिक धारणा बना लेते हैं तथा यही मानसिक धारणा लोगों का मार्गदर्शन करती है। मानसिक धारणा का उपयोग बहुत से क्षेत्रों में किया जा सकता है किंतु मेसोस्केल (Mesoscale) पर इसका प्रयोग नगरीय पर्यावरण के लिये किया गया है। मानसिक धारणा की परिकल्पना पर आधारित मानव-पर्यावरण संबंध को निम्नलिखित चित्र द्वारा दर्शाया गया है: मानव एवं प्रकृति के मध्य अंतर्संबंधों की संकल्पना (बाउल्डिंग, 1956 के अनुसार) मानसिक मानचित्र की संकल्पना पर आर.एम. डाउन्स (Downs 1970) के अनुसार, पर्यावरण से प्राप्त सूचना मानव के व्यक्तित्व, संस्कृति, विश्वास तथा ज्ञान संबंधी घटकों द्वारा परिष्कृत होती है, तत्पश्चात् मस्तिष्क पर बनी इमेज के आधार पर मनुष्य निर्णय लेता है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये विभिन्न प्रकार के संबंधों का प्रयोग करता है। उदाहरण के लिये जहाँ से किसी देश या क्षेत्र की सीमा शुरू होती है और समाप्त होती है वहाँ एक देश की दूसरे देश से या एक क्षेत्र की दूसरे क्षेत्र से वार्ता प्रभावित हो सकती है। फिलिस्तीन और इज़राइल के बीच चल रहा संघर्ष इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस तरह के क्षेत्रीय संघर्षों को हल करना मुश्किल होता है क्योंकि प्रतिभागी निर्णय लेने के लिये अपने मानसिक मानचित्रों पर भरोसा करते हैं और कोई भी दो मानसिक मानचित्र समान नहीं होते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि भूगोलवेत्ता के लिये मेंटल मैप किसी मनुष्य की स्थानिक प्रतिक्रियाओं के लिये ही नहीं बल्कि निर्णय लेने, अवसरों को समझने, उद्देश्यों को निश्चित करने तथा संतुष्टि प्राप्त करने के लिये भी महत्त्वपूर्ण है। गाउल्ड तथा व्हाइट के शोध-पत्रों से यह परिकल्पना और भी सुदृढ़ हो गई है। इनके अलावा इस विषय पर अन्य महत्त्वपूर्ण प्रकाशन रोज़र एम. डाउन्स (Roger M. Downs) और डेविड स्टी (David Stea) एवं सारिनेन (Saarinen, 1969) के हैं। जो इस परिकल्पना को व्यवहारिक रूप से महत्त्वपूर्ण बनाते हैं।</s>
<s>[INST]हिंदी के किसी एक यात्रा वृतांत लेखन की लेखनगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका किसी यात्रा वृतांत लेखक की लेखन गत विशेषताएँ निष्कर्ष यात्रा वृतांत एक आधुनिक साहित्यिक विधा है। यह यात्रा के दौरान देखे गए स्थलों, वस्तुओं, प्राकृतिक घटनाओं, व्यक्तियों आदि से संबंधित ब्योरों की स्मृतियों के सृजनात्मक उपयोग पर आधारित विधा है। इसकी उपस्थिति द्विवेदी युग से ही दर्ज हुई। यात्रा वृतांत लेखन में ‘राहुल सांकृत्यायन’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने असंख्य यात्राएं की एवं उसी अनुपात में साहित्य भी रचा। इनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा’, ‘गंगा से वोल्गा’, मेरी लद्दाख यात्र आदि हैं। लेखक ने अपने वृतांत यात्रा-साहित्य में स्वामी प्रणवानंद, भदंत आनंद कौसल्यायन तथा सिल्वा देवी आदि महान व्यक्तियों के शब्द-चित्र भी रेखांकित शैली में प्रस्तुत किये। राहुल की यात्रओं में आत्मकथा के तत्त्व सर्वत्र विद्यमान हैं। वर्णनों में लेखक के व्यक्तित्त्व की छवियाँ रोचकता बनाए रखती हैं। विभिन्न समाजों की भिन्न-भिन्न जीवनशैली और संस्कृतियों के दिव्य दर्शन पाठकों को बांधे रखती हैं। इनके लेखन की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इन्होंने भारत की सांस्कृतिक धरोहर का खूब प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने अपनी यात्रा-साहित्य में इतिहास-भूगोल, पुरातत्त्व-संस्कृति, समाज-धर्म,कला साहित्य आदि पक्षों पर भी पर्याप्त ध्यान दिया है। उन्होंने भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, नेपाल, इंग्लैंड ,पेरिस, जापान, कोरिया, ईरान, रूस, आदि देशों का भी भ्रमण किया। राहुल घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, उन्होंने इसे संसार का सबसे बड़ा धर्म कहा एवं इस धर्म को समर्पित एक ऐसे ग्रंथ (घुमक्कड़ शास्त्र) की रचना की जिसने ना केवल घुमक्कड़ी के सार्वजनिक महत्त्व को प्रतिस्थापित किया बल्कि युवा-पीढ़ी को भी इस वर्ग के पालन की प्रेरणा दी। राहुल की यात्रा साहित्य में संस्कृति निष्ठ भाषा के साथ-साथ अरबी-फारसी के सह प्रचलित शब्दों की शोभा देखते ही बनती है। खास बात यह है कि लेखक प्रायः ऐसे शब्दों का हिंदी रूपांतरण भी देता चलता है। राहुल ने अपनी उर्दू की किताब में एक शेर पढ़ा था- “सैर कर दुनिया की गाफिल, ज़िंदगानी फिर कहाँ। ज़िंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ।” यह शेर राहुल के घुमक्कड़ जीवन का मूल-मंत्र बन गया और उन्होंने अपने जीवन में अनाथ अविरल गति से यात्रा करते हुए अपने समस्त अनुभवों का सफर कृतियों में निचोड़ दिया दिया।</s>
<s>[INST]सिद्ध नाथ साहित्य में प्रयुक्त खड़ी बोली या प्रारंभिक रूप।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका सिद्ध-नाथ साहित्य में खड़ी बोली का स्वरूप निष्कर्ष सिद्ध साहित्य सिद्ध संप्रदाय से संबंधित साहित्य है। तांक्षिक क्रियाओं, मंत्रों द्वारा सिद्धि चाहने के कारण ये लोग सिद्ध कहलाये। नाथ साहित्य का संबंध सिद्ध संप्रदाय से ही विकसित किंतु उसके विरोधी नाथ संप्रदाय से है। सिद्धों ने मध्यप्रदेश के पूर्वी भागों में आठवीं-नौवी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक दोहेां तक चर्थापदों के रूप में जनभाषा के माध्यम से साहित्य की रचना की जिस पर अर्द्धमगधी अपभ्रंश व आरंभिक खड़ी बोली की प्रवृत्तियों का स्पष्ट असर दिखाई देता है। उदाहरण के लिये सरहपा की रचना के दृष्टव्य हैं- “घर की बाइसी दीवा जाली। कोणहिं बइसी घंडा चाली।” “पंडिअ सअल सत्य बक्खाणअं देहहिं बुद्ध बसंत ण जाणआ” उपरोक्त उदाहरण में बाइसी, दीवा, जाली, चाली आदि शब्द ईकारांत या आकारांत हैं, साथ ही ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का प्रयोग आदि आरंभिक खड़ी बोली की ही विशेषता है। नाथों ने अपनी मान्यताओं को प्रचारित करने हेतु रचनाएँ लिखीं। घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण खड़ी बोली के साथ अन्य हिंदी बोलियों का भी इस पर व्यापक असर दिखाई पड़ता है। कहीं-कहीं तो इनकी भाषा आर्श्चजनक रूप से वर्तमानकालीन खड़ी बोली के निकट दिखाई पडती है। “नौ लाख पातरि आगे नाचे पीछे सहज अखाड़ा ऐसौ मन लै जोगी खेलै तब अंतरि बसै भंडारा।” नाथ साहित्य में कुछ उदाहरण ऐसे भी है जिनमें खड़ी बोली की कुछ प्रवृत्तियाँ तो दिखती है किंतु बेहद सीमित मात्रा में ही। उदाहरण के लिये- “जाणि के अजाणि होय बात तू लें पछाणि चेले हो दूआ लाभ हाइगा गुरू होइयों आणि।” इस प्रकार स्पष्ट है कि सिद्ध नाथ साहित्य में खड़ी बोली के प्रारंभिक रूप पूरी स्पष्टता के साथ विद्यमान है।</s>
<s>[INST]मध्यकाल में काव्यभाषा के रूप में प्रयुक्त अवधी की विशेषताएँ।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • काव्यभाषा के रूप में अवधी की विशेषताएँ • निष्कर्ष उत्तर प्रदेश के अंतर्गत जो क्षेत्र लखनऊ-फैज़ाबाद के आस-पास का है, उसे ही अवध कहा जाता है। इस क्षेत्र से संबंधित भाषा अवधी कहलाती है। भाषा के विकास में अवधी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अवधी की विशेषताओं को दो भागों में बाँटकर देखना बेहतर होगा- 1. सूफियों की अवधी की विशेषताएँ 2. समकाव्यधारा की अवधी की विशेषताएँ 1. ध्वनि संरचना के स्तर पर सूफी संदर्भ में व > ब, ष > ख, ऋ > रि मिलता है जैसे- वर्षा > बरखा, ऋतु > रितु वहीं रामकाव्यधारा में तत्सम ध्वनियों को प्रायः अवधी रूप में ढाल दिया गया है- श > स, क्ष > ख, ण > न न मिलता है। जैसे- लक्ष्मण > लखन, रावण > रावन 2. सूफियों की अवधी में सर्वनामों की संरचना इस प्रकार रही-उत्तम पुरूष – मइँ, हौं, मोर अन्य पुरूष – वह, ओइ, तें मध्यम पुरूष – तूँ, तैं तुम्ह, तुम अन्य रामकाव्यधारा में भाषा को व्यापक बनाने के लिये खड़ी बोली के सर्वनामों वह, तुम्हारा, हमारा इत्यादि का प्रयोग भी किया गया है। साथ ही इस काव्यधारा के अपने सर्वनाम इस प्रकार हैं- एकवचन बहुवचन उ. पु. मैं, मोहि हम म. पु. तु, तुम्ह तुम्हार अ. पु. सो, वह अन्य सर्वनाम – जो, को कौन, जिन्ह आदि उदाहरण – जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। 3. क्रिया व्यवस्था के स्तर पर दोनों धाराओं में वर्तमान काल के लिये ‘त’ रूप वाली क्रियाएँ प्रचलित थीं। जैसे- करत, देखत। “करत तबकही अनुज सन, मन सिय रूप लोभान”। सूफी काव्यधारा में भूतकाल के लिये प्रायः ‘स’ तथा ‘व’ रूप दिखते हैं, जैसे कीन्हेसि, आवा। वहीं रामभक्तिधारा मे देखिके, करिके, पावा, आवा जैसे प्रयोग प्रचलित हैं। भविष्यकाल के लिये सूफी काव्यधारा में ‘ब’ व ‘ह’ रूप प्रचलित है, जैसे- चलन, चलहि। वहीं रामकाव्यधारा में भी यही रूप प्रचलित है। 4. सूफी काव्यधारा में अव्यय, अविकारी पद इस प्रकार थे- कत, ऊपर आगे-पीछे, अस, तस, जस, तब, तब, फिर आदि एवं राम भक्तिधारा में इस प्रकार हैं- कालवाचक – अब,तब, अबहूँ, तबहूँ, पीहले। स्थानवाचक – इहाँ, कहाँ, तहँ, इत, उत। प्रकारवाचक – इमि, जिमि, किमि,जस, कस।</s>
<s>[INST]मुक्त छंद की धारणा निराला की छंद संबंधी प्रयोगशीलता का सर्वोच्च स्तर है। मुक्त छंद छंद मात्र से नहीं छंद रूढ़ि से मुक्ति की बात करता है। स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • मुक्त छंद के माध्यम से छंद रूढ़ि से मुक्ति • निष्कर्ष मुक्त छंद की धारणा निराला से संबंधित है। जिसमें वह स्थापित करते हैं कि छंदानुसार भावों के स्थान पर भावानुसार छंदों का प्रयोग होना चाहिए। मुक्त छंद में भावावेग के अनुकूल लय तो होती है परंतु उसमें तुक नहीं होता और उसके सभी चरण सम नहीं होते। अतः निराला के मुक्त छंद में बंधन तो है पर वह बाहरी ना होकर आंतरिक है। निराला लिखते हैं, "मुक्त छंद तो वह है जो छंद की भूमि में भी रहकर मुक्त है xxxx मुक्त छंद का समर्थक उसका प्रवाह ही है। वही उसे छंद सिद्ध करता है।" निराला ने मुक्त छंद के समर्थन में वैदिक छंदों का तर्क दिया है। वेद में भी मुक्त छंद हैं। वह कहते हैं, "परमात्मा स्वयं अगर यह रबड़ छंद व केंचुआ छंद लिख सकते हैं तो मैंने कौन सा कसूर कर डाला।" मुक्त छंद के प्रयोग का एक कारण यह भी था कि छापे की मशीन आ जाने के कारण कविता श्रव्य के स्थान पर पाठ्य हो गई थी। 'आर्ट ऑफ रीडिंग' पर आधारित हो गई थी क्योंकि विराम चिन्ह, कोष्ठक आदि प्रणालियाँ भी कविता का अंग बन गई थी। निराला छंद मुक्ति वह मानव मुक्ति में गहरा संबंध देखते हैं। परिमल की भूमिका में वह लिखते हैं, "मनुष्य की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्य की मुक्ति कार्यों के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के अनुशासन से अलग हो जाना है।" वह काव्य और छंद की मुक्ति इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें सामंती संस्कृति के जड़ बंधन असह्य व अमान्य है। जो स्वयं मुक्त होता है, वही दूसरों को मुक्त कर सकता है। इस दृष्टि से छंदों की मुक्ति निराला जैसे मुक्त पुरुष के हाथों से ही संभव थी।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित पदों का संदर्भ सहित व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • संदर्भ • प्रसंग • विशेष व्याख्या • निष्कर्ष संदर्भ: प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ भक्तिकाल के संत कव्याधारा के शिखर कवि कबीरदास द्वारा रचित हैं। कबीरदास की रचनाओं का संकलन डॉ. श्यामसुंदर दास ने 'कबीर ग्रंथावली' नाम से किया है। इस संकलन में कबीर की कविताएँ विषयवस्तु के अनुसार विभिन्न खंडों में विभाजित हैं। उपरोक्त पंक्तियाँ 'गुरुदेव को अंग' नामक खंड में से उद्धृत हैं। प्रसंग: कबीर भारतीय साहित्य परंपरा के एकमात्र रचनाकार हैं जिन्होंने गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्त्व दिया है। इस दृष्टि से वे हर अन्य कवि तथा काव्य परंपरा पर भारी पड़ते हैं। 'गुरुदेव को अंग' कबीर की उन साखियों का संकलन है जिसमें उनके गुरुभक्ति संबंधी भाव व्यक्त हुए हैं। प्रस्तुत साखियाँ ऐसे ही भावों को व्यक्त करती हैं। व्याख्या: पहली साखी में कबीर शास्त्र ज्ञान और प्रदत्त ज्ञान का अंतर स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि पहले मैं लोगों द्वारा सुनी हुई बातों और शास्त्रों द्वारा बताए गए मार्ग को ही परम सत्य मानकर उनका अनुसरण कर रहा था। वस्तुत: यह अंधकार का मार्ग था जिस पर चलकर कोई उपलब्धि नहीं हो सकती थी। फिर मेरी भेंट सतगुरु से हुई जिन्होंने मुझे इस मार्ग की निरर्थकता समझाई। उन्होंने मुझ पर कोई मार्ग थोपा नहीं बल्कि मेरे हाथ में दीपक देकर स्वयं अपना सत्य खोजने की प्रेरणा दी। दूसरी साखी में कबीर उस क्षण की अनुभूति व्यक्त कर रहे हैं जब गुरु ने उन्हें परम ज्ञान की उपलब्धि कराई। वे बताते हैं कि सतगुरु ने मेरे भक्तिभाव और जिज्ञासा आदि से प्रसन्न होकर मुझे परम ज्ञान दिया। परम ज्ञान की प्राप्ति इतनी आह्लादकारी थी कि यूँ लगा जैसे प्रेम का बादल फट पड़ा हो और अंग-अंग प्रेम की वर्षा में भींगकर सराबोर हो गया हो। विशेष 1. इन साखियों में सतगुरु का अप्रतिम महत्त्व बताया गया है। ध्यातव्य है कि कबीर गुरु नहीं सतगुरु का महत्त्व बताते हैं क्योंकि जहाँ गुरु का संबंध साधारण व शास्त्रीय ज्ञान से है, वहीं सतगुरु नि:स्वार्थ भाव से जीवन के गहनतम रहस्यों का ज्ञान देता है। 2. कबीर पर नाथों का गहरा प्रभाव था क्योंकि उनकी परवरिश नाथ परंपरा के माहौल में हुई थी। भक्ति का यह भाव संभावत: नाथों की प्रेरणा से भी उन्हें मिला है। 3. कबीर मध्यकाल में होकर भी आधुनिक कवि हैं क्योंकि वह शास्त्रवाद के विरुद्ध तर्क व अनुभव पर बल देते हैं। इन पंक्तियों में ज्ञान को महत्व दिया गया है किंतु यह ज्ञान शंकराचार्य के अद्वैतवाद का शुष्क व निरस ज्ञान नहीं है बल्कि ईश्वर के प्रेम की ओर उन्मुख करने वाला ज्ञान है। 4. दूसरी साखी में प्रेम और भक्ति की गहरी मस्ती भावपूर्ण तन्मयता के साथ विद्यमान है। कबीर आरंभ में हठयोगी थे और भावनाओं के मार्ग को काम्य नहीं समझते थे किंतु आगे चलकर सूफियों से भावुकता और तन्मयता के साथ विद्यमान है और उसका चरम उदाहरण अपनी कविताओं में पेश किया। कबीर साहित्य के संदर्भ में यह पंक्तियाँ इसलिए प्रासंगिक हैं कि यह कबीर के सबसे प्रिय भाव की अभिव्यक्ति करती हैं। कबीर के संपूर्ण साहित्य में सबसे ज्यादा गहराई और प्रतिबद्धता उनके गुरु भक्ति संबंधी पदों में दिखती हैं जिनका साक्ष्य इन कविताओं में नज़र आता है।</s>
<s>[INST]हिन्दी का यात्रा-साहित्य भौगोलिक यात्रा-वर्णन मात्र नहीं है बल्कि सांस्कृतिक यात्राओं का साक्षी भी है। अज्ञेय और निर्मल वर्मा की यात्रा-वृतांत का संदर्भ देते हुए व्याख्या करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • अज्ञेय एवं निर्मल वर्मा के यात्रा वृतांत में सांस्कृतिक पक्ष • निष्कर्ष यात्रा-साहित्य से स्थानों की भौगोलिक यात्रा का बोध होता है, लेकिन श्रेष्ठ यात्रा-साहित्य भौगोलिक वर्णन के साथ-साथ सांस्कृतिक अंतर्यात्राओं से भी गुज़रता है इस दृष्टि से हिन्दी का यात्रा-साहित्य समृद्ध स्थिति में है और उसे इस स्थिति में लाने में प्रमुख योगदान अज्ञेय और निर्मल वर्मा का है। अज्ञेय का यात्रा-वृतांत संग्रह हैं- 'एक बूंद सहसा उछली' और 'अरे यायावर रहेगा याद!'। 'एक बूंद सहसा उछली' में विदेश यात्राओं का वर्णन है तथा 'अरे यायावर रहेगा याद!' में देश यात्रा का। 'एक बूंद सहसा उछली' में रोम, पेरिस, बर्लिन आदि स्थानों का वर्णन है। इस पुस्तक में इन स्थानों की संस्कृति का अज्ञेय ने गहन साक्षात्कार किया है। उदाहरण के लिये लेखक ने वेल्स की काव्य-गायन परंपरा, राष्ट्रीय नाट्य उत्सव आदि का वर्णन किया अज्ञेय अपने वर्णन में भारतीय और विदेशी संस्कृतियों की तुलना भी करते चलते हैं 'अरे यायावर रहेगा याद!' में असम से लेकर पश्चिमी सीमा प्रांत तक की यात्रा का वर्णन है। इसमें अज्ञेय ने पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों के जीवन की विडंबनाओं को सही संदर्भ एवं परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। निर्मल वर्मा ने अपने यात्रा वृतांत 'चीड़ों पर चाँदनी' में अपने यूरोप प्रवास की लंबी अवधि में समय-समय पर मन में संजोए गए जिन अनुभव खंडों को अभिव्यक्ति प्रदान की है, उनसे आइसलैंड, स्कैंडेनेविया, वियना आदि स्थानों का ही नहीं अपितु ब्रेख्त, काफ्का, सार्त्र आदि प्रतिष्ठित साहित्यकारों एवं चिंतकों की विचारधारा का भी परिचय प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार अज्ञेय और निर्मल वर्मा का यात्रा-वृतांत हिन्दी के यात्रा-वृतांत के सांस्कृतिक यात्राओं के ठोस प्रमाण हैं।</s>
<s>[INST]महादेवी वर्मा और रामवृक्ष बेनीपुरी के रेखाचित्र हिन्दी के रेखाचित्र साहित्य के सशक्त उदाहरण हैं। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • महादेवी वर्मा का रेखाचित्र साहित्य में योगदान • रामवृक्ष बेनीपुरी का रेखाचित्र साहित्य में योगदान • निष्कर्ष हिन्दी रेखाचित्र की विकास यात्रा को प्रौढ़ता प्रदान करने में जिन दो साहित्यकारों का सर्वाधिक योगदान है वे महादेवी वर्मा और रामवृक्ष बेनीपुरी हैं। इन दोनों रचनाकारों ने यह काम रेखाचित्रों की परिमाण गत विपुलता के कारण नहीं बल्कि संवेदनात्मक एवं कलावत गहराई के कारण किया है। महादेवी वर्मा के प्रमुख रेखाचित्र संग्रह है- 'अतीत के चलचित्र', 'स्मृति की रेखाएँ', 'पथ के साथी' और 'मेरा परिवार'। अपने इन संस्मरणात्मक रेखाचित्रों में महादेवी वर्मा ने अपने संपर्क में आने वाले शोषित व्यक्तियों दीन-हीन नारियों, साहित्यकारों, जीव-जंतुओं आदि का संवेदनात्मक चित्रण किया है। उनके रेखाचित्रों में बिंबात्मकता और सूक्तिमयता है। ये रेखा चित्र महादेवी वर्मा की असाधारण प्रतिभा, संयम एवं कलात्मक परिष्कार के द्योतक हैं। हिन्दी के अप्रतिम गद्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी का हिन्दी रेखाचित्र के विकास में अतुलनीय योगदान है। अपने रेखा चित्र संग्रह- 'लाल तारा', 'माटी की मूरतें', 'गेहूँ और गुलाब', 'मील के पत्थर' आदि के माध्यम से उन्होंने हिन्दी रेखाचित्र को संवेदनात्मक एवं वैचारिक गहराई तथा शिल्पगत उत्कर्ष प्रदान करने का काम किया। 'माटी की मूरतें' में उन्होंने गाँव के परिचितों के आत्मीय चित्र खींचे हैं। इस संग्रह के 'रजिया', 'बलदेव सिंह', 'सुभान खाँ' आदि रेखाचित्रों में अनुभूतिप्रवण आत्मीयता, स्मृतियों के माधुर्य, जीवन की तिक्तता आदि को अत्यंत सजीव भाषा में प्राणवान बनाया है। 'गेहूँ और गुलाब' के रेखाचित्र भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय पर बल देते हैं। 'मील के पत्थर' में मुख्यतः साहित्यकारों के रेखाचित्र हैं। यथार्थ के साथ कल्पना और भावुकता का समन्वय, विषय वैविध्य, शब्दों एवं वाक्यों का सहयोग रेखाचित्रों की ऐसी विशेषताएँ हैं जो उन्हें स्मरणीय बना देती हैं। अतः महादेवी वर्मा एवं रामवृक्ष बेनीपुरी के रेखाचित्र हिन्दी के रेखाचित्र साहित्य के सशक्त उदाहरण है।</s>
<s>[INST]निराला की कविताओं में प्रगति-चेतना मार्क्सवादी प्रभाव के कारण था। सतर्क विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • निराला की प्रगति चेतना पर मार्क्सवादी प्रभाव • निष्कर्ष निराला के काव्य-विकास को सामान्यतः तीन चरणों में विभक्त किया जाता है। पहला वर्ष 1920 से 1936, द्वितीय चरण वर्ष 1936 से 1950 तथा तृतीय चरण 1950 से 1961 तक। इनमें द्वितीय चरण की कविताओं में निराला में प्रगतिशील चेतना दिखाई देती है। इस चरण की कविताओं की सर्वप्रमुख विशेषता यथार्थवाद है। कुकुरमुत्ता (प्रथम संस्करण), 'अजीमा', 'नये पत्ते' की कविताओं में जो व्यंग्य दिखाई देता है उनके भीतर निराला का सामाजिक यथार्थ का गहरा बोध छिपा हुआ है। 'कुकुरमुत्ता' में तो व्यंग्य की दोहरी मार है। इसमें एक ओर पूंजीपति वर्ग पर व्यंग्य है तो दूसरी ओर संकीर्ण प्रगतिशील दृष्टि पर। निराला की प्रगतिशील चेतना 'नये पत्ते' की 'कुत्ता भौंकने लगा', 'झिंगुर डरकर बोला', 'उछाल मारता चला गया', 'महगू मँहगा रहा' जैसी कविताओं में अपने चरम रूप में अभिव्यक्त हुई है। निराला की उपर्युक्त प्रगतिशील चेतना को कई आलोचकों ने सीधे-सीधे मार्क्सवादी प्रभाव से जोड़कर देखा है। लेकिन ध्यातव्य है उनकी 1936 से पहले की कई कविताओं में भी प्रगतिशील दृष्टि मौजूद है। 'विधवा', 'भिक्षुक', 'तोड़ती पत्थर' आदि ऐसी ही कविताएँ हैं। अतः यह तो स्वीकार किया जा सकता है कि बाद में उन पर मार्क्सवादी चिंतन का कुछ प्रभाव पड़ा होगा लेकिन उनके प्रगतिशील चेतना से युक्त काव्य को मार्क्सवाद का परिणाम मानना उचित नहीं है।</s>
<s>[INST]भारत के रेखा मानचित्र पर निम्नलिखित सभी की अवस्थिति को अंकित कीजिये। अपनी क्यू.सी.ए. पुस्तिका में इन स्थानों का भौतिक/ वाणिज्यिक/ आर्थिक/ पारिस्थितिक/ पर्यावरण/ सांस्कृतिक महत्त्व को अधिक-से-अधिक 30 शब्दों में लिखिये।[/INST]उत्तर : (i) गुरू शिखर (ii) भोर घाट (iii) श्रवणबेलगोला (iv) कालीबंगन (v) गंगा सागर (i) गुरू शिखरः गुरू शिखर राजस्थान के अरबुडा (Arbuda) पहाड़ों में, 1722 मी. की ऊँचाई पर अरावली पर्वतमाला की सबसे ऊँची चोटी है। यह पर्यावरणीय, सांस्कृतिक व आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण स्थल है। यहाँ स्थित मांउट आबू में दिलवाड़ा जैन मंदिर, विष्णु मंदिर जैसे धार्मिक तीर्थ, समृद्ध वनस्पतियों एवं जीव-जंतुओं के कारण प्रमुख प्राकृतिक पर्यटन स्थल भी हैं। पर्यटन गतिविधियों के कारण यह स्थान राज्य में आय का एक प्रमुख स्रोत भी है। (ii) भोर घाटः भोरघाट प्रायद्वीप भारत में स्थित पश्चिमी घाट श्रेणी के सहयाद्रि पर्वत का एक प्रमुख दर्रा है। महाराष्ट्र राज्य में कर्जत और खंडाला के बीच स्थित इस दर्रे से होकर मुंबई-पूना मार्ग गुजरता है। जो मुंबई को अन्य कई दक्षिण भारतीय राज्यों से जोड़ता है। इस प्रकार यह दर्रा जहाँ क्षेत्रीय संपर्क की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। वहीं आर्थिक गतिविधियों में भी प्रमुख भूमिका निभाता है। (iii) श्रवणबेलगोलाः श्रवणबेलगोला, कर्नाटक राज्य के हासन ज़िले में स्थित एक प्रमुख जैन तीर्थ स्थल है। श्रवणबेलगोला में ही स्थित भगवान बाहुबली की मूर्ति स्थित है। इसके अलावा यहाँ चंद्रगिरी पर्वत पर स्थित भद्रबाहु की समाधि व गुफाएँ भी हैं। 9वीं से 12वीं शताब्दी के अनेक शिलालेख व स्तंभलेख भी यहाँ अवस्थित हैं जो विभिन्न राजवंशों की जानकारी प्रदान करते हैं। इस प्रकार श्रवणबेलगोला का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक पर्यटन स्थल के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान है। (iv) कालीबंगनः कालीबंगन भारत के उत्तर-पश्चिम में राजस्थान के हनुमानगढ़ ज़िले में स्थित एक प्रमुख ऐतिहासिक स्थल है। यहाँ हड़प्पाकालीन संस्कृति से जुड़े कई प्राचीन अवशेष मिले हैं जैसे- पत्थर व कांच की चूड़ियाँ, मिट्टी के खिलौने, मवेशियों की हड्डियों के अवशेष, बैलगाड़ी की पहिये। यह स्थल हमें उस समय की राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक स्थिति की जानकारी प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। (v) गंगा सागरः पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना ज़िले में स्थित यह एक प्रमुख धर्मिक तीर्थ स्थान है। यहाँ पर गंगा नदी समुद्र में मिलती है, इसके अलावा इस स्थान पर कपिल मुनि का मंदिर भी स्थित है। इस स्थान को सागर द्वीप भी कहा जाता है। धार्मिक महत्त्व के अलावा इस द्वीप में ही रायल बंगाल टाइगर का प्राकृतिक आवास भी है। यहाँ मैंग्रोव के दलदल, जलमार्ग व नहरें भी हैं। इस प्रकार यह एक प्राकृतिक एवं पर्यावरणीय पर्यटन स्थल की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। </s>
<s>[INST]क्या आप इस लोक प्रचलित मत से सहमत हैं कि मौर्यो ने यदि एकात्मक राजतंत्र नहीं, तो भी एकात्मक और अत्यधिक केंद्रित राज्य प्रणाली की स्थापना की थी? (250 शब्द )[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • उदाहरण • निष्कर्ष मौर्य साम्राज्य एक नए राजनीतिक प्रयोग का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें एक प्रकार का केंद्रीकरण एवं साम्राज्यवादी व्यवस्था की विस्तृत प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। राजनीतिक व्यवस्था के मुख्य तत्त्व विस्तृत क्षेत्र और केंद्रीय नियंत्रण की प्रवृत्ति थी जिससे इसके विशिष्ट साम्राज्य होने की पुष्टि होती है। मौर्य साम्राज्य में राजा विस्तृत नौकरशाही व्यवस्था, कर व्यवस्था के अभिलेखों तथा अर्थशास्त्र में भी साम्राज्यवादी चेतना की झलक मिलती है। परंतु केंद्रीयकृत व्यवस्था को क्षेत्रीय स्तर पर स्थानीय स्वतंत्रता की पूर्ण समाप्ति से नहीं जोड़ा जा सकता है। पूर्ण केंद्रीकरण की व्यवस्था में मौर्य साम्राज्य की एकात्मक व्यवस्था की कल्पना उचित नहीं जान पड़ती है जैसा कि अशोक के अभिलेख बहुत हद तक उत्तराधिकारियों को संबोधित करते हैं। दूसरे, उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में पाए गए अभिलेख खरोष्ठी लिपि से लिखे गए तथा अफगानिस्तान में यूनानी एवं अरेमाइक लिपि में लिखे गए। इसका अर्थ है कि उन क्षेत्रों में विदेशी मूल के लोग या अधिकारी रहते होंगें। मौर्य साम्राज्य में उत्तम संचार व्यवस्था एवं यातायात व्यवस्था के अभाव के कारण पूर्ण या एकात्मक राजतंत्र की संभावना नहीं दिखाई देती। यदि मौर्य साम्राज्य को मुख्य क्षेत्र एवं दूरवर्ती क्षेत्र में विभाजित करके देखे तो मौर्य साम्राज्य के प्रशासन में विविधता देखने को मिलती है। दूरवर्ती क्षेत्रों में प्रायद्वीपीय भारत के क्षेत्र तथा उत्तर-पश्चिम के क्षेत्र शामिल थे। दक्षिण भारत के अशोक के अभिलेखों में हाथी पालने के साक्ष्य मिलते हैं। इसका अर्थ है कि दूरवर्ती क्षेत्रों में मौर्य राज्य क्षेत्रीय सरदारों के माध्यम से नियंत्रण रखता था। दूसरे, इस समय श्रेणियों की भी स्वायत्त स्थिति की कल्पना की जा सकती है जिसके कारण अखंड राजतंत्र नहीं माना जा सकता। अतः मौर्य राजतंत्र एक अखंड राजतंत्र तो नहीं था किंतु एक विस्तृत साम्राज्य अवश्य था जिसमें केंद्रीकरण की प्रवृत्ति अपनी पराकाष्ठा पर थी। मौर्य साम्राज्य में प्रशासन सप्तांग विचारधारा पर आधारित था, इसे सुचारु रूप से चलाने के लिये राजा जनपद, मित्र, सेना, कोष एवं दुर्ग राज्य के क्रियान्वयन के अंग थे। राजा के कार्यों में सहायता के लिये एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था थी जिसे राजा का नेत्र कहा गया है, मंत्रिपरिषद में मंत्रियों की शक्तियाँ राजा की परस्पर स्थिति पर निर्भर थी। मंत्रियों की नियुक्ति उपधा परीक्षण (योग्यता परीक्षण) के उपरांत होती थी। मंत्रिपरिषद एक परामर्शदात्री निकाय के रूप में कार्य करती थी। मौर्य साम्राज्य में अत्यधिक केंद्रीकरण की प्रवृत्ति उसकी नौकरशाही व्यवस्था से पता चलती है। मौर्य साम्राज्य विस्तृत नौकरशाही पर आधारित था जिसमें पिरामिडनुमा व्यवस्थित अधिकारी संवर्ग को नियुक्त किया गया था। नौकरशाही व्यवस्था में सबसे ऊँचे स्तर पर तीर्थ एवं महामात्र नामक अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों की चर्चा मिलती है। मौर्य साम्राज्य के प्रमुख तीर्थो में मंत्री, पुरोहित, सेनापति, समाहर्ता एवं सन्निधाता थे, सन्निधाता राज्य का कोषाध्यक्ष होने के साथ-साथ खजाने का प्रभारी भी होता था जो समाहर्ता के साथ मिलकर कार्य करता था। अर्थशास्त्र में मौर्य साम्राज्य में 27 अध्यक्षों की चर्चा मिलती है जैसे लक्षपाध्यक्ष, सीताध्यक्ष पण्याध्यक्ष आदि। इनका कार्य राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में सहायता करना था, साथ ही ये लोग सामाजिक-आर्थिक जीवन का विनियमन भी देखते थे। संपूर्ण मौर्य साम्राज्य का विभाजन सुविधानुसार प्रांतों में किया गया था। चंद्रगुप्त मौर्य के समय प्रांतों की निश्चित संख्या की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, जबकि 4 (चार) प्रांत होने की जानकारी व्यक्त की जाती है। किंतु अशोक के काल के पाँच प्रांतों एवं उनकी राजधानियों की जानकारी मिलती है। मौर्य साम्राज्य के प्रांत ज़िलों में विभाजित थे जिनमें रज्जुक एवं प्रादेशिक अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी जो ज़िलों के प्रशासन एवं भूराजस्व व्यवस्था के साथ न्याय व्यवस्था को देखते थे। ज़िला एवं ग्रामीण व्यवस्था के बीच स्थानीय नामक प्रशासनिक इकाई कार्य करती थी जिस पर ‘स्थानिक’ नामक अधिकारी की नियुक्ति की जाती थी। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी जिस पर प्रधान ग्रामीण था। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यधिक केंद्रीकृत थी। मौर्य साम्राज्य में केंद्रीकृत प्रशासन तथा विस्तृत नौकरशाही एक विस्तृत साम्राज्य का प्रतिनिधित्व करती थी। विस्तृत साम्राज्य की प्रतिक्रिया को जानने के लिये संचार साधनों के अभाव की स्थिति में गुप्तचर व्यवस्था का प्रबंध किया गया था। कौटिल्य ने इन गुप्तचरों के लिये चर, स्पर्श एवं गूढपुरुष संज्ञाओं का प्रयोग किया है। अतः गुप्तचर व्यवस्था केंद्रीकृत एवं विस्तृत साम्राज्य के अभिलक्षणों को और पुष्ट करते हैं। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि मौर्य साम्राज्य एक एकात्मक राजतंत्र भले न हो किंतु एक केंद्रीकृत साम्राज्य अवश्य था, फिर बात चाहे प्रांतपतियों की नियुक्ति की हो जो केंद्र ही करता था या प्रांतीय मंत्रिपरिषद की विवेकाधीन शक्ति जो महत्त्वपूर्ण बातों की सूचना प्रांतपतियों को न देकर सीधे राजा को प्रेषित करते थे। अतः इस प्रकार मौर्य साम्राज्य की राजतांत्रिक व्यवस्था अत्यधिक केंद्रीकृत थी।</s>
<s>[INST]भारत में लैटेराइट मिट्टी के वितरण और कृषि के लिये इसके विशिष्ट उपयोग पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद: भारत में लैटेराइट मिट्टी के वितरण लैटेराइट मिट्टी, कृषि के लिये किस प्रकार उपयोगी है। हल करने का दृष्टिकोण: संक्षिप्त भूमिका लिखें। लैटेराइट मिट्टी के बारे में बताइए। भारत में लैटेराइट मिट्टी के वितरण को को स्पष्ट कीजिये। लैटेराइट मिट्टी, कृषि के लिये किस प्रकार उपयोगी है, का उल्लेख कीजिये। शब्द सीमा कम करने के लिये चित्र/माइंड मैप के साथ दर्शाइये। निष्कर्ष। लैटेराइट मृदा का विकास उष्ण कटिबंधीय आर्द्र जलवायु प्रदेशों तथा मानसूनी प्रदेशों में होता है अर्थात् जिन क्षेत्रों में उच्च तापमान तथा भारी वर्षा होती है। अधिक तापमान के कारण लैटेराइज़ेशन की प्रक्रिया द्वारा सिलिका युक्त तत्त्वों एवं कार्बनिक पदार्थों का विघटन होता है। सिलिका, अधिक वर्षा के कारण बहकर तथा क्षारीय तत्व ह्यूमस के साथ घुलकर नीचे की परतों में चले जाते हैं अतः ऊपरी परत में एल्यूमीनियम व आयरन के ऑक्साइड होने के कारण यह मृदा ईंट जैसी लाल रंग की होती है। दक्षिण भारत, मध्य प्रदेश और बिहार के पठारों के उच्च स्थलों पर लैटेराइट मृदा के निक्षेप पाए जाते हैं। भारत में लैटेराइट मृदा मुख्यतः तमिलनाडु के पहाड़ी भागों (त्रिचनापल्ली ज़िले में) और निचले क्षेत्रों, कर्नाटक के कुर्ग ज़िले, केरल राज्य के चौड़े समुद्र तट, महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले, पश्चिमी बंगाल के लैटराइट व ग्रेनाइट पहाड़ियों के बीच तथा उड़ीसा के पठार, राजमहल पहाड़ी क्षेत्रों, छोटा नागपुर पठार, असम के पहाड़ी क्षेत्रों तथा मेघालय के पठारों में पाई जाती है। यह मृदा रबड़ और काॅफी के लिये सबसे अच्छी मानी जाती है। इस मिट्टी में मुख्यतः चाय, कहवा, रबड़, सिनकोना, काजू, मोटे अनाज व मसालों की कृषि की जाती है। भारत में इन कृषि फसलों के उत्पादन के महत्त्व को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है: चाय: भारत में चीन के बाद सबसे अधिक चाय का उत्पादन किया जाता है। चाय एक प्रकार की बागानी फसल है जिसकी कृषि हेतु उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु, 24°C-30°C तापमान व 150-250 CM वर्षा की आवश्यकता होती है अर्थात् लैटेराइट मृदा प्रधान क्षेत्र इसकी कृषि हेतु महत्त्वपूर्ण होते हैं। भारत में असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु में नीलगिरी पहाड़ियाें तथा केरल में चाय की कृषि की जाती है। रबड़: रबड़ विश्व की प्रमुख व्यावसायिक फसलों मे से एक है। इसका प्रयोग मोटर ट्यूब, टॉयर, वॉटर प्रूफ कपड़े, जूते एवं विभिन्न प्रकार के दैनिक उपयोग में होता है। भारत का रबड़ उत्पादन में विश्व में चौथा स्थान है। भारत में मुख्य रूप से यहाँ की मृदा (लैटेराइट) व जलवायुवीय विशेषताओं के कारण यह विशेषकर कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु क्षेत्रों में उत्पादित की जाती है। मसाले: मसाले, उष्णकटिबंधीय जलवायु प्रदेशों में की जाने वाली प्रमुख बागानी फसल है। भारत, मसाला उत्पादन करने वाले अग्रणी देशों में शामिल है। भारत में विभिन्न प्रकार के मसाले जैसे- काली मिर्च, दाल चीनी, लौंग, इलायची, अदरक, हल्दी आदि का उत्पादन किया जाता है। इन फसलों के लिये गहरी व अच्छी किस्म की लैटैराइट व दोमट मृदा की आवश्यकता होती है। भारत में कर्नाटक, केरल, आंध्रप्रदेश व तमिलनाडु राज्य में इसकी कृषि की जाती है। आंध्र प्रदेश मसाला उत्पादन में अग्रणी राज्य है। इस प्रकार भारत में लैटेराइट मृदा, उपर्युक्त व्यावसायिक एवं वाणिज्यिक फसलों के उत्पादन दृष्टि से यह अत्यंत उपयोगी है। इन फसलों के उत्पादन से न केवल नियार्त को प्रोत्साहन मिला है बल्कि यह संबंधित क्षेत्र के आर्थिक-सामाजिक विकास हेतु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण व उपयोगी है।</s>
<s>[INST]क्या अवहट्ट को स्वतंत्र भाषा मानना उचित है? इस प्रश्न का तार्किक उत्तर देते हुए अवहट्ट की शब्दकोशीय विशेषताओं को रेखांकित कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • अवहट्ट को स्वतंत्र भाषा मानने के पीछे तर्क • अवहट्ट की शब्दकोशीय विशेषताएँ अवहट्ट शब्द संस्कृत शब्द 'अपभ्रष्ट' का तद्भव रूप है। इस संबंध में एक समस्या यह है कि अपभ्रंश और अवहट्ट दोनों शब्द समानार्थी हैं क्योंकि दोनों ही भ्रष्ट भाषा को व्यक्त करते हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि क्या अवहट्ट अपभ्रंश से अलग एक स्वतंत्र भाषा है? यह समस्या इसलिये और भी जटिल हो जाती है क्योंकि उस काल के जितने भी कवियों और विद्वानों ने तत्कालीन भाषाओं के नाम गिनाए हैं, उन्होंने या तो अपभ्रंश का नाम लिया है या अवहट्ट का; किसी ने भी इन दोनों का नाम एक साथ नहीं लिखा। इससे यह संभावना प्रतीत होने लगी कि ये दोनों नाम एक ही भाषा के हैं, जिनमें से कहीं किसी एक का प्रयोग होता है और कहीं दूसरे का। आधुनिक भाषा वैज्ञानिकों के अनुसंधानों से अब यह साबित हो चुका है कि अबहट्ट केवल एक भाषिक शैली नहीं बल्कि एक स्वतंत्र भाषा है।‌‌‍ इस भाषा का काल लगभग 9वीं से 11वीं शताब्दी के बीच स्वीकार किया गया है। साहित्य प्रयोग की दृष्टि से या भाषा चौदहवीं शताब्दी तक दिखाई देती है। 'संदेशरासक' एवं 'कीर्तिलता' इस भाषा से संबंधित दो प्रमुख रचनाएँ हैं। अवहट्ट की शब्दकोशीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं: तद्भव शब्दों की संख्या सबसे अधिक है जो प्रक्रिया अपभ्रंश में तेज़ी से आरंभ हुई थी वह अवहट्ट में भी चलती रही। उदाहरण के लिये- दिटि्ठ, लोयण इत्यादि। देशज शब्दों का काफी अधिक विकास इस काल में दिखाई देता है- खिखणी (लोमड़ी), गुंडा, हांडी जैसे देशज शब्द इसी युग में विकसित हुए हैं। विदेशी शब्द अपभ्रंश की तुलना में काफी बढ़ गए हैं। यह सभी शब्द अरबी फारसी और तुर्की परंपरा के हैं। जैसे-कसीदा, खुदा, चाबुक इत्यादि। तत्सम शब्द भी अपभ्रंश के अंत में पुनः आने लगे थे। यही प्रवृत्ति अवहट्ट में भी बनी रही। उदाहरण के लिये- उत्तम, कटाक्ष, पृथ्वी इत्यादि।</s>
<s>[INST]तड़ितझंझा (थंडरस्टार्म) की उत्पत्ति एवं विकास का सोदाहरण वर्णन कीजिये?[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद: भूमिका तड़ितझंझा (थंडरस्टार्म) की उत्पत्ति के बारे में बताइये तड़ितझंझा (थंडरस्टार्म) के विकास के बारे में बताइये तड़ितझंझा का उदहारण निष्कर्ष हल करने का दृष्टिकोण: संक्षिप्त भूमिका लिखें। की-वर्ड को परिभाषित करें तड़ितझंझा (थंडरस्टार्म) की उत्पत्ति के बारे में बताइये तड़ितझंझा (थंडरस्टार्म) के विकास के बारे में बताइये। तड़ितझंझा के विकास की तीनों अवस्थाओं का उल्लेख कीजिये। शब्द सीमा कम करने के लिये चित्र/माइंड मैप का प्रयोग करें। उदहारण के साथ निष्कर्ष लिखिए। तड़ितझंझा एक अत्यंत प्रचंड वायुमंडलीय विक्षोभ होता है। जिसमें मेघ गर्जन, विद्युत और तीव्र गति युक्त पवनों के साथ वर्षा होती है। तड़ितझंझा संवहनीय वर्षा का ही एक प्रकार है जिसमें विद्युत की चमक तथा मेघों की गरज के साथ वर्षा होतीहै। ऐसे भीषण तूफान के आने पर विभिन्न मौसमी परिवर्तन होते हैं जैसे- ओला वृष्टि, वायु के तीव्र झोकें, तापमान में आकस्मिक गिरावट आदि। तड़ितझंझा ज्यादातर जमीन पर होते हैं जहाँ तापमान अधिक होता है। कम तापमान वाले जल निकायों पर तड़ितझंझा की उत्पत्ति कम होती है। दुनिया भर में प्रत्येक वर्ष लगभग 16 मिलियन तड़ितझंझा होते हैं। तड़ितझंझा के विकास के लिये आवश्यक ऊर्जा की अधिकांश मात्र संलयन (Fusion) एवं संघनन की गुप्त ऊष्मा से प्राप्त होती है। इसका विकास कपासी वर्षा वाले मेघों से होता हैं इनमें जब तरल एवं ठोस जल ऊपर उठती हुई वायु तरंगों द्वारा इतनी ऊँचाई तक पहुँचा दिया जाता है। जहाँ तापमान 20°C से भी काफी नीचे होता है तब विद्युत एवं मेघ गर्जन की उत्पात्ति होती है। तड़ितझंझा के लिये वायुमंडल की निचली परतों में उष्णार्द्र वायु की उपस्थिति तथा आरोही वायु तरंगों का प्रबल होना आवश्यक शर्त है। तड़ितझंझा जैसे प्रचंड तूफान अल्पकालिक होते हैं। इस तूफान में कुल तीन से पाँच संवहनिक कोश होते हैं। इन कोशों में से प्रत्येक का जीवन चक्र वायु तरंगों की दिशा एवं परिणाम में होने वाले परिवर्तन के साथ समाप्त हो जाता है। इन कोशों के विकास की तीन अवस्थाएँ होती हैं: प्रारंभिक अवस्थाः इसे ‘कपासी मेघ अवस्था’ भी कहते है। मेघों के आधार तल से उनके शीर्ष भाग तक विस्तृत प्रबल आरोही वायु तरंगे प्रत्येक कोश में पाई जाती हैं। इस अवस्था में मेघो में प्रचुर मात्र में जल एकत्रित हो जाता है। ऊर्ध्वगामी वायु तरंगों के उत्पन्न होने से 15-20 मिनट के बाद ही वर्षा की बूंदों का आकार काफी बढ़ा हो जाता है। इन बूंदों का कोश के विकास तथा आवेश केंद्रों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। कोश के निचलने भाग का तापमान अपेक्षाकृत अधिक होने के कारण उसमें जलवृष्टि होती है। वर्षा के प्रारंभ होने के साथ ही कोश की प्रौढ़ावस्था प्रारंभ हो जाती है। प्रौढ़ावस्थाः इस अवस्था में प्रत्येक कोश में आरोही एवं अवरोही वायु तरंगों की एक साथ उत्पत्ति होती है। बूंदो के आकार में वृद्धि होने के साथ-साथ उनकी संख्या में भी वृद्धि हो जाती है। इसलिये इस अवस्था में मूसलाधार वृष्टि प्रारंभ हो जाती है। आरंभ में अवरोही वायु तंरगे, आरोही तरंगों के केवल एक ओर पाई जाती है किंतु धीरे-धीरे इन तरंगों का संपूर्ण कोश में विस्तार हो जाता है। धरातल पर हवा के तेज़ झोके चलने लगते हैं। इसके कारण तापमान में शीघ्र कमी आ जाती है तथा तीव्र वर्षा होने लगती है। अंततः अवरोही वायु तरंगों की शक्ति कम होने लगती है तथा क्रमशः उनका पूर्ण रूप से लोप हो जाता है। इसी के साथ ही तड़ितझंझा के विघटन की अवस्था प्रारंभ हो जाती है। विघटन अवस्थाः इस अवस्था में तड़ितझंझा के सभी कोशों में अवरोही एवं मंद गति वाली वायु तरंगों की प्रधानता होती है। मेघों में जल की आपूर्ति कम होने लगती है। जिसके फलस्वरूप वृष्टि की तीव्रता भी कम हो जाती है। केंद्र से बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली शीलत हवाएँ मंद होने लगती हैं। अंत में आकाश में मेघो के टुकड़े तैरते हुए दिखाई पड़ते हैं। विघटन अवस्थाओं में कभी-कभी कोश का जीवन काल थोड़े ही समय में समाप्त हो जाता है किंतु कुछ विशेष परिस्थितियों में कुछ तूफानों में घंटों तक हल्की वर्षा होती रहती है। उदाहरण स्वरूप विषुवत रेखा के निकटवर्ती उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में तड़ितझंझा की उत्पत्ति के लिये आदर्श दशाएँ होती है। यहाँ उष्णार्द्र वायु के अतिरिक्त डोलड्रम की पेटी में पवनों के अभिसरण के कारण वायु के ऊपर उठने में सहायता मिलती है। साथ ही सूर्यातप के कारण धरातल के गर्म होने से संवहनीय धाराएँ उत्पन्न होती हैं। जो तड़ितझंझा की उत्पत्ति के लिये अनुकूल दशाएँ उत्पन्न करती है। इसलिये भूमध्यरेखा क्षेत्र में इन तूफानों की बारंबारता होती है। मध्यवर्ती अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका में एंडीज के पूर्व स्थित क्षेत्र, मेडागास्कर तथा पूर्वी द्वीप समूह आदि क्षेत्रों में तड़ितझंझा की अधिक संख्या पाई जाती है।</s>
<s>[INST]‘भक्ति और सूफी आंदोलनों ने एक ही सामाजिक प्रयोजन की पूर्ति की थी’, विवेचना कीजिये? (250 शब्द )[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • उदाहरण • निष्कर्ष भक्ति का अर्थ मोक्ष प्राप्ति के लिये ईश्वर के समक्ष आत्म-समर्पण या भौतिकवाद के विरुद्ध हृदय की प्रतिक्रिया एवं प्रेम से ओत-प्रोत दिव्य उपासना है। दूसरी ओर सूफी मत इस्लाम धर्म में उदार, रहस्यवादी, संश्लेषणात्मक तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करने वाली विचारधारा थी जो धीरे-धीरे आध्यात्मिक स्वरूप में परिवर्तित होती चली गई। दोनों आंदोलनों ने समय की नज़ाकत को समझते हुए सामाजिक प्रयोजनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भक्ति आंदोलन का इतिहास कई चरणों में बँटा हुआ है। प्रारंभिक चरण में यह धार्मिक आंदोलन ही रहा जिसका उद्देश्य हिंदी धर्म के सिद्धांतों की व्याख्या करना था यह आंदोलन अगले चरण में धर्म सुधार का स्वरूप ग्रहण करता चला गया तो वहीं तीसरे चरण में यह आंदोलन समन्वयवादी चिंतक के रूप में उभर कर सामने आया जिसने हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच एक परंपरा का विकास किया तथा रूढ़िवादी एवं कट्टरपंथी विचारों के विपरीत एक उदारवादी एवं सहिष्णु विचारधारा का विकास किया। सूफी आंदोलन के प्रारंभिक चरण में इसका आधार इस्लाम के उपदेशों में निहित था। इस आंदोलन में नए विचारों की उत्पत्ति तब हुई जब इस्लामी साम्राज्य के प्रसार के साथ नए विचारों तक अलग धर्मों के साथ इसका संपर्क बढ़ा। इसके बाद सूफी मत की व्याख्या दो तरीके से की जाने लगी। प्रथम मत ‘शरियत’ के अनुसार व्याख्या करता था तो दूसरा ‘तरीकत’ के अनुसार। तरीकत एक उदारवादी व्याख्या थी जिसमें सूफियों का गहरा विश्वास था, इसी के साथ सूफी आंदोलन आगे बढ़ता रहा। भक्ति आंदोलन मूलतः एक सुधारवादी आंदोलन था, भारत में जब इस्लाम धर्म का प्रसार तीव्र गति से हो रहा था और उस दौरान शासक एवं शासित के बीच धार्मिक भिन्नता थी। अतः नई परिस्थितियों में हिंदू धर्म को युग की आवश्यकता के अनुसार बदलना या संशोधित करना आवश्यक था जिससे व्यावहारिक समाज का निर्माण हो सके तथा हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित की जा सके साथ ही सौहार्दपूर्ण संबंधों का सृजन हो सके। भक्ति आंदोलन द्वारा हिंदू समाज में जब जटिलता के स्थान पर सरलता का काम किया जा रहा था उसी समय सूफी आंदोलन द्वारा सामाजिक समन्वय का प्रयास किया जा रहा था जिसमें दोनों संप्रदायों के बीच सामाजिक समता स्थापित हो सके। भक्ति आंदोलन ने हिंदू एवं मुसलमान दोनों पक्षों की दुर्बलताओं को उजागर किया। साथ ही समन्वयवादी तथा स्पष्ट दृष्टिकोण प्रसारित किया जिसमें दोनों के बीच भेदभाव को नकार दिया गया तथा मानव की समानता पर बल दिया। इससे सामान्य जनता प्रभावित हुई और कई मुसलमान हिंदू संतों के भक्त तक बन गए इसी के साथ राम-रहीम एक है की अवधारणा को बल मिला, साथ ही हिंदू धर्म में इस्लाम की एकेश्वरवादी परंपरा का समन्वय होता दिखाई दिया। धार्मिक उदारता के संदर्भ में सूफी आंदोलन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही जिससे शासक वर्ग के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आया। सूफी आंदोलन ने सभी मनुष्यों की समानता पर बल दिया तथा इसी के अनुरूप सामाजिक व्यवहार भी किया जिसके कारण सूफी संतों की खानकाहों में हिंदुओं का आना जाना बढ़ गया जहाँ धर्म एवं संप्रदाय के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता था। आगे चलकर अकबर जैसे शासक ने इसी सहिष्णुता को अपनी धार्मिक नीति का आधार बनाया। सूफी आंदोलन ने भक्ति आंदोलन की तरह मुस्लिम समाज में भी सुधार का कार्य किया तथा नैतिक आचरण पर बल दिया और अपने समाज में व्याप्त मद्यपान, वैश्यावृत्ति जैसी बुराइयों के प्रति नई चेतना जगाने का कार्य किया। उन्होंने सांसारिक आकर्षण की निंदा करते हुए समाज सुधार का कार्य किया। भक्ति एवं सूफी आंदोलनों द्वारा भले ही सामाजिक प्रयोजनों के लिये समान प्रयास किये गए किंतु समाज का एक बड़ा वर्ग दोनों ओर से शासक-शासित के बीच भिन्नता को अंतरमन में छुपाए था उनकी अभिव्यक्तियों में भी कहीं-न-कहीं वह असंतोष और रूदन प्रकट हो जाता था जिसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। निष्कर्षतः यह कह सकते है कि भक्ति और सूफी आंदोलनों का महत्त्व इस बात में है कि आम जनता अपनी आशाओं और प्रेरणाओं को समझ सकती थी और यह उनके लिये आपसी सहमति से समन्वय कितना आवश्यक था जो उनके विश्वासों से जुड़ा था। अतः इन सबके बावजूद भक्ति-सूफी आंदोलनों ने सामाजिक समन्वय का जो प्रयास किया वह उसमें सफल भी रहा।</s>
<s>[INST]'ज़िंदगी का अभाव और संघर्ष ही नागार्जुन के काव्य-संसार की जलवायु है और विक्षोभ उनकी कविता का केंद्रीय स्वर।' इस कथन के आलोक में नागार्जुन के काव्य-कर्म पर विचार कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • नागार्जुन के काव्य कर्म पर विवेचन • निष्कर्ष नागार्जुन के काव्य का मूल्यांकन करते हुए प्रगतिवादी आलोचकों ने नागार्जुन को मार्क्सवादी विचारधारा का प्रतिष्ठापरक कवि मानते हुए क्रांति चेतना को उनकी कविता का केंद्रीय स्वर माना है। लेकिन कुछ आलोचकों के मत में नागार्जुन के कव्यकर्म का मूल आधार मार्क्सवाद नहीं बल्कि उनके अपने जीवन का अभाव और संघर्ष है और उनकी कविता का केंद्रीय स्वर विद्रोह और क्रांति नहीं बल्कि विक्षोभ है जो मानवीय जीवन मूल्यों में आस्था रखने वाले किसी भी कवि की कविता का सहज स्वभाव होता है। वस्तुत: नागार्जुन के काव्य में उनके जीवनगत अभाव और संघर्ष के कई संदर्भ मौजूद हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है - "मानव होकर मानव के ही चरणों में मैं रोया। दिन बागों में बीता रात को पटरी पर मैं सोया। कभी घुमक्कड़ यार दोस्त से मिलकर कभी अकेले - एक-एक दाने की खातिर सौ-सौ पापड़ बेले।" नागार्जुन के काव्य में सैद्धांतिक आग्रह से इतर ऐसी कई आत्मभिव्यक्तियाँ उपस्थित हैं । 'रवि ठाकुर' कविता में नागार्जुन ने अपने जीवन के हालातों का हवाला देते हुए लिखा है- "पैदा हुआ था मैं- दीन-हीन-अपठित किसी कृषक कुल में आ रहा हूँ पीता अभाव का आसव ठेठ बचपन से कवि! मैं रूपक हूं दबी हुई दूब का हरा हुआ नहीं कि चरने दौड़ते।। जीवन गुजरता प्रतिपल संघर्ष में।।" जीवन का यह दुख अभाव नागार्जुन की कविता में बार-बार उभरता है- सामाजिक तथ्य के रूप में नहीं बल्कि सघन अनुभव के रूप में पिता और पति के रूप में अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वाह न कर पाने की व्यथा अपराध बोध के रूप में छलक कर कविता बन गई है- हृदय में पीड़ा, दृगों में लिए पानी देखते पथ काट दी सारी जवानी! नागार्जुन के काव्य में व्यक्तिगत अभावों और संघर्षों का विस्तार सामाजिक अन्याय, गरीबी और शोषण तक होता है और उनकी कविता परिवर्तन और न्याय की चेतना के लिए पाठक के मन को समाज को संस्कारित करती है। उनकी कविताओं में हिंसक क्रांति का स्वर भी सुनाई अवश्य देता है पर वह उनकी कव्यानुभूति का मूल भाव नहीं है। इस प्रकार इस मत से सहमत हुआ का सकता है कि ज़िंदगी का अभाव और संघर्ष ही नागार्जुन के काव्य संसार की जलवायु है और विक्षोभ उनकी कविता का केंद्रीय स्वर है।</s>
<s>[INST]दुर्लभ प्रजातियों के विलोपन का उल्लेख करते हुये वन्य प्राणी संरक्षण के उपाय सुझाइयें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद: भूमिका दुर्लभ प्रजातियों के बारे में संक्षिप्त में बताइये दुर्लभ प्रजातियों के विलोपन के बारे में संक्षिप्त में बताइए वन्य प्राणी संरक्षण के उपाय बताइए निष्कर्ष हल करने का दृष्टिकोण: संक्षिप्त भूमिका लिखें। की-वर्ड को परिभाषित करें दुर्लभ प्रजातियों एवं उनके विलोपन के बारे में संक्षिप्त में बताइये वन्य प्राणी संरक्षण के उपाय बताइए। शब्द सीमा कम करने के लिये चित्र/माइंड मैप का प्रयोग करें। निष्कर्ष (उपाय से संबंधित हालिया घटना का उल्लेख कीजिये) दुर्लभ प्रजातियों के अंतर्गत वे सभी जीव प्रजातियाँ आती हैं जिनकी संख्या, दिन-प्रतिदिन भौगोलिक क्षेत्र कम होने तथा जीवों के जनसंख्या घनत्व में कमी होने के कारण घटती जा रही है। ऐसी प्रजातियाँ सिर्फ एक क्षेत्र विशेष जलवायु में निवास करती हैं। विभिन्न पर्यावरणीय एवं मानव जनित समस्याओं के कारण इनका तेज़ी से क्षरण हो रहा है। उदाहरण के लिये इंडोनेशिया के एक द्वीप पर पाया जाने वाला कमोडो ड्रैगन नामक बड़ी छिपकली, भारत-बांग्लादेश व नेपाल में पाया जाने वाला पैंगोलिन, भारत के सिक्किम, असम व अरुणाचल प्रदेश में पाया जाने वाला लाल पांडा आदि। दुर्लभ प्रजातियों के विलोपन के लिये प्राकृतिक तथा मानवीय दोनों ही कारण ज़िम्मेदार है किंतु वर्तमान समय में मानवीय गतिविधियाँ सबसे बड़ा कारण बनकर उभरी हैं। संरक्षण (Conservation), वन्यजीवों एवं प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा, रखरखाव, प्रबंधन या पुनर्स्थापन है। संरक्षण को आम तौर पर दो प्रकार से विभाजित किया जा सकता है: इन-सीटू संरक्षण (In-situ Conservation) एक्स-सीटू संरक्षण (Ex-situ conservation) इन-सीटू संरक्षण (In-situ Conservation): इन-सीटू से तात्पर्य है, ”इसके वास्तविक स्थान पर या इसके उत्पत्ति के स्थान तक सीमित।“ इन-सीटू संरक्षण का एक उदाहरण आरक्षित या सुरक्षित क्षेत्रों का गठन करना है। यह अपने प्राकृतिक आवास में एक लुप्तप्राय पौधे या जीव प्रजातियों की रक्षा करने की प्रक्रिया है। इन-सीटू संरक्षण के अंतर्गत राष्ट्रीय उद्यान (National parks), वन्यजीव अभयारण्य (Wildlife sanctuaries), जैवमंडल रिज़र्व (Biosphere reserves)। राष्ट्रीय उद्यान (National parks): राष्ट्रीय उद्यान एक ऐसा क्षेत्र है जो वन्यजीवों की सुरक्षा एवं रखरखाव के लिये आरक्षित है और जहाँ वानिकी, पशु चराई जैसी गतिविधियों की अनुमति नहीं होती है। इन उद्यानों में निजी स्वामित्व के अधिकारों की भी अनुमति नहीं दी जाती है। जैसे- दुधवा राष्ट्रीय उद्यान आदि। वन्यजीव अभयारण्य (Wildlife sanctuaries): एक अभयारण्य एक संरक्षित क्षेत्र है जहाँ केवल जानवरों का संरक्षण किया जाता है यहाँ लकड़ी की कटाई जैसी मानवीय गतिविधियों, मामूली वन उत्पादों को इकट्ठा करना और निजी स्वामित्व के अधिकारों की अनुमति दी जाती है किंतु मानवीय गतिविधियों से वन्यजीवों के संरक्षण से कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये। जैसे- मुदुमलाई वन्यजीव अभयारण्य आदि। जैवमंडल रिज़र्व (Biosphere Reserves): यह संरक्षित क्षेत्रों की एक विशेष श्रेणी है जहाँ मानव आबादी भी वन्यजीव संरक्षण व्यवस्था का हिस्सा होती है। ये आमतौर पर 5000 वर्ग किमी. से अधिक बड़े संरक्षित क्षेत्र होते हैं। बायोस्फीयर रिज़र्व में 3 भाग होते हैं- कोर (Core), बफर (Buffer) और ट्रांज़िशन ज़ोन (Transition Zone)। कोर ज़ोन, एक इनर ज़ोन है। यह अविभाजित एवं कानूनी रूप से संरक्षित क्षेत्र है। बफर ज़ोन, कोर एवं ट्रांज़िशन ज़ोन के बीच स्थित होता है। कुछ शोध एवं शैक्षिक गतिविधियों की यहाँ अनुमति दी जाती है। ट्रांज़िशन ज़ोन, जैवमंडल रिज़र्व का सबसे बाहरी हिस्सा होता है। यहाँ फसल, वानिकी, मनोरंजन, मछली पालन एवं अन्य गतिविधियों की अनुमति दी जाती है। एक्स-सीटू संरक्षण (Ex-situ conservation): एक्स-सीटू संरक्षण में प्रजातियों को उनके प्राकृतिक आवासों के बाहर संरक्षित किया जाता है। इसमें अनुवांशिक संसाधनों के संरक्षण के साथ-साथ वन्यजीवों एवं वनस्पतियों की प्रजातियाँ भी शामिल हैं। इस तरह की रणनीतियों में वनस्पतिक उद्यान, चिड़ियाघर, जीन बैंक, एवं डीएनए बैंक की स्थापना आदि शामिल हैं। जीन बैंक (Gene Bank): ये ठंडे भंडार हैं जहाँ भंडारण के लिये जर्म प्लाम (Germ Plam) को नियंत्रित तापमान एवं आर्द्रता के तहत रखा जाता है, यह आनुवंशिक संसाधनों के संरक्षण का एक महत्त्वपूर्ण तरीका है। क्रायोप्रिज़र्वेशन (Cryopreservation): यह बायोटिक भागों के संरक्षण के लिये प्रौद्योगिकी का सबसे नया अनुप्रयोग है। इस प्रकार का संरक्षण तरल नाइट्रोजन में बहुत कम तापमान (196°C) पर किया जाता है। जीवों की चयापचय गतिविधियों को कम तापमान के तहत संपन्न कराया जाता है जिन्हें बाद में अनुसंधान उद्देश्यों के लिये उपयोग किया जाता है। एनिमल ट्रांसलोकेशन (Animal Translocation): इसका तात्पर्य ‘एक नए इलाके में जानवरों को छोड़ना जो कहीं और से आते हैं।’ इसके अतिरिक्त वन्य जीवों के संरक्षण के लिये निम्नलिखित उपाय किये जा सकते हैं: अवैध शिकार तथा कालाबाज़ारी पर नियंत्रण: लुप्तप्राय जीवों या पक्षियों की हत्या एवं उनके अवैध शिकार तथा कालाबाज़ारी पर नियंत्रण किया जाना चाहिये। वन्य जीवों से संबंधित डिजिटल डेटा प्रबंधन: भारत सरकार के विभाग को वनों के संरक्षण के संबंध में नियमित अंतराल पर सर्वेक्षण की प्रक्रिया को बढ़ाकर इसका सुचारु क्रियान्वयन सुनिश्चित करना तथा जंगली जानवरों व पक्षियों तथा प्रजातियों की आबादी का ज्ञान होना ताकि प्राकृतिक आपदा के समय उन तक मदद पहुँचाई जा सके। ईंधन व अवसंरचना निर्माण हेतु वनों के अंधाधुंध कटाई पर रोक लगानी चाहिये तथा वनीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिये जिससे उनके प्राकृतिक आवास सुरक्षित रहें। प्रजनन कार्यक्रम: दुर्लभ प्रजातियों की जनसंख्या बढ़ाने हेतु प्रजनन कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिये। इस प्रकार राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वन्य जीवों के संरक्षण हेतु किये जा रहे प्रयासों को गति देने के लिये तकनीक का सहारा लिया जाना चाहिये जिससे न केवल सतत् संधारणीय विकास को बढ़ावा दिया जा सके बल्कि समस्त जीव प्रजाति का अस्तित्व भी बचा रह सके। इस दिशा में वैश्विक स्तर पर रूस का इंटरनेशनल कोऑपरेशन फॉर एनिमल रिसर्च यूजिंग स्पेस (इकारस) प्रोग्राम अहम भूमिका निभा सकता है।</s>
<s>[INST]मुक्तिबोध की काव्यभाषा पर प्रकाश डालिए।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका मुक्तिबोध की काव्यभाषा पर संक्षिप्त टिप्पणी निष्कर्ष मुक्तिबोध मूलतः प्रगतिवादी कवि हैं। प्रगतिवादी चिंतन में कविता की 'वस्तु' और 'रूप' में वस्तु को प्राथमिक और रूप को गौण माना गया है किंतु एक सर्जक के रूप में मुक्तिबोध प्रगतिवादी अनुशासनों का अतिक्रमण करते हैं। मुक्तिबोध की मुख्य चिंता विचार वह अनुभव की दुनिया को एक प्रभावशाली रूप-विधान में मूर्त करने की है, जिसका एक महत्वपूर्ण अनुषंग भाषा है। मुक्तिबोध की काव्यभाषा प्रगतिवादी कवियों से भिन्न एवं विशिष्ट है। उनकी काव्यभाषा की पहली विशिष्टता उसकी एकरूपता है। वे अपनी संपूर्ण काव्य-यात्रा में भाषा के एक निश्चित विधान का सहारा लेते हैं। लेकिन, एक निश्चित ढाँचे के भीतर मुक्तिबोध की भाषा की अनेक तहें हैं। वस्तुतः मुक्तिबोध की काव्यभाषा की प्रकृति बीहड़ है। अंधकार और प्रकाश, फूलों की महक और हिंसक पशुओं की डरावनी आवाजें, झरने और गुफाएँ, स्वप्न और संघर्ष, दमन और क्रांति जैसी विरोधी स्थितियों को मुक्तिबोध अपनी भाषा के द्वारा काव्यवस्तु में रूपांतरित करते हैं। मुक्तिबोध की काव्यभाषा में संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी और मराठी के शब्दों का भरपूर प्रयोग हुआ है। किंतु उनकी भाषा की प्रकृति मूल रूप से संस्कृतनिष्ठ है। लेकिन वे तत्सम शब्दों के साथ विजातीय शब्दों को रखकर भाषा की अभिजात्यता को तोड़ते हैं। जैसे- उदयंभरि बन अनात्म बन गए भूतों की शादी में कनात से तन गए नए विशेषणों एवं क्रियापदों के प्रयोग के द्वारा मुक्तिबोध ने काव्यभाषा को ताजगी दी है। कुछ विशेषण दृष्टव्य हैं- अपाहिज पूर्णताएँ, तिलस्मी चाँद, चिलचिलाते फासले आदि। कुल मिलाकर मुक्तिबोध की काव्य भाषा पारंपरिक नहीं है। उन्होंने एक नई काव्यभाषा की खोज की है और यह उनकी सृजनात्मकता का ठोस प्रमाण है।</s>
<s>[INST]पूर्व वैदिक समाज के समतावादी स्वरूप में उत्तर वैदिक काल के दौरान किस प्रकार से परिवर्तन हुए थे? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका कथन के पक्ष में तर्क उदाहरण निष्कर्ष पूर्व वैदिक समाज का तात्पर्य ऋग्वैदिक समाज से है जहाँ समाज समतामूलक था। ऋग्वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था सहयोग एवं सहभागिता पर आधारित थी। इस समय समाज पितृ सत्तात्मक होने के बावजूद स्त्री-पुरुष विभेद नहीं था, पुत्रियों को पुत्रों के समान माना जाता था तथा उनकी शिक्षा एवं अधिकार में भी समानता थी, जबकि उत्तर वैदिक काल तक आते-आते समाज में असमानताएँ उत्पन्न होने लगी थी। ऋग्वैदिक समाज का आधार परिवार होता था जिसमें पिता या बड़ा भाई परिवार का स्वामी होता था। पिता परिवार के दुःख-सुख का पूरा ध्यान रखता था। ऋग्वैदिक समाज प्रारंभ में वर्ग विभेद से रहित था। सभी लोगों की समान सामाजिक प्रतिष्ठा थी। इस समय के सभी लोगों को आर्य कहा जाता था। ऋग्वैदिक काल में वर्ण पद रंग के अर्थ में प्रयोग किया गया किंतु कहीं-कहीं यह व्यवसाय चयन के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वैदिक समाज के प्रारंभ में तीन वर्णों का उल्लेख किया गया है जिन्हें ब्रह्मा, क्षत्र, विशु कहा जाता था। कालांतर में एक चौथा वर्ण शूद्र नाम से समाज में उत्पन्न हो गया। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में पहली बार शूद्र वर्ण का उल्लेख मिलता है। पुरुष सूक्त में चारों वर्णों की उत्पत्ति एक विराट पुरुष से बताई गई। अभी तक वर्ण जन्मजात न होकर व्यवसाय पर आधारित था जैसा कि ऋग्वेद में एक ऋषि कहता है कि “मैं कवि हूँ मेरे पिता वैद्य हैं तथा मेरी माता अन्न पीसती है।” अतः कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी जो कालांतर में सकीर्ण स्वरूप में प्रकट होती है। उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक सामाजिक संरचना टूटने लगती है। अब वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर निर्धारित की जाने लगी। जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था ने सामाजिक जटिलता को बढ़ावा दिया। इस जटिलतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था ने आपसी विभेद को उत्पन्न किया तथा समाज को दो वर्गों 'सुविधा भोगी' एवं 'सुविधा विहीन' में विभाजित कर दिया। सुविधा भोगी वर्ग ने सामाजिक संरचना का निर्माण इस प्रकार किया कि उत्पादन अधिशेष दो उच्च वर्गों के पक्ष में बना रह सके। उत्तर वैदिक काल में चतुर्वर्ण व्यवस्था स्थापित हो गई। इसमें ब्राह्मण एवं क्षत्रिय विशेषाधिकार प्राप्त वर्ण के रूप में स्थापित हो गए। समाज में सर्वश्रेष्ठ स्थान ब्राह्मण का था। ब्राह्मण ने यज्ञ एवं मंत्रोच्चारण की प्रविधि द्वारा अपने आप को उच्च स्थान पर स्थापित कर लिया। ब्राह्मण के पश्चात् क्षत्रियों का स्थान आता था। इस काल में जब युद्धास्त्रों के रूप में लोहे के उपकरणों को प्रोत्साहन मिला तो क्षत्रियों की स्थिति अधिक मज़बूत हो गई और सुरक्षा के नाम पर इस वर्ण ने उत्पादन अधिशेष के एक भाग पर अपना दावा किया। इस समय तीसरा वर्ग वैश्य वर्ग था जो एकमात्र उत्पादक तथा करदाता के रूप में विद्यमान था जिसे शतपथ ब्राह्मण में अनस्यबलिकृता कहा गया है। इन तीनों वर्णों को द्विज की श्रेणी में रखा गया, इन तीनों वर्णों को उपनयन संस्कार का अधिकार दिया गया था। इन तीनों वर्णों से पृथक एक वर्ण शूद्र था इसका दायित्व उपर्युक्त तीनों वर्णों की सेवा करना था। ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में वर्ण विभाजन को धार्मिक आनुष्ठानिक आधार प्रदान करने की कोशिश की गई। उत्तर वैदिक काल में तुलनात्मक रूप से स्त्रियों की सामाजिक दशा में गिरावट आई, अब सभा एवं समिति जैसी सामाजिक संस्थाओं में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया था। उत्तर वैदिक ग्रंथ एतरेव ब्राह्मण में पुत्रों को परिवार का रक्षक तथा पुत्रियों को दुःख का कारण माना गया है। इसी प्रकार मैत्रेयी संहिता में नारी को धूत एवं मदिरा के साथ-साथ तीन प्रमुख बुराइयों में गिना गया। तैत्तिरीय संहिता में नारी को शूद्र से भी नीच माना गया है। सामाजिक जीवन में स्त्रियों का प्रवेश क्रमशः कम हो गया। नारी के धार्मिक अधिकारों में भी अंतर आने लगा। उत्तर वैदिककालीन समाज में गोत्र की अवधारणा का विकास हुआ जो सामाजिक परिवर्तन का एक पहलू है। गोत्र शब्द की उत्पत्ति गोष्ठ शब्द से हुई अर्थात् जिनकी गायें एक साथ बाँधी जाती थीं वे एक गोष्ठ के माने जाते थे, फिर एक गोष्ठ के लोग समान रक्त संबंध के माने जाने लगे और यहीं से गोत्र की परिकल्पना विकसित होती चली गई तथा समतामूलक समाज का विभाजन होता चला गया जो अपने जटिल स्वरूप में आज परिलक्षित होता है। निष्कर्षतः पूर्व वैदिक समाज की तुलना में उत्तर वैदिक काल के समाज में आए परिवर्तनों के कारण धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिवर्तन थे जिन्होंने समाज के समतामूलक स्वरूप को समय एवं आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित कर दिया।</s>
<s>[INST]“खाद्य उत्पादकता के साथ पारिस्थितिकी तंत्र की शुद्धता आज की आवश्यकता है।” विस्तारपूर्वक स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : ‘’पृथ्वी पर पाई जाने वाली फूलों की लगभग 87% प्रजातियाँ जानवरों द्वारा परागित होती हैं तथा वे फसलें जो आंशिक रूप से पशुओं द्वारा परागित होती हैं, वैश्विक स्तर पर 35% उत्पादन के लिये उत्तरदायी हैं।’’ लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट्-2018 प्रश्न विच्छेद: भूमिका पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में संक्षिप्त में बताइये खाद्य उत्पादकता का पारिस्थितिकी तंत्र के साथ अंतर्संबंध एवं उस पर पड़ने वाले प्रभाव निष्कर्ष हल करने का दृष्टिकोण: संक्षिप्त भूमिका लिखें। की-वर्ड को परिभाषित करें खाद्य उत्पादकता, पारिस्थितिकी तंत्र के साथ कैसे अंतर्संबंधित है? संक्षिप्त में बताइये शब्द सीमा कम करने के लिये चित्र/माइंड मैप का प्रयोग करें। खाद्य उत्पादकता से पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बताइये। निष्कर्ष पारिस्थितिक तंत्र एक प्रकार का जैविक तंत्र है जो विभिन्न जैविक एवं अजैविक समुदाय घटकों के बीच अंतरसंबध से विकसित होता है। यहाँ समुदाय से तात्पर्य एक क्षेत्र विशेष में रहने वाले समस्त जैविक समूह से है जो वहाँ के पर्यावरण से निरंतर अंतः क्रिया करते रहते हैं। खाद्य उत्पादकता से आशय, मानव जो कि पारिस्थितिक तंत्र के जैविक घटक का एक अंग है, के द्वारा पारिस्थितिकी तंत्र के अन्य जैविक व अजैविक घटकों के प्रयोग से खाद्यान्न पदार्थों का उत्पादन करना है। पारिस्थितिकीय घटक परस्पर अंतः क्रियात्मक संबंधों के आधार पर आपस में जुड़े रहते हैं। मानव खाद्य उत्पादन हेतु पारिस्थितिक तंत्र के अजैविक घटकों जैसे- भूमि, जल, वायुमंडलीय संघटकों आदि पर निर्भर रहता है। वही विभिन्न जैविक घटकों जैसे- पादप तंत्र व शाकाहारी तथा मांसाहारी जंतुओं पर भी निर्भर रहता है। इस प्रकार मानवीय खाद्य आश्यकताओं की पूर्ति प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से पारिस्थितिकी तंत्र पर ही निर्भर करती है। पहले जहाँ मानवीय जनसंख्या के सीमित होने के कारण खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु खाद्यान्न उत्पादन एवं पारिस्थितिकी तंत्र के मध्य एक प्रकार का संतुलन बना हुआ था। समय के साथ औद्योगिक क्रांति, कृषि क्रांति, नीली क्रांति आदि के कारण जहाँ एक ओर जनसंख्या में वृद्धि हुई है तो वही उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण खाद्यान्न वस्तुओं की मांग भी बढ़ी है। अतः खाद्यान्न उत्पादन हेतु प्राकृतिक संसाधनों (घटकों) का अंधाधुंध दोहन किया जाने लगा है। जिसके कारण पारिस्थितिक तंत्र असंतुलित हो रहा है। असंतुलित पारिस्थतिक तंत्र के घटकों पर खाद्यान्न उत्पादकता के प्रभावों को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है- भूमि एवं मृदा पर प्रभावः मनुष्य ने अपनी खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भूमि को समतल कर कृषि कर रहा है अर्थात् मानव ने भूमि तथा स्थलाकृतियों के भौतिक स्वरूप में परिवर्तन किया हैं वहीं कृषि कार्य हेतु भूमि उपयोग में परिवर्तन, रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशक रसायनों का अत्यधिक प्रयोग आदि से मृदा प्रदूषित हुई है। जिसके कारण मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवों की संख्या में कमी आई है। जल प्रदूषणः विशाल जनसंख्या की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तथा कम हो रही कृषि भूमि के कारण मानव द्वारा निचली भूमि व आच्छादित सागरीय जल को सुखाकर (नीदरलैंड जैसे देशों में) उसे स्थल में परिवर्तित करके उसका प्रयोग कृषि हेतु किया जा रहा हैं इस प्रकार जहाँ प्राकृतिक जलाशयों की संख्या में कमी से जल संकट उत्पन्न हुआ है वहीं कृषि हेतु अत्यधिक सिंचाई तथा रासायनिक उर्वरक व ज़हरीले कीटनाशकों के प्रयोग से जल प्रदूषण की समस्याएँ भी उत्पन्न हुई हैं। वायुमंडलीय प्रदूषण: खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों से उत्पन्न होने वाला प्रदूषण तथा कृषि अपशिष्टों के खुले में निस्तारण आदि से वायु प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई हैं। प्राकृतिक वनस्पतियों का क्षरण: विभिन्न प्राकृतिक वनस्पतियों के कारण जहाँ एक ओर मानव को विभिन्न खाद्य पदार्थ उपलब्ध हुए हैं वहीं उष्ण व उपोष्ण कटिबंधीय देशों में तीव्र गति से वर्तमान जनसंख्या के भरण पोषण हेतु वनभूमियों को साफ कर उन पर खेती की जा रही है। इन सभी गतिविधियों के कारण निर्वनीकरण से विभिन्न पर्यावरणीय समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही है। वर्ष 2019 की यू. एन. रिपोर्ट के अनुसार, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वनों को आश्चर्यजनक रूप से नष्ट किया जा रहा है। वर्ष 1980 और वर्ष 2000 के बीच 100 मिलियन हेक्टेयर उष्णकटिबंधीय वन नष्ट किये जा चुके हैं। जीव-जंतुओं पर प्रभावः खाद्यान्न आवश्यकतों की पूर्ति हेतु पशुओं एवं पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों का अवैध रूप से शिकार के कारण ये प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर है। जिससे जैव विविधता के समक्ष संकट उत्पन्न हो गया है, पारिस्थितिकी संतुलन में प्राकृतिक वनस्पतियों की तरह पशुओं (जंतुओं) का भी योगदान है। अतः इनकी विलुप्त से विभिन्न पारिस्थितिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। वर्ष 2019 की यू. एन. रिपोर्ट के अनुसार, मानव गतिविधियों के कारण 10 लाख प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इस प्रकार अनियंत्रित व असंतुलित रूप से खाद्यान्न उत्पादन के द्वारा पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न जैविक व अजैविक घटकों में असंतुलन उत्पन्न हुआ है। अतः आज जहाँ एक ओर विशाल जनसंख्या के जीवन हेतु खाद्यान्न का उत्पादन आवश्यक है वहीं पारिस्थितिक तंत्र में भी संतुलन रखना आवश्यक है। अतः वर्तमान में कृषि हेतु उन्नत तकनीक प्रयोग, फसल चक्रण जैसी कृषि विधियों, उन्नत सिंचाई तकनीकों, औद्योगिक प्रबंधन, कृषि, शिक्षा एवं जागरूकता आदि के प्रयोग व सरकारी प्रयासों द्वारा संतुलित रूप से खाद्यान्न उत्पादकता व पारिस्थितिकी सामंजस्य बनाए जाने हेतु प्रयास किये जाने चाहिये।</s>
<s>[INST]निम्लिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिये:[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: संदर्भ एवं प्रसंग व्याख्या विशेष सौंदर्य संदर्भ एवं प्रसंग: प्रस्तुत गद्यांश मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' के तृतीय अंक से लिया गया है। यह कालिदास के लंबे कथन का हिस्सा है, जिसमें वह मल्लिका के सम्मुख उसके द्वारा किये गए कार्यों का स्पष्टीकरण दे रहा है। व्याख्या: कालिदास कहता है कि वह सुविधाएँ प्राप्त करने और महान कहलाने के लिये एक ऐसे क्षेत्र में प्रवेश कर गया जहाँ उसका अधिकार नहीं था। इस प्रकार अनिश्चित क्षेत्र में जाने के कारण वह अपने मूल क्षेत्र अर्थात् रचनाकर्म से दूर हट गया और अब वह जब भी आत्मावलोकन करता है तो उसे अपने क्षेत्र में न होने की पीड़ा परेशान करती है। रचनात्मक सौंदर्य: कालिदास यहाँ रचनाकार का प्रतीक है। आधुनिक युग में भी रचनाकार अपना मूल रचनाकर्म छोड़कर महत्ता व सुविधाओं को स्वीकार कर लेते हैं। जो कई बार उनकी उस रचनाधर्मिता को ही नष्ट कर देता है, जिसके कारण उसे वह पद व सम्मान प्राप्त हुआ था। इन पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि सत्ता का मोह सृजनशीलता को किस तरह पथभ्रष्ट कर देता है। संवाद अत्यधिक लंबा है किंतु उसका आंतरिक तनाव पाठक को आस्वादन प्रक्रिया से वंचित नहीं होने देता है। तत्समी भाषा के कारण ऐतिहासिकता बनी हुई है परंतु बोधगम्यता में कोई कमी नहीं आई है।</s>
<s>[INST]भारत में नवपाषाण काल की प्रादेशिक विशिष्टताओं की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिये और उनके विशेषताओं का कारण बताइये? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका कथन के पक्ष में तर्क उदाहरण निष्कर्ष भारत में नवपाषाण काल की सभ्यता का प्रारंभ लगभग चार हज़ार ईसा पूर्व के समय माना जाता है। इस समय की नवपाषाण संस्कृतियों के जो अवशेष मिले है उनके आधार पर इन्हें छह भागों में बाँटा गया है, जैसा कि उत्तरी भारत, विंध्य क्षेत्र, दक्षिण भारत, मध्यम गंगा घाटी का क्षेत्र, मध्य पूर्व का क्षेत्र एवं पूर्वोत्तर भारत का क्षेत्र। उत्तरी भारत क्षेत्र में नवपाषाणिक संस्कृति का उल्लेख कश्मीर क्षेत्र के अंतर्गत किया जाता है जिसमें बुर्जहोम एवं गुफकराल का विशेष महत्त्व है। बुर्जहोम की खोज 1935 ई. में डी. टेरा एवं पीटरसन द्वारा की गई थी, वर्ष 1960 में पुरातत्त्व विभाग ने इसकी खुदाई का कार्य शुरू किया, यहाँ से हसुली, खुरपी, छेनी, कुदाल के साक्ष्य प्राप्त हुए तथा इसी के साथ भेड़-बकरी आदि की हड्डियों के साक्ष्य भी मिले, इसी प्रकार बुर्जहोम से गढ्ढे वाले घरों के अवशेष प्राप्त हुए तथा शवाधान के साक्ष्यों में मनुष्य के साथ कुत्ते को दफनाए जाने के साक्ष्य भी प्राप्त हुए। विंध्य क्षेत्र में नवपाषाण काल के साक्ष्य बेलन घाटी से प्राप्त हुए जहाँ प्रमुख स्थल महागढ़ा कोल्डीहवा तथा पंचोह है। कोल्डीहवा से नवपाषण काल के साक्ष्यों के साथ ताम्र एवं लौह युगीन संस्कृति के भी प्रमाण मिले है। नव महागढ़ा एवं पंचोह से नवपाषण काल के ही साक्ष्य मिले है। इस क्षेत्र से नवपाषण उपकरणों के साक्ष्य के रूप में पत्थर की कुल्हाड़ियाँ, हथौड़ा, छेनी एवं बसुली के प्रमाण प्राप्त हुए तथा मानव निवास के साक्ष्य प्राप्त हुए। इसी के साथ पशुपालन के साक्ष्यों के रूप में भेड़, बकरी, सुअर, हिरण की हड्डियों के साक्ष्य प्राप्त हुए। कोल्डीहवा से खेती किये जाने के साक्ष्य भी प्राप्त हुए है जिसमें धान की खेती का सबसे प्राचीनतम प्रमाण प्राप्त हुआ है। मध्य गंगा घाटी में सबसे महत्त्वपूर्ण नव पाषाणकालीन स्थल चिरान्द है। चिरान्द से पुरातात्त्विक साक्ष्यों के रूप में सिलबट्टे, पत्थर की कुल्हाड़ी, कुदाल, बाण एवं चूड़ी आदि मिले हैं तथा मृदभांड के रूप में घड़े, बर्तन आदि के साक्ष्य पाए गए। इस क्षेत्र के लोग अपने निवास के लिये बाँस-बल्ली की झोपड़ियाँ बनाते थे तथा धान, मसूर, गेंहूँ, मूँग, जौ आदि की खेती करते थे तथा यहाँ के लोग हाथी, बारहसिंगा, हिरण, गैंडा आदि पशुओं से परिचित थे जैसा कि साक्ष्यों से प्रमाणित हुआ है। मध्य पूर्वी क्षेत्र तथा पूर्वोत्तर भारत में कुछ स्थल नवपाषाण कालीन खोजे गए जैसा कि उड़ीसा के मयूरभंज ज़िले से कुचाई, यहाँ से पॉलिशदार पत्थर की कुल्हाड़ियाँ, कुदाल, छेनी के प्रमाण मिले। वरूडीह से सलेटी और काले मृदभांड मिले। पूर्वोत्तर भारत के असम तथा मेघालय की पहाड़ियों से कुछ नवपाषाणकालीन पत्थर के उपकरण प्राप्त हुए जिसमें कुल्हाड़ी, हथौड़े तथा मूसल आदि प्रमुख थे। इसी के साथ यहाँ से कुछ मृदभांडों के टुकड़े भी पाए गए जो हाथ तथा चाक से तैयार किये गए मालूम होते हैं। दक्षिण भारत के कर्नाटक, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु से कुछ नवपाषाण कालीन स्थल पाए गए। यहाँ की खुदाई में अनेक मृदाभांड तथा उपकरणों की प्राप्ति हुई है। कनार्टक में मुख्य पुरास्थलों में मास्की, ब्रह्मगिरि, सगनकल्लू, हल्लूर, पिक्तीहल तथा नरसीपुर आदि है तो वहीं आंध्र प्रदेश से नागार्जुनकोंडा, इतनूर आदि प्रमुख स्थल हैं। तमिलनाडु से पैयमपल्ली नामक नवपाषाणकालीन स्थल पाया गया। दक्षिण भारत में ये सभी उपरोक्त स्थल कृष्णा तथा कावेरी नदियों की घाटियों में पाए गए, इन उपरोक्त स्थलों से पालिशदार पत्थर की कुल्हाड़ियाँ, काले एवं स्लेटी रंग के मिट्टी के बर्तन पाए गए, इसी के साथ हड्डी से बने कुछ उपकरण भी पाए गए। यहाँ के निवासी कृषि एवं पशुपालन से परिचित थे, जो मिट्टी एवं सरकंडे की सहायता से घर बनाकर निवास करते थे, घर प्रायः गोलाकार एवं चौकोर होते थे। दक्षिण भारत की नवपाषाणकालीन बस्तियों के निवासी हाथ तथा चाक से बने बर्तन का प्रयोग करते थे। यहाँ से प्राप्त मृदभांडों पर चित्रकारी के साक्ष्य पाए गए। उत्खन्न के दौरान पाए गए मृदभांडों में घड़े, तस्तरी, कटोरे आदि थे। दक्षिण भारत के नवपाषाण स्थलों की विशेषता यह है कि यहाँ से राख का ढेर पाया गया जो मवेशी रखने वालों की बस्ती के अवशेष का द्योतक है तथा यहाँ की शवाधान प्रणाली भी काफी महत्त्वपूर्ण है, यहाँ मकानों के अंदर, फर्श के नीचे या घर से बाहर शावाधान किया जाता था। लेकिन नागार्जुनकोंडा में कब्रिस्तान के साक्ष्य आवासीय स्थल से बाहर मिले है। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि नवपाषाणकालीन लोगों ने एक निश्चित स्थान पर आवास बना कर रहना सीख लिया था। प्रादेशिक विशिष्टता में भिन्नता के कारण भौगालिक स्थिति की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका रही होगी तथा बसावट में भिन्नता का कारण अलग-अलग कालावधि भी हो सकती है। अतः आर्थिक परिवर्तन के कारण सामाजिक परिवर्तन रहे होंगे। जनसंख्या वृद्धि के साथ बड़ी संख्या में पुरातात्त्विक प्रमाणों से सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी है।</s>
<s>[INST]"छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है।" कथन की विवेचना करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका कथन के पक्ष में तर्क निष्कर्ष डॉ. नगेंद्र ने छायावाद को "स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह" कह कर व्याख्यायित किया है। इस व्याख्या में निहित तर्क को दो आधारों पर समझा जा सकता है- संवेदना एवं शिल्प। संवेदना के स्तर पर स्थूल का तात्पर्य है- द्विवेदी युगीन सामाजिकता। द्विवेदी युग में समाज के स्तर पर नवजागरण की चेतना व्यापक रुप से दिखाई दे रही थी किंतु व्यक्ति की वैयक्तिकता का हनन हो रहा था। स्वतंत्रता और समानता के मूल्य सांस्कृतिक स्तर पर विकसित हो रहे थे पर वे सभी या तो संपूर्ण समाज को इकाई मानकर चलते थे या किसी विशेष वर्ग को। कोई भी सांस्कृतिक आंदोलन पहले बाहरी, व्यापक व स्थूल स्तरों पर विकसित होता है तथा धीरे-धीरे आंतरिक एवं सूक्ष्म स्तरों पर व्यक्त होने लगता है। भारतेंदु युगीन नवजागरण पूर्णत: राजनीतिक व आर्थिक पक्षों पर केंद्रित था। द्विवेदी युगीन नवजागरण उसकी तुलना में सूक्ष्म हुआ किंतु व्यक्ति के स्तर तक नहीं पहुँचा। छायावाद में नवजागरण का अगला तथा सूक्ष्म रूप व्यक्त होता है तथा नवजागरण की चेतना व्यक्ति और उसके भावों को मूल इकाई के स्तर पर धारण कर लेती है। शिल्प के स्तर पर भी छायावादी काव्य स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है। द्विवेदी युग में शिल्प की जो अभिधात्मक एवं इतिवृत्तात्मक संरचना विकसित हुई थी वह काफी स्कूल थी। छायावादी कविता अपनी अनुभूतिपरकता एवं तन्मयता के कारण ऐसे शिल्प को धारण नहीं करती। वह बाहरी जगत के स्थान पर व्यक्ति के भीतरी जगत को कविता का विषय बनाती है। ऐसे विषयों के लिए आवश्यक हो जाता है कि प्रतीकात्मक एवं लाक्षणिक शिल्प संरचना स्वीकार की जाए। इसी दृष्टि से इस शिल्प को द्विवेदी युग के अभिधात्मक शिल्प की तुलना में सूक्ष्म कहा जाता है। छायावाद शब्द के अर्थ के संबंध में विद्वानों ने विभिन्न मत दिया है परंतु छायावाद की कोई एक निश्चित परिभाषा कभी तय ना हो सकी। स्वच्छंदतावाद समीक्षक डॉ नगेंद्र ने इसे स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कह कर छायावाद की सकारात्मक व्याख्या के की है।</s>
<s>[INST]भारत में मकबरों के निर्माण में अनुक्रमिक सुल्तानों द्वारा जोडे़ गए वास्तुकलात्मक अभिलक्षणों का वर्णन कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका कथन के पक्ष में तर्क उदाहरण निष्कर्ष किसी को दफनाने के बाद उसके ऊपर बनाई गई इमारत मकबरा कहलाती है। मकबरों के निर्माण में विभिन्न दिल्ली सुल्तानों द्वारा अपने-अपने अनुरूप वास्तुकलात्मक सुधार करते हुए इनका विकास किया गया जो दिल्ली सल्तनत की वास्तुकला के नायाब नमूने हैं। भारत में मकबरा शैली का जन्मदाता इल्तुतमिश को माना जाता है। सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने अपने बडे़ पुत्र नसीरूद्दीन की मृत्यु के बाद उसकी याद में सुल्तानगढ़ी का मकबरा बनवाया। इसका निर्माण 1231 ई. में करवाया गया। इस मकबरे का मध्य कक्ष अष्टकोणीय है तथा चारों कोनों पर बुर्ज निर्मित किये गए हैं। इस मकबरे में स्तंभ एवं मेहरावों का सुंदर प्रयोग किया गया है। इल्तुतमिश का मकबरा दिल्ली में स्थित है। यह केवल एक ही कक्ष का मकबरा है इसका निर्माण लाल पत्थरों द्वारा किया गया है। इसकी दीवारों के भीतरी भाग को कुरान की आयतों एवं नक्कासी द्वारा सजाने का कार्य किया गया है। इस मकबरे में छत बनाई गई थी किंतु टिक नही सकी और गिर गई अतः यह छत विहीन मकबरा है। बलबन ने अपना मकबरा स्वयं बनवाया था। इस मकबरे का कक्ष वर्गाकार है। इसमें मेहराब दीवार के दोनों सिरों पर पत्थर रख कर बनाए गए हैं जो मेहराब के रूप में स्पष्ट दिखाई देते हैं। तुगलक काल में मकबरा शैली में कुछ सुधार किये गए जैसा कि गयासुद्दीन तुगलक के मकबरों में दिखाई देता है। यह तुगलकाबाद किले के बाहर उत्तरी भाग में स्थित है। यह मकबरा पंचभुजी है तथा कृत्रिम झील के मध्य पानी से घिरा हुआ है। इसके निर्माण में लाल पत्थर के साथ-साथ संगमरमर का प्रयोग किया गया है। दीवारों को संगमरमर की पट्टियों तथा मेहराबों को जालियों द्वारा सुसज्जित एवं सुशोभित किया गया। इस मकबरे की ढालू दीवारें लगभग मिस्र के पिरामिडों की तरह सुदृढ़ हैं। फिरोज़ तुगलक की यदि बात करें तो यह कुछ हद तक हिंदू-मुस्लिम शैली को भी प्रदर्शित करता है। यह एक वर्गाकार मकबरा है। इसका निर्माण सादी रूपरेखा पर आधारित है किंतु इसकी दीवारें सुदृढ़ एवं सुसज्जित है। मकबरे की दीवारों को फूल-पत्तियों की बेलों द्वारा सुशोभित करने का प्रयास किया गया। इसमें सुंदरता के लिये संगमरमर का भी प्रयोग किया गया है। आगे के सुल्तानों को यदि देखें तो सैयद वंश की तुलना में लोदी वंश में मकबरों का अत्यधिक निर्माण कराया गया। इसे स्थापत्य कला के क्षेत्र में मकबरों का काल कहते हैं। किंतु दोनों कालों में मकबरों का निर्माण हुआ है। इन मकबरों को दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं। प्रथम वे मकबरे जिनका आकार अष्टकोणीय है, दूसरा वे जिसमें मकबरों का आकार वर्गाकार है। सैयद वंश के मुबारक शाह का मकबरा आकार में बहुत बड़ा है तथा अष्टभुजीय है, इसकी छत पर एक विशाल गुम्बद का निर्माण किया गया है तथा अष्टभुजाओं के प्रत्येक भाग में एक छोटे गुम्बद का भी निर्माण किया गया जो पुराने सुल्तानों के मकबरे से अलग दिखाई देता है। इसके बाद सैयद वंश के मोहम्मद शाह सैयद के मकबरे में अपने पूर्व शासक द्वारा बनवाए गए मकबरे में सुधार का प्रयास किया गया। अतः इस प्रकार मकबरे में गुम्बद एवं महराबों की सुंदर छटा दिखाई देती है। लोदी वंश के सुल्तानों ने अपने पूर्व के सैयद सुल्तानों के मकबरों का कुछ अंश लेते हुए नवीन रूपरेखा प्रस्तुत की जिसमें सुल्तान इब्राहिम लोदी ने सिकंदर लोदी के मकबरे का निर्माण कराया जो लगभग मोहम्मद शाह के मकबरे की रूपरेखा पर 1578 ई. में कराया गया। इस मकबरे में उसके चारों कोनों पर बुर्ज तथा छत पर दोहरे गुम्बद का निर्माण कराया गया। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि भारत में मकबरों के निर्माण में विभिन्न सुल्तानों द्वारा सुधार किया गया जिसमें उसकी मज़बूती एवं सुंदरता का विशेष ध्यान दिया गया जो वास्तुकला के उत्तरोत्तर विकास को इंगित करते हैं।</s>
<s>[INST]"कृष्ण काव्यधारा ने समाज को वात्सल्य व श्रृंगार की कोमल जीवंत भावनाओं में डुबाकर जीवन को सरस बना दिया।" कृष्णा काव्यधारा की शिल्पगत विशेषताओं की चर्चा करते हुए कथन की समीक्षा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कृष्ण काव्य धारा की शिल्पगत विशेषताएँ • निष्कर्ष भक्ति काल की सगुण भक्ति धारा में कृष्ण काव्य को विशेष महत्व है। कृष्ण भक्ति के प्रचार में वल्लभाचार्य के 'शुद्धाद्वैत दर्शन' तथा 'पुष्टिमार्ग' का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सूरदास, परमानंद दास,.कुंभनदास, कृष्णदास, नंददास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी और गोविंदस्वामी इस धारा के प्रमुख कवि हुए हैं। यह काव्य धारा लोकरंजन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। शिल्पगत विशेषताएँ काव्य रूप: कृष्ण काव्यधारा का काव्य प्रेम की गहन अनुभूतियों का काव्य है। अनुभूति की गहनता एवं तीव्रता के कारण इन कवियों की रचनाएँ प्रमुख रूप से मुक्तक में मिलती हैं। हालाँकि कुछ काव्य प्रबंधात्मक भी हैं पर यह प्रवृत्ति इस काव्यधारा में काफी कम है। भाषा: इस काव्य धारा के भावों की सरस अभिव्यक्ति ब्रजभाषा में हुई है। इनकी ब्रज की मधुरता विलक्षण है। इस काव्यधारा की सफलता का परिणाम यह हुआ कि रीतिकाल में ब्रजभाषा एकमात्र काव्य भाषा बन गई। छंद: इस काव्यधारा के कवियों ने दोहा, कवित्त, सवैया आदि छंदों का प्रयोग किया है। पदों का प्रयोग इस काव्यधारा की एक विशिष्ट पहचान है। इन कवियों में लयात्मकता तथा संगीतात्मकता के प्रति एक गहरा लगाव दिखता है। अलंकार: अलंकारों का यहाँ भरपूर प्रयोग हुआ है। विशेषत: उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि का। इन कवियों ने श्रृंगार व वात्सल्य पर आधारित लीलाओं को विभिन्न अलंकारों के माध्यम से नए-नए रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। प्रतीक: इन कवियों ने प्रतीकों का सफल प्रयोग किया है। एक खास अर्थ में देखा जाए तो कृष्ण ब्रह्म के एवं गोपियाँ आत्मा की प्रतीक हैं। बिंब: चूँकि इस काव्यधारा की सभी कविताएँ कृष्ण की लीला पर आधारित हैं अतः है इनमें बिंबात्मकता की प्रवृत्ति बहुत प्रबल है। उदाहरण के लिये निम्नलिखित पंक्ति में बालक कृष्ण का सुंदर दृश्य है: "मैया कबहि बढ़ैगी चोटी कीति बार मोहि दूध पियत भई यह, अजहूं है छोटी।" निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि कृष्ण काव्य धारा का ने सामाजिक संक्रमण के तनाव में भी समाज को वात्सल्य व श्रृंगार की कोमल जीवंत भावनाओं में डूबा कर जीवन को सरस बना दिया। आचार्य शुक्ल के शब्दों में कहें तो इन्होंने समाज में 'जीने की चाह' को बनाए रखने में काफी योगदान दिया।</s>
<s>[INST]कोयला उत्पादन से संबंधित पर्यावरणीय तथा आर्थिक समस्याओं की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद: भूमिका कोयला उत्पादन से संबंधित पर्यावरणीय समस्याएँ कोयला उत्पादन से संबंधित आर्थिक समस्याएँ निष्कर्ष हल करने का दृष्टिकोण: संक्षिप्त भूमिका लिखें। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोयला उत्पादन से संबंधित आँकड़े दें कोयला उत्पादन से संबंधित पर्यावरणीय समस्याएँ बतायें। शब्द सीमा कम करने के लिये चित्र/माइंड मैप का प्रयोग करें। कोयला उत्पादन से संबंधित आर्थिक समस्याएँ बतायें। निष्कर्ष में कोयला उत्पादन से संबंधित समस्याओं को भारत के परिप्रेक्ष में उल्लेख कीजिये और अपने सुझाव भी लिखिये। कोयला एक प्रमुख जीवाश्म पदार्थ है जो ईंधन का एक प्रमुख स्रोत है। कोयला किसी भी देश में ऊर्जा का एक प्रमुख साधन होता है। वर्ष 2018 में विश्वभर में 7813.3 मिलियन टन कोयले का उत्पादन किया गया था। कोयले का यह उत्पादन दो विधियों से किया गया था- 1. सतही खनन विधि 2. भूमिगत खनन विधि शीर्ष पाँच कोयला उत्पादक देशों में चीन, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं। जहाँ एक ओर कोयला उत्पादन ऊर्जा व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक है वहीँ इसके उत्पादन से विभिन्न पर्यावरणीय व आर्थिक समस्याएँ भी उत्पन्न होती हैं। पर्यावरणीय समस्याएँ: वनोन्मूलन व पारिस्थितिक असंतुलनः कोयला खनन हेतु व्यापक स्तर पर खनन क्षेत्रों में वनों की कटाई की जाती है। जिसके कारण उन क्षेत्रों में वन घनत्व में कमी आती है। परिणामस्वरूप उस क्षेत्र में वर्षा व अन्य मौसमी क्रियाओं या पारिस्थितिकी असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। मृदा प्रदूषणः खनन कार्यो के पश्चात् छोड़ी गई निचली भूमि पर छोटे-2 गड्ढों का निर्माण हो जाता है। जिससे यह क्षेत्र कृषि व अन्य उत्पादक गतिविधियों के योग्य नहीं रह जाता है। वायु प्रदूषणः खदानों में किये जाने वाले विस्फोटों से उठने वाला धुआँ आसपास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का कारण बनता है। वहीँ कोल कटिंग व खुदाई के कारण उठने वाली धूल वायु को दूषित करती है। वायु प्रदूषण का अन्य कारण कोयला खद्यानों से निकलने वाली हरित गैसें भी हैं तथा कोयले के परिवहन के दौरान धूल कण वायु को प्रदूषित करते हैं। जल प्रदूषणः खदानों द्वारा निस्तारित दूषित जल तथा मशीनों व कच्चे पदार्थो की धुलाई में प्रयुक्त जल द्वारा इन क्षेत्रों की नदियों व अन्य जलाशयों में जल प्रदूषण की समस्या भी उत्पन्न होती है क्योंकि इस जल में तेल व ग्रीस की प्रधानता होती है। आर्थिक समस्याएँ: उच्च परिवहन लागत: कोयला उत्पादन भार आधारित उद्योग है अतः इनके परिवहन हेतु रेल भाड़ा दर में यातायात की सुगमता का अभाव होने के कारण इसकी आर्थिक लागत बढ़ जाती है जो उच्च स्तर पर कोयला उत्पादन में प्रमुख बाधा है। उन्नत तकनीक: चूँकि कोयला एक सीमित जीवाश्म पदार्थ है। अतः इसके भूमिगत दोहन की उन्नत तकनीकों तथा प्रसंस्करण, धुलाई, कटिंग आदि प्रक्रियाओं हेतु तकनीक अभाव में अधिकांश हिस्सा व्यर्थ हो जाता है। जिससे उत्पादन लागत में भी वृद्धि होती है। ऊर्जा उपलब्धता: खनन क्षेत्रों में प्रयुक्त मशीनों व अन्य सहायक प्रक्रियाओं हेतु ऊर्जा की अधिक आवश्यकता होती है। पर्याप्त ऊर्जा उपलब्धता के अभाव में उत्पादन में बाधा आती है तथा उत्पादन लागत में भी वृद्धि होती है। कुशल श्रमिकों की उपलब्धता: कोयला उत्पादन हेतु कुशल श्रमिकों की उपलब्धता का अभाव होने से उत्पादन प्रक्रिया धीमी व गुणवत्ताहीन हो जाती है। जिसके कारण समग्र उत्पादन लागत बढ़ जाती है। स्वास्थ्य संबंधी श्रमिक खर्चः कोयला क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों में नेत्र, श्वसन व अन्य बीमारियों से सुरक्षा हेतु संबंधित सुरक्षा उपकरणों पर खर्च तथा बीमारियों से सुरक्षा हेतु दिया जाने वाला खर्च भी उत्पादन लागत को बढ़ाता है। विश्व के चौथे सबसे बड़े कोयला भंडार के बावजूद भारत ने वर्ष 2019 में 235 मिलियन टन (MT) कोयले का आयात किया था। यह स्पष्ट करता है कि भारत में संसाधन होने के बावजूद भी उसका यथासंभव दोहन नहीं हो पाया है। इस प्रकार कोयला उत्पादन में अवसरंचना निर्माण, कौशल प्रशिक्षण, उन्नत तकनीक का प्रयोग, पर्यावरणीय समस्याओं को ध्यान में रखते हुये प्रबंधित उत्पादन पर बल दिया जाना चाहिये तथा कोयला उत्पादन पर निर्भरता कम करते हेतु नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये।</s>