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<s>[INST]तड़ितझंझा से उत्पन्न मौसमी दशाओं की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • तड़ितझंझा से निर्मित मौसमी दशाओं की चर्चा करें। हल करने का दृष्टिकोण • तड़ितझंझा का आशय स्पष्ट करें। • तड़ितझंझा से उत्पन्न मौसमी दशाओं को स्पष्ट करें। तड़ितझंझा एक प्रचण्ड स्थानीय तूफान है। इसकी उत्पत्ति उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में गर्म एवं आर्द्र हवाओं के प्रबल संवहन के कारण होती है। यह पूर्ण विकसित कपासी वर्षा मेघ हैं। इसमें बादल गर्जन, बिजली चमकना व तेज़ हवाएँ चलने की घटना होती है। तड़ितझंझा से उत्पन्न मौसमी दशाएँ: वर्षा- इसमें वायु प्रचण्ड वेग से ऊपर उठती है, जिस कारण संघनन तीव्रता से सम्पन्न होता है और कम समय में ही मूसलाधार बारिश होती है। ऐसी स्थिति में लगता है कि मेघ ही फूट पड़े हैं इसलिये इसे ‘बादलों का फटना’ भी कहते हैं। ओला वृष्टि- हिमांक के नीचे संघनन के कारण तड़ितझंझा से कभी-कभी ओला वृष्टि भी होती है, किन्तु जितने क्षेत्र पर झंझावात का विस्तार होता है, उसके किसी भाग में ही ओले गिरते हैं। निम्न अक्षांशों में तड़ितझंझा के साथ प्राय: ओला वृष्टि नहीं होती है। बिजली का चमकना- बिजली का चमकना तड़ितझंझा की मुख्य विशेषता है। इसमें जल बूँदों में बराबर मात्रा में धनात्मक तथा ऋणात्मक आवेश होता है किन्तु बूँदों के टूटने से कहीं धन आवेश तो कहीं ऋण आवेश अधिक हो जाता है। बादलों के आधार में बिजली के ऋण आवेश तथा ऊपरी भाग में बिजली के धन आवेश के बीच अंतर होने से तनाव बढ़ जाता है, जिससे प्रकाश रेखाएँ उत्पन्न होती हैं। इसे ही बिजली का चमकना कहते है। मेघ गर्जन- बिजली के चमकने से अत्यधिक ऊष्मा उत्पन्न होती है जो वायु को इतनी तीव्रता से हटाती है कि एक तेज़ गर्जन उत्पन्न होता है। तीव्र वात- झंझावत के पूर्ण विकसित हो जाने पर वर्षा के साथ-साथ ऊपर से ठंडी हवा तेज़ गति से पृथ्वी पर उतरती है। धरातल पर आकर ठंडी हवाएँ अपसरित होने लगती हैं, जिससे आक्रामक तूफान चलने लगते हैं। यद्यपि तड़ितझंझा की अवधि कम होती है किन्तु कम समय में ही ये अत्यधिक विनाशकारी साबित हो सकती है। यह व्यापक जान-माल की हानि का कारण बन जाती है।</s>
<s>[INST]विद्यापति की सौंदर्य-चेतना पर टिप्पणी लिखिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : विद्यापति का सौंदर्य-वर्णन न तो छायावादियों की तरह वायवीय है और न भक्तों की तरह दिव्य, वे इन्द्रियग्राह्य एवं पार्थिव सौन्दर्य के कवि हैं। किन्तु साधारण और चिरपरिचित होने पर भी उनके द्वारा वर्णित सौन्दर्य असाधारण और चिरनूतन है। कवि ने इसे ‘अपरूप’ कहा है और उसकी महिमा कवि के शब्दों में इस प्रकार है- जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपति भेल। यह अपरूपता राधा में ही नहीं कृष्ण में भी है: ए सखि पेखल एक अपरूप। सुनइत मानवि सपन सरूप।। विद्यापति ने यौवन और सौंदर्य का वर्णन करने में उपमा की अनुपम झड़ी लगा दी है। शैशव और यौवन के संगम पर खड़ी नायिका की वय: सन्धि के, नायिका की कामचेष्टाओं और हाव-भावों के, सद्य: स्नाता के, राधा के रूप सौन्दर्य के मोहक प्रभाव के वर्णन में विद्यापति का मन खूब रमा है- देख देख राधा रूप अपार। अपुरूब के विहि आनि मिलाओल खितितल लावनी सार।। समग्रत: विद्यापति अपने सौंदर्य-वर्णन की अद्वितीयता से विस्मित और चकित करते हैं। खासकर तब जब विद्यापति के सामने लोकभाषा में सौन्दर्य-चित्रण की कोई समृद्ध-परंपरा उपलब्ध नहीं थी। ऐसे में संस्कृत के महाकवि कालिदास के सौन्दर्य-वर्णन के निकट जाता उनका सौन्दर्य-चित्रण एक बड़ी छलांग है।</s>
<s>[INST]संगमयुगीन समाज तथा अर्थव्यवस्था के स्वरूप की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद कथन संगमयुगीन समाज तथा अर्थव्यवस्था के स्वरूप की चर्चा से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • संगम युग के संदर्भ में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • संगमयुगीन समाज तथा अर्थव्यवस्था के स्वरूप की चर्चा कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। संगम युग के दौरान तमिल देश पर चोल, चेर और पांड्य तीन राजवंशों का शासन था। संगम तमिल कवियों का संघ या सम्मलेन था जो किसी सामंत या राजा के आश्रय में आयोजित होता था। संगम पांड्यों के शाही संरक्षण के अंतर्गत विकसित हुआ। संगम साहित्य से राजनीतिक जीवन, राज्यों के गठन एवं राजनीतिक गतिविधियों के विषय में भले ही यथेष्ट जानकारी न मिलती हो लेकिन इससे सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। संगमयुगीन समाज एवं अर्थव्यवस्था का स्वरूप निम्नलिखित रूपों से वर्णित है- तोलकाप्पियम अरासर (Arasar), अन्थानर (Anthanar), वेनिगर (Vanigar) और वेल्लालर (Vellalar) चार जातियों को संदर्भित करता है। शासक वर्ग को अरासर कहा जाता था, वेनिगर द्वारा व्यापार एवं वाणिज्य का संचालन किया जाता था, अन्थानर ने राजनीति और धर्म में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है, वेल्लालर या बड़े जमींदार; हलवाहा या उणवर (Uzhavars) और दास अदिमई नैर कडौसियार (Adimai)। अन्य आदिवासी समूह, जैसे-परतावर, पानार, आइनेर, कादंबर, मारवाड़ और पुलाइयार थे, जो संगम समाज में भी पाए गए। प्राचीन आदिम जनजातियाँ, जैसे-थॉडस (Thodas), इरुलास (Irulas), नागा (Nagas) और वेदार (Vedars) इस अवधि में यहाँ रहती थीं। तोलकाप्पियम में भूमि का पाँच-स्तरीय विभाजन-कुरुन्जी/ Kurinji (पहाड़ी), मुल्लै/ Mullai (देहाती), मरुदम/ Marudam (कृषि), नेथल/ Neithal (तटीय) और पालै/ Palai (रेगिस्तान) के रूप में किया गया है। इसी के आधार पर संबंधित क्षेत्रों में रहने वाले लोग अपना मुख्य व्यवसाय करते थे। संगम युग के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि कार्य था। चेर देश में कटहल फल और काली मिर्च प्रसिद्ध थे, जबकि धान चोल और पांड्य देश में मुख्य फसल थी। संगम काल के हस्तशिल्प लोकप्रिय थे जिनमें बुनाई, धातु का काम और बढ़ईगिरी, जहाज निर्माण तथा मोतियों, पत्थरों एवं हाथी दांत का उपयोग करके गहने बनाना सम्मिलित है। कपास और रेशम के कपड़ों की कताई और बुनाई ने उच्च गुणवत्ता को प्राप्त किया। आंतरिक एवं विदेशी व्यापार दोनों अच्छी तरह से संगठित थे और इन्हें संगम युग में तीव्र गति से संचालित किया जाता था। दक्षिण भारत एवं यूनानी राज्यों के बीच बाह्य व्यापार किया जाता था। रोमन साम्राज्य के प्रभुत्व के बाद, रोमन व्यापार को महत्त्व मिला। सूती कपड़े, मसाले जैसे- काली मिर्च, अदरक, इलायची, दालचीनी और हल्दी, हाथी दांत के उत्पाद, मोती एवं कीमती पत्थर मुख्य निर्यातक वस्तुएँ थीं। सोना, घोड़े और मीठी मदिरा मुख्य आयातक वस्तुएँ थीं। संगम युग कृषि, शिल्प एवं व्यापार-वाणिज्य की दृष्टि से काफी समृद्ध था, यहाँ के समाज पर भौगोलिक एवं आर्थिक गतिविधियों का महत्त्वपूर्ण प्रभाव परिलक्षित होता है। हालाँकि, तीसरी सदी के अंत में संगम युग में धीरे धीरे गिरावट देखी गई। इसके पश्चात् कलभ्रों ने तमिल देश पर कब्जा कर लगभग ढाई शतक तक राज किया।</s>
<s>[INST]रोधिका, रोध तथा स्पिट में अंतर स्पष्ट कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद रोधिका, रोध और स्पिट में अंतर बताना है। हल करने का दृष्टिकोण संक्षिप्त भूमिका लिखें। उपर्युक्त तीनों को परिभाषित करते हुए अंतर स्पष्ट करें। रोधिका, रोध तथा स्पिट सागरीय निक्षेप द्वारा निर्मित स्थलाकृतियाँ हैं। इनके निर्माण में वेलांचली प्रवाह का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। यद्यपि ये निक्षेपित स्थलरूप देखने में एक जैसे लगते हैं परंतु इनमें सूक्ष्म अंतर होता है। रोधिका, समुद्र तट के समानांतर लहरों और धाराओं द्वारा निक्षेपित बजरी और बालू का बांध या कटक है। ये रोधिकाएँ जलमग्न अथवा जल से ऊपर दोनों रूपों में हो सकती हैं। रोधिकाएँ या तो खाड़ी के प्रवेश पर या नदियों के मुहाने के सम्मुख बनती हैं। रोध, रोधिका का ही एक रूप है किंतु इनमें अंतर यह है कि रोधिका या तो जल के नीचे रहती है या उच्च ज्वार के समय अवश्य डूब जाती है। परंतु रोध ऊँचा होने के कारण जल से ऊपर ही रहता है। रोध के उत्तम उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी तट पर मिलते हैं। जब मलबा का निक्षेप इस रूप में होता है कि रोधिका का एक छोर जल की ओर निकला हो और दूसरा छोर शीर्ष स्थल (Headlands) से जुड़ा हो तो उसे स्पिट कहते हैं। इनका निर्माण मुख्यत: वेलांचली प्रवाह द्वारा लाए गए अवसादों के निक्षेप से होता है और इनकी दिशा वेलांचली प्रवाह और प्रचलित वायु की दिशा द्वारा निर्धारित होती है। भारत के पूर्वी तथा पश्चिमी तटीय भागों में कई स्पिट का विकास हुआ है। निष्कर्षत: रोधिका, रोध और स्पिट तीनों ही निक्षेपात्मक स्थलकृतियाँ हैं लेकिन स्थिति और आकृति में अंतर के कारण इनको अलग-अलग नाम से उल्लिखित किया जाता है।</s>
<s>[INST]‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में इतिहास और कल्पना के समन्वय पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में एक ऐतिहासिक सी प्रतीत होने वाली कथा को आधार बनाया गया है। इसमें इतिहास नहीं है, इतिहास का केवल एक आवरण है। तथ्यात्मक स्तर पर देखें तो हम पाते हैं कि जो तथ्य नाटक में प्रयुक्त हुए हैं, वे ऐतिहासिक रूप से कम और मिथकीय रूप से ज्यादा प्रामाणिक हैं। कालिदास के संबंध में कुछ तथ्य भारत के सामाजिक जीवन में भली-भांति प्रचलित हैं, जैसे - उनका काली का भक्त होना, वेश्यागामी होना, प्रारंभ में तिरस्कृत रहना, फिर राजकुमारी से विवाह करना व अंतत: हिमालय का वासी होना। राजतरंगिणी में कालिदास के मातृगुप्त के रूप में कश्मीर का शासक बनने की बात है। यही धारणा प्रसाद के स्कंदगुप्त में भी है। इसी आलोक में राकेश ने उसे तथ्य के रूप में स्वीकार किया है। नाटक के बाकी सभी चरित्र, सारी घटनाएँ और सारी स्थितियाँ काल्पनिक हैं। प्रियंगु, मल्लिका, अंबिका, विलोम, मातुल, रंगिणी-संगिणी, अनुस्वार, अनुनासिक आदि सभी चरित्र काल्पनिक ही हैं। अत: स्पष्ट है कि नाटक इतिहास के बहुत थोड़े से प्रसंगों को लेकर उनके साथ कल्पना का अत्यधिक प्रयोग करते हुए कथानक की सृष्टि करता है। कुछ आलोचकों ने प्रश्न उठाया है कि इतिहास के साथ यह छेड़छाड़ क्या साहित्यकार की नैतिकता हो सकती है? इस संबंध में दो-तीन बातें ध्यान रखनी आवश्यक हैं। राकेश ने कल्पना का प्रयोग चाहे अधिक किया हो, प्राय: किसी ऐतिहासिक तथ्य को गलत रूप में प्रस्तुत नहीं किया है। दूसरे, यह नाटक न तो घटना प्रधान नाटक है, न चरित्र प्रधान। यह एक स्थिति प्रधान नाटक है। इतिहास के तथ्य घटनाओं और चरित्रों तक सीमित होते हैं, मनोवैज्ञानिक स्थितियों तक उनकी पहुँच नहीं होती। उदाहरणतया बार-बार आषाढ़ के मेघों का बरसना, मल्लिका और अंबिका; कालिदास और विलोम के तनावपूर्ण संबंधों का जटिल होते जाना नाटक के प्रमुख तत्त्व हैं और इतिहास ऐसे तत्त्वों की व्याख्या नहीं कर सकता। वस्तुत: राकेश की इतिहास दृष्टि बर्नार्ड शॉ जैसी है जिनके लिये इतिहास का संबंध तथ्यों से नहीं, अंत:प्रज्ञा से है। अंतिम बिंदु यह है कि इतिहास के वातावरण को सृजित करके इस नाटक को क्या सफलता मिली? वस्तुत: नाटक का उद्देश्य वातावरण को ऐतिहासिक बनाना नहीं अपितु आज के रचनाकार की पीड़ा, वेदना और संत्रास को शाश्वतता प्रदान करना है। यह नाटक इतिहास के कुछ तथ्यों का इस प्रकार सर्जनात्मक प्रयोग करता है कि वे तथ्य अपने ऐतिहासिक संदर्भ से मुक्त होकर मानव के शाश्वत और सामान्य अनुभव के अंग बन जाते हैं।</s>
<s>[INST]हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 4 ख)[/INST]उत्तर : हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन की परंपरा लगभग दो सौ साल पुरानी है और यह भी सत्य है कि हिंदी भाषा में सब प्रकार की प्रगतिपरक संस्कृति तथा ज्ञान-विज्ञान को सहज और गहन दोनों रूपों में अभिव्यक्त करने एवं संप्रेषित करने की संपूर्ण क्षमता विद्यमान है। इसी संदर्भ में वर्तमान में हिंदी में वैज्ञानिक लेखन हेतु कई प्रयास हुए हैं जिनमें गुणाकर मुले व जयंत विष्णु नार्लीकर के प्रयास उल्लेखनीय हैं। गुणाकर मुले ने विज्ञान के गूढ़ रहस्यों को समझाने के लिये अपने लेखन को समर्पित कर दिया। NCERT की पुस्तकों के निर्माण में उनका विशिष्ट योगदान रहा है। उनकी प्रमुख रचनाएँ- ‘ब्रह्मांड परिचय’, ‘आकाश दर्शन’, ‘अंतरिक्ष यात्रा’, ‘कैसी होगी 21वीं सदी’, ‘कंप्यूटर क्या है’ तथा ‘आपेक्षिकता का सिद्धांत क्या है?’ आदि। इसी प्रकार, जयंत विष्णु नार्लीकर प्रसिद्ध भारतीय भौतिक विज्ञानी हैं जिन्होंने हिंदी में अनेक वैज्ञानिक पुस्तकें लिखीं। इन्होंने ‘ब्रह्मांड की कुछ झलकें’, ‘ब्रह्मांड की यात्रा’, ‘वायरस’, ‘भारत की विज्ञान यात्रा’, ‘विज्ञान, मानव और ब्रह्मांड’, ‘धूमकेतु’ तथा तारों की जीवनगाथा आदि पुस्तकें हिंदी में लिखीं। इसमें संदेह नहीं कि आज वैज्ञानिक शब्दावली और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी अत्यंत समृद्ध है। इतने पर भी आज वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में लेखन बहुत ही कम और अपर्याप्त है। इस सबका यह कारण नहीं है कि भाषा में ऐसी क्षमता या समर्थता नहीं है बल्कि इसका कारण यह है कि वैज्ञानिकों में इस दिशा में रुझान का अभाव है। इसका निराकरण तभी संभव है जब एक तो शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं को अपनाया जाए तथा दूसरे, वैज्ञानिकों को हिंदी में बोलने और लिखने के लिये प्रेरित किया जाए। यदि ऐसा होता है तो निश्चय ही हिंदी के माध्यम से वैज्ञानिक चेतना भारत के जन-जन तक पहुँच सकती है।</s>
<s>[INST]‘दिनकर’ की राष्ट्रीय चेतना पर प्रकार डालिये। (2015 प्रश्नपत्र 7a)[/INST]उत्तर : हिंदी साहित्य में दिनकर की पहचान राष्ट्रकवि के रूप में है। उनका साहित्य राष्ट्रीय जागरण व संघर्ष के आह्वान का जीता-जागता दस्तावेज़ है। दिनकर जी के यहाँ राष्ट्रीय चेतना कई स्तरों पर व्यक्त हुई है। हुंकार, रेणुका, इतिहास के आँसू जैसी कविताओं में दिनकर जी ने विद्रोह और विप्लव के स्वर को उभारा है। इनमें कर्म, उत्साह, पौरुष एवं उत्तेजना का संचार है। यह सब तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन की प्रगति के लिये अत्यंत सहायक सिद्ध हुआ। दिनकर जी के यहाँ राष्ट्रीय चेतना एक अन्य स्तर पर वहाँ दिखाई देती है, जहाँ वे शोषण का प्रतिकार करने का समर्थन करते हैं। वे कहते हैं कि यदि कोई हमारे साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार करे तो नैतिकता का तकाजा युद्ध करना ही है न कि अनैतिकता को स्वीकार करना- "छीनता हो स्वत्व कोई और तू त्याग तप से काम ले, यह पाप है" संघर्ष के आह्वान के साथ दिनकर जी ने प्राचीन भारतीय आदर्शों एवं मूल्यों की स्थापना के माध्यम से भी राष्ट्रीय जागरण व राष्ट्रीय गौरव की भावनाओं को जगाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। दिनकर जी की राष्ट्रीय चेतना संकीर्ण नहीं है। यह न केवल ब्रिटिश राज्य का विरोध करने वाली है अपितु स्वतंत्रता के बाद भी जनता के सामाजिक-आर्थिक शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली है। कवि ने ‘दिल्ली’, ‘नीम के पत्ते’, ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’ में स्वतंत्रता-उपरांत जनजीवन में व्याप्त आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विषमताओं का चित्रण किया है- "सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है। दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अंधियारा है।" इस प्रकार यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि दिनकर जी के यहाँ राष्ट्रीय चेतना उसी स्तर पर व्यक्त हुई है जो उन्हें भारतेन्दु, गुप्त जी की परंपरा में स्थान दिलवाती है।</s>
<s>[INST]बिहारी की काव्यगत विशेषताओं का विवेचन अनुभूति एवं अभिव्यक्तिक उभय दृष्टियों से कीजिये।(2015 प्रश्नपत्र 6 c)[/INST]उत्तर : बिहारी रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि हैं। रीतिकाल के अन्य कवियों का ध्यान जहाँ शिल्प पक्ष पर अधिक रहा, वहीं बिहारी के यहाँ अनुभूति एवं अभिव्यक्ति पक्ष दोनों मज़बूत हैं। बिहारी का काव्य नीति, भक्ति एवंशृंगार की त्रिवेणी है। बिहारी सतसई में जहाँ नायक-नायिकाओं के संयोग पक्षों का वर्णन है,वहीं नीति संबंधी बातें भी समाविष्ट हैं- "वहीं पराग नहीं मधुर नहीं विकास इहिं काल अली कली ही सौ बन्ध्यो आगे कौन हवाल" बिहारी मुख्य रूप सेशृंगार रस के कवि हैं। उनकाशृंगार अनुभाव प्रधान है। रीतिकाल के दरबारी माहौल के अनुरूप उनकाशृंगार वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण एवं दैहिक प्रधान है- "पत्रा ही तिथि पाइये वा घर के चहूँ पास नित प्रति पून्यो ही रहत आनन ओप उजास" बिहारी के काव्य का एक पक्ष भक्ति से संबंधित भी है। हालाँकि इनकी भक्ति भावना रीतिकालीन परिस्थितियों के अनुकूल प्रेम वशृंगार प्रधान है। बिहारी ने राधा-कृष्ण के प्रति इस प्रकार भक्ति भावना प्रकट की है- "मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय जा तन की झांई परे, स्याम हरित दुति होय" बिहारी का अभिव्यक्ति पक्ष अत्यंत मज़बूत है। भाषा की दृष्टि से देखें तो उनका काव्य ‘गागर में सागर’ के समान है जहाँ एक-एक दोहे में भाषा की समास व भावों की समाहार क्षमता दिखाई देती है- "कहत नटत रीझत खीझत मिलत खिलत लजियात भरे भौन में करत हैं नैननु ही सों बात" बिहारी के शिल्प का एक अन्य मज़बूत पक्ष उनकी बिंब योजना है। बिहारी सतसई का प्रत्येक दोहा बिंबों का भंडार है। अनुभाव आधारितशृंगार व दरबारी वातावरण के कारण यह विशेषता कुछ छयादा ही दिखाई देती है- "बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय सौंह करे भौंहनु हंसे देन कहि नट जाय" इसी प्रकार, बिहारी की अलंकार योजना भी विशिष्ट है। उनका काव्य अलंकारों की विविधता हेतु प्रसिद्ध है जहाँ रूपक, उपमा विरोधाभास व अतिशयोक्ति की छटा देखने को मिलती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वे अनुभूति एवं अभिव्यक्ति पक्ष की सभी रीतिकालीन विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी कारण वे रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में भी स्थापित हैं।</s>
<s>[INST]सूरदास की कविता के आधार पर उनकी लोकचेतना पर प्रकाश डालिये। (2015 प्रश्नपत्र 6 b)[/INST]उत्तर : सूर के काव्य के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण विवाद यह है कि यह काव्य सामाजिक दायित्वों के प्रति जवाबदेह है या नहीं। आचार्य शुक्ल जैसे समीक्षकों ने यह घोषित किया कि सूर का काव्य ‘लोकमंगल की साध्यावस्था’ का काव्य है जो समाज व उनकी समस्याओं से सीधा जुड़ा हुआ नहीं है। सामान्य तौर पर सूर के काव्य का विश्लेषण करें तो शुक्ल का यह आक्षेप उचित प्रतीत होता है, किंतु सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषित करने पर यह नज़र आता है कि सूर के काव्य में लोकचेतना कई स्तरों पर दिखाई देती है। सूर की लोकचेतना का पहला स्तर वहाँ दिखाई देता है, जहाँ वे शहरी जीवन की कृत्रिमता व जटिलता पर चोट करते हैं- मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे सूर ने नारी मुक्ति को अपने काव्य में स्थान दिया। सूर की गोपियाँ सामाजिक वर्जनाओं से दूर कृष्ण के साथ प्रणय लीला कर रही हैं। सूर की गोपियाँ अधिक तार्किक भी हैं जो ऊद्यो को वाद-विवाद में पराजित कर देती हैं। सूर ने अपने समय की शोषकपूर्ण सामंतवादी कर प्रणाली को किसान व प्रजाजन की मूल समस्या के रूप में देखा- "सूरदास की यही बीनती दस्तक की जै साफ" सूर का काव्य हिंदी गोचारण परंपरा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। सूर ने गोचारण अर्थव्यवस्था की अनेक जठिलताओं का प्रतीकात्मक अंकन अपनी कई कविताओं में किया है- "लरि-लरि झगरि भूमि कछ पाई जस अवजस बितई" सूरदास की कविता सामंतवादी वातावरण में सामाजिक समानता का भाव भी स्थापित करती है। सूर ने कृष्ण और ग्वालों के समतामूलक संबंध के माध्यम से वर्गीय समानता का भाव स्थापित किया है- "जाति-पाति हमसे बड़ नाहि नाही बरसत तुम्हारी छैंया" स्पष्ट है कि सूर के काव्य में सामाजिक पक्ष चाहे प्रमुखता से व्यक्त न हुआ हो किंतु प्रतीकात्मक स्तर पर सामाजिक चेतना यहाँ लगातार उपस्थित है।</s>
<s>[INST]विद्यापति की काव्य-कला का मूल्यांकन कीजिये। (2015 प्रश्नपत्र 6 a)[/INST]उत्तर : विद्यापति आदिकाल के मैथिल कवि हैं। कीर्तिलता, पदावली व कीर्तिपताका उनकी तीन प्रमुख रचनाएँ हैं। इन्हीं रचनाओं के आधार पर उनके कला पक्ष का समग्र मूल्यांकन किया जा सकता है। विद्यापति के काव्य का रूप (काव्यरूप) प्रबंध प्रकार का है। इनकी तीनों महत्त्वपूर्ण रचनाएँ खंडकाव्य प्रकृति की हैं। भाषा के स्तर पर देखें तो विद्यापति के यहाँ भाषायी विविधता दिखाई देती है। कीर्तिलता की रचना अवहट्ट में हुई है, वहीं पदावली की रचना मैथिली भाषा में की गई है। भाषा की दृष्टि से कीर्तिलता उनकी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। कीर्तिलता की अवहट्ट में कुछ विशेषताएंँ साफ दिखती हैं जो उसे परिविष्ठत अपभ्रंश से अलग करती हैं। इसी प्रकार, पदावली मैथिली भाषा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें लोकप्रचलित मैथिली का प्रयोग किया गया है। विद्यापति के काव्य की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि कहीं-कहीं उनकी कविताओं के बीच में गद्य के दर्शन भी होते हैं। कीर्तिलता ऐसा ही रचना है। इसे वर्णन की दृष्टि से देखें तो विद्यापति का काव्य वीर,शृंगार व भक्ति का अद्भुत समन्वय है। कीर्तिलता वीर रस प्रधान रचना है, वहीं पदावलीशृंगार व भक्ति का मिश्रण है। हालाँकि, आचार्य शुक्ल ने पदावली के रस विद्यान पर प्रश्नचिह्न उठाते हुए इसेशृंगार प्रधान रचना माना है न कि भक्ति प्रधान। इस संबंध में उन्होंने लिखा है कि "अध्यात्मक रंग के चश्मे बहुत सस्ते हो गए हैं।" समग्र रूप में कहें तो कला की दृष्टि से विद्यापति का काव्य लोककाव्य के अधिक नज़दीक है। यही कारण है कि विद्यापति आज भी अत्यंत लोकप्रिय है।</s>
<s>[INST]साठोतरी हिंदी कहानी। (2015 प्रश्नपत्र 1d)[/INST]उत्तर : नई कहानी आंदोलन के बाद की कहानी को सामान्यतः समकालीन कहानी कह दिया जाता है। इसके अंतर्गत कई कहानी आंदोलन सीमित या व्यापक रूप में दिखते हैं। साठोतरी कहानी की प्रमुख धारा अकहानी आंदोलन के रूप में 1960 के दशक में फ्राँस के ‘एंटी स्टोरी मूवमेंट से प्रभावित है। इस कहानी में जीवन के प्रति अस्वीकार, अजनबीपन, निरर्थकता बोध परंपरा का पूर्ण नकार, यौन उन्मुक्तता, शिल्पगत अमूर्तता जैसे तत्त्व दिखाई देते हैं। दूधनाथ सिंह की ‘रीछ’ व रवीन्द्र कालिया की ‘नौ साल छोटी पत्नी’ प्रमुख हैं। इसी प्रकार का एक आंदोलन समानान्तर कहानी का है। आम आदमी को केंद्र में रखकर इस कहानी ने सामन्तवादी, पूंजीवादी व साम्प्रदायिक शक्तियों के खोखले चरित्र को उजागर किया। कमलेश्वर कामतानाथ व इब्राहिम शरीफ इस धारा के कहानीकार हैं। आठवें दशक में जनवादी कहानी आंदोलन सामने आया। यह कहानी सर्वहारा पर किये जा रहे शोषण का विरोध करती है। असगर वजाहत, सूरज पालीवन इस प्रकार के प्रमुख कहानीकार हैं। साठोतरी कहानी के अंतर्गत अन्य धाराओं में प्रमुख रूप से सचेतन कहानी, सहज कहानी व सक्रिय कहानी की चर्चा की जा सकती है। इन कहानियों में स्वातंत्र्तोर व वैश्वीकृत भारत के सामाजिक-आर्थिक यथार्थ को प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि साठोतरी कहानी संवेदना व विषय के स्तर पर अनेक विशिष्टताओं व विविधताओं को धारण करती हुई हिंदी कहानी को एक नई दिशा दे रही है।</s>
<s>[INST]संत साहित्य की विशेषताएँ। (2015 प्रश्नपत्र , 1e)[/INST]उत्तर : ‘निर्गुण ज्ञानाश्रयी काव्यधारा’ या ‘संत काव्यधारा’ भक्तिकाल की आरंभिक काव्यधारा है। इस काव्यधारा की प्रमुख ख्याति सामाजिक विषमताओं के प्रति ज़ोरदार विद्रोह करने वाली काव्यधारा के रूप में है। संत साहित्य संवेदना के स्तर पर कई विशिष्टताओं से युक्त है। इस धारा की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसका दार्शनिक आधार अनिश्चित है। इन संतों पर नाथों के हठयोग, सूफियों के (तसत्वुफ) व वैष्णवों के प्रपत्तिवाद का प्रभाव दिखाई देता है- "लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।" संत कवियों का ब्रह्म निर्गुण, निराकार व अमूर्त है। यहाँ निर्गुण का अर्थ गुणहीन नहीं है, बल्कि गुणातीत है- "दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम का मरम है आना।।" चूँकि, संत काव्य में ब्रह्म निर्गुण है जिसे जानने के लिये गुरु का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। गुरु को ईश्वर से ऊँचा स्थान दिया गया है क्योंकि ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग दिखाने वाला गुरु ही है- "गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाँय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।" कबीर व अन्य संत कवियों ने अपने व्यंग्य प्रहारों से धार्मिक रूढ़िवादिता व सामाजिक असमानताओं पर चोट की। यही दृष्टि उन्हें क्रांतिकारी संतों की ख्याति प्रदान करती है- "जाति-पांति पूछे नहि कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।।" संवेदना की भाँति शिल्प के स्तर पर भी संत काव्य क्रांतिकारी व परिवर्तनशील मानसिकता का प्रतीक है। भाषा का ही उदाहरण लें। चूँकि, संत कवि घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे इसलिये उनकी भाषा में भिन्न-भिन्न स्थानों के शब्द जुड़ गए हैं। ऐसी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा गया है। हठयोग के प्रभाव के कारण इनकी भाषा में उलटबासियों का प्रयोग हुआ है। ये (अन्तस्साधनात्मक) अनुभूतियों को व्यक्त करने वाली प्रतीकात्मक उक्तियाँ हैं- "बरसै कंबल भीजै पानी।" संतों का सारा साहित्य मुक्तकों के रूप में उपलब्ध है। जिस अमूर्त की चर्चा उन्होंने की और जिन अन्तः साधनात्मक अनुभूतियों को वे अभिव्यक्त करना चाहते थे, उनके लिये मुक्तक शैली ही उपयुक्त थी। </s>
<s>[INST]वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में हिंदी भाषा के विकास का सर्वेक्षण कीजिये और उस पर उपयुक्त एवं तर्कपूर्ण टिप्पणी कीजिये। (2015 प्रथम प्रश्न पत्र, 3a)[/INST]उत्तर : हिंदी के वैज्ञानिक व तकनीकी विकास की स्थिति को कई आधारों पर आकलित किया जा सकता है, जिनमें प्रमुख हैं- हिंदी में अनुवाद की स्थिति, पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की स्थिति, मानकीकरण के प्रयास, टंकण व अन्य यांत्रिक विकास की स्थिति। मानकीकरण के प्रयास 20वीं सदी के प्रारंभ से दिखने लगते हैं तथा धीरे-धीरे हिंदी का मानकीकरण सरकारी सहायता के साथ-साथ लगभग पूरा हो गया है। इसी तरह, पारिभाषिक शब्दों के विकास हेतु वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग तथा विधायी आयोग ने विज्ञान, वाणिज्य व मानविकी क्षेत्रों से संबंधित कई विषयों की मानक शब्दावली तैयार की है। हालाँकि शब्दकोष के स्तर पर सिद्धांततः हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा बन गई किन्तु व्यावहारिक स्तर पर स्थिति अभी संतोषजनक नहीं है। इसी तरह अनुवाद कार्य हेतु भारत सरकार ने केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो का गठन किया है जो लाखों शब्दों का अनुवाद कर चुका है तथा प्रत्येक वर्ष अपने लक्ष्यों को पूरा कर रहा है। तकनीकी क्षेत्र में यदि हिंदी के कंप्यूटरीकरण के स्तर विकास को परखें तो यह नज़र आता है कि कई क्षेत्रों में अच्छा विकास हुआ है, जैसे- वर्ड प्रोसेसिंग (शब्द संसाधन) में पत्र लिखना, रिपोर्ट तैयार करना, लेख लिखना आदि कार्य काफी अच्छी स्थिति में हैं। जहाँ तक ‘सिस्टम सॉफ्टवेयर’ का संबंध है, हिंदी में अपना सिस्टम सॉफ्टवेयर विकसित नहीं हुआ है। हिंदी में अभी भी आवश्यक निर्देश डॉस, विंडोज़, सिस्टम जैसे सॉफ्टवेयर के माध्यम से दिये जाते हैं। हिंदी टाइपिंग के क्षेत्र में विकास के बावजूद आज भी कई समस्याएँ मौजूद हैं। इन समस्याओं में प्रमुख हैं- की-बोर्ड के मानकीकरण की समस्या, फॉन्ट्स की समस्या व उपयुक्त सॉफ्टवेयर की कमी आदि। स्पष्ट है कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी के वैज्ञानिक और तकनीकी विकास में कई महत्त्वपूर्ण चरण हमने पूरे किये हैं। इस क्षेत्र में अभी भी काफी चुनौतियाँ विद्यमान हैं। पहली चुनौती हिंदी में वैज्ञानिक शब्दावली के साथ कंप्यूटर के सिस्टम सॉफ्टवेयर के विकास की है। इसके साथ ही, यह भी एक चुनौती है कि हिंदी में वे सभी सुविधाएँ मौजूद हों जो अभी अंग्रेज़ी और रोमन के लिये हैं।</s>
<s>[INST]अवहट्ट की व्याकरणिक विशेषताएँ। (2015 प्रथम प्रश्न पत्र, 1c )[/INST]उत्तर : संस्कृत के सरलीकरण की जो प्रक्रिया पालि से प्रारंभ हुई थी वह अपभ्रंश में आकर हिंदी के निकट आने लगी और अवहट्ट में इसके विकास की गति और अधिक तीव्र हो गई। इसी संदर्भ में अवहट्ट की कई व्याकरणिक विशेषताएँ इस प्रकार उल्लिखित की जा सकती हैं- संज्ञा व कारक व्यवस्था ⇒ सभी प्रतिपादिक ‘स्वरांत’ और ‘अकारांत’ होने लगे। ⇒ निर्विभक्तिक प्रयोगों की संख्या बढ़ गई। ⇒ स्वतंत्र रूप से प्ररसर्गों का प्रयोग होने लगा। ⇒ ‘हि’ परसर्ग का प्रयोग अवहट्ट की प्रमुख विशेषता है। लिंग संरचनाः अपभ्रंश की भाँति अवहट्ट में भी दो ही लिंग हैं- पुल्लिंग और स्त्रीलिंग। संस्कृत के नपुंसकलिंग को अपभ्रंश ने ही अस्वीकार करना प्रारंभ कर दिया था। अवहट्ट में भी यही प्रवृत्ति रही। वचन व्यवस्थाः अपभ्रंश में संस्कृत के तीन वचनों के स्थान पर दो वचनों के प्रयोग की परंपरा का आरंभ हो गया था। इस परिवर्तन में द्विवचन का लोप हो गया था। अवहट्ट में सरलीकरण की यह परंपरा और आगे बढ़ी तथा बहुवचन के बहुत से शब्द एकवचन के रूप में प्रयुक्त होने लगे। सर्वनाम व्यवस्थाः सर्वनामों के क्षेत्र में अवहट्ट में कई नए प्रयोग देखने को मिलते हैं- ⇒ उत्तम पुरुषः मैं, मेरा ⇒ मध्यम पुरुषः तुम, तुम्हार, तोहार ⇒ अन्य पुरुषः वह, उन्ह विशेषणः अवहट्ट में कृदंतीय विशेषणों का विकास तीव्र गति से होने लगा। इनकी विशेषता यह है कि ये विशेष्य के लिंग-वचन के अनुसार परिवर्तित होते हैं। ‘संख्यावाचक’ तथा सार्वनामिक विशेषण आधुनिक हिंदी के काफी निकट दिखाई देते हैं। क्रिया संरचनाः संस्कृत की तिडन्त क्रिया के स्थान पर ‘कृदंत क्रिया’ रूप यहाँ प्रधान रूप से दिखाई देता है। अवहट्ट के क्रिया रूप आधुनिक हिंदी की बोलियों से काफी मिलते हैं। काल रचनाः ⇒ वर्तमान काल → जात, करत (त - रूप) ⇒ भूतकाल → चलल, गइल (ल - रूप) ⇒ भविष्य काल → खाइब, जाइब (ब - रूप)</s>
<s>[INST]मध्यकाल में साहित्यिक भाषा के रूप में ब्रज का विकास। (2015, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1b)[/INST]उत्तर : ब्रज भाषा के प्रारंभिक प्रयोग पुरानी हिंदी के आसपास से ही देखने को मिलते हैं, किंतु काव्यभाषा के रूप में इसका तीव्र विकास भक्तिकाल के उत्तरार्द्ध में हुआ। ब्रजभाषा के विकास को तीन चरणों में इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है- (क) सूर-पूर्व युग (ख) सूरदास का युग (ग) रीतिकाल। ब्रज भाषा का पहला स्वतंत्र प्रयोग अमीर खुसरो ने किया। इसी प्रकार, सुधीर अग्रवाल (प्रद्युम्न चरित्र) संत नामदेव, विष्णुदास तथा गुरु अर्जुनदेव ने अलग-अलग रूपों में ब्रज का प्रयोग किया। भक्तिकाल में ब्रज अवधी के साथ-साथ काव्यभाषा के रूप में स्थापित हुई। सूर ने इसे शृंगार और वात्सल्य की एकमात्र भाषा के रूप में स्थापित कर दिया, वहीं तुलसी आदि के हाथों में पड़कर यह लोक समस्याओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनी। मीरा, रहीम आदि के यहाँ ब्रज के कई विभिन्न रूप दिखाई देते हैं। रीतिकाल वह समय था जब ब्रज एकमात्र काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठि हुई, इस समय ब्रज मूलतः सौंदर्य औरशृंगार जैसे विषयों का प्रतीक बन चुकी थी। ब्रजभाषा गहरे कलात्मक विवेक से मुक्त हुई तथा चरम संभावनाओं को धारण कर सकी और ब्रज देखते-देखते संपूर्ण हिंदी प्रदेश की काव्यभाषा के पद पर आसीन हो गई- "ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानौ"</s>
<s>[INST]हिन्दी के प्रमुख यात्रा-वृत्तांतों का संक्षिप्त परिचय दो। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 8c )[/INST]उत्तर : यात्रा-वृत्तांत आधुनिक गद्य-विधा है। यह यात्रा अनुभवों व स्मृतियों के सृजनात्मक उपयोग पर आधारित है। हिन्दी साहित्य में यात्रा-वृत्तांत की उपस्थिति द्विवेदी युग में ही हुई। श्रीधर पाठक, उमा नेहरू व लोचन प्रसाद पांडेय द्वारा महत्त्वपूर्ण यात्रा-वृत्तांत लिखे गए। यात्रा वृत्तांत लेखन में राहुल सांकृत्यायन का अन्यतम स्थान है। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ ‘तिब्बत में सवा वर्ष’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘मेरी लद्दाख यात्रा’ हैं। उन्होंने यात्रा- वृत्तांत को महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में प्रतिस्थापित किया। छायावादोत्तर युग के ‘यात्रा- वृत्तांत’ अपने पूर्ववर्ती युगों से अधिक संपन्न हैं। महेश श्रीवास्तव द्वारा लिखित ‘दिल्ली से मॉस्को’, नेहरू द्वारा रचित ‘आँखों देखा रूस’ बनारसी दास चतुर्वेदी द्वारा लिखित ‘रूस की साहित्यिक यात्रा’ आदि अत्यंत उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार दिनकर का ‘देश-विदेश’और ‘मेरी यात्राएँ’ में कश्मीर-गुजरात व यूरोप के स्थलों का भावप्रवण चित्रण प्रस्तुत किया गया है। अज्ञेय का ‘एक बूंद सहसा उछली’ व निर्मल वर्मा का ‘चीड़ों पर चांदनी’ में यूरोप प्रवास की साहित्यिक अभिव्यक्ति हुई है। समकालीन समय में हिन्दी का यात्रा साहित्य और समृद्ध हुआ है। आँखों देखा पाकिस्तान-कमलेश्वर, मोहनजोदड़ो- ओम थानवी, हमसफर मिलते रहे- विष्णु प्रभाकर, कितना अकेला आकाश- नरेश मेहता आदि उल्लेखनीय हैं। इन कृतियों के आधार पर हम कह सकते हैं कि यात्रा-वृत्तांत में वस्तु-वर्णन, दृश्यांकन, बिंब विधान और मनःस्थितियों के रेखांकन की क्षमता बढ़ गई है।</s>
<s>[INST]महादेवी के रेखाचित्रों की विशेषताएँ लिखिये।(2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 8b )[/INST]उत्तर : महादेवी ने रेखाचित्र विधा को नई संभावनाएँ और दिशा प्रदान की। ‘अतीत के चलचित्र’, ‘स्मृति की रेखाएँ’, ‘पथ के साथी’ और ‘मेरा परिवार’ उनके उल्लेखनीय रेखाचित्र संग्रह हैं। अपने रेखाचित्रों में महादेवी ने अपने संपर्क में आने वाले शोषित व्यक्तियों, दीन-हीन नारियों, साहित्यकारों, जीव-जंतुओं आदि का संवेदनात्मक चित्रण किया है। उनके रेखाचित्रों में अनुभूति की अभिव्यक्ति में चित्र का बिंब विधान और सूक्ति का प्रभाव एक साथ संश्लिष्ट रूप में देखने को मिलता है। ‘अतीत के चलचित्र’ और ‘स्मृति की रेखाएँ’, इन दो कृतियों में समाज के ऐसे निरीह प्राणी रेखांकित हुए हैं जो जीवन के प्रवाह में दुःख के थपेड़ों के शिकार हुए हैं। पथ के साथी में उन लोगों का रेखांकन किया गया है जो महादेवी के अग्रज व सहयोगी हैं। रवींद्र ठाकुर, गुप्त जी, सुभद्रा कुमारी चौहान, निराला आदि का अंकन है। यह रेखांकन महादेवी की असाधारण प्रतिभा, संयम एवं कलात्मक परिष्कार का द्योतक है। समग्र रूप में कहें तो महादेवी के रेखाचित्र हिन्दी की अमूल्य निधि हैं जिन्होंने इस विधा को शिखर तक पहुँचाया।</s>
<s>[INST]आधे-अधूरे के महत्त्व पर प्रकाश डालिये। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 7c)[/INST]उत्तर : मोहन राकेश हिन्दी नाट्य परंपरा के शिखर पुरुष हैं। उनका आधे-अधूरे नाटक उनकी प्रसिद्धि का आधार है। इस नाटक में राकेश ने संवेदना व शिल्प के स्तर पर कुछ ऐसी नई संभावनाएँ और प्रयोग प्रस्तुत किये जिससे इसका महत्त्व आज भी बना हुआ है। इस नाटक में आज के कठोर यथार्थ की सीधी व सपाट अभिव्यक्ति है और दूसरे उनके अनुकूल आम आदमी की बोलचाल की भाषा का सृजनात्मक इस्तेमाल। महेंद्रनाथ व सावित्री के माध्यम से मोहन राकेश ने स्त्री-पुरुष संबंध और दांपत्य संबंध के खोखलेपन तथा पारिवारिक विघटन की जीवन स्थितियों को दर्शाया है। एक नाटक कई स्तरों पर संकेत देता है। यह एक साथ पारिवारिक विघटन, मानवीय संबंधों में दरार, यौन विकृतियों एवं द्वंद्व को समेटता चलता है शिल्प की दृष्टि से भी हिन्दी साहित्य में इसका अत्यंत महत्त्व है। एक ही अभिनेता से पाँच भूमिकाएँ कराने का प्रयोग किया है। प्रस्तावना का प्रयोग करते हुए परंपरा को नए रूप में प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार आधे-अधूरे की नाट्य भाषा को मोहन राकेश की बड़ी उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया गया है। इसमें उन्होंने हरकत भरी नाट्य भाषा, मौन अंतराल, बीज शब्द, प्रतीकात्मकता आदि का साथ प्रयोग किया है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि यह हिन्दी नाटक की प्रचलित धारा से बहुत भिन्न नाटक है। वस्तुतः आधे-अधूरे हिन्दी नाटक को वास्तविक अर्थ में समसामयिक युग का प्रतिबिंब बनाने वाला नाटक है।</s>
<s>[INST]"गोदान" तक आते-आते प्रेमचंद का आदर्शवाद से पूरी तरह मोहभंग हो जाता है। कथन का परीक्षण कीजिये।[/INST]उत्तर : महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘गोदान’ में किसान शोषण की जो मार्मिक कहानी प्रेमचंद ने प्रस्तुत की, तब यह कहा गया कि प्रेमचंद ने आदर्शवाद का चोला पूरी तरह उतारकर फेंक दिया है। इस मत के समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं- उपन्यास के अंत तक होरी की स्थिति में कोई सुधार नहीं होता। गाय पाने की इच्छा से होरी का जो संघर्ष प्रारंभ हुआ था वह अंत तक बना रहा। जबकि ‘सेवा सदन’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘गबन’ आदि उपन्यासों में प्रेमचंद अपनी ‘आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी’ दृष्टि अपनाते हुए अंत में सब ठीक कर देते हैं। शोषण तंत्र इतना मज़बूत दिखाया गया है कि अदम्य जिजीविषा रखने वाला और जीवन भर संघर्ष करने वाला होरी भी अंततः इसके जाल में फँसकर दम तोड़ देता है। उसकी मौत आदर्शवाद की समाप्ति की घोषणा है और यथार्थवाद का प्रस्थान बिन्दु है। विजयदेव नारायण साही ने कहा भी है- ‘गोदान’ में प्रेमचंद की प्रकाश अभ्यस्त आँखें हिम्मत करके अंधकार देखने की कोशिश कर रही हैं।" होरी जीवन भर कठिन संघर्ष करता है, किंतु तब भी उसे वह सब हासिल नहीं होता जो नैतिक रूप से मिलना चाहिये। उपन्यास के अंत से पहले वह पराजय बोध से भर जाता है। तमाम उम्मीदों व आकांक्षाओं के बावजूद गोदान का अंत वह नहीं होता जो होरी चाहता है। कारण यह है कि शोषण की व्यवस्था इतनी जटिल व मज़बूत है कि होरी जैसा किसान उसके सामने लाचार होकर दम तोड़ देता है। "क्या करें, पैसे नहीं हैं नहीं तो किसी डॉक्टर को बुलाती- यही वह बिन्दु है जहाँ प्रेमचंद ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ का अतिक्रमण करते हैं। इतना होने पर भी गोदान का यथार्थवाद निरापद नहीं है और यह कहना भी पूर्ण रूप से सत्य नहीं है कि गोदान तक आते-आते आदर्शवाद से मोह पूरी तरह छूट गया है। रचना में कई स्थानों पर प्रेमचंद का आदर्शवाद झलक ज़रूर जाता है मिस मालती का हृदय परिवर्तन, गोबर का हृदय परिवर्तन व मि. खन्ना का हृदय परिवर्तन इसी प्रकार के उदाहरण हैं।</s>
<s>[INST]अज्ञेय की काव्य-भाषा पर एक संक्षिप्त लेख लिखो। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 6c)[/INST]उत्तर : अज्ञेय उन गिने-चुने साहित्यकारों में से हैं जो भाषा को जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनकी दृष्टि में भाषा भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम न होकर अपनी स्वतंत्र रचनात्मकता रखती है। उनके अनुसार ‘काव्य शब्द’ है। उपरोक्त दृष्टि से ही यदि अज्ञेय की भाषा की विशिष्टताओं पर नज़र डालें तो कह सकते हैं कि शब्द प्रयोग में एक अद्भुत तराश दिखाई देती है, अनावश्यक शब्दों का प्रयोग न के बराबर है- "आ गए प्रियंवद! केशकम्बली! गुफा गेह! राजा ने आसन दिया।" तत्सम एवं तद्भव शब्दों का कौशलपूर्ण संगुम्फन अज्ञेय की काव्य भाषा की विशिष्ट पहचान है। तत्सम शब्दों के प्रयोग का उदाहरण- "अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव कुसुमों की लय पर" अज्ञेय की काव्य भाषा में ‘मौन’ की प्रमुख भूमिका रही है। उनकी कविताओं में ‘मौन’ गहरी अर्थवत्ता को धारण करता है। मौन की स्थिति असाध्य वीणा में अपेक्षतया विस्तार से अंकित हुई है- "सुना आपने जो वह मेरा नहीं न वीणा का था वह तो सब कुछ की तथता थी महाशून्य, महामौन" अज्ञेय मूलतः तद्भव भाषा के कवि हैं। असाध्य वीणा की भाषा मूलतः तद्भव प्रकृति की है। अज्ञेय का गद्य संसार प्रायः तत्सम प्रकृति का रहा है- "दुख सबको मांजता है" (पद्य) "वेदना में एक शक्ति है जो दृष्टि देती है (गद्य)" और पद्य प्रायः तद्भव प्रकृति का। अज्ञेय की भाषा का मूल्यांकन यदि बिंब, प्रतीक, लयात्मकता व नादयोजना जैसे काव्यशास्त्रीय प्रतिमानों के आधार पर करें तो यह एक सशक्त व प्रयोगशील भाषा के रूप में सामने आती है। अज्ञेय की कविता बिंबों का बहुत सधा हुआ प्रयोग करती है। ‘अंधेरे में’ और ‘असाध्य वीणा’ में दृश्य, ध्वनि, स्पर्श आदि बिंबों का सफल प्रयोग हुआ है- "चौंके खग-शावक की चिहुँक" नादात्मकता अज्ञेय की भाषा का प्राण तत्त्व है। ये वे ध्वनियाँ होती हैं जो खास प्रभाव पैदा करती हैं। इसे अज्ञेय ने अत्यंत सावधानीपूर्वक चुना है- ‘वर्षा बूंदों की पटपट’- महुए का चुपचाप टपकना, सोने की खनक इत्यादि। निष्कर्षतः अज्ञेय ने शब्दों के प्रयोग व निर्माण में जिस सूक्ष्मता का परिचय दिया है उससे वे सचमुच अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल भाषा का निर्माण कर सके हैं। भाषिक क्षमता के आधार पर उनकी तुलना कालिदास जैसे रचनाकारों के साथ ही की जा सकती है।</s>
<s>[INST]जगदीश चंद्र माथुर का नाट्य शिल्प। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5c)[/INST]उत्तर : माथुर हिन्दी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण नाटककार एवं एकांकीकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्होंने अपने शैल्पिक प्रयोगों के माध्यम से हिन्दी रंगमंच व नाट्य परंपरा को एक बार पुनः जोड़ दिया। इसी संदर्भ में उनकी शिल्पगत विशेषताओं को जानना अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इनके नाटकों में कथावस्तु सुसंगठित और प्रभावशाली हैं। इनका काव्यत्व प्रसाद की तरह नाटकों पर हावी नहीं होता, बल्कि यह कथावस्तु, नाट्य-स्थितियों और रचनातंत्र के भीतर से निकलता है। चरित्र-चित्रण में माथुर ने मनोवैज्ञानिक दृष्टि अपनाकर चरित्रों को प्रभावशाली बनाया है। रंगमंचीयता की दृष्टि से देखें तो यह कहा जा सकता है कि माथुर ने इसका विशेष ध्यान रखा है। ‘कोणार्क’ नाटक का ही उदाहरण लें, तो इस नाटक की भाषा और ‘संवाद-योजना’ रंगमंच के अनुकूल है। इसी प्रकार ध्वनि, वेशभूषा आदि से संबंधित रंग-निर्देश पर्याप्त व यथास्थान हैं- "झीने अंधकार में कोणार्क के खंडहर की हल्की झलक दीख पड़ती है।" ‘पहला राजा’, ‘शारदीया’, ‘दशरथ नंदन’ आदि नाटकों के आधार पर एक और जो शैल्पिक विशेषता उभरकर सामने आती है, वह यह है कि इन्होंने कठिन दृश्यों से संबंधित अभिनय हेतु पर्याप्त सुझाव भी दिये हैं। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अपनी शिल्पगत विशेषताओं के आधार पर इन्होंने हिन्दी नाटक को एक नई दिशा दी। प्रसाद युग में हिन्दी नाटक रंगमंच से दूर चला गया था, उसे पुनः जगदीश चंद्र माथुर ने जोड़ा।</s>
<s>[INST]‘झूठा सच’ के आधार पर यशपाल की जीवन दृष्टि। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5c)[/INST]उत्तर : यह यशपाल का सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास है जो उनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार भी रहा है। अपनी प्रकृति में यह एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है जो भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। भारत विभाजन की त्रासदी के माध्यम से इस कहानी में यशपाल की जीवनदृष्टि चित्र भी उभरा है। उपन्यास के माध्यम से यशपाल ने देश-विभाजन व सांप्रदायिकता के प्रति एक समाजवादी-मार्क्सवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। लेखक की दृष्टि में देश-विभाजन के पीछे आर्थिक पहलू सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। वे निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पंजाब में हिन्दू आर्थिक रूप से सशक्त थे यही कारण है कि उनका आर्थिक व राजनीतिक जीवन में बहुसंख्यकों से अधिक बोलबाला था। झूठा सच में यशपाल ने मात्र विभाजन की त्रासदी का ही वर्णन नहीं किया है बल्कि सांप्रदायिकता, रक्तपात आदि के बीच जनता की उभर रही जिजीविषा को प्रस्तुत किया है। यशपाल दिखाते हैं कि कैसे असहनीय कष्टों व दंगों के बावजूद जनता ने संघर्ष किया और पुनः सामान्य तरीके से उठ खड़ी हुई। यशपाल ने दिखाया है कि आम जनता में धैर्य, जिजीविषा व जुझारूपन के गुण पाए जाते हैं जो उन्हें बड़े-बड़े संकटों से उबार लेते है।</s>
<s>[INST]जयशंकर प्रसाद की सौंदर्य चेतना। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5b)[/INST]उत्तर : हिन्दी साहित्य में छायावादी सौंदर्य चेतना कई विशिष्टताएँ धारण करती हैं और प्रसाद के यहाँ हम छायावादी सौंदर्य चेतना का प्रतिनिधि रूप देख सकते हैं। ‘झरना’, ‘लहर’, ‘आँसू’ व ‘कामायनी’ के आधार पर उनकी सौंदर्य चेतना के मुख्य तत्त्वों का उद्घाटन किया जा सकता है। छायावाद के अन्य कवियों की भाँति प्रसाद के यहाँ भी सौंदर्य चेतना की अभिव्यिक्ति कई स्तरों पर दिखती है। सुंदरता जीवन के सुखात्मक पक्षों में भी है और दुखात्मक पक्षों में भी इसी प्रकार, इसमें प्रकृति भी सुंदर है, मानव भी, नारी भी और हृदय में उठने वाले भाव भी, परंतु मानव सौंदर्य सर्वोच्च स्तर पर है। प्रसाद के यहाँ सौंदर्य के भाव पक्ष को केंद्रीय महत्त्व दिया गया है। नारी का सौंदर्य भी उन्हें सुंदर भावों की अभिव्यक्ति ही प्रतीत होता है। प्रसाद कामायनी में लिखते हैं- "हृदय की अनुकृति बाह्य उदार, एक लंबी काया उन्मुक्त" प्रसाद के यहाँ जो नारी सौंदर्य प्रस्तुत है उसमें दिखावट नहीं बल्कि गूढ़ सौंदर्य है। नग्नता व अश्लीलता नहीं बल्कि संकोच व लज्जा है। नारी के सौंदर्य हेतु जिन उपमानों का प्रयोग किया गया है उनमें उत्तेजना के स्थान पर श्रद्धा जैसे भाव पैदा होते हैं- "नारी तुम केवल श्रद्धा हो" प्रसाद के यहाँ नारी व मानव सौंदर्य के अलावा प्रकृति के अनुपम सौंदर्य के भी दर्शन होते हैं। यहाँ भी प्रसाद छायावादी सौंदर्य चेतना का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। प्रसाद प्रकृति के प्रति गहरी भावुकता प्रकट करते हुए लिखते हैं- "प्रकृति के यौवन का शृंगार, करेंगे कभी न बासी फूल मिटेंगे वे आकर अति शीघ्र, आह उत्सुक है उनकी धूल" प्रसाद के यहाँ प्रकृति कई बार तो इतनी सुंदर हो जाती है कि उसके आगे नारी व मानव सौंदर्य भी फीका नज़र आता है। यही सौंदर्य चेतना निराला व पंत के यहाँ दिखाई देती है। प्रकृति के कण-कण में सौंदर्य के दर्शन प्रसाद ने किये हैं- "समरस थे जड़ या चेतन सुंदर साकार बना था चेतनता एक विलसती, आनंद अखंड घना था" समग्र रूप में कहा जा सकता है कि प्रसाद की सौंदर्य चेतना ऐसे दृष्टिकोण का प्रतिपादन करती है जहाँ सौंदर्य की सारी स्थूलताएँ नष्ट हो जाती हैं और उसके सूक्ष्म पक्ष उभरने लगते हैं।</s>
<s>[INST]घनानंद की काव्यगत विशेषताएँ। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5a)[/INST]उत्तर : घनानंद रीतिकालीन रीतिमुक्त काव्यधारा के शिखर पुरुष हैं। हिन्दी साहित्य में ये ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका साहित्य कई संवेदनात्मक व शैल्पिक विशिष्टताओं को धारण करता है। संवेदनात्मक विशेषताएँ इनका काव्य गहरी अनुभूतियों का काव्य है। इनकी अनुभूति कृत्रिम नहीं बल्कि स्वअर्जित अनुभवों से युक्त है। इसी संदर्भ में दिनकर लिखते हैं- “दूसरों के लिये किराए पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसा कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में ही रो रहा हैं।” घनानंद मूलतः वियोग के कवि हैं। सुजान के प्रति जो इन्होंने विरह भोगा है वह इनके काव्य का मूल भाव है। शुक्ल ने लिखा है "ये वियोग शृंगार के प्रधान कवि हैं।" इनका शृंगार वर्णन अत्यंत गहरा व एकनिष्ठता से युक्त है। सुजान के रूप-सौंदर्य, लज्जा, व्यवहार आदि का अत्यंत मार्मिकता के साथ अंकन किया है। इनका काव्य प्रेम की एकनिष्ठता की प्रस्थापना करता है- "अति सुधो सनेह को मारग है जहँ नेकु सयानप बांक नहीं" इनका लौकिक प्रेम वर्णन अंत में अलौकिक रूप प्राप्त कर लेता है। सुजान के प्रति जो लौकिक प्रेम था वह कृष्ण-राधा के प्रति अलौकिक स्तर पर व्यक्त होने लगा- "मेरी रूप अगाधे राधे, राधे, राधे, राधे, राधे तेरी मिलिवे को ब्रजमोहन, बहुत जतन हैं साधे" शिल्पगत विशेषताएँ बिहारी सहित लगभग सभी कवियों ने ब्रज को अरबी, फारसी व अन्य स्थानीय शब्दावली से मिश्रित कर दिया है, वहीं घनानंद ने शुद्ध ब्रज का प्रयोग किया है। यह शुद्धता शब्द निर्माण व चयन के स्तर पर भी है। शब्द शक्तियों के प्रयोग की दृष्टि से घनानंद का काव्य उत्कृष्ट है। लक्षणा व व्यंजना का बड़ा ही सटीक व सादा प्रयोग किया है। इसी प्रकार मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग भी द्रष्टव्य है। घनानंद ने अलंकारों का प्रयोग अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति चमत्कार प्रदर्शन हेतु नहीं बल्कि अपने भावों को व्यक्त करने हेतु किया है- विरोधाभास अलंकार- "उजरनि बसी है हमारी अँखियन देखो" श्लेष अलंकार- "तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पै देहु छंटाक नहीं" इस प्रकार स्पष्ट है कि घनानंद के यहाँ संवेदना व शिल्प दोनों स्तरों पर प्रयोगशीलता, सहजता व मौलिकता के दर्शन होते हैं।</s>
<s>[INST]हिंदी की समृद्धि में उसकी बोलियों के योगदान का आकलन करें। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 4b)[/INST]उत्तर : पिछले 1000 वर्षों के विकास के परिणामस्वरूप आज हिंदी जिस मानक स्वरूप को प्राप्त कर सकी है उसके विकास में यद्यपि सभी बोलियों का कुछ-न-कुछ योगदान अवश्य रहा है, किंतु मुख्य रूप से अवधी, खड़ी व ब्रज के योगदान को स्वीकार किया जा सकता है। 1. ध्वनि संरचना के स्तर पर योगदान (क) खड़ी बोली में ‘ऐ’ तथा ‘औ’ का प्रयोग सामान्य स्वरों के रूप में होता है, जबकि अवधी का प्रयोग संध्यक्षर के रूप में होता है। आधुनिक हिंदी ने इस संबंध में ब्रजभाषा के प्रयोग को स्वीकार किया है।उदाहरण- (ख) खड़ी बोली में आदि अक्षर के लोप होने की प्रवृत्ति है, जबकि अवधी व ब्रज में नहीं। आधुनिक हिंदी ने ब्रज व अवधी के मिश्रित रूप को अपनाया है, जैसे- (ग) खड़ी बोली में ‘ण’ ध्वनि का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में होता है जबकि ब्रज और अवधी में ‘ण’ को ‘न’ करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। आधुनिक हिंदी ने अवधी व ब्रज के प्रभाव को स्वीकार किया है। उदाहरण- 2. लिंग व्यवस्थाः खड़ी बोली में स्त्रीलिंग बनाने हेतु ‘अन’ ‘आनी’ व ‘ई’ प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता, जबकि अवधी में ‘इन’ का। मानक हिंदी में अवधी के प्रयोग को स्वीकार किया गया है। उदाहरण- 3. वचन व्यवस्थाः खड़ी बोली के जो नियम एकवचन व बहुवचन से संबंधित हैं, वे प्रायः मानक हिंदी में स्वीकार किये गए हैं, जैसे- 4. आधुनिक हिंदी में सर्वनामों पर खड़ी बोली व विशेषणों पर प्रायः ब्रज का प्रभाव है। 5. कारकीय परसर्गः खड़ी बोली में कर्त्ता और कर्म दोनों कारकों के साथ ‘ने’ का प्रयोग होता है जबकि ब्रजभाषा में ‘ने’ का प्रयोग केवल कर्त्ता कारक के रूप में होता है। मानक हिंदी में ब्रजभाषा का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। 6. मानक हिंदी में मूल शब्दावली चार प्रकार की है- तत्सम, तद्भव, देशज तथा विदेशज। मानक हिंदी का देशज व तद्भव शब्द भंडार मुख्य रूप से ब्रज व अवधी से स्वीकार किया गया है।</s>
<s>[INST]"हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की स्थिति असंतोषजनक है।" इस कथन का परीक्षण कीजिये। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 4a)[/INST]उत्तर : वर्तमान समय में किसी भी भाषा के विकास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि उसमें तकनीकी व वैज्ञानिक लेखन कितना हुआ है? हिंदी के बारे में वर्तमान में एक धारणा यह बन गई है कि हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर पुस्तकों के लिये आधारभूत सामग्री की कमी है और हिंदी आदि भारतीय भाषाएँ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को अभिव्यक्त करने में असमर्थ हैं। वास्तव में यह धारणा निराधार, असत्य व भ्रामक है, क्योंकि हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं में सब प्रकार की प्रगतिपरक संस्कृति तथा ज्ञान-विज्ञान को सहज और गहन दोनों रूपों में अभिव्यक्त और संप्रेषित करने की संपूर्ण क्षमता विद्यमान है। हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की परंपरा लगभग दो सौ साल पुरानी है। तकनीकी विषयों पर लिखने वालों के लिये शब्द संग्रह का प्रणयन सर्वप्रथम लल्लुजी लाल ने किया। इसी क्रम में आगे चलकर पं. लक्ष्मीधर मिश्र ने गणित, गति विद्या, वायुमंडल विज्ञान, प्राकृतिक भूगोल आदि विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखीं। इसी प्रकार 1914 में ‘विज्ञान पत्रिका’ के प्रकाशन ने वैज्ञानिक लेखन को नई ऊँचाइयाँ प्रदान की। वैज्ञानिक लेखन में डॉ. रघुवीर ने भी उल्लेखनीय योगदान दिया, इन्होंने हज़ारों की संख्या में वैज्ञानिक व तकनीकी शब्दावली व निर्माण किया। हिंदी के वैज्ञानिक लेखन में गुणाकर मुले व जयंत विष्णु नार्लीकर ने भी उल्लेखनीय योगदान दिया। गुणाकर मुले हिंदी के प्रथम वैज्ञानिक लेखक कहे जा सकते हैं, जिन्होंने ‘कंप्यूटर क्या है’, ‘आपेक्षिकता सिद्धांत क्या है?’ ‘भारतीय विज्ञान की कहानी’ आदि पुस्तकें लिखकर हिंदी का उपकार किया। इसी तरह जयंत विष्णु नार्लीकर ने ‘ब्रह्मांड की यात्रा’, ‘वायरस’, ‘विज्ञान, मानव और ब्रह्मांड’, ‘धूमकेतु’ आदि वैज्ञानिक पुस्तकें लिखकर हिंदी के वैज्ञानिक लेखन को और अधिक विस्तृत आधार प्रदान किया। इसमें संदेह नहीं कि आज वैज्ञानिक शब्दावली और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी अत्यंत समृद्ध है। इतने पर भी आज वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में लेखन बहुत ही कम और अपर्याप्त है। इसका कारण भाषा की असमर्थता नहीं बल्कि वैज्ञानिकों का इस दिशा में रुझान न होना है।</s>
<s>[INST]संत साहित्य के महत्त्व पर प्रकाश डालिये। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 2b)[/INST]उत्तर : संत साहित्य या ज्ञानमार्गी शाखा भक्तिकालीन साहित्य की अत्यंत महत्त्वपूर्ण साहित्य धारा है। इस धारा में कबीर, मीरा रैदास, मलूकदास आदि प्रमुख संत कवि हैं। इस धारा की संवेदना व शिल्प के स्तर पर एक बड़ी देन है, जिसे बिन्दुवार इस प्रकार उल्लिखित किया जा सकता है- संवेदना के स्तर पर देखें तो इन संत कवियों का बड़ा महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि इन्होंने तत्कालीन साहित्य को समाज से जोड़ा। कबीर आदि संतों ने तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक समस्याओं पर करारी चोट की- "कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय ता चढ़े मुल्ला बाँग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय" भक्तिकाल का समय दो संस्कृतियों व धर्मों के टकराव का समय था। संत कवियों ने अपने कवि धर्म का पालन करते हुए अपनी कविताओं के माध्यम से सांस्कृतिक समन्वय व भाईचारे की भावना को बढ़ावा दिया- "जाति-पांति पूछे न कोई हरि भजि सो हरि का होई" संत कवियों का महत्त्व इस बात में भी है कि इन्होंने अंधविश्वास व धार्मिक रूढ़िवादिता में फँसे समाज को वैज्ञानिक व तार्किक दृष्टिकोण से परिचित करवाया। यह दृष्टिकोण इन कवियों को आधुनिकता व मानववाद जैसी समकालीन अवधारणाओं के निकट ले जाता है- "पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार ताते तो चाकी भली, पीस खाए संसार" संत कवियों ने भाषा के लोकतंत्रीकरण का मार्ग अपनाकर समाज व साहित्य दोनों की सेवा की। कबीर ने भाषायी अभिजात्यवाद का विरोध करते हुए कहा कि "संस्कीरत है कूप जल भाखा बहता नीर।" इसी प्रकार, इन संत कवियों ने ऐसी भाषा का प्रयोग किया जो चलती हुई आमजन की भाषा थी, जिसमें सभी स्थानीय बोलियों के शब्दों का समावेश था। ऐसी भाषा चाहे पंचमेल खिचड़ी कही गई हो, किंतु यह आमजन हेतु अधिक सहज व सरल थी। उल्लेखनीय है कि संत साहित्य का महत्त्व देशकाल की सीमाओं से परे है। ऐसा लगता है कि कबीरदास आज की जातिवादी व सांप्रदायिकतावादी प्रवृतियों पर खीज से भरे हैं।</s>
<s>[INST]हिंदी व्याकरण के संदर्भ में किशोरीदास वाजपेयी के योगदान का आकलन कीजिये। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 2a)[/INST]उत्तर : हिंदी व्याकरण लेखन के चौथे चरण में किशोरीदास वाजपेयी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनका व्याकरण-लेखन पूर्व के सभी प्रयासों के दोषों को दूर करने में सहायक सिद्ध हुआ। वाजपेयी जी का व्याकरण-लेखन में महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि इन्होंने कामता प्रसाद के व्याकरण लेखन की कमियों को दूर करने का प्रयास किया। इस कार्य हेतु 1954 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने यह कार्य इनको सौंपा। इस कार्य को इन्होंने बखूबी पूरा किया। दूसरा योगदान यह है कि 1915-1950 के दौरान मानकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी और हिंदी भाषा का स्वरूप भी तेज़ी से बदल रहा था। ऐसे समय में वाजपेयी जी ने हिंदी व्याकरण को अद्यतन बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस कार्य में उनका सहयोग करने वालों में राहुल सांकृत्यायन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, काका कालेलकर तथा पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का नाम प्रमुख है। हालाँकि, ‘हिंदी शब्दानुशासन’ नामक इस व्याकरण ग्रंथ में कुछ वाजपेयी जी के निजी दोष प्रकट हुए हैं, जैसे चलती हुई लोकभाषा का प्रयोग, कामता प्रसाद गुरु के व्याकरण पर तीखा व्यक्तिगत आक्षेप आदि।</s>
<s>[INST]रहीम की कविता की मार्मिकता के प्रमुख कारण। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1e)[/INST]उत्तर : रहीम हिन्दी साहित्य के उन कवियों में शुमार किये जाते हैं जिनकी कविता उसके मर्म के लिये जानी जाती है। यही कारण है कि रहीम सूर व तुलसी की भाँति जन-जन में अत्यंत लोकप्रिय हुए। रहीम की कविता की मार्मिकता हेतु उत्तरदायी कारणों का उद्घाटन कई स्तरों पर किया जा सकता है। रहीम ने अपने अनुभवों को सरल और सहज शैली में मार्मिक रूप से अभिव्यक्त किया है। गहरी-से-गहरी बात भी उन्होंने बड़ी सरलता से सीधी-सादी भाषा में कह दी- “तरुवर फल नहीं खात हैं, सरवर पियहिं न पान। कवि रहीम पर काज हित, संपत्ति सुचहिं सुजान।।” इनका काव्य इनके सहज उद्गारों की अभिव्यक्ति है। इन उद्गारों में इनका दीर्घकालीन अनुभव निहित है। ये सच्चे व संवेदनशील हृदय के कवि थे। जीवन में आने वाली कटु-मधुर परिस्थितियों ने इनके हृदय-पट पर जो बहुविद् अनुभूति रेखाएँ अंकित कर दी थीं, उन्हीं के अकृत्रिमता में इनके काव्य की रमणीयता का रहस्य निहित है। रहीम के दोहों की खूबी यह भी है कि उनमें तेज़ धार है और गज़ब का पैनापन भी, तभी तो वे एकबारगी दिलो-दिमाग को झकझोर देते हैं। उनके दोहों में नीतिपरक बातों के साथ-साथ ज़िंदगी के चटक रंग भी शृंगार के रूप में दिखाई देते हैं- "रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो छिटकाय टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाए" रहीम की कविता की मार्मिकता का एक कारण यह भी है कि इन्होंने लोक-प्रचलित सहज सरल जनभाषा में दोहे जैसा छंद रचा। उन्होंने ब्रज भाषा, पूर्वी, अवधी और खड़ी बोली को अपनी काव्य भाषा बनाया, किंतु ब्रज भाषा उनकी मुख्य शैली थी जो अत्यंत सरस व मार्मिक बन पड़ी।</s>
<s>[INST]खुसरो की काव्य भाषा। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1d)[/INST]उत्तर : हिन्दी भाषा के विकास में खुसरो का अद्वितीय योगदान है। यह योगदान खड़ी बोली व ब्रज भाषा के साथ फारसी के संदर्भ में भी उल्लिखित किया जा सकता है। इसी संदर्भ में खुसरो की भाषायी विशिष्टता व प्रयोगात्मकता को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है खुसरो की भाषा मुख्यतः दो प्रकार की है। एक ठेठ ब्रज और दूसरी ठेठ खड़ी। इसी के साथ कई जगह खड़ी और ब्रज का मिश्रित रूप भी दिखाई देता है- "खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। तन मेरो मन पीऊ को, दोऊ भए एक रंग।।" खुसरो ने अपनी पहेलियों, मुकरियों में खड़ी बोली के जिस रूप का प्रयोग किया है वह वास्तव में आश्चर्यजनक है। आचार्य शुक्ल ने इस पर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि ‘क्या खड़ी बोली इस समय तक घिसकर इतनी चिकनी हो गई थी’- "एक थाल मोती से भरा, सबके सिर औंधा धरा चारों ओर वह थाल फिरे मोती उससे एक न गिरे" प्रयोगशीलता खुसरो की एक अन्य भाषायी विशिष्टता है। प्रयोगशीलता का एक उदाहरण यह है कि उन्होंने एक ही कविता में शुद्ध फारसी व शुद्ध ब्रज का अद्भुत समन्वय कर दिया है- "जे हाल मिसकीं मकुल तगाफुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ किताबे हिज्रां न दारम ऐ जां, न लेहु काहे लगाय छतियाँ" इसी प्रकार, खुसरो की भाषा का मूल्यांकन गुणों व प्रवाह के आधार पर किया जाए तो यह नज़र आता है कि प्रसाद व माधुर्य गुणों की प्रधानता है। साथ ही, बोधगम्यता व सहजता के साथ चित्रात्मकता एवं बिंबात्मकता के गुण भी समाविष्ट हैं। अंत में, खुसरो के भाषायी प्रयोगों व विशिष्टताओं का ही परिणाम था कि आगे चलकर ब्रज जहाँ भक्तिकाल एवं रीतिकाल में, वहीं खड़ी बोली आधुनिक काल में काव्य भाषा के शिखर तक पहुँची।</s>
<s>[INST]अवधी की व्याकरणिक विशेषताएँ। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1 c)[/INST]उत्तर : अवधी की व्याकरणिक विशेषताओं को कारक व्यवस्था, सर्वनाम क्रिया व्यवस्था तथा वचन व्यवस्था आदि चार स्तरों पर उल्लिखित किया जा सकता है। कारक व्यवस्था कहीं-कहीं निर्विभक्तिक प्रयोग दिखाई देते हैं- राम दरस मिटि गई कलुसाई (संबंध कारक का लोप) ‘हिं’ विभक्ति के प्रयोग से कई कारकों का काम चलता है। आधुनिक आर्य भाषा के अनुकूल परसर्गों का तीव्र विकास अवधी में दिखाई देता है। सर्वनाम इस बोली में प्रयुक्त होने वाले सर्वनाम इस प्रकार हैं- उत्तम पुरुष बहुवचन - हम, हम लोग उत्तम पुरुष एकवचन - तू, तूँ, मध्यम पुरुष बहुवचन - तुम, तुम्हार अन्य पुरुष एकवचन - वह, उ, ओ अन्य पुरुष बहुवचन - वेइ, तेइ क्रिया व्यवस्था क्रियाओं में वर्तमान के लिये त-रूप (बैठत, देखत), भूतकाल के लिये वा-रूप (आवा, जावा) तथा भविष्य काल के लिये ब-रूप (खाइब) प्रचलित है। इसी प्रकार, संसार्थ क्रियाओं हेतु ‘ब’ रूप दिखाई देता है, जैसे- देखब, करब इत्यादि। संयुक्त क्रियाएँ कम हैं किंतु दिखाई देती हैं।</s>
<s>[INST]हिंदी दिवस (14 सितंबर) की उपयोगिता पर अपना मत व्यक्त कीजिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 4 ग)[/INST]उत्तर : 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया और संविधान के भाग-17 में इससे संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रावधान किये गए। इस दिन के इसी ऐतिहासिक महत्त्व के कारण 1953 से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस का आयोजन किया जाता है। हिंदी के प्रोत्साहन की दृष्टि से इस दिवस के आयोजन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अवसर पर हिंदी के प्रोत्साहन हेतु कई पुरस्कार प्रदान किये जाते हैं, जैसे- राजभाषा कीर्ति पुरस्कार और राष्ट्रभाषा गौरव पुरस्कार। कीर्ति पुरस्कार जहाँ ऐसे विभाग को दिया जाता है जिसने वर्ष भर हिंदी में कार्य को बढ़ावा दिया हो, वहीं राष्ट्रभाषा गौरव पुरस्कार तकनीकी-विज्ञान लेखन हेतु दिया जाता है। इसके अतिरिक्त, इस दिवस के अवसर पर देश भर के विद्यालयों, महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में पुरस्कार वितरण, हिंदी कविता प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबंध लेखन आदि का आयोजन किया जाता है। इस प्रकार के कार्यक्रमों से निश्चित ही हिंदी के प्रयोग को नागरिक व प्रशासनिक स्तर पर बढ़ावा मिलता है। किंतु, यह ध्यान देना आवश्यक है कि हिंदी दिवस का महत्त्व औपचारिक-सा बनकर रह गया है। साल में केवल एक दिन हिंदी के प्रयोग का दिखावा कर कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है। सरकारी कार्यालयों में लगभग सारा कार्य अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से होता है। इस आयोजन के आलोचकों के अनुसार 14 सितंबर का आयोजन कर्मकांड बनकर रह गया है। एक आलोचक के अनुसार तो इस आयोजन का महत्त्व ‘हिंदी को अबला बनाने वाले व आँसू बहाने के दिवस’ तक सीमित हो गया है। ये आरोप काफी हद तक सही भी हैं क्योंकि हिंदी प्रयोग हेतु जारी किये जाने वाले निर्देश भी अंग्रेज़ी में लिखे होते हैं। राष्ट्रभाषा व राजभाषा के रूप में हिंदी का विकास केवल एक दिन के हिंदी दिवस आयोजन से नहीं होने वाला। इस हेतु नागरिक समाज व प्रशासन के स्तर पर भाषायी प्रयोग हेतु आमूल-परिवर्तनवादी कदमों की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 4 ख)[/INST]उत्तर : हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन की परंपरा लगभग दो सौ साल पुरानी है और यह भी सत्य है कि हिंदी भाषा में सब प्रकार की प्रगतिपरक संस्कृति तथा ज्ञान-विज्ञान को सहज और गहन दोनों रूपों में अभिव्यक्त करने एवं संप्रेषित करने की संपूर्ण क्षमता विद्यमान है। इसी संदर्भ में वर्तमान में हिंदी में वैज्ञानिक लेखन हेतु कई प्रयास हुए हैं जिनमें गुणाकर मुले व जयंत विष्णु नार्लीकर के प्रयास उल्लेखनीय हैं। गुणाकर मुले ने विज्ञान के गूढ़ रहस्यों को समझाने के लिये अपने लेखन को समर्पित कर दिया। NCERT की पुस्तकों के निर्माण में उनका विशिष्ट योगदान रहा है। उनकी प्रमुख रचनाएँ- ‘ब्रह्मांड परिचय’, ‘आकाश दर्शन’, ‘अंतरिक्ष यात्रा’, ‘कैसी होगी 21वीं सदी’, ‘कंप्यूटर क्या है’ तथा ‘आपेक्षिकता का सिद्धांत क्या है?’ आदि। इसी प्रकार, जयंत विष्णु नार्लीकर प्रसिद्ध भारतीय भौतिक विज्ञानी हैं जिन्होंने हिंदी में अनेक वैज्ञानिक पुस्तकें लिखीं। इन्होंने ‘ब्रह्मांड की कुछ झलकें’, ‘ब्रह्मांड की यात्रा’, ‘वायरस’, ‘भारत की विज्ञान यात्रा’, ‘विज्ञान, मानव और ब्रह्मांड’, ‘धूमकेतु’ तथा तारों की जीवनगाथा आदि पुस्तकें हिंदी में लिखीं। इसमें संदेह नहीं कि आज वैज्ञानिक शब्दावली और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी अत्यंत समृद्ध है। इतने पर भी आज वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में लेखन बहुत ही कम और अपर्याप्त है। इस सबका यह कारण नहीं है कि भाषा में ऐसी क्षमता या समर्थता नहीं है बल्कि इसका कारण यह है कि वैज्ञानिकों में इस दिशा में रुझान का अभाव है। इसका निराकरण तभी संभव है जब एक तो शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं को अपनाया जाए तथा दूसरे, वैज्ञानिकों को हिंदी में बोलने और लिखने के लिये प्रेरित किया जाए। यदि ऐसा होता है तो निश्चय ही हिंदी के माध्यम से वैज्ञानिक चेतना भारत के जन-जन तक पहुँच सकती है।</s>
<s>[INST]राष्ट्रभाषा हिंदी के आंदोलन में सेठ गोविंद दास पर विचार कीजिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 4 क)[/INST]उत्तर : सेठ गोविंददास के हिंदी भाषा को प्रतिस्थापित करने के योगदान को उनकी इन पंक्तियों के माभ्यम से अधिक अच्छे तरीके से समझा जा सकता है- "जब हम अपना जीवन जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पित कर दें तब हम हिंदी प्रेमी कहे जा सकते हैं।" सन् 1916 में बीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने जबलपुर में ‘शारदा भवन’ नामक पुस्तकालय स्थापित कर हिंदी आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। उन्होंने जबलपुर से ‘शारदा’, ‘लोकमत’ तथा ‘जयहिंद’ पत्रों की शुरुआत कर जन-जन में हिंदी के प्रति प्रेम जगाने और साहित्यिक परिवेश बनाने का अनुप्रेरक प्रयास किया। सन् 1927 में उन्होंने कौंसिल ऑफ स्टेट में सर्वप्रथम हिंदी भाषा के प्रश्न को उठाया। उसके पहले केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा अथवा प्रांतीय विधानसभाओं में यह प्रश्न उठा ही नहीं था। संविधान सभा में हिंदी और हिंदुस्तानी को लेकर उठे विवाद को शांत करने में सेठ गोविंददास का विशेष महत्त्व रहा है। उन्होंने हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिये अपने दल के व्हिप तक का संसद में उल्लंघन कर दिया था। इसी प्रकार, राष्ट्रभाषा हिंदी को सम्मान जनक स्थान दिलाने के लिये 1968 में देशव्यापी आंदोलन चलाया था और इस हेतु वे पूरे भारत का भ्रमण कर रहे थे। अंत में यह कहा जा सकता है कि हिंदी के प्रसार के साथ इसे राजभाषा के प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित करवाने में सेठ गोविंद दास की अविस्मरणीय भूमिका है।</s>
<s>[INST]हिंदी की तकनीकी शब्दावली के उपयोग में आने वाली कठिनाइयों पर प्रकाश डालिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 3 ग)[/INST]उत्तर : पिछले 50 वर्षों में, विशेषतः वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के गठन के बाद पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के क्षेत्र में तीव्र गति से विकास हुआ है, किंतु अभी भी तकनीकी शब्दावली के उपयोग से संबंधित अनेक कठिनाइयाँ विद्यमान हैं- विभिन्न विचारधाराओं ने अपने-अपने तरीके से अनुवाद प्रस्तुत किये हैं जिससे वैविध्य एवं जटिलताएँ पैदा हो गई हैं, जैसे टेलीप्रिंटर हेतु ‘दूर मुद्रक’, ‘तार लेखी’ व ‘टेली प्रिंटर’ शब्द प्रचलित हैं। एक समस्या यह है कि बहुत से ऐसे शब्द बनाए गए हैं जो अपनी जटिलता के कारण नितांत अप्रचलित हैं, जैसे- कंप्यूटर हेतु ‘संगणक’, ट्रेन हेतु ‘लौहपथगामिनी’ इत्यादि। तीसरी समस्या समन्वय के अभाव की है। उदाहरण के लिये डायरेक्टर के लिये निर्देशक, निदेशक व संचालक का प्रयोग तथा लेक्चरर के लिये प्राध्यापक, प्रवक्ता व व्याख्याता का प्रयोग द्रष्टव्य है। इससे द्वैधीकरण की समस्या उत्पन्न हुई है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में परिवर्तनों की द्रुत गति इस समस्या को और अधिक जटिल बना देती है। जब तक हम कुछ शब्दों को अनुवाद कर प्रचलन में लाने का प्रयास करते हैं तब तक अनेक नए शब्द सामने आ जाते हैं। कुल मिलाकर यह समस्या अत्यंत जटिल है। यदि हम दृढ़ इच्छाशक्ति से काम करें एवं सामान्यतः अंतर्राष्ट्रीय शब्दावली को हिंदी व्याकरण से सुसंगत बनाते हुए स्वीकार करें तो संभव है कि हिंदी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की सफल भाषा बन जाए।</s>
<s>[INST]मानक हिंदी की व्याकरणिक विशेषताओं का परिचय दीजिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 3 ख)[/INST]उत्तर : व्याकरण किसी भी भाषा को अनुशासित करने की एक पद्धति है। हिंदी भाषा का भी अपना एक स्पष्ट व्याकरण है। इसके प्रमुख रूप से चार अंग हैं- जब व्याकरण सम्मत नियमों के आधार पर कोई शब्द किसी व्याकरणिक कोटि के रूप में वाक्य में निश्चित स्थान ग्रहण करता है तो पद बन जाता है। पद संरचना को निम्न चित्र द्वारा दर्शाया जा सकता है- 2. हिंदी में विकार पैदा करने वाले पाँच तत्त्व माने गए हैं जिन्हें आरेख द्वारा दर्शाया जा सकता है- मानक हिंदी में दो लिंगों की व्यवस्था है। इसी प्रकार वचन भी दो हैं- एकवचन और बहुवचन। वहीं वाक्यों की संख्या तीन है- कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य। जबकि कालों की संख्या स्वाभाविक रूप से यहाँ भी तीन है- भूतकाल वर्तमान काल भविष्य काल अविकारी तत्त्व वे हैं जो किसी भी परिस्थिति में परिवर्तित नहीं होते हैं। प्रत्येक काल, वचन तथा लिंग में इनकी एक-सी संरचना बनी रहती है। इनकी संख्या चार है- 1. कारक व्यवस्था क्रिया के साथ विभिन्न संज्ञाओं का संबंध बताती है। हिंदी में भी संस्कृत की तरह 8 कारक स्वीकृत हैं- कर्त्ता (ने), कर्म (को), करण (से), संप्रदान (के लिये), अपादान (से अलग), संबंध (का, के, की), अधिकरण (में, पर), संबोधन (हे)। 2. वाक्य संरचना किसी भी भाषा की अर्थ प्रदात्री इकाई होती है। यह कुछ शब्दों के व्यवस्थित संयोग से बनती है। वाक्य प्रायः तीन प्रकर के होते हैं-</s>
<s>[INST]मानक हिंदी के स्वरूप पर प्रकाश डालिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 3 क)[/INST]उत्तर : मानक हिंदी से तात्पर्य, खड़ी बोली से विकसित और नागरी लिपि में लिखी जाने वाली उस मानक भाषा से है जिसे उच्च हिंदी या परिनिष्ठित हिंदी भी कहा जाता है। यही हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा, राजभाषा तथा संपर्क भाषा है। यही शिक्षा, प्रशासन, वाणिज्य, समाचार-पत्र, कला और संस्कृति की विभिन्न विधाओं के लिये सम्प्रेषण का माध्यम है। ये मानक भाषा के बाहरी रूप या बहिरंग आयाम हैं। अंतरंग आयामों के अंतर्गत मानक हिंदी की भाषिक संरचना तथा व्याकरणिक व्यवस्था की दृष्टि से उसके स्वरूप को देखा जा सकता है। हिंदी निरन्तर विकसित और परिष्कृत होती रही है। आज हिंदी का जो मानक स्वरूप निर्धारित हो पाया है वह लगभग पिछली दस शताब्दियों का परिणाम है। ठोस स्तर पर यह प्रक्रिया भारतेंदु युग से प्रारंभ हुई। मानक हिंदी का मूल आधार ‘खड़ी बोली’ है। हिंदी की विभिन्न शैलियों एवं बोलियों में से एक ‘खड़ी बोली’ ने मानक हिंदी की ओर अग्रसर होने के क्रम में शब्दावली के स्तर पर विभिन्न स्रोतों का सहारा लिया है। इन सभी स्रोतों में सबसे प्रमुख संस्कृत के स्रोत हैं जहाँ से व्यापक स्तर पर तत्सम शब्दों को ग्रहण किया गया है। इसके अतिरिक्त कई विदेशी भाषाओं एवं देशी बोलियों से भी शब्द ग्रहण किये गए हैं।</s>
<s>[INST]पूर्वी हिंदी की किन्हीं दो बोलियों का विवेचन कीजिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 2 ग)[/INST]उत्तर : पूर्वी हिंदी का क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ तक विस्तृत है। इसके अंतर्गत तीन बोलियाँ शामिल की जाती हैं- अवधी, बघेली छत्तीसगढ़ी। इनमें से अवधी व बघेली का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है- अवधी- अवधी अवध की बोली है। इस बोली का क्षेत्र लखनऊ, फैज़ाबाद, सीतापुर, सुल्तानपुर व रायबरेली तक फैला है। भक्तिकाव्य की दो प्रमुख धाराएँ- सूफी काव्यधारा तथा रामभक्ति काव्यधारा इसी बोली में रचित हैं। अवधी की भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं अवधी में हिंदी की प्रायः सभी ध्वनियाँ मिलती हैं, किन्तु ‘ण’ का प्रयोग ‘न’ ‘ड़’ का प्रयोग ‘र’ और ‘ब’ का प्रयोग ‘ब’ के रूप में विशिष्ट है। अवधी में उकारांतता की प्रवृत्ति है, जैसे- रामू, दीनू इत्यादि। पुल्लिंग से स्त्रीलिंग के निर्माण हेतु शब्द के अंत में ई, इनि, इनी, आनी, नी तथा इया जैसे प्रत्यय लगते हैं। बघेली- बघेली बघेलखंड की बोली है। यह रीवा, जबलपुर, मंडला तथा बालाघाट ज़िलों में बोली जाती है। अवधी और बघेली में इतनी समानताएँ हैं कि कुछ विद्वान उसे अवधी की उपबोली मानते हैं। बघेली की भाषिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं बघेली में ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ का अत्यधिक प्रयोग। कर्म और संप्रदान के लिये ‘कः’ तथा करण व अपादान के लिये ‘कार’ परसर्गों का प्रयोग। ‘ए’ और ‘ओ’ ध्वनियों का उच्चारण करते हुए बघेली में ‘य’ और ‘व’ ध्वनियों का मिश्रण करने की प्रवृत्ति है। </s>
<s>[INST]दक्खिनी हिंदी की विशेषताएँ । (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1 ख)[/INST]उत्तर : दक्खिनी हिंदी पश्चिमी हिंदी उपभाषा की एक प्रमुख बोली है जो कुछ ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संयोगों के कारण भौगोलिक दृष्टि से पश्चिमी हिंदी के मूल क्षेत्र से अलग है। इसी का परिणाम है कि कई स्तरों पर दक्खिनी हिंदी विशिष्ट है। ध्वनि- दक्खिनी हिंदी की यदि ध्वनि संबंधी विशेषताओं पर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि इसमें खड़ी बोली के सभी स्वर और व्यंजन दिखाई देते हैं। साथ ही, इस बोली में महाप्राण ध्वनियों का अल्पप्राणीकरण (मुझे-मुजे), अल्पप्राण ध्वनियों का महाप्राणीकरण (पलक-पलख), दिखाई देता है। कहीं-कहीं सघोष व्यंजनों का अघोषीकरण हो जाता है, जैसे- खूबसूरत-खपसूरत। व्याकरणिक विशेषताएँ- सर्वनाम व्यवस्था के अंतर्गत उत्तम पुरुष हेतु ‘मेरेकूँ’, ‘हमन’, ‘मंज’ तथा ‘मुज’ का प्रयोग विशिष्ट है। स्त्रीलिंग के विशेषण विशेष्य के अनुसार पूर्णतः विकारी हैं जो खड़ी बोली से अलग दक्खिनी हिंदी महत्त्वपूर्ण विशेषता है। उदाहरण के लिये- ‘जम्हाई लेती लड़की-जम्हाईयाँ लेतियाँ लड़कियाँ।’ शब्दावली- दक्खिनी हिंदी में आरंभिक काल में खड़ी बोली की शब्दावली ही सर्वाधिक प्रचलित रही। वहीं बाद में इसके अंतर्गत फारसीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती गई। इसके अतिरिक्त, मराठी, तेलुगू और कन्नड़ के स्थानीय शब्द भी सीमित मात्रा में शामिल होते गए।</s>
<s>[INST]मध्यकाल में काव्य भाषा के रूप में अवधी का विकास। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1 ख)[/INST]उत्तर : भाषा के रूप में अवधी का पहला स्पष्ट उल्लेख अमीर खुसरो की रचना खालिकबारी में मिलता है। रोडा कृत ‘राउलबेल’ व दामोदर पंडित कृत ‘उक्ति-व्यक्ति प्रकरण’ में अवधी के प्रयोग से स्पष्ट होता है कि अवधी एक भाषा के रूप में 13वीं सदी में स्थापित हो चुकी थी। मूल प्रश्न है कि अवधी के मध्यकाल में एक काव्य-भाषा के रूप में स्थापित होने के पीछे कौन से उत्तरदायी कारक थे, और इसका स्वरूप कैसा था? अवधी की स्थापना के संबंध में पहला सुयोग यह हुआ कि सूफी कवियों ने अपने प्रेमाख्यानों की रचना में इसका प्रयोग किया। मुल्ला दाऊद की ‘चन्दायन’ ने एक ही झटके में अवधी को लोकभाषा के स्तर से उठाकर काव्यभाषा के रूप में स्थापित कर दिया। इसी परंपरा में कुतुबन की ‘मृगावती’ और जायसी की ‘पद्मावत’ है। सूफी कवियों की अवधी में लोकभाषा की मिठास है, लोकजीवन के शब्दों का सुंदर प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त बिंब योजना व अप्रस्तुत योजना ने इस भाषा को चरम स्तर तक पहुँचा दिया। इसी प्रकार, मध्यकाल में अवधी के विकास हेतु एक और सुयोग हुआ। भक्तिकाल की रामभक्ति काव्यधारा वस्तुतः अवधी में ही पुष्पित-पल्लवित हुई। तुलसी की कृतियों में अवधी ने नए आयामों को छुआ। तुलसी आदि की अवधी सूफियों की अवधी से अलग है। यहाँ तत्सम शब्दों का प्रचुर प्रयोग किया गया है। तुलसी के हाथों में पड़कर यह भाषा नाद सौंदर्य व आलंकारिता से युक्त हुई। शुक्ल ने तुलसी को अनुप्रास का बादशाह इसी संदर्भ में कहा। तुलसी के बाद विशाल रामकाव्य परंपरा काव्यभाषा के स्तर पर धीरे-धीरे अवधी से दूर होकर ब्रजभाषा के साथ जुड़ने लगी।</s>
<s>[INST]देवनागरी लिपि के विकास की संक्षिप्त रूपरेखा। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1 क)[/INST]उत्तर : भारत में लिपि के विकास की परंपरा में ब्राह्मी लिपि को प्रस्थान बिन्दु माना जाता है। इसी की परंपरा में आगे चलकर देवनागरी का विकास हुआ। ब्राह्मी लिपि के दो रूप प्रचलित रहे हैं- दक्षिणी ब्राह्मी और उत्तरी ब्राह्मी। उत्तरी ब्राह्मी से गुप्त और गुप्त लिपि से देवनागरी का विकास हुआ। स्वाधीनता आंदोलन में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त होने के बाद लिपि के विकास व मानकीकरण हेतु कई व्यक्तिगत एवं संस्थागत प्रयास हुए। सर्वप्रथम बाल गंगाधर तिलक ने ‘केसरी फॉन्ट’ तैयार किया। आगे चलकर सावरकर बंधुओं ने बारहखड़ी तैयार की, गोरखनाथ ने मात्रा व्यवस्था में सुधार किया। डॉ. श्यामसुंदर दास ने अनुस्वार के प्रयोग को व्यापक बनाकर देवनागरी के सरलीकरण के प्रयास किये। देवनागरी के विकास में अनेक संस्थागत प्रयासों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। 1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन ने नागरी लिपि सुधार समिति के माध्यम से बारहखड़ी और शिरोरेखा से संबंधित सुधार किये। इसी प्रकार, 1947 में नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने बारहखड़ी, मात्रा व्यवस्था, अनुस्वार व अनुनासिक से संबंधित महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये। देवनागरी लिपि के विकास हेतु भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने कई स्तरों पर प्रयास किये हैं। सन् 1966 में मानक देवनागरी वर्णमाला प्रकाशित की गई, 1967 में ‘हिंदी वर्तनी का मानकीकरण’ का प्रकाशन हुआ।</s>
<s>[INST]डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचनात्मक विवेक पर एक निबंध लिखिये।(2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 8 क)[/INST]उत्तर : डॉ. रामविलास शर्मा का हिन्दी समीक्षा में ‘प्रगतिवादी समीक्षा के पितामह’ के रूप में महत्त्व स्वीकार किया गया है, उनकी आलोचना का क्षेत्र न केवल विषय की दृष्टि से बल्कि कार्य की दृष्टि से भी अत्यधिक विस्तृत है। शर्मा मूलतः एक मार्क्सवादी समीक्षक हैं, किंतु उन्होंने अपने सृजनात्मक विवेक से मार्क्सवाद का एक प्रगतिशील संस्करण तैयार किया है। वे आर्थिक कारणों के साथ-साथ सामाजिक कारणों को भी महत्त्व देते हैं। वे साहित्य को अर्थव्यवस्था, भाषा, समाज, भूगोल से बनने वाली जातीय मानसिकता से जोड़कर देखते हैं। उर्वशी की समीक्षा करते हुए प्रगतिशील आंदोलन के लोकवादी स्वरूप के भीतर रस सिद्धांत को स्वीकार कर लेते हैं। डॉ. शर्मा ने उन रचनाकारों के महत्त्व की स्थापना की जो किसी-न-किसी रूप में साहित्य की जनवादी परंपरा से जुड़े हुए थे। प्रेमचंद, भारतेन्दु, द्विवेदी, निराला, तुलसी आदि को प्रतिष्ठित करने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। शर्मा जी ने आलोचना में साम्यवादी आदर्श को हिन्दी में ‘जातीय संदर्भ’ में स्थापित करने का प्रयास किया। उनके अनुसार भारतीय सामाजिक संरचना में यदि क्रांतिकारी परिवर्तन लाना है तो उसके लिये उपराष्ट्रीयताओं का विकास ज़रूरी है। इसी जातीय दृष्टि के आधार पर तुलसी को हिन्दी जातीय स्मृति का सबसे बड़ा कवि माना व भारतेन्दु-द्विवेदी युग को हिन्दी क्षेत्र का नवजागरण कहा। डॉ. शर्मा के आलोचनात्मक विवेक का सर्वोच्च स्तर वहाँ दिखाई देता है, जहाँ वे निराला के साहित्य की समीक्षा कर रहे होते हैं। यह हिन्दी समीक्षा का दुर्लभ बिन्दु है जहाँ व्यक्तित्व व कृतित्व एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं। समग्र रूप में कहा जा सकता है कि विस्तार और गहराई की दृष्टि से उनका आलोचना कर्म अप्रतिम है और साथ ही वे मौलिक चिंतन तथा लोकबद्ध मान्यताओं के कारण प्रगतिशील समीक्षा के पितामह बन जाते हैं।</s>
<s>[INST]‘अकहानी आंदोलन’ के स्वरूप को स्पष्ट करो। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 7 ग)[/INST]उत्तर : हिन्दी में नई कहानी आंदोलन के बाद 1960 के दशक में फ्राँस के एंटी स्टोरी मूवमेंट से प्रभावित ‘अकहानी आंदोलन’ मुख्यधारा में आया। इस आंदोलन की कहानियों में जीवन के प्रति अस्वीकार का जो भाव है वह अकविता के जैसा ही है। सभी मूल्यों में गहरी अनास्था प्रकट करती यह ‘कहानी-धारा’ अजनबीपन एवं निरर्थकता बोध को प्रश्रय देती है। अकहानी आंदोलन का विशिष्ट स्वरूप उसकी कई विशेषताओं से निर्मित हुआ है, जैसे- इन कहानियों में जीवन-मूल्यों के प्रति तिरस्कार का भाव है जिससे आत्मपीड़न, ऊब, अकेलापन, अजनबीपन तथा विसंगति का चित्रण दिखाई देता है। यहाँ परंपरा का पूर्ण नकार है। शिल्प के स्तर पर भी और संवेदना के स्तर पर भी। गंगा प्रसाद विमल की ‘प्रश्नचिह्न’ व दूधनाथ सिंह की ‘रीछ’ इसी प्रकार की कहानियाँ हैं। यहाँ अंतरंगता व आत्मीयता की जगह संबंधों में घुटन, तनाव व नफरत का समावेश हो गया है। अकहानी अतिशय आधुनिकता पर ज़ोर देती है और इसी कारण वह समाज से कट जाती है। यह ‘संबंधहीनता’ तथा ‘संबंधाभाव’ की स्थितियों को उभारती है। इसी प्रकार यहाँ यौन उन्मुक्तता, समलैंगिक संपर्क व पशु संपर्क से संबंधित कहानियाँ लिखी गई हैं। शिल्प के स्तर पर देखें तो भी नज़र आता है कि यहाँ भी यह कहानी विशिष्ट स्वरूप धारण करती है। यहाँ पुराने के प्रति अस्वीकार व नए के प्रति विरोध का भाव दिखाई देता है। सच्चाई यह है कि यह एक शिल्पहीन आंदोलन है। अकहानी के पात्र प्रतीक रूप में स्थिति का संकेत देते हैं, कई जगह पात्रों के नाम भी नहीं होते। इसी प्रकार अकहानी आंदोलन में फैंटेसी, डायरी, मोनोलॉग, संस्मरण, आत्मप्रलाप तथा विधाओं की विशेषताएँ समाविष्ट हैं। समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि नई कहानी के बाद अकहानी ने कहानी विधा को नई दशा व दिशा प्रदान की।</s>
<s>[INST]कृष्णा सोबती की कहानियों के आधार पर उनकी कथा-भाषा पर एक संक्षिप्त लेख लिखिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 7 ख)[/INST]उत्तर : कृष्णा सोबती हिन्दी कहानी परंपरा की सशक्त महिला कहानीकार हैं। इनकी कहानियाँ अपनी भाषायी विशिष्टता व प्रयोगों की दृष्टि से अलग ही महत्त्व रखती हैं। कृष्णा सोबती ने अपनी प्रत्येक कहानी में कथ्य के अनुरूप भाषा का चयन किया है। इसलिये हर रचना में भाषा अपनी पारंपरिक अभिव्यक्ति को तोड़कर एकदम नई अभिव्यक्ति ढूंढने में सक्षम हो सकती है। इनकी कहानियों की भाषा मन की सूक्ष्म-संवेदनाओं को पकड़ने की क्षमता रखती है। छोटे-छोटे वाक्यों से गठित संवाद कहानी को प्रभावपूर्ण एवं संप्रेषणीय बनाते हैं। कृष्णा सोबती की कथा भाषा में मनुक्ख मार, हुलेरे, सयाले भौंडे आदि अनेक देशज शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। भाषा में गालियों का भी प्रयोग हुआ जिसे लेकर इन पर अश्लीलता के आरोप भी लगे हैं। इन्होंने पहली बार ऐसी भाषा का प्रयोग किया या ऐसी शैली विकसित की जिसे ‘पंजाबी-मिश्रित-हिन्दी’ कहा जा सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कृष्णा सोबती की भाषा सशक्त व नई संभावनाओं को धारण करने वाली है।</s>
<s>[INST]"जैनेंद्र के नारी चरित्र" विषय पर एक निबंध। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 7क)[/INST]उत्तर : जैनेन्द्र के उपन्यास बाह्य जगत की अभिव्यक्ति की बजाय व्यक्ति के अंतर्जगत का निरूपण करते हैं। अंतर्मन और भाव-जगत का निरूपण करने के लिये उन्होंने प्रमुखतः नारी पात्रों का ही आश्रय लिया है। ये नारी पात्र पुरुषों की तुलना में अधिक प्रखर, जीवंत और व्यक्तित्व संपन्न हैं। जैनेन्द्र के प्रायः सभी प्रमुख उपन्यासों में नारियाँ केंद्रीय पात्र के रूप में उभरती हैं। ‘त्यागपत्र’ में ‘मृणाल’ ‘सुनीता’ में ‘सुनीता’, ‘परख’ में ‘कट्टो’ तथा ‘सुखदा’ में ‘सुखदा’ इसी प्रकार के उदाहरण हैं। जैनेन्द्र ने नारी पात्रों के माध्यम से यह प्रस्तुत किया है कि शारीरिक पतन अनिवार्य रूप से चारित्रिक पतन नहीं होता। इसी कारण इनके नारी पात्र सतीत्व में विश्वास न करने वाले व यौन व्यवहार में उन्मुक्त हैं। सुनीता व मृणाल स्पष्ट रूप से इस प्रकार के उदाहरण हैं। जैनेन्द्र के नारी पात्रों की एक अन्य विशेषता यह है कि समस्त नारी पात्रों में बुद्धि एवं हृदय का संघर्ष अनिवार्यतः दर्शाया गया है। ‘सुनीता’, ‘कट्टो,’ व ‘मृणाल’ जहाँ कभी प्रेमी की ओर झुकती हैं तो कभी अपने पति के प्रति। समग्र रूप में कहा जाए तो यह सत्य है कि जैनेन्द्र के नारी पात्र अत्यंत सशक्त व विशिष्ट हैं। यही विशिष्टता इनके उपन्यासों को अधिक महत्त्व प्रदान करती है। </s>
<s>[INST]मोहन राकेश के नाट्य शिल्प पर एक संक्षिप्त निबंध लिखिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 6 ग)[/INST]उत्तर : मोहन राकेश स्वातंत्र्योत्तर नाटक विधा के सर्वोच्च शिखर हैं। उनके नाटक संवेदना व शिल्प की दृष्टि से कई विशिष्टताओं व मौलिकताओं से युक्त हैं। यदि उनके नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’, आधे अधूरे व ‘लहरों के राजहंस’ के आधार पर उनकी शैल्पिक विशिष्टताओं का उल्लेख करें तो नज़र आता है कि हिन्दी साहित्य को उनकी बड़ी देन है। भाषा का सार्थक व सटीक प्रयोग इनके शिल्प का सबसे मज़बूत पक्ष है। भाषा प्रसंगानुकूल है, स्थिति व पात्रों के अनुसार यह बदलती है। आषाढ़ का एक दिन जैसे नाटकों में जहाँ तत्सम प्रधान है, वहीं आधे-अधूरे में यह तद्भव प्रधान है। मोहन राकेश ऐसे नाटककार हैं जो गद्य में भी काव्य भाषा का प्रभाव पैदा कर देते हैं। नाटकों में प्रतीकों, बिंबों और लय के प्रयोग से लयात्मकता के गुण का समावेश हुआ है। इसी प्रकार, मोहन राकेश के नाटकों में नाट्य भाषा का बड़ा ही सटीक व सुंदर प्रयोग हुआ है। पात्रों की मनोदशा, रोमांटिक वातावरण व चरित्रों की शारीरिक चेष्टाओं को दिखाने के लिये ध्वनियों व प्राकृतिक वातावरण का प्रयोग इसी नाट्य भाषा के उदाहरण हैं। शैलियों विशिष्टताओं को मंचीयता के माध्यम से यदि हम विश्लेषित करें तो यह कहना सही होगा कि यहाँ राकेश ने कई संभावनाएँ पैदा कीं। पर्याप्त रंग संकेत, सरल दृश्य योजना, चुस्त व छोटे संवाद, चरित्रों की संतुलित संख्या, एक ही चरित्र से पाँच-पाँच भूमिकाएँ करवा लेना इसी प्रकार के उदाहरण हैं। मोहन राकेश की चरित्र योजना आधुनिक भावबोध व अस्तित्ववादी विचारधारा से गहरे रूप में प्रभावित है। मध्यवर्गीय चरित्रों की प्रधानता, नायकत्व व खलनायकत्व का मिश्रण, नारी चरित्रों का केंद्र में होना, संतुलित संख्या आदि इनकी चरित्र योजना को विशिष्ट बनाते हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मोहन राकेश के नाटक शिल्प की दृष्टि से न केवल कई विशिष्टताएँ धारण करते हैं बल्कि नई संभावनाएँ भी जगाते हैं।</s>
<s>[INST]जायसी की कविता और उसमें ध्वनित लोकचित्र। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 6 क)[/INST]उत्तर : सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों के यहाँ लोकजीवन के तत्त्व बहुत गहरे रूप में समाविष्ट हैं, किंतु जायसी के ‘पद्मावत’ में लोकतत्त्व का समावेश अत्यंत गहरे और विशिष्ट रूप में है। पद्मावत के संदर्भ में यदि जायसी के काव्य में उपस्थित लोकतत्त्व की खोज की जाए तो इस संबंध में सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इन्होंने अवधी के जिस रूप का प्रयोग किया है, वह लोकसंस्कृति व लोकप्रचलन के शब्दों से युक्त है न कि तुलसी की तरह तत्सम प्रधान। ‘महवट नीरू,’ ‘दवंगरा’ जैसी शब्दावली का प्रयोग इसी का उदाहरण है- "नैन चुवहिं जस महवट नीरू" भारतीय लोकसंस्कृति, त्योहारों, उत्सवों व गीतों से युक्त है। जायसी ने अपने काव्य में फाग, दीवारी, बसंत जैसे उत्सवों व धमार, झूमक आदि लोकनृत्यों का वर्णन किया है। ‘पद्मावत’ में बारात आगमन का जो चित्र प्रस्तुत किया गया है, वह लोकसंस्कृति का एक अच्छा उदाहरण है- "पद्मावति धौराहर चढ़ि। दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ि" जायसी के काव्य में उपस्थित लोकतत्त्व का एक पक्ष यह भी है कि पारिवारिक संबंधों के माध्यम से यह दिखलाया है कि परिवार की मर्यादाएँ कैसे नारियों के लिये अत्यंत कठिन सिद्ध होती हैं। नारियों का दर्द इस लोकगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है- "ए रानी मन देखु बिचारी, एहि नैहर रहना दिन चारी" इसी प्रकार, यदि पद्मावत के सिंहलदीप वर्णन पर नज़र डाली जाए तो परिलक्षित होता है कि यहाँ लोकजीवन के चित्रों को बहुत खूबसूरती के साथ उकेरा गया है। पानी भरती हुई औरतों, हाट के जुआरी लोगों व वेश्याओं के मुहल्ले के अनेक चित्र प्रस्तुत किये गए हैं। जायसी के लोकतत्त्व के संबंध में सबसे बड़ा उदाहरण तो यह दिया जा सकता है कि इनकी कथाओं का कथानक लोककथाओं से गढ़ा गया है। पद्मावत में पद्मिनी व हीरामन की लोककथा के साथ-साथ लोकप्रचलित नियमों, जैसे- शिव-पार्वती, इन्द्र-कर्ण प्रसंग, लंकादहन प्रसंग व राम-सीता प्रसंगों के माध्यम से लोकतत्त्व का सुंदर संश्लेषण किया गया है। स्पष्ट है कि जायसी की लोकजीवन पर गहरी पकड़ थी। एक मुस्लिम कवि होते हुए भी इन्होंने हिन्दू संस्कृति के लोकतत्त्वों का समावेश कर तुलसी व बुद्ध की समन्वय की अवधारणा को मज़बूत किया।</s>
<s>[INST]छायावाद में नवजागरण के स्वर। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5 ङ)[/INST]उत्तर : कई समीक्षकों ने छायावादी संवेदना और साहित्यिक चेतना पर यह आरोप लगाया कि यह तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन व नवजागरण की प्रक्रिया से कटा हुआ है, किंतु यह विश्लेषण वस्तुतः अधूरा है। सूक्ष्म स्तर पर यदि हम छायावादी काव्य का अंकन करें तो नवजागरण यहाँ कई स्तरों पर दिखाई देता है। नवजागरण का अर्थ है नए तरीके से जागना। छायावाद ने राष्ट्रीय जागरण हेतु एक मौलिक व नया तरीका अपनाया, राष्ट्र के स्वाभिमान व गौरव का ज्ञान कराने हेतु कवियों ने अतीत की महानता का वर्णन किया- "पश्चिम की उक्ति नहीं, गीता है, गीता है" नवजागरण का एक आयाम होता है, समस्याओं के समाधान हेतु जुझारू मानसिकता का परिचय देना। छायावादी कवि अपनी लेखनी के माध्यम से जनसामान्य में जोश और उमंग इस प्रकार पैदा करते हैं- "हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती" छायावादी काव्य की संवेदना कई स्तरों पर नवजागरण को छूती है, इसी संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि इस काव्य में तत्कालीन राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान हेतु कुछ नए और मौलिक तरीके प्रस्तुत किये गए- "शक्ति की करो मौलिक कल्पना करो पूजन छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो रघुनंदन" छायावादी कवियों ने आमजन को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ने हेतु अपने काव्य में कई प्रतीकों के माध्यम से जागृत करने के भाव को पैदा किया। छायावाद में जागरण शब्द का प्रयोग सभी कवियों ने अनेक संदर्भों में किया है- प्रसाद- "बीती विभावरी जाग री" निराला- "जागो फिर एक बार" महादेवी- "जाग तुझको दूर जाना है" उल्लेखनीय है कि छायावाद में जो नवजागरण के संकेत दिखाई देते हैं या जो स्वर उभरा है वह केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें पूरा विश्व समाहित है। यह विश्व कल्याण और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के अनुरूप है- "औरों को हँसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ" निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि छायावाद में जागरण के जो स्वर दिखाई देते हैं वे ‘नव’ इस अर्थ में हैं कि उनमें समस्या, समस्या-समाधान व वैश्विक कल्याण के तत्त्व मौजूद हैं।</s>
<s>[INST]भारतेन्दु के ‘अंधेर नगरी’ नाटक की समकालिकता। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5 ग)[/INST]उत्तर : भारतेन्दु के नाटक अपनी प्रासंगिकता व समकालिकता के कारण एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनका ‘अंधेर नगरी’ नाटक भी इस तथ्य का अपवाद नहीं है। नाटक, कथानक, कथा-पात्रों की परिकल्पना, संवादों की बुनावट में समकालिकता के इस तत्त्व को भली-भाँति देखा जा सकता है। अंधेर नगरी में राज्य व्यवस्था का जो चरित्र प्रस्तुत किया गया है, वह आज भी उतना ही सच नज़र आ रहा है जितना भारतेन्दु के समय में। मनुष्य की पहचान आज पहले से भी ज़्यादा इसके पैसे से नापी जाती है। मनुष्य की बौद्धिकता और कौशल, ईमानदारी और कर्मठता का कोई मूल्य नहीं। इसी प्रकार भारतेन्दु जी ने आम आदमी पर टैक्स के भार को दिखाया है, आज के संदर्भ में तो यह समस्या और भी गंभीर होती जा रही है। कर की बढ़ती दरें, करों की बढ़ती संख्या, वसूलने का कठोर तरीका आज की राजस्व प्रणाली की एक कड़वी सच्चाई है। नाटक में नौकरशाही की असंवेदनशीलता, अकर्मण्यता व उदासीनता को मुख्य रूप से रेखांकित किया गया है। नौकरशाही से संबंधित ये सारी समस्याएँ आज की सच्चाई अधिक कठोर रूप में है। भारतेन्दु ने नौकरशाही पर ये जो व्यंग्य कसा है, वह आज भी सच है- "चना हाकिम सब जो खाते सब पर दूना टिकस लगाते" आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली में नेताओं आदि की अयोग्यता व मूर्खता एक कड़वी सच्चाई है। इसी प्रकार, इनके पास शक्ति तो है किंतु बुद्धि और विवेक का अभाव है। इस प्रवृत्ति को नाटक में प्रधान रूप से उभारा गया है- "भीतर स्वाहा बाहर सादे राज करहिं अगले अरू प्यादे" निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि अंधेर नगरी समसामयिक संदर्भों का जीवंत नाटक है। इसका संबंध ब्रिटिश शासक वर्ग से ही नहीं है। नाटक में व्यक्त यथार्थ सीमित नहीं है, वह व्यापक चेतना और गतिशील यथार्थ का वाहक है। </s>
<s>[INST]भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ का महत्त्व। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5 ग)[/INST]उत्तर : ‘तमस’ प्रेमचंदोत्तर उपन्यास विधा की सामाजिक यथार्थवादी शाखा के प्रमुख उपन्यासकार भीष्म साहनी द्वारा लिखित है। यह उपन्यास 1947 में पंजाब में हुए सांप्रदायिक दंगों पर आधारित है, इसी संदर्भ में उपन्यास में भारत की सांप्रदायिकता की समस्या का यथार्थ प्रस्तुत किया है। हिन्दी उपन्यास परंपरा में तमस उपन्यास का महत्त्व सांप्रदायिकता की समस्या के संदर्भ में कई मार्मिक व अनछूए पहलुओं को उजागर करने में है। उपन्यास में दंगों के समय अंग्रेज़ अफसर रिचर्ड द्वारा बरती गई उदासीनता के माध्यम से दिखाया गया है कि सांप्रदायिकता की समस्या वस्तुतः ब्रिटिश सरकार की कारगुज़ारियों का ही परिणाम है। भीष्म साहनी पात्रों और घटनाओं के माध्यम से यह भी दिखाते हैं कि सांप्रदायिकता की समस्या प्रत्येक संप्रदाय में किसी-न-किसी मात्रा में विद्यमान होती है। हाँ, यह भी सत्य है कि इसकी प्रकृति सभी धर्मों में समान रूप से पाई जाती है, उसका चरित्र समान होता है। इसी प्रकार, भीष्म साहनी उद्घाटित करते हैं कि धर्मान्धता और कट्टरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी संक्रमित होती हैं। और इसके पीछे बड़ा कारण यह है कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने वोट बैंक व दलीय हितों की पूर्ति के लिये इन्हें ज़िंदा रखा जाता है। ‘तमस’ में नत्थु चमार के माध्यम से इस सत्य का भी उद्घाटन किया गया है कि सांप्रदायिक घृणा व हिंसा का शिकार अक्सर समाज का निम्न व गरीब तबका होता है। साथ ही, इस वर्ग का ही उपयोग सांप्रदायिकता फैलाने हेतु किया जाता है। यह कहना सच ही होगा कि ‘तमस’ उपन्यास में सांप्रदायिकता की समस्या से संबंधित जो गहरे विश्लेषण व यथार्थ की दृष्टि अपनाई गई है उसी कारण यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। </s>
<s>[INST]‘प्रेम की पीर’ के कवि घनानंद। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5 ख)[/INST]उत्तर : रीतिमुक्त काव्यधारा में घनानंद का स्थान सर्वोच्च है। वे हिन्दी साहित्य में ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में स्थापित हैं। इन्होंने लगभग 39 रचनाएँ लिखीं जिनमें ‘सुजानहित’, ‘ब्रज-विलास’, ‘विरहलीला’ प्रधान हैं। यहाँ चर्चा का विषय यह है कि प्रेम व शृंगार पर तो सभी रीतिकालीन कवियों ने रचनाएं की हैं, किंतु घनानंद को ‘प्रेम की पीर’ का कवि क्यों कहा जाता है? इस संबंध में यदि उनके शृंगार वर्णन की विशिष्टताओं पर गौर किया जाए तो निश्चित ही वे ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। उपरोक्त चर्चा के संदर्भ में पहला प्रमाण यह है कि घनानंद मूलतः वियोग के कवि हैं। उन्होंने अपने साहित्य में बिहारी आदि की तरह संयोग व मिलन के चित्र नहीं खींचे हैं बल्कि प्रेम की पीड़ा को व्यक्त किया है। शुक्ल लिखते हैं कि "ये वियोग शृंगार के प्रधान मुक्तक कवि हैं।" इसी प्रकार, यह भी कहा जा सकता है कि इनका साहित्य स्वानुभूति का साहित्य है न कि सहानुभूति का। अपनी प्रेमिका सुजान के विरह में कविताएँ रचने वाले घनानंद के बारे में दिनकर जी लिखते हैं, "दूसरों के लिये किराए पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसा कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में रो रहा है।" ‘प्रेम की पीर’ का कवि कहलाने के पक्ष में एक तर्क यह भी है कि इनका प्रेम वर्णन वैधानिकता, अति-भावुकता व अपने साथी के प्रति एकनिष्ठता से युक्त है- "अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं" घनानंद के यहाँ विरह की पीड़ा इतनी तीव्र है कि यह प्रतीक रूप में उनके साहित्य में सर्वत्र दिखाई देती है। सुजान के प्रति जो लौकिक प्रेम था, बाद में वही कृष्ण-राधा के प्रति अलौकिक स्तर पर व्यक्त होने लगा। पीड़ा इतनी गहरी है कि राधा-कृष्ण भक्ति के प्रसंग में भी सुजान के विरह को व्यक्त करते रहे- "ऐसी रूप अगाधे राधे, राधे, राधे, राधे, राधे तेरी मिलिवे को ब्रजमोहन, बहुत जतन हैं साधे।" इस प्रकार विरह की गहरी अनुभूति, वैयक्तिकता, एकनिष्ठता, तीव्र भावुकता व स्वानुभूति जैसे तत्त्व घनानंद को ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में स्थापित करते हैं।</s>
<s>[INST]विद्यापति की कविता की प्रमुख विशेषताएँ। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5 क)[/INST]उत्तर : विद्यापति आदिकाल के मैथिल कवि हैं। इनकी प्रतिष्ठा का आधार कीर्तिलता, कीर्तिपताका व पदावली है। इन रचनाओं के आधार पर इनकी कविता की संवेदनात्मक व शिल्पगत विशेषताओं को कई आयामों के स्तर पर देखा जा सकता है। कीर्तिलता में राजा कीर्ति सिंह की योग्यता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रंथ में इनका इतिहास बोध प्रशंसनीय है, इन्होंने प्रायः ऐतिहासिकता का पालन किया है। पदावली इनकी प्रतिष्ठा का मूल आधार है। यह हिन्दी में कृष्ण भक्ति परंपरा की प्रथम रचना मानी जाती है, किंतु वास्तव में यह गीतगोविंद की परंपरा की ही अगली कड़ी है। इस रचना में ईश्वर वंदना, राधा-कृष्ण प्रेम व अन्य विषयों का समावेश है। रचना का प्रधान विषय संयोग शृंगार है, इसी कारण समीक्षकों में यह विवाद छिड़ गया कि विद्यापति भक्त कवि है या शृंगारी कवि। शुक्ल आदि ने इनकी भक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए पदावली के अश्लील वर्णनों पर आक्षेप किया है और कहा कि "आध्यात्मिक रंग के चश्मे अधिक सस्ते हो गए हैं।" पदावली वस्तुतः भक्ति व शृंगार का समन्वित रूप है जहाँ राधा आत्मा व कृष्ण परमात्मा के प्रतीक हैं। पदावली के माध्यम से विद्यापति ने कृष्ण के विशिष्ट रूप को हिन्दी में प्रतिस्थापित किया। विशिष्ट रूप में इसलिये कि यहाँ शील व शक्ति पर शृंगार हावी है। कृष्ण को शृंगार व सुंदरता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है- "ए सखि देखल एक अपरूप"। सुन्दरता केवल शारीरिक ही नहीं वाणी में भी है- "माधव बोलत माधुरी बानी।" शिल्प की दृष्टि से देखें तो विद्यापति के भाषायी प्रयोग उल्लेखनीय हैं। ‘कीर्तिलता’ अवहट्ट भाषा की एक शानदार रचना है जहाँ ‘परसर्गों’ का स्वतंत्र प्रयोग दिखलाई पड़ता है। साथ ही, अवहट्टकालीन सर्वनामों का प्रयोग भी। विद्यापति ने हिन्दी साहित्य में प्रबन्ध की प्रतिष्ठा को स्थापित करने में उल्लेखनीय योगदान दिया। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि विद्यापति हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्ति परंपरा की उस महत्त्वपूर्ण कड़ी का हिस्सा हैं जो गीतगोविंद से प्रारंभ होकर धर्मवीर भारती (अंधायुग) तक जाती है।</s>
<s>[INST]खुसरो की कविता के आधार पर उनकी लोक-चेतना पर संक्षिप्त निबंध लिखिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 2 ख)[/INST]उत्तर : किसी भी साहित्य की लोक-चेतना की मात्रा व गुणवत्ता का निर्धारण इस तथ्य से होता है कि वह अपने समाज की विशिष्टताओं, प्रवृत्तियों व समस्याओं को किस सीमा तक अपने में समाविष्ट करता है। इस दृष्टि से यदि खुसरो की कविता का विश्लेषण किया जाए तो उनकी लोकचेतना के कई आयाम उभरकर सामने आते हैं। खुसरो का काल हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के संपर्क व संघर्ष का काल था। ऐसे समय में उन्होंने प्रेम व भाईचारे के मूल्यों की प्रतिष्ठा स्थापित कर अपनी लोकचेतना प्रकट की- "खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वाकी धार। जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।।" खुसरो ने समाज में मौजूद लिंगगत भेद को उभारकर सच्चे जनकवि का परिचय दिया। निम्नलिखित पंक्तियों में बेटी द्वारा लिंगगत भेदभाव की शिकायत को इस प्रकार उभारा है- "काहे को बियाहे परदेस, सुन बाबुल मोरे, भइया को दीहे बाबुल महला-दुमहला, हमको दिहे परदेस, सुन बाबुल मोरे।" इसी प्रकार, खुसरो ने अपने ज्ञानमूलक साहित्य जिसमें पहेलियाँ, मुकरियाँ व दो सुखने शामिल हैं, के माध्यम से मनोरंजनपरक व बाल साहित्य रचा। बालकों की कोमल जिज्ञासाओं को उन्होंने अपने साहित्य में इस प्रकार शामिल किया- "एक थाल मोती से भरा, सबके सिर औंधा धरा। चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।।" खुसरो समाज के प्रति भी काफी संवेदनशील थे। उनकी संवेदनशीलता उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। एक गीत में उन्होंने एक पाखण्डी साधु के चरित्र का पर्दाफाश करते हुए कहा है- “उज्जल बरन, अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान। देखत में तो साधु है, निपट पाप की खान।।” खुसरो ने तात्कालिक द्वंद्वात्मक व संघर्षमयी स्थितियों में समन्वय की चेतना के माध्यम से एक सजग कवि होने का परिचय दिया। विभिन्न कलाओं फारसी व ब्रज भाषा, सूफी व हिन्दू दर्शन आदि के मध्य समन्वय स्थापित किया। निष्कर्ष रूप में खुसरो को यदि हिन्दी साहित्य का प्रथम जनकवि कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी यही परंपरा आगे चलकर कबीर, तुलसी व नागार्जुन तक जाकर शिखर पर पहुँचती है।</s>
<s>[INST]रहीम की कविता के मर्म का उद्घाटन कीजिये एवं उसकी लोकप्रियता के कारणों का निर्देश दीजिये। (UPSC 2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 2 क)[/INST]उत्तर : रहीम हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल और रीतिकाल को जोड़ने वाले कवियों की श्रेणी में प्रमुख हैं। उनके साहित्य का संवेदनागत विस्तार अत्यंत विस्तृत है। मुस्लिम कवि होते हुए भी उन्होंने अपने साहित्य में कृष्ण भक्ति की सरस धारा प्रवाहित की। रहीम का साहित्य नीति, भक्ति व शृंगार की त्रिवेणी है, जहाँ उन्होंने अपने काव्य में वैयक्तिक एवं लोक अनुभवों को ही स्थान दिया। रहीम के साहित्य में कृष्ण भक्ति की अविरल धारा बही है, जहाँ रासलीला व ग्राम्य संस्कृति के दर्शन होते हैं। इसी प्रकार उन्होंने नीतिपरक दोहों के माध्यम से अपने लोक अनुभव प्रकट किये- "रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो छिटकाय। टूटे से फिर ना जुरे-जुरे गाँठ पड़ जाए।।" रहीम के दोहों की खूबी है कि उनमें तेज़ धार है और गज़ब का पैनापन भी। तभी तो वे एक बारगी दिलो-दिमाग को झकझोर देते हैं। उनके नीतिपरक दोहों में जहाँ अपने-पराए, ऊँच-नीच तथा सही-गलत की समझ है, वहीं ज़िंदगी के चटक रंग भी शृंगार के रूप में दिखाई देते हैं। उपरोक्त काव्यगत संवेदना के संदर्भ में ही यदि रहीम की लोकप्रियता के कारणों को खोजें तो उन्हें इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है- 1. जहाँ अन्य समकालीन कवि भक्ति या शृंगार वर्णन तक सीमित थे, वहीं रहीम ने अपने काव्य में जीवन के सभी पक्षों का समावेश किया। परिणाम यह हुआ कि उनका साहित्य अधिक विस्तृत सामाजिक आधार प्राप्त कर पाया। 2. रहीम की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण उनकी जनभाषा पर पकड़ से संबंधित है। रहीम की रचनाएँ अत्यंत सरस हैं और यह सरसता ब्रज भाषा की सरसता है। 3. रहीम मूलतः कृष्ण भक्त थे और कृष्ण उस समय उत्तर-भारत में धार्मिक निष्ठा के प्रमुख केंद्र थे। सूर व मीरा की लोकप्रियता के साथ-साथ रहीम भी कृष्ण भक्त के रूप में आमजन में अत्यंत लोकप्रिय हुए। 4. रहीम ने अपने काव्य में लोक अनुभवों व नीतिपरक बातों को शामिल कर आमजन की समस्याओं व संवेदनाओं को अधिक सहज तरीके से उभारा। यह भी उनकी लोकप्रियता का एक बड़ा कारण था। 5. उनकी लोकप्रियता का संबंध उनके शैल्पिक वैशिष्टय से गहरे रूप से जुड़ा है। उन्होंने तत्कालीन तीन प्रधान लोक भाषाओं- अवधी, ब्रज व खड़ी को अपने काव्य का आधार बनाया। साथ ही, दोहे व सोरठे जैसे लोकप्रिय छंदों के माध्यम से अपनी बात कही- "रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली न प्रीत। काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत।।" रहीम की लोकप्रियता के आधार इतने मज़बूत हैं कि आज भी आमजन में ये कबीर व सूर से किसी भी स्तर पर कम लोकप्रिय नहीं हैं।</s>
<s>[INST]खुसरो की कविता की विशेषताएँ। (UPSC 2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1 ग)[/INST]उत्तर : खुसरो हिन्दी साहित्य के आदिकाल के प्रमुख कवि हैं। इनका व्यक्तित्व बहुआयामी है और बहुआयामी होने का यह गुण उनकी कविताओं में भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। यदि खुसरो की कविताओं के संवेदना पक्ष पर नज़र डालें तो प्रतीत होता है कि यहाँ पर्याप्त विषय-वैविध्य दिखाई पड़ता है। ज्ञानमूलक साहित्य से लेकर सामाजिक समस्याओं पर चोट करने तक की सारी अंतर्वस्तु उनके काव्य में विद्यमान है। खुसरो का ज्ञानमूलक साहित्य अत्यंत समृद्ध है, जिसमें पहेलियाँ, मुकरियाँ व दो सुखने शामिल हैं। बाल मनोरंजन का एक उदाहरण- "एक थाल मोती से भरा, सबके सिर औंधा धरा चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे" इसी प्रकार खुसरो के काव्य में सूफी दर्शन, जिसमें इश्कमिज़ाजी से इश्क हकीकी तक की यात्रा शामिल है, व्यक्त हुआ है- "गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस। चल खुसरो घर आपने ,रैन भई चहुँ देस।।" खुसरो का संवेदना संसार मनोरंजन या दर्शन तक सीमित नहीं है बल्कि उन्होंने तत्कालीन सामाजिक समस्याओं को भी उसी तत्परता से उभारा है- "काहे को बियाहे परदेस सुन बाबुल मोरे" समन्वय की विराट चेतना, प्रेम व भाईचारे के मूल्य की प्रतिष्ठा आदि खुसरो की अन्य संवेदनागत विशेषताएँ हैं। खुसरो की कविताएँ जितनी संवेदनात्मक रूप से विशिष्ट व वैविध्यपूर्ण हैं, उतनी ही शिल्प की दृष्टि से भी। उनका साहित्य हमें आरंभिक ब्रज व खड़ी बोली से परिचित करवाता है। आश्चर्य तो तब होता है, जब उनके यहाँ शुद्ध खड़ी व शुद्ध ब्रज का प्रयोग दिखाई देता है- शुद्ध ब्रज- "गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।" शुद्ध खड़ी बोली- "एक थाल मोती से भरा।" खुसरो का साहित्य समन्वय स्थापित करता दिखाई देता है जहाँ फारसी व ब्रज, लोकभाषा व साहित्य भाषा आदि का समन्वय दिखाई देता है। खुसरो की कविताएँ माधुर्य व प्रसाद गुणों से युक्त हैं, वहीं दूसरी ओर चित्रात्मकता, बिंबात्मकता, उक्ति-वैचित्र्य व उच्च कोटि की व्यंग्य क्षमता से भी युक्त हैं। सार रूप में कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य के प्रणेता के रूप में खुसरो ने भाव व शिल्प के स्तर पर हिन्दी साहित्य को कई आयाम प्रदान किये। </s>
<s>[INST]नागार्जुन की काव्य भाषा पर एक संक्षिप्त निबंध लिखिये। (2015)[/INST]उत्तर : नागार्जुन के काव्य का जितना संवेदना पक्ष मज़बूत है, उतना ही अभिव्यक्ति पक्ष भी। उनके अभिव्यक्ति पक्ष की सबसे मज़बूत कड़ी उनकी भाषा है जो कई स्तरों पर विशिष्ट और मौलिक प्रयोगों से युक्त है। नागार्जुन की भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है- भाषा का काव्य के अनुरूप होना। वे जड़ प्रगतिवादी कवि नहीं हैं, इसलिये ‘बादल को घिरते देखा है’ में काव्य के अनुरूप संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है- "बालारूण की मृदु किरणें थी अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे" नागार्जुन की भाषा का एक मज़बूत पक्ष है- बिंब और प्रतीक योजना। "बादल को घिरते देखा है" कविता तो पूरी की पूरी बिंब विधान में ही रची गई है। यूँ लगता है कि कविता बिंबों की ही पूरीशृंखला है। विराट और भयानक बिंब भी हैं, कोमल और सुकुमार भी। "मैंने तो भीषण जाड़ों में नभचुम्बी कैलाश शीर्ष पर महामेघ को झंझानिल से गरज-गरज भिड़ते देखा है" इसी प्रकार, प्रतीक योजना भी द्रष्टव्य है। ‘हरिजन गाथा’ में कृष्णावतार के मिथकीय प्रतीक का प्रयोग किया गया है, ‘बादल को घिरते देखा है’ में बादल को क्रांति के प्रतीक के रूप में पेश किया गया है। इसी प्रकार ‘अकाल और उसके बाद’ में आंगन से ऊपर उठना, कौए का पंख खुजलाना जैसे प्रतीक प्रस्तुत किये गए हैं। समग्र रूप में कहा जा सकता है कि नागार्जुन की भाषा अत्यंत सशक्त व प्रयोगधर्मी है जहाँ देशज से लेकर संस्कृत शब्दों का खुलकर प्रयोग किया गया है।</s>
<s>[INST]हिंदी व्याकरण के संदर्भ में किशोरीदास वाजपेयी के योगदान का आकलन कीजिये। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 2a)[/INST]उत्तर : हिंदी व्याकरण लेखन के चौथे चरण में किशोरीदास वाजपेयी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनका व्याकरण-लेखन पूर्व के सभी प्रयासों के दोषों को दूर करने में सहायक सिद्ध हुआ। वाजपेयी जी का व्याकरण-लेखन में महत्त्वपूर्ण योगदान यह है कि इन्होंने कामता प्रसाद के व्याकरण लेखन की कमियों को दूर करने का प्रयास किया। इस कार्य हेतु 1954 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने यह कार्य इनको सौंपा। इस कार्य को इन्होंने बखूबी पूरा किया। दूसरा योगदान यह है कि 1915-1950 के दौरान मानकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी और हिंदी भाषा का स्वरूप भी तेज़ी से बदल रहा था। ऐसे समय में वाजपेयी जी ने हिंदी व्याकरण को अद्यतन बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस कार्य में उनका सहयोग करने वालों में राहुल सांकृत्यायन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, काका कालेलकर तथा पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का नाम प्रमुख है। हालाँकि, ‘हिंदी शब्दानुशासन’ नामक इस व्याकरण ग्रंथ में कुछ वाजपेयी जी के निजी दोष प्रकट हुए हैं, जैसे चलती हुई लोकभाषा का प्रयोग, कामता प्रसाद गुरु के व्याकरण पर तीखा व्यक्तिगत आक्षेप आदि।</s>
<s>[INST]रहीम की कविता की मार्मिकता के प्रमुख कारण। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1e)[/INST]उत्तर : रहीम हिन्दी साहित्य के उन कवियों में शुमार किये जाते हैं जिनकी कविता उसके मर्म के लिये जानी जाती है। यही कारण है कि रहीम सूर व तुलसी की भाँति जन-जन में अत्यंत लोकप्रिय हुए। रहीम की कविता की मार्मिकता हेतु उत्तरदायी कारणों का उद्घाटन कई स्तरों पर किया जा सकता है। रहीम ने अपने अनुभवों को सरल और सहज शैली में मार्मिक रूप से अभिव्यक्त किया है। गहरी-से-गहरी बात भी उन्होंने बड़ी सरलता से सीधी-सादी भाषा में कह दी- “तरुवर फल नहीं खात हैं, सरवर पियहिं न पान। कवि रहीम पर काज हित, संपत्ति सुचहिं सुजान।।” इनका काव्य इनके सहज उद्गारों की अभिव्यक्ति है। इन उद्गारों में इनका दीर्घकालीन अनुभव निहित है। ये सच्चे व संवेदनशील हृदय के कवि थे। जीवन में आने वाली कटु-मधुर परिस्थितियों ने इनके हृदय-पट पर जो बहुविद् अनुभूति रेखाएँ अंकित कर दी थीं, उन्हीं के अकृत्रिमता में इनके काव्य की रमणीयता का रहस्य निहित है। रहीम के दोहों की खूबी यह भी है कि उनमें तेज़ धार है और गज़ब का पैनापन भी, तभी तो वे एकबारगी दिलो-दिमाग को झकझोर देते हैं। उनके दोहों में नीतिपरक बातों के साथ-साथ ज़िंदगी के चटक रंग भी शृंगार के रूप में दिखाई देते हैं- "रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो छिटकाय टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाए" रहीम की कविता की मार्मिकता का एक कारण यह भी है कि इन्होंने लोक-प्रचलित सहज सरल जनभाषा में दोहे जैसा छंद रचा। उन्होंने ब्रज भाषा, पूर्वी, अवधी और खड़ी बोली को अपनी काव्य भाषा बनाया, किंतु ब्रज भाषा उनकी मुख्य शैली थी जो अत्यंत सरस व मार्मिक बन पड़ी।</s>
<s>[INST]खुसरो की काव्य भाषा। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1d)[/INST]उत्तर : हिन्दी भाषा के विकास में खुसरो का अद्वितीय योगदान है। यह योगदान खड़ी बोली व ब्रज भाषा के साथ फारसी के संदर्भ में भी उल्लिखित किया जा सकता है। इसी संदर्भ में खुसरो की भाषायी विशिष्टता व प्रयोगात्मकता को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है खुसरो की भाषा मुख्यतः दो प्रकार की है। एक ठेठ ब्रज और दूसरी ठेठ खड़ी। इसी के साथ कई जगह खड़ी और ब्रज का मिश्रित रूप भी दिखाई देता है- "खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। तन मेरो मन पीऊ को, दोऊ भए एक रंग।।" खुसरो ने अपनी पहेलियों, मुकरियों में खड़ी बोली के जिस रूप का प्रयोग किया है वह वास्तव में आश्चर्यजनक है। आचार्य शुक्ल ने इस पर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि ‘क्या खड़ी बोली इस समय तक घिसकर इतनी चिकनी हो गई थी’- "एक थाल मोती से भरा, सबके सिर औंधा धरा चारों ओर वह थाल फिरे मोती उससे एक न गिरे" प्रयोगशीलता खुसरो की एक अन्य भाषायी विशिष्टता है। प्रयोगशीलता का एक उदाहरण यह है कि उन्होंने एक ही कविता में शुद्ध फारसी व शुद्ध ब्रज का अद्भुत समन्वय कर दिया है- "जे हाल मिसकीं मकुल तगाफुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ किताबे हिज्रां न दारम ऐ जां, न लेहु काहे लगाय छतियाँ" इसी प्रकार, खुसरो की भाषा का मूल्यांकन गुणों व प्रवाह के आधार पर किया जाए तो यह नज़र आता है कि प्रसाद व माधुर्य गुणों की प्रधानता है। साथ ही, बोधगम्यता व सहजता के साथ चित्रात्मकता एवं बिंबात्मकता के गुण भी समाविष्ट हैं। अंत में, खुसरो के भाषायी प्रयोगों व विशिष्टताओं का ही परिणाम था कि आगे चलकर ब्रज जहाँ भक्तिकाल एवं रीतिकाल में, वहीं खड़ी बोली आधुनिक काल में काव्य भाषा के शिखर तक पहुँची।</s>
<s>[INST]अवधी की व्याकरणिक विशेषताएँ। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 1 c)[/INST]उत्तर : अवधी की व्याकरणिक विशेषताओं को कारक व्यवस्था, सर्वनाम क्रिया व्यवस्था तथा वचन व्यवस्था आदि चार स्तरों पर उल्लिखित किया जा सकता है। कारक व्यवस्था कहीं-कहीं निर्विभक्तिक प्रयोग दिखाई देते हैं- राम दरस मिटि गई कलुसाई (संबंध कारक का लोप) ‘हिं’ विभक्ति के प्रयोग से कई कारकों का काम चलता है। आधुनिक आर्य भाषा के अनुकूल परसर्गों का तीव्र विकास अवधी में दिखाई देता है। सर्वनाम इस बोली में प्रयुक्त होने वाले सर्वनाम इस प्रकार हैं- उत्तम पुरुष बहुवचन - हम, हम लोग उत्तम पुरुष एकवचन - तू, तूँ, मध्यम पुरुष बहुवचन - तुम, तुम्हार अन्य पुरुष एकवचन - वह, उ, ओ अन्य पुरुष बहुवचन - वेइ, तेइ क्रिया व्यवस्था क्रियाओं में वर्तमान के लिये त-रूप (बैठत, देखत), भूतकाल के लिये वा-रूप (आवा, जावा) तथा भविष्य काल के लिये ब-रूप (खाइब) प्रचलित है। इसी प्रकार, संसार्थ क्रियाओं हेतु ‘ब’ रूप दिखाई देता है, जैसे- देखब, करब इत्यादि। संयुक्त क्रियाएँ कम हैं किंतु दिखाई देती हैं।</s>
<s>[INST]हिंदी दिवस (14 सितंबर) की उपयोगिता पर अपना मत व्यक्त कीजिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 4 ग)[/INST]उत्तर : 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया और संविधान के भाग-17 में इससे संबंधित महत्त्वपूर्ण प्रावधान किये गए। इस दिन के इसी ऐतिहासिक महत्त्व के कारण 1953 से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस का आयोजन किया जाता है। हिंदी के प्रोत्साहन की दृष्टि से इस दिवस के आयोजन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अवसर पर हिंदी के प्रोत्साहन हेतु कई पुरस्कार प्रदान किये जाते हैं, जैसे- राजभाषा कीर्ति पुरस्कार और राष्ट्रभाषा गौरव पुरस्कार। कीर्ति पुरस्कार जहाँ ऐसे विभाग को दिया जाता है जिसने वर्ष भर हिंदी में कार्य को बढ़ावा दिया हो, वहीं राष्ट्रभाषा गौरव पुरस्कार तकनीकी-विज्ञान लेखन हेतु दिया जाता है। इसके अतिरिक्त, इस दिवस के अवसर पर देश भर के विद्यालयों, महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में पुरस्कार वितरण, हिंदी कविता प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबंध लेखन आदि का आयोजन किया जाता है। इस प्रकार के कार्यक्रमों से निश्चित ही हिंदी के प्रयोग को नागरिक व प्रशासनिक स्तर पर बढ़ावा मिलता है। किंतु, यह ध्यान देना आवश्यक है कि हिंदी दिवस का महत्त्व औपचारिक-सा बनकर रह गया है। साल में केवल एक दिन हिंदी के प्रयोग का दिखावा कर कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली जाती है। सरकारी कार्यालयों में लगभग सारा कार्य अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से होता है। इस आयोजन के आलोचकों के अनुसार 14 सितंबर का आयोजन कर्मकांड बनकर रह गया है। एक आलोचक के अनुसार तो इस आयोजन का महत्त्व ‘हिंदी को अबला बनाने वाले व आँसू बहाने के दिवस’ तक सीमित हो गया है। ये आरोप काफी हद तक सही भी हैं क्योंकि हिंदी प्रयोग हेतु जारी किये जाने वाले निर्देश भी अंग्रेज़ी में लिखे होते हैं। राष्ट्रभाषा व राजभाषा के रूप में हिंदी का विकास केवल एक दिन के हिंदी दिवस आयोजन से नहीं होने वाला। इस हेतु नागरिक समाज व प्रशासन के स्तर पर भाषायी प्रयोग हेतु आमूल-परिवर्तनवादी कदमों की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]हिंदी में वैज्ञानिक लेखन की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 4 ख)[/INST]उत्तर : हिंदी में वैज्ञानिक और तकनीकी लेखन की परंपरा लगभग दो सौ साल पुरानी है और यह भी सत्य है कि हिंदी भाषा में सब प्रकार की प्रगतिपरक संस्कृति तथा ज्ञान-विज्ञान को सहज और गहन दोनों रूपों में अभिव्यक्त करने एवं संप्रेषित करने की संपूर्ण क्षमता विद्यमान है। इसी संदर्भ में वर्तमान में हिंदी में वैज्ञानिक लेखन हेतु कई प्रयास हुए हैं जिनमें गुणाकर मुले व जयंत विष्णु नार्लीकर के प्रयास उल्लेखनीय हैं। गुणाकर मुले ने विज्ञान के गूढ़ रहस्यों को समझाने के लिये अपने लेखन को समर्पित कर दिया। NCERT की पुस्तकों के निर्माण में उनका विशिष्ट योगदान रहा है। उनकी प्रमुख रचनाएँ- ‘ब्रह्मांड परिचय’, ‘आकाश दर्शन’, ‘अंतरिक्ष यात्रा’, ‘कैसी होगी 21वीं सदी’, ‘कंप्यूटर क्या है’ तथा ‘आपेक्षिकता का सिद्धांत क्या है?’ आदि। इसी प्रकार, जयंत विष्णु नार्लीकर प्रसिद्ध भारतीय भौतिक विज्ञानी हैं जिन्होंने हिंदी में अनेक वैज्ञानिक पुस्तकें लिखीं। इन्होंने ‘ब्रह्मांड की कुछ झलकें’, ‘ब्रह्मांड की यात्रा’, ‘वायरस’, ‘भारत की विज्ञान यात्रा’, ‘विज्ञान, मानव और ब्रह्मांड’, ‘धूमकेतु’ तथा तारों की जीवनगाथा आदि पुस्तकें हिंदी में लिखीं। इसमें संदेह नहीं कि आज वैज्ञानिक शब्दावली और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी अत्यंत समृद्ध है। इतने पर भी आज वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में लेखन बहुत ही कम और अपर्याप्त है। इस सबका यह कारण नहीं है कि भाषा में ऐसी क्षमता या समर्थता नहीं है बल्कि इसका कारण यह है कि वैज्ञानिकों में इस दिशा में रुझान का अभाव है। इसका निराकरण तभी संभव है जब एक तो शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं को अपनाया जाए तथा दूसरे, वैज्ञानिकों को हिंदी में बोलने और लिखने के लिये प्रेरित किया जाए। यदि ऐसा होता है तो निश्चय ही हिंदी के माध्यम से वैज्ञानिक चेतना भारत के जन-जन तक पहुँच सकती है।</s>
<s>[INST]राष्ट्रभाषा हिंदी के आंदोलन में सेठ गोविंद दास पर विचार कीजिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 4 क)[/INST]उत्तर : सेठ गोविंददास के हिंदी भाषा को प्रतिस्थापित करने के योगदान को उनकी इन पंक्तियों के माभ्यम से अधिक अच्छे तरीके से समझा जा सकता है- "जब हम अपना जीवन जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पित कर दें तब हम हिंदी प्रेमी कहे जा सकते हैं।" सन् 1916 में बीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने जबलपुर में ‘शारदा भवन’ नामक पुस्तकालय स्थापित कर हिंदी आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। उन्होंने जबलपुर से ‘शारदा’, ‘लोकमत’ तथा ‘जयहिंद’ पत्रों की शुरुआत कर जन-जन में हिंदी के प्रति प्रेम जगाने और साहित्यिक परिवेश बनाने का अनुप्रेरक प्रयास किया। सन् 1927 में उन्होंने कौंसिल ऑफ स्टेट में सर्वप्रथम हिंदी भाषा के प्रश्न को उठाया। उसके पहले केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा अथवा प्रांतीय विधानसभाओं में यह प्रश्न उठा ही नहीं था। संविधान सभा में हिंदी और हिंदुस्तानी को लेकर उठे विवाद को शांत करने में सेठ गोविंददास का विशेष महत्त्व रहा है। उन्होंने हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिये अपने दल के व्हिप तक का संसद में उल्लंघन कर दिया था। इसी प्रकार, राष्ट्रभाषा हिंदी को सम्मान जनक स्थान दिलाने के लिये 1968 में देशव्यापी आंदोलन चलाया था और इस हेतु वे पूरे भारत का भ्रमण कर रहे थे। अंत में यह कहा जा सकता है कि हिंदी के प्रसार के साथ इसे राजभाषा के प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित करवाने में सेठ गोविंद दास की अविस्मरणीय भूमिका है।</s>
<s>[INST]हिंदी की तकनीकी शब्दावली के उपयोग में आने वाली कठिनाइयों पर प्रकाश डालिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 3 ग)[/INST]उत्तर : पिछले 50 वर्षों में, विशेषतः वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग के गठन के बाद पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के क्षेत्र में तीव्र गति से विकास हुआ है, किंतु अभी भी तकनीकी शब्दावली के उपयोग से संबंधित अनेक कठिनाइयाँ विद्यमान हैं- विभिन्न विचारधाराओं ने अपने-अपने तरीके से अनुवाद प्रस्तुत किये हैं जिससे वैविध्य एवं जटिलताएँ पैदा हो गई हैं, जैसे टेलीप्रिंटर हेतु ‘दूर मुद्रक’, ‘तार लेखी’ व ‘टेली प्रिंटर’ शब्द प्रचलित हैं। एक समस्या यह है कि बहुत से ऐसे शब्द बनाए गए हैं जो अपनी जटिलता के कारण नितांत अप्रचलित हैं, जैसे- कंप्यूटर हेतु ‘संगणक’, ट्रेन हेतु ‘लौहपथगामिनी’ इत्यादि। तीसरी समस्या समन्वय के अभाव की है। उदाहरण के लिये डायरेक्टर के लिये निर्देशक, निदेशक व संचालक का प्रयोग तथा लेक्चरर के लिये प्राध्यापक, प्रवक्ता व व्याख्याता का प्रयोग द्रष्टव्य है। इससे द्वैधीकरण की समस्या उत्पन्न हुई है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में परिवर्तनों की द्रुत गति इस समस्या को और अधिक जटिल बना देती है। जब तक हम कुछ शब्दों को अनुवाद कर प्रचलन में लाने का प्रयास करते हैं तब तक अनेक नए शब्द सामने आ जाते हैं। कुल मिलाकर यह समस्या अत्यंत जटिल है। यदि हम दृढ़ इच्छाशक्ति से काम करें एवं सामान्यतः अंतर्राष्ट्रीय शब्दावली को हिंदी व्याकरण से सुसंगत बनाते हुए स्वीकार करें तो संभव है कि हिंदी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की सफल भाषा बन जाए।</s>
<s>[INST]मानक हिंदी की व्याकरणिक विशेषताओं का परिचय दीजिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 3 ख)[/INST]उत्तर : व्याकरण किसी भी भाषा को अनुशासित करने की एक पद्धति है। हिंदी भाषा का भी अपना एक स्पष्ट व्याकरण है। इसके प्रमुख रूप से चार अंग हैं- जब व्याकरण सम्मत नियमों के आधार पर कोई शब्द किसी व्याकरणिक कोटि के रूप में वाक्य में निश्चित स्थान ग्रहण करता है तो पद बन जाता है। पद संरचना को निम्न चित्र द्वारा दर्शाया जा सकता है- 2. हिंदी में विकार पैदा करने वाले पाँच तत्त्व माने गए हैं जिन्हें आरेख द्वारा दर्शाया जा सकता है- मानक हिंदी में दो लिंगों की व्यवस्था है। इसी प्रकार वचन भी दो हैं- एकवचन और बहुवचन। वहीं वाक्यों की संख्या तीन है- कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य और भाववाच्य। जबकि कालों की संख्या स्वाभाविक रूप से यहाँ भी तीन है- भूतकाल वर्तमान काल भविष्य काल अविकारी तत्त्व वे हैं जो किसी भी परिस्थिति में परिवर्तित नहीं होते हैं। प्रत्येक काल, वचन तथा लिंग में इनकी एक-सी संरचना बनी रहती है। इनकी संख्या चार है- 1. कारक व्यवस्था क्रिया के साथ विभिन्न संज्ञाओं का संबंध बताती है। हिंदी में भी संस्कृत की तरह 8 कारक स्वीकृत हैं- कर्त्ता (ने), कर्म (को), करण (से), संप्रदान (के लिये), अपादान (से अलग), संबंध (का, के, की), अधिकरण (में, पर), संबोधन (हे)। 2. वाक्य संरचना किसी भी भाषा की अर्थ प्रदात्री इकाई होती है। यह कुछ शब्दों के व्यवस्थित संयोग से बनती है। वाक्य प्रायः तीन प्रकर के होते हैं-</s>
<s>[INST]मानक हिंदी के स्वरूप पर प्रकाश डालिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 3 क)[/INST]उत्तर : मानक हिंदी से तात्पर्य, खड़ी बोली से विकसित और नागरी लिपि में लिखी जाने वाली उस मानक भाषा से है जिसे उच्च हिंदी या परिनिष्ठित हिंदी भी कहा जाता है। यही हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा, राजभाषा तथा संपर्क भाषा है। यही शिक्षा, प्रशासन, वाणिज्य, समाचार-पत्र, कला और संस्कृति की विभिन्न विधाओं के लिये सम्प्रेषण का माध्यम है। ये मानक भाषा के बाहरी रूप या बहिरंग आयाम हैं। अंतरंग आयामों के अंतर्गत मानक हिंदी की भाषिक संरचना तथा व्याकरणिक व्यवस्था की दृष्टि से उसके स्वरूप को देखा जा सकता है। हिंदी निरन्तर विकसित और परिष्कृत होती रही है। आज हिंदी का जो मानक स्वरूप निर्धारित हो पाया है वह लगभग पिछली दस शताब्दियों का परिणाम है। ठोस स्तर पर यह प्रक्रिया भारतेंदु युग से प्रारंभ हुई। मानक हिंदी का मूल आधार ‘खड़ी बोली’ है। हिंदी की विभिन्न शैलियों एवं बोलियों में से एक ‘खड़ी बोली’ ने मानक हिंदी की ओर अग्रसर होने के क्रम में शब्दावली के स्तर पर विभिन्न स्रोतों का सहारा लिया है। इन सभी स्रोतों में सबसे प्रमुख संस्कृत के स्रोत हैं जहाँ से व्यापक स्तर पर तत्सम शब्दों को ग्रहण किया गया है। इसके अतिरिक्त कई विदेशी भाषाओं एवं देशी बोलियों से भी शब्द ग्रहण किये गए हैं।</s>
<s>[INST]पूर्वी हिंदी की किन्हीं दो बोलियों का विवेचन कीजिये। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 2 ग)[/INST]उत्तर : पूर्वी हिंदी का क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ तक विस्तृत है। इसके अंतर्गत तीन बोलियाँ शामिल की जाती हैं- अवधी, बघेली छत्तीसगढ़ी। इनमें से अवधी व बघेली का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है- अवधी- अवधी अवध की बोली है। इस बोली का क्षेत्र लखनऊ, फैज़ाबाद, सीतापुर, सुल्तानपुर व रायबरेली तक फैला है। भक्तिकाव्य की दो प्रमुख धाराएँ- सूफी काव्यधारा तथा रामभक्ति काव्यधारा इसी बोली में रचित हैं। अवधी की भाषागत विशेषताएँ इस प्रकार हैं अवधी में हिंदी की प्रायः सभी ध्वनियाँ मिलती हैं, किन्तु ‘ण’ का प्रयोग ‘न’ ‘ड़’ का प्रयोग ‘र’ और ‘ब’ का प्रयोग ‘ब’ के रूप में विशिष्ट है। अवधी में उकारांतता की प्रवृत्ति है, जैसे- रामू, दीनू इत्यादि। पुल्लिंग से स्त्रीलिंग के निर्माण हेतु शब्द के अंत में ई, इनि, इनी, आनी, नी तथा इया जैसे प्रत्यय लगते हैं। बघेली- बघेली बघेलखंड की बोली है। यह रीवा, जबलपुर, मंडला तथा बालाघाट ज़िलों में बोली जाती है। अवधी और बघेली में इतनी समानताएँ हैं कि कुछ विद्वान उसे अवधी की उपबोली मानते हैं। बघेली की भाषिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं बघेली में ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ का अत्यधिक प्रयोग। कर्म और संप्रदान के लिये ‘कः’ तथा करण व अपादान के लिये ‘कार’ परसर्गों का प्रयोग। ‘ए’ और ‘ओ’ ध्वनियों का उच्चारण करते हुए बघेली में ‘य’ और ‘व’ ध्वनियों का मिश्रण करने की प्रवृत्ति है। </s>