Datasets:
Upload anacreontea.csv
Browse files- anacreontea.csv +755 -0
anacreontea.csv
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@@ -0,0 +1,755 @@
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1 |
+
topos,topos_english,fragment,portuguese_text,greek_text,source
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2 |
+
Velhice,Old age,1,"Anacreonte, o cantor
|
3 |
+
De Teos me viu e falou
|
4 |
+
Comigo num dos meus sonhos.
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5 |
+
Corri em sua direção,
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6 |
+
Beijei-o e o abracei,
|
7 |
+
Pois mesmo velho era belo
|
8 |
+
E além de belo, amoroso,
|
9 |
+
Cheirando a vinho nos lábios.
|
10 |
+
E visto que ele tremia
|
11 |
+
O Amor
|
12 |
+
tomava a sua mão.
|
13 |
+
Depois me deu a guirlanda
|
14 |
+
Que tinha sobre a cabeça:
|
15 |
+
Cheirava a Anacreonte.
|
16 |
+
Eu, tolo, então a aceitei:
|
17 |
+
Ergui-a e a pus sobre a testa.
|
18 |
+
E desde então nunca mais
|
19 |
+
Cessei de me apaixonar.","Ἀνακρέων ἰδών με
|
20 |
+
ὁ Τήιος μελῳδὸς
|
21 |
+
ὄναρ λέγων προσεῖπεν,
|
22 |
+
κἀγὼ δραμὼν πρὸς αὐτὸν
|
23 |
+
περιπλάκην φιλήσας.
|
24 |
+
γέρων μὲν ἦν, καλὸς δέ,
|
25 |
+
καλὸς δὲ καὶ φίλευνος·
|
26 |
+
τὸ χεῖλος ὦζεν οἴνου,
|
27 |
+
τρέμοντα δ’ αὐτὸν ἤδη
|
28 |
+
Ἔρως ἐχειραγώγει.
|
29 |
+
ὁ δ’ ἐξελὼν καρήνου
|
30 |
+
ἐμοὶ στέφος δίδωσι·
|
31 |
+
τὸ δ’ ὦζ’ Ἀνακρέοντος.
|
32 |
+
ἐγὼ δ’ ὁ μωρὸς ἄρας
|
33 |
+
ἐδησάμην μετώπῳ·
|
34 |
+
καὶ δῆθεν ἄχρι καὶ νῦν
|
35 |
+
ἔρωτος οὐ πέπαυμαι.",https://doi.org/10.9771/2176-4794ell.v0i55.16402
|
36 |
+
Velhice,Old age,7,"As moças sempre dizem:
|
37 |
+
“Anacreonte, és velho!
|
38 |
+
Vai ver nalgum espelho:
|
39 |
+
Já foi o teu cabelo,
|
40 |
+
Tua testa está pelada!”
|
41 |
+
Não sei se meu cabelo
|
42 |
+
Se foi ou permanece,
|
43 |
+
Mas sei é que conforme
|
44 |
+
A Moira se aproxima
|
45 |
+
É mais apropriado
|
46 |
+
Que o velho se divirta.","λέγουσιν αἰ γυναῖκες·
|
47 |
+
«Ἀνάκρεον, γέρων εῖ·
|
48 |
+
λαβὼν ἔσοπτρον ἄθρει
|
49 |
+
κόμας μὲν οὐκέτ’ οὔσας,
|
50 |
+
ψιλὸν δέ σευ μέτωπον.»
|
51 |
+
ἐγὼ δὲ τὰς κόμας μέν,
|
52 |
+
εἴτ’ εἰσὶν εἴτ’ ἀπῆλθον,
|
53 |
+
οὐκ οἶδα· τοῦτο δ’ οῖδα,
|
54 |
+
ὡς τῷ γέροντι μᾶλλον
|
55 |
+
πρέπει τὸ τερπνὰ παίζειν,
|
56 |
+
ὅσῳ πέλας τὰ Μοίρης.",https://doi.org/10.9771/2176-4794ell.v0i55.16402
|
57 |
+
"Loucura, sobriedade e as muitas vozes das Anacreônticas","Madness, sobriety and the many voices of the Anacreontics",9,"Permita-me, em nome dos deuses,
|
58 |
+
Beber, beber sem respirar:
|
59 |
+
Eu quero, eu quero enlouquecer.
|
60 |
+
Enlouquecera Alcmeão,
|
61 |
+
Bem como Orestes pés-descalços
|
62 |
+
Após matar a sua mãe –
|
63 |
+
Bebendo o vinho rubro entanto
|
64 |
+
Sem ter ninguém assassinado
|
65 |
+
Eu quero, eu quero enlouquecer.
|
66 |
+
Enlouquecera Héracles
|
67 |
+
Brandindo a sua terrível aljava
|
68 |
+
Ao lado do arco de Ífito.
|
69 |
+
Enlouquecera também Ájax
|
70 |
+
Ao manejar o seu escudo
|
71 |
+
E a espada que de Heitor ganhara.
|
72 |
+
Mas eu, tomando a minha taça
|
73 |
+
E com guirlandas nos cabelos,
|
74 |
+
Não tendo arco nem espada,
|
75 |
+
Eu quero, eu quero enlouquecer.","ἄφες με, τοὺς θεούς σοι,
|
76 |
+
πιεῖν, πιεῖν ἀμυστί·
|
77 |
+
θέλω, θέλω μανῆναι.
|
78 |
+
ἐμαίνετ’ Ἀλκμαίων τε
|
79 |
+
χὠ λευκόπους Ὀρέστης
|
80 |
+
τὰς μητέρας κτανόντες·
|
81 |
+
ἐγὼ δὲ μηδένα κτάς,
|
82 |
+
πιὼν δ’ ἐρυθρὸν οἶνον
|
83 |
+
θέλω, θέλω μανῆναι.
|
84 |
+
ἐμαίνετ’ Ἡρακλῆς πρὶν
|
85 |
+
δεινὴν κλονῶν φαρέτρην
|
86 |
+
καὶ τόξον Ἰφίτειον.
|
87 |
+
ἐμαίνετο πρὶν Αἴας
|
88 |
+
μετ’ ἀσπίδος κραδαίνων
|
89 |
+
τὴν Ἕκτορος μάχαιραν·
|
90 |
+
ἐγὼ δ’ ἔχων κύπελλον
|
91 |
+
καὶ στέμμα τοῦτο χαίτης,
|
92 |
+
οὐ τόξον, οὐ μάχαιραν,
|
93 |
+
θέλω, θέλω μανῆναι.",https://doi.org/10.9771/2176-4794ell.v0i55.16402
|
94 |
+
"Loucura, sobriedade e as muitas vozes das Anacreônticas","Madness, sobriety and the many voices of the Anacreontics",12,"Alguns dizem que, pela bela
|
95 |
+
Cibele, o meio-fêmeo Átis,
|
96 |
+
Soltando gritos nas montanhas,
|
97 |
+
Enlouqueceu completamente.
|
98 |
+
Há quem beba as águas loquazes
|
99 |
+
De Febo, portador de louros,
|
100 |
+
Na margem elevada em Claros,
|
101 |
+
E enlouquecendo solte gritos.
|
102 |
+
Mas eu só quero a minha dose
|
103 |
+
De Lieu, mais o meu perfume
|
104 |
+
E também a minha garota
|
105 |
+
E eu quero, eu quero enlouquecer.","οἱ μὲν καλὴν Κυβήβην
|
106 |
+
τὸν ἡμίθηλυν Ἄττιν
|
107 |
+
ἐν οὔρεσιν βοῶντα
|
108 |
+
λέγουσιν ἐκμανῆναι.
|
109 |
+
οἱ δὲ Κλάρου παρ’ ὄχθαις
|
110 |
+
δαφνηφόνοιο Φοίβου
|
111 |
+
λάλον πιόντες ὕδωρ
|
112 |
+
μεμηνότες βοῶσιν.
|
113 |
+
ἐγὼ δὲ τοῦ Λυαίου
|
114 |
+
καὶ τοῦ μύρου κορεσθεὶς
|
115 |
+
καὶ τῆς ἐμῆς ἑταίρης
|
116 |
+
θέλω, θέλω μανῆναι.",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
117 |
+
"Loucura, sobriedade e as muitas vozes das Anacreônticas","Madness, sobriety and the many voices of the Anacreontics",2,"Dá-me a lira de Homero
|
118 |
+
Sem a corda de assassínio.
|
119 |
+
Traz-me as taças dos costumes,
|
120 |
+
Traz-me as leis mescladas nelas,
|
121 |
+
Pra que eu dance embriagado
|
122 |
+
Com sensata insanidade
|
123 |
+
E acompanhe a lira em canto,
|
124 |
+
Entoando o som do vinho.
|
125 |
+
Dá-me a lira de Homero
|
126 |
+
Sem a corda de assassínio","δότε μοι λύρην Ὁμήρου
|
127 |
+
φονίης ἄνευθε χορδῆς,
|
128 |
+
φέρε μοι κύπελλα θεσμῶν,
|
129 |
+
φέρε μοι νόμους κεράσσας,
|
130 |
+
μεθύων ὅπως χορεύσω,
|
131 |
+
ὑπὸ σώφρονος δὲ λύσσης
|
132 |
+
μετὰ βαρβίτων ἀείδων
|
133 |
+
τὸ παροίνιον βοήσω.
|
134 |
+
δότε μοι λύρην Ὁμήρου
|
135 |
+
φονίης ἄνευθε χορδῆς.",https://doi.org/10.9771/2176-4794ell.v0i55.16402
|
136 |
+
Poíesis,Poíesis,11,"Um jovem vendia uma estátua
|
137 |
+
Do Amor esculpido na cera.
|
138 |
+
Parei junto dele e então
|
139 |
+
“Por quanto” lhe disse “tu queres
|
140 |
+
Vender o teu artesanato?”
|
141 |
+
Em Dório ele me respondeu:
|
142 |
+
“Por quanto quiseres pagar.
|
143 |
+
Pra bem da verdade, confesso:
|
144 |
+
Nem sei trabalhar com a cera;
|
145 |
+
Apenas não quero viver
|
146 |
+
Ao lado do Amor, o vilão.”
|
147 |
+
“Dá aqui! Dá-me aqui e toma um dracma.
|
148 |
+
Será um bonito consorte.”
|
149 |
+
Amor, vai tratando de pôrMe em chamas senão serás tu
|
150 |
+
Quem vai derreter lá no fogo.”","Ἔρωτα κήρινόν τις
|
151 |
+
νεηνίης ἐπώλει·
|
152 |
+
ἐγὼ δέ οἱ παραστὰς
|
153 |
+
‘πόσου θέλεις’ ἔφην ‘σοὶ
|
154 |
+
τὸ τευχθέν ἐκπρίωμαι;’
|
155 |
+
ὁ δ’ εἶπε δωριάζων
|
156 |
+
‘λάβ’ αὐτόν, ὁππόσου λῇς.
|
157 |
+
ὅπως <δ’> ἂν ἐκμάθῃς πᾶν,
|
158 |
+
οὐκ εἰμὶ κηροτέχνας,
|
159 |
+
ἀλλ’ οὐ θέλω συνοικεῖν
|
160 |
+
Ἔρωτι παντορέκτᾳ.’
|
161 |
+
‘δὸς οὖν, δὸς αὐτὸν ἡμῖν
|
162 |
+
δραχμῆς, καλὸν σύνευνον.’
|
163 |
+
Ἔρως, σὺ δ’ εὐθέως με
|
164 |
+
πύρωσον· εἰ δὲ μή, σὺ
|
165 |
+
κατὰ φλογὸς τακήσῃ.",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
166 |
+
Poíesis,Poíesis,60a,"Eu farei as cordas vibrarem,
|
167 |
+
Não por conta de um campeonato,
|
168 |
+
Mas por ser uma arte que todos
|
169 |
+
Os poetas devem saber.
|
170 |
+
Com meu plectro de marfim eu
|
171 |
+
Tocarei as notas mais claras,
|
172 |
+
E num ritmo frígio eu irei
|
173 |
+
Bradar feito um cisne do Caistro,
|
174 |
+
Com as asas ao vento, cantando
|
175 |
+
Uma melodia complexa.
|
176 |
+
E tu, Musa, dança comigo!
|
177 |
+
Pois pra Febo a lira e o louro
|
178 |
+
E o tripé são todos sagrados.
|
179 |
+
A paixão de Febo é meu tema:
|
180 |
+
Um desejo não saciado,
|
181 |
+
Pois a moça se mantém casta,
|
182 |
+
Escapando do seu ferrão,
|
183 |
+
Tendo o corpo sido tornado
|
184 |
+
Numa planta bem vicejante.
|
185 |
+
Porém Febo, Febo então veio
|
186 |
+
E pensando ser seu senhor
|
187 |
+
Arrancou-lhe as folhas, supondo
|
188 |
+
Que fazia os ritos Citérios.","ἀνὰ βάρβιτον δονήσω·
|
189 |
+
ἄεθλος μὲν οὐ πρόκειται,
|
190 |
+
μελέτη δ’ ἔπεστι παντὶ
|
191 |
+
σοφίης λαχόντ’ ἄωτον.
|
192 |
+
ἐλεφαντίνῳ δὲ πλήκτρῳ
|
193 |
+
λιγυρὸν μέλος κροαίνων
|
194 |
+
Φρυγίῳ ῥυθμῷ βοήσω,
|
195 |
+
ἅτε τις κύκνος Καΰστρου
|
196 |
+
ποικίλον πτεροῖσι μέλπων
|
197 |
+
ἀνέμου σύναυλος ἠχῇ.
|
198 |
+
σὺ δέ, Μοῦσα, συγχόρευε·
|
199 |
+
ἱερὸν γάρ ἐστι Φοίβου
|
200 |
+
κιθάρη, δάφνη τρίπους τε.
|
201 |
+
λαλέω δ’ ἔρωτα Φοίβου,
|
202 |
+
ἀνεμώλιον τὸν οἶστρον·
|
203 |
+
σαόφρων γάρ ἐστι κούρα·
|
204 |
+
τὰ μὲν ἐκπέφευγε κέντρα,
|
205 |
+
φύσεως δ’ ἄμειψε μορφήν,
|
206 |
+
φυτὸν εὐθαλὲς δ’ ἐπήχθη·
|
207 |
+
ὁ δὲ Φοῖβος, ᾖὲ, Φοῖβος,
|
208 |
+
κρατέειν κόρην νομίζων,
|
209 |
+
χλοερὸν δρέπων δὲ φύλλον
|
210 |
+
ἐδόκει τελεῖν Κυθήρην",https://doi.org/10.9771/2176-4794ell.v0i55.16402
|
211 |
+
Riqueza,Wealth,8,"Não me importa a fortuna
|
212 |
+
De Giges, rei de Sardes.
|
213 |
+
Eu nunca o invejei,
|
214 |
+
Nem a nenhum tirano.
|
215 |
+
Importa-me molhar
|
216 |
+
A barba com perfume.
|
217 |
+
Importa-me cingir
|
218 |
+
Com rosas a cabeça.
|
219 |
+
O agora é o que me importa.
|
220 |
+
Quem sabe o amanhã?
|
221 |
+
Enquanto o tempo é bom,
|
222 |
+
Portanto, bebe e brinca,
|
223 |
+
Libando pra Lieu.
|
224 |
+
Não chegue uma doença
|
225 |
+
E diga: “Já não podes.”","οὔ μοι μέλει τὰ Γύγεω,
|
226 |
+
τοῦ Σάρδεων ἄνακτος·
|
227 |
+
οὐδ’ εἷλέ πώ με ζῆλος,
|
228 |
+
οὐδὲ φθονῶ τυράννοις.
|
229 |
+
ἐμοὶ μέλει μύροισιν
|
230 |
+
καταβρέχειν ὑπήνην,
|
231 |
+
ἐμοὶ μέλει ῥόδοισιν
|
232 |
+
καταστέφειν κάρηνα·
|
233 |
+
τὸ σήμερον μέλει μοι,
|
234 |
+
τὸ δ’ αὔριον τίς οἶδεν;
|
235 |
+
ὡς οὖν ἔτ’ εὔδι’ ἔστιν,
|
236 |
+
καὶ πῖνε καὶ κύβευε
|
237 |
+
καὶ σπένδε τῷ Λυαίῳ,
|
238 |
+
μὴ νοῦσος, ἤν τις ἔλθῃ,
|
239 |
+
λέγῃ, ‘σὲ μὴ δεῖ πίνειν.’",https://doi.org/10.9771/2176-4794ell.v0i55.16402
|
240 |
+
Eros doceamargo,Eros sweet-bitte,60b,"Coração, por que te enlouqueces
|
241 |
+
Co’ a melhor loucura de todas?
|
242 |
+
Vamos! Joga longe essa lança,
|
243 |
+
Para que acertando tu partas!
|
244 |
+
Abandona o arco com que
|
245 |
+
Afrodite venceu os deuses.
|
246 |
+
Imitando o bardo famoso,
|
247 |
+
Anacreonte, faz um brinde
|
248 |
+
Aos moços e bebe essa taça,
|
249 |
+
Tua amável taça de palavras!
|
250 |
+
Contentemo-nos com o néctar
|
251 |
+
Da bebida, evitando a estrela
|
252 |
+
Cuja luz refulge escarlate.","ἄγε, θυμέ, πῇ μέμηνας
|
253 |
+
μανίην μανεὶς ἀρίστην;
|
254 |
+
τὸ βέλος, φέρε, κράτυνον,
|
255 |
+
σκοπὸν ὡς βαλὼν ἀπέλθῃς.
|
256 |
+
τὸ δὲ τόξον Ἀφροδίτης
|
257 |
+
ἄφες, ᾧς θεοὺς ἐνίκα.
|
258 |
+
τὸν Ἀνακρέοντα μιμοῦ,
|
259 |
+
τὸν ἀοίδιμον μελιστήν.
|
260 |
+
φιάλην πρόπινε παισίν,
|
261 |
+
φιάλην λόγων ἐραννήν·
|
262 |
+
ἀπὸ νέκταρος ποτοῖο
|
263 |
+
παραμύθιον λαβόντες
|
264 |
+
φλογερὸν φυγόντες ἄστρον",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
265 |
+
Eros doceamargo,Eros sweet-bitte,31,"Com uma vara de jacintos,
|
266 |
+
O Amor batia em mim sem pena,
|
267 |
+
Mandando que eu o acompanhasse.
|
268 |
+
Corri ao longo de águas duras,
|
269 |
+
De arbustos e também de abismos,
|
270 |
+
Corri e o suor me incomodava.
|
271 |
+
O coração subiu-me ao rosto,
|
272 |
+
Até o nariz. Pensei morrer.
|
273 |
+
Mas Eros abanando as suas
|
274 |
+
Asinhas tenras me falou:
|
275 |
+
“Não podes mesmo então amar?”","ὑακινθίνῃ με ῥάβδῳ
|
276 |
+
χαλεπῶς Ἔρως ῥαπίζων
|
277 |
+
ἐκέλευε συντροχάζειν.
|
278 |
+
διὰ δ’ ὀξέων μ’ ἀναύρων
|
279 |
+
ξυλόχων τε καὶ φαράγγων
|
280 |
+
τροχάοντα τεῖρεν ἱδρώς·
|
281 |
+
κραδίη δὲ ῥινὸς ἄχρις
|
282 |
+
ἀνέβαινε, κἂν ἀπέσβην.
|
283 |
+
ὁ δ’ Ἔρως †μέτωπα σείων†
|
284 |
+
ἁπαλοῖς πτεροῖσιν εἶπεν·
|
285 |
+
‘σὺ γὰρ οὐ δύνῃ φιλῆσαι;’",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
286 |
+
Eros doceamargo,Eros sweet-bitte,33,"Certa vez, no meio da noite,
|
287 |
+
Chegado o momento em que a Ursa
|
288 |
+
Já se vira à mão do Boieiro
|
289 |
+
E todas as tribos dos homens
|
290 |
+
Se deitam pelo seu cansaço,
|
291 |
+
O Amor se pôs em frente à minha
|
292 |
+
Porta e começou a bater.
|
293 |
+
“Quem bate em minha porta?” eu disse.
|
294 |
+
“Partiste todos os meus sonhos!”
|
295 |
+
O Amor então responde: “Abre!
|
296 |
+
Sou um bebê! Não tenhas medo!
|
297 |
+
Estou molhado e estou perdido
|
298 |
+
Em meio à noite sem luar.”
|
299 |
+
Fiquei com pena do que ouvi.
|
300 |
+
Por isso, acendo um lampião
|
301 |
+
E abrindo a porta então eu vejo
|
302 |
+
Um bebezinho com seu arco,
|
303 |
+
Aljava e asas sobre as costas.
|
304 |
+
Sentei-o junto da lareira,
|
305 |
+
A fim de que esquentasse as mãos,
|
306 |
+
E então sequei o seu cabelo,
|
307 |
+
Espremendo os cachos molhados.
|
308 |
+
Quando o frio por fim o soltou,
|
309 |
+
“Vem!”, ele disse. “Vem testar
|
310 |
+
Meu arco para ver se a corda
|
311 |
+
Acaso se estragou na chuva!”
|
312 |
+
Armou a flecha e me acertou
|
313 |
+
No meio do meu coração.
|
314 |
+
Depois, pulando e rindo, disse:
|
315 |
+
“Amigo, alegra-te comigo!
|
316 |
+
Meu arco está ileso, mas
|
317 |
+
Teu coração irá doer!”","μεσονυκτίοις ποτ’ ὥραις,
|
318 |
+
στρέφετ’ ἡνίκ’ Ἄρκτος ἤδη
|
319 |
+
κατὰ χεῖρα τὴν Βοώτου,
|
320 |
+
μερόπων δὲ φῦλα πάντα
|
321 |
+
κέαται κόπῳ δαμέντα,
|
322 |
+
τότ’ Ἔρως ἐπισταθείς μευ
|
323 |
+
θυρέων ἔκοπτ’ ὀχῆας.
|
324 |
+
‘τίς’ ἔφην ‘θύρας ἀράσσει,
|
325 |
+
κατά μευ σχίσας ὀνείρους;’
|
326 |
+
ὁ δ’ Ἔρως ‘ἄνοιγε’ φησίν·
|
327 |
+
‘βρέφος εἰμί, μὴ φόβησαι·
|
328 |
+
βρέχομαι δὲ κἀσέληνον
|
329 |
+
κατὰ νύκτα πεπλάνημαι.’
|
330 |
+
ἐλέησα ταῦτ’ ἀκούσας,
|
331 |
+
ἀνὰ δ’ εὐθὺ λύχνον ἅψας
|
332 |
+
ἀνέῳξα, καὶ βρέφος μὲν
|
333 |
+
ἐσορῶ φέροντα τόξον
|
334 |
+
πτέρυγάς τε καὶ φαρέτρην·
|
335 |
+
παρὰ δ’ ἱστίην καθίξας
|
336 |
+
παλάμαισι χεῖρας αὐτοῦ
|
337 |
+
ἀνέθαλπον, ἐκ δὲ χαίτης
|
338 |
+
ἀπέθλιβον ὑγρὸν ὕδωρ.
|
339 |
+
ὃ δ’, ἐπεὶ κρύος μεθῆκε,
|
340 |
+
‘φέρε’ φησὶ ‘πειράσωμεν
|
341 |
+
τόδε τόξον, εἴ τί μοι νῦν
|
342 |
+
βλάβεται βραχεῖσα νευρή.’
|
343 |
+
τανύει δὲ καί με τύπτει
|
344 |
+
μέσον ἧπαρ, ὥσπερ οἶστρος.
|
345 |
+
ἀνὰ δ’ ἅλλεται καχάζων·
|
346 |
+
‘ξένε’ δ’ εἶπε ‘συγχάρηθι·
|
347 |
+
κέρας ἀβλαβὲς μὲν ἡμῖν,
|
348 |
+
σὺ δὲ καρδίαν πονήσεις.’",https://doi.org/10.9771/2176-4794ell.v0i55.16402
|
349 |
+
Velhice,Old age,39,"Amo um velho que é gentil;
|
350 |
+
Amo um jovem dançarino;
|
351 |
+
E, se um homem velho dança,
|
352 |
+
Ele é velho em seus cabelos,
|
353 |
+
Mas é novo em coração.","φιλῶ γέροντα τερπνόν,
|
354 |
+
φιλῶ νέον χορευτάν·
|
355 |
+
ἂν δ’ ὁ γέρων χορεύῃ,
|
356 |
+
τρίχας γέρων μέν ἐστιν,
|
357 |
+
τὰς δὲ φρένας νεάζει.",https://doi.org/10.9771/2176-4794ell.v0i55.16402
|
358 |
+
Poíesis,Poíesis,16,"Vinde, mestre dos pintores!
|
359 |
+
Pintai, mestre dos pintores!
|
360 |
+
Comandante da arte ródia,
|
361 |
+
Da maneira que vos digo,
|
362 |
+
Desenhai a moça ausente:
|
363 |
+
Desenhai primeiro os cachos –
|
364 |
+
Delicados cachos negros ���
|
365 |
+
E, se a cera o permitir,
|
366 |
+
Desenhai o seu perfume.
|
367 |
+
Desenhai as suas bochechas
|
368 |
+
Sob um cenho de marfim
|
369 |
+
E madeixas negro-roxas.
|
370 |
+
Não corteis as sobrancelhas,
|
371 |
+
Mas também não as unais:
|
372 |
+
Que elas sejam como são,
|
373 |
+
Bordas negras de seus olhos
|
374 |
+
Encontrando-se de leve.
|
375 |
+
Os seus olhos, veramente,
|
376 |
+
Vós deveis fazer de fogo;
|
377 |
+
Glaucos, como os de Atena;
|
378 |
+
Úmidos, tal qual Citéria.
|
379 |
+
Desenhai nariz, bochechas,
|
380 |
+
Misturando o rosa ao creme.
|
381 |
+
Lábios: como os de Peitó,
|
382 |
+
Sempre provocando beijos.
|
383 |
+
Sob o queixo delicado,
|
384 |
+
Junto ao seu pescoço níveo,
|
385 |
+
Permiti que as Graças voem.
|
386 |
+
Sobre o resto ponde peplos
|
387 |
+
Com um leve tom purpúreo,
|
388 |
+
Mas mostrai a pele um pouco,
|
389 |
+
Como prova de seu corpo.
|
390 |
+
É o bastante! Posso vê-la!
|
391 |
+
Mais um pouco e a cera fala!","ἄγε, ζωγράφων ἄριστε,
|
392 |
+
γράφε, ζωγράφων ἄριστε,
|
393 |
+
Ῥοδίης κοίρανε τέχνης,
|
394 |
+
ἀπεοῦσαν, ὡς ἂν εἴπω,
|
395 |
+
γράφε τὴν ἐμὴν ἑταίρην.
|
396 |
+
γράφε μοι τρίχας τὸ πρῶτον
|
397 |
+
ἁπαλάς τε καὶ μελαίνας·
|
398 |
+
ὁ δὲ κηρὸς ἂν δύνηται,
|
399 |
+
γράφε καὶ μύρου πνεούσας.
|
400 |
+
γράφε δ’ ἐξ ὅλης παρειῆς
|
401 |
+
ὑπὸ πορφυραῖσι χαίταις
|
402 |
+
ἐλεφάντινον μέτωπον.
|
403 |
+
τὸ μεσόφρυον δὲ μή μοι
|
404 |
+
διάκοπτε μήτε μίσγε,
|
405 |
+
ἐχέτω δ’, ὅπως ἐκείνη,
|
406 |
+
τὸ λεληθότως σύνοφρυ,
|
407 |
+
βλεφάρων ἴτυν κελαινήν.
|
408 |
+
τὸ δὲ βλέμμα νῦν ἀληθῶς
|
409 |
+
ἀπὸ τοῦ πυρὸς ποίησον,
|
410 |
+
ἅμα γλαυκὸν ὡς Ἀθήνης,
|
411 |
+
ἅμα δ’ ὑγρὸν ὡς Κυθήρης.
|
412 |
+
γράφε ῥῖνα καὶ παρειὰς
|
413 |
+
ῥόδα τῷ γάλακτι μίξας·
|
414 |
+
γράφε χεῖλος, οἷα Πειθοῦς,
|
415 |
+
προκαλούμενον φίλημα.
|
416 |
+
τρυφεροῦ δ’ ἔσω γενείου
|
417 |
+
περὶ λυγδίνῳ τραχήλῳ
|
418 |
+
Χάριτες πέτοιντο πᾶσαι.
|
419 |
+
στόλισον τὸ λοιπὸν αὐτὴν
|
420 |
+
ὑποπορφύροισι πέπλοις,
|
421 |
+
διαφαινέτω δὲ σαρκῶν
|
422 |
+
ὀλίγον, τὸ σῶμ’ ἐλέγχον.
|
423 |
+
ἀπέχει· βλέπω γὰρ αὐτήν·
|
424 |
+
τάχα κηρέ, καὶ λαλήσεις.",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
425 |
+
Poíesis,Poíesis,17,"Desenhai meu companheiro
|
426 |
+
Bátilo conforme digo:
|
427 |
+
Ponde brilho em seu cabelo:
|
428 |
+
Negro embaixo, mas nas pontas
|
429 |
+
Clareado pelo sol.
|
430 |
+
Dai-lhe mechas cacheadas,
|
431 |
+
Livres, e deixai que fiquem
|
432 |
+
Em desordem como querem.
|
433 |
+
O seu cenho sob orvalho,
|
434 |
+
Laureai com sobrancelhas
|
435 |
+
Mais escuras que serpentes.
|
436 |
+
Que seus olhos negros sejam
|
437 |
+
Tão ferozes quanto calmos –
|
438 |
+
Com a fúria de Ares junto à
|
439 |
+
Calma de Citéria bela –,
|
440 |
+
Pra que causem tanto o medo
|
441 |
+
Quanto nutram a esperança.
|
442 |
+
Rosas, como uma maçã,
|
443 |
+
Engendrai as suas bochechas.
|
444 |
+
Se possível, dai-lhes cor
|
445 |
+
Semelhante à da Modéstia.
|
446 |
+
Não sei como, mas os lábios
|
447 |
+
Vós deveis fazer macios,
|
448 |
+
Cheios de persuasão.
|
449 |
+
Mas deixai que a cêra diga
|
450 |
+
Tudo com o seu silêncio.
|
451 |
+
Que haja então depois do rosto
|
452 |
+
Um pescoço de marfim
|
453 |
+
Superior ao de Adônis.
|
454 |
+
Engendrai depois seu peito
|
455 |
+
E suas mãos como as de Hermes;
|
456 |
+
Coxas, como Polideuces;
|
457 |
+
O abdômen, de Dioniso;
|
458 |
+
Sobre as suas tenras coxas,
|
459 |
+
Abrasadas pelo fogo,
|
460 |
+
Ponde uma vergonha simples,
|
461 |
+
Mas que já deseje a Páfia.
|
462 |
+
Vossa arte é uma invejosa,
|
463 |
+
Pois não mostra as costas dele.
|
464 |
+
Haveria algo melhor?
|
465 |
+
Descrever os pés pra quê?
|
466 |
+
Quanto ao preço, não me importo.
|
467 |
+
Mas levai convosco Apolo,
|
468 |
+
Dele vós fareis meu Bátilo.
|
469 |
+
Mas se fordes para Samos,
|
470 |
+
Febo vós fareis de Bátilo.","γράφε μοι Βάθυλλον οὕτω,
|
471 |
+
τὸν ἑταῖρον, ὡς διδάσκω·
|
472 |
+
λιπαρὰς κόμας ποίησον,
|
473 |
+
τὰ μὲν ἔνδοθεν μελαίνας,
|
474 |
+
τὰ δ’ ἐς ἄκρον ἡλιώσας·
|
475 |
+
ἕλικας δ’ ἐλευθέρους μοι
|
476 |
+
πλοκάμων ἄτακτα συνθεὶς
|
477 |
+
ἄφες, ὡς θέλωσι, κεῖσθαι.
|
478 |
+
ἁπαλὸν δὲ καὶ δροσῶδες
|
479 |
+
στεφέτω μέτωπον ὀφρὺς
|
480 |
+
κυανωτέρη δρακόντων.
|
481 |
+
μέλαν ὄμμα γοργὸν ἔστω
|
482 |
+
κεκερασμένον γαλήνῃ,
|
483 |
+
τὸ μὲν ἐξ Ἄρηος ἕλκον,
|
484 |
+
τὸ δὲ τῆς καλῆς Κυθήρης,
|
485 |
+
ἵνα τις τὸ μὲν φοβῆται,
|
486 |
+
τὸ δ’ ἀπ’ ἐλπίδος κρεμᾶται.
|
487 |
+
ῥοδέην δ’ ὁποῖα μῆλον
|
488 |
+
χνοΐην ποίει παρειήν·
|
489 |
+
ἐρύθημα δ’ ὡς ἂν Αἰδοῦς
|
490 |
+
δύνασ’ εἰ βαλεῖν ποίησον.
|
491 |
+
τὸ δὲ χεῖλος οὐκέτ’ οἶδα
|
492 |
+
τίνι μοι τρόπῳ ποιήσεις
|
493 |
+
ἁπαλόν γέμον τε πειθοῦς·
|
494 |
+
τὸ δὲ πᾶν ὁ κηρὸς αὐτὸς
|
495 |
+
ἐχέτω λαλῶν σιωπῇ.
|
496 |
+
μετὰ δὲ πρόσωπον ἔστω
|
497 |
+
τὸν Ἀδώνιδος παρελθὼν
|
498 |
+
ἐλεφάντινος τράχηλος.
|
499 |
+
μεταμάζιον δὲ ποίει
|
500 |
+
διδύμας τε χεῖρας Ἑρμοῦ,
|
501 |
+
Πολυδεύκεος δὲ μηρούς,
|
502 |
+
Διονυσίην δὲ νηδύν·
|
503 |
+
ἁπαλῶν δ’ ὕπερθε μηρῶν,
|
504 |
+
μαλερὸν τὸ πῦρ ἐχόντων,
|
505 |
+
ἀφελῆ ποίησον αἰδῶ
|
506 |
+
Παφίην θέλουσαν ἤδη.
|
507 |
+
φθονερὴν ἔχεις δὲ τέχνην,
|
508 |
+
ὅτι μὴ τὰ νῶτα δεῖξαι
|
509 |
+
δύνασαι· τὰ δ’ ἦν ἀμείνω.
|
510 |
+
τί με δεῖ πόδας διδάσκειν;
|
511 |
+
λάβε μισθὸν, ὅσσον εἴπῃς,
|
512 |
+
τὸν Ἀπόλλωνα δὲ τοῦτον
|
513 |
+
καθελὼν ποίει Βάθυλλον·
|
514 |
+
ἢν δ’ ἐς Σάμον ποτ’ ἔλθῃς,
|
515 |
+
γράφε Φοῖβον ἐκ Βαθύλλου.",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
516 |
+
Poíesis,Poíesis,4,"Trabalha a tua prata,
|
517 |
+
Hefesto e uma armadura
|
518 |
+
Pra mim não faças, não.
|
519 |
+
Que tenho a ver com lutas?
|
520 |
+
Mas antes faz-me um copo
|
521 |
+
Tão fundo quanto der.
|
522 |
+
Não ponhas nele, entanto,
|
523 |
+
Estrelas: nem a Ursa
|
524 |
+
Nem Órion brilhante.
|
525 |
+
Por que me importariam
|
526 |
+
As Plêiades, Boieiro?
|
527 |
+
Põe vinhas para mim
|
528 |
+
Com cachos de uva nelas
|
529 |
+
E Bacas pra as colherem.
|
530 |
+
Põe homens amassando
|
531 |
+
As uvas com seus pés
|
532 |
+
E sátiros que riem
|
533 |
+
E Amores feitos de ouro
|
534 |
+
E o riso da Citéria
|
535 |
+
E de Lieu formoso
|
536 |
+
E de Eros e Afrodite.","τὸν ἄργυρον τορεύων
|
537 |
+
Ἥφαιστέ μοι ποίησον
|
538 |
+
πανοπλίαν μὲν οὐχί·
|
539 |
+
τί γὰρ μάχαισι κἀμοί;
|
540 |
+
ποτήριον δὲ κοῖλον
|
541 |
+
ὅσον δύνῃ βαθύνας.
|
542 |
+
ποίει δέ μοι κατ’ αὐτοῦ
|
543 |
+
μήτ’ ἄστρα μήτ’ Ἅμαξαν,
|
544 |
+
μὴ στυγνὸν Ὠρίωνα.
|
545 |
+
τί Πλειάδων μέλει μοι,
|
546 |
+
τί γὰρ καλοῦ Βοώτου;
|
547 |
+
ποίησον ἀμπέλους μοι
|
548 |
+
καὶ βότρυας κατ’ αὐτῶν
|
549 |
+
καὶ μαινάδας τρυγώσας,
|
550 |
+
ποίει δὲ ληνὸν οἴνου,
|
551 |
+
ληνοβάτας πατοῦντας,
|
552 |
+
τοὺς σατύρους γελῶντας
|
553 |
+
καὶ χρυσοῦς τοὺς Ἔρωτας
|
554 |
+
καὶ Κυθέρην γελῶσαν
|
555 |
+
ὁμοῦ καλῷ Λυαίῳ,
|
556 |
+
Ἔρωτα κἀφροδίτην.",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
557 |
+
Poíesis,Poíesis,23,"Do Atrida eu falaria
|
558 |
+
E cantaria Cadmo
|
559 |
+
Se a lira em suas cordas
|
560 |
+
De amor não só vibrasse.
|
561 |
+
Eu já troquei suas fibras
|
562 |
+
E até a lira inteira.
|
563 |
+
Tentei cantar os feitos
|
564 |
+
De Héracles e a lira
|
565 |
+
No entanto o amor ressona.
|
566 |
+
Adeus pra sempre a vós,
|
567 |
+
Heróis, pois que esta lira
|
568 |
+
Somente o amor me canta!","θέλω λέγειν Ἀτρείδας,
|
569 |
+
θέλω δὲ Κάδμον ᾄδειν,
|
570 |
+
ὁ βάρβιτος δὲ χορδαῖς
|
571 |
+
Ἔρωτα μοῦνον ἠχεῖ.
|
572 |
+
ἤμειψα νεῦρα πρώην
|
573 |
+
καὶ τὴν λύρην ἅπασαν·
|
574 |
+
κἀγὼ μὲν ῇδον ἄθλους
|
575 |
+
Ἡρακλέους· λύρη δὲ
|
576 |
+
Ἔρωτας ἀντεφώνει.
|
577 |
+
χαίροιτε λοιπὸν ἡμῖν,
|
578 |
+
ἥρωες· ἡ λύρη γὰρ
|
579 |
+
μόνους Ἔρωτας ᾄδει.",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
580 |
+
Eros doceamargo,Eros sweet-bitte,35,"Certa vez, o Amor, por não ver
|
581 |
+
Que em meio às rosas uma abelha
|
582 |
+
Dormia, acabou se ferindo.
|
583 |
+
Tão logo sentiu a picada
|
584 |
+
Num dedo da mão ele uivou
|
585 |
+
E foi-se correndo e voando
|
586 |
+
Atrás da venusta Citéria.
|
587 |
+
“Mataram-me, mãe!” ele disse.
|
588 |
+
“Mataram-me! Ai, estou morrendo!
|
589 |
+
Uma cobrinha voadora
|
590 |
+
Me picou! Aquela chamada
|
591 |
+
De abelha pelos camponeses!”
|
592 |
+
E ela respondeu: “Se o ferrão
|
593 |
+
Da abelha dói dessa maneira,
|
594 |
+
Que dor tu pensas que eles sentem,
|
595 |
+
Amor, por conta de tuas flechas?”","Ἔρως ποτ’ ἐν ῥόδοισι
|
596 |
+
κοιμωμένην μέλιτταν
|
597 |
+
οὐκ εἶδεν, ἀλλ’ ἐτρώθη·
|
598 |
+
τὸν δάκτυλον παταχθεὶς
|
599 |
+
τᾶς χειρὸς ὠλόλυξε.
|
600 |
+
δραμὼν δὲ καὶ πετασθεὶς
|
601 |
+
πρὸς τὴν καλὴν Κυθήρην
|
602 |
+
ὄλωλα, μῆτερ,’ εἶπεν,
|
603 |
+
‘ὄλωλα κἀποθνήσκω·
|
604 |
+
ὄφις μ’ ἔτυψε μικρός
|
605 |
+
πτερωτός, ὃν καλοῦσιν
|
606 |
+
μέλιτταν οἱ γεωργοί.’
|
607 |
+
ἃ δ’ εἶπεν· ‘εἰ τὸ κέντρον
|
608 |
+
πονεῖς τὸ τᾶς μελίττας,
|
609 |
+
πόσον δοκεῖς πονοῦσιν,
|
610 |
+
Ἔρως, ὅσους σὺ βάλλεις;’",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
611 |
+
Eros doceamargo,Eros sweet-bitte,59,"Sobre os ombros, homens e moças
|
612 |
+
Vão levando as uvas de pele
|
613 |
+
Negra em cachos dentro de cestos,
|
614 |
+
[No caminho ao longo das vinhas,]
|
615 |
+
Depois jogam-nas nos tonéis
|
616 |
+
Onde os homens as espezinham,
|
617 |
+
Liberando o vinho dos cachos
|
618 |
+
E com clamor saudando o deus
|
619 |
+
Com hinos de vindima ao ver
|
620 |
+
Como borbulha o adorável
|
621 |
+
Baco novo dentro das jarras.
|
622 |
+
Quando um homem velho o ingere,
|
623 |
+
Ele dança em pés tremebundos,
|
624 |
+
Balançando os cachos grisalhos.
|
625 |
+
Entretanto, um jovem amável,
|
626 |
+
Quando tem deitada à sua espera
|
627 |
+
Uma moça [plena de vinho]
|
628 |
+
Vacilando ao peso do sono,
|
629 |
+
O seu corpo meigo ele abraça,
|
630 |
+
Reclinado à sombra das folhas.
|
631 |
+
Por sua vez, o Amor [quando bebe]
|
632 |
+
Faz feitiços fora do tempo:
|
633 |
+
[Uma esposa] trai suas núpcias.
|
634 |
+
E um rapaz que falha em seu flerte
|
635 |
+
Toma a moça contra a vontade.
|
636 |
+
Esses são os jogos sem ordem
|
637 |
+
Com que Baco brinca entre os jovens.","τὸν μελανόχρωτα βότρυν
|
638 |
+
ταλάροις φέροντες ἄνδρες
|
639 |
+
μετὰ παρθένων ἐπ’ ὤμων,
|
640 |
+
. . . . . . . . .
|
641 |
+
κατὰ ληνοῦ δὲ βαλόντες
|
642 |
+
μόνον ἄρσενες πατοῦσιν
|
643 |
+
σταφυλήν, λύοντες οἶνον,
|
644 |
+
μέγα τὸν θεὸν κροτοῦντες
|
645 |
+
ἐπιληνίοισιν ὕμνοις,
|
646 |
+
ἐρατὸν πίθοις ὁρῶντες
|
647 |
+
νέον ἐσζέοντα Βάκχον.
|
648 |
+
ὃν ὅταν πίνῃ γεραιός,
|
649 |
+
τρομεροῖς ποσὶν χορεύει
|
650 |
+
πολιὰς τρίχας τινάσσων.
|
651 |
+
ὁ δὲ παρθένον λοχήσας
|
652 |
+
ἐρατὸς νέος . . . . . . .
|
653 |
+
. . . . . . . . . ἐλυσθεὶς
|
654 |
+
ἁπαλὸν δέμας χυθεῖσαν
|
655 |
+
σκιερῶν ὕπαιθα φύλλων
|
656 |
+
βεβαρημένην ἐς ὕπνον.
|
657 |
+
ὁ δ’ Ἔρως ἄωρα θέλγων
|
658 |
+
. . . . . . . . .
|
659 |
+
προδότιν γάμων γενέσθαι.
|
660 |
+
ὁ δὲ μὴ λόγοισι πείθων
|
661 |
+
τότε μὴ θέλουσαν ἄγχει·
|
662 |
+
μετὰ γὰρ νέων ὁ Βάκχος
|
663 |
+
μεθύων ἄτακτα παίζει.",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
664 |
+
Riqueza,Wealth,36,"Se a Riqueza oferecesse
|
665 |
+
Vida pros mortais por ouro,
|
666 |
+
Com zelo eu o guardaria,
|
667 |
+
Pra que quando viesse a Morte
|
668 |
+
Lhe pagasse e fosse embora.
|
669 |
+
No entanto, como os mortais
|
670 |
+
Não podem comprar a vida,
|
671 |
+
Para que sofrer em vão?
|
672 |
+
Pra que chorar e gemer?
|
673 |
+
Se estou fadado a morrer,
|
674 |
+
De que irá servir-me o ouro?
|
675 |
+
Deixa-me beber e, tendo
|
676 |
+
Bebido o meu doce vinho,
|
677 |
+
Deitar-me com meus amigos
|
678 |
+
Numa cama bem macia
|
679 |
+
Para os ritos de Afrodite.","ὁ Πλοῦτος εἴ γε χρυσοῦ
|
680 |
+
τὸ ζῆν παρεῖχε θνητοῖς,
|
681 |
+
ἐκαρτέρουν φυλάττων,
|
682 |
+
ἵν’, ἂν Θάνατος ἐπέλθῃ.
|
683 |
+
λάβῃ τι καὶ παρέλθῃ.
|
684 |
+
εἰ δ’ οὖν μὴ τὸ πρίασθαι
|
685 |
+
τὸ ζῆν ἔνεστι θνητοῖς,
|
686 |
+
τί καὶ μάτην στεγάζω;
|
687 |
+
τί καὶ γόους προπέμπω;
|
688 |
+
θανεῖν γὰρ εἰ πέπρωται,
|
689 |
+
τί χρυσὸς ὠφελεῖ με;
|
690 |
+
ἐμοὶ γένοιτο πίνειν,
|
691 |
+
πιόντι δ’ οἶνον ἡδὺν
|
692 |
+
ἐμοῖς φίλοις συνεῖναι,
|
693 |
+
ἐν δ’ ἁπαλαῖσι κοίταις
|
694 |
+
τελεῖν τὰν Ἀφροδίταν",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
695 |
+
"Loucura, sobriedade e as muitas vozes das Anacreônticas","Madness, sobriety and the many voices of the Anacreontics",42,"Anseio pelas danças de
|
696 |
+
Dioniso, o amante da alegria!
|
697 |
+
Eu amo quando toco a lira
|
698 |
+
Bebendo em companhia a um jovem,
|
699 |
+
Mas mais que tudo eu amo pôr
|
700 |
+
Guirlandas de jacintos ao
|
701 |
+
Redor da testa e então brincar
|
702 |
+
Na companhia de garotas.
|
703 |
+
Meu coração não sabe o que é
|
704 |
+
A inveja que lacera o peito.
|
705 |
+
Eu fujo das velozes lanças
|
706 |
+
De línguas dadas ao abuso.
|
707 |
+
Detesto brigas junto ao vinho.
|
708 |
+
Em festas cheias de alegria,
|
709 |
+
Com moças feito flores frescas,
|
710 |
+
Dançando ao som que vem da lira,
|
711 |
+
Que eu leve a minha vida em paz","ποθέω μὲν Διονύσου
|
712 |
+
φιλοπαίγμονος χορείας,
|
713 |
+
φιλέω δ’, ὅταν ἐφήβου
|
714 |
+
μετὰ συμπότου λυρίζω·
|
715 |
+
στεφανίσκους δ’ ὑακίνθων
|
716 |
+
κροτάφοισιν ἀμφιπλέξας
|
717 |
+
μετὰ παρθένων ἀθύρειν
|
718 |
+
φιλέω μάλιστα πάντων.
|
719 |
+
φθόνον οὐκ οἶδ’ ἐμὸν ἦτορ,
|
720 |
+
φθόνον οὐκ οἶδα δαϊκτήν.
|
721 |
+
φιλολοιδόροιο γλώττης
|
722 |
+
φεύγω βέλεμνα κοῦφα·
|
723 |
+
στυγέω μάχας παροίνους.
|
724 |
+
πολυκώμους κατὰ δαῖτας
|
725 |
+
νεοθηλέσιν ἅμα κούραις
|
726 |
+
ὑπὸ βαρβίτῳ χορεύων
|
727 |
+
βίον ἥσυχον φέροιμι.",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
|
728 |
+
Eros doceamargo,Eros sweet-bitte,29,"É bem difícil não amar.
|
729 |
+
É bem difícil amar também.
|
730 |
+
Mas mais difícil do que tudo
|
731 |
+
É quando o amor fraqueja e falha.
|
732 |
+
Pro Amor linhagem não é nada.
|
733 |
+
Saber, caráter: ignorados.
|
734 |
+
Dinheiro é tudo que eles veem.
|
735 |
+
Maldito o homem que primeiro
|
736 |
+
Apaixonou-se por dinheiro!
|
737 |
+
Por causa dele nós perdemos
|
738 |
+
O nosso irmão e os nossos pais.
|
739 |
+
Por causa dele há guerra e morte.
|
740 |
+
Mas o pior é perecermos,
|
741 |
+
Por causa dele, nós amantes.
|
742 |
+
","χαλεπὸν τὸ μὴ φιλῆσαι,
|
743 |
+
χαλεπὸν δὲ καὶ φιλῆσαι,
|
744 |
+
χαλεπώτερον δὲ πάντων
|
745 |
+
ἀποτυγχάνειν φιλοῦντα.
|
746 |
+
γένος οὐδὲν εἰς Ἔρωτα·
|
747 |
+
σοφίη, τρόπος πατεῖται·
|
748 |
+
μόνον ἄργυρον βλέπουσιν.
|
749 |
+
ἀπόλοιτο πρῶτος αὐτὸς
|
750 |
+
ὁ τὸν ἄργυρον φιλήσας.
|
751 |
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διὰ τοῦτον οὐκ ἀδελφός,
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διὰ τοῦτον οὐ τοκῆες·
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πόλεμοι, φόνοι δι’ αὐτόν.
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τὸ δὲ χεῖρον· ὀλλύμεσθα
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διὰ τοῦτον οἱ φιλοῦντες.",https://doi.org/10.11606/issn.2358-3150.v17i1p109-149
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