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<s>[INST]वस्तुनिष्ठता से क्या तात्पर्य है? सिविल सेवा के लिये यह एक आधारभूत मूल्य क्यों है?[/INST]उत्तर : उत्तर की रूपरेखा वस्तुनिष्ठता की परिभाषा। सिविल सेवा में इसकी महत्ता का बिंदुवार विश्लेषण। तटस्थ निरीक्षण द्वारा तथ्यों का उनके वास्तविक रूप में संकलन और विश्लेषण ही वस्तुनिष्ठता है। दूसरे शब्दों में अपने स्वयं के विचार, आशा, आकांक्षा, भावना और पूर्वाग्रह से प्रभावित न होकर किसी भी तथ्य या घटना का उसके वास्तविक रूप में ही विश्लेषण करना वस्तुनिष्ठता कहलाती है। वस्तुनिष्ठता को सिविल सेवकों के लिये एक आधारभूत मूल्य मानने के पीछे निम्नलिखित कारण हैं- वस्तुनिष्ठता यह सुनिश्चित करती है कि सिविल सेवक अपने कर्त्तव्य का पालन सभी नागरिकों को एक समान मानकर तटस्थ रहते हुए करे। सिविल सेवकों को कई विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। ऐसे में वस्तुनिष्ठता की कमी उन शक्तियों के गलत इस्तेमाल को प्रेरित कर सकती है और परिणामस्वरूप किसी वर्ग को इससे लाभ और किसी वर्ग को बड़ी हानि हो सकती है। नैतिक दुविधा के दौरान सही निर्णय पर पहुँचने में वस्तुनिष्ठता का महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है। नीतियों और योजनाओं के निर्माण के दौरान लाभार्थियों को तर्कसंगत रूप से चुनने के लिये वस्तुनिष्ठता आवश्यक होती है। सिविल सेवक को अपने सेवाकाल के दौरान अपने अधीनस्थों के कार्य-निष्पादन का मूल्यांकन भी करना होता है। तथ्यों पर आधारित निष्पक्ष मूल्यांकन के लिये उसका वस्तुनिष्ठ होना ज़रूरी है। घटनाओं जैसे सांप्रदायिक दंगों के समय वस्तुनिष्ठता स्थिति के सही आकलन द्वारा निष्पक्षता बरतने में सहायता करती है। वस्तुनिष्ठता एक सिविल सेवक को देश के कानून को सभी पर बराबरी से लागू करवाने की प्रेरणा देती है। इस प्रकार सिविल सेवकों द्वारा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तर्कसंगत रूप से सोचने और कुशल तथा प्रभावी सेवा वितरण करने के लिये वस्तुनिष्ठता एक अपरिहार्य मूल्य है।</s>
<s>[INST]अपरिग्रह से क्या अभिप्राय है ? इस नैतिक मूल्य का पालन करने वाले व्यक्तियों के उदाहरण देते हुए समझाएं कि कैसे अपरिग्रह समाज में समानता की स्थापना करने और भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति की रोकथाम में सहायक है?[/INST]उत्तर : अपरिग्रह का अर्थ है- आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करने की प्रवृत्ति। जैन धर्म के पाँच महाव्रतों में अपरिग्रह भी शामिल है। पतंजलि ने भी योग के प्रथम अंग यम के पांचवे अवयव के रूप में अपरिग्रह का महत्त्व बतलाया है। किसी विचार, व्यक्ति या वस्तु के प्रति आसक्ति का न होना ही अपरिग्रह है। इतिहास और वर्तमान में कुछ ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने अपरिग्रह की प्रवृत्ति को अपने जीवन का अभिन्न अंग माना, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- महावीर एवं बुद्ध - जैन धर्म में त्याग का बड़ा महत्त्व है। गृह-परिवार, वस्तुएँ और वस्त्र त्याग कर दिगंबरत्व (दिशाओं को ही अपना वस्त्र मानना) धारण करने वाले महावीर के अनुसार आकांक्षाओं के वशीभूत होकर व्यक्ति अर्थ का अनर्थ कर बैठता है। परिग्रह या संचय करने की प्रवृत्ति मनुष्य को भ्रष्ट बनाती है। भगवान बुद्ध ने भी मनुष्य की तृष्णा को ही दु:खों का मूल कारण बताया है। औरंगज़ेब- औरंगज़ेब की छवि वैसे तो धार्मिक कट्टर शासक की है, परंतु कहा जाता है कि एक सुल्तान होते हुए भी अपनी निजी ज़रूरतों के लिये खज़ाने से धन लेने की बजाए वह कुरान की आयतों की नकल कर व टोपी सिलकर अपना खर्च चलाया करता था। उसने अपनी कब्र को बिना सजावट फकीरों की कब्रों के बीच स्थापित करने का आदेश दिया था। शायद इसलिये इतिहास में उसे जिंदा पीर के नाम से भी जाना जाता है। महात्मा गाँधी- इंग्लैंड से वकालत की शिक्षा प्राप्त गांधी जी चाहते तो एक आरामदायक जीवन गुज़ार सकते थे, लेकिन अपरिग्रह रूपी मूल्य उनके जीवन में इतना गहरा समाया था कि न्यूनतम आवश्यकताएँ रखते हुए बिना निजी संपत्ति संचय किये वे देश की सेवा में आजीवन लगे रहे। अब्दुल कलाम- कहते हैं कि भारत के पूर्व-राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम जब अपने कार्यकाल की समाप्ति के बाद राष्ट्रपति भवन से निकले तो उनके पास कपड़ों और निजी सामान के वही दो बैग थे जो वे राष्ट्रपति बनने के बाद लेकर आये थे। उन्हें चल-अचल या मौद्रिक संपत्ति के संचय में कोई दिलचस्पी नहीं थी। अपरिग्रह से संबंधित निम्नलिखित तर्क उसे ऐसे मूल्य के रूप में स्थापित करते हैं, जो समाज में समानता की स्थापना और भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति में रोकथाम के लिये सहायक है- यदि प्रत्येक व्यक्ति उतना ही रखे, जितनी उसकी वास्तविक आवश्यकता है, तो कोई भी अभावग्रस्त नहीं रहेगा और सभी संतुष्टि पूर्ण जीवन जी सकेंगे। ऐसा करके धीरे-धीरे समाज में आर्थिक समानता की स्थापना संभव है। भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, आसक्तिपूर्ण व्यवहार का प्रमुख कारण संचय करने की प्रवृत्ति है। आवश्यकता की परिभाषा अलग-अलग व्यक्तियों के संदर्भ में अलग-अलग हो सकती है, अर्थात् जो भी अपनी आवश्यकता से अधिक संचय करेगा, वह दूसरे का अधिकार छीनकर ही वैसा करेगा। इस प्रकार परिग्रह की प्रवृत्ति समाज में असंतुलन पैदा करती है। देश में अभाव के मूल में ही कहीं न कहीं देश के अन्य लोगों की परिग्रह की प्रवृत्ति ही है। उदाहरण के लिये निवेश के नाम पर भारत में संपन्न लोग आवश्यकता से अधिक घर खरीदकर अनजाने में घरों की मांग बढ़ा देते हैं जिससे उनकी कीमत भी बढ़ जाती है और मध्यम या कम आय वाले लोग एक निजी घर भी नहीं खरीद पाते। प्रशासन और समाज में फैला भ्रष्टाचार लोगों की संचयी प्रवृत्ति का ही नतीज़ा है। वास्तविक ज़रुरत से अधिक वाहनों, घरों और संपत्ति के अर्जन करने की दौड़ ने ही व्यक्ति के नैतिक बल को क्षीण कर दिया है। इन सबसे छुटकारा पाने के लिये व्यक्ति को अपने जीवन में अपरिग्रह के मूल्य का समावेश करना चाहिये। तभी एक भ्रष्टाचार रहित और समतापूर्ण समाज की स्थापना हो पाएगी।</s>
<s>[INST]आप एक निजी अस्पताल में निदेशक के पद पर कार्यरत हैं। आपके अस्पताल में लगभग 1 वर्ष के बच्चे को दो माह पहले भर्ती कराया गया है। वह बच्चा जन्म से एक असाध्य रोग माइटोकॉण्ड्रियल डिसआर्डर से पीड़ित है जिससे उसका मस्तिष्क व मांसपेशियाँ गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो रही हैं। आप जानते हैं कि इस बीमारी का कोई निश्चित उपचार नहीं है और आपके अस्पताल में उसे विगत दो माह से लाइफ सपोर्ट पर रखा गया है। अब बच्चे के अभिभावक उसे विदेश के अस्पताल में भर्ती कराना चाहते हैं जहाँ उसका प्रायोगिक उपचार किया जाना है। प्रायोगिक उपचार में उसे अधिकतम 10 प्रतिशत लाभ की संभावना है, लेकिन आपके अस्पताल के चिकित्सक उसे कष्टमय उपचार के बदले गरिमापूर्ण मृत्यु प्रदान करना चाहते हैं। 1. उपर्युक्त प्रकरण में अंतर्निहित नैतिक मुद्दों को स्पष्ट कीजिये। 2. अस्पताल निदेशक के रूप में आप उपर्युक्त प्रकरण में कौन-से कदम उठाएंगे?[/INST]उत्तर : (1) उपर्युक्त प्रकरण में निम्नलिखित नैतिक विषय शामिल हैं: सर्वप्रथम यह मानवाधिकार से संबंधित सबसे मुख्य विषय ‘जीवन के अधिकार’ से संबंधित है। यदि इलाज के अभाव में बच्चे की मौत हो जाती है तो यहाँ जीवन के अधिकार का हनन होगा। यह मुद्दा ‘चिकित्सकीय नैतिकता’ से जुड़ा है इसके अंतर्गत मरीज़ के जीवन को बचाने के लिये हर संभव कोशिश की जाती है। यदि किसी कारण से इलाज को रोक दिया जाए तो ऐसे में ‘डॉक्टर्स ओथ’ पर प्रश्न चिह्न खड़ा होता है। सभी व्यक्ति को जीवन के अधिकार के साथ गरिमापूर्ण तरीके से मरने का भी अधिकार होता है यदि चिकित्सकों द्वारा उसे अल्पकालिक रूप से जीवित रखने के लिये या प्रायोगिक उपचार के लिये कष्टमय इलाज की प्रक्रिया को अपनाया जाता है तो बच्चे की गरिमापूर्ण मृत्यु प्रभावित होगी। प्रत्येक माता-पिता का यह कर्त्तव्य होता है कि वह संतान के जीवन को बचाने का हर संभव प्रयास करें, किंतु अस्पताल के चिकित्सकों द्वारा निश्चित उपचार के अभाव में उसके अभिभावकों को अन्य जगह ले जाने के लिये रोकने से माता-पिता के कर्त्तव्यों का उल्लंघन होगा। (2) अस्पताल निदेशक के रूप में उपर्युक्त प्रकरण में उठाए जाने वाले कदम: अस्पताल के निदेशक के रूप मैं सर्वप्रथम चिकित्सकीय नैतिकता को वरीयता दूंगा और अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर बच्चे के जीवन को बचाने की पूरी कोशिश करूँगा। चूँकि बच्चा असाध्य रोग से पीड़ित है और यह भी पता है कि इस बीमारी का कोई निश्चित उपचार नहीं है, ऐसी स्थिति में ‘हिपोक्रेटिक ओथ’ का सहारा लेकर बच्चे के अभिभावक को यह समझाने का प्रयास करूँगा कि चिकित्सक द्वारा पूरी कोशिश की जा रही है लेकिन उसे बाहर ले जाने के क्रम में उसे काफी तकलीफों का सामना करना पड़ेगा। साथ ही यह मुद्दा माता-पिता के कर्त्तव्यों के अतिरिक्त व्यक्ति की गरिमापूर्ण जीवन से जुड़ा है अतः माता-पिता द्वारा प्रायोगिक उपचार के लिये विदेश ले जाने हेतु अड़े रहने पर अंतिम विकल्प के रूप में मानवाधिकार विशेषज्ञों या न्यायालय का सहारा लूँगा और उनके आदेशों का पालन करूँगा। उपर्युक्त प्रकरण में ‘चिकित्सकीय नैतिकता’ और ‘मानवीय गरिमा’ के बीच द्वंद्व दिखाई पड़ता है, साथ ही माता-पिता को बच्चे के प्रति उनके कर्त्तव्यों के निर्वहन करने से रोकना भी एक जटिल प्रश्न है। किंतु न्यायालय या मानवाधिकार विशेषज्ञों की राय से परिस्थिति का समाधान हो सकता है।</s>
<s>[INST]कार्य-संस्कृति से आप क्या समझते हैं? एक अच्छी कार्य-संस्कृति से किसी संगठन को क्या लाभ हो सकते हैं?[/INST]उत्तर : किसी संगठन की कार्य-संस्कृति में उसकी मान्यताओं और सिद्धांतों, कार्यस्थल पर माहौल, कर्मचारियों के विश्वास एवं दृष्टिकोण तथा आपसी व्यवहार, वरिष्ठों की नेतृत्व शैली आदि का मिश्रण होता है। कार्य-संस्कृति ही इस बात की निर्धारक होती है कि किसी संगठन की कार्यशैली क्या होगी और और अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये वह संगठन अपने कार्यों का निष्पादन किस प्रकार करेगा। कर्मचारियों को कार्य के लिये प्रतिबद्ध बनाने वाली, संगठन की कार्य-क्षमता को बढ़ाने वाली और संगठन के मूल्यों व परंपराओं का पालन करने वाली कार्य-संस्कृति ही एक अच्छी और वांछनीय कार्य-संस्कृति मानी जाती है। एक अच्छी कार्य-संस्कृति वाला संगठन निम्नलिखित प्रकार से लाभान्वित हो सकता है- आर्थिक लाभ- एक अच्छी कार्य-संस्कृति से कार्यस्थल पर उत्पादकता और प्रदर्शन में वृद्धि होती है। इससे कार्य निष्पादन समय पर होता है और संगठन अपने गुणवत्तापूर्ण उत्पादों के माध्यम से आर्थिक लाभ अर्जित कर सकता है। कार्मिक लाभ- ऐसा संगठन, जहाँ काम करके लोग आनंद प्राप्त करते हों, जहाँ रचनात्मकता के विकास के लिये व्यापक अवसर हों, जहाँ का माहौल खुला और सहभागितापूर्ण हो, वे कई उर्जावान और क्षमतायुक्त योग्य कर्मचारियों को उस संगठन से जुड़ने के लिये आकर्षित करते हैं। इससे संगठन की मानव-पूंजी में गुणात्मक वृद्धि होती है। मनोबल में वृद्धि- ऊँचा मनोबल सफलता की कुंजी है। एक अच्छी कार्य-संस्कृति वाले संगठन में कर्मचारियों का मनोबल सदैव ऊँचा रहता है तथा वे दिये गए दायित्वों का निर्वहन प्रतिबद्धता के साथ करते हैं। बदलावों का स्वागत- एक अच्छी कार्य-संस्कृति बदलावों के लिये हमेशा खुली हुई होती है। ऐसे संगठनों के कर्मचारी किसी वांछित परिवर्तन को सक्रिय रूप से अपनाकर अपने संगठन को बाज़ार के लिये और अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनाते हैं। एक अच्छी कार्य-संस्कृति लोगों के बीच आपसी सहयोग को बढ़ावा देती है। यह टीम के साथ बेहतर भागीदारी के लिये प्रेरित करती है। यह संचार कौशल में वृद्धि से संबंधों में सुधारों के साथ कर्मियों में संगठन और अपने काम के प्रति ज़िम्मेदारी का भाव उत्पन्न करती है। अंत में सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि एक बेहतर कार्य-संस्कृति वाले संगठन में लोग संतुष्टि का अनुभव करते हैं। ऐसी संस्था में काम करना वास्तविक आनंद देता है जहाँ लोग काम को उत्साहपूर्वक करते हैं और समस्याओं को मिल-बाँटकर सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक अच्छी कार्य-संस्कृति किसी संगठन के भविष्य का निर्धारण करती है तथा संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति में कार्य-संस्कृति की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।</s>
<s>[INST]भावनात्मक बुद्धिमत्ता से आप क्या समझते हैं? एक सिविल सेवक को अपने कार्य निष्पादन के दौरान इससे किस प्रकार सहायता मिल सकती है?[/INST]उत्तर : अपनी भावनाओं को परिस्थिति के अनुसार नियंत्रित व निर्देशित कर, पारस्परिक संबंधों का विवेकानुसार और सामंजस्यपूर्ण तरीके से प्रबंधन करने की क्षमता भावनात्मक बुद्धिमत्ता कहलाती है। यह मूल रूप से अपनी भावनाओं को पहचानने और प्रबंधित करने तथा दूसरे के मनोभावों को समझकर उन पर नियंत्रण करने की क्षमता है। हमें किसी समस्या को सुलझाने के लिये संज्ञानात्मक बुद्धि की ज़रूरत होती है, परंतु संज्ञानात्मक बुद्धि हमारे दैनिक जीवन के एक छोटे से अनुपात का ही प्रतिनिधित्व करती है, अतः किसी व्यक्ति की सफलता में भावनात्मक बुद्धिमत्ता कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। एक सिविल सेवक को भावनात्मक बुद्धिमत्ता से निम्न प्रकार से सहायता मिल सकती है- कार्य स्थल पर बेहतर पारस्परिक संबंध और सौहार्द्रपूर्ण माहौल बनाए रखने के लिये। अपने अधीनस्थों की मनोवृत्ति की सही पहचान करने तथा उनके कार्य निष्पादन की क्षमता के माध्यम से भविष्य के परिणामों का पूर्वानुमान लगाने में। हितग्राहियों की अभिवृत्ति को समझकर किसी परियोजना के सफल संचालन को सुनिश्चित करने में। आपदा या दुर्घटना के दौरान पीड़ितों की मनोवृत्ति का सही-सही आकलन कर उनके राहत और पुनर्वास की प्राथमिकताएँ तय करने में। स्वयं के नकारात्मक आवेगों को नियंत्रित कर एक स्वस्थ कार्यशैली का विकास करने में। अंतर्वैयक्तिक संचार कौशल का विकास करने में। भावनात्मक बुद्धिमत्ता के प्रयोग से बातचीत के माध्यम से प्रतिकूल परिस्थितियों पर नियंत्रण पाने की क्षमता का विकास होता है। समय,सूचना तथा मानव संसाधन के उचित प्रबंधन द्वारा गुणवत्तापूर्ण कार्य-निष्पादन करने में। भारत जैसे बहुलतावादी देश में उच्च भावनात्मक बुद्धिलब्धि (EQ) से युक्त सिविल सेवकों का होना बहुत ज़रूरी है। स्वयं की भावनाओं पर नियंत्रण रखने वाले और व्यवहार में लचीलापन रखने वाले सिविल सेवक ही प्रशासन के उद्देश्यों की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।</s>
<s>[INST]आप किसी राज्य में ज़िलाधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। आपके ज़िले में साक्षरता की स्थिति काफी दयनीय है, जो लगभग 25 प्रतिशत है। राज्य के मुख्यमंत्री ने इस विषय पर व्यक्तिगत रूप से आपसे संपर्क करके इस मुद्दे का प्रभावी उपाय खोजने को कहा है ताकि, देश में राज्य और ज़िले की छवि को धूमिल होने से बचाया जा सके। एक ज़िलाधिकारी के रूप में आप किस प्रकार इस चुनौती से निपटेंगे?[/INST]उत्तर : देश की औसत साक्षरता दर लगभग 74 प्रतिशत है। ऐसे में किसी ज़िले की औसत साक्षरता 25 फीसदी होना, निश्चित रूप से चिंतनीय मुद्दा है। क्योंकि किसी भी ज़िले के विकास और प्रशासन को गतिशील होने की प्रेरणा जन-भागीदारी और सुशिक्षित समाज से ही मिलती है, इसलिये सुशासन और प्रगति के लिये आम नागरिकों का शिक्षित होना अपरिहार्य है। इस चुनौती से निपटने के लिये निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं- सबसे पहले सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों- सर्व शिक्षा अभियान, मध्याह्न भोजन आदि योजनाओं की जाँच करूंगा और इसके सफल संचालन को सुनिश्चित करूंगा, जिससे इन योजनाओं की विफलता की वजह से साक्षरता में आ रही कमी को दूर किया जा सके। इसके बाद साक्षरता के महत्व को उज़ागर करने एक लिये ज़िले के विभिन्न गाँवों में नुक्कड़ नाटक या सेमिनार का आयोजन किया जाएगा ताकि आमलोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आए। साथ ही समाज में जो भी लोग शिक्षित हैं चाहे वे वयस्क हों या बच्चे, उन्हें अन्य लोगों को शिक्षित करने के लिये प्रोत्साहित किया जाएगा और उन्हें पारितोषिक प्रदान करने हेतु सरकार से वित्तीय मदद की भी मांग करूंगा। बच्चों को स्कूल में नामांकन के लिये प्रोत्साहित करने हेतु छात्रवृत्ति प्रदान करने जैसे कार्यक्रमों को लागू करने की सरकार से अपील करूंगा और अशिक्षित वयस्कों को शिक्षित करने के लिये उन्हें ऐसे समय शिक्षा देने की व्यवस्था करूंगा जिससे कि उनकी आर्थिक गतिविधियाँ प्रभावित न हों। साथ ही शिक्षा के प्रति आकर्षण को बढ़ाने के लिये उनके कौशल विकास पर बल दिया जाएगा और सरकार से उनके लिये रोज़गार सृजन एवं ऋण उपलब्ध कराने की मांग भी करूंगा। इसके अतिरिक्त बच्चों को दिये जा रहे मध्याह्न भोजन के समान ही वयस्कों लिये भी शिक्षा साथ के भोजन की व्यवस्था करूंगा, ताकि वयस्कों में शिक्षा के प्रति तात्कालिक आकर्षण उत्पन्न हो। सरकारी कर्मचारियों को साप्ताहिक अवकाश या त्योहारों की छुट्टी के दौरान आसपास के लोगों को शिक्षित करने पर प्रोन्नति या वेतन वृद्धि में विशेष लाभ देने की घोषणा की जाएगी, ताकि वे लोग भी सरकार के इस अभियान में बढ़-चढ़कर भागीदार बनें। अंततः इस कार्य को और तेजी से आगे बढ़ाने के लिये एनजीओ, बड़े उद्योगपतियों और खेल व मनोरंजन जगत की प्रमुख हस्तियों से भी मदद लेने का कोशिश करूंगा। इसके साथ ज़िला प्रशासन के अन्य विभागों से भी सामंजस्य बनाने का प्रयत्न करूंगा जिससे उपर्युक्त कदमों को अमल में लाया जा सके।</s>
<s>[INST]गांधी जी के विचारों में क्या पर्यावरणवाद की भी झलक मिलती है ? विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : गांधी जी ने कहा था -“मुझे प्रकृति के अतिरिक्त किसी प्रेरणा की आवश्यकता नहीं है। उसने कभी मुझे विफल नहीं किया। वह मुझे चकित करती है, भरमाती है, आनंद की ओर ले जाती है।” वर्तमान संदर्भ में हम पर्यावरण और गांधी जी की तकनीकी शब्दावली को सीधे तौर पर नहीं जोड़ सकते, परंतु पर्यावरण की समस्या आज जिस रूप में हमारे सामने उभरी है, उसे गांधी जी के नियमों पर चलकर ही सुलझाया जा सकता है। पर्यावरण और गांधी जी के विचारों व व्यवहार के बीच संबंध को हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझ सकते हैं- पर्यावरण प्रदूषण, प्रकृति के साथ की जाने वाली हिंसा का ही एक रूप है। गाँधी जी जब अहिंसा की बात कर रहे थे, तब वे सिर्फ इंसानों की नहीं, बल्कि पूरे जैव समुदाय की बात कर रहे थे। एक वस्त्र में ही आधा जीवन गुज़ार देने वाले गांधी जी यह संदेश देते हैं कि कम उपभोग की नीति पर चलकर, अपने लालच को कम करके तथा प्रकृति के न्यूनतम दोहन द्वारा ही पर्यावरण को बचाया जा सकता है। गांधी जी का चरखा आधुनिकता का विरोधी नहीं है , बल्कि वह उस अनियंत्रित औद्योगीकरण का विरोधी है , जिसने आज पर्यावरण की हालत दयनीय कर दी है। खादी का प्रयोग न केवल सादगी का प्रतीक है, बल्कि खादी के वस्त्र प्रकृति के करीब भी हैं। यदि हम खादी के हिमायती हैं, तो हम पर्यावरण के भी हिमायती हैं। हम किसी भी गांधीवादी मुहिम को देखें तो उसे पर्यावरण के करीब ही पाएंगे। चाहे वह अनुपम मिश्र जैसे गांधीवादी द्वारा जल के सीमित उपभोग और उसके संरक्षण की शिक्षा देने की बात हो, पेड़ों को बचाने चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा पेड़ों से चिपककर अनूठा आंदोलन चलाने की बात हो या मेधा पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन की बात हो, जिसमें जीवनयापन के संसाधनों को बचाने के संघर्ष ने समय के साथ पर्यावरणवाद का रूप ले लिया। गांधी जी कहते थे कि “जो व्यक्ति अपनी दैनिक आवश्यकताओं को कई गुना बढ़ा लेता है वह सादा जीवन उच्च विचार के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता।” मनुष्य-जीवन की सादगी में ही पर्यावरण संरक्षण का रहस्य छुपा हुआ है। उनका प्रसिद्ध वक्तव्य “प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, परंतु हमारे लालच की नहीं”, आज समकालीन पर्यावरणीय आंदोलनों के लिये नारा बन गया है। </s>
<s>[INST]सोशल मीडिया और सूचनाधिक्य के इस दौर में बच्चों में मूल्यरोपण कराने में परिवार की क्या भूमिका हो सकती है? उदाहरण सहित समझाइये।[/INST]उत्तर : सोशल मीडिया के इस युग में सूचनाओं की भरमार है, परंतु सोशल मीडिया एक खुली हुई दुनिया है। यहाँ चलने वाली अपुष्ट, फर्ज़ी और भ्रामक खबरें, बाल-मन को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। ऐसे में बच्चों के मन में मूल्यों को विनिर्विष्ट करवाना परिवार के लिये निश्चित तौर पर चुनौतीपूर्ण है। मूल्यरोपण में परिवार की भूमिका को हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझ सकते हैं – बच्चों के निकटतम निरीक्षक के रूप में परिवार उनके व्यवहार पर तात्कालिक प्रतिक्रिया प्रदान करते हैं और वे ज़रूरी सुधार कर सकते हैं। उदाहरण के लिये ब्रिटेन की सरकार ने माता-पिता से बच्चों के व्यवहार पर नज़र रखने के लिये कहा है। बच्चों द्वारा किये गए अच्छे व्यवहार को प्रोत्साहित कर, परिवार उस व्यवहार को आदत में बदलवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। सोशल मीडिया पर बढ़ रहे धार्मिक उन्माद, नकली खबरें तथा प्रचार के कारण बच्चों के धार्मिक रूप से कट्टर हो जाने का डर है। ऐसे में परिवार ही बच्चों को इस विविध और गतिशील दुनिया में उचित-अनुचित की पहचान कराने में मदद कर सकता है। परिवार, बच्चों द्वारा इंटरनेट के इस्तेमाल पर निगरानी रख उन्हें केवल उनके ही काम की सामग्री ढूंढने के लिये मदद कर सकता है जैसे- किताबें, विज्ञान, भूगोल या इतिहास से संबंधित वीडियो आदि। अपने पारिवारिक और सामाजिक रीति रिवाज़ों के ज़रिये परिवार ही बच्चों को सहिष्णुता और बंधुत्व का गुण सिखा सकता है। इंटरनेट पर ट्रोलिंग, मज़ाक बनाना, अभद्र और आक्रामक भाषा का प्रयोग कर की जाने वाली शाब्दिक हिंसा आज आम बात है। यदि बच्चा इनसे प्रभावित है तो परिवार ही उसे मानसिक संबल प्रदान कर उस स्थिति से उबार सकता है। और यदि बच्चा स्वयं इन सब में लिप्त है तो परिवार ही समझाइश या डांट-फटकार से उसे इन सब कामों के प्रति हतोत्साहित कर सकता है। आज इंटरनेट पर महिलाओं के प्रति हिंसा दिखाने वाली तमाम सामग्री मौजूद है। ऐसे में बच्चों को महिलाओं के प्रति सम्मान और महिला-पुरुष बराबरी की भावना का विकास केवल परिवार के माहौल में सिखाया जा सकता है। कहा जाता है कि सूचना दोधारी तलवार की तरह है। एक ओर इसका उपयोग भ्रम और कट्टरता फैलाने में भी किया जा सकता है, तो दूसरी ओर रचनात्मक कार्यों में भी किया जा सकता है। इन्हीं बातों में अंतर करना सिखाने में और बच्चे के सामाजीकरण तथा उसमें मूल्यरोपण की पहली संस्था के रूप में परिवार की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है।</s>
<s>[INST]नागरिक घोषणा-पत्र (CITIZEN CHARTER ) क्या है? इसके कौन-कौन से अवयव हैं?[/INST]उत्तर : नागरिक घोषणा-पत्र एक ऐसा व्यवस्थित दस्तावेज़ है जो किसी संगठन द्वारा मुहैया कराई जा रही सेवाओं, उनके गैर-भेदभावपूर्ण वितरण, पहुँच, शिकायत निवारण तंत्र, उत्तरदायित्व और पारदर्शिता के संबंध में नागरिक केंद्रित प्रतिबद्धता का प्रतिनिधित्व करता है। साथ ही इसके अंतर्गत संगठन द्वारा अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिये नागरिकों से संबंधित अपेक्षाओं को शामिल किया जाता है। उल्लेखनीय है कि यहाँ नागरिक का तात्पर्य केवल नागरिक नहीं अपितु उस संगठन के हितधारकों में शामिल नागरिक, अन्य संगठन, मंत्रालय, विभाग या प्रशासनिक इकाई आदि से है। एक अच्छे नागरिक घोषणा-पत्र में निम्नलिखित अवयव हो सकते हैं: संगठन के विज़न और मिशन के बारे में विस्तृत विवेचन हो। संगठन द्वारा किये जाने वाले कार्य-व्यवहारों का विस्तार से उल्लेख हो। संगठन के सभी हितधारकों के बारे में व्यापक वर्णन हो। विभिन्न हितधारकों को प्रदान की जाने वाले सेवाओं, मूल्यों, समय-सीमा, स्थान व गुणवत्ता के साथ-साथ समूहों या पृथक् रूप से प्रदत्त सेवाओं के बारे में भी विस्तृत उल्लेख हो। संगठन के अंतर्गत शिकायत निवारण तंत्र और वहाँ तक पहुँच के बारे में बिंदुवार वर्णन हो। संगठन द्वारा किसी सेवा को निश्चित समय-सीमा के भीतर नहीं मुहैया कराने पर क्षतिपूर्ति से संबंधित जानकारियों जैसे-अतिरिक्त सूचना को भी नागरिक घोषणा-पत्र में शामिल किया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त संगठन द्वारा प्रदत्त सेवाओं या गतिविधियों से संतुष्ट नहीं होने पर वरीय स्तर पर शिकायत करने की जानकारी अंकित होनी चाहिये। </s>
<s>[INST]आप किसी राज्य में अपर मुख्य सचिव (चिकित्सा/चिकित्सा शिक्षा) के पद पर कार्यरत हैं। आपके राज्य के कुछ क्षेत्रों में वर्ष के कुछ माह के दौरान विशेष प्रकार की संक्रामक बीमारियों के फैलने का खतरा रहता है, जिसका प्रभाव बच्चों पर अधिक पड़ता है। इससे पूर्व भी इस बीमारी के कारण बड़ी संख्या में लोग मौत के शिकार हुए हैं। उस घटना को लेकर राज्य के प्रशासन और चिकित्सा व्यवस्था की काफी आलोचना हुई थी। हालाँकि उस घटना से आहत होकर सरकार ने विशेषज्ञों की एक टीम गठित की थी, परंतु टीम ने बीमारी की प्रकृति को देखकर नियंत्रण पर बल देने को कहा था। एक अपर मुख्य सचिव के रूप में इस स्थिति से किस प्रकार निपटेंगे?[/INST]उत्तर : उपर्युक्त स्थिति राज्य की चिकित्सा व्यवस्था को सशक्त और उत्तरदायी बनाने पर बल देती है। इस स्थिति में निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं- सबसे पहले इस संक्रामक बीमारी के प्रसार-क्षेत्र, समय और कारणों के बारे में जानकारी जुटाना आवश्यक है जिससे कि सही समय पर उपयुक्त कदम उठाया जा सके। साथ ही इस बीमारी के कारणों और उसके संभावित लक्षणों के बारे में विस्तृत रोडमैप तैयार करने के लिये विशेषज्ञों की एक टीम गठित की जाएगी, जो निश्चित समय-सीमा के भीतर अपनी रिपोर्ट देगी। चूँकि पूर्व में गठित विशेषज्ञों की टीम द्वारा इस बीमारी की समाप्ति के बदले इसके नियंत्रण पर बल देने को कहा गया था। अतः नियंत्रण के लिये सभी संभावित पहलों की सूची तैयार कर संक्रमण संभावित क्षेत्रों सहित संपूर्ण राज्य के चिकित्सा अस्पतालों और चिकित्सा महाविद्यालयों में इस संदर्भ में सूचना प्रेषित की जाएगी। विदित हो कि यह संक्रमण वर्ष के किसी खास मौसम में होती है, अतः इस मौसम से पहले राज्य के सभी ज़िलों के चिकित्सा प्रमुखों, सभी मेडिकल कॉलेजों के प्रिंसिपलों और ज़िला प्रशासन की एक संयुक्त बैठक बुलाई जाएगी, जिसमें संक्रमण के दौरान आवश्यक सभी उपकरणों की जानकारी ली जाएगी और कमी पाए जाने पर अविलंब आपूर्ति की जाएगी। साथ ही ज़िला प्रशासन को जन जागरूकता हेतु संक्रमण के कारण व उससे बचाव के बारे में प्रचलित क्षेत्रीय भाषा में बोर्ड व अन्य माध्यम से कदम उठाने के बारे में निर्देश दिया जाएगा। चूँकि इस बीमारी से बच्चे अधिक प्रभावित होते हैं, अतः संक्रमण संभावित क्षेत्रों में अतिरिक्त शिशुरोग विशेषज्ञों की नियुक्ति की जाएगी। ताकि संक्रमण की स्थिति में इसे महामारी में बदलने से बचाया जा सके और बच्चों की मृत्यु को टाला जा सके। इसके अतिरक्त सभी अस्पतालों में इस संक्रमण के मरीज़ों को विशेष देखभाल जैसे आईसीयू में रखे जाने की पर्याप्त व्यवस्था की जाएगी।</s>
<s>[INST]दो लड़कियों के बलात्कार और हत्या के अपराध सिद्ध व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जाता है। फाँसी होने के ठीक कुछ समय पहले व्याकुलता में वह एक जेल अधिकारी से पूछता है कि फाँसी के दौरान क्या मुझे तकलीफ होगी ? अधिकारी उसे जवाब देता है कि यह तकलीफ बलात्कार और हत्या किये जाने की तकलीफ से अधिक नहीं होगी। प्रक्रियानुसार उसे फाँसी दे दी जाती है। इस मामले से जुड़े नैतिक मुद्दे कौन-से हैं ? मृत्युदंड के पक्ष और विपक्ष में अपने तर्क प्रस्तुत करें।[/INST]उत्तर : दिये गए मामले में निम्नलिखित नैतिक मुद्दे हैं – जीने के अधिकार का उल्लंघन- यहाँ कुल तीन लोगों के जीने के अधिकार का उल्लंघन हुआ है। अपराध का शिकार हुई दोनों लड़कियों के साथ-साथ स्वयं अपराधी के भी जीवन का अधिकार बाधित हो रहा है। निजी शुचिता का अतिक्रमण- उस व्यक्ति के कृत्य ने उन दोनों लड़कियों की निजी शुचिता का अतिक्रमण किया है। देश के कानून का उल्लंघन- निवारक नियमों के रूप में स्थापित देश के कानून का उल्लंघन भी इस मामले में एक नैतिक पहलू है। जीवन के अंतिम समय में अमानवीय व्यवहार- यह एक स्वीकार्य तथ्य है कि समाज को मृत्यु के नज़दीक खड़े व्यक्ति से दया एवं मर्यादा पूर्ण व्यवहार करना चाहिये। एक जघन्य अपराधी, जिसे कुछ ही क्षणों में मृत्यु दंड दिया जाना है, जो उस भय से पहले ही व्याकुल हो रहा है, वह भी उन क्षणों में मानवीय व्यवहार का हकदार है। यदि जेल अधिकारी इस समय भी उसे मानसिक यातना देने वाला व्यवहार करता है तो एक सभ्य समाज के सदस्य और एक अपराधी में क्या अंतर रह जाएगा? मृत्युदंड- व्यक्ति ने बलात्कार और हत्या का जघन्य अपराध किया है,परंतु क्या उसे फांसी दे देना, न्याय को सुनिश्चित करता है? क्या यह उचित होगा कि मानसिक कुंठा और विकृति में किये गए अपराध के बदले एक सभ्य समाज अपराधी के साथ भी वही व्यवहार करे जो उस अपराधी ने पीड़ित के साथ किया? मृत्युदंड के पक्ष में तर्क – समाज को यह संदेश देना आवश्यक है कि इस तरह के कृत्य सभ्य समाज में बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं हैं। इस मामले में बलात्कार के लिये कारावास और बलात्कार के बाद हत्या के लिये भी आजीवन कारावास का प्रावधान यह संभावना बढ़ा देगा कि अपराधी दोनों ही अपराधों को अंजाम दे दे और ऐसे में यह भी संभावना रहेगी कि उसका अपराध कभी सामने ही न आए। अमेरिका, भारत, पाकिस्तान ,चीन, इंडोनेशिया, ईरान और खाड़ी के देश, सभी में कुल मिलाकर विश्व की आधी से अधिक जनसंख्या रहती है। यदि इन सभी देशों में मृत्युदंड का प्रावधान है , तो इसका अर्थ है कि आधी से अधिक दुनिया इसका समर्थन करती है। मृत्युदंड के विपक्ष में तर्क – ऐसे कोई भी प्रमाण नहीं हैं जिनसे ये निर्धारित किया जा सके कि मृत्युदंड से बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों की संख्या में कमी आई है। विश्व के ज़्यादातर राष्ट्रों ने मृत्युदंड का प्रावधान अपनी न्यायिक व्यवस्था से हटा दिया है। मृत्युदंड, प्रतिशोध का एक कृत्य मात्र है, जबकि सभ्य समाजों में दंड का उद्देश्य सुधार या अपराध का निवारण होता है। “प्राण के बदले प्राण” , गांधी जी के उस कथन की भाँति ही है जिसमे वे कहते हैं कि “ आँख के बदले आँख की नीति सारे संसार को अंधा बना देगी”।</s>
<s>[INST]अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता से क्या अभिप्राय है? अंतर्राष्ट्रीय मामलों के अंतर्गत आने वाले नैतिक मुद्दों पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता उन सभी तथ्यों और व्यवहारों का योग है, जिनसे वैश्विक समाज अनुकूल अथवा प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है। अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता ही वह दृष्टि प्रदान करती है जिससे यह पता चलता है कि दो देश आपस में कैसा व्यवहार करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के अंतर्गत नैतिक मुद्दे:- विकास और वर्चस्व की दौड़ में आज विभिन्न देशों के बीच परस्पर सहयोग के साथ-साथ प्रतिस्पर्द्धा में भी लगातार वृद्धि हो रही है। अतः अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई तरह के नैतिक मुद्दे अस्तित्व में आ गए हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :- जलवायु परिवर्तन- समूचा विश्व आज जलवायु परिवर्तन का सामना कर रहा है, इसके बावजूद कई राष्ट्रों के मध्य इस मुद्दे पर मतभेद बने हुए हैं। उदाहरण के लिये पेरिस-जलवायु समझौते से अमेरिका का पीछे हटना उसकी पर्यावरणीय नैतिकता के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता को भी संदिग्ध बना देता है। सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग- सुदूर समुद्री क्षेत्र, अंतरिक्ष, अंटार्कटिका तथा कई प्राकृतिक स्थल जो किसी भी देश की सीमा से परे हैं , का उपभोग और स्वामित्व का अधिकार भी नैतिक समस्याएँ खड़ी कर रहे हैं। दक्षिणी चीन सागर का मुद्दा ऐसा ही एक उदाहरण है। राजनीतिक तथा मानवतावादी हस्तक्षेप – कुछ यूरोपीय देशों तथा अमेरिका ने कुछ एशियाई एवं कुछ अफ्रीकी देशों में “जनमत के विरोध” को आधार बनाकर उनके आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप किया है तथा अप्रत्यक्ष रूप से उन देशों की सत्ता को नियंत्रित करने का प्रयास किया है। अफगानिस्तान, इराक तथा सीरिया के आतंरिक संघर्ष इन्हीं हस्तक्षेपों के परिणाम हैं। कुछ अन्य अंतर्राष्ट्रीय नैतिक मुद्दों में निःशस्त्रीकरण, बौद्धिक संपदा अधिकार, विश्व व्यापार संगठन द्वारा किये गए प्रावधान इत्यादि भी शामिल हैं, जहाँ किसी एक देश या कई देशों के हितों को अनदेखा कर अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता को प्रश्नगत किया गया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों के बीच पारस्परिक संबंधों का वैश्विक समुदाय से प्रत्यक्ष संबंध होता है। यदि ये संबंध मधुर होते हैं तो यह समूची मानव-सभ्यता के लिये हितकारी होता है। वैश्विक समुदाय को अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता का आधार मज़बूत करने के लिये विश्व बंधुत्व जैसे मूल्यों को अपनाना होगा।</s>
<s>[INST]क्या सामाजिक नियमों को नैतिकता का मापदंड माना जा सकता है ? चर्चा करें।[/INST]उत्तर : मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज पर ही उसका अस्तित्व निर्भर है। समाज के आदेश उसके लिये आचरण संबंधी आदर्शों के समान हैं। समाज जिसे अनुमति दे, वह मनुष्य के लिये उचित और जिसे निषिद्ध करे, वह अनुचित है। समाज व्यक्ति से अपने नियमानुकूल व्यवहार करने की अपेक्षा रखता है। समाज के नियम किसी संसद द्वारा या किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा निर्मित नहीं होते। वे समाज के प्रचलन और रीतियों में ही व्यक्त किये जाते हैं। समाज अपने नियमों को पुरस्कार के प्रलोभन या दंड के भय के माध्यम से ही पालन करवाता है। जाति बहिष्कार अथवा बायकाट समाज द्वारा दिये जाने वाले दंड के रूप हैं। इस प्रकार प्रतीत होता है कि नैतिकता का संरक्षण समाज की शक्ति और दंड के द्वारा ही होता है अर्थात् समाज द्वारा आदेशित कर्म ही नैतिक है। परंतु इस मान्यता के खंडन में भी कुछ तर्क इस प्रकार हैं – विभिन्न समाजों के नियम भिन्न-भिन्न होते हैं अर्थात् सामाजिक नियम समरूप नहीं होते। यह संभव है कि कोई नियम किसी समाज में अकाट्य हो और किसी दूसरे समाज में उस नियम की आलोचना होती हो। एक ही समाज में समय के साथ नियमों में भी परिवर्तन हो जाता है। जिस प्रचलन की कुछ समय पहले तक समाज में स्वीकार्यता थी, उसे अब दूषित माना जाता है, जैसे- सती प्रथा। किसी व्यक्ति के अभिप्राय को केवल वह व्यक्ति स्वयं ही जानता है , न कि समाज। अभिप्राय ही नैतिक निर्णय का विषय होता है, अतः समाज इस क्रिया का उचित संपादन नहीं कर सकता। समाज अधिकतर रूढ़िवादी होता है। सामाजिक नियमों को नैतिकता का चरम मापदंड मान लेने से सामाजिक उत्थान संभव नहीं होगा। यदि उन्ही नियमों को मनुष्य अपने जीवन का परम लक्ष्य मान ले तो मनुष्य और समाज दोनों की ही गति रुक जाएगी। समाज के कई नियम खुद ही नैतिक आलोचना के विषय बन जाते हैं। समाज का कौन सा नियम नीति संगत है और कौन सा नहीं, इसकी हर काल में विवेचन होती है। सामाजिक नियम सार्वभौमिक तौर पर लागू नहीं होते और समय के साथ उनमें परिवर्तन होता रहता है। अतः उन्हें नैतिकता के स्थायी मापदंडों के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। परंतु यह भी सत्य है कि सामाजिक नियम व्यक्ति के कर्म-व्यवहार को काफी हद तक उचित–अनुचित में विभाजित करते हैं।</s>
<s>[INST]क्या बच्चों के रिएलिटी टी.वी. कार्यक्रमों पर पाबंदी लगनी चाहिये? इस मुद्दे के नैतिक आयामों पर चर्चा करें।[/INST]उत्तर : टी.वी. तथा रिएलिटी शो, आज एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं। लगभग हर टी.वी. चैनल पर किसी- न -किसी फॉर्मेट पर आधारित रिएलिटी शो प्रसारित हो रहा है। वैसे तो ये कार्यक्रम मूलतः युवाओं के रोमांच और उत्साह को भुनाकर चैनल की टी.आर.पी. बढ़ाने के लिये प्रसारित होते हैं, परन्तु आजकल 5 वर्ष तक के बच्चे भी न केवल इन कार्यक्रमों के दर्शक बन गए हैं, बल्कि इनमें स्वयं प्रतिभागी भी बन गए हैं। बच्चों के रिएलिटी शो नृत्य, गायन, अभिनय,हास्य आदि विधाओं पर आधारित होते हैं। ये कार्यक्रम, बच्चों को टी.वी. के माध्यम से अपनी प्रतिभा को सारी दुनिया से परिचित करवाने हेतु मंच प्रदान करते हैं। कम उम्र में ख्याति(ग्लैमर) तथा धन कमाने का अवसर देने वाले इन कार्यक्रमों का दूसरा पहलू भी है,जो बच्चों के व्यवहार और भावनाओं को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। इसे हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझ सकते हैं:- लगभग तीन या चार महीनों में खत्म होने वाले रिएलिटी शो के दौरान बच्चों को एक्सपोज़र की आदत पड़ जाती है, जो शो खत्म होने के बाद एक प्रकार के डिप्रेशन(अवसाद) का रूप ले लेती है। असफलता के डर के कारण इन बच्चों में मनोविकार पैदा हो जाते हैं। बचपन में ही उन पर लगा असफलता का तमगा, उन्हें जीवन भर बोझ जैसा प्रतीत होता है। इन कार्यक्रमों के दौरान बच्चों को लंबी अवधी तक शूटिंग स्थलों पर रुकना होता है। दबाव और चिंता के माहौल में रहने व आराम की कमी के कारण इनमें अनिद्रा आदि की समस्या उत्पन्न हो जाती है। शूटिंग के दौरान बच्चों को तेज़ रोशनी का सामना करना पड़ता है जिससे उनकी आँखों तथा चेहरे की त्वचा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ऐसे कई कार्यक्रमों में बच्चों से भद्दे डांस, घिनौने व द्विअर्थी संवाद तथा खतरनाक स्टंट करवाए जाते हैं। ये उनके बचपन पर कुठाराघात है। बच्चों के रिएलिटी शो उनके मानसिक - शारीरिक स्वास्थ्य, मानवाधिकार, बाल अधिकार, शिक्षा आदि की राह में बाधा बनते स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। अतः बच्चों के रिएलिटी टी.वी. कार्यक्रमों पर पाबंदी एक उचित कदम प्रतीत होता है। यदि ऐसा तत्काल करना संभव न हो तो भी उन्हें विनियमित करने हेतु निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:- ऐसे कार्यक्रमों में बच्चों की आयु सीमा तय होनी चाहिये। 5 से 9 वर्ष तक के बच्चों को ऐसी प्रतिस्पर्द्धाओं में नहीं उतारना चाहिये। बच्चों के मोटापे, दाँत या आदतों पर सार्वजनिक रूप से टिप्पणी नहीं की जानी चाहिये। कार्यक्रम के जजों की वाणी में संयम तथा व्यवहार में शालीनता होनी चाहिये। टी.वी. मनोरंजन का साधन है। शुद्ध व्यावसायिकता और टी.आर.पी की इस दौड़ में बच्चों के अधिकारों को रौंदा जाना बिलकुल भी उचित नहीं है। बच्चों की प्रतिभा को परखने के ये तरीके उनके जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। माता-पिता को भी ये प्रयास करना चाहिये कि बच्चे के हुनर का विकास घरेलु स्तर पर किया जाए एवं उसके युवा होने पर ही रिएलिटी कार्यकर्मों में भाग लेने दिया जाए।</s>
<s>[INST]कॉरपोरेट शासन व्यवस्था क्या है? इसके उद्देश्य एवं महत्व पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : कॉरपोरेट शासन व्यवस्था किसी संगठन को निर्देशित और नियंत्रित करने का एक तरीका है। इस व्यवस्था में बोर्ड ऑफ डायरेक्टर की काफी प्रभावी भूमिका होती है। अन्य प्राथमिक सदस्यों विशेषरूप से शेयरधारकों के साथ इसका महत्त्वपूर्ण संबंध होता है। कॉरपोरेट शासन व्यवस्था का ढाँचा समुदाय के कानूनी, नियामकीय, संस्थागत और नैतिक वातावरण पर निर्भर करता है। इसे कानूनी और गैर-कानूनी सिद्धांतों और सार्वजनिक तौर पर आयोजित व्यापार कंपनियों के नियंत्रण को प्रभावित करने वाली प्रथाओं के मेज़बान के रूप में वर्णित किया गया है। उल्लेखनीय है कि यहाँ प्रबंधन को एक न्यासी की भूमिका निभानी होती है जिसका मूल उद्देश्य शेयरधारकों के विभिन्न वर्गों के बीच लाभ की विषमता को रोकना होता है, खासकर मालिक-प्रबंधकों और शेष शेयरधारकों के बीच। इस तरह कॉरपोरेट शासन व्यवस्था किसी संगठन के निष्पक्ष, पारदर्शी और नैतिक प्रशासन के समान है। कॉरपोरेट शासन व्यवस्था के उद्देश्य समाज के मूल्यों का सम्मान करते हुए शेयरधारकों के मूल्य को अधिकतम करना एवं अन्य हितधारकों के हितों की रक्षा करना। फर्म के कुशल निष्पादन के लिये आर्थिक और मानव पूंजी को आकर्षित करना। निवेशकों के विश्वास को मज़बूत करना और कंपनियों को मुनाफे की ओर ले जाना। कॉरपोरेट शासन व्यवस्था का महत्त्व कॉरपोरेट शासन व्यवस्था का सर्वोत्तम क्रियान्वयन न केवल शेयर धारकों बल्कि फर्म के अस्तित्व के लिये भी महत्त्वपूर्ण है। यह मूल्य, स्थिरता और दीर्घकालिक लाभ को बढ़ाता है। वर्तमान समय में जब धोखाधड़ी, दिवालियापन आदि की घटनाएँ बढ़ रही हैं तो यह किसी कंपनी के लाभ के लिये ही नहीं बल्कि नैतिक व्यवहार, पर्यावरणीय जागरूकता एवं मज़बूत कॉरपोरेट शासन व्यवस्था के प्रदर्शन के ज़रिये एक बेहतर कॉरपोरेट नागरिक कर्त्तव्यों के प्रदर्शन की है।</s>
<s>[INST]प्रशासकीय विवेक (Administrative Discretion) से क्या अभिप्राय है? यह क्यों आवश्यक है? इसके प्रभावों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : विवेक को वस्तुतः एक विज्ञान या तर्क करने की शक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसके अंतर्गत सत्य और असत्य, उचित और अनुचित, प्रतिबिम्ब और वास्तविकता आदि के बीच विभेद करने की क्षमता समाहित है। इसके अतिरिक्त इसमें अपनी इच्छा और व्यक्तिगत लगाव के विपरीत कार्य नहीं करने की भी आज़ादी शामिल है। प्रशासनिक संस्थाएँ इसके अंतर्गत सिद्धांतों, मानदंडों और शर्तों को विभिन्न तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार व्यावहारिक रूप प्रदान करते हैं। इस तरह किसी विशेष परिस्थिति में प्रशासनिक संस्थाओं या प्रशासकों द्वारा अपने निर्णय के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता ही प्रशासकीय विवेक कहलाता है। प्रशासकीय विवेक की आवश्यकता लोक सेवक या प्रशासनिक अधिकारी लोक नीति के संचालन में केवल सहायक की भूमिका में नहीं होते हैं बल्कि वे लोक कल्याण से सम्बंधित मुद्दों- भोजन,वस्त्र,आवास आदि के बारे में निर्णय भी लेते हैं। वस्तुतः लोक नीतियों के निर्माण में विधायी शक्तियों का प्रयोग होता है जो निश्चित नियमों और सार्वभौमिक आधार पर निर्धारित होते हैं। किन्तु लोक नीतियों को व्यावहारिक रूप देने के लिये और उसे परिस्थिति के अनुकूल बनाने के लिये विवेक की आवश्यकता होती है। प्रशासकीय विवेक का सकारात्मक प्रभाव प्रशासकीय विवेक के कारण ही लोक नीतियों का श्रेष्ठ समायोजन(प्राथमिकता आदि के निर्धारण में) संभव हो पाता है। इसके अभाव में लोक कल्याण से सम्बंधित योजनाएँ महज़ शुष्क कानून सिद्ध होंगी। प्रशासकीय विवेक के प्रभाव से प्रशासनिक संस्थाओं का सरल और बेहतर संचालन सुनिश्चित हो पाता है। प्रशासकीय विवेक का नकारात्मक प्रभाव प्रशासकीय विवेक विकल्पों की बहुलता की स्थिति में नैतिक बाधाएँ भी उत्पन्न करता हैं। साथ ही यदा-कदा अन्य समकक्ष संस्थाओं या व्यक्तियों से टकराव को उत्पन्न करता है। यह कहा जाता है कि विवेक निरंकुशता को बढ़ावा प्रदान करता है ऐसे में यह विवेकहीनता की ओर अग्रसर हो जाता है। निष्कर्षतः प्रशासकीय विवेक लोक प्रशासन में सृजनात्मकता व नवाचार, प्रशासन के मानवीय पक्षों आदि को बढ़ावा देता है जो प्रशासन को परिस्थितियों के अनुकूल लोचशील या दृढ़ बनाने में मददगार है।</s>
<s>[INST]आपको सरकार द्वारा रेलवे परियोजना अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया है और एक विशेष क्षेत्र, जहाँ अभी तक रेल नहीं पहुँची है, का कार्यभार सौंपा गया है। ज्ञात हो की यह पर्यावरणीय दृष्टि से एक संवेदनशील क्षेत्र है, जो पर्यावरण के साथ-साथ स्थानीय समुदाय के लिये भी काफी लाभदायक है। सरकार द्वारा परियोजना को मंज़ूरी दी जा चुकी है, लेकिन स्थानीय समुदायों और पर्यावरणविदों द्वारा इसका तीव्र विरोध किया जा रहा है। ऐसे में सरकार से आपको यह आदेश प्राप्त हुआ है कि स्थानीय समुदाय की आजीविका, पर्यावास व संस्कृति और पर्यावरण को क्षति पहुँचाए बिना एक मध्यम मार्ग निकालकर परियोजना को निर्धारित समय- सीमा में पूरा किया जा सके। एक परियोजना अधिकारी के रूप में आप इस समस्या का समाधान कैसे करेंगे?[/INST]उत्तर : उपर्युक्त समस्या एक नैतिक दुविधा उत्पन्न करती है जो सामुदायिक हित एवं सरकार के प्रति जवाबदेहिता के टकराव से उत्पन्न हुई है। ऐसे में इस जटिल समस्या के समाधान के लिये निम्नलिखित प्रक्रिया अपनाई जा सकती है- एक परियोजना अधिकारी के रूप में परियोजना की सफलता में ही मेरी सफलता निहित है। इस क्रम में सबसे पहले मैं स्थानीय समुदाय और पर्यावरणविदों से सम्पर्क स्थापित कर विरोध का कारण जानने का प्रयास करूंगा। इसके उपरांत स्थानीय समुदाय के लिये आवास की वैकल्पिक व्यवस्था कर उनके रोज़गार के लिये सरकार से कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने या उस क्षेत्र में वहाँ के लोगों के अनुकूल रोज़गारपरक परियोजना की स्थापना की मांग करूंगा ताकि उन्हें आजीविका के लिये अन्यत्र भटकना न पड़े। साथ ही उन्हें परियोजना से होने वाले लाभ के बारे में अवगत कराऊंगा और परियोजना मार्ग में बाधा नहीं डालने की अपील करूंगा। इसके उपरांत पर्यावरणविदों द्वारा लगाए गए आक्षेप पर विचार करूंगा, अगर उनके आक्षेप उचित प्रतीत होते हैं तो परियोजना को ऐसे क्षेत्र से गुज़ारने की कोशिश करूंगा, जहाँ पर्यावरणीय नुकसान न्यूनतम होने की संभावना होगी। इसके बाद भी विरोध जारी रहता है तो परियोजना को पूरा करने के लिये एक विशेषज्ञों की समिति गठित करूंगा जिसके अंतर्गत महिलाओं सहित स्थानीय समुदाय के लोग, पर्यावरणविद्, सिविल सोसायटी के सदस्य और नौकरशाह बराबर संख्या में शामिल होंगे। इस समिति के अंतर्गत सभी निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाएंगे। परियोजना को पूरा करने के लिये समिति द्वारा जिन विकल्पों को सुझाएगी उनमें से उपयुक्त विकल्प पर विचार कर स्थानीय प्रशासन के सहयोग से परियोजना को आरम्भ करने की अनुमति प्रदान कर दूंगा। अंतिम विकल्प यह है कि यदि समिति द्वारा परियोजना को नकार दिया जाता है और यह कहा जाता है कि इस परियोजना से स्थानीय समुदाय के अस्तित्व को ही खतरा है तो मैं सरकार को इस परियोजना पर पुनर्विचार करने की मांग करूंगा, क्योंकि स्थानीय समुदाय के लाभ को साधना ही किसी भी परियोजना का मुख्य उद्देश्य होता है। </s>
<s>[INST]नैतिक दुविधाओं से आप क्या समझते हैं? एक लोक सेवक को किन-किन नैतिक दुविधाओं का सामना करना पड़ता है ?[/INST]उत्तर : जब कोई व्यक्ति दो विकल्पों में से किसी एक के चयन को लेकर असमंजस की स्थिति में रहता है और इनमें से कोई भी विकल्प उसे संतोषजनक परिणाम नहीं प्रदान कर पाता है तो ऐसी स्थिति में नैतिक दुविधाएँ उत्पन्न होती हैं। इन परिस्थितियों में सामाजिक और व्यक्तिगत नैतिक दिशानिर्देश भी चयनकर्त्ता के लिये उपयोगी नहीं होते हैं। इस तरह नैतिक दुविधा एक जटिल स्थिति होती है यहाँ नैतिक अनिवार्यताओं के बीच स्पष्ट मानसिक मुठभेड़ देखने को मिलती है, जिसमें किसी एक का अनुपालन करने से अन्य की अवहेलना करनी पड़ती है। एक लोक सेवक के समक्ष निम्नलिखित प्रकार की नैतिक दुविधाएँ हो सकती हैं- व्यक्तिगत क्षति (Personal Cost) से सम्बंधित नैतिक दुविधा: यह परिस्थितिजन्य नैतिक दुविधा है जो निर्णयकर्ता को जटिल स्थितियों में नैतिक आचरण के अनुपालन के परिणामस्वरूप पर्याप्त व्यक्तिगत क्षति के रूप में प्राप्त होतीहै। उचित-बनाम-उचित (Right-versus-Right) से सम्बंधित नैतिक दुविधा: यह प्रामाणिक नैतिक मूल्यों के दो या दो से अधिक विवादास्पद सेटों की परिस्थितियों से उत्पन्न होती है। सम्मिलित(Conjoint) नैतिक दुविधाएँ: जब कोई सावधानीपूर्वक निर्णय करने वाला व्यक्ति ‘उचित-कार्य करने की तलाश में’ उपर्युक्त दोनों दुविधाओं के एकीकरण का शिकार हो जाता है तो उसके समक्ष इस प्रकार की दुविधाएँ उत्पन्न होती हैं। इसके अतिरिक्त सरकार के प्रति उत्तरदायी होने बनाम समुदाय के हित में कार्य करने में (क्योंकि उसके समक्ष ऐसी भी परिस्थितियाँ आती हैं कि वह किसी एक का चुनाव करे) जब उसके विशेषज्ञ निर्देश स्वयं के मूल्यों के विपरीत हो जाते हैं। साथ ही कुछ समान परिस्थितियों में सामने आ रहे दो विकल्प सही प्रतीत होते हैं तो भी नैतिक दुविधाएँ उत्पन्न होती हैं।</s>
<s>[INST]‘सत्यनिष्ठा’ (Integrity) से आप क्या समझते हैं? बौद्धिक सत्यनिष्ठा (Intellectual Integrity) और बौद्धिक पाखंड (Intellectual Hypocrisy) में अंतर स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : सत्यनिष्ठा व्यक्ति की निजी विशेषता होती है बशर्ते की वह बेईमान, अनैतिक या दुष्ट किस्म का न हो। यह चरित्र की पूर्णता को निर्दिष्ट करती है जिसके सभी अवयवों में आतंरिक सुसंगति होती है। सत्यनिष्ठा से संपन्न किसी व्यक्ति का आचरण सभी स्थितियों में उसके नैतिक सिद्धांतों के अनुरूप होता है साथ ही उसके नैतिकता का आधार भी वस्तुनिष्ठ होता है। इस तरह सत्यनिष्ठा के अंतर्गत नैतिक और व्यावहारिक दोनों तरह की सुसंगति समाहित हैं। नैतिक सुसंगति में निहित है कि नैतिक सिद्धांतों का अधिक्रम या सोपान-क्रम भी सुनिश्चित हो और दो सिद्धांतों के टकराव की स्थिति में संशय न हो। यदि कभी व्यक्ति में नैतिक विचलन भी होता है तो वह उस विचलन को न्यायसंगत ठहराने में भी सक्षम हो। कांट के शब्दों में कहें तो “मुझे किसी नियम के उल्लंघन का हक तभी है जब मैं यह कह सकूँ कि जैसी स्थिति में मैं हूँ वैसी स्थिति में नियम का उल्लंघन करना भी नियम माना जा सकता है।” बौद्धिक सत्यनिष्ठा और बौद्धिक पाखंड में अंतर बौद्धिक सत्यनिष्ठा के तहत हम अपना मूल्यांकन उन्हीं मानकों और उतनी ही कठोरता से करतें हैं जिनपर किसी अन्य व्यक्ति का भी करतें हैं, जबकि बौद्धिक पाखंड में अपने लिये अलग और किसी दूसरे के लिये अलग मानदंड अपनाया जाता हैं। बौद्धिक सत्यनिष्ठा के अंतर्गत दूसरी बात यह है कि अपने सिद्धांतों और व्यवहारों में मौजूद अंतर्विरोधों को दूर करने की सिफारिश करता है, इसके विपरीत बौद्धिक पाखंड में अपने अंतर्विरोधों को जान-बूझकर नज़रअंदाज किया जाता है और उसके प्रति लापरवाही बरती जाती है।</s>
<s>[INST]हृदय परिवर्तन की अवधारणा क्या है? महात्मा गांधी उसे किस आधार पर स्वीकार करते हैं? व्यावहारिक जीवन में उसका क्या औचित्य है?[/INST]उत्तर : हृदय परिवर्तन गांधी जी की नीति मीमांसा से संबंधित एक प्रमुख सिद्धांत है। इसके अंतर्गत गांधी जी ने मार्क्स के विपरीत यह माना है कि बिना भौतिक परिस्थितियों के बदले मनुष्य के विचार को बदला जा सकता है, बशर्ते कि उपयुक्त परिस्थितियाँ मौजूद हों। गांधी जी का यह सिद्धांत उनकी नव्य वेदांत की तत्त्वमीमांसा प्रत्ययवाद से जुड़ा हुआ है। उल्लेखनीय है कि प्रत्ययवाद के अनुसार मूल सत्ता चेतना या विचारों की होती है और उसी से भौतिक स्थितियों का निर्धारण होता है। इसका अर्थ है किसी व्यक्ति में चेतना या विचार में परिवर्तन होने से उसकी भौतिक परिस्थितियाँ बदल सकती हैं। इसके अतिरिक्त नव्य वेदांत के ‘ईशावास्यमिदं सर्वं’ (सब कुछ ईश्वर की ही अभिव्यक्ति है) का प्रभाव भी इस धारणा पर दिखाई पड़ता है। इसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर का अंश निहित है, यदि कोई व्यक्ति क्रूर या अत्याचारी है तो इसका कारण यह है कि उसके भीतर का ईश्वरत्व दबा हुआ है। अगर उसे उचित प्रेरणा और परिस्थितियाँ मिले तो वह भी समाज के लिये सकारात्मक योगदान कर सकता है। हृदय परिवर्तन के व्यावहारिक औचित्य को कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझा जा सकता है, यथा: विनोबा भावे का ‘भूदान’ एवं ‘ग्राम दान’ जैसे आंदोलनों में हृदय परिवर्तन का प्रयोग किया गया था। जय प्रकाश नारायण ने भी इसी के माध्यम से बहुत से डाकुओं को आत्मसमर्पण के लिये प्रेरित किया। वर्तमान में भी नक्सलवादियों द्वारा किये जा रहे आत्मसमर्पण को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है। किंतु हृदय परिवर्तन सभी परिस्थितियों में सफल हो आवश्यक नहीं। इसीलिये अम्बेडकर ने इस पर आक्षेप लगाया कि जब महात्मा गांधी जैसा आदमी दलितों व महिलाओं की समस्या का समाधान करने हेतु सवर्ण हिन्दुओं का हृदय परिवर्तन नहीं करा पाया तो कौन करा पाएगा। फिर भी यह पूर्णतः अव्यावहारिक नहीं है। गहरे स्वार्थ को छोड़कर सामान्य नैतिक प्रसंगों में इसकी व्यापक भूमिका होती है।</s>
<s>[INST]आप किसी ज़िले में ज़िलाधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। विश्वसनीय सूत्रों से आपको यह जानकारी मिलती है कि आपके कार्यक्षेत्र के अंतर्गत किसी गाँव में सामूहिक रूप से बाल-विवाह का आयोजन होने वाला है। बाल-विवाह आयोजित कराने में समाज के कुछ प्रतिष्ठित एवं राजनीतिक पहुँच रखने वाले लोगों के साथ कुछ गरीब एवं लाचार लोग भी शामिल हैं। पूर्व में भी ऐसी घटनाएँ हुईं थीं जिन्हें रोकने में असफल होने पर प्रशासनिक ईकाइयों की काफी आलोचना की गई थी। ध्यातव्य है कि इस गाँव की पृष्ठभूमि ऐसी है कि छोटी-छोटी बातों पर भी उग्र व हिंसक प्रदर्शन करने लगते हैं। इस घटना को रोकने के लिये आपके पास कौन-कौन से विकल्प हैं?[/INST]उत्तर : उपरोक्त घटना के आलोक में निम्नलिखित विकल्पों पर विचार किया जा सकता है- 1. घटना के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि यह दो व्यक्तियों के अधिकारों (मानवाधिकार) के उल्लंघन का मामला है, जो कि कानूनी रूप से भी स्वीकृत नहीं है। अतः बाल-विवाह के आयोजन को रोकना ही हमारा प्राथमिक उद्देश्य होगा। अतः इस परिस्थिति में ‘नैतिक अनुनयन’ (Ethical persuation) का सहारा लेकर बाल-विवाह कराने वाले अभिभावक से संपर्क स्थापित कर बाल-विवाह के दुष्परिणाम को बताकर उन्हें इस आयोजन को रोक देने की अपील करूँगा। 2. चूँकि, इस आयोजन में समाज के प्रतिष्ठित व राजनीतिक पहुँच रखने वाले लोग भी शामिल हो रहे हैं। अतः उनसे भी संपर्क स्थापित कर यह बताने का प्रयास करूँगा कि आप जिस आयोजन में हिस्सा लेने जा रहे हैं, वह एक कानूनन अपराध है। उन्हें यह बताने का प्रयास करूँगा कि आप समाज के प्रतिष्ठावान चरित्र हैं, समाज के अन्य लोग आप ही के कदमों का अनुसरण करते हैं, अतः आप बाल-विवाह के दुष्परिणाम को बताकर अभिभावकों से इसे अविलंब रोकने की अपील करें। इससे समाज में आपकी गरिमा और भी बढ़ेगी। 3. चूँकि, उपर्युक्त दोनों विकल्प अनुनयन पर आधारित हैं। अतः यह संभावना है कि अभिभावक उसे मानने से इनकार कर दे। अतः तीसरे विकल्प के रूप में कानूनी कार्यवाही का सहारा लेना पड़ेगा। इस क्रम में आयोजन में शामिल व्यक्तियों को चिह्नित कर उपयुक्त कार्रवाई की जाएगी। 4. चूँकि गाँव की पृष्ठभूमि छोटी-छोटी बात पर उग्र व हिंसक प्रदर्शन करने की है, अतः सुरक्षा संबंधी सावधानी को भी ध्यान में रखना होगा। यदि कानूनी कार्यवाही के दौरान (गिरफ्तारी आदि के क्रम में) उग्र व हिंसक वारदातें होती हैं तो बल-प्रयोग के लिये भी तैयार रहूँगा। 5. इसके अतिरिक्त, बाल-विवाह में शामिल नाबालिगों को एकत्र कर उन्हें निश्चित आयु सीमा के उपरांत ही विवाह करने की सलाह दूँगा और संगोष्ठियों, शिविरों के आयोजन के माध्यम से बाल-विवाह के सामाजिक, आर्थिक व जौविक दुष्परिणाम को लोगों तक पहुँचाने का प्रयास करूँगा, जिससे समाज द्वारा बाल-विवाह को हतोत्साहित किया जाए। साथ ही प्रशासन के प्रति भी लोगों में विश्वास बहाल हो।</s>
<s>[INST]आत्महत्या के प्रयास को अपराध नहीं माना जाना चाहिये क्या आप सहमत हैं। इसमें कौन-से नैतिक मुद्दे शामिल है?[/INST]उत्तर : भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अनुसार आत्महत्या को अन्य अपराधों की तरह माना गया है किंतु वर्तमान में न केवल माननीय सर्वोच्च न्यायालय के नज़रिये में परिवर्तन हो गया है अपितु दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक और विकसित देशों में आत्महत्या को अपराध नहीं माना जाता है। इसके दो पक्ष हैं- पहला, अपराध मानने से वह आत्महत्या के लिये प्रेरित नहीं होगा। दूसरा, अपराध मानने का नुकसान यह है कि जो पहले से ही मानसिक रूप से परेशान है, वह और परेशान होगा तथा आत्महत्या के लिये प्रेरित होगा। आत्महत्या के प्रयास को अपराध न मानने के पीछे निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं- वर्तमान में बहुत सारी मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट्स में यह साबित हो चुका है कि आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति मानसिक रूप से डिसऑर्डर का शिकार होता है। इसलिये व्यक्ति को मनौवैज्ञानिक परामर्श लेना चाहिये और उसे सुधार का मौका देना चाहिये। मानवीय दृष्टि से यह अपराध नहीं होना चाहिये, क्योंकि अपराधी का आशय अपराध करना नहीं था। वह तो उसकी क्षणिक आवेग की स्थिति थी। सभी धर्मों में आत्महत्या या अपराधवोध से ग्रसित व्यक्ति, जो आत्महत्या करना चाहता है, के लिये सुधार का प्रावधान है। कुछ रिपोर्ट्स यह भी बताती हैं कि जैसे ही उस व्यक्ति को सज़ा मिलती है, वैसे ही उस व्यक्ति के अंदर अपराधबोध की भावना बढ़ती है और आत्महत्या के लिये उसके प्रयास की तीव्रता और बढ़ जाती है। उपरोक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए सरकार ने मेंटल हेल्थकेयर एक्ट-2017 के तहत आत्महत्या के प्रयास को अपराध की सूची से अलग कर दिया गया है। पीड़ित को मानसिक चिकित्सा, रिहैबिलिटेशन सेंटर इत्यादि भेजने की व्यवस्था की गई है। इसकी सिफारिश द्वितीयक प्रशासनिक आयोग एवं विधि आयोग ने भी की थी। आत्महत्या को अपराध घोषित करने में मानवीय, मनोवैज्ञानिक रुग्णता एवं अपने परिवार के भविष्य इत्यादि जैसे नैतिक मुद्दे भी शामिल हैं।</s>
<s>[INST]"नैतिक कथन महज एक दिखावा है। ये बाह्य रूप से भले ही सुंदर प्रतीत होते हैं लेकिन अंदर से खोखले होते हैं।" टिप्पणी करें-[/INST]उत्तर : नैतिक कथन किसी व्यक्ति के लिये अपनी गतिविधियों व व्यवहार को संचालित करने में एक आदर्श सिद्धांत व मूल्य की भाँति कार्य करता है। इसी तरह किसी संगठन के लिये नैतिक कथन सिद्धांत का एक समुच्चय होता है जो उस संगठन को अपने कार्यक्रमों, नीतियों एवं निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को आसान बनाकर दिशा-निर्देश के रूप में कार्य करता है। इसके अतिरिक्त ये संगठन की प्रतिष्ठा एवं उत्पादकता के लिये भी एक महत्त्वपूर्ण उपकरण होते हैं। भारतीय समाज में ‘ईमानदारी सर्वश्रेष्ठ नीति है’ एक सर्वप्रचलित नैतिक कथन है। इस तरह ‘ईमानदारी’ को भारतीय समाज का एक महत्त्वपूर्ण आचरण माना जाता है। यदि कोई व्यक्ति ‘ईमानदारी’ को त्यागकर बेईमानी या अन्य अनैतिक आचरण को अपनाता है, तो वह समाज में परित्यक्त की भाँति जीवन व्यतीत करता है। समाज का प्रत्येक व्यक्ति उसे हेय दृष्टि से देखता है। उस व्यक्ति से समाज का भरोसा उठ जाता है, यदि वह व्यक्ति कभी समाज के लिये सही कार्य भी करता है, तो लोग उस पर विश्वास नहीं करते हैं। इस तरह, नैतिक कथन के चमकदार या खोखलेपन का संबंध उसे मनुष्य द्वारा कार्य-व्यापार में अपनाने या नहीं अपनाने से है। यदि कोई व्यक्ति किसी नैतिक कथन से प्रभावित होकर कार्य करता है, तो वह कार्य समाज में एक प्रतिमान स्थापित करता है। उदाहरण के लिये महात्मा गांधी द्वारा सत्य, अहिंसा व सत्याग्रह से प्रेरित होकर किया गया कार्य भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व के लिये ‘मील के पत्थर’ के रूप में स्थापित है।</s>
<s>[INST]व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले कारकों का संक्षित परिचय देते हुए इसमें रोल मॉडल की महत्ता बताएं। भारतीय युवाओं के विशेष संदर्भ में इस पर संक्षिप्त परिचर्चा करें।[/INST]उत्तर : व्यक्तित्व के निर्धारक कारकों में हमारा परिवार, समाज, सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक पृष्ठभूमि, शिक्षण संस्थान तथा देश-काल की परिस्थितियाँ महत्त्वपूर्ण होती हैं। इन सभी कारकों का एक निश्चित समय में हमारे व्यक्तित्व पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है और इसमें तो कुछ मूल्य वैसे हो जाते हैं जो शायद ही कभी परिवर्तित हो। शुरुआती प्रभाव परिवार और इसमें भी विशेषकर माता-पिता, दादा-दादी एवं नाना-नानी का सबसे ज़्यादा रहता है। अगर संयुक्त परिवार में बचपन बीते तो सामूहिकता की भावना ज़्यादा रहती है। वहीं बाद में, समाज तथा अन्य कारकों का प्रभाव बढ़ता जाता है। जैसे- बहुलतावादी समाज में रहने वाले बच्चों में सहिष्णुता इत्यादि की भावना अधिक पाई जाती है। स्कूल एवं कॉलेज का माहौल युवा को सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है जहाँ वे विभिन्न मूल्यों एवं संस्कृति के संपर्क में आते हैं और अपने से भिन्न या एक हद तक विपरीत मूल्यों से भी सामंजस्य बनाना सीख लेते हैं। रोल मॉडल की महता रोल मॉडल वह व्यक्ति होता है जो किसी और के द्वारा आदरणीय और श्रद्धेय हो। वह ऐसा व्यक्ति होता है जिसकी तरह कई व्यक्ति या तो वर्तमान में या भविष्य में बनने की अभिलाषा रखते हैं। ये वैसे भी हो सकते हैं जिन्हें हम व्यक्तिगत रूप से जानते हैं जैसे- हमारे माता-पिता, शिक्षक या अन्य सम्मानीय व्यक्ति। या फिर जिन्हें हम व्यक्तिगत रूप से नहीं बल्कि उनके कार्यों की वज़ह से जानते हैं जैसे- कोई महान वैज्ञानिक, लेखक या अन्य कोई राजनेता इत्यादि। न्यूटन, अल्बर्ट आईंस्टीन, रामानुजम, सी.वी.रमन, जगदीश चंद्र बोस, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू सचिन तेंदुलकर, अटल बिहारी बाजपेयी जैसे व्यक्तियों से लोग खासे प्रभावित हैं और ‘उनके ही जैसा’ बनने की तमन्ना रखते हैं। ये व्यक्ति चेतन या अवचेतन रूप से हमारे व्यक्तित्व को एक निश्चित रूप में प्रभावित करते हैं। उदहारण के लिये- असफलता के समय हमें ‘थॉमस एडीसन’ के हजार प्रयोग विफल होने की गाथा साहस देती है तो, नेल्सन मंडेला का व्यक्त्वि एवं कृतित्व हमेशा सहिष्णु बने रहने की प्रेरणा देती है। सचिन तेंदुलकर का अनुशासन हमें अपने प्रोफेशन एवं संस्था का सम्मान करने की हमेशा प्रेरणा देती है। भारतीय युवा एवं रोल मॉडल भारतीय युवाओं के सामने आज-कल कोई रोल मॉडल न होने की बात की जाती है और जिसे युवाओं में भटकाव के रूप में भी परिभाषित किया जाता है। वस्तुतः हमारे दिन-प्रतिदिन की घटनाएँ ऐसी आकार ले रही है जिसमें हमें प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थी दिख रहा है चाहे वह चिकित्सक हो, शिक्षक, राजनीतिज्ञ या कोई बिज़नेस आइकन। इन सभी घटनाओं का युवा मस्तिष्क पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। सबसे ज़्यादा चर्चा में रहने वाला राजनीतिक क्षेत्र है जिसमें नैतिकता का स्तर निरंतर गिर रहा है। लेकिन इन कमियों के बावजूद हमारी विरासत गांधी, पटेल, नेहरू तथा कलाम की है और वर्तमान में भी डॉ. मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी एवं नरेंद्र मोदी जैसे नेता हैं जो अपने परिश्रम एवं राजनीतिक क्षमता से युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं। अन्य क्षेत्रों में डॉ कलाम, प्रोफेसर यशपाल, यू.आर. राव, डॉ. स्वामीनाथन जैसे व्यक्ति हैं जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से देश को विज्ञान एवं तकनीक के शीर्ष पर पहुँचाया और आम लोगों के जीवन को सुलभ बनाया। और इन्हीं सबसे प्रेरणा लेकर हमारी नई पीढ़ी कलाम जैसा सांइटिस्ट बनना चाहती है तो विश्वशरैया जैसा इंजीनियर, सचिन जैसा क्रिकेटर तो अमिताभ जैसा अभिनेता। ये सब हमारे रोल मॉडल हैं, जो हमारे समाज एवं देश को नई दिशा प्रदान कर रहे हैं।</s>
<s>[INST]एक अच्छे नेता में कौन-कौन से गुण होने चाहिये, आपको प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख नेताओं के गुणों को बताते हुए उत्तर दें।[/INST]उत्तर : सामान्य शब्दों में कहा जाए तो नेता वह है जो नेतृत्व प्रदान करता है, राजनीतिक नेता लोगों के लिये शिक्षकों की तरह होते हैं, जिस पर समाज की बुराइयों को समाप्त कर उसे सही रास्ते पर ले जाने की जिम्मेदारी भी होती है। एक अच्छे नेता में निम्नलिखित गुण अपेक्षित हैं- आत्मविश्वास निर्भयता/साहस धैर्य उदार-व्यक्तित्त्व ऊर्जावान दूरदर्शिता ईमानदारी करूणा एवं दया भाव सहिष्णुता प्रतिकूल परिस्थितियों में जिम्मेदारी वहन करने वाला। बहुमत हमेशा सही नहीं हो सकता यह कभी-कभी अल्पसंख्यकों के स्वस्थ्य आवाज को भी दबा सकता है लेकिन अच्छा नेता इस समय बहुमत की उपेक्षा करते हुए भी निर्णय लेता है भले ही वह निर्णय अप्रिय लगे। संपूर्ण विश्व में कई ऐसे नेता हुए जिन्होंने समाज व राष्ट्र को एक निश्चित दिशा प्रदान की हम कह सकते हैं कि वे सभी इन गुणों के धनी थे। उदाहरण के रूप में हम गांधी जी को देख सकते हैं कि कैसे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उन्होंने अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया। अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष में वे साहस व धैर्य का परिचय देते हुए अपने सत्य व अहिंसा के मार्ग पर डटे रहे। इसी प्रकार बाबा साहेब अम्बेडकर के जीवन से भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं कि किस प्रकार उन्होंने आत्मविश्वास व निर्भयता का परिचय देते हुए तत्कालीन रूढ़िवादी समाज में छुआछूत व जात-पात के विरूद्ध जीवनपर्यंत संघर्ष किया। लोगों से जुड़ना भी नेता का एक महत्त्वपूर्ण गुण है जिसे हम एपीजे अब्दुल कलाम से सीख सकते हैं सामान्य जनप्रतिनिधियों व बच्चों के साथ उनके प्रत्यक्ष संवाद के लिये उन्हें लोगों का राष्ट्रपति (People's president) कहा जाता था। नोटः उत्तर में लालबहादुर शास्त्री, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जैसे राजनीतिक नेताओं के उदाहरणों का उपयोग ईमानदारी और अखंडता का समर्थन करने के लिये कर सकते हैं।</s>
<s>[INST]किन परिस्थितियों में आपको लगता है कि झूठ बोलना उचित है? क्या इन परिस्थितियों में झूठ बोलने से आप अपराध बोध की भावना से ग्रस्त होते हैं?[/INST]उत्तर : सामान्यतः झूठ बोलने को अनैतिक माना जाता है लेकिन गीता में बताया गया है कि आपद धर्म के समय झूठ बोलना सच बोलने से भी बेहतर है क्योंकि यहाँ उद्देश्य और लक्ष्य पवित्र होता है। निम्नलिखित परिस्थितियों में झूठ बोलने को हम उचित कह सकते हैं- 1. यदि किसी के जीवन की रक्षा करने के लिये झूठ बोला गया है तो वह नैतिक है। 2. संविधान और संप्रभुता की रक्षा के लिये तात्कालिक रूप से बोला गया झूठ जो देश या मानवता के व्यापक हित को साधता हो। 3. किसी व्यक्ति के अधिकारों का हनन हो रहा है या किसी को झूठ से फायदा हो किंतु नैतिक रूप से अच्छा हो रहा है, जैसे किसी रोगी को उम्मीद भाव से सूचना देना कि आप का स्वास्थ्य बहुत तेजी से सुधर रहा है, आप जरूर ठीक हो जाएंगे। 4. यदि आपकी सकारात्मक सोच है और कुछ परिस्थितियों में किसी को फायदा हो और नैतिक अशुभ न हो तो झूठ बोलना नैतिक हो सकता है। इस प्रकार के झूठ के अंदर कभी भी अपराध बोध की भावना नहीं आती क्योंकि गांधी जी ने कहा था कि अपवाद की परिस्थितियों के अंदर झूठ सच से भी बेहतर होता है। वहीं अपराध बोध की भावना तभी आएगी जब हमने अपने लिये झूठ बोला हो उदाहरण के रूप में हम लांस आर्मस्ट्रांग को देख सकते हैं जिसने वर्ल्ड एन्टी डोपिंग एजेंसी (WADA) द्वारा प्रतिबंधित दबाओं का उपयोग करते हुए साइकिलिंग के क्षेत्र में कई खिताब जीते थे, जिसे बाद में वापस ले लिया गया था।</s>
<s>[INST]सूचना और उपभोक्तावाद के इस युग में मीडिया द्वारा चित्रित महिलाओं की छवि, उनके प्रति हमारे ‘सामाजिक अभिवृत्ति’ को गहरे तौर पर प्रभावित करती है। चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हमारी सामाजिक अभिवृत्ति के निर्माण में हमारी संस्कृति, परंपरा, संस्कार, पारिवारिक माहौल के साथ-साथ वर्तमान समय की घटनाएँ, उनका चित्रण एवं विश्लेषण का तरीका इत्यादि सभी का महत्त्व होता है। सूचना क्रांति के इस दौर में अन्य कारकों की अपेक्षा मीडिया का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। हमारे कपड़े, खाना-पीना, सोचने का तरीका इत्यादि सभी इससे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित होने लगे हैं। अतः महिलाओं के कई अलग-अलग चित्रण, जो एक-दूसरे के विपरीत भी होते हैं, से भी समाज का महिलाओं के प्रति नज़रिया बदला है। इस चित्रण की एक सकारात्मक धारा भी है जो महिलाओं को सशक्त, प्रगतिशील, कर्मयोगी तथा मज़बूत दिखाती है। इससे समाज में बेटियों के प्रति सम्मान का भाव और भी बढ़ जाता है। गीता फोगाट, सानिया मिर्जा, पी.वी.सिंधू, साक्षी मलिक जैसी बहादुर बेटियों को मीडिया में उनके कार्य के कारण खास तवज्जों मिलने से अन्य लड़कियों का भी आत्मविश्वास बढ़ता है। फिल्म अभिनेत्रियों के कार्य तथा उनके कुछ कथन भी समाज को एक अलग नज़रिया देते हैं, जिसमें वे अपने शरीर और आत्मा पर सिर्फ और सिर्फ अपनी सत्ता स्वीकार करती है। ‘माई बॉडी माई च्वाईस’ जैसे कथन उनके इसी आत्मविश्वास को प्रदर्शित करते हैं। लेकिन इस छवि चित्रण के कुछ स्याह पक्ष भी हैं जिसमें महिलाओं को ‘कामोडिटी’ की तरह प्रयोग किया जाता है और किसी उत्पाद की तरह ही बाजार में उनकी सुंदरता एवं शारीरिक गठन का प्रदर्शन किया जाता है, जो व्यक्ति के तौर पर और एक वर्ग के तौर पर भी उनकी गरिमा का हनन है। और इसी का परिणाम होता है कि आम आदमी भी महिलाओं को कभी-कभी कमोडिटी की तरह देखने लगता है। स्पष्ट है सूचना क्रांति और उपभोक्तावाद के दौर ने महिलाओं की मिश्रित छवि प्रस्तुत कर हमारी अभिवृत्ति को भी वैसा ही रूप प्रदान किया है। अच्छी बात यह है कि नकारात्मक छवि-चित्रण अब कम हो रहे हैं और उनके मज़बूत पक्षों को ज़्यादा उभारा जा रहा है ,जैसे उनकी ममता, सहिष्णुता, परिवार के प्रति उनका समर्पण, तनाव झेलने की उनकी क्षमता इत्यादि, न कि अपनी गोरी एवं छरहरी काया या उनके कपड़े।</s>
<s>[INST]किसी विशिष्ट परिस्थिति में हम किन मानदंडों पर किसी व्यक्ति की क्रिया को नैतिक या अनैतिक ठहरा सकते हैं? दैनिक जीवन में आने वाली नैतिक दुविधाओं को आप किस प्रकार सुलझाएंगे?[/INST]उत्तर : सामान्यतः संविधान, मानवाधिकार स्थापित नियम, कानून, अधिनियम, मूल्य विभिन्न नैतिक मान्यताएँ पर्सनल लॉ इत्यादि के अनुसार कार्य को नैतिक माना जाता है, इनसे इतर कार्य को अनैतिक माना जाता है। नैतिक और अनैतिक मानने के लिये कुछ अन्य आधार भी हैं, जैसे- कर्त्ता कौन है? उसका इरादा क्या है? उसका प्रभाव क्या है? और उसकी परिस्थितियाँ क्या हैं? यदि कर्त्ता 7 वर्ष से छोटा है तो उसके कार्यों को नीतिशून्य माना जाता है, वहीं यदि कर्त्ता वयस्क है तो वह अपने कार्यों के लिये उत्तरदायी होता है। इसी प्रकार कर्त्ता का इरादा क्या है? यदि इरादा नकारात्मक है तो उसके कार्य अनैतिक होते हैं, किंतु यदि सरकारात्मक इरादा है और फिर भी कुछ नकारात्मक हो जाए तो उसे नैतिकता के अंतर्गत माना जाता है; जैसे चिकित्सक द्वारा इलाज करने पर भी रोगी की मृत्यु हो जाना। कार्य का प्रभाव क्या है? किसी काम को करने के बाद उसका प्रभाव नकारात्मक है या सकारात्मक; जैसे यदि कोई व्यक्ति ऐसा उपन्यास लिखता है जो वास्तव में सामाजिक स्थिति का विश्लेषण करता है, किंतु उसके कारण दंगा भड़क जाता है तो प्रयास सार्थक होते हुए भी नकारात्मक है। हालाँकि यह कार्य नैतिक था किंतु इसके परिणाम अनैतिक हो गए। यदि दैनिक जीवन में कोई दुविधा आए तो निम्नांकित आधारों पर फैसला करेंगे- जब कानून में नैतिक दुविधा हो तो उस कानून पर ज़्यादा ज़ोर देंगे जो हमारे पेशे और सार्वजनिक जीवन को अधिक लाभ पहुँचाए। व्यक्तिगत हित को हमेशा द्वितीय स्तर पर रखेंगे ताकि अधिक-से-अधिक सामाजिक लाभ हो। जब दो मूल्यों में संघर्ष हो तो हम देखेंगे कि कौन-सा मूल्य अधिक महत्त्वपूर्ण है; जैसे मित्र की सहायता तथा बेहतर समाज निर्माण के योगदान में दुविधा हो तो सामाजिक ज़िम्मेदारी प्राथमिक होगी। नैतिक दुविधा में सामूहिक बुद्धिमत्ता को भी ध्यान में रखेंगे तथा पूर्व में किस तरह के निर्णय लिये गए थे इस बात को भी ध्यान में रखेंगे। पारिवारिक मूल्यों से अधिक राष्ट्रीय मूल्यों को महत्त्व देंगे। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि दैनिक जीवन में निर्णय लेते वक्त जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद इत्यादि विचारों की बजाय जनहित, परहित और तार्किकता का भी ध्यान रखेंगे।</s>
<s>[INST]"जो लोग धर्म को राजनीति से अलग करते हैं, वे यह नहीं जानते कि धर्म क्या होता है।" कथन के संदर्भ में, भारत में लोगों की राजनीतिक अभिवृत्ति में धर्म की भूमिका तथा उसके परिणामों का परीक्षण करे।[/INST]उत्तर : ‘धर्मविहीन राजनीति’ को महात्मा गांधी ने ‘सात पापों’ (Seven Sins) में से एक प्रमुख पाप माना था। वस्तुतः उनका उद्देश्य यहाँ राजनीति को नैतिक बनाए रखने से था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी व्यक्त है कि राजनीति में लोगों के ‘सर्वश्रेष्ठ नैतिक मूल्यों’ की परीक्षा होती है। इन नैतिक मूल्यों को बनाए रखने, उसे और उच्चता प्रदान करने इत्यादि के लिये कोई ‘सोर्स ऑफ मोटिवेशन’ तो चाहिये हीं और यह मॉटिवेशन वे धर्म से प्राप्त करते थे। वस्तुतः ‘धर्म’ की उनकी परिभाषा पश्चिम के ‘रिलीजन’ से अलग है, इसलिये पश्चिमी मूल्य जिसमें ‘राज्य एवं चर्च का पूर्णतः विलगाव’ होता है से उलट वे धर्म और राजनीतिक को सहगामी मानते थे। भारतीय परंपरा में ‘धर्म’, ‘धृ’ धातु से निर्मित है जिसका अर्थ होता है धारण करना। जैसे पितृ धर्म, मातृ धर्म, पुत्र धर्म, छात्र धर्म इत्यादि। यह लोगों को कुछ नैतिक कर्त्तव्य करने को प्रेरित करता है। और इस अर्थ में राजनीति में ‘धर्म काम्य ही नहीं बल्कि अनिवार्य’ भी है। चूँकि धर्मपरायणता भारतीयों के सभी कार्य-व्यापार में दिखाई देता है। अतः राजनीति पर भी धर्म का स्वाभाविक रूप से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव रहता है। सकारात्मक संदर्भ में देखें तो यह राजनीति में शुचिता बनाए रखने, राजनीतिज्ञों द्वारा जनसेवा को अपना कर्त्तव्य के रूप में देखने इत्यादि में काफी योगदान करता है। लेकिन व्यवहार में इसके नकारात्मक परिणाम अधिक दिखाई देते हैं- 1. सांप्रदायिक राजनीति ने आजादी के आंदोलन को तो कमजोर किया ही था, देश का धार्मिक आधार पर विभाजन कराया जिससे लाखों लोग बेघर हुए और हजारों लोगों की जाने गई। 2. आज़ादी के बाद भी इसी दुषित राजनीति के प्रभावस्वरूप दंगे होते है तथा लोगों के बीच सांपद्रायिक आधार पर विद्वेष पनपता है। 3. धर्म के अत्यधिक प्रभाव के कारण राजनीति में अधिक महत्त्व के मुद्दे जैसे-शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार इत्यादि गौण होकर मंदिर-मस्जिद पर फोकस हो जाती है। 4. राजनीतिज्ञ भी लोगों की इस भावना को तुल देकर अपने उत्तरदायित्व से बचते हैं। 5. देश का आर्थिक विकास, सामाजिक ताना-बाना तो प्रभावित होता ही है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देश की छवि को नुकसान पहुँचता है। कुल मिलाकर, धार्मिक प्रभाव के जिस सकारात्मक परिणाम की उम्मीद की गई थी उतना भले ही न दिखे पर भाईचारा एवं बंधुत्व के उच्चतम आदर्शों की प्राप्ति के लिये यह एक ‘बाईंडिंग फोर्स’ की तरह कार्य करता है जिसका प्रयोग कर राजनीति को और भी नैतिक बना सकते हैं।</s>
<s>[INST]एक लोकसेवक से सदैव अपेक्षित रहता है कि वह सार्वजनिक निधियों का उचित, तर्कपूर्ण एवं न्यासंगत उपयोग व वितरण करे। यह तभी संभव है जब व्यवस्था भ्रष्टाचार रहित हो। इस संदर्भ में लोकसेवाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार से निपटने के लिये नवाचारी उपायों को सुझाएँ।[/INST]उत्तर : सार्वजनिक निधि कल्याणकारी तथा अन्य सरकारी योजनाओं के लिये धन का अंतिम व एकमात्र स्रोत होती है। ऐसे में, जनसामान्य की बेहतरी व राष्ट्र की प्रगति के लिये सार्वजनिक निधियों का कुशल उपयोग एक अनिवार्य आवश्यकता है। लोकसेवाओं में भ्रष्टाचार को दूर करके ही सार्वजनिक निधियों का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है। विभिन्न प्रकार के कानूनों की उपस्थिति के बावजूद लोक सेवाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार कुछ अन्य नवाचारी उपायों की भी मांग करता है। भ्रष्टाचार से निपटने के लिये किये जा सकने वाले अन्य उपायः सार्वजनिक व व्यक्तिगत जीवन में उच्च नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देना। भ्रष्टाचार से निपटने के लिये ब्रिटेन की लार्ड नोलन की रिपोर्ट में प्रस्तुत 7 सिद्धांत-निःस्वार्थता, सत्यनिष्ठा, वस्तुनिष्ठता, उत्तरदायित्व की भावना, खुलापन, ईमानदारी और नेतृत्व विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। सभी विभागों के लिये नीति संहिताओं व आचरण संहिताओं का निर्माण और उनका कड़ाई से पालन। गोपनीयता की संस्कृति की जगह पारदर्शिता की संस्कृति का विकास करना। पारदर्शिता नागरिकों को सरकार के कामों की जानकारी प्रदान कर उन्हें सरकार के कार्यों की समीक्षा करने में सक्षम बनाती है। उत्तरदायित्व का सुनिश्चित व वस्तुनिष्ठ निर्धारण। विकेंद्रीकरण तथा शासन में लोगों की सहभागिता बढ़ाना। प्रशासन में नागरिक समाज की भागीदारी बढ़ाना। शिक्षा व्यवस्था में सुधार तथा शिक्षा द्वारा भ्रष्टाचार विरोधी मूल्यों को बढ़ावा दिया जाना। केंद्रीय सतर्कता आयोग, प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो जैसी संस्थाओं को राजनीतिक नियंत्रण व दबाव से मुक्त रखना। सशक्त लोकपाल/लोकायुक्त प्रणाली की स्थापना करना। इस प्रकार, एक बहुआयामी व दीर्घकालीन रणनीति द्वारा ही लोक सेवाओं को भ्रष्टाचार से मुक्त कर सार्वजनिक निधियों का सदुपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है। </s>
<s>[INST]‘अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता’ के संदर्भ में भारत के पंचशील सिद्धांतों को सदैव सराहना मिली है किंतु इन आदर्शों के कारण विदेश नीति में आई कठोर यर्थाथवाद की कमी के कारण देश ने भारी कीमत भी चुकाई है। इस संबंध में अपना मत प्रकट करें।[/INST]उत्तर : भारत की विदेश नीति इसके स्वतंत्रता संघर्ष के गांधीवादी मूल्यों पर आधारित है। यह गांधीवादी विचार ही ये जिन्होंने भारत की आजादी के आरंभिक दशकों में विदेश नीति का स्वर निश्चित किया। ‘पंचशील सिद्धांत’ भारतीय विदेश नीति की बहुत पहले की अवस्था से जुड़ा है। संभवतः नेहरू ने इसे नीति का मध्य बिंदु माना जो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिकता की मशाल लिये खड़ा है। कुल लोग इन सिद्धांतों में ‘आदर्शवाद’ की प्रशंसा करते हैं तो अन्य इसके यथार्थवाद के लिये काफी निंदा भी करते हैं। पंचशील सिद्धांतों को इस दौर में भी राजनयिकता का उच्च ‘वाटर मार्क’ माना जाता है। पंचशील में राष्ट्रों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व या राज्यों के बीच शासकीय संबंधों के लिये पाँच सिद्धांत हैं। इनका पहला औपचारिक कूटीकरण संधि के रूप में उस समय हुआ जब 1954 में चीन और भारत के मध्य समझौता हुआ। जिन पाँच सिद्धांतों का राज्यों को पालन करना है, वे निम्नलिखित हैं- सभी देशों द्वारा अन्य देशों के क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना। दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना। दूसरे देश पर आक्रमण न करना। परस्पर सहयोग व लाभ को बढ़ावा देना। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का पालन करना। पंचशील इस आधार पर आश्रित था कि जो राज्य साम्राज्यवादी काल के बाद स्वतंत्र हो गए थे, वे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नई व सैद्धांतिक सोच विकसित करेंगे। नेहरू ने कहा था- "यदि ये सिद्धांत सभी देशों के आपसी संबंधों में शामिल हो जाते हैं तो निःसंदेह शायद ही कोई विवाद हो और कोई युद्ध हो।" परंतु, पंचशील भारत के लिये एक दुखद घटना के समान रह गया। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद का परिणाम 1962 का युद्ध था। पंचशील समझौता 8 वर्षों के लिये निश्चित हुआ था (1954-1962) लेकिन जब यह समाप्त हुआ तब इसके नवीकरण के प्रावधान को उठाया ही नहीं गया। भारत की विदेश नीति में आदर्शवाद के आधिक्य के चलते कठोर यथार्थवाद में आई कमी से भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ी हैं। भारत की विदेश नीति की कुछ गलतियाँ निम्नलिखित रही- 1948 में कश्मीर के मुद्दे को यू.एन. में ले जाना। चीन के प्रति ‘भाई-भाई’ की नीति अपनाना। नेपाल को पूर्णतः भारतीय संरक्षा प्रणाली में शामिल करने का अवसर खोना। चीन के मुकाबले तिब्बत के स्वायत्त राज्य की स्थिति का समर्थन करने में असफलता। आजादी के बाद गांधी जी के हठ से विवश हो पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपए देना जबकि वह कश्मीर पर आक्रमण कर चुका था। 1972 में पाकिस्तान के 90000 सैनिक भारत के पास बंदी थे, इसके बदले पाकिस्तान से अपनी शर्तें न मनवा पाना आदि। अंततः यह कहना ही तर्कसंगत रहेगा कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में नीति तैयार करते समय राष्ट्रीय हितों केा प्राथमिकता देना ‘नैतिकता’ से भी अधिक जरूरी व यथार्थवादी विचार है। कठोर यथार्थवाद के आलोक में ही विदेश नीति का परिचालन उचित तरीके से किया जा सकता है, न कि महज भावनाओं और आदर्शों में बहकर।</s>
<s>[INST]‘सूचना के अधिकार’ कानून के इस दौर में क्या सरकारी गोपनीयता अधिनियम की अभी भी कोई प्रासांगिकता है?[/INST]उत्तर : वर्ष 2005 में पारित ‘सूचना के अधिकार अधिनियम’ की प्रस्तावना में इसे लागू करने के निम्नलिखित कारण दिये गए थे- सूचना की पारदर्शिता तथा जानकार नागरिक वर्ग एक गणतंत्र के परिचालन के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। यह भ्रष्टाचार को रोकने तथा सरकार को लोगों के प्रति उत्तरदायी ठहराने के लिये भी आवश्यक है। वास्तविक व्यवहार में, सूचना का प्रकटन सरकार के कार्य-चालन, सीमित आर्थिक संसाधनों के अधिकतम प्रयोग तथा संवेदनशील सूचना की गोपनीयता को बनाए रखने सहित अन्य लोकहितों में टकराव हो सकता है। परंतु, गणतांत्रिक आदर्शों की सर्वोच्चता बनाए रखते हुए इन टकराते हुए हितों को संतुलित व सुसंगत करना जरूरी है। ‘सूचना के अधिकार’ से सुसज्जित अनेक कार्यकर्त्ता समय-समय पर सरकारी गोपनीयता अधिनियम (The Offical Secrets Act) को समाप्त करने या उसमें भारी बदलाव की मांग करते रहे हैं क्योंकि ‘सूचना की पारदर्शिता’ और ‘सूचना की गोपनीयता’ परस्पर विरोधाभासी हैं। RTI कार्यकर्त्ता सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा-8 को भी खत्म करने की लगातार मांग करते रहते हैं क्योंकि यह धारा सरकार को कुछ विशेष श्रेणी की सूचनाओं को गोपनीय रखने की इजाजत देती है। सन् 2006 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सरकारी गोपनीयता अधिनियम को निरस्त करने तथा जासूसी से निपटने के लिये राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में एक नया अध्याय जोड़ने की सिफारिश की थी। ये सिफारिशें जब मंत्रियों के एक समूह, जिसके अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी थे, के पास गई तो समूह ने अनेक सिफारिशों को स्वीकार किया, किंतु सरकारी गोपनीयता अधिनियम को निरस्त करने के सुझाव को अस्वीकार कर दिया था। वर्तमान की एन.डी.ए. सरकार ने सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 के आलोक में सरकारी गोपनीयता अधिनियम, 1923 के प्रावधानों को देखने के लिये एल.सी.गोयल समिति की स्थापना की है। अतः निश्चित तौर पर ‘पारदर्शिता’ के युग में ‘सरकारी गोपनीयता’ के लगभग एक शताब्दी पुराने अधिनियम में संशोधन की अहम आवश्यकता है। लेकिन ‘पारदर्शिता’ के आदर्श को लागू किये जाने के साथ-साथ देश की सुरक्षा और वृहत लोकहित को सदैव ध्यान में रखा जाना भी बहुत आवश्यक है।</s>
<s>[INST]आत्म-प्रबंधन (Self-regulation) और बेहतर अंतर-वैयक्तिक दक्षता (Interpersonal Skill) किस प्रकार एक लोक सेवक की कार्यक्षमता एवं नेतृत्व को अन्यों से श्रेष्ठ बनाती हैं?[/INST]उत्तर : वर्तमान में सिविल सेवाओं में तनाव का स्तर ऊँचा है। इसके पीछे कारण है कल्याणकारी राज्य की निरंतर बढ़ती अपेक्षाएँ, गठबंधन की राजनीति के कारण परस्पर विरोधी तथा कठिन दबाव, सीमित बजट किंतु ऊँचे उद्देश्य, मीडिया का दबाव, सिविल सोसाइटी के आंदोलन आदि। ऐसी जटिल स्थितियों में आत्म-प्रबंधन और अंतर-वैयक्तिक दक्षता के कौशल से युक्त एक लोक सेवक अपनी कार्यक्षमता एवं नेतृत्व में औरों से बेहतर सिद्ध होता है। आत्म-प्रबंधन से तात्पर्य है- व्यक्ति द्वारा अपनी भावनाओं के स्वभाव, उनकी तीव्रता तथा उनकी अभिव्यक्ति को प्रबंधित करना। जैसे- यदि भावना की प्रकृति उचित नहीं है तो उसे अभिव्यक्त होने से रोक देना, यथा- बहुत क्रोध होने पर हिंसा का भाव आ सकता है, उसे रोकना। इसी प्रकार यदि भावना सही है, किंतु उसकी तीव्रता गलत है तो उसे संतुलित करना; उदाहरणतः विलंब से आने वाले कर्मचारी को सीधे निलंबित करने की बजाए ज्यादा उचित है इसे कारण बताओ नोटिस जारी किया जाये। पुनः अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए ध्यान रखना कि अभिव्यक्ति की अधिकता स्वयं एक समस्या न बन जाये। अंतर-वैयक्तिक दक्षता से तात्पर्य है कि व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों के साथ संबंध इस तरह से बनाकर रखने चाहिये कि उन संबंधों से उसे तथा सभी को लाभ हो; यथा- किसी व्यक्ति से संबंधों में अगर कोई समस्या उत्पन्न हुई है तो सकारात्मक तरीके से उसका समाधान करना न कि संबंध ही समाप्त कर देना या खराब करना। अन्य व्यक्तियों के व्यवहार के प्रति उपयुक्त फीडबैक उचित तरीके से देने की क्षमता। अगर किसी व्यक्ति से संबंध बहुत अच्छे न भी हों तो कम से कम ऐसे प्रकार्यात्मक संबंध बनाए रखना जो संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो। दूसरों के काम में अनावश्यक टाँग न अड़ाना तथा सम्मिलित प्रयासों का श्रेय अकेले लूटने की इच्छा न रखना। समूह के विभिन्न व्यक्तियों की क्षमताओं, कमजोरियों, स्वभावों, रूचियों तथा मनोवृत्तियों को समझते हुए उन्हें कार्य का आवंटन करना तथा हर चरण में इस बात की जाँच करना कि अंतर-वैयक्तिक संबंधों के कारण संगठन को नुकसान न पहुँचे। निष्कर्षतः यह कहना तर्कसंगत ही प्रतीत होता है कि आत्म-प्रबंधन और अंतर-वैयक्तिक क्षमता में कुशल एक लोक सेवक अन्य लोगों से बेहतर नेतृत्वकर्त्ता व कार्यदक्ष साबित होता है।</s>
<s>[INST]आप एक निजी अस्पताल में चिकित्सक के पद पर कार्यरत हैं। एक दिन आपके पास एक गर्भवती महिला आती है और आपसे अनुरोध करती है कि उसे ऐसी दवा दें जिससे उसका गर्भपात हो जाए। आप उसे पूरी स्थिति बताने के लिये कहते हैं। दरअसल उस महिला के पहले से ही तीन बेटियाँ हैं। परिवार की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं है लेकिन फिर भी पति और ससुराल के अन्य लोगों की ‘लड़के’ की चाह के कारण वह पुनः गर्भवती हुई। तीन माह के गर्भ पर जब उसने व उसके पति ने एक अन्य निजी अस्पताल में पैसे देकर भ्रूण लिंग जाँच कराई तब पता चला कि उसके तीन लड़कियाँ एक साथ गर्भ में हैं। इस सूचना से उसका पति और वह स्तब्ध रह गए। वे पहली तीन लड़कियों का लालन-पालन भी अच्छे से नहीं कर पा रहे हैं। अब यदि 3 लड़कियाँ और हो गई तो समाज व ससुरालवाले तो जीना दूभर करेंगे ही, लड़कियों की जिन्दगी भी खराब होनी निश्चित है। इसीलिये महिला ने गर्भपात का फैसला लिया है। (क) इस केस-स्टडी में कौन-कौन से नैतिक मुद्दे निहित हैं? (ख) एक चिकित्सक के तौर पर आप नैतिकतः क्या फैसला लेंगे?[/INST]उत्तर : (क) उपरोक्त केस-स्टडी में निम्नलिखित नैतिक मुद्दे निहित हैं- (i) लैंगिक विभेदः समाज में अब भी लड़कों को लड़कियों के मुकाबले अत्यधिक वरीयता दी जाती है। ‘लड़के’ की चाह में ही उक्त महिला तीन लड़कियों की माँ होते हुए भी पुनः गर्भवती हुई। (ii) महिला और उसके पति ने गैर-कानूनी तरीके से भ्रूण-लिंग जाँच कराई, जो PCPNDT Act के तहत एक गंभीर अपराध है। (iii) MTP Act, 1971 (Medical Termination of Pregnancy Act, 1971) के तहत बिना मजबूत आधारों (भ्रूण में आनुवांशिक समस्या या गर्भवती के जीवन की सुरक्षा) के गर्भपात को स्वीकृति नहीं दी जा सकती। ऐसा करना अपराध है। इसीलिये महछा गरीबी की पृष्ठभूमि और गर्भ में कन्या-भ्रूण की उपस्थिति के तर्क पर तो किसी भी कीमत पर गर्भपात की अनुमति नहीं दी जा सकती। (iv) निजी अस्पतालों के चिकित्सकों द्वारा धन के लालच में अवैध तरीके से भ्रूण-जाँच करना तथा गर्भपात करना। (v) सरकार द्वारा आज तक जनता में इतनी सामाजिक चेतना न जागृत कर पाना कि लड़का और लड़की में विभेद अनैतिक व अप्रगतिशील सोच है, सरकार की विफलता है। साथ ही, लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं भविष्य की सुनिश्चितता हेतु जो कार्यक्रम और नीतियाँ है, उनके बारे में जनता में जागरूकता न होना भी चिंतित करता है। (ख) एक चिकित्सक के तौर पर ‘हिपोक्रेटिक ओथ’ का साक्षी मैं ऐसी स्थिति में महिला को समझाऊँगा (Persuasion) कि उसके द्वारा भ्रूण का लिंग जाँच कराना तो कानून अपराध था ही, अब कन्या-भ्रूण के आधार पर गर्भपात कराना भी एक जुर्म है। दूसरा, यदि वह मेरे अतिरिक्त भी किसी अन्य से गर्भपात की दवा लेती है तो मौजूदा गर्भावधि में उसके जीवन को भी खतरा है। एक चिकित्सक का कर्त्तव्य लोगों के स्वास्थ्य एवं जीवन की सुरक्षा करना होता है। मैं उस महिला को पुनः समझाता कि यदि उसके गर्भ में तीन लड़कियों की बजाय तीन लड़के होते, तब उन लड़कों का भरण-पोषण वो जैसे करते, वैसे ही इन लड़कियों का भी पालन-पोषण हो जाएगा। साथ ही, मैं उस महिला के पति की भी कांउसिलिंग करता तथा उसे सरकार द्वारा लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य व आर्थिक सुरक्षा हेतु चलाई गई विभिन्न योजनाओं यथा- ‘सुकन्या समृद्धि योजना’, ‘किशोरी शक्ति योजना’, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ आदि के संदर्भ में विस्तार से बताता तथा उसे लड़कियों के भविष्य के प्रति निश्चिंत करने का प्रयास करता। उसे विभिन्न उदाहरणों से समझाता कि किस प्रकार विश्वभर में लड़कियाँ लड़कों से ज्यादा उपलब्धियाँ हासिल कर रही हैं। इस प्रकार मैं उक्त महिला और उसके पति को प्रेरित करता ताकि वह महिला उन लड़कियों को जन्म भी दे और उनसे लगाव भी रखे।</s>
<s>[INST]दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 6A के प्रावधान ‘पूर्व अनुमोदन (Previous Approval)’ को लोक सेवकों के सदंर्भ में स्पष्ट करते हुए वर्तमान समय में इसके औचित्य का विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 की धारा 6A के अंतर्गत यह प्रावधान है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन उल्लेखित अपराध की जाँच केंद्र सरकार के ‘पूर्व अनुमोदन’ के बिना नहीं की जाएगी, जहाँ ऐसा अपराध निम्नलिखित से संबंधित हो- केंद्रीय सरकार के संयुक्त सचिव उसके ऊपर के स्तर के कर्मचारी, और ऐसे अधिकारी, जो केंद्र सरकार द्वारा किसी केंद्रीय अधिनियम के अंतर्गत सरकारी कंपनियों, सोसायटियों अथवा सरकार के स्थानीय प्राधिकरणों में नियुक्त किए जाते हैं। इस ‘पूर्व अनुमोदन’ के प्रावधान के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि संयुक्त सचिव और उसके ऊपर के अधिकारियों की सरकार में निर्णय लेने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इन निर्णयों को लेते समय अथवा सरकार को परामर्श देते समय उन पर किसी प्रकार दबाव नहीं होना चाहिए। उन अधिकारियों से बार-बार पूछताछ करने एवं जाँच का दबाव बनाने से उनके मनोबल पर प्रभाव पड़ सकता है। तथा, वे अपने आपकी बचाने में ही समय व्यय कर देंगे एवं जनहित में पूर्ण निष्ठा से काम नहीं कर पाएँगे। किंतु, इसके विपरीत भी सशक्त तर्क दिया जाता है। वर्तमान में लोक सेवाओं में भ्रष्टाचार व्याप्त है एवं संपूर्ण कार्य-संस्कृति में ऐसा वातावरण बना हुआ है जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। ऐसी स्थिति में ‘पूर्व अनुमोदन’ के प्रावधान का भ्रष्ट वरिष्ठ लोक सेवकों द्वारा दुरूपयोग किया जा सकता है। इस प्रकार इन लोक सेवकों के विरुद्ध जाँच प्रक्रिया आरंभ नहीं की जा सकती अथवा प्रारंभ करने में विलंब हो सकता है, जो अंततः भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा। इस प्रकार, एक उचित संतुलन कायम करना आवश्यक है। ताकि एक तरफ तो निष्ठावान सिविल सेवकों को अनुचित उत्पीड़न से बचाया जा सके तो दूसरी तरफ यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि भ्रष्ट सिविल सेवक इसका आश्रय लेकर बच न पाएँ। अतः यह उपयुक्त होगा कि केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त द्वारा संबंधित सरकार के सचिव से परामर्श करके आरोपी सेवक के विरूद्ध जाँच प्रारंभ की अनुमति प्रदान की जाए। यदि सचिव ही भ्रष्टाचार में संलिप्त हो तो केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और मंत्रिमंडल सचिव की एक समिति द्वारा अनुमति प्रदान की जाए एवं यदि मंत्रिमंडल सचिव के विरूद्ध मामला हो तो यह स्वीकृति प्रधानमंत्री द्वारा प्रदान की जाए।</s>
<s>[INST]लोक-प्रशासन के कुशल व प्रभावी होने के लिये उसमें सिविल-सेवा मूल्यों और नैतिकता की उपस्थिति होना अपरिहार्य होता है। किसी देश के लोक-प्रशासन में ‘नैतिकता’ की सुनिश्चितता/अनुपस्थिति को निर्धारित करने वालो कारकों का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : लोक-प्रशासन में नैतिकता की सुनिश्चितता/अनुपस्थिति विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है, जैसे-एतिहासिक, सामाजिक, विधिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं न्यायिक कारक। ऐतिहासिक कारकों को यदि भारत के संदर्भ में देखें तो कौटिल्य के अर्थशास्त्र, दिल्ली सल्तनत और मुगल काल की नैतिक-अनैतिक गतिविधियों में खोजा जा सकता है, जहाँ एक ओर भ्रष्टाचार, अनैतिक कार्यप्रणाली, छलकपट, नज़राना और बख्शीश जैसी मूल्यविहीन स्थितियाँ प्रचलित थीं, वहीं दूसरी तरफ विभिन्न प्रशासकों के द्वारा बेहतर प्रशासन के लिये उत्तम प्रशासनिक तंत्र विकसित किये गए। सामाजिक पद, प्रतिष्ठा, सम्मान और समाज में सापेक्षिक वंचनों से बचने की प्रवृत्ति वह सामाजिक निर्धारक हैं जो आज लोक प्रशासन में सिविल सेवा मूल्यों को प्रभावित करती हैं। भ्रष्टाचार अथवा अनैतिक तरीकों से धन कमाने को सामाजिक स्वीकृति मिली है और प्रशासन में साध्य-साधन की पवित्रता का ध्यान नहीं रखा जाता। यदि कानूनी निर्धारक कारकों को देखें तो स्पष्ट होता है कि यदि देश का न्यायिक तंत्र शीघ्र तथा सुस्पष्ट न्याय प्रदान करता है तो प्रशासन में नैतिकता की स्थिति मजबूत होती है। अनैतिक कार्य करने वालों अथवा भ्रष्टाचारियों को उचित तरीके से दंड मिलने से प्रशासन में मूल्य व नैतिकता को बढ़ावा मिलता है। राजनीतिक तंत्र प्रशासनिक तंत्र को निर्देशित करता है और इस रूप में लोक प्रशासन में नैतिक मूल्यों को प्रभावित भी करता है। विभिन्न राजनीतिक तंत्रों (प्रजातंत्र, राजतंत्र, तानाशाही, केंद्रीकृत और विकेंद्रीकृत शासन) की अपनी विशेषताएँ हैं और ये प्रशासन में अपने अपने तंत्र के अनुकूल मूल्यों का विकास भी करते हैं। प्रजातंत्र में समानता व बंधुत्व जैसे मूल्य प्रमुख होते हैं तो राजतंत्र व तानाशाही में आज्ञाकारिता पर अधिक बल दिया जाता है। अल्पविकसित अर्थव्यवस्थाओं में जहाँ संसाधनों के लिये तीव्र प्रतिस्पर्द्धा होती है और आर्थिक असमानता व्याप्त होती है वहाँ लोगों के लिये नैतिक रहना बहुत आसान नहीं होता। ऐसे में प्रशासन को भी अनैतिक होने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं। वर्तमान में नैतिकता और मूल्यों को लोक प्रशासन का अभिन्न अंग माना जाता है। समानता, न्याय, मानवाधिकार, ईमानदारी, उत्तरदायित्व जैसे मूल्य लोक-प्रशासन से जुड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में लोक-प्रशासकों का यह दायित्व भी अत्यधिक बढ़ गया है कि वे प्रशासन में मूल्यों का संरक्षण करते रहें। </s>
<s>[INST]‘भीड़ द्वारा हत्या (Mob Lynching)’ की निरन्तर बढ़ती घटनाएँ देश की सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था को गंभीर क्षति पहुँचा रही हैं। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : ‘विश्व-बंधुत्व’ और ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की शिक्षा देने वाले भारत में हाल ही में हुई कुछ घटनाएँ परेशान करती हैं। पिछले कुछ समय से भीड़ द्वारा लोगों को पकड़कर मार डालने की घटनाएँ हुई हैं। इन घटनाओं में कोई गौमांस खाने का तथाकथित आरोपी था, कोई दुष्कर्म का आरोपी था, कोई गायों को वधशाला के लिये ले जाने का तथाकथित दोषी तो कोई चोरी करने का दोषी था। कश्मीर में तो हाल ही में एक पुलिस अधिकारी को बिना वजह ही भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। ऐसी घटनाएँ उत्तर प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू और कश्मीर आदि राज्यों में हुई हैं। भीड़ द्वारा हत्या अनुचित व आपराधिक कृत्य है, क्योंकि- भीड़ कभी भी आरोपी को अपना पक्ष बताने का अवसर नहीं देती। भीड़ में सभी लोग अतार्किक तरीके से हिंसा करते हैं। ऐसे कृत्य से कानून, विधि की उचित प्रक्रिया व प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन होता है। संविधान में जीवन के अधिकार को ‘मूल अधिकारों’ को श्रेणी में रखा गया है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21 कहता है- ‘किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा, अन्यथा नहीं।’ भीड़ द्वारा हमला और हत्या को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के मौलिक अधिकार पर ‘वीभत्स’ हमले के रूप में देखा जा सकता है। भारत एक बहुभाषी, बहुधर्मी और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र है। यहाँ प्रत्येक नागरिक को विचार, विश्वास, धर्म, उपासना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली हुई है। साथ ही, यहाँ की संस्कृति भी मिल-जुलकर रहने तथा ‘वसुधैव-कुटुम्बकम्’ के मूल्य को महत्त्व देती है। एक सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में ‘विधि का शासन’ निहित है। यहाँ प्रत्येक नागरिक से अपेक्षा की जाती है कि वह कानून का उल्लंघन न करे और किसी प्रकार की गैर-कानूनी गतिविधि न करें। यदि किसी व्यक्ति से कोई अपराध हुआ है (चोरी, गौ-तस्करी) तो उसे सजा देने का हक कानून को है, न कि जनता उसकी सजा तय करेगी। गांधी जी ने भी कहा है कि ‘साध्य’ की पवित्रता के साथ-साथ ‘साधन’ की पवित्रता भी बहुत जरूरी है। अपराधी को स्वयं सजा देना कानूनी तौर पर तो गलत है ही नैतिक तौर पर भी अनुचित है। ऐसी घटनाएँ देश की एकता व अखण्डता को नुकसान पहुँचाती है तथा विखण्डनकारी शक्तियों को देश में अशांति फैलाने के लिये आधार उपलब्ध कराती हैं। अतः ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिये सरकार को कड़े कदम उठाने होंगे।</s>
<s>[INST]‘कोड ऑफ एथिक्स’ और ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ पर द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों का उल्लेख करते हुए देश में फैले भ्रष्टाचार के मूल कारणों का वर्णन करें।[/INST]उत्तर : ‘शासन में नैतिकता’ नामक रिपोर्ट में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग का कहना है कि लोक सेवा मूल्यों की एकशृंखला होनी चाहिये जो कानूनी अनुबंध द्वारा निर्धारित हो, जैसा कि आस्ट्रेलिया के मामले में होता है। साथ ही, यह सुनिश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये कि सिविल सेवक निरंतर इन मूल्यों के प्रति उत्साहजनक रहें। आयोग की सिफारिशें निम्नवत हैंः अधिकारियों के लिये नैतिक संहिता और आचार संहिता में हितों के संघर्ष के मुद्दे को विस्तृत रूप से शामिल किया जाना चाहिये। सेवारत अधिकारियों को भी सरकारी उपक्रमों के मंडलों में नामांकित नहीं किया जाना चाहिये, तथापित यह गैर-लाभ के सरकारी संस्थानों और परामर्शी निकायों पर लागू नहीं होगा। ‘लोक सेवा मूल्यों’ जिन्हें सभी सार्वजनिक कर्मचारियों को ऊँचा उठाना चाहिये, को परिभाषित किया जाना चाहिये। इसे सरकारी और अर्द्ध-सरकारी संगठनों की सभी श्रेणियों पर लागू किया जाना चाहिये। इन मूल्यों का उल्लंघन किये जाने पर इसे कदाचार और दंड को नियंत्रण समझा जाना चाहिये। आयोग ने विभिन्न वर्ग के लोगों के लिये पृथक-पृथक नैतिक संहिता के निर्माण की सिफारिश की। इसने मंत्रियों के लिये नैतिक संहिता, विधायिका सदस्यों के और सिविल संहिता, विधायिका सदस्यों के और सिविल सेवकों के लिये नैतिक संहिता की बात की है। देश में फैला भ्रष्टाचार एक जटिल समस्या है और इस समस्या की जड़ देश के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक ढाँचे में खोजी जा सकती है। प्रायः भ्रष्टाचार केा प्रशासनिक एवं आर्थिक समस्या माना जाता है परंतु इसका सामाजिक पहलू अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण है। भ्रष्टाचार के प्रमुख कारण निम्नवत हैं- आर्थिक समृद्धि के महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में भ्रष्टाचार को सामाजिक स्वीकृति मिलना। नैतिक या अनैतिक किसी भी तरह से अपने समकक्षों से आगे निकल जाने की इच्छा। उच्चतर जीवस्तर प्राप्त करने के लिये भ्रष्ट साधनों का इस्तेमाल। पारदर्शिता का अभाव और कानूनों की जठिलता की आड़ में भ्रष्टाचारी उपयों को अपनाने में आसानी। भ्रष्टाचार के लिये दिये जाने वाला दण्ड तथा दण्ड विधानों का अपर्याप्त होना। भ्रष्टाचार के मुकदमों का दीवानी प्रकृति का होना और लंबे समय तक चलना अथवा लंबित रहना। साक्ष्यों के अभाव में भ्रष्टाचारियों का छूट जाना और आसानी से अग्रिम जमानत मिल जाना। इनके अतिरिक्त, सरकार की अक्षमता तथा देश की बड़ी जनसंख्या भी भ्रष्टाचार का एक अन्य बड़ा कारण है। इतनी बड़ी जनसंख्या को सरकार गणवत्तापूर्ण सार्वजनिक सेवाएँ उपलब्ध नहीं करा पा रही है। इसलिये इन सेवाओं को प्राप्त करने के लिये रिश्वत दी जाती है।</s>
<s>[INST]सार्वजनिक जीवन में संप्रेषण को प्रभावशाली व सफल बनाने में किन-किन कारकों का अहम योगदान होता है? एक प्रसिद्ध व्यक्तित्व (जैसे-क्रिकेटर, फिल्मी सितारे) के किसी उत्पाद का विज्ञापन करते समय उस उत्पाद के उपभोक्ताओं के प्रति क्या उत्तरदायित्व होने चाहियें?[/INST]उत्तर : एक प्रभावी संप्रेषण सार्वजनिक जीवन की बहुत महत्त्वपूर्ण और अपरिहार्य जरूरत होती है। एक लोकसेवक जनता के साथ तब तक नहीं जुड़ पाता जब तक उसके और जनसाधारण के मध्य उचित तरीके से व पर्याप्त मात्रा में संप्रेषण नहीं होता। संप्रेषण को प्रभावशाली व सफल बनाने में निम्नलिखित कारक सहायक होते हैं- संप्रेषक की विश्वनीयताः यदि लक्षित समूह संप्रेषक पर भरोसा करता है, तब संप्रेषण का प्रभाव गहरा होना निश्चित होता है। जैसेः वर्तमान में अन्ना हजारे यदि किसी मुद्दे पर अपनी राय रखते हैं और लोगों को संबोधित करते हैं, तो अधिकतर लोग उनको ध्यान से सुनते हैं और उनकी बात पर विश्वास करते हैं। इसी तरह यदि कोई कृषि वैज्ञानिक किसानों के मध्य अपने विचार रखता है तो किसानों संग उसका संप्रेषण प्रभावी रहता ही है। यदि संप्रेषक इस प्रकार अपनी बात रखे की श्रोता को बिलकुल यह अहसास न हो कि वह अपने फायदे के लिये ऐसी बात कह रहा है, तब संप्रेषण का प्रभाव बढ़ जाता है। जैसेः सचिन तेंदुलकर का एक आर.ओ.वॉटर फिल्टर का विज्ञापन जिसमें वह बच्चों के अच्छे खिलाड़ी बनने के लिये साफ पानी पीने के महत्त्व को बताते हैं। इस विज्ञापन में ऐसा प्रतीत होता है कि मूल संदेश ‘स्वच्छ पानी पीना चाहिये’ है। संप्रेषक का आकर्षक होना भी संप्रेषण को प्रभावशाली बनाता है। जैसेः प्रियंका गांधी वाड्रा किसी राजनीतिक पद पर नहीं है फिर भी आकर्षक व्यक्तित्व की बदौलत रायबरेली व अमेठी की जनता के मध्य बहुत प्रभावी संप्रेषण कर पाती हैं। स्पष्ट संदेश का संप्रेषण में अधिक असर होता है। यदि संदेश अस्पष्ट व अमूर्त हो तो प्रभाव कमजोर होता है। एक तरफा संप्रेषण की अपेक्षा दो-तरफा संचार का प्रभाव ज्यादा होता है। संप्रेषण में गैर-भाषिक अभिव्यक्तियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जैसे- चेहरे के हाव-भाव, विभिन्न अंगों की गतियाँ, आँखों का संपर्क इत्यादि। वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अपनी संप्रेषण कला में उन गैर-भाषिक अभिव्यक्तियों का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग करते हैं। जनता प्रायः प्रसिद्ध व्यक्तित्व (क्रिकेटर, फिल्म सितारे आदि) से प्रभावित होती है और उनके द्वारा जिन उत्पादों का विज्ञापन किया जाता है, उन उत्पादों को विश्वसनीय समझकर खरीदती है। ऐसी स्थिति में उन प्रसिद्ध लोगों का भी उत्तरदायित्व बनता है कि वे ऐसे उत्पादों का विज्ञापन न करें जिनका वे खुद उपयोग न करते हों या जो अपनी ‘विशेषताओं’ के अनुरूप न हो या जो उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य के लिये नुकसानदायक हो। हाल ही के समय में अमिताभ बच्चन और विराट कोहली ने एक शीतल पेय के विज्ञापन के लिये, सुशील कुमार व सचिन ने शराब के विज्ञापन के लिये तथा रणबीर कपूर ने एक गोरा करने की कॉस्मेटिक क्रीम के विज्ञापन के लिये मना कर दिया। ऐसे कदम व संवेदनशीलता उनको जनसाधारण की नजरों में अधिक प्रतिष्ठित करते हैं।</s>
<s>[INST]समुचित उदाहरणों के साथ स्पष्ट करें कि सिविल सेवाओं/प्रशासन में भावनात्मक बुद्धिमता के प्रयोग द्वारा तनावग्रस्त स्थितियों को किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है?[/INST]उत्तर : अपनी तथा दूसरों की भावनाओं को समझने तथा उनका समुचित प्रबंधन करने की क्षमता को भावनात्मक बुद्धिमत्ता कहते हैं। वर्तमान में सिविल सेवाओं में तनाव का स्तर ऊँचा है क्योंकि कल्याणकारी राज्य की निरंतर बढ़ती अपेक्षाएँ, गठबंधन की राजनीति के कारण परस्पर विरोधी तथा कठिन दबाव, मीडिया का दबाव, सिविल सोसाइटी के आंदोलन इत्यादि सिविल सेवकों से ही तत्काल परिणाम चाहते हैं। इतनी जटिल परिस्थितियों में वही सिविल सेवक सफल हो पाता है, जिसमें तनाव प्रबंधन तथा अपनी व दूसरों की भावनाओं के प्रबंधन की क्षमता अधिक होती है। लोक प्रशासन का लंबा अनुभव रखने वाले लोगों का मानना है कि तनावग्रस्त अवसरों (उग्र प्रदर्शन, दंगा) पर भावनात्मक बुद्धिमता के द्वारा ही स्थिति को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है। जैसे- (i) मान लिजिये कि किसी जिले के किसान या कोई मजदूर संगठन अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहा है और सरकार अपनी मांगों पर विचार नहीं कर रही है। ऐसे में प्रदर्शनकर्त्ता उग्र होते जा रहे हैं। इस स्थिति में भावनात्मक बुद्धिमता के ये लाभ हो सकते हैं- सटीक स्तर पर समझना कि उग्रता का वास्तविक स्तर कितना है और कितनी मात्रा में अभिवृत्तियाँ बनावटी हैं। अपनी अभिव्यक्तियों पर कठोर नियंत्रण रखना ताकि ऐसी कोई बात न निकले, जो समस्या को और उग्र बना सकती हो। ऐसी भाषा या गैर-भाषिक संकेतों का प्रयोग करना, जिससे जनता व प्रशासन के बीच की दूरी कम होती हो और उन्हें यह महसूस कराया जा सके कि प्रशासन उनके सहयोग के लिये तत्पर है। यह कोशिश करना कि जनता/किसानों/मजदूरों की भावनाओं को सही दिशा में मोड़ दिया जाए ताकि जनता भी प्रशासन के साथ मिलकर समस्या के समाधान में सहायक बने। (ii) जिन क्षेत्रों में जातिगत या साम्प्रदायिक तनाव ऊँचे स्तर पर रहता है, वहाँ के प्रसासकों पर यह विशेष दायित्व होता है कि वे सभी समूहों के साथ मैत्री-भाव रखें, चाहे उनकी व्यक्तिगत आस्था किसी एक के साथ हो। जैसे जैन साहब कलेक्टर हैं और बकरीद का त्यौहार है, ऐसे में उन्हें उस समुदाय को बधाई देनी होगी और वह भी इस तरह से कि अगर जैन साहब के मन में इस त्यौहार के प्रति कटुता है, तो भी बिलकुल नजर न आए। भावनात्मक बुद्धिमत्ता से युक्त व्यक्ति ही ऐसे तनावग्रस्त क्षेत्र में प्रशासन चला सकते हैं। इस प्रकार, भावनात्मक बुद्धिमता से युक्त सिविल सेवक कठिन व तनावयुक्त परिस्थितियों में भी बिना धैर्य खोये संतुलित मनोस्थिति के साथ लोगों से स्वयं को जोड़ते हुए हालातों पर नियंत्रण प्राप्त ही लेता है।</s>
<s>[INST]‘मूल्यों के विकास में जितनी भूमिका परिवार की होती है, उतनी समाज की भी होती हैं।’ इस कथन का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।[/INST]उत्तर : ‘मूल्य’ वे नैतिक आदर्श होते हैं जिनकी उपलब्धि अथवा जिनके विकास के लिये नैतिक नियम बनाये जाते हैं जैसे- शांति, न्याय, सहिष्णुता, आनंद, ईमानदारी, समयबद्धता आदि प्रसिद्ध मूल्य हैं। मूल्यों के संबंध में समाज की समझ होती है कि वे सामाजिक जीवन को संभव व श्रेष्ठ बनाने के लिये आवश्यक हैं। इन मूल्यों को साकार करने के लिये सामाजिक मानक, रीति-रिवाज, परम्पराएँ, प्रथाएँ इत्यादि निर्मित होती हैं, जैसे- बड़ों का आदर करना एक मूल्य हैं, जिसकी अभिव्यक्ति के लिये बड़ों का आदर करना एक मूल्य हैं, जिसकी अभिव्यक्ति कि लिये बड़ों के पैर छूना या अभिवादन करना आदि सामाजिक नियम बनाये गये हैं। मूल्यों के विकास में परिवार वह पहली सीढ़ी हैं जिस पर चढ़कर मानवीयता के लक्ष्य को पाना आसान होता है। 6 वर्ष तक की आयु जीवन का एक ऐसा पायदान है जब बच्चा दूसरों के आचारण से सबसे अधिक प्रभावित होता है, इसलिये प्राथमिक स्तर पर मूल्य इसी उम्र में निर्धारित होते हैं। हालांकि बाद में भी मूल्य विकसित होते हैं लेकिन प्रभाव का स्तर धीरे-धीरे कम होता है। प्रशिक्षण, प्रोत्साहन, निन्दा, दण्ड आदि कुछ ऐसे उपकरण हैं जिनसे परिवार द्वारा बच्चे में ये मूल्य विकसित किये जा सकते हैं। परिवार एकल हैं या संयुक्त, परिवार की आर्थिक स्थिति, शैक्षणिक स्तर तथा सत्ता की संरचना बच्चे में मूल्यों की पृष्ठभूमि तय करने में सहायक होती है। यथा- एकल परिवार में ‘वैयक्तिक’ होने का मूल्य और संयुक्त परिवार में साथ रहने का मूल्य प्राप्त होने की संभावना रहती है। समाज भी परिवार के साथ-साथ मूल्यों के विकास में भागीदार होता है। समाज की असल भूमिका वैसे तो विद्यालय जाने के साथ शुरू होती है परन्तु इससे पूर्व भी उसका योगदान रहता है। किशोरावस्था एक ऐसा पड़ाव है जब समाज का दबाव सर्वाधिक होता है। बच्चे का समाज से ज्यों-ज्यों संपर्क बढ़ता है मूल्यों का विकास भी उत्तरोतर बढ़ता जाता है। मीडिया, खुद पर्यवेक्षी हो जाना, सामाजिक समूहों से वार्त्तालाप, सह-शिक्षा विद्यालय आदि से समाज के नैतिक मानदण्ड, सामाजिक गतिशीलता, रूढ़ि, परिवर्तन जैसे विचारों को प्रभाव पड़ता है। विभिन्न धर्मों, जातियों और क्षेत्रों के लोगों के साथ मिलकर/रहकर धैर्य, सहिष्णुता जैसे मूल्यों को विकसित करने में सहायता मिलती है। मूल्यों के विकास में सामाजिक प्रभाव समाज के साथ अंतर्क्रिया की मात्रा पर भी निर्भर करता है। जो जितना सामाजिक होगा, उस पर समाज का उतना ही प्रभाव होगा। इस प्रकार हम पाते हैं कि मूल्यों के विकास में परिवार और समाज दोनों का अहम योगदान है। जहाँ आरम्भिक अवस्था में परिवार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, वहीं उम्र बढ़ने के साथ-साथ व सामाजिक अन्तर्क्रिया बढ़ने पर समाज की भूमिका अधिक बढ़ जाती है। इन दोनों पहलूओं के अतिरिक्त मूल्यों के विकास में शिक्षण संस्थानों की भी बड़ी भूमिका होती है। उच्चशिक्षा के स्तर पर तो व्यक्ति में ‘व्यक्तित्व परिवर्तन’ की संभावना भी बढ़ जाती है। </s>
<s>[INST]आपकी राय में क्या किसी व्यक्ति की अभिवृत्तियों में परिवर्तन करना संभव है? यदि हाँ, तो कैसे?[/INST]उत्तर : व्यक्ति की अभिवृत्ति को सामान्यतः स्थायी माना जाता है, परंतु इसमें परिवर्तन करना संभव है। अभिवृत्ति में परिवर्तन कितना मुश्किल या आसान होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह परिवर्तन संगत है या असंगत। यदि अभिवृत्ति सकारात्मक से और अधिक सकारात्मक या नकारात्मक से और अधिक नकारात्मक होती है तो ऐसे परिवर्तन संगत परिवर्तन कहलाते हैं। वहीं, यदि अभिवृत्ति में सकारात्मक से नकारात्मक या नकारात्मक से सकारात्मक परिवर्तन होना हो तो इसे असंगत परिवर्तन कहते हैं। अभिवृत्ति में संगत परिवर्तन होना असंगत परिवर्तन होने की तुलना में ज्यादा आसान होता है। अभिवृत्ति में परिवर्तन लाने में सक्षम कारकः (i) संदर्भ समूह में परिवर्तनः व्यक्ति स्वयं को जिस समूह के साथ आत्मीकृत करता है, उस समूह के अनुरूप ही उसकी अभिवृत्तियों में परिवर्तन आता है। जैसेः यदि किसी परंपरागत परिवार का विद्यार्थी अपनी उच्च शिक्षा के लिये जे.एन.यू. जाये तो संदर्भ समूह परिवर्तित हो जाने के कारण उच्च-शिक्षा पूरी करते-करते उसकी अभिवृत्तियों में व्यापक परिवर्तन आ जाएगा। (ii) बाध्यकारी संपर्कः यदि किसी व्यक्ति को किसी ऐसे समूह के लोगों के साथ रहने के लिये बाध्य किया जाये जिसके प्रति उसकी अभिवृत्ति नकारात्मक होती है, तो प्रायः यह देखा गया है कि साथ रहने से उस व्यक्ति की उस समूह के लोगों के प्रति अभिवृत्ति सकारात्मक हो जाती है। जैसेः यदि किसी तथाकथित उच्च जाति के परम्परागत सोच वाले विद्यार्थी को हॉस्टल में एक तथाकथित दलित विद्यार्थी के साथ एक डॉरमेट्री में रहने व पढ़ने के लिये रखा जाये, तब हम देखते हैं कि कुछ समय पश्चात् उच्च जाति के विद्यार्थी में दलित विद्यार्थी के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति का विकास होने लगता है। (iii) अपेक्षित भूमिका-निर्वाहः यदि व्यक्ति में किसी कार्य विशेष के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति है और उसे वह कार्य करना पड़े तो धीरे-धीरे उस कार्य के प्रति उसकी अभिवृत्ति में परिवर्तन आ जाता है। जैसे एक परंपरागत धारण है कि औरतें (विशेषकर गृहणियाँ) काम नहीं करती। यदि कुछ समय के लिये पुरुष इन महिलाओं की भूमिका निभाकर देखें तो उनकी अभिवृत्ति में परिवर्तन हो सकता है। (iv) अतिरिक्त सूचनाओं की प्राप्तिः अभिवृत्ति का संज्ञानात्मक पक्ष किसी व्यक्ति को प्राप्त सूचनाओं के आधार पर निर्मित होता है। जब किसी व्यक्ति को अतिरिक्त सूचनाएँ प्राप्त होती हैं तो इससे उसके संज्ञानात्मक पक्ष में परिवर्तन आता है और अभिवृत्ति परिवर्तित हो जाती है। जैसेः आपके कार्यालय का एक कर्मचारी देरी से आने के लिये बदनाम है और आप में उसके प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति उपस्थित है लेकिन एक दिन आपको कुछ तथ्य पता चलते है कि उस कार्मचारी के घर पर उसके बूढ़े माता-पिता और विकलांग जीवन-साथी है, जिनके कार्य पूरे करने के फेर में वह रोजाना कार्यालय देरी से पहुँचता है; ऐसे में निश्चित तौर पर उसे लेकर आपकी अभिवृत्ति में परिवर्तन अवश्य आएगा। (v) धारणा या अनुनयनः यह एक विशेष प्रकार का संप्रेषण या अभिव्यक्ति है जिसे किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह की अभिवृत्ति परिवर्तित करने के लिये किया जाता है। जैसे- प्रधानमंत्री द्वारा ‘मन की बात’ के जरिये विमुद्रीकरण के प्रति जनता को सकारात्मक सोचने के लिये प्रेरित करना। इस प्रकार, उपरोक्त कारकों द्वारा किसी व्यक्ति की अनिवृत्ति में परिवर्तन संभव है।</s>
<s>[INST]व्यक्ति अपने परिवार, समाज व शिक्षण संस्थानों में अन्तर्क्रिया के दौरान विभिन्न ‘विषयों’ के प्रति अपनी अभिवृत्तियाँ निर्मित कर लेता है। सार्वजनिक जीवन में व्यक्ति की इन ‘अभिवृत्तियों’ के संभावित हानिकारक पक्षों का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : ‘अभिवृत्ति’ से तात्पर्य मन की एक अवस्था है, जिसमें किसी मनोवैज्ञानिक विषय के प्रति सकारात्मक, नकारात्मक या तटस्थता का भाव रहता है। व्यक्ति में अभिवृत्तियों का निर्माण जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न सूचनाओं, अनुभवों एवं अवलोकन से होता है। ‘अभिवृत्ति’ सापेक्षतः स्थायी होती है अर्थात् यदि एक मनोवैज्ञानिक विषय के प्रति व्यक्ति में ‘मूल्यांकनपरक भाव’ उत्पन्न हो गया है, तो उसे आसानी से बदलना मुश्किल होता है। सार्वजनिक जीवन में कई अवसरों पर ऐसे पक्ष उभर का सामने आते हैं, जब किसी ‘विषय’ के प्रति निर्मित अभिवृत्ति की उपस्थिति के चलते लोकहित प्रभावित हुआ है। यथा- (i) ‘अभिवृत्ति’ के चलते कई बार रूढ़िवादिता को बढ़ावा मिलता है क्योंकि अधिकांश अभिवृत्तियाँ बचपन में ही विकसित होती हैं और उन्हें बदलना काफी कठिन होता है। ऐसे में कई रूढ़ियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती हैं। जैसे- ग्रामीण इलाकों में घूंघट के प्रति स्वीकार्यता की अभिवृत्ति। एक उच्च शिक्षित महिला अधिकारी भी प्रायः इस प्रथा को हतोत्साहित करने की इच्छुक नहीं दिखाई देती। (ii) अभिवृत्तियों के कारण व्यक्ति का दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ तथा तटस्थ नहीं रह पाता है। जबकि लोकसेवकों के लिये यह जरूरी है कि उनका दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ व तटस्थ हो। उदाहरण के तौर पर प्रायः यह देखने को मिलता है कि जब भी किन्हीं दो समुदाय के लोगों के मध्य कोई विवाद होता है, तो यदि जाँच अधिकारी उन समुदायों में से किसी एक समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह रखता है, तब वह मूल स्थिति के प्रति अपना दृष्टिकोण तटस्थ व वस्तुनिष्ठ नहीं रख पाता। (iii) ‘अभिवृत्ति’ से व्यक्ति में लचीलापन कम हो जाता है यानी यदि परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो जाएँ या बदल जाएँ तो वह खुद को आसानी से समायोजित नहीं कर पाता। जैसे- एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में पले-बढ़े व्यक्ति में ‘मांसाहार’ के प्रति घोर नकारात्मक अभिवृत्ति का विकास हो जाता है; ऐसे में यदि उसे कुछ समय ऐसे क्षेत्र-विशेष या विदेश में रहना पड़े, जहाँ मुख्य भोजन मांसाहार ही हो, तब उसे खुद को ऐसी स्थिति में समायोजित कर पाना मुश्किल हो जाता है। (iv) समाज के वंचित वर्गों को इसका सबसे ज्यादा नुकसान झेलना पड़ता है। एक तो वे पहले ही वंचित हैं तथा उच्च वर्ग या शोषक वर्ग की अभिवृत्तियाँ उनके विचारों को या व्यवहारों को बदलने नहीं देतीं। दलितों, महिलाओं, अश्वेतों, विकलांगों, अल्पसंख्यकों के शोषण की बड़ी वजह प्रभुत्वशाली समूहों में उनके प्रति नकारात्मक अभिवृत्तियों का होना तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका संचारित होना है।</s>
<s>[INST]अभिवृत्ति के निर्माण में सामाजिक अधिगम (Social Learning) की भूमिका को उदाहरणों के साथ स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : व्यक्ति में किसी मनोवैज्ञानिक विषय (व्यक्ति, वस्तु, समूह, विचार, स्थिति आदि) के प्रति सकारात्मक, नकारात्मक अथवा तटस्थ भाव को, व्यक्ति की उस विषय के प्रति ‘अभिवृत्ति’ कहा जाता है। व्यक्ति की अभिवृत्ति सापेक्षतः स्थायी होती है तथा इसमें प्रेरित करने की क्षमता होती है। अभिवृत्तियाँ सामान्यतः व्यक्तिगत अनुभव एवं समाज के साथ अन्तर्क्रिया द्वारा सीखी जाती हैं; ये अपवाद स्वरूप ही जन्मजात हो सकती है। अभिवृत्तियों के निर्माण में सामाजिक अधिगम की अहम भूमिका होती है। सामाजिक अधिगम के तीन तरीकों द्वारा अभिवृत्तियों के निर्माण की प्रक्रिया को समझा जा सकता है- (i) शास्त्रीय अनुकूलन (Classical Conditioning): यह मनोविज्ञान का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है, जिसके अनुसार जब दो उद्दीपक एक निश्चित क्रम में लगभग साथ-साथ किसी के सामने आते हैं तो कुछ समय के बाद पहला उद्दीपक दूसरे उद्दीपक का संकेत बन जाता है और उसके प्रति व्यक्ति वही प्रतिक्रिया करने लगता है जो उसे दूसरे उद्दीपक के प्रति करनी थी। उदारहण के तौर पर यदि कोई व्यक्ति किसी भी बुजुर्ग को देखकर उसका अभिवादन करता है और उसके साथ उसका बच्चा भी उसका अनुसरण करता है तथा यह प्रक्रिया कई बार दोहराई जाती है तब कुछ समय पश्चात् बच्चा दूसरे उद्दीपक (व्यक्ति द्वारा बुजुर्ग का अभिवादन) की आवश्यकता महसूस करना बंद कर देगा तथा पहले उद्दीपक (बुजुर्ग) को देखते ही अभिवादन करना शुरू करने लगेगा जो वस्तुतः वह दूसरे उद्दीपक के अनुकरण में करता था। (ii) साधनात्मक अनुकूलन (Instrumental Conditioning): इसका अर्थ है कि व्यक्ति को जैसा व्यवहार करने पर प्रशंसा या पुरस्कार मिलता है, वह धीरे-धीरे उसी के पक्ष में अनुकूल अभिवृत्ति विकसित कर लेता है। इसके विपरीत जिस व्यवहार के कारण उसकी आलोचना होती है, वह उसे करने से बचता है और उसके प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति विकसित कर लेता है। (iii) प्रेक्षणात्मक अधिगम (Observational Learning): इसमें व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों को देखकर अपनी अभिवृत्तियाँ निर्मित करता है। उदाहरण के तौर पर यदि शिक्षक बच्चों को कोई शिक्षा दे लेकिन स्वयं उसका पालन न करे तो बच्चे शिक्षक के आचरण का अनुकरण करते हैं, न कि उसके कथनों का। जैसेः यदि कोई अध्यापक बच्चों को मदिरा और धूम्रपान से दूर रहने की शिक्षा देता है किन्तु स्वयं मदिरा भी पीता है और धूम्रपान भी करता है तो वह अपने विद्यार्थियों को चाहे कितना ही इस संबंध में ज्ञान क्यों न दे, वे मदिरा व धूम्रपान से परहेज नहीं करेंगे।</s>
<s>[INST]लोक-प्रशासन में स्व-विवेक निर्णयन से आपका क्या तात्पर्य है? इसे प्रायः अवांछनीय क्यों माना जाता है? इस स्थिति को कम करने उपायों को सुझाइये।[/INST]उत्तर : कुछ विषयों पर कई बार स्पष्ट कानून, नियम या विनियम नहीं होते; ऐसी अस्पष्ट स्थिति में लोक-सेवक स्व-विवेक से निर्णय लेकर प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है, इस प्रकार लिये गए निर्णय को स्व-विवेक निर्णयन कहते हैं। सरकारी क्षेत्र में स्व-विवेक की शक्तियों से प्रशासन के निचले स्तरों पर भ्रष्टाचार की संभावना (दायरा) बढ़ती है। सरकारी कर्मचारी/लोक सेवक आवेदक को रिश्वत देने पर मजबूर करते हैं अन्यथा उनकी याचिका/आवेदन/कार्य में जानबूझकर देरी की जाती है या उस कार्य को किया ही नहीं जाता। सार्वजनिक क्षेत्र में स्व-विवेक निर्णयन की अधिक उपस्थिति अधिक भ्रष्टाचार होने के संभावनाओं को बल देती है। इसीलिये इसे ‘अवांछनीय’ माना जाता है। इस निर्णयन शक्ति को निम्न उपायों से कम किया जा सकता है- सरकार की अनेक गतिविधियों से ‘स्व-विवेक’ के प्रयोग को हटाया जा सकता है। ऐसी सभी गतिविधियाँ स्व-चालित व आई.टी. समर्थित हो सकती हैं। जैसेः जन्म व मृत्यु का पंजीकरण, ऑनलाइन पासपोर्ट आवेदन, ऑनलाइन एफ.आई.आर. आदि। जहाँ स्व-विवेक निर्णयन को समाप्त करना संभव न हो, वहाँ स्व-विवेक के प्रयोग को न्यूनतम करने के मार्ग-निर्देशों द्वारा विनियमित किया जाना चाहिये। स्व-विवेक के प्रयोग पर प्रभावी रोक और संतुलन स्थापित किये जाने चाहिये। महत्त्वपूर्ण मामलों पर निर्णयन का कार्य एक व्यक्ति को देने के स्थान पर एक समिति को सौंपा जाना चाहिये। एक उदाहरण के द्वारा हम स्व-विवेक निर्णयन, उसकी अवांछनीयता व उसकी उपस्थिति को न्यूनतम करने के उपाय को देख सकते हैं- हरियाणा राज्य में प्रत्येक वर्ष हजारों अध्यापक अपनी पसंद की/सहूलियत वाली जगह पर स्थित स्कूल में स्थानान्तरण की मांग करते थे। इनके आवेदन अनेक स्तरों पर जरूरी कार्रवाई के लिये अनेक अधिकारियों के पास भेजे जाते थे। अध्यापक एक अन्य स्तर पर भी शिक्षा मंत्री, विभाग सचिव आदि से सिफारिश करवाकर अपना कार्य करवाने की कोशिश करते थे। निर्णयन की यह प्रक्रिया अ-पारदर्शी तथा भ्रष्टाचार से ग्रस्त थी। लेकिन वर्ष 2016-17 से अब स्थानान्तरण की नई नीति में ऑनलाइन आवेदनों की प्राप्ति की जाती है तथा विभिन्न स्पष्ट बिंदुओं/योग्यताओं/मानकों के आधार पर मिले अंकों से अध्यापकों के स्थानान्तरण को तय किया जाता है। सूचना जारी के बाद आपत्तियाँ भी मांगी जाती हैं और उन पर विचार किया जाता है। इस प्रक्रिया से भ्रष्टाचार में काफी कमी आई है। अन्य ऐसे क्षेत्रों में भी यह प्रक्रिया अपनायी जा सकती है।</s>
<s>[INST]राजस्थान सरकार ने राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के अंतर्गत अनाज/‘प्रत्यक्ष लाभ अंतरण’ के लाभार्थियों के घर की बाहरी दीवार पर ‘मैं गरीब हूँ’ लिखवाया है ताकि गरीब परिवारों की पहचान सुनिश्चित हो सके। इस संबंध में नैतिक दृष्टिकोण से अपने विचार प्रकट करें।[/INST]उत्तर : हाल ही में चर्चा में आई इस घटना पर राजस्थान सरकार का तर्क है कि एक तो गरीब परिवारों की पहचान सुनिश्चित कराने के दृष्टिकोण से ऐसा किया गया है और दूसरा यह कि गरीबों को मिलने वाले लाभों को कई संपन्न लोग भी फर्जी दस्तावेजों/कार्ड के जरिये प्राप्त कर रहे हैं; यदि उनके घरों के सामने ‘मैं गरीब हूँ’ लिखा जाएगा तो एक तरफ उनकी पहचान सुनिश्चित होगी और दूसरी तरफ वे शर्मिन्दगी के चलते इन लाभों को छोड़ देंगे जो अन्यथा भी किसी और का हक हैं। प्रशासनिक दृष्टिकोण से सहूलियत के चलते सरकार चाहे इस कदम को युक्तियुक्त करार दे लेकिन यह कृत्य उचित है या अनुचित, यह सुनिश्चित करने के लिये भारतीय समाज की संरचना, सांस्कृतिक परिवेश और नैतिक दृष्टिकोण से इस कृत्य को देखना होगा। भारतीय संस्कृति में ‘आत्मसम्मान’ और ‘सामाजिक प्रतिष्ठा’ को बहुत महत्त्व दिया जाता है। कोई भी परिवार सरकारी सहायता के बदले सार्वजनिक तौर पर ‘मैं गरीब हूँ’ लिखवाना अपनी बेइज्जती ही समझेगा क्योंकि यह सहायता कोई मदद नहीं अपितु उनका हक है। सरकार यदि रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करा दे तो ऐसी मदद लेने की नौबत ही न आए। भारतीय समाज की संरचना जाति आधारित है। उच्च जातियाँ अपने आप को सदैव तथाकथित पिछड़ी या निचली जातियों से श्रेष्ठ समझती है; चाहे उनमें से कोई पिछड़ी या निचली जाति के लोगों से आर्थिक रूप से कमजोर ही क्यों न हो। सरकार की कार्रवाई सबको आर्थिक आधार पर जाँचकर ‘मैं गरीब हूँ’ लिख रही है, जिससे कुछ जातियाँ अपमानित महसूस कर रही हैं। नैतिक दृष्टिकोण से देखें तो ‘उपयोगितावाद’ के अनुसार वह कृत्य नैतिक रूप से उचित है, जिससे अधिकतम लोगों को लाभ हो। परंतु, यहाँ कुछ गलत लाभ उठाने वाले लोगों की पहचान करने के लिये ‘अधिकतम’ योग्य लाभार्थियों को मानसिक तनाव दिया जा रहा है, जो नैतिकतः अनुचित ही है। मेरे विचार से सरकार को ‘मैं गरीब हूँ’ लिखने की बजाय कोई अन्य प्रतीकात्मक चिह्न जैसे कोई रंगीन निशान या कोई ऐसा संकेत बनाना चाहिये, जिससे उन्हें ‘हीनता’ का अहसास न हो। इसके अतिरिक्त लाभार्थियों को ‘प्रत्यक्ष लाभ अंतरण’ व अन्य लाभ ‘आधार’ से जोड़कर दिये जाए ताकि फर्जी लाभार्थी बाहर हो जाएं। गाँव के सरपंच को फर्जी लाभार्थियों के संबंध में उत्तरादायी ठहराये जाने का भी प्रावधान होना चाहिये। </s>
<s>[INST]‘कार्य-संस्कृति’ से आपका क्या तात्पर्य है? क्या किसी समाज/देश की संस्कृति वहाँ के संगठनों की कार्य-संस्कृति को प्रभावित करती है?[/INST]उत्तर : कार्य-संस्कृति से तात्पर्य उस संपूर्ण वातावरण से है, जो किसी कार्यालय/संगठन में कार्य के अनुकूल या प्रतिकूल कर्मचारियों की मनोवृत्तियाँ निर्धारित करता है। प्रायः प्रत्येक संगठन की एक विशिष्ट कार्य-संस्कृति होती है। हालाँकि, यदि संगठन का आकार बहुत बड़ा है (जैसे कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी), तो उसके विभिन्न हिस्सों में एक से अधिक (यहाँ तक कि परस्पर विरोधी भी) कार्य-संस्कृतियाँ भी हो सकती हैं। ‘संगठन संस्कृति’, ‘निगम संस्कृति’ या ‘कंपनी संस्कृति’ भी कार्य-संस्कृति के ही पर्याय हैं। कार्य-संस्कृति किसी संगठन के विभिन्न पक्षों में अभिव्यक्त होती है, जैसे-संगठन का उद्देश्य क्या है, अपनी सामाजिक भूमिका के प्रति उसकी राय क्या है, कर्मचारियों पर कैसी आचरण-संहिता तथा नियमावलियाँ लागू होती हैं, उसके कर्मचारियों की सामान्य आदतें किस प्रकार की हैं, इत्यादि। किसी संगठन की कार्य-संस्कृति काफी हद तक उस देश/समाज की मूल संस्कृति से प्रभावित होती है, जिस देश/समाज में वह संगठन कार्यरत है। होफ्सटेड ने इस संबंध में ‘सांस्कृतिक आयाम का सिद्धांत’ प्रस्तुत किया है, जिसका सार यही है कि संस्कृति ‘कार्य-संस्कृति’ को व्यापक स्तर पर प्रभावित करती है, यथा- यदि किसी समाज की संस्कृति में व्यक्तिवाद अधिक हावी है, तो वहाँ के संगठन में भी कर्मचारी अपने संगठन पर आर्थिक व भावनात्मक दृष्टि से कम निर्भर होगा तथा उसकी व्यक्तिगत पहचान को सामाजिक पहचान पर वरीयता दी जाएगी। दूसरी ओर, यदि संस्कृति में सामूहिक ढाँचों का अधिक महत्त्व है, तो व्यक्ति अपने संगठन पर अधिक निर्भर होगा तथा उसकी सामाजिक पहचान को अधिक महत्त्व मिलेगा। अगर समाज में सांस्कृतिक विविधता है तथा विविधता के प्रति लचीलापन व सम्मान का भाव है, तो कार्य-संस्कृति में भी विभिन्न वर्गों का बेहतर अनुपात होगा और समावेशी विकास होगा। उराहरण के तौर पर वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति की तथाकथित ‘संरक्षणवादी’ या ‘सिर्फ अमेरिकन’ की नीति का वहाँ की फेसबुक, माक्रोसॉफ्ट, टेसला, गूगल जैसे कंपनियों ने विरोध किया है क्योंकि अमेरिकी संस्कृति ‘विविधता’ को सम्मान देती है इसीलिये इन संगठनों की कार्य-संस्कृति भी प्रतिभाओं के साथ क्षेत्र के आधार पर भेदभाव नहीं करती। कोई संस्कृति सहजता पर अधिक बल देती है अथवा औपचारिकता पर, इसका प्रभाव कार्यालय के माहौल में दृष्टिगत हो जाता है। परंतु, वर्तमान में यह सार्वभौमिक सिद्धांत नहीं रह गया है कि संस्कृति किसी संगठन की ‘कार्य-संस्कृति को आवश्यक रूप से प्रभावित करे। वैश्वीकरण के चलते विभिन्न संगठन भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भी एक समान कार्य-संस्कृति को अपनाते हैं।</s>
<s>[INST]आपकी राय में भारत जैसे आधुनिक, लोकतांत्रिक व कल्याणकारी राज्य में सरकार एक अच्छी सेवा प्रदाता कैसे बन सकती है?[/INST]उत्तर : वर्तमान में शासन-प्रणाली की कुशलता व सफलता इस बात से आंकी जाती है कि वह अपने नागरिकों को विभिन्न सेवाएँ कितने प्रभावी व बेहतर तरीके से प्रदान करती है। उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण से पूर्व अधिकांश सेवाओं के मामले में राज्य एकमात्र सेवा-प्रदात्ता था, इसीलिये उपभोक्ताओं का कोई खास महत्त्व नहीं था। किंतु, उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण के पश्चात् निजी क्षेत्र ने सेवा प्रदायगी के मामलों में बेहतर मानक स्थापित किये हैं। सूचना व संचार तकनीकी के विकास, सूचना के अधिकार, सिविल सोसाइटी आंदोलनों एवं सोशल मीडिया के कारण अब सरकार पर भी पारदर्शिता रखने, उत्तरदायित्व निभाने व अच्छी गुणवत्तापूर्ण सेवाएँ प्रदान करने का दबाव बढ़ा है। लोक प्रशासन की नई आवधारणाएँ तथा स्वेच्छातंत्रवादी विचारक तो राज्य को सेवा-प्रदाता के रूप में ही परिभाषित करने लगे हैं। ऐसे में, मेरी राय में निम्नलिखित उपाय अपनाकर एक सरकार अच्छी सेवा प्रदाता बन सकती है- व्यक्तियों को उपभोक्ताओं के रूप में तथा खुद को सेवा-प्रदाता के रूप में देखना न कि स्वयं को मालिक व उपभोक्ताओं को प्रजा समझना। अगर सेवा प्रदायन में कमियाँ हैं, तो लोगों को उसका विरोध करने का पर्याप्त अधिकार दिया जाना चाहिये। सिटीजन रिपोर्ट कार्ड की व्यवस्था लागू की जानी चाहिये। इसके अंतर्गत जो नागरिक किसी कार्यालय से सेवा प्राप्त करते हैं, उनके फीड बैंक के आधार पर कर्मचारियों का मूल्यांकन होता है तथा वेतन वृद्धि जैसे लाभ दिये जाते हैं। जहाँ तक संभव हो सके बहुत सारी सेवाएँ एक ही स्थान पर उपलब्ध होनी चाहिये, ताकि न्यूनतम समय खर्च करके नागरिक सेवाएँ प्राप्त कर सकें। सूचना तकनीक का प्रभावी उपयोग करते हुए शहर के सभी स्थानों पर कियोस्क लगाए जाएँ ताकि बहुत सी सेवाएँ हर समय, हर जगह उपलब्ध हों। सभी विभागों को सिटीजन चार्टर की व्यवस्था प्रभावी तरीके से लागू करनी चाहिये। निजी क्षेत्र की तरह, जहाँ तक संभव हो नागरिकों को उनके घर पर ही सेवा प्राप्त करने का विकल्प मिलना चाहिये। प्रत्येक सेवा के मामले में प्रतिस्पर्धा की स्थिति हो जिसमे पूर्ण निजीकरण, सीमित निजीकरण या सरकारी संगठनों के बीच प्रतिस्पर्धा के मॉडल्स का प्रयोग किया जा सकता है। नागरिकों को अधिकार हों कि वे जब चाहें सेवा-प्रदाता को बदल सकें। सेवा प्रदाताओं के मूल्यांकन का एक प्रमुख आधार यह हो कि कितने नागरिकों ने उसकी सेवा को छोड़ा तथा कितने नागरिकों ने किसी और की सेवा को छोड़कर उसे चुना। सरकार के लिये संभव नहीं है कि वह हर सेवा, हर व्यक्ति तक पहुँचा सके, इसलिये निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी करना जरूरी है। उपभोक्ता अधिकारों से संबंधित कानूनों, नियमों तथा विनियमों का अधिकतम प्रचार करना, उपभोक्ता अदालतों तक सीधी पहुँच बनाना, जिसमें किसी वकील या मध्यस्थ की आवश्यकता न पड़़ती हो। इस प्रकार भारत जैसा लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य अपने नागरिकों की अपेक्षाओं पर बेहतर तरीके से खरा उतर सकता है।</s>
<s>[INST]परिवार की ऐसी दो स्थितियों की संक्षेप में चर्चा कीजिये, जहाँ भावनात्मक प्रज्ञता (Emotional Intelligence) सहायक हो सकती है।[/INST]उत्तर : अपनी तथा दूसरों की भावनाओं को समझने तथा उनका समुचित प्रबंधन करने की क्षमता को भावनात्मक बुद्धिमत्ता कहते हैं। सेलोवी और मेयर अनुसार ‘यह वह योग्यता है, जिससे भावनाओं को व्यक्त किया जा सकता है, उन्हें चिंतन प्रक्रिया से जोड़ा जा सकता है, भावनाओं को समझा व नियमित किया जा सकता है ताकि व्यक्ति की वैयक्तिक प्रगति सुनिश्चित हो सके।’ सभी लोगों के पारिवारिक जीवन में प्रायः ऐसी स्थितियाँ उभरती रहती हैं, जहाँ ‘भावनात्मक प्र्रज्ञता’ स्थिति की उलझनों को सुलझाने में बहुत मददगार साबित होती है। ऐसी दो स्थितियाँ निम्न प्रकार की हो सकती हैं- (i) आपकी 15 वर्ष की बेटी की किताब में आपको एक लड़के का प्रेम-पत्र मिलता है। आप जब अपनी बेटी से इसके विषय में पूछते हैं तो वह स्वीकार कर लेती है कि वह किसी लड़के से प्यार करती है और यह पत्र उस लड़के का है। वह अपना एक फैसला भी सुना देती है कि वह उस लड़के से जल्द ही शादी करने वाली है। इससे पूरे परिवार में अतिशय तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यहाँ आपको ‘भावनात्मक प्रज्ञता’ से सहायता मिलती है। आप अपनी बेटी पर गुस्सा हुए बिना धैर्य से पहले उसकी बातें सुनते हैं; उसको विश्वास में लेते हैं कि आप उसके निर्णय के विरूद्ध नहीं है। इससे वह आपकी बात भी सुनने के लिये तैयार हो जाएगी। फिर, आप उसे पहले उसकी पढ़ाई पूरी करने पर ही अपनी स्वीकृति देने की शर्त रखें, नाबालिक होने के कारण कानून द्वारा विवाह की मनाही होने की सूचना व सजा का डर दिखाने तथा पारिवारिक स्तर पर उस लड़के के परिजनों से स्वयं बात करने का प्रलोभन देकर उस स्थिति को संभाल सकते हैं। (ii) आप और आपकी पत्नी दोनों नौकरी करते हैं। आपकी पत्नी पर ऑफिस जाने से पहले और आने के बाद पूरे परिवार के लिये खाना बनाने की भी जिम्मेदारी है। आपकी पत्नी का कहना है कि वह अत्यधिक थकान के कारण ऐसा नहीं कर पाती हैं, इसीलिये एक रसोइया रख लेना चाहिये। तब इस बात पर आपके माता-पिता एतराज जताते हैं कि रसोइये का बनाया खाना हम नहीं खाएंगे, हमें तो बहु के हाथ का बनाया ही खाना है। ऐसी स्थिति में भावनात्मक बुद्धिमत्ता निम्न प्रकार से मदद कर सकती है- माता-पिता को विनम्रतापूर्वक समझाना कि आप स्वयं भी ऑफिस से आते हुए अत्यधिक थकान महसूस करते हैं, तो आपकी पत्नी को भी थकान होती ही होगी। अतः उसका रसोइया रखने के लिये कहना अतार्किक नहीं है। फिर, पत्नी को समझाना कि माता-पिता की सेवा व आज्ञा का पालन करना हमारा कर्त्तव्य व उत्तरदायित्व है, अतः उनकी पसंद-नापसंद पर तीव्र प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिये अपितु उनकी बात को उनके दृष्टिकोण से समझना चाहिये। तत्पश्चात् एक रसोइये को खाना बनाने के लिये रखा जाये, जो माता-पिता को छोड़ कर अन्य सभी परिवार के सदस्यों का खाना बनाये व माता-पिता का खाना बनाने में आपकी पत्नी की मदद करे। इस प्रकार भावनात्मक प्रज्ञता से पारिवारिक रिश्तों की नाजुक डोर को सहजता से संभाल कर मजबूत किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]वतर्मान में शासन-व्यवस्था में प्रायः नैतिक मूल्यों का अभाव देखा जाता है। आपके विचार से शासन-व्यवस्था में नैतिक-मूल्यों का सुदृढ़ीकरण कैसे संभव है?[/INST]उत्तर : वर्तमान में शासन-व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार, लोक-सेवकों की वंचितों के प्रति संवेदनहीनता, अकर्मण्यता तथा नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएँ इस क्षेत्र में नैतिक-मूल्यों के अभाव की ओर संकेत करती हैं। जबकि यह तथ्य है कि एक नैतिक शासन-व्यवस्था (Ethical governance) ही अच्छी शासन-व्यवस्था (Good governance) साबित होती है। अतः यह आवश्यक है कि ऐसे प्रयास या प्रतिमान सुनिश्चित किये जायें जिससे शासन-व्यवस्था में नैतिक मूल्यों की सुदृढ़ स्थापना हो सके। यथा- निर्वाचन या चयन की प्रक्रिया के दौरान उचित एवं नैतिक चुनाव पद्धतियों, गतिविधियों को बढ़ावा। विधि के शासन अथवा संविधान की मूल भावना के अनुसार कार्य करना। अधिकारियों की चयन परीक्षा में उम्मीदवार के मनोवैज्ञानिक परीक्षण पर विशेष बल दिया जाना। ऐसे अनिवार्य प्रशिक्षण का प्रावधान हो जिसमें संविधान के मूल आधार, प्रतिनिधियों के अधिकार तथा कर्त्तव्य और देशभर में शासन एवं प्रशासन का पूरा ढाँचा और उसमें उनकी भूमिका के पहलुओं की जानकारी हो। नैतिक संहिता तथा आचरण संहिता की स्पष्ट जानकारी प्रदान करना। प्रशिक्षण के दौरान सिविल सवकों के लिये ग्रामीण समाज और सामाजिक समस्याओं का सीधा अनुभव देने के लिये क्षेत्र प्रशिक्षण की व्यवस्था करना। वंचित वर्गों के प्रति सहानुभूति विकसित करने के लिये विशेष प्रशिक्षण। कार्य संस्कृति के स्तर पर नैतिक मूल्यों को महत्त्व प्रदान करना। सक्रिय सिविल सोसाइटी शासकीय अधिकारियों की निगरानी कर सकती है। यदि नागरिक अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों तो भ्रष्टाचार के अवसर स्वाभाविक रूप से कम हो इन प्रयासों से निश्चित तौर पर शासन-व्यवस्था में नैतिक मूल्यों के समावेश की संभावना बढ़ेगी, लोक सेवकों में संवेदनशीलता का विकास होगा तथा एक नैतिक, व्यवस्थित व जन-कल्याणकारी शासन-व्यवस्था की स्थापना होगी। </s>
<s>[INST]‘नैतिक दुविधा’ से आपका क्या तात्पर्य है? नैतिक दुविधा की स्थिति उत्पन्न होने पर आपका नैतिक तौर पर मजबूत निर्णय किन आधारों पर अवलम्बित होगा?[/INST]उत्तर : ‘नैतिक दुविधा’ ऐसी परिस्थिति होती है जिसमें निर्णयन में दो या अधिक नैतिक सिद्धांतों में टकराव होता है। इन परिस्थितियों में निर्णयकर्त्ता अपने आप को एक ‘दुविधा’ में पाता है क्योंकि उसे दो नैतिक मानदण्डों में से एक को चुनना होता है, जबकि दोनों बराबर की स्थिति के हैं तथा किसी भी एक को चुन लेने से पूर्ण संतुष्टि मिलना संभव नहीं होता। जैसेः आप एक भ्रष्ट कर्मचारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करें कि नहीं, क्योंकि वह गरीब है तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों को उठाने वाला अकेला सदस्य है; उस पर कार्रवाई से उसके परिवार पर बुरा असर पड़ेगा। नैतिक तौर पर मजबूत निर्णय प्राप्त करने के लिये निम्नलिखित स्रोतों को आधार बनाना चाहियेः (i) प्रथम आधार ‘कानून’ को बनाना चाहिये। प्रस्तुत स्थिति में कानूनी तौर पर क्या उचित है? (ii) दार्शनिक सिद्धांतों व सांस्कृतिक परम्पराओं के आलोक में परिस्थिति को देखा जाना चाहिये। (iii) पूर्व में ऐसे स्थिति उत्पन्न होने पर वरिष्ठों या विशेषज्ञों ने क्या किया और क्या सलाह दी, उस पर अमल करना चाहिये। (iv) अंततः स्वयं के विवेक का प्रयोग। जब कोई स्रोत भी निर्णय लेने में सहायक न हो तब स्वयं से पूछना- ‘इस नैतिक दुविधा को सही ढंग से सुलझाने के लिये मुझे क्या करना चाहिये।’ इस प्रकार, हमें विभिन्न स्रोतों से निर्णय लेने में सहायता मिल जाती है और हमारा निर्णय अपेक्षाकृत नैतिक तौर पर अधिक मजबूत हो जाता है।</s>
<s>[INST]‘आत्म-संयम’ न केवल व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन को सुखप्रद बनाता है अपितु सामाजिक-व्यवस्था को भी संतुलित बनाए रखने में सहायक होता है।’ विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : आत्म-संयम एक ऐसा सद्गुण है जो व्यक्ति की विभिन्न प्रकार की मानवीय लालसाओं, जैसे-खाने, पीने व काम-क्रिया आदि, पर कारण के औचित्य को लागू करता है। आत्म-संयम ही व्यक्ति का आत्म नियंत्रण बढ़ाता है तथा उसके तीव्र मनोवेगों- क्रोध, द्वेष आदि को नियंत्रित करता है। व्यक्ति की यह प्रकृति होती है कि जो चीज उसे सुख व खुशी देती है, वह उसे ही ज्यादा अपना लेते हैं। आत्म-संयम व्यक्ति को इसी ‘अति’ से बचाता है। किसी वस्तु या स्थिति को लेकर विभिन्न लोगों में आत्म संयम की भिन्नता भी पाई जाती है। जैसे- अपनी आलोचना पर प्रतिक्रिया न देने में जितना आत्म संयम एक राजनेता में होता है, उतना आम नागरिक में नहीं होता है। व्यक्तिगत जीवन में ‘आत्म संयम’ के लाभः (i) व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है। वह खाने-पीने की आदतों पर नियंत्रण रख पाता है। (ii) गृहस्थ जीवन भी सुखमय रहता है क्योंकि वह संबंधों के प्रति संयमित रहता है। (iii) आत्म -संयम व्यक्ति की इच्छाओं को नियंत्रित करता है, जिससे वह अतिरिक्त सुविधाओं के लिये भाग-दौड़ करने में भी नहीं लगा रहता। सामाजिक-व्यवस्था के संतुलन में ‘आत्म-संयम’ सहायक कैसे? (i) आत्म-संयमित व्यक्ति दूसरों के मामलों में दखलांदाजी नहीं करता और न ही दूसरों का हक छीनने की कोशिस करता है। फलतः समाज में शांति व भाईचारे को बढ़ावा मिलता है। (ii) आत्म-संयमित व्यक्ति प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग नहीं करता और न ही लोक-सुविधाओं का गलत प्रयोग करता है। इससे सामाजिक-व्यवस्था संतुलित रहती है। (iii) एक आत्म-संयमित व्यक्ति अनावश्यक खरीद या आर्थिक संसाधनों का अतिशय प्रयोग नहीं करता, इससे बाजार का समीकरण संतुलित रहता है। (iv) एक आत्म-संयमित व्यक्ति शीघ्रता से उत्तेजित होकर निर्णय नहीं लेता। वह सोच समझकर मतदान करता है और सही उम्मीदवार को अपना प्रतिनिधि चुनता है, जिससे लोक-व्यवस्था सुदृढ़ होती है। अतः आत्म-संयम का सद्गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व को गांभीर्य प्रदान कर उसके जीवन को सुखप्रद बनाता है तथा सामाजिक व्यवस्था में भी संतुलन को बनाये रखता है।</s>
<s>[INST]आप राजस्थान के एक ऐसे जिले में जिलाधिकारी के तौर पर नियुक्त हुए हैं, जिस जिले की कुछ पिछड़ी जातियों में बाल-विवाह की प्रथा प्रचलन में है। इस प्रथा का इतिहास बहुत पुराना है तथा यह प्रथा उन जातियों की संस्कृति का एक हिस्सा बनी हुई है। आप किस रणनीति द्वारा उन जातियों को यह गलत प्रथा बंद करने के लिये प्रेरित व प्रोत्साहित करोगे?[/INST]उत्तर : निश्चित तौर पर बाल-विवाह एक गलत प्रथा है क्योंकि इस प्रथा के अनेक दुष्परिणाम बहुत जल्द ही सामने आ जाते हैं, जैसे- लड़का और लड़की दोनों का बचपन छीन जाता है। वे अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाते, जिसके कारण अच्छे रोजगार के अभाव में उनका जीवन सदैव गरीबी में ही गुजरता है। लड़की उचित शारीरिक विकास होने से पूर्व जब माँ बनती है तो उसके स्वास्थ्य व जीवन को खतरा उत्पन्न हो जाता है। अतः इस प्रथा के प्रचलन को रोकना बहुत आवश्यक है। एक जिलाधिकारी के तौर पर में निम्नलिखित उपाय करता- (i) लोगों तक संदेश पहुँचाता कि आधुनिक समय में बाल-विवाह करना न केवल कानूनन जुर्म है बल्कि बच्चों के साथ घोर अन्याय भी है। (ii) विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों व सामाजिक कार्यकर्त्ताओं की सहायता से अपने संदेश को हर परिवार तक पहुँचाता। (iii) सभी विद्यालयों में निर्देश जारी करता कि बच्चों को बाल-विवाह के संबंध में उचित शिक्षा दी जाए ताकि भविष्य में तो बच्चे जागरूक रहें ही, वर्तमान में भी अपने परिवार में इस प्रथा के प्रति प्रतिरोध कर सकें। (iv) उन जातियों के प्रतिनिधियों/सम्मानित लोगों के साथ वार्त्तालाप करता तथा उन्हें समझाता कि किस प्रकार बाल-विवाह एक बुराई है और इसे क्यों बंद किया जाना चाहिये। (v) जिले में जगह-जगह नुक्कड़, नाटक, साँग व पोस्टरों द्वारा बाल-विवाह के विरूद्ध संदेश का प्रसार करवाता ताकि पिछड़ी जातियों में जागरूकता आती। (vi) पढ़ने की इच्छुक लड़कियों के लिये विशेष प्रोत्साहन कार्यक्रम चलाता, जिससे वे पढ़ाई में आगे बढ़ने के लिये प्रेरित होती और बाल-विवाह का विरोध भी करती। (vii) जो भी परिवार समझाने व प्रोत्साहन के बावजूद जबरदस्ती बाल-विवाह कराने की कोशिश करते, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करता।</s>
<s>[INST]वर्तमान में समाज के विभिन्न हित समूहों द्वारा किये जा रहे कथित ‘सत्याग्रह’ और गांधी जी के ‘सत्याग्रह’ में विभेद स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ होता है- सत्य के लिये आग्रह अर्थात् सत्य को पकड़े रहना। गांधी जी का सत्याग्रह सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था। उनके अनुसार एक सत्याग्रही सदैव सच्चा, अहिंसक व निडर रहता है। उसमें बुराई के विरूद्ध संघर्ष करते समय सभी प्रकार की यातनाओं को सहने की शक्ति होनी चाहिये। ये यातनायें सत्य के प्रति उसकी आसक्ति का ही एक हिस्सा होती हैं। एक सच्चा सत्याग्रही बुराई के विरूद्ध संघर्ष करते हुए भी बुराई फैलाने वाले से घृणा नहीं करता बल्कि अनुराग रखता है। वह कभी भी बुराई के सामने नहीं झुकता, चाहे परिणाम जो भी हो। गांधी जी अनुसार केवल बहादुर और दृढ़-निश्चयी व्यक्ति ही सच्चा सत्याग्रही बन सकता है। कायर व्यक्ति हिंसा का सहारा लेता है जिसका सत्याग्रह में कोई स्थान नहीं है। वर्तमान में हम समाज के विभिन्न हित समूहों को अपनी मांगों के लिये आंदोलन करते देखते हैं। वे अपने आंदोलन की शुरूआत भी गांधी को याद करते हैं तथा आंदोलन का प्रचार भी ‘अपने अधिकारों हेतु सत्याग्रह’ के तौर पर करते हैं। परंतु, कुछ समय बाद ही उनके आंदोलन हिंसक हो उठते हैं। आम जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर देना, सरकारी संपत्तियों को नष्ट करना, रेल की पटरियाँ उखाड़ना, बसे, ट्रक, पुलिस वाहन आदि को आग लगा देना तथा सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी करना उनके आंदोलन का हिस्सा बन जाता है। जब सरकार बल-प्रयोग कर कानून और व्यवस्था कायम करने की कोशिश करती है, तो आंदोलकर्त्ता ज्यादा हिंसक हो जाते हैं। निःसंदेह सत्याग्रह का यह तरीका गांधी जी के सत्याग्रह की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है। गांधी जी ‘सविनय’ अवज्ञा की बात करते हैं और वह भी पूर्णतः अहिंसक तरीके से। यदि ‘सत्याग्रही’ हिंसा का सहारा लेगा तो उसमें और ‘विद्रोही’ में अंतर ही कहाँ रह जाएगा। दूसरा, लोकतंत्र में संवैधानिक तरीके से अपने अधिकारों व जायज मांगों को मनवाया जाता है; हिंसक आंदोलनों द्वारा दबाव बनाकर सरकारों से अपनी मांगे मनवाने का तरीका भविष्य में लोकतंत्र के लिये ही संकट उत्पन्न कर देगा।</s>
<s>[INST]आप दिल्ली मेट्रो के सबसे ज्यादा व्यस्त स्टेशन के प्लेटफार्म पर अपने कार्यालय जाने के लिये मेट्रो में चढ़ने के लिये तेजी से चलने लगते हैं, तभी किसी भी टाँगों में उलझने के कारण गिर जाते हैं और आपकी ड्रेस खराब हो जाती है। वह आदमी आपका परिचित नहीं है। आप जब उससे लड़ने को तैयार होते हैं तो वह हाथ जोड़कर क्षमा मांगता है और कहता है कि यह सब अनजाने में हुआ है, उसने जानबूझकर टाँग नहीं अड़ाई थी। आपको ऑफिस के लिये देरी हो रही है। ऐसी स्थिति में इस मुद्दे के समाधान के लिये आपके सामने करने के लिये कौन-कौन से विकल्प मौजूद हैं और आप कौन-सा विकल्प चुनेंगे?[/INST]उत्तर : इस परिस्थिति में मेरे समक्ष निम्नलिखित विकल्प उपस्थित हैं- (i) उस व्यक्ति को भी धक्का मारकर गिरा दूँ। (ii) जल्दी से मैट्रो पकड़कर कार्यालय की ओर निकल लूँ। (iii) उसे क्षमा कर दूँ। (iv) उसकी सीआईएसएफ में औपचारिक शिकायत करूँ। इनमें प्रथम विकल्प बेवकूफी भरा और अनैतिक है। उस व्यक्ति ने जानबूझकर टाँग नहीं अड़ाई थी। गांधी जी ने कहा है कि यदि ‘आँख के बदले आँख’ की नीति पर दुनिया चलेगी तो पूरी दुनिया नेत्रहीन हो जाएगी। कन्फ्यूशियस ने भी कहा है, "जब आप बदला लेने के लिये जाने लगें, तो दो कब्र खोद कर जाइए।" अतः मैं कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं दूँगा। दूसरे विकल्प से मेरे नैतिक रूझान का पता नहीं चल पाएगा तथा चौथे विकल्प में वक्त और ऊर्जा की बर्बादी ही होगी क्योंकि वह व्यक्ति पहले ही क्षमा मांग चुका है और उसने ऐसा कोई गंभीर अपराध भी नहीं किया है। अतः मैं तीसरे विकल्प की चुनूगाँ और उस व्यक्ति को क्षमा कर दूगाँ। क्षमाशीलता से ही हम दुर्भावनाओं का घृणित बोझ लादे बिना जीवन में आगे बढ़ सकते हैं।</s>
<s>[INST]भारत जैसी लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में किसी जाति/समुदाय या किसी वर्ग-विशेष द्वारा अपनी मांगों/अधिकारों के लिये हिंसक विरोध प्रदर्शन कहाँ तक जायज़ है? इस संबंध में अपना मत भी स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : एक लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली में जनता चुनावों के माध्यम से अपने प्रतिनिधि को चुनकर संसद भेजती है, जहाँ वह कानून का निर्माण करता है। भारत का संविधान भी जन-प्रतिनिधियों ने ही तैयार किया था तथा उसमें सभी समुदायों व वर्गों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिये यथासंभव प्रावधान किये गए। भारत का सर्वोच्च न्यायालय सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है तथा संविधान का संरक्षक भी है। अतः किसी समुदाय विशेष/वर्ग विशेष को उसके अधिकारों से वंचित करना या उनका दमन करना संविधान की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है। फिर भी बदलते परिदृश्य में आवश्यकताएँ भी बदल जाती हैं। कई बार सरकार किसी वर्ग विशेष या समुदाय की अहम जरूरतों या वंचना को नहीं समझ पाती या कई बार जब सरकार के कुछ निर्णय समाज के एक हिस्से के लिये विभेदकारी हों, तब लोगों को अपना विरोध लोकतांत्रिक तरीके से करने का पूरा अधिकार है। लोग शांतिपूर्वक धरना दें, सामूहिक या व्यक्तिगत उपवास रखें, सत्याग्रही बने, अपने जनप्रतिनिधि द्वारा संसद में अपनी बात/पक्ष रखें या फिर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका डालें; ये सब लोकतंत्र में विरोध/असहमति जताने के मार्ग हैं। विरोध जताने का सबसे अहम तरीका तो आम चुनाव हैं। यदि जनता को लगता है कि कोई सरकार जन-विरोधी निर्णय लेती है या उनकी मांगों को नहीं सुनती तो चुनावों में सही उम्मीदवारों को चुनकर संसद भेजे। परंतु लोकतंत्र में हिंसक विरोध प्रदर्शन किसी लिहाज से भी जायज़ नहीं है। देश में अराजकता को फैलने से रोकने तथा कानून व्यवस्था कायम रखने के लिये राज्य को हिंसक प्रदर्शन को बलपूर्वक नियंत्रित करना पड़ता है, जिससे अंततः जनता तथा मूलरूप से लोकतंत्र की आत्मा का ही दमन होता है। स्मरण रहे, गांधी जी ने भी चौरी-चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन को वापस इसी तर्क के आधार पर लिया था कि हिंसक विरोध प्रदर्शन अस्थायी होते हैं तथा राज्य को बल प्रयोग करने का अवसर देते हैं।</s>
<s>[INST]आप एक राज्य के पुलिस प्रमुख (डी.जी.पी.) है। आपके राज्य के किसान अपनी कुछ मांगों को लेकर राज्यभर में अहिंसक प्रदर्शन कर रहे हैं। सरकार किसानों की मांगों के संबंध में कोई ठोस निर्णय नहीं ले पा रही है। इसी कारण कुछ दिनों के अहिंसक प्रदर्शन के बाद राज्य के एक जिले में आंदोलनकारी उग्र हो जाते हैं और सुरक्षाबलों की एक टीम को चारों तरफ से घेर कर पत्थरबाज़ी करने लगते हैं। सुरक्षाबल अपने बचाव में ‘फायरिंग’ कर देते हैं, जिसमें छह किसान मारे जाते हैं तथा कई किसान घायल हो जाते हैं। किसानों की मौत के बाद आंदोलन और अधिक उग्र हो जाता है तथा लोग बसों, ट्रकों, पुलिस की गाड़ियों, सार्वजनिक संपत्तियों एवं एक पुलिस चौकी को आग के हवाले कर देते हैं। जब जिले के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक लोगों को समझाने जाते हैं तो लोग गुस्से में उनके साथ मारपीट करते हैं। यह मुद्दा राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो जाता है तथा राज्य व केंद्र सरकार आपको स्थिति को तुरन्त नियंत्रित करने का आदेश देती है। ऐसी स्थिति में आप कौन-से कदम उठाएंगे जिससे आंदोलन भी शांत हो जाए तथा लोगों में प्रशासन को लेकर विश्वास बहाली भी हो जाए?[/INST]उत्तर : यहाँ गौर करने की बात यह है कि आंदोलन शुरुआत से ही किसानों की मांगों को लेकर था, जिस पर सरकार की असमञ्जस्ता ने किसानों के संयम को तोड़ा और वे हिंसक गतिविधियाँ करने लगे। किंतु, पुलिस पर तत्थरबाजी करने और प्रत्युत्तर में गोलीबारी में छह किसानों की मौत ने स्थिति को ज्यादा उग्र तथा पेचिदा बना दिया है तथा अब यह आंदोलन थोड़ा पुलिस विरोधी भी हो गया है। राज्य के पुलिस प्रमुख होने के नाते इन परिस्थितियों में मैं निम्नलिखित कदम उठाता- (i) सबसे पहले उस जिले के पुलिस अधीक्षक का किसी दूसरे जिले में तबादला कर, किसी अच्छी छवि वाले अनुभवी पुलिस अधीक्षक की उस जिले में प्रतिनियुक्ति करता क्योंकि पुलिस की फायरिंग से लोग आक्रोशित हैं और वे पुलिस की कार्रवाई के खिलाफ सख्त कदम उठाने की अपेक्षा करते हैं। (ii) जिले में निधेषात्मक आदेश लागू कर अन्य जिलों से अतिरिक्त पुलिस बलों को उस जिले में व्यवस्था कायम रखने में लगवाता। साथ ही, नए पुलिस अधीक्षक को निर्देश देता कि जिले के असामाजिक तत्त्वों को निगरानी में ले। (iii) इंटरनेट व मोबाइल सेवाएँ कुछ समय के लिये बंद करा देता और रेडियों, टेलीविजन, प्रिंट मीडिया के जरिये जिले के सभी लोगों को शांति बनाए रखने की अपील करता तथा जिले में शांति भंग करने की कोशिश करने वालों को चेतावनी भी देता। साथ ही, मेडिकल, फायरब्रिगेड जैसी आपातकालीन सेवाओं की 24 × 7 उपलब्धता सुनिश्चित करता। (iii) सभी किसान नेताओं के साथ बातचीत करता एवं उन्हें विश्वास दिलाता कि उनके व पुलिस के हितों में कोई टकराव नहीं है तथा यदि कोई पुलिसवाला दोषी पाया जाता है तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई करेंगे। (v) जिले में आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति बहाल करने के लिये कर्फ्यू में थोड़े-थोड़े समय के लिये ढ़ील देता। (vi) एक बार शांति बहाली होने के पश्चात पुलिस को भी अधिक 'People friendly' बनाए जाने के बारे में दिशा-निर्देश देता व समय-समय पर ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रमों के आयोजन किये जाने का प्रबंध सुनिश्चित करता ताकि भविष्य में लोगों व पुलिस के मध्य विश्वास कायम हो सके। (vii) स्थानीय सांसद, विधायक या राज्य के मुख्यमंत्री के साथ पीड़ित परिवारों से भी मिलता तथा सरकार द्वारा घोषित सहायता को यथासंभव अतिशीघ्र उन्हें दिलाने का प्रयत्न करता। इस प्रकार, मेरी पूरी कोशिश कानून व व्यवस्था को बनाये रखने, किसी अप्रिय घटना को होने से रोकने तथा लोगों की पुलिस के साथ फिर से आपसी विश्वास बहाली की रहेगी।</s>
<s>[INST]जैन-दर्शन के पाँचों नैतिक सिद्धान्तों की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : जैन धर्म में निम्नलिखित पाँच नैतिक सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है- किसी भी जीव के साथ हिंसा न करना (अहिंसा)। सदैव सत्य बोलना। चोरी न करना। व्यभिचार से दूर रहना। भौतिक धन-संपत्ति के लिये लालच न करना (अपरिग्रह)। इन पाँचों नैतिक सिद्धान्तों का पालन गृहस्थ और मुनियों दोनों को करना चाहिये परन्तु मुनियों के लिये नियम ज्यादा कठोर होते है। जैन-दर्शन में स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी जीव को शारीरिक या मानसिक पीड़ा पहुँचाना हिंसा है, जिसे पूरी तरह त्याग देना चाहिये। प्रकृति में सभी जीवों का जीवन समान महत्त्व का है। सत्य के संबंध में भी जैन-दर्शन का दृष्टिकोण सीधा और स्पष्ट है। व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में सत्य से विचलित नहीं होना चाहिये। हालाँकि जैन-दर्शन ‘स्याद्वाद’ के माध्यम से दूसरे के विचारों की सत्यता में विश्वास के लिये उदारता अपनाने का भी रास्ता दिखाता है। जैन-दर्शन में चोरी को जघन्य पाप माना है तथा इसके किसी भी तरीके को अपनाना वर्जित समझा गया है। इस दर्शन में यह आदेश भी है कि विवाहित पुरूषों को स्त्रियों पर लोलुप दृष्टि नहीं डालनी चाहिये। उसे उनके साथ आदरपूर्वक व्यवहार करना चाहिये। ब्रह्मचर्य का यह नियम सभी पुरूषों पर लागू होता है। जैन-दर्शन मनुष्य को अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण की शिक्षा भी देता है। मनुष्य को लालची नहीं होना चाहिये तथा धन-संपत्ति के लिये असाधारण प्रेम नहीं पालना चाहिये। अपनी आवश्यकतों को नियंत्रित रख एक सादा व संतोषी जीवन जीना चाहिये। इस प्रकार हम पाते हैं कि जैन-दर्शन के पाँचों नैतिक सिद्धांत ने केवल व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन को सँवारते हैं बल्कि समाज में आपसी भाईचारा, अहिंसा, सत्य की उपस्थिति व सद्चरित्रता को भी प्रोत्साहित करते हैं।</s>
<s>[INST]नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में सांस्कृतिक सापेक्षतावाद से आपका क्या तात्पर्य है? विशिष्ट उदाहरणों के साथ सांस्कृतिक सापेक्षतावाद से उत्पन्न समस्याओं का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : विभिन्न संस्कृतियों में कई प्रकार की परम्पराएं, प्रथाएँ और सामाजिक नियम होते हैं, जिनको नैतिक धरातल पर उचित ठहराया जाता है। परन्तु, नैतिकता के ऐसे निश्चित मानक तय करना संभव नहीं होता जो सभी संस्कृतियों के मूल्यांकन के लिये एक सामान आधार प्रस्तुत कर सके। प्रत्येक संस्कृति की नैतिकता की परिभाषा उसके उद्देश्यों, परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप तय होती है। जैसे- ‘एस्किमो’ जनजाति बर्फीले क्षेत्र में रहती है, वहाँ वनस्पतियों का अभाव होता है, इसलिये इस जनजाति के लोगों में मांसाहार करना नैतिक समझा जाता है, जबकि जैन समुदाय में मांस भक्षण को घोर अनैतिक कृत्य माना जाता है। अतः प्रत्येक संस्कृति के अपने ‘नैतिक सत्य’ हैं, जो दूसरी संस्कृति के नैतिक सत्यों से भिन्न भी हो सकते हैं। यही सांस्कृतिक सापेक्षतावाद है, जो निर्दिष्ट करता है कि समाज में नैतिक सत्य हो सकते हैं किन्तु वे उसी संस्कृति से सापेक्ष हैं और उसी के लिये वैध हैं। सांस्कृतिक सापेक्षतावाद से उत्पन्न होने वाली समस्याएंः अलग-अलग संस्कृतियों में सामाजिक नियमों व नैतिक नियमों की विविधता होना स्वाभाविक होता है। यदि यह विविधता हानिरहित हो, तो उस विविधता को स्वीकारने या प्रोत्साहित करने में संकोच नहीं होता। जैसे- पश्चिमी समाज में भारतीय समाज की तरह परिवार के छोटे सदस्य बड़े सदस्यों के पैर नहीं छूते बल्कि प्रायः हाथ मिलाते हैं। परन्तु, इस विविधता को स्वीकारने में कोई हानि नहीं है। लेकिन, किसी संस्कृति के कुछ रिवाज़ और मूल्य-प्रणाली किसी दूसरी संस्कृति के लिये हानिकारक भी हो सकते हैं। जैसे- नाजी समुदाय द्वारा यहूदी समुदाय को मार डालने की अपनी प्रवृत्ति को सामाजिक स्वीकार्यता एवं कानून के समर्थन द्वारा उचित ठहराया गया। जबकि नैतिकता के धरातल पर यह अनैतिक कृत्य है। वैसे भी, किसी विशिष्ट संस्कृति के भीतर विभिन्नताओं को सुलझाने का कोई भी मार्ग आसान नहीं होता। इस दृष्टिकोण से सांस्कृतिक सापेक्षतावाद दोषपूर्ण बन जाता है।</s>
<s>[INST]आप एक जिले में जिला शिक्षा अधिकारी (डीईओ) के पद पर नियुक्त हैं। आप जिले के सरकारी प्राइमरी स्कूलों में शिक्षा का स्तर जाँचने के लिये एक ‘विद्यार्थी गुणवत्ता संवर्धन टीम’ गठित करती हैं, जिसका कार्य प्राइमरी स्कूलों में औचक निरीक्षक कर वहाँ शिक्षा के स्तर के संबंध में आपको रिपोर्ट देना है। ‘टीम’ के सदस्य जब एक प्राइमरी स्कूल में जाते हैं तो उन्हें वहाँ एक अध्यापक नशे की हालत में मिलता है। बच्चों से पूछताछ करने पर पता चलता है कि वह अध्यापक अक्सर शराब के नशे में ही स्कूल आता है। कक्षा प्रथम से पाँचवी तक के उस स्कूल में कुल 12 विद्यार्थी और 2 अध्यापक ही हैं। सबसे नज़दीक दूसरा प्राइमरी स्कूल वहाँ से 6 कि.मी. दूर है। बच्चों की शिक्षा का स्तर भी शून्य पाया जाता है तथा उन्हें विषय से संबंधित या उससे इतर किसी भी प्रकार की एक्टिविटी भी नहीं सिखाई जाती हैं। ‘टीम’ के सदस्य जब नशे में धुत उस अध्यापक से उस विषय में बात करते हैं तो वह कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाता। ‘टीम’ जब उस अध्यापक का ‘मेडिकल’ कराने की बात करती है तो वह उन सबको चकमा देकर स्कूल से भाग जाता है। विद्यार्थी गुणवत्ता संवर्धन टीम इस पूरे प्रकरण के संबंध में आपको सूचित करती है। इस केस स्टडी में कौन-कौन से नैतिक मुद्दे निहित हैं? एक डीईओ के तौर पर आप क्या कदम उठाएंगे?[/INST]उत्तर : यह घटना वास्तव में बेहद स्तब्धकारी है। जिन अध्यापकों के कंधों पर देश/समाज के ‘नौनिहालों’ का भविष्य संवारने की अहम जिम्मेदारी होती है तथा जिनके आचरण व चरित्र का बच्चे अनुकरण करते हैं, यदि वे अध्यापक शराब के नशे में स्कूल आएँगे और अध्यापन में अरूचि दिखाएंगे, तब हो निश्चित तौर पर समस्या अति गंभीर मानी जाएगी। इस केस-स्टडी में निम्नलिखित नैतिक मुद्दे निहित हैं- अध्यापक में ‘व्यावसायिक नैतिकता’ का अभाव। सरकारी स्कूल में शिक्षा का गिरता स्तर तथा बच्चों की कम होती संख्या। बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून के प्रभावी क्रियान्वयन में असफलता। एक जिला शिक्षा अधिकारी के तौर पर मैं निम्नलिखित कदम उठाऊंगी- सबसे पहले उस शराब पीकर स्कूल आने वाले अध्यापक को निलंबित करूंती तथा उसकी जानकरी डी.सी. को दूंगी। साथ ही, उस स्कूल में तुरंत प्रभाव से किसी अन्य अध्यापक को प्रतिनियुक्ति पर भेजूंगी। जिले के सभी सरकारी स्कूलों में अध्यापकों के सही आचरण से संबंधित नियमों का एक सर्कूलर जारी करूंगी तथा निर्देश दूँगी कि जो अध्यापक नियमों का उल्लंघन करेगा, उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। सभी सरकारी स्कूलों में औचक निरीक्षण दौरों की संख्या बढ़ा दूँगी। बच्चों के परिजनों को जागरूक करने का एक अभियान चलाऊंगी ताकी परियजन भी बच्चे की शिक्षा के संबंध में सतर्क रहें तथा ग्राम पंचायतों के प्रतिनिधियों को भी सरकारी स्कूलों के प्रबंधन में भागीदारी के लिये प्रोत्साहित करूँगी। विभिन्न सरकारी स्कूलों तथा निजी स्कूलों के मध्य पाठ्यक्रम संबंधी प्रतियोगिताएँ जैसे- निबंध गोष्ठी, वाद-विवाद, क्वीज़ आदि का आयोजन कराऊंगी ताकी सरकारी स्कूल के अध्यापक व बच्चे प्रतिस्पर्धात्मक भावना में बेहतर प्रयास करें।</s>
<s>[INST]आप एक राज्य के पुलिस महानिदेशक हैं। आपके राज्य का एक बहुत महत्त्वपूर्ण ‘एक्सप्रेस वे’ कुछ महीनों से राष्ट्रीय स्तर पर लगातार चर्चा में हैं। दरअसल 300 किमी. लंबे इस एक्सप्रेस वे (जो राज्य के 6 जिलों से होकर गुजरता है) पर एक अपराधी गिरोह सक्रिय है, जो रात के समय वहाँ से गुजरने वाले वाहनों को अपना निशाना बनाता है। यह गिरोह न केवल वाहन में सवार लोगों के कीमती सामान को लूटता है बल्कि वाहन में सवार महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म जैसा घिनौना अपराध भी करता है। ऐसी कई घटनाएँ उस ‘एक्सप्रेस वे’ पर घटित हो चुकी हैं किंतु प्रशासन न तो उस गिरोह को पकड़ पाया है और न ही घटनाओं को रोक पा रहा है। इन घटनाओं से राज्य पुलिस की छवि राष्ट्रीय स्तर पर धूमिल हुई है। आप पर मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृह-मंत्रालय की ओर से इस समस्या के तुरन्त समाधान का अत्यधिक दबाव है। ऐसी परिस्थिति में आप किन उपायों द्वारा इन घटनाओं को रोकने और अपराधियों को पकड़ने का प्रयास करेंगे?[/INST]उत्तर : समाधानः यहाँ समस्यों के मूल में तीन स्थितियाँ उभर कर सामने आ रही हैं- (i) 300 कि.मी. लंबें ‘एक्सप्रेस वे’ पर (जो कि 6 जिलों से होकर गुजरता है) अपराधियों की सटीक अवस्थिति (Location) का अंदाजा लगाने में असफलता। (ii) घटना के दौरान पुलिस का समय पर घटनास्थल पर न पहुँच पाना। (iii) विभिन्न जिलों की पुलिस टीमों के मध्य समन्वय का अभाव। एक पुलिस महानिदेशक के तौर पर मैं इस परिस्थिति में निम्नलिखित उपाय करता- (i) सर्वप्रथम ‘एक्सप्रेस वे’ पर प्रत्येक तीस किलोमीटर की दूरी पर पुलिस पीसीआर की व्यवस्था करता, जो त्वरित कार्रवाई के लिये हमेशा तत्पर रहे। यह सुनिश्चित करता कि एक्सप्रेस वे पर उपस्थित पुलिस पीसीआर टीमों के लिये एक निश्चित हेल्पलाइन नम्बर तथा मोबाइल फोन ‘ट्रैशर’ की सुविधा 24×7 उपलब्ध रहे। (ii) यह सुनिश्चित करता कि पूरे ‘एक्सप्रेस वे’ के किसी भी सुनसान इलाके में मोबाइल नेटवर्क की अनुपस्थिति की समस्या न रहे। (iii) निर्देश जारी करता कि रात के समय जो भी वाहन ‘एक्सप्रेस वे’ से गुजरे, उसे टॉल प्लाजा पर ही एक ‘सावधानी पत्र’ दिया जाये जिसमें उसे आपात स्थिति में पुलिस से संपर्क स्थापित करने के तरीकों का उल्लेख हो तथा अपराधियों के अपराध करने के तौर-तरीकों का भी उल्लेख हो। (iv) सभी जिलों की उन पुलिस चौकियों, जो ‘एक्सप्रेस वे’ के साथ सटी हों, में सर्कुलर जारी करता कि ‘एक्सप्रेस वे’ से सटे सभी गाँवों में जिन लोगों के खेत एक्सप्रेस वे के 500 मी. की दूरी तक जुड़े हैं, उन लोगों की सूची बनाये तथा उन्हें हिदायत दे कि जब भी वे अपने खेतों या ‘एक्सप्रेस वे’ के आसपास अनजान या संदेहास्पद लोगों के समूह को देखें तो तुरन्त पुलिस को सूचना दें। सही सूचना देने वाले के लिये उचित प्रोत्साहन राशि का भी प्रबंध सुनिश्चित करता। (v) पुलिस को ‘रैपिड ट्रांजिट’ के लिये अच्छे वाहन उपलब्ध कराता। (vi) एक ‘ऐप’ भी तैयार करवाता जिसे जब एक्सप्रेस वे पर सफर करने वाले उपयोग करते रहते तब उनकी लोकेशन व बताई गई समस्या ‘कंट्रोल रूम’ को ‘रियल टाईम’ में पता चलती रहती। (vii) एक एस.आई.टी गठित करता जो उस अपराधी गिरोह को पकड़ने में पूरी ऊर्जा लगा दे। (viii) सभी छः जिलों के पुलिस अधीक्षकों के साथ एक ‘विशेष समूह’ बनाता ताकी उनमें आपसी समन्वय मजबूती से स्थापित हो सके।</s>
<s>[INST]यदि लोकतंत्र में किसी व्यक्ति को कोई कानून अपने व्यक्तिगत हितों के विरूद्ध प्रतीत हो रहा है तो आपके विचार से उसे क्या करना चाहिये? उदाहरण सहित स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : एक लोकतांत्रिक-प्रणाली में कानून के निर्माण के दौरान मुख्यतः निम्नलिखित बिंदुओं को ध्यान में रखा जाता है- उस कानून का पालन सभी के लिये संभव हो, किसी के लिये असंभव न हो। वह कानून बनाने की शक्ति रखने वाली संस्था द्वारा उचित प्रक्रिया के अनुसार बनाया जाए। वह सामान्य हित के पक्ष में होना चाहिये, किसी विशेष या वर्ग विरोध या समूह विशेष के हित में नहीं हो। वह जनता के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के विरूद्ध न हो और यदि हो तो उसे पारित करने से पहले समाज में व्यापक बहस की जाए। ऐसी स्थिति में यदि कभी किसी व्यक्ति को प्रतीत हो कि कोई कानून और उसके व्यक्तिगत हितों का विरोध है, तो उसे निम्नलिखित तर्कों पर ध्यान देना चाहिये- सर्वप्रथम उसे व्यक्तिगत हितों की परिभाषा ठीक करनी चाहिये क्योंकि संभव है इस संबंध में उसकी समझ गलत हो। जैसेः खाली सड़क पर खुद की कार को एक निर्धारित गति-सीमा से अधिक गति से न चलाने देने का कानून। लोकतंत्र में कानून जनता के प्रतिनिधि बनाते हैं, यानी अप्रत्यक्ष तौर पर वह स्वयं कानून निर्माता है। इतनी बड़ी जनसंख्या में जहाँ विभिन्न धर्म, नस्ल, वर्ग, क्षेत्र इत्यादि हों, कोई भी कानून सभी व्यक्तियों को साथ-साथ लाभ नहीं पहुँचा सकता, इसलिये कानून यदि व्यक्ति स्वयं भी बनाएगा तो उस पर भी सबकी सहमति नहीं होगी। कई ऐसे कानून भी हैं जिनसे उसे लाभ होता है परंतु औरों को नुकसान। जिस प्रकार बाकी लोग उन कानूनों को स्वीकार करके अपनी लोकतांत्रिक भूमिका निभाते हैं, वैसे ही मेरी भी जिम्मेदारी बनती है। यथा- जैन धर्मावलंबियों के 8 दिन तक चलने वाले पर्यूषण पर्व के दौरान कुछ राज्य सरकारें माँस की बिक्री पर रोक लगा देती हैं, परंतु अन्य धर्मों के माँस व्यापारी उसका कदाचित् ही विरोध करते हैं। निष्कर्षतः व्यक्ति को समझना चाहिये कि कानून का शासन अपने आप में सभ्य समाज की शर्त है, यदि वह इसे नहीं मानता है तो उसे कोई नैतिक हक नहीं कि वह दूसरों से यह अपेक्षा रखे कि वे सब कानून मानेंगे। यदि कानून का शासन खत्म होता है तो सबको नुकसान होता है।</s>
<s>[INST]स्वामी विवेकानन्द के चिंतन में दलितों, महिलाओं व गरीबों के उत्थान तथा ‘कर्म की प्रधानता’ का विचार विशेष रूप से उपस्थित रहा। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : स्वामी विवेकानन्द 19वीं सदी के भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली चिंतकों में से एक थे। वे वेदान्त के व्याख्याता तथा एक उच्च कोटि के आध्यात्मिक गुरु थे। उन्होंने हिंदू धर्म तथा अद्वैत वेदान्त की वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्याख्या करते हुए भारत में नवजागरण को दिशा प्रदान की। 1893 ई. में शिकागो में आयोजित ‘विश्व धर्म महासभा’ में उन्होंने हिंदू धर्म को सहिष्णु तथा सार्वभौमिक धर्म के रूप में प्रस्तुत किया। स्वामी विवेकानंद ने भारतीय समाज में दलितों एवं महिलाओं की दयनीय स्थिति की निन्दा की और समाज कल्याण के लिये इनका उत्थान आवश्यक बताया। उन्होंने इनके उत्थान के लिये शिक्षा को सबसे महत्त्वपूर्ण साधन माना। उनका मत था कि जिस राष्ट्र में महिलाओं का सम्मान नहीं होता, वह राष्ट्र और समाज कभी महान नहीं बन सकता। शिक्षा के माध्यम से ही स्त्री व दलितों को शक्तिशाली, भयविहीन तथा आत्म-सम्मान के साथ जीने के काबिल बनाया जा सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने दरिद्र (गरीब) में ही नारायण देखा (दरिद्र नारायण) और उसके कल्याण में ही ईश्वर की सेवा माना है। उस ‘दरिद्र नारायण’ की अवधारणा द्वारा उन्होंने मानवतावाद को धार्मिकता से जोड़ दिया। शिकागो में दिये गए अपने ऐतिहासिक भाषण में भी उन्होंने सार्वभौमिक भ्रातृभाव को सभी धर्मों का सार तत्त्व कहा था। स्वामी विवेकानन्द सदैव मनुष्य को कर्मशील बने रहने के लिये प्रेरित करते थे। उनका मत था कि प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्म पूरी शक्ति तथा एकाग्रता के साथ करना चाहिये। उनका एक प्रसिद्ध कथन है- ‘प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो, सभी मरेंगे साधु या असाधु, धनी या दरिद्र, चिरकाल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और तब तक रूको नहीं जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए’। इस प्रकार, यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यद्यपि स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के व्याख्याता एवं एक आध्यात्मिक गुरु थे परंतु उनके चिंतन में दलितों, महिलाओं व गरीबों के उत्थान तथा ‘कर्म की प्रधानता’ का विचार विशेष रूप से उपस्थित था।</s>
<s>[INST]गांधी जी का दर्शन अपने आप में संश्लेषण की प्रयोगशाला थी। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : गांधीवाद एक सनातन दर्शन (Perennial Philosophy) कहा जा सकता है क्योंकि उनके दर्शन की प्रमुख अवधारणाओं-अहिंसा, सत्याग्रह, सर्वोदय, सत्य और ईश्वर, साधन की पवित्रता इत्यादि की उपस्थिति दुनिया की सभी धार्मिक परंपराओं में पाई जाती है तथा इनकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहती है। गांधी जी के चिंतन का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि उनके चिंतन पर विभिन्न धर्मों, धर्म-ग्रंथों, विचारकों एवं दार्शनिकों का प्रभाव रहा है। गांधी जी ने श्रीमदभगवद्गीता से नैतिक और निरपेक्ष कर्मयोग की सीख ली। वे ‘गीता’ को माता कहते थे तथा गीता के श्लोकों को अपना मार्गदर्शक। गांधी जी अहिंसा को मनुष्य-मात्र का सर्वोच्च नैतिक कर्त्तव्य मानते थे। उन्होंने जैन व बौद्ध धर्म से यह अहिंसा का तत्त्व ग्रहण किया। गांधी जी ने अपने जीवनकाल में अनेक विचारकों एवं दार्शनिकों के लेखों एवं पुस्तकों को अध्ययन कर, उनके उपयोगी तत्त्वों का अपने दर्शन में समावेश किया। समाज-कल्याण की भावना, श्रम की महत्ता, साधारण जीवन पद्धति जैसे विचारों को उन्होंने ‘जॉन रस्किन’ से सीखा। हेनरी डेविड थॉरो के निबंध 'On Civil Disobedience' से उन्होंने ‘सत्याग्रह’ की तकनीक का विचार ग्रहण किया। गांधी जी टॉलस्टॉय की पुस्तक 'The Kingdom of God' से भी काफी प्रभावित थे। उन्होंने टॉलस्टॉय के अंहिसा संबंधी विचारों, शक्ति और शोषण पर आधारित आधुनिक समाज की निन्दा के सिद्धांत तथा साधन की शुद्धता के विचार का समर्थन किया। गांधी जी टॉलस्टॉय की विचारधारा से परिचित होने के पश्चात् सभी प्राणियों में ‘ईश्वर के वास’ के सिद्धांत पर ‘अन्तरात्मा की आवाज’ जैसे विचार को अपने दर्शन में समाहित कर पाये। गांधी जी ने जब उपयोगितावाद की ‘बहुसंख्यक’ विचारधारा तथा जॉन रस्किन की ‘अल्पसंख्यक’ की विचारधारा में अंतर्विरोध देखा तो उनको मिलाकर ‘सर्वोदय’ को अस्तित्व में ला दिया। इन सबके अलावा भी गांधी जी अद्वैतवेदान्त, लॉक, प्लेटो, कांट, रूसो एवं मैकियावेली के दर्शन से भी प्रभावित रहे। इसीलिये उनका दर्शन विभिन्न विचारों एवं दर्शनों का एक प्रभावी संश्लेषण बन पाया।</s>
<s>[INST]गीता के नैतिक दर्शन में उल्लेखित ‘निष्काम कर्मयोग’ का सिद्धांत सिविल सेवकों के लिये एक श्रेष्ठ मार्गदर्शक का कार्य कर सकता है। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : वेदों और उपनिषदों में जिन नैतिक और दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है, गीता उनमें समन्वय स्थापित करके उनका सारतत्त्व प्रस्तुत करती है। गीता में वर्णव्यवस्था, मानव जीवन के चार आश्रमों तथा पुरूषार्थों, कर्मवाद, पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता और ईश्वर की सत्ता को पूर्णरूपेण स्वीकार किया गया है परन्तु गीता में वर्णव्यवस्था को जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर स्वीकार किया गया है। श्री अरविन्द, गांधीजी तथा तिलक जैसे विचारकों का मत है कि गीता में ‘निष्काम कर्म’ को ही सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सभी परिस्थितियों में निष्काम कर्म करने की शिक्षा दी है। उनके अनुसार फलाकांक्षा का त्याग करके सफलता-असफलता को समान मानते हुए ही कर्म करना चाहिए। इस ‘निष्काम कर्मयोग’ के अनुसार आचरण करने के लिये यह बहुत आवश्यक है कि मनुष्य अपनी सभी इन्द्रियों को संयमित करे तथा अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण रखे। स्वानियंत्रण करने के पश्चात् मनुष्य फलासक्ति के बिना कर्म करे। वर्तमान में सिविल सेवाओं में तनाव का स्तर ऊँचा है क्योंकि कल्याणकारी राज्य की निरंतर बढ़ती अपेक्षाएँ, गठबंधन की राजनीति के कारण परस्पर विरोधी तथा कठिन दबाव, मीडिया एवं सिविल सोसाइटी की जागरूकता आदि सिविल सेवकों को चारों ओर से घेरे रखती हैं। इन जटिल परिस्थितियों में यदि सिविल सेवक स्वनियंत्रण रख निष्काम भाव से अपने कार्यों का संपादन कानूनों, नियमों, विनियमों एवं अंतरात्मा के निर्देशानुसार करता रहे तो न केवल उसे चौतरफा तनावों से मुक्ति मिलेगी बल्कि शांति, संतोष एवं परिणाम भी प्राप्त होंगे। एक सिविल सेवक द्वारा निजी हितों को त्यागकर, निष्पक्षतापूर्वक फैसले लेकर तथा सत्यनिष्ठा के साथ अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करना ही ‘निष्काम कर्मयोग’ है। अतः निःसंदेह गीता का निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत सिविल सेवकों के लिये एक श्रेष्ठ मार्गदर्शक का कार्य कर सकता है।</s>
<s>[INST]धर्म और नैतिकता मानव जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं तथा ये दोनों ही मानव व्यवहारों को नियंत्रित करते हैं। इन दोनों के अंतर्संबंध से इतर इनके मध्य के अंतरों का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : प्रायः यह माना जाता है कि धर्म और नैतिकता में अविच्छिन्न संबंध है। कुछ विचारकों के अनुसार धर्म से ही नैतिकता का जन्म होता है। धार्मिक नियम ही नैतिक नियम है। ईश्वर को धर्म का ‘आदर्श’ माना गया है तथा इसी ईश्वर की इच्छा पर शुभ-अशुभ, उचित और अनुचित, नैतिक और अनैतिक निर्भर हैं। वहीं, कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि नैतिकता से धर्म का आविर्भाव हुआ है। नैतिकता मनुष्य को नैतिक व्यवस्थापक के रूप में मानती है। यदि मनुष्य अनैतिक/अशुभ कार्य करता है तो उसे दण्ड देने के लिये ‘ईश्वर’ की संकल्पना की गई है। यदि व्यक्ति शुभ कर्म करता है तब उसे पुरस्कार भी ईश्वर ही देता है। ईश्वर में विश्वास धर्म पर ही आधारित है और इस प्रकार विचारकों के अनुसार धर्मशास्त्र का आधार नीतिशास्त्र बन जाता है। नैतिकता एवं धर्म के मध्य का अंतरः नैतिकता मानव केन्द्रित तथा मानवीय प्रयत्नों में निहित है जबकि धर्म ईश्वर केन्द्रित होता है। नैतिकता से लौकिक मानवीय गतिविधियाँ जुड़ी हैं जबकि धर्म का संबंध अनिवार्यतः अतिप्राकृतिक सत्ता से जुड़ा है। नैतिक विचारों का उदय मनुष्य की पूर्णता के भाव से होता है जबकि धार्मिक भावना का उदय मनुष्य की अपूर्णता के भाव से होता है। धर्म में ‘पूर्ण’ तो सिर्फ ईश्वर को माना जाता है। नैतिकता में संकल्प की स्वतंत्रता अति आवश्यक है जबकि धर्म में आराध्य देव पर आश्रित होने का भाव प्रमुख है। नैतिकता का सर्वोच्च लक्ष्य ‘शुभत्व’ की प्राप्ति से है जबकि धर्म का संबंध सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम तीनों की प्राप्ति से है। नैतिकता एक गतिशील संकल्पना है, जो व्यक्ति, समाज एवं परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग हो सकती है जबकि धर्म की संकल्पनाओं में प्रायः स्थिरता रहती है जिसके कारण कभी-कभी उसके अनुयायी कट्टर भी हो जाते हैं। इन अंतरों के बावजूद धर्म और नैतिकता एक दूसरे से गहरे से जुड़े हैं तथा मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। इन दोनों को एक-दूसरे का ‘पूरक’ यदि नहीं भी कहा जाये तो सहचारी जरूर कहा जा सकता है।</s>
<s>[INST]एक लोकसेवक में उत्तरदायित्व की भावना का उपस्थित होना अपरिहार्य माना जाता है परंतु अनेक कारक ऐसे हैं जो उत्तरदायित्व के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं। उन अवरोधकों को दूर कर लोकसेवाओं में उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के उपायों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : ‘उत्तरदायित्व’ से तात्पर्य है- जिस व्यक्ति के पास कोई विवेकाधीन शक्ति है, उस पर बाध्यता होना कि वह अपने विवेक से किये गए कृत्यों की संतोषप्रद व्याख्या कर सके अन्यथा उसे उन कृत्यों के लिये दण्ड दिया जा सकता है। यथा- कितना धन किस मद में खर्च किया गया और क्यों? किसी विशेष स्थिति में कौन-सा निर्णय लिया गया और क्यों? इत्यादि की संतोषप्रद व्याख्या करने की बाध्यता। इस ‘संतोषप्रद व्याख्या’ में निम्नलिखित गुण होने चाहियें- तार्किकता। यह दिखे कि अपनी तरफ से सर्वश्रेष्ठ कदम उठाया गया था। यह दिखे कि कोई तथ्य जान-बूझकर छिपाया नहीं गया है या भेदभाव नहीं किया गया है। निर्णय संविधान और कानूनों से सुसंगत प्रतीत होता है। निर्णय नैतिक संहिता तथा आचरण संहिता को की कसौटियों पर भी खरा उतरता है। उत्तरदायित्व के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने वाले कारकः भ्रष्टाचार, अपारदर्शिता, गैर-जवाबदेही तथा नियमों, कानूनों, क्रियाविधियों की जटिलता। उत्तरदायित्व को निभाने के लिये आवश्यक नैतिक मूल्यों का विकसित न होना। राजनीतिक हस्तक्षेप तथा प्रशासन पर बढ़ता राजनीतिक दबाव। लोकसेवाओं में उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के उपायः सूचना के अधिकार का प्रभावी उपयोग। नागरिक घोषणा पत्र (सिटीजन्स चार्टर) की प्रभावी व्यवस्था। सूचना प्रौद्योगिकी का बेहतर अनुप्रयोग करते हुए ई-गवर्नेंस लाना। सी.सी.टी.वी. तथा अन्य सर्वेक्षण तकनीकों का प्रयोग। मजबूत सतर्कता तंत्र तथा लोकपाल जैसी संस्थान। मीडिया गैर-सरकारी संगठनों जैसे माध्यमों द्वारा प्रशासन पर नैतिक दबाव। इस प्रकार विभिन्न उपायों द्वारा उत्तरदायित्व को सुनिश्चित कर एक उत्तरदायी शासन प्रणाली की स्थापना की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है।</s>
<s>[INST]लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के प्रमुख प्रावधानों का उल्लेख करें। साथ ही, लोकपाल की नियुक्ति के मार्ग में आ रही बाधाओं के संदर्भ में अपने विचार प्रकट करें।[/INST]उत्तर : भारत के राष्ट्रपति द्वारा लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 2013 पर 1 जनवरी, 2014 को हस्ताक्षर करते ही यह विधेयक ‘अधिनियम’ बन गया। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं- इसमें केंद्र स्तर पर लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्त का प्रावधान किया गया है। लोकपाल में एक अध्यक्ष और अधिकतम आठ सदस्य हो सकते हैं, जिनमें से 50% सदस्य न्यायिक पृष्ठभूमि से होने चाहिए। लोकपाल के अध्यक्ष और सदस्यों का चयन एक ‘चयन समिति’ के माध्यम से किया जाएगा जिसमें भारत के प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा के विपक्ष के नेता, भारत के प्रमुख न्यायधीश या मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामित सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश शामिल होगा। एक अन्य सदस्य कोई प्रख्यात विधिवेत्ता होगा जिसे इन चार सदस्यों की सिफारिश पर राष्ट्रपति नामित करेंगे। लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में लोकसेवक की सभी श्रेणियाँ होंगी। कुछ सुरक्षा उपायों के साथ प्रधानमंत्री को भी इस अधिनियम के दायरे में लाया गया है। अधिनियम के अंतर्गत ईमानदार लोकसेवकों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाएगी। अधिनियम में भ्रष्ट तरीकों से अर्जित की गई संपत्ति को जब्त करने का भी प्रावधान है चाहे अभियोजन का मामला लंबित ही क्यों न हो। अधिनियम में प्रारंभिक जाँच और ट्रायल के लिए स्पष्ट समय सीमा निर्धारित की गई है। ट्रायल के लिए विशेष अदालतों के गठन का भी प्रावधान है। इस अधिनियम के वर्ष 2014 में लागू हो जाने के बावजूद आज तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो पाई है। लोकपाल के अभाव में यह अधिनियम क्रियान्वित नहीं हो पा रहा है। एक गैर-सरकारी संगठन ‘कॉमन कॉज’ ने सर्वोच्च न्यायालय में पिटीशन लगाई कि सरकार जानबूझकर लोकपाल की नियुक्ति नहीं कर रही है। नवम्बर, 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार की खिंचाई करते हुए कहा कि लोकपाल कानून को एक ‘मृत पत्र (dead letter)’ नहीं बनने दिया जा सकता। लोकपाल की नियुक्ति न हो पाने के संदर्भ में सरकार का अपना एक तर्क है। सरकार अनुसार लोकपाल के चुनाव के लिए जो चयन-समिति होती है, उसमें एक सदस्य ‘लोकसभा में विपक्ष का नेता’ होता है। परंतु 16वीं लोकसभा में किसी भी विपक्षी पार्टी के पास कुल लोकसभा सदस्यों की 10 प्रतिशत या अधिक सदस्य संख्या नहीं हैं, जो किसी पार्टी के नेता को ‘विपक्ष का नेता’ का दर्जा दिलाने की पूर्व शर्त होती है। अतः बिना ‘विपक्ष के नेता’ के सरकार लोकपाल का चुनाव कैसे करे? अब सरकार अधिनियम में ‘विपक्ष के नेता’ की परिभाषा में संशोधन का प्रस्ताव लाई है जो अभी संसद में पारित नहीं हो पाया है, जिसके अनुसार विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को ‘विपक्ष के नेता’ मान लिया जाएगा। मेरे विचार से सरकार को शीघ्रता से यह संशोधन पारित करवाना चाहिए ताकि एक सक्षम और सशक्त लोकपाल की प्रणाली शुरू हो क्योंकि वर्तमान सरकार भ्रष्टाचार का विरोध तथा पारदर्शिता लाने का आह्वान करते हुए सत्ता में आई थी। अब अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने तथा भ्रष्टाचार पर अकुंश लगाने के लिए लोकपाल की नियुक्ति शीघ्रातिशीघ्र करना समय की मांग है।</s>
<s>[INST]पूर्वाग्रह पर नियंत्रण एक मुश्किल कार्य है परंतु समाज में तनाव को बढ़ने से रोकने के लिये इस पर नियंत्रण आवश्यक है। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : पूर्वाग्रह से तात्पर्य है- किसी के संबंध में पहले से ही निश्चित मत (Opinion)। यह किसी विशिष्ट समूह के प्रति व्यक्ति की अभिवृत्ति का उदाहरण है। पूर्वाग्रह प्रायः नकारात्मक होते हैं और विभिन्न स्थितियों में किसी विशिष्ट समूह के संबंध में रूढ़धारणा (Stereotype) पर आधारित होते हैं। यह रूढ़धारणा लक्ष्य समूह के संबंध में अवांछित विशेषताओं से युक्त होती है और उस समूह के सदस्यों के संबंध में पूर्वाग्रह/नकारात्मक अभिवृत्ति को जन्म देती है। जैसे- हिटलर ने अपने प्रोपगैंडा के तहत नाजियों के मन को ‘अवांछित यहूदियों’ के प्रति पूर्वाग्रह से भर दिया, जिसके कारण यहूदी ‘प्रजाति संहार’ से गुजरे। अभिवृत्ति ही होने के कारण पूर्वाग्रह के भी संज्ञानात्मक, भावात्मक एवं व्यवहारात्मक घटक होते हैं। परंतु, पूर्वाग्रह के संज्ञानात्मक एवं भावात्मक घटकों को परिवर्तित करना बहुत कठिन है क्योंकि व्यक्ति जिस वस्तु/व्यक्ति के प्रति पूर्वाग्रह से पीड़ित हो जाता है, उसके प्रति नकारात्मक अथवा सकारात्मक छवि बना लेता है। ‘पूर्वाग्रहों’ के चलते समाज का एक विशिष्ट समूह दूसरे विशिष्ट समूह के प्रति जब एक निश्चित अवधारणा बना लेता है तो समाज में तनाव उत्पन्न हो जाता है। जहाँ पूर्वाग्रह विद्यमान होता है, वहाँ एक ही समाज के समूहों में अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न होने की संभावना बहुत प्रबल होती है। इसी कारण पूर्वाग्रह पर नियंत्रण आवश्यक माना जाता है। ऐसा करना निम्नलिखित उपायों से ही संभव हो सकता है- शिक्षा एवं सूचना के प्रसार द्वारा विशिष्ट लक्ष्य समूह से संबंधित रूढ़धारणाओं को संशोधित करके। अन्तःसमूह संपर्क को बढ़ाकर, जिससे समूहों के मध्य आपसी अविश्वास दूर हो तथा समूह एक-दूसरे के सकारात्मक गुणों से परिचित हो सकें। उन स्रोतों को न्यूनतम करके जो पूर्वाग्रह बढ़ाने में सहायक होते हों। अपने समूह में भी संकुचित ‘सामाजिक अनन्यता (Social excluivity) की भावना को कम करने का प्रयास करके। पूर्वाग्रह के शिकार लोगों में स्वतः साधक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करके। इस प्रवृत्ति के अंतर्गत यह लक्ष्य समूह वहीं कृत्य करते हैं जो उनके प्रति औरों के पूर्वाग्रह को पुष्ट करता है। इस प्रकार, ‘पूर्वाग्रह’ को नियंत्रित या न्यूनतम करके एक बहुधर्मी, बजुजातीय, बहुवर्गीय समाज में व्यवस्था बनाकर रखी जा सकती है।</s>
<s>[INST]‘नैतिकता के तत्त्व समाज में कूट-कूटकर भरे हुए हैं, लेकिन उनका उद्गार समय और परिस्थिति के अधीन हो गया है, जिसे बदला जाना चाहिये ताकि एक बेहतर, सुंदर एवं विकसित समाज का निर्माण हो सके।’ विवेचना कीजिये[/INST]उत्तर : नैतिकता अनिवार्य रूप से एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य समाज का हित होता है। नैतिकता की यह मांग हैं कि व्यक्ति अपने निजी हित के स्थान पर समाज के कल्याण को अधिक महत्त्व दे परंतु यह एक ऐच्छिक कार्यविधि है जिसकी अपेक्षा तो समाज करता है परंतु क्रियान्वयन व्यक्ति विशेष के स्वविवेक पर निर्भर होता है। ऐसी स्थितियाँ घटित होती रहती है जहाँ कोई कृत्य किसी व्यक्ति को बुरा लगे और किसी अन्य को उस कृत्य से कोई फर्क भी न पड़े। यथा-कोई अंधा व्यक्ति सड़क पार करना चाह रहा है परंतु उसके आसपास गुजरने वाले उसकी कोई सहायता नहीं कर रहे हैं क्योंकि संभव है उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। आप एक बहुमंजिला इमारत में बैठे दूर से यह देखकर दुखी हो रहे हैं और जरूरी मीटिंग के चलते उस अंधे व्यक्ति की सहायता के लिये नहीं जा पा रहे हैं। कई बार व्यक्ति के मानसिक स्तर के आधार पर नीतिशास्त्रीय मानदंडों की व्याख्या की जाती है। हो सकता है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अधिक नैतिक हो लेकिन किन्हीं विशेष परिस्थितियों में उनकी नैतिकता का लोप हो गया हो, जैसे-रेगिस्तानी क्षेत्र में कई दिनों से भूखे-प्यासे एक संत को अचानक जल एवं भोजन मिल जाए, तब यदि किसी अन्य जरूरतमंद को देने के अपने सामान्य आचरण से अलग यदि वह स्वयं ही जल एवं भोजन ग्रहण कर लेता है, तो ऐसा नहीं है कि उसकी नैतिकता नष्ट हो गई है। अपितु यह कहा जाएगा कि परिस्थिति विशेष में उसकी नैतिकता का लोप हुआ है। व्यक्ति में नैतिकता की उपस्थिति समय अनुसार भी बदलती है। जो महिला घर के काम में बड़ों का बिल्कुल हाथ नहीं बँटाती, वही महिला किसी सत्संग परिसर में मन लगाकर बुजुर्गों की सेवा करती है और उसकी नैतिकता वहाँ उजागर होने लगती है। जब व्यक्ति को किसी से मदद लेनी होती है तो वही नैतिकता दर्शन के रूप में दृष्टिगोचर होती है, लेकिन जब किसी और को मदद देनी होती है तब उस नैतिकता का लोप हो जाता है। जैसे-भरी बस में जब किसी युवा लड़की को सीट चाहिये होती है तब वह महिला होने की ‘नैतिक दुहाई’ के सहारे पुरुषों से सीट ले लेती हैं परंतु यदि कुछ समय बाद कोई वृद्ध महिला आकर उस युवा लड़की के पास खड़ी हो जाती है तब उस लड़की की नैतिकता समाप्त हो जाती है, वह कोशिश करती है कि उसे सीट न देनी पड़े। कुल मिलाकर यह कहना तर्कसंगत है कि वर्तमान में नैतिकता का उद्गार समय और परिस्थिति के अधीन हो गया है, जो कि नहीं होना चाहिये। जनसाधारण को समझना होगा कि नैतिकता एक साधन है (न कि स्वतः साध्य) जिसका उद्देश्य अंततः व्यक्ति और समाज का कल्याण ही होता है।</s>
<s>[INST]व्यक्ति की अभिवृत्ति के निर्माण में विभिन्न सामाजिक व व्यक्तिगत कारक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक बार अभिवृत्तियाँ निर्मित हो जाती हैं तो उनमें बदलाव बहुत मुश्किल हो जाता है। इस संदर्भ में अभिवृत्तियों के दोषों की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : सामान्यतः किसी मनोवैज्ञानिक विषय के पक्ष या विपक्ष में सकारात्मक या नकारात्मक भाव की तीव्रता को अभिवृत्ति कहते हैं। आमतौर पर अभिवृत्तियाँ व्यक्तिगत अनुभव एवं समाज के साथ अंतर्क्रिया द्वारा सीखी जाती है। कुछ जन्मजात कारक भी अभिवृत्ति निर्माण में छोटी किंतु महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चूँकि अभिवृत्ति सापेक्षतः स्थायी होती है तथा इसमें प्रेरित करने की शक्ति भी होती है, इसी विशेषता के कारण ‘अभिवृत्ति’ के कुछ नुकसान (दोष) भी परिलक्षित होते हैं, यथा- अभिवृत्तियाँ रूढ़िवादिता बढ़ाती हैं क्योंकि अधिकांश अभिवृत्तियाँ बचपन में ही विकसित हो जाती है और उन्हें बदलना काफी कठिन होता है। इस कारण सामाजिक रूढ़ियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती हैं। अभिवृत्तियों के कारण हमारा दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ और तटस्थ नहीं रह पाता है जबकि सिविल सेवकों के लिये यह ज़रूरी है कि उनका दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ तथा तटस्थ हो। व्यक्ति में लचीलापन कम हो जाता है यानी परिस्थितियाँ यदि प्रतिकूल हो जाएँ या बदल जाएँ तो वह खुद को आसानी से समायोजित नहीं कर पाता। समाज के वंचित वर्गों को इसका सबसे छयादा नुकसान झेलना पड़ता है। एक तो वे ही वंचित हैं तथा साथ ही उच्च वर्ग या शोषक वर्ग की अभिवृत्तियाँ उनके विचारों को या व्यवहारों को बदलने नहीं देती। दलितों, महिलाओं, अश्वेतों, विकलांगों, अल्पसंख्यकों के शोषण की बड़ी वजह प्रभुत्वशाली समूहों में उनके प्रति नकारात्मक अभिवृत्तियों का होना तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका संचरित होना है। उपरोक्त स्थितियों में नकारात्मक अभिवृत्ति परिलक्षित हो रही है, जिसे विभिन्न उपायों यथा-धारण/अनुनयन, संदर्भ समूह में परिवर्तन, व्यक्तित्व में परिवर्तन, अतिरिक्त सूचनाओं आदि के द्वारा परिवर्तित किया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]आपका सिविल सेवा में चयन हो जाता है। आपको आपके पैतृक गाँव में सम्मानित करने के लिये ग्राम पंचायत द्वारा निमंत्रण दिया जाता है। आपकी प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही हुई थी लेकिन उसके पश्चात् आपका परिवार शहर में बस गया था। आप 15 वर्षों पश्चात् अपने गाँव जा रहे हैं। आपका गाँव राजस्थान के नागौर ज़िले के एक दूर-दराज क्षेत्र में स्थित है। आपके गाँव में पानी के अभाव की बहुत बड़ी समस्या है। गाँव में हरियाली न के बराबर है, मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है तथा पेड़ों के नाम पर सिर्फ ‘खेजड़ी’ के वृक्ष हैं। गाँव में बोरवैल नहीं है, क्योंकि जमीन के अंदर का पानी बहुत अधिक खारा है। लोगों ने अपने घरों में पानी के बड़े-बड़े टैंक बनवा रखे हैं जिनमें वे वर्षा का जल इकट्ठा कर लेते हैं और सालभर उसी जल को इस्तेमाल करते हैं। गाँव में खेजड़ी के अलावा किसी भी अन्य वृक्ष को उगाने को अपशगुन माना जाता है। उसी के चलते गाँव में वृक्ष की घनी छाया या हरियाली के दर्शन नहीं हो पाते। आप अपने गाँव की इस समस्या के संबंध में क्या दृष्टिकोण रखेंगे और गाँव वालों के लिये क्या कदम उठाएंगे जिससे गाँव के पर्यावरण व लोगों के जीवन में सुधार लाया जा सके?[/INST]उत्तर : पैतृक गाँव होने के कारण उस गाँव के साथ मेरा आत्मीयता का लगाव स्वाभाविक है। ऐसे में गाँव के लोगों की मनोवृत्ति एवं गाँव की दुर्दशा देखकर परिवर्तन लाने की इच्छा सहज ही संकल्पित हो जाती है। यहाँ खेजड़ी के अलावा अन्य वृक्षों के उगने को अपशगुन मानना, गाँव में मरुस्थलीकरण का बढ़ना तथा जल के आत्यंतिक अभाव की स्थिति का होना ही गाँव की दुर्दशा का मूल कारण दिखाई देता है। ऐसे में पर्यावरण के प्रति गाँव वालों को सजग करने तथा उचित जल-प्रबंधन के लिये प्रोत्साहित करने के लिये मैं निम्नलिखित कदम उठाऊँगा- (i) सबसे पहले गाँव वालों की इस मनोवृत्ति में परिवर्तन लाना ज़रूरी है कि खेजड़ी के अलावा अन्य सभी वृक्ष अपशगुनी होते हैं। मेरे विचार से यह धारणा खेजड़ी के कम पानी की उपलब्धता में भी उग जाने और अन्य वृक्षों के भूमि से अधिक पानी सोखने की मान्यता से जुड़ी है। ऐसे में मैं गाँव वालों को ‘अनुनयन’ द्वारा समझाने का प्रयत्न करूँगा कि अनेक अन्य वृक्ष भी ऐसे हैं जो छायादार भी होते हैं, फल भी देते हैं किंतु खेजड़ी की तरह ही उन्हें भी पानी की कम आवश्यकता होती है, जैसे-नीम, रोहिड़ा, बेर, सीरिश, कैर, पीपल आदि। इन पेड़ों को उगाने में भी अधिक पानी की खपत नहीं होती और ये गाँव में मरुस्थलीकरण को रोकने व हरियाली लाने में अत्यंत सहायक होंगे। (ii) उन्हें रालेगन सिद्धि, हिवरे बाज़ार और पिपलांत्री जैसे गाँवों के उदाहरणों से समझाता कि किस प्रकार पूरे गाँव के प्रयास से जल-प्रबंधन द्वारा गाँव की तस्वीर बदली जा सकती है। (iii) गाँव के सरपंच से अनुरोध करता की ‘मनरेगा’ जैसे कार्यक्रमों का पूरा सदुपयोग करते हुए पक्की तली के तालाब बनवाएँ जिनमें वर्षा जल लंबे समय तक संग्रहित रह सके। (iv) गाँव के लोगों को नहाने के पश्चात् व घरेलू उपयोग के पश्चात् बचे पानी को पेड़ों में डालने के लिये प्रेरित करूँगा। (v) गाँव के स्कूल के अध्यापकों से मिलकर आग्रह करूँगा कि पढ़ाई के साथ-साथ बच्चों को जल के सदुपयोग, प्रबंधन एवं वृक्षों/पर्यावरण की महत्ता के संबंध में हमेशा सही ज्ञान व दिशा दें। (vi) मैं गाँव के गणमान्य लोगों के साथ क्षेत्र के विधायक व सांसद से भी मिलूँगा और निवेदन करूँगा कि गाँव को या तो किसी प्रकार से नहरों से जोड़ा जाए या पाइपलाइनों द्वारा पर्याप्त जल की उपलब्धता कराई जाए।</s>
<s>[INST]‘विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों, कानूनों, नियमों एवं विनियमों को सुनिश्चित करने के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के राजनीतिक दबावों के बावजूद एक सिविल सेवक ‘प्रतिबद्धता’ और ‘सेवा भावना’ जैसे मूल्यों की शक्ति से ही जन-अपेक्षाओं को पूरा कर पाता है’ विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : वर्तमान समय में एक सिविल सेवक को अपने कर्त्तव्य पालन के दौरान विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। एक कल्याणकारी राज्य की अपेक्षाओं को पूरा करने के क्रम में विभिन्न प्रकार के बाहरी व आंतरिक दबावों के समक्ष डटे रहना पड़ता है। अपनी कार्यशैली में पारदर्शिता बनाए रखते हुए और बाहरी हस्तक्षेपों से विचलित हुए बिना एक लोकसेवक तभी सफल हो पाता है जब उसमें ‘प्रतिबद्धता’ और ‘सेवा भावना’ जैसे बुनियादी मूल्य उपस्थित हों। प्रतिबद्धता व्यक्ति का एक आंतरिक गुण होता है। यह ‘प्रतिबद्धता’ किसी मूल्य या विचारधारा के प्रति हो सकती है। एक सिविल सेवक से अपेक्षा रहती है कि वह संविधान, वंचितों के सामाजिक व कल्याणकारी उद्देश्यों, कानून, नियमों एवं सरकारी नीतियों के प्रति प्रतिबद्ध रहे तथा संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल नीति का अनुसरण न करे। यह ‘प्रतिबद्धता’ का गुण एक सिविल सेवक को सदैव प्रेरित रखता है। ‘सेवा भावना’ वह मनःस्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी ‘नैतिक छिाम्मेदारी’ समझकर किसी कार्य को करता है। सिविल सेवा में उस ‘सेवा भावना’ से तात्पर्य होता है कि वेतन और सुविधाओं पर विशेष ध्यान न देते हुए एक सिविल सेवक द्वारा उस भाव से कर्तव्य पालन करना कि वह अपनी शक्तियों का अधिकतम उपयोग लोक कल्याण को साधने में कैसे कर सकता है। इस प्रकार की मनःस्थिति से कार्य करने पर आनंद तो मिलता ही है, एक आंतरिक ऊर्जा का संचरण भी होता है, जो विपरीत शक्ति के झंझावतों से लड़ने की ताकत देती है। अतः एक सिविल सेवक की सेवा भावना और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता उसे जनहित के कार्यों को करने के लिये लगातार प्रेरित करती है और राजनीतिक दबावों की स्थिति में भी उचित एवं वैध तरीकों को अपनाने के लिये सतत् रूप से प्रोत्साहित करती है।</s>
<s>[INST]वर्तमान में भारत के लोक-प्रशासन में उपस्थित सामान्य नैतिक समस्याओं/मुद्दों का उल्लेख करते हुए लोक-प्रशासन में नैतिकता को समाहित करने के उपाय सुझाइए।[/INST]उत्तर : भारत के लोक प्रशासन में मूल नैतिक समस्या भ्रष्टाचार की है, परंतु उसके साथ ही कुछ अन्य नैतिक समस्याएँ/मुद्दे भी लोक-प्रशासन को प्रभावित करते हैं। वे अन्य मुद्दे निम्नलिखित हैं- रूढ़िवादिता और अभिजात वर्गीय मानसिकता वाले सिविल सेवक और ब्रिटिश शासन की ऐसी परम्पराएँ। शक्ति, सत्ता व प्राधिकार का अत्यन्त विषमतापूर्ण ढाँचा होना। नौकरशाही पर अनैतिक राजनीतिक दबाव व उनकी कार्यशैली में अवांछित राजनीतिक हस्तक्षेप। भारतीय नौकरशाही के राजनीतिकरण से नौकरशाही में तटस्थता की भावना का अभाव। उचित कार्य-संस्कृति का अभाव। पारदर्शिता एवं जवाबदेही जैसे मूल्यों की कमी। ‘व्हिसल ब्लोअर’ की सुरक्षा के उचित प्रबंधों का अभाव। निश्चित तौर पर उपरोक्त नैतिक समस्याएँ/मुद्दे हमें चिंतित करते हैं। इन समस्याओं के निराकरण या इन्हें न्यूनतम करने के लिए लोक-प्रशासन में नैतिकता का समावेशन बहुत आवश्यक है। लोक-प्रशासन में निम्नलिखित उपायों/तरीकों से नैतिकता को समाहित किया जा सकता है- भावी प्रशासकों (ट्रेनी) के मूल्यात्मक एवं नैतिकतापरक प्रशिक्षण पर बल देकर। उनमें परानुभूति के भावों को विकसित करने का प्रयास करके। लोक-प्रशासकों के लिये आचार-संहिता का निर्माण कर, उसका पालन सुनिश्चित करके। डिजिटलाइजेशन, ई-गवर्नेन्स आदि द्वारा प्रशासन में पारदर्शिता द्वारा सुशासन की नींव रखकर। राजनीतिक हस्तक्षेपों से नौकरशाही को मुक्त करके। जवाबदेही सुनिश्चित करने वाला एक मजबूत तंत्र विकसित कर, जो गैर-जिम्मेदार प्रशासकों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सके। उपरोक्त उपायों द्वारा लोक-प्रशासन में नैतिकता को समाहित करने के प्रयास किये जा सकते हैं। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने ‘शासन में नैतिकता’ शीर्षक वाली अपनी चौथी रिपोर्ट में सिविल सेवकों के लिये एक नैतिक-संहिता के निर्माण पर बल दिया है। आयोग का कहना था कि ‘अभिरूचियों के संघर्ष’ को अधिकारियों के लिये निर्मित नैतिक संहिता और आचार-संहिता में विस्तृत रूप से शामिल किया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]आप एक जिले में जिलाधिकारी के पद पर नियुक्त हैं। एक दिन आपको सूचना मिलती है कि आपके जिले के एक गाँव में तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने दलितों की जल आवश्यकताओं को पूरा करने वाले एकमात्र कुएँ में केरोसिन तेल डाल दिया है ताकि दलितों के लिये कुएँ का जल पीने योग्य न रहे। जब आप गाँव में वास्तविक स्थिति का पता लगाने जाते हैं, तब आपको ज्ञात होता है कि इस घटना के पीछे असली कारण ‘जातीय-श्रेष्ठता’ का दंभ है। दरअसल एक दलित व्यक्ति ने अपनी पुत्री की शादी में बैंड पार्टी को बुलाया था। गाँव की तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने इसका विरोध किया क्योंकि उस गाँव में यह परम्परा है कि दलित बैंड पार्टी को अपनी शादी में नहीं ला सकते। वे दूल्हे का स्वागत सिर्फ ढोल से ही कर सकते हैं। परंतु, उस दलित व्यक्ति ने इस परम्परा को न मानते हुए पुलिस को सूचना देकर कड़ी सुरक्षा के बीच बैंड पार्टी के साथ बेटी की शादी की। उसने ग्रामीणों की बहिष्कार की धमकी को भी अनसुना किया। गाँव की तथाकथित उच्च जाति के लोग इस घटना से बहुत नाराज थे। उन्होंने इसी घटना के कारण गुस्से में उस कुएँ में केरोसिन तेल डाल दिया, जिसका इस्तेमाल दलित करते थे। अब गाँव में दोनों वर्गों के मध्य तनाव चरम पर है। (i) इस केस स्टडी में कौन-कौन से नैतिक मुद्दे निहित हैं? (ii) एक जिलाधिकारी के तौर पर आप कौन-से कदम उठाएंगे?[/INST]उत्तर : (i) इस केस स्टडी में निम्नलिखित नैतिक मुद्दे निहित हैं- अतार्किक परंपरा जिसके अनुसार दलित बैंड पार्टी नहीं बुला सकते। गाँव में व्याप्त जातिवाद की समस्या, विशेषतः उच्च व निम्न जातियों के मध्य जातीय-तनाव। किसी वर्ग विशेष को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से जान-बूझकर वंचित करना। उच्च जातियों में जातीय श्रेष्ठता का अतार्किक एवं अनैतिक दंभ। (ii) गाँव की स्थिति सामाजिक दृष्टि से तनावयुक्त है। एक ओर यहाँ सामाजिक तनाव को कम करने की अहम आवश्यकता है तो दूसरी ओर दलितों द्वारा प्रयोग किये जाने वाले कुएँ में केरोसिन तेल डालकर उनके ‘स्वच्छ जल की उपलब्धता’ के मौलिक अधिकार का उल्लंघन कर अपराध करने वालों के खिलाफ कार्रवाई भी आवश्यक है। एक जिलाधिकारी के तौर पर मैं दो-तरफा कार्रवाइयों द्वारा आगे बढ़ता- (क) तत्कालीन कार्रवाइयाँ दोषियों को शीघ्र पकड़ने के लिये पुलिस को आदेश देता। शीघ्र-अतिशीघ्र शहर या पास के गाँव से स्वच्छ जल के टैंकर मंगवाकर दलितों के मोहल्ले में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करता। अपने अधीनस्थ अधिकारियों को आदेश देता कि जल्दी-से-जल्दी दलितों के इलाके में एक बोरवेल खुदवाया जाए और कुएँ से केरोसिन साफ कराया जाए। ये दोनों कार्य होने तक टैंकरों द्वारा दलितों को पानी की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध कराई जाए। दलितों को आश्वासन देता कि प्रशासन उनके सहयोग के लिये पूरी तरह प्रतिबद्ध है तथा उनके साथ गलत नहीं होने दिया जाएगा। (ख) दीर्घकालीन कार्रवाईयाँ दलितों एवं उच्च जातियों के गणमान्य लोगों को एक साथ बुलाकर उन्हें गाँव में सौहार्दपूर्ण तरीके से रहने के लिये समझाता। उच्च जाति के लोगों को बताता कि इस तरह की घटनाएँ सिर्फ तनाव व विद्वेष फैलाती हैं। उच्च जाति के प्रतिनिधियों को समझाता कि छूआछूत और जल में मिलावट जैसी घटनाएँ बहुत गंभीर प्रकृति के अपराध हैं तथा अतार्किक परंपराओं के नाम पर ‘जातीय श्रेष्ठता’ को जबरदस्ती स्थापित करने की कोशिश में उन पर ‘एस.सी. एक्ट’ तथा अन्य विभिन्न धाराओं के अंतर्गत कड़ी कार्रवाई हो सकती है। अतः दोबारा ऐसी हरकतों के लिये गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। मैं गाँव के दोनों पक्षों के पढ़े-लिखे और समझदार लोगों को बैठाकर बार-बार समझाता (Persuasion) कि जाति के आधार पर भेदभाव अनैतिक तथा कानूनन अपराध है। उनके द्वारा अपने-अपने पक्ष के लोगों को मिल-जुलकर रहने तथा गाँव में शांति का वातावरण बनाये रखने के लिये समझाने की कोशिश करनी चाहिये। साथ ही, मैं स्वयं उस गाँव में समय-समय पर कुछ ऐसे कार्यक्रम (जैसे-खेल, नाटक, सांग, नुक्कड़) कराने की कोशिश करता जिसमें दोनों पक्षों के लोग भाग भी लेते और शिक्षा भी तथा उनके मध्य असमानता की भावना कम होती।</s>
<s>[INST]डॉ. राज दिल्ली के एक पॉश इलाके में रहते हैं। उनके घर से थोड़ी दूरी पर एक मदर डेयरी का बूथ है। संयोग से बूथ में काम करने वाले लड़के डॉ. राज के पैतृक गाँव से होते हैं। इसी कारण वे डॉ. राज का बहुत सम्मान भी करते हैं। डॉ. राज भी दोस्ताना स्वभाव के हैं। एक बार बातों-ही-बातों में वे डॉ. राज को बताते हैं कि हम लोगों को जो टोकन से ‘खुला दूध’ देते हैं, उसमें हम विशेष तरीके से म्यूनीशिपल सप्लाई वाला पानी मिलाते हैं। डॉ. राज को उनसे जान-पहचान होने के कारण शुद्ध दूध मिल जाता है। डॉ. राज द्वारा पानी मिलाने का कारण जानने की कोशिश करने पर वे लोग बताते हैं कि वह बूथ उनके फौजी चाचा के नाम है तथा जो भी लाभ शुद्ध दूध बेचने से होता है, वो सारा चाचा ही लेते हैं। उन लड़कों की कमाई का साधन पानी मिलाने से होने वाली अतिरिक्त कमाई ही होती है। वो दोनों लड़के बताते हैं कि कम पढ़े-लिखे होने के कारण कोई अन्य नौकरी नहीं मिली तथा विवाहित होने के कारण परिवार का खर्चा चलाने के लिये वे ऐसा कर रहे हैं। उनमें से एक लड़के को अपनी बहन की शादी भी करनी है। उस बूथ पर दूध लेने वाले लोगों में कॉलोनी के लोगों के अतिरिक्त थोड़ी दूर पर बसी बस्ती के लोग तथा चाय की दुकान वाले लोग भी शामिल हैं। 1. इस केस स्टडी में नैतिक मुद्दों को चिह्नत कीजिये। 2. इस परिस्थिति में डॉ. राज का क्या नैतिक दायित्व है? 3. यदि आप डॉ. राज की जगह होते तो आपके सामने क्या-क्या विकल्प उपस्थित होते?[/INST]उत्तर : 1. इस केस स्टडी में निम्नलिखित नैतिक मुद्दे निहित हैं- लड़कों द्वारा निजी हितों के लिये लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़। व्यवसाय में ईमानदारी के मूल्य का अभाव। बेरोजगारी के पार्श्व प्रभाव के रूप में अनैतिक कृत्यों को प्रोत्साहन। डॉ. राज के समक्ष व्यक्तिगत संबंध और सार्वजनिक नैतिकता के मध्य चुनाव का द्वन्द्व। 2. डॉ. राज का नैतिक दायित्त्व है कि वह उन लड़कों को दूध में मिलावट करने से रोके। वह ‘धारण’ (Persuasion) द्वारा उन्हें इस अनैतिक एवं आपराधिक कृत्य को न करने के लिये तैयार करें। उन्हें पकड़े जाने की स्थिति में कड़ी सजा होने का भय दिखाये। उनको एक काल्पनिक कहानी गढ़ते हुए बताए कि मैंने कुछ लोगों को यह कहते सुना है कि डेयरी के लड़के दूध में पानी मिलाते हैं, इसीलिये उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत करनी पड़ेगी। इस प्रकार उन्हें भय दिखाने के साथ-साथ आजीविका के विकल्प के तौर पर ‘मनरेगा’ तथा ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास कार्यक्रम’ के संबंध में पूरी जानकारी देकर उन्हें इन योजनाओं में पंजीकृत कराने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये ताकि उनका भविष्य सुरक्षित हो सके। 3. यदि मैं डॉ. राज की जगह होता तो मेरे सामने निम्नलिखित विकल्प होते- (क) जैसी व्यवस्था चल रही है, उसे वैसी ही चलने देता क्योंकि अंततः मुझे तो शुद्ध दूध मिल ही रहा है। परंतु, ऐसा करना न सिर्फ अनैतिक है बल्कि अपराध भी है क्योंकि मेरी आँखें के सामने लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ व धोखाधड़ी हो रही है, जिसमें मेरी मौन-सहमति भी है। (ख) मैं डेयरी से दूध लेना बंद कर देता और वस्तुस्थिति से मुँह मोड़ लेता। लेकिन, यह पलायनवादी प्रकृति उचित नहीं है। (ग) गुपचुप तरीके से लड़कों की शिकायत कर देता ताकि उन्हें उनकी गलती की सजा मिले। परंतु ऐसा करके मैं उनमें सुधार की संभावनाओं को खत्म कर देता। यह उनके साथ विश्वासघात भी होता तथा उनके परिवारजनों के जीवन पर भी इसका बुरा असर पड़ता। (घ) मैं लड़कों को समझाता कि उनका कृत्य अनैतिक होने के साथ-साथ गैर-कानूनी भी है तथा पकड़े जाने पर उन्हें कड़ी सजा मिल सकती है। फिर, उन्हें उनके ‘कौशल विकास’ के लिये ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना’ से जुड़ने या आपातस्थिति में ‘मनरेगा’ में पंजीकृत होने की सलाह देता तथा उनका उचित मार्गदर्शन करता।</s>
<s>[INST]भावनात्मक प्रज्ञता (Emotional Intelligence) व्यक्ति के निजी जीवन के साथ-साथ उसके सार्वजनिक जीवन (लोक सेवा/प्रशासन) में भी उसकी सफलता सुनिश्चित करती है। भावनात्मक प्रज्ञता को परिभाषित करते हुए प्रशासनिक कार्यों में इसके प्रयोग से उभरने वाले सकारात्मक पक्षों का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : अपनी तथा दूसरों की भावनाओं को समझने तथा उनका समुचित प्रबंधन करने की क्षमता को भावनात्मक प्रज्ञता कहते हैं। डेनियल गोलमैन ने भावनात्मक प्रज्ञता को 5 योग्यताओं/क्षमताओं का समूह माना है- आत्मा जागरूकता (self awareness) आत्म-प्रबंधन (Self-regulation) आत्म अभिप्रेरणा (Self Motivation) समानुभूमि (Empathy) सामाजिक दक्षताएँ (Social Skills) भावनात्मक प्रज्ञता से युक्त व्यक्ति अपने निजी संबंधों को सदैव सुरक्षित एवं मजबूत रख पाता है क्योंकि भावनाओं का प्रबंधन ही निजी संबंधों में मजबूती की पूर्व शर्त होती है। वर्तमान में सार्वजनिक सेवाओं एवं प्रशासन में तनाव का स्तर काफी ऊँचा है, क्योंकि कल्याणकारी राज्य की निरंतर बढ़ती अपेक्षाएँ, राजनीतिक बाधाएँ, मीडिया, सिविल सोसाइटी के आंदोलन आदि चौतरफा और परस्पर विरोधी स्थितियाँ उत्पन्न कर देते हैं। इन जटिल परिस्थितियों में वही व्यक्ति सफल हो पाता है, जिसमें तनाव प्रबंधन तथा भावनाओं के प्रबंधन की क्षमता अधिक होती है। जब भावनात्मक प्रज्ञता को प्रशासनिक कार्यों में प्रयोग किया जाता है तो निम्नलिखित सकारात्मक पक्ष उभरकर सामने आते हैं- प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान चुनौतियों के लिये आंतरिक बल मिलता है उस आंतरिक बल को आंतरिक संवेगों के रूप में एक मजबूत आधार स्तंभ का सानिध्य मिलता है। प्रशासनिक कार्यों का संपादन सही दिशा में होता है। मानवीयता के तर्क कार्य करते हैं। कार्य के समय मनोवृत्ति का सकारात्मक विकास होता है। आंतरिक संवेगों में विविधता का अभाव होता है क्योंकि आंतरिक संवेग के नकारात्मक पक्षों (शंका, भय, अशांति) का विनाश हो जाता है और केवल सकारात्मक रूप से भावनात्मक प्रज्ञता का उद्भव होता है। भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति नष्ट होती है। कार्य की प्रकृति चाहे कैसी भी हो, सफलता का अंश बढ़ जाता है। अतः यह एक स्वीकार्य तथ्य है कि भावनात्मक प्रज्ञता के प्रयोग से जीवन के निजी जीवन के साथ-साथ उसके सार्वजनिक जीवन में भी सफलता सुनिश्चित होती है। भावनात्मक प्रज्ञता से युक्त प्रशासन में गतिशीलता, निरंतरता, लोक-कल्याण और नैतिकता जैसे सुशासन के गुण उपस्थित होते हैं।</s>
<s>[INST]विजय सिंह एक बड़े कॉर्पोरेट अस्पताल के प्रबंधन विभाग में उप-चिकित्सा अधीक्षक हैं। विजय सिंह बहुत ही सुलझे हुए, ईमानदार और सत्यनिष्ठ व्यक्ति हैं। वे हमेशा खुश रहते हैं तथा परिवार एवं कार्य को संतुलित रखना पसंद करते हैं। अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक विजय सिंह के प्रति थोड़ा रूखा-सा व्यवहार रखते हैं। विजय सिंह भी उनके सामने बहुत सहज महसूस नहीं करते हैं। अस्पताल में एक अन्य उप-चिकित्सा अधीक्षक कैलाश भी है। कैलाश अपनी योग्यता एवं अनुभव में तो विजय सिंह से कम है परंतु वह चिकित्सा अधीक्षक का बहुत करीबी है। चिकित्सा अधीक्षक कैलाश को हमेशा विशेष तवज़्जो देता है, जिससे पूरा अस्पताल वाकिफ़ है। कुछ समय से विजय सिंह को चिकित्सा अधीक्षक ‘अवकाश’ लेने की अनुमति नहीं दे रहा जबकि कैलाश को जब भी अवकाश की ज़रूरत होती है, उसे तुरंत अनुमति मिल जाती है। अवकाश न मिलने के चलते विजय सिंह के कई पारिवारिक कार्य भी अटके पड़े हैं। इसी बीच एक और घटना घटती है। विजय सिंह एक बहुत महत्त्वपूर्ण तीन दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिये चयनित हो जाते हैं। इस कार्यक्रम के लिये उन्होंने कई हज़ार रुपए शुल्क भी भरा था, लेकिन चिकित्सा अधीक्षक उनको तीन दिन की छुट्टियाँ देने के इंकार कर देते हैं। विजय सिंह उस प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिये बहुत उत्साहित थे। वह कार्यक्रम उनके करियर के लिये बहुत लाभकारी होता। दूसरी ओर, इसी दौरान चिकित्सा अधीक्षक द्वारा कैलाश को एक प्रतिष्ठित संस्थान के पाँच दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में जाने की अनुमति दी जाती है तथा चिकित्सा अधीक्षक की अनुशंसा पर उस कार्यक्रम की फीस भी अस्पताल की तरफ से भरी जाती है। इस घटना से विजय सिंह को बहुत निराशा होती है। कुछ दिनों बाद विजय सिंह को कुछ विश्वस्त सूत्रों से पता चलता है कि अस्पताल का ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स’ चिकित्सा अधीक्षक की पदोन्नति करने वाला है तथा चिकित्सा अधीक्षक चाहते हैं कि कैलाश उनकी वर्तमान जगह ले। इसलिये अधीक्षक लगातार विजय सिंह को हतोत्साहित व कैलाश को प्रोत्साहित कर रहे थे ताकि विजय सिंह नौकरी छोड़ दें और कैलाश को पदोन्नति के लिये कोई दिक्कत न हो। यह अस्पताल विजय के घर के नज़दीक है तथा प्रतिष्ठित भी। घर के नज़दीक होने से विजय सिंह को एक फायदा यह भी होता है कि वह अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल भी कर पाते हैं। साथ ही विजय सिंह को वेतन भी अच्छा मिलता है। लेकिन विजय सिंह को अपने साथ हो रहे इस भेदभाव से गहरी आंतरिक पीड़ा है। उन्हें यह अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध भी लगता है। 1. इस केस स्टडी में निहित मुद्दों को स्पष्ट करें। 2. यदि आप विजय सिंह के स्थान पर होते तो क्या करते?[/INST]उत्तर : 1. इस केस स्टडी में निम्नलिखित मुद्दे निहित प्रतीत होते हैं- (i) चिकित्सा अधीक्षक में व्यावसायिक नैतिकता का अभाव। उनमें कनिष्ठों के प्रति पक्षपातरहित व्यवहार, कनिष्ठों को सहज महसूस कराने तथा उन्हें आगे बढ़ने के लिये समान अवसर उपलब्ध कराने जैसे गुणों का अभाव परिलक्षित होता है। (ii) अस्पताल की ‘कार्य-संस्कृति’ में ‘योग्यता को सम्मान देने’ तथा ‘निष्पक्षता’ जैसे मूल्यों का अभाव दिखता है। (iii) विजय सिंह की दुविधा-वह अपने साथ हो रहे भेदभाव से उत्पन्न आंतरिक पीड़ा व आत्मसम्मान को पहुँच रही ठेस के खिलाफ आवाज उठाए या वर्तमान सुविधाओं एवं व्यक्तिगत हितों को देखते हुए हालातों से समझौता कर ले। 2. यदि मैं विजय सिंह के स्थान पर होता तब मेरे सामने दो प्रकार के विकल्प होते- (i) मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि एक सत्यनिष्ठ एवं ईमानदार व्यक्ति भोजन के बगैर कुछ समय तक सहज रह सकता है, लेकिन आत्मसम्मान को दाँव पर लगाना उसे गवारा नहीं होता। मैं अस्पताल की ‘ग्रीवेंश रीड्रैशल सेल’ के समक्ष अपनी समस्याओं एवं आपत्तियों को लाता। मैं सारे ‘भेदभावों’ के सुबूत पेश करता। साथ ही, मैं कुछ अन्य अच्छे अस्पतालों में नौकरी के लिये आवेदन करता, ताकि यदि अस्पताल से मुझे निकाला भी जाए तो मेरे पास अन्य अवसर उपलब्ध हों। लेकिन, मेरे इस कदम से दो प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं- पहली, यह संभव है कि अस्पताल की ‘सेल’ चिकित्सा अधिकारी को चेतावनी देकर छोड़ दे, ऐसे में अब मेरे लिये अपने ‘बॉस’ के साथ काम करना बहुत ही कठिन हो जाता। दूसरा, वह चिकित्सा अधीक्षक अन्य अस्पतालों में भी मेरे ‘अवसरों’ को प्रभावित कर सकता है। (ii) मैं शांत रहते हुए अन्य अच्छे अस्पतालों में नौकरी के लिये आवेदन करूँ। चूँकि चिकित्सा अधीक्षक भी चाहते हैं कि कैलाश की पदोन्नति के रास्ते से मैं हट जाऊँ, इसलिये वे अन्य अस्पतालों में मेरे संदर्भ में अच्छी अनुशंसा (Recommendation) करेंगे। इसके पश्चात् जब दूसरे अस्पताल में मेरी नौकरी सुनिश्चित हो जाए तब अपने अस्पताल में इस्तीफा देते हुए इस्तीफे के कारणों में विस्तार से अन्य घटनाओं, भेदभावों एवं तथ्यों का जिक्र करूँ, ताकि अस्पताल के उच्च प्रबंधन को वस्तुस्थिति की स्पष्ट समझ हो जाए। इससे चिकित्सा अधीक्षक के खिलाफ कार्रवाई होने के साथ-साथ इस बात की भी संभावना रहेगी कि अस्पताल प्रबंधन अपनी कार्य-संस्कृति में उचित बदलाव लाए, ताकि भविष्य में किसी अन्य कर्मचारी के साथ ऐसा न हो। मैं उपरोक्त दोनों विकल्पों में निश्चित तौर पर दूसरा विकल्प चुनूँगा क्योंकि इसी से मेरे सभी प्रकार के हित सध रहे हैं।</s>
<s>[INST]लोकतंत्र में राज्य के कल्याणकारी स्वरूप को बनाए रखने व उसे सदैव संवर्द्धित करने के लिये एक सिविल सेवक में किन-किन विशिष्ट मूल्यों का होना आवश्यक समझा जाता है? साथ ही, दो विशिष्ट मूल्यों-समानुभूति एवं सहानुभूति में अंतर भी स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : लोकतंत्र में राज्य के स्वरूप को कल्याणकारी बनाये रखने तथा उस स्वरूप को सदैव संवर्द्धित करने के लिये एक सिविल सेवक में निम्नलिखित विशिष्ट मूल्यों की उपस्थिति आवश्यक समझी जाती है- •सत्यनिष्ठा • समर्पण • कमजोर वर्गों के प्रति संवेदनशीलता •वस्तुनिष्ठा • सहिष्णुता •संवेदना • सहानुभूति •करुणा • समानुभूति इन मूल्यों को विशिष्ट इसलिये कहा जाता है क्योंकि सिविल सेवा के आदर्शों एवं लक्ष्यों को साकारित करने में इनकी अहम भूमिका होती है। जनता एक सिविल सेवक से उसके कर्त्तव्य पालन में इन मूल्यों के अनुरूप व्यवहार की सदैव अपेक्षा करती है। समानुभूति (Empathy) और सहानुभूति (Sympathy) में अंतरः किसी व्यक्ति की अनुभूति को समान स्तर पर जाकर अनुभूत करना ही समानुभूति कहलाता है। समानुभूति में ‘खग जाने खगहि की भाषा’ का तर्क काम करता है। जबकि, दूसरे के दर्द एवं आंतरिक संवेगों को समझना एवं उसको तार्किक मदद पहुँचाना ही सहानुभूति कहलाता है। समानुभूति में संज्ञानात्मक एवं भावात्मक दोनों घटक पाए जाते हैं। जैसे- एक एसिड हमले की शिकार लड़की यदि दूसरी पीड़ित लड़की से कहे की मैं तेरा दर्द समझा सकती हूँ, तो यह समानुभूति का संज्ञानात्मक घटक है जबकि यदि लड़की कहती है कि मैं तेरा दर्द महसूस कर रही हूँ, तब वह समानुभूति के भावात्मक घटक को परिभाषित कर रही है। किंतु, सहानुभूति सदैव बुद्धि से संचालित होती है अर्थात् संबंधित तथ्य वास्तव में कितनी सच्चाई रखता है या उसमें असत्य के कितने स्वरूप हैं, इन सबको परखने के बाद ही सहानुभूति कार्य करती है। जैसेः हम जानते हैं कि आई.एस.आई.एस. (ISIS) एक क्रूर आतंकवादी संगठन है। जब वे किसी गैर इस्लामिक व्यक्ति या निर्दोषों को विभिन्न तरीकों से मौत की सजा देते हैं तो हमें मरने वालों के प्रति सहानुभूति होती है, लेकिन जब कसाब, अफजल गुरु जैसे आतंकवादियों को अदालती आदेश पर फाँसी होती है या ओसामा बिन लादने की हत्या होती है, तब हमें उनके प्रति सहानुभूति नहीं होती क्योंकि हमारी बुद्धि सत्य के स्वरूप को समझती है। समानुभूति केवल अनुभवजन्य प्रक्रिया एवं संवेदना होती है, इसे वही महसूस कर सकता है, जिसने स्वयं संबंधित स्थिति को भोगा होगा। जबकि सहानुभूति सदैव निरपेक्ष तर्कों पर कार्य करती है।</s>
<s>[INST]आपके विचार से अनुपालन एवं आज्ञापालन में क्या अंतर है? साथ ही, उन कारकों का उल्लेख करें जो किसी व्यक्ति के ‘आज्ञापालन’ को प्रभावित करते हैं।[/INST]उत्तर : अनुपालन से अभिप्राय है- किसी दूसरे व्यक्ति के अनुरोध पर किसी कार्य का निष्पादन करना जबकि आज्ञापालन से तात्पर्य है किसी आदर के योग्य व्यक्ति, माता-पिता, अध्यापक या सरकारी अधिकारी के अनुदेश या आदेश का ‘अनुपालन’ करना है। जैसे- यदि कोई अनजान वृद्ध पास की दुकान से कोई सामान लाने के लिये आपसे अनुरोध करे और आप उसका कार्य कर दें, तो उसे अनुपालन कहा जाएगा। वहीं, यदि वह वृद्ध आपके दादा हैं और वो आपको आदेश या अनुदेश दें, तब उनका कार्य करना आज्ञापालन कहलाएगा। अनुपालन एवं आज्ञापालन में अन्य अंतरः आज्ञापालन में कोई बाहरी दबाव न होकर आंतरिक प्रेरणा या सामाजिक प्रभाव देखा जाता है जबकि अनुपालन में ऐसा नहीं होता। अनुपालन में द्वन्द्व का भाव या तनाव गौण रूप में उपस्थित रहता है, परंतु आज्ञापालन में ऐसा नहीं होता। अनुपालन का स्वरूप अस्थायी होता है, किंतु आज्ञापालन का स्वरूप अपेक्षाकृत स्थायी होता है। अनुपालन में व्यक्ति के निजी निर्णय एवं समूह निर्णय के बीच विरोध संभव है जबकि आज्ञापालन में ऐसा नहीं होता। किसी व्यक्ति का ‘आज्ञापालन’ निम्नलिखित कारकों से प्रभावित होता है- जब व्यक्ति को अपने द्वारा किये गए अपमानजनक कार्यों या सार्वजनिक पीड़ा का ज्ञान हो जाता है तो उसकी आज्ञापालन प्रवृत्ति में कमी आती है। जैसेः मान लिजिये कोई व्यक्ति मंदिर में चोरी करता है। उसके घरवालों को यह मालूम होने पर जब उसको घर पर खूब लताड़ा जाता है, तब से उसकी घरवालों के प्रति आज्ञापालन में कमी देखी जा सकती है। जब व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए गलत कार्यों के लिये उत्तरदायी ठहराया जाता है, तो उसका अधिकारी के प्रति आज्ञापालन कम हो जाता है। जब किसी अधिकृत अधिकारी के आदेश का पालन दूसरे लोग नहीं करते, तो यह देखकर व्यक्ति में आज्ञापालन घट जाता है। यदि स्थिति विपरीत हो तो आज्ञापालन बढ़ भी जाता है। जब पीड़ित की वेदना अत्यधिक बहिर्गत एवं दर्दनाक होती है, तो अधिकारी के प्रति उसका आज्ञापालन घट जाता है।</s>
<s>[INST]आप एक बेहद ईमानदार तथा सिद्धांतवादी व्यक्ति हैं। एक दिन आपको सूचना मिलती है कि आपके छोटे भाई को एक सड़क दुर्घटना में गंभीर चोटें आई हैं और वह अस्पताल में भर्ती है। उसे खून की सख्त ज़रूरत है लेकिन उसका ब्लड ग्रुप ‘ओ निगेटिव’ (O-) है जो बहुत दुर्लभ होने के कारण अस्पताल के ब्लड बैंक में उपलब्ध नहीं है। संयोग से आपका ब्लड ग्रुप ही ‘ओ निगेटिव’ है। चूँकि अत्यधिक आपातकालीन स्थिति है, ऐसे में आप पास से गुजर रहे एक पड़ोसी की मोटरसाइकिल लेते हैं और उसे तेज़ गति से चलाते हुए अस्पताल पहुँचने की कोशिश करते हैं इस ज़ल्दबाजी में आप बिना हेल्मेट पहने ही मोटरसाइकिल चला रहे होते हैं और आपका ड्राइविंग लाइसेंस भी घर पर ही रह जाता है। रास्ते में चौराहे पर एक ट्रैफिक पुलिस का कांस्टेबल आपको रोक लेता है। तेज़ गति से मोटरसाकिल चलाने, हेल्मेट न पहनने तथा ड्राइविंग लाइसेंस न होने के कारण वह आपकी मोटरसाइकिल एक तरफ खड़ी करवाकर आपका चालान बनाने लगता है। आप उसे पूरी घटना बताकर विनती करते हैं कि यह सब जल्दबाजी में हुआ है और स्थिति गंभीर है इसलिये वह आपको जाने दे। परंतु, कांस्टेबल आपके तर्कों से सहमत नहीं होता। आपको मालूम है कि आप गलती पर हैं। कांस्टेबल ने यह भी कह दिया कि अब वह बिना हेल्मेट आपको मोटरसाइकिल लेकर आगे जान नहीं देगा। परंतु कांस्टेबल की बातों से आपको लगता है कि यदि इसे रिश्वत दे दी जाती तो वह आपको जाने देगा। इसी दौरान अस्पताल से दोबार फोन आ जाता है कि आप जल्दी पहुँचें आपके भाई की स्थिति जटिल होती जा रही है। ऐसी स्थिति में आप क्या कदम उठाएंगे?[/INST]उत्तर : यहाँ स्थिति जटिल है तथा त्वरित निर्णय लेना बहुत जरूरी है। एक तरफ छोटे भाई के जीवन पर संकट मंडरा रहा है तो दूसरी ओर मेरे जीवनभर की पूंजी-मेरी ईमानदारी और मेरे नैतिक सिद्धांत, जो रिश्वत देने को सरासर अनुचित मानते हैं, को तिलाँजलि देना है। ऐसी स्थिति में मेरे समक्ष दो प्रकार विकल्प उपस्थित हैं- (i) मैं अपने सिद्धांतों से समझौता कर लूँ और कांस्टेबल को रिश्वत की पेशकश कर दूँ। रिश्वत लेकर वह मुझे शीघ्रता से जाने दे सकता है और अस्पताल में जल्दी से पहुँचकर मैं अपने छोटे भाई की जान बचा सकता हूँ। (ii) मैं अपने सिद्धांतों पर अडिग रहूँ। कांस्टेबल को रिश्वत न दूँ और उसे मोटरसाइकिल चालान करने दूँ। इसके पश्चात् ऑटो या कैब लेकर अस्पताल जाऊँ। इसमें सिद्धांतों की रक्षा तो हो जाएगी लेकिन थोड़ा अतिरिक्त वक्त लग सकता है। इन दोनों विकल्पों में से मैं दूसरे विकल्प को ही चुनूगाँ क्योंकि- रिश्वत लेना एवं देना दोनों अनैतिक एवं अवैध कृत्य हैं। कांस्टेबल ने प्रत्यक्ष तौर पर रिश्वत नहीं मांगी है। यह भी हो सकता है कि मुझे जो प्रतीत हुआ हो उसके विपरीत कांस्टेबल का चरित्र हो। ऐसी स्थिति में वह मेरे खिलाफ ‘रिश्वत की पेशकश’ करने के जुर्म में कार्रवाई भी कर सकता है। पहले विकल्प में यदि मुझे रिश्वत देने के बाद मोटरसाइकिल मिल भी जाती तो बिना हेलमेट पहने मोटरसाइकिल चलाना स्वयं की जान को खतरे में डालना भी होता। यहाँ एक ‘जीवन’ की रक्षा के लिये दूसरे ‘जीवन’ को खतरे में डालना उचित नहीं जान पड़ता। रिश्वत देने की स्थिति में मुझे सारी उम्र आत्मग्लानि का बोध रहता। गांधी जी ने भी कहा है कि ‘साध्य’ के साथ-साथ ‘साधन’ की पवित्रता भी आवश्यक होती है। यह संभव है कि दूसरे विकल्प में थोड़ा अतिरिक्त वक्त लग सकता था किंतु घटना के दौरान मैं अस्पताल के चिकित्सकों से बात करता रहता और उन्हें मेरे पहुँचने तक अतिरिक्त प्रयास करने का निवेदन करता। फिर, कांस्टेबल का नाम व चौकी की जानकारी लेकर, मोटरसाइकिल की चाबी कांस्टेबल को सौंप किसी ऑटो या कैब से जल्दी-से-जल्दी अस्पताल पहुँचता।</s>
<s>[INST]‘अनुपालन’ से आपका क्या अभिप्राय है? अनुपालन की विविध प्रविधियों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : अनुपालन से अभिप्राय है- किसी दूसरे व्यक्ति के अनुरोध पर किसी कार्य का निष्पादन करना। जैसे- यदि कोई दृष्टिहीन व्यक्ति आपसे सड़क पार करवाने का अनुरोध करे और आप उसकी मदद कर उसे सड़क पार करा दें तो इसे अनुपालन कहा जाएगा। अनुपालन में किसी पुरस्कार की अपेक्षा या दण्ड का भय नहीं रहता और इसमें तनाव या द्वन्द्व गौण होता है। सीधे शब्दों में कहें तेा अनुपालन सामाजिक प्रभाव का एक रूप है, जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से सीधे अनुरोध करता है तथा प्रत्युत्तर में दूसरा व्यक्ति अनुरोध के अनुरूप व्यवहार कर देता है। अनुपालन की विविध प्रविधियाँः फुट इन द डोर तकनीक (Foot in the door technique): इस प्रविधि में पहले लक्षित व्यक्ति से छोटे निवेदन स्वीकार करने के लिये कहा जाता है तथा कुछ समय पश्चात् बड़े या जटिल निवेदन मान लेने का अनुरोध किया जाता है। इस तकनीक के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि जब व्यक्ति छोटे व साधारण निवेदन को मान लेगा, तो बाद में वह बड़े तथा जटिल निवेदन को भी स्वीकार कर लेगा। डोर इन द फेस तकनीक (Door in the face technique): इस प्रविधि में लक्षित व्यक्ति से पहले जटिल एवं बड़े निवेदन स्वीकार करने के लिये कहा जाता है। इसके पश्चात् छोटे निवेदन मानने के लिये कहा जाता है। इस तकनीक के पीछे तर्क यह है कि जब लक्षित व्यक्ति बड़े निवेदन ही मान लेगा तो छोटा निवेदन तो सहज रूप से स्वीकार ही लेगा। लो बॉल तकनीकः इस प्रविधि में लक्षित व्यक्ति को पहले आंशिक सूचना के आधार पर निवेदन स्वीकारने के लिये राजी कराया जाता है तथा बाद में पूर्ण सूचना के आधार पर। इस तकनीक के पीछे तर्क यह है कि जब व्यक्ति एक बार वचनबद्ध हो जाता है तो वह जल्दी से निवेदन अस्वीकार नहीं करेगा।</s>
<s>[INST]कार्य संस्कृति किसी भी संगठन ही प्रगति या अवसान में सबसे महत्त्वपूर्ण कारक होती है। एक अच्छी कार्य संस्कृति की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए इस विषय पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : कोई भी संगठन पूर्णतः मशीनीकृत नहीं होता उसमें मानव संसाधन की उपस्थिति अवश्य होती है स्वाभाविक है कि उन मानव-संसाधनों को कार्य करने हेतु एक अनुकूल माहौल एवं सुविधाएँ भी मिलती है ताकि वे संगठन के लिये अपना श्रेष्ठतम दे सकें। किसी संगठन की कार्य-निष्पादन शैली जो उस संगठन के बारे में लोगों की अपनी राय विकसित करने का अवसर देती जिसमें लोग उस संगठन/संस्था से जुड़ने या न जुड़ने का निर्णय ले सकने में सक्षम होते हैं संगठन की ‘कार्य-संस्कृति’ कहलाती है। यह किसी संगठन की प्रगति या अवसान में सबसे महत्त्वपूर्ण कारक होती है। एक व्यवस्थित तथा समानता व सद्भावयुक्त प्रगतिशील कार्य संस्कृति अपने कर्मचारियों के मनोबल को निरंतर बनाए रखकर अपना लक्ष्य आसानी से प्राप्त कर लेती है। एक अच्छी कार्य-संस्कृति की विशेषताएँः एक सकारात्मक कार्य-संस्कृति में कर्मचारियों की क्षमताओं भरोसा किया जा सकता है तथा संगठन में योग्य लोगों का चुनाव किया जाता है। इसमें संगठन अपने उद्देश्यों के प्रति परिणामोन्मुख होता है तथा इसके उद्देश्यों में किसी सीमा तक जनहित का भी ध्यान रखा जाता है। संगठन के कर्मचारियों को अपने किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये नवाचार को अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। कर्मचारियों को अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिये विवेकाधिकार से निर्णय लेने तथा अपने विशेषाधिकार के सकरात्मक प्रयोग के लिये छूट भी दी जाती है। संगठन के प्रत्येक कर्मचारी को संगठन के प्रति अपने दायित्वों का बोध होता है तथा कर्मचारी स्वयं को संगठन का एक अभिन्न हिस्सा समझते हैं। संगठन की प्रगति में वे स्वयं की प्रगति समझते हैं। संगठन के सभी कर्मचारियों में सामूहिकता की भावना होती है। वे परस्पर सहयोग एवं प्रेरणा से संगठन की प्रगति में अपना योगदान देते हैं। मेरे विचार से जब तक किसी व्यक्ति को अनुकूल व सकरात्मक माहौल नहीं मिलता तब तक वह अपनी क्षमताओं का सही उपयोग नहीं कर पाता। जब उसकी क्षमताओं पर संगठन विश्वास करता है, उसके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करता तथा उसे आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर देता है तो व्यक्ति भी संगठन के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देता है। और, ये सब एक अच्छी कार्य-संस्कृति में ही संभव है। इन सबके विपरीत एव नकरात्मक कार्य-संस्कृति में कर्मचारी सदैव हतोत्साहित रहते हैं तथा वे अपनी क्षमताओं को पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते। अतः निश्चित ही कार्य-संस्कृति किसी संगठन की प्रगति अथवा अवसान में महत्त्वपूर्ण कारक होती है।</s>
<s>[INST]नैतिक संहिता (Code of Ethics) और आचार संहिता (Code of conduct) में अन्तर स्पष्ट करें। साथ ही, उन नैतिक सिद्धान्तों का उल्लेख करें जिनका अनुपालन लोकसेवकों द्वारा किये जाने का सुझाव द्वितीय प्रशासनिक आयोग ने दिया है।[/INST]उत्तर : नैतिक संहिता और आचार संहिता को व्यावहारिक दृष्टि से तो पूर्णतः पृथक नहीं किया जा सकता क्योंकि दोनों का संबंध प्रशासन में नैतिकता की स्थापना से है, किन्तु, इन दोनों में सैद्धान्तिक तौर पर निम्नलिखित अन्तर हैं- नैतिक संहिता में नैतिक मूल्यों को शामिल किया जाता है, जबकि आचार संहिता में उन आचरणों एवं कार्यों का उल्लेख होता है जो नैतिक संहिता से सुसंगत तथा उसी पर आधारित होते हैं। नैतिक संहिता सामान्य एवं अमूर्त होती है, जबकि आचार संहिता विशिष्ट एवं मूर्त होती है। नैतिक संहिता के अन्तर्गत शासन के प्रमुख मार्गदर्शी सिद्धान्तों को रखा जाता है जबकि आचार-संहिता में स्वीकृत एवं अस्वीकृत व्यवहारों की सूचना और कार्रवाई को रखा जाता है। नैतिक संहिता स्थायी होती है जबकि आचार संहिता परिवर्तनशील होती है। जैसे- ‘ईमानदारी’ नैतिक-संहिता का एक पक्ष है जो सदैव यथावत् है परन्तु आचार संहिता में परिवर्तन आवश्यक है क्योंकि समय के साथ-साथ ‘आचरण’ के भिन्न-भिन्न रूप (भ्रष्टाचार, अपराध आदि) सामने आते रहते हैं। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने लोकसेवकों द्वारा अनुपालन किये जाने के लिये निम्नलिखित सिद्धान्तों का सुझाव दिया है- सत्यनिष्ठा : लोकसेवकों को निर्णय निर्माण में केवल सार्वजनिक हितों का ध्यान रखना चाहिये न कि व्यक्तिगत हितों का। निष्पक्षता : लोकसेवकों को अपने आधिकारिक कार्य के निष्पादन में गुण एवं अवगुणों के आधार पर निर्णय लेना चाहिये। प्रतिबद्धता : सार्वजनिक सेवा के प्रति लोकसेवकों को प्रतिबद्ध रहना चाहिये। उच्च व्यवहार : लोकसेवकों को सभी लोगों के साथ सम्मान व विनम्रता के साथ व्यवहार करना चाहिये। कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा : लोकसेवकों को सदैव अपने कर्त्तव्यों एवं जिम्मेदारियों के प्रति पूर्ण लगन बनाए रखनी चाहिये। जवाबदेही : एक लोकसेवक को अपने निर्णयों एवं कर्त्तव्यों के प्रति जवाबदेह होना चाहिये।</s>
<s>[INST]आप देश की राजधानी से बहुत दूर एक छोटे-से कस्बे में रहते हैं। देश की जनसंख्या के हिसाब से तो आपका समुदाय ‘अल्पसंख्यकों’ के अंतर्गत आता है किंतु आपके कस्बे में आपका समुदाय कस्बे की कुल जनसंख्या का 80 प्रतिशत है। आपके कस्बे की साक्षरता दर काफी कम है क्योंकि आपके समुदाय के लोग आधुनिक पढ़ाई को बहुत अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। आप थोड़े प्रगतिशील विचारों वाले पढ़े-लिखे इंसान हैं। आपने प्रेम-विवाह किया है और आपकी पत्नी कस्बे के ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय से संबंध रखती हैं। एक दिन अचानक कस्बे में दंगे भड़क जाते हैं। दरअसल किसी व्यक्तिगत मुद्दे को लेकर कस्बे में आपके समुदाय के सबसे बड़े व सम्मानित धार्मिक व्यक्ति की दूसरे समुदाय के कुछ लोगों द्वारा हत्या कर दी जाती है; जिससे पूरा कस्बा दंगे की चपेट में आ जाता है। चूँकि आपका समुदाय आपके कस्बे में बहुसंख्यक है इसलिये स्वाभाविक है कि दंगे के नियम भी आपके समुदाय के कुछ कट्टर लोग तय करते हैं। वे तीन तरह के ‘आदेश’ जारी करते हैं- 1. सभी अल्पसंख्यकों को मार दिया जाए। 2. अपने समुदाय के जिस भी लड़के/लड़की ने दूसरे समुदाय की लड़के या लड़की से शादी की है, उनमें से भी उस ‘दूसरे’ को मार दिया जाए। 3. अपने समुदाय का जो भी व्यक्ति इस ‘पवित्र’ कार्य में सहयोग न करे और दूसरे समुदाय के लोगों की सहायता करे, उसे भी गद्दार समझकर मार दिया जाए। आपके पड़ोस में कुछ दूसरे समुदाय के लोग रहते हैं जिनके साथ आपका वर्षों से बहुत अच्छा व्यवहार रहा है। वे सभी अत्यन्त भयभीत और आतंकित होकर आपके पास आते हैं। आपके पड़ोस में कुछ परिवार आपके समुदाय के भी हैं जिनमें कुछ अनपढ़-शरारती तत्त्व हैं जो अच्छी तरह जानते हैं कि आपकी पत्नी भी दूसरे समुदाय की है। ऐसी जटिल परिस्थिति में आप क्या कदम उठाएंगे? स्मरण रहे कि आपके कस्बे का देश के दूरदराज इलाके में स्थित होने व कस्बे की पुलिस आदि में अधिकतर लोग आपके समुदाय के ही होने से आपको बाहरी मदद मिलने की संभावना भी काफी कम है।[/INST]उत्तर : यहाँ स्थिति बहुत विकट है। यहाँ एक घटना-विशेष को धर्म का रंग देकर पूरे कस्बे को दंगे की चपेट में ले लिया गया है तथा दूसरा यह कि इस दुर्भाग्यपूर्ण ‘प्रतिक्रिया’ का नेतृत्व कट्टरपंथी लोगों के हाथों में है। मुझे मेरी पत्नी, पड़ोसी एवं स्वयं के साथ-साथ ‘मानवता’ की रक्षा भी करनी है। ऐसी परिस्थितियों में मैं निम्नलिखित कदम उठाऊँगा- (i) मैं अपने समुदाय के नेता व अन्य प्रभावशील लोगों, जो थोड़े उदार प्रकृति के हों, से फोन पर या मिलकर बात करूँगा और उन्हें समझाऊंगा कि हमें इन पागलपन भरे ‘आदेशों’ को रोकना होगा क्योंकि ये गलत व गैर-कानूनी तो हैं हीं, मानवता के विरुद्ध भी हैं तथा दूसरी बात यह भी समझाऊंगा कि कस्बे में बेशक हम ‘बहुसंख्यक’ हैं किंतु देश में ‘अल्पसंख्यक’ हैं। यदि अपने कस्बे में आज हमनें दूसरे समुदाय के लोगों को मारा तो देशभर में अपने समुदाय के लोग असुरक्षित हो जाएँगे और संभव है फिर इससे कहीं बड़ा नरसंहार हों। (ii) मैं पुलिस से भी लगातार संपर्क करने तथा सुरक्षा देने का निवेदन करूँगा। संभव है कि पुलिस में दूसरे समुदाय के भी जो अधिकारी हों वे लगातार स्थिति संभालने का प्रयत्न कर रहे हों और मेरी मदद कर दें। (iii) मैं अपने पड़ोस के दूसरे समुदाय के सभी लोगों को एक स्थान पर इक्ट्ठा होने को कहूँगा तथा उनमें जो युवा और ताकतवर होंगे, उनको हथियार सहित सबसे आगे रखते हुए किसी बाहरी सहायता के आने का इंतजार करने को कहूँगा। हथियार बंद युवाओं और अन्य ताकतवर लोगों को देखकर मेरे समुदाय के कट्टर लोग भी हमला करने से पहले तैयारी करना चाहेंगे और स्थिति को थोड़े समय के लिये टाला जा सकेगा। (iv) यदि स्थितियाँ किसी भी तरह ठीक न रहें तो मानवता की रक्षा के लिये ‘अल्पसंख्यकों’ की सुरक्षा के लिये उनके साथ मैं अपने समुदाय के कट्टरपंथियों से लडूँगा और निर्दोषों की जान बचाने का प्रयास करूँगा, चाहे फिर इसका परिणाम मेरी कितनी ही बड़ी व्यक्तिगत क्षति ही क्यों न हो जाये।</s>
<s>[INST]आपकी दृष्टि में नागरिक घोषणापत्र (Citizen Charter) को किस प्रकार प्रभावी बनाया जा सकता है? किसी सरकारी संस्थान की कार्य-संस्कृति को सुधारने में नागरिक घोषणापत्र की भूमिका की उदाहरणों के साथ चर्चा करें।[/INST]उत्तर : नागरिक घोषणापत्र एक ऐसा दस्तावेज होता है जिसमें कोई संगठन अपनी सेवाओं के मानक, संगठन संबंधित सूचनाओं, पसंद और परामर्श, सेवाओं तक भेदभावरहित पहुँच, शिकायत निवारण और शिष्टाचार आदि के संबंध में अपने नागरिकों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का व्यवस्थित वर्णन करता है। नागरिक घोषणापत्र में यह सुनिश्चित किया जाता है कि सार्वजनिक सेवाएँ नागरिक केन्द्रित हों। मेरी दृष्टि में निम्नलिखित उपायों से नागरिक घोषणापत्र को प्रभावी बनाया जा सकता है- (i) आदर्श नागरिक घोषणापत्र संहिता का पालन किया जाए। (ii) नागरिक घोषणापत्र बनाते समय शोध और अनुसंधान पर विशेष बल दिया जाए। (iii) नागरिक घोषणापत्र के निर्माण की प्रक्रिया को पारदर्शी एवं परामर्शी बनाने के लिये नागरिक समाज व मीडिया की प्रभावी भूमिका सुनिश्चित की जाए। (iv) नागरिक घोषणापत्र का समयबद्ध पुनर्मूल्यांकन किया जाए। (v) जन प्रतिक्रियाओं के आधार पर नागरिक घोषणापत्र में सुधार या परिवर्तन किया जाए। (vi) नागरिक घोषणापत्र को वैधानिक दर्जा प्रदान किया जाए। किसी सरकारी संस्थान की कार्य-संस्कृति को सुधारने में नागरिक घोषणापत्र निम्नलिखित प्रकार से अपनी भूमिका निभा सकता है- (i) सरकारी संस्थान के कर्मचारियों में नौकरी की अत्यधिक सुरक्षा (Job security) के चलते किसी प्रकार के नकारात्मक प्रभाव का खतरा नहीं होता। इसीलिये वो प्रायः अपने काम के प्रति थोड़ा लापरवाह होते हैं। परंतु, यदि सरकारी संस्थानों में नागरिक घोषणापत्र लागू कर दिया जाए तो कर्मचारियों के लिये समय रहते अपने लक्ष्य पूरे करना आवश्यक हो जाएगा है और वो अपने उत्तरदायित्व के प्रति ज़्यादा सजग रहेंगे। (ii) सरकारी संस्थान की कार्य संस्कृति में प्रायः नवाचारों के प्रति असहमति का भाव होता है। नागरिक घोषणापत्र लागू होने से कर्मचारियों द्वारा अपने कार्यों को समय पर करने तथा परिणाम जल्दी पाने के लिये नवाचारों को अपनाना होगा। उदाहरण के तौर पर कार्यालयों का कम्प्यूटरीकरण हो जाना। (iii) सरकारी संस्थानों के कर्मचारियों में प्रायः एकता की भावना की अनुपस्थिति होती है। परंतु, नागरिक घोषणापत्र लागू करने से कार्य का दबाव बढ़ने के फलस्वरूप एक-दूसरे के सहयोग की अपेक्षा के चलते कर्मचारियों में एकता की भावना उत्पन्न होना स्वाभाविक हो जाता है। निष्कर्षतः नागरिक घोषणापत्र एक सरकारी संस्थान की कार्य संस्कृति में निश्चित तौर पर सकारात्मक बदलाव लाता है और उसे नागरिक केन्द्रित स्वरूप प्रदान करता है।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित पारिभाषित शब्दों के बीच विभेदन करेंः (i) अंतःप्रज्ञा (Intuition) और अंतरात्मा (Conscience) (ii) नैतिक कृत्य (Ethical Act) और विधिसम्मत कृत्य (Legal Act) (iii) प्रतिबद्धता (Commitment) और अध्यवसाय (Perseverance)[/INST]उत्तर : (i) अंतःप्रज्ञा: किसी विषय को बिना तर्क-शक्ति के प्रयोग के सहज रूप से समझने की शक्ति अंतःप्रज्ञा कहलाती है। किसी आकस्मिक घटना के घटने से पूर्व या अचानक किसी व्यक्ति के साथ अंतर्क्रिया करते हुए हमारे अंतर्मन में सकारात्मक या नकारात्मक भाव अंतःप्रज्ञा से ही आते हैं। अंतरात्माः उचित और अनुचित के मध्य विभेद की नैतिक शक्ति जो व्यक्ति के व्यवहार को निर्धारित करती है या दिशा देती है, उसे अंतरात्मा के रूप में देखा जाता है। बटलर के अनुसार अंतरात्मा को दो पक्ष हैं- ज्ञानात्मक पक्ष, जो बताता है कि किसी विशिष्ट स्थिति में कौन-सा नियम या कर्म नैतिक है और कौन-सा अनैतिक। दूसरा, अधिकारात्मक पक्ष जो व्यक्ति पर दबाव बनाता है कि वह अंतरात्मा के निर्णय को स्वीकार करे और इसी के अनुरूप आचरण करे। (ii) नैतिक कृत्यः ऐसा कृत्य जो समाज द्वारा स्वीकृत नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों के अनुरूप होता है, वह नैतिक कृत्य कहलाता है। जैसेः भारतीय संस्कृति में विवाह के पश्चात् ही स्त्री द्वारा संतान उत्पन्न करना नैतिक तौर पर उचित माना जाता है। विधि-सम्मत कृत्यः ऐसा कृत्य जो किसी देश के संविधान व कानूनों के आलोक में उचित हो, विधि-सम्मत कृत्य कहलाता है। जैसेः बालिग होने के पश्चात् किसी भी धर्म या जाति का होने के बावजूद लड़की और लड़का आपसी सहमति से शादी कर सकते हैं। यह बिलकुल भी आवश्यक नहीं है कि जो कृत्य नैतिक हो वह अनिवार्यतः विधि-सम्मत भी हो या जो कार्य विधि-सम्मत हो वह सभी समाजों में नैतिक समझा जाता हो। जैसे- मुस्लिम समाज में तीन तलाक की प्रथा नैतिक समझी जाती है परंतु यह संविधान या विधि-सम्मत नहीं है; वहीं कानूनी तौर पर ‘लिव-इन रिलेशन्स’ को वैध समझा जाता है परंतु कई समाजों में इसे अनैतिक समझा जाता है। (iii) प्रतिबद्धताः प्रतिबद्धता किसी व्यक्ति का आंतरिक गुण होता है। व्यक्ति मूल्यों, विचारधारा या किसी कार्य के प्रति प्रतिबद्ध हो सकता है। उदाहरण के तौर पर एक लोकसेवक को वंचित समूहों को मुख्यधारा में लाने के लिये सामाजिक न्याय व कल्याणकारी उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिये। अध्यवसायः अध्यवसाय से तात्पर्य है- किसी दूरगामी तथा कठिन उद्देश्य की प्राप्ति होने तक धैर्य तथा अांतरिक प्रेरणा बनाए रखना। बीच-बीच में आने वाली चुनौतियों तथा बाधाओं से हतोत्साहित करने वाली परिस्थितियों में अपनी आशावादी मानसिकता के साथ संघर्ष करते रहना।</s>
<s>[INST]क्या आप मानते हैं कि राजनीति ने हमारे जीवन और हमारी सोच को दूषित किया है? अपना मत तर्क सहित प्रकट करें।[/INST]उत्तर : वर्तमान समय में एक सामान्य अवधारणा है कि राजनीति में सर्वत्र गंदगी फैली हुई है और इसका कुप्रभाव आमलोगों के जीवन और सोच पर भी पड़ा है। दुर्भाग्य से यह कथन सत्य है, किंतु यदि हम तथ्यों का संपूर्ण विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि महज राजनेता और राजनीति को दोषी ठहराना मुद्दे का सरलीकरण होगा। निश्चय ही आज राजनीति में सर्वत्र अनैतिकता का बोलबाला है। बड़े-बड़े घोटालों ने इस अवधारणा को बल प्रदान किया है कि राजनीति एक पंचवर्षीय व्यवसाय है। 2जी, कॉमन वेल्थ, कोल ब्लाक आदि घोटालों ने लोगों यह सोचने पर मजबूर किया है कि मंत्री और राजनेता सफेद कपड़ों वाले लुटरों के समान हैं। इसका कुप्रभाव हमारे जीवन और सोच को विभिन्न तरीकों से प्रभावित करता है। लोगों ने भ्रष्टाचार को जीवन के एक अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार कर लिया है। लोगों में एक आम धारणा घर करती जा रही है कि काम करने के लिये पैसे लो और काम करवाने के लिये पैसे दो। इतना ही नहीं आज राजनीति में भाई-भतीजावाद व परिवारवाद भी पहले से कहीं अधिक है। फिर राजनीति में जाति व धर्म का बोलवाला भी अत्यधिक है। इन सबका प्रभाव हम सब अपने जीवन देखते व अनुभव करते हैं। परंतु केवल राजनेता व राजनीति को दोष देना उचित नहीं है क्योंकि राजनेता व राजनीति की उत्पत्ति भी तो समाज से ही होती है, जैसा समाज होगा वैसी ही राजनीति होगी। समाज व राजनीति दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। अतः समाज भी समान रूप से दोषी है। आमलोगों में उपभोक्तावाद के बढ़ते प्रसार ने भौतिक सुविधाओं के लिये कोई भी कृत्य करने के लिये प्रेरित किया है, जिससे व्यक्ति प्रायः अनैतिक कार्यों में लिप्त हो जाता है। यह समाज की कमी है कि भौतिकवाद को नैतिकता से अधिक महत्त्व दिया जा रहा है और इसका प्रभाव राजनीति में भी स्पष्ट रूप से दिखता है।</s>
<s>[INST]पितृसत्तात्मक अभिवृत्ति वर्तमान में परिवार रूपी संस्था को गहरी क्षति पहुँचा रही है। अपनी सहमति/असहमति को तर्क-सहित स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : ऐसी सामाजिक व्यवस्था जिसमें जीवन के हर क्षेत्र के संबंध में निर्णय लेने का एकमात्र अधिकार पुरुषों को प्राप्त होता है तथा खान-पान, पहनावा, शिक्षा, रोज़गार, विवाह, संपत्ति आदि से संबंधित निर्णय पुरुष की सहमति पर निर्भर होते हैं, पितृसत्तात्मक व्यवस्था कहलाती है। ऐसी व्यवस्था में परिवार के अंदर पिता/पति या अन्य पुरुष महिलाओं एवं बच्चों पर अधिकार जमाते हैं। धर्म, समाज और रूढ़िवादी परम्पराएँ इस व्यवस्था को अधिक ताकतवर बनाती हैं। ऐसी सामाजिक व्यवस्था में ही पितृसत्तात्मक अभिवृत्ति का विकास होता है। भारतीय समाज सदियों से पितृसत्तात्मक रहा है। परंतु, आधुनिक शिक्षा, नारीवादी आंदोलनों एवं प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की अगुवाई में ‘नारी-सशक्तीकरण’ की धारा में अब यह व्यवस्था दरकने लगी है। निश्चित तौर पर पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के अधिकारों को दोयम दर्जे का माना जाता है, लेकिन अब शिक्षित, सशक्त और आत्मनिर्भर महिलाएँ जब परिवार एवं समाज में बराबरी का दावा करने लगी हैं तो पुरुष वर्चस्व के समक्ष गंभीर चुनौती उत्पन्न हो गई है। परिवार के स्तर पर पितृसत्तात्मक अभिवृत्ति जहाँ पुरुषों के अहम् को बढ़ावा देती है वहीं महिलाओं के बराबरी के अधिकार को नकारती भी है। क्योंकि, वर्तमान में कानून महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है तथा अब कानूनों एवं संविधान के भरोसे महिला अपने परिवार में बराबरी का अधिकार माँग रही है जिससे तनाव और टकराव उस स्तर पर पहुँचने लगा है कि परिवार रूपी संस्था कमजोर होने लगी है। यह सत्य है कि कोई भी व्यवस्था सदैव एक समान प्रासंगिक नहीं रहती, उसमें समय के साथ बदलाव लाना जरूरी होता है। प्राचीन एवं मध्यकाल के युद्ध-आछन्न युग ने पितृसत्तात्मक सत्ता की नींव रखी थी, लेकिन आज समय की माँग है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं को भी पुरुषों के समान अवसर व सम्मान दिया जाए। इससे समाज में तनाव तो कम होगा ही ‘परिवार रूपी संस्था’ भी मजबूत ही होगी।</s>
<s>[INST]धारण (Persuasion) से आपका क्या अभिप्राय है? किसी व्यक्ति के राजनीतिक जीवन में इसकी कितनी भूमिका होती है? उदाहरणों के साथ अपने विचारों को स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर : ‘धारण’ एक प्रकार का संप्रेषण संचार या अभिव्यक्ति है जो उद्देश्यपूर्ण होता है। यह श्रोताओं या पाठकों की अभिवृत्ति में परिवर्तन के उद्देश्य से संचालित किया जाता है। धारण करने के अनेक तरीके होते हैं जैसे- सीधे वार्तालाप, पोस्टर, रेडियो, बिलबोर्ड, इंटरनेट, मैगछाीन, टेलीविजन, अखबार आदि। कोई भी नेता अपने राजनीतिक जीवन में लगभग रोज़ाना सैकड़ों लोगों से मिलता है। उसे सबकी समस्याएँ सुनकर उन्हें हल करने का भरोसा दिलाना होता है। साथ-ही-साथ, अपने द्वारा उठाए गए हर कदम के संबंध में अपने समर्थकों को सहमत करना होता है। यह एक बहुत ही मुश्किल कार्य है, इसलिये ‘धारण’ की काबिलियत होने पर ही एक नेता राजनीति में सफल हो पाता है। प्रायः एक राजनेता पोस्टर, बिलबोर्ड, अखबार आदि के जरिये जनता के मध्य अपनी एक ऐसी छवि बनाने की कोशिश करता है जिससे जनता उसे एक आकर्षक व्यक्तित्व के रूप में मान्यता दे। रेडियो, टेलीविजन आदि के माध्यम से प्रायः जहाँ सत्तापक्ष के राजनेता अपनी नीतियों के उचित होने के संबंध में जनता को स्पष्टीकरण देकर संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं, वहीं विपक्ष सरकार की नीतियों के विरूद्ध जनता को लामबद्ध करने की कोशिश करता है। धारण के उदाहरणः माननीय प्रधानमंत्री द्वारा ‘मन की बात’ के जरिये अपनी ‘विमुद्रीकरण नीति’ के समर्थन में जनता से सहयोग माँगने की अपील तथा इस कदम को जनहित में उचित साबित करने की कोशिश। चुनावों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा ‘सोशल मीडिया’ के जरिये जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयास। एक लोक सेवक द्वारा दंगा प्रभावित क्षेत्र में विरोधी समुदायों के प्रतिनिधियों को बातचीत के लिये राजी करना आदि।</s>
<s>[INST]करूणा और लोक सेवा के प्रति समर्पण भाव जैसे सद्गुण लोक सेवा में किस प्रकार प्रदर्शित होते हैं? उदाहरणों के साथ स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : करूणा वह भावना है जो कमजोर वर्ग या व्यक्तियों की स्थिति को समझने तथा उनके प्रति समानुभूतिक चिंता रखने से उत्पन्न होती है। यह भावना पीड़ितों को कष्ट मुक्त कराने में सहायता के लिये प्रेरित करती है। एक लोक सेवक के भीतर करूणा परोपकार और समाज के अंतिम व्यक्ति तक लाभ पहुँचाने की भावना का विकास करती है। तमिलनाडु में जन्मे तथा ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित पूर्व प्रशासनिक सेवा अधिकारी एस.आर. शंकरन का उदाहरण यहाँ लिया जा सकता है। एस.आर. शंकरन ने बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन में बड़ी भूमिका निभाई थी। आंध्र प्रदेश में नक्सली हिंसा का खात्मा हो या ‘बेजवाडा विल्सन’ के साथ मिलकर ‘मैला ढ़ोने’ की प्रथा के उन्मूलन की दिशा में सार्थक योगदान, एस.आर. शंकरन ने सदैव वंचितों के उत्थान के लिये अथक प्रयास किये। उन्होंने शादी नहीं कि क्योंकि वो पूरा वक्त समाज को देना चाहते थे। उन्होंने सदैव अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा आर्थिक रूप से वंचित लोगों की भलाई के लिये व्यय किया। इसी प्रकार, यदि किसी लोक सेवक में लोक सेवा के प्रति समर्पण की भावना है तो उसमें निम्नलिखित लक्षण दिखाई देंगे- 1. अपने कार्य को महज एक नौकरी समझकर करने की अपेक्षा एक लोक सेवा का मंच समझ उत्साहपूर्वक कार्य करना। 2. वंचित वर्गों की सहायता में गहरा संतोष महसूस करना। 3. यदि कोई जरूरतमंद व्यक्ति सरकारी सेवाएँ पाने के लिये औपचारिकताएँ पूरी नहीं कर पा रहा है तो आगे बढ़कर उसकी सहायता करना। लोक सेवा के प्रति समर्पण की भावना का एक उदाहरण बिहार कैडर के आई.पी.एस. शिवदीप वामन लांडे का लिया जा सकता है। उनको अपराधियों को गिरफ्तार करने, फार्मास्यूटिकल माफिया के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने तथा महिलाओं की सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण प्रयास करने के लिये जाना जाता है। वो अपनी तनख्वाह का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा गरीब लड़कियों की शादी और गरीबों के लिये छात्रावास बनाने जैसे सामाजिक कार्यों में खर्च करते हैं। वे छेड़खानी करने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करते हैं और सदैव लोगों से मिलने के लिये उपलब्ध रहते हैं। यही कारण है कि जब उनका स्थानांतरण पटना से अररिया किया गया तो इसके विरोध में जनता ने सड़कों पर प्रदर्शन किया।</s>
<s>[INST]प्रायः सामाजिक समस्याओं के निराकरण में प्रशासन को सहयोग देने की अनिच्छुक जनता को एक लोकसेवक अपने किन सद्गुणों से लोक-कल्याण की योजनाओं में भागीदार बना सकता है? उपयुक्त उदाहरणों के साथ चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : भारत में सामान्यत: जनसाधारण की सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में प्रशासन के साथ भागीदारी करने की रुचि का अभाव पाया जाता है। जनता के मन में यह अवधारणा पाई जाती है कि जो जिम्मेदारी सरकार या प्रशासन की है, उसमें हम क्यों सहयोग करें। परन्तु, यह तो तय है कि बिना जनता की भागीदारी के लोक-कल्याणकारी योजनाओं में पूर्ण सफलता या लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं है। उदाहरण के तौर पर यदि हम माननीय प्रधानमंत्री के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को ही लें तो जब तक भारत की जनता अपने आस-पास की गंदगी को दूर नहीं करेगी और कूड़ा-कचरा फैलाना या खुले में शौच जाना बंद नहीं करेगी, तब तक ‘स्वच्छ भारत’ के लक्ष्य की केवल सरकारी मशीनरी से प्राप्ति असंभव ही कही जाएगी। एक लोकसेवक अपने कार्य के प्रति सत्यनिष्ठा, दायित्वों के प्रति ईमानदारी, जनसेवा के प्रति अपने समर्पण भाव, संवेदना जैसे सद्गुणों तथा ‘अनुनयन’ जैसी योग्यता के सहारे जनता को लोक-कल्याण की योजनाओं में भागीदार बना सकता है। जब कोई लोकसेवक सत्यनिष्ठा से अपना कार्य करता है तो उसे जनता का विश्वास प्राप्त हो जाता है। ऐसा विश्वसनीय लोकसेवक जब संवेदना से अभिप्रेरित हो वंचितों एवं पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिये समर्पण भाव से ईमानदार कोशिश करता है तो उसे सामाजिक परिवर्तन व लोक कल्याण की योजनाओं को लागू करने में जनता का सक्रिय सहयोग मिलता है। उदाहरण के तौर पर इसे मणिपुर के एक युवा आई.ए.एस. अधिकारी आर्मस्ट्रांग पामे की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा का परिणाम ही कहेंगे कि जब आर्मस्ट्रांग पामे ने बिना सरकारी सहायता के लोगों की सुविधा के लिये मणिपुर को असम और नागालैण्ड से जोड़ने के लिये 100 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने की ठानी तो उनकी सहायता के लिये स्वयंसेवकों एवं दानकर्त्ताओं की कतारें खड़ी हो गई और जनसाधारण के सहयोग से उन्होंने अपने लक्ष्य को प्राप्त भी किया। दरअसल ब्रिटिश शासन के दौर से ही जनता का प्रशासन से विलगाव रहा है और इस अभिवृत्ति को बदलने में एक लोकसेवक को सद्गुणों के साथ-साथ अपनी अनुनयन की योग्यता का भी अधिकतम उपयोग करना होगा।</s>
<s>[INST]एक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में नागरिक निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्मित विभिन्न कानूनों द्वारा प्रशासित होते हैं। चूंकि ‘कानून’ ही प्रशासन का नैतिक मार्गदर्शन करते हैं, इसीलिये कानून-निर्माण करते समय विधायिका को किन पहलुओं पर जरूर गौर करना चाहिये? साथ ही, एक अच्छे कानून के कुछ लक्षणों का भी उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : ‘कानून’ नियमों का एक संकलन होता है, जो नागरिकों पर किसी कार्य को करने या न करने की बाध्यता आरोपित करता है। किसी सामाजिक व्यवस्था को नियमित करने के लिये कानून की उपस्थिति आवश्यक होती है। कानून ही किसी देश के प्रशासन हेतु नैतिक मार्गदर्शक का भी कार्य करते हैं। कानून किसी भी समाज में सामञ्जस्यपूर्ण वातावरण के निर्माण के लिये आवश्यक होते हैं। किसी कानून के निर्माण के दौरान विधायिका को निम्नलिखित पहलुओं पर ध्यान देना चाहिये- सार्वभौमताः नए कानून की प्रकृति सार्वभौमिक होनी चाहिये। ऐसी प्रकृति जो सर्वमान्य हो। तर्कसंगतताः प्रत्येक कानून को तर्कसंगत एवं लोगों की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिये। नैतिक तौर पर उचितः नया कानून नैतिक तौर पर स्वीकार्य होना चाहिये। बाध्यकारीः नए कानून का क्रियान्वयन बाध्यकारी होना चाहिये। जागरूकताः नए कानून के संबंध में लोगों को पर्याप्त जानकारी दी जानी चाहिये तथा यह भी बताया जाना चाहिये कि नया कानून बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी। एक अच्छे कानून के लक्षणः ऐसे कानून का पालन कर पाना सबके लिये संभव होता है। उसका पालन करना या उल्लंघन करना व्यक्तिगत विवेक पर निर्भर होता है। एक अच्छा कानून मानवीय प्रकृति के अनुरूप होता है। वह अस्वाभाविक शर्तें सामने नहीं रखता। जैसे- सोने के घण्टों की सीमाएँ निर्धारित करना, खाने की मात्रा निश्चित करना आदि। एक अच्छा कानून व्यक्तिगत हितों की बजाय सामान्य हितों को सदैव वरीयता देता है। एक अच्छा कानून सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप होता है। वह किसी मूल्य/प्रथा के विरूद्ध होता भी है तो पहले उस संबंध में समाज में व्यापक विचार विमर्श हो चुका होता है। जैसे- सती प्रथा के विरूद्ध कानून। एक अच्छे कानून को विधायिका द्वारा उचित प्रक्रिया के अनुसार बनाया जाता है तथा लागू करने से पहले उसके संबंध में जनता को जानकारी देने की गंभीर कोशिश की जाती है।</s>
<s>[INST]भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई की नैतिक आधारशिला को मज़बूत करने के लिये किन विशिष्ट उपायों की आवश्यकता है?[/INST]उत्तर : कौटिल्य ने अर्थशास्त्र लिखते समय मौर्य युग की राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहा था- ‘जिस प्रकार जिह्वा के अग्रभाग पर लगे मधु अथवा विष को न चख पाना असंभव है, उसी प्रकार सरकारी कोष से संबंध रखने वाले व्यक्ति के लिये यह असंभव है कि वह राजा की संपत्ति के छोटे से अंश का भी रस ग्रहण न करे।’ वास्तव में रस ग्रहण की यह प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई उतनी ही कमजोर पड़ती जा रही है। भ्रष्टाचार विरोधी तमाम नियम-कानूनों के बावजूद चाहे आर्थिक भ्रष्टाचार हो अथवा आचार-व्यवहार से संबंधित सामाजिक-सांस्कृतिक भ्रष्टाचार, यह महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के कार्य-व्यवहार का हिस्सा बनता जा रहा है। विश्वास और आस्था बनाने के लिये एक वातावरण की आवश्यकता होती है जहाँ पारदर्शिता, खुलापन, निर्भीकता, निष्पक्षता और न्यायपूर्णता का मूल्य होता है, हमें इसे बढ़ावा देना चाहिये। अक्सर जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई की बात की जाती है तो विशिष्ट उपायों में विभिन्न नियम-कानूनों की बात की जाती है, परंतु अब हमें समझना होगा कि स्पष्ट तौर पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध नियमों का न होना कोई समस्या नहीं है। ईमानदारी पर कोई कानून नहीं बनाया जा सकता है। कानूनी नियम भ्रष्ट दिमाग में भय भले ही उत्पन्न कर दें परंतु भ्रष्ट व्यक्ति का हृदय परिवर्तन नहीं कर सकते हैं जिसकी बात गांधी जी भी किया करते थे। एलेक्जैंडर सोझैन्स्यिन के शब्दों में अच्छाई और बुराई की जो रेखा होती है, वह न तो देशों के बीच से होकर निकलती है और न ही वर्गों के बीच से, बल्कि प्रत्येक मनुष्य के दिल के बीच में से होकर गुजरती है।य् और इस दिल परिवर्तन के लिये आवश्यक है कि नैतिकता के उच्च मानदण्ड शृंखलाबद्ध तरीके से निर्धारित किये जाएँ, आचार संहिता का निर्धारण व्यक्तिगत जीवन से लेकर सार्वजनिक जीवन में किया जाए जहाँ सिर्फ सरकारी अधिकारी ही नहीं बल्कि सामान्य नागरिक, व्यवसायी आदि भी अपने कर्त्तव्यों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना से युक्त हों। लोक कार्यालयों को एक ट्रस्ट के रूप में समझे जाने की आवश्यकता है। </s>
<s>[INST]धर्म और नैतिकता मानव जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं तथा ये दोनों ही मानव व्यवहारों को नियंत्रित करते हैं। इन दोनों के अंतर्संबंध से इतर इनके मध्य के अंतरों का उल्लेख करें।[/INST]उत्तर : प्रायः यह माना जाता है कि धर्म और नैतिकता में अविच्छिन्न संबंध है। कुछ विचारकों के अनुसार धर्म से ही नैतिकता का जन्म होता है। धार्मिक नियम ही नैतिक नियम है। ईश्वर को धर्म का ‘आदर्श’ माना गया है तथा इसी ईश्वर की इच्छा पर शुभ-अशुभ, उचित और अनुचित, नैतिक और अनैतिक निर्भर हैं। वहीं, कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि नैतिकता से धर्म का आविर्भाव हुआ है। नैतिकता मनुष्य को नैतिक व्यवस्थापक के रूप में मानती है। यदि मनुष्य अनैतिक/अशुभ कार्य करता है तो उसे दण्ड देने के लिये ‘ईश्वर’ की संकल्पना की गई है। यदि व्यक्ति शुभ कर्म करता है तब उसे पुरस्कार भी ईश्वर ही देता है। ईश्वर में विश्वास धर्म पर ही आधारित है और इस प्रकार विचारकों के अनुसार धर्मशास्त्र का आधार नीतिशास्त्र बन जाता है। नैतिकता एवं धर्म के मध्य का अंतरः नैतिकता मानव केन्द्रित तथा मानवीय प्रयत्नों में निहित है जबकि धर्म ईश्वर केन्द्रित होता है। नैतिकता से लौकिक मानवीय गतिविधियाँ जुड़ी हैं जबकि धर्म का संबंध अनिवार्यतः अतिप्राकृतिक सत्ता से जुड़ा है। नैतिक विचारों का उदय मनुष्य की पूर्णता के भाव से होता है जबकि धार्मिक भावना का उदय मनुष्य की अपूर्णता के भाव से होता है। धर्म में ‘पूर्ण’ तो सिर्फ ईश्वर को माना जाता है। नैतिकता में संकल्प की स्वतंत्रता अति आवश्यक है जबकि धर्म में आराध्य देव पर आश्रित होने का भाव प्रमुख है। नैतिकता का सर्वोच्च लक्ष्य ‘शुभत्व’ की प्राप्ति से है जबकि धर्म का संबंध सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम तीनों की प्राप्ति से है। नैतिकता एक गतिशील संकल्पना है, जो व्यक्ति, समाज एवं परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग हो सकती है जबकि धर्म की संकल्पनाओं में प्रायः स्थिरता रहती है जिसके कारण कभी-कभी उसके अनुयायी कट्टर भी हो जाते हैं। इन अंतरों के बावजूद धर्म और नैतिकता एक दूसरे से गहरे से जुड़े हैं तथा मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। इन दोनों को एक-दूसरे का ‘पूरक’ यदि नहीं भी कहा जाये तो सहचारी जरूर कहा जा सकता है।</s>
<s>[INST]एक लोकसेवक में उत्तरदायित्व की भावना का उपस्थित होना अपरिहार्य माना जाता है परंतु अनेक कारक ऐसे हैं जो उत्तरदायित्व के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं। उन अवरोधकों को दूर कर लोकसेवाओं में उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के उपायों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : ‘उत्तरदायित्व’ से तात्पर्य है- जिस व्यक्ति के पास कोई विवेकाधीन शक्ति है, उस पर बाध्यता होना कि वह अपने विवेक से किये गए कृत्यों की संतोषप्रद व्याख्या कर सके अन्यथा उसे उन कृत्यों के लिये दण्ड दिया जा सकता है। यथा- कितना धन किस मद में खर्च किया गया और क्यों? किसी विशेष स्थिति में कौन-सा निर्णय लिया गया और क्यों? इत्यादि की संतोषप्रद व्याख्या करने की बाध्यता। इस ‘संतोषप्रद व्याख्या’ में निम्नलिखित गुण होने चाहियें- तार्किकता। यह दिखे कि अपनी तरफ से सर्वश्रेष्ठ कदम उठाया गया था। यह दिखे कि कोई तथ्य जान-बूझकर छिपाया नहीं गया है या भेदभाव नहीं किया गया है। निर्णय संविधान और कानूनों से सुसंगत प्रतीत होता है। निर्णय नैतिक संहिता तथा आचरण संहिता को की कसौटियों पर भी खरा उतरता है। उत्तरदायित्व के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने वाले कारकः भ्रष्टाचार, अपारदर्शिता, गैर-जवाबदेही तथा नियमों, कानूनों, क्रियाविधियों की जटिलता। उत्तरदायित्व को निभाने के लिये आवश्यक नैतिक मूल्यों का विकसित न होना। राजनीतिक हस्तक्षेप तथा प्रशासन पर बढ़ता राजनीतिक दबाव। लोकसेवाओं में उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने के उपायः सूचना के अधिकार का प्रभावी उपयोग। नागरिक घोषणा पत्र (सिटीजन्स चार्टर) की प्रभावी व्यवस्था। सूचना प्रौद्योगिकी का बेहतर अनुप्रयोग करते हुए ई-गवर्नेंस लाना। सी.सी.टी.वी. तथा अन्य सर्वेक्षण तकनीकों का प्रयोग। मजबूत सतर्कता तंत्र तथा लोकपाल जैसी संस्थान। मीडिया गैर-सरकारी संगठनों जैसे माध्यमों द्वारा प्रशासन पर नैतिक दबाव। इस प्रकार विभिन्न उपायों द्वारा उत्तरदायित्व को सुनिश्चित कर एक उत्तरदायी शासन प्रणाली की स्थापना की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है।</s>
<s>[INST]लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के प्रमुख प्रावधानों का उल्लेख करें। साथ ही, लोकपाल की नियुक्ति के मार्ग में आ रही बाधाओं के संदर्भ में अपने विचार प्रकट करें।[/INST]उत्तर : भारत के राष्ट्रपति द्वारा लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 2013 पर 1 जनवरी, 2014 को हस्ताक्षर करते ही यह विधेयक ‘अधिनियम’ बन गया। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं- इसमें केंद्र स्तर पर लोकपाल और राज्य स्तर पर लोकायुक्त का प्रावधान किया गया है। लोकपाल में एक अध्यक्ष और अधिकतम आठ सदस्य हो सकते हैं, जिनमें से 50% सदस्य न्यायिक पृष्ठभूमि से होने चाहिए। लोकपाल के अध्यक्ष और सदस्यों का चयन एक ‘चयन समिति’ के माध्यम से किया जाएगा जिसमें भारत के प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा के विपक्ष के नेता, भारत के प्रमुख न्यायधीश या मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामित सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश शामिल होगा। एक अन्य सदस्य कोई प्रख्यात विधिवेत्ता होगा जिसे इन चार सदस्यों की सिफारिश पर राष्ट्रपति नामित करेंगे। लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में लोकसेवक की सभी श्रेणियाँ होंगी। कुछ सुरक्षा उपायों के साथ प्रधानमंत्री को भी इस अधिनियम के दायरे में लाया गया है। अधिनियम के अंतर्गत ईमानदार लोकसेवकों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाएगी। अधिनियम में भ्रष्ट तरीकों से अर्जित की गई संपत्ति को जब्त करने का भी प्रावधान है चाहे अभियोजन का मामला लंबित ही क्यों न हो। अधिनियम में प्रारंभिक जाँच और ट्रायल के लिए स्पष्ट समय सीमा निर्धारित की गई है। ट्रायल के लिए विशेष अदालतों के गठन का भी प्रावधान है। इस अधिनियम के वर्ष 2014 में लागू हो जाने के बावजूद आज तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो पाई है। लोकपाल के अभाव में यह अधिनियम क्रियान्वित नहीं हो पा रहा है। एक गैर-सरकारी संगठन ‘कॉमन कॉज’ ने सर्वोच्च न्यायालय में पिटीशन लगाई कि सरकार जानबूझकर लोकपाल की नियुक्ति नहीं कर रही है। नवम्बर, 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सरकार की खिंचाई करते हुए कहा कि लोकपाल कानून को एक ‘मृत पत्र (dead letter)’ नहीं बनने दिया जा सकता। लोकपाल की नियुक्ति न हो पाने के संदर्भ में सरकार का अपना एक तर्क है। सरकार अनुसार लोकपाल के चुनाव के लिए जो चयन-समिति होती है, उसमें एक सदस्य ‘लोकसभा में विपक्ष का नेता’ होता है। परंतु 16वीं लोकसभा में किसी भी विपक्षी पार्टी के पास कुल लोकसभा सदस्यों की 10 प्रतिशत या अधिक सदस्य संख्या नहीं हैं, जो किसी पार्टी के नेता को ‘विपक्ष का नेता’ का दर्जा दिलाने की पूर्व शर्त होती है। अतः बिना ‘विपक्ष के नेता’ के सरकार लोकपाल का चुनाव कैसे करे? अब सरकार अधिनियम में ‘विपक्ष के नेता’ की परिभाषा में संशोधन का प्रस्ताव लाई है जो अभी संसद में पारित नहीं हो पाया है, जिसके अनुसार विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को ‘विपक्ष के नेता’ मान लिया जाएगा। मेरे विचार से सरकार को शीघ्रता से यह संशोधन पारित करवाना चाहिए ताकि एक सक्षम और सशक्त लोकपाल की प्रणाली शुरू हो क्योंकि वर्तमान सरकार भ्रष्टाचार का विरोध तथा पारदर्शिता लाने का आह्वान करते हुए सत्ता में आई थी। अब अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने तथा भ्रष्टाचार पर अकुंश लगाने के लिए लोकपाल की नियुक्ति शीघ्रातिशीघ्र करना समय की मांग है।</s>
<s>[INST]पूर्वाग्रह पर नियंत्रण एक मुश्किल कार्य है परंतु समाज में तनाव को बढ़ने से रोकने के लिये इस पर नियंत्रण आवश्यक है। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : पूर्वाग्रह से तात्पर्य है- किसी के संबंध में पहले से ही निश्चित मत (Opinion)। यह किसी विशिष्ट समूह के प्रति व्यक्ति की अभिवृत्ति का उदाहरण है। पूर्वाग्रह प्रायः नकारात्मक होते हैं और विभिन्न स्थितियों में किसी विशिष्ट समूह के संबंध में रूढ़धारणा (Stereotype) पर आधारित होते हैं। यह रूढ़धारणा लक्ष्य समूह के संबंध में अवांछित विशेषताओं से युक्त होती है और उस समूह के सदस्यों के संबंध में पूर्वाग्रह/नकारात्मक अभिवृत्ति को जन्म देती है। जैसे- हिटलर ने अपने प्रोपगैंडा के तहत नाजियों के मन को ‘अवांछित यहूदियों’ के प्रति पूर्वाग्रह से भर दिया, जिसके कारण यहूदी ‘प्रजाति संहार’ से गुजरे। अभिवृत्ति ही होने के कारण पूर्वाग्रह के भी संज्ञानात्मक, भावात्मक एवं व्यवहारात्मक घटक होते हैं। परंतु, पूर्वाग्रह के संज्ञानात्मक एवं भावात्मक घटकों को परिवर्तित करना बहुत कठिन है क्योंकि व्यक्ति जिस वस्तु/व्यक्ति के प्रति पूर्वाग्रह से पीड़ित हो जाता है, उसके प्रति नकारात्मक अथवा सकारात्मक छवि बना लेता है। ‘पूर्वाग्रहों’ के चलते समाज का एक विशिष्ट समूह दूसरे विशिष्ट समूह के प्रति जब एक निश्चित अवधारणा बना लेता है तो समाज में तनाव उत्पन्न हो जाता है। जहाँ पूर्वाग्रह विद्यमान होता है, वहाँ एक ही समाज के समूहों में अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न होने की संभावना बहुत प्रबल होती है। इसी कारण पूर्वाग्रह पर नियंत्रण आवश्यक माना जाता है। ऐसा करना निम्नलिखित उपायों से ही संभव हो सकता है- शिक्षा एवं सूचना के प्रसार द्वारा विशिष्ट लक्ष्य समूह से संबंधित रूढ़धारणाओं को संशोधित करके। अन्तःसमूह संपर्क को बढ़ाकर, जिससे समूहों के मध्य आपसी अविश्वास दूर हो तथा समूह एक-दूसरे के सकारात्मक गुणों से परिचित हो सकें। उन स्रोतों को न्यूनतम करके जो पूर्वाग्रह बढ़ाने में सहायक होते हों। अपने समूह में भी संकुचित ‘सामाजिक अनन्यता (Social excluivity) की भावना को कम करने का प्रयास करके। पूर्वाग्रह के शिकार लोगों में स्वतः साधक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करके। इस प्रवृत्ति के अंतर्गत यह लक्ष्य समूह वहीं कृत्य करते हैं जो उनके प्रति औरों के पूर्वाग्रह को पुष्ट करता है। इस प्रकार, ‘पूर्वाग्रह’ को नियंत्रित या न्यूनतम करके एक बहुधर्मी, बजुजातीय, बहुवर्गीय समाज में व्यवस्था बनाकर रखी जा सकती है।</s>
<s>[INST]'जर्मनी की समस्या का समाधान बौद्धिक भाषणों से नहीं, आदर्शवाद से नहीं, बहुमत के निर्णय से नहीं, वरन् प्रशा के नेतृत्व में रक्त और तलवार की नीति से होगा।' टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोणः कथन का संदर्भ समझाएं बिस्मार्क की विदेश नीति में निहित उद्देश्य उसके द्वारा विदेश नीति में किये गये नवाचार दीर्घकाल में नीतियों का परिणाम निष्कर्ष बिस्मार्क 1832 में ऑस्ट्रिया का चान्सलर बना और अपनी कूटनीति, सूझबूझ रक्त एवं लौह की नीति के द्वारा जर्मनी का एकीकरण पूर्ण किया। 1871 ई. के बाद बिस्मार्क की विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य यूरोप में जर्मनी की प्रधानता को बनाए रखना था। जर्मनी को संगठित व शक्तिशाली बनाने के उपरांत बिस्मार्क ने ‘युद्ध आधारित विदेश नीति’ त्यागकर और कूटनीतिज्ञ रणनीतियों को अपनाकर यूरोप में शांति स्थापित करने काप्रयत्न किया। बिस्मार्क की विदेश नीति के आधारभूत सिद्धान्त थे- व्यावहारिक अवसरवादी कूटनीति का प्रयोग कर जर्मन विरोधी शक्तियों को अलग-थलग रखना एवं फ्रांस को मित्र विहीन बनाना, उदारवाद का विरोध एवं सैन्यवाद में आस्था रखना। बिस्मार्क की कूटनीतिज्ञ रणनीतियों को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है- आस्ट्रो-जर्मन द्विगुटः यह बिस्मार्क की कूटनीति की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस संधि के अंतर्गत युद्ध अवस्था में एक-दूसरे की सहायता का संकल्प लिया गया। पुनराश्वासन संधिः 1883 ई. में जर्मनी और ऑस्ट्रिया ने रूमानिया के साथ संधि की जो रूस के विरुद्ध थी। अतः रूस, फ्राँस से संधि न करे, इस कारण बिस्मार्क ने रूस से 1887 में पुनराश्वासन संधि की। तीन सम्राटों का संघः विदेशनीति के क्षेत्र में सन्धि प्रणाली के तहत बिस्मार्क का पहला कदम था। बिस्मार्क ने जर्मनी, ऑस्ट्रिया व रूस को मिलाकर तीन सम्राटों के संघ का गठन किया जो कि कुछ समय बाद बाल्कन की समस्या के परिणामस्वरूप विघटित हो गया। त्रिगुट संगठन का निर्माणः तत्पश्चात् बिस्मार्क ने इटली, जर्मनी व ऑस्ट्रिया का त्रिगुट संगठन बनाया। उल्लेखनीय है कि इटली व ऑस्ट्रिया शत्रु देश थे। ब्रिटेन के प्रति नीतिः ब्रिटेन की नाविक शक्ति की श्रेष्ठता के कारण बिस्मार्क ने उसे चुनौती नहीं दी। इस प्रकार उसने ब्रिटेन को यूरोपीय व्यवस्था से दूर रखा। रूस के साथ पुनराश्वासन संधि के उपरांत बिस्मार्क को 1890 में त्यागपत्र देना पड़ा। जर्मनी का एकीकरण पूरा होने के उपरांत उसने नए साम्राज्य की सुरक्षा नीति के अंतर्गत एक सशक्त विदेश नीति का अवलंबन किया। बिस्मार्क ने नई संधियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक सर्वथा नवीन पद्धति का सूत्रपात किया और इस व्यवस्था को सफलतापूर्वक लागू किया। इतिहासकारों का मानना है कि बिस्मार्क की समस्त संधियाँ अंतर्विरोधों से परिपूर्ण थीं जो आगे चलकर विभिन्न युद्धों का कारण भी बनी। ऑस्ट्रिया, इटली व रूस के हित कई मामलों में टकराते थे तथा इनका समन्वय एक जटिल कार्य था जो बिस्मार्क जैसा कूटनीतिज्ञ ही कर सकता था। उसके पदत्याग के 4 वर्ष के भीतर संपूर्ण पद्धति का अंत हो गया। बिस्मार्क की पद्धति में इंग्लैंड सम्मिलित नहीं था जो एक दोष था। अपने कार्यकाल के दौरान बिस्मार्क ने फ्राँस को यूरोपीय राजनीति से अलग-थलग व मित्रविहीन तो रखा परंतु उसे न तो निर्बल बना सका और न ही उसके असंतोषों को दूर कर सका। यही कारण था कि बिस्मार्क की नीतियाँ लघुकालीन थीं। क्योंकि बिस्मार्क के उपरांत जर्मनी में ऐसा कोई कूटनीतिज्ञ नहीं था जो गुप्त संधियों के सूक्ष्म संतुलन को बनाए रख सके अतः बिस्मार्क के उपरांत फ्राँस को यूरोपीय राजनीति में लौटने का अवसर प्राप्त हो गया जिसकी परिणति प्रथम विश्व युद्ध के रूप में हुई। साथ ही अंतर्विरोधों पर टिकी इस व्यवस्था को अत्यंत सफल कहना सर्वथा उचित न होगा। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि बिस्मार्क के चांसलर बने रहने तक तो उसकी नीतियाँ सफल थीं किंतु यह सफलता दीर्घकालिक नहीं थी।</s>
<s>[INST]मूर्तिकला भारतीय उपमहाद्वीप में हमेशा से कलात्मक अभिव्यक्ति का प्रिय माध्यम रही है। अमरावती मूर्तिकला ने कला को धर्म प्रधान के स्थान पर मानव प्रधान बनाने पर बल दिया। विवेचना करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भूमिका भारतीय उपमहाद्वीप में कलात्मक अभिव्यक्तियों का परिचय अमरावती मूर्तिकला के विविध पक्ष निष्कर्ष भारत में मूर्तिकला का विकास अन्य कलाओं जैसे- स्थापत्य एवं चित्रकला के साथ ही हुआ। भारत में मूर्तिकला का विकास अनेक रूपों में हुआ जैसे- धातु मूर्तिकला, पाषाण मूर्तिकला,मृण्मूर्तिकला आदि। सूक्ष्म परीक्षण करने पर हम पाते हैं कि भारतीय मूर्तिकला का स्वरूप अधिक सहज, धार्मिक, रोचक और स्थानीय विशेषताओं से युक्त रहा है। अमरावती मूर्तिकला एक प्राचीन मूर्तिकला शैली है, जो दक्षिण-पूर्वी भारत में लगभग दूसरी शताब्‍दी ई.पू. से तीसरी शताब्‍दी ई.पू. तक सातवाहन वंश के शासनकाल में फली-फूली। यह अपने भव्‍य उभारदार भित्‍ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध है, जो संसार में कथात्‍मक मूर्तिकला का सर्वश्रेष्‍ठ उदाहरण भी है। यह मूर्तिकला अपनी विशिष्टता और उत्कृष्ट कला-कौशल के कारण आकर्षण का विषय रही। इस मूर्तिकला का विकास अमरावती में होने के कारण इसे अमरावती मूर्तिकला शैली कहा गया। अमरावती दक्षिण भारत के गुंटूर ज़िले के पास स्थित है। अमरावती मूर्तिकला की विशिष्टता यह रही कि यह शैली बाह्य संस्कृतियों से प्रभावित नहीं थी बल्कि यह स्वदेशी शैली से विकसित हुई थी। यह मूर्तिकला आंध्र प्रदेश के जग्गबयापेट, नागार्जुन कोंडा तथा महाराष्ट्र में तेर के स्तूप के अवशेषों में देखी जा सकती है। अमरावती मूर्तिकला में अधिकतर बुद्ध के जीवन की घटनाओें, पूर्वजन्म की कथाओं या जातक कथाओं का चित्रण है। अमरावती कला-शैली की मूर्तियाँ सभी मूर्तियों में हाव-भाव तथा सौंदर्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं। अमरावती कला में धार्मिक तत्त्वों के प्रभाव के रूप में बौद्ध का प्रभाव मुख्य रूप से दिखाई देता है जिसमें बुद्ध की व्यक्तिगत विशेषताओं पर कम बल दिया गया है। परंतु बौद्ध मूर्तियों में उनके जीवन एवं जातक कथाओं की कहानियाँ इस कला के धार्मिक पक्षों को व्यक्त करती हैं। अमरावती मूर्तिकला की कुछ मूर्तियों में स्त्रियों को उनके पाँव पूजते हुए दर्शाया गया है, यहाँ पाँवों का पूजन धार्मिक महत्त्व को व्यक्त करता है। अमरावती, मूर्तिकला के माध्यम से पहली बार शारीरिक एवं भावनात्मक अभिव्यक्तियों में निकटता आई।अमरावती मूर्तिकला में आभूषणों की न्यूनतम संख्या स्त्रियों में आभूषणों के प्रति कम आकर्षण को इंगित करती है। अमरावती मूर्तिकला में लिंगराज पल्ली से प्राप्त धम्मचक्र, बोधिसत्व तथा बौद्धमत के रत्नों को दर्शाने वाली एक गुंबजाकार पट्टी प्राप्त हुई है जिसमें बौद्ध, धम्म एवं संघ तीनों को निरूपित किया गया है। अमरावती मूर्तिकला में धार्मिक तत्त्वों के समावेश के साथ-साथ लोकोन्मुखी तत्त्व भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं। अमरावती शैली में सजीवता एवं भक्तिभाव के साथ कुछ मूर्तियों में काम विषयक अभिव्यक्तियाँ देखने को मिलती हैं जो इसे लोकोन्मुखी बनाती हैं। उपरोक्त से स्पष्ट है कि अमरावती मूर्तिकला ने कला को धर्म प्रधान के स्थान पर मनुष्य प्रधान बनाने पर बल दिया। इस परिवर्तन का मुख्य कारण तत्कालीन समाज का व्यवसाय प्रधान होना था, अत: इस कला पर धर्म का प्रभाव कम होता चला गया तथा मानवीय पक्षों पर बल दिया जाने लगा।</s>