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उत्तराखण्ड के नैनीताल ज़िले में स्थित हल्द्वानी राज्य के सर्वाधिक जनसँख्या वाले नगरों में से है। इसे "कुमाऊँ का प्रवेश द्वार" भी कहा जाता है।
भाभर क्षेत्र, जहां हल्द्वानी स्थित है, प्राचीन काल में एक अभेद्य जंगल माना जाता था। दलदल भूमि, अत्यधिक गर्मी, महीनों तक चलने वाली बारिश, जंगली जानवर, विभिन्न प्रकार के रोग, और परिवहन के कोई साधन नहीं होने के कारण यहां कभी भी बड़ी संख्या में लोग नहीं बसे। यही वजह है कि इस क्षेत्र में कोई ऐतिहासिक मानव-बस्तियां होने का उल्लेख नहीं हैं।
मुग़ल इतिहासकारों ने इस बात का उल्लेख किया है की 14 वीं शताब्दी में एक स्थानीय शाशक, ज्ञान चन्द, जो चन्द राजवंश से सम्बंधित था, दिल्ली सल्तनत पधारा और उसे भाभर-तराई तक का क्षेत्र उस समय के सुलतान से भेंट स्वरुप मिला। बाद में मुग़लों द्बारा पहाड़ों पर चढ़ाई करने का प्रयास किया गया, लेकिन क्षेत्र की कठिन पहाड़ी भूमि के कारण वे सफल नहीं हो सके। कीर्ति चंद के राज से पहले यह क्षेत्र स्थानीय सरदारों के अधीन भी रहा।
16वीं शताब्दी की शुरुआत में, इस क्षेत्र में बुक्सा जनजाति के लोग बसने लगे थे। हल्दु के वनों की प्रचुरता के कारण इस क्षेत्र को बाद में हल्दु वनी कहा जाने लगा। दक्षिण में तराई क्षेत्र में भी उस समय घने जंगलों का समावेश था, और यहां मुगल बादशाह अक्सर शिकार खेलने आया करते थे।
सन् 1816 में गोरखाओं को परास्त करने के बाद गार्डनर को कुमाऊँ का आयुक्त नियुक्त किया गया। बाद में जॉर्ज विलियम ट्रेल ने आयुक्त का पदभार संभाला और 1834 में हल्दु वनी का नाम हल्द्वानी रखा। ब्रिटिश अभिलेखों से हमें ये ज्ञात होता है कि इस स्थान को 1834 में एक मण्डी के रूप में उन लोगों के लिए बसाया गया था जो शीत ऋतु में भाभर आया करते थे। प्राचीन शहर मोटा हल्दु में स्थित था, और उस समय वहां केवल घास के घर थे। 1850 के बाद ही ईंट के घरों का निर्माण शुरू हो पाया। 1831 में नगर का पहला अंग्रेजी माध्यमिक विद्यालय स्थापित किया गया था।
सन् 1856 में सर हेनरी रैम्से ने कुमाऊँ के आयुक्त का पदभार संभाला। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इस क्षेत्र पर थोड़े समय के लिये रोहिलखण्ड के विद्रोहियों ने अधिकार कर लिया। तत्पश्चात सर हेनरी रैम्से द्वारा यहाँ मार्शल लॉ लगा दिया गया और 1858 तक इस क्षेत्र को विद्रोहियों से मुक्त करा लिया गया। वो रोहिल्ला, जिन पर हल्द्वानी पर हमला करने का आरोप लगा था, नैनीताल के फांसी गधेरा में अंग्रेजों द्वारा फांसी पर चढ़ा दिये गये थे। इसके बाद सन् 1882 में रैम्से ने नैनीताल और काठगोदाम को सड़क मार्ग से जोड़ दिया। सन् 1883-84 में बरेली और काठगोदाम के बीच रेलमार्ग बिछाया गया। 24 अप्रैल, 1884 के दिन पहली रेलगाड़ी लखनऊ से हल्द्वानी पहुंची और बाद में रेलमार्ग काठगोदाम तक बढ़ा दिया गया।
1891 तक अलग नैनीताल ज़िले के बनाने से पहले तक हल्द्वानी कुमांऊ ज़िले का भाग था जिसे अब अल्मोड़ा ज़िले के नाम से जाना जाता है। 1885 में टाउन अधिनियम लागू होने के बाद 1 फरवरी, 1897 को हल्द्वानी को नगरपालिका घोषित किया गया। सन् 1899 में यहां तहसील कार्यालय खोला गया था, जब यह भाभर का तहसील मुख्यालय बनाया गया। भाभर नैनीताल ज़िले के चार भागों में से एक था, और कुल 4 क़स्बों और 511 ग्रामों के साथ 1901 में इसकी कुल जनसँख्या 93,445 थी और ये 3,313 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ था।
सन् 1901 में यहाँ की जनसँख्या 6,624 थी और आगरा व अवध के सयुंक्त प्रान्त के नैनीताल ज़िले के भाभर क्षेत्र का मुख्यालय हल्द्वानी में ही स्थित था। भाभर क्षेत्र का मुख्यालय के साथ ही ये कुमाऊँ मण्डल और नैनीताल ज़िले की शीत कालीन राजधानी भी हुआ करता था। सन् 1901 में आर्य समाज भवन और 1902 में सनातन धर्मं सभा का निर्माण किया गया। सन् 1904 में हल्द्वानी की नगर पालिका को रद्द कर इसे "अधिसूचित क्षेत्र" की श्रेणी में रख दिया गया था। 1907 में हल्द्वानी को क़स्बा क्षेत्र घोषित किया गया। शहर का पहला अस्पताल 1912 में खुला।
1918 में हल्द्वानी ने कुमाऊं परिषद के दूसरे सत्र की मेजबानी की। पंडित तारा दत्त गैरोला रायबहादुर के नेतृत्व में 1920 में रॉलेट एक्ट और कुली-बेगार के विरोध में विरोध प्रदर्शन किया गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान भी 1930 और 1934 के बीच शहर में कई जुलूस निकाले गए थे। 1940 के हल्द्वानी सम्मेलन में ही बद्री दत्त पाण्डेय ने संयुक्त प्रांत में कुमाऊं के पहाड़ी इलाकों को विशेष दर्जा देने के लिए आवाज़ उठाई थी।
1947 में जब भारत ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र हुआ तब हल्द्वानी एक मध्यम आकार का शहर था और इसकी आबादी लगभग 25,000 थी। शहर का 1950 में विद्युतीकरण किया गया था। नागा रेजिमेंट की दूसरी बटालियन, जिसे हेड हंटर के नाम से भी जाना जाता है, 11 फरवरी 1985 को हल्द्वानी में ही स्थापित की गई थी। हल्द्वानी ने उत्तराखंड आंदोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई।
जब 1837 में हल्द्वानी की स्थापना की गई थी, तो ज्यादातर इमारतें मोटा हल्दु के आसपास थीं। शहर धीरे-धीरे उत्तर की ओर वर्तमान बाजार और रेलवे स्टेशन की ओर विकसित होता गया। हल्द्वानी बाजार से 4 किमी दूर दक्षिण में गोरा पड़ाव नामक क्षेत्र है। 19 वीं सदी के मध्य में यहाँ एक ब्रिटिश कैंप हुआ करता था जिसके नाम पर इस क्षेत्र का नाम पड़ा। विकास प्राधिकरण की अनुपस्थिति के कारण 2000 के दशक की शुरूआत में बिना किसी नियमन के, संकीर्ण सड़कों के साथ ही, दर्जनों कालोनियों की स्थापना हुई। 31 अक्टूबर 2005 को उत्तराखंड सरकार द्वारा उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।
हल्द्वानी के गौलापार क्षेत्र में 9 मई 2017 को हल्द्वानी आईएसबीटी के निर्माण के दौरान 40 मानव कंकाल और 300 'कब्र-जैसी संरचनाएं' पाई गई। इन मानव अस्थि अवशेषों के बारे में विशेषग्यों का मानना था कि ये बरेली के रोहिला सरदारों के हो सकते हैं जो 1857 में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हुए थे। एक और मत यह भी था कि ये अवशेष किसी महामारी, मलेरिया या अकाल के दौरान काल कवलित हो गये लोगों के भी हो सकते हैं। लेकिन जांच में पता चला है कि नरकंकाल केवल एक से डेढ़ साल पुराने थे।
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